भगवान कृष्ण ने उद्धव को निर्देश दिया

उद्धव गीता

  • 7. कृष्ण ने उद्धव को निर्देश दिया

  • 8. पिंगला की कहानी

  • 9. प्रत्येक सामग्री से अलगाव

  • 10. सकाम गतिविधि की प्रकृति

  • 11. बद्ध और मुक्त जीवित संस्थाओं के लक्षण

  • 12. त्याग और ज्ञान से परे

  • 13. हंस-अवतार ब्रह्मा के पुत्रों के प्रश्नों का उत्तर देता है

  • 14. कृष्ण ने उद्धव को योग प्रणाली समझाई

  • 15. कृष्ण द्वारा रहस्यवादी योग सिद्धियों का वर्णन

  • 16. प्रभु का ऐश्वर्य

  • 17. कृष्ण द्वारा वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्णन

  • 18. वर्णाश्रम-धर्म का वर्णन

  • 19.आध्यात्मिक ज्ञान की पूर्णता

  • 20. शुद्ध भक्ति सेवा ज्ञान और वैराग्य से बढ़कर हैा

  • 21. कृष्ण द्वारा वैदिक पथ की व्याख्या

  • 22. भौतिक निर्माण के तत्वों की गणना

  • 23. अवंती ब्राह्मण का गीत

  • 24. सांख्य का दर्शन

  • 25. प्रकृति और उससे परे के तीन तरीके

  • 26. ऐला-गीता

  • 27. देवता पूजा की प्रक्रिया पर कृष्ण के निर्देश

  • 28. ज्ञान-योग

  • 29. भक्ति-योग

    7. कृष्ण ने उद्धव को निर्देश दिया

    श्रीभगवानुवाचयदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे ।ब्रह्मा भवो लोकपाला: स्वर्वासं मेडभिकाड्क्षिण: ॥

    १॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; यत्‌--जो कुछ; आत्थ--आपने कहा; माम्‌--मुझसे; महा-भाग--हे अत्यन्तभाग्यशाली उद्धव; तत्‌ू--वह; चिकीर्षितम्‌--जिसे मैं करने का इच्छुक हूँ; एबव--निश्चय ही; मे--मेरा; ब्रह्मा --ब्रह्मा; भव: --शिव; लोक-पाला:--सारे लोकों के नायक; स्व:-वासम्‌--वैकुण्ठ धाम; मे--मेरा; अभिकाडुभक्षिण: --वे इच्छा कर रहे हैं।

    भगवान्‌ ने कहा : हे महाभाग्यशाली उद्धव, तुमने इस पृथ्वी पर से यदुबंश को समेटने कीतथा बैकुण्ठ में अपने धाम लौटने की मेरी इच्छा को सही सही जान लिया है। इस तरह ब्रह्मा,शिव तथा अन्य सारे लोक-नायक, अब मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं अपने वैकुण्ठ-धामवापस चला जाऊँ।

    मया निष्पादितं ह्वत्र देवकार्यमशेषतः ।यदर्थमवतीर्णो हमंशेन ब्रह्मणाथित: ॥

    २॥

    मया--मेरे द्वारा; निष्पादितम्‌--सम्पन्न किया गया; हि--निश्चय ही; अत्र--इस जगत में; देव-कार्यम्‌ू--देवताओं के लाभ केलिए कार्य; अशेषत:--पूर्णतया, करने को कुछ भी शेष नहीं रहा; यत्‌--जिसके; अर्थम्‌--हेतु; अवतीर्ण: --अवतरित हुआ;अहम्‌--ैं; अंशेन--अपने स्वांश, बलदेव सहित; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; अर्थित: --प्रार्थना किये जाने पर।

    ब्रह्माजी द्वारा प्रार्थना करने पर मैंने इस संसार में अपने स्वांश बलदेव सहित अवतार लियाथा और देवताओं की ओर से अनेक कार्य सम्पन्न किये। अब यहाँ पर मैं अपना मिशन पूरा करचुका हूँ।

    कुल वै शापनिर्दग्धं नड्छ््यत्यन्योन्यविग्रहात्‌ ।समुद्र: सप्तमे होनां पुरीं च प्लावयिष्यति ॥

    ३॥

    कुलम्‌--यह यदुवंश; बै--निश्चित रूप से; शाप--शाप से; निर्दग्धम्‌--समाप्त; नड्छ््यति--विनष्ट हो जायेगा; अन्योन्य--परस्पर; विग्रहात्‌ू--झगड़े से; समुद्र:--समुद्र; सप्तमे--सातवें दिन; हि--निश्चय ही; एनामू--इस; पुरीम्‌ू--नगरी को; च--भी;प्लावयिष्यति--आप्लावित कर देगा।

    अब ब्राह्मणों के शाप से यह यदुवंश निश्चित रूप से परस्पर झगड़ कर समाप्त हो जायेगाऔर आज से सातवें दिन यह समुद्र उफन कर इस द्वारका नगरी को आप्लावित कर देगा।

    यहाँवायं मया त्यक्तो लोकोयं नष्टमड्रल: ।भविष्यत्यचिरात्साधो कलिनापि निराकृत:ः ॥

    ४॥

    यहि--जब; एव--निश्चित रूप से; अयम्‌ू--यह; मया--मेरे द्वारा; त्यक्त:--छोड़ा हुआ; लोक: --संसार; अयम्‌ू--यह; नष्ट-मड्ुलः--समस्त मंगल या दया से विहीन; भविष्यति--हो जायेगा; अचिरातू--शीघ्र ही; साधो--हे साधु-पुरुष; कलिना--'कलि के कारण; अपि--स्वयं; निराकृतः --अभिभूत |

    हे साधु उद्धव, मैं निकट भविष्य में इस पृथ्वी को छोड़ दूँगा। तब कलियुग से अभिभूतहोकर यह पृथ्वी समस्त पवित्रता से विहीन हो जायेगी।

    न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले ।जनोभद्गरुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे ॥

    ५॥

    न--नहीं; वस्तव्यम्‌--रहे आना चाहिए; त्वया--तुम्हारे द्वारा; एव--निश्चय ही; इह--इस जगत में; मया--मेरे द्वारा; त्यक्ते--त्यागे हुए; महीतले--पृथ्वी पर; जन:ः--लोग; अभद्र--पापी, अशुभ वस्तुएँ; रुचिः--लिप्त; भद्ग--हे पापरहित एवं मंगलमय;भविष्यति--हो जायेगा; कलौ--इस कलि; युगे--युग में |

    हे उद्धव, जब मैं इस जगत को छोड़ चुकूँ, तो तुम्हें इस पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिए। हे प्रियभक्त, तुम निष्पाप हो, किन्तु कलियुग में लोग सभी प्रकार के पापपूर्ण कार्यों में लिप्त रहेंगे,अतएव तुम्हें यहाँ नहीं रूकना चाहिए।

    त्वं तु सर्व परित्यज्य स्नेह स्वजनबन्धुषु ।मय्यावेश्य मन: संयकक्‍्समहग्विचरस्व गाम्‌ ॥

    ६॥

    त्वम्‌--तुम; तु--वस्तुतः; सर्वम्‌--समस्त; परित्यज्य--छोड़ कर; स्नेहम्‌--स्नेह; स्व-जन-बन्धुषु-- अपने सम्बन्धियों तथा मित्रोंके प्रति; मयि--मुझ भगवान्‌ में; आवेश्य--एकाग्र करके; मनः--मन को; संयक्‌--पूरी तरह; सम-हक्‌--हर एक को समानइृष्टि से देखते हुए; विचरस्व--विचरण करो; गाम्‌--पृथ्वी-भर में |

    अब तुम्हें चाहिए कि अपने निजी मित्रों तथा सम्बन्धियों से अपने सारे नाते त्याग कर, अपनेमन को मुझ पर एकाग्र करो। इस तरह सदैव मेरी भावना से भावित होकर, तुम्हें सारी वस्तुओंको समान दृष्टि से देखना चाहिए और पृथ्वी-भर में विचरण करना चाहिए।

    text:यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्या श्रवणादिभि: । नथ्वरं गृह्ममाणं चर विद्धि मायामनोमयम्‌ ॥

    ७॥

    यत्‌--जो; इृदम्‌--इस जगत को; मनसा--मन से; वाचा--वाणी से; चश्षुभ्याम्‌-आँखों से; श्रवण-आदिभि:--कानों तथा अन्य इन्द्रियों से; नश्वरम्‌--क्षणिक; गृह्ममाणम्‌--जिसे स्वीकार या अनुभव किया जा रहा हो; च--तथा; विद्धधि--तुम्हें जानना चाहिए; माया-मनः-मयम्‌--माया के प्रभाव से इसे असली करके केवल कल्पित किया जाता है।

    हे उद्धव, तुम जिस ब्रह्माण्ड को अपने मन, वाणी, नेत्रों, कानों तथा अन्य इन्द्रियों से देखते हो वह भ्रामक सृष्टि है, जिसे माया के प्रभाव से मनुष्य वास्तविक मान लेता है। वास्तव में, तुम्हें यह जानना चाहिए कि भौतिक इन्द्रियों के सारे विषय क्षणिक हैं। पुंसोयुक्तस्य नानार्थो भ्रम: स गुणदोषभाक्‌ ।कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा ॥

    ८॥

    पुंसः--व्यक्ति का; अयुक्तस्थ--जिसका मन सत्य से पराड्मुख है; नाना--अनेक; अर्थ:--अर्थ; भ्रम:--सन्देह; सः--वह;गुण--अच्छाई; दोष--बुराई; भाक्‌ू--देहधारण किये; कर्म--अनिवार्य कर्तव्य; अकर्म--नियत कर्तव्यों का न किया जाना;विकर्म--निषिद्ध कर्म; इति--इस प्रकार; गुण--अच्छाइयाँ; दोष--बुराइयाँ; धियः--अनुभव करने वाले की; भिदा--यह

    अन्तर जिसकी चेतना माया से मोहित होती है, वह भौतिक वस्तुओं के मूल्य तथा अर्थ में अनेकअन्तर देखता है। इस प्रकार वह भौतिक अच्छाई तथा बुराई के स्तर पर निरन्तर लगा रहता हैऔर ऐसी धारणाओं से बँधा रहता है। भौतिक द्वैत में लीन रहते हुए, ऐसा व्यक्ति अनिवार्यकर्तव्यों की सम्पन्नता, ऐसे कर्तव्यों की असम्पन्नता तथा निषिद्ध कार्यों की सम्पन्नता के विषय मेंकल्पना करता रहता है।

    तस्मायुक्तेन्द्रियग्रामो युक्तचित्त इदम्जगत्‌ ।आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधी श्वर ॥

    ९॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; युक्त--वश में लाकर; इन्द्रिय-ग्राम:--सारी इन्द्रियों को; युक्त--दमन करके; चित्त:--अपना मन; इृदम्‌--यह; जगत्‌--संसार; आत्मनि--आत्मा के भीतर; ईक्षस्व--देखो; विततम्‌--विस्तीर्ण ( भौतिक भोग की वस्तु के रूप में );आत्मानम्‌--तथा उस आत्मा को; मयि--मुझ; अधी श्वरे--परम नियन्ता में |

    इसलिए अपनी सारी इन्द्रियों को वश में करते हुए तथा मन को दमन करके, तुम सारे जगतको आत्मा के भीतर स्थित देखो, जो सर्वत्र प्रसारित है। यही नहीं, तुम इस आत्मा को मुझ पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ के भीतर भी देखो।

    ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम्‌ ।अत्मानुभवतुष्टात्मा नान्तरायैर्विहन्यसे ॥

    १०॥

    ज्ञान--वेदों का निर्णायक ज्ञान; विज्ञान--तथा व्यावहारिक ज्ञान; संयुक्त:--से युक्त; आत्म-भूतः--स्नेह की वस्तु;शरीरिणाम्‌--सारे देहधारी जीवों ( देवतादि से शुरु करके ) के लिए; आत्म-अनुभव--आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा; तुष्ट-आत्मा--तुष्ट मन वाला; न--कभी नहीं; अन्तरायै: --उत्पातों ( विध्नों ) से; विहन्यसे--तुम्हारी प्रगति रोक दी जायेगी।

    वेदों के निर्णायक ज्ञान से समन्वित होकर तथा व्यवहार में ऐसे ज्ञान के चरम उद्देश्य कीअनुभूति करके, तुम शुद्ध आत्मा का अनुभव कर सकोगे और इस तरह तुम्हारा मन तुष्ट हो जायेगा। उस समय तुम देवतादि से लेकर सारे जीवों के प्रिय बन जाओगे और तब तुम जीवन केकिसी भी उत्पात से रोके नहीं जाओगे।

    दोषबुद्धयो भयातीतो निषेधान्न निवर्तते ।गुणबुद्धया च विहितं न करोति यथार्भक: ॥

    ११॥

    दोष-बुद्धबा--यह सोचने से कि ऐसा काम गलत है; उभय-अतीतः--दोनों ( संसारी अच्छे तथा बुरे की धारणाओं ) को लाँघजाने वाला; निषेधात्‌--जो वर्जित है, उससे; न निवर्तते--अपने को दूर नहीं रखता; गुण-बुद्धया--यह सोचकर कि यह ठीकहै; च-- भी; विहितम्‌ू--जिसका आदेश हुआ है, वैध; न करोति--नहीं करता; यथा--जिस तरह; अर्भक:--छोटा बालक

    जो भौतिक अच्छाई तथा बुराई को लाँघ चुका होता है, वह स्वतः धार्मिक आदेशों केअनुसार कार्य करता है और वर्जित कार्यों से बचता है। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति यह सब अबोधबालक की तरह अपने आप करता है वरन्‌ इसलिए नहीं कि वह भौतिक अच्छाईं तथा बुराई केरूप में सोचता रहता है।

    सर्वभूतसुहच्छान्तो ज्ञानविज्ञाननिश्चय: ।पश्यन्मदात्मकं विश्व न विपद्येत वै पुन: ॥

    १२॥

    सर्व-भूत--समस्त प्राणियों के प्रति; सु-हत्‌--शुभेषी; शान्तः--शान्त; ज्ञान-विज्ञान--ज्ञान तथा दिव्य अनुभूति में; निश्चय: --हढ़तापूर्वक स्थित; पश्यनू--देखते हुए; मत्‌-आत्मकम्‌-मेरे द्वारा व्याप्त; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड को; न विपद्येत--जन्म-पृत्यु केअक्कर में कभी नहीं पड़ेगा; वै--निस्सन्देह; पुनः--फिर से |

    जो व्यक्ति सारे जीवों का शुभेषी है, जो शान्त है और ज्ञान तथा विज्ञान में हृढ़ता से स्थिर है,वह सारी वस्तुओं को मेरे भीतर देखता है। ऐसा व्यक्ति फिर से जन्म-मृत्यु के चक्र में कभी नहींपड़ता।श्रीशुक उबाच इत्यादिष्टो भगवता महाभागवतो नृप ।उद्धव: प्रणिपत्याह तत्त्वं जिज्ञासुरच्युतम्‌ ॥

    १३॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आदिष्ट:--आदेश दिया गया; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा;महा-भागवतः-- भगवान्‌ के महान्‌ भक्त; नृप--हे राजा; उद्धवः--उद्धव ने; प्रणिपत्य--नमस्कार करके; आह--कहा;तत्त्वम्‌-वैज्ञानिक सत्य; जिज्ञासु:--सीखने के लिए उत्सुक होने से; अच्युतम्‌--अच्युत

    भगवान्‌ से श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह भगवान्‌ कृष्ण ने अपने शुद्ध भक्त उद्धवको उपदेश दिया, जो उनसे ज्ञान पाने के लिए उत्सुक थे। तत्पश्चात्‌, उद्धव ने भगवान्‌ कोनमस्कार किया और उनसे इस प्रकार बोले।

    श्रीउद्धव उवाचयोगेश योगविन्यास योगात्मन्योगसम्भव ।निःश्रेयसाय मे प्रोक्तस्त्याग: सन््यासलक्षण: ॥

    १४॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; योग-ईश--हे योग के फल को देने वाले; योग-विन्यास-- अयोग्यों को भी योगशक्तिप्रदान करने वाले; योग-आत्मन्‌--योग के द्वारा जाने जानेवाले, हे परम आत्मा; योग-सम्भव--हे समस्त योगशक्ति के उद्गम;निःश्रेयसाय--परम लाभ हेतु; मे--मेरे; प्रोक्त:--आपने, जो कहा है; त्याग:--वैराग्य; सन््यास--संन्यास आश्रम स्वीकार करनेसे; लक्षण:--लक्षण से युक्त |

    श्री उद्धव ने कहा : हे स्वामी, आप ही योगाभ्यास के फलों को देने वाले हैं और आप इतनेकृपालु हैं कि अपने प्रभाव से आप अपने भक्त को योगसिद्धि वितरित करते हैं। इस तरह आपपरमात्मा हैं, जिसकी अनुभूति योग द्वारा होती है और आप ही समस्त योगशक्ति के उद्गम हैं।आपने मेरे उच्चतम लाभ के लिए संन्यास या वैराग्य द्वारा भौतिक जगत त्यागने की विधिबतलाई है।

    त्यागो<यं दुष्करो भूमन्कामानां विषयात्मभिः ।सुतरां त्वयि सर्वात्मिन्नभक्तिरिति मे मति: ॥

    १५॥

    त्याग: --वैराग्य; अयम्‌ू--यह; दुष्कर:--सम्पन्न करना कठिन; भूमन्‌--हे स्वामी; कामानाम्‌-- भौतिक भोग का; विषय--इन्द्रियतृप्ति; आत्मभि:--समर्पित; सुतराम्‌ू--विशेष रूप से; त्वयि--तुममें; सर्व-आत्मन्‌--हे परमात्मा; अभक्तै: --भक्तिविहीनोंद्वारा; इति-- इस प्रकार; मे--मेरा; मतिः--मत।

    हे प्रभु, हे परमात्मा, ऐसे लोगों के लिए, जिनके मन इन्द्रियतृप्ति में लिप्त रहते हैं औरविशेषतया उनके लिए, जो आपकी भक्ति से वंचित हैं, भौतिक भोग को त्याग पाना अतीवकठिन है। ऐसा मेरा मत है।

    सोहं ममाहमिति मूढमतिर्विगाढ-स्त्वन्मायया विरचितात्मनि सानुबन्धे ।तत्त्वज्जसा निगदितं भवता यथाहंसंसाधयामि भगवन्ननुशाधि भृत्यम्‌ ॥

    १६॥

    सः--वह; अहम्‌--मैं; मम अहमू---' मैं ' तथा 'मेरा ' का झूठा विचार; इति--इस प्रकार; मूढ--अत्यन्त मूर्ख; मतिः --चेतना; विगाढ:--लीन; त्वत्‌ू-मायया--आपकी माया से; विरचित--निर्मित; आत्मनि--शरीर में; स-अनुबन्धे --शारीरिकसम्बन्धों सहित; ततू--इसलिए; तु--निस्सन्देह; अज्लसा--सरलता से; निगदितम्‌--उपदेश दिया हुआ; भवता--आपके द्वारा;यथा--विधि जिससे; अहम्‌--मैं; संसाधयामि--सम्पन्न कर सकूँ; भगवन्‌--हे भगवान्‌; अनुशाधि--शिक्षा दें; भृत्यम्‌ू-- अपनेसेवक को।

    हे प्रभु, मैं स्वयं सबसे बड़ा मूर्ख हूँ, क्योंकि मेरी चेतना आपकी माया द्वारा निर्मित भौतिकदेह तथा शारीरिक सम्बन्धों में लीन है। इस तरह मैं सोच रहा हूँ, 'मैं यह शरीर हूँ और ये सारे सम्बन्धी मेरे हैं।अतएव हे स्वामी, अपने इस दीन सेवक को उपदेश दें। कृपया मुझे बतायें किमैं आपके आदेशों का किस तरह सरलता से पालन करूँ ? सत्यस्य ते स्वहश आत्मन आत्मनोन्यंवक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे ।सर्वे विमोहितधियस्तव माययेमेब्रह्मादयस्तनुभूतो बहिरर्थभावा: ॥

    १७॥

    सत्यस्य--परम सत्य का; ते-- आपके अतिरिक्त; स्व-हृशः--आपको प्रकट करने वाला; आत्मन:--मेरे स्वयं के लिए;आत्मन:-- भगवान्‌ की अपेक्षा; अन्यम्‌--दूसरा; वक्तारम्‌--योग्य वक्ता; ईश--हे प्रभु; विबुधेषु--देवताओं से; अपि--ही;न--नहीं; अनुचक्षे--मैं देख सकता हूँ; सर्वे--वे सभी; विमोहित--मोह ग्रस्त; धियः--उनकी चेतना; तव--तुम्हारी; मायया--माया द्वारा; इमे--ये; ब्रह्य-आदय: --ब्रह्मा इत्यादि; तनु-भूृतः-- भौतिक शरीर से युक्त बद्धजीव; बहि:--बाह्य वस्तुओं में;अर्थ--परम मूल्य; भावा: --विचार करते हुए।

    हे प्रभु, आप परम सत्य भगवान्‌ हैं और आप अपने भक्तों को अपना रूप दिखलाते हैं। मुझेआपके अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं दिखता जो वास्तव में मुझे पूर्ण ज्ञान बतला सके। ऐसा पूर्णशिक्षक स्वर्ग में देवताओं के बीच भी ढूँढ़े नहीं मिलता। निस्सन्देह ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता आपकी मायाशक्ति से मोहग्रस्त हैं। वे बद्धजीव हैं, जो अपने भौतिक शरीरों तथा शारीरिक अंशोंको सर्वोच्च सत्य मान लेते हैं।

    तस्माद्धवन्तमनवद्यमनन्तपारंसर्वज्ञमी श्वरमकुण्ठविकुण्ठधिष्ण्यम्‌ ।निर्विण्णधीरहमु हे वृजिनाभितप्तोनारायणं नरसखं शरणं प्रपद्ये ॥

    १८ ॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; भवन्तम्‌--आपको; अनवद्यम्‌--पूर्ण; अनन्त-पारम्‌-- असीम; सर्व ज्ञम्‌--सर्वज्ञ; ईश्वरम्‌-- भगवान्‌ को;अकुण्ठ--किसी शक्ति से अविचलित; विकुण्ठ--वैकुण्ठ-लोक ; धिष्ण्यम्‌ू--जिनका निजी धाम; निर्विण्ण--विरक्त अनुभवकरते हुए; धीः--मेरा मन; अहम्‌--मैं; उ हे--हे ( स्वामी ); वृजिन-- भौतिक कष्ट द्वारा; अभितप्त:ः--सताया हुआ;नारायणम्‌--नारायण की; नर-सखम्‌--अति सूक्ष्म जीव का मित्र; शरणमू्‌ प्रपद्ये--शरण में जाता हूँ।

    अतएबव हे स्वामी, भौतिक जीवन से ऊब कर तथा इसके दुखों से सताया हुआ मैं आपकीशरण में आया हूँ, क्योंकि आप पूर्ण स्वामी हैं। आप अनन्त, सर्वज्ञ भगवान्‌ हैं, जिनकाआध्यात्मिक निवास बैकुण्ठ में होने से समस्त उपद्रवों से मुक्त है। वस्तुतः: आप समस्त जीवों केमित्र नारायण नाम से जाने जाते हैं।

    श्रीभगवानुवाचप्रायेण मनुजा लोके लोकतत्त्वविचक्षणा: ।समुद्धरन्ति ह्ात्मानमात्मनैवाशुभाशयात्‌ ॥

    १९॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ कृष्ण ने कहा; प्रायेण--सामान्यतः; मनुजा:--मनुष्यगण; लोके--इस जगत में; लोक-तत्त्व--भौतिक जगत की वास्तविक स्थिति; विचक्षणा:--पंडित; समुद्धरन्ति--उद्धार करते हैं; हि--निस्सन्देह; आत्मानम्‌--अपने से;आत्मना--अपनी बुद्धि से; एब--निस्सन्देह; अशुभ-आशयातू--इन्द्रियतृप्ति की इच्छा की अशुभ मुद्रा से।

    भगवान्‌ ने उत्तर दिया : सामान्यतया वे मनुष्य, जो भौतिक जगत की वास्तविक स्थिति कादक्षतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं, अपने आपको स्थूल भौतिक तृप्ति के अशुभ जीवन सेऊपर उठाने में समर्थ होते हैं।

    आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः ।यत्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोडइसावनुविन्दते ॥

    २०॥

    आत्मन:--अपना ही; गुरु:--उपदेश देने वाला गुरु; आत्मा--स्वयं; एव--निस्सन्देह; पुरुषस्य--मनुष्य का; विशेषत:ः --विशेषअर्थ में; यत्‌--क्योंकि; प्रत्यक्ष--प्रत्यक्ष अनुभूति से; अनुमानाभ्याम्‌्--तर्क के प्रयोग से; श्रेयः--असली लाभ; असौ--वह;अनुविन्दते--प्राप्त कर सकता है।

    बुद्धिमान व्यक्ति, जो अपने चारों ओर के जगत का अनुभव करने तथा ठोस तर्क का प्रयोगकरने में निपुण होता है, अपनी ही बुद्धि के द्वारा असली लाभ प्राप्त कर सकता है। इस प्रकारकभी कभी मनुष्य अपना ही उपदेशक गुरु बन जाता है।

    पुरुषत्वे च मां धीरा: साड्ख्ययोगविशारदा: ।आविस्तां प्रपश्यन्ति सर्वशक्त्युपबृंहितम्‌ ॥

    २१॥

    पुरुषत्वे--मनुष्य-जीवन में; च--तथा; माम्‌--मुझको; धीरा: --आध्यात्मिक ज्ञान के माध्यम से ईर्ष्या से मुक्त हुए; साइ्ख्य-योग--वैश्लेषिक ज्ञान तथा भगवद्भक्ति से बने आध्यात्मिक विज्ञान में; विशारदा:--दक्ष; आविस्तराम्‌--प्रत्यक्षतः प्रकट;प्रपश्यन्ति--वे स्पष्ट देखते हैं; सर्व--सभी; शक्ति--मेरी शक्ति से; उपबूंहितम्‌--प्रदत्त, समन्वित |

    मनुष्य-जीवन में जो लोग आत्मसंयमी हैं और सांख्य योग में दक्ष हैं, वे मुझे मेरी सारीशक्तियों समेत प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

    एकद्वित्रिचतुस्पादो बहुपादस्तथापद: ।बह्व्यः सन्ति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया ॥

    २२॥

    एक--एक; द्वि--दो; त्रि--तीन; चतु:--चार; पाद:--पाँव से युक्त; बहु-पाद:-- अनेक पाँवों से युक्त; तथा-- भी; अपद:--बिना पाँव के; बह्व्यः--अनेक; सन्ति-- हैं; पुरः--विभिन्न प्रकार के शरीर; सृष्टाः--निर्मित; तासाम्‌--उनका; मे--मुझको;पौरुषी--मनुष्य-रूप; प्रिया--अत्यन्त प्रिय |

    इस जगत में अनेक प्रकार के सृजित शरीर हैं--कुछ एक पाँव वाले, कुछ दो, तीन, चार याअधिक पाँवों वाले तथा अन्य बिना पाँव के हैं, किन्तु इन सबों में मनुष्य-रूप मुझे वास्तविकप्रिय है।

    अत्र मां मृगयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरी ध्वरम्‌ ।गृह्ममाणैर्गुणैलिड्रैरग्राह्ममनुमानतः ॥

    २३॥

    अत्र--यहाँ ( मनुष्य-रूप में ); माम्‌--मुझे; मृगयन्ति--ढूँढ़ते हैं; अद्धा--सीधे; युक्ता:--स्थित; हेतुभिः--प्रकट लक्षणों से;ईश्वरम--ईश्वर को; गृह्ममाणै: गुणै:--अनुभव करने वाली बुद्धि, मन तथा इन्द्रियों से; लिड्रे:--तथा अप्रत्यक्ष रूप से निश्चितकिये गये लक्षणों से; अग्राह्मम--प्रत्यक्ष अनुभूति की पकड़ से परे; अनुमानतः--तर्क विधि से |

    यद्यपि मुझ भगवान्‌ को सामान्य इन्द्रिय अनुभूति से कभी पकड़ा नहीं जा सकता, किन्तुमनुष्य-जीवन को प्राप्त लोग प्रत्यक्ष रूप से मेरी खोज करने के लिए प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्षनिश्चित लक्षणों द्वारा अपनी बुद्धि तथा अन्य अनुभूति-इन्द्रियों का उपयोग कर सकते हैं।

    अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌ ।अवधूतस्य संवादं यदोरमिततेजस: ॥

    २४॥

    अत्र अपि--इस विषय में; उदाहरन्ति--उदाहरण देते हैं; इमम्‌--इस; इतिहासम्‌--ऐतिहासिक वृत्तान्त को; पुरातनम्‌ू-- प्राचीन;अवधूतस्य--सामान्य विधि-विधानों की परिधि से बाहर कार्य करने वाला पवित्र व्यक्ति; संवादम्‌--वार्ता को; यदो: --तथाराजा यदु की; अमित-तेजस:--असीम शक्ति वाले |

    इस सम्बन्ध में साधु-पुरुष अत्यन्त शक्तिशाली राजा यदु तथा एक अवधूत से सम्बद्ध एकऐतिहासिक वार्ता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

    अवधूत॑ द्वियं कदश्धिच्चरन्तमकुतो भयम्‌ ।कविं निरीक्ष्य तरुणं यदु: पप्रच्छ धर्मवित्‌ ॥

    २५॥

    अवधूतम्‌--साधु; द्विजम्‌--ब्राह्मण को; कञ्ञित्‌--कुछ; चरन्तम्‌ू--विचरण करते हुए; अकुत:-भयम्‌--किसी प्रकार के भयके बिना; कविम्‌--विद्धान; निरीक्ष्य--देखकर; तरुणम्‌--युवा; यदुः--राजा यदु ने; पप्रच्छ--पूछा; धर्म-वित्‌-- धार्मिकसिद्धान्तों में दक्ष

    महाराज यदु ने एक बार किसी ब्राह्मण अवधूत को देखा, जो तरूण तथा दिद्वान प्रतीतहोता था और निर्भय होकर विचरण कर रहा था। आध्यात्मिक विज्ञान में अत्यन्त पारंगत होने केकारण राजा ने इस अवसर का लाभ उठाया और उसने इस प्रकार उससे पूछा।

    श्रीयदुरुवाचकुतो बुद्धिरियं ब्रह्मन्नकर्तु: सुविशारदा ।यामासाद्य भवाल्लोकं दिद्वांश्वतति बालवत्‌ ॥

    २६॥

    श्री-यदुः उवाच--राजा यदु ने कहा; कुतः--कहाँ से; बुद्धिः--बुद्धि; इयम्‌--यह; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; अकर्तु:--किसी काममें न लगे रहने वाले के; सु-विशारदा--अत्यन्त विस्तृत; यामू--जो; आसाद्य--प्राप्त करके; भवान्‌ू-- आप; लोकम्‌--संसारमें; विद्वानू--ज्ञान से पूर्ण होकर; चरति--विचरण करता है; बाल-वत्‌--बालक के समान।

    श्री यदु ने कहा : हे ब्राह्मण, मैं देख रहा हूँ कि आप किसी व्यावहारिक धार्मिक कृत्य मेंनहीं लगे हुए हैं, तो भी आपने इस जगत में सारी वस्तुओं तथा सारे लोगों की सही-सहीजानकारी प्राप्त कर रखी है। हे महानुभाव, मुझे बतायें कि आपने यह असाधारण बुद्धि कैसेप्राप्त की है और आप सारे जगत में बच्चे की तरह मुक्त रूप से विचरण क्‍यों कर रहे हैं ? प्रायो धर्मार्थकामेषु विवित्सायां च मानवा: ।हेतुनेव समीहन्त आयुषो यशसः थ्रिय: ॥

    २७॥

    प्रायः--सामान्यतया; धर्म--धर्म; अर्थ--आर्थिक विकास; कामेषु--तथा इन्द्रियतृप्ति में; विवित्सायामू--आध्यात्मिक ज्ञान कीखोज में; च-- भी; मानवा:--मनुष्यगण; हेतुना-- अभिप्राय के लिए; एव--निस्सन्देह; समीहन्ते--प्रयत्न करते हैं; आयुष: --दीर्घायु की; यशस:--यश की; थ्रियः--तथा भौतिक ऐश्वर्य की |

    सामान्यतया मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा आत्मा विषयक ज्ञान का अनुशीलन करने के लिएकठिन परिश्रम करते हैं। उनका सामान्य मन्तव्य अपनी आयु को बढ़ाना, यश अर्जित करना तथाभौतिक ऐश्वर्य का भोग करना रहता है।

    त्वं तु कल्पः कविर्दक्ष: सुभगोईमृतभाषण: ।न कर्ता नेहसे किश्चिज्जडोन्मत्तपिशाचवत्‌ ॥

    २८॥

    त्वमू--तुम; तु--फिर भी; कल्प:--सक्षम; कवि:--विद्वान; दक्ष: --पटु; सु-भग:ः--सुन्दर; अमृत-भाषण:--अमृततुल्य वाणीसे युक्त; न--नहीं; कर्ता--करने वाला; न ईहसे--तुम इच्छा नहीं करते; किल्ञित्‌--कोई भी वस्तु; जड--अचर; उन्मत्त--पागल बना हुआ; पिशाच-बत्‌--पिशाच के समान।

    तथापि समर्थ, विद्वान, दक्ष, सुन्दर तथा सुस्पष्ट वक्ता होते हुए भी आप न तो कोई कामकरने में लगे हैं, न ही आप किसी वस्तु की इच्छा करते हैं, प्रत्युत जड़वत तथा उन्मत्त प्रतीत होतेहैं, मानो कोई पिशाच हो।

    जनेषु दह्ममानेषु कामलोभदवाग्निना ।न तप्यसेग्निना मुक्तो ग्ढम्भ:स्थ इव द्विप: ॥

    २९॥

    जनेषु--समस्त लोगों के; दह्ममानेषु--जलते हुए भी; काम--काम; लोभ--तथा लालच की; दव-अग्निना--जंगल की आगद्वारा; न तप्यसे--जल नहीं जाते; अग्निना--अग्नि से; मुक्त:--स्वतंत्र; गड्ञ-अम्भ:--गंगा के जल में; स्थ:--खड़े; इब--मानो; द्विप:--हाथी।

    यद्यपि भौतिक जगत में सारे लोग काम तथा लोभ की दावाग्नि में जल रहे हैं, किन्तु आपस्वतंत्र रह रहें हैं और उस अग्नि से जलते नहीं। आप उस हाथी के समान हैं, जो दावाग्नि सेबचने के लिए गंगा नदी के जल के भीतर खड़े होकर आश्रय लिये हुये हो।

    त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम्‌ ।ब्रृहि स्पर्शणविहीनस्य भवतः केवलात्मन: ॥

    ३०॥

    त्वमू--तुम; हि--निश्चय ही; न:ः--हमसे; पृच्छताम्‌--पूछ रहे; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; आत्मनि--अपने भीतर; आनन्द--आनन्दके; कारणम्‌ू--कारण को; ब्रूहि--कहो; स्पर्श-विहीनस्थ-- भौतिक भोग के स्पर्श से विहीन; भवत:--आपका; केवल-आत्मन:--एकान्त में रहने वाले |

    हे ब्राह्मण, हम देखते हैं कि आप भौतिक भोग से किसी प्रकार के स्पर्श से रहित हैं औरबिना किसी संगी या पारिवारिक सदस्य के अकेले ही भ्रमण कर रहे हैं। चुँकि हम निष्ठापूर्वक आपसे पूछ रहे है, इसलिए कृपा करके हमें अपने भीतर अनुभव किये जा रहे महान्‌ आनन्द काकारण बतलायें।

    श्रीभगवानुवाचयदुनैव॑ महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा ।पृष्ट: सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विज: ॥

    ३१॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; यदुना--राजा यदु द्वारा; एवम्‌--इस तरह से; महा-भाग:--परम भाग्यशाली;ब्रह्मण्येन--ब्राह्मणों का आदर करने वाला; सु-मेधसा--तथा बुद्धिमान; पृष्ट:--पूछा; सभाजित: --सत्कार किया; प्राह--बोला; प्रश्रय--दीनतावश; अवनतम्‌--अपना सिर झुकाते हुए; द्विज:--ब्राह्मण ने

    भगवान्‌ कृष्ण ने कहा : ब्राह्मणों का सदैव आदर करने वाला बुद्धिमान राजा यदु अपनासिर झुकाये हुए प्रतीक्षा करता रहा और वह ब्राह्मण राजा की मनोवृत्ति से प्रसन्न होकर उत्तर देनेलगा।

    श्रीत्राह्मण उबाचसन्ति मे गुरवो राजन्बहवो बुद्धयुपश्रिता: ।यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोडटामीह तान्थुणु ॥

    ३२॥

    श्री-ब्राह्मण: उबाच--ब्राह्मण ने कहा; सन्ति--हैं; मे--मेंरे; गुरव:--अनेक गुरु; राजन्‌--हे राजा; बहव:--अनेक; बुद्धि--मेरी बुद्धि; उपश्रिता:--शरणागत; यतः--जिससे; बुद्धिम्‌--बुद्धि के; उपादाय--प्राप्त करके ; मुक्त:--मुक्त; अटामि--विचरण करता हूँ; हह--इस जगत में; तानू--उनको; श्रूणु--सुनो |

    ब्राह्मण ने कहा : हे राजन्‌, मैंने अपनी बुद्धि से अनेक गुरुओं की शरण ली है। उनसे दिव्यज्ञान प्राप्त करने के बाद अब मैं मुक्त अवस्था में पृथ्वी पर विचरण करता हूँ। जिस रूप में मैंआपसे वर्णन करूँ, कृपा करके सुनें।

    पृथिवी वायुराकाशमापोडग्निश्चन्द्रमा रवि: ।कपोतोजगरः सिन्धु: पतड़ो मधुकूदूगज: ॥

    ३३॥

    मधुहा हरिणो मीन: पिड्ुला कुररोर्भक:ः ।कुमारी शरकृत्सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत्‌ ॥

    ३४॥

    एते मे गुरवो राजन्चतुर्विशतिराश्रिता: ।शिक्षा वृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मन: ॥

    ३५॥

    पृथिवी--पृथ्वी; वायु: --वायु; आकाशम्‌--आकाश; आप: --जल; अग्नि:--अग्नि; चन्द्रमा: --चन्द्रमा; रवि: --सूर्य;कपोत:--कबूतर; अजगर:--अजगर; सिन्धु:--समुद्र; पतड्ृः--पतिंगा; मधु-कृत्‌ू--शहद की मक्खी; गज: --हाथी; मधु-हा--शहद-चोर; हरिण:--हिरन; मीन:--मछली; पिड्ला--पिंगला नामक वेश्या; कुरर:--कुररी पक्षी; अर्भक:--बालक;कुमारी--तरुणी; शर-कृत्‌--बाण बनाने वाला; सर्प:--साँप; ऊर्ण-नाभि:--मकड़ी; सुपेश-कृत्‌--बर; एते--ये; मे--मेरे;गुरवः--गुरु; राजन्‌ू--हे राजा; चतु:-विंशति:ः-- चौबीस; आश्रिता:--जिनकी शरण ली है; शिक्षा--उपदेश; वृत्तिभि:--कार्योसे; एतेषाम्‌--इनके ; अन्वशिक्षम्‌--मैंने ठीक से सीखा है; इह--इस जीवन में; आत्मन:--आत्मा ( अपने ) के बारे में |

    हे राजन, मैंने चौबीस गुरुओं की शरण ली है। ये हैं--पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि,चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतिंगा, मधुमक्खी, हाथी, मधु-चोर, हिरण, मछली,पिंगला वेश्या, कुररी पक्षी, बालक, तरुणी, बाण बनाने वाला, साँप, मकड़ी तथा बर। हेराजन, इनके कार्यो का अध्ययन करके ही मैंने आत्म-ज्ञान सीखा है।

    यतो यदनुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज ।तत्तथा पुरुषव्याप्र निबोध कथयामि ते ॥

    ३६॥

    यतः--जिससे; यत्‌--जो; अनुशिक्षामि--मैंने सीखा है; यथा--कैसे; वा--तथा; नाहुष-आत्म-ज--हे राजा नहुष ( ययाति )के पुत्र; ततू--वह; तथा--इस प्रकार; पुरुष-व्याध्र--हे पुरुषों में बाघ; निबोध--सुनो; कथयामि--कहूँगा; ते--तुमसे

    हे महाराज ययाति के पुत्र, हे पुरुषों में व्याप्र, सुनो, क्योंकि मैंने इन गुरुओं से, जो सीखाहै, उसे तुम्हें बतला रहा हूँ।

    भूतैराक्रम्यमाणोपि धीरो दैववशानुगैः ।तद्विद्वान्न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेत्रेतम्‌ ॥

    ३७॥

    भूतैः--विभिन्न प्राणियों द्वारा; आक्रम्यमाण:--सताया जाकर; अपि--यद्यपि; धीर:--धीर; दैव-- भाग्य के; वश--नियंत्रण;अनुगैः --अनुयायियों द्वारा; तत्‌ू--यह तथ्य; विद्वानू--जाननहारा; न चलेतू--विपथ नहीं होना चाहिए; मार्गात्‌ू--पथ से;अन्वशिक्षम्‌-मैंने सीखा है; क्षिते:--पृथ्वी से; ब्रतम्‌--यह व्रत, हृढ़ अभ्यास |

    अन्य जीवों द्वारा सताये जाने पर भी धीर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि उसके उत्पीड़कईश्वर के अधीन होकर असहाय रूप से कर्म कर रहे हैं। इस तरह उसे कभी अपने पथ की प्रगतिसे विपथ नहीं होना चाहिए मैंने पृथ्वी से यह नियम सीखा है।

    शश्वत्परार्थसर्वेह: परार्थैकान्तसम्भव: ।साधु: शिक्षेत भूभूत्तो नगशिष्य: परात्मताम्‌ ॥

    ३८॥

    शश्वत्‌--सदैव; पर--दूसरों के; अर्थ--हित के लिए; सर्व-ईह:--सारे प्रयास; पर-अर्थ--दूसरों का लाभ; एकान्त--अकेला;सम्भव:--जीवित रहने का कारण; साधु:--साधु-पुरुष; शिक्षेत--सीखना चाहिए; भू- भृत्त:--पहाड़ से; नग-शिष्य: --वृशक्षका शिष्य; पर-आत्मताम्‌--अन्यों के प्रति समर्पण |

    सनन्‍्त-पुरुष को पर्वत से सीखना चाहिए कि वह अपने सारे प्रयास अन्यों की सेवा में लगायेऔर अन्यों के कल्याण को अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बनाये। इसी तरह वृक्ष का शिष्यबनकर उसे स्वयं को अन्यों को समर्पित करना सीखना चाहिए।

    प्राणवृत्त्यैव सन्तुष्येन्मुनिनेवेन्द्रियप्रिये: ।ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाइमन: ॥

    ३९॥

    प्राण-वृत्त्या--प्राणों के कार्य करते रहने से; एब--ही; सन्तुष्येत्‌--सन्तुष्ट रहना चाहिए; मुनि:--मुनि; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; इन्द्रिय-प्रियै:--इन्द्रियों को तृप्त करने वाली वस्तुओं से; ज्ञानम्‌--चेतना; यथा--जिससे कि; न नश्येत--नष्ट न होसके; न अवकीर्येत--शक्षुब्ध न हो सके; वाकु--उसकी वाणी; मन:--तथा मन।

    विद्वान मुनि को चाहिए कि वह अपने सादे जीवन-यापन में ही तुष्टि माने। वह भौतिकइन्द्रियों की तृप्ति के द्वारा तुष्टि की खोज न करे। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को अपने शरीर कीपरवाह इस तरह करनी चाहिए कि उसका उच्चतर ज्ञान विनष्ट न हो और उसकी वाणी तथा मनआत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलित न हों।

    विषयेष्वाविशन्योगी नानाधर्मेषु सर्वतः ।गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत्‌ ॥

    ४०॥

    विषयेषु-- भौतिक वस्तुओं के सम्पर्क में; आविशन्‌-- प्रवेश करके ; योगी--जिसने आत्म-संयम प्राप्त कर लिया है; नाना-धर्मेषु--विभिन्न गुणों वाले; सर्वतः--सर्वत्र; गुण--सदगुण; दोष--तथा दोष; व्यपेत-आत्मा--वह व्यक्ति जिसने लाँघ लियाहै; न विषज्ेत--नहीं फँसना चाहिए; वायु-वत्‌--वायु की तरह

    यहाँ तक कि योगी भी ऐसी असंख्य भौतिक वस्तुओं से घिरा रहता है, जिनमें अच्छे तथाबुरे गुण पाये जाते हैं। किन्तु जिसने भौतिक अच्छाई तथा बुराई लाँघ ली है, उसे भौतिक वस्तुओंके सम्पर्क में रहते हुए भी, उनमें फँसना नहीं चाहिए, प्रत्युत उसे वायु की तरह कार्य करनाचाहिए।

    पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तद्‌गुणा श्रय: ।गुणैर्न युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्महक्‌ ॥

    ४१॥

    पार्थिवेषु--पृथ्वी ( तथा अन्य तत्त्वों ) से बना; इह--इस संसार में; देहेषु--शरीरों में; प्रविष्ट: --प्रवेश करके; तत्‌--उनके;गुण--लाक्षणिक गुण; आश्रय:-- धारण करके; गुणैः:--उन गुणों से; न युज्यते-- अपने को फँसाता नहीं; योगी--योगी;गन्धैः--विभिन्न गंधों से; वायु:--वायु; इब--सदहृश; आत्म-हक्‌--अपने को ठीक से देखने वाला

    ( इस पदार्थ से पृथक्‌ रूपमें )इस जगत में स्वरूपसिद्ध आत्मा विविध भौतिक शरीरों में उनके विविध गुणों तथा कार्योका अनुभव करते हुए रह सकता है, किन्तु वह उनमें कभी उलझता नहीं, जिस तरह कि वायुविविध सुगंधों को वहन करती है, किन्तु वह उनमें घुल-मिल नहीं जाती।

    अन्तर्हितश्न स्थिरजड्रमेषुब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन ।व्याप्त्याव्यवच्छेदमसड्रमात्मनोमुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत्‌ ॥

    ४२॥

    अन्तहितः -- भीतर उपस्थित; च-- भी; स्थिर--सारे जड़ जीव; जड़मेषु--तथा चेतन जीव; ब्रह्म-आत्म-भावेन--अपने को शुद्धआत्मा अनुभव करते हुए; समन्वयेन--विभिन्न शरीरों के साथ भिन्न भिन्न सम्पर्कों के परिणामस्वरूप; व्याप्त्या--व्याप्त होने केकारण; अव्यवच्छेदम्‌--अविभक्त होने का गुण; असड्रम्‌--लिप्त न रहने से; आत्मन: --परमात्मा से युक्त; मुनि:--मुनि;नभस्त्वम्‌--आकाश साम्य; विततस्य--विराट का; भावयेत्‌-- ध्यान करना चाहिए

    भौतिक शरीर के भीतर रहते हुए भी विचारवान साधु को चाहिए कि वह अपने आपकोशुद्ध आत्मा समझे। इसी तरह मनुष्य को देखना चाहिए कि आत्मा सभी प्रकार के सजीवों--चरों तथा अचरों के भीतर प्रवेश करता है और इस तरह व्यष्टि आत्मा सर्वव्यापी है। साधु को यहभी देखना चाहिए कि परमात्मा रूप में भगवान्‌ एक ही समय सारी वस्तुओं के भीतर उपस्थितरहते हैं। आत्मा तथा परमात्मा को आकाश के स्वभाव से तुलना करके समझा जा सकता है।यद्यपि आकाश सर्वत्र फैला हुआ है और सारी वस्तुएँ आकाश के भीतर टिकी हैं किन्तु आकाशकिसी भी वस्तु से न तो घुलता-मिलता है, न ही किसी वस्तु के द्वारा विभाजित किया जा सकताहै।

    तेजोबन्नमयै भविर्मेघाद्यैर्वायुनेरितै: ।न स्पृश्यते नभस्तद्वत्कालसूष्टैर्गुणै: पुमान्‌ ॥

    ४३॥

    तेज:--अग्नि; अपू--जल; अन्न--तथा पृथ्वी; मयै:--युक्त; भावै:--वस्तुओं से; मेघ-आद्यै:--बादल इत्यादि से; वायुना--वायु से; ईरितैः--उड़ाये जाने वाले; न स्पृश्यते--स्पर्श नहीं हो पाता; नभः--आकाश; तत्‌-वत्‌--उसी तरह से; काल-सूष्टै:--काल द्वारा भेजे गये; गुणैः:-- प्रकृति के गुणों द्वारा; पुमान्‌ू--मनुष्य |

    यद्यपि प्रबल वायु आकाश से होकर बादलों तथा झंझावातों को उड़ाती है, किन्तु आकाशइन कार्यों से कभी प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा भौतिक प्रकृति के स्पर्श से परिवर्तितया प्रभावित नहीं होती। यद्यपि जीव पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने शरीर में प्रवेश करता है औरयद्यपि वह शाश्वत काल द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के द्वारा बाध्य किया जाता है, किन्तु उसकाशाश्रत आध्यात्मिक स्वभाव कभी भी प्रभावित नहीं होता।

    स्वच्छ: प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूनणाम्‌ ।मुनिः पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनी: ॥

    ४४॥

    स्वच्छ: --शुद्ध; प्रकृतित:--प्रकृति से; स्निग्ध:--कोमल या कोमल हृदय वाला; माधुर्य; --मधुर या मधुर वाणी; तीर्थ-भू:--तीर्थस्थान; नृणाम्‌-मनुष्यों के लिए; मुनिः--मुनि; पुनाति--पवित्र करता है; अपाम्‌--जल का; मित्रम्‌--प्रतिरूप; ईक्षा--देखे जाने से; उपस्पर्श--सादर स्पर्श होने से; कीर्तनैः--तथा वाणी से प्रशंसित किये जाने से

    हे राजन, सन्त-पुरुष जल के सहृश होता है, क्योंकि वह कल्मषरहित, स्वभाव से मृदुलतथा बोलने में बहते जल की कलकल ध्वनि सहृश होता है। ऐसे सनन्‍्त-पुरुष के दर्शन, स्पर्श याश्रवण मात्र से ही जीव उसी तरह पवित्र हो जाता है, जिस तरह शुद्ध जल का स्पर्श करने सेमनुष्य स्वच्छ हो जाता है। इस तरह सन्त-पुरुष तीर्थस्थान की तरह उन सबों को शुद्ध बनाता है,जो उसके सम्पर्क में आते हैं, क्योंकि वह सदैव भगवान्‌ की महिमा का कीर्तन करता है।

    तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धषोदरभाजन: ।सर्वभश्ष्योपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत्‌ ॥

    ४५॥

    तेजस्वी--तेजवान्‌; तपसा--अपनी तपस्या से; दीप्तः--चमकता हुआ; दुर्धर्ष--अचल; उदर-भाजन:--पेट पालने के लिए हीखाने वाला; सर्व--हर वस्तु; भक्ष्य:--खाते हुए; अपि--यद्यपि; युक्त-आत्मा--आध्यात्मिक जीवन में स्थिर; न आदत्ते-- धारणनहीं करता; मलम्‌--कल्मष; अग्नि-वत्‌-- अग्नि की तरह।

    सन्त-पुरुष तपस्या करके शक्तिमान बनते हैं। उनकी चेतना अविचल रहती है क्योंकि वेभौतिक जगत की किसी भी वस्तु का भोग नहीं करना चाहते। ऐसे सहज मुक्त सनन्‍्त-पुरुष भाग्यद्वारा प्रदत्त भोजन को स्वीकार करते हैं और यदि कदाचित्‌ दूषित भोजन कर भी लें तो उन परकोई प्रभाव नहीं पड़ता जिस तरह अग्नि उन दूषित वस्तुओं को जला देती है, जो उसमें डालीजाती हैं।

    क्वचिच्छन्न: क्वचित्स्पष्ट उपास्य: श्रेय इच्छताम्‌ ।भुड़े सर्वत्र दातृणां दहन्प्रागुत्तराशुभम्‌ ॥

    ४६॥

    क्वचित्‌--कभी; छन्न:--ढका हुआ; क्वचित्‌--कभी; स्पष्ट:-- प्रकट; उपास्य: --पूज्य; श्रेय:--सर्वोच्च मंगल; इच्छताम्‌ू--चाहने वालों के लिए; भुड्ढे --निगल जाता है; सर्वत्र--सभी दिशाओं में; दातृणाम्‌ू--बलि चढ़ाने वालों के; दहन्‌--जलाते हुए;प्राकु--विगत; उत्तर--तथा भविष्य; अशुभम्‌-पापों को |

    सनन्‍्त-पुरुष अग्नि के ही समान, कभी प्रच्छन्न रूप में, तो कभी प्रकट रूप में दिखता है।असली सुख चाहने वाले बद्धजीवों के कल्याण हेतु सन्‍्त-पुरुष गुरु का पूजनीय पद स्वीकारकर सकता है और इस तरह वह अग्नि के सहृश अपने पूजकों की बलियों को दयापूर्वकस्वीकार करके विगत तथा भावी पापों को भस्म कर देता है।

    स्वमायया सूष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभु: ।प्रविष्ट ईयते तत्तत्स्वरूपोग्निरिवैधसि ॥

    ४७॥

    स्व-मायया--अपनी माया से; सृष्टम्‌--सृजित; इदम्‌--यह ( जीव का शरीर ); सत्‌-असतू--देवता, पशु इत्यादि के रूप में;लक्षणम्‌--लक्षणों से युक्त; विभु:--सर्वशक्तिमान; प्रविष्ट: --प्रवेश करके; ईयते--प्रकट होता है; ततू्‌-तत्‌--उसी-उसी रूपमें; स्वरूप:--पहचान बनाकर; अग्नि:--अग्नि के; इब--सहश; एधसि--ईधन में |

    जिस तरह अग्नि विभिन्न आकारों तथा गुणों वाले काष्ट-खण्डों में भिन्न भिन्न रूप से प्रकटहोती है, उसी तरह सर्वशक्तिमान परमात्मा अपनी शक्ति से उत्पन्न किये गये उच्च तथा निम्नयोनियों के शरीरों में प्रवेश करके प्रत्येक के स्वरूप को ग्रहण करता प्रतीत होता है।

    विसर्गद्या: श्मशानान्ता भावा देहस्य नात्मन: ।कलानामिव चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ॥

    ४८॥

    विसर्ग--जन्म; आद्या:--इत्यादि; एमशान-- मृत्यु का समय, जब शरीर भस्म कर दिया जाता है; अन्ता:--अन्तिम; भावा:--दशाएँ; देहस्य--शरीर की; न--नहीं; आत्मन:--आत्मा का; कलानामू--विभिन्न अवस्थाओं का; इब--सहश; चन्द्रस्य--चन्द्रमा की; कालेन--समय के साथ; अव्यक्त--न दिखने वाला; वर्त्मना--गति से

    जन्म से लेकर मृत्यु तक भौतिक जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ शरीर के गुणधर्म हैं और येआत्मा को उसी तरह प्रभावित नहीं करतीं, जिस तरह चन्द्रमा की घटती-बढ़ती कलाएँ चन्द्रमाको प्रभावित नहीं करतीं। ऐसे परिवर्तन काल की अव्यक्त गति द्वारा लागू किये जाते हैं।

    कालेन होघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ ।नित्यावषि न हृश्येते आत्मनोःग्नेर्यथार्चिषाम्‌ ॥

    ४९॥

    कालेन--समय के द्वारा; हि--निस्सन्देद; ओघ--बाढ़ के सहश; वेगेन--चाल से; भूतानाम्‌--जीवों के; प्रभव--जन्म;अप्ययौ--तथा मृत्यु; नित्यौ--स्थायी; अपि--यद्यपि; न दृश्येते--नहीं देखे जाते; आत्मन:--आत्मा के; अग्ने:--अग्नि की;यथा--जिस तरह; अर्चिषाम्‌--लपटों को

    अग्नि की लपटें प्रतिक्षण प्रकट तथा लुप्त होती रहती हैं, और यह सृजन तथा विनाशसामान्य प्रेक्षकों द्वारा देखा नहीं जाता। इसी तरह काल की बलशाली लहरें नदी की प्रबलधाराओं की तरह निरन्तर बहती रहती हैं और अव्यक्त रूप से असंख्य भौतिक शरीरों को जन्म,वृद्धि तथा मृत्यु प्रदान करती रहती हैं। फिर भी आत्मा, जिसे निरन्तर अपनी स्थिति बदलनीपड़ती है, काल की करतूतों को देख नहीं पाता।

    गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुझ्जञति ।न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इब गोपति: ॥

    ५०॥

    गुणैः--अपनी इन्द्रियों से; गुणान्‌--इन्द्रिय-विषयों को; उपादत्ते--स्वीकार करता है; यथा-कालम्‌--उपयुक्त समय पर;विमुक्नति--छोड़ देता है; न--नहीं; तेषु--उनमें ; युज्यते-- फँस जाता है; योगी--स्वरूपसिद्ध मुनि; गोभि:--अपनी किरणों से;गाः--जलाशयों; इब--सहश; गो-पति: --सूर्य ।

    जिस तरह सूर्य अपनी प्रखर किरणों से पर्याप्त मात्रा में जल को भाप बना कर उड़ा देता हैऔर बाद में उस जल को वर्षा के रूप में पृथ्वी पर लौटा देता है, उसी तरह सन्‍्त-पुरुष अपनीभौतिक इन्द्रियों से सभी प्रकार की भौतिक वस्तुओं को स्वीकार करता है और जब सही व्यक्तिउन्हें लौटवाने के लिए उसके पास जाता है, तो उन भौतिक वस्तुओं को वह लौटा देता है। इसतरह वह इन्द्रिय-विषयों को स्वीकारने तथा त्यागने दोनों में ही फँसता नहीं ।

    बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः ।लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोर्कवत्‌ ॥

    ५१॥

    बुध्यते--सोचा जाता है; स्वे--अपने मूल रूप में; न--नहीं; भेदेन--विविधता से; व्यक्ति--पृथक्‌ प्रतिबिम्बित पदार्थों पर;स्थ:--स्थित; इब--ऊपर से; ततू-गत:--उनके भीतर प्रवेश करके; लक्ष्यते--प्रकट होता है; स्थूल-मतिभि:--मन्द बुद्धि वालोंके लिए; आत्मा--आत्मा; च--भी; अवस्थित: --स्थित; अर्कवत्‌--सूर्य की तरह ।

    विविध वस्तुओं से परावर्तित होने पर भी सूर्य न तो कभी विभक्त होता है, न अपने प्रतिबिम्बमें लीन होता है। जो मन्द बुद्धि वाले हैं, वे ही सूर्य के विषय में ऐसा सोचते हैं। इसी प्रकारआत्मा विभिन्न भौतिक शरीरों से प्रतिबिम्बित होते हुए भी अविभाजित तथा अभौतिक रहता है।

    नातिस्नेह: प्रसझे वा कर्तव्य: क्वापि केनचित्‌ ।कुर्वन्बिन्देत सन्‍्तापं कपोत इव दीनधी: ॥

    ५२॥

    न--नहीं; अति-स्नेह:--अत्यधिक स्नेह; प्रसड़ू:--घनिष्ठ संग; वा--अथवा; कर्तव्य:--प्रकट करना चाहिए; क्व अपि--कभी;केनचित्‌--किसी से; कुर्वन्‌ू--ऐसा करते हुए; विन्देत--अनुभव करेगा; सन्तापम्‌--महान्‌ दुख; कपोत:ः--कबूतर; इब--सहश; दीन-धी:--मन्द बुद्धि |

    मनुष्य को चाहिए कि किसी व्यक्ति या किसी वस्तु के लिए अत्यधिक स्नेह या चिन्ता नकरे। अन्यथा उसे महान्‌ दुख भोगना पड़ेगा, जिस तरह कि मूर्ख कबूतर भोगता है।

    कपोतः कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ ।कपोत्या भार्यया सार्थधमुवास कतिचित्समा: ॥

    ५३॥

    कपोत:--कबूतर ने; कश्चन--किसी; अरण्ये--जंगल में; कृत-नीड:--अपना घोंसला बनाकर; वनस्पतौ--वृक्ष में;कपोत्या--कबूतरी के साथ; भार्यया--अपनी पत्नी; स-अर्धम्--अपने संगी के रूप में; उबास--रहने लगा; कतिचित्‌--कुछ;समाः--वर्षो तक

    एक कबूतर था, जो अपनी पत्नी के साथ जंगल में रहता था। उसने एक वृक्ष के भीतरअपना घोंसला बनाया और कबूतरी के साथ कई वर्षों तक वहाँ रहता रहा।

    कपोतौ स्नेहगुणितहदयौ गृहधर्मिणौ ।दृष्टि दृष्ठयाड्रमड्रेन बुद्धि बुद्धया बबन्धतु: ॥

    कपोतौ--कबूतर का जोड़ा; स्नेह--स्नेह से; गुणित--मानो रस्सी से बँधे हुए; हृदयौ--उनके हृदय; गृह-धर्मिणौ-- अनुरक्तगृहस्थ; दृष्टिम--दृष्टि; दृष्या--चितवन से; अड्रम्‌ू--शरीर को; अड्लेन--दूसरे के शरीर से; बुद्धिमू--मन; बुद्धया--दूसरे के मनसे; बबन्धतु:--एक-दूसरे को बाँध लिया।

    कबूतर का यह जोड़ा अपने गृहस्थ कार्यो के प्रति अत्यधिक समर्पित था। उनके हृदयभावनात्मक स्नेह से परस्पर बँधे थे, वे एक-दूसरे की चितवनों, शारीरिक गुणों तथा मन कीअवस्थाओं से आकृष्ट थे। इस तरह उन्होंने एक-दूसरे को स्नेह से पूरी तरह बाँध रखा था।

    शय्यासनाटनस्थान वार्ताक्रीडाशनादिकम्‌ ।मिथुनीभूय विश्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ॥

    ५५॥

    शब्या--लेटते; आसन--बैठते; अटन--चलते-फिरते; स्थान--खड़े होते; वार्ता--बातें करते; क्रीडा--खेलते; अशन--भोजन करते; आदिकम्‌--इत्यादि; मिथुनी-भूय--दम्पति के रूप में; विश्रव्धौ--एक-दूसरे पर विश्वास करते; चेरतु: --उन्होंनेसम्पन्न किया; वन--जंगल के; राजिषु--वृन्दों के कुंजों के बीच।

    भविष्य पर निएछल भाव से विश्वास करते हुए बे प्रेमी युगल की भाँति जंगल के वृक्षों केबीच लेटते, बैठते, चलते-फिरते, खड़े होते, बातें करते, खेलते, खाते-पीते रहे।

    यं यं वाउ्छति सा राजन्तर्पयन्त्यनुकम्पिता ।तं त॑ समनयत्कामं कृच्छेणाप्यजितेन्द्रिय: ॥

    ५६॥

    यम्‌ यम्‌--जो कुछ भी; वा्छति--चाहती; सा--वह कबूतरी; राजन्‌--हे राजन; तर्पयन्ती -- प्रसन्न करती हुईं; अनुकम्पिता--दया दिखाई गई; तम्‌ तम्‌ू--वह-वह; समनयत्‌--ले आया; कामम्‌--अपनी इच्छा; कृच्छेण --बड़ी मुश्किल से; अपि-- भी;अजित-इन्द्रियः--अपनी इन्द्रियों को वश में करना न सीखा हुआ।

    हे राजनू, जब भी कबूतरी को किसी वस्तु की इच्छा होती, तो वह अपने पति कीचाटुकारिता करके उसे बाध्य करती और वह स्वयं भारी मुश्किलें उठाकर भी उसे तृप्त करने केलिए वही करता, जो वह चाहती थी। इस तरह वह उसके संग में अपनी इन्द्रियों पर संयम नहींरख सका।

    कपोती प्रथम गर्भ गृहन्ती काल आगते ।अण्डानि सुषुवे नीडे स्तपत्यु: सन्निधौ सती ॥

    ५७॥

    कपोती--कबूतरी; प्रथमम्‌--प्रथम; गर्भम्‌--गर्भावस्‍था; गृहन्ती -- धारण करती हुईं; काले--( प्रसव का ) समय के; आगते--आने पर; अण्डानि--अंडे; सुषुवे--दिये; नीडे--घोंसले में; स्व-पत्यु:--अपने पति की; सन्निधौ--उपस्थिति में; सती--साध्वी

    तत्पश्चातु, कबूतरी को पहले गर्भ का अनुभव हुआ। जब समय आ गया, तो उस साध्वीकबूतरी ने अपने पति की उपस्थिति में घोंसले में कई अंडे दिये।

    तेषु काले व्यजायन्त रचितावयवा हरे: ।शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभि: कोमलाडुरतनूरूहा: ॥

    ५८ ॥

    तेषु--उन अंडों से; काले--समय आने पर; व्यजायन्त--उत्पन्न हुए; रचित--निर्मित; अवयवा:--बच्चों के अंग; हरेः-- भगवान्‌हरि की; शक्तिभि: --श क्तियों से; दुर्विभाव्याभि:-- अचिन्त्य; कोमल-- मुलायम; अड्ड--अंग; तनूरुहा:--तथा पंखहा

    जब समय पूरा हो गया, तो उन अंडों से भगवान्‌ की अचिन्त्य शक्तियों से निर्मित मुलायमअंगो तथा पंखों के साथ बच्चे उत्पन्न हुए।

    प्रजा: पुपुषतु: प्रीतौ दम्पती पुत्रवत्सलौ ।श्रुण्वन्तौ कूजितं तासां निर्वृती कलभाषितैः ॥

    ५९॥

    प्रजा:--सन्तान; पुपुषतु:--उन्होंने पाला-पोषा; प्रीतौ--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; दम्‌-पती --युग्म; पुत्र--अपने बच्चों को;बत्सलौ--दयालु; श्रृण्वन्तौ --सुनते हुए; कूजितमू--चहचहाना; तासाम्‌--उन बच्चों की; निर्वता--अत्यन्त सुखी; कल-भाषितै:--भद्दी ध्वनि से |

    कबूतर का यह जोड़ा अपने बच्चों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल बन गया और उनकी अढपटीचहचहाहट को सुनकर अत्यन्त हर्षित होता, क्योंकि उन माता-पिता को यह अतीव मधुर लगती।इस तरह वह जोड़ा उन छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण करने लगा।

    तासां पतत्रै: सुस्पशैं: कूजितैर्मुग्धचेष्टितेः ।प्रत्युदूगमैरदीनानां पितरौ मुदमापतु: ॥

    ६०॥

    तासाम्‌--छोटे पक्षियों के; पतत्रैः--पंखों द्वारा; सु-स्पशैं:--छूने में अच्छा; कूजितैः--उनकी चहचहाहट; मुग्ध--आकर्षक;चेष्टितेः:--कार्यों से; प्रत्युदूगमैः--फुदकने के प्रयासों से; अदीनानाम्‌--सुखी ( बच्चों ) के; पितरौ--माता-पिता; मुदम्‌आपतुः--हर्षित हो गये।

    यें माता-पिता अपने पक्षी बच्चों के मुलायम पंखों, उनकी चहचहाहट, घोंसले के आसपासउनकी कूद-फाँद करना, उनका उछलने और उड़ने का प्रयास करना देखकर अत्यन्त हर्षित हुए।अपने बच्चों को सुखी देखकर माता-पिता भी सुखी थे। स्नेहानुबद्धहदयावन्योन्यं विष्णुमायया ।विमोहितौ दीनधियौ शिशूब्पुपुषतुः प्रजा: ॥

    ६१॥

    स्नेह--स्नेह से; अनुबद्ध--बँधे हुए; हृदयौ--हृदयों वाले; अन्योन्यम्‌--परस्पर; विष्णु-मायया--भगवान्‌ विष्णु की माया से;विमोहितौ--पूर्णतः मोहग्रस्त; दीन-धियौ--मन्द बुद्धि वाले; शिशून्‌ू-- अपने बच्चों को; पुपुषतु:--पाला-पोषा; प्रजा: --अपनीसन्तान।

    स्नेह से बँधे हुए हृदयों वाले ये मूर्ख पक्षी भगवान्‌ विष्णु की माया द्वारा पूर्णतः मोहग्रस्तहोकर अपने छोटे-छोटे बच्चों का लालन-पालन करते रहे।

    एकदा जम्मतुस्तासामन्नार्थ तौ कुटुम्बिनौ ।परितः कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम्‌ ॥

    ६२॥

    एकदा--एक बार; जम्मतु:--गये; तासाम्‌--बच्चों के; अन्न-- भोजन; अर्थम्‌-हेतु; तौ--वे दोनों; कुटुम्बिनौ--परिवार केमुखिया; परितः--चारों ओर; कानने--जंगल में; तस्मिन्‌ू--उस; अर्थिनौ--उत्सुकतापूर्वक ढूँढ़ते हुए; चेरतु:--विचरते रहे;चिरम्‌ू--काफी समय तक।

    एक दिन परिवार के दोनों मुखिया अपने बच्चों के लिए भोजन तलाश करने बाहर चलेगये। अपने बच्चों को ठीक से खिलाने की चिन्ता में वे काफी समय तक पूरे जंगल में विचरतेरहे।

    इृष्टा तानलुब्धक: कश्चिद्यदच्छातो बनेचर: ।जगूहे जालमातत्य चरत: स्वालयान्तिके ॥

    ६३॥

    इृष्ठटा--देखकर; तान्‌--उन बच्चों को; लुब्धक:--बहेलिये ने; कश्चित्‌--कोई; यहच्छात:--संयोगवश; वने--जंगल में;चरः--गुजरते हुए; जगृहे--पकड़ लिया; जालमू--जाल को; आतत्य--फैलाकर; चरत:--विचरण करते; स्व-आलय-अन्तिके--उनके घर के पड़ोस में

    उस समय संयोगवश जंगल में विचरण करते हुए किसी बहेलिये ने कबूतर के इन बच्चों कोउनके घोंसले के निकट विचरते हुए देखा। उसने अपना जाल फैलाकर उन सबों को पकड़लिया।

    कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ ।गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतु: ॥

    ६४॥

    कपोतः--कबूतर; च--तथा; कपोती--कबूतरी; च--तथा; प्रजा--उनके बच्चों के; पोषे--पालन-पोषण में; सदा--सदैव;उत्सुकौ--उत्सुकतापूर्वक; गतौ--गये हुए; पोषणम्‌--भोजन; आदाय--लाकर; स्व--अपने; नीडम्‌--घोंसले में;उपजम्मतु:--पहुँचे

    कबूतर तथा उसकी पतली अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए सदैव चिन्तित रहते थे औरइसी उद्देश्य से वे जंगल में भटकते रहे थे। समुचित अन्न पाकर अब वे अपने घोंसले पर लौटआये।

    कपोती स्वात्मजान्वीक्ष्य बालकान्जालसम्बृतान्‌ ।तानभ्यधावत्क्रोशन्ती क्रोशतो भूशदु:खिता ॥

    ६५॥

    कपोती--कबूतरी; स्व-आत्म-जान्‌--अपने से उत्पन्न; वीक्ष्य--देखकर; बालकान्‌--बच्चों को; जाल--जाल से; संवृतान्‌ू--घिरे हुए; तान्‌ू--उनकी ओर; अभ्यधावत्‌--दौड़ी; क्रोशन्ती--पुकारती हुई; क्रोशत:ः--चिल्ला रहे हों, जो उनकी ओर; भूश--अत्यधिक; दुःखिता--दुखी |

    जब कबूतरी ने अपने बच्चों को बहेलिये के जाल में फँसे देखा, तो वह व्यथा से अभिभूतहो गई और चिल्लाती हुई उनकी ओर दौड़ी। वे बच्चे भी उसके लिए चिललाने लगे।

    सासकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताजमायया ।स्वयं चाबध्यत शिचा बद्धान्पश्यन्त्यपस्मृति: ॥

    ६६॥

    सा--वह; असकृत्‌--निरन्तर; स्नेह--स्नेह से; गुणिता--बँधी; दीन-चित्ता--पंगु बुद्धि वाली; अज--अजन्मा भगवान्‌ की;मायया--माया से; स्वयम्‌--स्वयं; च-- भी; अबध्यत--बँधा लिया; शिचा--जाल से; बद्धान्‌--बँधे हुए ( बच्चों को );पश्यन्ती --देखती हुई; अपस्मृति:--अपने को भूली हुईं |

    चूँकि कबूतरी ने अपने को गहन स्नेह के बन्धन से सदा बाँध रखा था, इसलिए उसका मनव्यथा से विहल था। भगवान्‌ की माया के चंगुल में होने से, वह अपने को पूरी तरह भूल गईऔर अपने असहाय बच्चों की ओर दौड़ती हुई, वह भी तुरन्त बहेलिये के जाल में बँध गई।

    कपोतः स्वात्मजान्बद्धानात्मनो प्यधिकान्प्रियान्‌ ।भार्या चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः ॥

    ६७॥

    कपोतः--कबूतर; स्व-आत्म-जान्‌--अपने ही बच्चों को; बद्धान्‌ू--बँधा हुआ; आत्मन:--अपनी अपेक्षा; अपि--ही;अधिकान्‌--अधिक; प्रियान्‌--प्रिय; भार्याम्‌-- अपनी पत्नी को; च--तथा; आत्म-समाम्‌--अपने समान; दीन:-- अभागाव्यक्ति; वबिललाप--शोक करने लगा; अति-दुःखित:ः--अत्यन्त दुखी |

    अपने प्राणों से भी प्यारे अपने बच्चों को तथा साथ में अपने ही समान अपनी पत्नी कोबहेलिये के जाल में बुरी तरह बँधा देखकर बेचारा कबूतर दुखी होकर विलाप करने लगा।

    अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः ।अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः ॥

    ६८ ॥

    अहो--हाय; मे--मेरा; पश्यत--देखो तो; अपायम्‌ू--विनाश; अल्प-पुण्यस्य-- अपर्याप्त पुण्य वाले के; दुर्मतेः --दुर्बुद्धि;अतृप्तस्य--असंतुष्ट; अकृत-अर्थस्थ--जिसने जीवन के उद्देश्य को पूरा नहीं किया, उसका; गृह: --पारिवारिक जीवन; त्रै-वर्गिक:--सभ्य जीवन के तीन उद्देश्यों ( धर्म, अर्थ तथा काम ) वाले; हतः--विनष्ट ।

    कबूतर ने कहा : हाय! देखो न, मैं किस तरह बरबाद हो गया हूँ। स्पष्ट है कि मैं महामूर्ख हूँ,क्योंकि मैंने समुचित पुण्यकर्म नहीं किये। न तो मैं अपने को संतुष्ट कर सका, न ही मैं जीवन के लक्ष्य को पूरा कर सका। मेरा प्रिय परिवार, जो मेरे धर्म, अर्थ तथा काम का आधार था, अबबुरी तरह नष्ट हो गया।

    अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता ।शून्ये गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रै: स्वर्याति साधुभि: ॥

    ६९॥

    अनुरूपा--उपयुक्त; अनुकूला--स्वामिभक्त; च--तथा; यस्य--जिसका; मे--मेरा; पति-देवता--जिसने पति को देवता-रूपमें पूज्य मान लिया है; शून्ये--रिक्त; गृहे--घर में; माम्‌ू--मुझको; सन्त्यज्य--पीछे छोड़कर; पुत्रैः --अपने पुत्रों के साथ;स्व:--स्वर्ग को; याति--जा रही है; साधुभि:--सन्‍्त जैसे |

    मैं तथा मेरी पत्नी आदर्श जोड़ा थे। वह सदैव मेरी आज्ञा का पालन करती थी और मुझेअपने पूज्य देवता की तरह मानती थी, किन्तु अब वह अपने बच्चों को नष्ट हुआ और अपने घरको रिक्त देखकर मुझे छोड़ गई और हमारे सन्त स्वभाव वाले बच्चों के साथ स्वर्ग चली गई।

    सोऊहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रज: ।जिजीविषे किमर्थ वा विधुरो दुःखजीवित: ॥

    ७०॥

    सः अहम्‌-ैं; शून्ये--रिक्त; गृहे--घर में; दीन:--दुखी; मृत-दारः--जिसकी पत्नी मर चुकी है; मृत-प्रज:--जिसके बच्चे मरचुके हैं; जिजीविषे--मैं जीवित रहना चाहूँगा; किम्‌ अर्थम्‌--किस हेतु; वा--निस्सन्देह; विधुर:--विछोह भोगते हुए; दुःख--दुखी; जीवित: --मेरा जीवन |

    अब मैं विरान घर में रहने वाला दुखी व्यक्ति हूँ। मेरी पत्ती मर चुकी है, मेरे बच्चे मर चुकेहैं। मैं भला क्‍यों जीवित रहना चाहूँ? मेरा हृदय अपने परिवार के विछोह से इतना पीड़ित है किमेरा जीवन मात्र कष्ट बनकर रह गया है।

    तांस्तथैवावृतान्शिग्भिमृत्युग्रस्तान्विचेष्टत: ।स्वयं च कृपण: शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोडपतत्‌ ॥

    ७१॥

    तान्‌ू--उनको; तथा-- भी; एव--निस्सन्देह; आवृतान्‌--घिरे हुए; शिग्भि: --जाल से; मृत्यु--मृत्यु द्वारा; ग्रस्तान्‌ू--पकड़े हुए;विचेष्टत: --स्तम्भित; स्वयम्‌-- स्वयं; च-- भी; कृपण:--दुखी; शिक्षु--जाल के भीतर; पश्यन्‌--देखते हुए; अपि-- भी;अबुध:--अज्ञानी; अपतत्‌--गिर पड़ा

    जब पिता कबूतर अपने बेचारे बच्चों को जाल में बँधा और मृत्यु के कगार पर दीन भाव सेउन्हें अपने को छुड़ाने के लिए करुणावस्था में संघर्ष करते देख रहा था, तो उसका मस्तिष्कशून्य हो गया और वह स्वयं भी बहेलिए के जाल में गिर पड़ा।

    त॑ लब्ध्वा लुब्धक: क्रूर: कपोतं गृहमेधिनम्‌ ।कपोतकान्कपोतीं च सिद्धार्थ: प्रययौ गृहम्‌ ॥

    ७२॥

    तम्‌--उसको; लब्ध्वा-- लेकर; लुब्धक:--बहेलिया; क्रूर: --निष्ठर; कपोतम्‌--कबूतर को; गृह-मेधिनम्‌-- भौतिकतावादीगृहस्थ; कपोतकान्‌--कबूतर के बच्चों को; कपोतीम्‌--कबूतरी को; च-- भी; सिद्ध-अर्थ:--अपना प्रयोजन सिद्ध करके;प्रययौ--चल पड़ा; गृहम्‌--अपने घर के लिए।

    वह निष्ठर बहेलिया उस कबूतर को, उसकी पत्नी को तथा उनके सारे बच्चों को पकड़ करअपनी इच्छा पूरी करके अपने घर के लिए चल पड़ा।

    एवं कुट॒म्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्दाराम: पतत्रिवत्‌ ।पुष्णन्कुटुम्बं कृपण: सानुबन्धोवसीद॒ति ॥

    ७३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कुटुम्बी--परिवार वाला मनुष्य; अशान्त--अशान्त; आत्मा--उसकी आत्मा; दवन्द्र-- भौतिक द्वैत ( यथानर-नारी ); आराम: --आनंदित; पतत्रि-वत्‌--इस पक्षी की तरह; पुष्णन्‌ू--पालन-पोषण करते हुए; कुटुम्बम्‌-- अपने परिवारको; कृपण:--कंजूस; स-अनुबन्ध: -- अपने सम्बन्धियों सहित; अवसीदति--अत्यधिक कष्ट उठायेगा।

    इस तरह जो व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन में अत्यधिक अनुरक्त रहता है, वह हृदय मेंक्षुब्ध रहता है। कबूतर की ही तरह वह संसारी यौन-आकर्षण में आनन्द ढूँढता रहता है। अपने परिवार का पालन-पोषण करने में बुरी तरह व्यस्त रहकर कंजूस व्यक्ति अपने परिवार वालों केसाथ अत्यधिक कष्ट भोगता है।

    यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम्‌ ।गृहेषु खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदु; ॥

    ७४॥

    यः--जो; प्राप्प--पाकर; मानुषम्‌ लोकम्‌--मनुष्य-जीवन; मुक्ति--मुक्ति का; द्वारमू--दरवाजा; अपावृतम्‌--खुला हुआ;गृहेषु--घरेलू मामलों में; खग-वत्‌--इस कथा के पक्षी की ही तरह; सक्त:--लिप्त; तमू--उसको; आरूढ--ऊँचे चढ़कर;च्युतम्‌ू--नीचे गिरते हुए; विदुः--मानते हैं।

    जिसने मनुष्य-जीवन पाया है, उसके लिए मुक्ति के द्वार पूरी तरह से खुले हुए हैं। किन्तु यदिमनुष्य इस कथा के मूर्ख पक्षी की तरह अपने परिवार में ही लिप्त रहता है, तो वह ऐसे व्यक्ति केसमान है, जो ऊँचे स्थान पर केवल नीचे गिरने के लिए ही चढ़ा हो।

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    8. पिंगला की कहानी

    श्रीज्राह्मण उवाचसुखमैन्द्रियकं राजन्स्वर्ग नरक एव च ।देहिनां यद्यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद्‌ बुध: ॥

    १॥

    श्री-ब्राह्मणः उबाच--उस साधु-ब्राह्मण ने कहा; सुखम्‌--सुख; ऐन्द्रियकम्‌--इन्द्रियों से उत्पन्न; राजन्‌--हे राजा; स्वर्गे--स्वर्गमें; नरके--तथा नरक में; एबव--निश्चय ही; च-- भी; देहिनाम्‌ू--देहधारी जीवों के; यत्‌ू--चूँकि; यथा--जिस तरह; दुःखम्‌--दुख; तस्मात्‌ू--इसलिए; न--नहीं; इच्छेत--इच्छा करे; तत्‌--वह; बुध:--जाननहारा |

    साधु-ब्राह्मण ने कहा : हे राजन, देहधारी जीव स्वर्ग या नरक में स्वतः दुख का अनुभवकरता है। इसी तरह बिना खोजे ही सुख का भी अनुभव होता है। इसलिए बुद्धिमान तथाविवेकवान व्यक्ति ऐसे भौतिक सुख को पाने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करता।

    ग्रासं सुमृष्टे विरसं महान्तं स्तोकमेव वा ।यहच्छयैवापतितं ग्रसेदाजगरोउक्रिय: ॥

    २॥

    ग्रासम्‌ू-- भोजन; सु-मृष्टम्‌--स्वच्छ तथा स्वादिष्ट; विरसम्‌--स्वादरहित; महान्तम्‌--बड़ी मात्रा में; स्तोकम्‌--छोटी मात्रा;एव--निश्चय ही; वा--अथवा; यहृच्छया--बिना निजी प्रयास के; एब--निस्सन्देह; आपतितम्‌--प्राप्त किया गया; ग्रसेत्‌ू--खालेना चाहिए; आजगर:--अजगर की तरह; अक्रिय:--निष्क्रिय, बिना प्रयास के उदासीन बने रहना।

    अजगर का अनुकरण करते हुए मनुष्य को भौतिक प्रयास का परित्याग कर देना चाहिएऔर अपने उदर-पोषण के लिए उस भोजन को स्वीकार करना चाहिए, जो अनायास मिल जाय,चाहे वह स्वादिष्ट हो या स्वादरहित, पर्याप्त हो या स्वल्प।

    शयीताहानि भूरीणि निराहारोनुपक्रमः ।यदि नोपनयेदग्रासो महाहिरिव दिष्टभुक्‌ ॥

    ३॥

    शयीत--शान्तिपूर्वक रहता रहे; अहानि--दिनों तक; भूरीणि-- अनेक; निराहार: --उपवास करते हुए; अनुपक्रम:--बिनाप्रयास के; यदि--यदि; न उपनयेत्‌--नहीं आता; ग्रास:--भोजन; महा-अहि:-- अजगर; इब--सहश; दिष्ट-- भाग्य द्वारा प्रदत्त;भुक्‌ू-खाते हुए।

    यदि कभी भोजन न भी मिले, तो सन्त-पुरुष को चाहिए कि बिना प्रयास किये वह अनेकदिनों तक उपवास रखे। उसे यह समझना चाहिए कि ईश्वर की व्यवस्था के कारण उसे उपवासकरना चाहिए। इस तरह अजगर का अनुसरण करते हुए उसे शान्त तथा धीर बने रहना चाहिए।

    ओज:सहोबलयुतं बिभ्रद्देहमकर्मकम्‌ ।शयानो वीतनिद्रश्न नेहेतेन्द्रयवानपि ॥

    ४॥

    ओज:--काम-शक्ति; सह:--मानसिक शक्ति; बल--शारीरिक शक्ति; युतम्‌ू--से युक्त; बिभ्रतू--पालन-पोषण करते हुए;देहम्‌--शरीर को; अकर्मकम्‌--बिना प्रयास के; शयान:--शान्त रहते हुए; बीत--मुक्त; निद्र: --अज्ञान से; च--तथा; न--नहीं; ईहेत-- प्रयास करे; इन्द्रिय-वान्‌ू--पूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा काम-शक्ति से युक्त; अपि--यद्यपि।

    सन्‍्त-पुरुष को शान्त रहना चाहिए और भौतिक दृष्टि से अक्रिय रहना चाहिए। उसे बिनाअधिक प्रयास के अपने शरीर का पालन-पोषण करना चाहिए। पूर्ण काम, मानसिक तथाशारीरिक शक्ति से युक्त होकर भी सन्त-पुरुष को भौतिक लाभ के लिए सक्रिय नहीं होनाचाहिए, अपितु अपने वास्तविक स्वार्थ के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए।

    मुनि: प्रसन्नगम्भीरो दुर्विगाह्मो दुरत्ययः ।अनन्तपारो ह्यक्षोभ्य: स्तिमितोद इवार्णव: ॥

    ५॥

    मुनि:ः--मुनि; प्रसन्न--प्रसन्न; गम्भीर: --अत्यन्त गम्भीर; दुर्विगाह्मः--अगाध; दुरत्यय:--दुर्लध्य; अनन्त-पार: --असीम; हि--निश्चय ही; अक्षोभ्य:--अश्लुब्ध; स्तिमित--शान्त; उदः -- जल; इब--सहश; अर्णवः--समुद्र

    मुनि अपने बाह्य आचरण में सुखी और मधुर होता है, किन्तु भीतर से अत्यन्त गम्भीर तथाविचारवान होता है। चूँकि उसका ज्ञान अगाध तथा असीम होता है, अतः वह कभी क्षुब्ध नहींहोता। इस तरह वह सभी प्रकार से अगाध तथा दुर्लध्य सागर के शान्त जल की तरह होता है।

    समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनिः ।नोत्सपेत न शुष्येत सरिद्धिरिव सागर: ॥

    ६॥

    समृद्ध--सम्पन्न; काम:-- भौतिक ऐश्वर्य; हीन:--रहित, विहीन; वा--अथवा; नारायण-- भगवान्‌; पर: --परम मानते हुए;मुनिः--सन्त भक्त; न--नहीं; उत्सपेत--बढ़ जाता है; न--नहीं; शुष्येत--सूख जाता है; सरिद्द्धिः--नदियों के द्वारा; इब--सहश; सागर:--समुद्र

    वर्षाऋतु में उफनती हुई नदियाँ सागर में जा मिलती हैं और ग्रीष्पऋतु में उधली होने से उनमेंजल की मात्रा बहुत कम हो जाती है। फिर भी समुद्र न तो वर्षाऋतु में उमड़ता है, न ही ग्रीष्मऋतुमें सूखता है। इसी तरह से जिस सन्‍्त-भक्त ने भगवान्‌ को अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकार कियाहै, उसे कभी तो भाग्य से प्रचुर भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है और कभी वह अपने को भौतिकइृष्टि से कंगाल पाता है। फिर भी भगवान्‌ का ऐसा भक्त न तो प्रोन्नति के समय हर्षित होता है, नदरिद्र बनने पर खिन्न होता है।

