श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 8
अध्याय एक: मनु, ब्रह्मांड के प्रशासक
8.1श्रीराजोबाचस्वायम्भुवस्येह गुरो वंशोयं विस्तराच्छुत: ।यत्र विश्वसूजां सर्गो मनूनन्यान्वदस्व न: ॥ १॥
श्री-राजा उबाच--राजा ( महाराज परीक्षित ) ने कहा; स्वायम्भुवस्य--महापुरुष स्वायंभुव मनु का; इह--इस सम्बन्ध में;गुरो--हे गुरु; वंशः--वंश; अयम्--यह; विस्तरात्--विस्तार से; श्रुतः--मैंने ( आपसे ) सुना; यत्र--जिसमें; विश्व-सूजाम्--प्रजापति नामक महापुरुषों का, यथा मरीचि इत्यादि का; सर्ग:--सृष्टि, जिसमें मनु की पुत्रियों से अनेक पुत्र तथा पौत्र उत्पन्न हुए;मनूनू--मनुओं को; अन्यान्-- अन्य; वदस्व--कृपया वर्णन करें; नः--हम से |
राजा परीक्षित ने कहा : हे स्वामी! हे गुरु! अभी मैंने आपके मुख से स्वायंभुव मनु के वंशके विषय में भलीभाँति सुना |
किन्तु अन्य मनु भी तो हैं; अतएव मैं उनके वंशों के विषय मेंसुनना चाहता हूँ |
कृपा करके उनका वर्णन करें |
मन्वन्तरे हरेर्जन्म कर्माणि च महीयसः |
गृणन्ति कवयो ब्रह्मंस्तानि नो वद श्रृण्वताम् ॥
२॥
मन्वन्तरे--मन्वन्तरों के परिवर्तन के समय ( एक मनु से दूसरा मनु बनने का अन्तराल ); हरे: -- भगवान् का; जन्म--प्राकट्य;कर्माणि--तथा कर्म; च-- भी; महीयसः--अत्यन्त यशस्वी का; गृणन्ति--वर्णन करते हैं; कवयः--विद्वान पुरुष जिन्हें पूर्णबुद्धि है; ब्रह्मनू--हे विद्वान ब्राह्मण ( शुकदेव गोस्वामी ); तानि--उन सबों को; नः--हमसे; वद--कहिये; श्रृण्वताम्--सुननेके इच्छुक
हे विद्वान ब्राह्मण शुकदेव गोस्वामी! बड़े-बड़े विद्वान पुरुष, जो नितान्त बुद्धिमान् हैं,विभिन्न मन्वन्तरों में भगवान् के कार्यकलापों का तथा उनके प्राकट्य का वर्णन करते हैं |
हम इनवर्णनों को सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं |
कृपया उनका वर्णन करें |
यद्यस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन्भगवान्विश्वभावन: |
कृतवान्कुरुते कर्ता ह्मतीतेडनागतेडद्य वा ॥
३॥
यत्--जो भी कार्यकलाप; यस्मिन्ू--किसी विशेष युग में; अन्तरे--मन्वन्तर में; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; भगवान्-- भगवान्; विश्व-भावन:--इस दृश्य जगत को उत्पन्न करने वाला; कृतवान्--किया गया; कुरुते--कर रहा है; कर्ता--तथा करेगा; हि--निस्सन्देह; अतीते-- भूतकाल में; अनागते-- भविष्य में; अद्य--वर्तमान में; बा--अथवा
हे विद्वान ब्राह्मण! कृपा करके इस दृश्य जगत को उत्पन्न करने वाले भगवान् के उन सारेकार्यकलापों का वर्णन हमसे करें जिन्हें उन्होंने विगत मन्वन्तरों में सम्पन्न किया, जो वे वर्तमानमें सम्पन्न कर रहे हैं तथा जो वे भावी मन्वन्तरों में सम्पन्न करेंगे |
मनवोउस्मिन्व्यतीता: षघट्कल्पे स्वायम्भुवादयः |
आहास्ते कथितो यत्र देवादीनां च सम्भव: ॥
४॥
श्री-ऋषि: उबाच--महान् ऋषि शुकदेव गोस्वामी ने कहा; मनवः--मनु; अस्मिन्--इस अवधि ( ब्रह्मा के एक दिन ) में;व्यतीता:--बीता हुआ; षघट्ू--छः:; कल्पे--ब्रह्मा के एक दिन में; स्वायम्भुव--स्वायंभुव मनु; आदय: --इत्यादि; आद्य:--प्रथम( स्वायंभुव ); ते--तुमसे; कथित: --पहले कहा जा चुका; यत्र--जिसमें; देव-आदीनाम्--समस्त देवताओं का; च--भी;सम्भव:ः--प्राकट्यू, जन्म |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : वर्तमान कल्प में छह मनु हो चुके हैं |
मैं तुमसे स्वायंभुव मनुतथा अनेक देवताओं के प्राकट्य के विषय में वर्णन कर चुका हूँ |
ब्रह्म के इस कल्प मेंस्वायंभुव प्रथम मनु हैं |
आकूृत्ां देवहूत्यां च दुह्ित्रोस्तस्य वै मनोः |
धर्मज्ञानोपदेशार्थ भगवान्पुत्रतां गत: ॥
५॥
आकृत्यामू--आकृति के गर्भ से; देवहूत्याम् च--तथा देवहूति के गर्भ से; दुहित्रो:--दोनों पुत्रियों के; तस्थ--उसकी; बै--निस्सन्देह; मनो:--स्वायंभुव मनु की; धर्म--धर्म; ज्ञान--तथा ज्ञान; उपदेश-अर्थम्--उपदेश देने के लिए; भगवान्--भगवान्ने; पुत्रतामू--आकूति तथा देवहूति का पुत्रत्व; गतः--स्वीकार किया |
स्वायंभुव मनु के दो पुत्रियाँ थीं--आकूति तथा देवहूति |
उनके गर्भ से भगवान् दो पुत्रों केरूप में प्रकट हुए जिनके नाम क्रमश: यज्ञमूर्ति तथा कपिल थे |
इन पुत्रों को धर्म तथा ज्ञान काउपदेश देने का कार्यभार सौंपा गया |
कृतं पुरा भगवतः कपिलस्यथानुवर्णितम् |
आख्यास्ये भगवान्यज्ञो यच्चकार कुरूद्रह ॥
६॥
कृतम्ू--पहले ही किया गया; पुरा--पहले; भगवत:-- भगवान्; कपिलस्य--देवहूति के पुत्र कपिल का; अनुवर्णितम्--पूर्णतया वर्णन हो चुका है; आख्यास्ये--अब मैं वर्णन करूँगा; भगवान्ू-- भगवान्; यज्ञ:--यज्ञपति या यज्ञमूर्ति का; यत्--जो;चकार--सम्पन्न किया; कुरु-उद्दद-हे कुरु श्रेष्ठ |
हे कुरुश्रेष्ठ! मैं पहले ही ( तृतीय स्कन्ध में ) देवहूति के पुत्र कपिल के कार्यकलापों कावर्णन कर चुका हूँ |
अब मैं आकृति के पुत्र यज्ञपति के कार्यकलापों का वर्णन करूँगा |
विरक्त: कामभोगेषु शतरूपापतिः प्रभु: |
विसृज्य राज्यं तपसे सभारयों वनमाविशत् ॥
७॥
विरक्त:--अनासक्त; काम-भोगेषु--इन्द्रियतृप्ति में ( गृहस्थ जीवन में ); शतरूपा-पतिः--शतरूपा के पति, स्वायंभुव मनु;प्रभु:--जो विश्व के स्वामी या राजा थे; विसृज्य--पूर्णतः त्यागकर; राज्यम्ू-- अपने राज्य को; तपसे--तपस्या करने के लिए;स-भार्य:--अपनी पतली सहित; वनम्--जंगल में; आविशत्ू--प्रवेश किया
शतरूपा के पति स्वायंभुव मनु स्वभाव से इन्द्रियभोग के प्रति तनिक भी आसक्त नहीं थे |
अतएबव उन्होंने अपने विलासमय राज्य को त्याग दिया और अपनी पत्नी सहित तपस्या करने केलिए जंगल में चले गये |
सुनन्दायां वर्षशतं पदैकेन भुव॑ं स्पृशन् |
तप्यमानस्तपो घोरमिदमन्वाह भारत ॥
८॥
सुनन्दायाम्--सुनन्दा नदी के तट पर; वर्ष-शतम्--एक सौ वर्षो तक; पद-एकेन--एक पाँव पर; भुवम्--पृथ्वी को; स्पृशन्--छुऐ हुए; तप्यमान: --तपस्या की; तप:ः--तपस्या; घोरम्--अत्यन्त कठिन; इदम्--निम्नलिखित, यह; अन्वाह--कहा; भारत--हे भरतवंशी हे भरतवंशी ! स्वायंभुव मनु अपनी पत्नी समेत जंगल में प्रविष्ट होने के बाद सुनन्दा नदी केतट पर एक पाँव पर खड़े रहे |
इस प्रकार केवल एक पाँव से पृथ्वी का स्पर्श करते हुए उन्होंनेएक सौ वर्षो तक महान् तपस्या की |
तपस्या करते समय वे इस प्रकार बोले |
श्रीमनुरुवाचयेन चेतयते विश्व॑ं विश्व चेतयते न यम् |
यो जागर्ति शयानेउस्मिन्नायं तं वेद वेद सः ॥
९॥
श्री-मनु; उवाच--स्वायंभुव मनु ने उच्चारण किया; येन--जिससे ( भगवान् से ); चेतयते--चेतन हो जाता है; विश्वम्--साराब्रह्माण्ड; विश्वम्--सारा ब्रह्माण्ड ( भौतिक जगत ); चेतयते--चेतन होता है; न--नहीं; यम्--जिसको; य:ः--वह जो;जागर्ति--सदैव जागता रहता है ( सारे कार्यकलापों का साक्षी बना हुआ ); शयाने--सोते समय; अस्मिनू--इस शरीर में; न--नहीं; अयम्--यह जीव; तम्ू--उसको; वेद--जानता है; वेद--जानता है; सः--वह |
श्री-मनु ने कहा : परम पुरुष ने इस चेतन भौतिक जगत की सृष्टि की है; ऐसा नहीं है किइस भौतिक जगत से उसकी उत्पत्ति हुई हो |
जब सब कुछ मौन रहता है, तो परम पुरुष साक्षीरूप में जगा रहता है |
जीव उसे नहीं जानता, किन्तु वह सब कुछ जानता है |
आत्मावास्यमिदं विश्व यत्किल्विज्जगत्यां जगत् |
तेन त्यक्तेन भुझ्जलीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ॥
१०॥
आत्म--परमात्मा; आवास्यम्--सर्वत्र रहते हुए; इदम्--यह ब्रह्माण्ड; विश्वम्--सारे ब्रह्माण्ड, सारे स्थान; यत्--जो भी;किझ्जित्- प्रत्येक विद्यमान वस्तु; जगत्यामू--संसार में, सर्वत्र; जगत्--हर वस्तु, चर तथा अचर; तेन--उसके द्वारा; त्यक्तेन--नियत; भुझ्लीथा:-- भोग कर सकते हो; मा--मत; गृध:--स्वीकार करो; कस्य स्वित्ू--किसी अन्य का; धनम्-- धन
इस ब्रह्माण्ड में भगवान् परमात्मा रूप में सर्वत्र, जहाँ कहीं भी चर तथा अच्र प्राणी हैं,विद्यमान हैं |
अतएव मनुष्य उतना ही स्वीकार करे जितना उसके लिए नियत है; उसे पराये धन मेंहस्तक्षेप करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए |
यं पश्यति न पश्यन्तं चक्षुर्यस्य न रिष्यति |
त॑ भूतनिलयं देवं सुपर्णमुपधावत ॥
११॥
यम्--जिसको; पश्यति--जीव देखता है; न--नहीं; पश्यन्तम्--सदैव देखते हुए; चक्षुः--आँख; यस्य--जिसकी; न--कभीनहीं; रिष्यति--कम होती है; तम्--उसको; भूत-निलयम्--सारे जीवों का मूल स्त्रोत; देवम्--भगवान् को; सुपर्णम्--जो मित्रके रूप में जीव के साथ-साथ रहता है; उपधावत--हर एक को पूजना चाहिए
यद्यपि भगवान् विश्व के कार्यकलापों को निरन्तर देखते रहते हैं, किन्तु उन्हें कोई नहीं देखपाता |
फिर भी किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि उन्हें कोई नहीं देखता अतएवं वे भीउसे नहीं देखते |
स्मरण रहे कि उनकी देखने की शक्ति में कभी हास नहीं आता अतएव प्रत्येकव्यक्ति को चाहिए कि उन परमात्मा की पूजा करे जो प्रत्येक जीव के साथ मित्र रूप में सदैवरहते हैं |
न यस्याद्यन्तौ मध्यं च स्व: परो नान्तरं बहिः |
विश्वस्थामूनि यद्यस्माद्विश्व॑ं च तहतं महत् ॥
१२॥
न--न तो; यस्य--जिसका ( भगवान् का ); आदि--प्रारम्भ; अन्तौ-- अन्त; मध्यमू--मध्य; च-- भी; स्व:--अपना; पर: --पराया; न--न तो; अन्तरम्-- भीतर; बहि:--बाहर; विश्वस्थ--सम्पूर्ण विश्व का; अमूनि--ऐसा विचार; यत्--जिसका रूप;यस्मात्--उससे, जो हर वस्तु का कारण है; विश्वम्--समग्र ब्रह्माण्ड; च--तथा; तत्--वे सब; ऋतम्--सत्य; महत्--अत्यन्तमहान् |
भगवान् का न तो आदि है, न अन्त और न मध्य |
न ही वे किसी व्यक्ति विशेष या राष्ट्र केहैं |
उनका न भीतर है न बाहर |
इस जगत में दिखने वाले सारे द्वन्द्द--यथा आदि तथा अन्त, मेराऔर उनका--उस परम पुरुष के व्यक्तित्व में अनुपस्थित हैं |
यह ब्रह्माण्ड जो उनसे उदभूत होताहै उनका एक दूसरा स्वरूप है |
अतएवं भगवान् परम सत्य हैं और उनकी महानता पूर्ण है |
स विश्वकाय: पुरुहूतईशःसत्य: स्वयंज्योतिरज: पुराण: |
धत्तेडस्य जन्माद्यजयात्मशक्त्या तां विद्ययोदस्य निरीह आस्ते ॥
१३॥
सः--भगवान्; विश्व-काय:--ब्रह्माण्ड का समग्र रूप ( समग्र ब्रह्माण्ड भगवान् का बाह्म शरीर है ); पुरु-हृतः-- अनेक नामों सेज्ञेय; ईश:ः--परम नियन्ता; सत्य:--परम सत्य; स्वयम्--साक्षात्; ज्योति:--स्वतः तेजवान्; अज:--अजन्मा, अनादि;पुराण:--सबसे प्राचीन; धत्ते--सम्पन्न करता है; अस्य--इस ब्रह्माण्ड का; जन्म-आदि--सृष्टि, पालन तथा संहार; अजया--अपनी बहिरंगा शक्ति से; आत्म-शकत्या--अपनी निजी शक्ति से; ताम्ू--उस बहिरंगा शक्ति को; विद्यया--अपनी आध्यात्मिकशक्ति से; उदस्य--त्यागकर; निरीह:--निष्काम या निष्क्रिय; आस्ते--रह रहा है ( भौतिक शक्ति का स्पर्श किये बिना) |
यह समग्र विश्व परम सत्य भगवान् का शरीर है जिनके लाखों नाम हैं और अनन्त शक्तियाँहैं |
वे आत्मतेजस्वी, अजन्मा तथा परिवर्तनहीन हैं |
वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं, किन्तु स्वयंउनका कोई आदि नहीं है |
चूँकि उन्होंने अपनी बहिरंगा शक्ति से इस विराट रूप की सृष्टि की हैअतएव यह उनके द्वारा उत्पन्न, पालित तथा ध्वंसित प्रतीत होता है |
फिर भी वे अपनीआध्यात्मिक शक्ति में निष्क्रिय रहते हैं और भौतिक शक्ति के कार्यकलाप उनका स्पर्श तक नहींकर पाते |
अथाग्रे ऋषय: कर्माणीहन्तेडकर्महेतवे |
ईहमानो हि पुरुष: प्रायोउनीहां प्रपद्यते ॥
१४॥
अथ--अतएव; अग्रे-- प्रारम्भ में; ऋषय:--सारे विद्वान ऋषियों या सन्त पुरुषों ने; कर्माणि--सकाम कर्म; ईहन्ते--करते हैं;अकर्म--कर्मफल से मुक्ति; हेतबे--के लिए; ईहमान:--ऐसे कार्यो में लगे रहकर; हि--निस्सन्देह; पुरुष:--पुरुष; प्रायः --सदा ही; अनीहाम्--कर्म से मुक्ति; प्रपद्यते--प्राप्त करता है
अतएव लोगों को कर्मों की ऐसी अवस्था तक पहुँचने में समर्थ बनाने के लिए जो सकामफलों से दूषित नहीं होते, बड़े-बड़े साधु पुरुष सर्वप्रथम लोगों को सकाम कर्म में लगाते हैंक्योंकि जब तक कोई शास्त्रानुमोदित कर्मों को सम्पन्न करना आरम्भ नहीं करता तब तक वहमुक्ति की अवस्था को या कर्मफल न उत्पन्न करने वाले कार्यो की अवस्था को प्राप्त नहीं होता |
ईहते भगवानीशो न हि तत्र विसज्ते |
आत्मलाभेन पूर्णार्थो नावसीदन्ति येडनु तम् ॥
१५॥
ईहते--सृजन, पालन तथा संहार के कार्यों में लगता है; भगवानू-- भगवान् कृष्ण; ईश: --परम नियन्ता; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; तत्र--ऐसे कार्यों में; विसजजते--फँस जाता है; आत्म-लाभेन-- अपने लाभ के कारण; पूर्ण-अर्थ:--आत्मतुष्ट; न--नहीं; अवसीदन्ति--निराश होते हैं; ये--जो लोग; अनु--अनुसरण करते हैं; तम्-- भगवान् को |
भगवान् अपने ही लाभ से एऐश्वर्यपूर्ण हैं, फिर भी वे संसार के स्त्रष्टा, पालक तथा संहर्ता केरूप में कार्य करते हैं |
इस प्रकार से कर्म करने पर भी वे कभी बन्धन में नहीं पड़ते |
अतएव जो भक्तगण उनके चरण-चिलह्नों का अनुगमन करते हैं, वे भी कभी बन्धन में नहीं पड़ते |
तमीहमानं निरहड्ड तं बुधनिराशिषं पूर्णमनन्यचोदितम् |
नृज्शिक्षयन्तं निजवर्त्मसंस्थितंप्रभुं प्रपेउखिलधर्मभावनम् ॥
१६॥
तम्--उसी भगवान् को; ईहमानम्ू--हमारे लाभ के लिए कर्म करने वाले; निरहड्डू तम्ू--जो बन्धन अथवा लाभ की इच्छा सेरहित है; बुधम्--ज्ञानवान् को; निराशिषम्--अपने कर्मफल को भोगने की इच्छा न रखने वाले को; पूर्णम्--जो पूर्ण है अतएबजिसे इच्छा पूर्ति की आवश्यकता नहीं है; अनन्य--अन्यों के द्वारा; चोदितम्-- प्रेरित, प्रोत्साहित; नून्ू--सारा मानव समाज;शिक्षयन्तम्--शिक्षा देने के लिए ( जीव के असली पथ की ); निज-वर्त्म--अपनी निजी जीवन शैली; संस्थितम्-- प्रतिष्ठितकरने के लिए ( विचलित हुए बिना ); प्रभुम्-- भगवान् से; प्रपद्ये --प्रार्थना करता हूँ; अखिल-धर्म-भावनम्--जो मनुष्यों केसमस्त धार्मिक सिद्धान्तों अथवा वृत्तिपरक कर्मों के स्वामी हैं |
भगवान् कृष्ण एक सामान्य व्यक्ति की भाँति कर्म करते हैं, फिर भी वे कर्मफल भोगने कीइच्छा नहीं रखते |
वे ज्ञान से पूर्ण, भौतिक इच्छाओं तथा विक्षेपों से मुक्त एवं पूर्णतः स्वतंत्र हैं |
वे मानव समाज के परम शिक्षक के रूप में अपनी ही कर्मशैली का उपदेश देते हैं और इसप्रकार धर्म के असली मार्ग का उद्धाटन करते हैं |
मैं हर व्यक्ति से प्रार्थना करता हूँ कि वह उनकाअनुसरण करे |
श्रीशुक उवाचइति मन्त्रोपनिषदं व्याहरन्तं समाहितम् |
इृष्ठासुरा यातुधाना जग्धुमभ्यद्रवन्क्षुधा ॥
१७॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; मन्त्र-उपनिषदम्--वैदिक मंत्र ( स्वायंभुव मनु द्वाराउच्चारित ); व्याहरन्तम्-सिखाये गये या उच्चारित; समाहितम्--मन को केन्द्रित किया ( भौतिक अवस्थाओं से विश्लुब्ध हुएबिना ); दृष्टा--देखकर; असुरा:-- असुरगण; यातुधाना:--राक्षसगण ; जग्धुमू--निगल जाना चाहा; अभ्यद्रवन्--तेजी से दौतेहुए; क्षुधा--अपनी भूख को शान्त करने के लिए
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार स्वायंभुव मनु उपनिषदों के मंत्रों की जयध्वनिकरते हुए समाधिस्थ हो गये |
उन्हें देखकर राक्षसों तथा असुरगण ने अत्यन्त भूखे होने के कारणउन्हें निगल जाना चाहा |
अतएव वे उनके पीछे द्रुतगति से दौने लगे |
तांस्तथावसितान्वीक्ष्य यज्ञ: सर्वगतो हरि: |
यामै: परिवृतो देवैईत्वाशासत्त्रिविष्टपम् ॥
१८ ॥
तान्ू--असुरों तथा राक्षसों को; तथा--इस प्रकार; अवसितान्--जो स्वायंभुव मनु को निगलने के लिए कृतसंकल्प थे;वीक्ष्य--देखकर; यज्ञ:-- भगवान् विष्णु, जो यज्ञ कहलाते हैं; सर्व-गत:--हर एक के हृदय में स्थित; हरिः-- भगवान्; यामै:--याम नामक अपने पुत्रों के साथ; परिवृत:--घिरा हुआ; देवैः--देवताओं से; हत्वा--( असुरों को ) मारकर; अशासतू--( इन्द्रपदग्रहण करके ) शासन चलाया; त्रि-विष्टपम्--स्वर्ग-लोकों का |
प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान् विष्णु यज्ञपति के रूप में प्रकट हुए और उन्होंनेदेखा कि राक्षस तथा असुर स्वायंभुव मनु को निगल जाने वाले हैं |
इस प्रकार याम नामक अपनेपुत्रों तथा अन्य सभी देवताओं को साथ लेकर भगवान् ने उन असुरों तथा राक्षसों को मार डाला |
तब उन्होंने इन्द्र का पद ग्रहण किया और स्वर्ग लोक पर शासन करने लगे |
स्वारोचिषो द्वितीयस्तु मनुरग्ने: सुतोभवत् |
झुमत्सुषेणरोक्रिष्मत्प्रमुखास्तस्य चात्मजा: ॥
१९॥
स्वारोचिष:--स्वारोचिष; द्वितीय:--दूसरा; तु--निस्सन्देह; मनु;--मनु; अग्ने:--अग्नि का; सुत:ः--पुत्र; अभवत्--बना;झुमत्--छुमत; सुषेण--सुषेण; रोचिष्मत्--रोचिष्मत्; प्रमुखाः --इत्यादि; तस्थ--उसके ( स्वारोचिष के ); च--भी; आत्म-जा:-पुत्रअग्नि का पुत्र स्वारोचिष दूसरा मनु बना |
उसके अनेक पुत्रों में द्युमत्, सुषेण तथा रोचिष्मत्प्रमुख थे |
तत्रेन्द्रो रोचनस्त्वासीद्देवाश्व तुषितादय: |
ऊर्जस्तम्भादयः सप्त ऋषयो ब्रह्मगादिन: ॥
२०॥
तत्र--इस मन्वन्तर में; इन्द्र: --इन्द्र; रोचन:--रोचन, यज्ञ का पुत्र; तु--लेकिन; आसीत्--हुआ; देवा:--देवता; च-- भी;तुषित-आदय: --तुषित तथा अन्य; ऊर्ज--ऊर्ज; स्तम्भ--स्तम्भ; आदय: --तथा अन्य; सप्त--सात; ऋषय: --ऋषिगण; ब्रह्म-वादिन:--सभी निष्ठावान् भक्तस्वारोचिष के शासनकाल में इन्द्र का पद यज्ञपुत्र रोचन ने ग्रहण किया |
तुषित तथा अन्य लोग प्रधान देवता बने और ऊर्ज, स्तम्भ इत्यादि सप्तर्षि हुए |
ये सभी भगवान् के निष्ठावान् भक्तथे |
ऋषेस्तु वेदशिरसस्तुषिता नाम पत्यभूत् |
तस्यां जज्ञे ततो देवो विभुरित्यभिविश्रुतः ॥
२१॥
ऋषे:--ऋषि का; तु--निस्सन्देह; वेदशिरसः --वेदशिरा; तुषिता--तुषिता; नाम--नामक; पत्ली-- पतली ने; अभूत्--उत्पन्नकिया; तस्याम्--अपने ( गर्भ ) से; जज्ञे--जन्म लिया; ततः--तत्पश्चात्; देव:--भगवान्; विभुः--विभु; इति--इस प्रकार;अभिविश्रुत:--विख्यात |
वेदशिरा अत्यन्त विख्यात ऋषि थे |
उनकी पत्नी तुषिता के गर्भ से विभु नामक अवतार नेजन्म लिया |
अष्टाशीतिसहस्त्राणि मुनयो ये धृतब्रता: |
अन्वशिक्षन्त्रतं तस्थ कौमारब्रह्मचारिण: ॥
२२॥
अष्टाशीति--अट्टासी; सहस्त्राणि -- हजार; मुनय:--साधु पुरुष; ये--वे जो; धृत-ब्रता:--ब्रतधारी; अन्वशिक्षन्--शिक्षाएँ ग्रहणकी; ब्रतम्-ब्रत; तस्य--उसका ( विभु का ); कौमार--अविवाहित; ब्रह्मचारिण:--तथा ब्रह्मचारी अवस्था में रहने वाला |
विभु ब्रह्मचारी बने रहे और जीवन पर्यन्त अविवाहित रहे |
उनसे अट्टासी हजार अन्य मुनियोंने आत्मनिग्रह, तपस्या तथा अन्य आचार सम्बन्धी शिक्षाएँ ग्रहण कीं |
तृतीय उत्तमो नाम प्रियब्रतसुतो मनु: |
'पवनः सृज्जयो यज्ञहोत्राद्यास्तत्सुता नृप ॥
२३॥
तृतीयः--तीसरा; उत्तम: --उत्तम; नाम--नामक; प्रियत्रत--राजा प्रियत्रत का; सुत:--पुत्र; मनु;:--मनु बना; पवन:--पवन;सृज्ञय:--सूझ्ञय; यज्ञहोत्र-आद्या: --यज्ञहोत्र इत्यादि; ततू-सुता:ः--उत्तम के पुत्र; नृप--हे राजाहे राजा! तीसरा मनु राजा प्रियव्रत का पुत्र उत्तम था |
इस मनु के पुत्रों में पवन, सृझय तथायज्ञहोत्र मुख्य थे |
वसिष्ठतनया: सप्त ऋषय: प्रमदादय: |
सत्या वेदश्रुता भद्गा देवा इन्द्रस्तु सत्यजित् ॥
२४॥
वसिष्ठ-तनया:--वशिष्ठ के पुत्र; सप्त--सात; ऋषय:--ऋषिगण; प्रमद-आदय: --प्रमद इत्यादि; सत्या: --सत्यगण;वेदश्रुता:--वेदश्रुतगण; भद्रा:-- भद्गगण; देवा: --देवतागण; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; तु--लेकिन; सत्यजित्--सत्यजित् |
तीसरे मनु के शासनकाल में वसिष्ठ के प्रमद तथा अन्य पुत्र सप्तर्षि बने |
सत्यगण,वेदश्रुततण तथा भद्गगण देवता बने और सत्यजित् को स्वर्ग का राजा इन्द्र चुना गया |
धर्मस्य सूनृतायां तु भगवान्पुरुषोत्तम: |
सत्यसेन इति ख्यातो जातः सत्यव्रति: सह ॥
२५॥
धर्मस्य--धर्म के देवता की; सूनृतायाम्--सूनृता नामक पतली के गर्भ में; तु--निस्सन्देह; भगवान्-- भगवान्; पुरुष-उत्तम: --परमेश्वर; सत्यसेन:--सत्यसेन; इति--इस प्रकार; ख्यात:--विख्यात; जात:--जन्म लिया; सत्यक्रतैः --सत्यव्रतों के; सह--साथइस मन्वन्तर में भगवान् धर्म की पत्नी सूनृता के गर्भ से प्रकट हुए और सत्यसेन नाम सेविख्यात हुए |
वे सत्यव्रत नामक अन्य देवताओं के साथ प्रकट हुए |
सो<नृतब्रतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान् |
भूतद्रहो भूतगणांश्रावधीत्सत्यजित्सख: ॥
२६॥
सः--वह ( सत्यसेन ); अनृत-ब्रत--झूठ बोलने का ब्रत लेने वाला; दुःशीलान्--दुराचारी; असतः--दुष्ट; यक्ष-राक्षसान्ू--यक्षोंतथा राक्षसों को; भूत-द्रुहः--अन्य जीवों की उन्नति का सदैव विरोध करने वाले; भूत-गणान्-- भूत प्रेतों का; च-- भी;अवधीत्--वध कर दिया; सत्यजित् -सख: --अपने मित्र सत्यजित सहित
सत्यसेन ने अपने मित्र सत्यजित् सहित जो उस काल के स्वर्ग के राजा इन्द्र थे समस्त झूठे,अपवित्र तथा दुराचारी यक्षों, राक्षसों तथा भूतप्रेतों का वध कर दिया क्योंकि वे सारे जीवों कोकष्ट पहुँचाते थे |
चतुर्थ उत्तमभ्राता मनुर्नाम्ना च तामस: |
पृथु: ख्यातिर्नरः केतुरित्याद्या दशा तत्सुता: ॥
२७॥
चतुर्थ--चौथा मनु; उत्तम-भ्राता--उत्तम का भाई; मनु:--मनु बना; नाम्ना--नाम से विख्यात; च--भी; तामस:--तामस;पृथु;--पृथु; ख्यातिः:--ख्याति; नर: --नर; केतु:--केतु; इति--इस प्रकार; आद्या: --इत्यादि; दश--दस; तत्-सुता: --तामसमनु के पुत्र |
तीसरे मनु उत्तम का भाई जो तामस नाम से विख्यात था चौथा मनु बना |
तामस के दस पुत्रथे जिनमें पृथु, ख्याति, नर तथा केतु प्रमुख थे |
सत्यका हरयो वीरा देवास्त्रेशिख ईश्वर: |
ज्योतिर्धामादय: सप्त ऋषयस्तामसेउन्तरे ॥
२८॥
सत्यका:--सत्यकगण; हरय:--हरिगण; वीरा:--वीरगण; देवा:--देवगण; त्रिशिख:--त्रिशिख; ईश्वर: --स्वर्ग का राजा;ज्योतिर्धाम-आदय: --ज्योतिर्धाम इत्यादि; सप्त--सात; ऋषय:--ऋषिगण; तामसे--तामस मनु के राज्यकाल; अन्तरे-में |
तामस मनु के शासन में सत्यकगण, हरिगण तथा वीरगण देवताओं में से थे |
स्वर्ग का राजाइन्द्र त्रशिख था |
सप्तर्षि-धाम के ऋषियों में ज्योतिर्धाम प्रमुख था |
देवा वैधृतयो नाम विधृतेस्तनया नूप |
नष्टा: कालेन यैर्वेंदा विधृता: स्वेन तेजसा ॥
२९॥
देवा:--देवतागण; वैधृतय: --वैधृतिगण; नाम--नामक; विधृतेः--विधृति के; तनया:--पुत्र; नृप--हे राजा; नष्टा:--नष्ट होगये थे; कालेन--समय के प्रभाव से; यैः--जिससे; बेदा:--वेद; विधृता:--सुरक्षित थे; स्वेन--अपने; तेजसा--बल से |
हे राजा! तामस मन्वन्तर में विधृति के पुत्र भी जो वैधृति कहलाते थे, देवता बने |
चूँकिकालक्रम से वैदिक स्वत्व विनष्ट हो गया था, अतएव इन देवताओं ने अपने बल से वैदिक स्वत्वकी रक्षा की |
तत्रापि जज्ञे भगवान्हरिण्यां हरिमेधसः |
हरिरित्याहतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात् ॥
३०॥
तत्रापि--उस काल में; जज्ञे--प्रकट हुआ; भगवान्-- भगवान्; हरिण्याम्--हरिणी के गर्भ में; हरिमेधस:--हरिमेधा से उत्पन्न;हरिः--हरि; इति--इस प्रकार; आहत:--कहलाया; येन--जिसके द्वारा; गज-इन्द्र:--हाथियों का राजा; मोचित: --छुड़ायागया था; ग्रहातू-घड़ियाल के मुख से |
इस मन्वन्तर में भगवान् विष्णु ने भी हरिमेधा की पत्नी हरिणी के गर्भ से जन्म लिया और वेहरि कहलाये |
हरि ने हाथियों के राजा एवं अपने भक्त गजेन्द्र को घड़ियाल के मुख से छुड़ाया |
श्रीराजोबाचबादरायण एतत्ते श्रोतुमिच्छामहे वयम् |
हरिर्यथा गजपतिं ग्राहग्रस्तममूमुचत् ॥
३१॥
श्री-राजा उबाच--राजा परीक्षित ने कहा; बादरायणे--हे बादरायण ( व्यासदेव ) के पुत्र; एतत्--यह; ते--तुमसे; श्रोतुम्इच्छामहे--सुनने की इच्छा करते हैं; वयम्--हम; हरिः--भगवान् हरि:; यथा--जिस तरह से; गज-पतिम्--हाथियों के राजाको; ग्राह-ग्रस्तम्-घड़ियाल द्वारा आक्रमण किये जाने पर; अमूमुचत्--छुड़ाया, उद्धार किया |
राजा परीक्षित ने कहा : हे बादरायणि प्रभु! हम आपसे विस्तार से यह सुनना चाहते हैं किघड़ियाल द्वारा आक्रमण किये जाने पर हाथियों के राजा ( गजेन्द्र ) को हरि ने किस प्रकारछुड़ाया ? तत्कथासु महत्पुण्यं धन्य॑ स्वस्त्ययनं शुभम् |
यत्र यत्रोत्तमशलोको भगवान्गीयते हरि: ॥
३२॥
ततू-कथासु--उन कथाओं में; महत्--महान्; पुण्यम्--पवित्र; धन्यम्-- धन्य; स्वस्त्ययनम्--कल्याण प्रद; शुभम्--शुभ;यत्र--जब भी; यत्र--जहाँ भी; उत्तमश्लोक:--उत्तमश्लोक नाम से प्रसिद्ध; भगवान्-- भगवान्; गीयते--गायन किया जाताहै; हरिः-- भगवान्
कोई भी साहित्य या कथा जिसमें भगवान् उत्तमएलोक का वर्णन और उनकी महिमा कागायन किया जाता है, वह निश्चय ही महान, शुद्ध, धन्य, कल्याणप्रद तथा उत्तम है |
श्रीसूत उवाचपरीक्षितैवं स तु बादरायणिःश़ प्रायोपविष्टेन कथासु चोदित: |
उबाच विप्रा: प्रतिनन्द्य पार्थिवंमुदा मुनीनां सदसि सम श्रुण्वताम् ॥
३३॥
श्री-सूतः उवाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; परीक्षिता--महाराज परीक्षित के द्वारा; एवम्--इस प्रकार; सः--वह; तु--निस्सन्देह; बादरायणि:--शुकदेव गोस्वामी; प्राय-उपविष्टेन-- आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा करने वाले परीक्षितमहाराज ने;कथासु--शब्दों से; चोदितः--प्रोत्साहित होकर; उबाच--कहा; विप्रा:--हे बाह्मणो; प्रतिनन्द्य--बधाई देकर; पार्थिवम्--महाराज परीक्षित को; मुदा--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; मुनीनाम्ू--मुनियों की; सदसि--सभा में; स्म--निस्सन्देह; श्रृण्वताम्--सुनने के इच्छुक |
श्री सूत गोस्वामी ने कहा : हे बाह्मणो! जब आसतन्न मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे परीक्षितमहाराज ने शुकदेव गोस्वामी से ऐसा बोलने के लिए प्रार्थना की तो मुनि ने राजा के शब्दों सेप्रोत्साहित होकर, राजा का अभिनन्दन किया और वे सुनने के इच्छुक मुनियों की सभा मेंअत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक बोले |
अध्याय दो: हाथी गजेंद्र का संकट
8.2श्रीशुक उबाचआसीदिगरिवरो राजंस्त्रिकूट इति विश्रुतः |
क्षीरोदेनावृतः श्रीमान्योजनायुतमुच्छित: ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; आसीत्-- था; गिरिवर: --विशाल पर्वत; राजनू--हे राजा; त्रि-कूट: --त्रिकूट; इति--इस प्रकार; विश्रुत:--विख्यात; क्षीर-उदेन-- क्षीरसागर द्वारा; आवृत:--घिरा हुआ; श्रीमान्--अत्यन्त सुन्दर;योजन--आठ मील की नाप; अयुतम्--दस हजार; उच्छित:--अत्यन्त उच्च |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्! त्रिकूट नाम का एक विशाल पर्वत है |
यह दस हजारयोजन ( ८० हजार मील ) ऊँचा है |
चारों ओर से क्षीरसागर द्वारा घिरि होने के कारण इसकीस्थिति अत्यन्त रमणीक है |
तावता विस्तृतः पर्यक्त्रिभि: श्रृद़ैः पयोनिधिम् |
दिशः खं रोचयतन्नास्ते रौष्पयायसहिरण्मयै: ॥
२॥
अन्यैश्व ककुभ: सर्वा रलधातुविचित्रितै: |
नानाद्ुमलतागुल्मैर्निधंषिर्निझराम्भसाम् ॥
३॥
तावता--उस प्रकार से; विस्तृत:--लम्बाई तथा चौड़ाई ( ८० हजार मील ); पर्यक्ू--चारों ओर; त्रिभि:ः--तीन; श्रृद्ठे:--चोटियोंसे; पयः-निधिम्-- क्षीरसागर में एक द्वीप में स्थित; दिश:--सारी दिशाएँ; खमू--आकाश; रोचयन्--सुहावना; आस्ते--खड़ाहुआ; रौप्य--चाँदी; अयस--लोह; हिरण्मयैः --तथा सोने से बना; अन्यै:ः--अन्य चोटियों समेत; च-- भी; ककुभः--दिशाएँ;सर्वा:--सभी; रत्त--रल; धातु--तथा खनिज से; विचित्रितै:ः--सुन्दर ढंग से अलंकृत; नाना--अनेक; द्रुम-लता--पौधे तथालताओं; गुल्मै:--तथा झाड़ियों से; निर्घोषि:-- ध्वनि से; निर्शर--झरने के; अम्भसामू--जल की,पर्वत की लम्बाई तथा चौड़ाई समान ( ८० हजार मील ) है |
इसकी तीन प्रमुख चोटियाँ, जोलोहे, चाँदी तथा सोने की बनी हैं, सारी दिशाओं एवं आकाश को सुन्दर बनाती हैं |
पर्वत मेंअन्य चोटियाँ भी हैं, जो रत्नों तथा खनिजों से पूर्ण हैं और सुन्दर वृक्षों, लताओं एवं झाड़ियों सेअलंकृत हैं |
पर्वत के झरनों से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह सुहावनी है |
इस प्रकार यह पर्वत सभी दिशाओं में सुन्दरता को बढ़ाते हुए खड़ा है |
स चावनिज्यमानाडूप्रि: समन्तात्पयऊर्मिभि: |
करोति श्यामलां भूमिं हरिन्मरकताश्मभि: ॥
४॥
सः--वह पर्वत; च-- भी; अवनिज्यमान-अडूप्रि:--जिसका चरण सदा प्रक्षालित होता है; समन्तात्--चारों ओर से; पयः-ऊर्मिभि:--दूध की लहरों से; करोति--बनाता है; श्यामलाम्--गहरा हरा; भूमिम्ू-- भूमि को; हरित्ू--हरी; मरकत--मरकतमणि; अश्मभि: -- पत्थरों से |
पर्वत के पाद की भूमि सदैव दूध की लहरों से प्रश्नालित होती रहती है, जो आठों दिशाओंमें ( उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम तथा इनके बीच की दिशाओं में ) मरकत मणियाँ उत्पन्न करतीरहती है |
सिद्धचारणगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगैः |
किन्नरैरप्सरोभिश्च क्रीडद्धिर्जुष्टकन्दरः ॥
५॥
सिद्ध--सिद्ध लोक के वासी; चारण--चारणलोक के वासी; गन्धर्वै:--तथा गन्धर्वलोक के वासियों द्वारा; विद्याधर--विद्या धरलोक के वासी; महा-उरगै:--सर्पलोक के वासियों द्वारा; किन्नरैः--किन्नरों के द्वारा; अप्सरोभि:--अप्सराओं से; च--तथा;क्रीडद्धिः--खेलकूद में लगी; जुष्ट--विलास में लगे; कन्दरः --गुफाएँ |
उच्चलोकों के वासी--सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, उरग, किन्नर तथा अप्सराएँ--इसपर्वत में क्रीड़ा करने के लिए जाते हैं |
इस तरह पर्वत की सारी गुफाएँ स्वर्गलोकों के निवासियोंसे भरी रहती हैं |
यत्र सड्जीतसन्नादैर्नदद्गुहममर्षया |
अभिगर्जन्ति हरयः एलाघिन: परशड्डया ॥
६॥
यत्र--उस ( त्रिकूट ) पर्वत में; सड़ीत--गायन की; सन्नादैः--ध्वनि से; नदत्--प्रतिध्वनित; गुहम्--गुफाएँ; अमर्षया--असहाक्रोध या ईर्ष्या के कारण; अभिगर्जन्ति--दहाड़ते हैं; हरयः--सिंह; श्लाघिन:--अपने बलपर अत्यन्त गर्वित; पर-शड्डया --दूसरेसिंह की आशंका से |
गुफाओं में स्वर्ग के निवासियों के गायन की गूँजती हुई ध्वनियों के कारण वहाँ के सिंह,जिन्हें अपनी शक्ति पर गर्व है, असह्य ईर्ष्या के कारण यह सोचकर गर्जना करते हैं कि वहाँ परकोई अन्य सिंह वैसे ही दहाड़ रहा है |
नानारण्यपशुत्रातसड्डू लद्गोण्यलड्डू तः ॥
चित्रद्रुमसुरोद्यानकलकण्ठविहड्रम: ॥
७॥
नाना--अनेक प्रकार के; अरण्य-पशु--जंगली जानवर; ब्रात--झुंड; सह्ढु 'ल--पूर्ण; द्रोणि--घाटियाँ; अलड्डू त:--सुन्दर ढंगसे सजायी गई; चित्र--किस्में; द्रुम--वृक्ष; सुर-उद्यान--देवताओं का बगीचा; कलकण्ठ--चहकती हुए; विहड्रम:--पक्षी |
त्रिकूट पर्वत के नीचे की घाटियाँ अनेक प्रकार के जंगली जानवरों से सुशोभित हैं औरदेवताओं के उद्यानों में जो वृक्ष हैं उन पर नाना प्रकार के पक्षी सुरीली तान से चहकते रहते हैं |
सरित्सरोभिरच्छोदै: पुलिनेर्मणिवालुकै: |
देवस्त्रीमज्जनामोदसौरभाम्ब्बनिलैर्युत: ॥
८ ॥
सरित्--नदियों; सरोभि:--तथा झीलों से; अच्छोदै:--निर्मल जल से पूर्ण; पुलिनैः--किनारे; मणि--छोट-छोटे रत्नों से;वालुकैः--बालू के कणों से मिलते-जुलते; देव-स्त्री--देवताओं की स्त्रियाँ; मजन--( जल में ) स्नान द्वारा; आमोद--शारीरिक सुगंध; सौरभ--अत्यन्त सुगंधित; अम्बु--जल; अनिलै:ः--तथा वायु से; युतः--( त्रिकूट पर्वत के वातावरण से )
समृद्धत्रिकूट पर्वत में अनेक नदियाँ तथा झीलें हैं जिनके किनारे बालू के कणों के सहृश छोटे-छोटे रत्नों से ढके हैं |
उनका जल मणियों की भाँति निर्मल है |
जब देवताओं की स्त्रियाँ उनमेंस्नान करती हैं, तो उनके शरीरों से जल तथा पवन सुर्गन्धि ग्रहण कर लेते हैं जिससे वायुमण्डलऔर भी सुगन्धित हो जाता है |
तस्य द्रोण्यां भगवतो वरुणस्य महात्मन: |
उद्यानमृतुमन्नाम आक्री्ड सुरयोषिताम् ॥
९॥
सर्वतोउलड्डू तं दिव्यर्नित्यपुष्पफलद्रुमै: |
मन्दारैः पारिजातैश्व पाटलाशोकचम्पकै: ॥
१०॥
चूतेः पियालै: पनसैराम्रैराप्रातकैरपि |
क्रमुकैर्नारिकेलैश्व खर्जूरैबीजपूरकै: ॥
११॥
मधुकै: शालतालैश्व तमालैरसनार्जुनै: |
अष्ष्टोडुम्बरप्लक्षेवटे: किंशुकचन्दने: ॥
१२॥
पिचुमर्दे: कोविदारैः सरलै: सुरदारुभि: |
द्राक्षेक्षुरम्भाजम्बुभिदर्यक्षाभयामलै: ॥
१३॥
तस्य--उस पर्वत ( त्रिकूट ) की; द्रोण्यामू--घाटी में; भगवत:--महापुरुष; वरुणस्य--वरुण देव का; महा-आत्मन:-- भगवान्का महान् भक्त; उद्यानमू--बगीचा; ऋतुमत्--ऋतुमत; नाम--नामक; आक्रीडम्--आमोद-प्रमोद का स्थान; सुर-योषिताम्--देवताओं की स्त्रियों के; सर्वतः--सर्वत्र; अलड्डू तम्--सुन्दर ढंग से सजाया हुआ; दिव्यै:--देवताओं से सम्बन्धित; नित्य--सदैव; पुष्प--फूलों; फल--तथा फलों के; ह्वमैः--वृक्षों से; मन्दारैः--मन्दार से; पारिजातैः--पारिजात से; च-- भी; पाटल--पाटल; अशोक--अशोक; चम्पकै:--चम्पा से; चूतेः--आम के विशेष फलों से; पियालैः--पियाल फलों से; पनसै:--पनस'फल से; आम्रै:--आमों से; आम्रातकैः--आम्रातक नामक खट्टे फलों से; अपि-- भी; क्रमुकैः--क्रमुक फलों से; नारिकेलै: --नारियल वृक्षों से; च--तथा; खर्जूरेः--खजूर के वृक्षों से; बीजपूरकै :--अनारों से; मधुकै:--मधुक फलों से; शाल-तालै:--ताड़ फलों से; च--तथा; तमालै:--तमाल वृक्षों से; असन--असन वृक्ष; अर्जुनै: --अर्जुन वृक्षों से; अरिष्ट--अरिष्ट फलों से;उड़म्बर--उडुम्बर का बड़ा वृशक्ष; प्लक्षेः--प्लक्ष वृक्ष से; वटैः--बरगद के पेड़ से; किंशुक--गंधविहीन लाल फूलों से;चन्दनैः--चंदन के वृश्षों से; पिचुमर्दे:--पिचुमर्द फूलों से; कोविदारैः--कोविदार फलों से; सरलै:--सरल वृक्षों से; सुर-दारुभि:--सुर-दारु वृक्षों से; द्राक्षा--अंगूर; इश्लु:ः--गन्ना; रम्भा--केला; जम्बुभि: --जम्बु फलों से; बदरी--बदरी फल;अक्ष--अक्ष फल; अभय---अभय फल; आमलै:--आमलकी या आँवलों के फलों से |
त्रिकूट पर्वत की घाटी में ऋतुमत् नामक उद्यान था |
यह उद्यान महान् भक्त वरुण का थाऔर यह देवांगनाओं का क्रीड़ास्थल था |
यहाँ सभी ऋतुओं में फूल-फल उगते रहते थे |
इनमें सेमन्दार, पारिजात, पाटल, अशोक, चम्पक, आम्रविशेष (चूत), पियाल, पनस, आम,आप्रातक, क्रमुक, नारियल, खजूर तथा अनार मुख्य थे |
वहाँ पर मधुक, ताड़, तमाल, असन,अर्जुन, अरिष्ट, उडम्बर, प्लक्ष, बरगद, किंशुक तथा चन्दन के वृक्ष थे |
वहाँ पर पिचुमर्द,कोविदार, सरल, सुरदारु, अंगूर, गन्ना, केला, जम्बु, बदरी, अक्ष, अभय तथा आमलकी भी थे |
बिल्वै: कपित्थेर्जम्बीरैवती भललातकादिभिः |
तस्मिन्सरः सुविपुलं लसत्काञ्जनपड्डजम् ॥
१४॥
कुमुदोत्पलकह्लहारशतपत्रश्रियोर्जितम् |
मत्तषट्पदनिर्धुष्ट शकुन्तैश्न कलस्वनै: ॥
१५॥
हंसकारण्डवाकीर्ण चक्राह्नः सारसैरपि |
जलकुक्कुटकोयष्टिदात्यूहकुलकूजितम् ॥
१६॥
मत्स्यकच्छपसञ्ञारचलत्पडारज:पय: |
कदम्बवेतसनलनीपवज्ुलकै्वृतम् ॥
१७॥
कुन्दैः कुरुबकाशोकै: शिरीषै: कूटजेड्डुदै: |
कुब्जकै: स्वर्णयूथीभिर्नागपुन्नागजातिभि: ॥
१८॥
मल्लिकाशततपत्रैश्न माधवीजालकादिभि: |
शोभितं तीरजैश्नान्यर्नित्यर्तुभिरलं द्रुमै: ॥
१९॥
बिल्वै: --बिल्व वृक्ष; कपित्थैः:--कपित्थ वृक्ष; जम्बीरैः --जम्बीर वृक्षों से; वृतः--घिरा हुआ; भललातक-आदिभि:--भल्लातक आदि वृक्षों से; तस्मिन्ू--उस उद्यान में; सर:--झील; सु-विपुलम्--अत्यन्त विशाल; लसत्--चमकीली; काझ्लनन--सुनहरी; पड्ढू-जम्--कमलों से पूर्ण; कुमुद--कुमुद पुष्पों का; उत्पल--उत्पल फूल; कह्लार--कह्ार फूल; शतपत्र--तथाशत्रपत्र के फूल; अिया--सौन्दर्य सहित; ऊर्जितम्-- श्रेष्ठ; मत्त--नशेमें; घटू-पद--भौरे; निर्धुष्टम्ू--गुनगुनाते; शकुन्तैः --पक्षियों की चहचहाहट से; च--तथा; कल-स्वनैः --मीठे गानों से; हंस--हंस; कारण्डब--कारण्डव; आकीर्णम्--झुंड में;अक्राह्मैः--चक्रावकों के साथ; सारसैः--सारसों से; अपि-- भी; जलकुक्कुट--जल मुर्गाबी; कोयट्टि--को यष्टि; दात्यूह--दात्यूह; कुल--झुंड; कूजितम्--कूजन करते; मत्स्य--मछली; कच्छप--तथा कछुवों का; सज्ञार--गति करने से; चलतू--विक्षुब्ध; पदा--कमलों के; रज:--परागकण से; पयः--जल ( अलंकृत था ); कदम्ब--कदम्ब; वेतस--बेंत; नल--नल,नरकट; नीप--नीप; वज्ुलकै:--वंजुलक से; वृतम्--घिरा हुआ; कुन्दै:--कुंदों से; कुकबक--कुरुबक; अशोकै: --अशोकसे; शिरीषै:--शिरीष से; कूटज---कुटज; इड्डुदैः --5ंगुद से; कुब्जकै:--कुब्जक से; स्वर्ण-यूथीभि:--स्वर्णयूथी से; नाग--नाग; पुन्नाग--पुन्नाग; जातिभि:ः--जाति से; मल्लिका--मल्लिका; शतपत्रै: --शतपत्रों से; च-- भी; माधवी--माधवी;जालकादिभि:--जालका आदि से; शोभितम्--अलंकृत; तीरजैः --किनारे पर उगे हुए; च--तथा; अन्यैः--अन्य; नित्य-ऋतुभि:--सभी ऋतुओं में; अलम्--प्रचुर मात्रा में; द्रमैः--वृक्षों से ( फल-फूल से लदे ) |
उस उद्यान में एक विशाल सरोवर था, जो चमकीले सुनहरे कमल के फूलों से तथा कुमुद,कहार, उत्पल एवं शतपत्र फूलों से भरा था जिनसे पर्वत की सुन्दरता में वृद्धि हो रही थी |
उसउद्यान में बिल्व, कपित्थ, जम्बीर तथा भल्लातक वृक्ष भी थे |
मदमत्त भौरें मधुपान कर रहे थेऔर अत्यन्त मधुर ध्वनि में गान करने वाले पक्षियों की चहचहाहट के साथ वे भी गुनगुना रहेथे |
सरोवर में हंसों, कारण्डवों, चक्रावकों, सारसों, जलमुर्गियों, दात्यूहों, कोयष्टियों तथा अन्यचहचहाते पक्षियों के झुंड के झुंड थे |
मछलियों तथा कछुवों के इधर-उधर तेजी से गति करने सेकमल के फूलों से जो परागकण गिरे थे उनसे जल सुशोभित था |
सरोवर के चारों ओर कदम्ब,वेतस, नल, नीप, वज्चुलक, कुन्द, कुरुबक, अशोक, शिरीष, कूटज, इंगुद, कुब्जक,स्वर्णयूथी, नाग, पुन्नाग, जाति, मल्लिका, शतपत्र, जालका तथा माधवी लताएँ थीं |
सरोवर केतट ऐसे वृक्षों से भलीभान्ति अलंकृत थे, जो सभी ऋतुओं में फूल तथा फल देने वाले थे |
इसतरह पूरा पर्वत भव्य रूप से सजा हुआ था |
तत्रैकदा तद्गिरिकानना श्रयःकरेणुभिर्वारणयूथपश्चरन् |
सकण्टकं कीचकवेणुवेत्रवद्विशालगुल्मं प्ररुजन्वनस्पतीन् ॥
२०॥
तत्र--वहाँ पर; एकदा--एक बार; ततू-गिरि--उस पर्वत ( त्रिकूट ) के; कानन-आश्रय: --जंगल में रहने वाला; करेणुभि:--हथिनियों के साथ; वारण-यूथ-पः--हाथियों का अगुवा; चरन्ू--विचरण करते ( सरोवर की ओर ); स-कण्टकम्--काँटों सेभरा स्थान; कीचक-वेणु-वेत्र-वत्--विभिन्न नामों वाले पौधों तथा लताओं से युक्त; विशाल-गुल्मम्-- अनेक जंगल;प्रसुजन्ू--तोड़ते हुए; बनः-पतीन्--वृक्षों और पौधों को |
एक बार हाथियों का अगुवा ( प्रमुख ), जो त्रिकूट पर्वत के जंगल में रह रहा था, अपनीहथिनियों के साथ सरोवर की ओर घूमने निकला |
उसने अनेक पौधों, लताओं तथा गुल्मों कोउनके चुभने वाले काँटों की परवाह न करते हुए नष्ट- भ्रष्ट कर डाला |
यदगन्धमात्राद्धरयो गजेन्द्राव्याप्रादयो व्यालमृगा: सखडूगा: |
महोरगाश्चापि भयाददरवन्तिसगौरकृष्णा: सरभाश्चमर्य: ॥
२१॥
यतू-गन्ध-मात्रात्ू--उस हाथी की गन्ध से ही; हरबः--सिंह; गज-इन्द्रा:--अन्य हाथी; व्याप्र-आदय:--बाघ जैसे हिंस्त्र पशु;व्याल-मृगा:--अन्य हिंस्त्र पशु; सखड्गा:--गैंडे; महा-उरगा:--बड़े-बड़े सर्प; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; भयात्--डर से;द्रवन्ति-- भाग रहे थे; स--सहित; गौर-कृष्णा: --उनमें से कुछ श्वेत और कुछ काले; सरभा:--सरभ; चमर्य:--तथा चमरीभीउस हाथी की सुगंध पाकर ही सारे अन्य हाथी, बाघ तथा अन्य हिंसत्र पशु--यथा सिंह, गैंडे,सर्प एवं सफेद-काले सरभ--भय से भाग गये |
यहाँ तक कि चमरी हिरन भी भाग निकले |
वृका वराहा महिषर्क्षशल्यागोपुच्छशालाबृकमर्कटाश्व |
अन्यत्र क्षुद्रा हरिणाः शशादय-अ्वरन्त्यभीता यदनुग्रहेण ॥
२२॥
वृकाः--लोमड़ियाँ; वराहा:-- भालू; महिष-- भैंसा; ऋक्ष -- रीछ; शल्या: --सेही; गोपुच्छ--एक प्रकार का हिरन;शालाबवृक- भेड़िए; मर्कटा: --बन्दर; च--और; अन्यत्र--और कहें; क्षुद्रा:--छोटे पशु; हरिणा:--हिरन; शश-आदय: --खरगोश इत्यादि; चरन्ति--( जंगल में ) इधर-उधर घूमते हैं; अभीता:--निर्भय; यत्-अनुग्रहेण--उस हाथी की कृपा से |
इस हाथी की कृपा से लोमड़ी, भेड़िया, भेंसें, भालू, सुअर, गोपुच्छ, सेही, बन्दर, खरहे,हिरन तथा अन्य छोटे पशु जंगल में सर्वत्र विचरण करते रहते थे |
वे उससे भयभीत नहीं थे |
स घ॒र्मतप्त: करिभि: करेणुभि-वृतो मदच्युत्करभेरनुद्गरुतः |
गिरिं गरिग्णा परितः प्रकम्पयन्निषेव्यमाणोलिकुलैर्मदाशनै: ॥
२३॥
सरोउनिलं पड्डूजरेणुरूषितंजिप्रन्विदूरान्मदविह्ललेक्षण: |
वबृतः स्वयूथेन तृषार्दितेन तत्सरोवराभ्यासमथागमद्द्रूतम् ॥
२४॥
सः--वह ( हाथियों का सरदार ); घर्म-तप्त:--पसीने से तर; करिभि:--अन्य हाथियों से; करेणुभि:--तथा हथिनियों से;बृत:ः--घिरा हुआ; मद-च्युत्ू--मुँह से लार चुवाता; करभेः--हाथी के बच्चों द्वारा; अनुद्गुतः:--पीछे -पीछे चलते हुए; गिरिम्--उस पर्वत को; गरिग्णा--शरीर के भार से; परित:--चारों ओर; प्रकम्पयन्--हिलाते हुए; निषेव्यमाण: --सेवित होकर;अलिकुलैः--भौरों के झुंड द्वारा; मद-अशनै: --शहद पिये हुए; सर:--सरोवर या झील से; अनिलम्--मन्द वायु; पड्डूज-रेणु-रूषितम्--कमल फूलों से रज ले जाता हुआ; जिप्रन्--सूँघते हुए; विदूरात्--दूर से; मद-विह्ल--मदग्रस्त होकर; ईक्षण:--चितवन; वृतः--घिरा हुआ; स्व-यूथेन--अपने ही संगियों से; तृषार्दितिन--प्यास से पीड़ित; तत्ू--उस; सरोवर-अभ्यासम् --सरोवर के किनारे तक; अथ--इस प्रकार; अगमत्--गया; द्ुतम्-तुरन्त |
वह हाथियों का राजा गजपति झुंड के अन्य हाथियों तथा हथिनियों से घिरा था और उसकेपीछे-पीछे हाथी के बच्चे चल रहे थे |
वह अपने शरीर के भार से त्रिकूट पर्वत को चारों ओर सेहिला रहा था |
उसके पसीना छूट रहा था, उसके मुँह से मद की लार टपक रही थी और उसकीइृष्टिमद से भरी थी |
मधु पी-पीकर भौरें उसकी सेवा कर रहे थे और वह दूर से ही उन कमलफूलों के रजकणों की सुगंध का अनुभव कर रहा था, जो मन्द पवन द्वारा उस सरोवर से ले जाई जा रही थी |
इस प्रकार प्यास से पीड़ित अपने साथियों से घिरा वह गजपति तुरन्त सरोवर के तटपर आया |
विगाह्य तस्मिन्नमृताम्बु निर्मलंहेमारविन्दोत्पलरेणुरूषितम् |
पपौ निकाम॑ निजपुष्करोद्धृत-मात्मानमद्धिः स्नपयन्गतक्लम: ॥
२५॥
विगाह्म--घुस कर; तस्मिनू--उस सरोवर में; अमृत-अम्बु-- अमृत के समान स्वच्छ जल; निर्मलम्ू--अत्यन्त विमल; हेम--अत्यन्त शीतल; अरविन्द-उत्पल--कुमुदिनियों तथा कमलों से; रेणु-- धूल से; रूषितम्--मिश्रित; पपौ--पिया; निकामम्--पूर्णतया सन्तुष्ट होने तक; निज--अपनी; पुष्कर-उद्धृतम्-सूँड़ से खींच कर; आत्मानम्--अपने आप; अद्धि:ः--जल से;स्नपयन्--पूरी तरह स्नान करते हुए; गत-क्लम:--थकान से मुक्त हुआ |
वह हाथियों का राजा ( गजपति गजेन्द्र ) सरोवर में घुस गया, पूरी तरह नहाया और अपनीथकान से मुक्त हो गया |
तब उसने अपनी सूँड़ से जी भरकर शीतल, स्वच्छ अमृततुल्य जल पियाजो कमलपुष्पों तथा जल कुमुदिनियों की रज से मिश्रित था |
स पुष्करेणोद्धृतशीकराम्बुभि-निपाययन्संस्नपयन्यथा गृही |
घृणी करेणु: करभांश्व दुर्मदोनाचष्ट कृच्छुं कृपणोजमायया ॥
२६॥
सः--वह ( गजराज ); पुष्करेण--अपनी सूँड़ से; उद्धूत--खींचकर; शीकर-अम्बुभि:--तथा जल छिड़क कर; निपाययन्--उन्हें पिलाकर; संस्नपयन्ू--तथा उन्हें नहला कर; यथा--जिस प्रकार; गृही--गृहस्थ; घृणी--सदैव ( अपने परिवार वालों पर )दयालु; करेणु:--हथिनियों को; करभान्--बच्चों को; च--तथा; दुर्मद:--अपने परिवार वालों से अत्यधिक आसक्त; न--नहीं; आचष्ट--विचार किया; कृच्छुमू--कठिनाई से; कृपण: --आध्यात्मिक ज्ञान से रहित; अज-मायया-- भगवान् की मायाके प्रभाव से |
आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन एवं अपने परिवार वालों के प्रति अत्यधिक आसक्त मनुष्य कीभाँति उस हाथी ने कृष्ण की बहिरंगा शक्ति ( माया ) द्वारा मोहित होकर अपनी पत्नी तथा बच्चोंको स्नान कराया और पानी पिलाया |
उसने अपनी सूंड़ में सरोवर का पानी भरकर उन सबकेऊपर छिड़का |
उसने इस प्रयास में लगने वाले कठिन श्रम की परवाह नहीं की |
तं तत्र कश्चित्रुप दैवचोदितो ग्राहो बलीयां श्वरणे रुषाग्रहीत् |
यहच्छयैवं व्यसनं गतो गजोयथाबलं सोतिबलो विचक्रमे ॥
२७॥
तमू--उसको ( गजेन्द्र को ); तत्र--वहाँ ( जल में ); कश्चित्ू--कोई; नृप--हे राजा; दैव-चोदितः-- भाग्य द्वारा प्रेरित; ग्राह: --घड़ियाल; बलीयान्--अत्यन्त शक्तिशाली; चरणे--उसका पाँव; रुषा--क्रुद्ध होकर; अग्रहीतू--पकड़ लिया; यदृच्छया--भाग्य से होने वाली; एवम्--ऐसी; व्यसनम्--खतरनाक परिस्थिति; गतः--प्राप्त करके; गज:--हाथी ने; यथा-बलम्--अपनीशक्ति के अनुसार; सः--वह; अति-बलः --अत्यधिक प्रयास से; विचक्रमे--बाहर निकलने का प्रयत्त किया |
हे राजा! भाग्यवश एक बलिष्ठ घड़ियाल ने, जो हाथी पर क्रुद्ध था, जल के भीतर से हीहाथी के पैर पर आक्रमण कर दिया |
हाथी निश्चय ही बलवान् था और उसने भाग्य द्वारा प्रेषितइस संकट से अपनी शक्ति भर अपने को छुड़ाने का प्रयत्न किया |
तथातुरं यूथपतिं करेणवोविकृष्यमाणं तरसा बलीयसा |
विचुक्रुशुर्दीनधियो परे गजा:पार्णिग्रहास्तारयितुं न चाशकन् ॥
२८॥
तथा--तब; आतुरम्--उस विकट स्थिति में; यूथ-पतिम्--हाथियों के सरदार को; करेणव:--उसकी पतियाँ;विकृष्यमाणम्--आक्रमण किया जाकर; तरसा--बल से; बलीयसा--बल से ( घड़ियाल के ); विचुक्रुशु:--चिंग्घाड़ने लगीं;दीन-धिय:--अल्पज्ञ; अपरे--दूसरे; गजा:--हाथी; पार्णिण-ग्रहा:--पीछे से पकड़ कर; तारयितुम्--मुक्त कराने के लिए; न--नहीं; च-- भी; अशकन्--असमर्थ थे |
तत्पश्चात् गजेन्द्र को उस विकट स्थिति में देखकर उसकी पत्लियाँ अत्यधिक दुखी हुई औरचिंग्घाड़ने लगीं |
दूसरे हाथियों ने गजेन्द्र की सहायता करनी चाही, किन्तु घड़ियाल की विपुलशक्ति के कारण वे उसे पीछे से पकड़कर उसको नहीं बचा सके |
नियुध्यतोरेवमिभेन्द्रनक्रयोर्विकर्षतोरन्तरतो बहिर्मिथ:ः |
समा: सहस्त्रं व्यगमन्महीपतेसप्राणयोश्रित्रममंसतामरा: ॥
२९॥
नियुध्यतो: --लड़ते हुए; एवम्ू--इस प्रकार; इभ-इन्द्र--हाथी; नक्रयो:--तथा घड़ियाल का; विकर्षतो: --खींचना;अन्तरत:--जल के भीतर; बहि:--जल के बाहर; मिथ:--एक दूसरे; समा:--वर्ष; सहस्त्रमू--एक हजार; व्यगमन्--बीत गये;मही-पते--हे राजा; स-प्राणयो:--दोनों जीवित; चित्रम्ू--आ श्चर्यजनक; अमंसत--विचार किया; अमरा:--देवताओं ने
है राजा! इस तरह हाथी तथा घड़ियाल जल के बाहर तथा जल के भीतर एक दूसरे कोघसीट कर एक हजार वर्षो तक लड़ते रहे |
इस लड़ाई को देखकर देवतागण अत्यन्त चकित थे |
ततो गजेन्द्रस्य मनोबलौजसांकालेन दीर्घेण महानभूदूव्यय: |
विकृष्यमाणस्य जलेवसीदतोविपर्ययोभूत्सकलं जलौकस: ॥
३०॥
ततः--तत्पश्चात्८ गज-इन्द्रस्य--हाथियों के राजा का; मन:--उत्साहबल का; बल--शारीरिक शक्ति; ओजसाम्--तथा इन्द्रियोंका बल; कालेन--वर्षो से लड़ते रहने से; दीर्घेण--दीर्घकालीन; महान्--महान्; अभूत्--गई; व्यय:--चुक;विकृष्यमाणस्य--( घड़ियाल द्वारा ) खींचा जाने वाला; जले--जल में; अवसीदत:--घट गई ( मानसिक, शारीरिक तथा ऐन्द्रियशक्ति ); विपर्यय:--विपरीत; अभूत्--हो गया; सकलम्ू--सभी; जल-ओकस:--घड़ियाल, जिसका घर जल है |
तत्पश्चात् जल के भीतर खींचे जाने तथा दीर्घकाल तक लड़ते रहने के कारण हाथी कीमानसिक, शारीरिक तथा ऐन्द्रिय शक्ति घटने लगी |
इसके विपरीत जल का पशु होने के कारणघड़ियाल का उत्साह, उसकी शारीरिक शक्ति तथा ऐन्द्रिय शक्ति बढ़ती रही |
इत्थं गजेन्द्र: स यदाप सड्डूटंप्राणस्य देही विवशो यहच्छया |
अपारयच्नात्मविमोक्षणे चिरंदध्याविमां बुद्धिमथा भ्यपद्यत ॥
३१॥
इत्थम्--इस प्रकार से; गज-इन्द्र:--हाथियों के राजा ने; सः--उस; यदा--जब; आप--प्राप्त की; सड्डूटम्--ऐसी भयानकस्थिति; प्राणस्थ--जीवन की; देही--देहधारी; विवशः--परिस्थितिवश असहाय; यहृच्छया--दैव की इच्छा से; अपारयन्--असमर्थ होकर; आत्म-विमोक्षणे -- अपनी रक्षा करने में; चिरम्--दीर्घकाल तक; दध्यौ--गम्भीरतापूर्वक सोचने लगा; इमाम्--यह; बुद्धिम्ू--निर्णय; अथ--तत्पश्चात्; अभ्यपद्यत-प्राप्त हुआ, पहुँचा |
जब गजेन्द्र ने देखा कि वह दैवी इच्छा से घड़ियाल के चंगुल में है और बंधन में फंसकर'परिस्थितिवश असहाय है एवं अपने को संकट से नहीं उबार सकता तो वह मारे जाने से अत्यन्तभयभीत हो उठा |
फलस्वरूप उसने दीर्घकाल तक सोचा और अन्ततोगत्वा वह इस निर्णय परपहुँचा |
न मामिमे ज्ञातय आतुरं गजाःकुतः करिण्य: प्रभवन्ति मोचितुम् |
ग्राहेण पाशेन विधातुरावृतो-प्यहं च तं यामि परं परायणम् ॥
३२॥
न--नहीं; मामू--मुझको; इमे--ये सब; ज्ञातय:--मित्र तथा सम्बन्धी ( अन्य हाथी ); आतुरम्--मेरे दुख में; गजा:--हाथी;कुतः--कैसे; करिण्य: --मेरी पत्लियाँ; प्रभवन्ति--समर्थ हैं; मोचितुम्--( इस संकटमय स्थिति से ) उद्धार करने में; ग्राहेण --घड़ियाल से; पाशेन--फन्दे से; विधातु:-- भाग्य के; आवृत:--बन्दी; अपि--यद्यपि ( मैं ऐसी स्थिति में हूँ ); अहम्ू--मैं; च--भी; तम्--उस ( भगवान् ) की; यामि--शरण में जाता हूँ; परम्--जो दिव्य हैं; परायणम्--जो ब्रह्मा तथा शिव जैसे सम्मानितदेवताओं की भी शरण हैं |
जब मेरे मित्र तथा अन्य सम्बन्धी हाथी मुझे इस संकट से नहीं उबार सके तो मेरी पत्नियों का तो कहना ही कया? वे कुछ नहीं कर सकतीं |
यह दैवी इच्छा थी कि इस घड़ियाल ने मुझ परआक्रमण किया है, अतएव मैं उन भगवान् की शरण में जाता हूँ जो हर एक को, यहाँ तक किमहापुरुषों को भी, सदैव शरण प्रदान करते हैं |
यः कश्चनेशो बलिनोउन्तकोरगात्प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम् |
भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भधयान्मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥
३३॥
यः--जो ( भगवान् ); कश्चन--कोई; ईशः--परमनियन्ता; बलिन:--अत्यन्त शक्तिशाली; अन्तक-उरगात्-- मृत्यु लाने वालेकाल रूपी विशाल सर्प से; प्रचण्ड-वेगात्-- अत्यन्त भयानक बल से; अभिधावत:ः--पीछा करता हुआ; भृशम्--निरन्तर ( हरघड़ी ); भीतम्-- मृत्यु से डरा हुआ; प्रपन्नमू--शरणागत ( भगवान् के ); परिपाति--रक्षा करता है; यत्-भयात्--जिस भगवान्के डर से; मृत्यु:--साक्षात् मृत्यु; प्रधावति-- भाग जाती है; अरणम्ू--हर एक के वास्तविक आश्रय; तम्ू--उसकी; ईमहि--मैंशरण लेता हूँ |
भगवान् निश्चय ही हर एक को ज्ञात नहीं हैं, किन्तु वे हैं अत्यन्त शक्तिशाली तथाप्रभावशाली |
अतएव यद्यपि काल रूपी सर्प प्रचण्ड वेग से निरन्तर मनुष्य का पीछा कर रहा हैऔर उसे निगलने को उद्यत है, तथापि, यदि वह इस सर्प से डरकर भगवान् की शरण में जाताहै, तो भगवान् उसे संरक्षण प्रदान करते हैं क्योंकि भगवान् के भय से मृत्यु भी भाग जाती है |
अतएव मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ जो महान् एवं शक्तिशाली परम सत्ता हैं और हर एक केवास्तविक आश्रय हैं |
अध्याय तीन: गजेंद्र की समर्पण प्रार्थना
8.3श्रीबादरायणिरुवाचएवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो हृदि |
जजाप परमंजाप्य॑ प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥
१॥
श्री-बादरायणि: उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; व्यवसितः--स्थिर; बुद्धया--बुद्धि से;समाधाय--केन्द्रित करने के लिए; मनः--मन को; हृदि--हृदय में या चेतना में; जजाप--जप किया; परमम्--परम;जाप्यम्ू--उस मंत्र को जिसे उसने महान् भक्तों से सीखा था; प्राकू-जन्मनि--पूर्वजन्म में; अनुशिक्षितम्-- अभ्यास किया हुआ |
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : तत्पश्चात् गजेन्द्र ने अपना मन पूर्ण बुद्धि के साथ अपनेहृदय में स्थिर कर लिया और उस मंत्र का जप प्रारम्भ किया जिसे उसने इन्द्रद्यम्न के रूप मेंअपने पूर्वजन्म में सीखा था और जो कृष्ण की कृपा से उसे स्मरण था |
श्रीगजेन्द्र उबाच» नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् |
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥
२॥
श्री-गजेन्द्र: उबाच--गजेन्द्र ने कहा; ३४--हे भगवान्; नम:--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; भगवते-- भगवान् को; तस्मै--उस;यतः--जिनसे; एतत्--यह शरीर तथा भौतिक जगत; चित्-आत्मकम्--चेतना ( आत्मा ) के कारण गतिशील; पुरुषाय--परमपुरुष को; आदि-बीजाय--जो उद्गम या प्रत्येक वस्तु के मूल कारण हैं, उन्हें; पर-ईशाय--परम, दिव्य तथा पूज्य;अभिधीमहि--उनका ध्यान करता हूँ |
गजेन्द्र ने कहा : मैं परम पुरुष वासुदेव को सादर नमस्कार करता हूँ ( ३७ नमो भगवतेवासुदेवाय ) |
उन्हीं के कारण यह शरीर आत्मा की उपस्थिति के कारण कर्म करता है; अतएव वेप्रत्येक जीव के मूल कारण हैं |
वे ब्रह्म तथा शिव जैसे महापुरुषों के लिए पूजनीय हैं और वेप्रत्येक जीव के हृदय में प्रविष्ट हैं |
मैं उनका ध्यान करता हूँ |
यस्मिन्रिदं यतश्वेदं येनेदं य इदं स्वयम् |
योअस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्े स्वयम्भुवम् ॥
३॥
यस्मिनू--जिस मूल पद पर; इदम्--यह ब्रह्माण्ड टिका है; यतः--जिन अवयवों से; च--तथा; इदम्--यह विराट विश्व बना है;येन--जिसके द्वारा; इदम्--यह विराट विश्व रचित तथा पालित है; यः--जो; इृदम्--यह भौतिक जगत है; स्वयम्--स्वयं;यः--जो; अस्मात्--इस भौतिक जगत ( फल ) से; परस्मात्ू--कारण से; च--तथा; पर: --दिव्य या भिन्न; तमू--उस;प्रपद्ये--शरण में जाता हूँ; स्वयम्भुवम्--आत्म-निर्भर की |
भगवान् ही वह परम पद है, जिस पर प्रत्येक वस्तु टिकी हुई है; वे वह अवयव हैं जिससेप्रत्येक वस्तु उत्पन्न हुई है तथा वे वह पुरुष हैं जिसने सृष्टि की रचना की और जो इस विराट विश्वके एकमात्र कारण हैं |
फिर भी वे कारण-कार्य से पृथक् हैं |
मैं उन भगवान् की शरण ग्रहणकरता हूँ जो सभी प्रकार से आत्म-निर्भर हैं |
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्वचिद्विभातं क््व च तत्तिरोहितम् |
अविद्धवक्साक्ष्यु भयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्पर: ॥
४॥
यः--जो भगवान्; स्व-आत्मनि--अपने में; इदमू--इस विराट जगत को; निज-मायया--अपनी निजी शक्ति से; अर्पितम्--लगा हुआ; क्वचित्--कभी-कभी, कल्प के प्रारम्भ में; विभातम्ू--प्रकट होता है; कब च--कभी-कभी, प्रलय के समय;तत्--वह ( जगत ); तिरोहितम्ू--अहृश्य; अविद्ध-हक्--वह सब कुछ देखता है ( इन सभी परिस्थितियों में ); साक्षी--गवाह;उभयम्--दोनों ( उत्त्पत्ति तथा प्रलय ); तत् ईक्षते--दृष्टि की हानि के बिना सब कुछ देखता है; सः--वह भगवान्; आत्म-मूल:--आत्मनिर्भर, अन्य कारण न होने पर; अवतु--कृपया हमें संरक्षण दें; मामू--मुझको; परातू-पर:--दिव्य से भी दिव्य,समस्त अध्यात्म से परे |
भगवान् अपनी शक्ति के विस्तार द्वारा कभी इस दृश्य जगत को व्यक्त बनाते हैं और कभीइसे अव्यक्त बना देते हैं |
वे सभी परिस्थितियों में परम कारण तथा परम कार्य ( फल ), प्रेक्षकतथा साक्षी दोनों हैं |
इस प्रकार वे सभी वस्तुओं से परे हैं |
ऐसे भगवान् मेरी रक्षा करें |
कालेन पश्ञत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु |
तमस्तदासीद्गहनं गभीरंयस्तस्य पारेडभिविराजते विभु: ॥
५॥
कालेन--कालान्तर में ( लाखों वर्ष बाद ); पञ्ञत्वम्--जब प्रत्येक मायावी वस्तु विनष्ट हो जाती है; इतेषु--सारे विकार;कृत्सनश:--इस दृश्य जगत के भीतर की प्रत्येक वस्तु सहित; लोकेषु--सारे लोकों में, या इनमें स्थित हर वस्तु में; पालेषु--ब्रह्मा जैसे पालनकर्ताओं में; च--भी; सर्व-हेतुषु--सारे कारणों में; तम:--महान् अंधकार; तदा--तब; आसीत्--था;गहनम्--अत्यन्त घना; गर्भीरम्--अत्यन्त गहरा; य:--जो भगवान्; तस्य--इस अंधकारपूर्ण स्थिति के; पारे--इसके अतिरिक्त;अभिविराजते--स्थित है या चमकता है; विभु:--परमे श्वर
कालक्रम से जब लोकों तथा उनके निदेशकों एवं पालकों समेत ब्रह्माण्ड के सारे कार्य-कारणों का संहार हो जाता है, तो गहन अंधकार की स्थिति आती है |
किन्तु इस अंधकार केऊपर भगवान् रहता है |
मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ |
न यस्य देवा ऋषय: पदं विदु-जन्तु: पुनः कोहति गन्तुमीरितुम् |
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्ठतोदुरत्ययानुक्रमण: स मावतु ॥
६॥
न--न तो; यस्य--जिसका; देवा:--देवतागण; ऋषय: --बड़े-बड़े मुनि; पदम्--पद; विदु:--समझ सकते हैं; जन्तु:--पशुओंके समान बुद्धिहीन जीव; पुनः--फिर; कः--कौन; अ्हति--समर्थ है; गन्तुमू--ज्ञान में प्रवेश करने में; ईरितुमू--अथवा शब्दोंद्वारा व्यक्त करने में; यथा--जिस प्रकार; नटस्य--कलाकार के; आकृतिभि:--शारीरिक स्वरूप से; विचेष्टत: --विभिन्न प्रकारसे नाचते हुए; दुरत्यय--अत्यन्त कठिन; अनुक्रमण: -- उसकी गतियाँ; सः--वही भगवान्; मा--मुझको; अवतु--संरक्षणप्रदान करें|
