श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 9

  • अध्याय एक: राजा सुद्युम्न एक महिला बन गए

  • अध्याय दो: मनु के पुत्रों के राजवंश

  • अध्याय तीन: सुकन्या और च्यवन मुनि का विवाह

  • अध्याय चार: अंबरीष महाराज का दुर्वासा मुनि द्वारा अपमान

  • अध्याय पाँच: दुर्वासा मुनि की जान बख़्शी

  • छठा अध्याय: सौभरि मुनि का पतन

  • अध्याय सात: राजा मान्धाता के वंशज

  • अध्याय आठ: सगर के पुत्र भगवान कपिलदेव से मिले

  • अध्याय नौ: अशुमान का राजवंश

  • अध्याय दस: परम भगवान, रामचन्द्र की लीलाएँ

  • अध्याय ग्यारह: भगवान रामचन्द्र विश्व पर शासन करते हैं

  • अध्याय बारह: भगवान रामचन्द्र के पुत्र कुश का वंश

  • अध्याय तेरह: महाराजा निमि का राजवंश

  • अध्याय चौदह: राजा पुरुरवा उर्वशी पर मोहित हो गये

  • अध्याय पंद्रह: परशुराम, भगवान के योद्धा अवतार

  • अध्याय सोलह: भगवान परशुराम विश्व के शासक वर्ग को नष्ट कर देते हैं

  • अध्याय सत्रह: पुरुरवा के पुत्रों के राजवंश

  • अध्याय अठारह: राजा ययाति को अपनी युवावस्था प्राप्त हुई

  • अध्याय उन्नीस: राजा ययाति को मुक्ति प्राप्त हुई

  • अध्याय बीस: पुरु का राजवंश

  • अध्याय इक्कीसवाँ: भरत का राजवंश

  • अध्याय बाईसवाँ: अजमीढ़ के वंशज

  • अध्याय तेईसवाँ: ययाति के पुत्रों के राजवंश

  • अध्याय चौबीस: कृष्ण, भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व

    अध्याय एक: राजा सुद्युम्न एक महिला बन गए

    9.1श्रीराजोबवाचमन्वन्तराणि सर्वाणि त्वयोक्तानि श्रुतानि मे।

    वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य हरेस्तत्र कृतानिच ॥

    १॥

    श्री-राजा उबाच--राजा परीक्षित ने कहा; मन्वन्तराणि--विभिन्न मनुओं के कालों के बारे में; सर्वाणि--समस्त; त्वया--तुम्हारे द्वारा;उक्तानि--वर्णन किये गये; श्रुतानि--सुने गये; मे--मेरे द्वारा; वीर्याणि-- अद्भुत कार्यकलाप; अनन्त-वीर्यस्थ--असीम बल वालेभगवान्‌; हरेः --हरि के; तत्र--उन मन्वन्तरों में; कृतानि--सम्पन्न; च-- भी |

    राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु शुकदेव गोस्वामी, आप विभिन्न मनुओं के सारे कालों काविस्तार से वर्णन कर चुके हैं और उन कालों में असीम शक्तिशाली भगवान्‌ के अद्भुत कार्यकलापोंका भी वर्णन कर चुके हैं।

    मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने आपसे ये सारी बातें सुनीं।

    योउसौ सत्यब्रतो नाम राजर्षिद्रविडेश्वर: ।

    ज्ञानं योइतीतकल्पान्ते लेभे पुरुषसेवया ॥

    २॥

    स बै विवस्वत:ः पुत्रो मनुरासीदिति श्रुतम्‌ ।

    त्वत्तस्तस्य सुताः प्रोक्ता इक्ष्वाकुप्रमुखा नृपा: ॥

    ३॥

    यः असौ--जो विख्यात था; सत्यब्रतः--सत्यव्रत; नाम--नामक; राज-ऋषि: --साधु राजा; द्रविड-ईश्वर: --द्रविड देश का शासक;ज्ञानममू--ज्ञान; यः--जो; अतीत-कल्प-अन्ते-- अन्तिम मनु के काल के अन्त में या गत कल्प के अन्त में; लेभे--प्राप्त किया; पुरुष-सेवया--भगवान्‌ की सेवा करके; सः--उसने; बै--निस्सन्देह; विवस्वत: --विवस्वान का; पुत्र:--पुत्र; मनु: आसीत्‌-- वैवस्वत मनुहुआ; इति--इस प्रकार; श्रुतम्‌-मैंने सुना है; त्वत्त:--तुमसे; तस्य--उसके; सुताः --पुत्र; प्रोक्ता:--बताये जा चुके हैं; इक्ष्बाकु-प्रमुखा:--इक्ष्वाकु इत्यादि; नृपा:--अनेक राजा

    द्रविड़ देश के साधु राजा सत्यव्रत को भगवत्कृपा से गत कल्प के अन्त में आध्यात्मिक ज्ञानप्राप्त हुआ और वह अगले मन्वन्तर में विवस्वान का पुत्र वैवस्वत मनु बना।

    मुझे इसका ज्ञान आपसेप्राप्त हुआ है।

    मैं यह भी जानता हूँ कि इश्ष्वाकु इत्यादि राजा उसके पुत्र थे जैसा कि आप पहले बताचुके हैं।

    तेषां वंशं पृथग्ब्रह्मन्वंशानुचरितानि च ।

    कीर्तयस्व महाभाग नित्य॑ शुश्रूषतां हि नः ॥

    ४॥

    तेषाम्‌--उन सारे राजाओं के; वंशमू--वंश को; पृथक्‌ू--अलग-अलग; ब्रह्मनू-हे महान्‌ ब्राह्मण ( शुकदेव गोस्वामी ); बंश-अनुचरितानि च--तथा उनके वंश एवं गुण; कीर्तवस्व--कृपया कहिये; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; नित्यम्‌--नित्य;शुश्रूषताम्‌ू--आपकी सेवा में लगे हुओं का; हि--निस्सन्देह; नः--हम सबका |

    है परम भाग्यशाली शुकदेव गोस्वामी, हे महान्‌ ब्राह्मण, कृपा करके हम सबको उन सारेराजाओं के वंशों तथा गुणों का पृथक्‌-पृथक्‌ वर्णन कीजिये क्योंकि हम आपसे ऐसे विषयों कोसुनने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं।

    ये भूता ये भविष्याश्र भवन्त्यद्यतनाश्च ये ।

    तेषां नः पुण्यकीर्तीनां सर्वेषां बद विक्रमान्‌ ॥

    ५॥

    ये--जो; भूताः -- पहले प्रकट हुए हैं; ये--जो; भविष्या:-- भविष्य में उत्पन्न होंगे; च-- भी; भवन्ति--विद्यमान हैं; अद्यतना:--इससमय; च--भी; ये--जो; तेषामू--उन सब का; न:ः--हमको; पुण्य-कीर्तीनाम्‌ू--जो पवित्र तथा प्रसिद्ध थे; सर्वेषामू--सबका;वबद--कृपा करके बतायें; विक्रमान्‌ू--पराक्रम के बारे में

    कृपा करके हमें वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न उन समस्त विख्यात राजाओं के पराक्रम के विषयमें बतलायें जो पहले हो चुके हैं, जो भविष्य में होंगे तथा जो इस समय विद्यमान हैं।

    श्रीसूत उवाचएवं परीक्षिता राज्ञा सदसि ब्रह्मवादिनाम्‌ ।

    पृष्ठ: प्रोवाच भगवाउ्छुकः परमधर्मवित्‌ ॥

    ६॥

    श्री-सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; परीक्षिता--महाराज परीक्षित द्वारा; राज्ञा--राजा द्वारा; सदसि--सभा में; ब्रह्य-वादिनाम्‌ू--वैदिक ज्ञान में पटु सभी सन्त पुरुषों की; पृष्ट:--पूछे जाकर; प्रोवाच--उत्तर दिया; भगवान्‌-- अत्यन्तशक्तिमान; शुकः --शुक गोस्वामी; परम-धर्म-वित्‌--धर्म के महान्‌ पंडित।

    सूत गोस्वामी ने कहा : जब वैदिक ज्ञान के पंडितों की सभा में परम धर्मज्ञ शुकदेव गोस्वामी सेमहाराज परीक्षित ने इस प्रकार प्रार्थना की तो वे इस प्रकार बोले।

    श्रीशुक उवाचश्रूयतां मानवो वंश: प्राचुर्येण परन्तप ।

    न शक्यते विस्तरतो वक्तुं वर्षशतिरपि ॥

    ७॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; श्रूयताम्‌--मुझसे सुनें; मानव: बंश:--मनु का वंश; प्राचुर्येण--विस्तार से;परन्तप--शत्रुओं का दमन करने वाले राजा; न--नहीं; शक्यते--समर्थ है; विस्तरत:--विस्तार से; वक्तुमू--कह पाना; वर्ष-शतैःअपि--सौ वर्षो में भी |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे शत्रुओं का दमन करने वाले राजा, अब तुम मुझसे मनु के वंश केविषय में विस्तार से सुनो।

    मैं यथासम्भव तुम्हें बतलाऊँगा यद्यपि सौ वर्षों में भी उसके विषय में पूरीतरह नहीं बतलाया जा सकता।

    परावरेषां भूतानामात्मा यः पुरुष: पर: ।

    स एवासीदिदं विश्व कल्पान्तेउन्यन्न किज्लन ॥

    ८॥

    पर-अवरेषाम्‌--जीवन के उच्च या निम्न स्तर के सारे जीवों का; भूतानाम्‌ू-- भौतिक शरीर धारण करने वालों का ( बद्धजीवों का );आत्मा--परमात्मा; यः--जो है; पुरुष:--परम पुरुष; पर:--दिव्य; सः--वह; एव--निस्सन्देह; आसीतू-- था; इृदम्‌--यह; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; कल्प-अन्ते--कल्प के अन्त में; अन्यत्‌--अन्यत्र; न--नहीं; किज्ञन--कुछ भी |

    जीवन की उच्च तथा निम्न अवस्थाओं में पाये जाने वाले जीवों के परमात्मा दिव्य परम पुरुषकल्प के अन्त में विद्यमान थे जब न तो यह ब्रह्माण्ड था, न अन्य कुछ था।

    केवल वे ही विद्यमान थे।

    तस्य नाभे: समभवत्पदाकोषो हिरण्मयः ।

    तस्मिज्जज्ञे महाराज स्वयम्भूश्नतुरानन: ॥

    ९॥

    तस्य--उसकी ( भगवान्‌ की ); नाभे: --नाभि से; समभवत्‌--उत्पन्न हुआ; पद्य-कोष:--कमल; हिरण्मय:--सुनहला या हिरण्मयनामक; तस्मिनू--उस सुनहले कमल पर; जज्ञे-- प्रकट हुआ; महाराज--हे राजा; स्वयम्भू: --माता के बिना उत्पन्न होने वाला, याअपने आप प्रकट होने वाला; चतु:-आनन:ः--चार मुखों वाला

    हे राजा परीक्षित, भगवान्‌ की नाभि से एक सुनहला कमल उत्पन्न हुआ जिस पर चार मुखों वालेब्रह्माजी ने जन्म लिया।

    मरीचिर्मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यप: ।

    दाक्षायण्यां ततोउदित्यां विवस्वानभवत्सुतः ॥

    १०॥

    मरीचि:--मरीचि नामक महान्‌ सन्त ने; मनसः तस्य--ब्रह्माजी के मन से; जज्ञे--जन्म लिया; तस्य अपि--मरीचि से; कश्यप: --कश्यप ने ( जन्म लिया ); दाक्षायण्याम्‌--महाराज दक्ष की कन्या के गर्भ से; ततः--तत्पश्चात्‌; अदित्यामू--अदिति के गर्भ से;विवस्वान्‌--विवस्वान; अभवत्‌--हुआ; सुतः-पुत्र |

    ब्रह्माजी के मन से मरीचि ने जन्म लिया और मरीचि के वीर्य तथा दक्ष महाराज की कन्या केगर्भ से कश्यप प्रकट हुए।

    कश्यप द्वारा अदिति के गर्भ से विवस्वान ने जन्म लिया।

    ततो मनु: श्राद्धदेव: संज्ञायामास भारत ।

    श्रद्धायां जनयामास द॒श पुत्रान्स आत्मवान्‌ ॥

    ११॥

    इश्ष्वाकुनूगशर्यातिदिष्टधृष्टकरूषकान्‌ ।

    नरिष्यन्तं पृषश्च॑ च नभगं च कविं विभु: ॥

    १२॥

    ततः--विवस्वान से; मनु: श्राद्धदेव:--श्राद्धदेव नामक मनु ने; संज्ञायामू--विवस्वान की पतली संज्ञा के गर्भ से; आस--उत्पन्न हुआ;भारत-हहे भारत वंश में श्रेष्ठ; श्रद्धायाम्‌- श्राद्धदेव की पत्नी श्रद्धा के गर्भ से; जनयाम्‌ आस--जन्म दिया; दश--दस; पुत्रान्‌--पुत्रोंको; सः--श्राद्धदेव ने; आत्मवान्‌--इन्द्रियों को जीतकर; इक्ष्वाकु-नृग-शर्याति-दिष्ट- धृष्ट-करूषकानू--इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट,धृष्ट तथा करूषक को; नरिष्यन्तम्‌ू--नरिष्यन्त; पृषश्रम्‌ च--तथा पृषथ्च; नभगम्‌ च--तथा नभग; कविम्‌--कवि को; विभु:--महान।

    हे भारतवंश के श्रेष्ठ राजा, संज्ञा के गर्भ से विवस्वान को श्राद्धदेव मनु प्राप्त हुए।

    श्राद्धदेव मनुने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था।

    उन्हें अपनी पती श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र प्राप्त हुए।

    इन पुत्रोंके नाम थे--इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूषक, नरिष्यन्त, पृषश्चन, नभग तथा कवि।

    अप्रजस्य मनोः पूर्व वसिष्ठो भगवान्किल ।

    मित्रावरुणयोरिष्टिं प्रजार्थमकरोद्विभु; ॥

    १३॥

    अप्रजस्थ--निःसन्तान; मनो:--मनु के; पूर्वमू--पहले; वसिष्ठ:--मुनि वसिष्ठ; भगवान्‌--शक्तिशाली; किल--निस्सन्देह; मित्रा-वरुणयो:--मित्र तथा वरुण नामक देवताओं का; इष्टिमू--यज्ञ; प्रजा-अर्थम्‌--पुत्र प्राप्ति के लिए; अकरोत्‌--सम्पन्न किया;विभुः--महापुरुष ने।

    आरम्भ में मनु के एक भी पुत्र नहीं था।

    अतएव उसे पुत्रप्राप्ति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान मेंअत्यन्त शक्तिशाली मुनि वसिष्ठ ने मित्र तथा वरुण देवताओं को प्रसन्न करने के लिए एक यज्ञ सम्पन्नकिया।

    तत्र श्रद्धा मनो: पत्नी होतारं समयाचत ।

    दुहित्रर्थमुपागम्य प्रणिपत्य पयोत्रता ॥

    १४॥

    तत्र--उस यज्ञ में; श्रद्धा-- श्रद्धा ने; मनो:--मनु की; पत्नी--पत्नी; होतारम्‌--यज्ञ करने वाले पुरोहित से; समयाचत--ठीक से भीखमाँगी; दुहितृ-अर्थम्‌--एक पुत्री के लिए; उपागम्य--पास आकर; प्रणिपत्य--प्रणाम करके; पयः-ब्रता--पयोव्रत करने वाली,केवल दूध पीने का ब्रत रखने वाली |

    उस यज्ञ के दौरान मनु की पत्नी श्रद्धा, जो केवल दूध पीकर जीवित रहने का व्रत कर रही थी,यज्ञ कराने वाले पुरोहित के निकट आई, उसे प्रणाम किया और उससे एक पुत्री की याचना की।

    प्रेषितो ध्वर्युणा होता व्यचरत्तत्समाहित: ।

    गृहीते हविषि वाचा वषट्कारं गृणन्द्रिज: ॥

    १५॥

    प्रेषित: --यज्ञ करने को कहे जाने पर; अध्वर्युणा--ऋत्विक द्वारा; होता--आहुति डालने वाले पुरोहित ने; व्यचरत्‌--सम्पन्न किया;तत्‌--वह ( यज्ञ ); समाहितः--ध्यानपूर्वक; गृहीते हविषि--पहली आहुति के लिए घी लेने पर; वाचा--मंत्रोच्चार द्वारा; वषट्‌-कारम्‌--वषट्‌ शब्द से प्रारम्भ होने वाले मंत्र को; गृणन्‌--उच्चारण करते हुए; द्विज:--ब्राह्मण ने

    प्रधान पुरोहित द्वारा यह कहे जाने पर 'अब आहुति डालो ' आहुति डालने वाले (होता ) नेआहुति डालने के लिए घी लिया।

    तब उसे मनु की पत्नी की याचना स्मरण हो आई और उसने'वषट्‌ ' शब्दोच्चार करते हुए यज्ञ सम्पन्न किया।

    होतुस्तद्व्यभिचारेण कन्येला नाम साभवत्‌ ।

    तां विलोक्य मनु: प्राह नातितुष्टमना गुरुम्‌ ॥

    १६॥

    होतुः--पुरोहित के; तत्‌--यज्ञ के; व्यभिचारेण--उल्लंघनपूर्ण कर्म से; कन्या--पुत्री; इला--इला; नाम--नामक; सा--वह कन्या;अभवत्‌-त्पन्न हुई; तामू--उसको; विलोक्य--देखकर; मनु:--मनु; प्राह--बोला; न--नहीं; अतितुष्टमना:--अत्यधिक तुष्ट;गुरुम--अपने गुरु से।

    मनु ने वह यज्ञ पुत्रप्राप्ति के लिए प्रारम्भ किया था, किन्तु मनु की पत्नी के अनुरोध पर पुरोहितके विपथ होने से इला नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई।

    इस पुत्री को देखकर मनु बिल्कुल प्रसन्न नहींहुए।

    अतएव वे अपने गुरु वसिष्ठ से इस प्रकार बोले।

    भगवन्किमिदं जात॑ कर्म वो ब्रह्मवादिनाम्‌ ।

    विपर्ययमहो कष्ट मैवं स्याह्रह्मविक्रिया ॥

    १७॥

    भगवनू-हे प्रभु; किम्‌ इदम्‌--यह क्या है; जातम्‌--उत्पन्न हुआ; कर्म--सकाम कर्म; वः--हम सभी; ब्रह्म-वादिनाम्‌--वैदिक मंत्रोंके उच्चारण में पटु आप लोगों का; विपर्ययम्‌--विचलन; अहो--ओह; कष्टम्‌-कष्टप्रद; मा एवम्‌ स्थातू--इस तरह नहीं होना चाहिएथा; ब्रह्म-विक्रिया--वेद मंत्रों का यह विपरीत प्रभाव |

    हे प्रभु, आप लोग वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पटु हैं।

    तो फिर वांछित फल से विपरीत फल क्‍योंनिकला ?

    यही पश्चात्ताप का विषय है।

    वैदिक मंत्रों का ऐसा उल्टा प्रभाव नहीं होना चाहिए था।

    यूयं ब्रह्मविदो युक्तास्तपसा दग्धकिल्बिषा: ।

    कुतः सड्डूल्पवैषम्यमनृतं विबुधेष्विव ॥

    १८॥

    यूयम्‌--तुम सभी; ब्रह्म -विद:--परम सत्य से भलीभाँति परिचित; युक्ता:--संयमित; तपसा--तपस्या के द्वारा; दग्ध-किल्बिषा:--जिनके सारे भौतिक कल्मष जल चुके हैं; कुत:ः--तब कैसे; सड्जूल्प-वैषम्यम्‌--संकल्प में त्रुटि; अनृतम्‌--झूठा वादा, झूठा कथन;विबुधेषु--देवताओं के समाज में; इब--अथवा |

    तुम सभी संयमित, संतुलित तथा परम सत्य से परिच्चित हो।

    तुम सबने अपनी तपस्याओं के द्वारासारे भौतिक कल्मष से अपने को पूरी तरह स्वच्छ कर लिया है।

    तुम सबके वचन देवताओं के बचनोंकी तरह कभी मिथ्या नहीं होते।

    तो फिर यह कैसे सम्भव हुआ कि तुम सबका संकल्प विफल होगया ?

    निशम्य तद्बचचस्तस्य भगवान्प्रपितामहः ।

    होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा बभाषे रविनन्दनम्‌ ॥

    १९॥

    निशम्य--सुनकर; तत्‌ वच:--वे शब्द; तस्य--उसके ( मनु के ); भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; प्रपितामह:--बाबा के बाबा वसिष्ठ;होतुः व्यतिक्रमम्‌--होता की त्रुटि; ज्ञात्वा--जानकर; बभाषे--बोला; रवि-नन्दनम्‌--सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु से

    मनु के इन बचनों को सुनकर अत्यन्त शक्तिशाली प्रपितामह वसिष्ठ होता की त्रुटि को समझगये।

    अतः वे सूर्यपुत्र से इस प्रकार बोले।

    एतत्सड्ूल्पवैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारत: ।

    तथापि साधयिष्ये ते सुप्रजास्त्वं स्वतेजसा ॥

    २०॥

    एतत्‌--यह; सड्जडूल्प-वैषम्यम्‌--लक्ष्य में त्रुटि; होतु:--होता की; ते--तुम्हारे; व्यभिचारत:--निर्दिष्ट प्रयोजन से हटने के कारण; तथाअपि--फिर भी; साधयिष्ये --मैं सम्पन्न करूँगा; ते--तुम्हारा; सु-प्रजास्त्वम्‌--अत्यन्त सुन्दर पुत्र; स्व-तेजसा--अपने निजी पराक्रमसे

    लक्ष्य में यह त्रुटि तुम्हारे पुरोहित द्वारा मूल उद्देश्य में विचलन के कारण हुई है।

    फिर भी मैं अपनेपराक्रम से तुम्हें एक अच्छा पुत्र प्रदान करूँगा।

    एवं व्यवसितो राजन्भगवान्स महायशा: ।

    अस्तौषीदादिपुरुषमिलाया: पुंस्त्वकाम्यया ॥

    २१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; व्यवसित:--निश्चित करते हुए; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिमान; सः--वसिष्ठ; महा-यशा:--अ त्यन्त प्रसिद्ध; अस्तौषीत्‌--प्रार्थना की; आदि-पुरुषम्‌--परम पुरुष भगवान्‌ विष्णु से; इलाया: --इला का; पुंस्त्व-काम्यया--पुरुष में परिणत करने के लिए॥

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, अत्यन्त प्रसिद्ध एवं शक्तिशाली वसिष्ठ ने यहनिर्णय लेने के बाद परम पुरुष भगवान्‌ विष्णु से इला को पुरुष में परिणत करने के लिए प्रार्थनाकी।

    तस्मै कामवर्र तुष्टो भगवान्हरिरी श्वर: ।

    ददाविलाभवत्तेन सुद्युम्न: पुरुषर्षभ: ॥

    २२॥

    तस्मै--उसको ( वसिष्ठ को ); काम-वरम्‌--इच्छित वरदान; तुष्ट:--प्रसन्न होकर; भगवान्‌--भगवान्‌; हरि: ईश्वर: --परम नियन्ताभगवान्‌ ने; ददौ--दिया; इला--इला नामक कन्या; अभवत्‌--हो गईं; तेन--इस वरदान से; सुद्युम्न:--सुद्युम्न नामक; पुरुष-ऋषभ:--सुन्दर पुरुष

    परम नियन्ता भगवान्‌ ने वसिष्ठ से प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित वरदान दिया।

    इस तरह इला सुद्युम्ननामक एक सुन्दर पुरुष में परिणत हो गई।

    स एकदा महाराज विचरन्मृगयां वने ।

    वृतः कतिपयामात्यैरश्रमारुहम सैन्धवम्‌ ॥

    २३॥

    प्रगृह्य रुचिरं चाप॑ं शरांश्व परमाद्भधुतान्‌ ।

    दंशितोनुमृगं वीरो जगाम दिशमुत्तराम्‌ ॥

    २४॥

    सः--सुद्युम्म; एकदा--एक बार; महाराज--हे राजा परीक्षित; विचरन्‌-- भ्रमण करते हुए; मृगयाम्‌--शिकार करने के लिए; वने--जंगल में; वृत:--साथ होकर; कतिपय--कुछ; अमात्यै:--मंत्रियों या पार्षदों के द्वारा; अश्वम्‌--घोड़े पर; आरुह्म-- चढ़कर;सैन्धवम्‌्--सिन्धु प्रदेश में उत्पन्न; प्रगृह्म--हाथ में पकड़कर; रुचिरम्‌--सुन्दर; चापम्-- धनुष; शरान्‌ च--तथा बाण; परम-अद्भुतान्‌ू--अत्यन्त अद्भुत, असामान्य; दंशित:--कवच धारण किये; अनुमृगम्‌--पशुओं के पीछे; बीर:--वबीर; जगाम--गया;दिशम्‌ उत्तराम्‌--उत्तर दिशा की ओर।

    हे राजा परीक्षित, एक बार वीर सुद्युम्न अपने कुछ मंत्रियों के साथ सिन्धुप्रदेश से लाये गये घोड़ेपर चढ़कर शिकार करने के लिए जंगल में गया।

    वह कवच पहने था और धनुष-बाण से सुशोभितथा।

    वह अत्यन्त सुन्दर था।

    वह पशुओं का पीछा करते तथा उनको मारते हुए जंगल के उत्तरी भाग मेंपहुँच गया।

    सुकुमारवनं मेरोरधस्तात्प्रविवेश ह ।

    यत्रास्ते भगवाउ्छववों रममाण: सहोमया ॥

    २५॥

    सुकुमार-वनम्‌--सुकुमार नामक बन में; मेरो: अधस्तात्‌--मेरु पर्वत की तलहटी में; प्रविवेश ह--प्रविष्ट हुआ; यत्र--जहाँ; आस्ते--था; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली ( देवता ); शर्बव:--शिवजी; रममाण:--रमण में तल्‍लीन; सह उमया--अपनी पली उमा के साथ |

    वहाँ उत्तर में मेरु पर्वत की तलहटी में सुकुमार नामक एक वन है जहाँ शिवजी सदैव उमा केसाथ विहार करते हैं।

    सुद्युम्न उसी वन में प्रविष्ट हुआ।

    तस्मिन्प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्न: परवीरहा ।

    अपश्यत्त्त्रियमात्मानमश्व॑ च वडवां नृप ॥

    २६॥

    तस्मिन्‌--उस वन में; प्रविष्ट:--प्रविष्ट होने पर; एब--निस्सन्देह; असौ--वह; सुद्युम्न:--राजकुमार सुझ्युम्न; पर-वीर-हा--अपनेशत्रुओं को दमन करने वाले; अपश्यत्‌--देखा; स्त्रियम्‌ू--स्त्री; आत्मानमू--अपनेआपको; अश्वम्‌ च--तथा अपने घोड़े को;वडवाम्‌--धोड़ी में; नृप--हे राजा परीक्षित |

    हे राजा परीक्षित, ज्यों ही अपने शत्रुओं को दमन करने में निपुण सुद्युम्न उस जंगल में प्रविष्ट हुआत्यों ही उसने देखा कि वह एक स्त्री में और उसका घोड़ा एक घोड़ी में परिणत हो गया है।

    तथा तदनुगा: सर्वे आत्मलिड्भरविपर्ययम्‌ ।

    इृष्ठा विमनसो भूवन्वीक्षमाणा: परस्परम्‌ ॥

    २७॥

    तथा--उसी तरह; तत्‌-अनुगा: --सुद्युम्न के साथी; सर्वे --सारे; आत्म-लिड्ड-विपर्ययम्‌--विपरीत लिंग में रूपान्तर; दृष्टा--देखकर;विमनसः--खिन्न; अभूवन्‌--वे हो गये; वीक्षमाणा:--देखते हुए; परस्परम्‌--एक दूसरे को |

    जब उसके साथियों ने भी अपने स्वरूपों एवं अपने लिंग को विपर्यस्त देखा तो वे सभी अत्यन्तखिन्न हो उठे और एक दूसरे की ओर देखने लगे।

    श्रीराजोबवाचकथमेवं गुणो देश: केन वा भगवन्कृतः ।

    प्रश्नमेनं समाचक्ष्व पर कौतूहलं हि न: ॥

    २८ ॥

    श्री-राजा उवाच--महाराज परीक्षित ने कहा; कथम्‌--कैसे; एवम्‌--यह; गुण:--गुण; देश:--देश; केन--क्यों; वा--अथवा;भगवनू--हे शक्तिशाली; कृतः--किया गया; प्रश्नम्‌--प्रश्न; एनम्‌--यह; समाचक्ष्व--बतलाइये; परम्‌--अत्यधिक; कौतूहलम्‌--उत्सुकता; हि--निस्सन्देह; नः--हमारी |

    महाराज परीक्षित ने कहा : हे परम शक्तिशाली ब्राह्मण, यह स्थान इतना शक्तिवान क्‍यों था औरइसे किसने इतना शक्तिशाली बनाया था?

    कृपा करके इस प्रश्न का उत्तर दीजिये क्योंकि मैं इसकेविषय में जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।

    श्रीशुक उवाचएकदा गिरिशं द्रष्टमृषयस्तत्र सुत्रता: ।

    दिशो वितिमिराभासा: कुर्वन्तः समुपागमन्‌ ॥

    २९॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक बार; गिरिशम्‌--शिवजी को; द्रष्टम--देखने के लिए; ऋषय:--ऋषिगण; तत्र--उस जंगल में; सु-ब्रता:--आध्यात्मिक शक्ति में अत्यन्त बढ़े-चढ़े; दिश:--सारी दिशाएँ; वितिमिर-आभासा:--सारेअंधकार के साफ हो जाने पर; कुर्वन्त:--करते हुए; समुपागमन्‌--आये

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार आध्यात्मिक अनुष्ठानों का कठोरता से पालन करने वालेबड़े-बड़े साधु पुरुष उस जंगल में शिवजी का दर्शन करने आये।

    उन सबके तेज से सारी दिशाओं का सारा अंधकार दूर हो गया।

    तान्विलोक्याम्बिका देवी विवासा ब्रीडिता भूशम्‌ ।

    भर्तुर्‌ड्डात्समुत्थाय नीवीमा श्रथ पर्यधात्‌ ॥

    ३०॥

    तानू--उन साधुपुरुषों को; विलोक्य--देखकर; अम्बिका--माता दुर्गा; देवी --देवी; विवासा--नग्न होने के कारण; ब्रीडिता--लज्जित; भृूशम्‌--अत्यधिक; भर्तु:--अपने पति की; अ्भात्‌-गोद से; समुत्थाय--उठकर; नीवीम्‌--वक्षस्थल; आशु अथ--तुरन्तही; पर्यधात्‌--वस्त्र से ढक लिया।

    जब देवी अम्बिका ने इन साधु पुरुषों को देखा तो वे अत्यधिक लज्जित हुईं क्योंकि उस समय वेनग्न थीं।

    वे तुरन्त अपने पति की गोद से उठ गईं और अपने वक्षस्थल को ढकने का प्रयास करनेलगीं।

    ऋषयोऊपि तयोर्वीक्ष्य प्रसड़ं रममाणयो: ।

    निवृत्ताः प्रययुस्तस्मान्नरनारायणा श्रमम्‌ ॥

    ३१॥

    ऋषय: --सारे साधु पुरुष; अपि-- भी; तयो: --उन दोनों की; वीक्ष्य--देखकर; प्रसड्रम्‌--रति क़रीड़ा में; रममाणयो:--लगे हुए;निवृत्ता:--आगे जाने से हिचके; प्रययु:--तुरन्त विदा हो गये; तस्मात्‌--उस स्थान से; नर-नारायण-आश्रमम्‌--नर नारायण केआश्रम को

    शिवजी तथा पार्वती को काम-क्रौड़ा में संलग्न देखकर सारे साधु पुरुष तुरन्त ही आगे जाने सेरुक गये और उन्होंने नर-नारायण के आश्रम के लिए प्रस्थान किया।

    'तदिदं भगवानाह प्रियाया: प्रियकाम्यया ।

    स्थानं यः प्रविशेदेतत्स वै योषिद्धवेदिति ॥

    ३२॥

    तत्‌--क्योंकि; इदम्‌--यह; भगवान्‌--शिवजी ने; आह--कहा; प्रियाया: --अपनी प्रिय पत्नी के; प्रिय-काम्यया--आनन्द के लिए;स्थानम्‌--स्थान; यः--जो कोई; प्रविशेत्‌--प्रवेश करेगा; एतत्‌--यहाँ; सः--वह व्यक्ति; बै--निस्सन्देह; योषित्‌--स्त्री; भवेत्‌--होजायेगा; इति--इस प्रकार

    तत्पश्चात्‌ अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए शिवजी ने कहा, 'इस स्थान में प्रवेश करते हीपुरुष तुरन्त स्त्री बन जायेगा।

    'तत ऊर्ध्व॑ वन॑ तद्दे पुरुषा वर्जयन्ति हि ।

    सा चानुचरसंयुक्ता विचचार बनाइ्ननम्‌ ॥

    ३३॥

    ततः ऊर्ध्वम्‌--उस समय के बाद से; वनमू--जंगल में; तत्‌--उस; बै--विशेष रूप से; पुरुषा:--पुरुष-गण; वर्जयन्ति--नहीं प्रवेशकरते; हि--निस्सन्देह; सा--स्त्री रूप में सुद्युम्म; च--भी; अनुचर-संयुक्ता-- अपने साथियों के साथ; विचचचार--घूमने गया; बनात्‌बनम्‌--एक जंगल से दूसरे में |

    उस काल से कोई भी पुरुष उस जंगल में नहीं घुसा।

    किन्तु अब स्त्री रूप में परिणत होकर राजासुद्युम्न अपने साथियों समेत एक जंगल से दूसरे जंगल में घूमने लगा।

    अथ तामाश्रमाभ्याशे चरन्तीं प्रमदोत्तमाम्‌ ।

    स्त्रीभि: परिवृतां वीक्ष्य चकमे भगवान्बुध: ॥

    ३४॥

    अथ--इस तरह; ताम्‌--उसको; आश्रम-अभ्याशे-- अपने आश्रम के निकट; चरन्तीम्‌--विचरण करती; प्रमदा-उत्तमाम्‌ू--कामोत्तेजना को जागृत करने वाली श्रेष्ठ सुन्दरी; स्त्रीभि:--अन्य स्त्रियों द्वारा; परिवृतामू--घिरी हुई; वीक्ष्य--देखकर; चकमे--कामेच्छा की; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; बुध: --चन्द्रमा का पुत्र बुध तथा बुधलोक का प्रधान देवता।

    सुद्युम्न परम सुन्दर स्त्री में परिणत कर दिया गया था जो कामेच्छा को जगाने वाली थी और अन्यस्त्रियों से घिरी हुई थी।

    चन्द्रमा के पुत्र बुध ने इस सुन्दरी को अपने आश्रम के निकट विचरण करतेदेखकर उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की।

    सापि तं चकमे सुभ्रू: सोमराजसुतं पतिम्‌ ।

    स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम्‌ ॥

    ३५॥

    सा--सुझ्युम्न जो स्त्री के रूप में था; अपि-- भी; तमू--उसके साथ ( बुध के साथ ); चकमे--संभोग करना चाहा; सु- भ्रू: -- परमसुन्दरी; सोमराज-सुतम्‌--चन्द्रमा के राजकुमार के साथ; पतिम्‌--अपने पति रूप में; सः--वह ( बुध ); तस्याम्‌--उसके गर्भ से;जनयाम्‌ आस--उत्पन्न किया; पुरूरवसम्‌--पुरूरवा नामक; आत्म-जमू--पुत्र को

    उस सुन्दर स्त्री ने भी चन्द्रमा के राजकुमार बुध को अपना पति बनाना चाहा।

    इस तरह बुध नेउसके गर्भ से पुरूरवा नामक एक पुत्र उत्पन्न किया।

    एवं स्त्रीत्वमनुप्राप्त: सुद्युम्नो मानवो नृप: ।

    सस्मार स कुलाचार्य वसिष्ठमिति शुश्रुम ॥

    ३६॥

    एवम्‌--इस तरह; स्त्रीत्वम्‌--स्त्रीत्व; अनुप्राप्त:--प्राप्त करके; सुद्युम्न: --सुद्युम्न नामक पुरुष ने; मानव:--मनु पुत्र; नृप:--राजा ने;सस्मार--स्मरण किया; सः--उसने; कुल-आचार्यम्‌-कुलगुरु को; वसिष्ठम्‌--अत्यन्त शक्तिशाली वसिष्ठ; इति शुश्रुम--ऐसा मैंने( विश्वस्त सूत्रों से ) सुना है।

    मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि मनु-पुत्र सुद्युम्न ने इस प्रकार स्त्रीत्व प्राप्त करके अपने कुलगुरूवसिष्ठ का स्मरण किया।

    स तस्य तां दां दृष्ठा कृपया भूशपीडितः ।

    सुद्युम्नस्याशयमन्पुंस्त्वमुपाधावत शद्भूरम्‌ ॥

    ३७॥

    सः--वह; तस्य--सुद्युम्न की; तामू--उस; दशाम्‌--दशा को; हृष्ठा--देखकर; कृपया--कृपा करके; भूश-पीडितः--अत्यधिकदुखी; सुद्युम्नस्य--सुद्युम्न की; आशयन्‌ू --इच्छा; पुंस्त्वम्‌ू--पुरुषत्व; उपाधावत--पूजा करने लगा; शट्जूरम्‌ू--शिवजी को |

    सुद्युम्म की इस शोचनीय स्थिति को देखकर वसिष्ठ अत्यधिक दुखी हुए।

    उन्होंने सुद्युम्न कोउसका पुरुषत्व वापस दिलाने की इच्छा से शिवजी की पूजा करनी फिर प्रारम्भ कर दी।

    तुष्टस्तस्मै स भगवानृषये प्रियमावहन्‌ ।

    स्वां च वाचमृतां कुर्वन्निदमाह विशाम्पते ॥

    ३८॥

    मासं पुमान्स भविता मासं स्त्री तव गोत्रज: ।

    इत्थं व्यवस्थया काम सुद्युम्नोउवतु मेदिनीम्‌ ॥

    ३९॥

    तुष्ट:--प्रसन्न होकर; तस्मै--वसिष्ठ को; सः--उसने ( शिवजी ने ); भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; ऋषये --ऋषि को; प्रियम्‌आवहनू--उसे प्रसन्न करने के लिए; स्वाम्‌ च--अपने; वाचम्‌--शब्द को; ऋताम्‌--सत्य; कुर्वन्‌ू--करने के लिए; इदम्‌--यह;आह--कहा; विशाम्पते--हे राजा परीक्षित; मासम्‌ू--एक महीना; पुमान्‌--पुरुष; सः--सुद्युम्म; भविता--बन जायेगा; मासम्‌--दूसरे महीने में; स्त्री--स्त्री; तब--तुम्हारी; गोत्र-ज:--तुम्हारी परम्परा में उत्पन्न शिष्य; इत्थम्‌--इस तरह; व्यवस्थया--समझौते से;कामम्‌--इच्छानुसार; सुद्युम्न:--राजा सुद्युम्म; अवतु--शासन कर सकता है; मेदिनीमू--जगत पर |

    हे राजा परीक्षित, शिवजी वसिष्ठ पर प्रसन्न हो गए।

    अतएव शिवजी ने उन्हें तुष्ट करने तथा पार्वतीको दिये गये अपने वचन रखने के उद्देश्य से उस सन्त पुरुष से कहा, 'आपका शिष्य सुद्युम्न एकमास तक नर रहेगा और दूसरे मास स्त्री रहेगा।

    इस तरह वह इच्छानुसार जगत पर शासन करसकेगा।

    आचार्यानुग्रहात्कामं लब्ध्वा पुंस्त्व॑ व्यवस्थया ।

    पालयामास जगतीं नाभ्यनन्दन्स्म तं प्रजा: ॥

    ४०॥

    आचार्य-अनुग्रहात्‌-गुरु की कृपा से; कामम्‌--इच्छित; लब्ध्वा--प्राप्त करके; पुंस्त्वमू--पुरुषत्व; व्यवस्थया--शिवजी के इसनिर्णय से; पालयाम्‌ आस--उसने शासन चलाया; जगतीम्‌--सारे जगत पर; न अभ्यनन्दन्‌ स्म--संतुष्ट नहीं थे; तम्‌--उस राजा से;प्रजा:--नागरिक |

    इस प्रकार गुरु की कृपा पाकर शिवजी के बचनों के अनुसार सुद्युम्न को प्रति दूसरे मास मेंउसका इच्छित पुरुषत्व फिर से प्राप्त हो जाता था और इस तरह उसने राज्य पर शासन चलाया यद्यपिनागरिक इससे समन्तुष्ट नहीं थे।

    तस्योत्कलो गयो राजन्विमलश्च त्रयः सुता: ।

    दक्षिणापथराजानो बभूवुर्धर्मवत्सला: ॥

    ४१॥

    तस्य--सुद्युम्न के; उत्तल: --उत्कल नामक; गय:--गय नामक; राजनू--हे राजा परीक्षित; विमल: च--तथा विमल नामक; त्रय:--तीन; सुता:--पुत्र; दक्षिणा-पथ--संसार के दक्षिणी भाग के; राजान:--राजागण; बभूवु:--वे बन गये; धर्म-वत्सला: --अत्यन्तधार्मिक

    हे राजा, सुद्युम्न के तीन अत्यन्त पवित्र पुत्र हुए जिनके नाम थे उत्कल, गय तथा विमल, जोदक्षिणापथ के राजा बने।

    ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभु: ।

    पुरूरवस उत्सूज्य गां पुत्राय गतो वनम्‌ ॥

    ४२॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; परिणते काले--समय आने पर; प्रतिष्ठान-पति:--राज्य का स्वामी; प्रभुः--अत्यन्त शक्तिशाली; पुरूरवसे --पुरूरवाको; उत्सृज्य--प्रदान करके; गामू--जगत को; पुत्राय--अपने पुत्र को; गत:--चला गया; वनम्‌--वन को

    तत्पश्चात्‌ समय आने पर जब जगत का राजा सुझ्युम्न काफी वृद्ध हो गया तो उसने अपना सारासाम्राज्य अपने पुत्र पुरूरवा को दे दिया और स्वयं जंगल में चला गया।

    TO

    अध्याय दो: मनु के पुत्रों के राजवंश

    9.2श्रीशुक उबाचएवं गतेथ सुझ्युम्ने मनुर्वैवस्वतः सुते।

    पुत्रकामस्तपस्तेपे यमुनायां शतं समा: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; गते--वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार करने के लिए; अथ--तत्पश्चात्‌; सुद्युम्ने--जब सुद्युम्न; मनु: वैवस्वत:--वैवस्वत मनु जो श्राद्धदेव कहलाते थे; सुते-- अपना पुत्र; पुत्र-काम: --पुत्र पाने कीइच्छा से; तप: तेपे--कठिन तपस्या की; यमुनायाम्‌--यमुना नदी के तट पर; शतम्‌ समा:--एक सौ वर्षो तक

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इसके पश्चात्‌ जब वैवस्वत मनु ( श्राद्धदेव ) का पुत्र सुद्युम्न वानप्रस्थआश्रम ग्रहण करने के लिए जंगल में चला गया तो मनु ने और अधिक सन्तान प्राप्त करने की इच्छासे यमुना नदी के तट पर सौ वर्षों तक कठिन तपस्या की।

    ततोयजन्मनुर्देवमपत्यार्थ हरिं प्रभुम्‌ ।

    इश्ष्वाकुपूर्वजान्पुत्रान्ले भे स्वसहशान्दश ॥

    २॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; अयजत्‌--पूजा की; मनुः:--वैवस्वत मनु ने; देवम्‌-- भगवान्‌ की; अपत्य-अर्थम्‌--सन्तान प्राप्त करने के लिए;हरिम्‌--हरि की; प्रभुम्‌-प्रभु; इक्ष्वाकु-पूर्व-जानू--जिनमें सबसे बड़ा इश्ष्वाकु था; पुत्रान्‌-पुत्रों को; लेभे--पाया; स्व-सहशान्‌--अपनी ही तरह के; दश--दस |

    तब पुत्र-कामना से श्राद्धदेव ने देवों के देव भगवान्‌ हरि की पूजा की।

    इस तरह उसे अपने हीसदृश दस पुत्र प्राप्त हुए।

    इनमें से इक्ष्वाकु सबसे बड़ा था।

    पृषश्चस्तु मनो: पुत्रो गोपालो गुरुणा कृतः ।

    पालयामास गा यत्तो रात्र्यां वीरासनब्रतः ॥

    ३॥

    पृषश्चः तु--उनमें से पृष्च; मनो:--मनु का; पुत्र:--पुत्र; गो-पाल:--गायों को पालने वाला; गुरुणा--अपने गुरु के आदेश से;कृत:ः--लगाया गया; पालयाम्‌ आस--रक्षा की; गा: --गायों को; यत्त:--इस प्रकार लगाया गया; रात्र्याम्‌ू--रात में; वीरासन-ब्रतःवीरासन का ब्रत लेकर

    तलवार लिए खड़ा इन पुत्रों में से पृषश्ष अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए गायों की रखवाली में लग गया।

    गायों की रक्षा के लिए वह सारी रात हाथ में तलवार लिए खड़ा रहता।

    एकदा प्राविशद्गोष्ठ॑ शार्दूलो निशि वर्षति ।

    शयाना गाव उत्थाय भीतास्ता बश्रमुर्त्रजे ॥

    ४॥

    एकदा--एक बार; प्राविशत्‌--घुस गया; गोष्ठम्‌--गोशाला में; शार्दूल: --बाघ; निशि--रात्रि में; वर्षति--वर्षा होते समय;शयाना:--लेटी हुईं; गाव:--गाएँ; उत्थाय--उठकर; भीता:--डरी हुई; ताः--वे सब; बश्नमु:--इधर-उधर फैल गईं; ब्रजे--गोशालाके चारों ओर की भूमि में ।

    एक बार रात्रि में, जब वर्षा हो रही थी, एक बाघ गोशाला में घुस आया।

    उसे देखकर भूमि मेंलेटी हुई सारी गाएँ डर के मारे खड़ी हो गईं और गोशाला में तितर-बितर हो गईं।

    एकां जग्राह बलवान्सा चुक्रोश भयातुरा ।

    तस्यास्तु क्रन्दितं श्रुत्वा पृषश्चोडनुससार ह ॥

    ५॥

    खड्गमादाय तरसा प्रलीनोडुगणे निशि ।

    अजानन्नच्छिनोद्व भ्रो: शिरः शार्दूलशड्डया ॥

    ६॥

    एकाम्‌--एक गाय को; जग्राह--पकड़ लिया; बलवान्‌--बलशाली बाघ ने; सा--वह गाय; चुक्रोश --चिल्लाने लगी; भय-आतुरा-- भयभीत; तस्या: -- उसकी; तु--लेकिन; क्रन्दितम्‌--चीत्कार; श्रुत्वा--सुनकर; पृषश्च: --पृषथ्च ने; अनुससार ह--पीछाकिया; खड्गम्‌--तलवार; आदाय--लेकर; तरसा--तेजी से; प्रलीन-उडु-गणे--जब तारे बादलों से ढक गये; निशि--रात में;अजाननू--अनजाने; अच्छिनोत्‌--काट लिया; बश्नो:--गाय का; शिर:--सिर; शार्दूल-शड्भया--बाघ का सिर समझकर।

    जब अत्यन्त बलवान बाघ ने एक गाय को पकड़ लिया तो वह भयभीत होकर चिललाने लगी।

    पृषश्च ने यह चीत्कार सुनी और वह तुरन्त इस आवाज का पीछा करने लगा।

    उसने अपनी तलवारनिकाल ली लेकिन चूँकि तारे बादलों से ढके थे अतएवं उसने गाय को बाघ समझकर धोखे मेंअत्यन्त बलपूर्वक गाय का सिर काट लिया।

    व्याप्रोडपि वृक्णश्रवणो निर्त्रिशाग्राहतस्ततः ।

    निश्चक्राम भूशं भीतो रक्त पथ्ि समुत्सूजन्‌ ॥

    ७॥

    व्याप्र:--बाघ; अपि-- भी; वृक्ण- श्रवण: --कान कटा हुआ; निर्त्रिश-अग्र-आहतः--तलवार की नोंक से कट जाने के कारण;ततः--तत्पश्चात्‌; निश्चक्राम--( उस स्थान से ) भाग निकला; भृशम्‌--अत्यधिक; भीत:-- भयभीत होकर; रक्तम्‌--रक्त; पथि--रास्तेमें; समुत्सूजन्‌--गिराता हुआ।

    चूँकि तलवार की नोक से बाघ का कान कट गया था अतएव वह अत्यधिक भयभीत था औरवह उस स्थान से रास्ते भर कान से खून बहाता हुआ भाग खड़ा हुआ।

    मन्यमानो हत॑ व्याप्र॑ पृषश्च: परवीरहा ।

    अद्वाक्षीत्स्वहतां बश्रुं व्यूष्टायां निशि दुःखितः ॥

    ८॥

    मन्यमान:--यह सोचते हुए कि; हतम्‌--मार डाला गया; व्याप्रमू--बाघ को; पृषश्च:--मनु पुत्र पृषश्च; पर-बीर-हा--यद्यपि शत्रु कोदण्ड देने में समर्थ था; अद्राक्षीत्‌--देखा; स्व-हताम्‌--अपने द्वारा मारी गयी; बश्चुम्‌ू--गाय को; व्युष्टायाम्‌ निशि--रात्रि बीत जाने पर( प्रातःकाल ); दुःखित:--अत्यन्त दुखी हुआ

    अपने शत्रु का दमन करने में समर्थ पृषश्न ने प्रातःकाल जब देखा कि उसने गाय का वध करदिया है, यद्यपि रात में उसने सोचा था कि उसने बाघ को मारा है, तो वह अत्यन्त दुखी हुआ।

    त॑ शशाप कुलाचार्य: कृतागसमकामतः ।

    न क्षत्रबन्धु: शूद्रस्त्व॑ कर्मणा भवितामुना ॥

    ९॥

    तम्‌--उसको ( पृषश्च को ); शशाप--शाप दे दिया; कुल-आचार्य: --कुलगुरु वसिष्ठ ने; कृत-आगसम्‌--गोवध का महापाप करने केकारण; अकामतः--न चाहते हुए; न--नहीं; क्षत्र-बन्धु:--क्षत्रिय कुट॒म्बी; शूद्र: त्वमू--तुमने शूद्रजैसा आचरण किया है; कर्मणा--अतएव अपने कर्मफल से; भविता--तुम शूद्र हो जाओगे; अमुना--गोवध करने से |

    यद्यपि पृषश्च ने अनजाने में यह पाप किया था, किन्तु उसके कुलपुरोहित वसिष्ठ ने उसे यह शापदिया, 'तुम अपने अगले जम्म में क्षत्रिय नहीं बन सकोगे, प्रत्युत गोवध करने के कारण तुम्हें शूद्रबनकर जन्म लेना पड़ेगा।

    एवं शप्तस्तु गुरुणा प्रत्यगृह्मात्कृताझ्ञलि: ।

    अधारयद्ब्रतं वीर ऊध्वरेता मुनिप्रियम्‌ू ॥

    १०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; शप्त:--शापित होकर; तु--लेकिन; गुरुणा -- अपने गुरु द्वारा; प्रत्यगृह्ात्‌--उसने स्वीकार कर लिया; कृत-अज्जलि:ः--हाथ जोड़कर; अधारयत्‌--ग्रहण किया; ब्रतम्‌--ब्रह्मचर्य व्रत; वीर: --उस वीर ने; ऊर्ध्ब-रेता:--अपनी इन्द्रियों को वश मेंकरके; मुनि-प्रियम्‌--मुनियों द्वारा स्वीकृत |

    जब उस वीर पृषश्च को उसके गुरु ने इस प्रकार शाप दे दिया तो उसने हाथ जोड़कर वह शापअंगीकार कर लिया।

    तत्पश्चात्‌ अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए उसने सभी मुनियों द्वारा सम्मतब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया।

    वबासुदेवे भगवति सर्वात्मनि परेडमले ।

    एकान्तित्वं गतो भक्त्या सर्वभूतसुहृत्मम: ॥

    ११॥

    विमुक्तसड: शान्तात्मा संयताक्षो परिग्रह: ।

    यहच्छयोपपन्नेन कल्पयन्वृत्तिमात्मनः ॥

    १२॥

    आत्मन्यात्मानमाधाय ज्ञानतृप्त: समाहितः ॥

    विचचार महीमेतां जडान्धबधिराकृति: ॥

    १३॥

    वासुदेवे--वासुदेव में; भगवति-- भगवान्‌; सर्व-आत्मनि--परमात्मा में; परे--ब्रह्म में; अमले--कल्मषरहित परम पुरुष में;एकान्तित्वम्‌ू--अविचल भाव से भक्ति करते हुए; गतः--उस पद पर स्थित होकर; भक्त्या--शुद्ध भक्ति के कारण; सर्ब-भूत-सुहृत्‌समः--भक्त, मित्र तथा समदर्शी होने के कारण; विमुक्त-सड्भ:--भौतिक कल्मष से रहित; शान्त-आत्मा--शान्तिपूर्ण प्रवृत्ति;संयत--आत्मसंयमित; अक्ष:--जिसकी दृष्टि; अपरिग्रह:--किसी से दान ग्रहण कियेबिना; यत्‌-ऋच्छया-- भगवान्‌ की कृपा से;उपपन्नेन--शारीरिक आवश्यकताओं के लिए जो भी उपलब्ध था उससे; कल्पयन्‌--व्यवस्थित करके; वृत्तिमू--शरीर कीआवश्यकताएँ; आत्मन:--आत्मा के लाभ हेतु; आत्मनि--मन में; आत्मानम्‌--परमात्मा को; आधाय--सदैव रखते हुए; ज्ञान-तृप्त:--आध्यात्मिक ज्ञान से तुष्ट; समाहित:--सदैव समाधिमग्न; विचचार--सर्वत्र भ्रमण करने लगा; महीम्‌--पृथ्वी में; एताम्‌ू--इस;जड--मूक; अन्ध--अन्धा; बधिर--बहरा; आकृति:--के समान।

    तत्पश्चात्‌ पृषश्च ने सारे उत्तरदायित्वों से अवकाश ले लिया और शान्तचित्त होकर अपनी समग्रइन्द्रियों को वश में किया।

    भौतिक परिस्थितियों से अप्रभावित, भगवान्‌ की कृपा से शरीर तथाआत्मा को बनाए रखने के लिए जो भी मिल जाय उसी से संतुष्ट एवं सब पर समभाव रखते हुए, वहकल्मषहीन परमात्मा भगवान्‌ वासुदेव पर ही अपना सारा ध्यान देने लगा।

    इस प्रकार शुद्ध ज्ञान से पूर्णतः सन्तुष्ट एवं अपने मन को भगवान्‌ में ही लगाकर उसने भगवान्‌ की शुद्धभक्ति प्राप्त की औरसारे विश्व में विचरण करने लगा।

    उसे भौतिक कार्यकलापों से कोई लगाव न रहा मानो वह बहरा,गूँगा तथा अन्धा हो।

    एवं वृत्तो वनं गत्वा इृष्ठा दावाग्निमुत्थितम्‌ ।

    तेनोपयुक्तकरणो ब्रह्म प्राप परं मुनि: ॥

    १४॥

    एवम्‌ वृत्त:--ऐसे आश्रम में स्थित होकर; वनम्‌--वन में; गत्वा--जाकर; दृष्टा--देखकर; दाव-अग्निमू--जंगल की आग को;उत्थितम्‌--वहाँ विद्यमान; तेन--उस ( अग्नि ) के द्वारा; उपयुक्त-करण:--जलाकर सभी इन्द्रियों को लगाते हुए; ब्रह्म-- अध्यात्म;प्राप--प्राप्त किया; परमू--चरम लक्ष्य; मुनिः--मुनि की भाँति।

    इस मनोवृत्ति से पृषश्च महान्‌ सन्‍त बन गया और जब वह जंगल में प्रविष्ट हुआ और उसनेप्रज्वलित जंगल की आग देखी तो उसने उस अग्नि में अपने शरीर को भस्म कर डाला।

    इस तरह उसेदिव्य आध्यात्मिक जगत की प्राप्ति हुई।

    'कविः कनीयान्विषयेषु निःस्पृहोविसृज्य राज्यं सह बन्धुभिर्वनम्‌ ।

    निवेश्य चित्ते पुरुषं स्वरोचिषंविवेश कैशोरवया: परं गतः ॥

    १५॥

    कविः--दूसरा पुत्र कवि; कनीयान्‌--जो सबसे छोटा था; विषयेषु-- भौतिक भोगों में; निःस्पृह:ः--आसक्तिरहित; विसृज्य--छोड़कर;राज्यमू--अपने पिता की सम्पत्ति ( राज्य ) को; सह बन्धुभि:--अपने मित्रों सहित; वनम्‌--जंगल में; निवेश्य--सदैव रखकर;चित्ते--हृदय में; पुरुषम्‌--परम पुरुष को; स्व-रोचिषम्‌--आत्म-तेजस्वी; विवेश--प्रविष्ट हो गया; कैशोर-वया:--किशोरावस्था में;'परम्‌--दिव्य जगत; गतः--प्रविष्ट हुआ।

    मनु के सबसे छोटे पुत्र कवि ने भौतिक भोगों को अस्वीकार करते हुए युवावस्था में पहुँचने केपूर्व ही राजपाट त्याग दिया।

    वह अपने हृदय में आत्म-तेजस्वी भगवान्‌ का सदैव चिन्तन करते हुएअपने मित्रों सहित जंगल में चला गया।

    इस प्रकार उसने सिद्धि्रि प्राप्त की ।

    करूषान्मानवादासन्कारूषा: क्षत्रजातय: ।

    उत्तरापथगोप्तारो ब्रह्मण्या धर्मवत्सला: ॥

    १६॥

    'करूषात्‌--करूष से; मानवात्‌--मनु के पुत्र; आसन्‌--था; कारूषा:--कारूष कहलाने वाले; क्षत्र-जातय: --क्षत्रियों का समूह;उत्तरा--उत्तरी; पथ--दिशा की ओर; गोप्तार:--राजा; ब्रह्मण्या:--ब्राह्मण संस्कृति के विख्यात रक्षक; धर्म-वत्सला:ः --अत्यन्तधार्मिक

    मनु के अन्य पुत्र करूष से कारूष वंश चला जो एक क्षत्रिय कुल था।

    कारूष क्षत्रिय उत्तरीदिशा के राजा थे।

    वे ब्राह्मण संस्कृति के विख्यात रक्षक थे और सभी अत्यन्त धार्मिक थे।

    धृष्ठाद्धाईटम भूद्षत्रं ब्रह्मभूयं गतं क्षितौ ।

    नृगस्य वंश: सुमतिर्भूतज्योतिस्ततो बसु; ॥

    १७॥

    धृष्ठात्‌ू-मनु के दूसरे पुत्र धृष्ट से; धा्टमू-- धा्ट नामक जाति; अभूत्‌--उत्पन्न हुई; क्षत्रमू--क्षत्रिय समूह से सम्बन्धित; ब्रह्म -भूयम्‌--ब्राह्मणों का पद; गतम्‌--प्राप्त किया था; क्षितौ--पृथ्वी पर; नृगस्थ--मनु के अन्य पुत्र नृग का; बंश:--वंश; सुमति:--सुमति का;भूतज्योति:-- भूतज्योति का; ततः--तत्पश्चात्‌; बसु:--वसु नाम से |

    मनु पुत्र धृष्ट से धा्ट नामक क्षत्रिय जाति निकली जिसके सदस्यों ने इस जगत में ब्राह्मणों कापद प्राप्त किया।

    तत्पश्चात्‌ मनु के पुत्र नृग से सुमति और सुमति से भूतज्योति और भूतज्योति से बसुउत्पन्न हुए।

    बसो: प्रतीकस्तत्पुत्र ओघवानोघवत्पिता ।

    कन्या चौघवती नाम सुदर्शन उवाह ताम्‌ ॥

    १८॥

    बसो:--वसु का; प्रतीक: --प्रतीक नामक; तत्-पुत्र:--उसका पुत्र; ओघवान्‌ू--ओघवान; ओघवतू-पिता--जो ओघवान का पिताथा; कन्या--उसकी कन्या; च--भी; ओघवती--ओघवती; नाम--नामक; सुदर्शन:--सुदर्शन ने; उबाह--व्याह किया; तामू--उसकन्या ( ओघवती ) से |

    बसु का पुत्र प्रतीक था और प्रतीक का पुत्र ओघवान हुआ।

    ओघवान का पुत्र भी ओघवानकहलाया और उसकी पुत्री का नाम ओघवती था।

    इसका व्याह सुदर्शन के साथ हुआ।

    चित्रसेनो नरिष्यन्ताइक्षस्तस्य सुतोभवत्‌ ।

    तस्य मीढ्वांस्ततः पूर्ण इन्द्रसेनस्तु तत्सुतः ॥

    १९॥

    चित्रसेन:--चित्रसेन; नरिष्यन्तातू--मनु के अन्य पुत्र नरिष्यन्त से; ऋक्ष:--ऋशक्ष; तस्य--चित्रसेन का; सुतः--पुत्र; अभवत्‌ --हुआ;तस्य--ऋक्ष का; मीढ्वान्‌--मीढ्वान; तत:--उससे ( मीढ्वान से ); पूर्ण: --पूर्ण ; इन्द्रसेन:--इन्द्रसेन; तु--लेकिन; तत्‌-सुतः --उसका ( पूर्ण का ) पुत्रनरिष्यन्त का पुत्र चित्रसेन हुआ और उसका पुत्र ऋक्ष हुआ।

    ऋश्ष से मीढ्वान, मीढूवान से पूर्णऔर पूर्ण से इन्द्रसेन हुआ।

    वीतिहोत्रस्त्विन्द्रसेनात्तस्य सत्यश्रवा अभूत्‌ ।

    उरुश्रवा: सुतस्तस्य देवदत्तस्ततोभवत्‌ ॥

    २०॥

    वबीतिहोत्र:--वीतिहोत्र; तु--लेकिन; इन्द्रसेनात्‌ू--इन्द्रसेन से; तस्य--वबीतिहोत्र का; सत्यश्रवा: --सत्यश्रवा; अभूत्‌ू--हुआ;उरुश्रवा:--उरु श्रवा; सुत:--पुत्र; तस्थ--उसका ( सत्यश्रवा का ); देवदत्त:--देवदत्त; ततः--उरु श्रवा से; अभवत्‌--हुआ।

    इन्द्रसेन से वीतिहोत्र, बीतिहोत्र से सत्यश्रवा, फिर उससे उरुश्रवा और उरूु श्रवा से देवदत्त हुआ।

    ततोउग्निवेश्यो भगवानग्नि: स्वयमभूत्सुत: ।

    कानीन इति विख्यातो जातूकर्ण्यो महानृषि: ॥

    २१॥

    ततः--देवदत्त से; अग्निवेश्य: -- अग्निवेश्य; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; अग्नि:--अग्निदेव; स्वयम्‌--साक्षात्‌; अभूत्‌--हुआ;सुतः--पुत्र; कानीन:--कानीन; इति--इस प्रकार; विख्यात:--सुप्रसिद्ध था; जातूकर्ण्य:--जातूकर्ण्य; महान्‌ ऋषि:--परम सन्तपुरुष

    देवदत्त का पुत्र अग्निवेश्य हुआ जो साक्षात्‌ अग्निदेव था।

    यह पुत्र विख्यात सन्‍्त था और कानीनतथा जातूकर्ण्य के नाम से विख्यात हुआ।

    ततो ब्रह्मकुलं जातमाग्निवेश्यायनं नृप ।

    नरिष्यन्तान्वय: प्रोक्तो दिष्टवंशमतः श्रूणु ॥

    २२॥

    ततः--अग्निवेश्य से; ब्रह्म-कुलम्‌-ब्राह्मणों का कुल; जातम्‌--उत्पन्न हुआ; आग्निवेश्यायनम्‌--आग्निवेश्यायन; नृप--हे राजापरीक्षित; नरिष्यन्त--नरिष्यन्त का; अन्वयः--वंशज; प्रोक्त:--कहा जा चुका है; दिष्ट-वंशम्‌--दिष्ट का वंश; अतः--इसके आगे;श्रुणु--सुनो |

    हे राजा, अग्निवेश्य से आग्निवेश्यायन नामक ब्राह्मण कुल उत्पन्न हुआ।

    चूँकि मैं नरिष्यन्त केवंशजों का वर्णन कर चुका हूँ अतएवं अब दिष्ट के वंशजों का वर्णन करूँगा।

    कृपया मुझसे सुनें।

    नाभागो दिष्टपुत्रो उन्यः कर्मणा वैश्यतां गतः ।

    भलन्दन: सुतस्तस्य वत्सप्रीतिर्भलन्दनात्‌ ॥

    २३॥

    बत्सप्रीतेः सुतः प्रांशुस्तत्सुतं प्रमतिं विदु: ।

    खनित्र: प्रमतेस्तस्माच्चाक्षुषोथ विविंशति: ॥

    २४॥

    नाभाग:--नाभाग; दिष्ट-पुत्र:ः--दिष्ट का पुत्र; अन्य:--दूसरा; कर्मणा--वृत्ति से; वैश्यताम्‌--वैश्य-आश्रम; गत:--प्राप्त किया;भलन्दन:--भलन्दन; सुतः--पुत्र; तस्थ--उसका ( नाभाग का ); वत्सप्रीति:--वत्सप्रीति; भलन्दनात्‌-- भलन्दन से; वत्सप्रीते: --वत्सप्रीति से; सुत:--पुत्र; प्रांशु:--प्रांशु; तत्‌ू-सुतम्‌--उसका ( प्रांशु का ) पुत्र; प्रमतिम्‌--प्रमति; विदुः--जानो; खनित्र:--खनित्र;प्रमतेः--प्रमतिसे; तस्मात्‌--खनित्र से; चाक्षुष:--चाक्षुष; अथ--इस प्रकार ( चाक्षुष से ); विविंशति: --विविंशति |

    दिष्ट का पुत्र नाभाग हुआ।

    यह नाभाग जो आगे वर्णित होने वाले नाभाग से भिन्न था, वृत्ति सेवैश्य बन गया।

    नाभाग का पुत्र भलन्दन हुआ, भलन्दन का पुत्र वत्सप्रीति हुआ और उसका पुत्र प्रांशुथा।

    प्रांशु का पुत्र प्रमति था, प्रमति का पुत्र खनित्र और खनित्र का पुत्र चाक्षुष था जिसका पुत्रविविंशति हुआ।

    विविंशते: सुतो रम्भ: खनीनेत्रोउस्य धार्मिक: ।

    'करन्धमो महाराज तस्यासीदात्मजो नृप ॥

    २५॥

    विविंशते: --विविंशति से; सुतः--पुत्र; रम्भ: --रम्भ; खनीनेत्र:--खनीनेत्र; अस्य--रम्भ का; धार्मिक:--अत्यन्त धार्मिक;करन्धम:--करन्धम; महाराज--हे राजा; तस्य--उसके ( खनीनेत्र से ); आसीत्‌-- था; आत्मज:--पुत्र; नृप--हे राजा |

    विविंशति के पुत्र का नाम रम्भ था जिसका पुत्र अत्यन्त महान्‌ एवं धार्मिक राजा खनीनेत्र हुआ।

    हे राजा, खनीनेत्र का पुत्र राजा करन्धम हुआ।

    तस्यावीक्षित्सुतो यस्य मरुत्तश्नक्रवर्त्य भूत ।

    संवर्तोउयाजयद्यं वै महायोग्यड्रिरः:सुतः ॥

    २६॥

    तस्य--उसके ( करन्धम के ); अवीक्षित्‌--अवीक्षित; सुत:--पुत्र; यस्य--जिसका ( अवीक्षित का ); मरुत्त:--मरुत्त नामक ( पुत्र );अक्रवर्ती--राजा; अभूत्‌--हुआ; संवर्त:--संवर्त; अयाजयत्‌--यज्ञ कराने के लिए रखा; यम्‌--जिसको ( मरुत्त को ); वै--निस्सन्देह; महा-योगी--महान्‌ योगी; अड्विरः-सुतः--अंगिरा का पुत्र |

    करन्धम से अवीक्षित नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र मरुत्त था जो सप्राट था।

    महान्‌ योगीअंगिरा-पुत्र संवर्त ने यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए मरुत्त को लगाया।

    मरुत्तस्य यथा यज्ञो न तथान्योउस्ति कश्चन ।

    सर्व हिरण्मयं त्वासीद्यत्किज्ञिच्यास्य शोभनम्‌ ॥

    २७॥

    मरुत्तस्य--मरुत्त का; यथा--जिस प्रकार; यज्ञ:--यज्ञ; न--नहीं; तथा--उस प्रकार; अन्य:--कोई दूसरा; अस्ति-- है; कश्चन--कोई भी; सर्वम्‌--सभी वस्तुएँ; हिरण्‌-मयम्‌--सोने की बनी; तु--निस्सन्देह; आसीत्‌--था; यत्‌ किल्ञितू--जो भी उसके पास था;च--तथा; अस्य--मरुत्त का; शोभनम्‌--अत्यन्त सुन्दर।

    राजा मरुत्त के यज्ञ का साज-सामान अत्यन्त सुन्दर था क्‍योंकि सारी वस्तुएँ सोने की बनी थीं।

    निस्सन्देह, उसके यज्ञ की तुलना किसी भी और यज्ञ से नहीं की जा सकती।

    अमाद्यदिन्द्र: सोमेन दक्षिणाभिद्विजातय: ।

    मरुतः परिवेष्टारो विश्वेदेवा: सभासद: ॥

    २८॥

    अमाद्यत्‌-मदान्ध हो गया; इन्द्र: --इन्द्र; सोमेन--सोमरस का पान करके; दक्षिणाभि:--पर्याप्त दक्षिणा प्राप्त करके; द्विजातय: --ब्राह्मण वर्ग; मरूत:--मरुतों ने; परिवेष्टार: -- भोज्य पदार्थ परोसा; विश्वेदेवा:--विश्वेदेवा; सभा-सदः--सभा के सदस्य ।

    उस यज्ञ में सोमरस की बहुत अधिक मात्रा पीने से राजा इन्द्र मदान्ध हो गया।

    ब्राह्मणों को प्रचुरदक्षिणा मिली जिससे वे सन्तुष्ट थे।

    उस यज्ञ में मरुतों के विविध देवताओं ने खाना परोसा औरविश्वेदेव सभा के सदस्य थे।

    मरुत्तस्य दमः पुत्रस्तस्यासीद्राज्यवर्धन: ।

    सुधृतिस्तत्सुतो जज्ञे सौधृतेयो नर: सुतः ॥

    २९॥

    मरुत्तस्य--मरुत्त का; दम:--दम; पुत्र:--पुत्र; तस्य--दम का; आसीत्‌-- था; राज्य-वर्धन:--राज्यवर्धन अर्थात्‌ राज्य को बढ़ानेबाला; सुधृतिः --सुधृति; तत्‌-सुतः--उसका पुत्र; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; सौधूृतेय: --सुधृति से; नरः--नर नामक; सुतः--पुत्र |

    मरुत्त का पुत्र दम हुआ, दम का पुत्र राज्यवर्धन था और उसका पुत्र सुधृति और सुधूति का पुत्रनर था।

    तत्सुतः केवलस्तस्माददुन्धुमान्वेगवांस्ततः ।

    बुधस्तस्या भवद्यस्य तृणबिन्दुर्महीपति: ॥

    ३०॥

    तत्‌ू-सुत:--उसका (नर का ) पुत्र; केवल:--केवल था; तस्मात्‌--उससे; धुन्धुमान्‌-- धुन्धुमान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ; वेगवान्‌--वबेगवान्‌; ततः--उससे; बुध: --बुध; तस्य--उसके ; अभवत्‌-- था; यस्य--जिसका ( बुध का ); तृणबिन्दु:--तृणबिन्दु; महीपति:--राजानर का पुत्र केवल हुआ और उसका पुत्र धुन्धुमान था, जिसका पुत्र वेगवान हुआ।

    वेगवान कापुत्र बुध था और बुध का पुत्र तृणबिन्दु था जो इस पृथ्वी का राजा बना।

    त॑ भेजेउलम्बुषा देवी भजनीयगुणालयम्‌ ।

    वराप्सरा यतः पुत्रा: कन्या चेलविलाभवत्‌ ॥

    ३१॥

    तम्‌--उसको ( तृणबिन्दु को ); भेजे--पति रूप में स्वीकार किया; अलम्बुषा--अलम्बुषा; देवी--देवी; भजनीय--स्वीकार करनेयोग्य; गुण-आलयम्‌--सद्‌गुणों का आगार; बर-अप्सरा:--अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ; यतः--जिससे ( तृणबिन्दु से ); पुत्राः--कुछ पुत्र;'कन्या--एक पुत्री; च--तथा; इलविला--इलविला नामक; अभवत्‌--उत्पन्न हुई

    अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ अत्यन्त गुणी कन्या अलम्बुषा ने अपने ही समान योग्य तृणबिन्दु को पति-रूप में स्वीकार किया।

    उसके कुछ पुत्र तथा इलविला नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई।

    यस्यामुत्पादयामास विश्रवा धनदं सुतम्‌ ।

    प्रादाय विद्यां परमामृषियोंगे श्वर: पितु: ॥

    ३२॥

    यस्याम्‌--जिसमें ( इलविला ) में; उत्पादयाम्‌ आस--जन्म दिया; विश्रवा:--विश्रवा; धन-दम्‌--कुवेर अर्थात्‌ धन देने वाला;सुतम्‌--पुत्र को; प्रादाय--प्राप्त करके ; विद्यामू--विद्या को; परमाम्‌ू--परम; ऋषि: --महान्‌ संत पुरुष; योग-ई श्ररः:--योग केस्वामी; पितु:ः--अपने पिता से |

    महान्‌ सन्त योगेश्वर विश्रवा ने अपने पिता से परम विद्या प्राप्त करके इलविला के गर्भ से परमविख्यात पुत्र धन देने वाले कुबेर को उत्पन्न किया।

    विशाल: शून्यबन्धुश्न धूम्रकेतुश्च तत्सुता: ।

    विशालो वंशकृद्राजा वैशालीं निर्ममे पुरीम्‌ू ॥

    ३३॥

    विशाल:--विशाल; शून्यबन्धु:--शून्यबन्धु; च-- भी; धूम्रकेतु:--धधूप्रकेतु; च-- भी; तत्‌-सुता:--तृणबिन्दु के पुत्र; विशाल:--तीनोंमें राजा विशाल ने; वंश-कृत्‌--वंश बनाया; राजा--राजा; वैशालीम्‌--वैशाली नामक; निर्ममे--निर्माण किया; पुरीमू--महल।

    तृणबिन्दु के तीन पुत्र थे--विशाल, शून्यबन्धु तथा धूम्रकेतु।

    इन तीनों में विशाल ने एक वंशचलाया और वैशाली नामक एक महल की रचना कराई।

    हेमचन्द्र: सुतस्तस्य धूप्राक्षस्तस्य चात्मज: ।

    तत्पुत्रात्संयमादासीत्कृशा श्र: सहदेवज: ॥

    ३४॥

    हेमचन्द्र: --हेमचन्द्र नामक; सुत: --पुत्र; तस्य--उसका ( विशाल का ); धूमप्राक्ष:--धूप्राक्ष; तस्य--उसका ( हेमचन्द्र का ); च--भी;आत्मज:--पुत्र; तत्‌-पुत्रात्‌--उसके पुत्र ( धूप्राक्ष ) से; संयमात्‌--संयम से; आसीत्‌-- था; कृशाश्र:--कृशा श्र; सह--सहित;देवज:--देवज |

    विशाल का पुत्र हेमचन्द्र कहलाया और उसका पुत्र धूप्राक्ष हुआ जिसका पुत्र संयम था औरउसके पुत्रों के नाम देवज तथा कुशाश्र थे।

    कृशाश्रात्सोमदत्तो भूद्यो श्रमे धेरिडस्पतिम्‌ ।

    इष्ठा पुरुषमापाछयां गतिं योगेश्वराभ्रितामू ॥

    ३५॥

    सौमदत्तिस्तु सुमतिस्तत्पुत्रो जनममेजय:ः ।

    एते वैशालभूपालास्तृणबिन्दोर्यशोधरा: ॥

    ३६॥

    कृशाश्वात्‌-कृशाश्व से; सोमदत्त:--सोमदत्त नामक पुत्र; अभूत्‌--था; यः--जो ( सोमदत्त ); अश्वमेधे:--अश्वमेध यज्ञ करके;इडस्पतिम्‌-भगवान्‌ विष्णु को; इष्टा--पूजकर; पुरुषम्‌--विष्णु को; आप--प्राप्त किया; अछयाम्‌--सर्व श्रेष्ठ; गतिमू--गन्तव्य,गति; योगेश्वर-आश्रिताम्‌-महान्‌ योगियों द्वारा प्राप्त स्थान; सौमदत्ति:--सोमदत्त का पुत्र; तु--लेकिन; सुमति:--सुमति; ततू-पुत्रः--उसका ( सुमति का ) पुत्र; जनमेजय:--जनमेजय; एते--इन सबों ने; वैशाल-भूपाला: --वैशाल वंश के राजा; तृणबिन्दो:यशः-धरा:--तृणबिन्दु के यश को बनाये रखा

    कृशाश्व का पुत्र सोमदत्त हुआ जिसने अश्वमेध यज्ञ किए और इस प्रकार भगवान्‌ विष्णु को प्रसन्न किया।

    भगवान्‌ की पूजा करने से उसे ऐसा उच्चपद प्राप्त हुआ जो बड़े-बड़े योगियों क मिलता है।

    सोमदत्त का पुत्र सुमति था जिसका पुत्र जनमेजय हुआ।

    विशाल वंश में प्रकट होकर इसारे राजाओं ने राजा तृणबिन्दु के विख्यात पद को बनाये रखा।

    TO

    अध्याय तीन: सुकन्या और च्यवन मुनि का विवाह

    9.3श्रीशुक उबाचशर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठ: सम्बभूव ह ।

    यो वा अड्विरसां सत्रे द्वितीयमहरूचिवान्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; शर्यातिः--शर्याति नामक राजा; मानव:--मनु का पुत्र; राजा--शासक ; ब्रह्मिष्ठ: --वैदिक ज्ञान से पूर्णतः भिन्न; सम्बभूव ह--वह बना; य:ः--जो; वा--अथवा; अड्विरसाम्‌--अंगिरा के वंशजों की; सत्रे--यज्ञशाला में;द्वितीयम्‌ अहः--दूसरे दिन सम्पन्न होने वाले उत्सव; ऊचिवान्‌ू--कह सुनाया।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा, मनु का दूसरा पुत्र राजा शर्याति बैदिक ज्ञान मेंपारंगत था।

    उसने अंगिरावंशियों द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञ के दूसरे दिन के उत्सवों के विषय मेंआदेश दिए।

    सुकन्या नाम तस्यासीत्कन्या कमललोचना ।

    तया सार्ध वनगतो हागमच्च्यवना भ्रमम्‌ ॥

    २॥

    सुकन्या--सुकन्या; नाम--नामक; तस्थ--उसकी ( शर्याति की ); आसीतू-- थी; कन्या--पुत्री; कमल-लोचना--कमल जैसे नेत्रोंवाली; तया सार्धम्‌--उसके साथ; वन-गत:--जंगल में गया हुआ; हि--निस्सन्देह; अगमत्‌--वह गया; च्यवन-आश्रमम्‌--च्यवनमुनि के आश्रम में |

    शर्याति के सुकन्या नामक एक सुन्दर कमलनेत्री कन्या थी जिसके साथ वे जंगल में च्यवन मुनिके आश्रम को देखने गये।

    सा सखीभि: परिवृता विचिन्वन्त्यड्प्रिपान्चने ।

    वल्मीकरन्ध्रे दहशे खद्योते इव ज्योतिषी ॥

    ३॥

    सा--वह सुकन्या; सखीभि:--अपनी सहेलियों से; परिवृता--घिरी हुई; विचिन्वन्ती--चुनती हुई; अद्प्रिपान्‌ू--वृक्षों से फल तथा'फूल; बने--जंगल में; वल्मीक-रन्श्रे--बाँबी के छेद में; ददशे--देखा; खद्योते--दो जुगुनू; इब--सह्ृश; ज्योतिषी--दो चमकीलीव्स्तुएँ॥

    जब वह सुकन्या जंगल में अपनी सहेलियों से घिरी हुई, वृक्षों से विविध प्रकार के फल एकत्रकर रही थी तो उसने बाँबी के छेद में दो जुगुनू जैसी चमकीली वस्तुएँ देखीं।

    ते दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन वै ।

    अविध्यन्मुग्धभावेन सुस्त्रावासृक्ततो बहि: ॥

    ४॥

    ते--उन दोनों; दैव-चोदिता--मानो विधाता द्वारा प्रेरित; बाला--तरुणी ने; ज्योतिषी--बाँबी के भीतर दो जुगुनुओं को; कण्टकेन--काँटे से; बै--निस्सन्देह; अविध्यत्‌--छेद दिया; मुग्ध-भावेन--बिना जाने; सुस्राव--बाहर निकल आया; असृक्‌ू--रक्त; ततः--वहाँसे; बहिः--बाहर।

    मानो विधाता से प्रेरित होकर उस तरुणी ने बिना जाने उन दोनों जुगुनुओं को एक काँटे से छेददिया जिससे उनमें से रक्त फूटकर बाहर आने लगा।

    शकृन्मूत्रनिरोधो भूत्सैनिकानां च तत्क्षणात्‌ ।

    राजर्षिस्तमुपालक्ष्य पुरुषान्विस्मितोब्रवीत्‌ ॥

    ५॥

    शकृत्‌--मल का; मूत्र--तथा मूत्र का; निरोध:--अवरोध; अभूत्‌--हो गया; सैनिकानाम्‌--सारे सिपाहियों का; च--तथा; तत्‌ू-क्षणात्‌--तुरन्त; राजर्षि: --राजा; तम्‌ उपालक्ष्य--उस घटना को देखकर; पुरुषानू--अपने आदमियों से; विस्मित:--आश्चर्यचकितहोकर; अब्रवीत्‌ू--बोला

    उसके बाद ही शर्याति के सारे सैनिकों को तुरन्त ही मल-मूत्र में अवरोध होने लगा।

    यह देखकरशर्याति बड़े अचम्भे में आकर अपने संगियों से बोला।

    अप्यभद्रं न युष्माभिर्भार्गवस्य विचेष्टितम्‌ ।

    व्यक्त केनापि नस्तस्य कृतमाश्रमदूषणम्‌ ॥

    ६॥

    अपि--ओह; अभद्रमू--कुछ अशुभ; न: --हम लोगों में से; युष्माभि:--तुम लोगों द्वारा; भार्गवस्थ--च्यवन मुनि का; विचेष्टितम्‌--प्रयत्न किया गया है; व्यक्तम्‌--अब यह स्पष्ट है; केन अपि--किसी के द्वारा; न:--हमारा; तस्य--उसका ( च्यवन मुनि का );कृतम्‌-किया गया है; आश्रम-दूषणम्‌--आश्रम का प्रदूषण ।

    यह कितनी विचित्र बात है कि हममें से किसी ने भृगुपुत्र च्यवन मुनि का कुछ अहित करने काप्रयास किया है।

    निश्चय ही, ऐसा लगता है कि हममें से किसी ने इस आश्रम को अपवित्र कर दियाहै।

    सुकन्या प्राह पितरं भीता किज्ञित्कृतं मया ।

    द्वे ज्योतिषी अजानन्त्या निर्भिन्ने कण्टकेन वै ॥

    ७॥

    सुकन्या--सुकन्या ने; प्राह--कहा; पितरमू--अपने पिता से; भीता--डरी हईं; किल्लित्‌ू--कुछ; कृतम्‌--किया गया है; मया--मेरेद्वारा; द्वे--दो; ज्योतिषी--चमकती वस्तुएँ; अजानन्त्या--अज्ञान के कारण; निर्भिन्ने--छेद दी गईं; कण्टकेन--काँटे से; बै--निस्सन्देह।

    अत्यन्त भयभीत सुकन्या ने अपने पिता से कहा : मैंने कुछ गलती की है क्योंकि मैंने अज्ञानवश इन दो चमकीली वस्तुओं को काँटे से छेद दिया है।

    दुहितुस्तद्वच: श्रुत्वा शर्यातिर्जातसाध्वस: ।

    मुनि प्रसादयामास वल्मीकान्तर्हितं शनै: ॥

    ८ ॥

    दुहितु:--अपनी पुत्री का; तत्‌ वचः--वह कथन; श्रुत्वा--सुनकर; शर्यातिः--राजा शर्याति ने; जात-साध्वस: --भयभीत होकर;मुनिमू--च्यवन मुनि को; प्रसादयाम्‌ आस--शांत करने का प्रयास किया; वल्मीक-अन्तर्हितम्‌--बाँबी के भीतर बैठे; शनै: -- धीरे-धीरे

    अपनी पुत्री से यह सुनकर राजा शर्याति अत्यधिक डर गये।

    उन्होंने अनेक प्रकार से च्यवन मुनिको शांत करने का प्रयत्न किया क्योंकि वे ही उस बाँबी के छेद के भीतर बैठे थे।

    तदभिप्रायमाज्ञाय प्रादाहुहितरं मुनेः ।

    कृच्छान्मुक्तस्तमामन्त्र्य पुरं प्रायात्ममाहित: ॥

    ९॥

    ततू--च्यवन मुनि का; अभिप्रायम्‌-प्रयोजन; आज्ञाय--समझकर; प्रादात्‌--प्रदान कर दिया; दुहितरम्‌--अपनी पुत्री; मुने:--च्यवनमुनि को; कृच्छात्‌--बड़ी कठिनाई से; मुक्त:--मुक्त बनाया; तम्‌ू--मुनि को; आमन्य--अनुमति लेकर; पुरमू--अपने स्थान को;प्रायात्‌--चला गया; समाहित:--अत्यधिक विचारमग्न।

    अत्यन्त विचारमग्न होकर और च्यवन मुनि के प्रयोजन को समझकर राजा शर्याति ने मुनि कोअपनी कन्या दान में दे दी।

    इस प्रकार बड़ी मुश्किल से संकट से मुक्त होकर उसने च्यवन मुनि सेअनुमति ली और वह घर लौट गया।

    सुकन्या च्यवनं प्राप्य पतिं परमकोपनम्‌ ।

    प्रीणयामास चित्तज्ञा अप्रमत्तानुवृत्तिभि: ॥

    १०॥

    सुकन्या--राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने; च्यवनम्‌--च्यवन मुनि को; प्राप्प--पाकर; पतिम्‌ू--पति रूप में; परम-कोपनम्‌ू--जोसदैव अत्यन्त क्रुद्ध रहता था; प्रीणगयाम्‌ आस--उसको प्रसन्न किया; चित्त-ज्ञा--अपने पति के मन की बात जानने वाली; अप्रमत्ताअनुवृत्तिभि:--घबराए बिना सेवा करके ।

    च्यवन मुनि अत्यन्त क्रोधी थे, किन्तु क्योंकि सुकन्या ने उन्हें पति रूप में प्राप्त किया था, अतःउसने सावधानी से उनके मनोनुकूल व्यवहार किया।

    उसने बिना घबराए उनकी सेवा की।

    'कस्यचित्त्वथ कालस्य नासत्यावा श्रमागतौ ।

    तौ पूजयित्वा प्रोवाच् बयो मे दत्तमीश्वरा ॥

    ११॥

    'कस्यचित्‌--कुछ ( समय ) बाद; तु--लेकिन; अथ--इस प्रकार; कालस्य--समय के बीतने पर; नासत्यौ--दोनों अश्विनीकुमार;आश्रम--च्यवन मुनि के स्थान पर; आगतौ--पहुँचे; तौ--उन दोनों को; पूजयित्वा--सत्कार तथा नमस्कार करके ; प्रोवाच--कहा;वयः--तारुण्य; मे--मुझको; दत्तम--कृपा करके दे दो; ईश्वरा-- क्योंकि तुम दोनों ऐसा करने में समर्थ हो।

    कुछ काल बीतने के बाद दोनों अश्विनीकुमार जो स्वर्गलोक के वैद्य थे, च्यवन मुनि के आश्रमआये।

    उनका सत्कार करने के बाद च्यवन मुनि ने उनसे यौवन प्रदान करने के लिए प्रार्थना कीक्योंकि वे ऐसा करने में सक्षम थे।

    ग्रह ग्रहीष्ये सोमस्य यज्ञे वामप्यसोमपो: ।

    क्रियतां मे वयोरूपं प्रमदानां यदीप्सितम्‌ ॥

    १२॥

    ग्रहमू-पूर्ण पात्र; ग्रहीष्ये--मैं दूँगा; सोमस्थ--सोमरस का; यज्ञे--यज्ञ में; वाम--तुम दोनों का; अपि--यद्यपि; असोम-पो: --तुमदोनों का, जो सोमरस पीने के अधिकारी नहीं हो; क्रियताम्‌--पूरा करो; मे--मेरा; वयः--यौवन; रूपमू--नवयुवक का सौन्दर्य;प्रमदानाम्‌--स्त्री-वर्ग का; यत्‌--जो; ईप्सितम्‌-- अभीष्ट है।

    च्यवन मुनि ने कहा : यद्यपि तुम दोनों यज्ञ में सोमरस पीने के पात्र नहीं हो, किन्तु मैं वचन देताहूँ कि मैं तुम्हें सोमरस का पूरा बर्तन भर कर दूँगा।

    कृपा करके मेरे लिए सौन्दर्य तथा तारुण्य की व्यवस्था करो क्‍योंकि तरुणी स्त्रियों को ये आकर्षक लगते हैं।

    बाढमित्यूचतुर्विप्रमभिनन्द्य भिषक्तमौ ।

    निमज्तां भवानस्मिन्ह्दे सिद्धविनिर्मिते ॥

    १३॥

    बाढम्‌--हाँ, हम ऐसा करेंगे; इति--इस प्रकार; ऊचतु:--दोनों ने उत्तर दिया, च्यवन मुनि का प्रस्ताव स्वीकार किया; विप्रम्‌--ब्राह्मण ( च्यवन मुनि ) को; अभिनन्द्य--बधाई देकर; भिषक्‌-तमौ--दोनों महान्‌ वैद्य अश्विनीकुमार; निमज्जताम्‌--डुबकी लगाइये;भवान्‌--आप; अस्मिनू--इस; ह॒दे--झील में; सिद्ध-विनिर्मिते--सभी प्रकार की सिद्ध्रियों के लिए विशेषतः बनाई गई।

    उन महान्‌ वैद्य अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

    उन्होंने उसब्राह्मण से कहा 'आप इस सिद्धिदायक झील में गोता लगाइये।

    ( जो इस झील में नहाता है उसकीकामनाएँ पूरी होती हैं )।

    इत्युक्तो जरया ग्रस्तदेहो धमनिसन्ततः ।

    हृदं प्रवेशितो उश्चि भ्यां वलीपलितविग्रह: ॥

    १४॥

    इति उक्त:--इस प्रकार कहे जाने पर; जरया--वृद्धावस्था तथा अशक्तता के कारण; ग्रस्त-देह:--रुग्ण देह; धमनि-सन्तत:--जिसकीधमनियाँ शरीर भर में झलक रही थीं; हृदम्‌--झील में; प्रवेशित:--प्रविष्ट हुए; अश्विभ्याम्‌ू--अश्विनीकुमारों की सहायता से; वली-'पलित-विग्रह:--जिसके शरीर की चमड़ी झूल रही थी तथा बाल सफेद थे।

    यह कहकर अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि को पकड़ा जो वृद्ध थे और जिनके रुग्ण शरीर कीचमड़ी झूल रही थी, बाल सफेद थे तथा सारे शरीर में नसें दिख रही थीं और वे तीनों उस झील मेंघुस गये।

    पुरुषास्त्रय उत्तस्थुरपीव्या बनिताप्रिया: ।

    पदास्त्रज: कुण्डलिनस्तुल्यरूपा: सुवासस: ॥

    १५॥

    पुरुषा:--मनुष्य; त्रय:--तीन; उत्तस्थु:--( झील से ) ऊपर निकल आये; अपीव्या: --अत्यन्त सुन्दर; वनिता-प्रिया: --स्त्रियों कोआकर्षक लगने वाला पुरुष; पद्मा-सत्रज:--कमल की मालाओं से अलंकृत; कुण्डलिन:--कुण्डल पहिने; तुल्य-रूपा:--समानस्वरूप वाले; सु-वासस:--सुन्दर वस्त्र पहने।

    तत्पश्चात्‌ झील से तीन अत्यन्त सुन्दर स्वरूप वाले व्यक्ति ऊपर उठे।

    वे अच्छे बस्त्र धारण किये थे और कुण्डलों तथा कमल की मालाओं से विभूषित तीनों ही समान सुन्दरता वाले थे।

    तान्निरीक्ष्य वरारोहा सरूपान्सूर्यवर्चसः ।

    अजानती पति साध्वी अश्विनौ शरणं ययौ ॥

    १६॥

    तान्‌ू--उनको; निरीक्ष्य--देखकर; वर-आरोहा--सुन्दरी सुकन्या; स-रूपान्‌ू--समान सुन्दरता वाले; सूर्य-वर्चस:--सूर्य के समानतेजस्वी; अजानती--न जानती हुई; पतिम्‌--अपने पति को; साध्वी --उस सती स्त्री ने; अश्विनौ--अश्विनीकुमारों की; शरणम्‌--शरण; ययौ--ग्रहण की।

    साध्वी एवं परम सुन्दरी सुकन्या अपने पति एवं उन दोनों अश्विनीकुमारों में अन्तर न कर पाईक्योंकि वे समान रूप से सुन्दर थे।

    अतएवं अपने असली पति को पहचान पाने में असमर्थ होने केकारण उसने अश्विनीकुमारों की शरण ग्रहण की।

    दर्शयित्वा पतिं तस्ये पातिब्रत्येन तोषितौ ।

    ऋषिमामन्त्रय ययतुर्विमानेन त्रिविष्टपम्‌ ॥

    १७॥

    दर्शयित्वा--दिखलाने के बाद; पतिम्‌--पति; तस्यै--सुकन्या को; पाति-ब्रत्येन--उसके पातित्रत्य से; तोधितौ--उसपर प्रसन्न होकर;ऋषिम्‌--च्यवन मुनि को; आमन््य--उसकी अनुमति लेकर; ययतु:--चले गये; विमानेन--अपने विमान से; त्रिविष्टपम्‌--स्वर्गलोकको

    दोनों अश्विनीकुमार सुकन्या के सतीत्व एवं निष्ठा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।

    अतः उन्होंने उसेउसके पति च्यवन मुनि को दिखलाया और फिर उनसे अनुमति लेकर वे अपने विमान से स्वर्गलोकको वापस लौट गये।

    यक्ष्यमाणोथ शर्यातिएच्यवनस्या श्रमं गत: ।

    ददर्श दुहितुः पाश्चें पुरुष सूर्यवर्चसम्‌ ॥

    १८ ॥

    यक्ष्यमाण:--यज्ञ करने की इच्छा से; अथ--इस प्रकार; शर्यातिः--शर्याति; च्यवनस्य--च्यवन मुनि के; आश्रमम्‌--आवास तक;गतः--जाकर; ददर्श--देखा; दुहितु:--अपनी कन्या के; पाश्चें--बगल में; पुरुषम्‌--पुरुष को; सूर्य-वर्चसम्‌--सूर्य के समान सुन्दरतथा तेजवान।

    तत्पश्चात्‌ यज्ञ सम्पन्न करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आवास में गये।

    वहाँ उन्होंनेअपनी पुत्री के बगल में सूर्य के समान एक तेजस्वी सुन्दर तरुण पुरुष को देखा।

    राजा दुहितरं प् राह कृतपादाभिवन्दनाम्‌ ।

    आशिषश्चाप्रयुज्ञानो नातिप्रीतिमना इव ॥

    १९॥

    राजा--राजा ( शर्याति ) ने; दुहितरम्‌--अपनी पुत्री से; प्राह--कहा; कृत-पाद-अभिवन्दनाम्‌--जो अपने पिता को पहले ही सादरनमस्कार कर चुकी थी; आशिष:--आशीर्वाद; च--तथा; अप्रयुज्ञान: --अपनी पुत्री को दिये बिना; न--नहीं; अतिप्रीति-मना:--अत्यधिक प्रसन्न; इब--सहृश |

    राजा की पुत्री ने पिता के चरणों की वन्दना की, किन्तु राजा उसे आशीष देने की बजाय उससेअत्यधिक अप्रसन्न प्रतीत हुआ और उससे इस प्रकार बोला।

    चिकीर्षितं ते किमिदं पतिस्त्वयाप्रलम्भितो लोकनमस्कृतो मुनि: ।

    यत्त्वं जराग्रस्तमसत्यसम्मतंविहाय जारं भजसेमुमध्वगम्‌ ॥

    २०॥

    चिकीर्पितम्‌--तुम जो करना चाहती हो; ते--तुम्हारा; किम्‌ इदम्‌--यह क्या है; पति:--अपना पति; त्वया--तुम्हारे द्वारा;प्रलम्भित:--ठगा गया है; लोक-नमस्कृत:--जिसका सभी लोग आदर करते हैं; मुनिः--महान्‌ साधु; यत्‌--क्योंकि; त्वमू--तुम;जरा-ग्रस्तमू--अत्यन्त वृद्ध एवं अशक्त; असति-हे दुष्ट लड़की; असम्मतम्‌--अनाकर्षक; विहाय--छोड़कर; जारम्‌--परपति, धृष्ट;भजसे--स्वीकार किया है; अमुम्‌--इस व्यक्ति को; अध्वगम्‌--जो भिखारी के तुल्य है।

    हे दुष्ट लड़की, तुमने यह क्या कर दिया ?

    तुमने अपने अत्यन्त सम्माननीय पति को धोखा दिया हैक्योंकि मैं देख रहा हूँ कि उसके वृद्ध, रोगग्रस्त तथा अनाकर्षक होने के कारण तुमने उसका साथछोड़कर इस तरुण पुरुष को अपना पति बनाना चाहा है जो भिक्षुक जैसा प्रतीत होता है।

    कथं मतिस्तेउवगतान्यथा सतांकुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम्‌ ।

    बिभर्षि जारं यदपत्रपा कुलंपितुश्न भर्तुश्ष नयस्यधस्तम: ॥

    २१॥

    'कथम्‌--कैसे; मतिः ते--तुम्हारी चेतना; अवगता--नीचे चली गई; अन्यथा--अन्यथा; सताम्‌--सर्वाधिक पूज्य; कुल-प्रसूते--कुलमें उत्पन्न; कुल-दूषणम्‌--कुलकलंक; तु--लेकिन; इृदम्‌--यह; बिभर्षि--रख रही हो!; जारम्‌--परपति को; यत्‌--क्योंकि यह;अपत्रपा--लज्जारहित है; कुलमू--कुल; पितु:--तुम्हारे पिता का; च--तथा; भर्तुः--पति का; च--तथा; नयसि--नीचे ले जा रहीहो; अधः तम:--नीचे अंधकार या नरक में ।

    हे पूज्य कुल में उत्पन्न मेरी पुत्री, तुमने अपनी चेतना को किस तरह इतना नीचे गिरा दिया है?

    तुम किस तरह परपति को इतनी निर्लज्जतापूर्वक रख रही हो ?

    इस तरह तुम अपने पिता तथा अपनेपति दोनों के कुलों को नरक में धकेल कर बदनाम करोगी।

    एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना शुचिस्मिता ।

    उवाच तात जामाता तवैष भृगुनन्दन: ॥

    २२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; ब्रुवाणम्‌--बातें करते तथा फटकारते हुए; पितरम्‌--अपने पिता से; स्मयमाना--मुस्काती हुई ( क्योंकि सतीथी ); शुचि-स्मिता--हँसती हुई; उवाच--बोली; तात--हे पिता; जामाता--दामाद; तव--तुम्हारा; एष:--यह तरुण; भूृगु-नन्दन:--च्यवन मुनि ही हैं ( अन्य कोई नहीं )

    किन्तु अपने सतीत्व पर गर्वित सुकन्या अपने पिता की डाँट फटकार सुनकर मुस्काने लगी।

    उसने हँसते हुए कहा 'हे पिता, मेरी बगल में बैठा यह तरुण व्यक्ति आपका असली दामाद, भूगुवंशमें उत्पन्न, च्यवन मुनि है।

    'शशंस पित्रे तत्सर्व वयोरूपाभिलम्भनम्‌ ।

    विस्मितः परमप्रीतस्तनयां परिषस्वजे ॥

    २३॥

    शशंस--उसने वर्णन किया; पित्रे--अपने पिता से; तत्‌ू--वह; सर्वम्‌--हर बात; वय: --आयु परिवर्तन का; रूप--तथा सौन्दर्य का;अभिलम्भनमू--किस तरह उपलब्धि मिली ( पति को ); विस्मित:--चकित; परम-प्रीत:--अत्यधिक प्रसन्न; तनयाम्‌--अपनी पुत्रीको; परिषस्वजे--हर्षित होकर गले से लगा लिया।

    तब सुकन्या ने बतलाया कि किस तरह उसके पति को तरुण पुरुष का सुन्दर शरीर प्राप्त हुआ।

    जब राजा ने इसे सुना तो वह अत्यधिक चकित हुआ और परम हर्षित होकर उसने अपनी प्रिय पुत्रीको गले से लगा लिया।

    सोमेन याजयन्वीरं ग्रह सोमस्य चाग्रहीत्‌ ।

    असोमपोरप्यश्चिनोश्च्यवन: स्वेन तेजसा ॥

    २४॥

    सोमेन--सोम से; याजयन्‌--यज्ञ कराते हुए; वीरम्‌--राजा ( शर्याति ) को; ग्रहम्‌--पूर्ण पात्र; सोमस्थ--सोमरस का; च--भी;अग्रहीत्‌ू--प्रदान किया; असोम-पो:--जिन्हें सोमरस पीना वर्जित था; अपि--यद्यपि; अश्विनो:--अश्विनीकुमारों का; च्यवन:--च्यवन मुनि; स्वेन--अपने; तेजसा--पराक्रम से |

    च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से राजा शर्याति से सोमयज्ञ सम्पन्न कराया।

    मुनि ने अश्विनीकुमारोंको सोमरस का पूरा पात्र प्रदान किया यद्यपि वे इसे पीने के अधिकारी नहीं थे।

    हन्तुं तमाददे बज्ज॑ सद्यो मन्युरमर्षित: ।

    सवचज्ज स्तम्भयामास भुजमिन्द्रस्थ भार्गव: ॥

    २५॥

    हन्तुमू--मारने के लिए; तमू--उस ( च्यवन ) को; आददे--इन्द्र ने धारण किया; वज़म्‌--अपना वज्ञ; सद्यः--तुरन्त; मन्यु:--बिनासोचे-विचारे, क्रोध में आकर; अमर्षित:--अत्यन्त उद्विग्न होकर; स-वज़म्‌--अपने वज् से; स्तम्भयाम्‌ आस--निश्चेष्ट कर दिया;भुजम्‌ू-बाँह को; इन्द्रस्य--इन्द्र की; भार्गव: --भूगुवंशी च्यवन मुनि

    उद्विग्न एवं क्रुद्ध होने से इन्द्र ने च्यवन मुनि को मार डालना चाहा अतएवं उसने बिना सोचे-विचारे अपना वज् धारण कर लिया।

    लेकिन च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से इन्द्र की उस बाँह कोसंज्ञाशून्य कर दिया ज

    िससे उसने वज्ञ पकड़ रखा था।

    अन्वजानंस्ततः सर्वे ग्रह सोमस्य चाश्विनो: ।

    भिषजाविति यत्पूर्व सोमाहुत्या बहिष्कृतौ ॥

    २६॥

    अन्वजानन्‌--उनकी अनुमति से; ततः--तत्पश्चात्‌; सर्वे--सारे देवता; ग्रहम्‌--भरा पात्र; सोमस्थ--सोमरस का; च-- भी; अश्विनो: --अश्विनीकुमारों के; भिषजौ--यद्यपि केवल वैद्य; इति--इस प्रकार; यत्‌--क्योंकि; पूर्वम्‌ू--इसके पहले; सोम-आहुत्या--सोमयज्ञ मेंभाग देकर; बहिः-कृतौ--निकाला गया |

    यद्यपि अश्विनीकुमार मात्र वैद्य थे और इसी कारण से उन्हें यज्ञों में सोमरस-पान से बाहर रखाजाता था, किन्तु देवताओं ने इसके बाद उन्हें सोमरस पीने के लिए अनुमति प्रदान कर दी।

    उत्तानबर्हिरानर्तों भूरिषेण इति त्रयः ।

    शर्यातेरभवन्पुत्रा आनर्तद्रेवतो भवत्‌ ॥

    २७॥

    उत्तानबर्हि: --उत्तानबर्हि; आनर्त:--आनर्त; भूरिषेण: -- भूरिषेण; इति--इस प्रकार; त्रय:ः--तीन; शर्यातेः--राजा शर्याति के;अभवन्‌ू--त्पन्न हुए; पुत्रा:--पुत्र; आनर्तात्‌--आनर्त से; रेबतः--रेवत; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ।

    राजा शर्याति के उत्तानबर्हि, आनर्त तथा भूरिषेण नामक तीन पुत्र हुए।

    आनर्त के पुत्र का नामरेबत था।

    सोडन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम्‌ ।

    आस्थितोभुड्डः विषयानानर्तादीनरिन्दम ।

    तस्य पुत्रश॒तं जज्ञे ककुद्धिज्येप्ठमुत्तमम्‌ ॥

    २८ ॥

    सः-रेवत; अन्तः-समुद्रे--समुद्र के नीचे; नगरीम्‌--शहर; विनिर्माय--बनवाकर; कुशस्थलीम्‌--कुशस्थली नामक; आस्थितः --वहाँ रहा; अभुड्डू -- भौतिक सुख का भोग किया; विषयान्‌--राज्य; आनर्त-आदीन्‌--आनर्त तथा अन्य; अरिम्‌ू-दम--हे शत्रुओं कादमन करने वाले महाराज परीक्षित; तस्य--उसके; पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; जज्ञे--उत्पन्न हुए; ककुद्धि-ज्येष्ठम्‌--जिनमें से ककुद्यीज्येष्ठ था; उत्तमम्‌--अत्यन्त शक्तिशाली तथा ऐश्वर्यवान्‌।

    हे शत्रुओं के दमनकर्ता महाराज परीक्षित, इस रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नामक राज्यका निर्माण कराया।

    वहाँ रहकर उसने आनर्त इत्यादि भूखण्डों पर शासन किया।

    उसके एक सौसुन्दर पुत्र थे जिनमें सबसे बड़ा ककुद्यी था।

    ककुद्गी रेवतीं कन्यां स्वामादाय विभुं गत: ।

    पुत्रया वरं परिप्रष्टं ब्रह्यलोकमपावृतम्‌ ॥

    २९॥

    ककुद्यी--राजा ककुद्ली; रेवतीम्‌-रेवती को; कन्याम्‌--ककुद्ी की पुत्री; स्वामू--निजी; आदाय--लेकर; विभुम्‌-ब्रह्मा केसमक्ष; गत:--गया; पुत्र्याः:--अपनी पुत्री का; वरम्‌--पति; परिप्रष्टम्‌--पूछने के लिए; ब्रह्मलोकम्‌--ब्रह्मलोक में; अपावृतम्‌--तीनोंगुणों से परे

    ककुदी अपनी पुत्री रेवती को लेकर ब्रह्मा के पास ब्रह्मलोक में गया जो भौतिक प्रकृति के तीनोंगुणों से परे है और उसके लिए पति के विषय में पूछताछ की।

    आवर्तमाने गान्धर्वे स्थितोडलब्धक्षण: क्षणम्‌ ।

    तदन्त आद्यमानम्य स्वाभिप्रायं न्यवेदयत्‌ ॥

    ३०॥

    आवर्तमाने--लगा रहने के कारण; गान्धर्वे--गन्धर्वो से गाने सुनने में; स्थित:--स्थित; अलब्ध-क्षण:--बात करने के लिए समय नथा; क्षणमू--क्षणभर के लिए भी; तत्‌-अन्ते--समाप्त होने पर; आद्यम्‌--ब्रह्माण्ड के आदि गुरु ( ब्रह्माजी ) को; आनम्य--नमस्कारकरके; स्व-अभिप्रायम्‌--अपनी निजी इच्छा; न्यवेदयत्‌--ककुझी ने निवेदन किया।

    जब ककुद्मी वहाँ पहुँचा तो ब्रह्माजी गन्धर्वों का संगीत सुनने में व्यस्त थे और उन्हें बात करने कीतनिक भी फुरसत न थी।

    अतएव ककुदी प्रतीक्षा करता रहा और संगीत समाप्त होने पर उसनेब्रह्माजी को नमस्कार करके अपनी चिरकालीन इच्छा व्यक्त की।

    तच्छुत्वा भगवान्त्रह्मा प्रहस्थ तमुवाच्र ह ।

    अहो राजन्निरुद्धास्ते कालेन हृदि ये कृता: ॥

    ३१॥

    तत्‌--उसे; श्रुत्वा--सुनकर; भगवानू्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; ब्रह्मा--ब्रह्माजी ने; प्रहस्थ--हँसकर; तम्‌ू--ककुद्यी राजा से; उवाचह-कहा; अहो--ओह; राजन्‌--हे राजा; निरुद्धा:--सभी चले गये; ते--वे; कालेन--कालक्रम से; हृदि--हृदय में; ये--वे सभी;कृताः--जिन्होंने तुम्हारे दामाद के रूप में स्वीकृति दे दी है।

    उसके वचन सुनकर शक्तिशाली ब्रह्माजी जोर से हँसे और ककुञ्मी से बोले: हे राजा, तुमने अपनेहृदय में जिन लोगों को अपना दामाद बनाने का निश्चय किया है वे कालक्रम से मर चुके हैं।

    तत्पुत्रपौत्रनप्तृणां गोत्राणि च न श्रुण्महे ।

    कालोभियातस्त्रिणवचतुर्युगविकल्पित: ॥

    ३२॥

    तत्‌--वहाँ; पुत्र--पुत्रों का; पौत्र--पौत्रों का; नप्तृणाम्‌ू--तथा वंशजों का; गोत्राणि--गोत्र; च--भी; न--नहीं; श्रृण्महे--हम सुनतेहैं; काल:--काल; अभियातः--चले गये; त्रि--तीन; नव--नौ; चतुर-युग--चारों युग ( सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि );विकल्पित:--इस प्रकार मापा गया।

    सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं।

    तुमने जिन लोगों को रेवती का पति बनाना चाहा होगा वे अबसब चले गये हैं और उनके पुत्र, पौत्र तथा अन्य वंशज भी नहीं रहे हैं।

    अब तुम्हें उनके नाम भी नहींसुनाई पड़ेंगे।

    तदगच्छ देवदेवांशो बलदेवो महाबल: ।

    कन्यारतनमिदं राजन्नररत्नाय देहि भो: ॥

    ३३॥

    तत्‌--इसलिए; गच्छ--जाओ; देव-देव-अंश:--जिनके स्वांश विष्णु हैं; बलदेव:--बलदेव; महा-बल:--अत्यन्त शक्तिशाली;कन्या-रलम्‌--अपनी सुन्दर पुत्री को; इदम्‌--इस; राजन्‌--हे राजा; नर-रलाय-- भगवान्‌ को, जो सदैव तरुण रहते हैं; देहि--दो( दान में ); भोः--हे राजा |

    है राजा, तुम यहाँ से जाओ और अपनी पुत्री भगवान्‌ बलदेव को अर्पित करो जो अभी भी उपस्थित हैं।

    वे अत्यन्त शक्तिशाली हैं।

    निस्सन्देह, वे भगवान्‌ हैं और उनके स्वांश विष्णु हैं।

    उन्हें दानमें दिये जाने के लिए तुम्हारी पुत्री सर्वथा उपयुक्त है।

    भुवो भारावताराय भगवान्भूतभावन: ।

    अवतीर्णो निजांशेन पुण्यश्रवणकीर्तन: ॥

    ३४॥

    भुव:ः--जगत का; भार-अवताराय-- भार कम करने के लिए; भगवान्‌--भगवान्‌; भूत-भावन:--सारे जीवों के नित्य हितैषी;अवतीर्ण:--अवतरित हुए हैं; निज-अंशेन--अपने अंशस्वरूप समस्त साज-सामान सहित; पुण्य-श्रवण-कीर्तन:--उनकी पूजा श्रवणतथा कीर्तन से की जाती है जिससे मनुष्य पवित्र हो जाता है।

    बलदेवजी भगवान्‌ हैं।

    जो कोई उनका श्रवण और उनका कीर्तन करता है वह पवित्र हो जाताहै।

    चूँकि वे समस्त जीवों के सतत हितैषी हैं अतएव वे अपने सारे साज-सामान सहित सारे जगत कोशुद्ध करने तथा इसका भार कम करने के लिए अवतरित हुए हैं।

    इत्यादिष्टोउभिवन्द्याजं नृप: स्वपुरमागतः ।

    त्यक्त पुण्यजनत्रासादशभ्रातृभिर्दिक्ष्ववस्थितै: ॥

    ३५॥

    इति--इस प्रकार; आदिष्ट: --ब्रह्माजी द्वारा आज्ञा दिये जाने पर; अभिवन्द्य--नमस्कार करके; अजम्‌--ब्रह्म जी को; नृप:--राजा;स्व-पुरमू--अपने आवास को; आगत:--लौट आया; त्यक्तम्‌--जो शून्य था; पुण्य-जन--उच्चतर जीवों का; त्रासातू-- भय से;भ्रातृभि: --अपने भाइयों के द्वारा; दिक्षु--विभिन्न दिशाओं में; अवस्थितैः--रह रहे

    ब्रह्मजी से यह आदेश पाकर ककुद्गी ने उन्हें नमस्कार किया और अपने निवासस्थान को लौटगया।

    तब उसने देखा कि उसका आवास रिक्त है, उसके भाई तथा अन्य कुट॒म्बी उसे छोड़कर चलेगये हैं और यक्षों जैसे उच्चतर जीवों के भय से वे समस्त दिशाओं में रह रहे हैं।

    सुतां दत्त्वानवद्याड़ीं बलाय बलशालिने ।

    बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं नारायणा श्रमम्‌ ॥

    ३६॥

    सुताम्‌--अपनी पुत्री को; दत्त्वा--देकर; अनवद्य-अड्रीम्‌--सुगठित शरीर वाली; बलाय--बलदेव; बल-शालिने--अत्यन्त बलवान;बदरी-आख्यम्‌--बदरिका भ्रम नामक; गत:ः--चला गया; राजा--राजा; तप्तुमू--तपस्या करने के लिए; नारायण-आश्रमम्‌--नर-नारायण के स्थान को

    तत्पश्चात्‌ राजा ने अपनी परम सुन्दरी पुत्री परम शक्तिशाली बलदेव को दान में दे दी औरसांसारिक जीवन से विरक्त होकर वह नर-नारायण को प्रसन्न करने के लिए बदरिका श्रम चला गया।

    TO

    अध्याय चार: अंबरीष महाराज का दुर्वासा मुनि द्वारा अपमान

    9.4श्रीशुक उवाचनाभागो नभगापत्य॑ यं ततं भ्रातर: कविम्‌ ।

    यविष्ठ॑व्यभजन्दायं ब्रह्मचारिणमागतम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; नाभाग:--नाभाग; नभग-अपत्यम्‌--जो महाराज नभग का पुत्र था; यमू--जिस;ततम्‌--पिता को; भ्रातर:--बड़े भाइयों ने; कविम्‌--विद्वान; यविष्ठम्‌--सबसे छोटा; व्यभजन्‌--बाँट दिया; दायम्‌-- धन;ब्रह्मचारिणम्‌--ब्रह्मचारी जीवन स्वीकार करके ( नैष्ठिक )।

    आगतम्‌--वापस आया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : नभग का पुत्र नाभाग बहुत काल तक अपने गुरु के पास रहा।

    अतएव उसके भाइयों ने सोचा कि अब वह गृहस्थ नहीं बनना चाहता और वापस नहीं आएगा।

    'फलस्वरूप उन्होंने अपने पिता की सम्पत्ति में उसका हिस्सा न रख कर उसे आपस में बाँट लिया।

    जब नाभाग अपने गुरु के स्थान से वापस आया तो उन्होंने उसके हिस्से के रूप में उसे अपने पिता कोदे दिया।

    भ्रातरोभाड़ू कि मह्यंं भजाम पितरं तव ।

    त्वां ममार्यासतताभाडुक्षु्मा पुत्रक तदाहथा: ॥

    २॥

    भ्रातरः--हे मेरे भाइयो; अभाडु --आपने हमारे पिता की सम्पत्ति का हिस्सा दिया है; किम्‌--क्या; महाम्‌--मुझको; भजाम--हमदेते हैं; पितरम--पिता को; तब--तुम्हारे हिस्से के रूप में; त्वामू--तुम्हें; मम--मुझको; आर्या:--मेरे बड़े भाइयों ने; तत--हे पिता;अभादडक्षु:--हिस्सा दिया है; मा--नहीं; पुत्रक-हे पुत्र; तत्‌ू--इस वचन को; आहथा:--कोई महत्त्व दोना

    भाग ने पूछा, 'मेरे भाइयो, आप लोगों ने पिता की सम्पत्ति में से मेरे हिस्से में मुझे क्या दियाहै?