    इष्टा स्त्रियं देवमायां तद्धावैरजितेन्द्रिय: ।प्रलोभित: पतत्यन्धे तमस्यग्नौ पतड़वत्‌ ॥

    ७॥

    इृष्ठा--देखकर; स्त्रियम्‌--स्त्री को; देव-मायाम्‌-- भगवान्‌ की माया से, जिसका रूप निर्मित हुआ है; तत्‌-भावै:--स्त्री केमोहक कार्यों से; अजित--जिसने वश में नहीं किया; इन्द्रियः--अपनी इन्द्रियाँ; प्रलोभितः--मुग्ध; पतति--नीचे गिरता है;अन्धे--अज्ञान के अंधकार में; तमसि--नरक के अंधकार में; अग्नौ-- अग्नि में ; पतड़-बत्‌--पतिंगे की तरह ।

    जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता, वह परमेश्वर की माया से उत्पन्न स्त्री केस्वरूप को देखकर तुरन्त आकृष्ट हो जाता है। दरअसल जब कोई स्त्री मोहक शब्द बोलती है,नखरे से हँसती है और अपने शरीर को काम-वासना से युक्त होकर मटकाती है, तो मनुष्य कामन तुरन्त मुग्ध हो जाता है और वह भव-अंधकार में उसी तरह जा गिरता है, जिस तरह पतिंगाअग्नि पर मदान्ध होकर उसकी लपटों में तेजी से गिर पड़ता है।

    योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादि-द्रव्येषु मायारचितेषु मूढ: ।प्रलोभितात्मा ह्ुपभोगबुद्धयापतड़वन्नश्यति नष्टदृष्टि: ॥

    ८॥

    योषित्‌--स्त्री के; हिरण्य--सुनहरे; आभरण--गहने; अम्बर--वस्त्र; आदि--इ त्यादि; द्रव्येषु--ऐसी वस्तुओं के देखने पर;माया--भगवान्‌ की माया द्वारा; रचितेषु--निर्मित; मूढ:--विवेकहीन मूर्ख; प्रलोभित--काम-वासना से जाग्रत; आत्मा--ऐसाव्यक्ति; हि--निश्चय ही; उपभोग--इन्द्रियतृप्ति के लिए; बुद्धया--इच्छा से; पतड़-वबत्‌--पतिंगा की तरह; नश्यति--नष्ट होजाता है; नष्ट--नष्ट हो गई है; दृष्टिः--जिसकी बुद्धि |

    विवेकरहित मूर्ख व्यक्ति सुनहले गहनों, सुन्दर वस्त्रों और अन्य प्रसाधनों से युक्त कामुक स्त्रीको देखकर तुरन्त ललचा हो उठता है। ऐसा मूर्ख इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक होने से अपनी सारीबुद्धि खो बैठता है और उसी तरह नष्ट हो जाता है, जिस तरह जलती अग्नि की ओर दौड़ने वालापतिंगा।

    स्तोकं स्तोकं ग्रसेदग्रासं देहो वर्तेत यावता ।गृहानहिंसन्नातिष्ठेद्रत्ति माधुकरीं मुनि: ॥

    ९॥

    स्तोकम्‌ स्तोकम्‌--थोड़ा थोड़ा करके; ग्रसेतू--खाये; ग्रासम्‌ू-- भोजन; देह:--शरीर; वर्तेत--जिससे जीवित रह सके;यावता--उतने से; गृहान्‌--गृहस्थों को; अहिंसन्‌ू--तंग न करते हुए; आतिष्ठेत्‌-- अभ्यास करे; वृत्तिमू--पेशा, व्यवसाय; माधु-करीम्‌ू--मधुमक्खी का; मुनि:--सन्त-पुरुष

    सन्‍्तपुरुष को उतना ही भोजन स्वीकार करना चाहिए, जितने से उसका जीवन-निर्वाह होसके। उसे द्वार-द्वार जाकर प्रत्येक परिवार से थोड़ा-थोड़ा भोजन स्वीकार करना चाहिए। इसतरह उसे मधुमक्खी की वृत्ति का अभ्यास करना चाहिए।

    अणुभ्यश्च महदभ्यश्व शास्त्रेभ्य:ः कुशलो नरः ।सर्वतः सारमादद्यात्पुष्पे भ्य इव घटूपदः ॥

    १०॥

    अणुभ्य:--छोटे से छोटे से लेकर; च--तथा; महद्भ्य: --सबसे बड़े से; च-- भी; शास्त्रेभ्य: --शास्त्रों से; कुशल:--बुद्धिमान;नरः--मनुष्य; सर्वतः--सबों से; सारम्‌ू--निचोड़, सार; आदद्यात्‌-ग्रहण करे; पुष्पेभ्य:--फूलों से; इब--सहश; षट्पद: --मधुमक्खी |

    जिस तरह मधुमक्खी बड़े तथा छोटे सभी प्रकार के फूलों से मधु ग्रहण करती है, उसी तरहबुद्धिमान मनुष्य को समस्त धार्मिक शास्त्रों से सार ग्रहण करना चाहिए।

    सायन्तनं श्रस्तनं वा न सड्ूह्लीत भिक्षितम्‌ ।पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न सड़ग्रही ॥

    ११॥

    सायन्तनम्‌--रात के निमित्त; श्रस्तनम्‌ू--कल के लिए; वा--अथवा; न--नहीं; सड्डह्नीत-- स्वीकार करे; भिक्षितम्‌-भिक्षा;पाणि--हाथ से; पात्र--स्तरी के रूप में; उदर--पेट से; अमत्र:--संग्रह पात्र ( कोठार ) की तरह; मक्षिका--मधुमक्खी; इब--सहश; न--नहीं; सड्ग्रही--संग्रह करने वाला।

    सन्त-पुरुष को यह नही सोचना चाहिए 'मैं इस भोजन को आज रात के लिए रखूँगा औरइस दूसरे भोजन को कल के लिए बचा लूँगा।दूसरे शब्दों में, सन्‍्त-पुरुष को भीख से प्राप्तभोज्य सामग्री का संग्रह नहीं करना चाहिए प्रत्युत उसे अपने हाथ को ही पात्र बनाकर उसमेंजितना आ जाय उसी को खाना चाहिए। उसका एकमात्र कोठार उसका पेट होना चाहिए औरउसके पेट में आसानी से जितना आ जाय वही उसका भोजन-संग्रह होना चाहिए। इस तरह उसेलोभी मधुमक्खी का अनुकरण नहीं करना चाहिए, जो अधिक से अधिक मधु एकत्र करने केलिए उत्सुक रहती है।

    सायन्तनं श्रस्तनं वा न सड्डूह्लीत भिक्षुकः ।मक्षिका इव सड्डहन्सह तेन विनश्यति ॥

    १२॥

    सायन्तनम्‌--रात के लिए; श्रस्तनम्‌--कल के लिए; वा--अथवा; न--नहीं; सड्डह्लीत-- स्वीकार करे; भिक्षुक:--सन्त-साथधु;मक्षिका--मधुमक्खी; इब--सहश; सड्डहन्‌ू--एकत्र करते हुए; सह--साथ; तेन--उससंग्रह के; विनश्यति--नष्ट हो जाता है।

    साधु-संत को उसी दिन या अगले दिन खाने के लिए भी भोजन का संग्रह नहीं करनाचाहिए। यदि वह इस आदेश की अवहेलना करता है और मधुमक्खी की तरह अधिक से अधिकस्वादिष्ट भोजन एकत्र करता है, तो उसने, जो कुछ एकत्र किया है, वह निस्सन्देह उसे नष्ट करदेगा।

    पदापि युवतीं भिक्चुर्न स्पृशेद्दरावीमपि ।स्पृशन्करीव बध्येत करिण्या अड्गसड्भरत: ॥

    १३॥

    पदा--पाँव से; अपि-- भी; युवतीम्‌--युवती को; भिक्षु:--साधु संत; न--नहीं; स्पृशेतू--छूना चाहिए; दारवीम्‌ू--लकड़ी कीबनी; अपि--भी; स्पृशन्‌--स्पर्श करते हुए; करी--हाथी; इब--सहृश; बध्येत--बँधा लेता है; करिण्या:--हथिनी के; अड़-सड़त:--शरीर के स्पर्श से |

    सनन्‍त-पुरुष को चाहिए कि वह किसी युवती का स्पर्श न करे। वस्तुत:, उसे काठ की बनीस्त्री के स्वरूप वाली गुड़िया को भी अपने पाँव से भी स्पर्श नहीं होने देना चाहिए। स्त्री के साथशारीरिक सम्पर्क होने पर वह निश्चित ही उसी तरह माया द्वारा बन्दी बना लिया जायेगा, जिसतरह हथिनी के शरीर का स्पर्श करने की इच्छा के कारण हाथी पकड़ लिया जाता है।

    नाधिगच्छेल्स्त्रियं प्राज्ञ: कर्हिचिन्मृत्युमात्मनः ।बलाधिकै: स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा ॥

    १४॥

    न अधिगच्छेत्‌ू--आनन्द पाने के लिए नहीं जाये; स्त्रियम्‌ू--स्त्री; प्राज्ः--जो बुद्धिमत्तापूर्वक भेदभाव कर सके; कहिचित्‌--किसी समय; मृत्युम्‌ू--साक्षात्‌ मृत्यु; आत्मतः--अपने लिए; बल--बल में; अधिकै:--जो श्रेष्ठ हैं उनके द्वारा; सः--वह;हन्येत--विनष्ट कर दिया जायेगा; गजैः--हाथियों के द्वारा; अन्यैः--अन्यों के लिए; गज:ः--हाथी; यथा--जिस तरह।

    विवेकवान्‌ व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए स्त्री के सुन्दर रूपका लाभ उठाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जिस तरह हथिनी से संभोग करने का प्रयासकरने वाला हाथी उसके साथ संभोग कर रहे अन्य हाथियों के द्वारा मार डाला जाता है, उसीतरह, जो व्यक्ति किसी नारी के साथ संभोग करना चाहता है, वह किसी भी क्षण उसके अन्यप्रेमियों द्वारा मार डाला जा सकता है, जो उससे अधिक बलिष्ठ होते हैं।

    न देय॑ नोपभोग्यं च लुब्धर्यहु:खसज्चितम्‌ ।भुड्े तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु ॥

    १५॥

    न--नहीं; देयम्‌--अन्यों को दान में दिये जाने के लिए; न--नहीं; उपभोग्यम्‌--स्वयं भोगे जाने के लिए; च--भी; लुब्धैः--लोभीजनों के द्वारा; यत्‌-- जो; दुःख--अत्यन्त संघर्ष तथा कष्ट से; सब्लितम्‌--एकत्र किया जाता है; भुड्ढे --भोग करता है;तत्‌--वह; अपि--तिस पर भी; तत्‌ू--वह; च-- भी; अन्य: --अन्य कोई; मधु-हा--छत्ते से शहद चुराने वाला; इब--सहश;अर्थ--धन; वित्‌--जो यह जानता है कि किस तरह पहचाना जाय; मधु--शहद

    लोभी व्यक्ति बहुत संघर्ष तथा कष्ट से प्रचुर मात्रा में धन एकत्र करता है, किन्तु इस धन कोएकत्र करने वाले व्यक्ति को इसका भोग करने या अन्यों को दान हमेशा करने नहीं दिया जाता।लोभी व्यक्ति उस मधुमक्खी के समान है, जो प्रचुर मात्रा में शहद उत्पन्न करने के लिए संघर्षकरती है, किन्तु इसे उस व्यक्ति द्वारा चुरा लिया जाता है, जो या तो स्वयं उसका भोग करता हैया अन्‍्यों को बेच देता है। कोई चाहे कितनी सावधानी के साथ अपनी कठिन कमाई को क्‍यों नछिपाये या उसकी रक्षा करने का प्रयास करे, किन्तु मूल्यवान वस्तुओं का पता लगाने वाले पटुलोग उसे चुरा ही लेंगे।

    सुदुःखोपार्जितैर्वित्तैराशासानां गृहाशिष: ।मधुहेवाग्रतो भुड्ढे यतिर गृहमेधिनाम्‌ ॥

    १६॥

    सु-दुःख--अत्यधिक संघर्ष से; उपार्जितैः--अर्जित किया गया; वित्तै:--भौतिक एऐ श्वर्य से; आशासानाम्‌--अत्यधिक इच्छारखने वालों के; गृह--घरेलू भोग से सम्बद्ध; आशिष:--आशीर्वाद, वर; मधु-हा--शहद-चोर; इब--सहृश; अग्रत:--प्रथम,औरों से पहले; भुड़े -- भोग करता है; यति:--भिक्षु, साधु-संत; वै--निश्चय ही; गृह-मेधिनाम्‌--गृहस्थ-जीवन के प्रति समर्पितलोगों के |

    जिस प्रकार शहद-चोर मधुमक्खियों द्वारा बड़े ही परिश्रमपूर्वक एकत्र की गई शहद कोनिकाल लेता है, उसी तरह ब्रह्मचारी तथा संन्‍्यासी जैसे साधु-संत पारिवारिक भोग में समर्पितगृहस्थों द्वारा बहुत ही कष्ट सहकर संचित किये गये धन का भोग करने के अधिकारी हैं।

    ग्राम्यगीतं न श्रृणुयाद्यतिर्बनचर: क्वचित्‌ ।शिक्षेत हरिणाद्वद्धान्मृगयोर्गीतमोहितातू ॥

    १७॥

    ग्राम्य--इन्द्रियतृप्ति से सम्बद्ध; गीतम्‌--गीत; न--नहीं; श्रुणुयात्‌--सुने; यतिः--साधु-संत; बन--जंगल में; चर:--विचरणकरते; क्वचित्‌--कभी; शिक्षेत--सीखे ; हरिणात्‌--हिरन से; बद्धात्‌--बाँधे गये; मृगयो: --शिकारी के; गीत--गीत द्वारा;मोहितात्‌ू--मोहित किये गये।

    वनवासी सन्‍्यासी को चाहिए कि भौतिक भोग को उत्तेजित करने वाले गीत या संगीत कोकभी भी न सुने। प्रत्युत सन्‍त पुरुष को चाहिए कि ध्यान से उस हिरन के उदाहरण का अध्ययनकरे, जो शिकारी के वाद्य के मधुर संगीत से विमोहित होने पर पकड़ लिया जाता है और मारडाला जाता है।

    नृत्यवादित्रगीतानि जुषन्ग्राम्याणि योषिताम्‌ ।आसां क्रीडनको वश्य ऋष्यश्रुज्ञो मृगीसुतः ॥

    १८ ॥

    नृत्य--नाच; वादित्र--वादन; गीतानि--गीतों को; जुषन्‌--अनुशीलन करते हुए; ग्राम्याणि--इन्द्रियतृप्ति विषयक;योषिताम्‌--स्त्रियों की; आसामू--उनके; क्रीडनक:--क्रीड़ा की वस्तु; वश्य: --पूरी तरह वशी भूत; ऋष्य- श्रृड़: --ऋष्यश्रृंगमुनि; मृगी-सुत:--मृगी का पुत्र

    सुन्दर स्त्रियों के सांसारिक गायन, नृत्य तथा संगीत-मनोरंजन से आकृष्ट होकर मृगी-पुत्रऋष्यश्रृंग मुनि तक उनके वश में आ गये, मानों कोई पालतू पशु हों।

    जिह्नयातिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहितः ।मृत्युमृच्छत्यसद्दुद्धिर्मी नस्तु बडिशैर्यथा ॥

    १९॥

    जिह॒या--जीभ से; अति-प्रमाथिन्या--जो अत्यधिक मथने वाली है; जनः--पुरुष; रस-विमोहितः--स्वाद के प्रति आकर्षण सेमोहित हुआ; मृत्युम्‌--मृत्यु; ऋच्छति--प्राप्त करता है; असत्‌--व्यर्थ; बुद्धिः--जिसकी बुद्धि; मीन:--मछली; तु--निस्सन्देह;बडिशै:--काँटे द्वारा; यथा--जिस तरह ।

    जिस तरह जीभ का भोग करने की इच्छा से प्रेरित मछली मछुआरे के काँटे में फँस करमारी जाती है, उसी तरह मूर्ख व्यक्ति जीभ की अत्यधिक उद्दवेलित करने वाली उमंगों से मोहग्रस्तहोकर विनष्ट हो जाता है।

    इन्द्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिण: ।वर्जयित्वा तु रसन॑ तन्निरन्नस्य वर्धते ॥

    २०॥

    इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; जबन्ति--जीत लेती हैं; आशु--शीकघ्रतापूर्वक; निराहारा:--जो लोग इन्द्रियों को उनके विषयों से रोकतेहैं; मनीषिण: --विद्वान; वर्जयित्वा--के अतिरिक्त; तु--लेकिन; रसनम्‌ू--जीभ; तत्‌--उसकी इच्छा; निरन्नस्य--उपवास करनेवाले की; वर्धते--बढ़ाती है।

    उपवास द्वारा विद्वान पुरुष जीभ के अतिरिक्त अन्य सारी इन्द्रियों को जल्दी से अपने वश मेंकर लेते हैं, क्योंकि ऐसे लोग अपने को खाने से दूर रखकर स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने की प्रबलइच्छा से पीड़ित हो उठते हैं।

    तावजितेन्द्रियो न स्याद्विजितान्येन्द्रिय: पुमान्‌ ।न जयेद्गसनं यावज्िितं सर्व जिते रसे ॥

    २१॥

    तावत्‌--तब तक; जित-इन्द्रियः:--जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय पा ली है; न--नहीं; स्थातू--हो सकता है; विजित-अन्य-इन्द्रियः--जिसने अन्य इन्द्रियों पर विजय पा ली है; पुमान्‌ू--मनुष्य; न जयेत्‌--नहीं जीत सकता; रसनम्‌--जीभ को; यावत्‌--जब तक; जितमू्‌--जीता हुआ; सर्वम्‌--हर वस्तु; जिते--जीत लेने पर; रसे--जीभ को |

    भले ही कोई मनुष्य अन्य सारी इन्द्रियों को क्‍यों न जीत ले, किन्तु जब तक जीभ को नहींजीत लिया जाता, तब तक वह इन्द्रियजित नहीं कहलाता। किन्तु यदि कोई मनुष्य जीभ को वशमें करने में सक्षम होता है, तो उसे सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करने वाला माना जाता है।

    पिड्ला नाम वेश्यासीद्विदेहनगरे पुरा ।तस्या मे शिक्षितं किश्ञिन्निबोध नृपनन्दन ॥

    २२॥

    पिड्ूला नाम--पिंगला नाम की; वेश्या--वेश्या; आसीतू-- थी; विदेह-नगरे--विदेह नामक नगर में ; पुरा--प्राचीन काल में;तस्या:--उससे; मे--मेरे द्वारा; शिक्षितं--जो कुछ सीखा गया; किझ्जित्‌ू--जो कुछ; निबोध---अब सीखो; नृप-नन्दन--हे राजाके पुत्र |

    हे राजपुत्र, पूर्वकाल में विदेह नामक शहर में पिंगला नामकी एक वेश्या रहती थी। अबकृपा करके, वह सुनिये, जो मैंने उस स्त्री से सीखा है।

    सा स्वैरिण्येकदा कान्तं सल्ढेत उपनेष्यती ।अभूत्काले बहिद्वरि बिभ्रती रूपमुत्तमम्‌ ॥

    २३॥

    सा--वह; स्वैरिणी --वेश्या; एकदा--एक बार; कान्तम्‌--ग्राहक, प्रेमी; सड्जेते--रमण स्थान में; उपनेष्यती--लाने के लिए;अभूत्‌--खड़ी रही; काले--रात में; बहि:--बाहर; द्वारे--दरवाजे पर; बिभ्रती--पकड़े हुए; रूपम्‌ू--अपना रूप; उत्तमम्‌--अत्यन्त सुन्दर।

    एक बार वह वेश्या अपने घर में किसी प्रेमी को लाने की इच्छा से रात के समय अपनासुन्दर रूप दिखलाते हुए दरवाजे के बाहर खड़ी रही।

    मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान्पुरुषर्षभ ।तान्शुल्कदान्वित्तवतः कान्तान्मेनेर्थकामुकी ॥

    २४॥

    मार्गे--उस गली में; आगच्छत:--आने वाले; वीक्ष्य--देखकर; पुरुषान्‌ू-- पुरुषों को; पुरुष-ऋषभ-हे श्रेष्ठ पुरुष; तानू--उनको; शुल्क-दानू--जो मूल्य चुका सके; वित्त-वत:-- धनवान; कान्तान्‌--प्रेमियों या ग्राहकों को; मेने--विचार किया;अर्थ-कामुकी-- धन चाहने वाले |

    हे पुरुष- श्रेष्ठ, यह वेश्या धन पाने के लिए अत्यधिक आतुर थी और जब वह रात में गली मेंखड़ी थी, तो वह उधर से गुजरने वाले सारे व्यक्तियों का अध्ययन यह सोचकर करती रही कि,'ओह, इसके पास अवश्य ही धन होगा। मैं जानती हूँ यह मूल्य चुका सकता है और मुझेविश्वास है कि वह मेरे साथ अत्यधिक भोग कर सकेगा।वह वेश्या गली पर के सभी पुरुषों केबारे में ऐसा ही सोचती रही।

    आगतेष्वपयातेषु सा सद्लेतोपजीविनी ।अप्यन्यो वित्तवान्कोपि मामुपैष्यति भूरिद: ॥

    २५॥

    एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलम्बती ।निर्गच्छन्ती प्रविशती निशीथं समपद्यत ॥

    २६॥

    आगतेषु--जब वे आये; अपयातेषु--तथा वे चले गये; सा--उसने; सद्लेत-उपजीविनी--वेश्यावृत्ति ही जिसकी आमदनी थी;अपि--हो सकता है; अन्य:--दूसरा; वित्त-वानू-- धनवान; कः अपि--कोई भी; माम्‌--मेंरे पास; उपैष्यति--प्रेम के लिएआयेगा; भूरि-दः--तथा वह प्रचुर धन देगा; एबम्‌--इस प्रकार; दुराशया--व्यर्थ की आशा से; ध्वस्त--नष्ट; निद्रा--उसकीनींद; द्वारि--दरवाजे पर; अवलम्बती--टेक लगाये; निर्गच्छन्‍्ती--गली की ओर जाती हुई; प्रविशती--अपने घर वापस आती;निशीथम्‌--अर्धरात्रि; समपद्यत--हो गई

    जब वेश्या पिंगला द्वार पर खड़ी हो गई, कई पुरुष आये और उसके घर के सामने से टहलतेहुए चले गये। उसकी जीविका का एकमात्र साधन वेश्यावृत्ति था, अतएवं उसने उत्सुकतापूर्वकसोचा 'हो सकता है कि अब जो आ रहा है, वह बहुत धनी होहाय! वह तो रूक ही नहीं रहा,किन्तु मुझे विश्वास है कि अन्य कोई अवश्य आयेगा। अवश्य ही यह जो आ रहा है मेरे प्रेम कामूल्य चुकायेगा और शायद प्रचुर धन दे।' इस प्रकार व्यर्थ की आशा लिए वह द्वार पर टेकलगाये खड़ी रही और अपना धंधा पूरा न कर सकी और सोने भी न जा सकी। उद्विग्नता से वहकभी गली में जाती और कभी अपने घर के भीतर लौट आती। इस तरह धीरे धीरे अर्धरात्रि होआई।

    तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतस: ।निर्वेद: परमो जज्ञे चिन्ताहेतु: सुखावह: ॥

    २७॥

    तस्या:--उसकी; वित्त--धन के लिए; आशया--इच्छा से; शुष्यत्‌ू--सूख गया; वकक्‍्त्राया: --मुख; दीन--खिन्न; चेतस:--मन;निर्वेद:--विरक्ति; परम:--अत्यधिक; जज्ञे--जागृत हो उठी; चिन्ता--चिन्ता; हेतु:--के कारण; सुख--सुख; आवहः--लातेहुए

    ज्यों ज्यों रात बीतती गई, वह वेश्या, जो कि धन की अत्यधिक इच्छुक थी, धीरे-धीरे हताशहो उठी और उसका मुख सूख गया। इस तरह धन की चिन्ता से युक्त तथा अत्यन्त निराश होकरवह अपनी स्थिति से अत्यधिक विरक्ति अनुभव करने लगी और उसके मन में सुख का उदयहुआ।

    तस्या निर्विण्णचित्ताया गीत॑ श्रुणु यथा मम ।निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा हासि: ॥

    २८ ॥

    तस्या:--उसका; निर्विण्ण-- क्षुब्ध; चित्ताया:--मन; गीतम्‌--गीत; श्रूणु--सुनो; यथा--मानो; मम--मुझसे; निर्वेद: --विरक्ति; आशा--आशाओं एवं इच्छाओं के; पाशानाम्‌--बन्धनों के; पुरुषस्थ--पुरुष को; यथा--जिस तरह; हि--निश्चय ही;असि:ः--तलवार।

    वह वेश्या अपनी भौतिक स्थिति से ऊब उठी और इस तरह वह अन्यमनस्क हो गई।दरअसल, विरक्ति तलवार का काम करती है। यह भौतिक आशाओं तथा इच्छाओं के बन्धन कोखण्ड-खण्ड कर देती है। अब मुझसे वह गीत सुनो, जो उस स्थिति में वेश्या ने गाया।

    न ह्ाड्जजातनिर्वेदो देहबन्धं जिहासति ।यथा विज्ञानरहितो मनुजो ममतां नृूप ॥

    २९॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अड्र--हे राजा; अजात--जिसने उत्पन्न नहीं किया; निर्वेद:--विरक्ति; देह-- भौतिक शरीर का;बन्धम्‌--बन्धन; जिहासति--त्यागने का इच्छुक होता है; यथा--जिस तरह; विज्ञान--अनुभूत ज्ञान; रहित:--विहीन; मनुज: --मनुष्य; ममताम्‌--स्वामित्व का मिथ्या भाव; नृप--हे राजा।

    हे राजन, जिस तरह आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन व्यक्ति कभी भी अनेक भौतिक वस्तुओं परअपने मिथ्या स्वामित्व को त्यागना नहीं चाहता, उसी तरह जिस व्यक्ति में विरक्ति उत्पन्न नहीं हुईवह कभी भी भौतिक शरीर के बन्धन को त्यागने के लिए तैयार नहीं होता।

    पिड्लोवाचअहो मे मोहविततिं पश्यताविजितात्मन: ।या कान्तादसतः काम॑ कामये येन बालिशा ॥

    ३०॥

    पिड्रला--पिंगला ने; उबाच--कहा; अहो --ओह; मे--मेरा; मोह--मोह का; विततिम्‌--विस्तार; पश्यत--देखो तो;अविजित-आत्मन:--जिसका मन वश में नहीं है, उसका; या--जो ( मैं ); कान्तातू--अपने प्रेमी से; असतः--व्यर्थ, तुच्छ;'कामम्‌--विषय-सुख; कामये--चाहती हूँ; येन-- क्योंकि; बालिशा--मूर्ख हूँ

    पिंगला वेश्या ने कहा : जरा देखो न, मैं कितनी मोहग्रस्त हूँ। चूँकि मैं अपने मन को वश मेंनहीं रख सकती, इसलिए मैं मूर्ख की तरह किसी तुच्छ व्यक्ति से विषय-सुख की कामना करती>>हूँ।

    सन्‍्तं समीपे रमणं रतिप्रदंवित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय ।अकामदं दुःखभयाधिशोक-मोहप्रदं तुच्छमहं भजेउज्ञा ॥

    ३१॥

    सन्तम्‌--होते हुए; समीपे--अत्यन्त निकट ( मेरे हृदय में ); रमणम्‌--अत्यन्त प्रिय; रति--वास्तविक प्रेम या आनन्द; प्रदम्‌--देने वाला; वित्त-- धन; प्रदम्‌ू--देने वाला; नित्यम्‌--नित्य; इमम्‌--उसको; विहाय--त्याग कर; अकाम-दम्‌--जो किसी कीइच्छाओं को कभी नहीं पूरा कर सकता; दुःख--कष्ट; भय--डर; आधि--मानसिक क्लेश; शोक--शोक; मोह--मोह;प्रदम्‌ू--देने वाला; तुच्छम्‌-- अत्यन्त तुच्छ; अहम्‌--मैं; भजे--सेवा करती हूँ; अज्ञा--अज्ञानी मूर्ख |

    मैं ऐसी मूर्ख निकली कि मेरे हृदय में जो शाश्वत स्थित है और मुझे अत्यन्त प्रिय है उस पुरुषकी मैंने सेवा छोड़ दी। वह अत्यन्त प्रिय ब्रह्माण्ड का स्वामी है, जो कि असली प्रेम तथा सुखका दाता है और समस्त समृद्धि का स्त्रोत है। यद्यपि वह मेरे ही हृदय में है, किन्तु मैंने उसकीपूर्णरूपेण अनदेखी की है। बजाय इसके मैंने अनजाने ही तुच्छ आदमियों की सेवा की है, जोमेरी असली इच्छाओं को कभी भी पूरा नहीं कर सकते और जिन्होंने मुझे दुख, भय, चिन्ता,शोक तथा मोह ही दिया है।

    अहो मयात्मा परितापितो वृथास्लित्यवृत्त्यातिविगर्हावार्तया ।स्त्रैणान्नराद्यार्थतृषो नुशोच्यात्‌क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती ॥

    ३२॥

    अहो--ओह; मया--मेरे द्वारा; आत्मा--आत्मा; परितापित:--कष्ट दिया गया; वृथा--व्यर्थ ही; साद्लेत्य--वेश्या की; वृत्त्या--वृत्ति या पेशे द्वारा; अति-विगर्ई--अत्यन्त निन्दनीय; वार्तया--वृत्ति द्वारा; स्त्रैणात्‌--कामुक व्यक्तियों द्वारा; नरात्‌ू--मनुष्यों से;या--जो ( मैं ); अर्थ-तृष:--लोभी; अनुशोच्यात्‌--दयनीय; क्रीतेन--बिके हुए; वित्तम्‌-- धन; रतिम्‌ू--मैथुन सुख;आत्मना--अपने शरीर से; इच्छती--चाहती हुई |

    ओह! मैंने अपनी आत्मा को व्यर्थ ही पीड़ा पहुँचाई। मैंने ऐसे कामुक, लोभी पुरुषों के हाथअपने शरीर को बेचा जो स्वयं दया के पात्र हैं। इस प्रकार मैंने वेश्या के अत्यन्त गहित पेशे कोअपनाते हुए धन तथा मैथुन का आनन्द पाने की आशा की थी।

    यदस्थिभिर्निर्मितवंशवंस्य-स्थूणं त्वचा रोमनखै: पिनद्धम्‌ ।क्षरत्नवद्वारमगारमेतद्‌विष्मूत्रपूर्ण मदुपैति कान्या ॥

    ३३॥

    यत्‌--जो; अस्थिभि:--हड्डियों से; निर्मित--बना हुआ; वंश--रीढ़; वंश्य--पसलियाँ; स्थूणम्‌--हाथ-पैर की हड्डियाँ;त्वचा--चमड़ी से; रोम-नखै:--बाल तथा नाखूनों से; पिनद्धम्‌ू--ढका; क्षरत्‌--टपकता हुआ; नव--नौ; द्वारम्‌्-द्वारों;अगारम्‌--घर; एतत्‌--यह; विट्‌ू--मल; मूत्र--मूत्र, पेशाब से; पूर्णम्‌-- भरा हुआ; मत्‌--मेरे अतिरिक्त; उपैति--अपने कोलगाती है; का--कौन; अन्या--अन्य स्त्री |

    यह भौतिक शरीर एक घर के सहृश है, जिसमें आत्मा रूप में मैं रह रही हूँ। मेरी रीढ़,पसलियों, हाथ तथा पाँव को बनाने वाली हड्डियाँ इस घर की आड़ी तथा पड़ी शहतीरें, थूनियाँतथा ख भें हैं और पूरा ढाँचा मल-मूत्र से भरा हुआ है तथा चमड़ी, बाल तथा नाखूनों सेआच्छादति है। इस शरीर के भीतर जाने वाले नौ द्वार निरन्तर गन्दी वस्तुएँ निकालते रहते हैं।भला मेरे अतिरिक्त कौन स्त्री इतनी मूर्ख होगी कि वह इस भौतिक शरीर के प्रति यह सोचकरअनुरक्त होगी कि उसे इस युक्ति से आनन्द तथा प्रेम मिल सकेगा ? विदेहानां पुरे हास्मिन्नहमेकैव मूढधी: ।यान्यमिच्छन्त्यसत्यस्मादात्मदात्काममच्युतात्‌ ॥

    ३४॥

    विदेहानाम्‌--विदेह के निवासियों के; पुरे--नगर में; हि--निश्चय ही; अस्मिनू--इस; अहम्‌--मैं; एका-- अकेली; एव--निस्सन्देह; मूढ-- मूर्ख; धीः--बुद्धि वाली; या--जो ( मैं ही ); अन्यम्‌ू--दूसरी; इच्छन्ती --चाहती हुई; असती--नितान्तव्यभिचारिणी होकर; अस्मात्‌--उन; आत्म-दात्‌ू--हमें असली आध्यात्मिक रूप प्रदान करने वाला; कामम्‌--इन्द्रियतृप्ति;अच्युतातू-- भगवान्

    ‌ अच्युत के अतिरिक्तनिश्चित रूप से इस विदेह नगरी में मैं ही अकेली निपट मूर्ख हूँ। मैंने उन भगवान्‌ की उपेक्षाकी है, जो हमें सब कुछ देते हैं, यहाँ तक कि हमारा मूल आध्यात्मिक स्वरूप भी देते हैं। मैंनेउन्हें छोड़ कर अनेक पुरुषों से इन्द्रियतृप्ति का भोग करना चाहा है।

    सुहत्प्रेष्ठमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम्‌ ।तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेडनेन यथा रमा ॥

    ३५॥

    सु-हत्‌--शुभेच्छु मित्र; प्रेष्ट-तम:--नितान्त प्रिय; नाथ:--प्रभु; आत्मा--आत्मा; च-- भी; अयम्‌--वह; शरीरिणाम्‌-- समस्तशरीरधारियों के; तमू--उसको; विक्रीय--मोल लेकर; आत्मना--अपने आपको शरणागत करके; एव--निश्चय ही; अहम्‌--मैं; रमे--रमण करूँगी; अनेन-- भगवान्‌ के साथ; यथा--जिस तरह; रमा--लक्ष्मीदेवी |

    भगवान्‌ समस्त जीवों के लिए नितान्त प्रिय हैं, क्योंकि वे हर एक के शुभेच्छु तथा स्वामीहैं। वे हर एक के हृदय में स्थित परमात्मा हैं। अतएव मैं पूर्ण शरणागति का मूल्य चुकाकर तथाभगवान्‌ को मोल लेकर उनके साथ उसी तरह रमण करूँगी, जिस तरह लक्ष्मीदेवी करती हैं।

    कियत्प्रियं ते व्यभजन्कामा ये कामदा नरा: ।आइद्यन्तवन्तो भार्याया देवा वा कालविद्गुता: ॥

    ३६॥

    कियत्‌--कितना; प्रियम्‌ू--वास्तविक सुख; ते--वे; व्यभजन्‌-- प्रदान किया है; कामाः--इन्द्रियतृप्ति; ये--तथा जो; काम-दाः--इन्द्रियतृष्ति प्रदान करने वाले; नरा:--पुरुष; आदि-- प्रारम्भ; अन्त--तथा अन्त; वन्तः--से युक्त; भार्याया: --पत्नी के;देवा:--देवतागण; वा--अथवा; काल--काल द्वारा; विद्ुता:--विलग किये गये, अतएव क्षुब्ध |

    पुरुष स्त्रियों को इन्द्रियतृप्ति प्रदान करते हैं, किन्तु इन सारे पुरुषों का तथा स्वर्ग में देवताओंका भी आदि और अन्त है। वे सभी क्षणिक सृष्टियाँ हैं, जिन्हें काल घसीट ले जायेगा। अतएवइनमें से कोई भी अपनी पत्नियों को कितना वास्तविक आनन्द या सुख प्रदान कर सकता है? नूनं मे भगवान्प्रीतो विष्णु: केनापि कर्मणा ।निर्वेदोयं दुराशाया यन्मे जात: सुखावह: ॥

    ३७॥

    नूनम्‌--निस्सन्देह; मे--मुझसे; भगवान्‌-- भगवान्‌; प्रीत:--प्रसन्न है; विष्णु: -- भगवान्‌; केन अपि--किसी; कर्मणा--कर्म केद्वारा; निर्वेद: --इन्द्रियतृप्ति से विरक्ति; अयम्‌--यह; दुराशाया:-- भौतिक भोगकी बुरी तरह से आशा करने वाले में; यत्‌--क्योंकि; मे--मुझमें; जात:--उत्पन्न हुआ है; सुख--सुख; आवहः--लाते हुए

    यद्यपि मैंने भौतिक जगत को भोगने की दुराशा की थी, किन्तु न जाने क्‍यों मेरे हृदय मेंविरक्ति उत्पन्न हो चुकी है और यह मुझे अत्यन्त सुखी बना रही है। इसलिए भगवान्‌ विष्णुअवश्य ही मुझ पर प्रसन्न होंगे। मैंने इसे जाने बिना ही उनको तुष्ट करने वाला कोई कर्म अवश्यकिया होगा।

    मैवं स्पुर्मन्दभाग्याया: क्लेशा निर्वेदहितव: ।येनानुबन्ध॑ नित्य पुरुष: शममृच्छति ॥

    ३८ ॥

    मा--नहीं; एवम्‌--इस प्रकार; स्युः--हों; मन्द-भाग्याया:--अभागिनियों के; क्लेशा:--कष्ट; निर्वेद--विरक्ति के; हेतवः--कारण; येन--जिस विरक्ति से; अनुबन्धम्‌--बन्धन; निईत्य--हटाकर; पुरुष: --पुरुष; शमम्‌--असली शान्ति; ऋच्छति--प्राप्त करता है।

    जिस व्यक्ति में विरक्ति उत्पन्न हो चुकी है, वह भौतिक समाज, मैत्री तथा प्रेम के बन्धन त्यागसकता है और जो पुरुष महान्‌ कष्ट भोगता है, वह निराशा के कारण धीरे-धीरे विरक्त हो जाताहै तथा भौतिक जगत के प्रति अन्यमनस्क हो उठता है। मेरे महान्‌ कष्ट के कारण ही मेरे हृदय में ऐसी विरक्ति जागी है; अन्यथा यदि मैं सचमुच अभागिन होती, तो मुझे ऐसी दयाद्र पीड़ा क्योंझेलनी पड़ती ? इसलिए मैं सचमुच भाग्यशालिनी हूँ और मुझे भगवान्‌ की दया प्राप्त हुई है। वेअवश्य ही मुझ पर प्रसन्न हैं।

    तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसड्रता: ।त्यक्त्वा दुराशा: शरणं ब्रजामि तमधी श्वरम्‌ ॥

    ३९॥

    तेन--उनके ( भगवान्‌ के ) द्वारा; उपकृतम्‌--अधिक सहायता की; आदाय--स्वीकार करके; शिरसा--मेरे सिर पर, भक्ति से;ग्राम्य--सामान्य इन्द्रियतृप्ति; सड्भता:--सम्बन्धित; त्यक्त्वा--त्याग कर; दुराशा:--पापपूर्ण इच्छाएँ; शरणम्‌--शरण में;ब्रजामि--अब आ रही हूँ; तम्‌--उसको; अधीश्वरम्‌--भगवान्

    ‌भगवान्‌ ने मुझ पर जो महान्‌ उपकार किया है, उसे मैं भक्तिपूर्वक स्वीकार करती हूँ। मैंनेसामान्य इन्द्रियतृप्ति के लिए पापपूर्ण इच्छाएँ त्यागकर अब भगवान्‌ की शरण ग्रहण कर ली है।

    सन्तुष्टा श्रदधत्येतद्याथालाभेन जीवती ।विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥

    ४०॥

    सन्तुष्टा-पूर्णतया तुष्ट; श्रद्धधती --पूर्ण श्रद्धा से युक्त; एतत्‌-- भगवान्‌ की कृपा में; यथा-लाभेन--जो कुछ अपने आप मिलजाय उसी से; जीवती--जीवित; विहरामि--विहार करूँगी; अमुना--उसी एक से; एब--एकमात्र; अहम्‌--मैं; आत्मना--भगवान्‌ से; रमणेन--प्रेम तथा सुख के असली स्त्रोत हैं, जो; बै--इसमें कोई सन्देह नहीं।

    अब मैं पूर्ण तुष्ट हूँ और मुझे भगवान्‌ की दया पर पूर्ण श्रद्धा है। अतएव जो कुछ मुझे स्वतःमिल जायेगा, उसी से मैं अपना भरण-पोषण ( निर्वाह ) करूँगी। मैं एकमात्र भगवान्‌ के साथविहार करूँगी, क्योंकि वे प्रेम तथा सुख के असली स्त्रोत हैं।

    संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम्‌ ।ग्रस्तं कालाहिनात्मानं को३न्यस्त्रातुमधी श्वर: ॥

    ४१॥

    संसार--भौतिक जगत; कूपे--अन्धे कुएँ में; पतितम्‌--गिरा हुआ; विषयै: --इन्द्रियतृप्ति द्वारा; मुषित--चुराई गई; ईक्षणम्‌--दृष्टि; ग्रस्तमू--पकड़ा हुआ; काल--काल के; अहिना--सर्प द्वारा; आत्मानम्‌--जीवको; क:ः--कौन; अन्य: --दूसरा;त्रातुम्‌--उद्धार करने में समर्थ है; अधी श्वरः-- भगवान्‌ |

    इन्द्रियतृप्ति के कार्यो द्वारा जीव की बुद्धि हर ली जाती है और तब वह भौतिक जगत केअंधे कुएँ में गिर जाता है। फिर इस कुएँ में उसे कालरूपी भयानक सर्प पकड़ लेता है। बेचारेजीव को ऐसी निराश अवस्था से भला भगवान्‌ के अतिरिक्त और कौन बचा सकता है? आत्मैव ह्ात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात्‌ ।अप्रमत्त इदं पश्येदग्रस्तं कालाहिना जगत्‌ ॥

    ४२॥

    आत्मा--आत्मा; एव--एकमात्र; हि--निश्चय ही; आत्मनः --अपना; गोप्ता--रक्षक; निर्विद्येत--विरक्त हो जाता है; यदा--जब; अखिलातू-- सारी भौतिक वस्तुओं से; अप्रमत्त:-- भौतिक ज्वर से रहित; इृदम्‌--यह; पश्येत्‌ू--देख सकता है; ग्रस्तम्‌--पकड़ा हुआ; काल--काल के; अहिना--सर्प द्वारा; जगत्‌ू--ब्रह्माण्ड |

    जब जीव देखता है कि समस्त ब्रह्माण्ड कालरूपी सर्प द्वारा पकड़ा जा चुका है, तो वहगम्भीर तथा विवेकवान्‌ बन जाता है और तब वह अपने को समस्त भौतिक इन्द्रियतृप्ति सेविरक्त कर लेता है। उस अवस्था में जीव अपना ही रक्षक बनने का पात्र हो जाता है।

    श्रीज्राह्मण उवाचएवं व्यवसितमतिर्दुराशां कान्ततर्षजाम्‌ ।छित्त्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा ॥

    ४३॥

    श्री-ब्राह्मण: उवाच--अवधूत ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; व्यवसित--कृतसंकल्प; मतिः--उसका मन; दुराशामू--पापीइच्छा; कान्त-प्रेमी; तर्ष--लालायित रहना; जामू-८दवारा उत्पन्न; छित्त्ता--काट कर; उपशमम्‌--शान्ति में; आस्थाय--स्थितहोकर; शब्याम्‌--अपनी सेज पर; उपविवेश--बैठ गई; सा--वह।

    अवधूत ने कहा : इस तरह अपने मन में संकल्प करके, पिंगला ने अपने प्रेमियों से संभोगकरने की पापपूर्ण इच्छाओं को त्याग दिया और वह परम शान्ति को प्राप्त हुई। तत्पश्चात्‌, वहअपनी सेज पर बैठ गई।

    आशा हि परम॑ दुःखं नैराएयं परमं सुखम्‌ ।यथा सज्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिडुला ॥

    ४४॥

    आशा--भौतिक इच्छा; हि--निश्चय ही; परमम्‌--सबसे बड़ा; दुःखम्‌--दुख; नैराश्यमू-- भौतिक इच्छाओं से मुक्ति; परमम्‌--सबसे बड़ा; सुखम्‌--सुख; यथा--जिस तरह; सज्छिद्य--पूरी तरह काट कर; कान्त--प्रेमियों के लिए; आशाम्‌--इच्छा;सुखम्‌--सुखपूर्वक; सुष्वाप--सो गई; पिड्जला-थे फोर्मेर्‌

    प्रोस्तितुते, पिड्लानिस्सन्देह भौतिक इच्छा ही सर्वाधिक दुख का कारण है और ऐसी इच्छा से मुक्ति सर्वाधिकसुख का कारण है। अतएवं तथाकथित प्रेमियों से विहार करने की अपनी इच्छा को पूरी तरहछिन्न करके पिंगला सुखपूर्वक सो गई।

    TO

    9. प्रत्येक सामग्री से अलगाव

    श्रीत्राह्मण उबाचपरिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम्‌ ।अनन्त सुखमाप्नोति तद्ठिद्वान्यस्वकिज्लन: ॥

    १॥

    श्री-ब्राह्मण: उबाच--साधु-ब्राह्मण ने कहा; परिग्रह:--लगाव; हि--निश्चय ही; दुःखाय--दुख देने वाली; यत्‌ यत्‌--जो जो;प्रिय-तमम्‌--सर्वाधिक प्रिय है; नृणाम्‌--मनुष्यों के; अनन्तम्‌--असीम; सुखम्‌--सुख; आप्नोति--प्राप्त करता है; तत्‌--वह;विद्वानू--जानते हुए; यः--जो कोई; तु--निस्सन्देह; अकिज्नः--ऐसे लगाव से मुक्त है,

    जोसाधु-बराह्मण ने कहा : भौतिक जगत में हर व्यक्ति कुछ वस्तुओं को अत्यन्त प्रिय मानता हैऔर ऐसी वस्तुओं के प्रति लगाव के कारण अन्ततः वह दीन-हीन बन जाता है। जो व्यक्ति इसेसमझता है, वह भौतिक सम्पत्ति के स्वामित्व तथा लगाव को त्याग देता है और इस तरह असीमआनन्द प्राप्त करता है।

    सामिषं कुररं जध्नुर्बलिनोन्ये निरामिषा: ।तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत ॥

    २॥

    स-आमिषम्‌--मांस लिये हुए; कुररम्‌--बड़ा बाज; जघ्नु:-- आक्रमण किया; बलिन:--अत्यन्त बलवान; अन्ये-- अन्य;निरामिषा:--मांस से रहित; तदा--उस समय; आमिषम्‌--मांस; परित्यज्य--छोड़कर; सः--उसने; सुखम्‌--सुख;समविन्दत--प्राप्त किया।

    एक बार बड़े बाजों की एक टोली ने कोई शिकार न पा सकने के कारण एक अन्य दुर्बलबाज पर आक्रमण कर दिया जो थोड़ा-सा मांस पकड़े हुए था। उस समय अपने जीवन कोसंकट में देखकर बाज ने मांस को छोड़ दिया। तब उसे वास्तविक सुख मिल सका।

    न मे मानापमानौ स्तो न चिन्ता गेहपुत्रिणाम्‌ ।आत्मक्रीड आत्मरतिर्विचरामीह बालवतू ॥

    ३॥

    न--नहीं; मे--मुझमें; मान-- आदर; अपमानौ--अनादर; स्तः-- है; न--नहीं है; चिन्ता--चिन्ता; गेह--घरवालों के;पुत्रिणामू--तथा बच्चों के; आत्म--अपने से; क्रीड:--खिलवाड़ करते हुए; आत्म--अपने में ही; रतिः--भोग करते हुए;विचरामि--विचरण करता हूँ; इह--इस जगत में; बाल-वत्‌--बच्चे की तरह।

    पारिवारिक जीवन में माता-पिता सदैव अपने घर, अपने बच्चों तथा अपनी प्रतिष्ठा के विषयमें चिन्तित रहते हैं। किन्तु मुझे इन बातों से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। मैं न तो किसी परिवारके लिए चिन्ता करता हूँ, न ही मैं मान-अपमान की परवाह करता हूँ। मैं आत्म जीवन का हीआनन्द उठाता हूँ और मुझे आध्यात्मिक पद पर प्रेम मिलता है। इस तरह मैं पृथ्वी पर बालक कीभाँति विचरण करता रहता हूँ।

    द्वावेब चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्य: परं गतः ॥

    ४॥

    द्वौ--दो; एव--निश्चय ही; चिन्तया--चिन्ता से; मुक्तौ--मुक्त; परम-आनन्दे-- परम सुख में; आप्लुतौ--निमग्न; यः--जो;विमुग्ध:--अज्ञानी है; जड:ः--कार्यकलाप के अभाव में मन्द हुआ; बाल:--बालकों जैसा; य:--जो; गुणे भ्य: -- प्रकृति केगुणों के प्रति; परम्‌-- भगवान्‌, जो दिव्य है; गतः--प्राप्त किया हुआ।

    इस जगत में दो प्रकार के लोग समस्त चिन्ताओं से मुक्त होते हैं और परम आनन्द में निमग्नरहते हैं--एक तो वे, जो मन्द बुद्धि हैं तथा बालकों के समान अज्ञानी हैं तथा दूसरे वे जो तीनोंगुणों से अतीत परमेश्वर के पास पहुँच चुके हैं।

    क्वचित्कुमारी त्वात्मानं वृणानान्गृहमागतान्‌ ।स्वयं तानहयामास क्‍्वापि यातेषु बन्धुषु ॥

    ५॥

    क्वचित्‌--एक बार; कुमारी--तरुणी; तु--निस्सन्देह; आत्मानमू--अपने आपको; वृणानान्‌--पत्नी के रूप में चाहती हुई;गृहम्‌-घर में; आगतान्‌--आये हुए; स्वयमू--अपने आप; तान्‌--उन पुरुषों को; अहयाम्‌ आस--सत्कार किया; क्व अपि--अन्य स्थान को; यातेषु--चले गये हुए; बन्धुषु--अपने सारे सम्बन्धियों के |

    एक बार, विवाह योग्य एक तरुणी अपने घर में अकेली थी, क्योंकि उसके माता-पितातथा सम्बन्धी उस दिन किसी अन्य स्थान को चले गये थे। उस समय कुछ व्यक्ति उससे विवाहकरने की विशेष इच्छा से उसके घर आये। उसने उन सबों का सत्कार किया।

    तेषामभ्यवहारार्थ शालीत्रहसि पार्थिव ।अवध्नन्त्या: प्रकोष्ठस्था श्रक्रु ई शज्जः स्वनं महत्‌ ॥

    ६॥

    तेषाम्‌--अतिथियों का; अभ्यवहार-अर्थम्‌--उन्हें खिलाने के वास्ते; शालीन्‌-- धान; रहसि--अकेली होने से; पार्थिव--हेराजा; अवघ्नन्त्या:--कूट रही; प्रकोष्ठट--अपनी कलाइयों में; स्था:--स्थित; चक्कु:--बनाया; शझ्ज:--शंख से बनी चूड़ियाँ;स्वनम्‌--आवाज; महत्‌-- अत्यधिक

    वह लड़की एकान्त स्थान में चली गई और अप्रत्याशित अतिथियों के लिए भोजन बनानेकी तैयारी करने लगी। जब वह धान कूट रही थी, तो उसकी कलाइयों की शंख की चूड़ियाँएक-दूसरे से टकराकर जोर से खड़खड़ा रही थीं।

    सा तज्जुगुप्सितं मत्वा महती वृईडिता ततः ।बभज्जैकैकश:ः शद्जान्द्दौ द्वौ पाण्योरशेषयत्‌ ॥

    ७॥

    सा--वह; तत्‌--उस आवाज को; जुगुप्सितम्‌ू--लज्जास्पद; मत्वा--सोचकर; महती--अत्यन्त बुद्धिमती; ब्रीडिता--शर्मी ली;ततः--उसकी बाँहों से; बभञ्ज--उसने तोड़ दिया; एक-एकश:--एक-एक करके; शद्भान्‌ू--शंख की चूड़ियाँ; द्वौ द्वौ--प्रत्येक में दो-दो; पाण्यो:--अपने दोनों हाथों में; अशेषयत्‌--छोड़ दिया।

    उस लड़की को भय था कि ये लोग उसके परिवार को गरीब समझेंगे, क्योंकि उनकी पुत्रीधान कूटने के तुच्छ कार्य में लगी हुई है। अत्यन्त चतुर होने के कारण शर्मीली लड़की ने अपनीबाँहों में पहनी हुई शंख की चूड़ियों में से प्रत्येक कलाई में केवल दो दो चूड़ियाँ छोड़कर शेषसभी चूड़ियाँ तोड़ दीं।

    उभयोरप्यभूद्धोषो हावघ्नन्त्या: स्वशड्डुयो: ।तत्राप्येके निरभिददेकस्मान्नाभवद्ध्वनि: ॥

    ८॥

    उभयो:--( प्रत्येक हाथ में ) दो से; अपि--फिर भी; अभूत्‌--हो रहा था; घोष:--शब्द, आवाज; हि--निस्सन्देह;अवघ्नन्त्या:--धान कूट रही; स्व-शद्डुयो:--शंख की दो-दो चूड़ियों में से; तत्र--वहाँ; अपि--निस्सन्देह; एकम्‌--केवलएक; निरभिदत्‌-- उसने अलग कर दिया; एकस्मात्‌--उस एक आभूषण से; न--नहीं; अभवत्‌--हुआ; ध्वनि:--शब्द |

    तत्पश्चात्‌, ज्योंही वह लड़की धान कूटने लगी प्रत्येक कलाई की दो-दो चूड़ियाँ टकराकरआवाज करने लगीं। अतएव उसने हर कलाई में से एक-एक चूड़ी उतार ली और जब हर कलाईमें एक-एक चूड़ी रह गई, तो फिर आवाज नहीं हुई।

    अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिन्दम ।लोकाननुचरत्नेतान्लोकतत्त्वविवित्सया ॥

    ९॥

    अन्वशिक्षम्‌--मैंने अपनी आँखों से देखा है; इमम्‌--इस; तस्या:--उस लड़की के ; उपदेशम्‌--शिक्षा; अरिम्‌ू-दम--हे शत्रु कादमन करने वाले; लोकानू्‌--संसारों में; अनुचरन्‌--घूमते हुए; एतान्‌ू--इन; लोक--संसार का; तत्त्व--सत्य; विवित्सया--जानने की इच्छा से |

    हे शत्रुओं का दमन करने वाले, मैं इस जगत के स्वभाव के बारे में निरन्तर सीखते हुएपृथ्वी-भर में विच्ररण करता हूँ। इस तरह मैंने उस लड़की से स्वयं शिक्षा ग्रहण की।

    वासे बहूनां कलहो भवेद्वार्ता द्ययोरपि ।एक एव व्सेत्तस्मात्कुमार्या इब कड्भजूण: ॥

    १०॥

    वासे--घर में; बहूनामू-- अनेक लोगों के; कलहः--झगड़ा; भवेत्‌--होगा; वार्ता--बातचीत; द्वयो: --दो लोगों के; अपि--भी; एक:--अकेला; एव--निश्चय ही; वसेत्‌--रहना चाहिए; तस्मातू--इसलिए; कुमार्या:--कुमारी ( लड़की ) के; इब--सहश; कड्जूण:--चूड़ी

    जब एक स्थान पर अनेक लोग साथ साथ रहते हैं, तो निश्चित रूप से झगड़ा होगा। यहाँतक कि यदि केवल दो लोग ही एक साथ रहें, तो भी जोर-जोर से बातचीत होगी और आपस मेंमतभेद रहेगा। अतएवं झगड़े से बचने के लिए मनुष्य को अकेला रहना चाहिए, जैसा कि हमलड़की की चूड़ी के दृष्टान्त से शिक्षा पाते हैं।

    मन एकत्र संयुज्ज्याज्जितश्लासो जितासन: ।वैराग्याभ्यासयोगेन प्चियमाणमतन्द्रितः ॥

    ११॥

    मनः--मन; एकत्र--एक स्थान में; संयुज्ज्यात्‌--स्थिर करे; जित--जीता हुआ; श्रास:ः--साँस; जित--जीता हुआ; आसन:--योगासन; वैराग्य--वैराग्य द्वारा; अभ्यास-योगेन--योगाभ्यास से; प्रियमाणम्‌ू--स्थिर किया हुआ मन; अतन्द्रित:--अत्यन्तसावधानीपूर्वक

    योगासनों में दक्षता प्राप्त कर लेने तथा श्वास-क्रिया पर नियंत्रण पा लेने पर मनुष्य कोचाहिए कि वैराग्य तथा नियमित योगाभ्यास द्वारा मन को स्थिर करे। इस तरह मनुष्य कोयोगाभ्यास के एक लक्ष्य पर ही सावधानी से अपने मन को स्थिर करना चाहिए।

    यस्मिन्मनो लब्धपदं यदेत-च्छनै: शनेर्मुज्ञति कर्मरेणून्‌ ।सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्नविधूय निर्वाणमुपैत्यनिन्धनम्‌ ॥

    १२॥

    यस्मिनू--जिसमें ( भगवान्‌ में )मनः--मन; लब्ध--प्राप्त किया हुआ; पदम्‌--स्थायी पद; यत्‌ एतत्‌--वही मन; शनैःशनै:--धीरे-धीरे, एक-एक पग करके; मुझ्ञति--त्याग देता है; कर्म--सकाम कर्मों के; रेणूनू--कल्मष को; सत्त्वेन--सतोगुण द्वारा; वृद्धेन--प्रबल हुए; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; च-- भी; विधूय--त्यागकर; निर्वाणम्‌--दिव्य स्थिति,जिसमें मनुष्य अपने ध्यातव्य से संयुक्त हो जाता है; उपैति--प्राप्त करता है; अनिन्धनम्‌--बिना ईंधन के |

    जब मन भगवान्‌ पर स्थिर हो जाता है, तो उसे वश में किया जा सकता है। स्थायी दशा कोप्राप्त करके मन भौतिक कार्यों को करने की दूषित इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इस तरहसतोगुण के प्रबल होने पर मनुष्य रजो तथा तमोगुण का पूरी तरह परित्याग कर सकता है औरधीरे धीरे सतोगुण से भी परे जा सकता है। जब मन प्रकृति के गुण-रूपी ईंधन से मुक्त हो जाताहै, तो संसार-रूपी अग्नि बुझ जाती है। तब उसका सीधा सम्बन्ध दिव्य स्तर पर अपने ध्यान केलक्ष्य, परमेश्वर, से जुड़ जाता है।

    तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तोन वेद किद्ञिद्हिरन्तरं वा ।यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्त-मिषौ गतात्मा न ददर्श पाश्वे ॥

    १३॥

    तदा--उस समय; एवम्‌--इस प्रकार; आत्मनि-- भगवान्‌ में; अवरुद्ध--स्थिर; चित्त:--मन; न--नहीं; वेद--जानता है;किश्ञित्‌ू--कुछ भी; बहिः--बाहरी; अन्तरम्‌--आन्तरिक; वा--अथवा; यथा--जिस तरह; इषु--बाणों का; कार: --बनानेवाला; नू-पतिम्‌--राजा को; ब्रजन्तम्‌--जाते हुए; इषौ--बाण में; गत-आत्मा--लीन होकर; न ददर्श--नहीं देखा; पार्श्े --अपनी बगल में।

    इस प्रकार जब मनुष्य की चेतना परम सत्य भगवान्‌ पर पूरी तरह स्थिर हो जाती है, तो उसेद्वैत अथवा आन्तरिक और बाह्ा सच्चाई नहीं दिखती। यहाँ पर एक बाण बनाने वाले का दृष्टान्तदिया गया है, जो एक सीधा बाण बनाने में इतना लीन था कि उसने अपने बगल से गुजर रहेराजा तक को नहीं देखा।

    एकचार्यनिकेत: स्यादप्रमत्तो गुहाशयः ।अलक्ष्यमाण आचारैर्मुनिरिकोडल्पभाषण: ॥

    १४॥

    एक--अकेला; चारी--विचरणशील; अनिकेत:--बिना स्थिर निवास के; स्थात्‌ू--होए; अप्रमत्त:--अत्यन्त सतर्क होने से;गुहा-आशयः --एकान्त रहते हुए; अलक्ष्यमाण: --बिना पहचाना जाकर; आचारैः--अपने कार्यों से; मुनिः--मुनि; एक: --संगी रहित; अल्प--बहुत कम; भाषण:--बोलते हुए

    सनन्‍्त-पुरुष को अकेले रहना चाहिए और किसी स्थिर आवास के बिना, निरन्तर विचरणकरते रहना चाहिए। सतर्क होकर, उसे एकान्तवास करना चाहिए और इस तरह से कार्य करनाचाहिए कि वह अन्यों द्वारा पहचाना या देखा न जा सके। उसे संगियों के बिना इधर-उधर जानाचाहिए और जरूरत से ज्यादा बोलना नहीं चाहिए।

    गृहारम्भो हि दुःखाय विफलश्चाश्रुवात्मनः ।सर्प: परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥

    १५॥

    गृह--घर का; आरम्भ:--निर्माण; हि--निश्चय ही; दुःखाय--दुखदायी; विफल: --व्यर्थ; च-- भी; अश्वुव--अस्थायी;आत्मन:--जीव का; सर्प:--साँप; परकृतम्‌--अन्‍्यों द्वारा बनाया गया; वेश्म--घर; प्रविश्य--घुस कर; सुखम्‌--सुखपूर्वक;एधते--दिन काटता है।

    जब नश्वर शरीर में वास करने वाला मनुष्य सुखी घर बनाने का प्रयास करता है, तो उसकापरिणाम व्यर्थ तथा दुखमय होता है। किन्तु साँप अन्यों द्वारा बनाये गये घर में घुस जाता है औरसुखपूर्वक रहता है।

    एको नारायणो देव: पूर्वसूष्टे स्वमायया ।संहत्य कालकलया कल्पान्त इदमी श्वर: ।एक एवाद्वितीयोभूदात्माधारोईखिलाभ्रय: ॥

    १६॥

    एकः--एकमात्र; नारायण:-- भगवान्‌; देव: --ई श्वर; पूर्व--पहले; सूष्टम्‌--उत्पन्न किया गया; स्व-मायया--अपनी ही शक्तिसे; संहत्य--अपने में समेट कर; काल--समय के; कलया--अंश से; कल्प-अन्ते--संहार के समय; इृदम्‌--यह ब्रह्माण्ड;ईश्वर: --परम नियन्ता; एक:--एकमात्र; एव--निस्सन्देह; अद्वितीय:--अनुपम; अभूत्‌--बन गया; आत्म-आधार: --हर वस्तुके आगार तथा आश्रय स्वरूप; अखिल--समस्त शक्तियों के; आश्रयः--आगार।

    ब्रह्माण्ड के स्वामी नारायण सभी जीवों के आराध्य ईश्वर हैं। वे किसी बाह्य सहायता केबिना ही अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और संहार के समय वे ब्रह्माण्ड कोअपने कालरूपी स्वांश से नष्ट करते हैं और बद्धजीवों समेत समस्त ब्रह्माण्डों को अपने में समेटलेते हैं। इस तरह उनका असीम आत्मा ही समस्त शक्तियों का आगार तथा आश्रय है। सूक्ष्मप्रधान, जो समस्त विराट जगत का आधार है, भगवान्‌ के ही भीतर सिमट जाता है और इस तरहउनसे भिन्न नहीं होता। संहार के फलस्वरूप वे अकेले ही रह जाते हैं।

    कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।सत्त्वादिष्वादिपुरुष: प्रधानपुरुषे श्र: ॥

    १७॥

    परावराणां परम आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।केवलानुभवानन्दसन्दोहो निरुपाधिकः ॥

    १८॥

    कालेन--काल द्वारा; आत्म-अनुभावेन-- भगवान्‌ की निजी शक्ति द्वारा; साम्यम्‌--सन्तुलन को; नीतासु--लाया जाकर;शक्तिषु-- भौतिक शक्ति में; सत्त्त-आदिषु--सतो इत्यादि गुण; आदि-पुरुष:--शाश्वत भगवान्‌; प्रधान-पुरुष-ईश्वर:-- प्रधानतथा जीवों के परम नियन्ता; पर--मुक्तजीवों या देवताओं के; अवराणाम्‌ू--सामान्य बद्धजीवों के; परम:--परम आराध्य;आस्ते--विद्यमान है; कैवल्य--मुक्त जीवन; संज्ञित:--संज्ञा वाला, के नाम वाला; केवल--निर्मल; अनुभव--अन्तर्ज्ञत काअनुभव; आनन्द--आनन्‍्द; सन्दोह:--समग्रता; निरुपाधिक:--उपाधिधारी सम्बन्धों से रहित |

    जब भगवान्‌ काल के रूप में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और सतोगुण जैसी अपनीभौतिक शक्तियों को प्रधान ( निरपेक्ष साम्य अवस्था ) तक ले जाते हैं, तो वे उस निरपेक्ष अवस्था( प्रधान ) तथा जीवों के भी परम नियन्ता बने रहते हैं। वे समस्त जीवों के भी आराध्य हैं, जिनमेंमुक्त आत्मा, देवता तथा सामान्य बद्धजीव सम्मिलित हैं। भगवान्‌ शाश्वत रूप से किसी भीउपाधि से मुक्त रहते हैं और वे आध्यात्मिक आनन्द की समग्रता से युक्त हैं, जिसका अनुभवभगवान्‌ के आध्यात्मिक स्वरूप का दर्शन करने पर होता है। इस तरह भगवान्‌ 'मुक्ति' का पूरापूरा अर्थ प्रकट करते हैं।

    केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम्‌ ।सड्क्षो भयन्सृजत्यादौ तया सूत्रमरिन्दम ॥

    १९॥

    केवल--शुद्ध; आत्म--स्वयं की; अनुभावेन--शक्ति से; स्व-मायाम्‌--अपनी ही शक्ति को; त्रि--तीन; गुण--गुण;आत्मिकाम्‌--से निर्मित; सड्क्षोभयन्‌-- क्षुब्ध करते हुए; सृजति--प्रकट करता है; आदौ--सृष्टि के समय; तया--उस शक्ति से;सूत्रमू--महत-तत्त्व को, जो कर्म की शक्ति से पहचाना जाता है; अरिन्दम--हे शत्रुओं का दमन करने वाले |

    हे शत्रुओं के दमनकर्ता, सृष्टि के समय भगवान्‌ अपनी दिव्य शक्ति का विस्तार काल रूप मेंकरते हैं और वे तीन गुणों से बनी हुई अपनी भौतिक शक्ति, अर्थात्‌ माया को क्षुब्ध करके महततत्त्व को उत्पन्न करते हैं।

    तामाहुस्त्रिगुणव्यक्ति सृजन्तीं विश्वतोमुखम्‌ ।यस्मिन्प्रोतमिदं विश्व येन संसरते पुमान्‌ ॥

    २०॥

    ताम्‌-महत्‌-तत्त्व को; आहु:--कहते हैं; त्रि-गुण-- प्रकृति के तीन गुण; व्यक्तिमू--कारण रूप में प्रकट; सृजन्तीम्‌--उत्पन्नकरते हुए; विश्वतः-मुखम्‌--विराट जगत की अनेक कोटियाँ; यस्मिन्‌--जिस महत्‌ तत्त्व के भीतर; प्रोतम्‌--गुँथा हुआ;इदम्‌--यह; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; येन--जिससे; संसरते-- भौतिक संसार में आना पड़ता है; पुमान्‌--जीवित प्राणी

    महान्‌ मुनियों के अनुसार, जो प्रकृति के तीन गुणों का आधार है और जो विविध रंगीब्रह्माण्ड प्रकट करता है, वह सूत्र या महत्‌ तत्त्व कहलाता है। निस्सन्देह, यह ब्रह्माण्ड उसी महत्‌तत्त्व के भीतर टिका हुआ रहता है और इसकी शक्ति के कारण जीव को भौतिक जगत में आनापड़ता है।

    यथोर्णनाभिईदयादूर्णा सन्तत्य वक्त्रतः ।तया विह॒त्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ॥

    २१॥

    यथा--जिस तरह; ऊर्न-नाभि:--मकड़ी; हृदयात्‌-- अपने भीतर से; ऊर्णाम्‌--धागे को; सन्तत्य--फैलाकर; वकक्‍्त्रतः--अपनेमुख से; तया--उस धागे से; विहत्य-- भोग करने के बाद; भूयः--फिर; ताम्‌ू--उस धागे को; ग्रसति--निगल जाती है;एवम्‌--उसी तरह; महा-ई श्वर: -- परमे श्वर |

    जिस तरह मकड़ी अपने ही भीतर से ( मुख में से ) धागा निकाल कर फैलाती है, कुछ कालतक उससे खेलती है और अन्त में निगल जाती है, उसी तरह भगवान्‌ अपनी निजी शक्ति कोअपने भीतर से ही विस्तार देते हैं। इस तरह भगवान्‌ विराट जगत रूपी जाल को प्रदर्शित करतेहैं, अपने प्रयोजन के अनुसार उसे काम में लाते हैं और अन्त में उसे पूरी तरह से अपने भीतरसमेट लेते हैं।

    यत्र यत्र मनो देही धारयेत्सकलं धिया ।स्नेहाददवेषाद्धयाद्वापि याति तत्तत्स्वरूपताम्‌ ॥

    २२॥

    यत्र यत्र--जहाँ जहाँ; मनः--मन को; देही--बद्धजीव; धारयेत्‌--स्थिर करता है; सकलम्‌--पूर्ण एकाग्रता के साथ; धिया--बुद्धि से; स्नेहातू--स्नेहवश; द्वेघातू-द्वेष के कारण; भयात्‌-- भयवश; वा अपि--अथवा; याति--जाता है; तत्‌-तत्‌--उसउस; स्वरूपताम्‌ू--विशेष अवस्था को |

    यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथकिसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा,जिसका वह ध्यान करता है।

    कीट: पेशस्कृतं ध्यायन्कुड्यां तेन प्रवेशित: ।याति तत्सात्मतां राजन्पूर्वरूपमसन्त्यजन्‌ ॥

    २३॥

    कीट:--कीड़ा; पेशस्कृतम्‌--बर्र, भूंगी; ध्यायन्‌-- ध्यान करती; कुड्याम्‌--अपने छत्ते में; तेन--बर्र द्वारा; प्रवेशित:--घुसनेके लिए बाध्य की गई; याति--जाती है; तत्‌--बर का; स-आत्मताम्‌--वही स्थिति; राजन्‌ू--हे राजा; पूर्व-रूपम्‌--पूर्व शरीर;असन्त्यजन्‌ू-त्याग न करते हुए।

    हे राजनू, एक बार एक बर ने एक कमजोर कीड़े को अपने छत्ते में जबरन घुसेड़ दिया औरउसे वहीं बन्दी बनाये रखा। उस कीड़े ने भय के कारण अपने बन्दी बनाने वाले का निरन्तरध्यान किया और उसने अपना शरीर त्यागे बिना ही धीरे धीरे बर जैसी स्थिति प्राप्त कर ली। इसतरह मनुष्य अपने निरन्तर ध्यान के अनुसार स्वरूप प्राप्त करता है।

    एवं गुरु भ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धि श्रुणु मे बदतः प्रभो ॥

    २४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; गुरु भ्य: --गुरुओं से; एतेभ्य:--इन; एषघा--यह; मे--मेरे द्वारा; शिक्षिता--सीखा हुआ; मति:--ज्ञान; स्व-आत्म--अपने ही शरीर से; उपशिक्षिताम्‌ू--सीखा हुआ; बुद्धिम्‌--ज्ञान; श्रुणु--सुनो; मे--मुझसे; वदत:--कहा जाता;प्रभो--हे राजा।

    हे राजन, मैंने इन आध्यात्मिक गुरुओं से महानू्‌ ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अब मैंने अपनेशरीर से जो कुछ सीखा है, उसे बतलाता हूँ, उसे तुम ध्यान से सुनो।

    देहो गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतु-बिशभ्रित्स्म सत्त्वनिधनं सततार्त्युदर्कम्‌ ।तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापिपारक्यमित्यवसितो विचराम्यसड्रड ॥

    २५॥

    देह:--शरीर; गुरुः--गुरु; मम--मेरा; विरक्ति--वैराग्य का; विवेक--तथा विवेक का; हेतुः--कारण; बिभ्रत्‌ू--पालन करतेहुए; स्म--निश्चय ही; सत्त्व--अस्तित्व; निधनमू--विनाश; सतत--सदैव; आर्ति--कष्ट; उदर्कम्‌-- भावी परिणाम; तत्त्वानि--इस जगत की सच्चाइयाँ; अनेन--इस शरीर से; विमृशामि--मैं विचार करता हूँ; यथा--यद्यपि; तथा अपि--फिर भी;पारक्यम्‌--अन्यों से सम्बन्धित; इति--इस प्रकार; अवसित:--आश्वस्त होकर; विचरामि--विचरण करता हूँ; असड्भरः-विथोउत्‌अत्तछमेन्त्‌ः

    भौतिक शरीर भी मेरा गुरु है, क्योंकि यह मुझे वैराग्य की शिक्षा देता है। सृष्टि तथा संहार सेप्रभावित होने के कारण, इसका कष्टमय अन्त होता रहता है। यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने के लिएअपने शरीर का उपयोग करते हुए मैं सदैव स्मरण रखता हूँ कि यह अन्ततः अन्यों द्वारा विनष्टकर दिया जायेगा, अतः मैं विरक्त रहकर इस जगत में इधर-उधर विचरण करता हूँ।

    जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्‌पुष्नाति यत्प्रियचिकीर्षया वितन्वन्‌ ।स्वान्ते सकृच्छुमवरुद्धधन: स देहःसृध्ठास्य बीजमवसीदति वृज्षधर्म: ॥

    २६॥

    जाया--पतली; आत्म-ज--सन्तानें; अर्थ--धन; पशु--पालतू पशु; भृत्य--नौकर; गृह--घर; आप्त--सम्बन्धीजन तथा मित्र;वर्गानू--ये सारी कोटियाँ; पुष्णाति--पुष्ट करता है; यत्‌--शरीर; प्रिय-चिकीर्षया--प्रसन्न करने की इच्छा से; वितन्वनू--फैलाते हुए; स्व-अन्ते--मृत्यु के समय; स-कृच्छुम्‌--अत्यधिक संघर्ष से; अवरुद्ध--एकत्रित; धन:--धन; सः--वह; देह: --शरीर; सृष्ठा--सृजन करके; अस्य--जीव का; बीजमू--बीज; अवसीदति--नीचे गिरकर मरता है; वृक्ष--पेड़; धर्म:--केस्वभाव का अनुकरण करते हुए।

    शरीर से आसक्ति रखने वाला व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चों, संपत्ति, पालतू पशुओं, नौकरों,घरों, संबंधियों, मित्रों इत्यादि की स्थिति को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिए अत्यधिक संघर्षके साथ धन एकत्र करता है। वह अपने ही शरीर की तुष्टि के लिए यह सब करता है। जिसप्रकार एक वृक्ष नष्ट होने के पूर्व भावी वृक्ष का बीज उत्पन्न करता है, उसी तरह मरने वाला शरीरअपने संचित कर्म के रूप में अपने अगले शरीर का बीज प्रकट करता है। इस तरह भौतिकजगत के नैरन्तर्य से आश्वस्त होकर भौतिक शरीर समाप्त हो जाता है।

    जिह्नैकतोमुमपकर्षति कर्ि तर्षाशिश्नो<न्यतस्त्वगुदरं श्रवण कुतश्चित्‌ ।घ्राणोउन्यतश्नपलहक्क्व च कर्मशक्ति-बह्व्य: सपत्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥

    २७॥

    जिह्ाा--जीभ; एकत: --एक ओर; अमुम्‌ू--शरीर या शरीर के साथ अपनी पहचान करने वाला बद्धजीव; अपकर्षति--दूरखींच ले जाता है; कहिं--कभी कभी; तर्षा--प्यास; शिश्न:--जननेन्द्रिय; अन्यतः--दूसरी ओर; त्वक्‌--स्पर्शेन्द्रिय; उदरम्‌--उदर; श्रवणम्‌--कान; कुतश्चित्‌ू--या अन्यत्र कहीं से; प्राण: --प्राणेन्द्रिय; अन्यत:ः--दूसरी ओर से; चपल-हक्‌--चंचलआँखें; क्‍्व च--अन्यत्र कहीं; कर्म-शक्ति:--शरीर के अन्य सक्रिय अंग; बह्व्यः--अनेक; स-पल्य:--सौतें; इव--सहश;गेह-पतिम्‌--घर के मुखिया को; लुनन्ति--अनेक दिशाओं में खींचती हैं ।

    जिस व्यक्ति की कई पत्रलियाँ होती हैं, वह उनके द्वारा निरन्तर सताया जाता है। वह उनके'पालन-पोषण के लिए जिम्मेदार होता है। इस तरह सारी पत्नियाँ उसे निरन्तर भिन्न-भिन्न दिशाओंमें खींचती रहती हैं, और हर पत्नी अपने स्वार्थ के लिए संघर्ष करती है। इसी तरह भौतिकइन्द्रियाँ बद्धजीव को एकसाथ विभिन्न दिशाओं में खींचती रहती हैं और सताती रहती हैं। एकओर जीभ स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था करने के लिए खींचती है, तो प्यास उसे उपयुक्त पेयप्रदान करने के लिए घसीटती रहती है। उसी समय यौन-अंग उनकी तुष्टि के लिए शोर मचाते हैं और स्पर्शेन्द्रिय कोमल वासनामय पदार्थ की माँग रखती हैं। उदर उसे तब तक तंग करता रहताहै, जब तक वह भर नहीं जाता। कान मनोहर ध्वनि सुनना चाहते हैं, प्राणेन्द्रिय सुहावनीसुगँधियों के लिए लालायित रहती हैं और चंचल आँखें मनोहर दृश्य के लिए शोर मचाती हैं। इसतरह सारी इन्द्रियाँ तथा शरीर के अंग तुष्टि की इच्छा से जीव को अनेक दिशाओं में खींचते रहतेहैं।

    सृष्ठा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्यावृक्षान्सरीसृपपशून्खगदन्दशूकान्‌ ।तैस्तैरतुष्टहदय: पुरुष विधायब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव: ॥

    २८ ॥

    सृष्ठा--सृजन करके; पुराणि--बद्धजीवों को आवास देने वाले भौतिक शरीर; विविधानि--अनेक प्रकार के; अजया--मायाके माध्यम से; आत्म-शक्त्या--अपनी शक्ति से; वृक्षानू--वृक्षों को; सरीसृप--रेंगने वाले जीवों को; पशून्‌--पशुओं को;खग--पक्षियों को; दन्द-शूकान्‌--साँपों को; तैः तैः--शरीर की विभिन्न किस्मों ( योनियों ) द्वारा; अतुष्ट-- असन्तुष्ट; हृदयः --उसका हृदय; पुरुषम्‌--मनुष्य को; विधाय--उत्पन्न करके; ब्रह्य--परम सत्य; अवलोक--दर्शन; धिषणम्‌--के उपयुक्त बुद्धि;मुदम्‌--सुख को; आपा--प्राप्त किया; देव:-- भगवान्‌ |

    भगवान्‌ ने अपनी ही शक्ति, माया शक्ति का विस्तार करके बद्धजीवों को बसाने के लिएअसंख्य जीव-योनियाँ उत्पन्न कीं। किन्तु वृक्षों, सरीसृपों, पशुओं, पक्षियों, सर्पों इत्यादि केस्वरूपों को उत्पन्न करके भगवान्‌ अपने हृदय में तुष्ट नहीं थे। तब उन्होंने मनुष्य को उत्पन्न किया,जो बद्ध आत्मा को पर्याप्त बुद्धि प्रदान करने वाला होता है, जिससे वह परम सत्य को देखसके। इस तरह भगवान्‌ सन्तुष्ट हो गये।

    लब्ध्वा सुदुर्ल भमिदं बहुसम्भवान्तेमानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।तूर्ण यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-रिःश्रेयसाय विषय: खलु सर्वतः स्थात्‌ ॥

    २९॥

    लब्ध्वा-प्राप्त करके; सु-दुर्लभम्‌--जिसको पाना अत्यन्त कठिन है; इदम्‌ू--यह; बहु--अनेक; सम्भव--जन्म; अन्ते--बादमें; मानुष्यम्‌-मनुष्य-जीवन; अर्थ-दम्‌--महान्‌ महत्त्व प्रदान करने वाला; अनित्यम्‌--क्षणभंगुर; अपि--यद्यपि; इहह--इसभौतिक जगत में; धीर: --गम्भीर बुद्धि वाला; तूर्णम्‌--तुरन्त; यतेत--प्रयत्त करे; न--नहीं; पतेत्‌--गिर चुका है; अनु-मृत्यु--सदैव मरणशील; यावत्‌--जब तक; निःश्रेयसाय--चरम मोक्ष ( मुक्ति ) के लिए; विषय:ः--इन्द्रियतृप्ति; खलु--सदैव;सर्वतः--सभी दशाओं में; स्थातू--सम्भव है।

    अनेकानेक जन्मों और मृत्यु के पश्चात्‌ यह दुर्लभ मानव-जीवन मिलता है, जो अनित्य होनेपर भी मनुष्य को सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए धीर मनुष्य कोतब तक चरम जीवन सिद्ध्धि के लिए शीघ्र प्रयल कर देना चाहिए, जब तक उसका मरणशीलशरीर क्षय होकर मर नहीं जाता। इन्द्रियतृषप्ति तो सबसे गर्हित योनि में भी प्राप्य है, किन्तुकृष्णभावनामृत मनुष्य को ही प्राप्त हो सकता है।

    एवं सञ्जातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि ।विचरामि महीमेतां मुक्तसड्री उनहड्डू तः ॥

    ३०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सझ्ञात--पूर्णतया उत्पन्न; वैराग्य:--वैराग्य; विज्ञान-- अनुभूत ज्ञान; आलोक: --दृष्टि से युक्त; आत्मनि--भगवान्‌ में; विचरामि--विचरण करता हूँ; महीम्--पृथ्वी पर; एताम्‌--इस; मुक्त--स्वच्छन्द; सड़ः--आसक्ति से;अनहड्डू त:--मिथ्या अहंकार के बिना।

    अपने गुरुओं से शिक्षा पाकर मैं भगवान्‌ की अनुभूति में स्थित रहता हूँ और पूर्ण वैराग्यतथा आध्यात्मिक ज्ञान से प्रकाशित, मैं आसक्ति या मिथ्या अहंकार से रहित होकर पृथ्वी परस्वच्छन्द विचरण करता हूँ।

    न होकस्मादगुरोज्ञानं सुस्थिरं स्यात्सुपुष्कलम्‌ ।ब्रह्मेतदद्वितीयं वै गीयते बहुधर्षिभि: ॥

    ३१॥

    न--नहीं; हि--निश्चय ही; एकस्मात्‌--एक; गुरो: --गुरु से; ज्ञानम्‌--ज्ञान; सु-स्थिरम्‌ू--अत्यधिक स्थिर; स्थात्‌ू--हो सकताहै; सु-पुष्कलम्‌--अत्यन्त पूर्ण; ब्रह्म--परम सत्य; एतत्‌--यह; अद्वितीयम्‌--अद्वितीय; बै--निश्चय ही; गीयते--यशोगानकिया गया; बहुधा--अनेक प्रकार से; ऋषिभि:--ऋषियों द्वारा |

    यद्यपि परम सत्य अद्वितीय हैं, किन्तु ऋषियों ने अनेक प्रकार से उनका वर्णन किया है।इसलिए हो सकता है कि मनुष्य एक गुरु से अत्यन्त स्थिर या पूर्ण ज्ञान प्राप्त न कर पाये।

    श्रीभगवानुवाचइत्युक्त्वा स यदुं विप्रस्तमामन्त्रय गभीरधी: ।वन्दितः स्वर्चितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम्‌ ॥

    ३२॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; सः--उसने; यदुम्‌--राजा यदु से; विप्र:--ब्राह्मण; तम्‌--राजा को; आमन्त्रय--विदा करके; गभीर--अत्यन्त गहरी; धी: --बुद्धि; वन्दित:--नमस्कार किया जाकर; सु-अर्चितः--ठीक से पूजित होकर; राज्ञा--राजा द्वारा; ययौ--चला गया; प्रीत:--प्रसन्न मन से; यथा--जिस तरह; आगतम्‌--आया था।

    भगवान्‌ ने कहा : राजा यदु से इस प्रकार कहने के बाद विद्वान ब्राह्मण ने राजा के नमस्कारतथा पूजा को स्वीकार किया और भीतर से प्रसन्न हुआ। तब वह विदा लेकर उसी तरह चलागया, जैसे आया था।

    अवधूतवच: श्र॒त्वा पूर्वेषां न: स पूर्वज: ।सर्वसड्भविनिर्मुक्त: समचित्तो बभूव ह ॥

    ३३॥

    अवधूत--अवधूत ब्राह्मण के; वच:--शब्द; श्रुत्वा--सुनकर; पूर्वेषाम्‌-पूर्वजों के; न:--हमारे; सः--वह; पूर्वज:--स्वयंपूर्वज; सर्व--समस्त; सड्न्‍ग--आसक्ति से; विनिर्मुक्त:--मुक्त होने पर; सम-चित्त:--आध्यात्मिक पद पर चेतना होने से सर्वत्रसमान; बभूव--हो गया; ह--निश्चय ही |

    हे उद्धव, उस अवधूत के शब्दों को सुनकर साधु राजा यदु, जो कि हमारे पूर्वजों का पुरखाहै, समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो गया और उसका मन आध्यात्मिक पद पर समान भाव सेस्थिर ( समदर्शी ) हो गया।

    TO

    10. सकाम गतिविधि की प्रकृति

    श्रीभगवानुवाचमयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाअ्यः ।वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत्‌ ॥

    १॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; मया--मेरे द्वारा; उदितेषु--कहा गया; अवहितः--अत्यन्त सावधानी से; स्व-धर्मेषु--भगवान्‌ की भक्ति के कार्यों में; मत्‌ू-आश्रयः--मेरा शरणागत; वर्ण-आश्रम--वैदिक वर्णाश्रम प्रणाली; कुल--समाज के;आचारम्‌--आचरण; अकाम--भैतिक इच्छाओं से रहित; आत्मा--ऐसा पुरुष; समाचरेत्‌-- अभ्यास करे |

    भगवान्‌ ने कहा : पूर्णतया मेरी शरण में आकर तथा मेरे द्वारा वर्णित भगवद्भक्ति में अपनेमन को सावधानी से एकाग्र करके मनुष्य को निष्काम भाव से रहना चाहिए तथा वर्णाश्रमप्रणाली का अभ्यास करना चाहिए।

    अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्‌ ।गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम्‌ ॥

    २॥

    अन्वीक्षेत--देखे; विशुद्ध-शुद्ध किया हुआ; आत्मा--आत्मा; देहिनामू-- देहधारी जीवों का; विषय-आत्मनाम्‌--इन्द्रियतृप्तिके प्रति समर्पित लोगों का; गुणेषु-- आनन्द देने वाली भौतिक वस्तुओं में; तत्त्त--सत्य रूप में; ध्यानेन--ध्यान द्वारा; सर्व--समस्त; आरम्भ--प्रयत्त; विपर्ययम्‌--अनिवार्य असफलता |

    शुद्ध आत्मा को यह देखना चाहिए कि चूँकि इन्द्रियतृष्ति के प्रति समर्पित होने से बद्धआत्माओं ने इन्द्रिय-सुख की वस्तुओं को धोखे से सत्य मान लिया है, इसलिए उनके सारे प्रयत्नअसफल होकर रहेंगे।

    सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः ।नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः ॥