आकर्षक वेशभूषा से ढके रहने तथा विभिन्न प्रकार की गतियों से नाचने के कारण रंगमंचके कलाकार को श्रोता समझ नहीं पाते |
इसी प्रकार परम कलाकार के कार्यो तथा स्वरूपों कोबड़े-बड़े मुनि या देवतागण भी नहीं समझ पाते और बुद्धिहीन तो तनिक भी नहीं ( जो पशुओंके तुल्य हैं ) |
न तो देवता तथा मुनि, न ही बुद्धिहीन मनुष्य भगवान् के स्वरूप को समझ सकतेहैं और न ही वे उनकी वास्तविक स्थिति को अभिव्यक्त कर सकते हैं |
ऐसे भगवान् मेरी रक्षाकरें |
दिदक्षवो यस्य पदं सुमड्रलंविमुक्तसड्रा मुनयः सुसाधव: |
चरन्त्यलोकब्रतमत्रणं बनेभूतात्मभूता: सुहृदः स मे गति: ॥
७॥
दिहृक्षव:ः--( भगवान् को ) देखने के इच्छुक; यस्थय--जिसके; पदम्--चरणकमल; सु-मड्रलम्--कल्याण प्रद; विमुक्त-सड्भडाः--भौतिक दशाओं से पूरी तरह मुक्त; मुनयः--मुनिगण; सु-साधव:--आध्यात्मिक चेतना में बढ़े-चढ़े; चरन्ति--अभ्यासकरते हैं; अलोक-ब्रतम्--ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ या संन्यास के व्रत; अवब्रणम्--बिना किसी त्रुटि के; बने--वन में; भूत-आत्म-भूता:--जो समस्त जीवों के प्रति समान भाव रखते हैं; सुहृदः--जो सबों के मित्र हैं; सः--वही भगवान्; मे--मेरा; गति: --गन्तव्य |
जो सभी जीवों को समभाव से देखते हैं, जो सबों के मित्रवत् हैं तथा जो जंगल में ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा संन्यास ब्रत का बिना त्रुटि के अभ्यास करते हैं, ऐसे विमुक्त तथा मुनिगणभगवान् के कल्याणप्रद चरणकमलों का दर्शन पाने के इच्छुक रहते हैं |
वही भगवान् मेरे गन्तव्यहों |
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वान नामरूपे गुणदोष एव वा |
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यःस्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥
८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेउनन्तशक्तये |
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ॥
९॥
न--नहीं; विद्यते--विद्यमान है; यस्थ--जिसका ( भगवान् का ); च-- भी; जन्म--जन्म; कर्म--कर्म; वा-- अथवा; न--नतो; नाम-रूपे--कोई नाम या भौतिक स्वरूप; गुण--गुण; दोष: --त्रुटि; एव--निश्चय ही; वा--अथवा; तथापि--फिर भी;लोक--इस दृश्य जगत का; अप्यय--विनाश; सम्भवाय-- तथा सृष्टि; यः--जो; स्व-मायया-- अपनी निजी शक्ति से; तानि--कार्यों को; अनुकालमू--शाश्वत रीति से; ऋच्छति--स्वीकार करता है; तस्मै--उसको; नम:ः--नमस्कार करता हूँ; पर--दिव्य;ईशाय--परमनियन्ता को; ब्रह्मणे--परब्रह्म को; अनन्त-शक्तये-- असीमित शक्ति से; अरूपाय--निराकार; उरुू-रूपाय--अवतारों के विविध रूपों वाला; नम:--नमस्कार करता हूँ; आश्चर्य-कर्मणे--जिनके कार्य अद्भुत होते हैं |
भगवान् भौतिक जन्म, कार्य, नाम, रूप, गुण या दोष से रहित हैं |
यह भौतिक जगत जिसअभिप्राय से सृजित और विनष्ट होता रहता है उसकी पूर्ति के लिए वे अपनी मूल अन्तरंगा शक्ति द्वारा रामचन्द्र या भगवान् कृष्ण जैसे मानववत् रूप में आते हैं |
उनकी शक्ति महान् है और वेविभिन्न रूपों में भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त होकर अद्भुत कर्म करते हैं |
अतएव वे परब्रह्महैं |
मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ |
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने |
नमो गिरां विदूराय मनसश्लेतसामपि ॥
१०॥
नमः--मैं नमस्कार करता हूँ; आत्म-प्रदीपाय--आत्म-प्रकाशित को या जीवों को प्रकाश देने वाले को; साक्षिणे-- प्रत्येक केहृदय में साक्षी स्वरूप स्थित; परम-आत्मने--परमात्मा में; नम:ः--नमस्कार करता हूँ; गिरामू--वाणी से; विदूराय--अत्यन्त दूर,अगम्य; मनसः--मन से; चेतसाम्--या चेतना से; अपि--भी
मैं उन आत्मप्रकाशित परमात्मा को नमस्कार करता हूँ जो प्रत्येक हृदय में साक्षी स्वरूपस्थित हैं, व्यष्टि जीवात्मा को प्रकाशित करते हैं और जिन तक मन, वाणी या चेतना के प्रयासोंद्वारा नहीं पहुँचा जा सकता |
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्करम्येण विपश्चिता |
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥
११॥
सत्तवेन--शुद्ध भक्ति से; प्रति-लभ्याय-- भगवान् को, जो ऐसी भक्ति से प्राप्त किये जाते हैं; नैष्कर्म्येण --दिव्य कार्यों से;विपश्चिता--अत्यन्त दिद्वान व्यक्तियों द्वारा; नम:ः--नमस्कार करता हूँ; कैवल्य-नाथाय--दिव्यलोक के स्वामी को; निर्वाण--भौतिक कार्यो से पूर्ण मुक्ति; सुख--सुख का; संविदे--प्रदान करने वाला |
भगवान् की अनुभूति उन शुद्ध भक्तों को होती है, जो भक्तियोग की दिव्य स्थिति में रहकरकर्म करते हैं |
वे अकलुषित सुख के दाता हैं और दिव्यलोक के स्वामी हैं |
अतएव मैं उन्हेंनमस्कार करता हूँ |
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे |
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥
१२॥
नमः--नमस्कार; शान्ताय--जो समस्त भौतिक गुणों से ऊपर है और पूर्णतया शान्त है उसे अथवा प्रत्येक जीव में वास करनेवाले परमात्मा स्वरूप वासुदेव को; घोराय--भगवान् के भयानक रूपों को यथा जामदग्न्य तथा नृसिंह देव को; मूढाय--पशुरूप में भगवान् के स्वरूप को यथा वराह को; गुण-धर्मिणे--जो भौतिक जगत में विभिन्न गुण स्वीकार करता है;निर्विशेषाय-- भौतिक गुणों से विहीन और पूर्णतया आध्यात्मिक; साम्याय-- भगवान् बुद्ध को जो निर्वाण रूप हैं, जहाँ भौतिककार्यकलाप रुक जाते हैं; नमः--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; ज्ञान-घनाय--ज्ञान या निर्विशेष ब्रह्म को; च-- भी |
मैं सर्वव्यापी भगवान् वासुदेव को, भगवान् के भयानक रूप नृसिंह देव को, भगवान् केपशुरूप ( वराह देव ) को, निर्विशेषवाद का उपदेश देने वाले भगवान् दत्तात्रेय को, भगवान्बुद्ध को तथा अन्य सारे अवतारों को नमस्कार करता हूँ |
मैं उन भगवान् को सादर नमस्कारकरता हूँ जो निर्गुण हैं, किन्तु भौतिक जगत में सतो, रजो तथा तमो गुणों को स्वीकार करते हैं |
मैं निर्विशेष ब्रह्मतेज को भी सादर नमस्कार करता हूँ |
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे |
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥
१३॥
क्षेत्र-ज्ञाय--बाह्य शरीर की प्रत्येक वस्तु जानने वाले को; नमः--मैं नमस्कार करता हूँ; तुभ्यम्ू--तुमको; सर्व--सब कुछ;अध्यक्षाय--अध्यक्ष को; साक्षिणे--जो साक्षी परमात्मा या अन्तर्यामी हैं; पुरुषाय--परम पुरुष को; आत्म-मूलाय--मूल स्रोतको; मूल-प्रकृतये--पुरुष-अवतार को, जो प्रकृति तथा प्रधान का उद्गम है; नम:--मैं नमस्कार करता हूँ |
मैं आपको नमस्कार करता हूँ |
आप परमात्मा, हर एक के अध्यक्ष तथा जो कुछ भी घटितहोता है उसके साक्षी हैं |
आप परम पुरुष, प्रकृति तथा समग्र भौतिक शक्ति के उद्गम हैं |
आपभौतिक शरीर के भी स्वामी हैं |
अतएवं आप परम पूर्ण हैं |
मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्टे सर्वप्रत्ययहेतवे |
असता च्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥
१४॥
सर्व-इन्द्रिय-गुण-द्रष्टे--सभी इन्द्रिय-विषयों के द्रष्टा में; सर्ब-प्रत्यय-हेतवे--सभी संशयों के समाधान ( और जिनके बिना सभीअसमर्थताएँ तथा सारे संदेह हल नहीं किये जा सकते ); असता--असत्य या भ्रम के प्रकट होने से; छायया--समानता केकारण; उक्ताय--कहलाया; सत्--सत्य का; आभासाय--प्रतिबिम्ब के लिए; ते--तुमको; नमः--नमस्कार करता हूँ |
हे भगवान्! आप समस्त इन्द्रिय-विषयों के द्रष्टा हैं |
आपकी कृपा के बिना सन्देहों कीसमस्या के हल होने की कोई सम्भावना नहीं है |
यह भौतिक जगत आपके अनुरूप छाया केसमान है |
निस्सन्देह, मनुष्य इस भौतिक जगत को सत्य मानता है क्योंकि इससे आपके अस्तित्वकी झलक मिलती है |
नमो नमस्तेडखिलकारणायनिष्कारणायाद्धुतकारणाय |
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय ॥
१५॥
नमः--मैं नमस्कार करता हूँ; नम:--पुनः नमस्कार करता हूँ; ते--तुम्हें; अखिल-कारणाय--हर वस्तु के परम कारण को;निष्कारणाय--कारणरहित को; अद्भुत-कारणाय--हर वस्तु के अद्भुत कारण को; सर्व--समस्त; आगम-आम्नाय--वैदिकवाड्मय की परम्परा पद्धति के स्रोत को; महा-अर्णवाय--ज्ञान के विशाल सागर को अथवा उस विशाल समुद्र को जिसमें ज्ञानकी समस्त सरिताएँ मिलती हैं; नमः--नमस्कार करता हूँ; अपवर्गाय--मोक्ष दाता को; पर-अयणाय--समस्त अध्यात्मवादियोंके आश्रय को |
हे भगवान्! आप समस्त कारणों के कारण हैं, किन्तु आपका अपना कोई कारण नहीं है,अतएव आप हर वस्तु के अद्भुत कारण हैं |
मैं आपको अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ |
आप पश्नरात्र तथा वेदान्तसूत्र जैसे शास्त्रों में निहित वैदिक ज्ञान के आश्रय हैं, जो आपकेसाक्षात् स्वरूप हैं और परम्परा पद्धति के स्त्रोत हैं |
चूँकि मोक्ष प्रदाता आप ही हैं अतएव आप हीअध्यात्मवादियों के एकमात्र आश्रय हैं |
मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपपायतत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय |
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥
१६॥
गुण--प्रकृति के तीन गुणों ( सत्त्व, रजस् तथा तमस् ) द्वारा; अरणि--अरणि काष्ठ द्वारा; छन्न--आवृत; चित्--ज्ञान का;उष्मपाय--उसको जिसकी अग्नि; ततू-क्षोभ--प्रकृति के तीनों गुणों के क्षोभ से; विस्फूर्जित--बाहर; मानसाय--उसकोजिसका मन; नैष्कर्म्य-भावेन-- आध्यात्मिक ज्ञान की अवस्था के कारण; विवर्जित--त्याग देने वालों में; आगम--वैदिकसिद्धान्त; स्वयम्ू--स्वयं; प्रकाशाय--जो प्रकट है उसको; नमः करोमि--मैं सादर नमस्कार करता हूँ |
हे प्रभु! जिस प्रकार अरणि-काष्ठ में अग्नि ढकी रहती है उसी प्रकार आप तथा आपकाअसीम ज्ञान प्रकृति के भौतिक गुणों से ढका रहता है |
किन्तु आपका मन प्रकृति के गुणों केकार्यकलापों पर ध्यान नहीं देता |
जो लोग आध्यात्मिक ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं, वे वैदिक वाडमयमें निर्देशित विधि-विधानों के अधीन नहीं होते |
चूँकि ऐसे उन्नत लोग दिव्य होते हैं अतएव आपस्वयं उनके शुद्ध मनों में प्रकट होते हैं |
इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
माहक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरूणाय नमोउलयाय |
स्वांशेन सर्वतनुभून्मनसि प्रतीत-प्रत्यग्हशे भगवते बृहते नमस्ते ॥
१७॥
माहक्-मेरे समान; प्रपन्न--शरणागत; पशु--पशु; पाश--बन्धन से; विमोक्षणाय--छुड़ाने वाले को; मुक्ताय--प्रकृति केकल्मष से अछूते परमेश्वर को; भूरि-करुणाय--असीम दयालु को; नम:--नमस्कार करता हूँ; अलयाय--कभी भी असावधानया अकर्मण्य न रहने वाले को ( मेरे उद्धार के लिए ); स्व-अंशेन--आपके परमात्मा रूप अंश से; सर्व--सबों का; तनु-भृत्--प्रकृति में देहधारी जीव; मनसि--मन में; प्रतीत--कृतज्ञ; प्रत्यक्-दशे--( समस्त कार्यों के ) प्रत्यक्ष द्रष्टा के रूप में; भगवते--भगवान् को; बृहते-- असीम; नम: --नमस्कार करता हूँ; ते--तुमको |
चूँकि मुझ जैसे पशु ने परममुक्त आपकी शरण ग्रहण की है, अतएवं आप निश्चय ही मुझेइस संकटमय स्थिति से उबार लेंगे |
निस्सन्देह, अत्यन्त दयालु होने के कारण आप निरन्तर मेराउद्धार करने का प्रयास करते हैं |
आप अपने परमात्मा-रूप अंश से समस्त देहधारी जीवों केहृदयों में स्थित हैं |
आप प्रत्यक्ष दिव्य ज्ञान के रूप में विख्यात हैं और आप असीम हैं |
हेभगवान्! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-्दुष्प्रापणाय गुणसड्भविवर्जिताय |
मुक्तात्मभि: स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥
१८ ॥
आत्म--मन तथा शरीर; आत्म-ज--पुत्र तथा पुत्रियाँ; आप्त--मित्र तथा सम्बन्धी; गृह--घर, जाति, समाज तथा राष्ट्र; वित्त--धन; जनेषु--विभिन्न दास तथा सहायक तक; सक्तै:--आसक्त लोगों द्वारा; दुष्प्रषणाय--आपको, जो दुष्प्राप्य हैं; गुण-सड़--तीन गुणों द्वारा; विवर्जिताय--कलुषित न होने वाले को; मुक्त-आत्मभि:--पहले से मुक्त हुए पुरुषों के द्वारा; स्व-हृदये --अपनेहृदय के भीतर; परिभाविताय--ध ध्यान किये जाने वाले आपको; ज्ञान-आत्मने--समस्त ज्ञान के आगार; भगवते-- भगवान् को;नमः--नमस्कार करता हूँ; ईश्वराय--परमनियन्ता को |
हे प्रभु! जो लोग भौतिक कल्मष से पूर्णतः मुक्त हैं, वे अपने अन्तस्थल में सदैव आपकाध्यान करते हैं |
आप मुझ जैसों के लिए दुष्प्राप्प हैं, जो मनोरथ, घर, सम्बन्धियों, मित्रों, धन,नौकरों तथा सहायकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं |
आप प्रकृति के गुणों से निष्कलुषितभगवान् हैं |
आप सारे ज्ञान के आगार, परमनियन्ता हैं |
अतएवं मैं आपको सादर नमस्कार करता>>हू |
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति |
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्भदयो विमोक्षणम् ॥
१९॥
यम्--जिस भगवान् को; धर्म-काम-अर्थ-विमुक्ति-कामा:--ऐसे व्यक्ति जो धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चार सिद्धान्तों कीकामना करते हैं; भजन्त:--पूजा द्वारा; इष्टामू--लक्ष्य को; गतिम्ू--गन्तव्य; आप्नुवन्ति--प्राप्त कर सकते हैं; किम्--क्या कहाजाये; च-- भी; आशिष:--अन्य आशीर्वाद; राति--प्रदान करता है; अपि-- भी; देहम्--शरीर को; अव्ययम्-- आध्यात्मिक;करोतु--आशीष दें; मे-- मुझको; अदभ्र-दय:-- अत्यधिक दयालु भगवान्; विमोक्षणम्--वर्तमान संकट से तथा भौतिक जगतसे मोक्ष
भगवान् की पूजा करने पर जो लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चारों में रुचि रखतेहैं, वे उनसे अपनी इच्छानुसार इन्हें प्राप्त कर सकते हैं |
तो फिर अन्य आशीर्वादों के विषय मेंक्या कहा जा सकता है? कभी-कभी भगवान् ऐसे महत्वाकांक्षी पूजकों को आध्यात्मिक शरीरप्रदान करते हैं |
जो भगवान् असीम कृपालु हैं, वे मुझे वर्तमान संकट से तथा भौतिकतावादीजीवन शैली से मुक्ति का आशीर्वाद दें |
एकान्तिनो यस्य न कझ्जनार्थवाउ्छन्ति ये वे भगवत्प्रपन्ना: |
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमड्रलंगायन्त आनन्दसमुद्रमग्ना: ॥
२०॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम् |
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥
२१॥
एकान्तिन:--अनन्य भक्त ( जिन्हें कृष्णचेतना के अतिरिक्त अन्य कोई चाह नहीं रहती ); यस्य--जिस भगवान् का; न--नहीं;कझ्नन--कुछ; अर्थम्--आशीष; वाउ्छन्ति--इच्छा करते हैं; ये--जो भक्त; वै--निस्सन्देह; भगवत्-प्रपन्ना:-- भगवान् केचरणकमलों में पूरी तरह शरणागत; अति-अद्भुतम्--जो अदभुत हैं; तत्-चरितमू-- भगवान् के कार्यकलाप; सु-मड़्लम्--तथाजो सुनने में अत्यन्त शुभ हैं; गायन्त:--कीर्तन तथा श्रवण द्वारा; आनन्द--दिव्य आनन्द रूपी; समुद्र--समुद्र में; मग्ना:--डूबेहुए; तमू--उनको; अक्षरम्--अक्षर; ब्रह्म --ब्रह्म; परम्ू--दिव्य; पर-ईशम्--परम पुरुषों के स्वामी को; अव्यक्तम्ू--अदहृश्यअथवा मन तथा इन्द्रियों से अनुभव न किए जा सकने वाले; आध्यात्मिक--दिव्य; योग--भक्तियोग द्वारा; गम्यमू--प्राप्य( भक्त्या मामभिजानाति ); अति-इन्द्रियम्-- भौतिक इन्द्रियों की अनुभूति से परे; सूक्ष्मम्--सूक्ष्म; इब--सहृश; अति-दूरम्--अत्यन्त दूर; अनन्तम्--असीम; आद्यम्ू--आदि कारण को; परिपूर्णम्--सर्वतः पूर्ण; ईडे--मैं नमस्कार करता हूँ |
ऐसे अनन्य भक्त जिन्हें भगवान् की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई चाह नहीं रहती, वेपूर्णतः: शरणागत होकर उनकी पूजा करते हैं और उनके आश्चर्यजनक तथा शुभ कार्यकलापों केविषय में सदैव सुनते तथा कीर्तन करते हैं |
इस प्रकार वे सदैव दिव्य आनन्द के सागर में मग्नरहते हैं |
ऐसे भक्त भगवान् से कोई वरदान नहीं माँगते, किन्तु मैं तो संकट में हूँ |
अतएव मैं उनभगवान् की स्तुति करता हूँ जो शाश्वत रूप में विद्यमान हैं, जो अदृश्य हैं, जो ब्रह्मा जैसेमहापुरुषों के भी स्वामी हैं और जो केवल दिव्य भक्तियोग द्वारा ही प्राप्य हैं |
अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण वे मेरी इन्द्रियों की पहुँच से तथा समस्त बाह्य अनुभूति से परे हैं |
वे असीम हैं, वेआदि कारण हैं और सभी तरह से पूर्ण हैं |
मैं उनको नमस्कार करता हूँ |
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्वराचरा: |
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृता: ॥
२२॥
यथार्चिषोग्ने: सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत्स्वरोचिष: |
तथा यतोयं गुणसम्प्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गा: ॥
२३॥
सबै न देवासुरमर्त्यतिर्यड्श़ न स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तु: |
नायं गुण: कर्म न सन्न चासन्निषेधशेषो जयतादशेष: ॥
२४॥
यस्य-- भगवान् का; ब्रह्य-आदय:--ब्रह्मा इत्यादि देवता; देवा:--तथा अन्य देवता; वेदा:--वैदिक ज्ञान; लोका:--विभिन्नपुरुष; चर-अचरा: --जड़ ( यथा वृक्ष ) तथा चेतन; नाम-रूप--विभिन्न नामों तथा विभिन्न रूपों के; विभेदेन--ऐसे विभागोंद्वारा; फल्गव्या--कम महत्त्वपूर्ण; च-- भी; कलया--अंशों से; कृता:--उत्पन्न; यथा--जिस तरह; अर्चिष: --स्फुलिंग;अग्ने:--अग्नि के; सवितु:--सूर्य से; गभस्तयः--चमकीले कण; निर्यान्ति--बाहर निकलते हैं; संयान्ति--तथा प्रवेश करते हैं;असकृत्-- पुनः पुनः; स्व-रोचिष: --अंशरूप; तथा-- उसी प्रकार से; यत:-- भगवान् जिससे; अयम्--यह; गुण-सम्प्रवाह: --प्रकृति के विभिन्न गुणों का निरन्तर प्राकट्य; बुद्धि: मनः--बुद्धि तथा मन; खानि--इन्द्रियाँ; शरीर--शरीर की ( स्थूल तथासूक्ष्म ); सर्गा:--विभाग; सः--वह परमात्मा; बै--निस्सन्देह; न--नहीं है; देव--देवता; असुर--असुर; मर्त्य--मनुष्य;तिर्यक्ू-पक्षी या पशु; न--न तो; स्त्री--स्त्री; न--न तो; षण्ढ:--क्लीव; न--न तो; पुमान्ू--मनुष्य; न--न तो; जन्तु:--जीव या पशु; न अयमू--न तो वह है; गुण:-- भौतिक गुण; कर्म--सकाम कर्म; न--न तो; सत्--प्राकट्य; न--न तो; च--भी; असत्--अप्राकट्य; निषेध--नेति-नेति का भेदभाव; शेष:--वह अन्त है; जयतात्--उनकी जय हो; अशेष:--जो अनन्तहै
भगवान् अपने सूक्ष्म अंश जीव तत्त्व की सृष्टि करते हैं जिसमें ब्रह्मा, देवता तथा वैदिक ज्ञानके अंग ( साम, ऋग्, यजुर् तथा अथर्व ) से लेकर अपने-अपने नामों तथा गुणों सहित समस्तचर तथा अचर प्राणी सम्मिलित हैं |
जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग या सूर्य की चमकीली किरणोंअपने स्त्रोत से निकल कर पुनः उसी में समा जाती हैं उसी प्रकार मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, स्थूलभौतिक तथा सूक्ष्म भौतिक शरीर तथा प्रकृति के गुणों के सतत रूपान्तर ( विकार )--ये सभीभगवान् से उद्भूत होकर पुनः उन्हीं में समा जाते हैं |
वे न तो देव हैं न दानव, न मनुष्य न पक्षीया पशु हैं |
वे न तो स्त्री या पुरुष या क्लीव हैं और न ही पशु हैं |
न ही वे भौतिक गुण, सकामकर्म, प्राकट्य या अप्राकट्य हैं |
वे 'नेति-नेति' का भेदभाव करने में अन्तिम शब्द हैं और वेअनन्त हैं |
उन भगवान् की जय हो |
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या |
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ॥
२५॥
जिजीविषे--दीर्घकाल तक रहने की इच्छा; न--नहीं; अहम्--मैं; इह--इस जीवन में; अमुया--या अगले जीवन में ( इससंकट से बच जाने पर मैं जीना नहीं चाहता ); किमू--क्या लाभ; अन्तः--भीतर से; बहि:ः--बाहर से; च--तथा; आवृतया--अज्ञान से आच्छादित; इभ-योन्या--हाथी रूप इस जन्म में; इच्छामि--मेरी इच्छा है; कालेन--काल के प्रभाव से; न--नहीं है;यस्य--जिसका; विप्लव:--संहार; तस्य--उस; आत्म-लोक-आवरणस्य--आत्म-साक्षात्कार के आवरण से; मोक्षम्-मोक्ष |
घड़ियाल के आक्रमण से मुक्त किये जाने के बाद मैं और आगे जीवित रहना नहीं चाहता |
हाथी के शरीर से क्या लाभ जो भीतर तथा बाहर से अज्ञान से आच्छादित हो ? मैं तो अज्ञान केआवरण से केवल नित्य मोक्ष की कामना करता हूँ |
यह आवरण काल के प्रभाव से विनष्ट नहींहोता |
सोउहं विश्वसृजं विश्वमविश्व॑ विश्ववेद्सम् |
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि पर पदम् ॥
२६॥
सः--वह; अहम्--मैं ( भौतिक जीवन से छुटकारा चाहने वाला ); विश्व-सृजम्--इस विश्व का सृजन करने वाले को; विश्वम्--जो स्वयं सम्पूर्ण विश्व स्वरूप है; अविश्वम्-विश्व से परे; विश्व-वेदसम्--इस विश्व के ज्ञाता को या इस विश्व के अवयव को;विश्व-आत्मानम्--विश्व की आत्मा को; अजमू-- अजन्मा को; ब्रह्म--परम; प्रणतः अस्मि--नमस्कार करता हूँ; परम्--दिव्य;पदम्ू--आश्रयशरण
भौतिक जीवन से मोक्ष की कामना करता हुआ अब मैं उस परम पुरुष को सादर नमस्कारकरता हूँ जो इस ब्रह्माण्ड का स्त्रष्टा है, जो साक्षात् विश्व का स्वरूप होते हुए भी इस विश्व से परेहै |
वह इस जगत में हर वस्तु का परम ज्ञाता है, ब्रह्माण्ड का परमात्मा है |
वह अजन्मा है औरपरम पद पर स्थित भगवान् है |
उसे मैं सादर नमस्कार करता हूँ |
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते |
योगिनो य॑ प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोस्म्यहम् ॥
२७॥
योग-रन्धित-कर्माण:--ऐसे व्यक्ति जिनके सकाम कर्मों के फल भक्तियोग द्वारा जलाये जा चुके हैं; हदि--हृदय में; योग-विभाविते-- पूर्णतः शुद्ध तथा विमल; योगिन: --दक्ष योगी; यम्-- भगवान् को; प्रपश्यन्ति-- प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं; योग-ईशम्--समस्त योग के स्वामी, भगवान् को; तम्--उसको; नतः अस्मि--नमस्कार करता हूँ; अहम्--मैं |
मैं उन ब्रह्म, परमात्मा, समस्त योग के स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो सिद्ध योगियोंद्वारा अपने हृदयों में तब देखे जाते हैं जब उनके हृदय भक्तियोग के अभ्यास द्वारा सकाम कर्मोके फलों से पूर्णतया शुद्ध तथा मुक्त हो जाते हैं |
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय |
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥
२८॥
नमः--नमस्कार करता हूँ; नम:ः--पुनः नमस्कार है; तुभ्यमू--तुमको; असहा--दुस्तर; बेग--वेग, प्रवाह; शक्ति-त्रयाय--तीनशक्तियों वाले परम पुरुष को; अखिल--ब्रह्माण्ड का; धी--बुद्धि के लिए; गुणाय--इन्द्रिय-विषयों के रूप में प्रकट होनेवाले; प्रपन्न-पालाय--शरणागतों को शरण देने वाले ब्रह्म को; दुरन््त-शक्तये--दुर्जय शक्ति वाले; कत्-इन्द्रियाणाम्--उनव्यक्तियों द्वारा जो इन्द्रिय-संयम करने में अक्षम हैं; अनवाप्य--दुर्लभ; वर्त्मने--पथ पर |
हे प्रभु! आप तीन प्रकार की शक्तियों के दुस्तर वेग के नियामक हैं |
आप समस्त इन्द्रियसुखके आगार हैं और शरणागत जीवों के रक्षक हैं |
आप असीम शक्ति के स्वामी हैं, किन्तु जो लोगअपनी इन्द्रियों को वश में रखने में अक्षम हैं, वे आप तक नहीं पहुँच पाते |
मैं आपको बारम्बारसादर नमस्कार करता हूँ ॥
नायं वेद स्वमात्मानंयच्छक्त्याहंधिया हतम् |
त॑ दुरत्ययमाहात्म्यंभगवन्तमितोउस्म्यहम् ॥
२९॥
न--नहीं; अयम्--सामान्य लोग; वेद--जानते हैं; स्वमू-- अपनी; आत्मानम्--पहचान; यत्-शकक्त्या--जिसके प्रभाव से;अहम्--ैं स्वतंत्र हूँ; धिया--इस बुद्धि से; हतम्--पराजित या आच्छादित; तम्--उसको; दुरत्यय--समझने में कठिन;माहात्म्यमू--जिसका यश; भगवन्तमू-- भगवान् का; इत:ः--शरण लेकर; अस्मि अहमू--मैं हूँ |
मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जिनकी माया से ईश्वर का अंश जीवदेहात्मबुद्धि के कारण अपनी असली पहचान को भूल जाता है |
मैं उन भगवान् की शरण ग्रहणकरता हूँ जिनके यश को समझ पाना कठिन है |
श्रीशुक उवाचएवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेष॑ब्रह्मादयो विविधलिड्डरभिदाभिमाना: |
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात्तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीतू ॥
३०॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; गजेन्द्रमू--गजेन्द्र को; उपवर्णित--जिसका वर्णन;निर्विशेषम्--किसी विशेष व्यक्ति के लिए न होकर ( किन्तु ब्रह्म के लिए यद्यपि वह यह नहीं जानता था कि ब्रह्म कौन है );ब्रह्मा-आदय:--ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा चन्द्र जैसे देवता; विविध--नाना प्रकार के; लिड्-भिदा--पृथक्-पृथक् स्वरूपों से;अभिमाना:--अपने को पृथक् सत्ता मानते हुए; न--नहीं; एते--सभी; यदा--जब; उपससूपु:--पास आया; निखिल-आत्मकत्वात्ू-- भगवान् के हरएक के परमात्मा होने से; तत्र--वहाँ; अखिल--ब्रह्माण्ड का; अमर-मय:--देवताओं से युक्त( जो शरीर के केवल बाहरी अंग हैं ); हरिः--भगवान्जो हर वस्तु का हरण कर सकते हैं; आविरासीत्--प्रकट हुआ ( हाथीके समक्ष )
श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब गजेन्द्र किसी व्यक्ति विशेष का नाम न लेकरपरम पुरुष का वर्णन कर रहा था, तो उसने ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, चन्द्र इत्यादि देवताओं का आह्वाननहीं किया |
अतएव इनमें से कोई भी उसके पास नहीं आये |
किन्तु चूँकि भगवान् हरि परमात्मा,पुरुषोत्तम हैं अतएव वे गजेन्द्र के समक्ष प्रकट हुए |
तं तद्ददार्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्र निशम्य दिविजै: सह संस्तुवद्धिः |
छन्दोमयेन गरुडेन समुहामान-अश्रक्रायुधो भ्यगमदाशु यतो गजेन्द्र: ॥
३१॥
तम्--उसको ( गजेन्द्र को ); तद्बत्ू--उस तरह से; आर्तम्ू-दुखी ( घड़ियाल के आक्रमण से ); उपलभ्य--समझकर; जगत्-निवास:--भगवान्, जो सर्वत्र विद्यमान हैं; स्तोत्रमू--स्तुति; निशम्य--सुनकर; दिविजैः--स्वर्गलोक के निवासियों के; सह--साथ; संस्तुवद्ध्धिः--स्तुति करने वालों के द्वारा; छन््दोमयेन--उनकी इच्छित गति से; गरुडेन--गरुड़ द्वारा; समुहामान: --ले जायेजाकर; चक्र--चक्रधारण किये हुए; आयुध:--अन्य हथियार यथा गदा; अभ्यगमत्--आ गये; आशु--तुरन््त; यत:--जहाँ;गजेन्द्र:--गजेन्द्र स्थित था |
गजेन्द्र के प्रार्थना करने के कारण उसकी विकट स्थिति को समझने के पश्चात् सर्वत्र निवासकरने वाले भगवान् हरि देवताओं समेत वहाँ प्रकट हुए |
ये देवता उनकी स्तुति कर रहे थे |
अपनेहाथों में चक्र तथा अन्य आयुध लिए और अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर सवार होकर वे तीत्रगति से अपनी इच्छानुसार गजेन्द्र के समक्ष प्रकट हुए |
सोडन्तःसरस्युरुबलेन गृहीत आर्तोइृष्टा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम् |
उत्क्षिप्प साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा-न्ञारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥
३२॥
सः--वह ( गजेन्ध ); अन्त:-सरसि--जल में; उरु-बलेन--बलपूर्वक; गृहीत:--जो घड़ियाल द्वारा पकड़ा गया था; आर्त:--तथा अत्यन्त पीड़ित; दृष्टा--देखकर; गरुत्मति--गरुड़ की पीठ पर; हरिम्-- भगवान् को; खे--आकाश में; उपात्त-चक्रम्--अपना चक्र घुमाते; उत्क्षिप्प--उठा कर; स-अम्बुज-करम्ू--कमल का फूल लिए अपनी सूंड़ को; गिरमू-आह--शब्द कहे;कृच्छात्--कठिनाई से; नारायण--हे भगवान्, नारायण; अखिल-गुरो--हे विश्व के स्वामी; भगवन्--हे भगवान्; नमः ते--मैंनमस्कार करता हूँ |
घड़ियाल ने गजेन्द्र को जल में बलपूर्वक पकड़ रखा था जिससे वह अत्यधिक पीड़ा काअनुभव कर रहा था, किन्तु जब उसने देखा कि नारायण अपना चक्र घुमाते हुए गरुड़ की पीठ पर बैठ कर आकाश में आ रहे हैं, तो उसने तुरन्त ही अपनी सूंड़ में कमल का एक फूल ले लियाऔर अपनी वेदना के कारण अत्यन्त कठिनाई से निम्नलिखित शब्द कहे 'हे भगवान्, नारायण,हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे परमेश्वर! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
'तं वीक्ष्य पीडितमज: सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार |
ग्राह्मट्विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसंपश्यतां हरिर्मूमुचदुच्छियाणाम् ॥
३३॥
तम्--उसको ( गजेन्द्र को ); वीक्ष्य--( उस अवस्था में ) देख कर; पीडितम्--पीड़ित; अज:--अजन्मा भगवान्; सहसा--अचानक; अवतीर्य--( गरुड़ से ) उतरकर; स-ग्राहमू--घड़ियाल सहित; आशु--तुरन्त; सरस:--जल से; कृपया--कृपाकरके; उजहार--बाहर निकाल लिया; ग्राहत्ू-घड़ियाल से; विपाटित--अलग किया; मुखात्--मुख से; अरिणा--चक्र से;गजेन्द्रमू--गजेन्द्र को; सम्पश्यताम्--जो देख रहे थे; हरि:-- भगवान्; अमूम्--उसको ( गजेन्द्र को ); उचत्--बचा लिया;उच्छियाणाम्--सभी देवताओं की उपस्थिति में |
तत्पश्चात् गजेन्द्र को ऐसी पीड़ित अवस्था में देखकर अजन्मा भगवान् हरि तुरन्त अहैतुकी कृपावश गरुड़ की पीठ से नीचे उतरे और गजेन्द्र को घड़ियाल समेत जल के बाहर खींच लाये |
तब समस्त देवताओं की उपस्थिति में जो सारा दृश्य देख रहे थे, भगवान् ने अपने चक्र सेघड़ियाल के मुख को उसके शरीर से पृथक् कर दिया |
इस प्रकार उन्होंने गजेन्द्र को बचा लिया |
अध्याय चार: गजेंद्र की आध्यात्मिक दुनिया में वापसी
8.4श्रीशुक उबाचतदा देवर्षिगन्धर्वा ब्रहोशानपुरोगमा: |
मुमुचुः कुसुमासारंशंसन्तः कर्म तद्धरे: ॥
१॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तदा--उस अवसर पर ( जब गजेन्द्र का उद्धार हो गया ); देव-ऋषि-गन्धर्वा:--देवता, ऋषि तथा गन्धर्व; ब्रह्म-ईशान-पुरोगमा:--ब्रह्मा तथा शिवजी इत्यादि ने; मुमुचु:--वर्षा की; कुसुम-आसारम्--फूलों का आवरण; शंसन्त:--प्रशंसा करते हुए; कर्म--दिव्य कर्म; तत्ू--उस ( गजेन्द्र मोक्षण ); हरेः-- भगवान्का
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भगवान् ने गजेन्द्र का उद्धार कर दिया तो सारे ऋषियों,गन्धर्वों तथा ब्रह्मा, शिव इत्यादि देवताओं ने भगवान् के इस कार्य की प्रशंसा की और भगवान्तथा गजेन्द्र दोनों के ऊपर पुष्पवर्षा की |
नेदुर्दुन्दुभयो दिव्या गन्धर्वा ननृतुर्जगु: |
ऋषयश्चारणा: सिद्धास्तुष्ठवु: पुरुषोत्तमम् ॥
२॥
नेदु:--बजने लगीं; दुन्दुभय:--दुन्दुभियाँ; दिव्या:--स्वर्ग लोक के आकाश में; गन्धर्वा:--गन्धर्व लोक के वासी; ननृतु:--नाचने लगे; जगुः--तथा गाने लगे; ऋषय: --सारे ऋषि; चारणा: --चारण लोक के निवासी; सिद्धा:--सिद्ध लोक के वासियोंने; तुष्ठवुः--स्तुति की; पुरुष-उत्तमम्--पुरुषोत्तम भगवान् की |
स्वर्ग लोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्वलोक के वासी नाचने और गाने लगे तथा महान्ऋषियों और चारणलोक एवं सिद्धलोक के निवासियों ने भगवान् पुरुषोत्तम की स्तुतियाँ कीं |
योउसौ ग्राह: स वै सद्यः परमाश्चर्यरूपधृक् |
मुक्तो देवलशापेन हूहूर्गन्धर्वसत्तम: ॥
३॥
प्रणम्य शिरसाधीशमुत्तमशलोकमव्ययम् |
अगायत यशोधाम कीर्तन्यगुणसत्कथम् ॥
४॥
यः--जो; असौ--वह; ग्राह:--घड़ियाल बन गया; सः--वह; बै--निस्सन्देह; सद्यः--तुरन््त; परम--अत्यन्त सुन्दर; आश्चर्य --अदभुत; रूप-धृक्--रूप धारण किये ( अपने मूल गन्धर्व रूप को ); मुक्त:--मुक्त हो गया; देवल-शापेन--देवल ऋषि केशाप से; हूहू: --हूहू नामक; गन्धर्व-सत्तम:--गयन्धर्वो में श्रेष्ठ; प्रणम्य--प्रणाम करके; शिरसा--सिर के बल; अधीशम्--परमप्रभु को; उत्तम-एलोकम्-- श्रेष्ठ श्लोकों द्वारा पूजा किया जाने वाला; अव्ययम्--नित्य; अगायत--उच्चारण करने लगा; यशः-धाम--भगवान् की महिमा; कीर्तन्य-गुण-सत्-कथम्--जिसकी दिव्य लीलाएँ तथा गुण यशस्वी हैं |
गन्धर्बों में श्रेष्ठ राजा हूहू देवल मुनि द्वारा शापित होने के बाद घड़ियाल बन गया था |
अबभगवान् द्वारा उद्धार किये जाने पर उसने एक सुन्दर गन्धर्व का रूप धारण कर लिया |
यहसमझकर कि यह सब किसकी कृपा से सम्भव हो सका, उसने तुरन्त सिर के बल प्रणाम कियाऔर श्रेष्ठ एलोकों से पूजित होने वाले परम नित्य भगवान् के लिए उपयुक्त स्तुतियाँ कीं |
सो<नुकम्पित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम् |
लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्तकिल्बिष: ॥
५॥
सः--वह ( राजा हूहू ); अनुकम्पित:--कृपा पात्र बनकर; ईशेन-- भगवान् द्वारा; परिक्रम्य--परिक्रमा करके; प्रणम्य--प्रणामकरके; तम्--उसको; लोकस्य--सारे देवताओं तथा मनुष्यों के; पश्यत:--देखते-देखते; लोकम्--लोक को; स्वम्--अपने;अगात्--वापस चला गया; मुक्त--मुक्त होकर; किल्बिष:--अपने पापों के फलों से |
भगवान् की अहैतुकी कृपा से अपने पूर्व रूप को पाकर राजा हूहू ने भगवान् की प्रदक्षिणाकी और उन्हें नमस्कार किया |
तब ब्रह्मा इत्यादि समस्त देवताओं की उपस्थिति में वह गन्धर्वलोक लौट गया |
वह सारे पापफलों से मुक्त हो चुका था |
गजेन्द्रो भगवत्स्पर्शाद्विमुक्तोउज्ञानबन्धनात् |
प्राप्तो भगवतो रूप॑ पीतवासाश्चतुर्भुजः ॥
६॥
गजेन्द्र:--हाथियों का राजा गजेन्द्र; भगवत्ू-स्पर्शात्- भगवान् के हाथों का स्पर्श पाने से; विमुक्त:--तुरन्त मुक्त हो गया;अज्ञान-बन्धनातू--सब प्रकार के अज्ञान से, विशेषतया देहात्मबुद्धि से; प्राप्तः:--पाकर; भगवतः-- भगवान् के; रूपम्--वहीशारीरिक स्वरूप; पीत-वासा:--पीले वस्त्र पहने; चतु:-भुज:--तथा चार भुजाओं वाला, जिनमें वह शंख, चक्र, गदा तथाकमल लिए था |
चूँकि गजेन्द्र का प्रत्यक्ष स्पर्श भगवान् ने अपने करकमलों से किया था अतएव वह समस्तभौतिक अज्ञान तथा बन्धन से तुरन्त मुक्त हो गया |
इस प्रकार उसे सारूप्य-मुक्ति प्राप्त हुई जिसमेंउसे भगवान् जैसा ही शारीरिक स्वरूप प्राप्त हुआ |
वह पीत वस्त्र धारण किये चार भुजाओंवाला बन गया |
स वै पूर्वमभूद्राजा पाण्ड्यो द्रविडसत्तम: |
इन्द्रद्युम्न इति ख्यातो विष्णुत्रतपरायण: ॥
७॥
सः--वह हाथी ( गजेन्द्र ); बै--निस्सन्देह; पूर्वम्--पूर्वजन्म में; अभूत्-- था; राजा--राजा; पाण्ड्य:--पाण्डय नामक देश का;द्रविड-सतू-तमः--द्रविड़ देश ( दक्षिण भारत ) में उत्पन्न होने वालों में श्रेष्ठ; इन्द्रद्यम्म:--महाराज इन्द्रद्ुम्म; इति--इस प्रकार;ख्यात:--प्रसिद्ध; विष्णु-ब्रत-परायण:-- भगवान् की सेवा में सदैव लगा रहने वाला प्रथम कोटि का वैष्णव |
यह गजेन्द्र पहले वैष्णव था और द्रविड़ ( दक्षिण भारत ) प्रान्त के पाण्डय नामक देश काराजा था |
अपने पूर्व जन्म में वह इन्द्रद्यम्म महाराज कहलाता था |
स एकदाराधनकाल आत्मवानूगृहीतमौनक्रत ईश्वर हरिम् |
जटाधरस्तापस आप्लुतोच्युतंसमर्चयामास कुलाचलाश्रम: ॥
८ ॥
सः--वह, इन्द्रद्यम्म महाराज; एकदा--एक बार; आराधन-काले--देव पूजा के समय; आत्मवान्--अत्यन्त मनोयोग से भक्तिमें लगा; गृहीत--धारण किये; मौन-व्रतः--किसी से न बोलने का अनुष्ठान; ईश्वरम्--परम नियन्ता; हरिम्-- भगवान् को;जटा-धरः--जटाधारी; तापस:--तपस्या में तल्लीन; आप्लुत:--भगवत्प्रेम में तल्लीन; अच्युतम्--अच्युत भगवान् को;समर्चयाम् आस--पूजा कर रहा था; कुलाचल-आश्रम: --कुलाचल ( मलयपर्वत ) स्थित उसका आश्रम |
इन्द्रद्यम्म महाराज ने गृहस्थ जीवन से वैराग्य ले लिया और मलय पर्वत चला गया जहाँउसका आश्रम एक छोटी सी कुटिया के रूप में था |
उसके सिर पर जटाएँ थीं और वह सदैवतपस्या में लगा रहता था |
एक बार वह मौन ब्रत धारण किये भगवान् की पूजा में तल्लीन थाऔर भगवत्प्रेम के आनंद में डूबा हुआ था |
यहच्छया तत्र महायशा मुनिःसमागमच्छिष्यगणै: परिश्रितः |
त॑ वीक्ष्य तृष्णीमकृताहणादिककंरहस्युपासीनमृषिश्ुकोप ह ॥
९॥
यहच्छया--अपनी इच्छा से ( बिना बुलाये ); तत्र--वहाँ; महा-यशा:--सुविख्यात; मुनि:--अगस्त्य मुनि; समागमत्--पधारे;शिष्य-गणै: -- अपने शिष्यों से; परिश्रित:--घिरे हुए; तम्--उसको; वीक्ष्य--देखकर; तूष्णीम्ू--मौन; अकृत-अर्हण-आदिकम्--स्वागत-सत्कार किये बिना; रहसि--एकान्त स्थान में; उपासीनमू-- ध्यान में बैठे; ऋषि: --ऋषि; चुकोप--अत्यन्तक्ुद्ध हुआ; ह--ऐसा हुआ कि |
जब इन्द्रद्यम्न महाराज भगवान् की पूजा करते हुए ध्यान में तल्लीन थे तो अगस्त्य मुनिअपनी शिष्य-मण्डली समेत वहाँ पधारे |
जब मुनि ने देखा कि राजा इन्द्रद्यम्न एकान्त स्थान मेंबैठकर मौन साथे हैं और उनके स्वागत के शिष्टाचार का पालन नहीं कर रहे हैं, तो वे अत्यन्तकुब्ध हुए |
तस्मा ड्मं शापमदादसाधु-रयं दुरात्माकृतबुद्धिरद्य |
विप्रावमन्ता विशतां तमिस्त्रयथा गज: स्तब्धमति: स एव ॥
१०॥
तस्मै--महाराज इन्द्रद्यम्न को; इमम्--यह; शापम्--शाप; अदात्--दे डाला; असाधु:--अभद्र; अयम्--यह; दुरात्मा--नीचव्यक्ति; अकृत--अशिक्षित; बुर्द्धिः--उसकी बुद्धि; अद्य--अब; विप्र--ब्राह्ण का; अवमन्ता--अपमान करने वाला;विशताम्-- प्रवेश करे; तमिस्त्रमू--अंधकार में; यथा--जिस तरह; गज:--एक हाथी; स्तब्ध-मति:--कुन्द बुद्धि वाला; सः--वह; एव--निस्सन्देह |
तब अगस्त्य मुनि ने राजा को यह शाप दे डाला---' इन्द्रद्यम्म तनिक भी भद्र नहीं है |
नीचतथा अशिक्षित होने के कारण इसने ब्राह्मण का अपमान किया है |
अतएवं यह अंधकार प्रदेशमें प्रवेश करे और आलसी मूक हाथी का शरीर प्राप्त करे |
श्रीशुक उबाचएवं शप्त्वा गतोगस्त्यो भगवात्रूप सानुग: |
इन्द्रद्युम्नोपि राजर्षिदिष्ट तदुपधारयन् ॥
११॥
आपन्नः कौझ्जरीं योनिमात्मस्मृतिविनाशिनीम् |
हर्यर्चनानुभावेन यद््गजत्वेप्यनुस्मृति: ॥
१२॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; शप्त्वा--शाप देने के बाद; गत:--उस स्थान को त्यागदिया; अगस्त्य:--अगस्त्य मुनि ने; भगवान्--इतने शक्तिशाली; नृप--हे राजा; स-अनुग: --अपने संगियों समेत; इन्द्रद्युम्न: --राजा इन्द्रद्यम्म; अपि--भी; राजर्षि:--यद्यपि वह राजर्षि था; दिष्टमू--विगत कर्मों के कारण; तत्--वह शाप; उपधारयनू--मानते हुए; आपतन्न:--प्राप्त किया; कौज्शरीम्ू--हाथी की; योनिम्--योनि; आत्म-स्मृति-- अपनी याद; विनाशिनीम्ू--नष्ट करनेवाली; हरि--भगवान्; अर्चन-अनुभावेन--पूजा करने के कारण; यत्--उस; गजत्वे--हाथी के शरीर में; अपि-- यद्यपि;अनुस्मृतिः:--अपनी विगत भक्ति को स्मरण करने का सुअवसर |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा! अगस्त्य मुनि राजा इन्द्रद्यम्न को इस तरह शापदेने के बाद अपने शिष्यों समेत उस स्थान से चले गये |
चूँकि राजा भक्त था अतएवं उसनेअगस्त्य मुनि के शाप का स्वागत किया क्योंकि भगवान् की ऐसी ही इच्छा थी |
अतएवं अगलेजन्म में हाथी का शरीर प्राप्त करने पर भी भक्ति के कारण उसे यह स्मरण रहा कि भगवान् कीपूजा और स्तुति किस तरह की जाती है |
एवं विमोक्ष्य गजयूथपमब्जनाभ-स्तेनापि पार्षदगतिं गमितेन युक्त: |
गन्धर्वसिद्धविबुधेरुपगीयमान-कर्माद्भुतं स्वभवनं गरुडासनोगात् ॥
१३॥
एवम्--इस प्रकार; विमोक्ष्य--उद्धार करके; गज-यूथ-पम्--हाथियों के राजा, गजेन्द्र को; अब्ज-नाभ:--भगवान् जिनकीनाभि से कमल निकलता है; तेन--उसके ( गजेन्द्र ) द्वारा; अपि--भी; पार्षद-गतिम्-- भगवान् के पार्षद का पद; गमितेन--पहले से प्राप्त; युक्त:--के साथ-साथ; गन्धर्व--गन्धर्व लोक के निवासी; सिद्ध--सिद्ध लोक के निवासी; विबुधे:--तथाबड़े-बड़े ऋषि मुनियों के द्वारा; उपगीयमान--महिमामंडित होकर; कर्म--जिसके कार्यकलाप; अद्भुतम्-- आश्चर्यजनक; स्व-भवनम्--अपने धाम को; गरुड-आसन:--गरुड़ पर आसीन होकर; अगातू--लौट गये |
गजेन्द्र को घड़ियाल के चंगुल से तथा इस भौतिक संसार से जो घड़ियाल जैसा लगता है |
घड़ियाल जैसे ही इस भौतिक जगत छुड़ाकर भगवान् ने उसे सारूप्य मुक्ति प्रदान की |
भगवान्के अद्भुत दिव्य कार्यकलापों का यश बखान करने वाले गन्धर्वो, सिद्धों तथा अन्य देवताओंकी उपस्थिति में, भगवान् अपने वाहन गरुड़ की पीठ पर बैठकर अपने अद्भुत धाम को लौटगये और अपने साथ गजेन्द्र को भी लेते गये |
एतन्महाराज तवेरितो मयाकृष्णानुभावो गजराजमोक्षणम् |
स्वर्ग्य यशस्यं कलिकल्मषापहंदुःस्वणनाशं कुरुवर्य श्रुण्वताम् ॥
१४॥
एतत्--यह; महा-राज--हे राजा परीक्षित; तब--तुमसे; ईरित: --वर्णन किया गया; मया--मेरे द्वारा; कृष्ण-अनुभाव:--भगवान् कृष्ण की असीम शक्ति ( जिससे वे भक्त का उद्धार कर सकते हैं ); गज-राज-मोक्षणम्--हाथियों के राजा की मोक्ष-प्राप्ति; स्वर्ग्यम्--स्वर्गलोक के लिए प्रोन्नति; यशस्यम्--भक्त के रूप में अपनी ख्याति बढ़ाने; कलि-कल्मष-अपहम्--कलियुग के कल्मष को कम करने; दुःस्वप्न-नाशम्--बुरे स्वप्नों के कारणों का निराकरण करने; कुरु-वर्य--हे कुरु श्रेष्ठ;श्रुण्वतामू--इस कथा के सुनने वालों को |
हे राजा परीक्षित! अब मैंने तुमसे कृष्ण की अद्भुत शक्ति का वर्णन कर दिया है, जिसेभगवान् ने गजेन्द्र का उद्धार करके प्रदर्शित किया था |
हे कुरु श्रेष्ठ) जो लोग इस कथा को सुनतेहैं, वे उच्चलोकों में जाने के योग्य बनते हैं |
इस कथा के श्रवण मात्र से वे भक्त के रूप मेंख्याति अर्जित करते हैं, वे कलियुग के कल्मष से अप्रभावित रहते हैं और कभी दुःस्वप्न नहींदेखते |
यथानुकीर्तयन्त्येतच्छेयस्कामा द्विजातय: |
शुचय: प्रातरुत्थाय दुःस्वप्नाद्युपशान्तये ॥
१५॥
यथा--विचलित हुए बिना; अनुकीर्तयन्ति-- कीर्तन करते हैं; एतत्--गजेन्द्र मोक्ष की यह कथा; श्रेयः-कामा:--अपनाकल्याण चाहने वाले; द्वि-जातय:--ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जाति वाले; शुचयः--विशेषतया ब्राह्मण, जो सदा स्वच्छ रहतेहैं; प्रातः--प्रातःकाल; उत्थाय--निद्रा से उठकर; दुःस्वप्न-आदि--रात्रि में ठीक से नींद न आने; उपशान्तये--सारे कष्टों कोशमन करने के लिए |
अतएव जो लोग अपना कल्याण चाहते हैं--विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य औरइनमें से भी मुख्यतः ब्राह्मण वैष्णब--उन्हें प्रातःकाल बिस्तर से उठकर अपने दुःस्वप्नों के कष्टोंको दूर करने के लिए इस कथा का बिना विचलित हुए यथारूप पाठ करना चाहिए |
इदमाह हरिः प्रीतो गजेन्द्रं कुरुसत्तम |
श्रुण्वतां सर्वभूतानां सर्वभूतमयो विभु: ॥
१६॥
इदम्ू--यह; आह--कहा; हरिः-- भगवा न् ने; प्रीत:--प्रसन्न होकर; गजेन्द्रमू--गजेन्द्र से; कुरू-सत्-तम--हे कुरुवंश मेंसर्वश्रेष्ठ; श्रृण्वताम्--सुनते हुए; सर्व-भूतानामू--हरएक की उपस्थिति में; सर्व-भूत-मय:--सर्वव्यापी भगवान् ने; विभु:--महान् |
हे कुरुश्रेष्ठ! इस प्रकार हरएक के परमात्मा अर्थात् भगवान् ने प्रसन्न होकर सबों के समक्षगजेन्द्र को सम्बोधित किया |
उन्होंने निम्नलिखित आशीष दिए |
श्रीभगवानुवाचये मां त्वां च सरश्वेदं गिरिकन्दरकाननम् |
वेत्रकीचकवेणूनां गुल्मानि सुरपादपान् ॥
१७॥
श्रुज्रणीमानि धिष्ण्यानि ब्रह्मणो मे शिवस्थ च |
क्षीरोदं मे प्रियं धाम श्रेतद्वीपं च भास्वरम् ॥
१८ ॥
श्रीवत्सं कौस्तुभं मालां गदां कौमोदकीं मम |
सुदर्शन पाञ्जजन्यं सुपर्ण पतगेश्वरम् ॥
१९॥
शेषं च मत्कलां सूक्ष्मां अ्रियं देवीं मदाभ्रयाम् |
ब्रह्माणं नारदमृषिं भवं प्रह्दमेव च ॥
२०॥
मत्स्यकूर्मवराहाद्यैरवतारै: कृतानि मे |
कर्माण्यनन्तपुण्यानि सूर्य सोमं हुताशनम् ॥
२१॥
प्रणव सत्यमव्यक्तं गोविप्रान्धर्ममव्ययम् |
दाक्षायणीर्धर्मपत्ती: सोमकश्यपयोरपि ॥
२२॥
गड्ढां सरस्वतीं नन््दां कालिन्दीं सितवारणम् |
ध्रुवं ब्रह्मऋषीन्सप्त पुण्यश्लोकांश्व मानवान् ॥
२३॥
उत्थायापररात्रान्ते प्रयता: सुसमाहिता: |
स्मरन्ति मम रूपाणि मुच्यन्ते तेडहसो ईखिलातू ॥
२४॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; ये--जो; माम्--मुझको; त्वामू--तुमको; च-- भी; सर: --झील, तालाब; च--भी;इदम्--यह; गिरि--( त्रिकूट ) पर्वत; कन्दर--गुफाएँ; काननम्--उद्यान; वेत्र--बेंत; कीचक--खोखला बाँस; वेणूनामू--अन्य प्रकार के बाँस के; गुल्मानि--समूह, कुंज; सुर-पादपान्ू--स्वर्गिक वृक्ष; श्रूड्डाणि --चोटियाँ; इमानि--ये; धिष्ण्यानि--घर, धाम; ब्रह्मण: --ब्रह्मा को; मे--मेरा; शिवस्थ--शिव का; च--भी; क्षीर-उदम्--दुग्धसागर; मे--मेरा; प्रियम्-- अत्यन्तप्रिय; धाम--स्थान; श्रेत-द्वीपम्-- श्वेत द्वीप नामक; च-- भी; भास्वरम्--आध्यात्मिक किरणों से सदैव चमचमाता;श्रीवत्सम्-- श्रीवत्स नामक चिह्न; कौस्तुभम्--कौस्तुभ मणि; मालामू--माला; गदाम्--गदा; कौमोदकीम्--कौमोदकीनामक; मम--मेरा; सुदर्शनम्--सुदर्शन चक्र; पाञ्नजन्यम्--पाझ्जजन्य नामक शंख; सुपर्णम्--गरुड़; पतग-ईश्वरम्-पक्षी -राज; शेषम्--शेष नाग नामक आसन; च--तथा; मत्-कलाम्--मेरा अंश; सूक्ष्माम्-- अत्यन्त सूक्ष्म; अियम् देवीम्--सम्पत्तिकी देवी को; मत्-आश्रयाम्--मुझ पर आश्चित; ब्रह्मणम्--ब्रह्माजी को; नारदम् ऋषिम्--नारद ऋषि को; भवम्--शिवजीको; प्रह्मदम् एव च--तथा प्रह्नद को भी; मत्स्य--मत्स्य अवतार; कूर्म--कूर्म अवतार; वराह--वराह अवतार; आद्यिः--आदि;अवतारैः--विभिन्न अवतारों के द्वारा; कृतानि--किये गये; मे--मेरे; कर्माणि--कार्यकलाप; अनन्त--असीम; पुण्यानि--शुभ,पवित्र; सूर्यम्--सूर्यदेव को; सोमम्--चन्द्र देव को; हुताशनम्--अग्निदेव को; प्रणबम्--ओंकार मंत्र को; सत्यम्ू--परम सत्यको; अव्यक्तम्--सम्पूर्ण भौतिकशक्ति को; गो-विप्रान्ू--गायों तथा ब्राह्मणों को; धर्मम्-- भक्ति को; अव्ययम्-- अव्यय;दाक्षायणी:--दक्ष की पुत्रियाँ; धर्म-पत्ती:--वैध्य पत्नियाँ; सोम--चन्द्र देव की; कश्यपयो: --तथा कश्यप ऋषि की; अपि--भी; गड़ाम्ू--गंगा नदी को; सरस्वतीम्--सरस्वती नदी को; नन्दामू--नन्दा नदी को; कालिन्दीमू--यमुना नदी को; सित-वारणम्--ऐरावत हाथी को; ध्रुवम्-- ध्रुव महाराज को; ब्रह्म-ऋषीन्ू--बड़े-बड़े ऋषियों को; सप्त--सात; पुण्य-शलोकान्--अत्यन्त पवित्र; च--तथा; मानवान्--मनुष्यों को; उत्थाय--उठकर; अपर-रात्र-अन्ते--रात्रि के अन्त में; प्रयता: --अत्यन्तसतर्क रहकर; सु-समाहिता:--एकाग्र चित्त से; स्मरन्ति--स्मरण करते हैं; मम--मेरे; रूपाणि--रूपों को; मुच्यन्ते--छूट जातेहैं; ते--ऐसे पुरुष; अंहसः--पापकर्मों के फल से; अखिलात्ू--सभी प्रकार के
भगवान् ने कहा : समस्त पापपूर्ण कर्मों के फलों से ऐसे व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं, जो रात्रिबीतने पर प्रातःकाल ही जग जाते हैं, अत्यन्त ध्यानपूर्वक अपने मनों को मेरे रूप, तुम्हारे रूप,इस सरोवर, इस पर्वत, कन्दराओं, उपवनों, बेंत के वृक्षों, बाँस के वृक्षों, कल्पतरू, मेरे, ब्रह्मातथा शिव के निवास स्थानों, सोना, चाँदी तथा लोहे से बनी त्रिकूट पर्वत की तीन चोटियों, मेरेसुहावने धाम ( क्षीरसागर ), आध्यात्मिक किरणों से नित्य चमचमाते श्वेत द्वीप, मेरे चिन्हश्रीवत्स, कौस्तुभ मणि, मेरी वैजयन्ती माला, कौमोदकी नामक मेरी गदा, मेरे सुदर्शन चक्र,तथा पाञ्जजन्य शंख, मेरे वाहन पक्षीराज गरुड़, मेरी शय्या शेषनाग, मेरी शक्ति का अंशलक्ष्मीजी, ब्रह्मा, नारद मुनि, शिवजी, प्रह्माद, मेरे सारे अवतारों यथा मत्स्य, कूर्म तथा वराह, मेरेअनन्त शुभ कार्यकलापों में जो सुनने वाले को पवित्रता प्रदान करते हैं, मेरे सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि,ओड्डार मंत्र, परम सत्य, समग्र भौतिक शक्तियों, गायों तथा ब्राह्मणों में, भक्ति, सोम तथाकश्यप की पत्तियों में जो राजा दक्ष की पुत्रियाँ हैं, गंगा, सरस्वती, नन्दा तथा यमुना नदियों,ऐरावत हाथी, ध्रुव महाराज, सप्तर्षि तथा पवित्र मनुओं में एकाग्र करते हैं |
ये मां स्तुवन्त्यनेनाड़ प्रतिबुध्य निशात्यये |
तेषां प्राणात्यये चाहं ददामि विपुलां गतिम्ू ॥
२५॥
ये--जो; माम्ू--मुझको ( मेरी ); स्तुवन्ति--प्रार्थना करते हैं; अनेन--इस प्रकार; अड़--हे राजा; प्रतिबुध्य--जगकर; निश-अत्यये--रात्रि के अन्त में; तेषामू--उनके लिए; प्राण-अत्यये--मृत्यु के समय; च-- भी; अहम्--मैं; ददामि--देता हूँ;विपुलाम्ू--नित्य, असीम; गतिम्ू--वैकुण्ठ लोक को स्थानान्तरण |
हे प्रिय भक्त! जो लोग रात्रि बीतने पर बिस्तर से उठकर तुम्हारे द्वारा अर्पित इस स्तुति से मेरीप्रार्थना करते हैं मैं उन्हें उनके जीवन के अन्त में वैकुण्ठ लोक में नित्य आवास प्रदान करता हूँ |
श्रीशुक उबाचइत्यादिश्य हृषीकेश: प्राध्माय जलजोत्तमम् |
हर्षयन्विबुधानीकमारुरोह खगाधिपम् ॥
२६॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आदिश्य--उपदेश देकर; हषीकेश: --हषीकेश नाम सेविख्यात भगवान्; प्राध्याय--बजाकर; जल-ज-उत्तमम्--जलचरों में उत्तम, शंख; हर्षयन्--प्रसन्न करते; विबुध-अनीकम्--देवताओं के समूह को, जिसमें ब्रह्मा तथा शिव प्रमुख हैं; आरुरोह--चढ़ गये; खग-अधिपम्--गरुड़ की पीठ पर |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस उपदेश को देकर हषीकेश भगवान् ने अपनापाञ्जजन्य शंख बजाया और इस प्रकार ब्रह्मा इत्यादि सारे देवताओं को हर्षित किया |
तब वेअपने वाहन गरुड़ की पीठ पर चढ़ गये |
अध्याय पाँच: देवता सुरक्षा के लिए भगवान से अपील करते हैं
8.5श्रीशुक उवाचराजब्ुदितमेतत्ते हरे: कर्माघनाशनम् |
गजेन्द्रमोक्षणं पुण्य रैवतं त्वन्तरं श्रूणु ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; राजन्ू--हे राजा; उदितम्--पहले ही वर्णन किया जा चुका; एतत्--यह;ते--तुमसे; हरेः-- भगवान् का; कर्म--कर्म; अघध-नाशनम्--जिसे सुनकर मनुष्य सारे पापों से मुक्त हो सकता है; गजेन्द्र-मोक्षणम्--गजेन्द्र के मोक्ष को; पुण्यम्--सुनने तथा वर्णन करने में अत्यन्त पवित्र; रैवतम््--रैवत मनु के विषय में; तु--लेकिन; अन्तरम्--इस युग में; श्रुणु--कृपया मुझसे सुनो |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा! मैंने तुमसे गजेन्द्रमोक्षण लीला का वर्णनकिया है, जो सुनने में अत्यन्त पवित्र है |
भगवान् की ऐसी लीलाओं के विषय में सुनकर मनुष्यसारे पापों के फलों से छूट सकता है |
अब मैं रैवत मनु का वर्णन कर रहा हूँ, कृपया उसे सुनो |
पञ्ञमो रैवतो नाम मनुस्तामससोदरः |
बलिविन्ध्यादयस्तस्य सुता हार्जुनपूर्वका: ॥
२॥
पश्मचमः--पाँचवाँ; रैवत:--रैवत; नाम--नामक; मनु:--मनु; तामस-सोदरः --तामस मनु का भाई; बलि--बलि; विन्ध्य--विन्ध्य; आदय:--इत्यादि; तस्थ--उसके; सुता:--पुत्र; ह--निश्चय ही; अर्जुन--अर्जुन; पूर्वका:--इनके पुत्रों में प्रधानतामस मनु का भाई रैवत पाँचवाँ मनु था |
उसके पुत्रों में अर्जुन, बलि तथा विन्ध्य प्रमुख थे |
विभुरिन्द्र: सुरगणा राजन्भूतरयादय: |
हिरण्यरोमा वेदशिरा ऊर्ध्वबाह्नादयो द्विजा: ॥
३॥
विभु:--विशभु; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; सुर-गणा:--देवता; राजन्--हे राजा; भूतरय-आदय: -- भूतरय आदि; हिरण्यरोमा--हिरण्यरोमा; वेदशिरा--वेदशिरा; ऊर्ध्वबाहु--ऊर्ध्वबाहु; आदय: --इ त्यादि; द्विजा:--ब्राह्मण या सातों लोकों के ऋषि |
हे राजा! रैवत मनु के युग में स्वर्ग का राजा ( इन्द्र ) विभु था, देवताओं में भूतरय इत्यादि थेऔर सप्त लोकों के अधिपति सात ब्राह्मण हिरण्यरोमा, वेदशिरा तथा ऊर्ध्वबाहु इत्यादि थे |
पतली विकुण्ठा शुभ्रस्य वैकुण्ठै: सुरसत्तमै: |
तयोः स्वकलया जज्ने वैकुण्ठो भगवान्स्वयम् ॥
४॥
पत्ली--पत्नी; विकुण्ठा--विकुण्ठा नाम की; शुभ्रस्य--शुभ्र की; बैकुण्ठै:--वैकुण्ठों सहित; सुर-सत्-तमैः --देवताओं केसाथ; तयो:--विकुण्ठा तथा शुभ्र से; स््व-कलया--स्वांश से; जज्ञे--प्रकट हुआ; बैकुण्ठ:-- भगवान्; भगवान्-- भगवान्;स्वयम्--साक्षात् |
शुभ्र तथा उसकी पत्नी विकुण्ठा के संयोग से भगवान् वैकुण्ठ अपने स्वांश देवताओं सहितप्रकट हुए |
वैकुण्ठ: कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः |
रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया ॥
५॥
वैकुण्ठ:--वैकुण्ठ लोक; कल्पित:--बनाया गया; येन--जिसके द्वारा; लोक:--लोक; लोक-नमस्कृत:--सभी लोकों द्वारा'पूजित; रमया--रमा, धन की देवी द्वारा; प्रार्थ्यमानेन--प्रार्थना किये जाने पर; देव्या--देवी द्वारा; तत्ू--उसको; प्रिय-काम्यया--प्रसन्न करने के लिए |
धन की लक्ष्मी ( रमा ) को प्रसन्न करने के लिए भगवान् वैकुण्ठ ने उनकी प्रार्थना पर एकअन्य वैकुण्ठ लोक की रचना की जो सब के द्वारा पूजा जाता है |
तस्यानुभावः कथितो गुणाश्र परमोदया: |
भौमान्रेणूज्स विममे यो विष्णोर्वर्णयेद्गुणान् ॥
६॥
तस्य--वैकुण्ठ के रूप में प्रकट होने वाले भगवान् को; अनुभाव:--महान् कार्यकलाप; कथित:--बताये जा चुके; गुणा:--दिव्य गुण; च-- भी; परम-उदया: -- अत्यन्त यशस्वी; भौमान्--पृथ्वी के; रेणूनू--कण; सः--जो कोई; विममे--गिन सकताहै; यः--ऐसा पुरुष; विष्णो:--विष्णु के; वर्णयेत्ू--गिन सकता है; गुणान्ू--दिव्य गुणों को |
यद्यपि भगवान् के विविध अवतारों के महान् कार्यों तथा दिव्य गुणों का अदभुत रीति सेवर्णन किया जाता है, किन्तु कभी-कभी हम उन्हें नहीं समझ पाते |
किन्तु भगवान् विष्णु केलिए सब कुछ सम्भव है |
यदि कोई ब्रह्माण्ड के सारे परमाणुओं को गिन सके तो वह भगवान्के गुणों की गणना कर सकता है |
किन्तु ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है |
अतः कोई भी भगवान्के दिव्य गुणों को नहीं गिन सकता |
षष्ठश्न चक्षुष: पुत्रश्चाक्षुषो नाम वै मनु: |
पूरुपूरुषसुद्युम्नप्रमुखा श्ाक्षुषात्मजा: ॥
७॥
षष्ठ:--छठा; च--तथा; चक्षुष:--चक्षु का; पुत्र:--पुत्र; चाक्षुष:--चाक्षुष; नाम--नामक; बै--निस्सन्देह; मनु;:--मनु; पूरू--पूरु; पूरूष--पूरुष; सुद्युम्न--सुद्युम्न; प्रमुखा: --प्रमुख; चाक्षुष-आत्म-जा:--चाक्षुष के पुत्र |
चक्षु का पुत्र चाक्षुप कहलाया जो छठा मनु था |
उसके कई पुत्र थे जिनमें पूरु, पूरुष तथासुद्युम्न प्रमुख थे |
इन्द्रो मन्त्रद्गमस्तत्र देवा आप्यादयो गणा: |
मुनयस्तत्र वै राजन्हविष्मद्वीरकादय: ॥
८॥
इन्द्र: --स्वर्ग का राजा; मन्त्रद्गुम:--मंत्रद्रम नाम का; तत्र--छठे मन्वन्तर में; देवा:--देवतागण; आप्य-आदय: --आप्य तथाअन्य; गणा:--वह सभा; मुनय:--सप्तर्षि; तत्र--वहाँ; वै--निस्सन्देह; राजन्--हे राजा; हविष्मत्--हविष्मान् नाम का;वीरक-आदय:--वीरक तथा अन्य
चाक्षुष मनु के राज्यकाल में स्वर्ग का राजा मंत्रद्रुम के नाम से विख्यात था |
देवताओं मेंआप्यगण तथा सप्तर्षियों में हविष्मान् तथा वीरक प्रमुख थे |
तत्रापि देवसम्भूत्यां वैराजस्थाभवत्सुत: |
अजितो नाम भगवानंशेन जगत: पति: ॥
९॥
तत्र अपि--पुनः उसी छठे मन्वन्तर में; देवसम्भूत्याम्ू--देवसम्भूति से; वैराजस्य--उसके पति वैराज का; अभवत्--हुआ;सुतः--पुत्र; अजित: नाम--अजित नामक; भगवानू-- भगवान्; अंशेन-- अंश से; जगत: पति:--ब्रह्माण्ड का स्वामी |
इस छठे मन्वन्तर में ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान् विष्णु अपने अंश रूप में प्रकट हुए |
वेवैराज की पली देवसम्भूति के गर्भ से उत्पन्न हुए और उनका नाम अजित था |
पयोधि येन निर्मथ्य सुराणां साधिता सुधा |
भ्रममाणोम्भसि धृतः कूर्मरूपेण मन्दर: ॥
१०॥
पयोधिम्--क्षीर सागर; येन--जिसके द्वारा; निर्मथ्य--मथा जाकर; सुराणाम्--देवताओं का; साधिता--उत्पन्न किया; सुधा--अमृत; भ्रममाण:--इधर-उधर भ्रमण करते हुए; अम्भसि--जल के भीतर; धृतः--टिका हुआ था; कूर्म-रूपेण--कछुबे केरूप में; मन्दर:--मन्दर पर्वत |
क्षीरसागर का मंथन करके अजित ने देवताओं के लिए अमृत उत्पन्न किया |
कछुवे के रूपमें वे महान् मन्दर पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किये इधर-उधर हिल-डुल रहे थे |
श्रीराजोबवाचयथा भगवता ब्रह्मन्मथित: क्षीरसागर: ॥
यदर्थ वा यतश्चाद्रिं दधाराम्बुचरात्मना ॥
११॥
यथामृतं सुरैः प्राप्त कि चान्यदभवत्ततः |
एतद्धगवतः कर्म वदस्व परमाद्धुतम् ॥
१२॥
श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने प्रश्न किया; यथा--जिस तरह; भगवता-- भगवान् के द्वारा; ब्रह्मनू--हे विद्वान ब्राह्मण;मथितः--मथा गया; क्षीर-सागर:--दूध का सागर; यतू-अर्थम्--क्या उद्देश्य था; वा--अथवा; यत:--जहाँ से, किस कारणसे; च--तथा; अद्विम्ू--पर्वत को ( मन्दर ); दधार-- धारण किया; अम्बुचर-आत्मना--कछुवे के रूप में; यथा--जिस तरह;अमृतम्--अमृत; सुरैः--देवताओं द्वारा; प्राप्तम्--प्राप्त किया गया था; किम्--क्या; च--तथा; अन्यत्--दूसरा; अभवत्--बन गया; ततः--तत्पश्चात्; एतत्ू--ये सभी; भगवत:--भगवान् के; कर्म--कार्यकलाप, लीलाएँ; वदस्व--कृपा करकेबतलायें; परम-अद्भुतम्--जो इतने अद्भुत हैं