    ' उसके भाई बोले, 'हमने तुम्हारे हिस्से में पिताजी को रख छोड़ा है।

    ' तब नाभाग अपने पिताके पास गया और बोला, 'हे पिताजी, मेरे भाइयों ने मेरे हिस्से में आपको दिया है।

    ' इस पर पिता नेउत्तर दिया, 'मेरे बेटे, तुम इनके ठगने वाले शब्दों पर विश्वास मत करना।

    मैं तुम्हारी सम्पत्ति नहीं हू।

    इमे अड्डिरसः सत्रमासतेद्य सुमेधस: ।

    षष्ठ॑ षष्ठमुपेत्याह: कवे मुहान्ति कर्मणि ॥

    ३॥

    इमे--ये सब; अड्भिरसः--अंगिरा के वंशज; सत्रम्‌-यज्ञ; आसते--कर रहे हैं; अद्य--आज; सुमेधस: --जो अत्यन्त बुद्धिमान हैं;षष्ठटम्‌--छठवाँ; षष्ठम्‌--छठवाँ; उपेत्य--प्राप्त करके; अह:--दिन; कवे--हे विद्वान पुरुष; मुहान्ति--मोह ग्रस्त होते हैं; कर्मणि--सकाम कर्मों में।

    नाभाग के पिता ने कहा : अंगिरा के वंशज इस समय एक महान्‌ यज्ञ सम्पन्न करने जा रहे हैं,किन्तु अत्यन्त बुद्धिमान होते हुए भी वे हर छठे दिन यज्ञ करते हुए मोहग्रस्त होंगे और अपने नैत्यिककर्मो में त्रुटि करेंगे।

    तांस्त्वं शंसय सूक्ते द्वे वैश्वदेवे महात्मन: ।

    ते स्वर्यन्तो धनं सत्रपरिशेषितमात्मन: ॥

    ४॥

    दास्यन्ति तेडथ तानर्च्छ तथा स कृतवान्यथा ।

    तस्मै दत्त्वा ययु: स्वर्ग ते सत्रपरिशेषणम्‌ ॥

    ५॥

    तान्‌ू--उन सबको; त्वमू--तुम; शंसब--वर्णन करो; सूक्ते--वैदिक स्तुतियाँ; द्वे--दोनों; वैश्वदेवे-- भगवान्‌ वैश्वदेव के विषय में;महात्मन: --महात्माओं को; ते--वे; स्व: यन्तः--अपने-अपने स्वर्गधामों को जाते हुए; धनम्‌--सम्पत्ति; सत्र-परिशेषितम्‌--यज्ञ केअन्त में शेष रहने वाली; आत्मन: --अपनी निजी सम्पत्ति; दास्यन्ति--दे देंगे; ते--तुमको; अथ--इसलिए; तान्‌ू--उनको; अर्च्छ--वहाँ जाओ; तथा--उस तरह से ( अपने पिता की आज्ञानुसार ); सः--वह ( नाभाग ); कृतवान्‌--सम्पन्न किया हुआ; यथा--अपनेपिता की आज्ञानुसार; तस्मै--उसको; दत्त्वा--देकर; ययुः--चले गये; स्वर्गम्‌--स्वर्गलोक को; ते--वे सभी; सत्र-परिशेषणम्‌--यज्ञका अवशेषनाभाग के

    पिता ने आगे कहा : 'उन महात्माओं के पास जाओ और उन्हें वैश्वदेव सम्बन्धी दोवैदिक मंत्र सुनाओ।

    जब वे महात्मा यज्ञ समाप्त करके स्वर्गलोक को जा रहे होंगे तो वे यज्ञ में प्राप्तशेष दक्षिणा तुम्हें दे देंगे।

    अतएव तुम तुरन्त जाओ।

    इस तरह नाभाग ने वैसा ही किया जैसा उसकेपिता ने सलाह दी थी और अंगिरा वंश के सारे मुनियों ने उसे अपना सारा धन दे दिया और फिर वेस्वर्गलोक को चले गये।

    त॑ कश्चित्स्वीकरिष्यन्तं पुरुष: कृष्णदर्शन: ।

    उवाचोत्तरतो भ्येत्य ममेदं वास्तुकं बसु ॥

    ६॥

    तम्‌--नाभाग को; कश्चित्‌--कोई; स्वीकरिष्यन्तम्‌-मुनियों द्वारा दिये गये धन को स्वीकार करते हुए; पुरुष: --व्यक्ति; कृष्ण-दर्शन:--देखने में काला; उबाच--कहा; उत्तरत:--उत्तर से; अभ्येत्य--आकर; मम--मेरा; इृदम्‌--यह; वास्तुकम्‌-यज्ञ काअवशेष; वसु--सारा धन।

    जब नाभाग सारा धन ले रहा था तो उत्तर दिशा से एक काला कलूटा व्यक्ति उसके पास आयाऔर बोला, 'इस यज्ञशाला की सारी सम्पत्ति मेरी है।

    'ममेदमृषिभिर्दत्तमिति तहिं सम मानव: ।

    स्यान्नौ ते पितरि प्रश्न: पृष्टवान्पितरे यथा ॥

    ७॥

    मम--मेरा; इदम्‌--यह; ऋषिभि: --ऋषियों द्वारा; दत्तम्‌-प्रदत्त; इति--इस प्रकार; तहि--अतएव; स्म--निस्सन्देह; मानव: --नाभाग; स्यात्‌--हो; नौ--हमारा; ते--तुम्हारा; पितरि--पिता के पास; प्रश्न: --प्रश्न; पृष्टवान्‌ू-- उसने भी पूछा; पितरम्‌--अपने पितासे; यथा--जैसी प्रार्थना की गई ।

    तब नाभाग ने कहा : 'यह धन मेरा है।

    इसे ऋषियों ने मुझे प्रदान किया है।

    ' जब नाभाग ने यहकहा तो उस काले कलूटे ने उत्तर दिया, 'चलो तुम्हारे पिता के पास चलें और उनसे इसका निपटाराकरने के लिए कहें।

    ' तदनुसार नाभाग ने अपने पिता से पूछा।

    यज्ञवास्तुगतं सर्वमुच्छिष्टमृषय: क्वचित्‌ ।

    अक्रु्हिं भागं रुद्राय स देव: सर्वमहति ॥

    ८॥

    यज्ञ-वास्तु-गतम्‌--यज्ञशाला से सम्बन्धित वस्तुएँ; सर्वम्‌--सारी; उच्छिष्टमू--बची हुई; ऋषय:--ऋषिगण; क्वचित्‌--कभी, दक्षयज्ञमें; चक्कः--ऐसा किया; हि--निस्सन्देह; भागम्‌--हिस्सा; रुद्राय--शिवजी को; सः--वह; देव: --देवता; सर्वम्‌--हर वस्तु का;अ्ईति-पात्र है।

    नाभाग के पिता ने कहा : ऋषियों ने दक्ष यज्ञशाला में जो भी आहुति दी थी, वह शिवजी कोउनके भाग के रूप में दी गई थी।

    अतएवं इस यज्ञशाला की प्रत्येक वस्तु निश्चित रूप से शिवजी कीहै।

    नाभागस्तं प्रणम्याह तवेश किल वास्तुकम्‌ ।

    इत्याह मे पिता ब्रह्मज्छिरसा त्वां प्रसादये ॥

    ९॥

    नाभाग:--नाभाग ने; तमू--उसको ( शिवजी को ); प्रणम्य-- प्रणाम करके; आह--कहा; तव--तुम्हारा; ईश--हे भगवान्‌; किल--निश्चय ही; वास्तुकम्‌--यज्ञशाला की हर वस्तु; इति--इस प्रकार; आह--कहा; मे--मेरे; पिता--पिता ने; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण;शिरसा--सिर के बल नमन करके; त्वामू--तुमसे; प्रसादये--कृपा की भीख माँगता हूँ।

    तत्पश्चात्‌ शिवजी को नमस्कार करने के बाद नाभाग ने कहा : हे पूज्यदेव, इस यज्ञशाला कीप्रत्येक वस्तु आपकी है--ऐसा मेरे पिता का मत है।

    अब मैं विनम्रतापूर्वक आपके समक्ष अपना सिरझुकाकर आपसे कृपा की भीख माँगता हूँ।

    यत्ते पितावदद्धर्म त्वं च सत्यं प्रभाषसे ।

    ददामि ते मन्त्रहशो ज्ञानं ब्रह्न सनातनम्‌ ॥

    १०॥

    यत्‌--जो कुछ; ते--तुम्हारे; पिता--पिता ने; अवदत्‌--कहा है; धर्मम्‌--सत्य; त्वम्‌ च--तुम भी; सत्यम्‌--सत्य; प्रभाषसे--बोल रहेहो; ददामि--दूँगा; ते--तुम्हें; मन्त्र-हश: --मंत्र-विज्ञान को जानने वाले; ज्ञानमू--ज्ञान; ब्रह्मय--दिव्य; सनातनम्‌-शाश्रवत।

    शिवजी ने कहा : तुम्हारे पिता ने जो कुछ कहा है वह सत्य है और तुम भी वही सत्य कह रहे हो।

    अतएव वेदमंत्रों का ज्ञाता मैं तुम्हें दिव्य ज्ञान बतलाऊँगा।

    गृहाण द्रविणं दत्त मत्सत्रपरिशेषितम्‌ ।

    इत्युक्त्वान्तर्हितो रुद्रो भगवान्धर्मवत्सल: ॥

    ११॥

    गृहाण--अब ग्रहण करो; द्रविणम्‌--सारा धन; दत्तम्‌ू--दिया गया; मत्‌-सत्र-परिशेषितम्‌--मेरे लिए किये गये यज्ञ का अवशेष; इतिउक्त्वा--ऐसा कहकर; अन्तर्हित:--ओझल हो गये; रुद्र:--शिवजी; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली देवता; धर्म-वत्सल:--धार्मिकसिद्धान्तों का हृढ़ता से पालन करने वाले |

    शिवजी ने कहा : 'अब तुम यज्ञ का बचा सारा धन ले सकते हो क्‍योंकि मैं इसे तुम्हें दे रहा>>हूँ।

    ' यह कहकर धार्मिक सिद्धान्तों में अटल रहने वाले शिवजी उस स्थान से अहृश्य हो गये।

    य एतत्संस्मरेत्प्रातः सायं च सुसमाहितः ।

    कविर्भवति मन्त्रज्ञो गतिं चेव तथात्मन: ॥

    १२॥

    यः--जो कोई; एतत्‌--इस घटना के विषय में ; संस्मरेत्‌--स्मरण करेगा; प्रातः--प्रातःकाल; सायम्‌ च--तथा सायंकाल;सुसमाहितः--अत्यन्त ध्यानपूर्वक; कविः--विद्वान; भवति--बन जाता है; मन्त्र-ज्ञः--समस्त वैदिक मंत्रों का ज्ञाता; गतिम्‌ू--गन्तव्य,लक्ष्य; च-- भी; एव--निस्सन्देह; तथा आत्मन:--स्वरूपसिद्ध व्यक्ति की तरह |

    जो कोई इस कथा को प्रातःकाल एवं सायंकाल अत्यन्त ध्यानपूर्वक सुनता या स्मरण करता हैवह निश्चय ही विद्वान, वैदिक स्तोत्रों को समझने वाला एवं स्वरूपसिद्ध हो जाता है।

    नाभागादम्बरीषो भून्महा भागवत: कृती ।

    नास्पृशद्वह्यशापोपि य॑ न प्रतिहतः क्वचित्‌ ॥

    १३॥

    नाभागात्‌--नाभाग से; अम्बरीष: --महाराज अम्बरीष ने; अभूत्‌--जन्म लिया; महा- भागवत: --अत्यन्त पूज्य भक्त; कृती--अत्यन्तविख्यात; न अस्पृशत्‌--स्पर्श भी नहीं कर पाया; ब्रह्म-शाप: अपि--ब्राह्मण का शाप भी; यम्‌--जिसको ( अम्बरीष को ); न--नतो; प्रतिहतः--विफल हुआ; क्वचित्‌--किसी समय ।

    नाभाग से महाराज अम्बरीष ने जन्म लिया।

    महाराज अम्बरीष उच्च भक्त थे और अपने महान्‌गुणों के लिए विख्यात थे।

    यद्यपि उन्हें एक अच्युत ब्राह्मण ने शाप दिया था, किन्तु वह शाप उनका स्पर्श भी न कर पाया।

    श्रीराजोबाचभगवज्छोतुमिच्छामि राजर्षेस्तस्य धीमतः ।

    न प्राभूदात्र निर्मुक्तो ब्रह्मदण्डो दुरत्ययः ॥

    १४॥

    श्री-राजा उबाच--राजा परीक्षित ने पूछा; भगवन्‌--हे ब्राह्मण श्रेष्ठ; श्रोतुम्‌ इच्छामि--आपसे सुनना चाहता हूँ; राजर्षे:--महान्‌ राजाअम्बरीष का; तस्य--उस; धीमत: --अत्यन्त गम्भीर; न--नहीं; प्राभूत्‌--कार्य कर सका; यत्र--जिस पर ( अम्बरीष पर ); निर्मुक्त:--मुक्त होकर; ब्रह्म-दण्ड:--ब्राह्मण का शाप; दुरत्यय:--दुर्लघ्य |

    राजा परीक्षित ने पूछा: हे महापुरुष, महाराज अम्बरीष निश्चय ही अत्यन्त उच्च एवं सच्चरित्र थे।

    मैं उनके विषय में सुनना चाहता हूँ।

    यह कितना आश्चर्यजनक है कि एक ब्राह्मण का दुर्लघ्य शाप उनपर अपना कोई प्रभाव नहीं दिखला सका।

    श्रीशुक उवाचअम्बरीषो महाभागः सप्तद्वीपवर्ती महीम्‌ ।

    अव्ययां च श्रियं लब्ध्वा विभवं चातुलं भुवि ॥

    १५॥

    मेनेउतिदुर्लभं पुंसां सर्व तत्स्वप्नसंस्तुतम्‌ ।

    विद्वान्विभवनिर्वाणं तमो विशति यत्पुमान्‌ ॥

    १६॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अम्बरीष: --राजा अम्बरीष; महा-भाग: --अत्यन्त भाग्यशाली राजा; सप्त-द्वीपवतीम्‌--सात द्वीपों वाले; महीम्‌--सारे विश्व को; अव्ययाम्‌ च--तथा न घटने वाली; थियम्‌--सुन्दरता को; लब्ध्वा--प्राप्तकरके; विभवम्‌ च--तथा ऐश्वर्य; अतुलमू-- असीम; भुवि--पृथ्वी पर; मेने--उसने निश्चय किया; अति-दुर्लभमू--बहुत कम प्राप्त;पुंसामू--अनेक व्यक्तियों का; सर्वम्‌--सर्वस्व; तत्‌--जो; स्वप्न-संस्तुतम्‌--मानो स्वप्न में कल्पना की गई हो; विद्वान्‌ू--पूरी तरहजानते हुए; विभव-निर्वाणम्‌--उस ऐश्वर्य का विनाश; तम:ः--अज्ञान; विशति--प्रवेश करता है; यत्‌--जिससे; पुमान्‌--व्यक्ति |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अत्यन्त भाग्यवान महाराज अम्बरीष ने सात द्वीपों वाले समस्त विश्वपर शासन किया और पृथ्वी का अक्षय असीम ऐश्वर्य तथा सम्पन्नता प्राप्त की ।

    यद्यपि ऐसा पद विरलेही मिलता है, किन्तु महाराज अम्बरीष ने इसकी तनिक भी परवाह नहीं की क्योंकि उन्हें पता था किऐसा सारा ऐश्वर्य भौतिक है।

    ऐसा ऐश्वर्य स्वप्नतुल्य है और अन्ततोगत्वा विनष्ट हो जायेगा।

    राजाजानता था कि कोई भी अभक्त ऐसा ऐश्वर्य प्राप्त करके प्रकृति के तमोगुण में अधिकाधिक प्रविष्टहोता है।

    वबासुदेवे भगवति तद्धक्तेषु च साधुषु ।

    प्राप्तो भावं परं विश्व येनेदं लोष्ट्वत्स्मृतम्‌ ॥

    १७॥

    बासुदेवे--सर्वव्यापी परम पुरुष में; भगवति-- भगवान्‌; तत्‌-भक्तेषु--उनके भक्तों में; च-- भी; साथुषु--साथधु पुरुषों में; प्राप्त: --प्राप्त; भावम्‌--सम्मान तथा भक्ति; परमू-दिव्य; विश्वम्‌--सारा ब्रह्माण्ड; येन--जिससे ( आध्यात्मिक चेतना ); इदम्‌--यह; लोष्ट-बत्‌-पत्थर के टुकड़े के समान नगण्य; स्मृतम्‌-स्वीकार्य है ( ऐसे भक्त द्वारा )।

    महाराज अम्बरीष भगवान्‌ वासुदेव के तथा भगवद्भक्त सन्त पुरुषों के महान्‌ भक्त थे।

    इसभक्ति के कारण वे सारे विश्व को एक पत्थर के टुकड़े के समान नगण्य मानते थे।

    स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो-व॑चांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।

    करीौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषुश्रुति चकाराच्युतसत्कथोदये ॥

    १८॥

    मुकुन्दलिड्रालयदर्शने दृशौतद्धृत्यगात्रस्पर्शे उड्रसड्रमम्‌ ।

    घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभेश्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥

    १९॥

    पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणेशिरो हषीकेशपदाभिवन्दने ।

    काम च दास्ये न तु कामकाम्ययायथोत्तमएलोकजनाश्रया रति: ॥

    २०॥

    सः--वह ( महाराज अम्बरीष ); बै--निस्सन्देह; मनः--जिसका मन; कृष्ण-पद-अरविन्दयो:--कृष्ण के दोनों चरणकमलों पर( स्थिर ); वचांसि--जिसके शब्द; बैकुण्ठ-गुण-अनुवर्णने--कृष्ण का गुणानुवाद करने; करौ--दोनों हाथ; हरे: मन्दिर-मार्जन-आदिषु--हरि मन्दिर की सफाई करने जैसे कार्यों में; श्रुतिमू--जिसका कान; चकार--संलग्न; अच्युत--कभी न गिरने वाले कृष्णके विषय में; सत्‌-कथा-उदये--दिव्य कथाओं के श्रवण करने में; मुकुन्द-लिड्र-आलय-दर्शने--मुकुन्दके अर्चाविग्रह, मन्दिर तथापवित्र धामों का दर्शन करने में; हशौ--उसकी दोनों आँखें; तत्‌-भृत्य--कृष्ण के सेवकों का; गात्र-स्पर्शे--शरीर का स्पर्श करने में;अड्ड-सड्रमम्‌--उनके शरीर का स्पर्श; घ्राणम्‌ च--तथा उनकी प्राणेन्द्रिय; तत्‌ू-पाद--उनके चरणों के; सरोज--कमल के फूल की;सौरभे--सुगन्धि में; श्रीमत्‌-तुलस्या:--तुलसी दलों का; रसनाम्‌ू--उसकी जीभ; ततू-अर्पिते-- भगवान्‌ को चढ़ाये गये प्रसाद में;'पादौ--दोनों पाँव; हरेः-- भगवान्के; क्षेत्र-- मन्दिर या वृन्दावन एवं द्वारकाधाम जैसे पवित्र स्थान; पद-अनुसर्पणे--उन स्थानों तकचलते हुए; शिर:--सिर; हषीकेश--इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण के; पद-अभिवन्दने--चरणकमल को नमस्कार करने में; कामम्‌ च--तथा उसकी इच्छाएँ; दास्ये--सेवक की भाँति लगी होने में; न--नहीं; तु--निस्सन्देह; काम-काम्यया--इन्द्रियतृप्ति की इच्छा सेयुक्त; यथा--जिस तरह; उत्तमशलोक-जन-आश्रया--जो प्रह्मद जैसे भक्त की शरण लेता है; रतिः--आसक्ति

    महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में, अपने शब्दोंको भगवान्‌ का गुणगान करने में, अपने हाथों को भगवान्‌ का मन्दिर झाड़ने-बुहारने में तथा अपनेकानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे।

    वे अपनी आँखोंको कृष्ण के अर्चाविग्रह, कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों, यथा मथुरा तथा वृन्दावन, कोदेखने में लगाते रहे।

    वे अपनी स्पर्श-इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में, अपनीघ्राण-इन्द्रिय को भगवान्‌ पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूँघने में और अपनी जीभ को भगवान्‌का प्रसाद चखने में लगाते रहे।

    उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत्‌ मन्दिरों तक जाने में,अपने सिर को भगवान्‌ के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान्‌ की सेवाकरने में लगाया।

    निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहींचाहा।

    वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान्‌ से सम्बन्धित भक्ति के कार्यो में लगाते रहे।

    भगवान्‌ केप्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त होने की यही विधि है।

    भागवत में वर्णित प्रत्येक कथा कृष्ण से सम्बन्धित है।

    एवं सदा कर्मकलापमात्मनःपरेधियज्ञे भगवत्यधोक्षजे ।

    सर्वात्मभाव॑ विदधन्महीमिमांतन्निष्ठविप्राभिहित: शशास ह ॥

    २१॥

    एवम्‌--इस प्रकार ( भक्तिमय जीवन बिताते हुए ); सदा--सदैव; कर्म-कलापम्‌ू--क्षत्रिय राजा के रूप में नियत कार्य; आत्मन:--अपना, स्वयं; परे--परब्रह्म में; अधियज्ञे--परम नियंत्रक, परम भोक्ता में; भगवति-- भगवान्‌ में; अधोक्षजे--इन्द्रियबोध से परे जो हैउस; सर्व-आत्म-भावम्‌-भक्ति के विविध प्रकार; विदधत्‌--सम्पन्न करते हुए, अर्पित करते हुए; महीम्‌-पृथ्वीलोक को; इमाम्‌--इस; तत्‌ू-निष्ठट--जो भगवान्‌ के निष्ठावान भक्त हैं; विप्र--ऐसे ब्राह्मणों द्वारा; अभिहितः--निर्देशित; शशास--शासन किया; ह--भूतकाल में ।

    राजा के रूप में अपने नियत कर्तव्यों का पालन करते हुए महाराज अम्बरीष अपने राजसीकार्यकलापों के फलों को सदैव भगवान्‌ कृष्ण को अर्पित करते थे, जो प्रत्येक वस्तु के भोक्ता हैंऔर भौतिक इन्द्रियों के बोध के परे हैं।

    वे निश्चित रूप से निष्ठावान भगवद्भक्त ब्राह्मणों से सलाहलेते थे और इस प्रकार वे बिना किसी कठिनाई के पृथ्वी पर शासन करते थे।

    ईजे< श्वमे धैरधियज्ञमी धरेमहाविभूत्योपचिताड्डदक्षिणै: ।

    ततैर्वसिष्ठासितगौतमादिभिर्‌धन्वन्यभिस्त्रोतमसौ सरस्वतीम्‌ ॥

    २२॥

    ईजे--पूजा किया; अश्वमेथै:--अश्वमेध यज्ञ करके; अधियज्ञम्‌--सारे यज्ञों के स्वामी को तुष्ट करने के लिए; ईश्वरम्‌-- भगवान्‌ को;महा-विभूत्या--महान्‌ ऐश्वर्य से; उपचित-अड्ग-दक्षिणैः --समस्त सामग्री तथा ब्राह्मणों को दी गई दक्षिणा समेत; ततैः--सम्पन्न किया;वसिष्ठ-असित-गौतम-आदिभि: --वसिष्ठ, असित तथा गौतम जैसे ब्राह्मणों के द्वारा; धन्वनि--रेगिस्तान में; अभिसत्रोतमू--नदी के जलसे प्लावित; असौ--महाराज अम्बरीष; सरस्वतीम्‌--सरस्वती नदी के तट पर।

    महाराज अम्बरीष ने उस मरुस्थल में अश्वमेध यज्ञ जैसे महान्‌ यज्ञ सम्पन्न किये जिसमें से होकरसरस्वती नदी बहती है और समस्त यज्ञों के स्वामी भगवान्‌ को प्रसन्न किया।

    ऐसे यज्ञ महान्‌ ऐश्वर्यतथा उपयुक्त सामग्री द्वारा तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर सम्पन्न किये जाते थे और इन यज्ञों कानिरीक्षण वसिष्ठ, असित तथा गौतम जैसे महापुरुषों द्वारा किया जाता था जो यज्ञों के सम्पन्नकर्ताराजा के प्रतिनिधि होते थे।

    अस्य क्रतुषु गीर्वाणै: सदस्या ऋत्विजो जना: ।

    तुल्यरूपाश्चानिमिषा व्यहश्यन्त सुवासस: ॥

    २३॥

    यस्य--जिसके ( अम्बरीष के ); क्रतुषु--( उसके द्वारा सम्पन्न ) यज्ञों में; गीर्वाणै:--देवताओं के साथ; सदस्या:--यज्ञ करने वालेसदस्य; ऋत्विज: --पुरोहित; जना:--तथा अन्य कुशल व्यक्ति; तुल्य-रूपा:--समान रूप वाले; च--तथा; अनिमिषा: --देवताओंकी तरह निर्निमेष दृष्टि से, बिना पलक भाँजे; व्यहृश्यन्त--देखे जाकर; सु-वासस:--कीमती वस्त्रों से सज्जित।

    महाराज अम्बरीष द्वारा आयोजित यज्ञ में सभा के सदस्य तथा पुरोहित ( विशेष रूप से होता,उद्गाता, ब्रह्मा तथा अध्वर्यु ) वस्त्रों से बहुत अच्छी तरह से सज्जित थे और वे सब देवताओं की तरहलग रहे थे।

    उन्होंने उत्सुकतापूर्वक यज्ञ को समुचित रूप से सम्पन्न कराया।

    स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैरमरप्रिय: ।

    श्रुण्वद्धिरुपगायद्धिरुत्तमशलोकचेष्टितम्‌ ॥

    २४॥

    स्वर्ग:ः--स्वर्गलोक का जीवन; न--नहीं; प्रार्थित:--इच्छा का विषय; यस्य--जिसका ( अम्बरीष महाराज का ); मनुजैः--नागरिकों( प्रजा ) द्वारा; अमर-प्रिय:--देवताओं तक को परम प्रिय; श्रृण्वद्धिः --सुनने के आदी; उपगायद्धिः--तथा कीर्तन करने के आदी;उत्तमएलोक- भगवान्‌ के; चेष्टितम्‌--महिमामय कार्यकलापों के विषय में |

    महाराज अम्बरीष की प्रजा भगवान्‌ के महिमामय कार्यकलापों के विषय में कीर्तन एवं श्रवणकरने की आदी थी।

    इस प्रकार वह कभी भी देवताओं के परम प्रिय स्वर्गलोक में जाने की इच्छानहीं करती थी।

    संवर्धयन्ति यत्कामा: स्वाराज्यपरिभाविता: ।

    दुर्लभा नापि सिद्धानां मुकुन्दं हदि पश्यत:ः ॥

    २५॥

    संवर्धयन्ति--सुख को बढ़ाती हैं; यत्‌--क्योंकि; कामाः--ऐसी इच्छाएँ; स्वा-राज्य-- भगवान्‌ की सेवा करने के अपने स्वाभाविकपद पर स्थित; परिभाविता: --ऐसी इच्छाओं से पूरित; दुर्लभा:--दुर्लभ; न--नहीं; अपि-- भी; सिद्धानाम्‌-महान्‌ योगियों के;मुकुन्दम्‌--कृष्ण को; हृदि--हृदय में; पश्यतः--उनका दर्शन करने के आदी व्यक्ति

    जो लोग भगवान्‌ की सेवा करने के दिव्य सुख से परिपूर्ण हैं वे महान्‌ योगियों की उपलब्धियों मेंभी कोई रुचि नहीं रखते क्योंकि ऐसी उपलब्धियाँ उस भक्त के द्वारा अनुभव किये गये दिव्य आनन्दको वर्धित नहीं करतीं जो अपने हृदय के भीतर सदैव कृष्ण का चिन्तन करता रहता है।

    स इत्थं भक्तियोगेन तपोयुक्तेन पार्थिव: ।

    स्वधर्मेण हरिं प्रीणन्सर्वान्कामान्शनैर्जहौ ॥

    २६॥

    सः--उस ( अम्बरीष ); इत्थम्‌--इस प्रकार; भक्ति-योगेन-- भगवान्‌ की भक्ति के द्वारा; तपः-युक्तेन--जो तपस्या की श्रेष्ठ विधि भीहै; पार्थिव: --राजा ने; स्व-धर्मेण-- अपने वैधानिक कार्यकलापों से; हरिम्‌--परमे श्वर को; प्रीणन्‌--सन्तुष्ट करते हुए; सर्वानू--सभीप्रकार की; कामान्‌ू-- भौतिक इच्छाओं को; शनै: -- धीरे-धीरे; जहौ--त्याग दिया ॥

    इस तरह इस लोक के राजा महाराज अम्बरीष ने भगवान्‌ की भक्ति की और इस प्रयास में उन्होंनेकठिन तपस्या की।

    उन्होंने अपने वैधानिक कार्यकलापों से भगवान्‌ को सदैव प्रसन्न करते हुए धीरे-धीरे सारी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया।

    गृहेषु दारेषु सुतेषु बन्धुषुद्विपोत्तमस्यन्दनवाजिवस्तुषु ।

    अक्षय्यरलाभरणाम्बरादिष्व्‌अनन्तकोशेष्वकरोदसन्मतिम्‌ ॥

    २७॥

    गृहेषु--धरों में; दारेषु--स्त्रियों में; सुतेषु--सन्तानों में; बन्धुषु--मित्रों तथा सम्बन्धियों में; द्विप-उत्तम-- श्रेष्ठ शक्तिशाली हाथियों में;स्वन्दन--उत्तम रथों में; वाजि--उत्तम घोड़ों में; वस्तुषु--ऐसी सारी वस्तुओं में; अक्षय्य--जिनका महत्त्व कभी घटता नहीं; रतत--रत्नों में; आभरण --गहनों में; अम्बर-आदिषु-- कपड़े, गहने इत्यादि में; अनन्त-कोशेषु-- अक्षय खजाने में; अकरोत्‌--स्वीकारकिया; असतू-मतिम्‌--अनासक्ति।

    महाराज अम्बरीष ने घरेलू कार्यों, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों तथा सम्बन्धियों, श्रेष्ठ शक्तिशालीहाथियों, सुन्दर रथों, गाड़ियों, घोड़ों, अक्षय रत्नों, गहनों, बस्त्रों तथा अक्षय कोश के प्रति सारीआसक्ति छोड़ दी।

    उन्होंने इन वस्तुओं को नश्वर तथा भौतिक मानकर इनकी आसक्ति छोड़ दी।

    तस्मा अदाद्धरिश्वक्रं प्रयनीकभयावहम्‌ ।

    एकान्तभक्तिभावेन प्रीतो भक्ताभिरक्षणम्‌ ॥

    २८ ॥

    तस्मै--उसको ( महाराज अम्बरीष को ); अदात्‌--प्रदान किया; हरिः--भगवान्‌ ने; चक्रम्‌--अपना चक्र; प्रत्यनीक-भय-आवहम्‌--जो भगवान्‌ तथा उनके भक्तों के शत्रुओं के लिए अत्यन्त भयावह है; एकान्त-भक्ति-भावेन--अनन्य भक्ति करने के कारण; प्रीतः--भगवान्‌ इस प्रकार प्रसन्न होकर; भक्त-अभिरक्षणम्‌--अपने भक्तों की रक्षा के लिए।

    महाराज अम्बरीष की अनन्य भक्ति से अतीव प्रसन्न होकर भगवान्‌ ने राजा को अपना चक्रप्रदान किया जो शत्रुओं के लिए भयावह है और जो शत्रुओं तथा विपत्तियों से भक्तों की सदैव रक्षाकरता है।

    आरिराधयिषु: कृष्णं महिष्या तुल्यशीलया ।

    युक्त: सांवत्सरं वीरो दधार द्वादशीत्रतम्‌ ॥

    २९॥

    आरिराधयिषु:--पूजा करने के लिए इच्छुक; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; महिष्या--अपनी रानी सहित; तुल्य-शीलया--महाराजअम्बरीष के ही समान योग्य; युक्त:--साथ-साथ; सांवत्सरम्‌--एक वर्ष तक; वीर:--राजा ने; दधार--स्वीकार किया; द्वादशी-ब्रतम्‌ू--एकादशी तथा द्वादशी मनाने का ब्रत।

    महाराज अम्बरीष ने अपने ही समान योग्य अपनी रानी के साथ भगवान्‌ कृष्ण की पूजा करने केलिए एक वर्ष तक एकादशी तथा द्वादशी का व्रत रखा।

    ब्रतान्ते कार्तिके मासि त्रिरात्रं समुपोषितः ।

    स्नातः कदाचित्कालिन्द्रां हरिं मधुवनेउर्चयत्‌ ॥

    ३०॥

    ब्रत-अन्ते--ब्रत रखने के अन्त में; कार्तिके--कार्तिक ( अक्टूबर-नवम्बर ) मास में; मासि--महीने में; त्रि-रात्रमू--तीन रातों तक;समुपोषित:--पूर्णतया व्रत रखने के पश्चात्‌; स्नातः:--स्नान करके; कदाचित्‌--कभी; कालिन्द्यामू-यमुना नदी के तट पर; हरिम्‌ू--भगवान्‌ को; मधुवने--वृन्दावन के मधुवन नामक क्षेत्र में; अर्चयत्‌-- भगवान्‌ की पूजा की

    एक वर्ष तक उस ब्रत को रखने के बाद, तीन रातों तक उपवास रखकर तथा युमना में स्नानकरके महाराज अम्बरीष ने कार्तिक के महीने में भगवान्‌ हरि की मधुवन में पूजा की।

    महाभिषेकविधिना सर्वोपस्करसम्पदा ।

    अभिषिच्याम्बराकल्पैर्गन्धमाल्याहणादिभि: ॥

    ३१॥

    तद्गतान्तरभावेन पूजयामास केशवम्‌ ।

    ब्राह्मणांश्व महाभागान्सिद्धार्थानपि भक्तित: ॥

    ३२॥

    महा-अभिषेक-विधिना-- अर्चाविग्रह को नहलाने के अनुष्ठान द्वारा; सर्व-उपस्कर-सम्पदा--अर्चा विग्रह की पूजा की सारी सामग्री से;अभिषिच्य--नहलाकर; अम्बर-आकल्पै: --सुन्दर वस्त्रों तथा गहनों से; गन्ध-माल्य--सुगन्धित फूल की मालाओं से; अर्हण-आदिभि:--अर्चाविग्रह की पूजा की अन्य सामग्री सहित; तत्‌-गत-अन्तर-भावेन--भक्ति से पूरित अपने मन से; पूजयाम्‌ आस--उसने पूजा की; केशवम्‌--कृष्ण को; ब्राह्मणान्‌ च--तथा ब्राह्मणों को; महा-भागान्‌--अत्यन्त भाग्यशाली; सिद्ध-अर्थान्‌--आत्मतुष्ट, किसी पूजा के लिए प्रतीक्षा किये बिना; अपि-- भी; भक्तित:--अत्यन्त भक्तिपूर्वक ।

    महाभिषेक के विधि-विधानों के अनुसार महाराज अम्बरीष ने सारी सामग्री से भगवान्‌ कृष्ण केअर्चाविग्रह को स्नान कराया।

    फिर उन्हें सुन्दर बस्त्रों, आभूषणों, सुगन्धित फूलों की मालाओं तथापूजा की अन्य सामग्री से अलंकृत किया।

    उन्होंने ध्यानपूर्वक तथा भक्तिपूर्वक कृष्ण की तथाभौतिक इच्छाओं से मुक्त परम भाग्यशाली ब्राह्मणों की पूजा की।

    गवां रुक्मविषाणीनां रूप्याड्य्रीणां सुवाससाम्‌ ।

    'पयःशीलवयोरूपवत्सोपस्करसम्पदाम्‌ ॥

    ३३॥

    प्राहिणोत्साधुविप्रेभ्यो गृहेषु न्यर्बुदानि घटू ।

    भोजयित्वा द्विजानग्रे स्वाद्वन्नं गुणवत्तमम्‌ ॥

    ३४॥

    लब्धकामैरनुज्ञातः पारणायोपचक्रमे ।

    तस्य तह्ा॑तिथि: साक्षादुर्वासा भगवानभूत्‌ ॥

    ३५॥

    गवाम्‌--गाएँ; रुक्म-विषाणीनाम्‌--सोने के पत्तर से मढ़े सींगों वाली; रूप्य-अड्ख्नीणाम्‌--चाँदी के पत्तर से मढ़े खुरों वाली; सु-वाससाम्‌--वस्त्रों से सुसज्जित; पय:-शील--खूब दूध देने वाली; वयः--तरूण; रूप--सुन्दर; बत्स-उपस्कर-सम्पदाम्‌--सुन्दरबछड़ों सहित; प्राहिणोत्‌--दान में दिया; साधु-विप्रेभ्य:--ब्राह्मणों तथा साधु पुरुषों को; गृहेषु--उनके घर में ( पहुँचे हुए );न्यर्बुदानि--दस करोड़; षट्‌ू--छः गुणा; भोजयित्वा--उन्हें खिलाकर; द्विजान्‌ अग्रे--पहले ब्राह्मणों को; स्वादु अन्नम्‌ू-- अत्यन्तस्वादिष्ट खाद्यपदार्थ; गुणवत्‌-तमम्‌--अत्यन्त स्वादिष्ट; लब्ध-कामै:--परम सम्तुष्ट ब्राह्मणों के द्वारा; अनुज्ञात:--उनकी अनुमति से;'पारणाय--द्वादशी का ब्रत पूरा करने के लिए; उपचक्रमे-- अन्तिम उत्सव मनाने जा रहे; तस्थय--उसका ( अम्बरीष ); तहिं--तुरन्त;अतिथि:--अनिच्छित मेहमान; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; दुर्वासा:--योगी दुर्वासा; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; अभूत्‌--अतिथि रूप मेंवहाँ प्रकट हुए।

    तत्पश्चात्‌ महाराज अम्बरीष ने अपने घर में आये सारे अतिथियों को, विशेषकर ब्राह्मणों कोसंतुष्ट किया।

    उन्होंने दान में साठ करोड़ गौवें दीं जिनके सींग सोने के पत्तर से और खुर चाँदी केपत्तर से मढ़े थे।

    सारी गौवें वस्त्रों से खूब सजाई गई थीं और उनके थन दूध से भरे थे।

    वे सुशील,तरुण तथा सुन्दर थीं और अपने-अपने बछड़ों के साथ थीं।

    इन गौवों का दान देने के बाद राजा नेसर्वप्रथम सारे ब्राह्मणों को पेटभर भोजन कराया और जब वे पूरी तरह संतुष्ट हो गये तो वे उनकीआज्ञा से एकादशी ब्रत तोड़कर उस का पारण करने वाले थे।

    किन्तु ठीक उसी समय महान्‌ एवंशक्तिशाली दुर्वासा मुनि अनामंत्रित अतिथि के रूप में वहाँ पर प्रकट हुए।

    तमानर्चातिथि भूपः प्रत्युत्थानासनाईणै: ।

    ययाचे भ्यवहाराय पादमूलमुपागतः ॥

    ३६॥

    तम्‌--उसको ( दुर्वासा को ); आनर्च--पूजा की; अतिथिम्‌--यद्यपि वे अनाहूत आये थे; भूप:ः--राजा ( अम्बरीष ) ने; प्रत्युत्थान--खड़े हो करके; आसन--आसन देकर; अर्हणैः--पूजा की सामग्री से; ययाचे--प्रार्थना की; अभ्यवहाराय-- भोजन करने के लिए;पाद-मूलम्‌--पाँवों पर; उपागत:--गिर कर |

    दुर्वासा मुनि का स्वागत करने के लिए राजा अम्बरीष ने खड़े होकर उन्हें आसन तथा पूजा कीसामग्री प्रदान की।

    तब उनके पाँवों के पास बैठकर राजा ने मुनि से भोजन करने के लिए प्रार्थनाकी।

    प्रतिनन्द्य स तां याच्ञां कर्तुमावश्यकं गतः ।

    निममज्न बृहद्धय्यायन्कालिन्दीसलिले शुभे ॥

    ३७॥

    प्रतिनन्द्य--प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करके; सः--दुर्वासा मुनि ने; तामू--उस; याच्ञाम्‌--प्रार्थना को; कर्तुमू-करने के लिए;आवश्यकम्‌--आवश्यक धार्मिक अनुष्ठान; गत:--चला गया; निममजज--जल में डुबकी लगाई; बृहत्‌-परब्रह्म; ध्यायन्‌--ध्यानकरते हुए; कालिन्दी--यमुना के; सलिले--जल में; शुभे--अत्यन्त शुभ

    दुर्वासा मुनि ने प्रसन्नतापूर्वक महाराज अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली, किन्तु आवश्यकअनुष्ठान करने के लिए वे यमुना नदी में गये।

    वहाँ उन्होंने पवित्र यमुना नदी के जल में डुबकी लगाईऔर निराकार ब्रह्म का ध्यान किया।

    मुहूर्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति ।

    चिन्तयामास धर्मज्ञो द्विजैस्तद्धर्मसड्डटे ॥

    ३८॥

    मुहूर्त-अर्ध-अवशिष्टायाम्‌-- आधे मुहूर्त के शेष रहने पर; द्वादश्याम्‌-द्वादशी के दिन; पारणम्‌--ब्रत तोड़ना; प्रति--मनाने के लिए;चिन्तयाम्‌ आस--सोचने लगा; धर्म-ज्ञ:--धार्मिक नियमों का ज्ञाता; द्विजैः--ब्राह्मणों के द्वारा; ततू-धर्म--उस धर्म से सम्बन्धित;सड्डूटे--विकट परिस्थिति में तब तक ब्रत तोड़ने के लिए द्वादशी का केवल आधा मुहूर्त शेष था।

    फलस्वरूप ब्रत को तुरन्ततोड़ा जाना अनिवार्य था।

    ऐसी विकट परिस्थिति में राजा ने विद्वान ब्राह्मणों से परामर्श किया।

    ब्राह्मणातिक्रमे दोषो द्वादश्यां यदपारणे ।

    यत्कृत्वा साधु मे भूयादधर्मो वा न मां स्पृशेत्‌ ॥

    ३९॥

    अम्भसा केवलेनाथ करिष्ये ब्रतपारणम्‌ ।

    आहुरब्भक्षणं विप्रा ह्शितं नाशितं च तत्‌ ॥

    ४०॥

    ब्राह्मण-अतिक्रमे--ब्राह्मणों के प्रति सत्कार के नियमों का उल्लंघन करने में; दोष:--दोष है; द्वादश्याम्‌--द्वादशी के दिन; यत्‌--क्योंकि; अपारणे--समय से ब्रत न तोड़ने पर; यत्‌ कृत्वा--जिसे करने पर; साधु--जो शुभ है; मे--मेरे लिए; भूयात्‌--ऐसा हो;अधर्म:--जो धर्म से रहित है; वा--अथवा; न--नहीं; माम्‌ू-- मुझको; स्पृशेत्‌--स्पर्श करे; अम्भसा--जल से; केवलेन--केवल;अथ--अतएव; करिष्ये--मैं करूँगा; ब्रत-पारणम्‌--ब्रत की पूर्ति; आहुः:--कहा; अप्‌-भक्षणम्‌--पीने का पानी; विप्रा:--हेब्राह्मणो; हि--निस्सन्देह; अशितम्‌--खाना; न अशितम्‌ च--तथा न खाना; तत्‌--ऐसा कार्य |

    राजा ने कहा : 'ब्राह्मणों के प्रति सत्कार के नियमों का उल्लंघन करना निश्चय ही, महान्‌अपराध है।

    दूसरी ओर यदि कोई द्वादशी की तिथि में अपने व्रत को नहीं तोड़ता तो व्रत के पालन मेंदोष आता है।

    अतएव हे ब्राह्मणो, यदि आप लोग यह सोचें कि यह शुभ है तथा अधर्मनहीं है तो मेंजल पीकर ब्रत तोड़ दूँ।

    इस प्रकार ब्राह्मणों से परामर्श करने के बाद राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि ब्राह्मणों के मतानुसार जल का पीना भोजन करना स्वीकार किया जा सकता है और नहीं भी।

    इत्यप: प्राश्य राजर्षिश्विन्तयन्मनसाच्युतम्‌ ।

    प्रत्यचष्ट कुरु श्रेष्ठ द्विजागमनमेव सः ॥

    ४१॥

    इति--इस प्रकार; अप: --जल; प्राश्य--पीकर; राजर्षि:--राजर्षि अम्बरीष; चिन्तयन्‌-- ध्यान करते हुए; मनसा--मन से;अच्युतम्‌-- भगवान्‌ को; प्रत्यचष्ट--प्रतीक्षा करने लगा; कुरु-श्रेष्ठ--हे कुरु राजाओं में श्रेष्ठ; द्विजन-आगमनम्‌--महान्‌ योगी ब्राह्मणदुर्वासा मुनि के आने की; एव--निस्सन्देह; सः--वह राजा |

    हे कुरुश्रेष्ठ, थोड़ा सा जल पीकर राजा अम्बरीष ने अपने मन में भगवान्‌ का ध्यान किया औरफिर वे महान्‌ योगी दुर्वासा मुनि के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे।

    दुर्वासा यमुनाकूलात्कृतावश्यक आगत: ।

    राज्ञाभिनन्दितस्तस्य बुबुधे चेष्टितं धिया ॥

    ४२॥

    दुर्वासा:--महर्षि; यमुना-कूलात्‌--यमुना नदी के तट से; कृत--करके; आवश्यक: --आवश्यक अनुष्ठान; आगत:--वापस आया;राज्ञा-राजा के द्वारा; अभिनन्दित:ः-- भली भाँति सत्कार किया जाकर; तस्य--उसका; बुबुधे--समझ सका; चेष्टितम्‌--चेष्टा, कृत्य;धिया--बुद्धि से |

    दोपहर के समय सम्पन्न होने वाले अनुष्ठानों को संपन्न कर लेने के बाद दुर्वासा मुनि यमुना केतट से वापस आये।

    राजा ने अच्छी प्रकार से उनका स्वागत किया, किन्तु दुर्वासा मुनि ने अपने योगबल से जान लिया कि राजा ने उनकी अनुमति के बिना जल पी लिया है।

    मन्युना प्रचलद्गात्रो भ्रुकुटीकुटिलानन: ।

    बुभुक्षितश्व सुतरां कृताझ्ललिमभाषत ॥

    ४३॥

    मन्युना--क्रोध से उद्दिग्न मन वाला; प्रचलत्‌-गात्र:--काँपते शरीर से; भ्रु-कुटी--भौहों से; कुटिल--वक्र; आनन: --मुख; बुभुक्षितःच--तथा भूखा; सुतराम्‌--अत्यधिक ; कृत-अद्लिमू--हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष महाराज से; अभाषत--कहा |

    भूखे, काँपते शरीर, टेढ़े मुँह तथा क्रोध से टेढ़ी भौहें किये दुर्वासा मुनि ने अपने समक्ष हाथ जोड़ेखड़े राजा अम्बरीष से क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा।

    अहो अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत ।

    धर्मव्यतिक्रमं विष्णोरभक्तस्येशमानिन: ॥

    ४४॥

    अहो--ओह; अस्य--इस पुरुष का; नृ-शंसस्य--इतने निर्दय का; श्रिया उन्मत्तस्य--अपने ऐश्वर्य के कारण गर्वित; पश्यत--देखोतो; धर्म-व्यतिक्रमम्‌-धार्मिक सिद्धान्तों का उल्लंघन; विष्णो; अभक्तस्थ--जो विष्णु का भक्त नहीं है उसका; ईश-मानिन:--अपनेआपको ईश्वर मानने वाला।

    ओह! जरा इस निर्दय व्यक्ति का आचरण तो देखो, यह भगवान्‌ विष्णु का भक्त नहीं है।

    यहअपने ऐश्वर्य एवं पद के गर्व के कारण अपने आपको ईश्वर समझ रहा है।

    देखो न, इसने धर्म केनियमों का उल्लंघन किया है।

    यो मामतिथिमायातमातिथ्येन निमन्त्रय च ।

    अदचत्त्वा भुक्तवांस्तस्य सह्यस्ते दर्शये फलम्‌ ॥

    ४५॥

    यः--जो व्यक्ति; मामू--मुझ; अतिथिम्‌-- अतिथि को; आयातम्‌--आया हुआ; आतिथ्येन-- अतिथि के रूप में सत्कार द्वारा;निमन्य--निमंत्रण देकर; च--भी; अदत्त्वा--( भोजन ) दिये बिना; भुक्तवान्‌-- स्वयं खा लिया; तस्य--उसका; सद्य:--तुरन्त; ते--तुम्हारा; दर्शये--दिखलाऊँगा; फलम्‌--परिणाम, फल

    महाराज अम्बरीष, तुमने मुझे अतिथि के रूप में भोजन के लिए बुलाया है लेकिन तुमने मुझे नखिलाकर स्वयं पहले खा लिया है।

    तुम्हारे इस दुर्व्यवहार के कारण मैं तुमको इसका मजाचखाऊँगा।

    एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोषप्रदीपित: ।

    तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम्‌ ॥

    ४६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; ब्रुवाण: --बोलकर ( दुर्वासा मुनि ); उत्कृत्य--उखाड़कर; जटाम्‌--बालों के समूह को; रोष-प्रदीपित:ः --क्रो ध केमारे लाल होकर; तया--सिर से उखाड़ी अपनी जटा से; सः--दुर्वासा मुनि ने; निर्ममे--उत्पन्न कर दिया; तस्मै--महाराज अम्बरीष कोदण्ड देने के लिए; कृत्यामू--कृत्या; काल-अनल-उपमाम्‌--प्रलयाग्नि के समान प्रकट होकर।

    जब दुर्वासा मुनि ने ऐसा कहा तो क्रोध से उनका मुख लाल पड़ गया।

    उन्होंने अपने सिर कीजटा से एक बाल उखाड़कर महाराज अम्बरीष को दण्ड देने के लिए एक कृत्या उत्पन्न कर दी जोप्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित हो रही थी।

    तामापतन्तीं ज्वलतीमसिहस्तां पदा भुवम्‌ ।

    वेपयन्तीं समुद्री क्ष्य न चचाल पदान्नूप: ॥

    ४७॥

    ताम्‌ू--उसको; आपतन्तीम्‌--उस पर आक्रमण करने के लिए जो आगे बढ़ती हुई; ज्वलतीम्‌--अग्नि के समान प्रज्वलित; असि-हस्ताम्‌--हाथ में त्रिशूल लिए हुए; पदा--अपने पगों से; भुवम्‌--पृथ्वी को; वेपयन्तीम्‌--कंपाती हुईं; समुद्रीक्ष्य--उसे ठीक सेदेखकर; न--नहीं; चचाल--हिला या हटा; पदात्‌-- अपने स्थान से; नृप:--राजा |

    वह देदीप्यमान कृत्या अपने हाथ में त्रिशूल लेकर तथा अपने पदचाप से धरती को कंपाती हुईमहाराज अम्बरीष के सामने आई।

    किन्तु उसे देखकर राजा तनिक भी विचलित नहीं हुआ और अपनेस्थान से रंचभर भी नहीं हटा।

    प्राग्दिष्टे भृत्यरक्षायां पुरुषेण महात्मना ।

    ददाह कृत्यां तां चक्र क्रुद्धाहिमिव पावक: ॥

    ४८ ॥

    प्राक्‌ दिष्टम्‌--पूर्व आयोजित; भृत्य-रक्षायाम्‌--अपने दासों की रक्षा करने के लिए; पुरुषेण--परम पुरुष द्वारा; महा-आत्मना--परमात्मा द्वारा; ददाह--जलाकर राख कर दिया; कृत्याम्‌ू--सूजित कृत्या को; तामू--उस; चक्रम्‌--चक्र; क्रुद्ध-क्रुद्ध: अहिम्‌ू--सर्प को; इब--सहृश; पावक:-- अग्नि

    जिस प्रकार दावाग्नि एक क्रुद्ध सर्प को तुरन्त जला देती है उसी प्रकार पहले से आदिष्ट भगवान्‌के सुदर्शन चक्र ने भगवदभक्त की रक्षा करने के लिए उस सृजित कृत्या को जलाकर क्षार करदिया।

    तदभिद्रवदुद्वी क्ष्य स्वप्रयासं च निष्फलम्‌ ।

    दुर्वासा दुद्रुवे भीतो दिश्लु प्राणपरीप्सया ॥

    ४९॥

    तत्‌--उस चक्र को; अभिद्रवत्‌--अपनी ओर आते; उद्दीक्ष्य--देखकर; स्व-प्रयासम्‌--अपने निजी प्रयास को; च--तथा;निष्फलमू--व्यर्थ हुआ; दुर्वासा:--दुर्वासा मुनि; दुद्रुंबे-- भगने लगा; भीत:-- भयभीत हो गए; दिक्षु--हर दिशा में; प्राण-परीप्सया--अपने जीवन की रक्षा करने की इच्छा से |

    जब दुर्वासा मुनि ने देखा कि उनका निजी प्रयास विफल हो गया है और सुदर्शन चक्र उनकीओर बढ़ रहा है तो वे अत्यधिक भयभीत हो उठे और अपनी जान बचाने के लिए सारी दिशाओं मेंदौने लगे।

    तमन्वधावद्धगवद्रथाडुंदावाग्निरुद्धृतशिखो यथाहिम्‌ ।

    तथानुषक्तं मुनिरीक्षमाणोगुहां विविश्षु: प्रससार मेरो: ॥

    ५०॥

    तमू--दुर्वासा का; अन्वधावत्‌--पीछा करने लगा; भगवत्‌-रथ-अड्भम्‌-- भगवान्‌ के रथ के पहिए से निकला चक्र; दाव-अग्नि:--जंगल की अग्नि के समान; उद्धृूत--ऊपर उठती; शिख:--लपटें; यथा अहिम्‌--जिस तरह साँप का पीछा करती हैं; तथा--उसीप्रकार; अनुषक्तम्‌--मानो दुर्वासा मुनि की पीठ को छूता हुआ; मुनि:--मुनि; ईक्षमाण: --इस तरह देखता; गुहाम्‌-गुफा में;विविक्षु:--प्रवेश करना चाहा; प्रससार--तेजी से आगे बढ़ने लगा; मेरो:ः--मेरु पर्वत की |

    जिस प्रकार दवाग्नि की लपटें साँप का पीछा करती हैं उसी तरह भगवान्‌ का चक्र दुर्वासा मुनिका पीछा करने लगा।

    दुर्वासा मुनि ने देखा कि यह चक्र उनकी पीठ को छूने वाला है अतएव वे तेजीसे दौकर सुमेरु पर्वत की गुफा में घुस जाना चाह रहे थे।

    दिशो नभ: क्ष्मां विवरान्समुद्रान्‌लोकान्सपालांस्ब्रिदिवं गत: सः ।

    यतो यतो धावति तत्र तत्रसुदर्शन दुष्प्रस॒ह॑ दरदर्श ॥

    ५१॥

    दिशः--सारी दिशाएँ; नभः--आकाश में; क्ष्माम्‌-पृथ्वी पर; विवरान्‌ू--छेदों में; समुद्रान्‌--समुद्रों के भीतर; लोकान्‌ू--सारे स्थानोंमें; स-पालानू--तथा उनके शासकों समेत; त्रिदिवम्‌--स्वर्गलोकों में; गत:--गया हुआ; सः--वह दुर्वासा मुनि; यतः यत:--जहाँ-जहाँ; धावति--गया; तत्र तत्र--वहीं-वहीं; सुदर्शनम्‌--भगवान्‌ का चक्र; दुष्प्रसहम्‌--अत्यन्त भयावह; ददर्श--दुर्वासा मुनि नेदेखा।

    अपनी रक्षा करने के लिए दुर्वासा मुनि सर्वत्र भागते रहे--वे आकाश, पृथ्वीतल, गुफाओं,समुद्र, तीनों लोकों के शासकों के विभिन्न लोकों तथा स्वर्गलोक में भी गये, किन्तु जहाँ-जहाँ गयेवहीं उन्होंने सुदर्शन चक्र की असह्ा अग्नि को उनका पीछा करते देखा।

    अलब्धनाथ: स सदा कुतश्चित्‌सन्त्रस्तचित्तोरणमेषमाण: ।

    देवं विरिज्ञं समगाद्विधात-स्त्राह्मात्मयोनेडजिततेजसो माम्‌ ॥

    ५२॥

    अलब्ध-नाथ:--रक्षक की शरण पाये बिना; सः--दुर्वासा मुनि; सदा--सदैव; कुतश्चित्‌--कहीं; सन्त्रस्त-चित्त:-- भयभीत मन से;अरणम्‌--शरणदाता को; एषमाण:--ढूँढते हुए; देवम्‌--प्रमुख देवता; विरिज्ञम्‌--ब्रह्माजी के पास; समगात्‌--पहुँचा; विधात:--हेप्रभु; त्राहि--मेरी रक्षा कीजिये; आत्म-योने--हे ब्रह्मजी; अजित-तेजस:ः --अजित अर्थात्‌ भगवान्‌ द्वारा छोड़ी गयी अग्नि से; माम्‌--मुझको ।

    दुर्वासा मुनि भयभीत मन से इधर उधर शरण खोजते रहे, किन्तु जब उन्हें कोई शरण न मिलसकी तो अन्ततः वे ब्रह्माजी के पास पहुँचे और कहा-हे प्रभु, हे ब्रह्मजी, कृपा करके भगवान्‌ द्वाराश़ भेजे गये इस ज्वलित सुदर्शन चक्र से मेरी रक्षा कीजिये।

    श्रीब्रह्मोवाचस्थान मदीयं सहविश्वमेतत्‌क्रीडावसाने द्विपरार्धसंज्ञे ।

    भ्रूभड्रमात्रेण हि सन्दिधक्षो:कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति ॥

    ५३॥

    अहं भवो दक्षभृगुप्रधाना:प्रजेशभूतेशसुरेशमुख्या: ।

    सर्वे वयं यन्नियमं प्रपन्नामूर्ध्यार्पितं लोकहितं वबहाम: ॥

    ५४॥

    श्री-ब्रह्मा उवाच--ब्रह्माजी ने कहा; स्थानम्‌--वह स्थान जहाँ मैं हूँ; मदीयम्‌--मेरा आवास, ब्रहालोक; सह--सहित; विश्वम्‌-साराब्रह्माण्ड; एतत्‌--यह; क्रीडा-अवसाने-- भगवान्‌ की लीला-अवधि के अन्त में; द्वि-परार्ध-संज्ञे--द्वि परार्थ के अन्त के नाम से जानाजाने वाला समय; भ्रू-भड़-मात्रेण--भौहों के टेढ़ा होने मात्र से; हि--निस्सन्देह; सन्दिधक्षो: -- भगवान्‌ का, जब वे सारे ब्रह्माण्ड कोभस्म करना चाहते हैं; काल-आत्मन:--विनाश रूपी; यस्य--जिसका; तिरोभविष्यति--लुप्त हो जायेगा; अहम्‌--मैं; भव: --शिवजी; दक्ष--प्रजापति दक्ष; भूगु-- भूगुमुनि; प्रधाना: --तथा अन्य; प्रजा-ईश--प्रजाओं के नियंत्रक; भूत-ईश--जीवों के नियन्ता;सुर-ईश--देवताओं के नियन्ता; मुख्या:--उनके नेतृत्व में; सर्वे--सभी; वयम्‌--हम भी; यत्‌-नियमम्‌--जिसके नियम; प्रपन्ना:--शरणागत; मूर्ध्या अर्पितमू--हम अपने-अपने सिर झुकाकर; लोक-हितम्‌--जीवों के कल्याण हेतु; वहाम:--जीवों के ऊपर शासनकरने वाले आदेशों का पालन करते हैं।

    ब्रह्माजी ने कहा : द्वि-परार्ध के अन्त में, जब भगवान्‌ की लीलाएँ समाप्त हो जाती हैं तो भगवान्‌विष्णु अपनी एक भृकुटि के टेढ़ा होने से सारे ब्रह्माण्ड का, जिसमें हमारे निवास स्थान भीसम्मिलित हैं, विनाश कर देते हैं।

    मैं तथा शिवजी जैसे पुरुष तथा दक्ष, भूृगु इत्यादि प्रधान ऋषिमुनिएवं जीवों के शासक, मानव समाज के शासक एवं देवताओं के शासक, हम सभी उन भगवान्‌विष्णु को अपने अपने सिर झुकाकर समस्त जीवों के कल्याण हेतु उनके आदेशों का पालन करनेके लिए उनकी शरण में जाते हैं।

    प्रत्याख्यातो विरिज्ञेन विष्णुच्क्रोपतापित: ।

    दुर्वासा: शरणं यात: शर्व कैलासवासिनम्‌ ॥

    ५५॥

    प्रत्याख्यात:--मना किये जाने पर; विरिज्लेन--ब्रह्माजी द्वारा; विष्णु-चक्र-उपतापित: -- भगवान्‌ विष्णु के चक्र की ज्वलित अग्नि सेझुलस कर; दुर्वासा:--दुर्वासा मुनि; शरणम्‌--शरण में; यात:--गया; शर्वम्‌--शिवजी की; कैलास-वासिनमू--कैलासवासी |

    जब सुदर्शन चक्र की ज्वलित अग्नि से संतप्त दुर्वासा को ब्रह्माजी ने इस प्रकार मना कर दियातो उन्होंने कैलास लोक में सदैव निवास करने वाले शिवजी की शरण लेने का प्रयास किया।

    श्रीशड्डर उबाचबयं न तात प्रभवाम भूम्नियस्मिन्परेडन्येडउप्पजजीवकोशा: ।

    भवन्ति काले न भवन्ति हीहशाःसहस्त्रशो यत्र वयं भ्रमाम: ॥

    ५६॥

    श्री-शद्भूरः उबाच--शंकरजी ने कहा; वयम्‌--हम; न--नहीं; तात-हे पुत्र; प्रभवाम:--पर्याप्त सक्षम; भूम्नि-- भगवान्‌ को;यस्मिनू--जिसमें; परे--अध्यात्म में; अन्ये--अन्य लोग; अपि-- भी; अज--ब्रह्म जी; जीव--सारे जीव; कोशा:--ब्रह्माण्ड;भवन्ति--हो सकते हैं; काले--कालक्रम से; न--नहीं; भवन्ति--हो सकते हैं; हि--निस्सन्देह; ईहशा:-- इसकी तरह; सहस्त्रश: --कई हजार तथा लाख; यत्र--जिसमें; वयम्‌--हम सभी; भ्रमाम:--घूम रहे हैं।

    शिवजी ने कहा : हे पुत्र, मैं, ब्रह्माजी तथा अन्य देवता जो अपनी-अपनी महानता की भ्रान्तधारणा के कारण इस ब्रह्माण्ड के भीतर चक्कर लगाते रहते हैं, भगवान्‌ से स्पर्धा करने की क्षमतानहीं रखते क्‍योंकि भगवान्‌ के निर्देशन मात्र से असंख्य ब्रह्माण्डों एवं उनके निवासियों का जन्म औरसंहार होता रहता है।

    अह सनत्कुमारश्च नारदो भगवानज: ।

    कपिलोपान्तरतमो देवलो धर्म आसुरि: ॥

    ५७॥

    मरीचिप्रमुखाश्चान्ये सिद्धेशा: पारदर्शना: ।

    विदाम न वयं सर्वे यन्मायां माययावृता: ॥

    ५८ ॥

    तस्य विश्रेश्वरस्येदं शस्त्र दुर्विषहं हि नः ।

    तमेवं शरणं याहि हरिस्ते शं विधास्यति ॥

    ५९॥

    अहम्‌-मैं; सनत्‌-कुमार: च--तथा चारों कुमार ( सनक, सनातन, सनत्कुमार तथा सनन्द ); नारद:ः--नारद मुनि; भगवान्‌ अज:--ब्रह्माण्ड के श्रेष्ठतम प्राणी, ब्रह्माजी की; कपिल: --देवहूति के पुत्र; अपान्तरतम: --व्यासदेव; देवल:--देवलऋषि; धर्म:--यमराज;आसुरि:--महान्‌ सन्त आसुरि; मरीचि--महान्‌ सन्त मरीचि; प्रमुखा:--इत्यादि; च-- भी; अन्ये-- अन्य; सिद्ध-ईशा: --सभी अपने-अपने ज्ञान में पूर्ण; पार-दर्शना:--जिन्होंने सारे ज्ञान का अन्त देखा है; विदाम:--समझ सकते हैं; न--नहीं; वयम्‌--हम सभी;सर्वे--पूर्णत:; यत्‌-मायाम्‌-- जिसकी माया को; मायया--माया द्वारा; आवृता:--ढका हुआ; तस्य--उसका; विश्व-ई श्वरस्थ --ब्रह्माण्ड के स्वामी का; इदम्‌--यह; शस्त्रमू--हथियार ( चक्र ); दुर्विषहम--असहा; हि--निस्सन्देह; नः--हमारा; तमू--उसकी;एवम्‌--इसलिए; शरणम्‌ याहि--शरण में जाओ; हरि:ः-- भगवान्‌; ते--तुम्हारा; शम्‌--कल्याण; विधास्यति-- अवश्यमेव करेंगे |

    मैं (शिवजी ), सनत्कुमार, नारद, परमादरणीय ब्रह्माजी, कपिल ( देवहूति पुत्र ), अपान्तरतम( व्यासदेवजी ), देवल, यमराज, आसुरि, मरीचि इत्यादि अनेक सन्तपुरुष एवं सिद्ध्िप्राप्त अन्यअनेक लोग भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जानने वाले हैं।

    फिर भी भगवान्‌ की माया से प्रच्छन्न होनेके कारण हम यह नहीं समझ पाते कि यह माया कितनी विस्तीर्ण है।

    तुम उन्हीं भगवान्‌ के पास राहतप्राप्त करने के लिए जाओ क्‍योंकि यह सुदर्शन चक्र हम लोगों के लिए भी दुःसह है।

    तुम भगवान्‌विष्णु के पास जाओ।

    वे अवश्य ही दयाद्र होकर तुम्हें सौभाग्य प्रदान करेंगे।

    ततो निराशो दुर्वासा: पदं भगवतो ययौ ।

    वैकुण्ठाख्यं यदध्यास्ते श्रीनिवास: भ्रिया सह ॥

    ६०॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; निराश:--निराश हुआ; दुर्वासा:--दुर्वासा मुनि; पदम्‌ू--स्थान; भगवतः -- भगवान्‌ विष्णु के; ययौ--गया;वैकुण्ठ-आख्यम्‌--वैकुण्ठ नामक; यत्‌--जहाँ पर; अध्यास्ते--नित्य वास करते हैं; श्रीनिवास:-- भगवान्‌ विष्णु; थ्रिया--लक्ष्मी;सह--सहित।

    तत्पश्चात्‌ शिवजी के द्वारा भी शरण न दिये जाने से निराश होकर दुर्वासा मुनि वैकुण्ठधाम गयेजहाँ भगवान्‌ नारायण अपनी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी के साथ निवास करते हैं।

    सन्दह्ममानो जितशस्त्रवह्निनातत्पादमूले पतितः सवेपथु: ।

    आहाच्युतानन्त सदीप्सित प्रभो कृतागसं मावहि विश्वभावन ॥

    ६१॥

    सन्दह्ममान: --दग्ध होकर; अजित-शस्त्र-वह्िना-- भगवान्‌ के हथियार की ज्वलित अग्नि से; तत्‌-पाद-मूले--उनके चरणकमलों पर;'पतितः--गिरते हुए; स-वेपथु:--काँपते शरीर से; आह--कहा; अच्युत--हे अच्युत भगवान्‌; अनन्त--हे असीम पराक्रम वाले; सतू-ईप्सित--सन्तों द्वारा वांछित भगवान्‌; प्रभो--हे परमेश्वर; कृत-आगसम्‌--महानतम अपराधी; मा--मुझको; अवहि--शरण दो;विश्व-भावन--समस्त विश्व के हितैषी।

    सुदर्शन चक्र की गर्मी से झुलसे हुए महान्‌ योगी दुर्वासा मुनि नारायण के चरणकमलों पर गिरपड़े।

    काँपते शरीर से वे इस तरह बोले, 'हे अच्युत, हे अनन्त, हे समस्त ब्रह्माण्ड के रक्षक, आपसभी भक्तों के अभीष्ट हैं।

    हे प्रभु, मैं महान्‌ अपराधी हूँ।

    कृपया मुझे संरक्षण प्रदान करें।

    'अजानता ते परमानुभावंकृत॑ मयाघं भवतः प्रियाणाम्‌ ।

    विधेहि तस्यापचितिं विधात-मुच्येत यन्नाम्न्युदिते नारकोपि ॥

    ६२॥

    अजानता--अनजाने; ते--तुम्हारी; परम-अनुभावम्‌--अचिन्त्य शक्ति; कृतम्‌--किया गया है; मया--मेरे द्वारा; अधम्‌--महान्‌अपराध; भवत:--आपके; प्रियाणाम्‌--भक्तों के चरणों पर; विधेहि--अब कृपा करके जो आवश्यक हो करें; तस्य--ऐसे अपराधका; अपचितिम्‌-- प्रतिक्रिया; विधात:ः--हे परम नियन्ता; मुच्येत--उद्धार हो सकता है; यत्‌ू--जिसका; नाम्नि--जब नाम; उदिते--जगाया जाता है; नारकः अपि--नरक जाने योग्य व्यक्ति भी।

    हे प्रभु, हे परम नियन्ता, मैंने आपकी असीम शक्ति समझे बिना आपके परम प्रिय भक्त के प्रतिअपराध किया है।

    कृपया मुझे इस अपराध के फल से बचा लें।

    आप हर काम कर सकते हैं क्योंकियदि कोई व्यक्ति नरक जाने के लायक हो, उसके भी हृदय में अपने पवित्र नाम को जगाकर आपउसका उद्धार कर सकते हैं।

    श्रीभगवानुवाचअहं भक्तपराधीनो हास्वतन्त्र इव द्विज ।

    साधुभिग्रस्तहदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय: ॥

    ६३॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; अहम्‌--मैं; भक्त-पराधीन: --मैं अपने भक्तों के वशीभूत हूँ; हि--निस्सन्देह; अस्वतन्त्र:--स्वतंत्र नहीं हूँ; इब--के समान; द्विज-हे ब्राह्मण; साधुभि:--शुद्ध भक्तों से, जो सारी भौतिक इच्छाओं से मुक्त हैं; ग्रस्त-हदय:--मेरा हृदय नियंत्रण में है; भक्तै:--क्योंकि वे भक्त हैं; भक्त-जन-प्रियः--मैं न केवल अपने भक्त पर आश्रित हूँ लेकिन भक्त के भीभक्त के अश्नित हूँ ( मुझे अपने भक्त का भक्त अत्यन्त प्रिय होता है )

    भगवान्‌ ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ।

    निस्सन्देह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ।

    चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में हीनिवास करता हूँ।

    मुझे मेरे भक्त ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं।

    नाहमात्मानमाशासे मद्धक्तेः साधुभिर्विना ।

    श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन्येषां गतिरहं परा ॥

    ६४॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; आत्मानम्‌-दिव्य आनन्द; आशासे--चाहता हूँ; मत्‌-भक्तै: --मेरे भक्तों के साथ; साधुभि:--साथुपुरुषों केसाथ; विना--उनके बिना; थ्रियम्‌--मेंरे छहो ऐश्वर्य; च-- भी; आत्यन्तिकीम्‌--परम; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; येषामू--जिसका; गति: --लक्ष्य; अहम्‌-मैं; परा--परम, चरम ।

    हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं उन साधुपुरुषों के बिना अपना दिव्य आनन्द तथा अपने परम ऐश्वर्यों का भोगनहीं करना चाहता जिनके लिए मैं ही एकमात्र गन्तव्य हूँ।

    ये दारागारपुत्राप्तप्राणान्वित्तमिमं परम्‌ ।

    हित्वा मां शरणं याता: कथ॑ तांस्त्यक्तुमुत्सहे ॥

    ६५॥

    ये--जो भक्त; दार--पत्ती; अगार--घर; पुत्र--लड़के, बच्चे; आप्त--सम्बन्धी समाज; प्राणान्‌ू--यहाँ तक कि प्राण भी; वित्तम्‌--सम्पत्ति; इमम्‌--ये सब; परम्‌ू--स्वर्गलोक को जाना या ब्रह्म से एकाकार होना; हित्वा--त्यागकर ( ये सब आकांक्षाएँ और सम्पत्ति );माम्‌--मुझको ( मेरी ); शरणम्‌--शरण में; याता:--ग्रहण करके; कथम्‌--कैसे; तान्‌ू--ऐसे पुरुषों को; त्यक्तुमू--त्यागने के लिए;उत्सहे--मैं किस तरह उत्साहित हो सकता हूँ ( जो सम्भव नहीं है )॥

    चूँकि शुद्ध भक्तमण इस जीवन में या अगले जीवन में किसी भौतिक उन्नति की इच्छा से रहितहोकर अपने घर, पत्नियों, बच्चों, सम्बन्धियों, धन और यहाँ तक कि अपने जीवन का भी परित्याग,मात्र मेरी सेवा करने के लिए, करते हैं तो मैं ऐसे भक्तों को कभी भी किस तरह छोड़ सकता हूँ ?

    मयि निर्बद्धहृदया: साधवः समदर्शना: ।

    वशे कुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रिय: सत्पतिं यथा ॥

    ६६॥

    मयि--मुझको; निर्बद्ध-हदया:--हृदय में हढ़ता से संयुक्त; साधव: --शुद्ध भक्तगण; सम-दर्शना:--समदर्शी; वशे--नियंत्रण में;कुर्वन्ति--कर लेते हैं; मामू--मुझको; भक्त्या--भक्ति से; सत्‌-स्त्रियः--सती स्त्रियाँ; सत्‌ू-पतिमू--अपने सदाचारी पति को; यथा--जिस तरह।

    जिस तरह सती स्त्रियाँ अपने भद्र पतियों को अपनी सेवा से अपने वश में कर लेती हैं उसी प्रकारसे समदर्शी एवं हृदय से मुझमें अनुरक्त शुद्ध भक्तगण मुझको पूरी तरह अपने वश में कर लेते हैं।

    मत्सेवया प्रतीतं ते सालोक्यादिचतुष्टयम्‌ ।

    नेच्छन्ति सेवया पूर्णा: कुतोउन्यत्कालविप्लुतम्‌ ॥

    ६७॥

    मत्‌ू-सेवया--मेरी प्रेमाभक्ति में पूर्णरूपेण संलग्न रहने से; प्रतीतम्‌--स्वतः प्राप्त; ते--ऐसे भक्त पूर्णतया तुष्ट होते हैं; सालोक्य-आदि-चतुष्टयम्‌--चार प्रकार के मोक्ष ( सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य तथा साष्टि, सायुज्य का तो कहना ही कया ); न--नहीं;इच्छन्ति--इच्छा करते हैं; सेवया--केवल भक्ति से; पूर्णा:--पूर्ण; कुतः--कोई प्रश्न ही नहीं है; अन्यत्‌-- अन्य वस्तुएँ; काल-विप्लुतम्‌--कालक्रम से विनष्ट होने वाली |

    मेरे जो भक्त मेरी प्रेमाभक्ति में लगे रहकर सदैव सन्तुष्ट रहते हैं वे मोक्ष के चार सिद्धान्तों(सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य तथा सा्टि ) में भी तनिक रुचि नहीं रखते यद्यपि उनकी सेवा से ये उन्हेंस्वतः प्राप्त हो जाते हैं।

    तो फिर स्वर्गलोक जाने के नश्वर सुख के विषय में क्या कहा जाए?

    साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्‌ ।

    मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥

    ६८ ॥

    साधव:--शुद्ध भक्तगण; हृदयम्‌--हृदय में; महाम्‌--मेरे; साधूनाम्‌--शुद्ध भक्तों के भी; हृदयम्‌--हृदयों में; तु--निस्सन्देह; अहम्‌--मैं हूँ; मत्‌-अन्यत्‌--मेंरे अतिरिक्त अन्य कुछ; ते--वे; न--नहीं; जानन्ति--जानते हैं; न--नहीं; अहम्‌--मैं; तेभ्य:--उनकी अपेक्षा;मनाक्‌ अपि--एक अंश भी

    शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ।

    मेरे भक्त मेरेसिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता।

    उपायं कथयिष्यामि तब विप्र श्रृणुष्व तत्‌ ।

    अयं ह्ात्माभिचारस्ते यतस्तं याहि मा चिरम्‌ ।

    साधुषु प्रहितं तेज: प्रहर्तु: कुरुतेईशिवम्‌ ॥

    ६९॥

    उपायम्‌--इस भयावह स्थिति से बचने का उपाय; कथयिष्यामि--तुम्हें बतलाऊँगा; तब--इस संकट से तुम्हारे उद्धार का; विप्र--हेब्राह्मण; श्रृणुष्व--मुझसे सुनो; तत्‌--जो मैं कहूँ; अयम्‌--तुम्हारे द्वारा की गई कार्यवाही; हि--निस्सन्देह; आत्म-अभिचार:--स्वयंसे ईर्ष्या ( तुम्हारा मन ही तुम्हारा शत्रु बन गया है ); ते--तुम्हारे लिए; यतः--जिसके कारण; तम्‌--उसको ( अम्बरीष महाराज को );याहि--तुरन्‍्त जाओ; मा चिरमू--एक क्षण भी देरी न करो; साधुषु-- भक्तों को; प्रहितम्‌--प्रयुक्त; तेज:--शक्ति; प्रहर्तु:--कर्ता का;कुरुते--करता है; अशिवम्‌ू--अमंगल।

    हे ब्राह्मण, अब मैं तुम्हारी रक्षा के लिए उपदेश देता हूँ।

    मुझसे सुनो।

    तुमने महाराज अम्बरीष काअपमान करके आत्म-द्वेष से कार्य किया है।

    अतएवं तुम एक क्षण की भी देरी किये बिना तुरन्तउनके पास जाओ।

    जो व्यक्ति अपनी तथाकथित शक्ति का प्रयोग भक्त पर करता है उसकी वह शक्तिप्रयोक्ता को ही हानि पहुँचाती है।

    इस प्रकार कर्ता ( विषयी ) को हानि पहुँचती है विषय को नहीं।

    तपो विद्या च विप्राणां नि: श्रेयसकरे उभे ।

    ते एव दुर्विनीतस्य कल्पेते कर्तुरन्यथा ॥

    ७०॥

    तपः--तपस्या; विद्या--ज्ञान; च-- भी; विप्राणाम्‌--ब्राह्मणों की; नि: श्रेयस--उन्नति के लिए अत्यन्त शुभ है जो उसका; करे--कारण हैं; उभे--दोनों; ते--ऐसी तपस्या तथा विद्या; एब--निस्सन्देह; दुर्विनीतस्थ--उद्द्धत व्यक्ति का; कल्पेते--हो जाते हैं; कर्तु:ः--कर्ता का; अन्यथा--विपरीत |

    ब्राह्मण के लिए तपस्या तथा विद्या निश्चय ही कल्याणप्रद हैं, किन्तु जब तपस्या तथा विद्या ऐसेव्यक्ति के पास होती हैं जो विनीत नहीं है तो वे अत्यन्त घातक होती हैं।

    ब्रह्मंस्तद्गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम्‌ ।

    क्षमापय महाभागं ततः शान्तिर्भविष्यति ॥

    ७१॥

    ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; तत्‌-- अतएव; गच्छ--जाओ; भद्गरमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; नाभाग-तनयम्‌--महाराज नाभाग के पुत्र;नृपम्‌--राजा ( अम्बरीष ) को; क्षमापय--उसे जाकर शान्त करने का यत्न करो; महा-भागम्‌--महापुरुष, शुद्ध भक्त; ततः--तत्पश्चात्‌; शान्तिः--शान्ति; भविष्यति--हो जायेगी ।

    अतएव हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, तुम तुरन्त महाराज नाभाग के पुत्र राजा अम्बरीष के पास जाओ।

    मैं तुम्हारे कल्याण की कामना करता हूँ।

    यदि तुम महाराज अम्बरीष को प्रसन्न कर सके तो तुम्हें शान्ति मिलजायेगी।

    TO

    अध्याय पाँच: दुर्वासा मुनि की जान बख़्शी

    9.5एवं भगवतादिष्टो दुर्वासाश्चक्रतापित: ।

    अम्बरीषमुपावृत्य तत्पादौदुःखितोग्रहीत्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस तरह से; भगवता आदिष्ट:--भगवान्‌ द्वारा आदेशित होकर; दुर्वासा:--दुर्वासा; चक्र-तापित:--सुदर्शन चक्र के द्वारा अत्यन्त सताया जाकर; अम्बरीषम्‌--महाराज अम्बरीष के; उपावृत्य--पास पहुँचकर;तत्‌-पादौ--उसके चरणकमलों को; दुःखित:ः--अत्यन्त दुखी होकर; अग्रहीत्‌ू--पकड़ लिया |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान्‌ विष्णु ने दुर्वासा मुनि को इस प्रकार सलाह दी तोसुदर्शन चक्र से अत्यधिक उत्पीड़ित मुनि तुरन्त ही महाराज अम्बरीष के पास पहुँचे।

    उन्होंने अत्यन्तदुखित होने के कारण राजा के चरणकमलों पर गिरकर उन्हें पकड़ लिया।

    तस्य सोद्यममावीक्ष्य पादस्पर्शविलज्जित: ।

    अस्तावीत्तिद्धरेरस्त्रं कृपया पीडितो भूशम्‌ ॥

    २॥

    तस्य--दुर्वासा का; सः--महाराज अम्बरीष ने; उद्यमम्‌--प्रयत्त; आवीक्ष्य--देखकर; पाद-स्पर्श-विलज्जित: --दुर्वासा द्वारा अपनेचरणकमल छुए जाने से लज्जित; अस्तावीत्‌--स्तुति की; तत्‌--उस; हरेः अस्त्रम्‌-- भगवान्‌ के अस्त्र की; कृपया--कृपापूर्वक;पीडित:ः--दुखित; भूशम्‌-- अत्यधिक |

    जब दुर्वासा मुनि ने महाराज अम्बरीष के पाँव छुए तो वे अत्यन्त लज्जित हो उठे और जब उन्होंनेयह देखा कि दुर्वासा उनकी स्तुति करने का प्रयास कर रहे हैं तो वे दयावश और भी अधिक संतप्तहो उठे ।

    अतः उन्होंने तुरन्त ही भगवान्‌ के महान्‌ अस्त्र की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी।

    अम्बरीष उवाचत्वमग्निर्भगवास्सूर्यस्त्व॑ सोमो ज्योतिषां पति: ।

    त्वमापस्त्व॑ क्षितिव्योम वायुमत्रिन्द्रियाणि च ॥

    ३॥

    अम्बरीष: उवाच--महाराज अम्बरीष ने कहा; त्वम्‌--तुम ( हो ); अग्नि:--अग्नि; भगवान्‌--अ त्यन्त शक्तिशाली; सूर्य :--सूर्य;त्वमू--तुम ( हो ); सोम:--चन्द्रमा; ज्योतिषाम्‌--सारे नक्षत्रों के; पति:--स्वामी; त्वम्‌--तुम ( हो )आप:--जल; त्वमू--तुम ( हो );क्षितिः--पृथ्वी; व्योम-- आकाश; वायु:--वायु ; मात्र--इन्द्रियों के विषय, तन्मात्रा; इन्द्रियाणि--तथा इन्द्रियाँ; च-- भी

    महाराज अम्बरीष ने कहा : हे सुदर्शन चक्र, तुम अग्नि हो, तुम परम शक्तिमान सूर्य हो तथा तुमसारे नक्षत्रों के स्वामी चन्द्रमा हो।

    तुम जल, पृथ्वी तथा आकाश हो, तुम पाँचों इन्द्रियविषय ( ध्वनि,स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गंध ) हो और तुम्हीं इन्द्रियाँ भी हो।

    सुदर्शन नमस्तु भ्यं सहस्त्राराच्युतप्रिय ।

    सर्वास्त्रधातिन्विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते ॥

    ४॥

    सुदर्शन--हे भगवान्‌ की मूल ज्योति; नम:--नमस्कार; तुभ्यम्‌--तुमको; सहस्त्र-अर--हे हजार अरों वाले; अच्युत-प्रिय-- भगवान्‌अच्युत के अत्यन्त प्रिय; सर्व-अस्त्र-घातिनू--हे सभी अस्त्रों को नष्ट करने वाले; विप्राय--इस ब्राह्मण को; स्वस्ति--अत्यन्त शुभ;भूया:--हो जाओ; इडस्पते--हे संसार के स्वामी |

    हे भगवान्‌ अच्युत के परम प्रिय, तुम एक हजार अरों वाले हो।

    हे संसार के स्वामी, समस्त अस्त्रोंके विनाशकर्ता, भगवान्‌ की आदि दृष्टि, मैं तुमको सादर नमस्कार करता हूँ।

    कृपा करके इस ब्राह्मणको शरण दो तथा इसका कल्याण करो।

    त्वं धर्मस्त्वमृतं सत्यं त्वं यज्ञोीईखिलयज्ञभुक्‌ ।

    त्वं लोकपाल: सर्वात्मा त्वं तेज: पौरुषं परम्‌ ॥

    ५॥

    त्वम्‌--तुम; धर्म:--धर्म; त्वमू--तुम; ऋतम्‌-प्रेरणाप्रद कथन; सत्यमू--चरम सत्य; त्वम्‌-तुम; यज्ञ:--यज्ञ; अखिल--सारे विश्वका; यज्ञ-भुक्‌--यज्ञ से उत्पन्न फलों का भोक्ता; त्वमू--तुम; लोक-पाल:--विभिन्न लोकों के पालनकर्ता; सर्व-आत्मा--सर्वव्यापी;त्वमू--तुम; तेज:--तेज; पौरुषम्‌--भगवान्‌ का; परम्‌ू--दिव्य |

    हे सुदर्शन चक्र, तुम धर्म हो, तुम सत्य हो, तुम प्रेरणाप्रद कथन हो, तुम यज्ञ हो तथा तुम्हीं यज्ञ-'फल के भोक्ता हो।

    तुम अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हो और तुम्हीं भगवान्‌ के हाथों में परम दिव्यतेज हो।

    तुम भगवान्‌ की मूल दृष्टि हो; अतएव तुम सुदर्शन कहलाते हो।

    सभी वस्तुएँ तुम्हारे कार्यकलापोंसे उत्पन्न की हुई हैं, अतएव तुम सर्वव्यापी हो।

    नमः सुनाभाखिलधर्मसेतवेह्ाधर्मशीलासुरधूमकेतवे ।

    त्रैलोक्यगोपाय विशुद्धवर्चसेमनोजवायाद्भुतकर्मणे गुणे ॥

    ६॥

    नमः--आपको सादर नमस्कार है; सु-नाभ--हे शुभ नाभि वाले; अखिल-धर्म-सेतवे--जिसके ेरे समस्त ब्रह्माण्ड के सेतु समान हैं;हि--निस्सन्देह; अधर्म-शील--अधार्मिक; असुर--असुरों के लिए; धूम-केतवे--जो अग्नि या अशुभ पुच्छल तारे के समान हैं,उनको; त्रैलोक्य--तीनों संसारों के; गोपाय--पालक को; विशुद्ध--दिव्य; वर्चसे--जिसका तेज; मनः-जवाय--मन के समान गतिवाला; अद्भुत--विचित्र; कर्मणे--इतना सक्रिय; गृणे--मैं बोलता हूँ

    हे सुदर्शन, तुम्हारी नाभि अत्यन्त शुभ है, अतएव तुम धर्म की रक्षा करने वाले हो।

    तुम अधार्मिकअसुरों के लिए अशुभ पुच्छल तारे के समान हो।

    निस्सन्देह, तुम्हीं तीनों लोकों के पालक हो।

    तुमदिव्य तेज से पूर्ण हो, तुम मन के समान तीव्रगामी हो और अद्भुत कर्म करने वाले हो।

    मैं केवलनमः शब्द कहकर तुम्हें सादर नमस्कार करता हूँ ।

    त्वत्तेजसा धर्ममयेन संहतंतमः प्रकाशश्व दशो महात्मनाम्‌ ।

    दुरत्ययस्ते महिमा गिरां पतेत्वद्रूपमेतत्सदसत्परावरम्‌ ॥

    ७॥

    त्वतू-तेजसा--तुम्हारे तेज से; धर्म-मयेन--ध धार्मिक नियमों से पूर्ण; संहतम्‌--दूर हो जाता है; तम:--अंधकार; प्रकाश: च--प्रकाशभी; दहशः--सभी दिशाओं का; महा-आत्मनाम्‌-महान्‌ विद्वान पुरुषों का; दुरत्ययः--दुर्लध्य; ते--तुम्हारी; महिमा--महिमा; गिराम्‌पते--हे वाणी के स्वामी; त्वत्‌ू-रूपम्‌--तुम्हारा स्वरूप; एतत्‌--यह; सत्‌-असतू--प्रकट तथा अप्रकट; पर-अवरम्‌--उच्च तथानिम्न

    हे वाणी के स्वामी, धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्ण तुम्हारे तेज से संसार का अंधकार दूर हो जाता हैऔर दिद्वान पुरुषों या महात्माओं का ज्ञान प्रकट होता है।

    निस्सन्देह, कोई तुम्हारे तेज का पार नहीं पासकता क्‍योंकि सारी वस्तुएँ, चाहे प्रकट अथवा अप्रकट हों, स्थूल अथवा सूक्ष्म हों, उच्च अथवानिम्न हों, आपके तेज के द्वारा प्रकट होने वाले आपके विभिन्न रूप ही हैं।

    यदा विसूष्टस्त्वमनझनेन वैबलं॑ प्रविष्टोडजित दैत्यदानवम्‌ ।

    बाहूदरोर्वड्घ्रिशिरो धराणिवृश्चन्नजस्त्रं प्रधने विराजसे ॥

    ८॥

    यदा--जब; विसूष्ट:-- भेजा; त्वमू--तुमने; अनझ्नेन--दिव्य भगवान्‌ द्वारा; बै--निस्सन्देह; बलम्‌ू--सैनिकों के; प्रविष्ट:--बीचघुसकर; अजित--हे अजित; दैत्य-दानवम्‌--दैत्यों तथा दानवों का; बाहु-- भुजाएँ; उदर--पेट; ऊरु--जाँखें; अड्ध्रि-- पाँव; शिरः-धराणि--र्दन; वृश्चन्‌--पृथक्‌ करने वाले; अजस्त्रमू--निरन्तर; प्रधने--युद्धभूमि में; विराजसे--रहते हो |

    हे अजित, जब तुम भगवान्‌ द्वारा दैत्यों तथा दानवों के सैनिकों के बीच घुसने के लिए भेजे जाते हो तो तुम युद्धस्थल पर डटे रहते हो और निरन्तर उनके हाथों, पेटों, जाँघों, पाँवों तथा शिरों कोविलग करते रहते हो।

    स त्वं जगत्नाण खलप्रहाणयेनिरूपितः सर्वसहो गदाभूता ।

    विप्रस्य चास्मत्कुलदैवहेतवेविधेहि भद्गंं तदनुग्रहो हि नः ॥

    ९॥

    सः--वह व्यक्ति; त्वमू--तुम; जगत्‌-त्राण--हे सम्पूर्ण जगत के रक्षक; खल-प्रहाणये--ईर्ष्यालु शत्रुओं को मारने में; निरूपित:--लगे हुए; सर्व-सहः--सर्वशक्तिमान; गदा-भूृता-- भगवान्‌ द्वारा; विप्रस्थ--इस ब्राह्मण का; च-- भी; अस्मत्‌--हमारा; कुल-दैव-हेतवे--वंश के सौभाग्य हेतु; विधेहि--कृपा करके करें; भद्रमू--शुभ, कल्याण; तत्‌--वह; अनुग्रह:--कृपा; हि--निस्सन्देह;नः--हमारा।

    हे विश्व के रक्षक, तुमको ईर्ष्यालु शत्रुओं को मारने के लिए भगवान्‌ अपने सर्वशक्तिशाली अस्‍स्त्रके रूप में प्रयोग करते हैं।

    हमारे सम्पूर्ण वंश के लाभ हेतु कृपया इस गरीब ब्राह्मण पर दयाकीजिये।

    निश्चय ही, यह हम सब पर कृपा होगी।

    यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः ।

    कुल नो विप्रदैवं चेद्दूवजो भवतु विज्वर: ॥

    १०॥

    यदि--अगर; अस्ति-- है; दत्तम्‌ू-दान; इष्टमू--इृष्टदेव की पूजा करना; वा--अथवा; स्व-धर्म:--वृत्तिपरक कार्य; वा--अथवा; सु-अनुष्ठित:--भलीभाँति सम्पन्न किया गया; कुलमू--वंश; न:--हमारा; विप्र-दैवम्‌--ब्राह्मणों द्वारा कृपा प्राप्त; चेतू--यदि ऐसा;द्विज:--यह ब्राह्मण; भवतु--हो सके; विज्वर:--जलन से ( सुदर्शन चक्र से ) मुक्त |

    यदि हमारे परिवार ने सुपात्रों को दान दिया है, यदि हमने कर्मकांड तथा यज्ञ सम्पन्न किये हैं,यदि हमने अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों को ठीक से पूरा किया है और यदि हम विद्वान ब्राह्मणोंद्वारा मार्गदर्शन पाते रहे हैं तो मैं चाहूँगा कि उनके बदले में यह ब्राह्मण सुदर्शन चक्र के द्वारा उत्पन्नजलन से मुक्त कर दिया जाय।

    यदि नो भगवान्प्रीत एक: सर्वगुणाश्रय: ।

    सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वर: ॥

    ११॥

    यदि--यदि; नः--हम पर; भगवानू-- भगवान्‌; प्रीत:-- प्रसन्न है; एक:--एकमात्र; सर्व-गुण-आश्रय:--समस्त दिव्य गुणों काआगार; सर्व-भूत-आत्म-भावेन--समस्त जीवों के प्रति दया भाव होने से; द्विज:--यह ब्राह्मण; भवतु--हो जाये; विज्वर:ः--सारे तापसे मुक्त

    यदि समस्त दिव्य गुणों के आगार तथा समस्त जीवों के प्राण तथा आत्मा अद्वितीय परमेश्वर हमपर प्रसन्न हैं तो हम चाहेंगे कि यह ब्राह्मण दुर्वासा मुनि जलन की पीड़ा से मुक्त हो जाय।

    श्रीशुक उबाचइति संस्तुवतो राज्ञो विष्णुचक्रं सुदर्शनम्‌ ।

    अशाम्यत्सर्वतो विप्रं प्रदृदद्राजयाच्ञया ॥

    १२॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; संस्तुवतः--प्रार्थना किये जाने पर; राज्ञ:--राजा द्वारा; विष्णु-चक्रमू-- भगवान्‌ विष्णु के चक्र को; सुदर्शनम्‌--सुदर्शन नामक; अशाम्यत्‌--शान्त हो गया; सर्वतः--सभी तरह से; विप्रम्‌ू--ब्राह्मण को; प्रदहत्‌--जलाता हुआ; राज--राजा की; याच्जया--याचना द्वारा।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब राजा ने सुदर्शन चक्र एवं भगवान्‌ विष्णु की स्तुति की तोस्तुतियों के कारण सुदर्शन चक्र शान्त हुआ और उसने दुर्वासा मुनि नामक ब्राह्मण को जलाना बन्दकर दिया।

    स मुक्तोउस्ल्राग्नितापेन दुर्वासा: स्वस्तिमांस्ततः ।

    प्रशशंस तमुर्वीशं युज्ञान: परमाशिष: ॥

    १३॥

    सः--वह, दुर्वासा मुनि; मुक्त:--छूटकर; अस्त्र-अग्नि-तापेन--सुदर्शन चक्र की अग्नि के ताप से; दुर्वासा:--योगी दुर्वासा ने;स्वस्तिमान्‌ू-पूर्णतया संतुष्ट, ताप से मुक्त; ततः--तब; प्रशशंस--प्रशंसा की; तम्‌--उस; उर्वी-ईशम्‌--राजा को; युज्जान: --करतेहुए; परम-आशिष: --सर्वोच्च आशीर्वाद |

    सुदर्शन चक्र की अग्नि से मुक्त किये जाने पर परम शक्तिशाली योगी दुर्वासा मुनि प्रसन्न हुए।

    तब उन्होंने महाराज अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उन्हें उत्तमोत्तम आशीष दिये।

    दुर्वासा उवाचअहो अनन्तदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे ।

    कृतागसोपि यद्राजन्मड्लानि समीहसे ॥

    १४॥

    दुर्वासा: उवाच--दुर्वासा मुनि ने कहा; अहो--ओह; अनन्त-दासानाम्‌-- भगवान्‌ के सेवकों की; महत्त्वम्‌--महानता; दृष्टम्‌--देखीगई; अद्य--आज; मे--मेरे द्वारा; कृत-आगस: अपि--अपराधी होते हुए भी; यत्‌ू--फिर भी; राजन्‌--हे राजा; मड्रलानि--सौभाग्यके लिए; समीहसे--तुम याचना कर रहे हो।

    दुर्वासा मुनि ने कहा : हे राजा, आज मैंने भगवान्‌ के भक्तों की महानता का अनुभव कियाक्योंकि मेरे अपराधी होने पर भी आपने मेरे सौभाग्य के लिए प्रार्थना की है।

    दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम्‌ ।

    येः सड्डरहीतो भगवान्सात्वतामृषभो हरि: ॥

    १५॥

    दुष्करः--कर पाना कठिन; कः--क्या; नु--निस्सन्देह; साधूनाम्‌--भक्तों का; दुस्त्यज:--छोड़ पाना असम्भव; वा--अथवा; महा-आत्मनाम्‌ू-महापुरुषों का; यैः--जिन पुरुषों के द्वारा; सड्रहीत:--( भक्ति द्वारा ) प्राप्त किया गया; भगवान्‌-- भगवान्‌; सात्वताम्‌--शुद्ध भक्तों का; ऋषभः--नायक; हरिः-- भगवान्‌

    जिन लोगों ने शुद्ध भक्तों के स्वामी भगवान्‌ को प्राप्त कर लिया है उनके लिए क्‍या करनाअसम्भव है और क्या त्यागना असम्भव है ?

    यन्नामश्रुतिमात्रेण पुमान्भवति निर्मल: ।

    तस्य तीर्थपदः कि वा दासानामवशिष्यते ॥

    १६॥

    यतू-नाम-- भगवान्‌ का पवित्र नाम; श्रुति-मात्रेण--सुनने से ही; पुमान्‌ू--मनुष्य; भवति--हो जाता है; निर्मल:--शुद्ध; तस्थ--उसका; तीर्थ-पदः-- भगवान्‌ जिनके चरण पवित्र स्थल हैं; किम्‌ वा--क्या; दासानाम्‌-दासों के द्वारा; अवशिष्यते--करने कोबचता है।

    भगवान्‌ के दासों के लिए क्‍या असम्भव है?

    भगवान्‌ का पवित्र नाम सुनने मात्र से ही मनुष्यशुद्ध हो जाता है।

    राजन्ननुगृहीतोहं त्वयातिकरुणात्मना ।

    मदघं पृष्ठतः कृत्वा प्राणा यन्मेडभिरक्षिता: ॥

    १७॥

    राजनू--हे राजा; अनुगृहीत:ः--अत्यधिक दया प्राप्त; अहम्‌--मैं; त्ववा--आपके द्वारा; अति-करुण-आत्मना--आपके अत्यन्त'करुणामय होने से; मत्‌-अघम्‌--मेरे अपराध; पृष्ठतः--पीठ की ओर; कृत्वा--करके; प्राणा:--प्राण; यत्‌--जो; मे--मेरा;अभिरक्षिता:--बचाया।

    हे राजन, आपने मेरे अपराधों को अनदेखा करके मेरा जीवन बचाया है।

    इस तरह मैं आपकाअत्यन्त अनुगृहीत हूँ क्योंकि आप इतने दयावान हैं।

    राजा तमकृताहारः प्रत्यागमनकाइक्षया ।

    चरणावुपसडूह्म प्रसाद्य समभोजयत्‌ ॥

    १८॥

    राजा--राजा; तम्‌--उसको, दुर्वासा को; अकृत-आहारः --भोजन करने से विरत; प्रत्यागमन--वापसी; काड्क्षया--चाहते हुए;चरणौ--पाँवों तक; उपसडूह्य --पहुँच कर; प्रसाद्य--सभी प्रकार से तुष्ट करके; समभोजयत्‌-- भोजन कराया

    राजा ने दुर्वासा मुनि की वापसी की आशा से स्वयं भोजन नहीं किया था।

    अतएवं जब मुनिलौटे तो राजा उनके चरण-कमलों पर गिर पड़ा और उन्हें सभी प्रकार से तुष्ट करके भरपेट भोजनकराया।

    सोशित्वाह्तमानीतमातिथ्यं सार्वकामिकम्‌ ।

    तृप्तात्मा नृपतिं प्राह भुज्यतामिति सादरम्‌ ॥

    १९॥

    सः--वह ( दुर्वासा ); अशित्वा-- भरपेट भोजन करके; आहतम्‌--बड़े सत्कार के साथ; आनीतम्‌--स्वागत किया; आतिथ्यम्‌--तरह-तरह के व्यंजन प्रदान किये; सार्व-कामिकम्‌--सभी प्रकार से स्वादों को पूरा करने वाले; तृप्त-आत्मा--पूरी तरह से तुष्ट;नृपतिम्‌--राजा से; प्राह--कहा; भुज्यताम्‌--हे राजा, तुम भी खाओ; इति--इस प्रकार; स-आदरम्‌--आदरपूर्वक ।

    इस प्रकार राजा ने बड़े आदर के साथ दुर्वासा मुनि का स्वागत किया।

    वे नाना प्रकार केस्वादिष्ट व्यंजन खाकर इतने सन्तुष्ट हुए कि उन्होंने बड़े ही स्नेह से राजा से भी खाने के लिए प्रार्थनाकी 'कृपया भोजन ग्रहण करें।

    प्रीतोस्म्यनुगृहीतो स्मि तब भागवतस्य वै ।

    दर्शनस्पर्शनालापैरातिथ्येनात्ममेधसा ॥

    २०॥

    प्रीतः--अत्यधिक सन्तुष्ट; अस्मि--हूँ; अनुगृहीत:ः-- अत्यन्त आभारी; अस्मि--हूँ; तब--तुम; भागवतस्य--शुद्ध भक्त का; बै--निस्सन्देह; दर्शन--तुम्हें देखकर; स्पर्शन--तथा तुम्हारे पाँवों का स्पर्श करके; आलापै:--तुमसे बातें करके; आतिथ्येन--तुम्हारेआतिथ्य से; आत्म-मेधसा--अपनी बुद्धि से

    दुर्वासा मुनि ने कहा : हे राजा, मैं आपसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ।

    पहले मैंने आपको एक सामान्यव्यक्ति ससझकर आपका आतिथ्य स्वीकार किया था, किन्तु बाद में अपनी बुद्धि से मैं समझ सकाकि आप भगवान्‌ के अत्यन्त महान्‌ भक्त हैं।

    इसलिए मात्र आपके दर्शन और आपके चरणस्पर्श सेतथा आपसे बातें करके मैं सन्तुष्ट हो गया हूँ और आपका अत्यन्त कृतज्ञ हो गया हूँ।

    कर्मावदातमेतत्ते गायन्ति स्वःस्त्रियो मुहुः ।

    कीर्ति परमपुण्यां च कीर्तयिष्यति भूरियम्‌ ॥

    २१॥

    कर्म--कार्य; अवदातम्‌--कल्मषरहित; एतत्‌--यह सारा; ते--तुम्हारा; गायन्ति--गायेंगे; स्व:-स्त्रिय:--स्वर्ग की स्त्रियाँ; मुहुः--सदा; कीर्तिमू--कीर्ति, यश; परम-पुण्याम्‌--अत्यन्त पवित्र तथा महिमामय; च--भी; कीर्तयिष्यति--निरन्तर गान करेगा; भू: --सारासंसार; इयम्‌--यह।

    स्वर्गलोक की सारी भाग्यशाली स््रियाँ प्रतिक्षण आपके निर्मल चरित्र का गान करेंगी और इससंसार के लोग भी आपकी महिमा का निरन्तर उच्चारण करेंगे।

    श्रीशुक उबाचएवं सड्डीर्त्य राजानं दुर्वासा: परितोषित: ।

    ययौ विहायसामन्न्य ब्रह्लोकमहैतुकम्‌ ॥

    २२॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; सड्लीतत्य--महिमागान करके ; राजानमू--राजा को; दुर्वासा:--महान्‌ योगी दुर्वासा मुनि; परितोषित:--सभी प्रकार से संतुष्ट होकर; ययौ--वहाँ से चला गया; विहायसा--अन्‍्तरिक्ष मार्ग से;आमन्त्य--अनुमति लेकर; ब्रह्मलोकम्‌--इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च लोक को; अहैतुकम्‌--शुष्क चिन्तन से विहीन।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार सब तरह से सन्तुष्ट होकर महान्‌ योगी दुर्वासा ने अनुमति ली और वे राजा का निरन्तर यशोगान करते हुए वहाँ से चले गये।

    वे आकाश मार्ग सेब्रह्मलोक गये जो शुष्क ज्ञानियों से रहित है।

    संवत्सरोत्यगात्तावद्यावता नागतो गत: ।

    मुनिस्तदर्शनाकाड्झ्ो राजाब्भक्षो बभूव ह ॥

    २३॥

    संवत्सर: --पूरा एक वर्ष; अत्यगात्‌--बीत गया; तावत्‌--तब तक; यावता--जब तक; न--नहीं; आगत: --वापस आया; गत: --गया हुआ, दुर्वासा मुनि; मुनि:ः--मुनि; तत्‌-दर्शन-आकाइक्ष: --उसे फिर से देखने की इच्छा करते हुए; राजा--राजा; अपू-भक्ष:--केवल जल ग्रहण करके; बभूव--रहा; ह--निस्सन्देह |

    दुर्वासा मुनि महाराज अम्बरीष के स्थान से चले गये थे और जब तक वे वापस नहीं लौटे--पूरेएक वर्ष तक--तब तक राजा केवल जल पीकर उपवास करते रहे।

    गतेथ दुर्वाससि सोम्बरीषोद्विजोपयोगातिपवित्रमाहरत्‌ ।

    ऋषेविमोक्ष॑ व्यसन च वीक्ष्यमेने स्ववीर्य च परानुभावम्‌ ॥

    २४॥

    गते--वापस आने पर; अथ--तब ; दुर्वाससि--महान्‌ योगी दुर्वासा के; सः--वह राजा; अम्बरीष:--महाराज अम्बरीष; द्विज-उपयोग--शुद्ध ब्राह्मण के लिए सर्वोपयुक्त; अति-पवित्रम्‌--अत्यन्त शुद्ध भोजन; आहरत्‌-- खाया और खाने को दिया; ऋषे: --ऋषिका; विमोक्षम्‌--मुक्ति, छूटना; व्यसनम्‌--सुदर्शन चक्र द्वारा भस्म किये जाने के महान्‌ संकट से; च--तथा; वीक्ष्य--देखकर;मेने--विचार किया; स्व-वीर्यम्‌--अपने पौरुष के विषय में; च-- भी; पर-अनुभावम्‌-- भगवान्‌ की शुद्ध भक्ति के कारण

    एक वर्ष बाद जब दुर्वासा मुनि लौटे तो राजा अम्बरीष ने उन्हें सभी प्रकार के व्यंजन भरपेट खिलाये और तब स्वयं भी भोजन किया।

    जब राजा ने देखा कि दुर्वासा दग्ध होने के महान्‌ संकट सेमुक्त हो चुके हैं तो वे यह समझ सके कि भगवान्‌ की कृपा से वे स्वयं भी शक्तिमान हैं, किन्तु उन्होंनेइसका श्रेय अपने को नहीं दिया क्योंकि यह सब भगवान्‌ ने किया था।

    एवं विधानेकगुण: स राजापरात्मनि ब्रह्मणि वासुदेवे ।

    क्रियाकलापै: समुवाह भक्तिययाविरिज्च्यान्निरयां क्षकार ॥

    २५॥

    एवम्‌--इस तरह; विधा-अनेक-गुण: --अनेकानेक गुणों से युक्त; सः--वह महाराज अम्बरीष; राजा--राजा; पर-आत्मनि--परमात्मामें; ब्रह्मणि--ब्रह्म में; वासुदेवे--वासुदेव कृष्ण में; क्रिया-कलापैः--कार्यो से; समुवाह--सम्पन्न किया; भक्तिम्‌ू-- भक्ति; यया--ऐसे कार्यो से; आविरिज्च्यान्‌--सर्वोच्चलोक से लेकर; निरयान्‌ू--नरकलोकों तक; चकार--सर्वत्र संकट का अनुभव किया।

    इस प्रकार अपनी भक्ति के कारण नाना प्रकार के दिव्य गुणों से युक्त महाराज अम्बरीष ब्रह्म,परमात्मा तथा भगवान्‌ से भलीभाँति अवगत हो गये और सम्यक्‌ रीति से भक्ति करने लगे।

    अपनीभक्ति के कारण उन्हें इस भौतिक जगत का सर्वोच्चलोक भी नरक तुल्य लगने लगा।

    श्रीशुक उबाचअधाम्बरीषस्तनयेषु राज्यंसमानशीलेषु विसृज्य धीर: ।

    बनं विवेशात्मनि वासुदेवेमनो दधद्ध्वस्तगुणप्रवाह: ॥

    २६॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--इस प्रकार; अम्बरीष:--राजा अम्बरीष; तनयेषु--अपने पुत्रों को; राज्यम्‌--राज्य; समान-शीलेषु--अपने पिता की ही भाँति योग्य; विसृज्य--बाँट करके; धीर:--अत्यन्त विद्वान पुरुष, महाराज अम्बरीष;वनम्‌--वन में; विवेश--प्रविष्ट हुए; आत्मनि-- भगवान्‌; वासुदेवे--वासुदेव नाम से प्रसिद्ध कृष्ण में; मन:--मन को; दधत्‌--केन्द्रीभूत करते हुए; ध्वस्त--नष्ट; गुण-प्रवाह:--प्रकृति के गुणों की लहरें।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : तत्पश्चात्‌ भक्तिमय जीवन की उन्नत दशा के कारणअम्बरीष भौतिक वस्तुओं की किसी तरह से इच्छा न रखते हुए सक्रिय गृहस्थ जीवन से उपरत होगये।

    उन्होंने अपनी सम्पत्ति अपने ही समान योग्य पुत्रों में बाँट दी और स्वयं वानप्रस्थ आश्रमस्वीकार करके भगवान्‌ वासुदेव में अपना मन पूर्णतः: एकाग्र करने के लिए जंगल चले गये।

    इत्येतत्पुण्यमाख्यानमम्बरीषस्य भूपते ।

    सट्डीतत॑यन्ननुध्यायन्भक्तो भगवतो भवेत्‌ ॥

    २७॥

    इति--इस प्रकार; एतत्‌--यह; पुण्यम्‌ आख्यानम्‌--इतिहास का सर्वाधिक पुण्यकर्म; अम्बरीषस्य--महाराज अम्बरीष का; भूपते--हेराजा ( परीक्षित ); सड्डीर्तयन्‌ू--दुहराने या कीर्तन करने से; अनुध्यायन्‌-- ध्यान धरने से; भक्त:--भक्त; भगवत:--भगवान्‌ का;भवेत्‌--बन सकता है।

    जो भी इस कथा को बार-बार पढ़ता है या महाराज अम्बरीष के कार्यकलापों से सम्बन्धित इसकथा का चिन्तन करता है वह अवश्य ही भगवान्‌ का शुद्ध भक्त बन जाता है।

    अम्बरीषस्य चरितं ये श्रण्वन्ति महात्मनः ।

    मुक्ति प्रयान्ति ते सर्वे भक्त्या विष्णो: प्रसादतः ॥

    २८ ॥

    अम्बरीषस्थ--महाराज अम्बरीष का; चरितमू-- चरित्र; ये--जो लोग; श्रृण्वन्ति--सुनते हैं; महा-आत्मन:--महात्मा या भक्त का;मुक्तिमू-- मुक्ति; प्रयान्ति-- अवश्य पाते हैं; ते--ऐसे लोग; सर्वे--सभी; भक्त्या--भक्ति से; विष्णो:--भगवान्‌ विष्णु की;प्रसादतः--कृपा से |

    भगवत्कृपा से जो लोग महान्‌ भक्त महाराज अम्बरीष के कार्यकलापों के विषय में सुनते हैं, वेअवश्य ही मुक्त हो जाते हैं या तुरन्त भक्त बन जाते हैं।

    TO

    छठा अध्याय: सौभरि मुनि का पतन

    9.6श्रीशुक उबाचविरूप: केतुमाउछम्भुरम्बरीषसुतास्त्रयः ।

    विरूपात्पृषदश्रो भूत्तत्पुत्रस्तु रथीतर: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; विरूप:--विरूप नामक; केतुमान्‌ू-- केतुमान नामक; शम्भु:--शम्भु नामक;अम्बरीष--अम्बरीष महाराज के; सुताः त्रयः--तीन पुत्र; विरूपात्‌ू--विरूप से; पृषदश्च:--पृषदश्चव नामक; अभूत्‌--था; तत्‌-पुत्र:--उसका पुत्र; तु--तथा; रथीतरः --रथीतर नामक |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, अम्बरीष के तीन पुत्र हुए--विरूप, केतुमानतथा शम्भु।

    विरूप के पृषदश्च नामक पुत्र हुआ और पृषदश्च के रथीतर नामक पुत्र हुआ।

    रथीतरस्याप्रजस्य भार्यायां तन्तवेडर्थित: ।

    अड्डिरा जनयामास ब्रह्मवर्चस्विन: सुतान्‌ ॥

    २॥

    रथीतरस्य--रथीतर की; अप्रजस्य--निःसन्तान; भार्यायाम्‌--अपनी पत्नी के; तन्तवे--सन्तान वृद्धि के लिए; अर्थित:--प्रार्थना कियेजाने पर; अड्जिरा:--अंगिरा ऋषि; जनयाम्‌ आस--उत्पन्न किया; ब्रह्म-वर्चस्विन: --ब्राह्मण गुणों से युक्त; सुतान्‌ू--पुत्रों को

    रथीतर निःसन्‍्तान था अतएवं उसने अंगिरा ऋषि से पुत्र उत्पन्न करने के लिए प्रार्थना की।

    इसप्रार्थना के फलस्वरूप अंगिरा ने रथीतर की पत्नी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न कराये।

    ये सारे पुत्र ब्राह्मणतेज से सम्पन्न थे।

    एते क्षेत्रप्रसूता वै पुनस्त्वाड्रिरसा: स्मृता: ।

    रथीतराणां प्रवरा: क्षेत्रोपेता द्विजातय: ॥

    ३॥

    एते--अंगिरा द्वारा उत्पन्न पुत्र; क्षेत्र-प्रसूताः--रथीतर की सन्‍्तान बने और उसके कुल के कहलाये ( क्योंकि वे उसकी पत्नी के गर्भ सेहुए थे ); वै--निस्सन्देह; पुन:--फिर; तु--लेकिन; आ्विरसा: --अंगिरा के वंश के; स्मृता:--कहलाये; रथीतराणाम्‌--रथीतर केसारे पुत्रों का; प्रवरा:-- प्रमुख; क्षेत्र-उपेता: --श्षेत्र से उत्पन्न होने के कारण; द्वि-जातय:--ब्राह्मण कहलाये ( ब्राह्मण तथा क्षत्रिय कामिश्रण होकर )

    रथीतर की पत्नी से जन्म लेने के कारण ये सारे पुत्र रथीतर के वंशज कहलाये, किन्तु अंगिरा केवीर्य से उत्पन्न होने के कारण वे अंगिरा के वंशज भी कहलाये।

    रथीतर की समन्‍्तानों में से ये पुत्रसबसे अधिक प्रसिद्ध थे क्योंकि अपने जन्म के कारण ये ब्राह्मण समझे जाते थे।

    क्षुवतस्तु मनोर्जज्ञे इक्ष्वाकुर्ध्राणत: सुतः ।

    तस्य पुत्रशतज्येष्ठा विकुक्षिनिमिदण्डका: ॥

    ४॥

    क्षुवत:--छींकते समय; तु--लेकिन; मनो:--मनु के; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; इक्ष्वाकु:--इक्ष्वाकु नामक; घ्राणत:--नथुनों से; सुत:--पुत्र; तस्य--इश्ष्वाकु के; पुत्र-शत--एक सौ पुत्र; ज्येष्ठा:--प्रमुख; विकुक्षि--विकुक्षि नामक; निमि--निमि नामक; दण्डका:--दण्डका नामक,मनु का पुत्र इक्ष्वाकु था।

    जब मनु छींक रहे थे तो इक्ष्वाकु उनके नथुनों से उत्पन्न हुआ था।

    राजाइक्ष्वाकु के एक सौ पुत्र थे जिनमें से विकुक्षि, निमि तथा दण्डका प्रमुख थे।

    तषा पुरस्तादरमनज्ञायावत नूपषा नूष ।

    पदञ्जविंशतिः पश्चाच्च त्रयो मध्येडपरेउन्यतः ॥

    ५॥

    तेषाम्‌--इन पुत्रों में से; पुरस्तात्‌-पूर्व दिशा में; अभवनू--वे बने; आर्यावर्ते--आर्यावर्त में, जो हिमालय तथा विन्ध्याचल पर्वतों केबीच का स्थान था; नृपा:--राजा; नृप--हे राजा ( परीक्षित ); पञ्ञ-विंशति:--पच्चीस; पश्चात्‌--पश्चिम दिशा में; च--भी; त्रय: --उनमें से तीन; मध्ये--मध्य में ( पूर्व और पश्चिम के बीच ); अपरे--अन्य; अन्यत:--अन्य स्थानों में

    सौ पुत्रों में से पच्चीस पुत्र हिमालय तथा विन्ध्याचल पर्वतों के मध्यवर्ती स्थान आर्यावर्त केपश्चिमी भाग के राजा बने, पच्चीस पुत्र पूर्वी आर्यावर्त के राजा बने और तीन प्रमुख पुत्र मध्यवर्तीप्रदेश के राजा बने ।

    शेष पुत्र अन्य विविध स्थानों के राजा बने।

    सएकदाष्टकाश्राद्धे इक्ष्वाकु: सुतमादिशत्‌ ।

    मांसमानीयतां मेध्यं विकुक्षे गच्छ मा चिरम्‌ ॥

    ६॥

    सः--वह राजा ( महाराज इशष्ष्वाकु ); एकदा--एक बार; अष्टका- भ्राद्धे-- जनवरी, फरवरी तथा मार्च के महीनों मे जब पितरों कीश्राद्ध की जाती है; इक्ष्बाकु:--राजा इक्ष्वाकु ने; सुतम्‌--अपने पुत्र को; आदिशत्‌--आज्ञा दी; मांसम्‌ू--मांस; आनीयतामू-लेआओ; मेध्यम्‌-शुद्ध ( शिकार करके ); विकुक्षे--हे विकुक्षि; गच्छ--तुरन्‍्त जाओ; मा चिरमू--बिना देर लगाये।

    जनवरी, फरवरी तथा मार्च के महीनों में पितरों को दिये जाने वाली भेंटें अष्टका श्राद्ध कहलातीहै।

    श्राद्ध महीने के कृष्णपक्ष में सम्पन्न किया जाता है।

    जब महाराज इक्ष्वाकु श्राद्ध मनाते हुए भेंटें देरहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र विकुक्षि को आदेश दिया कि वह तुरन्त जंगल में जाकर कुछ शुद्ध मांसले आये।

    तथेति स वन गत्वा मृगान्त्वा क्रियाहणान्‌ ।

    श्रान्तो बुभुक्षितो वीर: शशं चाददपस्मृति: ॥

    ७॥

    तथा--आदेशानुसार; इति--इस प्रकार; सः--विकुक्षि; वनमू-- जंगल में; गत्वा--जाकर; मृगान्‌ू--पशुओं को; हत्वा--मारकर;क्रिया-अर्हणानू-- श्राद्ध में यज्ञ करने के उपयुक्त; श्रान्त:--थका हुआ; बुभुक्षित:--तथा भूखा; वीर: --वीर पुरुष; शशम्‌--खरहेको; च-- भी; आदत्‌--खाया; अपस्मृतिः--यह भूल गया (कि यह मांस श्राद्ध में भेंट के लिए है )

    तत्पश्चात्‌ इक्ष्वाकु पुत्र विकुक्षि जंगल में गया और उसने श्राद्ध में भेंट देने के लिए अनेक पशुमारे।

    किन्तु जब वह थक गया और भूखा हुआ तो भूल से उसने मारे हुए एक खरगोश को खालिया।

    शेष निवेदयामास पित्रे तेन च तदगुरु: ।

    चोदितः प्रोक्षणायाह दुष्टमेतदकर्मकम्‌ ॥

    ८॥

    शेषम्‌--उच्छिष्ट; निवेदयाम्‌ आस--उसने प्रदान किया; पित्रे--अपने पिता को; तेन--उसके द्वारा; च--भी; तत्‌-गुरु:--उनके गुरुने; चोदित:--आग्रह किये जाने पर; प्रोक्षणाय--शुद्ध करने के लिए; आह--कहा; दुष्टम्‌-प्रदूषित; एतत्‌--यह मांस; अकर्मकम्‌--श्राद्ध में अर्पित करने के अयोग्य।

    विकुक्षि ने शेष मांस राजा इक्ष्वाकु को लाकर दे दिया जिन्होंने उसे शुद्ध करने के लिए वसिष्ठको दे दिया।

    लेकिन वसिष्ठ यह तुरन्त समझ गये कि उस मांस का कुछ भाग विकुक्षि ने पहले हीग्रहण कर लिया है; अतएव उन्होंने कहा कि यह मांस श्राद्ध में प्रयुक्त होने केलिए अनुपयुक्त है।

    ज्ञात्वा पुत्रस्य तत्कर्म गुरुणाभिहितं नूप: ।

    देशान्रिःसारयामास सुतं त्यक्तविधि रुषा ॥

    ९॥

    ज्ञात्वा--जान लेने पर; पुत्रस्थ--अपने पुत्र की; तत्‌--वह; कर्म--करनी; गुरुणा--गुरु ( वसिष्ठ ) द्वारा; अभिहितम्‌--सूचित कियागया; नृप:--राजा ( इश्ष्वाकु ) ने; देशात्‌--देश से; निःसारयाम्‌ आस--निकाल दिया; सुतम्‌--पुत्र को; त्यक्त-विधिम्‌-क्योंकिउसने विधान का उल्लंघन किया था; रुषा--क्रोध में आकर।

    जब राजा इक्ष्वाकु वसिष्ठ द्वारा बताये जाने पर समझ गये कि उनके पुत्र विकुक्षि ने क्या किया हैतो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए।

    इस प्रकार उन्होंने विकुक्षि को देश छोड़ने की आज्ञा दे दी क्योंकि उसने विधि-विधान का उल्लंघन किया था।

    सतु विप्रेण संवादं ज्ञापफेन समाचरन्‌ ।

    त्यक्त्वा कलेवरं योगी स तेनावाप यत्परम्‌ ॥

    १०॥

    सः--महाराज इक्ष्वाकु; तु--निस्सन्देह; विप्रेण--ब्राह्मण ( वसिष्ठ ) के साथ; संवादम्‌--वार्तालाप; ज्ञापफेन--सूचना देने वाले केसाथ; समाचरन्‌--तदनुसार करते हुए; त्यक्त्वा--त्यागकर; कलेवरम्‌--शरीर को; योगी--संनन्‍्यास लेकर भक्तियोगी बनकर; सः--राजा; तेन--ऐसे उपदेश से; अवाप--प्राप्त किया; यत्‌--वह पद जो; परम्‌--सर्व श्रेष्ठ |

    महान्‌ एवं विद्वान ब्राह्मण वसिष्ठ के साथ परम सत्य विषयक वार्तालाप के बाद उनके द्वाराउपदेश दिये जाने पर महाराज इक्ष्वाकु विरक्त हो गये।

    उन्होंने योगी के नियमों का पालन करते हुएभौतिक शरीर त्यागने के बाद परम सिद्धि प्राप्त की।

    पितर्युपरतेभ्येत्य विकुक्षि: पृथिवीमिमाम्‌ ।

    शासदीजे हरिं यज्ञ: शशाद इति विश्रुतः ॥

    ११॥

    पितरि--अपने पिता के; उपरते--राज्य छोड़ने पर; अभ्येत्य--वापस आकर; विकुक्षि:--विकुक्षि ने; पृथिवीम्‌--पृथ्वीलोक को;इमामू--इस; शासत्‌--शासन करते हुए; ईजे--पूजा की; हरिमू-- भगवान्‌ की; यज्जैः--यज्ञों के द्वारा; शश-अदः--शशाद ( खरगोशखाने वाला ); इति--इस प्रकार; विश्रुत:--विख्यात हुआ |

    अपने पिता के चले जाने पर विकुक्षि अपने देश लौट आया और पृथ्वीलोक पर शासन करते हुएतथा भगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिए विविध यज्ञ करते हुए वह राजा बना।

    बाद में विकुक्षि शशादनाम से विख्यात हुआ।

    पुरक्ञयस्तस्य सुत इन्द्रवाह इतीरितः ।

    ककुत्स्थ इति चाप्युक्त: श्रृणु नामानि कर्मभि: ॥

    १२॥

    पुरमू-जय:--पुरञ्ञय ( पुर का विजेता ); तस्थ--उसका ( विकुक्षि का ); सुतः--पुत्र; इन्द्र-वाह:--इन्द्रवाह ( इन्द्र जिसका वाहन है );इति--इस प्रकार; ईरितः--विख्यात; ककुत्स्थ:--ककुत्स्थ ( बैल के डिल्ले पर स्थित ); इति--इस प्रकार; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; उक्त: --इस तरह ज्ञात; श्रुणु--सुनो; नामानि--सारे नाम; कर्मभि: --अपने-अपने कर्म के अनुसार |

    शशाद का पुत्र पुरक्षय हुआ जो इन्द्रवाह के रूप में और कभी-कभी ककुत्स्थ के नाम सेविख्यात है।

    अब मुझसे यह सुनो कि उसने विभिन्न कार्यो के लिए भिन्न-भिन्न नाम किस तरह प्राप्तकिये।

    कृतान्त आसीत्समरो देवानां सह दानवैः ।

    पार्णिग्राहो वृतो वीरो देवैर्देत्यपराजितै: ॥

    १३॥

    कृत-अन्तः--विनाशकारी युद्ध; आसीत्‌-- था; समरः--युद्ध; देवानामू--देवताओं के; सह--के साथ; दानवै: --असुरों;पार्णिग्राह:--अच्छा सहायक; वृत:--स्वीकार किया; वीर:--वीर; देवैः--देवताओं के द्वारा; दैत्य--दैत्यों के द्वारा; पराजितै:--जोहराये जा चुके थे।

    पूर्वकाल में देवताओं तथा असुरों के मध्य एक घमासान युद्ध हुआ।

    पराजित होकर देवताओं नेपुरक्षय को अपना सहायक बनाया और तब वे असुरों को पराजित कर सके ।

    अतएव यह वीर पुरक्षयकहलाता है अर्थात्‌ जिसने असुरों के निवासों को जीत लिया है।

    वचनादेवदेवस्य विष्णोर्विश्वात्मन: प्रभो: ।

    वाहनत्वे वृतस्तस्य बभूवेन्द्रो महावृष; ॥

    १४॥

    बचनात्‌-- आदेश या बचनों से; देव-देवस्थ--समस्त देवताओं के स्वामी; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु का; विश्व-आत्मन:--सम्पूर्णसृष्टि के परमात्मा; प्रभो:-- भगवान्‌ या नियन्ता का; वाहनत्वे--वाहन बनने के कारण; वृतः--लगा हुआ; तस्य--पुरञ्ञय की सेवा में;बभूव--बन गया; इन्द्र:--इन्द्र; महा-वृष:--बड़ा सा बैल |

    पुरक्ञय ने सारे असुरों को इस शर्त पर मारना स्वीकार किया कि इन्द्र उसका वाहन बनेगा।

    किन्तुगर्ववश इन्द्र ने यह प्रस्ताव पहले अस्वीकार कर दिया, किन्तु बाद में भगवान्‌ विष्णु के आदेश सेउसने इसे स्वीकार कर लिया और पुरजञ्ञय की सवारी के लिए वह बड़ा सा बैल बन गया।

    स सन्नद्धो धनुर्दिव्यमादाय विशिखाडजिछतान्‌ ।

    स्तूयमानस्तमारुहा युयुत्सु: ककुदि स्थित: ॥

    १५॥

    तेजसाप्यायितो विष्णो: पुरुषस्य महात्मन: ।

    प्रतीच्यां दिशि दैत्यानां न्‍यरूणत्त्रिदशै: पुरम्‌ ॥

    १६॥

    सः-पुरक्षय; सन्नद्धः--पूरी तरह युक्त होकर; धनु: दिव्यम्‌-- श्रेष्ठ या दिव्य धनुष; आदाय--लेकर; विशिखानू--तीरों को;शितान्‌--अत्यन्त पैने; स्तूयमान:--अत्यधिक प्रशंसित होकर; तम्‌--उस ( बैल पर ); आरुह्म--चढ़कर; युयुत्सु:--लड़ने के लिएतैयार होकर; ककुदि--बैल के डिल्ले पर; स्थित:--स्थित; तेजसा--बल से; आप्यायित:--कृपाप्राप्त; विष्णो: --विष्णु के;पुरुषस्य--परम पुरुष; महा-आत्मन:--परमात्मा; प्रतीच्यामू--पश्चिमी; दिशि--दिशा में; दैत्यानामू--असुरों का; न्यरूणत्‌--कब्जे मेंकर लिया; त्रिदशै:--देवताओं को साथ लेकर; पुरमू--आवास को |

    कवच से भलीभाँति सुरक्षित होकर और युद्ध करने की इच्छा से पुरञ्ञय ने अपना दिव्य धनुषतथा अत्यन्त तीक्ष्ण बाण धारण किया और देवताओं द्वारा अत्यधिक प्रशंसित होकर वह बैल ( इन्द्र ) की पीठ पर सवार हुआ तथा उसके डिल्ले पर बैठ गया।

    इसलिए वह ककुत्स्थ कहलाता है।

    परमात्मातथा परम पुरुष भगवान्‌ विष्णु से शक्ति प्राप्त करके पुरक्षय उस बड़े बैल पर सवार हो गया, इसलिएवह इन्द्रवाह कहलाता है।

    देवताओं को साथ लेकर उसने पश्चिम में असुरों के निवासस्थानों परआक्रमण कर दिया।

    तैस्तस्य चाभूत्प्रधनं तुमुलं लोमहर्षणम्‌ ।

    यमाय भल्लैरनयहैत्यानभिययुर्मुधे ॥

    १७॥

    तैः--असुरों के साथ; तस्य--उसकी; च--भी; अभूत्‌--हुई; प्रधनम्‌--लड़ाई; तुमुलम्‌--घनघोर; लोम-हर्षणम्‌--जिसे सुनकररोमांच हो जाता है; यमाय--यमराज के घर के लिए; भल्लै:--तीरों से; अनयत्‌-- भेज दिया; दैत्यान्‌--असुरों को; अभिययु:--जोउसकी ओर आये; मृधे--उस युद्ध में |

    असुरों तथा पुरञझ्ञय के मध्य घनघोर लड़ाई छिड़ गई।

    निस्सन्देह, यह इतनी भयानक थी किसुनने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते।

    जितने सारे असुर पुरक्षय के समक्ष आने का साहस करते वे सभीउसके तीरों से तुरन्त यमराज के घर भेज दिये जाते।

    तस्येषुपाताभिमुखं युगान्ताग्निमिवोल्बणम्‌ ।

    विसृज्य दुद्र॒वुर्देत्या हन्यमाना: स्वमालयम्‌ ॥

    १८ ॥

    तस्य--उसके ( पुरक्ञय के ); इषु-पात--तीर फेंकने; अभिमुखम्‌--के समक्ष; युग-अन्त--युग के अन्त में; अग्निम्‌ू--ज्वाला; इब--सहश; उल्बणम्‌-- भयानक; विसृज्य-- आक्रमण करना छोड़कर; दुद्गुवु:-- भग गये; दैत्या:--सारे असुर; हन्यमाना: --मारे जाकर( पुरञ्ञय द्वारा ); स्वमू--अपने; आलयम्‌--घर को |

    इन्द्रवाह के अग्नि उगलते तीरों से अपने को बचाने के लिए वे असुर, जो अपनी सेना के मारेजाने के बाद बचे थे, तेजी से अपने-अपने घरों को भाग खड़े हुए क्योंकि यह अग्नि युग के अन्त मेंउठने वाली प्रलयाग्नि के समान थी।

    जित्वा परं धन सर्व सस्त्रीकं वज़्पाणये ।

    प्रत्ययच्छत्स राजर्षिरिति नामभिराहत: ॥

    १९॥

    जित्वा--जीतकर; परम्‌--दुश्मनों को; धनम्‌--धन को; सर्वम्‌ू--हर वस्तु; स-स्त्रीकम्‌-उनकी पत्नियों समेत; बज्ञ-पाणये--इन्द्र कोजो वज् धारण करता है; प्रत्यवच्छत्‌--लौटाकर दे दिया; सः--वह; राज-ऋषि:--सन्‍्त राजा ( पुरञ्ञय ); इति--इस प्रकार;नामभि:--नामों से; आहतः--पुकारा जाता था।

    शत्रु को जीतने के बाद सन्त राजा पुरञ्जय ने वज्रधारी इन्द्र को सब कुछ लौटा दिया जिसमें शत्रुका धन तथा पत्ियाँ सम्मिलित थीं।

    इसी हेतु वह पुरञ्ञय नाम से विख्यात है।

    इस तरह पुरझ्य अपनेविविध कार्यकलापों के कारण विभिन्न नामों से जाना जाता है।

    पुरञ्ञयस्य पुत्रो भूदनेनास्तत्सुत: पृथु: ।

    विश्वगन्धिस्ततश्चन्द्रो युवनाश्रस्तु तत्सुतः: ॥

    २०॥

    पुरञ्ञयस्थ--पुरक्ञय का; पुत्र:--पुत्र; अभूत्‌ू--हुआ; अनेना:--अनेना नामक; ततू-सुतः--उसका पुत्र; पृथु:--पृथु; विश्वगन्धि: --विश्वगन्धि नामक; ततः--उसका पुत्र; चन्द्र:--चन्द्र; युवनाश्च:--युवनाश्च नामधारी; तु--निस्सन्देह; ततू-सुत:--उसका पुत्रपुरञ्जय का पुत्र अनेना कहलाया।

    अनेना का पुत्र पृथु था और पृथु का पुत्र विश्वगन्धि।

    विश्वगन्धिका पुत्र चन्द्र हुआ और चन्द्र का पुत्र युवनाश्र था।

    श्रावस्तस्तत्सुतो येन श्रावस्ती निर्ममे पुरी ।

    बृहदश्वस्तु श्रावस्तिस्ततः कुबलयाश्रकः ॥

    २१॥

    श्रावस्त:--श्रावस्त नामक; ततू-सुत:--युवनाश्च का पुत्र; येन--जिसके द्वारा; श्रावस्ती-- श्रावस्ती नामक; निर्ममे--निर्मित कराईगई; पुरी--नगरी; बृहदश्च:--बृहदश्च; तु--किन्तु; श्रावस्ति:ः-- श्रावस्त से उत्पन्न; ततः--उससे; कुवलया श्रक:--कुवलयाश्वनामधारी।

    युवनाश्च का पुत्र श्रावस्त था जिसने श्रावस्ती नामक पुरी का निर्माण कराया।

    श्रावस्त का पुत्रबृहदश्च था और उसका पुत्र कुवलयाश्व था।

    इस तरह यह वंश बढ़ता रहा।

    यः प्रियार्थमुतड्डस्य धुन्धुनामासुरं बली ।

    सुतानामेकविंशत्या सहस्त्रैरहनद्वुतः ॥

    २२॥

    यः--जो; प्रिय-अर्थम्‌--संतोष के लिए; उतड्डूस्थ--उतंक नामक ऋषि का; धुन्धु-नाम--थधुन्धु नाम के; असुरम्‌--असुर को; बली--अत्यन्त शक्तिशाली ( कुवलयाश्व ); सुतानाम्‌--पुत्रों को; एक-विंशत्या--इक्कीस; सहस्त्रै:--हजार; अहनत्‌--मार डाला; वृत:--घिराहुआ।

    उतंक ऋषि को संतुष्ट करने के लिए परम शक्तिशाली कुवलयाश्व ने धुन्धु नामक असुर का वधकिया।

    उसने अपने इक्कीस हजार पुत्रों की सहायता से ऐसा किया।

    धुन्धुमार इ्ति ख्यातस्तत्सुतास्ते च जज्वलु: ।

    धुन्धोर्मुखाग्निना सर्वे त्रय एवावशेषिता: ॥

    २३॥

    हढाश्वः कपिलाश्रश्व भद्गाश्व इति भारत ।

    हढाश्वपुत्रो हर्यश्वो निकुम्भस्तत्सुतः स्मृतः ॥

    २४॥

    धुन्धु-मार: -- धुन्धु को मारने वाला; इति--इस प्रकार; ख्यातः--प्रसिद्ध; तत्‌-सुता:--उसके पुत्रों ने; ते--उन सभी; च-- भी;जज्वलु:--जला दिया; धुन्धो: --धुन्धु के; मुख-अग्निना--मुख से निकलती अग्नि से; सर्वे--वे सभी; त्रय:--तीन; एब--केवल;अवशेषिता:--जीवित बचे; हृढाश्र:--हढ़ाश्र; कपिलाश्च:--कपिलाश्च; च--तथा; भद्गाश्च:--भद्गा श्र; इति--इस प्रकार; भारत--हेमहाराज परीक्षित; हढाश्च-पुत्र:--दढ़ाश्व का पुत्र; हर्यश्च:--हर्य श्र; निकुम्भ:--निकुम्भ; तत्‌-सुतः--उसका पुत्र; स्मृत:--विख्यात |

    हे महाराज परीक्षित, इस कारण से कुवलयाश्व धुन्धुमार कहलाता है।

    किन्तु उसके तीन पुत्रों कोछोड़कर शेष सभी धुन्धु के मुख से निकलने वाली अग्नि से जलकर राख हो गये।

    बचे हुए पुत्रों केनाम हैं--हृढ़ाश्न, कपिलाश्व तथा भद्राश्व।

    हढ़ाश्व के हर्यश्व नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र निकुम्भ नामसे विख्यात है।

    बहुलाश्वो निकुम्भस्य कृशाश्रोथास्य सेनजित्‌ ।

    युवनाश्रो भवत्तस्य सोउनपत्यो वनं गत: ॥

    २५॥

    बहुलाश्च:--बहुलाश्व का; निकुम्भस्य--निकुम्भ का; कृशाश्र:--कृशा श्र; अथ--तत्पश्चात्‌: अस्य--कृशाश्र का; सेनजित्‌--सेनजित;युवना श्र: --युवनाश्र; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ; तस्य--सेनजित के; सः--वह; अनपत्य:--निःसन्तान; वनम्‌ गत:--वान प्रस्थी बनकरजंगल चला गया।

    निकुम्भ का पुत्र बहुलाश्व था, बहुलाश्व का पुत्र कृुशाश्व और कृशाश्व का पुत्र सेनजित हुआ।

    सेनजित का पुत्र युवनाश्व था।

    युवनाश्व के कोई सनन्‍्तान नहीं थी इसलिए वह गृहस्थ जीवन त्यागकरजंगल चला गया।

    भार्याशतेन निर्विण्ण ऋषयोस्य कृपालव: ।

    इष्टिं सम वर्तयां चक्रुरैन्द्री ते सुसमाहिता: ॥

    २६॥

    भार्या-शतेन--एक सौ पत्नियों के साथ; निर्विणण: --अत्यन्त खिन्न; ऋषय:--ऋषिगण; अस्य--उस पर; कृपालव: --अत्यन्तकृपालु; इष्टिमू--एक अनुष्ठान; स्म--भूतकाल में; वर्तयाम्‌ चक्कु:--सम्पन्न करने लगा; ऐन्द्रीमू--इन्द्रयज्ञ; ते--वे सभी; सु-समाहिता:--अत्यन्त सावधान |

    यद्यपि युवनाश्र अपनी एक सौ पत्नियों सहित जंगल में चला गया, किन्तु वे सभी अत्यन्त खिन्नथीं।

    तथापि जंगल के ऋषि राजा पर अत्यन्त दयालु थे, अतएव वे मनोयोगपूर्वक इन्द्रयज्ञ करने लगे जिससे राजा के पुत्र उत्पन्न हो सके ।

    राजा तद्यज्ञसदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः ।

    इृष्ठा शयानान्विप्रांस्तान्पपौ मन्त्रजलं स्वयम्‌ ॥

    २७॥

    राजा--राजा ( युवनाश्व ); तत्‌-यज्ञ-सदनम्‌--यज्ञशाला में; प्रविष्ट: --प्रवेश किया; निशि--रात में; तर्षित:--प्यासे होने के कारण;इृष्टा--देखकर; शयानान्‌--लेटे हुए; विप्रानू--ब्राह्मणों को; तानू--उन सभी; पपौ--पी लिया; मन्त्र-जलम्‌--मंत्र द्वारा पवित्र कियाहुआ जल; स्वयम्‌--खुद |

    एक रात्रि को प्यासे होने के कारण राजा यज्ञशाला में घुस गया और जब उसने देखा कि सारेब्राह्मण लेटे हुए हैं तो उसने अपनी पत्नी के पीने के लिए रखे हुए मंत्र से पवित्र किये गये जल कोस्वयं पी लिया।

    उत्थितास्ते निशम्याथ व्युदक॑ कलशं प्रभो ।

    पप्रच्छु: कस्य करमेंदं पीत॑ पुंसवनं जलम्‌ ॥

    २८॥

    उत्थिता:--जगने पर; ते--वे सभी; निशम्य--देखकर; अथ--तत्पश्चात्‌; व्युदकम्‌-रिक्त, खाली; कलशम्‌--जलपात्र को; प्रभो--हेराजा परीक्षित; पप्रच्छु:--पूछा; कस्य--किसका; कर्म--करतूत; इृदम्‌--यह; पीतम्‌--पिया हुआ; पुंसवनम्‌--सन्तान उत्पन्न करनेबाला; जलम्‌ू--जल

    जब सारे ब्राह्मण जगे और उन्होंने देखा कि जलपात्र खाली है तो उन्होंने पूछा कि संतान उत्पन्नकरने वाले जल को किसने पिया है ?