    ३॥

    सुप्तस्थ--सोने वाले के; विषय--इन्द्रियतृप्ति; आलोक:--देखना; ध्यायत:--ध्यान करने वाले का; वा--अथवा; मन: -रथः--मात्र मनगढंत; नाना--तमाम तरह के; आत्मकत्वात्‌--स्वभाव होने के कारण; विफल: --असली सिद्धि से विहीन;तथा--उसी तरह; भेद-आत्म--भिन्न रूप से बने हुए में; धी: --बुद्धि; गुणैः-- भौतिक इन्द्रियों द्वारा |

    सोया हुआ व्यक्ति स्वण में इन्द्रियतृप्ति की अनेक वस्तुएँ देख सकता है, किन्तु ऐसीआनन्ददायक वस्तुएँ मनगढंत होने के कारण अन्ततः व्यर्थ होती हैं। इसी तरह, जो जीव अपनीआध्यात्मिक पहचान के प्रति सोया हुआ रहता है, वह भी अनेक इन्द्रिय-विषयों को देखता है,किन्तु क्षणिक तृप्ति देने वाली ये असंख्य वस्तुएँ भगवान्‌ की माया द्वारा निर्मित होती हैं, तथाइनका स्थायी अस्तित्व नहीं होता। जो व्यक्ति इन्द्रियों से प्रेरित होकर इनका ध्यान करता है, वहअपनी बुद्धि को व्यर्थ के कार्य में लगाता है।

    निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेतू ।जिज्ञासायां सम्प्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम्‌ ॥

    ४॥

    निवृत्तम्‌--विधि-कर्तव्य; कर्म--ऐसा कार्य; सेवेत--करना चाहिए; प्रवृत्तम्‌--इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य; मत्‌-पर:--मुझमेंसमर्पित; त्यजेत्‌ू--छोड़ दे; जिज्ञासायाम्‌ू--आध्यात्मिक सत्य की खोज में; सम्प्रवृत्त: --पूर्णतया संलग्न; न--नहीं; आद्रियेत्‌ --स्वीकार करना चाहिए; कर्म--कोई भौतिक कार्य; चोदनाम्‌ू--आदेश |

    जिसने अपने मन में मुझे अपने जीवन-लक्ष्य के रूप में बिठा लिया है, उसे इन्द्रियतृप्ति परआधारित कर्म त्याग देने चाहिए और उन्नति के लिए विधि-विधानों द्वारा अनुशासित कर्म करनाचाहिए। किन्तु जब कोई व्यक्ति आत्मा के चरम सत्य की खोज में पूरी तरह लगा हो, तो उसेसकाम कर्मों को नियंत्रित करने वाले शास्त्रीय आदेशों को भी नहीं मानना चाहिए।

    यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्पर: क्वचित्‌ ।मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम्‌ ॥

    ५॥

    यमान्‌--मुख्य-मुख्य विधि-विधान, यथा हिंसा न करना; अभीक्ष्णमम्‌--सदैव; सेवेत--पालन करना चाहिए; नियमानू--गौणनियम, यथा शरीर स्वच्छ रखना; मत्‌-परः --मेरा भक्त; क्वचित्‌--यथासम्भव; मत्‌-अभिज्ञम्‌--मेरे स्वरूप को जानने वाला;गुरुम्‌-गुरु को; शान्तम्‌--शान्त; उपासीत--सेवा करनी चाहिए; मत्‌-आत्मकम्‌--जो मुझसे भिन्न नहीं है।

    जिसने मुझे अपने जीवन का परम लक्ष्य मान लिया है, उसे चाहिए कि पापकर्मों का निषेधकरने वाले शास्त्रीय आदेशों का कठोरता से पालन करे और जहाँ तक हो सके गौण नियमों कोयथा स्वच्छता की संस्तुति करने वाले आदेशों को सम्पन्न करे। किन्तु अन्ततः उसे प्रामाणिक गुरुके पास जाना चाहिए, जो मेरे साकार रूप के ज्ञान से पूर्ण होता है, जो शान्त होता है और जोआध्यात्मिक उत्थान के कारण मुझसे भिन्न नहीं होता।

    अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो हहसौहदः ।असत्वरो<र्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक्‌ू ॥

    ६॥

    अमानी--मिथ्या अहंकार से रहित; अमत्सर:--अपने को कर्ता न मानते हुए; दक्ष:--आलस्य रहित; निर्मम:--पत्नी, बच्चों,घर, समाज के ऊपर स्वामित्व के भाव के बिना; हृढ-सौहदः --अपने पूज्य अर्चाविग्रह स्वरूप गुरु से मैत्री के भाव में स्थिरहुआ; असत्वर:-- भौतिक काम के कारण मोहग्रस्त हुए बिना; अर्थ-जिज्ञासु:--परम सत्य का ज्ञान चाहने वाला; अनसूयु:--ईर्ष्या से मुक्त; अमोघ-वाक्‌--व्यर्थ की बातचीत से सर्वथा मुक्त

    गुरु के सेवक अथवा शिष्य को झूठी प्रतिष्ठा से मुक्त होना चाहिए और अपने को कभी भीकर्ता नहीं मानना चाहिए। उसे सदैव सक्रिय रहना चाहिए और कभी भी आलसी नहीं होनाचाहिए। उसे पत्नी, बच्चे, घर तथा समाज सहित समस्त इन्द्रिय-विषयों के ऊपर स्वामित्व केभाव को त्याग देना चाहिए। उसे अपने गुरु के प्रति प्रेमपूर्ण मैत्री की भावना से युक्त होनाचाहिए और उसे कभी भी न तो पथश्रष्ट होना चाहिए, न मोहग्रस्त। सेवक या शिष्य में सदैवआध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ने की इच्छा होनी चाहिए। उसे किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिएऔर व्यर्थ की बातचीत से बचना चाहिए।

    जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु ।उदासीन: सम॑ पश्यन्सर्वेष्वर्थमिवात्मन: ॥

    ७॥

    जाया--पली; अपत्य--सन्‍्तान; गृह--घर; क्षेत्र-- भूमि; स्वजन--सम्बन्धी तथा मित्र; द्रविण--बैंक खाता; आदिषु--इत्यादिमें; उदासीन:-- अन्यमनस्क रहकर; समम्‌--समान रूप से; पश्यन्‌--देखते हुए; सर्वेषु--समस्त; अर्थम्‌--उद्देश्य; इब--सहश;आत्मन:--अपना।

    मनुष्य को सभी परिस्थितियों में अपने जीवन के असली स्वार्थ ( उद्देश्य ) को देखना चाहिएऔर इसीलिए पत्नी, सन्‍्तान, घर, भूमि, रिश्तेदारों, मित्र, सम्पत्ति इत्यादि से विरक्त रहना चाहिए।

    विलक्षण: स्थूलसूक्ष्माद्रेहादात्मेक्षिता स्वहक्‌ ।यथाग्निर्दारुणो दाह्राह्ादकोन्य: प्रकाशक: ॥

    ८ ॥

    विलक्षण:--विभिन्न गुणों वाला; स्थूल--स्थूल; सूक्ष्मात्‌-तथा सूक्ष्म; देहात्‌--शरीर से; आत्मा--आत्मा; ईक्षिता--द्रष्टा; स्व-हक्‌--स्वतः प्रकाशित; यथा--जिस तरह; अग्नि:--अग्नि; दारुण:--लकड़ी से; दाह्मात्‌ू--जलाई जाने वाली; दाहक:ः--जलने वाली; अन्य:--दूसरी; प्रकाशक :--प्रकाश देने वाली

    जिस तरह जलने और प्रकाश करने वाली अग्नि उस लकड़ी ( ईंधन ) से भिन्न होती हैजोप्रकाश देने के लिए जलाई जाती है, उसी तरह शरीर के भीतर का द्रष्टा, स्वतः प्रकाशित आत्मा,उस भौतिक शरीर से भिन्न होता है, जिसे चेतना से प्रकाशित करना पड़ता है। इस तरह आत्मातथा शरीर में भिन्न भिन्न गुण होते हैं और वे पृथक्‌ पृथक हैं।

    निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान्गुणान्‌ ।अन्तः प्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान्पर: ॥

    ९॥

    निरोध-प्रसुप्ति; उत्पत्ति-- प्राकट्य; अणु--लघु; बृहत्‌--विशाल; नानात्वम्‌-लक्षणों का प्रकार; तत्‌-कृतान्‌--उसके द्वाराउत्पन्न; गुणानू--गुण; अन्तः--भीतर; प्रविष्ट:--प्रवेश करके; आधत्ते--स्वीकार करता है; एवम्‌--इस प्रकार; देह-- भौतिकशरीर के; गुणान्‌ू--गुणों को; पर:--दिव्य जीव ( आत्मा )।

    ईंधन की दशा के अनुसार अग्नि जिस तरह सुप्त, प्रकट, क्षीण, तेज जैसे विविध रूपों मेंप्रकट हो सकती है, उसी तरह आत्मा भौतिक शरीर में प्रवेश करता है और शरीर के विशिष्टलक्षणों को स्वीकार करता है।

    योसौ गुणैर्विरचितो देहोयं पुरुषस्य हि ।संसारस्तन्निबन्धोयं पुंसो विद्या च्छिदात्मस: ॥

    १०॥

    यः--जो; असौ--वह ( सूक्ष्म शरीर ); गुणैः -- भौतिक गुणों द्वारा; विरचित:--निर्मित; देह:--शरीर; अयम्‌--यह ( स्थूलशरीर ); पुरुषस्थ-- भगवान्‌ का; हि--निश्चय ही; संसार:--जगत; ततू-निबन्ध: -- उससे बँधा हुआ; अयम्‌--यह; पुंसः--जीवका; विद्या--ज्ञान; छित्‌ू--छिन्न करने वाला; आत्मन:--आत्मा का।

    सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों की उत्पत्ति प्रकृति के गुणों से होती है, जो भगवान्‌ की शक्ति सेविस्तार पाते हैं। जब जीव झूठे ही स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के गुणों को अपने ही असली स्वभावके रूप में मान लेता है, तो संसार का जन्म होता है। किन्तु यह मोहमयी अवस्था असली ज्ञानद्वारा नष्ट की जा सकती है।

    तस्माजिज्ञासयात्मानमात्मस्थं केवल परम्‌ ।सड़म्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धि यथाक्रमम्‌ ॥

    ११॥

    तस्मात्‌--इसलिए; जिज्ञासया--ज्ञान के अनुशीलन द्वारा; आत्मानम्‌-- भगवान्‌ को; आत्म--अपने भीतर; स्थम्‌--स्थित;केवलम्‌--शुद्ध; परम्‌-दिव्य तथा सर्वश्रेष्ठ; सड़म्य--विज्ञान द्वारा पास जाकर; निरसेत्‌-त्याग दे; एतत्‌--यह; वस्तु--भौतिक वस्तुओं के भीतर; बुद्धिम्‌ू--वास्तविकता की धारणा; यथा-क्रमम्‌--धीरे धीरे, पदशः

    इसलिए मनुष्य को चाहिए कि ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह अपने भीतर स्थित भगवान्‌ केनिकट पहुँचे। भगवान्‌ के शुद्ध दिव्य अस्तित्व को समझ लेने पर मनुष्य को चाहिए कि वह धीरेधीरे भौतिक जगत को स्वतंत्र सत्ता मानने के झूठे विचार को त्याग दे।

    आचार्योरणिराद्य: स्यादन्तेवास्युत्तरारणि: ।तत्सन्धानं प्रवचन विद्यासन्धि: सुखावह: ॥

    १२॥

    आचार्य:--गुरु; अरणि:--यज्ञ अग्नि जलाने में प्रयुक्त पवित्र काष्ठ; आद्य:ः--नीचे रखा; स्यात्‌--माना जाता है; अन्ते-वासी--शिष्य; उत्तर--सब से ऊपर; अरणि: --जलाने वाला काष्ठ; तत्‌-सन्धानम्‌--ऊपरी तथा निचले काष्ठ को जोड़ने वाली बीच कीलकड़ी, ( मंथन काष्ठ ); प्रवचनम्‌ू-- आदेश; विद्या--दिव्य ज्ञान; सन्धि:--घर्षण से उत्पन्न अग्नि, जो पूरे काष्ठ में फैल जाती है;सुख--सुख; आवहः--लाकर।

    गुरु की उपमा यज्ञ-अग्नि के निचले काष्ट से, शिष्य की उपमा ऊपरी काष्ट से तथा गुरु द्वारादिये जाने वाले प्रवचनों की उपमा इन दोनों काष्ठों के बीच में रखी तीसरी लकड़ी ( मंथन काष्ठ )से दी जा सकती है। गुरु द्वारा शिष्य को दिया गया दिव्य ज्ञान इनके संसर्ग से उत्पन्न होने वालीअग्नि के समान है, जो अज्ञान को जलाकर भस्म कर डालता है और गुरु तथा शिष्य दोनों कोपरम सुख प्रदान करता है।

    वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धि-धुनोति मायां गुणसम्प्रसूताम्‌ ।गुनांश्व सन्दह्म यदात्ममेतत्‌स्वयं च शांयत्यसमिद्यथाग्नि: ॥

    १३॥

    वैशारदी--दक्ष ( विशारद ) से प्राप्त: सा--यह; अति-विशुद्ध--नितान्त शुद्ध; बुद्धिः--बुद्धि या ज्ञान; धुनोति--विकर्षितकरता है; मायाम्‌--माया या मोह को; गुण--प्रकृति के गुणों से; सम्प्रसूताम्‌--उत्पन्न; गुणान्‌ू--प्रकृति के गुणों को; च-- भी;सन्दह्म-- भस्म करके; यत्‌--जिन गुणों से; आत्मम्‌--निर्मित; एतत्‌--यह ( जगत ); स्वयम्‌--अपने आप; च--भी; शांयति--शान्त कर दिया जाता है; असमित्‌--ईंधन के बिना; यथा--जिस तरह; अग्नि:--अग्नि

    दक्ष गुरु से विनयपूर्वक श्रवण करने से दक्ष शिष्य में शुद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है, जो प्रकृतिके तीन गुणों से उत्पन्न भौतिक मोह के प्रहार को पीछे भगा देता है। अन्त में यह शुद्ध ज्ञान स्वयंही समाप्त हो जाता है, जिस तरह ईंधन का कोष जल जाने पर अग्नि ठंडी पड़ जाती है।

    अधेषाम्कर्मकर्तृणां भोक्तृणां सुखदुःखयो: ।नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम्‌ ॥

    १४॥

    मन्यसे सर्वभावानां संस्था हौत्पत्तिकी यथा ।तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धी: ॥

    १५॥

    एवमप्यड़ सर्वेषां देहिनां देहयोगतः ।कालावयबत: सन्ति भावा जन्मादयोसकृत्‌ ॥

    १६॥

    अथ--इस प्रकार; एषाम्‌--इनका; कर्म--सकाम कर्म; कर्तृणाम्‌--कर्ताओं के; भोक्‍्तृणाम्‌-- भोक्ताओं के; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख में; नानात्वमू--विविधता; अथ--और भी; नित्यत्वम्‌--नित्यता; लोक--भौतिकतावादी जगत की; काल--समय की; आगम--सकाम कर्म की संस्तुति करने वाला वैदिक वाडमय; आत्मनाम्‌--तथा आत्मा; मन्यसे--यदि तुम सोचतेहो; सर्व--समस्त; भावानाम्‌ू-- भौतिक वस्तुओं का; संस्था--वास्तविक स्थिति; हि--निश्चय ही; औत्पत्तिकी --आदि, मूल;यथा--जिस तरह; ततू-तत्‌--विभिन्न वस्तुओं में से; आकृति--उनके रूपों के; भेदेन--अन्तर से; जायते--उत्पन्न होता है;भिद्यते--बदलता है; च-- भी; धी:--बुद्धि या ज्ञान; एवमू--इस प्रकार; अपि--यद्यपि; अड्ग--हे उद्धव; सर्वेषाम्‌--समस्त;देहिनाम्‌ू-देहधारियों में से; देह-योगत:-- भौतिक शरीर के संपर्क से; काल--समय के; अवयवतः--अंग अंग या अंश अंशकरके; सन्ति--हैं; भावा:--दशाएँ; जन्म--जन्म; आदय:--इत्यादि; असकृत्‌--निरन्तर |

    हे उद्धव, मैंने तुम्हें पूर्ण ज्ञान बतला दिया। किन्तु ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो मेरे निष्कर्ष काप्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि जीव का स्वाभाविक पद तो सकाम कर्म में निरत होना हैऔर वे जीव को उसके कर्म से उत्पन्न सुख-दुख के भोक्ता के रूप में देखते हैं। इसभौतिकतावादी दर्शन के अनुसार जगत, काल, प्रामाणिक शास्त्र तथा आत्मा-ये सभीविविधतायुक्त तथा शाश्वत हैं और विकारों के निरन्तर प्रवाह के रूप में विद्यमान रहते हैं। यहीनहीं, ज्ञान एक अथवा नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह विविध एवं परिवर्तनशील पदार्थों सेउत्पन्न होता है। फलस्वरूप ज्ञान स्वयं भी परिवर्तनशील होता है। हे उद्धव, यदि तुम इस दर्शनको मान भी लो, तो भी जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग सदा बने रहेंगे, क्योंकि सारे जीवों को कालके प्रभाव के अधीन भौतिक शरीर स्वीकार करना होगा।

    तत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्रयं च लक्ष्यते ।भोक्तुश्व दुःखसुखयो: को न्वर्थो विवशं भजेत्‌ ॥

    १७॥

    तत्र--सुख प्राप्त करने की क्षमता के मामले में; अपि--इससे भी आगे; कर्मणाम्‌ू--सकाम कर्मों के; कर्तु:--कर्ता के;अस्वातन््यम्‌--स्वतंत्रता का अभाव; च--भी; लक्ष्यते--स्पष्ट दिखाता है; भोक्तु:-- भोक्ता का; च-- भी; दुःख-सुखयो: --दुखतथा सुख; कः-- क्या; नु--निस्सन्देह; अर्थ:--महत्त्व; विवशम्‌--असंयमी के लिए; भजेत्‌--प्राप्त किया जा सकता है।

    यद्यपि सकाम कर्म करने वाला शाश्वत सुख की इच्छा करता है, किन्तु यह स्पष्ट देखने मेंआता है कि भौतिकतावादी कर्मीजन प्रायः दुखी रहते हैं और कभी-कभी ही तुष्ट होते हैं। इसतरह यह सिद्ध होता है कि वे न तो स्वतंत्र होते हैं, न ही अपना भाग्य उनके नियंत्रण में होता है।जब कोई व्यक्ति सदा ही दूसरे के नियंत्रण में रह रहा हो, तो फिर वह अपने सकाम कर्मो सेकिसी महत्वपूर्ण परिणाम की आशा कैसे रख सकता है ? न देहिनां सुखं किल्चिद्विद्यते विदुषामपि ।तथा च दु:खं मूढानां वृथाहड्डूरणं परम्‌ ॥

    १८॥

    न--नहीं; देहिनामू-देहधारी जीवों के; सुखम्‌--सुख; किज्लित्‌-- थोड़ा; विद्यते--है; विदुषाम्‌-बुद्धिमानों के; अपि-- भी;तथा--उसी तरह; च--भी; दुःखम्‌--दुख; मूढानाम्‌-महामूर्खो के; वृथा--व्यर्थ; अहड्गरणम्‌--मिथ्या अहंकार; परम्‌--एकमात्र या पूरी तरह से |

    संसार में यह देखा जाता है कि कभी कभी बुद्धिमान व्यक्ति भी सुखी नहीं रहता। इसी तरहकभी कभी महा मूर्ख भी सुखी रहता है। भौतिक कार्यों को दक्षतापूर्वक संपन्न करके सुखीबनने की विचारधारा मिथ्या अहंकार का व्यर्थ प्रदर्शन मात्र है।

    यदि प्राप्ति विघातं च जानन्ति सुखदु:ःखयो: ।तेप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा ॥

    १९॥

    यदि--यदि; प्राप्तिम्‌--उपलब्धि; विघातम्‌ू--नाश, हटाया जाना; च-- भी; जानन्ति--वे जानते हैं; सुख--सुख; दुःखयो: --तथा दुख को; ते--वे; अपि--फिर भी; अद्धघा-प्रत्यक्ष; न--नहीं; विदु:--जानते हैं; योगम्‌--विधि; मृत्यु: --मृत्यु; न--नहीं;प्रभवेतू--अपनी शक्ति दिखलाते हैं; यथा--जिससे |

    यदि लोग यह जान भी लें कि किस तरह सुख प्राप्त किया जाता है और किस तरह दुख सेबचा जाता है, तो भी वे उस विधि को नहीं जानते, जिससे मृत्यु उनके ऊपर अपनी शक्ति काप्रभाव न डाल सके।

    कोडन्वर्थ: सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके ।आधघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिद: ॥

    २०॥

    कः--कौन; नु--निश्चय ही; अर्थ:-- भौतिक पदार्थ; सुखयति--सुख देता है; एनम्‌--पुरुष को; काम:--भौतिक वस्तुओं सेमिलने वाली इन्द्रियतृप्ति; वा--अथवा; मृत्यु:--मृत्यु; अन्तिके--पास ही खड़ी; आघातम्‌--घटनास्थल तक; नीयमानस्यथ--लेजाये जाने वाले का; वध्यस्य--वध किये जाने वाले का; इब--सहृश; न--तनिक भी नहीं; तुष्टि-दः--सन्तोष प्रदान करता है।

    मृत्यु अच्छी नहीं लगती, और क्योंकि हर व्यक्ति फाँसी के स्थान पर ले जाये जाने वालेदण्डित व्यक्ति के समान है, तो फिर भौतिक वस्तुओं या उनसे प्राप्त तृप्ति से लोगों को कौन-सासंभव सुख मिल सकता है? श्रुतं च दृष्टवहुष्ट॑ स्पर्धासूयात्ययव्ययै: ।बहन्तरायकामत्वात्कृषिवच्चापि निष्फलम्‌ ॥

    २१॥

    श्रुतम्‌--सुना हुआ भौतिक सुख; च-- भी; दृष्ट-बत्‌--मानो पहले से देखा हुआ हो; दुष्टम्‌--कलुषित; स्पर्धा--ईर्ष्या से;असूया--द्वेष से; अत्यय-मृत्यु से; व्ययै:--क्षय द्वारा; बहु--अनेक; अन्तराय--व्यवधान; कामत्वात्‌--सुख को स्वीकारकरने से; कृषि-वत्‌--खेती की तरह; च--भी; अपि--ही; निष्फलम्‌--फलरहित।

    वह भौतिक सुख, जिसके बारे में हम सुनते रहते हैं, (यथा दैवी सुख-भोग के लिएस्वर्गलोक की प्राप्ति ), हमारे द्वारा अनुभूत भौतिक सुख के ही समान है। ये दोनों ही ईर्ष्या, द्वेष,क्षय तथा मृत्यु से दूषित रहते हैं। इसलिए जिस तरह फसल के रोग, कीट या सूखा जैसीसमस्याएँ उत्पन्न होने पर फसलें उगाना व्यर्थ हो जाता है, उसी तरह पृथ्वी पर या स्वर्गलोक मेंभौतिक सुख प्राप्त करने का प्रयास अनेक व्यवधानों के कारण निष्फल हो जाता है।

    अन्तरायैरविहितो यदि धर्म: स्वनुष्ठितः ।तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छुणु ॥

    २२॥

    अन्तरायै:--अवरोधों तथा न्यूनताओं से; अविहित:--अप्रभावित; यदि--यदि; धर्म: --वैदिक आदेशों के अनुसार नियमितकर्तव्यों का पालन; स्व्‌-अनुष्ठित:--ढंग से सम्पादित; तेन--उसके द्वारा; अपि--भी; निर्जितम्‌--सम्पन्न; स्थानम्‌ू--पद;यथा--जिस तरह से; गच्छति--नष्ट होता है; तत्‌ू--उसे; श्रुणु-- सुनो

    यदि कोई व्यक्ति किसी त्रुटि या कल्मष के बिना वैदिक यज्ञ तथा कर्मकाण्ड सम्पन्न करताहै, तो उसे अगले जीवन में स्वर्ग में स्थान मिलेगा। किन्तु कर्मकांड द्वारा प्राप्त किया जाने वालायह फल भी काल के द्वारा नष्ट कर दिया जायेगा। अब इसके विषय में सुनो ।

    इ्ठेह देवता यज्ञैः स्वलोक याति याज्ञिक: ।भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान्दिव्यान्निजार्जितान्‌ ॥

    २३॥

    इश्ठा--पूजा करके; इह--इस जगत में ; देवता:--देवतागण; यज्जै:--यज्ञ द्वारा; स्व:-लोकम्‌--स्वर्गलोक को; याति--जाता है;याज्ञिक:--यज्ञ करने वाला; भुझ्जीत-- भोग सकता है; देव-वत्‌--देवता के समान; तत्र--जिसमें; भोगान्‌-- आनन्द;दिव्यानू--दिव्य; निज--अपने से; अर्जितान्‌ू--अर्जित किये हुए।

    यदि पृथ्वी पर कोई व्यक्ति देवताओं की तुष्टि के लिए यज्ञ सम्पन्न करता है, तो वहस्वर्गलोक जाता है, जहाँ वह देवताओं की ही तरह अपने कार्यों से अर्जित सभी प्रकार के स्वर्ग-सुख का भोग करता है।

    स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते ।गन्धर्वर्विहरन्मध्ये देवीनां हृद्यवेषधूक्‌ू ॥

    २४॥

    स्व--अपने; पुण्य--पुण्यकर्मों से; उपचिते--संचित; शुभ्रे--चमकीले; विमाने--वायुयान में; उपगीयते--गीतों द्वारा महिमागाई जाती है; गन्धर्वै: --गन्धर्वों द्वारा; विहरन्‌ू--जीवन का आनन्द मनाते; मध्ये--बीच में; देवीनाम्‌--स्वर्ग की देवियों के;हृद्य--मनोहर; वेष--वस्त्र; धृक्‌ू-- धारण किये।

    स्वर्ग प्राप्त कर लेने के बाद यज्ञ करने वाला व्यक्ति चमचमाते वायुयान में बैठ कर यात्राकरता है, जो उसे पृथ्वी पर उसके पुण्यकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होता है। वह गन्धर्वों द्वारायशोगान किया जाकर तथा अतीव मोहक वस्त्र पहने स्वर्ग की देवियों से घिर कर जीवन काआनन्द लेता है।

    स्त्रीभि:ः कामगयानेन किट्धिनीजालमालिना ।क्रीडन्न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वुतः ॥

    २५॥

    स्त्रीभि:--स्वर्ग की स्त्रियों के साथ; काम-ग--इच्छानुसार भ्रमण करते हुए; यानेन--वायुयान द्वारा; किड्धिणी -जाल-मालिना--बजती घंटियों के मंडलों से अलंकृत; क्रीडन्‌--विहार करते; न--नहीं; वेद--विचार करता है; आत्म--निजी;पातम्‌--पतन को; सुर--देवताओं के; आक्रीडेषु--विहार-उद्यानों में; निर्वृत:--अत्यन्त सुखी तथा आराम का अनुभव करता।

    यज्ञ फल का भोक्ता स्वर्ग की सुन्दरियों को साथ लेकर ऐसे अद्भुत विमान में चढ़कर सैरसपाटे के लिए जाता है, जो रुनझुन शब्द करती घंटियों से गोलाकार में सजाया रहता है औरजहाँ भी चाहे उड़ जाता है। वह स्वर्ग के विहार-उद्यानों में नितान्‍्त सुख एवं आराम का अनुभवकरते हुए इस पर विचार ही नहीं करता कि वह अपने पुण्यकर्मों के फल को समाप्त कर रहा हैऔर शीतघ्र ही मर्त्यलोक में जा गिरेगा।

    तावत्स मोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते ।क्षीणपुन्यः पतत्यर्वागनिच्छन्‍्कालचालित: ॥

    २६॥

    तावतू--तब तक; सः--वह; मोदते-- आनन्द मनाता है; स्वर्गे--स्वर्ग में; यावत्‌--जब तक; पुण्यम्‌--उसके पवित्र फल;समाप्यते--समाप्त हो जाते हैं; क्षीण--घट जाते हैं; पुण्य: --उसका पुण्य; पतति--गिर जाता है; अर्वाक्‌--स्वर्ग से;अनिच्छन्‌--न चाहते हुए; काल--समय के द्वारा; चालित:--नीचे धकेला गया।

    यज्ञकर्ता तब तक स्वर्गलोक में जीवन का आनन्द लेता है, जब तक उसके पुण्यकर्मों का'फल समाप्त नहीं हो जाता। किन्तु जब पुण्यफल चुक जाते हैं, तो नित्य काल की शक्ति द्वारावह उसकी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग के विहार स्थलों से धकिया कर नीचे गिरा दिया जाता है।

    यद्यधर्मरत: सडझ़दसतां वाजितेन्द्रिय: ।कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रेणो भूतविहिंसकः ॥

    २७॥

    'पशूनविधिनालभ्य प्रेतभूतगणान्यजन्‌ ।नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तम: ॥

    २८॥

    कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन्देहेन तैः पुनः ।देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिण: ॥

    २९॥

    यदि--यदि; अधर्म--अधर्म में; रत:ः--लगा हुआ; सड्भातू--संगति के फलस्वरूप; असताम्‌--भौतिकतावादी लोगों की; वा--अथवा; अजित--न जीतने के कारण; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; काम-- भौतिक कामेच्छाएँ; आत्मा--के लिए जीवित; कृपण:--कंजूस; लुब्ध:--लोभी; स्त्रैण:--स्त्रियों के पीछे पड़ने वाला; भूत--अन्य जीवों के विरुद्ध; विहिंसक:--हिंसा करते हुए;पशून्‌--पशुओं को; अविधिना--वैदिक आदेशों के अधिकार के बिना; आलभ्य--मारकर; प्रेत-भूत-- भूत-प्रेत; गणान्‌--समूहों; यजन्‌--पूजा करते हुए; नरकान्‌--नरकों को; अवश:--निरुपाय, सकाम कर्मों के अधीन; जन्तु:--जीव; गत्वा--जाकर; याति--पहुँचता है; उल्बणम्‌--घने; तम:ः--अंधकार में; कर्माणि--कर्म; दुःख--दुख; उरदर्काणि-- भविष्य में लानेवाले; कुर्वन्‌ू--करते हुए; देहेन--ऐसे शरीर से; तैः--ऐसे कर्मों से; पुनः--फिर; देहम्‌--शरीर; आभजते--स्वीकार करता है;तत्र--वहाँ; किम्‌--क्या; सुखम्‌--सुख; मर्त्य--मरणशील; धर्मिण:--कर्म करने वाले का।

    यदि मनुष्य बुरी संगति के कारण अथवा इन्द्रियों को अपने वश में न कर पाने के कारण'पापमय अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहता है, तो ऐसा व्यक्ति निश्चित ही भौतिक इच्छाओं से पूर्णव्यक्तित्व को जन्म देता है। इस तरह वह अन्यों के प्रति कंजूस, लालची तथा स्त्रियों के शरीरोंका लाभ उठाने का सदैव इच्छुक बन जाता है। जब मन इस तरह दूषित हो जाता है, तो वहहिंसक तथा उग्र हो उठता है और वेदों के आदेशों के विरुद्ध अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए निरीहपशुओं का वध करने लगता है। भूत-प्रेतों की पूजा करने से ऐसा मोहग्रस्त व्यक्ति अवैध कार्योंकी गिरफ्त में आ जाता है और नरक को जाता है, जहाँ उसे तमोगुण से युक्त भौतिक शरीर प्राप्तहोता है। ऐसे अधम शरीर से वह दुर्भाग्यवश अशुभ कर्म करता रहता है, जिससे उसका भावीदुख बढ़ता जाता है, अतएवं वह पुनः वैसा ही भौतिक शरीर स्वीकार करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए ऐसा कौन-सा सुख हो सकता है, जिसके लिए वह अपने को ऐसे कार्यों में लगाता है, जोअपरिहार्य रूप से मृत्यु पर समाप्त हो जाते हैं ?

    श़लोकानां लोकपालानां मद्धयं कल्पजीविनाम्‌ ।ब्रह्मणोपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुष: ॥

    ३०॥

    लोकानाम्‌--समस्त लोकों में; लोक-पालानामू--तथा समस्त लोक-नायकों यथा देवताओं के लिए; मत्‌--मेरा; भयम्‌-- भयरहता है; कल्प-जीविनामू--एक कल्प अर्थात्‌ ब्रह्म के एक दिन की आयु वालों के लिए; ब्रह्मण: --ब्रह्मा का; अपि-- भी;भयमू--डर है; मत्त:--मुझसे; द्वि-परार्ध--दो परार्ध जो मिलाकर ३१,१०,४०,००,००,००, ००० वर्ष होते हैं; पर--परम;आयुष:--आयु वाले।

    स्वर्ग से लेकर नरक तक सभी लोकों में तथा उन समस्त महान्‌ देवताओं के लिए जो१,००० चतुर्युग तक जीवित रहते हैं, मुझ कालरूप के प्रति भय व्याप्त रहता है। यहाँ तक किब्रह्माजी, जिनकी आयु ३१,१०,४०,००,००,००,००० वर्ष है भी मुझसे डरे रहते हैं।

    गुणा: सृजन्ति कर्माणि गुणोनुसूजते गुणान्‌ ।जीव्स्तु गुणसंयुक्तो भुड़े कर्मफलान्यसौ ॥

    ३१॥

    गुणाः:-- भौतिक इन्द्रियाँ; सृजन्ति--उत्पन्न करती हैं; कर्माणि--शुभ तथा अशुभ कर्मों को; गुण: --प्रकृति के तीन गुण;अनुसूजते--गति प्रदान करते हैं; गुणान्‌ू--भौतिक इन्द्रियों को; जीव:--सूक्ष्म जीव; तु--निस्सन्देह; गुण-- भौतिक इन्द्रियअथवा गुण; संयुक्त:--संलग्न; भुड्ढे --अनुभव करता है; कर्म--कर्मों के; फलानि--विविध परिणाम; असौ--वह

    आत्माभौतिक इन्द्रियाँ पवित्र या पापमय कर्म उत्पन्न करती हैं और प्रकृति के गुण भौतिक इन्द्रियोंको गति प्रदान करते हैं। जीव इन भौतिक इन्द्रियों तथा प्रकृति के गुणों में पूरी तरह संलग्नरहकर सकाम कर्म के विविध फलों का अनुभव करता है।

    यावत्स्याद्गुणवैषम्यं तावजन्नानात्वमात्मन: ।नानात्वमात्मनो यावत्पारतन्त्यं तदैव हि ॥

    ३२॥

    यावत्‌--जब तक; स्यात्‌--है; गुण--प्रकृति के गुणों का; वैषम्यम्‌--पृथक्‌ अस्तित्व; तावत्‌--तब तक रहेगा; नानात्वम्‌--विविधता; आत्मन:--आत्मा की; नानात्वमू--विविधता; आत्मन:--आत्मा की; यावत्‌--जब तक हैं; पारतन्त्यम्‌ू--पराधीनता;तदा--तब होंगे; एव--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह |

    जब तक जीव यह सोचता है कि प्रकृति के गुणों का अलग अलग अस्तित्व है, तब तक वहअनेक रूपों में जन्म लेने के लिए बाध्य होगा और वह अनेक प्रकार के भौतिक जीवन काअनुभव करेगा। इसलिए जीव प्रकृति के गुणों के अधीन सकाम कर्मों पर पूरी तरह आश्रितरहता है।

    यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदी श्वरतो भयम्‌ ।य एतत्समुपासीरंस्ते मुहान्ति शुचार्पिता: ॥

    ३३॥

    यावत्‌--जब तक; अस्य--जीव का; अस्वतन्त्रत्वमू-प्रकृति के गुणों पर निर्भरता से स्वतंत्र नहीं है; तावत्‌--तब होगा;ईश्वरत:--परम नियन्ता से; भयम्‌--डर; ये--जो; एतत्‌--इस जीवन धारणा को; समुपासीरन्‌--उपासना करते हुए; ते--वे;मुहान्ति--मोहग्रस्त रहते हैं; शुचा--शोक में; अर्पिता:--सदैव लीन

    जो बद्धजीव प्रकृति के गुणों के अधीन होकर सकाम कर्मों पर निर्भर रहता है, वह मुझभगवान्‌ से डरता रहता है, क्योंकि मैं उसके सकाम कर्मों के फल को लागू करता हूँ। जो लोगप्रकृति के गुणों की विविधता को यथार्थ मानकर भौतिकवादी जीवन की अवधारणा स्वीकारकरते हैं, वे भौतिक-भोग में अपने को लगाते हैं, फलस्वरूप वे सदैव शोक तथा दुख में डूबेरहते हैं।

    काल आत्मागमो लोक: स्वभावो धर्म एवच ।इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति ॥

    ३४॥

    काल:ः--काल, समय; आत्मा--आत्मा; आगम: --वैदिक ज्ञान; लोक:--ब्रह्माण्ड; स्वभाव: --विभिन्न जीवों की विभिन्नप्रकृतियाँ; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; एबव--निश्चय ही; च-- भी; इति--इस प्रकार; माम्‌--मुझको; बहुधा--कई प्रकार से;प्राहु:--पुकारते हैं; गुण-- प्रकृति के गुणों के; व्यतिकरे-- क्षोभ; सति--जब होता है।

    जब प्रकृति के गुणों में उद्देलल तथा अन्योन्य क्रिया होती है, तो जीव मेरा वर्णनसर्वशक्तिमान काल, आत्मा, वैदिक ज्ञान, ब्रह्माण्ड, स्वयं अपना स्वभाव, धार्मिक उत्सव आदिअनेक प्रकारों से करते हैं।

    श्रीउद्धव उबाचगुणेषु वर्तमानोपि देहजेष्वनपावृतः ।गुणैर्न बध्यते देही बध्यते वा कर्थं विभो ॥

    ३५॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; गुणेषु--प्रकृति के गुणों में; बर्तमान:--स्थित होकर; अपि--यद्यपि; देह-- भौतिकशरीर से; जेषु--उत्पन्न; अनपावृतः --अ प्रच्छन्न होकर; गुणैः --गुणों से; न--नहीं; बध्यते--बाँधा जाता है; देही-- भौतिकशरीर के भीतर जीव; बध्यते--बाँधा जाता है; वा--अथवा; कथम्‌--यह कैसे होता है; विभो-हे प्रभु |

    श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, भौतिक शरीर के भीतर स्थित जीव प्रकृति के गुणों तथा इनगुणों से उत्पन्न कर्मो के द्वारा उपजे सुख तथा दुख से घिरा रहता है। यह कैसे सम्भव है कि वहइस भौतिक पाश से बँधा न हो? यह भी कहा जा सकता है कि जीव तो अन्ततः दिव्य है औरउसे इस भौतिक जगत से कुछ भी लेना-देना नहीं है। तो फिर वह भौतिक प्रकृति द्वारा कभीबद्ध कैसे हो सकता है? कथं वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षण: ।कि भुज्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा ॥

    ३६॥

    एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर ।नित्यबद्धो नित्यमुक्त एक एवेति मे भ्रम: ॥

    ३७॥

    कथम्‌--किस तरह; वर्तेत--स्थित है; विहरेतू--विहार करता है; कै:--किससे; वा--अथवा; ज्ञायेत--जाना जायेगा;लक्षणै:ः--लक्षणों से; किम्‌--क्या; भुझ्जीत--खायेगा; उत--तथा; विसूजेत्‌--मल त्याग करता है; शयीत--लेटेगा;आसीत--बैठेगा; याति--जाता है; वा--अथवा; एतत्‌--यह; अच्युत--हे अच्युत; मे--मुझको; ब्रूहि--बतलायें; प्रश्नम्‌--प्रश्न; प्रश्न-विदाम्‌--जो प्रश्नों का उत्तर देने में पटु हैं उनके; वर-हे श्रेष्ठ; नित्य-बद्धः--नित्य बद्ध; नित्य-मुक्त:--नित्य मुक्त;एकः--अकेला; एव--निश्चय ही; इति--इस प्रकार; मे--मेरा; भ्रम:--सनन्‍्देह |

    हे अच्युत भगवान्‌, एक ही जीव कभी तो नित्य बद्ध कहा जाता है, तो कभी नित्य मुक्त ।इसलिए जीव की वास्तविक स्थिति मेरी समझ में नहीं आ रही। हे प्रभु, आप दार्शनिक प्रश्नों काउत्तर देने वालों में सर्वोपरि हैं। कृपा करके मुझे वे लक्षण समझाएँ, जिनसे यह बतलाया जा सकेकि नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त जीव में क्‍या अन्तर है। वे किन विधियों से स्थित रहते हैं, जीवनका भोग करते हैं, खाते हैं, मल त्याग करते हैं, लेटते हैं, बैठते हैं या इधर-उधर जाते हैं ?

    TO

    11. बद्ध और मुक्त जीवित संस्थाओं के लक्षण

    श्रीभगवानुवाचबद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः ।गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम्‌ ॥

    १॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; बद्धः--बन्धन में; मुक्त:--मुक्त हुआ; इति--इस प्रकार; व्याख्या--जीव की विवेचना;गुणतः--प्रकृति के गुणों के अनुसार; मे--जो मेरी शक्ति है; न--नहीं; वस्तुत:--वास्तव में; गुणस्य--प्रकृति के गुणों का;माया--मेरी मोहक शक्ति; मूलत्वात्‌--कारण होने से; न--नहीं; मे--मेरा; मोक्ष: --मुक्ति; न--न तो; बन्धनम्‌--बन्धन ।

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, मेरे अधीन प्रकृति के गुणों के प्रभाव से जीव कभी बद्ध कहाजाता है, तो कभी मुक्त। किन्तु वस्तुतः आत्मा न तो कभी बद्ध होता है, न मुक्त और चूँकि मैंप्रकृति के गुणों की कारणस्वरूप माया का परम स्वामी हूँ, इसलिए मुझे भी मुक्त या बद्ध नहींमाना जाना चाहिए।

    शोकमोहौ सुखं दु:खं देहापत्तिश्चव मायया ।स्वप्नो यथात्मन: ख्याति: संसृतिर्न तु वास्‍्तवी ॥

    २॥

    शोक--शोक; मोहौ--तथा मोह; सुखम्‌--सुख; दुःखम्‌--दुख; देह-आपत्ति: -- भौतिक शरीर धारण करना; च--भी;मायया--माया के प्रभाव से; स्वन:ः--स्वप्न; यथा--जिस तरह; आत्मन:--बुद्धि के ; ख्याति:--मात्र एक विचार; संसृति:--संसार; न--नहीं है; तु--निस्सन्देह; वास्तवी--असली, सत्य

    जिस तरह स्वप्न मनुष्य की बुद्धि की सृष्टि है किन्तु वास्तविक नहीं होता, उसी तरह भौतिकशोक, मोह, सुख, दुख तथा माया के वशीभूत होकर भौतिक शरीर ग्रहण करना--ये सभी मेरीमोहिनी शक्ति ( माया ) की सृष्टियाँ हैं। दूसरे शब्दों में, भौतिक जगत में कोई असलियत नहीं है।

    विद्याविद्ये मम तनू विद्धयुद्धव शरीरिणाम्‌ ।मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते ॥

    ३॥

    विद्या--ज्ञान; अविद्ये--तथा अज्ञान; मम--मेरा; तनू--प्रकट शक्तियाँ; विद्द्धि--जानो; उद्धव--हे उद्धव; शरीरिणाम्‌--देहधारी जीवों का; मोक्ष--मो क्ष; बन्ध--बन्धन; करी--उत्पन्न करने वाला; आद्ये--आदि, नित्य; मायया--शक्ति द्वारा; मे--मेरा; विनिर्मिते--उत्पन्न किया गया |

    हे उद्धव, ज्ञान ( विद्या ) तथा अज्ञान ( अविद्या ) दोनों ही माया की उपज होने के कारण मेरीशक्ति के विस्तार हैं। ये दोनों अनादि हैं और देहधारी जीवों को शाश्वत मोक्ष तथा बन्धन प्रदानकरने वाले हैं।

    एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते ।बन्धोस्याविद्ययानादिर्विद्यया च तथेतर: ॥

    ४॥

    एकस्य--एक के; एव--निश्चय ही; मम--मेरे; अंशस्य--अंश के; जीवस्य--जीव के; एव--निश्चय ही; महा-मते--हे परमबुद्धिमान; बन्ध: --बन्धन; अस्य--उसका; अविद्यया--अज्ञान से; अनादि:--आदि-रहित; विद्यया--ज्ञान से; च--तथा;तथा--उसी तरह; इतर:--बन्धन का उल्टा, मोक्ष।

    हे परम बुद्धिमान उद्धव, जीव मेरा भिन्नांश है, किन्तु अज्ञान के कारण वह अनादि काल सेभौतिक बन्धन भोगता रहा है। फिर भी ज्ञान द्वारा वह मुक्त हो सकता है।

    अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते ।विरुद्धधर्मिणोस्तात स्थितयोरेकधर्मिणि ॥

    ५॥

    अथ--इस प्रकार; बद्धस्य--बद्धजीव के; मुक्तस्य--मुक्त भगवान्‌ के; वैलक्षण्यम्‌--विभिन्न लक्षण; वदामि--अब मैं कहूँगा;ते--तुमसे; विरुद्ध--विपरीत; धर्मिणो: --जिसके दो स्वभाव; तात--हे उद्धव; स्थितयो: --स्थित दो के ; एक-धर्मिणि--एकशरीर में अपने भिन्न भिन्न लक्षण प्रकट करता है।

    इस तरह हे उद्धव, एक ही शरीर में हम दो विरोधी लक्षण--यथा महान्‌ सुख तथा दुख पातेहैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि नित्य मुक्त भगवान्‌ तथा बद्ध आत्मा दोनों ही शरीर के भीतर हैं।अब मैं तुमसे उनके विभिन्न लक्षण कहूँगा।

    सुपर्णावेती सहशौ सखायौयहच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे ।एकस्तयो: खादति पिप्पलान्न-मन्यो निरन्नोडपि बलेन भूयान्‌ ॥

    ६॥

    सुपर्णौं--दो पक्षी; एतौ--ये; सहशौ--एक समान; सखायौ--मित्र; यहच्छया--संयोगवश; एतौ--ये दोनों; कृत--बनाये हुए;नीडौ--घोंसला; च--तथा; वृक्षे--वृक्ष पर; एक:--एक; तयो:--दोनों में से; खादति--खा रहा है; पिप्पल--वृक्ष के;अन्नम्‌ू--फलों को; अन्य:ः--दूसरा; निरन्न:--न खाते हुए; अपि--यद्यपि; बलेन--शक्ति से; भूयानू- श्रेष्ठ है

    संयोगवश दो पक्षियों ने एक ही वृक्ष पर एक साथ घोंसला बनाया है। दोनों पक्षी मित्र हैंऔर एक जैसे स्वभाव के हैं। किन्तु उनमें से एक तो वृक्ष के फलों को खा रहा है, जबकि दूसरा,जो कि इन फलों को नहीं खा रहा है, अपनी शक्ति के कारण श्रेष्ठ पद पर है।

    आत्मानमन्यं च स वेद विद्वा-नपिप्पलादो न तु पिप्पलाद: ।योउविद्यया युक्स तु नित्यबद्धोविद्यामयो यः स तु नित्यमुक्त: ॥

    ७॥

    आत्मानम्‌--स्वयं; अन्यमू--दूसरा; च-- भी; सः--वह; वेद--जानता है; विद्वान्‌--सर्वज्ञ होने से; अपिप्पल-अदः--वृक्ष केफलों को नहीं खाने वाला; न--नहीं; तु--लेकिन; पिप्पल-अदः --वृक्ष के फलों को खाने वाला; य:--जो; अविद्यया--अज्ञान से; युकू--परिपूर्ण; सः--वह; तु--निस्सन्देह; नित्य--शा श्वत रूप से; बद्ध:--बद्ध; विद्या मय: --पूर्ण ज्ञान से पूरित;यः--जो; सः--वह; तु--निस्सन्देह; नित्य--नित्य; मुक्त:--मुक्त

    जो पक्षी वृक्ष के फल नहीं खा रहा वह भगवान्‌ है, जो अपनी सर्वज्ञता के कारण अपने पदको तथा उस बद्धजीव के पद को, जो कि फल खा रहे पक्षी द्वारा दर्शाया गया है, समझते हैं।किन्तु दूसरी ओर, वह जीव न तो स्वयं को समझता है, न ही भगवान्‌ को। वह अज्ञान सेआच्छादित है, अतः नित्य बद्ध कहलाता है, जबकि पूर्ण ज्ञान से युक्त होने के कारण भगवान्‌नित्य मुक्त हैं।

    देहस्थोपि न देहस्थो विद्वान्स्वप्नाद्यथोत्थित: ।अदेहस्थोपि देहस्थः कुमति: स्वणहग्यथा ॥

    ८॥

    देह--भौतिक शरीर में; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; न--नहीं; देह--शरीर में; स्थ:--स्थित; विद्वान्‌--बुद्धिमान व्यक्ति;स्वणात्‌--स्वप्न से; यथा--जिस तरह; उत्थित:--जाग कर; अदेह--शरीर में नहीं; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; देह--शरीरमें; स्थ:--स्थित; कु-मति:--मूर्ख व्यक्ति; स्वज--स्वण; हक्‌--देख रहा; यथा--जिस तरह

    जो व्यक्ति स्वरूपसिद्ध है, वह भौतिक शरीर में रहते हुए भी अपने को शरीर से परे देखताहै, जिस तरह मनुष्य स्वप्न से जाग कर स्वज-शरीर से अपनी पहचान त्याग देता है। किन्तु मूर्खव्यक्ति यद्यपि वह अपने भौतिक शरीर से पहचान नहीं रखता किन्तु इसके परे होता है, अपनेभौतिक शरीर में उसी प्रकार स्थित सोचता है, जिस तरह स्वप्न देखने वाला व्यक्ति अपने कोकाल्पनिक शरीर में स्थित देखता है।

    इन्द्रियैरिन्द्रियार्थषु गुणैरपि गुणेषु च ।गृह्ममाणेष्वहं कुर्यात्र विद्वान्यस्त्वविक्रिय: ॥

    ९॥

    इन्द्रिये: --इन्द्रियों द्वारा; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; अर्थषु--पदार्थों में; गुणैः--गुणों से उत्पन्न हुए; अपि--भी; गुणेषु--उन्हीं गुणों सेउत्पन्न में से; च-- भी; गृह्ममाणेषु-- ग्रहण किये जाकर; अहम्‌--मिथ्या अभिमान; कुर्यात्‌--उत्पन्न करना चाहिए; न--नहीं;विद्वान्‌-प्रबुद्ध;। यः--जो; तु--निस्सन्देह; अविक्रिय:-- भौतिक इच्छा से अप्रभावित |

    भौतिक इच्छाओं के कल्मष से मुक्त प्रबुद्ध व्यक्ति अपने आपको शारीरिक कार्यो का कर्तानहीं मानता, प्रत्युत वह जानता है कि ऐसे कार्यों में प्रकृति के गुणों से उत्पन्न इन्द्रियाँ ही उन्हींगुणों से उत्पन्न इन्द्रिय-विषयों से सम्पर्क करती हैं।

    देवाधीने शरीरेउस्मिन्गुणभाव्येन कर्मणा ।वर्तमानोबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबध्यते ॥

    १०॥

    दैव--मनुष्य के पूर्व सकाम कर्मों के; अधीने--अधीन; शरीरे-- भौतिक शरीर में; अस्मिन्‌ू--इस; गुण--गुणों से; भाव्येन--उत्पन्न; कर्मणा--सकाम कर्मों द्वारा; वर्तमान:--स्थित होकर; अबुध:--मूर्ख; तत्र--शारीरिक कार्यो में; कर्ता--करने वाला;अस्मि--हूँ; इति--इस प्रकार; निबध्यते--बँध जाता है।

    अपने पूर्व सकाम कर्मों द्वारा उत्पन्न शरीर के भीतर स्थित, अज्ञानी व्यक्ति सोचता है कि मैंही कर्म का कर्ता हूँ। इसलिए ऐसा मूर्ख व्यक्ति मिथ्या अहंकार से मोहग्रस्त होकर, उन सकामकर्मों से बँध जाता है, जो वस्तुतः प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं।

    एवं विरक्त: शयन आसनाटनमज्जने ।दर्शनस्पर्शनप्राणभोजन श्रवणादिषु ।न तथा बध्यते दिद्वान्तत्र तत्रादयन्गुणान्‌ ॥

    ११॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विरक्त:--भौतिक भोग से विलग हुआ; शयने--लेटने या सोने में; आसन--बैठने में; अटन--चलते हुए;मज्ने--अथवा स्नान में; दर्शन--देखने में; स्पर्शन--स्पर्श करने; घ्राण--सूँघने; भोजन--खाने; श्रवण--सुनने; आदिषु--इत्यादि में; न--नहीं; तथा--इस प्रकार; बध्यते--बाँधा जाता है; विद्वानू--बुद्ध्धिमान व्यक्ति; तत्र तत्र--जहाँ भी जाता है;आदयन्‌--अनुभव कराते; गुणान्‌--प्रकृति के गुणों से उत्पन्न, इन्द्रियाँ ॥

    प्रबुद्ध व्यक्ति विरक्त रहकर शरीर को लेटने, बैठने, चलने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने,खाने, सुनने इत्यादि में लगाता है, लेकिन वह कभी भी ऐसे कार्यों में फँसता नहीं। निस्‍्सन्देह,वह समस्त शारीरिक कार्यों का साक्षी बनकर अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों में लगाता है औरवह मूर्ख व्यक्ति की भाँति उसमें फँसता नहीं।

    प्रकृतिस्थोप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिल: ।वैशारद्येक्षयासड्रशितया छिन्नसंशय: ।प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद्विनिवर्तते ॥

    १३॥

    प्रकृति-- भौतिक जगत में; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; असंसक्त:--इन्द्रियतृप्ति से पूर्णतया विरक्त; यथा--जिस तरह;खम्‌--आकाश; सविता--सूर्य; अनिल: --वायु; वैशारद्या--अत्यन्त कुशल द्वारा; ईक्षया--दृष्टि; असड़--विरक्ति द्वारा;शितया--तेज किया हुआ; छिन्न--खण्ड खण्ड; संशय: --सन्देह; प्रतिबुद्ध:--जाग्रत; इब--सहश; स्वप्नातू--स्वण से;नानात्वातू--संसार के विविधत्व के द्वन्द् से; विनिवर्तते--मुख मोड़ता है या परित्याग कर देता है।

    यद्यपि आकाश हर वस्तु की विश्राम-स्थली है, किन्तु वह न तो किसी वस्तु से मिलता है, नउसमें उलझता है। इसी प्रकार सूर्य उन नाना जलाशयों के जल में लिप्त नहीं होता, जिनमें से वहप्रतिबिम्बित होता है। इसी तरह सर्वत्र बहने वाली प्रबल वायु उन असंख्य सुगंधियों तथावातावरणों से प्रभावित नहीं होती, जिनमें से होकर वह गुजरती है। ठीक इसी तरह स्वरूपसिद्धआत्मा भौतिक शरीर तथा अपने आसपास के भौतिक जगत से पूर्णतया विरक्त रहता है। वह उसमनुष्य की तरह है, जो स्वप्न से जगा है। स्वरूपसिद्ध आत्मा विरक्ति द्वारा प्रख/ की गई कुशलइृष्टि से आत्मा के पूर्ण ज्ञान से समस्त संशयों को छिन्न-भिन्न कर देता है और अपनी चेतना कोभौतिक विविधता के विस्तार से पूर्णतया विलग कर लेता है।

    यस्य स्युर्वीतसड्डूल्पा: प्राणेन्द्रियमनोधियाम्‌ ।वृत्तय: स विनिर्मुक्तो देहस्थोपि हि तदगुणैः ॥

    १४॥

    यस्य--जिसके; स्यु:--हैं; वीत--रहित; सड्डूल्पा:-- भौतिक इच्छा से; प्राण--प्राण; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मन: --मन; धियाम्‌--बुद्धि के; वृत्तय:--कार्य; सः--ऐसा व्यक्ति; बिनिर्मुक्त:--पूर्णतया मुक्त; देह--शरीर में; स्थ:--स्थित; अपि--होते हुए भी;हि--निश्चय ही; तत्‌--शरीर के; गुणैः--गुणों से

    वह व्यक्ति स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से पूर्णतया मुक्त माना जाता है, जब उसके प्राण,इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि के सारे कर्म किसी भौतिक इच्छा के बिना सम्पन्न किये जाते हैं। ऐसाव्यक्ति शरीर में स्थित रहकर भी बद्ध नहीं होता।

    अस्यात्मा हिंस्यते हिंस््रै्येन किल्लिद्यदच्छया ।अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुध: ॥

    १५॥

    यस्य--जिसका; आत्मा--शरीर; हिंस्यते-- आक्रमण किया जाता है; हिंस्त्रै:--पापी व्यक्तियों या उग्र पशुओं द्वारा; येन--जिससे; किश्चित्‌ू--कुछ कुछ; यदहृच्छया--किसी न किसी तरह; अर्च्यते--रूपान्तरित या प्रभावित होता है; वा--अथवा;क्वचित्‌--कहीं; तत्र--वहाँ; न--नहीं; व्यतिक्रियते--परिवर्तित अथवा प्रभावित होता है; बुध:--बुद्द्धिमान व्यक्ति

    कभी कभी अकारण ही मनुष्य के शरीर पर क्रूर व्यक्तियों या उग्र पशुओं द्वारा आक्रमणकिया जाता है। अन्य अवसरों तथा अन्य स्थानों पर उसी व्यक्ति का दैवयोग से अत्यन्त सम्मानया पूजन होता है। जो व्यक्ति आक्रमण किये जाने पर क्रुद्ध नहीं होता, न ही पूजा किये जाने परप्रमुदित होता है, वही वास्तव में बुद्धिमान है।

    न स्तुवीत न निन्देत कुर्वतः साध्वसाधु वा ।बदतो गुणदोषाभ्यां वर्जित: समहड्मुनि: ॥

    १६॥

    न स्तुवीत--प्रशंसा नहीं करता; न निन्देत--आलोचना नहीं करता; कुर्बतः--काम करने वाले; साधु--उत्तम; असाधु--दुष्ट;बा--अथवा; वदत:--बोलने वाले; गुण-दोषाभ्याम्‌--अच्छे तथा बुरे गुणों से; वर्जित:--मुक्त हुए; सम-हक्‌--समानदर्शी ;मुनि:--सन्त-साधु |

    सन्त पुरुष समान दृष्टि से देखता है, अतएवं भौतिक दृष्टि से अच्छे या बुरे कर्म से प्रभावितनहीं होता। यद्यपि वह अन्यों को अच्छा तथा बुरा कार्य करते और उचित तथा अनुचित बोलतेदेखता है, किन्तु वह किसी की प्रशंसा या आलोचना नहीं करता।

    न कुर्यान्न वदेत्किञ्ञिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा ।आत्मारामोनया वृत्त्या विचरेजजडवन्मुनि: ॥

    १७॥

    न कुर्यातू-- नहीं करे; न वदेत्‌ू--नहीं बोले; किश्ञित्‌ू--कुछ भी; न ध्यायेत्‌ू--चिन्तन नहीं करे; साधु असाधु वा--अच्छी अथवाबुरी वस्तुएँ; आत्म-आराम:--आत्म-साक्षात्कार में आनन्द प्राप्त करने वाला; अनया--इस; वृत्त्या--जीवन-शैली द्वारा;विचरेत्‌--उसे भ्रमण करना चाहिए; जड-वत्‌--जड़ व्यक्ति की तरह; मुनि:--साधु-पुरुष |

    मुक्त साधु-पुरुष को अपने शरीर-पालन के लिए भौतिक अच्छाई या बुराई की दिशा हेतु नतो कर्म करना चाहिए, न बोलना या सोच-विचार करना चाहिए। प्रत्युत उसे सभी भौतिकपरिस्थितियों में विरक्त रहना चाहिए और आत्म-साक्षात्कार में आनन्द लेते हुए उसे इस मुक्तजीवन-शैली में संलग्न होकर विचरण करना चाहिए और बाहरी लोगों को मन्दबुद्ध्धि-व्यक्तिजैसा लगना चाहिए।

    शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि ।श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्ाथेनुमिव रक्षत: ॥

    १८॥

    शब्द-ब्रह्मणि --वैदिक साहित्य में; निष्णात:--पूर्ण अध्ययन से निपुण; न निष्णायात्‌--मन को लीन नहीं करता; परे--परम में;यदि--यदि; श्रम:--परिश्रम; तस्य--उसका; श्रम--महत्प्रयास का; फल:--फल; हि--निश्चय ही; अधेनुम्‌--दूध न देने वालीगाय; इब--सहश; रक्षतः--रखवाले का।

    यदि कोई गहन अध्ययन करके वैदिक साहित्य के पठन-पाठन में निपुण बन जाता है,किन्तु भगवान्‌ में मन को स्थिर करने का प्रयास नहीं करता, तो उसका श्रम बैसा ही होता है,जिस तरह दूध न देने वाली गाय की रखवाली करने में अत्यधिक श्रम करने वाले व्यक्ति का।दूसरे शब्दों में, वैदिक ज्ञान के श्रमपूर्ण अध्ययन का फल कोरा श्रम ही निकलता है। उसके कोईअन्य सार्थक फल प्राप्त नहीं होगा।

    गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यादेहं पराधीनमसत्प्रजां च ।वित्त त्वतीर्थीकृतमड़ वाचंहीनां मया रक्षति दुःखदु:ःखी ॥

    १९॥

    गाम्‌--गाय को; दुग्ध--जिसका दूध; दोहाम्‌--पहले दुहा जा चुका हो; असतीम्‌--कुलटा, व्यभिचारिणी; च--भी;भार्यामू--पत्नी को; देहम्‌ू--शरीर को; पर--अन्यों के; अधीनम्‌-- आश्रित; असत्‌--व्यर्थ; प्रजामू--बच्चों को; च--भी;वित्तम्‌--सम्पत्ति को; तु--लेकिन; अतीर्थी-कृतम्‌--योग्य पात्र को न दिया जाकर; अड़--हे उद्धव; वाचम्‌ू--वैदिक ज्ञान;हीनाम्‌ू--रहित; मया--मेरे ज्ञान का; रक्षति--रखवाली करता है; दुःख-दुःखी--एक कष्ट के बाद दूसरा कष्ट सहन करनेवाला।

    हे उद्धव, वह व्यक्ति निश्चय ही अत्यन्त दुखी होता है, जो दूध न देने वाली गाय, कुलटापत्नी, पूर्णतया पराश्चित शरीर, निकम्में बच्चों या सही कार्य में न लगाई जाने वाली धन-सम्पदाकी देखरेख करता है। इसी तरह, जो व्यक्ति मेरी महिमा से रहित वैदिक ज्ञान का अध्ययन करताहै, वह भी सर्वाधिक दुखियारा है।

    यस्यां न मे पावनमड़ कर्मस्थित्युद्धवप्राणनिरोधमस्य ।लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद्‌वश्ध्यां गिरं तां बिभूयान्न धीर: ॥

    २०॥

    यस्याम्‌--जिस ( साहित्य ) में; न--नहीं; मे--मेरा; पावनम्‌--पवित्रकारी; अड्र--हे उद्धव; कर्म--कर्म; स्थिति--पालन;उद्धव--सृष्टि; प्राण-निरोधम्‌--तथा संहार; अस्थ-- भौतिक जगत का; लीला-अवतार--लीला-अवतारों में से; ईप्सित--अभीष्ट; जन्म--प्राकट्य ; वा--अथवा; स्यात्‌--है; वन्ध्यामू--बंजर; गिरम्‌ू--वाणी; ताम्‌ू--यह; बिभूयात्‌--समर्थन करे;न--नहीं; धीर: --बुद्धिमान पुरुष।

    हे उद्धव, बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह कभी भी ऐसा ग्रंथ न पढ़े, जिनमें सम्पूर्णब्रह्माण्ड को पवित्र करने वाले मेरे कार्यकलापों का वर्णन न हो। निस्सन्देह मैं सम्पूर्ण जगत कासृजन, पालन तथा संहार करता हूँ। मेरे समस्त लीलावतारों में से कृष्ण तथा बलराम सर्वाधिकप्रिय हैं। ऐसा कोई भी तथाकथित ज्ञान, जो मेरे इन कार्यकलापों को महत्व नहीं देता, वह निराबंजर है और वास्तविक बुद्धिमानों द्वारा स्वीकार्य नहीं है।

    एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्वभ्रममात्मनि ।उपारमेत विरजं मनो मय्यर्पष्य सर्वगे ॥

    २१॥

    एवम्‌--इस तरह ( जैसाकि मैंने अभी कहा ); जिज्ञासया--वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा; अपोह्म--त्याग कर; नानात्व--विविधताके; भ्रमम्‌-घूमने की त्रुटि; आत्मनि--अपने में; उपारमेत-- भौतिक जीवन समाप्त कर देना चाहिए; विरजम्‌--शुद्ध; मन:--मन; मयि-- मुझमें; अर्प्प--स्थिर करके; सर्व-गे--सर्वव्यापी मेंश़

    समस्त ज्ञान के निष्कर्ष रूप में मनुष्य को चाहिए कि वह भौतिक विविधता की मिथ्याधारणा को त्याग दे, जिसे वह आत्मा पर थोपता है और इस तरह अपने भौतिक अस्तित्व कोसमाप्त कर दे। चूँकि मैं सर्वव्यापी हूँ, इसलिए मुझ पर मन को स्थिर करना चाहिए।

    यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम्‌ ।मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्ष: समाचर ॥

    २२॥

    यदि--यदि; अनीश: --असमर्थ; धारयितुम्‌--स्थिर करने के लिए; मन:--मन; ब्रह्मणि-- आध्यात्मिक पद पर; निश्चलम्‌--इन्द्रियतृष्ति से मुक्त; मयि--मुझमें; सर्वाणि--समस्त; कर्माणि--कर्म; निरपेक्ष:--फल भोगने का प्रयास किये बिना;समाचर--सम्पन्न करो

    हे उद्धव, यदि तुम अपने मन को समस्त भौतिक उहापोहों से मुक्त नहीं कर सकते और इसेआध्यात्मिक पद पर पूर्णतया लीन नहीं कर सकते, तो अपने सारे कार्यों को, उनका फल भोगनेका प्रयास किये बिना, मुझे अर्पित भेंट के रूप में सम्पन्न करो।

    श्रद्धालुर्मत्क था: श्रृण्वन्सुभद्रा लोकपावनी: ।गायन्ननुस्मरन्कर्म जन्म चाभिनयन्मुहु: ॥

    २३॥

    मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन्मदपा श्रयः ।लभते निश्चलां भक्ति मय्युद्धव सनातने ॥

    २४॥

    श्रद्धालु:--श्रद्धावान व्यक्ति; मत्‌-कथा:--मेरी कथाएँ; श्रृण्वन्‌--सुनते हुए; सु-भद्रा:--सर्वमंगलमय; लोक--सारे जगत को;'पावनी:--पवित्र बनाते हुए; गायन्‌ू--गाना; अनुस्मरन्‌--निरन्तर स्मरण करना; कर्म--मेरे कार्य; जन्म--मेरा जन्म; च-- भी;अभिनयन्‌--नाटक करके; मुहुः--पुनः पुनः; मत्‌-अर्थ--मेरे आनन्द के लिए; धर्म--धार्मिक कार्य; काम--इन्द्रिय-कर्म ;अर्थानू--तथा व्यापारिक कार्य; आचरन्‌--सम्पन्न करते हुए; मत्‌--मुझमें; अपाश्रय:--आश्रय बनाकर; लभते--प्राप्त करताहै; निश्चलामू--अटल; भक्तिमू-- भक्ति; मयि--मुझमें; उद्धव--हे उद्धव; सनातने--मेरे सनातन रूप |हे उद्धव, मेरी लीलाओं तथा गुणों की कथाएँ सर्वमंगलमय हैं और समस्त ब्रह्माण्ड कोपवित्र करने वाली हैं।

    जो श्रद्धालु व्यक्ति ऐसी दिव्य लीलाओं को निरन्तर सुनता है, उनकागुणगान करता है तथा उनका स्मरण करता है और मेरे प्राकट्य से लेकर सारी लीलाओं का अभिनय करता है, तथा मेरी तुष्टि के लिए अपने धार्मिक, ऐन्द्रिय तथा वृत्तिपरक कार्यों को मुझेअर्पित करता है, वह निश्चय ही मेरी अविचल भक्ति प्राप्त करता है।

    सत्सड्ुलब्धया भक्‍त्या मयि मां स उपासिता ।सबै मे दर्शितं सद्धिरज्ञसा विन्दते पदम्‌ ॥

    २५॥

    सत्‌--भगवद्भक्तों की; सड़--संगति से; लब्धया-प्राप्त की हुई; भक्त्या--भक्ति द्वारा; मयि--मुझमें; माम्‌--मेरा; सः--वह; उपासिता--उपासक; सः--वही व्यक्ति; वै--निस्सन्देह; मे--मेरा; दर्शितम्‌ू--बताये गये; सद्द्धिः--मेरे शुद्ध भक्तों द्वारा;अज्ञसा--आसानी से; विन्दते--प्राप्त करता है; पदम्‌--मेरे चरणकमल अथवा मेरा नित्य धाम |

    जिसने मेरे भक्तों की संगति से शुद्ध भक्ति प्राप्त कर ली है, वह निरन्तर मेरी पूजा में लगारहता है। इस तरह वह आसानी से मेरे धाम को जाता है, जिसे मेरे शुद्ध भक्तगणों द्वारा प्रकटकिया जाता है।

    श्रीउद्धव उवाचसाधुस्तवोत्तमश्लोक मतः कीहग्विध: प्रभो ।भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीहशी सद्धिराहता ॥

    २६॥

    एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो ।प्रणतायानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यताम्‌ ॥

    २७॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; साधु:--सन्त-पुरुष; तब--तुम्हारा; उत्तम-शलोक-हे प्रभु; मत:ः--विचार; कीहक्‌-विध:--वह किस तरह का होगा; प्रभो--हे भगवान्‌; भक्ति:--भक्ति; त्वयि--तुममें; उपयुज्येत--सम्पन्न करने योग्य है;'कीहशी--किसी तरह की है; सद्धिः--आपके शुद्ध भक्तों, यथा नारद द्वारा; आहता--समादरित; एतत्‌--यह; मे-- मुझसे;पुरुष-अध्यक्ष--हे विश्व-नियन्ताओं के शासक; लोक-अध्यक्ष--हे वैकुण्ठ के स्वामी; जगत्‌-प्रभो--हे ब्रह्माण्ड के ईश्वर;प्रणताय--आपके शरणागतों के; अनुरक्ताय--अनुरक्त; प्रपन्नाय--जिनके आपके अलावा कोई अन्य आश्रय नहीं है; च-- भी;कथ्यताम्‌ू-कहें

    श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, हे भगवान्‌, आप किस तरह के व्यक्ति को सच्चा भक्त मानते हैंऔर आपके भक्तों द्वारा किस तरह की भक्ति समर्थित है, जो आपको अर्पित की जा सके ? हेब्रह्मण्ड के नियन्‍्ताओं के शासक, हे वैकुण्ठ-पति तथा ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान ईश्वर, मैंआपका भक्त हूँ और चूँकि मैं आपसे प्रेम करता हूँ, इसलिए आपको छोड़ कर मेरा अन्य कोईआश्रय नहीं है। अतएव कृपा करके आप इसे मुझे समझायें।

    त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुष: प्रकृते: पर: ।अवतीरनोंडसि भगवस्स्वेच्छोपात्तपृथग्वपु: ॥

    २८॥

    त्वमू-तुम; ब्रह्म परमम्‌--परब्रह्म; व्योम--आकाश की तरह ( हर वस्तु से पृथक्‌ ); पुरुष:-- भगवान्‌; प्रकृते:--भौतिक प्रकृतिके; पर:--दिव्य; अवतीर्ण:--अवतार लिया; असि--हो; भगवन्‌--प्रभु; स्व-- अपने ( भक्तों ); इच्छा--इच्छा के अनुसार;उपात्त--स्वीकार किया; पृथक्‌--भिन्न; वपु:--शरीर |

    हे प्रभु, परब्रह्म-रूप में आप प्रकृति से परे हैं और आकाश की तरह किसी तरह से बद्ध नहींहैं। तो भी, अपने भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर आप अनेक प्रकार के रूपों में प्रकट होते हैंऔर अपने भक्तों की इच्छानुसार अवतरित होते हैं।

    श्रीभगवानुवाचकृपालुरकृतद्रोहस्तितिश्षु: सर्वदेहिनाम्‌ ।सत्यसारोनवद्यात्मा सम: सर्वोपकारकः ॥

    २९॥

    कामैरहतधीर्दान्तो मृदु: शुचिरकिश्नः ।अनीहो मितभुक्शान्तः स्थिरो मच्छशणो मुनि: ॥

    ३०॥

    अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाझ्जितषड्गुण: ।अमानी मानदः कल्यो मैत्र: कारुणिक: कवि: ॥

    ३१॥

    आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान्‌ ।धर्मान्सन्त्यज्य यः सर्वान्मां भजेत स तु सत्तम: ॥

    ३२॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; कृपालु:--अन्यों के कष्ट को सहन न कर सकने वाले; अकृत-द्रोह:--अन्यों को हानि नपहुँचाने वाले; तितिक्षु:--क्षमा करने वाले; सर्व-देहिनामू--सारे जीवों को; सत्य-सारः--सत्य पर जीवित रहने वाले तथा सत्यसे ही हृढ़ता प्राप्त करने वाले; अनवद्य-आत्मा--ईर्ष्या-द्वेष से मुक्त आत्मा; सम:--सुख-दुख में समान चेतना वाला; सर्व-उपकारकः--अन्‍्यों के कल्याण के लिए प्रयलशील; कामै:-- भौतिक इच्छाओं द्वारा; अहत--अविचल; धी:ः--बुद्धि वाले;दान्तः--बाह्य इन्द्रियों को वश में करने वाले; मृदु:ः--कठोर मनोवृत्ति से रहित; शुचिः--अच्छे व्यवहार वाला; अकिद्ञन:--किसी भी सम्पत्ति से विहीन; अनीह:--सांसारिक कार्यकलापों से मुक्त; मित-भुक्‌ू --संयम से खानेवाला; शान्त:--मन को वशमें रखने वाला; स्थिर:--अपने नियत कार्य में हढ़ रहने वाला; मत्‌-शरण: --मुझे ही एकमात्र शरण स्वीकार करने वाला;मुनि:--विचारवान; अप्रमत्त:--सतर्क ; गभीर-आत्मा--दिखाऊ न होने के कारण अपरिवर्तित; धृति-मान्‌--विपत्ति के समयभी दुर्बल या दुखी न होने वाला; जित--विजय प्राप्त; घट्‌ू-गुण:--छ:ः गुण, भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु;अमानी-- प्रतिष्ठा की इच्छा से रहित; मान-दः--अन्यों का आदर करने वाला; कल्य: --अन्यों की कृष्णभावना को जगाने मेंपटु; मैत्र:--दूसरों को धोखा न देने वाला, अतः असली मित्र; कारुणिक:--निजी महत्त्वाकांक्षा से नहीं, अपितु करुणा केवशीभूत होकर कर्म करने वाला; कवि: --पूर्ण विद्वान; आज्ञाय--जानते हुए; एवम्‌--इस प्रकार; गुणान्‌--अच्छे गुणों;दोषान्‌ू--बुरे गुणों को; मया--मेरे द्वारा; आदिष्टान्‌ू--शिक्षा दिए गये; अपि-- भी; स्वकान्‌-- अपने ही; धर्मानू-- धार्मिक सिद्धान्तों को; सन्त्यज्य--त्याग कर; यः--जो; सर्वानू--समस्त; माम्‌्--मुझको; भजेत--पूजता है; सः--वह; तु--निस्सन्‍्देह;सत्‌-तमः--सन्त-पुरुषों में श्रेष्ठ

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, सन्‍्त-पुरुष दयालु होता है और वह कभी दूसरों को हानि नहींपहुँचाता। दूसरों के आक्रामक होने पर भी वह सहिष्णु होता है और सारे जीवों को क्षमा करनेवाला होता है। उसकी शक्ति तथा जीवन की सार्थकता सत्य से मिलती है। वह समस्त ईर्ष्या-द्वेषसे मुक्त होता है और भौतिक सुख-दुख में उसका मन समभाव रहता है। इस तरह वह अन्य लोगोंके कल्याण हेतु कार्य करने में अपना सारा समय लगाता है। उसकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं सेमोहग्रस्त नहीं होती और उसकी इन्द्रियाँ अपने वश में रहती हैं। उसका व्यवहार सदैव मधुर, मृदुतथा आदर्श होता है। वह स्वामित्व (संग्रह ) भाव से मुक्त रहता है। वह कभी भी सामान्यसांसारिक कार्यकलापों के लिए प्रयास नहीं करता और भोजन में संयम बरतता है। इसलिए वहसदैव शान्त तथा स्थिर रहता है। सन्‍्त-पुरुष विचारवान होता है और मुझे ही अपना एकमात्रआश्रय मानता है। ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य-पालन में अत्यन्त सतर्क रहता है, उसमें कभी भीऊपरी विकार नहीं आ पाते, क्योंकि दुखद परिस्थितियों में भी वह स्थिर तथा नेक बना रहता है।उसने भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु इन छह भौतिक गुणों पर विजय पा ली होती है।वह अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होता है और अन्यों को आदर प्रदान करता है। वह अन्यों कीकृष्ण-चेतना को जाग्रत करने में कुशल होता है, अतएव कभी किसी को ठगता नहीं प्रत्युतवह सबों का शुभैषी मित्र होता है और अत्यन्त दयालु होता है। ऐसे सनन्‍्त-पुरुष को दिद्ठानों मेंसर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए। वह भलीभाँति समझता है कि विविध शास्त्रों में मैंने, जो धार्मिककर्तव्य नियत किये हैं, उनमें अनुकूल गुण रहते हैं जो उनके करने वालों को शुद्ध करते हैं औरवह जानता है कि इन कर्तव्यों की उपेक्षा से जीवन में त्रुटि आती है। फिर भी, सन्त-पुरुष मेरेचरणकमलों की शरण ग्रहण करके सामान्य धार्मिक कार्यो को त्याग कर एकमात्र मेरी पूजाकरता है। इस तरह वह जीवों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

    ज्ञात्वाज्ञात्वाथ येवैमां यावान्यश्वास्मि याहश: ।भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मता: ॥

    ३३॥

    ज्ञात्वा--जान कर; अज्ञात्वा--न जान कर; अथ--इस प्रकार; ये--जो; बै--निश्चय ही; मामू--मुझको ; यावान्‌ू--जब तक;यः--जो; च-- भी; अस्मि--हूँ; याहश: -- जैसा मैं हूँ; भजन्ति-- पूजा करते हैं; अनन्य-भावेन-- अनन्य भक्ति से; ते--वे; मे--मेरे द्वारा; भक्त-तमा:--सर्व श्रेष्ठ भक्तमण; मता: --माने जाते हैं|

    भले ही मेरे भक्त यह जानें या न जानें कि मैं क्या हूँ, मैं कौन हूँ और मैं किस तरह विद्यमानहूँ, किन्तु यदि वे अनन्य प्रेम से मेरी पूजा करते हैं, तो मैं उन्हें भक्तों में सर्व श्रेष्ठ मानता हूँ।

    मल्लिड्डमद्धक्तजनदर्शनस्पर्शनार्चनम्‌ ।परिचर्या स्तुतिः प्रह्मगुणकर्मानुकीर्तनम्‌ ॥

    ३४॥

    मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव ।सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्मनिवेदनम्‌ ॥

    ३५॥

    मज्न्मकर्मक थनं मम पर्वानुमोदनम्‌ ।गीतताण्डववादित्रगोष्ठीभिमद्गृ्‌होत्सव: ॥

    ३६॥

    यात्रा बलिविधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु ।वैदिकी तान्त्रिकी दीक्षा मदीयब्रतधारणम्‌ ॥

    ३७॥

    ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वत: संहत्य चोद्यम: ।उद्यानोपवनाक्रीडपुरमन्दिरकर्मणि ॥

    ३८ ॥

    सम्मार्जनोपलेपाभ्यां सेकमण्डलवर्तनै: ।गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद्यदमायया ॥

    ३९॥

    अमानित्वमदम्भित्वं कृतस्यापरिकीर्तनम्‌ ।अपि दीपावलोकं मे नोपयुउज्यान्निवेदितम्‌ ॥

    ४०॥

    यद्यदिष्ठटतमं लोके यच्चातिप्रियमात्मन: ।तत्तन्निवेदयेन्मह्मं तदानन्त्याय कल्पते ॥

    ४१॥

    मतू-लिड्ड--अर्चाविग्रह के रूप में इस जगत में मेरा प्राकट्य; मत्‌-भक्त जन--मेरे भक्त; दर्शन--देखना; स्पर्शन--स्पर्श;अर्चनम्‌--तथा पूजा; परिचर्या--सेवा-कार्य; स्तुतिः--महिमा की प्रार्थनाएँ; प्रह-- नमस्कार; गुण--मेरे गुण; कर्म--तथाकर्म; अनुकीर्तनम्‌--निरन्तर महिमा-गायन; मत्‌-कथा--मेरे विषय में कथाएँ; श्रवणे--सुनने में; श्रद्धा--प्रेम के कारण श्रद्धा;मतू-अनुध्यानम्‌--सदैव मेरा ध्यान करते हुए; उद्धव--हे उद्धव; सर्व-लाभ--सभी उपार्जित वस्तुएँ; उपहरणम्‌-- भेंट;दास्येन--अपने को मेरा दास मानते हुए; आत्म-निवेदनम्‌--आत्म-समर्पण; मत्‌-जन्म-कर्म-कथनम्‌--मेरे जन्म तथा कर्मों कीप्रशंसा करना; मम--मेरा; पर्व--जन्माष्टमी जैसे उत्सवों में; अनुमोदनम्‌--परम हर्ष मनाते हुए; गीत--गीतों; ताण्डब--नृत्य;वादित्र--संगीत के वाद्यों; गोष्ठीभि:--तथा भक्तों के मध्य विचार-विमर्श; मत्‌-गृह--मेरे मन्दिर में; उत्सवः--उत्सव, पर्व;यात्रा--उत्सव मनाना; बलि-विधानम्‌-- आहुति डालना; च--भी; सर्व--समस्त; वार्षिक --साल में एक बार, प्रत्येक वर्ष;पर्वसु--उत्सवों में; वैदिकी--वेदों में उल्लिखित; तान्त्रिकी--पश्ञरात्र जैसे ग्रंथों में वर्णित; दीक्षा--दीक्षा; मदीय--मेरा; ब्रत--उपवास; धारणम्‌--रखते हुए; मम--मेरे; अर्चा--अर्चाविग्रह का; स्थापने--स्थापना में; श्रद्धा-- श्रद्धा रखते हुए; स्वतः--अपने से; संहत्य--अन्यों के साथ; च--भी; उद्यम: --प्रयास; उद्यान--फूल के बगीचों के; उपवन--छोटा बगीचा; आक्रीड--लीलाओं के स्थान; पुर--भक्ति के शहर; मन्दिर--तथा मन्दिर; कर्मणि--निर्माण में; सम्मार्जन--ठीक से झाड़ना-बुहारना;उपलेपाभ्याम्‌--लीप-पोत कर; सेक--सुगन्धित जल छिड़क कर; मण्डल-वर्तनै:--मण्डल बनाकर; गृह--मन्दिर का, जो किमेरा घर है; शुश्रूषणम्‌-- सेवा; महाम्‌--मेरे लिए; दास-वत्‌--दास की तरह; यत्‌--जो; अमायया--द्वैत-रहित; अमानित्वम्‌--झूठी प्रतिष्ठा के बिना; अदम्भित्वम्‌ू--गर्व से रहित होकर; कृतस्य--भक्ति-कर्म; अपरिकीर्तनम्‌--विज्ञापन न करना; अपि--भी; दीप--दीपकों के; अवलोकम्‌-- प्रकाश; मे--मेरा; न--नहीं; उपयुड्ज्यात्‌ू--लगाना चाहिए; निवेदितम्‌--अन्यों को पहलेही भेंट की जा चुकी वस्तुएँ; यत्‌ यत्‌--जो जो; इष्ट-तमम्‌--अभीष्ट; लोके--संसार में; यत्‌ च--तथा जो भी; अति-प्रियम्‌--अत्यन्त प्रिय; आत्मन:--अपना; तत्‌ तत्‌ू--वह वह; निवेदयेत्‌-- भेंट करे; मह्मम्‌--मुझको; तत्‌--वह भेंट; आनन्त्याय--अमरता के लिए; कल्पते--योग्य बनाती है।

    हे उद्धव, निम्नलिखित भक्ति-कार्यो में लगने पर मनुष्य मिथ्या अभिमान तथा प्रतिष्ठा कापरित्याग कर सकता है। वह मेरे अर्चाविग्रह को के रूप में मुझे तथा मेरे शुद्ध भक्तों को देखकर, छू कर, पूजा करके, सेवा करके, स्तुति करके तथा नमस्कार करके अपने को शुद्ध बनासकता है। उसे मेरे दिव्य गुणों एवं कर्मो की भी प्रशंसा करनी चाहिए, मेरे यश की कथाओं कोप्रेम तथा श्रद्धा के साथ सुनना चाहिए तथा निरन्तर मेरा ध्यान करना चाहिए। उसे चाहिए कि जोभी उसके पास हो, वह मुझे अर्पित कर दे और अपने को मेरा नित्य दास मान कर मुझ पर हीपूरी तरह समर्पित हो जाये। उसे मेरे जन्म तथा कार्यों की सदैव चर्चा चलानी चाहिए औरजन्माष्टमी जैसे उत्सवों में, जो मेरी लीलाओं की महिमा को बतलाते हैं, सम्मिलित होकर जीवनका आनन्द लेना चाहिए। उसे मेरे मन्दिर में गा कर, नाच कर, बाजे बजाकर तथा अन्य वैष्णवोंसे मेरी बातें करके उत्सवों तथा त्योहारों में भी भाग लेना चाहिए। उसे वार्षिक त्योहारों में होनेवाले उत्सवों में, यात्राओं में तथा भेंटें चढ़ाने में नियमित रूप से भाग लेना चाहिए। उसे एकादशीजैसे धार्मिक ब्रत भी रखने चाहिए और वेदों, पंचरात्र तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथों में उल्लिखितविधियों से दीक्षा लेनी चाहिए। उसे श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक मेरे अर्चाविग्रह की स्थापना काअनुमोदन करना चाहिए और अकेले अथवा अन्यों के सहयोग से कृष्णभावनाभावित मन्दिरोंतथा नगरों के साथ ही साथ फूल तथा फल के बगीचों एवं मेरी लीला मनाये जाने वाले विशेषक्षेत्रों के निर्माण में हाथ बँटाना चाहिए। उसे बिना किसी द्वैत के अपने को मेरा विनीत दासमानना चाहिए और इस तरह मेरे आवास, अर्थात्‌ मन्दिर को साफ करने में सहयोग देना चाहिए।सर्वप्रथम उसमें झाड़ू-बुहारा करना चाहिए और तब उसे जल तथा गोबर से स्वच्छ बनानाचाहिए। मन्दिर को सूखने देने के बाद सुगन्धित जल का छिड़काव करना चाहिए और मण्डलोंसे सजाना चाहिए। उसे मेरे दास की तरह कार्य करना चाहिए। उसे कभी भी अपने भक्ति-कार्योंका ढिंढ़ोरा नहीं पीटना चाहिए। इस तरह उसकी सेवा मिथ्या अभिमान का कारण नहीं होगी।उसे मुझे अर्पित किए गए दीपकों का प्रयोग अन्य कार्यो के लिए अर्थात्‌ मात्र उजाला करने कीआवश्यकता से नहीं करना चाहिए। इसी तरह मुझे ऐसी कोई वस्तु भेंट न की जाय, जो अन्योंपर चढ़ाई जा चुकी हो या अन्यों द्वारा काम में लाई जा चुकी हो। इस संसार में जिसे जो भी वस्तु सब से अधिक चाहिए और जो भी वस्तु उसे सर्वाधिक प्रिय हो उसे, वही वस्तु मुझे अर्पित करनीचाहिए। ऐसी भेंट चढ़ाने से वह नित्य जीवन का पात्र बन जाता है।