राजा परीक्षित ने पूछा : हे परम ब्राह्मण, शुकदेव गोस्वामी! भगवान् विष्णु ने क्षीरसागर कामंथन क्यों और कैसे किया? वे कच्छप रूप में जल के भीतर किसलिए रहे और मन्दर पर्वत कोक्यों धारण किये रहे ? देवताओं ने किस तरह अमृत प्राप्त किया? और सागर मन्थन से अन्यकौन-कौन सी वस्तुएँ उत्पन्न हुईं? कृपा करके भगवान् के इन सारे अद्भुत कार्यों का वर्णनकरें |
त्वया सड्डृथ्यमानेन महिम्ना सात्वतां पते: |
नातितृप्यति मे चित्तं सुचिरं तापतापितम् ॥
१३॥
त्वया--आपके द्वारा; सद्भुध्यमानेन--वर्णन किया जा रहे; महिम्ना--सारी महिमा से; सात्वताम् पते: --भक्तों के स्वामी,भगवान् का; न--नहीं; अति-तृप्यति--अत्यधिक तुष्ट होता है; मे--मेरा; चित्तम्ू--हृदय; सुचिरम्--दीर्घकाल तक; ताप--दुख से; तापितम्--दुखित होकर |
मेरा हृदय भौतिक जीवन के तीन तापों से विचलित है, किन्तु वह अब भी आपके द्वारावर्णित किये जा रहे भक्तों के स्वामी भगवान् के यशस्वी कार्यकलापों को सुनकर तृप्त नहींहुआ है |
श्रीसूत उवाचसम्पृष्टो भगवानेवं द्वैपायनसुतो द्विजा: |
अभिनन्द्य हरेवीर्यमभ्याच॒ष्टूं प्रचक्रमे ॥
१४॥
श्री-सूतः उबाच-- श्रीसूत गोस्वामी ने कहा; सम्पृष्ट:--पूछे जाने पर; भगवान्--शुकदेव गोस्वामी ने; एवम्--इस प्रकार;द्वैषायन-सुतः--व्यासदेव के पुत्र; द्वि-जा:--यहाँ पर समवेत ब्राह्मण; अभिनन्द्य--महाराज को बधाई देकर; हरे: वीर्यम्ू--भगवान् के यश को; अभ्याच्ष्टम-वर्णन करने के लिए; प्रचक्रमे--प्रयास किया |
श्रीसूत गोस्वामी ने कहा : यहाँ नैमिषारण्य में एकत्रित हे विद्वान ब्राह्मणो! जब द्वैपायन पुत्रशुकदेव गोस्वामी से राजा ने इस तरह से प्रश्न पूछा तो उन्होंने राजा को बधाई दी और भगवान्के यश को और भी आगे वर्णन करने का प्रयास किया |
श्रीशुक उवाचयदा युद्धेसुरैर्देवा बध्यमाना: शितायुधैः |
गतासवो निपतिता नोत्तिष्टेरन्स्म भूरिश: ॥
१५॥
यदा दुर्वास: शापेन सेन्द्रा लोकास्त्रयो नूप |
निःश्रीका श्चाभवंस्तत्र नेशुरिज्यादय: क्रिया: ॥
१६॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; यदा--जब; युद्धे--युद्ध में; असुरैः:--असुरों द्वारा; देवा:--देवतागण;बध्यमाना:--बाँधे गये; शित-आयुधैः--सर्प-आयुधों द्वारा; गत-आसवः:--प्रायः मृत; निपतिता:--गिरे हुए कुछ लोग; न--नहीं; उत्तिष्ठरनू--पुनः उठ पाये; स्म--ऐसे हो गये; भूरिश:--उनमें से अधिकांश; यदा--जब; दुर्वास:--दुर्वासा मुनि के;शापेन--शाप से; स-इन्द्रा:--इन्द्र समेत; लोका: त्रयः--तीनों लोक; नृप--हे राजा; नि: भ्रीका:--बिना किसी भौतिक ऐश्वर्यके; च-- भी; अभवनू--हो गया; तत्र--उस समय; नेशु:--सम्पन्न नहीं हो सका; इज्य-आदय: --यज्ञ; क्रिया:--अनुष्ठान
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब असुरों ने अपने-अपने सर्प-आयुधों से युद्ध में देवताओंपर घमासान आक्रमण कर दिया तो अनेक देवता धराशायी हो गये और मर गये |
वे फिर सेजीवित नहीं किये जा सके |
हे राजा! उस समय देवताओं को दुर्वासा मुनि ने शाप दिया हुआ था,तीनों लोक दरिद्रता से पीड़ित थे; इसीलिए अनुष्ठान सम्पन्न नहीं हो पा रहे थे |
इसके प्रभावअत्यन्त गम्भीर थे |
निशाम्यैतत्सुरगणा महेन्द्रवरूणादय: |
नाध्यगच्छन्स्वयं मन्त्रैमन्त्रयन्तो विनिश्चितम् ॥
१७॥
ततो ब्रह्मसभां जम्मुर्मेरोर्मूर्धनि सर्वशः |
सर्व विज्ञापयां चक्कु: प्रणता: परमेष्ठिने ॥
१८ ॥
निशाम्य--सुनकर; एतत्--यह घटना; सुर-गणा:ः --सारे देवता; महा-इन्द्र--राजा इन्द्र; वरुण-आदय:--वरुण तथा अन्यदेवता; न--नहीं; अध्यगच्छन्--पहुँचे; स्ववम्--साक्षात्; मन्त्रै:--मंत्रणा द्वारा, आपसी विचार-विमर्श करके; मन्त्रयन्त:--विचार-विमर्श करते हुए; विनिश्चितम्--असली निष्कर्ष; ततः--तत्पश्चात्; ब्रह्य-सभाम्--ब्रह्माजी की सभा में; जग्मु:--गये;मेरो:--सुमेरु पर्वत की; मूर्धनि--चोटी पर; सर्वश: --सबों ने; सर्वम्--सारी बातें; विज्ञापयाम् चक्रु:--सूचित किया;'प्रणताः:--नमस्कार किया; परमेष्ठटिने--ब्रह्मा को |
अपने जीवनों को ऐसी स्थिति में देखकर इन्द्र, वरुण तथा अन्य देवताओं ने परस्पर विचार-विमर्श किया, किन्तु उन्हें कोई हल न मिल सका |
तब सारे देवता एकत्र हुए और वे एकसाथसुमेरु पर्वत की चोटी पर गये |
वहाँ पर ब्रह्म जी की सभा में सब ने ब्रह्मा जी को साष्टांग प्रणाम किया और जितनी सारी घटनाओं से अवगत कराया |
स विलोक्येन्द्रवाय्वादीन्नि:सत्त्वान्विगतप्रभान् |
लोकानमड्ढनलप्रायानसुरानयथा विभु: ॥
१९॥
समाहितेन मनसा संस्मरन्पुरुषं परम् |
उवाचोत्फुल्लवदनो देवान्स भगवान्पर: ॥
२०॥
सः--ब्रह्मा ने; विलोक्य--देखकर; इन्द्र-वायु-आदीन्--इन्द्र, वायु इत्यादि देवताओं को; निःसत्त्वानू--आध्यात्मिक शक्ति सेविहीन; विगत-प्रभान्--सारे तेज से रहित; लोकान्--तीनों लोकों को; अमड्रगल-प्रायान्--दुर्भाग्य में डूबे; असुरान्--सारेअसुरों को; अयथा:--समृद्द्धि वाले; विभु:--ब्रह्मा, जो इस जगत में परम हैं; समाहितेन--पूरी तरह समंजित करके; मनसा--मन से; संस्मरनू--पुनः पुनः स्मरण करके; पुरुषम्--परम पुरुष को; परम्--दिव्य; उवाच--कहा; उत्फुल्ल-वदनः--प्रसन्नमुख; देवान्ू--देवताओं को; सः--वह; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; पर: --देवताओं का |
यह देखकर कि सारे देवता प्रभावहीन तथा बलहीन हो गये हैं जिसके फलस्वरूप तीनोंलोक अमंगलमय हो चुके हैं तथा यह देखकर कि देवताओं की स्थिति अटपटी है, किन्तुअसुरगण फल-फूल रहे हैं ब्रह्म ने, जो समस्त देवताओं के ऊपर हैं और अत्यन्त शक्तिशाली हैंअपना मन भगवान् पर केन्द्रित किया |
इस प्रकार प्रोत्साहित होने से उनका मुख चमक उठा औरवे देवताओं से इस प्रकार बोले |
अहं भवो यूयमथोसुरादयोमनुष्यतिर्यग्द्रुमघर्मजातय: |
यस्यावतारांशकलाविसर्जिताब्रजाम सर्वे शरणं तमव्ययम् ॥
२१॥
अहम्-मैं; भव: --शिवजी; यूयम्--तुम सारे देवता; अथो--तथा; असुर-आदय:--असुर इत्यादि; मनुष्य--मनुष्य; तिर्यक् --पशु; द्रुम--वृक्ष एवं पौधे; घर्म-जातय:--पसीने से उत्पन्न कीड़े-मकोड़े; यस्य--जिस ( भगवान् ) का; अवतार--पुरुष अवतारका; अंश--उनके अंश, गुण अवतार, ब्रह्म का; कला--ब्रह्मा के पुत्रों का; विसर्जिता:--पीढ़ी दर पीढ़ी उत्पन्न; ब्रजाम--जायेंगे; सर्वे--हम सभी; शरणम्--शरण में; तम्--उस; अव्ययम्--अव्यय ब्रह्म की |
ब्रह्मजी ने कहा : मैं, शिवजी, तुम सारे देवता, असुर, स्वेदज प्राणी, अण्डज, पृथ्वी सेउत्पन्न पेड़-पौधे तथा भ्रूण से उत्पन्न सारे जीव--सभी भगवान् से उन के रजोगुण अवतार( ब्रह्मा, गुणअवतार ) से तथा ऋषियों से जो मेरे ही अंश हैं |
अतएव हम सभी उन भगवान् केपास चलें और उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करें |
नथस्थ बव्या न च रक्षणायानोपेक्षणीयादरणीयपक्ष: |
तथापि सर्गस्थितिसंयमार्थधत्ते रज:सत्त्वतमांसि काले ॥
२२॥
न--नहीं; यस्य--जिसके ( भगवान् ) द्वारा; वध्य:--मारा जाने वाला; न--न तो; च--भी; रक्षणीय:--रक्षा का पात्र; न--नतो; उपेक्षणीय--उपेक्षणीय; आदरणीय--पूजनीय; पक्ष: --अंश; तथापि--फिर भी; सर्ग--सृष्टि; स्थिति--पालन; संयम--तथा संहार; अर्थम्--के लिए; धत्ते--स्वीकार करता है; रज:--रजोगुण; सत्त्व--सतोगुण; तमांसि--तथा तमोगुण को;काले--समय आने पर
भगवान् के लिए न तो कोई वध्य है, न रक्षणीय, न उपेक्षणीय और न पूजनीय |
फिर भीसमयानुसार सृष्टि, पालन तथा संहार के लिए वे सतो, रजो या तमो गुण में विभिन्न रूपों मेंअवतार लेना स्वीकार करते हैं |
अयं च तस्य स्थितिपालनक्षण:सत्त्वं जुषाणस्य भवाय देहिनाम् |
तस्मादव्रजामः शरणं जगदगुरूस्वानां स नो धास्यति शं सुरप्रियः ॥
२३॥
अयमू--यह अवधि; च--भी; तस्य-- भगवान् की; स्थिति-पालन- क्षण: --पालन या अपना शासन स्थापित करने का समय;सत्त्वमू--सतोगुण; जुषाणस्थ--( अब बिना प्रतीक्षा किये ) स्वीकार करते हुए; भवाय--अधिक उन्नति के लिए; देहिनाम्ू--भौतिक शरीरधारियों का; तस्मात्--इसलिए; ब्रजाम:--जाना चाहिए; शरणम्--शरण में; जगत्-गुरुम्-- भगवान् केचरणकमलों पर, जो संसार भर के गुरु हैं; स्वानामू--हमारा अपना; सः--वह ( भगवान् ); नः--हमको; धास्यति--देगा;शम्--आवश्यक सौभाग्य; सुर-प्रियः--देवताओं को स्वभावत: अत्यन्त प्रिय
देहधारी जीवों के सतोगुण का आह्वान करने का यही अवसर है |
सतोगुण भगवान् केशासन की स्थापना करने के निमित्त होता है, जो सृष्टि के अस्तित्व का पालन करेगा |
अतएवभगवान् की शरण ग्रहण करने के लिए यह उपयुक्त समय है |
चूँकि वे देवताओं पर स्वभावतःअत्यन्त दयालु हैं और उन्हें प्रिय हैं अतएव वे हमें निश्चय ही सौभाग्य प्रदान करेंगे |
श्रीशुक उवाचइत्याभाष्य सुरान्वेधा: सह देवैररिन्दम |
अजितस्य पदं साक्षाज्गाम तमसः परम् ॥
२४॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आभाष्य--बातें करके; सुरानू--देवताओं को; वेधा: --ब्रह्माण्ड के प्रधान तथा सब को वैदिक ज्ञान प्रदान करने वाले ब्रह्माजी; सह--साथ; देवै:--देवताओं के; अरिम्ू-दम--सारेशत्रुओं ( यथा इन्द्रियों ) का दमन करने वाले, हे महाराज परीक्षित; अजितस्थ--भगवान् के; पदम्ू--स्थान तक; साक्षात्--प्रत्यक्ष; जगाम--गये; तमस:--अंधकार के संसार से; परम्ू--परे |
है समस्त शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज परीक्षित! देवताओं से बातें करने के बादब्रह्माजी उन्हें भगवान् के धाम ले गये जो इस भौतिक जगत से परे है |
भगवान् का धाम श्रेतद्वीपनामक टापू में है, जो क्षीर सागर में स्थित है |
तत्रादष्टस्वरूपाय श्रुतपूर्वाय वै प्रभु: |
स्तुतिमब्रूत दैवीभिगीर्भिस्त्ववहितेन्द्रिय: ॥
२५॥
तत्र--वहाँ ( श्वेतद्वीप में ); अदृष्ट-स्वरूपाय-- भगवान् को, जिन्हें ब्रह्मा तक ने नहीं देखा था; श्रुत-पूर्वाय--किन्तु जो वेदों सेसुने गए थे; बै--निस्सन्देह; प्रभु:--ब्रह्माजी; स्तुतिमू--वैदिक वाड्मय से प्राप्त स्तुति; अब्रूत--की गई; दैवीभि:--स्तुतियोंद्वारा, या वैदिक सिद्धान्तों को पालने वाले व्यक्तियों द्वारा; गीर्भि: --ऐसे गीतों या उच्चारणों द्वारा; तु--तब; अवहित-इन्द्रिय:--स्थिरचित्त
वहाँ ( श्वेतद्वीप में ) ब्रह्माजी ने भगवान् की स्तुति की, यद्यपि उन्होंने परमेश्वर को इसके पूर्वकभी नहीं देखा था |
चूँकि उन्होंने वैदिक वाड्मय से भगवान् के विषय में सुना हुआ था अतएवउन्होंने स्थिरचित्त होकर भगवान् की उसी तरह स्तुति की जिस प्रकार वैदिक साहित्य में लिखीहुई या मान्य है |
श्रीब्रह्मोवाचअविक्रियं सत्यमनन्तमाद्ंगुहाशयं निष्कलमप्रतर्क्यम् |
मनोग्रयानं वचसानिरुक्तंनमामहे देववर वरेण्यम् ॥
२६॥
श्री-ब्रह्मा उबाच--ब्रह्माजी ने कहा; अविक्रियम्ू--अविकारी भगवान् को; सत्यम्--परम सत्य; अनन्तम्--अनन्त; आद्यम्--समस्त कारणों के आदि कारण; गुहा-शयम्-प्रत्येक हृदय में उपस्थित; निष्कलम्--शक्ति का ह्ास हुए बिना; अप्रतर्क्यम्--अचिन्त्य, जो भौतिक तर्को की सीमा से परे हैं; मन:-अग्रयानम्--मन से भी अधिक वेगवान्; वचसा--शब्द जाल से;अनिरुक्तम्--अवर्णनीय; नमामहे--हम सभी देवता आपको नमस्कार करते हैं; देव-वरम्--उन परमेश्वर को जिनकी न तो कोईतुलना कर सकता है, न उनसे बढ़कर है; वरेण्यम्--परम पूज्य, जिनकी पूजा गायत्री मंत्र द्वारा की जाती है |
ब्रह्माजी ने कहा : हे परमेश्वर, हे अविकारी, असीम परम सत्य! आप हर वस्तु के उद्गम हैं |
सर्वव्यापी होने के कारण आप प्रत्येक के हृदय में और परमाणु में भी रहते हैं |
आपमें कोई भौतिक गुण नहीं पाये जाते |
निस्सन्देह, आप अचिन्त्य हैं |
मन आपको कल्पना से नहीं ग्रहणकर सकता और शब्द आपका वर्णन करने में असमर्थ हैं |
आप सब के परम स्वामी हैं; अतएवआप हर एक के आराध्य हैं |
हम आपको सादर नमस्कार करते हैं |
विपश्चितं प्राणमनोधियात्मना-मर्थान्द्रयाभासमनिद्रमत्रणम् |
छायातपौ यत्र न गृश्नपक्षौतमक्षरं खं त्रियुगं ब्रजामहे ॥
२७॥
विपश्चितम्--सर्वज्ञ को; प्राण--किस तरह प्राण कार्यशील है; मनः--किस तरह मन कार्यशील है; धिय--किस तरह बुद्धिकार्यशील है; आत्मनाम्--सारे जीवों का; अर्थ--इन्द्रिय-विषय; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आभासम्--ज्ञान; अनिद्रमू--सदैव जाग्रततथा अज्ञान से मुक्त; अब्रणम्--सुख तथा दुख से प्रभावित होने वाले भौतिक शरीर के बिना; छाया-आतपौ--अज्ञान से दुखीसमस्त लोगों के आश्रय; यत्र--जहाँ; न--नहीं; गृश्च-पक्षौ--किसी भी जीव का पक्षपात; तम्--उसको; अक्षरम्-- अच्युत;खम्--आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त; त्रि-युगम्--तीन युगों ( सत्य, त्रेता तथा द्वापर ) में छह ऐश्वर्यों समेत प्रकट होकर;ब्रजामहे--मैं शरण ग्रहण करता हूँ |
भगवान प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जानते रहते हैं कि किस प्रकार प्राण, मन तथा बुद्धिसमेत प्रत्येक वस्तु उनके नियंत्रण में कार्य करती है |
वे हर वस्तु के प्रकाशक हैं और अज्ञान उन्हेंछू तक नहीं गया |
उनका भौतिक शरीर नहीं होता जो पूर्वकर्मों के फलों से प्रभावित हो |
वेपक्षपात तथा भौतिकतावादी विद्या के अज्ञान से मुक्त हैं |
अतएव मैं उन भगवान् के चरणकमलोंकी शरण ग्रहण करता हूँ जो नित्य, सर्वव्यापक तथा आकाश के समान विशाल हैं और तीनोंयुगों ( सत्य, त्रेता तथा द्वापर ) में अपने षड्ऐश्वर्यों समेत प्रकट होते हैं |
अजस्य चक्र त्वजयेर्यमाणंमनोमयं पञ्जदशारमाशु |
त्रिनाभि विद्युच्यलमष्टनेमियदक्षमाहुस्तमृतं प्रपद्ये ॥
२८॥
अजस्य--जीव का; चक्रम्-पहिये को ( इस जगत में जन्म-मृत्यु के चक्र को ); तु-लेकिन; अजया--भगवान् की बहिरंगाशक्ति द्वारा; ईर्यमाणम्--अत्यन्त वेग के साथ घूमती हुईं; मनः-मयम्--जो मुख्यतः मन पर आधारित मानसिक सृष्टि केअतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है; पञ्चदश--पन्द्रह; अरम्--तीलियों वाला; आशु--शीघ्र ही; त्रि-नाभि--तीन नाभियों वाला( भौतिक प्रकृति के तीन गुणों वाला ); विद्युत्--बिजली की भाँति; चलम्--गतिमान्; अष्ट-नेमि--आठ नेमियों ( परिधियों ) सेबनी ( भगवान् की आठ बहिरंगा शक्तियाँ, भूमिरापोनलो वायु इत्यादि ); यत्--जो; अक्षम्--धुरी; आहुः--वे कहते हैं; तम्--उनको; ऋतम्--सत्य; प्रपद्ये--हम नमस्कार करें |
भौतिक कार्यों के चक्र में, भौतिक शरीर मानसिक रथ के पहिये जैसा होता है |
दस इन्द्रियाँ(पाँच कर्मेंन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ) तथा शरीर के भीतर के पाँच प्राण मिलकर रथ केपहिये के पन्द्रह अरे ( तीलियाँ ) बनाते हैं |
प्रकृति के तीन गुण ( सत्त्व, रजस् तथा तमस् ) कार्यकलापों के केन्द्रबिन्दु हैं और प्रकृति के आठ अवयव ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश,मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार ) इस पहिए की बाहरी परिधि बनाते हैं |
बहिरंगा भौतिक शक्तिइस पहिए को विद्युत् शक्ति की भाँति घुमाती है |
इस प्रकार यह पहिया बड़ी तेजी से अपनी धुरीया केन्द्रीय आधार अर्थात् भगवान् के चारों ओर घूमता है, जो परमात्मा तथा चरम सत्य हैं |
हमउन्हें सादर नमस्कार करते हैं |
य एकवर्ण तमस: पर त-दलोकमव्यक्तमनन्तपारम् |
आसां चकारोपसुपर्णमेन-मपासते योगरथेन धीरा: ॥
२९॥
यः--जो भगवान्; एक-वर्णम्--चरम, जो शुद्ध सतोगुणी हैं; तमस:-- भौतिक जगत के अंधकार को; परम्--दिव्य; तत्--वह; अलोकम्--जो देखा नहीं जा सकता; अव्यक्तम्--अप्रकट; अनन्त-पारम्-- असीम, भौतिक काल तथा दिक् की माप केपरे; आसाम् चकार--स्थित; उप-सुपर्णम्--गरुड़ की पीठ पर; एनम्--उनको; उपासते--पूजते हैं; योग-रथेन--योग के यानद्वारा; धीरा:--गम्भीर व्यक्ति, जो भौतिक क्षोभ से अविचलित रहते हैं |
भगवान् शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं; अतएवं वे एकवर्ण--ओउड्डार ( प्रणव ) हैं |
चूँकि भगवान्अंधकार माने जाने वाले दृश्य जगत से परे हैं, अतएव वे भौतिक नेत्रों से नहीं दिखते |
फिर भी वेदिक् या काल द्वारा हमसे पृथक् नहीं होते, अपितु वे सर्वत्र उपस्थित रहते हैं |
अपने वाहन गरुड़पर आसीन उनकी पूजा क्षोभ से मुक्ति पा चुके व्यक्तियों के द्वारा योग शक्ति से की जाती है |
हमसभी उनको सादर नमस्कार करते हैं |
न यस्य कश्चातितितर्ति मायां यया जनो मुहाति वेद नार्थम् |
त॑ निर्जितात्मात्मगुणं परेशंनमाम भूतेषु सम॑ चरन्तम् ॥
३०॥
न--नहीं; यस्य--जिसका ( भगवान् का ); कश्च--कोई; अतितितर्ति--जीतने में समर्थ; मायामू--माया को; यया--जिसकेद्वारा ( माया द्वारा ); जन:--सामान्य लोग; मुह्ाति--मोहित हो जाता है; वेद--समझो; न--नहीं; अर्थम्--जीवन लक्ष्य; तम्--उस ( भगवान् ) को; निर्जित--पूरी तरह वशीभूत; आत्मा--जीव; आत्म-गुणम्--तथा उनकी बहिरंगा शक्ति; पर-ईशम्--दिव्यपद पर स्थित भगवान्; नमाम--हम नमस्कार करते हैं; भूतेषु--सारे जीवों मे; समम्--समभाव; चरन्तम्--उन्हें वश में करते याउन पर शासन करते
कोई भी व्यक्ति भगवान् की माया का पार नहीं पा सकता जो इतनी प्रबल होती है कि हरव्यक्ति इससे भ्रमित होकर जीवन के लक्ष्य को समझने की बुद्धि खो देता है |
किन्तु वही मायाउन भगवान् के वश में रहती है, जो सब पर शासन करते हैं और सभी जीवों पर समान दृष्टि रखतेहैं |
हम उन्हें नमस्कार करते हैं |
इमे वयं यत्प्रिययेव तन््वा सत्त्वेन सृष्टा बहिरन्तरावि: |
गतिं न सूक्ष्मामृषयश्न विद्दाहेकुतोसुराद्या इतरप्रधाना: ॥
३१॥
इमे--ये; वयम्--हम ( देवता ); यत्--जिसको ; प्रियया--अत्यन्त प्रिय लगने वाले; एब--निश्चय ही; तन्वा--भौतिक शरीर;सत्त्वेन--सतोगुण से; सृष्टा:--उत्पन्न; बहि:-अन्तः-आवि:--यद्यपि बाहर तथा भीतर से पूर्णतया अवगत; गतिम्ू--लक्ष्य; न--नहीं; सूक्ष्माम्-- अत्यन्त सूक्ष्य; ऋषय:--सन््त पुरुष; च-- भी; विद्यहे--समझते हैं; कुतः--कैसे; असुर-आद्या: --असुर तथानास्तिक; इतर--अन्य नगण्य लोग; प्रधाना: --यद्यपि वे अपने समाज के नेता हैं |
चूँकि हमारे शरीर सत्त्वगुण से निर्मित हैं इसलिए हम देवगण भीतर तथा बाहर से सतोगुणमें स्थित हैं |
सारे सन्त पुरुष भी इसी प्रकार स्थित हैं |
अतएव यदि हम भगवान् को न भी समझसकते हों तो उन नगण्य प्राणियों के विषय में क्या कहा जाये जो रजो तथा तमो गुणों में स्थितहैं? भला वे भगवान् को कैसे समझ सकते हैं ? हम उन भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं |
पादौ महीयं स्वकृतैव यस्यचतुर्विधो यत्र हि भूतसर्ग: |
स वै महापूरुष आत्मतन्त्रःप्रसीदतां ब्रह्म महाविभूति: ॥
३२॥
पादौ--उनके चरणकमल; मही--पृथ्वी; इयम्--यह; स्व-कृत--उन्हीं के द्वारा उत्पन्न; एब--निस्सन्देह; यस्य--जिसका;चतु:-विध: --चार प्रकार के जीवों का; यत्र--जहाँ पर; हि--निस्सन्देह; भूत-सर्ग:--भौतिक सृष्टि; सः--वह; बै--निस्सन्देह;महा-पूरुष:--परम पुरुष; आत्म-तन्त्र:--आत्मनिर्भर, आत्माराम; प्रसीदताम्--वे हम पर कृपालु हों; ब्रह्म--महानतम; महा-विभूति:--असीम शक्ति से युक्त |
इस पृथ्वी पर चार प्रकार के जीव हैं और ये सारे के सारे उन्हीं के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं |
यह भौतिक सृष्टि उनके चरणकमलों पर टिकी है |
वे एश्वर्य तथा शक्ति से पूर्ण परम पुरुष हैं |
वेहम पर प्रसन्न हों |
अम्भस्तु यद्वेत उदारवीर्य सिध्यन्ति जीवन्त्युत वर्धमाना: |
लोका यतोथाखिललोकपाला:प्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
३३॥
अम्भ:--इस लोक में या अन्य लोकों में दिखने वाली जलराशि; तु--लेकिन; यत्-रेत:--उनका वीर्य; उदार-वीर्यम्ू--इतनाशक्तिशाली; सिध्यन्ति--उत्पन्न किये जाते हैं; जीवन्ति-- जीवित रहते हैं; उत--निस्सन्देह; वर्धभाना:--फूलते-फलते हैं;लोका:ः--तीनों लोक; यत:--जिससे; अथ-- भी; अखिल-लोक-पाला: --ब्रह्माण्ड भर के सारे देवता; प्रसीदताम्--प्रसन्न हों;नः--हम पर; सः--वह; महा-विभूति:-- असीम शक्ति वाला पुरुष
सारा विराट जगत जल से निकला है और जल ही के कारण सारे जीव स्थित हैं, जीवितरहते तथा विकसित होते हैं |
यह जल भगवान् के वीर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है |
अतएवइतनी महान् शक्ति वाले भगवान् हम पर प्रसन्न हों |
सोम॑ मनो यस्य समामनन्तिदिवौकसां यो बलमन्ध आयु: |
ईशो नगानां प्रजनः प्रजानांप्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
३४॥
सोममू्--चन्द्रमा; मनः--मन; यस्य--जिस ( भगवान् ) का; समामनन्ति--वे कहते हैं; दिवौकसाम्--उच्चलोक के निवासियोंका; यः--जो; बलम्--बल; अन्ध:--अन्न; आयु: --उप्र; ईशः--पर मे श्वर; नगानाम्--वृक्षों का; प्रजन:--प्रजनन का स्त्रोत;प्रजानाम्--सारे जीवों का; प्रसीदताम्--वे प्रसन्न हों; न:--हम पर; सः--वे भगवान्; महा-विभूतिः--सारे ऐश्वर्यों का स्रोत)सोम ( चन्द्रमा )
समस्त देवताओं के लिए अन्न, बल तथा दीर्घायु का स्त्रोत है |
वह सारीवनस्पतियों का स्वामी तथा सारे जीवों की उत्पत्ति का स्त्रोत भी है |
जैसा कि विद्वानों ने कहा है,चन्द्रमा भगवान् का मन है |
ऐसे समस्त ऐश्वर्यों के स्रोत भगवान् हम पर प्रसन्न हों |
अग्निर्मुखं यस्य तु जातवेदाजात: क्रियाकाण्डनिमित्तजन्मा |
अन्तःसमुद्रेडनुपचन्स्वधातून्प्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
३५॥
अग्निः--अग्नि; मुखम्--मुँह जिससे भगवान् खाते हैं; यस्य--जिसका; तु--लेकिन; जात-वेदा:--सम्पत्ति या जीवन कीसमस्त आवश्यकताओं को उत्पन्न करने वाला; जातः--उत्पन्न किया; क्रिया-काण्ड--अनुष्ठान; निमित्त--के लिए; जन्मा--इसीलिए निर्मित; अन्तः-समुद्रे--समुद्र की गहराई में; अनुपचन्--सदैव पचाते हुए; स्व-धातून्--सारे तत्त्वों को; प्रसीदताम्--प्रसन्न हों; न:--हम पर; स:ः--वह; महा-विभूति:--परम शक्तिशाली
अनुष्ठानों की आहुति ग्रहण करने के लिए उत्पन्न अग्नि भगवान् का मुख है |
सागर कीगहराइयों के भीतर भी सम्पत्ति उत्पन्न करने के लिए अग्नि रहती है और उदर में भोजन पचाने केलिए तथा शरीर पालन हेतु विभिन्न स्त्रावों को उत्पन्न करने के लिए भी अग्नि उपस्थित रहती है |
ऐसे परम शक्तिमान भगवान् हम पर प्रसन्न हों |
यच्चक्षुरासीत्तरणिरद्देवयानंअ्रयीमयो ब्रह्मण एष धिष्ण्यम् |
द्वारं च मुक्तेरमृतं च मृत्यु:प्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
३६॥
यत्--जो; चक्षुः--आँख; आसीतू्--बना; तरणि:--सूर्यदेव; देव-यानम्--देवताओं के मोक्ष पथ का अधिष्ठाता देव; त्रयी-मयः--कर्मकाण्ड के वैदिक ज्ञान के मार्गदर्शन हेतु; ब्रह्मण: --परम सत्य का; एष:--यह; धिष्ण्यम्--साक्षात्कार का स्थान;द्वारम् च--तथा द्वार; मुक्ते:--मुक्ति के लिए; अमृतमू--नित्य जीवन का मार्ग; च-- भी; मृत्यु:--मृत्यु का कारण; प्रसीदताम्--हम पर प्रसन्न हों; न:--हमपर; सः--वे भगवान्; महा-विभूति:--परम शक्तिशाली |
सूर्यदेव मुक्ति के मार्ग को चिन्हित करते हैं, जो आर्चिरादि वर्त्मकहलाता है |
वे वेदों के ज्ञानके प्रमुख स्त्रोत हैं; वे परम सत्य के पूजे जाने वाले धाम हैं |
वे मोक्ष के द्वार हैं; वे नित्य जीवन केस्रोत हैं; वे मृत्यु के भी कारण हैं |
वे भगवान् की आँख हैं |
ऐसे परम ऐश्वर्यवान् भगवान् हम परप्रसन्न हों |
प्राणादभूद्यस्थ चराचराणांप्राण: सहो बलमोजश्च वायु: |
अन्वास्म सप्राजमिवानुगा वयंप्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
३७॥
प्राणात्--प्राण से; अभूत्--उत्पन्न हुआ; यस्य--जिसका; चर-अचराणाम्--समस्त चर तथा अचर जीवों का; प्राण:--प्राण;सहः--जीवन का मूल सिद्धान्त; बलमू--बल; ओज:--प्राण; च--तथा; वायु:--वायु; अन्वास्म-- अनुसरण करते हैं;सप्राजम्--सप्राट्; इब--सहृश; अनुगा:-- अनुयायी; वयम्--हम सभी; प्रसीदताम्--प्रसन्न हों; न:--हम पर; सः--वह; महा-विभूति:--परम शक्तिशाली |
सारे चर तथा अचर प्राणी अपनी जीवनी शक्ति ( प्राण ), अपनी शारीरिक शक्ति तथा अपनाजीवन तक वायु से प्राप्त करते हैं |
हम सभी अपने प्राण के लिए वायु का उसी तरह अनुसरणकरते हैं जिस प्रकार नौकर राजा का अनुसरण करता है |
वायु की जीवनी शक्ति भगवान् कीमूल जीवनी शक्ति से उत्पन्न होती है |
ऐसे भगवान् हम पर प्रसन्न हों |
श्रोत्राहििशों यस्य हृदश्न खानि प्रजज्ञिरि खं पुरुषस्य नाभ्या: |
प्राणेन्द्रियात्मासुशरी रकेतःप्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
३८॥
श्रोत्रात्ू-कानों से; दिश:--विभिन्न दिशाएँ; यस्य--जिसके ; हृदः--हृदय से; च--भी; खानि--शरीर के छेद; प्रजज्ञिरि--उत्पन्न किया; खम्--आकाश; पुरुषस्थ--परम पुरुष की; नाभ्या:--नाभि से; प्राण--जीवनी शक्ति का; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ;आत्मा--मन; असु--प्राण; शरीर--तथा शरीर; केत:--आश्रय; प्रसीदताम्--प्रसन्न हों; न:--हम पर; सः--वे; महा-विभूतिः--परम शक्तिमान |
परम शक्तिशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों |
विभिन्न दिशाएँ उनके कानों से उत्पन्न होती है,शरीर के छिद्र उनके हृदय से निकलते हैं एवं प्राण, इन्द्रियाँ, मन, शरीर के भीतर की वायु तथाशरीर आश्रय रूपी शून्य ( आकाश ) उनकी नाभि से निकलते हैं |
बलान्महेन्द्रस्त्रिदशा: प्रसादा-न्मन्योर्गिरीशो धिषणाद् विरिज्ञः |
खेम्यस्तुछन्दांस्यृषयो मेढ़ृत: कःप्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
३९॥
बलात्--उनके बल से; महा-इन्द्र:--राजा इन्द्र बन सके; त्रि-दशा: --तथा देवता; प्रसादात्--प्रसन्न होने से; मन््यो:--क्रोध से;गिरि-ईशः--शिवजी; धिषणात्--गम्भीर बुद्धि से; विरिज्ञ:--ब्रह्मा जी; खेभ्य:--शारीरिक छिद्रों से; तु--तथा; छन्दांसि--वैदिक मंत्र; ऋषय:--बड़े-बड़े मुनि; मेढ़त:ः--जननेन्द्रियों से; कः--प्रजापति-गण; प्रसिदताम्--प्रसन्न हों; नः--हम पर;सः--वे; महा-विभूति:--परम शक्तिशाली भगवान्
स्वर्ग का राजा महेन्द्र भगवान् के बल से उत्पन्न हुआ था, देवतागण भगवान् की कृपा सेउत्पन्न हुए थे, शिवजी भगवान् के क्रोध से उत्पन्न हुए थे और ब्रह्माजी उनकी गम्भीर बुद्धि सेउत्पन्न हुए थे |
सारे वैदिक मंत्र भगवान् के शरीर के छिद्रों से उत्पन्न हुए थे तथा ऋषि औरप्रजापतिगण उनकी जननेन्द्रियों से उत्पन्न हुए थे |
ऐसे परम शक्तिशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों! श्रीर्वक्षस: पितरएछाययासन्धर्म: स्तनादितरः पृष्ठतो भूत् |
झौर्यस्य शीष्णों प्सरसो विहारात्प्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
४०॥
श्री:--धन की देवी; वक्षस:--उनके वश्षस्थल से; पितर:--पितृलोक के निवासी; छायया--उनकी छाया से; आसन्--बनसके; धर्म:--धर्म का सिद्धान्त; स्तनात्ू--उनके स्तन से; इतर:--अधर्म ( धर्म का विपरीत ); पृष्ठतः--पीठ से; अभूत्--सम्भवहो सका; दयौ: --स्वर्ग लोक; यस्य--जिसका; शीर्ष्ण:--चोटी से; अप्सरस:--अप्सरोलोक के निवासी; विहारात्ू--उनकेइन्द्रिय भोग से; प्रसीदताम्--कृपया प्रसन्न हों; नः--हम पर; सः--वे ( भगवान् ); महा-विभूति:--समस्त पराक्रम में महानतम
लक्ष्मी उनके वक्षस्थल से उत्पन्न हुई, पितुलोक के वासी उनकी छाया से, धर्म उनके स्तन सेतथा अधर्म उनकी पीठ से उत्पन्न हुआ |
स्वर्ग लोक उनके सिर की चोटी से तथा अप्सराएँ उनकेइन्द्रिय भोग से उत्पन्न हुईं |
ऐसे परम शक्तिमान भगवान् हम पर प्रसन्न हों! विप्रो मुखाद्रह्म च यस्य गुहांराजन्य आसीद्धुजयोर्बलं च |
ऊर्वोर्विडोजोड्प्रिरवेदशूद्रौप्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
४१॥
विप्र:--ब्राह्मण-गण; मुखात्-- भगवान् के मुख से; ब्रह्य--वैदिक साहित्य; च-- भी; यस्य--जिसका; गुहाम्--अपने गुप्तज्ञान से; राजन्य:--क्षत्रियणण; आसीतू--सम्भव हो सका; भुजयो:--उनकी दोनों भुजाओं से; बलम् च--तथा शारीरिकशक्ति; ऊर्वो:--जाँघों से; विटू--वैश्यगण; ओज:--तथा उनका सक्षम उर्वर ज्ञान; अड्ध्रि:--उनके चरणों से; अवेद--वैदिकज्ञान की सीमा से परे रहने वाले; शूद्रौ -- श्रमिक वर्ग; प्रसीदताम्-प्रसन्न हों; न:--हम पर; सः--वे; महा-विभूति:--परमशक्तिमान भगवान्
ब्राह्मण तथा वैदिक ज्ञान भगवान् के मुख से निकले, क्षत्रिय तथा शारीरिक शक्ति उनकीभुजाओं से, वैश्य तथा उत्पादकता एवं सम्पत्ति सम्बन्धी उनका दक्ष ज्ञान उनकी जाँघों से तथावैदिक ज्ञान से विलग रहने वाले शूद्र उनके चरणों से निकले |
ऐसे भगवान्, जो पराक्रम से पूर्णहैं, हम पर प्रसन्न हों |
लोभो<धरात्प्रीतिरुपर्य भूदूदूयुति-न॑स्तः पशव्यः स्पर्शेन काम: |
ध्रुवोर्यम: पक्ष्मभवस्तु काल:प्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
४२॥
लोभ: --लालच; अधरात्--निचले होठ से; प्रीति:--प्यार; उपरि--ऊपरी होठ से; अभूत्--सम्भव हो सका; झ्युति:--शारीरिककान्ति; नस्त:--नाक से; पशव्यः--पशुओं के उपयुक्त; स्पर्शेन--स्पर्श से; काम:--कामेच्छाएँ; भ्रुवो:--भौंहों से; यम:--यमराज; पक्ष्म-भव:--पलकों से; तु--लेकिन; काल:--नित्यकाल, जो मृत्यु लाता है; प्रसीदताम्--प्रसन्न हों; नः--हम पर;सः--वे; महा-विभूति:--परम पराक्रम वाले भगवान्
लोभ उनके निचले होठ से, प्यार उनके ऊपरी होठ से, शारीरिक कान्ति उनकी नाक से,'पाशविक वासनाएँ उनकी स्पर्शेन्द्रियों से, यमराज उनकी भौहों से तथा नित्यकाल उनकी पलकोंसे उत्पन्न होते हैं |
वे भगवान् हम सबों पर प्रसन्न हों |
द्रव्यं बयः कर्म गुणान्विशेषं यद्योगमायाविहितान्वदन्ति |
यहुर्विभाव्यं प्रबुधापबाध॑प्रसीदतां नः स महाविभूति: ॥
४३॥
द्रव्यमू-- भौतिक जगत के पाँच तत्त्व; वयः--काल; कर्म--सकाम कर्म; गुणान्--प्रकृति के तीन गुणों को; विशेषम्--तेईसतत्त्वों के संयोग से उत्पन्न किसमें; यत्--जो; योग-माया-- भगवान् की सृजनात्मक शक्ति से; विहितानू--किया गया; वदन्ति--विद्वान लोग कहते हैं; यत् दुर्विभाव्यमू--जिसे समझ पाना वास्तव में कठिन है; प्रबुध-अपबाधम्--जो लोग पूर्णतया अवगत हैंउन दिद्वानों के द्वारा तिरस्कृत; प्रसीदताम्--प्रसन्न हों; न:--हम पर; सः--वह; महा-विभूति: --हर वस्तु के नियन्ता |
सभी विद्वान लोग कहते हैं कि पाँचों तत्त्व, नित्यकाल, सकाम कर्म, प्रकृति के तीनों गुणतथा इन गुणों से उत्पन्न विभिन्न किस्में--ये सब योगमाया की सृष्टरियाँ हैं |
अतएव इस भौतिकजगत को समझ पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु जो लोग अत्यन्त विद्वान हैं उन्होंने इसकातिरस्कार कर दिया है |
जो सभी वस्तुओं के नियन्ता हैं ऐसे भगवान् हम सब पर प्रसन्न हों |
नमोस्तु तस्मा उपशान्तशक्तयेस्वाराज्यलाभप्रतिपूरितात्मने |
गुणेषु मायारचितेषु वृत्तिभि-न॑ सज्जमानाय नभस्वदूतये ॥
४४॥
नमः--हमारा नमस्कार; अस्तु--हो; तस्मै--उसको; उपशान्त-शक्तये--जो अन्य कुछ उपलब्ध करने का प्रयास नहीं करता, जोअशान्त नहीं रहता; स्वाराज्य--पूर्णतया स्वतंत्र; लाभ--सारे लाभों का; प्रतिपूरित--पूरी तरह प्राप्त; आत्मने-- भगवान् में;गुणेषु-- भौतिक जगत का, जो तीन गुणों के कारण गतिशील है; माया-रचितेषु--माया द्वारा उत्पन्न वस्तुओं का; वृत्तिभि:--इन्द्रियों के ऐसे कार्यों से; न सजमानाय--जो आसक्त नहीं होता है या भौतिक सुख-दुख से परे है; नभस्वत्--वायु; ऊतये--भगवान् को जिसने अपने लीला-रूप में इस भौतिक जगत की सृष्टि की |
हम उन भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं, जो पूर्णतया शान्त, प्रयास से मुक्त तथा अपनीउपलब्धियों से पूर्णतया सन्तुष्ट हैं |
वे अपनी इन्द्रियों द्वारा भौतिक जगत के कार्यों में लिप्त नहींहोते |
निस््सन्देह, इस भौतिक जगत में अपनी लीलाएँ सम्पन्न करते समय वे अनासक्त वायु कीतरह रहते हैं |
स त्वं नो दर्शयात्मानमस्मत्करणगोचरम् |
प्रपन्नानां दिदृक्षूणां सस्मितं ते मुखाम्बुजम् ॥
४५॥
सः--वह ( भगवान् ); त्वम्-तुम मेरे भगवान् हो; न:ः--हमारे लिए; दर्शय--दिखाई पड़ो; आत्मानम्--अपने मूल रूप में;अस्मत्ू-करण-गोचरम्--हमारी प्रत्यक्ष इन्द्रियों द्वारा विशेष रूप से आँखों से देखने योग्य; प्रपन्नानामू--हम सभी शरणागतोंका; दिदक्षूणामू--फिर भी आपको देखने को इच्छुक; सस्मितम्--मुस्काते; ते--तुम्हारा; मुख-अम्बुजम्--कमल जैसा मुख |
हे भगवान्! हम आपके शरणागत हैं फिर भी हम आपका दर्शन करना चाहते हैं |
कृपयाअपने आदि रूप को तथा अपने मुस्काते मुख को हमारे नेत्रों को दिखलाइये और अन्य इन्द्रियोंद्वारा अनुभव करने दीजिये |
तैस्तेः स्वेच्छाभूते रूपै: काले काले स्वयं विभो |
कर्म दुर्विषहं यन्नो भगवांस्तत्करोति हि ॥
४६॥
तैः--ऐसे प्राकट्यों द्वारा; तैः--ऐसे अवतारों द्वारा; स्व-इच्छा-भूतः--आपकी निजी इच्छा से सब कुछ प्रकट; रूपै:--वास्तविक रूपों द्वारा; काले काले--विभिन्न युगों में; स्वयम्--स्वयं; विभो--हे ब्रह्म; कर्म--कर्म ; दुर्विषहम्--असामान्य( अन्य किसी से न किया जा सकने वाला ); यत्--जो; न:--हम पर; भगवान्-- भगवान्; तत्ू--वह; करोति--सम्पन्न करताहै; हि--निस्सन्देह
हे भगवान्! आप विभिन्न युगों में अपनी इच्छा से विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं और ऐसेअसामान्य कार्य आश्चर्यजनक ढंग से करते हैं, जिन्हें हम सब के लिए कर पाना दुष्कर है |
क्लेशभूर्यल्पसाराणि कर्माणि विफलानि वा |
देहिनां विषयार्तानां न तथेवार्पितं त्वयि ॥
४७॥
क्लेश--कठिनाई; भूरि-- अत्यधिक; अल्प--बहुत कम; साराणि--अच्छा फल; कर्माणि--कार्यकलाप; विफलानि--निराशा; वा--अथवा; देहिनाम्-- मनुष्यों का; विषय-अर्तानामू-- भौतिक जगत का भोग करने के इच्छुक; न--नहीं; तथा--उसी तरह; एब--निस्सन्देह; अर्पितम्--अर्पित; त्वयि-- आपको |
कर्मीजन अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए सदैव धनसंग्रह करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तुइसके लिए उन्हें अत्यधिक श्रम करना पड़ता है |
इतने कठोर श्रम के बावजूद भी उन्हें सन्तोषप्रद'फल नहीं मिल पाता |
निस्सन्देह ही कभी-कभी तो उनके कर्मफल से निराशा ही उत्पन्न होती है |
किन्तु जिन भक्तों ने भगवान् की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर रखा है वे कठोर श्रम कियेबिना ही पर्याप्त फल प्राप्त कर सकते हैं |
ये फल भक्तों की आशा से बढ़कर होते हैं |
नावम: कर्मकल्पोपि विफलाये श्वरापित: |
'कल्पते पुरुषस्यैव स ह्यात्मा दयितो हितः ॥
४८ ॥
न--नहीं; अवम:--अत्यल्प, नगण्य; कर्म--कर्म; कल्प:--ढंग से सम्पन्न किया गया; अपि-- भी; विफलाय--व्यर्थ जाते हैं;ईश्वर-अर्पित:-- भगवान् को समर्पित होने के कारण; कल्पते--ऐसा मान लिया जाता है; पुरुषस्य--सारे पुरुषों का; एव--निस्सन्देह; सः--भगवान्; हि--निश्चय ही; आत्मा--परमात्मा, परम पिता; दयित:--अत्यन्त प्रिय; हित:--लाभप्रद |
भगवान् को समर्पित कार्य, भले ही छोटे पैमाने पर क्यों न किये जाँए, कभी भी व्यर्थ नहींजाते |
अतएव स्वाभाविक है कि परम पिता होने के कारण भगवान् अत्यन्त प्रिय हैं और वे जीवोंके कल्याण के लिए सदैव कर्म करने के लिए तैयार रहते हैं |
यथा हि स्कन्धशाखानां तरोमूलावसेचनम् |
एवमाराधन विष्णो: सर्वेषामात्मनश्चव हि ॥
४९॥
यथा--जिस प्रकार; हि--निस्सन्देह; स्कन्ध--तने; शाखानाम्--तथा डालों का; तरो:--वृक्ष की; मूल--जड़; अवसेचनम्--सिंचाई; एवम्--इस प्रकार; आराधनम्-- पूजा; विष्णो: -- भगवान् विष्णु की; सर्वेषामू--सब का; आत्मन:--परमात्मा का;च--भी; हि--निस्सन्देह
जब वृक्ष की जड़ में पानी डाला जाता है, तो वृक्ष का तना तथा शाखाएँ स्वतः तुष्ट हो जातीहैं |
इसी प्रकार जब कोई भगवान् विष्णु का भक्त बन जाता है, तो इससे हर एक की सेवा होजाती है क्योंकि भगवान् हर एक के परमात्मा हैं |
नमस्तुभ्यमनन्ताय दुर्वितर्क्यात्मकर्मणे |
निर्गुणाय गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम् ॥
५०॥
नमः--नमस्कार; तुभ्यम्-हे भगवान्, तुम्हें; अनन्ताय--जो काल की तीनों अवस्थाओं ( भूत, वर्तमान तथा भविष्य ) को पारकरके सदैव जीवित है उसको; दुर्वितर्क्य-आत्म-कर्मणे-- आपको, जो अचिन्त्य कार्यकलाप करने वाले हैं; निर्गुणाय--जोदिव्य तथा भौतिक गुणों की उन्मत्तता से मुक्त हैं; गुण-इशाय--आपको, जो प्रकृति के तीनों गुणों को वश में रखने वाले हैं;सत्त्व-स्थाय--सतोगुण में स्थित; च--भी; साम्प्रतम्ू--इस समय |
हे भगवान्! आपको नमस्कार है क्योंकि आप नित्य हैं, भूत, वर्तमान तथा भविष्य की कालसीमा से परे हैं |
आप अपने कार्यकलापों में अचिन्त्य हैं, आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों केस्वामी हैं और समस्त भौतिक गुणों से परे रहने के कारण आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं |
आपप्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं, किन्तु इस समय आप सतोगुण में स्थित हैं |
मैं आपकोसादर नमस्कार करता हूँ |
अध्याय छह: देवताओं और दानवों ने युद्धविराम की घोषणा की
8.6श्रीशुक उबाच एवं स्तुतः सुरगणैर्भगवान्हरिरी श्वर: |
तेषामाविरभूद्राजन्सहस्त्राको दयद्युति: ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; स्तुतः--स्तुति किये जाने पर; सुर-गणैः--देवताओंद्वारा; भगवान्ू-- भगवान्; हरि: --समस्त अशुभों को मिटाने वाले; ईश्वरः-- परम नियन्ता; तेषाम्-ब्रह्माजी तथा सारे देवताओंके समक्ष; आविरभूत्--प्रकट हुए; राजन्ू--हे राजा परीक्षित; सहस्त्र--एक हजार; अर्क--सूर्य; उदय--उगते हुए; द्युति:--उनका तेज |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित! देवताओं तथा ब्रह्मा जी द्वारा इस प्रकार स्तुतियों से पूजित भगवान् हरि उन सब के समक्ष प्रकट हो गये |
उनका शारीरिक तेज एकसाथ हजारों सूर्यों के उदय होने के समान था |
तेनैव सहसा सर्वे देवा: प्रतिहतेक्षणा: |
नापश्यन्खं दिश: क्षौणीमात्मानं च कुतो विभुम् ॥
२॥
तेन एबव--इसके कारण; सहसा--एकाएक; सर्वे--सभी; देवा:--देवतागण; प्रतिहत-ईक्षणा: --उनकी दृष्टि चकाचौंध हो गई;न--नहीं; अपश्यन्--देख सके ; खम्--आकाश को; दिश:--दिशाओं को; क्षौणीम्--पृथ्वी को; आत्मानम् च--तथा अपनेआपको भी; कुतः--तथा देखने का प्रश्न ही कहाँ है; विभुम्--परमे श्वर को |
भगवान् के तेज से सारे देवताओं की दृष्टि चौंधिया गई |
वे न तो आकाश, दिशाएँ, पृथ्वीदेख सके, न ही अपने आपको देख सके |
अपने समक्ष उपस्थित भगवान् को देखना तो दूर रहा |
विरिज्ञो भगवान्दष्ठा सह शर्वेण तां तनुम् |
स्वच्छां मरकतश्यामां कञ्जगर्भारुणेक्षणाम् |
तप्तहेमावदातेन लसत्कौशेयवाससा ॥
३॥
प्रसन्नचारुसर्वाड़ीं सुमुखीं सुन्दरभ्रुवम् |
महामणिकिरीटेन केयूराभ्यां च भूषिताम् ॥
४॥
कर्णाभरणनिर्भातकपोलश्रीमुखाम्बुजाम् |
काञझ्जीकलापवलयहारनूपुरशोभिताम् ॥
५॥
कौस्तुभाभरणां लक्ष्मीं बिभ्रतीं वनमालिनीम् |
सुदर्शनादिभि: स्वास्त्रै्मूर्तिमद्विरुपासिताम् ॥
६॥
तुष्टाव देवप्रवर: सशर्व: पुरुषं परम् |
सर्वामरगणै: साकं सर्वाड्भिरवनिं गते; ॥
७॥
विरिज्ञः--ब्रह्माजी; भगवान्-- भगवान् ( ब्रह्म को उनके शक्तिशाली पद के कारण भगवान् कहकर सम्बोधित किया गया );इृष्ठा--देखकर; सह--सहित; शर्वेण--शिवजी; ताम्--भगवान् के; तनुम्--दिव्य रूप को; स्वच्छाम्--स्वच्छ भौतिक कल्मषके बिना; मरकत-श्यामाम्--नीले मणि के प्रकाश के समान शारीरिक कान्ति से युक्त; कञ्ज-गर्भ-अरुण-ईक्षणाम्--कमल के'फूल के गर्भ सहश गुलाबी आँखों वाले; तप्त-हेम-अवदातेन--पिघले सोने जैसी कान्ति से युक्त; लसत्ू--चमकता; कौशेय-वाससा--पीला रेशमी वस्त्र धारण किये; प्रसन्न-चारु-सर्व-अड्डीम्--जिसके शरीर के सारे अंग अत्यन्त शोभनीय और सुन्दर;सु-मुखीम्--मुस्काते मुखमंडल से युक्त; सुन्दर-भ्रुवम्--जिसकी भौंहें अत्यन्त सुन्दर थीं; महा-मणि-किरीटेन--बहुमूल्यमणियों से जटितमुकुट वाले; केयूराभ्याम् च भूषितामू--सभी तरह के आभूषणों से सज्जित; कर्ण-आभरण-निर्भात--कानोंकी मणियों की किरणों से प्रकाशित; कपोल--कपोल; श्री-मुख-अम्बुजाम्--जिसका सुन्दर कमल मुख; काझ्जी-कलाप-वबलय--आभूषण यथा कमर की करधनी तथा हाथ के बाजूबंद; हार-नूपुर--वक्षस्थल पर हार तथा पाँवों में पायल पहने;शोभिताम्--सुशोभित; कौस्तुभ-आभरणाम्--जिनका वक्षस्थल कौस्तुभ मणि से अलंकृत था; लक्ष्मीम्--लक्ष्मी; बिभ्रतीम्--चलायमान; वन-मालिनीम्--फूलों की मालाएँ पहने; सुदर्शन-आदिभि: --सुदर्शन चक्र आदि धारण किये; स्व-अस्त्रै: --अपनेहथियारों से; मूर्तिमद्धिः--अपने आदि रूप में; उपासिताम्--पूजित होकर; तुष्टाव--संतुष्ट; देव-प्रवर:--देवताओं में प्रमुख; स-शर्व:--शिवजी के सहित; पुरुषम् परम्--परम पुरुष को; सर्व-अमर-गणै: --सभी देवताओं के साथ-साथ; साकम्--सहित;सर्व-अड्डैः--शरीर के सारे भागों से; अवनिम्--भूमि पर; गतैः--गिरकर प्रणाम किया
शिवजी सहित ब्रह्माजी ने भगवान् के निर्मल शारीरिक सौन्दर्य को देखा जिनका श्यामल शरीर मरकत मणि के समान है, जिनकी आँखें कमल के फूल के भीतरी भाग जैसी लाल-लालहैं, जो पिघले सोने जैसे पीले वस्त्र धारण किये हैं और जिनका समूचा शरीर आकर्षक ढंग सेसज्जित है |
उन्होंने उनके सुन्दर मुस्काते कमल जैसे मुखमण्डल को देखा जिसके ऊपर बहुमूल्यरत्नों से जड़ित मुकुट था |
भगवान् की भौहें आकर्षक हैं और उनकी गालों पर कान के कुण्डलशोभित रहते हैं |
ब्रह्म जी तथा शिव जी ने भगवान् की कमर में पेटी, उनकी बाहों में बाजूबंद,वक्षस्थल पर हार और पाँवों में पायल देखे |
भगवान् फूल की मालाओं से अलंकृत थे, उनकीगर्दन में कौस्तुभ मणि अलंकृत थी और उनके साथ लक्ष्मीजी थीं तथा वे चक्र, गदा इत्यादिनिजी आयुध लिए हुए थे |
जब ब्रह्मा जी ने शिवजी तथा अन्य देवताओं के साथ भगवान् केस्वरूप को इस तरह देखा तो सब ने भूमि पर गिरकर उन्हें प्रणाम किया |
श्रीब्रह्मोवाचअजातजन्मस्थितिसंयमाया-गुणाय निर्वाणसुखार्णवाय |
अणोरणिम्नेउपरिगण्यधाम्नेमहानुभावाय नमो नमस्ते ॥
८॥
श्री-ब्रह्म उवाच--ब्रह्माजी ने कहा; अजात-जन्म-स्थिति-संयमाय-- भगवान् को, जो कभी उत्पन्न नहीं होता, किन्तु जिनकाविविध अवतारों में प्राकट्य कभी बन्द नहीं होता; अगुणाय--प्रकृति के तीनों गुणों से कभी भी प्रभावित नहीं होने वाले;निर्वाण-सुख-अर्णवाय-- भौतिक सृष्टि से परे शाश्वत आनन्द के सागर को; अणो: अणिम्ने--अणु से भी छोटा; अपरिगण्य-धाम्ने--जिनके शारीरिक स्वरूप की अनुभूति भौतिक चिन्तन से नहीं की जाती; महा-अनुभावाय--जिनका अस्तित्व अचिन्त्यहै; नमः--नमस्कार; नमः--फिर से नमस्कार; ते--तुमको |
ब्रह्माजी ने कहा : यद्यपि आप अजन्मा हैं, किन्तु अवतार के रूप में आपका प्राकट्य तथाअन्तर्धान सदैव चलता रहता है |
आप सदैव भौतिक गुणों से मुक्त रहते हैं और सागर के समानदिव्य आनन्द के आश्रय हैं |
अपने दिव्य स्वरूप में नित्य रहते हुए आप अत्यन्त सूक्ष्म से भी सूक्ष्महैं |
अतएव हम आपको जिनका अस्तित्व अचिन्त्य है |
सादर नमस्कार करते हैं |
रूप॑ तवैतत्पुरुषर्ष भेज्यंश्रेयोडर्थिभिवैदिकतान्त्रिकेण |
योगेन धातः सह नस्त्रिलोकान्पश्याम्यमुष्मिन्नु ह विश्वमूर्तों ॥
९॥
रूपम्--रूप; तब--तुम्हारा; एतत्ू--यह; पुरुष-ऋषभ-हे पुरुषों में श्रेष्ठ; इज्यम्--पूज्य; श्रेयः --चरम कल्याण; अर्धिभि: --कामना करने वाले व्यक्तियों द्वारा; वैदिक--वैदिक आदेशों के अनुसार; तान्त्रिकेण--नारद पश्नरात्र जैसे तंत्रों के अनुयायियोंद्वारा अनुभव किया गया; योगेन--योगाभ्यास द्वारा; धातः--हे परम नियन्ता; सह--साथ; नः--हम ( देवताओं ) को; त्रि-लोकान्--तीनों लोकों को नियंत्रित करने वाले; पश्यामि- प्रत्यक्ष देखता हूँ; अमुष्मिन्ू--आप में; उ--ओह; ह-- पूर्णतयाप्रकट; विश्व-मूर्तों--विश्व रूप आप में |
हे पुरुषश्रेष्, हे परम नियन्ता! जो लोग सचमुच परम सौभाग्य की कामना करते हैं, वेवैदिक तंत्रों के अनुसार आपके इसी रूप की पूजा करते हैं |
हे प्रभु! हम आपकमें तीनों लोकों कोदेख सकते हैं |
त्वय्यग्र आसीत्त्वयि मध्य आसीत्त्वय्यन्त आसीदिदमात्मतन्त्रे |
त्वमादिरन्तो जगतोस्य मध्यघटस्य मृत्स्नेव पर: परस्मात् ॥
१०॥
त्वयि--तुम ( भगवान् ) में; अग्रे--प्रारम्भ में; आसीत्-- था; त्वयि--तुममें; मध्ये--मध्य में; आसीतू-- था; त्वयि--तुममें;अन्ते--अन्त में; आसीत्-- था; इृदम्--यह सारा दृश्य जगत; आत्म-तन््त्रे--पूर्णतया आपके नियंत्रण में; त्वमू--तुम; आदि:--आदि; अन्तः--अन्त; जगत: --दृश्य जगत के; अस्य--इस; मध्यम्--मध्य; घटस्य--मिट्टी के पात्र का; मृत्स्ना इब--मिट्टी केसमान; परः--दिव्य; परस्मात्-- प्रमुख होने के कारण |
सदैव पूर्ण स्वतंत्र रहने वाले मेरे प्रभु! यह सारा दृश्य जगत आपसे उत्पन्न होता है, आप परटिका रहता है और आपमें तल्लीन हो जाता है |
आप ही प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अन्तहैं जिस तरह पृथ्वी मिट्टी के पात्र का कारण है; वह उस पात्र को आधार प्रदान करती है और जबपात्र टूट जाता है, तो अन्ततः उसे अपने में मिला लेती है |
त्वं माययात्मा श्रयया स्वयेदंनिर्माय विश्व॑ं तदनुप्रविष्ट: |
पश्यन्ति युक्ता मनसा मनीषिणोगुणव्यवायेप्यगुणं विपश्चित: ॥
११॥
त्वमू--आप; मायया--अपनी नित्य शक्ति द्वारा; आत्म-आश्रयया--जिसका अस्तित्व आपकी शरण के अधीन है; स्वया--आपसे उद्भूत; इृदम्ू-यह; निर्माय--उत्पन्न करने के लिए; विश्वम्--सारे ब्रह्माण्ड को; तत्--उसमें; अनुप्रविष्ट: --आप प्रवेशकरते हैं; पश्यन्ति--वे देखते हैं; युक्ता:--आपके सम्पर्क में रहने वाले व्यक्ति; मनसा--मन से; मनीषिण:--उच्च चेतना वालेलोग; गुण--भौतिक गुणों के; व्यवाये--रूपान्तर में; अपि--यद्यपि; अगुणम्-- भौतिक तत्त्वों से अछूता; विपश्चित: --शास्त्रके सत्य से भलीभाँति अभिज्ञ लोग |
हे परब्रह्म! आप अपने में स्वतंत्र हैं और दूसरों से सहायता नहीं लेते |
आप अपनी शक्ति सेइस हृश्य जगत का सृजन करके इसमें प्रवेश कर जाते हैं |
जो लोग कृष्णभावनामृत में बढ़े-चढ़ेहैं, जो प्रामाणिक शास्त्रों से भलीभाँति परिचित हैं और जो भक्तियोग के अभ्यास से सारेभौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाते हैं, वे यह शुद्ध मन से देख सकते हैं कि आप भौतिक गुणों केरूपान्तरों के भीतर रहते हुए भी इन गुणों से अछूते रहते हैं |
यथाग्निमेधस्यमृतं च गोषुभुव्यन्नमम्बूद्यमने च वृत्तिम् |
योगैर्मनुष्या अधियन्ति हि त्वां गुणेषु बुद्धया कवयो वदन्ति ॥
१२॥
यथा--जिस तरह; अग्निम्--अग्नि; एधसि--क्राष्ठ में; अमृतम्--अमृत तुल्य दुग्ध; च--तथा; गोषु--गायों में; भुवि-- भूमिपर; अन्नम्ू--अनाज; अम्बु--जल; उद्यमने--उद्यम में; च-- भी; वृत्तिमू--जीविका; योगै: -- भक्तियोग के अभ्यास से;मनुष्या:--लोग; अधियन्ति--प्राप्त करते हैं; हि--निस्सन्देह; त्वाम्--तुमको; गुणेषु--गुणों में; बुद्धया--बुद्धि से; कबय:--महापुरुष; वदन्ति--कहते हैं |
जिस प्रकार काठ से अग्नि, गाय के थन से दूध, भूमि से अन्न तथा जल और औद्योगिकउद्यम से जीविका के लिए समृद्धि प्राप्त की जा सकती है उसी तरह इस भौतिक जगत में मनुष्यभक्तियोग के अभ्यास द्वारा आपकी कृपा प्राप्त कर सकता है या बुद्धि से आपके पास पहुँचसकता है |
जो पुण्यात्मा हैं, वे इसकी पुष्टि करते हैं |
त॑ं त्वां बयं नाथ समुज्जिहानंसरोजनाभातिचिरेप्सितार्थम् |
इृष्ठा गता निर्वृतमद्य सर्वेगजा दवार्ता इवब गाड़ुमम्भ: ॥
१३॥
तमू--हे भगवान्; त्वामू--आपको; वयम्--हम सभी; नाथ--हे स्वामी; समुज्जिहानम्-- अपनी समस्त महिमा के साथ अबहमारे समक्ष प्रकट होने वाले; सरोज-नाभ--कमल फूल के समान नाभि वाले भगवान् अथवा जिनकी नाभि से कमल निकलताहै; अति-चिर--दीर्घकाल तक; ईप्सित--चाहते हुए; अर्थम्--जीवन के चरम लक्ष्य के लिए; हृट्ला--देखकर; गता:--अपनीइृष्टि के अन्तर्गत; निर्वृतम्--दिव्य सुख; अद्य--आज; सर्वे--हम सभी; गजा:--हाथी; दव-अर्ता:--जंगल की अग्नि सेपीड़ित; इब--सहश; गाड़म् अम्भ:--गंगा के जल से
जंगल की अग्नि से पीड़ित हाथी गंगाजल प्राप्त होने पर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं |
इसी प्रकार,हे प्रभु! कमलनाभ प्रभु! चूँकि आप हमारे समक्ष अब प्रकट हुए हैं अतएवं हम दिव्य सुख काअनुभव कर रहे हैं |
हमें आपके दर्शन की दीर्घकाल से आकांक्षा थी अतएव आपका दर्शन पाकर हमने अपने जीवन के चरम लक्ष्य को पा लिया है |
स त्वं विधत्स्वाखिललोकपालाबय॑ं यदर्थास्तव पादमूलम् |
समागतास्ते बहिरन्तरात्मन्कि वान्यविज्ञाप्यमशेषसाक्षिण: ॥
१४॥
सः--वह; त्वमू--आप; विधत्स्व--कृपया जो आवश्यक हो करें; अखिल-लोक-पाला:--देवता, इस ब्रह्माण्ड के विभिन्नविभागों के निर्देशक; वयम्--हम सभी; यत्--जो; अर्था:-- प्रयोजन; तब-- आपके ; पाद-मूलम्--चरणकमलों पर;समागताः--हम आये हैं; ते--आपको; बहिः-अन्त:-आत्मन्--हे सबके परमात्मा, हे बाह्य तथा अन्तर के सतत साक्षी; किमू--क्या; वा--अथवा; अन्य-विज्ञाप्यमू--आपको सूचित करते हैं; अशेष-साक्षिण:--हर वस्तु के साक्षी तथा ज्ञाता |
है भगवान्! हम विविध देवता, इस ब्रह्माण्ड के निर्देशक आपके चरणकमलों के निकटआये हैं |
जिस प्रयोजन से हम आये हैं कृपया उसे पूरा करें |
आप भीतर तथा बाहर से हर वस्तुके साक्षी हैं |
आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है, अतएबं आपको किसी बात के लिए पुनः सूचितकरना व्यर्थ है |
अहं गिरित्रश्च सुरादयो येदक्षादयोग्नेरिव केतवस्ते |
किं वा विदामेश पृथग्विभाताविधत्स्व शं नो द्विजदेवमन्त्रम्ू ॥
१५॥
अहम्-मैं ( ब्रह्मा ); गिरित्र:--शिवजी; च-- भी; सुर-आदय:--तथा सारे देवता; ये--जैसे भी हम हैं; दक्ष-आदय:--महाराजदक्ष इत्यादि; अग्ने:-- अग्नि के; इब--सहश; केतव:--चिनगारियाँ; ते--तुम्हारा; किमू-- क्या; वा--अथवा; विदाम--हमसमझ सकते हैं; ईश-हे प्रभु; पृथक्ू-विभाताः:--आपफसे स्वतंत्र होकर; विधत्स्व--हमें प्रदान करें; शम्--सौ भाग्य; न:--हमारा; द्विज-देव-मन्त्रमू-ब्राह्मणों तथा देवताओं के लिए उपयुक्त मोक्ष का साधन |
मैं ( ब्रह्म ) शिवजी तथा सारे देवताओं के साथ-साथ, दक्ष जैसे प्रजापति भी चिनगारियाँमात्र हैं, जो मूल अग्नि स्वरूप आपके द्वारा प्रकाशित हैं |
चूँकि हम आपके कण हैं अतएव हमअपनी कुशलता के विषय में समझ ही कया सकते हैं? हे परमेश्वर! हमें मोक्ष का वह साधनप्रदान करें जो ब्राह्मणों तथा देवताओं के लिए उपयुक्त हो |
श्रीशुक उबाचएवं विरिज्ञादिभिरीडितस्तद्विज्ञाय तेषां हृदयं यथेव |
जगाद जीमूतगभीरया गिराबद्धाञ्जलीन्संवृतसर्वकारकान् ॥
१६॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; विरिज्ञन-आदिभि: --ब्रह्मा इत्यादि सारे देवताओं द्वारा;ईंडित:--पूजित; तत् विज्ञाय--आशा को जानकर; तेषामू--उन सब का; हृदयम्--हदय; यथा--जिस तरह; एब--निस्सन्देह;जगाद--उत्तर दिया; जीमूत-गभीरया--बादलों की गरज के समान; गिरा--शब्दों से; बद्ध-अद्लीन्--हाथ जोड़कर खड़ेदेवताओं को; संवृत--संयमित; सर्व--सभी; कारकान्--इन्द्रियों को |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब ब्रह्मा समेत सारे देवताओं ने भगवान् की स्तुतिकी तो वे उनके वहाँ आने का प्रयोजन समझ गये |
अतएवं भगवान् ने बादल की गर्जना केसमान गम्भीर वाणी में उन देवताओं को उत्तर दिया जो हाथ जोड़कर सावधानी से वहाँ खड़े थे |
एक एवेश्वरस्तस्मिन्सुरकार्ये सुरेश्वरः |
विहर्तुकामस्तानाह समुद्रोन्मथनादिभि: ॥
१७॥
एकः--अकेला; एव--निस्सन्देह; ईश्वर: -- भगवान्; तस्मिन्--उस; सुर-कार्ये--देवताओं के कार्यों में; सुर-ई श्वरः --देवताओंके ईश्वर, भगवान्; विहर्तु--लीलाओं का आनन्द भोगने के लिए; काम:--इच्छा करते हुए; तानू--देवताओं से; आह--कहा;समुद्र-उन्मथन-आदिभि:--समुद्र-मन्थन के कार्यो से
यद्यपि देवताओं के स्वामी भगवान् देवताओं के कार्यकलापों को स्वयं सम्पन्न करने मेंसमर्थ थे फिर भी उन्होंने समुद्र-मन्न्थन की लीला का आनन्द उठाना चाहा |
अतएव बे इस प्रकारबोले |
श्रीभगवानुवाचहन्त ब्रह्मन्नहो शम्भो हे देवा मम भाषितम् |
श्रुणुतावहिता: सर्वे श्रेयो वः स्याद्यथा सुरा: ॥
१८॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; हन्त--उनको सम्बोधित करते हुए; ब्रह्मनू अहो--हे ब्रह्माजी; शम्भो--हे शिवजी; हे --है; देवा:--देवतागण; मम--मेरा; भाषितम्--कथन; श्रूणुत--सुनो; अवहिता:--ध्यानपूर्वक; सर्वे--तुम सभी; श्रेय: --कल्याण; वः--तुम सबका; स्यात्--हो; यथा--जिस तरह; सुरा:--देवताओं के लिए |
भगवान् ने कहा! हे ब्रह्मा, शिव तथा अन्य देवताओ! तुम सभी ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनोक्योंकि मैं जो कुछ कहूँगा उससे तुम सब का कल्याण होगा |
यात दानवदैतेयैस्तावत्सन्धिर्विधीयताम् |
कालेनानुगृहीतैस्तैर्यावद्दो भव आत्मन:ः ॥
१९॥
यात--सम्पन्न करो; दानव--दानवों के साथ; दैतेयैः--तथा असुरों के साथ; तावत्ू--तब तक; सन्धि:--सन्धि; विधीयताम्ू--सम्पन्न करो; कालेन--अनुकूल समय के द्वारा ( या काव्येन--शुक्राचार्य द्वारा ); अनुगृहीतैः-- आशीष प्राप्त करते हुए; तैः--उन सब से; यावत्--जब तक; वः--तुम्हारा; भव: --सौ भाग्य; आत्मन: --तुम सब का |
जब तक तुम उन्नति नहीं कर रहे ही, तुम सब को दानवों तथा असुरों के साथ सन्धि करलेनी चाहिए क्योंकि सम्प्रति समय उनके अनुकूल है |
अरयोपि हि सन्धेया: सति कार्यार्थगौरवे |
अहिमूषिकवद्देवा हार्थस्य पदवीं गतैः ॥
२०॥
अरयः--शत्रुगण; अपि--यद्यपि; हि--निस्सन्देह; सन्धेया: --सन्धि के योग्य; सति--ऐसा होकर; कार्य-अर्थ-गौरवे--महत्त्वपूर्ण कर्तव्य के मामले में; अहि--सर्प; मूषिक--चूहा; वत्--सहृश; देवा: --हे देवताओ; हि--निस्सन्देह; अर्थस्य--हितका; पदवीम्--पद; गतैः--ऐसा होकर |
हे देवताओ! अपना हित इतना महत्वपूर्ण होता है कि मनुष्य को अपने शत्रुओं से सन्धि भीकरनी पड़ सकती है |
अपने हित ( लाभ ) के लिए मनुष्य को सर्प तथा चूहे के तर्क के अनुसारकार्य करना चाहिए |
अमृतोत्पादने यत्न: क्रियतामविलम्बितम् |
यस्य पीतस्य वै जन्तुर्मृत्युग्रस्तोमरो भवेत् ॥
२१॥
अमृत-उत्पादने--अमृत उत्पन्न करने में; यतत:--यत्ल; क्रियतामू--करो; अविलम्बितम्--देर किये बिना, तुरन्त; यस्य--जिसअमृत के; पीतस्थ--पीने वाले का; बै--निस्सन्देह; जन्तु:--जीव; मृत्यु-ग्रस्त:--यद्यपि आसतन्न मृत्यु संकट में; अमर: -- अमर;भवेत्--हो सकता है |
तुरन्त ही अमृत उत्पन्न करने का प्रयत्न करो जिसे पीकर मरणासत्न व्यक्ति अमर हो जाये |
क्षिप्त्वा क्षीरोदधौ सर्वा वीरुत्तूणलतौषधी: |
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्र कृत्वा तु वासुकिमू ॥
२२॥
सहायेन मया देवा निर्मन्थध्वमतन्द्रिता: |
क्लेशभाजो भविष्यन्ति दैत्या यूयं फलग्रहा: ॥
२३॥
क्षिप्वा--डालकर; क्षीर-उदधौ -- क्षीरसागर में; सर्वा:--सभी प्रकार की; वीरुतू--लताएँ; तृण--घास; लता--वनस्पतियाँ;औषधी:--तथा दवाएँ; मन्थानम्--मथानी; मन्दरम्ू--मन्दर पर्वत को; कृत्वा--बनाकर; नेत्रमू--मथने की डोरी; कृत्वा--बनाकर; तु--लेकिन; वासुकिम्--वासुक्ति सर्प को; सहायेन--सहायक के साथ; मया--मेरे द्वारा; देवा:--सारे देवता;निर्मन््थध्वम्-- मथते रहो; अतन्द्रिता:--सावधानी से, एकाग्र मन से; क्लेश-भाज:--कष्टों को बँटाने वाले; भविष्यन्ति--होंगे;दैत्या:--दैत्य; यूयम्--तुम सब; फल-ग्रहाः--वास्तविक फल का लाभ उठाने वाले)
हे देवताओ! क्षीरसागर में सभी प्रकार की वनस्पतियाँ, तृण, लताएँ तथा औषधियाँ डालदो |
तब मेरी सहायता से मन्दर पर्वत को मथानी तथा वासुकि को मथने की रस्सी बनाकरअविचल चित्त से क्षीरसागर का मन्थन करो |
इत तरह से दैत्यगण श्रम कार्य में लग जायेंगे,किन्तु तुम देवताओं को वास्तविक फल--समुद्र से उत्पन्न अमृत--प्राप्त होगा |
यूयं तदनुमोदध्व॑ यदिच्छन्त्यसुरा: सुरा: |
न संरम्भेण सिध्यन्ति सर्वार्था: सान्त्ववा यथा ॥
२४॥
यूयम्--तुम सभी; तत्--वह; अनुमोदध्वम्--स्वीकार करो; यत्--जो भी; इच्छन्ति--वे चाहते हैं; असुरा:--असुरगण;सुराः--हे देवताओ; न--नहीं; संरम्भेण--क्रुद्ध होने पर; सिध्यन्ति--सफल होते हैं; सर्व-अर्था:--सारी वांछनाएँ; सान्तवया--शान्तिपूर्वक सम्पन्न करने से; यथा--जिस तरह |
हे देवताओ! धैर्य तथा शान्ति से हर कार्य सम्पन्न किया जा सकता है, किन्तु यदि कोई क्रोधसे क्षुब्ध रहे तो लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पाती |
अतएव असुरगण जो भी माँगें उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लो |