    राज्ञा पीतं विदित्वा वै ईश्वरप्रहितेन ते ।

    ईश्वराय नमश्नक्कुरहो दैवबलं बलम्‌ ॥

    २९॥

    राज्ञा-राजा द्वारा; पीतम्‌--पिया गया; विदित्वा--यह जानकर; बै--निस्सन्देह; ईश्वर-प्रहितेन--विधाता द्वारा प्रेरित; ते--उन सबों ने;ईश्वराय--ई श्वर को; नमः चक्रु:--नमस्कार किया; अहो--ओह; दैव-बलम्‌--दैवी शक्ति; बलमू--वास्तविक बल है।

    जब ब्राह्मणों को यह ज्ञात हुआ कि ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर राजा ने जल पी लिया है तो उन्होंनेविस्मित होकर कहा, 'ओह! विधाता की शक्ति ही असली शक्ति है।

    ईश्वर की शक्ति का कोई भीनिराकरण नहीं कर सकता।

    इस तरह उन्होंने भगवान्‌ को सादर नमस्कार किया।

    ततः काल उपावृत्ते कुक्षि निर्भिद्य दक्षिणम्‌ ।

    युवनाश्वस्य 'तनयश्चक्रवर्ती जजान ह ॥

    ३०॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; काले--समय; उपावृत्ते--पूरा हो जाने पर; कुक्षिम्‌--उदर का निचला भाग; निर्भिद्य-- भेदकर; दक्षिणम्‌--दाहिनीओर का; युवनाश्रस्थ--राजा युवनाश्व का; तनय: --पुत्र; चक्रवर्ती--राजा के सारे उत्तम लक्षणों से युक्त; जजान--उत्पन्न किया; ह--भूतकाल में ।

    तत्पश्चात्‌ कालक्रम से राजा युवनाश्व के उदर के दाहिनी ओर के निचले भाग से चक्रवर्ती राजाके उत्तम लक्षणों से युक्त एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    क॑ धास्यति कुमारोयं स्तन्ये रोरूयते भूशम्‌ ।

    मां धाता वत्स मा रोदीरितीन्द्रो देशिनीमदात्‌ ॥

    ३१॥

    कम्‌-किसके द्वारा; धास्यति--स्तन का दूध पिलाकर पाला जायेगा; कुमार:--बालक; अयम्‌--यह; स्तन्ये--स्तन का दूध पीने केलिए; रोरूयते--रो रहा है; भूशम्‌--अत्यधिक; माम्‌ धाता--मुझको पियो; वत्स--प्यारे बेटे; मा रोदी:--मत रोओ; इति--इसप्रकार; इन्द्र: --इन्द्र ने; देशिनीम्‌--तर्जनी अँगुली; अदात्‌ू--चूसने के लिए दे दी।

    वह बालक स्तन के दूध के लिए इतना अधिक रोया कि सारे ब्राह्मण चिन्तित हो उठे।

    उन्होंनेकहा 'इस बालक को कौन पालेगा?

    ' तब उस यज्ञ में पूजित इन्द्र आये और उन्होंने बालक कोसान्त्वना दी 'मत रोओ।

    ' फिर इन्द्र ने उस बालक के मुँह में अपनी तर्जनी अँगुली डालकर कहा'तुम मुझे पी सकते हो।

    'न ममार पिता तस्य विप्रदेवप्रसादत: ।

    युवनाश्रोथ तत्रैव तपसा सिद्धिमन्वगात्‌ ॥

    ३२॥

    न--नहीं; ममार--मरा; पिता--पिता; तस्थ--बालक का; विप्र-देव-प्रसादतः--ब्राह्मणों की कृपा तथा आशीर्वाद से; युवनाश्र:--राजा युवनाश्च; अथ--तत्पश्चात्‌; तत्र एब--वहीं; तपसा--तपस्या द्वारा; सिद्धिमू--सिदर्द्धि; अन्वगात्‌-प्राप्त की |

    चूँकि उस बालक के पिता युवनाश्व को ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त था अतः वह मृत्यु काशिकार नहीं हुआ।

    इस घटना के बाद उसने कठिन तपस्या की और उसी स्थान पर सिद्धि प्राप्त की।

    त्रसहस्युरितीन्द्रोड़ विदधे नाम यस्य वै ।

    यस्मात्त्रसन्ति ह्ुद्धिग्ना दस्यतो रावणादय: ॥

    ३३॥

    यौवनाश्रोथ मान्धाता चक्रवर्त्यवनीं प्रभु: ।

    सप्तद्वीपवतीमेक: शशासाच्युततेजसा ॥

    ३४॥

    त्रसतू-दस्यु:--त्रसहस्यु नाम का ( जो चोरों उचक्कों को धमकाये ); इति--इस प्रकार; इन्द्र:--इन्द्र; अड़--हे राजा; विदधे--दिया;नाम--नाम; यस्य--जिसका; वै--निस्सन्देह; यस्मात्‌ू--जिससे ; त्रसन्ति-- डरे हुए; हि--निश्चय ही; उद्विग्ना:--चिन्ता का कारण;दस्यव:--चोर-उचक्के; रावण-आदय: --रावण इत्यादि राक्षस; यौवनाश्च:--युवनाश्व का पुत्र; अथ--इस प्रकार; मान्धाता--मान्धातानाम से विख्यात; चक्रवर्ती --सारे विश्व का सम्राट; अवनीम्‌--पृथ्वी पर; प्रभु:--स्वामी; सप्त-द्वीप-वतीम्‌--सात द्वीपों वाली;एकः--एकमात्र; शशास--शासन किया; अच्युत-तेजसा-- भगवान्‌ की कृपा से अत्यन्त शक्तिशाली होने से |

    युवनाश्च-पुत्र मान्धाता, रावण तथा चिन्ता उत्पन्न करने वाले अन्य चोर उचक्कों के लिए भय काकारण बना था।

    हे राजा परीक्षित, चूँकि वे सब उससे भयभीत रहते थे, अतएव युवनाश्च का पुत्रत्रसहस्यु कहलाता था।

    यह नाम इन्द्र द्वारा रखा गया था।

    भगवान्‌ की कृपा से युवनाश्च-पुत्र इतनाशक्तिशाली था कि जब वह सप्राट बना तो उसने सात द्वीपों से युक्त सारे विश्व पर शासन किया।

    वह अद्वितीय शासक था।

    ईजे च यज्ञ क्रतुभिरात्मविद्धूरिदक्षिणै: ।

    सर्वदेवमयं देव॑ सर्वात्मकमतीन्द्रियम्‌ ॥

    ३५॥

    द्रव्यं मन्त्रो विधिर्यज्ञो यजमानस्तथर्त्विज: ।

    धर्मो देशश्व॒ कालश्च सर्वमेतद्यदात्मकम्‌ ॥

    ३६॥

    ईजे--उसने पूजा की; च-- भी; यज्ञम्‌--यज्ञों के स्वामी की; क्रतुभि:--कर्मकाण्डों द्वारा; आत्म-वित्‌ू--आत्म-साक्षात्कार के द्वारापूर्णतया अभिज्ञ; भूरि-दक्षिणै:--ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा देकर; सर्व-देव-मयम्‌--सारे देवताओं से युक्त; देवम्‌-- भगवान्‌ को;सर्व-आत्मकम्‌--सबों के परमात्मा; अति-इन्द्रियमू--दिव्य रूप से स्थित; द्रव्यम्‌-- अवयव; मन्त्र: --वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण;विधि:--विधान; यज्ञ:--पूजन; यजमान:--यज्ञ करने वाला; तथा--सहित; ऋत्विज:--पुरोहित; धर्म:--धार्मिक नियम; देश: --देश; च--तथा; काल:--समय; च-- भी; सर्वम्‌--हर वस्तु; एतत्‌--ये सब; यत्‌--जो है; आत्मकम्‌--आत्म-साक्षात्कार के लिए

    उपयुक्त,भगवान्‌ महान्‌ यज्ञों के कल्याणकारी पक्षो से--यथा यज्ञ की सामग्री, वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण, विधि-विधान, यज्ञकर्ता, पुरोहित, यज्ञ-फल, यज्ञ-शाला, यज्ञ के समय, इत्यादि से भिन्ननहीं हैं।

    मान्धाता ने आत्म-साक्षात्कार के नियमों को जानते हुए दिव्य पद पर स्थित परमात्मा स्वरूपउन भगवान्‌ विष्णु की पूजा की जो समस्त देवताओं से युक्त हैं।

    उसने ब्राह्मणों को भी प्रचुर दानदिया और इस तरह उसने भगवान्‌ की पूजा करने के लिए यज्ञ किया।

    यावत्सूर्य उदेति सम यावच्च प्रतितिष्ठति ।

    तत्सर्व यौवनाश्रस्य मान्धातु: क्षेत्रमुच्यते ॥

    ३७॥

    यावत्‌--जब तक; सूर्य: --सूर्य; उदेति--उदय होता है; स्म-- भूतकाल में; यावत्‌--जब तक; च-- भी; प्रतितिष्ठति--रहता है; तत्‌--उपर्युक्त वस्तुएँ; सर्वमू--सभी; यौवना श्वस्थ--युवनाश्र के पुत्र; मान्धातु:--मान्धाता के; क्षेत्रमू--स्थान; उच्चते--कहलाता है।

    क्षितिज में जहाँ से सूर्य उदय होकर चमकता है और जहाँ सूर्य अस्त होता है वे सारे स्थानयुवनाश्च के पुत्र विख्यात मान्धाता के अधिकार में माने जाते हैं।

    शशबिन्दोर्दुहितरि बिन्दुमत्यामधान्रूप: ।

    पुरुकुत्समम्बरीषं मुचुकुन्दं च योगिनम्‌ ।

    तेषां स्वसारः पञ्ञाशत्सौभरिं वब्रिरि पतिमू ॥

    ३८ ॥

    शशबिन्दो:--शशबिन्दु राजा की; दुहितरि--पुत्री; बिन्दुमत्याम्‌ू--बिन्दुमती से; अधात्‌--उत्पन्न किया; नृप:--राजा ( मान्धाता ) ने;पुरुकुत्सम्‌-पुरुकुत्स को; अम्बरीषमू--अम्बरीष को; मुचुकुन्दम्‌-मुचुकुन्द को; च--तथा; योगिनम्‌--योगी; तेषाम्‌--उनमें से;स्वसार:ः--बहनों ने; पञ्ञाशत्‌--पचास; सौभरिम्‌--सौ भरि ऋषि को; वक्रिरि--स्वीकार किया; पतिम्‌--पति रूप में |

    शशबिबन्दु की पुत्री बिन्दुमती के गर्भ से मान्धाता को तीन पुत्र उत्पन्न हुए।

    इनके नाम थे पुरुकुत्स,अम्बरीष तथा महान्‌ योगी मुचुकुन्द।

    इन तीनों भाइयों के पचास बहिनें थीं जिन्होंने सौभरि ऋषि कोअपना पति चुना।

    यमुनान्तर्जले मग्नस्तप्यमान: पर तपः ।

    निर्व॒तिं मीनराजस्य दृष्ठा मैथुनधर्मिण: ॥

    ३९॥

    जातस्पूहो नृपं विप्र: कन्यामेकामयाचत ।

    सोप्याह गृह्मतां ब्रह्मन्कामं कन्या स्वयंवरे ॥

    ४०॥

    यमुना-अन्त:-जले--यमुना नदी के गहरे जल में; मग्न:--पूरी तरह डूबकर; तप्यमान:--तपस्या करते हुए; परमू--असामान्य; तप:--तपस्या; निर्वृतिमू--आनन्द, सुख; मीन-राजस्य--बड़ी मछली का; दृष्टा--देखकर; मैथुन-धर्मिण:--मैथुनरत; जात-स्पृहः --मन चलायमान हो उठा; नृपम्‌--राजा ( मान्धाता ) के पास; विप्र:--ब्राह्मण ( सौभरि ऋषि ); कन्याम्‌ एकाम्‌--इकलौती कन्या;अयाचत--माँगा; सः--उस, राजा ने; अपि-- भी; आह--कहा; गृह्मताम्‌ू--आप ले सकते हैं; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; कामम्‌ू--चाहतीहै; कन्या-- पुत्री; स्वयंवरे--स्वयं चुनाव में, स्वयंवर में |

    सौभरि ऋषि यमुना नदी के गहरे जल में तपस्या में तल्‍लीन थे कि उन्होंने मछलियों के एक जोड़ेको संभोगरत देखा।

    इस तरह उन्होंने विषयी जीवन का सुख अनुभव किया जिससे प्रेरित होकर वेराजा मान्धाता के पास गये और उनसे उनकी एक कन्या की याचना की।

    इस याचना के उत्तर मेंराजा ने कहा, 'हे ब्राह्मण, मेरी कोई भी पुत्री अपनी इच्छा से किसी को भी पति चुन सकती है।

    'स विच्ि्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोहमसन्मतः ।

    वलीपलित एजत्क इल्यहं प्रत्युदाहतः ॥

    ४१॥

    साथधयिष्ये तथात्मानं सुरस्त्रीणामभीष्सितम्‌ ।

    किं पुनर्मनुजेन्द्राणामिति व्यवसितः प्रभु; ॥

    ४२॥

    सः--उस, सौभरि मुनि ने; विचिन्य--अपने आप सोचकर; अप्रियम्‌--अच्छा न लगने वाला; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के द्वारा; जरठ:--वृद्ध होने के कारण अशक्त; अहम्‌--मैं; असत्‌-मतः--उनके द्वारा अनिच्छित; वबली--झुर्री पड़ा; पलित:--सफेद बालों वाला;एजत्‌ू-कः--सदा सिर हिलता हुआ; इति--इस प्रकार; अहम्‌--मैं; प्रत्युदाहतः--त्यक्त; साधयिष्ये--मैं इस तरह करूँगा; तथा--जिस तरह; आत्मानम्‌--मेरा शरीर; सुर-स्त्रीणाम्‌--स्वर्ग की स्त्रियों की; अभीप्सितम्‌--इच्छित; किमू--क्या कहूँ; पुन:--फिर भी;मनुज-इन्द्राणामू--संसार के राजाओं की कन्याओं का; इति--इस तरह; व्यवसित:--निश्चित; प्रभुः--शक्तिशाली योगी सौभरि ने |

    सौभरि मुनि ने सोचा: मैं वृद्धावस्था के कारण अब निर्बल हो गया हूँ।

    मेरे बाल सफेद हो चुकेहैं, मेरी चमड़ी झूल रही है और मेरा सिर सदा हिलता रहता है।

    इसके अतिरिक्त मैं योगी हूँ।

    अतएव येस्त्रियाँ मुझे पसन्द नहीं करतीं।

    चूँकि राजा ने मुझे तिरस्कृत कर दिया है अतएव मैं अपने शरीर कोऐसा बनाऊँगा कि मैं संसारी राजाओं की कन्याओं का ही नहीं अपितु सुर-सुन्दरियों के लिए भीअभीष्ट बन जाऊँ।

    मुनि: प्रवेशित: क्षत्रा कन्यान्तःपुरमृद्धिमत्‌ ।

    वृतः स राजकन्याभिरेक॑ पञ्ञाशता वर: ॥

    ४३॥

    मुनि:--सौभरि मुनि; प्रवेशित:--भीतर ले जाये गये; क्षत्रा--महल के दूत द्वारा; कन्या-अन्तःपुरम्‌--राजकुमारियों के रिहायशीमकान में; ऋद्धि-मत्‌--सभी प्रकार से अत्यन्त ऐश्वर्यमय; वृत:--स्वीकार किया; सः--उसने; राज-कन्याभि:--सारी राजकुमारियोंद्वारा; एकम्‌--अकेला वह; पञ्ञाशता--पचासों द्वारा; वर: --पति |

    तत्पश्चात्‌ जब सौभरि मुनि तरुण और रूपवान हो गये तब राजप्रासाद का दूत उन्हें राजकुमारियोंके अन्तःपुर में ले गया जो अत्यन्त ऐश्वर्यमय था।

    तत्पश्चात्‌ उन पचासों राजकुमारियों ने उस अकेलेव्यक्ति को अपना पति बना लिया।

    तासां कलिरभूद्धूयांस्तदर्थ पोह्म सौहदम्‌ ।

    ममानुरूपो नायं व इति तद्गतचेतसाम्‌ ॥

    ४४॥

    तासाम्‌--सारी राजकुमारियों में; कलि:--कलह तथा बैर; अभूत्‌--हो गया; भूयान्‌--अत्यधिक; तत्‌-अर्थ--सौभरि मुनि को लेकर;अपोह्य--त्यागकर; सौहदम्‌-- अच्छे सम्बन्ध; मम--मेरे; अनुरूप: --उपयुक्त व्यक्ति; न--नहीं; अयम्‌--यह; वः--तुम्हारा; इति--इस प्रकार; तत्‌-गत-चेतसाम्‌--उससे आकृष्ट होकर।

    तत्पश्चात्‌ राजकुमारियाँ सौभरि मुनि द्वारा आकृष्ट होकर अपना बहिन का नाता भूल गईं औरपरस्पर यह कहकर झगड़ने लगीं 'यह व्यक्ति मेरे योग्य है, तुम्हारे योग्य नहीं।

    इस तरह से उन सबोंमें काफी विरोध उत्पन्न हो गया।

    स बह्नचस्ताभिरपारणीयतपःश्रियानर्ध्यपरिच्छदेषु ।

    गृहेषु नानोपवनामलाम्भ:सरःसु सौगन्धिककाननेषु ॥

    ४५॥

    महाईशय्यासनवस्त्रभूषणस्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकै: ।

    स्वलड्ड तस्त्रीपुरुषेषु नित्यदारेमेडनुगायद्द््‌वज भूड़वन्दिषु ॥

    ४६॥

    सः--वह, सौभरि ऋषि; बहु-ऋच: --वैदिक मंत्रों का उपयोग करने में पटु; ताभि:ः--अपनी पत्नियों के साथ; अपारणीय-- असीम;तपः--तपस्या का फल; श्रिया--ऐश्वर्य से; अनर्ध्य--भोग की सामग्री; परिच्छदेषु--विभिन्न वस्त्रों से सज्जित; गृहेषु--घर में; नाना--तरह-तरह के; उपवन--पार्क; अमल--स्वच्छ; अम्भ:--जल; सरःसु--झीलों में; सौगन्धिक --अत्यन्त सुगन्धित; काननेषु--बगीचोंमें; महा-अर्ह--अत्यन्त कीमती; शय्या--बिस्तर; आसन--बैठने के स्थान; वस्त्र--वस्त्र; भूषण--गहने; स्नान--स्नानागार;अनुलेप--चंदन; अभ्यवहार--व्यंजन; माल्यकै:--तथा मालाओं से; सु-अलड्डू त--भलीभाँति सज्जित; स्त्री--स्त्रियाँ; पुरुषेषु--पुरुषों सहित; नित्यदा--निरन्तर; रेमे-- भोग किया; अनुगायत्‌--गायन के साथ; द्विज--पक्षी; भूड़-- भौरे; वन्दिषु--तथा बन्दीजन,पेशेवर गवैये।

    चूँकि सौभरि मुनि मंत्रोचारण करने में पूर्णरूपेन पटु थे अतएव उनकी कठिन तपस्या सेऐश्वर्यशाली घर, वस्त्र, गहने, सुसज्जित दास तथा दासियाँ स्वच्छ जलवाली झीलें, उद्यानों से युक्तविविध बगीचे उत्पन्न हो गये।

    उद्यानों में विविध प्रकार के सुगन्धित फूल, चहकते पक्षी तथा गुनगुनातेभौरे थे और मुनि पेशेवर गायकों से घिरे थे।

    सौभरि मुनि के घर में मूल्यवान बिस्तर, आसन, गहने,स्नानागार और तरह-तरह के चन्दनलेप, फूलमालाएँ तथा स्वादिष्ट व्यंजन थे।

    इस प्रकार ऐश्वर्यशालीसाज-सामान से घिरे हुए सौभरि मुनि अपनी अनेक पत्नियों के साथ गृहकार्यों में व्यस्त हो गये।

    यद्गाईस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपति: ।

    विस्मितः स्तम्भमजहात्सार्वभौमश्रियान्वितम्‌ ॥

    ४७॥

    यत्‌--जो; गा्ईस्थ्यम्‌--गृहस्थ जीवन को; तु--लेकिन; संवीक्ष्य--देखकर; सप्त-द्वीप-वती-पतिः--सात द्वीप वाले समस्त जगत काराजा मान्धाता; विस्मित:--आश्चर्यचकित; स्तम्भम्‌--गौरवशाली पद के कारण घमंड; अजहात्‌--त्याग दिया; सार्व-भौम--सारेजगत का सम्राट; अया-अन्वितमू--सभी प्रकार के ऐश्वर्यों से युक्त |

    सप्तद्वीपमय जगत के राजा मान्धाता ने जब सौभरि मुनि के घरेलू ऐश्वर्य को देखा तो वेआश्चर्यचकित रह गये।

    उन्होंने जगत के सम्राट के रूप में अपनी झूठी प्रतिष्ठा छोड़ दी।

    एवं गृहेष्वभिरतो विषयान्विविधे: सुखैः ।

    सेवमानो न चातुष्यदाज्यस्तोकैरिवानल: ॥

    ४८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार; गृहेषु--घरेलू कार्यों में; अभिरत:--सदैव व्यस्त; विषयान्‌ू-- भौतिक साज-सामग्री; विविधै: --नाना प्रकार के;सुखै:--सुख से; सेवमान:--सेवित होकर; न--नहीं; च--भी; अतुष्यत्‌--सन्तुष्ट हुआ; आज्य-स्तोकै :--घी की बूँदों से; इब--सहश; अनलः--अग्नि।

    इस प्रकार सौभरि मुनि इस भौतिक जगत में इन्द्रियतृप्ति करते रहे, किन्तु वे तनिक भी सन्तुष्टनहीं थे जिस प्रकार निरन्तर घी की बूँदें पाते रहने से अग्नि कभी जलना बन्द नहीं करती।

    सर 'कदाचिदुपासीन आत्मापह्नवमात्मन: ।

    ददर्श बह्नचाचार्यो मीनसड्रसमुत्थितम्‌ ॥

    ४९॥

    सः--वह, सौभरि मुनि; कदाचित्‌--एक दिन; उपासीन:--बैठा हुआ; आत्म-अपहृवम्‌--तपस्या के पद से च्युत होकर; आत्मन:--स्वयं; दरदर्श--देखा; बहु-ऋच-आचार्य: --मंत्रों के उच्चारण में पटु सौभरि मुनि; मीन-सड़--मछली का मैथुन; समुत्थितम्‌ू--इसघटना से उत्पन्नतत्पश्चात्‌ मंत्रोच्चार करने में पटु सौभरि मुनि एक दिन जब एकान्त स्थान में बैठे थे, तो उन्होंनेअपने पतन के कारण के विषय में सोचा।

    कारण यही था कि उन्होंने एक मछली के मैथुन से अपनेआपको सम्बद्ध कर दिया था।

    अहो इमं पश्यत मे विनाशं'तपस्विनः सच्चरितत्रतस्य ।

    अन्तर्जले वारिचरप्रसडझत्‌प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत्‌ ॥

    ५०॥

    अहो--ओह; इमम्‌--यह; पश्यत--जरा देखो तो; मे--मेरा; विनाशम्‌--पतन; तपस्विन:--तपस्वी; सत्‌-चरित--अच्छे चरित्र वाला;ब्रतस्थ--ब्रत धारण करने वाले का; अन्त:-जले--जल के भीतर; वारि-चर-प्रसड्रातू--जलचरों के मैथुन कार्य से; प्रच्यावितम्‌--गिरा हुआ; ब्रह्म--ब्रह्म-साक्षात्कार या तपस्या के कार्यों से; चिरम--दीर्घकाल तक; धृतम्‌ू--किये गये; यत्‌--जो |

    ओह! गम्भीर जल के भीतर तपस्या करने पर भी तथा साधु पुरुषों द्वारा अभ्यास किये जाने वालेसारे विधि-विधानों का पालन करते हुए भी मैंने मात्र मछली के मैथुन-सात्नरिध्य के कारण अपनीदीर्घकालीन तपस्या का फल हाथों से जाने दिया।

    हर एक को इस पतन को देखकर इससे सीखलेनी चाहिए।

    सड़ूं त्यजेत मिथुनब्रतीनां मुमुक्षु: सर्वात्मना न विसृजेद्ठहिरिन्द्रियाणि ।

    एककश्चरत्रहसि चित्तमनन्त ईशेयुद्जीत तद्ब्रतिषु साधुषु चेत्प्रसड़: ॥

    ५१॥

    सड्डम्‌ू--संगति; त्यजेत--छोड़ देना चाहिए; मिथुन-ब्रतीनाम्‌ू--वैध या अवैध मैथुन कार्यो में लगे रहने वाले व्यक्तियों का; मुमुक्षु:--मोक्ष चाहने वाले व्यक्ति; सर्व-आत्मना--सभी प्रकार से; न--नहीं; विसृजेत्‌ू--काम में लगाये; बहि:-इन्द्रियाणि--बाहरी इन्द्रियों को;एकः--अकेले; चरन्‌--घूमते हुए; रहसि--एकान्त स्थान में; चित्तमू--मन; अनन्ते ईशे--असीम भगवान्‌ के चरणकमलों पर स्थिर;युद्भीत--लगाये; तत्‌-ब्रतिषु--एक ही कोटि के लोगों के साथ ( जो भवबन्धन से मोक्ष के कामी हों ); साधुषु--ऐसे पुरुषों की;चेत्‌--यदि; प्रसड्भ:--संगति।

    भवबन्धन से मोक्ष की कामना करने वाले पुरुष को वासनामय जीवन में रुचि रखने वालेव्यक्तियों की संगति छोड़ देनी चाहिए और अपनी इन्द्रियों को किसी बाह्मकर्म में ( देखने, सुनने,बोलने, चलने इत्यादि ) नहीं लगाना चाहिए।

    उसे सदैव एकान्त स्थान में ठहरना चाहिए और मन कोअनन्त भगवान्‌ के चरणकमलों पर पूर्णतः स्थिर करना चाहिए।

    यदि कोई संगति करनी भी हो तोउसे उसी प्रकार के कार्य में लगे पुरुषों की संगति करनी चाहिए।

    एकस्तपस्व्यहमथाम्भसि मत्स्यसड्भरात्‌पञ्ञाशदासमुत पञ्ञसहस्त्रसर्ग: ।

    नान्तं ब्रजाम्युभयकृत्यमनोरथानांमायागुणैईतमतिर्विषये३र्थभाव: ॥

    ५२॥

    एकः--एकमात्र; तपस्वी--मुनि; अहमू--मैंने; अथ--इस प्रकार; अम्भसि--गहरे जल में; मत्स्य-सड्ञात्‌--मछली की संगति में रहनेसे; पञ्चाशत्‌ू--पचास; आसमू--पत्ियाँ प्राप्त कीं; उत--हर एक से सौ-सौ पुत्र उत्पन्न करना दूर रहा; पञ्ञ-सहस्त्र-सर्ग:--पाँच हजारसन्‍्ताने; न अन्तम्‌--कोई अन्त नहीं; ब्रजामि--ढूँढ सकता हूँ; उभय-कृत्य--इस जन्म तथा अगले जन्म के कार्य; मनोरथानाम्‌ू--मनोरथ; माया-गुणैः-- प्रकृति के गुणों द्वारा प्रभावित; हृत--खोया हुआ; मति: विषये-- भौतिक वस्तुओं के लिए विशेष आकर्षण;अर्थ-भाव:--स्वार्थ की बातें

    शुरू में मैं अकेला था और योग की तपस्या करता रहता था, किन्तु बाद में मैथुनरत मछली कीसंगति के कारण मुझमें विवाह करने की इच्छा जगी।

    तब मैं पचास पत्नियों का पति बन गया औरहर एक ने एक एक सौ पुत्र उत्पन्न किये।

    इस तरह मेरे परिवार में पाँच हजार सदस्य हो गये।

    प्रकृतिके गुणों से प्रभावित होकर मेरा पतन हुआ और मैंने सोचा कि भौतिक जीवन में मैं सुखी रहूँगा।

    इसतरह इस जीवन तथा अगले जीवन में भोग के लिए मेरी इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है।

    एवं वसन्गृहे कालं विरक्तो न्‍यासमास्थित: ।

    वन॑ जगामानुययुस्तत्पत्य: पतिदेवता: ॥

    ५३॥

    एवम्‌--इस तरह; वसन्‌--रहते हुए; गृहे--घर पर; कालम्‌--समय बिताकर; विरक्त:--विरक्त हो गया; न्यासम्‌--वानप्रस्थ आश्रममें; आस्थित:--स्थित हो गया; वनम्‌--जंगल में; जगाम--वह चला गया; अनुययु: --उसके पीछे-पीछे; तत्‌-पल्य: --उसकी सारीपत्नियाँ; पति-देवता:--क्योंकि पति ही उनका एकमात्र आराध्य था।

    इस तरह उसने कुछ काल तक घरेलू कार्यो में अपना जीवन बिताया लेकिन बाद में वह भौतिकभोग से विरक्त हो गया।

    उसने भौतिक संगति का परित्याग करने के लिए वानप्रस्थ आश्रम ग्रहणकिया और फिर वह जंगल में चला गया।

    पतिपरायणा पत्नियों ने उसका अनुसरण किया क्योंकिअपने पति के अतिरिक्त उनका कोई आश्रय न था।

    तत्र तप्त्वा तपस्तीक्ष्णमात्मदर्शनमात्मवान्‌ ।

    सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि ॥

    ५४॥

    तत्र--जंगल में; तप्त्वा--तपस्या करते हुए; तप:--तपस्या के नियम; तीक्ष्णम्‌--अत्यन्त कठोर; आत्म-दर्शनम्‌--आत्म-साक्षात्कार मेंसहायक; आत्मवान्‌--आत्म से अभिज्ञ; सह--साथ में; एब--निश्चय ही; अग्निभि:--अग्नियों के; आत्मानम्‌--स्वयं को; युयोज--लगाया; परम-आत्मनि--परमात्मा में |

    जब आत्मवान सौभरि मुनि जंगल में चले गये तो उन्होंने कठोर तपस्याएँ की।

    इस तरह अन्ततःमृत्यु के समय उन्होंने अग्नि में स्वयं को भगवान्‌ की सेवा में लगा दिया।

    ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याध्यात्मिकीं गतिम्‌ ।

    अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्नि शान्तमिवार्चिष: ॥

    ५५॥

    ताः--सौभरि की सारी पत्रियाँ; स्व-पत्यु:--अपने पति के साथ; महाराज--हे राजा परीक्षित; निरीक्ष्य--देखकर; अध्यात्मिकीम्‌--आध्यात्मिक; गतिम्‌-- प्रगति; अन्वीयु:--अनुसरण किया; तत्‌-प्रभावेण--यद्यपि वे अयोग्य थीं किन्तु अपने पति के प्रभाव से, वे भीआध्यात्मिक लोक को चली गईं; अग्निमू--अग्नि; शान्तम्‌--पूर्णतया एकाकार; इब--सहृश; अर्चिष:--लपढें |

    है महाराज परीक्षित, अपने पति को आध्यात्मिक जगत की ओर प्रगति करते देखकर सौभरिमुनि की पत्नियाँ भी मुनि की आध्यात्मिक शक्ति से बैकुण्ठलोक में प्रवेश करने में समर्थ हुईं जिसतरह अग्नि बुझाने पर अग्नि की ज्वालाएँ शमित हो जाती हैं।

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    अध्याय सात: राजा मान्धाता के वंशज

    9.7श्रीशुक उबाचमाच्धातुः पुत्रप्रवरो योउम्बरीष: प्रकीर्तितः ।

    पितामहेनप्रवृतो यौवनाश्रस्तु तत्सुतः ।

    हारीतस्तस्य पुत्रो भून्मान्धातृप्रवरा इमे ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; मान्धातु:--मान्धाता का; पुत्र-प्रवर:--प्रमुख पुत्र; यः--जो; अम्बरीष:--अम्बरीष;प्रकीर्तित:--विख्यात; पितामहेन-- अपने बाबा युवनाश्र द्वारा; प्रवृत:--स्वीकृत; यौवनाश्र: --यौवना श्र; तु--तथा; तत्‌-सुत:--अम्बरीष का पुत्र; हारीत:--हारीत; तस्य--यौवनाश्व का; पुत्र:--पुत्र; अभूत्‌ू--हुआ; मान्धातृ--मान्धाता के वंश में; प्रवरा: -- अत्यन्तप्रमुख; इमे--ये सभी |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : मान्धाता का सर्वप्रमुख पुत्र अम्बरीष नाम से विख्यात हुआ।

    अम्बरीषको उसके बाबा युवनाश्च ने पुत्र रूप में स्वीकार किया।

    अम्बरीष का पुत्र यौवनाश्व हुआ औरयौवनाश्च का पुत्र हारीत था।

    मान्धाता के वंश में अम्बरीष, हारीत तथा यौवनाश्च अत्यन्त प्रमुख थे।

    नर्मदा भ्रातृभिर्दत्ता पुरुकुत्साय योरगै: ।

    तया रसातलं नीतो भुजगेन्द्रप्रयुक्तया ॥

    २॥

    नर्मदा--नर्मदा नामक; भ्रातृभि:ः--अपने भाइयों से; दत्ता--दान में दी गई; पुरुकुत्साय--पुरुकुत्स को; या--जो; उरगै: --सर्पो( सर्पगण ) द्वारा; तया--उसके द्वारा; रसातलमू्‌--ब्रह्माण्ड के निम्न भागों को; नीत:--ले जाया गया; भुजग-इन्द्र-प्रयुक्तया--सर्पों केराजा वासुकि द्वारा लगाया गया।

    नर्मदा के सर्प-भाइयों ने उसे पुरुकुत्स को दे दिया।

    वासुकि द्वारा भेजे जाने पर नर्मदा पुरुकुत्सको ब्रह्माण्ड के निम्न भाग ( रसातल ) में ले गई।

    गन्धर्वानवधीत्तत्र वध्यान्वै विष्णुशक्तिधृक्‌ ।

    नागाल्‍लब्धवर: सर्पादभयं स्मरतामिदम्‌ ॥

    ३॥

    गन्धर्वानू--गन्धर्वलोक के निवासियों को; अवधीत्‌--मार डाला; तत्र--वहाँ ( रसातल में ); वध्यान्‌ू--वध करने के योग्य; वै--निस्सन्देह; विष्णु-शक्ति-धृक्‌-- भगवान्‌ विष्णु द्वारा शक्ति प्रदत्त; नागातू-नागों से; लब्ध-बरः--वर प्राप्त करके ; सर्पातू--सर्पो से;अभयमू--आश्वासन; स्मरताम्‌--स्मरण करने वालों को; इृदम्‌--यह घटना।

    रसातल में भगवान्‌ विष्णु द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने के कारण पुरुकुत्स मारे जाने के योग्यसभी गन्धर्वों का वध करने में समर्थ हो गया।

    पुरुकुत्स को सर्पों से यह वर प्राप्त हुआ कि जो कोईनर्मदा द्वारा रसातल में उसके लाये जाने के इतिहास को स्मरण करेगा उसे सर्पों के आक्रमण सेसुरक्षा प्रदान की जायेगी।

    असहस्यु: पौरुकुत्सो योउनरण्यस्य देहकृत्‌ ।

    हर्यश्वस्तत्सुतस्तस्मात्प्रारुणोथ त्रिबन्धन: ॥

    ४॥

    असहस्यु:ः--त्रसहस्यु नामक; पौरुकुत्स:--पुरुकुत्स का पुत्र; यः--जो; अनरण्यस्य--अनरण्य का; देह-कृत्‌ू--पिता; हर्यश्च:--हर्य श्;ततू-सुत:--अनरण्य का पुत्र; तस्मात्‌--उस ( हर्यश्व ) से; प्रारुण:--प्रारुण; अथ--तब, प्रारुण से; त्रिबन्धन: --उसका पुत्रत्रिबन्धन।

    पुरुकुत्स का पुत्र त्रसहस्यु हुआ जो अनरण्य का पिता था।

    अनरण्य का पुत्र हर्यश्च हुआ जोप्रारुण का पिता बना।

    प्रारुण का पुत्र त्रिबन्धन हुआ।

    तस्य सत्यत्रतः पुत्रस्त्रिश्डु रिति विश्रुत: ।

    प्राप्तश्चाण्डालतां शापादगुरो: कौशिकतेजसा ॥

    ५॥

    सशरीरो गतः स्वर्गमद्यापि दिवि हश्यते ।

    पातितोवाक्शिरा देवैस्तेनेव स्तम्भितो बलात्‌ ॥

    ६॥

    तस्य--त्रिबन्धन का; सत्यव्रतः--सत्यक्रत; पुत्र: -पुत्र; त्रिशड्लु :-त्रिशंकु; इति--इस प्रकार; विश्रुतः--विख्यात; प्राप्त:--प्राप्तकिया था; चाण्डालताम्‌--चण्डाल के गुण, जो शूद्र से भी अधम होता है; शापात्‌--शाप से; गुरो:--अपने गुरु के; कौशिक-तेजसा--कौशिक ( विश्वामित्र ) की शक्ति से; सशरीर:--इस शरीर सहित; गत:--गया; स्वर्गमू--स्वर्गलोक को; अद्य अपि--आजभी; दिवि--आकाश में; दृश्यते--देखा जा सकता है; पातित:--गिराया जाकर; अवाक्‌-शिरा:--सिर नीचे किये लटकता हुआ;देवैः--देवताओं की शक्ति से; तेन--विश्वामित्र द्वारा; एब--निस्सन्देह; स्तम्भित:--स्थिर; बलातू--बल से।

    त्रिबन्धन का पुत्र सत्यव्रत था जो त्रिशंकु नाम से विख्यात है।

    चूँकि उसने विवाह-मण्डप से एकब्राह्मणपुत्री का अपहरण कर लिया था इसलिए उसके पिता ने उसे चण्डाल बनने का शाप दे दियाजो शूद्र से भी नीचे होता है।

    तत्पश्चात्‌ विश्वामित्र के प्रभाव से वह सदेह स्वर्गलोक गया, किन्तु देवताओं के पराक्रम से वह पुनः नीचे गिर गया।

    तो भी विश्वामित्र की शक्ति से वह एकदम नीचे नहींगिरा।

    आज भी वह आकाश में सिर के बल लटकता देखा जा सकता है।

    त्रैशड्डवो हरिश्वन्द्रो विश्वामित्रवसिष्ठयो: ।

    यन्निमित्तमभूदुद्धं पक्षिणोर्बहुवार्षिकम्‌ ॥

    ७॥

    त्रैशड्डृब:ः--त्रिशंकु का पुत्र; हरिश्वन्द्र:--हरिश्वन्द्र; विश्वामित्र-वसिष्ठयो:--विश्वामित्र तथा वसिष्ठ के मध्य; यत्‌-निमित्तम्‌--हरिश्वन्द्र कोलेकर; अभूत्‌--हुआ; युद्धमू-- भीषण लड़ाई; पक्षिणो:--दोनों पक्षी के रूप में बदल दिये गये थे; बहु-वार्षिकम्‌-- अनेक वर्षोतक

    त्रिशंकु का पुत्र हरिश्वन्द्र हुआ।

    हरिश्वन्द्र को लेकर विश्वामित्र तथा वसिष्ठ में युद्ध हुआ।

    वे दोनोंपक्षी के रूप में बदले जाकर वर्षों तक लड़ते रहे।

    सोनपत्यो विषण्णात्मा नारदस्योपदेशतः ।

    वरुणं शरणं यातः पुत्रो मे जायतां प्रभो ॥

    ८॥

    सः--वह; अनपत्य: --सन्तानहीन; विषणण-आत्मा--अत्यन्त खिन्न; नारदस्य--नारद के; उपदेशत:--उपदेश से; वरुणमू--वरुणकी; शरणम्‌ यात:--शरण में गया; पुत्र:--पुत्र; मे--मेरे; जायताम्‌--उत्पन्न हो; प्रभो--हे प्रभु।

    हरिश्वन्द्र के कोई पुत्र न था; अतएव वह अत्यन्त खिन्न रहता था।

    अतएवं एक बार नारद मुनि केउपदेश से उसने वरुण की शरण ग्रहण की और उनसे कहा ' हे प्रभु, मेरे कोई पुत्र नहीं है।

    क्या आपमुझे एक पुत्र दे सकेंगे ?

    '! यदि वीरो महाराज तेनैव त्वां यजे इति ।

    तथेति वरुणेनास्य पुत्रो जातस्तु रोहित: ॥

    ९॥

    यदि--यदि; वीर:ः--पुत्र होगा; महाराज--हे महाराज परीक्षित; तेन एव--उस पुत्र से भी; त्वामू--तुमको; यजे--मैं यज्ञ करूँगा;इति--इस प्रकार; तथा-- जैसी तुम्हारी इच्छा; इति--इस प्रकार स्वीकार किया गया; वरुणेन--वरुण द्वारा; अस्य--महाराज हरिश्न्द्रका; पुत्र:--पुत्र; जात:--उत्पन्न हुआ; तु--निस्सन्देह; रोहित:--रोहित नामक |

    हे राजा परीक्षित, हरिश्वन्धर ने वरुण से याचना की, 'हे प्रभु, यदि मेरे पुत्र उत्पन्न होगा तो मैंआपकी तुष्टि के लिए उसी से एक यज्ञ करूँगा।

    ' जब हरिश्वन्द्र ने यह कहा तो वरुण ने उत्तर दिया'एवमस्तु, ' वरुण के आशीर्वाद से हरिश्वन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ।

    जातः सुतो हानेनाड़ मां यजस्वेति सोब्रवीतू ।

    यदा पशुर्निर्देशः स्थादथ मेध्यो भवेदिति ॥

    १०॥

    जातः--उत्पन्न हो गया; सुतः--पुत्र; हि--निस्सन्देह; अनेन--इस पुत्र से; अड़--हे हरिश्वन्द्र; मामू--मुझको; यजस्व--यज्ञ करना;इति--इस प्रकार; सः--वह ( वरुण ); अब्नवीत्‌--कहा; यदा--जब; पशु: --पशु; निर्दश: --दस दिन बीतें; स्थात्‌--हो जाये;अथ--तब; मेध्य:--यज्ञ में भेंट करने योग्य; भवेत्‌--हो जाये; इति--इस प्रकार ( हरिश्वन्द्र ने कहा )

    अतः जब पुत्र उत्पन्न हो गया तो वरुण ने हरिश्वन्द्र के पास आकर कहा 'अब तुम्हारे पुत्र होगया है।

    तुम इस पुत्र से मेरा यज्ञ कर सकते हो।

    ' इसके उत्तर में हरिश्वन्द्र ने कहा 'पशु अपने जन्मके दस दिन बाद ही यज्ञ ( बलि दिये जाने ) के योग्य होता है।

    'निर्दशे च स आगत्य यजस्वेत्याह सोउब्रवीत्‌ ।

    दन्ताः पशोर्यज्ञायेरन्नथ मेध्यो भवेदिति ॥

    ११॥

    निर्दशे--दस दिन बाद; च-- भी; सः--वह, वरुण; आगत्य--यहाँ आकर; यजस्व--अब यज्ञ करो; इति--इस प्रकार; आह--कहा;सः--उसने, हरिश्वन्द्र ने; अब्रवीत्‌--उत्तर दिया; दन्‍्ता:--दाँत; पशो:--पशु के; यत्‌ू--जब; जायेरनू-- प्रकट हो जाएँ; अथ--तब;मेध्य:--बलि देने के योग्य; भवेत्‌--हो जायेगा; इति--इस प्रकार।

    दस दिन बाद वरुण पुनः आया और हरिश्वन्द्र से कहा ' अब तुम यज्ञ कर सकते हो।

    ' हरिश्वन्द्रने उत्तर दिया, 'जब पशु के दाँत आ जाते हैं तो वह बलि देने के योग्य शुद्ध बनता है।

    'दन्ता जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोब्रवीत्‌ ।

    यदा पतनन्‍त्यस्य दन्‍्ता अथ मेध्यो भवेदिति ॥

    १२॥

    दनन्‍्ता:ः--दाँत; जाता:--उग आये; यजस्व--अब बलि दो; इति--इस प्रकार; सः--वह वरुण; प्रत्याह--बोला; अथ--तत्पश्चात्‌;सः--उसने, हरिश्वन्द्र ने; अब्रवीत्‌--उत्तर दिया; यदा--जब; पतन्ति--गिरते हैं; अस्य--उसके; दन्ता:--दाँत; अथ--तब; मेध्य:--बलि के योग्य; भवेत्‌--हो जायेगा; इति--इस प्रकार |

    जब दाँत उग आये तो वरुण ने आकर हरिश्वन्द्र से कहा, 'अब पशु के दाँत उग आये हैं।

    तुमयज्ञ कर सकते हो।

    ' हरिश्वन्द्र ने उत्तर दिया, 'जब इसके सारे दाँत गिर जायेंगे तो यह बलि के योग्यहो जायेगा।

    'पशोर्निपतिता दन्ता यजस्वेत्याह सोउब्रवीत्‌ ।

    यदा पशोः पुनर्दन्ता जायन्तेथ पशु: शुच्चि: ॥

    १३॥

    'पशो:--पशु के; निपतिता:--गिर चुके हैं; दन्‍्ता:--दाँत; यजस्व--अब यज्ञ करो; इति--इस प्रकार; आह--कहा; सः--उसने,हरिश्वन्द्र ने; अब्नवीत्‌--उत्तर दिया; यदा--जब; पशो:--पशु के; पुन:ः--फिर; दन्ता:--दाँत; जायन्ते--उगते हैं; अथ--तब; पशु:--पशु; शुचिः:--बलि देने के लिए पवित्र होता है।

    जब दाँत गिर चुके तो वरुण फिर आया और हरिश्वन्द्र से बोला 'अब पशु के दाँत गिर चुके हैंऔर तुम यज्ञ कर सकते हो ।

    ' किन्तु हरिश्वन्द्र ने उत्तर दिया, 'जब पशु के दाँत फिर से उग आयेंगे तोवह बलि देने के लिए अत्यन्त शुद्ध होगा।

    'पुनर्जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोउब्रवीतू ।

    सान्नाहिको यदा राजन्राजन्योथ पशु: शुचि: ॥

    १४॥

    पुनः--फिर से; जाता:--उग आये हैं; यजस्व--बलि चढ़ाओ; इति--इस प्रकार; सः--उसने, वरुण ने; प्रत्याह--उत्तर दिया; अथ--तत्पश्चात्‌; सः--वह, हरिश्वन्द्र; अब्रवीत्‌--बोला; सान्नाहिक:--ढाल से अपने को सजाने में समर्थ; यदा--जब; राजन्‌--हे राजावरुण; राजन्य:--क्षत्रिय; अथ--तब; पशु:--बलि पशु; शुचि:--पवित्र हो जाता है।

    जब दाँत फिर से उग आये तो वरुण फिर आया और हरिश्वन्द्र से बोला, 'अब तुम यज्ञ करसकते हो।

    ' किन्तु तब हरिश्वन्द्र ने कहा, 'हे राजा, जब बलि का पशु क्षत्रिय बन जाता है और वहअपने शत्रु से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है, तभी वह शुद्ध बनेगा।

    'इति पुत्रानुरागेण स्नेहयन्त्रितचेतसा ।

    काल वज्ञयता तं तमुक्तो देवस्तमैक्षत ॥

    १५॥

    इति--इस प्रकार; पुत्र-अनुरागेण -- अपने पुत्र-स्नेह के कारण; स्नेह-यन्त्रित-चेतसा--मन ऐसे स्नेह के वशीभूत होकर; कालम्‌--समय को; वज्ञयता--ठगते हुए; तम्‌--उसको; तम्‌ू--वह; उक्त:--कहा; देव:--वरुण देव; तम्‌--उसको, हरिश्वन्द्र को; ऐक्षत--अपना वचन पालन किये जाने की प्रतीक्षा करता रहा।

    हरिश्वन्द्र अपने पुत्र के प्रति अत्यधिक अनुरक्त था।

    इस स्नेह के कारण उसने वरुण देव सेप्रतीक्षा करने के लिए कहा।

    इस तरह वरुण समय आने की प्रतीक्षा करता रहा।

    रोहितस्तदभिज्ञाय पितु: कर्म चिकीर्षितम्‌ ।

    प्राणप्रेप्सुर्धनुष्पाणिररण्यं प्रत्यपद्यत ॥

    १६॥

    रोहित:--हरिश्वन्द्र का पुत्र; तत्‌ू--यह तथ्य; अभिज्ञाय--ठीक से समझकर; पितु:--पिता का; कर्म--काम; चिकीर्षितम्‌--जिसे वहव्यावहारिक रूप से कर रहा था; प्राण-प्रेप्सु; --जीवन बचाने की इच्छा से; धनु:-पाणि:--अपना धनुष बाण लेते हुए; अरण्यम्‌--जंगल; प्रत्यपद्यत--चला गया।

    रोहित समझ गया कि उसके पिता उसे बलि का पशु बनाना चाहते हैं।

    अतएव मृत्यु से बचने केलिए उसने धनुष-बाण से अपने आपको सज्जित किया और वह जंगल में चला गया।

    पितरं वरुणग्रस्तं श्रुत्ता जातमहोदरम्‌ ।

    रोहितो ग्राममेयाय तमिन्द्र: प्रत्यषेधत ॥

    १७॥

    पितरम्‌ू--अपने पिता के विषय में; वरुण-ग्रस्तम्‌--वरुण द्वारा जलोदर रोग से आक्रमण किया गया; श्रुत्वा--सुनकर; जात--बढ़गया था; महा-उदरम्‌--फूला पेट; रोहित:--उसके पुत्र रोहित ने; ग्रामम्‌ एयाय--राजधानी आना चाहता था; तम्‌ू--उसको; इन्द्र: --राजा इन्द्र ने; प्रत्यषेधत--वहाँ जाने से मना कर दिया।

    जब रोहित ने सुना कि वरुण के कारण उसके पिता को जलोदर रोग हो गया है और उसका पेट'फूल गया है तो वह राजधानी लौट आना चाहता था लेकिन राजा इन्द्र ने ऐसा करने से उसे मना करदिया।

    भूमेः पर्यटन पुण्य तीर्थक्षेत्रनिषिवणै: ।

    रोहितायादिशच्छक्र: सोप्यरण्येउवसत्समाम्‌ ॥

    १८॥

    भूमे:--संसार भर का; पर्यटनम्‌-- भ्रमण; पुण्यम्‌--पतवित्र स्थानों को; तीर्थ-क्षेत्र--तीर्थ स्थल; निषेवणै:--ऐसे स्थानों में सेवा करनेया आने जाने से; रोहिताय--रोहित को; आदिशत्‌--आज्ञा दी; शक्र:--इन्द्ध ने; सः--वह, रोहित; अपि-- भी; अरण्ये--जंगल में;अवसत्‌--रहता रहा; समाम्‌--एक वर्ष तक ।

    राजा इन्द्र ने रोहित को सलाह दी कि वह विभिन्न तीर्थस्थानों तथा पवित्र स्थलों की यात्रा करेक्योंकि ऐसे कार्य पवित्र होते हैं।

    इस आदेश का पालन करते हुए रोहित एक वर्ष के लिए जंगल मेंचला गया।

    एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थ पञ्ञमे तथा ।

    अभ्येत्याभ्येत्य स्थविरो विप्रो भूत्वाह वृत्रहा ॥

    १९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; द्वितीये--दूसरे वर्ष; तृतीये--तीसरे वर्ष; चतुर्थे--चौथे वर्ष; पदञ्ञमे--पाँचवें वर्ष; तथा-- और; अभ्येत्य--उसकेसामने आकर; अभ्येत्य--फिर से उसके सामने आकर; स्थविर: --अत्यन्त वृद्ध पुरुष; विप्र: --ब्राह्मण; भूत्वा--बनकर; आह--कहा;वृत्र-हा--इन्द्र ने।

    इस तरह द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ तथा पंचम वर्षों के अन्त में जब-जब रोहित अपनी राजधानीलौटना चाहता तो इन्द्र एक वृद्ध ब्राह्मण के वेश में उसके पास पहुँचता और वापस जाने के लिए उसेमना करता।

    वह गत वर्ष जैसे ही शब्दों को फिर से दुहराता।

    षष्ठे संवत्सरं तत्र चरित्वा रोहित: पुरीम्‌ ।

    उपक्रजन्नजीगर्तादक्रीणान्मध्यमं सुतम्‌ ।

    शुनःशेफं पशु पित्रे प्रदाय समवन्दत ॥

    २०॥

    षष्ठम्‌--छठवें; संवत्सरम्--वर्ष; तत्र--उस जंगल में; चरित्वा--घूमकर; रोहित:--हरिश्वन्द्र का पुत्र; पुरीमू-- अपनी राजधानी में;उपब्रजन्‌ू--वहाँ जाकर; अजीगर्तात्‌--अजीगर्त से; अक्रीणात्‌--मोल लिया; मध्यमम्‌--दूसरा; सुतम्‌--पुत्र; शुनःशेफम्‌--जिसकानाम शुनःशेफ था; पशुम्‌--बलि-पशु के रूप में; पित्रे--अपने पिता को; प्रदाय--देते हुए; समवन्दत--सादर नमस्कार किया।

    तत्पश्चात्‌ छठे वर्ष जंगल में घूमने के बाद रोहित अपने पिता की राजधानी में लौट आया।

    उसनेअजीगर्त से उसके दूसरे पुत्र शुन:शेफ को मोल लिया।

    फिर उसे लाकर अपने पिता हरिश्वन्द्र को भेंटकिया जिससे वह बलि-पशु के रूप में प्रयुक्त किया जा सके।

    उसने हरिश्वन्द्र को सादर नमस्कार किया।

    ततः पुरुषमेधेन हरिश्चन्द्रोी महायशा: ।

    मुक्तोदरोयजद्देवान्वरुणादीन्महत्कथ: ॥

    २१॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; पुरुष-मेधेन--यज्ञ में मनुष्य की बलि देने से; हरिश्वन्द्रः--राजा हरिश्वन्द्र; महा-यशा:--अत्यन्त विख्यात; मुक्त-उदरः--जलोदर रोग से मुक्त हो गया; अयजत्‌--यज्ञ किया; देवानू--देवताओं को; वरुण-आदीन्‌--वरुण तथा अन्यों को; महत्‌-कथः--अन्य महापुरुषों के साथ इतिहास प्रसिद्ध |

    तत्पश्चात्‌ इतिहास के महापुरुष एवं सुप्रसिद्ध राजा हरिश्वन्द्र ने एक मनुष्य की बलि देकर महान्‌यज्ञ सम्पन्न किया और सारे देवताओं को प्रसन्न किया।

    इस प्रकार वरुण द्वारा उत्पन्न किया गयाउसका जलोदर रोग जाता रहा।

    विश्वामित्रो भवत्तस्मिन्होता चाध्वर्युरात्मवान्‌ ।

    जमदग्निरभूद्हा वसिष्ठो यास्य: सामग: ॥

    २२॥

    विश्वामित्र:--ऋषि तथा योगी विश्वामित्र; अभवत्‌--बना; तस्मिनू--उस महान्‌ यज्ञ में; होता--आहुति डालने वाला मुख्य पुरोहित;च--भी; अध्वर्यु:--यजुर्वेद से स्तोत्र गाने वाला तथा कर्मकाण्ड कराने वाला व्यक्ति; आत्मवान्‌--पूर्णतया स्वरूपसिद्ध; जमदग्नि: --जमदग्नि; अभूत्‌--बना; ब्रह्मा--मुख्य ब्राह्मण के रूप में; वसिष्ठ:--एक मुनि; अयास्य:--अयास्य मुनि; साम-ग:--सामवेद मंत्रों कोगाने में लगा हुआ |

    उस पुरुषमेध यज्ञ में विश्वामित्र होता थे, आत्मवान जमदग्नि अध्वर्यु थे, वसिष्ठ ब्रह्म थे औरअयास्य मुनि साम-गायक थे।

    तस्मै तुष्टो ददाविन्द्र: शातकौम्भमयं रथम्‌ ।

    शुनःशेफस्य माहात्म्यमुपरिष्टात्प्रचक्ष्यते ॥

    २३॥

    तस्मै--राजा हरिश्वन्द्र को; तुष्ट:-- अत्यन्त प्रसन्न होकर; ददौ--प्रदान किया; इन्द्र: --इन्द्र ने; शातकौम्भ-मयम्‌--स्वर्णनिर्मित;रथम्‌--रथ; शुनःशेफस्थ--शुन:शेफ का; माहात्म्यम्‌-ख्याति; उपरिष्टातू-विश्वामित्र के पुत्रों का वर्णन करते समय; प्रचक्ष्यते--वर्णन किया जायेगा।

    हरिश्वन्द्र से अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा इन्द्र ने उसे सोने का रथ दान में दिया।

    शुनःशेफ कीमहिमाओं का वर्णन विश्वामित्र के पुत्र के वर्णन के साथ-साथ प्रस्तुत किया जायेगा।

    सत्य सारं धृतिं दृष्ठा सभार्यस्य च भूपते: ।

    विश्वामित्रो भृशं प्रीतो ददावविहतां गतिम्‌ू ॥

    २४॥

    सत्यमू--सत्य; सारम्‌ू--हृढ़ता; धृतिमू--सहनशीलता; हृष्ठा--देखकर; स-भार्यस्य--अपनी पत्नी सहित; च--तथा; भूपते:--महाराज हरिश्वन्द्र का; विश्वामित्र:--मुनि विश्वामित्र; भूशम्‌--अत्यधिक; प्रीतः--प्रसन्न होकर; ददौ--उसे दिया; अविहताम्‌ गतिम्‌--अक्षय ज्ञान)

    विश्वामित्र ने देखा कि महाराज हरिश्वन्द्र अपनी पत्नी सहित सत्यप्रिय, सहिष्णु तथा हढ़ था।

    इसतरह उन्होंने मानव उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्हें अक्षय ज्ञान प्रदान किया।

    मनः पृथिव्यां तामद्धिस्तेजसापोनिलेन तत्‌ ।

    खे वायुं धारयंस्तच्च भूतादौ तं महात्मनि ।

    तस्मिज्ज्ञानकलां ध्यात्वा तयाज्ञानं विनिर्दहन्‌ ॥

    २५॥

    हित्वा तां स्वेन भावेन निर्वाणसुखसंविदा ।

    अनिर्देश्याप्रतक्‍्येण तस्थौ विध्वस्तबन्धन: ॥

    २६॥

    मनः--मन ( जो खाने, सोने, मैथुन करने तथा रक्षा करने की इच्छाओं से पूर्ण रहता है ); पृथिव्याम्‌--पृथ्वी में; तामू--उस; अद्धि:--जल से; तेजसा--तथा अग्नि से; अप:--जल; अनिलेन--अग्नि से; तत्‌ू--उस; खे--आकाश में; वायुमू--हवा; धारयन्‌--मिलाकर;तत्‌्--वह; च-- भी; भूत-आदौ--मिथ्या अहंकार में, जो संसार का उद्गम है; तम्‌--उस ( मिथ्या अहंकार ); महा-आत्मनि--महत्‌तत्त्व में; तस्मिनू--समग्र भौतिक शक्ति ( महत्‌-तत्त्व ) में; ज्ञान-कलाम्‌--आध्यात्मिक ज्ञान तथा इसकी विभिन्न शाखाएँ; ध्यात्वा--ध्यान द्वारा; तया--इस विधि से; अज्ञानम्‌--अज्ञान को; विनिर्दहन्‌ू--विशेष रूप से दमित; हित्वा--त्यागकर; ताम्‌-- भौतिक इच्छाको; स्वेन--आत्म-साक्षात्कार के द्वारा; भावेन--भक्ति में; निर्वाण-सुख-संविदा--संसार का अन्त करके दिव्य आनच्द द्वारा;अनिर्देश्य--अवर्णनीय; अप्रतर्क्येण --- अचिन्त्य; तस्थौ--रहता रहा; विध्वस्त--पूर्णतया मुक्त; बन्धन:-- भौतिक बन्धन से

    इस प्रकार महाराज हरिश्वन्द्र ने पहले भौतिक भोग से पूर्ण अपने मन को पृथ्वी के साथ मिलाकरशुद्ध किया।

    तब उसने पृथ्वी को जल के साथ, जल को अग्नि के साथ, अग्नि को वायु के साथतथा वायु को आकाश के साथ मिला दिया।

    तत्पश्चात्‌ उसने आकाश को महतू-तत्त्व से और महत्‌-तत्त्व को आध्यात्मिक ज्ञान से मिला दिया।

    यह आध्यात्मिक ज्ञान अपने आपको भगवान्‌ के अंशरूप में अनुभव करना है।

    जब स्वरूपसिद्ध जीव भगवान्‌ की सेवा में लगता है तो वह नित्य रूप से अवर्णनीय तथा अच्चन्त्य होता है।

    इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो जाने पर वह भव-बन्धन सेपूर्णतः मुक्त हो जाता है।

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    अध्याय आठ: सगर के पुत्र भगवान कपिलदेव से मिले

    9.8श्रीशुक उबाचहरितो रोहितसुतश्चम्पस्तस्माद्विनिर्मिता ।

    अम्पापुरी सुदेवोइतो विजयो यस्य चात्मज: ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; हरितः--हरित नामक; रोहित-सुतः--रोहित का पुत्र; चम्प:--चम्प नामक;तस्मात्‌ू--हरित से; विनिर्मिता--बनवाया गया; चम्पा-पुरी--चम्पापुरी नामक नगर; सुदेव: --सुदेव; अत:--तत्पश्चात्‌ ( चम्प से );विजय: --विजय नामक; यस्य--जिसका ( सुदेव का ); च-- भी; आत्म-ज: --पुत्र |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : रोहित का पुत्र हरित हुआ और हरित का पुत्र चम्प हुआ जिसनेचम्पापुरी नामक नगर का निर्माण कराया।

    चम्प का पुत्र सुदेव हुआ और सुदेव का पुत्र विजय था।

    भरुक स्तत्सुतस्तस्माद्गकस्तस्यापि बाहुकः ।

    सोरिभिईतभू राजा सभार्यो वनमाविशत्‌ ॥

    २॥

    भरूकः--भरूक नामक; ततू-सुतः--विजय का पुत्र; तस्मात्‌--उससे ( बहक ); वृक:ः--वृक; तस्य--उसका; अपि-- भी;बाहुक:--बाहुक; सः--वह; अरिभि:--अपने शत्रुओं द्वारा; हत-भूः--जिसकी धरती छीन ली गई है; राजा--राजा ( बाहुक ); स-भार्य:--पत्नी सहित; वनम्‌--जंगल में; आविशतू--प्रविष्ट हुआ

    विजय का पुत्र भरुक, भरूक का पुत्र वृक और उसका पुत्र बाहुक हुआ।

    राजा बाहुक केशत्रुओं ने उसकी सारी सम्पत्ति छीन ली जिससे उसने वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर लिया और अपनीपत्नी सहित वन में चला गया।

    वृद्ध तं पञ्ञतां प्राप्तं महिष्यनुमरिष्यती ।

    और्वेण जानतात्मानं प्रजावन्तं निवारिता ॥

    ३॥

    वृद्धमू--वृद्ध को; तम्‌ू--उस; पञ्ञताम्‌-मृत्यु; प्राप्तम्‌--प्राप्त हुए; महिषी--रानी; अनुमरिष्यती --सती होना चाहती थी; और्वेण--और्व मुनि द्वारा; जानता--समझते हुए; आत्मानम्‌--रानी का शरीर; प्रजा-वन्तम्‌--गर्भ में शिशु है; निवारिता--मना किया गया।

    जब बाहुक वृद्ध होकर मर गया तो उसकी एक पत्नी उसके साथ सती होना चाहती थी।

    किन्तु उस समय और्व मुनि ने यह जानते हुए कि वह गर्भवती है उसे सती होने से मना किया।

    आज्ञायास्थै सपत्नीभिर्गरो दत्तोडन्धसा सह ।

    सह तेनैव सझ्जञातः सगराख्यो महायशा: ।

    सगरकश्नक्रवर्त्यासीत्सागरो यत्सुतेः कृत: ॥

    ४॥

    आज्ञाय--( यह ) जानते हुए; अस्यै--गर्भवती रानी को; सपत्नीभि:--बाहुक की अन्य पत्रियों के द्वारा; गरः--विष; दत्त:--दियागया; अन्धसा सह--उसके भोजन के साथ; सह तेन--उस विष के साथ; एव-- भी; सज्ञात: --उत्पन्नहुआ; सगर-आख्य: --सगर नामसे विख्यात; महा-यशा: --अत्यन्त ख्याति वाला; सगर:--राजा सगर; चक्रवर्ती --सम्राट; आसीत्‌--हुआ; सागर: --गंगासागर नामकस्थान; यत्‌-सुतैः --जिसके पुत्रों द्वारा; कृत:--खोदा गया था।

    यह जानते हुए कि वह गर्भवती थी, उसकी सौतों ने उसको भोजन के साथ विष देने की मंत्रणाकी लेकिन यह फलीभूत नहीं हुईं।

    किन्तु इस विष सहित एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो सगर ( विषसहित ) कहलाया।

    बाद में सगर सप्राट बना।

    गंगासागर नामक स्थान उसके पुत्रों द्वारा खोदा गयाथा।

    यस्तालजड्ञन्यवनाज्छकान्हैहयबर्बरान्‌ ।

    नावधीदगुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिण: ॥

    ५॥

    मुण्डाज्छम श्रुधरान्कांश्रिन्मुक्तकेशार्धमुण्डितान्‌ ।

    अनन्तर्वासस: कांश्विदबहिर्वाससोपरान्‌ ॥

    ६॥

    यः--जो, महाराज सगर; तालजझन्‌--तालजंघ नामक असभ्य जाति; यवनान्‌--वैदिक साहित्य को न मानने वाले; शकान्‌ू--अन्यनास्तिक जाति; हैहय--असभ्य; बर्बरान्‌--तथा बर्बरों को; न--नहीं; अवधीतू--मारा; गुरु-वाक्येन-- अपने गुरु के आदेश से;चक्रे--उन्हें बनाया; विकृत-वेषिण: --बेढंगे वस्त्र पहने; मुण्डान्‌--सिर घुटवाये; श्मश्रु-धरान्‌ू--मूँछों वाले; कांश्वित्‌--उनमें से कुछ;मुक्त-केश--बिखरे बाल; अर्ध-मुण्डितान्‌ू--आधा सिर घुटवाये; अनन्त:-वासस:--बिना भीतरी वस्त्र के; कांश्वित्‌ू--उनमें से कुछ;अबहिः-वासस:--बाहरी वस्त्रों के बिना; अपरान्‌-- अन्यों को |

    सगर महाराज ने अपने गुरु और्व के आदेशानुसार तालजंघ, यवन, शक, हैहय तथा बर्बरजातियों के असभ्य लोगों का वध नहीं किया अपितु उनमें से कुछ को भद्दे वस्त्र पहनने को बाध्य करदिया, कुछ के सिर घुटवा दिये लेकिन मूँछें रखने दीं, कुछ के बालों को खुलवा दिया, कुछ के सिरआधे घुटवा दिए, कुछ को बिना भीतरी वस्त्र के कर दिया और कुछ को निर्वस्त्र करा दिया।

    इसप्रकार ये जातियाँ भिन्न-भिन्न वस्त्र धारण करने के लिए बाध्य की गईं, किन्तु राजा सगर ने इन्हें मारानहीं।

    सो श्रमेधेरयजत सर्ववेदसुरात्मकम्‌ ।

    और्वोपदिष्टयोगेन हरिमात्मानमी श्वरम्‌ ।

    तस्योत्सूष्टे पशुं यज्ञे जहाराश्चं पुरन्दरः ॥

    ७॥

    सः--उसने; अश्वमेथै:--अश्वमेध यज्ञ करके; अयजत--पूजा की; सर्व-वेद--सारे वैदिक ज्ञान का; सुर--तथा सारे विद्वान्‌ साधुओंका; आत्मकम्‌--परमात्मा; और्व-उपदिष्ट-योगेन--और्व की योग विधि द्वारा; हरिम्‌ू-- भगवान्‌ को; आत्मानम्‌--परमात्मा को;ईश्वरम्‌--ई श्वर को; तस्य--उसका ( सगर का ); उत्सृष्टम्‌--बलि के निमित्त; पशुम्‌--बलि पशु को; यज्ञे--यज्ञ में; जहार--चुरालिया; अश्वम्‌--धघोड़े को; पुरन्दरः--स्वर्ग के राजा इन्द्रने।

    और्व मुनि के आदेशानुसार सगर महाराज ने अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किया और इस तरह भगवान्‌को प्रसन्न किया जो परम नियन्ता, समस्त दिद्वानों के परमात्मा तथा सभी वेदों के ज्ञाता हैं।

    किन्तुस्वर्ग के राजा इन्द्र ने यज्ञ में बलि दिये जाने वाले घोड़े को चुरा लिया।

    सुमत्यास्तनया हृ्ता: पितुरादेशकारिण: ।

    हयमन्वेषमाणास्ते समन्ताज््यखनन्महीम्‌ ॥

    ८॥

    सुमत्या: तनया:--रानी सुमति से उत्पन्न पुत्र; हृप्ता:--अपने पराक्रम तथा प्रभाव से गर्वित; पितु:--अपने पिता ( सगर ) का; आदेश-'कारिण:--आदेश का पालन करते हुए; हयम्‌--( इन्द्र द्वारा चुराये ) घोड़े को; अन्वेषमाणा:--ढूँढते हुए; ते--वे सब; समन्तात्‌--सर्वत्र; न्‍्यखनन्‌--खोद डाला; महीम्‌--पृथ्वी को |

    ( राजा सगर के दो पत्लियाँ थीं--सुमति तथा केशिनी )।

    सुमति के पुत्रों ने, जिन्हें अपने पराक्रमतथा प्रभाव पर गर्व था, अपने पिता के आदेशानुसार खोये हुए घोड़े को सर्वत्र ढूँढा।

    ऐसा करते हुएउन्होंने पृथ्वी को बहुत दूर तक खोद डाला।

    प्रागुदीच्यां दिशि हयं दहशु: कपिलान्तिके ।

    एष वाजिहरश्लौर आस्ते मीलितलोचन: ॥

    ९॥

    हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टिसहस्त्रिण: ।

    उदायुधा अभिययुरुन्मिमेष तदा मुनि: ॥

    १०॥

    प्राकू-उदीच्याम्‌--उत्तरपूर्व; दिशि--दिशा में; हयम्‌--घोड़े को; ददशुः--देखा; कपिल-अन्तिके--कपिल के आश्रम के निकट;एप: --यह रहा; वाजि-हरः --घोड़ा चुराने वाला; चौर:--चोर; आस्ते--स्थित; मीलित-लोचन:--आँखें बन्द किये; हन्यताम्‌हन्यताम्‌--मारो मारो; पाप:--पापी पुरुष; इति--इस प्रकार; षष्टि-सहस्त्रिण: --सगर के साठ हजार पुत्र; उदायुधा: -- अपने-अपनेहथियार लिए; अभिययु:--पास आये; उन्मिमेष-- अपनी आँखें खोलीं; तदा--उस समय; मुनिः--कपिल मुनि ने

    तत्पश्चात्‌ जब उन्होंने उत्तरपूर्व दिशा में कपिल मुनि के आश्रम के निकट घोड़े को देखा तो वेबोल उठे 'यह रहा घोड़ाचोर! यह आँखें बन्द किये बैठा है।

    यह निश्चय ही बड़ा पापी है।

    इसे मारो,मारो।

    इस प्रकार चिल्लाते हुए सगर के साठ हजार पुत्रों ने एकसाथ अपने हथियार उठा लिये।

    जबवे मुनि के निकट पहुँचे तो मुनि ने अपनी आँखें खोलीं।

    स्वशरीराग्निना तावन्महेन्द्रहतचेतस: ।

    महद्व्यतिक्रमहता भस्मसादभवन्क्षणात्‌ ॥

    ११॥

    स्व-शरीर-अग्निना--अपने शरीरों से निकली अग्नि से; तावत्‌ू--तुरन्त; महेन्द्र--इन्द्र की चाल से; हत-चेतस:--जिनकी बुद्धि हर लीगई है; महत्‌--महापुरुष; व्यतिक्रम-हताः--अपमान के कारण पराजित; भस्मसात्‌--जलकर राख; अभवनू--हो गये; क्षणात्‌--क्षणभर में |

    स्वर्ग के राजा इन्द्र के प्रभाव से सगर के पुत्रों की बुद्धि मारी गई जिससे उन्होंने एक महापुरुषका अपमान कर दिया।

    फलस्वरूप उनके शरीरों से अग्नि निकलने लगी और वे तुरन्त जलकर राखहो गये।

    न साधुवादो मुनिकोपभर्जितानृपेन्द्रपुत्रा इति सत्त्वधामनि ।

    कथं तमो रोषमयं विभाव्यतेजगत्पवित्रात्मनि खे रजो भुवः ॥

    १२॥

    न--नहीं; साधु-वाद:--विद्वान पुरुषों का मत; मुनि-कोप--कपिल मुनि के क्रोध से; भर्जिता:--जल कर राख हो गए; नृपेन्द्र-पुत्राः--सगर महाराज के सररे पुत्र; इति--इस प्रकार; सत्त्त-धामनि--कपिल मुनि में, जिनमें सतोगुण प्रधान था; कथम्‌--कैसे;तमः--तमोगुण; रोष-मयम्‌-क्रोध के रूप में; विभाव्यते--प्रकट हो सकता है; जगत्‌ू-पवित्र-आत्मनि--उसमें, जिसका शरीर सारेसंसार को पवित्र कर सकता है; खे--आकाश में; रज:--धूल; भुवः--पार्थिव |

    कभी-कभी यह तर्क दिया जाता है कि राजा सगर के सारे पुत्र कपिल मुनि की आँखों सेनिकली अग्नि से भस्मसात्‌ हुए थे।

    लेकिन विद्वान पुरुष इस मत की पुष्टि नहीं करते क्योंकि कपिल मुनि का शरीर नितान्त सात्विक था अतएव उससे क्रोध के रूप में तमोगुण प्रकट नहीं हो सकताजिस तरह निर्मल आकाश को पृथ्वी की धूल दूषित नहीं कर सकती।

    यस्येरिता साड्ख्यमयी हढेह नौ-या मुमुक्षुस्तरते दुरत्ययम्‌ ।

    भवार्णवं मृत्युपर्थ विपश्चितःपरात्मभूतस्य कथं पृथड्मति: ॥

    १३॥

    यस्य--जिसके द्वारा; ईरिता--बतलाया गया; साड्ख्य-मयी-- भौतिक संसार का विश्लेषण करते हुए सांख्य दर्शन के रूप में; हढा--अत्यन्त प्रबल ( इस जगत से लोगों का उद्धार करने के लिए ); इह--इस जगत में; नौ:--नाव; यया--जिससे; मुमुक्षु;--मोक्ष कीकामना करने वाला व्यक्ति; तरते--पार कर सकता है; दुरत्ययमू--दुर्लध्य; भव-अर्गणवम्‌--अज्ञान के समुद्र को; मृत्यु-पथम्‌--बारम्बार जन्म-मृत्यु का जीवन; विपश्चित:--विद्वान पुरुष का; परात्म-भूतस्य--दिव्य पद को प्राप्त; कथम्‌--कैसे; पृथक्‌-मतिः--( मित्र तथा शत्रु का ) भेदभाव

    कपिल मुनि ने इस जगत में सांख्य दर्शन का प्रवर्तन किया जो अज्ञानरूपी सागर को पार करनेके लिए हढ़ नाव है।

    निस्सन्देह, भवसागर को पार करने के इच्छुक व्यक्ति को इस दर्शन का आश्रयग्रहण करना चाहिए।

    ऐसे महापुरुष में, जो अध्यात्म के उच्चपद को प्राप्त हो, एक मित्र तथा शत्रु मेंकोई अन्तर कैसे हो सकता है?

    योसमझ्स हइत्युक्त: स केशिन्या नृपात्मज: ।

    तस्य पुत्रो$शुमान्नाम पितामहहिते रत: ॥

    १४॥

    यः--सगर का एक पुत्र, जो; असमझस: --असमंजस नामक; इति--इस तरह; उक्त:--ज्ञात; सः--वह; केशिन्या:--राजा सगर कीअन्य पत्नी केशिनी के गर्भ से; नृप-आत्मज:--राजा का पुत्र; तस्थ--उसका; पुत्र: --पुत्र; अंशुमान्‌ नाम--अंशुमान के रूप में ज्ञातथा; पितामह-हिते--अपने बाबा सगर महाराज के हित में; रतः--सदा लगा हुआ।

    महाराज सगर के पुत्रों में एक का नाम असमंजस था जो राजा की दूसरी पत्नी केशिनी के गर्भ सेउत्पन्न हुआ था।

    असंमजस का पुत्र अंशुमान था और वह अपने बाबा सगर महाराज के कल्याण-कार्य में सदैव लगा रहता था।

    असमझञझ्जस आत्मानं दर्शयन्नसमझजसम्‌ ॥

    जातिस्मर: पुरा सड्राद्योगी योगाद्विचालित: ॥

    १५॥

    आचरनार््ितं लोके ज्ञातीनां कर्म विप्रियम्‌ ।

    सरय्वां क्रीडतो बालान्प्रास्यदुद्देजयद्ञनम्‌ ॥

    १६॥

    असमझ्जसः--सगर महाराज का पुत्र; आत्मानम्‌--स्वयं; दर्शयन्‌--प्रकट करते हुए; असमझसम्‌--अत्यन्त विश्लुब्धकारी; जाति-स्मर:--अपने विगत जीवन को स्मरण रखने में समर्थ; पुरा--प्राचीन काल में; सड्भात्‌-बुरी संगति से; योगी--योगी होते हुए भी;योगात्‌--योग पथ से; विचालित: --नीचे गिर गया; आचरन्‌-- आचरण; गर्हितम्‌ू--अशोभनीय; लोके --समाज में; ज्ञातीनामू--अपने सम्बन्धियों का; कर्म--कार्य ; विप्रियम्‌--अधिक अनुकूल नहीं; सरय्वाम्‌--सरयू नदी में; क्रीडत:--खेल में रत; बालान्‌--सारेलड़कों को; प्रास्यत्‌-फेंक देता; उद्देजयन्‌--कष्ट देता हुआ; जनम्‌--सामान्य लोगों को

    पिछले जन्म में असमंजस एक महान्‌ योगी था, किन्तु कुसंगति के कारण वह अपने उच्चपद सेनीचे गिर गया था।

    अब, इस जन्म में वह राजपरिवार में उत्पन्न हुआ था और जाति-स्मर था अर्थात्‌वह अपने पूर्वजन्म को स्मरण करने में समर्थ था।

    फिर भी वह अपने आपको दुर्जन के रूप मेंदिखलाना चाहता था; अतएवं वह ऐसा कार्य किया करता था जो जनता तथा उसके परिजनों कीइृष्टि में गर्हित तथा प्रतिकूल होता।

    वह सरयू नदी में खेल करते बालकों को गहरे जल में फेंककरउन्हे तगं करता रहता था।

    एवं वृत्त: परित्यक्त: पित्रा स्नेहमपोहा वे ।

    योगैश्वर्येण बालांस्तान्दर्शयित्वा ततो ययौ ॥

    १७॥

    एवम्‌ वृत्त:--इस प्रकार ( गर्हित कार्यो में ) व्यस्त; परित्यक्त:--निकाला हुआ; पित्रा--पिता द्वारा; स्नेहमू--स्नेह; अपोह्म--त्यागकर;वै--निस्सन्देह; योग-ऐश्वर्येग--योगशक्ति से; बालान्‌ तानू--उन बालकों को जो जल में गिराए गए थे और मारे गए थे; दर्शयित्वा--उनके माता पिता को फिर से दिखलाकर; ततः ययौ--उस स्थान से चला गया।

    चूँकि असमंजस ऐसे गर्हित कार्यो में लगा रहता था अतएव उसके पिता ने उससे स्नेह करना छोड़दिया और उसे घर से निकाल दिया।

    तब असमंजस ने उन बालकों को जीवित करके उन्हें राजा तथाउनके माता-पिताओं को दिखलाकर अपनी योगशक्ति का प्रदर्शन किया।

    तत्पश्चात्‌ असमंजस ने अयोध्या छोड़ दिया।

    अयोध्यावासिन: सर्वे बालकान्पुनरागतान्‌ ।

    इृष्ठा विसिस्मिरे राजन्राजा चाप्यन्वतप्यत ॥

    १८॥

    अयोध्या-वासिन: --अयोध्या के निवासी; सर्वे--सारे; बालकान्‌--उनके पुत्र; पुन:--फिर; आगतान्‌--पुन: जीवित होकर; हृध्ला--इसे देखकर; विसिस्मिरे--स्तम्भित हो गये; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; राजा--राजा सगर ने; च-- भी; अपि--निस्सन्देह;अन्वतप्यत--( अपने पुत्र की अनुपस्थिति के लिए ) अत्यन्त शोक किया।

    हे राजा परीक्षित, जब सारे अयोध्यावासियों ने देखा कि उनके लड़के पुनः जीवित हो उठे हैं तोवे स्तम्भित रह गये और राजा सगर को अपने पुत्र की अनुपस्थिति पर अत्यधिक पश्चाताप हुआ।

    अंशुमांश्रोदितो राज्ञा तुरगान्वेषणे ययौ ।

    पितृव्यखातानुपथं भस्मान्ति दहशे हयम्‌ ॥

    १९॥

    अंशुमान्‌--असमंजस का पुत्र; चोदित:--आदेश पाकर; राज्ञा--राजा से; तुरग--घोड़ा; अन्वेषणे--खोजने के लिए; ययौ--बाहरचला गया; पितृव्य-खात--जैसा कि चाचा लोगों ने वर्णन किया था; अनुपथम्‌--उस रास्ते से जाकर; भस्म-अन्ति--राख के ढेर केनिकट; ददशे--उसने देखा; हयम्‌--घोड़े को |

    तत्पश्चात्‌ महाराज सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा ढूँढ लाने का आदेश दिया।

    अंशुमान अपने चाचाओं के पथ से होकर धीरे-धीरे राख के ढेर तक पहुँचा और उसने उसी के निकट घोड़े कोपाया।

    तत्रासीनं मुनि वीक्ष्य कपिलाख्यमधोक्षजम्‌ ।

    अस्तौत्समाहितमना: प्राज्ललि: प्रणतो महान्‌ ॥

    २०॥

    तत्र--वहाँ; आसीनम्‌-- आसन ग्रहण किये; मुनिम्‌--मुनि को; वीक्ष्य--देखकर; कपिल-आख्यम्‌--कपिल मुनि के रूप में ज्ञात;अधोक्षजम्‌--विष्णु के अवतार; अस्तौत्‌--प्रार्थना की; समाहित-मना:--बड़े ध्यान से; प्राज्ललि:--हाथ जोड़कर; प्रणत: --नीचेगिरकर, नमस्कार करते हुए; महान्‌ू--महापुरुष अंशुमान ने

    महान्‌ अंशुमान ने विष्णु अवतार कपिल नामक मुनि को देखा जो घोड़े के निकट आसीन थे।

    अंशुमान ने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया और दत्तचित्त होकर उनकी प्रार्थना की।

    अंशुमानुवाचन पश्यति त्वां परमात्मनोजनोन बुध्यतेउद्यापि समाधियुक्तिभि: ।

    कुतोपरे तस्य मनःशरीरधी-विसर्गसृष्टा वयमप्रकाशा: ॥

    २१॥

    अंशुमान्‌ उवाच--अंशुमान ने कहा; न--नहीं; पश्यति--देख सकता है; त्वामू--आपको ; परम्‌--दिव्य; आत्मन:--हम जीवों का;अजनः--ब्रह्मा; न--नहीं; बुध्यते--समझ सकता है; अद्य अपि--आज भी; समाधि--ध्यान से; युक्तिभि:--या चिन्तन से; कुतः--कैसे; अपरे-- अन्य; तस्थ--उसका; मन:-शरीर-धी--जो शरीर या मन को स्वयं ( आत्मा ) मानते हैं; विसर्ग-सृष्टा:--इस संसार केप्राणी; वयम्‌--हम; अप्रकाशा:--दिव्य ज्ञान से रहित |

    अंशुमान ने कहा : हे भगवान्‌, आज तक ब्रह्मजी भी आपके अगम्य पद को ध्यान या चिन्तनद्वारा समझ पाने में असमर्थ हैं तो हम जैसों की कौन कहे जो ब्रह्मा द्वारा देवता, पशु, मनुष्य, पक्षीतथा पशु इत्यादि के विविध रूपों में उत्पन्न किये गये हैं?

    हम पूरी तरह अज्ञान में हैं।

    अतएव हमसाक्षात्‌ ब्रह्म स्वरूप आपको कैसे जान सकते हैं ?

    ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधानागुणान्विपश्यन्त्युत वा तमश्न ।

    यन्मायया मोहितचेतसस्त्वांविदु: स्वसंस्थं न बहिःप्रकाशा: ॥

    २२॥

    ये--जिन पुरुषों ने; देह-भाज:--भौतिक शरीर धारण किया है; त्रि-गुण-प्रधाना:-- भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा प्रभावित;गुणान्‌ू--तीनों गुणों की अभिव्यक्ति; विपश्यन्ति--केवल देख सकते हैं; उत--ऐसा कहा जाता है; वा--अथवा; तम:--तमोगुण;च--और; यत्‌-मायया--जिसकी माया से; मोहित--मोहित; चेतस:--जिनके हृदय; त्वामू--आपको; विदुः--जानते हैं; स्व-संस्थम्‌--अपने शरीर में स्थित; न--नहीं; बहिः-प्रकाशा:--जो केवल बहिरंगा शक्ति के फलों को देख पाते हैं।

    हे स्वामी, आप सबों के हृदयों मे भलीभाँति स्थित हैं, किन्तु भौतिक शरीर से आवृत सारे जीवआपको नहीं देख पाते क्‍योंकि वे त्रिगुणमयी माया द्वारा प्रेरित बहिरंगा शक्ति के द्वारा प्रभावित रहतेहैं।

    उनकी बुद्धि सतो, रजो तथा तमो गुणों से ढकी होने से वे प्रकृतिके इन तीनों गुणों की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को ही देख पाते हैं।

    तमोगुण की क्रिया-प्रतिक्रियाओं के कारण जाग्रत या सुप्त जीवप्रकृति की कार्यविधि को ही देख पाते हैं; वे आप ( भगवान्‌) को नहीं देख सकते।

    त॑ त्वां अहं ज्ञानघनं स्वभाव-प्रध्वस्तमायागुणभेदमोहै: ।

    सनन्दनाहैर्मुनिभिर्विभाव्यंकथं विमूढ: परिभावयामि ॥

    २३॥

    तमू--उस; त्वामू--आपको; अहम्‌-मैं; ज्ञान-घनम्‌--घनीभूत ज्ञान स्वरूप आप; स्वभाव--स्वभाव से; प्रध्वस्त--कल्मषरहित;माया-गुण--तीन गुणों से उत्पन्न; भेद-मोहैः-- भेदरूपी मोह के प्रदर्शन द्वारा; सनन्दन-आइ्यि:--चारों कुमारों जैसे व्यक्तियों द्वारा;मुनिभि:--ऐसे मुनियों द्वारा; विभाव्यमू--पूज्य; कथम्‌--कैसे; विमूढ: --प्रकृति द्वारा मूर्ख बनाया गया; परिभावयामि-- आपकेविषय में सोच सकता हूँ।

    हे प्रभु, प्रकृति के तीनों गुणों के प्रभाव से मुक्त हुए साधुपुरुष, यथा चारों कुमार ( सनत्‌,सनक, सनन्दन तथा सनातन ) ही ज्ञान के पुंज आपके विषय में सोच सकते हैं।

    भला मुझ जैसाअज्ञानी व्यक्ति आपके विषय में कैसे सोच सकता है ?

    प्रशान्त मायागुणकर्मलिड्ग-मनामरूप॑ सदसद्रिमुक्तम्‌ ।

    ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहंनमामहे त्वां पुरुष पुराणम्‌ ॥

    २४॥

    प्रशान्त--हे पूर्णतया शान्त; माया-गुण--प्रकृति के गुण; कर्म-लिड्रमू--सकाम कर्मो से जाना जाने वाला; अनाम-रूपम्‌--जिसकेकोई नाम या रूप न हो; सत्‌-असत्‌-विमुक्तम्‌-प्रकृति के व्यक्त तथा अव्यक्त गुणों से परे; ज्ञान-उपदेशाय--दिव्य ज्ञान ( यथा भगवदगीता का ) वितरित करने के लिए; गृहीत-देहम्‌--जिसने शरीर धारण किया है; नमामहे--मैं नमस्कार करता हूँ; त्वाम्‌--तुमको; पुरुषम्‌ू--परमपुरुष को; पुराणम्‌--आदि।

    हे परम शान्तिमय स्वामी, यद्यपि यह प्रकृति, सारे सकाम कर्म तथा उनके फलस्वरूप भौतिकनाम तथा रूप आपकी सृष्टि हैं, तथापि आप उनसे अप्रभावित रहते हैं।

    अतएवं आपका दिव्य नामभौतिक नामों से भिन्न है और आपका स्वरूप भौतिक स्वरूपों से भिन्न है।

    आप भयगवद्गीता जैसेज्ञान का हमें उपदेश देने के लिए ही भौतिक शरीर के ही समान रूप धारण करते हैं लेकिन वस्तुतःआप रहते हैं परम आदि पुरुष ही।

    अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    डेत्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्धया गृहादिषु ।

    भ्रमन्ति कामलोभेष्यामोहविभ्रान्नचेतस: ॥

    २५॥

    त्वत्‌ू-माया--आपकी माया से; रचिते--निर्मित; लोके--इस जगत में; वस्तु-बुद्धया--वास्तविक मानते हुए; गृह-आदिषु--घर आदिमें; भ्रमन्ति--घूमते हैं; काम--विषयवासनाओं से; लोभ--लालच से; ईर्ष्या--द्वेष से; मोह--तथा मोह से; विध्रान्त--मोह ग्रस्त;चेतस:ः--जिनके हृदय

    हे भगवन्‌, जिनके मन काम, लोभ, ईर्ष्या तथा मोह से मोहित हैं वे आपकी माया द्वारा सृजितइस जगत में झूठे ही घर, गृहस्थी आदि में रुचि रखते हैं।

    वे घर, पत्नी तथा सन्‍्तान में आसक्त रहकरइसी जगत में निरन्तर घूमते रहते हैं।

    अद्य नः सर्वभूतात्मन्कामकर्मेन्द्रियाशय: ।

    मोहपाशो हृढछश्छन्नो भगवंस्तव दर्शनात्‌ ॥

    २६॥

    अद्य--आज; न: --हमारा; सर्व-भूत-आत्मन्‌--हे परमात्मा स्वरूप; काम-कर्म-इन्द्रिय-आशय:--कामवासनाओं तथा सकाम कर्मोके अधीन रहकर; मोह-पाश:--मोह की यह कठिन ग्रन्थि; दृढ:--अत्यन्त प्रबल; छिन्न:--टूट गई; भगवन्‌--हे भगवान्‌; तवदर्शनातू--आपके दर्शन मात्र से |

    हे समस्त जीवों के परमात्मा, हे भगवान्‌, मैं अब आपके दर्शनमात्र से सारी कामवासनाओं सेमुक्त हो गया हूँ जो दुर्लघ्य मोह तथा संसार-बन्धन के मूल कारण हैं।

    श्रीशुक उबाचइत्थं गीतानुभावस्तं भगवान्कपिलो मुनि: ।

    अंशुमन्तमुवाचेदमनुग्राह्न धिया नूप ॥

    २७॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्‌--इस तरह; गीत-अनुभाव: --जिनकी महिमा का वर्णन किया जाता है;तम्‌--उस; भगवान्‌-- भगवान्‌; कपिल:--कपिल ने; मुनि:--महान्‌ साधु; अंशुमन्तम्‌--अंशुमान से; उवाच--कहा; इृदम्‌--यह;अनुग्राह्म--दयालु होकर; धिया--ज्ञान के मार्ग सहित; नृप--राजा परीक्षित

    हे राजा परीक्षित, जब अंशुमान ने भगवान्‌ का इस प्रकार महिमागायन किया तो महामुनि कपिलने, जो विष्णु के सशक्त अवतार हैं, उस पर कृपालु होकर उसे ज्ञान का मार्ग बतलाया।

    श्रीभगवानुवाचअश्वोयं नीयतां वत्स पितामहपशुस्तव ।

    इमे च पितरो दग्धा गड़ाम्भोईन्ति नेतरत्‌ ॥

    २८॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच--कपिल मुनि ने कहा; अश्व:--घोड़ा; अयम्‌--यह; नीयताम्‌ू--ले लो; वत्स--हे पुत्र; पितामह--अपने बाबाका; पशु:--यह पशु; तब--तुम्हारे; इमे--ये सारे; च-- भी; पितर: --पूर्वजों के शरीर; दग्धा:--भस्म हुए; गड्ज-अम्भ:--गंगाजल;अ्हन्ति--उबारे जा सकते हैं; न--नहीं; इतरत्‌--किसी अन्य साधन से

    भगवान्‌ कपिल ने कहा : हे प्रिय अंशुमान, यह रहा तुम्हारे बाबा द्वारा खोजा जा रहा यज्ञ-पशु।

    इसे लो।

    दग्ध हुए तुम्हारे इन पुरखों का उद्धार केवल गंगाजल से हो सकता है, किसी अन्य साधन सेनहीं।

    त॑ परिक्रम्य शिरसा प्रसाद्य हयमानयत्‌ ।

    सगरस्तेन पशुना यज्ञशेषं समापयत्‌ ॥

    २९॥

    तम्‌--उस मुनि की; परिक्रम्य--परिक्रमा लगाकर; शिरसा--सिर के बल ( प्रणाम करके ); प्रसाद्य--उसे सन्तुष्ट करके; हयम्‌--घोड़ेको; आनयत्‌--वापस ले आया; सगरः--राजा सगर ने; तेन--उस; पशुना--पशु से; यज्ञ-शेषम्‌--यज्ञ का अन्तिम संस्कार;समापयतू--सम्पन्न किया।

    तत्पश्चात्‌ अंशुमान ने कपिल मुनि की परिक्रमा की और अपना सिर झुकाकर उन्हें सादरनमस्कार किया।

    इस तरह उन्हें पूरी तरह सन्तुष्ट करके अंशुमान यज्ञ-पशु को वापस ले आया औरमहाराज सगर ने इस घोड़े से यज्ञ का शेष अनुष्ठान सम्पन्न किया।

    राज्यमंशुमते न्यस्य निःस्पूहो मुक्तबन्धन: ।

    और्वोषदिष्टमार्गेण लेभे गतिमनुत्तमाम्‌ ॥

    ३०॥

    राज्यमू--अपना राज्य; अंशुमते--अंशुमान को; न्यस्य--देकर; निःस्पृह:--इच्छारहित; मुक्त-बन्धन: -- भवबन्धन से पूरी तरह मुक्त;और्व-उपदिष्ट--ओऔर्व मुनि द्वारा आदेशित; मार्गेग--उस मार्ग का अनुसरण करके; लेभे--प्राप्त किया; गतिमू--गन्तव्य;अनुत्तमाम्‌-परम

    अंशुमान को अपने राज्य की बागडोर देकर तथा सारी भौतिक चिन्ता एवं बन्धन से मुक्त होकरसगर महाराज ने और्व मुनि के द्वारा उपदिष्ट साधनों का पालन करते हुए परम गति प्राप्त की।

    TO

    अध्याय नौ: अशुमान का राजवंश

    9.9श्रीशुक उबाचअंशुमांश्व॒ तपस्तेपे गड्झानयनकाम्यया ।

    काल महान्तंनाशक्नोत्ततः कालेन संस्थित: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अंशुमान्‌--अंशुमान राजा ने; च--भी; तपः तेपे--तपस्या की; गड्ढा--गंगा नदी;आनयन-काम्यया--अपने पूर्वजों का उद्धार करने के लिए गंगा को इस भौतिक जगत में लाने की इच्छा से; कालमू--काल;महान्तम्‌--दीर्घकाल तक; न--नहीं; अशक्नोत्‌--सफल हुआ; तत:--तत्पश्चात्‌; कालेन--समय आने पर; संस्थित:--मर गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : राजा अंशुमान ने अपने पितामह की तरह दीर्घकाल तकतपस्या की तो भी वह गंगा नदी को इस भौतिक जगत में न ला सका और उसके बाद कालक्रम मेंउसका देहान्त हो गया।

    दिलीपस्तत्सुतस्तद्वदशक्त: कालमेयिवान्‌ ।

    भगीरथस्तस्य सुतस्तेपे स सुमहत्तप: ॥

    २॥

    दिलीप:--दिलीप; ततू-सुतः--अंशुमान का पुत्र; तत्‌-बत्‌--अपने पिता की भाँति; अशक्त:--गंगा को इस जगत में ला सकने मेंअसमर्थ; कालम्‌ एयिवान्‌--काल का शिकार हुआ और मर गया; भगीरथ: तस्य सुत:ः--उसके पुत्र भगीरथ ने; तेपे--तपस्या की;सः--वह; सु-महत्‌--बहुत बड़ी; तप:ः--तपस्या।

    अंशुमान की भाँति उसका पुत्र दिलीप भी गंगा को इस भौतिक जगत में ला पाने में असमर्थ रहाऔर कालक्रम में उसकी भी मृत्यु हो गई।

    तत्पश्चात्‌ दिलीप के पुत्र भगीरथ ने गंगा को इस भौतिकजगत में लाने के लिए अत्यन्त कठिन तपस्या की।

    दर्शयामास तं देवी प्रसन्ना वरदास्मि ते ।

    इत्युक्त: स्वमभिप्रायं शशंसावनतो नूप: ॥

    ३॥

    दर्शबाम्‌ आस--प्रकट हुई; तम्‌--उसको, भगीरथ को; देवी--माता गंगा; प्रसन्ना--अत्यन्त प्रसन्न होकर; वरदा अस्मि--मैं वर दूँगी;ते--तुमको; इति उक्त:--इस प्रकार सम्बोधित करके ; स्वम्‌--अपनी; अभिप्रायम्‌--इच्छा; शशंस--बतलायी; अवनत:--आदरपूर्वक झुककर प्रणाम करके; नृप:--राजा ( भगीरथ ) ने |

    तत्पश्चात्‌ माता गंगा राजा भगीरथ के समक्ष प्रकट होकर बोलीं, 'मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यधिकप्रसन्न हूँ और तुम्हें मुँहमाँगा वर देने को तैयार हूँ।

    गंगादेवी द्वारा इस प्रकार सम्बोधित हुए राजा नेउनके समक्ष अपना सिर झुकाया और अपना मन्तव्य बतलाया।

    कोपि धारयिता वेगं॑ पतन्त्या मे महीतले ।

    अन्यथा भूतलं भित्त्वा नृप यास्ये रसातलम्‌ ॥

    ४॥

    'कः--वह कौन व्यक्ति है; अपि--निस्सन्देह; धारयिता-- धारण कर सकता है; वेगम्‌--तरंगों के वेग को; पतन्त्या:--नीचे गिरती हुई;मे--मेरे; मही-तले--पृथ्वी पर; अन्यथा--अन्यथा; भू-तलम्‌--पृथ्वी की सतह; भित्त्वा-- भेदकर; नृप--हे राजा; यास्ये--नीचेचली जाऊँगी; रसातलम्‌--पाताल

    माता गंगा ने उत्तर दिया: जब मैं आकाश से पृथ्वीलोक के धरातल पर गिरूँगी तो मेरा जलअत्यन्त वेगवान होगा।

    इस वेग को कौन धारण कर सकेगा ?

    यदि कोई मुझे धारण नहीं कर सकेगातो मैं पृथ्वी की सतह को भेदकर रसातल में अर्थात्‌ ब्रह्माण्ड के पाताल क्षेत्र में चली जाऊँगी।

    कि चाहं न भुव॑ यास्ये नरा मय्यामृजन्त्यघम्‌ ।

    मृजामि तदघं क्वाहं राजंस्तत्र विचिन्त्यताम्‌ ॥

    ५॥

    किम्‌ च-- भी; अहम्‌--मैं; न--नहीं; भुवम्‌--पृथ्वीलोक को; यास्ये--जाऊँगी; नरा:--लोग; मयि-- मुझमें, मेंरे जल में;आमृजन्ति--धोते हैं; अधम्‌--पापकर्मों के फल; मृजामि--धो सकूँ; तत्‌ू--वह; अघम्‌--पाकर्मो के फलों का संग्रह; क्ब--किसको;अहमू--ैं; राजनू--हे राजा; तत्र--इस बात पर; विचिन्त्यताम्‌ू-- ध्यान से विचार करके निर्णय करो |

    हे राजा, मैं पृथ्वीलोक पर नहीं उतरना चाहती क्योंकि सभी लोग अपने पापकर्मों के फलों कोधोने के लिए मुझमें स्नान करेंगे।

    जब ये सारे पापकर्मो के फल मुझमें एकत्र हो जायेंगे तो मैं उनसेकिस तरह मुक्त हो सकूँगी ?

    तुम इस पर ध्यानपूर्वक विचार करो।

    श्रीभगीरथ उवाचसाधवो न्यासिन: शान्ता ब्रहिष्ठा लोकपावना: ।

    हरन्त्यघं तेडड्रसज्भात्तेष्वास्ते हाघभिद्धरि: ॥

    ६॥

    श्री-भगीरथ: उवाच-- भगीरथ ने कहा; साधव:--सन्तपुरुष; न्यासिन:--संन्यासीजन; शान्ता:--शान्त, भौतिक झंझटों से मुक्त;ब्रह्मिष्टा:--वैदिक शास्त्रों के अनुष्ठानों का पालन करने में पठु; लोक-पावना:--पतित अवस्था से लोगों का उद्धार करने में संलग्न;हरन्ति--दूर करेंगे; अधम्‌--पाप के फल; ते--तुम्हारा ( गंगा का ); अड़-सड्भात्‌--गंगाजल में नहाने से; तेषु--अपने में; आस्ते--है;हि--निस्सन्देह; अध-भित्‌--सारे पापों को हरने वाले; हरिः--भगवान्‌

    भगीरथ ने कहा : जो भक्ति के कारण सन्त प्रकृति के हैं और भौतिक इच्छाओं से मुक्त संन्‍्यासीबन चुके हैं, तथा जो वेदवर्णित अनुष्ठानों का पालन करने में पटु हैं और शुद्ध भक्त हैं वे सर्वदामहिमामंडित हैं और शुद्धाचरण वाले हैं तथा सभी पतितात्माओं का उद्धार करने में समर्थ हैं।

    जबऐसे शुद्ध भक्त आपके जल में स्नान करेंगे तो अन्य लोगों के संचित पापों के फलों का निश्चय हीनिराकरण हो सकेगा क्योंकि ऐसे भक्तगण उन भगवान्‌ को अपने हृदयों में सदा धारण करते हैं जोसारे पापों को दूर कर सकते हैं।

    धारयिष्यति ते वेगं रुद्रस्त्वात्मा शरीरिणाम्‌ ।

    यस्मिन्नोतमिदं प्रोत॑ विश्व शाटीव तन्तुषु ॥

    ७॥

    धारयिष्यति-- धारण करेगा; ते--तुम्हारे; वेगम्‌--तरंगों के वेग को; रुद्र: --शिवजी; तु--निस्सन्देह; आत्मा--परमात्मा;शरीरिणाम्‌--समस्त शरीरधारियों का; यस्मिन्‌ू--जिसमें; ओतम्‌--देशान्तर, ताना; इृदम्‌--यह सारा ब्रह्माण्ड; प्रोतम्‌--अंक्षाश बाना;विश्वम्‌--सारा विश्व; शाटी--वस्त्र; इब--सहश; तन्तुषु--डोरों में |

    जिस प्रकार वस्त्र के सारे डोरे लम्बाई तथा चौई में गुँथे रहते हैं, उसी तरह यह समग्र विश्व अपनेअक्षांश-देशान्तरों सहित भगवान्‌ की विभिन्न शक्तियों में स्थित है।

    शिवजी भी भगवान्‌ के अवतार हैंअतएव वे देहधारी जीव में परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

    वे अपने सिर पर आपकी वेगवान तरंगोंको धारण कर सकते हैं।

    इत्युक्त्वा स नृपो देव॑ तपसातोषयच्छिवम्‌ ।

    कालेनाल्पीयसा राजंस्तस्येशश्चाश्वतुष्यत ॥

    ८॥

    इति उक्त्वा--यह कहकर; सः--उस; नृप:--राजा ( भगीरथ ) ने; देवम्‌--शिव को; तपसा--तपस्या द्वारा; अतोषयत्‌--प्रसन्न किया;शिवम्‌--सर्वकल्याणकारी शिव को; कालेन--समय आने पर; अल्पीयसा--अल्पकालीन; राजनू्‌--हे राजा; तस्थ--उस ( भगीरथ )का; ईशः--शिवजी; च--निस्सन्देह; आशु--तुरन्त; अतुष्यत-तुष्ट हो गये |

    ऐसा कहने के बाद भगीरथ ने तपस्या करके शिवजी को प्रसन्न किया।

    हे राजा परीक्षित, शिवजीशीघ्र ही भगीरथ से तुष्ट हो गये।

    तथेति राज्ञाभिहितं सर्वलोकहितः शिव: ।

    दधारावहितो गड़ां पादपूतजलां हरे: ॥

    ९॥

    तथा--एवमस्तु; इति--इस प्रकार; राज्ञा अभिहितम्‌--राजा द्वारा कहे जाने पर; सर्व-लोक-हित:ः--भगवान्‌ जो सबों का कल्याणकरने वाले हैं; शिव:--भगवान्‌ शिव ने; दधार--धारण किया; अवहित:ः--ध्यानपूर्वक; गड्भराम्‌ू--गंगा को; पाद-पूत-जलाम्‌ हरे: --भगवान्‌

    विष्णु के अँगूठे से निकलने के कारण, जिसका जल दिव्य रूप से शुद्ध है।

    जब राजा भगीरथ शिवजी के पास गये और उनसे गंगा की वेगवान लहरों को धारण करने केलिए प्रार्थना की तो शिवजी ने एवमस्तु कहते हुए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

    तब उन्होंने अत्यन्तध्यानपूर्वक गंगा को अपने सिर पर धारण कर लिया क्योंकि भगवान्‌ विष्णु के अँगूठे से निकलने केकारण गंगा का जल शुद्ध करने वाला है।

    भगीरथः स राजर्षिनिन्ये भुवनपावनीम्‌ ।

    यत्र स्वपितृणां देहा भस्मीभूता: सम शेरते ॥

    १०॥

    भगीरथ:--भगीरथ; सः--वह; राज-ऋषि:--सन्‍्त राजा; निन्‍्ये--ले गया या लाया; भुवन-पावनीम्‌--सारे ब्रह्माण्ड का उद्धार करनेवाली गंगा को; यत्र--जिस स्थान पर; स्व-पितृणाम्‌--अपने पितरों के; देहा:--शरीर; भस्मीभूता:--जलकर राख हुए; सम शेरते--पड़े हुए थे

    महान्‌ एवं साधु राजा भगीरथ समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने वाली गंगाजी को पृथ्वी परउस स्थान में ले गये जहाँ उनके पितरों के शरीर भस्म होकर पड़े हुए थे।

    रथेन वायुवेगेन प्रयान्तमनुधावती ।

    देशान्पुनन्ती निर्दग्धानासिश्ञत्सगरात्मजान्‌ू ॥

    ११॥

    रथेन--रथ पर; वायु-वेगेन--हवा की गति से चलते हुए; प्रयान्तम्‌--आगे-आगे चलते महाराज भगीरथ; अनुधावती --पीछे-पीछेदौड़ती; देशान्‌ू--सारे देशों को; पुनन्ती--पवित्र बनाती; निर्दग्धानू--जलकर राख हुए; आसिशज्जत्‌ू--ऊपर जल छिड़का; सगर-आत्मजान्‌--सगर के पुत्रों को

    भगीरथ एक तेज रथ पर सवार हुए और गंगा माता के आगे-आगे चले जो अनेक देशों को शुद्धकरती हुई उनके पीछे पीछे चलती हुईं उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ सगर के पुत्र भगीरथ के पितृगण की भस्म पड़ी थी।

    इस पर गंगा का जल छिड़का गया।

    यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्मदण्डहता अपि ।

    सगरात्मजा दिवं जग्मु: केवलं देहभस्मभि: ॥

    १२॥

    यत्‌-जल--जिसका पानी; स्पर्श-मात्रेण--केवल स्पर्श करने से; ब्रह्म-दण्ड-हता:--जो लोग ब्रह्म ( आत्म ) का अपमान करने केकारण दण्डित हुए; अपि--यद्यपि; सगर-आत्मजा: --सगर के पुत्र; दिवम्‌--स्वर्गलोक को; जग्मु:--गये; केवलम्‌--मात्र; देह-भस्मभि: --अपने भस्म हुए शरीरों की बची राख से।

    चूँकि सगर महाराज के पुत्रों ने महापुरुष का अपमान किया था अतएव उनके शरीर का ताप बढ़गया था और वे जलकर भस्म हो गये थे।

    किन्तु मात्र गंगाजल के छिड़कने से वे सभी स्वर्गलोक जानेके पात्र बन गये।

    अतएवं जो लोग गंगा की पूजा करने के लिए गंगाजल का प्रयोग करते हैं उनकेविषय में क्‍या कहा जाए?

    है?

    भस्मीभूताड़ुसड्लेन स्वर्याता: सगरात्मजा: ।

    कि पुनः श्रद्धया देवीं सेवन्ते ये धृतब्रता: ॥

    १३॥

    भस्मी भूत-अड़-- जलकर राख हुए शरीरों से; सड़्ेन--गंगाजल के स्पर्श से; स्व: याता:--स्वर्गलोक चले गये; सगर-आत्मजा:--सगर के पुत्र; किमू--क्या कहा जाय; पुनः--फिर; अ्रद्धया--श्रद्धा तथा भक्ति से; देवीम्‌--माता गंगा की; सेवन्ते--पूजा करते हैं;ये--जो व्यक्ति; धृत-ब्रता:--संकल्प लेकर |

    भस्म शरीरों की राखों का गंगाजल के साथ सम्पर्क होने से सगर महाराज के पुत्र स्वर्गलोक चलेगये।

    अतएव उन लोगों के विषय में क्या कहा जाय जो संकल्प लेकर श्रद्धापूर्वक गंगा मइया की पूजा करते हैं?

    ऐसे भक्तों को मिलने वाले लाभ की मात्र कल्पना की जा सकती है।

    न होतत्परमाश्चर्य स्वर्धुन्या यदिहोदितम्‌ ।

    अनन्तचरणाम्भोजप्रसूताया भवच्छिद: ॥

    १४॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; एतत्‌--यह; परम्‌ू--चरम; आश्चर्यम्‌--आश्चर्यजनक वस्तु; स्वर्धुन्या:--गंगाजल का; यत्‌--जो; इह--यहाँ पर; उदितम्‌ू--कहा गया है; अनन्त-- भगवान्‌ का; चरण-अम्भोज---चरणकमलों से; प्रसूताया:--निकलने वाले का; भव-छिदः--भवबन्धन से छुड़ाने में समर्थ

    चूँकि गंगामाता भगवान्‌ अनन्तदेव के चरणकमल के अँगूठे से निकलती हैं, अतएव वे मनुष्यको भवबन्धन से मुक्त करने में सक्षम हैं।

    इसलिए यहाँ पर उनके विषय में जो कुछ बतलाया जा रहाहै वह तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।

    सन्निवेश्य मनो यस्मिज्छुद्धया मुनयोउमला: ।

    तैगुण्यं दुस्त्यजं हित्वा सद्यो यातास्तदात्मताम्‌ ॥

    १५॥

    सन्निवेश्य--पूरा ध्यान देकर; मन: --मन; यस्मिन्‌ू--जिसमें; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा भक्ति से; मुन॒यः--मुनिगण; अमला:--पापों केकल्मष से मुक्त हुए; त्रैगुण्यम्‌--प्रकृति के तीनों गुण; दुस्त्यजम्‌--जिनको छोड़ पाना अत्यन्त कठिन है; हित्वा--फिर भी त्याग करके;सद्यः--शीघ्र; याता: --प्राप्त किया; तत्‌-आत्मताम्‌-- भगवान्‌ का आध्यात्मिक गुण, भगवत्स्वरूप |

    मुनिगण भौतिक कामवासनाओं से सर्वथा मुक्त होकर, अपना ध्यान पूरी तरह भगवान्‌ की सेवामें लगाते हैं।

    ऐसे व्यक्ति बिना किसी कठिनाई के भवबन्धन से छूट जाते हैं और वे भगवान्‌ काआध्यात्मिक गुण प्राप्त करके दिव्यपद को प्राप्त होते हैं।

    भगवान्‌ की यही महिमा है।

    श्रुतो भगीरथाज्जज्ञे तस्थ नाभोपरोभवत्‌ ।

    सिन्धुद्वीपस्ततस्तस्मादयुतायुस्ततो भवत्‌ ॥

    १६॥

    ऋतूपर्णों नलसखो यो श्वविद्यामयातन्नलातू ।

    दत्त्वाक्षहददयं चास्मै सर्वकामस्तु तत्सुतम्‌ ॥

    १७॥

    श्रुतः-- श्रुत नामक पुत्र; भगीरथात्‌--भगीरथ से; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; तस्य-- श्रुत का; नाभ:--नाभ नामक; अपर: --अन्य,पूर्णवर्णित नाम से भिन्न; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ; सिन्धुद्वीप: --सिन्धुद्वीप नाम से; ततः--नाभ से; तस्मात्‌--सिन्धुद्वीप से; अयुतायु: --अयुतायु नामक पुत्र; तत:--तत्पश्चात्‌; अभवत्‌--पैदा हुआ; ऋतूपर्ण:--ऋतूपर्ण नामक पुत्र; नल-सख:--नल का मित्र; य:--जो;अश्व-विद्याम्‌--धघोड़ों को वश में करने की कला; अयात्‌--अर्जित की; नलात्‌--नल से; दत्त्वा--बदले में देकर; अक्ष-हृदयम्‌--झूतक्रीड़ा का रहस्य; च--तथा; अस्मै--नल को; सर्वकाम:--सर्वकाम नामक; तु--निस्सन्देह; तत्‌-सुतमू--उसका ( ऋतूपर्ण )पुत्र |

    भगीरथ का पुत्र श्रुत था और श्रुत का पुत्र नाभ था।

    ( यह नाभ पूर्ववर्णित नाभ से भिन्न है )।

    नाभ का पुत्र सिंधुद्दीप हुआ, जिसका पुत्र अयुतायु था और अयुतायु का पुत्र ऋतूपर्ण हुआ जो नलराजा का मित्र बन गया।

    ऋतूपर्ण ने नल राजा को द्यूतक्रीड़ा सिखलाई और बदले में उसने नल राजासे घोड़ों को वश में करना तथा उनकी देखरेख करना सीखा।

    ऋतूपर्ण का पुत्र सर्वकाम था।

    ततः सुदासस्तत्पुत्रो दमयन्तीपतिरनूपः ।

    आहुर्मित्रसहं यं वै कल्माषाड्प्रिमुत क्वचित्‌ ।

    वसिष्ठशापाद्रक्षो भूदनपत्य: स्वकर्मणा ॥

    १८॥

    ततः--सर्वकाम से; सुदास:--सुदास उत्पन्न हुआ; तत्‌ू-पुत्र:--सुदास का पुत्र; दमयन्ती-पति:--दमयन्ती का पति; नृप:--राजा बना;आहु:ः--कहा जाता है; मित्रसहम्‌--मित्रसह; यम्‌ वै-- भी; कल्माषाड्प्रिमू--कल्माषपाद से; उत--ज्ञात; क्वचित्‌--कभी; वसिष्ठ-शापात्‌--वसिष्ठ के शाप से; रक्ष:--मनुष्यभक्षक; अभूत्‌--बना; अनपत्य: --सन्तानहीन; स्व-कर्मणा--अपने पापपूर्ण कर्म से |

    सर्वकाम के एक सुदास नामक पुत्र हुआ जिसका पुत्र सौदास कहलाया जो दमयन्ती का पतिथा।

    कभी-कभी सौदास मित्रसह या कल्माषपाद के नाम से जाना जाता है।

    अपने ही दुष्कर्मो के कारण मित्रसह निःसन्‍्तान था और उसे वसिष्ठ द्वारा राक्षस बनने का शाप मिला।

    श्रीराजोबाचकि निमित्तो गुरो: शाप: सौदासस्य महात्मन: ।

    एतद्वेदितुमिच्छाम: कथ्यतां न रहो यदि ॥

    १९॥

    श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; किम्‌ निमित्त:--किस कारण से; गुरो:--गुरु का; शाप:--शाप; सौदासस्य--सौदास का;महा-आत्मन:--महान्‌ आत्मा का; एतत्‌--यह; वेदितुम्‌ू--जानने के लिए; इच्छाम:--इच्छा करता हूँ; कथ्यताम्‌--कृपया मुझसे कहें;न--नहीं; रहः--गोपनीय; यदि--यदि |

    राजा परीक्षित ने कहा : हे शुकदेव गोस्वामी, सौदास के गुरु वसिष्ठ ने इस महापुरुष को शापक्यों दिया?

    मैं इसे जानना चाहता हूँ।

    यदि यह गोपनीय विषय न हो तो कृपया कह सुनायें।

    श्रीशुक उबाचसौदासो मृगयां किद्िच्चरत्रक्षो जघान ह ।

    मुमोच भ्रातरं सोथ गत: प्रतिचिकीर्षया ॥

    २०॥

    सद्धिन्तयन्नघं राज्ञ: सूदरूपधरो गृहे ।

    गुरवे भोक्तुकामाय पक्‍त्वा निन्‍ये नरामिषम्‌ ॥

    २१॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सौदास:--राजा सौदास ने; मृगयाम्‌--शिकार के लिए; किश्ञित्‌--किसी समय;चरन्‌--घूमते हुए; रक्ष:--राक्षस, मानव भक्षी; जघान--मारा; ह-- था; मुमोच--छोड़ दिया; भ्रातरम्‌--उस राक्षस के भाई को;सः--उसने; अथ--तत्पश्चात्‌; गत: --गया; प्रतिचिकीर्षया--बदला लेने के लिए; सजञ्जिन्तयन्‌--उसने सोचा; अधम्‌--कुछ नुकसानकरने के लिए; राज्ञ:--राजा का; सूद-रूप-धर:--रसोइये का वेश धारण किया; गृहे--घर में; गुरवे--राजा के गुरु को; भोक्तु-कामाय--भोजन करने के लिए आया हुआ; पक्त्वा--भोजन बनाने के बाद; निन्‍्ये--दिया; नर-आमिषम्‌--मनुष्य का मांस

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एक बार सौदास जंगल में मृगया के लिए गया जहाँ उसने एकराक्षस को मार डाला, किन्तु राक्षस के भाई को क्षमा करके छोड़ दिया।

    किन्तु उस भाई ने बदलालेने का निश्चय किया।

    राजा को क्षति पहुँचाने के विचार से वह राजा के घर में रसोइया बन गया।

    एक दिन जब राजा के गुरु वसिष्ठ मुनि को भोजन करने के लिए आमंत्रित किया गया तो इस राक्षसरसोइये ने उन्हें मनुष्य का मांस परोस दिया।

    परिवेक्ष्यमाणं भगवान्विलोक्याभक्ष्यमञ्जसा ।

    राजानमश् पत्क्द्धो रक्षो होव॑ भविष्यसि ॥

    २२॥

    परिवेक्ष्यमाणम्‌-- भोज्य पदार्थों का परीक्षण करते हुए; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; विलोक्य--देखकर; अभक्ष्यम्‌ू--खाने केलिए अनुपयुक्त; अज्ञसा--अपनी योग शक्ति से सरलतापूर्वक; राजानम्‌--राजा को; अशपत्‌--शाप दे दिया; क्रुद्ध:--अत्यन्तक्रोधित होकर; रक्ष:--मनुष्यभक्षी राक्षस; हि--निस्सन्देह; एवम्‌--इस प्रकार; भविष्यसि--हो जाओगे

    वसिष्ठ मुनि, परोसे भोजन की परीक्षा करते हुए, अपने योगबल से समझ गये कि यह मनुष्य कामांस है अतएव अभक्ष्य है।

    फलतः वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उन्होंने तुरन्त ही सौदास को मनुष्यभक्षी( राक्षस ) बनने का शाप दे डाला।

    रक्षःकृतं तद्विदित्वा चक्रे द्वादशवार्षिकम्‌ ।

    सोप्यपोझ्जलिमादाय गुरुं शप्तुं समुद्यतः ॥

    २३॥

    वारितो मदयन्त्यापो रुशतीः पादयोर्जहौ ।

    दिश:ः खमवनीं सर्व पश्यज्जीवमयं नृप: ॥

    २४॥

    रक्ष:-कृतम्‌--राक्षस द्वारा ही किया हुआ; तत्‌--वह मांस का परोसा जाना; विदित्वा--जानकर; चक्रे --वसिष्ठ ने सम्पन्न किया;द्वादश-वार्षिकम्‌-प्रायश्चित्त के लिए बारह वर्ष की तपस्या; सः--वह सौदास; अपि-- भी; अप:-अज्जलिम्‌--अंजुली भर पानी;आदाय--लाकर; गुरुम्‌--अपने गुरु वसिष्ठ को; शप्तुम्‌ू-शाप देने के लिए; समुद्यतः--तैयार; वारित:--मना किये जाने पर;मदयन्त्या--अपनी पत्नी मदयन्ती द्वारा; अप:--जल; रुशतीः --मंत्रोच्चार से सशक्त; पादयो: जहौ--अपने पाँवों पर फेंका; दिशः --सारी दिशाएँ; खम्‌--आकाश में; अवनीम्‌--पृथ्वी पर; सर्वम्‌--सर्वत्र; पश्यनू--देखते हुए; जीव-मयम्‌--जीवों से पूर्ण; नृप:--राजाने

    जब वसिष्ठ समझ गये कि यह मांस राजा द्वारा नहीं, अपितु राक्षस द्वारा ही परोसा गया है तोउन्होंने निर्दोष राजा को शाप देने के प्रायश्चित स्वरूप अपने को शुद्ध करने के लिए बारह वर्ष तकतपस्या की।

    तब राजा सौदास ने अंजुली में पानी लेकर वसिष्ठ को शाप देने के लिए शापमंत्र काउच्चारण करना चाहा, किन्तु उसकी पत्नी मदयन्ती ने उसे ऐसा करने से रोका।

    तब राजा ने देखा किदसों दिशाओं, आकाश तथा पृथ्वी पर सर्वत्र जीव ही जीव थे।

    राक्षसं भावमापतन्नः पादे कल्माषतां गतः ।

    व्यवायकाले ददृशे वनौकोदम्पती द्विजौ ॥

    २५॥

    राक्षसमू-मनुष्यभक्षक; भावमू--प्रवृत्ति; आपन्न: --प्राप्त करके; पादे--पाँव पर; कल्माषताम्‌--काला धब्बा; गत:--प्राप्त किया;व्यवाय-काले--मैथुन के समय; दहशे--देखा; वन-ओकः:--वनवासी; दम्‌-पती--पति-पत्नी; द्विजौ--ब्राह्मण |

    इस तरह सौदास ने मानवभक्षी प्रवृत्ति अर्जित कर ली और उसके पाँव में एक काला धब्बा होगया जिससे वह कल्माषपाद कहलाया।

    एक बार कल्माषपाद ने एक ब्राह्मण दम्पति को जंगल मेंसंभोगरत देखा।

    क्षुधार्तो जगृहे विप्र॑ तत्पत्याहाकृतार्थवत्‌ ।

    न भवात्राक्षसः साक्षादिक्ष्वाकूणां महारथ: ॥

    २६॥

    मदयन्त्या: पतिर्वीर नाधर्म कर्तुमहसि ।

    देहि मेपत्यकामाया अकृतार्थ पतिं द्विजम्‌ ॥

    २७॥

    श्षुधा-आर्त:-- भूख से पीड़ित; जगृहे--पकड़ लिया; विप्रम्‌ू--ब्राह्मण को; तत्‌-पत्नी--उसकी पत्नी ने; आह--कहा; अकृत-अर्थ-वत्‌--असंतुष्ट गरीब तथा भूखा; न--नहीं; भवान्‌--आप; राक्षस:--राक्षस; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; इक्ष्वाकूणाम्‌--महाराज इक्ष्वाकु केवबंशजों में; महा-रथ:--महान्‌ योद्धा; मदयन्त्या:--मदयन्ती का; पति:--पति; वीर--हे वीर; न--नहीं; अधर्मम्‌--अधर्म; कर्तुम्‌--करने के लिए; अ्हसि--तुम योग्य हो; देहि--उद्धार करिये; मे--मेरा; अपत्य-कामाया: --पुत्र प्राप्ति की इच्छा से; अकृत-अर्थम्‌--जिसकी इच्छा पूरी न हो; पतिम्‌--पति को; द्विजम्‌-ब्राह्मण

    राक्षस-वृत्ति से प्रभावित होने तथा अत्यन्त भूखा रहने के कारण राजा सौदास ने ब्राह्मण कोपकड़ लिया।

    तब ब्राह्मण की बेचारी पत्नी ने राजा से कहा : हे वीर, तुम असली राक्षस नहीं हो,प्रत्युत तुम महाराज इक्ष्वाकु के वंशज हो।

    निस्सन्देह, तुम महान्‌ योद्धा और मदयन्ती के पति हो।

    तुम्हेंइस तरह पाप-कर्म नहीं करना चाहिए।

    मुझे पुत्र प्राप्त करने की इच्छा है अतएव मेरे पति को छोड़दो, अभी उसने मुझे गर्भित नहीं किया है।

    देहोयं मानुषो राजन्पुरुषस्याखिलार्थद: ।

    तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥

    २८ ॥

    देह:--शरीर; अयम्‌--यह; मानुष: --मनुष्य का; राजन्‌--हे राजा; पुरुषस्थ--जीव का; अखिल--समष्टि; अर्थ-दः--लाभकारी;तस्मात्‌ू--इसलिए; अस्य--मेरे पति के शरीर की; वध:--हत्या; वीर--हे वीर; सर्व-अर्थ-बध:--सारे लाभप्रद अवसरों की हत्या;उच्यते--कहा जाता है।

    हे राजा, हे वीर, यह मानव शरीर सबों के लाभ के निमित्त है।

    यदि तुम इस शरीर का असमयवध कर दोगे तो तुम मानव जीवन के सारे लाभों की हत्या कर डालोगे।

    एष हि ब्राह्मणो विद्वांस्तप:शीलगुणान्वित: ।

    आरिराधयिषुर्रह्य महापुरुषसंज्ञितम्‌ ।

    सर्वभूतात्मभावेन भूतेष्वन्तर्हितं गुणै: ॥

    २९॥

    एष:--यह; हि--निस्सन्देह; ब्राह्मण: --योग्य ब्राह्मण; विद्वानू--वैदिक ज्ञान में पारंगत; तपः--तपस्या; शील--सदाचरण; गुण-अन्वितः--सारे सदगुणों से युक्त; आरिराधयिषु: --पूजा में लगने की इच्छा करता हुआ; ब्रह्म--परब्रह्म ; महा-पुरुष--महापुरुष कृष्ण;संज्ञितम्‌ू-के नाम से विख्यात; सर्व-भूत--सारे जीवों का; आत्म-भावेन--परमात्मा रूप; भूतेषु--हर जीव में; अन्तर्हितमू--हृदय केभीतर; गुणैः--गुणों के द्वारा |

    यह ब्राह्मण विद्वान अत्यन्त योग्य, तपस्या में रत तथा समस्त जीवों के हृदय में वास करने वालेपरमात्मा परब्रह्म की पूजा करने के लिए परम उत्सुक है।

    सोड<यं ब्रह्मर्षिवर्यस्ते राजर्षिप्रवराद्धिभो ।

    कथर्मईति धर्मज्ञ वधं पितुरिवात्मज: ॥

    ३०॥

    सः--वह ब्राह्मण; अयम्‌--यह; ब्रह्म-ऋषि-वर्य:--न केवल ब्राह्मण अपितु ऋषियों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि; ते--तथा तुमसे; राज-ऋषि-प्रवरात्‌--जो सारे राजर्षियों में सर्वश्रेष्ठ है; विभो--हे राज्य के स्वामी; कथम्‌--कैसे; अर्हति--योग्य है; धर्म-ज्ञ--हे धर्म के ज्ञाता;वधम्‌--वध; पितु:--पिता द्वारा; इब--सहृश; आत्मज:--पुत्र |

    हे प्रभु, तुम धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्णतया अवगत हो।

    जिस तरह पुत्र कभी भी अपने पिता द्वारावध्य नहीं है, उसी तरह इस ब्राह्मण की राजा द्वारा रक्षा होनी चाहिए न कि वध।

    तुम जैसे राजर् द्वाराइसका वध किस तरह उचित है ?

    'तस्य साधोरपापस्य भ्रूणस्य ब्रह्मवादिन: ।

    कथ॑ं वधं यथा बश्रोर्मन्यते सन्‍्मतो भवान्‌ ॥

    ३१॥

    तस्य--उसका; साधो:--साधुपुरुष का; अपापस्थ--निष्पापी; भ्रूणस्थ-- भ्रूण का; ब्रह्म-वादिन: --वैदिक ज्ञान में पारंगत; कथम्‌--कैसे; वधम्‌--वध; यथा--जिस तरह; बश्नो:--गाय का; मन्यते--तुम सोचते हो; सत्‌-मतः--मान्य; भवान्‌ू--आप।

    तुम विख्यात हो और दिद्वानों में पूजित हो।

    तुम किस तरह इस ब्राह्मण का वध करने का साहसकर रहे हो जो साधु, निष्पाप तथा वैदिक ज्ञान में पटु है?