    सूर्योउग्नि्ब्राह्मणा गावो वैष्णव: खं मरुजजलम्‌ ।भूरात्मा सर्वभूतानि भद्र पूजापदानि मे ॥

    ४२॥

    सूर्य:--सूर्य; अग्नि:--अग्नि; ब्राह्मणा:--तथा ब्राह्मणगण; गाव: --गौवें; वैष्णव: -- भगवद्भक्त; खम्‌--आकाश; मरुत्‌--वायु; जलम्‌ू--जल; भू:--पृथ्वी; आत्मा--व्यष्टि आत्मा; सर्व-भूतानि--सारे जीव; भद्ग--हे साधु उद्धव; पूजा--पूजा के;पदानि--स्थान; मे--मेरी |

    हे साधु-पुरुष उद्धव, यह जान लो कि तुम मेरी पूजा सूर्य, अग्नि, ब्राह्मणों, गौवों, वैष्णवों,आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा में तथा सारे जीवों में कर सकते हो।

    सूर्य तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम्‌ ।आतिदथ्येन तु विप्राछये गोष्वड्र यवसादिना ॥

    ४३॥

    वैष्णवे बन्धुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया ।वायौ मुख्यधिया तोये द्र॒व्यैस्तोयपुरःसरैः ॥

    ४४॥

    स्थण्डिले मन्त्रहदयैभोंगिरात्मानमात्मनि ।क्षेत्रज्ं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम्‌ ॥

    ४५॥

    सूर्य --सूर्य में; तु--निस्सन्देह; विद्य॒या त्रय्या-- प्रशंसा, पूजा तथा नमस्कार की चुनी हुई वैदिक स्तुतियों द्वारा; हवविषा--घी कीआहुतियों से; अग्नौ-- अग्नि में; यजेत--पूजा करे; माम्‌--मुझको; आतिथ्येन--अतिथि के रूप में स्वागत करके; तु--निस्सन्देह; विप्र--ब्राह्मणों के; अछये--सर्व श्रेष्ठ, अग्रणी; गोषु--गौवों में; अड्र--हे उद्धव; यवस-आदिना--उनके पालन केलिए घास आदि देना; वैष्णवे-- वैष्णव में; बन्धु--प्रेमपूर्ण मैत्री के साथ; सत्‌-कृत्या--सत्कार करने से; हृदि--हृदय में; खे--आन्तरिक आकाश में; ध्यान--ध्यान में; निष्ठया--स्थिर होने से; वायौ--वायु में; मुख्य--प्रमुख; धिया--बुद्धि से मानते हुए;तोये--जल में; द्रव्यैः-- भौतिक तत्त्वों द्वारा; तोब-पुर:ः-सरैः--जल इत्यादि से; स्थण्डिले--पृथ्वी पर; मन्त्र-हदयै:--मंत्रों केप्रयोग से; भोगैः--भोग्य वस्तुएँ प्रदान करने से; आत्मानम्‌--जीवात्मा; आत्मनि--शरीर के भीतर; क्षेत्र-ज्ञम--परमात्मा; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों के भीतर; समत्वेन--सर्वत्र समभाव से देखते हुए; यजेत--पूजा करना चाहिए; माम्‌--मुझको

    हे उद्धव, मनुष्य को चाहिए कि चुने हुए वैदिक मंत्रोच्चार तथा पूजा और नमस्कार द्वारा सूर्यमें मेरी पूजा करे। वह अग्नि में घी की आहुति डाल कर मेरी पूजा कर सकता है। वह अनामंत्रितअतिथियों के रूप में ब्राह्मणों का आदरपूर्वक स्वागत करके उनमें मेरी पूजा कर सकता है। मेरीपूजा गायों में उन्हें घास तथा उपयुक्त अन्न एवं उनके स्वास्थ्य एवं आनन्द के लिए उपयुक्त सामग्रीप्रदान करके की जा सकती है। वैष्णवों में मेरी पूजा उन्हें प्रेमपूर्ण मैत्री प्रदान करके तथा सबप्रकार से उनका आदर करके की जा सकती है। स्थिरभाव से ध्यान के माध्यम से हृदय में मेरीपूजा होती है और वायु में मेरी पूजा इस ज्ञान के द्वारा की जा सकती है कि तत्त्वों में प्राण हीप्रमुख है। जल में मेरी पूजा जल के साथ फूल तथा तुलसी-दल जैसे अन्य तत्त्वों को चढ़ाकरकी जा सकती है। पृथ्वी में गुह्य बीज मंत्रों के समुचित प्रयोग से मेरी पूजा हो सकती है। भोजनतथा अन्य भोज्य वस्तुएँ प्रदान करके व्यष्टि जीव में मेरी पूजा की जा सकती है। सारे जीवों मेंपरमात्मा का दर्शन करके तथा इस तरह समहदृष्टि रखते हुए मेरी पूजा की जा सकती है।

    शिष्ण्येष्वित्येषु मद्रूपं शब्डुचक्रगदाम्बुजै: ।युक्त चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्न्चेत्समाहित: ॥

    ४६॥

    धिष्ण्येषु--पूर्व वर्णित पूजा-स्थलों में; इति--इस प्रकार ( पूर्व वर्णित विधियों से ); एषु--उनमें; मत्‌-रूपम्‌--मेरा दिव्य रूप;शट्बभु--शंख; चक्र --सुदर्शन चक्र; गदा--गदा; अम्बुजैः --तथा कमल-फूल से; युक्तम्‌--सज्जित; चतु:-भुजम्‌--चार भुजाओंसहित; शान्तम्‌-शान्त; ध्यायन्‌-ध्यान करते हुए; अर्चेत्‌--पूजा करे; समाहित: --मनोयोग से |

    इस तरह पूर्व वर्णित पूजा-स्थलों में तथा मेरे द्वारा वर्णित विधियों से मनुष्य को मेरे शान्त,दिव्य तथा चतुर्भुज रूप का, जो शंख, सुदर्शन चक्र, गदा तथा कमल से युक्त है, ध्यान करनाचाहिए। इस तरह उसे मनोयोगपूर्वक मेरी पूजा करनी चाहिए।

    इष्टापूर्तेन मामेव॑ यो यजेत समाहितः ।लभते मयि सद्धक्ति मत्स्मृति: साधुसेवया ॥

    ४७॥

    इष्टा--अपने लाभ के लिए यज्ञ करके; पूर्तन--तथा अन्यों के लाभ के लिए शुभ कार्य करना तथा कुएँ खुदवाना; माम्‌--मुझको; एवम्‌--इस प्रकार; यः--जो; यजेत--पूजा करता है; समाहितः--मुझमें मन स्थिर करके; लभते--प्राप्तकरता है;मयि--मुझमें; सत्‌-भक्तिम्‌--हढ़ भक्ति; मत्‌ू-स्मृतिः--मेरा स्वरूपसिद्ध ज्ञान; साधु --उत्तम गुणों से युक्त; सेवया--सेवा द्वारा |

    मेरी तुष्टि के लिए जिसने यज्ञ तथा शुभ कार्य किये हैं और इस तरह से एकाग्र ध्यान से मेरीपूजा करता है, वह मेरी अटल भक्ति प्राप्त करता है। ऐसा पूजक उत्तम कोटि की अपनी सेवाके कारण मेरा स्वरूपसिद्ध ज्ञान प्राप्त करता है।

    प्रायेण भक्तियोगेन सत्सड़ेन विनोद्धव ।नोपायो विद्यते सम्यक्प्रायणं हि सतामहम्‌ ॥

    ४८॥

    प्रायेण--प्राय:; भक्ति-योगेन--मेरी भक्ति से; सत्‌-सड्रेन--मेरे भक्तों की संगति से सम्भव होने वाली; विना--रहित; उद्धव--हे उद्धव; न--नहीं; उपाय: --कोई उपाय; विद्यते--है; सम्यक्‌--जो वास्तव में कारगर हो; प्रायणम्‌--जीवन का असली मार्गया वास्तविक आश्रय; हि--क्योंकि; सताम्‌--मुक्तात्माओं का; अहम्‌--मैं |

    हे उद्धव, सन्त स्वभाव के मुक्त पुरुषों के लिए मैं ही अनन्तिम आश्रय तथा जीवन-शैली हूँ,अतएव यदि कोई व्यक्ति मेरे भक्तों की संगति से सम्भव मेरी प्रेमाभक्ति में प्रवृत्त नहीं होता, तोसभी व्यावहारिक उद्देश्यों के दृष्टिकोण से प्रायः भौतिक जगत से बचने का कोई उपाय उसकेपास नहीं रह जाता।

    अशैतत्परमं गुह्वां श्रण्वतो यदुनन्दन ।सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्य: सुहत्सखा ॥

    ४९॥

    अथ--इस प्रकार; एतत्‌--यह; परमम्‌--परम; गुहाम्‌--गुप्त; श्रण्वत:ः--सुनने वाले तुमको; यदु-नन्दन--हे यदुकुल के प्रिय;सु-गोप्यम्‌--अत्यन्त गुह्म; अपि-- भी; वक्ष्यामि--मैं कहूँगा; त्वम्‌--तुम; मे--मेरा; भृत्य:ः--सेवक हो; सु-हत्‌--शुभचिन्तक;सखा--तथा मित्र

    हे उद्धव, हे यदुकुल के प्रिय, चूँकि तुम मेरे सेवक, शुभचिन्तक तथा सखा हो, अतएवं अबमैं तुमसे अत्यन्त गुह्य ज्ञान कहूँगा। अब इसे सुनो, क्योंकि मैं इन महान्‌ रहस्यों को तुम्हें बतलानेजारहा हूँ।

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    12. त्याग और ज्ञान से परे

    श्रीभगवानुवाचन रोधयति मां योगो न साड्ख्यं धर्म एबच ।न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्त न दक्षिणा ॥

    १॥

    ब्रतानि यज्ञएछन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा: ।यथावरुन्धे सत्सड्र: सर्वसड्रापहो हि माम्‌ ॥

    २॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; न रोधयति--नियंत्रित नहीं करता; माम्‌--मुझको; योग: --अष्टांग योग पद्धति; न--नतो; साइड्ख्यमू-- भौतिक तत्त्वों का वैश्लेषिक अध्ययन; धर्म:--अहिंसा जैसी सामान्य करुणा; एव--निस्सन्देह; च-- भी; न--न तो; स्वाध्याय:--वेदों का उच्चारण; तपः--तपस्या; त्याग: --सन्यास-आश्रम; न--न तो; इष्टा-पूर्तम्‌--यज्ञ करना तथा कुएँखुदवाना या वृक्ष लगाना जैसे आम जनता के कल्याण-कार्य; न--न तो; दक्षिणा--दान; ब्रतानि--ब्रत रखना तथा एकादशीका उपवास; यज्ञ:--देवताओं की पूजा; छन्दांसि--गुट्म मंत्रों का उच्चारण; तीर्थानि--तीर्थस्थानों का भ्रमण; नियमा:--आध्यात्मिक जीवन के लिए मुख्य आदेशों का पालन करना; यमा:--तथा गौण-विधान भी; यथा--जिस तरह; अवरुन्धे--अपने वश में करता है; सत्‌-सड्रः--मेरे भक्तों की संगति; सर्व--समस्त; सड़-- भौतिक संगति; अपह:--हटाने वाला; हि--निश्चय ही; माम्‌--मुझको |

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, मेरे शुद्ध भक्तों की संगति करने से इन्द्रियतृप्ति के सारे पदार्थोंके प्रति आसक्ति को नष्ट किया जा सकता है। शुद्धि करने वाली ऐसी संगति मुझे मेरे भक्त केवश में कर देती है। कोई चाहे अष्टांग योग करे, प्रकृति के तत्त्वों का दार्शनिक विश्लेष्ण करनेमें लगा रहे, चाहे अहिंसा तथा शुद्धता के अन्य सिद्धान्तों का अभ्यास करे, वेदोच्चार करे,तपस्या करे, संन्यास ग्रहण करे, कुँआ खुदवाने, वृक्ष लगवाने तथा जनता के अन्य कल्याण-कार्यों को सम्पन्न करे, चाहे दान दे, कठिन ब्रत करे, देवताओं की पूजा करे, गुट्य मंत्रों काउच्चारण करे, तीर्थस्थानों में जाय या छोटे-बड़े अनुशासनात्मक आदेशों को स्वीकार करे,किन्तु इन सब कार्यों को सम्पन्न करके भी कोई मुझे अपने वश में नहीं कर सकता। सत्सड्रेन हि दैतेया यातुधाना मृगा: खगाः ।गन्धर्वाप्सरसो नागा: सिद्धाश्चारणगुह्मका: ॥

    ३॥

    विद्याधरा मनुष्येषु वैश्या: शूद्रा: स्त्रियोउन्त्यजा: ।रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिस्तस्मिन्युगे युगे ॥

    ४॥

    बहवो मत्यदं प्राप्तास्त्वाप्टकायाधवादय: ।वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्वाथ विभीषण: ॥

    ५॥

    सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृश्लो वणिक्पथ: ।व्याध: कुब्जा ब्रजे गोप्यो यज्ञपत्यस्तथापरे ॥

    ६॥

    सत्‌-सड्बलेन--मेरे भक्तों की संगति से; हि--निश्चय ही; दैतेया:--दिति के पुत्र; यातुधाना:--असुरगण; मृगा:--पशु; खगा: --पक्षी; गन्धर्व--गन्धर्वगण; अप्सरस:--स्वर्गलोक की वेश्याएँ; नागा:--सर्प; सिद्धाः--सिद्धलोक के वासी; चारण--चारण;गुहाका: --गुह्म क; विद्याधरा:--विद्याधर लोक के वासी; मनुष्येषु--मनुष्यों में से; वैश्या:--व्यापारी लोग; शूद्रा:-- श्रमिक;स्त्रियः--स्त्रियाँ; अन्त्य-जा:--असभ्य लोग; रज:-तमः-प्रकृतयः--रजो तथा तमोगुणों से बँधे हुए; तस्मिन्‌ तस्मिनू--उसी उसीप्रत्येक में; युगे युगे--युग में; बहबः--अनेक जीव; मत्‌--मेरे; पदम्‌-- धाम को; प्राप्ता:--प्राप्त हुए; त्वाष्ट--वृत्रासुर;'कायाधव--प्रह्माद महाराज; आदयः--इत्यादि; वृषपर्वा--वृषपर्वा नामक; बलि: --बलि महाराज; बाण:--बाणासुर; मय: --मय दानव; च-- भी; अथ--इस प्रकार; विभीषण:--रावण का भाई विभीषण; सुग्रीव: --वानरराज सुग्रीव; हनुमान्‌--महान्‌भक्त हनुमान; ऋक्ष:--जाम्बवान; गज:--गजेन्द्र नामक भक्त हाथी; गृश्र:--जटायु गृद्ध;वणिक्पथ:--तुलाधार नामक बनिया;व्याध:--धर्म व्याध; कुब्जना--कुब्जा नामक वेश्या, जिसकी रक्षा कृष्ण ने की; ब्रजे--वृन्दावन में; गोप्य: --गोपियाँ; यज्ञ-पत्य:--यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियाँ; तथा--उसी प्रकार; अपरे-- अन्य |

    प्रत्येक युग में रजो तथा तमोगुण में फँसे अनेक जीवों ने मेरे भक्तों की संगति प्राप्त की । इसप्रकार दैत्य, राक्षस, पक्षी, पशु, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्मक तथा विद्याधर जैसेजीवों के साथ साथ वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ तथा अन्य निम्न श्रेणी के मनुष्य मेरे धाम को प्राप्त करसके। वृत्रासुर, प्रह्दाद महाराज तथा उन जैसे अन्यों ने मेरे भक्तों की संगति के द्वारा मेरे धाम कोप्राप्त किया। इसी तरह वृषपर्वा, बलि महाराज, बाणासुर, मय, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान,जाम्बवान, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार, धर्मव्याध, कुब्जा, वृन्दावन की गोपियाँ तथा यज्ञ कर रहेब्राह्मणों की पत्नियाँ भी मेरा धाम प्राप्त कर सकीं।

    ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमा: ।अब्रतातप्ततपसः मत्सड्ान्मामुपागता: ॥

    ७॥

    ते--वे; न--नहीं; अधीत--अध्ययन करके; श्रुति-गणा:--वैदिक वाड्मय; न--नहीं; उपासित--पूजा किया हुआ; महत्‌-तमः--महान्‌ सन्त; अब्रत--ब्रत के बिना; अतप्त--बिना किये; तपसः--तपस्या; मत्‌-सड्भात्‌-मेरे तथा मेरे भक्तों की संगतिसे; माम्‌--मुझको; उपागता:--उन्होंने प्राप्त किया |

    मैंने जिन व्यक्तियों का उल्लेख किया है, उन्होंने न तो वैदिक वाड्मथ का गहन अध्ययनकिया था, न महान्‌ सन्‍्तों की पूजा की थी, न कठिन ब्रत या तपस्या ही की थी। मात्र मेरे तथामेरे भक्तों की संगति से, उन्होंने मुझे प्राप्त किया।

    केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगा: ।येउन्ये मूढधियो नागा: सिद्धा मामीयुरक्षसा ॥

    ८॥

    केवलेन--शुद्ध; हि--निस्सन्देह; भावेन--प्रेम से; गोप्य:--गोपियाँ; गाव:--वृन्दावन की गाएँ; नगा:--वृन्दावन के जड़ प्राणीयथा यमलार्जुन वृक्ष; मृगा:--अन्य पशु; ये--जो; अन्ये-- अन्य; मूढ-धिय:--जड़ बुद्धि वाले; नागा:--वृन्दावन के सर्प, यथाकालिय; सिद्धा:--जीवन की सिद्धि पाकर; माम्‌--मेरे पास; ईयु:--आये; अद्धसा--अत्यन्त सरलता से |

    गोपियों समेत वृन्दावन के वासी, गौवें, अचर जीव यथा यमलार्जुन वृक्ष, पशु, जड़ बुद्धिवाले जीव यथा झाड़ियाँ तथा जंगल और सर्प यथा कालिय--इन सबों ने मुझसे शुद्ध प्रेम करनेके ही कारण जीवन की सिद्धि प्राप्त्की और इस तरह आसानी से मुझे प्राप्त किया।

    यं न योगेन साड्ख्येन दानव्रततपोध्वरै: ।व्याख्यास्वाध्यायसन्न्यासै: प्राप्नुयाद्यलवानपि ॥

    ९॥

    यम्‌--जिनको; न--नहीं; योगेन--योग द्वारा; साड्ख्येन--दार्शनिक चिन्तन द्वारा; दान--दान; ब्रत--ब्रत; तप:--तपस्या;अध्वर:--अथवा वैदिक कर्मकाण्ड द्वारा; व्याख्या--अन्यों से वैदिक ज्ञान की विवेचना द्वारा; स्वाध्याय--वेदों का निजीअध्ययन; सन्न्यासै:--अथवा संन्यास ग्रहण करके ; प्राप्नुयात्‌--प्राप्त कर सकता है; यत्न-वान्‌ू--महान्‌ प्रयास से; अपि-- भी |

    योग, चिन्तन, दान, व्रत, तपस्या, कर्मकाण्ड, अन्यों को वैदिक मंत्रों की शिक्षा, वेदों कानिजी अध्ययन या संन्यास में बड़े-बड़े प्रयास करते हुए लगे रहने पर भी मनुष्य, मुझे प्राप्त नहींकर सकता।

    रामेण सार्ध मथुरां प्रणीतेश्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ता: ।विगाढभावेन न मे वियोगतीब्राधयोन्यं दहशु:ः सुखाय ॥

    १०॥

    रामेण--बलराम के; सार्धम्‌--साथ; मथुराम्‌--मथुरा नगरी के; प्रणीते--लाये गये; श्राफल्किना--अक्रूर द्वारा; मयि--मुझमें;अनुरक्त--निरन्तर लिप्त; चित्ता:--चेतना वाले; विगाढ--प्रगाढ़; भावेन--प्रेम से; न--नहीं; मे--मेरी अपेक्षा; वियोग--विछोह का; तीव्र--गहन; आधय:--मानसिक कष्ट, चिन्ता आदि का अनुभव करने वाले; अन्यम्‌--अन्यों को; ददशुः--देखा;सुखाय--उन्हें सुखी बनाने के लिए

    गोपियाँ इत्यादि वृन्दावनवासी गहन प्रेम से सदैव मुझमें अनुरक्त थे। अतएव जब मेरे चाचाअक्रूर मेरे भ्राता बलराम सहित मुझे मथुरा नगरी में ले आये, तो वृन्दावनवासियों को मेरे विछोहके कारण अत्यन्त मानसिक कष्ट हुआ और उन्हें सुख का कोई अन्य साधन प्राप्त नहीं हो पाया।

    तास्ता: क्षपाः प्रेष्ठठमेन नीतामयैव वृन्दावनगोचरेण ।क्षणार्धवत्ता: पुनरड़ तासांहीना मया कल्पसमा बभूव॒ु: ॥

    ११॥

    ता: ताः--वे सभी; क्षपा:--रातें; प्रेष्ट-तमेन-- अत्यन्त प्रिय के साथ; नीता:--बिताई गईं; मया--मेरे द्वारा; एब--निस्सन्देह;वृन्दावन--वृन्दावन में; गो-चरेण--जिसे जाना जा सकता है; क्षण--एक पल; अर्ध-वत्‌--आधे के समान; ताः--वे रातें;पुनः--फिर; अड़--हे उद्धव; तासाम्‌ू--गोपियों के लिए; हीना:--रहित; मया--मुझसे; कल्प--ब्रह्मा का दिन(४,३२,००,००,००० ); समा:--तुल्य; बभूवु:--हो गया।हे उद्धव, वे सारी रातें, जो वृन्दावन भूमि में गोपियों ने अपने अत्यन्त प्रियतम मेरे साथबिताईं, वे एक क्षण से भी कम में बीतती प्रतीत हुईं। किन्तु मेरी संगति के बिना बीती वे रातेंगोपियों को ब्रह्मा के एक दिन के तुल्य लम्बी खिंचती सी प्रतित हुईं।

    ता नाविदन्मय्यनुषडूबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेदम्‌ ।यथा समाधौ मुनयोब्धितोयेनद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे ॥

    १२॥

    ताः--वे ( गोपियाँ ); न--नहीं; अविदन्‌--अवगत; मयि--मुझमें; अनुषड्र--घनिष्ठ सम्पर्क द्वारा; बद्ध--बँधी; धिय:--चेतनावाली; स्वम्‌--निजी; आत्मानम्‌--शरीर या आत्मा; अदः--दूर की वस्तु; तथा--इस तरह विचार करते हुए; इृदम्‌-- अत्यन्तनिकट यह; यथा--जिस तरह; समाधौ--योग समाधि में; मुन॒यः--मुनिगण; अब्धि--सागर के; तोये--जल में; नद्यः--नदियाँ;प्रविष्टा:-- प्रवेश करके; इब--सहृ॒श; नाम--नाम; रूपे--तथा रूप।

    हे उद्धव, जिस तरह योग समाधि में मुनिगण आत्म-साक्षात्कार में लीन रहते हैं और उन्हेंभौतिक नामों तथा रूपों का भान नहीं रहता और जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, उसीतरह वृन्दावन की गोपियाँ अपने मन में मुझसे इतनी अनुरक्त थीं कि उन्हें अपने शरीर की अथवाइस जगत की या अपने भावी जीवनों की सुध-बुध नहीं रह गई थी। उनकी सम्पूर्ण चेतना मुझमेंबँधी हुई थी।

    मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोबला: ।ब्रह्म मां परम॑ प्रापु: सड्राच्छतसहस्त्रश: ॥

    १३॥

    मत्‌--मुझ; कामा:--चाहने वाले; रमणम्‌--मोहक प्रेमी को; जारम्‌--दूसरे की पत्नी का प्रेमी; अस्वरूप-विदः --मेरेवास्तविक पद को न जानते हुए; अबला:--स्त्रियाँ; ब्रह्म--ब्रह्म; मामू--मुझको; परमम्‌--परम; प्रापु:--प्राप्त किया; सड्जात्‌ू--संगति से; शत-सहस्त्रश:--सैकड़ों हजारों में |

    वे सैकड़ों हजारों गोपियाँ मुझे ही अपना सर्वाधिक मनोहर प्रेमी जान कर तथा इस तरह मुझेअत्यधिक चाहते हुए मेरे वास्तविक पद से अपरिचित थीं। फिर भी मुझसे घनिष्ठ संगति करकेगोपियों ने मुझ परम सत्य को प्राप्त किया।

    तस्मात्त्वमुद्धवोत्सूज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्‌ ।प्रवृत्ति च निवृत्ति च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ॥

    १४॥

    मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्‌ ।याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्कुतोभय: ॥

    १५॥

    तस्मात्‌--इसलिए; त्वम्‌--तुम; उद्धव--हे उद्धव; उत्सृज्य--त्याग कर; चोदनाम्‌--वेदों के आदेशों को; प्रतिचोदनाम्‌--वेदांगोंके आदेशों को; प्रवृत्तिमु--आदेश; च--तथा; निवृत्तिम्‌ू--निषेध; च--तथा; श्रोतव्यम्‌--सुनने योग्य; श्रुतम्‌--सुना हुआ;एव--निस्सन्देह; च-- भी; माम्‌--मुझको; एकम्‌--अकेला; एव--वास्तव में; शरणम्‌--शरण; आत्मानम्‌--हृदय मेंपरमात्मा; सर्व-देहिनामू--समस्त बद्धजीवों का; याहि--जाओ; सर्व-आत्म-भावेन--एकान्तिक भक्ति से; मया--मेरी कृपा से;स्था:--होओ; हि--निश्चय ही; अकुत:ः-भय: --भय से रहित

    अतएव हे उद्धव, तुम सारे वैदिक मंत्रों तथा वेदांगों की विधियों एवं उनके सकारात्मक तथानिषेधात्मक आदेशों का परित्याग करो। जो कुछ सुना जा चुका है तथा जो सुना जाना है, उसकीपरवाह न करो। केवल मेरी ही शरण ग्रहण करो, क्योंकि मैं ही समस्त बद्धात्माओं के हृदय केभीतर स्थित भगवान्‌ हूँ। पूरे मन से मेरी शरण ग्रहण करो और मेरी कृपा से तुम समस्त भय सेमुक्त हो जाओ।

    श्रीउद्धव उवाचसंशय: श्रुण्वतो वा तव योगेश्वरेश्वर ।न निवर्तत आत्मस्थो येन भ्राम्यति मे मन: ॥

    १६॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; संशय: --सन्देह; श्रेण्वत:--सुनने वाले का; वाचम्‌ू--शब्द; तब--तुम्हारे; योग-ईश्वर--योगशक्ति के स्वामियों के; ई श्वर-- स्वामी; न निवर्तते--बाहर नहीं जायेगा; आत्म--हृदय में; स्थ:--स्थित; येन--जिससे; भ्राम्यति--मोहग्रस्त रहता है; मे--मेरा; मनः--मन |

    श्री उद्धव ने कहा : हे योगेश्वरों के ईश्वर, मैंने आपके वचन सुने हैं, किन्तु मेरे मन का सन्देहजा नहीं रहा है, अतः मेरा मन मोहग्रस्त है।

    श्रीभगवानुवाचस एष जीवो विवरप्रसूतिःप्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्ट: ।मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूप॑मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठ: ॥

    १७॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; सः एष:--साक्षात्‌ वे; जीव:--सभी को जीवन देने वाले, भगवान्‌; विवर--हृदय केभीतर; प्रसूति:--प्रकट; प्राणेन--प्राण के साथ; घोषेण-- ध्वनि की सूक्ष्म अभिव्यक्ति द्वारा; गुहामू--हृदय में; प्रविष्ट:--प्रविष्टहुए; मनः-मयम्‌--मन से अनुभव किये जाने वाले अथवा शिव जैसे महान्‌ देवताओं के भी मन को वश में करते हुए; सूक्ष्मम्‌--सूक्ष्म; उपेत्य--स्थित होकर; रूपम्‌ू--स्वरूप; मात्रा--विभिन्न मात्राएँ; स्वर: --विभिन्न स्वर; वर्ण:--अक्षर की विभिन्न ध्वनियाँ;इति--इस प्रकार; स्थविष्ठ:--स्थूल रूप।

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, भगवान्‌ हर एक को जीवन प्रदान करते हैं और प्राण-वायु तथाआदि ध्वनि ( नाद ) के सहित हृदय के भीतर स्थित हैं। भगवान्‌ को उनके सूक्ष्म रूप में हृदय केभीतर मन के द्वारा देखा जा सकता है, क्योंकि भगवान्‌ हर एक के मन को वश में रखते हैं,चाहे वह शिवजी जैसा महान्‌ देवता ही क्यों न हो। भगवान्‌ वेदों की ध्वनियों के रूप में जो हस्वतथा दीर्घ स्वरों तथा विभिन्न स्वरविन्यास वाले व्यंजनों से बनी होती हैं स्थूल रूप धारण करतेहैं।

    यथानल: खेउनिलबन्धुरुष्माबलेन दारुण्यधिमथ्यमान: ॥

    अणु: प्रजातो हविषा समेधतेतथेव मे व्यक्तिरियं हि वाणी ॥

    १८॥

    यथा--जिस तरह; अनल:--अग्नि; खे--काठ के भीतर रिक्त स्थान में; अनिल--वायु; बन्धु;--जिसकी सहायता; उष्मा--गर्मी; बलेन--हढ़ता से; दारुणि--काठ के भीतर; अधिमथ्यमान:--रगड़ से जलाई जाने पर; अणु:--अत्यन्त सूक्ष्म; प्रजात:--उत्पन्न होती है; हविषा--घी के साथ; समेधते--बढ़ती है; तथा--उसी तरह; एव--निस्सन्देह; मे--मेरा; व्यक्ति: -- अभिव्यक्ति;इयम्‌--यह; हि--निश्चय ही; वाणी--वैदिक ध्वनि।

    जब काठ के टुकडों को जोर से आपस में रगड़ा जाता है, तो वायु के सम्पर्क से उष्मा उत्पन्नहोती है और अग्नि की चिनगारी प्रकट होती है। एक बार अग्नि जल जाने पर उसमें घी डालनेपर अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इसी प्रकार मैं वेदों की ध्वनि के कम्पन में प्रकट होता हूँ।

    एवं गदि: कर्म गतिर्विसर्गोघ्राणो रसो हृक्स्पर्श: श्रुतिश्च ।सट्डूल्पविज्ञानमधाभिमानःसूत्र रज:सत्त्वतमोविकार: ॥

    १९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; गदिः--वाणी; कर्म--हाथों का कर्म; गति:ः--पाँवों का कार्य; विसर्ग:--जननेन्द्रिय तथा गुदा के कार्य;प्राण:--गन्ध; रसः--स्वाद; हक्‌--दृष्टि; स्पर्श:--स्पर्श; श्रुतिः--सुनना; च-- भी; सट्लडूल्प--मन का कार्य; विज्ञानम्‌ू-बुद्धितथा चेतन का कार्य; अथ--साथ ही; अभिमान:--मिथ्या अहंकार का कार्य; सूत्रमू--प्रधान का कार्य; रज:--रजोगुण;सत्त्त--सतोगुण; तमः--तथा तमोगुण; विकार:--रूपान्तर।

    कर्मेन्द्रियों के कार्य यथा वाकू, हाथ, पैर, उपस्थ एवं नाक, जीभ, आँख, त्वचा तथा कानज्ञानेन्द्रियों के कार्य के साथ ही मन, बुद्धि, चेतना तथा अहंकार जैसी सूक्ष्म इन्द्रियों के कार्य एवंसूक्ष्म प्रधान के कार्य तथा तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया--इन सबों को मेरा भौतिक व्यक्त रूपसमझना चाहिए।

    अयं हि जीवस्त्रिवृदब्जयोनिर्‌अव्यक्त एको वयसा स आद्य: ।विश्लिप्टशक्तिबहुधेव भातिबीजानि योनि प्रतिपद्य यद्वत्‌ू ॥

    २०॥

    अयमू--यह; हि--निश्चय ही; जीव:ः--परम व्यक्ति जो अन्यों को जीवन देता है; त्रि-वृतू--तीन गुणों वाला; अब्ज--ब्रह्माण्डरूपी कमल के फूल का; योनि:--स्त्रोत; अव्यक्त:--अप्रकट; एक:--अकेला; वयसा--कालक्रम से; सः--वह; आद्य:--नित्य; विश्लिप्ट--विभक्त; शक्ति: --शक्तियाँ; बहुधा-- अनेक विभागों में; इब--सहृश; भाति-- प्रकट होता है; बीजानि--बीज; योनिम्‌ू--खेत में; प्रतिपद्य--गिर कर; यत्‌-वत्‌--जिस तरह।

    जब खेत में कई बीज डाले जाते हैं, तो एक ही स्रोत मिट्टी से असंख्य वृसश्ष, झाड़ियाँ,वनस्पतियाँ निकल आती हैं। इसी तरह सबों के जीवनदाता तथा नित्य भगवान्‌ आदि रूप मेंविराट जगत के क्षेत्र के बाहर स्थित रहते हैं। किन्तु कालक्रम से तीनों गुणों के आश्रय तथाब्रह्माण्ड रूप कमल-फूल के स्रोत भगवान्‌ अपनी भौतिक शक्तियों को विभाजित करते हैं औरअसंख्य रूपों में प्रकट प्रतीत होते हैं, यद्यपि वे एक हैं।

    अस्मिन्िदं प्रोतमशेषमोतं'पटो यथा तन्तुवितानसंस्थ: ।य एघ संसारतरु: पुराण:कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते ॥

    २१॥

    यस्मिनू--जिसमें; इृदम्‌--यह ब्रह्माण्ड; प्रोतम्‌ू--चौड़ाई में बुना हुआ, बाना; अशेषम्‌--सम्पूर्ण;, ओतम्‌--तथा लम्बाई में,ताना; पट:--वस्त्र; यथा--जिस तरह; तन्तु--धागों का; वितान--विस्तार; संस्थ:--स्थित; यः--जो; एष:--यह; संसार--भौतिक जगत रूपी; तरूु:--वृक्ष; पुराण:--सनातन से विद्यमान; कर्म--सकाम कर्मों की ओर; आत्मक: --सहज भाव सेउन्मुख; पुष्प--पहला परिणाम, फूल; फले--तथा फल; प्रसूते--उत्पन्न होने पर।

    जिस प्रकार बुना हुआ वस्त्र ताने-बाने पर आधारित रहता है, उसी तरह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डलम्बाई तथा चौड़ाई में भगवान्‌ की शक्ति पर फैला हुआ है और उन्हीं के भीतर स्थित है।बद्धजीव पुरातन काल से भौतिक शरीर स्वीकार करता आया है और ये शरीर विशाल वृक्षों कीभाँति हैं, जो अपना पालन कर रहे हैं। जिस प्रकार एक वृक्ष पहले फूलता है और तब फलता है,उसी तरह भौतिक शरीर रूपी वृक्ष विविध फल देता है।

    द्वे अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनाल:पञ्ञस्कन्धः पञ्जरसप्रसूति: ।दशैकशाखो द्विसुपर्णनीडस्‌त्रिवल्कलो द्विफलोर्क प्रविष्ट: ॥

    २२॥

    अदन्ति चैक॑ फलमस्य गृश्नाग्रामेचरा एकमरण्यवासा: ।हंसा य एकं बहुरूपमिज्यै-मायामयं वेद स वेद वेदम्‌ ॥

    २३॥

    द्वे--दो; अस्य--इस वृक्ष के; बीजे--बीज; शत--सैकड़ों; मूल:--जड़ों के; त्रि--तीन; नाल:--डंठल; पञ्ञ-- पाँच;स्कन्ध:--ऊपरी तना; पञ्ञ-- पाँच; रस--रस; प्रसूतिः--उत्पन्न करते हुए; दश--दस; एक--तथा एक; शाखः--शाखाएँ;द्वि--दो; सुपर्ण--पक्षियों के; नीड:--घोंसला; त्रि--तीन; वल्कल: --छाल; द्वि--दो; फल:--फल; अर्कम्‌--सूर्य; प्रविष्ट: --तक फैला हुआ; अदन्ति--खाते हैं; च-- भी; एकम्‌ू--एक; फलम्‌--फल; अस्य--इस वृक्ष का; गृक्षाः--भौतिक भोग केलिए कामुक; ग्रामे--गृहस्थ-जीवन में; चरा:--सजीव; एकम्‌--दूसरा; अरण्य--जंगल में; वासा:--वास करने वाले;हंसा:--हंस जैसे व्यक्ति, साधु-पुरुष; यः--जो; एकम्‌--एक, परमात्मा; बहु-रूपमू--अनेक रूपों में प्रकट होकर; इज्यैः--पूज्य गुरुओं की सहायता से; माया-मयम्‌-- भगवान्‌ की शक्ति से उत्पन्न; वेद--जानता है; सः--ऐसा व्यक्ति; वेद--जानता है;बेदम्‌--वैदिक वाड्मय के असली अर्थ को।

    इस संसार रूपी वृक्ष के दो बीज, सैकड़ों जड़ें, तीन निचले तने तथा पाँच ऊपरी तने हैं। यहपाँच प्रकार के रस उत्पन्न करता है। इसमें ग्यारह शाखाएँ हैं और दो पक्षियों ने एक घोंसला बनारखा है। यह वृक्ष तीन प्रकार की छालों से ढका है। यह दो फल उत्पन्न करता है और सूर्य तक फैला हुआ है। जो लोग कामुक हैं और गृहस्थ-जीवन में लगे हैं, वे वृक्ष के एक फल का भोगकरते हैं और दूसरे फल का भोग संन्यास आश्रम के हंस सहृश व्यक्ति करते हैं। जो व्यक्तिप्रामाणिक गुरु की सहायता से इस वृक्ष का एक परब्रह्म की शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप मेंअनेक रूपों में प्रकट हुआ समझ लेता है, वही वैदिक वाड्मय के असली अर्थ को जानता है।

    एवं गुरूपासनयैक भक्‍्त्याविद्याकुठारेण शितेन धीरः ।विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्त:सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम्‌ू ॥

    २४॥

    एवम्‌--इस प्रकार ( मेरे द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ) गुरु-गुरु की » उपासनया--उपासना या पूजा से एक- शुद्ध; भक्त्या-- भक्तिसे; विद्या--ज्ञान की; कुठारेण--कुल्हाड़ी से; शितेन--तेज; धीर:--ज्ञान के द्वारा स्थिर रहने वाला; विवृश्च्य--काट कर;जीव--जीव का; आशयम्‌--सूक्ष्म शरीर ( तीन गुणों से उत्पन्न उपाधियों से पूर्ण ); अप्रमत्त:--आध्यात्मिक जीवन में अत्यन्त सतर्क; सम्पद्य--प्राप्त करके; च--तथा; आत्मानम्‌--परमात्मा को; अथ--तब; त्यज--त्याग दो; अस्त्रमू--सिद्धि प्राप्त करनेके साधन को |

    तुम्हें चाहिए कि तुम धीर बुद्धि से गुरु की सावधानी पूर्वक पूजा द्वारा शुद्ध भक्ति उत्पन्न करोतथा दिव्य ज्ञान रूपी तेज कुल्हाड़ी से आत्मा के सूक्ष्म भौतिक आवरण को काट दो। भगवान्‌का साक्षात्कार होने पर तुम उस तार्किक बुद्धि रूपी कुल्हाड़े को त्याग दो।

    TO

    13. हंस-अवतार ब्रह्मा के पुत्रों के प्रश्नों का उत्तर देता है

    श्रीभगवानुवाचसत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मन: ।सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात्सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥

    १॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; सत्त्वमू--सतो; रज:--रजो; तम:ः--तमो; इति--इस प्रकार ज्ञात; गुणा: --प्रकृति केगुण; बुद्धेः--भौतिक बुद्धि से सम्बद्ध; न--नहीं; च-- भी; आत्मन:--आत्मा को; सत्त्वेन--सतोगुण से; अन्यतमौ--अन्य दो( रजो तथा तमो ); हन्यात्‌--नष्ट किये जा सकते हैं; सत्त्वमू--सतोगुण को; सत्त्वेन--शुद्ध सतोगुण से; च-- भी ( नष्ट किया जासकता है ); एब--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह।

    भगवान्‌ ने कहा : भौतिक प्रकृति के तीन गुण, जिनके नाम सतो, रजो तथा तमोगुण हैं,भौतिक बुद्धि से सम्बद्ध होते हैं, आत्मा से नहीं। सतोगुण के विकास से मनुष्य रजो तथातमोगुणों को जीत सकता है एवं दिव्य सत्त्व के अनुशीलन से, वह अपने को भौतिक सत्त्व सेभी मुक्त कर सकता है।

    सच्त्वाद्धर्मो भवेद्वृद्धात्पुंसो मद्धक्तिलक्षण: ।सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्म: प्रवर्तते ॥

    २॥

    सत्त्वात्‌ू-सतोगुण से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; भवेत्‌-उत्पन्न होते हैं; वृद्धात्‌--जो प्रबल बनते हैं; पुंसः--पुरुष का; मत्‌-भक्ति-मेरी भक्ति से; लक्षण:--लक्षणों से युक्त; सात्त्तिक--सतोगुणी वस्तुओं के; उपासया--अनुशीलन से; सत्त्वमू--सतोगुण; ततः--उस गुण से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; प्रवर्तते--उत्पन्न होता है।

    जब जीव प्रबल रूप से सतोगुण में स्थित हो जाता है, तो मेरी भक्ति के लक्षणों से युक्तधार्मिक सिद्धान्त प्रधान बन जाते हैं। जो वस्तुएँ पहले से सतोगुण में स्थित हैं, उनके अनुशीलनसे सतोगुण को प्रबल बनाया जा सकता है और इस तरह धार्मिक सिद्धान्तों का उदय होता है।

    धर्मो रजस्तमो हन्यात्सत्त्ववृद्धिरनुत्तम: ।आशु नश्यति तन्मूलो ह्ाधर्म उभये हते ॥

    ३॥

    धर्म:--भक्ति पर आधारित धर्म; रज:--रजोगुण; तमः--तमोगुण; हन्यात्‌--नष्ट करते हैं; सत्त्वत--सतोगुण की; वृद्धधिः--वृद्धधिसे; अनुत्तम:--सबसे उत्तम; आशु--शीघ्र; नश्यति--नष्ट हो जाता है; तत्‌ू--रजो तथातमोगुण का; मूल:--मूल, जड़; हि--निश्चय ही; अधर्म: --अधर्म; उभये हते--दोनों के नष्ट हो जाने पर।

    सतोगुण से प्रबलित धर्म, रजो तथा तमोगुण के प्रभाव को नष्ट कर देता है। जब रजो तथातमोगुण परास्त हो जाते हैं, तो उनका मूल कारण, जो कि अधर्म है, तुरन्त ही नष्ट हो जाता है।

    आगमोपः प्रजा देश: काल: कर्म च जन्म च ।ध्यानं मन्त्रोथ संस्कारो दशैते गुणहेतव: ॥

    ४॥

    आगमः--शास्त्र; अप:--जल; प्रजा:--जनता या अपने बच्चों की संगति; देश:--स्थान; काल:--समय; कर्म --कर्म; च--भी; जन्म--जन्म; च--भी; ध्यानम्‌- ध्यान; मन्त्र:--मंत्रोच्चारण; अथ--तथा; संस्कार:--शुद्धि के अनुष्ठान; दश--दस;एते--ये; गुण--गुण; हेतवः-- कारण |

    शास्त्रों के गुण, जल, बच्चों या जनता से संगति, स्थान विशेष, काल, कर्म, जन्म, ध्यान,मंत्रोच्चार तथा संस्कार के अनुसार, प्रकृति के गुण भिन्न भिन्न प्रकार से प्रधानता प्राप्त करते हैं।

    तत्तत्सात्त्विकमेवैषां यद्य॒द्वुद्धाः प्रचक्षते ।निन्दन्ति तामसं तत्तद्राजसं तदुपेक्षितम्‌ ॥

    ५॥

    तत्‌ तत्‌--वे वे वस्तुएँ; सात्ततिकम्‌--सतोगुण में; एव--निस्सन्देह; एषाम्‌ू--इन दसों में से; यत्‌ यत्‌--जो जो; वृद्धा:--प्राचीनऋषि यथा व्यासदेव जो वैदिक ज्ञान में पटु हैं; प्रचक्षते-- प्रशंसा करते हैं; निन्दन्ति--निन्दा करते हैं; तामसम्‌--तमोगुणी; तत्‌तत्‌--वे वे वस्तुएँ; राजसम्‌--रजोगुण में; तत्‌--मुनियों द्वारा; उपेक्षितम्‌--न तो प्रशंसित, न आलोचित, सर्वथा त्यक्त |

    अभी मैंने जिन दस वस्तुओं का उल्लेख किया है, उनमें से जो सात्विक वस्तुएँ हैं उनकीप्रशंसा तथा संस्तुति, जो तामसिक हैं उनकी आलोचना तथा बहिष्कार एवं जो राजसिक हैं उनकेप्रति उपेक्षा का भाव, उन मुनियों द्वारा व्यक्त किया गया है, जो वैदिक ज्ञान में पटु हैं।

    सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान्सत्त्वविवृद्धये ।ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत्स्मृतिरपोहनम्‌ ॥

    ६॥

    सात्त्विकानि--सतोगुणी वस्तुएँ; एब--निस्सन्देह; सेवेत--अनुशीलन करे; पुमान्‌--पुरुष; सत्त्त--सतोगुण; विवृद्धये --बढ़ानेके लिए; ततः--उस ( सतोगुण में वृद्धि ) से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्तों में स्थिर; तत:--उस ( धर्म ) से; ज्ञानमू--ज्ञान प्रकटहोता है; यावत्‌--जब तक; स्मृतिः--अपने नित्य स्वरूप का स्मरण करते हुए, आत्म-साक्षात्कार; अपोहनम्‌ू--दूर करना ( शरीरतथा मन से मोहमयी पहचान )।

    जब तक मनुष्य आत्मा विषयक प्रत्यक्ष ज्ञान को पुनरुज्जीवित नहीं कर लेता और प्रकृति केतीन गुणों से उत्पन्न भौतिक शरीर तथा मन से मोहमयी पहचान को हटा नहीं देता, तब तक उसेसतोगुणी वस्तुओं का अनुशीलन करते रहना चाहिए। सतोगुण के बढ़ाने से, वह स्वतः धार्मिकसिद्धान्तों को समझ सकता है और उनका अभ्यास कर सकता है। ऐसे अभ्यास से दिव्य ज्ञानजागृत होता है।

    वेणुसड्डर्षजो वह्िर्दग्ध्वा शाम्यति तद्दनम्‌ ।एवं गुणव्यत्ययजो देह: शाम्यति तत्क्रिय: ॥

    ७॥

    वेणु--बाँस की; सड्डर्ष-ज:--रगड़ से उत्पन्न; वहिः--आग; दग्ध्वा--जलाकर; शाम्यति--शान्त हो जाती है; तत्‌--बाँस के;वनम्‌--जंगल को; एवम्‌--इस प्रकार; गुण--गुणों के; व्यत्यय-ज:--अन्योन्य क्रिया से उत्पन्न; देह:-- भौतिक शरीर;शाम्यति--शान्त की जाती है; तत्‌ू--वह अग्नि; क्रियः:--वही कार्य करके |

    बाँस के जंगल में कभी कभी वायु बाँस के तनों में रगड़ उत्पन्न करती है और ऐसी रगड़ सेप्रज़वलित अग्नि उत्पन्न हो जाती है, जो अपने जन्म के स्त्रोत, बाँस के जंगल, को ही भस्म करदेती है। इस प्रकार अग्नि अपने ही कर्म से स्वतः प्रशमित हो जाती है। इसी तरह प्रकृति केभौतिक गुणों में होड़ तथा पारस्परिक क्रिया होने से, स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर उत्पन्न होते हैं। यदिमनुष्य अपने मन तथा शरीर का उपयोग ज्ञान का अनुशीलन करने में करता है, तो ऐसा ज्ञान देह को उत्पन्न करने वाले गुणों के प्रभाव को नष्ट कर देता है। इस तरह, अग्नि के ही समान, शरीरतथा मन अपने जन्म के स्त्रोत को विनष्ट करके अपने ही कर्मों से शान्त हो जाते हैं।कर दिया जायेगा।

    श्रीउद्धव उबाचविदन्ति मर्त्या: प्रायेण विषयान्पदमापदाम्‌ ।तथापि भुज्जते कृष्ण तत्कथं श्रखराजवत्‌ ॥

    ८॥

    श्री-उद्धवः उवाच--उद्धव ने कहा; विदन्ति--जानते हैं; मर्त्या:--मनुष्यगण; प्रायेण--सामान्यतया; विषयान्‌--इन्द्रियतृप्ति;'पदम्‌--स्थिति; आपदाम्‌--अनेक विपत्तियों की; तथा अपि--फिर भी; भुझ्जते-- भोगते हैं; कृष्ण--हे कृष्ण; तत्‌ू--ऐसीइन्द्रियतृप्ति; कथम्‌--कैसे सम्भव है; श्र--कुत्ते; खर--गधे; अज--तथा बकरे; वत्‌--सहृश ।

    श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, सामान्यतया मनुष्य यह जानते हैं कि भौतिक जीवन भविष्य मेंमहान्‌ दुख देता है, फिर भी वे भौतिक जीवन का भोग करना चाहते हैं। हे प्रभु, यह जानते हुएभी, वे किस तरह कुत्ते, गधे या बकरे जैसा आरचण करते हैं।तात्पर्य : भौतिक जगत में भोग की मानक विधियाँ हैं--यौन, धन तथा मिथ्या प्रतिष्ठा। ये सब श्रीभगवानुवाचअहमित्यन्यथाबुद्द्ि: प्रमत्तस्य यथा हृदि ।उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः ॥

    ९॥

    रजोयुक्तस्थ मनसः सड्डूल्प:ः सविकल्पक: ।ततः कामो गुणध्यानादुःसहः स्याद्ध्धि दुर्मतेः ॥

    १०॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; अहम्‌ू--शरीर तथा मन के साथ झूठी पहचान; इति--इस प्रकार; अन्यथा-बुद्धि: --मोहमय ज्ञान; प्रमत्तस्य--वास्तविक बुद्धि से रहित है, जो उसका; यथा--तदनुसार; हृदि--मन के भीतर; उत्सर्पति--उठती है;रज:--कामवासना; घोरम्‌-- भयावह कष्ट देने वाला; ततः--तब; वैकारिकम्‌--( मूलतः ) सतोगुण में; मनः--मन; रज: --रजोगुण में; युक्तस्थ--लगा हुआ है, जो उसका; मनसः--मन का; सड्डूल्प:--संकल्प; स-विकल्पक:--बदलाव सहित;ततः--उससे; काम:ः--पूर्ण भौतिक इच्छा; गुण--गुणों में; ध्यानातू--ध्यान से; दुःसहः--असहा; स्यथात्‌--ऐसा ही हो; हि--निश्चय ही; दुर्मतेः--मूर्ख व्यक्ति का।

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, बुद्धिरहित व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी झूठी पहचान भौतिक शरीरतथा मन के साथ करता है और जब किसी की चेतना में ऐसा मिथ्या ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तोमहान्‌ कष्ट का कारण, भौतिक काम ( विषय-वासना ), उस मन में व्याप्त हो जाता है, जोस्वभाव से सात्विक होता है। तब काम द्वारा दूषित मन भौतिक उन्नति के लिए तरह-तरह कीयोजनाएँ बनाने में एवं बदलने में लीन हो जाता है। इस प्रकार सदैव गुणों का चिन्तन करते हुए,मूर्ख व्यक्ति असहा भौतिक इच्छाओं से पीड़ित होता रहता है।

    'करोति कामवशग: कर्माण्यविजितेन्द्रिय: ।दुःखोदर्काणि सम्पश्यन्रजोवेगविमोहित: ॥

    ११॥

    करोति--करता है; काम-- भौतिक इच्छाओ के; वश--अधीन; ग:--जाकर; कर्माणि--सकाम कर्म; अविजित--- अवश्य;इन्द्रियः--जिसकी इन्द्रियाँ; दुःख--दुख; उरदर्काणि-- भावी फल के रूप में लाते हुए; सम्पश्यन्‌--स्पष्टदेखते हुए; रज:--रजोगुण का; वेग--वेग से; विमोहितः --मोह ग्रस्त

    जो भौतिक इन्द्रियों को वश में नहीं करता, वह भौतिक इच्छाओं के वशीभूत हो जाता हैऔर इस तरह वह रजोगुण की प्रबल तरंगों से मोहग्रस्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति भौतिक कर्मकरता रहता है, यद्यपि उसे स्पष्ट दिखता है कि इसका फल भावी दुख होगा।

    रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान्विक्षिप्तधी: पुनः ।अतन्द्रितो मनो युझ्जन्दोषदृष्टिन सजजते ॥

    १२॥

    रजः-तमोभ्याम्‌ू--रजो तथा तमोगुणों से; यत्‌ अपि--यद्यपि; विद्वानू--विद्वान व्यक्ति; विक्षिप्त--मोहग्रस्त; धी:--बुद्ध्धि;पुनः--फिर; अतन्द्रितः:--सावधानी से; मन: --मन; युद्जनू--लगाते हुए; दोष-- भौतिकआसक्ति का कल्मष; दृष्टि:--स्पष्टदेखते हुए; न--नहीं; सजते--लिप्त नहीं होता ।

    यद्यपि विद्वान पुरुष की बुद्धि रजो तथा तमोगुणों से मोहग्रस्त हो सकती है, किन्तु उसेचाहिए कि वह सावधानी से अपने मन को पुनः अपने वश्ञ में करे। गुणों के कल्मष को स्पष्टदेखने से वह आसक्त नहीं होता।

    अप्रमत्तोनुयुज्जीत मनो मय्यर्पयज्छनै: ।अनिर्विण्णो यथाकालं जितश्वासो जितासनः ॥

    १३॥

    अप्रमत्त:--सतर्क तथा गम्भीर; अनुयुज्जीत--स्थिर करे; मन:ः--मन; मयि--मुझमें; अर्पयन्‌--लीन करते हुए; शनैः--धीरे धीरे;अनिर्विण्णग:--आलसी या खिन्न हुए बिना; यथा-कालम्‌--दिन में कम से कम तीन बार ( प्रातः, दोपहर तथा संध्या-समय );जित--जीत कर; श्वास: -- श्रास लेने की विधि; जित--जीत कर; आसन: --बैठने की शैली

    मनुष्य को सावधान तथा गम्भीर होना चाहिए और उसे कभी भी आलसी या खिन्न नहीं होनाचाहिए। श्वास तथा आसन की योग-क्रियाओं में दक्ष बन कर, मनुष्य को अपना मन प्रातः,दोपहर तथा संध्या-समय मुझ पर एकाग्र करके इस तरह मन को धीरे धीरे मुझमें पूरी तरह सेलीन कर लेना चाहिए।

    एतावान्योग आदिष्टो मच्छिष्यै: सनकादिभि: ।सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धावेश्यते यथा ॥

    १४॥

    एतावानू्‌--वास्तव में यह; योग:--योग-पद्धति; आदिष्ट:--आदेश दिया हुआ; मत्‌-शिष्यै: --मेंरे भक्तों द्वारा; सनक-आदिभिः:--सनक कुमार इत्यादि द्वारा; सर्वतः--सभी दिशाओं से; मन:--मन को; आकृष्य--खींच कर; मयि--मुझमें;अद्धा--सीधे; आवेश्यते--लीन किया जाता है; यथा--तदनुसार |

    सनक कुमार इत्यादि मेरे भक्तों द्वारा पढ़ायी गयी वास्तविक योग-पद्धति इतनी ही हैं किअन्य सारी वस्तुओं से मन को हटाकर मनुष्य को चाहिए कि उसे सीधे तथा उपयुक्त ढंग से मुझ में लीन कर दे।श्रीउद्धव उबाचयदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव ।योगमादिष्टवानेतद्रूपमिच्छामि वेदितुम्‌ू ॥

    १५॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यदा--जब; त्वम्‌--तुम; सनक-आदिश्य: --सनक आदि को; येन--जिससे;रूपेण--रूप से; केशव--हे केशव; योगम्‌--परब्रह्म में मन को स्थिर करने की विधि; आदिष्टवान्‌--आपने आदेश दिया है;एततू--वह; रूपमू--रूप; इच्छामि--चाहता हूँ; वेदितुमू--जानना

    श्री उद्धव ने कहा : हे केशव, आपने सनक तथा उनके भाइयों को किस समय तथा किसरूप में योग-विद्या के विषय में उपदेश दिया ? अब मैं इन बातों के विषय में जानना चाहता हूँ।

    श्रीभगवानुवाचपुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसा: सनकादयः पप्रच्छु: पितरं सूक्ष्मां योगस्यैकान्तिकीमातिम्‌ ॥

    १६॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; पुत्रा:--पुत्र; हिरण्य-गर्भस्य--ब्रह्मा के; मानसा:--मन से उत्पन्न; सनक-आदय: --सनक ऋषि इत्यादि ने; पप्रच्छु:--पूछा; पितरम्‌--अपने पिता ( ब्रह्मा ) से; सूक्ष्माम्‌-सूक्ष्म अतएबसमझने में कठिन; योगस्य--योग-विद्या का; एकान्तिकीमू--परम; गतिम्‌--लक्ष्य |

    भगवान्‌ ने कहा, एक बार सनक आदि ब्रह्मा के मानस पुत्रों ने अपने पिता से योग के परमलक्ष्य जैसे अत्यन्त गूढ़ विषय के बारे में पूछा।

    सनकादय ऊचुःगुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्रेतसि च प्रभो ।कथमन्योन्यसन्त्यागो मुमुक्षोरतितितीर्षों: ॥

    १७॥

    सनक-आदय: ऊचु:--सनक इत्यादि ऋषियों ने कहा; गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; आविशते--सीधे प्रवेश करता है; चेत:--मन; गुणा: --इन्द्रिय-विषय; चेतसि--मन के भीतर; च-- भी; प्रभो--हे प्रभु; कथम्‌--वह विधि क्‍या है; अन्योन्य--इन्द्रिय-विषयों तथा मन का पारस्परिक सम्बन्ध; सन्त्याग:--वैराग्य; मुमुक्षो: --मोक्ष की कामना करने वाले का; अतितितीर्षो: --इन्द्रियतृप्ति को पार कर जाने के इच्छुक का।

    सनकादि ऋषियों ने कहा : हे प्रभु, लोगों के मन स्वभावत: भौतिक इन्द्रिय-विषयों के प्रतिआकृष्ट रहते हैं और इसी तरह से इन्द्रिय-विषय इच्छा के रूप में मन में प्रवेश करते हैं। अतएव मोक्ष की इच्छा करने वाला तथा इन्द्रियतृप्ति के कार्यों को लाँघने की इच्छा करने वाला व्यक्तिइन्द्रिय-विषयों तथा मन के बीच पाये जाने वाले इस पारस्परिक सम्बन्ध को कैसे नष्ट करे?कृपया हमें यह समझायें ।

    श्रीभगवानुवाचएवं पृष्टो महादेव: स्वयम्भूभ्भूतभावन: ।ध्यायमान: प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत कर्मधी: ॥

    १८॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; पृष्ट:--पूछे जाने पर; महा-देवः --महान्‌ देवता ब्रह्मा; स्वयम्‌-भू:--बिना जन्म के ( गर्भोदकशायी विष्णु के शरीर से सीधे उत्पन्न ); भूत--सारे बद्धजीवों के; भावन:--स्त्रष्टा ( बद्ध जीवन के );ध्यायमान:--गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए; प्रश्न-- प्रश्न के; बीजम्‌--सत्य; न अभ्यपद्यत--नहीं पहुँचा; कर्म-धी:--अपनेही कर्मों द्वारा मोहित बुद्धि |

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, भगवान्‌ के शरीर से उत्पन्न तथा भौतिक जगत के समस्त जीवोंके स्त्रष्टा स्वयं ब्रह्माजी ने सर्वोच्च देवता होने के कारण सनक आदि अपने पुत्रों के प्रश्न परगम्भीरतापूर्वक विचार किया। किन्तु ब्रह्मा की बुद्धि अपनी सृष्टि के कार्यो से प्रभावित थी, अतःवे इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं ढूँढ सके ।

    स मामचिन्तयद्देव: प्रश्नपारतितीर्षया ।तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा ॥

    १९॥

    सः--उस ( ब्रह्मा ) ने; मामू--मुझको; अचिन्तयत्‌--स्मरण किया; देव: --आदि देवता; प्रश्न-- प्रश्न का; पार--अन्त, निष्कर्ष( उत्तर ); तितीर्षया--प्राप्त करने या समझने की इच्छा से; तस्य--उस तक; अहमू--मैं; हंस-रूपेण--हंस के रूप में;सकाशम्‌--हृश्य; अगममू--हो गया; तदा--उस समय ।

    ब्रह्माजी उस प्रश्न का उत्तर पाना चाह रहे थे, जो उन्हें उद्विग्न कर रहा था, अतएव उन्होंनेअपना मन भगवान्‌ में स्थिर कर दिया। उस समय, मैं अपने हंस रूप में ब्रह्मा को दृष्टिगोचरहुआ।

    इृष्टा माम्त उपब्रज्य कृत्व पादाभिवन्दनम्‌ ।ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा पप्रच्छु? को भवानिति ॥

    २०॥

    इष्ठा--देख कर; माम्‌--मुझको; ते--वे ( मुनिगण ); उपब्रज्य--निकट आकर; कृत्वा--करके; पाद--चरणकमलों पर;अभिवन्दनम्‌--नमस्कार; ब्रह्मणम्‌--ब्रह्माजी को; अग्रत:--सामने; कृत्वा--करके ; पप्रच्छु: --पूछा; कः भवान्‌ू--आप कौनहैं; इति--इस प्रकार।

    इस प्रकार मुझे देख कर सारे मुनि, ब्रह्म को आगे करके, आगे आये और मेरे चरणकमलोंकी पूजा की। तत्पश्चात्‌ उन्होंने साफ साफ पूछा कि, ' आप कौन हैं ?' इत्यहं मुनिभि: पृष्टस्तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा ।यदवोचमहं तेभ्यस्तदुद्धव निबोध मे ॥

    २१॥

    इति--इस प्रकार; अहम्‌--मैं; मुनिभि:--मुनियों के द्वारा; पृष्टः--पूछा जाने पर; तत्त्व--योग के लक्ष्य के विषय में सत्य;जिज्ञासुभि:--जानने की इच्छा रखने वालों के द्वारा; तदा--उस समय; यत्‌--जो; अवोचम्‌--बोला; अहमू--मैं; तेभ्य: --उनसे; तत्‌--वह; उद्धव--हे उद्धव; निबोध--सीखो; मे--मुझसे |

    हे उद्धव, मुनिगण योग-पद्धति के परम सत्य को जानने के इच्छुक थे, अतएव उन्होंने मुझसेइस प्रकार पूछा। मैंने मुनियों से जो कुछ कहा, उसे अब मुझसे सुनो।

    वस्तुनो यद्यनानात्व आत्मन: प्रश्न ईहशः ।कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रय: ॥

    २२॥

    वस्तुन:ः--व्गास्तविकता का; यदि--यदि; अनानात्वे--व्यष्टिहीनता में; आत्मन:--जीवात्मा के; प्रश्न: --प्रश्न; ईहश:ः --ऐसा;कथम्‌--कैसे; घटेत--सम्भव है, अथवा उपयुक्त है; वः--पूछ रहे तुम्हारा; विप्रा:--हे ब्राह्मण; वक्तु:--वक्ता का; वा--अथवा; मे--मेरा; क:ः--क्या है; आश्रय:--असली स्थिति अथवा आश्रय ।

    हे ब्राह्मणो, यदि तुम लोग मुझसे पूछते हो कि मैं कौन हूँ, तो यदि तुम यह विश्वास करते होकि मैं भी जीव हूँ और हम लोगों में कोई अन्तर नहीं है--क्योंकि अन्ततः सारे जीव एक हैं--तोफिर तुम लोगों का प्रश्न किस तरह सम्भव या उपयुक्त ( युक्ति संगत ) है ? अन्ततः तुम्हारा औरमेरा दोनों का असली आश्रय क्‍या है ? पशञ्जात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः ।को भवानिति वः प्रश्नो वाचारम्भो हानर्थकः ॥

    २३॥

    पञ्ञ--पाँच तत्त्वों के; आत्मकेषु--बने हुए; भूतेषु--विद्यमान; समानेषु--एक समान; च--भी; वस्तुत:--सार रूप में; कः--कौन; भवान्‌--आप हैं; इति--इस प्रकार; व:--तुम्हारा; प्रश्न:--प्रश्न; वाचा--वाणी से; आरम्भ:--ऐसा प्रयास; हि--निश्चयही; अनर्थकः--असली अर्थ या अभिप्राय से रहित।

    यदि तुम लोग मुझसे यह प्रश्न पूछ कर कि, 'आप कौन हैं ?' भौतिक देह की बात करनाचाहते हो, तो मैं यह इंगित करना चाहूँगा कि सारे भौतिक देह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथाआकाश--इन पाँच तत्त्वों से मिल कर बने हैं। इसलिए, तुम लोगों को इस प्रकार पूछना चाहिएथा, 'आप पाँच कौन हैं?' यदि तुम लोग यह मानते हो कि सारे भौतिक देह एकसमान तत्त्वोंसे बने होने से, अन्ततः एक हैं, तो भी तुम्हारा प्रश्न निरर्थक है क्योंकि एक शरीर से दूसरे शरीरमें भेद करने में कोई गम्भीर प्रयोजन नहीं है। इस तरह ऐसा लगता है कि मेरी पहचान पूछ कर,तुम लोग ऐसे शब्द बोल रहे हो जिनका कोई वास्तविक अर्थ या प्रयोजन नहीं है।

    मनसा वचसा हृष्टया गृह्मतेउन्यैरपीन्द्रिये: ।अहमेव न मत्तोन्यदिति बुध्यध्वमझसा ॥

    २४॥

    मनसा--मन से; वचसा-- वाणी से; दृष्या--दृष्टि से; गृह्मते--ग्रहण किया जाता है, स्वीकार किया जाता है; अन्यै:-- अन्य;अपि--बद्यर्पा; इन्द्रियैः --इन्द्रियों के द्वारा; अहम्‌--मैं; एब--निस्सन्देह; न--नहीं; मत्त:--मेंरे अतिरिक्त; अन्यत्‌--अन्य कोईवस्तु; इति--इस प्रकार; बुध्यध्वम्‌-तुम्हें समझना चाहिए; अज्ञसा--तथ्यों के सीधेविश्लेषण से |

    इस जगत में, मन, वाणी, आँखों या अन्य इन्द्रियों के द्वारा जो भी अनुभव किया जाता है,वह एकमात्र मैं हूँ, मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। तुम सभी लोग तथ्यों के सीधे विश्लेषण सेइसे समझो।

    गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्रेतसि च प्रजा: ।जीवस्य देह उभयं गुणाश्वेतो मदात्मतः ॥

    २५॥

    गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; आविशते--प्रविष्ट करता है; चेतः:--मन; गुणा:--इन्द्रिय-विषय; चेतसि--मन में ; च-- भी ( प्रवेशकरते हैं ); प्रजा:--मेरे पुत्रों; जीवस्य--जीव का; देह:--बाह्य शरीर, उपाधि के रूप में; उभयम्‌--इन दोनों; गुणा: --इन्द्रिय-विषय; चेत:--मन; मत्‌-आत्मन: --परमात्मा रूप में मुझे पाकर |

    हे पुत्रो, मन की सहज प्रवृत्ति भौतिक इन्द्रिय-विषयों में प्रविष्ट करने की होती है और इसीतरह इन्द्रिय-विषय मन में प्रवेश करते हैं। किन्तु भौतिक मन तथा इन्द्रिय-विषय दोनों हीउपाधियाँ मात्र हैं, जो मेरे अंशरूप आत्मा को प्रच्छन्न करती हैं।

    गुणेषु चाविशच्चित्तमभीक्ष्णं गुणसेवया ।गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्गूप उभयं त्यजेत्‌ू ॥

    २६॥

    गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; च--तथा; आविशत्‌-प्रविष्ट हुआ; चित्तम्‌ू--मन; अभीक्ष्णम्‌-पुनः पुनः; गुण-सेवया--इन्द्रियतृप्ति द्वारा; गुणा:--तथा भौतिक इन्द्रिय-विषय; च--भी; चित्त--मन के भीतर; प्रभवा:--मुख्य रूप से उपस्थित होकर;मत्‌-रूप:--जिसने अपने को मुझसे अभिन्न समझ लिया है और इस तरह जो मेरे रूप, लीला आदि में लीन रहता है; उभयम्‌--दोनों ( मन तथा इन्द्रिय-विषय ); त्यजेतू--त्याग देना चाहिए

    जिस व्यक्ति ने यह जान कर कि वह मुझसे भिन्न नहीं है, मुझे प्राप्त कर लिया है, वहअनुभव करता है कि मन निरन्तर इन्द्रियतृप्ति के कारण इन्द्रिय-विषयों में रमा रहता है औरभौतिक वस्तुएँ मन के भीतर स्पष्टतया स्थित रहती हैं। मेरे दिव्य स्वभाव को समझ लेने के बाद,वह मन तथा इसके विषयों को त्याग देता है।

    जाग्रत्स्वष्न: सुषुप्तं च गुणतो बुद्धिवृत्तय: ।तासां विलक्षणो जीव: साक्षित्वेन विनिश्चित:ः ॥

    २७॥

    जाग्रत्‌ू--जगा हुआ; स्वप्न:--स्वप्न देखता; सु-सुप्तम्‌--गहरी नींद; च--भी; गुणतः--गुणों से उत्पन्न; बुद्धि--बुद्धि के;वृत्तय:--कार्य; तासाम्‌--ऐसे कार्यो से; विलक्षण:--विभिन्न लक्षणों वाला; जीव:--जीव; साक्षित्वेन--साक्षी होने के लक्षणसे युक्त; विनिश्चित:--सुनिश्चित किया जाता है

    जगना, सोना तथा गहरी नींद--ये बुद्धि के तीन कार्य है और प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्नहोते है। शरीर के भीतर का जीव इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न लक्षणों द्वारा सुनिश्चित होता है,अतएव वह उनका साक्षी बना रहता है।

    यहिं संसृतिबन्धोयमात्मनो गुणवृत्तिद: ।मयि तुर्ये स्थितो जह्यात्त्यागस्तद्गुणचेतसाम्‌ ॥

    २८ ॥

    यहि-- क्योंकि; संसति-- भौतिक बुद्धि या संसार का; बन्ध: --बन्धन; अयम्‌--यह है; आत्मन:--आत्मा का; गुण-- प्रकृति केगुणों में; वृत्ति-दः --वृत्तिपरक कार्य देने वाली; मयि--मुझमें; तुर्ये--चौथे तत्त्व में ( जाग्रत, सुप्त, सुषुप्त से आगे ); स्थित: --स्थित; जह्यातू--त्याग दे; त्याग:--वैराग्य; तत्‌ू--उस समय; गुण--इन्द्रिय-विषयों का; चेतसामू--तथा मन का ।

    आत्मा भौतिक बुद्धि के बन्धन में बन्दी है, जो उसे प्रकृति के मोहमय गुणों से निरन्तरलगाये रहती है। लकिन मै चेतना की चौथी अवस्था--जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त से परे--हूँ।मुझमें स्थित होने पर, आत्मा को भौतिक चेतना का बन्धन त्याग देना चाहिए। उस समय, जीवस्वतः भौतिक इन्द्रिय-विषयों तथा भौतिक मन को त्याग देगा।

    अहड्ढारकृतं बन्धमात्मनोर्थविपर्ययम्‌ ।दिद्वान्निर्विद्य संसारचिन्तां तुर्ये स्थितस्त्यजेतू ॥

    २९॥

    अहड्ढडार--मिथ्या गर्व से; कृतम्‌--उत्पन्न; बन्धम्‌--बन्धन; आत्मन:--आत्मा का; अर्थ--जो वास्तव में उपयोगी है उसका;विपर्ययम्‌--उल्टा, विरुद्ध; विद्वान्‌ू--जानने वाला; निर्विद्य--विरक्त होकर; संसार--जगत में; चिन्ताम्‌--निरन्तर विचार;तुर्ये--चौथे तत्त्व, भगवान्‌ में; स्थितः--स्थित होकर; त्यजेत्‌--त्याग दे

    जीव का अहंकार उसे बन्धन में डालता है और जीव जो चाहता है उसका सर्वथा विपरीतउसे देता है। अतएव बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि भौतिक जीवन भोगने की स्थायी चिन्ताको त्याग दे और भगवान्‌ में स्थित रहे, जो भौतिक चेतना के कार्यो से परे है।

    यावन्नानार्थधीः पुंसो न निवर्तेत युक्तिभि: ।जागर्त्यपि स्वपन्नज्ञ: स्वप्ने जागरणं यथा ॥

    ३०॥

    यावत्‌--जब तक; नाना--अनेक; अर्थ--महत्त्व का; धी:-- धारणा; पुंसः--पुरुष का; न--नहीं; निवर्तेत--शमन होता है;युक्तिभिः --उपयुक्त विधियों से ( जिन्हें मैने बताया है ); जागर्ति--जाग्रत रहने से; अपि--यद्यपि; स्वपन्‌--सोते या स्वप्न देखते;अज्ञ:--वस्तुओं को उसी रूप में न देखने वाला; स्वप्ने--सपने में; जागरणम्‌--जाग्रत रह कर; यथा--जिस तरह।

    मनुष्य को चाहिए कि मेरे आदेशों के अनुसार वह अपना मन मुझ में स्थिर करे। किन्तु यदिवह हर वस्तु को मेरे भीतर न देख कर जीवन में अनेक प्रकार के अर्थ तथा लक्ष्य देखता रहताहै, तो वह, जगते हुए भी, अपूर्ण ज्ञान के कारण, वास्तव में स्वप्न देखता रहता है, जिस तरहवह यह स्वप्न देखे कि वह स्वप्न से जग गया है।

    असत्त्वादात्मनो३न्येषां भावानां तत्कृता भिदा ।गतयो हेतवश्वास्य मृषा स्वजहशो यथा ॥

    ३१॥

    असत्त्वात्‌ू--वास्तविक अस्तित्व के अभाव में; आत्मन:-- भगवान्‌ से; अन्येषाम्‌--अन्य; भावानाम्‌--अस्तित्व की दशाओं के;तत्‌--उनके द्वारा; कृता--उत्पन्न; भिदा--अन्तर या बिछोह; गतयः--लक्ष्य यथा स्वर्ग जाना; हेतव:ः--सकाम कर्म जो भावी'फल के कारण है; च-- भी; अस्य--जीव का; मृषा--झूठा; स्वज--सपने का; दृशः--देखने वाले का; यथा--जिस तरह ।

    उन जगत की अवस्थाओं का जिन्हें भगवान्‌ से पृथक््‌ सोचा जाता है, वास्तविक अस्तित्व नहीं होता, यद्यपि वे परब्रह्म से पृथकत्व की भावना उत्पन्न करती है। जिस तरह स्वप्न देखनेवाला नाना प्रकार के कार्यों तथा फलों की कल्पना करता है उसी तरह भगवान्‌ से पृथक्‌अस्तित्व की भावना से जीव झूठे ही सकाम कर्मों को भावी फल तथा गन्तव्य का कारणसोचता हुआ कर्म करता है।

    यो जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणो< र्थान्‌भुड़े समस्तकरणैईदि तत्सदक्षान्‌ ।स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एक:स्मृत्यन्वयात्रत्रिगुणवृत्तिहगिन्द्रियेश: ॥

    ३२॥

    यः--जो जीव; जागरे--जगते हुए; बहि:--बाह्य; अनुक्षण-- क्षणिक ; धर्मिण: --गुण; अर्थानू--शरीर, मन तथा उनकेअनुभव; भुड़े -- भोगता है; समस्त--समस्त; करणै:--इन्द्रियों से; हदि--मन के भीतर; तत्‌-सहक्षान्‌--जगते हुए में जैसेअनुभव; स्वप्ने--स्वप्नों में; सुषुप्ते--स्वप्नरहित गहरी नींद में; उपसंहरते--अज्ञान में लीन हो जाता है; सः--वह; एक:--एक;स्मृति--स्मरणशक्ति का; अन्वयात्‌--क्रम से; त्रि-गुण--जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त, इन तीन अवस्थाओं के; वृत्ति--कार्य;हक्‌--देखना; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; ईशः--स्वामी बनता है|

    जाग्रत रहने पर जीव अपनी सारी इन्द्रियों से भौतिक शरीर तथा मन के सारे क्षणिक गुणोंका भोग करता है; स्वप्न के समय वह मन के भीतर ऐसे ही अनुभवों का आनन्द लेता है औरप्रगाढ़ स्वप्नरहित निद्रा में ऐसे सारे अनुभव अज्ञान में मिल जाते है। जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्तिकी सरणि को स्मरण करते तथा सोचते हुए, जीव यह समझ सकता है कि वह चेतना की तीनोंअवस्थाओं में एक ही है और दिव्य है। इस तरह वह अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है।

    एवं विमृश्य गुणतो मनसस्त्र्यवस्थामन्मायया मयि कृता इति निश्चितार्था: ।सछ्छिद्य हार्दमनुमानसदुक्तिती क्षणज्ञानासिना भजत माखिलसंशयाधिम्‌ ॥

    ३३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विमृश्य--विचार करके; गुणतः--गुणों से; मनसः--मन की; त्रि-अवस्था:--चेतना की तीन अवस्थाएँ;मत्‌-मायया--मेरी मायाशक्ति के प्रभाव से; मयि--मुझमें; कृता:--आरोपित; इति--इस प्रकार; निश्चित-अर्था:--जिन्होंनेआत्मा के वास्तविक अर्थ को निश्चित कर लिया है; सज्छिद्य--काट कर; हार्दमू--हृदय में स्थित; अनुमान--तर्क द्वारा; सतू-उक्ति--तथा मुनियों और वैदिक ग्रंथों के आदेशों से; तीक्ष्ण--तेज; ज्ञान--ज्ञान की; असिना--तलवार से; भजत--आप कीसारी पूजा; मा--मुझको; अखिल--समस्त; संशय--संदेह; आधिम्‌--कारण

    ( मिथ्या अभिमान )तुम्हें विचार करना चाहिए कि किस तरह, प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न, मन की ये तीनअवस्थाएँ, मेरी मायाशक्ति के प्रभाव से, मुझमें कृत्रिम रूप से विद्यमान मानी गई है। तुम्हें आत्माकी सत्यता को सुनिश्चित कर लेने के बाद, तर्क तथा मुनियों एवं वैदिक ग्रंथों के आदेशों सेप्राप्त, ज्ञानरूपी तेज तलवार से मिथ्या अभिमान को पूरी तरह काट डालना चाहिए क्योंकि यहीसमस्त संशयों को प्रश्नय देने वाला है। तब तुम सबों को, अपने हृदयों में स्थित, मेरी पूजा करनीचाहिए।

    ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासंहृष्ट विनष्टमतिलोलमलातचक्रम्‌ ।विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति मायास्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्प: ॥

    ३४॥

    ईक्षेत--देखना चाहिए; विभ्रमम्‌-- भ्रम या त्रुटि के रूप में; इदम्‌--इस ( भौतिक जगत ); मनस:--मन का; विलासम्‌--प्राकट्य या कूदफाँद; दृष्टम्‌ू--आज है; विनष्टम्‌ू--कल नहीं है; अति-लोलम्‌--अत्यन्त चलायमान; अलात-चक्रम्‌--जलतीलकड़ी को घुमाने से बना हुआ गोला, लुकाठ की बनेठी; विज्ञानमू--सहज सचेतन आत्मा; एकम्‌--एक है; उरुधा--अनेकविभागों में; इब--मानो; विभाति-- प्रकट होती है; माया--यह माया है; स्वप्न:--मात्र स्वप्न; त्रिधा--तीन विभागों में; गुण--गुणों का; विसर्ग--विकार का; कृत:--उत्पन्न; विकल्प:--अनुभूति या कल्पना का भेद |

    मनुष्य को देखना चाहिए कि यह भौतिक जगत मन में प्रकट होने वाला स्पष्ट भ्रम है,क्योंकि भौतिक वस्तुओं का अस्तित्व अत्यन्त क्षणिक है और वे आज है, किन्तु कल नहीं रहेंगी।इनकी तुलना लुकाठ के घुमाने से बने लाल रंग के गोले से की जा सकती है। आत्मा स्वभाव सेएक ही विशुद्ध चेतना के रूप में विद्यमान रहता है। किन्तु इस जगत में वह अनेक रूपों औरअवस्थाओं में प्रकट होता है। प्रकृति के गुण आत्मा की चेतना को जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त, इनतीन अवस्थाओं में बाँट देते है। किन्तु ये अनुभूति की ऐसी विविधताएँ, वस्तुतः माया है औरइनका अस्तित्व स्वप्न की ही तरह होता है।

    इृष्टिम्ततः प्रतिनिवर्त्य निवृत्ततृष्ण-स्तृष्णीं भवेन्निजसुखानु भवो निरीहः ।सन्हश्यते क्व च यदीदमवस्तुबुद्धयात्यक्त भ्रमाय न भवेत्स्मृतिरानिषातात्‌ू ॥

    ३५॥

    इृष्टिमू--दृष्टि; ततः--उस माया से; प्रतिनिवर्त्य--हटाकर; निवृत्त--समाप्त; तृष्ण:--लालसा; तूष्णीमू--मौन; भवेत्‌--हो जानाचाहिए; निज--अपना ( आत्मा का ); सुख--सुख; अनुभव: -- अनुभव करते हुए; निरीह:--निष्क्रिय; सन्दश्यते--देखा जाताश़ है; क्व च--कभी कभी; यदि--यदि; इृदम्‌--यह संसार; अवस्तु--असत्य; बुद्धवा--चेतना से; त्यक्तम्‌-त्यागा हुआ;भ्रमाय--और अधिक भ्रम; न--नहीं; भवेत्‌--हो सके; स्मृतिः--स्मरणशक्ति; आ-निपातात्‌--शरीर त्यागने तक |

    भौतिक वस्तुओं के क्षणिक भ्रामक स्वभाव को समझ लेने के बाद और अपनी दृष्टि कोभ्रम से हटा लेने पर, मनुष्य को निष्काम रहना चाहिए। आत्मा के सुख का अनुभव करते हुए,मनुष्य को भौतिक बोलचाल तथा कार्यकलाप त्याग देने चाहिए। यदि कभी वह भौतिक जगतको देखे तो उसे स्मरण करना चाहिए कि यह परम सत्य नहीं है, इसीलिए इसका परित्याग कियागया है। ऐसे निरन्तर स्मरण से मनुष्य अपनी मृत्यु पर्यन्त, पुनः भ्रम में नहीं पड़ेगा।

    देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वासिद्धो न पश्यति यतोध्यगमत्स्वरूपम्‌ ।दैवादपेतमथ दैववशादुपेतंवासो यथा परिकृतं मदिरामदान्ध: ॥

    ३६॥

    देहम्‌ू-- भौतिक शरीर; च--भी; नश्वरमू--नाशवान; अवस्थितम्‌--बैठा; उत्थितम्‌ू--उठा; वा--अथवा; सिद्ध:--सिद्ध; न'पश्यति--नहीं देखता; यतः--क्योंकि; अध्यगमत्‌--उसने प्राप्त कर लिया है; स्व-रूपम्‌--अपनी असली आध्यात्मिक पहचान;दैवात्‌-- भाग्यवश; अपेतम्‌--गया हुआ; अथ--अथवा इस तरह; दैव-- भाग्य के; वशात्‌--वश से; उपेतम्‌--पाया हुआ;वास:--कपड़े; यथा--जिस तरह; परिकृतम्‌--शरीर में पहना हुआ; मदिरा--शराब का; मद--नशे से; अन्ध:--अन्धा हुआ।

    जिस प्रकार शराब पिया हुआ व्यक्ति यह नहीं देख पाता कि उसने कोट पहना है या कमीज,उसी तरह जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार में पूर्ण है और जिसने अपना नित्य स्वरूप प्राप्त कर लियाहै, वह यह नहीं देखता कि नश्वर शरीर बैठा हुआ है या खड़ा है। हाँ, यदि ईश्वर की इच्छा सेउसका शरीर समाप्त हो जाता है या उसे नया शरीर प्राप्त होता है, तो स्वरूपसिद्ध व्यक्ति उसे उसीतरह नहीं देखता जिस तरह शराबी अपनी बाह्य वेशभूषा को नहीं देखता।

    देहोपि दैववशग: खलु कर्म यावत्‌स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एवं सासु: ।त॑ सप्रपज्ञमधिरूढसमाधियोग:स्वाष्न॑ पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तु: ॥

    ३७॥

    देहः--शरीर; अपि-- भी; दैव--ब्रह्म के; वश-ग:--नियंत्रण में; खलु--निस्सन्देह; कर्म--सकाम कर्मों की श्रृंखला; यावत्‌--जब तक; स्व-आरम्भकम्‌--जो अपने को प्रारम्भ करता है या आगे बढ़ाता है; प्रतिसमीक्षते--जीवति रहता तथा प्रतीक्षा करतारहता है; एब--निश्चय ही; स-असु:--प्राण तथा इन्द्रियों सहित; तमू--उस ( शरीर ) को; स-प्रपञ्ञम्‌--अभिव्यक्तियों कीविविधता सहित; अधिरूढ--उच्च स्थान को प्राप्त; समाधि--सिद्धि अवस्था; योग:--योग-प्रणाली में; स्वाप्मम्‌--स्वप्न कीतरह; पुनः--फिर; न भजते--पूजा नहीं करता; प्रतिबुद्ध-प्रबुद्ध; वस्तु: --परम सत्य में |

    भौतिक शरीर निश्चय ही विधाता के वश में रहता है, अतः यह शरीर तब तक इन्द्रियों तथाप्राण के साथ जीवित रहता है जब तक उसका कर्म प्रभावशाली रहता है। किन्तु स्वरूपसिद्ध आत्मा, जो परम सत्य के प्रति प्रबुद्ध हो चुका है और जो योग की पूर्ण अवस्था में उच्चारूढ है,कभी भी शरीर तथा उसकी अनेक अभिव्यक्तियों के समक्ष नतमस्तक नहीं होगा क्योंकि वह इसेस्वण में देखे गये श़रीर के समान जानता है।

    मयैतदुक्त वो विप्रा गुह्म॑ं यत्साइ्ख्ययोगयो: ।जानीत मागतं यज्ञं युष्मद्धर्मविवक्षया ॥

    ३८ ॥

    मया-ेरे द्वारा; एतत्‌--यह ( ज्ञान ); उक्तम्‌--कहा गया; वः--तुमसे; विप्रा:--हे ब्राह्मणो; गुह्मामू--गोपनीय; यत्‌--जो;साड्ख्य--आत्मा से पदार्थ को विभेदित करने की दार्शनिक विधि का; योगयो:--तथा अष्टांग योग-पद्धति का; जानीत--समझो; मा--मुझको; आगतम्‌--आया हुआ; यज्ञम्‌-यज्ञ के स्वामी विष्णु के रूप में; युष्मत्‌--तुम्हारा; धर्म--धार्मिककर्तव्य; विवक्षया--बतलाने की इच्छा से |

    हे ब्राह्मणो, अब मै तुम लोगों से सांख्य का वह गोपनीय ज्ञान बतला चुका हूँ, जिसके द्वारामनुष्य पदार्थ तथा आत्मा में अन्तर कर सकता है। मैने तुम लोगों को अष्टांग योग का भी ज्ञान देदिया है, जिससे मनुष्य ब्रह्म से जुड़ता है। तुम लोग मुझे भगवान्‌ विष्णु समझो जो तुम लोगों केसमक्ष वास्तविक धार्मिक कर्तव्य बताने की इच्छा से प्रकट हुआ है।