न भेतव्यं कालकूटाद्विषाजलधिसम्भवात् |
लोभः कार्यो न वो जातु रोष: कामस्तु वस्तुषु ॥
२५॥
न--नहीं; भेतव्यम्ू--डरना चाहिए; कालकूटात्--कालकूट से; विषात्--विष से; जलधि--क्षीरसागर से; सम्भवात्--प्रकटहुए; लोभ: --लालच; कार्य:--कार्य; न--नहीं; व: --तुमको; जातु--किसी समय; रोष: --क्रो ध; काम:--विषयवासना;तु--तथा; वस्तुषु--वस्तुओं में
क्षीससागर से कालकूट नामक विष उत्पन्न होगा, किन्तु तुम्हें उससे डरना नहीं है और जबसमुद्र के मन्थन से विविध उत्पाद प्राप्त हों तो तुम्हें उनको प्राप्त करने के लिए न तो लालचकरना होगा, न ही उत्सुक होना होगा, और न ही क्रुद्ध होना होगा |
श्रीशुक उबाचइति देवान्समादिश्य भगवान्पुरुषोत्तम: |
तेषामन्तर्दथे राजन्स्वच्छन्दगतिरीश्वर: ॥
२६॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; देवान्--सारे देवताओं को; समादिश्य--उपदेश देकर;भगवानू-- भगवान्; पुरुष-उत्तम: -- पुरुषों में श्रेष्ठ; तेषाम्--उन सब से; अन्तर्दधे--अन्तर्धान हो गये; राजन्--हे राजा;स्वच्छन्द--मुक्त; गति:--गति वाले; ईश्वर: -- भगवान् |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा परीक्षित! देवताओं को इस प्रकार से सलाह देकरसमस्त जीवों में श्रेष्ठ, स्वच्छन्द रहने वाले भगवान् उनके समक्ष से अन्तर्धान हो गये |
अथ तस्मै भगवते नमस्कृत्य पितामहः |
भवश्च जम्मतुः स्वं स्वं धामोपेयुर्बलिं सुरा: ॥
२७॥
अथ--इसके बाद; तस्मै--उस; भगवते-- भगवान् को; नमस्कृत्य-- नमस्कार करके; पिता-महः--ब्रह्मा जी; भव: च--तथाशिवजी; जम्मतु:--लौट गये; स्वम् स्वम्-- अपने-अपने; धाम--घरों को; उपेयु;--पास गये; बलिम्--राजा बलि के; सुरा:--अन्य सारे देवता
तब भगवान् को सादर नमस्कार करने के बाद ब्रह्म जी तथा शिवजी अपने-अपने धामों कोलौट गये |
फिर सारे देवता महाराज बलि के पास गये |
इृष्ठारीनप्यसंयत्ताज्जातक्षोभान्स्वनायकान् |
न्यषेधदवैत्यराट्श्लोक्य: सन्धिविग्रहकालवित् ॥
२८॥
इृष्ठा--देखकर; अरीन्--शत्रुओं को; अपि--यद्यपि; असंयत्तान्ू--लड़ने के किसी प्रयास बिना; जात-क्षोभान्ू--विश्लुब्ध हुए;स्व-नायकानू-- अपने सेनानायकों को; न्यषेधत्--रोका; दैत्य-राट्--दैत्यों के सम्राट, महाराज बलि; एलोक्य:--अत्यन्तसम्मानित तथा प्रमुख; सन्धि--समझौता कराने के लिए; विग्रह--तथा लड़ने के लिए; काल--समय; वित्-- पूर्णतयाअवगत |
दैत्यों में सर्वाधिक विख्यात महाराज बलि भलीभाँति जानते थे कि कब सन्धि करनी चाहिएऔर कब युद्ध करना चाहिए |
इस तरह से यद्यपि उनके सेनानायक विश्लुब्ध थे और देवताओं कावध कर देना चाहते थे, किन्तु जब महाराज बलि ने देखा कि सारे देवता उनके पास आक्रमकप्रवृत्ति त्याग कर आ रहे हैं, तो उन्होंने अपने सेनानायकों को मना कर दिया कि वे देवताओं कोमारें नहीं |
ते वैरोचनिमासीन गुप्तं चासुरयूथपैः |
श्रिया परमया जुष्टे जिताशेषमुपागमन् ॥
२९॥
ते--सभी देवता; वैरोचनिम्--विरोचन के पुत्र बलिराज को; आसीनमू्--बैठा हुआ; गुप्तम्--सुरक्षित; च--तथा; असुर-यूथ-पै:--असुरों के सेनानायकों द्वारा; भ्रिया--ऐश्वर्य से; परमया--परम; जुष्टम्--वर प्राप्त; जित-अशेषम्--समस्त जगतों कास्वामी; उपागमन्--के पास पहुँचे |
देवगण विरोचन के पुत्र बलि महाराज के पास गये और उनके निकट बैठ गये |
उस समय बलि महाराज की रक्षा असुरों के सेनानायकों द्वारा की जा रही थी और बे अत्यन्त ऐश्वर्यशालीथे |
उन्होंने सारे ब्रह्माण्डों को जीत लिया था |
महेन्द्र: एलक्ष्णया वाचा सान्त्वयित्वा महामति: |
अभ्यभाषत तत्सर्व शिक्षितं पुरुषोत्तमात् ॥
३०॥
महा-इन्द्र:-स्वर्ग का राजा इन्द्र; शलक्ष्णया--अत्यन्त विनीत; वाचा--वचनों से; सान्त्वयित्वा--बलि महाराज को अत्यधिकप्रसन्न करते हुए; महा-मतिः--अत्यन्त बुद्धिमान् मनुष्य; अभ्यभाषत--सम्बोधित किया; तत्ू--वह; सर्वम्--सब कुछ;शिक्षितम्--जो कुछ सीखा था; पुरुष-उत्तमात्-- भगवान् विष्णु से |
अत्यन्त बुद्धिमान् एवं देवताओं के राजा इन्द्र ने बलि महाराज को विनीत शब्दों से प्रसन्न करलेने के बाद उन सारे प्रस्तावों को अत्यन्त विनयपूर्वक प्रस्तुत किया जिन्हें भगवान् विष्णु ने उसेसिखलाया था |
तत्त्वरोचत दैत्यस्य तत्रान्ये येउसुराधिपा: |
शम्बरोरिष्टनेमिश्व ये च त्रिपुरवासिन: ॥
३१॥
तत्--वे सारे शब्द; तु--लेकिन; अरोचत--अत्यन्त रुचिकर थे; दैत्यस्थ--बलि महाराज के लिए; तत्र--तथा; अन्ये-- अन्य;ये--जो; असुर-अधिपा: -- असुरों के प्रधान; शम्बर:--शम्बर; अरिष्टनेमि:--अरिष्टनेमि; च-- भी; ये-- अन्य जो; च--तथा;त्रिपुर-वासिन: --त्रिपुर के सारे निवासी |
राजा इन्द्र द्वारा रखे गये प्रस्तावों को बलि महाराज ने, उनके सहायकों ने, जिनमें शम्बर तथाअरिष्टनेमि प्रमुख थे एवं त्रिपुर के अन्य सारे निवासियों ने तुरन्त ही मान लिया |
ईश्वर-भावनाभावित दल सदैव सुखी तथा विजयी होता है |
ततो देवासुरा: कृत्वा संविदं कृतसौहदा: |
उद्यमं परम चक्कुरमृतार्थ परन्तप ॥
३२॥
ततः--तत्पश्चात्; देव-असुरा:--देवता तथा असुर दोनों; कृत्वा--सम्पन्न करके; संविदम्--संकेत करते हुए; कृत-सौहदा: --उनके बीच सन्धि प्रस्ताव; उद्यमम्--उद्यम; परमम्--परम; चक्कु:--उन्होंने किया; अमृत-अर्थे--अमृत के हेतु; परन्तप--हेशत्रुओं को दण्ड देने वाले महाराज परीक्षित |
हे शत्रुओं को दण्ड देने वाले महाराज परीक्षित! तब देवताओं तथा असुरों ने परस्पर सन्धिकर ली और उन्होंने इन्द्र द्वारा प्रस्तावित अमृत उत्पन्न करने की योजना को बड़े ही उद्यमपूर्वककार्यान्वित करने की व्यवस्था की |
ततस्ते मन्दरगिरिमोजसोत्पाट्य दुर्मदा: |
नदन्त उदधि निन्यु: शक्ता: परिघबाहवः ॥
३३॥
ततः--तत्पश्चात्; ते--सारे देवता तथा असुर; मन्दर-गिरिम्--मन्दर पर्वत को; ओजसा--बलपूर्वक; उत्पाट्य--उखाड़कर;दुर्मदा:--अत्यन्त शक्तिशाली तथा दक्ष; नदन्त--जोर-जोर से चिल्लाते; उदधिम्--समुद्र की तरफ; निन्युः--लाया; शक्ता:--अत्यन्त शक्तिशाली; परिघ-बाहव:--लम्बी-लम्बी बलशाली भुजाओं वाले |
तत्पश्चात् देवताओं तथा अत्यन्त शक्तिशाली एवं लम्बी-लम्बी बलशाली भुजाओं वालेअसुरों ने अत्यन्त बलपूर्वक मन्दर पर्वत को उखाड़ा और जोरों से चिल्लाते हुए वे उसे क्षीरसागरकी ओर ले चले |
दूरभारोद्वहश्रान्ता: शक्रवैरोचनादय: |
अपारयन्तस्तं बोढुं विवशा विजहु: पथ्चि ॥
३४॥
दूर--दूर तक; भार-उद्दद-- भारी बोझा ले जाने से; श्रान्ताः--थके हुए; शक्र--इनन््द्र; वरोचन-आदय: --तथा महाराज बलिइत्यादि; अपारयन्त:--असमर्थ; तम्ू--पर्वत को; वोढुम्--उठापाने; विवशा:--अशक्त; विजहु:--छोड़ दिया; पथि--रास्ते में |
विशाल पर्वत को दूर तक ले जाने के कारण राजा इन्द्र, महाराज बलि तथा अन्य सारे देवताएवं असुर थक गये |
पर्वत को ले जाने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने उसे रास्ते में छोड़ दिया |
निपतन्स गिरिस्तत्र बहूनमरदानवान् |
चूर्णयामास महता भारेण कनकाचलः ॥
३५॥
निपतन्--गिरते हुए; सः--उस; गिरि:--पर्वत ने; तत्र--वहाँ; बहूनू-- अनेक; अमर-दानवानू--देवताओं तथा दानवों को;चूर्णयाम् आस--चूर्ण कर डाला; महता-- भारी; भारेण--बोझ से; कनक-अचलः --सोने का पर्वत जिसे मन्दर कहते हैं |
यह पर्वत जो मन्दर के नाम से विख्यात था, अत्यन्त भारी था तथा सोने का बना था, वहींगिर पड़ा और इस ने अनेक देवताओं तथा असुरों को कुचल डाला |
तांस्तथा भग्नमनसो भग्नबाहूरुकन्धरान् |
विज्ञाय भगवांस्तत्र बभूव गरुडध्वज: ॥
३६॥
तानू--सारे देवता तथा असुर; तथा--तत्पश्चात्; भग्न-मनस:--हताश होकर; भग्न-बाहु--दूटी बाँहों वाले; ऊरु--जाँचें;कन्धरानू--तथा कंधे; विज्ञाय--जानते हुए; भगवान्-- भगवान् विष्णु; तत्र--वहाँ; बभूव--प्रकट हुए; गरुड-ध्वज:--गरुड़पर सवार
देवता तथा असुर हताश तथा विश्लुब्ध थे और उनकी भुजाएँ, जाँघें तथा कंधे टूट गये थे |
अतएव गरुड़ की पीठ पर सवार सर्वज्ञ भगवान् वहाँ पर प्रकट हुए |
गिरिपातविनिष्पिष्टान्विलोक्यामरदानवान् |
ईक्षया जीवयामास निर्जरान्निर्त्रणान्यथा ॥
३७॥
गिरि-पात--मन्दर पर्वत के गिरने; विनिष्पिष्टानू--कुचले हुए; विलोक्य--देखकर; अमर--देवताओं; दानवानू--तथा दानवोंको; ईक्षया--अपनी चितवन मात्र से; जीवयाम् आस--जीवित कर दिया; निर्जरान्ू--बिना किसी शोक के; निर्त्रणानू--बिनाघाव के; यथा--मानो |
यह देखकर कि अधिकांश दानव तथा देवता पर्वत के गिरने से कुचले गये हैं, भगवान् नेउन सब पर अपनी दृष्टि दौड़ाई और उन्हें जीवित कर दिया |
इस प्रकार वे शोक से रहित हो गयेऔर उनके शरीरों के घाव भी जाते रहे |
गिरिं चारोप्य गरुडे हस्तेनेकेन लीलया |
आरुह्म प्रययावब्धि सुरासुरगणैर्वृत: ॥
३८॥
गिरिमू--पर्वत को; च-- भी; आरोप्य--रखकर; गरुडे--गरुड़ की पीठ पर; हस्तेन--हाथ से; एकेन--एक; लीलया-- अपनीलीला के रूप में, आसानी से; आरुह्म--चढ़कर; प्रययौ--चले गये; अब्धिम्-- क्षीरसागर; सुर-असुर-गणै: --देवताओं तथाअसुरों द्वारा; वृत:--घिरे हुए
फिर भगवान् ने पर्वत को अत्यन्त सरलतापूर्वक एक हाथ से उठाकर गरुड़ की पीठ पर रखदिया |
तब वे स्वयं गरुड़ पर सवार हुए और देवताओं तथा असुरों से घिरे हुए क्षीरसागर चलेगये |
अवरसोष्य गिरिं स्कन्धात्सुपर्ण: पततां वर: |
ययौ जलान्त उत्सृज्य हरिणा स विसर्जित: ॥
३९॥
अवरोप्य--उतार कर; गिरिम्--पर्वत को; स्कन्धात्--अपने कंधे से; सुपर्ण:--गरुड़; पतताम्--सारे पक्षियों में; बर:--सबसेमहान् या शक्तिमान; ययौ--गया; जल-अन्ते--जहाँ जल है; उत्सृज्य--रखकर; हरिणा-- भगवान् द्वारा; सः--वह ( गरुड़ );विसर्जितः --उस स्थान से चला गया |
तत्पश्चात् पक्षीराज गरुड़ ने अपने कन्धे से मन्दर पर्वत को उतारा और वे उसे जल के निकटले गये |
तब भगवान् ने उससे उस स्थान से चले जाने को कहा और वह चला गया |
अध्याय सात: भगवान शिव ने जहर पीकर ब्रह्मांड को बचाया
8.7श्रीशुक उवाचते नागराजमामन्त्रय फलभागेन वासुकिम् |
'परिवीय गिरौतस्मिन्नेत्रमब्ि मुदान्विता: |
आरेभिरे सुरा यत्ता अमृतार्थे कुरूद्दद ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; ते--वे सब ( देव तथा दैत्य ); नाग-राजम्ू--नागों के राजा को; आमन्य--बुलाकर या प्रार्थना करके; फल-भागेन--अमृत का हिस्सा दिलाने का वचन देकर; वासुकिम्--वासुकि सर्प को; परिवीय--घेरकर; गिरौ--मन्दर पर्वत पर; तस्मिनू--उसको; नेत्रमू--मथने की रस्सी; अब्धिम्-- क्षीरसागर को; मुदा अन्बिता:--सभीअत्यन्त प्रसन्न थे; आरेभिरि--कर्म करने लगा; सुरा:--देवतागण; यत्ता:--अत्यन्त प्रयास से; अमृत-अर्थ--अमृत प्राप्त करने केलिए; कुरु-उद्दद-कुरुओं में श्रेष्ठ
हे राजा परीक्षित, शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! देवों तथा असुरों ने सर्पराजवासुकि को बुलवाया और उसे वचन दिया कि वे उसे अमृत में भाग देंगे |
उन्होंने वासुकि कोमन्दर पर्वत के चारों ओर मथने की रस्सी की भाँति लपेट दिया और क्षीरसागर के मन्थन द्वाराअमृत उत्पन्न करने का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक प्रयत्त किया |
हरिः पुरस्ताजगूहे पूर्व देवास्ततो भवन् ॥
२॥
हरिः-- भगवान् अजित ने; पुरस्तात्--सामने से; जगृहे--ले लिया; पूर्वम्--सर्वप्रथम; देवा:--देवतागण; ततः--तत्पश्चात्;अभवनू--वासुकि का अगला हिस्सा पकड़ लिया |
भगवान् अजित ने सर्प के अगले हिस्से को पकड़ लिया और तब सारे देवताओं ने उनकेपीछे होकर उसे पकड़ लिया |
तन्नैच्छन्दैत्यपतयो महापुरुषचेष्टितम् |
न गृह्लीमो बयं पुच्छमहेरड़ममड्रनलम् |
स्वाध्यायश्रुतसम्पन्ना: प्रख्याता जन्मकर्मभि: ॥
३॥
तत्--वह व्यवस्था; न ऐच्छन्--न चाहते हुए; दैत्य-पतयः--दैत्यों के नेता; महा-पुरुष-- भगवान् का; चेष्टितम्--प्रयास; न--नहीं; गृह्लीम:--ले लेंगे; वयम्--हम सभी ( दैत्यगण ); पुच्छम्-पूँछ; अहेः--सर्प की; अड्रमू--शरीर का भाग; अमड्रलम्--अशुभ, निकृष्ट; स्वाध्याय--वैदिक अध्ययन से; श्रुत--तथा वैदिक ज्ञान से; सम्पन्ना:--पूर्ण तथा सज्जित; प्रख्याता:--प्रमुख;जन्म-कर्मभि: --जन्म तथा कार्यकलापों से |
दैत्यों के नेताओं ने पूँछ पकड़ना मूर्खतापूर्ण समझा क्योंकि यह सर्प का अशुभ अंग है |
इस के स्थान पर वे अगला हिस्सा पकड़ना चाहते थे जिसे भगवान् तथा देवताओं ने पकड़ रखा थाक्योंकि वह भाग शुभ तथा महिमा-युक्त था |
इस प्रकार असुरों ने इस दलील के साथ कि वेसभी वैदिक ज्ञान में अत्यधिक बढ़े-चढ़े हैं और अपने जन्म तथा कार्यकलापों के लिए विख्यातहैं, आपत्ति उठाई कि वे सर्प के अगले हिस्से को पकड़ना चाहते हैं |
इति तृष्णीं स्थितान्दैत्यान्विलोक्य पुरुषोत्तम: |
स्मयमानो विसूृज्याग्रं पुच्छं जग्राह सामर: ॥
४॥
इति--इस प्रकार; तृष्णीम्--चुपचाप; स्थितान्ू--ठहरा; दैत्यान्ू--दैत्यों को; विलोक्य--देखकर; पुरुष-उत्तम:--भगवान् ने;स्मयमान:--मुस्काते हुए; विसृज्य--त्याग कर; अग्रम्ू--साँप के अगले भाग को; पुच्छमू--पिछला भाग; जग्राह--पकड़लिया; स-अमरः--देवताओं के साथ-साथ |
इस प्रकार असुरगण देवताओं की इच्छा का विरोध करते हुए मौन रहे |
भगवान् असुरों केमनोभावों को ताड़ गये अतएव वे मुस्काने लगे |
उन्होंने विचार-विमर्श किये बिना तुरन्त ही साँपकी पूँछ पकड़ कर उनका प्रस्ताव मान लिया और सारे देवता उनके साथ हो लिये |
कृतस्थानविभागास्त एवं कश्यपनन्दना: |
ममन्थु: परमं यत्ता अमृतार्थ पयोनिधिम् ॥
५॥
कृत--ठीक करने; स्थान-विभागा:--जहाँ-जहाँ उन्हें पकड़ना था उन स्थानों का विभाजन; ते--वे; एवम्--इस प्रकार;'कश्यप-नन्दना:--कश्यप के पुत्र ( देवता तथा असुर दोनों ही ); ममन्थु:--मथा; परमम्-- अत्यधिक; यत्ता:--यत्न से; अमृत-अर्थम्--अमृत प्राप्ति के लिए; पयः-निधिम्-- क्षीरसागर को |
साँप को किस स्थान पर पकड़ना है, यह तय करने के पश्चात् कश्यप के पुत्र देवता तथाअसुर दोनों ने क्षीरसागर के मन्थन से अमृत पाने की लालसा से अपना-अपना कार्य प्रारम्भ करदिया |
मध्यमानेर्णवे सोउद्विरनाधारो हपोविशत् |
प्रियमाणोपि बलिभिगगौरवात्पाण्डुनन्दन ॥
६॥
मध्यमाने--मन्थन के बीच में; अर्णवे-- क्षीरसागर में; सः--वह; अद्विः--पहाड़; अनाधार:--बिना किसी आधार के; हि--निस्सन्देह; अप:--जल में; अविशत्--डूब गया; प्वियमाण:-- पकड़ा हुआ; अपि--यद्यपि; बलिभि: --अत्यन्त बलशाली सुरोंतथा असुरों द्वारा; गौरवात्-- भारी होने के कारण; पाण्डु-नन्दन--हे पाण्डुपुत्र ( महाराज परीक्षित )॥
हे पाण्डुवंशी! जब क्षीरसागर में मन्दर पर्वत को इस तरह मथानी के रूप में प्रयुक्त किया जारहा था, तो उसका कोई आधार न था अतएव असुरों तथा देवताओं के बलिष्ट हाथों द्वारा पकड़ारहने पर भी वह जल में डूब गया |
ते सुनिर्विण्णममनसः परिम्लानमुखभ्रियः |
आसमन््स्वपौरुषे नष्टे देवेनातिबलीयसा ॥
७॥
ते--वे सब ( देवता तथा असुर ); सुनिर्विण्णग-मनसः --निराश मन से; परिम्लान--मुरझाई; मुख-भ्रिय:--मुखमण्डल कीसुन्दरता; आसन्--हो गई; स्व-पौरुषे-- अपने-अपने पौरुष के; नष्टे--नष्ट होने पर; दैवेन--दैवी विधान से; अति-बलीयसा--अत्यन्त बलवान
चूँकि पर्वत देवी शक्ति से डूबा था अतएवं देवता तथा असुरगण निराश थे और उनके चेहरेकुम्हला गये प्रतीत होते थे |
विलोक्य विघ्नेशविधि तदेश्वरोदुरन्तवीर्योउवितथाभिसन्धि: |
कृत्वा वपु: कच्छपमद्भुतं महत्प्रविश्य तोयं गिरिमुज्जहार ॥
८॥
विलोक्य--देखकर; विध्न--व्यवधान ( पर्वत का डूबना ); ईश-विधिम्--दैवी व्यवस्था से; तदा--तब; ईश्वर: -- भगवान्;दुरन्त-वीर्य:--अकल्पनीय शक्तिमान; अवितथ--अच्युत; अभिसन्धि: --जिसका संकल्प; कृत्वा--विस्तार करके; वपु:--शरीर; कच्छपम्--कछुवा; अद्भुतम्--विचित्र; महत्--विशाल; प्रविश्य--घुसकर; तोयम्ू--जल में; गिरिम्--पर्वत ( मन्दर )को; उजहार---उठा लिया
भगवदिच्छा से जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी उसे देखकर असीम शक्तिशाली एवं अच्युतसंकल्प वाले भगवान् ने कछुए का अद्भुत रूप धारण किया और जल में प्रविष्ट होकर विशालमन्दर पर्वत को उठा लिया |
तमुत्थितं वीक्ष्य कुलाचलं पुनःसमुझ्यता निर्मधितुं सुरासुरा: |
दधार पृष्ठेन स लक्षयोजनप्रस्तारिणा द्वीप इवापरो महान् ॥
९॥
तम्--उस पर्वत को; उत्थितम्--उठा हुआ; वीक्ष्य--देखकर; कुलाचलम्--मन्दर नामक; पुन:--फिर; समुद्यता: -- प्रोत्साहितहो गये; निर्मथितुम्-- क्षीरसागर का मन्थन करने के लिए; सुर-असुरा:--देवता तथा दानव; दधार--ले गये; पृष्ठेन--पीठ पर;सः--भगवान्; लक्ष-योजन--एक लाख योजन ( आठ लाख मील ); प्रस्तारिणा--फैला हुआ; द्वीप:--टापू, द्वीप; इब--सहश; अपरः--अन्य; महानू--विशाल
जब देवताओं तथा असुरों ने देखा कि मन्दर पर्वत उठाया गया है, तो वे प्रफुल्लित हो गए और पुनः मन्थन करने के लिए प्रोत्साहित हुए |
यह पर्वत विशाल कछुवे की पीठ पर टिका था,जो एक विशाल द्वीप की भाँति आठ लाख मील तक फैला हुआ था |
सुरासुरेन्द्रै्भुजवीर्यवेपितंपरिभ्रमन्तं गिरिमड़ पृष्ठतः |
बिक्षत्तदावर्तनममादिकच्छपोमेनेडड्रकण्डूयनमप्रमेयः ॥
१०॥
सुर-असुर-इन्द्रै:--देवताओं तथा असुरों के नायकों द्वारा; भुज-वीर्य--अपनी भुजाओं के बल पर; वेपितम्--गति करते हुए;परिभ्रमन्तम्--घूमता हुआ; गिरिम्-पर्वत को; अड़--हे महाराज परीक्षित; पृष्ठतः--अपनी पीठ पर; बिभ्रतू--स्थित; तत्--उस; आवर्तनम्-घूमते हुए; आदि-कच्छप:--आदि कछुवे की तरह; मेने--विचार किया; अड्भ-कण्डूयनम्--शरीर कोखुजलाने के समान सुहावना; अप्रमेय:--असीमित
हे राजा! जब देवताओं तथा असुरों ने अपने बाहुबल से अद्भुत कछुवे की पीठ पर स्थितमन्दर पर्वत को घुमा दिया तो कछुवे ने पर्वत के इस घूमने को अपना शरीर खुजलाने का साधनमान लिया |
इससे उसे अत्यन्त सूखप्रद अनुभूति हुई |
तथासुरानाविशदासुरेणरूपेण तेषां बलवीर्यमीरयन् |
उद्दीपयन्देवगणां श्र विष्णु-देवेन नागेन्द्रमबोधरूप: ॥
११॥
तथा--तत्पश्चात; असुरान्ू--असुरों को; आविशत्-प्रविष्ट हो गये; आसुरेण --रजोगुण के द्वारा; रूपेण--ऐसे रूप में;तेषाम्--उनका; बल-वीर्यम्ू--बल तथा शक्ति; ईरयन्--बढ़ती हुई; उद्दीपयन्-- प्रोत्साहित करते; देव-गणान्ू--देवताओं को;च--भी; विष्णु: -- भगवान् विष्णु; दैवेन--सत्व रूप के द्वारा; नाग-इन्द्रमू--सर्पो के राजा वासुकि को; अबोध-रूप:--तमोगुण के द्वारा |
तत्पश्चात् भगवान् विष्णु, उन सबको प्रोत्साहित करने एवं विभिन्न प्रकार से शक्ति देने केलिए, असुरों में रजोगुण के रूप में, देवताओं में सतोगुण के रूप में तथा वासुकि में तमोगुण केरूप में प्रविष्ट हो गये |
उपर्यगेन्द्रं गिरिराडिवान्यआक्रम्य हस्तेन सहस्त्रबाहु: |
तस्थौ दिवि ब्रह्मभवेन्द्रमुख्यै-रभिष्ठृवद्धि: सुमनोउभिवृष्ट: ॥
१२॥
उपरि--चोटी पर; अगेन्द्रमू--विशाल पर्वत; गिरि-राट्--पर्वतों का राजा; इब--सहश; अन्य:--दूसरा; आक्रम्य--पकड़ कर;हस्तेन--एक हाथ से; सहस्त्र-बाहु:--एक हजार हाथों वाला; तस्थौ--स्थित; दिवि--आकाश में; ब्रह्म--ब्रह्मा जी; भव--शिवजी; इन्द्र--स्वर्ग का राजा इन्द्र; मुख्यैः--प्रमुखों द्वारा; अभिष्ट्वद्धिः-- भगवान् की स्तुति की; सुमन: --फूल; अभिवृष्ट: --बरसा कर |
तब मन्दर पर्वत की चोटी पर भगवान् ने अपने आपको हजारों भुजाओं सहित प्रकट कियाजो अन्य विशाल पर्वत की तरह लग रहे थे और एक हाथ से मन्दर पर्वत को पकड़े रखा |
तबब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्य देवताओं ने उच्च लोकों में भगवान् की स्तुति की और उन पर फूलोंकी वर्षा की |
उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयो:परेण ते प्राविशता समेधिता: |
ममन्थुरब्धि तरसा मदोत्कटामहाद्विणा क्षोभितनक्रचक्रम् ॥
१३॥
उपरि--ऊपर; अध: च--तथा नीचे; आत्मनि--देवों तथा असुरों में; गोत्र-नेत्रयो: --पर्वत तथा वासुकि को, जो रस्सी की तरहप्रयुक्त हो रहा था; परेण-- भगवान् द्वारा; ते--वे; प्राविशता--उनके भीतर प्रवेश कर गये; समेधिता: --अत्यन्त विश्लुब्ध;ममन्थु:--मथा; अब्धिम्--क्षीरसागर को; तरसा--अत्यन्त बलपूर्वक; मद-उत्कटा: --मदान्ध होकर; महा-अद्विणा--मन्दरपर्वत से; क्षोभित--क्षुब्ध; नक्र-चक्रम्ू--जल के सारे मगर |
देवता तथा असुर अमृत के लिए मानो मतवाले होकर कार्य कर रहे थे क्योंकि भगवान् नेउन्हें प्रोत्साहित कर रखा था; वे पर्वत के ऊपर और नीचे सभी जगह थे और वे देवताओं, असुरों,वासुकि तथा पर्वत में भी प्रविष्ट हो गए थे |
देवताओं तथा असुरों के बल से, क्षीरसागर इतनीशक्ति के साथ विलोड़ित हो रहा था कि जल के सारे मगरमच्छ अत्यधिक विचलित हो उठे |
तोभी समुद्र का मन्थन इस तरह चलता रहा |
अहीन्द्रसाहस्रकठोरहड्मुख-श्वासाग्निधूमाहतवर्चसो सुरा: |
पौलोमकालेयबलील्वलादयोदवाग्निदग्धाः सरला इवबाभवन् ॥
१४॥
अहीन्द्र--सर्पों के राजा का; साहसत्र--हजारों; कठोर--अत्यन्त कठोर; हक्ू--दिशाएँ; मुख--मुख से; श्रास--साँस; अग्नि--बाहर निकलती हुई अग्नि; धूम-- धुँआ; आहत--प्रभावित होकर; वर्चसः--किरणों से; असुराः--असुरगण; पौलोम--पौलोम;कालेय--कालेय; बलि--बलि; इल्बल--इल्बल; आदय: --आदि; दव-अग्नि--जंगल की अग्नि से; दग्धा:--जले हुए;सरला:--सरल वृक्ष; इब--सद्ृश; अभवनू्--हो गये |
वासुकि के हजारों नेत्र तथा मुख थे |
उसके मुख से धुँआ तथा अग्नि की लपटें निकल रहीथीं जिससे पौलोम, कालेय, बलि, इल्बल आदि असुरगण पीड़ित हो रहे थे |
इस तरह सारे असुरजो जंगल की आग से जले हुए सरल वृक्ष की भाँति प्रतीत हो रहे थे धीरे-धीरे शक्तिहीन हो गए |
देवांश्व तच्छासशिखाहतप्रभान्धूम्राम्बरस्त्रग्वरक झ्लुकाननान् |
समभ्यवर्षन्भगवद्बशा घनाबबुः समुद्रोर्म्युपगूढवायव: ॥
१५॥
देवान्ू--सारे देवता; च-- भी; तत्ू--वासुकि के; श्रास--साँस लेने से; शिखा--लपटों से; हत--प्रभावित होकर; प्रभान्--उनकी शारीरिक कान्ति; धूप्र-- धुँआदार; अम्बर--वस्त्र; स्रकू-वर-- श्रेष्ठ माला; कञ्जलुक-- आभूषण; आननानू--तथा चेहरे;समभ्यवर्षन्--अच्छी तरह वर्षा की गई; भगवत्-वशा:-- भगवान् के अधीन; घना:--बादल के; वबुः--उड़ने लगे; समुद्र--क्षीरसागर के; ऊर्मि--लहरों से; उपगूढ--जल के कणों से युक्त; वायव:--मन्द समीर
चूँकि वासुकि की दहकती साँस से देवता भी प्रभावित हुए थे अतएवं उनकी शारीरिककान्ति घट गई और उनके वस्त्र, मालाए, आयुध तथा उनके मुखमण्डल धुएँ से काले पड़ गये |
किन्तु भगवत्कृपा से समुद्र के ऊपर बादल प्रकट हो गए और वे मूसलाधार वर्षा करने लगे |
समुद्री लहरों से जल के कण लेकर मन्द समीर बहने लगे जिससे देवताओं को राहत मिल सके |
मथ्यमानात्तथा सिन्धोर्देवासुरवरूथपै: |
यदा सुधा न जायेत निर्ममन्थाजित: स्वयम् ॥
१६॥
मथ्यमानात्--मथे जाने से; तथा--इस प्रकार से; सिन्धो: -- क्षीरसागर से; देवब--देवताओं का; असुर--तथा असुरों का; वरूथ-पै:-- श्रेष्ठठम के द्वारा; यदा--जब; सुधा--अमृत; न जायेत--बाहर नहीं आया; निर्ममन््थ--मन्थन किया; अजित:-- भगवान्ने; स्वयम्--स्वयं
जब श्रेष्ठठटम देवताओं तथा असुरों के द्वारा इतना उद्यम करने पर भी क्षीरसागर से अमृत नहींनिकला तो स्वयं भगवान् अजित ने समुद्र को मथना प्रारम्भ किया |
मेघश्याम: कनकपरिधि: कर्णविद्योतविद्युन्मूर्शि भ्राजद्विलुलितकच: स्त्रग्धरो रक्तनेत्र: |
जैत्रैदोर्भि्जगदभयदैर्दन्दशूकं॑ गृहीत्वामथ्नन्मथ्ना प्रतिगिरिरिवाशोभताथो धृताद्वि: ॥
१७॥
मेघ-श्याम:--बादल जैसे श्याम रंग वाले; कनक-परिधि:--पीले वस्त्र पहने; कर्ण--कानों में; विद्योत-विद्युत्--जिसके कुंडलबिजली की तरह चमक रहे थे; मूर्ध्नि--सिर पर; भ्राजतू--चमकते हुए; विलुलित--हिलते हुए; कच:--जिसके बाल; स्त्रक्-धरः--फूलों की माला पहने; रक्त-नेत्र:--लाल-लाल आँखों वाले; जैत्रै:--विजय प्राप्त; दोर्भिः -- भुजाओं से; जगत्--विश्वको; अभय-दैः--अभयदान देने वाले के द्वारा; दन्दशूकम्--सर्प ( वासुकि ) को; गृहीत्वा--पकड़ कर; मथ्नन्--मथते हुए;मथ्ना--मथानी ( मन्दर पर्वत ) से; प्रतिगिरि:--दूसरा पर्वत; इब--सहश; अशोभत--शोभा पा रहा था; अथो--तब; धृत-अद्विः--पर्वत धारण किये भगवान् श्याम बादल की भाँति प्रकट हो रहे थे |
वे पीले वस्त्र पहने थे, उनके कान केकुंडल बिजली की तरह चमक रहे थे और उनके बाल कन्धों पर बिखरे हुए थे |
वे फूलों कीमाला पहने थे और उनकी आँखे गुलाबी थीं |
विश्वभर में अभय देने वाली अपनी बलिष्ठ यशस्वीभुजाओं से उन्होंने वासुकि को पकड़ लिया और वे मन्दर पर्वत को मथानी बनाकर समुद्र कामन्थन करने लगे |
जब वे इस प्रकार व्यस्त थे तो वे इन्द्रनील नामक सुन्दर पर्वत की भाँति प्रतीतहो रहे थे |
निर्मथ्यमानादुदधेरभूद्विषंमहोल्बणं हालहलाह्ममग्रतः |
सम्भ्रान्तमीनोन्मकराहिकच्छपात् तिमिद्ठिपग्राहतिमिड्रिलाकुलात् ॥
१८॥
निर्मथ्यमानातू--जब मथने का कार्य चल रहा था; उदधे: --समुद्र से; अभूत्-- था; विषम्--विष; महा-उल्बणम्--अत्यन्तभयानक; हालहल-आह्म्--हालहल नाम से; अग्रतः--सर्वप्रथम; सम्भ्रान्त--क्षुब्ध तथा इधर-उधर गतिशील; मीन--विभिन्नप्रकार की मछलियाँ; उन््मकर--हांगर; अहि--तरह-तरह के सर्प; कच्छपात्--तरह-तरह के कछुओं से; तिमि--व्हेल मछलियाँ;द्विप--समुद्री हाथी; ग्राह--घड़ियाल; तिमिड्निल--छोटी क््हेलों को निगल जाने वाली बड़ी व्हेल मछलियाँ; आकुलातू--अत्यधिक व्याकुल होकर |
मछलियाँ, हांगर, कछुवे तथा सर्प अत्यन्त विचलित एवं श्लुब्ध थे |
सारा समुद्र उत्तेजित होउठा और व्हेल, समुद्री हाथी, घड़ियाल तथा तिमिड्रिल मछली जैसे बड़े-बड़े जलचर सतह परआ गये |
जब इस प्रकार से समुद्र-मन्थन हो रहा था, तो इससे सर्वप्रथम हालहल नामक घातकविष उत्पन्न हुआ |
तदुग्रवेगं दिशि दिश्युपर्यधोविसर्पदुत्सर्पदसह्ममप्रति |
भीताः प्रजा दुद्गुवुरड़ से श्वराअरक्ष्यमाणा: शरणं सदाशिवम् ॥
१९॥
तत्--वह; उग्र-वेगम्--अत्यन्त भयानक तथा तेज विष; दिशि दिशि--सभी दिशाओं में; उपरि--ऊपर; अधः--नीचे;विसर्पत्ू--मुड़ता हुआ; उत्सर्पत्--ऊपर जाते हुए; असहाम्--असह्ा; अप्रति--वश में न होने वाला; भीता: --अत्यधिक डरेहुए; प्रजा:--सारे विश्वों के निवासी; दुद्ुबुः--इधर-उधर जा रहे थे; अड्ग--हे महाराज परीक्षित; स-ईश्वरा:-- भगवान् सहित;अरक्ष्यमाणा:--असुरक्षित; शरणम्--शरण; सदाशिवम्--शिवजी के चरणकमलों में |
है राजा! जब वह उग्र विष ऊपर नीचे तथा सभी दिशाओं में वेग के साथ फैलने लगा तोसारे देवता भगवान् समेत शिवजी ( सदाशिव ) के पास गये |
अपने को असुरक्षित तथा अत्यन्तभयभीत पाकर वे सब उनकी शरण मांगने लगे |
विलोक्य तं देववरं त्रिलोक्याभवाय देव्याभिमतं मुनीनाम् |
आसीनमद्रावपवर्गहितो-स्तपो जुषाणं स्तुतिभि: प्रणेमु: ॥
२०॥
विलोक्य--देखकर; तम्--उस; देव-वरम्--देवताओं में सर्वश्रेष्ठ को; त्रि-लोक्या:--तीनों लोकों के; भवाय--उन्नति के लिए;देव्या--अपनी पत्नी भवानी सहित; अभिमतम्--स्वीकृत; मुनीनाम्ू--मुनियों का; आसीनम्--एकसाथ बैठे; अद्रौ--कैलाशपर्वत की चोटी से; अपवर्ग-हेतो:--मुक्ति की कामना करते; तप:--तपस्या में; जुषाणम्--सेवित; स्तुतिभि:--स्तुतियों से;प्रणेमु:--सादर नमस्कार किया |
देवताओं ने शिवजी को अपनी पतली भवानी सहित कैलाश पर्वत की चोटी पर तीनों लोकोंके मंगलमय अभ्युदय हेतु तपस्या करते हुए देखा |
मुक्ति की कामना करने वाले मुनि-गणउनकी पूजा कर रहे थे |
देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और आदरपूर्वक प्रार्थना की |
श्रीप्रजापतय ऊचु:देवदेव महादेव भूतात्मन्भूतभावन |
त्राहि न: शरणापन्नांस्त्रेलोक्यदहनाद्विषात्ू ॥
२१॥
श्री-प्रजापतय: ऊचु:--प्रजापतियों ने कहा; देव-देव--हे देवताओं में श्रेष्ठ, महादेव; महा-देव--हे महान् देवता; भूत-आत्मन्--इस संसार में हरएक के प्राण तथा आत्मा स्वरूप; भूत-भावन--हे सबके सुख तथा समृद्धि के कारण; त्राहि--उद्धारकरें; नः--हमारा; शरण-आपतन्नानू-- अपने शरणागतों को; त्रैलोेक्य--तीनों लोकों का; दहनातू--दहन करने वाले; विषात्--इस विष से |
प्रजापतियों ने कहा : हे देवश्रेष्ठ महादेव, हे समस्त जीवों के परमात्मा तथा उनकी सुख-समृद्धि के कारण! हम आपके चरणकमलों की शरण में आये हैं |
अब आप तीनों लोकों मेंफैलने वाले इस उग्र विष से हमारी रक्षा करें |
त्वमेकः सर्वजगत ईश्वरो बन्धमोक्षयो: |
त॑ त्वामर्चन्ति कुशला: प्रपन्नार्तिहरें गुरुम् ॥
२२॥
त्वम् एक:--निस्सन्देह तुम हो; सर्व-जगत:--तीनों लोकों के; ईश्वरः--नियन्ता; बन्ध-मोक्षयो:--बन्धन तथा मोक्ष दोनों के;तम्--उस नियन्ता को; त्वाम् अर्चन्ति--आपको पूजते हैं; कुशला:--धनधान्य चाहने वाले व्यक्ति; प्रपन्न-आर्ति-हरम्--शरणागत भक्तों के समस्त कष्टों का हरण करने वाला; गुरुम्--जो समस्त पतितात्माओं के लिए सदुपदेशक का कार्य करे उसे |
हे प्रभु! आप सारे विश्व के बन्धन तथा मोक्ष के कारण हैं क्योंकि आप इसके शासक हैं |
जोलोग आध्यात्मिक चेतना में बढ़े-चढ़े हैं, वे आपकी शरण में जाते हैं, अतएव आप उनके कष्टोंको दूर करने वाले हैं और उनकी मुक्ति के भी आप ही कारण हैं |
अतएव हम आपकी पूजाकरते हैं |
गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्गस्थित्यप्ययान्विभो |
धत्से यदा स्वह्ग्भूमन्ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम् ॥
२३॥
गुण-मय्या--तीनों गुणों में कार्य करते हुए; स्व-शक्त्या--अपनी बहिरंगा शक्ति द्वारा; अस्थ--इस जगत का; सर्ग-स्थिति-अप्ययानू--सृष्टि, पालन तथा संहार; विभो--हे प्रभु; धत्से--आप सम्पन्न करते हैं; यदा--जब; स्व-हक्--आप अपने कोप्रकट करते हैं; भूमन्--हे महान्; ब्रह्म-विष्णु-शिव-अभिधाम्--ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के रूप में |
हे प्रभु! आप स्वयं-प्रकाशित तथा सर्वश्रेष्ठ हैं |
आप अपनी निजी शक्ति से इस भौतिकजगत का सृजन करते हैं और जब आप सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्य करते हैं, तो ब्रह्मा,विष्णु तथा महे ध्वर के नाम धारण कर लेते हैं |
त्वं ब्रह्म परमं गुहां सदसद्धावभावनम् |
नानाशक्तिभिराभातस्त्वमात्मा जगदी श्वर: ॥
२४॥
त्वम्-तुम; ब्रह्म--निराकार ब्रह्म; परमम्--परम; गुहाम्--गुहा, गोपनीय; सत्-असत्-भाव-भावनम्--सब की सृष्टि काकारण, इसका कारण तथा फल; नाना-शक्तिभि:--अनेक प्रकार की शक्तियों से; आभात: --व्यक्त; त्वमू--तुम हो; आत्मा--परमात्मा; जगतू-ई श्वरः + भगवान् |
आप समस्त कारणों के कारण, आत्म-प्रकाशित, अचिन्त्य, निराकार ब्रह्म हैं, जो मूलतःपरब्रह्म हैं |
आप इस दृश्य जगत में विविध शक्तियों को प्रकट करते हैं |
त्वं शब्दयोनिर्जगदादिरात्माप्राणेन्द्रियद्रव्यगुण: स्वभाव: |
कालः क्रतुः सत्यमृतं च धर्म-स्त्वय्यक्षरं यत्त्रिवृदामनन्ति ॥
२५॥
त्वमू--आप; शब्द-योनि:--वैदिक ज्ञान का स्त्रोत; जगत्-आदिः--सृष्टि का मूल कारण; आत्मा--आत्मा; प्राण--जीवनीशक्ति; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; द्रव्य-- भौतिक तत्त्व; गुण:--तीन गुण; स्व-भावः--प्रकृति; काल:--नित्य समय; क्रतु:--यज्ञ;सत्यम्--सत्य; ऋतम्--सच्चाई; च--तथा; धर्म:--धर्म के दो प्रकार; त्वयि--आपमें; अक्षरम्--मूल अक्षर, ओड्ढार; यत्ू--जो; त्रि-वृतू--तीन अक्षरों वाला, आ, उ, म् से युक्त; आमनन्ति--कहते हैं हे स्वामी! आप वैदिक ज्ञान के मूल स्त्रोत हैं |
आप भौतिक सृष्टि, प्राण, इन्द्रियों, पाँचतत्त्वों, तीन गुणों तथा महत् तत्त्व के मूल कारण हैं |
आप नित्य काल, संकल्प तथा सत्य औरऋत कही जाने वाली दो धार्मिक प्रणालियाँ हैं |
आप तीन अक्षरों--अ, उ तथा म् वाले ३ शब्द के आश्रय हैं |
अग्निर्मुखं तेडखिलदेवतात्माक्षितिं विदु्लोकभवाड्प्रिपड्टजम् |
काल गतिं तेडखिलदेवतात्मनोदिशश्व कर्णों रसनं जलेशम् ॥
२६॥
अग्नि:--अग्नि; मुखम्-- मुँह; ते--आपका; अखिल-देवता-आत्मा--सारे देवताओं के उद्गम; क्षितिमू--महिमंडल; विदुः--वे जानते हैं; लोक-भव--हे समस्त लोकों के उद्गम; अड्प्रि-पड्डजम्ू--आपके चरणकमल; कालम्--नित्य काल; गतिम्ू--प्रगति; ते--आपका; अखिल-देवता-आत्मन:--सभी देवताओं के सार समाहार; दिशः--सारी दिशाएँ; च--तथा; कर्ण --आपके कान; रसनमू्--स्वाद; जल-ईशम्--जल के अधिष्ठाता देवता |
हे समस्त लोकों के पिता! विद्वान लोग जानते हैं कि अग्नि आपका मुख है, पृथ्वी आपकेचरणकमल हैं, आप निखिल देवरूप हैं, नित्य काल आपकी गति है, सारी दिशाएँ आपके कानहैं और जल का स्वामी वरुण आपकी जीभ है |
नाभिर्नभस्ते श्वसन नभस्वान्सूर्य श्न चक्षूंषि जल॑ सम रेत: |
परावरात्मा श्रयणं तवात्मासोमो मनो द्यौर्भगवन्शिरस्ते ॥
२७॥
नाभि:--नाभि; नभ:ः--आकाश; ते-- आपकी; श्वसनम्--साँस लेना; नभस्वान्--वायु; सूर्य: च--तथा सूर्य का गोला;चक्षूंषि--आपकी आँखें; जलम्--जल; स्म--निस्सन्देह; रेत:--वीर्य; पर-अवर-आत्म-आश्रयणम्---उच्च एवं निम्म सारे जीवोंका आश्रय; तब--तुम्हारा; आत्मा--आत्मा; सोम: -- चन्द्रमा; मन: --मन; द्यौ:--उच्चतर लोक मण्डल; भगवनू-हे प्रभु;शिरः--सिर; ते--तुम्हारा |
हे प्रभ!ु आकाश आपकी नाभि है, वायु आपकी श्वसन क्रिया है, सूर्य आपकी आँखे हैं तथाजल आपका वीर्य है |
आप समस्त प्रकार के उच्च तथा निम्न जीवों के आश्रय हैं |
चन्द्रदेवआपका मन है |
उच्चतर लोक मण्डल आपका सिर है |
कुक्षिः समुद्रा गिरयोस्थिसज्जारोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते |
छन््दांसि साक्षात्तव सप्त धातव-स्त्रयीमयात्मन्हदयं सर्वधर्म: ॥
२८ ॥
कुक्षि:--उदर, कोख,; समुद्रा:--समुद्र; गिरय:ः--पर्वत; अस्थि--हड्डियाँ; सज्ञ:--मेल, समूह; रोमाणि--शरीर के रोएँ; सर्व--सभी; औषधि--औषधियाँ; वीरुध:--पौधे तथा लताएँ; ते--आपका; छन्दांसि--वैदिक मंत्र; साक्षात्- प्रत्यक्ष; तव--आपका; सप्त--सात; धातव:--शरीर के स्तर ( कोश ); त्रयी-मय-आत्मन्--हे साक्षात् तीनों वेद; हृदयम्--हृदय; सर्व-धर्म:--सभी प्रकार के धर्म |
हे प्रभु! आप साक्षात् तीनों वेद हैं |
सातों समुद्र आपके उदर हैं और पर्वत आपकी हड्डियाँ है |
सारी औषधियाँ, लताएँ तथा वनस्पतियाँ आपके शरीर के रोएँ हैं |
गायत्री जैसे वैदिक मंत्रआपके शरीर के सात कोश हैं और वैदिक धर्म पद्धति आपका हृदय है |
मुखानि पञ्जञोपनिषदस्तवेशयैस्बत्रिशदृष्टोत्तरमन्त्रवर्ग: |
यत्तच्छिवाख्यं परमात्मतत्त्वंदेव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते ॥
२९॥
मुखानि--मुखमण्डल; पञ्ञ--पाँच; उपनिषदः --वैदिक वाड्मय; तव--तुम्हारा; ईश--हे स्वामी; यैः --जिससे; त्रिंशत्-अष्ट-उत्तर-मन्त्र-वर्ग: --अड़तीस महत्त्वपूर्ण वैदिक मंत्रों की कोटि में; यत्--जो; तत्--जैसा है; शिव-आख्यम्--शिवनाम सेविख्यात; परमात्म-तत्त्वम्--जो परमात्मा विषयक सत्य की पुष्टि करता है; देव--हे भगवान्; स्वयम्-ज्योति:ः--आत्म प्रकाशित;अवस्थिति:--स्थिति; ते--आपकी |
हे प्रभो! पाँच महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र आपके पाँच मुखों के द्योतक हैं जिनसे अड़तीसमहत्वपूर्ण वैदिक मंत्र उत्पन्न हुए हैं |
आप शिव नाम से विख्यात स्वयं प्रकाशित हैं |
आप परमात्मानाम से प्रत्यक्ष परम सत्य के रूप में स्थित हैं |
छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसगोंनेत्रत्रयं सत्त्तरजस्तमांसि |
साड्ख्यात्मन: शास्त्रकृतस्तवेक्षाछन््दोमयो देव ऋषि: पुराण: ॥
३०॥
छाया--छाया; तु--लेकिन; अधर्म-ऊर्मिषु-- अधर्म की लहरों में, यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह में; यैः--जिससे; विसर्ग:--इतनी सारी सृष्टियाँ; नेत्र-त्रयमू--तीन आँखें; सत्त्व--सतोगुण; रज:--रजोगुण; तमांसि--तथा तमोगुण; साड्ख्य-आत्मन:--सारे वैदिक साहित्य का उद्गम; शास्त्र--शास्त्र; कृत:--बनाया हुआ; तब--आपकी; ईक्षा--चितवन मात्र से; छन्दः-मय: --वैदिक छन््दों से युक्त; देव--हे प्रभु; ऋषि:--सारा वैदिक साहित्य; पुराण: --तथा पुराण |
हे भगवान्! आपकी छाया अधर्म में दिखती है, जिससे नाना प्रकार की अधार्मिक सृष्टियाँउत्पन्न होती हैं |
प्रकृति के तीनों गुण--सत्त्व, रज तथा तमो--आपके तीन नेत्र हैं |
छन्दों से युक्तसारे वैदिक ग्रंथ आपसे उद्भूत हैं क्योंकि उनके संग्रहकर्ताओं ने आपकी कृषपाद्ृष्टि प्राप्त करकेही उन शास्त्रों को लिखा |
न ते गिरित्राखिललोकपाल-विरिश्ञवैकुण्ठसुरेन्द्रगम्यम् |
ज्योतिः परं यत्र रजस्तमश्नसत्त्वं न यद्वह्म निरस्तभेदम् ॥
३१॥
न--नहीं; ते--आपका; गिरि-त्र--हे पर्वतों के राजा; अखिल-लोक-पाल-- भौतिक कार्यकलापों के विभागों के सारेनिदेशक; विरिज्ञ--ब्रह्मा; वैकुण्ठ-- भगवान् विष्णु; सुर-इन्द्र--स्वर्ग का राजा; गम्यम्ू--सरलता से समझा जाने वाला;ज्योतिः--तेज; परम्ू--दिव्य; यत्र--जहाँ; रज:--रजोगुण; तमः च--तथा तमोगुण; सत्त्वमू--सतोगुण; न--नहीं; यत् ब्रह्म--जो निराकार ब्रह्म है; निरस्त-भेदम्--देवताओं तथा मनुष्यों में किसी अन्तर के बिना |
हे गिरीश! चूँकि निराकार ब्रह्म तेज सतो, रजो तथा तमो गुणों से परे है अतएवं इस भौतिकजगत के विभिन्न निदेशक ( लोकपाल ) न तो इसकी प्रशंसा कर सकते हैं न ही यह जान सकतेहैं कि वह कहाँ है |
वह ब्रह्मा, विष्णु या स्वर्ग के राजा महेन्द्र द्वारा भी ज्ञेय नहीं है |
कामाध्वरत्रिपुरकालगराद्यनेक-भूतद्गुह: क्षपयतः स्तुतये न तत्ते |
यस्त्वन्तकाल इदमात्मकृतं स्वनेत्र-वह्िस्फुलिड्शिखया भसितं न वेद ॥
३२॥
काम-अध्वर--इन्द्रियतृप्ति के लिए यज्ञ ( यथा दक्ष द्वारा सम्पन्न दक्ष-यज्ञ ); त्रिपुर--त्रिपुरासुर; कालगर--कालगर; आदि--तथा अन्य; अनेक--कई; भूत-द्गुह:ः--जीवों को कष्ट देने वाले; क्षपयत:--उनके विनाश में लगे हुए; स्तुतये--आपकी स्तुति;न--नहीं; तत्ू--वह; ते--आपसे बोलते हुए; यः तु--क्योंकि; अन्त-काले-- प्रलय के समय; इृदम्--इस भौतिक जगत में;आत्म-कृतम्--अपने से किया गया; स्व-नेत्र--आपकी आँखों से; वह्नि-स्फुलिड्र-शिखया--आग की चिनगारियों से;भसितम्-भस्मसात्; न वेद--मैं नहीं जानता कि यह कैसे हो रहा है |
जब आपकी आँखों से उद्भूत लपटों तथा चिनगारियों से प्रलय होता है, तो सारी सृष्टिजलकर राख हो जाती है |
तो भी आपको पता नहीं चलता कि यह कैसे होता है |
अतएव आपकेद्वारा दक्ष-यज्ञ, त्रिपुरासुर तथा कालकूट विष विनष्ट किये जाने के विषय में क्या कहा जासकता है? ऐसे कार्यकलाप आपको अर्पित की जाने वाली स्तुतियों के विषय नहीं बन सकते |
ये त्वात्मरामगुरुभिईदि चिन्तिताडूप्रि-इन्द्दं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम् |
कत्थन्त उग्रपरुषं निरतं एमशानेते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जा: ॥
३३॥
ये--जो व्यक्ति; तु--निस्सन्देह; आत्म-राम-गुरुभिः--जो आत्मतुष्ट हैं और संसार भर के गुरु माने जाते हैं; हदि--हृदय में;चिन्तित-अद्धध्नि-द्वन्द्मू-- आपके दोनों चरणकमलों का चिन्तन करते; चरन्तम्--विचरण करते; उमया--अपनी प्रेयसी उमा केसाथ; तपसा अभितप्तम्ू--तपस्या द्वारा उच्चपद को प्राप्त; कत्थन्ते--आपके कार्यों की आलोचना करते हैं; उग्र-परूषम्--अभद्र व्यक्ति; निरतम्--सदैव; शमशाने--श्मशान में; ते--ऐसे व्यक्ति; नूनम्--निस्सन्देह; ऊतिम्--ऐसे कार्यकलाप;अविदनू--न जानते हुए; तब--आपके कार्यकलाप; हात-लज्जा:--निर्लज् |
सारे विश्व को उपदेश देने वाले महान् आत्मतुष्ट व्यक्ति अपने हृदयों में आपके चरणकमलोंका निरन्तर चिन्तन करते हैं, किन्तु जब आपकी तपस्या को न जानने वाले व्यक्ति आपको उमाके साथ विचरते देखते हैं, तो वे आपको भ्रमवश कामी समझते हैं अथवा जब वे आपकोश्मशान में घूमते हुए देखते हैं, तो भ्रमवश वे आपको अत्यन्त नृशंस तथा ईर्ष्यालु समझते हैं |
निस्सन्देह, वे निर्लज्न हैं |
वे आपके कार्यकलापों को कभी नहीं समझ सकते |
तत्तस्य ते सदसतो: परतः परस्यना: स्वरूपगमने प्रभवन्ति भूम्न: |
ब्रह्मादयः किमुत संस्तवने वयं तुतत्सर्गसर्गविषया अपि शक्तिमात्रम् ॥
३४॥
तत्--अतएव; तस्य--उसका; ते--आपका; सत्-असतो:--चर तथा अचर सारे जीवों का; परत:--दिव्य पद पर स्थित;'परस्य--समझ पाना दुष्कर; न--न तो; अज्ञ: --जैसा है; स्वरूप-गमने-- आपकी वास्तविकता तक पहुँच पाना; प्रभवन्ति--सम्भव है; भूम्न:--हे महान्; ब्रह्य-आदय: --ब्रह्मा जैसे पुरुष; किम् उत--अन्यों के विषय में क्या कहा जाये; संस्तवने--प्रार्थनाकरने में; वयम् तु--जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है; तत्ू--आपका; सर्ग-सर्ग-विषया:--सृष्टि की सृष्टियाँ; अपि--यद्यपि; शक्ति-मात्रमू--यथाशक्ति |
ब्रह्मा जी तथा अन्य देवतागण जैसे व्यक्ति तक आपकी स्थिति नहीं समझ सकते क्योंकिआप चर तथा अचर सृष्टि से भी परे हैं |
चूँकि आपको सही रूप में कोई नहीं समझ सकता तोफिर भला कोई किस तरह आपकी स्तुति कर सकता है? यह असम्भव है |
जहाँ तक हमारासम्बन्ध है, हम ब्रह्मा जी की सृष्टि के प्राणी हैं |
अतएव ऐसी परिस्थितियों में हम आपकी ठीक से स्तुति नहीं कर सकते, किन्तु हमने अपनी बुद्धि के अनुसार अपनी भावनाएँ व्यक्त की हैं |
एतत्परं प्रपश्यामो न परं ते महेश्वर |
मृडनाय हि लोकस्य व्यक्तिस्तेउव्यक्तकर्मण: ॥
३५॥
एतत्--ये सारी वस्तुएँ; परम्ू--दिव्य; प्रपश्याम: --हम देख सकते हैं; न--नहीं; परम्--वास्तविक दिव्य स्थिति; ते--आपकी;महा-ई श्वर--हे महान् शासक; मृडनाय--सुख के लिए; हि--निस्सन्देह; लोकस्य--सारे जगत के; व्यक्ति:--प्रकट; ते--आपके; अव्यक्त-कर्मण: --जिसके कार्यकलाप सबको अज्ञात हैं |
हे महान् शासक! हमारे लिए आपके असली स्वरूप को समझ पाना असम्भव है |
जहाँ तकहम देख पाते हैं, आपकी उपस्थिति हरएक के लिए सुख-समृद्द्धि लाती है |
इसके परे, कोई भीआपके कार्यकलापों को नहीं समझ सकता |
हम इतना ही देख सकते हैं, इससे अधिक कुछ भीनहीं |
श्रीशुक उवाचतद्वीक्ष्य व्यसनं तासां कृपया भूशपीडितः |
सर्वभूतसुहृद्देव इृदमाह सतीं प्रियाम् ॥
३६॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तत्--यह स्थिति; वीक्ष्य--देखकर; व्यसनम्--खतरनाक, भयानक;तासाम्--सारे देवताओं की; कृपया--कृपा के कारण; भूश-पीडितः--अत्यधिक दुखी; सर्व-भूत-सुहृत्--सारे जीवों के मित्र;देवः--महादेव ने; इदम्--यह; आह--कहा; सतीम्--सती देवी से; प्रियाम्ू-- अपनी अत्यन्त प्रिय पत्नी को |
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : शिवजी सारे जीवों के प्रति सदैव उपकारी हैं |
जबउन्होंने देखा कि सारे जीव विष के सर्वत्र फैलने के कारण अत्यधिक उद्दिग्न हैं, तो वे अत्यन्तदयाद््र हो उठे |
अतः उन्होंने अपनी नित्य संगिनी सती से इस प्रकार कहा |
श्रीशिव उवाच अहो बत भवान्येतत्प्रजानां पश्य वैशसम् |
क्षीरोदमथनोद्धूतात्कालकूटादुपस्थितम् ॥
३७॥
श्री-शिव: उवाच-- श्री शिव ने कहा; अहो बत--कितनी दयनीय है; भवानि--हे प्राणप्यारी भवानी; एतत्--यह स्थिति;प्रजानामू--सारे जीवों की; पश्य--देखो तो; वैशसम्-- अत्यन्त भयानक; क्षीर-उद--क्षीरसागर के; मथन-उद्धूतात्ू--मन्थन सेउत्पन्न; कालकूटात्--विष उत्पन्न होने से; उपस्थितम्--वर्तमान स्थिति
शिवजी ने कहा : हे प्रिय भवानी! जरा देखो तो किस तरह ये सारे जीव क्षीरसागर के मन्थनसे उत्पन्न विष के कारण संकट में पड़ गये हैं! आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे |
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद्दीनपरिपालनम् ॥
३८ ॥
आसामू--ये सारे जीव; प्राण-परीप्सूनामू--अपने जीवन की रक्षा के लिए अत्यन्त उत्सुक; विधेयमू--कुछ न कुछ करनाचाहिए; अभयम्ू--सुरक्षा; हि--निस्सन्देह; मे--मेरे द्वारा; एतावान्ू--इतना; हि--निस्सन्देह; प्रभो: --प्रभु का; अर्थ:--कर्तव्य;यत्--जो; दीन-परिपालनम्--पीड़ित मानवता को सुरक्षा प्रदान करना |
जीवन-संर्घष में लगे समस्त जीवों को सुरक्षा प्रदान करना मेरा कर्तव्य है |
निश्चय ही स्वामीका कर्तव्य है कि वह पीड़ित अधीनस्थों की रक्षा करे |
प्राणै: स्वै: प्राणिन: पान्ति साधव: क्षणभट्ठुरैः |
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया ॥
३९॥
प्राणै:--प्राणों से; स्वै:-- अपने; प्राणिन:-- अन्य जीवों की; पान्ति--रक्षा करते हैं; साधव:--भक्तगण; क्षण-भद्ठैरैः ज-नाशवान; बद्ध-वैरेषु--व्यर्थ ही शत्रुता में लगे; भूतेषु--जीवों में; मोहितेषु--मोह ग्रस्त; आत्म-मायया-- भगवान् को बहिरंगाशक्ति द्वारा
भगवान् की माया से मोहग्रस्त सामान्य लोग सदैव एक दूसरे के प्रति शत्रुता में लगे रहते हैं |
किन्तु भक्तगण अपने नश्वर शरीरों को भी संकट में डालकर उनकी रक्षा करने का प्रयास करतेहैं |
पुंसः कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरि: |
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेडहं सचराचर: |
तस्मादिदं गरं भुझ्ले प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे ॥
४०॥
पुंसः--मनुष्य के साथ; कृपयत:--परोपकार में लगा; भद्रे--हे भद्र भवानी; सर्व-आत्मा--परमात्मा; प्रीयते--प्रसन्न होते हैं;हरिः-- भगवान्; प्रीते--अपनी प्रसन्नता के कारण; हरौ--हरि; भगवति-- भगवान् में; प्रीये-- प्रसन्न होता हूँ; अहम्--मैं; स-चर-अचरः--समस्त चर तथा अचर प्राणियों से; तस्मातू--इसलिए; इृदम्--यह; गरम्--विष; भुझ्ले--पीने दो; प्रजानाम्--जीवों का; स्वस्तिः--कल्याण; अस्तु--हो; मे--मेरे द्वारा
हे मेरी भद्र पली भवानी! जब कोई अन्यों के लिए उपकार के कार्य करता है, तो भगवान्हरि अत्यधिक प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं, तो मैं भी अन्य सारे प्राणियों केसाथ अत्यधिक प्रसन्न होता हूँ |
अतएव मुझे यह विष पीने दो क्योंकि मेरे कारण सारे जीव इसप्रकार सुखी हो सकेंगे |
श्रीशुक उबाचएवमामन्त्रय भगवान्भवानीं विश्वभावन: |
तद्ठिषं जग्धुमारेभे प्रभावज्ञान्वयमोदत ॥
४१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; आमन््रय--सम्बोधित करके; भगवान्--शिवजी;भवानीम्-- भवानी को; विश्व-भावन: --सारे विश्व के शुभचिन्तक; तत् विषम्--उस विष को; जग्धुम्--पीना; आरेभे-- प्रारम्भकिया; प्रभाव-ज्ञा--शिवजी की सामर्थ्य को भलीभाँति जानने वाली माता भवानी ने; अन्वमोदत--अनुमति दी |
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार भवानी को सूचित करके शिवजी वहविष पीने लगे और भवानी ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे दी क्योंकि वे शिवजी की क्षमताओंको भलीभाँति जानती थीं |
ततः करतलीकृत्य व्यापि हालाहलं विषम् |
अभक्षयन्महादेव: कृपया भूतभावन: ॥
४२॥
ततः--तत्पश्चात्; करतली-कृत्य--हाथ में लेकर; व्यापि--विस्तृत; हालाहलम्--हालाहल नामक; विषम्--विष को;अभक्षयत्--पी लिया; महा-देव:--शिवजी ने; कृपया--कृपा करके; भूत-भावन:--सारे जीवों के कल्याण हेतु
तत्पश्चात् मानवता के लिए शुभ तथा उपकारी कार्य में समर्पित शिवजी ने कृपा करके साराविष अपनी हथेली में रखा और वे उसे पी गये |
तस्यापि दर्शयामास स्ववीर्य जलकल्मष: |
यच्चकार गले नीलं तच्च साधोर्विभूषणम् ॥
४३॥
तस्य--शिवजी की; अपि-- भी; दर्शबाम् आस--प्रदर्शित किया; स्व-वीर्यम्--अपनी शक्ति; जल-कल्मष:--जल से उत्पन्नवह विष; यत्--जो; चकार--बनाया; गले--गर्दन में; नीलम्--नीली रेखा; तत्--वह; च-- भी; साधो: --साधुपुरुष का;विभूषणम्--आभूषण, गहना |
अपयश्ञ के कारण क्षीरसागर से उत्पन्न विष ने मानो अपनी शक्ति का परिचय शिवजी केगले में नीली रेखा बनाकर दिया हो |
किन्तु अब वही रेखा भगवान् का आभूषण मानी जाती है |
तप्यन्ते लोकतापेन साधव: प्रायशो जना: |
परमाराधनं तद्द्धि पुरुषस्याखिलात्मन: ॥
४४॥
तप्यन्ते--स्वेच्छा से कष्ट उठाते हैं; लोक-तापेन--सामान्य लोगों के कष्ट के कारण; साधव:--साधुपुरुष; प्रायशः--प्राय:,सदैव; जना:--ऐसे पुरुष; परम-आराधनम्--पूजा की सर्वोच्च विधि; तत्ू--वह कार्य; हि--निस्सन्देह; पुरुषस्थ--परम पुरुषका; अखिल-आत्मन:--जो सबका परमात्मा है |
कहा जाता है कि सामान्य लोगों के कष्टों के कारण महापुरुष सदैव स्वेच्छा से कष्ट भोगनास्वीकार करते हैं |
प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान् के पूजने की यह सर्वोच्च विधि मानीजाती है |
निशम्य कर्म तच्छम्भोर्देवदेवस्य मीढुष: |
प्रजा दाक्षायणी ब्रह्मा वैकुण्ठश्न शशंसिरे ॥
४५॥
निशम्य--सुनकर; कर्म--कार्य; तत्--वह; शम्भो:--शिवजी का; देव-देवस्थ--देवताओं के भी आराध्य; मीढुष: --सामान्यलोगों को बड़े-बड़े वरदान देने वाले; प्रजा:--लोग; दाक्षायणी--दक्षपुत्री भवानी; ब्रह्मा--ब्रह्माजी ने; बैकुण्ठ: च--तथाविष्णु ने भी; शशंसिरे--अत्यधिक प्रशंसा की |
इस कार्य को सुनकर भवानी ( दक्षकन्या ), ब्रह्मा, विष्णु समेत सामान्य लोगों ने देवताओंद्वारा पूजित और लोगों को वरदान देने वाले शिवजी के इस कार्य की अत्यधिक प्रशंसा की |
प्रस्कन्न॑ पिबतः पाणेर्यत्किल्धिजगृहुः सम तत् |
वृश्चिकाहिविषौषध्यो दन्दशूकाश्व येउपरे ॥
४६॥
प्रस्कन्नमू--इधर-उधर फैला हुआ; पिबतः--शिवजी द्वारा पीते समय; पाणे:--हथेली से; यत्--जो; किल्चित्-- थोड़ा सा;जगृहुः--पी लेने का अवसर पाया; स्म--निस्सन्देह; तत्ू--वह; वृश्चिक--बिच्छू; अहि--सर्प; विष-औषध्य: --विषैली दवाएँ;दन्दशूका: च--तथा वे जानवर जिनका दंश विषैला होता है; ये--जो; अपरे--अन्य जीव |
जब शिवजी विषपान कर रहे थे उस समय उनके हाथ से जो थोड़ा सा विष गिरकर छितरगया उसे बिच्छू, सर्प, विषैली औषधियाँ तथा अन्य पशु जिनका दंश विषैला होता है पी गए |
अध्याय आठ: क्षीर सागर का मंथन
8.8श्रीशुक उबाचपीते गरे वृषाड्लेण प्रीतास्तेडमरदानवा: |
ममन्थुस्तरसासिन्धुं हविर्धानी ततोभवत् ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; पीते--पी लिये जाने पर; गरे--विष; वृष-अज्जेण--बैल पर बैठने वालेशिवजी द्वारा; प्रीता:--प्रसन्न होकर; ते--वे सब; अमर--देवतागण; दानवा:--तथा असुरगण; ममन्थु:--पुनः मथने लगे;तरसा--बड़े वेग से; सिन्धुम्-- क्षीरसागर को; हविर्धानी--सुरभि गाय जो घी देने वाली है; तत:ः--उस मन्थन से; अभवत्--उत्पन्न हुई ॥
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : शिवजी द्वारा विषपान कर लिये जाने पर देवता तथा दानवदोनों ही अत्यधिक प्रसन्न हुए और नवीन उत्साह के साथ समुद्र का मन्थन करने लगे |
इसकेफलस्वरूप सुरभि नामक गाय उत्पन्न हुई |
तामग्निहोत्रीमृषयो जगृहुर्ब्रह्यगादिन: |
यज्ञस्य देवयानस्य मेध्याय हविषे नृप ॥
२॥
तामू--उस गाय को; अग्नि-होत्रीम्-- अग्नि में आहुति के लिए मट्ठा, दूध तथा घी प्राप्त करने के लिए आवश्यक; ऋषय:--यज्ञकरने वाले ऋषियों ने; जगृहुः-- भार सँभाला; ब्रह्म -वादिन:--वैदिक अनुष्ठानों को जानने वाले; यज्ञस्य--यज्ञ का; देव-यानस्य--स्वर्ग तथा ब्रहलोक जाने की इच्छा को पूरी करने वाला; मेध्याय--आहुति डालने के योग्य; हविषे--घी के लिए;नृप--हे राजा |
हे राजा परीक्षित! वैदिक अनुष्ठानों से सुपरिचित ऋषियों ने उस सुरभि गाय को ले लिया जोअग्नि में आहुति डालने के लिए नितान्त आवश्यक मट्ठा, दूध तथा घी उत्पन्न करने वाली थी |
उन्होंने शुद्ध घी के लिए ही ऐसा किया क्योंकि उन्हें उच्चलोकों में ब्रह्मलोक तक जाने के लिएयज्ञ सम्पन्न करने के लिए घी की आवश्यकता थी |
तत उच्च: श्रवा नाम हयोभूच्चन्द्रपाण्डुर: |
तस्मिन्बलि:ः स्पूहां चक्रे नेन्द्र ईश्वरशिक्षया ॥
३॥
ततः-तत्पश्चात्; उच्चै: श्रवा: नाम--उच्चै श्रवा नाम का; हयः--घोड़ा; अभूत्--उत्पन्न हुआ; चन्द्र-पाण्डुरः:--चन्द्रमा की भाँतिश्वेत; तस्मिनू--उसको; बलि: --बलि महाराज ने; स्पृहाम् चक्रे--पाने की इच्छा प्रकट की; न--नहीं; इन्द्र:--देवताओं काराजा; ईश्वर-शिक्षया-- भगवान् की पहले की सलाह के कारण |
तत्पश्चात् चन्द्रमा के समान श्वेत रंग का उच्चैः श्रवा नामक घोड़ा उत्पन्न हुआ |
बलि महाराजने इसे लेना चाहा |
स्वर्ग के राजा इन्द्र ने इसका विरोध नहीं किया क्योंकि भगवान् ने पहले से हीउन्हें ऐसी सलाह दे रखी थी |
तत ऐरावतो नाम वारणेन्द्रो विनिर्गतः |
दन्तैश्वतुर्भि: श्वेताद्रेहरन्भगवतो महिम् ॥
४॥
ततः--तत्पश्चात्; ऐराबतः नाम--ऐरावत नामक; वारण-इन्द्र:--हाथियों का राजा; विनिर्गत:ः--निकला; दन्तैः--अपने दाँतोंसहित; चतुर्भि:--चार; श्रेत--सफेद; अद्रेः--पर्वत के ; हरन्ू--मात करते हुए; भगवत:--शिवजी का; महिम्--यश, महिमा |
मन्थन के फलस्वरूप अगली बार हाथियों का राजा ऐरावत उत्पन्न हुआ |
यह हाथी श्वेत रंगका था और अपने चारों दाँतों के कारण यह शिवजी के यशस्वी धाम कैलाश पर्वत की महिमाको भी मात दे रहा था |
ऐरावणादयस्त्वष्टी दिग्गजा अभवंस्ततः |
अभ्रमुप्रभूतयोष्टी च करिण्यस्त्वभवन्नूप ॥
५॥
ऐरावण-आदय: --ऐरावण इत्यादि; तु--लेकिन; अष्टौ--आठ; दिक्ू-गजा:--ऐसे हाथी जो किसी भी दिशा में जा सकते थे;अभवनू--उत्पन्न हुए; ततः--तत्पश्चात्; अभ्रमु-प्रभूतयः--अभ्रमु नामक हथिनी तथा अन्य; अष्टौ--आठ; च-- भी; करिण्य: --हथिनियाँ; तु--निस्सन्देह; अभवन्--उत्पन्न हुईं; नृप--हे राजा
हे राजा! इसके बाद आठ बड़े-बड़े हाथी उत्पन्न हुए जो किसी भी दिशा में जा सकते थे |
उनमें ऐरावण प्रमुख था |
अभ्रमु आदि आठ हथिनियाँ भी उत्पन्न हुईं |
कौस्तुभाख्यमभूद्र॒त्तं पदारागो महोदथे:ःतस्मिन्मणौ स्पूहां चक्रे वक्षोलड्डूरणे हरिः |
ततोभवत्पारिजातः सुरलोकविभूषणम्पूरयत्यर्थिनो यो<र्थ: शश्वद्भुवि यथा भवान् ॥
६॥
कौस्तुभ-आख्यम्--कौस्तुभ के रूप में विख्यात; अभूत्--उत्पन्न हुआ; रत्मम्--बहुमूल्य मणि; पद्ाराग: --पद्ाराग नामक रत्न;महा-उदधे: --महान् क्षीरसागर से; तस्मिन्--उस; मणौ--मणि में; स्पृहाम् चक्रे --पाने की अभिलाषा की; वक्ष:-अलहड्डूरणे--अपने वक्षस्थल को अलंकृत करने के लिए; हरिः-- भगवान् ने; ततः--तत्पश्चात्; अभवत्--उत्पन्न हुआ; पारिजात:--पारिजातनामक स्वर्गिक पुष्प; सुर-लोक-विभूषणम्--स्वर्गलोक को विभूषित करने वाला; पूरयति--पूरा करता है; अर्थिन:--धन कीइच्छा रखने वाले; यः--जो; अर्थ: --अर्थ ( इच्छित ) के द्वारा; शश्वत्--सदैव; भुवि--इस लोक पर; यथा--जिस तरह;भवान्ू--आप ( महाराज परीक्षित ) |
तत्पश्चात् महान् समुद्र से विख्यात रल कौस्तुभ मणि तथा पदाराग मणि उत्पन्न हुए |
भगवान्विष्णु ने अपने वक्षस्थल को अलंकृत करने के लिए इसे पाने की इच्छा व्यक्त की |
तब पारिजात पुष्प उत्पन्न हुआ जो स्वर्ग लोकों को विभूषित करता है |
हे राजा! जिस प्रकार तुम इस लोक केप्रत्येक व्यक्ति की इच्छाएँ पूरी करते हो उसी तरह पारिजात हरएक की इच्छाओं को पूरा करताहै |
ततश्चाप्सरसो जाता निष्ककण्ठ्यः सुवासस: |
रमण्य: स्वर्गिणां वल्गुगतिलीलावलोकनै: ॥
७॥
ततः--तत्पश्चात्; च--भी; अप्सरस:--अप्सरालोक के वासी; जाता: --उत्पन्न हुए; निष्क-कण्ठ्य:--सुनहरे हारों से अलंकृत;सु-वाससः: --सुन्दर वस्त्र पहने; रमण्य:--अत्यन्त सुन्दर तथा आकर्षक; स्वर्गिणाम्-स्वर्गलोक के निवासियों का; वल्गु-गति-लीला-अवलोकनै: --मन्द गति से चलती हुई सबके हृदयों को आकृष्ट करतीं |
अप्सराएँ ( जो स्वर्ग में वेश्याओं की तरह रहती हैं ) प्रकट हुईं |
वे सोने के आभूषणों तथागले की मालाओं से पूरी तरह सजी हुई थीं और महीन तथा आकर्षक वस्त्र धारण किये थीं |
अप्सराएँ अत्यन्त मन्दगति से आकर्षक शैली में चलती हैं जिससे स्वर्गलोक के निवासी मोहितहो जाते हैं |
ततश्चाविरभूत्साक्षाच्छी रमा भगवत्परा |
रख्जयन्ती दिशः कान्त्या विद्युत्सौदामनी यथा ॥
८॥
ततः--तत्पश्चात्; च--तथा; आविरभूत्--प्रकट हुई; साक्षात्--प्रत्यक्ष; श्री--धन की देवी; रमा--रमा नामक; भगवत्ू-परा--भगवान् के प्रति पूर्णतया अनुरक्त; रञ्ञयन्ती--प्रकाशित करती; दिश: --सभी दिशाओं को; कान्त्या--कान्ति से; विद्युत्--बिजली; सौदामनी--सौदामनी; यथा--जिस तरह |
तब धन की देवी रमा प्रकट हुईं जो भगवान् द्वारा भोग्या हैं और उन्हीं को समर्पित रहती हैं |
वे बिजली की भाँति प्रकट हुई और उनकी कांति संगमरमर के पर्वत को प्रकाशित करने वालीबिजली को मात कर रही थीं |
तस्यां चक्रुः स्पूहां सर्वे ससुरासुरमानवा: |
रूपौदार्यवयोवर्णमहिमाक्षिप्तचेतस: ॥
९॥
तस्यामू--उसके लिए; चक्कु:--की; स्पृहाम्--इच्छा; सर्वे --हर कोई; स-सुर-असुर-मानवा:--देवता, असुर तथा मनुष्य समेत;रूप-औदार्य--अपूर्व सौन्दर्य तथा शारीरिक स्वरूप के द्वारा; वयः--तारुण्य; वर्ण--रंग; महिमा--यश; आशक्षिप्त--शक्षुब्ध;चेतस:--मन वाले |
उनके अपने अपूर्ब सौन्दर्य, शारीरिक स्वरूप ( गठन ), तारुण्य, रंग तथा यश के कारण हरव्यक्ति, यहाँ तक कि देवता, असुर तथा मनुष्य उनको पाने की कामना करने लगे |