    उसका वध करना गर्भ के भीतर भ्रूण नष्टकरने या गोवध के तुल्य होगा।

    यद्ययं क्रियते भक्ष्यस्तर्हि मां खाद पूर्वतः ।

    न जीविष्ये विना येन क्षणं च मृतकं यथा ॥

    ३२॥

    यदि--यदि; अयम्‌--यह ब्राह्मण; क्रियते--स्वीकार किया जाता है; भक्ष्य:--खाद्य; तहि--तब तो; मामू--मुझको; खाद--खा लो;पूर्वतः --उसके पूर्व; न--नहीं; जीविष्ये--मैं जीवित रहूँगी; विना--बिना; येन--जिसके ( पति ); क्षणम्‌ च--एक पल भी;मृतकम्‌--शव; यथा--सहृश |

    मैं अपने पति के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती।

    यदि तुम मेरे पति को खा जानाचाहते हो, तो अच्छा होगा कि पहले तुम मुझे खा लो क्योंकि मैं अपने पति के बिना मृतक तुल्य हूँ।

    एवं करुणभाषिण्या विलपन्त्या अनाथवत्‌ ।

    व्याप्र: पशुमिवाखादत्सौदास: शापमोहितः ॥

    ३३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; करुण-भाषिण्या:--करुणभाव से बोलती वह ब्राह्मण की पतली; विलपन्त्या:--घोर विलाप करती; अनाथ-वत्‌--उस स्त्री के समान जिसका कोई रक्षक न हो; व्याप्र:--बाघ; पशुम्‌ू-- पशु; इब--सद्ृश; अखादत्‌--खा लिया; सौदास:--राजा सौदास ने; शाप--शाप से; मोहित:--शापित होने से

    वसिष्ठ के शापवश राजा सौदास उस ब्राह्मण को निगल गया, जिस तरह कोई बाघ अपने शिकारको निगल जाता है।

    यद्यपि ब्राह्मणपती ने अत्यन्त कातरभाव से विनय की, किन्तु उसके विलाप सेभी सौदास नहीं पसीजा।

    ब्राह्मणी वीक्ष्य दिधिषुं पुरुषादेन भक्षितम्‌ ।

    शोच्न्त्यात्मानमुर्वीशमशपत्कुपिता सती ॥

    ३४॥

    ब्राह्मणी--ब्राह्मण पत्नी; वीक्ष्य--देखकर; दिधिषुम्‌--गर्भाधान के लिए उद्यत पति को; पुरुष-अदेन--मनुष्यभक्षक ( राक्षस ) द्वारा;भक्षितमू--खाया जाकर; शोचन्ती -- अत्यधिक विलाप करती; आत्मानम्‌--अपने लिए; उर्वीशम्‌--राजा को; अशपत्‌--शाप देदिया; कुपिता--वृद्धा; सती--सती ने

    जब ब्राह्मण की सती पत्नी ने देखा कि उसका पति, जो गर्भाधान के लिए उद्यत ही था, उसमनुष्यभक्षक द्वारा खा लिया गया तो वह शोक तथा विलाप से अत्यधिक सन्तप्त हो उठी।

    इस तरहउसने क्रोध में आकर राजा को शाप दे दिया।

    यस्मान्मे भक्षित: पाप कामार्ताया: पतिस्त्वया ।

    तवापि मृत्युराधानादकृतप्रज्ञ दशित: ॥

    ३५॥

    अस्मात्‌--चूँकि; मे--मेरा; भक्षित:--खाया गया; पाप--हे पापी; काम-आर्ताया:--कामेच्छा से विरहित स्त्री का; पति:ः--पति;त्वया--तुम्हारे द्वारा; तब--तुम्हारी; अपि-- भी ; मृत्यु:--मृत्यु; आधानात्‌ू--गर्भाधान करते समय; अकृत-प्रज्ञ--ओरे मूर्ख धूर्त;दर्शितः--तुमको शाप दिया जाता है।

    ओरे मूर्ख पापी, चूँकि तूने मेरे पति को तब निगला जब मैं कामेच्छा से पीड़ित और गर्भाधान केलिए लालायित थी अतएव मैं तुझे भी तभी मरते देखना चाहती हूँ जब तू अपनी पत्ली में गर्भाधानकरने को उद्यत हो।

    दूसरे शब्दों में, जब भी तू अपनी पत्नी से संभोग करना चाहेगा तू मर जाएगा।

    एवं मित्रसहं शप्त्वा पतिलोकपरायणा ।

    तदस्थीनि समिद्धेग्नौ प्रास्य भर्तुर्गतिं गता ॥

    ३६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मित्रसहम्‌--राजा सौदास को; शप्त्वा--शाप देकर; पति-लोक-परायणा--अपने पति के साथ जाने को उद्यत;ततू-अस्थीनि--अपने पति की हड्डियों को; समिद्धे अग्नौ--जलती अग्नि में; प्रास्य--रखकर; भर्तु:ः--अपने पति के; गतिम्‌--गन्तव्यको; गता--वह भी चली गई।

    इस प्रकार ब्राह्मणपत्नी ने राजा सौदास को, जो मित्रसह के नाम से विख्यात है, शाप दे डाला।

    तत्पश्चात्‌ अपने पति के साथ जाने के लिए सन्नद्ध उसने पति की अस्थियों में आग लगा दी, स्वयं वहउसमें कूद पड़ी और पति के साथ-साथ उसी गन्तव्य को प्राप्त हुई।

    विशापो द्वादशाब्दान्ते मैथुनाय समुद्यतः ।

    विज्ञाप्य ब्राह्मणीशापं महिष्या स निवारित: ॥

    ३७॥

    विशाप:--शाप से छूटा; द्वादश-अब्द-अन्ते--बारह वर्ष बाद; मैथुनाय-- अपनी पत्नी के साथ मैथुन करने के लिए; समुद्यतः--जबसौदास तैयार था; विज्ञाप्प--याद दिलाते हुए; ब्राह्मणी-शापम्‌--ब्राह्मणी द्वारा दिया गया शाप; महिष्या--रानी द्वारा; सः--वह( राजा ); निवारित:--रोक लिया गया।

    बारह वर्ष बाद जब राजा सौदास वसिष्ठ द्वारा दिये गये शाप से मुक्त हुआ तो उसने अपनी पत्नीके साथ सम्भोग करना चाहा।

    किन्तु रानी ने उसे ब्राह्मणी द्वारा दिये गये शाप का स्मरण कराया।

    इसतरह उसे सम्भोग करने से रोक दिया।

    अत ऊर्ध्व॑ स॒ तत्याज स्त्रीसुखं कर्मणाप्रजा: ।

    वसिष्ठस्तदनुज्ञातो मदयन्त्यां प्रजामधात्‌ ॥

    ३८॥

    अतः--इस प्रकार से; ऊर्ध्वमू--निकट भविष्य में; सः--उस राजा ने; तत्याज--छोड़ दिया; स्त्री-सुखम्‌--मैथुन-सुख; कर्मणा--भाग्य द्वारा; अप्रजा: --निस्सन्तान रहता रहा; वसिष्ठ:--ऋषि वसिष्ठ ने; तत्‌-अनुज्ञात:--राजा की अनुमति से पुत्र उत्पन्न करने के लिए;मदयन्त्यामू--राजा सौदास की पली मदयन्ती के गर्भ में; प्रजामू--शिशु; अधात्‌--उत्पन्न किया।

    इस प्रकार आदिष्ट होने पर राजा ने भावी संभोग-सुख त्याग दिया और भाग्यवश निस्सन्तानरहता रहा।

    बाद में राजा की अनुमति से ऋषि वसिष्ठ ने मदयन्ती के गर्भ से एक शिशु उत्पन्न किया।

    सा वै सप्त समा गर्भमबिभ्रन्न व्यजायत ।

    जघ्नेएमनोदर तस्या: सोश्मकस्तेन कथ्यते ॥

    ३९॥

    सा--वह रानी मदयन्ती; वै--निस्सन्देह; सप्त--सात; समा:--वर्ष; गर्भम्‌ू--गर्भ को; अबिभ्रत्‌ू-- धारण किये रही; न--नहीं;व्यजायत--जन्म दिया; जघ्ने-- प्रहार किया; अश्मना--पत्थर से; उदरम्‌--उदर पर; तस्या:--उसके; सः--पुत्र; अश्मक:--अश्मक;तेन--इसके कारण; कथ्यते--कहलाया।

    मदयन्ती सात वर्षो तक बालक को गर्भ में धारण किये रही और उसने बच्चे को जन्म नहीं दिया।

    अतएबव वसषिष्ठ ने एक पत्थर से उसके पेट पर प्रहार किया जिससे बालक उत्पन्न हुआ।

    फलस्वरूपबच्चे का नाम अश्मक ( पत्थर से उत्पन्न ) पड़ा।

    अश्मकाद्वालिको जज्ञे यः स्त्रीभिः परिरक्षित: ।

    नारीकवच इत्युक्तो निःक्षत्रे मूलकोभवत्‌ ॥

    ४०॥

    अश्मकात्‌---अश्मक से; बालिक:--बालिक नामक पुत्र; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; यः--जो; स्त्रीभि:--स्त्रियों द्वारा; परिरक्षित:--रक्षाकिया गया; नारी-कवचः --स्त्रियों की ढाल पहने; इति उक्त:--इस तरह से विख्यात; निःक्षत्रे-- क्षत्रियविहीन होने पर ( क्योंकिपरशुराम ने क्षत्रियों को मार डाला था ); मूलक:--श्षत्रियों का जनक, मूलक; अभवत्‌--बन गया |

    अश्मक से बालिक उत्पन्न हुआ।

    चूँकि स्त्रियों से घिरा रहने के कारण बालिक परशुराम के क्रोधसे बच गया था अतएव वह नारीकवच कहलाया।

    जब परशुराम ने सरे क्षत्रियों का विनाश कर दियातो बालिक अन्य क्षत्रियों का जनक बना।

    इसीलिए वह मूलक अर्थात्‌ क्षत्रिय वंश का मूलकहलाया।

    ततो दशरथस्तस्मात्पुत्र ऐडविडिस्ततः ।

    राजा विश्वसहो यस्य खट्वाडुश्चक्रवर्त्यभूत्‌ ॥

    ४१॥

    ततः--बालिक से; दशरथ: --दशरथ; तस्मात्‌--उससे; पुत्र: --पुत्र; ऐडविडि: --ऐडविडि; ततः--उससे; राजा विश्वसह:--सुप्रसिद्धराजा विश्वसह उत्पन्न हुआ; यस्य--जिसके; खट्वाड़:--खट्वांग नामक राजा; चक्रवर्ती--सम्राट; अभूत्‌--बना |

    बालिक का पुत्र दशरथ हुआ, दशरथ का पुत्र ऐडविडि तथा ऐडविडि का पुत्र राजा विश्वसहहुआ।

    विश्वसह का पुत्र सुप्रसिद्ध महाराज खट्वांग था।

    यो देवैरथिंतो दैत्यानवधीद्युधि दुर्जय: ।

    मुहूर्तमायुर्ज्ात्वैत्य स्वपुरं सन्दधे मन: ॥

    ४२॥

    यः--राजा खट्वांग ने; देवैः--देवताओं द्वारा; अर्थित:-- प्रार्थना किए जाने पर; दैत्यानू--असुरों को; अवधीत्‌--मार डाला; युधि--युद्ध में; दुर्जय:--अत्यन्त भीषण; मुहूर्तम्‌--एक पल के लिए; आयु:--उप्र; ज्ञात्वा--जानकर; एत्य--पहुँचा; स्व-पुरम्‌--अपने घरमें; सन्दधे--स्थिर कर लिया; मन:--मन को ।

    राजा खट्वांग किसी भी युद्ध में दुर्जेय था।

    असुरों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए देवताओं द्वाराप्रार्थना करने पर उसने विजय प्राप्त की और एक ही मनुष्य जन्म में देवताओं ने प्रसन्न होकर उसे वरदेना चाहा।

    जब राजा ने उनसे अपनी आयु के विषय में पूछा तो उसे बतलाया गया कि केवल एकमुहूर्त शेष है।

    अतएव उसने तुरन्त अपने घर जाकर भगवान्‌ के चरणकमलों में अपना मन लगाया।

    न मे ब्रह्मकुलात्प्राणा: कुलदैवान्न चात्मजा: ।

    न श्रियो न मही राज्यं न दाराश्चातिवललभा: ॥

    ४३॥

    न--नहीं; मे--मेरा; ब्रह्म-कुलात्‌--ब्राह्मण वृन्द की अपेक्षा; प्राणा:--प्राण; कुल-दैवात्‌--मेरे कुल द्वारा पूज्य पुरुषों की अपेक्षा;न--नहीं; च-- भी; आत्मजा:--पुत्र तथा पुत्रियाँ; न--न तो; थ्रिय:--ऐश्वर्य; न--न तो; मही--पृथ्वी; राज्यम्‌ू--राज्य; न--न तो;दाराः:--पत्नी; च-- भी; अति-वल्लभा:--अतत्यन्त प्रिय |

    महाराज खट्वांग ने सोचा: ब्राह्मण संस्कृति तथा मेरे कुलपूज्य ब्राह्मणों की अपेक्षा मेरा जीवनभी मुझे अधिक प्रिय नहीं है।

    तो फिर मेरे राज्य, भूमि, पत्नी, सन्‍्तान तथा ऐश्वर्य के विषय में क्‍याकहा जा सकता है?

    मुझे ब्राह्मणों से अधिक प्रिय कुछ भी नहीं है।

    न बाल्येपि मतिर्महामधर्मे रमते क्वचित्‌ ।

    नापश्यमुत्तमएलोकादन्यत्किञ्ञन वस्त्वहम्‌ ॥

    ४४॥

    न--नहीं; बाल्ये--बचपन में; अपि--निस्सन्देह; मतिः--आकर्षण; महाम्‌ू--मुझको; अधर्मे --अधर्म में; रमते--भोगता है;क्वचित्‌--कभी भी; न--न तो; अपश्यम्‌--देखा; उत्तमएलोकात्‌-- भगवान्‌ की अपेक्षा; अन्यत्‌ू--कोई अन्य वस्तु; किज्ञन--कोई;वस्तु--वस्तु; अहम्‌-मैंने |

    अपने बचपन में भी मैं नगण्य वस्तुओं या अधार्मिक सिद्धान्तों के प्रति कभी आकृष्ट नहीं हुआ।

    मुझे भगवान्‌ से बढ़कर तथ्यपूर्ण अन्य कोई वस्तु नहीं मिल पाई।

    देवै: कामवरो दत्तो महां त्रिभुवनेश्वरै: ।

    न वृणे तमहं काम भूतभावनभावन: ॥

    ४५॥

    देवैः:--देवताओं के द्वारा; काम-वरः--इच्छित वर; दत्त:--दिया; महाम्‌--मुझको; त्रि-भुवन-ई श्रै:-- तीनों जगतों के रक्षक,देवताओं द्वारा ( जो इस लोक में चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं ); न वृणे--स्वीकार नहीं किया; तम्‌--उस; अहम्‌--मैंने; कामम्‌--इस जगत के भीतर की प्रत्येक इच्छित वस्तु को; भूतभावन-भावन: -- भगवान्‌ में पूर्णतया निमग्न हुआ ( अतएव किसी भी पदार्थ मेंरुचि न रखने वाला )

    तीनों लोकों के निदेशक देवतागण मुझे इच्छित वर देना चाहते थे, किन्तु मुझे उनके वर नहींचाहिए थे क्‍योंकि मेरी रुचि भगवान्‌ में है जिन्होंने इस संसार की सारी वस्तुओं को बनाया है।

    मेरीरुचि भौतिक वरों की अपेक्षा भगवान्‌ में कहीं अधिक है।

    ये विक्षिप्तेन्द्रियधियो देवास्ते स्वहृदि स्थितम्‌ ।

    न विन्दन्ति प्रियं शश्वदात्मानं किमुतापरे ॥

    ४६॥

    ये--जो महापुरुष; विक्षिप्त-इन्द्रिय-धिय:--जिनकी इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि सदैव भौतिक अवस्थाओं के कारण विश्लुब्ध रहती हैं;देवा:--देवताओं की तरह; ते--ऐसे व्यक्ति; स्व-ह॒दि--अपने हृदय में; स्थितम्‌--स्थित; न--नहीं; विन्दन्ति--जानते हैं; प्रियम्‌--अत्यन्त प्रिय; शश्वत्‌--निरन्तर; आत्मानम्‌-- भगवान्‌ को; किम्‌ उत--क्या कहा जाये; अपरे--अन्यों के विषय में ।

    यद्यपि देवताओं को स्वर्गलोक में स्थित होने का लाभ मिलता है, किन्तु उनके मन, इन्द्रियाँ तथाबुद्धि भौतिक अवस्थाओं से विश्लुब्ध रहती हैं।

    अतएवं ऐसे महापुरुष भी हृदय में निरन्तर स्थितभगवान्‌ का साक्षात्कार नहीं कर पाते।

    तो फिर अन्यों के विषय में, यथा मनुष्यों के विषय में, क्‍याकहा जाय जिन्हें बहुत ही कम लाभ प्राप्त हैं ?

    अथेशमायारचितेषु सड़ंगुणेषु गन्धर्वपुरोपमेषु ।

    रूढं प्रकृत्यात्मनि विश्वकर्तु-भविन हित्वा तमहं प्रपये ॥

    ४७॥

    अथ--अतएव; ईश-माया-- भगवान्‌ की माया के द्वारा; रचितेषु --रचे गये; सड़म्‌--अनुरक्ति; गुणेषु-- प्रकृति के गुणों में; गन्धर्ब-पुर-उपमेषु--जिनकी उपमा गन्धर्वपुर के भ्रम से दी जाती है, यह ऐसे नगर या मकान हैंजो जंगल या पर्वत पर दिखते हैं; रूढम्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; प्रकृत्या--प्रकृति के द्वारा; आत्मनि--परमात्मा में; विश्व-कर्तु:--सारे ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा की; भावेन--भक्ति से;हित्वा--त्यागकर; तम्‌--उसकी ( भगवान्‌ की ); अहम्‌--मैं; प्रपद्ले--शरण में जाता हूँ ॥

    अतएव मुझे अब भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति अर्थात्‌ माया द्वारा सृजित वस्तुओं से आसक्ति कोत्याग देना चाहिए।

    मुझे भगवान्‌ के ध्यान में संलग्न होना चाहिए और इस तरह उनकी शरण में जानाचाहिए।

    यह भौतिक सृष्टि भगवान्‌ की माया से सृजित होने के कारण पर्वत पर या जंगल में स्थितकाल्पनिक नगर के सहृश है।

    हर बद्धजीव को भौतिक वस्तुओं से प्राकृतिक आकर्षण एवं आसक्ति होती है, किन्तु मनुष्य को चाहिए कि इन्हें त्यागकर भगवान्‌ की शरण में जाये।

    इति व्यवसितो बुद्धया नारायणगृहीतया ।

    हित्वान्यभावमज्ञानं तत: स्वं भावमास्थित: ॥

    ४८ ॥

    इति--इस प्रकार; व्यवसित:--हढ़ निश्चय करके; बुद्धय्ा--बुद्धि से; नारायण-गृहीतया--नारायण की कृपा से पूर्णतया वशीभूत;हित्वा--त्यागकर; अन्य-भावम्‌--कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त अन्य चेतना; अज्ञानम्‌--जो निरतंर अज्ञान तथा अंधकार ही है;ततः--तत्पश्चात्‌; स्वमू--अपनी मूल स्थिति, जो कृष्ण के नित्यदास के रूप में है; भावम्‌--भक्ति में; आस्थित:--स्थित |

    इस तरह भगवान्‌ की सेवा करने में अपनी उन्नत बुद्धि से महाराज खट्वांग ने अज्ञानमय शरीर सेमिथ्या सम्बन्ध का परित्याग कर दिया।

    अपनी नित्य सेवक की मूल स्थिति में रहकर उन्होंने भगवान्‌की सेवा करने में अपने को संलग्न कर लिया।

    यत्तड्रह्म पर सूक्ष्ममशून्यं शून्यकल्पितम्‌ ।

    भगवान्वासुदेवेति यं गृणन्ति हि सात्वता: ॥

    ४९॥

    यत्‌--जो; तत्‌--वैसा; ब्रह्म परमू--परब्रह्म, भगवान्‌ कृष्ण; सूक्ष्ममू-- आध्यात्मिक, सारी भौतिक धारणाओं से परे; अशून्यम्‌--निर्विशेष या शून्य नहीं; शून्य-कल्पितम्‌--कम बुद्धिमान व्यक्तियों द्वारा शून्य करके कल्पित; भगवान्‌-- भगवान्‌; वासुदेव--कृष्ण;इति--इस प्रकार; यम्‌--जिसको; गृणन्ति--गायन करते हैं; हि--निस्सन्देह; सात्वता:--शुद्ध भक्तगण |

    वे बुद्धिहीन मनुष्य जो भगवान्‌ के निर्विशेष या शून्य न होने पर भी, उन्हें ऐसा मानते हैंउनकेलिए भगवान्‌ वासुदेव कृष्ण को समझ पाना अत्यन्त कठिन है।

    अतएव शुद्ध भक्त ही भगवान्‌ कोसमझते तथा उनका गान करते हैं।

    TO

    अध्याय दस: परम भगवान, रामचन्द्र की लीलाएँ

    9.10श्रीशुक उवाचखट्वाड्जाद्दीर्घबाहुश्न रघुस्तस्मात्पृथुअवा: ।

    अजस्ततो महाराजस्तस्माहशरथोभवत्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; खट्वाड्रातू--महाराज खट्वांग से; दीर्घबाहु:--दीर्घबाहु नामक पुत्र; च--तथा;रघुः तस्मात्‌--उससे रघु उत्पन्न हुआ; पृथु- श्रवा:--साधु तथा विख्यात; अज:--अज नामक पुत्र; ततः--उससे; महा-राज:--महाराज;तस्मात्‌ू--अज से; दशरथ: --दशरथ नामक; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महाराज खट्वांग का पुत्र दीर्घबाहु हुआ और उसके पुत्र विख्यातमहाराज रघु हुए।

    महाराज रघु से अज उत्पन्न हुए और अज से महापुरुष महाराज दशरथ हुए।

    तस्यापि भगवानेष साक्षाद्रह्ममयो हरिः ।

    अंशांशेन चतुर्धागात्पुत्रत्वं प्रार्थित: सुरैः ।

    रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्ना इति संज्ञया ॥

    २॥

    तस्य--महाराज दशरथ के; अपि-- भी; भगवान्‌-- भगवान्‌; एष: --वे सभी; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; ब्रह्मटमय: --परब्रह्म या परम सत्य;हरिः--भगवान्‌; अंश-अंशेन--पूर्ण अंश के अंश से; चतुर्धा--चार प्रकार के विस्तार; अगातू--स्वीकार किया; पुत्रत्वम्‌--पृत्र बनना; प्रार्थित:--प्रार्थना किये जाने पर; सुरैः--देवताओं के द्वारा; राम-- भगवान्‌ रामचन्द्र; लक्ष्मण--लक्ष्मण; भरत-- भरत;शत्रुघ्ना:--तथा शत्रुघ्न; इति--इस प्रकार; संज्ञ़या--विभिन्न नामों से

    देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान्‌ परम सत्य अपने अंश तथा अंशों के भी अंश के साथसाक्षात्‌ प्रकट हुए।

    उनके पवित्र नाम थे राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न।

    ये विख्यात अवतारमहाराज दशरथ के पुत्रों के रूप में चार स्वरूपों में प्रकट हुए।

    तस्यानुचरितं राजन्रृषिभिस्तत्त्वदर्शिभि: ।

    श्रुतं हि वर्णितं भूरि त्वया सीतापतेर्मुहु: ॥

    ३॥

    तस्य--भगवान्‌ रामचन्द्र तथा उनके भाइयों का; अनुचरितमू--दिव्य कार्यकलाप; राजन्‌--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); ऋषिभि: --ऋषियों द्वारा; तत्त्व-दर्शिभि:--परम सत्य को जानने वाले; श्रुतम्‌--सुना गया; हि--निस्सन्देह; वर्णितम्‌ू--सुन्दर ढंग से वर्णित;भूरि--अनेक; त्वया--तुम्हारे द्वारा; सीता-पतेः--सीता के पति भगवान्‌ रामचन्द्र के; मुहुः--बारम्बार।

    हे राजा परीक्षित, भगवान्‌ रामचन्द्र के दिव्य कार्यकलापों का वर्णन उन साधु पुरुषों द्वारा कियागया है जिन्होंने सत्य का दर्शन किया है।

    चूँकि आप सीतापति रामचन्द्र के विषय में बारम्बार सुनचुके हैं अतएव मैं इन कार्यकलापों का वर्णन संक्षेप में ही करूँगा।

    कृपया सुनें।

    गुर्वर्थ त्यक्तराज्यो व्यचरदनुवनं पदापद्भ्यां प्रियाया:पाणिस्पर्शाक्षमा भ्यां मृजितपथरुजो यो हरीन्द्रानुजा भ्याम्‌ ।

    वैरूप्याच्छूर्पणख्या: प्रियविरहरुषारोपित भ्रूविजुम्भअस्ताब्धिर्बद्धसेतु: खलद॒वदहन: कोसलेन्द्रोडवतान्न: ॥

    ४॥

    गुरु-अर्थे--अपने पिता के बचनों का पालन करने हेतु; त्यक्त-राज्य:--राजा का पद छोड़कर; व्यचरत्‌--घूमते रहे; अनुवनम्‌--एकजंगल से दूसरे जंगल में; पद्म-पद्भ्यामू--अपने चरणकमलों से; प्रियाया:--अपनी प्रिय पत्नी सीतादेवी के साथ; पाणि-स्पर्श-अक्षमाभ्याम्‌ू--जो इतने कोमल थे कि सीता की हथेलियों के स्पर्श को भी सहन नहीं कर सकते थे; मृजित-पथ-रूज: --मार्ग परचलने से जिनकी थकावट घट जाती थी; यः--जो भगवान्‌; हरीन्द्र-अनुजा भ्यामू--वानर-राज हनुमान तथा अपने छोटे भाई लक्ष्मणको साथ लिए; वैरूप्यातू--कुरूप करने के कारण; शूर्पणख्या:--शूर्पणखा नामक राक्षसी का; प्रिय-विरह--अपनी पत्नी के वियोगसे दुखी होकर; रुषा आरोपित-भ्रू-विजृम्भ--क्रोध में उठी अपनी भूकुटी के हिलने से; त्रस्त--डरा हुआ; अब्धि:--समुद्र; बद्ध-सेतु:--समुद्र के ऊपर पुल बाँधने वाला; खल-दव-दहन: --दावाग्नि की तरह रावण जैसे ईर्ष्वालु पुरुषों का वध करने वाले; कोसल-इन्द्र:--अयोध्या के राजा; अवतात्‌--रक्षा करने के लिए प्रसन्न हों; न:--हमारी |

    अपने पिता के बचनों को अक्षत रखने के लिए भगवान्‌ रामचन्द्र ने तुरन्त ही राजपद छोड़ दियाऔर अपनी पतली सीतादेवी के साथ एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने उन चरणकमलों से घूमते रहेजो इतने कोमल थे कि वे सीता की हथेलियों का स्पर्श भी सहन नहीं कर सकते थे।

    भगवान्‌ केसाथ उनके अनुज लक्ष्मण तथा वानरों के राजा हनुमान ( या एक अन्य वानर सुग्रीव ) भी थे।

    ये दोनोंजंगल में घूमते हुए राम-लक्ष्मण की थकान मिटाने में सहायक बने।

    शूर्पणखा की नाक तथा कानकाटकर उसे कुरूप बनाकर भगवान्‌ सीतादेवी से बिछुड़ गये।

    अतएव वे अपनी भौहें तानकर क्रुद्धहुए और सागर को डराया जिसने भगवान्‌ को अपने ऊपर से होकर पुल बनाने की अनुमति दे दी।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ रावण को मारने के लिए दावानल की भाँति उसके राज्य में प्रविष्ट हुए।

    ऐसेभगवान्‌ रामचन्द्र हम सबों की रक्षा करें।

    विश्वामित्राध्वरे येन मारीचाद्या निशाचरा: ।

    पश्यतो लक्ष्मणस्यैव हता नैर#तपुड़वा: ॥

    ५॥

    विश्वामित्र-अध्वरे--ऋषि विश्वामित्र की यज्ञशाला में; येन--जिसके ( रामचन्द्रजी ) द्वारा; मारीच-आद्या:--मारीच इत्यादि; निशा-चराः--अज्ञान के अंधकार में रात में घूमने वाले असभ्य व्यक्ति; पश्यत: लक्ष्मणस्य--लक्ष्मण द्वारा देखे जाकर; एब--निस्सन्देह;हता:--मारे गये; नैऋत-पुड्रवा:--राक्षसों के बड़े-बड़े सरदार।

    अयोध्यानरेश भगवान्‌ रामचन्द्र ने विश्वामित्र द्वारा सम्पन्न किये गए यज्ञ के क्षेत्र में अनेक राक्षसोंतथा असभ्य पुरुषों का वध किया जो तमोगुण से प्रभावित होकर रात में विचरण करते थे।

    ऐसेरामचन्द्र जिन्होंने लक्ष्मण की उपस्थिति में इन असुरों का वध किया हमारी रक्षा करने की कृपा करें।

    यो लोकवीरसमितौ धनुरैशमुग्रंसीतास्वयंवरगृहे त्रिशतोपनीतम्‌ ।

    आदाय बालगजलील इेश्षुयष्टिंसज्यीकृतं नृप विकृष्य बभञ्जञ मध्ये ॥

    ६॥

    जित्वानुरूपगुणशीलवयोड्ररूपांसीताभिधां थियमुरस्यभिलब्धमानाम्‌ ।

    मार्गे ब्रजन्भूगुपतेवर्यनयत्प्ररूढं दर्प महीमकृत यस्त्रिराजबीजाम्‌ ॥

    ७॥

    यः--जो रामचन्द्र; लोक-वीर-समितौ--समाज में या इस संसार के अनेक वीरों के मध्य; धनु:--धनुष; ऐशम्‌--शिवजी का;उमग्रमू--अत्यन्त कठिन; सीता-स्वयंवर-गृहे--उस सभाभवन में जहाँ सीतादेवी अपना पति चुनने के लिए खड़ी थीं; त्रिशत-उपनीतम्‌ू--तीन सौ आदमियों द्वारा उठाकर लाया गया धनुष; आदाय--लेकर; बाल-गज-लीलः--गन्ने के जंगल में हाथी के बच्चेकी भाँति कार्य करते हुए; इब--सदृश; इक्षु-यष्टिमू--गन्ने का खण्ड; सज्यी-कृतम्‌-- धनुष की डोरी चढ़ा दी; नृप--हे राजा;विकृष्य--झुकाकर; बभञ्ज--तोड़ डाला; मध्ये--बीच से; जित्वा--जीतकर; अनुरूप--अपने पद तथा सौन्दर्य के अनुकूल; गुण--गुण; शील--आचरण; वय: --उप्र; अड्र--शरीर; रूपाम्‌--सौन्दर्य; सीता-अभिधाम्‌--सीता नामक; श्रियम्‌--लक्ष्मी को; उरसि--वक्षस्थल पर; अभिलब्धमानाम्‌--सदैव रहती हैं; मार्ग--पथ पर; ब्रजन्‌ू--जाते हुए; भूगुपतेः -- भूगुपति का; व्यनयत्‌--विनष्ट किया;प्ररूढम्‌-- अत्यन्त गहरा; दर्पम्‌--घमंड; महीम्‌--पृथ्वी को; अकृत--विनष्ट; य:ः--जिसने; त्रि:--( सात गुणित ) तीन बार; अराज--राज्यविहीन; बीजाम्‌--बीज |

    हे राजनू, भगवान्‌ रामचन्द्र की लीलाएँ हाथी के बच्चे के समान अत्यन्त अद्भुत थीं।

    उससभाभवन में जिसमें सीतादेवी को अपने पति का चुनाव करना था, उन्होंने इस संसार के वीरों केबीच भगवान्‌ शिव के धनुष को तोड़ दिया।

    यह धनुष इतना भारी था कि इसे तीन सौ व्यक्ति उठाकरलाए थे लेकिन भगवान्‌ रामचन्द्र ने इसे मोड़कर डोरी चढ़ाई और बीच से उसे वैसे ही तोड़ डालाजिस तरह हाथी का बच्चा गन्ने को तोड़ देता है।

    इस तरह भगवान्‌ ने सीतादेवी का पाणिग्रहण कियाजो उन्हीं के समान दिव्य रूप, सौन्दर्य, आचरण, आयु तथा स्वभाव से युक्त थीं।

    निस्सन्देह, वेभगवान्‌ के वक्षस्थल पर सतत विद्यमान लक्ष्मी थीं।

    प्रतियोगियों की सभा में से उसे जीतकर उस केमायके से लौटते हुए भगवान्‌ रामचन्द्र को परशुराम मिले।

    यद्यपि परशुराम अत्यन्त घमंडी थे क्योंकिउन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार राजाओं से विहीन बनाया था, किन्तु वे क्षत्रियवंशी राजा भगवान्‌राम से पराजित हो गये।

    यः सत्यपाशपरिवीतपितुर्निदेशंस्त्रेणस्य चापि शिरसा जगूहे सभार्य: ।

    राज्यं श्रियं प्रणयिनः सुहृदो निवासंत्यक्त्वा ययौ वनमसूनिव मुक्तसड्ु: ॥

    ८॥

    यः--जो रामचन्द्र; सत्य-पाश-परिवीत-पितु:--अपने पिता का जो अपनी पत्नी को दिये गये वचन से बँधे थे; निदेशम्‌-- आदेश;स्त्रैणस्य--स्त्री-अनुरक्त; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; शिरसा--सिर पर; जगूहे--स्वीकार किया; स-भार्य:--अपनी पत्नी सहित;राज्यमू--राज्य; अयमू--ऐश्वर्य; प्रणयिन:--सम्बन्धीजन; सुहृद:ः --मित्रगण; निवासम्‌ू--निवास; त्यक्त्वा--त्यागकर; ययौ--चलेगये; बनम्‌--वन को; असून्‌-- प्राण; इब--सहश; मुक्त-सड़ः--मुक्त जीव |

    अपनी पत्नी के वचनों से बँधे पिता का आदेश पालन करते हुए भगवान्‌ रामचन्द्र ने उसी तरह अपना राज्य, ऐश्वर्य, मित्र, शुभचिन्तक, निवास तथा अन्य सर्वस्व त्याग दिया जिस तरह मुक्तात्माअपना जीवन त्याग देता है।

    तब वे सीता सहित जंगल में चले गये।

    रक्ष:स्वसुर्व्यकृत रूपमशुद्धबुद्धे -स्तस्या: खरत्रिशिरदूषणमुख्यबन्धून्‌ ।

    जघ्ने चतुर्दशसहस्त्रमपारणीय-कोदण्डपाणिरटमान उबास कृच्छुम्‌ ॥

    ९॥

    रक्ष:-स्वसु:--राक्षस ( रावण ) की बहन, शूर्पणखा के ; व्यकृत--( राम द्वारा ) कुरूप किये जाने पर; रूपम्‌--स्वरूप, मुख; अशुद्ध-बुद्धेः--क्योंकि कामवासना के कारण उसकी बुद्धि दूषित हो चुकी थी; तस्या:--उसके; खर-बत्रिशिर-दूषण-मुख्य-बन्धूनू--खर,त्रिशिर, दूषण इत्यादि अनेक दोस्तों को; जघ्ने--( भगवान्‌ राम ने ) मारा; चतुर्दश-सहस्त्रमू--चौदह हजार; अपारणीय--अकल्पनीय;'कोदण्ड-- धुनष-बाण; पाणि:--अपने हाथ में; अटमान:--जंगल में घूमते हुए; उबास--वहाँ निवास किया; कृच्छुमू--बड़ी कठिनाईसे

    जंगल में घूमते हुए, वहाँ पर अनेक कठिनाइयों को झेलते तथा अपने हाथ में महान्‌ धनुष-बाणलिए भगवान्‌ रामचन्द्र ने कामवासना से दूषित रावण की बहन के नाक-कान काटकर उसे कुरूपकर दिया।

    उन्होंने उसके चौदह हजार मित्रों को भी मार डाला जिनमें खर, त्रिशिर तथा दूषण मुख्यथे।

    सीताकथाश्रवणदीपितहच्छयेनसृष्ठटे विलोक्य नृपते दशकन्धरेण ।

    जघ्ने द्धुतैणवपुषा श्रमतो पकृष्टोमारीचमाशु विशिखेन यथा कमुग्र: ॥

    १०॥

    सीता-कथा--सीता के विषय में बातें; श्रवण--सुनकर; दीपित--उत्तेजित; हत्‌ू-शयेन--रावण के मन की कामवासना द्वारा;सृष्टम्‌--उत्पन्न; विलोक्य--देखकर; नृपते--हे राजा परीक्षित; दश-कन्धरेण--दस सिरों वाले रावण द्वारा; जघ्ने-- भगवान्‌ राम नेमारा; अद्भुत-एण-वपुषा--सोने के मृग द्वारा; आश्रमत:--अपने आश्रम से; अपकृष्ट: --दूर भटकाकर; मारीचम्‌--असुर मारीच कोजिसने सोने के मृग का रूप धारण किया था; आशु--तुरन्त; विशिखेन--तीक्ष्ण बाण से; यथा--जिस तरह; कम्‌--दक्ष को; उग्र: --शिवजी ने

    हे परीक्षित, जब दस शिरों वाले रावण ने सीता के सुन्दर एवं आकर्षक स्वरूप के विषय में सुनातो उसका मन कामवासनाओं से उत्तेजित हो उठा और वह उनको हरने गया।

    रावण ने भगवान्‌रामचन्द्र को उनके आश्रम से दूर ले जाने के लिए सोने के मृग का रूप धारण किये मारीच को भेजाऔर जब भगवान्‌ ने उस अद्भुत मृग को देखा तो उन्होंने अपना आश्रम छोड़कर उसका पीछा करनाशुरू कर दिया।

    अन्त में उसे तीक्ष्ण बाण से उसी तरह मार डाला जिस तरह शिवजी ने दक्ष को माराथा।

    रक्षोधमेन वृकवद्विपिनेसमक्षंवैदेहराजदुहितर्यपयापितायाम्‌ ।

    भ्रात्रा वने कृपणवत्प्रियया वियुक्तःस्त्रीसड्रिनां गतिमिति प्रथयंश्चचार ॥

    ११॥

    रक्ष:-अधमेन--अत्यन्त दुष्ट राक्षस रावण द्वारा; वृक-वत्‌--बाघ के समान; विपिने--जंगल में; असमक्षम्‌-- असुरक्षित; वैदेह-राज-दुहितरि--विदेह राजा की पुत्री सीतादेवी की इस दशा के द्वारा; अपयापितायाम्‌--अपहरण करके; क्रात्रा--अपने भाई के साथ;बने--जंगल में; कृपण-वत्‌--अत्यन्त सताये दीन व्यक्ति की तरह; प्रियया--अपनी प्रियतमा के द्वारा; वियुक्त:--विलग हुआ; स्त्री-सड्डिनाम्‌-स्त्रियों में अनुरक्त पुरुषों का; गतिम्‌--गन्तव्य; इति--इस प्रकार; प्रथयन्‌--उदाहरण प्रस्तुत करते हुए; चचार--घूमनेलगा

    जब रामचन्द्रजी जंगल में प्रविष्ट हुए और लक्ष्मण भी वहाँ नहीं थे तो दुष्ट राक्षत रावण ने विदेहराजा की पुत्री सीतादेवी का उसी तरह अपहरण कर लिया जिस तरह गडरिये की अनुपस्थिति में बाघकिसी असुरक्षित भेड़ को पकड़ लेता है।

    तब श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण के साथ जंगल मेंइस तरह घूमने लगे मानो कोई अत्यन्त दीन व्यक्ति अपनी पत्नी के वियोग में घूम रहा हो।

    इस तरहउन्होंने अपने व्यक्तिगत उदाहरण से एक स्त्री-अनुरक्त पुरुष जैसी दशा प्रदर्शित की।

    दश्ध्वात्मकृत्यहतकृत्यमहन्कबन्धंसख्यं विधाय कपिभिर्दयितागतिं तै: ।

    बुद्ध्वाथ वालिनि हते प्लवगेन्द्रसैन्ये -वेलामगात्स मनुजोजभवार्चिताडूप्रि: ॥

    १२॥

    दग्ध्वा--जलाकर; आत्म-कृत्य-हत-कृत्यम्‌--अपने आत्मीय जटायु का दाहसंस्कार करने के बाद जो भगवान्‌ के निमित्त मरा;अहनू--मारा; कबन्धम्‌--कबन्ध नामक असुर को; सख्यम्‌--दोस्ती, मैत्री; विधाय--करके ; कपिभि:--वानर प्रधानों से; दयिता-गतिम्‌--सीता के उद्धार का प्रबन्ध; तैः--उनके द्वारा; बुद्ध्वा--जान करके; अथ--तत्पश्चात्‌; वालिनि हते--वालि का वध हो जानेपर; प्लवग-इन्द्र-सैन्यै:--वानर सैनिकों की सहायता से; वेलाम्‌--समुद्र तट पर; अगातू--गये; सः--वह, रामचन्द्रजी; मनु-ज:--मनुष्य रूप में; अज--ब्रह्मा द्वारा; भव--तथा शिवजी द्वारा; अर्चित-अड्पघ्रि:--जिनके चरणकमल पूजित हैं।

    भगवान्‌ रामचन्द्रजी ने, जिनके चरणकमल ब्रह्माजी तथा शिवजी द्वारा पूजित हैं, मनुष्य का रूपधारण किया था।

    अतएव उन्होंने जटायु का दाहसंस्कार किया, जिसे रावण ने मारा था।

    तत्पश्चात्‌भगवान्‌ ने कबन्ध नामक असुर को मारा और वानरराजों से मैत्री स्थापित करके बालि का वध कियातथा सीतादेवी के उद्धार की व्यवस्था करके वे समुद्र के तट पर गये।

    यद्वोषविभ्रमविवृत्तकटाक्षपात-सम्धभ्रान्तननक्रमकरो भयगीर्णघोषः ।

    सिन्धु: शिरस्यईणं परिगृह्य रूपीपादारविन्दमुपगम्य बभाष एततू ॥

    १३॥

    यत्‌-रोष--जिसका क्रोध; विभ्रम--प्रेरित; विवृत्त--बदल गया; कटाक्ष-पात--दृष्टिपात से; सम्भ्रान्त--विश्लुब्ध; नक्र--घड़ियाल;मकरः--तथा मगर; भय-गीर्ण-घोष: --जिसकी गम्भीर गर्जना भय से दब गयी; सिन्धु;--सागर; शिरसि--सिर पर; अर्हणम्‌--भगवान्‌ की पूजा की सारी सामग्री; परिगृह्य--ले जाकर; रूपी--रूप धारण करके; पाद-अरविन्दम्‌-- भगवान्‌ के चरणकमलों में;उपगम्य--पहुँच कर; बभाष--कहा; एतत्‌--यह ( निम्नलिखित )।

    समुद्र तट पर पहुँच कर भगवान्‌ रामचन्द्र ने तीन दिन तक उपवास किया और वे साक्षात्‌ समुद्रके आने की प्रतीक्षा करते रहे।

    जब समुद्र नहीं आया तो भगवान्‌ ने अपनी क्रोध लीला प्रकट की और समुद्र पर दृष्टिपात करते ही समुद्र के सारे प्राणी, जिनमें घड़ियाल तथा मगर सम्मिलित थे, भयके मारे उद्विग्न हो उठे ।

    तब शरीर धारण करके डरता हुआ समुद्र पूजा की सारी सामग्री लेकर भगवान्‌के पास पहुँचा।

    उसने भगवान्‌ के चरणकमलों पर गिरते हुए इस प्रकार कहा।

    न त्वां वयं जडधियो नु विदाम भूमन्‌कूटस्थमादिपुरुषं जगतामधीशम्‌ ।

    यत्सत्त्वतः सुरगणा रजस: प्रजेशामन्योश्व भूतपतयः स भवान्गुणेश: ॥

    १४॥

    न--नहीं; त्वाम्‌ू--तुमको, भगवान्‌ को; वयम्‌--हम; जड-धिय:--मन्द बुद्धि वाले; नु--निस्सन्देह; विदाम:--जानते हैं; भूमन्‌--हेश्रेष्ठ; कूट-स्थम्‌--हृदय के भीतर; आदि-पुरुषम्‌--आदि भगवान्‌ को; जगताम्‌--जगतों के; अधीशम्‌--सर्वोच्च स्वामी को; यत्‌--आपके निर्देशानुसार; सत्त्वतः--सत्त्वगुण से; सुर-गणा:--ऐसे देवता; रजस:--रजोगुण से; प्रजा-ईशा: --प्रजापति; मन्यो: --तमोगुण से प्रभावित; च--तथा; भूत-पतय:--भूतों के शासक; सः--ऐसा पुरुष; भवान्‌--आप; गुण-ईशः--तीनों गुणों केस्वामी |

    हे सर्वव्यापी परम पुरुष, हम लोग मन्द बुद्धि होने के कारण यह नहीं जान पाये कि आप कौनहैं, किन्तु अब हम जान पाये हैं कि आप सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी, अक्षर तथा आदि परम पुरुष हैं।

    देवता लोग सतोगुण से, प्रजापति रजोगुण से तथा भूतों के ईश तमोगुण द्वारा अन्धे हो जाते हैं, किन्तुआप इन समस्त गुणों के स्वामी हैं।

    काम प्रयाहि जहि विश्रवसोवमेहंतऔ्रैलोक्यरावणमवाप्नुहि वीर पत्नीम्‌ ।

    बध्नीहि सेतुमिह ते यशसो वितत्यैगायन्ति दिग्विजयिनो यमुपेत्य भूपा: ॥

    १५॥

    काममू्‌--इच्छानुसार; प्रयाहि--मेंरे जल के ऊपर से होकर चले जायें; जहि--विजय प्राप्त करें; विश्रवसः --विश्रवा मुनि का;अवमेहम्‌-- मूत्र जैसा प्रदूषण; त्रैलोक्य--तीनों जगतों के लिए; रावणम्‌--रावण जैसा व्यक्ति, जो रोदन का कारण है; अवाप्नुहि--फिर से प्राप्त करें; वीर--हे वीर पुरुष; पत्नीमू--अपनी पत्नी को; बध्नीहि--तैयार करो, बाँधो; सेतुमू-पुल; इह--यहाँ ( इस जलमें ); ते--आपका; यशस:--यश; वितत्यै--विस्तार करने के लिए; गायन्ति--महिमा का गान करेंगे; दिकू-विजयिन: --सारीदिशाओं को जीतने वाले बड़े-बड़े योद्धा; यमू--जिसके ( पुल के ); उपेत्य--निकट आकर; भूपा:--बड़े-बड़े राजा |

    हे प्रभु, आप इच्छानुसार मेरे जल का उपयोग कर सकते हैं।

    निस्सन्देह, आप इसे पार करके उसरावण की पुरी में जा सकते हैं जो उपद्रवी है और तीनों जगतों को रुलाने वाला है।

    वह विश्रवा कापुत्र है, किन्तु मूत्र के समान तिरस्कृत है।

    कृपया जाकर उसका वध करें और अपनी पत्नी सीतादेवीको फिर से प्राप्त करें।

    हे महान्‌ वीर, यद्यपि मेरे जल के कारण आपको लंका जाने में कोई बाधानहीं होगी लेकिन आप इसके ऊपर पुल बनाकर अपने दिव्य यश का विस्तार करें।

    आपके इसअद्भुत असामान्य कार्य को देखकर भविष्य में सारे महान्‌ योद्धा तथा राजा आपकी महिमा का गानकरेंगे।

    बद्ध्वोदधौ रघुपतिर्विविधाद्रिकूटै:सेतुं कपीन्द्रकरकम्पितभूरुहा डरैः ।

    सुग्रीवनीलहनुमत्प्रमुखैरनीकै -ल॑ड्डां विभीषणद॒शाविशदग्रदग्धाम्‌ ॥

    १६॥

    बद्ध्वा--बाँधने के बाद; उदधौ--समुद्र के जल में; रघु-पति:ः-- भगवान्‌ रामचन्द्र ने; विविध--अनेक प्रकार की; अद्वि-कूटैः --पर्वतों की चोटियों से; सेतुमू--पुल; कपि-इन्द्र--शक्तिशाली बन्दरों के; कर-कम्पित--हाथों से हिलाये गये; भूरूह-अड्डैः--वृक्षों से;सुग्रीव--सुग्रीव; नील--नील; हनुमत्‌--हनुमान; प्रमुखैः --इत्यादि; अनीकै: --ऐसे सैनिकों सहित; लड्ढाम्‌ू--रावण के राज्य लंकामें; विभीषण-दहृशा--रावण के भाई विभीषण के निर्देश से; आविशत्‌--प्रवेश किया; अग्र-दग्धाम्‌--पहले ही ( वानर सैनिक हनुमानद्वारा ) जलाए गए

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जल में उन पर्वत थ्रृंगों को फेंककर जिनके सारे वृश्च बन्दरों द्वाराहाथ से हिलाये गये थे, समुद्र के ऊपर पुल बना चुकने के बाद भगवान्‌ रामचन्द्र सीतादेवी को रावणके चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका गये।

    रावण के भाई विभीषण की सहायता से भगवान्‌ सुग्रीव, नील, हनुमान इत्यादि वानर सैनिकों के साथ रावण के राज्य लंका में प्रविष्ट हुए जिसे हनुमान नेपहले ही भस्म कर दिया था।

    सा वानरेन्द्रबलरुद्धविहारकोष्ठ-श्रीद्वारगोपुरसदोवलभीविटड्ला ।

    निर्भज्यमानधिषणध्वजहेमकुम्भ-श्रुद्राटका गजकुलै्ईदिनीव घूर्णा ॥

    १७॥

    सा--वह लंका नगरी; वानर-इन्द्र--वानरों के बड़े-बड़े सेनापतियों के; बल--बल से; रुद्ध--घिरी हुई; विहार--क्रीड़ा स्थल;कोष्ठ--कोठार, अन्न के गोदामों; श्री--खजाने; द्वार--महलों के दरवाजे; गोपुर--नगरी के फाटक; सदः--सभाभवन; वबलभी--बड़े-बड़े महलों के अग्रभाग, छज्जे; विटड्टा--कबूतरखाने; निर्भज्यमान--तोड़े जाने वाले; धिषण--चबूतरे; ध्वज--झंडे, पताकाएँ;हेम-कुम्भ--सोने के गुम्बद; श्रुड्ाटका--तथा चौराहे; गज-कुलैः--हाथी के झुंडों से; हंदिनी--नदी; इब--सहश; घूर्णा--श्षुब्ध,मथी हुई।

    लंका में प्रवेश करने के बाद सुग्रीव, नील, हनुमान आदि वानर सेनापतियों के नेतृत्व में वानरसैनिकों ने सारे विहारस्थलों, अन्न के गोदामों, खजानों, महलों के द्वारों, नगर के फाटकों,सभाभवनों, महल के छज्जों और यहाँ तक कि कबूतरघरों में अधिकार कर लिया।

    जब नगरी के सारे चौराहे, चबूतरे, झंडे तथा गुम्बदों पर रखे सुनहरे गमले ध्वस्त कर दिये गये तो समूची लंका नगरीउस नदी के सहृश प्रतीत हो रही थी जिसे हाथियों के झुंड ने मथ दिया हो।

    रक्षःपतिस्तदवलोक्य निकुम्भकुम्भ-धूम्राक्षदुर्मुखसुरान्‍्तकनरान्तकादीन्‌ ।

    पुत्र प्रहस्तमतिकायविकम्पनादीन्‌सर्वानुगान्समहिनोदथ कुम्भकर्णम्‌ ॥

    १८॥

    रक्ष:-पति:--राक्षसों का स्वामी, रावण; तत्‌--ऐसे उपद्रब को; अवलोक्य--देखकर; निकुम्भ--निकुम्भ; कुम्भ--कुम्भ; धूप्राक्ष--धृश्षाक्ष; दुर्मुख--दुर्मुख; सुरान्तक --सुरान्‍्तक; नरान्‍न्तक--नरान्तक; आदीन्‌--इत्यादि को; पुत्रमू--अपने बेटे इन्द्रजित को;प्रहस्तम्‌--प्रहस्त को; अतिकाय--अतिकाय; विकम्पन--विकम्पन; आदीन्‌--आदि को; सर्व-अनुगान्‌--अपने सारे अनुयायियोंको; समहिनोत्‌--आज्ञा दी ( शत्रुओं से लड़ने के लिए ); अथ--अन्ततः; कुम्भकर्णम्‌--अपने सबसे प्रसिद्ध भाई कुम्भकर्ण को ।

    जब राक्षसपति रावण ने वानर सैनिकों द्वारा किये जा रहे उपद्रवों को देखा तो उसने निकुम्भ,कुम्भ, धृश्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्‍्तक, नरान्तक तथा अन्य राक्षसों एवं अपने पुत्र इन्द्रजित को भीबुलवाया।

    तत्पश्चात्‌ उसने प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन को और अन्त में कुम्भकर्ण को बुलवाया।

    इसके बाद उसने अपने सारे अनुयायियों को शत्रुओं से लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया।

    तां यातुधानपृतनामसिशूलचाप-प्रास्ट्टिशक्तिशरतोमरखड्गदुर्गाम्‌ ।

    सुग्रीवलक्ष्मणमरुत्सुतगन्धमाद-नीलाडूदर्क्षषनसादिभिरन्वितोगात्‌ ॥

    १९॥

    तामू--उन सब; यातुधान-पृतनाम्‌--राक्षसों के सैनिकों को; असि--तलवार से; शूल-- भाला से; चाप--बाण से; प्रास-ऋष्टि--प्रासतथा ऋष्टि नामक हथियारों से; शक्ति-शर--शक्तिबाण; तोमर--तोमर नामक हथियार; खड़्ग--तलवार की तरह के हथियार से;दुर्गाम्‌-दुर्जेय; सुग्रीव--सुग्रीव द्वारा; लक्ष्मण--रामचन्द्र के भाई लक्ष्मण द्वारा; मरुत्‌-सुत--हनुमान द्वारा; गन्‍न्धमाद--गन्धमादनामक वानर द्वारा; नील--नील द्वारा; अड्भद--अंगद; ऋक्ष--ऋक्ष; पनस--पनस; आदिभि: --इत्यादि के द्वारा; अन्वित:--घिरकर;अगात्‌--समक्ष ( लड़ने ) आया।

    लक्ष्मण तथा सुग्रीव, हनुमान, गन्धमाद, नील, अंगद, जाम्बवन्त तथा पनस नामक वानर सैनिकोंसे घिरे हुए भगवान्‌ रामचन्द्र ने उन राक्षस सैनिकों पर आक्रमण कर दिया जो विविध अजेय हथियारोंसे, यथा तलवारों, भालों, बाणों, प्रासों, ऋष्टियों, शक्तिबाणों, खड़्गों तथा तोमरों से सज्जित थे।

    तेडनीकपा रघुपतेरभिपत्य सर्वेइन्द्दं वरूथमिभपत्तिरथाश्रयोथे: ।

    जल्नुर्द्रमैगिरिगदेषुभिरड्रदाद्याःसीताभिमर्षहतमड्रलरावणेशान्‌ ॥

    २०॥

    ते--वे सब; अनीक-पा:--सैनिकों के सेनापति; रघुपते:-- भगवान्‌ रामचन्द्र के; अभिपत्य--शत्रु का पीछा करते; सर्वे--सभी;इन्द्रमू--लड़ते हुए; वरूथम्‌--रावण के सैनिकों को; इभ--हाथी; पत्ति--पैदल सैना; रथ--रथ; अश्व--घोड़े; योधै:--योद्धाओं से;जध्नु:--उन्हें मार डाला; द्वमैः--बड़े-बड़े वृक्षों को फेंककर; गिरि--पर्वत की चोटियों; गदा--गदा; इषुभि:--बाणों से; अड्भद-आद्या:--अंगद इत्यादि भगवान्‌ रामचन्द्र के सारे सैनिक; सीता--सीता देवी का; अभिमर्ष--क्रोध से; हत-- ध्वस्त; मडल--जिसकाकल्याण; रावण-ईशान्‌--रावण के अनुयायियों को |

    अंगद तथा रामचन्द्र के अन्य सेनापतियों ने शत्रुओं के हाथियों, पैदल सैनिकों, घोड़ों तथा रथोंका सामना किया और उन पर बड़े-बड़े वृक्ष, पर्वत-श्रृंग, गदा तथा बाण फेंके।

    इस तरह श्रीरामचन्द्रजी के सैनिकों ने रावण के सैनिकों को जिनका सौभाग्य पहले ही लुट चुका था, मार डालाक्योंकि सीतादेवी के क्रोध से रावण पहले ही ध्वस्त हो चुका था।

    रक्ष:पतिः स्वबलनष्टिमवेक्ष्य रुष्टआरुह्य यानकमथाभिससार रामम्‌ ।

    स्वःस्यन्दने द्युमति मातलिनोपनीतेविश्राजमानमहनन्निशितै:ः श्षुरप्रै: ॥

    २१॥

    रक्ष:-पति:--राक्षसों का नायक, रावण; स्व-बल-नष्टिमू--अपने सैनिकों का विनाश; अवेक्ष्य--देखकर; रुष्ट: --क्रुद्ध हुआ;आरुह्म--सवार होकर; यानकम्‌--अपने सुन्दर विमान में, जो पुष्पों से अलंकृत था; अथ--तत्पश्चात्‌; अभिससार--आगे बढ़ा;राममू--राम की ओर; स्वः-स्यन्दने--इन्द्र के दिव्य रथ में; द्युमति--चमकता हुआ; मातलिना--इन्द्र के सारथी मातलि द्वारा;उपनीते--लाया जाकर; विश्राजमानम्‌--रामचन्द्र, मानों तेज से दीप्त हों; अहनत्‌ू--रावण ने प्रहार किया; निशितैः--अत्यन्त तीक्षण;क्षुरप्रै:--तीरों से

    तत्पश्चात्‌ जब राक्षसराज रावण ने देखा कि उसके सारे सैनिक मारे जा चुके हैं तो वह अत्यन्तक्रुद्ध हुआ।

    अतएवं वह अपने विमान में सवार हुआ जो फूलों से सजाया हुआ था और रामचन्द्रजीकी ओर बढ़ा जो इन्द्र के सारथी मातलि द्वारा लाये गये तेजस्वी रथ पर आसीन थे।

    तब रावण नेभगवान्‌ रामचन्द्र पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा की।

    रामस्तमाह पुरुषादपुरीष यन्नःकान्तासमक्षमसतापहता श्ववत्ते ।

    त्यक्तत्रपस्थ फलमद्य जुगुप्सितस्ययच्छामि काल इव कर्तुरलड्ख्यवीर्य: ॥

    २२॥

    राम:-- भगवान्‌ रामचन्द्र ने; तम्‌ू--उससे ( रावण से ); आह--कहा; पुरुष-अद-पुरीष--तुम मनुष्यों के भक्षकों ( राक्षसों ) के मलहो; यत्‌-- क्योंकि; न:--मेरी; कान्ता--पली; असमक्षम्‌--मेरी अनुपस्थिति के कारण असहाय; असता--महान्‌ पापी तुम्हारे द्वारा;अपहता--अपहरण की गई; श्र-वत्‌--कुत्ते के समान, जो मालिक की अनुपस्थिति में रसोई से भोजन लेकर भाग जाता है; ते--तुम्हारा; त्यक्त-त्रपस्य--निर्लज्ज; फलम्‌ अद्य--आज तुमको मजा चखा दूँगा; जुगुप्सितस्थ--अत्यन्त नीच का; यच्छामि--तुम्हें दण्डदूँगा; काल: इब--मृत्यु के समान; कर्तु:--सारे पापों के कर्ता तुमको; अलड्घ्य-वीर्य:--किन्तु मैं सर्वशक्तिमान होने के कारण कभीअपने प्रयास में विफल नहीं होता ।

    भगवान्‌ रामचन्द्र ने रावण से कहा : तुम मानवभक्षियों में अत्यन्त गहित हो।

    निस्सन्देह, तुमउनकी विष्ठा तुल्य हो।

    तुम कुत्ते के समान हो क्योंकि वह घर के मालिक के न होने पर रसोई से खानेकी वस्तु चुरा लेता है।

    तुमने मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्ती सीतादेवी का अपहरण किया है।

    इसलिएजिस तरह यमराज पापी व्यक्तियों को दण्ड देता है उसी तरह मैं भी तुम्हें दण्ड दूँगा।

    तुम अत्यन्त नीच,पापी तथा निर्लज्ज हो।

    अतएवं आज मैं तुम्हें दण्ड दूँगा क्योंकि मेरा वार कभी खाली नहीं जाता।

    एवं क्षिपन्धनुषि सन्धितमुत्ससर्जबाणं स वज्ञमिव तद्धृदयं बिभेद ।

    सोउसृग्वमन्दशमुखैर्न्यपतद्विमाना-द््वाहेति जल्पति जने सुकृतीव रिक्त: ॥

    २३॥

    एवम्‌--इस तरह; क्षिपनू--डाँटते हुए, धिक्कारते हुए; धनुषि-- धनुष पर; सन्धितम्‌ू--तीर चढ़ाकर; उत्ससर्ज--उसकी ओर छोड़ा;बाणम्‌--बाण; सः--वह तीर; वज़म्‌ इब--वज् की भाँति; तत्‌ू-हृदयम्‌--रावण के हृदय को; बिभेद--बेध डाला; सः--वह,रावण; असृक्‌--रक्त; वमन्‌--कै करता; दश-मुखैः--दसों मुँहों से; न्‍्यपतत्‌--गिर पड़ा; विमानात्‌ू--अपने विमान से; हाहा--हाय-हाय, क्या हुआ; इति--इस प्रकार; जल्पति--दहाड़ते हुए; जने--सारे लोगों के सामने; सुकृती इब--पुण्यात्मा की तरह; रिक्त:--पुण्यों के चुक जाने पर।

    इस प्रकार रावण को धिक्कारने के बाद भगवान्‌ रामचन्द्र ने अपने धनुष पर बाण रखा और रावणको निशाना बनाकर बाण छोड़ा जो रावण के हृदय में वज्ञ के समान बेध गया।

    इसे देखकर रावणके अनुयायियों ने चिल्लाते हुए तुमुल ध्वनि की 'हाय! हाय!'क्या हो गया?

    ' क्योंकि रावणअपने दसों मुखों से रक्त वमन करता हुआ अपने विमान से उसी तरह नीचे गिर पड़ा जिस प्रकार कोईपुण्यात्मा अपने पुण्यों के चुक जाने पर स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गिरता है।

    ततो निष्क्रम्य लड्ढाया यातुधान्य: सहस्त्रशः ।

    मन्दोदर्या सम॑ तत्र प्ररूदन्त्य उपाद्रवन्‌ ॥

    २४॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; निष्क्रम्य--बाहर निकल कर; लड्ढाया:--लंका से; यातुधान्य:--राक्षसों की पत्नियाँ; सहस््रश:--हजारों की संख्यामें; मन्दोदर्या--रावण की पत्नी मन्दोदरी इत्यादि के; समम्‌--साथ; तत्र--वहाँ; प्ररुदन्त्यः--विलाप करती; उपाद्रवनू--( अपने मृतपतियों के ) पास आईं।

    तत्पश्चात्‌ वे सारी स्त्रियाँ जिनके पति युद्ध में मारे जा चुके थे, रावण की पत्नी मन्दोदरी के साथलंका से बाहर आईं।

    वे निरन्तर विलाप करती हुई रावण तथा अन्य राक्षसों के शवों के निकटपहुँचीं।

    स्वान्स्वान्बन्धून्परिष्वज्य लक्ष्मणेषुभिरदितान्‌ ।

    रुरुदु: सुस्वरं दीना घ्नन्त्य आत्मानमात्मना ॥

    २५॥

    स्वान्‌ स्वानू--अपने-अपने पतियों के; बन्धून्‌ू--मित्रों को; परिष्वज्य--आलिंगन करती हुई; लक्ष्मण-इषुभि:--लक्ष्मण के बाणों से;अर्दितानू--मारे गये; रुरुदु:--वे सभी पत्नियाँ करूण विलाप करने लगीं; सु-स्वरम्‌--मीठे स्वर में; दीना:--अत्यन्त दयनीय;घ्नन्त्य:--पीटती हुई; आत्मानम्‌--अपनी छाती; आत्मना--अपने आप से |

    लक्ष्मण के बाणों द्वारा मारे गये अपने-अपने पतियों के शोक में अपनी छाती पीटती हुई स्त्रियोंने अपने-अपने पतियों का आलिंगन किया और फिर वे कारुणिक स्वर में रोदन करने लगीं जो हरएक को द्रवित करने वाला था।

    हा हताः सम वयं नाथ लोकरावण रावण ।

    क॑ यायाच्छरणं लड्ढा त्वद्धिहीना परादिता ॥

    २६॥

    हा--हाय; हताः स्म--मारी गईं; वयम्‌ू--हम सभी; नाथ--हे रक्षक; लोक-रावण--हे पति, जिसने इतने लोगों को रुलाया;रावण--हे रावण, जो अन्यों को रुला सकता है; कम्‌--किसकी; यायात्‌--जायेगा; शरणम्‌--शरण में; लड्जा--लंका का राज्य;त्वत्‌ू-विहीना--तुम्हारे न होने पर; पर-अर्दिता--शत्रुओं द्वारा पराजित |

    हे नाथ! हे स्वामी! तुम अन्यों की मुसीबत की प्रतिमूर्ति थे; अतएव तुम रावण कहलाते थे।

    किन्तुअब जब तुम पराजित हो चुके हो, हम भी पराजित हैं क्योंकि तुम्हारे बिना इस लंका के राज्य कोशत्रु ने जीत लिया है।

    बताओ न अब लड्ढा किसकी शरण में जायेगी ?

    नवै वेद महाभाग भवान्कामवशं गत: ।

    तेजोनुभावं सीताया येन नीतो दशामिमाम्‌ ॥

    २७॥

    न--नहीं; वै--निस्सन्देह; वेद--जान पाया; महा-भाग--हे भाग्यशाली; भवान्‌ू--आप; काम-वशम्‌--काम के वशीभूत; गतः--होकर; तेज:--प्रभाव से; अनुभावम्‌--ऐसे प्रभाव के फलस्वरूप; सीताया:--सीतादेवी के; येन--जिसके द्वारा; नीत:--ले जायागया; दशाम्‌--स्थिति को; इमामू--इस प्रकार की ( विनाश की )।

    है परम सौभाग्यवान, तुम कामवासना के वशीभूत हो गये थे; अतएवं तुम सीतादेवी के प्रभाव ( तेज ) को नहीं समझ सके।

    तुम भगवान्‌ रामचन्द्र द्वारा मारे जाकर सीताजी के शाप से इस दशा कोप्राप्त हुए हो।

    कृतैषा विधवा लड्ढा बयं च कुलनन्दन ।

    देहः कृतोउचन्न॑ गृश्नाणामात्मा नरकहेतवे ॥

    २८ ॥

    कृता--तुम्हारे द्वारा की गई; एघा--इस समस्त; विधवा--संरक्षकविहीन; लड्जा--लंका-राज्य; वयम्‌ च--हमें भी; कुल-नन्दन--हेराक्षसों के आनन्द; देह:--शरीर; कृत:--तुम्हारे द्वारा बनाई गई; अन्नम्‌--खाद्य पदार्थ; गृध्नाणामू--गीधों का; आत्मा--तथा तुम्हारीआत्मा; नरक-हेतवे--नरक जाने के लिए

    हे राक्षसकुल के हर्ष, तुम्हारे ही कारण अब लंका-राज्य तथा हम सबों का भी कोई संरक्षक नहींरहा।

    तुमने अपने कृत्यों के ही कारण अपने शरीर को गीधों का आहार और अपनी आत्मा को नरक जाने का पात्र बना दिया है।

    श्रीशुक उवाचस्वानां विभीषणश्चक्रे कोसलेन्द्रानुमोदितः ।

    पितृमेधविधानेन यदुक्तं साम्परायिकम्‌ ॥

    २९॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; स्वानाम्‌--स्वजनों का; विभीषण: --रावण के भाई तथा रामचन्द्र-भक्त विभीषणने; चक्रे--सम्पन्न किया; कोसल-इन्द्र-अनुमोदित: -- कोसल के राजा भगवान्‌ रामचबन्द्र द्वारा अनुमोदित; पितृ-मेध-विधानेन--पिताया किसी परिजन की मृत्यु के बाद पुत्र द्वारा सम्पन्न होने वाले अन्त्येष्टि कर्म द्वारा; यत्‌ उक्तम्‌--निर्धारित; साम्परायिकम्‌--नरक जानेसे बचाने के लिए व्यक्ति मृत्यु के बाद किए जाने वाले कर्म।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : रावण के पवित्र भाई तथा रामचन्द्र के भक्त विभीषण कोकोसल के राजा भगवान्‌ रामचन्द्र से अनुमति प्राप्त हो गई तो उसने अपने परिवार के सदस्यों कोनरक जाने से बचाने के लिए आवश्यक अन्त्येष्टि कर्म सम्पन्न किये।

    ततो दरदर्श भगवानशोकवनिकाश्रमे ।

    क्षामां स्वविरहव्याधि शिंशपामूलमाश्रिताम्‌ू ॥

    ३०॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; ददर्श--देखा; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; अशोक-वनिक-आश्रमे--अशोक वृक्षों के बन में एक छोटी सी झोपड़ी में;क्षामाम्‌--अत्यन्त दुबली-पतली; स्व-विरह-व्याधिमू-- अपने ( भगवान्‌ रामचन्द्र के ) वियोग रोग से पीड़ित; शिंशपा--शिंशपा( शीशम ) वृक्ष की; मूलमू--जड़ का; आश्रिताम्‌--सहारा लिए

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ रामचन्द्र ने सीतादेवी को अशोकवन में शिंशपा नामक वृक्ष के नीचे एक छोटीसी कुटिया में बैठी पाया।

    वे राम के वियोग के कारण दुखी होने से अत्यन्त दुबली-पतली हो गईथीं।

    रामः प्रियतमां भार्या दीनां वीक्ष्यान्वकम्पत ।

    आत्मसन्दर्शनाह्नादविकसन्मुखपड्डूजाम्‌ ॥

    ३१॥

    राम:--रामचन्द्र; प्रिय-तमाम्‌ू--अपनी अत्यन्त प्रिय; भार्यामू--पत्नी को; दीनामू--दीन अवस्था में; वीक्ष्य--देखकर; अन्वकम्पत--अत्यन्त दयालु हो उठे; आत्म-सन्दर्शन--अपने प्रिय को देखने पर; आहाद--आनन्दमय जीवन का भाव; विकसत्‌--प्रकट करते हुए;मुख--मुँह; पड्डजामू--कमल सहश |

    अपनी पतली को उस दशा में देखकर भगवान्‌ रामचन्द्र अत्यधिक दयाद््र हो उठे ।

    जब वे पत्नी केसमक्ष आये तो वे भी अपने प्रियतम को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और उनके कमल सहृश मुख सेआह्ाद झलकने लगा।

    आरोप्यारुरुहे यान॑ भ्रातृभ्यां हनुमद्युत: ।

    विभीषणाय भगवान्दत्त्वा रक्षोगणेशताम्‌ ।

    लड्ढ्रामायुश्च कल्पान्तं ययौ चीर्णब्रतः पुरीम्‌ ॥

    ३२॥

    आरोप्य--चढ़ाकर; आरुरुहे-- स्वयं चढ़ गये; यानम्‌ू--विमान में; भ्रातृ भ्यामू-- अपने भाई लक्ष्मण तथा सेनापति सुग्रीव समेत;हनुमत्‌-युतः--हनुमान समेत; विभीषणाय--रावण के भाई विभीषण को; भगवानू-- भगवान्‌ ने; दत्त्वा--सौंप दिया; रक्ष:-गण-ईशतामू--लंका के राक्षसों पर शासन करने का अधिकार; लड्ढाम्‌--लंका-राज्य; आयु: च--तथा जीवन ( आयु ); कल्प-अन्तम्‌ू--एक कल्प के अन्त तक, अनेकानेक वर्षों के लिए; ययौ--घर चले गये; चीर्ण-ब्रत:--वनवास की अवधि पूरी करके; पुरीम्‌--अयोध्या पुरी को

    भगवान्‌ रामचन्द्र ने विभीषण को लंका के राक्षसों पर एक कल्प तक राज्य करने का अधिकारसौंपकर सीतादेवी को पुष्प से सज्जित विमान ( पुष्पक विमान ) में बैठाया और फिर वे स्वयं उसमेंबैठ गये।

    अपने वनवास की अवधि समाप्त होने पर, हनुमान, सुग्रीव तथा अपने भाई लक्ष्मणसमेत,भगवान्‌ अयोध्या लौट आये।

    अवकीर्यमाण: सुकुसुमैलॉकपालार्पितैः पथि ।

    उपगीयमानचरितः शतधुृत्यादिभिर्मुदा ॥

    ३३॥

    अवकीर्यमाण:--बिखेरे गये; सु-कुसुमैः--सुगंधित सुन्दर फूलों से; लोक-पाल-अर्पिति:--राजाओं द्वारा भेंट किये गये; पथ्चि--मार्गपर; उपगीयमान-चरित:ः--अपने असामान्य कार्यो के लिए अभिवन्दित; शतधृति-आदिभि:--ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं के द्वारा;मुदा--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक |

    जब भगवान्‌ रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौटे तो मार्ग पर लोकपालों ने उनके स्वागतार्थउनके शरीर पर सुन्दर सुगन्धित फूलों की वर्षा की और ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं जैसे महापुरुषों नेपरम प्रसन्न होकर भगवान्‌ के कार्यों का गुणगान किया।

    गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्‍्कलाम्बरम्‌ ।

    महाकारुणिकोतप्यज्जटिलं स्थण्डिलेशयम्‌ ॥

    ३४॥

    गो-मूत्र-यावकम्‌--गाय के मूत्र में पकाये जौ को खाकर; श्रुत्वा--सुनकर; भ्रातरम्‌--अपने भाई भरत को; वल्कल-अम्बरम्‌-पेड़ोंकी छाल से आच्छादित; महा-कारुणिक: --अत्यन्त दयालु रामचन्द्रजी ने; अतप्यत्‌--अत्यधिक शोक व्यक्त किया; जटिलमू--सिरपर जटा बढ़ाये; स्थण्डिले-शयम्‌--कुशासन पर लेटते हुए

    अयोध्या पहुँचकर भगवान्‌ रामचन्द्र ने सुना कि उनकी अनुपस्थिति में उनका भाई भरत गोमूत्र मेंपकाये जौ को खाता था, अपने शरीर को वृक्षों की छाल से ढकता था, सिर पर जटा बढ़ाये, कुशोंकी चटाई पर सोता था।

    अत्यन्त कृपालु भगवान्‌ ने इस पर अत्यधिक सनन्‍्ताप व्यक्त किया।

    भरतः प्राप्तमाकर्ण्य पौरामात्यपुरोहितैः ।

    पादुके शिरसि न्यस्य राम॑ प्रत्युद्यतो ग्रजम्‌ ।

    नन्दिग्रामात्स्वशिबिरादगीतवादित्रनिःस्वनै: ॥

    ३५॥

    ब्रह्मघोषेण च मुहुः पठद्धिब्रह्मवादिभि: ।

    स्वर्णकक्षपताकाभिहैमैश्रित्रध्वजै रथे: ॥

    ३६॥

    सदश्वे रुक्मसन्नाहैर्भटै: पुरटवर्मभि: ।

    श्रेणीभिर्वारमुख्याभिर्भृत्यै श्रेव पदानुगै: ॥

    ३७॥

    पारमेष्ठब्ान्युपादाय पण्यान्युच्यावचानि च ।

    पादयोर्न्यपतत्प्रेम्णा प्रक्लिन्नहदयेक्षण: ॥

    ३८ ॥

    भरतः--भरत ने; प्राप्तम्‌ू--घर वापसी; आकर्ण्य--सुनकर; पौर--सारे नागरिक; अमात्य--सररे मंत्री; पुरोहितैः--सारे पुरोहितों केसाथ; पादुके--दो खड़ाऊँ; शिरसि--सिर पर; न्यस्य--रखकर; रामम्‌--रामचन्द्र को; प्रत्युद्यत:--अगवानी के लिए; अग्रजम्‌ू--अपने बड़े भाई; नन्दिग्रामात्‌--नन्दिग्राम से; स्व-शिबिरात्‌-- अपने खेमे से; गीत-वादित्र--गायन-बाजन; निःस्वनैः --ऐसी ध्वनियों सेयुक्त; ब्रह्म-घोषेण--वैदिक मंत्रों के उच्चारण की ध्वनि से; च--तथा; मुहुः--सदैव; पठद्द्धि:--वेदों से पाठ करते हुए; ब्रह्म-वादिभिः- श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा; स्वर्ण-कक्ष-पताकाभि:--सुनहरे किनारे वाली झंडियों से अलंकृत; हैमैः--सुनहरे; चित्र-ध्वजै: --चित्रित पताकाओं से; रथैः --रथों से; सत्‌-अश्वै:ः--सुन्दर घोड़ों से; रुक्‍्म--सुनहरे; सन्नाहैः--जिरहबख्तर या कवच से; भटै:--सैनिकों से; पुरट-वर्मभि: --सुनहरे कवच से ढका; श्रेणीभि: --जुलूस से; वार-मुख्याभि:--सुन्दर-सुसज्जित वेश्याओं के साथ;भृत्यैः--नौकरों के साथ; च-- भी; एव--निस्सन्देह; पद-अनुगैः--पैदल सेना से; पारमेष्ठयानि--शाही स्वागत के उपयुक्त अन्य साज-सामान; उपादाय--लेकर; पण्यानि--बहुमूल्य रल; उच्च-अवचानि--विभिन्न मूल्यों वाले; च-- भी; पादयो: -- भगवान्‌ केचरणकमलों पर; न्यपतत्‌--गिर पड़े; प्रेम्णा--प्रेम से; प्रक्लिन्न--आर्द्र; हृदय--हृदय; ईक्षण:--आँखें |

    जब भरतजी को पता चला कि भगवान्‌ रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौट रहे हैं तो तुरन्तही वे भगवान्‌ की खड़ाऊँ अपने सिर पर रखे और नन्दिग्राम स्थित अपने खेमे से बाहर आ गये।

    भरतजी के साथ मंत्री, पुरोहित, अन्य भद्र नागरिक, मधुर गायन करते पेशेवर गबैये तथा वैदिक मंत्रोंका उच्चस्वर से पाठ करने वाले विद्वान ब्राह्मण थे।

    उनके पीछे जुलूस में रथ थे जिनमें सुन्दर घोड़ेजुते थे जिनकी लगामें सुनहरी रस्सियों की थीं।

    ये रथ सुनहरी किनारी वाली पताकाओं तथा अन्यविविध आकार-प्रकार की पताकाओं से सजाये गये थे।

    सैनिक सुनहरे कबचों से लैस थे, नौकरपान-सुपारी लिए थे और साथ में अनेक विख्यात सुन्दर वेश्याएँ थीं।

    अनेक नौकर पैदल चल रह थेऔर वे छाता, चामर, बहुमूल्य रत्न तथा उपयुक्त विविध राजसी सामान लिए हुए थे।

    इस तरहप्रेमानन्द से आर्द्र हृदय एवं अश्रुओं से पूरित नेत्रोंवाले भरतजी भगवान्‌ रामचन्द्र के निकट पहुँचे औरअत्यन्त भावविभोर होकर उनके चरणकमलों पर गिर गये।

    पादुके न्यस्य पुरतः प्राज्ललिबंष्पलोचन: ।

    तमाश्लिष्य चिरं दोर्भ्या स्नापयन्नेत्रजैर्जलै: ॥

    ३९॥

    रामो लक्ष्मणसीताभ्यां विप्रेभ्यो येहसत्तमा: ।

    तेभ्य: स्वयं नमश्नक्रे प्रजाभिश्चव नमस्कृतः ॥

    ४०॥

    पादुके--दोनों खड़ाओं को; न्यस्य--रखकर; पुरत:--भगवान्‌ रामचन्द्र के सामने; प्राज्ललि:--हाथ जोड़े; बाष्प-लोचन: --अश्रुपूरितआँखों से; तम्‌-- भरत को; आश्लिष्य--आलिंगन करके ; चिरम्‌--देर तक; दोर्भ्याम्‌ू--अपनी दोनों भुजाओं से; स्नापयन्‌ू--नहलातेहुए; नेत्र-जैः--नेत्रों से निकलते हुए; जलैः --जल से; राम:--रामचन्द्र; लक्ष्मण-सीताभ्याम्‌--लक्ष्मण तथा सीता समेत; विप्रेभ्य:--विद्वान ब्राह्मणों को; ये--तथा अन्य जो; अ्ई-सत्तमा: --पूजनीय; तेभ्य:--उनको; स्वयम्‌-- स्वयं; नम:-चक्रे --नमस्कार किया;प्रजाभि: --नागरिकों द्वारा; च--तथा; नमः-कृत:ः--नमस्कार किया गया।

    भगवान्‌ रामचन्द्र के समक्ष खड़ाओं को रखकर भरतजी आँखों में आँसू भरकर और दोनों हाथजोड़कर खड़े रहे।

    भगवान्‌ रामचन्द्र अपनी दोनों भुजाओं में भरत को भरकर दीर्घकाल तकआलिंगन करते रहे और उन्होंने उन्हें अपने आँसुओं से नहला दिया।

    तत्पश्चात्‌ सीतादेवी तथा लक्ष्मणके साथ रामचन्द्र ने विद्वान ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों को नमस्कार किया।

    समस्तअयोध्यावासियों ने भगवान्‌ को सादर नमस्कार किया।

    धुन्वन्त उत्तरासझन्पतिं वीक्ष्य चिरागतम्‌ ।

    उत्तरा: कोसला माल्यै: किरन्तो ननृतुर्मुदा ॥

    ४१॥

    धुन्बन्त:--हिलाते हुए; उत्तर-आसझ़न्‌-- अपने उत्तरीय वस्त्रों को; पतिमू-- भगवान्‌ को; वीक्ष्य--देखकर; चिर-आगतम्‌--वनवाससे अनेक वर्षो बाद लौटे; उत्तराः कोसला:--अयोध्या के नागरिक; माल्यै: किरन्त:ः--मालाएँ अर्पित करते हुए; ननृतुः--नाचने लगे;मुदा--प्रसन्नता के मारे |

    अयोध्या के नागरिकों ने अपने राजा को दीर्घकाल के बाद लौटे देखकर उन्हें फूल की मालाएँअर्पित कीं, अपने उत्तरीय वस्त्र ( दुपट्टे ) हिलाए और वे परम प्रसन्न होकर खूब नाचे।

    पादुके भरतोगृह्नाच्यामरव्यजनोत्तमे ।

    विभीषण: ससुग्रीव: श्वेतच्छत्रं मरुत्सुत: ॥

    ४२॥

    धनुर्निषज्ञज्छत्रुघ्न: सीता तीर्थकमण्डलुम्‌ ।

    अबिभ्रदड़दः खड्गं हैम॑ चर्मर्क्षराण्नूप ॥

    ४३॥

    पादुके--दोनों खड़ाऊँ; भरतः--भरत; अगृह्नात्‌ू--लिये थे; चामर--चँवर; व्यजन--पंखा; उत्तमे--अत्यन्त ऐश्वर्यशाली;विभीषण: --रावण का भाई; स-सुग्रीव:--सुग्रीव के साथ; श्रेत-छत्रमू--सफेद छाता; मरुत्‌-सुतः--वायुपुत्र हनुमान; धनु:--धनुष;निषड्ञन्‌ू--दो तरकसों सहित; शत्रुघ्न:--रामचन्द्र के भाई; सीता--सीतादेवी; तीर्थ-कमण्डलुम्‌--तीर्थस्थानों के जल से भरा पात्र;अबिश्रतू--लिये हुए; अड्डदः--अंगद नामक वानर सेनापति; खड्गम्‌--तलवार; हैमम्‌--स्वर्णिम; चर्म--ढाल; ऋक्ष-राट्‌--ऋशक्षराजजाम्बवान्‌; नृप--हे राजा |

    है राजा, भरतजी भगवान्‌ राम की खड़ाऊँ लिये थे, सुग्रीव तथा विभीषण चँवर तथा सुन्दर पंखाश़लिये थे, हनुमान सफेद छाता लिये हुए थे, शत्रुघ्न धनुष तथा दो तरकस लिए थे तथा सीतादेवीतीर्थस्थानों के जल से भरा पात्र लिए थीं।

    अंगद तलवार लिए थे और ऋशक्षराज जाम्बवान सुनहरीढाल लिए थे।

    पुष्पकस्थो नुतः स्त्रीभि: स्तूयमानश्व वन्दिभि: ।

    विरेजे भगवात्राजन्ग्रहै श्रन्द्र इबोदित: ॥

    ४४॥

    पुष्पक-स्थ: --पुष्पक विमान में आसीन; नुत:--पूजित; स्त्रीभि:--स्त्रियों द्वारा; स्तूयमान: --स्तुति किये गये; च--तथा; वन्दिभि:--बन्दीजनों के द्वारा; विरिजे--शोभायमान हुए; भगवान्‌-- भगवान्‌ रामचन्द्र; राजन्‌ू--हे राजा परीक्षित; ग्रहैः--ग्रहों के मध्य; चन्द्र:--चन्द्रमा; इब--सहृश; उदितः --उदित हुआ।

    हे राजा परीक्षित, अपने पुष्पक विमान पर बैठे भगवान्‌ रामचन्द्र स्त्रियों द्वारा स्तुति किये जाने परतथा बन्दीजनों द्वारा गुणगान किये जाने पर ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों तारों तथा ग्रहों के बीच चन्द्रमाहो।

    भ्रात्राभिनन्दितः सोथ सोत्सवां प्राविशत्पुरीम्‌ ।

    प्रविश्य राजभवन गुरुपत्ली: स्वमातरम्‌ ॥

    ४५॥

    गुरून्वयस्यावरजान्पूजितः प्रत्यपूजयत्‌ ।

    बैदेही लक्ष्मणश्चेव यथावत्समुपेयतु: ॥

    ४६॥

    भ्रात्रा--अपने भाई ( भरत ) द्वारा; अभिनन्दित:--स्वागत किये जाकर; सः--उसने, रामचन्द्र ने; अथ--तत्पश्चात्‌; स-उत्सवाम्‌--उत्सव के मध्य में; प्राविशत्‌-- प्रवेश किया; पुरीम्‌--अयोध्या नगरी में; प्रविश्य--प्रवेश करके; राज-भवनम्‌--राजमहल में; गुरु -पत्नी:--कैकयी तथा अन्य विमाताओं; स्व-मातरमू--अपनी निजी माता ( कौशल्या ) को; गुरूनू--गुरुओं को ( श्री वसिष्ठ तथाअन्य ); वयस्य--हम उप्र वाले मित्रों को; अवर-जान्‌ू--तथा अपने से छोटों को; पूजित:--उनके द्वारा पूजित होकर; प्रत्यपूजबत्‌--बदले में नमस्कार किया; वैदेही--सीतादेवी; लक्ष्मण:--लक्ष्मण; च एब--तथा; यथा-वत्‌--उपयुक्त ढंग से; समुपेयतु:--स्वागतकिये जाकर महल में घुसे |

    तत्पश्चात्‌ अपने भाई भरत द्वारा स्वागत किये जाकर भगवान्‌ रामचन्द्र एक उत्सव के बीचअयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए।

    जब वे महल में घुसे तो उन्होंने कैकेयी तथा महाराज दशरथ की अन्यपतली एवं अपनी माता कौशल्या--इन सभी माताओं को नमस्कार किया।

    उन्होंने अपने गुरुओं को,यथा वसिष्ठ को भी प्रणाम किया।

    उनके हमउप्र मित्रों तथा उनसे कम आयु वाले मित्रों ने उनकी पूजाकी तो उन्होंने भी उनका अभिवादन किया।

    लक्ष्मण तथा सीतादेवी ने भी वैसा ही किया।

    इस प्रकार वे सभी महल में प्रविष्ट हुए।

    पुत्रान्स्वमातरस्तास्तु प्राणांस्तन्व इवोत्थिता: ।

    आरोप्याड्लेउभिषिद्ञन्त्यो बाष्पौधेर्विजहु: शुच्ः ॥

    ४७॥

    पुत्रानू--पुत्रों को; स्व-मातर:--अपनी माताएँ; ताः--वे, कौशल्या तथा कैकेयी; तु--लेकिन; प्राणान्‌-- प्राण; तन्‍्वः--शरीर; इब--सहश; उत्थिता:--उठकर; आरोप्य--लेकर; अ्डे--गोद में; अभिषिज्ञन्त्य:--अपने पुत्रों के शरीरों को तर करते हुए; बाष्प--आँसुओंसे; ओघै:--लगातार गिराते; विजहुः--बन्द कर दिया; शुचः --अपने पुत्रों के वियोग से जनित शोक ।

    अपने पुत्रों को देखकर राम, लक्ष्मण भरत तथा शत्रुघ्न की माताएँ तुरन्त उठ खड़ी हुईं मानोनिश्चेष्ट शरीर में चेतना आ गई हो।

    माताओं ने अपने पुत्रों को अपनी गोदों में भर लिया और उन्हेंआँसुओं से नहलाकर अपने दीर्घकालीन विछोह के सनन्‍्ताप से छुटकारा पा लिया।

    जटा निर्मुच्य विधिवत्कुलवृद्धैः सम॑ गुरु: ।

    अभ्यषिज्जद्यथेवेन्द्रं चतु:सिन्धुजलादिभि: ॥

    ४८ ॥

    जटा:--सिर पर बढ़ी जटा; निर्मुच्य--मुँड़वाकर, साफ करवा कर; विधि-वत्‌--विधि-विधान के अनुसार; कुल-वृद्धैः--परिवार केगुरुजनों के; समम्‌--साथ; गुरु:--गुरु वसिष्ठ ने; अभ्यषिज्ञत्‌-- भगवान्‌ रामचन्द्र का अभिषेक किया; यथा--जिस तरह; एब--सहश; इन्द्रमू-इन्द्र को; चतु:-सिन्धु-जल--चारों समुद्रों का जल; आदिभि:--स्नान की अन्य सामग्रियों से।

    कुलगुरु वसिष्ठ ने भगवान्‌ रामचन्द्र के सिर की जटाएँ मुँड़वा दीं।

    तत्पश्चात्‌ कुल के गुरुजनों केसहयोग से उन्होंने चारों समुद्रों के जल तथा अन्य सामग्रियों के द्वारा भगवान्‌ रामचन्द्र का अभिषेकउसी तरह सम्पन्न किया जिस तरह राजा इन्द्र का हुआ था।

    एवं कृतशिरःस्नान: सुवासा: स्त्रग्व्यलड्डू तः ।

    स्वलड्डू तैः सुवासोभिर्ध्नातृभिर्भार्यया बभौ ॥

    ४९॥

    एवम्‌--इस तरह; कृत-शिरः-स्नान:--सिर धोकर पूरी तरह स्नान कर चुकने के बाद; सु-वासा:--अच्छे वस्त्र पहने; स्त्रग्वि-अलड्डू त:--माला से अलंकृत होकर; सु-अलड्डू तैः--भलीभाँति सजकर; सु-वासोभि:--सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत; भ्रातृभि:--अपनेभाइयों सहित; भार्यया--अपनी पत्नी सीता समेत; बभौ-- भगवान्‌ अत्यन्त तेजोमय बन गये।

    भलीभाँति स्नान करके तथा अपना सिर घुटा करके भगवान्‌ रामचन्द्र ने अपने आपको सुन्दरवस्त्रों से सज्ित और एक माला तथा आभूषणों से अलंकृत किया।

    इस प्रकार वे अपने ही समानवस्त्र तथा आभूषण धारण किये अपने भाइयों तथा पत्नी के साथ अत्यन्त तेजोमय लग रहे थे।

    अग्रहीदासन क्षात्रा प्रणिपत्य प्रसादितः ।

    प्रजा: स्वधर्मनिरता वर्णा श्रमगुणान्विता: ।

    जुगोप पितृवद्रामो मेनिरे पितरं च तम्‌ ॥

    ५०॥

    अग्रहीत्‌ू--स्वीकार किया; आसनम्‌--राजसिंहासन; भ्रात्रा--अपने भाई ( भरत ) द्वारा; प्रणिपत्य--पूर्णतया उनकी शरण में जाकर;प्रसादित:--प्रसन्न होकर; प्रजा:--तथा प्रजा; स्व-धर्म-निरता:--अपने-अपने वृत्तिपरक कार्यों में संलग्न; वर्णाभ्रम--वर्ण तथाआश्रम के अनुसार; गुण-अन्विता:--गुणों से पूरित; जुगोप-- भगवान्‌ ने उनकी रक्षा की; पितृ-बत्‌--पिता की भाँति; राम:--रामचन्द्र ने; मेनिरे--उन्होंने माना; पितरम्‌ू--पिता के तुल्य; च--भी; तमू--उनको, रामचन्द्रजी को |

    तब भरत की पूर्ण शरणागति से प्रसन्न होकर भगवान्‌ रामचन्द्र ने राजसिंहासन स्वीकार किया।

    वे प्रजा की रक्षा पिता की भाँति करने लगे और प्रजा ने भी वर्ण तथा आश्रम के अनुसार अपने-अपने वृत्तिपरक कार्यों में लगकर उन्हें पितृतुल्य स्वीकार किया।

    त्रेतायां वर्तमानायां काल: कृतसमोभवत्‌ ।

    रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूतसुखावहे ॥

    ५१॥

    त्रेतायाम्‌ू-त्रेतायुग में; वर्तमानायाम्‌--यद्यपि उस काल में स्थित; काल:--समय; कृत--सत्ययुग; सम: --समान; अभवत्‌--हुआ;रामे--रामचन्द्र की उपस्थिति के कारण; राजनि--राजा के रूप में; धर्म-ज्ञे--धार्मिक; सर्व-भूत--सारे जीवों को; सुख-आवहे--पूर्णसुख देते हुए

    भगवान्‌ रामचन्द्र त्रेतायुग में राजा बने थे, किन्तु उनकी सरकार अच्छी होने से वह युग सत्ययुगजैसा था।

    प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक एवं पूर्ण सुखी था।

    वनानि नद्यो गिरयो वर्षाणि द्वीपसिन्धवः ।

    सर्वे कामदुघा आसन्प्रजानां भरतर्षभ ॥

    ५२॥

    वनानि--सारे वन; नद्यः--नदियाँ; गिरय:--पर्वत; वर्षाणि--राज्य या पृथ्वी के विभिन्न भाग; द्वीप--द्वीप; सिन्धव:--सागर; सर्वे--ये सारे; काम-दुघा:--अपने-अपने ऐ श्वर्यों से पूरित; आसनू-- थे; प्रजानामू--सारे जीवों का; भरत-ऋषभ--हे भरतवंश में श्रेष्ठमहाराज परीक्षित।

    हे भरतश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, भगवान्‌ रामचन्द्र के राज में सारे वन, नदियाँ, पर्वत, राज्य, सातोंद्वीप तथा सातों समुद्र सारे जीवों को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करने के लिए अनुकूल थे।

    नाधिव्याधिजराग्लानिदु:ःखशोकभयक्लमा: ।

    मृत्युश्चानिच्छतां नासीद्रामे राजन्यधोक्षजे ॥

    ५३॥

    न--नहीं; आधि--आध्यात्मिक, अधिभौतिक तथा अधिदेविक कष्ट ( अर्थात्‌ शरीर तथा मन के, अन्य जीवों द्वारा पहुँचाये गये तथाप्रकृति द्वारा प्रदत्त कष्ट ); व्याधि--रोग; जरा--बुढ़ापा; ग्लानि--विछोह; दुःख--कष्ट; शोक--पश्चाताप; भय--डर; क्लमा:--थकावट; मृत्यु:--मरण; च-- भी; अनिच्छताम्‌--न चाहने वालों का; न आसीतू--नहीं था; रामे--भगवान्‌ रामचन्द्र के शासन में;राजनि--राजा होने के कारण; अधोक्षजे-- भगवान्‌, जो इस जगत से परे है

    जब भगवान्‌ रामचन्द्र इस जगत के राजा थे तो सारे शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, रोग, बुढ़ापा,विछोह, पश्चाताप, दुख, डर तथा थकावट का नामोनिशान न था।

    यहाँ तक कि न चाहने वालों केलिए मृत्यु भी नहीं थी।

    एकपलीकब्रतधरो राजर्षिचरित: शुचि: ।

    स्वधर्म गृहमेधीयं शिक्षयन्स्वयमाचरत्‌ ॥

    ५४॥

    एक-पली-ब्रत-धर:--दूसरी पत्नी स्वीकार न करने का अथवा किसी अन्य स्त्री से कोई सम्बन्ध न रखने का व्रत लेकर; राज-ऋषि--साधु-राजा की तरह; चरित:--जिसका चरित्र; शुच्चि:--शुद्ध; स्व-धर्मम्‌--अपने वृत्तिपरक कार्य को; गृह-मेधीयम्‌--गृहस्थ जीवनबिताने वाले पुरुषों को; शिक्षयन्‌ू--शिक्षा देते हुए ( अपने आचरण से ); स्वयम्‌--स्वयं; आचरत्‌--अपना कर्तव्य निभाया।

    भगवान्‌ रामचन्द्र ने एक पत्नी रखने का तथा किसी अन्य स्त्री से सम्बन्ध न रखने का ब्रत लेरखा था।

    वे एक साधु राजा थे और उनका चरित्र उत्तम था; क्रोध उन्हें छू तक नहीं गया था।

    उन्होंने हरएक को, विशेष रूप से गृहस्थों को वर्णाश्रम धर्म के रूप में सदाचरण का पाठ पढ़ाया।

    इस तरह उन्होंनेअपने निजी कार्यकलापों से सामान्य जनता को शिक्षा दी।

    प्रेम्णानुवृत्त्या शीलेन प्रश्रयावनता सती ।

    भिया हिया च भावज्ञा भर्तु: सीताहरन्मन: ॥

    ५५॥

    प्रेम्णा अनुवृत्त्या--प्रेम तथा अ्रद्धापूर्वक पति की सेवा करने के कारण; शीलेन--ऐसे उत्तम आचरण के द्वारा; प्रश्रम-अवनता--सदैवपति के प्रति विनीत एवं उसे संतुष्ट करने के लिए तैयार; सती--सती साध्वी; भिया-- भयभीत होने के कारण; हिया--लज्जा से;च--भी; भाव-ज्ञा--( पति के ) भाव को समझकर; भर्तु:--अपने पति के; सीता--सीतादेवी ने; अहरत्‌ू--मोहित कर लिया;मनः--मन कोसीतादेवी अत्यन्त विनीत, आज्ञाकारिणी, लजालु तथा सती थीं और सदा अपने पति के भावको समझने वाली थीं।

    इस प्रकार अपने चरित्र एवं प्रेम तथा सेवा से वे भगवान्‌ के मन को पूरी तरहमोह सकीं।

    TO

    अध्याय ग्यारह: भगवान रामचन्द्र विश्व पर शासन करते हैं

    9.11श्रीशुक उबाचभगवानात्मनात्मानं राम उत्तमकल्पकैः ।

    सर्वदेवमयंदेवमीजेथाचार्यवान्मखै: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; भगवान्‌-- भगवान्‌; आत्मना--अपने आप; आत्मानम्‌-- स्वयं को; राम:--रामचन्द्र; उत्तम-कल्पकै: --अत्यन्त श्रेष्ठ साज-सामान से; सर्व-देव-मयम्‌--सारे देवताओं के आत्मा स्वरूप; देवम्‌-- भगवान्‌ ने स्वयंकी; ईजे--पूजा की; अथ--इस प्रकार; आचार्यवान्‌--आचार्यो के मार्गदर्शन में; मखै:ः--यज्ञों को सम्पन्न करके |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ रामचन्द्र ने एक आचार्य स्वीकार करके श्रेष्ठ साजसमान सहित बड़ी धूमधाम से यज्ञ सम्पन्न किये।

    इस तरह उन्होंने स्वयं ही अपनी पूजा की क्योंकि वेसभी देवताओं के परमेश्वर हैं।

    होत्रेडददाहिएं प्राची ब्रह्मणे दक्षिणां प्रभु: ।

    अध्वर्यवे प्रतीचीं वा उत्तरां सामगाय सः ॥

    २॥

    होत्रे--आहुति डालने वाले, होता पुरोहित को; अददात्‌--दे डाला; दिशम्‌--दिशा; प्राचीम्‌--समस्त पूर्व दिशा; ब्रह्मणे --ब्रह्मापुरोहित को, जो यज्ञशाला में होने वाले कृत्यों का निरीक्षण करता है; दक्षिणाम्‌ू--दक्षिण दिशा; प्रभुः-- भगवान्‌ रामचन्द्र ने;अध्वर्यवे--अध्वर्यु पुरोहित को; प्रतीचीम्‌--पश्चिम दिशा; वा--भी; उत्तराम्‌--उत्तर दिशा; साम-गाय--उदगाता पुरोहित को जोसामवेद का गान करता है; सः--उन्होंने ( रामचन्द्र ने )।

    भगवान्‌ रामचन्द्र ने होता पुरोहित को सम्पूर्ण पूर्व दिशा, ब्रह्मा पुरोहित को सम्पूर्ण दक्षिण दिशा,अध्वर्यु पुरोहित को पश्चिम दिशा और सामवेद के गायक उद्‌गाता पुरोहित को उत्तर दिशा दे दी।

    इसप्रकार उन्होंने अपना सारा साम्राज्य दे डाला।

    आचार्याय ददौ शेषां यावती भूस्तदन्तरा ।

    मन्यमान इदं कृत्स्नं ब्राह्मणोहईति निःस्पृह: ॥

    ३॥

    आचार्याय--आचार्य या गुरु को; ददौ--दे डाला; शेषाम्‌--शेष बची हुई; यावती--जो भी; भू:--पृथ्वी; तत्‌-अन्तरा--चारोंदिशाओं के बीच में स्थित; मन्यमान:--सोचते हुए; इृदम्‌--यह सब; कृत्स्नम्‌--पूर्णतया; ब्राह्मण: --ब्राह्मणजन; अर्हति--पाने केयोग्य हैं; निःस्पृहः--इच्छा न रखने वाले।

    तत्पश्चात्‌ यह सोचकर कि ब्राह्मण लोग निष्काम होते हैं अतएव उन्हें ही सारे जगत का स्वामीहोना चाहिए, भगवान्‌ रामचन्द्र ने पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण के बीच की भूमि आचार्य को देदी।

    इत्ययं तदलड्डारवासोभ्यामवशेषित: ।

    तथा राज्ञ्यपि वैदेही सौमड्ल्यावशेषिता ॥

    ४॥

    इति--इस तरह से ( ब्राह्मणों को सर्वस्व देने के बाद ); अयम्‌--भगवान्‌ रामचन्द्र; तत्‌--उनके; अलझ्ढार-वासोभ्याम्‌--अपने निजीआशभूषणों तथा वबस्त्रों सहित; अवशेषित:--शेष; तथा-- और; राज्ञी--रानी ( सीतादेवी ); अपि-- भी; बैदेही--राजा विदेह की पुत्री;सौमड्ल्या--केवल नथुनी से युक्त; अवशेषिता--शेष रही ।

    ब्राह्मणों को सर्वस्व दान देने के बाद भगवान्‌ रामचन्द्र के पास केवल उनके निजी वस्त्र तथाआभूषण बचे रहे और इसी तरह रानी सीतादेवी के पास उनकी नथुनी के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहा।

    ते तु ब्राह्मणदेवस्य वात्सल्यं वीक्ष्य संस्तुतम्‌ ।

    प्रीता: क्लिन्नधियस्तस्मै प्रत्यप्येदं बभाषिरे ॥

    ५॥

    ते--वे होता, ब्रह्म तथा अन्य पुरोहित; तु--लेकिन; ब्राह्मण-देवस्य--ब्राह्मणों को अत्यन्त प्रेम करने वाले भगवान्‌ रामचन्द्र का;वात्सल्यम्‌-पितृतुल्य स्नेह; वीक्ष्य--देखकर; संस्तुतम्‌--स्तुति की; प्रीता:--प्रसन्न होकर; क्लिन्न-धिय:--द्रवित हृदय वाले; तस्मै--उनको ( रामचन्द्रजी को ); प्रत्यर्प््पय--लौटाते हुए; इृदम्‌--यह प्राप्त हुई सारी भूमि; बभाषिरे--बोले।

    यज्ञकार्य में संलग्न सारे ब्राह्मण भगवान्‌ रामचन्द्र से अत्यधिक प्रसन्न हुए क्‍योंकि वे ब्राह्मणों केप्रति अत्यन्त वत्सल एवं अनुकूल थे।

    अतः उन्होंने द्रवित होकर दान में प्राप्त सारी सम्पत्ति उन्हें लौटादी और इस प्रकार बोले।

    अप्रत्तं नस्त्वया कि नु भगवन्भुवनेश्वर ।

    यन्नोउन्तईदयं विश्य तमो हंसि स्वरोचिषा ॥

    ६॥

    अप्रत्तमू--न दी हुईं; न:--हमको; त्वया--आपके द्वारा; किमू-- क्या; नु--निस्सन्देह; भगवन्‌--हे भगवान्‌; भुवन-ईश्वर--हे सम्पूर्णजगत के स्वामी; यत्‌--क्योंकि; न:ः--हमारा; अन्तः-हृदयम्‌--हृदय के भीतर; विश्य--प्रवेश कर; तम:--अज्ञान का अंधकार;हंसि--तुम नष्ट करते हो; स्व-रोचिषा--अपने तेज से |

    हे प्रभु, आप सारे विश्व के स्वामी हैं।

    आपने हमें क्या नहीं दिया है ?

    आपने हमारे हृदयों में प्रवेशकरके अपने तेज से हमारे अज्ञान के अंधकार को दूर किया है।

    यही सबसे बड़ा उपहार है।

    हमेंभौतिक दान की आवश्यकता नहीं है।

    नमो ब्रह्मण्यदेवाय रामायाकुण्ठमेधसे ।

    उत्तमएलोकधुर्याय न्यस्तदण्डार्पिताड्घ्रये ॥

    ७॥

    नमः--हम सादर नमस्कार करते हैं; ब्रह्मण्य-देवाय-- भगवान्‌ को, जो ब्राह्मणों को अपना पूज्यदेव मानते हैं; रामाय-- भगवान्‌रामचन्द्र को; अकुण्ठ-मेधसे--जिनकी स्मृति तथा ज्ञान कभी चिन्ता से ग्रस्त नहीं होते; उत्तमश्लोक-दधुर्याय--सुप्रसिद्ध व्यक्तियों मेंसर्वश्रेष्ठ; न्यस्त-दण्ड-अर्पित-अड्घ्रये--जिनके चरणकमलों की पूजा दण्ड के क्षेत्र से परे मुनियों द्वारा की जाती है।

    हे प्रभु, आप भगवान्‌ हैं और आपने ब्राह्मणों को अपना आराध्य देव स्वीकार किया है।

    आपकाज्ञान तथा स्मृति कभी चिन्ताग्रस्त नहीं होते।

    आप इस संसार के सभी विख्यात पुरुषों में प्रमुख हैं औरआपके चरणों की पूजा अठण्डनीय मुनियों द्वारा की जाती है।

    हे भगवान्‌ रामचन्द्र, हम आपको सादरनमस्कार करते हैं।

    कदाचिल्लोकजिज्ञासुर्गूढो रात््यामलक्षितः ।

    चरन्वाचोश्रुणोद्रामो भार्यामुद्ििश्य कस्यचित्‌ ॥

    ८ ॥

    कदाचित्‌--एक बार; लोक-जिज्ञासु:--जनता के विषय में जानने की इच्छा से; गूढ:--वेश बदल कर; रात्र्यामू--रात में ;अलक्षित:--किसी अन्य द्वारा पहचाने गये बिना; चरन्‌--घूमते हुए; वाच:--बोली; अश्रृणोत्‌--सुनी; राम:--रामचन्द्रजी ने;भार्यामू--अपनी पत्नी को; उद्दिश्य--इंगित करते हुए; कस्यचित्‌--किसी का ।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : एक बार जब भगवान्‌ रामचन्द्र रात्रि में किसी को बताये बिनावेश बदलकर छिपकर अपने विषय में लोगों का अभिमत जानने के लिए घूम रहे थे तो उन्होंने एकव्यक्ति को अपनी पत्नी सीतादेवी के विषय में अनुचित बातें कहते सुना।

    नाहं बिभर्मि त्वां दुष्टामसतीं परवेश्मगाम्‌ ।

    स्त्रेणो हि बिभूयात्सीतां रामो नाहं भजे पुन: ॥

    ९॥

    न--न तो; अहम्‌--मैं; बिभर्मि-- भार वहन कर सकता हूँ; त्वामू--तुम्हारा; दुष्टामू--दूषित होने के कारण; असतीम्‌--कुलटा; पर-वेश्म-गाम्‌ू--दूसरे पुरुष के घर में जाकर और परपति-गमन करके; स्त्रैण:--पतीभक्त, मेहरा; हि--निस्सन्देह; बिभूयात्‌--स्वीकारकर सकता है; सीताम्‌--सीता को; राम: --रामचन्द्र जैसा; न--न; अहम्‌--मैं; भजे--स्वीकार करूँगा; पुनः--दुबारा( वह व्यक्ति अपनी कुलटा पत्नी से कह रहा था ) तुम दूसरे व्यक्ति के घर जाती हो; अतएव तुमकुलटा तथा दूषित हो।

    अब मैं और अधिक तुम्हारा भार नहीं वहन कर सकता।

    भले ही रामचन्द्र जैसा स्त्रीभक्त पति सीता जैसी पत्नी को स्वीकार कर ले मैं उनकी तरह स्त्रीभक्त नहीं हूँ; अतएव मैंतुम्हें फिर से नहीं रख सकता।

    इति लोकाद्वहुमुखादुराराध्यादसंविद: ।

    पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसा भ्रमम्‌ ॥

    १०॥

    इति--इस प्रकार; लोकातू--व्यक्तियों से; बहु-मुखात्‌--जो अनेक प्रकार से व्यर्थ की बातें कर सकते हैं; दुराराध्यात्‌--जिन्हें रोकपाना अत्यन्त कठिन है; असंविदः --पूर्णज्ञान से विहीन; पत्या--पति द्वारा; भीतेन-- भयभीत; सा--सीता; त्यक्ता--त्यागी हुई;प्राप्ता--गई; प्राचेतस-आश्रमम्‌--( वाल्मीकि मुनि ) के आश्रम में

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अल्पज्ञ तथा घृणित चरित्र वाले व्यक्ति अंटशंट बकते रहते हैं।

    ऐसेधूर्तों के भय से भगवान्‌ रामचन्द्रजी ने अपनी पत्नी सीतादेवी का परित्याग किया यद्यपि वे गर्भिणीथीं।

    इस तरह सीतादेवी वाल्मीकि मुनि के आश्रम में गई।

    अन्तर्वल्यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ ।

    कुशो लव इति ख्यातौ तयोश्चक्रे क्रिया मुनि: ॥

    ११॥

    अन्तर्वत्ली--गर्भिणी स्त्री; आगते--आई; काले--समय से; यमौ--जुड़वाँ; सा--सीतादेवी ने; सुषुबे--जन्म दिया; सुतौ--दो पुत्रोंको; कुश:--कुश; लव:--लव; इति--इस प्रकार; ख्यातौ--विख्यात; तयो:--उन दोनों का; चक्रे --सम्पन्न किया; क्रिया:--जातकर्म संस्कार; मुनिः--वाल्मीकि ऋषि ने।

    समय आने पर गर्भवती सीतादेवी ने जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया जो बाद में लब तथा कुश नामसे विख्यात हुए।

    उनका जातकर्म संस्कार वाल्मीकि मुनि द्वारा सम्पन्न हुआ।

    अड्भदश्नित्रकेतुश्च लक्ष्मणस्यात्मजौ स्मृतौ ।

    तक्षः पुष्कल इत्यास्तां भरतस्य महीपते ॥

    १२॥

    अड्डृदः--अंगद; चित्रकेतु:--चित्रकेतु; च-- भी ; लक्ष्मणस्य--लक्ष्मणजी के; आत्मजौ--दो पुत्र; स्मृती--कहलाये; तक्ष:--तक्ष;पुष्कलः--पुष्कल; इति--इस प्रकार; आस्ताम्‌-- थे; भरतस्थ-- भरतजी के; महीपते--हे राजा परीक्षित |

    हे महाराज परीक्षित, लक्ष्मणजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम अंगद और चित्रकेतु थे और भरतजीके भी दो पुत्र हुए जिनके नाम तक्ष तथा पुष्कल थे।

    सुबाहुः श्रुतसेनश्व शत्रुघ्नस्य बभूवतुः ।

    गन्धर्वान्कोटिशो जघ्ने भरतो विजये दिशाम्‌ ।

    तदीयं धनमानीय सर्व राज्ञे न्‍्यवेदयत्‌ ॥

    १३॥

    शत्रुघ्नश्च मधो: पुत्रं लवणं नाम राक्षसम्‌ ।

    हत्वा मधुवने चक्रे मथुरां नाम वै पुरीम्‌ ॥

    १४॥

    सुबाहु: --सुबाहु; श्रुतसेन:-- श्रुतसेन; च-- भी; शत्रुघ्नस्य--शत्रुघ्न के; बभूवतु:--उत्पन्न हुए; गन्धर्वान्‌--गन्धर्वो से सम्बन्धित पुरुष,जो अधिकतर कपटी होते हैं; कोटिश:--करोड़ों की संख्या में; जघ्ने--मार डाला; भरत:-- भरतजी ने; विजये--विजय करते हुए;दिशाम्‌--सारी दिशाएँ; तदीयम्‌--गन्धर्वों का; धनम्‌ू--धन; आनीय--लाकर; सर्वम्‌--हर वस्तु; राज्ञे--राजा ( रामचन्द्र ) को;न्यवेदयत्‌-- भेंट किया; शत्रुघ्न: --शत्रुघ्न; च--तथा; मधो: --मधु के; पुत्रमू-पुत्र; लवणम्‌ू--लवण; नाम--नामक; राक्षसम्‌--मानवभक्षी को; हत्वा--मारकर; मधुवने--मधुवन नामक जंगल में; चक्रे--बनवाया; मथुराम्‌ू--मथुरा को; नाम--नामक; बै--निस्सन्देह; पुरीमू--बड़ा नगर

    शत्रुघ्न के सुबाहु तथा श्रुतसेन नामक दो पुत्र हुए।

    जब भरतजी सभी दिशाओं को जीतने गये तोउन्हें करोड़ों गन्धर्वों का वध करना पड़ा जो सामान्यतया कपटी होते हैं।

    उन्होंने उनकी सारी सम्पत्तिछीन ली और उसे लाकर भगवान्‌ रामचन्द्र को अर्पित कर दिया।

    शत्रुघ्न ने भी लवण नामक एकराक्षत का वध किया जो मधु राक्षस का पुत्र था।

    इस तरह उन्होंने मधुवन नामक महान्‌ जंगल मेंमथुरा नामक पुरी की स्थापना की।

    मुनौ निशक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रां विवासिता ।

    ध्यायन्ती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह ॥

    १५॥

    मुनौ--वाल्मीकि मुनि को; निशक्षिप्प--सौंप कर; तनयौ--लव तथा कुश दोनों पुत्र; सीता--सीतादेवी; भर्त्रा--अपने पति द्वारा;विवासिता--वनवास दी गई; ध्यायन्ती-- ध्यान करती; राम-चरणौ--भगवान्‌ राम के चरणकमल; विवरम्‌--पृथ्वी के भीतर;प्रविवेश-- प्रवेश कर गई; ह--निस्सन्देह

    अपने पति द्वारा परित्यक्ता सीतादेवी ने अपने दोनों पुत्रों को वाल्मीकि मुनि की देखरेख में छोड़दिया।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ रामचन्द्र के चरणकमलों का ध्यान करती हुईं बे पृथ्वी में प्रविष्ट हो गईं।

    तच्छुत्वा भगवातन्रामो रुन्धन्नपि धिया शुचः ।

    स्मरंस्तस्या गुणांस्तांस्तान्नाशक्नोद्रोद्भुमी श्र: ॥

    १६॥

    तत्‌--यह ( सीता का पृथ्वी में समाने का संदेश ); श्रुत्वा--सुनकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; राम: --रामचन्द्र; रुन्धन्‌ू-त्यागने का प्रयत्नकरते; अपि--यद्यपि; धिया--बुद्धि से; शुचः--शोक; स्मरन्‌-- स्मरण करते हुए; तस्या:--उसके; गुणान्‌--गुण; तान्‌ तानू--विभिन्न परिस्थितियों में; न--नहीं; अशक्नोत्‌--समर्थ था; रोछ्दुमू--रोकने के लिए; ईश्वर: --परम नियन्ता होकर भी।

    सीतादेवी के पृथ्वी में प्रविष्ट होने का समाचार सुनकर भगवान्‌ निश्चित रूप से दुखी हुए।

    यद्यपिवे भगवान्‌ हैं, किन्तु सीतादेवी के महान्‌ गुणों का स्मरण करके वे दिव्य प्रेमवश अपने शोक कोरोक न सके।

    स्त्रीपुंप्रसड़ एताहक्सर्वत्र त्रासमावह: ।

    अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्थ गृहचेतस: ॥

    १७॥

    स्त्री-पुम्‌-प्रसड़:--पति तथा पत्नी के मध्य अथवा पुरुष तथा स्त्री के मध्य आकर्षण; एताहक्‌--इस प्रकार का; सर्वत्र--सभी जगह;त्रासम्‌ू-आवहः -- भय का कारण; अपि-- भी; ईश्वराणाम्‌--नियन्ताओं का; किम्‌ उत--क्या कहा जाय; ग्राम्यस्य--इस भौतिकजगत के सामान्य मनुष्यों का; गृह-चेतस: -- भौतिकतावादी गृहस्थ जीवन के प्रति आसक्त |

    स्त्री तथा पुरुष अथवा नर और मादा के मध्य आकर्षण हर जगह और हर समय पाया जाता हैजिससे हर व्यक्ति सदा भयभीत रहता है।

    यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे नियन्ताओं में भी ऐसीभावनाएँ पाई जाती हैं और उनके लिए भी ये भय के कारण हैं।

    तो फिर उन लोगों के विषय में क्‍याकहा जाय जो इस भौतिक जगत में गृहस्थ-जीवन के प्रति आसक्त हैं?

    तत ऊर्ध्व ब्रह्मचर्य धार्यत्नजुहोत्प्रभु: ।

    अयोदशाब्दसाहस्त्रमग्निहोत्रमखण्डितम्‌ ॥

    १८॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; ऊर्ध्वम्‌--सीता द्वारा पृथ्वी में प्रविष्ट होन के बाद; ब्रह्मचर्यम्‌--पूर्ण ब्रह्मचर्य; धारयन्‌-- धारण करते हुए; अजुहोत्‌--यज्ञ किये; प्रभुः--भगवान्‌ रामचन्द्र ने; त्रयोदश-अब्द-साहस्त्रम्‌ू-- तेरह हजार वर्षो तक; अग्निहोत्रम्‌--अग्निहोत्र यज्ञ; अखण्डितम्‌--अनवरत।

    सीता द्वारा पृथ्वी में प्रवेश करने के बाद भगवान्‌ रामचचन्द्र ने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया औरतेरह हजार वर्षों तक वे अनवरत अग्निहोत्र यज्ञ करते रहे।

    स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः ।

    स्वपादपलल्‍लवं राम आत्मज्योतिरगात्तत: ॥

    १९॥

    स्मरतामू--जो उनका सदैव स्मरण करते हैं उन लोगों के; हदि--हृदय में; विन्यस्य--रखकर; विद्धम्‌--चुभा हुआ; दण्डक-'कण्टकै:--दण्डकारण्य में लगे काँटों द्वारा ( जब रामचन्द्रजी वहाँ रह रहे थे ); स्व-पाद-पल्‍लवम्‌--अपने चरणकमलों की पंखड़ियाँ;राम:--भगवान्‌ रामचन्द्र ने; आत्म-ज्योति:--ब्रह्मज्योति नामक उनकी शारीरिक कान्ति की किरणें; अगात्‌-- प्रवेश किया; तत:--ब्रह्मज्योति के परे या अपने बैकुण्ठलोक में ॥

    यज्ञ पूरा कर लेने के बाद दण्डकारण्य में रहते हुए भगवान्‌ रामचन्द्र के जिन चरणकमलों मेंकभी-कभी काँटे चुभ जाते थे उन चरण-कमलों को उन्होंने उन लोगों के हृदयों में रख दिया जोउनका निरन्तर चिन्तन करते हैं।

    तत्पश्चात्‌ वे ब्रह्मज्योति से परे अपने धाम वैकुण्ठलोक में प्रविष्ट हुए।

    नेदं यशो रघुपते: सुरयाच्जयात्त-लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्न: ।

    रक्षोवधो जलधिबन्धनमस्त्रपूगैः कि तस्य शत्रुहनने कपयः सहाया: ॥

    २०॥

    न--नहीं; इृदम्‌--ये सब; यश: --यश; रघु-पते: -- भगवान्‌ रामचन्द्र का; सुर-याच्ञया--देवताओं की स्तुतियों के द्वारा; आत्त-लीला-तनोः--जिनका आध्यात्मिक शरीर सदैव विभिन्न लीलाओं में लगा रहता है; अधिक-साम्य-विमुक्त-धाम्न:--कोई न तो उनकेतुल्य है, न उनसे बढ़कर है; रक्ष:-वध:--राक्षस ( रावण ) वध; जलधि-बन्धनम्‌--समुद्र पर पुल बाँधना; अस्त्र-पूगैः-- धनुष बाण केद्वारा; किमू--क्या; तस्य--उसका; शत्रु-हनने--शत्रुओं का वध करने में; कपय: --सारे बन्दर; सहाया:--सहायक |

    विभिन्न लीलाओं में सदैव संलग्न दिव्य देहधारी भगवान्‌ रामचन्द्र का वास्तविक यश इसमें नहींहै कि उन्होंने देवताओं के आग्रह पर बाणों की वर्षा करके रावण का वध किया और समुद्र पर सेतुका निर्माण किया।

    न तो कोई भगवान्‌ रामचन्द्र के तुल्य है न उनसे बढ़कर; अतएव उन्हें रावण परविजय प्राप्त करने में वानरों से कोई सहायता लेने की आवश्यकता नहीं थी।

    यस्यामलं नृपसद:सु यशोधुनापिगायन्त्यधघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम्‌ ।

    त॑ नाकपालवसुपालकिरीटजुष्ट-पादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये ॥

    २१॥

    यस्य--जिसका ( रामचन्द्र का ); अमलम्‌--निष्कलंक, भौतिक गुणों से रहित; नृप-सदःसु--महाराज युधिष्ठिर जैसे सम्राटों की सभामें; यश:ः--ख्याति; अधुना अपि---आज भी; गायन्ति--गायन करते हैं; अघ-घ्नम्‌--सारे पापों को दूर करने वाला; ऋषय:--मार्कण्डेय जैसे ऋषिगण; दिक्‌-इभ-इन्द्र-पट्ठमू--दिग्विजय करने वाले हाथी के ऊपर पड़ा अलंकृत झूल; तम्‌--उस; नाक-पाल--स्वर्ग के देवताओं के; बसु-पाल--पृथ्वी के राजाओं के; किरीट--मुकुटों द्वारा; जुष्ट-- पूजा किये जाते हैं; पाद-अम्बुजम्‌--जिनकेचरणकमल; रघु-पतिम्‌ू-- भगवान्‌ रामचन्द्र की; शरणम्‌--शरण में; प्रपद्ये --जाता हूँ।

    भगवान्‌ रामचन्द्र का निर्मल नाम तथा यश सारे पापों के फलों को नष्ट करने वाला है।

    सारीदिशाओं में वह उसी तरह विख्यात है जिस तरह समस्त दिशाओं पर विजय पाने वाले हाथी कालटकता अलंकृत झूल हो।

    मार्कण्डेय ऋषि जैसे महान्‌ साधु पुरुष अब भी महाराज युधिष्टठिर जैसेसप्राटों की सभाओं में उनके गुणों का गान करते हैं।

    इसी तरह सारे ऋषि तथा देवता, जिनमें शिवजीतथा ब्रह्माजी भी सम्मिलित हैं, अपने-अपने मुकुटों को झुकाकर भगवान्‌ की पूजा करते हैं।

    उनभगवान्‌ के चरणकमलों को मैं नमस्कार करता हूँ।

    स ये: स्पृष्टोउभिदृष्टो वा संविष्टोडनुगतोपि वा ।

    कोसलास्ते ययु: स्थान यत्र गच्छन्ति योगिन: ॥

    २२॥

    सः--वे, भगवान्‌ रामचन्द्र; यैः--जिन पुरुषों के द्वारा; स्पृष्ट:--स्पर्श किया गया; अभिदष्ट:--देखा गया; वा--या तो; संविष्ट:--साथभोजन और शयन करते हुए; अनुगतः--नौकरों की भाँति पीछे-पीछे चलते हुए; अपि वा-- भी; कोसला:--कोसलवासी; ते--वे;ययु:--चले गये; स्थानम्‌--स्थान को; यत्र--जहाँ; गच्छन्ति--जाते हैं; योगिन:--सारे भक्तियोगी।

    भगवान्‌ रामचन्द्र अपने धाम को लौट आये जहाँ भक्तियोगी जाते हैं।

    यही वह स्थान है जहाँअयोध्या के सारे निवासी भगवान्‌ को उनकी प्रकट लीलाओं में नमस्कार करके, उनके चरणकमलोंका स्पर्श करके, उन्हें पितृुतुल्य राजा मानकर, उनकी बराबरी में बैठकर या लेटकर या मात्र उनकेसाथ रहकर, उनकी सेवा करने के बाद वापस गये।

    पुरुषो रामचरितं श्रवणैरुपधारयन्‌ ।

    आनृशंस्यपरो राजन्कर्मबन्थर्विमुच्यते ॥

    २३॥

    पुरुष:--कोई व्यक्ति; राम-चरितम्‌-- भगवान्‌ रामचन्द्र के कार्यकलापों से सम्बन्धित कथा को; श्रवणैः --कानों से; उपधारयन्‌--श्रवण करके; आनृशंस्य-पर:--ईर्ष्या से पूरी तरह मुक्त हो जाता है; राजन्‌ू--हे राजा परीक्षित; कर्म-बन्धैः --कर्म के बन्धन से;विमुच्यते--मुक्त हो जाता है।

    हे राजा परीक्षित, जो भी व्यक्ति भगवान्‌ रामचन्द्र के गुणों से सम्बन्धित कथाओं को कानों सेसुनता है वह अन्ततोगत्वा ईर्ष्या के रोग से मुक्त हो जायेगा और फलस्वरूप कर्मबन्धन से छूटजायेगा।

    श्रीराजोबाचकथ्थं स भगवात्रामो भ्रातृन्वा स्वयमात्मन: ।

    तस्मिन्वा तेडन्ववर्तन्त प्रजा: पौराश्च ईश्वेर ॥

    २४॥

    श्री-राजा उवाच--महाराज परीक्षित ने पूछा; कथम्‌--कैसे; सः--उन; भगवान्‌-- भगवान्‌; राम:--रामचन्द्र ने; भ्रातृूनू-- भाइयों( लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न ) के प्रति; वा--अथवा; स्वयम्‌--स्वयं; आत्मन: --अपना विस्तार; तस्मिन्‌ू--भगवान्‌ के प्रति; वा--अथवा; ते--उन ( निवासी तथा भाइयों ने ); अन्ववर्तन्त--बर्ताव किया; प्रजा:--सारे निवासियों; पौरा:--नागरिकों ने; च--तथा;ईश्वरे-- भगवान्‌ के प्रति।

    महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा: भगवान्‌ ने स्वयं किस तरह का बर्ताव किया औरअपने विस्तार ( अंश ) स्वरूप अपने भाइयों के साथ कैसा बर्ताव किया ?

    और उनके भाइयों ने तथाअयोध्यावासियों ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया ?