    अहं योगस्य साड्ख्यस्य सत्यस्यर्तस्थ तेजस: ।परायणं द्विजश्रेष्ठा: श्रियः कीर्तेर्दमस्थ च ॥

    ३९॥

    अहमू-मै; योगस्य--योग-पद्धति के; साड्ख्यस्य--सांख्य दर्शन के; सत्यस्य--सत्य के; ऋतस्य--सत्यमय धार्मिक सिद्धान्तोंके; तेजसः--शक्ति के; पर-अयनमू--परम आश्रय; द्विज-पश्रेष्ठा:--हे श्रेष्ठ ब्राह्णो; भ्रिय:--सौन्दर्य का; कीर्ते:--कीर्ति का;दमस्य--आत्मसंयम का; च-- भी ।

    हे श्रेष्ठ ब्राह्यणो, तुम लोग यह जानो कि मै योग-पद्धति, सांख्य दर्शन, सत्य, ऋत, तेज,सौन्दर्य, यश तथा आत्मसंयम का परम आश्रय हूँ।

    मां भजन्ति गुणा: सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम्‌ ।सुहृदं प्रियमात्मानं साम्यासडझझदयोगुणा: ॥

    ४०॥

    माम्‌ू--मुझको; भजन्ति--सेवा करते तथा शरण ग्रहण करते है; गुणा:--गुण; सर्वे--सभी; निर्गुणम्‌--गुणों से मुक्त;निरपेक्षकम्‌-विरक्त; सु-हदम्‌--शुभचिन्तक; प्रियम्‌--अत्यन्त प्रिय; आत्मानम्‌ू--परमात्मा को; साम्य--समान रूप से सर्वत्रस्थित; असड़र--विरक्ति; आदय: --इत्यादि; अगुणा:--गुणों के विकार से मुक्त |

    ऐसे सारे के सारे उत्तम दिव्य गुण--जैसे कि गुणों से परे होना, विरक्त, शुभचिन्तक,अत्यन्त प्रिय, परमात्मा, सर्वत्र समरूप से स्थित तथा भौतिक बन्धन से मुक्त होना--जो कि गुणोंके विकारों से मुक्त है, मुझमें शरण तथा पूजनीय वस्तु पाते है।

    इति मे छिन्नसन्देहा मुनयः सनकादय: ।सभाजयित्वा परया भक्त्यागृणत संस्तवै: ॥

    ४१॥

    इति--इस प्रकार; मे--मेरे द्वारा; छिन्न--विनष्ट; सन्देहा:--सारे सन्देह; मुनयः--मुनिगण; सनक-आदय:--सनक कुमारइत्यादि; सभाजयित्वा--पूर्णतया मेरी पूजा करके; परया--दिव्य प्रेम के लक्षणों से युक्त; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; अगृणत--मेरीमहिमा का उच्चारण किया; संस्तवै: --सुन्दर स्तुतियों द्वारा |

    भगवान्‌ कृष्ण ने आगे कहा : हे उद्धव, इस प्रकार मेरे वचनों से सनक इत्यादि मुनियों केसारे संदेह नष्ट हो गये। दिव्य प्रेम तथा भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हुए, उन्होंने उत्तम स्तुतियोंद्वारा मेरी महिमा का गान किया।

    तैरहं पूजित: संयक्संस्तुतः परमर्पषिभि: ।प्रत्येयाय स्वक॑ धाम पश्यतः परमेष्ठलिन: ॥

    ४२॥

    तैः--उनके द्वारा; अहम्‌ू--मै; पूजित:--पूजा गया; संयक्‌-- भलीभाँति; संस्तुत:-- भलीभाँति स्तुति किया गया; परम-ऋषिभि:--महा मुनियों द्वारा; प्रत्येथयाय--मै लौट आया; स्वकम्‌ू--अपने; धाम-- धाम; पश्यत: परमेष्ठिन:--ब्रह्मा के देखते-देखते

    इस तरह सनक ऋषि इत्यादि महामुनियों ने मेरी भलीभाँति पूजा की और मेरे यश का गानकिया। मै ब्रह्म के देखते-देखते अपने धाम लौट गया।

    TO

    14. कृष्ण ने उद्धव को योग प्रणाली समझाई

    श्रीउद्धव उवाचबदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिन: ।तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता ॥

    १॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; वदन्ति--कहते हैं; कृष्ण--हे कृष्ण; श्रेयाँसि--जीवन में प्रगति की विधियाँ; बहूनि--अनेक; ब्रह्म-वादिन:--विद्वान मुनि जिन्होंने वैदिक वाड्मय की व्याख्या की है; तेषामू--ऐसी सारीविधियों का; विकल्प--नानाप्रकार की अनुभूतियों की; प्राधान्यम्‌-- श्रेष्ठठा; उत--अथवा; अहो--निस्सन्देह; एक--एक की; मुख्यता--प्रधानता |

    श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, वैदिक वाड्मय की व्याख्या करने वाले विद्वान मुनिगणमनुष्य-जीवन की सिद्धि के लिए अनेक विधियों की संस्तुति करते हैं। हे प्रभु, इन नाना प्रकारके दृष्टिकोणों पर विचार करते हुए आप मुझे बतलायें कि ये सारी विधियाँ समान रूप सेमहत्त्वपूर्ण हैं अथवा उनमें से कोई एक सर्वश्रेष्ठ है।

    भवतोदाहतः स्वामिन्भक्तियोगोनपेक्षित: ।निरस्य सर्वतः सड़ुं येन त्व्याविशेन्‍्मन: ॥

    २॥

    भवता--आपके द्वारा; उदाहतः--स्पष्ट कहा गया; स्वामिन्‌--हे स्वामी; भक्ति-योग: -- भक्ति; अनपेक्षित:-- भौतिक इच्छाओं सेरहित; निरस्थ--हटाकर; सर्वत:ः--सभी तरह से; सड़म्‌ू--संगति; येन--जिस ( भक्ति ) से; त्वयि--आपमें; आविशेत्‌-- प्रवेशकर सके; मन:ः--मन।

    हे प्रभु, आपने शुद्ध भक्तियोग की स्पष्ट व्याख्या कर दी है, जिससे भक्त अपने जीवन सेसारी भौतिक संगति हटाकर, अपने मन को आप पर एकाग्र कर सकता है।

    श्रीभगवानुवाचकालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मक: ॥

    ३॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; कालेन--काल के प्रभाव से; नष्टा--विनष्ट; प्रलये--प्रलय के समय; वाणी--सन्देश;इयम्‌--यह; वेद-संज्ञिता--वेदों से युक्त; मया--मेरे द्वारा; आदौ--सृष्टि के समय; ब्रह्मणे--ब्रह्मा से; प्रोक्ता--कहा गया;धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; यस्याम्‌--जिसमें; मत्‌-आत्मक: --मुझसे अभिन्न

    भगवान्‌ ने कहा : काल के प्रभाव से प्रलय के समय वैदिक ज्ञान की दिव्य ध्वनि नष्ट हो गईथी। अतएव जब फिर से सृष्टि बनी, तो मैंने यह वैदिक ज्ञान ब्रह्म को बतलाया क्‍योंकि मैं ही वेदों में वर्णित धर्म हूँ।

    तेन प्रोक्ता स्वपुत्राय मनवे पूर्वजाय सा ।ततो भृग्वादयोगृहन्सप्त ब्रह्ममहर्षय: ॥

    ४॥

    तेन--ब्रह्मा द्वारा; प्रोक्ता--कहा गया; स्व-पुत्राय--अपने पुत्र से; मनवे--मनु को; पूर्व-जाय--सबसे पुराने; सा--वह वैदिकज्ञान; ततः--मनु से; भूगु-आदयः -- भूगु मुनि इत्यादि ने; अगृह्ननू--ग्रहण किया; सप्त--सात; ब्रह्म--वैदिक ज्ञान में; महा-ऋषय:--परम दिद्वान मुनियों ने |

    ब्रह्म ने यह वैदिक ज्ञान अपने ज्येष्ठ पुत्र मनु को दिया और तब भृगु मुनि इत्यादि सप्तऋषियों ने वही ज्ञान मनु से ग्रहण किया।

    तेभ्य: पितृभ्यस्तत्पुत्रा देवदानवगुह्मका: ।मनुष्या: सिद्धगन्धर्वा: सविद्याधरचारणा: ॥

    ५॥

    किन्देवा: किन्नरा नागा रक्ष:किम्पुरुषादय: ।बह्व्यस्तेषां प्रकृतयो रज:सत्त्वतमोभुव: ॥

    ६॥

    याभिर्भूतानि भिद्यन्ते भूतानां पतयस्तथा ।यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाच: स्त्रवन्ति हि ॥

    ७॥

    तेभ्य:--उनसे ( भृगु मुनि इत्यादि से ); पितृभ्य:--पूर्वजों से; तत्‌--उनके; पुत्रा:--पुत्र, उत्तराधिकारीगण; देव--देवता;दानव--असुर; गुह्का:--गुह्मकजन; मनुष्या:--मनुष्य; सिद्ध-गन्धर्वा:--सिद्धजन तथा गन्धर्वगण; स-विद्याधर-चारणा:--विद्याधरों तथा चारणों सहित; किन्देवा:--एक भिन्न मानव जाति; किन्नरा:--अर्द्ध मानव; नागा:--सर्प; रक्ष:--राक्षस;किम्पुरुष--वानरों की उन्नत नस्ल; आदय:--इत्यादि; बह्व्य:--अनेक प्रकार के; तेषाम्‌ू--ऐसे जीवों के ; प्रकृतयः--स्वभावोंया इच्छाओं; रज:-सत्त्व-तम:-भुव:--तीन गुणों से उत्पन्न होने से; याभि: --ऐसी इच्छाओं या प्रवृत्तियों से; भूतानि--ऐसे सारेजीव; भिद्यन्ते--अनेक रूपों में बँटे प्रतीत होते हैं; भूतानामू--तथा उनके; पतय:--नेता; तथा--उसी प्रकार से विभक्त; यथा-प्रकृति--लालसा या इच्छा के अनुसार; सर्वेषाम्‌--उन सबों का; चित्रा:--विचित्र; वाच:--वैदिक अनुष्ठान तथा मंत्र;स्त्रवन्ति--निकलते हैं; हि--निश्चय ही |

    भूगु मुनि तथा ब्रह्मा के अन्य पुत्रों जैसे पूर्वजों से अनेक पुत्र तथा उत्तराधिकारी उत्पन्न हुए,जिन्होंने देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गुह्कों, सिद्धों, गन्धर्वों, विद्याधरों, चारणों, किन्देवों,किन्नरों, नागों, किम्पुरुषों इत्यादि के विभिन्न रूप धारण किये। सभी विश्वव्यापी जातियाँ तथाउनके अपने अपने नेता, तीन गुणों से उत्पन्न विभिन्न स्वभाव तथा इच्छाएँ लेकर प्रकट हुए।इसलिए ब्रह्माण्ड में जीवों के विभिन्न लक्षणों के कारण न जाने कितने अनुष्ठान, मंत्र तथा फलहैं।

    एवं प्रकृतिवैचित्र्याद्धिद्यन्ते मतयो नृणाम्‌ ।पारम्पर्येण केषाज्चित्पाषण्डमतयोपरे ॥

    ८॥

    एवम्‌--इस प्रकार; प्रकृति--स्वभाव या इच्छाओं के; वैचित्रयात्‌--विविधता के कारण; भिद्यन्ते--विभक्त हैं; मतयः--जीवन-दर्शन; नृणाम्‌--मनुष्यों में; पारम्पर्येण --परम्परा से; केषाद्चित्‌--कुछ लोगों में; पाषण्ड--नास्तिक; मतय: --दर्शन; अपरे--अन्य

    इस तरह मनुष्य के बीच नाना प्रकार की इच्छाओं तथा स्वभावों के कारण जीवन केअनेकानेक आस्तिक दर्शन हैं, जो प्रथा, रीति-रिवाज तथा परम्परा द्वारा हस्तान्तरित होते रहते हैं।ऐसे भी शिक्षक हैं, जो नास्तिक दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

    मन्मायामोहितधिय: पुरुषा: पुरुषर्षभ ।श्रेयो बदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥

    ९॥

    मतू-मया--मेरी माया से; मोहित--मोहग्रस्त; धिय:--बुद्धि वाले; पुरुषा: --मनुष्य; पुरुष-ऋषभ--हे पुरुष- श्रेष्ठ; श्रेय: --लोगों के लिए शुभ; वदन्ति--कहते हैं; अनेक-अन्तम्‌--अनेक प्रकार से; यथा-कर्म--अपने अपने कर्मों के अनुसार; यथा-रुचि--अपनी अपनी रुचि के अनुसार।

    हे पुरुष- श्रेष्ठ, मनुष्यों की बुद्धि मेरी माया से मोहग्रस्त हो जाती है अतएवं वे, अपने कर्मोंतथा अपनी रुचियों के अनुसार, मनुष्यों के लिए जो वास्तव में शुभ है, उसके विषय में असंख्यप्रकार से बोलते हैं।

    धर्ममेके यशश्चान्ये काम सत्यं दमं शमम्‌ ।अन्ये बदन्ति स्वार्थ वा ऐश्वर्य त्यागभोजनम्‌ ।केचिद्य॒ज्जं तपो दानं ब्रतानि नियमान्यमान्‌ ॥

    १०॥

    धर्मम्‌ू-पुण्यकर्म; एके--कुछ लोग; यश: --ख्याति; च-- भी; अन्ये--अन्य लोग; कामम्‌--इन्द्रियतृप्ति; सत्यम्‌--सत्य;दमम्‌--आत्मसंयम; शमम्‌--शान्तिप्रियता; अन्ये-- अन्य लोग; वदन्ति--स्थापना करते हैं; स्व-अर्थम्‌--आत्म-हित या स्वार्थका अनुसरण करना; बै--निश्चय ही; ऐश्वर्यम्‌--ऐश्वर्य या राजनीतिक प्रभाव; त्याग--त्याग; भोजनम्‌-- भोग; केचित्‌ू--कुछलोग; यज्ञम्‌--यज्ञ; तप: --तपस्या; दानम्‌--दान; ब्रतानि--ब्रत रखना; नियमान्‌--नियमित धार्मिक कृत्य; यमान्‌ू--कठोरविधियों को

    कुल लोग कहते हैं कि पुण्यकर्म करके सुखी बना जा सकता है। अन्य लोग कहते हैं किसुख को यश, इन्द्रियतृप्ति, सच्चाई, आत्मसंयम, शान्ति, स्वार्थ, राजनीति का प्रभाव, ऐश्वर्य,संन्यास, भोग, यज्ञ, तपस्या, दान, ब्रत, नियमित कृत्य या कठोर अनुशासन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। हर विधि के अपने अपने समर्थक होते हैं।

    आइह्यन्तवन्त एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिता: ।दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठा: क्षुद्रा मन्दा: शुचार्पिता: ॥

    ११॥

    आदि-अन्त-वन्त:--आदि तथा अन्त रखने वाला; एव--निस्सन्देह; एघाम्‌--उनका ( भौतिकतावादियों का ); लोका:ः --अर्जितउपाधियाँ; कर्म--किसी के भौतिक कर्म द्वारा; विनिर्मिता:--उत्पन्न; दुःख--दुख; उदर्का:-- भावी फल के रूप में; तम:--अज्ञान; निष्ठा:--स्थित; क्षुद्रा:--नगण्य; मन्दा:--दुखी; शुच्चा--शोक से युक्त; अर्पिता:--पूरित

    अभी मैंने जिन सारे पुरुषों का उल्लेख किया है वे अपने अपने भौतिक कर्म के क्षणिक'फल प्राप्त करते हैं। निस्सन्देह, वे जिन नगण्य तथा दुखमय स्थितियों को प्राप्त होते हैं, उनसेभावी दुख मिलता है और वे अज्ञान पर आधारित हैं। अपने कर्मफलों का भोग करते हुए भी,ऐसे व्यक्ति शोक से पूरित हो जाते हैं।

    मय्यर्पितात्मन: सभ्य निरपेक्षस्य सर्वतः ।मयात्मना सुखं यत्तत्कुतः स्याद्विषयात्मनाम्‌ ॥

    १२॥

    मयि--मुझमें; अर्पित--स्थिर; आत्मन:--चेतना वाले का; सभ्य--हे विद्वान उद्धव; निरपेक्षस्थ--निष्काम व्यक्ति का;सर्वत:--सभी प्रकार से; मया--मेरे साथ; आत्मना-- भगवान्‌ के साथ या अपने आध्यात्मिक शरीर के साथ; सुखम्‌--सुख;यत्‌ तत्‌--ऐसा; कुतः--कैसे; स्थात्‌--हो सकता है; विषय--भौतिक इन्द्रियतृप्ति में; आत्मनाम्‌--अनुरक्तों का

    हे विद्वान उद्धव, जो लोग समस्त भौतिक इच्छाएँ त्याग कर, अपनी चेतना मुझमें स्थिर करतेहैं, वे मेरे साथ उस सुख में हिस्सा बँटाते हैं, जिसे इन्द्रियतृप्ति में संलग्न मनुष्यों के द्वारा अनुभवनहीं किया जा सकता।

    अकिदड्ञनस्य दान्तस्य शान्तस्थ समचेतस: ।मया सनन्‍्तुष्टमनसः सर्वा: सुखमया दिश: ॥

    १३॥

    अकिड्जनस्थ--कुछ न चाहने वाले का; दान्तस्य--इन्द्रियों पर संयम रखने वाले का; शान्तस्यथ--शान्त रहने वाले का; सम-चेतस:--समान चेतना वाले का; मया--मुझसे; सन्तुष्ट--पूर्णतया सन्तुष्ट; मनस:--मन वाले; सर्वा:--सभी; सुख-मया: --सुख से पूर्ण; दिशः--दिशाएँ

    जो इस जगत में कुछ भी कामना नहीं करता, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में करकेशान्ति प्राप्त कर ली है, जिसकी चेतना सभी परिस्थितियों में एक-सी रहती है तथा जिसका मनमुझमें पूर्णतया तुष्ट रहता है, वह जहाँ कहीं भी जाता है उसे सुख ही सुख मिलता है।

    न पारमेष्ठयं न महेन्द्रधिष्ण्यंन सार्वभौम॑ न रसाधिपत्यम्‌ ।न योगसिद्धीरपुनर्भवं वामय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत्‌ ॥

    १४॥

    न--नहीं; पारमेष्ठयम्‌--ब्रह्म का पद या धाम; न--कभी नहीं; महा-इन्द्र-धिष्ण्यम्‌--इन्द्र का पद; न--न तो; सार्वभौमम्‌--पृथ्वी पर साम्राज्य; न--न ही; रस-आधिपत्यम्‌--निम्न लोकों में सर्वश्रेष्ठठा; न--कभीनहीं; योग-सिद्धी:--आठ योग-सिद्धियाँ; अपुन:ः-भवम्‌--मोक्ष; वा--न तो; मयि-- मुझमें; अर्पित--स्थिर; आत्मा-- चेतना; इच्छति--वह चाहता है; मत्‌--मुझको; विना--बिना; अन्यत्‌--अन्य कोई वस्तु।

    जिसने अपनी चेतना मुझमें स्थिर कर रखी है, वह न तो ब्रह्मा या इन्द्र के पद या उनके धामकी कामना करता है, न इस पृथ्वी के साम्राज्य, न निम्न लोकों की सर्वश्रेष्ठठा, न योग की आठसिद्धियों की, न जन्म-मृत्यु से मोक्ष की कामना करता है। ऐसा व्यक्ति एकमात्र मेरी कामनाकरता है।

    न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शट्डूरः ।न च सद्डूर्षणो न श्रीनैंवात्मा च यथा भवान्‌ ॥

    १५॥

    न--नहीं; तथा--उसी प्रकार से; मे--मुझको; प्रिय-तम:--सर्वाधिक प्रिय; आत्म-योनि:--मेरे शरीर से उत्पन्न, ब्रह्मा; न--नतो; सट्भूर:--शिवजी; न--न तो; च--भी; सड्डूर्षण:--मेरा स्वांश संकर्षण; न--न तो; श्री:--लक्ष्मीजी; न--न तो; एब--निश्चय ही; आत्मा--अर्चाविग्रह के रूप में मेरी आत्मा; च--भी; यथा--जितना कि; भवान्‌--तुम |

    हे उद्धव, न तो ब्रह्मा, शिव, संकर्षण, लक्ष्मीजी, न ही मेरी आत्मा ही मुझे इतने प्रिय हैंजितने कि तुम हो।

    निरपेक्ष॑ मुनि शान्तं निरवर समदर्शनम्‌ ।अनुक्रजाम्यहं नित्य॑ पूर्येयेत्यड्रप्रिरेणुभि: ॥

    १६॥

    निरपेक्षम--निजी इच्छा से रहित; मुनिमू--मेरी लीलाओं में मेरी सहायता करने के ही विचार में मग्न; शान्तम्‌--शान्त;निर्वरमू--किसी से बैर न रखते हुए; सम-दर्शनम्‌--सर्वत्र एकसमान चेतना; अनुब्रजामि--अनुसरण करता हूँ; अहम्‌-मैं;नित्यमू--सदैव; पूयेय--शुद्ध होऊँ; इति--इस प्रकार; अद्धघ्रि--चरणकमलों की; रेणुभि:--धूल से |

    मैं अपने भक्तों के चरणकमलों की धूल से अपने भीतर स्थित भौतिक जगतों को शुद्धबनाना चाहता हूँ। इसलिए मैं सदैव अपने उन शुद्ध भक्तों के पदचिन्हों का अनुसरण करता हूँ जोनिजी इच्छाओं से रहित हैं, जो मेरी लीलाओं के विचार में मग्न रहते हैं, शान्त हैं, शत्रुभाव सेरहित हैं तथा सर्वत्र समभाव रखते हैं।

    निष्किज्ञना मय्यनुरक्तचेतसःशान्‍्ता महान्तोडईखिलजीववत्सला: ।कामैरनालब्धधियो जुषन्ति तेयज्नैरपेक्ष्यं न विदु: सुखं मम ॥

    १७॥

    निष्किज्ञना:--इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रहित; मयि--मुझ भगवान्‌ में; अनुरक्त-चेतस:--निरन्तर अनुरक्त मन; शान्ता:--शान्त;महान्तः--मिथ्या अभिमान से रहित महान्‌ आत्माएँ; अखिल--समस्त; जीव--जीवों के प्रति; वत्सला:--स्नेहिल शुभचिन्तक;कामै:--इन्द्रियतृप्ति के लिए अवसरों से; अनालब्ध--अछूता तथा अप्रभावित; धियः--जिसकी चेतना; जुषन्ति--अनुभव करतेहैं; ते--वे; यत्‌--जो; नैरपेक्ष्यम्‌--पूर्ण विरक्ति द्वारा ही प्राप्त हुआ; न विदु:--नहीं जानते; सुखम्‌--सुख; मम--मेरा |

    जो निजी तृप्ति की किसी इच्छा से रहित हैं, जिनके मन सदैव मुझमें अनुरक्त रहते हैं, जोशान्त, मिथ्या अभिमान से रहित तथा समस्त जीवों पर दयालु हैं तथा जिनकी चेतना कभी भीइन्द्रियतृप्ति के अवसरों से प्रभावित नहीं होती, ऐसे व्यक्ति मुझमें ऐसा सुख पाते हैं जिसे वेव्यक्ति प्राप्त नहीं कर पाते या जान भी नहीं पाते जिनमें भौतिक जगत से विरक्ति का अभाव है।

    बाध्यमानोपि मद्धक्तो विषयैरजितेन्द्रियः ।प्रायः प्रगल्भया भक्‍त्या विषयैर्नाभिभूयते ॥

    १८॥

    बाध्यमान:--सताया जाकर; अपि-- भी; मतू-भक्त:--मेरा भक्त; विषयै:--इन्द्रिय-विषयों द्वारा; अजित--बिना जीता गया;इन्द्रियः--इन्द्रियों द्वारा; प्रायः--सामान्यतया; प्रगलल्‍्भया--प्रभावशाली तथा हृढ़; भक्त्या--भक्ति से; विषयै: --इन्द्रियतृप्तिद्वारा; न--नहीं; अभिभूयते--परास्त होता है।

    हे उद्धव, यदि मेरा भक्त पूरी तरह से अपनी इन्द्रियों को जीत नहीं पाता, तो वह भौतिकइच्छाओं द्वारा सताया जा सकता है, किन्तु मेरे प्रति अविचल भक्ति के कारण, वह इन्द्रियतृप्तिद्वारा परास्त नहीं किया जायेगा।

    यथाग्नि: सुसमृद्धार्चि: करोत्येधांसि भस्मसात्‌ ।तथा मद्ठिषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्सनशः ॥

    १९॥

    यथा--जिस तरह; अग्निः--आग; सु-समृद्ध-- धधकती हुई; अर्चिः:--लपटों वाली; करोति--बदल देती है; एधांसि--लकड़ीको; भस्म-सात्‌--राख में; तथा--उसी तरह; मत्‌-विषया--मुझे लक्ष्य बनाकर; भक्ति:--भक्ति; उद्धव--हे उद्धव; एनांसि--पाप करता है; कृत्स्नश:--पूरी तरह से ।

    है उद्धव, जिस तरह धधकती अग्नि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह मेरीभक्ति मेरे भक्तों द्वारा किये गये पापों को पूर्णतया भस्म कर देती है।

    न साधयति मां योगो न साड्ख्य॑ धर्म उद्धव ।न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥

    २०॥

    न--नहीं; साधयति--वश में करती है; माम्‌--मुझको; योग:--योग-पद्धति; न--न तो; साइड्ख्यम्‌--सांख्य दर्शन; धर्म:--वर्णाश्रम प्रणाली के अन्तर्गत पवित्र कार्यकलाप; उद्धव--हे उद्धव; न--नहीं; स्वाध्याय:--वैदिक अध्ययन; तपः--तपस्या;त्याग:--त्याग; यथा--जिस तरह; भक्ति:-- भक्ति; मम--मेरे प्रति; ऊर्जिता--विकसित

    हे उद्धव, भक्तों द्वारा की जाने वाली मेरी शुद्ध भक्ति मुझे उनके वश में करने वाली है।अतएव योग, सांख्य दर्शन, शुद्ध कार्य, वैदिक अध्ययन, तप अथवा वैराग्य में लगे व्यक्तियों केद्वारा मैं भी वशीभूत नहीं होता।

    भक्‍्त्याहमेकया ग्राह्म: श्रद्धयात्मा प्रियः सताम्‌ ।भक्ति: पुनाति मन्निष्ठा श्रणाकानपि सम्भवात्‌ ॥

    २१॥

    भक्त्या-- भक्ति से; अहम्‌--मैं; एकया--शुद्ध; ग्राह्मः--प्राप्त किया जाने वाला; श्रद्धया-- श्रद्धा से; आत्मा-- भगवान्‌;प्रियः--प्रेम की वस्तु; सताम्‌-भक्तों की; भक्ति:--शुद्ध भक्ति; पुनाति--पवित्र बनाती है; मत्‌-निष्ठा--मुझको एकमात्र लक्ष्यबनाकर; श्र-पाकान्‌--चांडाल; अपि-- भी; सम्भवात्‌--निम्न जन्म के कल्मष से |

    मुझ पर पूर्ण श्रद्धा से युक्त शुद्ध भक्ति का अभ्यास करके ही मुझे अथात््‌ पूर्ण पुरुषोत्तमपरमेश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। मैं स्वभावतः अपने उन भक्तों को प्रिय हूँ जो मुझे हीअपनी प्रेमाभक्ति का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं। ऐसी शुद्ध भक्ति में लगने से चांडाल तक अपनेनिम्न जन्म के कल्मष से अपने को शुद्ध कर सकते हैं।

    धर्म: सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ।मद्धक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक्प्रपुनाति हि ॥

    २२॥

    धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; सत्य--सच्चाई; दया--तथा दया से; उपेत:--युक्त; विद्या--ज्ञान; वा--अथवा; तपसा--तपस्या से;अन्विता--युक्त; मत्‌-भक्त्या--मेरी भक्ति से; अपेतम्‌--रहित; आत्मानम्‌--चेतना; न--नहीं; सम्यक्‌--पूर्णतया; प्रपुनाति--शुद्ध बनाती है; हि--निश्चय ही

    न सत्य तथा दया से युक्त धार्मिक कार्य, न ही कठिन तपस्या से प्राप्त किया गया ज्ञानउनकी चेतना को पूर्णतया शुद्ध बना सकता है, जो मेरी भक्ति से विहीन होते हैं।

    'कथं विना रोमहर्ष द्रवता चेतसा विना ।विनानन्दाश्रुकलया शुध्येद्धक्त्या विनाशय: ॥

    २३॥

    कथम्‌--कैसे; विना--बिना; रोम-हर्षम्‌--रोंगटे खड़े होना, रोमांच; द्रवता--पिघला; चेतसा--हृदय से; विना--रहित;विना--रहित; आनन्द--आनन्द के; अश्रु-कलया-- आँसू बहना; शुध्येत्‌--शुद्ध किया जा सकता है; भक्त्या--भक्ति से;विना--रहित; आशय: --चेतना |

    यदि किसी को रोमांच नहीं होता, तो उसका हृदय कैसे द्रवित हो सकता है ? और यदि हृदयद्रवित नहीं होता, तो आँखों से प्रेमाश्रु कैसे बह सकते हैं ? यदि कोई आध्यात्मिक सुख मेंचिल्ला नहीं उठता, तो वह भगवान्‌ की प्रेमाभक्ति कैसे कर सकता है ? और ऐसी सेवा के बिनाचेतना कैसे शुद्ध बन सकती है ? वाग्गद््‌गदा द्रवते यस्य चित्तंरुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।विलज्ज उदगायति नृत्यते चमद्धक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥

    २४॥

    वाक्‌--वाणी; गदगदा--रुद्ध; द्रवते--पिघलता है; यस्य--जिसका; चित्तम्‌--हृदय; रुदति--रोता है; अभीक्षणम्‌--पुनःपुनः; हसति--हँसता है; क्वचित्‌ू--कभी; च-- भी; विलज्ञ:--लज्जित; उद्गायति--जोरों से गा उठता है; नृत्यते--नाचता है;च--भी; मत्‌-भक्ति-युक्त:--मेरी भक्ति में स्थिर; भुवनम्‌--ब्रह्माण्ड को; पुनाति--पवित्र करता है।

    वह भक्त जिसकी वाणी कभी रुद्ध हो जाती है, जिसका हृदय द्रवित हो उठता है, जोनिरन्तर चिल्लाता है और कभी हँसता है, जो लज्जित होता है और जोरों से चिल्लाता है, फिरनाचने लगता है--इस तरह से मेरी भक्ति में स्थिर भक्त सारे ब्रह्माण्ड को शुद्ध करता है।

    यथाग्निना हेम मलं जहातिध्मातं पुनः स्व॑ं भजते च रूपम्‌ ।आत्मा च कर्मानुशयं विधूयमद्धक्तियोगेन भजत्यथो माम्‌ ॥

    २५॥

    यथा--जिस तरह; अग्निना--अग्नि से; हेम--स्वर्ण; मलम्‌ू--अशुद्ध; जहाति--त्याग देता है; ध्मातम्‌--पिघलाया; पुन: --फिर; स्वमू--अपने से; भजते--प्रवेश करता है; च-- भी; रूपम्‌ू--स्वरूप; आत्मा--आत्मा या चेतना; च-- भी; कर्म--सकाम कर्मों का; अनुशयम्‌--बचा दूषण; विधूय--हटाकर; मत्‌-भक्ति-योगेन--मेरी भक्ति से; भजति--पूजा करता है;अथो--इस प्रकार; माम्‌-मुझको |

    जिस तरह आग में पिघलाने से सोना अपनी अशुद्धियाँ त्याग कर शुद्ध चमक प्राप्त कर लेताहै, उसी तरह भक्तियोग की अग्नि में लीन आत्मा पूर्व सकाम कर्मों से उत्पन्न सारे कल्मष से शुद्धबन जाता है और बैकुण्ठ में मेरी सेवा करने के अपने आदि पद को प्राप्त करता है।

    यथा यथात्मा परिमृज्यतेठसौ मत्पुण्यगाथा भ्रवणाभिधानै: ।तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मंचक्षुर्यथेवाञ्जनसम्प्रयुक्तम्‌ ॥

    २६॥

    यथा यथा--जितना; आत्मा--आत्मा, चेतन जीव; परिमृज्यते-- भौतिक कल्मष से विमल होता है; असौ--वह; मत्-पुण्य-गाथा--मेरे यश का पवित्र वर्णन; श्रवण--सुनने से; अभिधानै:ः--तथा कीर्तन से; तथा तथा--उसी अनुपात में; पश्यति--देखता है; वस्तु--परब्रह्म को; सूक्ष्ममू--सूक्ष्म; चक्षुः--आँख; यथा--जिस तरह; एव--निश्चय ही; अज्ञन-- औषधि के अंजनसे; सम्प्रयुक्तम्‌--उपचारित |

    जब रुग्ण आँख का उपचार औषधीय अंजन से किया जाता है, तो आँख में धीरे धीरे देखनेकी शक्ति आ जाती है। इसी तरह जब चेतनामय जीव मेरे यश की पुण्य गाथाओं के श्रवण तथाकीर्तन द्वारा अपने भौतिक कल्मष को धो डालता है, तो वह फिर से मुझ परब्रह्म को मेरे सूक्ष्मआध्यात्मिक रूप में देखने की शक्ति पा लेता है।

    विषयान्ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्ञते ।मामनुस्मरतश्ित्तं मय्येव प्रविलीयते ॥

    २७॥

    विषयानू--इन्द्रियूप्ति की वस्तुएँ; ध्यायत:ः--ध्यान करने वाला; चित्तम्‌ू--चेतना को; विषयेषु--इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में;विषज्ते--अनुरक्त होता है; माम्‌--मुझको; अनुस्मरत: --निरन्तर स्मरण करता हुआ; चित्तम्‌--चेतना को; मयि--मुझमें;एव--निश्चय ही; प्रविलीयते--लीन रहता है ।

    इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं का ध्यान धरने वाले का मन निश्चय ही ऐसी वस्तुओं में फँसा रहताहै, किन्तु यदि कोई निरन्तर मेरा स्मरण करता है, तो उसका मन मुझमें निमग्न हो जाता है।

    तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्ममनोरथम्‌ ।हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्भावभावितम्‌ ॥

    २८॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; असत्‌-- भौतिक; अभिध्यानम्‌--उत्थान विधि जो ध्यान को लीन करे; यथा--जिस तरह; स्वज--सपने में;मनः-रथम्‌--मानसिक चिन्तन; हित्वा--त्याग कर; मयि--मुझमें; समाधत्स्व--पूरी तरह लीन करो; मन:--मन; मत्‌-भाव--मेरी चेतना द्वारा; भावितम्‌-शुद्ध किया गया।

    इसलिए मनुष्य को उत्थान की उन सारी विधियों का बहिष्कार करना चाहिए, जो स्वण केमनोरथों जैसी हैं। उसे अपना मन पूरी तरह से मुझमें लीन कर देना चाहिए। निरन्तर मेरा चिन्तनकरने से वह शुद्ध बन जाता है।

    स्त्रीणां स्त्रीसड्विनां सड़ूं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्‌ ।क्षेमे विविक्त आसीनश्िन्तयेन्मामतन्द्रित: ॥

    २९॥

    स्त्रीणामू-स्त्रियों की; स्त्री--स्त्री के प्रति; सड्धिनामू--अनुरक्त रहने वालों की; सड्रम्‌ू--संगति; त्यक्त्वा--त्याग कर; दूरतः--दूर; आत्म-वान्‌ू--आत्मा के प्रति सचेष्ट; क्षेमे--निर्भय; विविक्ते--पृथक्‌ या एकान्त स्थान में; आसीन:--बैठे हुए; चिन्तयेत्‌--एकाग्र करे; माम्‌--मुझ पर; अतन्द्रितः:--सावधानी से

    नित्य आत्मा के प्रति सचेष्ट रहते हुए मनुष्य को स्त्रियों की तथा स्त्रियों से घनिष्ठतापूर्वक सम्बद्ध व्यक्तियों की संगति त्याग देनी चाहिए। एकान्त स्थान में निर्भय होकर आसन लगाकर,उसे अपने मन को बड़े ही ध्यान से मुझ पर एकाग्र करना चाहिए।

    न तथास्य भवेत्कलेशो बन्धश्चान्यप्रसड्रतः ।योषित्सझद्यथा पुंसो यथा तत्सड्रिसड्गतः ॥

    ३०॥

    न--नहीं; तथा--उस तरह; अस्य--उसका; भवेत्‌--हो सकता है; क्लेश:--कष्ट; बन्ध:--बन्धन; च--तथा; अन्य-प्रसड़त:--अन्य लगाव से; योषित्‌--स्त्रियों के; सड्भरात्‌ू-- अनुरक्ति से; यथा--जैसे; पुंसः--मनुष्य का; यथा--उसी तरह;तत्‌--स्त्रियों को; सड़ि--अनुरक्त रहने वाले की; सड्भतः--संगति से |

    विभिन्न अनुरक्तियों से उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के कष्ट तथा बन्धन में से ऐसा एक भीनहीं, जो स्त्रियों के प्रति अनुरक्ति तथा स्त्रियों के प्रति अनुरक्त रहने वालों के घनिष्ठ सम्पर्क सेबढ़ कर हो।

    श्रीउद्धव उवाचयथा त्वामरविन्दाक्ष याहशं वा यदात्मकम्‌ ।ध्यायेन्मुमुश्षुरेतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमहसि ॥

    ३१॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यथा--किस तरह से; त्वामू--आपके; अरविन्द-अक्ष--हे कमलनेत्र वाले कृष्ण;याहशम्‌--जिस स्वभाव का; वा--अथवा; यत्‌-आत्मकम्‌-किस रूप में; ध्यायेत्‌-- ध्यान करे; मुमुक्षुः--मुक्ति का इच्छुक;एतत्‌--यह; मे-- मुझको; ध्यानमू--ध्यान; त्वम्‌-तुम्हें; वक्तुमू--कहने या बतलाने के लिए; अहसि--चाहिए।

    श्री उद्धव ने कहा : हे कमलनयन कृष्ण, यदि कोई मुक्ति का इच्छुक व्यक्ति आपका ध्यानकरना चाहें तो वह किस विधि से करे, उसका यह ध्यान किस विशेष स्वभाव वाला हो और वहकिस रूप का ध्यान करे ? कृपया मुझे ध्यान के इस विषय के बारे में बतलायें।

    श्रीभगवानुवाचसम आसन आसीनः समकायो यथासुखम्‌ ।हस्तावुत्सद़ आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षण: ॥

    ३२॥

    प्राणस्य शोधयेन्मार्ग पूरकुम्भकरेचकै: ।विपर्ययेणापि शनैरभ्यसेन्निर्जितेन्द्रिय: ॥

    ३३॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; समे--समतल; आसने--आसन पर; आसीन:--बैठ कर; सम-काय:ः--शरीर को सीधाकरके; यथा-सुखम्‌--सुखपूर्वक बैठ कर; हस्तौ--दोनों हाथों को; उत्सड्रे--गोद में; आधाय--रख कर; स्व-नास-अग्र--अपनी नाक के अगले भाग पर; कृत--केन्द्रित करते हुए; ईक्षण:--चितवन; प्राणस्य-- श्रास का; शोधयेत्‌--शुद्ध करनाचाहिए; मार्गम्‌ू--मार्ग; पूर-कुम्भक-रेचकै: -- प्राणायाम द्वारा; विपर्ययेण--उलट करके, अर्थात्‌ रेचक, कुम्भक तथा पूरकक्रम में; अपि-- भी; शनै:ः--ध धीरे धीरे; अभ्यसेत्‌-- प्राणायाम का अभ्यास करे; निर्जित--वश में करके; इन्द्रियः--इन्द्रियों को

    भगवान्‌ ने कहा : ऐसे आसन पर बैठ कर, जो न तो ज्यादा ऊँचा हो, न अधिक नीचा हो,शरीर को सीधा रखते हुए जिससे सुख मिल सके, दोनों हाथों को गोद में रख कर तथा आँखोंको अपनी नाक के अगले सिरे पर केन्द्रित करते हुए, मनुष्य को चाहिए कि पूरक, कुम्भक तथारेचक प्राणायाम का यांत्रिक अभ्यास करे और फिर इस विधि को उलट कर करे ( अर्थात्‌रेचक, कुम्भक तथा पूरक के क्रम से करे )। इन्द्रियों को भलीभाँति वश में कर लेने के बाद,उसे धीरे धीरे प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।

    हृद्यविच्छिन्नमोंकारं घण्टानादं बिसोर्णवत्‌ ।प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत्स्वरम्‌ ॥

    ३४॥

    हृदि--हृदय में; अविच्छिन्नम्‌-- अनवरत; ओंकारम्‌-- ३४»कार की पवित्र ध्वनि; घण्टा--घण्टे की तरह; नादम्‌-- ध्वनि; बिस-ऊर्ण-वबत्‌--कमल वृन्त तक जाने वाले रेशे की तरह; प्राणेन--प्राण-वायु द्वारा; उदीर्य-- धकेल कर; तत्र--वहाँ ( बारह अंगुलदूरी पर ); अथ--इस प्रकार; पुन:--फिर; संवेशयेत्‌--जोड़ दे; स्वरम्‌--अनुस्वार समेत पन्द्रह ध्वनियाँ ॥

    मूलाधार चक्र से शुरू करके, मनुष्य को चाहिए कि प्राण-वायु को कमल नाल के तनुओंकी तरह ऊपर की ओर लगातार ले जाय जब तक कि वह हृदय तक न पहुँच जाय जहाँ पर ३४»क पवित्र अक्षर घंटे की ध्वनि की तरह विद्यमान है। इस तरह उसे इस अक्षर को लगातार ऊपरकी ओर बारह अंगुल की दूरी तक उठाते जाना चाहिए और वहाँ पर ३»कार को अनुस्वार समेतउत्पन्न पन्द्रह ध्वनियों से जोड़ देना चाहिए।

    एवं प्रणवसंयुक्त प्राणमेव समभ्यसेत्‌ ।दशकृत्वस्त्रिषवणं मासादर्वाग्जितानिल: ॥

    ३५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; प्रणव--» अक्षर से; संयुक्तम्‌--जुड़ा हुआ; प्राणम्‌--शारीरिक श्वास को वश में करने की प्राणायामविधि; एब--निस्सन्देह; समभ्यसेत्‌--सतर्कता से अभ्यास करे; दश-कृत्व:--दस बार; त्रि-षबणम्‌--सूर्योदय, दोपहर तथासूर्यास्त के समय; मासात्‌--एक मास के; अर्वाक्‌ृ-पश्चात्‌; जित--जीत लेगा; अनिल:--प्राण-वायु |

    'कार में स्थिर होकर मनुष्य को चाहिए कि सूर्योदय, दोपहर तथा सूर्यास्त के समय दस-दस बार प्राणायाम का सतर्कतापूर्वक अभ्यास करे। इस तरह एक महीने के बाद वह प्राण-वायुपर विजय पा लेगा।

    हत्पुण्डरीकमन्तःस्थमूर्ध्वनालमधोमुखम्‌ ।ध्यात्वोर्ध्वमुखमुन्रिद्रमष्टपत्रं सकर्णिकम्‌ ।कर्णिकायां न्यसेत्सूर्यसोमाग्नीनुत्तरोत्तरम्‌ ॥

    ३६॥

    वहििमध्ये स्मरेद्रूपं ममैतद्धयानमड्रलम्‌ ।समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम्‌ ॥

    ३७॥

    सुचारुसुन्दरग्रीव॑ सुकपोलं शुचिस्मितम्‌ ।समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुण्डलम्‌ ॥

    ३८॥

    हेमाम्बरं घनश्यामं श्रीवत्सअश्रीनिकेतनम्‌ ।शद्भुचक्रगदापदावनमालाविभूषितम्‌ ॥

    ३९॥

    नूपुरैर्विलसत्पादं कौस्तुभप्रभया युतम्‌ ।झुमत्किरीटकटककटिसूत्राड्दायुतम्‌ ॥

    ४०॥

    सर्वाड्रसुन्दरं हृदय प्रसादसुमुखेक्षनम्‌ ।सुकुमारमभिध्यायेत्सर्वाड्रिषु मनो दधत्‌ ॥

    ४१॥

    इन्द्रियाणीन्द्रिया रथ भ्यो मनसाकृष्य तनमन: ।बुद्धया सारथिना धीर: प्रणयेन्मयि सर्वतः ॥

    ४२॥

    हत्‌--हृदय में; पुण्डकीकम्‌--कमल का फूल; अन्तः-स्थम्‌--शरीर के भीतर स्थित; ऊर्ध्व-नालम्‌--कमल नाल को ऊपरउठाये; अध:-मुखम्‌--आँखें आधी बन्द किये हुए तथा नाक के सिरे पर ताकते हुए; ध्यात्वा--ध्यान में मन को स्थिर करके;ऊर्ध्व-मुखम्‌--जाग्रत; उन्निद्रमू--बिना ऊँघे, सचेष्ट; अष्ट-पत्रमू--आठ पंखुड़ियों वाला; स-कर्णिकम्‌--कोशयुक्त;कर्णिकायाम्‌--कोश के भीतर; न्यसेत्‌--एकाग्र होकर रखे; सूर्य--सूर्य; सोम--चन्द्रमा; अग्नीन्‌ू--तथा अग्नि; उत्तर-उत्तरमू--एक के बाद एक, इस क्रम से; वह्नि-मध्ये--अग्नि के भीतर; स्मरेत्‌--ध्यान करे; रूपम्‌--स्वरूप पर; मम--मेरे;एतत्‌--यह; ध्यान-मड्रलम्‌-ध्यान की पवित्र वस्तु; समम्‌-शरीर के सभी अंगएकसमान, संतुलित; प्रशान्तम्‌--शान्त; सु-मुखम्‌- प्रसन्न; दीर्घ-चारु-चतु:-भुजम्‌--चार सुन्दर लम्बी भुजाओं वाले; सु-चारु--मनोहारी; सुन्दर--सुन्दर; ग्रीवम्‌-गर्दन;सु-कपोलमू--सुन्दर मस्तक; शुचि-स्मितम्‌--शुद्ध मुस्कान से युक्त; समान--सहश; कर्ण--कान में; विन्यस्त--स्थित;स्फुरतू--चमचमाते; मकर--मगर के आकार के; कुण्डलम्‌--कुण्डल; हेम--सुनहरे रंग के; अम्बरम्‌--वस्त्र; घन-श्यामम्‌--बादलों जैसे श्यामरंग के; श्री-वत्स-- भगवान्‌ के वक्षस्थल पर अद्वितीय घुंघराले बाल; श्री-निकेतनमू--लक्ष्मी के धाम;शब्गु--शंख; चक्र --सुदर्शन चक्र; गदा--गदा; पद्मय--कमल; वन-माला--तथा जंगली फूलों की माला से; विभूषितम्‌--अलंकृत; नूपुरः--घुंघरूओं तथा पायजेबों से; विलसत्‌--चमकते हुए; पादमू--चरणकमल; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि के;प्रभया--तेज से; युतम्‌--युक्त; द्युमत्‌--चमकता; किरीट--मुकुट; कटक--सुनहले बाजूबन्द; कटि-सूत्र--करधनी;अड्डद--बाजूबन्द; आयुतम्‌--से युक्त; सर्व-अड़--शरीर के सारे अंग; सुन्दरम्‌--सुन्दर; हृद्यमू--मनोहर; प्रसाद--कृपा से;सुमुख--हँसीला; ईक्षणम्‌--चितवन; सु-कुमारम्‌ू-- अत्यन्त नाजुक; अभिध्यायेत्‌-- ध्यान करे; सर्व-अड्डेषु--शरीर के सारेअंगों में; मनः--मन को; दधत्‌--रखते हुए; इन्द्रियाणि -- भौतिक इन्द्रियों को; इन्द्रिय-अर्थभ्य: --इन्द्रिय-विषयों से; मनसा--मन से; आकृष्य--पीछे खींच कर; तत्‌--वह; मन:--मन; बुद्धय्या--बुद्धि से; सारधिना--रथ के सारथी की-सी; धीर: --गम्भीर तथा संयमित होकर; प्रणयेत्‌--प्रबलतापूर्वक आगे बढ़े; मयि--मुझमें; सर्वतः--शरीर के सारे अंगों में

    आँखों को अधखुली रखते हुए तथा उन्हें अपनी नाक के सिरे पर स्थिर करके, अत्यन्तजागरूक रह कर, मनुष्य को हृदय के भीतर स्थित कमल के फूल का ध्यान करना चाहिए। इसकमल के फूल में आठ पंखड़ियाँ हैं और यह सीधे डंठल पर स्थित है। उसे सूर्य, चन्द्रमा तथाअग्नि को उस कमल-पुष्प के कोश में एक-एक करके रखते हुए, उनका ध्यान करना चाहिए।अग्नि में मेरे दिव्य स्वरूप को स्थापित करते हुए, उसे समस्त ध्यान का शुभ लक्ष्य मान करउसका ध्यान करना चाहिए। यह स्वरूप अत्यन्त समरूप, भद्र तथा प्रसन्न होता है। इसकी चारसुन्दर लम्बी भुजाएँ, सुहावनी सुन्दर गर्दन, सुन्दर मस्तक, शुद्ध हँसी तथा दोनों कानों में लटकनेवाले मकराकृति के चमचमाते कुण्डल होते हैं। यह आध्यात्मिक स्वरूप वर्षा के मेघ की भाँतिश्यामल रंग वाला है और सुनहले-पीले रेशम से आवृत है। इस रूप के वक्षस्थल पर श्रीवत्सतथा लक्ष्मी का आवास है और यह स्वरूप शंख, चक्र, गदा, कमल-पुष्प तथा जंगली फूलों कीमाला से सुसज्जित है। इसके दो चमकीले चरणकमल घुंघरूओं तथा पायजेबों से विभूषित हैंऔर इस रूप से कौस्तुभ मणि के साथ ही तेजवान मुकुट भी प्रकट होता है। इसके कूल्हेसुनहली करधनी से सुन्दर लगते हैं और भुजाएँ मूल्यवान बाजूबन्दों से सज्जित हैं। इस सुन्दर रूपके सभी अंग हृदय को मोहने वाले हैं और इसका मुखड़ा दयामय चितवन से सुशोभित है।मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रिय-विषयों से इन्द्रियों को पीछे हटाकर, गम्भीर तथा आत्मसंयमी बनेऔर मेरे दिव्य शरीर के सारे अंगों पर मन को हढ़ता से स्थिर करने के लिए बुद्धि का उपयोग करे। इस तरह उसे मेरे अत्यन्त मृदुल दिव्य स्वरूप का ध्यान करना चाहिए।

    तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्‌ ।नान्यानि चिन्तयेद्धूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्‌ ॥

    ४३॥

    तत्‌--इसलिए; सर्व--शरीर के सारे भागों में; व्यापकम्‌--फैली; चित्तमू--चेतना; आकृष्य--खींच कर; एकत्र--एक स्थानपर; धारयेत्‌--एकाग्र करे; न--नहीं; अन्यानि--शरीर के अन्य अंगों को; चिन्तयेत्‌-- ध्यानकरे; भूय: --फिर; सु-स्मितम्‌--अद्भुत मुस्कान या हँसी से युक्त; भावयेत्‌--एकाग्र करे; मुखम्‌--मुँह पर।

    तब वह अपनी चेतना को दिव्य शरीर के समस्त अंगों से हटा ले। उस समय उसे भगवान्‌ केअद्भुत हँसी से युक्त मुख का ही ध्यान करना चाहिए।

    तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्‌ ।तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किल्लिदपि चिन्तयेत्‌ ॥

    ४४॥

    तत्र-- भगवान्‌ के मुख का ध्यान करते हुए; लब्ध-पदम्‌--स्थापित होकर; चित्तम्‌ू--चेतना; आकृष्य--खींच कर; व्योम्नि--आकाश में; धारयेत्‌--ध्यान करे; तत्‌--आकाश का ऐसा ध्यान; च--भी; त्यक्त्वा--त्याग कर; मत्‌--मुझ तक; आरोह:--चढ़ कर; न--नहीं; किल्लित्‌ू--कुछ; अपि-- भी; चिन्तयेत्‌--चिन्तन करे।

    भगवान्‌ के मुख का ध्यान करते हुए, उसे चाहिए कि वह अपनी चेतना को हटाकर उसेआकाश में स्थिर करे। तब ऐसे ध्यान को त्याग कर, वह मुझमें स्थिर हो जाय और ध्यान-विधिका सर्वथा परित्याग कर दे।

    एवं समाहितमतिमामेवात्मानमात्मनि ।विच॒ष्टे मयि सर्वात्मन्ज्योति्ज्योतिषि संयुतम्‌ ॥

    ४५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; समाहित--पूर्णतया स्थिर; मति:ः--चेतना; माम्‌--मुझको; एब--निस्सन्देह; आत्मानम्‌--आत्मा;आत्मनि--आत्मा के भीतर; विचष्टे--देखता है; मयि--मुझमें; सर्व-आत्मन्‌-- भगवान्‌ में; ज्योति:--सूर्य की किरणें;ज्योतिषि--सूर्य के भीतर; संयुतम्‌--संयुक्त |

    जिसने अपने मन को मुझमें पूरी तरह स्थिर कर लिया है उसे चाहिए कि अपनी आत्मा केभीतर मुझ भगवान्‌ को देखे और व्यष्टि आत्मा को मेरे भीतर देखे। इस तरह वह आत्माओं कोपरमात्मा से संयुक्त देखता है, जिस तरह सूर्य की किरणों को सूर्य से पूर्णतया संयुक्त देखा जाताहै।

    ध्यानेनेत्थं सुतीत्रेण युज्ञतो योगिनो मन: ।संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्य ज्ञानक्रियाभ्रम: ॥

    ४६॥

    ध्यानेन--ध्यान से; इत्थम्‌ू--जैसाकि बतलाया गया; सु-तीब्रेण-- अत्यन्त एकाग्र; युज्धत:ः--अभ्यास करने वाले; योगिन: --योगी का; मनः--मन; संयास्यति--एकसाथ जायेगा; आशु--तेजी से; निर्वाणम्‌--अन्त के लिए; द्रव्य-ज्ञान-क्रिया-- भौतिकवस्तुओं की अनुभूति, ज्ञान तथा कर्म पर आधारित; भ्रम:-- भ्रम, मायामय पहचान

    जब योगी इस तरह अत्यधिक एकाग्र ध्यान से अपने मन को अपने वश में करता है, तोभौतिक वस्तुओं, ज्ञान तथा कर्म से उसकी भ्रामक पहचान तुरन्त समाप्त हो जाती है।

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    15. कृष्ण द्वारा रहस्यवादी योग सिद्धियों का वर्णन

    श्रीभगवानुवाचजितेन्द्रियस्य युक्तस्थ जितश्वासस्थ योगिन: ।मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः ॥

    १॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; जित-इन्द्रियस्थ--जिसने अपनी इन्द्रियाँ जीत ली हैं; युक्तस्थ--जिसने मन को स्थिर करलिया है; जित-श्वासस्थ--जिसने प्राणायाम पर विजय पा ली है; योगिन: --ऐसे योगी का; मयि--मुझमें; धारयत:--स्थिर करतेहुए; चेत:--अपनी चेतना; उपतिष्ठन्ति--प्रकट होती हैं; सिद्धयः--योग की सिद्धियाँ |

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, योग-सिद्धियाँ उस योगी द्वारा अर्जित की जाती हैं जिसने अपनीइन्द्रियों पर विजय पा ली हो, अपने मन को स्थिर कर लिया हो, प्राणायाम को वश में कर लियाहो और जो अपने मन को मुझमें स्थिर कर चुका हो।

    श्रीउद्धव उवाचकया धारणया का स्वित्कथं वा सिद्धिरच्युत ।कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान्‌ ॥

    २॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; कया--किस; धारणया--ध्यान की विधि द्वारा; का स्वित्‌--क्या निस्सन्देह; कथम्‌--किस तरह से; वा--अथवा; सिद्द्धिः--योग-सिद्द्धि; अच्युत--हे प्रभु; कति--कितने; वा--अथवा; सिद्धयः--सिद्धियाँ;ब्रृहि--कृपा करके कहिए; योगिनाम्‌--समस्त योगियों के; सिद्धि-दः--सिद्धि दाता; भवान्‌ू--आप |

    श्री उद्धव ने कहा : हे अच्युत, योग-सिद्धि किस विधि से प्राप्त की जा सकती है और ऐसीसिद्धि का स्वभाव क्‍या है? योग-सिद्ध्रियाँ कितनी हैं? कृपा करके ये बातें मुझसे बतलाइये।निस्सन्देह, आप समस्त योग-सिद्धियों के प्रदाता हैं। श्रीभगवानुवाचसिद्धयोउष्टादश प्रोक्ता धारणा योगपारगै: ।तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतव: ॥

    ३॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; सिद्धयः--योग-सिद्धियाँ; अष्टादश--अठारह; प्रोक्ता:--घोषित की जाती हैं;धारणा:--ध्यान; योग--योग के; पार-गै:--पारंगतों द्वारा; तासामू--उठारहों में से; अष्टौ-- आठ; मत्-प्रधाना:--मुझमें शरणपाती हैं; दश--दस; एव--निस्सन्देह; गुण-हेतवः--भौतिक सतोगुण से प्रकट हैं

    भगवान्‌ ने कहा : योग के पारंगतों ने घोषित किया है कि योग-सिद्धि तथा ध्यान केअठारह प्रकार हैं जिनमें से आठ मुख्य हैं, जो मेरे अधीन हैं और दस गौण हैं, जो सतोगुण सेप्रकट होती हैं।

    अणिमा महिमा मूर्तेर्लधिमा प्राप्तिरिन्द्रिये: ।प्राकाम्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता ॥

    ४॥

    गुणेष्वसड्रों वशिता यत्कामस्तदवस्यति ।एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मता: ॥

    ५॥

    अणिमा--छोटे-से-छोटा बनने की सिद्धि; महिमा--बड़े-से-बड़ा बनना; मूर्तें:--शरीर का; लघिमा--हल्के-से-हल्का बनना;प्राप्ति:-- प्राप्ति; इन्द्रियै:--इन्द्रियों के द्वारा; प्राकाम्यम्‌--इच्छानुरूप कार्य की सम्पन्नता; श्रुत--न दिखने वाली वस्तुएँ, जिनकेबारे में केवल सुना जा सकता है; दृष्टेचु--तथा दिखाई पड़ने वाली वस्तुएँ; शक्ति-प्रेरणम्‌--माया की उपशक्तियों को काम मेंलगाना; ईशिता--नियंत्रण करने की सिद्द्धि; गुणेषु--प्रकृति के गुणों में; असड़ः--बिना रुकावट के; वशिता--अन्यों को वशमें करने की शक्ति; यत्‌--जो भी; काम:--इच्छा; तत्‌--वह; अवस्यति--प्राप्त कर सकता है; एता: --ये; मे--मेरी( शक्तियाँ ); सिद्धयः--सिद्धियाँ; सौम्य--हे सुशील उद्धव; अष्टौ-- आठ; औत्पत्तिका:--प्राकृतिक तथा अद्वितीय; मताः--मानी जानी चाहिए।

    आठ प्रधान योग-सिद्धियों में तीन सिद्धियाँ, जिनसे मनुष्य अपने शरीर को रूपान्तरित करसकता है, अणिमा ( छोटे से छोटा बनना ), महिमा ( बड़े से बड़ा होना ) तथा लघिमा ( हल्के सेहल्का होना ) हैं। प्राप्ति सिद्धि द्वारा मनवांछित वस्तु प्राप्त की जा सकती है और प्राकाम्य सिद्धिद्वारा मनुष्य को उसकी भोग्य वस्तु का अनुभव इस लोक या अगले लोक में होता है। ईशितासिद्धि से मनुष्य माया की उपशक्तियों को पा सकता है और वशिता सिद्धि से मनुष्य तीनों गुणोंसे अबाध बन जाता है। जिसने कामावसायिता सिद्धि प्राप्त की होती है, वह कहीं से कोई भीवस्तु सर्वोच्च सीमा तक पा सकता है। हे उद्धव, ये आठ योग-सिद्धिदियाँ प्राकृतिक रूप सेविद्यमान होती हैं और इस जगत में अद्वितीय हैं।

    अनूर्मिमत्त्वं देहेउस्मिन्दूरश्रवणदर्शनम्‌ ।मनोजव: कामरूपं परकायप्रवेशनम्‌ ॥

    ६॥

    स्वच्छन्दमृत्युदेवानां सहक्रीडानुदर्शनम्‌ ।यथासड्डूल्पसंसिद्द्िराज्ञाप्रतिहता गति: ॥

    ७॥

    अनूर्मि-मत्त्वमू-- भूख, प्यास आदि से अविचलित रह कर; देहे अस्मिन्‌--इस शरीर को; दूर--दूरस्थ वस्तुएँ; श्रवण--सुनना;दर्शनम्‌--तथा देखना; मनः-जब:--मन की गति से शरीर को हिलाते हुए; काम-रूपम्‌--इच्छानुसार किसी भी शरीर कोधारण करते हुए; पर-काय--दूसरों के शरीर; प्रवेशनम्‌--प्रविष्ट होकर; स्व-छन्द--अपनी इच्छानुसार; मृत्यु;--मर रहे;देवानाम्‌ू--देवताओं के; सह--साथ में; क्रीडा--खिलवाड़; अनुदर्शनम्‌--देखते हुए; यथा--के अनुसार; सड्डूल्प-इढ़निश्चय; संसिद्धि:--पूर्ण सिद्धि; आज्ञा--निर्देश; अप्रतिहता--अबाध; गति:--प्रगति |

    प्रकृति के गुणों से उत्पन्न होने वाली दस गौण योग-सिद्ध्रियाँ हैं-- भूख-प्यास तथा अन्यशारीरिक उत्पातों से अपने को मुक्त करने की शक्ति, काफी दूरी से वस्तुओं को देखने-सुनने की शक्ति, मन के वेग से शरीर को गतिशील बनाने की शक्ति, इच्छानुसार रूप धारण करने कीशक्ति, अन्यों के शरीर में प्रवेश करने की शक्ति, इच्छानुसार शरीर त्यागने की शक्ति, देवताओंतथा अप्सराओं की लीलाओं का दर्शन करने की शक्ति, अपने संकल्प को पूरा करने तथा ऐसेआदेश देने की शक्ति जिनका निर्बाध पालन हो सके।

    त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्दं परचित्ताद्मभिज्ञता ।अम्न्य्काम्बुविषादीनां प्रतिष्टम्भोडषपराजय: ॥

    ८॥

    एताश्नोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः ।यया धारणया या स्याद्यथा वा स्यातन्निबोध मे ॥

    ९॥

    त्रि-काल-च्ञत्वम्‌-- भूत, वर्तमान तथा भविष्य जानने की सिद्धि; अद्न्द्मू-गर्मी तथा सर्दी जैसे द्वैतों से अप्रभावित रहना; पर--अन्यों के; चित्त--मन; आदि--इत्यादि; अभिज्ञता--जानना; अग्नि--अग्नि; अर्क--सूर्य; अम्बु--जल; विष--विष;आदीनाम्‌---इत्यादि की; प्रतिष्टम्भ:--शक्ति को रोकना; अपराजय: --दूसरे द्वारा हराया न जाना; एता:--ये; च-- भी;उद्देशतः--नामों तथा गुणों के उल्लेख मात्र से; प्रोक्ता:--कथित; योग--योग-प्रणाली का; धारण-- ध्यान की; सिद्धय:ः --सिद्धियाँ; यया--जिसमें; धारणया--ध ध्यान से; या--जो ( सिद्धि ); स्थातू--हो सके; यथा--जिसके द्वारा; वा--अथवा;स्थातू--हो सके; निबोध--सीख लो; मे--मुझसे |

    भूत, वर्तमान तथा भविष्य जानने की शक्ति, शीत-घाम तथा अन्य द्वन्द्-ों को सहने कीशक्ति, अन्यों के मन को जान लेने, अग्नि, सूर्य, जल, विष इत्यादि के प्रभाव को रोकना तथाअन्यों द्वारा पराजित न होने की शक्ति--ये योग तथा ध्यान की पाँच सिद्ध्ियाँ हैं। मैं उन्हें, उनकेनामों तथा गुणों के अनुसार, यहाँ सूचीबद्ध कर रहा हूँ। तुम मुझसे सीख लो कि किस तरहविशेष ध्यान से विशिष्ट योग-सिद्ध्रियाँ उत्पन्न होती हैं और उनमें कौन-सी विशेष विधियाँ निहितहोती हैं।

    भूतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्र॑ धारयेन्मन: ।अणिमानमवापष्नोति तन्मात्रोपासको मम ॥

    १०॥

    भूत-सूक्ष्म--सूक्ष्म तत्त्वों के; आत्मनि--आत्मा में; मयि--मुझमें; तत्‌-मात्रमू--अनुभूति के सूक्ष्म तात्विक रूपों पर; धारयेत्‌--एकाग्र करे; मनः--मन को; अणिमानम्‌--अणिमा नामक सिद्द्धि; अवाप्नोति--प्राप्त करता है; तत्‌-मात्र--सूक्ष्म तत्त्वों में;उपासकः--पूजा करने वाला; मम--मेरा |

    जो व्यक्ति अपने मन को समस्त सूक्ष्म तत्त्वों में व्याप्त मेरे सूक्ष्म रूप में एकाग्र करके मेरीपूजा करता है, वह अणिमा नामक योग-सिद्धि प्राप्त करता है।

    महत्तत्त्वात्मनि मयि यथासंस्थं मनो दधत्‌ ।महिमानमवाणष्नोति भूतानां च पृथक्पृथक्‌ ॥

    ११॥

    महत्‌ू-तत्त्व--समस्त भौतिक शक्ति की; आत्मनि--आत्मा में; मयि--मुझमें; यथा--के अनुसार; संस्थम्‌--विशेष परिस्थिति;मनः--मन; दधत्‌--एकाग्र करते हुए; महिमानम्‌--महिमा नामक शक्ति; अवापष्नोति--प्राप्त करता है; भूतानाम्‌ू-- भौतिकतत्त्वों की; च--भी; पृथक्‌ पृथक्‌ू--अलग अलग।

    जो व्यक्ति महत्‌ तत्त्व के विशेष रूप में अपने मन को लीन कर देता है और इस तरह समस्तजगत के परमात्मा रूप में मेरा ध्यान करता है उसे महिमा नामक योग-सिद्धि प्राप्त होती है। औरजो आकाश, वायु, अग्नि इत्यादि पृथक्‌ पृथक्‌ तत्त्वों में अपने मन को लीन करता है, वह हरभौतिक तत्त्व की महानता ( महत्ता ) को प्राप्त करता जाता है।

    परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रझ्जयन्‌ ।कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात्‌ ॥

    १२॥

    'परम-अणु-मये--परमाणुओं के रूप में; चित्तमू--चेतना; भूतानाम्‌-- भौतिक तत्त्वों की; मयि--मुझमें; रक्ञयन्‌--अनुरक्तहोकर; काल--समय का; सूक्ष्म--सूक्ष्म; अर्थताम्‌--वस्तु; योगी--योगी; लघिमानम्‌--लघिमा नामक योगशक्ति;अवाणुयात्‌--प्राप्त कर सकते हैं।

    मैं प्रत्येक वस्तु के भीतर रहता हूँ, इसलिए मैं भौतिक तत्त्वों के परमाणविक घटकों का सारहूँ। मेरे इस रूप में अपने मन को संलग्न करके, योगी लघिमा नामक सिद्धि प्राप्त कर सकता है,जिससे वह काल के समान सूक्ष्म परमाणविक वस्तु की अनुभूति कर सकता है।

    धारयन्मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिके खिलम्‌ ।सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्ति प्राप्पोति मन्‍्मना: ॥

    १३॥

    धारयन्‌--एकाग्र करते हुए; मयि--मुझमें; अहम्‌-तत्त्वे--मिथ्या अहंकार के भीतर; मन:--मन; बैकारिके --सतोगुण से उत्पन्नहुए में; अखिलम्‌--पूर्णतया; सर्ब--सारे जीव; इन्द्रियाणाम्‌--इन्द्रियों का; आत्मत्वम्‌--स्वामित्व; प्राप्तिमू--प्राप्ति नामकसिद्धि; प्राप्पोति--प्राप्त करता है; मत्‌-सना:--योगी जिसका मन मुझमें स्थिर है।

    सतोगुण से उत्पन्न मिथ्या अहंकार के भीतर अपने मन को पूरी तरह मुझमें एकाग्र करते हुएयोगी प्राप्ति नामक शक्ति प्राप्त करता है, जिससे वह समस्त जीवों की इन्द्रियों का स्वामी बनजाता है। वह ऐसी सिद्धि इसलिए प्राप्त करता है क्योंकि उसका मन मुझमें लीन रहता है।

    महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम्‌ ।प्राकाम्यं पारमेष्ठयं मे विन्दतेउव्यक्तजन्मन: ॥

    १४॥

    महति--महत्‌-तत्त्व में; आत्मनि--परमात्मा में; यः--जो; सूत्रे--सकाम कर्मों की श्रृंखला से जाना जाने वाला; धारयेत्‌--एकाग्र करे; मयि--मुझमें; मानसम्‌--मानसिक कार्य ; प्राकाम्यम्‌--प्राकाम्य नामक सिद्धि; पारमेष्ठयमम्‌--सर्वोत्तम; मे--मुझसे;विन्दते--प्राप्त करता है या भोगता है; अव्यक्त-जन्मन:--उससे जिसके प्राकट्य को इस जगत में अनुभव नहीं किया जासकता।

    जो व्यक्ति सकाम कर्मो की श्रृंखला को अभिव्यक्त करने वाले महत्‌ तत्त्व की उस अवस्थाके परमात्मा रूप मुझमें अपनी सारी मानसिक क्रियाएँ एकाग्र करता है, वह अव्यक्त रूप मुझसेप्राकाम्य नामक सर्वोत्तम योग-सिद्धि्ि प्राप्त करता है।

    विष्णौ त्र्यधी श्वरे चित्तं धारयेत्कालविग्रहे ।स ईशित्वमवाणोत्ति क्षेत्रज्ञक्षेत्रचोदनाम्‌ ॥

    १५॥

    विष्णौ--भगवान्‌ विष्णु या परमात्मा में; त्रि-अधी श्वरे--तीन गुणों वाली माया के परम नियन्ता; चित्तम्‌--चेतना; धारयेत्‌--एकाग्र करता है; काल--काल का, जो कि मूल गतिप्रदाता है; विग्रहे--स्वरूप में; सः--वह, योगी; ईशित्वम्‌--वश में करनेकी सिद्धि; अवाष्नोति--प्राप्त करता है; क्षेत्र-ज्ञ--चेतन जीव; क्षेत्र--उपाधियों सहित शरीर; चोदनाम्‌--प्रेरित करते हुए।

    जो मूल गतिप्रदाता तथा तीन गुणों से युक्त बहिरंगा शक्ति के परमेश्वर, परमात्मा विष्णु में अपनी चेतना स्थिर करता है, वह अन्य बद्धजीवों, उनके शरीरों तथा उनकी उपाधियों कोनियंत्रित करने की योग-सिद्धिि प्राप्त करता है।

    नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते ।मनो मय्यादधद्योगी मद्धर्मा वशितामियात्‌ ॥

    १६॥

    नारायणे-- भगवान्‌ नारायण में; तुरीय-आख्ये--तुरीय नामक; भगवत्‌--समस्त ऐश्वर्य से पूर्ण; शब्द-शब्दिते--शब्द से जानाजाने वाला; मन:--मन; मयि--मुझमें; आदधत्‌--लगाते हुए; योगी--योगी; मत्-धर्मा--मेरे स्वभावको पाकर; वशिताम्‌--वशिता नामक सिद्धि; इयात्‌-मय्‌ ओब्तैन्‌

    जो योगी मेरे नारायण रूप में, जो कि समस्त ऐश्वर्यपूर्ण चौथी अवस्था ( तुरीय ) माना जाताहै, अपने मन को लगाता है, वह मेरे स्वभाव से युक्त हो जाता है और उसे वशिता नामक योग-सिद्धि प्राप्त होती है।

    निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन्विशदं मनः ।परमानन्दमापष्नोति यत्र कामोइवसीयते ॥

    १७॥

    निर्गुणे--गुणरहित; ब्रह्मणि--ब्रह्म में; मयि--मुझमें; धारयन्‌--एकाग्र करके; विशदम्‌--शुद्ध; मन: --मन; परम-आनन्दम्‌--सर्वाधिक सुख; आण्नोति--प्राप्त करता है; यत्र--जहाँ; काम:--इच्छा; अवसीयते--पूर्णतया पूरित रहता है

    जो व्यक्ति मेरे निर्विशेष ब्रह्म रूप में अपना शुद्ध मन स्थिर करता है, वह सर्वाधिक सुखप्राप्त करता है, जिसमें उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं।

    श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि ।धारयज्छेततां याति षडूमिरहितो नर: ॥

    १८॥

    श्वेत-द्वीप-- श्वेत द्वीप का, जो कि क्षीरोदकशायी विष्णु का धाम है; पतौ-- भगवान्‌ में; चित्तमू--चेतना को; शुद्धे--साक्षात्‌सतोगुण में; धर्म-मये--दया में सदैव स्थित है, जो; मयि--मुझमें; धारयन्‌--एकाग्र करते हुए; श्वेतताम्‌ू--शुद्धता को; याति--प्राप्त करता है; घट्‌-ऊर्मि-- भौतिक उत्पात की छः लहरें; रहितः--से मुक्त; नरः--पुरुष।

    जो व्यक्ति मेरे धर्म को धारण करने वाले, साक्षात्‌ शुद्धता तथा श्वेत द्वीप के स्वामी के रूपमुझमें, अपना मन एकाग्र करता है, वह शुद्ध जीवन को प्राप्त करता है, जिसमें वह भौतिकउपद्रव की छह ऊर्मियों से अर्थात्‌ भूख, प्यास, क्षय, मृत्यु, शोक तथा मोह से--मुक्त हो जाताहै।

    मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्दहन्‌ ।तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाच: श्रुणोत्यसौ ॥

    १९॥

    मयि--मुझमें; आकाश-आत्मनि--आकाश रूप; प्राणे-- प्राण में; मनसा--मन से; घोषम्‌--दिव्य ध्वनि; उद्दहन्‌ू--एकाग्र करतेहुए; तत्र--आकाश में; उपलब्धा:-- अनुभूत; भूतानाम्‌--सारे जीवों का; हंस:--शुद्ध जीव; वाच:--शब्द या वाणी;श्रुणोति--सुनता है; असौ--वह।

    वह शुद्ध जीव जो मेरे भीतर होने वाली असामान्य ध्वनि पर साक्षात्‌ आकाश तथा प्राण-वायु के रूप में अपना मन स्थिर करता है, वह आकाश में सारे जीवों की वाणी का अनुभव करसकता है।

    चक्षुस्त्वष्टरे संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि ।मां तत्र मनसा ध्यायन्‌ विश्व पश्यति दूरत: ॥

    २०॥

    चक्षु;--आँखें; त्वष्टरि--सूर्य में; संयोज्य--तादात्म्य करके; त्वष्टारम्‌ू--सूर्य को; अपि-- भी; चक्षुषि-- अपनी आँखों में;माम्‌--मुझको; तत्र--वहाँ, सूर्य तथा आँख के पारस्परिक तादात्म्य में; मनसा--मन से; ध्यायन्‌--ध्यान करते हुए; विश्वम्‌--हरवस्तु को; पश्यति--देखता है; दूरत:--दूर स्थित |

    मनुष्य को चाहिए कि अपनी दृष्टि को सूर्यलोक में और सूर्यलोक को अपनी आँखों में लीनकरके, सूर्य तथा दृष्टि के संमेल के भीतर मुझे स्थित मान कर, मेरा ध्यान करे। इस तरह वहकिसी भी दूर की वस्तु को देखने की शक्ति प्राप्त कर लेता है।

    मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनुवायुना ।मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मन: ॥

    २१॥

    मनः--मन; मयि--मुझमें; सु-संयोज्य--ठीक से संयुक्त करके; देहम्‌-- भौतिक शरीर; तत्‌ू--मन; अनु-वायुना--पीछे पीछेचलने वाली हवा से; मत्‌-धारणा--मेरे ध्यान का; अनुभावेन--शक्ति द्वारा; तत्र--वहाँ; आत्मा-- भौतिक शरीर ( चला जाताहै ); यत्र--जहाँ जहाँ; वै--निश्चय ही; मनः--मन ( चला जाता है )

    जो योगी अपना मन मुझमें लीन कर देता है और इसके बाद मन का अनुसरण करने वालीवायु का उपयोग भौतिक शरीर को मुझमें लीन करने के लिए करता है, वह मेरे ध्यान की शक्तिसे उस योग-सिद्धि को प्राप्त करता है, जिससे उसका शरीर तुरन्त ही मन के पीछे पीछे जाता है।

    यदा मन उपादाय यद्यद्रूपं बुभूषति ।तत्तद्धवेन्मनोरूपं मद्योगबलमा श्रय: ॥

    २२॥

    यदा--जब; मन: --मन; उपादाय-प्रयुक्त करके; यत्‌ यत्‌--जो जो; रूपम्‌--रूप; बुभूषति--धारण करना चाहता है; तत्‌तत्‌--वही रूप; भवेत्‌--प्रकट हो सकता है; मन:-रूपम्‌ू--मन द्वारा इच्छित रूप; मत्‌-योग-बलम्‌--मेरी अचिन्त्य योगशक्तिजिससे मैं असंख्य रूप प्रकट करता हूँ; आभ्रयः:--आश्रय रूप।

    जब कोई योगी किसी विशेष विधि से अपने मन को लगाकर कोई विशिष्ट रूप धारणकरना चाहता है, तो वही रूप तुरन्त प्रकट होता है। ऐसी सिद्धि मेरी उस अचिन्त्य योगशक्ति केआश्रय में मन को लीन करने से सम्भव है, जिसके द्वारा मैं असंख्य रूप धारण करता हूँ।परकायं विशन्सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत्‌ ।

    पिण्डं हित्वा विशेत्प्राणो वायुभूतः षडड्घ्रिवत्‌ ॥

    २३॥

    पर--दूसरे के; कायम्‌--शरीर में; विशन्‌--प्रवेश करने की इच्छा करते हुए; सिद्धः--योगाभ्यास में निपुण; आत्मानम्‌--स्वयं;तत्र--उस शरीर में; भावयेत्‌--कल्पना करता है; पिण्डम्‌--अपने ही स्थूल शरीर को; हित्वा--त्याग कर; विशेत्‌-- प्रवेश करे;प्राण:--सूक्ष्म शरीर में; वायु-भूत:--वायु जैसा बन कर; षट्‌-अड्घ्रि-वत्‌-- भौरें की तरह

    जो एक फूल से दूसरे फूल परमँडराता हैजब कोई पूर्ण योगी किसी अन्य के शरीर में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे चाहिए किअन्य के शरीर में अपना ध्यान करे और तब अपना निजी स्थूल शरीर त्याग कर, वायु के मार्गों सेहोकर अन्य के शरीर में उसी तरह प्रवेश करे जिस तरह भौंरा उड़ कर एक फूल छोड़ कर दूसरेपर चला जाता है।

    पाष्ण्यापीडबद्य गुदं प्राणं हृदुरःकण्ठमूर्थसु ।आरणेषप्य ब्रहारन्श्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सूजेत्तनुम्‌ू ॥

    २४॥

    पाष्ण्या--एड़ी से; आपीड्य--रोक कर; गुदम्‌--गुदा को; प्राणम्‌--जीव को ले जाने वाला प्राण; हत्‌--हृदय से; उर:--वक्षस्थल पर; कण्ठ--गले तक; मूर्थसु--तथा सिर पर; आरोप्य--रख कर; ब्रह्म-रन्श्रेण--सरि के ऊपर आध्यात्मिक स्थानद्वारा; ब्रह्य--आध्यात्मिक जगत या निर्विशेष ब्रह्म तक; नीत्वा--ले जाकर; उत्सूजेत्‌--त्याग दे; तनुमू--शरीर |

    जिस योगी ने स्वच्छन्द-मृत्यु नामक योगशक्ति प्राप्त कर ली होती है, वह अपनी गुदा कोपाँव की एड़ी से दबाता है और तब आत्मा को हृदय से उठाकर क्रमशः वक्षस्थल, गर्दन तथाअन्त में सिर तक उठाता है। तब ब्रह्म-रन्ध्र में स्थित योगी अपने शरीर को त्याग देता है औरआत्मा को चुने हुए गन्तव्य तक ले जाता है।

    विहरिष्यन्सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत्‌ ।विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृत्ती: सुरस्त्रियः ॥

    २५॥

    विहरिष्यनू-- भोग करने की इच्छा से; सुर--देवताओं के; आक्रीडे--क्रीड़ा-स्थल में; मत्‌--मुझमें; स्थम्‌--स्थित; सत्त्वमू--सतोगुण; विभावयेत्‌-- ध्यान करे; विमानेन--वायुयान या विमान के द्वारा; उपतिष्ठन्ति--प्राप्त होते हैं; सत्त्त--सतोगुण में;वृत्ती:--प्रकट होकर; सुर--देवताओं की; स्त्रियः--स्त्रियाँ |

    जो योगी देवताओं के क्रीड़ा-उद्यानों का भोग करना चाहता है उसे मुझमें स्थित शुद्धसतोगुण का ध्यान करना चाहिए और तब सतोगुण से उत्पन्न अप्सराएँ विमानों में चढ़ कर उसकेपास आयेंगी।

    यथा सड्डूल्पयेह्ठुद्धया यदा वा मत्परः पुमान्‌ ।मयि सत्ये मनो युखझ्ध॑स्तथा तत्समुपाश्नुते ॥

    २६॥

    यथा--जिस साधनों से; सट्डूल्पयेतू--मन में संकल्प करे या निश्चित करे; बुद्धया--मन के द्वारा; यदा--जब; बवा--अथवा;मत्‌ू-परः--मुझमें श्रद्धा रखते हुए; पुमानू--योगी; मयि--मुझ में; सत्ये--जिसकी इच्छा सच उतरती है; मन:ः--मन; युझ्ञनू--युक्त करते हुए; तथा--उस साधन से; तत्‌--वही अभिप्राय; समुपाश्नुते--प्राप्त करता है

    जो योगी मुझमें अपने मन को लीन करके तथा यह जानते हुए कि मेरा अभिप्राय सदैव पूराहोता है, मुझमें श्रद्धा रखता है, वह सदैव उन्हीं साधनों से, जिनका पालन करने का उसनेसंकल्प ले रखा है, अपना मन्तव्य प्राप्त करेगा।

    यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान्‌ ।कुतश्चित्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम ॥

    २७॥

    यः--जो ( योगी ); वै--निस्सन्देह; मत्‌--मुझसे; भावम्‌--स्वभाव; आपन्नः--प्राप्त किया गया; ईशितु:--परम शासक से;वशितु:--परम नियन्ता से; पुमान्‌ू--पुरुष ( योगी ); कुतश्चित्‌ू--किसी प्रकार से; न विहन्येत--विचलित नहीं हो सकता;तस्य--उसका; च-- भी; आज्ञा-- आदेश; यथा--जिस तरह; मम--मेरा |

    जो व्यक्ति ठीक से मेरा ध्यान करता है, वह परम शासक तथा नियन्ता होने का मेरा स्वभावप्राप्त कर लेता है। तब मेरे ही समान उसका आदेश किसी भी तरह से व्यर्थ नहीं जाता।

    मद्धक्त्या शुद्धसत्त्वस्थ योगिनो धारणाविद: ।तस्य त्रैकालिकी बुद्धदर्जन्ममृत्यूपबृंहिता ॥

    २८ ॥

    मतू-भक्त्या--मेरे प्रति भक्ति से; शुद्ध-सत्त्वस्य--जिसका जीवन शुद्ध हो जाता है उसका; योगिन:--योगी का; धारणा-विदः--ध्यान-विधि को जानने वाला; तस्य--उसका; त्रै-कालिकी--काल की तीनों अवस्थाओं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य मेंकार्य करते हुए; बुद्धिः--बुद्धि; जन्म-मृत्यु--जन्म तथा मृत्यु; उपबूंहिता--समेत |

    जिस योगी ने मेरी भक्ति द्वारा अपने जीवन को शुद्ध कर लिया है और जो इस तरह ध्यानकी विधि को भलीभाँति जानता है, वह भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान प्राप्त करता है। अतःवह अपने तथा अनन्‍्यों के जन्म तथा मृत्यु को देख सकता है।

    अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपु: ।मद्योगशान्तचित्तस्य यादसामुद्कं यथा ॥

    २९॥

    अग्नि--आग; आदिभि:--इत्यादि ( सूर्य, जल, विष इत्यादि ) के द्वारा; न--नहीं; हन्येत--चोट पहुँचाया जा सकता है;मुनेः--चतुर योगी के; योग-मयम्‌--योग-विज्ञान में पूरी तरह अनुशीलित; बषु:--शरीर; मत्‌-योग--मेरी भक्ति से; शान्त--शान्त किया गया; चित्तस्थ--चित्त वाले का; यादसाम्‌ू--जलचरों के; उदकम्‌--जल; यथा--जिस तरह।

    जिस तरह जलचरों के शरीरों को जल से चोट नहीं पहुँचती, उसी प्रकार जिस योगी कीचेतना मेरी भक्ति से शान्त हुई रहती है और जो योग-विज्ञान में पूर्णतया विकसित होता है,उसका शरीर अग्नि, सूर्य, जल, विष इत्यादि से क्षतिग्रस्त नहीं किया जा सकता।

    मद्विभूतीरभिध्यायन्श्रीवत्सास्त्रविभूषिता: ।ध्वजातपत्रव्यजनै: स भवेदपराजित: ॥

    ३०॥

    मतू-मेरे; विभूती:--ऐश्वर्यमय अवतारों से; अभिध्यायन्‌-- ध्यान करते हुए; श्रीवत्स--भगवान्‌ के श्रीवत्स ऐश्वर्य समेत;अस्त्र--हथियार; विभूषिता:--अलंकृत; ध्वज--झंडों से; आतपत्र--छाते से; व्यजनै: --तथा नाना प्रकार के पंखों से; सः--वह, भक्त-योगी; भवेत्‌--बन जाता है; अपराजितः --अन्यों द्वारा न जीता जा सकने वाला।

    मेरा भक्त मेरे ऐश्वर्यमय अवतारों का ध्यान करके अपराजेय बन जाता है। मेरे ये अवतारश्रीवत्स तथा विविध हथियारों से अलंकृत और ध्वजों, आलंकारिक छातों तथा पंखों जैसेराजसी साज-सामान से युक्त होते हैं।

    उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः ।सिद्धय: पूर्वकथिता उपतिष्ठन्त्यशेषतः ॥

    ३१॥

    उपासकस्य--पूजा करने वाले का; माम्‌--मुझको; एवम्‌--इस प्रकार; योग-धारणया--यौगिक ध्यान द्वारा; मुनेः--विद्वानपुरुष का; सिद्धयः--सिद्धियाँ; पूर्व--पहले; कथिता:--कही हुई; उपतिष्ठन्ति--पास पहुँचती हैं; अशेषत:--सभी प्रकार से |

    जो विद्वान भक्त योग-दध्यान द्वारा मेरी पूजा करता है, वह निश्चय ही सभी तरह से उन योग-सिद्ध्ियों को प्राप्त करता है जिनका वर्णन मैंने अभी किया है।

    जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः ।मद्धारणां धारयतः का सा सिद्धि: सुदुर्लभा ॥

    ३२॥

    जित-इन्द्रियस्य--इन्द्रियों को जीत लेने वाले का; दान्तस्य--अनुशासित तथा आत्मसंयमित का; जित-श्वास--जिसने श्वास परविजय पा ली है; आत्मन:--तथा जिसने मन को जीत लिया है; मुनेः--ऐसे मुनि का; मत्‌--मुझमें; धारणाम्‌--ध्यान;धारयतः--करने वाला; का--क्या है; सा--वह; सिद्धि:--सिद्धि; सु-दुर्लभा--जिसको प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है |