वे इसीलिएआकृष्ट थे क्योंकि रमादेवी समस्त ऐश्वर्यों की उद्गम हैं |
तस्या आसनमानिन्ये महेन्द्रो महदद्भुतम् |
मूर्तिमत्य: सरिच्छेष्ठा हेमकुम्भेर्जलं शुच्चि ॥
१०॥
तस्या:--उसके लिए; आसनमू्-- आसन; आनिन्ये--ले आया; महा-इन्द्र:--स्वर्ग का राजा इन्द्र; महत्--यशस्वी; अद्भुतम्--विचित्र; मूर्ति-मत्य:--रूपों को स्वीकार करते हुए; सरित्- श्रेष्ठाः:--विविध पवित्र नदियों में श्रेष्ठ; हेम--सुनहरे; कुम्भैः--जलवपात्रों द्वारा; जलमू--जल; शुचि--शुद्ध |
स्वर्ग का राजा इन्द्र लक्ष्मीजी के बैठने के लिए उपयुक्त आसन ले आया |
पवित्र जल वालीसारी नदियाँ--यथा गंगा तथा यमुना-साकार हो उठीं और उनमें से हर एक माता लक्ष्मी के लिएसुनहरे जलपात्र में शुद्ध जल ले आईं |
आभिषेचनिका भूमिराहरत्सकलौषधी: |
गाव: पञ्ञ पवित्राणि वसन््तो मधुमाधवीौ ॥
११॥
आभिषेचनिका: --अर्चा विग्रह की स्थापना के लिए आवश्यक साज-सामग्री; भूमि:-- भूमि ने; आहरत्--एकत्र की; सकल--सभी तरह की; औषधी:--औषधियाँ तथा जड़ीबूटियाँ; गाव:--गाएँ; पञ्ञ--गाय से प्राप्त होने वाले पाँच प्रकार के पदार्थ यथादूध, मट्ठा, घी, गोबर तथा गोमूत्र; पवित्राणि-- अकलुषित; वसनन््तः--साक्षात् वसन््त ऋतु; मधु-माधवौ--वसन्त ऋतु अथवा चैत्र
और वैशाख मास में उत्पन्न होने वाले फल तथा फूल |
भूमि ने साकार होकर अर्चाविग्रह की स्थापना के लिए जड़ीबूटियाँ एकत्र कीं |
गायों नेपाँच प्रकार के उत्पाद दिए--दूध, मट्ठा, घी, गोमूत्र तथा गोबर और साक्षात् वसन््त ऋतु ने चैत्र-वैशाख ( अप्रैल तथा मई ) मास में उत्पन्न होने वाली हर वस्तु को एकत्र किया |
ऋषय: कल्पयां चक्कुराभिषेकं यथाविधि |
जगुर्भद्राणि गन्धर्वा नट्यश्व ननृतुर्जगु: ॥
१२॥
ऋषय: --ऋषिगण ने; कल्पयाम् चक्रु:--सम्पन्न किया; आभिषेकम्-- अभिषेक समारोह, जिसे अर्चाविग्रह की स्थापना केसमय किया जाता है; यथा-विधि--जैसाकि प्रामाणिक शास्त्रों में निर्देश हुआ है; जगु:--वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया;भद्राणि--सारा सौभाग्य; गन्धर्वा:--तथा गन्धर्व लोक के निवासी; नट्य:--व्यावसायिक नर्तकियाँ; च-- भी; ननृतु:ः--उसअवसर पर बहुत सुन्दर नृत्य किया; जगुः--वेदों द्वारा बताये प्रामाणिक गीतों को गाया |
ऋषियों ने प्रामाणिक शाम्त्रों में निर्दिष्ट विधि से सौभाग्य की देवी ( लक्ष्मी) का अभिषेकउत्सव सम्पन्न किया; गन्धर्वों ने सर्वमंगलकारी वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया और व्यावसायिकनर्तकियों ने सुन्दर नृत्य किया तथा वेदों द्वारा बताये गये प्रामाणिक गीतों को गाया |
मेघा मृदड़्पणवमुरजानकगोमुखान् |
व्यनादयन्शड्डुवेणुवीणास्तुमुलनि:स्वनान् ॥
१३॥
मेघाः--साक्षात् बादलों ने; मृदड़-- ढोल; पणव--नगाड़े; मुरज--एक अन्य प्रकार का ढोल; आनक--एक अन्य प्रकार काढोल; गोमुखान्--एक प्रकार की तुरही; व्यनादयन्--बजाया, झंकृत किया; शद्भु--शंख; वेणु--बाँसुरी; वीणा: --वीणाएँ;तुमुल--कानों को फाड़ने वाली; नि:स्वनान्ू--ध्वनि |
साक्षात् बादलों ने तरह-तरह के ढोल--यथा मृदंग, पणव, मुरज तथा आनक--बजाये |
उन्होंने शंख तथा गोमुख नामक तुरहियाँ भी बजाईं और बाँसुरी तथा वीणा का वादन किया |
इनसब वाद्ययंत्रों की सम्मिलित ध्वनि अत्यन्त तुमुलपूर्ण थी |
ततोभिषिषिचुर्देवीं अियं पद्मयकरां सतीम् |
दिगिभा:ः पूर्णकलशै:ः सूक्तवाक्यैद्विजेरिते: ॥
१४॥
ततः--तत्पश्चात्; अभिषिषिचु:--शरीर पर पवित्र जल डाला; देवीम्--लक्ष्मी देवी को; अ्रियम्ू--अत्यन्त सुन्दर; पढ्य-कराम्ू--हाथ में कमल का फूल लिए; सतीम्ू-- भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी को न जानने वाली परम साध्वी सती को; दिगिभा: --बड़े-बड़े हाथी दिग्गज; पूर्ण-कलशैः--जल से पूर्ण पात्रों द्वारा; सूक्त-वाक्यै:ः --वैदिक मंत्रों से; द्वि-ज--ब्राह्मणों से; ईरिति: --उच्चारित |
तत्पश्चात् सभी दिशाओं के दिग्गज गंगाजल से भरे कलश ले आये और भाग्य की देवी कोदिद्वान ब्राह्मणों द्वारा उच्चारित वैदिक मंत्रों के साथ स्नान कराया |
स्नान कराये जाते समयलक्ष्मीजी अपनी मौलिक शैली को बनाए रख कर अपने हाथ में कमल धारण किये रहीं औरअत्यन्त सुन्दर लग रही थीं |
वे परम सती साध्वी हैं क्योंकि वे भगवान् के अतिरिक्त किसी कोनहीं जानतीं |
समुद्र: पीतकौशेयवाससी समुपाहरत् |
वरुण: स्त्रजं वैजयन्तीं मधुना मत्तघट्पदाम् ॥
१५॥
समुद्र:--समुद्र ने; पीत-कौशेय--पीला रेशम; वाससी--पोशाक के ऊपर तथा नीचे के भाग; समुपाहरत्-- भेंट किया;वरुण:--जल के अधिष्ठाता देवता ने; स्रजम्ू--माला; वैजयन्तीम्--अत्यन्त अलंकृत तथा बड़ी; मधुना--शहद से; मत्त--मतवाले; षट्-पदाम्--छः पैरों वाले भौंरों को
समस्त बहुमूल्य रत्नों के स्त्रोत समुद्र ने उन्हें पीले रेशमी वस्त्र के ऊपर तथा नीचे के भागप्रदान किये |
जल के प्रधान देवता वरुण ने फूलों की मालाएँ प्रदान कीं जिनके चारों ओर मधुपीकर मस्त हुए भौरे मँडरा रहे थे |
भूषणानि विचित्राणि विश्वकर्मा प्रजापति: |
हारं सरस्वती पद्ममजो नागाश्च कुण्डले ॥
१६॥
भूषणानि--तरह-तरह के गहने; विचित्राणि--सुन्दर ढंग से सजाये हुए; विश्वकर्मा प्रजापति:--ब्रह्माजी के पुत्रों प्रजापतियों में सेएक जिसका नाम विश्वकर्मा था; हारम्--हार; सरस्वती--विद्या की देवी ने; पद्ममू--कमल का फूल; अज: --ब्रह्मा ने; नागा:च--तथा नागलोक के वासियों ने; कुण्डले--कान के दो कुण्डल |
प्रजापति विश्वकर्मा ने तरह-तरह के अलंकृत आभूषण दिये |
विद्या की देवी सरस्वती ने गलेका हार, ब्रह्माजी ने कमल का फूल तथा नागलोक के वासियों ने कान के कुण्डल प्रदान किये |
ततः कृतस्वस्त्ययनोत्पलस्त्रजंनददिदवरेफां परिगृह्य पाणिना |
चचाल वक्त्रं सुकपोलकुण्डलंसब्रीडहासं दधती सुशोभनम् ॥
१७॥
ततः--तत्पश्चात्; कृत-स्वस्त्ययना--शुभ अनुष्ठानों द्वारा नियमित रूप से पूजी जाकर; उत्पल-स्त्रजमू--कमलों की माला;नदतू--गुंजार करते; द्विरिफाम्--भौंरों से घिरी; परिगृह्--पकड़ कर; पाणिना--हाथ से; चचाल--आगे बढ़ी; वक्त्रम्--चेहरा;सु-कपोल-कुण्डलम्-कान के कुण्डलों से अलंकृत गाल; स-ब्रीड-हासम्--लज्जा से मुस्काती; दधती--विस्तीर्ण करती; सु-शोभनम्--अपनी प्राकृतिक सुन्दरता को |
तत्पश्चात् शुभ अनुष्ठान द्वारा पूजित माता लक्ष्मी कमलपुष्पों की माला हाथ में लेकर इधर-उधर विचरण करने लगीं जिसके चारों ओर भौरे मँडरा रहे थे |
लज्जा से मुस्काती हुई, कुण्डलोंसे गाल अलंकृत होने के कारण बे अत्यन्त सुन्दर लग रही थीं |
स्तनद्वयं चातिकुशोदरी सम॑निरन्तरं चन्दनकुड्डू मोक्षितम् |
ततस्ततो नूपुरवल्गु शिक्षितै-विसर्पती हेमलतेव सा बभौ ॥
१८॥
स्तन-द्वयम्--उनके दो स्तन; च-- भी; अति-कृश-उदरी --शरीर का मध्य भाग अत्यन्त पतला है, जिसका; समम्--समान रूपसे; निरन्तरम्--लगातार; चन्दन-कुद्डभु म--चन्दन तथा लाल रंग के कुंकुम चूर्ण से; उक्षितम्--लेप किया; ततः ततः--यत्र तत्र;नूपुर--पायल का; वल्गु--अत्यन्त सुन्दर; शिक्षितैः --मन्द झंकार करती; विसर्पती--चलती हुई; हेम-लता--सुनहरी लता;इब--सहश; सा--वह देवी; बभौ--प्रकट हुई
उनके संतुलित तथा सुस्थित दोनों स्तन चन्दन तथा कुंकुम चूर्ण से लेपित थे और उनकीकमर अत्यन्त पतली थी |
जब वे इधर-उधर चलती तो उनके पायल मन्द झंकार करते थे और वेकोई सोने की लता के समान लगती थी |
विलोकयन्ती निरवद्यमात्मन:पद ध्रुवं चाव्यभिचारिसद्गुणम् |
गन्धर्वसिद्धासुरयक्षचारण-त्रैपिप्टपेयादिषु नान्वविन्दत ॥
१९॥
विलोकयन्ती--निरीक्षण करती, देखती; निरवद्यमू--किसी दोष से रहित; आत्मन: --अपने आपको; पदम्--पद; ध्रुवम्--नित्य; च--भी; अव्यभिचारि-सत्-गुणम्--गुणों में बिना किसी परिवर्तन के; गन्धर्व--गन्धर्वलोक के वासियों; सिद्ध--सिद्धलोक के वासियों; असुर--दानवों; यक्ष--यक्षों; चारण--चारण लोक के वासियों; त्रैपिप्टेय-आदिषु--तथा देवताओं में;न--नहीं; अन्वविन्दत--किसी को स्वीकार कर सकी |
गन्धर्वों, यक्षों, असुरों, सिद्धों, चारणों तथा स्वर्गलोक के वासियों के बीच विचरण करतीहुई भाग्य की देवी लक्ष्मीदेवी उन सबका निरीक्षण कर रही थीं, किन्तु उनमें से कोई भी उन्हेंसमस्त स्वाभाविक उत्तम गुणों से युक्त नहीं मिला |
उनमें से कोई भी दोषों से रहित न था अतएववे किसी की भी शरण ग्रहण नहीं कर सकीं |
नून तपा यस्थ न मन्यानजयाज्ञानं क्वचित्तच्य न सड़रवर्जितम् |
कश्रिन्महांस्तस्थ न कामनिर्जय:सईश्वरः कि परतो व्यपाश्रय: ॥
२०॥
नूनम्--निश्चय ही; तपः--तपस्या; यस्य--जिस किसी की; न--नहीं; मन्यु--क्रो ध; निर्जय:--जीता हुआ; ज्ञानम्-ज्ञान;क्वचित्--किसी साधु पुरुष में; तत्ू--वह; च--भी; न--नहीं; सड़-वर्जितम्--संगति के कलुष से रहित; कश्चित्--कोई;महान्--अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यक्ति; तस्य--उसका; न--नहीं; काम-- भौतिक इच्छाएँ; निर्जय:--विजित; सः--ऐसा व्यक्ति;ईश्वरः--नियन्ता; किमू--वह कैसे हो सकता है; परत:--अन्यों का; व्यपा श्रय:--अधीन |
सभा का निरीक्षण करते हुए लक्ष्मीजी ने इस प्रकार सोचा: जिसने महान् तपस्या की है उसनेअभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाईं |
किसी के पास ज्ञान है, तो वह भौतिक इच्छाएँ नहीं जीतपाया |
कोई महान् पुरुष है, तो उसने कामेच्छाएँ नहीं जीतीं |
यहाँ तक कि महापुरुष भी किसीअन्य बात पर आश्रित रहता है |
फिर वह परम नियन्ता ( ईश्वर ) कैसे हो सकता है ? धर्म: क्वचित्तत्र न भूतसौहदंत्याग: क्वचित्तत्र न मुक्तिकारणम् |
वीर्य न पुंसोउस्त्यजवेगनिष्कृतंन हि द्वितीयो गुणसड्रवर्जित: ॥
२१॥
धर्म:--धर्म; क्वचित्-- भले ही पूरा ज्ञान क्यों न हो; तत्र--वहाँ; न--नहीं; भूत-सौहदम्-- अन्य जीवों के साथ मित्रता;त्याग:--त्याग; क्वचित्--किसी के पास भले ही हो; तत्र--वहाँ; न--नहीं; मुक्ति-कारणम्--मुक्ति का कारण; वीर्यम्ू--बल;न--नहीं; पुंस:--किसी पुरुष का; अस्ति--हो सकता है; अज-वेग-निष्कृतम्--काल की शक्ति से छुटकारा नहीं है; न--नतो; हि--निस्सन्देह; द्वितीय:--दूसरा; गुण-सड़-वर्जित:-- प्रकृति के गुणों के कल्मष से पूरी तरह मुक्त |
भले ही किसी के पास धर्म का पूरा ज्ञान क्यों न हो फिर भी वह समस्त जीवों पर दयालुनहीं हो सकता |
किसी में, चाहे वह देवता हो या मनुष्य, त्याग हो सकता है, किन्तु वह मुक्ति काकारण नहीं होता |
भले ही किसी में महान् बल क्यों न हो फिर भी वह नित्य काल की शक्ति कोरोकने में अक्षम रहता है |
भले ही कोई भौतिक जगत की आसक्ति से विरक्त हो चुका हो फिरभी वह भगवान् की बराबरी नहीं कर सकता |
अतएव कोई भी व्यक्ति प्रकृति के भौतिक गुणों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं है |
क्वचिच्चिरायुर्न हि शीलमड्लंक्वचित्तदप्यस्ति न वेद्यमायुष: |
यत्रोभयं कुत्र च सोउप्यमड्रल:सुमड्रलः कश्च न काइक्षते हि माम् ॥
२२॥
क्वचित्--कोई; चिर-आयु:--दीर्घभआयु वाला; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; शील-मड़लम्--अच्छा आचरण या कल्याण;क्वचित्--कोई; तत् अपि--अच्छा आचरण होते भी; अस्ति-- है; न--नहीं; वेद्यम् आयुष: --उप्र की अवधि से परिचित; यत्रउभयम्--यदि दोनों हुए ( आचरण तथा मंगल ); कुत्र--कहाँ; च-- भी; सः --वह व्यक्ति; अपि--यद्यपि; अमड्रल:--किसीऔर बात में अशुभ; सु-मड़ल: --प्रत्येक प्रकार से शुभ; कश्च--कोई; न--नहीं; काइक्षते--इच्छा करता है; हि--निस्सन्देह;माम्--मुझको |
हो सकता है कि कोई दीर्घायु हो, किन्तु वह अच्छे आचरण वाला या मंगलमय न हो |
किसी में मंगलमय तथा अच्छा आचरण दोनों ही पाये जा सकते हैं, किन्तु उसकी आयु कीअवधि निश्चित नहीं होती |
यद्यपि शिवजी जैसे देवताओं का जीवन शाश्वत होता है, किन्तु उनकीआदतें अमंगल सूचक होती हैं--यथा एमशान में वास |
अन्य लोग सभी प्रकार से योग्य होते हुएभी भगवान् के भक्त नहीं होते |
एवं विमृश्याव्यभिचारिसद्गुणै-वर निजैका श्रयतयागुणा श्रयम् |
वद्रे वरं सर्वगुणैरपेक्षितंरमा मुकुन्दं निरपेक्षमीप्सितम् ॥
२३॥
एवम्--इस तरह; विमृश्य--विचार-विमर्श के बाद; अव्यभिचारि-सत्ू-गुणै:--अद्वितीय दिव्य गुणों से; वरम्-- श्रेष्ठ; निज-एक-आश्रयतया-- अन्यों पर आश्रित न रहकर समस्त गुणों से युक्त होने के कारण; अगुण-आश्रयम्--समस्त दिव्य गुणों काआगार; वद्रे--स्वीकार किया; वरम्--दूल्हे के रूप में; सर्व-गुणैः--समस्त दिव्य गुणों के साथ; अपेक्षितम्--योग्य; रमा--भाग्य की देवी ने; मुकुन्दम्-मुकुन्द को; निरपेक्षम्--यद्यपि उन्होंने उसकी प्रतीक्षा नहीं की; ईप्सितम्ू--सर्वाधिक वांछनीय |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार पूरी तरह विचार-विमर्श करने के बाद भाग्यकी देवी ( लक्ष्मी ) ने मुकुन्द को पति रूप में वरण कर लिया क्योंकि यद्यपि बे स्वतंत्र हैं औरउन्हें उनकी कमी भी नहीं खलती थी वे समस्त दिव्य गुणों और योग शक्तियों से युक्त हैं, अतएवसर्वाधिक वांछनीय हैं |
तस्यांसदेश उशतीं नवकञझ्जमालांमाद्यन्मधुव्रतवरू थगिरोपधुष्टाम् |
तस्थौ निधाय निकटे तदुरः स्वधाम सब्रीडहासविकसन्नयनेन याता ॥
२४॥
तस्य--उसके ( भगवान् के ); अंस-देशे--कंधों पर; उशतीम्--अत्यन्त सुन्दर; नब--नई; कज्ज-मालामू--कमल के फूलों कीमाला को; माद्यत्ू--मदान्ध; मधुब्रत-वरूथ--भौंरों की; गिरा--ध्वनि से; उपधुष्टामू--गुंजार से घिरा; तस्थौ--कर रहा;निधाय--माला रखकर; निकटे--पास ही; ततू-उर:ः -- भगवान् का वक्षस्थल; स्व-धाम--अपना असली निवास; स-ब्रीड-हास--लज्जा से हँसते हुए; विकसत्--चमकते; नयनेन--आँखों से; याता--इस प्रकार स्थित |
भगवान् के पास जाकर लक्ष्मीजी ने नवीन कमल पुष्पों की माला उनके गले में पहना दीजिसके चारों ओर मधु की खोज में भौरें गुंजार कर रहे थे |
तब भगवान् के वक्षस्थल पर स्थानपाने की आशा से वे उनकी बगल में खड़ी रहीं और उनका मुख लज्जा से मुस्का रहा था |
तस्याः थ्रियस्त्रिजगतो जनको जनन्यावक्षो निवासमकरोत्परमं विभूते: |
श्री: सवा: प्रजा: सकरुणेन निरीक्षणेनयत्र स्थितैधयत साधिपतींस्त्रिलोकान् ॥
२५॥
तस्या:--उसका; थ्रिय:--लक्ष्मी; त्रि-जगत:--तीनों लोक के; जनकः--पिता; जनन्या: --माता का; वक्ष: --वक्षस्थल;निवासम्ू--निवास; अकरोत्--बनाया; परमम्--परम; विभूते: --ऐश्वर्यवान का; श्री:--लक्ष्मी; स्वा:--अपने; प्रजा:--वंशज;स-करुणेन--करुणा से युक्त; निरीक्षणेन-- दृष्टि फेरते हुए; यत्र--जहाँ; स्थिता--रहते हुए; ऐधयत--वृद्द्धि की; स-अधिपतीन्-महान् निदेशकों तथा नेताओं सहित; त्रि-लोकान्--तीनों लोकों को |
भगवान् तीनों लोकों के पिता हैं और उनका वशक्षस्थल समस्त ऐश्वर्यों की स्वामिनी भाग्य कीदेवी माता लक्ष्मी का निवास है |
लक्ष्मीजी अपनी अनुकूल तथा कृपापूर्ण चितवन से तीनों लोकोंतथा उनके निवासियों और अधिपतियों--देवताओं--के ऐश्वर्य को बढ़ा सकती हैं |
शद्डुतूर्यमृदड़ानां वादित्राणां पृथु: स्वनः |
देवानुगानां सस्त्रीणां नृत्यतां गायतामभूत् ॥
२६॥
शद्भु--शंख; तूर्य--तुरही; मृदड्भानाम्ू--तथा विभिन्न प्रकार के ढोलों का; वादित्राणाम्ू--वाद्य-यंत्रों की; पृथु:--अत्यधिक;स्वन:ः--ध्वनि; देव-अनुगानाम्--उच्चलोकों ( गंधर्व तथा चारण लोक ) के निवासी जो देवताओं के अनुयायी होते हैं; स-स्त्रीणामू--अपनी-अपनी पतियों के साथ; नृत्यताम्--नाचने में व्यस्त; गायताम्-गाते हुए; अभूत्--हो गये |
तब गन्धर्व तथा चारण लोकों के निवासियों ने अपने-अपने वाद्य यंत्र--यथा शंख, तुरहीतथा ढोल--बजाये |
वे अपनी-अपनी पत्नियों के साथ नाचने गाने लगे |
ब्रह्मरुद्राड्िरोमुख्या: सर्वे विश्वस॒जो विभुम् |
ईडिरेवितथेर्मन्त्रैस्तल्लिड्रैः पुष्पर्षिण: ॥
२७॥
ब्रह्म--ब्रह्माजी; रुद्र--शिवजी; अड्डिर: --अंगिरा मुनि; मुख्या:--आदि; सर्वे--सभी ने; विश्व-सृज:--विश्व की व्यवस्था केनिदेशक; विभुम्--महान् पुरुष को; ईडिरे--पूजा की; अवितथे: --असली; मन्त्रै:--उच्चारण द्वारा; तत्-लिड्डैः--उन भगवान्को पूजकर; पुष्प-वर्षिण: --पुष्पों की वर्षा करके |
ब्रह्म जी, शिव जी, अंगिरा मुनि तथा विश्व व्यवस्था के ऐसे ही निदेशकों ने फूल बरसायेऔर भगवान् की दिव्य महिमा के सूचक मंत्रों का उच्चारण किया |
भ्रियावलोकिता देवा: सप्रजापतय: प्रजा: |
शीलादिगुणसम्पन्ना लेभिरे निर्वृतिं परामू ॥
२८॥
भ्रिया--लक्ष्मी द्वारा; अवलोकिता:--कृपापूर्वक देखे जाने पर; देवा:--सारे देवता; स-प्रजापतय:--प्रजापतियों सहित;प्रजा:--तथा उनकी सनन््तानें; शील-आदि-गुण-सम्पन्ना:--सबके सब अच्छे आचरण तथा अच्छे लक्षणों से सम्पन्न; लेभिरि--प्राप्त किया; निर्वृतिमू--संतोष; परामू--चरम
सभी प्रजापतियों तथा उनकी प्रजा सहित सारे देवता लक्ष्मीजी की चितवन से धन्य होकरतुरन्त ही अच्छे आचरण तथा दिव्य गुणों से सम्पन्न हो गये |
इस तरह वे अत्यधिक सन्तुष्ट हो गये |
निःसत्त्वा लोलुपा राजन्निरुगओगा गतत्रपा: |
यदा चोपेक्षिता लक्ष्म्या बभूवुर्देत्यदानवा: ॥
२९॥
निःसत्त्वा:--बलहीन; लोलुपा:--अत्यन्त लालची; राजन्--हे राजा; निरुद्योगा:--हताश; गत-बत्रपा: --लज्जाहीन; यदा--जब;च--भी; उपेक्षिता:--उपेक्षित; लक्ष्म्या--लक्ष्मीजी द्वारा; बभूवु:--हो गये; दैत्य-दानवा:--असुर तथा राक्षसगण |
हे राजा! लक्ष्मी द्वारा उपेक्षित हो जाने पर असुर तथा राक्षस अत्यन्त निराश, मोहग्रस्त तथा हतप्रभ हो गये और इस तरह वे निर्लज्ज बन गये |
अथासीद्वारुणी देवी कन्या कमललोचना |
असुरा जगहुस्तां वै हरेरनुमतेन ते ॥
३०॥
अथ--तत्पश्चात् ( लक्ष्मीजी के प्रकट होने के बाद ); आसीतू-- था; वारुणी --वारुणी; देवी --देवपत्नी जो मद्यपों को वश मेंरखती है; कन्या--तरुणी; कमल-लोचना--कमल जैसे नेत्र वाली; असुरा: --असुरों ने; जगृह:--स्वीकार कर लिया; तामू--उसको; वै--निस्सन्देह; हरेः-- भगवान् के; अनुमतेन--आदेश से; ते--वे ( राक्षस ) |
तब कमलनयनी देवी वारुणी प्रकट हुई जो मद्यपों को वश में रखती है |
भगवान् कृष्ण कीअनुमति से बलि महाराज इत्यादि असुरों ने उस तरुणी को अपने अधिकार में ले लिया |
अथोदधेर्मथ्यमानात्काश्यपैरमृतार्थिभि: |
उदतिष्ठन्महाराज पुरुष: परमाद्धुतः ॥
३१॥
अथ--तत्पश्चात्; उदधे:--क्षीरसागर से; मथ्यमानात्--मथने से; काश्यपैः --कश्यप के पुत्रों अर्थात् देवताओं तथा असुरों द्वारा;अमृत-अर्थिभि:--मन्थन से अमृत पाने के लिए उत्सुक; उदतिष्ठत्-वहाँ प्रकट हुआ; महाराज--हे राजा; पुरुष:--एक पुरुष;'परम--अत्यन्त; अद्भुत:--अद्भुत |
हे राजा! तत्पश्चात् जब कश्यप के पुत्र--असुर तथा देवता--दोनों ही क्षीरसागर के मन्थन मेंलगे हुए थे तो एक अत्यन्त अद्भुत पुरुष प्रकट हुआ |
दीर्घपीवरदोर्दण्ड: कम्बुग्रीवोरुणेक्षण: |
शयामलस्तरूणः स््रग्वी सर्वाभरणभूषित: ॥
३२॥
दीर्घ--लम्बा; पीवर--बलिष्ठ; दोः-दण्ड:-- भुजाएँ; कम्बु--शंख के समान; ग्रीव:ः--गर्दन; अरुण-ईक्षण: --लाल-लालआँखें; श्यामल:ः--काले रंग का; तरुण:--नौजवान; स्त्रग्वी--फूलों की माला पहने; सर्व--समस्त; आभरण--गहनों से;भूषित:--अलंकृत |
उसका शरीर सुहृढ़ था; उसकी भुजाएँ लम्बी तथा बलिष्ठ थीं; उसकी शंख जैसी गर्दन मेंतीन रेखाएँ थीं; उसकी आँखें लाल-लाल थीं और उसका रंग साँवला था |
वह अत्यन्त तरुणथा, उसके गले में फूलों की माला थी तथा उसका सारा शरीर नाना प्रकार के आभूषणों सेसुसज्जित था |
'पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डल: |
स्निग्धकुद्धितकेशान्तसुभग: सिंहविक्रमः |
अमृतापूर्णकलसं बिभ्रद्बलयभूषित: ॥
३३॥
'पीत-वासा: --पीले वस्त्र पहने; महा-उरस्क:--चौ वक्षस्थल वाला; सु-मृष्ट-मणि-कुण्डल:--मोतियों के बने पालिश किए हुएकुण्डल पहने; स्निग्ध--चिकना; कुश्चित-केश--घुंघराले बाल; अन्त--सिरे पर; सु-भग:--पृथक् तथा सुन्दर; सिंह-विक्रमः--सिंह की भाँति बलवान; अमृत--अमृत से; आपूर्ण--लबालब; कलसम्--कलश ; बिश्रतू--चलायमान; वलय--बाजूबंद; भूषित:ः--सुशोभित
वह पीले वस्त्र पहने था और उसके कानों में मोतियों के बने पालिश किए हुए कुण्डल थे |
उसके बालों के सिरे तेल से चुपड़े थे और उसका वक्षस्थल अत्यन्त चौड़ा था |
उसका शरीरअत्यन्त सुगठित तथा सिंह के समान बलवान था |
उसने बाजूबंद पहन रखे थे |
उसके हाथ मेंअमृत से पूर्ण कलश था |
स वे भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसम्भवः |
धन्वन्तरिरिति ख्यात आयुर्वेददगिज्यभाक् ॥
३४॥
सः--वह; बै--निस्सन्देह; भगवत:--भगवान् का; साक्षात्-- प्रत्यक्ष; विष्णो: -- भगवान् विष्णु का; अंश-अंश-सम्भव:--स्वांश के स्वांश का अवतार; धन्वन्तरि:-- धन्वन्तरि; इति--इस प्रकार; ख्यात:--प्रसिद्ध; आयु:-वेद-हक्-- औषधि विज्ञान मेंपटु; इज्य-भाक्--यज्ञ में भाग पाने का अधिकारी देवता |
यह व्यक्ति धन्वन्तरि था, जो भगवान् विष्णु के स्वांश का स्वांश था |
वह औषधि विज्ञान( आयुर्वेद ) में अत्यन्त पटु था और देवता के रूप में यज्ञों में भाग पाने का अधिकारी था |
तमालोक्यासुरा: सर्वे कलसं चामृताभूतम् |
लिप्सन्तः सर्ववस्तूनि कलसं तरसाहरन् ॥
३५॥
तम्--उसको; आलोक्य--देखकर; असुरा: --असुरों ने; सर्वे--सभी; कलसम्--अमृत पात्र को; च-- भी; अमृत-आभूृतम्--अमृत से पूर्ण; लिप्सन्तः--प्रबल इच्छा करते; सर्व-वस्तूनि--सारी वस्तुएँ; कलसम्--पात्र; तरसा--तुरन््त; अहरनू--छीनलिया |
धन्वन्तरि को अमृत पात्र लिये हुए देखकर असुरों ने पात्र तथा उसके भीतर जो कुछ था उसेचाहने के कारण तुरन्त ही उसे बलपूर्वक छीन लिया |
नीयमानेसुरैस्तस्मिन्कलसेमृतभाजने |
विषण्णमनसो देवा हरिं शरणमाययु: ॥
३६॥
नीयमाने--ले जाया जाकर; असुरैः--असुरों द्वारा; तस्मिन्ू--उस; कलसे--पात्र में; अमृत-भाजने-- अमृत से भरे; विषणण-मनसः--खिन्न मन से; देवा: --सारे देवता; हरिम्ू-- भगवान् की; शरणम्--शरण में; आययु:--गये
जब अमृत का पात्र असुरों द्वारा छीन लिया गया तो देवतागण अत्यन्त खिन्न हो गए |
उन्होंनेजाकर भगवान् हरि के चरणकमलों की शरण ली |
इति तद्दैन्यमालोक्य भगवान्भृत्यकामकृत् |
मा खिद्यत मिथो<र्थ व: साधयिष्ये स्वमायया ॥
३७॥
इति--इस तरह; तत्--देवताओं की; दैन्यम्--खिन्नता, विषाद; आलोक्य--देखकर; भगवानू्-- भगवान्; भृत्य-काम-कृत्--जो अपने सेवकों की इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं; मा खिद्यत--मत दुखी होओ; मिथ:--झगड़े से;अर्थम्--अमृत प्राप्त करने के लिए; व:ः--तुम सबके लिए; साधयिष्ये--सम्पन्न करूँगा; स्व-मायया--अपनी शक्ति से |
अपने भक्तों की मनोकामनाओं को सदा पूरा करने की इच्छा रखने वाले भगवान् ने जबयह देखा कि देवतागण खिन्न हैं, तो उन्होंने उनसे कहा ‘'दुःखी मत होओ |
मैं अपनी शक्ति सेअसुरों में झगड़ा करा कर उन्हें मोहग्रस्त कर लूँगा |
इस प्रकार तुम लोगों की अमृत प्राप्त करनेकी इच्छा मैं पूरी कर दूँगा |
'मिथ: कलिरभूत्तेषां तदर्थे तर्षचेतसाम् |
अहं पूर्वमहं पूर्व न त्वं न त्वमिति प्रभो ॥
३८ ॥
मिथः--परस्पर; कलि:ः--असहमति तथा कलह; अभूत्--हुआ; तेषाम्--उन सबका; तत्-अर्थे-- अमृत के लिए; तर्ष-चेतसाम्--विष्णु की माया से मोहग्रस्त चित्त; अहम्--मैं; पूर्वमू--पहले; अहम्--मैं; पूर्वम्ू--पहले; न--नहीं; त्वम्--तुम;न--नहीं; त्वमू--तुम; इति--इस प्रकार; प्रभो--हे राजा
हे राजा! तब असुरों के बीच झगड़ा छिड़ गया कि सबसे पहले कौन अमृत ले |
उनमें से हरएक यही कहने लगा ‘तुम पहले नहीं पी सकते |
मुझे सबसे पहले पीना चाहिए |
तुम नहीं, पहलेमैं |
देवा: स्वं भागमर्हन्ति ये तुल्यायासहेतव: |
सत्रयाग इवैतस्मिन्नेष धर्म: सनातन: ॥
३९॥
इति स्वाय्प्रत्यषेधन्वै दैतेया जातमत्सरा: |
दुर्बला: प्रबलान्राजन्गूहीतकलसान्मुहु: ॥
४० ॥
देवा:--देवता; स्वम् भागम्--अपना-अपना हिस्सा; अर्हन्ति--लेने के अधिकारी हैं; ये--जो-जो; तुल्य-आयास-हेतव:--जिन्होंने समान प्रयास किया है; सत्र-यागे--यज्ञ सम्पन्न करने में; इब--उसी प्रकार; एतस्मिनू--इस मामले में; एब: --यह;धर्म:--धर्म; सनातनः--शा श्वत; इति--इस प्रकार; स्वान्ू--अपनों में; प्रत्यषे धन्--एक दूसरे को मना किया; बै--निस्सन्देह;दैतेया:--दिति के पुत्र; जात-मत्सरा:--ईष्यालु; दुर्बला:--निर्बल; प्रबलान्--बलपूर्वक; राजन्--हे राजा; गृहीत--ग्रहणकिये; कलसान्--अमृत पात्र को; मुहुः--निरन्तर |
कुछ असुरों ने कहा ‘सभी देवताओं ने क्षीरसागर के मन्थन में हाथ बँटाया है |
चूँकि हरएक को समान अधिकार है कि वह किसी भी सार्वजनिक यज्ञ में भाग लें अतः सनातन धर्म केअनुसार यह उचित होगा कि अमृत में देवताओं को भी भाग मिले |
' हे राजा! इस प्रकार निर्बलअसुरों ने प्रबल असुरों को अमृत लेने से मना किया |
एतस्मिन्नन्तरे विष्णु: सर्वोपायविदी श्वरः |
योषिद्रूपमनिर्देश्यं दधारपरमाद्भुतम् ॥
४१॥
प्रेक्षणीयोत्पलश्यामं सर्वावयवसुन्दरम् |
समानकर्णाभरणं सुकपोलोन्नसाननम् ॥
४२॥
नवयौवननिर्वृत्तस्तनभारकृशोदरम् |
मुखामोदानुरक्तालिझड्जारोद्धिग्नलोचनम् ॥
४३॥
बिशभ्रत्सुकेशभारेण मालामुत्फुल्लमल्लिकाम् |
सुग्रीवकण्ठाभरणं सुभुजाड्रदभूषितम् ॥
४४॥
विरजाम्बरसंवीतनितम्बद्दीपशोभया |
काज्च्या प्रविलसद्वल्गुचलच्चरणनूपुरम् ॥
४५॥
सत्रीडस्मितविश्षिप्तभूविलासावलोकनै: |
दैत्ययूथपचेत:सु काममुद्दीपयन्मुहु: ॥
४६॥
एतस्मिन् अन्तरे--इस घटना के बाद; विष्णु: -- भगवान् विष्णु ने; सर्व-उपाय-वित्--विभिन्न परिस्थितियों से निपटने में पटु;ईश्वरः--परम नियन्ता; योषित्-रूपम्--सुन्दर स्त्री का रूप; अनिर्देश्यमू--कोई यह निश्चित नहीं कर सका कि वह कौन थी;दधार-- धारण कर लिया; परम--परम; अद्भुतम्--अद्भुत; प्रेक्षणीय--देखने में सुहावना; उत्पल-श्यामम्--नवीन विकसितकमल के समान शयाम रंग का; सर्व--सारे; अवयव--शरीर के अंग; सुन्दरम्--अत्यन्त सुन्दर; समान--एकसमान; कर्ण-आभरणमू--कान के आभूषण; सु-कपोल--सुन्दर गाल; उन्नस-आननम्--मुखमण्डल में उभरी नाक; नव-यौवन--नवीनयुवावस्था; निर्वृत्त-स्तन--स्थिर उरोज; भार-- भार; कृश--अत्यन्त दुबली तथा पतली; उदरम्--कमर; मुख--मुखमण्डल;आमोद--आननन््द उत्पादक; अनुरक्त--आकृष्ट; अलि-- भौरे; झट्टार--गुन-गुन की आवाज करते; उद्विग्न--चिन्ता से;लोचनमू्--उसकी आँख; बिभ्रत्ू--चलायमान; सु-केश-भारेण--सुन्दर बालों के भार से; मालाम्--फूल की माला से;उत्फुल्ल-मल्लिकाम्--पूर्ण विकसित मल्लिका के फूलों से बनी; सु-ग्रीव--सुन्दर गर्दन; कण्ठ-आभरणम्--सुन्दर रत्नों सेजटित; सु-भुज--सुन्दर भुजाएँ; अड्भद-भूषितम्--बाजूबंदों से सज्जित; विरज-अम्बर--अत्यन्त स्वच्छ वस्त्र; संवीत--फैला;नितम्ब--नितम्ब; द्वीप--द्वीप की तरह लगने वाला; शोभया--ऐसी सुन्दरता से; काञउच्या--करधनी; प्रविलसत्--फैली हुई;बल्गु--अत्यन्त सुन्दर; चलतू-चरण-नूपुरम्ू--हिलते-डुलते पायल; स-ब्रीड-स्मित-- सलज्ज हास; विक्षिप्त--दृष्टि फेरते; भ्रू-विलास--भौंहों का क्रियाकलाप; अवलोकनै: --देखने से; दैत्य-यूथ-प-- असुरों के नायक; चेतःसु--हृदय में; कामम्--कामेच्छा; उद्दीपयत्--जगाते हुए; मुहुः--निरन्तर |
तब, किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने में दक्ष भगवान् विष्णु ने एक अत्यन्तसुन्दर स्त्री का रूप धारण कर लिया |
स्त्री के रूप में यह अवतार--मोहिनी मूर्ति--मन को भानेवाला था |
उसका रंग नव-विकसित श्यामल कमल के रंग का था और उसके शरीर का हर अंगसुन्दर ढंग से बना था |
उसके कानों में कुण्डल सजे थे, उसके गाल अतीव सुन्दर थे, उसकीनाक उठी हुई थी और उसका मुखमण्डल युवावस्था की कान्ति से युक्त था |
उसके बड़े-बड़े स्तनों के कारण उसकी कमर अत्यन्त पतली लगती थी |
उसके मुख तथा शरीर की सुगंधि सेआकर्षित भौरें उसके चारों ओर गुनगुना रहे थे और उसकी आँखें चंचल थीं |
उसके बाल अत्यन्तसुन्दर थे और उन पर मल्लिका के फूलों की माला पड़ी थी |
उसकी आकर्षक गर्दन हार तथाअन्य आभूषणों से सुशोभित थी; उसकी बाँहों में बाजूबंद शोभित हो रहे थे; उसका शरीर स्वच्छसाड़ी से ढका था और उसके स्तन सुन्दरता के सागर में द्वीपों की तरह प्रतीत हो रहे थे |
उसकेपाँवों में पायल शोभा दे रहे थे |
जब वह लज्जा से हँसती और असुरों पर बाँकी चितवन फेरती तोउसकी भौंहों के हिलने से सारे असुर कामेच्छा से पूरित हो उठते और उनमें से हर एक उसे अपनाबनाने की इच्छा करने लगा |
अध्याय नौ: भगवान मोहिनी-मूर्ति के रूप में अवतार लेते हैं
8.9श्रीशुक उबाचतेउन्योन्यतोसुराः पात्र हरन्तस्त्यक्तसौहदा: |
क्षिपन्तोदस्युधर्माण आयान्तीं दहशु: स्त्रियम् ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; ते--वे असुर; अन्योन्यतः--परस्पर; असुरा:--असुरगण; पात्रम्ू--अमृत काबर्तन; हरन्त:--एक दूसरे से छीनते हुए; त्यक्त-सौहदा: --एक दूसरे के शत्रु बन गये; क्षिपन्त:--कभी-कभी फेंकते हुए; दस्यु-धर्माण:--कभी-कभी लुटेरों की तरह छीनते हुए; आयान्तीम्--आगे आते हुए; दहशु:--देखा; स्त्रियम्ू-- अत्यन्त सुन्दर तथाआकर्षक स्त्री को |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात् असुर एक दूसरे के शत्रु बन गये |
उन्होंने अमृत पात्रको फेंकते और छीनते हुए अपना मैत्री-सम्बन्ध तोड़ लिया |
इसी बीच उन्होंने देखा कि एकअत्यन्त सुन्दर तरुणी उनकी ओर आ रही है |
अहो रूपमहो धाम अहो अस्या नवं वय: |
इति ते तामभिद्वुत्य पप्रच्छुर्जातहच्छया: ॥
२॥
अहो--कितना आश्चर्यजनक है; रूपमू--इसकी सुन्दरता; अहो--कितना अद्भुत है; धाम--इसकी शारीरिक कान्ति; अहो--कितना आर्श्रयजनक; अस्या:--इसका; नवम्--नयी; वय:--युवावस्था; इति--इस तरह; ते--वे असुर; ताम्--उस सुन्दर स्त्रीको; अभिद्वुत्य--तेजी से उसके समक्ष जाकर; पप्रच्छुः:--उससे पूछा; जात-हत्-शया:--उसका भोग करने की कामवासना सेभरे हुए हृदय
उस सुन्दरी को देखकर असुरों ने कहा : ओह! इसका सौन्दर्य कितना आश्चर्यजनक है,इसके शरीर की कान्ति कितनी अद्भुत है और इसकी तरुणावस्था का सौन्दर्य कितना उत्कृष्टहै! इस तरह कहते हुए वे उसका भोग करने की कामवासना से पूरित होकर तेजी से उसके पासपहुँच गये और उससे तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे |
का त्वं कझ्मपलाशाक्षि कुतो वा कि चिकीर्षसि |
'कस्यासि वद वामोरू मथ्नतीव मनांसि नः ॥
३॥
का--कौन; त्वम्-तुम हो; कञ्न-पलाश-अक्षि--कमल की पंखड़ियों जैसी आँखों वाली; कुतः--कहाँ से; वा--अथवा;किम् चिकीर्षसि--तुम किस प्रयोजन से यहाँ आईं हो; कस्य--किसकी; असि--हो; वद--कृपया हमसे कहो; वाम-ऊरु--हेअद्वितीय सुन्दर जाँघों वाली; मथ्नती--विचलित करती हुई; इब--इस प्रकार; मनांसि--मनों को; नः--हमारे |
हे अद्भुत सुन्दरी बाला! तुम्हारी आँखें इतनी सुन्दर हैं कि वे कमल पुष्प की पंखड़ियों जैसीलगती हैं |
तुम आखिर हो कौन ? तुम कहाँ से आई हो ? यहाँ आने का तुम्हारा प्रयोजन क्या हैऔर तुम किसकी हो? हे अद्वितीय सुन्दर जाँघों वाली! हमारे मन तुम्हारे दर्शनमात्र से हीविचलित हो रहे हैं |
न वयं त्वामरदत्ये: सिद्धगन्धर्वचारणै: |
नास्पृष्टपूर्वां जानीमो लोकेशैश्व कुतो नृभि: ॥
४॥
न--नहीं; वयम्--हम; त्वा-- तुमको; अमरैः --देवताओं द्वारा; दैत्यैः --असुरों द्वारा; सिद्ध-सिद्धों द्वारा; गन्धर्व--गन्धर्वोंद्वारा; चारणैः--तथा चारणों द्वारा; न--नहीं; अस्पृष्ट-पूर्वाम--किसी के द्वारा कभी भी न तो भोगी गई न स्पर्श की गई;जानीम:--ठीक से जान लो; लोक-ईशै:--ब्रह्माण्ड के विभिन्न निर्देशकों द्वारा; च-- भी; कुत:ः-- क्या कहा जाये; नृभि:--मानव समाज द्वारा
मनुष्यों की कौन कहे, देवता, असुर, सिद्ध, गन्धर्व, चारण तथा ब्रह्माण्ड के विभिन्ननिर्देशक अर्थात् प्रजापति तक इसके पूर्व तुम्हारा स्पर्श नहीं कर पाये |
ऐसा नहीं है कि हम तुम्हेंठीक से पहचान नहीं पा रहे हों |
नूनं त्वं विधिना सुभ्रू: प्रेषितासि शरीरिणाम् |
सर्वेन्द्रियमन:प्रीतिं विधातुं सघुणेन किम् ॥
५॥
नूनम्--निस्सन्देह; त्वमू--तुम; विधिना--विधाता द्वारा; सु-भ्ूू: --हे सुन्दर भौंहों वाली; प्रेषिता-- भेजी गई; असि--तुम हो;शरीरिणाम्ू--समस्त देहधारी जीवों का; सर्व--सभी; इन्द्रिय--इन्द्रियों; मनः--तथा मन को; प्रीतिम्ू-- अच्छी लगने वाली;विधातुम्--तृप्त करने के लिए; स-घृणेन--अपनी अहैतुकी कृपा से; किमू--क्या |
हे सुन्दर भौहों वाली सुन्दरी! निश्चय ही, विधाता ने अपनी अहैतुकी कृपा से तुम्हें हम लोगोंकी इन्द्रियों और मनों को प्रसन्न करने के लिए भेजा है |
क्या यह तथ्य नहीं है ? सा त्वं नः स्पर्धमानानामेकवस्तुनि मानिनि |
ज्ञातीनां बद्धवैराणां शं विधत्स्व सुमध्यमे ॥
६॥
सा--जैसी तुम हो; त्वम्--तुम; नः--हम सभी असुरों के; स्पर्धभानानामू--जो अधिकाधिक शत्रु बनते जा रहे हैं, उनके; एक-वस्तुनि--एक वस्तु में ( अमृत-पात्र में ); मानिनि--हे प्रतिष्ठित सुन्दरी; ज्ञातीनामू--अपने परिवार वालों में; बद्ध-वैराणाम्--अधिकाधिक शत्रु बनकर; शम्--कल्याण; विधत्स्व--सम्पन्न करो; सु-मध्यमे--हे पतली कमर वाली सुन्दरी |
इस समय हम लोग एक ही बात को--अमृत घट को--लेकर परस्पर शत्रुता में मग्न हैं |
यद्यपि हम एक ही कुल में उत्पन्न हुए हैं फिर भी हममें शत्रुता बढ़ती ही जा रही है |
अतएव हेक्षीण कटि वाली सुप्रतिष्ठित सुन्दरी! हमारी आपसे प्रार्थना है कि आप हमारे इस झगड़े कोनिपटाने की कृपा करें |
बय॑ कश्यपदायादा भ्रातरः कृतपौरुषा: ॥
विभजस्व यथान्यायं नेव भेदो यथा भवेत् ॥
७॥
वयम्--हम सभी; कश्यप-दायादा:--कश्यप मुनि के वंशज; भ्रातरः--हम सभी भाई हैं; कृत-पौरुषा:--हम सभी समर्थ एवंदक्ष हैं; विभजस्व--जरा बाँट दें; यथा-न्यायम्--न्यायपूर्वक; न--नहीं; एव--निश्चय ही; भेदः--पक्षपात; यथा--जिस तरह;भवेत्--हो सके
हम सभी देवता तथा असुर दोनों ही एक ही पिता कश्यप की सन्तानें हैं और इस तरह सेभाई-भाई हैं |
किन्तु मतभेद के कारण हम अपना-अपना पराक्रम दिखला रहे हैं |
अतएव आपसेहमारी विनती है कि हमारे झगड़े का निपटारा कर दें और इस अमृत को हममें बराबर-बराबरबाँट दें |
इत्युपामन्त्रितो दैत्यैर्मायायोषिद्वपुहरि: |
प्रहस्य रुचिरापाड्रैनिरीक्षन्रिदमत्रवीत् ॥
८॥
इति--इस प्रकार; उपामन्त्रितः--अनुरोध किये जाने पर; दैत्यै:--असुरों के द्वारा; माया-योषित्--मायावी स्त्री ने; वपुः हरिः --भगवान् की अवतार; प्रहस्य--हँसते हुए; रुचिर--सुन्दर; अपाडरैः--स्त्री-सुलभ हाव भाव दिखा कर; निरीक्षन्--उनको देखतेहुए; इृदम्ू--ये शब्द; अब्रवीत्--कहे
असुरों द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर सुन्दरी का रूप धारण किये हुए भगवान् हँसनेलगे |
फिर स्त्री-सुलभ मोहक हावभाव से उनकी ओर देखते हुए उस सुन्दरी ने इस प्रकार कहा |
श्रीभगवानुवाचकथं कश्यपदायादा: पुंश्चल्यां मयि सड्भता: |
विश्वासं पण्डितो जातु कामिनीषु न याति हि ॥
९॥
श्री-भगवान् उबाच--मोहिनी-मूर्ति के रूप में भगवान् ने कहा; कथम्--ऐसा कैसे है; कश्यप-दायादा: --तुम सभी कश्यपमुनि के वंशज हो; पुंश्चल्याम्--मनुष्यों के मनों को विचलित करने वाली वेश्या को; मयि--मेरी; सड्रता:--संगति में आये हो;विश्वासम्-विश्वास; पण्डित:--विद्वान; जातु--किसी भी समय; कामिनीषु--स्त्री में; न--नहीं; याति--होता है; हि--निस्सन्देह
मोहिनी-रूप भगवान् ने असुरों से कहा : हे कश्यपमुनि के पुत्रो! मैं तो एक वेश्या हूँ |
तुमलोग किस तरह मुझ पर इतना विश्वास कर रहे हो ? विद्वान पुरुष कभी स्त्री पर विश्वास नहींकरते |
सालावृकाणां स्त्रीणां च स्वैरिणीनां सुरद्विष: |
सख्यान्याहुरनित्यानि नूत्ल॑ नूत्त॑ विचिन्वताम् ॥
१०॥
सालावृकाणाम्--बन्दरों, सियारों तथा कुत्तों की; स्त्रीणाम् च--तथा स्त्रियों की; स्वैरिणीनामू--विशेष रूप से स्वच्छन्द स्त्रियोंकी; सुर-द्विष:--हे असुरो; सख्यानि--मित्रता; आहुः--कही जाती है; अनित्यानि-- क्षणिक; नूलतम्ू--नये मित्र; नूल्तमू--नयेमित्र; विचिन्बताम्--चिन्तन करने वालों की |
हे असुरो! जिस प्रकार बन्दर, सियार तथा कुत्ते अपने यौन सम्बन्धों में अस्थिर होते हैं औरनित्य ही नया मित्र चाहते हैं उसी प्रकार जो स्त्रियाँ स्वच्छन्द होती हैं ( स्वैरिणी ) वे नित्य नयामित्र ढूँढती हैं |
ऐसी स्त्री की मित्रता कभी स्थायी नहीं होती |
यह विद्वानों का अभिमत है |
श्रीशुक उबाचइति ते #्ष्वेलितैस्तस्था आश्वस्तमनसोसुरा: |
जहसुर्भावगभ्भीरं ददुश्चामृतभाजनम् ॥
११॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ते--वे असुर; क्ष्वेलितैः--परिहास करने से; तस्या: --मोहिनी-मूर्ति के; आश्वस्त--कृतज्ञ, विश्वास युक्त; मनसः --मनों से; असुरा:--सारे असुर; जहसु:--हँस पड़े; भाव-गम्भीरम्--यद्यपि मोहिनी-मूर्ति गम्भीर थी; ददुः--दे दिया; च-- भी; अमृत-भाजनम्--अमृत का पात्र
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : मोहिनी-मूर्ति के परिहासपूर्ण शब्द सुनकर सारे असुरअत्यधिक आश्वस्त हुए |
वे गम्भीर रूप से हँस पड़े और अन्ततः उन्होंने वह अमृत घट उसके हाथोंमें थमा दिया |
ततो गृहीत्वामृतभाजनं हरि-बैभाष ईषत्स्मितशोभया गिरा |
यद्यभ्युपेत॑ कब च साध्वसाधु वाकृतं मया वो विभजे सुधामिमाम् ॥
१२॥
ततः--तत्पश्चात्; गृहीत्वा--लेकर; अमृत-भाजनम्--अमृत-पात्र को; हरिः--मोहिनी के रूप में हरि ने; बभाष--कहा;ईषत्--कुछ-कुछ; स्मित-शोभया गिरा--हँसती अदा से तथा शब्दों से; यदि--यदि; अभ्युपेतम्--स्वीकार करने का वचन;क््व च--जो भी हो; साधु असाधु वा--अच्छा या बुरा; कृतम् मया--मेरे द्वारा किया गया; व: --तुम्हारे लिए; विभजे--तुम्हेंसमुचित भाग प्रदान करूँगी; सुधाम्--अमृत को; इमामू--इस |
तत्पश्चात् अमृत घट को अपने हाथ में लेकर भगवान् थोड़ा मुस्काये और फिर आकर्षकशब्दों में बोले |
उस मोहिनी-मूर्ति ने कहा : मेरे प्रिय असुरो! मैं जो कुछ भी करूँ, चाहे वह खराहो या खोटा, यदि तुम उसे स्वीकार करो तब मैं इस अमृत को तुम लोगों में बाँटने का उत्तरदायित्व ले सकती हूँ |
इत्यभिव्याहतं तस्या आकर्ण्यासुरपुड्रवा: |
अप्रमाणविदस्तस्यास्तत्तथेत्यन्वमंसत ॥
१३॥
इति--इस प्रकार; अभिव्याहतम्--कहे गये शब्द; तस्या:--उसके ; आकर्ण्य--सुनकर; असुर-पुड्रवा: --असुरों में प्रधान;अप्रमाण-विदः--चूँकि वे सभी मूर्ख थे; तस्या:--उसका; तत्--वे वचन; तथा--ऐसा ही हो; इति--इस प्रकार; अन्वमंसत--स्वीकार करने के लिए राजी हो गये |
असुरों के प्रधान निर्णय लेने में अधिक पटु नहीं थे |
अतएव मोहिनी मूर्ति के मधुर शब्दों कोसुनकर उन्होंने तुरन्त हामी भर दी और कहा ‘हाँ, आपने जो कहा है, वह बिल्कुल ठीक है |
'इस तरह असुर उसका निर्णय स्वीकार करने के लिए राजी हो गए |
अथोपोष्य कृतस्नाना हुत्वा च हविषानलम् |
दत्त्वा गोविप्रभूते भ्य: कृतस्वस्त्ययना द्विजै: ॥
१४॥
यथोपजोषं वासांसि परिधायाहतानि ते |
कुशेषु प्राविशन्सर प्रागग्रेष्वभिभूषिता: ॥
१५॥
अथ--तत्पश्चात्; उपोष्य--उपवास रखकर; कृत-स्नाना:--स्नान करके; हुत्वा--आहुति डालकर; च--भी; हविषा--घी से;अनलमू--अगिन में; दत्त्ता--दान देकर; गो-विप्र-भूते भ्य: --गायों, ब्राह्मणों तथा समस्त जीवों को; कृत-स्वस्त्ययना:--विधि-विधान सम्पन्न करके; द्विजै:ः--ब्राह्मणों के द्वारा निश्चित; यथा-उपजोषम्-- अपनी रुचि के अनुसार; वासांसि--वस्त्र;'परिधाय--पहन कर; आहतानि--उत्तम तथा नवीन; ते--वे सब; कुशेषु--कुश से बने आसनों पर; प्राविशन्--बैठकर; सर्वे--सभी; प्राक््-अग्रेषु--पूर्व की ओर मुख करके; अभिभूषिता:--ठीक से आभूषणों से अलंकृत होकर
तब असुरों तथा देवताओं ने उपवास किया |
स्नान करने के बाद उन्होंने अग्नि में घी कीआहुतियाँ डाली और गायों, ब्राह्मणों तथा समाज के अन्य वर्णो--श्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों--को उनकी पात्रता के अनुसार दान दिया |
तत्पश्चात् असुरों तथा देवों ने ब्राह्मणों के निर्देशानुसारअनुष्ठान सम्पन्न किये |
तब अपनी रुचि के अनुसार नये वस्त्र धारण किये, आभूषणों से अपने-अपने शरीरों को अलंकृत किया और वे पूर्व-दिशा की ओर मुख करके कुशासनों पर बैठ गये |
प्राड्मुखेषूपविष्टेषु सुरेषु दितिजेषु च |
धूपामोदितशालायां जुष्टायां माल्यदीपकै: ॥
१६॥
तस्यां नरेन्द्र करभोरुरुशहुकूल-श्रोणीतटालसगतिर्मदविह्ललाक्षी |
सा कूजती कनकनूपुरशिज्ितेनकुम्भस्तनी कलसपाणिरथाविवेश ॥
१७॥
प्राकू-मुखेषु--पूर्व की ओर मुँह किये; उपविष्टेषु--अपने-अपने आसनों पर बैठे; सुरेषु--सारे देवताओं में; दिति-जेषु--असुरोंमें; च-- भी; धूप-आमोदित-शालायाम्--रंगभूमि ( सभा-मंडप ) जो धूप के धुएँ से पूर्ण थी; जुष्टायाम्--पूर्णतया सजी हुई;माल्य-दीपकै:--फूलों की मालाओं तथा दीपकों से; तस्याम्--उस रंगभूमि ( सभा-मंडप ) में; नर-इन्द्र--हे राजा; करभ-ऊरुः--हाथी के सूँडों सहश जाँघों वाली; उशत्-दुकूल--अत्यन्त सुन्दर साड़ी पहने; श्रोणी-तट--गुरु नितम्बों के कारण;अलस-गतिः--धीरे-धीरे पग रखती; मद-विह्॒ल-अक्षी--जिसकी आँखें युवावस्था के गर्व से बेचैन थीं; सा--वह; कूजती--झंकार करती; कनक-नूपुर--सोने के पायल; शिक्लितेन-- ध्वनि करती; कुम्भ-स्तनी--जल के घट सहृश स्तनों वाली; कलस-पाणि:--हाथ में जल का पात्र लिए; अथ--इस प्रकार; आविवेश--रंगभूमि में प्रविष्ट हुई
हे राजा! ज्यों ही देवता तथा असुर पूर्व दिशा में मुख करके उस सभा-मण्डप में बैठ गये जो'फूल मालाओं तथा बत्तियों से पूर्णतया सजाया गया था और धूप के धुएँ से सुगन्धित हो गयाथा, उसी समय अत्यन्त सुन्दर साड़ी पहने, पायलों की झनकार करती उस स्त्री ने अत्यन्त गुरुनितम्बों के कारण मन्द गति से चलते हुए उस सभा-मण्डप में प्रवेश किया |
उसकी आँखेंयुवावस्था के मद से विहल थीं; उसके स्तन जल से पूर्ण घटों के समान थे; उसकी जाँघें हाथीकी सूँड़ जैसी दिखती थीं और वह अपने हाथ में अमृत-पात्र लिए हुए थी |
तां श्रीसखीं कनककुण्डलचारुकर्ण-नासाकपोलवदनां परदेवताख्याम् |
संवीक्ष्य सम्मुमुहुरुत्स्मितवी क्षणेनदेवासुरा विगलितस्तनपट्टिकान्ताम् ॥
१८॥
तामू--उस; श्री-सखीम्--लक्ष्मी की सखी के समान लगने वाली; कनक-कुण्डल--सुनहले कुण्डलों से युक्त; चारु--अत्यधिक सुन्दर; कर्ण--कान; नासा--नाक; कपोल--गाल; वदनाम्--मुख; पर-देवता-आख्याम्--उस रूप में प्रकटभगवान् को; संवीक्ष्य--उसकी ओर देखकर; सम्मुमुहुः --सारे मोहित हो गये; उत्स्मित--कुछ-कुछ मुस्काते; वीक्षणेन--दृष्टि डालते हुए; देव-असुरा:--सारे देवता तथा असुर; विगलित-स्तन-पट्टिक-अन्ताम्--साड़ी का किनारा स्तनों से खिसक रहाथा |
उसकी आकर्षक नाक तथा गालों और सुनहले कुण्डलों से विभूषित कानों ने उसकेमुखमण्डल को अतीव सुन्दर बना दिया था |
जब वह चलती थी उसकी साड़ी का किनारा उसकेस्तनों से खिसक रहा था |
जब देवताओं तथा असुरों ने मोहिनी-मूर्ति के इन सुन्दर अंगों को देखातो वे सब पूरी तरह मोहित हो गये क्योंकि वह उनको तिरछी नजर से देख-देख कर कुछ कुछमुस्काती जा रही थी |
असुराणां सुधादानं सर्पाणामिव दुर्नयम् |
मत्वा जातिनृशंसानां न तां व्यभजदच्युत: ॥
१९॥
असुराणाम्--असुरों का; सुधा-दानम्--अमृत देना; सर्पाणाम्--साँपों का; इब--सहश; दुर्नयम्--गलत अनुमान; मत्वा--इसप्रकार सोचकर; जाति-नृशंसानाम्--प्रकृति से अत्यधिक ईष्यालुओं का; न--नहीं; ताम्ू--अमृत को; व्यभजत्--भाग दे दिया;अच्युत:--अच्युत भगवान् ने |
असुर स्वभाव से सर्पों के समान कुटिल होते हैं |
अतएव उन्हें अमृत में से हिस्सा देना तनिकभी सम्भव नहीं था क्योंकि यह सर्प को दूध पिलाने के समान घातक होता |
यह सोचकर अच्युतभगवान् ने असुरों को अमृत में हिस्सा नहीं दिया |
कल्पयित्वा पृथक्पड्भीरु भयेषां जगत्पति: |
तांश्रोपवेशयामास स्वेषु स्वेषु च पड्िषु ॥
२०॥
'कल्पयित्वा--व्यवस्था करके; पृथक् पड्ढडी:--अलग-अलग पंक्तियाँ; उभयेषाम्--देवता तथा असुर दोनों की; जगत्ू-पति:--ब्रह्माण्ड के स्वामी ने; तान्ू--उन सबों को; च--तथा; उपवेशयाम् आस--बैठा दिया; स्वेषु स्वेषु-- अपने-अपने स्थानों पर;च-भी; पड़ि षु--पंक्तियों में |
मोहिनी-मूर्ति रूपी ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान् ने देवताओं तथा असुरों को बैठने के लिएअलग-अलग पंक्तियों की व्यवस्था कर दी और उन्हें अपने-अपने पद के अनुसार बैठा दिया |
दैत्यान्यूहीतकलसो वज्जयन्नुपसञ्ञरैः |
दूरस्थान्पाययामास जरामृत्युहरां सुधाम्ू ॥
२१॥
दैत्यान्ू-- असुरों को; गृहीत-कलसः--अमृत का घट पकड़े भगवान् ने; वज्ञयन्--ठगते हुए; उपसजञ्ञरैः--मीठे बचनों से; दूर-स्थान्--देवता, जो दूर बैठे थे; पाययाम् आस--पिलाया; जरा-पमृत्यु-हराम्--अशक्तता, बुढ़ापा तथा मृत्यु को हरने वाले;सुधाम्--ऐसे अमृत को
अपने हाथों में अमृत का कलश लिये वह सर्वप्रथम असुरों के निकट आई और उसने अपनीमधुर वाणी से उन्हें सन्तुष्ट किया और इस तरह उनके अमृत के भाग से उन्हें वंचित कर दिया |
तब उसने दूरी पर बैठे देवताओं को अमृत पिला दिया जिससे वे अशक्तता, बुढ़ापा तथा मृत्यु सेमुक्त हो सकें |
ते पालयन्त: समयमसुरा: स्वकृतं नूप |
तृष्णीमासन्कृतस्नेहा: स्त्रीविवादजुगुप्सया ॥
२२॥
ते--वे; पालयन्तः--बनाये हुए; समयम्--सन्तुलन; असुरा:--असुरगण; स्व-कृतम्--स्वनिर्मित; नूप--हे राजा; तृष्णीम्आसनू--मौन रहे; कृत-स्नेहा:--मोहिनी-मूर्ति के प्रति आसक्ति उत्पन्न होने से; स्त्री-विवाद--स्त्री से मतभेद रखते हुए;जुगुप्सया--ऐसे कृत्य को गर्हित समझते हुए |
हे राजा! चूँकि असुरों ने वचन दिया था कि वह स्त्री जो कुछ भी करेगी, चाहे न्यायपूर्ण होया अन्याय-पूर्ण, उसे वे स्वीकार करेंगे, अतएवं अब अपना वचन रखने, अपना सन्तुलन दिखानेतथा स्त्री से झगड़ा करने से बचने के लिए वे मौन रहे |
तस्यां कृतातिप्रणया: प्रणयापायकातरा: |
बहुमानेन चाबद्धा नोचु: किझ्जन विप्रियम् ॥
२३॥
तस्यामू--मोहिनी-मूर्ति की; कृत-अति-प्रणया: --घनिष्ठ मैत्री होने से; प्रणय-अपाय-कातरा:--इस भय से भयभीत कि उसकेसाथ उनकी मैत्री कहीं टूट न जाये; बहु-मानेन--अत्यधिक सम्मान तथा आदर के साथ; च--भी; आबद्धा:--उससे अत्यधिकआसक्त होकर; न--नहीं; ऊचु:--उन्होंने कहा; किज्लन--कुछ भी नहीं; विप्रियम्ू--जिससे मोहिनी-मूर्ति उनसे अप्रसन्न होजाये
असुरों को मोहिनी-मूर्ति से प्रेम तथा एक प्रकार का विश्वास हो गया था और उन्हें भय थाकि उनके सम्बन्ध कहीं डगमगा न जाएँ |
अतएव उन्होंने उसके वचनों का आदर-सम्मान कियाऔर ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिससे उसके साथ उनकी मित्रता में बाधा पड़े |
तदेवलिडुप्रतिच्छन्न: स्वर्भानुर्देवसंसदि |
प्रविष्ट: सोममपिबच्चन्द्रार्का भ्यां च सूचित: ॥
२४॥
देव-लिड्ड-प्रतिच्छन्न:--देवता के वस्त्र से अपने को आच्छादित करके; स्वर्भानु:--राहु ने ( जो सूर्य तथा चन्द्रमा पर आक्रमणकरके उन्हें ग्रस लेता है ); देव-संसदि--देवताओं के समूह में; प्रविष्ट:--घुस करके; सोमम्--अमृत; अपिबत्--पी लिया;अन्द्र-अर्का भ्याम्--चन्द्रमा तथा सूर्य दोनों के द्वारा; च--तथा; सूचित:--बतलाये जाने पर |
सूर्य तथा चन्द्रमा को ग्रसने वाला असुर राहु अपने आपको देवता के बस्त्र से आच्छादित करके देवताओं के समूह में प्रविष्ट हो गया और किसी के द्वारा, यहाँ तक कि भगवान् के द्वाराभी, जाने बिना अमृत पीने लगा |
किन्तु चन्द्रमा तथा सूर्य, राहु से स्थायी शत्रुता के कारण,स्थिति को भांप गये |
इस तरह राहु पहचान लिया गया |
चक्रेण क्षुरधारेण जहार पिबत: शिरः |
हरिस्तस्य कबन्धस्तु सुधयाप्लावितोपतत् ॥
२५॥
चक्रेण--चक्र से; क्षुर-धारेण--छुरे जैसा तेज; जहार--काट दिया; पिबत:ः--अमृत पीते हुए; शिर:ः--सिर; हरिः-- भगवान् ने;तस्य--राहु का; कबन्ध: तु--किन्तु शिरविहीन शरीर; सुधया--अमृत के द्वारा; अप्लावित:--स्पर्श न होने से; अपतत्--मृतहोकर गिर पड़ा |
भगवान् हरि ने छुरे के समान तेज धार वाले अपने चक्र को चला कर तुरन्त ही राहु का सिरछिन्न कर दिया |
जब राहु का सिर उसके शरीर से कट गया तो वह शरीर अमृत का स्पर्श न करनेके कारण जीवित नहीं रह पाया |
शिरस्त्वमरतां नीतमजो ग्रहमचीक़रिपत् |
यस्तु पर्वणि चन्द्रार्कावभिधावति वैरधी: ॥
२६॥
शिरः--सिर; तु--निस्सन्देह; अमरताम्--अमरता; नीतम्--प्राप्त करके; अज:ः--ब्रह्माजी; ग्रहम्--एक ग्रह के रूप में;अचीक़िपत्--पहचान लिया; य: --वही राहु; तु--निस्सन्देह; पर्वणि--पूर्णिमा तथा अमावस्या में; चन्द्र-अकौं--चन्द्रमा तथासूर्य दोनों का; अभिधावति-- पीछा करता है; वैर-धी:--शत्रुता के कारण
किन्तु अमृत का स्पर्श करने के कारण राहु का सिर अमर हो गया |
इस प्रकार ब्रह्माजी नेराहु के सिर को एक ग्रह ( लोक ) के रूप में मान लिया |
चूँकि राहु सूर्य तथा चन्द्रमा का शाश्वतवबैरी है, अतः वह पूर्णिमा तथा अमावस्या की रात्रियों में उन पर सदैव आक्रमण करने का प्रयत्तकरता है |
पीतप्रायेमृते देवैर्भगवान्लोकभावन: |
पश्यतामसुरेन्द्राणां स्व॑ं रूपं जगृहे हरि: ॥
२७॥
पीत-प्राये--जब पीना लगभग समाप्त हो गया; अमृते--अमृत का; देवैः--देवताओं द्वारा; भगवान्--मोहिनी-मूर्ति के रूप मेंभगवान्; लोक-भावन:--तीनों लोकों के पालक तथा शुभचिन्तक; पश्यताम्ू--देखते-देखते; असुर-इन्द्राणाम्-- अपनेसेनापतियों सहित सारे असुरों के; स्वम्--अपने; रूपम्ू--रूप को; जगृहे--प्रकट किया; हरि:-- भगवान् ने |
भगवान् तीनों लोकों के सर्वश्रेष्ठ मित्र तथा शुभचिन्तक हैं |
इस तरह जब देवताओं ने अमृतपीना प्रायः समाप्त किया तब भगवान् ने समस्त असुरों के समक्ष अपना वास्तविक रूप प्रकटकर दिया |
एवं सुरासुरगणा: समदेशकाल-हेत्वर्थकर्ममतयोपि फले विकल्पा: |
तत्रामृतं सुरगणा: फलमञ्जसापु-्॑त्पादपड्डजूजरज: श्रयणान्र दैत्या: ॥
२८॥
एवम्--इस प्रकार; सुर--देवता; असुर-गणा: --तथा असुर; सम--समान; देश--स्थान; काल--समय; हेतु--कारण;अर्थ--उद्देश्य; कर्म--कर्म; मतय:--अभिलाषा; अपि--यद्यपि एक; फले--फल में; विकल्पा:--समान नहीं; तत्र--वहाँ पर;अमृतम्-- अमृत; सुर-गणा:--देवता; फलम्--फल; अद्धसा--आसानी से, पूरी तरह, प्रत्यक्षतः; आपु:--प्राप्त; यत्--जिससे;पाद-पड्लूज-- भगवान् के चरणकमलों की; रज:--केसर की धूलि; श्रयणात्--आश्रय ग्रहण करने या वर प्राप्त करने से; न--नहीं; दैत्या:--असुरगण |
यद्यपि देवताओं तथा असुरों के देश, काल, कारण, उद्देश्य, कर्म तथा अभिलाषा एक-जैसेथे, किन्तु देवताओं को एक प्रकार का फल मिला और असुरों को दूसरे प्रकार का |
चूँकि देवतासदैव भगवान् के चरणकमलों की धूलि की शरण में रहते हैं अतएव वे बड़ी आसानी से अमृतपी सके और उसका फल भी पा सके |
किन्तु भगवान् के चरणकमलों का आश्रय न ग्रहण करनेके कारण असुर मनवांछित फल प्राप्त करने में असमर्थ रहे |
यद्युज्यते उसुवसुकर्ममनोवचोभि-देंहात्मजादिषु नृभिस्तदसत्पृथक्त्वात् |
तैरेव सद्धवति यत्क्रियतेपृथक्त्वात्सर्वस्य तद्धभवति मूलनिषेचनं यत् ॥
२९॥
यतू--जो भी; युज्यते--सम्पन्न किया जाता है; असु--जीवन की रक्षा के लिए; वसु--सम्पत्ति की रक्षा; कर्म--कर्म; मन:--मन के कार्यो से; वचोभि:--शाब्दिक कार्यों से; देह-आत्म-ज-आदिषु-- अपने शरीर या परिवार के लिए; नृभि: --मनुष्यों केद्वारा; तत्-वह; असतू--क्षणभंगुर; पृथक्त्वातू-- भगवान् से वियोग के कारण; तैः--उन्हीं कार्यो के द्वारा; एब--निस्सन्देह;सत् भवति--वास्तविक तथा स्थायी बनता है; यत्--जो; क्रियते--सम्पन्न किया जाता है; अपृथक्त्वात्-वियोग न होने से;सर्वस्य--हर एक के लिए; तत् भवति--लाभप्रद बन जाता है; मूल-निषेचनम्--वृक्ष की जड़ को सींचने की तरह; यत्ू--जो |
मानव समाज में मनुष्य की सम्पत्ति तथा उसके जीवन की सुरक्षा के लिएमनसावाचाकर्मणा विविध कार्य किये जाते हैं, किन्तु ये सब कार्य शरीर के लिए या इन्द्रियतृप्तिके लिए ही किये जाते हैं |
ये सारे कार्यकलाप भक्ति से पृथक् होने के कारण निराशाजनक होतेहैं |
किन्तु जब ये ही कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के लिए किये जाते हैं, तो उनके लाभकारी'फल सब में बाँट दिए जाते हैं जिस तरह वृक्ष की जड़ में पानी डालने से वह समूचे वृजक्ष मेंवितरित हो जाता है |
अध्याय दस: देवताओं और राक्षसों के बीच लड़ाई
8.10श्रीशुक उबाचइति दानवदैतेया नाविन्दन्नमृतं नृप |
युक्ता: कर्मणि यत्ताश्च वासुदेवपराड्मुखा: ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; दानव-दैतेया:--असुरों तथा दैत्यों ने; न--नहीं;अविन्दनू--वांछित फल प्राप्त किया; अमृतम्--अमृत; नृप--हे राजा; युक्ता:--सभी मिलकर; कर्मणि--मन्थन में; यत्ता: --पूर्ण मनोयोग से लगे हुए; च--तथा; वासुदेव-- भगवान् कृष्ण के; पराड्मुखा:--अभक्त होने के कारण |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! यद्यपि असुर तथा दैत्य पूरे मनोयोग तथा श्रम के साथसमुद्र-मन्थन में लगे थे, किन्तु भगवान् वासुदेव के भक्त न होने के कारण वे अमृत नहीं पीसके |
साधयित्वामृतं राजन्पाययित्वा स्वकान्सुरान् |
पश्यतां सर्वभूतानां ययौ गरूडवाहन: ॥
२॥
साधयित्वा--सम्पन्न करके; अमृतम्--अमृत की उत्पत्ति; राजन्ू--हे राजा; पाययित्वा--तथा पिलाकर; स्वकान्--अपने भक्तों;सुरानू--देवताओं को; पश्यताम्--उपस्थिति में; सर्व-भूतानाम्--सारे जीवों की; ययौ--चले गये; गरूड-वाहन:--गरुड़ द्वाराले जाये जाने वाले भगवान् |
हे राजा! समुद्र-मन्थन का कार्य पूरा कर लेने तथा अपने प्रिय भक्त देवताओं को अमृतपिला लेने के बाद भगवान् ने उन सबके देखते-देखते वहाँ से विदा ली और गरुड़ पर चढ़करअपने धाम चले गये |
सपलानां परामृद्धि दृष्ठा ते दितिनन्दना: |
अमृष्यमाणा उत्प्पेतुर्देवाग्प्रत्युद्यतायुधा: ॥
३॥
सपत्नानाम्--अपने प्रतिद्वन्द्रियों अर्थात् देवताओं का; पराम्--सर्व श्रेष्ठ; ऋद्धिम्--ऐश्वर्य; दृघ्ठा--देखकर; ते--वे सब; दिति-नन्दना:--दिति के पुत्र, दैत्यगण; अमृष्यमाणा:--न सह सकने के कारण; उत्पेतु:--दौड़े ( उपद्रव मचाने के लिए ); देवान्--देवताओं की ओर; प्रत्युद्यत-आयुधा:--अपने हथियार उठाकर |
देवताओं की विजय देखकर असुरगण उनके श्रेष्ठतर ऐश्वर्य को सहन न कर सके |
अतः वेअपने-अपने हथियार उठाकर देवताओं की ओर दौड़ पड़े |
ततः सुरगणा: सर्वे सुधया पीतयैधिता: |
प्रतिसंयुयुधु: शस्त्रेनारायणपदा श्रया: ॥
४॥
ततः--तत्पश्चात्; सुर-गणा:--देवता; सर्वे--सभी; सुधया-- अमृत से; पीतया--पिया हुआ; एधिता:--ऐसे पीने से उत्तेजितहोकर; प्रतिसंयुयुधु:--उन्होंने असुरों पर जवाबी हमला किया; शस्त्रैः--शस्त्रों के द्वारा; नारायण-पद-आश्रया:--उनका असलीहथियार नारायण के चरणकमलों की शरण था |
तत्पश्चात् अमृत पीने से उत्तेजित देवताओं ने जो सदैव नारायण के चरणकमलों की शरण मेंरहते हैं असुरों पर प्रत्याक्रमण करने के लिए युद्ध की मनोवृत्ति से अपने विविध हथियारों काप्रयोग किया |
तत्र दैवासुरो नाम रण: परमदारुणः |
रोधस्युदन्वतो राजं॑स्तुमुलो रोमहर्षण: ॥
५॥
तत्र--वहाँ ( क्षीरसागर के तट पर ); दैव--देवता; असुरः--असुर; नाम--नाम से; रण:--युद्ध; परम--अत्यन्त; दारुण:--भयानक; रोधसि--तट पर; उदन्वत:--क्षीरसागर के; राजनू--हे राजा; तुमुलः--कोलाहलपूर्ण; रोम-हर्षण: --शरीर के रोएँखड़े हुए
हे राजा! देवताओं तथा असुरों के मध्य क्षीरसागर के तट पर घमासान युद्ध शुरु हो गया |
यह युद्ध इतना भयंकर था कि इसके विषय में सुनने से ही शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं |
तत्रान्योन्यं सपत्नास्ते संरब्धमनसो रणे |
समासाद्यासिभिर्बाणर्निजछ्नुर्विविधायुधै: ॥
६॥
तत्र--तत्पश्चात्; अन्योन्यम्--एक दूसरे से; सपला:--सभी लड़ाकू बनकर; ते--वे; संरब्ध--अत्यन्त क्रुद्ध; मनस:--मन से;रणे--युद्ध में; समासाद्य--परस्पर लड़ने का अवसर पाकर; असिभि:--तलवार से; बाणै: --बाणों से; निजघ्नु: --एक दूसरेको मारने लगे; विविध-आयुधै: --विभिन्न प्रकार के हथियारों से |
उस युद्ध में दोनों ही दल मन ही मन अत्यन्त क्रुद्ध थे |
वे शत्रुतावश एक दूसरे पर तलवारों,बाणों तथा अन्य विविध हथियारों से प्रहार करने लगे |
शड्डुतूर्यमृदड़ानां भेरीडमरिणां महान् |
हस्त्यश्वरथपत्तीनां नद॒तां निस्वनोभवत् ॥
७॥
शब्डु--शंखों का; तूर्य--बड़ी तुरहियों का; मृदज्ञनाम्ू--तथा ढोलों का; भेरीडमरिणाम्--भेरियों तथा डमरियों का; महान्--अत्यन्त कोलाहलपूर्ण; हस्ति--हाथियों का; अश्व--घोड़ों का; रथ-पत्तीनामू--रथ पर या भूमि पर लड़ने वालो का; नदताम्--शब्द करते; निस्वन:ः--कोलाहल; अभवत्--हुआ