    श्रीबादरायणिरुवाच अथादिशहिग्विजये क्रातृस्त्रिभुवनेश्वर: ।

    आत्मानं दर्शयन्स्वानां पुरीमैक्षत सानुग: ॥

    २५॥

    श्री-बादरायणि: उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तत्पश्चात्‌ ( भरत के आग्रह पर भगवान्‌ के सिंहासनारूढ़ होने पर );आदिशत्‌--आज्ञा दी; दिक्‌ू-विजये--सारे संसार को जीतने के लिए; भ्रातृूनू--अपने छोटे भाइयों को; त्रि-भुवन-ई श्वर:--ब्रह्माण्ड केस्वामी ने; आत्मानम्‌--स्वयं; दर्शयन्‌--दर्शन देते हुए; स्वानाम्‌ू--अपने परिजनों तथा नागरिकों को; पुरीम्‌--नगरी को; ऐक्षत--निरीक्षण किया; स-अनुग:--अपने सहायकों के साथ |

    शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: अपने छोटे भाई भरत के आग्रह पर राजसिंहासन स्वीकार करनेके बाद भगवान्‌ रामचन्द्र ने अपने छोटे भाइयों को आदेश दिया कि वे बाहर जाकर सारे विश्व कोजीतें जबकि वे स्वयं राजधानी में रहकर सारे नागरिकों तथा प्रासाद के वासियों को दर्शन देते रहेतथा अपने अन्य सहायकों के साथ राजकाज की निगरानी करते रहे।

    आसिक्तमार्गा गन्धोदैः करिणां मदशीकरैः ।

    स्वामिनं प्राप्तमालोक्य मत्तां वा सुतरामिव ॥

    २६॥

    आसिक्त-मार्गामू--सड़कें सींची गई थीं; गन्ध-उदैः--सुगन्धित जल से; करिणाम्‌--हाथियों के; मद-शीकरैः--सुगन्धित तरल कीबूँदों से; स्वामिनम्‌--स्वामी को; प्राप्तम्‌--उपस्थित; आलोक्य--साक्षात्‌ देखकर; मत्ताम्‌ू--अत्यन्त ऐश्वर्यशाली; वा--अथवा;सुतराम्‌ू--अत्यधिक; इब--मानो |

    भगवान्‌ रामचन्द्र के शासन काल में अयोध्या की सड़कें सुगन्धित जल से तथा हाथियों द्वाराअपनी सूँडों से फेंके गये सुगन्धित तरल की बूँदों से सींची जाती थीं।

    जब नागरिकों ने देखा किभगवान्‌ स्वयं ही इतने वैभव के साथ शहर के मामलों की देखरेख कर रहे हैं तो उन्होंने इस वैभवकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।

    प्रासादगोपुरसभाचैत्यदेवगृहादिषु ।

    विन्यस्तहेमकलशै: पताकाभिश्च मण्डिताम्‌ ॥

    २७॥

    प्रासाद--महल; गोपुर--महल के द्वार; सभा--सभाभवन; चैत्य--चबूतरे; देव-गृह--मन्दिर जहाँ अर्चाविग्रहों की पूजा की जाती है;आदिषु--त्यादि में; विन्यस्त--रखे; हेम-कलशै: --सुनहरे जल पात्रों सहित; पताकाभि:--झंडियों से; च-- भी; मण्डिताम्‌--अलंकृत।

    सारे महल, महलों के द्वार, सभाभवन, चबूतरे, मन्दिर तथा अन्य ऐसे स्थान सुनहरे जलपात्रों( कलशों ) से सजाये और विभिन्न प्रकार की झंडियों से अलंकृत किये जाते थे।

    पूगैः सवृन्तै रम्भाभि: पट्टिकाभि: सुवाससाम्‌ ।

    आदर्शरंशुकै: स्त्रग्भिः कृतकौतुकतोरणाम्‌ ॥

    २८ ॥

    पूगैः--सुपारी के पेड़ों से; स-वृन्तैः--फूलों तथा फलों के गुच्छों से; रम्भाभि:--केले के वृशक्षों से; पट्टिकाभि:--पताकाओं से; सु-वाससाम्‌--रंगीन वस्त्र से सुसज्जित; आदर्श: --शीशों से; अंशुकै: --वस्त्नों से; स््रग्भिः--मालाओं से; कृत-कौतुक--शुभ बनाये गये;तोरणाम्‌--स्वागत द्वारों से युक्त

    जहाँ कहीं भगवान्‌ रामचन्द्र जाते, वहीं केले के वृक्षों तथा फल-फूलों से युक्त सुपारी के वृशक्षोंसे स्वागत-द्वार बनाये जाते थे।

    इन द्वारों को रंगबिरंगे वस्त्र से बनी पताकाओं, बन्दनवारों, दर्पणोंतथा मालाओं से सजाया जाता था।

    तमुपेयुस्तत्र तत्र पौरा अहणपाणय: ।

    आशिषो युयुजुर्देव पाहीमां प्राक्त्वयोद्धृताम्‌ू ॥

    २९॥

    तमू--उनके; उपेयु:--पास गये; तत्र तत्र--जहाँ भी वे गये; पौरा:--पड़ोस के निवासी; अहण-पाणय:--भगवान्‌ के पूजन कीसामग्री लिये; आशिष:--भगवान्‌ से प्राप्त आशीर्वाद; युयुजु:--नीचे आया; देव--हे प्रभु; पाहि--पालन कीजिए; इमाम्‌--इस भूमिको; प्राकु--पहले की तरह; त्वया--आपके द्वारा; उद्धृताम्‌--रक्षा की गईं ( वराह अवतार लेकर समुद्र के नीचे से निकाला )

    भगवान्‌ रामचन्द्र जहाँ कहीं भी जाते, लोग पूजा की सामग्री लेकर उनके पास पहुँचते और उनकेआशीर्वाद की याचना करते।

    वे कहते, ' हे प्रभु, जिस प्रकार आपने अपने सूकर अवतार में समुद्र केनीचे से पृथ्वी का उद्धार किया, उसी तरह अब आप उसका पालन करें।

    हम आपसे यही आशीषमाँगते हैं।

    'तत:ः प्रजा वीक्ष्य पतिं चिरागतंदिदक्षयोत्सृष्टगृहा: स्त्रियो नरा: ।

    आरुह्वय हर्म्याण्यरविन्दलोचन-मतृप्तनेत्रा: कुसुमैरवाकिरन्‌ ॥

    ३०॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; प्रजा:--प्रजा; वीक्ष्य--देखकर; पतिम्‌--राजा को; चिर-आगतम्‌--दीर्घकाल के बाद आया हुआ; दिदृक्षया--देखने की इच्छा से; उत्सृष्ट-गृहा:--अपने-अपने घरों को त्यागकर; स्त्रिय:--स्त्रियाँ; नरा:--पुरुषणण; आरुह्मय -- चढ़कर; हर्म्धाणि--विशाल महलों की छत पर; अरविन्द-लोचनम्‌--कमल की पँखुड़ी जैसे नेत्रों वाले भगवान्‌ रामचन्द्र को; अतृप्त-नेत्रा: --अतृप्त नेत्रोंसे; कुसुमैः --फूलों से; अवाकिरन्‌-- भगवान्‌ पर वर्षा की

    तत्पश्चात्‌, दीर्घकाल से भगवान्‌ का दर्शन न किये रहने से, नर तथा नारी उन्हें देखने के लिएअत्यधिक उत्सुक होकर अपने-अपने घरों को त्यागकर महलों की छतों पर चढ़ गये।

    कमलनयनभगवान्‌ रामचन्द्र के मुखमण्डल का दर्शन करके न अघाने के कारण वे उन पर फूलों की वर्षा करने लगे।

    अथ प्रविष्ट: स्वगृहं जुष्टं स्वैः पूर्वराजभि: ।

    अनन्ताखिलकोषाह्यमनर्ध्योरुपरिच्छदम्‌ ॥

    ३१॥

    विद्रुमोदुम्बरद्वारवैंदूर्यस्तम्भपड्ि भि: ।

    स्थलैर्मारकतैः स्वच्छैर््राजत्स्फटिकभित्तिभि: ॥

    ३२॥

    चित्रस््रग्भि: पट्टिकाभिवासोमणिगणांशुकै: ।

    मुक्ताफलैश्विदुल्लासै: कान्तकामोपपत्तिभि: ॥

    ३३॥

    धूपदीपै: सुरभिभिर्मण्डितं पुष्पमण्डने: ।

    स्त्रीपुम्भि: सुरसड्भाशर्जु्ट भूषणभूषणै: ॥

    ३४॥

    अथ-त्पश्चात्‌; प्रविष्ट:--उन्होंने प्रवेश किया; स्व-गृहम्‌--अपने महल में; जुष्टमू-- भरा हुआ; स्वै:--अपने परिजनों से; पूर्व-राजभि:--राजकुल में पूर्ववर्ती सदस्यों से; अनन्त--असीम; अखिल--सर्वत्र; कोष--खजाना; आढ्यम्‌--सम्पन्न; अनर्घ्य--अमूल्य;उरू--उच्चा; परिच्छदम्‌--साज-सामान; विद्युम--मूँगे का; उदुम्बर-द्वारैः--दरवाजे के दोनों पाश्वों सहित; बैदूर्य-स्तम्भ--वैदूर्यमणि केबने ख भों से; पड्धि भि:ः--पंक्तिबद्ध; स्थलैः --फर्शों से; मारकतैः:--मरकत मणि से बने; स्वच्छै:--स्वच्छ, पालिश किये; भ्राजत्‌--चमचमाते; स्फटिक--संगमरमर; भित्तिभि:--नीवों से; चित्र-स््रग्भिः--नाना प्रकार की फूल मालाओं से; पट्टिकाभि:--झंडियों से;वास:--वस्त्र; मणि-गण-अंशुकै: --विविध तेजयुक्त तथा मूल्यवान मणियों से; मुक्ता-फलै:ः --मोतियों से; चित्‌-उल्लासै: --मन केआनन्द को बढ़ाने वाले; कान्त-काम--इच्छा को पूरी करने वाले; उपपत्तिभि:--ऐसे साज-सामान से; धूप-दीपैः--धूप तथा दीप से;सुरभिभि:--अत्यन्त सुगन्धित; मण्डितम्‌--सुसज्जित; पुष्प-मण्डनै:--फूलों के गुच्छों से; स्त्री-पुम्भि:--स्त्रियों तथा पुरुषों से; सुर-सड्डाशैः--देवताओं की तरह लगने वाले; जुष्टम्‌--से पूर्ण; भूषण-भूषणै:ः --जिनके शरीर आभूषणों को सुन्दर बना रहे थे।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ रामचन्द्र अपने पूर्वजों के महल में गये।

    इस महल के भीतर विविध खजानेतथा मूल्यवान अल्मारियाँ थीं।

    प्रवेश द्वार के दोनों ओर की बैठकें मूँगे से बनी थीं, आँगन वैदूर्यमाणिके ख भों से घिरा था, फर्श अत्यधिक पालिश की हुई मरकतमणि से बनी थी और नींव संगमरमरकी बनी थी।

    सारा महल झंडियों तथा मालाओं से सजाया गया था एवं मूल्यवान, चमचमाते मणियोंसे अलंकृत किया गया था।

    महल पूरी तरह मोतियों से सजाया गया था और धूप-दीप से घिरा था।

    महल के भीतर के स्त्री-पुरुष देवताओं के समान थे और वे विविध आभूषणों से अलंकृत थे।

    येआभूषण उनके शरीरों में पहने जाने के कारण सुन्दर लग रहे थे।

    तस्मिन्स भगवात्रामः स्निग्धया प्रिययेष्टया ।

    रैमे स्वारामधीराणामृषभ: सीतया किल ॥

    ३५॥

    तस्मिनू--उस महल में; सः--वह; भगवान्‌-- भगवान्‌; राम: --रामचन्द्र; स्तिग्धधा-- सदैव उसके व्यवहार से प्रसन्न होकर; प्रिययाइष्टया--अपनी सर्व-प्रिय पत्ती समेत; रेमे-- भोग किया; स्व-आराम--निजी आनन्द; धीराणाम्‌--महान्‌ विद्वजनों का; ऋषभ: --प्रमुख; सीतया--सीता सहित; किल--निस्सन्देह |

    श्रेष्ठ विद्वान पंडितों में अग्रणी भगवान्‌ रामचन्द्र ने उस महल में अपनी हादिनी शक्ति सीतादेवी केसाथ निवास किया और पूर्ण शान्ति का भोग किया।

    बुभुजे च यथाकालं कामान्धर्ममपीडयन्‌ ।

    वर्षपूगान्ब॒हून्रूणामभिध्याताडप्रिपल्लव: ॥

    ३६॥

    बुभुजे-- भोग किया; च-- भी; यथा-कालम्‌--जब तक चाहा; कामान्‌--सारे भोग; धर्मम्‌--धर्म; अपीडयन्‌--उल्लंघन किये बिना;वर्ष-पूगान्‌--वर्षों की अवधि; बहूनू--अनेक; नृणाम्‌--लोगों का; अभिध्यात--ध्यान किये जाने पर; अद्ध[प्रि-पललव:--उनकेचरणकमल।

    धर्म के सिद्धान्तों का उल्लंघन किये बिना उन रामचन्द्र ने जिनके चरण-कमलों की पूजाभक्तगण ध्यान में करते हैं, जब तक चाहा, दिव्य आनन्द की सारी सामग्री का भोग किया।

    TO

    अध्याय बारह: भगवान रामचन्द्र के पुत्र कुश का वंश

    9.12श्रीशुक उबाचकुशस्य चातिथिस्तस्मान्निषधस्तत्सुतो नभः ।

    पुण्डरीकोथ तत्पुत्र: क्षेमधन्वाभवत्तत: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; कुशस्य-- भगवान्‌ रामचन्द्र के पुत्र कुश का; च--भी; अतिथि: --अतिथि; तस्मात्‌--उससे; निषध: --निषध; तत्‌-सुत:--उसका पुत्र; नभ:--नभ; पुण्डरीक:--पुण्डरीक; अथ--तत्पश्चात्‌; तत्‌ू-पुत्र:--उसका पुत्र;क्षेमधन्वा-- क्षेमधन्वा; अभवत्‌--हुआ; ततः--तत्पश्चात्‌

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : रामचन्द्र का पुत्र कुश हुआ, कुश का पुत्र अतिथि था, अतिथि कापुत्र निषध और निषध का पुत्र नभ था।

    नभ का पुत्र पुण्डरीक हुआ जिसके पुत्र का नाम क्षेमधन्वा था।

    देवानीकस्ततोनीहः पारियात्रोथ तत्सुत: ।

    ततो बलस्थलस्तस्माद्दज्ञनाभोर्कसम्भव: ॥

    २॥

    देवानीक:--देवानीक; ततः--क्षेमधन्वा से; अनीह:--देवानीक के पुत्र का नाम अनीह था; पारियात्र:--पारियात्र; अथ--तत्पश्चात्‌;ततू-सुत:--अनीह का पुत्र; ततः--पारियात्र से; बलस्थल: --बलस्थल; तस्मात्‌--बलस्थल से; वज़नाभ: --वज्नाभ; अर्क-सम्भव:--सूर्यदेव से उत्पन्न

    क्षेमधन्वा का पुत्र देवानीक था और देवानीक का पुत्र अनीह हुआ जिसके पुत्र का नाम पारियात्रथा।

    पारियात्र का पुत्र बलस्थल था, जिसका पुत्र वज्ञनाभ हुआ जो सूर्यदेव के तेज से उत्पन्न बतलायाजाता है।

    सगणस्तत्सुतस्तस्माद्विधृतिश्चाभवत्सुतः ।

    ततो हिरण्यनाभो भूद्योगाचार्यस्तु जैमिने: ॥

    ३॥

    शिष्यः कौशल्य आध्यात्मं याज्ञवल्क्यो ध्यगाद्यतः ।

    योगं महोदयमृषिईदयग्रन्थिभेदकम्‌ ॥

    ४॥

    सगण:--सगण; तत्‌-- उसका; सुतः --पुत्र; तस्मात्‌--उससे; विधृति:--विधृति; च-- भी; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ; सुतः--उसकापुत्र; ततः--उससे; हिरण्यनाभ:--हिरण्यना भ; अभूत्‌--हुआ; योग-आचार्य:--योग दर्शन का संस्थापक; तु--लेकिन; जैमिने: --जैमिनि को अपना गुरु मानने से; शिष्य:--शिष्य; कौशल्य:--कौशल्य; आध्यात्मम्‌-- आध्यात्मिक; याज्ञवल्क्य:--याज्ञवल्क्य ने;अध्यगात्‌-- अध्ययन किया; यत:--उससे ( हिरण्यनाभ से ); योगम्‌--योग की क्रियाएँ; महा-उदयम्‌--अत्यन्त महान; ऋषि:--याज्ञवल्क्थ ऋषि; हृदय-ग्रन्थि-भेदकम्‌--योग, जो भौतिक अनुरक्ति की हृदय की गाँठ को खोल सकती हैं।

    वज़नाभ का पुत्र सगण हुआ और उसका पुत्र विधृति हुआ।

    विधूति का पुत्र हिरण्यनाभ था जोजैमिनि का शिष्य और फिर योग का महान्‌ आचार्य बना।

    इन्हीं हिरण्यनाभ से ऋषि याज्ञवल्क्य नेअध्यात्म योग नामक योग की अत्युच्च प्रणाली सीखी जो हृदय की भौतिक आसक्ति की गाँठ कोखोलने में समर्थ है।

    पुष्पो हिरण्यनाभस्य श्लुवसन्धिस्ततोभवत्‌ ।

    सुदर्शनोथाग्निवर्ण: शीघ्रस्तस्य मरु: सुत: ॥

    ५॥

    पुष्प:--पुष्प; हिरण्यनाभस्य--हिरण्यनाभ का पुत्र; ध्रुवसन्धि:-- धुवसन्धि; ततः--उससे; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ; सुदर्शन:--सुदर्शन;अथ--त्पश्चात्‌; अग्निवर्ण: --सुदर्शन का पुत्र अग्निवर्ण; शीघ्र: --शीघ्र; तस्थ-- उसका; मरूु:--मरू; सुतः--पुत्र |

    हिरण्यनाभ के पुत्र का नाम पुष्य था जिससे श्रुवसन्धि नामक पुत्र हुआ।

    श्रुवसन्धि का पुत्रसुदर्शन और उसका पुत्र अग्निवर्ण था।

    अग्निवर्ण के पुत्र का नाम शीघ्र था और उसके पुत्र का नाममरु था।

    सोसावास्ते योगसिद्धः कलापग्राममास्थितः ।

    कलेरन्ते सूर्यवंशं नष्ट भावयिता पुनः ॥

    ६॥

    सः--वह; असौ--मरु नामक व्यक्ति; आस्ते--अब भी है; योग-सिद्धः--योगशक्ति में सिद्ध्िप्राप्तः कलाप-ग्राममू--कलाप नामकगाँव में; आस्थित:--रह रहा है; कले:--इस कलियुग के; अन्ते--अन्त में; सूर्य-वंशम्‌--सूर्यदेव के वंशज; नष्टम्‌--नष्ट होने पर;भावयिता--पुत्र उत्पन्न करके शुरू करेगा; पुनः--फिर से |

    योगशक्ति में सिद्धि प्राप्त करके मरू अब भी कलाप ग्राम नामक गाँव में रह रहा है।

    वहकलियुग की समाप्ति पर पुत्र उत्पन्न करेगा जिससे विनष्ट सूर्यवंश पुनरुजजीवित होगा।

    तस्मात्प्रसुश्रुतस्तस्य सन्धिस्तस्याप्यमर्षण: ।

    महस्वांस्तत्सुतस्तस्माद्विश्रबाहुरजायत ॥

    ७॥

    तस्मातू--मरु से; प्रसुश्रुतः--उसका पुत्र प्रसु श्रु।

    तस्थय--उसका; सन्धि:--सन्धि नामक पुत्र; तस्य--उसका; अपि--भी;अमर्षण:--अमर्षण नामक पुत्र; महस्वान्‌--महस्वान; तत्‌--उसका; सुतः--पुत्र; तस्मात्‌ू--उससे ( महस्वान से ); विश्वबाहुः --विश्वबाहु; अजायत--उत्पन्न हुआ।

    मरु से प्रसुश्रुत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे सन्धि, फिर सन्धि से अमर्षण और अमर्षण सेमहस्वान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    महस्वान से विश्वबाहु का जन्म हुआ।

    ततः प्रसेनजित्तस्मात्तक्षको भविता पुनः ।

    ततो बृहद्बलो यस्तु पित्रा ते समरे हतः ॥

    ८॥

    ततः--विश्वबाहु से; प्रसेनजित्‌--प्रसेनजित; तस्मात्‌--उससे; तक्षक:--तक्षक; भविता--जन्म लिया; पुन:ः--फिर; ततः--उससे;बृहद्वल: --बृहद्बल; यः--जो; तु--लेकिन; पित्रा--पिता के द्वारा; ते--तुम्हारे; समरे--युद्ध में; हतः--मारा गया।

    विश्वबाहु से प्रसेनजित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे तक्षक और तक्षक से बृहद्डल हुआ जोतुम्हारे पिता द्वारा युद्ध में मारा गया।

    एते हीक्ष्वाकुभूपाला अतीता: श्रुण्वनागतान्‌ ।

    बृहद्वलस्य भविता पुत्रो नाम्ना बृहद्रण: ॥

    ९॥

    एते--ये सभी; हि--निस्सन्देह; इक््वाकु-भूपाला:--इक्ष्वाकु वंश के राजा; अतीताः--हो चुके हैं; श्रुणु--सुनो; अनागतान्‌--जोभविष्य में होंगे; बृहद्वलस्य--बृहद्बल का; भविता--होगा; पुत्र:--पुत्र; नाम्ना--नामक; बृहद्रण: --बूृहद्रण |

    ये सारे राजा इक्ष्वाकु वंश में हो चुके हैं।

    अब उन राजाओं के नाम सुनो जो भविष्य में होंगे।

    बृहद्वल से बृहद्रण का जन्म होगा।

    ऊरुक्रियः सुतस्तस्य वत्सवृद्धों भविष्यति ।

    प्रतिव्योमस्ततो भानुर्दिवाको वाहिनीपति: ॥

    १०॥

    ऊरुक्रिय:--ऊरुक्रिय; सुत:--पुत्र; तस्थ--उसका; वत्सवृद्धः--वत्सवृद्ध; भविष्यति--होगा; प्रतिव्योम: --प्रतिव्योम; ततः--उससे;भानु:--भानु; दिवाक:-- भानु से दिवाक; वाहिनी-पतिः--सेनापतिबृहद्रण का पुत्र ऊरुक्रिय होगा जिसके वत्सवृद्ध नामक पुत्र उत्पन्न होगा।

    वत्सवृद्ध के पुत्र कानाम प्रतिव्योम और उसके पुत्र का नाम भानु होगा जिससे महान्‌ सेनापति दिवाक नाम का पुत्र जन्मलेगा।

    सहदेवस्ततो वीरो बृहदश्चोथ भानुमान्‌ ।

    प्रतीकाश्वो भानुमतः सुप्रतीकोथ तत्सुत: ॥

    ११॥

    सहदेव:--सहदेव; ततः--दिवाक से; वीर:--वीर पुरुष; बृहदश्च:--बृहदश्च; अथ--उससे; भानुमान्‌-- भानुमान ; प्रतीका श्र: --प्रतीका श्र; भानुमत:-- भानुमान से; सुप्रतीक:--सुप्रतीक; अथ--तत्पश्चात्‌; तत्‌-सुतः--प्रतीका श्व का पुत्र |

    तत्पश्चात्‌ दिवाक का पुत्र सहदेव होगा और उसका पुत्र महान्‌ वीर बृहदाश्व होगा।

    बृहदाश्व सेभानुमान होगा जिससे प्रतीकाश्च नाम का पुत्र होगा।

    प्रतीकाश्च का पुत्र सुप्रतीक होगा।

    भविता मरुदेवोथ सुनक्षत्रोथ पुष्कर: ।

    तस्यान्तरिक्षस्तत्पुत्र: सुतपास्तदमित्रजित्‌ ॥

    १२॥

    भविता--उत्पन्न होगा; मरुदेव: --मरुदेव; अथ--तत्पश्चात्‌; सुनक्षत्र:--सुनक्षत्र; अथ--तत्पश्चात्‌; पुष्कर: -- पुष्कर; तस्य--पुष्करका; अन्तरिक्ष: --अन्तरिक्ष; ततू-पुत्र:--उसका पुत्र; सुतपा:--सुतपा; तत्‌--उससे; अमित्रजित्‌ू--अमित्रजित |

    तत्पश्चात्‌ सुप्रतीक से मरुदेव, मरुदेव से सुनक्षत्र, सुनक्षत्र से पुष्कर और पुष्कर से अन्तरिक्ष होगाजिसका पुत्र सुतपा होगा।

    सुतपा का पुत्र अमित्रजित होगा।

    बृहद्वराजस्तु तस्यापि बर्हिस्तस्मात्कृतझ्जय: ।

    रणअ्जयस्तस्य सुतः सञ्जयो भविता ततः ॥

    १३॥

    बृहद्राज:--बृहद्राज; तु--लेकिन; तस्य अपि--अमित्रजित का; बर्हि:--बर्हि; तस्मात्‌--ब्हि से; कृतञ्लय: --कृतञ्ञय; रणझ्जय:--रणज्जय; तस्य--कृतञ्जय का; सुत:--पुत्र; सञ्लयः--सझ्जय; भविता--होगा; तत:--रणझ्जय से |

    अमित्रजित से बृहद्राज होगा, बृहद्राज से बरह्हिं, बहहिं से कृतझ्लय, कृतज्ञय से रणज्लय और रणझ्जयसे सझ्जय नामक पुत्र उत्पन्न होगा।

    तस्माच्छाक्योथ शुद्धोदो लाडूलस्तत्सुतः स्मृतः ।

    ततः प्रसेनजित्तस्मात्क्षुद्रको भविता ततः ॥

    १४॥

    तस्मातू--सझ्ञय से; शाक्य:--शाक्य; अथ-तत्पश्चात्‌; शुद्धोद:ः--शुद्धोद; लाड़ल:--लांगल; तत्‌-सुतः--शुद्धोद का पुत्र; स्मृत:--सुप्रसिद्ध; ततः--उससे; प्रसेनजित्‌--प्रसेनजित; तस्मात्‌--उससे; क्षुद्रक: --शक्षुद्रक; भविता--जन्म लेगा; ततः--तत्पश्चात्‌सञ्जय से शाक्यशाक्य से शुद्धोद, शुद्धोद से लांगल और लांगल से प्रसेनजित तथा प्रसेनजितसे क्षुद्रक उत्पन्न होगा।

    रणको भविता तस्मात्सुरथस्तनयस्ततः ।

    सुमित्रो नाम निष्ठान्त एते बाईद्वलान्वया: ॥

    १५॥

    रणक:--रणक; भविता--होगा; तस्मात्‌--क्षुद्रक से; सुरथ: --सुरथ; तनय:--पुत्र; तत:--तत्पश्चात्‌; सुमित्र: --सुमित्र; नाम--नामक; निष्ठ-अन्त:ः--वंश के अन्त में; एते--उपर्युक्त सारे राजा; बाईद्वल-अन्वया:--राजा बृहद्वल के वंश में ॥

    क्षुद्रक का पुत्र रणक, रणक का सुरथ, सुरथ का पुत्र सुमित्र होगा और इस तरह वंश का अन्तहो जायेगा।

    यह बृहद्वल के वंश का वर्णन है।

    इश्ष्वाकृूणामयं वंश: सुमित्रान्तो भविष्यति ।

    यतस्तं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ ॥

    १६॥

    इक्ष्वाकूणाम्‌--राजा इश्व्वाकु के वंश का; अयम्‌--यह; वंश:--वंशज; सुमित्र-अन्त:--सुमित्र इस वंश के अन्तिम राजा के रूप में;भविष्यति--होगा, कलियुग में ही; यत:--क्योंकि; तम्‌--उसको; प्राप्प--पाकर; राजानम्‌--उस वंश के राजा के रूप में; संस्थाम्‌--अन्त; प्राप्स्थति--प्राप्त होगा; बै--निस्सन्देह; कलौ--कलियुग के अन्त में |

    इक्ष्वाकु वंश का अन्तिम राजा सुमित्र होगा; उसके बाद सूर्यदेव के वंश में और कोई पुत्र न होगाऔर इस वंश का अन्त हो जायेगा।

    TO

    अध्याय तेरह: महाराजा निमि का राजवंश

    9.13श्रीशुक उबाचनिमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठमवृतर्त्विजम्‌ ।

    आश्भ्य सत्र॑ सोप्याह शक्रेण प्राग्वृतोउस्मि भोः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; निमि:ः--राजा निमि ने; इक््वाकु-तनय: --महाराज इक्ष्वाकु के पुत्र; वसिष्ठम्‌--वसिष्ठ को; अवृत--नियुक्त किया; ऋत्विजम्‌-यज्ञ का प्रमुख पुरोहित; आरभ्य--प्रारम्भ करके; सत्रमू--यज्ञ; सः--उसने, वसिष्ठ ने;अपि--भी; आह--कहा; शक्रेण-- इन्द्र द्वारा; प्राकु--पहले से; वृतः अस्मि--नियुक्त हो चुका हूँ; भोः--हे राजा निमि।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : यज्ञों का शुभारम्भ कराने के बाद इक्ष्वाकु पुत्र महाराज निमिने वसिष्ठ मुनि से प्रधान पुरोहित का पद ग्रहण करने के लिए अनुरोध किया।

    उस समय वसिष्ठ ने उत्तरदिया, 'हे महाराज निमि, मैंने इन्द्र द्वारा प्रारम्भ किये गये एक यज्ञ में इसी पद को पहले से स्वीकारकर रखा है।

    'त॑ निर्वर्तागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय ।

    तूष्णीमासीद्गृहपति: सोपीन्द्रस्याकरोन्मखम्‌ ॥

    २॥

    तमू--उस यज्ञ को; निर्वर्््--समाप्त करने के बाद; आगमिष्यामि--वापस आ जाऊँगा; तावत्‌--तब तक; माम्‌--मेरी; प्रतिपालय--प्रतीक्षा करो; तृष्णीम्‌--चुप; आसीत्‌--हो गया; गृह-पति:--महाराज निमि; सः--उसने, वसिष्ठ ने; अपि-- भी; इन्द्रस्य--इन्द्र के;अकरोत्‌--सम्पन्न किया; मखम्‌--यज्ञ को |

    मैं इन्द्र का यज्ञ पूर कराकर यहाँ वापस आ जाऊँगा।

    कृपया तब तक मेरी प्रतीक्षा करें।

    'महाराज निमि चुप हो गए और वसिष्ठ इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करने में लग गये।

    निमिश्चलमिदं दिद्वान्सत्रमारभतात्मवान्‌ ।

    ऋत्विग्भिरपरैस्तावन्नागमद्यावता गुरु: ॥

    ३॥

    निमिः--महाराज निमि ने; चलम्‌--किसी भी क्षण समाप्त होने वाले; इदम्‌--इस ( जीवन ) को; विद्वानू--इस तथ्य से भलीभाँतिअवगत होकर; सत्रम्‌ू--यज्ञ को; आरभत--शुरू किया; आत्मवानू--स्वरूपसिद्ध व्यक्ति; ऋत्विग्भि:--पुरोहितों द्वारा; अपरैः --वसिष्ठके अतिरिक्त अन्य; तावत्‌--उस समय तक; न--नहीं; आगमत्‌--लौट आया; यावता--जब तक; गुरु:--गुरु ( वसिष्ठ )

    महाराज निमि स्वरूपसिद्ध जीव थे अतएव उन्होंने सोचा कि यह जीवन क्षणिक है; अतएवदीर्घकाल तक वसिष्ठ की प्रतीक्षा न करके उन्होंने अन्य पुरोहितों से यज्ञ सम्पन्न कराना शुरू करदिया।

    शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य तं निर्वर्यागतो गुरु: ।

    अश्पत्पतताहेहो निमे: पण्डितमानिन: ॥

    ४॥

    शिष्य-व्यतिक्रमम्‌--शिष्य द्वारा गुरु के आदेश से विचलन को; वीक्ष्य--देखकर; तम्‌--इनद्र द्वारा किया जाने वाले यज्ञ को;निर्वर्य--समाप्त करके; आगत:--लौटने पर; गुरु:--वसिष्ठ मुनि; अशपत्‌--निमि महाराज को शाप दे दिया; पततात्‌ू--पतन होजाय, नष्ट हो जाय; देह:-- भौतिक शरीर; निमेः--निमि का; पण्डित-मानिन:--जो अपने को इतना पण्डित मानता है ( जिससे किवह अपने गुरु की अवज्ञा कर रहा है )

    इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न कर लेने के बाद गुरु वसिष्ठ वापस आये तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्यमहाराज निमि ने उनके आदेशों का उल्लंघन कर दिया है।

    अतएव उन्होंने निमि को शाप दिया,'अपने को पण्डित मानने वाले निमि का भौतिक शरीर तुरन्त ही नष्ट हो जाय।

    'निमि: प्रतिददौ शापं गुरवेधर्मवर्तिने ।

    तवापि पततादहेहो लोभाद्धर्ममजानतः ॥

    ५॥

    निमिः--निमि महाराज ने; प्रतिददौ शापम्‌--उलट कर शाप दे डाला; गुरबे-- अपने गुरु वसिष्ठ को; अधर्म-वर्तिने--अधर्म कोप्रोत्साहन देने वाले ( क्योंकि उन्होंने अपने अपराधरहित शिष्य को शाप दे दिया था ); तब--तुम्हारा; अपि-- भी; पततात्‌--पतन होजाय; देह:--शरीर का; लोभात्‌--लोभवश; धर्मम्‌--धर्म को; अजानतः--न जानते हुए।

    महाराज निमि द्वारा किसी प्रकार का अपराध न किये जाने पर व्यर्थ ही गुरु द्वारा शापित होने पर उन्होंने भी बदले में शाप दिया, 'स्वर्ग के राजा इन्द्र से भेंट पाने के निमित्त आपने अपनी धार्मिकबुद्धि खो दी है; अतएव मेरा शाप है कि आपका भी शरीरपात हो जाय।

    इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविद: ।

    मित्रावरुणयोर्जनज्ञे उर्वश्यां प्रपितामह: ॥

    ६॥

    इति--इस प्रकार; उत्ससर्ज--त्याग दिया; स्वमू--अपना; देहम्‌--शरीर; निमि: --महाराज निमि ने; अध्यात्म-कोविद:-- आध्यात्मिकज्ञान से पूर्णतया अवगत; मित्रा-वरुणयो:--मित्र तथा वरुण के वीर्य से ( उर्वशी को देखकर स्खलित ); जज्ञे--उत्पन्न हुए;उर्वश्याम्‌--स्वर्गलोक की अप्सरा उर्वशी से; प्रपितामह:--वसिष्ठ, जो प्रपितामह कहलाते थे।

    यह कहकर अध्यात्म में पटु महाराज निमि ने अपना शरीर छोड़ दिया।

    प्रपितामह वसिष्ठ ने भीअपना शरीर त्याग दिया, किन्तु मित्र तथा वरुण के वीर्य से उर्वशी के गर्भ से उन्होंने पुनः जन्मलिया।

    गन्धवस्तुषु तद्देहे निधाय मुनिसत्तमा: ।

    समाप्ते सत्रयागे च देवानूचु; समागतान्‌ ॥

    ७॥

    गन्ध-वस्तुषु--सुगन्धित वस्तुओं में; तत्‌-देहम्‌--महाराज निमि के शरीर को; निधाय--सुरक्षित रखकर; मुनि-सत्तमा: --वहाँ एकत्रमहान्‌ ऋषियों ने; समाप्ते सत्र-यागे--सत्र नामक यज्ञ के समाप्त होने पर; च--भी; देवान्‌ू--देवताओं से; ऊचु:--बोले;समागतान्‌--वहाँ पर एकत्र हुए।

    यज्ञ सम्पन्न करते समय महाराज निमि द्वारा त्यक्त शरीर को सुगन्धित वस्तुओं द्वारा सुरक्षित रखागया और सत्रयाग के अन्त में मुनियों तथा ब्राह्मणों ने वहाँ एकत्रित सारे देवताओं से निम्नलिखितप्रार्थना की।

    राज्ञो जीवतु देहोयं प्रसन्ना: प्रभवो यदि ।

    तथेत्युक्ते निमि: प्राह मा भून्मे देहबन्धनम्‌ ॥

    ८ ॥

    राज्ञ:ः--राजा का; जीवतु--जीवित हो उठे; देह: अयम्‌--यह देह ( जो सुरक्षित है ); प्रसन्ना:--अत्यधिक प्रसन्न; प्रभव:--इसे करने मेंसमर्थ; यदि--यदि; तथा--ऐसा ही हो; इति--इस प्रकार; उक्ते--( देवताओं द्वारा ) कहा जाने पर; निमिः--निमि महाराज ने; प्राह--कहा; मा भूत्‌ू--मत करो; मे--मेरा; देह-बन्धनम्‌ू-- भौतिक शरीर में बन्दी बनाना।

    'यदि आप इस यज्ञ से संतुष्ट हैं और यदि वास्तव में आप ऐसा करने में समर्थ हों तो कृपया इसशरीर में महाराज निमि को फिर से जीवित कर दें।

    ' देवताओं ने मुनियों की यह प्रार्थना स्वीकर करली, किन्तु महाराज निमि ने कहा, 'कृपया मुझे भौतिक शरीर में पुनः बन्दी न बनाएँ।

    'यस्य योगं न वाज्छन्ति वियोगभयकातराः ।

    भजन्ति चरणाम्भोज॑ मुनयो हरिमेधसः ॥

    ९॥

    यस्य--जिस शरीर का; योगम्‌--स्पर्श; न--नहीं; वाउ्छन्ति--ज्ञानी चाहते; वियोग-भय-कातरा:--शरीर को पुनः त्यागने सेभयभीत; भजन्ति--दिव्य सेवा करते हैं; चरण-अम्भोजम्‌ू-- भगवान्‌ के चरणकमलों की; मुनय:--बड़े-बड़े मुनि; हरि-मेधस: --जिनकी चेतना सदैव हरि के विचारों मे मग्न रहती है।

    महाराज निमि ने आगे कहा : सामान्य रूप से मायावादी लोग भौतिक शरीर धारण नहीं करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें उसका त्याग करने में भय लगता है।

    किन्तु जिन भक्तों की चेतना सदैवभगवान्‌ की सेवा से पूरित रहती है वे भयभीत नहीं रहते।

    निस्सन्देह, वे इस शरीर का उपयोग भगवान्‌की दिव्य प्रेमाभक्ति में करते हैं।

    देहं नावरुरुत्सेहं दुःखशोकभयावहम्‌ ।

    सर्वत्रास्य यतो मृत्युर्मत्स्यानामुदके यथा ॥

    १०॥

    देहम्‌ू-- भौतिक शरीर; न--नहीं; अवरुरुत्से-- धारण करने की इच्छा करता हूँ; अहम्‌--मैं; दुःख-शोक-भय-आवहम्‌--जो सारेकष्ट, संताप तथा भय का कारण है; सर्वत्र--सभी जगह, विश्वभर में; अस्य--जीव का, जिसने शरीर धारण किया है; यतः--क्योंकि; मृत्यु:--मृत्यु; मत्स्यानामू--मछलियों को; उदके --जल के भीतर रहने वाली; यथा--सद्दश |

    मैं भौतिक शरीर पाने का इच्छुक नहीं हूँ क्योंकि ऐसा शरीर विश्वभर में सर्वत्र दुख, शोक तथाभय का कारण होता है जिस तरह कि जल में रहने वाली मछली मृत्यु के भय से सदैव चिन्ताग्रस्तरहती है।

    देवा ऊचु:विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम्‌ ।

    उन्मेषणनिमेषा भ्यां लक्षितोध्यात्मसंस्थित: ॥

    ११॥

    देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; विदेह:--बिना भौतिक शरीर के; उष्यताम्‌--तुम जीवित रहो; कामम्‌--जैसी तुम्हारी इच्छा है;लोचनेषु--दृष्टि में; शरीरिणाम्‌-- भौतिक शरीर वालों का; उन्मेषण-निमेषाभ्याम्‌--इच्छानुसार प्रकट तथा अप्रकट होओ; लक्षित:--देखे जाकर; अध्यात्म-संस्थित:--आध्यात्मिक शरीर में रहते हुए

    देवताओं ने कहा : महाराज निमि भौतिक शरीर से विहीन होकर रहें।

    वे आध्यात्मिक शरीर सेभगवान्‌ के निजी पार्षद बन कर रहें और वे अपनी इच्छानुसार जब चाहें सामान्य देहधारी लोगों कोदिखें या न दिखें।

    अराजकभयं नृणां मन्यमाना महर्षयः ।

    देह ममन्थु: सम निमे: कुमार: समजायत ॥

    १२॥

    अराजक-भयम्‌--अराजकता फैलने के भय से; नृणाम्‌--सामान्य लोगों के लिए; मन्यमाना:--इस स्थिति पर विचार करते हुए; महा-ऋषय:--महान्‌ ऋषियों ने; देहम्‌ू--शरीर को; ममन्थु;--मथा; स्म--भूतकाल में; निमेः--महाराज निमि के; कुमार: --एक पुत्र;समजायत--उत्पन्न हुआ |

    तत्पश्चात्‌ लोगों को अराजकता के भय से बचाने के लिए ऋषियों ने निमि महाराज के भौतिकशरीर को मथा जिसके फलस्वरूप शरीर से एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    जन्मना जनकः सो<भूद्वैदेहस्तु विदेहज: ।

    मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता ॥

    १३॥

    जन्मना--जन्म से; जनकः--सामान्य विधि से नहीं अपितु असामान्य रूप से जन्मा; सः--वह; अभूत्‌--बना; वैदेह:--वैदेह; तु--लेकिन; विदेह-ज:--महाराज निमि के शरीर से उत्पन्न, जिन्होंने भौतिक शरीर त्याग दिया था; मिधिल:--मिथिल नाम से भी विख्यात;मथनात्‌--अपने पिता के शरीर के मन्थन से; जात:--उत्पन्न; मिथिला--मिथिला नामक राज्य; येन--जिसके ( जनक ) द्वारा;निर्मिता--बनाया गया।

    असामान्य विधि से उत्पन्न होने के कारण वह पुत्र जनक कहलाया और चूँकि वह अपने पिता केमृत शरीर से उत्पन्न हुआ था अतएव वह बैदेह कहलाया।

    अपने पिता के भौतिक शरीर के मन्थन सेउत्पन्न होने से वह मिथिल कहलाया और उसने राजा मिथलि के रूप में जो नगर निर्मित किया वहमिथिला कहलाया।

    तस्मादुदावसुस्तस्य पुत्रो भून्नन्दिवर्धन: ।

    ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते ॥

    १४॥

    तस्मात्‌--मिथिल से; उदावसु:--उदावसु नाम का पुत्र; तस्य--उसका; पुत्र: --पुत्र; अभूत्‌ू--हुआ; नन्दिवर्धन:--नन्दिवर्धन; तत:--उससे; सुकेतु:--सुकेतु; तस्थ--सुकेतु का; अपि-- भी; देवरात:--देवरात; महीपते--हे राजा परीक्षित |

    हे राजा परीक्षित, मिथिल से जो पुत्र उत्पन्न हुआ वह उदावसु कहलाया; उदावसु से नन्दिवर्धन;नन्दिवर्धन से सुकेतु और सुकेतु से देवरात उत्पन्न हुआ।

    तस्माह्ृहद्रथस्तस्य महावीर्य: सुधृत्पिता ।

    सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वे हर्यश्रोथ मरुस्ततः ॥

    १५॥

    तस्मात्‌-देवरात से; बृहद्रथ:--बृहद्रथ; तस्थ--उसका; महावीर्य:--महावीर्य ; सुधृत्‌-पिता--सुधूृति का पिता बना; सुधूृते:--सुधृतिसे; धृष्टकेतु:--धृष्टकेतु; बै--निस्सन्देह; हर्यश्व:--हर्य श्र; अथ--तत्पश्चात्‌: मरुः--मरु; तत:--उसके बाद |

    देवरात से बृहद्रथ नामक पुत्र हुआ और बृहद्रथ का पुत्र महावीर्य हुआ जो सुधृति का पिता बना।

    सुधृति का पुत्र धृष्टकेतु कहलाया और धूष्टकेतु से हर्यश्व हुआ।

    हर्यश्व॒ का पुत्र मरु हुआ।

    मरोः प्रतीपकस्तस्माज्जात: कृतरथो यतः ।

    देवमीढस्तस्य पुत्रो विश्रुतोथ महाधृति: ॥

    १६॥

    मरोः--मरु का; प्रतीपक:--प्रतीपक; तस्मात्‌--प्रतीपक से; जात:--उत्पन्न हुआ; कृतरथ:--कृतरथ; यत:--जिससे; देवमीढ:--देवमीढ; तस्य--उसका; पुत्र:--पुत्र; विश्रुतः--विश्रुत; अथ--उससे; महाधृतिः --महाधृति नामक पुत्रमरु का पुत्र प्रतीषक हुआ और प्रतीपक का पुत्र कृतरथ हुआ।

    कृतरथ से देवमीढ, देवमीढ सेविश्लुत एवं विश्रुत से महाधृति हुआ।

    कृतिरातस्ततस्तस्मान्महारोमा च तत्सुतः ।

    स्वर्णरोमा सुतस्तस्य हस्वरोमा व्यजायत ॥

    १७॥

    कृतिरात:ः--कृतिरात; ततः--महा धृति से; तस्मात्‌ू--कृतिरात से; महारोमा--महारोमा; च--भी; तत्‌-सुतः--उसका पुत्र;स्वर्णरोमा --्स्वणरोमा; सुत: तस्य--उसका पुत्र; हस्वरोमा --हस्वरोमा; व्यजायत--उत्पन्न हुए।

    महाधूृति से कृतिरात नामक पुत्र हुआ, कृतिरात से महारोमा हुआ, महारोमा से स्वर्णरोमा औरस्वर्णरोमा से हस्वरोमा उत्पन्न हुआ।

    ततः शीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थ कर्षतो महीम्‌ ।

    सीता शीराग्रतो जाता तस्मात्शीरध्वज: स्मृत: ॥

    १८॥

    ततः--हस्वरोमा से; शीरध्वज:--शीरध्वज; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; यज्ञ-अर्थम्‌--यज्ञ करने के लिए; कर्षतः--भूमि जोतते समय;महीम्‌--पृथ्वी को; सीता--सीतादेवी, रामचन्द्र की पली; शीर-अग्रतः--हल के अग्रभाग से; जाता--उत्पन्न हुई; तस्मातू--इसलिए;शीरध्वज:--शीरध्वज; स्मृत:--विख्यात हुआ

    हस्वरोमा से शीरध्वज ( जिसका नाम जनक भी था ) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    जब वह खेत जोतरहा था तो उसके हल ( शीर ) के अग्रभाग से सीतादेवी नामक कन्या प्रकट हुई जो बाद में भगवान्‌रामचन्द्र की पत्ती बनी।

    इस तरह वह शीरध्वज कहलाया।

    कुशध्वजस्तस्य पुत्रस्ततो धर्मध्वजो नृप: ।

    धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौ कृतध्वजमितध्वजा ॥

    १९॥

    कुशध्वज:--कुशध्वज; तस्थ--उसका; पुत्र:--पुत्र; ततः--उससे; धर्मध्वज: -- धर्मध्वज; नृप:--राजा; धर्मध्वजस्य-- धर्मध्वज के;द्वौ--दो; पुत्रौ--पुत्र; कृतध्वज-मितध्वजौ-- कृतध्वज तथा मितध्वज।

    शीरध्वज का पुत्र कुशध्वज हुआ और कुशध्वज का पुत्र राजा धर्मध्वज हुआ जिसके कृतध्वजतथा मितध्वज नाम के दो पुत्र हुए।

    कृतध्वजात्केशिध्वज: खाण्डिक्यस्तु मितध्वजातू ।

    कृतध्वजसुतो राजन्नात्मविद्याविशारद: ॥

    २०॥

    खाण्डिक्य: कर्मतत्त्वज्ञो भीतः केशिध्वजादूदरूत: ।

    भानुमांस्तस्य पुत्रो भूच्छतद्युम्नस्तु तत्सुतः ॥

    २१॥

    कृतध्वजात्‌--कृतध्वज से; केशिध्वज:--केशिध्वज; खाण्डिक्य: तु--तथा खाण्डिक्य नामक पुत्र भी; मितध्वजात्‌ू--मितध्वज से;कृतध्वज-सुत:--कृतध्वज का पुत्र; राजन्‌ू--हे राजा; आत्म-विद्या-विशारद:--आत्मविद्या में पटु; खाण्डिक्य:--राजा खाण्डिक्य;कर्म-तत्त्व-ज्ञ:--वैदिक कर्मकांड में पटु; भीतः--डरते हुए; केशिध्वजात्‌--केशिध्वज से; द्रुतः:--भाग गया; भानुमान्‌-- भानुमान;तस्य--केशिध्वज का; पुत्र:--पुत्र; अभूत्‌ू-- था; शतद्युम्न:--शतद्युम्न; तु--लेकिन; तत्‌-सुत:-- भानुमान का पुत्र |

    हे महाराज परीक्षित, कृतध्वज का पुत्र केशिध्वज हुआ और मितध्वज का पुत्र खाण्डिक्य था।

    कृतध्वज का पुत्र आध्यात्मिक ज्ञान में पटु था और मितध्वज का पुत्र वैदिक कर्मकाण्ड में।

    खाण्डिक्य केशिध्वज के भय से भाग गया।

    केशिध्वज का पुत्र भानुमान था और भानुमान का पुत्रशतद्युम्न हुआ।

    शुचिस्तु तनयस्तस्मात्सनद्वाज: सुतोभवत्‌ ।

    ऊर्जकेतु: सनद्वाजादजोथ पुरुजित्सुत: ॥

    २२॥

    शुचि:--शुचि; तु--लेकिन; तनय:--पुत्र; तस्मात्‌--उससे; सनद्वाज:--सनद्वाज; सुत:--पुत्र; अभवत्‌--पैदा हुआ; ऊर्जकेतु:--ऊर्जकेतु; सनद्वाजात्‌ू--सनद्वाज से; अजः--अज; अथ--तत्पश्चात्‌; पुरुजित्‌--पुरुजित; सुत:--पूत्रशतझुम्न के पुत्र का नाम शुचि था।

    शुच्ि से सनद्वाज उत्पन्न हुआ और सनद्वाज का पुत्र ऊर्जकेतुथा।

    ऊर्जकेतु का पुत्र अज था और अज का पुत्र पुरुजित हुआ।

    अरिष्टनेमिस्तस्यापि श्रुतायुस्तत्सुपार्थक: ।

    ततश्ित्ररथो यस्य क्षेमाधिर्मिधिलाधिप: ॥

    २३॥

    अरिष्टनेमि:--अरिष्टनेमि; तस्थ अपि--पुरुजित का भी; श्रुतायु:-- श्रुतायु; तत्‌--उससे; सुपार्थक:--सुपार्थक; ततः--उससे;चित्ररथ:--चित्ररथ; यस्य-- जिसका; क्षेमाधि:-- क्षेमाधि; मिथिला-अधिप: --मिथिला का राजा हुआ।

    पुरुजित का पुत्र अरिष्टनेमि हुआ, जिसका पुत्र श्रुतायु हुआ, श्रुतायु का पुत्र सुपार्थक था औरउसका पुत्र चित्ररथ था।

    चित्ररथ का पुत्र क्षेमाधि था जो मिथिला का राजा बना।

    तस्मात्समरथस्तस्य सुतः सत्यरथस्ततः ।

    आसीदुपगुरुस्तस्मादुपगुप्तोग्निसम्भव: ॥

    २४॥

    तस्मात्‌--क्षेमाधि से; समरथ: --समरथ; तस्य--उसका; सुतः --पुत्र; सत्यरथ: --सत्यरथ; ततः -- उससे; आसीतू--हुआ; उपगुरु:--उपगुरु; तस्मात्‌--उससे; उपगुप्त:--उपगुप्त; अग्नि-सम्भव: --अग्निदेव का अंशरूप |

    क्षेमाधि का पुत्र समरथ हुआ और उसका पुत्र सत्यरथ था।

    सत्यरथ का पुत्र उपगुरु हुआ औरउपगुरु का पुत्र उपगुप्त हुआ जो अग्निदेव का अंशरूप था।

    वस्वनन्तोथ तत्पुत्रो युयुधो यत्सुभाषण: ।

    श्रुतस्ततो जयस्तस्माद्विजयोउस्माहत: सुतः ॥

    २५॥

    वस्वनन्त:--वस्वनन्त; अथ--तत्पश्चात्‌; तत्‌-पुत्र:--उसका पुत्र; युयुध: --युयुध नामक; यत्‌--जिससे; सुभाषण: --सुभाषण; श्रुतःततः--तथा उससे श्रुत हुआ; जय: तस्मात्‌ू--उससे जय हुआ; विजय:--विजय; अस्मात्‌--जय से; ऋत:--ऋत; सुतः--पुत्र |

    उपगुप्त का पुत्र वस्वनन्त था, जिसका पुत्र युयुध हुआ।

    युयुध का पुत्र सुभाषण, सुभाषण कापुत्र श्रुत, श्रुत का पुत्र जय और जय का पुत्र विजय था।

    विजय का पुत्र ऋत था।

    शुनकस्तत्सुतो जज्ञे वीतहव्यो धृतिस्ततः ।

    बहुलाश्रो धृतेस्तस्य कृतिरस्थ महावशी ॥

    २६॥

    शुनकः--शुनक; तत्‌-सुतः--ऋत का पुत्र; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; बीतहव्य:--वीतहव्य; धृति:--धूृति; तत:ः--वीतहव्य का पुत्र;बहुलाश्व:--बहुला श्व; धृतेः-- धृति से; तस्थ--उसका पुत्र; कृतिः--कृति; अस्य--इसका; महावशी--महावशी नाम का पुत्र था।

    ऋत का पुत्र शुनक था, शुनक का वीतहव्य, बीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाश्च, बहुलाश्व काकृति तथा उसका पुत्र महावशी था।

    एते वै मैथिला राजन्नात्मविद्याविशारदा: ।

    योगेश्वरप्रसादेन द्नन्द्ैर्मुक्ता गृहेष्वपि ॥

    २७॥

    एते--ये सारे; बै--निस्सन्देह; मैथिला:--मिथिल के वंशज; राजन्‌--हे राजा; आत्म-विद्या-विशारदा:--आध्यात्मिक ज्ञानों में पटु;योगेश्वर-प्रसादेन-- भगवान्‌ कृष्ण जो योगेश्वर हैं उनकी कृपा से; इन्हैः मुक्ताः--वे सब के सबभौतिक जगत के द्वैतभाव से मुक्त होगये; गृहेषु अपि--घर पर रहते हुए भी |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, मिथिल वंश के सारे राजा अध्यात्म ज्ञान में पटु थे।

    अतएव वे घर पर रहते हुए भी संसार के द्वन्द्दों से मुक्त हो गये।

    TO

    अध्याय चौदह: राजा पुरुरवा उर्वशी पर मोहित हो गये

    9.14श्रीशुक उबाचअथात: श्रूयतां राजन्वंश: सोमस्य पावन: ।

    यस्मिन्नैलादयो भूषाः कीरत्यन्ते पुण्यकीर्तयः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--अब ( सूर्यवंश का इतिहास सुनने के बाद ); अत:--अतएव; श्रूयताम्‌--मुझसे सुनो; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; वंश: --वंश; सोमस्य--सोमदेव का; पावन: --पवित्र करने वाला; यस्मिन्‌ू--जिस ( वंश ) में;ऐल-आदयः:--ऐल ( पुरुरवा ) इत्यादि; भूपाः--अनेक राजा; कीर््यन्ते--वर्णित किये जाते हैं; पुण्य-कीर्तयः--ऐसे व्यक्ति जिनकेविषय में सुनना कीर्तिप्रद है।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा : हे राजनू, अभी तक आपने सूर्यवंश काविवरण सुना है।

    अब सोमवंश का अत्यन्त कीर्तिप्रद एवं पावन वर्णन सुनिए।

    इसमें ऐल ( पुरुरवा )जैसे राजाओं का उल्लेख है जिनके विषय में सुनना कीर्तिप्रद होता है।

    सहस्त्रशिरसः पुंसो नाभिहृदसरोरुहात्‌ ।

    जातस्यासीत्सुतो धातुरत्रि:ः पितूसमो गुणै: ॥

    २॥

    सहस्त्र-शिरस:ः--एक हजार सिरों वाले; पुंसः-- भगवान्‌ विष्णु ( गर्भोदकशायी विष्णु ) की; नाभि-हृद-सरोरुहात्‌--नाभि रूपीसरोवर से उत्पन्न कमल से; जातस्य--प्रकट हुआ; आसीतू-- था; सुत:--पुत्र; धातु: --ब्रह्माजी का; अत्रि: --अत्रि नामक; पितृ-समः--अपने पिता के ही समान; गुणैः--योग्य |

    भगवान्‌ विष्णु ( गर्भोदकशायी विष्णु ) सहस््रशीर्ष पुरुष भी कहलाते हैं।

    उनकी नाभि रूपीसरोवर से एक कमल निकला जिससे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए।

    ब्रह्मा का पुत्र अत्रि अपने पिता के हीसमान योग्य था।

    तस्य हृग्भ्योभवत्पुत्र: सोमोउमृतमय: किल ।

    विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पति: ॥

    ३॥

    तस्य--अत्रि के; दृग्भ्य:--हर्षा श्रुओं से; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ; पुत्र:--पुत्र; सोम: --चन्द्रमा; अमृत-मय: --स्निग्ध किरणों से युक्त;किल--निस्सन्देह; विप्र--ब्राह्मणों का; ओषधि--दवाओं का; उडु-गणानाम्‌--तारों का; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; कल्पित:--नियुक्तकिया गया; पति:--परम निदेशक, संचालक |

    अत्रि के हर्षाश्रुओं से सोम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो स्निग्ध किरणों से युक्त था।

    ब्रह्माजी नेउसे ब्राह्मणों, ओषधियों तथा नक्षत्रों ( तारों ) का निदेशक नियुक्त किया।

    सोयजद्राजसूयेन विजित्य भुवनत्रयम्‌ ।

    पत्नीं बृहस्पतेर्दर्पात्तारां नामाहरद्वलात्‌ ॥

    ४॥

    सः--उस सोम ने; अयजत्‌--सम्पन्न किया; राजसूयेन--राजसूय यज्ञ द्वारा; विजित्य--जीतकर; भुवन-त्रयम्‌ू--तीनों लोक ( स्वर्ग,मर्त्य तथा पाताल ); पत्लीम्‌ू--पत्नी को; बृहस्पतेः:--बृहस्पति की, जो देवताओं के गुरु हैं; दर्पातू-गर्व से; तारामू-- तारा को;नाम--नामक; अहरत्‌--चुरा ले गया; बलात्‌ू--बलपूर्वक, जबरन।

    तीनों लोकों को जीत लेने के बाद सोम ने राजसूय नामक महान्‌ यज्ञ सम्पन्न किया।

    अत्यधिकगर्वित होने के कारण उसने बृहस्पति की पत्नी तारा का बलपूर्वक हरण कर लिया।

    यदा स देवगुरुणा याचितो भी क्ष्णशो मदात्‌ ।

    नात्यजत्तत्कृते जज्ञे सुरदानवविग्रह: ॥

    ५॥

    यदा--जब; सः--वह ( सोम ); देव-गुरुणा--देवताओं के गुरु बृहस्पति द्वारा; याचित:--माँगे जाने पर; अभीक्षणश:--बार म्बार;मदातू--मिथ्या गर्व के कारण; न--नहीं; अत्यजतू--छोड़ा; तत्‌-कृते--इसके कारण; जज्ञे--हुआ; सुर-दानब--देवताओं तथाअसुरों के बीच; विग्रह:--युद्ध |

    यद्यपि देवताओं के गुरु बृहस्पति ने सोम से बारम्बार अनुरोध किया कि वह तारा को लौटा दे,किन्तु उसने नहीं लौटाया।

    यह उसके मिथ्या गर्व के कारण हुआ।

    फलस्वरूप देवताओं तथा असुरोंके बीच युद्ध छिड़ गया।

    शुक्रो बृहस्पतेद्वेंषादग्रहीत्सासुरोडुपम्‌ ।

    हरो गुरुसुतं स्नेहात्सर्वभूतगणावृतः ॥

    ६॥

    शुक्र:--शुक्र नामक देवता; बृहस्पते: --बृहस्पति की; द्वेषातू--शत्रुतावश; अग्रहीत्‌ू--ले लिया; स-असुर--असुरों सहित; उडुपम्‌--चन्द्रमा का पक्ष; हरः--शिवजी ने; गुरु-सुतम्‌--अपने गुरुपुत्र का पक्ष; स्नेहात्‌-स्नेहवश; सर्व-भूत-गण-आवृतः--सारे भूतप्रेतोंको साथ लेकर।

    बृहस्पति तथा शुक्र के मध्य शत्रुता होने से शुक्र ने सोम ( चन्द्रमा ) का पक्ष लिया और सारेअसुर उनके साथ हो लिये।

    किन्तु अपने गुरु का पुत्र होने के कारण शिवजी स्नेहवश बृहस्पति केपक्ष में हो लिये और उनके साथ सारे भूत-प्रेत भी हो लिये।

    सर्वदेवगणोपेतो महेन्द्रो गुरुमन्‍्वयात्‌ ।

    सुरासुरविनाशो भूत्समरस्तारकामय: ॥

    ७॥

    सर्व-देव-गण--विभिन्न देवताओं द्वारा; उपेत:--साथ हो लेने पर; महेन्द्र: --इन्द्र; गुरुम्‌--गुरु का; अन्वयात्‌--साथ दिया; सुर--देवताओं का; असुर--तथा असुरों का; विनाश:--विनाशकारी; अभूत्‌-- था; समर: --यद्ध; तारका-मय: --बृहस्पति की पत्नी ताराके कारण

    इन्द्र सभी देवताओं को साथ लेकर बृहस्पति के पक्ष में हो लिया।

    इस तरह महान्‌ युद्ध हुआ जिसमें बृहस्पति की पत्नी तारा के कारण ही असुरों तथा देवताओं का विनाश हो गया।

    निवेदितोथाड्रिरसा सोम॑ निर्भव्स्य विश्वकृत्‌ ।

    तारां स्वभत्रें प्रायच्छदन्तर्वत्तीमवैत्पति: ॥

    ८ ॥

    निवेदित:--पूरी तरह सूचित किया जाकर; अथ--इस प्रकार; अड्रिर्सा--अंगिरा मुनि द्वारा; सोमम्‌--सोम को; निर्भ॑त्स्थ--बुरी तरहभर्ससना करके; विश्व-कृत्‌--ब्रह्मा जी ने; तारामू--तारा को; स्व-भर्त्रे--उसके पति को; प्रायच्छत्‌--दे दिया; अन्तर्वलीम्‌--गर्भिणी;अवैत्‌--समझ सका; पति: --पति ( बृहस्पति )॥

    जब अंगिरा ने ब्रह्मजी को सारी घटना की जानकारी दी तो उन्होंने सोम को बुरी तरह फटकारा।

    इस तरह ब्रह्माजी ने तारा को उसके पति को वापस दिलवा दिया जिसे यह ज्ञात हो गया कि उसकीपत्नी गर्भवती है।

    त्यज त्यजाशू दुष्प्रज्ञे मत््षेत्रादाहितं परे: ।

    नाहं त्वां भस्मसात्कुर्या स्त्रियं सान्तानिकेउसति ॥

    ९॥

    त्यज--बाहर करो; त्यज--बाहर करो; आशु--तुरन्‍्त; दुष्प्रज्ञे -- मूर्ख स्त्री; मत्‌-क्षेत्रात्‌-मेरे द्वारा गर्भित होने वाले क्षेत्र से;आहितम्‌--उत्पन्न हुआ; परैः--अन्यों के द्वारा; न--नहीं; अहम्‌--मैं; त्वामू--तुमको; भस्मसात्‌--जलाकर राख; कुर्याम्‌--कर दूँगा;स्त्रियम्‌ू--तुम स्त्री को; सान्तानिके --सन्तान की इच्छुक; असति--दुराचारिणी ।

    बृहस्पति ने कहा : ओरे मूर्ख स्त्री! जिस गर्भ को मेरे वीर्य से निषेचित होना था वह किसी अन्यके द्वारा निषेचिित हो चुका है।

    तुम तुरन्त ही बच्चा जनो।

    तुरन्त जनो।

    आश्वस्त रहो कि इस बच्चे केजनने के बाद मैं तुम्हें भस्म नहीं करूँगा।

    मुझे पता है कि यद्यपि तुम दुराचारिणी हो, किन्तु तुम पुत्रकी इच्छुक थी।

    अतएव मैं तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा।

    तत्याज ब्रीडिता तारा कुमारं कनकप्रभम्‌ ।

    स्पृहामाड्रिरसश्नक्रे कुमारे सोम एबच ॥

    १०॥

    तत्याज--जन्म दिया; ब्रीडिता--अत्यन्त लज्जित; तारा--तारा ने; कुमारमू--बालक को; कनक-प्रभम्‌--सोने के समान शारीरिककान्ति वाला; स्पृहामू--अभिलाषा; आ्विरस:--बृहस्पति ने; चक्रे--बनाया; कुमारे--कुमार को; सोम: --सोम; एबव--निस्सन्देह;च--भी

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : बृहस्पति का आदेश पाकर अत्यन्त लज्जित हुई तारा ने तुरन्त हीबच्चे को जन्म दिया जो अत्यन्त सुन्दर था और जिसकी शारीरिक कान्ति सोने जैसी थी।

    बृहस्पतितथा सोम दोनों ने ही उस सुन्दर पुत्र को सराहा।

    ममायं न तवेत्युच्चैस्तस्मिन्विवदमानयो: ।

    पप्रच्छुरषयो देवा नेवोचे ब्रीडिता तु सा ॥

    ११॥

    मम--मेरा; अयम्‌--यह ( पुत्र ); न--नहीं; तव--तुम्हारा; इति--इस प्रकार; उच्चै:--उच्चस्वर से; तस्मिनू--बालक के लिए;विवदमानयो:--दो दलों के झगड़ने पर; पप्रच्छु:--पूछा ( तारा से ); ऋषय:--ऋषियों ने; देवा:--सारे देवताओं ने; न--नहीं; एब--निस्सन्देह; उचे--कुछ कहा; ब्रीडिता--लाजवश; तु--निस्सन्देह; सा--तारा ने।

    फिर से बृहस्पति और सोम के बीच झगड़ा होने लगा क्‍योंकि दोनों दावा कर रहे थे, 'यह मेरापुत्र है, तुम्हारा नहीं है।

    ' वहाँ पर उपस्थित सारे ऋषियों तथा देवताओं ने तारा से पूछा कि यहनवजात शिशु वास्तव में किसका है, किन्तु वह लज्जित होने के कारण तुरन्त कुछ भी उत्तर न दे पाई।

    कुमारो मातरं प्राह कुपितोइलीकलज्जया ।

    कि न वच्स्यसद्वत्ते आत्मावद्यं बदाशु मे ॥

    १२॥

    कुमार:--बालक ने; मातरम्‌--अपनी माता से; प्राह--कहा; कुपितः --अत्यधिक क्ुद्ध; अलीक--वृथा; लजजया--लाज से;किम्‌--क्यों; न--नहीं; वचसि--बोलती हो; असत्‌-वृत्ते--अरे दुराचारिणी स्त्री; आत्म-अवद्यम्‌--अपने दोष को; वद--कहो;आशु-ुरन्त; मे--मुझसे ।

    तब बालक अत्वन्त क्रुद्ध हुआ और उसने अपनी माता से तुरन्त सच-सच बतलाने के लिए कहा,'है दुराचारिणी! तुम्हारे द्वारा यह लज्जा व्यर्थ है।

    तुम अपने दोष को स्वीकार क्‍यों नहीं कर लेती ?

    तुम मुझसे अपने दोषी चरित्र के विषय में बतलाओ।

    ब्रह्मा तां रह आहूय समप्राक्षीच्च सान्त्वयन्‌ ।

    सोमस्येत्याह शनकै: सोमस्तं तावदग्रहीत्‌ ॥

    १३॥

    ब्रह्मा--ब्रह्माजी ने; तामू--उस ( तारा ) से; रह:--एकान्त में; आहूय--बुलाकर; समप्राक्षीत्‌--विस्तार से पूछा; च--तथा;सान्त्वयन्‌--शान्त करते हुए; सोमस्थ--सोम का है; इति--इस प्रकार; आह--वह बोली; शनकै:--अत्यन्त धीमे; सोमः--सोम ने;तम्‌ू--बालक को; तावत्‌--तुरन्‍्त; अग्रहीत्‌--स्वीकार कर लिया।

    तत्पश्चात्‌ ब्रह्मजी तारा को एकान्त में ले गये और सान्‍्त्वना देने के बाद उससे पूछा कि वास्तव मेंयह पुत्र किसका है।

    उसने धीमे से उत्तर दिया 'यह सोम का है।

    ' तब सोम ने तुरन्त ही उस बालकको स्वीकार कर लिया।

    तस्यात्मयोनिरकृत बुध इत्यभिधां नृप ।

    बुद्धया गम्भीरया येन पुत्रेणापोडुराण्मुदम्‌ ॥

    १४॥

    तस्य--उस बालक का; आत्म-योनि:--ब्रह्माजी ने; अकृत--बनाया; बुध:--बुध; इति--इस प्रकार; अभिधाम्‌--नाम; नृप--हेराजा, परीक्षित; बुद्धया--बुद्धि से; गम्भीरया--अत्यन्त गहराई पर स्थित; येन--जिस; पुत्रेण--पुत्र से; आप--उसने पाया; उड़ुराट्‌--सोम से; मुदम्‌--हर्ष

    हे महाराज परीक्षित, जब ब्रह्माजी ने देखा कि वह बालक अत्यधिक बुद्धिमान है तो उन्होंनेउसका नाम बुध रख दिया।

    इस पुत्र के कारण नक्षत्रों के राजा सोम ने अत्यधिक हर्ष का अनुभवकिया।

    ततः पुरूरवा जज्ञे इलायां य उदाहतः ।

    तस्य रूपगुणौदार्यशीलद्रविणविक्रमान्‌ ॥

    १५॥

    श्र॒त्वोर्वशीन्द्रभवने गीयमानान्सुर्षिणा ।

    तदन्तिकमुपेयाय देवी स्मरशरार्दिता ॥

    १६॥

    ततः--उस ( बुध ) से; पुरूरवा:--पुरुरवा; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; इलायाम्‌--इला के गर्भ से; यः--जो; उदाहत: --पूर्ववर्णित ( नवमस्कन्ध के प्रारम्भ में ); तस्थ--उसका ( पुरुरवा का ); रूप--सौन्दर्य; गुण--गुण; औदार्य--उदारता; शील--आचरण; द्रविण--सम्पत्ति; विक्रमान्‌ू--शक्ति को; श्रुत्वा--सुनकर; उर्वशी--देवलोक की स्त्री ( देवांगना ), उर्वशी; इन्द्र-भवने--राजा इन्द्र के दरबारमें; गीयमानान्‌ू--वर्णन किये जाते समय; सुर-ऋषिणा--नारद द्वारा; तत्‌ू-अन्तिकम्‌-- उसके निकट; उपेयाय--पहुँचकर; देवी --उर्वशी; स्मर-शर--कामदेव के बाण से; अर्दिता--मारी गयी |

    तत्पश्चात्‌ इला के गर्भ से बुध को पुरुरवा नामक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका वर्णन नवम स्कन्धके प्रारम्भ में किया जा चुका है।

    जब नारद ने इन्द्र के दरबार में पुरुरवा के सौन्दर्य, गुण, उदारता,आचरण, ऐश्वर्य तथा शक्ति का वर्णन किया तो देवांगना उर्वशी उसके प्रति आकृष्ट हो गई।

    वह कामदेव के बाणों से बिंधकर उसके पास पहुँची।

    मित्रावरुणयो: शापादापन्ना नरलोकताम्‌ ।

    निशम्य पुरुषश्रेष्ठ कन्दर्पमिव रूपिणम्‌ ।

    धृतिं विष्टभ्य ललना उपतस्थे तदन्तिके ॥

    १७॥

    सतां विलोक्य नृपतिईर्षेणोत्फुल्ललोचन: ।

    उवाच एलक्ष्णया वाचा देवीं हष्टतनूरूह: ॥

    १८ ॥

    मित्रा-वरुणयो: --मित्र तथा वरुण के; शापात्‌--शाप से; आपन्ना--प्राप्त हुई; नर-लोकताम्‌--मनुष्यों का स्वभाव; निशम्य--देखकर; पुरुष-श्रेष्ठम्‌--मनुष्यों में सर्वोत्तम; कन्दर्पम्‌ इब--कामदेव की तरह; रूपिणम्‌--रूपवान; धृतिम्‌-- धैर्य, सहनशीलता;विष्टभ्य--स्वीकार करके; ललना--वह स्त्री; उपतस्थे--निकट गई; ततू-अन्तिके --उसके पास; सः--वह पुरुरवा; ताम्‌--उसको;विलोक्य--देखकर; नृपतिः--राजा; हर्षेण--हर्ष से; उत्फुल्ल-लोचन:--चमकीली आँखों वाला; उवाच--बोला; एलक्ष्णया--विनीत होकर; वाचा--शब्द; देवीम्‌ू--उस देवी से; हष्ट-तनूरूह:--हर्ष से रोमांचित |

    मित्र तथा वरुण से शापित उस देवांगना उर्वशी ने मानवीय गुण अर्जित कर लिए।

    अतएवपुरुषश्रेष्ठ कामदेव के समान सुन्दर पुरुरवा को देखते ही उसने अपने को सँभाला।

    और वह उसकेनिकट पहुँची।

    जब राजा पुरुरवा ने उर्वशी को देखा तो उसकी आँखें हर्ष से चमक उठीं और उसकोरोमांच हो आया।

    वह उससे विनीत एवं मधुर बचनों में इस प्रकार बोला।

    श्रीराजोबाचस्वागतं ते वरारोहे आस्यतां करवाम किम्‌ ।

    संरमस्व मया साकं रतिरनों शाश्वती: समा: ॥

    १९॥

    श्री-राजा उबाच--राजा ( पुरुरवा ) ने कहा; स्वागतम्‌--स्वागत; ते--तुम्हारा; वरारोहे --हे सर्व-सुन्दर स्त्री; आस्यताम्‌--कृपयाआसन ग्रहण करें; करवाम किम्‌--आपके लिए क्या करूँ; संरमस्व--मेरी संगिनी बनो; मया साकम्‌--मेरे साथ; रतिः--कामकेलि,रतिक्रीडा; नौ--हमारे बीच; शाश्रवती: समाः-- अनेक वर्षो तक |

    राजा पुरुरवा ने कहा : हे श्रेष्ठ सुन्दरी, तुम्हारा स्वागत है।

    कृपा करके यहाँ बैठो और कहो कि मैंतुम्हिरे लिए क्या कर सकता हूँ?

    तुम जब तक चाहो मेरे साथ भोग कर सकती हो।

    हम दोनोंसुखपूर्वक दम्पति-जीवन व्यतीत करें।

    उर्वश्युवाचकस्यास्त्वयि न सज्जेत मनो दृष्टिश्च सुन्दर ।

    यदड्जान्तरमासाद्य च्यवते ह रिरंसया ॥

    २०॥

    उर्वशी उबाच--उर्वशी ने उत्तर दिया; कस्या:--किस स्त्री का; त्वयि--तुम पर; न--नहीं; सज्जेत-- आकृष्ट होगा; मन:--मन; दृष्टि:च--तथा दृष्टि; सुन्दर--हे रूपवान; यत्‌-अज्जन्तरम्‌--जिसका वक्ष; आसाद्य--भोगकर; च्यवते--त्यागता है; ह--निस्सन्देह;रिरंसया--कामसुख के लिए।

    उर्वशी ने उत्तर दिया: हे रूपवान, ऐसी कौन सी स्त्री होगी जिसका मन तथा दृष्टि आपके प्रतिआकृष्ट न हो जाए?

    यदि कोई स्त्री आपके वक्षस्थल की शरण ले तो वह आपसे रमण किये बिनानहीं रह सकती।

    एतावुरणकौ राजन्न्यासौ रक्षस्व मानद ।

    संरंस्ये भवता साक॑ एलाध्यः स्त्रीणां वर: स्मृत: ॥

    २१॥

    एतौ--इन दोनों को; उरणकौ--मेमने; राजनू्‌--हे राजा पुरुरवा; न्यासौ--नीचे गिरे हुए; रक्षस्व--रक्षा करो; मान-द--अतिथि कोसम्मान देने वाले; संरंस्थे--मैं रमण करूँगी; भवता साकम्‌--तुम्हारे संग रहकर; एलाध्य:-- श्रेष्ठ; सत्रीणाम्‌--स्त्री का; वर:--पति;स्मृत:--कहा गया है।

    हे राजा पुरुरवा, आप इन दोनों मेमनों को शरण दें क्योंकि ये भी मेरे साथ गिर गए हैं।

    यद्यपि मैंस्वर्गलोक की हूँ और आप पृथ्वी लोक के हैं, किन्तु मैं निश्चय ही आपके साथ संभोग करूँगी।

    आपको पति रूप में स्वीकार करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि आप हर प्रकार से श्रेष्ठ हैं।

    घृतं मे वीर भक्ष्यं स्पान्नेक्षे त्वान्यत्र मैथुनात्‌ ।

    विवाससं तत्तथेति प्रतिपेदे महामना: ॥

    २२॥

    घृतम्‌--घी या अमृत; मे--मेरी; वीर--हे वीर पुरुष; भक्ष्यम्‌--खाद्य वस्तु; स्थातू--होगी; न--नहीं; ईक्षे--देखूँगी; त्वा-- तुमको;अन्यत्र--किसी और समय; मैथुनात्‌ू--मैथुन काल के अतिरिक्त; विवाससम्‌--विवस्त्र, नग्न; तत्‌ू--वह; तथा इति--ऐसा ही हो;प्रतिपेदे--वचन दे दिया; महामना:--राजा पुरुरवा ने |

    उर्वशी ने कहा, 'हे वीर, मैं केवल घी की बनी वस्तुएँ खाऊँगी और आपको मैथुन-समय केअतिरिक्त अन्य किसी समय नग्न नहीं देखना चाहूँगी।

    ' विशालहृदय पुरुरवा ने इन प्रस्तावों कोस्वीकार कर लिया।

    अहो रूपमहो भावो नरलोकविमोहनम्‌ ।

    को न सेवेत मनुजो देवीं त्वां स्‍्वयमागताम्‌ ॥

    २३॥

    अहो--आश्चर्यजनक है; रूपम्‌--सौन्दर्य; अहो-- अद्भुत है; भाव:-- भावभंगिमा, मुद्रा; नर-लोक--मानव समाज में या पृथ्वीलोकमें; विमोहनम्‌ू--इतना आकर्षक; कः--कौन; न--नहीं; सेवेत--स्वीकार कर सकता है; मनुज:--मनुष्य; देवीम्‌--देवी को;त्वामू-तुम जैसी; स्वयम्‌ आगताम्‌--स्वयं चलकर आई हुई।

    पुरुरवा ने कहा : हे सुन्दरी, तुम्हारा सौन्दर्य अद्भुत है और तुम्हारी भावभंगिमाएँ भी अद्भुत हैं।

    निस्सन्देह, तुम सारे मानव समाज के लिए आकर्षक हो।

    अतएव क्योंकि तुम स्वेच्छा से स्वर्ग लोकसे यहाँ आई हो तो भला इस पृथ्वीलोक पर ऐसा कौन होगा जो तुम जैसी देवी की सेवा करने केलिए तैयार नहीं होगा ?

    तया स पुरुषश्रेष्ठो रमयन्त्या यथाईतः ।

    रेमे सुरविहारेषु काम॑ चेत्ररथादिषु ॥

    २४॥

    तया--उसके साथ; सः--वह; पुरुष- श्रेष्ठ: --मनुष्यों में श्रेष्ठ, पुरुरवा; रमयन्त्या--रमण करते हुए; यथा-अ्हईतः --यथाशक्ति; रेमे--भोग किया; सुर-विहारेषु--स्वर्गिक विहारस्थलों में; कामम्‌--इच्छानुसार; चैत्ररथ-आदिषु--चैत्ररथ इत्यादि जैसे श्रेष्ठ उद्यानों में |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : पुरुषश्रेष्ठ पुरुरवा उर्वशी के साथ मुक्त भाव से भोग करनेलगा।

    वे दोनों चैत्ररथ, नन्दन कानन जैसे अनेक दैवी स्थलों में रतिक्रीड़ा में व्यस्त रहने लगे, जहाँ परदेवतागण भोग-विहार करते हैं।

    रममाणस्तया देव्या पद्मकिड्जल्कगन्धया ।

    तन्मुखामोदमुषितो मुमुदेहर्गणान्बहून्‌ू ॥

    २५॥

    रममाण: --रमण करते हुए; तया--उसके साथ; देव्या--देवी के साथ; पढ्य--कमल; किड्लल्क--केसर के समान; गन्धया--गन्धसे; तत्‌-मुख--उसका सुन्दर मुखमंडल; आमोद--सुगन्धि से; मुषित:--अधिकाधिक उत्तेजित होकर; मुमुदे--जीवन का आनन्दलिया; अहः-गणानू--दिन प्रतिदिन; बहूनू--अनेक ।

    उर्वशी का शरीर कमल के केसर की भाँति सुगन्धित था।

    उसके मुख तथा शरीर की सुगन्ध सेअनुप्राणित होकर पुरुरवा ने अत्यन्त उल्लासपूर्वक अनेक दिनों तक उसके साथ रमण किया।

    अपशयच्रुर्वशीमिन्द्रो गन्धर्वान्समचोदयत्‌ ।

    उर्वशीरहितं मह्ाममास्थानं नातिशोभते ॥

    २६॥

    अपश्यन्‌--न देखने से; उर्वशीम्‌--उर्वशी को; इन्द्र:--स्वर्ग के राजा इन्द्र ने; गन्धर्वान्‌--गन्धर्वों को; समचोदयत्‌--आदेश दिया;उर्वशी-रहितम्‌--बिना उर्वशी के; महाम्‌--मेरा; आस्थानम्‌--स्थान; न--नहीं; अतिशोभते-- अच्छा लगता है।

    उर्वशी को अपनी सभा में न देखकर स्वर्ग के राजा इन्द्र ने कहा, 'उर्वशी के बिना मेरी सभासुन्दर नहीं लगती।

    ' यह सोचकर उसने गन्धर्वों से अनुरोध किया कि वे उसे पुनः स्वर्गलोक में लेआएँ।

    ते उपेत्य महारात्रे तमसि प्रत्युपस्थिते ।

    उर्वश्या उरणौ जहर्न्यस्तौ राजनि जायया ॥

    २७॥

    ते--वे गन्धर्वगण; उपेत्य--वहाँ जाकर; महा-रात्रे--आधीरात में; तमसि-- अँधेरे में; प्रत्युपस्थिते--प्रकट हुए; उर्वश्या--उर्वशी द्वारा;उरणौ--दोनों मेमने; जहुः--चुरा लिया; न्यस्तौ-- धरोहर रखे गये; राजनि--राजा के पास; जायया--पली उर्वशी द्वारा।

    इस तरह गन्धर्वगण पृथ्वी पर आये और अर्धरात्रि के अंधकार में पुरुरवा के घर में प्रकट हुएतथा उर्वशी द्वारा प्रदत्त दोनों मेमने चुरा लिए।

    निशम्याक्रन्दितं देवी पुत्रयोनीयमानयो: ।

    हतास्म्यहं कुनाथेन नपुंसा वीरमानिना ॥

    २८॥

    निशम्य--सुनकर; आक्रन्दितम्‌-क्रन्दन, चीत्कार ( चुराने के कारण ); देवी--उर्वशी; पुत्रयो: --पुत्रस्वरूप दोनों मेमनों का;नीयमानयो:--ले जाये जाते हुए; हता--मारी गयी; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं; कु-नाथेन--कुपति के संरक्षण में होने से; न-पुंसा--नपुंसक द्वारा; वीर-मानिना--अपने को वीर मानने वाला।

    उर्वशी इन दोनों मेमनों को पुत्रस्वरूप मानती थी।

    अतएव जब उन्हें गन्धर्वगण लिए जा रहे थेऔर जब उन्होंने मिमियाना शुरू किया तो उर्वशी ने इसे सुना।

    उसने अपने पति को फटकारते हुएकहा, 'हाय! अब मैं ऐसे अयोग्य पति के संरक्षण में रहती हुई मारी जा रही हूँ जो कायर एवं नपुंसकहै किन्तु अपने को परम वीर समझता है।

    यद्विश्रम्भादहं नष्टा हतापत्या च दस्युभि: ।

    यः शेते निशि सन्त्रस्तो यथा नारी दिवा पुमान्‌ ॥

    २९॥

    यतू-विश्रम्भात्‌ू--जिस पर आश्रित रहने के कारण; अहम्‌--मैं; नष्टा--विनष्ट हो गई; हत-अपत्या--अपने पुत्रों ( मेमनों ) से विहीन;च--भी; दस्युभि:--लुटेरों के द्वारा; यः--जो ( मेरा तथाकथित पति ); शेते--सोता है; निशि--रात में; सन्त्रस्त:-- भयभीत; यथा--जिस तरह; नारी--स्त्री; दिवा--दिन में; पुमान्‌ू--पुरुष |

    चूँकि मैं उस ( अपने पति ) पर आश्रित थी, अतएव लुटेरों ने मुझसे मेरे दोनों पुत्रवत्‌ मेमनों कोछीन लिया है और अब मैं विनष्ट हो गई हूँ।

    मेरा पति रात्रि में डर के मारे उसी तरह सो रहा है जैसे कोई स्त्री हो, यद्यपि दिन में वह पुरुष प्रतीत होता है।

    'इति वाक्सायकैर्बिद्ध: प्रतोक्तैरिव कुझ्रः ।

    निशि निर्त्रिशमादाय विवस्त्रोभ्यद्रवद्रघा ॥

    ३० ॥

    इति--इस प्रकार; वाक्‌ू-सायकै:--कठोर शब्दों के बाणों से; बिद्ध:--बींधकर; प्रतोत्तैः-- अंकुश से; इब--सहश; कुझर:--हा थी;निशि--रात में; निस्त्रिशम्‌ू--तलवार; आदाय--हाथ में लेकर; विवस्त्र:--नंगा; अभ्यद्रवत्‌--बाहर चला गया; रुषा--क्रोध से |

    पुरुरवा उर्वशी के कर्कश शब्दों से आहत होने के कारण उसी तरह से अत्यधिक क्रुद्ध हुआजिस तरह हाथी महावत के अंकुश से होता है।

    वह बिना उचित वस्त्र पहने, हाथ में तलवार लेकरमेमना चुराने वाले गन्धर्वों का पीछा करने के लिए नंगा बाहर चला गया।

    ते विसृज्योरणौ तत्र व्यद्योतन्त सम विद्युत: ।

    आदाय मेषावायान्तं नग्नमैक्षत सा पतिम्‌ ॥

    ३१॥

    ते--वे, गन्धर्व; विसृज्य--छोड़कर; उरणौ--दोनो मेमनों को; तत्र--उसी स्थान पर; व्यद्योतन्त स्म--प्रकाशमान हो उठे; विद्युत:--बिजली के समान; आदाय--हाथ में लेकर; मेषौ--दोनों मेमने; आयान्तमू--लौटकर; नग्नमू--नंगा; ऐक्षत--देखा; सा--उर्वशी ने;पतिमू--अपने पति को |

    उन दोनों मेमनों को छोड़कर गन्धर्वगण बिजली के समान प्रकाशमान हो उठे जिससे पुरुरवा काघर प्रकाशित हो उठा।

    तब उर्वशी ने देखा कि उसका पति दोनों मेमनों को हाथ में लिए लौट आयाहै, किन्तु वह नग्न है; अतएव उसने उसका परित्याग कर दिया।

    ऐलोपि शयने जायामपश्यन्विमना इव ।

    तच्चित्तो विहलः शोचन्बश्चामोन्मत्तवन्महीम्‌ ॥

    ३२॥

    ऐल:--पुरुरवा; अपि-- भी; शयने--बिस्तर में; जायाम्‌-- अपनी पत्नी को; अपश्यन्‌ू--न देखकर; विमना: --खिन्न; इब--सहृश;तत्‌-चित्त:--उसके प्रति अत्यधिक आसक्त होने से; विहलः--मन में क्षुब्ध।

    शोचन्‌ू--विलाप करते; बश्चाम--घूमने लगे; उन्मत्त-बत्‌--पागल व्यक्ति की तरह; महीम्‌--पृथ्वी परउर्वशी को अपने बिस्तर पर न देखकर पुरुरवा अत्यधिक दुखित हो उठा।

    उसके प्रति अत्यधिकआसक्ति के कारण वह मन में क्षुब्ध था।

    तत्पश्चात्‌ विलाप करते हुए वह पागल की तरह सारी पृथ्वीमें भ्रमण करने लगा।

    सतां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखी: ।

    पश्च प्रहष्टवदनः प्राह सूक्त पुरूरवा: ॥

    ३३॥

    सः--पुरुरवा ने; ताम्‌--उर्वशी को; वीक्ष्य--देखकर; कुरुक्षेत्रे--कुरुक्षेत्र नामक स्थान पर; सरस्वत्याम्‌--सरस्वती नदी के तट पर;च--भी; तत्‌-सखी:--उसकी सखियाँ; पञ्ञ--पाँच; प्रहष्ट-वदन:--अत्यन्त प्रसन्न एवं हँसमुख; प्राह--कहा; सूक्तम्‌--मीठे वचन;पुरूरवा:--राजा पुरुरवा ने।

    एक बार विश्व का भ्रमण करते हुए पुरुरवा ने उर्वशी को उसकी पाँच सखियों सहित सरस्वतीनदी के तट पर कुरुक्षेत्र में देखा।

    प्रसन्न-मुख होकर वह उस से मधुर शब्दों में इस प्रकार बोला।

    अहो जाये तिष्ठ तिष्ठ घोरे न त्यक्तुमहसि ।

    मां त्वमद्याप्यनिर्वृत्य वचांसि कृणवावहै ॥

    ३४॥

    अहो--ओह; जाये--मेरी प्रिय पत्नी; तिष्ठ तिष्ठ--जरा ठहरो, जरा ठहरो; घोरे--अत्यन्त क्रूर; न--नहीं; त्यक्तुमू--छोड़ना; अरहसि--तुम्हें चाहिए; मामू--मुझको; त्वमू--तुम; अद्य अपि--अभी तक; अनिर्व॒त्य--मेरे साथ का सुख न पाने से; वचांसि--कुछ शब्द;'कृणवावहै--कुछ क्षण बातें करें।

    हे प्रिय पत्नी! हे क्रूर! जरा ठहरो तो।

    मैं जानता हूँ कि अभी तक मैं तुम्हें कभी भी सुखी नहीं बनापाया, किन्तु तुम्हें इस कारण से मेरा परित्याग नहीं करना चाहिए।

    यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है।

    मान लो कि तुम मेरा साथ छोड़ने का निश्चय कर चुकी हो, किन्तु तो भी आओ कुछ क्षण बैठकरबातें करें।

    सुदेहोयं पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया ।

    खाद-न्त्येनं वृका गृश्नास्त्वत्प्रसादस्य नास्पदम्‌ ॥

    ३५॥

    सु-देह:--अत्यन्त सुन्दर शरीर; अयम्‌--यह; पतति--गिर जायेगा; अत्र--यहीं पर; देवि--हे उर्वशी; दूरम्‌--दूर, घर से दूर; हत:--लेजाया गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; खादन्ति--खा जायें; एनम्‌--इस ( शरीर ) को; वृकाः--लोमड़ियाँ; गृक्षा:--गी ध; त्वत्‌-- तुम्हारी;प्रसादस्य--कृपा का; न--नहीं; आस्पदम्‌--उपयुक्त |

    हे देवी, चूँकि तुमने मुझे अस्वीकार कर दिया है अतएव मेरा यह सुन्दर शरीर यहीं धराशायी होजायगा और चाँकि मैं तुम्हारे सुख के अनुकूल नहीं हूँ इसलिए इसे लोमड़ियाँ तथा गीध खा जायेंगे।

    उर्वश्युवाच मा मृथा: पुरुषोउसि त्वं मा सम त्वाद्युर्वृका इमे ।

    क्वापि सख्यं न वे स्त्रीणां वृकाणां हृदयं यथा ॥

    ३६॥

    उर्वशी उबाच--उर्वशी ने कहा; मा--मत; मृथा:--शरीर त्याग करो; पुरुष: --पुरुष; असि--हो; त्वमू--तुम; मा स्म--ऐसा न होनेदो; त्वा--तुमको; अद्यु:--खा सके; वृकाः--लोमड़ियाँ; इमे--इन इन्द्रियों को ( अपनी इन्द्रियों के वश में न रहो ); क्व अपि--कहींभी; सख्यम्‌--मैत्री; न--नहीं; वै--निस्सन्देह; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के; वृकाणाम्‌--लोमड़ियों की; हदयम्‌--हदय को; यथा--जिसतरह।

    उर्वशी ने कहा : हे राजन, तुम पुरुष हो, वीर हो।

    अधीर मत होओ और अपने प्राणों को मतत्यागो।

    गम्भीर बनो और लोमड़ियों की भाँति अपनी इन्द्रियों के वश में मत होओ।

    तुम लोमड़ियों काभोजन मत बनो।

    दूसरे शब्दों में, तुम्हें अपनी इन्द्रियों के वशीभूत नहीं होना चाहिए।

    प्रत्युत तुम्हें स्त्रीके हृदय को लोमड़ी जैसा जानना चाहिए।

    स्त्रियों से मित्रता करने से कोई लाभ नहीं।

    स्त्रियो हाकरुणा: क्रूरा दुर्मर्षा: प्रियसाहसा: ।

    घ्नन्त्यल्पार्थेषपि विश्रब्ध॑ पतिं भ्रातरमप्युत ॥

    ३७॥

    स्त्रियः:--स्त्रियाँ; हि--निस्सन्देह; अकरुणा:--करुणारहित; क्रूराः--चालाक, मक्कार; दुर्मर्षा:--असहिष्णु; प्रिय-साहसा:--अपनेआनन्द के लिए कुछ भी करने वाली, दुस्साहसी; घ्नन्ति--मार डालती हैं; अल्प-अर्थ--छोटे से कारण के लिए; अपि--निस्सन्देह;विश्रब्धम्‌--आज्ञाकारी; पतिम्‌--पति को; भ्रातरम्‌-- भाई को; अपि-- भी; उत--कहा गया है।

    स्त्रियों की जाति करुणाविहीन तथा चतुर होती है।

    वे थोड़ा सा भी अपमान सहन नहीं करसकतीं।

    वे अपने आनन्द के लिए कुछ भी अधर्म कर सकती हैं; अतएव वे अपने आज्ञाकारी पति याभाई तक का वध करते हुए नहीं डरतीं।

    विधायालीकविश्रम्भमज़ेषु त्यक्तसौहदा: ।

    नव॑ नवमभीप्सन्त्य: पुंश्चल्य: स्वैरवृत्तय: ॥

    ३८ ॥

    विधाय--स्थापित करके; अलीक--झूठा; विश्रम्भम्‌-विश्वास; अज्ञेषु-मूर्ख पुरुषों से; त्यक्त-सौहदा:--जिन्‍्होंने शुभचिन्तकों कासाथ छोड़ दिया है; नवमू--नवीन; नवम्‌--नवीन; अभीष्सन्त्यः:--चाहते हुए; पुंश्वल्य:--अन्य पुरुषों के द्वारा आसानी से आकृष्ट होनेवाली स्त्रियाँ; स्वैर--स्वतंत्र रूप से; वृत्तय:ः--पेशेवर

    स्त्रियाँ पुरुषों द्वारा आसानी से ठग ली जाती हैं, अतएव दूषित स्त्रियाँ अपने शुभेच्छु पुरुष कीमित्रता छोड़कर मूर्खों से झूठी दोस्ती स्थापित कर लेती हैं।

    निस्सन्देह, वे एक के बाद एक नित नयेमित्रों की खोज में रहती हैं।

    संवत्सरान्ते हि भवानेकरात्र मयेश्वर: ।

    रंस्यत्यपत्यानि च ते भविष्यन्त्यपराणि भो: ॥

    ३९॥

    संवत्सर-अन्ते--हर एक साल के बाद; हि--निस्सन्देह; भवान्‌--आप; एक-रात्रमू--एक रात के लिए; मया--मेरे साथ; ईश्वर: --मेरेपति; रंस्थति--रमण करोगे; अपत्यानि--सन्तान; च-- भी; ते--तुम्हारी; भविष्यन्ति--उत्पन्न होगी; अपराणि--अन्य, एक के बादएक; भोः--हे राजा।

    हे राजा, तुम हर एक साल के बाद केवल एक रात के लिए मेरे साथ पति रूप में रमण करसकोगे।

    इस तरह तुम्हें एक-एक करके अन्य सनन्‍्तानें भी मिलती रहेंगी।

    अन्तर्वत्ीमुपालक्ष्य देवीं स प्रययौ पुरीम्‌ ।

    'पुनस्तत्र गतोब्दान्ते उर्वशीं वीरमातरम्‌ ॥

    ४०॥

    अन्तर्वलीम्‌ू--गर्भिणी; उपालक्ष्य--देखकर; देवीम्‌--उर्वशी को; सः--वह; प्रययौ--लौट आया; पुरीम्‌--अपने महल में; पुन:--फिर; तत्र--उसी स्थान पर; गत:ः--गया; अब्द-अन्ते--एक साल के बाद; उर्वशीम्‌--उर्वशी को; वीर-मातरम्‌--एक क्षत्रिय पुत्र कीमातायह जानकर कि उर्वशी गर्भवती है, पुरुवा अपने महल में वापस आ गया।

    एक वर्ष बादकुरुक्षेत्र में ही उर्वशी से पुनः उसकी भेंट हुई; तब वह एक वीर पुत्र की माता थी।

    उपलभ्य मुदा युक्त: समुवास तया निशाम्‌ ।

    अथेनमुर्वशी प्राह कृपणं विरहातुरम्‌ ॥

    ४१॥

    उपलभ्य--साथ पाकर; मुदा--अत्यधिक खुशी में; युक्त:--मिलकर; समुवास--संभोग किया; तया--उसके साथ; निशाम्‌--उसरात्रि; अथ-त्पश्चात्‌; एनम्‌-राजा को; उर्वशी --उर्वशी ने; प्राह--कहा; कृपणम्‌--दुर्बल हृदय वाले; विरह-आतुरम्‌-विरह के

    विचारभाव से पीड़ित वर्ष के अन्त में उर्वशी को फिर से पाकर राजा पुरुरवा अत्यधिक हर्षित था और उसने एक रातउसके साथ संभोग में बिताई।

    किन्तु उससे विलग होने के विचार से वह अत्यधिक दुखी था; इसलिएउर्वशी ने उससे इस प्रकार कहा।

    गन्धर्वानुपधावेमांस्तुभ्यं दास्यन्ति मामिति ।

    तस्य संस्तुवतस्तुष्टा अग्निस्थालीं ददुर्नुप ।

    उर्वशीं मन्यमानस्तां सोबुध्यत चरन्वने ॥

    ४२॥

    गन्धर्वानू--गन्धर्वों की; उपधाव--जाकर शरण लो; इमानू--इन; तुभ्यम्‌--तुमको; दास्यन्ति--देंगे; माम्‌ इति--मेरे ही जैसी;तस्य--उसके द्वारा; संस्तुवत:--स्तुति करने पर; तुष्टा:--प्रसन्न होकर; अग्नि-स्थालीम्‌-- अग्नि से उत्पन्न कन्या; ददुः--दिया; नृप--हेराजा; उर्वशीम्‌--उर्वशी को; मनन्‍्य-मान:--सोचते हुए; तामू--उसको; सः--वह ( पुरुरवा ); अबुध्यत--समझ गया; चरन्‌--विचरणकरते हुए; बने--वन में |

    उर्वशी ने कहा : हे राजन, तुम गन्धर्वों की शरण में जाओ क्‍योंकि वे मुझे पुनः तुम्हें दे सकेंगे।

    इन बचनों के अनुसार राजा ने स्तुतियों द्वारा गन्धर्वों को प्रसन्न किया और जब गर्धर्व प्रसन्न हुए तोउन्होंने उसे उर्वशी जैसी ही एक अग्निस्थाली कन्या प्रदान की।

    यह सोचकर कि यह कन्या उर्वशी हीहै, वह राजा उसके साथ जंगल में विचरण करने लगा, किन्तु बाद में उसकी समझ में आ गया किवह उर्वशी नहीं अपितु अग्निस्थाली है।

    स्थालीं न्यस्य बने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि ।

    त्रेतायां सम्प्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत ॥

    ४३॥

    स्थालीम्‌--अग्निस्थली को; न्यस्य--तुरन्त त्यागकर; वने--वन में; गत्वा--लौटने पर; गृहान्‌ू--घर पर; आध्यायत: --ध्यान करनेलगा; निशि--सारी रात; त्रेतायाम्‌-त्रेतायुग में; सम्प्रवृत्तायाम्‌--प्रारम्भ होने को था; मनसि--मन में; त्रयी--तीन वेदों के सिद्धान्त;अवर्तत--प्रकट हुए।

    तब राजा पुरुरवा ने अग्निस्थाली को जंगल में छोड़ दिया और स्वयं घर वापस चला आया जहाँउसने रात भर उर्वशी का ध्यान किया।

    उसके ध्यान के ही समय त्रेतायुग का शुभारम्भ हो गया;अतएव वेदत्रयी के सारे सिद्धान्त, जिनमें कर्म की पूर्ति के लिए यज्ञ करने की विधियाँ भी सम्मिलित थीं,उसके हृदय के भीतर प्रकट हुए।

    स्थालीस्थानं गतोश्वत्थं शमीगर्भ विलक्ष्य सः ।

    तेन द्वे अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया ॥

    ४४॥

    उर्वशीं मन्त्रतो ध्यायन्नधरारणिमुत्तराम्‌ ।

    आत्मानमुभयोर्मध्ये यत्तत्प्रजननं प्रभु; ॥

    ४५॥

    स्थाली-स्थानम्‌--जहाँ अग्निस्थाली को छोड़ा था; गत:ः--वहाँ जाकर; अश्वत्थम्‌--अ श्वत्थ वृक्ष; शमी-गर्भमू--शमी वृक्ष के भीतरसे; विलक्ष्य--देखकर; सः--वह पुरुरवा; तेन--उससे; द्वे--दो; अरणी--यज्ञ की अग्नि जलाने के काम आने वाली लकड़ी केटुकड़े; कृत्वा--बनाकर; उर्वशी-लोक-काम्यया--उस लोक को जाने की इच्छा से जहाँ उर्वशी थी; उर्वशीम्‌--उर्वशी को; मन्त्रत:--मंत्रोच्चार द्वारा; ध्यायन्‌-- ध्यान करते हुए; अधर--नीचे के; अरणिम्‌--अरणिम्‌ काष्ठ को; उत्तरामू--तथा ऊपर वाले को;आत्मानम्‌--अपने को; उभयो: मध्ये--दोनों के बीच में; यत्‌ तत्‌ू--उसे ( जिसका वह ध्यान कर रहा था ); प्रजननम्‌--पुत्ररूप में;प्रभु:--राजा ने।

    जब पुरुरवा के हृदय के कर्मकाण्डीय यज्ञ की विधि प्रकट हुई तो वह उसी स्थान पर गया जहाँउसने अग्निस्थाली को छोड़ा था।

    वहाँ उसने देखा कि शमी वृक्ष के भीतर से एक अश्रत्थ वृक्ष उगआया है।

    उसने उस वृक्ष से लकड़ी का एक टुकड़ा लिया और उससे दो अरणियाँ बना लीं।

    उसनेउर्वशी के रहने वाले लोक में जाने की इच्छा से, निचली अरणी में उर्वशी का और ऊपरी अरणी मेंअपना ध्यान तथा बीच के क्राष्ट में अपने पुत्र का ध्यान करते हुए मंत्रोच्चयार किया।

    इस तरह वहअग्नि प्रज्वलित करने लगा।

    तस्य निर्मन्‍्थनाज्जातो जातवेदा विभावसु: ।

    त्रय्या स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितस्त्रिवृत्‌ ॥

    ४६॥

    तस्य--पुरुरवा के; निर्मन्‍्थनात्‌ू--मन्थन या घर्षण से; जात:--उत्पन्न हुआ; जात-वेदा: --वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार भौतिक भोगके निमित्त; विभावसु:--अग्नि; त्रय्या--वैदिक सिद्धान्तों का पालन करते हुए; सः--अग्नि; विद्यया--ऐसी विधि से; राज्ञा--राजाद्वारा; पुत्रत्वे--पुत्र उत्पन्न होना; कल्पित:--ऐसा हुआ कि; त्रि-वृत्‌--तीन अक्षर

    पुरुरवा द्वारा अरणियों के रगड़ने से अग्नि उत्पन्न हुई।

    ऐसी अग्नि से मनुष्य को भौतिक भोग मेंपूर्ण सफलता मिल सकती है और वह सनन्‍्तान उत्पत्ति, दीक्षा तथा यज्ञ करते समय शुद्ध हो सकता हैजिन्हें अ, उ, म्‌ ( ओम्‌ ) शब्दों के द्वारा आवाहन किया जा सकता है।

    इस प्रकार वह अग्नि राजापुरुरवा का पुत्र मान ली गई।

    तेनायजत यज्ञेशं भगवन्तमधोक्षजम्‌ ।

    उर्वशीलोकमन्विच्छन्सर्वदेवमयं हरिमू ॥

    ४७॥

    तेन--ऐसी अग्नि उत्पन्न करने से; अयजत--पूजा की; यज्ञ-ईशम्‌--यज्ञ के स्वामी की; भगवन्तम्‌-भगवान्‌; अधोक्षजम्‌--इन्द्रियोंकी अनुभूति से परे; उर्वशी-लोकम्‌--वह लोक जहाँ उर्वशी रहती थी; अन्विच्छन्‌--जाना चाहते हुए; सर्व-देव-मयम्‌--सभी देवताओंका आगार; हरिम्‌-- भगवान्‌ कोउर्वशी-लोक जाने के इच्छुक

    पुरुरवा ने उस अग्नि के द्वारा एक यज्ञ किया जिससे उसने यज्ञफलके भोक्ता भगवान्‌ हरि को तुष्ट किया।

    इस प्रकार उसने इन्द्रियानुभूति से परे एवं समस्त देवताओं केआगार भगवान्‌ की पूजा की।

    एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाड्मय: ।

    देवो नारायणो नानन्‍्य एकोडगिनिर्वर्ण एव च ॥

    ४८॥

    एक:--एकमात्र; एब--निस्सन्देह; पुरा--प्राचीन काल में; वेद:--दिव्य ज्ञान का ग्रंथ; प्रणव: --ओंकार; सर्व-बाक्‌-मय: --सारेवैदिक मंत्रों से युक्त; देव: --ईश्वर; नारायण:--एकमात्र नारायण ( सत्ययुग में पूज्य थे ); न अन्य:--अन्य कोई नहीं; एक: अग्नि:--अग्नि का केवल एक विभाग; वर्ण:--जीवन व्यवस्था, जाति; एव च--तथा निश्चय ही।

    प्रथम युग, सत्ययुग में, सारे वैदिक मंत्र एक ही मंत्र प्रणव में सम्मिलित थे जो सारे वैदिक मंत्रोंका मूल है।

    दूसरे शब्दों में अथर्ववेद ही समस्त वैदिक ज्ञान का स्त्रोत था।

    भगवान्‌ नारायण हीएकमात्र आराध्य थे और देवताओं की पूजा की संस्तुति नहीं की जाती थी।

    अग्नि केवल एक थीऔर मानव समाज में केवल एक वर्ण था जो हंस कहलाता था।

    पुरूरवस एवासीत्यी त्रेतामुखे नूप ।

    अग्निना प्रजया राजा लोकं गान्धर्वमेयिवान्‌ ॥

    ४९॥

    पुरूरवस:--राजा पुरुरवा से; एब--इस प्रकार; आसीतू-- था; त्रयी--कर्म, ज्ञान तथा उपासना के वैदिक सिद्धान्त; त्रेता-मुखे--त्रेतायुग के प्रारम्भ में; नृप--हे राजा परीक्षित; अग्निना--यज्ञ की अग्नि उत्पन्न करने से ही; प्रजया--अपने पुत्र द्वारा; राजा--पुरुरवाने; लोकम्‌--लोक को; गान्धर्वम्‌-गन्धर्वों के; एयिवानू--प्राप्त किया।

    हे महाराज परीक्षित, त्रेतायुग के प्रारम्भ में राजा पुरुरवा ने एक कर्मकाण्ड यज्ञ का सूत्रपातकिया।

    इस प्रकार यज्ञिक अग्नि को पुत्र मानने वाला पुरुरवा इच्छानुसार गन्धर्वलोक जाने में समर्थहुआ।

    TO

    अध्याय पंद्रह: परशुराम, भगवान के योद्धा अवतार

    9.15श्रीबादरायणिरुवाचऐलस्य चोर्वशीगर्भात्षडासन्नात्मजा नूप ।

    आयु: श्रुतायु: सत्यायू रयोथ विजयो जयः ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उबाच-- श्रील शुकेदव गोस्वामी ने कहा; ऐलस्थ--पुरुरवा के; च--भी; उर्वशी-गर्भात्‌ू--उर्वशी के गर्भ से; घट्‌ू--छ:; आसनू--थे; आत्मजा:--पुत्र; नृप--हे राजा परीक्षित; आयु:--आयु; श्रुतायु:-- श्रुतायु; सत्यायु:--सत्यायु; रथ: --रय; अथ--तथा; विजय:--विजय; जय: --जय |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा परीक्षित, पुरुरवा ने उर्वशी के गर्भ से छः पुत्र उत्पन्नकिये।

    उनके नाम थे--आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय तथा जय।

    श्रुतायोर्वसुमान्पुत्र: सत्यायोश्व श्रुतश्ञय: ।

    रयस्य सुत एकश्च जयस्य तनयोउमितः ॥

    २॥

    भीमस्तु विजयस्याथ काझ्जनो होत्रकस्ततः ।

    तस्य जह्ठुः सुतो गड्ढां गण्डूषीकृत्य योडपिबत्‌ ॥

    ३॥

    श्रुतायो: -- श्रुतायु का; वसुमान्‌--वसुमान; पुत्र:--पुत्र; सत्यायो: --सत्यायु का; च-- भी; श्रुतश्लय: -- श्रुतक्षय; रबस्य--रय का;सुतः--पुत्र; एक:--एक नामक; च--तथा; जयस्य--जय का; तनय:--पुत्र; अमित:--अमित; भीम:-- भीम; तु--निस्सन्देह;विजयस्य--विजय का; अथ--तत्पश्चात्‌; काझ्नन: --काझ्जन, भीम का पुत्र; होत्रक:--होत्रक; तत:--तब; तस्य--होत्रक का;जहुः--जह; सुत:--पुत्र; गड्ञामू--गंगा के सारे जल को; गण्डूषी-कृत्य--एक ही घूँट में; य:--जिसने; अपिबत्‌--पी लिया।

    श्रुतायु का पुत्र बसुमान हुआ, सत्यायु का पुत्र श्रुतक्लय हुआ, रय के पुत्र का नाम एक था, जयका पुत्र अमित था और विजय का पुत्र भीम हुआ।

    भीम का पुत्र काञ्जन, काञ्जन का पुत्र होत्रक औरहोत्रक का पुत्र जह्वु था जिसने एक ही घूँट में गंगा का सारा पानी पी लिया था।

    जह्लेस्तु पुरुस्तस्याथ बलाकश्चात्मजोजक: ।

    ततः कुशः कुशस्यापि कुशाम्बुस्तनयो वसुः ।

    कुशनाभश्च चत्वारो गाधिरासीत्कुशाम्बुज: ॥

    ४॥

    जह्नोः:--जह्ठ का; तु--निस्सन्देह; पुरुः--पुरु नामक; तस्थ--उसका; अथ--तत्पश्चात्‌; बलाक:--बलाक; च--तथा; आत्मज: --बलाक का पुत्र; अजक:--अजक; ततः--त्पश्चात्‌; कुश:--कुश; कुशस्थ--कुश का; अपि--तब; कुशाम्बु:-- कुशाम्बु;तनय:--तनय; वसु:--वसु; कुशनाभ: -- कुशनाभ; च--तथा; चत्वार:--चार पुत्र; गाधि: --गाधि; आसीत्‌-- था; कुशाम्बुज: --कुशाम्बुज का पुत्र।

    जह्ठ का पुत्र पुरु था, पुरु का बलाक, बलाक का अजक और अजक का पुत्र कुश हुआ।

    कुशके चार पुत्र हुए जिनके नाम थे कुशाम्बुज, तनय, वसु तथा कुशनाभ।

    कुशाम्बु का पुत्र गाधि था।

    तस्य सत्यवतीं कन्यामृचीको याचत द्विज: ।

    वर विसहशं मत्वा गाधिर्भार्गवमब्रवीत्‌ ॥

    ५॥

    एकतः एयामकर्णानां हयानां चन्द्रवर्चसाम्‌ ।

    सहस्त्रं दीयतां शुल्क॑ कन्याया: कुशिका वयम्‌ ॥

    ६॥

    तस्य--उस ( गाधि ) की; सत्यवतीम्‌ू--सत्यवती; कन्याम्‌--पुत्री को; ऋचीक:--महामुनि ऋचीक ने; अयाचत--विवाह के लिएमाँगा; द्विज:ः--ब्राह्मण; वरम्‌--पति रूप में; विसहशम्‌-- अनुपयुक्त; मत्वा--मानकर; गाधि:--राजा गाधि; भार्गवम्‌--ऋचीक से;अब्रवीत्‌ू--बोला; एकत:--एक; श्याम-कर्णानामू--जिसका कान काला हो; हयानाम्‌--घोड़ों का; चन्द्र-वर्चसाम्‌--चाँदनी साउज्चल; सहस्त्रमू--एक हजार; दीयताम्‌-दें; शुल्कम्‌--दहेज के रूप में; कन्याया:--मेरी कन्या को; कुशिका:--कुश के परिवारमें; वयम्‌--हम हैं ॥

    गाधि के एक पुत्री थी जिसका नाम सत्यवती था जिससे विवाह करने के लिए ऋचीक नामक ब्रह्मर्षि ने राजा से विनती की।

    किन्तु राजा गाधि ने इस ब्रह्मर्षि को अपनी पुत्री के लिए अयोग्य पतिसमझ कर उससे कहा, 'महोदय, मैं कुशवंशी हूँ।

    चूँकि हम लोग राजसी क्षत्रिय हैं अतएव आपकोमेरी पुत्री के लिए कुछ दहेज देना होगा।

    अतः आप कम से कम एक हजार ऐसे घोड़े लायें जोचाँदनी की तरह उज्वल हों और जिनके एक कान, दायाँ या बायाँ, काला हो।

    'इत्युक्तस्तन्मतं ज्ञात्वा गतः स वरुणान्तिकम्‌ ॥

    आनीय दत्त्वा तानश्वानुपयेमे वराननाम्‌ ॥

    ७॥

    इति--इस तरह; उक्त:--कहे जाने पर; ततू-मतम्‌--उसका विचार; ज्ञात्वा--जानकर; गत:--चला गया; सः--वह; वरुण-अन्तिकम्‌--वरुण लोक को; आनीय--लाकर; दत्त्वा--तथा देकर; तान्‌ू--उन; अश्वान्‌--घोड़ों को; उपयेमे--विवाह कर लिया;वर-आननामू्‌--राजा गाधि की सुमुखी पुत्री का

    जब राजा गाधि ने यह माँग पेश की तो महर्षि ऋचीक को राजा के मन की बात समझ में आगई।

    अतएव वह वरुणदेव के पास गया और वहाँ से गाधि द्वारा माँगे गये एक हजार घोड़े ले आया।

    इन घोड़ों को भेंट करके मुनि ने राजा की सुन्दर पुत्री के साथ विवाह कर लिया।

    स ऋषि: प्रार्थित: पत्या श्वश्वा चापत्यकाम्यया ।

    अ्रपयित्वो भयैर्मन्त्रैश्वरु स्नातुं गतो मुनि: ॥

    ८ ॥

    सः--वह ( ऋचीक ); ऋषि:--ऋषि; प्रार्थित: --प्रार्थना किये जाने पर; पत्या-- अपनी पत्नी द्वारा; श्रश्वा-- अपनी सास द्वारा; च--भी; अपत्य-काम्यया--पुत्र की इच्छा से; श्रपयित्वा--पकाकर; उभयैः--दोनों; मन्त्रै:--विशेष मंत्रोच्चार से; चरुम्‌--यज्ञ में आहुतिदेने के लिए खीर; स्नातुम्‌--स्नान करने के लिए; गतः--चला गया; मुनि:--मुनि |

    तत्पश्चात्‌ ऋचीक मुनि की पत्नी तथा सास दोनों ने पुत्र की इच्छा से मुनि से प्रार्थना की कि वहचरु ( आहुति ) तैयार करे।

    तब मुनि ने अपनी पत्नी के लिए ब्राह्मण मंत्र से एक चरू और क्षत्रिय मंत्रसे अपनी सास के लिए एक अन्य चरु तैयार किया।

    फिर वह स्नान करने चला गया।

    तावत्सत्यवती मात्रा स्वचरुं याचिता सती ।

    श्रेष्ठ मत्वा तयायच्छन्मात्रे मातुरदत्स्वयम्‌ ॥

    ९॥

    तावत्‌--इसी बीच; सत्यवती--ऋचीक पत्नी सत्यवती; मात्रा--अपनी माता से; स्व-चरुम्‌--अपने लिए तैयार की गई चरु;याचिता--माँगे जाने पर; सती--हो ने से; श्रेष्ठम्‌--उत्तम; मत्वा--सोचकर; तया--उसके द्वारा; अयच्छत्‌-- प्रदान किया गया; मात्रे--माता का; मातुः--माता का; अदत्‌ू--खाया; स्वयम्‌--स्वयं, खुद |

    इसी बीच सत्यवती की माता ने सोचा कि उसकी पुत्री के लिए तैयार की गई चरूु अवश्य हीश्रेष्ठ होगी अतएवं उसने अपनी पुत्री से वह चरु माँग ली।

    सत्यवती ने वह चरु अपनी माता को दे दीऔर स्वयं अपनी माता की चरु खा ली।

    तद्विदित्वा मुनि: प्राह पत्नीं कष्टमकारषी: ।

    घोरो दण्डधरः पुत्रो भ्राता ते ब्रह्मवित्तम: ॥

    १०॥

    तत्‌--यह तथ्य; विदित्वा--जानकर; मुनि:--मुनि ने; प्राह--कहा; पत्नीम्‌--अपनी पत्नी से; कष्टम्‌-- अत्यन्त दुखद; अकारषी:--तुमने कर डाला; घोर: -- भयानक; दण्ड-धरः--महापुरुष जो अन्यों को दण्ड दे सकता है; पुत्र:--ऐसा पुत्र; भ्राता-- भाई; ते--तुम्हारा; ब्रह्म-वित्तम: --अध्यात्म विद्या में पंडित

    जब ऋषि ऋचीक स्नान करके घर लौटे और उन्हें यह पता लगा कि उनकी अनुपस्थिति में क्याघटना घटी है तो उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती से कहा, 'तुमने बहुत बड़ी भूल की है।

    तुम्हारा पुत्रघोर क्षत्रिय होगा, जो हर एक को दण्ड दे सकेगा और तुम्हारा भाई अध्यात्म विद्या का पण्डितहोगा।

    प्रसादित: सत्यवत्या मैवं भूरिति भार्गव: ।

    अथ तर्हि भवेत्पौत्रो जमदग्निस्ततोभवत्‌ ॥

    ११॥

    प्रसादित: --शान्त किया गया; सत्यवत्या--सत्यवती द्वारा; मा--नहीं; एवम्‌--इस प्रकार; भू: --हो; इति--इस प्रकार; भार्गव:--ऋषि; अथ--यदि तुम्हारा पुत्र ऐसा न हुआ; तहिं--तो; भवेत्‌--होगा; पौत्र:--पोता; जमदग्नि:--जमदग्नि; ततः --त त्पश्चात्‌;अभवत्‌--उत्पन्न हुआ।

    किन्तु सत्यवती ने मधुर बचनों से ऋचीक मुनि को शान्त किया और प्रार्थना की कि उसका पुत्रक्षत्रिय की तरह भयंकर न हो।

    ऋचीक मुनि ने उत्तर दिया, 'तो तुम्हारा पौत्र क्षत्रिय गुणवालाहोगा।

    इस प्रकार सत्यवती के पुत्र रूप में जमदग्नि का जन्म हुआ।

    सा चाभूत्सुमहत्पुण्या कौशिकी लोकपावनी ।

    रेणोः सुतां रेणुकां वै जमदग्निसुवाह याम्‌ ॥

    १२॥

    तस्यां वै भार्गवऋषे: सुता वसुमदादयः ।

    यवीयाजञ्जज्ञ एतेषां राम इत्यभिविश्रुतः ॥

    १३॥

    सा--वह ( सत्यवती ); च--भी; अभूत्‌--हो गईं; सुमहत्‌-पुण्या--अत्यन्त महान्‌ एवं पवित्र; कौशिकी--कौशिकी नामक नदी;लोक-पावनी--समस्त संसार को पवित्र करने वाली; रेणो: --रेणु की; सुताम्‌--कन्या; रेणुकाम्‌--रेणुका को; बै--निस्सन्देह;जमदग्नि:--सत्यवती-पुत्र जमदग्नि ने; उवाह--विवाह कर लिया; याम्‌ू--जिससे; तस्याम्‌--रेणुका के गर्भ से; वै--निस्सन्देह;भार्गव-ऋषे: --जमदग्नि मुनि के वीर्य से; सुता:--कई पुत्र; बसुमत्‌-आदय: --वसुमान इत्यादि; यवीयान्‌ू--सबसे छोटा; जन्ने --उत्पन्नहुआ; एतेषाम्‌--उनमें से; राम: --परशुराम; इति--इस प्रकार; अभिविश्रुतः--विश्वविख्यात |

    बाद में सत्यवती समस्त संसार को पवित्र करने वाली कौशिकी नामक पुण्य नदी बन गई और उसके पुत्र जमदग्नि ने रेणु की पुत्री रेणुका से विवाह किया।

    जमदग्नि के वीर्य से रेणुका की कुक्षिसे वसुमान इत्यादि कई पुत्र हुए जिनमें से राम या परशुराम सबसे छोटा था।

    यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलान्तकम्‌ ।

    त्रिःसप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्रियां महीम्‌ ॥

    १४॥

    यम्‌--जिसको; आहुः--सारे विद्वान कहते हैं; वासुदेव-अंशम्‌-- भगवान्‌ वासुदेव का अवतार; हैहयानाम्‌-हैहयों के; कुल-अन्तकम्‌--कुल का विनाशकर्ता; त्रि:-सप्त-कृत्व:--इक्कीस बार; यः--जिसने ( परशुराम ); इमाम्‌--इस; चक्रे --बनाया;निःक्षत्रियाम्--क्षत्रियविहीन; महीम्‌--पृथ्वी को |

    विद्वान लोग इस परशुराम को भगवान्‌ वासुदेव का विख्यात अवतार मानते हैं जिसने कार्तवीर्यके वंश का विनाश किया।

    परशुराम ने पृथ्वी के सभी क्षत्रियों का इक्कीस बार वध किया।

    हप्तं क्षत्रं भुवो भारमब्रह्मण्यमनीनशत्‌ ।

    रजस्तमोवृतमहन्फल्गुन्यपि कृतेडहसि ॥

    १५॥

    हप्तम्‌-- अत्यन्त गर्वित; क्षत्रमू--श्षत्रियों को; भुवः--पृथ्वी के; भारम्‌-- भार को; अब्नह्मण्यम्‌--पापी, ब्राह्मणों के बनाये धार्मिकनियमों की परवाह न करने वाले; अनीनशत्‌--निकाल दिया या विनष्ट कर दिया; रज:-तम:--रजो तथा तमो गुणों से; वृतमू--ढकेहुए; अहन्‌ू--मार डाला; फल्गुनि--बहुत बड़े नहीं; अपि--यद्यपि; कृते--किया गया; अंहसि--अपराध |

    जब राजवंश रजो तथा तमो गुणों के कारण अत्यधिक गर्वित होकर अधार्मिक बन गया औरब्राह्मणों द्वारा बनाये गये नियमों की परवाह न करने लगा तो परशुराम ने उन सबको मार डाला।

    यद्यपि उनके अपराध बहुत बड़े न थे, किन्तु धरती का भार कम करने के लिए उन्होंने उन्हें मारडाला।

    श्रीराजोबवाचकि तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभि: ।

    कृतं येन कुल नष्ट क्षत्रियाणामभीक्ष्णश: ॥

    १६॥

    श्री-राजा उवाच--महाराज परीक्षित ने पूछा; किम्‌ू--क्या; तत्‌ अंह:--वह अपराध; भगवतः --भगवान्‌ के प्रति; राजन्यै:--राजपरिवार द्वारा; अजित-आत्मभि:--जो अपनी इन्द्रियों को वश में न कर सकने के कारण पतित हो गये; कृतम्‌--किया गया; येन--जिससे; कुलमू--कुल; नष्टम्‌--नष्ट हो गया; क्षत्रियाणाम्‌--राजवंश का; अभीक्षणश:--पुनः पुनः |

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा: अपनी इन्द्रियों को वश में न रख सकने वालेराजाओं का वह कौन सा अपराध था जिसके कारण भगवान्‌ के अवतार परशुराम ने क्षत्रियवंश काबारम्बार विनाश किया ?