    जिस मुनि ने अपनी इन्द्रियों, श्वास तथा मन को जीत लिया है, जो आत्मसंयमी है और सदामेरे ध्यान में लीन रहता है, उसके लिए कौन-सी योग-सिद्धिि प्राप्त करना कठिन है ? अन्तरायान्वदन्त्येता युज्ग़तो योगमुत्तमम्‌ ।मया सम्पद्यमानस्य 'कालक्षपणहेतव: ॥

    ३३॥

    अन्तरायान्‌--अवरोध; वदन्ति--कहते हैं; एता:--ये सिद्धियाँ; युज्ञतः--लगने वाले के; योगम्‌--ब्रह्म से संयोग; उत्तमम्‌--परम अवस्था; मया--मेरे साथ; सम्पद्ममानस्य--पूरी तरह ऐ श्वर्यवान बनने वाले के; काल--समय का; क्षपण--अवरोध का,बर्बादी; हेतव:--कारण |

    भक्ति के दिद्वान पंडितों का कहना है कि योग-सिद्धियाँ, जिनका मैंने उल्लेख किया है,वास्तव में उस परम योग का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के लिए अवरोधक तथा समय काअपव्यय हैं जिसके द्वारा वह मुझसे सीधे समस्त जीवन-सिद्ध्ियाँ प्राप्त करता है।

    जन्मौषधितपोमन्त्रै्यावतीरिह सिद्धयः ।योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेतू ॥

    ३४॥

    जन्म--जन्म; औषधि--जड़ी-बूटियों; तपः--तपस्या; मन्त्रै:--तथा मंत्रों से; यावती:--जितने हैं; इह--इस जगत में;सिद्धयः--सिद्धियाँ; योगेन--मेरी भक्ति से; आप्नोति--प्राप्त करता है; ता:ः--वे; सर्वा:--सभी; न--नहीं; अन्यैः -- अन्यविधियों से; योग-गतिमू--वास्तविक योग-सिद्धि; ब्रजेत्‌--प्राप्त करता है |

    अच्छे जन्म, औषधियों, तपस्याओं तथा मंत्रों से जो भी योग-सिद्ध्वियाँ प्राप्तकी जा सकतीहैं उन सबों को मेरी भक्ति करके प्राप्त किया जा सकता है। निस्सन्देह, कोई भी व्यक्ति अन्यकिसी साधन से वास्तविक योग-सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।

    सर्वासामपि सिद्धीनां हेतु: पतिरहं प्रभु: ।अहं योगस्य साड्ख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मगादिनाम्‌ ॥

    ३५॥

    सर्वासामू--सभी से; अपि--निस्सन्देह; सिद्धीनाम्‌--सिद्ध्रियों में से; हेतु:--कारण; पति:ः--रक्षक; अहम्‌--मैं हूँ; प्रभु:--स्वामी; अहम्‌--मैं; योगस्य--मेरे शुद्ध ध्यान का; साइ्ख्यस्य--सांख्य ज्ञान का; धर्मस्थ--निष्काम भाव से किये गये कर्म का;ब्रह्म-वादिनाम्‌ू--वैदिक शिक्षकों का।

    हे उद्धव, मैं समस्त योग-सिद्धियों, योग-पद्धति, सांख्य ज्ञान, शुद्ध कर्म तथा विद्वान वैदिकशिक्षकों का कारण, रक्षक तथा स्वामी हूँ।

    अहमात्मान्तरो बाह्योनावृत: सर्वदेहिनाम्‌ ।यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा ॥

    ३६॥

    अहम्‌-मैं; आत्मा-- भगवान्‌; आन्तर:--परमात्मा के भीतर स्थित; बाह्य:--मेरे सर्वव्यापक रूप के बाहर स्थित; अनावृत:--खुला; सर्व-देहिनाम्‌--सारे जीवों के; यथा--जिस तरह; भूतानि-- भौतिक तत्त्व; भूतेषु--जीवों में; बहि:ः--बाहर से; अन्त:--भीतर से; स्वयम्‌-स्वयं; तथा--उसी तरह से |

    जिस तरह समस्त भौतिक शरीरों के भीतर तथा बाहर एक जैसे भौतिक तत्त्व उपस्थित रहतेहैं, उसी तरह मैं किसी अन्य वस्तु से आच्छादित नहीं किया जा सकता। मैं हर वस्तु के भीतरपरमात्मा रूप में और हर वस्तु के बाहर अपने सर्वव्यापक रूप में उपस्थित रहता हूँ।

    TO

    16. प्रभु का ऐश्वर्य

    श्रीउद्धव उवाचत्वं ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यन्तमपावृतम्‌ ।सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्धवः ॥

    १॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; त्वम्‌--तुम हो; ब्रह्म--महानतम; परमम्‌--परम; साक्षात्‌--स्वयं; अनादि-- आदिरहित;अन्तम्‌ू--अन्तरहित; अपावृतम्‌--किसी वस्तु से सीमित नहीं; सर्वेषामू--समस्त; अपि--निस्सन्देह; भावानाम्‌--उपस्थितवस्तुओं में; त्राण--रक्षक; स्थिति--जीवनदाता; अप्यय--संहार; उद्धव: --तथा सृष्टि |

    श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, आप अनादि तथा अनन्त, साक्षात्‌ परब्रह्म तथा अन्य किसी वस्तुसे सीमित नहीं हैं। आप सभी वस्तुओं के रक्षक तथा जीवनदाता, उनके संहार तथा सृष्टि हैं।

    उच्चावचेषु भूतेषु दुर्जेयमकृतात्मभि: ।उपासते त्वां भगवन्याथातथ्येन ब्राह्मणा: ॥

    २॥

    उच्च-- श्रेष्ठ; अवचेषु--तथा निम्न; भूतेषु--सृजित वस्तुओं तथा जीवों में; दुर्जेयम्‌--समझ पाना कठिन; अकृत-आत्मभि:--अपतवित्रों द्वारा; उपासते--वे पूजा करते हैं; त्वामू--तुम्हारी; भगवन्‌--हे प्रभु; यथा-तथ्येन--वास्तव में; ब्राह्मणा: --वैदिकमतानुयायी।

    हे प्रभु, यद्यपि अपवित्र लोगों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि आप समस्त उच्च तथानिम्न सृष्टियों में स्थित हैं, किन्तु वे ब्राह्मण जो वैदिक मत को भलीभाँति जानते हैं आपकीवास्तविक रूप में पूजा करते हैं।

    येषु येषु च भूतेषु भक्त्या त्वां परमर्षय: ।उपासीनाः प्रपद्यन्ते संसिद्धि्रि तद्वदस्व मे ॥

    ३॥

    येषु येषु--जिन जिन; च--तथा; भूतेषु--स्वरूपों में; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; त्वामू--तुमको; परम-ऋषय:--महर्षिगण;उपासीना:--पूजा करने वाले; प्रपद्यन्ते--प्राप्त करते हैं; संसिद्द्धिमू--सिद्द्धि; तत्‌--वह; वदस्व--कृपया कहें; मे--मुझसे |

    कृपया मुझसे उन सिद्धियों को बतलायें जिन्हें महर्षिगण आपकी भक्तिपूर्वक पूजा द्वाराप्राप्त करते हैं। कृपया यह भी बतलायें कि वे आपके किन विविध रूपों की पूजा करते हैं।

    गूढश्वरसि भूतात्मा भूतानां भूतभावन ।न त्वां पश्यन्ति भूतानि पश्यन्तं मोहितानि ते ॥

    ४॥

    गूढः --गुप्त; चरसि--लगे रहते हैं; भूत-आत्मा--परमात्मा; भूतानामू--जीवों के; भूत-भावन--हे जीवों के पालनकर्ता; न--नहीं; त्वाम्‌ू--तुमको; पश्यन्ति--देखते हैं; भूतानि--जीव; पश्यन्तम्‌--देखते हुए; मोहितानि--मोह ग्रस्त; ते--तुम्हारे द्वारा ।

    हे सर्वपालक प्रभु, यद्यपि आप सभी जीवों के परमात्मा हैं किन्तु आप गुप्त रहते हैं। इसतरह आपके द्वारा मोहग्रस्त बनाये जाकर सारे जीव आपको देख नहीं पाते यद्यपि आप उन्हेंदेखते रहते हैं।

    या: काश्च भूमौ दिवि वै रसायांविभूतयो दिक्षु महाविभूते ।ता मह्ममाख्याह्मनुभावितास्तेनमामि ते तीर्थपदाड्प्रिपद्यम्‌ ॥

    ५॥

    या: काः--जो भी; च--भी; भूमौ--पृथ्वी पर; दिवि--स्वर्ग में; बै--निस्सन्देह; रसायाम्‌--नरक में; विभूतय:--शक्तियाँ;दिक्षु--सारी दिशाओं में; महा-विभूते--हे परमशक्तिमान; ताः--वे; महाम्‌--मुझसे; आख्याहि--कृपया बतलायें;अनुभाविता:-- प्रकट, व्यक्त; ते--तुम्हारे द्वारा; नमामि--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; ते--तुम्हारे; तीर्थ-पद--समस्ततीर्थस्थलों के निवास; अड्घ्रि-पद्मम्‌--चरणकमलों पर।

    हे परमशक्तिमान प्रभु, कृपा करके मुझे अपनी वे असंख्य शक्तियाँ बतलायें जिन्हें आपपृथ्वी में, स्वर्ग में, नरक में तथा समस्त दिशाओं में प्रकट करते हैं। मैं आपके उन चरणकमलोंको सादर नमस्कार करता हूँ जो समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं।

    श्रीभगवानुवाचएवमेतदहं पृष्ट: प्रश्न प्रश्नविदां वर ।युयुत्सुना विनशने सपतरर्जुनेन वे ॥

    ६॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; एतत्‌--यह; अहम्‌--मैं; पृष्ट:--पूछा गया; प्रश्नम्‌-- प्रश्न; प्रश्न-विदाम्‌-प्रश्न करने में पटु लोगों के; वर--तुम जो कि श्रेष्ठ हो; युयुत्सुना--युद्ध करने की इच्छा रखने वालों के द्वारा;विनशने--कुरुक्षेत्र के युद्ध में; सपत्नैः --अपने प्रतिद्वन्दियों या शत्रुओं समेत; अर्जुनेन--अर्जुन द्वारा; वै--निस्सन्देह

    भगवान्‌ ने कहा : हे प्रश्नकर्ताओं में श्रेष्ठ, अर्जुन ने अपने प्रतिद्वन्द्रियों से युद्ध करने कीइच्छा से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में मुझसे यही प्रश्न पूछा था जिसे तुम पूछने जा रहे हो।

    ज्ञात्वा ज्ञातिवधं गह्म॑म॒धर्म राज्यहेतुकम्‌ ।ततो निवृत्तो हन्ताहं हतोयमिति लौकिकः ॥

    ७॥

    ज्ञात्वा--जान कर; ज्ञाति--अपने सम्बन्धियों से; वधम्‌--वध; गहाम्‌--गर्हित, निन्दनीय; अधर्मम्‌ू--अधर्म; राज्य--राज्य प्राप्तकरने के लिए; हेतुकम्‌-- प्रेरणा; तत:ः--ऐसे कर्म से; निवृत्त:ः--अवकाशप्राप्त; हरता--मारने वाला; अहम्‌--मैं हूँ; हतः--माराहुआ; अयम्‌--सम्बन्धियों का यह दल; इति--इस प्रकार; लौकिक:--संसारी |

    कुरुक्षेत्र युद्धस्थल में अर्जुन ने सोचा कि अपने सम्बन्धियों का वध करना अत्यन्त गहित एवंअधार्मिक कार्य है, जो राज्य प्राप्त करने की उसकी इच्छा से प्रेरित है। अतएव यह सोच कर किमैं अपने सम्बन्धियों का मारने वाला होऊँगा और वे विनष्ट हो जायेंगे, वह युद्ध से विरत होनाचाहता था। इस तरह वह संसारी चेतना से दुखी था।

    स तदा पुरुषव्याप्रो युक्‍त्या मे प्रतिबोधितः ।अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि ॥

    ८॥

    सः--वह; तदा--उस समय; पुरुष-व्याप्र: --पुरुषों में बाघ; युक्त्या--तर्क द्वारा; मे--मेरे द्वारा; प्रतिबोधित:--सही ज्ञान दियागया; अभ्यभाषत-- प्रश्न किया; माम्‌--मुझसे; एवम्‌--इस प्रकार; यथा--जिस तरह; त्वमू--तुम; रण--युद्ध के; मूर्धनि--मोर्चे में |

    उस समय मैंने पुरुषों में व्याप्र अर्जुन को तर्क द्वारा समझाया और युद्ध के मोर्चे में ही अर्जुनने मुझसे उसी तरह के प्रश्न किये थे जिस तरह तुम अब कर रहे हो।

    अहमात्मोद्धवामीषां भूतानां सुहृदी श्वरः ।अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्धवाप्यय: ॥

    ९॥

    अहमू--ैं; आत्मा--परमात्मा हूँ; उद्धव--हे उद्धव; अमीषाम्‌--इन; भूतानाम्‌--जीवों के; सु-हत्‌--शुभचिन्तक; ईश्वर:--परमनियन्ता; अहम्‌--मैं; सर्वाणि भूतानि--सभी जीव; तेषाम्‌--उनकी; स्थिति--पालन; उद्धव--सृष्टि; अप्यय:ः--तथा संहार

    हे उद्धव, मैं समस्त जीवों का परमात्मा हूँ, अतएव मैं स्वाभाविक रूप से उनका हितेच्छु तथापरम नियन्ता हूँ। सारे जीवों का स्त्रष्टा, पालक तथा संहर्ता होने से मैं उनसे भिन्न नहीं हूँ।

    अहं गतिर्गतिमतां काल: कलयतामहम्‌ ।गुनाणां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुण: ॥

    १०॥

    अहमू--मैं; गति:--चरम गन्तव्य; गति-मताम्‌--उन्नति चाहने वालों के; काल:--काल, समय; कलयताम्‌--नियंत्रण रखनेवालों के; अहम्‌--मैं; गुनाणाम्‌-- प्रकृति के गुणों के; च-- भी; अपि--ही; अहम्‌--मैं; साम्यम्‌-- भौतिक सन्तुलन;गुणिनि--पवित्रों में; औत्पत्तिक:--स्वाभाविक; गुण:--गुण |

    मैं उन्नति चाहने वालों का चरम गन्तव्य हूँ और जो नियंत्रण रखना चाहते हैं उनमें मैं कालहूँ। मैं भौतिक गुणों की साम्यावस्था हूँ और पतवित्रों में मैं स्वाभाविक गुण हूँ।

    गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानहम्‌ ।सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहं मन: ॥

    ११॥

    गुणिनाम्‌-गुणयुक्त वस्तुओं में; अपि--निस्सन्देह; अहम्‌--मैं; सूत्रमू--मुख्य सूत्र तत्त्व; महताम्‌-महान्‌ वस्तुओं में; च--भी;महान्‌--समग्र भौतिक अभिव्यक्ति; अहमू--ैं; सूक्ष्मणाम्‌--सूक्ष्म वस्तुओं में; अपि--निस्सन्देह; अहम्‌--मैं; जीव:--जीव;दुर्जयानाम्‌-दुर्जेय वस्तुओं में; अहम्‌--मैं; मनः--मन।

    गुणयुक्त वस्तुओं में मैं प्रकृति की मुख्य अभिव्यक्ति हूँ और महान्‌ वस्तुओं में मैं समग्र सृष्टिहूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं आत्मा हूँ और दुर्जेय वस्तुओं में मैं मन हूँ।

    हिरण्यगर्भो वेदानां मन्त्राणां प्रणवस्त्रिवृत्‌ ।अक्षराणामकारोस्मि पदानि च्छन्दुसामहम्‌ ॥

    १२॥

    हिरण्य-गर्भ:--भगवान्‌ ब्रह्मा; वेदानाम्‌--वेदों में; मन्त्राणाम्‌--मंत्रों के; प्रणव: --»कार; त्रि-वृतू--तीन अक्षरों वाला;अक्षराणाम्‌--अक्षरों के; अ-कार:--अ अर्थात्‌ प्रथम अक्षर; अस्मि--हूँ; पदानि--तीन पंक्ति का गायत्री मंत्र; छन्‍्दसाम्‌--छन्‍्दोंमें; अहम्‌ू-मैं।

    वेदों में में आदि शिक्षक ब्रह्मा और समस्त मंत्रों में में तीन अक्षरों ( मात्राओं ) वाला ३४कारहूँ। अक्षरों में मैं प्रथम अक्षर अ ( अकार ) और पवित्र छन्‍्दों में गायत्री मंत्र हूँ।

    इन्द्रोडहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट्‌ ।आदित्यानामहं विष्णू रुद्राणां नीललोहित: ॥

    १३॥

    इन्द्र:--इन्द्र; अहम्‌-मैं; सर्व-देवानाम्‌ू--सभी देवताओं में; वसूनाम्‌--वसुओं में; अस्मि--मैं; हव्य-वाट्‌ू--आहुतियों कावाहक, अग्नि देव; आदित्यानामू--अदिति-पुत्रों में; अहम्‌ू--मैं; विष्णु;--विष्णु; रुद्राणामू--रुद्रों में; नील-लोहितः --शिवजी।

    मैं देवताओं में इन्द्र तथा बसुओं में अग्नि हूँ। मैं अदिति-पुत्रों में विष्णु तथा रुद्रों में भगवान्‌शिव हूँ।

    ब्रह्मर्षणां भृगुरहं राजर्षीणामहं मनु: ।देवर्षीणां नारदोहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु ॥

    १४॥

    बहा-ऋषीणाम्‌--सन्त ब्राह्मणों में; भूगु:ः-- भूगु मुनि; अहम्‌--मैं; राज-ऋषीणाम्‌-- सन्त राजाओं में; अहम्‌--मैं; मनु;--मनु;देव-ऋषीणाम्‌--सनन्‍्त देवताओं में; नारद: --नारद मुनि; अहम्‌--मैं; हविर्धानी--कामधेनु; अस्मि--हूँ; धेनुषु--गौवों में ।

    मैं ब्रह्मर्षियों में भूगु मुनि तथा राजर्षियों में मनु हूँ। देवर्षियों में मैं नारद मुनि तथा गौवों मेंकामशथेनु हूँ।

    सिद्धेश्वराणां कपिल: सुपर्णोहं पतत्रिणाम्‌ ।प्रजापतीनां दक्षोहं पितृणामहमर्यमा ॥

    १५॥

    सिद्ध-ईश्वराणाम्‌--सिद्धजनों में; कपिल:--कपिल भगवान्‌; सुपर्ण:--गरुड़; अहम्‌--मैं; पतत्रिणाम्‌-पक्षियों में;प्रजापतीनाम्‌--मनुष्यों के जनकों में; दक्षः--दक्ष; अहम्‌--मैं; पितृणाम्‌--पितरों में; अहम्‌ू--मैं; अर्यमा-- अर्यमा |

    मैं सिद्धों में भगवान्‌ कपिल तथा पक्षियों में गरुड़ हूँ। प्रजापतियों में मैं दक्ष तथा पितरों में अर्यमा हूँ।

    मां विद्धयुद्धव दैत्यानां प्रह्मदमसुरेश्चरम्‌ ।सोम॑ नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम्‌ ॥

    १६॥

    माम्‌--मुझको; विद्द्धि--जानो; उद्धव--हे उद्धव; दैत्यानामू--दिति-पुत्रों या असुरों में; प्रहादम्‌--प्रह्माद महाराज; असुर-ईश्वरम--असुरों के ईश्वर; सोमम्‌--चन्द्रमा; नक्षत्र-ओषधीनाम्‌--नक्षत्रों तथा औषधियों में; धन-ईशम्‌--धन के स्वामी, कुबेर;यक्ष-रक्षसाम्‌--यक्षों तथा राक्षसों में |

    हे उद्धव, तुम मुझे दिति के असुर पुत्रों में असुरों का साधु-स्वामी प्रह्मद महाराज जानो। मैंनक्षत्रों तथा औषधियों में उनका स्वामी चन्द्र हूँ और यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुवेरहूँ।

    ऐरावतं गजेन्द्राणां यादसां वरुण प्रभुम्‌ ।तपतां झ्युमतां सूर्य मनुष्याणां च भूषतिम्‌ ॥

    १७॥

    ऐरावतम्‌--ऐरावत नामक हाथी; गज-इन्द्राणाम्‌ू--राजसी हाथियों में; यादसाम्‌ू--जलचरों में; वरुणम्‌--वरुण; प्रभुम्‌--समुद्रोंका स्वामी; तपताम्‌--उष्मा उत्पन्न करने वाली वस्तुओं में; द्यु-मताम्‌-- प्रकाश करने वाली वस्तुओं में; सूर्यम्‌--सूर्य हूँ;मनुष्याणाम्‌-मनुष्यों में; च-- भी; भू-पतिम्‌--राजा |

    मैं राजसी हाथियों में ऐशबत और जलचरों में समुद्रों का अधिपति वरुण हूँ। समस्त उष्मातथा प्रकाश प्रदान करने वाली वस्तुओं में मैं सूर्य और मनुष्यों में राजा हूँ।

    उच्चै:श्रवास्तुरड्ञाणां धातूनामस्मि काझ्जननम्‌ ।यमः संयमतां चाहम्सर्पाणामस्मि वासुकि: ॥

    १८॥

    उच्चै: श्रवा: --उच्चै श्रवा नामक घोड़ा; तुरड्ञणाम्‌--घोड़ों में; धातूनाम्‌ू-- धातुओं में; अस्मि--हूँ; काञ्ननम्‌--सोना; यम: --यमराज; संयमताम्‌--दंड देने वालों तथा दमन करने वालों में; च-- भी; अहम्‌--मैं; सर्पाणाम्‌ू--सर्पो में; अस्मि--हूँ;वासुकि:--वासुकि

    घोड़ों में मैं उच्चै भ्रवा तथा धातुओं में स्वर्ण हूँ। दंड देने वालों तथा दमन करने वालों में मैंयमराज हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ।

    नागेन्द्राणामनन्तोहं मृगेन्द्र: श्रृड्धिदंष्टिणाम्‌ ।आश्रमाणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोइनघ ॥

    १९॥

    नाग-इन्द्राणामू--अनेक फनों वाले श्रेष्ठ सर्पों में; अनन्तः--अनन्तदेव; अहम्‌--मैं; मृग-इन्द्र: --सिंह; श्रृ्धि-दंष्टिणाम्‌--पैनेसींग तथा दाँत वाले पशुओं में; आश्रमाणामू--चारों आश्रमों में; अहम्‌--मैं; तुर्य:--चौथा, संन्यास; वर्णानामू--चार वृत्तिपरकवर्णो में; प्रथम:--प्रथम, ब्राह्मण; अनघ--हे निष्पाप।

    हे निष्पाप उद्धव, श्रेष्ठ सर्पो में मैं अनन्तदेव हूँ और पैने सींग तथा दाँत वाले पशुओं में मैंसिंह हूँ। आश्रमों में मैं चौथा आश्रम अर्थात्‌ संन्यास आश्रम हूँ और चारों वर्णों में प्रथम वर्णअर्थात्‌ ब्राह्मण हूँ।

    तीर्थानां स्त्रोतसां गड़ा समुद्र: सरसामहम्‌ ।आयुधानां धनुरहं त्रिपुरध्नो धनुष्मताम्‌ ॥

    २०॥

    तिर्थानाम्‌-तीर्थस्थानों में; स्नोतसाम्‌-सोतों या प्रवहमान वस्तुओं में; गड्भा--पवित्र गंगा; समुद्र: --समुद्र; सरसाम्‌--स्थिरजलाशयों में; अहम्‌--मैं; आयुधानाम्‌--हथियारों में; धनु;:--धनुष; अहम्‌--मैं; त्रि-पुर-घ्त:--शिवजी; धनु:-मताम्‌--धनुर्धारियों में

    पवित्र तथा प्रवहमान वस्तुओं में मैं पवित्र गंगा हूँ और स्थिर जलाशयों में समुद्र हूँ। हथियारोंमें मैं धनुष और हथियार चलाने वालों में मैं त्रिपुरारि शिव हूँ।

    धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालय: ।वनस्पतीनामश्चवत्थ ओषधीनामहं यव: ॥

    २१॥

    धिष्ण्यानामू--आवास; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं; मेर:--सुमेरु पर्वत; गहनानाम्‌--दुर्गम स्थानों में; हिमालय:--हिमालय;वनस्पतीनाम्‌--वृक्षों में; अश्वत्थ:--बरगद का वृक्ष; ओषधीनाम्‌ू--पौधों में; अहम्‌--मैं; यवः--जौ निवासस्थानों में मैं सुमेरु पर्वत हूँ और दुर्गम स्थानों में हिमालय हूँ।

    वृक्षों में मैं पवित्र वट-वृक्ष तथा धान्यों में मैं जौ ( यव ) हूँ।

    पुरोधसां वसिष्ठो हं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पति: ।स्कन्दोउहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानज: ॥

    २२॥

    पुरोधसाम्‌--पुरोहितों में; वसिष्ठ: --वसिष्ठ मुनि; अहम्‌--मैं हूँ; ब्रह्रिष्ठानामू--वैदिक निष्कर्ष को मानने वालों में; बृहस्पति: --देवताओं के गुरु; स्कन्दः--कार्तिकेय; अहम्‌--मैं हूँ; सर्व-सेनान्यामू--समस्त सेनानियों में; अग्रण्याम्‌--पवित्र जीवन मेंअग्रणियों में; भगवान्‌ू--महापुरुष; अज: --ब्रह्मा |

    पुरोहितों में मैं वसिष्ठ मुनि और वैदिक संस्कृति के अग्रगण्यों में बृहस्पति हूँ। मैं महान्‌सेनानियों में स्कन्‍्द और उच्च जीवन बिताने वालों में महापुरुष ब्रह्मा हूँ।

    यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोहं ब्रतानामविहिंसनम्‌ ।वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचि: ॥

    २३॥

    यज्ञानामू--यज्ञों में; ब्रह्म-यज्ञ:--वेदाध्ययन; अहम्‌--मैं हूँ; ब्रतानाम्‌-ब्रतों में; अविहिंसनम्‌--अहिंसा; वायु--वायु, हवा;अग्नि--आग; अर्क--सूर्य; अम्बु--जल; वाक्‌--तथा वाणी; आत्मा--साक्षात्‌; शुच्चीनाम्‌ू--पवित्र करने वालों में; अपि--निस्सन्देह; अहम्‌-मैं हूँ; शुचिः--शुद्ध

    यज्ञों में मैं वेदाध्यपन और ब्रतों में अहिंसा हूँ। पवित्र करने वाली सभी वस्तुओं में मैं वायु,अग्नि, सूर्य, जल तथा वाणी हूँ।

    योगानामात्मसंरोधो मन्त्रोस्मि विजिगीषताम्‌ ।आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्प: ख्यातिवादिनाम्‌ ॥

    २४॥

    योगानाम्‌ू--योगाभ्यास की आठ अवस्थाओं ( अष्टांग ) में; आत्म-संरोध: --अन्तिम अवस्था, समाधि जिसमें आत्मा मोह से मुक्तहो जाता है; मन्त्रः--कुशल सलाहकार; अस्मि--मैं हूँ; विजिगीषताम्‌ू--विजय चाहने वालों में; आन्वीक्षिकी-- आध्यात्मिकविज्ञान जिसके बल पर पदार्थ तथा आत्मा में अन्तर किया जा सकता है; कौशलानाम्‌--दक्ष विवेक की समस्त विधियों में;विकल्प: --अनुभूति वैविध्य; ख्याति-वादिनामू--निर्विशेषवादियों में |

    मैं योग की आठ उत्तरोत्तर अवस्थाओं में से अन्तिम अवस्था--समाधि--हूँ जिसमें आत्मामोह से पूर्णतया पृथक्‌ हो जाता है। विजय की आकांक्षा रखने वालों में मैं कुशल राजनीतिकसलाहकार हूँ और दक्ष विवेकी विधियों में मैं आत्मज्ञान हूँ जिसके द्वारा पदार्थ से आत्मा कोविभेदित किया जाता है। मैं समस्त निर्विशेषवादियों ( ज्ञानियों ) में अनु भूति-वैविध्य हूँ।

    स्त्रीणां तु शतरूपाहं पुंसां स्वायम्भुवो मनु: ।नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम्‌ ॥

    २५॥

    स््रीणाम्‌-स्त्रियों में; तु--निस्सन्देह; शतरूपा--शतरूपा; अहम्‌--मैं हूँ; पुंसामू--पुरुषों में; स्वायम्भुव: मनु:--महान्‌ प्रजापतिस्वायंभुव मनु; नारायण: --नारायण मुनि; मुनीनाम्‌--मुनियों में; च-- भी; कुमार: --सनत्कुमार; ब्रह्मचारिणाम्‌--ब्रह्मचारियोंमें,मैं

    स्त्रियों में शतरूपा और पुरुषों में उसका पति स्वायम्भुव मनु हूँ। मुनियों में मैं नारायण हूँऔर ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ।

    धर्माणामस्मि सन्न्यास: क्षेमाणामबहिर्मति: ।गुह्यानां सुनृतं मौन मिथुनानामजस्त्वहम्‌ ॥

    २६॥

    धर्माणाम्‌-धार्मिक सिद्धान्तों में; अस्मि--हूँ; सन््यास:--सन्यास, वैराग्य; क्षेमाणाम्‌--समस्त प्रकार की सुरक्षा में; अबहिः-मतिः--अन्तर की ( आत्मा की ) सतर्कता; गुह्मानाम्‌--सारे रहस्यों में; सुनृतम्‌--मधुर वाणी; मौनम्‌--मौन, चुप्पी;मिथुनानाम्‌ू-मिथुनरत युग्म; अज:--आदि प्रजापति, ब्रह्मा; तु--निस्सन्देह; अहम्‌--मैं हूँ

    धार्मिक सिद्धान्तों में मैं संन्यास हूँ और समस्त प्रकार की सुरक्षा में अन्तस्थ नित्य आत्मा कीचेतना हूँ। रहस्यों में मैं मधुर वाणी तथा मौन हूँ तथा सम्भोगरत युम्मों में ब्रह्मा हूँ।

    संवत्सरोस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ ।मासानां मार्गशीर्षोहं नक्षत्राणां तथाभिजित्‌ ॥

    २७॥

    संवत्सर:--वर्ष; अस्मि--हूँ; अनिमिषाम्‌--काल के सतर्क चक्रों में; ऋतूनामू--ऋतुओं में; मधु-माधवौ--वसन्त; मासानाम्‌--महीनों में; मार्गशीर्ष :--मार्गशीर्ष, माघ ( नवम्बर-दिसम्बर ); अहम्‌--मैं हूँ; नक्षत्राणाम्‌--नक्षत्रों में; तथा--उसी प्रकार;अभिजित्‌--- अभिजित नामकसतर्क

    कालचक्रों में मैं वर्ष हूँ और ऋतुओं में वसन्‍्त हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष तथा नक्षत्रों मेंशुभ अभिजित हूँ।

    अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोडसितः ।द्वैपायनोस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान्‌ ॥

    २८॥

    अहमू--ैं; युगानाम्‌--युगों में; च-- भी; कृतम्‌--सत्ययुग; धीराणाम्‌--स्थिर मुनियों में; देवल:--देवल; असित:-- असित;द्वैषायन:--कृष्ण द्वैषायन; अस्मि--हूँ; व्यासानाम्‌--वेदों के संग्रहकर्ताओं में; कवीनाम्‌--विद्वानों में; काव्य:--शुक्राचार्य ;आत्म-वान्‌--आध्यात्मिक विज्ञान में दक्ष |

    युगों में मैं सत्ययुग और स्थिर मुनियों में देवल तथा असित हूँ। वेदों का विभाजन करनेवालों में मैं कृष्ण द्वैषायन वेदव्यास हूँ और विद्वानों में मैं आध्यात्मिक विज्ञान का ज्ञाताशुक्राचार्य हूँ।

    वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम्‌ ।किम्पुरुषानां हनुमान्विद्याश्राणां सुदर्शन: ॥

    २९॥

    वासुदेव:-- भगवान्‌; भगवताम्‌-- भगवान्‌ नाम के अधिकारियों में; त्वम्‌ू--तुम; तु--निस्सन्देह; भागवतेषु--मेरे भक्तों में;अहमू-ैं हूँ; किम्पुरुषाणाम्‌--किम्पुरुषों में; हनुमान्‌ू--हनुमान; विद्याध्राणाम्‌--विद्याधरों में; सुदर्शन:--सुदर्शन |

    भगवान्‌ नाम के अधिकारियों में मैं वासुदेव हूँ तथा हे उद्धव, तुम निस्सन्देह भक्तों में मेराप्रतिनिधित्व करते हो। मैं किम्पुरुषों में हनुमान हूँ और विद्याधरों में सुदर्शन हूँ।

    रत्नानां पद्दरागोउस्मि पद्यकोशः सुपेशसाम्‌ ।कुशोस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविःष्वहम्‌ ॥

    ३०॥

    रलानाम्‌--रत्ों में; पढ्-राग:--लाल; अस्मि--हूँ; पद्य-कोश:ः --कमल की कली; सु-पेशसाम्‌--सुन्दर वस्तुओं में; कुश:--पवित्र कुश नामक तृण; अस्मि--हूँ; दर्भ-जातीनाम्‌ू--सभी प्रकार के तृणों में; गव्यम्‌--गायसे प्राप्त पदार्थ; आज्यम्‌--घी कीआहुति; हविःषु--हवियों में; अहम्‌--मैं हूँ।

    रत्नों में मैं लाल हूँ और सुन्दर वस्तुओं में कमल की कली हूँ। सभी प्रकार के तृणों में मैंपवित्र कुश हूँ और आहुतियों में घी तथा गाय से प्राप्त होने वाली अन्य सामग्री हूँ।

    व्यवसायिनामहं लक्ष्मी: कितवानां छलग्रह: ।तितिक्षास्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत््त्वतवामहम्‌ ॥

    ३१॥

    व्यवसायिनाम्‌-व्यापारियों में; अहम्‌--मैं हूँ; लक्ष्मी:-- लक्ष्मी; कितवानाम्‌ू--कपट करने वालों में; छल-ग्रह:--जुए का खेल;तितिक्षा--क्षमाशीलता; अस्मि--हूँ; तितिक्षूणाम्‌--सहिष्णुओं में; सत्त्वम्‌--अच्छाई; सत्त्व-वताम्‌--सतोगुणियों में; अहम्‌ू--मैंहूँ

    व्यापारियों में मैं लक्ष्मी हूँ और कपट करने वालों में मैं जुआ ( द्यूत क्रीड़ा ) हूँ। सहिष्णुओं मेंमैं क्षमाशीलता और सतोगुणियों में सदगुण हूँ।

    ओज: सहो बलवतां कर्माह विद्धि सात्वताम्‌ ।सात्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहें पर ॥

    ३२॥

    ओज:--ऐन्द्रिय बल; सह:--तथा मानसिक बल; बलवताम्‌--बलवानों में; कर्म--भक्तिमय कर्म; अहम्‌--मैं; विद्धि--जानो;सात्वताम्‌-भक्तों में; सात्वताम्‌- भक्तों में; नव-मूर्तीनाम्‌ू--मेंरे नौ रूपों में पूजा करने वाला; आदि-मूर्तिः:--आदि रूप,वासुदेव; अहम्‌--मैं हूँ; परा--परम |

    बलवानों में मैं शारीरिक तथा मानसिक बल हूँ और अपने भक्तों का भक्तिमय कर्म हूँ। मेरेभक्तगण मेरी पूजा नौ विभिन्न रूपों में करते हैं जिनमें से मैं आदि तथा प्रमुख वासुदेव हूँ।

    विश्वावसु: पूर्वचित्तिर्गन्धर्वाप्सससामहम्‌ ।भूधराणामहं स्थेर्य गन्धमात्रमहं भुवः ॥

    ३३॥

    विश्वावसु:--विश्वावसु; पूर्वचित्ति:--पूर्वचित्ति; गन्धर्व-अप्सरसाम्‌--गन्धर्वों तथा अप्सराओं में; अहम्‌--मैं हूँ; भूधराणाम्‌--पर्वतों में; अहम्‌-- मैं हूँ; स्थैर्यम्‌--स्थिरता; गन्ध-मात्रम्‌--गन्ध की अनुभूति; अहम्‌--मैं हूँ; भुव:ः--पृथ्वी की

    मैं गन्धर्वों में विश्वावसु तथा स्वर्गिक अप्सराओं में पूर्वचित्ति हूँ। मैं पर्वतों की स्थिरता तथापृथ्वी की सुगन्ध हूँ।

    अपां रसश्न परमस्तेजिष्ठानां विभावसु: ।प्रभा सूर्येन्दुताराणां शब्दोहं नभसः पर: ॥

    ३४॥

    अपाम्‌--जल का; रसः--स्वाद; च-- भी; परम: --सर्व श्रेष्ठ; तेजिष्ठानाम्‌ू-- अत्यन्त तेजवान वस्तुओं में; विभावसु:--सूर्य ;प्रभा--तेज; सूर्य--सूर्य का; इन्दु--चन्द्रमा; ताराणाम्‌ू--तथा तारों में; शब्दः -- ध्वनि; अहम्‌--मैं हूँ; नभस:ः--आकाश का;'परः--दिव्य |

    मैं जल का मधुर स्वाद हूँ और चमकीली वस्तुओं में सूर्य हूँ। मैं सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों काप्रकाश हूँ और आकाश में ध्वनित होने वाला दिव्य शब्द हूँ।

    ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुन: ।भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसड्क्रम: ॥

    ३५॥

    ब्रह्मण्यानाम्‌ू--ब्राह्मण संस्कृति के उपासकों में; बलि:--विरोचन का पुत्र, बलि महाराज; अहमू--मैं हूँ; वीराणाम्‌--वीरों में;अहमू-मैं हूँ; अर्जुन: --अर्जुन; भूतानाम्‌ू--समस्त जीवों का; स्थितिः:--पालन-पोषण; उत्पत्ति:--उत्पत्ति; अहम्‌--मैं हूँ; बै--निस्सन्देह; प्रतिसड्क्रम: --संहार

    ब्राह्मण संस्कृति के उपासकों में मैं विरोच्न-पुत्र बलि महाराज हूँ और वीरों में अर्जुन हूँ।निस्सन्देह, मैं समस्त जीवों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हूँ।

    गत्युक्त्युत्सगोपादानमानन्दस्पर्शलक्षनम्‌ ।आस्वादश्रुत्यवध्राणमहं सर्वेन्द्रियेन्द्रियम्‌ ॥

    ३६॥

    गति--पाँवों की हरकत ( चलना, दौना आदि ); उक्ति--वाणी; उत्सर्ग--वीर्यस्खलन; उपादानम्‌--हाथों से ग्रहण करना;आनन्द--जननांगों का भौतिक सुख; स्पर्श--स्पर्श; लक्षणम्‌--दृष्टि; आस्वाद--स्वाद; श्रुति--सुनना; अवप्राणम्‌--महक,सुगन्ध; अहम्‌--मैं हूँ; सर्व-इन्द्रिय--सारी इन्द्रियों के; इन्द्रियमू--उनके विषयों को अनुभव करने की शक्तिमैं पाँच कर्मेन्द्रयों--पाँव, वाणी, गुदा, हाथ तथा जननांग--के साथ ही पाँच ज्ञानेन्द्रियों--स्पर्श, दृष्टि, स्वाद, श्रवण तथा गन्ध--का कार्यकलाप हूँ।

    मैं शक्ति भी हूँ जिससे प्रत्येक इन्द्रियअपने अपने इन्द्रिय-विषय का अनुभव करती है।

    पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान्‌ ।विकार: पुरुषोव्यक्त रज: सत्त्वं तमः परम्‌ ।अहमेतत्प्रसड्ख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः ॥

    ३७॥

    पृथिवी--पृथ्वी का सूक्ष्म रूप, गंध; वायु:--वायु का सूक्ष्म रूप, स्पर्श आकाश:--आकाश का सूक्ष्म रूप, ध्वनि; आप:--जल का सूक्ष्म रूप, स्वाद; ज्योतिः--अग्नि का सूक्ष्म रूप, स्वरूप; अहम्‌--मिथ्या अहंकार; महान्‌--महत्‌ तत्त्व; विकार:--सोलह तत्त्व ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन ); पुरुष:--जीव; अव्यक्तम्‌--भौतिक प्रकृति; रज:--रजोगुण; सत्त्वम्‌--सतोगुण; तम:--तमोगुण; परम्‌--परमे श्वर; अहम्‌--मैं हूँ; एतत्‌--यह;प्रसड्ख्यानम्‌--उपर्युक्त; ज्ञाममू--उपर्युक्त तत्त्वों के लक्षणों का ज्ञान; तत्त्व-विनिश्चयः--हृढ़ संकल् पजो कि ज्ञान का फल है

    मैं स्वरूप, स्वाद, गंध, स्पर्श तथा ध्वनि; मिथ्या अहंकार, महत्‌ तत्त्व; पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु तथा आकाश; जीव, भौतिक प्रकृति; सतो, रजो तथा तमोगुण; एवं दिव्य भगवान्‌ हूँ। येसारी वस्तुएँ, इन सबों के लक्षण तथा इस ज्ञान से उत्पन्न हढ़ निश्चय भी मैं ही हूँ।

    मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना ।सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित्‌ ॥

    ३८ ॥

    मया--मुझ; ईश्वरण --परमे श्वर से; जीवेन--जीव से; गुणेन--प्रकृति के गुणों से; गुणिना--महत्‌ तत्त्व से; विना--रहित; सर्व-आत्मना--विद्यमान सबों की आत्मा; अपि--निस्सन्देह; सर्वेण--प्रत्येक वस्तु; न--नहीं; भाव:--उपस्थिति; विद्यते--है;क्वचित्‌--जो भीपरमेश्वर के रूप में

    मैं जीव, प्रकृति के गुणों तथा महत्‌ू-तत्त्व का आधार हूँ। इस प्रकार मैंसर्वस्व हूँ और कोई भी वस्तु मेरे बिना विद्यमान नहीं रह सकती।

    सड्ख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया ।न तथा मे विभूतीनां सृजतोण्डानि कोटिश: ॥

    ३९॥

    सड्ख्यानम्‌--गणना, गिनती; परम-अणूनाम्‌--अत्यन्त छोटे कणों की; कालेन--कुछ समय बाद; क्रियते--कर ली जाय;मया--मेरे द्वारा; न--नहीं; तथा--उसी प्रकार से; मे--मेरे; विभूतीनाम्‌--ऐश्वर्यों के; सृजतः--मेरे द्वारा निर्मित; अण्डानि--ब्रह्माण्ड; कोटिश:--करोड़ों

    भले ही मैं कुछ समय में ब्रह्माण्ड के समस्त अणुओं की गणना कर सकूँ, किन्तु असंख्यब्रह्माण्डों में प्रदर्शित अपने समस्त ऐ श्वर्यों की गणना मैं भी नहीं कर पाऊँगा।

    तेज: श्री: कीर्तिरैश्वर्य हीस्त्याग: सौभगं भग: ।वीर्य तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मेईशकः ॥

    ४०॥

    तेज:--तेज; श्री:--सुन्दर, महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ; कीर्ति:--यश; ऐश्वर्यम्‌--ऐश्वर्य; हीः--दीनता; त्याग:--वैराग्य; सौभगमू--मनतथा इन्द्रियों को प्रसन्न करने वाला; भग:--सौभाग्य; वीर्यम्‌--शक्ति; तितिक्षा--सहिष्णुता; विज्ञानम्‌--आध्यात्मिक ज्ञान; यत्रयत्र--जहाँ भी; सः--यह; मे--मेरा; अंशक:ः --अंश, विस्तार।

    जो भी शक्ति, सौन्दर्य, यश, ऐश्वर्य, दीनता, त्याग, मानसिक आनन्द, सौभाग्य, शक्ति,सहिष्णुता या आध्यात्मिक ज्ञान हो सकता है, वह सब मेरे ऐश्वर्य का अंश है।

    एतास्ते कीर्तिता: सर्वा: सड्क्षेपेण विभूतय: ।मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते ॥

    ४१॥

    एता:--ये; ते--तुमसे; कीर्तिता:--वर्णन किये गये; सर्वा:--सभी; सद्क्षेपेण --संक्षेप में; विभूतय:--आध्यात्मिक ऐश्वर्य;मनः--मन के; विकारा:--विकार; एव--निस्सन्देह; एते--ये; यथा--तदनुसार; वाचा--शब्दों से; अभिधीयते--प्रत्येक कावर्णन किया जाता है।

    मैंने तुमसे संक्षेप में अपने सारे आध्यात्मिक ऐ श्वर्यों तथा अपनी सृष्टि के उन अद्वितीय भौतिकगुणों का भी वर्णन किया, जो मन से अनुभव किये जाते हैं और परिस्थितियों के अनुसारविभिन्न तरीकों से परिभाषित होते हैं।

    वबाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान्यच्छेद्रियाणि च ।आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेध्वने ॥

    ४२॥

    वाचम्‌--वाणी को; यच्छ---संयम में रखो; मन: --मन को; यच्छ--संयम में रखो; प्राणान्‌ू--अपने श्वास को; यच्छ--संयम मेंरखो; इन्द्रियाणि--इन्द्रियों को; च--भी; आत्मानम्‌--बुद्धि को; आत्मना--विमल बुद्धि से; यच्छ--संयम में रखो; न--कभीनहीं; भूय: --फिर; कल्पसे--तुम नीचे गिरोगे; अध्वने--संसार के मार्ग पर |

    अतएव अपनी वाणी पर संयम रखो, मन को दमित करो, प्राण-वायु पर विजय पाओ,इन्द्रियों को नियमित करो तथा विमल बुद्धि के द्वारा अपनी विवेकपूर्ण प्रतिभा को अपने वश मेंकरो। इस तरह तुम पुनः भौतिक जगत के पथ पर कभी च्युत नहीं होगे।

    यो वै वाड्मनसी संयगसंयच्छन्धिया यतिः ।तस्य ब्रतं तपो दान स्त्रवत्यामघटाम्बुवत्‌ ॥

    ४३॥

    यः--जो; वै--निश्चय ही; वाकू-मनसी--वाणी तथा मन; संयक्‌--पूरी तरह; असंयच्छनू--नियंत्रण में न रखते हुए; धिया--बुद्धि से; यतिः--अध्यात्मवादी; तस्थ--उसका; ब्रतम्‌--ब्रत; तप:--तपस्या; दानम्‌--दान; स्त्रवति--बह जाता है; आम--कच्चे; घट--पात्र में; अम्बु-वत्‌--जल के समान।

    जो योगी अपनी श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा अपनी वाणी तथा मन पर पूरा नियंत्रण नहीं रखता, उसकेआध्यात्मिक ब्रत, तपस्या तथा दान उसी तरह बह जाते हैं जिस तरह कच्चे मिट्टी के घड़े से पानीबह जाता है।

    तस्माद्ब्वो मनः प्राणान्नियच्छेन्मत्पपायण: ।मद्धक्तियुक्तया बुद्धया ततः परिसमाप्यते ॥

    ४४॥

    तस्मात्‌ू--इसलिए; वच:--शब्द; मन:--मन; प्राणान्‌ू--तथा प्राणों को; नियच्छेत्‌--नियंत्रण में रखे; मत्‌-परायण: --मेरे प्रतिश्रद्धावान्‌; मत्‌--मुझ पर; भक्ति--भक्ति से; युक्तया--युक्त; बुद्ध --ऐसी बुद्धि से; ततः--इस प्रकार; परिसमाप्यते--जीवन-लक्ष्य पूरा करता है

    मेरे शरणागत होकर मनुष्य को वाणी, मन तथा प्राण पर नियंत्रण रखना चाहिए और तबभक्तिमयी बुद्धि के द्वारा वह अपने जीवन-लक्ष्य को पूरा कर सकेगा।

    TO

    17. कृष्ण द्वारा वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्णन

    श्रीउद्धव उबाचयस्त्वयाभिहित: पूर्व धर्मस्त्वद्धक्तिलक्षण: ।वर्णाशमाचारवतां सर्वेषां ट्विषदामपि ॥

    १॥

    यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्ति्नृणां भवेत्‌ ।स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तन्‍्ममाख्यातुमहसि ॥

    २॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यः--जो; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अभिहितः--कहा गया; पूर्वम्‌--पहले; धर्म:--धार्मिकसिद्धान्त; त्वत्‌ू-भक्ति-लक्षण:--अपनी भक्ति के लक्षणों से युक्त; वर्ण-आश्रम--वर्णा श्रम प्रणाली का; आचारवताम्‌--श्रद्धालु अनुयायियों के; सर्वेषामू--समस्त; द्वि-पदाम्‌--सामान्य मनुष्यों के ( जो वर्णाश्रम प्रणाली नहीं अपनाते ); अपि--भी;यथा--के अनुसार; अनुष्ठीयमानेन--सम्पन्न किये जाने की विधि; त्वयि--तुममें; भक्ति: --प्रेमा भक्ति; नृणाम्‌--मनुष्यों में;भवेत्‌--हो सके; स्व-धर्मेण-- अपने वृत्तिपरक कार्य से; अरविन्द-अक्ष--हे कमलनयन; तत्‌--वह; मम--मुझसे;आख्यातुम्‌--बतलाना; अर्हसि--तुम्हें चाहिए

    श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, इसके पूर्व आपने वर्णाश्रम प्रणाली के अनुयायियों द्वारा तथासामान्य अनियमित मनुष्यों द्वारा भी अनुकरण किये जाने वाले भक्ति के सिद्धान्तों का वर्णनकिया है। हे कमलनयन, अब कृपा करके मुझे बतलाइये कि इन नियत कर्तव्यों को समपन्नकरके सारे मनुष्य किस तरह आपकी प्रेमाभक्ति प्राप्त कर सकते हैं ? पुरा किल महाबाहो धर्म परमकं प्रभो ।यत्तेन हंसरूपेण ब्रह्मणे भ्यात्थ माधव ॥

    ३॥

    स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन ।न प्रायो भविता मर्त्यलोके प्रागनुशासितः ॥

    ४॥

    पुरा--प्राचीन काल में; किल--निस्सन्देह; महा-बाहो--हे बलशाली भुजाओं वाले; धर्मम्‌-धार्मिक नियमों को; परमकम्‌--महानतम सुख प्रदान करने वाला; प्रभो--हे प्रभु; यत्‌--जो; तेन--उससे; हंस-रूपेण--हंस के रूप में; ब्रह्मणे -- ब्रह्मा को;अभ्यात्थ--आपने कहा; माधव--हे माधव; सः--वही ( धर्म का ज्ञान ); इदानीम्‌--इस समय; सु-महता--अत्यन्त लम्बे;कालेन--समय के बाद; अमित्र-कर्शन--शत्रु के दमनकर्ता; न--नहीं; प्राय:--सामान्यतया; भविता--होगा; मर्त्य-लोके --मानव समाज में; प्राकू--पहले; अनुशासित:--उपदेश दिया गया।

    हे प्रभु, हे बलिप्ठ भुजाओं वाले, आपने इसके पूर्व अपने हंस रूप में ब्रह्माजी से उन धार्मिकसिद्धान्तों का कथन किया है, जो अभ्यासकर्ता को परम सुख प्रदान करने वाले हैं। हे माधव,तब से अब काफी काल बीत चुका है और हे शत्रुओं के दमनकर्ता, आपने जो उपदेश पहलेदिया था उसका महत्त्व शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा।

    वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि ।सभायामपि वैरिज्च्यां यत्र मूर्तिधरा: कला: ॥

    ५॥

    कत्रवित्रा प्रवक्‍त्रा च भवता मधुसूदन ।त्यक्ते महीतले देव विनष्ठटं कः प्रवक्ष्यति ॥

    ६॥

    वक्ता--बोलने वाला; कर्ता--सृजन करने वाला; अविता--रक्षक; न--नहीं; अन्य:--कोई दूसरा; धर्मस्य--सर्वोच्च धार्मिकनियमों का; अच्युत--हे अच्युत; ते--आपकी अपेक्षा; भुवि--पृथ्वी पर; सभायाम्‌--सभा में; अपि-- भी; वैरिउ्च्याम्‌--ब्रह्माकी; यत्र--जहाँ पर; मूर्ति-धरा:--साकार रूप में; कला:ः--वेद; कर्त्रा--कर्ता या स्तरष्टा द्वारा; अवित्रा--रक्षक द्वारा; प्रवक्‍त्रा--बोलने वाले के द्वारा, वक्ता द्वारा; च-- भी; भवता--आपके द्वारा; मधुसूदन--हे मधुसूदन; त्यक्ते--छोड़ देने पर; मही-तले--पृथ्वी पर; देव--मेरे स्वामी; विनष्टम्‌--वे विनष्ट हुए धर्म के नियम; क:--कौन; प्रवक्ष्यति--कहेगा ।

    हे अच्युत, इस पृथ्वी पर या ब्रह्म की सभा तक में, परम धार्मिक नियमों का आपके सिवाकोई ऐसा वक्ता, स्त्रष्टा तथा रक्षक नहीं है जहाँ साक्षात्‌ वेद निवास करते हैं। इस तरह हेमधुसूदन, जब आध्यात्मिक ज्ञान के स्त्रष्टा, रक्षक तथा प्रवक्ता आप ही पृथ्वी का परित्याग करदेंगे, तो इस विनष्ट ज्ञान को फिर से कौन बतलायेगा ? तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मस्त्वद्धक्तिलक्षण: ।यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो ॥

    ७॥

    तत्‌--इसलिए; त्वम्‌--तुम; न:ः--हम ( मनुष्यों ) के बीच; सर्व-धर्म-ज्ञ--हे धर्म के नियमों के परम ज्ञाता; धर्म: --आध्यात्मिकपथ; त्वतू-भक्ति--आपकी भक्ति से; लक्षण:--लक्षणों वाले; यथा--जिस तरह से; यस्य--जिसका; विधीयेत--सम्पन्न कियाजा सके; तथा--उस तरह से; वर्णय--कृपया वर्णन करें; मे--मुझसे; प्रभो--हे प्रभु

    अतएव हे प्रभु, समस्त धार्मिक नियमों का ज्ञाता होने के कारण आप मुझसे उन मनुष्यों कावर्णन करें जो आपके भक्ति-मार्ग को सम्पन्न कर सकें और यह भी बतायें कि ऐसी भक्ति कैसेकी जाती है? श्रीशुक उबाचइत्थं स्वभृत्यमुख्येन पृष्ठ: स भगवान्हरि: ।प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मानाह सनातनान्‌ ॥

    ८॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार; स्व-भृत्य-मुख्येन-- अपने श्रेष्ठ भक्तों द्वारा; पृष्ट: पूछेजाने पर; सः--वह; भगवानू-- भगवान्‌; हरि: -- श्रीकृष्ण; प्रीत:--प्रसन्न हुए; क्षेमाय--कल्याण के लिए; मर्त्यानामू--समस्तबद्धजीवों के; धर्मानू-- धार्मिक नियमों को; आह--कहा; सनातनानू--नित्य |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भक्त प्रवर, श्री उद्धव, ने इस तरह भगवान्‌ से प्रश्नकिया, तो यह सुन कर भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रसन्न हुए और उन्होंने समस्त बद्धजीवों के कल्याणहेतु उन धार्मिक नियमों को बतलाया जो शाश्वत हैं।

    श्रीभगवानुवाचधर्म्य एब तव प्रशनो ने:श्रेयसकरो नृणाम्‌ ।वर्णाश्रमाचारवतां तमुद्धव निबोध मे ॥

    ९॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; धर्म्य:--धर्म के प्रति आज्ञाकारी; एष:--यह; तव--तुम्हारा; प्रश्न:--प्रश्न; नै: श्रेयस-करः--शुद्ध भक्ति का कारण; नृणाम्‌ू--सामान्य मनुष्यों के लिए; वर्ण-आश्रम--वर्णा श्रम प्रणाली का; आचार-वताम्‌--पालन करने वालों के लिए; तम्‌--उन सर्वाच्च धार्मिक नियमों को; उद्धव--हे उद्धव; निबोध--सीखो; मे--मुझसे |

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, तुम्हारा प्रश्न धार्मिक नियमों के अनुकूल है, अतः यह सामान्यमनुष्यों को तथा वर्णाश्रम प्रणाली का पालन करने वाले दोनों ही को जीवन में सर्वोच्च सिद्धि,अर्थात्‌ शुद्ध भक्ति को जन्म देता है। अब तुम मुझसे उन परम धार्मिक नियमों को सीखो।

    आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः ।कृतकृत्या: प्रजा जात्या तस्मात्कृतयुगं विदु: ॥

    १०॥

    आदौ--( कल्प के ) प्रारम्भ में; कृत-युगे--सत्ययुग में; वर्ण: --सामाजिक श्रेणी; नृणाम्‌--मनुष्यों की; हंसः--हंस नामक;इति--इस प्रकार; स्मृतः--विख्यात; कृत-कृत्या:--परमे श्वर की पूर्ण शरणागति द्वारा कर्तव्यों केपालन में दक्ष; प्रजा:--जनता;जात्या--जन्म से; तस्मात्‌--इसलिए; कृत-युगम्‌--कृतयुग में अथवा ऐसे युग में जिसमें सारे कर्तव्य पूरे होते हैं; विदुः--विद्वानलोग जानते थे।

    प्रारम्भ में सत्ययुग में केवल एक सामाजिक श्रेणी थी जिसे हंस कहते थे जिससे सारे मनुष्यसम्बद्ध होते थे। उस युग में सारे लोग जन्म से शुद्ध भगवद्भक्त होते थे, इसलिए विद्वान लोगइस प्रथम युग को कृत-युग कहते हैं अर्थात्‌ ऐसा युग जिसमें सारे धार्मिक कार्य अच्छी तरह पूरेहोते हैं।

    वेद: प्रणव एवाग्रे धर्मोहं वृषरूपधृक्‌ ।उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषा: ॥

    ११॥

    बेदः--वेद; प्रणव:-- ओऊम नामक पवित्र अक्षर; एब--निस्सन्देह; अग्रे--सत्ययुग में; धर्म: --मानसिक कार्यों का लक्ष्य;अहम्‌-ैं; वृष-रूप-धृक्‌ -- धर्म रूप बैल का रूप धारण करके; उपासते--वे पूजा करते हैं; तपः-निष्ठा:--तप में रत;हंसम्‌-- भगवान्‌ हंस; माम्‌--मुझको; मुक्त--रहित; किल्बिषा:--सारे पापों से ।

    सत्ययुग में अविभाज्य वेद ओउम्‌ अक्षर ( ऊंकार ) द्वारा व्यक्त किया जाता है और मैं हीएकमात्र मानसिक कार्यों का लक्ष्य ( धर्म ) हूँ। मैं चार पैरों वाले धर्म रूपी बैल के रूप में प्रकटहोता हूँ जिससे सत्ययुग के निवासी, तपस्यानिष्ठ तथा पापरहित होकर, भगवान्‌ हंस के रूप मेंमेरी पूजा करते हैं।

    त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात्त्रयी ।विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मख: ॥

    १२॥

    त्रेता-मुखे--त्रेता युग के प्रारम्भ में; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; प्राणात्‌--प्राण के स्थान से; मे--मेरे; हृदयात्‌--हृदय से;त्रयी--तीन; विद्या--वैदिक ज्ञान; प्रादुरभूतू--प्रकट हुआ; तस्या:--उस ज्ञान से; अहम्‌--मैं; आसम्‌--प्रकट हुआ; त्रि-वृत्‌--तीन विभागों में; मख:--यज्ञ |

    हे परम भाग्यशाली, त्रेता युग के प्रारम्भ में, प्राण के स्थान से, जो कि मेरा हृदय है, वैदिकज्ञान तीन विभागों में प्रकट हुआ--ये हैं--ऋग, साम तथा यजु:। तत्पश्चात्‌ उस ज्ञान से मैं तीनयज्ञों के रूप में प्रकट हुआ।

    विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरूपादजा: ।वैराजात्पुरुषाजञाता य आत्माचारलक्षणा: ॥

    १३॥

    विप्र--ब्राह्मण; क्षत्रिय--क्षत्रिय; विटू--वैश्य; शूद्रा:--शूद्र, मजदूर; मुख--मुँह; बाहु-- भुजाओं; ऊरू--जाँघों; पाद--तथापाँवों से; जा:--उत्पन्न; वैराजातू--विराट रूप से; पुरुषात्‌-- भगवान्‌ से; जाता:--उत्पन्न; ये--जो; आत्म--निजी; आचार--कार्यकलाप द्वारा; लक्षणा: --पहचाने जाते हैं।

    त्रेता युग में भगवान्‌ के विराट रूप से चार जातियाँ प्रकट हुईं। ब्राह्मण भगवान्‌ के मुँह से,क्षत्रिय भगवान्‌ की बाँहों से, वैश्य भगवान्‌ के जंघों से तथा शूद्र उस विराट रूप के पाँवों से प्रकट हुए। प्रत्येक विभाग को उसके विशिष्ट कर्तव्यों तथा आचार-व्यवहारसे पहचाना गया।

    गृहा भ्रमो जघनतो ब्रह्मचर्य हृदो मम ।वक्ष:स्थलादइ्नेवास: सन्न्यास: शिरसि स्थित: ॥

    १४॥

    गृह-आश्रम: --विवाहित जीवन; जघनतः:--जाँघों से; ब्रह्मचर्यम्‌--विद्यार्थी जीवन; हृदः--हृदय से; मम--मेरे; वक्षः-स्थलात्‌--वक्षस्थल से; बने--जंगल में; वास:--निवास करते हुए; सन्न्यास:--संन्यास आश्रम; शिरसि--सिर पर; स्थित:--स्थित।

    विवाहित जीवन मेरे विश्व रूप के जघन प्रदेश से प्रकट हुआ और ब्रह्मचारी विद्यार्थी मेरेहृदय से निकले। जंगल में निवास करने वाला विरक्त जीवन मेरे वक्षस्थल से प्रकट हुआ तथासंन्यास मेरे विश्व रूप के सिर के भीतर स्थित था।

    वर्णानामाश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणी: ।आसम्प्रकृतयो नूनां नीचैर्नीचोत्तमोत्तमा: ॥

    १५॥

    वर्णानाम्‌--वृत्तिपरक विभागों में; आश्रमाणाम्‌--सामाजिक विभागों में; च-- भी; जन्म--जन्म; भूमि--स्थान के;अनुसारिणी:--के अनुसार; आसनू--प्रकट हुए; प्रकृतयः--प्रकृतियाँ; नृणाम्‌--मनुष्यों में; नीचैः --निम्न पृष्ठभूमि द्वारा;नीच--नीच प्रकृति; उत्तम- श्रेष्ठ पृष्ठभूमि द्वारा; उत्तमाः--उत्तम प्रकृतियाँ |

    प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के समय की निम्न तथा उच्च प्रकृतियों के अनुसार मानव समाज केविविध वृत्तिपरक ( वर्ण ) तथा सामाजिक ( आश्रम ) विभाग प्रकट हुए।

    शमो दमस्तपः शौचं सन्‍तोष: क्षान्तिराजवम्‌ ।मद्धक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमा: ॥

    १६॥

    शमः--शान्ति; दम: --इन्द्रिय-संयम; तप:--तपस्या; शौचम्‌--शुद्द्धि; सन्‍्तोष: --पूर्ण सन्तुष्टि; क्षान्तिः-- क्षमाशीलता;आर्जवम्‌--सादगी, सीधापन; मत्‌-भक्ति:--मेरी भक्ति; च-- भी; दया--दया; सत्यम्‌--सत्य; ब्रह्म--ब्राह्मणों के; प्रकृतय:--स्वाभाविक गुण; तु--निस्सन्देह; इमाः--ये

    शान्ति, आत्मसंयम, तपस्या, शुद्धि, सन्‍्तोष, सहनशीलता, सहज स्पष्टवादिता, मेरी भक्ति,दया तथा सत्य--ये ब्राह्मणों के स्वाभाविक गुण हैं।

    तेजो बलं॑ धृति: शौर्य तितिक्षौदार्यमुद्यम: ।स्थेर्य ब्रह्मन्यमैश्वर्य क्षत्रप्रकृतयस्त्विमा: ॥

    १७॥

    तेज:--तेज; बलमू--शारीरिक बल; धृति:--संकल्प; शौर्यम्‌--शूरवीरता; तितिक्षा--सहिष्णुता; औदार्यम्‌--उदारता;उद्यम: --प्रयतल; स्थैर्यमू--स्थिरता; ब्रह्मण्यम्‌--ब्राह्मणों की सेवा के लिए सदैव तत्पर; ऐश्वर्यम्‌--नायकत्व; क्षत्र--श्षत्रियों के;प्रकृतयः--स्वाभाविक गुण; तु--निस्सन्देह; इमा:--ये |

    तेजस्विता, शारीरिक बल, संकल्प, बहादुरी, सहनशीलता, उदारता, महान्‌ प्रयास, स्थिरता,ब्राह्मणों के प्रति भक्ति तथा नायकत्व--ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।

    आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदम्भो ब्रह्मसेवनम्‌ ।अठुष्टिरथोपचर्यवैंश्यप्रकृतयस्त्विमा: ॥

    १८॥

    आस्तिक्यम्‌--वैदिक सभ्यता में विश्वास; दान-निष्ठा--दानशीलता; च-- भी; अदम्भ:--दिखावटीपन का अभाव; ब्रह्म-सेवनम्‌-ब्राह्मणों की सेवा; अतुष्टि:--असंतुष्ट रहने का भाव; अर्थ--धन का; उपचयै: --संग्रह द्वारा; वैश्य--वैश्य के;प्रकृतयः--स्वाभाविक गुण; तु--निस्सन्देह; इमा:--ये |

    वैदिक सभ्यता में विश्वास, दानशीलता, दिखावे से दूर रहना, ब्राह्मणों की सेवा करना तथाअधिकाधिक धन संचय की निरन्तर आकांक्षा--ये वैश्यों के प्राकृतिक गुण हैं।

    शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया ।तत्र लब्धेन सनन्‍्तोषः शूद्रप्रकृतयस्त्विमा: ॥

    १९॥

    शुश्रूषणम्‌--सेवा; द्विज--ब्राह्मणों की; गवाम्‌--गौवों की; देवानामू--देवताओं तथा गुरु जैसे पूज्य पुरुषों की; च-- भी;अपि--निस्सन्देह; अमायया--निष्कपट; तत्र--उस सेवा में; लब्धेन--प्राप्त हुए के द्वारा; सन्‍्तोष:--पूर्ण तुष्टि; शूद्र-शूद्रों के;प्रकृतयः--स्वाभाविक गुण; तु--निस्सन्देह; इमा:--ये |

    ब्राह्मणों, गौवों, देवताओं तथा अन्य पूज्य पुरुषों की निष्कपट सेवा तथा ऐसी सेवा करने सेजो भी आमदनी हो जाय उससे पूर्ण तुष्टि--ये शूद्रों के स्वाभाविक गुण हैं।

    अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रह: ।कामः क्रोधश्व तर्षश्च स भावोन्त्यावसायिनाम्‌ ॥

    २०॥

    अशौचम्‌--गंदा रहना; अनृतम्‌--बेईमानी; स्तेयम्‌--चोरी; नास्तिक्यमू--नास्तिकता; शुष्क-विग्रह: --व्यर्थ का लड़ाई-झगड़ा;कामः--विषय-भोग, वासना; क्रोध:--क्रो ध; च-- भी; तर्ष:--लालसा; च-- भी; सः--यह; भाव: --स्वभाव, प्रकृति;अन्तय--निम्नतम पद में; अवसायिनामू--रहने वालों के |

    अस्वच्छता, बेईमानी, चोरी करना, नास्तिकता, व्यर्थ झगड़ना, काम, क्रोध एवं तृष्णा--ये उनके स्वभाव हैं, जो वर्णाश्रम प्रणाली के बाहर निम्नतम पद पर हैं।

    अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता ।भूतप्रियहितेहा च धर्मोउयं सार्ववर्णिक: ॥

    २१॥

    अहिंसा--अहिंसा; सत्यम्‌--सत्य; अस्तेयम्‌ू--ईमानदारी; अ-काम-क्रोध-लोभता--काम, क्रोध तथा लोभ से रहित होना;भूत--सारे जीवों के; प्रिय--सुख; हित--तथा कल्याण; ईहा--कामना; च--भी; धर्म:--कर्तव्य; अयमू--यह; सार्व-वर्णिक: --समाज के सारे सदस्यों के लिए॥

    अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, अन्यों के लिए सुख तथा कल्याण की इच्छा एवं काम, क्रोधतथा लोभ से मुक्ति--ये समाज के सभी सदस्यों के कर्तव्य हैं।

    द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्याज्जन्मोपनयन द्विज: ।वसन्गुरुकुले दान्तो ब्रह्माधीयीत चाहूत: ॥

    २२॥

    द्वितीयम्‌--दूसरा; प्राप्प--पाकर; आनुपूर्व्यात्‌--क्रमिक संस्कार-विधि से; जन्म--जन्म; उपनयनम्‌-- गायत्री दीक्षा; द्विज:--समाज का द्विजन्मा सदस्य; वसन्‌ू--वास करते हुए; गुरु-कुले--गुरु के आश्रम में; दान्तः--आत्म-नियंत्रित; ब्रहा--वैदिकवाड्मय; अधीयीत--अध्ययन करे; च--तथा समझे भी; आहूत:--तथा गुरु द्वारा बुलाये जाने पर।

    समाज का द्विजन्मा सदस्य संस्कारों के द्वारा गायत्री दीक्षा होने पर दूसरा जन्म प्राप्त करताहै। गुरु द्वारा बुलाये जाने पर उसे गुरु के आश्रम में रहना चाहिए और आत्मनियंत्रित मन सेसावधानी से वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए।

    मेखलाजिनदण्डाक्षब्रह्मसूत्रकमण्डलून्‌ ।जटिलोधौतदद्वासो रक्तपीठ: कुशान्द्धत्‌ ॥

    २३॥

    मेखला--पेटी; अजिन--मृगचर्म; दण्ड--डंडा; अक्ष--गुरियों की माला; ब्रह्म-सूत्र--ब्राह्मण का जनेऊ; कमण्डलूनू--तथा'कमण्डल या जलपात्र; जटिल:--जटा; अधौत--बिना पालिश किया या सफेद किया या इस्त्री किया; दत्‌ू-वास:--दाँत तथावस्त्र; अरक्त-पीठ:--विलासमय या विषयी आसन स्वीकार किये बिना; कुशान्‌ू--कुश तृण; दधत्‌--हाथ में लिए हुएब

    ्रह्मचारी को नियमित रूप से मूँज की पेटी तथा मृगचर्म के वस्त्र धारण करने चाहिए। उसेजटा रखनी चाहिए और दंड तथा कमंडल धारण करना चाहिए। उसे अक्ष के मनके तथा जनेऊधारण करना चाहिए। अपने हाथ में शुद्ध कुश लिए हुए, उसे कभी भी कोई विलासपूर्ण याउत्तेजक आसन ग्रहण नहीं करना चाहिए। उसे व्यर्थ दाँत नहीं चमकाना चाहिए न ही अपने वस्त्रोंसे रंग उड़ाना या उन पर लोहा ( इस्त्री ) करना चाहिए।

    स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः ।न च्छिन्द्यान्नखरोमाणि कक्षोपस्थगतान्यपि ॥

    २४॥

    स्नान--स्नान करते; भोजन-- भोजन करते; होमेषु--तथा यज्ञ करते; जप--मन में मंत्रों का जाप करते; उच्चारे--मल-मूत्रविसर्जन करते समय; च-- भी; वाक्‌ू-यत:--मौन रह कर; न--नहीं; छिन्द्यात्‌--काटे; नख--नाखुन; रोमाणि-- अथवा बाल;कक्ष--बगल ( काँख ) के; उपस्थ--गुप्तांग; गतानि--के सहित; अपि--भी |

    ब्रह्मचारी को चाहिए कि स्नान करते, खाते, यज्ञ करते, जप करते या मल-मूत्र विसर्जनकरते समय, सदैव मौन रहे। वह अपने नाखुन तथा काँख एवं गुप्तांग सहित किसी अंग के बाल नहीं काटे।

    रेतो नावकिरेज्ञातु ब्रह्मत्रतधर: स्वयम्‌ ।अवकीरेेंवगाह्माप्सु यतासुस्त्रिपदां जपेतू ॥

    २५॥

    रेत:--वीर्य; न--नहीं; अवकिरेत्‌--पतन करे; जातु--कभी; ब्रह्म-ब्रत-धर: --ब्रह्मचर्यत्रत धारण करने वाला, ब्रह्मचारी;स्वयम्‌--स्वयं; अवकीर्णे--पतन हो जाने पर; अवगाह्म--स्नान करके; अप्सु--जल में; यत-असु: --प्राणायाम्‌ द्वारा श्वास रोककर; त्रि-पदाम्‌-गायत्री मंत्र का; जपेत्‌--जप करे

    ब्रह्मचर्य त्रत का पालन करते हुए वह कभी वीर्यपात न करे। यदि संयोगवश वीर्य स्वतःनिकल जाय, तो ब्रह्मचारी तुरन्त जल में स्नान करे, प्राणायाम द्वारा अपना श्वास रोके और गायत्रीमंत्र का जप करे।

    अग्न्यर्काचार्यगोविप्रगुरुवृद्धसुराब्शुचि: ।समाहित उपासीत सन्ध्ये द्वे यतवाग्जपन्‌ ॥

    २६॥

    अग्नि--अग्निदेव; अर्क--सूर्य; आचार्य--आचार्य; गो--गाय ; विप्र--ब्राह्मण; गुरु--गुरु; वृद्ध--सम्माननीय गुरुजन;सुरानू--देवताओं को; शुच्रिः:--पवित्र; समाहित:--स्थिर चेतना से; उपासीत--पूजा करे; सन्ध्ये--संध्या-समय; द्वे--दो; यत-वाक्‌--मौन रखते हुए; जपन्‌--मौन होकर जपने या उचित मंत्र का उच्चारण |

    ब्रह्मचारी को शुद्ध होकर तथा स्थिर चेतना से अग्नि, सूर्य, आचार्य, गायों, ब्राह्मणों, गुरु,गुरुजनों तथा देवताओं की पूजा करनी चाहिए। उसे सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय मौन होकरउपयुक्त मंत्रों का गुनगुनाते हुए उच्चारण करके ऐसी पूजा करनी चाहिए।

    आचार्य मां विजानीयान्नवमन्येत कर्हिचित्‌ ।न मर्व्यबुद्धयासूयेत सर्वदेवमयो गुरु: ॥

    २७॥

    आचार्यम्‌-गुरु; मामू--मुझको; विजानीयात्‌--जाने; न अवमन्येत--कभी अनादर न करे; कर्हिचित्‌ू--किसी समय; न--कभी नहीं; मर्त्य-बुद्धया--सामान्य पुरुष होने के विचार से; असूयेत--ईर्ष्या-द्वेष रखे; सर्व-देब--सभी देवताओं के ; मय: --प्रतिनिधि; गुरु:--गुरु |

    मनुष्य को चाहिए कि आचार्य को मेरा ही स्वरूप जाने और किसी भी प्रकार से उसकाअनादर नहीं करे। उसे सामान्य पुरुष समझते हुए उससे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखे क्योंकि वह समस्त देवताओं का प्रतिनिधि है।

    सायं प्रातरुपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत्‌ ।यच्चान्यदप्यनुज्ञातमुपयुञ्जीत संयतः ॥

    २८॥

    सायम्‌--शाम को; प्रात:--सुबह के समय; उपानीय--लाकर; भैक्ष्यम्‌--भिक्षा; तस्मै--उस ( आचार्य ) को; निवेदयेत्‌--लाकर दे; यत्‌--जो कुछ; च--भी; अन्यत्‌--अन्य वस्तुएँ; अपि--निस्सन्देह; अनुज्ञातमू-- अनुमति मिले; उपयुञ्जीत--स्वीकारकरे; संयत:--पूर्ण रूप से संयमित।

    वह प्रातः तथा सायंकाल भोजन तथा अन्य वस्तुएँ एकत्र करके गुरु को प्रदान करे। तबआत्मसंयमपूर्वक वह अपने लिए उतना ही स्वीकार करे जो आचार्य उसके लिए निर्दिष्ट कर दे।

    शुभ्रूषमाण आचार्य सदोपासीत नीचवत्‌ ।यानशब्यासनस्थानैर्नातिदूरे कृताझ्ललिः ॥

    २९॥

    शुश्रूषमाण: --सेवा में लगा हुआ; आचार्यम्‌ू--गुरु को; सदा--सदैव; उपासीत--पूजे; नीच-वत्‌--विनीत सेवक की तरह;यान--जब गुरु चले तो पीछे पीछे चलते हुए; शय्या--गुरु के साथ विश्राम करते हुए; आसन--सेवा करने के लिए गुरु केनिकट बैठ कर; स्थानै:--खड़े रह कर तथा गुरु की आज्ञा की प्रतीक्षा करते हुए; न--नहीं; अति--अधिक; दूरे--दूरी पर;कृत-अज्जलि:--हाथ जोड़े |

    गुरु की सेवा करते समय शिष्य विनीत सेवक के समान रहता रहे और जब गुरु चलें, तोवह सेवक की तरह उनके पीछे पीछे चले। जब गुरु सोने लगें, तो सेवक भी पास ही लेट जायऔर जब गुरु जगें, तो सेवक उनके निकट बैठ कर उनके चरणकमल चापने तथा अन्य सेवा-कार्य करने में लग जाय। जब गुरु अपने आसन पर बैठे हों, तो सेवक उनके पास हाथ जोड़कर, गुरु-आदेश की प्रतीक्षा करे। वह इस तरह से गुरु की सदैव पूजा करे।

    एवंवृत्तो गुरुकुले वसेद्धोगविवर्जित: ।विद्या समाप्यते यावद्विभ्रदूव्तमखण्डितम्‌ ॥

    ३०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; वृत्त:--लगा हुआ; गुरु-कुले--गुरु के आश्रम में; वसेत्‌--रहे; भोग--इन्द्रियतृप्ति; विवर्जित:--से मुक्त;विद्या--वैदिक शिक्षा; समाप्यते--पूरी होती है; यावत्‌--जब तक; बिभ्रत्‌ू-- धारण करते हुए; ब्रतम्‌--( ब्रह्मचर्य ) व्रत;अखण्डितमू--अखण्ड।

    जब तक विद्यार्थी अपनी वैदिक शिक्षा पूरी न कर ले, उसे गुरु के आश्रम में कार्यरत रहनाचाहिए, उसे इन्द्रियतृप्ति से पूर्णतया मुक्त रहना चाहिए और उसे अपना ब्रह्माचर्य ब्रत नहीं तोड़नाचाहिए।

    यद्यसौ छन्दसां लोकमारोश्ष्यन्त्रह्मविष्टपम्‌ ।गुरवे विन्यसेह्देहं स्वाध्यायार्थ बृहद्व्रत: ॥

    ३१॥

    यदि--यदि; असौ--वह विद्यार्थी; छन्दसाम्‌ लोकमू--महलेंक में; आरोक्ष्यनू--चढ़ने की इच्छा करते हुए; ब्रह्म-विष्टपम्‌--ब्रह्मलोक; गुरवे--गुरु को; विन्यसेत्‌--अर्पित करे; देहम्‌--अपना शरीर; स्व-अध्याय-- श्रेष्ठ वैदिक अध्ययन के; अर्थम्‌ू-हेतु;बृहत्‌-ब्रत:--आजीवन ब्रह्मचर्य का शक्तिशाली ब्रत रखते हुए

    यदि ब्रह्मचारी महलोंक या ब्रह्मलोक जाना चाहता है, तो उसे चाहिए कि गुरु को अपने सारेकर्म अर्पित कर दे और आजीवन ब्रह्मचर्य के शक्तिशाली ब्रत का पालन करते हुए अपने कोश्रेष्ठ वैदिक अध्ययन में समर्पित कर दे।

    अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम्‌ ।अपृथग्धीरुपसीत ब्रह्मवर्चस्व्यकल्मष: ॥

    ३२॥

    अग्नौ--अग्न में; गुरौ--गुरु में; आत्मनि--अपने में; च--भी; सर्व-भूतेषु-- सारे जीवों में; माम्‌--मुझको; परम्‌ू--परम;अपृथक्‌-धी: --द्वैत से रहित; उपासीत-- पूजा करे; ब्रह्म-वर्चस्वी --वैदिक प्रकाश से युक्त; अकल्मष:--निष्पाप |

    इस तरह गुरु की सेवा करने से वैदिक ज्ञान में प्रबुद्ध, समस्त पापों तथा द्वैत से मुक्त हुआव्यक्ति, परमात्मा रूप में मेरी पूजा करे क्योंकि मैं अग्नि, गुरु, मनुष्य की आत्मा तथा समस्तजीवों के भीतर प्रकट होता हूँ।

    स्त्रीणां निरीक्षणस्पर्शसंलापक्ष्वेलनादिकम्‌ ।प्राणिनो मिथुनीभूतानगृहस्थोग्रतस्त्यजेतू ॥

    ३३॥

    स्त्रीणाम-स्त्रियों के सम्बन्ध में; निरीक्षण--देखने; स्पर्श--छूने; संलाप--बात करने; क_्वेलनल--हँसी-मजाक करने;आदिकम्‌ू--इत्यादि; प्राणिन: --जीव; मिथुनी-भूतानू--संभोगरत; अगृह-स्थ:--संन्यासी, वानप्रस्थ या ब्रह्मचारी; अग्रतः --सर्वप्रथम; त्यजेत्‌ू--छोड़ दे

    जो विवाहित नहीं हैं अर्थात्‌ सन्‍्यासी, वानप्रस्थ तथा ब्रह्मचारी, उन्हें स्त्रियों को कभी भीदेख कर, छू कर, बात करके, हँसी-मजाक करके या खेल-खेल में उनकी संगति नहीं करनीचाहिए। न ही वे किसी ऐसे जीव का साथ करें जो संभोगरत हों।

    शौचमाचमनं स्नान सन्ध्योपास्तिर्ममार्चनम्‌ ।तीर्थसेवा जपोस्पृश्याभक्ष्यासम्भाष्यवर्जमम्‌ ॥

    ३४॥

    सर्वाश्रमप्रयुक्तोयं नियम: कुलनन्दन ।मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायसंयम: ॥

    ३५॥

    शौचम्‌--स्वच्छता; आचमनम्‌--जल से हाथ शुद्ध करना; स्नानम्‌--स्नान; सन्ध्या--सूर्योदय, दोपहर तथा शाम को;उपास्तिः--धार्मिक सेवा; मम--मेरी; अर्चनम्‌--पूजा; तीर्थ-सेवा--तीर्थस्थानों की यात्रा; जप:-- भगवन्नाम का उच्चारण;अस्पृश्य--अछूत; अभक्ष्य--अखाद्य; असम्भाष्य--या जिसकी चर्चा करने लायक न हो; वर्जनम्‌--निषेध; सर्व--सभी;आश्रम--आश्रम; प्रयुक्त:--आदिष्ट; अयम्‌--यह; नियम:--नियम; कुल-नन्दन--हे उद्धव; मत्‌-भाव:--मेरे अस्तित्व काबोध; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों में; मन:--मन; वाक्‌ू--शब्द; काय--शरीर का; संयम:--नियमन, संयम ।

    हे उद्धव, सामान्य स्वच्छता, हाथों का धोना, स्नान करना, सूर्योदय, दोपहर तथा शाम कोधार्मिक सेवा का कार्य करना, मेरी पूजा करना, तीर्थस्थान जाना, जप करना, अछूत, अखाद्यया चर्चा के अयोग्य वस्तुओं से दूर रहना तथा समस्त जीवों में परमात्मा रूप में मेरे अस्तित्व कास्मरण करना--इन सिद्धान्तों को समाज के सारे सदस्यों को मन, वचन तथा कर्म के संयम द्वारापालन करना चाहिए।

    एवं बृहदव्रतधरो ब्राह्मणोग्निरिव ज्वलन्‌ ।मद्धक्तस्तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोडमल: ॥

    ३६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; बृहत्‌-ब्रत--ब्रह्मचर्य का महान्‌ व्रत; धर:--धारण करते हुए; ब्राह्मण:--ब्राह्मण; अग्नि:-- अग्नि; इब--सहश; ज्वलन्‌--तेजयुक्त; मत्‌-भक्त:--मेरा भक्त; तीब्र-तपसा--गम्भीर तपस्या द्वारा; दग्ध--जला हुआ; कर्म--सकाम कर्मकी; आशय: --प्रवृत्ति; अमल:ः--भौतिक इच्छा के कल्मष से रहित ।

    ब्रह्मचर्य का महान्‌ व्रत धारण करने वाला ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है औरवह गहन तपस्या द्वारा भौतिक कर्म करने की लालसा को भस्म कर देता है। इस तरह भौतिकइच्छा के कल्मष से रहित होकर, वह मेरा भक्त बन जाता है।

    अथानन्तरमावेक्ष्यन्यथाजिज्ञासितागम: ।गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायादगुर्वनुमोदित: ॥

    ३७॥

    अथ--इस प्रकार; अनन्तरम्‌--इसके पश्चात्‌; आवेश्ष्यनू--गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की इच्छा से; यथा--समुचित;जिज्ञासित--अध्ययन करके; आगम:--वैदिक साहित्य; गुरवे--गुरु को; दक्षिणाम्‌--पारिश्रमिक; दत्त्वा--देकर; स्नायात्‌--ब्रह्मचारी को स्नान करके, कंघा करना तथा सुन्दर वस्त्र पहनना चाहिए; गुरु--गुरु द्वारा; अनुमोदित:--अनुमति दिये जाने पर।

    जो ब्रह्मचारी अपनी वैदिक शिक्षा पूरी करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहता है, उसेचाहिए कि वह गुरु को समुचित पारिश्रमिक ( गुरु-दक्षिणा ) दे, स्नान करे, बाल कटाये औरउचित वस्त्र इत्यादि धारण करे। तब अपने गुरु की अनुमति से वह अपने घर को जाय।

    गृहं वन वोपविशेत्प्रव्नजेद्दा द्विजोत्तम: ।आश्रमादाश्रमं गच्छेन्नान्यथामत्परश्चरेत्‌ ॥

    ३८ ॥

    गृहम्‌ू--घर; वनम्‌--जंगल; वा--या तो; उपविशेत्‌-- प्रवेश करे; प्रत्नजेत्‌--त्याग दे; वा--अथवा; द्विज-उत्तम:--ब्राह्मण;आश्रमात्‌--जीवन के अधिकारप्राप्त एक पद से; आश्रमम्‌--दूसरे अधिकारप्राप्त पद तक; गच्छेतू--जाए; न--नहीं;अन्यथा--नहीं तो; अमत्‌-परः--जो मेरा शरणागत नहीं है; चरेत्‌--कार्य करे

    अपनी भौतिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए इच्छुक ब्रह्मचारी को अपने परिवार के साथघर पर रहना चाहिए और जो गृहस्थ अपनी चेतना को शुद्ध बनाना चाहे उसे जंगल में प्रवेशकरना चाहिए जबकि शुद्ध ब्राह्मण को संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिए। जो मेरे शरणागत नहीं हैउसे एक आश्रम से दूसरे में क्रमश: जाना चाहिए और इससे विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिए।

    गृहार्थी सही भार्यामुद्रदेदजुगुप्सिताम्‌ ।यवीयसीं तु वयसा यं सवर्णामनु क्रमात्‌ ॥

    ३९॥

    गृह--घर-गृहस्थी; अर्थी--इच्छुक; सहशीम्‌--समान गुणों से युक्त; भार्यामू-- पत्नी से; उद्देतू-ब्याहे; अजुगुप्सिताम्‌--आक्षेप से परे; यवीयसीम्‌--वय में छोटी; तु--निस्सन्देह; वयसा--उप्र में; यामू--दूसरी पत्नी; स-वर्णामू--समान जाति कीपहली पत्नी; अनु--बाद में; क्रमातू-क्रम से |

    जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन स्थापित करना चाहता है उसे चाहिए कि अपनी ही जाति की ऐसीस्त्री से विवाह करे जो निष्कलंक तथा उम्र में छोटी हो। यदि कोई व्यक्ति अनेक पत्नियाँ रखनाचाहता है, तो उसे प्रथम विवाह के बाद उनसे भी ब्याह करना चाहिए और हर पत्नी एक-दूसरे सेनिम्न जाति की होनी चाहिए।

    इज्याध्ययनदानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम्‌ ।प्रतिग्रहोध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम्‌ ॥

    ४०॥

    इज्या--यज्ञ; अध्ययन--वैदिक अध्ययन; दानानि--दान; सर्वेषाम्‌ू--सभी; च-- भी; द्वि-जन्मनाम्‌--द्विजों के; प्रतिग्रह:ः--दानलेना; अध्यापनम्‌--वैदिक ज्ञान की शिक्षा देना; च--भी; ब्राह्मणस्य--ब्राह्मण के; एब--एकमात्र; याजनम्‌--अन्यों के लिएयज्ञ करना।

    सभी द्विजों अर्थात्‌ ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों को यज्ञ करना चाहिए, वैदिक साहित्य काअध्ययन करना चाहिए और दान देना चाहिए किन्तु ब्राह्मण ही दान ले सकते हैं, वे ही वैदिकज्ञान की शिक्षा दे सकते हैं और अन्यों के लिए यज्ञ कर सकते हैं।

    प्रतिग्रह मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम्‌ ।अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वां दोषहक्‌ तयो: ॥

    ४१॥

    प्रतिग्रहम्‌--दान लेना; मन्यमान:--मानते हुए; तप:ः--तपस्या; तेज:--आध्यात्मिक प्रभाव; यशः--तथा यश का; नुदम्‌--विनाश; अन्याभ्याम्‌-- अन्य दो ( यज्ञ तथा वेद-विद्या ) के द्वारा; एव--निस्सन्देह; जीवेत--ब्राह्मण को जीवित रहना चाहिए;शिलैः--खेत से गिरा हुआ अन्न बीन करके; वा--अथवा; दोष--कमी; हक्‌ू--देख कर; तयो:--दोनों में से |

    जो ब्राह्मण यह माने कि अन्यों के दान लेने से उसकी तपस्या, आध्यात्मिक प्रतिष्ठा तथा यशनष्ट हो जायेंगे, उसे चाहिए कि अन्य दो ब्राह्मण वृत्तियों से--वेद-ज्ञान की शिक्षा देकर तथा यज्ञसम्पन्न करके अपना भरण करे। यदि वह ब्राह्मण यह माने कि ये दोनों वृत्तियाँ भी उसकेआध्यात्मिक पद को क्षति पहुँचाती हैं, तो उसे चाहिए कि खेतों में गिरा अन्न ( शीला ) बीने औरअन्यों पर निर्भर न रहते हुए जीवन-निर्वाह करे।

    ब्राह्मणस्य हि देहोयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।कृच्छाय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ॥

    ४२॥

    ब्राह्मणस्य--ब्राह्मण का; हि--निश्चय ही; देह:--शरीर; अयम्‌--यह; क्षुद्र--नगण्य; कामाय--इन्द्रियतृप्ति के लिए; न--नहीं;इष्यते--होता है; कृच्छाय--कठिन; तपसे--तपस्या के लिए; च-- भी; इह--इस संसार में; प्रेत्य--मर कर; अनन्त--असीम;सुखाय--सुख के लिए; च--भी ।

    ब्राह्मण का शरीर क्षुद्र इन्द्रिय भोग के निमित्त नहीं होता, प्रत्युत वह कठिन तपस्या स्वीकारकरके मृत्यु के उपरान्त असीम सुख भोगेगा।

    शिलोज्छवृत्त्या परितुष्टचित्तोधर्म महान्तं विरजं जुषाण: ।मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्‌नातिप्रसक्त: समुपैति शान्तिमू ॥

    ४३॥

    शिल-उब्छ--अन्न बीनने की; वृत्त्या--वृत्ति द्वारा; परितुष्ट--पूर्णतया सन्तुष्ट; चित्त:--चेतना वाला; धर्मम्‌-धार्मिक सिद्धान्तोंको; महान्तम्‌--उदात्त तथा अतिथि-सत्कार करने वाला; विरजम्‌--भौतिक इच्छाओं से रहित; जुषाण:--अनुशीलन करते हुए;मयि--मुझमें; अर्पित--अर्पित; आत्मा--मन वाला; गृहे--घर में; एब--ही; तिष्ठन्‌--रहते हुए; न--नहीं; अति--अत्यधिक;प्रसक्त:--आसक्त, लिप्त; समुपैति--प्राप्त करता है; शान्तिमू--मोक्ष |

    ब्राह्मण गृहस्थ को खेतों तथा मंडियों में गिरे अन्न के दाने बीन कर अपने मन में सन्तुष्ट रहनाचाहिए। उसे अपने को निजी इच्छा से मुक्त रखते हुए मुझमें लीन रह कर उदात्त धार्मिकसिद्धान्तों का अभ्यास करना चाहिए। इस तरह गृहस्थ के रूप में ब्राह्मण बिना आसक्ति के घर में ही रह सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

    समुद्धरन्ति ये विप्रं सीदन्तं मत्परायणम्‌ ।तानुद्धरिष्ये न चिरादापदभ्यो नौरिवार्णवात्‌ ॥

    ४४॥

    समुद्धरन्ति--ऊपर उठाते हैं; ये--जो; विप्रमू--ब्राह्मण या भक्त को; सीदन्तम्‌--( गरीबी ) से कष्ट पा रहे; मत्‌-परायणम्‌--मेरेशरणागत; तान्‌--उठाने वालों को; उद्धरिष्ये--मैं ऊपर उठाऊँगा; न चिरातू--निकट भविष्य में; आपद्भ्य:--सारे कष्टों से;नौः--नाव; इब--सहृश; अर्णवात्‌--समुद्र से

    जिस प्रकार जहाज समुद्र में गिरे हुए लोगों को बचा लेता है, उसी तरह मैं उन व्यक्तियों कोसारी विपत्तियों से तुरन्त बचा लेता हूँ जो दरिद्रता से पीड़ित ब्राह्मणों तथा भक्तों को उबार लेतेहैं।

    सर्वा: समुद्धरेद्राजा पितेव व्यसनात्प्रजा: ।आत्मानमात्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान्‌ ॥

    ४५॥

    सर्वा:--सभी; समुद्धरेत्‌--ऊपर उठाना चाहिए; राजा--राजा; पिता--पिता; इब--सहृश; व्यसनात्‌--विपत्तियों से; प्रजा: --जनता; आत्मानम्‌--अपने आपको; आत्मन-- अपने आप; धीर:--निर्भीक; यथा--जिस तरह; गज-पतिः--गजराज; गजान्‌--अन्य हाथियों को।

    जिस तरह हाथियों का राजा अपने झुंड के अन्य सारे हाथियों की रक्षा करता है और अपनीभी रक्षा करता है, उसी तरह निर्भीक राजा को पिता के समान अपनी सारी प्रजा को कठिनाई सेबचाना चाहिए और अपनी भी रक्षा करनी चाहिए।

    एवंविधो नरपतिर्विमानेनार्कवर्चसा ।विधूयेहाशुभं कृत्स्नमिन्द्रेण सह मोदते ॥

    ४६॥

    एवमू-विध: --इस प्रकार ( अपनी तथा प्रजा की रक्षा करते हुए ); नर-पति:--राजा; विमानेन--वायुयान से; अर्क-वर्चसा--सूर्य के समान तेजोमय; विधूय--हटाकर; इह--पृथ्वी पर; अशुभम्‌--पापों को; कृत्स्नमू--समस्त; इन्द्रेण --इन्द्र के; सह--साथ; मोदते-- भोग करता है।

    जो राजा अपने राज्य से सारे पापों को हटाकर अपनी तथा सारी प्रजा की रक्षा करता है, वहनिश्चय ही इन्द्र के साथ सूर्य जैसे तेजवान विमान में सुख भोगता है।

    सीदन्विप्रो वणिग्वृत्त्या पण्यैरेवापदं तरेत्‌ ।खड़्गेन वापदाक्रान्तो न श्ववृत््या कथञज्लनन ॥

    ४७॥

    सीदन्‌--कष्ट उठाता; विप्र:--ब्राह्मण; वणिक्‌ू--बनिए की; वृत्त्या--वृत्ति द्वारा; पण्यैः --व्यापार के द्वारा; एब--निस्सन्देह;आपदम्‌ू--विपत्ति; तरेत्‌ू--पार करे; खड्गेन--तलवार से; वा--अथवा; आपदा--विपत्ति से; आक्रान्त:--पीड़ित; न--नहीं ;श्व--कुत्ते की; वृत्त्या--वृत्ति से; कथज्लन--जैसे भी हो

    यदि कोई ब्राह्मण अपने नियमित कर्तव्यों द्वारा अपना निर्वाह नहीं कर पाता और कष्ट उठाताहै, तो वह व्यापारी की वृत्ति अपनाकर वस्तुएँ क्रय-विक्रय करके अपनी दीन अवस्था को सुधारसकता है। यदि वह व्यापारी के रूप में भी नितान्त दरिद्र बना रहता है, तो वह हाथ में तलवारलेकर क्षत्रिय-वृत्ति अपना सकता है। किन्तु किसी भी दशा में वह किसी सामान्य स्वामी कोस्वीकार करके कुत्ते जैसा नहीं बन सकता ( श्वान-वृत्ति )।

    वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेन्मूगययापदि ।चरेद्वा विप्ररूपेण न श्रवृत्त्या कथज्ञन ॥

    ४८ ॥

    वैश्य--व्यापारी वर्ग की; वृत्त्या--वृत्ति द्वारा; तु--निस्सन्देह; राजन्य:--राजा; जीवेत्‌-- अपना जीवन-निर्वाह करे; मृगयया--शिकार करके; आपदि--आपात्‌ काल या विपत्ति में; चरेत्‌--कार्य करें; वा--अथवा; विप्र-रूपेण--ब्राह्मण के रूप में; न--कभी नहीं; श्र--कुत्ते की; वृत्त्या--वृत्ति द्वारा; कथज्ञन--किसी भी दशा में |

    राजा या राजकुल का सदस्य, जो अपनी सामान्य वृत्ति द्वारा अपना निर्वाह नहीं कर सकता,वह वैश्य की तरह कर्म कर सकता है, शिकार करके जीवन चला सकता है अथवा ब्राह्मण कीतरह अन्यों को वैदिक ज्ञान की शिक्षा देकर काम कर सकता है। किन्तु किसी भी दशा में उसेशूद्र-वृत्ति नहीं अपनानी चाहिए।

    शूद्रवृत्ति भजेद्वैश्य: शूद्र: कारुकटक्रियाम्‌ ।कृच्छान्मुक्तो न गह्मॉण वृत्ति लिप्सेत कर्मणा ॥

    ४९॥

    शूद्र--शूद्रों की; वृत्तिमू--वृत्ति; भजेत्‌ू--स्वीकार करे; वैश्य:--वैश्य; शूद्र: --शूद्र; कारु--मजदूर का; कट--टोकरी तथाचटाई; क्रियाम्‌ू--बनाना; कृच्छात्‌--कठिन स्थिति से; मुक्त:--मुक्त हुआ; न--नहीं; गह्मॉण--निकृष्ट द्वारा; वृत्तिमू--जीविका;लिप्सेत-- कामना करे; कर्मणा--कार्य द्वारा

    जो वैश्य अपना जीवन-निर्वाह न कर सकता हो, वह शूद्र-वृत्ति अपना सकता है और जोशूद्र उपयुक्त स्वामी न पा सके वह डलिया तथा चटाई बनाने जैसे सामान्य कार्यो में लग सकताहै। किन्तु समाज के वे सारे सदस्य जिन्होंने आपात्काल में निकृष्ट वृत्तियाँ अपनाई हों, उन्हेंविपत्ति बीत जाने पर इन कार्यो को तुरन्त त्याग देना चाहिए।

    वेदाध्यायस्वधास्वाहाबल्यन्नाद्यर्यथोदयम्‌ ।देवर्षिपितृ भूतानि मद्गूपाण्यन्वहं यजेतू ॥

    ५०॥

    वेद-अध्याय--वैदिक ज्ञान का अध्ययन; स्वधा--स्वधा मंत्र अर्पित करके; स्वाहा--स्वाहा मंत्र द्वारा; बलि-- भोजन देकर;अन्न-आद्यिः:--अन्न, जल इत्यादि देकर; यथा--के अनुसार; उदयम्‌--सम्पन्नता; देव--देवता; ऋषि--ऋषि; पितृ-- पूर्वजों;भूतानि--तथा सारे जीवों के; मत्‌-रूपाणि--मेंरे शक्ति के स्वरूपों; अनु-अहम्‌- प्रतिदिन; यजेत्‌--पूजा करे

    गृहस्थ आश्रम वाले को नित्य वैदिक अध्ययन द्वारा ऋषियों की, स्वधा मंत्र द्वारा पूर्वजों की,स्वाहा मंत्र का उच्चारण करके देवताओं की, अपने हिस्से का भोजन देकर सारे जीवों की तथाअन्न एवं जल अर्पित करके मनुष्यों की पूजा करनी चाहिए। इस तरह देवताओं, ऋषियों, पूर्वजों,जीवों तथा मनुष्यों को मेरी शक्ति की अभिव्यक्तियाँ मानते हुए हर मनुष्य को नित्य ये पाँच यज्ञसम्पन्न करने चाहिए।

    यहच्छयोपपन्नेन शुक्लेनोपार्जितेन वा ।धनेनापीडयन्भृत्यान््यायेनैवाहरेत्क्रतूनू ॥

    ५१॥

    यहरच्छया--बिना प्रयास के; उपपन्नेन--अर्जित किया गया; शुक्लेन--अपनी ईमानदारीपूर्ण वृत्ति से; उपार्जितेन--प्राप्त कियाहुआ; वा--अथवा; धनेन-- धन से; अपीडयन्‌-- असुविधा उत्पन्न न करते हुए; भृत्यान्‌ू-- आश्लितों को; न्यायेन--उचित प्रकारसे; एब--निस्सन्देह; आहरेत्‌--सम्पन्न करे; क्रतूनू--यज्ञों तथा अन्य धार्मिक उत्सवों को।

    गृहस्थ को चाहिए कि स्वेच्छा से प्राप्त धन से या ईमानदारी से सम्पन्न किये जाने वाले कार्यसे जो धन प्राप्त हो, उससे अपने आश्रितों का ठीक से पालन-पोषण करे। उसे अपने साधनों केअनुसार यज्ञ तथा अन्य धार्मिक उत्सव सम्पन्न करने चाहिए।

    कुट॒म्बेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत्कुटुम्ब्यपि ।विपश्षिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि हृष्टवत्‌ ॥

    ५२॥

    कुट॒ुम्बेषु--पारिवारिक जनों से; न--नहीं; सज्जेत--लिप्त हो; न--नहीं; प्रमाद्मेत्‌--अहंकारी बने; कुटुम्बी--अनेक आश्रितपारिवारिक जनों वाला; अपि--यद्यपि; विपश्चित्‌ू-चतुर व्यक्ति; नश्वरम्‌-- क्षणभंगुर; पश्येत्‌ू--देखे; अद्ृष्टम्‌ू-- भावी पुरस्कारयथा स्वर्ग में वास; अपि--निस्सन्देह; दृष्ट-वत्‌--पहले से अनुभव किया गया जैसा।

    अनेक आश्रित पारिवारिक जनों की देखरेख करने वाले गृहस्थ को न तो उनसे अत्यधिकलिप्त होना चाहिए, न ही अपने को स्वामी मान कर मानसिक रूप से असन्तुलित रहना चाहिए।बुद्धिमान गृहस्थ को समझना चाहिए कि सारा सम्भव सुख, जिसका वह पहले ही अनुभव करचुका होता है, क्षणभंगुर है।तात्पर्य : गृहस्थ व्यक्ति अपनी पत्नी की रक्षा करते, अपने बच्चों को आदेश देते, नौकरों, नाती-पोतों, घरेलू पशुओं इत्यादि का पालन-पोषण करते स्वामी की भाँति आचरण करता है। न ग्रगाद्येत्‌कुटुम्ब्यपि शब्द यह सूचित करते हैं कि यद्यपि मनुष्य अपने परिवार, नौकरों तथा मित्रों से घिरा हुआ पुत्रदाराप्तबन्धूनां सड्रम: पान्थसड्रम: ।अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा ॥

    ५३॥

    पुत्र--बच्चे; दार--पली; आप्त--सम्बन्धीजन; बन्धूनाम्‌--तथा मित्रों के; सड्रम:--संगति, साथ साथ रहना; पान्थ--यात्रियोंकी; सड्भम: --संगति; अनु-देहम्‌--शरीर के प्रत्येक परिवर्तन सहित; वियन्ति--पृथक्‌ कर दि जाते हैं; एते--ये सारे;स्वण:--स्वण; निद्रा--नींद; अनुग:--घटित होने वाले; यथा--जिस तरह

    बच्चों, पत्नी, सम्बन्धियों तथा मित्रों की संगति यात्रियों के लघु मिलाप जैसी है। शरीर केप्रत्येक परिवर्तन के साथ मनुष्य ऐसे संगियों से उसी तरह विलग हो जाता है, जिस तरह स्वप्नसमाप्त होते ही स्वप्न में मिली हुई सारी वस्तुएँ खो जाती हैं।

    इत्थं परिमृशन्मुक्तो गृहेष्वतिथिवद्वसन्‌ ।न गृहैरनुबध्येत निर्ममो निरहड्डू त: ॥

    ५४॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; परिमृशन्‌--गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए; मुक्त:--मुक्तात्मा; गृहेषु--घर पर; अतिथि-वत्‌--मेहमान कीतरह; वसन्‌--रहते हुए; न--नहीं; गृहैः--घर की परिस्थिति से; अनुबध्येत-- अपने को बँधाये; निर्मम: --स्वामित्व की भावनासे रहित; निरहड्डू तः--मिथ्या अभिमान से रहित।

    वास्तविक स्थिति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए मुक्तात्मा को चाहिए कि घर में एकमेहमान की तरह किसी स्वामित्व की भावना या मिथ्या अहंकार के बिना रहे। इस तरह वह घरेलूमामलों में नहीं फँसेगा।

    कर्मभिर्गृहमेधीयैरिष्टा मामेव भक्तिमान्‌ ।तिष्ठेद्दनं बोषविशेत्प्रजावान्वा परिव्रजेतू ॥

    ५५॥

    कर्मभि:--कर्मो द्वारा; गृह-मेधीयै:--पारिवारिक जीवन के लिए उपयुक्त; इष्टा--पूजा करके; माम्‌--मेरी; एब--निस्सन्देह;भक्ति-मान्‌ू--भक्त होते हुए; तिष्ठेत्‌--घर पर रहता रहे; वनम्‌--जंगल में; वा--अथवा; उपविशेत्‌ -- प्रवेश करे; प्रजा-वान्‌--जिम्मेदार सन्तान के होते हुए; वा--अथवा; परिब्रजेत्‌--संन्यास ग्रहण करे।

    जो गृहस्थ भक्त अपने पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा करते हुए मेरी पूजा करता है, वह चाहेतो घर पर ही रह सकता है अथवा किसी पवित्र स्थान में जा सकता है या यदि उसके कोईजिम्मेदार पुत्र हो, तो वह संन्यास ग्रहण कर सकता है।

    स्त्वासक्तमतिगेहे पुत्रवित्तेषणातुर: ।स्त्रेण: कृपणधीर्मूढो ममाहमिति बध्यते ॥

    ५६॥

    यः--जो; तु--किन्तु; आसक्त--लिप्त; मतिः--चेतना वाला; गेहे--अपने घर पर; पुत्र--सन्तान; वित्त--तथा धन के लिए;एषण--तीक्र इच्छा से; आतुर:ः--विचलित; स्त्रैण:--स्त्री-भोग के लिए कामुक; कृपण--कंजूस; धी:--बुद्धि वाला; मूढ:--मूर्ख; मम--हर वस्तु मेरी है; अहम्‌--मैं ही सबकुछ हूँ; इति--ऐसा सोच कर; बध्यते--बँध जाता है।

    किन्तु जिस गृहस्थ का मन अपने घर में आसक्त है और जो इस कारण अपने धन तथासंतान को भोगने की तीव्र इच्छाओं से विचलित है, जो स्त्रियों के लिये काम-भावना से पीड़ितहै, जो कृपण मनोवृत्ति रखता है और जो मूर्खतावश यह सोचता है कि, ' प्रत्येक वस्तु मेरी हैऔर मैं ही सबकुछ हूँ' निस्सन्देह, वह व्यक्ति माया-जाल में फँसा हुआ है।

    अहो मे पितरौ वृद्धौँ भार्या बालात्मजात्मजा: ।अनाथा मामृते दीना: कथं जीवन्ति दुःखिता: ॥

    ५७॥

    अहो--ओह; मे--मेरे; पितरौ--माता-पिता; वृद्धौ--बूढ़े; भार्या--पत्नी; बाल-आत्म-जा--गोद में बालक लिए; आत्मा-जा;--तथा मेरे अन्य बच्चे; अनाथा:--जिनका कोई रक्षक नहीं हो; माम्‌--मेरे; ऋते--रहित; दीना:--दुखी; कथम्‌--इसजगत में किस तरह; जीवन्ति--जीवित रह सकते हैं; दुः:खिता:--दुख सहते हुए।

    'हाय! मेरे वृद्ध माता-पिता तथा गोद में बालक वाली मेरी पत्नी तथा मेरे अन्य बच्चे! मेरेबिना उनकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है और उन्हें असहा कष्ट उठाना पड़ेगा। मेरे गरीबसम्बन्धी मेरे बिना कैसे रह सकेंगे ? 'एवं गृहाशयाक्षिप्तहदयो मूढधीरयम्‌ ।अतृप्तस्ताननुध्यायन्मृतोन्ध॑ विशते तमः ॥

    ५८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार; गृह--घरेलू परिस्थिति में; आशय--तीब्र इच्छा से; आक्षिप्त--अभिभूत; हृदय: --हृदय; मूढ--मूर्ख ;धी:--बुद्धि वाला; अयम्‌--यह व्यक्ति; अतृप्त: --असंतुष्ट; तानू--उनको ( परिवार वालों को ); अनुध्यायन्‌--निरन्तर सोचतेहुए; मृतः--मर जाता है; अन्धम्‌--अंधता, अज्ञान; विशते--प्रवेश करता है; तम:ः--अंधकार।

    इस तरह अपनी मूर्खतापूर्ण मनोवृत्ति के कारण वह गृहस्थ, जिसका हृदय पारिवारिकआसक्ति से अभिभूत रहता है, कभी भी तुष्ट नहीं होता। फलस्वरूप अपने परिवार वालों कानिरन्तर ध्यान करते हुए वह मर जाता है और अज्ञान के अंधकार में प्रवेश करता है।

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    18. वर्णाश्रम-धर्म का वर्णन

    श्रीभगवानुवाचबन॑ विविश्षु: पुत्रेषु भार्या न्‍्यस्य सहैव वा ।वन एव वसेच्छान्तस्तृतीयं भागमायुष: ॥

    १॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; वनम्‌--जंगल में; विविश्लु:--प्रवेश करने का इच्छुक; पुत्रेषु--पुत्रों में से; भार्याम्‌--पतली को; न्यस्य--सौंप कर; सह--सहित; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; बने--जंगल में; एब--निश्चय ही; बसेत्‌--रहे;शान्तः--शान्त भाव से; तृतीयम्‌--तीसरे; भागम्‌-- भाग में; आयुष:--जीवन के |

    भगवान्‌ ने कहा : जो जीवन के तीसरे आश्रम अर्थात्‌ वानप्रस्थ को ग्रहण करने का इच्छुकहो, उसे अपनी पत्नी को अपने जवान पुत्रों के साथ छोड़ कर या अपने साथ लेकर शान्त मन सेजंगल में प्रवेश करना चाहिए।

    कन्दमूलफलैवर॑न्यमेंध्यैरवृत्ति प्रकल्पयेत्‌ ।वसीत वलल्‍्कलं वासस्तृणपर्णाजिनानि वा ॥

    २॥

    कन्द--कन्द; मूल--जड़ें; फलैः--तथा फलों से; वन्यै:--जंगल में उगने वाले; मेध्यै:--शुद्ध; वृत्तिमू--जीविका;प्रकल्पयेत्‌--व्यवस्था करे; वसीत--पहने; वल्कलम्‌--पेड़ की छाल; वासः--वस्त्रों के रूप में; तृण--घास; पर्ण--पत्ते;अजिनानि--पशुओं की खालें; वा--एवं |

    वानप्रस्थ आश्रम अपनाने पर मनुष्य को चाहिए कि जंगल में उगने वाले शुद्ध कन्द, मूलतथा फल खाकर जीविका चलाये। वह पेड़ की छाल, घास, पत्ते या पशुओं की खाल पहने।

    केशरोमनखएम श्रुमलानि बिभूयाहतः ।न धावेदप्सु मज्जेत त्रि काल॑ स्थण्डिलेशय: ॥

    ३॥

    केश--सिर के बाल; रोम--शरीर के रोएँ; नख--नाखुन ( हाथ तथा पाँव के ); श्मश्रु-- मुँह के बाल ( दाढ़ी-मूछ ); मलानि--मल; बिभूयात्‌--सहन करे; दतः--दाँत; न धावेत्‌ू--साफ न करे; अप्सु--जल में; मज्जेत--स्नानकरे; त्रि-कालम्‌ू--दिन मेंतीन बार; स्थण्डिले-- पृथ्वी पर; शयः--लेटना।

    वानप्रस्थ को अपने सिर, शरीर या मुखमंडल के बाल नहीं सँवारने चाहिए, अपने नाखुननहीं काटने चाहिए, अनियमित समय पर मल-मूत्र त्याग नहीं करना चाहिए और दाँतों कीसफाई का विशेष प्रयास नहीं करना चाहिए। उसे जल में नित्य तीन बार स्नान करके सन्तुष्टरहना चाहिए और जमीन पर सोना चाहिए।

    ग्रीष्मे तप्येत पञ्ञाग्नीन्वर्षास्वासारषाडूजले ।आकण्थमग्न: शिशिर एवं वृत्तस्तपश्चेरत्‌ ॥

    ४॥

    ग्रीष्मे--गर्मी की ऋतु में; तप्येत--तपस्या करे; पञ्ञ-अग्नीन्‌ू--पाँच अग्नियाँ ( सिर के ऊपर सूर्य तथा चारों दिशाओं में जलनेवाली अग्नियाँ ); वर्षासु--वर्षा ऋतु में; आसार--वर्षा की झड़ी; षाटू--सहते हुए; जले--जल में; आ-कण्ठ--गले तक;मग्न:--डूबा हुआ; शिशिरे--जाड़े की ऋतु में; एवम्‌--इस प्रकार; वृत्त:--लगा हुआ; तपः--तपस्या; चरेत्‌--करे।

    इस तरह वानप्रस्थ में लगा हुआ व्यक्ति तपते गर्मी के दिनों में अपने चारों ओर जलती अग्नितथा सिर के ऊपर तपते सूर्य को झेल कर तपस्या करे। वर्षा ऋतु में वह वर्षा की झड़ी में बाहररहे और ठिठुरती शीत ऋतु में वह गले तक पानी में डूबा रहे।

    अग्निपक्वं समश्नीयात्कालपक्वमथापि वा ।उलूखलाश्मकुट्टो वा दन्‍्तोलूखल एव वा ॥

    ५॥

    अग्नि--आग से; पकक्‍्वम्‌--पकाया गया; समश्नीयातू-- खाये; काल--समय के द्वारा; पकक्‍्वम्‌--खाने के योग्य; अथ--अथवा; अपि--निस्सन्देह; वा--अथवा; उलूखल--ओखली से; अश्म--तथा पत्थर; कुट्ट;--कूटा या पीसा गया; वा--अथवा; दन्‍्त--दाँतों का प्रयोग करते हुए; उलूखलः--ओखली के रूप में; एव--निस्सन्देह; वा-- अथवा |

    वह अग्नि द्वारा तैयार किया गया भोजन यथा अन्न अथवा समय से पके फलों को खासकता है। वह अपने भोजन को बट्टे से या अपने दाँतों से पीस सकता है।

    स्वयं सद्चिनुयात्सर्वमात्मनो वृत्तिकारणम्‌ ।देशकालबलाभिज्ञो नाददीतान्यदाहतम्‌ ॥

    ६॥

    स्वयम्‌--अपने से; सश्चिनुयात्‌--एकत्र करे; सर्वम्‌--हर वस्तु; आत्मन:--अपनी ही; वृत्ति--जीविका; कारणम्‌--सुलभबनाने के लिए; देश--विशेष स्थान; काल--समय; बल--तथा शक्ति; अभिज्ञ:-- भली भाँति जानते हुए; न आददीत--न ले;अन्यदा--दूसरी बार के लिए; आहतम्‌--वस्तुएँ |

    वानप्रस्थ को चाहिए कि देश, काल तथा अपनी सामर्थ्य का ध्यान रखते हुए, अपने शरीरके पालन हेतु जो आवश्यक हो, उसे एकत्र करे। उसे भविष्य के लिए कोई वस्तु संग्रह नहींकरना चाहिए।

    वन्यैश्वरुपुरोडाशैर्निवपेत्कालचोदितान्‌ ।नतु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी ॥

    ७॥

    वन्यै:--जंगल से प्राप्त; चरू--धान, जौ तथा दाल की आहुतियों से; पुरोडाशैः--तथा जंगली धान से तैयार की गई यज्ञ कीचपाती; निर्वपेत्‌ू--अर्पित करे; काल-चोदितान्‌--अनुष्ठान यथा आग्रयण जो ऋतु के अनुसार सम्पन्न होते हैं ( आग्रयण में वर्षाऋतु के बाद प्रकट होने वाले पहले फल अर्पित किये जाते हैं )) न--कभी नहीं; तु--निस्सन्देह; श्रोतेन--वेदों में उल्लिखित;पशुना--पशु-बलि के साथ; माम्‌--मुझको; यजेत--पूजा करे; वन-आश्रमी--वानप्रस्थ स्वीकार करके जंगल में जाने वाला।

    जिसने वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किया हो उसे चाहिए कि चरू तथा जंगल में पाये जाने वाले धान तथा अन्य अन्नों से तैयार की गई यज्ञ-रोटी ( पुरोडाश ) की आहुतियों से ऋतु केअनुसार यज्ञ सम्पन्न करे। किन्तु वानप्रस्थ को चाहिए कि वह मुझे पशु-बलि कभी न अर्पितकरे, यहाँ तक कि उन्हें भी जो वेदों में वर्णित हैं।

    अग्निहोत्रं च दर्शश्न पौर्णमासश्च पूर्ववत्‌ ।चातुर्मास्थानि च मुनेराम्नातानि च नैगमै: ॥

    ८ ॥

    अग्नि-होत्रमू-- अग्नि-यज्ञ; च-- भी; दर्श:--प्रतिपादा को सम्पन्न किया गया यज्ञ; च--भी; पौर्ण-मास:ः --पूर्णमासी के दिनसम्पन्न यज्ञ; च-- भी; पूर्व-वत्‌--पहले की तरह, जैसाकि गृहस्थाश्रम में किया जाता था; चातु:-मास्यानि--चातुर्मास के व्रततथा यज्ञ; च-- भी; मुनेः:--वानप्रस्थ के; आम्नातानि--आदिष्ट; च-- भी; नैगमै: --वेदवेत्ताओं के द्वारा।

    वानप्रस्थ को चाहिए कि अग्निहोत्र, दर्श तथा पौर्णमास यज्ञों को उसी तरह करता रहे जिसतरह गृहस्थाश्रम में करता था। उसे चातुर्मास्य के व्रत तथा यज्ञ भी सम्पन्न करने चाहिए क्योंकिबेदविदों ने वानप्रस्थों के लिए इन अनुष्ठानों का आदेश दिया है।

    एवं चीर्णेन तपसा मुनिर्धमनिसन्ततः ।मां तपोमयमाराध्य ऋषिलोकादुपैति माम्‌ ॥

    ९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; चीर्णेन-- अभ्यास से; तपसा--तपस्या के; मुनि:--सन्‍्त वानप्रस्थ; धमनि-सन्ततः--जिसके शरीर की सारीनसें दिखने लगे, इतना दुर्बल; माम्‌--मुझको; तपः-मयम्‌--सारी तपस्या का लक्ष्य; आराध्य--पूजा करके; पिं-लोकातू --महलेंक से परे; उपैति--प्राप्त करता है; मामू--मुझको |

    कठिन तपस्या करते हुए तथा जीवन की आवश्यकताओं मात्र को ही स्वीकार करते हुए,सन्त वानप्रस्थ इतना दुर्बल हो जाता है कि उसकी चमड़ी तथा अस्थियाँ ही रह जाती हैं। इस तरह कठिन तपस्या द्वारा मेरी पूजा करके वह महलोंक जाता है और वहाँ मुझे प्राप्त करता है।

    यस्त्वेतत्कृच्छृतश्चीर्ण तपो नि: श्रेयसं महत्‌ ।कामायालपीयसे युउ्ज्याद्वालिश: कोपरस्ततः ॥

    १०॥

    यः--जो; तु--निस्सन्देह; एतत्‌--यह; कृच्छुत:--कठिन तपस्या से; चीर्णम्‌ू--दीर्घकाल तक; तपः--तपस्या; नि: श्रेयसम्‌ --परम मोक्ष प्रदान करते हुए; महत्‌--यशस्वी; कामाय--इन्द्रियतृप्ति के लिए; अल्पीयसे--नगण्य; युज्ज्यात्‌--अभ्यास करता है;बालिश:ः--ऐसा मूर्ख; क:ः--कौन; अपर: --अन्य; तत:--उसके अलावाजो व्यक्ति, मात्र क्षुद्र इन्द्रियतृप्ति के लिए, दीर्घकालीन प्रयल द्वारा इस कष्टप्रद किन्तु महान्‌तपस्या को सम्पन्न करता है, उसे सबसे बड़ा मूर्ख समझना चाहिए।

    यदासौ नियमेकल्पो जरया जातवेपथु: ।आत्मन्यग्नीन्समारोप्य मच्चित्तोग्निं समाविशेत्‌ ॥

    ११॥

    यदा--जब; असौ--सन्‍्त वानप्रस्थ; नियमे-- अपने नियत कर्तव्यों में; अकल्प:--करने में अक्षम; जरया--वृद्धावस्था केकारण; जात--उत्पन्न; वेपथु:--शरीर का कम्पन; आत्मनि--अपने हृदय में; अग्नीन्‌--यज्ञ-अग्नियों को; समारोप्य--रख कर;मतू-चित्त:--मुझमें अपना मन स्थिर करके; अग्निम्‌--अग्नि में; समाविशेत्‌-- प्रवेश करे।

    यदि वानप्रस्थ वृद्धावस्था को प्राप्त हो और शरीर काँपने के कारण अपने नियत कर्म पूरा न कर सके, तो उसे चाहिए कि ध्यान द्वारा यज्ञ-अग्नि को अपने हृदय के भीतर स्थापित करे। फिरअपने मन को मुझमें टिकाकर उस अगिन में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग दे।

    यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निरयात्मसु ।विरागो जायते सम्यड्न्यस्ताग्नि: प्रव्नजेत्ततः ॥

    १२॥

    यदा--जब; कर्म--सकाम कर्म द्वारा; विपाकेषु--प्राप्तव्य में; लोकेषु--ब्रह्लोक तक के सारे लोकों में; निरय-आत्मसु--लोक जो नरकतुल्य हैं; विराग:--विरक्ति; जायते--उत्पन्न होती है; सम्यक्‌--पूरी तरह से; न्यस्त--त्याग कर; अग्नि: --वानप्रस्थ की यज्ञ-अग्नि; प्रव्रजेतू--संन्यास ले ले; ततः--तब |

    यदि यह समझते हुए कि ब्रह्मलोक को भी प्राप्त कर पाना दयनीय स्थिति है, कोई वानप्रस्थसकाम कर्मों के सभी सम्भव परिणामों से पूर्ण विरक्ति उत्पन्न कर लेता है, तो वह संन्यास आश्रमग्रहण कर सकता है।

    इष्ठा यथोपदेशं मां दरत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे ।अग्नीन्स्वप्राण आवेश्य निरपेक्ष: परिव्रजेत्‌ ॥

    १३॥

    इश्ला--पूज कर; यथा--के अनुसार; उपदेशम्‌--शास्त्रीय आदेशों; माम्‌--मुझको; दरत्त्वा--देकर; सर्व-स्वम्‌--जो कुछ भीपास में हो; ऋत्विजे--पुरोहित को; अग्नीन्‌--यम-अग्नि को; स्व-प्राणे--अपने भीतर; आवेश्य--रख कर; निरपेक्ष:--आसक्तिरहित; परिब्रजेतू--सन्यास लेकर निकल पड़े |

    शास्त्रीय आदेशों के अनुसार मेरी पूजा करके तथा यज्ञ-पुरोहित को अपनी सारी सम्पत्तिदेकर, उसे यज्ञ-अग्नि को अपने भीतर रख लेना चाहिए। इस तरह मन को पूर्णतया विरक्तकरके वह संन्यास आश्रम में प्रवेश करे।

    विप्रस्य वै सन््यसतो देवा दारादिरूपिण: ।विघ्नान्कुर्वन्त्ययं ह्ास्मानाक्रम्य समियात्परम्‌ ॥

    १४॥

    विप्रस्थ--सन्त पुरुष का; वै--निस्सन्देह; सन््यसतः--संन्यास ग्रहण करते हुए; देवा:--देवतागण; दार-आदि-रूपिण: --उसकी पत्नी तथा अन्य आकर्षक वस्तुओं के रूप में प्रकट होकर; विघ्नान्‌ू--अवरोध; कुर्वन्ति--उत्पन्न करते हैं; अयम्‌--संन्यासी; हि--निस्सन्देह; अस्मान्‌--देवताओं को; आक्रम्य--पार करके; समियात्‌--जाय; परम्‌-- भगवद्धाम |

    देवतागण यह सोच कर कि, 'संन्यास लेकर यह व्यक्ति हमसे आगे निकल कर भगवद्धामजा रहा है' संन्यासी के मार्ग में उसकी पूर्व पत्नी या अन्य स्त्रियों तथा आकर्षक वस्तुओं के रूपमें प्रकट होकर अवरोध उत्पन्न करते हैं। किन्तु संन्‍्यासी को चाहिए कि इन देवताओं तथा उनकेस्वरूपों पर कोई ध्यान न दे।

    बिभृयाच्चेन्मुनिर्वास: कौपीनाच्छादनं परम्‌ ।त्यक्त न दण्डपात्रा भ्यामन्यत्किल्लिदनापदि ॥

    १५॥

    बिभूयात्‌--पहने; चेत्‌ू--यदि; मुनि:--संन्यासी; वास: -- वस्त्र; कौपीन--लँगोट; आच्छादनम्‌ू-- आवरण, पर्दा; परमू--अन्य;त्यक्तमू--छोड़ा हुआ; न--कभी नहीं; दण्ड--अपने डंडे के अतिरिक्त; पात्राभ्यामू--तथा कमंडल; अन्यत्‌--अन्य; किश्ञित्‌--कोई वस्तु; अनापदि--जब कोई आपात्काल न हो।

    यदि संन्यासी लँगोटे के अतिरिक्त भी कुछ पहनना चाहे तो वह कौपीन को ढकने के लिएअपनी कमर और कूल्हे के चारों ओर कोई आवरण इस्तेमाल कर सकता है। अन्यथा, यदिविशेष आवश्यकता न हो तो वह दण्ड तथा कमण्डलु के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार न करे।

    इष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्‌ ।सत्यपूतां वदेद्वाच॑ं मनःपूतं समाचरेत्‌ ॥

    १६॥

    इृष्टि--देखने से; पूतम्‌--शुद्ध; न्यसेत्‌--रखे; पादम्‌--अपना पाँव; वस्त्र--कपड़े से; पूतमू--छाना हुआ; पिबेत्‌--पिये;जलम्‌--जल; सत्य--सत्य द्वारा; पूतामू--पवित्र; वदेतू--बोले; वाचमू--शब्द; मन: --मन से निश्चित किया हुआ; पूतम्‌--पवित्र; समाचरेत्‌--सम्पन्न करे।

    सन्त पुरुष को चाहिए कि अपनी आँखों से यह निश्चित करके अपना पाँव रखे कि ऐसाकोई जीव या कीड़ा तो नहीं है, जो उसके पाँव से कुचल जायगा। उसे अपने वस्त्र के एक छोरसे छान कर ही जल पीना चाहिए और ऐसे शब्द बोलने चाहिए जिनमें सचाई की शुद्धता हो।इसी प्रकार उसे वे ही कर्म करने चाहिए जिन्हें उसके मन ने शुद्ध निश्चित कर लिया हो।

    मौनानीहानिलायामा दण्डा वाग्देहचेतसाम्‌ ।न होते यस्य सन्त्यड् वेणुभिर्न भवेद्यति: ॥

    १७॥

    मौन--व्यर्थ भाषण से बचना; अनीह--सकाम कर्मों का त्याग; अनिल-आयामा:-- श्वास क्रिया को नियंत्रित करना; दण्डा:--अनुशासन; वाक्‌--वाणी; देह--शरीर का; चेतसाम्‌ू--मन का; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; एते--ये अनुशासन; यस्य--जिसके; सन्ति--होते हैं; अड्र--हे उद्धव; वेणुभि:--बाँस के डंडों से; न--कभी नहीं; भवेत्‌--होता है; यतिः--असलीसंनन्‍्यासी |

    जिसने व्यर्थ बोलने, व्यर्थ के कार्य करने तथा प्राण-वायु को नियंत्रण में रखने के इन तीनआन्तरिक अनुशासनों को ग्रहण नहीं किया, वह बाँस के दण्ड उठाने मात्र से संन्यासी नहीं मानाजा सकता।

    भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विग्ान्वर्जयं श्वरेत्‌ ।सप्तागारानसड्डि प्तांस्तुष्पेल्लब्धेन तावता ॥

    १८॥

    भिक्षाम्‌-- भीख माँगने से प्राप्त दान; चतुर्षु--चारों; वर्णेषु--वर्णो में; विगह्मनू--गर्हित, अशुद्ध; वर्जयन्‌--तिरस्कार करतेहुए; चरेत्‌-पहुँचे; सप्त--सात; आगारानू--घरों में; असड्डलिप्तान्‌ू--बिना किसी अनुमान या इच्छा के; तुष्येत्‌-तुष्ट हो ले;लब्धेन--प्राप्त हुए से; तावता--उतने से ही |

    जो घर दूषित तथा अस्पृश्य हों उनका तिरस्कार करके वानप्रस्थ को चाहिए कि बिना पूर्वनिश्चय के सात घरों में जाय और उनमें भीख माँगने से जो भी प्राप्त हो उससे तुष्ट हो ले।आवश्यकतानुसार वह चारों वर्णों के घरों में जा सकता है।

    बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोपस्पृश्य वाग्यत: ।विभज्य पावितं शेष भुञ्जीताशेषमाहतम्‌ ॥

    १९॥

    बहिः--शहरी क्षेत्र से बाहर, एकान्त स्थान में; जल--पानी के; आशयम्‌--आगार या भण्डार में; गत्वा--जाकर; तत्र--वहाँ;उपस्पृश्य--जल के स्पर्श से शुद्ध होकर; वाक्‌ू-यत:--बिना बोले; विभज्य--ठीक से वितरित करके; पावितम्‌-शुद्ध कियाहुआ; शेषमू--बचा हुआ; भुझ्जीत--खाये; अशेषम्‌--पूरी तरह; आहतम्‌--भिक्षा माँग कर एकत्र किया हुआ।

    वह भिक्षा माँगने से एकत्र हुआ भोजन लेकर, जनसंख्य वाले क्षेत्रों को त्याग कर एकान्तस्थान में किसी जलाशय के निकट जाये। वहाँ पर स्नान करके तथा भलीभाँति हाथ धोकरभोजन का कुछ अंश माँगने वालों में बाँटे। वह बिना बोले ऐसा करे। तब शेष बचे भाग कोठीक से साफ करके, अपनी थाली का सारा भोजन खा ले और बाद के लिए कुछ भी न छोड़े।

    एकश्चरेन्महीमेतां नि:ःसड़ः संयतेन्द्रिय: ।आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान्समदर्शन: ॥

    २०॥

    एक:--अकेला; चरेत्‌--इधर-उधर जाये; महीम्‌--पृथ्वी पर; एतामू--यह; निःसड्:--किसी भौतिक आसक्ति में बिना; संयत-इन्द्रियः--इन्द्रियों को पूरी तरह वश में करते हुए; आत्म-क्रीड:--परमात्मा के साक्षात्कार से उत्साहित; आत्म-रतः--आध्यात्मिक ज्ञान में पूर्णतया तुष्ट; आत्म-वान्‌ू--आध्यात्मिक पद पर स्थित; सम-दर्शन:--सर्वत्र समान दृष्टि से |

    बिना किसी आसक्ति के, इन्द्रियों को पूरी तरह वश में करके, उत्साही बने रह कर तथाभगवान्‌ के साक्षात्कार एवं अपने में तुष्ट सन्‍त पुरुष को अकेले ही पृथ्वी पर विचरण करनाचाहिए। उसे सर्वत्र समदृष्टि रखते हुए आध्यात्मिक पद पर स्थिर रहना चाहिए।

    विविक्तक्षेमशरणो मद्धावविमलाशयः ।आत्मानं चिन्तयेदेकमभेदेन मया मुनि: ॥

    २१॥

    विविक्त--अकेला; क्षेम--सुरक्षित; शरण: --उसका निवासस्थान; मत्‌--मुझमें; भाव--निरन्तर विचार से; विमल--शुद्ध;आशयः--चेतना; आत्मानम्‌--आत्मा के विषय में; चिन्तयेत्‌--केन्द्रित करे; एकम्‌--अकेला; अभेदेन-- अभिन्न; मया--मुझसे; मुनि:--मुनि।

    मुनि को चाहिए कि सुरक्षित तथा एकान्त स्थान में रहते हुए और निरन्तर मेरे ध्यान द्वारा मनको शुद्ध करके, अपने को मुझसे अभिन्न मानते हुए एकमात्र आत्मा में अपने को एकाग्र करे।

    अन्वीक्षेतात्मनो बन्ध॑ मोक्ष च ज्ञाननिष्ठया ।बन्ध इन्द्रियविक्षेपो मोक्ष एषां च संयम: ॥

    २२॥

    अन्वीक्षेत--सतर्क अध्ययन द्वारा देखे; आत्मन:--आत्मा का; बन्धम्‌--बन्धन; मोक्षम्‌--मोक्ष; च-- भी; ज्ञान--ज्ञान में;निष्ठया--स्थिरता द्वारा; बन्ध:--बन्धन; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; विक्षेप:--इन्द्रियतृप्ति की ओर विचलन; मोक्ष:--मोक्ष; एषाम्‌--इन इन्द्रियों के; च-- भी; संयम: --पूर्ण नियंत्रण |

    मुनि को चाहिए कि स्थिर ज्ञान द्वारा वह आत्मा के बन्धन तथा मोक्ष की प्रकृति को निश्चितकर ले। बन्धन तब होता है जब इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति की ओर चलायमान होती हैं और इन्द्रियों परपूर्ण नियंत्रण ही मोक्ष है।

    तस्मान्नियम्य षड्वर्ग मद्धावेन चरेन्मुनि: ।विरक्त: क्षुद्रकामे भ्यो लब्ध्वात्मनि सुखं महत्‌ ॥

    २३॥

    तस्मात्‌--इसलिए; नियम्य-- पूरी तरह नियंत्रित करके; षट्‌-वर्गम्‌--छहों इन्द्रियों को ( दृष्टि, श्रवण, प्राण, स्पर्श, स्वाद तथामन ); मत्‌-भावेन--मेरी चेतना द्वारा; चरेत्‌ू--रहे; मुनि:--मुनि; विरक्त:--विरक्त; क्षुद्र--नगण्य; कामेभ्य:--इन्द्रियतृप्ति से;लब्ध्वा--अनुभव करके; आत्मनि--स्वयं में; सुखम्‌--सुख; महत्‌--महान

    इसलिए पाँचों इन्द्रियों तथा मन को कृष्णभावनामृत द्वारा पूर्ण नियंत्रण में रखते हुए, मुनिको अपने भीतर आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करके, श्षुद्र इन्द्रियतृप्ति से विरक्त हो जानाचाहिए।

    पुरग्रामब्रजान्सार्थान्भिक्षार्थ प्रविशंश्चरेत्‌ ।पुण्यदेशसरिच्छैलवना श्रमवर्ती महीम्‌ ॥

    २४॥

    पुर--शहर; ग्राम--गाँव; ब्रजानू--तथा चरागाह; स-अर्थान्‌--जीवन-निर्वाह के लिए कार्य करने वाले; भिक्षा-अर्थम्‌-- भीखमाँगने के लिए; प्रविशन्‌--प्रवेश करते हुए; चरेत्‌ू--विचरण करे; पुण्य--शुद्ध; देश--स्थान; सरित्‌--नदियों; शैल--पर्वत;वबन--तथा जंगलों सहित; आश्रम-वतीम्‌--ऐसे निवास-स्थानों वाली; महीम्‌--पृथ्वी |

    मुनि को चाहिए कि वह पवित्र स्थानों में बहती नदियों के किनारे तथा पर्वतों एवं जंगलों केएकान्त में घूमे। वह अपने जीवन-निर्वाह के लिए भिक्षा माँगने के लिए ही, शहरों, ग्रामों तथाचरागाहों में प्रवेश करे और सामान्य कामकाजी लोगों के पास जाये।

    वानप्रस्था श्रमपदेष्वभी क्ष्णं भेक्ष्यमाचरेत्‌ ।संसिध्यत्याश्रसम्मोहः शुद्धसत्त्व: शिलान्धसा ॥

    २५॥

    वानप्रस्थ-आश्रम--वानप्रस्थ आ श्रम के; पदेषु--पद पर; अभीक्षणम्‌--सदैव; भैक्ष्यम्‌ू--भिक्षा माँगना; आचरेत्‌--सम्पन्न करे;संसिध्यति--आध्यात्मिक रूप से सिद्ध बनता है; आशु--तुरन्त; असम्मोहः --मोह से मुक्त; शुद्ध--शुद्ध; सत्त्वः--अस्तित्व;शील--भिक्षा से या बीन कर प्राप्त; अन्धसा-- भोजन से।

    वानप्रस्थ आश्रम में जीवन बिताने वाले को चाहिए कि वह अन्यों से दान लेता रहे क्योंकिइससे वह मोह से छूट जाता है और शीघ्र ही आध्यात्मिक जीवन में सिद्ध बन जाता है।निस्सन्देह, जो इस विनीत भाव से प्राप्त भोजन से अपना पेट पालता है, उसका जीवन शुद्ध होजाता है।

    नैतद्वस्तुतया पश्येहृश्यमानं विनश्यति ।असक्तचित्तो विरमेदिहामुत्रचिकीर्षितात्‌ ॥

    २६॥

    न--कभी नहीं; एतत्‌--इसे; वस्तुतवा--चरम सत्य के रूप में; पश्येत्‌--देखे; दृश्यमानम्‌--प्रत्यक्ष अनुभव से दिखने वाला;विनश्यति--नष्ट हो जाता है; असक्त--आसक्ति रहित; चित्त:--चेतना वाला; विरमेत्‌--विरक्त हो ले; इह--इस जगत में;अमुत्र--तथा भावी जीवन में; चिकीर्षितात्‌-- भौतिक प्रगति के लिए सम्पन्न किये जाने वाले कार्यो से |

    मनुष्य को चाहिए कि जो भौतिक वस्तुएँ नष्ट हो जायेंगी, उन्हें चरम सत्य के रूप में न देखे।भौतिक आसक्ति से रहित चेतना द्वारा उसे उन सारे कार्यो से विलग हो जाना चाहिए जो इसजीवन में तथा अगले जीवन की भौतिक प्रगति के निमित्त हों।

    यदेतदात्मनि जगन्मनोवाक्प्राणसंहतम्‌ ।सर्व मायेति तर्केण स्वस्थस्त्यक्त्वा न तत्स्मरेत्‌ ॥

    २७॥

    यत्‌--जो; एतत्‌--यह; आत्मनि-- भगवान्‌ में; जगत्‌--ब्रह्माण्ड; मन: --मन; वाक्‌--वाणी; प्राण--तथा प्राण-वायु से;संहतम्‌--निर्मित; सर्वम्‌ू--समस्त; माया--भौतिक मोह; इति--इस प्रकार; तर्केण--तर्क-वितर्क द्वारा; स्व-स्थ:--अपने मेंस्थिर; त्यक्त्वा--त्याग कर; न--कभी नहीं; तत्‌--वह; स्मरेत्‌--स्मरण करे |

    उसे चाहिए कि भगवान्‌ के भीतर स्थित ब्रह्माण्ड तथा मन, वाणी एवं प्राण-वायु से निर्मितअपने भौतिक शरीर को तर्क-वितर्क द्वारा भगवान्‌ की मायाशक्ति का ही प्रतिफल माने। इसतरह अपने में स्थित होकर उसे इन वस्तुओं से अपनी श्रद्धा हटा लेनी चाहिए और उन्हें फिर कभीअपने ध्यान की वस्तु नहीं बनानी चाहिए।

    ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्धक्तो वानपेक्षक: ।सलिड्डानाश्रमांस्त्यक्त्वा चरेदविधिगोचर: ॥

    २८॥

    ज्ञान-दार्शनिक ज्ञान के प्रति; निष्ठ: --समर्पित; विरक्त:-- भौतिक स्वरूपों से विरक्त; ब--या तो; मतू-भक्त:--मेरा भक्त;बा--अथवा; अनपेक्षक:--मोक्ष भी न चाहने वाला; स-लिझन्‌--अनुष्ठानों तथा बाह्य विधानों सहति; आश्रमान्‌--किसीआश्रम से सम्बद्ध कर्तव्यों को; त्यक्त्वा--त्याग कर; चरेत्‌ू--आचरण करे; अविधि-गोचर: --विधि-विधानों की परिधि सेबाहर

    ज्ञान के अनुशीलन के प्रति समर्पित तथा बाह्य पदार्थों से विरक्त हुआ विद्वान अध्यात्मवादी(योगी ) या मोक्ष की भी इच्छा से विरक्त मेरा भक्त--ये दोनों ही, उन कर्तव्यों की उपेक्षा करतेहैं, जो बाह्य अनुष्ठानों अथवा साज-सामग्री पर आधारित होते हैं। इस तरह उनका आचरणविधि-विधानों की सीमा से परे होता है।

    बुधो बालकवत्क्रीडेत्कुशलो जडवच्चरेत्‌ ।वदेदुन्मत्तवद्विद्वान्गोचर्या नैगमश्चरेत्‌ ॥

    २९॥

    बुध:--यद्यपि बुद्धिमान; बालक-वत्‌--बच्चे के समान ( मान-अपमान का ध्यान न रखते हुए ); क्रीडेत्‌--जीवन का भोग करे;कुशलः--यद्यपि दक्ष; जड-वत्‌--जड़ व्यक्ति की तरह; चरेत्‌--कार्य करे; वदेत्‌--बोले; उन्मत्त-वत्‌--विक्षिप्त की तरह;विद्वानू--विद्वान होने पर भी; गो-चर्याम्‌--अनियंत्रित आचरण; नैगम:--वैदिक आदेशों में दक्ष होते हुए भी; चरेत्‌--सम्पन्नकरे।

    परम चतुर होते हुए भी परमहंस को चाहिए कि मान-अपमान को भुलाकर बालक केसमान जीवन का भोग करे, परम दक्ष होते हुए भी जड़ तथा अकुशल व्यक्ति की तरह आचरणकरे, परम विद्वान होते हुए भी विक्षिप्त व्यक्ति की तरह बोले तथा वैदिक विधियों का पंडित होतेहुए भी अनियंत्रित ढंग से आचरण करे।

    वेदवादरतो न स्यान्न पाषण्डी न हैतुकः ।शुष्कवादविवादे न कश्ित्पक्ष॑ं समाश्रयेत्‌ ॥

    ३०॥

    बेद-वाद--वेदों के कर्मकाण्ड अनुभाग में; रत:ः--लगा हुआ; न--कभी नहीं; स्थातू--हो; न--न तो; पाषण्डी--नास्तिक,वैदिक आदेशों के विरुद्ध; न--न ही; हैतुकः--कोरा तार्किक या संशयवादी; शुष्क-वाद--व्यर्थ के विषयों के; विवादे--तर्क-वितर्क में; न--कभी नहीं; कश्जलित्‌--कोई ; पक्षम्‌--पश्ष; समाश्रयेत्‌--ग्रहण करे।

    भक्त को न तो वेदों के कर्मकाण्ड अनुभाग में उल्लिखित सकाम अनुष्ठानों में लगनाचाहिए, न ही वैदिक आदेशों के विरुद्ध कार्य करके या बोल कर नास्तिक बनना चाहिए। इसीतरह उसे न तो निरे तार्किक या संशयवादी की तरह बोलना चाहिए न व्यर्थ के वाद-विवाद में किसी का पक्ष लेना चाहिए।

    नोद्विजेत जनाद्धीरो जन॑ चोद्वेजयेन्न तु ।अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्न ।देहमुद्दिश्य पशुवद्वैरं कुर्यान्न केनचित्‌ ॥

    ३१॥

    न--कभी नहीं; उद्विजेत--विचलित या भयभीत हो; जनात्‌ू--अन्य लोगों के कारण; धीर:--सन्‍्त पुरुष; जनम्‌ू--अन्य लोग;च--भी; उद्देजयेत्‌--डराये या विचलित करे; न--कभी नहीं; तु--निस्सन्देह; अति-वादान्‌ू--अपमानजनक या कटु वचन;तितिक्षेत--सहन करे; न--कभी नहीं; अवमन्येत--कम करके माने; कञज्लन--कोई भी; देहम्‌--शरीर; उद्िश्य--के हेतु; पशु-बत्‌--जानवर के समान; वैरम्‌--दुश्मनी, शत्रुता; कुर्यात्‌--उत्पन्न करे; न--कभी नहीं; केनचित्‌--किसी से

    सन्त पुरुष को चाहिए कि वह न तो किसी के डराने या विचलित करने से डरे, न ही अन्यलोगों को डराये-धमकाये। उसे अन्यों द्वारा किया गया अपमान सहना चाहिए और कभी किसीको छोटा नहीं समझना चाहिए। भौतिक शरीर के लिए वह किसी से शत्रुता न उत्पन्न करेक्योंकि तब वह पशु-तुल्य होगा।

    एक एव परो ह्ात्मा भूतेष्वात्मन्यवस्थितः ।यथेन्दुरुदपात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च ॥

    ३२॥

    एकः--एक; एव--निस्सन्देह; पर:ः--परम; हि--निश्चय ही; आत्मा-- भगवान्‌; भूतेषु--सारे शरीरों के भीतर; आत्मनि--जीवके भीतर; अवस्थित:--स्थित; यथा--जिस प्रकार; इन्दु:--चन्द्रमा; उद--जल के; पात्रेषु--विभिन्न जलाशयों में; भूतानि--सारे शरीर; एक--एक परसेश्वर की; आत्मकानि--शक्ति से बने; च--भी |

    एक ही परमेश्वर समस्त भौतिक शरीरों के भीतर तथा हर एक की आत्मा के भीतर स्थित है।जिस तरह चन्द्रमा असंख्य जलाशयों में प्रतिबिम्बित होता है, उसी तरह परमेश्वर एक होकर भीहर एक के भीतर उपस्थित है। इस तरह हर भौतिक शरीर अन्ततः एक ही भगवान्‌ की शक्ति सेबना है।

    अलब्ध्वा न विषीदेत काले कालेशनं क्वचित्‌ ।लब्ध्वा न हृष्येद्धृतिमानुभयं दैवतन्त्रितम्‌ ॥

    ३३॥

    अलब्ध्वा--न मिलने पर; न--नहीं; विषीदेत--दुखी हो; काले काले--विभिन्न समयों पर; अशनम्‌--भोजन; क्वचित्‌--जोभी; लब्ध्वा--पाकर; न--नहीं; हृष्येत्‌ू--हर्षित हो; धृति-मान्‌--संकल्प वाला; उभयम्‌--दोनों ( अच्छा भोजन पाने तथा न पानेपर ); दैव--ईश्वर की परम शक्ति के; तन्त्रितम्‌--वश में

    यदि किसी को विभिन्न समयों पर उचित भोजन नहीं मिलता, तो उसे दुखी नहीं होना चाहिएऔर जब उसे अच्छा भोजन मिले तो हर्षित नहीं होना चाहिए। हढ़ संकल्प करके उसे दोनों हीस्थितियों को ईश्वर के अधीन समझना चाहिए।

    आहारार्थ समीहेत युक्त तत्प्राणधारणम्‌ ।तत्त्वं विमृश्यते तेन तद्विज्ञाय विमुच्यते ॥

    ३४॥

    आहार--भोजन; अर्थम्‌--के हेतु; समीहेत--प्रयास करे; युक्तमू--उचित; तत्‌--व्यक्ति का; प्राण--जीवनी-शक्ति; धारणम्‌--धारण करते हुए; तत्त्वम्‌--आध्यात्मिक सत्य; विमृश्यते--चिन्तन किया जाता है; तेन--मन, इन्द्रिय तथा प्राण के उस बल पर;तत्‌--वह सत्य; विज्ञाय--जान कर; विमुच्यते--मुक्त हो जाता है।

    आवश्यकता पड़े तो उसे चाहिए कि पर्याप्त भोजन पाने के लिए प्रयास करे क्योंकिस्वास्थ्य बनाये रखने के लिए यह आवश्यक तथा उचित है। इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण के स्वस्थरहने पर, वह आध्यात्मिक सत्य का चिन्तन कर सकता है और सत्य समझने पर वह मुक्त होजाता है।

    यहच्छयोपपन्नान्नमद्याच्छेष्ठमुतापरम्‌ ।तथा वासस्तथा श्यां प्राप्तं प्राप्त भजेन्मुनि: ॥

    ३५॥

    यहच्छया--मनमाना; उपपन्न--अर्जित; अन्नमू-- भोजन; अद्यात्‌--खाये; श्रेष्ठमू--उत्तम; उत--अथवा; अपरम्‌--निम्न जातिका; तथा--उसी तरह; वास: --वस्त्र; तथा--उसी तरह; शब्याम्‌--बिस्तर; प्राप्तम्‌ प्राप्तम्‌-- अपने आप मिल जाने वाला;भजेत्‌-- स्वीकार करे; मुनि:--मुनि।

    मुनि को चाहिए कि अपने आप मिल जाने वाला उत्तम या निम्न कोटि का जैसा भी भोजन,वस्त्र तथा बिस्तर हो, उसे स्वीकार करे।

    शौचमाचमन स्नान न तु चोदनया चरेत्‌ ।अन्‍्यांश्व नियमाउल्नानी यथाह लीलयेश्वरः ॥

    ३६॥

    शौचम्‌--सामान्य स्वच्छता; आचमनम्‌--जल से हाथ साफ करना; स्नानमू--स्नान करना; न--नहीं; तु--निस्सन्देह;चोदनया--बल पूर्वक; चरेत्‌--सम्पन्न करे; अन्यान्‌-- अन्य; च-- भी; नियमान्‌--नियमित कार्य ; ज्ञानी -- जिसने मेरा ज्ञान प्राप्तकर लिया है; यथा--जिस तरह; अहम्‌--मैं; लीलया--स्वेच्छा से; ईश्वर: --परमेश्वर

    जिस तरह मैं भगवान्‌ होते हुए, स्वेच्छा से अपने नैत्यिक कर्म करता हूँ, उसी तरह मेरा ज्ञानप्राप्त कर चुकने वाले को सामान्य स्वच्छता बरतनी चाहिए, अपने हाथों को जल से साफ करनाचाहिए, स्नान करना चाहिए और अन्य नियमित कार्यों को किसी दबाव से नहीं बल्कि स्वेच्छासे सम्पन्न करना चाहिए।

    नहि तस्य विकल्पाख्या या च मद्वीक्षया हता ।आदेहान्तात्क्वचित्ख्यातिस्तत: सम्पद्यते मया ॥

    ३७॥

    न--नहीं; हि--निश्चय ही; तस्य--ज्ञान का; विकल्प--कृष्ण से पृथक्‌ किसी वस्तु की; आख्या--अनुभूति; या--जो; च--भी; मत्‌-मेरे; वीक्षया--ज्ञान द्वारा; हता--विनष्ट; आ--तब तक; देह--शरीर की; अन्तात्‌--मृत्यु; क्वचित्‌--कभी कभी;ख्याति:--ऐसी अनुभूति; ततः--तब; सम्पद्यते--समान ऐश्वर्य पाता है; मया--मेरे साथ |

    ज्ञानी किसी भी वस्तु को मुझसे पृथक्‌ नहीं देखता क्योंकि मेरा ज्ञान हो जाने से वह ऐसीभ्रामक अनुभूति को नष्ट कर चुका होता है। चूँकि भौतिक देह तथा मन ऐसी अनुभूति के लिएपहले से अभ्यस्त होते हैं अत: ऐसी अनुभूति की पुनरावृत्ति हो सकती है, किन्तु मृत्यु के समयऐसा ज्ञानी मेरे समान ही ऐश्वर्य प्राप्त करता है।

    दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान्‌ ।अज्ज्ञासितमद्धर्मो मुनिं गुरुमुपब्रजेत्‌ू ॥

    ३८॥

    दुःख--दुख; उदर्केषु-- भावी फल के रूप में; कामेषु--इन्द्रियतृप्ति में; जात--उत्पन्न; निर्वेद:--विरक्ति; आत्म-वान्‌ू--जीवनमें आध्यात्मिक सिद्धि का इच्छुक; अजिज्ञासित--ठीक से विचार न करने वाला; मत्‌--मुझको; धर्म:--प्राप्त करने की विधि;मुनिम्‌--ज्ञानी व्यक्ति; गुरुम्‌-गुरु के पास; उपब्रजेतू--जाये।

    जो व्यक्ति इन्द्रितृष्ति के फल को दुखदायी जानते हुए, उससे विरक्त है और जोआध्यात्मिक सिद्धि चाहता है, किन्तु जिसने मुझे प्राप्त करने की विधि का गम्भीरता सेविश्लेषण नहीं किया है, उसे प्रामाणिक तथा विद्वान गुरु के पास जाना चाहिए।

    तावत्परिचरेद्धक्त: श्रद्धावाननसूयक: ।यावद्गह्म विजानीयान्मामेव गुरुमाहत: ॥

    ३९॥

    तावत्‌--तब तक; परिचरेत्‌--सेवा करे; भक्त:--भक्त; श्रद्धा-वान्‌-- श्रद्धा समेत; अनसूयक:--ईर्ष्या-द्वेष के बिना रह कर;यावत्‌--जब तक; ब्रह्म--आध्यात्मिक ज्ञान; विजानीयात्‌--अच्छी तरह जान लेता है; माम्‌ू--मुझको; एव--निस्सन्देह;गुरुम्‌ू-गुरु; आहत:--आदर समेत

    जब तक भक्त को पूरी तरह आध्यात्मिक ज्ञान की अनुभूति न हो ले, उसे चाहिए कि परमश्रद्धा तथा आदरपूर्वक एवं ट्वेषहहित होकर गुरु की सेवा करे, क्योंकि गुरु मुझसे अभिन्न होताहै।

    यस्त्वसंयतषड्वर्ग: प्रचण्डेन्द्रियसारथि: ।ज्ञानवैराग्यरहितस्त्रिदण्डमुपजीवति ॥

    ४०॥

    सुरानात्मानमात्मस्थं निहुते मां च धर्महा ।अविपक्वकषायो स्मादमुष्माच्च विहीयते ॥

    ४१॥

    यः--जो; तु--लेकिन; असंयत--वश में न करके; षट्‌ू--छह; वर्ग:--कल्मष का प्रकार; प्रचण्ड-- भयानक; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; सारथि:--चालक, बुद्धि; ज्ञान--ज्ञान का; वैराग्य--तथा वैराग्य; रहित:--विहीन; त्रि-दण्डम्‌ू--संन्यास आश्रम;उपजीवति--अपने जीवन-निर्वाह के लिए प्रयुक्त करते हुए; सुरान्‌--पूज्य देवताओं; आत्मानमू--अपने को; आत्म-स्थम्‌--अपने में स्थित; निहुते--अस्वीकार करता है; मामू--मुझको; च-- भी; धर्महा--धर्म का विनष्ट करने वाला; अविपक्व--जोलीन न हो पाया हो; कषाय:--कल्मष; अस्मात्‌--इस जगत से; अमुष्मात्‌--अगले जीवन से; च--भी; विहीयते--विपथ होजाता है।

    जिसने छह प्रकार के मोहों ( काम, क्रोध, लोभ, उत्तेजना, मिथ्या अहंकार तथा नशा ) परनियंत्रण नहीं पा लिया, जिसकी बुद्धि जो कि इन्द्रियों की अगुवा है, भौतिक वस्तुओं परअत्यधिक आसक्त रहती है, जो ज्ञान तथा वैराग्य से रहित हैं, जो अपनी जीविका चलाने के लिएसंन्यास ग्रहण करता है, जो पूज्य देवताओं, स्वात्म तथा अपने भीतर के परमेश्वर को अस्वीकारकरता है और इस तरह सारा धर्म नष्ट कर देता है और जो अब भी भौतिक कल्मष से दूषित रहताहै, वह विपथ होकर इस जन्म को तथा अगले जन्म को भी विनष्ट कर देता है।

    भिक्षोर्धर्म: शमोहिंसा तप ईक्षा वनौकस:ः ।गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्थाचार्यसेवनम्‌ ॥

    ४२॥

    भिक्षो:--संन्यासी का; धर्म:--मुख्य धार्मिक सिद्धान्त; शम:--समता; अहिंसा--अहिंसा; तप: --तपस्या; ईक्षा-- भेदभाव( मन तथा शरीर में ); बन--जंगल में; ओकस:--वास करने वाले का, वानप्रस्थ का; गृहिण:--गृहस्थ का; भूत-रक्षा--समस्तजीवों को शरण प्रदान करते हुए; इज्या--यज्ञ सम्पन्न करना; द्वि-जस्य--ब्रह्मचारी का; आचार्य--गुरु; सेवनम्‌--सेवा |

    संन्यासी के मुख्य धार्मिक कार्य हैं समता तथा अहिंसा जबकि तपस्या तथा शरीर औरआत्मा के अन्तर का दार्शनिक ज्ञान ही वानप्रस्थ में प्रधान होते हैं। गृहस्थ के मुख्य कर्तव्य हैं सारेजीवों को आश्रय देना तथा यज्ञ सम्पन्न करना और ब्रह्मचारी मुख्यतया गुरु की सेवा करने में लगा रहता है।

    ब्रह्मचर्य तप: शौच सनन्‍्तोषो भूतसौहदम्‌ ।गृहस्थस्याप्यृतौ गन्तु: सर्वेषां मदुपासनम्‌ ॥

    ४३॥

    ब्रह्म-चर्यम्‌-ब्रह्मचर्य; तप: --तपस्या; शौचम्‌--आसक्ति रहित मन की शुद्धता; सनन्‍्तोष:--पूर्ण सन्‍्तोष; भूत--सारे जीवों केप्रति; सौहदम्‌--मैत्री; गृहस्थस्य--गृहस्थ की; अपि-- भी; ऋतौ-- उचित समय पर; गन्तु:--अपनी पतली के पास जाकर;सर्वेषाम्‌--सभी मनुष्यों की; मत्‌--मेरी; उपासनम्‌ू--पूजा |

    गृहस्थ को चाहिए कि सन्‍्तान उत्पन्न करने के लिए ही नियत समय पर अपनी पत्नी के साथसंभोग ( सहवास ) करे। अन्यथा वह ब्रह्मचर्य तपस्या, मन तथा शरीर की स्वच्छता, अपनेस्वाभाविक पद पर संतोष तथा सभी जीवों के प्रति मैत्री का अभ्यास करे। मेरी पूजा तो वर्णअथवा आश्रम का भेदभाव त्याग कर सबों को करनी चाहिए।

    इति मां यः स्वधर्मेण भजेन्नित्यमनन्यभाक्‌ ।सर्वभूतेषु मद्भावो मद्भक्ति विन्दते हढाम्‌ ॥

    ४४॥

    इति--इस प्रकार; माम्‌--मुझको; यः--जो; स्व-धर्मेण-- अपने नियत कर्तव्य द्वारा; भजेत्‌ू--पूजा करता है; नित्यम्‌ू--सदैव;अनन्य-भाक्‌--पूजा की अन्य सामग्री से नहीं; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों में; मत्‌--मेरे; भाव:--अवगत; मत्‌-भक्तिम्‌ू--मेरीभक्ति; विन्दते--प्राप्त करता है; हढामू--अटल।

    जो व्यक्ति अनन्य भाव से मेरी पूजा करता है और जो सारे जीवों में मुझे उपस्थित समझताहै, वह मेरी अविचल भक्ति प्राप्त करता है।

    भक्त्योद्धवानपायिन्या सर्वलोकमहे श्वरम्‌ ।सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मोपयाति सः ॥

    ४५॥

    भक्त्या--प्रेमाभक्ति से; उद्धव--हे उद्धव; अनपायिन्या--अचल; सर्व--समस्त; लोक--लोकों के; महा-ई श्वरम्‌ -- परमेश्वरको; सर्व--हर वस्तु की; उत्पत्ति--सृष्टि का कारण; अप्ययम्‌--तथा संहार का; ब्रह्म--परब्रह्मय; कारणम्‌--ब्रह्मण्ड काकारण; मा--मेरे पास; उपयाति--आता है; सः--वह।

    हे उद्धव, मैं सारे लोकों का परमेश्वर हूँ और परम कारण होने से, मैं इस ब्रह्माण्ड का सृजनऔर विनाश करता हूँ। इस तरह मैं परब्रह्म हूँ और जो अविचल भक्ति के साथ मेरी पूजा करताहै, वह मेरे पास आता है।

    इति स्वधर्मनिर्णिक्तसत्त्वो निर्ज्नातमद्‌गति: ।ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो न चिरात्समुपैति माम्‌ ॥

    ४६॥

    इति--इस प्रकार; स्व-धर्म--अपना नियत कार्य करके; निर्णिक्त--शुद्ध करके; सत्त्वः--अपना जीव; निर्ज्ञत--पूरी तरहजानते हुए; मत्‌-गति:--मेरा परम पद; ज्ञान--शास्त्रीय ज्ञान से; विज्ञान--तथा आत्म-ज्ञान से; सम्पन्न:--युक्त; न चिरात्‌ू--निकट भविष्य में; समुपैति--ठीक से प्राप्त करता है; मामू--मुझको |

    इस तरह जो अपने नियत कर्म करके अपने जीवन को शुद्ध कर चुका होता है, जो मेरे परमपद को पूरी तरह से समझता है और जो शास्त्रीय तथा स्वरूपसिद्ध ज्ञान से युक्त होता है, वहशीघ्र ही मुझे प्राप्त करता है।

    वर्णाश्रमवतां धर्म एब आचारलक्षण: ।स एव मद्धक्तियुतो नि: श्रेयसकरः पर: ॥

    ४७॥

    वर्णाश्रम-वताम्‌--वर्णा श्रम प्रणाली के अनुयायियों का; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; एब:--यह; आचार--प्रामाणिक प्रथा केअनुसार उचित आचरण द्वारा; लक्षण:--लक्षणों से युक्त; सः--वह; एव--निस्सन्देह; मत्‌-भक्ति--मेरी भक्ति से; युत:--युक्त;निःश्रेयस--जीवन की सर्वोच्च सिद्धि; कर:--देने वाला; पर:--परम |

    जो इस वर्णाश्रम प्रणाली के अनुयायी हैं, वे उचित आचार की प्रामाणिक प्रथाओं केअनुसार धार्मिक सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं। जब प्रेमाभक्ति में ऐसे वर्णाश्रम कर्म मुझेअर्पित किये जाते हैं, तो वे जीवन की चरम सिद्धि देने वाले होते हैं।

    एतत्तेडभिहितं साधो भवान्पृच्छति यच्च माम्‌ ।यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात्परम्‌ ॥

    ४८॥

    एतत्‌--यह; ते--तुमसे; अभिहितमू--कहा गया; साधो--हे साधु उद्धव; भवान्‌--तुमने; पृच्छति--पूछा है; यत्‌ू--जो; च--तथा; माम्‌--मुझसे; यथा--साधन जिनसे; स्व-धर्म--अपने नियत कर्तव्य में; संयुक्त: --पूरी तरह लगा हुआ; भक्त:--भक्तहोने से; मामू--मेरे पास; समियात्‌--आ सके; परम्‌ू--परम |

    हे साधु उद्धव, तुमने जैसा पूछा मैंने तुम्हें वे सारे साधन बतला दिये हैं, जिनसे अपने नियतकर्म में लगा हुआ मेरा भक्त मेरे पास वापस आ सकता है।

    TO

    19.आध्यात्मिक ज्ञान की पूर्णता

    श्रीभगवानुवाचयो विद्याश्रुतसम्पन्न: आत्मवान्नानुमानिक: ।मयामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि सन्न्यसेत्‌ ॥

    १॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; य:--जो; विद्या--अनुभूत ज्ञान से; श्रुत--तथा प्रारम्भिक शास्त्रीय ज्ञान से; सम्पन्न:--युक्त; आत्म-वान्‌--स्वरूपसिद्ध; न--नहीं; आनुमानिक: --निर्विशेष चिन्तन में संलग्न; माया--मोह; मात्रमू--एकमात्र;इदम्‌--यह ब्रह्माण्ड; ज्ञात्वा--जान कर; ज्ञानम्‌--ऐसा ज्ञान तथा उसे प्राप्त करने के साधन; च-- भी; मयि-- मुझमें;सन्न्यसेत्‌--आत्मसमर्पण करे, शरण ग्रहण करे।

    भगवान्‌ ने कहा : जिस स्वरूपसिद्ध व्यक्ति ने प्रकाश पाने तक शास्त्रीय ज्ञान का अनुशीलनकिया है और जो भौतिक ब्रह्माण्ड को मात्र मोह समझ कर, निर्विशेष चिन्तन से मुक्त होता है,उसे चाहिए कि वह उस ज्ञान को तथा उसे प्राप्त करने वाले साधनों को मुझे समर्पित कर दे।

    ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्ट: स्वार्थों हेतुश्न सम्मतः ।स्वर्गश्नैवापवर्गश्व नान्योर्थों महते प्रियः ॥

    २॥

    ज्ञानिन:--विद्वान स्वरूपसिद्ध दार्शनिक का; तु--निस्सन्देह; अहम्‌--मैं; एब--एकमात्र; इष्ट:--पूजा की वस्तु; स्व-अर्थ: --वांछित जीवन-लक्ष्य; हेतु:--जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने के लिए साधन; च--भी; सम्मत:--नश्विति मत; स्वर्ग:--स्वर्ग जाने केसारे सुख का कारण; च--भी; एव--निस्सन्देह; अपवर्ग:--सारे दुख से मुक्ति; च-- भी; न--नहीं; अन्य: --कोई दूसरा;अर्थ: --उद्देश्य; मत्‌--मुझको; ऋते--रहित; प्रिय: --प्रिय वस्तु

    विद्वान स्वरूपसिद्ध दार्शनिकों के लिए मैं एकमात्र पूजा का लक्ष्य, इच्छित जीवन-लक्ष्य,उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन तथा समस्त ज्ञान का निश्चित मत हूँ। चूँकि मैं उनके सुखका तथा दुख से विमुक्ति का कारण हूँ, अतः ऐसे विद्वान व्यक्ति एकमात्र मुझे ही जीवन काप्रभावशाली उद्देश्य या प्रिय लक्ष्य बनाते हैं।

    ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पद श्रेष्ठ विदुर्मम ।ज्ञानी प्रियतमोतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम्‌ ॥

    ३॥

    ज्ञान--शाल्त्रीय ज्ञान; विज्ञान--तथा अनुभूत आध्यात्मिक ज्ञान में; संसिद्धा:--परम पूर्ण; पदम्‌--चरणकमल; श्रेष्ठम्‌-- श्रेष्ठवस्तु; विदु:--जानते हैं; मम--मेरा; ज्ञानी--विद्वान योगी; प्रिय-तम:--सर्वाधिकप्रिय; अतः --इस तरह; मे--मुझको;ज्ञानेन--आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा; असौ--वह विद्वान पुरुष; बिभर्ति-- धारण करता है ( सुख में ); मामू--मुझको |

    जिन्होंने दार्शनिक तथा अनुभूत ज्ञान द्वारा पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर ली है, वे मेरे चरणकमलोंको परम दिव्य वस्तु मानते हैं। इस प्रकार का विद्वान योगी मुझे अत्यन्त प्रिय होता है और इसपूर्ण ज्ञान से वह मुझे सुख में धारण किये रखता है।

    तपस्तीर्थ जपो दान पवित्राणीतराणि च ।नालं कुर्वन्ति तां सिद्धि या ज्ञाककललया कृता ॥

    ४॥

    तपः--तपस्या; तीर्थम्‌--तीर्थस्थान जाकर; जपः--मौन प्रार्थना करके; दानम्‌--दान; पवित्राणि--पुण्य कार्य; इतराणि--अन्य; च-- भी; न--नहीं; अलम्‌--उसी स्तर तक; कुर्वन्ति--प्रदान करते हैं; तामू--यह; सिद्द्विमू--सिद्धि; या--जो; ज्ञान--आध्यात्मिक ज्ञान; कलया--एक अंश; कृता--पुरस्कृत किया जाता है।

    जो सिद्धि आध्यात्मिक ज्ञान के एक अंशमात्र से उत्पन्न होती है, वह तपस्या करने,तीर्थस्थानों में जाने, मौन प्रार्थना करने, दान देने अथवा अन्य पुण्यकर्मो में लगने से प्राप्त नहींकी जा सकती।

    तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव ।ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावतः ॥

    ५॥

    तस्मात्‌--इसलिए; ज्ञानेन--ज्ञान; सहितम्‌--सहित; ज्ञात्वा--जान कर; स्व-आत्मानम्‌--अपने आप को; उद्धव--हे उद्धव;ज्ञान--वैदिक ज्ञान; विज्ञान--तथा स्पष्ट अनुभूति से; सम्पन्न:--युक्त; भज--पूजा करो; माम्‌--मेरी; भक्ति-- प्रेमाभक्ति के;भावतः--भाव में |

    इसलिए हे उद्धव, तुम ज्ञान के द्वारा अपने वास्तविक आत्मा को जानो। तत्पश्चात्‌ अपनेवैदिक ज्ञान की स्पष्ट अनुभूति से आगे बढ़ते हुए प्रेमाभक्ति भाव से मेरी पूजा करो।

    ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्टात्मानमात्मनि ।सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धि मुन॒योगमन्‌ ॥

    ६॥

    ज्ञान--वैदिक ज्ञान; विज्ञान--तथा आध्यात्मिक प्रबुद्धता का; यज्ञेन--यज्ञ द्वारा; मामू--मुझको; इष्टा--पूज कर; आत्मानम्‌--प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के भीतर परमेश्वर को; आत्मनि--अपने भीतर; सर्व--समस्त; यज्ञ--यज्ञों के; पतिम्‌ू-- स्वामी; माम्‌--मुझ को; बै--निश्चय ही; संसिद्धिमू--परम सिद्धि; मुन॒यः--मुनिगण; अगमन्‌--प्राप्त किया।

    पुराकाल में बड़े बड़े मुनि वैदिक ज्ञान तथा आध्यात्मिक प्रबुद्धता रूपी यज्ञ के द्वारा यहजानते हुए अपने अन्तःकरण में मेरी पूजा करते थे कि मैं ही समस्त यज्ञों का परमेश्वर तथा प्रत्येकहृदय में परमात्मा हूँ। इस तरह मेरे पास आने से इन मुनियों ने परम सिद्धि प्राप्त की।

    त्वय्युद्धवा श्रयति यस्त्रिविधो विकारोमायान्तरापतति नाह्पवर्गयोर्यत्‌ ।जन्मादयोस्य यदमी तव तस्य किं स्यु-राह्मन्तयोर्यद्सतोस्ति तदेव मध्ये ॥

    ७॥

    त्वयि--तुममें; उद्धव--हे उद्धव; आश्रयति--प्रवेश करके रहता जाता है; यः--जो; त्रि-विध: --गुणों के अनुसार तीन विभाग;विकार:--( शरीर तथा मन जिनसे प्रभावित होते हैं ऐसे ) निरन्तर रूपान्तर; माया--मोह; अन्तरा--वर्तमान समय में;आपतति--सहसा प्रकट होता है; न--नहीं; आदि--प्रारम्भ में; अपवर्गयो:ः--न तो अन्त में; यत्‌--चूँकि; जन्म--जन्म;आदय: --इत्यादि ( वृद्धि, जन्म, पालन, जरा, मृत्यु); अस्य--शरीर का; यत्‌--जब; अमी --ये; तव--तुम्हारे सम्बन्ध में;तस्य--आध्यात्मिक प्रकृति के सम्बन्ध में; किमू--क्या सम्बन्ध; स्यु:--हो सकते हैं; आदि--प्रारम्भ में; अन्तयो: --तथा अन्तमें; यत्‌--चूँकि; असत:ः--जिसका अस्तित्व नहीं है उसका; अस्ति--अस्तित्व है; तत्‌ू--वह; एब--निस्सन्देह; मध्ये--मध्य में,सम्प्रति।

    हे उद्धव, प्रकृति के तीन गुणों से निर्मित भौतिक शरीर तथा मन तुमसे लिपटे रहते हैं,किन्तु, वास्तव में, वे माया हैं क्योंकि वे वर्तमान काल में ही प्रकट होते हैं। इनका कोई आदि याअन्त नहीं है। इसलिए यह कैसे सम्भव हो सकता है कि शरीर की विभिन्न अवस्थाएँ--यथाजन्म, वृद्धि, प्रजनन, पालन, जरा तथा मृत्यु--तुम्हारी नित्य आत्मा से कोई सम्बन्ध रखते हों?इन अवस्थाओं का सम्बन्ध एकमात्र भौतिक देह से है, जिसका न तो इसके पूर्व अस्तित्व थाऔर न रहेगा। शरीर केवल वर्तमान काल में ही रहता श्रीउद्धव उवाच ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथेत-द्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम्‌ ।आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्तेत्वद्धक्तियोगं च महद्विमृग्यम्‌ ॥

    ८ ॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; ज्ञानम्‌ू--ज्ञान; विशुद्धम्‌--दिव्य; विपुलम्‌--विस्तृत; यथा--जिस तरह; एतत्‌--यह;वैराग्य--विरक्ति; विज्ञान--तथा सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति; युतम्‌--से युक्त; पुराणम्‌--महान्‌ दार्शनिकों के मध्य परम्परागत;आख्याहि--कृपा करके बतलायें; विश्व-ईश्वर--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्व-मूर्ते--हे ब्रह्माण्ड के रूप; त्वत्‌--तुम्हारे प्रति;भक्ति-योगमू-प्रेमाभक्ति; च-- भी; महत्‌--महान्‌ आत्माओं द्वारा; विमृग्यम्‌ू--खोजे जाते।

    श्री उद्धव ने कहा : हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड स्वरूप, कृपा करके मुझे ज्ञान की वहविधि बतलाइये जो स्वत: विरक्ति तथा सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति लाने वाली है, जो दिव्य है औरमहान्‌ आध्यात्मिक दार्शनिकों में परम्परा से चली आ रही है। महापुरुषों द्वारा खोजा जाने वालायह ज्ञान आपके प्रति प्रेमाभक्ति को बताने वाला है।

    तापत्रयेणाभिहतस्य घोरेसन्तप्यमानस्य भवाध्वनीश ।'पश्यामि नान्यच्छरणं तवाडूप्रि-इन्द्दातपत्रादमृताभिवर्षात्‌ ॥