शंखों, तुरहियों, ढोलों, भेरियों तथा डमरियों की आवाजों के साथ ही हाथियों, घोड़ों तथारथ पर चढ़े और पैदल सिपाहियों से निकली ध्वनियों से कोलाहल मच गया |
रथिनो रथिभिस्तत्र पत्तिभि: सह पत्तय: |
हया हयैरिभाश्चेभे: समसज्जन्त संयुगे ॥
८॥
रथिनः--रथ पर आरूढ़; रथिभि:--शत्रुपक्ष के रथ पर आरूढ़ सैनिकों से; तत्र--युद्धस्थल में; पत्तिभि:--पैदल सेना के;सह--साथ; पत्तय:--शत्रुओं की पैदल सेना; हया:--धोड़े; हयैः--घुड़सवार शत्रु सैनिकों से; इभाः:--हाथी पर चढ़े सैनिक;च--तथा; इभेः--हाथी पर सवार शत्रु-सैनिकों से; समसज्जन्त--समान स्तर पर एक दूसरे से लड़ने लगे, भिड़ गये; संयुगे--युद्धस्थल में |
उस युद्धभूमि में रथी अपने विपक्षी रथियों से, पैदल सेना विपक्षी पैदल सेना से, अश्वारोहीविपक्षी अश्वारोहियों से तथा हाथी पर सवार सैनिक विपक्षी हाथी पर सवार सैनिकों से भिड़गये |
इस प्रकार समान पक्षों में युद्ध होने लगा |
जले: केचिदिभे: केचिदपरे युयुधु: खरे: |
केचिद्गौरमुखेर्क्षेद्वीपिभिहरिभिर्भटा: ॥
९॥
उट्लने:--ऊँट की पीठ पर; केचित्--कुछ व्यक्ति; इभैः--हाथी की पीठ पर; केचित्--कुछ व्यक्ति; अपरे-- अन्य; युयुधुः--युद्धमें लगे हुए; खरैः--गधों की पीठ पर; केचित्--कुछ व्यक्ति; गौर-मुखैः--सफेद मुँह वाले बन्दरों पर; ऋक्षैः--लाल मुँह वालेबन्दरों ( रीछों ) पर; द्वीपिभि: --बाघों की पीठ पर; हरिभि:--सिंहों की पीठ पर; भटा:--सारे सैनिक |
कुछ सैनिक ऊँटों पर, कुछ हाथियों पर, कुछ गधों पर, कुछ सफेद मुँह वाले और लाल मुँहवाले बन्दरों पर, कुछ बाघों पर और कुछ सिंहों पर सवार होकर लड़ने लगे |
इस प्रकार वे सबयुद्ध में लगे थे |
गृश्चे: कड्ढै बंकैरन्ये श्येनभासैस्तिमिड्रिलैः |
शरभेर्महिषै: खड्गैगगोवृषैर्गवयारुणै; ॥
१०॥
शिवाभिराखुभि: केचित्कूकलासै: शशैनरै: |
बस्तैरेके कृष्णसारैहसैरन्ये च सूकरै: ॥
११॥
अन्ये जलस्थलखगै: सत्त्वैर्विकृतविग्रहैः |
सेनयोरुभयो राजन्विविशुस्तेग्रतोग्रतः ॥
१२॥
गृश्चै:--गीधों की पीठ पर; कड्ढै :--चील्हों की पीठ पर; बकैः--बगुलों की पीठ पर; अन्ये--अन्य लोग; श्येन--बाजों कीपीठ पर; भासैः--भास की पीठ पर; तिमिड्डिलैः--तिमिड्रिल नामक बड़ी मछली की पीठ पर; शरभे:--शरभों की पीठ पर;महिषैः--भैंसे की पीठ पर; खड़्गैः--गैंडे की पीठ पर; गो--गायों की पीठ पर; वृषै:--बैलों की पीठ पर; गवय-अरुणै:--गवयों तथा अरुणों की पीठ पर; शिवाभि:--सियारों की पीठ पर; आखुभि: --बड़े चूहों की पीठ पर; केचित्ू--कुछ लोग;कृकलासै:--बड़ी छिपकलियों पर; शशैः--खरहों की पीठ पर; नरैः--मनुष्यों की पीठ पर; बस्तैः--बकरों की पीठ पर;एके--कुछ; कृष्ण-सारैः--काले हिरनों की पीठ पर; हंसैः--हंसों की पीठ पर; अन्ये--अन्य; च-- भी; सूकरैः--सुअरों कीपीठ पर; अन्ये-- अन्य; जल-स्थल-खगै:--जल, स्थल तथा आकाश में चलने वाले पशुओं से; सत्त्वै:--वाहन के रूप मेंप्रयुक्त प्राणियों से; विकृत--विरूपित हैं; विग्रहैः--ऐसे पशुओं द्वारा जिनके शरीर; सेनयो:--दोनों पक्षो के सैनिकों के;उभयो:--दोनों के; राजन्--हे राजा; विविशु: --प्रवेश किया; ते--वे सभी; अग्रतः अग्रतः--आमने-सामने जाते हुए
हे राजा! कुछ सैनिक गीधों, चील्हों, बगुलों, बाजों तथा भास पक्षियों की पीठ पर बैठकरलड़े |
कुछ ने विशाल मत्स्यों (तिमि ) को भी निगलने वाली तिमिंगलों की पीठ पर, कुछ नेसरभों की पीठ पर तो कुछ ने भेंसों, गैंडों, गायों, बैलों, बनगायों तथा अरुणों की पीठ परसवार होकर युद्ध किया |
अन्य लोगों ने सियारों, चूहों, छिषकलियों, खरहों, मनुष्यों, बकरों,काले हिरनों, हंसों तथा सुअरों की पीठ कर बैठकर युद्ध किया |
इस प्रकार जल, स्थल तथाआकाश के पशुओं की पीठ पर, जिनमें विकृत शरीर वाले पशु भी थे, बैठी दोनों सेनाएँआमने-सामने होकर आगे बढ़ रही थीं |
चित्रध्वजपटै राजन्नातपत्रे: सितामलै: |
महाधरनेर्वज़दण्डैव्यजनैर्बाहचामरै: ॥
१३॥
वातोद्धूतोत्तरोष्णीषैरचिं्िवर्मभूषणै: |
स्फुरद्धिर्विशदैः शस्त्रे: सुतरां सूर्यरश्मिभि: ॥
१४॥
देवदानववीराणां ध्वजिन्यौ पाण्डुनन्दन |
रेजतुर्वीरमालाभिय्यादसामिव सागरौ ॥
१५॥
चित्र-ध्वज-पटै: --सुन्दर सजे झंडों तथा तम्बुओं से; राजन्ू--हे राजा; आतपत्रैः -- धूप से बचने के लिए छातों से; सित-अमलै:--अत्यन्त स्वच्छ तथा श्वेत; महा-धनैः--अत्यन्त मूल्यवान; वज्-दण्डै:--रत्नों तथा मोतियों से बने दण्डों से; व्यजनै: --पंखों से; बाह-चामरैः--मोर पंखों से बने पंखों से; वात-उद्धृत--हवा से उड़ते; उत्तर-उष्णीषै:--ऊपरी तथा निचले वत्त्रों से;अर्चिर्भि: -- तेज से; वर्म-भूषणैः --गहनों तथा ढालों से; स्फुरद्धिः--चमकते; विशदैः--तेज तथा स्वच्छ; शस्त्रै:--हथियारों से;सुतराम्--अत्यधिक; सूर्य-रश्मिभि: --सूर्य की चमचमाती किरणों से; देब-दानव-वीराणाम्--देवताओं और दानवों के दलों केसारे वीरों का; ध्वजिन्यौ--अपना-अपना झंडा लिए दोनों दलों के सैनिक; पाण्डु-नन्दन--हे महाराज पाण्डु के वंशज;रेजतु:--चमके; वीर-मालाभि: --वीरों द्वारा पहनी गई मालाओं से; यादसाम्--जलचरों के; इब--सहृश; सागरौ--दोनोंसमुद्र |
हे राजा! हे महाराज पाण्डु के वंशज! देवता तथा असुर दोनों ही के सैनिक चँदोवा,रंगबिरंगी झंडियों तथा बहुमूल्य रत्नों एवं मोतियों से बनी मूठ वाले छातों से अलंकृत थे |
वेमोरपंख से बने तथा अन्य पंखों से सुशोभित थे |
ऊपरी तथा अधोवस्त्रों के वायु में लहराने केकारण सैनिक अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे और चमचमाती धूप में उनकी ढालें, उनके गहने तथातीक्ष्ण स्वच्छ हथियार आँखों को चौंधिया रहे थे |
इस तरह सैनिकों की टोलियाँ जलचरों केदलों से युक्त दो सागरों के समान प्रतीत हो रही थीं |
वैरोचनो बलि: सड्ख्ये सोसुराणां चमूपतिः |
यान॑ वैहायसं नाम कामगं मयनिर्मितम् ॥
१६॥
सर्वसाडग्रामिकोपेतं सर्वाश्चर्यमयं प्रभो |
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यं हश्यमानमरदर्शनम् ॥
१७॥
आस्थितस्तद्विमानाछयं सर्वानीकाधिपैर्वृत: |
बालव्यजनछत्राछय रेजे चन्द्र इबोदये ॥
१८॥
वैरोचन:--विरोचन का पुत्र; बलि:--महाराज बलि; सड्ख्ये--युद्ध में; सः--वह, इतना विख्यात; असुराणाम्--असुरों का;चमू-पति:--सेनापति; यानमू--वायुयान; वैहायसम्-- वैहायस; नाम--नामक; काम-गम्--इच्छानुसार कहीं भी उड़ने मेंसमर्थ; मय-निर्मितम्--मय दानव द्वारा बनाया हुआ; सर्व--सारा; साड्ग्रामिक-उपेतम्--सभी तरह के शत्रुओं से लड़ने के लिएसभी प्रकार के आवश्यक हथियारों से युक्त; सर्व-आश्चर्य-मयम्--सभी तरह से आश्चर्यपूर्ण; प्रभो--हे राजा; अप्रतर्क्यम्--वर्णन न किए जाने योग्य; अनिर्देश्यमू--अवर्णनीय; हश्यमानम्--कभी-कभी दृश्य; अदर्शनम्--कभी-कभी अदृश्य;आस्थित:--इस तरह से आसीन; तत्--वह; विमान-अछयम्--सवोत्कृष्ट वायुयान; सर्व--सारा; अनीक-अधिपै:--सैनिकों केनायकों द्वारा; वृत:--घिरा; बाल-व्यजन-छत्र-अछयै: --सुन्दर ढंग से सजाये छातों एवं श्रेष्ठ चामरों से सुरक्षित; रेजे--चमकतेहुए स्थित; चन्द्र:--चन्द्रमा; इब--सहृश; उदये--शाम को उदय होते समय |
उस युद्ध के लिए विख्यात सेनापति विरोचन-पुत्र महाराज बलि वैहायस नामक अद्भुतवायुयान पर आसीन थे |
हे राजा! यह सुन्दर ढंग से सजाया गया वायुयान मय दानव द्वारा निर्मितकिया गया था और युद्ध के सभी प्रकार के हथियारों से युक्त था |
यह अचिन्त्य तथा अवर्णनीयथा |
यह कभी दिखता तो कभी नहीं दिखता था |
इस वायुयान में एक सुन्दर छाते के नीचे बैठेतथा सर्वोत्तम चमरों से पंखा झले जाते हुए एवं अपने सेनानायकों से घिरि महाराज बलि इसप्रकार लग रहे थे मानों शाम को चन्द्रमा उदय हो रहा हो और सभी दिशाओं को प्रकाशित कररहा हो |
तस्यासन्सर्वतो यानैर्यूथानां पतयोसुरा: |
नमुचि: शम्बरो बाणो विप्रचित्तिरयोमुख: ॥
१९॥
द्विमूर्धा कालनाभोथ प्रहेतिहेतिरिल्वल: |
शकुनिर्भूतसन्तापो वज्रदंष्टो विरोचन: ॥
२०॥
हयग्रीवः शट्भु शिरा: कपिलो मेघदुन्दुभि: |
तारकश्चक्रदक्शुम्भो निशुम्भो जम्भ उत्कल: ॥
२१॥
अरिष्टोषरिष्टनेमिश्व मयश्च त्रिपुराधिप: |
अन्ये पौलोमकालेया निवातकवचादय: ॥
२२॥
अलब्धभागा: सोमस्य केवलं क्लेशभागिन: |
सर्व एते रणमुखे बहुशो निर्जितामरा: ॥
२३॥
सिंहनादान्विमुद्जन्तः शद्भान्दध्मुर्महारवान् |
इृष्टा सपत्नानुत्सिक्तान्बलभित्कुपितो भूशम् ॥
२४॥
तस्य--उसके ( बलि महाराज के ); आसनू--स्थित; सर्वतः--चारों ओर; यानै:--विभिन्न यानों से; यूथानाम्--सैनिकों के;'पतय:--सेनानायक; असुरा:--असुरगण; नमुचि: --नमुचि; शम्बर: --शम्बर; बाण: -- बाण; विप्रचित्ति: --विप्रचित्ति;अयोमुख: --अयोमुख; द्विमूर्धा--द्विमूर्धा; कालनाभ:--कालनाभ; अथ--भी; प्रहेति: --प्रहेति; हेति:--हेति:; इल्बल:--इल्वल; शकुनि:--शकुनि; भूतसन्ताप: -- भूतसन्ताप; वज्-दंष्ट: --वज़दंष्ट; विरोचन: --विरोचन; हयग्रीव: --हयग्रीव;शट्ढु शिरा:--शंकुशिरा; कपिल:--कपिल; मेघ-दुन्दुभि:ः--मेघदुन्दुभि; तारक:--तारक; चक्रहक्--चक्रहक्; शुम्भ: -- शुम्भ;निशुम्भ: --निशुम्भ; जम्भ: --जम्भ; उत्कल: --उत्कल; अरिष्ट:--अरिष्ट; अरिष्टनेमि: -- अरिष्टनेमि; च--तथा; मय: च--तथामय; त्रिपुराधिप: --त्रिपुराधिप; अन्ये-- अन्य; पौलोम-कालेया:--पुलोम तथा कालेय के पुत्र; निवातकवच-आदय: --निवातकवच तथा अन्य असुर; अलब्ध-भागा: -- भाग लेने में सभी असमर्थ; सोमस्थ--अमृत का; केवलम्--केवल; क्लेश-भागिन:--असुरों ने श्रम का हिस्सा ले लिया; सर्वे--सभी; एते--असुरगण; रण-मुखे--युद्ध के समक्ष; बहुश:--अत्यधिकबल से; निर्जित-अमरा: --देवताओं को अत्यधिक कष्ट पहुँचाने वाले; सिंह-नादान्ू--सिंह जैसी दहाड़े; विमुझ्जन्तः--निकालतेहुए; शझ्जनू--शंखों को; दध्मु:--बजाया; महा-रवान्--घोर ध्वनि करने वाले; हृष्ठटा--देखकर; सपत्नान्--अपने प्रतियोगियोंको; उत्सिक्तानू-- भयानक; बलभित्--शक्ति से भयभीत ( इन्द्र ); कुपित:--क्रुद्ध होकर; भूशम्--अत्यधिक |
महाराज बलि को चारों ओर से असुरों के सेनानायक तथा कप्तान घेरे थे |
वे अपने-अपनेरथों पर सवार थे |
उनमें निम्नलिखित असुर थे--नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख,द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्बल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्जदंछ्र, विरोचन, हयग्रीव,शंकुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक, चक्रहक्, शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट,अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिप, मय, पुलोम के पुत्र कालेय तथा निवातकवच |
ये सारे असुर अमृत केअपने-अपने भाग से वज्ञित रह गये थे; उन्होंने केवल समुद्र-मन्थन का श्रम उठाया था |
अब वेसुरों के विरुद्ध लड़ रहे थे और अपनी सेनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने सिंह-गर्जनाके समान कोलाहल किया और जोर से अपने-अपने शंख बजाये |
बलभित अर्थात् इन्द्रदेव अपनेरक्तपिपास प्रतिद्वन्द्रियों की यह स्थिति देखकर अत्यन्त कुपित हुए |
ऐरावतं दिक्करिणमारूढः शुशुभे स्वराट् |
यथा स्त्रवप्प्रस्नवणमुदयाद्विमहर्पति: ॥
२५॥
ऐराबतम्--ऐरावत पर; दिक्ू-करिणम्--सर्वत्र जा सकने वाले विशाल हाथी; आरूढ:--सवार होकर; शुशुभे--देखने मेंअत्यन्त सुन्दर लगने लगा; स्व-राट्--इन्द्र; यथा--जिस तरह; स्त्रवत्--बहते हुए; प्रस्नवणम्--सुरा की लहरें; उदय-अद्विम्--उदयगिरि पर; अहः-पति:--सूर्य
ऐरावत हाथी पर जो कहीं भी जा सकता है और जो छिड़कने के लिए जल तथा सुरा कोसंचित रखता है, चढ़कर इन्द्र ऐसे लग रहे थे मानो उदयगिरि से जहाँ जल के आगार हैं सूर्यनिकल रहा हो |
तात्पर्य : उदयगिरि पर्वत की चोटी पर अनेक झीलें हैं जहाँ से झरनों के रूप में निरन्तर जल झरतारहता है |
इसी प्रकार इन्द्र का वाहन ऐरावत जल तथा सुरा संचित रखता है और इन्हें इन्द्र की ओर छिड़कता रहता है |
इस प्रकार ऐरावत की पीठ पर बैठे इन्द्र उदयगिरि से ऊपर उठते तेजस्वी सूर्य कीभाँति प्रतीत हो रहे थे |
तस्यासन्सर्वतो देवा नानावाहध्वजायुधा: |
लोकपाला: सहगणैर्वाय्वग्निवरुणादयः ॥
२६॥
तस्य--इन्द्र के; आसन्--स्थित; सर्वतः--चारों ओर; देवा: --सारे देवता; नाना-वाह--तरह-तरह के वाहनों से; ध्वज-आयुधा:--तथा झंडों एवं हथियारों सहित; लोक-पाला:--उच्च लोकों के सारे प्रमुख; सह--साथ; गणै:--अपने-अपने पार्षदोंके साथ; वायु--वायु के अधिष्ठाता देवता; अग्नि--अग्नि के अधिष्ठाता देवता; वरुण--जल के अधिष्ठाता देवता; आदय: --इन्द्र को घेरे हुए सभी |
देवतागण स्वर्ग के राजा इन्द्र को घेरे हुए थे |
वे नाना प्रकार के यानों पर सवार थे और झंडोंतथा आयुधों से सज्जित थे |
उपस्थित देवताओं में वायु, अग्नि, वरुण तथा विभिन्न लोकों केअन्य शासक तथा उनके पार्षद थे |
तेउन्योन्यमभिसंसृत्य क्षिपन्तो मर्मभिर्मिथ: |
आह्यन्तो विशन्तोग्रे युयुधु्द्वन्द्योधिन: ॥
२७॥
ते--वे ( देवता तथा दानव ); अन्योन्यम्--एक दूसरे को; अभिसंसृत्य--आमने-सामने आकर; क्षिपन्त:--एक दूसरे कोप्रताड़ित करते; मर्मभि: मिथ:--एक दूसरे के हृदयों को पीड़ा पहुँचाते; आह्ृयन्तः--एक दूसरे को सम्बोधित करते; विशन्त:ः--युद्धभूमि में प्रवेश करके; अग्रे--सामने; युयुधु:--लड़ाई की; द्वन्द्र-योधिन:--दो-दो प्रतिद्वन्द्दी योद्धा |
देवता तथा दानव एक दूसरे के सम्मुख आ गये और मर्मभेदी बचनों से एक दूसरे कोधिक्कारने लगे |
तब वे निकट आकर जोड़ियों के रूप में आमने-सामने लड़ने लगे |
युयोध बलिरिन्द्रेण तारकेण गुहोस्यत |
वरुणो हेतिनायुध्यन्मित्रो राजन्प्रहेतिना ॥
२८ ॥
युयोध--भिड़ गये; बलि:--महाराज बलि; इन्द्रेण--इन्द्र से; तारकेण--तारक से; गुहः--कार्तिकेय; अस्यत--युद्ध में व्यस्त;वरुण:--वरुण देव; हेतिना--हेति से; अयुध्यत्--एक दूसरे से लड़े; मित्र:--मित्र देवता; राजन्--हे राजा; प्रहेतिना--प्रहेतिसे
हे राजा! महाराज बलि इन्द्र से, कार्तिकेय तारक से, वरुण हेति से तथा मित्र प्रहेति से भिड़गये |
यमस्तु कालनाभेन विश्वकर्मा मयेन वै |
शम्बरो युयुधे त्वष्टा सवित्रा तु विरोचन: ॥
२९॥
यमः--यमराज; तु--निस्सन्देह; कालनाभेन--कालनाभ से; विश्वकर्मा--विश्वकर्मा; मयेन--मय से; बै--निस्सन्देह; शम्बर:--शम्बर ने; युयुधे--युद्ध किया; त्वष्टा--त्वष्टा से; सवित्रा--सूर्यदेव से; तु--निस्सन्देह; विरोचन:--विरोचन असुर ने |
यमराज कालनाभ से, विश्वकर्मा मय दानव से, त्वष्टा शम्बर से तथा सूर्यदेव विरोचन सेलड़ने लगे |
अपराजितेन नमुचिरश्चिनौ वृषपर्वणा |
सूर्यो बलिसुतैर्देवो बाणज्येप्ठै: शतेन च ॥
३०॥
राहुणा च तथा सोम: पुलोम्ना युयुधेडनिलः |
निशुम्भशुम्भयोदेवी भद्रकाली तरस्विनी ॥
३१॥
अपराजितेन--अपराजित देवता से; नमुचिः--नमुचि असुर ने; अश्विनौ--अश्विनी कुमारों ने; वृषपर्वणा--वृषपर्वा दैत्य के साथ;सूर्य:--सूर्य देव ने; बलि-सुतैः--बलि के पुत्रों के साथ; देव:--देवता; बाण--्येष्ठै:--जिनमें बाण प्रमुख है; शतेन--एक सौ;च--तथा; राहुणा--राहु से; च-- भी; तथा--और ; सोम: --चन्द्रदेव ने; पुलोम्ना--पुलोमा के साथ; युयुधे--युद्ध किया;अनिलः--वायु देव; निशुम्भ--निशुम्भ असुर; शुम्भयो: --शुम्भ के साथ; देवी --देवी दुर्गा ने; भद्रकाली-- भद्गरकाली ;तरस्विनी--अत्यन्त शक्तिशाली |
अपराजित देवता ने नमुचि असुर के साथ तथा दोनों अश्विनी कुमारों ने वृषपर्वा के साथयुद्ध किया |
सूर्यदेव महाराज बलि के सौ पुत्रों से भिड़ गये जिनमें बाण प्रमुख था |
चन्द्रदेव नेराहु से लड़ाई की |
वायुदेव ने पुलोमा से तथा शुम्भ और निशुम्भ ने अत्यन्त शक्तिशाली मायाभद्गरकाली नामक दुर्गादिवी से युद्ध किया |
वृषाकपिस्तु जम्भेन महिषेण विभावसु: |
इल्वलः सह वातापिर्त्रह्पुत्रैररिन्दम ॥
३२॥
कामदेवेन दुर्मर्ष उत्तलो मातृभि: सह |
बृहस्पतिश्रोशनसा नरकेण शनैश्चर:ः ॥
३३॥
मरुतो निवातकवचे: कालेयैर्वसवोमरा: |
विश्वेदेवास्तु पौलोमै रुद्रा: क्रोधवशै: सह ॥
३४॥
वृषाकपि:--शिवजी; तु--निस्सन्देह; जम्भेन--जम्भ के साथ; महिषेण--महिषासुर से; विभावसु: --अग्निदेव; इल्बल:--इल्वल असुर; सह वातापि:--उसके भाई वातापि से; ब्रह्म-पुत्रैः --ब्रह्मा के पुत्रों के साथ, यथा वशिष्ठ से; अरिमू-दम--हेशत्रुओं के दमनकर्ता, महाराज परीक्षित; कामदेवेन--कामदेव से; दुर्मर्ष:--दुर्मर्ष; उत्कलः--उत्कल ने; मातृभि: सह--मातृकानामक देवियों के साथ; बृहस्पति:--बृहस्पति देवता ने; च--तथा; उशनसा--शुक्राचार्य से; नरकेण--नरकासुर से;शनैश्वरः--शनि देवता ने; मरुत:--वायु के देवता; निवातकवचै:--निवातकवच असुर से; कालेयै:--कालकेयों से; वसवःअमराः--वसुओं ने युद्ध किया; विश्वेदेवा:--विश्वेदेवों ने; तु--निस्सन्देह; पौलोमैः--पौलोमों के साथ; रुद्रा:--ग्यारह रुद्रों ने;क्रोधवशै: सह--क्रो धवश दानवों के साथ |
हे अरिन्दम महाराज परीक्षित! शिवजी ने जम्भ से तथा विभावसु ने महिषासुर से युद्ध किया |
इल्वल ने, अपने भाई वातापि सहित, ब्रह्मा के पुत्रों से युद्ध किया |
दुर्मर्ष कामदेव से, उत्कलमातृका नामक देवियों से, बृहस्पति शुक्राचार्य से तथा शनैश्चर नरकासुर से युद्ध में भिड़ गए |
मरुत्गण निवातकबच से, वसुओं ने दैत्य कालकेयों से, विश्वेदेवों ने पौलोमों असुरों से तथारुद्रगणों ने क्रुद्ध क्रोधवश असुरों से युद्ध किया |
त एवमाजावसुरा: सुरेन्द्रादन्द्देन संहत्य च युध्यमाना: |
अन्योन्यमासाद्य निजध्नुरोजसाजिगीषवस्तीक्ष्णशरासितोमर: ॥
३५॥
ते--वे सभी; एवम्--इस प्रकार; आजौ--युद्धक्षेत्र में; असुरा:--असुरगण; सुर-इन्द्राः--तथा देवता; द्वन्द्देन--दो-दो करके;संहत्य--परस्पर मिलकर; च--तथा; युध्यमाना: --युद्ध करते हुए; अन्योन्यम्--एकदूसरे से; आसाद्य--पास आकर;निजघ्नु:--हथियारों से मार डाला; ओजसा--अ त्यन्त बलपूर्वक; जिगीषव:--विजय की कामना करते हुए; तीक्ष्ण--तेज;शर--बाणों से; असि--तलवारों से; तोमरैः--भालों से |
ये सारे देवता तथा असुर लड़ने के उत्साह से युद्धभूमि में एकत्र हुए और अत्यन्त बलपूर्वकएक दूसरे पर प्रहार करने लगे |
वे सब विजय की कामना करते हुए जोड़े बनाकर लड़ने लगेऔर तेज बाणों, तलवारों तथा भालों से बुरी तरह एक दूसरे को मारने लगे |
भुशुण्डिभिश्चक्रगदर्ष्रिपट्टिशै:शक्त्युल्मुकै: प्रासपरश्रथेरपि |
निम्त्रिशभल्लै: परिघै: समुदगरैःसभिन्दिपालैश्व शिरांसि चिच्छिदु; ॥
३६॥
भुशुण्डिभि:-- भुशुण्डि नामक हथियारों से; चक्र--चक्र से; गदा--गदा से; ऋष्टि--ऋष्टि अस्त्रों से; पद्टिशै:--पद्टिश शस्त्र से;शक्ति--शक्ति शस्त्रों से; उल्मुकै:ः--उल्मुक नामक श्त्रों से; प्रास--प्रास शस्त्र से; परश्रथैः--पर श्रध शस्त्रों से; अपि-- भी;निस्त्रिश--निस्त्रिश शस्त्रों से; भल्लै:ः-- भालों से; परिधैः--परिधों शस्त्र से; स-मुद्गरैः--मुद्गरों से; स-भिन्दिपालै:--भिन्दिपाल शस्त्रों से; च-- भी; शिरांसि--सिरों को; चिच्छिदु:--काट लिया |
उन्होंने भुशुण्डि, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, परश्चध, निः्त्रिश, भाला,'परिघ, मुद्गर तथा भिन्दिपाल नामक हथियारों से एक दूसरे के सिर काट डाले |
गजास्तुरड्राः सरथा: पदातय: सारोहवाहा विविधा विखण्डिता: |
निकृत्तबाहूर॒ुशिरोधराड्य्रय-शिछन्नध्वजेष्वासतनुत्रभूषणा: ॥
३७॥
गजा:--हाथी; तुरड्राः--घोड़े; स-रथा: --रथों सहित; पदातयः--पैदल सैनिक; सारोह-वाहा:--सवारों सहित वाहन;विविधा:--विविध प्रकार के; विखण्डिता:--खण्ड-खण्ड हुए; निकृत्त-बाहु--कटी हुई भुजाएँ; ऊरु--जाँघें; शिरोधर--गर्दन; अड्घ्रय:--टांगे; छिन्न--कटकर अलग; ध्वज--झंडा; इष्वास--धनुष; तनुत्र--कवच; भूषणा:--गहने, आभूषण |
हाथी, घोड़े, रथ, सारथी, पैदल सेना तथा सवारों सहित विविध प्रकार के वाहन ध्वस्त होगये |
सैनिकों की भुजाएँ, जांघें, गर्दन तथा टांगे कट गईं और उनके झंडे, धनुष, कवच तथाआभूषण छिन्न-भिन्न हो गये |
तेषां पदाघातरथाडुचूर्णिता-दायोधनादुल्बण उत्थितस्तदा |
रेणुर्दिश: खं द्युमणिं च छादयन्न्यवर्ततासृक्स्त्रुतिभि: परिप्लुतातू ॥
३८॥
तेषाम्--युद्धक्षेत्र में लगे सारे; पदाघात--असुरों तथा देवताओं के पैरों के प्रहार से; रथ-अड्भग--तथा रथों के पहिए;चूर्णितात्--चूर्णित हुए; आयोधनात्--युद्धभूमि से; उल्बण:--अत्यन्त शक्तिशाली; उत्थितः--उठते हुए; तदा--उस समय;रेणु:--धूल के कण; दिश:--सभी दिशाएँ; खम्--बाह्य आकाश; द्युमणिम्--सूर्य तक; च--भी; छादयन्--ढकते हुए;न्यवर्तत--हवा में तैरना बन्द कर दिया; असृक्ू--रक्त के; स्त्रुतिभिः--कणों के द्वारा; परिप्लुतात्ू--दूर दूर तक छिड़के जानेसे |
भूमि पर देवताओं तथा असुरों के पाँवों तथा रथों के पहियों के आघात से आकाश में तेजीसे धूल के कण उड़ने लगे और धूल का बादल छा गया जिससे सूर्य तक का सारा बाह्य आकाशचारों ओर से ढक गया |
किन्तु जब धूल कणों के पश्चात् रक्त की बूँदें सारे आकाश में फुहार कीतरह उठने लगीं तो धूल के बादलों का आकाश में मँडराना बन्द हो गया |
शिरोभिरुद्धृूतकिरीटकुण्डलै:संरम्भदग्भि: परिदृष्टदच्छदे: |
महाभुजै: साभरणैः सहायुधे:सा प्रास्तृता भू: करभोरुभिर्बभौ ॥
३९॥
शिरोभि:--सिरों से; उद्धूत--पृथक्, फैली हुईं; किरीट--मुकुट; कुण्डलैः--तथा कान के आभूषणों से; संरम्भ-हग्भि:--क्रोधसे घूरती आँखें ( यद्यपि सिर शरीर से छिन्न थे ); परिदष्ट--दाँतों से काटे गये; दच्छदैः--ओठ; महा-भुजैः--बड़ी-बड़ी बाँहों से;स-आभरणै:--आभूषणों से सजी; सह-आयुधै:--तथा हाथों में हथियार लिये, यद्यपि हाथ छिन्न हो चुके थे; सा--वहयुद्धक्षेत्र; प्रास्तृता--बिखरे; भू:--युद्धक्षेत्र; करभ-ऊरुभि:--पांव तथा जाँघें हाथी की सूँड़ों जैसी; बभौ--हो गई |
युद्ध के दौरान युद्धभूमि वीरों के कटे सिरों से पट गई |
उनकी आँखें अब भी घूर रही थींऔर क्रोध से उनके दाँत उनके होठों से लगे हुए थे |
इन छिन्न सिरों के मुकुट तथा कुण्डल बिखरगये थे |
इसी प्रकार आभूषणों से सज्जित तथा विविध हथियार पकड़े हुईं अनेक भुजाएँ इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं और हाथी की सूँडों जैसे अनेक टांगे तथा जाँघें भी इसी तरह बिखरी हुईथीं |
कबलच्धास्तत्र चोत्पेतु: पतितस्वशिरोउकश्षिभि: |
उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान्मृथे ॥
४०॥
कबन्धा:--धड़; तत्र--वहाँ ( युद्धभूमि में ); च-- भी; उत्पेतु:--उत्पन्न; पतित--गिरा हुआ; स्व-शिरः-अक्षिभि:--सिर कीआँखों से; उद्यत--उठाये; आयुध--हथियारों से युक्त; दोर्दण्डै:--जिसकी भुजाएँ; आधावन्त:ः--की ओर दौड़ती हुईं; भटानू--सैनिक; मृधे--युद्धभूमि में
उस युद्धभूमि में शीषरहित अनेक धड़ उत्पन्न हो गए थे |
बे प्रेततुल्य धड़ अपने हाथों मेंहथियार लिए, पड़े हुए सिरों की आँखों से देखकर शत्रु सैनिकों पर आक्रमण कर रहे थे |
बलिम॑हिन्द्रं दशभिस्त्रिभिरिरावतं शरैः |
चतुर्भिश्चतुरों बाहानेकेनारोहमार्च्छ॑यत् ॥
४१॥
बलि:--महाराज बलि; महा-इन्द्रमू--स्वर्ग का राजा; दशभि:--दस; त्रिभि:--तीन; ऐरावतम्--इन्द्र के वाहन ऐराबत को;शरैः--बाणों से; चतुर्भि: --चार बाणों से; चतुर:ः--चार; वाहानू--सवारों को; एकेन--एक से; आरोहम्ू--चालक को;आरच्छयत्--वार किया |
महाराज बलि ने तब दस बाणों से इन्द्र पर तथा तीन बाणों से इन्द्र के वाहन ऐरावत पर वारकिया |
उन्होंने चार बाणों से ऐरावत के पाँवों की रक्षा करने वाले चार घुड़सवारों पर आक्रमणकिया और एक बाण से उसके चालक पर |
स तानापतत: शक्रस्तावद्धिः शीघ्रविक्रम: |
चिच्छेद निशितैर्भल्लैरसम्प्राप्तान्हसन्निव ॥
४२॥
सः--वह ( इन्द्र )) तानू--उन बाणों को; आपतत:--उसकी ओर बढ़ते और गिरते हुए; शक्र:--इनद्र; तावद्द्धिः:--तुरन्त; शीघ्र-विक्रम: --तुरन्त सताये जाने के लिए अभ्यस्त; चिच्छेद--खण्ड-खण्ड कर डाला; निशितिः--अत्यन्त तेज; भल्लैः--अन्यप्रकार के बाण से; असम्प्राप्तान्ू--शत्रु के बाण पहुँचने से पहले; हसन् इब--मानो हँस रहा हो |
इसके पूर्व कि बलि महाराज के बाण स्वर्ग के राजा इन्द्र तक पहुँचे, बाणों के चलाने में पटुइन्द्र ने हँसते हुए एक अन्य प्रकार के अत्यन्त तीक्ष्ण भल्ल नामक बाण से उन्हें काट डाला |
तस्य कर्मोत्तिमं वीक्ष्य दुर्मर्ष: शक्तिमाददे |
तां ज्वलन्तीं महोल्काभां हस्तस्थामच्छिनद्धरि: ॥
४३॥
तस्य--इन्द्र के; कर्म-उत्तमम्--सैन्यकला में अत्यन्त दक्ष कार्य को; वीक्ष्य--देखकर; दुर्मर्ष:--अत्यन्त क्ुद्ध होकर; शक्तिम्--शक्ति नामक हथियार; आददे--ले लिया; ताम्--उस हथियार को; ज्वलन्तीमू--जलती आग; महा-उल्का-आभामू--महान्अग्नि पुंज की भाँति प्रकट होते हुए; हस्त-स्थाम्--जो अभी बलि के हाथ में ही था; अच्छिनत्--खण्ड-खण्ड कर डाला;हरिः-इन्द्र ने
जब बलि महाराज ने इन्द्र के दक्ष सैन्य कार्यकलापों को देखा तो वे अपना क्रोध रोक नसके |
उन्होंने शक्ति नामक एक दूसरा हथियार ग्रहण किया जो महान् अग्नि पुंज की भाँतिज्वलित हो रहा था |
किन्तु इन्द्र ने इसे बलि के हाथ से छूटने के पूर्व ही खण्ड-खण्ड कर दिया |
ततः शूलं ततः प्रासं ततस्तोमरमूष्टय: |
यद्यच्छरत्रं समादद्यात्सर्व तदच्छिनद्विभु: ॥
४४॥
ततः--तत्पश्चात्; शूलम्-- भाला; तत:--त त्पश्चात्; प्रासम्--प्रास; ततः--तत्पश्चात्; तोमरम्--तोमर; ऋष्टय: --ऋष्टि नामकहथियारों; यत् यत्ू--जो-जो; शस्त्रमू-हथियार; समादद्यात्ू--बलि ने प्रयोग करने चाहे; सर्वम्ू--उन सब को; तत्--वे हीहथियार; अच्छिनत्ू--खण्ड-खण्ड कर दिये; विभुः--महान् इन्द्र ने ॥
तत्पश्चात् बलि महाराज ने एक-एक करके भाला, प्रास, तोमर, ऋष्टि तथा अन्य हथियारचलाये, किन्तु वे जो भी हथियार लेते थे, उन्हें महान् इन्द्र तुरन्त ही खण्ड-खण्ड कर देते थे |
ससर्जाथासुरीं मायामन्तर्धानगतोसुरः |
ततः प्रादुरभूच्छैल: सुरानीकोपरि प्रभो ॥
४५॥
ससर्ज--छोड़ा; अथ--अब; आसुरीम्--दानवी; मायाम्--माया को; अन्तर्धान--दृष्टि से ओझल; गत:--जाकर; असुर:--बलि महाराज; ततः--तत्पश्चात्; प्रादुरभूत्ू--प्रकट हुआ; शैल:--एक विशाल पर्वत; सुर-अनीक-उपरि--देवताओं की सेना केसिरोंके ऊपर; प्रभो--हे स्वामी |
हे राजा! तब बलि महाराज अदृश्य हो गये और उन्होंने आसुरी माया का सहारा लिया |
तबदेवताओं की सेना के सिरों के ऊपर माया से उत्पन्न एक विशाल पर्वत प्रकट हुआ |
ततो निपेतुस्तरवो दह्ममाना दवाग्निना |
शिला: सटछ्डुशिखराश्रूर्णयन्त्यो द्विषद्बलम् ॥
४६॥
ततः--उस महान पर्वत से; निपेतु:--गिरने लगे; तरव:--बड़े-बड़े वृक्ष; दह्ममाना:--अग्नि से जलकर; दव-अग्निना--जंगलकी आग से; शिला:--तथा पत्थर; स-टड्ढू-शिखरा:--पत्थर की कुल्हाड़ी जैसी तीक्ष्ण धार वाले; चूर्णयन्त्य:--चूर-चूर करते;द्विषत्-बलम्-शत्रुओं की शक्ति को |
उस पर्वत से दावाग्नि से जलते हुए वृक्ष गिरने लगे |
उससे पत्थर की कुल्हाड़ी जैसी तीक्ष्णधार वाले पत्थर-खण्ड भी गिरने लगे जिससे देवताओं के सैनिकों के सिर चकनाचूर हो गये |
महोरगाः समुत्पेतुर्दन्दशूका: स्वृश्चिका: |
सिंहव्याप्रवराहाश्व मर्दयन्तो महागजा: ॥
४७॥
महा-उरगा:--बड़े-बड़े साँप; समुत्पेतु:--उन पर गिरने लगे; दन्दशूका:--अन्य विषैले पशु तथा कीड़े; स-वृश्चिका:--बिच्छुओंसहित; सिंह--शेर; व्याप्र--बाघ; वराहा: च--तथा जंगली सूअर; मर्दयन्त:--मर्दन करते हुए; महा-गजा:--बड़े-बड़े हाथी |
देवताओं के सैनिकों पर बिच्छू, बड़े-बड़े सर्प तथा अन्य अनेक विषैले पशुओं के साथ-साथ सिंह, बाघ, सूअर तथा बड़े-बड़े हाथी गिरने लगे और हर वस्तु को चकनाचूर करने लगे |
यातुधान्यश्व शतशः शूलहस्ता विवासस: |
छिन्धि भिन्धीति वादिन्यस्तथा रक्षोगणा: प्रभो ॥
४८ ॥
यातुधान्य:--मानव भक्षी असुरनियाँ; च--तथा; शतशः--सैकड़ों; शूल-हस्ता:--सभी हाथों में त्रिशूल लिए; विवासस:--पूर्णनग्न; छिन्धि--खण्ड-खण्ड कर डालो; भिन्धि--छेद डालो; इति--इस प्रकार; वादिन्य:--बातें करते; तथा--इस तरह; रक्ष:-गणा:--राक्षसगण; प्रभो--हे राजा |
हे राजा! तब कई सौ नरभक्षी नर और मादा असुर, जो पूर्णतया नग्न थे और अपने हाथों मेंत्रिशूल लिए थे ‘काट डालो! छेद डालो! ' के नारे लगाते हुए प्रकट हुए |
'ततो महाघना व्योम्नि गम्भीरपरुषस्वना: |
अड्जारान्मुमुचुर्वातिराहता: स्तनयित्तवः ॥
४९॥
ततः--तत्पश्चात्८ महा-घना:--बड़े-बड़े बादल; व्योम्नि--आकाश में; गम्भीर-परुष-स्वना: -- अत्यन्त गहरी गड़गड़ाहट उत्पन्नकरते; अड्जारान्--अंगारों को; मुमुचु:--गिराया; वातैः--प्रबल वायु से; आहता:--प्रताड़ित; स्तनयित्तवः--मेघ गर्जना से |
तब आकाश में प्रबल वायु से प्रताड़ित घनघोर घटाएँ प्रकट हो आईं |
वे गम्भीर गर्जनाकरती हुईं जलते कोयलों के अंगारे बरसाने लगीं |
सूष्टो दैत्येन सुमहान्वह्विः श्रसनसारथि: |
सांवर्तक इवात्युग्रो विबुधध्वजिनीमधाक्ू ॥
५०॥
सृष्ट:--उत्पन्न; दैत्येन--असुर ( बलि महाराज ) द्वारा; सु-महान्ू--अत्यन्त विशाल, विनाशकारी; वह्विः--अग्नि; श्वसन-सारथि:ः--तेज हवा के द्वारा ले जाई जाकर; सांवर्तकः--सांवर्तक नामक अग्नि जो प्रलय के समय प्रकट होती है; इब--सहश;अति--अत्यन्त; उग्र: --प्रचण्ड; विबुध--देवताओं के; ध्वजिनीम्--सैनिकों को; अधाक्ू--जलाकर राख कर दिया
महाराज बलि द्वारा उत्पन्न की गई अत्यन्त संहारक अग्नि देवताओं के सभी सैनिकों कोजलाने लगी |
यह अग्नि तेज बहती हवाओं के साथ उस सांवर्तक अग्नि जैसी प्रतीत हो रही थीजो प्रलय के समय प्रकट होती है |
ततः समुद्र उद्ेल: सर्वतः प्रत्यटश्यत |
प्रचण्डवातैरुद्धृततरज्ञावर्तभीषण: ॥
५१॥
ततः--तत्पश्चात्; समुद्र: --समुद्र; उद्देल: -- क्षुब्ध होकर; सर्वतः--चारों ओर; प्रत्यहश्यत--हर एक की दृष्टि के सामने दिखनेलगा; प्रचण्ड--भयानक; वातैः--हवा से; उद्धृत-- क्षुब्ध; तरड़--लहरों का; आवर्त--भौँवर; भीषण:-- भीषण
तत्पश्चात् हवाओं के प्रचण्ड झकोरों से क्षुब्ध समुद्री लहरें तथा भँवर सब की आँखों केसामने एक भीषण बाढ़ के रूप में चारों ओर प्रकट हो आए |
एवं दैत्यैर्महामायैरलक्ष्यगतिभी रणे |
सृज्यमानासु मायासु विषेदु; सुरसैनिका: ॥
५२॥
एवम्--इस प्रकार; दैत्यैः--असुरों के द्वारा; महा-मायैः--मायावी कार्यो में दक्ष; अलक्ष्य-गतिभि:--किन्तु अदृश्य; रणे--युद्धमें; सृज्यमानासु मायासु--ऐसे मायावी वातावरण की सृष्टि होने से; विषेदु:--खिन्न हो गये; सुर-सैनिका: --देवताओं केसैनिक
जब ऐसे मायावी कार्यों में दक्ष अहृश्य असुरों द्वारा युद्ध में इस तरह का जादुई वातावरणउत्पन्न किया जा रहा था, तो देवताओं के सैनिक खिन्न हो गये |
न तत्प्रतिविधि यत्र विदुरिन्द्रादयो नूप |
ध्यातः प्रादुरभूत्तत्र भगवान्विश्वभावन: ॥
५३॥
न--नहीं; तत्-प्रतिविधिम्--ऐसे मायावी वातावरण की प्रतिक्रिया; यत्र--जहाँ; विदु:--समझ सके; इन्द्र-आदय:--इन्द्रइत्यादि देवता; नृप--हे राजा; ध्यातः--ध्यान किये जाने पर; प्रादुरभूत्-प्रकट हुए; तत्र--उस स्थान पर; भगवान्-- भगवान्;विश्व-भावन:--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा
हे राजा! जब देवताओं को असुरों के कार्यो का निराकरण कर पाने का कोई उपाय न सूझातो उन्होंने ब्रह्माण्ड के स्त्रष्ठा भगवान् का पूर्ण मनोयोग से ध्यान किया और वे तुरन्त ही प्रकट होगये |
ततः सुपर्णांसकृताड्प्रिपललव:पिशड्रवासा नवकझ्जलोचन: |
अदृश्यताष्टायुधबाहुरुल्लस-च्छीकौस्तुभानर्घष्यकिरीटकुण्डल: ॥
५४॥
ततः--तत्पश्चात्; सुपर्ण-अंस-कृत-अड्प्रि-पललव: -- भगवान्, जिनके चरणकमल गरुड़ के दोनों कंधों पर फैले रहते हैं;पिशड्र-वासा:--जिनके वस्त्र पीले हैं; नव-कञ्ज-लोचन:--तथा जिनके नेत्र नवीन खिले कमल की पंखुड़ियों के तुल्य हैं;अदृश्यत--दृष्टिगोचर हो गए ( देवताओं के समक्ष ); अष्ट-आयुध--आठ प्रकार के आयुधों से युक्त; बाहु:--बाहें; उललसत्--झलमलाते; श्री--लक्ष्मी; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि; अनर्घ्य--अगणनीय मूल्य का; किरीट--मुकुट; कुण्डल:--कुण्डलपहने |
नवविकसित कमल की पंखुड़ियों सहश आँखों वाले भगवान् गरुड़ की पीठ पर बैठे थेऔर गरुड़ के कंधों पर अपने चरणकमल फैलाये थे |
वे पीत वस्त्र धारण किये, कौस्तुभ मणितथा लक्ष्मीजी से सुसज्जित एवं अमूल्य मुकुट तथा कुण्डल पहने अपनी आठों भुजाओं मेंविविध आयुध धारण किये देवताओं को दृष्टिगोचर हुए |
तस्मिन्प्रविष्टेडसुरकूटकर्मजामाया विनेशुर्महिना महीयस: |
स्वप्नो यथा हि प्रतिबोध आगतेहरिस्मृतिः सर्वविपद्दिमोक्षणम् ॥
५५॥
तस्मिन् प्रविष्ट-- भगवान् के प्रवेश करने पर; असुर--असुरों का; कूट-कर्म-जा--जादू भरे कार्यों से; माया--छड्ा अभिव्यक्ति;विनेशु:--तुरन्त नष्ट हो गये; महिना-- श्रेष्ठ शक्ति द्वारा; महीयस:-- भगवान् का जो महानतम से भी महान् हैं; स्वप्न:--सपने;यथा--जिस तरह; हि--निस्सन्देह; प्रतिबोधे--जगने पर; आगते--आ गया है; हरि-स्मृतिः-- भगवान् की स्मृति; सर्व-विपत्--सभी प्रकार की विपदाओं से; विमोक्षणम्--तुरन्त मुक्त कर देती है |
जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले के जगते ही स्वप्न के भय दूर हो जाते हैं उसी तरह युद्धभूमिमें भगवान् के प्रवेश करते ही उनकी दिव्य शक्ति से असुरों की जादूगरी से उत्पन्न माया विलीनहो गई |
निस्सन्देह, भगवान् के स्मरण मात्र से मनुष्य सारे संकटों से मुक्त हो जाता है |
इृष्ठा मृथे गरडवाहमिभारिवाहआविध्य शूलमहिनोदथ कालनेमि: |
तल्लीलया गरुडमूर्थ्नि पतद्गृहीत्वातेनाहनन्नूप सवाहमरिं त्यधीश: ॥
५६॥
इष्ठा--देखकर; मृधे--युद्धस्थल में; गरूड-वाहम्--गरुड़ द्वारा ले जाए गए भगवान्; इभारि-वाह:--महान् सिंह द्वारा ले गयाअसुर; आविध्य--घुमा कर; शूलम्-त्रिशूल को; अहिनोत्--उस पर छोड़ा; अथ--इस प्रकार; कालनेमि:--कालनेमि असुरने; तत्ू-- भगवान् पर असुर द्वारा ऐसा प्रहार; लीलया--आसानी से; गरुड-मूर्ध्नि--गरुड़ के सिर पर; पतत्--गिरते हुए;गृहीत्वा--तुरन्त सहज रूप से पकड़ कर; तेन--उसी हथियार से; अहनत्--मार डाला; नृप--हे राजा; स-वाहम्--अपने वाहनसमेत; अरिम्--शत्रु को; त्रि-अधीश: --तीनों लोकों के स्वामी भगवान् ने |
हे राजा! जब सिंह पर आरूढ़ कालनेमि दैत्य ने देखा कि गरुड़वाहन भगवान् युद्धक्षेत्र में हैं,तो उसने तुरन्त अपना त्रिशूल निकाल लिया और उसे गरुड़ के सिर पर चलाया |
किन्तु तीनों लोकों के स्वामी भगवान् हरि ने तुरन्त ही उस त्रिशूल को पकड़ लिया और उसी हथियार सेअपने शत्रु कालनेमि को उसके वाहन सिंह समेत मार डाला |
माली सुमाल्यतिबलौ युधि पेततुर्य-च्यक्रेण कृत्तशिरसावथ माल्यवांस्तम् |
आहत्य तिग्मगदयाहनदण्डजेन्द्रंतावच्छिरोच्छिनदरेनदतोरिणाह्य: ॥
५७॥
माली सुमाली--माली तथा सुमाली नामक दो असुर; अति-बलौ--अत्यन्त शक्तिशाली; युधि--युद्धस्थल में; पेततु:--गिर गये;यत्-चक्रेण--जिसके चक्र से; कृत्त-शिरसौ--छिन्न सिरों वाले; अथ--तत्पश्चात्; माल्यवान्--माल्यवान्; तम्-- भगवान् को;आहत्य--आक्रमण करके; तिग्म-गदया--अत्यन्त नुकीली गदा से; अहनत्--मार डालना चाहा; अण्ड-ज-इन्द्रमू--अण्डों सेउत्पन्न पक्षियों के राजा, गरुड़ ने; तावतू--उस समय; शिर:--सिर; अच्छिनत्--काट लिया; अरेः--शत्रु का; नदतः--शेर जैसेदहाड़ता; अरिणा--चक्र से; आद्यः--आदि
भगवान् नेतत्पश्चात् भगवान् ने माली तथा सुमाली नामक दो शक्तिमान असुरों को मारा |
उन्होंने अपनेचक्र से उनके सिर काट दिये |
तब एक अन्य असुर माल्यवान ने भगवान् पर आक्रमण किया |
उसने अपनी नुकीली गदा से, सिंह की भाँति गर्जना करते हुए, अण्डो से उत्पन्न पक्षिराज गरुड़पर आक्रमण किया |
किन्तु आदि पुरुष भगवान् ने अपने चक्र का प्रयोग करते हुए उस शत्रु केसिर को भी काट दिया |
अध्याय ग्यारह: राजा इंद्र ने राक्षसों का विनाश किया
8.11श्रीशुक उबाचअथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतस:परस्य पुंस: परयानुकम्पया |
जछ्नुर्भूश॑ शक्रसमीरणादयस्तांस्तात्रणे यैरभिसंहता: पुरा ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथो--तत्पश्चात्; सुरा:--सारे देवता; प्रत्युपलब्ध-चेतस:--चेतना आ जानेसे पुनः जीवित होकर; परस्य--परम; पुंसः-- भगवान् की; परया--परम; अनुकम्पया--कृपा से; जघ्नु:--पीटने लगे; भूशम्-- पुनः पुनः; शक्र--इन्द्र; समीरण--वायु; आदय: --इत्यादि; तान् तानू--उन-उन राक्षसों को; रणे--युद्ध में; यैः --जिनके द्वारा;अभिसंहता: --हराये गये थे; पुरा--पहले |
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात् भगवान् श्रीहरि की परम कृपा से इन्द्र, वायु इत्यादिसारे देवता जीवित हो गये |
इस प्रकार जीवित होकर सारे देवता उन्ही असुरों को बुरी तरह पीटनेलगे जिन्होंने पहले उन्हें परास्त किया था |
वैरोचनाय संरब्धो भगवान्पाकशासन: |
उदयच्छद्यदा वजन प्रजा हा हेति चुक्रुशु: ॥
२॥
वैरोचनाय--बलि महाराज को ( मारने के लिए ); संरब्ध:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; पाक-शासन:--इनद्र ने; उदयच्छत्--हाथ में लिया; यदा--जिस समय; वज़म्--वज़; प्रजा:--सारे असुर; हा हा--हाय हाय; इति--इस प्रकार; चुक़्ुशु:--चिल्लाने लगे |
जब परमशक्तिशाली इन्द्र क्रुद्ध हो गए और उन्होंने महाराज बलि को मारने के लिए अपनेहाथ में बज्न ले लिया तो सारे असुर ' हाय हाय ' चिल्ला कर शोक करने लगे |
वज्रपाणिस्तमाहेदं तिरस्कृत्य पुरः:स्थितम् |
मनस्तविनं सुसम्पन्नं विचरन्तं महामृथे ॥
३॥
वज़-पाणि:--हाथ में सदा वज़ रहता है, जिसके, इन्द्र; तम्ू--बलि महाराज को; आह--सम्बोधित किया; इृदम्--इस तरह;तिरस्कृत्य--प्रताड़ित करके; पुरः-स्थितम्--उसके सामने खड़े होकर; मनस्विनम्ू--अत्यन्त गम्भीर तथा सहिष्णु; सु-सम्पन्नम्ू--युद्ध के साज-सामान से युक्त; विचरन्तम्-घूमते हुए; महा-मृधे --विशाल युद्धस्थल में |
गम्भीर, सहिष्णु तथा लड़ने के साज-सामान से भलीभान्ति युक्त बलि महाराज उस विशालयुद्धस्थल में इन्द्र के सामने घूम रहे थे |
सदा हाथ में बज्न लिये रहने वाले इन्द्र ने बलि महाराजको इस प्रकार तिरस्कारपूर्वक ललकारा |
नटवन्मूढ मायाभिर्मायेशान्नो जिगीषसि |
जित्वा बालान्निबद्धाक्षान्नटो हरति तद्धनम् ॥
४॥
नट-वत्-- धूर्त या ठग की तरह; मूढ-रे धूर्त; मायाभि:--माया करके; माया-ईशान्--माया को वश में करने वाले देवताओंको; नः--हम सब को; जिगीषसि--विजयी बनना चाहते हो; जित्वा--जीतकर; बालानू--बच्चों को; निबद्ध-अक्षान्-- आँखेंबाँध कर; नट:--ठग; हरति--ले जाता है; तत्ू-धनम्--बच्चे का धन |
इन्द्र ने कहा : रे धूर्त! जिस प्रकार ठग बच्चे की आँखों को बाँध कर कभी-कभी उसकाधन ले जाता है उसी प्रकार तुम यह जानते हुए कि हम सब ऐसी माया-शक्तियों के स्वामी हैं,अपनी कोई मायाशक्ति दिखलाकर हमें परास्त करना चाहते हो |
आरुरुक्षन्ति मायाभिरुत्सिसृप्सन्ति ये दिवम् |
तान्दस्यून्विधुनोम्यज्ञान्पूर्वस्माच्य पदादध: ॥
५॥
आसरुरुक्षन्ति--व्यक्ति जो उच्च लोकों को जाना चाहते हैं; मायाभि:ः--तथाकथित योगशक्ति या विज्ञान के भौतिक विकास द्वारा;उत्सिसृप्सन्ति--या ऐसे झूठे प्रयासों से मुक्त होना चाहते हैं; ये--जो व्यक्ति; दिवमू--स्वर्गलोक को; तान्ू--ऐसे धूर्तों तथा लंठोंको; दस्यूनू--ऐसे चोरों को; विधुनोमि--मैं नीचे गिराता हूँ; अज्ञानू--मूर्ख ; पूर्वस्मात्ू--पिछला; च-- भी; पदात्-- पद से;अधः--नीचे |
उन मूर्खों तथा धूर्तों को जो माया से या यांत्रिक साधनों से उच्चलोकों तक पहुँचना चाहते हैंया जो उच्चलोकों को भी पार करके वैकुण्ठलोक या मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, मैं उन्हेंब्रह्माण्ड के सबसे निम्न भाग में भिजवाता हूँ |
सोइहं दुर्मायिनस्तेउद्य वज्ेण शतपर्वणा |
शिरो हरिष्ये मन्दात्मन्धटस्व ज्ञातिभि: सह ॥
६॥
सः--वही शक्तिशाली पुरुष; अहम्--मैं ( इन्द्र ); दुर्मायिन:--माया से इतनी जादूगरी करने वाले तुम; ते--तुम्हारा; अद्य--आज; वज्ेण--वज़ से; शत-पर्वणा--सैकड़ों तीक्ष्ण धारों वाला; शिर:--सिर; हरिष्ये--पृथक् कर दूँगा; मन्द-आत्मन्--हेअज्ञानी; घटस्व--इस युद्धस्थल में रहते रहो; ज्ञातिभि: सह--अपने सम्बन्धियों तथा सहायकों सहित |
आज, मैं, वही शक्तिशाली व्यक्ति, हजारों तेज धारों वाले अपने वज्र से तुम्हारे सिर कोशरीर से काटकर अलग कर दूँगा |
यद्यपि तुम माया द्वारा पर्याप्त चमत्कार दिखा सकते हो,किन्तु तुम्हारा ज्ञान अत्यल्प है |
अब तुम अपने परिजनों तथा मित्रों सहित युद्धभूमि में ठहरने कीही चेष्टा दिखा करो |
श्रीबलिरुवाचसड्ग्मामे वर्तमानानां कालचोदितकर्मणाम् |
कीर्तिजयोजयो मृत्यु: सर्वेषां स्युरनुक्रमात् ॥
७॥
श्री-बलि: उवाच--बलि महाराज ने कहा; सड्ग्रामे--युद्धभूमि में; वर्तमानानामू--यहाँ जो लोग उपस्थित हैं उनका; काल-चोदित--काल के प्रभाव से; कर्मणाम्ू--लड़ने या अन्य कार्यों में लगे मनुष्यों के लिए; कीर्ति:--यश; जय:--विजय;अजय:-हहार; मृत्यु:--मृत्यु; सर्वेषाम्--सब की; स्यु:--होनी चाहिए; अनुक्रमात्- क्रमशः
बलि महाराज ने उत्तर में कहा : सभी लोग जो इस युद्धभूमि में उपस्थित हैं निश्चय ही नित्यकाल के वश में हैं और वे अपने-अपने नियत कर्मों के अनुसार क्रमश: यश, विजय, हार तथामृत्यु प्राप्त करेंगे |
तदिदं कालरशनं जगत्पश्यन्ति सूरयः |
न हृष्यन्ति न शोचन्ति तत्र यूयमपण्डिता: ॥
८॥
तत्--अतएव; इृदम्--यह सम्पूर्ण भौतिक जगत; काल-रशनम्--काल के कारण गतिमान्; जगत्--आगे बढ़ता ( यह सम्पूर्णब्रह्माण्ड ); पश्यन्ति--देखते हैं; सूरय:ः--सत्य से अवगत होने के कारण जो बुद्धिमान् हैं; न--नहीं; हृष्यन्ति--हर्षित होते हैं;न--न तो; शोचन्ति-- पछताते हैं; तत्र--ऐसे में; यूयम्--तुम सारे देवता; अपण्डिता:--पण्डित नहीं हो ( यह भूलकर कि तुमकाल के अधीन कार्य कर रहे हो )॥
काल की गतियों को देखकर, जो लोग वास्तविक सत्य से अवगत हैं, वे विभिन्नपरिस्थितियों के लिए न तो हर्षित होते हैं, न सोचते हैं |
चूँकि तुम लोग अपनी विजय पर हर्षितहो अतः तुम्हें अत्यन्त विद्वान नहीं कहा जा सकता |
न वयं मन्यमानानामात्मानं तत्र साधनम् |
गिरो वः साथधुशोच्यानां गृह्लीमो मर्मताडना: ॥
९॥
न--नहीं; वयम्--हम; मन्यमानानाम्--मानने वालों का; आत्मानम्--स्वयं; तत्र--विजय या हार में; साधनम्--कारण;गिर:--शब्द; वः--तुम्हारा; साधु-शोच्यानाम्ू--जिन पर साधु पुरुषों को तरस आता है; गृह्लीम:--स्वीकार करते हैं; मर्म-ताडना:ः:--हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाले |
तुम देवता लोग अपने आपको अपनी ख्याति तथा विजय प्राप्त करने का कारण मानते हो |
तुम लोगों की अज्ञानता के कारण साधु पुरुष तुम्हारे लिए शोक करते हैं |
अतएव तुम्हारे वचनमर्मस्पर्शी होते हुए भी हमें स्वीकार्य नहीं हैं |
श्रीशुक उबाचइत्याक्षिप्य विभुं वीरो नाराचेर्वीरमर्दन: |
आकर्णपूर्णरहनदाक्षेपैराह तं पुन: ॥
१०॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आक्षिप्य--प्रताड़ित करके; विभुम्--इन्द्र को; वीर: --बहादुर बलि महाराज; नाराचै:--नाराच नामक बाणों से; वीर-मर्दन:--बड़े-बड़े वीरों को भी दमित करने वाले बलि महाराज;आकर्ण-पूर्ण:--कानों तक खींचकर; अहनत्--आक्रमण किया; आश्षेपै:--प्रताड़ना के शब्दों से; आह--कहा; तम्--उससे;पुनः--फिर |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : स्वर्ग के राजा इन्द्र को इस प्रकार कटु वचनों से फटकारने केबाद वीरों को मर्दन करने वाले बलि महाराज ने नाराच बाणों को अपने कान तक खींचा और उनसे इन्द्र पर आक्रमण कर दिया |
उन्होंने पुन: इन्द्र को कठोर शब्दों से प्रताड़ित किया |
एवं निराकृतो देवो वैरिणा तथ्यवादिना |
नामृष्यत्तदधिक्षेपं तोत्राहत इव द्विप: ॥
११॥
एवम्--इस प्रकार; निराकृत:--हारकर; देव: --राजा इन्द्र; वैरिणा-- अपने शत्रु से; तथ्य-वादिना--सत्य कहने में पटु; न--नहीं; अमृष्यत्--पछताया; तत्--उसकी ( बलि की ); अधिक्षेपम्--प्रताड़ना; तोत्र--अंकुश या दण्ड से; आहत:ः--माराजाकर; इब--सहश; द्विप:--हाथी |
चूँकि महाराज बलि की फटकारें सत्य थीं अतएव इन्द्र तनिक भी खिन्न नहीं हुआ जिस तरहएक हाथी पीलवान द्वारा अंकुश से पीटा जाने पर भी कभी विचलित नहीं होता |
प्राहरत्कुलिशं तस्मा अमोघं परमर्दनः |
सयानो न्यपतद्धूमौ छिन्नपक्ष इवाचल: ॥
१२॥
प्राहरत्--मारा जाकर; कुलिशम्--वज् दण्ड; तस्मै--उसको ( बलि महाराज को ); अमोघम्--अच्युत; पर-मर्दन:--शत्रु कोहराने में पटु, इन्द्र; स-यान:--अपने वायुयान सहित; न्यपतत्--गिर पड़ा; भूमौ--पृथ्वी पर; छिन्न-पक्ष:--जिसके पंख काटलिये गये हों; इब--सहश; अचल: --पर्वत |
जब शत्रुओं को हराने वाले इन्द्र ने अपना अमोघ वज्ञ बलि महाराज पर उन्हें मारने की इच्छासे चलाया तो सचमुच बलि महाराज अपने वायुयान समेत भूमि पर गिर पड़े मानो कोई पर्वतपंख काटे जाने से गिरा हो |
सखाय॑ पतितं दृष्ठा जम्भो बलिसख: सुहत् |
अभ्ययात्सौहदं सख्युहतस्थापि समाचरन् ॥
१३॥
सखायम्--अपने घनिष्ठ मित्र को; पतितम्--गिरा हुआ; दृष्टा--देखकर; जम्भ:--जम्भ नामक राक्षस; बलि-सख:--बलिमहाराज का घनिष्ठ मित्र; सुहृतू--तथा निरन्तर शुभ चाहने वाला; अभ्ययात्--वहाँ पर प्रकट हुआ; सौहदम्--अत्यन्त दयालुमित्रता; सख्यु:--अपने मित्र का; हतस्य--जो चोट खाकर गिर गया था; अपि--यद्यपि; समाचरनू--मैत्रीपूर्ण कार्य निबाहने केलिए
जब जम्भासुर ने देखा कि उसका मित्र बलि गिर गया है, तो वह उसके शत्रु इन्द्र के समक्ष प्रकट हुआ मानो मैत्रीपूर्ण आचरण से बलि महाराज की सेवा करने के लिए आया हो |
स सिंहवाह आसाद्य गदामुद्यम्य रहसा |
जत्रावताडयच्छक्रं गजं च सुमहाबल: ॥
१४॥
सः--जम्भासुर ने; सिंह-वाह:--सिंह द्वारा ले जाया गया; आसाद्य--इन्द्र के समक्ष आकर; गदाम्ू--अपनी गदा को; उद्यम्य--निकालकर; रंहसा--बलपूर्वक; जत्रौ--गर्दन के निचले भाग पर; अताडयत्--मारा; शक्रम्--इन्द्र को; गजम् च--तथा उसकेहाथी को; सु-महा-बल:--उस शक्तिशाली जम्भासुर ने |
अत्यन्त शक्तिशाली जम्भासुर सिंह पर सवार होकर इन्द्र के पास आया और उसने अपनीगदा से उसके कंधे पर बलपूर्वक प्रहार किया |
उस ने इन्द्र के हाथी पर भी प्रहार किया |
गदाप्रहारव्यधितो भूशं विह्लितो गज: |
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ठा कश्मलं परमं ययौ ॥
१५॥
गदा-प्रहार-व्यधित:--जम्भासुर की गदा की चोट से पीड़ित; भूशम्--अत्यधिक; विहलितः--उद्विग्न; गज:--हाथी;जानुभ्याम्--अपने दोनों घुटनों से; धरणीम्--पृथ्वी को; स्पृष्टठा--छूकर; कश्मलम्--अचेत; परमम्--अत्यधिक; ययौ--होगया |
जम्भासुर की गदा से चोट खाकर इन्द्र का हाथी विचलित और पीड़ित हो गया |
उसने भूमिपर घुटने टेक दिये और वह अचेत होकर गिर गया |
ततो रथो मातलिना हरिभिर्दशशतैर्वृतः |
आनीतो द्विपमुत्सृज्य रथमारुरुहे विभु: ॥
१६॥
ततः--तत्पश्चात्; रथ: --रथ; मातलिना--मातलि नामक सारथी द्वारा; हरिभि:ः--घोड़ों से; दश-शतैः--सौ का दस गुना, एकहजार; वृतः--जुते हुए; आनीत:--लाया जाकर; द्विपम्--हाथी को; उत्सृज्य--छोड़कर; रथम्--रथ में; आरुरुहे--चढ़ गया;विभुः--महान् इच्ध |
तत्पश्चात् इन्द्र का सारथी मातलि इन्द्र का रथ ले आया जिसे एक हजार घोड़े खींच रहे थे |
तब इन्द्र ने अपने हाथी को छोड़ दिया और वह रथ पर चढ़ गया |
तस्य तत्पूजयन्कर्म यन्तुर्दानवसत्तम: |
शूलेन ज्वलता तं तु स्मयमानो हनन्मृथे ॥
१७॥
तस्य--मातलि की; तत्--वह सेवा ( इन्द्र के समक्ष रथ को लाना ); पूजयन्-- प्रशंसा करते हुए; कर्म--स्वामी की ऐसी सेवा;यन्तु:--सारथी का; दानव-सत्ू-तमः --असुर श्रेष्ठ, जम्भासुर; शूलेन--त्रिशूल से; ज्वलता-- अग्नि की लपटें निकालता;तम्--मातलि को; तु--निस्सन्देह; स्मयमान: --मुस्काते हुए; अहनत्--मारा; मृधे--युद्धस्थल में |
मातलि के सेवाभाव की प्रशंसा करते हुए असुरश्रेष्ठ जम्भासुर मुस्कराने लगा |
फिर भी उसनेयुद्धभूमि में अग्नि के समान जलते हुए अपने त्रिशूल से मातलि पर प्रहार कर दिया |
सेहे रुजं सुदुर्मर्षा सत्त्तमालम्ब्य मातलि: |
इन्द्रो जम्भस्य सड़्क्रुद्धो वज़ेणापाहरच्छिर: ॥
१८॥
सेहे--सहन कर लिया; रुजम्ू--पीड़ा को; सु-दुर्मर्षाम्--असहा; सत्त्वम्--थैर्य; आलम्ब्य-- धारण करके; मातलि:--सारथीमातलि ने; इन्द्र:--इन्द्र; जम्भस्य--जम्भासुर का; सड्क्रुद्ध:--उस पर क्ुद्ध होकर; वज़ेण--अपने वज् से; अपाहरत्ू--अलगकर दिया; शिरः--सिर को |
यद्यपि मातलि की वेदना असहा थी, किन्तु उसने बड़े धैर्य से उसे सह लिया |
किन्तु इन्द्रजम्भासुर पर अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा |
उसने अपने वज्ञ से उस पर प्रहार किया और उसके सिरको धड़ से अलग कर दिया |
जम्भं श्रुत्वा हतं तस्य ज्ञातयो नारदाहषे: |
नमुचिश्च बलः पाकस्तत्रापेतुस्त्वरान्विता: ॥
१९॥
जम्भम्--जम्भासुर को; श्रुत्वा--सुनकर; हतम्--मारा गया; तस्य--उसके ; ज्ञातय: --मित्र तथा सम्बन्धी; नारदातू--नारद से;ऋषे:--ऋषि से; नमुचि:--नमुचि; च-- भी; बल:--बल नामक असुर; पाक:ः--तथा पाक राक्षस; तत्र--वहाँ; आपेतु:--तुरन्त आ गये; त्वरा-अन्विता:--फुर्ती से
जब नारद ऋषि ने जम्भासुर के मित्रों तथा सम्बन्धियों को यह जानकारी दी कि जम्भासुरमारा गया है, तो नमुचि, बल तथा पाक नामक तीन असुर बड़ी तेजी से युद्धभूमि में आ गए |
वचोभि: परुषैरिन्द्रमर्दयन्तो स्य मर्मसु |
शरैरवाकिरन्मेघा धाराभिरिव पर्वतम् ॥
२०॥
वचोभि:--कटु वचनों से; परुषैः:--अत्यन्त भद्दे तथा कठोर; इन्द्रमू--राजा इन्द्र को; अर्दयन्त:--प्रताड़ित करते; अस्य--इन्द्रके; मर्मसु--हृदय में; शरैः--बाणों से; अवाकिरन्--चारों ओर से ढक दिया; मेघा:--बादल; धाराभि:--वर्षा की झड़ी से;इब--जिस तरह; पर्वतम्--पर्वत को
इन्द्र को कठोर, मर्मभेदी शब्दों से भला-बुरा कहते हुए इन असुरों ने उस पर बाणों से उसीप्रकार वर्षा की जिस तरह वर्षा की झड़ी किसी महान् पर्वत को धो देती है |
हरीन्दशशतान्याजौ हर्य श्रस्थ बल: शरै: |
तावद्धिर्दयामास युगपल्लघुहस्तवान् ॥
२१॥
हरीनू--घोड़ों को; दश-शतानि--एक हजार; आजौ--युद्धभूमि में; हर्यश्वस्थ--इन्द्र के; बल:ः--बल नामक असुर ने; शरैः --बाणों से; ताबद्द्रिः--इतनों से; अर्दयाम् आस--कठिनाई में डाल दिया; युगपत्--एक साथ; लघु-हस्तवान्ू--हाथ की सफाईसे |
बल नामक असुर ने युद्धभूमि में परिस्थिति को तुरन्त सँभालते हुए इन्द्र के सभी एक हजारघोड़ों को उतने ही बाणों से एकसाथ घायल करके संकट में डाल दिया |
शताभ्यां मातलिं पाको रथं सावयवं पृथक् |
सकृत्सन्धानमोक्षेण तदद्भुतमभूद्रणे ॥
२२॥
शताभ्याम्--दो सौ बाणों से; मातलिम्--मातलि नामक सारथी को; पाकः--पाक नामक राक्षस ने; रथम्--रथ को; स-अवयवम्--सारे साज-सामान सहित; पृथक्ू--अलग-अलग; सकृत्--एक ही बार में; सन्धान-- धनुष पर बाण चढ़ाकर;मोक्षेण--तथा छोड़कर; तत्--ऐसे कार्य को; अद्भुतम्ू--अद्भुत; अभूत्--हो गया; रणे--युद्ध भूमि में |
एक दूसरे असुर पाक ने अपने धनुष पर दो सौ बाण चढ़ाकर और उन्हें एक ही साथछोड़कर सारे साज-सामान से भरे रथ पर तथा सारथी मातलि पर आक्रमण किया |
युद्धभूमि मेंयह निस्सन्देह एक अदभुत कार्य था |
नमुचि: पञ्जदशभिः स्वर्णपुड्डैमहिषुभि: |
आहत्य व्यनद॒त्सड्ख्ये सतोय इब तोयद: ॥
२३॥
नमुचि:--नमुचि नामक राक्षस ने; पदञ्ञ-दशभि:--पन्द्रह; स्वर्ण-पुद्चाः--सुनहले पंखों वाले; महा-इषुभि:--अत्यन्त शक्तिशालीबाणों से; आहत्य-- भेदकर; व्यनदत्--गर्जना की; सड्ख्ये--युद्धभूमि में; स-तोय:--जल से भरे हुए; इब--सहृश; तोय-दः--वर्षा करने वाला बादल |
तब एक दूसरे असुर नमुचि ने इन्द्र पर आक्रमण किया और उसे पन्द्रह सुनहरे पंखों वालेअत्यन्त शक्तिशाली बाणों से घायल कर दिया जो जल से भरे बादल के समान गरज रहे थे |
सर्वतः शरकूटेन शक्रं सरथसारथधिम् |
छादयामासुरसुराः प्रावृट्सूर्यमिवाम्बुदा: ॥
२४॥
सर्वतः--चारों ओर; शर-कूटेन--बाणों की घनी वर्षा से; शक्रम्--इन्द्र को; स-रथ--रथ सहित; सारधिम्--सारथी को;छादयाम् आसु:--ढक दिया; असुराः:--सारे असुरों ने; प्रावृट्--वर्षा ऋतु में; सूर्यम्--सूर्य को; इब--सहश; अम्बु-दा:--बादल |
अन्य असुरों ने अपने बाणों की निरन्तर वर्षा से इन्द्र को उसके रथ तथा सारथी सहित ढकदिया जिस तरह वर्षा ऋतु में बादल सूर्य को ढक लेते हैं |
अलक्षयन्तस्तमतीव विहलाविचुक्रुशुर्देवगणा: सहानुगा: |
अनायकाः शत्रुबलेन निर्जितावणिक्पथा भिन्ननवो यथार्णवे ॥
२५॥
अलक्षयन्त:--देख सकने में असमर्थ; तम्ू--इन्द्र को; अतीव--अत्यधिक बुरी तरह से; विह्ला:--मोह ग्रस्त; विचुक्रुशु:--पश्चाताप करने लगे; देव-गणा: --सारे देवता; सह-अनुगा: -- अपने अनुयायियों सहित; अनायका:--बिना नेता के; शत्रु-बलेन--अपने शत्रुओं की श्रेष्ठ शक्ति द्वारा; निर्जिता:--अत्यधिक सताये गये; वणिक्-पथा: --व्यापारी; भिन्न-नव:--जिसकाजहाज टूट गया हो; यथा अर्णवे--जिस तरह समुद्र के बीच में |
देवतागण अपने शत्रुओं द्वारा बुरी तरह से सताये जाने तथा युद्धभूमि में इन्द्र को न देख पानेके कारण अत्यन्त चिन्तित थे |
वे बिना नायक या कप्तान के उसी तरह विलाप करने लगे जिसतरह समुद्र के बीच में जहाज ध्वंस होने पर व्यापारी विलाप करते हैं |
ततस्तुराषाडिषुबद्धपञ्भराद्विनिर्गतः साश्चरथध्वजाग्रणी: |
बभौ दिशः खं पृथिवीं च रोचयन्स्वतेजसा सूर्य इव क्षपात्यये ॥
२६॥
ततः--तत्पश्चात्; तुराषाट्ू--इन्द्र का दूसरा नाम; इषु-बद्ध-पद्धरात्-शर पंजर से; विनिर्गतः--छूटकर; स--सहित; अश्व--घोड़े; रथ--रथ; ध्वज--झंडा; अग्रणी:--तथा सारथी; बभौ--हो गये; दिशः--सारी दिशाएँ; खम्--आकाश को;पृथिवीम्--पृथ्वी को; च--तथा; रोचयन्--सुहावना बनाते; स्व-तेजसा--अपने तेज से; सूर्य:--सूर्य; इब--सहश; क्षपा-अत्यये--रात्रि बीत जाने पर |
तत्पश्चात् इन्द्र ने बाणों के पिंजर से अपने को छुड़ाया |
वह अपने रथ, झंडे, घोड़े तथासारथी के साथ प्रकट हुआ और आकाश, पृथ्वी तथा सभी दिशाओं में प्रसन्नता फैलाते हुए वहतेजी से ऐसे चमकने लगा मानो रात बीद जाने पर सूर्य तेजी से चमक रहा हो |
इन्द्र सब की दृष्टिमें तेजवान् तथा सुन्दर लग रहा था |
निरीक्ष्य पृतनां देव: परैरभ्यर्दितां रणे |
उदयच्छद्रिपुं हन्तुं वज्ज॑ वज़््धरो रुषा ॥
२७॥
निरीक्ष्य--देखकर; पृतनाम्--अपने सैनिकों को; देव: --इन्द्र ने; परैः--शत्रुओं द्वारा; अभ्यर्दिताम्-- अत्यधिक सताया गया;रणे--युद्धभूमि में; उदयच्छत्--ले लिया; रिपुम्-शत्रुओं को; हन्तुमू--मारने के लिए; वज्ञम्ू--वज्; वज्ञ-धर:--वज़धारणकरने वाला; रुषा--अत्यधिक गुस्से से |
जब वज्रधर नाम से विख्यात इन्द्र ने देखा कि उसके सैनिक युद्धभूमि में शत्रुओं द्वारा इसतरह सताये जा रहे हैं, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ |
तब उसने शत्रुओं को मारने के लिए अपनाबज्ज उठा लिया |
स तेनैवाष्टधारेण शिरसी बलपाकयो: |
ज्ञातीनां पश्यतां राजज्जहार जनयन्भयम् ॥
२८॥
सः--वह ( इन्द्र ); तेन--उसके द्वारा; एब--निस्सन्देह; अष्ट-धारेण--वज् द्वारा; शिससी--दो सिरों को; बल-पाकयो:--बलतथा पाक असुरों के; ज्ञातीनाम् पश्यताम्--उनके सम्बन्धियों तथा सैनिकों के देखते-देखते; राजन्--हे राजा; जहार--( इन्द्र ने )काट दिया; जनयन्--उत्पन्न करते हुए; भयम्ू--( उनके बीच ) भय |
हे राजा परीक्षित! राजा इन्द्र ने बल तथा पाक दोनों असुरों के सिरों को उनके सम्बन्धियोंतथा अनुयायियों की उपस्थिति में अपने वज्र द्वारा काट दिया |
इस तरह उसने युद्धभूमि मेंअत्यन्त भयावह वातावरण उत्पन्न कर दिया |
नमुचिस्तद्वधं इृष्टठा शोकामर्षरुषान्वितः |
जिघांसुरिन्द्रं नूपते चकार परमोद्यमम् ॥
२९॥
नमुचि:--नमुचि ने; तत्--उन दो असुरों की; वधम्--हत्या; हृष्ठा--देखकर; शोक-अमर्ष--शोक तथा दुख; रुषा-अन्बवित:--इससे अत्यन्त क्रुद्ध; जिघांसु:--मारना चाहा; इन्द्रमू--इन्द्र को; नू-पते--हे महाराज परीक्षित; चकार--किया; परम--महान्उद्यमम्--प्रयास |
हे राजा! जब असुर नमुचि ने बल तथा पाक दोनों असुरों को मारे जाते देखा तो वह दुखतथा शोक से भर गया |
अतएव उसने क्रुद्ध होकर इन्द्र को मारने का महान् प्रयास किया |
अश्मसारमयं शूलं घण्टावद्धेमभूषणम् |
प्रगृह्याभ्यद्रवत्क्रुद्धो हतोउसीति वितर्जयन् |
प्राहिणोद्देववाजाय निनदन्मृगराडिव ॥
३०॥
अश्मसार-मयम्--इस्पात का; शूलम्-- भाला; घण्टा-वत्--घण्टियों से बँधा; हेम-भूषणम्--सोने के आभूषणों से विभूषित;प्रगृह्द--हाथ में लेकर; अभ्यद्रवत्--बलपूवर्क गया; क्रुद्ध:--क्रुद्ध मुद्रा में; हतः असि इति--अब तुम मारे गए; वितर्जयन्ू--गर्जना करते हुए; प्राहिणोत्-- प्रहार किया; देव-राजाय--राजा इन्द्र को; निनदन्--गर्जना करते; मृग-राट्--सिंह; इब--समान