    श्रीबादरायणिरुवाचहैहयानामधिपतिरर्जुन: क्षत्रियर्षभ: ।

    दत्तं नारायणांशांशमाराध्य परिकर्मभि: ॥

    १७॥

    बाहून्दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु ।

    अव्याहतेन्द्रियौज: श्रीतेजोवीर्ययशोबलम्‌ ॥

    १८ ॥

    योगेश्वरत्वमैश्वर्य गुणा यत्राणिमादयः ।

    चचाराव्याहतगतिलेकिषु पवनो यथा ॥

    १९॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया; हैहयानाम्‌ अधिपति:--हैहयों का राजा; अर्जुन: --कार्तवीर्यार्जुन;क्षत्रिय-ऋषभ: --क्षत्रियों में सर्वश्रेष्ठ; दत्तम्‌--दत्तात्रेय को; नारायण-अंश-अंशम्‌--नारायण के अंशांश को; आराध्य--पूजा करके;परिकर्मभि: --विधि-विधान के अनुसार पूजा द्वारा; बाहूनू--बाँहें; दश-शतम्‌--एक हजार ( दस सौ ); लेभे--प्राप्त कीं;दुर्धर्षत्वम्‌--कठिनाई से जीते जाने का गुण; अरातिषु--शत्रुओं के मध्य; अव्याहत--अपराजेय; इन्द्रिय-ओज:--इन्द्रियों की शक्ति;श्री--सौन्दर्य; तेज:--प्रताप प्रभाव; वीर्य--शक्ति; यशः--यश; बलमू्‌--शारीरिक बल; योग-ईश्वरत्वम्‌--योगशक्ति के द्वारा अर्जितईश्वरत्व; ऐश्वर्यम्‌--ऐश्वर्य; गुणा:--गुण; यत्र--जहाँ; अणिमा-आदय:--आठ सिद्ध्रियाँ ( अणिमा, लधिमा इत्यादि ) ); चचार--गया; अव्याहत-गति:ः--जिसकी प्रगति न थकने वाली थी; लोकेषु--सारे विश्व में; पवन: --वायु; यथा--के समान।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : क्षत्रियश्रेष्ठ हैहयराज कार्तवीर्यार्जुन ने भगवान्‌ नारायण के स्वांशदत्तात्रेय की पूजा करके एक हजार भुजाएँ प्राप्त कीं।

    वह शत्रुओं द्वारा अपराजेय बन गया और उसेअव्याहत इन्द्रिय शक्ति, सौन्दर्य, प्रभाव, बल, यश तथा अणिमा, लघिमा जैसी आठ योग सिद्धियाँप्राप्त करने की योग शक्ति मिल गई।

    इस तरह पूर्ण ऐश्वर्यशशाली बनकर वह सारे संसार में वायु कीतरह बेजोड़ बनकर घूमने लगा।

    स्त्रीरत्नैरावृतः क्रीडत्रेवाम्भसि मदोत्कट: ।

    वैजयन्तीं स्त्रजं बिभ्रद्ररोध सरितं भुजै: ॥

    २०॥

    स्त्री-रत्नैः--सुन्दर स्त्रियों द्वारा; आवृतः--घिरा हुआ; क्रीडन्‌-- भोगरत; रेवा-अम्भसि--रेवा या नर्मदा नदी के जल में; मद-उत्कट:--ऐश्वर्य से अत्यन्त गर्वित होकर; बैजयन्तीम्‌ सत्रजमू--विजय की माला से; बिभ्रत्‌ू--सुशोभित; रुरोध-- प्रवाह को रोक दिया;सरितम्‌--नदी के; भुजैः--अपनी भुजाओं से |

    एक बार नर्मदा नदी के जल में क्रीड़ा करते हुए सुन्दरी स्त्रियों से घिरे एवं विजय की मालाधारण किये हुए गर्वोन्नत कार्तवीर्यार्जुन ने अपनी बाँहों से जल के प्रवाह को रोक दिया।

    विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिसत्रोत:सरिज्जलै: ।

    नामृष्यत्तस्य तद्वीर्य वीरमानी दशानन: ॥

    २१॥

    विप्लावितम्‌--जलमग्न करके; स्व-शिबिरम्‌--अपने ही खेमे को; प्रतिस्त्रोत:--विपरीत दिशा में बहने वाले; सरित्‌-जलैः--नदी केजल से; न--नहीं; अमृष्यत्‌--सहन कर सका; तस्य--कार्तवीर्यार्जुन का; तत्‌ वीर्यमू--वह प्रभाव; वीरमानी --अपने को वीर माननेवाला; दश-आनन:ः--दस शिरों वाला रावण

    चूँकि कार्तवीर्यार्जुन ने जलप्रवाह की दिशा पलट दी थी अतः नर्मदा नदी के तट पर महिष्मतीनगर के निकट रावण का लगा खेमा जलमग्न हो गया।

    यह दससिरों वाले रावण के लिए असहाय होउठा क्योंकि वह अपने को महान्‌ वीर मानता था और वह कार्तवीर्यार्जुन के बल को सहन नहीं करसका।

    गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्ष कृतकिल्बिष: ।

    माहिष्मत्यां सन्निरुद्धो मुक्तो येन कपिर्यथा ॥

    २२॥

    गृहीत:--बलपूर्वक बन्दी बनाया गया; लीलया--आसानी से; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों की; समक्षम्‌--उपस्थिति में; कृत-किल्बिष: --अपराधी होने के कारण; माहिष्मत्याम्‌ू--माहिष्मती नामक नगर में; सन्निरुद्ध:--बन्दी बनाया गया; मुक्त:--छोड़ा गया; येन--जिसके( कार्तवीर्यार्जुन के ) द्वारा; कपि: यथा--जिस प्रकार बन्दर छोड़ दिया जाय।

    जब रावण ने स्त्रियों के समक्ष कार्तवीर्यार्जुन का अपमान करना चाहा और उसे नाराज कर दियातो उसने रावण को खेल-खेल में उसी प्रकार बन्दी बनाकर माहिष्मती नगर के कारागार में डालदिया जिस प्रकार कोई बन्दर को पकड़ ले।

    बाद में उसने परवाह किए बिना उसे मुक्त कर दिया।

    स एकदा तु मृगयां विचरन्विजने वने ।

    यहच्छया श्रमपदं जमदग्नेरुपाविशत्‌ ॥

    २३॥

    सः--वह, कार्तवीर्यार्जुन; एकदा--एक बार; तु--लेकिन; मृगयाम्‌--शिकार करते हुए; विचरन्‌--घूमते हुए; विजने--एकान्त;वबने--वन में; यहच्छया--किसी कार्यक्रम के बिना; आश्रम-पदम्‌--रिहायशी स्थान में; जमदग्ने:--जमदग्नि मुनि के; उपाविशत्‌--घुस गया।

    एक बार जब कार्तवीर्यार्जुन बिना किसी कार्यक्रम के एकान्त जंगल में घूमकर शिकार कर रहाथा तो वह जमदग्नि के निवास के निकट पहुँचा।

    तस्मै स नरदेवाय मुनिर्हणमाहरत्‌ ।

    ससैन्यामात्यवाहाय हविष्मत्या तपोधन: ॥

    २४॥

    तस्मै--उस; सः--उस ( जमदग्नि ); नरदेवाय--राजा कार्तवीर्यार्जुन को; मुनि:--मुनि ने; अहणम्‌--पूजा की सामग्री; आहरतू--प्रदान की; स-सैन्च--सेना समेत उसको; अमात्य--उसके मंत्रियों को; वाहाय--तथा रथों, हाथियों, घोड़ों या पालकी वाहकों को;हविष्मत्या--कामधेनु रखने के कारण; तपः-धन:ः--मुनि, जिसकी तपस्या ही उसका धन था, अथवा जो तपस्या में लगा था|

    जंगल में कठिन तपस्या में रत ऋषि जमदग्नि ने सैनिकों, मंत्रियों तथा पालकी वाहकों समेत राजा का अच्छी तरह स्वागत किया।

    उन्होंने इन अतिथियों को पूजा करने की सारी सामग्री जुटाईक्योंकि उनके पास कामधेनु गाय थी जो हर वस्तु प्रदान करने में सक्षम थी।

    सबै रल॑ तु तहूष्ठा आत्मैश्वर्यातिशायनम्‌ ।

    तन्नाद्रियताग्निहोत््यां साभिलाष: सहैहय: ॥

    २५॥

    सः--वह ( कार्तवीर्यार्जुन ); वै--निस्सन्देह; रलम्‌--सम्पत्ति के स्त्रोत को; तु--निस्सन्देह; तत्‌--जमदग्नि की कामधेनु; हृध्ठा--देखकर; आत्म-ऐश्वर्य--निजी ऐश्वर्य; अति-शायनम्‌--अतिशय; तत्‌--वह; न--नहीं; आद्रियत--अत्यधिक प्रशंसा की;अग्निहोत्रयामू--उस गाय में जो अग्निहोत्र यज्ञ करने के लिए अत्यन्त लाभदायक थी; स-अभिलाष:--इच्छुक; स-हैहयः--हैहयवंशी,अपने व्यक्तियों सहित।

    कार्तवीर्यार्जुन ने सोचा कि जमदग्नि उसकी तुलना में अधिक शक्तिशाली एवं सम्पन्न है क्योंकिउसके पास कामधेनु रूपी रल है अतएवं उसने तथा उसके हैहयजनों ने जमदग्नि के सत्कार कीअधिक प्रशंसा नहीं की।

    उल्टे, वे उस कामधेनु को लेना चाहते थे जो अग्निहोत्र यज्ञ के लिएलाभदायक थी।

    हविर्धानीमृषेर्दर्पान्नरान्हर्तुमचोदयत्‌ ।

    ते च माहिष्मतीं निन्युः सवत्सां क्रन्दतीं बलात्‌ ॥

    २६॥

    हृविः-धानीम्‌ू--कामधेनु को; ऋषे: --ऋषि जमदग्नि की; दर्पात्‌ू-- भौतिक शक्ति से गर्वित होने से; नरान्‌ू--अपने सारे आदमियों( सैनिकों ) को; हर्तुम्‌--चुरा या ले जाने के लिए; अचोदयत्‌--प्रोत्साहित किया; ते--वे; च-- भी; माहिष्मतीम्‌-कार्तवीर्यार्जुन कीराजधानी में; निन्यु:ः--ले आये; स-वत्साम्‌ू--उसके बछड़े समेत; क्रन्दतीम्‌-रोती हुई को; बलात्‌ू--बलपूर्वक, जबरन |

    भौतिक शक्ति से गर्वित कार्तवीर्यार्जुन ने अपने व्यक्तियों को जमदग्नि की कामधेनु चुरा लेने केलिए प्रेरित किया।

    फलतः वे व्यक्ति रोती-विलपती कामधेनु को उसके बछड़े समेत बलपूर्वक कार्तवीर्यार्जुन की राजधानी माहिष्मती ले आये।

    अथ राजनि निर्याते राम आश्रम आगत: ।

    श्र॒त्वा तत्तस्य दौरात्म्यं चुक्रोधाहिरिवाहत: ॥

    २७॥

    अथ--त्पश्चात्‌; राजनि--राजा के; निर्याते--चले जाने पर; राम:--जमदग्नि का सबसे छोटा पुत्र परशुराम; आश्रमे--आ श्रम में;आगतः--वापस आया श्रुत्वा--सुनकर; तत्‌--जो; तस्य--कार्त वीर्यार्जुन का; दौरात्म्यम्‌-दुष्कर्म; चुक्रोध--अत्यन्त क्रुद्ध हुआ;अहिः--साँप; इब--सहृश; आहतः--कुचले जाने पर या चोट खाने पर

    जब कामधेनु सहित कार्तवीर्यार्जुन चला गया तो जमदग्नि का सबसे छोटा पुत्र परशुराम आश्रममें लौटा।

    जब उसने कार्तवीर्यार्जुन के दुष्कर्म के विषय में सुना तो वह कुचले हुए साँप की तरह क्रुद्धहो उठा।

    घोरमादाय परशुं सतूणं वर्म कार्मुकम्‌ ।

    अन्वधावत दुर्मर्षो मृगेन्द्र इव यूथपम्‌ ॥

    २८॥

    घोरम्‌--अत्यन्त भयानक; आदाय--हाथ में लेकर; परशुम्‌--फरसा; स-तृणम्‌--तूणीर सहित; वर्म--ढाल; कार्मुकम्‌-- धनुष;अन्वधावत--पीछा किया; दुर्मर्ष: --अत्यधिक क्रोध में भरे परशुराम ने; मृगेन्द्रः--सिंह; इब--सहृश; यूथपम्‌--हाथी पर ( आक्रमणकरने के लिए )

    अपना भयानक फरसा, ढाल, धनुष तथा तरकस लेकर अत्यधिक क्रुद्ध परशुराम नेकार्तवीर्यार्जुन का पीछा किया जिस तरह सिंह हाथी का पीछा करता है।

    तमापतन्तं भूगुवर्यमोजसाधनुर्धरं बाणपरश्रधायुधम्‌ ।

    ऐणेयचर्माम्बरमर्क धामभि-युत॑ जटाभिर्ददृशे पुरीं विशन्‌ ॥

    २९॥

    तम्‌--उस; आपतन्तम्‌-पीछा करते; भृगु-वर्यम्‌--भूगुवंशी भगवान्‌ परशुराम को; ओजसा--अत्यन्त दारुण; धनुः-धरम्‌-- धनुषधारण किये; बाण--बाण; परश्रध--फरसा; आयुधम्‌--इन सारे हथियारों को; ऐणेय-चर्म--श्याम हिरन की खाल; अम्बरम्‌--अपने शरीर को ढके; अर्क-धामभि: --सूर्य प्रकाश की भाँति प्रकट होकर; युतम्‌ जटाभि:--जटाओं से युक्त; ददशे -- उसने देखा;पुरीम्‌--राजधानी में; विशन्‌--प्रवेश करते हुए।

    अभी राजा कार्तवीर्यार्जुन अपनी राजधानी माहिष्मती पुरी में प्रवेश कर ही रहा था कि उसनेभूगुवंशियों में श्रेष्ठ भगवान्‌ परशुराम को फरसा, ढाल, धनुष तथा बाण लिए अपना पीछा करतेदेखा।

    परशुरामजी ने काले हिरन की खाल पहन रखी थी और उनका जटाजूट सूर्य के तेज जैसाप्रतीत हो रहा था।

    अचोदयद्धस्तिरथा श्रपत्तिभि-गंदासिबाणए्टिशतघध्निशक्तिभि: ।

    अक्षौहिणी: सप्तदशातिभीषणा-सता राम एको भगवानसूदयत्‌ ॥

    ३०॥

    अचोदयत्‌--लड़ने के लिए भेजा; हस्ति--हाथी; रथ--रथ; अश्व--घोड़े; पत्तिभि:--पैदल सेना समेत; गदा--गदा; असि--तलवार;बाण--बाण; ऋष्टि--ऋष्टि नामक औजार; शतध्नि--शतध्नि नामक हथियार; शक्तिभि:--तथा शक्ति नामक हथियार से;अक्षौहिणी:--अक्षौहिणी; सप्त-दश--सत्रह; अति-भीषणा: --अत्यन्त भयानक; ताः:--उन सबों को; राम:--परशुराम ने; एक:--अकेले; भगवान्‌-- भगवान्‌; असूदयत्‌--मार डाला

    परशुराम को देखते ही कार्तवीर्यार्जुन डर गया और उसने तुरन्त ही उनसे युद्ध करने के लिए अनेक हाथी, रथ, घोड़े तथा पैदल सैनिक भेजे जो गदा, तलवार, बाण, ऋष्टि, शतघध्नि, शक्तिइत्यादि विविध हथियारों से युक्त थे।

    उसने परशुराम को रोकने के लिए पूरे सत्रह अक्षौहिणी सैनिकभेजे, किन्तु भगवान्‌ परशुराम ने अकेले ही सबों का सफाया कर दिया।

    यतो यतोसौ प्रहरत्परश्रधोमनोनिलौजा: परचक्रसूदन: ।

    ततस्ततश्छिन्नभुजोरुकन्धरानिपेतुरुर्व्या हतसूतवाहना: ॥

    ३१॥

    यतः--जहाँ; यतः--जहाँ; असौ-- भगवान्‌ परशुराम; प्रहरत्‌-- प्रहार करते हुए; परश्रध:--परशु नामक हथियार चलाने में निपुण;मनः--मन की तरह; अनिल--वायु की तरह; ओजा:--शक्तिशाली; पर-चक्र--शत्रु की सैन्य शक्ति का; सूदन:--वध करने वाला;ततः--वहाँ; ततः--वहाँ; छिन्न--कटकर तितर-बितर; भुज--बाहें; ऊरू--पाँव; कन्धरा:--धड़; निपेतु:--गिर पड़े; उर्व्याम्‌--पृथ्वीपर; हत--मारे हुए; सूत--सारथी; वाहना:--घोड़े तथा हाथी की सवारियाँ।

    शत्रु की सेना को मारने में कुशल भगवान्‌ परशुराम ने मन तथा वायु की गति से काम करते हुएअपने फरसे से शत्रुओं के टुकड़े कर दिये।

    वे जहाँ-जहाँ गये सारे शत्रु खेत होते रहे, उनके पाँव, हाथतथा धड़ अलग-अलग हो गये, उनके सारथी मार डाले गये और उनके वाहन, हाथी तथा घोड़े सभीविनष्ट कर दिये गये।

    इृष्ठा स्वसैन्यं रुधिरौघकर्दमेरणाजिरे रामकुठारसायकै: ।

    विवृक्‍णवर्मध्वजचापविग्रहं निपातितं हैहय आपतद्गुषा ॥

    ३२॥

    इहृष्ठा--देखकर; स्व-सैन्यम्‌-- अपने सैनिकों को; रुधिर-ओघ-कर्दमे--रक्त बहने से गँदले हुए; रण-अजिरे--युद्धभूमि में; राम-कुठार-- भगवान्‌ परशुराम के फरसे से; सायकै:--बाणों से; विवृकण--तितर-बितर; वर्म--ढाल; ध्वज-- ध्वजा; चाप-- धनुष;विग्रहम्‌ू--शरीर; निपातितम्‌--गिरे हुए; हैहबः--कार्तवीर्यार्जुन; आपतत्‌--तेजी से वहाँ आया; रुषा--क्रोध से |

    अपने फरसे तथा बाणों को व्यवस्थित करके परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन के सिपाहियों की ढालों,उनके झंडों, धनुषों तथा उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले जो युद्धभूमि में गिर गये औरजिनके रक्त से भूमि पंकिल हो गई।

    अपनी पराजय होते देखकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर कार्तवीर्यार्जुनयुद्धभूमि की ओर लपका।

    अथार्जुन: पञ्नशतेषु बाहुभिर्‌धनु:घु बाणान्युगपत्स सन्दधे ।

    रामाय रामोस्त्रभृतां समग्रणी-स्तान्येकधन्वेषुभिराच्छिनत्समम्‌ ॥

    ३३॥

    अथ--तत्पश्वात्‌; अर्जुन:--कार्त वीर्यार्जुन; पञ्ञ-शतेषु-- पाँच सौ; बाहुभि:--अपनी बाहुओं से; धनु:षु-- धनुषों पर; बाणानू--बाणोंको; युगपत्‌--एकसाथ; सः--उसने; सन्दधे--स्थिर किया; रामाय--परशुराम को मारने के लिए; राम:--परशुराम ने; अस्त्र-भृताम्‌--अस्त्र प्रयोग करने वाले सारे सैनिकों में से; समग्रणी:--सर्व प्रमुख; तानि--कार्तवीर्यार्जुन के सारे बाण; एक-धन्वा--एकधनुषधारी; इषुभि:--बाणों से; आच्छिनत्‌--टुकड़े कर डाले; समम्‌--के साथ।

    तब कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम को मारने के लिए एक हजार भुजाओं में एकसाथ पाँच सौ धनुषोंपर बाण चढ़ा लिए।

    किन्तु श्रेष्ठ लड़ाकू भगवान्‌ परशुराम ने एक ही धनुष से इतने बाण छोड़े किकार्तवीर्यार्जुन के हाथों के सारे धनुष तथा बाण तुरन्त कटकर टुकड़े-टुकड़े हो गये।

    पुनः स्वहस्तैरचलान्मृधेड्प्रिपा-नुत्क्षिप्प वेगादभिधावतो युधि ।

    भुजान्कुठारेण कठोरनेमिनाचिच्छेद राम: प्रसभं त्वहेरिव ॥

    ३४॥

    पुनः--फिर; स्व-हस्तैः-- अपने हाथों से; अचलानू--पर्वतों को; मृथे--युद्धभूमि में; अद्धध्रिपान्‌-- वृक्षों को; उत्क्षिप्प--उखाड़ कर;वेगात्‌--वेग से; अभिधावत:--तेजी से दौते हुए; युधि--युद्धभूमि में; भुजानू--सारी भुजाएँ; कुठारेण--अपने फरसे से; कठोर-नेमिना--अत्यन्त तीक्षण; चिच्छेद--काट डाला; राम: --परशुराम ने; प्रसभम्‌--अत्यन्त वेग से; तु--लेकिन; अहे: इब--सर्प के फनोंकी भाँति

    जब कार्तवीर्यार्जुन के बाण छिन्न-भिन्न हो गये तो उसने अपने हाथों से अनेक वृक्ष तथा पर्वतउखाड़ लिये और वह फिर से परशुरामजी को मारने के लिए उनकी ओर तेजी से दौ।

    किन्तु परशुरामने अपने फरसे से अत्यन्त वेग से कार्तवीर्यार्जुन की भुजाएँ काट लीं जिस तरह कोई सर्प के फनों कोकाट ले।

    कृत्तबाहोः शिरस्तस्य गिरे: श्रृद्रमिवाहरत्‌ ।

    हते पितरि तत्पुत्रा अयुतं दुद्गुवर्भभात्‌ ॥

    ३५॥

    अग्निहोत्रीमुपावर्त्य सवत्सां परवीरहा ।

    समुपेत्या श्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत्‌ ॥

    ३६॥

    कृत्त-बाहो:--बाँह कटे कार्तवीर्यार्जुन का; शिर:--शिर; तस्य--उसका; गिरे:--पर्वत की; श्रूड़मू--चोटी; इब--सहृश; आहरत्‌--( परशुराम ने ) उसके शरीर से काट लिया; हते पितरि--अपने पिता के मारे जाने पर; ततू-पुत्रा:--उसके पुत्र; अयुतम्‌--दस हजार;दुद्वुबु:-- भाग गये; भयात्‌-- डर के मारे; अग्निहोत्रीम्‌--कामधेनु को; उपावर्त्य--पास लाकर; स-वत्साम्‌--बछडे सहित; पर-वीर-हा--शत्रुओं के वीरों को मारने वाले परशुराम; समुपेत्य--लौटकर; आश्रमम्‌ू--अपने पिता के आवास में; पित्रे--पिता को;परिक्लिष्टाम्‌--अत्यधिक कष्ट पाई हुई; समर्पयत्‌--लाकर दे दिया

    तत्पश्चात्‌ परशुराम ने बाँह-कटे कार्तवीर्यार्जुन के सिर को पर्वतश्ग के समान काट लिया।

    जबकार्तवीर्यार्जुन के दस हजार पुत्रों ने अपने पिता को मारा गया देखा तो वे सब डर के मारे भाग गये।

    तब शत्रु का वध करके परशुराम ने कामधेनु को छुड़ाया, जिसे काफी कष्ट मिल चुका था और वेउसे बछड़े समेत अपने घर ले आये तथा उसे अपने पिता जमदग्नि को दे दिया।

    स्वकर्म तत्कृतं राम: पित्रे भ्रातृभ्य एवच ।

    वर्णयामास तच्छुत्वा जमदग्निभाषत ॥

    ३७॥

    स्व-कर्म--अपना कार्य; तत्‌ू--वे सारे कर्म; कृतम्‌--जो किये जा चुके थे; राम:--परशुराम ने; पित्रे--अपने पिता से; भ्रातृभ्य:--अपने भाइयों से; एव च--तथा; वर्णयाम्‌ आस--वर्णन किया; तत्‌--वह; श्रुत्वा--सुनकर; जमदग्नि:--परशुराम के पिता ने;अभाषत--इस प्रकार कहा

    परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन के वध सम्बन्धी अपने कार्यकलापों का वर्णन अपने पिता तथाभाइयों से किया।

    इन कार्यों को सुनकर जमदग्नि अपने पुत्र से इस प्रकार बोले।

    राम राम महाबाहो भवान्पापमकारषीत्‌ ।

    अवधीन्नरदेवं यत्सर्वदेवमयं वृथा ॥

    ३८॥

    राम राम-हे प्रिय पुत्र परशुराम; महाबाहो--हे महान्‌ वीर; भवान्‌--तुमने; पापम्‌--पापपूर्ण कृत्य; अकारषीतू--किया है;अवधीतू--मार डाला है; नरदेवम्‌--राजा को; यत्‌--जो; सर्व-देव-मयम्‌--सारे देवताओं के मूर्तरूप; वृथा--व्यर्थ ही |

    हे वीर, हे पुत्र परशुराम, तुमने व्यर्थ ही राजा को मार डाला है क्योंकि वह सारे देवताओं कामूर्तरूप माना जाता है।

    इस प्रकार तुमने पाप किया है।

    वबयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयाहणतां गता: ।

    यया लोकगुरुदेंव: पारमेछ्यमगात्पदम्‌ ॥

    ३९॥

    वयम्‌--हम; हि--निस्सन्देह; ब्राह्मणा:--योग्य ब्राह्मण हैं; तात--हे पुत्र; क्षमया--क्षमा के गुण से; अहणताम्‌ू--पूजनीय होने का'पद; गताः--हमने प्राप्त किया है; यया--इस योग्यता से; लोक-गुरु:--इस ब्रह्माण्ड के गुरु; देव:--ब्रह्मा ने; पारमेष्ठयम्‌--इस संसारके भीतर परम पुरुष; अगातू--प्राप्त किया; पदम्‌--पद को

    हे पुत्र, हम सभी ब्राह्मण हैं और अपनी क्षमाशीलता के कारण जनसामान्य के लिए पूज्य बने हुएहैं।

    इस गुण के कारण ही इस ब्रह्माण्ड के परम गुरु ब्रह्माजी को उनका पद प्राप्त हुआ है।

    क्षमया रोचते लक्ष्मीब्राह्मी सौरी यथा प्रभा ।

    क्षमिणामाशु भगवांस्तुष्यते हरिरीश्वर: ॥

    ४०॥

    क्षमया--केवल क्षमा के कारण; रोचते--रोचक बनता है; लक्ष्मी:--लक्ष्मी जी; ब्राह्मी--ब्राह्मणों के गुणों से; सौरी--सूर्यदेव;यथा--जिस तरह; प्रभा--प्रकाश; क्षमिणाम्‌--क्षमाशील ब्राह्मणों से; आशु--शीघ्र ही; भगवान्‌-- भगवान्‌; तुष्यते--प्रसन्न हो जातेहैं; हरिः--हरि; ईश्वर: --परम नियन्ता |

    ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे क्षमाशीलता के गुण का संवर्धन करें क्योंकि यह सूर्य के समानतेजवान है।

    भगवान्‌ हरि क्षमाशील व्यक्तियों से प्रसन्न होते हैं।

    राज्ञो मूर्धाभिषिक्तस्य वधो ब्रह्मवधादगुरु: ।

    तीर्थसंसेवया चांहो जह्मड्राच्युतचेतन: ॥

    ४१॥

    राज्ञ:--राजा का; मूर्थ-अभिषिक्तस्थ--जो सम्राट के नाम से विख्यात है; वध:--वध, हत्या; ब्रह्म-बधात्‌--ब्राह्मण की हत्या कीअपेक्षा; गुरु:--अत्यन्त कठोर; तीर्थ-संसेवया--तीर्थस्थानों की पूजा करके; च-- भी; अंह:--पापकर्म; जहि--धो डालो; अड्ग--हेप्रिय पुत्र; अच्युत-चेतन:--पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होकर।

    हे प्रिय पुत्र, एक सप्राट का वध ब्राह्मण की हत्या से भी अधिक पापमय है।

    किन्तु अब यदि तुमकृष्णभावनाभावित होकर तीर्थस्थानों की पूजा करो तो इस महापाप का प्रायश्चित हो सकता है।

    TO

    अध्याय सोलह: भगवान परशुराम विश्व के शासक वर्ग को नष्ट कर देते हैं

    9.16श्रीशुक उबाचपित्रोपशिक्षितो रामस्तथेति कुरुनन्दन ।

    संकत्सरंतीर्थयात्रां चरित्वाश्रममात्रजत्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; पित्रा--अपने पिता द्वारा; उपशिक्षित:--शिक्षा दिये जाने पर; राम:--परशुराम;तथा इति--एवमस्तु; कुरु-नन्दन--हे कुरुवंशी महाराज परीक्षित; संवत्सरम्‌--एक वर्ष तक; तीर्थ-यात्राम्‌--सारे तीर्थस्थलों कीयात्रा; चरित्वा--सम्पन्न करके; आश्रमम्‌--अपने आश्रम में; आब्रजत्‌--लौटा |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंशी, जब भगवान्‌ परशुराम को उनकेपिता ने यह आदेश दिया तो उन्होंने तुरन्त ही यह कहते हुए उसे स्वीकार किया, 'ऐसा ही होगा।

    ' वेएक वर्ष तक तीर्थस्थलों की यात्रा करते रहे।

    तत्पश्चात्‌ वे अपने पिता के आश्रम में लौट आये।

    कदाचिद्रेणुका याता गड्भायां पद्ममालिनम्‌ ।

    गन्धर्वराजं क्रीडन्तमप्सरोभिरपश्यत ॥

    २॥

    कदाचित्‌--एक बार; रेणुका--परशुराम की माता एवं जमदग्नि की पत्नी; याता--गई; गड्भायाम्‌--गंगा नदी के तट पर; पद्ममालिनम्‌ू--कमल के फूल की माला से अलंकृत; गन्धर्व-राजम्‌--गन्धर्वों के राजा; क्रीडन्तम्‌--विहार करते; अप्सरोभि: --अप्सराओंके साथ; अपश्यत--देखा |

    एक बार जब जमदग्नि की पत्नी रेणुका गंगा नदी के तट पर पानी भरने गई तो उन्होंने कमल-'फूल की माला से अलंकृत तथा अप्सराओं के साथ गंगा में विहार करते गन्धर्वों के राजा को देखा।

    विलोकयन्ती क्रीडन्तमुदकार्थ नदीं गता ।

    होमवेलां न सस्मार किज्ञिच्चित्ररथस्पृहा ॥

    ३॥

    विलोकयन्ती--देखते हुए; क्रीडन्तम्‌ू--क्रीड़ा करते हुए; उदक-अर्थम्‌--कुछ जल लेने के लिए; नदीम्‌--नदी पर; गता--गई; होम-वेलाम्‌ू--होम करने की वेला में; न सस्मार--याद नहीं रही; किल्जित्‌-- थोड़ा; चित्ररथ--गन्धर्व राज चित्ररथ; स्पृहा--संसर्ग कीइच्छा की

    वह गंगा नदी से जल लाने गई थी, किन्तु जब उसने गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथविहार करते देखा तो वह उसकी ओर उन्मुख सी हुई और यह भूल ही गई कि अग्निहोत्र का समयबीत रहा है।

    कालात्ययं तं विलोक्य मुने: शापविशद्डिता ।

    आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृताझ्जलि: ॥

    ४॥

    काल-अत्ययम्‌--समय बिताते; तम्‌--उसको; विलोक्य--देखकर; मुने:--जमदग्नि के; शाप-विशद्धिता--शाप के भय से;आगत्य--लौटकर; कलशम्‌ू--जल के पात्र को; तस्थौ--खड़ी हो गईं; पुरोधाय--मुनि के सामने रखकर; कृत-अद्धलि:--हाथजोड़कर।

    तत्पश्चात्‌ यह समझकर कि यज्ञ करने का समय बीत चुका है, रेणुका अपने पति द्वारा शापितहोने से भयभीत हो उठी।

    अतएव जब वह लौटकर आई तो वह उनके समक्ष जलपात्र रखकर हाथजोड़कर खड़ी हो गई।

    व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पल्या: प्रकुपितोब्रवीतू ।

    घ्नतैनां पुत्रका: पापामित्युक्तास्ते न चक्रिरे ॥

    ५॥

    व्यभिचारम्‌--व्यभिचार; मुनि:--जमदग्नि मुनि ने; ज्ञात्वा--जानकर; पल्या: --अपनी पत्नी का; प्रकुपित:--क्रुद्ध होकर;अब्रवीत्‌--बोला; घ्तत--मार डालो; एनाम्‌--इसको; पुत्रका: --मेंरे बेटो; पापाम्‌--पापी स्त्री को; इति उक्ता:--ऐसा कहे जाने पर;ते--उन पुत्रों ने; न--नहीं; चक्रिरे--आज्ञा का पालन किया।

    मुनि जमदग्नि अपनी पतली के मन के पाप को समझ गये।

    अतएव वे अत्यन्त कुपित हुए औरअपने बेटों से बोले, 'पुत्रो, इस पापिनी स्त्री को मार डालो।

    ' लेकिन बेटों ने उनकी आज्ञा कापालन नहीं किया।

    रामः सञ्जोदितः पित्रा भ्रातृन्मात्रा सहावधीत्‌ ।

    प्रभावज्ञो मुने: सम्यक्समाधेस्तपसश्च सः ॥

    ६॥

    राम:--परशुराम ने; सझ्ोदित:ः--( अपनी माता तथा भाइयों को मारने के लिए ) प्रोत्साहित किये जाने पर; पित्रा--अपने पिता द्वारा;भ्रातृनू--सारे भाइयों को; मात्रा सह--माता समेत; अवधीत्‌--तुरन्‍्त मारा डाला; प्रभाव-ज्ञ:--पराक्रम से अवगत; मुने: --मुनि के;सम्यक्‌--पूर्णतया; समाधे:--ध ध्यान से; तपस:--तपस्या से; च-- भी; सः--वह |

    तब जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुराम को अवज्ञाकारी भाइयों तथा मानसिक रूप सेपाप करने वाली उसकी माता को मार डालने की आज्ञा दी।

    परशुराम ने तुरन्त ही अपनी माता तथाभाइयों का वध कर दिया क्योंकि उन्हें ध्यान तथा तपस्या द्वारा अर्जित अपने पिता के पराक्रम काज्ञान था।

    वरेण च्छन्दयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः ।

    वत्रे हतानां रामोडपि जीवितं चास्मृतिं वधे ॥

    ७॥

    वरेण च्छन्दयाम्‌ आस--इच्छानुसार वर माँगने के लिए कहा; प्रीत:--उससे प्रसन्न होकर; सत्यवती-सुतः--सत्यवती-पुत्र जमदग्नि ने;वब्रे--कहा; हतानामू--मेरी मृत माता तथा भाई; राम:--परशुराम; अपि-- भी; जीवितम्‌---उन्हें जीवित कर दें; च-- भी;अस्मृतिम्‌ू--कोई स्मरण नहीं; वधे--मेरे द्वारा मारे हुओं का

    सत्यवती-पुत्र जमदग्नि परशुराम से अत्यधिक प्रसन्न हुए और उनसे इच्छानुसार वर माँगने के लिएकहा।

    परशुराम ने कहा, 'मेरी माता तथा मेरे भाइयों को फिर से जीवित हो जाने दें और उन्हें यहस्मरण न रहे कि मैंने उन्हें मारा था।

    मैं आपसे इतना ही वर माँगता हूँ।

    'उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवाझ्जसा ।

    पितुर्विद्वांस्तपोवीर्य रामश्नक्रे सुहृद्दधम्‌ ॥

    ८ ॥

    उत्तस्थु;--तुरन्त उठ खड़े हुए; ते--परशुराम की माता तथा भाई; कुशलिन: --कुशल पूर्वक; निद्रा-अपाये--गहरी नींद के अन्त में;इब--सहश; अज्भजसा--तुरन्त; पितु:--अपने पिता का; विद्वानू--अवगत; तपः--तपस्या; वीर्यमू--बल; राम: -- परशुराम ने; चक्रे --सम्पन्न किया; सुहत्‌-वधम्‌--अपने परिजनों का वध |

    तत्पश्चात्‌ जमदग्नि के वर से भगवान्‌ परशुराम की माता तथा उनके सारे भाई तुरन्त जीवित हो उठे और वे सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए मानो गहरी नींद से जगे हों।

    परशुराम ने अपने पिता के आदेश परअपने परिजनों का वध कर दिया था क्योंकि वे अपने पिता के बल, तपस्या तथा दिद्वत्ता से परिचितथे।

    येडर्जुनस्य सुता राजन्स्मरन्तः स्वपितुर्वधम्‌ ।

    रामवीर्यपराभूता लेभिरे शर्म न क्वचित्‌ ॥

    ९॥

    ये--जो; अर्जुनस्य--कार्त वीर्यार्जुन के; सुता:--पुत्र; राजनू--हे महाराज परीक्षित; स्मरन्तः--सदैव स्मरण करते हुए; स्व-पितुःवधम्‌--( परशुराम द्वारा ) अपने पिता के वध; राम-वीर्य-परा भूता: -- भगवान्‌ परशुराम की श्रेष्ठ शक्ति द्वारा पराजित; लेभिरे--प्राप्तकिया; शर्म--सुख; न--नहीं; क्वचित्‌--कभी |

    हे राजा परीक्षित, परशुराम की श्रेष्ठ शक्ति द्वारा पराजित कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों को कभी सुखनहीं मिल पाया क्योंकि उन्हें अपने पिता का वध सदैव याद आता रहा।

    एकदाश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते ।

    वबैरं सिघाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन्‌ ॥

    १०॥

    एकदा--एक बार; आश्रमत:ः--जमदग्नि के आश्रम से; रामे--जब परशुराम; स- भ्रातरि-- अपने भाइयों के साथ; वनम्‌--वन में;गते--गये थे; बैरम्‌--पुरानी दुश्मनी; सिघाधयिषव:--पूरा करने के लिए; लब्ध-छिद्रा:--अवसर का लाभ उठाकर; उपागमन्‌ --आश्रम के निकट आये।

    एकबार जब परशुराम वसुमान तथा अन्य भाइयों के साथ आश्रम से जंगल गये हुए थे तोकार्तवीर्यार्जुन के पुत्र अवसर का लाभ उठा कर अपनी शत्रुता का बदला लेने के उद्देश्य से जमदग्नि के आश्रम में गये।

    इृष्ठाग्न्यागार आसीनमावेशितधियं मुनिम्‌ ।

    भगवत्युत्तमएलोके जष्नुस्ते पापनिश्चया: ॥

    ११॥

    इृष्ठा--देखकर; अग्नि-आगारे--उस स्थान पर जहाँ अग्नियज्ञ सम्पन्न किया जाता था; आसीनमू--बैठे हुए; आवेशित--पूर्णतया मग्न;धियम्‌--बुद्धि से; मुनिमू--मुनि जमदग्नि को; भगवति-- भगवान में; उत्तम-श्लोके --उत्तम एलोकों से प्रशंसित; जघ्नु;--मार डाला;ते--कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों ने; पाप-निश्चया: --महान्‌ पापकृत्य करने के लिए कृतसंकल्प |

    कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र पापकृत्य करने के लिए कृतसंकल्प थे।

    अतएवं जब उन्होंने जमदग्नि कोअग्नि के निकट यज्ञ करते एवं उत्तमएलोक भगवान्‌ का ध्यान करते देखा तो उन्होंने इस अवसर कालाभ उठाकर उसे मार डाला।

    याच्यमाना: कृपणया राममात्रातिदारुणा: ।

    प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्‍युस्ते क्षत्रबन्धव: ॥

    १२॥

    याच्यमाना:--अपने पति के जीवन की याचना करती हुई; कृपणया--बेचारी असुरक्षित स्त्री द्वारा; राम-मात्रा-- भगवान्‌ परशुराम कीमाता द्वारा; अति-दारुणा: -- अत्यन्त क्रूर; प्रसहा--बलपूर्वक; शिर:--जमदग्नि का सिर; उत्कृत्य--विलग करके; निन्यु:--ले गये;ते--कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र; क्षत्र-बन्धव:--क्षत्रिय नहीं अपितु क्षत्रियों में सबसे नीच।

    परशुराम की माता तथा जमदग्नि की पत्नी रेणुका ने अपने पति के जीवन की भीख माँगी,किन्तु कार्तवीर्यार्जुन के पुत्र क्षत्रिय गुणों से रहित होने के कारण इतने क्रूर निकले कि उसकी याचनाके बावजूद उन्होंने उसका सिर काट लिया और उसे अपने साथ लेते गये।

    रेणुका दुःखशोकार्ता निध्नन्त्यात्मानमात्मना ।

    राम रामेति तातेति विचुक्रोशोच्चयकै: सती ॥

    १३॥

    रेणुका--जमदग्नि-पत्नी रेणुका; दुःख-शोक-अर्ता--( अपने पति की मृत्यु के ) शोक से अत्यन्त दुखी; निध्नन्ती--पीटते हुए;आत्मानम्‌--अपने शरीर को; आत्मना--स्वयं; राम--हे परशुराम; राम--हे परशुराम; इति--इस प्रकार; तात--हे पुत्र; इति--इसप्रकार; विचुक्रोश--रोने लगी; उच्चकैः --जोर जोर से; सती--वह सती स्त्री |

    अपने पति की मृत्यु के कारण शोक से विलाप करती सती रेणुका अपने ही हाथों से अपने शरीरको पीट रही थी और जोर जोर से चिल्ला रही थी, 'हे राम, मेरे पुत्र राम।

    तदुपश्रुत्य दूरस्था हा रामेत्यार्तवत्स्वनम्‌ ।

    त्वरया श्रममासाद्य दहशुः पितरं हतम्‌ ॥

    १४॥

    तत्‌--वह क्रन्दन; उपश्रुत्य--सुनकर; दूर-स्था:--दूरी पर स्थित; हा राम--हे राम, हे राम; इति--इस प्रकार; आर्त-वत्‌--अत्यन्तदुखी; स्वनम्‌--शब्द; त्वरया--तेजी से; आश्रमम्‌--जमदग्नि के आश्रम में; आसाद्य--आकर; दहशु:--देखा; पितरमू--अपने पिताको; हतम्‌--मारा हुआ

    यद्यपि परशुराम सहित जमदग्नि के सारे पुत्र घर से बहुत दूरी पर थे, किन्तु ज्योंही उन्होंने रेणुकाकी 'हे राम! हे पुत्र!' की तेज पुकार सुनी, वे तुरन्त आश्रम लौट आये जहाँ उन्होंने अपने पिता कोमरा हुआ पाया।

    ते दुःखरोषामर्षा्तिशोकवेगविमोहिता: ।

    हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वास्मान्स्वर्गती भवान्‌ ॥

    १५॥

    ते--वे, जमदग्नि के सरे पुत्र; दुःख--दुख; रोष--क्रोध; अमर्ष---अपमान; आर्ति--सन्ताप; शोक--तथा शोक का; वेग--वेग केसाथ; विमोहिता: --मोह ग्रस्त; हा तात--पिता; साधो--साधु; धर्मिष्ठ-- अत्यन्त धर्मात्मा; त्यक्त्वा--छोड़कर; अस्मान्‌ू--हमको; स्वः-गतः--स्वर्ग चले गये; भवान्‌ू--आप |

    शोक, क्रोध, अपमान, सन्‍्ताप तथा शोक से ग्रस्त जमदग्नि के सारे पुत्र चिल्ला पड़े, 'हे साधुएवं धर्मात्मा पिता, आप हमें छोड़कर स्वर्ग लोक को चले गये हैं।

    विलप्यैवं पितुर्देहे निधाय भ्रातृषु स्वयम्‌ ।

    प्रगृह्य परशुं राम: क्षत्रान्ताय मनो दधे ॥

    १६॥

    विलप्य--विलाप करते हुए; एवम्‌--इस प्रकार; पितु:--अपने पिता के; देहम्‌ू--शरीर को; निधाय--सौंपकर; भ्रातृषु-- भाइयों को;स्वयम्‌--खुद; प्रगृह्य--लेकर; परशुम्‌--फरसा; राम: -- भगवान्‌ परशुराम; क्षत्र-अन्ताय--सररे क्षत्रियों का अन्त करने के लिए;मनः--मन; दधे--निश्चय कर लिया।

    इस प्रकार विलाप करते हुए परशुराम ने अपने पिता का शव अपने भाइयों को सौंप दिया औरस्वयं पृथ्वी तल से सारे क्षत्रियों का अन्त करने का निश्चय करते हुए अपना फरसा ग्रहण किया।

    गत्वा माहिष्मतीं रामो ब्रह्मप्नविहतथ्रियम्‌ ।

    तेषां स शीर्षभी राजन्मध्ये चक्रे महागिरिम्‌ ॥

    १७॥

    गत्वा--जाकर; माहिष्मतीम्‌--माहिष्मती में; राम: --परशुराम; ब्रह्म-घ्न--ब्राह्मण का वध करने वाले; विहत-भ्रियम्‌--सारे ऐश्वर्य सेविहीन, विनष्ट; तेषामू--उन सबों का ( कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों तथा अन्य क्षत्रियों का ); सः--परशुराम ने; शीर्षभि: --शरीर से छिन्नसिरों से; राजन्‌--हे महाराज परीक्षित; मध्ये--माहिष्मती के बीचोंबीच; चक्रे --बना दिया; महा-गिरिमू--विशाल पर्वत |

    हे राजन, तब परशुराम उस माहिष्मती नगरी में गये जो एक ब्राह्मण के पापपूर्ण वध के कारणपहले ही विनष्ट हो चुकी थी।

    उन्होंने उस नगरी के बीचोंबीच कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों के शरीरों से छिन्नकिये गये सिरों का एक पर्वत बना दिया।

    तद्गक्तेन नदीं घोरामब्रह्मण्यभयावहाम्‌ ।

    हेतुं कृत्वा पितृवरधं क्षत्रेडमड़लकारिणि ॥

    १८॥

    त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभु: ।

    समन्तपञ्ञके चक्रे शोणितोदान्ह्दान्नव ॥

    १९॥

    तत्‌-रक्तेन--कार्तवीर्यार्जुन के पुत्रों के रक्त से; नदीम्‌ू--नदी को; घोराम्‌ू-- भयानक; अब्रह्मण्य-भय-आवहाम्‌--उन राजाओं को भयदिखाती हुईं जिन्हें ब्राह्मण संस्कृति के लिए कोई सम्मान नहीं है; हेतुमू--कारण; कृत्वा--स्वीकार करके; पितृ-वधम्‌--पिता काबध; क्षत्रे--जब सम्पूर्ण राज वर्ग; अमड्रल-कारिणि--अत्यन्त अशुभ ढंग से कार्य कर रहा था; त्रिः-सप्त-कृत्वः:--इक्कीस बार;पृथिवीम्‌--पृथ्वी को; कृत्वा--करके; निःक्षत्रियाम्‌ू-- क्षत्रियविहीन; प्रभु:-- भगवान्‌ परशुराम; समन्त-पञ्ञके --समन्त पञ्ञक नामकस्थान पर; चक्रे--बनाया; शोणित-उदान्‌ू--जल के बजाय रक्त से पूरित; हृदान्‌ू--झीलें; नव--नौ |

    इन पुत्रों के रक्त से भगवान्‌ परशुराम ने एक वीभत्स नदी तैयार कर दी जिससे उन राजाओं कोबड़ा खतरा उत्पन्न हो गया जिनमें ब्राह्मण संस्कृति के प्रति आदरभाव नहीं था।

    चूँकि सरकार केअधिकारी लोग अर्थात्‌ क्षत्रिय पापकर्म कर रहे थे अतएवं परशुराम ने अपने पिता की हत्या काबदला लेने के बहाने सरे क्षत्रियों का इक्कीस बार पृथ्वी से सफाया कर दिया।

    निस्सन्देह, उन्होंनेसमन्तपशञ्जञक नामक स्थान पर उन सबों के रक्त से नौ झीलें उत्पन्न कर दीं।

    पितुः कायेन सन्धाय शिर आदाय बर्द्िषि ।

    सर्वदेवमयं देवमात्मानमयजन्मखै: ॥

    २०॥

    पितु:--पिता के; कायेन--शरीर के साथ; सन्धाय--जोड़कर; शिर:--सिर को; आदाय--रखकर; बर्हिषि--कुशा के ऊपर; सर्व-देव-मयम्‌--समस्त देवताओं के स्वामी, सर्वव्यापी भगवान्‌; देवम्‌-- भगवान्‌ वासुदेव को; आत्मानम्‌--जो सर्वत्र परमात्मा रूप मेंविद्यमान हैं; अबजत्‌--पूजा की; मखै:--य्ञों के द्वारा

    तत्पश्चात्‌ परशुराम ने अपने पिता के सिर को मृत शरीर से जोड़ दिया और पूरे शरीर एवं सिर कोकुशों के ऊपर रख दिया।

    वे यज्ञों के द्वारा भगवान्‌ वासुदेव की पूजा करने लगे जो समस्त देवताओंतथा हर जीव के सर्वव्यापी परमात्मा हैं।

    ददौ प्राची दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम्‌ ।

    अध्वर्यवे प्रतीचीं वे उदगात्रे उत्तरां दिशम्‌ ॥

    २१॥

    अन्येभ्योवान्तरदिश: कश्यपाय च मध्यतः ।

    आर्यावर्तमुपद्रष्टे सदस्येभ्यस्ततः परम्‌ ॥

    २२॥

    ददौ--दान में दिया; प्राचीम्‌--पूर्वी; दिशम्‌--दिशा; होत्रे--होता को; ब्रह्मणे --ब्रह्मा को; दक्षिणाम्‌--दक्षिणी; दिशम्‌--दिशा;अध्वर्यवे--अध्वर्यु को; प्रतीचीम्‌--पश्चिमी दिशा; बै--निस्सन्देह; उद््‌गात्रे--उद्‌्गाता को; उत्तराम्‌--उत्तरी; दिशम्‌ू--दिशा;अन्येभ्य: --अन्यों को; अवान्तर-दिश:--विभिन्न कोने ( उत्तर पूर्व, दक्षिण पूर्व, उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण पश्चिम ); कश्यपाय--कश्यप मुनि को; च--भी; मध्यतः--बीच का भाग; आर्यावर्तम्‌ू--आर्यावर्त नाम से विख्यात; उपद्रष्टे--उपद्रष्टा को, मंत्र को सुनकरउस पर निगरानी रखने वाले पुरोहित को; सदस्येभ्य:--सदस्य या सहयोगी पुरोहितों को; ततः परमू--जो भी शेष था।

    यज्ञ-समाप्ति पर परशुराम ने पूर्वी दिशा होता को, दक्षिणी दिशा ब्रह्मा को, पश्चिमी दिशा अध्वर्युको, उत्तरी दिशा उदगाता को एवं चारों कोने--उत्तर पूर्व, दक्षिण पूर्व, उत्तर पश्चिम तथा दक्षिणपश्चिम--अन्य पुरोहितों को दान में दे दिये।

    उन्होंने मध्य भाग कश्यप को तथा आर्यावर्त उपद्रष्टा कोदे दिया।

    शेष भाग सदस्यों अर्थात्‌ सहयोगी पुरोहितों में बाँट दिया।

    ततश्वावभूथस्नानविधूताशेषकिल्बिष: ।

    सरस्वत्यां महानद्यां रेजे व्यब्ध्र इवांशुमान्‌ ॥

    २३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; च-- भी; अवभूथ-स्नान--यज्ञ सम्पन्न करने के बाद स्नान करके ; विधूत-- धो डाला; अशेष-- असीम;किल्बिष:--पापकर्मों के फल; सरस्वत्याम्‌ू--सरस्वती नदी के तट पर; महा-नद्याम्‌ू-- भारत की महान्‌ नदी; रेजे--परशुराम प्रकटहुए; व्यब्ध्र:--निरभ्र, बादलों से रहित; इव अंशुमान्‌--सूर्यप्रकाश

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ परशुराम ने यज्ञ-अनुष्ठान पूरा करके अवभूथ स्नान किया।

    महान्‌ नदी सरस्वतीके तट पर खड़े समस्त पापों से विमुक्त परशुराम जी बादलरहित आकाश में सूर्य के समान लग रहेथे।

    स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम्‌ ।

    ऋषीणां मण्डले सो भूत्सप्तमो रामपूजित: ॥

    २४॥

    स्व-देहम्‌-- अपना शरीर; जमदग्नि:--मुनि जमदग्नि; तु--लेकिन; लब्ध्वा--फिर से पाकर; संज्ञान-लक्षणम्‌--जीवन, ज्ञान तथास्मृति के सारे लक्षणों से युक्त; ऋषीणाम्‌--ऋषियों के; मण्डले--सात नक्षत्रों के समूह में; सः--वह, जमदग्नि; अभूत्‌--बन गया;सप्तम:--सातवाँ; राम-पूजित:--परशुराम द्वारा पूजित होकर

    इस प्रकार परशुराम द्वारा पूजा किये जाने पर जमदग्नि को अपनी पूर्ण स्मृति सहित पुनः जीवनप्राप्त हो गया और वे सात नक्षत्रों के समूह में सातवें ऋषि बन गये।

    जामदग्न्योडषपि भगवात्राम: कमललोचन: ।

    आगामिन्यन्तरे राजन्वर्तयिष्यति वै बृहत्‌ ॥

    २५॥

    जामदग्न्य:--जमदग्नि का पुत्र; अपि-- भी; भगवान्‌-- भगवान्‌; राम:-- परशुराम; कमल-लोचन:-- कमल की पँखड़ियों जैसे नेत्रवाला; आगामिनि--आगमन; अन्तरे--मन्वन्तर में; राजन्‌ू--हे राजा परीक्षित; वर्तयिष्यति--स्थापित करेगा; वै--निस्सन्देह; बृहत्‌--वैदिक ज्ञान

    हे परीक्षित, अगले मन्वन्तर में जमदग्निपुत्र कमलनेत्र भगवान्‌ परशुराम वैदिक ज्ञान के महान्‌संस्थापक होंगे।

    दूसरे शब्दों में, वे सप्तर्षियों में से एक होंगे।

    आस्तेड्द्यापि महेन्द्रादौ न्यस्तदण्ड: प्रशान्तधीः ।

    उपगीयमानचरित:ः सिद्धगन्धर्वचारणैः ॥

    २६॥

    आस्ते--विद्यमान है; अद्य अपि--अब भी; महेन्द्र-अद्रौ--महेन्द्र नामक पहाड़ी प्रदेश में; न्‍्यस्त-दण्ड:--क्षत्रिय के हथियार ( बाण,धनुष तथा फरसा ) त्याग कर; प्रशान्त--ब्राह्मण के समान पूरी तरह तुष्ट; धी:--बुद्धि; उपगीयमान-चरित:--अपने उच्चा चरित्र तथाकार्यों के लिए पूजित एवं बन्दित; सिद्ध-गन्धर्व-चारणै:--सिद्धो गन्धर्वों तथा चारणों के द्वारा

    आज भी भगवान्‌ परशुराम महेन्द्र नामक पहाड़ी प्रदेश में बुद्धिमान ब्राह्मण के रूप में रह रहे हैं।

    पूर्ण तुष्ट एवं क्षत्रिय के सारे हथियारों को त्याग कर वे अपने उच्च चरित्र तथा कार्यो के लिए सदैवसिद्धों, गन्धर्वों एवं चारणों के द्वारा पूजित, वन्दित एवं प्रशंसित हैं।

    एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान्हरिरीश्वर: ।

    अवतीर्य परं भारं भुवोहन्बहुशो नृपान्‌ ॥

    २७॥

    एवम्‌--इस तरह; भृगुषु-- भूगुवंश में; विश्व-आत्मा--परमात्मा; भगवान्‌-- भगवान्‌ ; हरि: -- हरि; ईश्वर: --परम नियन्ता; अवतीर्य --अवतार लेकर; परम्‌ू--महान; भारम्‌-- भार को; भुव:--पृथ्वी के; अहन्‌--मारा; बहुशः--अनेक बार; नृपानू--राजाओं को

    इस तरह परमात्मा भगवान्‌ हरि तथा ईश्वर ने भूगुबंश में अवतार लिया और अवाजिछत राजाओंको अनेक बार मारकर उनके भार से पृथ्वी को उबारा।

    गाधेरभून्महातेजा: समिद्ध इब पावक: ।

    तपसा क्षात्रमुत्सूज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम्‌ ॥

    २८ ॥

    गाधे: --महाराज गाधि से; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; महा-तेजा:--अत्यन्त तेजस्वी; समिद्धः--प्रज्वलित; इब--सहृश; पावक: --अग्नि;तपसा--तपस्या से; क्षात्रमू--क्षत्रिय पद; उत्सृज्य--त्याग कर; य:--जो ( विश्वामित्र ); लेभे--प्राप्त किया; ब्रह्म-वर्चसम्‌--ब्राह्मणका गुण

    महाराज गाधि का पुत्र विश्वामित्र अग्नि की लपटों के समान शक्तिशाली था; उसने तपस्या द्वाराक्षत्रिय पद से तेजस्वी ब्राह्मण का पद प्राप्त किया।

    विश्वामित्रस्य चैवासन्पुत्रा एकशतं नृप ।

    मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छन्दस एवं ते ॥

    २९॥

    विश्वामित्रस्थ--विश्वामित्र के; च--भी; एव--निस्सन्देह; आसनू-- थे; पुत्रा:--पुत्र; एक-शतम्‌--एक सौ एक, १०१; नृप--हे राजापरीक्षित; मध्यम: --बीच का; तु--निस्सन्देह; मधुच्छन्दा: --मधुच्छन्दा नामक; मधुच्छन्दस: --मधुच्छन्दा; एव--निस्सन्देह; ते--वेसभी

    हे राजा परीक्षित, विश्वामित्र के १०१ पुत्र थे जिनमें से बीच के पुत्र का नाम मधुच्छन्दा था।

    उसके कारण अन्य सारे पुत्र मधुच्छन्दा नाम से विख्यात हुए।

    पुत्र कृत्वा शुनःशेफं देवरातं च भार्गवम्‌ ।

    आजीगर्त सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम्‌ ॥

    ३०॥

    पुत्रमू--पुत्र; कृत्वा--स्वीकार करके; शुनःशेफम्‌--शुनःशेफ को; देवरातम्‌-देवरात, जिसके प्राणों की रक्षा देवताओं ने की थी;च--भी; भार्गवम्‌-- भूगुवंशी; आजीगर्तम्‌--अजीगर्त का पुत्र; सुतानू--अपने पुत्रों को; आह--आदेश दिया; ज्येष्ट:--सबसे बड़ा;एषः:--शुनःशेफ; प्रकल्प्यताम्‌ू--इसी रूप में स्वीकार किया।

    विश्वामित्र ने अजीगर्त के पुत्र शुन:शेफ को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया जो भृगुवंश मेंउत्पन्न हुआ था और देवरात नाम से भी विख्यात था।

    विश्वामित्र ने अपने अन्य पुत्रों को आज्ञा दी कि वे शुनःशेफ को अपना सबसे बड़ा भाई मान लें।

    यो वै हरिश्चन्द्रमखे विक्रीत: पुरुष: पशु: ।

    स्तुत्वा देवान्प्रजेशादीन्मुमुचे पाशबन्धनात्‌ ॥

    ३१॥

    यः--जो ( शुनःशेफ ); वै--निस्सन्देह; हरिश्रन्द्र-मखे--राजा हरिश्न्द्र द्वारा सम्पन्न यज्ञ में; विक्रीत:--बेचा गया; पुरुष:--व्यक्ति;पशु:--बलिपकशु; स्तुत्वा--स्तुति करके; देवान्‌ू--देवताओं को; प्रजा-ईश-आदीनू--ब्रह्मा इत्यादि; मुमुचे--छोड़ दिया गया; पाश-बन्धनात्‌ू-पशु की भाँति रस्सी के बन्धन से ।

    शुनःशेफ के पिता ने शुनःशेफ को राजा हरिश्वन्द्र के यज्ञ में बलिपशु के रूप में बलि दिये जानेके लिए बेच दिया।

    जब शुनःशेफ को यज्ञशाला में लाया गया तो उसने देवताओं से प्रार्थना की किवे उसे छुड़ा दें और वह उनकी कृपा से छुड़ा दिया गया।

    यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः ।

    देवरात इति ख्यातः शुनःशेफस्तु भार्गव: ॥

    ३२॥

    यः--जो; रात:--रक्षित; देव-यजने--देवताओं के पूजा स्थल में; देवै:--उन्हीं देवताओं द्वारा; गाधिषु--गाधि कुल में; तापस: --आध्यात्मिक जीवन में बढ़ा-चढ़ा; देव-रातः--देवताओं द्वारा रक्षित; इति--इस प्रकार; ख्यात:--प्रसिद्ध; शुनः:शेफः तु--तथाशुनःशेफ; भार्गव: -- भूगुवंश में |

    यद्यपि शुनःशेफ भार्गव कुल में उत्पन्न हुआ था, किन्तु आध्यात्मिक जीवन में बढ़ा-चढ़ा होने केकारण यज्ञ में सम्बधित देवताओं ने उसकी रक्षा की।

    फलतः वह देवरात नाम से गाधि के वंशज केरूप में भी विख्यात हुआ।

    ये मधुच्छन्दसो ज्येष्ठा: कुशलं मेनिरे न तत्‌ ।

    अश्पत्तान्मुनि: क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जना: ॥

    ३३॥

    ये--जो; मधुच्छन्दस:--विश्वामित्र के पुत्र जो मधुछन्दा कहलाये; ज्येष्ठा:--सबसे बड़ा; कुशलम्‌--अच्छे स्वभाव का; मेनिरे--स्वीकार करके; न--नहीं; तत्‌--वह; अशपत्‌--शाप दे दिया; तानू--उन सबों को; मुनि:--विश्वामित्र मुनि ने; क्रुद्ध:--कुपित;म्लेच्छा:--वैदिक सिद्धान्तों का उल्लंघन करने वाले; भवत--तुम सभी हो जाओ; दुर्जना:--बुरे पुत्र

    जब विश्वामित्र ने शुन-शेफ को सबसे बड़ा पुत्र स्वीकार करने के लिए कहा तो विश्वामित्र केपचास ज्येष्ठ मधुच्छन्दा पुत्र इसके लिए राजी नहीं हुए।

    फलत:ः विश्वामित्र क्रुद्ध हो गये और उन्होंने उनसबों को शाप दे दिया, 'निकम्मे पुत्रो! तुम सारे म्लेच्छ बन जाओ क्‍योंकि तुम वैदिक संस्कृति केनियमों के विरुद्ध हो।

    'स होवाच मधुच्छन्दा: सार्थ पञ्ञाशता ततः ।

    यन्नो भवान्सझ्जानीते तस्मिस्तिष्ठामहे वयम्‌ ॥

    ३४॥

    सः--विश्वामित्र के बीच के पुत्र ने; ह--निस्सन्देह; उबाच--कहा; मधुच्छन्दा: --मधुच्छन्दा; सार्थम्‌ू--साथ; पञ्ञाशता-- अन्य पचासपुत्र, जो मधुच्छन्दा कहलाते थे; ततः--तब, जब पहले पचास पुत्रों को शाप मिल गया; यत्‌--जो; न:--हमको; भवान्‌--हे पिता;सज्ञानीते--आप जैसा चाहें; तस्मिन्‌--उसमें; तिष्ठामहे--रहेंगे; वयम्‌--हम सब

    जब बड़े पचास मधुच्छन्दाओं को शाप मिल गया तो मधुच्छन्दा समेत छोटे पचास पुत्र अपनेपिता के पास गये और उनके प्रस्ताव को यह कहकर स्वीकार किया, 'हे पिता, आप जैसा चाहेंगेहम उसी को मानेंगे।

    'ज्येष्ठ मन्त्रहशं चक्रुस्त्वामन्वज्ञो वयं सम हि ।

    विश्वामित्र: सुतानाह वीरवन्तो भविष्यथ ।

    ये मान॑ मेउनुगृहन्तो वीरवन्तमकर्त माम्‌ ॥

    ३५॥

    ज्येष्ठम्‌--बड़ा, ज्येष्ठ; मन्त्र-दहशम्‌--मंत्रद्रष्टा; चक्कुः--स्वीकार कर लिया; त्वामू--तुमको; अन्वज्ञ:--पालन करने के लिए राजी होगये हैं; वयम्‌--हम; स्म--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; विश्वामित्र:--विश्वामित्र मुनि ने; सुतान्‌ू--आज्ञाकारी पुत्रों से; आह--कहा;वीर-बन्तः--पुत्रों के पिता; भविष्यथ-- भविष्य में बनो; ये--जो; मानम्‌--मान, सम्मान; मे--मेरा; अनुगृहन्त:--स्वीकार किया;वीर-वन्तम्‌--अच्छे पुत्रों के पिता; अकर्त--तुमने बनाया है; माम्‌--मुझको

    इस तरह छोटे मधुच्छान्दाओं ने शुनःशेफ को अपना बड़ा भाई मान लिया और उससे कहा 'हमआपके आदेशों का पालन करेंगे।

    ' तब विश्वामित्र ने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रों से कहा 'चूँकि तुमलोगों ने शुनःशेफ को अपना बड़ा भाई मान लिया है अतएव मैं सन्तुष्ट हूँ।

    तुम लोगों ने मेरे आदेशको स्वीकार करके मुझे योग्य पुत्रों का पिता बना दिया है अतएव मैं तुम सबों को आशीर्वाद देता हूँकि तुम भी पुत्रों के पिता बनो।

    'एष व: कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित ।

    अन्ये चाष्टकहारीतजयक्रतुमदादय: ॥

    ३६॥

    एष:--यह ( शुनःशेफ ); वः--तुम्हारी तरह; कुशिका:--हे कुशिको; वीर:-- मेरा पुत्र; देवरात:--देवरात; तम्‌--उसकी; अन्बित--आज्ञा पालन करो; अन्ये--अन्य; च--भी; अष्टक--अष्टक; हारीत--हारीत; जय--जय; क्रतुमत्‌--क्रतुमान; आदय: --इत्यादिविश्वामित्र ने कहा 'हे कुशिको, यह देवरात मेरा पुत्र है और तुममें से एक है।

    उसकी आज्ञा कापालन करो।

    ' हे परीक्षित, विश्वामित्र के अन्य अनेक पुत्र थे--अष्टक, हारीत, जय तथा क्रतुमानइत्यादि।

    एवं कौशिकगोत्रं तु विश्वामित्रै: पृथग्विधम्‌ ।

    प्रवरान्तरमापन्नं तद्द्धि चैवं प्रकल्पितम्‌ ॥

    ३७॥

    एवम्‌--इस प्रकार ( कुछ शापित होकर और कुछ आशीर्वाद पाकर ); कौशिक-गोत्रमू--कौशिक का वंश; तु--निस्सन्देह;विश्वामित्रै:--विश्वामित्र के पुत्रों द्वारा; पृथक्‌-विधम्‌--विभिन्न प्रकार से; प्रवर-अन्तरम्‌--एक दूसरे में अन्तर; आपतन्नम्‌--प्राप्त किया;तत्‌--वह; हि--निस्सन्देह; च--भी; एवम्‌--इस प्रकार; प्रकल्पितम्‌--निश्चित किया।

    विश्वामित्र ने कुछ पुत्रों को शाप दिया और अन्यों को आशीर्वाद दिया और एक पुत्र को गोद भीलिया।

    इस तरह कौशिक वंश में काफी विविधता थी, किन्तु सारे पुत्रों में देवरात ही ज्येष्ठ माना गया।

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    अध्याय सत्रह: पुरुरवा के पुत्रों के राजवंश

    9.17यः पुरूरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन्सुता: ।

    नहुषः क्षत्रवृद्धश्व रजी राभश्व वीर्यवान्‌ ॥

    १॥

    अनेना इति राजेन्द्र श्रृणु क्षत्रवृधोउन्वयम्‌ ।

    क्षत्रवृद्धसुतस्यासन्सुहोत्रस्यात्मजास्त्रय: ॥

    २॥

    काश्य:ः कुशो गृत्समद इति गृत्समदादभूत्‌ ।

    शुनकः शौनको यस्य बह्नचप्रवरो मुनि: ॥

    ३॥

    श्री-बादरायणि: उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; यः--जो; पुरूरबस:--पुरूरवा का; पुत्र:--पुत्र; आयु:--आयु; तस्य--उसका; अभवनू--हुए; सुता: --पुत्र; नहुष:--नहुष; क्षत्रवृद्ध: च--तथा क्षत्रवृद्ध;।

    रजी--रजी; राभ:--रा भ; च-- भी; वीर्यवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; अनेना:--अनेना; इति--इस प्रकार; राज-इन्द्र--हे महाराज परीक्षित; श्रूणु--सुनो; क्षत्रवृध: --क्षत्रवृध का;अन्वयमू--वंश।

    क्षत्रवृद्ध-्षत्रवृद्ध के; सुतस्य--पुत्र के; आसनू-- थे; सुहोत्रस्थ--सुहोत्र के; आत्मजा: --पुत्र; त्रय:--तीन;काश्य:--काश्य; कुश:--कुश; गृत्समदः --गृत्समद; इति--इस प्रकार; गृत्समदात्‌--गृत्समद से; अभूत्‌--हुए; शुनक:--शुनक;शौनक:--शौनक; यस्य--जिसका ( शुनक का ); बहु-ऋच-प्रवर: --ऋग्वेद में सर्वाधिक पटु; मुनि:--मुनि।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : पुरूरवा से आयु नामक पुत्र हुआ जिससे नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजी, राभतथा अनेना नाम के अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न हुए।

    हे महाराज परीक्षित, अब क्षत्रवृद्ध के वंश केविषय में सुनो।

    क्षत्रवृद्ध का पुत्र सुहोत्र था जिसके तीन पुत्र हुए--काश्य, कुश तथा गृत्समद।

    गृत्समद से शुनक हुआ और शुनक से शौनक मुनि उत्पन्न हुए जो ऋग्वेद में सर्वाधिक पटु थे।

    काश्यस्य काशिस्तत्पुत्रो राष्ट्री दीर्घतमःपिता ।

    धन्वन्तरिदीर्घतमस आयुर्वेदप्रवर्तक: ।

    यज्ञभुग्वासुदेवांशः स्मृतमात्रार्तिनाशन: ॥

    ४॥

    काश्यस्य--काश्य का; काशि:--काशि; ततू-पुत्र:--उसका पुत्र; राष्ट्र:--राष्ट्र; दीर्घतम:-पिता--जो दीर्घतम का पिता बना;धन्वन्तरिः -- धन्वन्तरि; दीर्घतमस: --दीर्घतम से; आयु:-वेद-प्रवर्तक:--आयुर्वेद के जनक; यज्ञ-भुक्‌ू--यज्ञफलों का भोक्ता;वबासुदेव-अंश:-- भगवान्‌ वासुदेव का अवतार; स्मृत-मात्र--नाम लेने से ही; आर्ति-नाशन:--सारे रोग विनष्ट हो जाते हैं।

    काश्य का पुत्र काशि था और उसका पुत्र राष्ट्र हुआ जो दीर्घतम का पिता था।

    दीर्घतम केधन्वन्तरि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो आयुर्वेद का जनक तथा समस्त यज्ञफलों के भोक्ता भगवान्‌वासुदेव का अवतार था।

    जो धन्वन्तरि का नाम याद करता है उसके सारे रोग दूर हो सकते हैं।

    तत्पुत्र: केतुमानस्य जज्ञे भीमरथस्ततः ।

    दिवोदासो झ्ुमांस्तस्मात्प्रतर्दन इति स्मृत: ॥

    ५॥

    ततू-पुत्र:ः--उसका ( धन्वन्तरि का ) पुत्र; केतुमान्‌--केतुमान; अस्य--उसका; जज्ञे--जन्म लिया; भीमरथ:--भीमरथ नाम के पुत्र ने;ततः--उससे; दिवोदास:--दिवोदास; द्युमानू--द्युमान; तस्मात्‌--उससे; प्रतर्दन:--प्रतर्दन; इति--इस प्रकार; स्मृत:--ज्ञात |

    धन्वन्तरि का पुत्र केतुमान हुआ और उसका पुत्र भीमरथ था।

    भीमरथ का पुत्र दिवोदास था औरउसका पुत्र झ्युमान हुआ जो प्रतर्दन भी कहलाता था।

    स एव शत्रुजिद्वत्स ऋतध्वज इतीरितः ।

    तथा कुबलयाश्रेति प्रोक्तोडलर्कादयस्तत: ॥

    ६॥

    सः--वह, झ्युमान; एब--निस्सन्देह; शत्रुजित्‌ू-शत्रुजित; वत्स:--वत्स; ऋतध्वज:--ऋतध्वज; इति--इस तरह; ईरित:--विख्यात;तथा--और; कुबलयाश्र--कुवलयाश्व; इति--इस प्रकार; प्रोक्त:--विख्यात; अलर्क-आदय:--अलर्क तथा अन्य पुत्र; तत:ः--उससे |

    झुमान शत्रुजित, वत्स, ऋतध्वज तथा कुवलयाश्व नामों से भी विख्यात था।

    उससे अलर्क तथाअन्य पुत्र उत्पन्न हुए।

    षष्टिं वर्षसहस्त्राणि षष्टिं वर्षशतानि च ।

    नालर्कादपरो राजन्बुभुजे मेदिनीं युवा ॥

    ७॥

    षष्टिम्‌--साठ; वर्ष-सहस्त्राणि --हजार वर्ष ; षष्टिमू--साठ; वर्ष-शतानि--सैकड़ों वर्ष; च-- भी; न--नहीं; अलर्कात्‌--अलर्क केअलावा; अपर:--कोई दूसरा; राजनू--हे राजा परीक्षित; बुभुजे-- भोग किया; मेदिनीम्‌्--पृथ्वी का; युवा--युवक पुरुष की भाँति

    हे राजा परीक्षित, द्युमान के पुत्र अलर्क ने पृथ्वी पर छियाछठ हजार वर्षो से भी अधिक समयतक राज्य किया।

    इस पृथ्वी पर उनके अतिरिक्त किसी अन्य ने युवक के रूप में इतने दीर्घकाल तकराज्य नहीं भोगा।

    अलर्कात्सन्ततिस्तस्मात्सुनीथोथ निकेतन: ।

    धर्मकेतु: सुतस्तस्मात्सत्यकेतुरजायत ॥

    ८॥

    अलर्कात्‌--अलर्क से; सन्ततिः--सन्तति; तस्मात्‌--उससे; सुनीथ:--सुनीथ; अथ--उससे; निकेतन:--निकेतन; धर्मकेतु:--धर्मकेतु; सुतः--पुत्र; तस्मात्‌--तथा धर्मकेतु से; सत्यकेतु:--सत्यकेतु; अजायत--उत्पन्न हुआ।

    अलर्क से सन्‍तति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका पुत्र सुनीथ हुआ।

    सुनीथ का पुत्र निकेतन था।

    निकेतन का पुत्र धर्मकेतु हुआ और धर्मकेतु का पुत्र सत्यकेतु था।

    धृष्टकेतुस्ततस्तस्मात्सुकुमार: क्षितीश्वर: ।

    वबीतिहोत्रोस्य भर्गोउतो भार्गभूमिरभून्रुप ॥

    ९॥

    धृष्टकेतु:--धृष्टकेतु; तत:--त त्पश्चात्‌; तस्मात्‌-- धृष्टकेतु से; सुकुमार: --सुकुमार; क्षिति-ईश्वरः--सारे संसार का सम्राट; बीतिहोत्र:--वबीतिहोत्र; अस्य--उसका पुत्र; भर्ग:--भर्ग; अत: --उससे; भार्गभूमि: -- भार्गमूमि; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; नृप--हे राजा |

    हे राजा परीक्षित, सत्यकेतु का पुत्र धृष्टकेतु हुआ और धुृष्टकेतु का पुत्र सुकुमार हुआ जो पूरे विश्वका सप्राट था।

    सुकुमार का पुत्र वीतिहोत्र हुआ, जिसका पुत्र भर्ग था और भर्ग का पुत्र भार्गभूमिहुआ।

    इतीमे काशयो भूपा: क्षत्रवृद्धान्बययायिन: ।

    राभस्य रभसः पुत्रो गम्भीरश्चाक्रियस्ततः ॥

    १०॥

    इति--इस प्रकार; इमे--ये सभी; काशय: --काशि के वंश में उत्पन्न; भूपा:--राजा; क्षत्रवृद्ध-अन्वय-आयिन:--श्षत्रवृद्ध के वंश केभीतर भी; राभस्य--राभ का; रभसः --रभस; पुत्र:--पुत्र; गम्भीर: --गम्भीर; च-- भी; अक्रिय:--अक्रिय; ततः -- उससे |

    हे महाराज परीक्षित, ये सारे राजा काशि के वंशज थे और इन्हें क्षत्रवृद्ध के उत्तराधिकारी भीकहा जा सकता है।

    राभ का पुत्र रभस हुआ, रभस का पुत्र गम्भीर और गम्भीर का पुत्र अक्रियकहलाया।

    तदगोत्रं ब्रह्मविज्ज्ञे श्रुणु वंशमनेनस: ।

    शुद्धस्ततः शुचिस्तस्माच्चित्रकृद्धर्मसारथि: ॥

    ११॥

    ततू-गोत्रमू--अक्रिय का उत्तराधिकारी; ब्रह्मवित्‌--ब्रह्मवित ने; जज्ञे--जन्म लिया; श्रूणु--सुनो; वंशम्‌--वंश वालों को; अनेनस:--अनेना का; शुद्धः--शुद्ध; तत:--उससे; शुचि: --शुचि; तस्मात्‌--उससे; चित्रकृत्‌--चित्रकृत; धर्म-सारथि:-- धर्मसारथि |

    हे राजा, अक्रिय का पुत्र ब्रह्मवित कहलाया।

    अब अनेना के वंशजों के विषय में सुनो।

    अनेनाका पुत्र शुद्ध था और उसका पुत्र शुचि था।

    शुचि का पुत्र धर्मसारधि था जो चित्रकृत भी कहलाताथा।

    ततः शान्तरजो जज्ञे कृतकृत्य: स आत्मवान्‌ ।

    रजे: पञ्ञशतान्यासन्पुत्राणाममितौजसाम्‌ ॥

    १२॥

    ततः--चित्रकृत से; शान्तरज:--शान्तरज; जजन्ने--उत्पन्न हुआ; कृत-कृत्यः--सारे अनुष्ठान सम्पन्न किये; सः--उसने; आत्मवान्‌--स्वरूपसिद्ध; रजे:--रजी के; पञ्ञ-शतानि--पाँच सौ; आसन्‌ू-- थे; पुत्राणाम्‌--पुत्रों का; अमित-ओजसाम्‌--अत्यन्त शक्तिशाली |

    चित्रकृत के शान्तरज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो स्वरूपसिद्ध व्यक्ति था जिसने समस्त वैदिककर्मकाण्ड सम्पन्न किये।

    फलतः उसने कोई सनन्‍्तान उत्पन्न नहीं की।

    रजी के पाँच सौ पुत्र हुए जो सारेके सारे अत्यन्त शक्तिशाली थे।

    देवैरभ्यर्थितो दैत्यान्हत्वेन्द्रायाददाहिवम्‌ ।

    इन्द्रस्तस्मै पुनर्दत्त्वा गृहीत्वा चरणौ रजे: ।

    आत्मानमर्पयामास प्रह्मदाद्यरिश्वितः ॥

    १३॥

    देवै:--देवताओं द्वारा; अभ्यर्थित: --प्रार्थना किये जाने पर; दैत्यानू--दैत्यों को; हत्वा--मारकर; इन्द्राय--स्वर्ग के राजा इन्द्र को;अददातू-- प्रदान किया; दिवम्‌--स्वर्ग का राज्य; इन्द्र:--इनद्र ने; तस्मै--उसको, रजी को; पुनः--फिर से; दत्त्वा--लौटाते हुए;गृहीत्वा--ग्रहण करके; चरणौ--दोनों पाँव; रजे:--रजी के; आत्मानम्‌--स्वयं को; अर्पयाम्‌ आस--समर्पित कर दिया; प्रह्मद-आदि-प्रह्लाद इत्यादि; अरि-शद्धितः--ऐसे शत्रुओं से डर कर।

    देवताओं की प्रार्थना पर रजी ने दैत्यों का वध किया और स्वर्ग का राज्य इन्द्रदेव को लौटादिया।

    किन्तु इन्द्र ने प्रहाद जैसे दैत्यों के डर से स्वर्ग का राज्य रजी को लौटा दिया और स्वयं उसकेचरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली।

    पितर्युपरते पुत्रा याचमानाय नो ददुः ।

    त्रिविष्टपं महेन्द्राय यज्ञभागान्समाददु: ॥

    १४॥

    पितरि--जब उनका पिता; उपरते--दिवंगत हो गया; पुत्रा:--लड़कों ने; याचमानाय--माँगने पर; नो--नहीं; ददुः--लौटाया;त्रिविष्टपम्‌--स्वर्ग का राज्य; महेन्द्राय--महेन्द्र को; यज्ञ-भागान्‌--यज्ञ के भाग; समाददुः--दिया

    रजी की मृत्यु के बाद इन्द्र ने रजी के पुत्रों से स्वर्ग का राज्य लौटाने के लिए याचना की।

    किन्तुउन्होंने नहीं लौटाया, यद्यपि वे इन्द्र का यज्ञ-भाग लौटाने के लिए राजी हो गये।

    गुरुणा हूयमानेग्नौ बलभित्तनयात्रजे: ।

    अवधीदश्चंशितान्मार्गान्न कश्चिदवशेषित: ॥

    १५॥

    गुरुणा--गुरु ( बृहस्पति ) द्वारा; हूयमाने अग्नौ--अग्नि में आहुति डालते समय; बलभित्‌--इन्द्र ने; तनयान्‌--पुत्रों को; रजे: --रजीके; अवधीत्‌--मार डाला; भ्रशितान्‌ू--गिरे हुए; मार्गातू--नैतिक सिद्धान्तों से; न--नहीं; कश्चित्‌--कोई; अवशेषित: --जीवित रहा।

    तत्पश्चात्‌ देवताओं के गुरु बृहस्पति ने अग्नि में आहुति डाली जिससे रजी के पुत्र नैतिकसिद्धान्तों से नीचे गिर सकें।

    जब वे गिर गये तो इन्द्र ने उनके पतन के कारण उन्हें सरलता से मारडाला।

    उनमें से एक भी नहीं बच पाया।

    कुशात्प्रतिः क्षात्रवृद्धात्सअयस्तत्सुतो जय: ।

    ततः कृतः कृतस्यापि जज्ले हर्यबलो नृपः ॥

    १६॥

    कुशात्‌--कुश से; प्रतिः--प्रति नामक पुत्र; क्षात्रवृद्धात्‌-क्षत्रवृद्ध का पौत्र; सञ्लय:--सञ्जञय; तत्‌-सुतः--उसका पुत्र; जय:ः--जय;ततः--उससे; कृतः--कृत; कृतस्थ--कृत का; अपि-- भी; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; हर्यबल:--हर्यबल; नृप:--राजा |

    क्षत्रवृद्ध के पौत्र कुश से प्रति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    प्रति का पुत्र सञ्लय, सञ्जय का पुत्र जय,जय का पुत्र कृत और कृत का पुत्र राजा हर्यबल हुआ।

    सहदेवस्ततो हीनो जयसेनस्तु तत्सुतः ।

    सड्डू तिस्तस्य च जय: क्षत्रधर्मा महारथः ।

    क्षत्रवृद्धान्वया भूषा इ्मे शृण्वथ नाहुषान्‌ ॥

    १७॥

    सहदेव:--सहदेव; ततः--उससे; हीन:--हीन नामक; जयसेन: --जयसेन; तु-- भी; तत्‌-सुतः--हीन का पुत्र; सड्भू तिः--संकृति;तस्य--उसका; च-- भी; जय: --जय; क्षत्र-धर्मा--क्षत्रिय के कर्तव्यों में पटु; महा-रथ: --अत्यन्त शक्तिशाली योद्धा; क्षत्रवृद्ध-अन्वया:-क्षत्रवृद्ध के वंश में; भूपा:--राजा; इमे--ये सारे; श्रुणु--सुनो; अथ--अब; नाहुषान्‌ू--नहुष के उत्तराधिकारियों के बारेमें

    हर्यबल का पुत्र सहदेव, सहदेव का पुत्र हीन, हीन का पुत्र जयसेन और जयसेन का पुत्र संकृतिहुआ।

    संकृति का पुत्र जय अत्यन्त शक्तिशाली एवं निपुण योद्धा था।

    ये सभी राजा क्षत्रवृद्ध वंश केसदस्य थे।

    अब मैं नहुष के वंश का वर्णन करूँगा।

    TO

    अध्याय अठारह: राजा ययाति को अपनी युवावस्था प्राप्त हुई

    9.18श्रीशुक उबाचयतिर्ययाति: संयातिरायतिर्वियति: कृति: ।

    षडिमेनहुषस्यासन्निन्द्रियणीव देहिन: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; यति:--यति; ययातिः --ययाति; संयाति:--संयाति; आयति:--आयति;वियति:--वियति; कृति: --कृति; षट्‌ू--छः ; इमे--ये सभी; नहुषस्थ--राजा नहुष के; आसन्‌ू-- थे; इन्द्रियाणि--छ: इन्द्रियों; इब--सहश; देहिन:--देहधारी का

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, जिस तरह देहधारी आत्मा के छह इन्द्रियाँ होती हैंउसी तरह राजा नहुष के छह पुत्र थे जिनके नाम थे यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति तथाकृति।

    राज्यं नैच्छद्यति: पित्रा दत्तं तत्परिणामवित्‌ ।

    यत्र प्रविष्ट: पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥

    २॥

    राज्यम्‌ू--राज्य; न ऐच्छत्‌--स्वीकार नहीं किया; यतिः ---्येष्ठ पुत्र, यति ने; पित्रा--अपने पिता द्वारा; दत्तमू--दिया गया; ततू-'परिणाम-वित्‌--राजा के शक्तिशाली होने का फल जानते हुए; यत्र--जहाँ; प्रविष्ट:--घुसकर; पुरुष: --व्यक्ति; आत्मानमू--आत्म-साक्षात्कार; न--नहीं; अवबुध्यते--गम्भीरतापूर्वक ग्रहण करके समझेगा।

    जब कोई मनुष्य राजा या सरकार के अध्यक्ष के पद को ग्रहण करता है तो वह आत्म-साक्षात्कार का अर्थ नहीं समझ पाता।

    यह जानकर, नहुष के सबसे बड़े पुत्र यति ने शासन सँभालनास्वीकार नहीं किया यद्यपि उसके पिता ने राज्य को उसे ही सौंपा था।

    पितरि भ्रंशिते स्थानादिन्द्राण्या धर्षणादिद्वजै: ।

    प्रापितेउजगरत्वं वै ययातिरभवन्नूप: ॥

    ३॥

    पितरि--पिता के; भ्रंशिते--पतित किए जाने पर; स्थानात्‌--स्वर्गलोक से; इन्द्राण्या:--इन्द्र की पत्ती शच्ी का; धर्षणात्‌ू--अपमानकरने से; द्विजैः--ब्राह्मणों से ( शिकायत करने पर उनके द्वारा ); प्रापिते--नीचे गिराये जाने पर; अजगरत्वमू--अजगर का जीवन;बै--निस्सन्देह; ययाति:ः--ययाति नामक पुत्र; अभवत्‌--हुआ; नृप:--राजा

    चूँकि ययाति के पिता नहुष ने इन्द्र की पत्ली शची को छेड़ा था, अतएवं शची के अगस्त्य तथाअन्य ब्राह्मणों से शिकायत करने पर इन ब्राह्मणों ने नहुष को शाप दिया कि वह स्वर्ग से गिरकरअजगर बन जाय |

    फलतः ययाति राजा बना।

    चतसृष्वादिशद्धिक्षु भ्रातृन्‍्भ्राता यवीयस: ।

    कृतदारो जुगोपोर्वी काव्यस्य वृषपर्वण: ॥

    ४॥

    चतसृषु--चारों; आदिशत्‌--शासन करने की अनुमति दी; दिक्षु--दिशाओं में; भ्रातृनू--चारों भाइयों को; भ्राता--ययाति;यवीयस:--तरूण; कृत-दार:--विवाह किया; जुगोप--शासन किया; ऊर्वीम्‌--संसार पर; काव्यस्य--शुक्राचार्य की लड़की;वृषपर्वण:--वृषपर्वा की पुत्री

    राजा ययाति के चार छोटे भाई थे जिन्हें उसने चारों दिशाओं में शासन चलाने की अनुमति दे दीथी।

    ययाति ने शुक्राचार्य की बेटी देवयानी से एवं वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह किया और वह सारी पृथ्वी पर शासन करने लगा।

    श्रीराजोबाचब्रह्मर्षि्भगवान्काव्य: क्षत्रबन्धुश्न नाहुष: ।

    राजन्यविप्रयो: कस्माद्विवाह: प्रतिलोमक: ॥

    ५॥

    श्री-राजा उबाच--महाराज परीक्षित ने जिज्ञासा की; ब्रह्मू-ऋषि:--ब्राह्मणों में श्रेष्ठ; भगवान्‌ू--अत्यन्त शक्तिशाली; काव्य: --शुक्राचार्य ; क्षत्र-बन्धु:-- क्षत्रिय जाति से सम्बन्धित; च--भी; नाहुष:--राजा ययाति; राजन्य-विप्रयो:--ब्राह्मण तथा क्षत्रिय का;'कस्मात्‌ू-कैसे; विवाह:--विवाह; प्रतिलोमक:--प्रथा के विपरीत |

    महाराज परीक्षित ने कहा : शुक्राचार्य अत्यन्त शक्तिशाली ब्राह्मण थे और महाराज ययाति क्षत्रियथे।

    अतएव मैं यह जानने का इच्छुक हूँ कि ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के बीच यह प्रतिलोम विवाह कैसेसम्पन्न हुआ ?

    श्रीशुक उबाचएकदा दानवेन्द्रस्थ शर्मिष्ठा नाम कन्यका ।

    सखीसहस्त्रसंयुक्ता गुरुपुत्या च भामिनी ॥

    ६॥

    देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्गमसड्डू ले ।

    व्यचरत्कलगीतालिनलिनीपुलिनेउबला ॥

    ७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एकबार; दानव-इन्द्रस्य--वृषपर्वा की; शर्मिष्ठा--शर्मिष्ठा;।

    नाम--नामक;कन्यका--कन्या; सखी-सहस्त्र-संयुक्ता-- अपनी हजारों सखियों के साथ-साथ; गुरू-पुत्रया--गुरु शुक्राचार्य की पुत्री सहित; च--भी; भामिनी -- सरलता से चिढ़ने वाली; देवयान्या--देवयानी सहित; पुर-उद्याने--महल के बगीचे में; पुष्पित--फूलों से युक्त; द्रम--सुन्दर वृक्ष; सह्लू ले--सँटे हुए; व्यचरत्‌ू--टहल रही थी; कल-गीत--मधुर ध्वनि से; अलि--भौंरा; नलिनी--कमलिनियों से युक्त;पुलिने--ऐसे बगीचे में; अबला--निर्दोष

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : एकबार वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा, जो अबोध, किन्तु स्वभाव सेक्रोधी थी, शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा उसकी सैकड़ों सखियों के साथ राजमहल के बगीचे मेंघूम रही थी।

    यह बगीचा कमलिनियों तथा फूल-फल के वृक्षों से पूर्ण था और उसमें मधुर गीत गातेपक्षी तथा भौरें निवास कर रहे थे।

    ता जलाशयमासाद्य कन्या: 'कमललोचना: ।

    तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्ठु: सिद्धतीर्मिथ: ॥

    ८॥

    ताः--वे; जल-आशयम्‌--झील पर; आसाद्य--पहुँच कर; कन्या:--सारी लड़कियाँ; कमल-लोचना:--कमल की पंखुड़ियों जैसेनेत्रों वाली; तीरि--किनारे पर; न्यस्य--रख कर; दुकूलानि---अपने-अपने वस्त्र; विजहु:--खेलने लगीं; सिज्ञती:--जल फेंककर;मिथः--परस्पर।

    जब तरुणी, कमलनयनी लड़कियाँ जलाशय के तीर पर आईं तो उन्होंने स्नान का आनन्द लेनाचाहा।

    फलतः किनारे पर अपने वस्त्र रखकर वे एक दूसरे पर जल उछाल कर जल-क्रीड़ा करनेलगीं।

    वीक्ष्य ब्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम्‌ ।

    सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्रीडिता: स्त्रियः ॥

    ९॥

    वीक्ष्य--देखकर; ब्रजन्तम्‌--जाते हुए; गिरिशम्‌--शिवजी को; सह--साथ; देव्या--पार्वती के; वृष-स्थितम्‌--बैल के ऊपरआसीन; सहसा--एकाएक; उत्तीर्य--जल से निकल कर; वासांसि--वस्त्र; पर्यधु; --शरीर पर पहन लिया; ब्रीडिता:--लज्जित होकर;स्त्रियः--युवतियों ने |

    जलक़ीड़ा करते हुए लड़कियों ने सहसा शिवजी को ऊपर से जाते देखा जो अपने बैल की पीठपर अपनी पली पार्वती समेत आसीन थे।

    नंगी होने के कारण लज्जित वे लड़कियाँ तुरन्त जल सेबाहर निकल आईं और उन्होंने अपने वस्त्रों से अपने-अपने शरीर ढक लिये।

    शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्या: समव्ययत्‌ ।

    स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानीदमब्रवीत्‌ ॥

    १०॥

    शर्मिष्ठा--वृषपर्वा की पुत्री ने; अजानती--अनजाने; वास:--वस्त्र; गुरु-पुत्रया:--अपने गुरु की पुत्री देवयानी का; समव्ययत्‌--पहनलिया; स्वीयम्‌--अपना; मत्वा--मानकर; प्रकुपिता--क्ुद्ध; देवयानी--शुक्राचार्य की पुत्री ने; इदम्‌--यह; अब्नरवीत्‌--कहा |

    शर्मिष्ठा ने अनजाने ही देवयानी का वस्त्र पहन लिया जिससे देवयानी को क्रोध आ गया और वह इस प्रकार बोली।

    अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्या: कर्म हासाम्प्रतम्‌ ।

    अस्मद्धार्य धृतवती शुनीव हविरध्वरे ॥

    ११॥

    अहो--ेरे; निरीक्ष्यताम्‌--देखो तो; अस्या: --इसका ( शर्मिष्ठा का ); दास्याः--हमारी दासी की तरह; कर्म--कार्य; हि--निस्सन्देह;असाम्प्रतम्‌-बिना किसी शिष्टाचार के; अस्मत्‌-धार्यम्‌--मेरे वस्त्र को; धृतवती--उसने पहन लिया; शुनी इब--कुत्ते की तरह;हविः--घी; अध्वरे--यज्ञ में डालने के निमित्त ।

    आरे जरा देखो न इस दासी शर्मिष्ठा की करतूतों को, इसने सारे शिष्टाचार को ताक पर रखकरमेरे वस्त्र धारण कर लिये हैं मानो यज्ञ के निमित्त रखे घी को कोई कुत्ता छीन ले।

    यैरिदं तपसा सूष्टं मुखं पुंसः परस्य ये ।

    धार्यते यैरिह ज्योति: शिवः पन्था: प्रदर्शित: ॥

    १२॥

    यान्वन्दन्त्युपतिष्ठन्ते लोकनाथा: सुरेश्वरा: ।

    भगवानपि विश्वात्मा पावन: श्रीनिकेतनः ॥

    १३॥

    वबयं तत्रापि भूगवः शिष्योस्या नः पितासुरः ।

    अस्मद्धार्य धृतवती शूद्रो वेदमिवासती ॥

    १४॥

    यैः--जिन व्यक्तियों के द्वारा; इदमू--यह सारा विश्व; तपसा--तपस्या से; सृष्टम्‌--उत्पन्न हुआ था; मुखम्‌--मुँह; पुंस:--परम पुरुषका; परस्य--दिव्य; ये--जो ( हैं ); धार्यते--सदैव उत्पन्न होता है; यैः--जिन व्यक्तियों के द्वारा; हह--यहाँ; ज्योति:--ब्रह्मज्योति;शिव:--शुभ; पन्था:--मार्ग; प्रदर्शित:--दिखलाया गया; यान्‌--जिनको; वन्दन्ति--वन्दना करते हैं; उपतिष्ठन्ते--सम्मान करते तथाअनुगमन करते हैं; लोक-नाथा:--विभिन्न लोकों के निर्देशक; सुर-ई श्वरा:--देवतागण; भगवान्‌-- भगवान्‌; अपि-- भी; विश्व-आत्मा--परमात्मा; पावन:--पवित्र करने वाला; श्री-निकेतन:--लक्ष्मी के पति; वयम्‌--हम ( हैं ); तत्र अपि--अन्य ब्राह्मणों से भीबड़े; भूगव:-- भूगवंशी; शिष्य: --शिष्य; अस्या:--उसका; नः--हमारा; पिता--पिता; असुरः --असुर; अस्मत्‌-धार्यम्‌--हमारेपहनने के निमित्त; धृतवती--पहन लिया है; शूद्र:--अब्राह्मण सेवक; वेदम्‌ू--वेद; इब--सहृश; असती--जो सती न हो, कुलटा |

    हम उन योग्य ब्राह्मणों में से हैं जिन्हें भगवान्‌ का मुख माना गया है।

    ब्राह्मणों ने अपनी तपस्या सेसमग्र विश्व को उत्पन्न किया है और वे परम सत्य को अपने अन्तःकरण में सदैव धारण करते हैं।

    उन्होंने सौभाग्य के पथ का निर्देशन किया है जो कि वैदिक सभ्यता का पथ है।

    वे इस जगत मेंएकमात्र पूजनीय हैं अतएवं उनकी स्तुति की जाती है और विभिन्न लोकों के नायक बड़े से बड़ेदेवता भी उनकी पूजा करते हैं--यहाँ तक कि सब को पवित्र करने वाले, लक्ष्मी देवी के पति,परमात्मा द्वारा भी वे पूजित हैं और हम तो इसलिए भी अधिक पूज्य हैं क्योंकि हम भृगुवंशी हैं।

    यद्यपि इस स्त्री का पिता असुर होकर हमारा शिष्य है तो भी इसने मेरे वस्त्र को उसी तरह धारण कर लिया है जिस तरह कोई शूद्र वैदिक ज्ञान का भार सँभाले।

    एवं क्षिपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्नीमभाषत ।

    रुषा श्रसन्त्युरड्रीव धर्षिता दृष्टदच्छदा ॥

    १५॥

    एवम्‌--इस प्रकार; क्षिपन्तीमू--अपमानित की गई; शर्मिष्ठा--वृषपर्वा की पुत्री ने; गुरु-पुत्रीमू--गुरु शुक्राचार्य की पुत्री से;अभाषत--कहा; रुषा-क्ुद्ध हाने से; श्रसन्‍्ती--गहरी साँस लेती; उरड्री इब--सर्पिणी की तरह; धर्षिता--कुचली हुई, अपमानित;दष्ट-दत्‌-छदा--अपने दाँतों से अपने होठ चबाती |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : शर्मिष्ठा को जब इस तरह कठोर शब्दों से डाँटा गया तो वहअत्यधिक क्रुद्ध हो उठी।

    सर्पिणी की तरह गहरी साँस छोड़ती और अपने निचले होठ को अपने दाँतोंसे चबाती वह शुक्राचार्य की पुत्री से इस तरह बोली।

    आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि ।

    कि न प्रतीक्षसे उस्माकं गृहान्बलिभुजो यथा ॥

    १६॥

    आत्म-वृत्तम्‌--अपनी स्थिति; अविज्ञाय--न समझकर; कत्थसे--तुम पागलों की तरह बातें कर रही हो; बहु--अधिक; भिक्षुकि--भिखारिन; किमू--क्या; न--नहीं; प्रतीक्षसे-- प्रतीक्षा करती हो; अस्माकम्‌--हमारे; गृहान्‌--घर पर; बलिभुज:--कौवे; यथा--जिस तरह |

    अरे भिखारिन, जब तुम्हें अपनी स्थिति का पता नहीं है तो व्यर्थ ही क्‍यों इतना बोल रही हो ?

    क्या तुम लोग अपनी जीविका के लिए हम पर आश्नित रहकर कौवों की भाँति हमारे घर पर प्रतीक्षानहीं करते हो ?

    एवंविधे: सुपरुषै: क्षिप्त्वाचार्यसुतां सतीम्‌ ।

    शर्मिष्ठा प्राक्षिपत्कूपे वासश्चादाय मन्युना ॥

    १७॥

    एवम्‌ू-विधे:--इस प्रकार से; सु-परुषै:--अत्यन्त अप्रिय बचनों द्वारा; क्षिप्वा--अपमानित होकर; आचार्य-सुताम्‌--शुक्राचार्य कीपुत्री को; सतीम्‌--देवयानी को; शर्मिष्ठा --शर्मिष्ठा ने; प्राक्षिपत्‌--फेंक दिया; कूपे--कुएँ में; वास:--वस्त्र; च--तथा; आदाय--लेकर; मन्युना--क्रोध में आकर।

    ऐसे अप्रिय वचनों का उपयोग करते हुए शर्मिष्ठा ने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को फटकारा।

    उसने क्रोध में आकर देवयानी के वस्त्र छीन लिए और उसे एक कुएँ में धकेल दिया।

    तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन्‌ ।

    प्राप्तो यहच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह ॥

    १८॥

    तस्याम्‌--उसके; गतायाम्‌--चले जाने पर; स्व-गृहम्‌-- अपने घर; ययाति:--राजा ययाति; मृगयाम्‌--शिकार करने; चरन्‌--घूमतेहुए; प्राप्त:--आया; यहच्छया--संयोगवश; कूपे--कुएँ में; जल-अर्थी--जल पीने की इच्छा से; तामू--उसको ( देवयानी को );ददर्श--देखा; ह--निस्सन्देह |

    देवयानी को कुएँ में धकेल कर शर्मिष्ठा अपने घर चली गई।

    तभी शिकार के लिए निकला राजाययाति उस कुएँ पर पानी पीने के लिए आया और संयोगवश देवयानी को देखा।

    दत्त्वा स्वमुत्तरं वासस्तस्यै राजा विवाससे ।

    गृहीत्वा पाणिना 'पाणिमुज्जहार दयापरः: ॥

    १९॥

    दत्त्वा--देकर; स्वम्‌-- अपना; उत्तरमू--उत्तरीय, ऊपरी; वास:--वस्त्र; तस्यै--उस ( देवयानी ) को; राजा--राजा; विवाससे--नग्नहोने के कारण; गृहीत्वा--पकड कर; पाणिना--हाथ से; पाणिम्‌--उसके हाथ को; उजहार--उद्धार किया; दया-पर:--अत्यन्तदयालु।

    देवयानी को कुएँ में नग्न देखकर राजा ययाति ने तुरन्त ही अपना ऊपरी वस्त्र उसे दे दिया।

    उसपर अत्यन्त दयालु होकर उसने अपने हाथ से उसका हाथ पकड़ कर उसे बाहर निकाला।

    त॑ वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा ।

    राजंस्त्वया गृहीतो मे पाणि: परपुरञ्ञय ॥

    २०॥

    हस्तग्राहोपरो मा भूदगृहीतायास्त्वया हि मे ।

    एप ईशकूतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुष: ॥

    २१॥

    तम्‌--उस; वीरम्‌--वीर ययाति से; आह--कहा; औशनसी--उशना कवि या शुक्राचार्य की पुत्री ने; प्रेम-निर्भरया--प्रेम तथा दया सेसिक्त; गिरा--वाणी से; राजन्‌--हे राजा; त्वया--तुम्हारे द्वारा; गृहीत:--अंगीकृत; मे--मेरा; पाणि: --हा थ; पर-पुरञझ्य--अन्यों केराज्यों का विजेता; हस्त-ग्राह:--मेरा हाथ थामने वाला; अपर:--दूसरा; मा--मत; भूत्‌ू--होये; गृहीताया: --स्वीकृत; त्वया --तुम्हारे द्वारा; हि--निस्सन्देह; मे--मेरा; एब:--यह; ईश-कृत:--दैव द्वारा नियोजित; वीर--हे वीर; सम्बन्ध: --सम्बन्ध; नौ--हमारा; न--नहीं; पौरुष: --मानवनिर्मित |

    देवयानी प्रेमसिक्त शब्दों में राजा ययाति से बोली ' हे परम वीर! हे राजा! हे शत्रुओं के नगरों केविजेता! आपने मेरा हाथ थामकर मुझे अपनी विवाहिता पत्नी के रूप में स्वीकार किया है।

    अब मुझेकोई दूसरा नहीं छूने पाये क्योंकि हमारा यह पति-पत्नी का सम्बन्ध भाग्य द्वारा सम्भव हो सका है,किसी व्यक्ति द्वारा नहीं।

    दिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम ।

    न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज ।

    कचस्य बाईस्पत्यस्य शापाद्यमशपं पुरा ॥

    २२॥

    यत्‌--चूँकि; इृदम्‌--इस; कूप-मग्नाया:--कुएँ में गिरी; भवत:--आपकी; दर्शनम्‌ू--भेंट; मम--मुझसे; न--नहीं; ब्राह्मण:--योग्यब्राह्मण; मे--मेरा; भविता--हो सकोगे; हस्त-ग्राह:--पति; महा-भुज--हे शक्तिशाली भुजावाले; कचस्य--कच का;बाईस्पत्यस्थ--विद्वान ब्राह्मण एवं देवों के पुरोहित बृहस्पति के पुत्र के; शापात्‌ू-शाप से; यमू--जिसको; अशपम्‌--मैंने शाप दिया;पुरा--भूतकाल मेंकुएँ में गिर जाने के कारण मैं आपसे मिली।

    निस्सन्देह, यह विधि का विधान था।

    जब मैंनेप्रकाण्ड विद्वान बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दिया तो उसने मुझे यह शाप दिया कि तुझे ब्राह्मणपति नहीं प्राप्त हो सकेगा।

    अतएव हे महाभुज! मेरे किसी ब्राह्मण की पत्नी बनने की कोई सम्भावनानहीं है।

    ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहतमात्मन: ।

    मनस्तु तदगतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्ब्र: ॥

    २३॥

    ययाति:--राजा ययाति; अनभिप्रेतम्‌--न चाहते हुए; दैव-उपहतम्‌--विधाता द्वारा की गई व्यवस्था को; आत्मन:--निजी हित;मनः--मन; तु--फिर भी; तत्‌-गतम्‌--उससे आकृष्ट होकर; बुद्ध्वा--ऐसी बुद्धि द्वारा; प्रतिजग्राह--स्वीकार कर लिया; ततू-वचः--देवयानी के शब्द।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : चूँकि शास्त्रों द्वारा ऐसे विवाह की अनुमति नहीं है अतएव राजाययाति को यह अच्छा नहीं लगा, किन्तु विधाता द्वारा व्यवस्थित होने तथा देवयानी के सौन्दर्य केप्रति आकृष्ट होने से उसने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

    गते राजनि सा धीरे तत्र सम रूदती पितुः ।

    न्यवेदयत्ततः सर्वमुक्त शर्मिष्ठया कृतम्‌ ॥

    २४॥

    गते राजनि--राजा के चले जाने के बाद; सा--उस ( देवयानी ) ने; धीरे--विद्वान; तत्र स्म--अपने घर लौटकर; रुदती--रोती हुई;पितु:--अपने पिता के समक्ष; न्यवेदयत्‌--कह सुनाया; ततः--तत्पश्चात्‌; सर्वम्‌--सारा; उक्तम्‌--कहा गया; शर्मिष्ठया --शर्मिष्ठाद्वारा; कृतम्‌--किया गया

    तत्पश्चात्‌ जब विद्वान राजा अपने महल को वापस चला गया तो देवयानी रोती हुई घर लौटी औरउसने अपने पिता शुक्राचार्य को शर्मिष्ठा के कारण घटी सारी घटना कह सुनाई।

    उसने बतलाया किवह किस तरह कुएँ में धकेली गयी थी किन्तु एक राजा द्वारा बचा ली गई।

    दुर्मना भगवान्काव्य: पौरोहित्यं विगर्हयन्‌ ।

    स्तुवन्वृत्ति च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात्‌ ॥

    २५॥

    दुर्मना:--अत्यन्त अप्रसन्न होकर; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; काव्य:--शुक्राचार्य ने; पौरोहित्यम्‌-पुरोहिती कर्म को;विगर्हयन्‌-धिक्कारते हुए; स्तुवन्‌-- प्रशंसा करते हुए; वृत्तिमू--पेशे को; च--तथा; कापोतीम्‌-खेत से अन्न बीनने के; दुहित्रा--अपनी पुत्री समेत; सः--वह ( शुक्राचार्य ); ययौ--गया; पुरात्‌ू--अपने आवास से |

    जब शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ घटी घटना सुनी तो वे मन में अत्यन्त दुखी हुए।

    पुरोहितीवृत्ति को धिक्कारते एवं उज्छवृत्ति ( खेत से अन्न बीनने ) की प्रशंसा करते हुए उन्होंने पुत्री सहितअपना घर छोड़ दिया।

    वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम्‌ ।

    गुरुं प्रसादयन्मूर्धश्न पादयो: पतित: पश्चि ॥

    २६॥

    वृषपर्वा--असुरों का राजा; तम्‌ आज्ञाय--शुक्राचार्य का मन्तव्य समझकर; प्रत्यगीक--कोई शाप; विवक्षितम्‌--कहने की इच्छाकरते हुए; गुरुम्‌-गुरु शुक्राचार्य को; प्रसादयत्‌--तुरन्त प्रसन्न कर लिया; मूर्ध्ना--अपने सिर से; पादयो:--चरणों पर; पतित:--गिरपड़ा; पथि--मार्ग पर।

    राजा वृषपर्वा समझ गया कि शुक्राचार्य उसे प्रताड़ित करने या शाप देने आ रहे हैं।

    फलस्वरूप,इसके पूर्व कि शुक्राचार्य उसके महल में आयें, वृषपर्वा बाहर आ गया और मार्ग में ही अपने गुरु केचरणों पर गिर पड़ा तथा उनके रोष को रोकते हुए उन्हें प्रसन्न कर लिया।

    क्षणार्धमन्युर्भगवान्शिष्य॑ व्याचष्ट भार्गव: ।

    कामोउस्या: क्रियतां राजन्नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥

    २७॥

    क्षण-अर्ध--कुछ ही क्षण; मन्यु:--क्रोध; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; शिष्यम्‌-- अपने शिष्य वृषपर्वा से; व्याचष्ट--कहा;भार्गव:--भूृगुवंशी शुक्राचार्य से; काम: --इच्छा; अस्या: --इस देवयानी की; क्रियताम्‌--पूरी करो; राजन्‌--हे राजा; न--नहीं;एनामू--इस लड़की को; त्यक्तुमू--त्यागने के लिए; इह--इस संसार में; उत्सहे--समर्थ हूँ ।

    शक्तिशाली शुक्राचार्य कुछ क्षणों तक क्रुद्ध रहे, किन्तु प्रसन्न हो जाने पर उन्होंने वृषपर्वा सेकहाः हे राजन, देवयानी की इच्छा पूरी कीजिये क्योंकि वह मेरी पुत्री है और मैं इस संसार में न तोउसे छोड़ सकता हूँ न उसकी उपेक्षा कर सकता हूँ।

    तथेत्यवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम्‌ ।

    पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु ॥

    २८॥

    तथा इति--जब राजा वृषपर्वा ने शुक्राचार्य के प्रस्ताव को मान लिया; अवस्थिते--जब इस तरह मामला तय हो गया; प्राह--कहा;देवयानी--शुक्राचार्य की पुत्री ने; मनोगतम्‌--अपनी इच्छा; पित्रा--पिता द्वारा; दत्ता--दिया गया; यत:--चाहे जिस किसी को;यास्ये--मैं जाऊँगी; स-अनुगा-- अपनी सखियों सहित; यातु--जाऊँ; माम्‌ अनु--मेरी दासी के रूप में |

    शुक्राचार्य के निवेदन को सुनकर वृषपर्वा देवयानी की मनोकामना पूरी करने के लिए राजी होगया और वह उसके वबचनों की प्रतीक्षा करने लगा।

    तब देवयानी ने अपनी इच्छा इस प्रकार व्यक्तकी, 'जब भी मैं अपने पिता की आज्ञा से विवाह करूँ तो मेरी सखी शर्मिष्ठा अपनी सखियों समेतमेरी दासी के रूप में मेरे साथ चले।

    पित्रा दत्ता देवयान्य शर्मिष्ठा सानुगा तदा ।

    स्वानां तत्सड्डटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम्‌ ।

    देवयानीं पर्यचरत्सत्रीसहस्त्रेण दासवत्‌ ॥

    २९॥

    पित्रा--पिता द्वारा; दत्ता--दी गई; देवयान्यै--देवयानी को; शर्मिष्ठा--वृषपर्वा की पुत्री; स-अनुगा--अपनी सखियों सहित; तदा--उस समय; स्वानाम्‌--अपनी; तत्‌--वह; सड्डूटम्‌--कठिन परिस्थिति को; वीक्ष्य--देखकर; तत्‌--उससे; अर्थस्य--लाभ का; च--भी; गौरवम्‌ू--महानता; देवयानीम्‌ू--देवयानी को; पर्यचरत्‌--सेवा की; स्त्री-सहस्त्रेण--अन्य हजारों स्त्रियों सहित; दास-वत्‌--दासीके समान।

    वृषपर्वा ने बुद्धिमानी के साथ सोचा कि शुक्राचार्य की अप्रसन्नता से संकट आ सकता है औरउनकी प्रसन्नता से भौतिक लाभ प्राप्त हो सकता है।

    अतएव उसने शुक्राचार्य का आदेश शिरोधार्यकिया और दास की तरह उनकी सेवा की।

    उसने अपनी पुत्री शर्मिष्ठा को देवयानी को सौंप दिया औरशर्मिष्ठा ने अपनी अन्य हजारों सखियों सहित दासी की तरह उसकी सेवा की।

    नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना ।

    तमाह राजज्छर्मिष्ठामाधास्तल्पे न कहिंचित्‌ ॥

    ३०॥

    नाहुषाय--नहुष के पुत्र ययाति को; सुताम्‌--पुत्री; दत्त्ता--विवाह में देकर; सह--साथ; शर्मिष्ठया--वृषपर्वा की पुत्री तथा देवयानीकी दासी शर्मिष्ठा के; उशना--शुक्राचार्य ने; तमू--उस ( राजा से )) आह--कहा; राजनू्‌--हे राजा; शर्मिष्ठाम्‌--वृषपर्वा की पुत्रीशर्मिष्ठा को; आधा: --अनुमति दें; तल्पे--अपने बिस्तर में; न--नहीं; कह्िंचित्‌ू--कभी भी |

    जब शुक्राचार्य ने देववानी का विवाह ययाति से कर दिया तो उसने शर्मिष्ठा को भी उसके साथजाने दिया लेकिन राजा को चेतावनी दी 'हे राजन, इस शर्मिष्ठा को कभी अपनी सेज में अपने साथशयन करने की अनुमति मत देना।

    विलोक्यौशनसीं राजज्छर्मिष्ठा सुप्रजां क्वचित्‌ ।

    तमेव वत्रे रहसि सख्या: पतिमृतो सती ॥

    ३१॥

    विलोक्य--देखकर; औशनसीम्‌-शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; शर्मिष्ठा--वृषपर्वा की पुत्री ने; सु-प्रजाम्‌ू--सुन्दर सन्‍्तान वाली; क्वचित्‌--किसी समय; तम्‌--उस ( राजा ययाति ) से; एव--निस्सन्देह; वब्रे--प्रार्थना की; रहसि--एकान्त में; सख्या:--अपनी सखी के; पतिम्‌--पति को; ऋतौ--उपयुक्त समय पर; सती--उस स्थिति में रहकर।

    हे राजा परीक्षित, देवयानी के सुन्दर पुत्र को देखकर एक बार शर्मिष्ठा संभोग के लिए उचितअवसर पर राजा ययाति के पास पहुँची।

    उसने एकान्त में अपनी सखी देवयानी के पति राजा ययातिसे प्रार्थना की कि उसे भी पुत्रवती बनायें।

    राजपुत्र्यार्थितो उपत्ये धर्म चावेक्ष्य धर्मवित्‌ ।

    स्मरज्छुक्रवच: काले दिष्टमेवाभ्यपद्मयत ॥

    ३२॥

    राज-पुत्रया--शर्मिष्ठा से जो एक राजा की पुत्री थी; अर्थित:--अनुरोध किए जाने पर; अपत्ये--पुत्र लाभ के लिए; धर्मम्‌--धर्म को;च--भी; अवेक्ष्य--विचार करके; धर्म-वित्‌-- धर्म का ज्ञाता; स्मरन्‌ू--स्मरण करते हुए; शुक्र-वच: --शुक्राचार्य की चेतावनी;काले--समय पर; दिष्टमू--संयोगवश; एब--निस्सन्देह; अभ्यपद्यत--( शर्मिष्ठा की इच्छा पूरी करने के लिए )

    स्वीकार कर लियाजब राजकुमारी शर्मिष्ठा ने राजा ययाति से पुत्र के लिए याचना की तो अपने धर्म से अवगत राजाउसकी इच्छा पूरी करने के लिए राजी हो गया।

    यद्यपि उसे शुक्राचार्य की चेतावनी स्मरण थी, किन्तुइस मिलन को परमेश्वर की इच्छा मानकर उसने शर्मिष्ठा के साथ संभोग किया।

    यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।

    ब्रुह्मूं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥

    ३३॥

    यदुम्‌--यदु को; च--तथा; तुर्वसुम्‌-तुर्वसु को; च एबव--तथा; देवयानी--देवयानी ने; व्यजायत--जन्म दिया; बद्ुह्मुम्‌--द्रु्मु को;च--तथा; अनुम्‌ू-- अनु को; च--भी; पूरुम्‌-पुरु को; च--भी; शर्मिष्ठा--शर्मिष्ठा ने; वार्षपर्वणी--वृषपर्वा की पुत्री |

    देवयानी ने यदु तथा तुर्वसु को जन्म दिया और शर्मिष्ठा ने द्रह्मयु, अनु तथा पुरु को जन्म दिया।

    गर्भसम्भवमासूर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी ।

    देवयानी पितुर्गेह ययौ क्रोधविमूर्छिता ॥

    ३४॥

    गर्भ-सम्भवम्‌--गर्भ-धारण; आसुर्या:--शर्मिष्ठा का; भर्तु:--अपने पति से सम्भव बनाया गया; विज्ञाय--जानकर ( ब्राह्मणज्योतिषियों से ); मानिनी--अत्यन्त गर्वीली; देवयानी--शुक्राचार्य की पुत्री; पितु:--अपने पिता के; गेहम्‌--घर को; ययौ--गई;क्रोध-विमूछिता--क्रोध से मूर्छित।

    जब गर्वीली देवयानी बाहरी स्त्रोतों से जान गई कि शर्मिष्ठा उसके पति से गर्भवती हुई है तो वहक्रोध से मूछित हो उठी और वह अपने पिता के घर ( मायके ) चली गई।

    प्रियामनुगतः कामी वचोभिरुपमन्त्रयन्‌ ।

    न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभि: ॥

    ३५॥

    प्रियामू--अपनी प्रियतमा के; अनुगत: --पीछे -पीछे जाकर; कामी --अत्यन्त विषयी; वचोभि:--शब्दों से; उपमन्त्रयन्‌ू--खुश करने;न--नहीं; प्रसादयितुम्‌्--प्रसन्न करने के लिए; शेके--समर्थ था; पाद-संवाहन-आदिभि:--उसके पाँव दबाकर के भी |

    चूँकि राजा ययाति अत्यन्त विषयी था अतएवं वह अपनी पतली के पीछे-पीछे हो लिया।

    उसनेउसे पकड़ कर मीठे शब्द कहे तथा उसके पाँव दबाकर उसे प्रसन्न करने का प्रयास किया, किन्तु वहउसे किसी भी तरह मना न पाया।

    शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष ।

    त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम्‌ ॥

    ३६॥

    शुक्र:--शुक्राचार्य; तमू--उस ( राजा ययाति ) से; आह--बोला; कुपित:--उस पर क्रुद्ध होकर; स्त्री-काम--स्त्रियों से विषय-भोगकी इच्छा करने वाले; अनृत-पूरुष--हे झूठे व्यक्ति; त्वामू--तुमको; जरा--वृद्धावस्था, अशक्तता; विशताम्‌-- प्रवेश करे; मन्द-- ओरेमूर्ख; विरूप-करणी--कुरूप बनाने वाली; नृणाम्‌--मनुष्यों के शरीरों को |

    शुक्राचार्य अत्यन्त क्रुद्ध थे।

    उन्होंने कहा, 'आरे झूठे! मूर्ख! स्त्रीकामी! तुमने बहुत बड़ी गलतीकी है।

    अतएव मैं शाप देता हूँ कि तुम पर बुढ़ापा तथा अशक्तता का आक्रमण हो जिससे तुम कुरूपबन जाओ।

    रीययातिरुवाचअतृप्तोस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन्दुहितरि सम ते ।

    व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योउभिधास्यति ॥

    ३७॥

    श्री-ययाति: उवाच--राजा ययाति ने कहा; अतृप्त:--असंतुष्ट; अस्मि--मैं हूँ; अद्य--आज तक; कामानाम्‌--अपनी विषयवासनाओंको तृप्त करने के लिए; ब्रह्मनू--हे विद्वान ब्राह्मण; दुहितरि--पुत्री के सम्बन्ध में; स्म-- भूतकाल में; ते--तुम्हारी; व्यत्यस्थताम्‌--आदान-प्रदान करो; यथा-कामम्‌--जब तक तुम विषयी हो; वयसा--युवावस्था ( जवानी ) से; यः अभिधास्यति--जो तुम्हारीवृद्धावस्था से अपनी युवावस्था को बदलने के लिए इच्छुक हो।

    राजा ययाति ने कहा : 'हे विद्वान पूज्य ब्राह्मण, अभी भी तुम्हारी पुत्री के साथ मेरी कामेच्छाएँपूरी नहीं हुईं।

    तब शुक्राचार्य ने उत्तर दिया, 'चाहो तो तुम अपने बुढ़ापे को किसी ऐसे व्यक्ति सेबदल लो जो तुम्हें अपनी युवावस्था देने को तैयार हो।

    इति लब्धव्यवस्थान: पुत्र ज्येष्ठगवोचत ।

    यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः ॥

    ३८॥

    इति--इस प्रकार; लब्ध-व्यवस्थान: --अपना बुढ़ापा बदलने का अवसर पाकर; पुत्रम्‌ू--अपने बेटे से; ज्येष्टमू--सबसे बड़े;अवोचत--प्रार्थना की; यदो--हे यदु; तात--तुम मेरे प्रिय पुत्र हो; प्रतीच्छ--बदल लो; इमाम्‌--इस; जराम्‌ू--बुढ़ापे को, अशक्तताको; देहि--तथा दे दो; निजम्‌ू--अपनी; वयः--जवानी

    जब ययाति को शुक्राचार्य से यह वर प्राप्त हो गया तो उसने अपने सबसे बड़े पुत्र से अनुरोधकिया, 'हे पुत्र यदु, तुम मेरी वृद्धावस्था तथा अशक्तता के बदले में मुझे अपनी जवानी दे दो।

    'मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम्‌ ।

    वयसा भवदीयेन रंस्थे कतिपया: समा: ॥

    ३९॥

    मातामह-कृताम्‌--तुम्हारे नाना शुक्राचार्य द्वारा प्रदत्त; वत्स--मेरे बेटे; न--नहीं; तृप्त: --सन्तुष्ट; विषयेषु--विषयी जीवन में,इन्द्रियतृप्ति में; अहम्‌--मैं; वयसा--उप्र से; भवदीयेन--तुम्हारी; रंस्थे--विषयभोग का आनन्द लूँगा; कतिपया:--कुछ; समा: --वर्ष,'हे पुत्र मैं अपनी विषयेच्छाओं से अभी भी तुष्ट नहीं हो पाया।

    किन्तु यदि तुम मुझ पर दयाकरो तो अपने नाना द्वारा प्रदत्त बुढ़ापे को ले सकते हो तथा अपनी जवानी मुझे दे सकते हो जिससे मैंकुछ वर्ष और जीवन का भोग कर लूँ।

    श्रीयदुरुवाचनोत्सहे जरसा स्थातुमन्तरा प्राप्तया तव ।

    अविदित्वा सुख ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुष: ॥

    ४०॥

    श्री-यदुः उवाच--ययाति के उ्येष्ठ पुत्र यदु ने उत्तर दिया; न उत्सहे--मैं उत्सुक नहीं हूँ; जरसा--आपके बुढ़ापे तथा अशक्तता से;स्थातुमू--रहने के लिए; अन्तरा--जवानी में; प्राप्तया--स्वीकार किया हुआ; तबव--आपका; अविदित्वा--बिना अनुभव किये;सुखम्‌--सुख; ग्राम्यम्‌-- भौतिक या शारीरिक; वैतृष्ण्यम्‌-- भौतिक सुख से विरक्ति; न--नहीं; एति--प्राप्त करता है; पूरुष:--व्यक्ति

    यदु ने उत्तर दिया: हे पिताजी, यद्यपि आप भी तरुण पुरुष थे, किन्तु आपने वृद्धावस्था प्राप्त करली है।

    किन्तु मुझे आपका बुढ़ापा तथा जर्जरता तनिक भी मान्य नहीं है क्योंकि भौतिक सुख काभोग किये बिना कोई विरक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

    तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रह्मुश्नानुश्न भारत ।

    प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्मानित्ये नित्यबुद्धयः ॥

    ४१॥

    तुर्वसु:--तुर्वसु, दूसरा पुत्र; चोदित:--निवेदन किये जाने पर; पित्रा--पिता द्वारा ( बुढ़ापे और अशक्तता को जवानी से बदलने केलिए ); ब्रह्मु:--ह्ुह्मु एक और पुत्र; च--तथा; अनुः--एक और पुत्र अनु ने; च-- भी; भारत--हे राजा परीक्षित; प्रत्याचख्यु:--माननेसे मना कर दिया; अधर्म-ज्ञा:--धर्म के सिद्धान्तों को न जानने वाले; हि--निस्सन्देह; अ-नित्ये--नाशवान जवानी; नित्य-बुद्धय: --नित्य मानकर।

    हे महाराज परीक्षित, ययाति ने इसी तरह अन्य पुत्रों सेतुर्वसु, द्रुह्मु तथा अनु से वृद्धावस्था केबदले अपनी जवानी देने के लिए निवेदन किया लेकिन वे सभी अधर्मज्ञ थे इसलिए उन्होंने सोचा किउनकी नाशवान जवानी शाश्वत है अतएव उन्होंने अपने पिता के आदेश को मानने से मना कर दिया।

    अपृच्छत्तनयं पूरुं बयसोनं गुणाधिकम्‌ ।

    न त्वमग्रजदद्वत्स मां प्रत्याख्यातुमहसि ॥

    ४२॥

    अपृच्छत्‌ू--निवेदन किया; तनयम्‌--पुत्र; पूरुमू--पूरु से; बबसा--आयु से; ऊनम्‌--यद्यपि कम; गुण-अधिकम्‌--किन्तु गुणों मेंअन्यों से बढ़कर; न--नहीं; त्वमू-तुम; अग्रज-वत्‌--अपने बड़े भाइयों के समान; वत्स-हे पुत्र; माम्‌--मुझको; प्रत्याख्यातुम्‌--मना करना; अहसि--चाहिए।

    तत्पश्चात्‌ राजा ययाति ने पूरु से, जो अपने इन तीनों भाइयों से उम्र में छोटा था किन्तु अधिकयोग्य था, इस तरह निवेदन किया, 'हे पुत्र, तुम अपने बड़े भाइयों की तरह अवज्ञाकारी मत बनोक्योंकि यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं है।

    'श्रीपूररुवाचको नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृत: पुमान्‌ ।

    प्रतिकर्तु क्षमो यस्य प्रसादाद्विन्दते परम्‌ ॥

    ४३ ॥

    श्री-पूर:ः उवाच--पूरु ने कहा; कः--क्या; नु--निस्सन्देह; लोके --इस संसार में; मनुष्य-इन्द्र--मनुष्यों में श्रेष्ठ, हे महाराज; पितु:--पिता; आत्म-कृतः --इस शरीर को देने वाले; पुमान्‌--व्यक्ति; प्रतिकर्तुमु--चुकता करने के लिए; क्षम:--समर्थ है; यस्थय--जिसकी;प्रसादातू--कृपा से; विन्दते-- भोगता है; परम्‌-- श्रेष्ठ जीवन

    पूरु ने उत्तर दिया, 'हे महाराज, ऐसा कौन होगा जो अपने पिता के ऋण से उऋण हो सके ?