    ९॥

    ताप--कष्टों द्वारा; त्रयेण--तीन; अभिहतस्य---अभिभूत हुए का; घोरे--घोर; सन्तप्यमानस्थ--सताये हुए का; भव--संसारका; अध्वनि--मार्ग में; ईश--हे ईश्वर; पश्यामि--देखता हूँ; न--कोई नहीं; अन्यत्‌--दूसरी; शरणम्‌--शरण; तव--तुम्हारा;अड्प्रि--चरणकमल; द्वन्द्द--दो का; आतपत्रात्‌ू--छाते की अपेक्षा; अमृत--अमृत की; अभिवर्षात्‌--वर्षा |

    हे प्रभु, जो व्यक्ति जन्म तथा मृत्यु के घोर मार्ग में सताया जा रहा है और तीनों तापों सेनिरन्तर अभिभूत रहता है, उसके लिए मुझे आपके दो चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य कोईसम्भव आश्रय नहीं दिख रहा। ये उस सुखदायक छाते के तुल्य हैं, जो स्वादिष्ट अमृत की वर्षाकरता है।

    दष्टे जनं सम्पतितं बिलेस्मिन्‌कालाहिना क्षुद्रसुखोरुतर्षम्‌ ।समुद्धैनं कृपयापवर््यै-वचोभिरासिज्ञ महानुभाव ॥

    १०॥

    दष्टमू--काटा हुआ; जनम्‌--मनुष्य; सम्पतितमू--पतित; बिले--अंधेरे छेद में; अस्मिन्‌ू--इस; काल--समय का; अहिना--सर्प द्वारा; क्षुद्र--नगण्य; सुख--सुख; उरुू--तथा भीषण; तर्षम्‌--लालसा; समुद्धर--कृपया ऊपर उठा लें; एनम्‌ू--यहव्यक्ति; कृपया--आपकी अहैतुकी कृपा से; आपवर्ग्यं:--मोक्ष के लिए जागृत; वचोभि:--आपके शब्दों से; आसिज्ञ--सींचिये; महा-अनुभाव-ह

    हे प्रभुहे सर्वशक्तिमान प्रभु, कृपा कीजिये और इस निराश जीव को, जो अंधेरे भवकूप में गिरगया है जहाँ कालरूपी सर्प ने उसे डस लिया है, ऊपर उठाइये। ऐसी गर्हित अवस्था होते हुए भी यह बेचारा जीव अत्यन्त क्षुद्र भौतिक सुख भोगने की उत्कट इच्छा से युक्त है। हे प्रभु, आपअपने उस उपदेशामृत को छिड़क कर मेरी रक्षा कीजिये, जो आध्यात्मिक मुक्ति के लिए जागृतकरने वाला है।

    श्रीभगवानुवाचइत्थमेतत्पुरा राजा भीष्म॑ धर्मभूतां वरम्‌ ।अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोउनुश्रण्वताम्‌ ॥

    ११॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; इत्थम्‌--इस प्रकार; एतत्‌--यह; पुरा--प्राचीन काल में; राजा--राजा; भीष्मम्‌-- भीष्मसे; धर्म--धार्मिक सिद्धान्त के; भूतामू--धारण करने वालों; वरम्‌-- श्रेष्ठ; अजात-शत्रु:--जिसके कोई शत्रु नहीं माना जाता,राजा युधिष्टिर, ने; पप्रच्छ--पूछा; सर्वेषामू--सबों के; नः--हम; अनुश्रृण्वताम्‌-ध्यानपूर्वक सुनते समय |

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, जिस तरह तुम मुझसे पूछ रहे हो, उसी तरह भूतकाल में राजायुथिष्ठटिर ने जिन्हें अजातशत्रु कहा जाता है, धर्म के महानतम धारणकर्ता भीष्मदेव से पूछा थाऔर हम सभी ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।

    निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविहलः ।श्रुत्वा धर्मान्बहून्पश्चान्मोक्षधर्मानपूच्छत ॥

    १२॥

    निवृत्ते--समाप्त होने पर; भारते--भारत के वंशजों ( कुरुओं तथा पाण्डवों के ); युद्धे--युद्ध में; सुहृत्‌-- अपने प्रियशुभचिन्तकों के; निधन--विनाश से; विह्ल:--अभिभूत; श्रुत्वा--सुन कर; धर्मानू--धार्मिक नियम; बहूनू--अनेक;पश्चात्‌-अन्त में; मोक्ष--मोक्ष सम्बन्धी; धर्मान्‌--धार्मिक सिद्धान्त; अपृच्छत--पूछा |

    जब कुरुक्षेत्र का महान्‌ युद्ध समाप्त हो गया, तो राजा युधिष्ठिर अपने प्रिय हितैषियों कीमृत्यु से विहल थे। इस तरह अनेक धार्मिक सिद्धान्तों के विषय में उपदेश सुन कर, अन्त मेंउन्होंने मोक्ष-मार्ग के विषय में जिज्ञासा की थी।

    तानहं तेउभिधास्थामि देवव्नरतमखाच्छुतान्‌ ।ज्ञानवैराग्यविज्ञानश्रद्धाभक्त्युपबृंहितान्‌ू ॥

    १३॥

    तानू--उनको; अहम्‌--मैं; ते-- तुमसे; अभिधास्यामि--कहूँगा; देव-ब्रत-- भीष्मदेव के; मुखात्‌--मुख से; श्रुतान्‌--सुने हुए;ज्ञान--वैदिक ज्ञान; वैराग्य--विरक्ति; विज्ञान--आत्म-अनुभूति; श्रद्धा-- श्रद्धा; भक्ति--तथा भक्ति; उप-बृंहितान्‌--से युक्त |

    अब मैं तुमसे भीष्मदेव के मुख से सुने वैदिक ज्ञान, विरक्ति, आत्म-अनुभूति, श्रद्धा तथाभक्ति के उन धार्मिक सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा।

    नवैकादश पज्ञ त्रीन्भावान्भूतेषु येन वै ।ईक्षेताथाइकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम्‌ ॥

    १४॥

    नव--नौ; एकादश- ग्यारह; पश्च--पाँच; त्रीन्‌ू--तीन; भावान्‌--तत्त्वों को; भूतेषु--सारे जीवों ( ब्रह्मा से लेकर अचर जीवों )में; येन--जिस ज्ञान से; बै--निश्चय ही; ईक्षेत--देखे; अथ--इस प्रकार; एकम्‌--एक तत्त्व; अपि--निस्सन्देह; एघु--इनअट्ठाईस तत्त्वों में; तत्‌--वह; ज्ञानमू--ज्ञान; मम--मेरे द्वारा; निश्चितम्‌--निर्धारित किया गया ।

    मैं स्वयं उस ज्ञान को निश्चित करता हूँ जिससे मनुष्य सारे जीवों में नौ, ग्यारह, पाँच तथातीन तत्त्वों का संमेल देखता है और अन्त में इन अट्ठाईस तत्त्वों के भीतर केवल एक तत्त्व देखताहै।

    एतदेव हि विज्ञानं न तथेकेन येन यत्‌ ।स्थित्युत्पत्त्यप्ययान्पश्येद्धावानां त्रिगुणात्मनाम्‌ ॥

    १५॥

    एतत्‌--यह; एव--निस्सन्देह; हि--वास्तव में; विज्ञानम्‌-- अनुभूत ज्ञान; न--नहीं; तथा--उसी तरह से; एकेन--एक( भगवान्‌ ) द्वारा; येन--जिसके द्वारा; यत्‌ू--जो ( ब्रह्माण्ड ); स्थिति--पालन; उत्पत्ति--सृजन; अप्ययान्‌--तथा संहार;पश्येतू-देखे; भावानामू--सभी भौतिक तत्त्वों के; त्रि-गुण--प्रकृति के तीन गुणों के; आत्मनाम्‌--से बना

    जब कोई व्यक्ति एक ही कारण से उत्पन्न २८ पृथक्‌ पृथक्‌ भौतिक तत्त्वों को न देख कर,एक कारण रूप भगवान्‌ को देखता है, उस समय मनुष्य का प्रत्यक्ष अनुभव विज्ञान कहलाताहै।

    जब सारी अवस्थाओं का प्रलय हो जाता है, तो भी जो अकेला बचता है, वही एक शाश्वत है।श्रुति: प्रत्यक्षमैतिहामनुमानं चतुष्टयम्‌ ।प्रमाणेष्वनवस्थानाद्विकल्पात्स विरज्यते ॥

    १७॥

    श्रुतिः:--वैदिक ज्ञान; प्रत्यक्षमू--सीधा अनुभव; ऐतिहाम्‌ू--परम्परागत विद्या; अनुमानम्‌--तार्किक अनुमान; चतुष्टयम्‌--चार;प्रमानेषु--सभी प्रकार के प्रमाणों में से; अनवस्थानात्‌-- अस्थिरता के कारण; विकल्पात्‌-- भौतिक विविधता से; सः--वहपुरुष; विरज्यते--विरक्त हो जाता है|

    वैदिक ज्ञान, प्रत्यक्ष अनुभव, परम्परागत विद्या ( ऐतिहा ) तथा तार्किक अनुमान--इन चारप्रकार के प्रमाणों से मनुष्य भौतिक जगत की अस्थिर दशा को समझ कर, इस जगत के द्वैत सेविरक्त हो जाता है।

    कर्मणां परिणामित्वादाविरिज्च्यादमड्रलम्‌ ।विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टबत्‌ ॥

    १८ ॥

    कर्मणाम्‌-- भौतिक कार्यों का; परिणामित्वात्‌-विकार ग्रस्त होने के कारण; आ--तक; विरिज्च्यातू--ब्रह्मलोक से;अमड्डलम्‌--अशुभ दुख; विपश्चित्‌-बुद्धिमान व्यक्ति; नश्वरम्‌--क्षणिक; पश्येत्‌--देखे; अदृष्टमू--जसिका अभी तक अनुभवनहीं किया जा सका; अपि--निस्सन्देह; दृष्ट-बत्‌--पहले अनुभव हुए के समान।

    बुद्धिमान पुरुष यह समझे कि कोई भी भौतिक कर्म निरन्तर परिवर्तित होता रहता है, यहाँतक कि ब्रह्मलोक में भी केवल दुख ही दुख है। निस्सन्देह, बुद्धिमान व्यक्ति यह समझ सकता हैकि जिस तरह सारी दृश्य वस्तुएँ क्षणिक हैं, उसी तरह ब्रह्माण्ड के भीतर सारी वस्तुओं का आदिऔर अन्त है।

    भक्तियोग: प्रैवोक्त: प्रीयमाणाय तेडनघ ।पुनश्च कथयिष्यामि मद्धक्ते: कारणं परं ॥

    १९॥

    भक्ति-योग:-- भगवद्भक्ति; पुरा--पूर्व काल में; एब--निस्सन्देह; उक्त:--बतलाया गया; प्रीयमाणाय--जिसने प्रेम उत्पन्न करलिया है; ते--तुम तक; अनघ--हे निष्पाप उद्धव; पुन:--फिर; च-- भी; कथयिष्यामि--बतलाऊँगा; मत्‌--मुझ तक;भक्तेः-- भक्ति का; कारणम्‌--असली कारण; परम्‌ू--परम |

    हे निष्पाप उद्धव, चूँकि तुम मुझे चाहते हो इसलिए मैं पहले ही तुम्हें भक्ति की विधि बतलाचुका हूँ। अब मैं तुमसे पुनः अपनी प्रेमाभक्ति पाने की श्रेष्ठ विधि बतलाऊँगा।

    श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम्‌ ।परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम ॥

    २०॥

    आदरः परिचर्यायां सर्वाड्रैरभिवन्दनम्‌ ।मद्धक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्‍्मति: ॥

    २१॥

    म्दर्थष्वड्रचेष्टा च वचसा मद्‌गुणेरणम्‌ ।मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविवर्जनम्‌ ॥

    २२॥

    मद्दर्थेर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च ।इष्टे दत्त हुतं जप्तं मरदर्थ यद्व्रतं तप: ॥

    २३॥

    एवं धर्मर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्‌ ।मयि सजझ्जायते भक्ति: कोउन्यो<र्थो स्थावशिष्यते ॥

    २४॥

    श्रद्धा-- श्रद्धा; अमृत-- अमृत में; कथायाम्‌ू--कथाओं के; मे--मेंरे विषयक; शश्वत्‌--सदैव; मत्‌--मेरे; अनुकीर्तनम्‌ू--महिमाका गायन; परिनिष्ठा--आसक्ति में स्थिर; च-- भी; पूजायाम्‌-पूजा करने में; स्तुतिभि:--सुन्दर स्तुतियों से; स्तवनम्‌--प्रार्थनाओं से; मम--मेरे विषय में; आदर: --सम्मान; परिचर्यायाम्‌-मेरी भक्ति के लिए; सर्व-अड्डैः--शरीर के सारे अंगों से,साष्टांग; अभिवन्दनम्‌--नमस्कार करना; मत्‌--मेरा; भक्त--भक्तों की; पूजा--पूजा; अभ्यधिका--मुझसे बढ़कर; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों में; मत्‌ू--मेरी; मतिः--चेतना; मत्‌-अर्थेषु--मेरी सेवा करने के निमित्त; अड्भ-चेष्टा--सामान्य शारीरिककर्म; च-- भी; वचसा--शब्दों से; मत्‌-गुण--मेरा दिव्य गुण; ईरणम्‌--घोषित करना; मयि--मुझमें; अर्पणम्‌--अर्पणकरना; च-- भी; मनस: --मन का; सर्व-काम--समस्त भौतिक इच्छाओं का; विवर्जनम्‌--बहिष्कार; मत्‌ू-अर्थ--मेरे लए;अर्थ--सम्पत्ति का; परित्याग:--छोड़ा जाना; भोगस्य--इन्द्रियतृप्ति का; च-- भी; सुखस्य-- भौतिक सुख का; च-- भी;इष्टम्‌--वांछित कर्म; दत्तमू--दान; हुतम्‌--यज्ञ की आहुति; जप्तम्‌--भगवन्नाम का कीर्तन; मत्‌-अर्थम्‌--मुझे पाने के लिए;यतू--जो; ब्रतम्‌--व्रत, यथा एकादशी; तपः--तपस्या; एवम्‌--इस प्रकार; धर्म:--ऐसे धार्मिक सिद्धान्तों से; मनुष्यानामू--मनुष्यों के; उद्धव--हे उद्धव; आत्म-निवेदिनामू--शरणागतों के; मयि--मुझमें; सज्जायते--उत्पन्न होता है; भक्ति: --प्रेमा भक्ति;कः--कौन; अन्य:--दूसरा; अर्थ:--उद्देश्य; अस्य--मेरे भक्त का; अवशिष्यते--बच रहता है।

    मेरी लीलाओं की आनन्दमयी कथाओं में हढ़ विश्वास, मेरी महिमा का निरन्तर कीर्तन, मेरीनियमित पूजा में गहन आसक्ति, सुन्दर स्तुतियों से मेरी प्रशंसा करना, मेरी भक्ति का समादर,साष्टांग नमस्कार, मेरे भक्तों की उत्तम पूजा, सारे जीवों में मेरी चेतना का ज्ञान, सामान्यशारीरिक कार्यों को मेरी भक्ति में अर्पण, मेरे गुणों का वर्णन करने के लिए वाणी का प्रयोग,मुझे अपना मन अर्पित करना, समस्त भौतिक इच्छाओं का बहिष्कार, मेरी भक्ति के लिएसम्पत्ति का परित्याग, भौतिक इन्द्रियतृप्ति तथा सुख का परित्याग तथा मुझे पाने के उद्देश्य सेदान, यज्ञ, कीर्तन, ब्रत, तपस्या इत्यादि वांछित कार्यों को सम्पन्न करना--ये वास्तविक धार्मिकसिद्धान्त हैं, जिनसे मेरे शरणागत हुए लोग स्वतः मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न कर लेते हैं। तो फिर मेरेभक्त के लिए कौन-सा अन्य उद्देश्य या लक्ष्य शेष रह जाता है ? यदात्मन्यर्पितं चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम्‌ ।धर्म ज्ञानं स वैराग्यमैश्वर्य चाभिपद्यते ॥

    २५॥

    यदा--जब; आत्मनि-- भगवान्‌ में; अर्पितम्‌--स्थिर; चित्तम्‌--चेतना; शान्तम्‌-शान्त; सत्त्व--सतोगुण द्वारा; उपबृंहितम्‌--संपुष्ट; धर्मम्‌--धधार्मिकता; ज्ञाममू--ज्ञान; सः--सहित; वैराग्यम्‌--वैराग्य; ऐश्वर्यमू--ऐश्वर्य; च-- भी; अभिपद्यते--प्राप्त करताहै

    जब सतोगुण से संतुष्ट शान्त चेतना भगवान्‌ पर स्थिर कर दी जाती है, तो मनुष्य कोधार्मिकता, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

    यदर्पितं तद्दिकल्पे इन्द्रियेः परिधावति ।रजस्वलं चासब्निष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम्‌ ॥

    २६॥

    यतू--जब; अर्पितम्‌ू--स्थिर; ततू--यह ( चेतना ); विकल्पे--भौतिक विविधता में ( शरीर, घर, परिवार आदि ); इन्द्रियै:--इन्द्रियों से; परिधावति--चारों ओर दौ लगाते; रज:-वलम्‌--रजोगुण से परिपुष्ट; च-- भी; असत्‌--जिसमें स्थायी सच्चाई नहींहै उसे; निष्ठमू--समर्पित; चित्तमू--चेतना; विद्धि--जानो; विपर्ययम्‌--( पूर्व वर्णित के ) विरुद्ध |

    जब मनुष्य की चेतना भौतिक देह, घर तथा इन्द्रियतृप्ति की ऐसी ही अन्य वस्तुओं पर टिकजाती है, तो वह इन्द्रियों की सहायता से भौतिक वस्तुओं के पीछे दौ लगाते-लगाते अपनाजीवन व्यतीत करता है। इस तरह रजोगुण से बलपूर्वक प्रभावित चेतना नश्वर वस्तुओं के प्रतिसमर्पित हो जाती है, जिससे अधर्म, अज्ञान, आसक्ति तथा नीचता ( कृपणता ) उत्पन्न होते हैं।

    धर्मो मद्धक्तिकृद्ोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्‌ ।गुणेस्वसड्ो वैराग्यमैश्वर्य चाणिमादय: ॥

    २७॥

    धर्म:--धर्म; मत्‌--मेरी; भक्ति-- भक्ति; कृतू--उत्पन्न करते हुए; प्रोक्त:--घोषित की जाती है; ज्ञानमू--ज्ञान; च--भी;ऐकात्म्य--परमात्मा की उपस्थिति; दर्शनम्‌--देखना; गुणेषु--इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में; असड्भ:--निर्लिप्त; वैराग्यम्‌ू--वैराग्य; ऐश्वर्यमू--ऐश्वर्य; च-- भी; अणिमा--अणिमा नामक योग-सिद्धि; आदयः-अन्द्‌ सो फोर्थ,

    वास्तविक धार्मिक सिद्धान्त वे हैं, जो मनुष्य को मेरी भक्ति तक ले जाते हैं। असली ज्ञानवह जानकारी है, जो मेरी सर्वव्यापकता को प्रकट करती है। इन्द्रियतृप्ति की वस्तुओं में पूर्णअरूचि ही वैराग्य है और अणिमा सिद्धि जैसी आठ सिद्ध्रियाँ ही ऐश्वर्य हैं।

    श्रीउद्धव उवाच यमः कतिविध: प्रोक्तो नियमो वारिकर्षण ।कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृति: प्रभो ॥

    २८॥

    कि दानं कि तपः शौर्य किम्सत्यमृतमुच्यते ।कस्त्याग: कि धन चेष्ट को यज्ञ: का च दक्षिणा ॥

    २९॥

    पुंसः किं स्विद्वलं श्रीमन्‍्भगो लाभश्व केशव ।का विद्या ही: परा का श्री: कि सुखं दुःखमेव च ॥

    ३०॥

    कः पण्डितः कश्च मूर्ख: कः पन्था उत्पथश्व कः ।कः स्वर्गो नरकः कः स्वित्को बन्धुरुत कि गृहम्‌ ॥

    ३१॥

    कक आढ्द्: को दरिद्रो वा कृपण: कः क ईश्वर: ।एतान्प्रश्नान्मम ब्रूहि विपरीतांश्व सत्पते ॥

    ३२॥

    श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यम:--अनुशासनात्मक नियम; कति-विध:--कितने भिन्न प्रकार के; प्रोक्त:--विद्यमानकहे जाते हैं; नियम: --नियमित नैत्यिक कार्य; वा--अथवा; अरि-कर्षण--हे शत्रु के दमनकर्ता, कृष्ण; कः--क्या है;शमः--मानसिक सन्तुलन; कः--क्या है; दमः--आत्मसंयम; कृष्ण--हे कृष्ण; का--क्या है; तितिक्षा--सहिष्णुता; धृति:--हढ़ता, धैर्य; प्रभो--हे प्रभु; किम्‌--क्या है; दानम्‌--दान; किम्‌ू-- क्या है; तपः--तपस्या; शौर्यम्‌--शूरता; किमू--क्या है;सत्यम्‌ू--सच्चाई; ऋतम्‌--सत्य; उच्यते--कहलाता है; कः--क्या है; त्याग: --वैराग्य; किमू--क्या है; धनमू--सम्पत्ति; च--भी; इष्टम्‌--इच्छित; कः--क्या है; यज्ञ:--यज्ञ; का--क्या है; च--भी; दक्षिणा-- धार्मिक पारिश्रमिक, दक्षिणा; पुंसः--पुरुष का; किम्‌ू--क्या है; स्वितू--निस्सन्देह; बलम्‌ू--बल; श्री-मन्‌--हे भाग्यवान्‌ कृष्ण; भग:--ऐश्वर्य; लाभ:--लाभ;च--भी; केशव--हे केशव; का--क्या है; विद्या--शिक्षा; हीः--दीनता, नप्नता; परा--परम; का--क्या है; श्री:--सौन्दर्य;किम्‌--क्या है; सुखम्‌--सुख; दुःखम्‌--दुख; एव--निस्सन्देह; च-- भी; कः--कौन है; पण्डित:--विद्वान; क:--कौन है;च--भी; मूर्ख: --मूर्ख; कः--क्या है; पन्‍्था:--असली मार्ग; उत्पथ:--झूठा मार्ग, कुमार्ग; च-- भी; कः--क्या है; कः--क्याहै; स्वर्ग:--स्वर्ग; नरक:--नरक; कः--क्या है; स्वित्‌--निस्सन्देह; कः--कौन है; बन्धु:--मित्र; उत--तथा; किम्‌--क्या है;गृहम्‌--घर; कः --कौन है; आढ्य:-- धनी; क:--कौन है; दरिद्र: --गरीब, निर्धन; वा--अथवा; कृपण:--कंजूस; कः --कौन है; क:ः--कौन है; ईश्वर:--नियन्ता; एतानू--इन; प्रश्नान्‌-- प्रश्नों को; मम--मुझसे; ब्रूहि--कृपया कहें; विपरीतान्‌--विरोधी गुण; च-- भी; सत्‌-पते--हे भक्तों के स्वामी |

    श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, हे शत्रुओं को दण्ड देने वाले, कृपा करके मुझसे यह बतायेंकि कितने प्रकार के अनुशासनात्मक नियम ( यम ) तथा नियमित दैनिक कार्य ( नियम ) हैं।यही नहीं, हे प्रभु, मुझे यह भी बतायें कि मानसिक संतुलन क्या है, आत्मसंयम क्या है औरसहिष्णुता तथा हृढ़ता का असली अर्थ क्‍या है? दान, तपस्या तथा शौर्य क्‍या हैं औरवास्तविकता तथा सच्चाई का किस तरह वर्णन किया जाता है ? त्याग क्या है और सम्पत्ति क्याहै? इच्छित कया है, यज्ञ क्या है और दक्षिणा क्‍या है? हे केशव, हे भाग्यवान्‌, मैं किस तरहकिसी व्यक्ति के बल, ऐश्वर्य तथा लाभ को समझूँ? सर्वोत्तम शिक्षा क्या है? वास्तविक नप्रताक्या है और असली सौन्दर्य क्या है ? सुख और दुख क्‍या हैं ? कौन विद्वान है और कौन मूर्ख है?जीवन के असली तथा मिथ्या मार्ग क्या हैं और स्वर्ग तथा नरक क्या हैं ? असली मित्र कौन हैऔर असली घर क्या है ? कौन धनी है और कौन निर्धन है ? कौन कंजूस है और कौन वास्तविक नियन्ता है? हे भक्तों के स्वामी, कृपा करके मुझे इन बातों के साथ साथ इनकी विपरीत बातें भीबतलायें।

    श्रीभगवानुवाचअहिंसा सत्यमस्तेयमसड़ो हीरसझ्ञयः ।आस्तिक्यं ब्रह्मचर्य च मौन स्थेर्य क्षमाभयम्‌ ॥

    ३३॥

    शौच जपस्तपो होम: श्रद्धातिथ्यं म्द्चनम्‌ ।तीर्थाटनं परार्थेहा तुप्टिराचार्यसेबनम्‌ ॥

    ३४॥

    एते यमा: सनियमा उभयोर्द्धादश स्मृता: ।पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहन्ति हि ॥

    ३५॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; अहिंसा--अहिंसा; सत्यम्‌ू--सत्य; अस्तेयमू-अन्यों की सम्पत्ति के लिए न तोललचाना, न चोरी करना; असड्ृः--विरक्ति; ही:--दीनता; असजञ्ञयः--अपरिग्रह; आस्तिक्यम्‌-- धर्म में विश्वास; ब्रह्मचर्यम्‌--ब्रह्मचर्य; च-- भी; मौनम्‌ू--मौन; स्थैर्यम्‌--स्थिरता; क्षमा-- क्षमा करना; अभयम्‌--निर्भीकता; शौचम्‌-- भीतरी तथा बाहरीस्वच्छता; जपः--भगवज्नाम का कीर्तन; तपः--तपस्या; होम: --यज्ञ; श्रद्धा-- श्रद्धा; आतिथ्यम्‌-- अतिथि-सत्कार; मत्‌-अर्चनम्‌--मेरी पूजा; तीर्थ-अटनमू्‌--ती ्थयात्रा करना; पर-अर्थ-ईह--परमे श्वर के लिए कर्म करना तथा इच्छा करना; तुष्टिः --सन्तोष; आचार्य-सेवनम्‌--गुरु-सेवा; एते--ये; यमा: -- अनुशासनात्मक नियम; स-नियमा:--गौण कार्यो के साथ; उभयो:--दोनों का; द्वादश--बारह; स्मृता:--जाने जाते हैं; पुंसाम्‌ू--मनुष्यों द्वारा; उपासिताः--भक्तिपूर्वक अनुशीलन किया गया;तात-हे उद्धव; यथा-कामम्‌-- अपनी इच्छानुसार; दुहन्ति--पूर्ति करते हैं; हि--निस्सन्देह |

    भगवान्‌ ने कहा : अहिंसा, सत्य, दूसरों की सम्पत्ति से लालायित न होना या चोरी न करना,बैराग्य, दीनता, अपरिग्रह, धर्म में विश्वास, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा तथा अभय--ये बारहमूल अनुशासनात्मक यम ( नियम ) हैं। आन्तरिक तथा बाह्य स्वच्छता, भगवतन्नाम कीर्तन, यज्ञ,श्रद्धा, आतिथ्य, मेरी पूजा, तीर्थाटन, केवल परम लक्ष्य के लिए कार्य करना तथा इच्छा करना,सनन्‍्तोष तथा गुरु-सेवा--ये बारह नियमित कार्य ( नियम ) हैं। ये चौबीसों कार्य उन लोगों कोइच्छित वर देने वाले हैं, जो उनका भक्तिपूर्वक अनुशीलन करते हैं।

    शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयम: ।तितिक्षा दुःखसम्मर्षो जिलह्ोपस्थजयो धृतिः ॥

    ३६॥

    दण्डन्यास: पर दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्‌ ।स्वभावविजय: शौर्य सत्यं च समदर्शनम्‌ ॥

    ३७॥

    अन्यच्च सुनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता ।कर्मस्वसड्रम: शौचं त्याग: सन्न्यास उच्चते ॥

    ३८॥

    धर्म इष्टे धनं नृणां यज्ञोह॑ भगवत्तम: ।दक्षिणा ज्ञानसन्देश: प्राणायाम: परं बलम्‌ ॥

    ३९॥

    शमः--मानसिक सनन्‍्तुलन; मत्‌--मुझमें; निष्ठता--निष्ठा; बुद्धेः --बुद्धि की; दमः--आत्मसंयम; इन्द्रिय--इन्द्रियों का;संयम:--पूर्ण अनुशासन; तितिक्षा--सहिष्णुता; दुःख--दुख; सम्मर्ष:--सहन करना; जिह्मा--जी भ; उपस्थ--जननेन्द्रिय;जय: --जीतना; धृति:--स्थिरता; दण्ड--आक्रामकता, छेड़छाड़; न्यास: --त्यागना; परमू--परम; दानमू--दान; काम--विषय-वासना; त्याग:--त्यागना; तपः--तपस्या; स्मृतम्‌--माना जाता है; स्वभाव-- भोग करने की सहज प्रवृत्ति; विजय:--जीत; शौर्यम्‌--वीरता; सत्यम्‌ू--सत्य; च-- भी; सम-दर्शनम्‌--पर मे श्वर का सर्वत्र दर्शन होना; अन्यत्‌--अगला तत्त्व( सच्चाई ); च--तथा; सु-नृता--मधुर; वाणी --वाणी; कविभि: --मुनियों द्वारा; परिकीर्तिता--घोषित; कर्मसु--सकाम कर्मोंमें; असड्रम:--विरक्ति; शौचम्‌--स्वच्छता; त्याग: --त्याग; सन्न्यास:--संन्यास आश्रम; उच्यते--कहलाता है; धर्म: --धार्मिकता; इष्टम्‌-इष्ट; धनमू--सम्पत्ति; नृणाम्‌--मनुष्यों के लिए; यज्ञ:--यज्ञ; अहम्‌--मैं हूँ; भगवत्‌-तम:-- भगवान्‌;दक्षिणा--दक्षिणा; ज्ञान-सन्देश:--सम्यक ज्ञान का उपदेश; प्राणायाम:-- ध्वास रोकने की योग-पद्धति; परमू--परम; बलम्‌--शक्ति

    मुझमें बुद्धि लगाना मानसिक सन्तुलन ( शम ) है और इन्द्रियों का पूर्ण संयम आत्मसंयम(दम ) है। सहिष्णुता का अर्थ है धैर्यपूर्वक दुख सहना। स्थिरता तब आती है जब मनुष्य जीभतथा जननेन्द्रियों पर विजय पा लेता है। सबसे बड़ा दान है अन्यों के प्रति सभी प्रकार कीछेड़छाड़ त्यागना। काम ( विषय-वासना ) का परित्याग ही असली तपस्या है। असली शौर्यभौतिक जीवन का भोग करने की सहज प्रवृत्ति को जीतना है तथा भगवान्‌ का सर्वत्र दर्शनकरना ही सच्चाई ( सत्य ) है। सत्यता का अर्थ है मधुर ढंग से सत्य बोलना जैसा कि महर्षियों नेघोषित किया है। स्वच्छता का अर्थ है सकाम कर्मों से विरक्ति जबकि त्याग ही संन्यास है।मनुष्यों की असली इष्ट सम्पत्ति धार्मिकता है और मैं, भगवान्‌ ही यज्ञ हूँ। आध्यात्मिक उपदेशप्राप्त करने के उद्देश्य से गुरु-भक्ति ही दक्षिणा है और सबसे बड़ी शक्ति है श्वास रोकने कीप्राणायाम विधि।

    भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्धक्तिरुत्तम: ।विद्यात्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा हीरकर्मसु ।श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्या: सुखं दुःखसुखात्यय: ॥

    ४०॥

    दुःखं कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित्‌ ।मूर्खो देहाद्यहंबुद्द्धिः पन्‍था मन्निगम: स्मृतः ॥

    ४१॥

    उत्पथश्रित्तविक्षेप: स्वर्ग: सत्त्तगुणोदय: ।नरकस्तमजउत्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे ॥

    ४२॥

    गृहं शरीर मानुष्यं गुणाढ्यों ह्याढ्य उच्यते ।दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्ट: कृपणो योउजितेन्द्रिय: ॥

    ४३॥

    गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसड़ विपर्यय: ।एत उद्धव ते प्रशना: सर्वे साधु निरूपिता: ॥

    ४४॥

    कि वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयो: ।गुणदोषदशिर्दोषो गुणस्तृभयवर्जित: ॥

    ४५॥

    भगः--ऐकश्वर्य; मे--मेरा; ऐश्वर: --ई श्वरी; भाव: --स्वभाव; लाभ: --लाभ; मत्‌-भक्ति: --मेरी भक्ति; उत्तम:--सर्व श्रेष्ठ;विद्या--शिक्षा; आत्मनि--आत्मा में; भिदा--द्वैत; बाध:--निरस्त करना; जुगुप्सा--घृणा; ही:--विनयशीलता; अकर्मसु--पापपूर्ण कार्यों में; श्री:-- सौन्दर्य; गुणा:--सद्‌गुण; नैरपेक्ष्य-- भौतिक वस्तुओं से विराग; आद्या: --इत्यादि; सुखम्‌--सुख;दुःख--दुख; सुख-- भौतिक सुख; अत्यय: --पार करना; दुःखम्‌--दुख; काम--विषय-वासना का; सुख--सुख पर;अपेक्षा--ध्यान करना; पण्डित:--चतुर व्यक्ति; बन्ध--बन्धन से; मोक्ष--मोक्ष; वित्‌ू--जानने वाला; मूर्ख: --मूर्ख; देह--देहसहित; आदि--इत्यादि ( मन ); अहम्‌-बुद्धिः--जो अपनी पहचान करता है; पन्था:--असली मार्ग; मत्‌--मुझ तक; निगम: --जाने वाला; स्मृतः:--समझना चाहिए; उत्पथ:--गलत रास्ता; चित्त--चेतना की; विक्षेप:--मोहग्रस्तता; स्वर्ग:--स्वर्ग; सत्त्व-गुण--सतोगुण का; उदय: --प्राधान्य; नरक:--नरक; तम:--तमोगुणी की; उन्नाह: --प्रधानता; बन्धु;--असली मित्र; गुरु:--गुरु; अहम्‌-मैं हूँ; सखे--हे मित्र उद्धव; गृहमू--घर; शरीरम्‌--शरीर; मानुष्यम्‌--मनुष्य का; गुण-- सदगुणों सहित;आढ्य:--समृद्ध; हि--निस्सन्देह; आढ्य:-- धनी व्यक्ति; उच्यते--कहलाता है; दरिद्र:--निर्धन व्यक्ति; यः--जो; तु--निस्सन्देह; असन्तुष्ट:--असंतुष्ट; कृपण:--कंजूस; यः--जो; अजित--नहीं जीती हैं; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; गुणेषु-- भौतिकइन्द्रियतृप्ति में; असक्त--आसक्त नहीं; धीः--जिसके बुद्धि; ईशः--नियामक; गुण--इन्द्रियतृप्ति; सड़४--आसक्त;विपर्ययः--विपरीत, चाकर; एते--ये; उद्धव--हे उद्धव; ते--तुम्हारे; प्रश्ना:--प्रश्न; सर्वे--सभी; साधु--उचित ढंग से;निरूपिता: --व्याख्या किये गये; किम्‌--क्या लाभ; वर्णितेन--वर्णन करने का; बहुना--विस्तार से; लक्षणम्‌--लक्षण;गुण--सदगुणों के; दोषयो:--तथा दुर्गुणों के; गुण-दोष--अच्छे तथा बुरे गुण; हशि:--देखना; दोष:--दोष; गुण:--असलीसदगुण; तु--निस्सन्देह; उभय--दोनों से; वर्जित:--पृथक्‌ |

    वास्तविक ऐश्वर्य भगवान्‌ के रूप में मेरा निजी स्वभाव है, जिसके माध्यम से मैं छ: असीमऐश्वर्यों को प्रकट करता हूँ। जीवन का सबसे बड़ा लाभ मेरी भक्ति है और असली शिक्षा( विद्या ) आत्मा के भीतर के झूठे द्वैतभाव को समाप्त करना है। असली उदारता अनुचित कार्योसे घृणा करना है। विरक्ति जैसे सदगुण का होना सौन्दर्य है। भौतिक सुख तथा दुख को लाँघनाअसली सुख है और असली दुख तो यौन-सुख की खोज में अपने को फँसाना है। बुद्धिमान वहीहै, जो बन्धन से छूटने की विधि जानता है और मूर्ख वह है, जो अपनी पहचान अपने शरीर तथामन से करता है। जीवन में असली मार्ग वह है, जो मुझ तक ले जाने वाला है और कुमार्गइन्द्रियतृप्ति है, जिससे चेतना मोहग्रस्त हो जाती है। वास्तविक स्वर्ग सतोगुण की प्रधानता है औरअज्ञान की प्रधानता ही नरक है। मैं समस्त ब्रह्माण्ड के गुरु रूप में हर एक का असली मित्र हूँ।मनुष्य का घर उसका शरीर है। हे प्रिय मित्र उद्धव, जो सदगुणों से युक्त है, वही धनी कहा जाताहै और जो जीवन से असंतुष्ट रहता है, वही निर्धन है। कृपण वह है, जो अपनी इन्द्रियों को वशमें नहीं रख सकता और असली नियंत्रक वह है, जो इन्द्रियतृप्ति में आसक्त नहीं होता। इसकेविपरीत जो व्यक्ति इन्द्रियतृष्ति में आसक्त रहता है, वह दास होता है। इस प्रकार हे उद्धव, मैंनेतुम्हारे द्वारा पूछे गये सारे विषयों की व्याख्या कर दी है। इन सदगुणों तथा दुर्गुणों की अधिकविशद व्याख्या की आवश्यकता नहीं है क्योंकि निरन्तर गुण तथा दोषों को देखना स्वयं में एकदुर्गुण है। सर्वोत्कृष्ट गुण तो भौतिक गुण और दोष को लाँघ जाना है।

    TO

    20. शुद्ध भक्ति सेवा ज्ञान और वैराग्य से बढ़कर है

    श्रीउद्धव उवाचविधिश्च प्रतिषेधश्व निगमो ही श्वरस्य ते ।अवेक्षतेरविण्डाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम्‌ ॥

    १॥

    श्री-उद्धवः उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; विधि:-- आदेश; च-- भी; प्रतिषेध:--निषेधात्मक आदेश; च--तथा; निगम:--वैदिकवाड्मय; हि--निस्सन्देह; ईश्वरस्थ-- भगवान्‌ का; ते--तुम्हारा; अवेक्षते--एकाग्र करता है; अरविण्ड-अक्ष--हे कमलनयन;गुणम्‌--उत्तम या पवित्र गुण; दोषम्‌--बुरे या पापपूर्ण गुण; च-- भी; कर्मणाम्‌ू--कर्मो के |

    श्री उद्धव ने कहा : हे कमलनयन कृष्ण, आप भगवान्‌ हैं और इस तरह विधियों तथानिषेधों से युक्त वैदिक वाइमय आपका आदेश है। ऐसा वाड्मय कर्म के गुण तथा दोषों परध्यान एकाग्र करता है।

    वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम्‌ ।द्रव्यदेशवय:कालान्स्वर्ग नरकमेव च ॥

    २॥

    वर्ण-आश्रम--वर्णा श्रम प्रणाली का; विकल्पम्‌--पाप-पुण्य से उत्पन्न नाना प्रकार के उच्च तथा निम्न पद; च--तथा;प्रतिलोम--ऐसे परिवार में जन्म जिसमें पिता माता से निम्न कुल का होता है; अनुलोम-जम्‌--ऐसे परिवार में जन्म जिसमें पिताउच्च कुल का और माता निम्न कुल की हो; द्रव्य-- भौतिक वस्तुएँ या धन; देश--स्थान; वयः--आयु; कालान्‌ू--समय;स्वर्गम्‌--स्वर्ग; नरकम्‌ू--नरक; एव--निस्सन्देह; च--भी |

    वैदिक वाड्मय के अनुसार, वर्णाश्रम में उच्च तथा निम्न कोटियाँ परिवार-नियोजन केपवित्र और पापमय गुणों के कारण हैं। इस प्रकार पाप तथा पुण्य किसी स्थिति विशेष में यथाभौतिक अवयव, स्थान, आयु तथा काल में, वैदिक विश्लेषण के सन्दर्भ बिन्दु हैं। निस्सन्देह,वेदों से भौतिक स्वर्ग तथा नरक के अस्तित्व प्रकट होते हैं, जो निश्चित रूप से पाप तथा पुण्यपर आधारित हैं।

    गुणदोषभिदादष्टिमन्‍्तरेण वचस्तव ।निःश्रेयसं कथथं नृणां निषेधविधिलक्षणम्‌ ॥

    ३॥

    गुण--पुण्य; दोष--पाप; भिदा--दोनों में भेद; दृष्टिमू--देखे; अन्तरेण--के बिना; बच: --शब्द; तब--तुम्हारा;निःश्रेयसम्‌--जीवन की सिद्धि, मोक्ष; कथम्‌--कैसे सम्भव; नृणाम्‌--मनुष्यों के लिए; निषेध--वर्जन; विधि-- आदेश;लक्षणम्‌--लक्षण से युक्त |

    पाप तथा पुण्य के बीच के अन्तर को देखे बिना भला कोई किस तरह आपके उन आदेशोंको जो कि वैदिक वाड्मय के रूप में हैं, समझ सकता है, जो मनुष्य को पुण्य करने का आदेशदेते हैं और पाप करने से मना करते हैं? इतना ही नहीं, अन्ततोगत्वा मोक्ष प्रदान करने वाले ऐसेप्रामाणिक वैदिक वाड्मय के बिना, मनुष्य किस तरह जीवन-सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं ? पितृदेवमनुष्याणां वेदश्नश्षुस्तवे श्वर ।श्रेयस्त्वनुपलब्धे $र्थ साध्यसाधनयोरपि ॥

    ४॥

    पितृ--पितरों के; देव--देवताओं के; मनुष्याणाम्‌--मनुष्यों के; वेद:--वैदिक ज्ञान; चक्षु;--आँख है; तब--आपफे उत्पन्न;ईश्वर--हे परमेश्वर; श्रेय:-- श्रेष्ठ; तु--निस्सन्देह; अनुपलब्धे-- प्रत्यक्ष अनुभव न होने पर; अर्थे--मानव-जीवन के लक्ष्य यथाइन्द्रियतृप्ति, मोक्ष, स्वर्ग-प्राप्ति में; साध्य-साधनयो:--कार्य-कारण दोनों में; अपि--निस्सन्देह।

    हे प्रभु, प्रत्यक्ष अनुभव से परे वस्तुओं को--यथा आध्यात्मिक मोक्ष या स्वर्ग-प्राप्ति तथाअन्य भौतिक भोग जो हमारी वर्तमान क्षमता से परे हैं--समझने के लिए तथा सामान्यतया सभीवस्तुओं के साध्य-साधन को समझने के लिए, पितरों, देवताओं तथा मनुष्यों को आपके नियमरूप वैदिक वाड्मय की सलाह लेनी चाहिए क्योंकि ये सर्वोच्च प्रमाण तथा ई श्वरी ज्ञान हैं।

    गुणदोषभिदाटष्टिनिंगमात्ते न हि स्वतः ।निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रम: ॥

    ५॥

    गुण--पुण्य; दोष--पाप; भिदा--अन्तर; दृष्टि:--देखना; निगमात्‌--वैदिक ज्ञान से; ते--तुम्हारा; न--नहीं; हि--निस्सन्देह;स्वतः--स्वयमेव; निगमेन--वेदों से; अपवाद:--निरस्तीकरण; च-- भी; भिदाया: --ऐसे भेद का; इति--इस प्रकार; ह--स्पष्टत:; भ्रम:-- भ्रम, संशय ।

    हे प्रभु, पाप तथा पुण्य में दिखाई पड़ने वाला अन्तर आपके ही बैदिक ज्ञान से उत्पन्न होता हैऔर वह स्वयमेव उत्पन्न नहीं होता। यदि वही वैदिक वाड्मय बाद में पाप तथा पुण्य के ऐसेअन्तर को निरस्त कर दे, तो निश्चित रूप से भ्रम उत्पन्न होगा।

    श्रीभगवानुवाचयोगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोन्योस्ति कुत्रचित्‌ ॥

    ६॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; योगा:--विधियाँ; त्रय:--तीन; मया-- मेरे द्वारा; प्रोक्ताः--कही गई; नृणाम्‌--मनुष्योंके; श्रेयः--सिद्धि; विधित्सया--देने की इच्छा से; ज्ञानमू--दर्शन का मार्ग; कर्म--कर्म का मार्ग; च--भी; भक्ति: -- भक्ति-मार्ग; च-- भी; न--कोई नहीं; उपाय:--उपाय, साधन; अन्य:--अन्य; अस्ति--है; कुत्रचितू-जो भी |

    भगवान्‌ ने कहा : हे उद्धव, चूँकि मेरी इच्छा है कि मनुष्य सिद्धि प्राप्त करे, अतएव मैंनेप्रगति के तीन मार्ग प्रस्तुत किये हैं--ज्ञान-मार्ग, कर्म-मार्ग तथा भक्ति-मार्ग। इन तीनों केअतिरिक्त ऊपर उठने का अन्य कोई साधन नहीं है।

    निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम्‌ ॥

    ७॥

    निर्विण्णानाम्‌--ऊबे हुए; ज्ञान-योग:--दार्शनिक चिन्तन का मार्ग; न्‍्यासिनाम्‌ू-विरक्तों के लिए; इह--तीनों मार्गों में;कर्मसु--सामान्य कर्म में; तेषु--इन कर्मों में; अनिर्विण्ण--ऊबे नहीं है; चित्तानामू--चेतनायुक्त; कर्म-योग: --कर्म-योग कामार्ग; तु--निस्सन्देह; कामिनामू--जो अब भी भौतिक सुख चाहते हैं, उनके लिए।

    तीनों मार्गों में से ज्ञान-योग अर्थात्‌ दार्शनिक चिन्तन का मार्ग उन लोगों के लिए संस्तुतकिया जाता है, जो भौतिक जीवन से ऊब चुके हैं और सामान्य सकाम कर्मों से विरक्त हैं। जोलोग भौतिक जीवन से ऊबे नहीं हैं और जिन्हें अब भी अनेक इच्छाएँ पूरी करनी हैं, उन्हें कर्म-योग के माध्यम से मोक्ष की खोज करनी चाहिए।

    यहच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान्‌ ।न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोस्य सिद्धिद: ॥

    ८॥

    यहच्छया--सौ भाग्यवश किसी तरह से; मत्‌-कथा-आदौ--मेरी महिमा का वर्णन करने वाली कथाओं, गीतों, दर्शन तथानाटकीय प्रदर्शनों में; जात--जागृत किया हुआ; श्रद्धः--श्रद्धा; तु--निस्सनदेह; यः--जो कोई; पुमान्‌ू--पुरुष; न--नहीं;निर्विण्णग:--ऊबा हुआ; न--नहीं; अति-सक्त:--अत्यन्त आसक्त; भक्ति-योग: --प्रेमाभक्ति का मार्ग; अस्य--उसका; सिद्धि-दः--सिद्धि देने वाला

    यदि कहीं कोई सौभाग्यवश मेरी महिमा के सुनने तथा कीर्तन करने में श्रद्धा उत्पन्न करलेता है, तो ऐसे व्यक्ति को जो भौतिक जीवन से न तो अत्यधिक ऊबा रहता है न आसक्त रहताहै मेरी प्रेमाभक्ति के मार्ग द्वारा सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए।

    तावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥

    ९॥

    तावत्‌--उस समय तक; कर्माणि--सकाम कर्म; कुर्वीत--सम्पन्न करे; न निर्विद्येत--तृप्त नहीं होता; यावता--जब तक; मत्‌ू-कथा-+मेरे विषय में वार्ताओं का; श्रवण-आदौ--श्रवणम्‌ कीर्तनम्‌ आदि के मामले में; बवा--अथवा; श्रद्धा-- श्रद्धा;यावत्‌--जब तक; न--नहीं; जायते--जागृत होती है|

    जब तक मनुष्य सकाम कर्म से तृप्त नहीं हो जाता और श्रवर्णं कीर्तन विष्णो: द्वारा भक्ति केलिए रुचि जागृत नहीं कर लेता, तब तक उसे वैदिक आदेशों के विधानों के अनुसार कर्म करनाहोता है।

    स्वधर्मस्थो यजन्यज्जैरनाशी:काम उद्धव ।न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत्‌ ॥

    १०॥

    स्व-धर्म--अपने नियत कर्तव्यों में; स्थ:--स्थित; यजन्‌--पूजा करते हुए; यज्जै:--नियत यज्ञों से; अनाशी:-काम:--कर्मफलकी इच्छा न रखते हुए; उद्धव--हे उद्धव; न--नहीं; याति--जाता है; स्वर्ग--स्वर्ग; नरकौ--या नरक में; यदि--यदि;अन्यत्‌--अपने नियत कर्तव्य के अतिरिक्त कुछ; न--नहीं; समाचरेत्‌--सम्पन्न करता है

    हे उद्धव, जो व्यक्ति वैदिक यज्ञों द्वारा समुचित पूजा करके, किन्तु ऐसी पूजा का फल नचाह कर, अपने नियत कर्तव्य में स्थित रहता है, वह स्वर्गलोक नहीं जाता है; इसी तरह निषिद्धकार्यो को न करने से वह नरक नहीं जाएगा।

    अस्मिल्लोके वर्तमान: स्वधर्मस्थोनघ: शुचि: ।ज्ञानं विशुद्धमाष्नोति मद्भधक्ति वा यहच्छया ॥

    ११॥

    अस्मिन्‌ू--इस; लोके--जगत में; वर्तमान:--रहते हुए; स्व-धर्म--अपने नियत कर्तव्य में; स्थ:--स्थित; अनघ:--पापकर्मो सेमुक्त; शुचिः--भौतिक कल्मष से धुला; ज्ञानमू--ज्ञान; विशुद्धमू--दिव्य; आप्नोति--प्राप्त करता है; मत्‌--मेरी; भक्तिम्‌--भक्ति; वा--अथवा; यहृच्छया--अपने भाग्य के अनुसार

    जो व्यक्ति अपने नियत कर्म में हृढ़ रहता है, जो पापमय कार्यों से मुक्त होता है और भौतिककल्मष से रहित होता है, वह इसी जीवन में या तो दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है या दैववश मेरीभक्ति पाता है।

    स्वर्गिणोप्येतमिच्छन्ति लोक॑ निरयिणस्तथा ।साथकं ज्ञानभक्तिभ्यामुभयं तदसाधकम्‌ ॥

    १२॥

    स्वर्गिण:--स्वर्गलोक के निवासी; अपि-- भी; एतम्‌--यह; इच्छन्ति--चाहते हैं; लोकम्‌ू--पृथ्वीलोक; निरयिण: --नरकवासी;तथा--उसी तरह से; साधकम्‌--उपलब्धि की ओर; ज्ञान-भक्तिभ्याम्‌-दिव्य ज्ञान तथा भगवत्प्रेम का; उभयम्‌--दोनों ( स्वर्गतथा नरक ); तत्‌--उस सिद्धि के लिए; असाधकम्‌--उपयोगी नहीं

    स्वर्ग तथा नरक दोनों ही के निवासी पृथ्वीलोक पर मनुष्य का जन्म पाने की आकांक्षारखते हैं क्योंकि मनुष्य-जीवन दिव्य ज्ञान तथा भगवत्प्रेम की प्राप्ति को सुगम बनाता है, जबकिन तो स्वर्गिक, न ही नारकीय शरीर पूर्णतः ऐसा अवसर सुलभ कराते हैं।

    न नरः स्वर्गतिं काइक्षेन्नारकीं वा विचक्षण: ।नेम॑ लोक॑ च काडक्षेत देहावेशात्प्रमाद्यति ॥

    १३॥

    न--नहीं; नर: --मनुष्य; स्व:-गतिम्‌--स्वर्ग जाने की; काड्झ्षेत्‌--इच्छा करे; नारकीम्‌--नरक तक; वा--अथवा;विचक्षण:--विद्वान व्यक्ति; न--नहीं; इममू--यह; लोकम्‌--पृथ्वीलोक; च-- भी; काइ्क्षेत--इच्छा करे; देह-- भौतिक शरीरमें; आवेशात्‌--तल्लीनता से; प्रमाद्यति--मूर्ख बनता है

    जो मनुष्य विद्वान हो उसे न तो कभी स्वर्गलोक जाने, न नरक में निवास करने की इच्छा करनी चाहिए। निस्सन्देह, मनुष्य को तो पृथ्वी पर स्थायी निवास की भी कभी कामना नहींकरनी चाहिए क्योंकि भौतिक देह में ऐसी तल्लीनता से मनुष्य अपने वास्तविक आत्म-हित केप्रति मूर्खतावश उपेक्षा बरतने लगता है।

    एतद्विद्वान्पुरा मृत्योरभवाय घटेत सः ।अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम्‌ ॥

    १४॥

    एतत्‌--यह; विद्वानू--जानते हुए; पुरा--पहले; मृत्यो:--मृत्यु; अभवाय--जगत को लाँघने के लिए; घटेत--कार्य करे; सः--वह; अप्रमत्त:--आलस्य या मूर्खता से रहित; इदम्‌--यह; ज्ञात्वा--जान कर; मर्त्यमू--मरणशील; अपि--यद्यपि; अर्थ--जीवन-लक्ष्य का; सिद्धि-दम्‌--सिद्धि देने वाला

    यह जानते हुए कि यद्यपि भौतिक शरीर मर्त्य है, तो भी यह उसे जीवन-सिद्धि प्रदान करसकता है, विद्वान व्यक्ति को मूर्खतावश मृत्यु आने के पूर्व इस अवसर का लाभ उठाने में उपेक्षानहीं बरतनी चाहिए।

    छिद्यमानं यमैरेतै: कृतनीडं वनस्पतिम्‌ ।खगः स्वकेतमुत्सूज्य क्षेमं याति ह्ालम्पट: ॥

    १५॥

    छिद्यममानम्‌--काटे जाकर; यमै:--क्रूर पुरुषों द्वारा जो साक्षात्‌ मृत्यु सरीखे हैं; एतैः--इन; कृत-नीडम्‌--जिसमें उसने घोंसलाबना रखा है; वनस्पतिम्‌--वृक्ष; खग:--पक्षी; स्व-केतम्‌--उसका घर; उत्सृज्य--त्याग करके; क्षेमम्‌ू--सुख; याति--प्राप्तकरता है; हि--निस्सन्देह; अलम्पट:--आसक्तिरहित।

    जब साक्षात्‌ मृत्यु रूपी क्रूर पुरुषों द्वारा वह वृक्ष काट दिया जाता है, जिसमें किसी पक्षी काघोंसला बना था, तो वह पक्षी बिना किसी आसक्ति के उस वृक्ष को त्याग देता है और इस तरहवह अन्य स्थान में सुख का अनुभव करता है।

    अहोरात्रैश्छिद्यमानं बुद्ध्वायुर्भयवेषथु: ।मुक्तसडु: परं बुद्ध्वा निरीह उपशाम्यति ॥

    १६॥

    अहः--िन; रात्रै:--तथा रातों से; छिद्यमानम्‌--काटा जाता हुआ; बुद्ध्वा--जान कर; आयु:--उप्र; भय-- भय से; वेपथु: --कम्पमान; मुक्त-सड्भ:--आसक्तिरहित; परम्‌-परमेश्वर; बुद्ध्वा--समझ कर; निरीह:-- भौतिक इच्छा से रहित; उपशाम्यति--पूर्ण शान्ति प्राप्त करता है।

    यह जानते हुए कि मेरी आयु दिन-रात बीतने के साथ क्षीण होती जा रही है, मनुष्य को भयसे काँपना चाहिए। इस तरह सारी भौतिक आसक्ति तथा इच्छा त्याग कर, वह भगवान्‌ कोसमझने लगता है और परम शान्ति प्राप्त करता है।

    नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभंप्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्‌ ।मयानुकूलेन नभस्वतेरित॑पुमान्भवाब्धि न तरेत्स आत्महा ॥

    १७॥

    न्रू--मानव; देहम्‌--शरीर; आद्यमू--समस्त अनुकूल फलों का उद्गम; सु-लभम्‌--बिना प्रयास के प्राप्त; सु-दुर्लभम्‌--यद्यपिमहान्‌ प्रयल से भी प्राप्त कर पाना असम्भव है; प्लवम्‌--नाव; सु-कल्पम्‌--अपने उद्देश्य के लिए सर्वथा अनुकूल; गुरु--गुरु;कर्ण-धारम्‌--नाव के माँझी के समान; मया--मेंरे द्वारा; अनुकूलेन--अनुकूल; नभस्वता--वायु द्वारा; ईरितम्‌--बहाई जाकर;पुमान्‌ू--पुरुष; भव--संसार के; अब्धिम्--समुद्र; न--नहीं; तरेत्‌ू--पार करता है; सः--वह; आत्म-हा--अपनी ही आत्मा काहनन करने वाला, आत्महंता।

    जीवन का समस्त लाभ प्रदान करने वाला मानव शरीर प्रकृति के नियमों द्वारा स्वतः प्राप्तहोता है यद्यपि यह अत्यन्त दुर्लभ है। इस मानव शरीर की तुलना उस सुनिर्मित नाव से की जासकती है, जिसका माँझी गुरु है और भगवान्‌ के आदेश वे अनुकूल हवाएँ हैं, जो उसे आगेबढ़ाती हैं। इन सारे लाभों पर विचार करते हुए जो मनुष्य अपने जीवन का उपयोग संसाररूपीसागर को पार करने में नहीं करता, उसे अपने ही आत्मा का हन्ता माना जाना चाहिए।

    यदारम्भेषु निर्विण्णो विरक्त: संयतेन्द्रियः ।अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः ॥

    १८॥

    यदा--जब; आरम्भेषु-- भौतिक प्रयत्नों में; निर्विणण:--निराश; विरक्त:--विरक्त; संयत--पूरी तरह नियंत्रित; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; अभ्यासेन-- अभ्यास से; आत्मन:--आत्मा का; योगी--योगी; धारयेत्‌--एकाग्र करे; अचलम्‌--स्थिर; मन:--मन

    भौतिक सुख के लिए समस्त प्रयासों से ऊब कर तथा निराश होकर, जब योगी इन्द्रियों कोपूरी तरह नियंत्रित करके विरक्ति उत्पन्न कर ले, तब उसे आध्यात्मिक अभ्यास द्वारा अपने मन कोअविचल भाव से आध्यात्मिक पद पर स्थिर करना चाहिए।

    धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यदश्वनवस्थितम्‌ ।अतन्द्रितोनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत्‌ ॥

    १९॥

    धार्यमाणम्‌--आध्यात्मिक पद पर एकाग्र ( स्थिर ) होकर; मन:--मन; यहिं--जब; भ्राम्यत्‌ू-- भटकता है; आशु--सहसा;अनवस्थितम्‌--आध्यात्मिक पद पर स्थित न होकर; अतन्द्रितः--सावधानीपूर्वक; अनुरोधेन--नियत नियमों के अनुसार;मार्गेण--विधि द्वारा; आत्म--अपने; वशम्‌--नियंत्रण में; नयेत्‌--ले आये।

    जब भी आध्यात्मिक पद पर एकाग्र मन सहसा अपने आध्यात्मिक पद से भटके, तो मनुष्यको चाहिए कि वह सावधानी से नियत साधनों के सहारे उसे अपने वश में कर ले।

    मनोगतिं न विसृजेज्जितप्राणो जितेन्द्रियः ।सत्त्वसम्पन्नया बुद्धया मन आत्मवशं नयेत्‌ ॥

    २०॥

    मनः--मन का; गतिमू--लक्ष्य; न--नहीं; विसृजेत्‌ू-- ओझल होने दे; जित-प्राण:--जिसने श्वास को जीत लिया है; जित-इन्द्रियः--जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है; सत्त्त--सतोगुण का; सम्पन्नया--सम्पन्नता से युक्त; बुद्धया--बुद्ध्धि से; मन:ः--मन;आत्म-वशम्‌--अपने वश में; नयेत्‌--लाये।

    मनुष्य को चाहिए कि मानसिक कार्यों के वास्तविक लक्ष्य को दृष्टि से ओझल न होने दे,प्रत्युत प्राण-वायु तथा इन्द्रियों पप विजय पाकर तथा सतोगुण से प्रबलित बुद्धि का उपयोगकरके, मन को अपने वश्ञ में कर ले।

    एष वै परमो योगो मनसः सड्ग्रहः स्मृतः ।हृदयज्ञत्वमन्विच्छन्दम्यस्थेवार्वतो मुहु: ॥

    २१॥

    एष:--यह; वै--निस्सन्देह; परम: -- परम; योग: --योग-विधि; मनसः --मन का; सड़्ग्रहः--पूर्ण नियंत्रण; स्मृत:--इस प्रकारघोषित; हृदय-ज्ञत्वम्‌ू-घनिष्ठतापूर्वक जानने का गुण; अन्विच्छन्‌--सावधानी से देखते हुए; दम्यस्य--जिसका दमन कियाजाना है; इब--सहश; अर्वतः--घोड़े; मुहुः--सदैव |

    एक दक्ष घुड़सवार तेज घोड़े को पालतू बनाने की इच्छा से सर्वप्रथम घोड़े को क्षण-भरउसकी राह चलने देता है, तब लगाम खींच कर धीरे धीरे उसे इच्छित राह पर ले आता है। इसीप्रकार परम योग-विधि वह है, जिससे मनुष्य मन की गतियों तथा इच्छाओं का सावधानी सेअवलोकन करता है और क्रमशः उन्हें पूर्ण वश में कर लेता है।

    साड्ख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः ।भवाप्ययावनुध्यायेन्मनो यावत्प्रसीदति ॥

    २२॥

    साड्ख्येन--वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा; सर्व--समस्त; भावानामू-- भौतिक तत्त्वों ( विराट, पार्थिव तथा सूक्ष्म ) का; प्रतिलोम--उल्टे कार्य द्वारा; अनुलोमत:--अग्रसर कार्य द्वारा; भव--सृष्टि; अप्ययौ--संहार; अनुध्यायेत्‌--निरन्तर अवलोकन करे; मनः--मन; यावत्‌--जब तक; प्रसीदति--आध्यात्मिक रूप से तुष्ट नहीं हो जाता।

    जब तक मनुष्य का मन आध्यात्मिक तुष्टि प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे समस्त भौतिकवस्तुओं की नश्वर प्रकृति का, चाहे वे विराट विश्व की हों, पृथ्वी की हों या सूक्ष्म हों, वैशलेषिकअध्ययन करते रहना चाहिये। उसे सृजन का अनुलोम विधि से और संहार का प्रतिलोम विधि सेनिरन्तर अवलोकन करना चाहिए।

    निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिन: ।मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिन्तितस्यानुचिन्तया ॥

    २३॥

    निर्विण्णस्य-- भौतिक जगत के मोहमय स्वभाव से ऊबे, उद्विग्न; विरक्तस्य--तथा विरक्त; पुरुषस्य--पुरुष का; उक्त-वेदिन:--अपने गुरु के आदेशों से नियंत्रित व्यक्ति; मन:--मन; त्यजति--त्याग देता है; दौरात्म्यम्‌ू-- भौतिक शरीर तथा मन सेझूठी पहचान; चिन्तितस्थ--सोचे हुए का; अनुचिन्तया--निरन्तर विश्लेषण द्वाराजब कोई व्यक्ति इस जगत के नश्वर तथा मोहमय स्वभाव से ऊब उठता है और इस तरहउससे विरक्त हो जाता है, तो उसका मन अपने गुरु के आदेशों से मार्गदर्शन पाकर, इस जगत केस्वभाव के बारे में बारम्बार विचार करता है और अन्त में पदार्थ के साथ अपनी झूठी पहचानको त्याग देता है।यमादिभियोंगपथेरान्वीक्षिक्या च विद्यया ।ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मन: ॥

    २४॥

    यम-आदिभि:--अनुशासनात्मक नियमों आदि के द्वारा; योग-पथै:ः--योग-प्रणाली की विधियों द्वारा; आन्वीक्षिक्या--तर्कद्वारा; च--भी; विद्यया--आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा; मम--मेरी; अर्चा--पूजा; उपाषनाभि:--उपासना द्वारा; वा--अथवा; न--कभी नहीं; अन्यैः--अन्य ( साधनों ) द्वारा; योग्यमू-- ध्यान की वस्तु, भगवान्‌ पर; स्मरेतू--एकाग्र करे; मनः--मन।

    मनुष्य को चाहिए कि योग-प्रणाली के विभिन्न यमों तथा संस्कारों द्वारा, तर्क तथाआध्यात्मिक शिक्षा द्वारा अथवा मेरी पूजा और उपासना द्वारा, योग के लक्ष्य भगवान्‌ के स्मरणमें अपने मन को लगाये। इस कार्य के लिए वह अन्य साधनों का प्रयोग न करे।

    यदि कुर्यात्प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम्‌ ।योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन ॥

    २५॥

    यदि--यदि; कुर्यात्‌--करे; प्रमादेन--उपेक्षा के कारण; योगी--योगी; कर्म--कोई कार्य; विगर्हितम्‌--निन्दनीय; योगेन--योग-विधि द्वारा; एब--एकमात्र; दहेत्‌ू--जला दे; अंह:--वह पाप; न--नहीं; अन्यत्‌--अन्य साधनों से; तत्र--इस मामले में;कदाचन--कभी भी।

    यदि क्षणिक असावधानी से कोई योगी अकस्मात्‌ कोई गर्हित ( निन्दित ) कर्म कर बैठताहै, तो उसे चाहिए कि वह योगाभ्यास द्वारा उस पाप को कभी भी किसी अन्य विधि का प्रयोगकिए बिना जला डाले।

    स्वे स्वेईधिकारे या निष्ठा स गुण: परिकीर्तितः ।कर्मणां जात्यशुद्धानामनेन नियम: कृतः ।गुणदोषविधानेन सड्जानां त्याजनेच्छया ॥

    २६॥

    स्वे स्वे--अपने अपने; अधिकारे--पद पर; या--जो; निष्ठा--स्थायी अभ्यास; स:ः--वह; गुण:--पुण्य; परिकीर्तित:--ठीक सेघोषित; कर्मणाम्‌--सकाम कर्मों का; जाति--स्वभाव से; अशुद्धानाम्‌-- अशुद्ध; अनेन--इससे; नियम:--अनुशासनात्मकनियंत्रण; कृतः--स्थापित किया जाता है; गुण--पुण्य का; दोष--पाप का; विधानेन--नियम द्वारा; सड्भानामू--विभिन्न प्रकारकी इन्द्रियतृप्ति की संगति से; त्याजन--विरक्ति की; इच्छया--इच्छा से

    यह हढ़तापूर्वक घोषित है कि योगियों का अपने अपने आध्यात्मिक पदों पर निरन्तर बनेरहना असली पुण्य है और जब कोई योगी अपने नियत कर्तव्य की अवहेलना करता है, तो वहपाप होता है। जो पाप तथा पुण्य के इस मानदण्ड को, इन्द्रियतृप्ति के साथ समस्त पुरानी संगतिको सच्चे दिल से त्यागने की इच्छा से अपनाता है, वह भौतिकतावादी कर्मों को वश में करलेता है, जो स्वभाव से अशुद्ध होते हैं।

    जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्ण: सर्वकर्मसु ।वेद दुःखात्मकान्कामान्परित्यागेप्यनी श्वर: ॥

    २७॥

    ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्टढनिश्चय: ।जुषमाणश्च तान्कामान्दु:खोदर्काश्च गहयन्‌ ॥

    २८ ॥

    जात--जागृत; श्रद्धः--श्रद्धा; मत्‌ू-कथासु--मेरे यश के वर्णनों में; निर्विण्ण:--ऊबा हुआ; सर्व--सभी; कर्मसु--कामों में;वेद--जानता है; दुःख--दुख; आत्मकानू--से निर्मित; कामान्‌ू--सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति; परित्यागे--परित्याग करने में;अपि--यद्यपि; अनी श्वर: --असमर्थ; ततः --ऐसी श्रद्धा के कारण; भजेत--पूजा करे; माम्‌--मेरी; प्रीत:--सुखी रहते हुए;श्रद्धालु;--श्रद्धावान्‌; हढ--पक्का; निश्चयः--संकल्प; जुषमाण: --में संलग्न; च-- भी; तानू--उन; कामान्‌--इन्द्रियतृप्ति;दुःख--दुख; उदर्कान्‌ू-देने वाले; च-- भी; गहयन्‌--के लिए पश्चाताप करते हुए।

    मेरे यश की कथाओं में श्रद्धा उत्पन्न करके, सारे भौतिक कार्यो से ऊब कर और यह जानतेहुए भी कि सभी प्रकार की इन्द्रियतृप्ति दुखदायी है, किन्तु इन्द्रिय-भोग त्याग पाने में असमर्थ,मेरे भक्त को चाहिए कि वह सुखी रहे और अत्यन्त श्रद्धा तथा पूर्ण विश्वास के साथ मेरी पूजाकरे। कभी कभी इन्द्रिय-भोग में लगे रहते हुए भी, मेरा भक्त जानता है कि समस्त प्रकार कीइन्द्रियतृप्ति का परिणाम दुख है और वह ऐसे कार्यों के लिए सच्चे दिल से पश्चाताप करता है।

    प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो मासकृन्मुने: ।'कामा हृदय्या नशएयन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते ॥

    २९॥

    प्रोक्तेन--कही गईं; भक्ति-योगेन--भक्ति द्वारा; भजत:--पूजा करते हुए; मा--मुझको; असकृत्‌--निरन्तर; मुनेः--मुनि की;'कामाः--भौतिक इच्छाएँ; हृदय्या:--हृदय में; नश्यन्ति--नष्ट हो जाती हैं; सर्वे--सभी; मयि--मुझमें; हृदि--जब हृदय;स्थिते--हढ़ता से स्थित है।

    जब बुद्धिमान व्यक्ति मेरे द्वारा बताई गई प्रेमाभक्ति के द्वारा निरन्तर मेरी पूजा करने में लगजाता है, तो उसका हृदय हृढ़तापूर्वक मुझ में स्थित हो जाता है। इस तरह उसके हृदय के भीतरकी सारी भौतिक इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं।श़ भिद्यते हृदयग्रन्थिए्छिद्यन्ते सर्वसंशया: ।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेडरिखलात्मनि ॥

    ३०॥

    भिद्यते--टूट कर, छेद कर; हदय--हृदय; ग्रन्थि:--गाँठें; छिद्यन्ते--खण्ड खण्ड कर; सर्व--सभी; संशया:--आशंकाएँ;क्षीयन्ते--समाप्त हो जाती हैं; च--तथा; अस्य--उसके; कर्मणि--कर्मों की श्रृंखला; मयि--जब मैं; दृष्टे--दिखता हूँ;अखिल-आत्मनि-- भगवान्‌ के रूप में |

    जब मैं उसे भगवान्‌ के रूप में दिखता हूँ, तो उसके हृदय की गाँठ खुल जाती है, सारे संशयछिन्न-भिन्न हो जाते हैं तथा सकाम कर्मो की श्रृंखला समाप्त हो जाती है।

    तस्मान्मद्धक्तियुक्तस्थ योगिनो वै मदात्मनः ।नज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥

    ३१॥

    तस्मातू--इसलिए; मत्‌-भक्ति-युक्तस्थ--मेरी प्रेमाभक्ति में लगे रहने वाले का; योगिन:--भक्त का; बै--निश्चय ही; मत्‌ू-आत्मन:--जिसका मन मुझ में स्थिर है; न--नहीं; ज्ञाममू--ज्ञान का अनुशीलन; न--न तो; च-- भी; वैराग्यम्‌--वैराग्य काअनुशीलन; प्राय: --सामान्यतया; श्रेयः:--सिद्धि प्राप्त करने के साधन; भवेत्‌--होए; इह--इस जगत में |

    इसलिए वह भक्त जो मुझ पर अपना मन स्थिर करके मेरी प्रेमाभक्ति में लगा रहता है, उसकेलिए ज्ञान का अनुशीलन तथा वैराग्य सामान्यतया इस जगत में सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने केसाधन नहीं हैं।

    यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्न यत्‌ ।योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितररषि ॥

    ३२॥

    सर्व मद्धक्तियोगेन मद्धक्तो लभतेञ्ञसा ।स्वर्गापवर्ग मद्धाम कथजञ्ञिद्यदि वाउ्छति ॥

    ३३॥

    यत्‌ू--जो प्राप्त किया जाता है; कर्मभिः--सकाम कर्म द्वारा; यत्‌ू--जो; तपसा--तपस्या से; ज्ञान--ज्ञान के अनुशीलन से;वैराग्यत:ः--वैराग्य से; च-- भी; यत्‌--जो प्राप्त किया जाता है; योगेन--योग-प्रणाली द्वारा; दान--दान से; धर्मेण-- धार्मिककार्यों से; श्रेयोभि:--जीवन को शुभ बनाने की विधियों से; इतरैः--अन्यों द्वारा; अपि--निस्सन्देह; सर्वम्‌--समस्त; मत्‌-भक्ति-योगेन--मेरी प्रेमाभक्ति द्वारा; मतू-भक्त:--मेरा भक्त; लभते--प्राप्त करता है; अज्लआ--अनायास; स्वर्ग--स्वर्ग जाना;अपवर्गम्‌--सारे कष्ट से मोक्ष; मत्‌-धाम--मेरे धाम में निवास; कथज्जित्‌--किसी न किसी तरह; यदि--यदि; वज्छति--चाहताहै

    इन सारी वस्तुओं को जो सकाम कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान, धर्म तथा जीवनको पूर्ण बनाने वाले अन्य सारे साधनों से प्राप्त की जाती हैं, मेरा भक्त मेरे प्रति भक्ति सेअनायास प्राप्त कर लेता है। यदि मेरा भक्त किसी न किसी तरह स्वर्ग जाने, मोक्ष या मेरे धाम मेंनिवास करने की इच्छा करता है, तो वह ऐसे वर सरलता से प्राप्त कर लेता है।

    न किश्ञित्साधवो धीरा भक्ता होकान्तिनो मम ।वाउछन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम्‌ ॥

    ३४॥

    न--कभी नहीं; किल्ञित्‌ू--कुछ भी; साधव:--सन्त पुरुष; धीरा:--गहन बुद्धि से; भक्ता:--भक्तगण; हि--निश्चय ही;एकान्तिन:--पूर्णतया विरक्त; मम--मुझको; वाउछन्ति--चाहते हैं; अपि--निस्सन्देह; मया--मेरे द्वारा; दत्तम्‌ू--दिया हुआ;कैवल्यम्‌--मोक्ष; अपुन:-भवम्‌--जन्म तथा मृत्यु से छुटकारा

    चूँकि मेरे भक्तमण साधु आचरण के तथा गम्भीर बुद्धि वाले होते हैं, इसलिए वे अपने आपको पूरी तरह मुझमें समर्पित कर देते हैं और मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहते। यहाँ तक कियदि मैं उन्हें जन्म-मृत्यु से मुक्ति भी प्रदान करता हूँ, तो वे इसे स्वीकार नहीं करते।

    नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर्नि:श्रेयसमनल्पकम्‌ ।तस्मान्निराशिषो भक्तिर्निरपेक्षस्थ मे भवेत्‌ ॥

    ३५॥

    नैरपेक्ष्यमू-- भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी न चाहने वाला; परम्‌--सर्वश्रेष्ठ; प्राहु:--कहा जाता है; नि: श्रेयसम्‌--मोक्ष की सर्वोच्चअवस्था; अनल्पकम्‌-महान्‌; तस्मात्‌ू--इसलिए; निराशिष:--निजी लाभ न चाहने वाले की; भक्ति: --प्रेमा भक्ति;निरपेक्षस्थ--मुझे ही देखने वाले का; मे--मुझ तक; भवेत्‌--उठ सकता है।

    कहा जाता है कि पूर्ण विरक्ति स्वतंत्रता की सर्वोच्च अवस्था है। इसलिए जिसकी कोईनिजी इच्छा नहीं होती और जो निजी लाभ के पीछे नहीं भागता, वह मेरी प्रेमाभक्ति प्राप्त कर सकता है।

    न मस्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्धवा गुणा: ।साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम्‌ ॥

    ३६॥

    न--नहीं; मयि--मुझमें; एक-अन्त--शुद्ध; भक्तानामू- भक्तों का; गुण--अच्छे के रूप में संस्तुत; दोष--अनुपयुक्त के रूपमें वर्जित; उद्धवा:--ऐसी वस्तुओं से उत्पन्न; गुणा:--पाप तथा पुण्य; साधूनामू-- भौतिक लालसाओं से मुक्त लोगों के; सम-चित्तानामू--सभी परिस्थितियों में स्थिर आध्यात्मिक चेतना बनाये रखने वालों के; बुद्धेः--भौतिक बुद्धि से समझा जा सकनेवाला; परम्‌--परे; उपेयुषाम्‌--प्राप्त कर लेने वालों के

    इस जगत के अच्छे तथा बुरे से उत्पन्न भौतिक पुण्य तथा पाप मेरे शुद्ध भक्तों के अन्तःकरणमें नहीं रह सकते क्‍योंकि वे भौतिक लालसा से मुक्त होने के कारण सभी परिस्थितियों मेंआध्यात्मिक चेतना स्थिर बनाये रखते हैं। निस्सन्देह, ऐसे भक्तों ने भौतिक बुद्धि से अतीत मुझभगवान्‌ को पा लिया है।

    एवमेतान्मया दिष्टाननुतिष्ठन्ति मे पथ: ।क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद्वृह्य परमं विदु: ॥

    ३७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; एतान्‌ू--ये; मया--मेरे द्वारा; दिष्टान्‌-- आदेश दिये; अनुतिष्ठन्ति--पालन करते हैं; मे--मुझको; पथ:--प्राप्त करने का साधन; क्षेमम्‌ू--मोह से छुटकारा; विन्दन्ति--प्राप्त करते हैं; मत्‌-स्थानम्‌--मेरा धाम; यत्‌--जो; ब्रह्म परमम्‌--परब्रह्म; विदुः--जानते हैं

    जो लोग मेरे द्वारा सिखलाये गये, मुझे प्राप्त करने के इन नियमों का गम्भीरता से पालनकरते हैं, वे मोह से छुटकारा पा लेते हैं और मेरे धाम में पहुँचने पर वे परब्रह्म को भलीभाँतिसमझते हैं।

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    21. कृष्ण द्वारा वैदिक पथ की व्याख्या

    श्रीभगवानुवाचय एतान्मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्‌ ।क्षुद्रान्कामां श्वलै: प्राणैर्जुषन्त: संसरन्ति ते ॥

    १॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; ये--जो; एतान्‌ू--इन; मत्‌-पथ: --मुझे प्राप्त करने का साधन; हित्वा--त्याग कर;भक्ति--भक्ति; ज्ञान--वैश्लेषिक दर्शन; क्रिया--नियमित कर्म; आत्मकानू--से युक्त; क्षुद्रानू--नगण्य; कामान्‌--इन्द्रियतृप्ति;चलै:--चंचल; प्राणैः--इन्द्रियों से; जुषन्त:--अनुशीलन करते हुए; संसरन्ति--संसार को भोगते हैं; ते--वे

    भगवान्‌ ने कहा : जो मुझे प्राप्त करने वाली उन विधियों को, जो भक्ति, वैश्लेषिक दर्शन( ज्ञान ) तथा नियत कर्मों की नियमित सम्पन्नता ( कर्म-योग ) से युक्त हैं, त्याग देता है औरभौतिक इन्द्रियों से विचलित होकर श्षुद्र इन्द्रियतृष्ति में लग जाता है, वह निश्चय ही बारम्बारसंसार-चक्र में फँसता जाता है।

    स्वे स्वेडईधिकारे या निष्ठा स गुण: परिकीर्तितः ।विपर्ययस्तु दोष: स्थादुभयोरेष निश्चय: ॥

    २॥

    स्वे स्वे--अपने अपने; अधिकारे--पद में; या--ऐसी; निष्ठा--स्थिरता; सः--वह; गुण: --पुण्य; परिकीर्तित:--घोषित;विपर्यय:ः --विपरीत; तु--निस्सन्देह; दोष:--पाप; स्थात्‌ू--है; उभयो:--दोनोंमें; एघ:--यह; निश्चय:--निश्चित मत

    अपने पद पर स्थिरता वास्तविक शुद्धि कहलाती है और अपने पद से विचलन अशुद्धि है।इस तरह दोनों को निश्चित किया जाता है।

    शुद्धयशुद्धी विधीयेते समानेष्वषि वस्तुषु ।द्रव्यस्य विचिकित्सार्थ गुणदोषौ शुभाशुभौ ।धर्मार्थ व्यवहारार्थ यात्रार्थमिति चानघ ॥

    ३॥

    शुद्धि--शुद्धि; अशुद्धी --तथा अशुदर्द्धि; विधीयेते--स्थापित की जाती हैं; समानेषु--समान श्रेणी वालों में; अपि--निस्सन्देह;वस्तुषु--वस्तुओं में; द्रव्यस्य--विशेष वस्तु का; विचिकित्सा--मूल्यांकन; अर्थम्‌-के हेतु; गुण-दोषौ--अच्छे तथा बुरे गुण;शुभ-अशुभौ--शुभ तथा अशुभ; धर्म-अर्थम्‌--धार्मिक कार्यो के लिए; व्यवहार-अर्थम्‌--सामान्य व्यवहार के हेतु; यात्रा-अर्थम्‌--अपनी शारीरिक दीर्घजीविता ( अतिजीवन ) हेतु; इति--इस प्रकार; च-- भी; अनघ--हे निष्पाप

    हे निष्पाप उद्धव, यह समझने के लिए कि जीवन में क्या उचित है, मनुष्य को किसी एकपदार्थ का मूल्यांकन उसकी विशेष कोटि के भीतर ही करना चाहिए। इस तरह धर्म काविश्लेषण करते समय मनुष्य को शुद्धि तथा अशुद्धि पर विचार करना चाहिए। इसी प्रकारअपने सामान्य व्यवहार में मनुष्य को अच्छे तथा बुरे में अन्तर करना चाहिए और अपनी शारीरिकदीर्घजीविता ( अतिजीवन ) के लिए उसे पहचानना चाहिए कि क्या शुभ है और क्या अशुभ है।

    दर्शितोयं मयाचारो धर्ममुद्ठहतां धुरम्‌ ॥

    ४॥

    दर्शितः--दिखलाया गया; अयम्‌--यह; मया--मेरे द्वारा; आचार:--जीवन-शैली; धर्मम्‌-धार्मिक सिद्धान्त; उद्दहतामू--वहनकरने वालों के लिए; धुरम्‌-- भार।

    मैंने जीवन की यह शैली उन लोगों के लिए प्रकट की है, जो संसारी धार्मिक सिद्धान्तों काभार वहन कर रहे हैं।

    भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्ञधातव: ।आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुता: ॥

    ५॥

    भूमि--पृथ्वी; अम्बु--जल; अग्नि-- अग्नि; अनिल--वायु; आकाशा: -- आकाश; भूतानाम्‌--सारे बद्धजीवों का; पञ्ञ--पाँच; धातव:ः--मूलभूत तत्त्व; आ-ब्रह्म--ब्रह्मा से लेकर; स्थावर-आदीनाम्‌--जड़ प्राणियों तक; शारीरा:--शरीरों के निर्माणहेतु प्रयुक्त; आत्म--परमात्मा; संयुता:--समान रूप से सम्बन्धित |

    पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश--ये पाँच मूलभूत तत्त्व हैं जिनसे ब्रह्म से लेकरजड़ प्राणियों तक समस्त बद्धजीवों के शरीर बने हैं। ये सारे तत्त्व एक भगवान्‌ से उद्भूत होतेहैं।

    वेदेन नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि ।धातुषूद्धव कल्प्यन्त एतेषां स्वार्थसिद्धये ॥

    ६॥

    बेदेन--वैदिक वाड्मय द्वारा; नाम--नाम; रूपाणि--तथा रूप; विषमाणि--भिन्न; समेषु--जो समान हैं; अपि--निस्सन्देह;धातुषु--पाँच तत्त्वों ( से बने शरीरों ) में; उद्धव--हे उद्धव; कल्प्यन्ते--बने हुए हैं; एतेषाम्‌--इनमें से, जीव; स्व-अर्थ--निजीलाभ की; सिद्धये--प्राप्ति के लिए

    हे उद्धव, यद्यपि सारे शरीर इन्हीं पाँच तत्त्वों से बने हैं और इसीलिए समान हैं, किन्तु वैदिकग्रंथ ऐसे शरीरों की कल्पना भिन्न भिन्न नामों तथा रूपों में करते हैं जिससे जीव अपने जीवन-लक्ष्य प्राप्त कर सकें ।

    text:देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम । गुणदोषौ विधीयेते नियमार्थ हि कर्मणाम्‌ ॥

    ७॥

    देश--स्थान; काल--समय; आदि--इत्यादि; भावानाम्‌- भावों का; वस्तूनाम्‌--वस्तुओं का; मम--मेरा; सत्‌-तम--हे परम सन्त उद्धव; गुण-दोषौ--पुण्य तथा पाप; विधीयेते--स्थापित किये जाते हैं; नियम-अर्थम्‌--प्रतबिन्ध के लिए; हि--निश्चय ही; कर्मणाम्‌-सकाम कर्मों के |

    हे सन्त उद्धव, मैंने भौतिकतावादी कर्मों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए यह सुनिश्चित कर दिया है कि देश, काल तथा सारी भौतिक वस्तुओं में से कौन उचित है और कौन अनुचित है। अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योसुचिर्भवेत्‌ ।कृष्णसारोप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम्‌ ॥

    ८ ॥

    अकृष्ण-सार:--धब्बारहित बारहसिंगा; देशानाम्‌--स्थानों में; अब्रह्मण्य:--जहाँ ब्राह्मणों के प्रति भक्ति-भाव नहीं है;अशुचि:--दूषित; भवेत्‌-- है; कृष्ण-सार:ः --काले धब्बों वाले बारहसिंगे; अपि-- भी; असौवीर--साधु स्वभाव वाले व्यक्तियोंसे रहित; कीकट--गया प्रदेश ( जहाँ निम्न जाति के लोग रहते हैं ); असंस्कृत--जहाँ के लोग संस्कार या स्वच्छता नहीं बरतते;ईरणम्‌--जहाँ की भूमि बंजर है।

    स्थानों में से वे स्थान दूषित माने जाते हैं, जो धब्बेदार बारहसिंगों से रहित हैं, जो ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति से रहित है, जहाँ धब्बेदार बारहसिंगे होते हैं, किन्तु जो सम्माननीय व्यक्तियों सेरहित होते हैं तथा कीकट जैसे प्रदेश एवं वे स्थान जहाँ स्वच्छता तथा संस्कारों की अवहेलनाकी जाती है, जहाँ मांस-भक्षकों का प्राधान्य होता है या जहाँ पृथ्वी बंजर होती है।

    कर्मण्यो गुणवान्कालो द्रव्यत: स्वत एव वा ।यतो निवर्तते कर्म स दोषोकर्मक: स्मृतः ॥

    ९॥

    कर्मण्य:--नियत कार्य करने के लिए अनुकूल; गुणवान्‌--शुद्ध; काल:--समय; द्रव्यतः--शुभ वस्तुओं की प्राप्ति से;स्वतः--अपने आप; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; यत:--जिस ( काल ) के कारण; निवर्तते--अवरुद्ध होता है; कर्म--कर्तव्य; सः--वह ( काल ); दोष: --अशुद्ध; अकर्मक:--उचित ढंग से कर्म करने के लिए अनुपयुक्त; स्मृत:--माना जाता है।

    कोई विशेष काल तब शुद्ध माना जाता है जब वह अपने स्वभाव से अथवा उपयुक्त साज-सामग्री प्राप्त होने से मनुष्य के नियत कर्तव्य को करने के लिए उपयुक्त हो। वह काल जो किसीके कर