सिंह गर्जना करते हुए नमुचि ने क्रोध में आकर इस्पात का एक भाला उठाया जिसमेंघण्टियाँ बँधी थीं और जो सोने के आभूषणों से सज्जित था |
वह उच्चस्वर से चिल्लाया ‘अबतुम मारे गये' |
इस प्रकार इन्द्र को मारने के लिए उसके समक्ष जाकर नमुचि ने अपना हथियारचलाया |
तदापतदगगनतले महाजवंविचिच्छिदे हरिरिषुभि: सहस्त्रधा |
तमाहनन्नूप कुलिशेन कन्धरेरुषान्वितस्त्रिदशपति: शिरो हरन् ॥
३१॥
तदा--उस समय; अपतत्--उल्का की तरह गिर पड़ा; गगन-तले--आकाश के नीचे अर्थात् भूमि पर; महा-जबम्--अत्यन्तशक्तिशाली; विचिच्छिदे--खंड-खंड कर डाला; हरि: --इन्र ने; इषुभि:--अपने बाणों से; सहस्त्रधा--हजारों खण्डों में; तमू--उस नमुचि को; आहनतू-- प्रहार किया; नृप--हे राजा; कुलिशेन--अपने वज्ज से; कन्धरे--कन्धे पर; रुषा-अन्वित: -- अत्यन्तक्रुद्ध होकर; त्रिदश-पति:--देवताओं का राजा इन्द्र; शिर:--सिर; हरनू--काटने के लिए
है राजा! जब स्वर्ग के राजा इन्द्र ने इस अत्यन्त शक्तिशाली भाले को ज्वलित उल्का कीभाँति भूमि की ओर गिरते देखा तो उसने तुरन्त ही उसे अपने बाणों से खण्ड-खण्ड कर दिया |
फिर अत्यन्त क्रुद्ध होकर उसने नमुचि के कन्धे पर अपने वज्ज से प्रहार किया जिससे उसका सिरकट सके |
न तस्य हि त्वचमपि वज्ज ऊर्जितोबिभेद यः सुरपतिनौजसेरितः |
तदद्भुतं परमतिवीर्यवृत्रभित्तिरस्कृतो नमुचिशिरोधरत्वचा ॥
३२॥
न--नहीं; तस्य--उसका ( नमुचि का ); हि--निस्सन्देह; त्वचम् अपि--चमड़ी भी; वज्र:--वज्ञ; ऊर्जित: --अत्यन्तशक्तिशाली; बिभेद--घुस सका; यः--जो हथियार; सुर-पतिना--देवताओं के राजा द्वारा; ओजसा--अत्यन्त वेग के साथ;ईरितः--छोड़ा गया था; तत्ू--अतएव; अद्भुतम् परम्--अत्यधिक अद्भुत; अतिवीर्य-बृत्र-भित्ू--इतना शक्तिशाली था किअत्यन्त बलवान वृत्रासुर के भी शरीर को भेद सकता था; तिरस्कृत:ः--जिसे अब पीछे धकेल दिया गया था; नमुचि-शिरोधर-त्वचा--नमुचि की गर्दन की खाल से |
यद्यपि इन्द्र ने नमुचि पर अपना वज् बड़े ही वेग से चलाया था, किन्तु वह उसकी खाल कोभेद तक नहीं पाया |
यह बड़ी विचित्र बात है कि जिस सुप्रसिद्ध वज् ने वृत्रासुर के शरीर कोभेद डाला था वह नमुचि की गर्दन की खाल को रंचमात्र भी क्षति नहीं पहुँचा पाया |
तस्मादिन्द्रोडबिभेच्छत्रोर्वज्: प्रतिहतो यतः |
किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम् ॥
३३॥
तस्मात्ू--अतएव; इन्द्र:--स्वर्ग के राजा; अबिभेत्--बहुत डर गया; शत्रो:--शत्रु ( नमुचि ) से; वज्ञ:--वज्; प्रतिहतः --मारकर लौटने में असमर्थ था; यतः--क्योंकि; किम् इृदम्--यह क्या है; दैव-योगेन--दैवी शक्तिसे; भूतम्--हो गया है; लोक-विमोहनम्--सामान्य लोगों के लिए इतना आश्चर्यजनक |
जब इन्द्र ने वज़ को शत्रु से वापस आते देखा तो वह अत्यन्त भयभीत हो गया |
वह आश्चर्यकरने लगा कि कहीं किसी ऊँची दैवी शक्ति से तो यह सब कुछ नहीं हुआ |
येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेद: प्रजात्यये |
कृतो निविशतां भारै: पतत्तै: पततां भुवि ॥
३४॥
येन--इसी वज् से; मे--मेरे द्वारा; पूर्वमू--पहले; अद्रीणाम्--पर्वतों का; पक्ष-च्छेद: --पंखों का काटा जाना; प्रजा-अत्यये--जब जनता का वध होता था; कृतः--किया गया था; निविशताम्-- प्रवेश किये गये पर्वतों को; भारैः--अत्यधिक बोझ से;पतत्तैः--पंखों से; पतताम्--गिरते हुए; भुवि--जमीन पर
इन्द्र ने सोचा: पूर्वकाल में जब अनेक पर्वत अपने पंखों के द्वारा आकाश में उड़ते हुए भूमिपर गिरते थे और लोगों को मार डालते थे तो मैं अपने इसी वज्ञ से उनके पंख काट लेता था |
तपःसारमयं त्वाष्ट्र वृत्रो येन विपाटितः |
अन्ये चापि बलोपेता: सर्वास्त्रिरक्षतत्वच: ॥
३५॥
तपः--तपस्या; सार-मयम्-- अत्यन्त शक्तिशाली; त्वाष्टम्ू-्वष्टा द्वारा सम्पन्न; वृत्र:--वृत्रासुर; येन--जिससे; विपाटित: --मारा गया; अन्ये-- अन्य; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; बल-उपेता: -- अत्यन्त शक्तिशाली व्यक्ति; सर्व--सभी प्रकार के;अस्त्रै:--हथियारों से; अक्षत--बिना किसी चोट लगे; त्वच:--उनकी खाल |
यद्यपि वृत्रासुर त्वष्टा द्वारा की गईं तपस्या का सार-समाहार था, तो भी ( इन्द्र के ) वज्ज नेउसका काम तमाम कर दिया था |
निस्सन्देह, वही नहीं, अपितु ऐसे अनेक अग्रणी वीर भीजिनकी खाल को अन्य हथियार तनिक भी क्षति नहीं पहुँचा सके थे इसी वज् द्वारा मारे गए |
सोडयं प्रतिहतो बज्जो मया मुक्तोसुरेडल्पके |
नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजो उप्यकारणम् ॥
३६॥
सः अयम्--अतएव, यह वज्ञ; प्रतिहतः--लौट आया; वज़ः--वज़; मया--मेरे द्वारा; मुक्त:--छोड़ा गया; असुरे--असुर को;अल्पके--तुच्छ; न--नहीं; अहम्--मैं; तत्ू--उसे; आददे--पकड़े हुए हूँ; दण्डम्--डंडे की तरह; ब्रह्म-तेज: --ब्रह्मास्त्र केसमान शक्तिशाली; अपि--यद्यपि; अकारणम्--अब यह व्यर्थ हो चुका है |
किन्तु, अब वही वज्ज एक तुच्छ असुर पर छोड़े जाने पर भी प्रभावहीन हो गया है |
अतएवब्रह्मास्त्र जेसा होने पर भी यह मेरे लिए अब एक सामान्य डंडे की तरह व्यर्थ हो गया है |
इसलिएअब मैं इसे धारण नहीं करूँगा |
इति शक्रं विषीदन््तमाह वागशरीरिणी |
नाय॑ शुष्कैरथो नाद्रैवंधमहति दानव: ॥
३७॥
इति--इस प्रकार; शक्रम्--इन्द्र को; विषीदन्तम्--शोक करते; आह--कहा; वाक्--वाणी; अशरीरिणी--देहरहित याआकाश से; न--नहीं; अयम्--यह; शुष्कै: --किसी सूखी वस्तु से; अथो-- भी; न--न तो; आर््रै:--किसी गीली वस्तु से;वधम्--संहार; अहति--के योग्य है; दानव:ः--यह दानव ( नमुचि )
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब दु:खी इन्द्र इस तरह विषाद कर रहा था, तो एकअशुभ देहरहित वाणी ने आकाश से कहा : यह असुर नमुचि किसी शुष्क या गीली वस्तु सेविनष्ट नहीं किया जा सकता |
मयास्मै यद्वरो दत्तो मृत्युनैवार्द्शुष्कयो: |
अतोडन्यश्विन्तनीयस्ते उपायो मघवत्रिपो: ॥
३८ ॥
मया--मेरे द्वारा; अस्मै--उसको; यत्-- क्योंकि; वर:--वरदान; दत्त: --दिया गया है; मृत्यु:--मृत्यु; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; आई््र--या तो गीले; शुष्कयो:--या किसी सूखे माध्यम से; अत:--अतएव; अन्य: --अन्य कुछ, दूसरा;चिन्तनीय:--सोचना होगा; ते--तुम्हारे द्वारा; उपाय:--उपाय; मघवनू--हे इन्द्र; रिपो:--अपने शत्रु का |
आकाशवाणी ने यह भी कहा ‘'हे इन्द्र! चूँकि मैंने इस असुर को वर दे रखा है कि वहकभी किसी सूखे या गीले हथियार से नहीं मारा जायेगा, अतएवं उसे मारने के लिए कोई अन्यउपाय सोचो |
'तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान्सुसमाहितः |
ध्यायन्फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम् ॥
३९॥
ताम्--उस; दैवीम्--दैवी; गिरमू--वाणी को; आकर्ण्य--सुनकर; मघवानू--इन्द्र ने; सु-समाहित:--मनोयोग से; ध्यायन्--ध्यान करके; फेनम्--झाग को; अथ--तत्पश्चात्; अपश्यत्ू--देखा; उपायम्--साधन; उभय-आत्मकम्--एकसाथ शुष्क तथागीला
इस अशुभ वाणी को सुनकर इन्द्र बड़े मनोयोग से ध्यान करने लगा कि इस असुर को किसतरह मारा जाये |
तब उसे यह सूझा कि झाग ही ऐसा साधन है, जो न तो गीली होती है, न शुष्क |
न शुष्केण न चार्द्रेण जहार नमुचे: शिरः |
त॑ तुष्ठवुर्मुनिगणा माल्यैश्वावाकिरन्विभुम् ॥
४०॥
न--न तो; शुष्केण -- शुष्क साधन से; न--न तो; च-- भी; आर्द्रेण--गीले हथियार से; जहार--उसने काट लिया; नमुचे:--नमुचि का; शिर:--सिर; तम्--उसको ( इन्द्र को ); तुष्ठवु:--सन्तुष्ट किया; मुनि-गणा:--सारे मुनियों ने; माल्यैः--फूलों कीमालाओं से; च-- भी; अवाकिरन्ू--ढक दिया; विभुम्--उस महापुरुष को |
इस तरह स्वर्ग के राजा इन्द्र ने अपनी झाग के हथियार से नमुचि का सिर काट दिया |
यहझाग न तो शुष्क थी, न आर्द्र |
तब सारे मुनियों ने उस महापुरुष इन्द्र पर फूलों की वर्षा की तथामाल्यार्पण द्वारा उसे लगभग ढक दिया और सन्तुष्ट कर लिया |
गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्चावसुपरावसू |
देवदुन्दुभयो नेदुर्नरतक्यो ननृतुर्मुदा ॥
४१॥
गन्धर्व-मुख्यौ--गन्धर्वों के दो प्रधान; जगतु:--सुन्दर गीत गाने लगे; विश्वावसु--विश्वावसु; परावसू--परावसु नामक; देव-दुन्दुभय:ः--देवताओं द्वारा बजाई गई दुन्दुभियाँ; नेदु:--बजाया; नर्तक्य:--नर्तकियाँ, जिन्हें अप्सरा कहा जाता है; ननृतुः--नाचने लगीं; मुदा--अत्यन्त प्रसन्नता से विश्वावसु तथा परावसु नामक दो गन्धर्व प्रमुखों ने अतीव प्रसन्नता में गीत गाये |
देवताओं नेदुन्दुभियाँ बजाईं और अप्सराओं ने हर्षित होकर नृत्य किया |
अन्येउ्प्येवं प्रतिद्वन्द्वान्वाय्वग्निवरुणादय: |
सूदयामासुरसुरान्मृगान्केसरिणो यथा ॥
४२॥
अन्ये--अन्यों ने; अपि-- भी; एवम्--इस प्रकार; प्रतिद्वन्द्दान्ू--विपक्षियों को; वायु--वायुदेव; अग्नि--अग्निदेव; वरुण-आदय:--वरुण देव तथा अन्य; सूदयाम् आसु:--तेजी से मारने लगे; असुरान्--सारे असुरों को; मृगान्--हिरनों को;केसरिण:--सिंह; यथा--जिस तरह |
वायु, अग्नि, वरुण इत्यादि देवता अपने विरोधी असुरों को उसी तरह मारने लगे जिस तरहजंगल में हिरनों को सिंह मारते हैं |
ब्रह्मणा प्रेषितो देवान्देवर्षिनारदो नृप |
वारयामास विबुधान्दष्टा दानवसड्छक्षयम् ॥
४३॥
ब्रह्मणा--ब्रह्माजी द्वारा; प्रेषित:-- भेजा गया; देवानू--देवताओं के ; देव-ऋषि:--स्वर्ग के महान् ऋषि; नारद:--नारद मुनि ने;नृप--हे राजा; वारयाम् आस--मना किया; विबुधान्--सारे देवताओं को; दृष्ठा--देखकर; दानव-सद्क्षयम्--असुरों का पूर्णविनाश |
हे राजा! जब ब्रह्मा ने देखा कि दानवों का पूर्ण संहार तुरन्त होने वाला है, तो उन्होंने नारदद्वारा सन्देश भेजा जो युद्ध रुकवाने के लिए देवताओं के समक्ष गये |
श्रीनारद उवाचभवद्धिरमृतं प्राप्त नारायणभुजा श्रयै: |
भ्रिया समेधिता: सर्व उपारमत विग्रहात् ॥
४४॥
श्री-नारदः उबाच--नारद मुनि ने देवताओं से प्रार्थना की; भवद्धि:--आप लोगों के द्वारा; अमृतमू--अमृत; प्राप्तम्--प्राप्तकिया जा चुका है; नारायण--नारायण की; भुज-आश्रयैः --भुजाओं के द्वारा सुरक्षित; भ्रिया--लक्ष्मी द्वारा; समेधिता:--उन्नतिकी है; सर्वे--आप सब; उपारमत--अब रुक जाओ; विग्रहात्ू--इस लड़ाई से महामुनि
नारद ने कहा : तुम सारे देवता भगवान् नारायण की भुजाओं द्वारा सुरक्षित हो औरउनकी कृपा से तुम सबको अमृत प्राप्त हुआ है |
लक्ष्मीजी की कृपा से तुम हर तरह से गौरान्वित हुए हो; अतएवं अब यह लड़ाई बन्द कर दो |
श्रीशुक उबाचसंयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वच: |
उपगीयमानानुचरैर्ययु: सर्वे त्रिविष्टपम् ॥
४५॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; संयम्य--रोककर; मन्यु--क्रोध का; संरम्भम्--वृद्धि, उभाड़; मानयन्तः--स्वीकार करते हुए; मुने: वच:--नारद मुनि के शब्द; उपगीयमान--प्रशंसित होकर; अनुचरैः--अनुयायियों द्वारा; ययु;--लौटगये; सर्वे--सारे देवता; त्रिविष्टपम्--स्वर्ग लोक को |
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : नारद मुनि के बचनों को मानकर देवताओं ने अपना क्रोधत्याग दिया और लड़ाई बन्द कर दी |
वे अपने अनुयायियों द्वारा प्रशंसित होकर स्वर्गलोक कोलौट गये |
येवशिष्टा रणे तस्मिन्नारदानुमतेन ते |
बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन् ॥
४६॥
ये--जो थोड़े से असुर; अवशिष्टा:--बचे थे; रणे--युद्ध में; तस्मिनू--उस; नारद-अनुमतेन--नारद की आज्ञा से; ते--वे सभी;बलिम्--महाराज बलि को; विपन्नम्--संकट ग्रस्त; आदाय--लेकर; अस्तम्--अस्त नामक; गिरिम्ू--पर्वत पर; उपागमन्--चले गये |
युद्धक्षेत्र में जितने भी असुर बचे थे, वे सब नारद मुनि के आदेशानुसार बलि महाराज कोजिनकी अवस्था अत्यन्त गम्भीर थी, अस्तगिरि ले गये |
तत्राविनष्टावयवान्विद्यमानशिरोधरान् |
उशना जीवयामास संजीवन्या स्वविद्यया ॥
४७॥
तत्र--उस पर्वत पर; अविनष्ट-अवयवानू--बचे हुए अंगों वाले मारे गए असुरों को; विद्यमान-शिरोधरान्ू--जिनके सिर उनकेशरीरों में अभी तक लगे थे; उशना:--शुक्राचार्य; जीवयाम् आस--जीवित कर दिया; संजीवन्या--सञ्जञी वनी मंत्र द्वारा; स्व-विद्यया--अपनी विद्या से |
उस पर्वत पर शुक्राचार्य ने उन सारे मृत असुर सैनिकों को जिनके सिर, धड़ तथा हाथ- पाँवकटे नहीं थे जीवित कर दिया |
उन्होंने अपने सञ्जीवनी मंत्र के द्वारा यह सब किया |
बलिश्रोशनसा स्पृष्ट: प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृति: |
पराजितोपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षण: ॥
४८ ॥
बलि:--महाराज बलि ने; च--भी; उशनसा--शुक्राचार्य द्वारा; स्पृष्ट: --स्पर्श से; प्रत्यापन्न--पुनः जीवित किया गया; इन्द्रिय-स्मृतिः--इन्द्रियों के कार्यों तथा स्मृति की अनुभूति; पराजित:--हरा दिया गया; अपि--यद्यपि; न अखिद्यत्ू--शोक नहींकिया; लोक-तत्त्व-विचक्षण: --सांसारिक कार्यो में अत्यन्त अनुभवी होने के कारण |
बलि महाराज सांसारिक कार्यों में अत्यन्त अनुभवी थे |
जब शुक्राचार्य की कृपा से उन्हेंहोश आया और उनकी स्मृति लौट आई तो जो कुछ हो चुका था उसे वे समझ गये |
इसलिए पराजित होने पर भी उन्हें शोक नहीं हुआ |
अध्याय बारह: मोहिनी-मूर्ति अवतार भगवान शिव को भ्रमित करता है
8.12श्रीबादरायणिरुवाचवृषध्वजो निशम्येदं योषिद्रपेण दानवान् |
मोहयित्वा सुरगणान्हरि: सोममपाययत् ॥
१॥
वृषमारुहा गिरिशः सर्वभूतगणैर्वृतः |
सह देव्या ययौ द्रष्ट यत्रास्ते मधुसूदनः ॥
२॥
श्री-बादरायणि: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; वृष-ध्वज:--बैल पर सवारी करने वाले शिवजी ने; निशम्य--सुनकर;इदम्--यह ( खबर ); योषित्-रूपेण--स्त्री का रूप धारण करके; दानवान्--दानवों को; मोहयित्वा--मुग्ध करके; सुर-गणानू्--देवताओं को; हरिः-- भगवान् ने; सोमम्ू-- अमृत; अपाययत्--पिलाया; वृषम्--बैल पर; आरुह्म-- चढ़कर;गिरिश:--शिवजी; सर्व --सारे; भूत-गणै:-- भूत-प्रेतों के द्वारा; वृतः--घिरे हुए; सह देव्या--उमा के साथ; ययौ--गये;द्रष्टभू--देखने के लिए; यत्र--जहाँ; आस्ते--रुकते हैं; मधुसूदन:-- भगवान् विष्णु |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : स्त्री के रूप में भगवान् हरि ने दानवों को मोह लिया औरदेवताओं को अमृत पिलाया |
इन लीलाओं को सुनकर बैल पर सवारी करने वाले शिवजी उसस्थान पर गये जहाँ भगवान् मधुसूदन रहते हैं |
शिवजी अपनी पत्नी उमा को साथ लेकर तथा अपने साथी प्रेतों से घिरकर वहाँ भगवान् के स्त्री-रूप को देखने गये |
सभाजितो भगवता सादरं सोमया भव: |
सूपविष्ट उबाचेदं प्रतिपूज्य स्मयन्हरिम् ॥
३॥
सभाजित:--सुसम्मानित; भगवता-- भगवान् विष्णु द्वारा; स-आदरम्--अत्यन्त सम्मानपूर्वक ( जो शिवजी के अनुकूल था );स-उम्या--उमा सहित; भवः--शम्भु ( शिवजी ); सु-उपविष्ट:--ठीक प्रकार से स्थित; उवाच--कहा; इृदम्--यह;प्रतिपूज्य--सम्मान प्रदर्शित करके ; स्मयन्--मुस्काते; हरिम्-- भगवान् के प्रति
भगवान् ने शिवजी तथा उमा का अत्यन्त सम्मान के साथ स्वागत किया और ठीक प्रकार सेबैठ जाने पर शिवजी ने भगवान् की विधिवत् पूजा की तथा मुस्काते हुए वे इस प्रकार बोले |
श्रीमहादेव उवाचदेवदेव जगद्व्यापिद्जगदीश जगन्मय |
सर्वेषामपि भावानां त्वमात्मा हेतुरी श्वर: ॥
४॥
श्री-महादेव: उबाच--शिवजी ( महादेव ) ने कहा; देव-देव--हे देवताओं में सर्वश्रेष्ठ देवता; जगत्-व्यापिन्--हे सर्वव्यापीभगवान्; जगत्-ईश-हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; जगत्ू-मय--हे भगवान्, जो तुरन्त ही अपनी शक्ति से इस सृष्टि में बदल गए हैं;सर्वेषाम् अपि--समस्त प्रकार के; भावानामू--स्थितियाँ; त्वम्ू--तुम; आत्मा--गतिमान् शक्ति; हेतु:--इसका कारण; ईश्वर: --भगवान्, परमे श्वर |
महादेवजी ने कहा : हे देवताओं में प्रमुख देव! हे सर्वव्यापी, ब्रह्माण्ड के स्वामी! आपनेअपनी शक्ति से अपने को सृष्टि में रूपान्तरित कर दिया है |
आप हर वस्तु के मूल एवं सक्षमकारण हैं |
आप भौतिक नहीं हैं |
निस्सन्देह, आप हर एक की परम सञ्जीवनी शक्ति या परमात्माहैं |
अतएव आप परमेश्वर हैं अर्थात् सभी नियंत्रकों के परम नियंत्रक हैं |
आइद्चन्तावस्य यन्मध्यमिदमन्यदहं बहिः |
यतोडव्ययस्य नैतानि तत्सत्यं ब्रह्म चिद्भधवान् ॥
५॥
आदि--प्रारम्भ; अन्तौ--तथा अन्त; अस्य--इस व्यक्त जगत का या किसी भी भौतिक या दृश्य वस्तु का; यत्ू--जो; मध्यम्--आरम्भ एवं अन्त के मध्य, पालन; इृदम्--यह दृश्य जगत; अन्यत्ू--आपके अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु; अहम्ू--गलत धारणा;बहिः--आपसे बाहर; यत:--के कारण; अव्ययस्य--अक्षय; न--नहीं; एतानि--इतने सारे अन्तर; तत्ू--वह; सत्यम्--परमसत्य; ब्रह्म--ब्रहा; चित्--आध्यात्मिक; भवान्--आप |
हे भगवान्! व्यक्त, अव्यक्त, मिथ्या अहंकार तथा इस दृश्य जगत का आदि ( उत्पत्ति ),पालन तथा संहार सभी कुछ आपसे है |
किन्तु आप परम सत्य, परमात्मा, परम ब्रह्म हैं अतएवजन्म, मृत्यु तथा पालन जैसे परिवर्तन आप में नहीं पाये जाते |
तबैव चरणाम्भोज॑ श्रेयस्कामा निराशिष: |
विसृज्योभयतः सड़ं मुनयः समुपासते ॥
६॥
तव--तुम्हारे; एब--निस्सन्देह; चरण-अम्भोजम्--चरणकमल; श्रेयः-कामा:--चरम कल्याण रूपी जीवन के चरम लक्ष्य केइच्छुक व्यक्ति; निशाशिष:--बिना किसी भौतिक इच्छा के; विसृज्य--त्यागकर; उभयत:--इस जीवन में तथा अगले जीवन में;सड्डम--आसक्ति; मुनयः--मुनिगण; समुपासते--पूजा करते हैं |
जो शुद्ध भक्त या महान् सन्त पुरुष ( मुनिगण ) जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने केइच्छुक हैं तथा इन्द्रियतृप्ति की समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, वे आपके चरणकमलों कीनिरन्तर भक्ति में लगे रहते हैं |
त्वं ब्रह्म पूर्णमममृतं विगुणं विशोक-मानन्दमात्रमविकारमनन्यदन्यत् ॥
विश्वस्य हेतुरूुदयस्थितिसंयमाना-मात्मेश्वरश्न तदपेक्षतयानपेक्ष: ॥
७॥
त्वमू--आप; ब्रह्म--सर्वव्यापी परम सत्य; पूर्णम्ू--परम पूर्ण; अमृतम्--कभी नष्ट न होने वाले; विगुणम्-प्रकृति के गुणों सेमुक्त, आध्यात्मिक रूप से स्थित; विशोकम्--शोक रहित; आनन्द-मात्रम्ू--सदैव दिव्य आनन्द से युक्त; अविकारम्--परिवर्तनरहित; अनन्यत्--हर वस्तु से पृथक्; अन्यतू--फिर भी सब कुछ हो; विश्वस्थ--हृश्य जगत के; हेतु:--कारण; उदय--प्रारम्भ के; स्थिति--पालन; संयमानाम्--तथा विश्व के विभिन्न विभागों को नियंत्रण में रखने वाले समस्त निदेशकों में से;आत्म-ईश्वर:--हर एक को निर्देश देने वाले परमात्मा; च--भी; तत्-अपेक्षतया--हर व्यक्ति आप पर आश्ित है; अनपेक्ष: --सदैव पूर्णतः स्वतंत्र
हे प्रभु! आप परब्रह्म तथा सभी प्रकार से पूर्ण हैं |
पूर्णतः आध्यात्मिक होने के कारण आपनित्य, प्रकृति के भौतिक गुणों से मुक्त तथा दिव्य आनन्द से पूरित हैं |
निस्सन्देह, आपके लिएशोक करने का प्रश्न ही नहीं उठता |
चूँकि आप समस्त कारणों के परम कारण हैं अतएवआपके बिना कोई भी अस्तित्व में नहीं रह सकता |
फिर भी जहाँ तक कारण तथा कार्य कासम्बन्ध है हम आपसे भिन्न हैं क्योंकि एक दृष्टि से कार्य तथा कारण पृथक्-पृथक् हैं |
आपसृष्टि, पालन तथा संहार के मूल कारण हैं और आप समस्त जीवों को वर देते हैं |
हर व्यक्तिअपने कार्यों के फलों के लिए आप पर निर्भर है, किन्तु आप सदा स्वतंत्र हैं |
एकस्त्वमेव सदसद्द्वयमद्दयं चस्वर्ण कृताकृतमिवेह न वस्तुभेद: |
अज्ञानतस्त्वयि जनैर्विहितो विकल्पो यस्मादगुणव्यतिकरो निरुपाधिकस्थ ॥
८॥
एकः--केवल एक; त्वमू--आप; एव--निस्सन्देह; सत्ू--जिसका अस्तित्व है, यथा फल; असत्--जिसका अस्तित्व नहीं है,यथा कारण; द्वयम्--दो; अद्दयम्ू--द्वैतरहित; च--तथा; स्वर्णम्ू--सोना; कृत--विभिन्न रूपों में निर्मित; आकृतम्-स्वर्ण कामूल स्त्रोत ( सोने की खान ); इब--सहृश; इह--इस संसार में; न--नहीं; वस्तु-भेद:ः--वस्तु में भेद; अज्ञानतः--अज्ञान केकारण; त्वयि--तुममें; जनैः--जनसमूह द्वारा; विहित:--ऐसा होना चाहिए; विकल्प:--विभेद; यस्मात्--जिसके कारण;गुण-व्यतिकरः--प्रकृति के भौतिक गुणों द्वारा उत्पन्न अन्तरों से रहित; निरुपाधिकस्य--किसी भौतिक उपाधि के बिना |
हे प्रभ!! आप अकेले ही कार्य तथा कारण हैं, अतएवं आप दो प्रतीत होते हुए भी परम एकहैं |
जिस तरह आभूषण के सोने तथा खान के सोने में कोई अन्तर नहीं होता, उसी तरह कारणतथा कार्य में अन्तर नहीं होता, दोनों ही एक हैं |
अज्ञानवश ही लोग अन्तर तथा द्वैत गढ़ते हैं |
आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं और चूँकि समस्त ब्रह्माण्ड आपके द्वारा उत्पन्न है और आपकेबिना नहीं रह सकता अतएवं यह आपके दिव्य गुणों का प्रभाव है |
इस प्रकार इस धारणा कोकोई बल नहीं मिलता कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है |
त्वां ब्रह्म केचिदवयन्त्युत धर्ममेकेएके परं सदसतो: पुरुषं परेशम् |
अन्येवर्यन्ति नवशक्तियुतं परं त्वांकेचिन्महापुरुषमव्ययमात्मतन्त्रम् ॥
९॥
त्वामू--तुमको; ब्रह्म--परम सत्य, ब्रह्म; केचित्ू--कुछ लोग, यथा मायावादी जो वेदान्ती कहलाते हैं; अवयन्ति--मानते हैं;उत--निश्चय ही; धर्मम्--धर्म को; एके--कुछ लोग; एके -- कुछ अन्य लोग; परम्ू--दिव्य; सत्-असतो:--कार्य तथा कारणदोनों; पुरुषम्--परम पुरुष को; परेशम्--परम नियन्ता; अन्ये--दूसरे लोग; अवयन्ति--वर्णन करते हैं; नव-शक्ति-युतम्--नौशक्तियों से युक्त; परम्-दिव्य; त्वाम्--तुमको; केचित्--कुछ; महा-पुरुषम्-- भगवान् को; अव्ययम्-शक्तिक्षय के बिना;आत्म-तन्त्रमू--परम स्वतंत्र |
जो निर्विशेष मायावादी कहलाते हैं, वे आपको निर्विशेष ब्रह्म के रूप में मानते हैं |
मीमांसक विचारक आपको धर्म के रूप में मानते हैं |
सांख्य दार्शनिक आपको ऐसा परम पुरुषमानते हैं, जो प्रकृति तथा पुरुष के परे है और देवताओं का भी नियंत्रक है |
जो लोग पद्ञरात्रनामक भक्ति के नियमों के अनुयायी हैं, वे आपको नौ शक्तियों से युक्त मानते हैं |
तथा पतञ्जलिमुनि के अनुयायी, जो पतञ्जल दार्शनिक कहलाते हैं, आपको उस परम स्वतंत्र भगवान् के रूपमें मानते हैं जिसके न तो कोई तुल्य है और जिस से कोई श्रेष्ठ है |
नाहं परायुरृषयो न मरीचिमुख्याजानन्ति यद्विरचितं खलु सच्त्वसर्गा: |
यन्मायया मुषितचेतस ईश दैत्य-मर्त्यादय: किमुत शश्वदभद्गवृत्ता: ॥
१०॥
न--न तो; अहम्--मैं; पर-आयु: --ऐसा व्यक्ति जो लाखों करोड़ों वर्ष जीवित रहता है ( ब्रह्माजी ); ऋषय:--सात लोकों केसात ऋषि; न--न तो; मरीचि-मुख्या:--मरीचि ऋषि इत्यादि; जानन्ति--जानते हैं; यत्--जिससे ( भगवान् से ); विरचितम्--यह ब्रह्माण्ड रचा गया; खलु--निस्सन्देह; सत्त्व-सर्गा:--यद्यपि भौतिक सतोगुण में उत्पन्न; यत्ू-मायया--जिसकी माया के प्रभाव से; मुषित-चेतस: --मोहित चित्त; ईश--हे स्वामी; दैत्य--असुर; मर्त्य-आदय: --मनुष्य इत्यादि; किम् उत--क्या कहाजाये; शश्वत्--सदैव; अभद्ग-वृत्ता:--प्रकृति के निम्न गुणों से प्रभावित |
हे प्रभु! सभी देवताओं में श्रेष्ठ माना जाने वाला मैं, ब्रह्माजी तथा मरीचि इत्यादि महर्षिसतोगुण से उत्पन्न हैं |
तब भी हम सभी आपकी माया से मोहग्रस्त हैं और यह नहीं समझ पाते कियह सृष्टि क्या है |
आप हमारी बात छोड़ भी दें तो उन असुरों तथा मनुष्यों के बारे में क्या कहाजाये जो प्रकृति के निम्न गुणों ( रजो तथा तमो गुणों ) से युक्त हैं ? वे आपको कैसे जान सकतेहैं? स त्वं समीहितमद: स्थितिजन्मनाशंभूतेहितं च जगतो भवबन्धमोक्षौ |
वायुर्यथा विशति खं च चराचराख्यंसर्व तदात्मकतयावगमोवरुन्त्से ॥
११॥
सः--वह; त्वम्ू--आप भगवान्; समीहितम्--( आपके द्वारा ) उत्पन्न किया हुआ; अद:--इस भौतिक जगत का; स्थिति-जन्म-नाशम्ू--सृजन, पालन तथा संहार; भूत--जीवों का; ईहितम् च--तथा विभिन्न कार्य या उद्योग; जगतः--सारे जगत का; भव-बन्ध-मोक्षौ--सांसारिक बन्धन में पड़ने और छूटने में; वायु:--हवा; यथा--जिस तरह; विशति--प्रवेश करती है; खम्--विस्तृत आकाश में; च--तथा; चर-अचर-आख्यम्--तथा चर और अचर; सर्वम्--हर वस्तु; तत्ू--वह; आत्मकतया--आपकी उपस्थिति से; अवगम:ः --आपके अवगत रहने से; अवरुन्त्से--सर्वव्यापी होने के कारण आप सब कुछ जानते हैं |
हे प्रभु! आप साक्षात् परम ज्ञान हैं |
आप इस सृष्टि तथा इसके सृजन, पालन तथा संहार केविषय में सब कुछ जानते हैं |
आप जीवों द्वारा किये जाने वाले उन सारे प्रयासों से अवगत हैंजिनके द्वारा वे इस भौतिक जगत से बँधते या मुक्त होते हैं |
जिस प्रकार वायु विस्तीर्ण आकाशके साथ-साथ समस्त चराचर प्राणियों में प्रविष्ट करती है उसी प्रकार आप सर्वत्र विद्यमान हैं,अतएव सर्वज्ञ हैं |
अवतारा मया हदृष्टा रममाणस्य ते गुणैः |
सोहं तददरष्ठुमिच्छामि यत्ते योषिद्वपुर्धृतम् ॥
१२॥
अवतारा:--अवतार; मया-- मेरे द्वारा; दृष्टाः--देखे जा चुके हैं; रममाणस्य--लीला करते समय; ते--तुम्हारे; गुणैः--दिव्यगुणों से प्रकट; सः--शिवजी; अहम्--मैं; तत्--वह अवतार; द्रष्टम् इच्छामि--देखना चाहता हूँ; यत्--जो; ते--तुम्हारा;योषितू-वपु:--स्त्री का शरीर; धृतम्-- धारण किया हुआ |
हे प्रभु! मैंने आपके उन सभी अवतारों का दर्शन किया है जिन्हें आप अपने दिव्य गुणों केद्वारा प्रकट कर चुके हैं |
अब जबकि आप एक सुन्दर तरुणी के रूप में प्रकट हुए हैं, मैं आपकेउसी स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ |
येन सम्मोहिता दैत्या: पायिताश्चामृतं सुरा: |
तदिदृक्षव आयाता: परं कौतूहलं हि न: ॥
१३॥
येन--ऐसे अवतार से; सम्मोहिता:--मोहित हो गये थे; दैत्या:--असुरगण; पायिता:--पिलाया गया था; च--भी; अमृतम्--अमृत; सुरा:--देवतागण; तत्--वह रूप; दिदृदक्षव:ः--देखने की इच्छा से; आयाता: --हम आये हैं; परम्--अत्यधिक;कौतूहलम्--अत्यन्त उत्सुकता; हि--निस्सन्देह; नः--हमारी |
है भगवान्! हम लोग यहाँ पर आपके उस रूप का दर्शन करने आये हैं जिसे आपने असुरोंको पूर्णतया मोहित करने के लिए दिखलाया था और इस प्रकार देवताओं को अमृत पान करनेदिया था |
मैं उस रूप को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ |
श्रीशुक उबाचएवमभ्यर्थितो विष्णुर्भगवान्शूलपाणिना |
प्रहस्य भावगम्भीरं गिरिशं प्रत्यभाषत ॥
१४॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; अभ्यर्थित:--प्रार्थना किये जाने पर; विष्णु: भगवान्--भगवान् विष्णु ने; शूल-पाणिना--त्रिशूलधारी शिवजी द्वारा; प्रहस्थ--हँसते हुए; भाव-गम्भीरम्--अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक;गिरिशम्--शिवजी को; प्रत्यभाषत--उत्तर दिया
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब त्रिशूलधारी शिवजी ने भगवान् विष्णु से इस तरह प्रार्थनाकी तो वे गम्भीर होकर हँस पड़े और उन्होंने उनको इस प्रकार से उत्तर दिया |
श्रीभगवानुवाचकौतूहलाय दैत्यानां योषिद्वेषो मया धृतः |
पश्यता सुरकार्याणि गते पीयूषभाजने ॥
१५॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; कौतूहलाय--मोहग्रस्त करने के लिए; दैत्यानाम्--असुरों को; योषित्-वेष: --सुन्दर स्त्रीका रूप; मया--मेरे द्वारा; धृत:--धारण किया गया; पश्यता--देखते हुए कि यह मेरे लिए आवश्यक है; सुर-कार्याणि--देवताओं के हितों की रक्षा करने के लिए; गते--छीन लिए जाने पर; पीयूष-भाजने--अमृत घट के |
भगवान् ने कहा : जब असुरों ने अमृत घट छीन लिया तो मैंने उन्हें प्रत्यक्ष छलावा देकरमोहित करने के उद्देश्य से और इस तरह देवताओं के हित में कार्य करने के लिए, एक सुन्दर स्त्रीका रूप धारण कर लिया |
तत्तेडहं दर्शयिष्यामि दिदृक्षो: सुरसत्तम |
कामिनां बहु मन्तव्यं सड्डूल्पप्रभवोदयम् ॥
१६॥
तत्--वह; ते--तुमको; अहम्--मैं; दर्शयिष्यामि--दिखलाऊँगा; दिद्क्षो:--देखने के इच्छुक; सुर-सत्तम--हे देवताओं मेंश्रेष्ठ; कामिनामू--कामी पुरुषों के; बहु--अनेक; मन्तव्यम्ू--आराधना का लक्ष्य; सड्डल्प--कामेच्छाएँ; प्रभव-उदयम्--प्रबलरूप से जगाते हुए |
हे देवश्रेष्ठ) अब मैं तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगा जो कामी पुरुषों द्वारा अत्यधिक सराहाजाता है |
चूँकि तुम मेरा वैसा रूप देखना चाहते हो अतएव मैं तुम्हारे समक्ष उसे प्रकट करूँगा |
तात्पर्य : शिवजी द्वारा भगवान् विष्णु से स्त्री का सबसे अधिक आकर्षक रूप प्रकट करने कहनानिश्चय ही उपहास का विषय था |
शिवजी जानते थे कि वे किसी तथाकथित सुन्दर स्त्री द्वारा विचलित श्रीशुक उबाचइति ब्रुवाणो भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत |
सर्वतश्चारयंश्चक्षुरभव आस्ते सहोमया ॥
१७॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ब्रुवाण:--बोलते हुए; भगवान्-- भगवान् विष्णु; तत्र--वहाँ; एब--तुरन्त; अन्तरधीयत--शिवजी तथा उनके पार्षदों की दृष्टि से ओझल हो गये; सर्वतः--सर्वत्र; चारयन्ू--घुमाते हुए;चक्षु;--आँखें; भव: --शिव; आस्ते--रह गए; सह-उमया--अपनी पत्नी उमा के साथ |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : ऐसा कहकर भगवान् विष्णु तुरन्त ही अन्तर्धान हो गयेऔर शिवजी उमा सहित वहीं पर चारों ओर आँखें घुमाते उन्हें ढूँढ़ते रह गये |
ततो ददर्शोपवने वरस्त्रियंविचित्रपुष्पारुणपललवदुमे |
विक्रीडतीं कन्दुकलीलया लसदू-दुकूलपर्यस्तनितम्बमेखलाम् ॥
१८ ॥
ततः--तत्पश्चात्; ददर्श--शिवजी ने देखा; उपवने--सुन्दर वन में; वर-स्त्रियम्ू--एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री को; विचित्र--नानाप्रकार के; पुष्प--फूल; अरुण--गुलाबी; पल्लव--पत्तियाँ; द्रमे--वृक्षों के बीच में; विक्रीडतीम्--खेलने में व्यस्त;कन्दुक--गेंद से; लीलया--खेल-खेल में; लसत्--चमकता; दुकूल--साड़ी से; पर्यस्त--ढका; नितम्ब--कूल्हों पर;मेखलाम्--करधनी पहने |
तत्पश्चात् शिवजी ने गुलाबी पत्तियों तथा विचित्र फूलों से भरे निकट के एक सुन्दर जंगल मेंएक सुन्दर स्त्री को गेंद से खेलते देखा |
उसके कूल्हे एक चमचमाती साड़ी से ढके थे तथा एक करधनी से सुशोभित थे |
आवर्तनोद्वर्तनकम्पितस्तन-प्रकृष्टहारोरु भर: पदे पदे |
प्रभज्यमानामिव मध्यतश्चलत्-पदफप्रवालं नयतीं ततस्ततः ॥
१९॥
आवर्तन--नीचे गिरने से; उद्दर्तनत--तथा ऊपर उछलने से; कम्पित--हिलते; स्तन--दोनों स्तनों का; प्रकृष्ट--सुन्दर; हार--तथामाला के; उरु-भरैः--गुरु भार के कारण; पदे पदे-- प्रत्येक पग पर; प्रभज्यमानाम् इब--मानो टूट जायेगी; मध्यत:--शरीर केमध्य भाग में; चलत्--इस तरह हिलती डुलती; पद-प्रवालम्--मूँगे के समान लाल-लाल पाँव; नयतीम्--चंचल; ततः ततः--जहाँ-तहाँ |
चूँकि गेंद ऊपर तथा नीचे उछल रही थी अतएवं जब वह उससे खेलती तो उसके स्तन हिलतेथे और जब वह अपने मूँगों जैसे लाल मुलायम पाँवों से इधर-उधर चलती तो उन स्तनों के गुरूभार से तथा फूलों की भारी माला से उसकी कमर प्रत्येक पग पर टूटती हुई प्रतीत हो रही थी |
दिश्लु भ्रमत्कन्दुकचापले भुंशंप्रोद्विगनतारायतलोललोचनाम् |
स्वकर्णविभ्राजितकुण्डलोल्लसत्-कपोलनीलालकमण्डिताननाम् ॥
२०॥
दिश्षु--सारी दिशाओं में; भ्रमत्--उछलते; कन्दुक--गेंद; चापलै:--चपलता; भृूशम्--अब और तब; प्रोद्विग्न--चिन्ता सेयुक्त; तार--आँखें; आयत--चौड़ी खुली; लोल--चंचल; लोचनाम्--आँखों वाली; स्व-कर्ण--अपने दोनों कानों में;विभ्राजित--प्रकाशमान्; कुण्डल--कान की बालियाँ; उललसत्--चमकती; कपोल--गाल; नील--साँवले; अलक--बालोंसे युक्त; मण्डित--सुशोभित था; आननामू--मुख |
उस स्त्री का मुखमण्डल विस्तृत तथा सुन्दर था और चंचल आँखों से सुशोभित था और वहअपने हाथों द्वारा उछाली गई गेंद के साथ घूम रही थीं |
उसके कानों के दो जगमगाते कुण्डलउसके चमकते गालों पर साँवली छाया की तरह सुशोभित हो रहे थे और उसके मुख पर बिखरेबाल उसे देखने में और भी सुन्दर बना रहे थे |
एलथहुकूलं कबरीं च विच्युतांसन्नह्मतीं वामकरेण वल्गुना |
विनिघ्नतीमन्यकरेण कन्दुकंविमोहयन्तीं जगदात्ममायया ॥
२१॥
शए्लथत्--नीचे गिरती या ढीली ढाली; दुकूलम्--साड़ी; कबरीम् च--तथा सिर के बाल; विच्युतामू--खुलकर बिखरते हुए;सन्नह्मयतीम्--बाँधने का प्रयत्त करती; वाम-करेण--बाएँ हाथ से; वल्गुना--अत्यन्त आकर्षक; विनिध्नतीम्-- प्रहार करती;अन्य-करेण--दाएँ हाथ से; कन्दुकम्-गेंद को; विमोहयन्तीम्--इस प्रकार हर एक को सम्मोहित करती; जगत्--सारा संसार;आत्म-मायया--अपनी अन्तरंगा शक्ति से |
जब वह गेंद खेलती तो उसके शरीर को ढकने वाली साड़ी ढीली पड़ जाती और उसकेबाल बिखर जाते |
वह अपने सुन्दर बाएँ हाथ से अपने बालों को बाँधने का प्रयास करती औरसाथ ही दाएँ हाथ से गेंद को मारकर खेलती जा रही थी |
यह इतना आकर्षक दृश्य था किभगवान् ने अपनी अन्तरंगा शक्ति से इस तरह हर एक को मोह लिया |
तां वीक्ष्य देव इति कन्दुकलीलयेषदू-ब्रीडास्फुटस्मितविसूष्टकटाक्षमुष्ट: |
स्त्रीप्रेक्षणप्रतिसमी क्षणविह्लात्मानात्मानमन्तिक उमां स्वगणांश्व वेद ॥
२२॥
तामू--उसको; वीक्ष्य--देखकर; देव:ः--शम्भु की; इति--इस प्रकार; कन्दुक-लीलया--गेंद खेलते हुए; ईषत्--कुछ कुछ;ब्रीडा--लज्जा से; अस्फुट-- अस्पष्ट; स्मित--हँसी से युक्त; विसृष्ट-- भेजा हुआ; कटाक्ष-मुष्ट:--तिरछी चितवन से पराजित;स्त्री-प्रेक्षण --उस सुन्दर स्त्री को देखते हुए; प्रतिसमीक्षण--तथा निरन्तर उसके द्वारा देखा जाकर; विह्ल-आत्मा--जिसका मनविचलित हो; न--नहीं; आत्मानम्--स्वयं का; अन्तिके --पास ही( स्थित ); उमाम्--अपनी पत्नी उमा को; स्व-गणान् च--तथा अपने पार्षदों को; वेद--शिवजी जान सके
जब शिवजी इस सुन्दर स्त्री को गेंद खेलते हुए देख रहे थे, तब वह कभी इन पर दृष्टिडालती और लज्ा से थोड़ा हँस देती |
ज्योंही शिवजी ने उस सुन्दर स्त्री को देखा और उसने इन्हेंताका त्योंही वे स्वयं को तथा अपनी सर्वसुन्दर पत्नी उमा और अपने निकटस्थ पार्षदों को भूलगये |
तस्थाः कराग्रात्स तु कन्दुको यदागतो विदूरं तमनुव्रजत्तस्त्रिया: |
बासः ससूत्र लघु मारुतोहरद्भवस्य देवस्य किलानुपश्यतः ॥
२३॥
तस्या:--उस सुन्दरी के; कर-अग्रात्ू--हाथ से; सः--वह; तु--लेकिन; कन्दुक:ः--गेंद; यदा--जब; गत: -- गया हुआ;विदूरम्--दूर; तम्--उस गेंद को; अनुब्रजत्--पीछे-पीछे चलने लगी; स्त्रिया:--उस स्त्री के; वास:--वस्त्र; स-सूत्रमू--करधनीसहित; लघु--अत्यन्त सुन्दर होने से; मारुत:--मन्द वायु; अहरत्--उड़ा ले गई; भवस्य--शिव का; देवस्य--प्रमुख देवता;किल--निस्सन्देह; अनुपश्यतः --निरन्तर देख रहा था |
जब गेंद उसके हाथ से उछलकर दूर जा गिरी तो वह स्त्री उसका पीछा करने लगी, किन्तु जब शिवजी इन लीलाओं को देख रहे थे तो अचानक वायु उसके सुन्दर वस्त्र तथा उसकीकरधनी को जो उसे ढके हुए थे, उड़ा ले गई |
एवं तां रुचिरापाड़ीं दर्शनीयां मनोरमाम् |
इृष्ठा तस्यां मनश्नक्रे विषज्जन्त्यां भवः किल ॥
२४॥
एवम्--इस तरह; तामू--उस; रुचिर-अपाड्रीमू--आकर्षक अंगों वाली को; दर्शनीयाम्--देखने में सुहावनी; मनोरमाम्--सुगठित; दृष्ठा--देखकर; तस्याम्--उस पर; मन: चक्रे --सोचा; विषज्न्त्यामू--उसके द्वारा आकृष्ट होने के लिए; भव:--शिवजी; किल--निस्सन्देह |
इस प्रकार शिवजी ने उस स्त्री को देखा जिसके शरीर का अंग प्रत्यंग सुगठित था और उससुन्दर स्त्री ने भी उनकी ओर देखा |
अतएव यह सोचकर कि वह स्त्री उनके प्रति आकृष्ट है,शिवजी उसके प्रति अत्यधिक आकृष्ट हो गये |
तयापहतविज्ञानस्तत्कृतस्मरविहलः |
भवान्या अपि पश्यन्त्या गतह्लीस्तत्पदं ययौ ॥
२५॥
तया--उसके द्वारा; अपहत--चुराया गया; विज्ञान:--विवेक; तत्-कृत--उसके द्वारा किया गया; स्मर--मुस्कान से;विह॒लः--उसके लिए पागल होकर; भवान्या:--शिवजी की पत्नी भवानी द्वारा; अपि--यद्यपि; पश्यन्त्या:--ये घटनाएँ देखीजा रही थीं; गत-ह्ीः--सारी लज्जा से रहित; तत्-पदम्--उस स्थान पर, जहाँ पर वह थी; ययौ--गये |
उस स्त्री के साथ रमण करने की कामेच्छा के कारण अपना विवेक खोकर शिवजी उसकेलिए इतने पागल हो उठे कि भवानी की उपस्थिति में भी वे उसके पास जाने में तनिक भी नहींहिचकिचाये |
सा तमायान्तमालोक्य विवस्त्रा त्रीडिता भूशम् |
निलीयमाना वृशक्षेषु हसन्ती नान्वतिष्ठत ॥
२६॥
सा--वह स्त्री; तम्ू--शिव को; आयान्तम्ू--निकट आते हुए; आलोक्य--देखकर; विवस्त्रा--नंगी; ब्रीडिता--अत्यन्त लज्जित;भूशम्--इतनी अधिक; निलीयमाना--छिपा रही थी; वृक्षेषु--पेड़ों के बीच में; हसन्ती--हँसती हुई; न--नहीं; अन्वतिष्ठत--एक स्थान पर खड़ी रही |
वह सुन्दरी पहले ही नंगी हो चुकी थी और जब उसने देखा कि शिवजी उसकी ओर चले आरहे हैं, तो वह अत्यन्त लज्जित हुई |
इस तरह वह हँसती रही, किन्तु उसने अपने आपको वृक्षों केबीच छिपा लिया |
वह किसी एक स्थान पर खड़ी नहीं रही |
तामन्वगच्छद्धगवान्भव: प्रमुषितेन्द्रियः |
कामस्य च वशं नीतः करेणुमिव यूथप: ॥
२७॥
तामू--उसका; अन्वगच्छत्--पीछा किया; भगवान्--शिवजी ने; भवः--भव नाम से विख्यात; प्रमुषित-इन्द्रिय:--जिनकीइन्द्रियाँ विचलित थीं; कामस्य--कामवासनाओं के; च--तथा; वशम्--वशी भूत; नीत:--हो कर; करेणुम्--हथिनी; इव--सहश; यूथप:--हा थी |
शिवजी की इन्द्रियाँ विचलित थीं और वे कामवासनाओं के वशीभूत होकर उसका पीछाकरने लगे जिस तरह कोई कामी हाथी हथिनी का पीछा करता है |
सोनुव्रज्यातिवेगेन गृहीत्वानिच्छतीं स्त्रियम् |
केशबन्ध उपानीय बाहुभ्यां परिषस्वजे ॥
२८॥
सः--शिवजी ने; अनुब्रज्य--उसका पीछा करके ; अति-बेगेन--तेजी से; गृहीत्वा--पकड़ कर; अनिच्छतीम्--उसके न चाहनेपर भी; स्त्रियम्--स्त्री को; केश-बन्धे --चोटी से; उपानीय--अपने पास खींचकर; बाहुभ्याम्-- अपनी भुजाओं से;परिषस्वजे--उसका आलिंगन किया |
तेजी से उसका पीछा करते हुए शिवजी ने उसके बालों का जूड़ा पकड़ लिया और उसेअपने पास खींच लिया |
फिर उसके न चाहने पर भी उन्होंने अपनी भुजाओं में भरकर उसकाआलिड्डन कर लिया |
सोपगूढा भगवता करिणा करिणी यथा |
इतस्ततः प्रसर्पन्ती विप्रकीर्णशिरोरूहा ॥
२९॥
आत्मानं मोचयित्वाडु सुरर्षभभुजान्तरात् |
प्राद्रवत्सा पृुथुओणी माया देवविनिर्मिता ॥
३०॥
सा--वह स्त्री; उपगूढा--पकड़ी तथा आलिंगन की जाकर; भगवता--शिवजी द्वारा; करिणा--हाथी द्वारा; करिणी --हथिनी;यथा--जिस तरह; इतः तत:--इधर-उधर; प्रसर्पन््ती--साँप की तरह सरकती; विप्रकीर्ण--बिखरे; शिरोरुहा-- उसके सिर के सारे बाल; आत्मानम्--स्वयं को; मोचयित्वा--मुक्त करके; अड्र--हे राजा; सुर-ऋषभ--देवताओं में श्रेष्ठ ( शिव ); भुज-अन्तरात्--अपनी भुजाओं में बाँधकर; प्राद्रवत्--तेजी से भागने लगे; सा--वह; पृथु-श्रोणी--बड़े कूल्हों वाली; माया--अन्तरंगा शक्ति; देव-विनिर्मिता--भगवान् द्वारा प्रकट की गई |
जिस तरह हाथी हथिनी का आलिंगन करता है उसी तरह वह स्त्री, जिसके बाल बिखरे थे,शिवजी द्वारा आलिंगित होकर साँप की तरह सरकने लगी |
हे राजा, यह बड़े और ऊँचे नितम्बोंवाली स्त्री भगवान् द्वारा प्रस्तुत की गई योगमाया थी |
उसने अपने को जिस-तिस भाँति शिवजीके आलिंगन से छुड़ाया और वह भाग गई |
तस्यासौ पदवीं रुद्रो विष्णोरद्भधुतकर्मण: |
प्रत्यपद्यत कामेन वैरिणेव विनिर्जित: ॥
३१॥
तस्य--उनका ( शिवजी ); असौ--शिवजी; पदवीम्--स्थान; रुद्र: --शिवजी; विष्णो: -- भगवान् विष्णु की; अद्भुत-कर्मण:--वह जो अद्भुत कार्य करता है; प्रत्यपद्यत--पीछा करने लगा; कामेन--कामवासना के कारण; बैरिणा इब--शत्रुकी तरह; विनिर्जित:--सताया गया |
शिवजी भगवान् विष्णु का जो आश्चर्यजनक कार्य करने वाले हैं और जिन्होंने मोहिनी रूपधारण कर रखा था, ऐसे पीछा करने लगे जैसे वे काम-वासना रूपी शत्रु द्वारा सताये गए हों |
तस्यानुधावतो रेतश्वस्कन्दामोघरेतस: |
शुष्मिणो यूथपस्येव वासितामनुधावत: ॥
३२॥
तस्य--उनका ( शिवजी का ); अनुधावत:--जो पीछा कर रहा था; रेत:--वीर्य; चस्कन्द--गिरा; अमोघ-रेतस:--उस पुरुषका, जिसका वीर्य-स्खलन कभी निष्फल नहीं जाता; शुष्पिण:--मदान्ध; यूथपस्थ--नर हाथी; इब--की भाँति; वासिताम्--गर्भधारण करने में सक्षम हथिनी; अनुधावत:--पीछा करने वाला
जिस प्रकार गर्भधारण करने में सक्षम हथिनी का पीछा मदान्ध हाथी करता है, उसी तरहशिवजी उस सुन्दर स्त्री का पीछा कर रहे थे |
यद्यपि उनका वीर्य व्यर्थ में स्खलित नहीं होता,किन्तु इस अवसर पर उनका वीर्य स्खलित हो गया |
यत्र यत्रापतन्मह्मां रेतस्तस्य महात्मन: |
तानि रूप्यस्य हेम्नश्व क्षेत्राण्यासन्महीपते ॥
३३॥
यत्र--जहाँ; यत्र--जहाँ; अपतत्--गिरा; मह्याम्-- भूमि पर; रेत:--वीर्य; तस्य--उसका; महा-आत्मन:--महापुरुष ( शिव )का; तानि--उन स्थानों का; रूप्यस्थ--चाँदी की; हेम्न:--सोने की; च--तथा; क्षेत्राणि--खानें; आसन्ू--बन गईं; मही-पते--हे राजा |
हे राजा! पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ महापुरुष शिवजी का वीर्य गिरा वहीं-वहीं बाद में सोने तथाचाँदी की खानें प्रकट हो गईं |
सरित्सरःसु शैलेषु वनेषुपवनेषु च |
यत्र क्व चासन्नृषयस्तत्र सन्निहितो हर: ॥
३४॥
सरित्--नदी के किनारों के निकट; सरःसु--तथा झीलों के निकट; शैलेषु--पर्वतों के पास; वनेषु--जंगलों में; उपवनेषु--उद्यानों या छोटे जंगलों में; च-- भी; यत्र--जहाँ; क्व--कहीं; च-- भी; आसनू--विद्यमान थे; ऋषय:--ऋषिगण; तत्र--वहाँ;सन्निहितः--उपस्थित थे; हर:ः--शिवजी |
शिवजी मोहिनी का पीछा करते हुए नदियों तथा झीलों के किनारे, पर्वतों, जंगलों, उद्यानोंके पास तथा जहाँ कहीं ऋषिमुनि रह रहे थे, गये |
स्कन्ने रेतसि सोपश्यदात्मानं देवमायया |
जडीकृतं नृपश्रेष्ठ सन््यवर्तत कश्मलातू ॥
३५॥
स्कन्ने--पूर्णतया स्खलित होने पर; रेतसि--वीर्य; सः--शिवजी ने; अपश्यत्--देखा; आत्मानम्--अपने को; देव-मायया--भगवान् की माया से; जडीकृतम्--मूर्ख की भाँति वशीभूत हुआ; नृप-श्रेष्ठ--हे राजाओं में श्रेष्ठ ( महाराजपरीक्षित );सन्ञ्यवर्तत--अपने को आगे बढ़ने से रोका; कश्मलात्--मोह सेहे राज
श्रेष्ठ महाराज परीक्षित! जब शिवजी का वीर्य पूर्णतया स्खलित हो गया तो उन्होंनेदेखा कि वे किस प्रकार भगवान् द्वारा उत्पन्न माया के द्वारा वशीभूत हो गए |
इस तरह उन्होंनेअपने आपको माया द्वारा और अधिक वशीभूत होने से रोका |
अथावगतमाहात्म्य आत्मनो जगदात्मन: |
अपरिज्नेयवीर्यस्य न मेने तदु हाद्भुतम् ॥
३६॥
अथ--इस प्रकार; अवगत--आश्वस्त होकर; माहात्म्यः --महानता; आत्मन: --अपनी; जगत्-आत्मन: --तथा भगवान् की;अपरिज्ेय-वीर्यस्थ--असीम शक्तिमान; न--नहीं; मेने--विचार किया; तत्--मोहित करने में भगवान् के अद्भुत कार्यकलापोंको; उह--निश्चय ही; अद्भुतम्ू--मानो अद्भुत
इस प्रकार शिवजी को अपनी तथा असीम शक्तिमान भगवान् की स्थिति का बोध हो गया |
इस ज्ञान के प्राप्त होने पर उन्हें तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ कि भगवान् विष्णु ने किस अद्भुतविधि से उन पर माया का जाल फैलाया था |
तमविक्लवमत्रीडमालक्ष्य मधुसूदन: |
उवाच परमप्रीतो बिभ्रत्स्वां पौरुषीं तनुम्ू ॥
३७॥
तम्ू--उसको ( शिवजी को ); अविक्लवम्--इस घटना से विचलित हुए बिना; अब्रीडम्--बिना लज्जा के; आलक्ष्य--देखकर;मधु-सूदन:--मधु राक्षस का वध करने वाले भगवान् ने; उबाच--कहा; परम-प्रीत:--अत्यधिक प्रसन्न होकर; बिभ्रत्ू-- धारणकरके; स्वाम्--अपना; पौरुषीम्--मूल; तनुम्ू-रूप |
शिवजी को अविचलित एवं लज्जारहित देखकर भगवान् विष्णु ( मधुसूदन ) अत्यन्त प्रसन्नहुए |
तब उन्होंने अपना मूल रूप धारण कर लिया और वे इस प्रकार बोले |
श्रीभगवानुवाचदिष्टद्या त्वं विबुधश्रेष्ठ स्वां निष्ठामात्मना स्थित: |
अन्से स्त्रीरूपया स्वैरं मोहितो प्यड़ मायया ॥
३८॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; दिष्टयया--कल्याण हो; त्वमू--तुम्हारा; विबुध-श्रेष्ट--हे समस्त देवताओं में श्रेष्ठ;स्वामू--अपनी; निष्ठाम्--स्थिर दशा में; आत्मना--अपने आप; स्थित: --स्थित हो; यत्--क्योंकि; मे--मेरे; स्त्री-रूपया--स्त्रीजैसे स्वरूप से; स्वैरम्--पर्याप्त; मोहित:--सम्मोहित; अपि--होते हुए भी; अड़--हे शिवजी; मायया--मेरी शक्ति के द्वारा
भगवान् ने कहा : हे देवताओं में श्रेष्ठ! यद्यपि तुम मेरे द्वारा स्त्रीरूप धारण करने की मेरीशक्ति द्वारा अत्यधिक पीड़ित हुए हो, किन्तु तुम अपने पद पर स्थिर हो |
अतएव तुम्हारा कल्याणहो |
को नु मेतितरेन्मायां विषक्तस्त्वहते पुमान् |
तांस्तान्विसृजतीं भावान्दुस्तरामकृतात्मभि: ॥
३९॥
कः--क्या; नु--निस्सन्देह; मे--मेरा; अतितरेत्ू--पार पा सकता है; मायाम्--माया को; विषक्त:-- भौतिक इन्द्रिय-भोग मेंआसक्त; त्वतू-ऋते--आपके अतिरिक्त; पुमान्-व्यक्ति; तानू--ऐसी दशाओं; तान्ू--आसक्त पुरुषों को; विसृजतीम्--पार करसकने में; भावानू-- भौतिक कार्यकलापों के फलों को; दुस्तराम्--पार कर पाना दुष्कर; अकृत-आत्मभि:--अपनी इन्द्रियों कोवश में करने में असमर्थ व्यक्तियों द्वारा |
हे प्रिय शम्भु! इस भौतिक जगत में तुम्हारे अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो मेरी माया से पार पासके ? सामान्यतया लोग इन्द्रियभोग में आसक्त रहते हैं और इसके प्रभाव में फँस जाते हैं |
निस्सन्देह, उनके लिए माया के प्रभाव को लाँघ पाना अत्यन्त कठिन है |
सेयं गुणमयी माया न त्वामभिभविष्यति |
मया समेता कालेन कालरूपेण भागशः ॥
४०॥
सा--वह दुर्लध्य; इयम्--यह; गुण-मयी--प्रकृति के तीनों गुणों से युक्त; माया--माया; न--नहीं; त्वामू--तुमको;अभिभविष्यति-- भविष्य में मोहित करने में समर्थ होगी; मया--मेरे साथ; समेता--संयुक्त; कालेन--नित्य समय द्वारा; काल-रूपेण--काल के रूप में; भागश:--अपने विभिन्न अंशों सहित |
यह भौतिक बहिरंगा शक्ति ( माया ), जो सृष्टि में मुझे सहयोग देती है और प्रकृति के तीनोंगुणों में प्रकट होती है अब तुम्हें मोहित नहीं कर सकेगी |
श्रीशुक उबाचएवं भगवता राजन्श्रीवत्साड्डेन सत्कृतः |
आमन्त्र्य तं परिक्रम्य सगण: स्वालयं ययौ ॥
४१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; भगवता-- भगवान् द्वारा; राजन्--हे राजा; श्रीवत्स-अद्डजेन--अपने वक्षस्थल पर श्रीवत्स-चिह्न धारण करने वाले; सत्-कृतः--अत्यन्त प्रशंसित होकर; आमनत्रय--अनुमति लेकर;तम्--उसको; परिक्रम्य--परिक्रमा करके; स-गण:--अपने गणों समेत; स्व-आलयम्--अपने धाम को; ययौ--वापस चलेगये
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! वक्षस्थल पर श्रीवत्स-चिन्ह धारण करने वाले भगवान्द्वारा इस प्रकार प्रशंसित होकर शिवजी ने उनकी परिक्रमा की |
फिर उनकी अनुमति लेकरशिवजी अपने गणों सहित अपने धाम कैलास लौट गये |
आत्मांशभूतां तां मायां भवानीं भगवान्भव: |
सम्मतामृषिमुख्यानां प्रीत्याचष्टाथ भारत ॥
४२॥
आत्म-अंश-भूताम्-परमात्मा की शक्ति; तामू--उस; मायामू--माया को; भवानीम्--शिवजी की पत्नी को; भगवानू--शक्तिमान; भव:--शिवजी; सम्मताम्--स्वीकार किया हुआ; ऋषि-मुख्यानाम्--महान् ऋषियों द्वारा; प्रीत्या--हर्ष सहित;आचष्ट--सम्बोधित किया; अथ--तब; भारत--हे भरतवंशी महाराज परीक्षित |
है भरतवंशी महाराज! तब शिवजी ने परम प्रसन्न होकर अपनी पत्नी भवानी को सम्बोधित किया जो सभी अधिकारियों द्वारा भगवान् विष्णु की शक्ति के रूप में स्वीकार की जाती हैं |
अयि व्यपश्यस्त्वमजस्य मायांपरस्य पुंसः परदेवताया: |
अहं कलानामृषभोपि मुझेययावशोडन्ये किमुतास्वतन्त्रा: ॥
४३॥
अयि--ओह; व्यपश्य:--देखा है; त्वमू--तुमने; अजस्यथ--अजन्मा का; मायाम्ू--माया को; परस्य पुंसः--परम पुरुष का; पर-देवताया: --परम सत्य; अहम्--मैं; कलानाम्--स्वांशों का; ऋषभ: -- प्रमुख; अपि--यद्यपि; मुहो--मोहित हो गया; यया--जिसके द्वारा; अवश:--अवश; अन्ये--अन्य; किम् उत--क्या कहा जाये; अस्वतन्त्रा:--माया पर पूरी तरह आश्रित
शिवजी ने कहा : हे देवी! अब तुमने भगवान् की माया देख ली है, जो सबके अजन्मास्वामी हैं |
यद्यपि मैं उनके प्रमुख विस्तारों में से एक हूँ तो भी मैं उनकी शक्ति से भ्रमित हो गयाथा |
तो फिर, उन लोगों के विषय में क्या कहा जाये जो माया पर पूर्णतः आश्रित हैं ? यं मामपृच्छस्त्वमुपेत्य योगात्समासहस्त्रान्त उपारतं वे |
स एष साक्षात्पुरुष: पुराणोन यत्र कालो विशते न वेद: ॥
४४॥
यमू्--जिसके विषय में; माम्--मुझसे; अपृच्छ: --पूछा; त्वमू--तुमने; उपेत्य--पास आकर; योगात्--योग साधन से; समा--वर्ष; सहस्त्र-अन्ते--एक हजार के अन्त में; उपारतम्--समाप्त होकर; बै--निस्सन्देह; सः--वह; एष:--यहाँ है; साक्षात्--प्रत्यक्ष; पुरुष: --परम पुरुष; पुराण:--आदि; न--नहीं; यत्र--जहाँ; काल:--काल; विशते-- प्रवेश कर सकता है; न--नहीं;वेदः--वेद |
जब मैंने एक हजार वर्षों की योग-साधना पूरी कर ली तो तुमने मुझसे पूछा था कि मैंकिसका ध्यान कर रहा था |
अब ये वही परम पुरुष हैं जिन तक काल नहीं पहुँच पाता औरजिन्हें वेद नहीं समझ पाते |
श्रीशुक उबाचइति तेडभिहितस्तात विक्रम: शार्डूधन्वन: |
सिन्धोर्निर्मथने येन धृतः पृष्ठे महाचल: ॥
४५॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ते--तुमको; अभिहित:--बताया गया; तात--हे राजा;विक्रम:--पराक्रम; शार्ड-धन्वन:--शार्ड़ धनुष धारण करने वाले भगवान् का; सिन्धो: --क्षीरसागर के; निर्मथने--मन्थन में;येन--जिससे; धृतः--धारण किया गया था; पृष्ठे--पीठ पर; महा-अचलः:--विशाल पर्वत
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! जिस पुरुष ने क्षीरसागर के मन्थन के लिए अपनी पीठपर महान् पर्वत धारण किया था वही शार्ड्धन्वा नामक भगवान् हैं |
मैंने तुमसे अभी उन्हीं केपराक्रम का वर्णन किया है |
एतन्मुहु: कीर्तयतोनुश्रुण्वतोन रिष्यते जातु समुद्यम: क्वचित् |
यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनंसमस्तसंसारपरिश्रमापहम् ॥
४६॥
एतत्--यह कथा; मुहुः--निरन्तर; कीर्तयत:--कीर्तन करने वाले का; अनुश्रुण्वतः--तथा सुनने वाले का है; न--नहीं;रिष्यते--विनाश किया जाता है; जातु--किसी समय; समुद्यम:-- प्रयास; क्वचित्ू--किसी समय; यत्--क्योंकि;उत्तमशलोक--भगवान् का; गुण-अनुवर्णनम्--दिव्य गुणों का वर्णन करते हुए; समस्त--सभी; संसार--संसार का;परिश्रम--कष्ट; अपहम्--समाप्त करने वाला |
जो कोई क्षीरसागर के मन्थन की इस कथा को निरन्तर सुनता या सुनाता है, उसका प्रयासकभी भी निष्फल नहीं होगा |
निस्सन्देह, भगवान् के यश का कीर्तन इस भौतिक संसार मेंसमस्त कष्टों को ध्वस्त करने का एकमात्र साधन है |
असदविषयमडिंध्रि भावगम्यं प्रपन्ना-नमृतममरवर्यानाशयत्तसिन्धुमथ्यम् |
'कपटयुवतिवेषो मोहयन्यः सुरारीं-स्तमहमुपसूतानां कामपूरं नतोस्मि ॥
४७॥
असतू-अविषयम्--नास्तिकों की समझ में न आने वाला; अड्प्रिमू-- भगवान् के चरणकमलों को; भाव-गम्यम्--भक्तों कीसमझ में आने वाला; प्रपन्नान्ू--पूर्णतया शरणागत; अमृतम्--अमृत; अमर-बर्यान्ू--केवल देवताओं को; आशयत्-पीने केलिए; सिन्धु-मथ्यम्-- क्षीरसागर से उत्पन्न; कपट-युवति-वेष:--मिथ्या तरुणी के रूप में प्रकट होकर; मोहयन्--मोहते हुए;यः--जो; सुर-अरीन्ू--देवताओं के शत्रुओं को; तम्--उसको; अहम्--मैं; उपसृतानाम्--भक्तों का; काम-पूरम्--समस्तइच्छाओं को पूरा करने वाला; नतः अस्मि--मैं नमस्कार करता हूँ |
एक तरुण स्त्री का रूप धारण करके तथा इस प्रकार असुरों को मोहित करके भगवान् नेअपने भक्तों अर्थात् देवताओं को क्षीरसागर के मन्थन से उत्पन्न अमृत बाँट दिया |
मैं उन भगवान्को जो अपने भक्तों की इच्छाओं को सदा पूरा करते हैं अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ |
अध्याय तेरह: भविष्य के मनु का वर्णन
8.13श्रीशुक उबाचमनुर्विवस्वत: पुत्र: श्राद्धदेव इति श्रुतः |
सप्तमो वर्तमानो यस्तदपत्यानि मे श्रुणु ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; मनुः--मनु; विवस्वत: --सूर्यदेव का; पुत्र:--पुत्र; श्राद्धदेव:-- श्राद्धदेव;इति--इस प्रकार; श्रुतः--ज्ञात, विख्यात; सप्तम:--सातवाँ; वर्तमान:--इस समय; य: --जो; तत्--उसकी; अपत्यानि--सन्तानें; मे--मुझसे; श्रूणु--सुनो
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : वर्तमान मनु का नाम श्राद्धदेव है और वे सूर्यलोक के प्रधानदेवता विवस्वान के पुत्र हैं |
श्राद्धदेव सातवें मनु हैं |
अब मैं उनके पुत्रों का वर्णन करता हूँ कृपाकरके मुझसे सुने |
इक्ष्वाकुर्नभगश्चेव धृष्ट: शर्यातिरिव च |
नरिष्यन्तोथ नाभागः सप्तमो दिष्ट उच्चते ॥
२॥
तरूषश्च पृषश्रश्च॒ दशमो वसुमान्स्मृतः |
मनोवैवस्वतस्यैते दशपुत्रा: परन्तप ॥
३॥
इक्ष्बाकु:--इ क्ष्वाकु; नभग: --नभग; च-- भी; एव--निस्सन्देह; धृष्ट: --ध्रृष्ट; शर्यातिः--शर्याति; एब--निश्चय ही; च--भी;नरिष्यन्त:--नरिष्यन्त; अथ-- भी; नाभाग: -- नाभाग; सप्तम: --सातवाँ; दिष्ट:--दिष्ट; उच्यते--विख्यात है; तरूष: च--तथातरूष; पृषश्च: च--तथा पृषश्च; दशम:--दसवाँ; वसुमान्--वसुमान; स्मृत:--ज्ञात; मनोः --मनु के; वैवस्वतस्थ--वैवस्वत;एते--ये सब; दश-पुत्रा:--दस पुत्र; परन्तप--हे राजा |
हे राजा परीक्षित! मनु के दस पुत्रों में ( प्रथम छः ) इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्ततथा नाभाग हैं |
सातवाँ पुत्र दिष्ट नाम से जाना जाता है |
फिर तरूष तथा पृषश्च के नाम आते हैंऔर दसवाँ पुत्र वसुमान कहलाता है |
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरूद्गणा: |
अश्विनावृभवो राजद्निन्द्रस्तेषां पुरन्दरः ॥
४॥
आदित्या:--आदित्यगण; वसव:--वसुगण; रुद्रा:--रुद्रगण; विश्वेदेवा:--विश्वेदेवा; मरुतू-गणा:--तथा मरुत्गण; अश्विनौ--दोनों अश्विनीकुमार; ऋभव:--ऋभुगण; राजन्--हे राजा; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; तेषाम्--उनमें से; पुरन्दर:--पुरन्दर |
तथा ऋशभु देवता हैं |
इनका प्रधान राजा ( इन्द्र ) पुरन्दर है |
'कश्यपोडत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वामित्रोथ गौतम: |
जमदग्निर्भरद्वाज इति सप्तर्षय: स्मृता: ॥
५॥
कश्यपः--कश्यप; अत्रि:--अत्रि; वसिष्ठ:--वसिष्ठ; च--तथा; विश्वामित्र:--विश्वामित्र; अथ--तथा; गौतम: -- गौतम;जमदग्निः--जमदग्नि; भरद्वाज:-- भरद्वाज; इति--इस प्रकार; सप्त-ऋषय:--सप्तर्षि; स्मृता:--विख्यात |
कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा भरद्वाज सप्तर्षि कहलाते हैं |
अत्रापि भगवज्जन्म कश्यपाददितेरभूत् |
आदित्यानामवरजो विष्णुर्वामनरूपधृक् ॥
६॥
अत्र--इस मनु के शासन में; अपि--निश्चय ही; भगवत्-जन्म-- भगवान् का प्राकट्य; कश्यपात्ू--कश्यप मुनि से; अदिते:--माता अदिति के; अभूत्--सम्भव हुआ; आदित्यानाम्--आदित्यों में से; अवर-ज:--सबसे छोटा; विष्णु:--साक्षात् विष्णु;वामन-रूप-धृक् -- भगवान् वामन का रूप धारण करते हुए |
इस मन्वन्तर में भगवान् आदित्यों में सबसे छोटे, वामन के नाम से अवतरित हुए |
उनकेपिता कश्यप तथा माता अदिति थीं |
सदड्क्षेपतो मयोक्तानि सप्तमन्वन्तराणि ते |
भविष्याण्यथ वक्ष्यामि विष्णो: शक्त्यान्वितानिच ॥
७॥
सड्झ्षेपत:--संक्षेप में; मया--मेरे द्वारा; उक्तानि--बताये गये; सप्त--सात; मनु-अन्तराणि--मनुओं के परिवर्तन; ते--तुमको;भविष्याणि-- भावी मनु; अथ-- भी; वशक्ष्यामि--कहूँगा; विष्णो:--विष्णु के; शक्त्या अन्वितानि--शक्ति सम्पन्न; च--भी |
मैंने तुमसे संक्षेप में सात मनुओं की स्थिति बतला दी है |
अब मैं भगवान् विष्णु के अवतारोंसहित भावी मनुओं का वर्णन करूँगा |
विवस्वतश्च द्वे जाये विश्वकर्मसुते उभे |
संज्ञा छाया च राजेन्द्र ये प्रागभिहिते तव ॥
८॥
विवस्वत:--विवस्वान की; च-- भी ; द्वे--दो; जाये--पत्लियाँ; विश्वकर्म-सुते--विश्वकर्मा की दो पुत्रियाँ; उभे--दोनों; संज्ञा--संज्ञा; छाया--छाया; च--तथा; राज-इन्द्र--हे राजा; ये--जो; प्राकु--पहले; अभिहिते--वर्णन किये गये; तब--तुमसे |
हे राजा! मैं तुमसे पहले ही ( छठे स्कंध में ) विश्वकर्मा की दो पुत्रियों का वर्णन कर चुका हूँजिनके नाम संज्ञा तथा छाया थे, जो विवस्वान की प्रथम दो पत्लियाँ थीं |
तृतीयां वडवामेके तासां संज्ञासुतास्त्रयः |
यमो यमी श्राद्धदेवश्छायायाश्व सुताउ्छुणु ॥
९॥