    पिता की ही कृपा से मनुष्य को मनुष्य-जीवन प्राप्त होता है जिससे वह भगवान्‌ का संगी बनने मेंसक्षम हो सकता है।

    उत्तमश्रिन्तितं कुर्याव्प्रोक्तकारी तु मध्यम: ।

    अधमो श्रद्धया कुर्यादकर्तोच्चरितं पितु: ॥

    ४४॥

    उत्तम:--सर्व श्रेष्ठ; चिन्तितम्‌ू--पिता के विचार को मानते हुए; कुर्यात्‌--तदनुसार कर्म करता है; प्रोक्त-कारी --जो अपने पिता केआदेशानुसार कार्य करता है; तु--निस्सन्देह; मध्यम:--बीच की कोटि के; अधम:--निम्न श्रेणी के; अश्रद्धया-- श्रद्धाविहीन;कुर्यातू-करता है; अकर्ता--न करने की इच्छा से युक्त; उच्चरितम्‌--मल के समान; पितु:--पिता के

    जो पुत्र अपने पिता की इच्छा को जानकर उसी के अनुसार कर्म करता है वह प्रथम श्रेणी का( उत्तम ) होता है; जो अपने पिता की आज्ञा पाकर कार्य करता है वह द्वितीय श्रेणी का ( मध्यम )होता है और जो पुत्र अपने पिता के आदेश का पालन अनादरपूर्वक करता है वह तृतीय श्रेणीका( अधम ) होता है।

    किन्तु जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह अपने पिता के मलके समान है।

    'इति प्रमुद्तः पूरु: प्रत्यगृह्माज्जरां पितु: ।

    सोपि तद्बयसा कामान्यथावज्नुजुषे नूप ॥

    ४५॥

    इति--इस तरह; प्रमुदित:--अत्यन्त हर्षित; पूर:--पूरु ने; प्रत्यगृह्ञात्‌--स्वीकार कर लिया; जराम्‌--वृद्धावस्था को; पितु:--पिताकी; सः--उस पिता ने; अपि-- भी; तत्‌ू-वयसा--अपने पुत्र की जवानी से; कामान्‌--सारी इच्छाओं को; यथा-वत्‌--आवश्यकतानुसार; जुजुषे--तुष्य किया; नूप--हे महाराज परीक्षित।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, इस तरह पूरु अपने पिता ययाति की वृद्धावस्थाको ग्रहण करके अत्यन्त हर्षित था।

    पिता ने अपने पुत्र की जवानी ग्रहण कर ली और फिरइच्छानुसार इस भौतिक जगत का भोग किया।

    सप्तद्वीपपति: संयक्पितृवत्पालयन्प्रजा: ।

    यथोपजोषं विषयाझ्ञुजुषेउव्याहतेन्द्रिय: ॥

    ४६॥

    सप्त-द्वीप-पति:--सात द्वीपों वाले समस्त विश्व का स्वामी; संयक्‌--पूरी तरह; पितृ-वत्‌--पिता के समान; पालयन्‌--शासन करतेहुए; प्रजा: --प्रजा; यथा-उपजोषम्‌--जी भरकर; विषयान्‌-- भौतिक सुख को; जुजुषे-- भोगा; अव्याहत--किसी व्यवधान के बिना;इन्द्रियः--अपनी इन्द्रियों को |

    तत्पश्चात्‌ राजा ययाति सात द्वीपों वाले विश्व का शासक बन गया और प्रजा पर पिता के समानशासन करने लगा।

    चूँकि उसने अपने पुत्र की जवानी ले ली थी अतएवं उसकी इन्द्रियाँ अक्षत थींऔर उसने जी भरकर भौतिक सुख का भोग किया।

    देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग्देहवस्तुभि: ।

    प्रेयस: परमां प्रीतिमुवाह प्रेयसी रह: ॥

    ४७॥

    देवयानी--महाराज ययाति की पत्नी, शुक्राचार्य की बेटी ने; अपि-- भी; अनुदिनम्‌ू--दिन प्रति दिन, चौबीसों घंटे; मनः-वाक्‌--अपने मन तथा वाणी; देह--शरीर; वस्तुभि:--सारी आवश्यक वस्तुओं से; प्रेयस:-- अपने प्रिय पति का; परमाम्‌--दिव्य; प्रीतिम्‌--आनन्द; उवाह--सम्पन्न किया; प्रेयसी --अपने पति की अत्यन्त प्यारी; रह:--एकान्त में, बिना किसी उत्पात के |

    महाराज ययाति की प्रेयसी देवयानी अपने मन, वचन, शरीर तथा विविध सामग्री से सदैवएकान्त में अपने पति को यथासम्भव दिव्य परमानन्द प्रदान करती रही।

    अयजद्चन्नपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।

    सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम्‌ ॥

    ४८ ॥

    अयजत्‌--पूजा की; यज्ञ-पुरुषम्‌--यज्ञपुरुष या भगवान्‌ की; क्रतुभि: --विविध यज्ञों द्वारा; भूरि-दक्षिणै:--ब्राह्मणों को प्रभूतदक्षिणा देकर; सर्व-देव-मयम्‌--सारे देवताओं के आगार; देवम्‌--परमे श्वर को; सर्व-वेद-मयम्‌--सारे वैदिक ज्ञान के परम लक्ष्य;हरिम्‌-- भगवान्‌ हरि को |

    राजा ययाति ने विविध यज्ञ सम्पन्न किये और उनमें उन्होंने समस्त देवताओं के आगार एवं समस्तवैदिक ज्ञान के लक्ष्य भगवान्‌ हरि को तुष्ट करने के लिए ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणाएँ दीं।

    यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः ।

    नानेव भाति नाभाति स्वप्ममायामनोरथ: ॥

    ४९॥

    यस्मिनू--जिसमें; इृदम्‌--यह पूरा विशाल जगत; विरचितम्‌--उत्पन्न; व्योग्नि-- आकाश में; इब--सहृ॒श; जलद-आवलि:--बादल;नाना इव-मानों विभिन्न प्रकार के; भाति--प्रकट होता है; न आभाति-- प्रकट नहीं होता है; स्वप्न-माया--मोह जो स्वप्न की तरहहै; मनः-रथ:ः--मन रूपी रथ द्वारा चलने वाला।

    भगवान्‌ वासुदेव, जिन्होंने विराट जगत की सृष्टि की है, अपने को सर्वव्यापक रूप में प्रकटकरते हैं जिस तरह आकाश बादलों को धारण करता है।

    जब इस सृष्टि का संहार हो जाता है तबसारी वस्तुएँ भगवान्‌ विष्णु में प्रवेश करती हैं और सारे भेद-प्रभेद समाप्त हो जाते हैं।

    तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम्‌ ।

    नारायणमणीयांसं निराशीरयजत्प्रभुम्‌ू ॥

    ५०॥

    तम्‌ एब--उसको ही; हृदि--हृदय में; विन्यस्थ--रखकर; वासुदेवम्‌-- भगवान्‌ वासुदेव को; गुह-आशयम्‌--सबके हृदय में विद्यमानरहने वाले; नारायणम्‌--नारायण या नारायण के अंश को; अणीयांसम्‌--सर्वत्र उपस्थित रहकर भी आँखों से अहृश्य; निराशी:--बिना किसी भौतिक इच्छा के ययाति ने; अयजत्‌--पूजा की; प्रभुम्‌--परमे श्वर की

    महाराज ययाति ने उन भगवान्‌ की निष्काम भाव से पूजा की जो हर एक के हृदय में नारायणरूप में स्थित हैं और सर्वत्र विद्यमान रहकर भी आँखों से अदृश्य रहते हैं।

    एवं वर्षसहस्त्राणि मन:षष्टैर्मन:सुखम्‌ ।

    विदधानोपि नातृप्यत्सार्वभौम: कदिन्द्रिय: ॥

    ५१॥

    एवम्‌--इस तरह से; वर्ष-सहस्त्राणि--एक हजार वर्षों तक; मनः-षष्ठे:--पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा मन के द्वारा; मनः-सुखम्‌--मन द्वाराउत्पन्न क्षणक सुख; विद्धान:--सम्पन्न करते हुए; अपि--यद्यपि; न अतृप्यत्‌--संतुष्ट नहीं हुए; सार्ब-भौम: --सारे जगत का राजाहोकर भी; कत्‌ू-इन्द्रियः -- अशुद्ध इन्द्रियों के कारण

    यद्यपि महाराज ययाति सारे विश्व के राजा थे और उन्होंने एक हजार वर्षो तक अपने मन तथापाँच इन्द्रियों को भौतिक सम्पत्ति को भोगने में लगाया, किन्तु वे सन्तुष्ट नहीं हो सके।

    TO

    अध्याय उन्नीस: राजा ययाति को मुक्ति प्राप्त हुई

    9.19श्रीशुक उबाचस इत्थमाचरन्कामान्स्त्रैणो पहवमात्मन: ।

    बुद्ध्वा प्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--महाराज ययाति; इत्थम्‌--इस तरह से; आचरन्‌-- आचरण करते हुए;कामान्‌--कामेच्छाओं को; स्त्रैण:--स्त्री से अत्यधिक लिप्त; अपहृवम्‌--प्रतिक्रिया; आत्मन:--अपने कल्याण के लिए; बुद्ध्वा--बुद्धि से समझते हुए; प्रियायै-- अपनी प्रिया देवयानी को; निर्विण्ण:--वितृष्णा से भरकर; गाथाम्‌ू-- कहानी; एतामू--यह;अगायत--सुनायी |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, ययाति स्त्री पर अत्यधिक अनुरक्त था।

    किन्तुकालक्रम से जब वह विषय-भोग तथा इसके बुरे प्रभावों से ऊब गया तो उसने यह जीवन-शैलीत्याग दी और अपनी प्रिय पत्नी को निम्नलिखित कहानी सुनाई।

    श्रुणु भार्गव्यमूं गाथां मद्विधाचरितां भुवि ।

    धीरा यस्यानुशोचन्ति बने ग्रामनिवासिन: ॥

    २॥

    श्रुणु--सुनो; भार्गवि--हे शुक्राचार्य की पुत्री; अमूमू--इस; गाथाम्‌--कहानी को; मत्‌-विधा--मेरे आचरण से मिलते-जुलते;आचरितामू--आचरण के; भुवि--इस संसार में; धीरा:--धीर व्यक्ति; यस्थय--जिसका; अनुशोचन्ति--पछताते हैं; वने--जंगल में;ग्राम-निवासिन:-- भौतिक भोग के प्रति अत्यधिक अनुरक्त |

    हे मेरी प्रिय पत्नी एवं शुक्राचार्य की बेटी, इस संसार में बिल्कुल मेरी ही तरह का कोई था।

    तुममेरे द्वारा कही जा रही उसके जीवन की कथा सुनो।

    ऐसे गृहस्थ के जीवन के विषय में सुनकर वेलोग सदैव पछताते हैं जिन्होंने गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले लिया है।

    बस्त एको वने कश्िद्विचिन्वन्प्रियमात्मन: ।

    ददर्श कूपे पतितां स्वकर्मवशगामजाम्‌ ॥

    ३॥

    बस्त:--बकरा; एक:--एक; वने--वन में; कश्चित्‌ू--किसी; विचिन्वन्‌ू-- भोजन की तलाश करता; प्रियम्‌--प्रिय; आत्मन: --अपनेलिए; ददर्श--संयोगवश देखा; कूपे--कुएँ के भीतर; पतिताम्‌--गिरी हुई; स्व-कर्म-वश-गाम्‌--अपने कर्मों के फल के प्रभाव से;अजामू--बकरी को

    एक बकरा अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए चरते हुए किसी जंगल में घूमते-घूमते अचानकएक कुएँ के पास आया जिसके भीतर उसने एक बकरी को निस्सहाय खड़ी देखा जो अपने सकामकर्मो के प्रभाव से कुएँ में गिर गई थी।

    तस्या उद्धरणोपायं बस्त: कामी विचिन्तयन्‌ ।

    व्यधत्त तीर्थमुद्धृत्य विषाणाग्रेण रोधसी ॥

    ४॥

    तस्या:--बकरी का; उद्धरण-उपायम्‌--( कुएँ से ) उद्धार का उपाय; बस्त:--बकरे ने; कामी--विषयी ; विचिन्तयन्‌ू--योजना बनातेहुए; व्यधत्त--सम्पन्न किया; तीर्थम्‌ू--बाहर निकालने का उपाय; उद्धृत्य--पृथ्वी खोदकर; विषाण-अग्रेण--पैने सींगों से; रोधसी--कुएँ के किनारे

    बकरी को कुएँ से बाहर निकालने की योजना बनाकर, विषयी बकरे ने अपने तीखे सींगों सेकुएँ के किनारे की मिट्टी खोद डाली जिससे वह बकरी कुएँ से बाहर सरलता से निकल सकी।

    सोत्तीर्य कृपात्सुओणी तमेव चकमे किल ।

    तया वृतं समुद्रीक्ष्य बह्व्योडजा: कान्तकामिनी: ।

    पीवानं एमश्रुलं प्रेष्ठ मीढ्‌वांसं याभकोविदम्‌ ॥

    ५॥

    स एको<जवृष्स्तासां बद्लीनां रतिवर्धन: ।

    रेमे कामग्रहग्रस्त आत्मानं नावबुध्यत ॥

    ६॥

    सा--वह बकरी; उत्तीर्य--बाहर निकलकर; कूपात्‌-कुएँ से; सु-श्रोणी --अच्छे पुड्ठों वाली; तम्‌ू--बकरे को; एब--निस्सन्देह;चकमे--पति रूप में पाना चाहा; किल--निस्सन्देह; तया--उसके द्वारा; वृतम्‌--स्वीकृत; समुद्री क्ष्य--देखकर; बह्व्यः--अन्य अनेक; अजा:--बकरियाँ; कान्त-कामिनी: --बकरे को अपना पति बनाने की इच्छुक; पीवानम्‌--अत्यन्त बलिष्ठ; श्मश्रुलम्‌-- अच्छीमूछों तथा दाढ़ी वाले; प्रेष्ठम्‌--उच्चकोटि का; मीढ्वांसम्‌--वीर्यस्खलित करने में पठु; याभ-कोविदम्‌--मैथुन-क्रिया में पटु; सः--वह बकरा; एक:--अकेला; अज-वृष:--बकरियों का नायक; तासामू--सारी बकरियों का; बह्लीनाम्‌-- अनेक; रति-वर्धन:--कामेच्छा को बढ़ाने में समर्थ; रेमे-- भोग किया; काम-ग्रह-ग्रस्त:--कामेच्छा के भूत से सताया हुआ; आत्मानम्‌--अपने आपको;न--नहीं; अवबुध्यत--समझ सका।

    जब सुन्दर पुट्ठों वाली बकरी कुएँ से बाहर आ गई और उसने अत्यन्त सुन्दर बकरे को देखा तोउसने उसे अपना पति बनाना चाहा।

    जब उसने ऐसा कर लिया तो अन्य अनेक बकरियों ने भी उसबकरे को अपना पति बनाना चाहा क्योंकि उसका शारीरिक गठन अत्यन्त सुन्दर था, उसकी मूँछतथा दाढ़ी सुन्दर थी और वह वीर्यस्खलन करने तथा संभोग कला में पटु था।

    अतएव, जिस तरह भूतसे सताया गया मनुष्य पागलपन दिखलाता है उसी तरह वह श्रेष्ठ बकरा अनेक बकरियों से आकृष्टहोकर तथा अश्लील कार्यो में लिप्त रहने के कारण आत्म-साक्षात्कार के अपने असली कार्य कोभूल गया।

    तमेव प्रेष्ठठमया रममाणमजान्यया ।

    विलोक्य कूपसंविग्ना नामृष्यद्वस्तकर्म ततू ॥

    ७॥

    तम्‌--बकरे को; एव--निस्सन्देह; प्रेष्ठठमया--प्यारी, प्रियतमा द्वारा; रममाणम्‌--रमण की जाती हुईं; अजा--बकरी; अन्यया--दूसरी बकरी से; विलोक्य--देखकर; कूप-संविग्ना-- कुएँ में गिरी बकरी; न--नहीं; अमृष्यत्‌--सहन कर सकी; बस्त-कर्म--बकरेके कार्य को; तत्‌--वह ( मैथुन ही बकरे का व्यापार माना गया है )

    जब उस बकरी ने, जो कुए में गिरी थी, देखा कि उसका प्रियतम बकरा किसी दूसरी बकरी सेसंभोग कर रहा है तो वह बकरे के इस कार्य को सहन नहीं कर पाई।

    त॑ दु्दं सुहद्दूपं कामिनं क्षणसौहदम्‌ ।

    इन्द्रियाराममुत्सूज्य स्वामिनं दु:खिता ययौ ॥

    ८ ॥

    तम्‌--उस ( बकरे ) को; दु्हददम्‌--अत्यन्त क्रूर हृदय; सुहत्‌-रूपम्‌--मित्र बनने वाले; कामिनम्‌--अत्यन्त कामी; क्षण-सौहदम्‌--क्षणभर की मित्रता; इन्द्रिय-आरामम्‌--केवल इन्द्रियतृप्ति या विलासिता में रूचि रखने वाला; उत्सृज्य--छोड़कर; स्वामिनम्‌ू--अपने इसपति को या अपने पूर्व पालक को; दुःखिता--अत्यन्त दुखी; ययौ--वह चली गई।

    अन्य बकरी के साथ अपने पति के इस आचरण से दुखी उस बकरी ने सोचा कि यह बकराउसका वास्तविक मित्र नहीं अपितु कठोरहदय वाला तथा कुछ क्षण के लिए ही मित्र है।

    अतएवअपने पति के कामी होने के कारण उस बकरी ने उसका साथ छोड़ दिया और अपने पहले वालेस्वामी के पास लौट गई।

    सोपि चानुगतः स्त्रेण: कृपणस्तां प्रसादितुम्‌ ।

    कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत्पथि सन्धितुम्‌ ॥

    ९॥

    सः--वह बकरा; अपि-- भी; च-- भी; अनुगतः --बकरी का पीछा करता; स्त्रैण: --स्त्री-प्रेमी; कृपण:--अत्यन्त गरीब; तामू--उसको; प्रसादितुम्‌-प्रसन्न करने के लिए; कुर्वन्‌--करते हुए; इडविडा-कारम्‌--बकरी की भाषा में बोलते हुए; न--नहीं;अशक्नोत्‌--समर्थ था; पथ्चि--मार्ग में; सन्धितुम्‌-प्रसन्न करने के लिए।

    वह बकरा अत्यन्त दुखी होकर अपनी पत्नी का चाटुकार होने के कारण मार्ग में उसके पीछे-पीछे हो लिया और उसने उसकी भरसक चाटुकारी करनी चाही, किन्तु वह उसे मना नहीं पाया।

    तस्य तत्र द्विज: कश्चिदजास्वाम्यच्छिनद्रुषा ।

    लम्बन्तं वृषणं भूय: सन्दधेर्थाय योगवित्‌ ॥

    १०॥

    तस्य--बकरे का; तत्र--तत्पश्चात्‌; द्विज:--ब्राह्मण; कश्चित्‌--कोई; अजा-स्वामी--दूसरी बकरी के मालिक ने; अच्छिनत्‌--बधियाकर दिया; रुषा--क्रोध में आकर; लम्बन्तम्‌--लम्बे; वृषणम्‌--फोते, अण्डकोष को; भूय:--फिर; सन्दधे--जोड़ दिया; अर्थाय--अपने हित में; योग-वित्‌--योगशक्ति में पटु |

    बकरी उस ब्राह्मण के घर गई जो एक दूसरी बकरी का मालिक था और उस ब्राह्मण ने गुस्से मेंआकर बकरे के लम्बे लटकते अण्डकोष काट लिये।

    किन्तु बकरे द्वारा प्रार्थना किये जाने पर उसब्राह्मण ने योगशक्ति से उन्हें फिर से जोड़ दिया।

    सम्बद्धवृषण: सोपि ह्ाजया कूपलब्धया ।

    कालं बहुतिथं भद्दे कामर्नाद्यापि तुष्यति ॥

    ११॥

    सम्बद्ध-वृषण:--जिसके अण्डकोषों को जोड़ दिया गया हो; सः--वह; अपि-- भी; हि--निस्सन्देह; अजया--बकरी के साथ;कूप-लब्धया--कुएँ से मिली; कालमू--समय के लिए; बहु-तिथम्‌--दीर्घकालीन; भद्वे--हे प्रिय पत्नी; कामैः--कामेच्छाओं सहित;न--नहीं; अद्य अपि-- आज तक; तुष्यति--संतुष्ट होता है।

    हे प्रिये, जब बकरे के अण्डकोष जुड़ गये तो उसने कुएँ से मिली बकरी के साथ सम्भोग कियाऔर यद्यपि वह अनेकानेक वर्षो तक भोग करता रहा, किन्तु आज भी वह पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं होपाया है।

    तथाहं कृपणः सुश्रु भवत्या: प्रेमयन्त्रित: ।

    आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया ॥

    १२॥

    तथा--बकरे की तरह; अहम्‌--मैं; कृपण:--कंजूस, जिसे जीवन के महत्त्व का कोई ज्ञान नहीं है; सु-भध्रु--हे सुन्दर भौहों वाली;भवत्या: --तुम्हारे साथ; प्रेम-यन्त्रितः--मानों प्रेम में बँधा हूँ जो कि वास्तव में विषयवासना है; आत्मानम्‌--आत्मसाक्षात्कार ( जो मैं हूँऔर जो मेरा धर्म है ); न अभिजानामि-- अभी तक समझ नहीं पाया; मोहित:--मोहित होकर; तव--तुम्हारे; मायया--आकर्षकभौतिक स्वरूप के द्वारा।

    हे सुन्दर भौहों वाली प्रिये, मैं उसी बकरे के सहृश हूँ क्योंकि मैं इतना मन्दबुद्धि हूँ कि मैं तुम्हारेसौन्दर्य से मोहित होकर आत्म-साक्षात्कार के असली कार्य को भूल गया हूँ।

    यत्पृथिव्यां ब्रीहियवं हिरण्यं पशव:ः स्त्रिय: ।

    न दुह्मान्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ॥

    १३॥

    यतू--जो भी; पृथिव्याम्‌--इस संसार के भीतर; ब्रीहि--अन्न, धान; यवम्‌--जौ; हिरण्यम्‌--सोना; पशव: --पशु; स्त्रियः -स्त्रियाँ,पत्नियाँ; न दु्मन्ति--नहीं देती हैं; मनः-प्रीतिमू--मन की तुष्टि; पुंसः--पुरुष को; काम-हतस्थ--विषयवासनाओं के शिकार होने केकारण; ते--वे |

    कामी पुरुष का मन कभी तुष्ट नहीं होता भले ही उसे इस संसार की हर वस्तु प्रचुर मात्रा मेंउपलब्ध क्‍यों न हो, जैसेकि धान, जौ, अन्य अनाज, सोना, पशु तथा स्त्रियाँ इत्यादि ।

    उसे किसी वस्तुसे संतोष नहीं होता।

    न जातु काम: कामानामुपभोगेन शांयति ।

    हविषा कृष्णवर्त्मेंव भूय एवाभिवर्धते ॥

    १४॥

    न--नहीं; जातु--किसी भी समय; काम:ः--कामेच्छा; कामानाम्‌--कामी पुरुषों की; उपभोगेन--कामेच्छाओं के भोग द्वारा;शांयति--शान्त की जा सकती है; हविषा--धी द्वारा; कृष्ण-वर्त्मा--अग्नि; इब--सहश; भूयः--बार बार; एव--निस्सन्देह;अभिवर्धते-- अधिकाधिक बढ़ती है |

    जिस तरह अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त नहीं होती अपितु अधिकाधिक बढ़ती जाती है उसीप्रकार निरन्तर भोग द्वारा कामेच्छाओं को रोकने का प्रयास कभी भी सफल नहीं हो सकता।

    ( तथ्यतो यह है कि मनुष्य को स्वेच्छा से भौतिक इच्छाएँ समाप्त करनी चाहिए )।

    यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमड्लम्‌ ।

    समटष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश: ॥

    १५॥

    यदा--जब; न--नहीं; कुरुते--करता है; भावम्‌--अनुरक्ति या द्वेष से भिन्न मनोवृत्ति; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों पर; अमड्रलम्‌--अशुभ; सम-दृष्टे: --समदृष्टि होने से; तदा--उस समय, तब; पुंसः--पुरुष का; सर्वा:--सारी; सुख-मया:--सुखी अवस्था में;दिश:-दिशाएँ |

    जब मनुष्य द्वेष-रहित होता है और किसी का बुरा नहीं चाहता तो वह समदर्शी होता है।

    ऐसेव्यक्ति के लिए सारी दिशाएँ सुखमय प्रतीत होती हैं।

    या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते ।

    तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्वुतं त्यजेतू ॥

    १६॥

    या--जो; दुस्त्यजा--जिसको छोड़ पाना अत्यन्त कठिन है; दुर्मतिभि:ः-- भौतिक भोगों में अत्यधिक आसक्त व्यक्तियों द्वारा; जीर्यत:--वृद्धावस्था के कारण अत्यन्त अशक्तों द्वारा भी; या--जो; न--नहीं; जीर्यते--नष्ट होती है; तामू--ऐसी; तृष्णाम्‌--इच्छा को; दुःख-निवहाम्‌--सारे दुखों का मूल कारण; शर्म-काम:--अपने सुख का इच्छुक व्यक्ति; द्रतम्‌-शीघ्र ही; त्यजेत्‌ू-छोड़ दे ।

    जो लोग भौतिक भोग में अत्यधिक लिप्त रहते हैं उनके लिए इन्द्रियतृप्ति को त्याग पाना अत्यन्तकठिन है।

    यहाँ तक कि वृद्धावस्था के कारण अशक्त व्यक्ति भी इन्द्रियतृष्ति की ऐसी इच्छाओं कोनहीं त्याग पाता।

    अतएव जो सचमुच सुख चाहता है उसे ऐसी अतृप्त इच्छाओं को त्याग देना चाहिएक्योंकि ये सारे कष्टों की जड़ हैं।

    मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत्‌ ।

    बलवानिन्‍न्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥

    १७॥

    मात्रा--माता के साथ; स्वस्त्रा--बहन के साथ; दुहित्रा--पुत्री के साथ; वा--अथवा; न--नहीं; अविविक्त-आसन:--एक ही आसनपर सटकर बैठे; भवेत्‌--हो; बलवानू्‌-- अत्यन्त प्रबल; इन्द्रिय-ग्राम:--इन्द्रियसमूह; विद्वांसम्‌-- अत्यन्त विद्वान व्यक्ति को; अपि--भी; कर्षति--उत्तेजित करता है।

    मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी माता, बहन या पुत्री के साथ एक ही आसन पर न बैठे क्योंकिइन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि बड़े से बड़ा विद्वान भी यौन द्वारा आकृष्ट हो सकता है।

    पूर्ण वर्षसहस्त्रं मे विषयान्सेवतो सकृत्‌ ।

    तथापि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते ॥

    १८॥

    पूर्णम्‌--पूरे; वर्ष-सहस्त्रमू--एक हजार वर्ष; मे--मेरा; विषयान्‌--इन्द्रियतृप्ति; सेवतः--भोग करते हुए; असकृत्‌--निरन्तर; तथाअपि--फिर भी; च--निस्सन्देह; अनुसवनम्‌-- अधिकाधिक; तृष्णा--कामेच्छाएँ; तेषु--इन्द्रियतृप्ति में; उपजायते--बढ़ती जाती है।

    मैंने इन्द्रियतृप्ति के भोगने में पूरे एक हजार वर्ष बिता दिये हैं फिर भी ऐसे आनन्द को भोगने कीमेरी इच्छा नित्य बढती जाती है।

    तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्यध्याय मानसम्‌ ।

    निद्वन्दों निरहड्डारश्वरिष्यामि मृगै: सह ॥

    १९॥

    तस्मातू--इसलिए; एताम्‌ू--ऐसी प्रबल इच्छाओं को; अहम्‌--मैं; त्यक्त्वा--त्याग कर; ब्रह्मणि--परब्रह्म में; अध्याय--स्थिर करके;मानसम्‌--मन को; निर्द्वन्द:--द्वन्द रहित; निरहड्डार:--मिथ्या अहंकार से रहित; चरिष्यामि--जंगल में विचरण करूँगा; मृगै: सह--जंगली पशुओं के साथ।

    अतएव अब मैं इन सारी इच्छाओं को त्याग दूँगा और भगवान्‌ का ध्यान करूँगा।

    मनोरथों केइन्द्दों से तथा मिथ्या अहंकार से रहित होकर मैं जंगल में पशुओं के साथ विचरण करूँगा।

    इहृष्टं श्रुतमसद्दुद्ध्वा नानुध्यायेन्न सन्दिशेत्‌ ।

    संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान्स आत्महकू ॥

    २०॥

    इृष्टमू--हमारे द्वारा वर्तमान जीवन में अनुभूत भौतिक भोग; श्रुतम्‌-- भौतिक भोग जो सकाम कर्मियों को भावी सुख के लिए मिलनाहै ( वर्तमान या अगले जीवन में या स्वर्गलोक आदि में ); असत्‌--जो क्षणिक तथा निकृष्ट है; बुद्ध्वा--जानकर; न--नहीं;अनुध्यायेत्‌ू--सोचना चाहिए; न--न तो; सन्दिशेत्‌--वास्तव में भोग करना चाहिए; संसृतिमू-- भौतिक जीवन का दीर्घ होना; च--तथा; आत्म-नाशम्‌--अपनी स्वाभाविक स्थिति का विस्मरण; च--भी; तत्र--ऐसे विषय में; विद्वान्‌ू--पूर्णतया अवगत; सः--ऐसाव्यक्ति; आत्म-हक्‌--स्वरूपसिद्ध |

    जो यह जानता है कि भौतिक सुख चाहे अच्छा हो या बुरा, इस जीवन में हो या अगले जीवन में,इस लोक में हो या स्वर्गलोक में हो, क्षणिक तथा व्यर्थ है और यह जानता है कि बुद्धिमान पुरुष कोऐसी वस्तुओं को भोगने या सोचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।

    वह मनुष्य आत्मज्ञानी है।

    ऐसा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति भलीभाँति जानता है कि भौतिक सुख बारम्बार जन्म एवं अपनी स्वाभाविकस्थिति के विस्मरण का एकमात्र कारण है।

    इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः ।

    दत्त्वा स्वजरसं तस्मादाददे विगतस्पृह:ः ॥

    २१॥

    इति उक्‍्त्वा--ऐसा कहकर; नाहुष:--नहुष पुत्र महाराज ययाति; जायाम्‌--अपनी पत्नी देवयानी से; तदीयम्‌-- उसका; पूरवे--अपनेपुत्र पूर को; वयः--जवानी; दत्त्वा--देकर; स्व-जरसम्‌--अपने बुढ़ापे को; तस्मात्‌--उससे; आददे--वापस ले लिया; विगत-स्पृहः--सारी वासनाओं से मुक्त होकर, निस्पृह |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपनी पत्नी देवयानी से इस प्रकार कहकर समस्त इच्छाओं से मुक्तहुए राजा ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पूर॒ को बुलाया और उसे उसकी जवानी लौटाकर अपनाबुढ़ापा वापस ले लिया।

    दिशि दक्षिणपूर्वस्यां ब्रुह्युं दक्षिणतो यदुम्‌ ।

    प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमी श्वरम्‌ ॥

    २२॥

    दिशि--दिशा में; दक्षिण-पूर्वस्थाम्‌--दक्षिण पूर्व; द्रुह्मुमू-- अपने बेटे द्रह्मु को; दक्षिणतः--संसार की दक्षिण दिशा में; यदुम्‌--यदुको; प्रतीच्यामू-पश्चिम दिशा में; तुर्वसुम्‌--अपने पुत्र तुर्वसु को; चक्रे --बना दिया; उदीच्याम्‌--उत्तर दिशा में; अनुम्‌--अपने पुत्रअनु को; ईश्वरम्‌--राजा |

    राजा ययाति ने अपने पुत्र द्ह्मु को दक्षिण पूर्व की दिशा, अपने पुत्र यदु को दक्षिण की दिशा,अपने पुत्र तुर्वसु को पश्चिमी दिशा और अपने चौथे पुत्र अनु को उत्तरी दिशा दे दी।

    इस तरह उन्होंनेराज्य का बँटवारा कर दिया।

    भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुमहत्तमं विशाम्‌ ।

    अभिषिच्याग्रजांस्तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ ॥

    २३॥

    भू-मण्डलस्य--सारे पृथ्वीलोक का; सर्वस्य--सारी सम्पत्ति का; पूरुम्‌--अपने सब से छोटे पुत्र पूरू को; अर्हत्‌-तमम्‌--सर्वाधिकपूज्य व्यक्ति, राजा; विशाम्‌-- प्रजा का; अभिषिच्य--अभिषेक करके; अग्रजान्‌--यदु से लेकर अपने बड़े भाइयों को; तस्थ--पूरूके; वशे--नियंत्रण में; स्थाप्प--रखकर; वनम्‌--वन; ययौ--चला गया

    ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पूरु को सारे विश्व का सप्राट तथा सारी सम्पत्ति का स्वामी बनादिया और पूरु से बड़े अपने अन्य सारे पुत्रों को पूर॒ के अधीन कर दिया।

    आसेवितं वर्षपूगान्घड्वर्ग विषयेषु सः ।

    क्षणेन मुमुच्चे नीडं जातपक्ष इव द्विज: ॥

    २४॥

    आसेवितम्‌--सदैव संलग्न रहकर; वर्ष-पूगान्‌ू--अनेकानेक वर्षों तक; षट्‌-वर्गम्‌--मन समेत छहों इन्द्रियों को; विषयेषु--इन्द्रियभोगमें; सः--राजा ययाति ने; क्षणेन--एक ही क्षण के भीतर; मुमुचे--छोड़ दिया; नीडम्‌--नीड़, घोसला; जात-पक्ष:--पंख उग आयेहैं; इब--सहश; द्विज:--पक्षी |

    है राजा परीक्षित, ययाति ने अनेकानेक वर्षों तक विषयवासनाओं का भोग किया, क्‍योंकि वेइसके आदी थे, किन्तु उन्होंने एक क्षण के भीतर अपना सर्वस्व त्याग दिया जिस तरह पंख उगते हीपक्षी अपने घोंसले से उड़ जाता है।

    स तत्र निर्मुक्तसमस्तसड़आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिड्र: ।

    परेमले ब्रह्मणि वासुदेवेलेभे गतिं भागवतीं प्रतीत: ॥

    २५॥

    सः--महाराज ययाति; तत्र--ऐसा करके; निर्मुक्त--तुरन्त मुक्त हो गया; समस्त-सड़ः--सारा कल्मष; आत्म-अनुभूत्या--अपनीस्वाभाविक स्थिति को समझने मात्र से; विधुत--स्वच्छ; त्रि-लिड्र:--प्रकृति के तीन गुणों ( सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण ) सेउत्पन्न कल्मष; परे--ब्रह्म में; अमले--मलरहित; ब्रह्म णि--परमे श्वर में; वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेव परम सत्य में; लेभे--प्राप्त किया;गतिमू--लक्ष्य; भागवतीम्‌-- भगवान्‌ के पार्षद रूप में; प्रतीत: --सुप्रसिद्ध |

    चूँकि राजा ययाति ने भगवान्‌ वासुदेव के चरणकमलों में पूरी तरह अपने को समर्पित कर दियाथा अतएव वे प्रकृति के गुणों के सारे कल्मष से मुक्त हो गये।

    अपने आत्मसाक्षात्कार के कारण वेअपने मन को परब्रह्म वासुदेव में स्थिर कर सके और इस तरह अन्ततः उन्हें भगवान्‌ के पार्षद का पदप्राप्त हुआ।

    श्र॒ुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मन: ।

    स्त्रीपुंसो: स्नेहवैक्लव्यात्परिहासमिवेरितम्‌ ॥

    २६॥

    श्रुत्वा--सुनकर; गाथामू--कथा; देवयानी--महाराज ययाति की पत्नी देवयानी; मेने--समझ गई; प्रस्तोभम्‌ आत्मन:--अपने आत्म-साक्षात्कार के लिए उपदेश दिये जाने पर; स्त्री-पुंसोः--पति तथा पत्नी के बीच; स्नेह-वैक्लव्यात्‌--प्रेम तथा स्नेह के विनिमय से;'परिहासम्‌ू--मजाक या कहानी; इब--सहश; ईरितम्‌--कही गई ( ययाति द्वारा ) |

    जब देवयानी ने महाराज ययाति द्वारा कही गई बकरे-बकरी की कथा सुनी तो वह समझ गयीकि हास-परिहास के रूप में पति-पत्ली के मध्य मनोरंजनार्थ कही गई यह कथा उसमें उसकीस्वाभाविक स्थिति को जागृत करने के निमित्त थी।

    सा सन्निवासं सुहृदां प्रषायामिव गच्छताम्‌ ।

    विज्ञायेश्वरतन्त्राणां मायाविरचितं प्रभो; ॥

    २७॥

    सर्वत्र सड्रमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी ।

    कृष्णे मन: समावेश्य व्यधुनोल्लिड्रमात्मन: ॥

    २८ ॥

    सा--देवयानी; सन्निवासम्‌--साथ में रहते हुए; सुहृदाम्‌-मित्रों तथा सम्बन्धियों के ; प्रपायाम्‌-प्याऊ में; इब--सहश; गच्छताम्‌--एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करने वालों का; विज्ञाय--जानकर; ई श्वर-तन्त्राणाम्‌-- प्रकृति के कठोर नियमों के अन्तर्गत;माया-विरचितम्‌--माया द्वारा लागू नियमों को; प्रभो:--भगवान्‌ के; सर्वत्र--इस जगत में सब जगह; सड्रम्‌--साथ; उत्सूज्य--छोड़कर; स्वप्न-औपम्येन-- स्वप्न के सहृश; भार्गवी--शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी; कृष्णे--कृष्ण में; मन:ः--पूर्ण ध्यान;समावेश्य--स्थिर करके; व्यधुनोत्‌-त्याग दिया; लिड्डमू--स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को; आत्मन:--आत्मा के |

    तत्पश्चात्‌ शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी समझ गई कि पति, मित्रों तथा सम्बन्धियों का सांसारिकसाथ प्याऊ में यात्रियों की संगति के समान है।

    भगवान्‌ की माया से समाज के सम्बन्ध, मित्रता तथाप्रेम ठीक स्वप्न की ही भाँति उत्पन्न होते हैं।

    कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी ने भौतिक जगत की अपनीकाल्पनिक स्थिति छोड़ दी।

    उसने अपने मन को पूरी तरह कृष्ण में स्थिर कर दिया और स्थूल तथासूक्ष्म शरीरों से मोक्ष प्राप्त कर लिया।

    नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।

    सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नम: ॥

    २९॥

    नमः--नमस्कार करती हूँ; तुभ्यमू--तुमको; भगवते-- भगवान्‌; वासुदेवाय--वासुदेव को; वेधसे --स्त्रष्टा; सर्व-भूत-अधिवासाय--सर्वव्यापी ( प्रत्येक जीव के हृदय में तथा प्रत्येक अणु में भी ); शान्ताय--शान्त, मानो पूर्णतया निष्क्रिय हो; बृहते--सबों मेंविशालतम; नम:--नमस्कार करती हूँ।

    हे भगवान्‌ वासुदेव, हे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, आप समस्त विराट जगत के स्त्रष्टा हैं।

    आप सबोंके हृदय में परमात्मा रूप में निवास करते हैं और सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर होते हुए भी बृहत्तम से बृहत्तरहैं तथा सर्वव्यापक हैं।

    आप परम शान्त लगते हैं मानो आपको कुछ करना-धरना न हो लेकिन ऐसाआपके सर्वव्यापक स्वभाव एवं सर्व ऐश्वर्य से पूर्ण होने के कारण है।

    अतएवं मैं आपको सादरनमस्कार करती हूँ।

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    अध्याय बीस: पुरु का राजवंश

    9.20पूरोर्व॑शं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोउईसि भारत ।

    यत्र राजर्षयो वंश्याब्रह्मवंश्या श्व जज्ञिरि ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; पूरो: वंशम्‌--महाराज पूरु का वंश; प्रवक्ष्यामि-- अब वर्णन करूँगा; यत्र--जिस वंश में; जात: असि--तुम उत्पन्न हुए हो; भारत--हे महाराज भरत के वंशज; यत्र--जिस वंश में; राज-ऋषय: --सारे राजा, जोऋषि तुल्य थे; बंश्या:--एक के बाद एक; ब्रह्म-वंश्या:--अन्य ब्राह्मण वंश; च--भी; जज्ञिरि--निकले हैं

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज भरत के वंशज महाराज परीक्षित, अब मैं पूरु के वंश कावर्णन करूँगा जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो, जिसमें अनेक राजर्षि हुए हैं, जिनसे अनेक ब्राह्मण वंशों काप्रारम्भ हुआ है।

    जनमेजयो ह्यभूत्पूरो: प्रचिन्वांस्तत्सुतस्ततः ।

    प्रवीरोथ मनुस्युर्वे तस्माच्चारुपदो भवत्‌ ॥

    २॥

    जनमेजय:--राजा जनमेजय; हि--निस्सन्देह; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; पूरोः--पूरु से; प्रचिन्वान्‌--प्रचिन्वान; तत्‌ू--उसका; सुतः--पुत्र;ततः--उससे ( प्रचिन्वान से ); प्रवीर:--प्रवीर; अथ--तत्पश्चात्‌; मनुस्यु:--प्रवीर का पुत्र मनुस्यु; बै--निस्सन्देह; तस्मात्‌--उससे;चारुपदः--राजा चारुपद; अभवत्‌--हुआ।

    पूरु के ही इस वंश में राजा जनमेजय उत्पन्न हुआ।

    उसका पुत्र प्रचिन्वान था और उसका पुत्र थाप्रवीर।

    तत्पश्चात्‌ प्रवीर का पुत्र मनुस्यु हुआ जिसका पुत्र चारुपद था।

    तस्य सुद्युरभूत्युत्रस्तस्माद्वहुगवस्ततः ।

    संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः ॥

    ३॥

    तस्य--उस ( चारुपद ) का; सुद्यु:--सुद्यु; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; पुत्र:--पुत्र; तस्मात्‌--उससे; बहुगव:ः --बहुगव नाम का पुत्र; तत:ः--उससे; संयातिः--संयाति; तस्थ--तथा उसका पुत्र; अहंयाति: --अहंयाति; रौद्राश्च: --रौद्रा श्र; तत्‌-सुत:--उसका पुत्र; स्मृत:--विख्यात।

    चारुपद का पुत्र सुद्यु था और सुद्यु का पुत्र बहुगव था।

    बहुगव का पुत्र संयाति था, जिससेअहंयाति नामक पुत्र हुआ और फिर उससे रौद्राश्व उत्पन्न हुआ।

    ऋतेयुस्तस्य कक्षेयु: स्थण्डिलेयु: कृतेयुकः ।

    जलेयु: सन्नतेयुश्न धर्मसत्यत्रतेयव: ॥

    ४॥

    दशैतेउप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः ।

    घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मन: ॥

    ५॥

    ऋतेयु:--ऋतेयु; तस्य--उसका ( रौद्राश्व ) का; कक्षेयु:--कक्षेयु; स्थण्डिलेयु: --स्थण्डिलेयु; कृतेयुक: --कृतेयुक; जलेयु:--जलेयु;सन्नतेयु:--सन्नतेयु; च-- भी; धर्म--धर्मेयु; सत्य--सत्येयु; ब्रतेयवः --तथा ब्रतेयु; दश--दस; एते--ये सभी; अप्सरस:--अप्सरा सेउत्पन्न; पुत्रा:--पुत्र; वनेयु:--वनेयु; च--तथा; अवम:--सबसे छोटा; स्मृत:--विख्यात; घृताच्याम्‌--घृताची; इन्द्रियाणि इब--दसइन्द्रियों के समान; मुख्यस्य--प्राण का; जगत्‌-आत्मन:--सारे विश्व का प्राण

    रौद्राश्व के दस पुत्र थे जिनके नाम ऋतेयु, कक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयुक, जलेयु, सन्नतेयु, धर्मेयु,सत्येयु, ब्रतेयु तथा बनेयु थे।

    इन दसों में बनेयु सबसे छोटा था।

    ये दसों पुत्र रौद्राश्व के पूर्ण नियंत्रणमें उसी प्रकार कार्य करते थे जिस तरह विश्वात्मा से उत्पन्न दसों इन्द्रियाँ प्राण के नियंत्रण में कार्यकरती हैं।

    ये सभी घृताची नामक अप्सरा से उत्पन्न हुए थे।

    ऋतेयो रन्तिनावोभूत्रयस्तस्यात्मजा नृप ।

    सुमतिर्शुवोप्रतिरथ: कण्वोप्रतिरथात्मज: ॥

    ६॥

    ऋतेयो:--ऋतेयु से; रन्तिनाव: --रन्तिनाव नामक पुत्र; अभूत्‌-- प्रकट हुआ; त्रयः--तीन; तस्य--उसके ( रन्तिनाव के ); आत्मजा:--पुत्र; नृप--हे राजा; सुमति:--सुमति; श्रुव:ः--श्ुव; अप्रतिरथ:--अप्रतिरथ; कण्व:--कण्व; अप्रतिरथ-आत्मज: --अप्रतिरथ काबेटा।

    ऋतेयु से रन्तिनाव नामक पुत्र हुआ जिसके तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे सुमति, श्रुव तथाअप्रतिरथ।

    अप्रतिरथ के एकमात्र पुत्र का नाम कण्व था।

    तस्य मेधातिथिस्तस्मात्प्रस्कन्नाद्या द्विजातय: ।

    पुत्रो भूत्सुमते रेभिर्दुष्मन्तस्तत्सुतो मतः ॥

    ७॥

    तस्य--कण्व का; मेधातिथि: --मेधातिथि; तस्मात्‌--उससे; प्रस्कन्न-आद्या:--प्रस्कन्न आदि; द्विजातय:--सभी ब्राह्मण; पुत्र:--पुत्र;अभूत्‌--हुए; सुमतेः--सुमति से; रेभि:--रेभि; दुष्मन्त:--महाराज दुष्मन्त; ततू-सुत:--रेभि का पुत्र; मतः--विख्यात है।

    कण्व का पुत्र मेधातिथि था जिसके सारे पुत्र ब्राह्मण थे और उनमें प्रमुख प्रस्कन्न था।

    रन्तिनावका पुत्र सुमति, सुमति का पुत्र रेभि और रेभि का पुत्र था महाराज दुष्मन्त।

    दुष्मन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः ।

    तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव ॥

    ८॥

    विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम्‌ ।

    बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृत: ॥

    ९॥

    दुष्मन्त:--महाराज दुष्मन्त; मृगयाम्‌ यात:--शिकार करने के लिए गया हुआ; कण्व-आश्रम-पदम्‌ू--कण्व के आश्रम में; गत:--आया; तत्र--वहाँ; आसीनामू्‌--बैठी हुई; स्व-प्रभया--अपने सौन्दर्य से; मण्डयन्तीम्‌ू--प्रकाशित करती हुई; रमाम्‌ इब--लक्ष्मी जीकी तरह; विलोक्य--देखकर; सद्यः --तुरन्‍्त; मुमुहे--मोहित हो गया; देव-मायाम्‌ इब-- भगवान्‌ की माया के सहश; स्त्रियम्‌--सुन्दरस्त्री को; बभाषे--सम्बोधित किया; तामू--उसको; वर-आरोहाम्‌--सुन्दर स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ; भटै:ः--सैनिकों द्वारा; कतिपयै:--कुछ;बृत:ः:--घिरा हुआ

    एक बार जब राजा दुष्मन्त शिकार करने जंगल गया और अत्यधिक थक गया तो वह महाराजकण्व के आश्रम में जा पहुँचा।

    वहाँ उसने एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री देखी जो लक्ष्मी जी के समान लगरही थी और वहाँ अपने तेज से सारे आश्रम को प्रकाशित करती हुई बैठी थी।

    स्वभावतः राजा उसकेसौन्दर्य से आकृष्ट हो गया अतएव वह अपने कुछ सैनिकों के साथ उसके पास गया और उससेबोला।

    तदर्शनप्रमुदित: सन्निवृत्तपरिश्रम: ।

    पप्रच्छ कामसन्तप्त: प्रहसजएलक्ष्णया गिरा ॥

    १०॥

    ततू-दर्शन-प्रमुदित: --सुन्दर स्त्री को देखकर अत्यन्त प्रफुल्लित; सन्निवृत्त-परिश्रम: --शिकार करने की थकान से निवृत्त होकर;पप्रच्छ--उससे पूछा; काम-सन्तप्तः--कामेच्छाओं से उद्विग्न होकर; प्रहसन्‌--हँसी करते हुए; श्लक्षणया--सुन्दर तथा सुहावने;गिरा-शब्दों से |

    उस सुन्दर स्त्री को देखकर राजा अत्यधिक हर्षित हुआ और शिकार- भ्रमण से उत्पन्न उसकी सारीथकावट जाती रही।

    वह निस्सन्देह कामेच्छाओं के कारण अत्यधिक आकृष्ट था अतएव उसने हँसी-हँसी में उससे इस प्रकार पूछा।

    का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयडुमे ।

    किं स्विच्चिकीर्षितं तत्र भवत्या निर्जने वने ॥

    ११॥

    का--कौन; त्वमू--तुम हो; कमल-पत्र-अक्षि--हे कमलनेत्री; कस्य असि--तुम किससे सम्बन्धित हो; हृदयम्‌-गमे--हृदय कोसुहावनी लगने वाली अतीव सुन्दरी; किम्‌ स्वित्‌ू--कौन सा काम; चिकीर्षितम्‌--सोच रही हो; तत्र--वहाँ; भवत्या: --तुम्हारे द्वारा;निर्जने--एकान्त; वबने--वन में

    हे सुन्दर कमल नयनों वाली, तुम कौन हो ?

    तुम किसकी पुत्री हो?

    इस एकान्त वन में तुम्हाराक्या कार्य है?

    तुम यहाँ क्‍यों रह रही हो ?

    व्यक्त राजन्यतनयां वेद्म्यहं त्वां सुमध्यमे ।

    न हि चेतः पौरवाणामधर्मे रमते क्वचित्‌ ॥

    १२॥

    व्यक्तमू--ऐसा लगता है; राजन्य-तनयामू--क्षत्रिय की पुत्री; वेद्चि-- अनुभव कर सकता हूँ; अहम्‌--मैं; त्वाम्‌ू--तुमको; सु-मध्यमे--हे अतीव सुन्दरी; न--नहीं; हि--निश्चय ही; चेत:--मन; पौरवाणाम्‌--पूरुवंशी लोगों का; अधर्मे--अधर्म में; रमते-- भोग करता है;क्वचित्‌--कभी भी

    है अतीव सुन्दरी, मुझे ऐसा लगता है कि तुम किसी क्षत्रिय की पुत्री हो।

    चूँकि मैं पूरुवंशी हूँअतएव मेरा मन कभी भी अधार्मिक रीति से किसी वस्तु का भोग करने की चेष्टा नहीं करता।

    श्रीशकुन्तलोबाचविश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने ।

    वेदैतद्धगवान्कण्वो वीर कि करवाम ते ॥

    १३॥

    श्री-शकुन्तला उबाच-- श्री शकुन्तला ने कहा; विश्वामित्र-आत्मजा--विश्वामित्र की पुत्री; एब--निस्सन्देह; अहम्‌--मैं ( हूँ );त्यक्ता--छोड़ी गई; मेनकया--मेनका द्वारा; बने--वन में; वेद--जानता है; एतत्‌--इन सारी घटनाओं को; भगवान्‌--शक्तिशालीऋषि; कण्व:--कण्व मुनि; वीर--हे वीर; किमू--क्या; करवाम--कर सकती हूँ; ते--तुम्हारे लिए

    शकुन्तला ने कहा : मैं विश्वामित्र की पुत्री हूँ।

    मेरी माता मेनका ने मुझे जंगल में छोड़ दिया था।

    हे बीर, अत्यन्त शक्तिशाली सन्त कण्व मुनि इसके विषय में सब कुछ जानते हैं।

    अब आप कहिए किमैं आपकी किस तरह सेवा करूँ ?

    आस्यतां हारविन्दाक्ष गृह्मतामर्हणं च न: ।

    भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते ॥

    १४॥

    आस्यताम्‌ू--कृपया यहाँ बैठें; हि--निस्सन्देह; अरविन्द-अक्ष--कमल जैसे नेत्रों वाले वीर; गृह्मताम्‌--स्वीकार करें; अ्हणम्‌--आतिथ्य; च--तथा; नः--हमारा; भुज्यतामू--कृपया भोजन करें; सन्ति--जो कुछ है; नीवारा:--नीवार चावल; उष्यताम्‌ू--यहाँ पररुकें; यदि--यदि; रोचते-- आपको अच्छा लगे।

    हे कमल जैसे नेत्रों वाले राजा, कृपया बैठ जायें और हमारे यथासम्भव आतिथ्य को स्वीकारकरें।

    हमारे पास नीवार चावल हैं जिन्हें आप ग्रहण कर सकते हैं और यदि आप चाहें तो बिना किसीहिचक के यहाँ रुक सकते हैं।

    श्रीदुष्मन्त उवाचउपपन्नमिदं सुभ्रु जाताया: कुशिकान्वये ।

    स्वयं हि बृणुते राज्ञां कन्‍्यका: सहृशं वरम्‌ ॥

    १५॥

    श्री-दुष्मन्तः उबाच--राजा दुष्मन्त ने कहा; उपपन्नम्‌--तुम्हारी स्थिति के अनुरूप; इदम्‌--यह; सु-भ्रु-हे सुन्दर भौहों वालीशकुन्तला; जाताया:--अपने जन्म के कारण; कुशिक-अन्वये--विश्वामित्र के कुल में; स्वयम्‌--स्वयं; हि--निस्सन्देह; वृणुते--चुनती हैं; राज्ञामू--राज परिवार की; कन्यकाः-- लड़कियाँ; सहृशम्‌--समान स्तर के ; वरम्‌ू--पति को |

    राजा दुष्मन्त ने उत्तर दिया: हे सुन्दर भौहों वाली शकुन्तला, तुमने महर्षि विश्वामित्र के कुल मेंजन्म लिया है और तुम्हारा आतिथ्य तुम्हारे कुल के अनुरूप है।

    इसके अतिरिक्त राजा की कन्याएँसामान्यतया अपना वर स्वयं चुनती हैं।

    ओमित्युक्ते यथाधर्ममुपयेमे शकुन्तलाम्‌ ।

    गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित्‌ ॥

    १६॥

    ओम इति उक्ते--वैदिक प्रणव का उच्चारण करके भगवान्‌ को विवाह के साक्षी के रूप में आह्वान करते हुए; यथा-धर्मम्‌--धार्मिकनियमों के अनुकूल ( क्योंकि सामान्य धार्मिक विवाहों में भी नारायण साक्षी बनते है ); उपयेमे--विवाह कर लिया; शकुन्तलाम्‌ू--शकुन्तला से; गान्धर्व-विधिना--गान्धर्व विधि से, धार्मिक नियमानुसार; राजा--महाराज दुष्मन्त ने; देश-काल-विधान-वित्‌--समय,स्थान तथा लक्ष्य के अनुसार कर्तव्यों से पूर्णतया अबगत।

    जब शकुन्तला महाराज दुष्मन्त के प्रस्ताव पर मौन रही तो सहमति पूर्ण हो गई।

    तब विवाह केनियमों को जानने वाले राजा ने तुरन्त ही वैदिक प्रणव ( ओड्ढार ) का उच्चारण किया, जैसा किगन्धर्वो में विवाह के अवसर पर किया जाता है।

    अमोघवीर्यों राजर्षिमहिष्यां वीर्यमादधे ।

    श्रोभूते स्वपुरं यात: कालेनासूत सा सुतम्‌ ॥

    १७॥

    अमोघ-वीर्य:--ऐसा व्यक्ति जिसका वीर्य व्यर्थ नहीं बहता अर्थात्‌ जिसके वीर्य से सन्तान उत्पन्न होती है; राज-ऋषि: --साधु प्रकृतिवाला राजा दुष्मन्त; महिष्याम्‌--रानी शकुन्तला में ( विवाह के बाद वह रानी हो गई ); वीर्यम्‌--वीर्य; आदधे--स्थापित किया; श्रः-भूते--सबेरा होने पर; स्व-पुरम्‌--अपने स्थान को; यात:--चला गया; कालेन--समय पर; असूत--जन्म दिया; सा--उसने( शकुन्तला ) ने; सुतम्‌--पुत्र को अमोधवीर्य

    राजा दुष्मन्त ने रात्रि में अपनी रानी शकुन्तला के गर्भ में वीर्य स्थापित किया औरप्रात: होते ही अपने महल को लौट गया।

    तत्पश्चात्‌ समयानुसार शकुन्तला ने एक पुत्र को जन्म दिया।

    कण्वः कुमारस्य बने चक्रे समुचिता: क्रिया: ।

    बद्ध्वा मृगेन्द्रं तरसा क्रीडति सम स बालकः ॥

    १८॥

    कण्व:--कण्व मुनि ने; कुमारस्थ--शकुन्तला से उत्पन्न बालक का; वने--जंगल में; चक्रे--सम्पन्न किया; समुचिता:--विहित;क्रिया:--संस्कार; बद्ध्वा--पकड़ कर; मृग-इन्द्रमू--शेर को; तरसा--बलपूर्वक; क्रीडति--खेलता; स्म-- था; सः--वह;बालक:--बालककण्व मुनि ने बन में नवजात शिशु के सारे संस्कार सम्पन्न किये।

    बाद में यह बालक इतनाबलवान बन गया कि वह किसी सिंह को पकड़ कर उसके साथ खेलता था।

    त॑ दुरत्ययविक्रान्तमादाय प्रमदोत्तमा ।

    हरेरंशांशसम्भूतं भर्तुरन्तिकमागमत्‌ ॥

    १९॥

    तम्‌--उसको; दुरत्यय-विक्रान्तमू--जिसकी शक्ति को दबाया नहीं जा सकता था; आदाय--अपने साथ लेकर; प्रमदा-उत्तमा--स्त्रियों में श्रेष्ठ शकुन्तला; हरे: --ई श्वर का; अंश-अंश-सम्भूतम्‌-- अंशावतार; भर्तु: अन्तिकम्‌--अपने पति के पास; आगमत्‌--गई।

    सुन्दरियों में श्रेष्ठ शकुन्तला अपने पुत्र को, जो दुर्दमनीय था तथा भगवान्‌ का अंशावतार था,अपने साथ लेकर अपने पति दुष्मन्‍्त के पास गई।

    यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितो ।

    श्रृण्वतां सर्वभूतानां खे वागाहाशरीरिणी ॥

    २०॥

    यदा--जब; न--नहीं; जगृहे-- स्वीकार किया; राजा--राजा ने; भार्या-पुत्रौ--अपनी असली स्त्री तथा असली पुत्र को; अनिन्दितौ--जो निर्दोष थे, अनिन्दित; श्रृण्वताम्‌--सुनते हुए; सर्व-भूतानाम्‌--सारे लोगों के; खे--आकाश में; वाक्‌ू--शब्द ध्वनि ने; आह--घोषणा की; अशरीरिणी--शरीरविहीन |

    जब राजा ने अपनी निर्दोष पत्नी तथा पुत्र दोनों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया तोआकाश से शकुन के रूप में एक अदृश्य आवाज सुनाई दी जिसे वहाँ उपस्थित सबों ने सुना।

    माता भस्त्रा पितु: पुत्रो येन जात: स एव सः ।

    भरस्व पुत्र दुष्मन्त मावमंस्था: शकुन्तलाम्‌ ॥

    २१॥

    माता--माता; भस्त्रा--धौंकनी की तरह; पितु:--पिता का; पुत्र:--पुत्र; येन--जिसके द्वारा; जात:--उत्पन्न; सः--पिता; एबव--निश्चित; सः--पुत्र; भरस्व--पालो; पुत्रम्‌-- अपने पुत्र को; दुष्मन्‍्त--हे महाराज दुष्मन्त; मा--मत; अवमंस्था: --अपमानित करो;शकुन्तलामू--शकुन्तला को |

    आकाशवाणी ने कहा: हे महाराज दुष्मन्त, पुत्र वास्तव में अपने पिता का ही होता है जब किमाता मात्र चमड़े की धौंकनी के समान धारक होती है।

    वैदिक आदेशानुसार पिता पुत्र रूप में उत्पन्नहोता है।

    अतएव तुम अपने पुत्र का पालन करो और शकुन्तला का अपमान न करो।

    रेतोधा: पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात्‌ ।

    त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ॥

    २२॥

    रेतः-धा:--वीर्य स्थापित करने वाला पुरुष; पुत्र:--पुत्र; नयति--बचाता है; नर-देव--हे राजा; यम-क्षयात्‌--यमराज के दण्ड से;त्वमू--तुम; च--तथा; अस्य--इस बालक का; धाता--स्त्रष्टा; गर्भस्य--गर्भ का; सत्यम्‌--सत्य; आह--कहा; शकुन्तला--तुम्हारीपत्नी शकुन्तला ने

    हे राजा दुष्मन्त, वीर्य स्थापित करने वाला ही असली पिता है और उसका पुत्र उसे यमराज केचंगुल से छुड़ाता है।

    आप इस बालक के असली सत्रष्टा ( जन्मदाता ) हैं।

    शकुन्तला निस्सन्देह सत्यकह रही है।

    पितर्युपरते सोडपि चक्रवर्ती महायशा: ।

    महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि ॥

    २३॥

    पितरि--अपने पिता के; उपरते--दिवगंत हो जाने पर; सः--वह राजपुत्र; अपि-- भी; चक्रवर्ती --सप्राट; महा-यशा: --अत्यन्तविख्यात; महिमा--यश; गीयते--गाया जाता है; तस्य--उसका; हरेः-- भगवान्‌ का; अंश-भुव:--अंश रूप; भुवि--पृथ्वी पर।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब महाराज दुष्मन्त इस पृथ्वी से चले गये तो उनका पुत्र सातों द्वीपोंका स्वामी चक्रवर्ती राजा बना।

    वह ड्स संसार में भगवान्‌ का अंशावतार बतलाया जाता है।

    अक्रं दक्षिणहस्तेस्थ पद्यकोशोस्य पादयो: ।

    ईजे महाभिषेकेण सोउभिषिक्तोडधिराड्विभु: ।

    पञ्जञपश्जञाशता मेध्यैर्गड्रायामनु वाजिभि: ॥

    २४॥

    मामतेय॑ पुरोधाय यमुनामनु च प्रभु: ।

    अष्ट्सप्ततिमेध्याश्वान्बबन्ध प्रददद्वसु ॥

    २५॥

    भरतस्य हि दौष्मन्तेरग्नि: साचीगुणे चित: ।

    सहस्त्रं बद्वशो यस्मिन्ब्राह्मणा गा विभेजिरे ॥

    २६॥

    चक्रमू--कृष्ण-चक्र का चिह्न; दक्षिण-हस्ते--दाहिने हाथ में; अस्य--उसके ( भरत ) के; पढ्य-कोश:--कमल गुच्छ का चिह्न;अस्य--उसके; पादयो:--पैरों के तलवों पर; ईजे-- भगवान्‌ की पूजा की; महा-अभिषेकेण--विशाल वैदिक अनुष्ठान द्वारा; सः--वह ( भरत ); अभिषिक्त:--पदोन्नत किया गया; अधिराटू--शासक के सर्वोच्च पद पर; विभु:--स्वामी; पञ्ञ-पञ्ञाशता--पचपन;मेध्यै:--यज्ञों के लिए उपयुक्त; गड़ायाम्‌ अनु--स््रोत से लेकर गंगा के मुहाने तक; वाजिभि:--धोड़ों से; मामतेयम्‌-- भृगु मुनि को;पुरोधाय--पुरोहित बनाकर; यमुनाम्‌--यमुना तट पर; अनु--क्रमबद्ध; च-- भी; प्रभु:--स्वामी, महाराज भरत; अष्ट-सप्तति--अठहत्तर; मेध्य-अश्वान्‌ू--यज्ञ के योग्य घोड़ों को; बबन्ध--बाँधा; प्रददत्‌--दान में दिया; वसु-- धन; भरतस्य-- भरत का; हि--निस्सन्देह; दौष्मन्ते:--महाराज दुष्मन्त के पुत्र; अग्नि:--यज्ञ की आग; साची-गुणे--सर्वोत्तम स्थान पर; चित:ः--स्थापित; सहस्त्रम्‌--एक हजार; बद्वशः--एक बद्ध जो १३०८४ के तुल्य है; यस्मिनू--जिन यज्ञों में; ब्राह्मणा:--सारे उपस्थित ब्राह्मण; गा: --गाएँ;विभेजिरे--अपना अपना भाग प्राप्त किया।

    दुष्मन्त-पुत्र महाराज भरत के दाहिने हाथ की हथेली पर भगवान्‌ कृष्ण के चक्र का चिन्ह थाऔर उसके पैरों के तलवों में कमल कोश का चिन्ह था।

    वह महान्‌ अनुष्ठान के द्वारा भगवान्‌ कीपूजा करके सारे विश्व का अधिपति तथा सप्राट बन गया।

    तब उसने मामतेय अर्थात्‌ भूगु मुनि केपौरोहित्य में गंगा नदी के तट पर गंगा के अंतिम स्थान से लेकर उद्गम तक पचपन अश्वमेध यज्ञकिये।

    इसी तरह यमुना नदी के तट पर प्रयागराज के संगम से लेकर उदगम स्थान तक अठहत्तरअश्वमेध यज्ञ किये।

    उसने सर्वोत्तम स्थान पर यज्ञ की अग्नि स्थापित की और अपनी विपुल सम्पत्तिब्राह्मणों में वितरित कर दी।

    उसने इतनी गाएँ दान में दीं कि हजारों ब्राह्मणों में से हर एक को एकबद्व ( १३०८४ ) गाएँ अपने हिस्से में मिलीं ।

    त्यरस्त्रिशच्छतं ह्यश्वान्बद्ध्वा विस्मापयन्नपान्‌ ।

    दौष्मन्तिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ ॥

    २७॥

    त्रयः--तीन; त्रिंशत्‌--तीस; शतम्‌--सौ; हि--निस्सन्देह; अश्वान्‌--घोड़ों को; बद्ध्वा--यज्ञ में बन्दी करके; विस्मापयन्‌--आश्चर्यचकित करते हुए; नृपान्‌--सारे राजाओं को; दौष्मन्तिः--महाराज दुष्मन्त का पुत्र; अत्यगात्‌--बाजी मार ले गया; मायाम्‌--भौतिक ऐश्वर्य को; देवानामू--देवताओं का; गुरुम्‌--गुरु; आययौ--प्राप्त किया |

    महाराज दुष्मन्त के पुत्र भरत ने उन यज्ञों के लिए ३३०० घोड़े बाँधकर अन्य सारे राजाओं कोविस्मय में डाल दिया।

    उसने देवताओं के ऐश्वर्य को भी मात कर दिया क्‍योंकि उसे परम गुरु हरिप्राप्त हो गये थे।

    मृगाउ्छुक्लदतः कृष्णान्हिरण्येन परीवृतान्‌ ।

    अदात्कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश ॥

    २८॥

    मृगान्‌--उत्तम कोटि के हाथियों; शुक्ल-दतः--सफेद दाँत वाले; कृष्णानू--काले शरीर वाले; हिरण्येन--सोने के आभूषणों सेयुक्त; परीवृतान्‌ू--पूरी तरह ढके; अदात्‌--दान में दिया; कर्मणि--यज्ञ में; मष्णारे--मष्णार नामक यज्ञ अथवा मष्णार नामक स्थानमें; नियुतानि--लाख; चतुर्दश--चौदह

    जब महाराज भरत ने मष्णार नामक यज्ञ ( या मष्णार नामक स्थान में यज्ञ ) सम्पन्न किया तोउन्होंने दान में चौदह लाख श्रेष्ठ हाथी दिये जिनके दाँत सफेद थे और शरीर काले थे जो सुनहरे आशभूषणों से ढके थे।

    भरतस्य महत्कर्म न पूर्वे नापरे नूपा: ।

    नैवापुर्नैव प्राप्स्यन्ति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा ॥

    २९॥

    भरतस्य--महाराज भरत का; महत्‌--महान; कर्म--कार्य; न--न तो; पूर्वे--इसके पहले; न--न तो; अपरे--उसके बाद; नृपा: --राजागण; न--न तो; एब--निश्चय ही; आपु: --प्राप्त किया; न--न तो; एव--निश्चय ही; प्राप्स्यन्ति--पायेंगे; बाहु भ्यामू-- अपनेबाहुबल से; त्रि-दिवम्‌--स्वर्ग को; यथा--जिस तरह

    जिस तरह कोई व्यक्ति मात्र अपने बाहुबल से स्वर्ग नहीं पहुँच सकता ( क्योंकि अपने बाहुओं सेकोई स्वर्ग को कैसे छू सकता है?

    ) उसी तरह कोई व्यक्ति महाराज भरत के अद्भुत कार्यों काअनुकरण नहीं कर सकता।

    कोई न तो भूतकाल में ऐसे कार्य कर सका है, न ही भविष्य में कोईऐसा कर सकेगा।

    किरातहूणान्यवनान्पौण्ड्रान्कड्भान्खशाज्छकान्‌ ॥

    अब्रह्मण्यनृपां श्वाहन्म्लेच्छान्दिग्विजयेडखिलानू ॥

    ३०॥

    किरात--काले काले लोग, जो किरात कहलाते थे ( अधिकांशत: अफ्रीकी ); हृणान्‌--दूर उत्तर की जातियों, हूणों; यवनान्‌--मांसाहारियों; पौण्ड्रानू-पौण्डू; कट्ढलानू-कंकों; खशान्‌--मंगोलों; शकान्‌ू--शकों; अब्नह्मण्य--ब्राह्मण संस्कृति के विरोधी;नृपानू--राजाओं को; च--तथा; अहन्‌--उसने मार डाला; म्लेच्छान्‌ू--ऐसे नास्तिकों को जिन्हें वैदिक सभ्यता के प्रति कोई आदरनहीं था; दिक्‌ू-विजये--दिशाओं को जीतते समय; अखिलानू--समस्त |

    जब भरत महाराज दौरे पर थे तो उन्होंने सारे किरातों, हूणों, यवनों, पौण्ड्रों, कंकों, खशों, शकोंतथा ब्राह्मण संस्कृति के वैदिक नियमों के विरोधी राजाओं को परास्त किया या मार डाला।

    जित्वा पुरासुरा देवान्ये रसौकांसि भेजिरे ।

    देवस्त्रियो रसां नीता: प्राणिभिः पुनराहरत्‌ ॥

    ३१॥

    जित्वा--जीतकर; पुरा--प्राचीन काल में; असुरा:-- असुरगण; देवान्‌--देवताओं को; ये--जो; रस-ओकांसि--रसातल लोक में;भेजिरे--शरण ग्रहण की; देव-स्त्रियः--देवताओं की स्त्रियाँ तथा कन्याएँ; रसामू--अधोलोक में; नीता:ः--लाई गई; प्राणिभि: --अपने प्रिय संगियों समेत; पुन:--फिर; आहरत्‌--उनके पूर्व स्थानों में पहुँचा दिया।

    प्राचीन काल में सारे असुरों ने देवताओं को जीतकर रसातल नामक अधोलोक में शरण ले रखीथी और वे सारे देवताओं की स्त्रियों एवं कनन्‍्याओं को भी वहीं ले आये थे।

    किन्तु भरत महाराज ने इन सभी स्त्रियों को उनके संगियों समेत असुरों के चुंगल से छुड़ाया और उन्हें देवताओं को वापसकर दिया।

    सर्वान्कामान्दुदुहतुः प्रजानां तस्थ रोदसी ।

    समास्त्रिणवसाहस्त्रीर्दिक्षु चक्रमवर्तयत्‌ ॥

    ३२॥

    सर्वान्‌ कामानू--सारी आवश्यकताओं या इच्छित वस्तुओं को; दुदुहतुः--पूरा किया; प्रजानाम्‌--प्रजा की; तस्थ--उसकी; रोदसी --यह पृथ्वी तथा स्वर्गलोक; समा: --वर्ष ; त्रि-नव-साहस्त्री:--नौ हजार के तीन गुने ( २७ हजार ); दिक्षु--सारी दिशाओं में; चक्रम्‌--सैनिक या आदेश; अवर्तयत्‌--बँटवा दिया।

    महाराज भरत ने २७ हजार वर्षो तक इस पृथ्वी पर तथा स्वर्गलोकों में अपनी प्रजा की सारीआवश्यकताएँ पूरी कीं।

    उन्होंने सभी दिशाओं में अपने आदेश प्रसारित कर दिए और अपने सैनिकतैनात कर दिए।

    स संराडलोकपालाख्यमैश्वर्यमधिराट््‌ श्रयम्‌ ।

    चक्र चास्खलितं प्राणान्मृषेत्युपरराम ह ॥

    ३३॥

    सः--वह ( महाराज भरत ); संराट्‌--सप्राट; लोक-पाल-आख्यम्‌--समस्त लोकों के शासक के रूप में; ऐश्वर्यम्‌--ऐश्वर्य ;अधिराट्‌ू--पूरी तरह अधिकार में; अ्रियम्‌--राज्य; चक्रमू--सैनिक या आदेश; च--तथा; अस्खलितम्‌--बिना चूके; प्राणान्‌--जीवन अथवा पुत्र तथा परिवार को; मृषा--मिथ्या; इति--इस प्रकार; उपरराम-- भोग करना बन्द कर दिया; ह--भूतकाल में |

    समस्त विश्व के शासक के रूप में सप्राट भरत के पास महान्‌ राज्य एवं अजेय सैनिकों का ऐश्वर्यथा।

    उनके पुत्र तथा उनका परिवार उन्हें उनका जीवन प्रतीत होता था।

    किन्तु अन्ततः उन्होंने इन सबोंको आध्यात्मिक प्रगति में बाधक समझा अतएव उन्होंने इनका भोग बन्द कर दिया।

    तस्यासन्नुप वैदर्भ्य: पत््यस्तिस्त्र: सुसम्मता: ।

    जष्नुस्त्यागभयात्युत्रान्नानुरूपा इतीरिते ॥

    ३४॥

    तस्य--उसकी ( भरत की ); आसन्‌ू-- थीं; नृप--हे राजा परीक्षित; वैदर्भ्य:--विदर्भ की कन्याएँ; पत्य:--पत्ियाँ; तिस्त्रः--तीन;सु-सम्मता: --अत्यन्त मनोहर तथा उपयुक्त; जघ्नु:--मार डाला; त्याग-भयात्‌-्यागे जाने के भय से; पुत्रान्‌--अपने पुत्रों को; नअनुरूपा:--अपने पिता की तरह न होने से; इति--इस तरह; ईरिते--विचार करते हुए।

    हे राजा परीक्षित, महाराज भरत की तीन मनोहर पत्लियाँ थीं जो विदर्भ के राजा की पुत्रियाँ थीं।

    जब तीनों के सन्तानें हुईं तो वे राजा के समान नहीं निकलीं, अतएवं इन पत्नियों ने यह सोचकर किराजा उन्हें कृतघ्न रानियाँ समझकर त्याग देंगे, उन्होंने अपने अपने पुत्रों को मार डाला।

    तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थ यजतः सुतम्‌ ।

    मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः ॥

    ३५॥

    तस्य--उसके; एवम्‌--इस प्रकार; वितथे--परेशान होकर; वंशे--सन्‍्तान उत्पन्न करने में; तत्‌-अर्थम्‌--पुत्र प्राप्ति के लिए; यजतः--यज्ञ सम्पन्न करते हुए; सुतम्‌--एक पुत्र; मरुत्‌-स्तोमेन--मरूत्स्तोम यज्ञ करने से; मरूत:--मरुत्गण देवता; भरद्वाजम्‌-- भरद्वाज को;उपाददुः--भेंट कर दिया।

    सनन्‍्तान के लिए जब राजा का प्रयास इस तरह विफल हो गया तो उसने पुत्रप्राप्ति के लिएमरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया।

    सारे मरुत्गण उससे पूर्णतया सन्तुष्ट हो गये तो उन्होंने उसे भरद्वाजनामक पुत्र उपहार में दिया।

    अन्तर्वत्यां भ्रातृपत्यां मैथुनाय बृहस्पति: ।

    प्रवृत्तो वारितो गर्भ शप्त्वा वीर्यमुपासृजत्‌ ॥

    ३६॥

    अन्तः-वल्याम्‌--गर्भवती; भ्रातृ-पत्याम्‌-- भाई की पतली से; मैथुनाय--संभोग की इच्छा से; बृहस्पति:--बृहस्पति नामक देवता;प्रवृत्त:--प्रवृत्त; वारित:--मना किया गया; गर्भभू-गर्भ के भीतर के पुत्र को; शप्त्वा--शाप देकर; वीर्यम्‌--वीर्य; उपासृजत्‌ू--स्खलित किया।

    बृहस्पति देव ने अपने भाई की पत्नी ममता पर मोहित होने पर उसके गर्भवती होते हुए भी उसकेसाथ संभोग करना चाहा।

    उसके गर्भ के भीतर के पुत्र ने मना किया लेकिन बृहस्पति ने उसे शाप देदिया और बलात्‌ ममता के गर्भ में वीर्य स्थापित कर दिया।

    त॑ त्यक्तुकामां ममतां भर्तुस्त्यागविशज्धिताम्‌ ।

    नामनिर्वाचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगु; ॥

    ३७॥

    तम्‌--नवजात शिशु को; त्यक्तु-कामाम्‌ू-त्यागने की इच्छा से; ममताम्‌--ममता को; भर्तु: त्याग-विशद्धिताम्‌--अवैध पुत्र उत्पन्नकरने के कारण अपने पति द्वारा छोड़े जाने से अत्यन्त भयभीत; नाम-निर्वाचनम्‌--नामकरण संस्कार; तस्य--उस बालक का;श्लोकम्‌-श्लोक; एनम्‌--इस; सुराः:--देवतागण ने; जगु:--घोषित किया।

    ममता अत्यन्त भयभीत थी कि अवैध पुत्र उत्पन्न करने के कारण उसका पति उसे छोड़ सकता हैअतएव उसने बालक को त्याग देने का विचार किया।

    लेकिन तब देवताओं ने उस बालक कानामकरण करके सारी समस्या हल कर दी।

    मूढे भर द्वाजमिमं भर द्वाजं बृहस्पते ।

    यातौ यदुक्‍्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम्‌ ॥

    ३८॥

    मूढे --हे मूर्ख स्त्री; भर--पालन करो; द्वाजम्‌-दोनों के बीच अवैध सम्बन्ध से उत्पन्न; इमम्‌--इस बालक को; भर--पालो;द्वाजमू--अवैध जन्म लेने के कारण; बृहस्पते--हे बृहस्पति; यातौ--छोड़कर चले गये; यत्‌--क्योंकि ; उक्त्वा--कहकर; पितरौ--माता पिता दोनों; भरद्वाज: --भरद्वाज नामक; ततः--तत्पश्चात्‌; तु--निस्सन्देह; अयम्‌--यह बालक |

    बृहस्पति ने ममता से कहा, 'अरी मूर्ख! यद्यपि यह बालक अन्य पुरुष की पत्ती और किसीदूसरे पुरुष के वीर्य से उत्पन्न हुआ है, किन्तु तुम इसका पालन करो।

    यह सुनकर ममता ने उत्तरदिया, 'ओरे बृहस्पति, तुम इसको पालो।

    ऐसा कहकर बृहस्पति तथा ममता उसे छोड़कर चले गये।

    इस तरह बालक का नाम भरद्वाज पड़ा।

    चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम्‌ ।

    व्यसृजन्मरुतोबिश्रन्दत्तो5्यं वितथेउन्वये ॥

    ३९॥

    चोद्यमाना--प्रोत्साहित किये जानेपर ( कि बालक को पालो ); सुरैः--देवताओं द्वारा; एवम्‌--इस प्रकार; मत्वा--मानकर;वितथमू--निष्प्रयोजन; आत्मजम्‌-- अपने पुत्र को; व्यसृजत्‌--त्याग दिया; मरुत:--मरुत्गण ने; अबि भ्रनू--बच्चे का पालन किया;दत्त:--दिया गया; अयम्‌ू--यह; वितथे--निराश; अन्वये--महाराज भरत का वंश

    यद्यपि देवताओं ने बालक को पालने के लिए प्रोत्साहित किया था, किन्तु ममता ने अवैध जन्मके कारण उस बालक को व्यर्थ समझ कर उसे छोड़ दिया।

    फलस्वरूप, मरुत्गण देवताओं ने बालकका पालन किया और जब महाराज भरत सनन्‍्तान के अभाव से निराश हो गए तो उन्हें यही बालकपुत्र-रूप में भेंट किया गया।

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    अध्याय इक्कीसवाँ: भरत का राजवंश

    9.21श्रीशुक उवाचवितथस्य सुतान्मन्योर्बृहत्क्षत्रो जयस्ततः ।

    महावीरयों नरोगर्ग: सट्डू तिस्तु नरात्मज: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; वितथस्य--वितथ ( भरद्वाज ) का, जिसे भरत ने निराशा की विशेष परिस्थिति मेंगोद लिया था; सुतात्‌--पुत्र से; मन्‍यो: --मन्यु; बृहक्क्षत्र:--बृहत्क्षत्र; जयः--जय ; ततः--उससे; महावीर्य: --महावीर्य; नर: --नर;गर्ग:-गर्ग; सल्लू तिः--संकृति; तु--निश्चय ही; नर-आत्मज:--नर का पुत्र |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा: चूँकि मरुत्गणों ने भरद्वाज को लाकर दिया था इसलिए वह वितथकहलाया।

    वितथ के पुत्र का नाम मन्यु था जिसके पाँच पुत्र हुए--बृहक्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर तथागर्ग।

    इन पाँचों में से नर के पुत्र का नाम संकृति था।

    गुरुश्न रन्तिदेवश्च सड्डू ते: पाण्डुनन्दन ।

    रन्तिदेवस्य महिमा इहामुत्र च गीयते ॥

    २॥

    गुरुः--गुरु नामक पुत्र; च--तथा; रन्तिदेवः च--तथा रन्तिदेव; सड्डू तेः--संकृति से; पाण्डु-नन्दन--हे पाण्डु के वंशज, महाराजपरीक्षित; रन्तिदेवस्य--रन्तिदेव की; महिमा-- ख्याति; इह--इस संसार में; अमुत्र--तथा परलोक में; च-- भी; गीयते--गाई जातीहैहे महाराज परीक्षित, हे पाण्डु वंशज, संकृति के दो पुत्र थे--गुरु तथा रन्तिदेव।

    रन्तिदेव इसलोक में तथा परलोक दोनों में ही विख्यात हैं क्योंकि उनकी महिमा का गान न केवल मानव समाजमें अपितु देव समाज में भी होता है।

    विदद्वित्तस्थ ददतो लब्धं लब्धं बुभुक्षतः ।

    निष्किज्ञनस्य धीरस्य सकुट॒म्बस्य सीदतः ॥

    ३॥

    व्यतीयुरष्टचत्वारिंशदहान्यपिबत:ः किल ।

    घृतपायससंयावं तोयं॑ प्रातरूपस्थितम्‌ ॥

    ४॥

    कृच्छ॒प्राप्तकुटुम्बस्य क्षुत्तृड्भ्यां जातवेषथो: ।

    अतिथिर्त्राह्मण: काले भोक्तुकामस्थ चागमत्‌ ॥

    ५॥

    वियत्ू-वित्तस्थ--रन्तिदेव का, जिसे विधाता से वस्तुएँ प्राप्त होती थीं जिस तरह चातक पक्षी आकाश से जल प्राप्त करता है;ददतः--अन्यों को बाँट दिया; लब्धम्‌--जो कुछ प्राप्त हुआ; लब्धम्‌--ऐसे प्राप्त पदार्थ; बुभुक्षतः-- भोग किया; निष्किक्ननस्य--सदैव धनहीन; धीरस्य--फिर भी अत्यन्त धीर; स-कुटुम्बस्थ--अपने परिवार के साथ भी; सीदतः--अत्यधिक कष्ट भोगता;व्यतीयु:--बीत गये; अष्ट-चत्वारिंशत्‌-- अड़तालीस; अहानि--दिन; अपिबत:--जल पिये बिना; किल--निस्सन्देह; घृत-पायस--घी तथा दूध से बना भोजन; संयावम्‌--व्यंजन; तोयम्‌ू--जल; प्रात:--प्रातःकाल; उपस्थितम्‌--संयोगवश आ गया; कृच्छू-प्राप्त--कष्ट पाते हुए; कुटुम्बस्थ--कुट॒म्बियों का; क्षुत्‌-तृड्भ्याम्‌-- भूख तथा प्यास से; जात--हो गया; वेपथो: --कम्पित; अतिथि:--अतिथि; ब्राह्मण:--ब्राह्मण; काले--उस समय; भोक्तु-कामस्थ--कुछ खाने के लिए इच्छुक रन्तिदेव का; च-- भी; आगमत्‌--वहाँआ गया

    रन्तिदेव ने कभी कुछ भी कमाने का यत्त नहीं किया।

    उसे भाग्य से जो मिल जाता उसे हीभोगता, किन्तु जब अतिथि आ जाते तो वह हर वस्तु उन्हें दे देता था।

    इस तरह उसे तथा उसके साथउसके परिवार के सदस्यों को काफी कष्ट सहना पड़ा।

    वह तथा उसके परिवार के लोग अन्न तथा जलके अभाव से गंभीर रहते थे फिर भी रन्तिदेव धीर बना रहता।

    एक बार अड़तालीस दिनों तक उपवासकरने के बाद रन्तिदेव को प्रातःकाल थोड़ा जल तथा घी और दूध से बने कुछ व्यंजन प्राप्त हुए,किन्तु जब वह तथा उसके परिवार वाले भोजन करने ही वाले थे तो एक ब्राह्मण अतिथि आ धमका।

    तस्मै संव्यभजत्सोन्नमाहत्य श्रद्धयान्वित: ।

    हरिं सर्वत्र सम्पश्यन्स भुक्‍त्वा प्रययौ द्विज:ः ॥

    ६॥

    तस्मै--उस ( ब्राह्मण ) को; संव्यभजत्‌--बाँट कर अपना हिस्सा दे दिया; सः--उसने; अन्नमू-- भोजन; आहत्य--आदरपूर्वक;श्रद्धया अन्वित:--अत्यन्त श्रद्धापूर्वक; हरिम्‌ू-- भगवान्‌ को; सर्वत्र--सभी जगह, हर जीव के हृदय में; सम्पश्यन्‌ू--देखते हुए; सः--वह; भुक्त्वा--भोजन करके; प्रययौ--उस स्थान से चला गया; द्विज:--ब्राह्मण |

    चूँकि रन्तिदेव को सर्वत्र एवं हर जीव में भगवान्‌ की उपस्थिति का बोध होता था अतएव वहबड़े ही श्रद्धा-सम्मान से अतिथि का स्वागत करता और उसे भोजन का अंश देता था।

    उस ब्राह्मणअतिथि ने अपना भाग खाया और फिर चला गया।

    अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य महीपते: ।

    विभक्तं व्यभजत्तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन्‌ ॥

    ७॥

    अथ--त्पश्चात्‌; अन्य:--दूसरा अतिथि; भोक्ष्यमाणस्य--बस खाने ही जा रहे थे; विभक्तस्य--परिवार के लिए हिस्सा अलग करतेहुए; महीपतेः --राजा का; विभक्तम्‌--परिवार के लिए नियत भोजन; व्यभजत्‌--हिस्से लगाकर बाँट दिया; तस्मै--उस; वृषलाय--शूद्र को; हरिम्‌ू-- भगवान्‌ का; स्मरन्‌ू--स्मरण करते हुए।

    तत्पश्चात्‌ शेष भोजन को अपने परिवार वालों मे बाँट देने के बाद रन्तिदेव अपना हिस्सा खानेजा ही रहे थे कि एक शूद्र अतिथि वहाँ आ गया।

    इस शूद्र को भगवान्‌ से सम्बन्धित देखकर राजारन्तिदेव ने उसे भी भोजन में से एक अंश दिया।

    याते शूद्रे तमन्योगादतिथि: श्रभिरावृतः ।

    राजन्मे दीयतामन्न॑ं सगणाय बुभुक्षते ॥

    ८॥

    याते--चले जाने पर; शूद्रे--शूद्र अतिथि के; तमू--राजा के पास; अन्य:--दूसरा; अगातू--वहाँ आया; अतिथि:--मेहमान; श्वभिःआवृतः-कुत्तों से घिरा हुआ; राजन्‌ू--हे राजा; मे--मुझको; दीयतामू--दीजिये; अन्नम्‌ू--खाद्य पदार्थ; स-गणाय--कुत्तों समेत;बुभुक्षते-- भूखा होने के कारण।

    जब शूद्र चला गया तो एक दूसरा मेहमान आया जिसके साथ कुत्ते थे।

    उसने कहा, 'हे राजा, मैंतथा मेरे साथ के ये कुत्ते अत्यन्त भूखे हैं।

    कृपया हमें कुछ खाने को दें।

    'स आहत्यावशिष्ट यद्वहुमानपुरस्कृतम्‌ ।

    तच्च दत्त्वा नमश्नक्रे श्रभ्य: श्रपतये विभुः ॥

    ९॥

    सः--वह ( राजा रन्तिदेव ); आहत्य--आदरपूर्वक; अवशिष्टम्‌-ब्राह्मण तथा शूद्र को खिलाने के बाद बचा हुआ भोजन; यत्‌--जितना भी; बहु-मान-पुरस्कृतम्‌--अत्यन्त आदर करते हुए; तत्‌--वह; च-- भी; दत्त्वा--देकर; नम:-चक्रे --नमस्कार किया;श्रभ्य:--कुत्तों के साथ; श्र-पतये--कुत्तों के मालिक को; विभुः--शक्तिशाली राजा

    राजा रन्तिदेव ने अतिथि रूप में आये कुत्तों और कुत्तों के मालिक को अत्यन्त आदरपूर्वक बचाहुआ भोजन दे दिया।

    राजा ने उनका सभी प्रकार से आदर किया और नमस्कार किया।

    पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम्‌ ।

    पास्यतः पुल्कसोभभ्यागादपो देहाशुभाय मे ॥

    १०॥

    पानीय-मात्रमू--केवल पीने का जल; उच्छेषम्‌--उच्छिष्ट भोजन; तत्‌ च--वह भी; एक--एक के लिए; परितर्पणम्‌--तुष्ट करते हुए;पास्यतः--ज्योंही राजा पीने को हुआ; पुल्कस:ः--चण्डाल; अभ्यागात्‌--वहाँ आया; अप:--जल; देहि--कृपया दें; अशुभाय--अधम चण्डाल होने पर भी; मे--मुझको |

    तत्पश्चात्‌ केवल पीने का जल ही बच रहा जो केवल एक व्यक्ति को संतुष्ट करने के लिए हीपर्याप्त था।

    किन्तु ज्योंही राजा जल पीने को हुआ कि एक चण्डाल वहाँ आया और कहने लगा, 'हेराजा, मैं निम्नकुल में उत्पन्न ( नीच ) हूँ।

    कृपा करके मुझे पीने के लिए थोड़ा जल दें।

    'तस्य तां करुणां वाच॑ निशम्य विपुल श्रमाम्‌ ।

    कृपया भृशसन्तप्त इदमाहामृतं वचः ॥

    ११॥

    तस्य--उसका ( चण्डाल ) का; तामू--उन; करुणाम्‌ू--दयनीय; वाचम्‌--शब्दों को; निशम्य--सुनकर; विपुल--अत्यधिक;अ्रमामू--थका हुआ; कृपया--दया करके; भृूश-सन्तप्त:--अत्यन्त दुखी; इदम्‌--ये सब; आह--बोला; अमृतम्‌--मधुर; बच: --शब्द

    बेचारे थके चण्डाल के दयनीय वचनों को सुनकर दुखित महाराज रन्तिदेव ने इस प्रकार केअमृततुल्य वचन कहे।

    न कामयेहं गतिमीश्चरात्पराम्‌अष्ट््वियुक्तामपुनर्भव वा ।

    आर्ति प्रपद्येईखखिलदेहभाजाम्‌अन्तःस्थितो येन भवन्त्यदु:ःखा: ॥

    १२॥

    न कामये--नहीं चाहता; अहम्‌--मैं; गतिम्‌--गन्तव्य; ईश्वरात्‌-- भगवान्‌ से; पराम्‌ू--महान; अष्ट-ऋद्धि-युक्ताम्‌-- आठ प्रकार कीसिद्धियों से रचित; अपुन:ः-भवम्‌--बारम्बार जन्म का अन्त ( मोक्ष ); वा--अथवा; आर्तिम्‌--कष्ट; प्रपद्ये--स्वीकार करता हूँ;अखिल-देह- भाजाम्‌--सारे जीवों के; अन्तः-स्थित:-- भीतर स्थित; येन--जिससे; भवन्ति--होते हैं; अदुःखा:--दुखरहित

    मैं ईश्वर से न तो योग की अष्ट सिद्ध्रियों के लिए प्रार्थना करता हूँ न जन्म-मृत्यु के चक्र से मोक्षकी कामना करता हूँ।

    मैं सारे जीवों के बीच निवास करके उनके लिए सारे कष्टों को भोगना चाहताहूँ जिससे वे कष्ट से मुक्त हो सकें।

    क्षुत्तट्‌ अ्रमो गात्रपरिभ्रमश्चदैन्यं कलम: शोकविषादमोहा: ।

    सर्वे निवृत्ता: कृपणस्य जन्तोर्‌जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे ॥

    १३॥

    क्षुत्‌ू-- भूख; तृटू--तथा प्यास से; श्रम: -- थकावट; गात्र-परिभ्रम: --शरीर का काँपना; च-- भी; दैन्यम्‌ू--गरीबी; क्लम:--कष्ट;शोक--संताप; विषाद--खिन्नता; मोहा: --तथा मोह; सर्वे--सभी; निवृत्ता:--समाप्त; कृपणस्य--गरीब; जन्तो: --जीव ( चण्डाल )की; जिजीविषो:--जीने की इच्छा; जीव--प्राण बचाने के लिए हुए; जल--जल; अर्पणात्‌--प्रदान करने से; मे--मेरा

    जीवन के लिए संघर्ष करते हुए बेचारे चण्डाल की जान बचाने के लिए अपना जल देकर मैंसारी भूख, प्यास, थकान, शरीर-कम्पन, खिन्नता, क्लेश, संताप तथा मोह से मुक्त हो गया हूँ।

    इति प्रभाष्य पानीयं प्रियमाण: पिपासया ।

    पुल्कसायाददाद्धीरो निसर्गकरुणो नूप: ॥

    १४॥

    इति--इस तरह; प्रभाष्य--यह कह कर; पानीयम्‌--पीने का जल; प्रियमाण: --मरणासन्न; पिपासया--प्यास के कारण;पुल्कसाय--चण्डाल को; अददात्‌--दे दिया; धीर:--धीर; निसर्ग-करुण: --स्वभाव से दयालु; नृप:--राजा ने

    इस तरह कहकर प्यास के मारे मरते हुए राजा रन्तिदेव ने बिना किसी हिचक के अपने हिस्से काजल चण्डाल को दे दिया क्योंकि राजा स्वभाव से अत्यन्त दयालु तथा शान्त था।

    तस्य त्रिभुवनाधीशा: फलदा: फलमिच्छताम्‌ ।

    आत्मानं दर्शयां चक्रुर्माया विष्णुविनिर्मिता: ॥

    १५॥

    तस्य--उसके समक्ष; त्रि-भुवन-अधीशा:--तीनों लोकों के नियन्ता ( यथा ब्रह्मा, शिव जैसे देवतागण ); फलदा:--फल देने वाले;'फलम्‌ इच्छताम्‌-- भौतिक लाभ की इच्छा रखने वाले; आत्मानम्‌--अपना स्वरूप; दर्शयाम्‌ चक्रु:--प्रकट किया; माया:--मोहकशक्ति; विष्णु--विष्णु द्वारा; विनिर्मिता: -- उत्पन्न |

    तत्पश्चात्‌ लोगों को इच्छित फल देकर उनकी सारी भौतिक इच्छाओं को पूरा करने वाले ब्रह्माजीतथा शिवजी जैसे देवताओं ने राजा रन्तिदेव के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट किया क्‍योंकि वे हीब्राह्मण, शूद्र, चण्डाल इत्यादि के रूप में उनके पास आये थे।

    स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निःसड़ो विगतस्पृहः ।

    वबासुदेवे भगवति भकत्या चक्रे मन: परम्‌ ॥

    १६॥

    सः--वह ( राजा रन्तिदेव ); वै--निस्सन्देह; तेभ्य:--ब्रह्मा जी, शिवजी इत्यादि अन्य देवताओं को; नमः-कृत्य--नमस्कार करके;निःसड्ृः--निष्काम; विगत-स्पृह:-- किसी प्रकार की भौतिक सम्पत्ति की इच्छा न करते हुए; वासुदेवे--वासुदेव में; भगवति--भगवान्‌; भक्त्या--भक्ति के द्वारा; चक्रे --स्थिर किया; मन:--मन को; परम्‌--चरम लक्ष्य के रूप में |

    राजा रन्तिदेव को देवताओं से किसी प्रकार का भौतिक लाभ प्राप्त करने की कोई आकांक्षा नथी।

    उसने उन्हें प्रणाम किया, किन्तु भगवान्‌ विष्णु या वासुदेव में अनुरक्त होने के कारण उसने अपनेमन को भगवान्‌ विष्णु के चरणकमलों में स्थिर कर लिया।

    ईश्वरालम्बनं चित्तं कुर्वतोनन्यराधस: ।

    माया गुणमयी राजन्स्वणवत्प्रत्यलीयत ॥

    १७॥

    ईश्वर-आलम्बनम्‌-- भगवान्‌ के चरणकमलों में पूरी तरह शरण लेना; चित्तम्‌--चेतना; कुर्वत:--स्थिर करके; अनन्य-राधस: --रन्तिदेव के लिए जो अविचल था और भगवान्‌ की सेवा के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहता था; माया-- भ्रामक शक्ति; गुण-मयी --प्रकृतिके तीन गुणों से युक्त; राजन्‌ू--हे महाराज परीक्षित; स्वप्न-वत्‌--सपने के समान; प्रत्यलीयत--नष्ट हो गईं।

    हे महाराज परीक्षित, चूँकि राजा रन्तिदेव शुद्ध भक्त, सदैव कृष्णभावनाभावित तथा पूर्णरूपेणनिष्काम था अतएव भगवान्‌ की माया उसके समक्ष प्रकट नहीं हो सकी।

    उल्टे, माया स्वप्न के समानपूरी तरह नष्ट हो गई।

    तत्प्रसड्रानुभावेन रन्तिदेवानुवर्तिन: ।

    अभवनन्‍्योगिनः सर्वे नारायणपरायणा: ॥

    १८॥

    तत्‌-प्रसड़र-अनु भावेन--राजा रन्तिदेव की संगति के कारण ( उनसे भक्तियोग के विषय में बातें करते हुए ); रन्तिदेव-अनुवर्तिन: --राजा रन्तिदेव के अनुयायी ( उनके नौकर, परिवार वाले, मित्र, इत्यादि ); अभवनू्‌--हो गये; योगिन:-- श्रेष्ठ भक्तियोगी; सर्वे --सभी;नारायण-परायणा: -- भगवान्‌ नारायण के भक्त |

    जिन लोगों ने राजा रन्तिदेव के सिद्धान्तों का पालन किया उन सबों को उनकी कृपा प्राप्त हुईऔर वे भगवान्‌ नारायण के शुद्ध भक्त बन गये।

    इस तरह वे सभी श्रेष्ठ योगी बन गये।

    गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्य: क्षत्राद्रह्म हावर्तत ।

    दुरितक्षयो महावीर्यात्तस्य त्रय्यारुणि: कवि: ॥

    १९॥

    पुष्करारुणिरित्यत्र ये ब्राह्मणगतिं गता: ।

    बृहक्क्षत्रस्य पुत्रो भूद्धस्ती यद्धस्तिनापुरम्‌ ॥

    २०॥

    गर्गातू-गर्ग से ( भरद्वाज के अन्य पौत्र से ); शिनि:ः--शिनि नामक पुत्र; ततः--उससे ( शिनि से ); गार्ग्य; --गार्ग्य नामक पुत्र;क्षत्रातू-क्षत्रिय होते हुए भी; ब्रह्म-- ब्राह्मण; हि--निस्सन्देह; अवर्तत--हो सका; दुरितक्षय:--दुरितक्षय नामक पुत्र; महावीर्यात्‌ --महावीर्य से ( भरद्वाज के अन्य पौत्र से ); तस्थ--उसका; त्रय्यारुणि:--त्रय्यारुणि नामक पुत्र; कवि:--कवि नामक पुत्र;पुष्करारुणि:--पुष्करारुणि नामक पुत्र; इति--इस प्रकार; अतन्र--यहाँ; ये--वे सभी; ब्राह्मण-गतिम्‌--ब्राह्मणों का पद; गता:--प्राप्तहुआ; बृहक्क्षत्रस्य--बृहत्क्षत्र का, जो भरद्वाज का पौत्र था; पुत्र:--पुत्र; अभूत्‌--हुआ; हस्ती--हस्ती; यत्‌--जिससे; हस्तिनापुरम्‌--हस्तिनापुर ( नई दिल्‍ली ) की स्थापना हुई |

    गर्ग से शिनि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका पुत्र गार्ग्य हुआ।

    यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, किन्तुउससे ब्राह्मण कुल की उत्पत्ति हुईं।

    महावीर्य का पुत्र दुरितक्षय हुआ, जिसके तीन पुत्र थे--त्रय्यारुणि, कवि तथा पुष्करारुणि।

    यद्यपि दुरितक्षय के ये पुत्रक्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तुउन्हें भी ब्राह्मण पद प्राप्त हुआ।

    बृहक्क्षत्र का एक पुत्र हस्ती था जिसने हस्तिनापुर नामक नगर ( आजकी नई दिल्‍ली ) की स्थापना की।

    अजमीढो द्विमीढश्न पुरुमीढश्च हस्तिन: ।

    अजमीढस्य वंश्या: स्यु: प्रियमेधादयो द्विजा: ॥

    २१॥

    अजमीढ: --अजमीढ; द्विमीढ:--ट्विमीड; च-- भी; पुरुमीढ:--पुरुमीढ; च-- भी; हस्तिन: --हस्ती के पुत्र बने; अजमीढस्य--अजमीढ के; वंश्या:--वंशज; स्युः--हैं; प्रियमेध-आदय: --प्रियमेध इत्यादि; द्विजा:--ब्राह्मण |

    राजा हस्ती के तीन पुत्र हुए--अजमीढ, द्विमीढ, तथा पुरुमीढ।

    अजमीढ के वंशजों में प्रियमेथप्रमुख था और उन सबों ने ब्राह्मण पद प्राप्त किया।

    अजमीढाह्ठहदिषुस्तस्य पुत्रो बृहद्धनुः ।

    बृहत्कायस्ततस्तस्य पुत्र आसीज्यद्रथ: ॥

    २२॥

    अजमीढातू्‌--अजमीढ से; बृहदिषु:--बृहदिषु नामक पुत्र; तस्थ--उसका; पुत्र:--पुत्र; बृहद्धनु:--बृहद्धनु; बृहत्काय: --बृहत्काय;ततः-तत्पश्चात्‌; तस्थ--उसका; पुत्र:--पुत्र; आसीतू-- था; जयद्रथ: --जयद्रथ |

    अजमीढ का पुत्र बृहदिषु था, बृहदिषु का पुत्र बृहद्धनु था, बृहद्धनु का पुत्र बृहत्काय था औरबृहत्काय से जयद्रथ नामक पुत्र हुआ।

    तत्सुतो विशदस्तस्य स्येनजित्समजायत ।

    रुचिराश्वो हढहनुः काश्यो वत्सश्न तत्सुता: ॥

    २३॥

    तत्‌ू-सुत:--जयद्रथ का पुत्र; विशद: --विशद्‌; तस्थ--उसका; स्येनजित्‌ू--स्येनजित; समजायत--उत्पन्न हुआ; रुचिराश्व:--रुचिराश्च; हृढहनु:--हृढ्हनु; काश्य: --काश्य; वत्स:--वत्स; च-- भी; तत्‌-सुता: --स्येनजित के पुत्र |

    जयद्रथ का पुत्र विशद था और उसका पुत्र स्येनजित था।

    स्येनजित के पुत्रों के नाम थे रुचिराश्व,हृढहनु, काश्य तथा वत्स।

    रुचिराश्वसुतः पार: पृथुसेनस्तदात्मज: ।

    पारस्य तनयो नीपस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत्‌ ॥

    २४॥

    रुचिराश्च-सुतः--रुचिराश्च का पुत्र; पार: --पार; पृथुसेन: --पृथुसेन; तत्‌--उसका; आत्मज: --पुत्र; पारस्थ--पार का; तनयः --पुत्र;नीप:--नीप; तस्य--उसके ; पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; तु--निस्सन्देह; अभूत्‌-उत्पन्न हुए।

    रुचिराश्व का पुत्र पार था और पार के पुत्र पृथुसेन तथा नीप थे।

    नीप के एक सौ पुत्र थे।

    स कृत्व्यां शुककन्यायां ब्रह्मदत्तमजीजनतू ।

    योगी स गवि भार्यायां विष्वक्सेनमधात्सुतम्‌ ॥

    २५॥

    सः--उसने ( नीप ); कृत्व्यामू-कृत्वी नामक पत्नी से; शुक-कन्यायाम्‌-शुक की कन्या से; ब्रह्मदत्तम्‌-ब्रह्मदत्त नामक पुत्र;अजीजनतू--उत्पन्न किया; योगी--योगी; सः--वह ब्रह्मदत्त; गवि--गौ या सरस्वती नाम की; भार्यायाम्‌ू--पली के गर्भ से;विष्वक्सेनम्‌-विष्वक्सेन को; अधात्‌--उत्पन्न किया; सुतम्‌--पुत्र |

    शुक की पुत्री अर्थात्‌ नीप की पती कृत्वी के गर्भ से राजा नीप के ब्रह्मदत्त नाम का पुत्र उत्पन्नहुआ।

    ब्रह्मदत्त महान्‌ योगी था।

    उसकी पत्नी सरस्वती के गर्भ से विष्वक्सेन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।

    जैगीषव्योपदेशेन योगतन्त्रं चकार ह ।

    उदक्सेनस्ततस्तस्माद्धल्लाटो बाहदीषवा: ॥

    २६॥

    जैगीषव्य--जैगीषव्य नामक महान्‌ ऋषि के; उपदेशेन--उपदेश से; योग-तन्त्रमू--योगविधि का विस्तृत वर्णन; चकार--संकलितकिया; ह--भूतकाल में; उदक्सेन:--उदक्सेन; तत:--उससे ( विष्वक्सेन से ); तस्मात्‌--उससे ( उदक्सेन से ); भललाट:-- भल्लाटनामक पुत्र; बाहदीषवा:--बृहदिषु के वंशज।

    जैगीषव्य ऋषि के उपदेशानुसार विष्वक्सेन ने योगपद्धति का विस्तृत वर्णन संकलित किया।

    विष्वक्सेन से उदक्सेन उत्पन्न हुआ और उदक्सेन से भललाट।

    ये सभी पुत्र बृहदिषु के वंशज थे।

    यवीनरो द्विमीढस्य कृतिमांस्तत्सुतः स्मृतः ।

    नाम्ना सत्यधृतिस्तस्य हृढनेमि: सुपार्थकृत्‌ ॥

    २७॥

    यवीनर:--यवीनर; द्विमीढस्थ--द्विमीढ का पुत्र; कृतिमान्‌ू--कृतिमान; तत्‌-सुत:--यवीनर का पुत्र; स्मृत:--विख्यात है; नाम्ता--नाम से; सत्यधृति:--सत्यधूति; तस्थ--उसका; हृढनेमि: --हढनेमि; सुपार्थ-कृत्‌--सुपार्थ का पिताद्विमीढ का पुत्र यवीनर था और उसका पुत्र कृतिमान था।

    कृतिमान का पुत्र सत्यधृति के नाम सेविख्यात था।

    सत्यधृति से हृढनेमि नाम का पुत्र हुआ जो सुपार्श का पिता बना।

    सुपार्श्रात्सुमतिस्तस्य पुत्र: सन्नतिमांस्ततः ।

    कृती हिरण्यनाभाद्यो योगं प्राप्प जगौ सम घटू ॥

    २८॥

    संहिताः प्राच्यसाम्नां वै नीपो ह्युदग्रायुधस्ततः ।

    तस्य क्षेम्य: सुवीरोथ सुवीरस्य रिपुञ्रय: ॥

    २९॥

    सुपार्थात्‌ू--सुपार्थ से; सुमतिः--सुमति नामक पुत्र; तस्य पुत्र:--उसका बेटा ( सुमति का बेटा ); सन्नतिमान्‌--सन्नतिमान; ततः--उससे; कृती--कृती नामक पुत्र; हिरण्यनाभात्‌-- ब्रह्मा से; यः--जो; योगम्‌--योगशक्ति; प्राप्प--प्राप्त करके; जगौ--पढ़ाया; स्म--भूतकाल में; षघटू--छ: ; संहिता:--संहिताएँ; प्राच्यसाम्नामू--सामवेद के प्राच्यसाम नामक एलोकों का; बै--निस्सन्देह; नीप:--नीप;हि--निस्सन्देह; उद्ग्रायुध: --उदग्रायुध; तत:--उससे; तस्य--उसका; क्षेम्य:--क्षेम्य; सुवीर: --सुवीर; अथ--तत्पश्चात्‌; सुवीरस्य--सुवीर का; रिपुञ्लयः--रिपुझ्लय नामक पुत्र

    सुपार्थ से सुमति नाम का पुत्र, सुमति से सन्नतिमान तथा सन्नतिमान से कृती उत्पन्न हुआ जिसनेब्रह्मा से योगशक्ति प्राप्त की और सामवेद के प्राच्यसाम नामक श्लोकों की छह संहिताएँ पढ़ाई।

    कृती का पुत्र नीप था, नीप का पुत्र उद्ग्रायुध हुआ, उद्ग्रायुध का पुत्र क्षेम्य हुआ, क्षेम्य से सुवीरनामक पुत्र हुआ तथा सुवीर का पुत्र रिपुल्लय था।

    ततो बहुरथो नाम पुरुमीढोप्रजो भवत्‌ ।

    नलिन्यामजमीढस्य नील: शान्तिस्तु तत्सुतः: ॥

    ३०॥

    ततः--उससे ( रिपुञ्नय से ); बहुरथः --बहुरथ; नाम--नामक; पुरुमीढ:--पुरुमीढ, द्विमीढ का छोटा भाई; अप्रज: --निःसन्तान;अभवत्‌--हुआ; नलिन्याम्‌ू--नलिनी से; अजमीढस्य--अजमीढ की; नील: --नील; शान्तिः:--शान्ति; तु--तब; तत्‌-सुत:--नील कापुत्र।

    रिपुज्ञय का पुत्र बहुरथ हुआ।

    पुरुमीढ नि:सन्‍्तान था।

    अजमीढ को अपनी पत्नी नलिनी से नीलनामक पुत्र की प्राप्ति हुईं।

    नील का पुत्र शान्ति था।

    शान्ते: सुशान्तिस्तत्पुत्र: पुरुजोर्कस्ततोभवत्‌ ।

    भर्म्याश्वस्तनयस्तस्य पशञ्ञासन्मुदूगलादय: ॥

    ३१॥

    यवीनरो बूहद्विश्चव: काम्पिल्ल: सञ्जय: सुता: ।

    भर्म्याश्वः प्राह पुत्रा मे पञ्ञानां रक्षणाय हि ॥

    ३२॥

    विषयाणामलमिमे इति पशञ्ञालसंज्ञिता: ।

    मुद्गलाइह्निर्वृत्तं गोत्र मौद्गल्यसंज्ञितम्‌ ॥

    ३३॥

    शान्ते:--शान्ति का; सुशान्ति:--सुशान्ति; ततू-पुत्र:ः--उसका पुत्र; पुरुष:--पुरुज; अर्क:--अर्क; तत:--उससे; अभवत्‌--उत्पन्नहुए; भर्म्याश्र: -- भर्म्या श्र; तनय: -- पुत्र; तस्य--उसके ; पञ्ञ--पाँच पुत्र; आसन्‌--थे; मुदूगल-आदय: --मुद्गल इत्यादि; यवीनर:--यवीनर; बृहद्विश्र:--बृहद्विश्र; काम्पिल्ल:--काम्पिल्‍ल; सञ्लय: --सझ्जय; सुता: --पुत्र; भर्म्या श्र: -- भर्म्या श्व ने; प्राह--कहा; पुत्रा:--पुत्र; मे--मेरे; पञ्ञानामू--पाँचों की; रक्षणाय--सुरक्षा के लिए; हि--निस्सन्देह; विषयाणाम्‌--विभिन्न राज्यों का; अलमू-दक्ष;इमे--ये सभी; इति--इस प्रकार; पञ्ञाल--पश्ञाल; संज्ञिता:--नामधारी; मुद्गलात्‌--मुद्गल से; ब्रह्म-निर्वत्तम्‌-ब्राह्मणों से युक्त;गोत्रमू-गोत्र; मौद्गल्य--मोद्गल; संज्ञितम्‌--नामधारी |

    शान्ति का पुत्र सुशान्ति था, सुशान्ति का पुत्र पुरुज हुआ, पुरुज का अर्क और अर्क का पुत्रभर्म्याश्व था।

    भर्म्याश्व के पाँच पुत्र हुए--मुद्गल, यवीनर, बृहद्विश्च, काम्पिलल तथा संजय।

    भर्म्याश्वने अपने बेटों से कहा : मेरे बेटो, तुम लोग मेरे पाँचों राज्यों का भार सँभालो क्योंकि तुम ऐसा करनेके लिए पर्याप्त सक्षम हो।

    इस तरह उसके पाँचों पुत्र पञ्ञाल कहलाये।

    मुद्गल से ब्राह्मणों का गोत्रचला जो मौद्गल्य कहलाया।

    मिथुन मुद्गलाद्धार्म्याद्दिवोदास: पुमानभूत्‌ ।

    अहल्या कन्यका यस्यां शतानन्दस्तु गौतमात्‌ ॥

    ३४॥

    मिथुनम्‌--जोड़ा, एक पुत्र और एक पुत्री; मुदूगलात्‌--मुद्गल से; भार्म्यात्‌-भार्म्या श्र का पुत्र; दिवोदास:--दिवोदास; पुमान्‌ू--पुरुष; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; अहल्या--अहल्या; कन्यका--कन्या; यस्याम्‌--जिससे; शतानन्द: --शतानन्द; तु--निस्सन्देह;गौतमात्‌--गौतम से, जो उसका पति था।

    भर्म्याश्व के पुत्र मुदूगल के जुड़वाँ सनन्‍्तान हुई जिसमें एक पुत्र था और एक कन्या।

    पुत्र का नामदिवोदास रखा गया और कन्या का नाम अहल्या।

    अहल्या के गर्भ और उसके पति गौतम मुनि केवीर्य से शतानन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    तस्य सत्यधृतिः पुत्रो धनुर्वेदविशारद: ।

    शरद्वांस्तत्सुतो यस्मादुर्वशीदर्शनात्किल ।

    शरस्तम्बेपतद्रेतो मिथुनं तदभूच्छुभम्‌ ॥

    ३५॥

    तस्य--उसका ( शतानंद का ); सत्यधृतिः --सत्यधृति; पुत्र:--पुत्र; धनु:-वेद-विशारद: --थनुर्विद्या में पटु; शरद्वानू--शरद्वान; ततू-सुतः--उसका ( सत्यधृति का ) पुत्र; यस्मात्‌--जिससे; उर्वशी-दर्शनात्‌--उर्वशी अप्सरा के दर्शन मात्र से; किल--निस्सन्देह; शर-स्तम्बे--शर नामक घास ( सरपत ) के गुच्छे में; अपतत्‌--गिर पड़ा; रेत:--वीर्य; मिथुनम्‌--नर नारी का जोड़ा; तत्‌ अभूत्‌-वहाँउत्पन्न हुआ; शुभम्‌ू--शुभ

    शतानन्द का पुत्र सत्यधृति था जो धरनुर्विद्या में अत्यन्त पटु था।

    सत्यधूति का पुत्र शरद्वान हुआ।

    जब शरद्वान की भेंट उर्वशी से हुई तो शर नामक घास के गुच्छे पर उसका वीर्यपात हो गया।

    इसवीर्य से दो शुभ शिशु उत्पन्न हुए जिनमें से एक लड़का था और दूसरा लड़की।

    तद्ृष्ठा कृपयागृह्ाच्छान्तनुर्मृगयां चरन्‌ ।

    कृपः कुमारः कन्या च द्रोणपत्यभवत्कृपी ॥

    ३६॥

    तत्‌--उस जुड़वे को; हृष्ठा--देखकर; कृपया--दयावश; अगृह्वात्‌--ले लिया; शान्तनु:--राजा शान्तनु ने; मृगयाम्‌--जंगल मेंशिकार करते समय; चरन्‌--घूमते हुए; कृप:--कृप; कुमार:--बालक; कन्या--बालिका; च-- भी; द्रोण-पत्नी--द्रोणाचार्य कीपतली; अभवत्‌--बनी; कृपी--कृपी

    जब महाराज शान्तनु शिकार करने गये तो उन्होंने जंगल में जुड़वाँ शिशुओं को पड़ा देखा।

    वेदयावश उन्हें अपने घर ले आये।

    फलस्वरूप, बालक कृप नाम से विख्यात हुआ और बालिका कानाम कृपी पड़ा।

    बाद में कृपी द्रोणाचार्य की पत्नी बनी।

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    अध्याय बाईसवाँ: अजमीढ़ के वंशज

    9.22श्रीशुक उबाचमित्रायुश्न दिवोदासाच्च्यवनस्तत्सुतो नूप ।

    सुदासः सहदेवोथ सोमको जन्तुजन्मकृत्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; मित्रायु;--मित्रायु; च--तथा; दिवोदासात्‌--दिवोदास से उत्पन्न; च्यवन:--च्यवन;ततू-सुतः--मित्रायु का पुत्र; नृप--हे राजा; सुदास:--सुदास; सहदेव:--सहदेव; अथ--तत्पश्चात्‌; सोमक: --सोमक; जन्तु-जन्म-कृत्‌ू--जन्तु का पिता

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, दिवोदास का पुत्र मित्रायु था और मित्रायु के चार पुत्र हुएजिनके नाम थे च्यवन, सुदास, सहदेव तथा सोमक ।

    सोमक जन्तु का पिता था।

    तस्य पुत्रशतं तेषां यवीयान्पूषतः सुतः ।

    स तस्माद्द्रुपदो जज्ने सर्वसम्पत्समन्वित: ॥

    २॥

    तस्य--उसके ( सोमक के ); पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; तेषामू--उन सबों के; यवीयान्‌--सबसे छोटा; पृषत:ः--पृषत; सुतः --पुत्र;सः--वह; तस्मात्‌--उससे ( पृषत से ); द्रपद:--द्भरुपद; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; सर्व-सम्पत्‌--सारे ऐश्वर्य से; समन्वित:--अलंकृतसोमक के एक सौ पुत्र थे जिनमें सबसे छोटा पृषत था।

    पृषत से राजा द्वुपद उत्पन्न हुआ जो सभीप्रकार से ऐश्वर्यवान था।

    ब्रुपदादद्रौपदी तस्य धुृष्टद्युम्नादय: सुता: ।

    धृष्टयुम्नाद्धृष्टकेतुर्भाम्या: पाञ्ञालका इमे ॥

    ३॥

    ब्रुपदात्‌-द्गुपद से; द्रौपदी --पाण्डवों की विख्यात पत्नी द्रौपदी; तस्य--उसके ( द्रुपद के ); धृष्टद्युम्म-आदय: -- धृष्टद्युम्न इत्यादि;सुता:--पुत्र; धृष्टद्युम्नातू-- धृष्ट्युम्न से; धृष्टकेतु: --धृष्टकेतु नामक पुत्र; भार्म्या:--भर्म्या श्व के सारे वंशज; पाजञ्ञालका:--पाञज्ञालककहलाते हैं; इमे--ये सभी +महाराज द्वुपद से द्रौपदी उत्पन्न हुई।

    महाराज द्रुपद के कई पुत्र भी थे जिनमें धृष्टद्युम्न प्रमुख था।

    उसके पुत्र का नाम धृष्टकेतु था।

    ये सारे पुरुष भर्म्याश्व॒ के वंशज या पाञ्ञालवंशी कहलाते हैं।

    योजमीढसुतो ह्ान्य ऋक्ष: संवरणस्ततः ।

    तपत्यां सूर्यकन्यायां कुरुक्षेत्रपति: कुरु: ॥

    ४॥

    परीक्षि: सुधनुर्जहर्निषधश्च कुरो: सुता: ।

    सुहोत्रो भूत्सुधनुषश्च्यवनो थ ततः कृती ॥

    ५॥

    यः--जो; अजमीढ-सुतः --अजमीढ का पुत्र; हि--निस्सन्देह; अन्य: --दूसरा; ऋक्ष: --ऋक्ष; संवरण: --संवरण; तत:--उससे ( ऋश्षसे ); तपत्याम्‌--तपती; सूर्य-कन्यायाम्‌--सूर्यदेव की पुत्री के गर्भ से; कुरुक्षेत्र-पति:--कुरुक्षेत्र का राजा; कुरु:--कुरु का जन्महुआ; परीक्षि: सुधनु: जह्ु: निषध: च--परीक्षि, सुधनु, जह्वु तथा निषध; कुरो:--कुरु के; सुता:--पुत्र; सुहोत्र:--सुहोत्र; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; सुधनुष:--सुधनु से; च्यवन: --च्यवन; अथ--सुहोत्र से; ततः--च्यवन से; कृती--कृती नामक पुत्र |

    अजमीढ का दूसरा पुत्र ऋक्ष नाम से विख्यात था।

    ऋक्ष से संवरण, संवरण के उसकी पत्नीसूर्यपुत्री तपती के गर्भ से कुरु हुआ जो कुरुक्षेत्र का राजा बना।

    कुरु के चार पुत्र थे--परीक्षि,सुधनु, जह्न तथा निषध।

    सुधनु से सुहोत्र, सुहोत्र से च्यवन और च्यवन से कृती उत्पन्न हुआ।

    वसुस्तस्योपरिचरो बृहद्रथमुखास्ततः ।

    कुशाम्बमस्सयप्रत्यग्रचेदिपाद्याश्न चेदिपा: ॥

    ६॥

    वसु:--वसु नामक पुत्र; तस्थ--उसका ( कृती का ); उपरिचरः --वसु का उपनाम; बृहद्रथ-मुखा:--बृहद्रथ इत्यादि; ततः--उससे( बसु से ); कुशाम्ब--कुशाम्ब; मत्स्य--मत्स्य; प्रत्यग्र--प्रत्यग्र; चेदिप-आद्या: --चेदिप आदि; च-- भी; चेदि-पा:--चेदि राज्य केसभी शासक।

    कृती का पुत्र उपरिचर बसु था और उसके पुत्रों में, जिनमें बृहद्रथ प्रमुख था, कुशाम्ब, मत्स्य,प्रत्यग्र तथा चेदिप थे।

    उपरिचर वसु के सारे पुत्र चेदि राज्य के शासक बने।

    बृहद्रथात्कुशाग्रो भूडषभस्तस्य तत्सुतः ।

    जज्ञे सत्यहितोपत्यं पुष्पवांस्तत्सुतो जहु: ॥

    ७॥

    बृहद्रथात्‌-बृहद्रथ से; कुशाग्र:--कुशाग्र; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; ऋषभ:--ऋषभ; तस्य--उसका ( कुशाग्र का ); तत्‌-सुतः--उसका( ऋषभ का ) पुत्र; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; सत्यहित:--सत्यहित; अपत्यम्‌ू--सन्तान; पुष्पवान्‌--पुष्पवान; तत्‌-सुतः--उसका ( पुष्पवानका ) पुत्र; जहुः--जहु

    बृहद्रथ से कुशाग्र उत्पन्न हुआ, कुशाग्र से ऋषभ, ऋषभ से सत्यहित, सत्यहित से पुष्पवान तथापुष्पवान से जहु उत्पन्न हुआ।

    अन्यस्यामपि भार्यायां शकले द्वे बृहद्रथात्‌ ।

    ये मात्रा बहिरुत्सृष्ट जरया चाभिसन्धिते ।

    जीव जीवेति क्रीडन्त्या जरासन्धोभवत्सुत: ॥

    ८ ॥

    अन्यस्यथाम्‌--दूसरी; अपि-- भी; भार्यायाम्‌--पत्नी के; शकले-- भाग; द्वे-- दो; बृहद्रथात्‌--बृहद्रथ से; ये--जो; मात्रा--माता द्वारा;बहिः उत्सृष्ट--छोड़ दिये जाने पर; जरया--जरा नामक राक्षसी; च--तथा; अभिसन्धिते--जोड़ दिये गये; जीव जीव इति--हे जीव,तुम जी उठो; क्रीडन्त्या--खेलते हुए; जरासन्ध:--जरासन्ध; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ; सुत:--पुत्र

    बृहद्रथ की दूसरी पत्नी के गर्भ से दो आधे आधे खण्डों में एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    जब माता ने इनदो आधे आधे खण्डों को देखा तो उसने इन्हें फेंक दिया, किन्तु बाद में जरा नाम की एक राक्षसी नेखेल-खेल में उन्हें जोड़ते हुए कहा, 'जीवित हो उठो, जीवित हो उठो।

    इस तरह जरासन्ध नामकपुत्र उत्पन्न हुआ।

    ततश्न सहदेवोभूत्सोमापिर्यच्छुतश्रवा: ।

    परीक्षिरनपत्यो भूत्सुरथो नाम जाह्नवः ॥

    ९॥

    ततः च--तथा उससे ( जरासंध से ); सहदेव:ः--सहदेव; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; सोमापि:--सोमापि; यत्‌--उसके ( सोमापि );श्रुतश्रवा:-- श्रुत भ्रवा नामक पुत्र; परीक्षिः--कुरु को परीक्षि नामक पुत्र; अनपत्य:--निःसन्‍्तान; अभूत्‌--रह गया; सुरथ:--सुरथ;नाम--नामक; जाह्नव:--जह्लु का पुत्र

    जरासन्ध से सहदेव नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ।

    फिर सहदेव से सोमापि और सोमापि से श्रुतश्रवाहुआ।

    कुरु के पुत्र परीक्षि के कोई पुत्र नहीं था, किन्तु कुरुपुत्र जह्ु के एक पुत्र था जिसका नामसुरथ था।

    ततो विदूरथस्तस्मात्सार्वभौमस्ततो भवत्‌ ।

    जयसेनस्तत्तनयो राधिकोतोयुताय्वभूत्‌ू ॥

    १०॥

    ततः--उससे ( सुरथ से ); विदूरथः --विदूरथ नामक पुत्र; तस्मात्‌ू--उससे ( विदूरथ से ); सार्वभौम:--सार्वभौम नाम का पुत्र; ततः--उससे ( सार्वभौम से ); अभवत्‌--उत्पन्न हुआ; जयसेन:--जयसेन; तत्‌-तनय:--जयसेन का पुत्र; राधिक:--राधिक; अत:ः--औरउससे ( राधिक से ); अयुतायु:--अयुतायु; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ

    सुरथ के विदूरथ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ और विदूरथ से सार्वभौम हुआ।

    सार्वभौम से जयसेन,जयसेन से राधिक तथा राधिक से अयुतायु उत्पन्न हुआ।

    ततश्चाक्रोधनस्तस्माद्देवातिथिरमुष्य च ।

    ऋक्षस्तस्य दिलीपो<भूत्प्रतीपस्तस्य चात्मज: ॥

    ११॥

    ततः--उससे; च-- भी; अक्रोधन: --अक्रो धन नामक पुत्र; तस्मात्‌--उससे; देवातिथि: --देवातिथि; अमुष्य--उसका; च--भी;ऋक्ष:--ऋक्ष; तस्य--उसके; दिलीप: --दिलीप; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; प्रतीप: --प्रतीप; तस्य--उसका; च--तथा; आत्म-ज:--पुत्र

    अयुतायु का पुत्र अक्रोधन, अक्रोधन का देवातिथि, देवातिथि का ऋक्ष, ऋक्ष का दिलीप औरदिलीप का पुत्र प्रतीप हुआ।

    देवापि: शान्तनुस्तस्य बाह्कीक इति चात्मजा: ।

    पितृराज्यं परित्यज्य देवापिस्तु बनं गत: ॥

    १२॥

    अभवच्छान्तनू राजा प्राइमहाभिषसंज्ञित: ।

    यं यं कराभ्यां स्पृशति जीर्ण यौवनमेति सः ॥

    १३॥

    देवापि:ः--देवापि; शान्तनु:--शान्तनु; तस्थ--उसके ( प्रतीप के ); बाहीक:--बाह्ीक; इति--इस प्रकार; च--भी; आत्म-जा:--पुत्र; पितृ-राज्यमू--पिता की सम्पत्ति या राज्य को; परित्यज्य--छोड़कर; देवापि:--देवापि, जो सबसे बड़ा पुत्र था; तु--निस्सन्देह;वनमू--वन में; गत:--चला गया; अभवत्‌-- था; शान्तनु: --शान्तनु; राजा--राजा; प्राकु--पहले; महाभिष--महाभिष; संज्ञित:--सुप्रसिद्ध; यम्‌ यमू--जिस जिसको; कराभ्याम्‌--अपने हाथों से; स्पृशति--छूता था; जीर्णम्‌--यद्यपि अत्यन्त वृद्ध; यौवनम्‌--युवावस्था को; एति--प्राप्त हुआ; सः--वह प्रतीप के तीन पुत्र थे--देवापि, शान्तनु तथा बाह्लीक।

    देवापि अपने पिता का राज्य त्याग करजंगल चला गया अतएव शान्तनु राजा हुआ।

    शान्तनु अपने पूर्वजन्म में महाभिष नाम से विख्यात था।

    उसमें किसी को भी अपने हाथों के स्पर्श द्वारा बूढ़े से जवान में बदलने की शक्ति थी।

    शान्तिमाष्नोति चैवाछयां कर्मणा तेन शान्तनु: ।

    समा द्वादश तद्राज्ये न ववर्ष यदा विभु: ॥

    १४॥

    शान्तनुर्ब्राह्मणैरुक्त: परिवेत्तायमग्रभुक्‌ ।

    राज्यं देह्मग्रजायाशु पुरराष्ट्रविवृद्धये ॥

    १५॥

    शान्तिमू--इन्द्रियतृप्ति के लिए जवानी; आणोति-- प्राप्त करता है; च-- भी; एव--निस्सन्देह; अछयाम्‌--मुख्यतः ; कर्मणा-- अपनेहाथ के स्पर्श से; तेन--उसके कारण; शान्तनुः--शान्तनु; समा: --वर्षो; द्वादश--बारह; तत्‌-राज्ये--उसके राज्य में; न--नहीं;ववर्ष--पानी बरसा; यदा--जब; विभु:--वर्षा का स्वामी इन्द्र; शान्तनु:--शान्तनु ने; ब्राह्मणै:--ब्राह्मणों के द्वारा; उक्त:--सलाहदिये जाने पर; परिवेत्ता--शोषक होने के कारण दोषमय; अयम्‌--यह; अग्र-भुकू--बड़े भाई के होते हुए भी भोग करते हुए;राज्यमू--राज्य; देहि--दे दो; अग्रजाय-- अपने बड़े भाई को; आशु--तुरन्त; पुर-राष्ट्र--अपने घर तथा राज्य की; विवृद्धये--उन्नतिके लिए

    चूँकि यह राजा अपने हाथ के स्पर्श मात्र से ही सबों की इन्द्रियतृप्ति करके सुखी बनाने में समर्थथा इसीलिए इसका नाम शान्तनु था।

    एक बार जब राज्य में बारह वर्षो तक वर्षा नहीं हुई तो राजा नेविद्वान ब्राह्मणों से परामर्श किया।

    उन्होंने कहा, 'तुम अपने बड़े भाई की सम्पत्ति भोगने के दोषीहो।

    तुम अपने राज्य तथा अपने घर की उन्नति के लिए यह राज्य उसे लौटा दो।

    वमुक्तो द्विजेज्येप्ठं छन्दयामास सोउब्रवीत्‌ ।

    तन्मन्त्रिप्रहितैर्विप्रैवेदाद्विभ्रंशितो गिरा ॥

    १६॥

    वेदवादातिवादान्वै तदा देवो ववर्ष ह ।

    देवापियोंगमास्थाय कलापग्राममाश्रित: ॥

    १७॥

    एवम्‌--इस तरह; उक्त:--सलाह दिये जाने पर; द्विजैः -ब्राह्मणों द्वारा; ज्येप्ठमू-बड़े भाई देवापि को; छन्‍्दयाम्‌ आस--राज्य ग्रहणकरने के लिए प्रार्थना की; सः--उसने; अब्रवीत्‌--कहा; तत्‌ू-मन्त्रि--शान्तनु के मंत्री द्वारा; प्रहिति:--बहकाये जाने पर; विप्रै:--ब्राह्मणों द्वारा; वेदातू-वेदों के नियमों से; विश्रंशित:ः--गिरा हुआ; गिरा--ऐसी वाणी से; वेद-वाद-अतिवादान्‌ू--वैदिक आदेशों की निन्दा करने वाले शब्द; वै--निस्सन्देह; तदा--उस समय; देव: --देवता ने; ववर्ष--वर्षा की; ह-- भूतकाल में; देवापि:--देवापि ने;योगम्‌ आस्थाय--योगविधि स्वीकार करके; कलाप-ग्रामम्‌--कलाप नामक गाँव में; आश्रित:--शरण ले ली ( और आज भी जीवितहै

    जब ब्राह्मणों ने यह कहा तो महाराज शान्तनु जंगल चला गया और उसने अपने बड़े भाई देवापिसे प्रार्था की कि वह राज्य का भार ग्रहण करे क्योंकि प्रजा का पालन करना राजा का धर्म है।

    किन्तु इसके पूर्व शान्तनु के मंत्री अश्ववार ने कुछ ब्राह्मणों को फुसलाकर देवापि से वेदों के आदेशोंका उल्लंघन करने के लिए प्रेरित किया था जिससे वह शासक पद के अयोग्य हो गया था।

    ब्राह्मणोंने देवापि को वैदिक सिद्धान्तों के मार्ग से विचलित कर दिया था अतएव जब शान्तनु ने शासक पदग्रहण करने के लिए कहा तो उसने मना कर दिया।

    उल्टे, वह वैदिक सिद्धान्तों की निन्दा करने लगाअतएव पतित हो गया।

    ऐसी परिस्थिति में शान्तनु पुनः राजा बन गया और इन्द्र ने प्रसन्न होकर वर्षाकी।

    बाद में देवापि ने अपने मन तथा इन्द्रियों का दमन करने के लिए योगमार्ग का अनुसरण कियाऔर वह कलापग्राम नामक गाँव में चला गया जहाँ वह अब भी जीवित है।

    सोमवंशे कलौ नष्टे कृतादौ स्थापयिष्यति ।

    बाह्लीकात्सोमदत्तो भूद्धूरिभूरिश्रवास्तत: ॥

    १८॥

    शलकश्च शान्तनोरासीद्गड्रायां भीष्म आत्मवान्‌ ।

    सर्वधर्मविदां श्रेष्ठी महाभागवत: कवि: ॥

    १९॥

    सोम-वंशे--सोमवंश के; कलौ--कलियुग में; नष्टे--नष्ट होने पर; कृत-आदौ--अगले सत्ययुग के प्रारम्भ में; स्थापयिष्यति--स्थापना करेगा; बाह्नीकात्‌--बाहीक से; सोमदत्त: --सोमदत्त; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; भूरि: -- भूरि; भूरि-श्रवा: -- भूरिश्रवा; तत: --तत्पश्चात्‌; शल: च--शल; शान्तनो: --शान्तनु से; आसीतू--उत्पन्न हुआ; गड्भायाम्‌--शान्तनु की पतली गंगा के गर्भ से; भीष्म: --भीष्म; आत्मवान्‌--स्वरूपसिद्ध; सर्व-धर्म-विदाम्‌--सारे धार्मिक व्यक्तियों का; श्रेष्ठ: -- श्रेष्ठ, महा-भागवत:--महान्‌ भक्त; कवि:--तथा दिद्वान।

    इस कलियुग में सोमवंश के समाप्त होने पर और अगले सतयुग के प्रारम्भ में देवापि पुनः: इससंसार में सोमवंश की स्थापना करेगा।

    ( शान्तनु के भाई ) बाह्लीक से सोमदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआजिसके तीन पुत्र हुए-- भूरि, भूरिश्रवा तथा शल।

    शान्तनु की दूसरी पत्नी गंगा के गर्भ से भीष्म उत्पन्नहुआ जो स्वरूपसिद्ध, सभी धार्मिक व्यक्तियों में श्रेष्ठ, महान्‌ भक्त एवं विद्वान था।

    वीरयूथाग्रणीर्येन रामोपि युधि तोषितः ।

    शान्तनोर्दासकन्यायां जज्जे चित्राड्दः सुतः ॥

    २०॥

    बीर-यूथ-अग्रणी:--सारे योद्धाओं में अग्रणी, भीष्मदेव; येन--जिससे; राम: अपि-- भगवान्‌ के अवतार परशुराम भी; युधि--युद्धमें; तोषित:--सन्तुष्ट हुआ ( भीष्मदेव के हराने पर ); शान्तनो: --शान्तनु से; दास-कन्यायाम्‌--एक शूद्र की कन्या सत्यवती के गर्भसे; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; चित्राड़्द:--चित्रांगद; सुत:--पुत्र

    भीष्मदेव सारे योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ था।

    जब उसने भगवान्‌ परशुराम को युद्ध में हरा दिया तोपरशुराम उससे अत्यन्त संतुष्ट हुए।

    शान्तनु के वीर्य से धीवर की कन्या सत्यवती के गर्भ से चित्रांगदने जन्म लिया।

    विचित्रवीर्य श्वावरजो नाम्ना चित्राड्रदो हतः ।

    यस्यां पराशरात्साक्षादवतीर्णो हरे: कला ॥

    २१॥

    वेदगुप्तो मुनि: कृष्णो यतोहमिदमध्यगाम्‌ ।

    हित्वा स्वशिष्यान्पैलादीन्भगवान्बादरायण: ॥

    २२॥

    महं पुत्राय शान्ताय परं गुहामिदं जगौ ।

    विचित्रवीर्योथोवाह काशीराजसुते बलातू ॥

    २३॥

    स्वयंवरादुपानीते अम्बिकाम्बालिके उभे ।

    तयोरासक्तहदयो गृहीतो यक्ष्मणा मृत: ॥

    २४॥

    विचित्रवीर्य:--शान्तनु पुत्र विचित्रवीर्य; च--तथा; अवरज:--छोटा भाई; नाम्ना--नामक; चित्राड्रद:--चित्रांगद नामक गंधर्व द्वारा;हतः--मारा गया; यस्याम्‌--शान्तनु से विवाह होने के पूर्व सत्यवती के गर्भ में; पराशरात्‌--पराशर मुनि के वीर्य से; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष;अवतीर्ण:--अवतार लेकर; हरेः-- भगवान्‌ का; कला--अंश; वेद-गुप्त:--वेदों का रक्षक; मुनि:--मुनि; कृष्ण:--कृष्ण द्वैपायन;यतः--जिससे; अहम्‌--मैंने ( शुकदेव गोस्वामी ); इदम्‌--इस श्रीमद्भागवत को; अध्यगाम्‌--गहन अध्ययन किया; हित्वा--त्यागकर; स्व-शिष्यान्‌--अपने शिष्यों को; पैल-आदीनू्‌--पैल इत्यादि को; भगवान्‌-- भगवान्‌ का अवतार; बादरायण: --व्यासदेव ने;महाम्‌--मुझ; पुत्राय--पुत्र को; शान्ताय--इन्द्रियतृप्ति को दमित करने वाले; परम्‌--परम; गुहाम्‌--अत्यन्त गोपनीय; इृदमू--इसवैदिक ग्रंथ ( श्रीमद्भागवत ) को; जगौ--उपदेश दिया; विचित्रवीर्य:--विचित्रवीर्यने; अथ--तत्पश्चात्‌; उबाह--विवाह ली;'काशीराज-सुते--काशिराज की दो कन्याएँ; बलात्‌--बलपूर्वक; स्वयंवरात्‌--स्वयंवर स्थल से; उपानीते--लाई जाकर; अम्बिका-अम्बालिके--अम्बिका तथा अम्बालिका; उभे--दोनों; तयो:--उनके प्रति; आसक्त--अनुरक्त; हृदयः--हृदय; गृहीत:--कलुषित;यक्ष्मणा--यक्ष्मा ( तपेदिक ) से; मृत:--मर गया ।

    चित्रांगद, जिसका छोटा भाई विचित्रवीर्य था, चित्रागंद नाम के ही गन्धर्व द्वारा मारा गया।

    सत्यवती ने शान्तनु से विवाह होने के पूर्व वेदों के ज्ञाता व्यासदेव को जन्म दिया था।

    ये कृष्णद्वैपायन कहलाये और पराशर मुनि के वीर्य से उत्पन्न हुए थे।

    व्यासदेवसे मैं ( शुकदेव गोस्वामी )उत्पन्न हुआ और मैंने उनसे इस महान ग्रंथ श्रीमदृभागवत का अध्ययन किया।

    भगवान्‌ के अवतारवेदव्यास ने पैल इत्यादि अपने शिष्यों को छोड़कर मुझे श्रीमद्भागवत पढ़ाया क्योंकि मैं सभीभौतिक कामनाओं से मुक्त था।

    जब काशीराज की दो कन्याओं, अम्बिका और अम्बालिका काबलपूर्वक अपहरण हो गया तो विचित्रवीर्य ने उनसे विवाह कर लिया, किन्तु इन दोनों पत्नियों सेअत्यधिक आसक्त रहने के कारण उसे तपेदिक हो गया जिससे वह मर गया।

    क्षेत्रेउप्रजस्य बे भ्रातुर्मात्रोक्तो बादरायण: ।

    धृतराष्ट्रं च पाण्डुं च विदुरं चाप्यजीजनतू ॥

    २५॥

    क्षेत्रे--पत्तियों तथा दासियों में; अप्रजस्थ--निःसन्तान विचित्रवीर्य की; बै--निस्सन्देह; भ्रातु:-- भाई की; मात्रा उक्त:--माता केआदेश से; बादरायण: --वेदव्यास ने; धृतराष्ट्रमू--धृतराष्ट्र को; च--तथा; पाण्डुमू--पाण्डु को; च-- भी; विदुरम्‌--विदुर को; च--भी; अपि--निस्सन्देह; अजीजनत्‌--उत्पन्न किया।

    बादरायण, श्री व्यासदेव, ने अपनी माता सत्यवती के आदेशानुसार तीन पुत्र उत्पन्न किये--दोपुत्र अपने भाई विचित्रवीर्य की पत्नियों अम्बिका तथा अम्बालिका के गर्भ से और तीसरा विचित्रवीर्यकी दासी से।

    तीनों पुत्रों के नाम थे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर।

    गाश्धार्या धृतराष्ट्रस्थ जज्ने पुत्रशतं नृप ।

    तत्र दुर्योधनो ज्येष्ठो दुःशला चापि कन्‍्यका ॥

    २६॥

    गान्धार्याम्‌-गाच्धारी के गर्भ में; धृतराष्ट्स्थ-- धृतराष्ट्र का; जज्ञे--उत्पन्न हुए; पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; नृप--हे राजा परीक्षित;तत्र--उन पुत्रों में; दुर्योधन: --दुर्योधन नामक पुत्र; ज्येष्ठ;:--सबसे बड़ा; दुःशला--दुःशला; च अपि-- भी; कनन्‍्यका--एक पुत्री

    हे राजाधृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने एक सौ पुत्र तथा एक कन्या को जन्म दिया।

    सबसे बड़ापुत्र दुर्योधन था और कन्या का नाम दुःशला था।

    शापान्मैथुनरुद्धस्य पाण्डो: कुन्त्यां महारथा: ।

    जाता धर्मानिलेन्द्रेभ्यो युथिष्ठिरमुखास्त्रय: ॥

    २७॥

    नकुलः सहदेवश्च माद्र्‌यां नासत्यदस्त्रयो: ।

    द्रौपद्यां पञ्ञ पद्ञभ्य: पुत्रास्ते पितरोभवन्‌ ॥

    २८॥

    शापात्‌--शाप से; मैथुन-रुद्धस्य--विषयी जीवन रोक देने से; पाण्डो:--पाण्डु का; कुन्त्याम्‌-कुन्ती के गर्भ में; महा-रथा:--बड़े-बड़े वीर; जाता: --उत्पन्न हुए; धर्म--महाराज धर्म या धर्मराज; अनिल--वायुदेव; इन्द्रेभ्य:;--तथा वर्षा के देवता इन्द्र के द्वारा;युथिष्ठटिर--युधिष्टिर; मुखा:--इत्यादि; त्रयः--तीन पुत्र ( युधिष्ठटिर, भीम तथा अर्जुन ); नकुल:--नकुल; सहदेव: --सहदेव; च--भी;मादर्‌याम्‌--माद्री के गर्भ से; नासत्य-दस्त्रयो:--नासत्य और दस्त्र अश्विनीकुमारों द्वारा; द्रौपद्याम्‌ू-द्रौपदी के गर्भ से; पञ्ञ-पाँच;पञ्ञभ्यः--पाँचों भाइयों युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव द्वारा; पुत्रा:--पुत्र; ते--वे; पितर:ः--चाचा; अभवनू--बने |

    एक मुनि के द्वारा शापित होने से पाण्डु का विषयी जीवन अवरुद्ध हो गया अतएवं उसकी पत्नीकुन्ती के गर्भ से तीन पुत्र युधिष्ठटिर, भीम तथा अर्जुन उत्पन्न हुए जो क्रमशः धर्मराज, वायुदेव तथाइन्द्रदेव के पुत्र थे।

    पाण्डु की दूसरी पत्नी माद्री ने नकुल तथा सहदेव को जन्म दिया जो दोनोंअश्विनीकुमारों द्वारा उत्पन्न थे।

    युधिष्ठिर इत्यादि पाँचों भाइयों ने द्रौपदी के गर्भ से पाँच पुत्र उत्पन्नकिये।

    ये पाँचों पुत्र तुम्हारे चाचा थे।

    युधिष्टिरात्प्रतिविन्ध्य: श्रुतसेनो वृकोदरात्‌ ।

    अर्जुनाच्छुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलि: ॥

    २९॥

    युधिष्ठटिरात्‌--महाराज युधिष्ठिर से; प्रतिविन्ध्य: --प्रतिविन्ध्य; श्रुतसेन:-- श्रुतसेन; वृकोदरात्‌-- भीम से; अर्जुनात्‌ू--अर्जुन से;श्रुतकीर्ति: -- श्रुतकीर्ति; तु--निस्सन्देह; शतानीक:--शतानीक; तु--निस्सन्देह; नाकुलिः--नकुल केयुधिष्टिर से प्रतिविन्ध्य, भीम से श्रुतसेन, अर्जुन से श्रुतकीर्ति तथा नकुल से शतानीक नामक पुत्रहुए।

    सहदेवसुतो राजज्छृतकर्मा तथापरे ।

    युधिष्ठिरात्तु पौरव्यां देवकोथ घटोत्कच: ॥

    ३०॥

    भीमसेनाड्विडिम्बायां कालयां सर्वगतस्ततः ।

    सहदेवात्सुहोत्रं तु विजयासूत पार्वती ॥

    ३१॥

    सहदेव-सुतः--सहदेव का पुत्र; राजनू--हे राजा; श्रुतकर्मा--श्रुतकर्मा; तथा-- और; अपरे-- अन्य; युधिष्ठटिरात्‌--युधिष्ठिर से; तु--निस्सन्देह; पौरव्यामू--पौरवी के गर्भ से; देवक:--देवक; अथ--तथा; घटोत्कच: --घटोत्कच; भीमसेनात्‌-- भीमसेन से;हिडिम्बायाम्‌--हिडिम्बा के गर्भ से; काल्याम्‌--काली के गर्भ से; सर्वगत: --सर्वगत; ततः--तत्पश्चात्‌; सहदेवात्‌--सहदेव से;सुहोत्रम्‌--सुहोत्र; तु--निस्सन्देह; विजया--विजया ने; असूत--जन्म दिया; पार्वती--हिमालय राज की पुत्री |

    हे राजा, सहदेव का पुत्र श्रुतकर्मा था।

    यही नहीं, युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों की अन्य पत्रियोंसे और भी पुत्र उत्पन्न हुए।

    युथिष्ठिर ने पौरवी के गर्भ से देवक को और भीमसेन ने अपनी पत्नीहिडिम्बा के गर्भ से घटोत्कच तथा अपनी अन्य पत्नी काली के गर्भ से सर्वगत नामक पुत्रों को जन्मदिया।

    इसी प्रकार सहदेव को उसकी पत्नी विजया से सुहोत्र नाम का पुत्र प्राप्त हुआ।

    विजया पर्वतोंके राजा की पुत्री थी।

    करेणुमत्यां नकुलो नरमित्र॑ तथार्जुन: ।

    इरावन्तमुलुप्यां वै सुतायां बध्रुवाहनम्‌ ।

    मणिपुरपते: सोपि तत्पुत्र: पुत्रिकासुत: ॥

    ३२॥

    करेणुमत्याम्‌--करेणुमती नामक पत्नी से; नकुल:--नकुल ने; नरमित्रम्‌ू--नरमित्र को; तथा--भी; अर्जुन:--अर्जुन ने; इरावन्तम्‌--इरावान को; उलुप्याम्‌--नागकन्या उलुपी के गर्भ से; बै--निस्सन्देह; सुतायाम्‌--पुत्री से; बश्रुवाहनम्‌--बश्रुवाहन; मणिपुर-पते:--मणिपुर के राजा की; सः--वह; अपि--यद्यपि; ततू-पुत्र:ः--अर्जुन का पुत्र; पुत्रिका-सुतः--अपने नाना का पुत्र |

    नकुल की पत्नी करेणुमती से नरमित्र नामक पुत्र हुआ।

    इसी प्रकार अर्जुन को नागकन्या उलुपी नामक अपनी पत्नी से इरावान नामक पुत्र तथा मणिपुर की राजकुमारी के गर्भ से बश्रुवाहन नामकपुत्र की प्राप्ति हुई।

    बश्रुवाहन मणिपुर के राजा का दत्तक पुत्र बन गया।

    तब तात: सुभद्रायामभिमन्युरजायत ।

    सर्वातिरथजिद्धीर उत्तरायां ततो भवान्‌ ॥

    ३३॥

    तब--तुम्हारा; तात:ः--पिता; सुभद्रायाम्‌--सुभद्रा के गर्भ से; अभिमन्यु:--अभिमन्यु; अजायत--उत्पन्न हुआ था; सर्व-अतिरथ-जित्‌--अतिरथों को पराजित करने वाला महान्‌ योद्धा; वीर:--वीर; उत्तरायाम्‌--उत्तरा के गर्भ में; ततः--अभिमन्यु से; भवान्‌--आप।

    हे राजा परीक्षित, तुम्हारे पिता अभिमन्यु अर्जुन के पुत्र रूप में सुभद्रा के गर्भ से उत्पन्न हुए।

    वेसभी अतिरथों ( जो एक हजार रथवानों से युद्ध कर सके ) के विजेता थे।

    उनके द्वारा विराड्राज कीपुत्री उत्तरा के गर्भ से तुम उत्पन्न हुए।

    परिक्षीणेषु कुरुषु द्रौणेब्रह् मास्त्रतेजसा ।

    त्वं च कृष्णानुभावेन सजीवो मोचितोन्तकात्‌ ॥

    ३४॥

    परिक्षीणेषु-- कुरुक्षेत्र युद्ध में विनष्ट हो जाने पर; कुरुषु--कुरुवंशियों, यथा दुर्योधन के; द्रौणेः--द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा द्वारा;ब्रह्मास्त्र-तेजसा--ब्रह्मास्त्र की गर्मी से; त्वम्‌ च--तुम भी; कृष्ण-अनुभावेन--कृष्ण के अनुग्रह से; सजीव: --जीवित; मोचित:--छुड़ा लिये गये; अन्तकातू--मृत्यु से

    जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में कुरुवंश का विनाश हो गया तो तुम भी द्रोणाचार्य के पुत्र द्वारा छोड़ेगये ब्रह्मास्त्र के द्वारा विनष्ट होने वाले थे, किन्तु भगवान्‌ कृष्ण की कृपा से तुम्हें मृत्यु से बचा लियागया।

    तवेमे तनयास्तात जनमेजयपूर्वका: ।

    श्रुतसेनो भीमसेन उग्रसेनश्व वीर्यवान्‌ ॥

    ३५॥

    तव--तुम्हारे; इमे--ये सभी; तनया:--पुत्र; तात--हे राजा परीक्षित; जनमेजय--जनमेजय; पूर्वका: --प्रमुख, इत्यादि; श्रुतसेन:--श्रुतसेन; भीमसेन: -- भीमसेन; उग्रसेन: --उग्रसेन; च-- भी; वीर्यवान्‌--शक्तिमान |

    हे राजा, तुम्हारे चारों पुत्र--जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन तथा उग्रसेन अत्यन्त शक्तिशाली हैं।

    जनमेजय उनमें सबसे बड़ा है।

    जनमेजयस्त्वां विदित्वा तक्षकान्निधनं गतम्‌ ।

    सर्पान्वि सर्पयागाग्नौ स होष्यति रुषान्वित: ॥

    ३६॥

    जनमेजय:--जनमेजय; त्वामू--तुमको; विदित्वा--जानकर; तक्षकात्‌--तक्षक नाग द्वारा; निधनम्‌-- मृत्यु को; गतम्‌--प्राप्त हुआ;सर्पानू--साँपों को; वै--निस्सन्देह; सर्प-याग-अग्नौ--सर्पों को मारने के लिए यज्ञ अग्नि में; सः--वह ( जनमेजय ); होष्यति--आहुति डालेगा; रुषा-अन्वितः --अ त्यन्त क्रोधित होने के कारण |

    तक्षक सर्प द्वारा तुम्हारी मृत्यु हो जाने के कारण तुम्हारा पुत्र जनमेजय अत्यन्त क्रुद्ध होगा औरसंसार के सारे सर्पों को मारने के लिए यज्ञ करेगा।

    कालषपेयं पुरोधाय तुरं तुरगमेधषाट्‌ ।

    समन्तात्पृथिवीं सर्वा जित्वा यक्ष्यति चाध्वरै: ॥

    ३७॥

    कालषेयम्‌--कलबष के पुत्र को; पुरोधाय--पुरोहित के रूप में मानकर; तुरम्‌--तुर को; तुरग-मेधघाट्‌ू--तुरग-मेधषाट्‌ के नाम से( अनेक तुरग यज्ञ करने वाला ) जाना जायेगा; समन्तात्‌--सारे भागों सहित; पृथिवीम्‌--संसार को; सर्वाम्‌--सर्वत्र; जित्वा--जीतकर; यक्ष्यति--यज्ञ करेगा; च--तथा; अध्वरै:--अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करके |

    सारे संसार को जीतने के बाद और कलष के पुत्र तुर को अपना पुरोहित बनाकर, जनमेजयअश्वमेध यज्ञ करेगा जिसके कारण वह तुरग-मेधषाट्‌ कहलायेगा।

    तस्य पुत्र: शतानीको याज्ञवल्क्यात्त्रयीं पठन्‌ ।

    अख्तज्ञानं क्रियाज्ञानं शौनकात्परमेष्यति ॥

    ३८ ॥

    तस्य--उसका; पुत्र:--पुत्र; शतानीक:--शतानीक; याज्ञवल्क्यात्‌--ऋषि याज्ञवल्क्य से; त्रयीम्‌--तीनों वेद ( साम, यजुर तथाऋग्‌ ); पठन्‌-- भलीभाँति अध्ययन करते हुए; अस्त्र-ज्ञाममू--सैनिक शासन कला; क्रिया-ज्ञानम्‌ू--कर्मकाण्ड सम्पन्न करने कीकला; शौनकात्‌--शौनक ऋषि से; परम्‌--दिव्य ज्ञान; एष्यति--प्राप्त करेगा ।

    जनमेजय का पुत्र शतानीक ऋषि याज्ञवल्क्य से तीनों वेद और कर्मकाण्ड सम्पन्न करने कीकला को सीखेगा।

    वह कृपाचार्य से सैन्य कला भी सीखेगा तथा शौनक मुनि से दिव्य ज्ञान प्राप्तकरेगा।

    सहस्त्रानीकस्तत्पुत्रस्ततश्चैवा श्रमेधज: ।

    असीमकृष्णस्तस्यापि नेमिचक्रस्तु तत्सुत: ॥

    ३९॥

    सहस्त्रानीक:--सहस्त्रानीक; ततू-पुत्र:ः--शतानीक का पुत्र; ततः--सहस्त्रानीक से; च--भी; एब--निस्सन्देह; अश्वमेधज: --अश्वमेधज; असीमकृष्ण: -- असीमकृष्ण; तस्य--उसका ( अश्वमेधज ); अपि--भी; नेमिचक्र:--नेमिचक्र; तु--निस्सन्देह; ततू-सुतः--उसका पुत्र

    शतानीक का पुत्र सहस्त्रानाक होगा और उसके पुत्र का नाम अश्वमेधज होगा।

    अश्वेमधज से असीम कृष्ण उत्पन्न होगा और उसका पुत्र नेमिचक्र होगा।

    गजाह्ये हते नद्या कौशा म्ब्यां साधु वत्स्यति ।

    उत्तस्ततश्नित्ररथस्तस्माच्छुचिरथ: सुत: ॥

    ४०॥

    गजाह्ये--हस्तिनापुर नगरी ( नई दिल्‍ली ) में; हते--जलमग्न होने पर; नद्या--नदी के द्वारा; कौशाम्ब्यामू--कौशाम्बी नामक स्थानमें; साधु-- भलीभाँति; वत्स्यति--वहाँ निवास करेगा; उक्त:--विख्यात; तत:--तत्पश्चात्‌; चित्ररथ:--चित्ररथ; तस्मात्‌--उससे;शुचिरथः --शुचिरथ; सुतः --पुत्र |

    जब हस्तिनापुर नगरी ( नई दिल्‍ली ) नदी की बाढ़ से जलमग्न हो जायेगी तो नेमिचक्र कौशाम्बीनामक स्थान में निवास करेगा।

    उसका पुत्र चित्ररथ नाम से विख्यात होगा और चित्ररथ का पुत्रशुचिरथ होगा।

    तस्माच्च वृष्टिमांस्तस्थ सुषेणोथ महीपति: ।

    सुनीथस्तस्य भविता नृचश्षुर्यत्सुखीनल: ॥

    ४१॥

    तस्मात्‌--उससे ( शुचिरथ ); च--भी; वृष्टिमान्‌ू--वृष्टिमान; तस्थ--उसका पुत्र; सुषेण: --सुषेण; अथ--तत्पश्चात्‌; मही-पति: --सारेसंसार का सम्राट; सुनीथ:--सुनीथ; तस्य--उसका; भविता--होगा; नृचश्षु:--पुत्र नूचक्षु; यत्‌--उससे; सुखीनलः--सुखीनल |

    शुचिरथ का पुत्र वृष्टिमान होगा और उसका पुत्र सुषेण नाम का चक्रवर्ती राजा होगा।

    सुषेण कापुत्र सुनीथ होगा, उसका पुत्र नृचक्षु होगा और नृचक्षु का पुत्र सुखीनल होगा।

    परिप्लव: सुतस्तस्मान्मेधावी सुनयात्मज: ।

    नृपञ्जयस्ततो दूर्वस्तिमिस्तस्माज्ननिष्यति ॥

    ४२॥

    परिप्लव:ः--परिप्लव; सुतः--पुत्र; तस्मात्‌--उससे ( परिप्लव ); मेधाबी--मेधावी; सुनय-आत्मज: --सुनय का पुत्र; नृपल्ञय:--नृपञ्ञय; ततः--उससे; दूर्व:--दूर्व; तिमि:ः--तिमि; तस्मात्‌--उससे; जनिष्यति--जन्म लेगा |

    सुखीनल का पुत्र परिप्लब, परिप्लव का सुनय और सुनय का पुत्र मेधावी होगा।

    मेधावी सेनृपञ्ञय, नृपञ्जञय से दूर्व तथा दूर्व से तिमि का जन्म होगा।

    तिमेर्बुहद्रथस्तस्माच्छतानीक: सुदासज: ।

    शतानीकाहुर्दमनस्तस्यापत्यं महीनर: ॥

    ४३॥

    तिमेः--तिमि का; बृहद्रथ:--बृहद्रथ; तस्मात्‌--उससे; शतानीक:--शतानीक; सुदास-ज:--सुदास का पुत्र; शतानीकातू--शतानीकसे; दुर्दमन:--दुर्दमन; तस्य अपत्यम्‌--उसका पुत्र; महीनर: --महीनर |

    तिमि का पुत्र बृहद्रथ, बृहद्रथ का सुदास, सुदास का शतानीक, शतानीक का दुर्दमन औरदुर्दमन का पुत्र महीनर होगा।

    दण्डपाणिर्निमिस्तस्य क्षेमको भविता यतः ।

    ब्रह्मक्षत्रस्य वै योनिर्वशो देवर्षिसत्कृत: ॥

    ४४॥

    क्षेमकं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ ।

    अथ मागधराजानो भाविनो ये वदामि ते ॥

    ४५॥

    दण्डपाणि:--दण्डपाणि; निमि: --निमि; तस्य--उसका ( महीनर के ); क्षेमक:--क्षेमक; भविता--जन्म लेगा; यतः--जिससे; ब्रह्म-क्षत्रस्थ--ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का; वै--निस्सन्देह; योनि:--स्त्रोत; वंशः--वंश; देव-ऋषि-सत्कृत:ः--ऋषियों तथा देवताओं द्वारासम्मानित; क्षेमकम्‌--राजा क्षेमक को; प्राप्प--यहाँ तक; राजानम्‌--राजा को; संस्थाम्‌--उन तक; प्राप्स्यति--हो जायेगा; बै--निस्सन्देहद; कलौ--इस कलियुग में; अथ--तत्पश्चात्‌; मागध-राजान:--मागध वंशी राजा; भाविन: -- भावी; ये-- जो; वदामि--कहूँगा; ते--तुमसे |

    महीनर का पुत्र दण्डपाणि होगा और उसका पुत्र निमि होगा जिससे राजा क्षेमक की उत्पत्तिहोगी।

    मैंने अभी तुमसे सोमवंश का वर्णन किया है जो ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का उद्गम है औरदेवताओं तथा ऋषियों-मुनियों द्वारा पूजित है।

    इस कलियुग में क्षेमक अन्तिम राजा होगा।

    अब मैं तुमसे मागध वंश का भविष्य बतलाऊँगा।

    उसे सुनो ।

    भविता सहदेवस्य मार्जारियच्छुतश्रवा: ।

    ततो युतायुस्तस्यापि निरमित्रोथ तत्सुतः ॥

    ४६॥

    सुनक्षत्रः सुनक्षत्राद्रहत्सेनोथ कर्मजित्‌ ।

    ततः सुतञ्जयाद्विप्र: शुचिस्तस्य भविष्यति ॥

    ४७॥

    क्षेमोथ सुव्रतस्तस्माद्धर्मसूत्र: समस्ततः ।

    झुमत्सेनोथ सुमति: सुबलो जनिता ततः ॥

    ४८॥

    भविता--जन्म लेगा; सहदेवस्य--सहदेव का पुत्र; मार्जारि:ः--मार्जारि; यत्‌--उसका पुत्र; श्रुतश्रवा: -- श्रुतअ्रवा; तत: -- उससे ;युतायु;:--युतायु; तस्थ--उसका पुत्र; अपि-- भी; निरमित्र:--निरमित्र; अथ--तत्पश्चात्‌; तत्‌-सुतः--उसका पुत्र; सुनक्षत्र: --सुनक्षत्र;सुनक्षत्रात्‌--सुनक्षत्र से; बृहत्सेन:--बृहत्सेन; अथ--उससे; कर्मजित्‌ू--कर्मजित; ततः--उससे; सुतझ्जयात्‌--सुतझ्जय से; विप्र: --विप्र; शुचचिः--शुचि; तस्य--उसका; भविष्यति--होगा; क्षेम:--क्षेम; अथ--तत्पश्चात्‌; सुब्रत: --सुव्रत; तस्मात्‌-- उससे; धर्मसूत्र: --धर्मसूत्र; सम:--सम; ततः--उससे; झ्युमत्सेन: --द्युमत्सेन; अथ--तत्पश्चात्‌; सुमतिः --सुमति; सुबल:--सुबल; जनिता--जन्म लेगा;ततः--तत्पश्चात्‌ |

    जरासन्धपुत्र सहदेव के पुत्र का नाम मार्जारि होगा।

    मार्जारि से श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवा से युतायु,युतायु से निरमित्र, निरमित्र से सुनक्षत्र, सुनक्षत्र से बृहत्सेन, बृहत्सेन से कर्मजित, कर्मजित सेसुतझ्ञय, सुतञ्जय से विप्र, विप्र से शुचि, शुचि से क्षेम, क्षेम से सुब्रत, सुब्रत से धर्मसूत्र, धर्मसूत्र सेसम, सम से झुमत्सेन, द्युमत्सेन से सुमति और सुमति से सुबल नाम का पुत्र उत्पन्न होगा।

    सुनीथ: सत्यजिदथ विश्वजिद्यद्रिपुश्लयः ।

    बाईद्रथाश्व भूपाला भाव्या: साहस्त्रवत्सरम्‌ ॥

    ४९॥

    सुनीथ:--सुबल से सुनीथ उत्पन्न होगा; सत्यजित्‌ू--सत्यजित; अथ--उससे; विश्वजित्‌-विश्वजित; यत्‌--उससे; रिपुञ्लय:--रिपुञ्ञय;बाईद्रथा: --बृहद्रथ की वंशावली में; च-- भी; भूपाला: --सारे राजा; भाव्या: --होंगे; साहस्त्र-वत्सरम्‌--एक हजार वर्षो तक

    लगातारसुबल से सुनीथ, सुनीथ से सत्यजित, सत्यजित से विश्वजित एवं विश्वजित से रिपुञ्जय उत्पन्नहोगा।

    ये सभी पुरुष बृहद्रथवंशी होंगे और ये संसार पर एक हजार वर्षो तक राज्य करेंगे।

    TO

    अध्याय तेईसवाँ: ययाति के पुत्रों के राजवंश

    9.23श्रीशुक उबाचअनोः सभानरक्षक्षु: परेष्णुश्न त्रयः सुता: ।

    सभानरात्कालनरः सृझ्धयस्तत्सुतस्तत: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अनो:--अनु का, जो ययाति के चार पुत्रों में से चौथा बेटा था; सभानर:--सभानर;चक्षु:--चक्षु; परेष्णु: --परेष्णु; च-- भी; त्रय:--तीन; सुता:--बेटे; सभानरात्‌--सभानर से; कालनर:--कालनर; सृज्ञय:--सूझ्ञय;तत्‌-सुतः--कालनर का पुत्र; ततः--तत्पश्चात्‌ |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : ययाति के चतुर्थ पुत्र अनु के तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे--सभानर,चक्षु तथा परेष्णु।

    हे राजा, सभानर के कालनर नाम का एक पुत्र हुआ और कालनर से सृझ्षय नामकपुत्र उत्पन्न हुआ।

    जनमेजयस्तस्य पुत्रो महाशालो महामना: ।

    उशीनरस्तितिक्षुश्ष महामनस आत्मजौ ॥

    २॥

    जनमेजय: --जनमेजय; तस्य--उसका; पुत्र: --पुत्र; महाशाल:--महाशाल; महामना:--महामना; उशीनरः --उशीनर; तितिक्षु:--तितिक्षु; च--तथा; महामनसः --महामना से; आत्मजौ--दो पुत्र सृद्धय का पुत्र जनमेजय हुआ

    जनमेजय का पुत्र महाशाल, महाशाल का पुत्र महामना औरमहामना के दो पुत्र उशीनर तथा तितिक्षु हुए।

    शिबिरवरः कृमिर्दक्षश्चवत्वारोशीनरात्मजा: ।

    वृषादर्भ: सुधीरश्च मद्र: केकय आत्मवान्‌ ॥

    ३॥

    शिबेश्चत्वार एवासंस्तितिक्षोश्व रुषद्रथ: ।

    ततो होमोथ सुतपा बलि: सुतपसोभवत्‌ ॥

    ४॥

    शिबि:--शिबि; वर: --वर; कृमि:--कृमि; दक्ष:--दक्ष; चत्वार:--चार; उशीनर-आत्मजा:--उशीनर के पुत्र; वृषादर्भ:--वृषादर्भ;सुधीर: च--तथा सुधीर; मद्र:--मद्र; केकयः--केकय; आत्मवान्‌--स्वरूपसिद्ध; शिबे: --शिबि के; चत्वार:--चार; एव--निस्सन्देह; आसनू--थे; तितिक्षो: --तितिक्षु का; च--भी; रुषद्रथ:--रुषद्रथ; तत:ः--उससे ( रुषद्रथ ); होम: --होम; अथ--उससे( होम ); सुतपा:--सुतपा; बलि:--बलि; सुतपसः--सुतपा के; अभवत्‌--हुआउशीनर के चार पुत्र थे--शिबि, वर, कृमि तथा दक्ष।

    शिबरि के भी चार पुत्र हुए--वृषादर्भ,सुधीर, मद्र तथा आत्मतत्त्ववित्‌ केकय।

    तितिक्षु का पुत्र रुषद्रथ था; रुषद्रथ का पुत्र होम था; होमका सुतपा और सुतपा का पुत्र बलि था।

    अड्डबड्रकलिड्ञाद्या: सुहापुण्ड्रौड़संज्ञिता: ।

    जज्ञिरे दीर्घतमसो बले: क्षेत्रे महीक्षितः ॥

    ५॥

    अड्ड--अंग; बड़--वंग; कलिड्र--कलिंग; आद्या:--इत्यादि; सुह्ा--सुहा; पुण्ड्र--पुण्डू; ओड़--ओड़; संज्ञिता:--नाम से विख्यात;जज्ञिरि--उत्पन्न हुए; दीर्घतमस:--दीर्घतमा के वीर्य से; बले:--बलि की; क्षेत्रे--पत्नी से; मही-क्षित:ः--जगत के राजा

    चक्रवर्ती राजा बलि की पत्नी से दीर्घतमा के वीर्य से छह पुत्रों ने जन्म लिया जिनके नाम थेअंग, बंग, कलिंग, सुहा, पुण्ड् तथा ओड़।

    चक्रुः स्वनाम्ना विषयान्षडिमान्प्राच्यकां श्व ते ।

    खलपानोडड्डढतो जज्ञे तस्माद्वविरथस्तत: ॥

    ६॥

    चक्कु:--उत्पन्न किया; स्व-नाम्ना--अपने-अपने नामों से; विषयान्‌ू--विभिन्न राज्य; घट्‌ू--छ:; इमानू--ये सभी; प्राच्यकान्‌ च--भारत की पूर्व दिशा में; ते--वे ( छह राजा ); खलपान:--खलपान; अड्डभतः--राजा अंग से; जज्ञे--जन्म लिया; तस्मात्‌--उससे;दिविरथ:--दिविरथ; ततः--तत्पश्चात्‌

    बाद में अंगादि ये छहों पुत्र भारत की पूर्व दिशा में छः राज्यों के राजा बने।

    ये राज्य अपने-अपनेराजा के नाम के अनुसार विख्यात हुए।

    अंग से खलपान नामक पुत्र हुआ जिससे दिविरथ उत्पन्नहुआ।

    सुतो धर्मरथो यस्य जन्ने चित्ररथोप्रजा: ।

    रोमपाद इति ख्यातस्तस्मै दशरथ: सखा ॥

    ७॥

    शान्तां स्वकन्यां प्रायच्छद्ृष्यश्रुड्र उवाह याम्‌ ।

    देवेवर्षति यं रामा आनिन्युहरिणीसुतम्‌ ॥

    ८ ॥

    नाट्यसड्डीतवादित्रैविभ्रमालिड्रनाहणै: ।

    स तु राज्ञोउनपत्यस्य निरूप्येष्टिं मरुत्वते ॥

    ९॥

    प्रजामदादइशरथो येन लेभेउप्रजा: प्रजा: ।

    चतुरज्जो रोमपादात्पृथुलाक्षस्तु तत्सुतः: ॥

    १०॥

    सुतः--पुत्र; धर्मरथः --धर्मरथ; यस्य--जिसके; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; चित्ररथ: --चित्ररथ; अप्रजा:--निःसन्तान; रोमपाद: --रोमपाद;इति--इस प्रकार; ख्यातः--विख्यात; तस्मै--उसको; दशरथ: -- दशरथ; सखा--मित्र; शान्ताम्‌ू--शान्ता को; स्व-कन्याम्‌--अपनीपुत्री; प्रायच्छत्‌--दे दिया; ऋष्यश्रुड्र:--ऋष्य श्रृंग ने; उबाह--विवाह कर लिया; याम्‌--जिससे; देवे--वर्षा के देवता ने; अवर्षति--वर्षा नहीं की; यमू--जिसको ( ऋष्यश्रृंग को ); रामा:--वेश्याएँ; आनिन्यु:--ले आईं; हरिणी-सुतम्‌--हरिणी पुत्र ऋष्यश्रृंग को;नाट्य-सड्डीत-वादित्रै: --नाच, गाना तथा वाद्ययंत्रों के द्वारा; विध्रम--मोहित करके; आलिड्रन--आलिगंन करके; अर्हणै:--पूजाद्वारा; सः--वह ( ऋष्यश्रृंग ); तु--निस्सन्देह; राज्अ:--महाराज दशरथ से; अनपत्यस्य--सन्तानहीन; निरूप्य--स्थापित करके;इष्टिमू--यज्ञ; मरुत्वते--मरुत्वान नामक देवता की; प्रजामू--सन्तान; अदात्‌--प्रदान किया; दशरथ: --दशरथ ने; येन--जिससे(यज्ञ के फलस्वरूप ); लेभे--प्राप्त किया; अप्रजा:--निस्संतान होते हुए; प्रजा:--पुत्र; चतुरड्र:--चतुरंग; रोमपादात्‌--चित्ररथ से;पृथुलाक्ष:--पृथुलाक्ष; तु--निस्सन्देह; तत्‌-सुतः--चतुरंग का पुत्र |

    दिविरथ का पुत्र धर्मरथ हुआ और उसका पुत्र चित्ररथ था जो रोमपाद के नाम से विख्यात था।

    किन्तु रोमपाद के कोई सन्‍्तान न थी अतएव उसके मित्र महाराज दशरथ ने उसे अपनी पुत्री शान्ता देदी।

    रोमपाद ने उसे पुत्री रूप में स्वीकार किया।

    तत्पश्चात्‌ उस पुत्री ने ऋष्यश्रृंग से विवाह कर लिया।

    जब स्वर्गलोक के देवताओं ने वर्षा नहीं की तो ऋष्यश्रृंग को वेश्याओं के द्वारा आकर्षित करकेजंगल से लाया गया और उसे एक यज्ञ सम्पन्न करने के लिए पुरोहित नियुक्त किया गया।

    ये वेश्याएँनाचकर तथा संगीत के साथ नाटक करके और उनका आलिंगन तथा पूजन करके उन्हें ले आईं थीं।

    ऋष्यश्रृंग के आने के बाद वर्षा हुई।

    तत्पश्चात्‌ ऋष्यश्रृंग ने महाराज दशरथ के लिए पुत्र-यज्ञ कियाक्योंकि उनका कोई पुत्र न था।

    इससे महाराज दशरथ को पुत्र-प्राप्ति हुई।

    ऋष्यश्रृंग की कृपा सेरोमपाद के एक पुत्र चतुरंग हुआ और चतुरंग से पृथुलाक्ष का जन्म हुआ।

    बृहद्रथो बृहत्कर्मा बृहद्धानुश्च तत्सुताः ।

    आद्याह्रहन्मनास्तस्माज्जयद्रथ उदाहत: ॥

    ११॥

    बृहद्रथ: --बृहद्रथ; बृहत्कर्मा--बृहत्कर्मा; बृहद्धानु:--बृहद्भानु; च-- भी; तत्‌-सुता: --पृथुलाक्ष के पुत्र; आद्यातू--सबसे बड़े( बृहद्रथ ) से; बृहन्मना:--बृहद्वाना उत्पन्न हुआ; तस्मात्‌--उससे; जयद्रथ:--जयद्रथ; उदाहत:ः--उसके पुत्र के रूप में विख्यात हुआ।

    पृथुलाक्ष के पुत्र थे बृहद्रथ, बृहत्कर्मा तथा बृहदभानु।

    ज्येष्ठ पुत्र बृहद्रथ से बृहद्यना नाम का पुत्रहुआ और बृहद्मना से जयद्रथ हुआ।

    विजयस्तस्य सम्भूत्यां ततो धृतिरजायत ।

    ततो धृतक्रतस्तस्य सत्कर्माधिरथस्तत: ॥

    १२॥

    विजय:--विजय; तस्य--उसका; सम्भूत्यामू--पत्नी के गर्भ से; ततः--तत्पश्चात्‌; धृति:-- धृति; अजायत--उत्पन्न हुआ; ततः--उससे( धृति से ); धृतब्रत:ः-- धृतब्रत; तस्य--उसका; सत्कर्मा--सत्कर्मा; अधिरथ:--अधिरथ; ततः--उससे ( सत्कर्मा से

    )जयद्रथ की पतली सम्भूति के गर्भ से विजय उत्पन्न हुआ, विजय से धृति, धृति से ध्रृतिव्नत,धृतिब्रत से सत्कर्मा तथा सत्कर्मा से अधिरथ हुआ।

    योउसौ गझ्जतटे क्रीडन्मझ्ूषान्तर्गत॑ं शिशुम्‌ ।

    कुन्त्यापविद्धं कानीनमनपत्योकरोत्सुतम्‌ ॥

    १३॥

    यः असौ--वह जो ( अधिरथ ); गड्ज-तटे--गंगा नदी के किनारे; क्रीडन्‌ू--खेलते समय; मञ्जूष-अन्तःगतम्‌--टोकरी के भीतर बन्द;शिशुम्‌--बालक को; कुन्त्या अपविद्धम्‌--कुन्ती द्वारा परित्यक्त; कानीनम्‌ू--कुमारी होने पर उत्पन्न; अनपत्य:--अधिरथ केनिःसन्तान होने से; अकरोत्‌--शिशु को स्वीकार कर लिया; सुतम्‌--अपने पुत्र रूप में |

    गंगा नदी के तट पर खेलते समय अधिरथ को एक टोकरी में बंद एक शिशु प्राप्त हुआ।

    इसशिशु को कुन्ती ने छोड़ दिया था क्योंकि यह उसके विवाह होने के पूर्व ही उत्पन्न हुआ था।

    चूँकिअधिरथ के कोई पुत्र न था अतएव उसने इस शिशु को अपने ही पुत्र की तरह पाला पोसा।

    ( बाद मेंयही पुत्र कर्ण कहलाया ) वृषसेन: सुतस्तस्य कर्णस्य जगतीपते ।

    ब्ुह्मोश्व तनयो बश्चु: सेतुस्तस्यात्मजस्तत: ॥

    १४॥

    वृषसेन: --वृषसेन; सुतः--पुत्र; तस्य कर्णस्य--उसी कर्ण का; जगती पते--हे महाराज परीक्षित; द्रुद्मंः च--ययाति के तृतीय पुत्रब्रह्म का; तनय:--पुत्र; बश्लु:--ब श्रु; सेतु: --सेतु; तस्य--उसका; आत्मज: तत:--तत्पश्चात्‌ उसका पुत्र |

    हे राजा, कर्ण का एकमात्र पुत्र वृषसेन था।

    ययाति के तृतीय पुत्र द्ह्मु का पुत्र बश्चु था और बचश्चुका पुत्र सेतु था।

    आरब्थस्तस्य गान्धारस्तस्य धर्मस्ततो धृतः ।

    धृतस्य दुर्मदस्तस्मात्प्रचेता: प्राचेतस: शतम्‌ ॥

    १५॥

    आरब्ध: --आरब्ध ( सेतु का पुत्र ); तस्य--उसका ( आरब्ध का ); गान्धार: --गान्धार; तस्य--उसका पुत्र; धर्म: --धर्म; ततः--उससे;धृत:ः--धृत; धृतस्य--धृत का; दुर्मदः--दुर्मद; तस्मात्‌--उससे; प्रचेता:--प्रचेता; प्राचेतस: --प्रचेता के; शतम्‌--एक सौ पुत्र थे।

    सेतु का पुत्र आरब्ध था, आरब्ध का पुत्र गान्धार हुआ और गान्धार का पुत्र धर्म था।

    धर्म का पुत्रधृत, धृत का दुर्मद और दुर्मद का पुत्र प्रचेता था जिसके एक सौ पुत्र हुए।

    म्लेच्छाधिपतयोभूवच्नुदीचीं दिशमाश्रिता: ।

    तुर्वसोश्च सुतो बह्नि्वह्नर्भगोथ भानुमान्‌ ॥

    १६॥

    म्लेच्छ--म्लेच्छ देश के ( जहाँ वैदिक सभ्यता नहीं पाई जाती ); अधिपतय:--राजा; अभूवन्‌--बने; उदीचीम्‌-- भारत की उत्तरी;दिशम्‌--दिशा को; आश्रिता:--सीमा मानकर; तुर्वबसो: च--महाराज ययाति के द्वितीय पुत्र तुर्वसु का; सुत:--पुत्र; वहिः--वहि;वह्ेः--वह्ि का; भर्ग:--भर्ग नाम का पुत्र; अथ--तत्पश्चात्‌ उसका पुत्र; भानुमान्‌ू-- भानुमान |

    प्रचेताओं ( प्रचेता के पुत्रों ) ने भारत की उत्तरी दिशा में कब्जा कर लिया जो वैदिक सभ्यता सेविहीन थी और वे वहाँ के राजा बन गये।

    ययाति का दूसरा पुत्र तुर्वसु था।

    तुर्वसु का पुत्र वह्नि था,वह्नि का पुत्र भर्ग था और भर्ग का पुत्र भानुमान था।

    त्रिभानुस्तत्सुतो स्थापि करन्धम उदारधीः ।

    मरुतस्तत्सुतो पुत्र: पुत्रं पौरवमन्वभूत्‌ ॥

    १७॥

    त्रिभानु:--त्रिभानु; ततू-सुतः-- भानुमान का पुत्र; अस्य--उसका ( त्रिभानु का ); अपि-- भी; करन्धम:--करन्धम; उदार-धी: --अत्यन्त उदार बुद्धिवाला; मरुत:--मरूत; तत्‌-सुतः--करन्धम का पुत्र; अपुत्र:--निःसन्तान; पुत्रम्‌--पुत्र के रूप में; पौरवम्‌--पूरुवंश का पुत्र महाराज दुष्मन्त; अन्वभूत्‌ू-गोद ले लिया।

    भानुमान का पुत्र त्रिभानु था और उसका पुत्र उदारचेता करन्धम था।

    करन्धम का पुत्र मरुत थाजिसके कोई पुत्र न था अतएव उसने पूरुवंशी पुत्र ( महाराज दुष्मन्त ) को पुत्र रूप में गोद ले लिया।

    दुष्मन्तः स पुनर्भेजे स्ववंशं राज्यकामुक: ।

    ययातेर्ज्येप्ठपुत्रस्थ यदोर्वशं नरर्षभ ॥

    १८॥

    वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम्‌ ।

    यदोर्व॑शं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥

    १९॥

    दुष्मन्त:ः--महाराज दुष्मन्त ने; सः--उस; पुनः भेजे--फिर से स्वीकार किया; स्व-वंशम्‌--अपने मूलवंश ( पूरुवंश ) को; राज्य-कामुकः--राजसिंहासन का इच्छुक होने के कारण; ययाते:--महाराज ययाति के; ज्येष्ठ-पुत्रस्य--पहले पुत्रयदु का; यदो: वंशम्‌--यदुवंश; नर-ऋषभ-हे मनुष्यों में श्रेष्ठ महाराज परीक्षित; वर्णयामि--वर्णन करूँगा; महा-पुण्यम्‌--अत्यन्त पवित्र; सर्व-पाप-हरम्‌--सारे पापकर्मो के फलों को दूर करने वाला; नृणाम्‌--मनुष्यों का; यदो: वंशम्‌--यदुवंश का वर्णन; नर: --कोई व्यक्ति; श्रुत्वा--केवल सुनने से; सर्व-पापैः--सारे पापपूर्ण कर्मों के फलों से; प्रमुच्यते--मुक्त हो जाता है।

    महाराज दुष्मन्त सिंहासन में बैठने की इच्छा से अपने मूलबंश ( पूरुवंश ) में लौट गये यद्यपि वेमरुत को अपना पिता स्वीकार कर चुके थे।

    हे महाराज परीक्षित, अब मैं महाराज ययाति के ज्येष्ठपुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ।

    यह वर्णन अत्यन्त पवित्र है और मानवसमाज के सारे पापों केफलों को दूर करने वाला है।

    इस वर्णन को सुनने मात्र से मनुष्य सारे पापों के फलों से मुक्त हो जाताहै।

    यत्रावतीर्णो भगवान्परमात्मा नराकृति: ।

    यदोः सहस्त्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥

    २०॥

    चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित्प्रथमात्मज: ।

    महाहयो रेणुहयो हैहयश्वेति तत्सुता: ॥

    २१॥

    यत्र--जिस वंश में; अवतीर्ण:--अवतार लिया; भगवान्‌-- भगवान्‌ कृष्ण; परमात्मा--सारे जीवों के परमात्मा; नर-आकृति:--मनुष्यके रूप में; यदो: --यदु का; सहस्त्रजित्‌ू--सहस्त्रजित; क्रोष्टा--क्रोष्टा; नलः--नल; रिपुः--रिपु; इति श्रुता:--इस प्रकार से विख्यात;चत्वार:--चारों; सूनव:--पुत्र; तत्र--वहाँ; शतजित्‌--शतजित; प्रथम-आत्मज:--पहला पुत्र; महाहय:--महाहय; रेणुहयः --रेणुहय;हैहयः--हैहय; च--तथा; इति--इस प्रकार; तत्‌-सुताः --उसके पुत्र |

    भगवान्‌ कृष्ण, जो सारे जीवों के हृदयों में परमात्मा स्वरूप हैं, मनुष्य के अपने आदि रूप में यदुकुल में अवतरित हुए।

    यदु के चार पुत्र थे--सहस्त्रजित्‌ू, क्रोष्टा, नल तथा रिपु।

    इन चारों में से सबसेबड़े सहस्त्रजित के एक पुत्र था जिसका नाम शतजित था।

    उसके तीन पुत्र हुए--महाहय, रेणुहयतथा हैहय।

    धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्र: कुन्तेः पिता ततः ।

    सोहजझिरभवत्कुन्तेर्महिष्मान्भद्रसेनक: ॥

    २२॥

    धर्म: तु--किन्तु धर्म; हैहय-सुतः--हैहय का पुत्र बना; नेत्र:--नेत्र; कुन्ते:--कुन्ति का; पिता--पिता; ततः--उससे; सोहज्ञि:--सोहज्लि; अभवत्‌--हुआ; कुन्ते:--कुन्ति पुत्र; महिष्मान्‌ू--महिष्मान; भद्गसेनक:-- भद्रसेनकहैहय का पुत्र धर्म था और धर्म का पुत्र नेत्र था जो कुन्ति का पिता था।

    कुन्ति से सोहझ्नि,सोहझ्ञि से महिष्मान तथा महिष्मान से भद्गसेनक उत्पन्न हुए।

    दुर्मदो भद्रसेनस्थ धनकः कृतवीर्यसू: ।

    कृताग्नि: कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजा: ॥

    २३॥

    दुर्मदः--दुर्मद; भद्गसेनस्थ-- भद्रसेन का; धनकः--धनक; कृतवीर्य-सू:--कृतवीर्य को जन्म देने वाला; कृताग्नि:--कृताग्नि नामक;कृतवर्मा--कृतवर्मा; च-- भी; कृतोौजा:--कृतौजा; धनक-आत्मजा:--धनक के पुत्रभद्गसेन के पुत्र दुर्मद तथा धनक कहलाये।

    धनक कृतवीर्य के अतिरिक्त कृताग्नि, कृतवर्मा तथाकृतौजा का भी पिता था।

    अर्जुन: कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपेश्वरोभवत्‌ ।

    दत्तात्रेयाद्धरेरंशात्प्राप्योगमहागुण: ॥

    २४॥

    अर्जुन:--अर्जुन; कृतवीर्यस्य--कृतवीर्य का; सप्त-द्वीप--सातों द्वीपों ( पूरे संसार ) का; ईश्वर: अभवत्‌--सप्राट बन गया;दत्तात्रेयात्‌-दत्तात्रेय से; हरे: अंशात्‌- भगवान्‌ के अंशावतार से; प्राप्त--प्राप्त; योग-महागुण:--योगशक्ति का गुण।

    कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था।

    वह ( कार्तवीर्यार्जुन ) सातों द्वीप वाले सारे संसार का सम्राट बनगया।

    उसे भगवान्‌ के अवतार द्त्तात्रेय से योगशक्ति प्राप्त हई थी।

    इस तरह उसने अष्ट सिद्धियाँ प्राप्तकर लीं।

    न नूनं॑ कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवा: ।

    यज्ञदानतपोयोगै: श्रुतवीर्यदयादिभि: ॥

    २५॥

    न--नहीं; नूनम्‌--निस्सन्देह; कार्तवीर्यस्थ--कार्तवीर्य के; गतिमू--कार्यकलाप; यास्यन्ति--समझ या प्राप्त कर सकते थे;पार्थिवा:--पृथ्वी के रहने वाले; यज्ञ--यज्ञ; दान--दान; तप:--तपस्या; योगैः --योगशक्ति से; श्रुत--शिक्षा; वीर्य--बल; दया--दया; आदिभि:--इन गुणों से |

    इस संसार का कोई भी राजा यज्ञ, दान, तपस्या, योगशक्ति, शिक्षा, बल या दया मेंकार्तवीर्यार्जुन की बराबरी नहीं कर सकता था।

    पञ्ञाशीति सहस्त्राणि हाव्याहतबल: समा: ।

    अनष्टवित्तस्मरणो बुभुजेक्षय्यघड्वसु ॥

    २६॥

    पञ्ञाशीति--पचासी; सहस््राणि--हजार; हि--निस्सन्देह; अव्याहत--न चुकने वाला; बल:--जिसका बल; समा:ः--वर्ष; अनष्ट--नष्ट हुए बिना; वित्त-- भौतिक एऐश्वर्य; स्मरण:--तथा स्मरण शक्ति; बुभुजे-- भोग किया; अक्षय्य--अक्षय; षट्‌ू-वसु--छः प्रकार काभोग्य भौतिक ऐश्वर्य

    कार्तवीर्यार्जुन ने लगातार पचासी हजार वर्षो तक पूर्ण शारीरिक बल तथा त्रुटिरहित स्मरणशक्ति से भौतिक ऐश्वर्यों का भोग किया।

    दूसरे शब्दों में, उसने अपनी छों इन्द्रियों से अक्षय भौतिकऐश्वर्यो का भोग किया।

    तस्य पुत्रसहस्त्रेषु पञ्जैवोर्वरिता मृथे ।

    जयध्वज: शूरसेनो वृषभो मधुरूजित: ॥

    २७॥

    तस्य--उसके ( कार्तवीर्यार्जुन के ); पुत्र-सहस्त्रेषु--एक हजार पुत्रों में; पञ्ञ--पाँच; एब--केवल; उर्बरिता:--जीवित रहे; मृधे--( परशुराम के साथ हुए ) युद्ध में; जयध्वज:-- जयध्वज; शूरसेन: --शूरसेन; वृषभ: --वृषभ; मधु:--मधु; ऊर्जित:--तथा ऊर्जित।

    कार्तवीर्यार्जुन के एक हजार पुत्रों में से परशुराम से युद्ध करने के बाद केवल पाँच पुत्र जीवितबचे।

    उनके नाम थे जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु तथा ऊर्जित।

    जयध्वजात्तालजड्डस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत्‌ ।

    क्षत्रं यत्तालजजझ्जख्यमौर्वतेजोपसंहतम्‌ ॥

    २८ ॥

    जयध्वजात्‌--जयध्वज से; तालजड्ड:--तालजंघ नाम का पुत्र; तस्थ--उसके; पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; तु--निस्सन्देह; अभूत्‌--उत्पन्न हुए; क्षत्रम्‌ू--क्षत्रिय वंश; यत्‌ू--जो; तालजड्ढ-आख्यम्‌--तालजंघ नाम से विख्यात; और्ब-तेज: --अत्यन्त शक्तिशाली होने से;उपसंहतम्‌--महाराज सगर द्वारा मार डाले गयेजयध्वज के तालजंघ नाम का एक पुत्र था जिसके एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए।

    उस तालजंघ नामकवंश के सररे क्षत्रियों का विनाश महाराज सगर द्वारा किया गया जिन्हें और्व ऋषि से महान्‌ शक्ति प्राप्तहुई थी।

    तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णि: पुत्रों मधो: स्मृतः ।

    तस्य पुत्रशतं त्वासीद्वृष्णिज्येष्ठं यत: कुलम्‌ ॥

    २९॥

    तेषाम्‌--उन सबों में; ज्येष्ठ: --सबसे बड़ा पुत्र; बीतिहोत्र: --वीतिहोत्र; वृष्णि:--वृष्णि; पुत्र:--पुत्र; मधो:--मधु का; स्मृत:--विख्यात था; तस्य--वृष्णि के; पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; तु--लेकिन; आसीतू--हुए; वृष्णि--वृष्णि; ज्येष्ठम्‌--ज्येष्ठ; यत: --जिससे; कुलमू--वंश ताल

    जंघ के पुत्रों में से वीतिहोत्र सबसे बड़ा था।

    वबीतिहोत्र का पुत्र मधु था जिसका पुत्र वृष्णिविख्यात था।

    मधु के एक सौ पुत्र हुए जिनमें वृष्णि सबसे बड़ा था।

    यादव, माधव तथा वृष्णि नामकवबंशों का उद्गम यदु, मधु तथा वृष्णि से हुआ।

    माधवा वृष्णयो राजन्यादवाश्वैति संज्ञिता: ।

    यदुपुत्रस्य च क्रोष्टो: पुत्रो वृजिनवांस्ततः ।

    स्वाहितोतो विषद्‌गुर्ब तस्य चित्ररथस्तत: ॥

    ३०॥

    शशबिन्दुर्महायोगी महाभागो महानभूत्‌ ।

    चतुर्दशमहारलकश्षक्रवर्त्पपराजित: ॥

    ३१॥

    माधवा:--मधु से चलने वाला वंश; वृष्णय:--वृष्णि से चलने वाला वंश; राजनू--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); यादवा: --यदुवंशी;च--और; इति--इस प्रकार; संज्ञिता:--इन विभिन्न पुरुषों के कारण ऐसा कहलाते हैं; यदु-पुत्रस्थ--यदु के पुत्र का; च-- भी;क्रोष्टोः--क्रोष्टा का; पुत्र:--पुत्र; वृजिनवान्‌ू--जिसका नाम वृजिनवान था; ततः--उससे; स्वाहित:--स्वाहित; अतः--तत्पश्चात्‌;विषद्‌गु:--विषदगु; बै--निस्सन्देह; तस्य--उसका; चित्ररथ:--चित्ररथ; तत:--उससे; शशबिन्दु:--शशबिन्दु; महा-योगी--महान्‌योगी; महा-भाग: --अत्यधिक भाग्यशाली; महान्‌ू--महापुरुष; अभूत्‌--हुआ; चतुर्दश-महारत्त:--चौदह प्रकार के महान्‌ ऐश्वर्य;अक्रवर्ती--सप्राट के रूप में; अपराजित:--न हराया जा सकने वाला।

    हे महाराज परीक्षित, चूँकि यदु, मधु तथा वृष्णि में से हर एक ने वंश चलाये अतएवं उनके वंशयादव, माधव तथा वृष्णि कहलाते हैं।

    यदु के पुत्र क्रोष्टा के वृजिनवान नाम का एक पुत्र हुआ।

    वृजिनवान का पुत्र स्वाहित था, स्वाहित का विषदगु, विषद्गु का चित्ररथ और चित्ररथ का पुत्रशशबिन्दु हुआ जो महान्‌ योगी था और चौदहों ऐश्वर्यों से युक्त था तथा वह चौदह महान्‌ रत्नों कास्वामी था।

    इस तरह वह संसार का सम्राट बना।

    तस्य पत्नीसहस्त्राणां दशानां सुमहायशा: ।

    दशलक्षसहस्त्राणि पुत्राणां तास्वजीजनत्‌ ॥

    ३२॥

    तस्य--शशबिन्दु की; पत्ती--पत्नियाँ; सहस्त्राणामू--हजारों में से; दशानाम्‌--दस; सु-महा-यशा:--अत्यन्त विख्यात; दश--दस;लक्ष--लाख; सहस्त्राणि--हजार; पुत्राणाम्‌--पुत्रों का; तासु--उनमें; अजीजनत्‌--उसने उत्पन्न किया।

    सुप्रसिद्ध शशबिन्दु के दस हजार पत्लियाँ थीं और उनमें से हर एक से एक लाख पुत्र उत्पन्न हुए।

    इसलिए उसके पुत्रों की संख्या एक अरब थी।

    तेषां तु षट्प्रधानानां पृथुश्रवस आत्मज: ।

    धर्मो नामोशना तस्य हयमेधशतस्य याट्‌ ॥

    ३३॥

    तेषाम्‌--उन पुत्रों में से; तु--लेकिन; षट्‌ प्रधानानाम्‌--जिसमें छह प्रमुख थे; पृथुअ्रवसः --पृथु श्रवा का; आत्मज:--पुत्र; धर्म: --धर्म;नाम--नामक; उशना--उशना; तस्य--उसका; हयमेध-शतस्य--एक सौ अश्वमेघ यज्ञों का; याट्‌--सम्पन्न करने वाला |

    इन अनेक पुत्रों में से छह अग्रणी थे यथा पृथुश्रवा तथा पृथुकीर्ति।

    पृथुश्रवा का पुत्र धर्मकहलाया और उसका पुत्र उशना कहलाया।

    उशना ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये।

    तत्सुतो रुचकस्तस्य पद्ञासन्नात्मजा: श्रुणु ।

    पुरुजिद्रुक्मरुक्मेषुप्‌ थुज्यामघसंज्ञिता: ॥

    ३४॥

    ततू-सुतः--उशना का पुत्र; रुचकः--रुचक; तस्य--उसके; पञ्ञ--पाँच; आसनू-- थे; आत्मजा:--पुत्र; श्रुणु--सुनो ( उनके नाम );पुरुजित्‌ू--पुरुजित; रुक्म--रुक्म; रुक्मेषु--रुक्मेषु; पृथु--पृथु; ज्यामघ--ज्यामघ; संज्ञिता:--नाम वालेउशना का पुत्र रुचक था जिसके पाँच पुत्र थे--पुरुजित, रुक्‍्म, रुक्मेषु, पृथु तथा ज्यामघ।

    कृपया मुझसे इनके विषय में सुनें।

    ज्यामघस्त्वप्रजो प्यन्यां भार्यां शैब्यापतिर्भयात्‌ ।

    नाविन्दच्छब्रुभवनाद्धोज्यां कन्यामहारषीत्‌ ।

    रथस्थां तां निरीक्ष्याह शैब्या पतिममर्षिता ॥

    ३५॥

    केयं कुहक मत्स्थानं रथमारोपितेति वै ।

    स्नुषा तवेत्यभिहिते स्मयन्ती पतिमब्रवीत्‌ ॥

    ३६॥

    ज्यामघः --ज्यामघ; तु--निस्सन्देह; अप्रज: अपि--यद्यपि निःसन्तान; अन्याम्‌--दूसरी; भार्याम्‌--पत्नी; शैब्या-पति: --शैब्या कापति होने के कारण; भयात्‌-- भय से; न अविन्दत्‌--स्वीकार नहीं किया; शत्रु-भवनात्‌--शत्रु के खेमे से; भोज्याम्‌-वेश्या को;कन्याम्‌--कन्या; अहारषीत्‌ू--ले आया; रथ-स्थाम्‌ू--रथ में बैठी; तामू--उसको; निरीक्ष्य--देखकर; आह--कहा; शैब्या-- ज्यामघ की पली जशैब्या ने; पतिम्‌--पति पर; अमर्पषिता--अत्यन्त क्रुद्ध; का इयमू--यह कौन है; कुहक--ओरे धूर्त; मत्‌-स्थानम्‌--मेरा स्थान;रथम्‌--रथ पर; आरोपिता--बैठने के लिए अनुमति प्राप्त; इति--इस प्रकार; बै--निस्सन्देह; स्नुषा--बहू; तव--तुम्हारी; इति--इसप्रकार; अभिहिते--सूचित किये जाने पर; स्मयन्ती--हँसती हुई; पतिम्‌--पति से; अब्नवीत्‌--बोली

    ज्यामघ के कोई पुत्र न था, किन्तु क्योंकि वह अपनी पत्नी शैब्या से डरता था अतएवं उसनेदूसरा विवाह नहीं किया।

    एक बार ज्यामघ किसी शत्रु राजा के खेमे से एक लड़की ले आया जोएक वेश्या थी।

    किन्तु उसे देखकर शैब्या अत्यन्त क्रुद्ध हुई और उसने अपने पति से कहा 'क्यों रेधूर्त) यह लड़की कौन है जो रथ में मेरे आसन पर बैठी है ?

    ' तब ज्यामघ ने उत्तर दिया 'यह लड़कीतुम्हारी बहू ( पुत्रवधू ) होगी।

    इन विनोदपूर्ण शब्दों को सुनकर शैब्या ने हँसते हुए उत्तर दिया।

    अहं बन्ध्यासपत्नी च स्नुषा मे युज्यते कथम्‌ ।

    जनयिष्यसि य॑ राज्ञि तस्येयमुपयुज्यते ॥

    ३७॥

    अहमू--ैं; बन्ध्या--बाँझ; अस-पत्नी--सौत रहित; च-- भी; स्नुषा--बहू; मे--मेरी; युज्यते--हो सकती है; कथम्‌--किस तरह;जनयिष्यसि--तुम जन्म दोगी; यम्‌--जो पुत्र; राज्ञि--हे रानी; तस्य--उसके; इयम्‌--यह लड़की; उपयुज्यते--उपयुक्त होगीशैब्या ने कहा, 'मैं बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है'।

    भला यह लड़की मेरी बहू( पुत्रवधू ) कैसे बन सकती है?

    ' ज्यामघ ने उत्तर दिया, 'मेरी रानी! मैं देखूँगा कि तुम्हारे सचमुचपुत्र होगा और यह लड़की तुम्हारी बहू बनेगी।

    अन्वमोदन्त तद्विश्वेदेवा: पितर एव च ।

    जैब्या गर्भमधात्काले कुमारं सुषुवे शुभम्‌ ।

    स विदर्भ इति प्रोक्त उपयेमे स्नुषां सतीम्‌ ॥

    ३८ ॥

    अन्वमोदन्त--स्वीकार कर लिया; तत्‌--यह भविष्यवाणी कि उसके पुत्र होगा; विश्वेदेवा:--विश्वेदेव देवतागण; पितर:--पितृगण;एव--निस्सन्देह; च-- भी; शैब्या-- शै ब्या ने; गर्भगू-गर्भ; अधात्‌-- धारण किया; काले--समय आने पर; कुमारम्‌--पुत्र को;सुषुवे--जन्म दिया; शुभम्‌--अत्यन्त शुभ; सः--वह पुत्र; विदर्भ:--विदर्भ; इति--इस प्रकार; प्रोक्त:--विख्यात हुआ; उपयेमे--बादमें विवाह कर लिया; स्नुषाम्‌--बहू रूप में स्वीकृत; सतीम्‌--सती साध्वी लड़की को।

    बहुत काल पूर्व ज्यामघ ने देवताओं तथा पितरों की पूजा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया था।

    अब उन्हीं की दया से ज्यामघ के शब्द सही उतरे।

    यद्यपि शैब्या बाँझ थी लेकिन देवताओं की कृपा से वहगर्भिणी हुई और समय आने पर उसने विदर्भ नामक शिशु को जन्म दिया।

    चूँकि शिशु के जन्म केपूर्व ही उस लड़की को बहू रूप में स्वीकार किया जा चुका था अतएवं जब विदर्भ सयाना हुआ तो उसने उसके साथ विवाह कर लिया।

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    अध्याय चौबीस: कृष्ण, भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व

    9.24श्रीशुक उबाचतस्यां विदर्भोडजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ ।

    तृतीय रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तस्थाम्‌ू--उस लड़की से; विदर्भ:--विदर्भ ने; अजनयत्‌--जन्म दिया; पुत्रौ--दो पुत्रोंको; नाम्ना--नामक; कुश-क्रथौ--कुश तथा क्रथ; तृतीयम्‌--तथा तीसरे पुत्र; रोमपादम्‌ च--रोमपाद को भी; विदर्भ-कुल-नन्दनम्‌-दविदर्भ वंश का प्रिय |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने पिता द्वारा लाई गईं उस लड़की के गर्भ से विदर्भ को तीन पुत्रप्राप्त हुए--कुश, क्रथ तथा रोमपाद।

    रोमपाद विदर्भ कुल का अत्यन्त प्रिय था।

    रोमपादसुतो बश्रुर्बश्रो: कृतिरजायत ।

    उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्वेद्यादयो नृपा: ॥

    २॥

    रोमपाद-सुतः--रोमपाद का पुत्र; बश्लु:--बश्रु; बच्रो: --बश्रु से; कृतिः--कृति; अजायत--उत्पन्न हुआ; उशिक:--उशिक; तत्‌ू-सुतः--कृति का पुत्र; तस्मात्‌--उससे; चेदि:--चेदि; चैद्य--चैद्य ( दमघोष ); आदयः:--इत्यादि; नृपाः--राजा |

    रोमपाद का पुत्र बश्रु हुआ जिससे कृति नामक पुत्र की उत्पत्ति हुईं।

    कृति का पुत्र उशिक हुआऔर उशिक का पुत्र चेदि था।

    चेदि से चैद्य तथा अन्य राजा पुत्र उत्पन्न हुए।

    क्रथस्य कुन्तिः पुत्रो भूद्गष्णिस्तस्याथ निर्वृति: ।

    ततो दशाहों नाम्नाभूत्तस्य व्योम: सुतस्ततः ॥

    ३॥

    जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथ: सुतः ।

    ततो नवरथ:ः पुत्रो जातो दशरथस्ततः ॥

    ४॥

    क्रथस्य--क्रथ का; कुन्तिः--कुन्ति; पुत्र:--पुत्र; अभूत्‌--हुआ; वृष्णि: --वृष्णि; तस्थ--उसका; अथ--तब ; निर्वृति:--निर्वृति;ततः--उससे; दशाहई:--दशाई; नाम्ना--नामक; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; तस्य--उसका; व्योम:--व्योम; सुतः--पुत्र; ततः--उससे;जीमूत:--जीमूत; विकृति:ः--विकृति; तस्य--उसका; यस्य--जिसका ( विकृति का ); भीमरथ: -- भीमरथ; सुतः --पुत्र; ततः--उससे ( भीमरथ ); नवरथः --नवरथ; पुत्र:--पुत्र; जात:--उत्पन्न हुआ; दशरथ: --दशरथ; ततः--उससे

    क्रथ का पुत्र कुन्ति, कुन्ति का पुत्र वृष्णि, वृष्णि का निर्वृति, निर्वति का दशाई, दशाई काव्योम, व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ तथा नवरथका पुत्र दशरथ हुआ।

    करम्भि: शकुने:ः पुत्रो देवरातस्तदात्मज: ।

    देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधु: कुरुवशादनु: ॥

    ५॥

    'करम्भि:ः--करम्भि; शकुने:--शकुनि से; पुत्र:--पुत्र; देवरातः --देवरात; तत्‌-आत्मज: --उसका पुत्र ( करम्भि ); देवक्षत्र: --देवक्षत्र;ततः--तत्पश्चात्‌; तस्थ--उसका; मधु: --मधु; कुरुवशात्‌--कुरुवश से; अनुः--अनुदशरथ का पुत्र शकुनि हुआ और शकुनि का पुत्र करम्भि था।

    करम्भि का पुत्र देवरात हुआजिसका पुत्र देवक्षत्र था।

    देवक्षत्र का पुत्र मधु था और उसका पुत्र कुरुवश था जिसके अनु नाम कापुत्र उत्पन्न हुआ।

    पुरुहोत्रस्त्वनो: पुत्रस्तस्यायु: सात्वतस्ततः ।

    भजमानो भरजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोउन्धकः ॥

    ६॥

    सात्वतस्य सुता: सप्त महाभोजश्न मारिष ।

    भजमानस्य निम्लोचि: किड्डृणो धृष्टिरिव च ॥

    ७॥

    एकस्यामात्मजा: पत्यामन्यस्यां च त्रयः सुता: ।

    शताजिच्च सहस्त्राजिदयुताजिदिति प्रभो ॥

    ८॥

    पुरुहोत्र:--पुरुहोत्र; तु--निस्सन्देह; अनो: --अनु का; पुत्र:--पुत्र; तस्य--पुरुहोत्र का; अयु:--अयु; सात्वतः--सात्वत; ततः--उससे ( अयु ); भजमान:-- भजमान; भजि: -- भजि; दिव्य: --दिव्य; वृष्णि:--वृष्णि; देवावृध: --देवावृध; अन्धक:--अन्धक;सात्वतस्थ--सात्वत के; सुताः--पुत्र; सप्त--सात; महाभोज: च--तथा महाभोज; मारिष--हे महान्‌ राजा; भजमानस्यथ-- भजमानके; निम्लोचि:--निम्लोचि; किल्जलूण:--किंकण; धृष्टि: -- धृष्टि; एब--निस्सन्देह; च-- भी; एकस्याम्‌--एक पत्नी से; आत्मजा:--पुत्र; पल्याम्‌--पत्ली से; अन्यस्यथाम्‌--दूसरी; च--भी; त्रय:--तीन; सुता:--पुत्र; शताजित्‌--शताजित; च--भी; सहस्त्राजितू--सहस्त्राजित; अयुताजित्‌ू--अयुताजित; इति--इस प्रकार; प्रभो--हे राजा |

    अनु का पुत्र पुरुहोत्र हुआ जिसके पुत्र अयु का पुत्र सात्वत था।

    हे महान्‌ आर्य राजा, सात्वत केसात पुत्र थे-- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक तथा महाभोज।

    भजमान की एकपतली से निम्लोचि, किंकण तथा धृष्टि नामक तीन पुत्र हुए और दूसरी पत्नी से शताजित, सहस्त्राजिततथा अयुताजित--ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए।

    बश्रुर्देवावृधसुतस्तयो: एलोकौ पठन्त्यमू ।

    यथैव श्रृणुमो दूरात्सम्पश्यामस्तथान्तिकात्‌ ॥

    ९॥

    बश्रु:--बश्रु; देवावृध--देवावृध; सुत:--पुत्र; तयोः--उनके; शलोकौ--दो शलोक; पठन्ति-- पुरानी पीढ़ी के लोग सुनाते हैं; अमू--वे; यथा--जिस तरह; एव--निस्सन्देह; श्रुणुम:--हमने सुना है; दूरात्‌ू--दूर से; सम्पश्याम:--वास्तव में देख रहे हैं; तथा--उसीतरह; अन्तिकात्‌ू--आज भी।

    देवावृध का पुत्र बच्चु था।

    देवावृध तथा बश्चु से सम्बन्धित दो प्रसिद्ध प्रार्थनामय गीत हैं जिन्हेंहमारे पूर्वज गाते रहे हैं और जिन्हें हमने दूर से सुना है।

    आज भी मैं वही गीत उनके गुणों के विषय मेंसुनता हूँ ( क्योंकि जो पहले सुना गया है, अभी भी लगातार गाया जाता है )।

    बश्रु: श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृध: सम: ।

    पुरुषा: पञ्जषष्टिश्न घट्सहस्त्राणि चाष्ट च ॥

    १०॥

    येअमृतत्वमनुप्राप्ता बश्रोर्देवावृधादपि ।

    महाभोजोतिधर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये ॥

    ११॥

    बश्रु:--राजा बश्रु; श्रेष्ठ; --सब राजाओं में श्रेष्ठ; मनुष्याणाम्‌--सारे मनुष्यों में; देवैः--देवताओं समेत; देवावृध:--राजा देवावृध;समः--समदर्शी; पुरुषा:--पुरुष; पश्च-षष्टि:--पैसठ; च-- भी; षट्‌ू-सहस्त्राणि--छह हजार; च-- भी; अष्ट-- आठ हजार; च-- भी;ये--जो; अमृतत्वम्‌-- भवबन्धन से मोक्ष; अनुप्राप्ता: --प्राप्त; बश्रो:--बश्चु की संगति के फलस्वरूप; देवावृधात्‌--तथा देवावृध कीसंगति से; अपि--निस्सन्देह; महाभोज:--राजा महाभोज; अति-धर्म-आत्मा-- अत्यन्त धार्मिक; भोजा:-- भोज नाम के राजा;आसन्‌--हुए; तत्‌-अन्वये--उसके ( महाभोज के ) कुल में |

    यह निश्चय हुआ कि मनुष्यों में बश्रु सर्वश्रेष्ठ है और देवावृध देवता तुल्य है।

    बश्चु तथा देवावृधकी संगति से उनके सारे वंशज, जिनकी संख्या १४०६५ थी, मोक्ष के भागी हुए।

    राजा महाभोज अत्यन्त धर्मात्मा था और उसके कुल में भोज राजा हुए।

    वृष्णे: सुमित्र: पुत्रोभूद्युधाजिच्च परन्तप ।

    शिनिस्तस्यानमित्रश्न निघ्नो भूदनमित्रतः ॥

    १२॥

    वृष्णे:--सात्वत पुत्र वृष्णि का; सुमित्र:--सुमित्र; पुत्र:--पुत्र; अभूत्‌--हुआ; युधाजित्‌--युधाजित; च-- भी; परम्‌-तप--हे शत्रुओंका दमन करने वाले राजा; शिनि:--शिनि; तस्य--उसका; अनमित्र: --अनमित्र; च--तथा; निधघ्न:--निघ्न; अभूत्‌--प्रकट हुआ;अनमित्रत:ः--अनमित्र से

    हे शत्रुओं के दमन करने वाले राजा परीक्षित, वृष्णि के पुत्र सुमित्र तथा युधाजित थे।

    युधाजितसे शिनि तथा अनमित्र उत्पन्न हुए।

    अनमित्र के एक पुत्र था जिसका नाम निघ्त था।

    सत्राजितः प्रसेनश्व निध्नस्थाथासतुः सुतौ ।

    अनमित्रसुतो योन्यः शिनिस्तस्य च सत्यक: ॥

    १३॥

    सत्राजित:--सत्राजित; प्रसेन: च--तथा प्रसेन; निध्नस्य--निघ्न के पुत्र; अथ--इस प्रकार; असतु:--थे; सुतौ--दो पुत्र; अनमित्र-सुतः--अनमित्र का बेटा; य:--जो; अन्य: --दूसरा; शिनि:--शिनि; तस्थ--उसका; च--भी; सत्यक:--सत्यक |

    निघ्न के दो पुत्र हुए--सत्राजित तथा प्रसेन।

    अनमित्र का दूसरा पुत्र एक अन्य शिनि था जिसकापुत्र सत्यक था।

    युयुधान: सात्यकिर्व जयस्तस्य कुणिस्तत: ।

    युगन्धरोनमित्रस्य वृष्णि: पुत्रोडपरस्ततः ॥

    १४॥

    युयुधान:--युयुधान; सात्यकि:--सत्यक का पुत्र; बै--निस्सन्देह; जय:--जय; तस्य--उसका ( युयुधान ); कुणि:--कुणि; ततः--उससे ( जय ); युगन्धर: --युगन्धर; अनमित्रस्थ--अनमित्र का पुत्र; वृष्णि: --वृष्णि; पुत्र:--पुत्र; अपर: --दूसरा; ततः--उससे

    सत्यक का पुत्र युयुधान था जिसका पुत्र जय हुआ।

    जय के एक पुत्र हुआ जिसका नाम कुणिथा।

    कुणि का पुत्र युगन्धर था।

    अनमित्र का दूसरा पुत्र वृष्णि था।

    श्रफल्व श्ित्ररथश्व गान्दिन्यां च ्वफल्कत: ।

    अक्रूरप्रमुखा आसम्पुत्रा द्वादश विश्रुता: ॥

    १५॥

    श्रफल्क:-- श्रफल्क; चित्ररथ: च--तथा चित्ररथ; गान्दिन्यामू--गान्दिनी नामक पत्नी से; च--तथा; शध्रफल्कतः: -- श्रफल्क से;अक्ूर--अक्रूर; प्रमुखा:--इत्यादि; आसनू-- थे; पुत्रा:--पुत्र; द्वादश--बारह; विश्रुता:--विख्यात वृष्णि से श्रफल्क तथा चित्ररथ नाम के दो पुत्र हुए।

    श्रफल्क की पत्नी गान्दिनी से अक्रूर उत्पन्नहुआ।

    अक्रूर सबसे बड़ा था, किन्तु उसके अतिरिक्त बारह पुत्र और थे जो सभी विख्यात थे।

    आसउड्डः सारमेयश्व मृदुरो मृदुविदिगरिः ।

    धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोईरिमर्दन: ॥

    १६॥

    शत्रुध्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्न द्वादश ।

    तेषां स्वसा सुचाराख्या द्वावक्रूरसुतावषि ॥

    १७॥

    देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजा: ।

    पृथुर्विदूरथाद्याश्न बहवो वृष्णिनन्दना: ॥

    १८॥

    आसड्ु:--आसंग; सारमेय: --सारमेय; च-- भी; मृदुरः--मृदुर; मृदुवित्‌--मृदुवित; गिरि: --गिरि; धर्मवृद्धः --धर्मवृद्ध; सुकर्मा--सुकर्मा; च--भी; क्षेत्रोपेक्ष:--श्षेत्रोपेक्ष; अरिमर्दन: --अरिमर्दन; शत्रुघ्न:--शत्रुघ्न; गन्धमाद: --गन्धमाद; च-- भी ; प्रतिबाहु: --प्रतिबाहु; च--तथा; द्वादश--बारह; तेषाम्‌ू--उनकी; स्वसा--बहन; सुचारा--सुचारा; आख्या--विख्यात; द्वौ--दो; अक्रूर--अक्रूरके; सुतौ--बेटे; अपि-- भी; देववान्‌--देववान; उपदेव: च--तथा उपदेव; तथा--तत्पश्चात्‌; चित्ररथ-आत्मजा:--चित्ररथ के पुत्र;पृथु; विदूरध--पृथु तथा विदूरथ; आद्या:--आदि; च-- भी; बहव:-- अनेक; वृष्णि-नन्दना: --वृष्णि के पुत्र

    इन बारहों के नाम थे--आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुवित, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष,अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमाद तथा प्रतिबाहु।

    इन भाइयों के एक बहन भी थी जिसका नाम सुचारा था।

    अक्रूर के दो पुत्र हुए जिनके नाम देववान तथा उपदेव थे।

    चित्ररथ के पृथु, विदूरथ इत्यादि कई पुत्रथे।

    ये सभी वृष्णिवंशी कहलाये।

    कुकुरो भजमानश्न शुच्ति: कम्बलबर्हिष: ।

    कुकुरस्य सुतो वह्िविलोमा तनयस्ततः ॥

    १९॥

    कुकुरः--कुकुर; भजमान:-- भजमान; च-- भी; शुचि: --शुचि; कम्बलबर्हिष:--कम्बलबर्हिष; कुकुरस्थ--कुकुर का; सुतः--पुत्र;वहिः--वह्ि; विलोमा--विलोमा; तनय:--पुत्र; ततः--उससे ( वह्ि)

    अन्धक के चार पुत्र हुए--कुकुर, भजमान, शुचि तथा कम्बलबर्हिष।

    कुकुर का पुत्र वह्नि थाऔर वह्नि का पुत्र विलोमा हुआ।

    कपोतरोमा तस्यानु: सखा यस्य च तुम्बुरु: ।

    अन्धकादइुन्दुभिस्तस्मादविद्योत: पुनर्वसु: ॥

    २०॥

    कपोतरोमा--कपोतरोमा; तस्य--उसका ( पुत्र ); अनु:-- अनु; सखा--मित्र; यस्य--जिसका; च--भी ; तुम्बुरु: --तुम्बुरु ;अन्धकात्‌--अन्धक ( अनुपुत्र ) से; दुन्दुभि: --दुन्दुभि नामक पुत्र; तस्मात्‌--उससे ( दुन्दुभि ); अविद्योत:--अविद्योत नामक पुत्र;पुनर्वसु:--पुनर्वसु नामक पुत्र

    विलोमा का पुत्र कपोतरोमा था जिसका पुत्र अनु हुआ और उसका मित्र तुम्बुरु था।

    अनु सेअन्धक का जन्म हुआ, अन्धक से दुन्दुभि, दुन्दुभि से अविद्योत और अविद्योत से पुनर्वसु नामक पुत्रउत्पन्न हुआ।

    तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ ।

    देवकक्षोग्रसेनश्र चत्वारो देवकात्मजा: ॥

    २१॥

    देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धन: ।

    तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृूप ॥

    २२॥

    शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता ।

    सहदेवा देवकी च वसुदेव उबाह ता: ॥

    २३॥

    तस्य--उसके; आहुक:--आहुक; च--तथा; आहुकी -- आहुकी; च-- भी; कन्या--पुत्री; च-- भी; एब--निस्सन्देह; आहुक--आहुक के; आत्मजौ--दो पुत्र; देवक:--देवक; च--तथा; उग्रसेन: --उग्रसेन; च-- भी; चत्वार:--चार; देवक-आत्मजा:--देवकके पुत्र; देववान्‌ू--देववान; उपदेव:--उपदेव; च--तथा; सुदेव: --सुदेव; देववर्धन:--देववर्धन; तेषाम्‌ू--उन सब में से; स्वसार: --बहनें; सप्त--सात; आसनू--थीं; धृतदेवा-आदय: -- धृतदेवा आदि; नृप--हे राजा परीक्षित; शान्तिदेवा--शान्तिदेवा; उपदेवा--उपदेवा; च--भी; श्रीदेवा-- श्रीदेवा; देवरक्षिता--देवरक्षिता; सहदेवा--सहदेवा; देवकी --देवकी; च--तथा; वसुदेव: --कृष्ण केपिता वसुदेव ने; उबाह--विवाह लिया; ताः:--उनको

    पुनर्वसु के एक पुत्र आहुक तथा एक पुत्री आहुकी थी।

    आहुक के दो पुत्र थे--देवक तथाउग्रसेन।

    देवक के चार पुत्र हुए--देववान्‌, उपदेव, सुदेव तथा देववर्धन।

    उसके सात कन्याएँ भी थींजिनके नाम शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा, देवकी तथा धृतदेवा थे।

    इनमें धृतदेवासबसे बड़ी थी।

    कृष्ण के पिता वसुदेव ने इन सबों के साथ विवाह किया।

    कंसः सुनामा न्यग्रोध: कड्ढः शह्ढू : सुहूस्तथा ।

    राष्ट्रपालोथ धृष्टिश्व तुष्टिमानौग्रसेनय: ॥

    २४॥

    कंसः--कंस; सुनामा--सुनामा; न्यग्रोध:--न्यग्रोध; कड्ढः--कंक; शह्डु : -शंकु; सुहू: --सुहू; तथा--और ; राष्ट्रपाल: --राष्ट्रपाल;अथ-तत्पश्चात्‌; धृष्टि:--धृष्टि; च--भी; तुष्टिमान्‌--तुष्टिमान; औग्रसेनय:--उग्रसेन के पुत्र |

    उपग्रसेन के पुत्रों के नाम थे--कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, धृष्टि तथातुष्टिमान।

    कंसा कंसवती कड्ढा शूरभू राष्ट्रपालिका ।

    उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ॥

    २५॥

    कंसा--कंसा; कंसवती--कंसवती; कड्जा--कंका; शूरभू-शूरभू; राष्ट्रपालिका--राष्ट्रपालिका; उग्रसेन-दुहितर:--उग्रसेन कीपुत्रियाँ; बसुदेव-अनुज--वसुदेव के छोटे भाइयों की; स्त्रियः--पत्नियाँ

    उमग्रसेन की पुत्रियाँ कंसा, कंसावती, कंका, शूरभू तथा राष्ट्रपालिका थीं।

    वे वसुदेव के छोटेभाइयों की पत्नियाँ बनीं।

    शूरो विदूरथादासीद्धजमानस्तु तत्सुतः ।

    शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः ॥

    २६॥

    शूरः--शूर; विदूरथात्‌--विदूरथ से, जो चित्ररथ का पुत्र था; आसीत्‌--उत्पन्न हुआ; भजमान:-- भजमान; तु--तथा; तत्‌-सुत:--उस( शूर ) का पुत्र; शिनि:--शिनि; तस्मात्‌-- उससे; स्वयम्‌--स्वयं; भोज: --प्रसिद्ध राजा भोज; हृदिक:--हृदिक; तत्‌-सुतः--उस( भोज ) का पुत्र; मत:ः--विख्यात है।

    चित्ररथ का पुत्र विदूरथ था, जिसका पुत्र शूर था और शूर का पुत्र भजमान था।

    भजमान का पुत्रशिनि हुआ, शिनि का पुत्र भोज था और भोज का पुत्र हृदिक था।

    देवमीढ: शतधनु: कृतवर्मेति तत्सुता: ।

    देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्यभूत्‌ ॥

    २७॥

    देवमीढ:--देवमीढ; शतधनु:--शतधनु; कृतवर्मा--कृतवर्मा ; इति--इस प्रकार; तत्‌-सुता: --उस ( हृदिक ) के पुत्र; देवमीढस्य--देवमीढ का; शूरस्य--शूर का; मारिषा--मारिषा; नाम--नामक; पत्ती--पली; अभूत्‌-- थीहृदिक के तीन पुत्र हुए--देवमीढ, शतधनु तथा कृतवर्मा |

    देवमीढ का पुत्र शूर था जिसकी पत्नीका नाम मारिषा था।

    तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्‌ ।

    बसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम्‌ ॥

    २८॥

    सृक्ञयं श्यामकं कड्ढें शमीकं वत्सक॑ वृकम्‌ ।

    देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि ॥

    २९॥

    वबसुदेवं हरे: स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्‌ ।

    पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्ति: श्रुतअ्रवा: ॥

    ३०॥

    राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्ञ कन्यकाः ।

    कुन्तेः सख्यु: पिता शूरो ह्पुत्रस्थ पृथामदात्‌ ॥

    ३१॥

    तस्याम्‌--उससे ( मारिषा ) से; सः--उस ( शूर ) ने; जनयाम्‌ आस--उत्पन्न किया; दश--दस; पुत्रान्‌-पुत्रों को; अकल्मषान्‌ --निष्कलंक; वसुदेवम्‌--वसुदेव को; देवभागम्‌--देवभाग को; देवश्रवसम्‌--देवश्रवा को; आनकम्‌--आनक को; सृज्ञयम्‌ू--सूझ्धयको; श्यामकम्‌-श्यामक; कड्ढडम्‌--कंक; शमीकम्‌--शमीक; वत्सकम्‌--वत्सक; वृकम्‌--वृक को; देव-दुन्दुभय:--देवताओंद्वारा दुन्दुभियाँ; नेदु:--बजाई गईं; आनका:--एक प्रकार की दुन्दुभी; यस्थय--जिसके; जन्मनि--जन्म होने पर; वसुदेवम्‌--वसुदेवको; हरेः-- भगवान्‌ का; स्थानम्‌ू--स्थान; वदन्ति--लोग कहते हैं; आनकदुन्दुभिम्‌ू-- आनक-दुन्दुभि; पृथा--पृथा; च--तथा;श्रुतदेवा-- श्रुददेवा; च-- भी; श्रुतकीर्ति:-- श्रुतकी र्ति; श्रुतश्रवा: -- श्रुतश्रवा; राजाधिदेवी --राजाधिदेवी; च-- भी; एतेषाम्‌--इनसबों की; भगिन्य:--बहनें; पञ्ञच-- पाँच; कन्यकाः --शूर की पुत्रियाँ; कुन्ते:--कुन्ति का; सख्यु:--मित्र; पिता--पिता; शूर:--शूर;हि--निस्सन्देह; अपुत्रस्थ--पुत्रविहीन; पृथाम्‌--पृथा को; अदात्‌--दे दिया

    राजा शूर को अपनी पत्नी मारिषा से वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सूज्ञय, श्यामक,कंक, शमीक, वत्सक तथा वृक नामक दस पुत्र उत्पन्न हुए।

    ये विशुद्ध पवित्र पुरुष थे।

    जब वसुदेवका जन्म हुआ था तो देवताओं ने स्वर्ग से दुन्दुभियां बजाई थीं।

    इसीलिए वसुदेव का नाम आनक-दुन्दुभि पड़ गया।

    इन्होंने भगवान्‌ कृष्ण के प्राकट्य के लिए समुचित स्थान प्रदान किया।

    शूर केपाँच कन्याएँ भी जन्मीं, जिनके नाम थे पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतअश्रवा तथा राजाधिदेवी।

    येवसुदेव की बहनें थीं।

    शूर ने अपने मित्र कुन्ति को अपनी पुत्री पृथा दे दी क्योंकि उसके कोई सनन्‍्ताननहीं थी; इसलिए पृथा का दूसरा नाम कुन्ती था।

    साप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात्‌ ।

    तस्या वीर्यपरीक्षार्थभाजुहाव रविं शुच्ि: ॥

    ३२॥

    सा--उसने ( पृथा ने ); आप--प्राप्त किया; दुर्वासस:--दुर्वासा मुनि से; विद्यामू--योगशक्ति; देव-हूतीम्‌--किसी भी देवता काआवाहन करने की; प्रतोषितात्‌--प्रसन्न होकर; तस्या:--उस ( योगशक्ति ) से; वीर्य--प्रभाव; परीक्ष-अर्थम्‌--परीक्षा करने के लिए;आजुहाव--आवाहित किया; रविम्‌--सूर्यदेव को; शुचि:--पवित्र ( पृथा )॥

    एक बार जब दुर्वासा पृथा के पिता कुन्ति के घर पर अतिथि बने तो पृथा ने अपनी सेवा से उन्हेंप्रसन्न कर लिया।

    अतएव उसे ऐसी योगशक्ति प्राप्त हुई जिससे वह किसी भी देवता का आवाहन करसकती थी।

    पवित्र कुन्ती ने इस योगशक्ति के प्रभाव की परीक्षा करने के लिए तुरन्त ही सूर्यदेव काआवाहन किया।

    तदैवोषागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा ।

    प्रत्ययार्थ प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे ॥

    ३३॥

    तदा--उस समय; एव--निस्सन्देह; उपागतम्‌--( अपने समक्ष ) प्रकट हुआ; देवम्‌--सूर्यदेव को; वीक्ष्य--देखकर; विस्मित-मानसा--अत्यधिक चकित; प्रत्यय-अर्थम्‌--योग की शक्ति को देखने के लिए; प्रयुक्ता--मैंने प्रयोग किया है; मे-- मुझे; याहि--कृपया लौट जाइये; देव--हे देवता; क्षमस्व-- क्षमा कीजिये; मे--मुझको |

    ज्योंही कुन्ती ने सूर्यदेव का आवाहन किया वे तुरन्त उसके समक्ष प्रकट हो गये।

    इस पर वहअत्यधिक चकित हो गई।

    उसने सूर्यदेव से कहा 'मैं तो इस योगशक्ति के प्रभाव की परीक्षा ही कररही थी।

    खेद है कि मैंने आपको व्यर्थ ही बुलाया है।

    कृपया वापस जाएँ और मुझे क्षमा कर दें'।

    'अमोधघं देवसन्दर्शमादधे त्वयि चात्मजम्‌ ।

    योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहँ ते सुमध्यमे ॥

    ३४॥

    अमोघम्‌--व्यर्थ न होने वाला; देव-सन्दर्शम्‌--देवताओं से भेंट; आदधे--मैं ( वीर्य ) दूँगा; त्वयि--तुममें; च-- भी; आत्मजम्‌--पुत्र;योनि:--योनि मार्ग; यथा--जिस तरह; न--नहीं; दुष्येत--दूषित हो; कर्ता--व्यवस्था करूँगा; अहम्‌--मैं; ते--तुम्हारी; सुमध्यमे--हे सुन्दरी |

    सूर्यदेव ने कहा : हे सुन्दरी पृथा, देवताओं से तुम्हारी भेंट व्यर्थ नहीं जा सकती।

    अतएव मैंतुम्हारे गर्भ में वीर्य स्थापित करता हूँ जिससे तुम एक पुत्र उत्पन्न कर सको।

    मैं तुम्हारे कौमार्य कोअक्षत रखने की व्यवस्था कर दूँगा क्योंकि तुम अब भी अविवाहिता लड़की हो।

    इति तस्यां स आधाय गर्भ सूर्यो दिवं गत: ।

    सद्यः कुमार: सञ्जज्ञे द्वितीय इव भास्कर: ॥

    ३५॥

    इति--इस प्रकार; तस्याम्‌--उसमें ( पृथा में ); सः--उसने ( सूर्यदेव ने )) आधाय--वीर्य स्थापित करके ; गर्भम्‌--गर्भ; सूर्य: --सूर्यदेव; दिवम्‌--स्वर्गलोक को; गत:--लौट गये; सद्य:--तुरनन्‍्त; कुमार:--बालक; सझ्जज्ञे--उत्पन्न हुआ; द्वितीय: --दूसरा; इब--सहश; भास्कर:--सूर्यदेवयह कहकर सूर्यदेव ने पृथा के गर्भ में अपना वीर्य स्थापित किया और वे स्वर्गलोक वापस चलेगये।

    उसके तुरन्त बाद कुन्ती ने एक पुत्र को जन्म दिया जो दूसरे सूर्य की तरह था।

    त॑ं सात्यजन्नदीतोये कृच्छाल्लोकस्य बिभ्यती ।

    प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुवैं सत्यविक्रम: ॥

    ३६॥

    तम्‌--उस बालक को; सा--उसने ( कुन्ती ने ); अत्यजत्‌ू--छोड़ दिया; नदी-तोये--नदी के जल में; कृच्छात्‌--पश्चाताप सहित;लोकस्य--लोगों के ; बिभ्यती -- डरते हुए; प्रपितामह: --( तुम्हारे ) परबाबा; ताम्‌ू--उसको ( कुन्ती को ); उबाह--विवाह किया;पाण्डुः--पाण्डु ने; बै--निस्सन्देह; सत्य-विक्रम:--अत्यन्त पवित्र तथा पराक्रमी

    चूँकि कुन्ती लोगों की आलोचनाओं से भयभीत थी अतएव उसे बड़ी कठिनाई से पुत्र-स्नेहछोड़ना पड़ा।

    अनचाहे उसने बालक को एक मंजूषा (टोकरी ) में बन्द करके नदी के जल मेंप्रवाहित कर दिया।

    हे महाराज परीक्षित, बाद में पवित्र तथा पराक्रमी तुम्हारे बाबा पाण्डु ने कुन्ती सेविवाह कर लिया।

    श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्‌ ।

    यस्यामभूददन्तवक्र ऋषिशप्तो दिते: सुतः ॥

    ३७॥

    श्रुतदेवाम्‌ू-कुन्ती की बहन श्रुतदेवा को; तु--लेकिन; कारूष:--करूष का राजा; वृद्धशर्मा--वृद्धशर्मा ने; समग्रहीत्‌--विवाहलिया; यस्याम्‌--जिससे; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; दन्‍्तवक्र:--दन्तवक्र; ऋषि-शप्त:--सनक तथा सनातन ऋषियों द्वारा शाप प्राप्त;दितेः--दिति का; सुतः--पुत्र

    करूष के राजा वृद्धशर्मा ने कुन्ती की बहन श्रुतदेवा के साथ विवाह किया और उसके गर्भ सेदन्तवक्र उत्पन्न हुआ।

    सनकादि मुनियों से शापित होने के कारण दन्तवक्र पूर्वजन्म में दिति के पुत्रहिरण्याक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ था।

    कैकेयो धृष्टकेतुश्न श्रुतकीर्तिमविन्दत ।

    सन्तर्दनादयस्तस्यां पञ्ञासन्कैकया: सुता: ॥

    ३८ ॥

    कैकेयः--केकय देश का राजा; धृष्टकेतु:-- धृष्टकेतु ने; च-- भी; श्रुतकीर्तिम्‌ू--कुन्ती की बहन श्रुतकीर्ति को; अविन्दत--ब्याहलिया; सन्तर्दन-आदय:--सन्तर्दन इत्यादि; तस्याम्‌--उससे ( श्रुतकीर्ति से ); पञ्ञ--पाँच; आसन्‌--हुए; कैकया:--केकय के राजाके; सुता:--पुत्र

    केकयराज धृष्टकेतु ने कुन्ती की अन्य बहिन श्रुतकीर्ति के साथ विवाह किया।

    श्रुतकीर्ति केसन्तर्दन इत्यादि पाँच पुत्र उत्पन्न हुए।

    राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोजनिष्ट ह ।

    दमघोषश्चेदिराज: श्रुतअ्रवसमग्रहीत्‌ ॥

    ३९॥

    राजाधिदेव्याम्‌--राजाधिदेवी ( कुन्ती की दूसरी बहन ) से; आवन्त्यौ--दो पुत्र ( विन्द तथा अनुविन्द ); जयसेन:--जयसेन;अजनिष्ट--जन्म दिया; ह-- भूतकाल में; दमघोष:--दमघोष ने; चेदि-राज:--चेदि राज्य का राजा; श्रुतअ्रवसम्‌-- श्रुतअ्रवा को;अग्रहीत्‌--ब्याह लिया।

    कुन्ती की अन्य बहन राजाधिदेवी के गर्भ से जयसेन ने विन्द तथा अनुविन्द नामक दो पुत्रों कोजन्म दिया।

    इसी प्रकार चेदि राज्य के राजा दमघोष ने श्रुतश्रवा से विवाह किया।

    शिशुपाल: सुतस्तस्या: कथितस्तस्य सम्भव: ।

    देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद्बलौ ॥

    ४०॥

    शिशुपाल: --शिशुपाल; सुतः --पुत्र; तस्या:-- श्रुत भ्रवा का; कथित:--पहले ही कहा जा चुका है ( सातवें स्कन्ध में ); तस्य--उसका; सम्भव:--जन्म; देवभागस्य-- वसुदेव के भाई देवभाग से; कंसायाम्‌--उसकी पत्नी कंसा के गर्भ से; चित्रकेतु-चित्रकेतु;बृहद्धनौ-- तथा बृहद्वल।

    श्रुतश्रवा का पुत्र शिशुपाल था जिसके जन्म का वर्णन पहले ही ( श्रीमद्भागवत के सातवेंस्कन्ध में ) किया जा चुका है।

    वसुदेव के भाई देवभाग की पली कंसा ने दो पुत्रों को जन्म दियाजिनके नाम थे चित्रकेतु तथा बृहद्वल।

    कंसवत्यां देवश्रवस: सुवीर इषुमांस्तथा ।

    बकः कह्जात्तु कड्ढायां सत्यजित्पुरुजित्तथा ॥

    ४१॥

    कंसवत्याम्‌-कंसवती के गर्भ में; देवभ्रवसः --वसुदेव के भाई देवश्रवा ने; सुवीर:--सुवीर; इषुमान्‌--इषुमान; तथा-- और;बकः--बक; कड्ढात्‌ू-कंक से; तु--निस्सन्देह; कल्ढलायाम्‌-कंका से; सत्यजित्‌ू--सत्यजित; पुरुजितू--पुरुजित; तथा--और।

    बसुदेव के भाई देवश्रवा ने कंसावती से विवाह किया जिसने सुवीर तथा इषुमान दो पुत्रों कोजन्म दिया।

    कंक को अपनी पत्नी कंका से तीन पुत्र प्राप्त हुए जिनके नाम थे बक, सत्यजित तथा पुरुजित।

    सृज्ञयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्‌ ।

    हरिकेशहिर ण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामक: ॥

    ४२॥

    सृश्ञय:--सूंजय ने; राष्ट्रपाल्याम्‌--राष्ट्रपालिका नामक पत्नी से; च--तथा; वृष-दुर्मषण-आदिकान्‌--वृष, दुर्मर्षण इत्यादि को उत्पन्नकिया; हरिकेश--हरिकेश; हिरण्याक्षौ --तथा हिरण्याक्ष; शूरभूम्यामू--शूरभूमि के गर्भ से; च--तथा; श्यामक:--राजा श्यामक ने |

    राजा सृज्ञय के उसकी पतली राष्ट्रपालिका से वृष, दुर्मर्षण इत्यादि पुत्र हुए।

    राजा श्यामक केउसकी पतली शूरभूमि से दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम थे हरिकेश तथा हिरण्याक्ष।

    मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन्वत्सकस्तथा ।

    तक्षपुष्करशालादीन्दुर्वाक्ष्यां वक आदधे ॥

    ४३॥

    मिश्रकेश्याम्‌-मिश्रकेशी के गर्भ से; अप्सससि--जो अप्सरा थी; वृक-आदीन्‌ू--वृक तथा अन्य पुत्र; बत्सक:--वत्सक; तथा--और; तक्ष-पुष्कर-शाल-आदीनू--तक्ष, पुष्कर, शाल इत्यादि पुत्र; दुर्वाक्ष्याम्‌--दुर्वाक्षी के गर्भ से; वृक:--वृक ने; आदधे--उत्पन्नकिया।

    तत्पश्चात्‌ राजा वत्सक की पत्नी मिश्रकेशी नाम की अप्सरा से वृक इत्यादि पुत्र उत्पन्न हुए।

    वृककी पतली दुर्वाक्षी ने तक्षक, पुष्कर, शाल इत्यादि पुत्रों को जन्म दिया।

    सुमित्रार्जुनपालादीन्समीकात्तु सुदामनी ।

    आनक: कर्णिकायां वै ऋतधामाजयावपषि ॥

    ४४॥

    सुमित्र--सुमित्र; अर्जुपाल--अर्जुनपाल; आदीनू--इत्यादि; समीकात्‌--समीक राजा से; तु--निस्सन्देह; सुदामनी--सुदामनी केगर्भ से; आनकः--आनक; कर्णिकायाम्‌--कर्णिका के गर्भ से; वै--निस्सन्देह; ऋतधामा--ऋतधामा; जयौ--तथा जय; अपि--निस्सन्देह

    समीक की पत्नी सुदामिनी ने अपने गर्भ से सुमित्र, अर्जुनपाल तथा अन्य पुत्रों को जन्म दिया।

    राजा आनक ने अपनी पत्नी कर्णिका के गर्भ से ऋतधामा तथा जय नामक दो पुत्र उत्पन्न किये।

    पौरवी रोहिणी भद्गा मदिरा रोचना इला ।

    देवकीप्रमुखाश्रासन्पत्य आनकदुन्दुभे: ॥

    ४५॥

    पौरबवी--पौरवी; रोहिणी --रोहिणी; भद्रा-- भद्रा; मदिरा--मदिरा; रोचना--रोचना; इला--इला; देवकी--देवकी; प्रमुखा:--प्रधान;च--तथा; आसनू--थीं; पल्य:--पत्नियाँ; आनकदुन्दुभे:--आनकदुन्दुभि अर्थात्‌ बसुदेव की ।

    देवकी, पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला इत्यादि आनकदुन्दुभि ( बसुदेव ) कीपत्नियाँ थीं।

    इनमें देवकी प्रमुख थी।

    बलं गदं सारणं च दुर्मदं विपुलं श्रुवम्‌ ।

    वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत्‌ ॥

    ४६॥

    बलम्‌--बल को; गदम्‌--गद को; सारणम्‌--सारण को; च--भी; दुर्मदम्‌-दुर्मद को; विपुलम्‌--विपुल को; श्रुवम्‌--श्वुव को;बसुदेव:--वसुदेव ( कृष्ण के पिता ) ने; तु--निस्सन्देह; रोहिण्याम्‌-रोहिणी के गर्भ से; कृत-आदीन्‌--कृत आदि पुत्रों को;उदपादयत्‌--उत्पन्न किया।

    बसुदेव ने अपनी पत्नी रोहिणी के गर्भ से बल, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव, कृत तथा अन्यपुत्रों को उत्पन्न किया।

    सुभद्रो भद्गबाहुश्न दुर्मदो भद्र एबच ।

    पौरव्यास्तनया होते भूताद्या द्वादशाभवन्‌ ॥

    ४७॥

    नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजा: ।

    कौशल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्‌ ॥

    ४८॥

    सुभद्र:--सुभद्ग; भद्रबाहु:-- भद्बाहु; च--तथा; दुर्मदः--दुर्मद; भद्र:--भद्र; एब--निस्सन्देह; च-- भी; पौरव्या: --पौरवी नामकपतली के; तनया: --पुत्र; हि--निस्सन्देह; एते--ये सभी; भूत-आद्या: -- भूत इत्यादि; द्वादश--बारह; अभवनू--उत्पन्न हुए; नन्द-उपनन्द-कृतक-शूर-आद्या:--नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर इत्यादि; मदिरा-आत्मजा:--मदिरा के पुत्र; कौशल्या--कौशल्या ने;केशिनम्‌--केशी नामक पुत्र को; तु एकम्‌--एकमात्र; असूत--जन्म दिया; कुल-नन्दनम्‌-पुत्र

    कोपौरवी के गर्भ से बारह पुत्र हुए जिनमें भूत, सुभद्र, भद्गबाहु, दुर्मद तथा भद्र के नाम आते हैं।

    मदिरा के गर्भ से ननन्‍्द, उपनन्द, कृतक, शूर इत्यादि पुत्र उत्पन्न हुए।

    कौशल्या ( भद्गा ) ने केवल एकपुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम था केशी।

    रोचनायामतो जाता हस्तहेमाड्दादयः ।

    इलायामुरुवल्कादीन्यदुमुख्यानजीजनत्‌ ॥

    ४९॥

    रोचनायाम्‌--रोचना नाम की दूसरी पत्नी से; अत:ः--तत्पश्चात्‌; जाता:--उत्पन्न हुए; हस्त--हस्त; हेमाड्द--हेमांगद; आदय: --इत्यादि; इलायाम्‌--इला नामक दूसरी पली से; उरुवल्क-आदीन्‌--उरुवल्क इत्यादि; यदु-मुख्यान्‌ू--यदुवंश के मुख्य पुरुषों को;अजीजनतू--जन्म दिया।

    बसुदेव ने रोचना नामक पत्नी से हस्त, हेमांगद इत्यादि पुत्रों को उत्पन्न किया और इला नामकपत्नी से उरुवल्क इत्यादि पुत्रों को उत्पन्न किया जो यदुवंश के प्रधान पुरुष थे।

    विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुन्दुभे: ।

    शान्तिदेवात्मजा राजन्प्रशमप्रसितादय: ॥

    ५०॥

    विपृष्ठ:--विपृष्ठ; धृतदेवायाम्‌--धृतदेवा नामक पली के गर्भ से; एक:--एक पुत्र; आनकदुन्दुभेः --आनकदुन्दुभि अर्थात्‌ बसुदेव के;शान्तिदेवा-आत्मजा:--दूसरी पत्नी शान्तिदेवा के पुत्र; राजनू--हे राजा परीक्षित; प्रशम-प्रसित-आदय: --प्रशम, प्रसित इत्या

    दिधृतदेवा पत्नी के गर्भ से आनकदुन्दुभि ( वसुदेव ) को विपृष्ठ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।

    वसुदेवकी दूसरी पत्नी शान्तिदेवा के गर्भ से प्रशम, प्रसित इत्यादि पुत्रों ने जन्म लिया।

    राजन्यकल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश ।

    वसुहंससुवंशाद्या: श्रीदेवायास्तु घट्सुता: ॥

    ५१॥

    राजन्य--राजन्य; कल्प--कल्प; वर्ष-आद्या: --वर्ष इत्यादि; उपदेवा-सुता:--वसुदेव की दूसरी पत्नी उपदेवा के पुत्र; दश--दस;बसु--वसु; हंस--हंस; सुवंश-- सुवंश; आद्या:--इत्यादि; श्रीदेवाया: -- श्रीदेवा के; तु--लेकिन; षट्‌ू--छ; सुताः --पुत्र |

    बसुदेव के उपदेवा नामक पत्नी थी जिससे राजन्य, कल्प, वर्ष इत्यादि दस पुत्र उत्पन्न हुए।

    अन्यपली श्रीदेवा से वसु, हंस, सुवंश इत्यादि छः पुत्र जन्मे।

    देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः ।

    बसुदेव: सुतानष्टावादधे सहदेवया ॥

    ५२॥

    देवरक्षितबा--देवरक्षिता नामक पत्नी से; लब्धा:--प्राप्त किया; नव--नौ; च-- भी; अत्र--यहाँ; गदा-आदय: --गदा इत्यादि;बसुदेव:--श्रील बसुदेव ने; सुतान्‌--पुत्रों को; अष्टौ--आठ; आदधे--उत्पन्न किया; सहदेवया--सहदेवा नामक पत्नी से |

    बसुदेव के वीर्य एवं देवरक्षिता के गर्भ से नौ पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें गदा प्रमुख था।

    साक्षात्‌धर्मस्वरूप वसुदेव की अन्य पत्नी सहदेवा के गर्भ से श्रुत, प्रवर इत्यादि आठ पुत्र उत्पन्न हुए।

    प्रवरश्रुतमुख्यां श्व॒ साक्षाद्ध्मों वसूनिव ।

    वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत्‌ ॥

    ५३॥

    कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्रसेनमुदारधी: ।

    ऋलजुं सम्मर्दनं भद्गं सड्डर्षणमही श्वरम्‌ ॥

    ५४॥

    अष्टमस्तु तयोरासीत्स्वयमेव हरि: किल ।

    सुभद्रा च महाभागा तव राजन्पितामही ॥

    ५५ ॥

    प्रवर--प्रवर या पौवर; श्रुत-- श्रुत; मुख्यान्‌-- प्रमुख, इत्यादि; च--तथा; साक्षात्‌--साक्षात्‌; धर्म:--धर्म रूप; बसून्‌ इब--स्वर्गलोक के प्रमुख बसुओं की तरह; वसुदेव:--कृष्ण के पिता वसुदेव ने; तु--निस्सन्देह; देवक्याम्‌-देवकी के गर्भ से; अष्ट--आठ;पुत्रानू--पुत्रों को; अजीजनत्‌--उत्पन्न किया; कीर्तिमन्तम्‌-कीर्तिमान को; सुषेणम्‌ च--तथा सुषेण को; भद्गसेनम्‌-- भद्गसेन को;उदार-धी:--सभी योग्य; ऋजुम्‌--ऋजु को; सम्मर्दनम्‌--सम्मर्दन को; भद्रम्‌-- भद्गर को; सड्डूर्षणम्‌--संकर्षण को; अहि-ई श्वरमू--परम नियन्ता एवं नाग के अवतार; अष्टम: --आठवाँ; तु--लेकिन; तयो:--दोनों के ( देवकी तथा वसुदेव के ); आसीत्‌--प्रकट हुए;स्वयम्‌ एब--साक्षात्‌; हरिः-- भगवान्‌; किल--क्या कहा जाय; सुभद्रा--सुभद्रा बहिन; च--तथा; महा भागा--सौभाग्यशालिनी;तब--तुम्हारी; राजनू--हे महाराज परीक्षित; पितामही--दादी |

    सहदेवा से उत्पन्न प्रवर और श्रुत इत्यादि आठों पुत्र स्वर्ग के आठों बसुओं के हूबहू अवतार थे।

    बसुदेव ने देवकी के गर्भ से भी आठ योग्य पुत्र उत्पन्न किये।

    इनमें कीर्तिमान, सुषेण, भद्गसेन, ऋजु,सम्मर्दन, भद्र तथा शेषावतार संकर्षण सम्मिलित हैं।

    आठवें पुत्र साक्षात्‌ भगवान्‌ कृष्ण थे।

    परमसौभाग्यवती सुभद्रा एकमात्र कन्या तुम्हारी दादी थी।

    यदा यदा हि धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्व॒ पाप्मन: ।

    तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरि: ॥

    ५६॥

    यदा--जब; यदा--जब; हि--निस्सन्देह; धर्मस्य--धधर्म की; क्षय:--हानि; वृद्द्धिः--बढ़ोतरी; च--तथा; पाप्मन:--पापकृत्यों की;तदा--तब; तु--निस्सन्देह; भगवान्‌-- भगवान्‌; ईश:ः--परम नियन्ता; आत्मानम्‌--साक्षात्‌, स्वयं; सृजते--अवतरित होते हैं; हरि: --भगवान्‌ हरि

    जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्ध्धि होती है तब तब परम नियन्ता भगवान्‌ श्रीहरि स्वेच्छा से प्रकट होते हैं।

    न हास्य जन्मनो हेतु: कर्मणो वा महीपते ।

    आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्रष्टरात्मन: ॥

    ५७॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अस्य--उनका ( भगवान्‌ का ); जन्मन:--जन्म लेना; हेतु:--कोई कारण है; कर्मण:--या कर्म करने का;वा--अथवा; महीपते--हे राजा ( परीक्षित ); आत्म-मायाम्‌--पतितात्माओं के लिए उनका परम अनुग्रह; विना--बिना, रहित;ईशस्थ--परम नियन्ता का; परस्य-- भगवान्‌ का, जो भौतिक संसार से परे है; द्रष्ट:--परमात्मा का, जो हर एक के कर्मों के साक्षी हैं;आत्मन:--हर एक के परमात्मा का।

    हे महाराज परीक्षित, भगवान्‌ के प्राकट्य, तिरोधान या कर्मो का एकमात्र कारण उनकी निजीइच्छा है, कोई अन्य कारण नहीं है।

    परमात्मा रूप में वे सर्वज्ञ हैं फलस्वरूप ऐसा कोई कारण नहींजो उन्हें प्रभावित करता हो, यहाँ तक कि सकाम कर्मों के फल भी नहीं।

    यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि ।

    अनुग्रहस्तत्निवृत्तेरात्मला भाय चेष्यते ॥

    ५८॥

    यत्‌--जो भी; माया-चेष्टितम्‌-- भगवान्‌ द्वारा बनाये गये प्रकृति के नियम; पुंसः--जीवों की; स्थिति--जीवन अवधि; उत्पत्ति--जन्म;अप्ययाय--संहार के लिए; हि--निस्सन्देह; अनुग्रह:--कृपा; तत्‌ू-निवृत्ते: --जन्म-पमृत्यु के चक्र को रोकने के लिए विराट शक्ति कीसृष्टि तथा प्राकट्य; आत्म-लाभाय--भगवद्धाम जाने के लिए; च--निस्सन्देह; इष्यते--इसी उद्देश्य से सृष्टि हुई है

    भगवान्‌ अपनी माया के माध्यम से इस विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार का कार्य करतेहैं जिससे वे अपनी दया से जीव का उद्धार कर सकें और जीव के जन्म, मृत्यु तथा भौतिक जीवनकी अवधि को रोक सकें।

    इस तरह वे जीव को भगवद्धाम लौटने में सक्षम बनाते हैं।

    अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैनपलाउ्छनै: ।

    भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यम: ॥

    ५९॥

    अक्षौहिणीनाम्‌--महान्‌ सैन्य शक्ति से युक्त राजाओं की; पतिभि:--ऐसे राजाओं या सरकार के द्वारा; असुरैः--असुर ( उन्हें ऐसी सैन्यशक्ति की आवश्यकता नहीं रहती फिर भी वे व्यर्थ में ही सेना रखते हैं ); नृप-लाउ्छनै: --जो राजा बनने योग्य नहीं हैं ( यद्यपि उन्होंनेकिसी तरह सरकार हथिया रखी है ); भुवः--पृथ्वी पर; आक्रम्यमाणाया:--एक दूसरे पर आक्रमण करने का लक्ष्य बनाकर;अभाराय-- पृथ्वी से असुरों की संख्या कम करने का मार्ग प्रशस्त करते हुए; कृत-उद्यम:--उत्साही ( वे सैन्य शक्ति बढ़ाने में ही सारीपूँजी व्यय कर देते हैं )॥

    यद्यपि सरकार हथियाने वाले असुरगण सरकारी व्यक्तियों का वेश बनाये रहते हैं, किन्तु उन्हेंसरकार के कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता।

    फलस्वरूप ईश्वर की व्यवस्था से ऐसे महान्‌ सैन्यशक्तिसम्पन्न असुर एक दूसरे से लड़ते-भिड़ते हैं और इस तरह पृथ्वी की सतह से असुरों का महान्‌भार घटता है।

    ये असुर भगवान्‌ की इच्छा से अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाते हैं जिससे उनकी संख्या घटजाए और भक्तों को कृष्णभावनामृत में प्रगति करने का अवसर प्राप्त हो।

    कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरे श्र: ।

    सहसद्डूर्षणश्चक्रे भगवान्मधुसूदन: ॥

    ६०॥

    कर्माणि--कार्यकलाप; अपरिमेयाणि--- असीम; मनसा अपि--यहाँ तक कि मन के भीतर सोची गई योजनाओं से भी; सुर-ईश्वर: --ब्रह्मा तथा शिव जैसे ब्रह्माण्ड के नियन्ताओं द्वारा; सह-सड्डूर्षण: --संकर्षण ( बलदेव ) समेत; चक्रे --सम्पन्न किया; भगवानू--भगवान्‌; मधु-सूदन:--मधु नामक असुर को मारने वाले ने |

    भगवान्‌ कृष्ण ने संकर्षण बलराम के सहयोग से ऐसे कार्यकलाप कर दिखलाये जो ब्रह्माजीतथा शिवजी जैसे पुरुषों की भी समझ के परे हैं ( उदाहरणार्थ कृष्ण ने सारे संसार को राक्षसों सेछुटकारा दिलाने के लिए असुरों का वध करने के लिए कुरुक्षेत्र युद्ध की आयोजना की )।

    कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्‌ ।

    अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद्यश: ॥

    ६१॥

    कलौ--कलियुग में; जनिष्यमाणानाम्‌--ऐसे बद्धजीवों का जो भविष्य में जन्म लेंगे; दुःख-शोक-तमः-नुदम्‌--उनके असीम दुखतथा शोक को कम करने के लिए जो अज्ञान के कारण उत्पन्न हैं; अनुग्रहाय--दया दिखाने के लिए; भक्तानाम्‌ू-भक्तों के प्रति; सु-पुण्यमू-- अत्यन्त पवित्र दिव्य कार्यकलाप; व्यतनोत्‌--विस्तार किया; यश: --महिमा या ख्याति |

    भगवान्‌ ने इस कलियुग में भविष्य में जन्म लेने वाले भक्तों पर अहैतुकी कृपा दर्शाने के लिएइस तरह से कार्य किया कि मात्र उनका स्मरण करने से मनुष्य संसार के सारे शोक-संताप से मुक्त होजायेगा।

    ( दूसरे शब्दों में, उन्होंने इस तरह कार्य किया जिससे सारे भावी भक्तजन भगवदगीता मेंकथित कृष्णभावनामृत के उपदेशों को ग्रहण करके संसार के कष्टों से छुटकारा पा सकें )।

    यस्मिन्सत्कर्णपीयुषे यशस्तीर्थवरे सकृत्‌ ।

    श्रोत्राज्अलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम्‌ ॥

    ६२॥

    यस्मिन्‌ू--धरा पर कृष्ण के दिव्य कार्यकलापों के इतिहास में; सत्‌-कर्ण-पीयुषे--जो दिव्य एवं शुद्ध कानों की आवश्यकताओं कोपूरा करता है; यशः-तीर्थ-वरे-- भगवान्‌ के दिव्य कार्यकलापों का श्रवण करके पवित्र स्थानों में रखते हुए; सकृत्‌ू--एक बार ही,तुरन्त; श्रोत्र-अद्जलि: --दिव्य संदेश का श्रवण करते हुए; उपस्पृश्य--स्पर्श करके ( जिस तरह गंगाजल को ); धुनुते--नष्ट कर देताहै; कर्म-वासनाम्‌--सकाम कर्मों के लिए प्रबल इच्छा को |

    शुद्ध हुए दिव्य कानों से भगवान्‌ के यश को ग्रहण करने मात्र से भक्तगण प्रबल भौतिकइच्छाओं एवं सकाम कर्मो की व्यस्तता से तुरन्त ही मुक्त हो जाते हैं।

    भोजवृष्ण्यन्धकमधुशूरसेनदशा्कै: ।

    एलाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृझ्यपाण्डुभि: ॥

    ६३॥

    स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यर्विक्रमलीलया ।

    नूलोक॑ रमयामास मूर्त्या सर्वाड्ररम्यया ॥

    ६४॥

    भोज--भोज; वृष्णि--तथा वृष्णि वंश द्वारा; अन्धक--तथा अन्थकों द्वारा; मधु--तथा मधुवंशियों द्वारा; शूरसेन--तथा शूरसेनोंद्वारा; दशाईकै:--तथा दशार्ईकों द्वारा; शलाघनीय-- प्रशंसनीय; ईहित: -- प्रयास करते हुए; शश्वत्‌--सदैव; कुरु-सूझ्य-पाण्डुभि:--पांडवों, कौरवों तथा सृज्ञयों की सहायता से; स्निग्ध--स्नेहिल; स्मित--हँसी; ईक्षित--माने जाने वाले; उदारैः--उदार; वाक्यै: --बचनों द्वारा; विक्रम-लीलया--वीरतापूर्ण लीलाऐ; नृू-लोकम्‌--मानव समाज को; रमयाम्‌ आस--प्रसन्न किया; मूर्त्या--अपनेसाकार रूप से; सर्व-अड्ग-रम्यया--ऐसा स्वरूप जो अपने सारे शारीरिक अंगों से हर एक को प्रमुदित करता है।

    भगवान्‌ कृष्ण ने भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशाह, कुरु, सृज्ञय तथा पाण्डु केबंशजों की सहायता से विविध कार्यकलाप सम्पन्न किये।

    अपनी मोहक मुस्कान, अपने स्नेहिलआचरण, अपने उपदेशों और गोवर्धन पर्वत धारण करने जैसी अलौकिक लीलाओं के द्वारा भगवान्‌ने अपने दिव्य शरीर में प्रकट होकर सारे मानव समाज को प्रमुदित किया।

    यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण-भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम्‌ ।

    नित्योत्सवं न ततृपुर्टशिभि: पिबन्त्योनार्यो नराश्न मुदिता: कुपिता निमेश्च ॥

    ६५॥

    यस्य--जिसके; आननम्‌--मुखमंडल; मकर-कुण्डल-चारू-कर्ण--मगर जैसे कुण्डलों से आभूषित तथा सुन्दर कानों से; भ्राजत्‌ू--चमचमाते हुए; कपोल--मस्तक; सुभगम्‌--सारे ऐ श्वर्य की घोषणा करने वाले; स-विलास-हासम्‌-- भोग की हँसी से युक्त; नित्य-उत्सवम्‌--जब भी कोई उन्हें देखता है उत्सव जैसा अनुभव होता है; न ततृपु:--सन्तुष्ट नहीं हुआ; इशिभि:-- भगवान्‌ के स्वरूप कोदेखकर; पिबन्त्यः--आँखों से मानो पी रही हों; नार्य: --वृन्दावन की सारी स्त्रियाँ; नराः--सारे पुरुष भक्त; च-- भी; मुदिता:--पूर्णतया सन्तुष्ट; कुपिता:--क्रुद्ध; निमेः--आँखे झपकने के कारण होनेवाले व्यवधान से; च--भी |

    कृष्ण का मुखमण्डल मकराकृति के कुण्डलों से सुसज्जित है।

    उनके कान सुन्दर हैं, उनके गालचमकीले हैं और उनकी हँसी हर एक को आकृष्ट करने वाली है।

    जो भी कृष्ण का दर्शन करता हैमानो उत्सव देख रहा हो।

    उनका मुख तथा शरीर देखने में हर एक को पूर्णतया तुष्ट करनेवाले हैंलेकिन भक्तगण स्रष्टा से क्रुद्ध हैं कि उन्होंने भक्तोंकी आँखों के झपकने में व्यवधान उत्पन्न कर दियाहै।

    जातो गतः पितृगृहादव्रजमेधितार्थोंहत्वा रिपून्सुतशतानि कृतोरुदार: ।

    उत्पाद्य तेषु पुरुष: क्रतुभि: समीजेआत्मानमात्मनिगमं प्रथयज्ञनेषु ॥

    ६६॥

    जातः--वसुदेव के पुत्र रूप में जन्म लेकर; गत:--चला गया; पितृ-गृहात्‌--अपने पिता के घर से; ब्रजम्‌--वृन्दावन को; एधित-अर्थ:--वृन्दावन के पद को ऊँचा बनाने; हत्वा--मारकर; रिपूनू--अनेक असुरों को; सुत-शतानि--सैकड़ों पुत्र; कृत-उरुदार:--हजारों श्रेष्ठ स्त्रियों को पत्नी रूप में स्वीकार करके; उत्पाद्य--उत्पन्न किया; तेषु--उनमें; पुरुष: --परम पुरुष, जो मनुष्य के समान है;क्रतुभि:ः--अनेक यज्ञों द्वारा; समीजे--पूजा की; आत्मानम्‌--अपनी ( क्योंकि सभी यज्ञों में उन्हीं की पूजा की जाती है ); आत्म-निगमम्‌--वेदों के अनुष्ठानों के अनुसार; प्रथयन्‌--वैदिक नियमों का विस्तार करते हुए; जनेषु--जनता में |

    भगवान्‌ कृष्ण लीला पुरुषोत्तम कहलाते हैं।

    वे वसुदेव के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, किन्तु तुरन्त हीअपने पिता का घर छोड़कर अपने विश्वासपात्र भक्तों के साथ प्रेम व्यवहार बढ़ाने के लिए वृन्दावनचले गये।

    वृन्दावन में उन्होंने अनेक असुरों का वध किया और फिर द्वारका लौट गये जहाँ उन्होंनेवैदिक नियमों के अनुसार अनेक श्रेष्ठतम स्त्रियों के साथ विवाह किये, उनसे सैकड़ों पुत्र उत्पन्न कियेऔर गृहस्थ जीवन के सिद्धान्तों को स्थापित करने के लिए अपनी ही पूजा के लिए अनेक यज्ञ सम्पन्नकिये।

    पृथ्व्या: स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणा-मन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्व: ।

    इष्ट्या विधूय विजये जयमुद्रिघोष्यप्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ॥

    ६७॥

    पृथ्व्या:--पृथ्वी पर; सः--वह ( कृष्ण ); बै--निस्सन्देह; गुरु-भरम्‌--बहुत बड़ा भार; क्षपयन्‌--पूरी तरह हटाने में; कुरूणाम्‌--कुरुवंशियों का; अन्तः-समुत्थ-कलिना-- भाइयों में मनमुटाव द्वारा शत्रुता उत्पन्न करके; युधि--कुरुक्षेत्र के युद्ध में; भूप-चम्बः--सारे असुर राजा; दृष्टया--अपने दृष्टिपात से; विधूय--उनके पापकर्मो को शुद्ध करके ; विजये--विजय में; जयम्‌--विजय;उद्विघोष्य--घोषणा करके ( अर्जुन की विजय ); प्रोच्य--उपदेश देकर; उद्धवाय--उद्धव को; च-- भी; परम्‌--दिव्य; समगात्‌--वापस गया; स्व-धाम--अपने धाम को |

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने संसार का भार कम करने के लिए पारिवारिक सदस्यों के बीचमनमुटाव उत्पन्न किया।

    उन्होंने अपनी चितवन मात्र से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में सारे आसुरी राजाओंका संहार कर दिया और अर्जुन को विजयी घोषित किया।

    अन्त में वे उद्धव को दिव्य जीवन तथाभक्ति के विषय में उपदेश देकर अपने आदि रूप में अपने धाम को वापस चले गये।

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