तृतीयाम्--तीसरी पत्नी; बडवाम्--वडवा को; एके --कुछ लोग; तासाम्--तीनों पतियों में से; संज्ञा-सुता: त्रयः--संज्ञा कीतीन संतानें; यम: --एक पुत्र यम; यमी--पुत्री यमी; श्राद्धदेव:--दूसरा पुत्र श्राद्धदेव; छायाया:--छाया का; च--तथा;सुतान्-पुत्रों को; श्रुणु--सुनो
ऐसा कहा जाता है कि सूर्यदेव के एक तीसरी पत्ती भी थी जिसका नाम वडवा था |
इनतीनों पत्नियों में से संज्ञा के तीन संतानें हुई--यम, यमी तथा श्राद्धदेव |
अब मैं छाया कीसन््तानों का वर्णन करूँगा |
सावर्णिस्तपती कन्या भार्या संवरणस्य या |
शनैश्वरस्तृतीयो भूदश्चिनौ वडवात्मजौ ॥
१०॥
सावर्णि:--सावर्णि; तपती--तपती; कन्या--पुत्री; भार्या--पत्नी; संवरणस्थ--राजा संवरण की; या--जो; शनैश्वर: --शनैश्वर; तृतीय:--तीसरी सन््तान; अभूत्--जन्म लिया; अश्विनौ--दोनों अश्विनी कुमार; वडवा-आत्म-जौ--वडवा नामक पत्नीके पुत्र
छाया के एक पुत्र सावर्णि तथा एक पुत्री तपती थी जो बाद में राजा संवरण की पत्नी बनी |
छाया की तीसरी सन्तान शनैश्वर ( शनि ) कहलाई |
वडवा ने दो पुत्रों को जन्म दिया जिनके नामअश्विनी-बन्धु हैं |
अष्टमेउन्तर आयाते सावर्णिर्भविता मनु: |
निर्मोकविरजस्काद्या: सावर्णितनया नृप ॥
११॥
अष्टमे--आठवें; अन्तरे--मन्वन्तर में; आयाते--आने पर; सावर्णि: --सावर्णि; भविता--हो जायेगा; मनु:ः--आठवाँ मनु;निर्मोक--निर्मोक; विरजस्क-आद्या: --विरजस्क इत्यादि; सावर्णि --सावर्णि के; तनया:--पुत्र; नृप--हे राजा
हे राजा! आठवें मनु का काल आने पर सावर्णि मनु बनेगा |
निर्मोक, विरजस्क इत्यादिउसके पुत्र होंगे |
तत्र देवा: सुतपसो विरजा अमृतप्रभा: |
तेषां विरोचनसुतो बलिरिन्द्रो भविष्यति ॥
१२॥
तत्र--उस मन्वन्तर में; देवा:ः--देवतागण; सुतपस:--सुतपा; विरजा:--विरजगण; अमृतप्रभा:--अमृत प्रभगण; तेषाम्--उनमेंसे; विरोचन-सुतः --विरोचन का पुत्र; बलि:--महाराज बलि; इन्द्र: --स्वर्ग का राजा; भविष्यति--होगा |
आठवें मन्वन्तर में सुतपा, विरज तथा अमृतप्रभगण देवता होंगे और विरोचन पुत्र बलिमहाराज देवताओं के राजा इन्द्र होंगे |
दत्त्वेमां याचमानाय विष्णवे यः पदत्रयम् |
राद्धमिन्द्रपदं हित्वा ततः सिद्द्धिमवाप्स्यति ॥
१३॥
दत्त्वा--दान में देकर; इमामू--इस समग्र ब्रह्माण्ड को; याचमानाय--उससे याचना करने वाले; विष्णवे -- भगवान् विष्णु को;यः--बलि महाराज; पद-त्रयम्--तीन पग भूमि; राद्धम्ू--प्राप्त किया; इन्द्र-पदम्--इन्द्र का स्थान; हित्वा--त्यागकर; तत:--तत्पश्चात्; सिद्धिमू--सिदर्द्धि; अवाप्स्यति--प्राप्त करेगा |
बलि महाराज ने भगवान् विष्णु को तीन पग भूमि दान में दी जिसके कारण उन्हें तीनों लोकखोने पड़े |
किन्तु बाद में बलि द्वारा सर्वस्व दान दे दिये जाने पर जब भगवान् विष्णु प्रसन्न हुए तोबलि महाराज को जीवन की सिद्धद्रि प्राप्त हो जाएगी |
योउसौ भगवता बद्धः प्रीतेन सुतले पुनः |
निवेशितोधिके स्वर्गादधुनास्ते स्वराडिव ॥
१४॥
यः--बलि महाराज; असौ--वही; भगवता-- भगवान् द्वारा; बद्ध:--बाँधा जाकर; प्रीतेन--प्रेम के कारण; सुतले--सुतललोकमें; पुनः--फिर; निवेशित:--स्थित; अधिके--अधिक ऐश्वर्यवान्; स्वर्गातू--स्वर्ग की अपेक्षा; अधुना--इस समय; आस्ते--स्थित हैं; स्व-राट् इब--इन्द्र के पद के समान |
भगवान् ने प्रेमपूर्वक बलि को बाँध लिया और फिर उन्हें सुतल राज्य में अधिष्ठित किया जोस्वर्गलोक की अपेक्षा अधिक ऐश्वर्यशाली है |
इस समय बलि महाराज उसी लोक में रहते हैं औरइन्द्र की अपेक्षा अधिक सुखी हैं |
गालवो दीप्तिमान्नामो द्रोणपुत्र: कृपस्तथा |
ऋष्यश्वड़ः पितास्माक॑ भगवान्बादरायण: ॥
१७५॥
इमे सप्तर्षयस्तत्र भविष्यन्ति स्वयोगतः |
इदानीमासते राजन्स्वे स्व आश्रममण्डले ॥
१६॥
गालवः--गालव; दीप्तिमान्ू--दीप्तिमान; राम: --परशुराम; द्रोण-पुत्र:--द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा; कृप:--कृपाचार्य ;तथा--और; ऋष्यश्रुडर: --ऋष्य श्रृंग; पिता अस्माकम्--हमारे पिता; भगवान्-- भगवान् के अवतार; बादरायण: --व्यासदेव;इमे--ये सब; सप्त-ऋषय: --सप्तर्षि; तत्र--उस मन्वन्तर में; भविष्यन्ति--होंगे; स्व-योगत:-- भगवान् के प्रति सेवा के'परिणामस्वरुप; इदानीम्ू--इस समय; आसते--वे सब विद्यमान हैं; राजन्--हे राजा; स्वे स्वे-- अपने-अपने; आश्रम-मण्डले--विभिन्न आश्रमों में |
हे राजा! आठवें मन्वन्तर में गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यश्रृंगतथा हमारे पिता व्यासदेव, जो नारायण के अवतार हैं, सप्तर्षि होंगे |
इस समय वे सब अपने-अपने आश्रमों में निवास कर रहे हैं |
देवगुद्यात्सरस्वत्यां सार्वभौम इति प्रभु: |
स्थान पुरन्दराद्धृत्वा बलये दास्यती श्वर: ॥
१७॥
देवगुह्मात्-- अपने पिता देवगुहा से; सरस्वत्याम्-सरस्वती के गर्भ में; सार्वभौम: --सार्वभौम; इति--इस प्रकार; प्रभु:--स्वामी; स्थानम्--स्थान; पुरन्दरात्--इन्द्र से; हत्वा--बलपूर्वक छीने जाने पर; बलये--बलि महाराज को; दास्यति--देगा;ईश्वर:--स्वामी |
आठवें मन्वन्तर में अत्यन्त शक्तिशाली भगवान् सार्वभौम जन्म ग्रहण करेंगे |
उनके पिता होंगेदेवगुह्म और माता होंगी सरस्वती |
वे पुरन्दर ( इन्द्र ) से राज्य छीन कर उसे बलि महाराज कोदेंगे |
नवमो दक्षसावर्णिमनुर्वरुणसम्भव: |
भूतकेतुर्दीप्तकेतुरित्याद्यास्तत्सुता नूप ॥
१८ ॥
नवमः--नौवाँ; दक्ष-सावर्णि:--दक्षसावर्णि; मनु:--मनु; वरुण-सम्भव: --वरुण के पुत्र रूप में; भूतकेतु:-- भूतकेतु;दीप्तकेतु:--दीप्तकेतु; इति--इस प्रकार; आद्या:--इत्यादि; तत्--उसके; सुता:--पुत्र; नृप--हे राजा |
हे राजा! नौवाँ मनु दक्षसावर्णि होगा जो वरुण का पुत्र होगा |
भूतकेतु, दीप्तकेतु इत्यादिउसके पुत्र होंगे |
पारामरीचिगर्भाद्या देवा इन्द्रोडद्धुतः स्मृतः |
झुतिमत्प्रमुखास्तत्र भविष्यन्त्यूषयस्ततः ॥
१९॥
पारा--पारगण; मरीचिगर्भ--मरीचिगर्भगण; आद्या:--आदि; देवा:--देवतागण; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; अद्भुत:--अद्भुत;स्मृत:--ज्ञात; द्युतिमत्--द्युतिमान; प्रमुखा: -- आदि; तत्र--उस नवें मन्वन्तर में; भविष्यन्ति--होंगे; ऋषय:--सप्तर्षि; तत:--तब |
नवें मन्वन्तर में पार तथा मरीचिगर्भ इत्यादि देवता रहेंगे |
स्वर्ग के राजा इन्द्र का नाम होगाअद्भुत और द्युतिमान सप्तर्षियों में से एक होगा |
आयुष्मतोम्बुधारायामृषभो भगवत्कला |
भविता येन संराद्धां त्रिलोकीं भोक्ष्यतेउद्भुतः ॥
२०॥
आयुष्मत:--पिता आयुष्पान का; अम्बुधारायाम्--माता अम्बुधारा के गर्भ में; ऋषभ:--ऋषभ; भगवत्-कला-- भगवान् काअंशावतार; भविता--होगा; येन--जिससे; संराद्धाम्--सर्वशक्तिमान; त्रि-लोकीम्--तीनों लोकों को; भोक्ष्यते-- भोग करेगा;अद्भुत:--अद्भुत नामक इन्द्र |
भगवान् के अंशावतार ऋषभदेव अपने पिता आयुष्मान तथा माता अम्बुधारा से जन्म लेंगे |
वे अद्भुत नामक इन्द्र को तीनों लोकों का ऐश्वर्य भोगने के योग्य बनायेंगे |
दशमो ब्रह्मसावर्णिरुपश्लोकसुतो मनु: |
तत्सुता भूरिषेणाद्या हविष्मत्प्रमुखा द्विजा: ॥
२१॥
दशमः:--दसवें मनु; ब्रह्म-सावर्णि: --ब्रह्मसावर्णि; उपश्लोक-सुत: --उपश्लोक का पुत्र; मनुः--मनु होगा; तत्-सुता:--उसकेपुत्र; भूरिषेण-आद्या: -- भूरिषेण इत्यादि; हविष्मत्--ह॒विष्मान; प्रमुखा:--प्रमुख; द्विजा:--सात ऋषि |
उपश्लोक का पुत्र ब्रहासावर्णि दसवाँ मनु होगा |
भूरिषेण उसके पुत्रों में एक होगा औरहविष्मान इत्यादि ब्राह्मण सप्तर्षि होंगे |
हविष्मान्सुकृतः सत्यो जयो मूर्तिस्तदा द्विजा: |
सुवासनविरुद्धाद्या देवा: शम्भु: सुरेश्वर: ॥
२२॥
हविष्मान्--हविष्मान; सुकृत:ः--सुकृत; सत्य:--सत्य; जय: --जय ; मूर्ति: --मूर्ति; तदा--उस समय; द्विजा:--सप्तर्षि;सुवासन--सुवासन-गण; विरुद्ध--विरुद्ध-गण; आद्या:--इत्यादि; देवा:--देवता; शम्भु:--शम्भु; सुर-ई श्वरः--देवताओं काराजा इन्द्र |
हविष्मान, सुकृत, सत्य, जय, मूर्ति इत्यादि सप्तर्षि होंगे; सुवासन-गण तथा विरुद्धगणदेवता होंगे और शम्भु उन सबका राजा इन्द्र होगा |
विष्वक्सेनो विषूच्यां तु शम्भो: सख्यं करिष्यति |
जातः स्वांशेन भगवान्गृहे विश्वस्ृजो विभु; ॥
२३॥
विष्वक्सेन:--विष्वक्सेन; विषूच्याम्--विषूची के गर्भ में; तु--तब; शम्भो: --शम्भु को; सख्यम्--मित्रता; करिष्यति--करेगा;जातः--उत्पन्न होकर; स्व-अंशेन--अपने अंश से; भगवान्-- भगवान्; गृहे--घर में; विश्वसृज:--विश्वसृष्टा का; विभु:--अत्यन्त शक्तिशाली भगवान् |
,विश्वसृष्टा के घर में विषूची के गर्भ से भगवान् के स्वांश विष्वक्सेन के रूप में भगवान्अवतरित होंगे |
वे शम्भु से मैत्री स्थापित करेंगे |
मनुर्वे धर्मसावर्णिरिकादशम आत्मवान् |
अनागतास्तत्सुताश्च सत्यधर्मादयो दश ॥
२४॥
मनुः--मनु; वै--निस्सन्देह; धर्म-सावर्णि: -- धर्मसावर्णि; एकादशमः--ग्यारहवाँ; आत्मवान्--इन्द्रियों को वश में करने वाला;अनागता:--भविष्य में होंगे; तत्--उसके; सुता:--पुत्र; च--तथा; सत्यधर्म-आदय:--सत्यधर्म तथा अन्य; दश--दस |
ग्याहरवें मन्वन्तर में धर्मसावर्णि मनु होंगे जो अध्यात्म ज्ञान के अत्यन्त विद्वान होंगे |
उनकेदस पुत्र होंगे जिनमें सत्यधर्म प्रमुख होगा |
विहड्डमा: कामगमा निर्वाणरुचय: सुरा: |
इन्द्रश्न वैधृतस्तेषामृषयश्चारुणादय: ॥
२५॥
विहड्डमा:--विहड्रमगण; कामगमा: --कामगम-गण; निर्वाणरुचय: --निर्वाणरुचिगण; सुरा:--देवता; इन्द्र: --इन्द्र; च-- भी;वैधृतः--वैधृत; तेषाम्--उनमें से; ऋषय:--सप्तर्षि; च-- भी; अरूण-आदय:--अरुण इत्यादि
विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि इत्यादि देवता होंगे |
वैध्वत देवताओं का राजा इन्द्र होगा औरअरुण इत्यादि सप्तर्षि होंगे |
आर्यकस्य सुतस्तत्र धर्मसेतुरिति स्मृतः |
वैधृतायां हरेरंशस्त्रिलोकीं धारयिष्यति ॥
२६॥
आर्यकस्य--आर्यक का; सुतः--पुत्र; तत्र--उस ग्याहरवें मन्वन्तर में; धर्मसेतु:--धर्मसेतु; इति--इस प्रकार; स्मृत:--विख्यात;वैधृतायाम्--माता वैधृता से; हरेः-- भगवान् के; अंशः--अंशावतार; त्रि-लोकीम्--तीनों लोकों पर; धारयिष्यति--शासनचलायेगा |
आर्यक का पुत्र धर्मसेतु आर्यक की पत्नी वैधृता की कोख से भगवान् के अंशावतार केरूप में जन्म लेगा और तीनों लोकों में शासन करेगा |
भविता रुद्रसावर्णी राजन्द्दादशमो मनु: |
देववानुपदेवश्च देवश्रेष्ठादय: सुता: ॥
२७॥
भविता--होगा; रुद्र-सावर्णि:--रुद्र सावर्णि; राजन्ू--हे राजा; द्वादशम: --बारहवाँ; मनु:--मनु; देववान्ू--देववान;उपदेव:--उपदेव; च--तथा; देवश्रेष्ट--देव श्रेष्ठ; आदय:--इत्यादि; सुता:--मनु के पुत्र |
हे राजा! बारहवाँ मनु रुद्रसावर्णि कहलायेगा |
देववान, उपदेव तथा देवश्रेष्ठ उसके पुत्र होंगे |
ऋतधामा च तत्रेन्द्रो देवाश्न हरितादयः |
ऋषयश्च तपोमूर्तिस्तपस्व्याग्नीध्रकादय: ॥
२८॥
ऋतधामा--ऋतधामा; च-- भी; तत्र--उस काल में; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; देवा:--देवता; च--तथा; हरित-आदय: -- हरितइत्यादि; ऋषय: च--तथा सप्तर्षि; तपोमूर्ति:--तपोमूर्ति; तपस्वी --तपस्वी; आग्नीध्रक-- आग्नी ध्रक; आदय: --इत्यादि |
इस मन्वन्तर में ऋतधामा इन्द्र होगा और हरित इत्यादि देवता होंगे |
तपोमूर्ति, तपस्वी तथाआग्नीश्रक सप्तर्षि होंगे |
स्वधामाख्यो हरेरंश: साधयिष्यति तन्मनो: |
अन्तर सत्यसहसः सुनृताया: सुतो विभु: ॥
२९॥
स्वधामा-आख्य: --स्वधामा नामक; हरे: अंश:-- भगवान् का अंश अवतार; साधयिष्यति--शासन करेगा; ततू-मनो:--उस मनुके; अन्तरम्--मन्वन्तर; सत्यसहस:--सत्यसहा का; सुनृताया:--सुनृता का; सुतः--पुत्र; विभु:--अत्यन्त शक्तिशाली |
माता सुनृता तथा पिता सत्यसहा से भगवान् का अंशावतार स्वधामा उत्पन्न होगा |
वह उसमन्वन्तर में शासन करेगा |
मनुस्त्रयोदशो भाव्यो देवसावर्णिरात्मवान् |
चित्रसेनविचित्राद्या देवसावर्णिदेहजा: ॥
३०॥
मनुः--मनु; त्रयोदशः -- तेरहवाँ; भाव्य:--हो गा; देव-सावर्णि:--देवसावर्णि; आत्मवानू-- आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नत;चित्रसेन--चित्रसेन; विचित्र-आद्या: --तथा विचित्र इत्यादि; देव-सावर्णि--देवसावर्णि के; देह-जा:--पुत्र
तेरहवें मनु का नाम देवसावर्णि होगा और वह आध्यात्मिक ज्ञान में काफी बढ़ा-चढ़ा होगा |
चित्रसेन तथा विचित्र उसके पुत्रों में से होंगे |
देवा: सुकर्मसुत्रामसंज्ञा इन्द्रो दिवस्पति: |
निर्मोकतत्त्वदर्शाद्या भविष्यन्त्यूषयस्तदा ॥
३१॥
देवा:--देवतागण; सुकर्म--सुकर्मा-गण; सुत्राम-संज्ञा:--तथा सुत्राम नामक; इन्द्र: --इन्द्र; दिवस्पति:--दिवस्पति; निर्मोक --निर्मोक; तत्त्वदर्श-आद्या: --तत्त्वदर्श इत्यादि; भविष्यन्ति--होंगे; ऋषय:--सप्तर्षि; तदा--उस समय |
तेरहवें मन्वन्तर में सुकर्मा तथा सुत्रामा इत्यादि देवता होंगे, दिवस्पति स्वर्ग का राजा इन्द्रहोगा और निर्मोक तथा तत्त्वदर्श सप्तर्षि होंगे |
देवहोत्रस्यथ तनय उपहर्ता दिवस्पते: |
योगेश्वरो हरेरंशो बृहत्यां सम्भविष्यति ॥
३२॥
देवहोत्रस्य--देवहोत्र का; तनय:--पुत्र; उपहर्ता--उपकार करने वाला; दिवस्पते:--दिवस्पति अर्थात् उस काल के इन्द्र का;योग-ईश्वरः--योगशक्ति का स्वामी, योगेश्वर; हरे: अंश:-- भगवान् का अंशावतार; बृहत्याम्ू--अपनी माता बृहती के गर्भ में;सम्भविष्यति-- प्रकट होगा |
देवहोत्र का पुत्र योगेश्वर भगवान् के अंशावतार रूप में प्रकट होगा |
उसकी माता का नामबृहती होगा |
वह दिवस्पति के कल्याणार्थ कार्य करेगा |
मनुर्वा इन्द्रसावर्णिश्षतुर्दशम एष्यति |
उरुगम्भीरबुधाद्या इन्द्रसावर्णिवीर्यजा: ॥
३३॥
मनुः--मनु; वा--या; इन्द्र-सावर्णि:--इन्द्रसावर्णि; चतुर्दशम:--चौदहवाँ; एष्यति--बनेगा; उरुू--उरु; गम्भीर--गम्भीर; बुध-आद्या:--बुध इत्यादि; इन्द्र-सावर्णि--इन्द्रसावर्णि के; वीर्य-जा:--वीर्य से उत्पन्न |
चौदहवें मनु का नाम इन्द्रसावर्णि होगा |
उसके पुत्रों के नाम उरु, गम्भीर तथा बुध होंगे |
पवित्राश्षाक्षुषा देवा: शुचिरिन्द्रो भविष्यति |
अग्निर्बाहु: शुचि: शुद्धों मागधाद्यास्तपस्विन: ॥
३४॥
पवित्रा:--पवित्रगण; चाश्लुषा:--चाक्षुषणण; देवा:--देवता; शुच्रि:--शुचि; इन्द्र: --स्वर्ग का राजा; भविष्यति--होगा;अग्नि:--अग्नि; बाहु:--बाहु; शुचिः --शुचि; शुद्धः--शुद्ध; मागध--मागध; आद्या: --इत्यादि; तपस्विन:--तपस्वी मुनि |
पवित्रगण तथा चाश्लुषगण इत्यादि देवता होंगे और शुचि इन्द्र होगा |
अग्नि, बाहु, शुचि,शुद्ध, मागध तथा अन्य तपस्वी सप्तर्षि होंगे |
सत्रायणस्य तनयो बृहद्धानुस्तदा हरिः |
वितानायां महाराज क्रियातन्तून्वितायिता ॥
३५॥
सत्रायणस्य--सत्रायण का; तनयः--पुत्र; बृहद्धानु:--बृहद्भानु; तदा--उस काल में; हरिः-- भगवान्; वितानायामू--वितानाके गर्भ से; महा-राज--हे राजा; क्रिया-तन्तून्ू--सारे आध्यात्मिक कार्यकलाप; वितायिता--सम्पन्न करेंगे |
हे राजा परीक्षित! चौदहवें मन्वन्तर में भगवान् विताना के गर्भ से प्रकट होंगे और उनकेपिता का नाम सत्रायण होगा |
यह अवतार बृहदभानु के नाम से विख्यात होगा और वहआध्यात्मिक कार्यकलाप करेगा |
राज॑श्षतुर्दशैतानि त्रिकालानुगतानि ते |
प्रोक्तान्येभि्मितः कल्पो युगसाहस्त्रपर्यय: ॥
३६॥
राजनू--हे राजा; चतुर्दश--चौदह; एतानि--ये सब; त्रि-काल--तीनों काल ( भूत, वर्तमान, भविष्य ); अनुगतानि--फैले हुए;ते--तुमसे; प्रोक्तानि--वर्णन किए गए; एभमि:--इनके द्वारा; मित:--अनुमानित; कल्प:--ब्रह्म का एक दिन; युग-साहस्त्र--चारों युगों के एक हजार चक्र; पर्ययः--से युक्त
हे राजा! मैंने अभी तुमसे भूत, वर्तमान तथा भविष्य में हुए अथवा होने वाले चौदहों मनुओंका वर्णन किया |
ये मनु कुल मिलाकर जितने समय तक शासन करते हैं वह एक हजार युगचक्र है |
यह कल्प या ब्रह्माजी का एक दिन कहलाता है |
अध्याय चौदह: सार्वभौमिक प्रबंधन की प्रणाली
8.14श्रीराजोबवाचमन्वन्तरेषु भगवन्यथा मन्वादयस्त्विमे |
यस्मिन्कर्मणि ये येन नियुक्तास्तद्वदस्व मे ॥
१॥
श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; मन्वन्तरेषु--प्रत्येक मन्वन्तर में; भगवन्--हे महर्षि; यथा--जिस तरह; मनु-आदयः --मनु इत्यादि; तु--लेकिन; इमे--ये; यस्मिन्--जिसमें; कर्मणि--कार्यकलाप; ये--जो लोग; येन--जिसके द्वारा;नियुक्ता:--नियुक्त किये गये; तत्--वह; वदस्व--कृपया वर्णन करें; मे--मुझसे
महाराज परीक्षित ने जिज्ञासा की : हे परम ऐश्वर्यशाली शुकदेव गोस्वामी! कृपा करके मुझेबतायें कि प्रत्येक मन्वन्तर में मनु तथा अन्य लोग किस तरह अपने-अपने कर्तव्यों में लगे रहते हैंऔर वे किसके आदेश से ऐसा करते हैं |
श्रीऋषिरुवाचमनवो मनुपुत्राश्च मुनयश्च महीपते |
इन्द्रा: सुरगणाश्चैव सर्वे पुरुषशासना: ॥
२॥
श्री-ऋषि: उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; मनवः--सारे मनु; मनु-पुत्रा: --मनु के पुत्र; च--तथा; मुनयः --सारे ऋषि;च--तथा; मही-पते--हे राजा; इन्द्रा: --सारे इन्द्र; सुर-गणा: --सारे देवता; च--तथा; एव--निश्चय ही; सर्वे--वे सभी;पुरुष-शासना: --परम पुरुष के शासन के अन्तर्गत
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! सारे मनु, मनु के पुत्र, ऋषि, इन्द्र तथा देवता भगवान्के यज्ञ जैसे विविध अवतारों में नियुक्त किये जाते हैं |
यज्ञादयो या: कथिता: पौरुष्यस्तनवो नृप |
मन्वादयो जगयद्यात्रां नयन्त्याभि: प्रचोदिता: ॥
३॥
यज्ञ-आदयः--भगवान् का अवतार, जो यज्ञ आदि कहलाता है; याः--जो; कथिता:--पहले कहे जा चुके हैं; पौरुष्य:--परमपुरुष के; तनवः--अवतार; नृप--हे राजा; मनु-आदय:--मनु तथा अन्य; जगतू-यात्रामू-विश्व के कार्य; नयन्ति--संचालितकरते हैं; आभि:--अवतारों द्वारा; प्रचोदिता: -- प्रेरित होकर |
हे राजा! मैं आपसे पहले ही भगवान् के विभिन्न अवतारों का वर्णन कर चुका हूँ--यथा यज्ञअवतार का |
यही अवतार मनुओं तथा अन्यों का चुनाव करते हैं और उन्हीं के आदेश पर वेविश्व-व्यवस्था का संचालन करते हैं |
चतुर्युगान्ते कालेन ग्रस्ताउछ॒तिगणान्यथा |
'तपसा ऋषयोपश्यन्यतो धर्म: सनातनः ॥
४॥
चतुः-युग-अन्ते--प्रत्येक चार युगों ( सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग ) के अन्त में; कालेन--समय बीतने पर; ग्रस्तान्ू--विनष्ट; श्रुति-गणान्--वैदिक उपदेश; यथा--जिस तरह; तपसा--तपस्या से; ऋषय: --ऋषिगण; अपश्यन्--दुरुपयोगदेखकर; यत:--जहाँ से; धर्म:--वृत्तिपरक कार्य; सनातन:ः--शाश्रवत |
प्रत्येक चार युगों के अन्त में महान् सन्तपुरुष जब यह देखते हैं कि मानव के शाश्वतवृत्तिपरक कर्तव्यों का दुरुपयोग हुआ है, तो वे धर्म के सिद्धान्तों की पुनःस्थापना करते हैं |
text:ततो धर्म चतुष्पादं मनवो हरिणोदिता: |
युक्ता: सञ्जारयन्त्यद्धा स्वे स्वे काले महीं नृप ॥
५॥
ततः--तत्पश्चात् ( कलियुग के अन्त में ); धर्मम्ू-- धर्म; चतु:-पादम्--चार भागों में; मनव:--सारे मनु; हरिणा-- भगवान् द्वारा;उदिता:--उपदिष्ट; युक्ता:--लगे हुए; सञ्ञारयन्ति--पुनर्स्थापना करते हैं; अद्धा- प्रत्यक्ष; स्वे स्वे-- अपने-अपने; काले--समयें; महीम्--इस जगत में; नृप--हे राजा |
हे राजा! तत्पश्चात् भगवान् के आदेशानुसार व्यस्त होकर सारे मनु चारों अंशों में धर्म की साक्षात् पुनर्स्थापना करते हैं |
'पालयन्ति प्रजापाला यावदन्तं विभागश: |
यज्ञभागभुजो देवा ये च तत्रान्विताश्व ते; ॥
६॥
'पालयन्ति--आदेश पूरा करते हैं; प्रजा-पाला:--विश्व के शासक, अर्थात् मनु के पुत्र तथा पौत्र; यावत् अन्तम्ू--मनु के शासनके अन्त तक; विभागश: --विभागों में; यज्ञ-भाग-भुज: --यज्ञों के फल के भोक्ता; देवा:--देवतागण; ये--अन्य; च-- भी;तत्र अन्विता:--उस काम में लगे हुए; च-- भी; तैः--उनके द्वारा |
यज्ञों के फलों का भोग करने के लिए विश्व के शासक, अर्थात् मनु के पुत्र तथा पौत्र, मनुके शासन काल के अन्त तक भगवान् के आदेशों का पालन करते हैं |
देवता भी इन यज्ञों केफलों में भाग प्राप्त करते हैं |
इन्द्रो भगवता दत्तां त्रैलोक्यश्रियमूर्जिताम् |
भुज्जानः पाति लोकांस्त्रीन्कामं लोके प्रवर्षति ॥
७॥
इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; भगवता-- भगवान् के द्वारा; दत्तामू-दिया गया; त्रैलोक्य--तीनों लोकों का; श्रियम् ऊर्जिताम्-बड़ेऐश्वर्य; भुज्जान:-- भोगते हुए; पाति--पालन करता है; लोकान्--सारे लोकों को; त्रीन्ू--तीनों लोकों के भीतर; कामम्--जितना आवश्यक हो; लोके--संसार में; प्रवर्षति--बरसाता है |
भगवान् से आशीष प्राप्त करके तथा इस तरह अत्यधिक विकसित ऐश्वर्य का भोग करतेहुए स्वर्ग का राजा इन्द्र सभी लोकों पर पर्याप्त वर्षा करके तीनों लोकों के सारे जीवों का पालनकरता है |
ज्ञानं चानुयुगं बूते हरि: सिद्धस्वरूपधृक् |
ऋषिरूपधरः कर्म योगं योगेशरूपधृक् ॥
८॥
ज्ञानमू-दिव्य ज्ञान; च--तथा; अनुयुगम्--युग के अनुसार; ब्रूते--बताता है; हरिः-- भगवान्; सिद्ध-स्वरूप-धृक्ू--सनकतथा सनातन जैसे मुक्त पुरुषों का रूप धारण करके; ऋषि-रूप-धर:--याज्ञवल्क्य जैसे महान् ऋषियों का रूप धारण करके;कर्म--कर्म; योगम्--योग पद्धति; योग-ईश-रूप-धृक्ू--दत्तात्रेय जैसे महान् योगी का रूप धारण करके |
प्रत्येक युग में भगवान् हरि दिव्य ज्ञान का उपदेश देने के लिए सनक जैसे सिद्धों का रूपधारण करते हैं, याज्ञवल्क्य जैसे महान् ऋषियों का रूप धारण करके वे कर्मयोग की शिक्षा देनेके लिए तथा योग की विधि सिखाने के लिए दत्तात्रेय जैसे महान् योगियों का रूप धारण करतेहैं |
सर्ग प्रजेशरूपेण दस्यून्हन्यात्स्वराड्वपु: |
'कालरूपेण सर्वेषामभावाय पृथग्गुण: ॥
९॥
सर्गम्--सन्तान की उत्पत्ति; प्रजा-ईश-रूपेण--प्रजापति मरीचि इत्यादि के रूप में; दस्यून्ू--चोरों तथा उचक्कों को; हन्यात्--मारते हैं; स्व-राट्-वपु:--राजा के रूप में; काल-रूपेण--काल के रूप में; सर्वेषाम्--प्रत्येक वस्तु के; अभावाय--संहार केलिए; पृथक्-भिन्न; गुण:--गुणों से युक्त
भगवान् प्रजापति मरीचि के रूप में सन्तान उत्पन्न करते हैं; राजा का रूप धारण करके वेचोर-उचक्कों का वध करते हैं और काल के रूप में वे सबका संहार करते हैं |
भौतिक संसार केजितने गुण हैं उन्हें भगवान् के ही गुण समझना चाहिए |
स्तूयमानो जनैरेभिर्मायया नामरूपया |
विमोहितात्मभिर्नानादर्शनर्न च दृश्यते ॥
१०॥
स्तूयमान:--ढूँढे जाने पर; जनैः--सामान्य लोगों द्वारा; एभि:--उन सबके द्वारा; मायया--माया के वशीभूत; नाम-रूपया--विभिन्न नामों तथा रूपों से युक्त; विमोहित--मोहग्रस्त हुआ; आत्मभि: -- भ्रम द्वारा; नाना--विविध; दर्शनैः--दार्शनिक विचारोंसे; न--नहीं; च--तथा; दृश्यते-- भगवान् को पाया जा सकता है |
सामान्य लोग माया के द्वारा विमोहित हो जाते हैं, अतएव वे परम सत्य भगवान् को विविधप्रकार के शोधों तथा दार्शनिक चिन्तन के द्वारा पाने का प्रयास करते हैं |
किन्तु इतने पर भी वेभगवान् का दर्शन पाने में असमर्थ रहते हैं |
एतत्कल्पविकल्पस्य प्रमाणं परिकीर्तितम् |
यत्र मन्वन्तराण्याहुश्चतुर्दश पुराविद: ॥
११॥
एततू्--ये सब; कल्प--ब्रह्मा के एक दिन में; विकल्पस्थ--एक कल्प में हुए परिवर्तनों का, यथा मनुओं में परिवर्तन;प्रमाणम्--साक्ष्य; परिकीर्तितम्--( मेरे द्वारा ) वर्णन किया गया; यत्र--जहाँ; मन्वन्तराणि--मन्वन्तर; आहु:--कहा जाता है;चतुर्दश--चौदह; पुरा-विद: --विद्वान |
एक कल्प में, अर्थात् ब्रह्म के एक दिन में कई परिवर्तन होते हैं, जो विकल्प कहलाते हैं |
हेराजा! मैं इन सबका वर्णन पहले ही कर चुका हूँ |
विद्वान व्यक्तियों ने जो भूत, वर्तमान तथाभविष्य को जानते हैं विश्वास पूर्वक जान लिया है कि ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं |
अध्याय पंद्रह: बलि महाराज ने स्वर्गीय ग्रहों पर विजय प्राप्त की
8.15श्रीराजोबाचबले: पदत्रयं भूमेः कस्माद्धरिरयाचत |
भूतेश्वर कृपणवल्लब्धार्थोडपि बबन्ध तम् ॥
१॥
एतद्वेदितुमिच्छामो महत्कौतूहलं हि नः |
याच्जे श्वरस्य पूर्णस्य बन्धनं चाप्यनागस: ॥
२॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; बले:--बलि महाराज के; पद-त्रयम्--तीन पग; भूमेः-- भूमि के; कस्मात्--क्यों; हरिः --भगवान् ( वामन के रूप में ) ने; अयाचत--माँगा; भूत-ई श्वरः --सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी; कृपण-वत्--गरीब मनुष्य की तरह;लब्ध-अर्थ:--दान पाकर; अपि--यद्यपि; बबन्ध--बन्दी बना लिया; तमू--उसको ( बलि को ); एतत्--यह सब; वेदितुम्--समझने के लिए; इच्छाम:--हम इच्छा करते हैं; महत्--महान्; कौतूहलम्-- उत्सुकता; हि--निस्सन्देह; नः--हमारा; याच्ञा--भीख; ईश्वरस्थ-- भगवान् की; पूर्णस्य--परम पूर्ण; बन्धनम्ू--बाँधते हुए; च-- भी; अपि--यद्यपि; अनागस:--निर्दोष कोमहाराज परीक्षित ने पूछा : भगवान् सबके स्वामी हैं |
तो फिर उन्होंने निर्धन व्यक्ति की भाँतिबलि महाराज से तीन पग भूमि क्यों माँगी और जब उन्हें मुँहमाँगा दान मिल गया तो फिर उन्होंनेबलि महराज को बन््दी क्यों बनाया? मैं इन विरोधाभासों के रहस्य को जानने के लिए अत्यन्तउत्सुक हूँ |
श्रीशुक उबाचपराजितश्रीरसुभिश्च हापितोहीन्द्रेण राजन्भूगुभि: स जीवित: |
सर्वात्मना तानभजद्धूगून्बलि:शिष्यो महात्मार्थनिवेदनेन ॥
३॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; पराजित--हराया जाकर; श्री:--ऐश्वर्य; असुभि: च--तथा प्राण का;हापितः--विहीन होकर; हि--निस्सन्देह; इन्द्रेण--राजा इन्द्र द्वारा; राजनू--हे राजा; भूगुभि:-- भूगुमुनि के बंशजों द्वारा; सः--वह ( बलि महाराज ); जीवित:--पुनः जीवनदान दिये जाने पर; सर्व-आत्मना--पूर्णतया अधीन होकर; तान्ू--उनको;अभजतू--पूजा की; भृगून्-- भूगुमुनि के वंशजों को; बलि:ः--बलि महाराज; शिष्य:--शिष्य; महात्मा--महात्मा; अर्थ-निवेदनेन--उन्हें सब कुछ देकर
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! जब बलि का सारा ऐश्वर्य छिन गया और वे युद्ध मेंमारे गये तो भूगुमुनि के एक वंशज शुक्राचार्य ने उन्हें फिर से जीवित कर दिया |
इससे महात्माबलि शुक्राचार्य के शिष्य बन गये और अपना सर्वस्व अर्पित करके अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनकीसेवा करने लगे |
त॑ ब्राह्मणा भूगवः प्रीयमाणाअयाजयन्विश्वजिता त्रिणाकम् |
जिगीषमाणं विधिनाभिषिच्यमहाभिषेकेण महानुभावा: ॥
४॥
तम्--उसको ( बलि महाराज को ); ब्राह्मणा: --सरे ब्राह्मणों ने; भूगवः--भभूगुमुनि के वंशज; प्रीयमाणा:--प्रसन्न होकर;अयाजयनू--यज्ञ सम्पन्न करने में लगा दिया; विश्वजिता--विश्वजित नामक; त्रि-नाकम्--स्वर्गलोक; जिगीषमाणम्--जीतने कीइच्छा से; विधिना--विधिपूर्वक; अभिषिच्य--शुद्ध करने के बाद; महा-अभिषेकेण--महान् अभिषेक अनुष्ठान में स्नानकराकर; महा-अनुभावा:--उच्च ब्राह्मण
भूगुमुनि के ब्राह्मण वंशज बलि महाराज पर अत्यन्त प्रसन्न हो गए जो इन्द्र का साम्राज्यजीतना चाह रहे थे |
अतएव उन्होंने उन्हें अनुष्ठानपूर्वक शुद्ध करके तथा स्नान कराकर विश्वजितनामक यज्ञ करने में लगा दिया |
ततो रथ: कागझ्जनपट्टनद्धोहयाश्च हर्य श्वतुरड्रवर्णा: |
ध्वजश्न सिंहेन विराजमानोहुताशनादास हविर्भिरिष्टात् ॥
५॥
ततः--तत्पश्चात्; रथ:--रथ; काझ्जनन--सोने से युक्त; पट्ट--रेशमी वस्त्र; नद्ध:--लिपटा हुआ; हया: च--घोड़े भी; हर्यश्व-तुरड्र-वर्णा:--इन्द्र के घोड़ों जैसे रंग का ( पीला ); ध्वज: च--ध्वजा भी; सिंहेन--सिंहचिह्न से युक्त; विराजमान:--उपस्थित;हुत-अशनातू-- प्रज्वलित अग्नि से; आस--था; हविर्भि: --घी की आहुति द्वारा; इष्टातू- पूजा किया |
जब यज्ञ-अग्नि में घी की आहुति दी गईं तो अग्नि से स्वर्ण तथा रेशम से आच्छादित एकदेवी रथ प्रकट हुआ |
साथ ही इन्द्र के घोड़ों जैसे पीले घोड़े तथा सिंह चिन्ह से अंकित एकध्वजा प्रकट हुए |
धनुश्न दिव्यं पुरटोपनद्धंतूणावरिक्तौ कबचं च दिव्यम् |
पितामहस्तस्य ददौ च माला-मम्लानपुष्पां जलजं च शुक्र: ॥
६॥
धनु:--धनुष; च--भी; दिव्यमू-- असाधारण; पुरट-उपनद्धम्--सोने से मढ़ा; तृणौ--दो तरकस; अरिक्तौ--अच्युत; कवचम्च--तथा कवच; दिव्यम्--दिव्य; पितामहः तस्य--उसके पितामह, प्रह्माद महाराज ने; ददौ--दिया; च--तथा; मालामू--माला; अम्लान-पुष्पाम्--न मुरझाने वाले फूलों की; जल जम्ू--शंख ( जल में उत्पन्न ); च-- भी; शुक्र: --शुक्राचार्य ने |
उस यज्ञ अग्नि से एक सुनहरा धनुष, अच्युत बाणों से युक्त दो तरकस तथा एक दिव्यकवच भी प्रकट हुए |
बलि महाराज के पितामह प्रह्नाद महाराज ने उन्हें कभी न मुरझाने वालेफूलों की माला दी और शुक्राचार्य ने एक शंख प्रदान किया |
एवं स विप्रार्जितयोधनार्थ-स्तेः कल्पितस्वस्त्ययनोथ विप्रान् |
प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्रणाम:प्रह्मदमामन्त्य नमश्चकार ॥
७॥
एवम्--इस प्रकार; सः--वह ( बलि महाराज ); विप्र-अर्जित--ब्राह्मणों की कृपा से प्राप्त; योधन-अर्थ:--युद्ध के लिएसामग्री से लैस; तैः--उन ( ब्राह्मणों ) के द्वारा; कल्पित--सलाह; स्वस्त्ययन: --अनुष्ठान; अथ--जिस तरह; विप्रान्--सारेब्राह्मणों ( शुक्राचार्य तथा अन्यों ) को; प्रदक्षिणी-कृत्य--परिक्रमा करके; कृत-प्रणाम: --नमस्कार करके; प्रह्नदम्-प्रह्मदमहाराज को; आमन्त्रय--सम्बोधित करके; नमः-चकार--नमस्कार किया |
ब्राह्मणों की सलाह के अनुसार विशेष अनुष्ठान सम्पन्न कर चुकने तथा उनकी कृपा से युद्ध-सामग्री प्राप्त कर चुकने के बाद, महाराज बलि ने ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा की और उन्हें नमस्कारकिया |
उन्होंने प्रहाद महाराज को भी नमस्कार किया |
अथारुह्म रथं दिव्यं भृगुदत्तं महारथ: |
सुस्त्रग्धरोथ सन्नह्म धन्वी खड़्गी धृतेषुधि: ॥
८॥
हेमाड्रदलसतद्वाहुः स्फुरन्मकरकुण्डलः |
रराज रथमारूढो धिष्ण्यस्थ इब हव्यवाद ॥
९॥
अथ--त्पश्चात्; आरुह्म--चढ़कर; रथम्--रथ पर; दिव्यम्--दैवी; भृगु-दत्तम्--शुक्राचार्य द्वारा दिया गया; महा-रथ: --महान् सारथी बलि महाराज; सु-सत्रकु-धरः --सुन्दर माला से सुशोभित; अथ--इस तरह; सन्नह्य --कवच से शरीर ढककर;धन्वी--धनुष से लैस होकर; खड़्गी--तलवार धारण किये; धृत-इषुधि:--तरकस धारण किये; हेम-अड्भद-लसतू-बाहु: --अपनी भुजाओं में सुनहरे कड़ों से सुशोभित; स्फुरत्ू-मकर-कुण्डल:--मरकत के समान चमकीले कुण्डलों से सज्जित; रराज--प्रकाशित कर रहा था; रथम् आरूढ:--रथ पर चढ़कर; धिष्ण्य-स्थ:--यज्ञवेदी पर स्थित होकर; इब--सहश; हव्य-वाट्--पूज्य अग्नि
तब शुक्राचार्य द्वारा दिये गये रथ पर सवार होकर सुन्दर माला से विभूषित बलि महाराज नेअपने शरीर में सुरक्षा-कवच धारण किया, अपने को बाणों से लैस किया, एक तलवार तथातूणीर ( तरकस ) लिया |
जब वे रथ में आसन ग्रहण कर चुके तो सुनहरे कड़ों से विभूषित बाहोंतथा मरकत मणि के कुण्डलों से विभूषित कानों सहित वे पूजनीय अग्नि की तरह चमक रहेथे |
तुल्यैश्वर्यजल श्रीभि: स्वयूथै्देत्ययूथपै: |
पिबद्धिरिव खं दृग्भिर्दहद्धि:ः परिधीनिव ॥
१०॥
वबृतो विकर्षन्महतीमासुरीं ध्वजिनीं विभु: |
ययाविन्द्रपुरीं स्वृद्धां कम्पयन्निव रोदसी ॥
११॥
तुल्य-ऐश्वर्य--ऐश्वर्य में समान; बल--शक्ति में; श्रीभि:--तथा सौन्दर्य में; स्व-यूथेः--अपने आदमियों से; दैत्य-यूथ-पैः--तथाअसुरों के प्रमुखों से; पिबद्धि:--पीते हुए; इब--मानो; खम्--आकाश को; दृग्भि:ः--दृष्टि से; दहर्द्धिः--जलती हुई;परिधीन्--सारी दिशाएँ; इब--मानो; वृत:--घिरा हुआ; विकर्षन्--आकृष्ट करती; महतीम्ू--महान्; आसुरीम्-- आसुरी;ध्वजिनीम्--सैनिकों को; विभुः--अत्यन्त शक्तिशाली; ययौ--गया; इन्द्र-पुरीम्--राजा इन्द्र की राजधानी में; सु-ऋद्धाम्--अत्यन्त ऐश्वर्यशाली; कम्पयन्--हिलाते हुए; इब--मानो; रोदसी --सारे संसार की धरती को |
जब वे अपने सैनिकों तथा असुर-नायकों समेत एकत्र हुए जो बल, ऐश्वर्य एवं सुन्दरता मेंउन्हीं के समान थे तो ऐसा लग रहा था मानो वे आकाश को निगल जायेंगे और अपनी दृष्टि सेसारी दिशाओं को जला देंगे |
इस तरह असुर-सैनिकों को एकत्र करके बलि महाराज ने इन्द्र कीऐश्वर्यमयी राजधानी के लिए प्रस्थान किया |
निस्सन्देह, ऐसा लग रहा था मानो वे सारे जगत कोकंपायमान कर देंगे |
रम्यामुपवनोद्यानै: श्रीमद्धिर्नन्दनादिभिः |
कूजद्विहड्रमिथुनेर्गायन्मत्तमधुव्रते: |
प्रवालफलपुष्पोरु भारशाखामरद्रुमै: ॥
१२॥
रम्यामू--सुहावने; उपवन--फलों के बागों; उद्यानै:ः--तथा बगीचों से युक्त; श्रीमद्धि:ः--देखने में अत्यन्त सुन्दर; नन्दन-आदिभि:--यथा नन्दन; कूजत्--चहचहाते; विहड्ग--पक्षी; मिथुनै:--जोड़ों समेत; गायत्--गाते हुए; मत्त--मतवाले; मधु-ब्रतः--मधुमक्खियों से; प्रवाल--पत्तियों का; फल-पुष्प--फूल तथा फल; उरू-- भारी; भार-- भार सहन करते हुए; शाखा--जिसकी शाखाएँ; अमर-ब्रुमैः -- अमर वृक्षों सहित |
राजा इन्द्र की पुरी सुहावने बाग बगीचों से, यथा नन्दन बाग से परिपूर्ण थी |
फूलों, पत्तियोंतथा फलों के भार से उनके शाश्वत वृक्षों की शाखाएँ नीचे झुकी हुई थीं |
इन उद्यानों में चहकतेपक्षियों के जोड़े तथा गाती मधुमक्खियाँ आती जाती थीं |
वहाँ का सारा वायुमण्डल अत्यन्तदिव्य था |
हंससारसचक्राह्कारण्डवकुलाकुला: |
नलिन्यो यत्र क्रीडन्ति प्रमदा: सुरसेविता: ॥
१३॥
हंस--हंस; सारस--सारस; चक्राह्--चकई, चकवा; कारण्डब--तथा जल मुर्गाबी; कुल--समूहों में; आकुला:--संकुलित;नलिन्य:--कमल के फूल; यत्र--जहाँ; क्रीडन्ति--खेलते हैं; प्रमदा:--सुन्दर स्त्रियाँ; सुर-सेविता: --देवताओं द्वारा रक्षित |
उद्यानों में देवताओं द्वारा रक्षित सुन्दर स्त्रियाँ खेलती थीं जिनके कमल-ताल हंसों, सारसों,अक्रवाकों तथा बत्तखों से भरे हुए थे |
आकाश गजड़या देव्या वृतां परिखभूतया |
प्राकारेणाग्निवर्णेन साट्टालेनोन्नतेन च ॥
१४॥
आकाश-गड़या-- आकाश गंगा नामक गंगाजल से; देव्या--सदैव पूजित देवी; वृताम्--घिरी हुईं; परिख-भूतया--खाई केरूप में ; प्राकरेण-- चहारदीवारी से; अग्नि-वर्णेन-- अग्नि की तरह; स-अट्टालेन--लड़ने के स्थानों सहित; उन्नतेन-- अत्यन्तऊँचे; च--तथा
वह पुरी आकाशगंगा नामक गंगाजल से पूर्ण खाइयों द्वारा तथा अग्नि जैसे रंग वाली एकअत्यन्त ऊँची दीवाल से घिरी हुई थी |
इस दीवाल पर लड़ने के लिए मुंडेर बने थे |
रुक््मपट्टकपाटै श्ष द्वारे: स्फटिकगोपुरै: |
जुष्टां विभक्तप्रपथां विश्वकर्मविनिर्मिताम्ू ॥
१५॥
रुक््म-पट्ट--सोने की पत्तरों वाले; कपाटैः--किवाड़ों से; च--तथा; द्वारैः--दरवाजों से; स्फटिक-गोपुरैः--उत्कृष्ट संगमरमरके बने फाटकों से युक्त; जुष्टाम्--जुड़े; विभक्त-प्रपथधाम्--अनेक सार्वजनिक सड़कों से; विश्वकर्म-विनिर्मिताम्--स्वर्ग केशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा निर्मित
उसके दरवाजे ठोस सोने के पत्तरों से बने थे और फाटक उत्कृष्ट संगमरमर के थे |
ये सभीविभिन्न जन-मार्गो से जुड़े थे |
पूरी नगरी का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था |
सभाचत्वररथ्याढ्यां विमानैर्न्यबुदर्युताम् |
श्रुद्राटकैर्मणिमयैर्वज़विद्रुमबेदिभि: ॥
१६॥
सभा--सभाभवन; चत्वर--आंगन; रथ्य--तथा सार्वजनिक मार्गों से युक्त; आढ्याम्--ऐश्वर्यशाली; विमानै:--वायुयानों से;न्यर्बुदै:--दस करोड़ से कम नहीं; युताम्--से युक्त; श्रुड़ु-आटकै:--चौराहों से युक्त; मणि-मयैः--मणियों से बना; वज्ञ--हीरों के बने; विद्रुम--तथा मूंगे के बने; वेदिभि:--बैठने के स्थानों सहित
यह नगरी आँगनों, चौ मार्गों, सभाभवनों तथा कम से कम दस करोड़ विमानों से पूर्ण थी |
चौराहे मोती से बने थे और भी हीरे तथा मूँगे से बने थे |
यत्र नित्यवयोरूपा: श्यामा विरजवाससः |
भ्राजन्ते रूपवन्नार्यो हार्चिभिरिव वह्ययः ॥
१७॥
यत्र--उस नगरी में; नित्य-वयः-रूपा:--सदैव सुन्दर तथा तरुण बनी रहने वाली; श्यामा:--श्यामा के गुणों वाली; विरज-वासस:--सदैव स्वच्छ वस्त्र पहने; भ्राजन्ते--चमचमाती रहती हैं; रूप-वत्--अच्छी तरह सजी हुई; नार्य:--स्त्रियाँ; हि--निश्चयही; अर्चिर्भि:-- अनेक ज्वालाओं से युक्त; इब--सहृश; वहृयः--अग्नियाँ |
उस पुरी में नित्य सुन्दर तथा तरुण स्त्रियाँ स्वच्छ वस्त्र पहने ज्वालाओं से युक्त अग्नियों कीभाँति चमक रही थीं |
उन सब में शयामा के गुण विद्यमान थे॥
सुरस्त्रीकेशविभ्रष्टनवसौगन्धिकस्त्रजाम् |
यत्रामोदमुपादाय मार्ग आवाति मारुतः ॥
१८॥
सुर-स्त्री--देवताओं की स्त्रियों के; केश--बालों से; विभ्रष्ट--गिरा हुआ; नव-सौगन्धिक--ताजे महकते फूलों से बने;सत्रजामू--फूलों की मालाओं की; यत्र--जिसमें; आमोदम्--सुगन्धि; उपादाय--ले जाकर; मार्गे--सड़कों पर; आवाति--बहता है; मारुत:--मन्द पवन |
उस पुरी की सड़कों में से होकर बहने वाला मन्द समीर देवताओं की स्त्रियों के बालों सेगिरे फूलों की सुंगधि से युक्त था |
हेमजालाक्षनिर्गच्छद्धूमेनागुरुगन्धिना |
पाण्डुरेण प्रतिच्छन्नमार्गे यान्ति सुरप्रिया: ॥
१९॥
हेम-जाल-अक्ष--सुनहरी जाली से बनी छोटी सुन्दर खिड़कियों से; निर्गच्छत्--निकलकर, उठकर; धूमेन-- धुएँ से; अगुरु-गन्धिना--अगुरु जलने से सुगन्धित; पाण्डुरेण--अत्यन्त श्वेत; प्रतिच्छन्न--ढका हुआ; मार्गे--सड़क पर; यान्ति--गुजरती हैं;सुर-प्रिया:--सुन्दर अप्सराएँ, दैवी बालाएँ |
अप्सराएँ जिन सड़कों से होकर गुजरती थीं वे अगुरु के श्वेत सुगन्धित धुएँ से ढकी हुई थींजो सुनहरी तारकशी वाली खिड़कियों से निकल रहा था |
मुक्तावितानर्मणिहेमकेतुभि-नॉनापताकावलभीभिरावृताम् |
शिखण्डिपारावतभूड्रनादितांवैमानिकस्त्रीकलगीतमड्रलाम् ॥
२०॥
मुक्ता-वितानैः:--मोतियों से सजे मण्डपों से; मणि-हेम-केतुभि:ः--मोती तथा सोने से बनी झंडियों से; नाना-पताका--तरह-तरह के ध्वजों वाला; वलभीभि:--महलों की गुम्बदों सहित; आवृताम्--ढका हुआ; शिखण्डि--मोर जैसे पक्षियों; पारावत--कबूतर; भूड़-- भौरे; नादिताम्ू-- अपनी-अपनी गुंजार करते; वैमानिक--विमानों में चढ़कर; स्त्री--स्त्रियों का; कल-गीत--सामूहिक गान से; मड्रलाम्--कल्याण से पूरित |
नगरी में मोतियों से सजे चँदोवे की छाया पड़ रही थी और महलों की गुम्बदों में मोती तथासोने की पताकाएँ थीं |
वह नगरी सदा मोरों, कबूतरों तथा भौरों की ध्वनि से गूँजती रहती थी |
उसके ऊपर विमान उड़ते रहते थे, जो कानों को अच्छे लगने वाले मधुर गीतों का निरन्तर गायनकरने वाली सुन्दर स्त्रियों से भरे रहते थे |
मृदड़शझ्जानकदुन्दुभिस्वनै:सतालवीणामुरजेष्टवेणुभि: |
नृत्यै: सवाद्यरुपदेवगीतकै -मनोरमां स्वप्रभया जितप्रभाम् ॥
२१॥
मृदड्र--- ढोल; शद्भु--शंख; आनक-दुन्दुभि-- तथा दमामों के; स्वनै:--शब्दों से; स-ताल--पूर्ण ताल में; वीणा--वीणा;मुरज--एक प्रकार का ढोल; इृष्ट-वेणुभि:--वंशी की सुन्दर ध्वनि के साथ-साथ; नृत्यैः--नृत्य सहित; स-वाद्यैः--बाजोंसहित; उपदेव-गीतकै:--गौण देवताओं यथा गन्धर्वों के गीतों सहित; मनोरमाम्--सुन्दर तथा सुहावना; स्व-प्रभया--अपने तेजसे; जित-प्रभाम्--साक्षात् सुन्दरता जीत ली गई |
वह नगरी मृदंग, शंख, दमामे, वंशी तथा तार वाले सुरीले वाद्ययंत्रों के समूहवादन के स्वरोंसे पूरित थी |
वहाँ निरन्तर नृत्य चलता रहता था और गन्धर्वगण गाते रहते थे |
इन्द्रपुरी की संयुक्तसुन्दरता साक्षात् सुन्दरता ( छटा ) को जीत रही थी |
यां न ब्रजन्त्यधर्मिष्ठा: खला भूतद्गुह: शठा: |
मानिनः कामिनो लुब्धा एभिहींना ब्रजन्ति यत् ॥
२२॥
यामू--नगरी की सड़कों में; न--नहीं; ब्रजन्ति--जाते हैं; अधर्मिष्ठा:--अधर्मी लोग; खला:--दुष्ट, ईर्ष्यालु; भूत-ब्रुह:-- अन्यजीवों पर उग्र भाव रखने वाले; शठा:--वंचक, धोखेबाज; मानिन:--झूठी प्रतिष्ठा वाले; कामिन: --कामी; लुब्धा:--लालची;एमिः--ये; हीना: --से पूर्णतः रहित; ब्रजन्ति--घूमते हैं; यत्--मार्ग पर |
जो पापी, ईर्ष्यालु, अन्य जीवों के प्रति उग्र, चालाक, मिथ्या अभिमानी, कामी या लालचीथे वे उस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकते थे |
वहाँ रहने वाले सभी निवासी इन दोषों से रहित थे |
तां देवधानीं स वरूधिनीपतिर्बहिः समन्ताद्गुरुधे पृतन््यया |
आचार्यदत्तं जलजं महास्वनंदध्मौ प्रयुज्न्भयमिन्द्रयोषिताम् ॥
२३॥
तामू--उस; देव-धानीम्--इन्द्र के निवास स्थान को; सः--वह ( बलि महाराज ); वरूथिनी-पतिः --सैनिकों का नायक;बहिः--बाहर; समन्तात्--सभी दिशाओं से; रुरुधे-- आक्रमण किया; पृतन्यया--सैनिकों द्वारा; आचार्य-दत्तम्--शुक्राचार्यद्वारा प्रदत्त; जल-जम्ू--शंख को; महा-स्वनम्--उच्च स्वर; दध्मौ--बजाया; प्रयुज्ञनू--उत्पन्न करते हुए; भयम्-- भय; इन्द्र-योषिताम्--इन्द्र द्वारा रक्षित सारी स्त्रियों का |
असंख्य सैनिकों के सेनानायक बलि महाराज ने इन्द्र के इस निवास स्थान के बाहर अपनेसैनिकों को एकत्र किया और चारों दिशाओं से उस पर आक्रमण कर दिया |
उन्होंने अपने गुरूशुक्राचार्य द्वारा प्रदत्त शंख बजाया जिससे इन्द्र द्वारा रक्षित स्त्रियों के लिए भयावह स्थिति उत्पन्नहो गई |
मधवांस्तमभिप्रेत्य बले: परममुद्यमम् |
सर्वदेवगणोपेतो गुरुमेतदुवाच ह ॥
२४॥
मधघवानू--इन्द्र; तम्--स्थिति को; अभिप्रेत्य--समझकर; बले:--बलि महाराज के; परमम् उद्यमम्-महान् उत्साह; सर्व-देव-गण--सभी देवताओं द्वारा; उपेतः --साथ-साथ; गुरुम्--गुरु को; एतत्--निम्नलिखित शब्द; उबाच--कहा; ह--निस्सन्देह |
बलि महाराज के अथक प्रयास को देखकर तथा उसके मन्तव्य को समझकर राजा इन्द्रअन्य देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति के पास गये और इस प्रकार बोले |
भगवच्ुद्यमों भूयान्बलेरन: पूर्ववैरिण: |
अविषह्ाममिमं मन्ये केनासीत्तेजसोर्जित: ॥
२५॥
भगवनू--हे भगवान्; उद्यम: --उत्साह; भूयानू--महान्; बले:--बलि महाराज का; नः--हमारा; पूर्व-वैरिण: --पुराना शत्रु;अविषहामम्-- असहा; इमम्--यह; मन्ये--मैं सोचता हूँ; केन--किसके द्वारा; आसीत्ू--पाया; तेजसा--तेज; ऊर्जित:--प्राप्तकिया गया |
हे प्रभु! हमारे पुराने शत्रु बलि महाराज में अब नया उत्साह पैदा हो गया है और उसने ऐसीआश्चर्यजनक शक्ति प्राप्त कर ली है कि हमारा विचार है कि हम उसके तेज का शायद प्रतिरोधनहीं कर सकते |
नैनं कश्चित्कुतो वापि प्रतिव्योदुमधी श्वरः |
पिबतन्निव मुखेनेदं लिहन्निव दिशो दश |
दहबन्निव दिशो हमग्भि: संवर्ताग्निरिवोत्थितः: ॥
२६॥
न--नहीं; एनम्--इस व्यवस्था को; कश्चित्--कोई भी; कुतः--कहीं से भी; वा अपि--या तो; प्रतिव्योढुमू--सामना करने केलिए; अधी श्वरः --समर्थ; पिबन् इब--मानो पी रहे हों; मुखेन--मुख से; इृदम्--यह ( जगत ); लिहन् इब--मानो चाट रहा हो;दिशः दश--दसों दिशाएँ; दहन् इब--मानो जल रही हों; दिश:ः--सारी दिशाएँ; हग्भि:ः--अपनी दृष्टि से; संवर्त-अग्नि:--संवर्तअग्नि; इब--सहश; उत्थित:--उठी है |
कोई कहीं भी बलि की इस सैन्य व्यवस्था का सामना नहीं कर सकता |
अब ऐसा प्रतीतहोता है जैसे बलि सारे विश्व को अपने मुँह से पी जाना चाह रहा हो, अपनी जीभ से दसोंदिशाओं को चाट जाना चाह रहा हो और अपने नेत्रों से प्रत्येक दिशा में अग्निकाण्ड करने काप्रयास कर रहा हो |
निस्सन्देह, वह संवर्तक नामक प्रलयंकारी अग्नि के समान उठ पड़ा है |
ब्रूहि कारणमेतस्य दुर्धर्षत्वस्य मद्विपो: |
ओज: सहो बल॑ तेजो यत एतत्समुद्यम: ॥
२७॥
बूहि--कृपा करके हमें बतायें; कारणम्--कारण; एतस्य--इसका; दुर्धर्षत्वस्थ--दुर्धर्षता का; मत्-रिपो: --मेरे शत्रु का;ओज:--पराक्रम; सह:--शक्ति; बलमू--बल; तेज:--प्रभाव; यत:--जहाँ से; एतत्--यह सब; समुद्यम: --प्रयास |
कृपया मुझे बतायें कि बलि महाराज की शक्ति, उद्यम, प्रभाव तथा विजय का क्या कारणहै? वह इतना उत्साही कैसे हो गया है ?श्रीगुरुकुवाचजानामि मघवउछत्रोरुन्नतेरस्थ कारणम् |
शिष्यायोपभूतं तेजो भृगुभि््रह्ठावादिभि: ॥
२८॥
श्री-गुरु: उवाच--बृहस्पति ने कहा; जानामि--जानता हूँ; मघवनू--हे इन्द्र; शत्रो: --शत्रु की; उन्नतेः--उन्नति का; अस्य--उसका; कारणम्--कारण; शिष्याय--शिष्य को; उपभृतम्-प्रदत्त; तेज: --शक्ति; भृगुभि:-- भृगुवंशियों द्वारा; ब्रह्म-वादिभि:--सर्वशक्तिमान ब्राह्मणों द्वारा |
देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कहा : हे इन्द्र! मैं वह कारण जानता हूँ जिससे तुम्हारा शत्रुइतना शक्तिशाली बन गया है |
भृगुमुनि के ब्राह्मण वंशजों ने उनके शिष्य बलि महाराज से प्रसन्नहोकर उन्हें ऐसी अद्वितीय शक्ति प्रदान की है |
ओजस्विनं बलि जेतुं न समर्थोस्ति कश्चनभवद्ठिधो भवान्वापि वर्जयित्वे श्वरं हरिम् |
विजेष्यति न कोप्येनं ब्रह्मतेज:समेधितम्नास्य शक्तः पुरः स्थातुं कृतान्तस्थ यथा जना; ॥
२९॥
ओजस्विनम्--इतना शक्तिशाली; बलिम्ू--बलि महाराज को; जेतुम्ू--जीतने के लिए; न--नहीं; समर्थ:--सक्षम; अस्ति--है;कश्चन--कोई; भवत्-विध: --तुम्हारी तरह; भवान्--तुम स्वयं; वा अपि--या तो; वर्जयित्वा--को छोड़कर; ईंश्वरम्--परमनियन्ता; हरिमू-- भगवान् को; विजेष्यति--जीतेगा; न--नहीं; कः अपि--कोई भी; एनम्--उसको ( बलि महाराज को );ब्रह्म-तेज:-समेधितम्--ब्रह्मतेज से समन्वित; न--नहीं; अस्य--उसके; शक्त:--समर्थ; पुरः--सामने; स्थातुम्--ठहरने केलिए; कृत-अन्तस्य--यमराज के; यथा--जिस तरह; जना:--लोग
न तो तुम न ही तुम्हारे सैनिक परमशक्तिशाली बलि को जीत सकते हैं |
निस्सन्देह, भगवान्के अतिरिक्त कोई भी उसे जीत नहीं सकता क्योंकि वह अब ब्रह्मतेज से युक्त है |
जिस तरहयमराज के समक्ष कोई टिक नहीं पाता उसी तरह बलि महाराज के सामने भी कोई नहीं टिकसकता |
तस्मान्निलयमुत्सूज्य यूयं सर्वे त्रिविष्टपम् |
यात काल प्रतीक्षन्तो यत:ः शत्रोर्विपर्यय: ॥
३०॥
तस्मात्ू--इसलिए; निलयम्-- अदृश्य; उत्सूज्य--त्यागकर; यूयम्--तुम; सर्वे--सभी; त्रि-विष्टपम्--स्वर्ग का राज्य; यात--अन्यत्र चले जाओ; कालम्--काल की; प्रतीक्षन्तः--प्रती क्षा करते हुए; यत:--जिससे; शत्रो: --तुम्हारे शत्रु की; विपर्यय: --विपरीत दशा आ जाये |
अतएव तुम सबको चाहिए कि अपने शत्रुओं की स्थिति के पलटने के समय तक प्रतीक्षाकरते हुए इस स्वंगलोक को छोड़ दो और कहीं ऐसे स्थान में चले जाओ जहाँ तुम दिखाई न दो |
एष विप्रबलोदर्क: सम्प्रत्यूजितविक्रम: |
तेषामेवापमानेन सानुबन्धो विनड्छ्यति ॥
३१॥
एष:--यह ( बलि महाराज ); विप्र-बल-उदर्क:--अपने में निहित ब्राह्मण शक्ति के कारण उन्नति करने वाला; सम्प्रति--इससमय; ऊर्जित-विक्रम:--अत्यन्त शक्तिशाली; तेषाम्--उन्हीं ब्राह्मणों के; एब--निस्सन्देह; अपमानेन-- अपमान से; स-अनुबन्ध:--अपने मित्रों तथा सहायकों सहित; विनड्छ््यति--विनष्ट हो जायेगा |
इस समय बलि ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त आशीषों के कारण अत्यन्त शक्तिशाली बन गया है, किन्तु बाद में जब वह इन्हीं ब्राह्मणों का अपमान करेगा तो वह अपने मित्रों तथा सहायकों सहितविनष्ट हो जायेगा |
एवं सुमन्त्रितार्थास्ते गुरुणार्थानुदर्शिना |
हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्गीर्वाणा: कामरूपिण: ॥
३२॥
एवम्--इस प्रकार; सु-मन्त्रित-- भली भाँति उपदेश पाकर; अर्था:--कर्तव्यों के विषय में; ते--वे ( देवता ); गुरुणा--अपनेगुरु द्वारा; अर्थ-अनुदर्शिना--उपयुक्त आदेश; हित्वा--त्यागकर; त्रि-विष्टपम्--स्वर्ग का साम्राज्य; जग्मु:--गये; गीर्वाणा: --देवतागण; काम-रूपिण: --जो इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकते थे |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार बृहस्पति द्वारा अपने हित का उपदेश दिये जानेपर देवताओं ने तुरन्त उनकी बातें मान ली |
उन्होंने इच्छानुसार रूप धारण किया और वेस्वर्गलोक को छोड़कर असुरों की दृष्टि से ओझल होकर तितर-बितर हो गये |
देवेष्वथ निलीनेषु बलिवैंरोचन: पुरीम् |
देवधानीमधिष्ठाय वशं निन्ये जगत्त्यम् ॥
३३॥
देवेषु--सारे देवता; अथ--इस तरह से; निलीनेषु-- अदृश्य हो जाने पर; बलि:--बलि महाराज; वैरोचन:--विरोचन का पुत्र;पुरीम्-स्वर्ग के राज्य को; देव-धानीम्--देवताओं के निवास स्थान को; अधिष्ठाय--अधिकार में करके; वशम्--नियंत्रण में;निन््ये--ले लिया; जगत्-त्रयम्--तीनों लोकों को |
जब देवतागण ओझल हो गये तो विरोचन के पुत्र बलि महाराज स्वर्ग में प्रविष्ट हुए औरवहाँ से उन्होंने तीनों लोकों को अपने अधिकार में कर लिया |
तं विश्वजयिनं शिष्यं भूगव: शिष्यवत्सला: |
शतेन हयमेधानामनुत्रतमयाजयन् ॥
३४॥
तम्--उस ( बलि महाराज को ); विश्व-जयिनम्--समग्र विश्व के विजेता को; शिष्यम्--शिष्य होने के कारण; भूगव:-- भूगुवंशज, यथा शुक्राचार्य के; शिष्य-वत्सला:--शिष्य से अत्यन्त प्रसन्न होकर; शतेन--एक सौ के द्वारा; हय-मेधानाम्ू--अश्वमेधयज्ञों के; अनुब्रतम्-ब्राह्मणों के आदेशों का पालन करते हुए; अयाजयन्--सम्पन्न कराया |
भूगु के ब्राह्मण वंशजों ने अपने विश्वविजयी शिष्य से अत्यधिक प्रसन्न होकर उसे एक सौअश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न करने में लगा दिया |
ततस्तदनुभावेन भुवनत्रयविश्रुताम् |
कीर्ति दिक्षुवितन्वान: स रेज उडुराडिव ॥
३५॥
ततः-तत्पश्चात्; तत्-अनुभावेन--ऐसे महान् यज्ञ सम्पन्न करने से; भुवन-त्रय--तीनों लोकों में; विश्रुतामू--विख्यात;कीर्तिम्ू--कीर्ति; दिक्षु--सभी दिशाओं में; वितन्वान:--फैली हुई; सः--वह ( बलि महाराज ); रेजे--तेजवान् हो गया;उड्डराट्ू--चन्द्रमा; इब--समान
जब बलि महाराज ने इन यज्ञों को सम्पन्न कर लिया तो उनकी कीर्ति तीनों लोकों में सभीदिशाओं में फैल गई |
इस प्रकार वे अपने पद पर उसी प्रकार चमक उठे जिस तरह आकाश में चमकीला चाँद |
बुभुजे च भ्रियं स्वृद्धां द्विजदेवोपलम्भिताम् |
कृतकृत्यमिवात्मानं मन््यमानो महामना: ॥
३६॥
बुभुजे-- भोग किया; च-- भी; थ्रियम्--ऐश्वर्य; सु-ऋद्धामू--सम्पन्नता; द्विज--ब्राह्मणों के; देवब--देवताओं के तुल्य;उपलम्भिताम्-पक्षपात के कारण अर्जित; कृत-कृत्यम्--उसके कार्यों से अत्यन्त सन्तुष्ट; इब--सह्ृश; आत्मानम्--स्वयं को;मन्यमान:--सोचते हुए; महा-मना:--महान्-मस्तिष्क वाला, उदारमना |
ब्राह्मणों के पश्चात् के कारण महात्मा बलि महाराज अपने आपको परम सन्तुष्ट मानते हुएपरम ऐश्वर्यवान् तथा सम्पन्न बन गये और राज्य का भोग करने लगे |
अध्याय सोलह: पूजा की पयो-व्रत प्रक्रिया को क्रियान्वित करना
8.16श्रीशुक उबाचएवं पुत्रेषु नष्टेचु देवमातादितिस्तदा |
हते त्रिविष्टपे दैत्यै: पर्यतप्यदनाथवत् ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; पुत्रेषु--अपने पुत्रों को; नष्टेपु--अपने पदों से अहृश्य हुए;देव-माता--देवताओं की माता; अदिति:--अदिति ने; तदा--उस समय; हते--खो जाने के कारण; त्रि-विष्टपे--स्वर्गलोक से;दैत्यै:--असुरों के प्रभाव के कारण; पर्यतप्यत्--पश्चाताप करने लगी; अनाथ-वत्--अनाथ की तरह |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! जब अदिति के पुत्र देवतागण स्वर्गलोक से इस तरह सेअदृश्य हो गये और असुरों ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया तो अदिति इस प्रकार विलाप करनेलगी मानो उसका कोई रक्षक न हो |
एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवानगात् |
निरुत्सवं निरानन्दं समाधेर्विरतश्चिरातू ॥
२॥
एकदा--एक दिन; कश्यप:--कश्यपमुनि; तस्या:--अदिति के; आश्रमम्--आ श्रम में; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली;अगातू--गये; निरुत्सवम्--बिना उत्साह के; निरानन्दम्--बिना हर्ष के; समाधे: --समाधि से; विरत:--जगकर; चिरातू--दीर्घकाल के बाद |
परम शक्तिशाली कश्यपमुनि कई दिनों बाद जब ध्यान की समाधि से उठे और घर लौटे तोदेखा कि अदिति के आश्रम में न तो हर्ष है, न उल्लास |
स पत्नीं दीनवदनां कृतासनपरिग्रहः |
सभाजितो यथान्यायमिदमाह कुरूद्बह ॥
३॥
सः--कश्यपमुनि; पत्लीमू-- अपनी पत्नी को; दीन-वदनाम्--सूखा मुखमंडल किये; कृत-आसन-परिग्रह: --आसन ग्रहणकरके; सभाजित:--अदिति द्वारा आदर किये जाकर; यथा-न्यायम्--काल तथा देश के अनुसार; इृदम् आह--इस प्रकार कहा;कुरु-उद्दद-हे कुरु श्रेष्ठ महाराज परीक्षित |
हे कुरुश्रेष्ठ! भलीभाँति सम्मान तथा स्वागत किये जाने के बाद कश्यपमुनि ने आसन ग्रहणकिया और अत्यन्त खिन्न दिख रही अपनी पत्नी अदिति से इस प्रकार कहा |
अप्यभद्रं न विप्राणां भद्रे लोकेधुनागतम् |
न धर्मस्य न लोकस्य मृत्योश्छन्दानुवर्तिन: ॥
४॥
अपि--क्या; अभद्रम्-दुर्भाग्य; न--नहीं; विप्राणाम्ू--ब्राह्मणों का; भद्रे--हे अदिति; लोके--इस संसार में; अधुना--इससमय; आगतम्--आ गया है; न--नहीं; धर्मस्य-- धर्म का; न--नहीं; लोकस्य--सामान्य लोगों का; मृत्यो:--मृत्यु; छन्द-अनुवर्तिन:--जो लोग मृत्यु के गालों में जाने वाले हैं |
हे भद्दे! मुझे आश्चर्य है कि कहीं धर्म पर, ब्राह्मण वर्ग या काल की सोच में पड़ी जनता कोकुछ हो तो नहीं गया ? अपि वाकुशलं किज्ञिद्गृहेषु गृहमेधिनि |
धर्मस्यार्थस्य कामस्य यत्र योगो हयोगिनाम् ॥
५॥
अपि--मुझे आश्चर्य हो रहा है; वा--या तो; अकुशलम्--अशुभ; किश्ञित्-- कुछ; गृहेषु --घर में; गृह-मेधिनि--गृहस्थ जीवनमें अनुरक्त हे मेरी पत्नी; धर्मस्य--धधर्म का; अर्थस्य--आर्थिक दशा का; कामस्य--इच्छापूर्ति का; यत्र--घर पर; योग:--ध्यानका फल; हि--निश्चय ही; अयोगिनाम्ू--जो अध्यात्मवादी नहीं हैं उनका |
हे गृहस्थ जीवन में अनुरक्त मेरी पत्नी! यदि कोई गृहस्थ जीवन में धर्म, अर्थ तथा काम कासमुचित पालन करता है, तो उसके कार्यकलाप एक अध्यात्मवादी ( योगी ) के ही समान श्रेष्ठहोते हैं |
मुझे आश्चर्य है कि क्या इन नियमों के पालन में कोई त्रुटि आ गई है? अपि वातिथयोभ्येत्य कुटुम्बासक्तया त्वया |
गृहादपूजिता याता: प्रत्युत्थानेन वा क्वचित् ॥
६॥
अपि--क्या; वा--या तो; अतिथय: --मेहमान; अभ्येत्य--घर आकर; कुटुम्ब-आसक्तया--जो परिवार वालों के प्रतिअत्यधिक आसक्त रहते हैं; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; गृहात्--घर से; अपूजिता:--ठीक से सत्कार न किये जाकर; याता:--चलेगये; प्रत्युत्थानेन--खड़े होकर; वा--अथवा; क्वचित्--कभी-कभी |
मुझे आश्चर्य है कि कहीं तुम अपने परिवार के सदस्यों में अत्यधिक आसक्त रहने के कारणअचानक आए अतिथियों का ठीक से स्वागत नहीं कर पाईं और वे बिना सत्कार के ही वापसचले गये ? गृहेषु येष्वतिथयो नार्चिता: सलिलैरपि |
यदि निर्यान्ति ते नूनं फेरराजगृहोपमा: ॥
७॥
गृहेषु--घर पर; येषु--जिस; अतिथय:--अनामंत्रित मेहमान; न--नहीं; अर्चिता:--स्वागत किये गये; सलिलै:ः अपि--कम सेकम एक गिलास जल देकर के; यदि--यदि; निर्यान्ति--वापस चले जाते हैं; ते--ऐसा गृहस्थ जीवन; नूनम्--निस्सन्देह; फेरु-राज--सियारों का; गृह--घर; उपमा:ः--सहृश
जिन घरों से मेहमान एक गिलास जल भेंट किए गए बिना वापस चले जाते हैं, वे घर खेतोंके उन बिलों के समान हैं जिनमें सियार रहते हैं |
अप्यग्नयस्तु वेलायां न हुता हविषा सति |
त्वयोद्विग्नधिया भत्रे प्रोषिते मयि कर्हिचित् ॥
८ ॥
अपि--क्या; अग्नय: --अग्नि; तु--निस्सन्देह; वेलायाम्--अग्नियज्ञ में; न--नहीं; हुता:--डाला गया; हविषा--घी द्वारा;सति--हे सती; त्वया--तुम्हारे द्वारा; उद्विग्न-धिया--किसी चिन्ता के कारण; भद्रे--हे कल्याणी; प्रोषिते--घर से दूर था;मयि--जब मैं; कर्हिचित्ू--कभी-कभी
हे सती तथा शुभे! जब मैं घर से अन्य स्थानों को चला गया तो क्या तुम इतनी चिन्तित थींकि अग्नि में घी की आहुति भी नहीं दे सकीं ? यत्पूजया कामदुघान्याति लोकान्गृहान्वित: |
ब्राह्मणोउग्निश्व वै विष्णो: सर्वदेवात्मनो मुखम् ॥
९॥
यतू-पूजया--अग्नि तथा ब्राह्मणों की पूजा द्वारा; काम-दुघानू--इच्छाओं को पूरा करने वाला; याति--जो जाता है; लोकान्ू--उच्च लोकों को; गृह-अन्वित:--गृहस्थ जीवन के प्रति आसक्त; ब्राह्मण:--ब्राह्मणों; अग्नि: च--तथा अग्नि; वै--निस्सन्देह;विष्णो: -- भगवान् विष्णु का; सर्व-देव-आत्मन: --सारे देवताओं का आत्मा; मुखम्--मुख |
एक गृहस्थ अग्नि तथा ब्राह्मणों की पूजा करके उच्च लोकों में निवास करने के वांछितलक्ष्य को प्राप्त कर सकता है क्योंकि यज्ञ की अग्नि तथा ब्राह्मणों को समस्त देवताओं केपरमात्मा स्वरूप भगवान् विष्णु का मुख माना जाना चाहिए ॥
अपि सर्वे कुशलिनस्तव पुत्रा मनस्विनि |
लक्षयेस्वस्थमात्मानं भवत्या लक्षणैरहम् ॥
१०॥
अपि--चाहे तो; सर्वे--सभी; कुशलिन:--पूर्ण कुशलता के साथ; तवब--तुम्हारे; पुत्रा:--सारे पुत्र; मनस्विनि--हे विशालहृदय वाली नारी; लक्षये--देखता हूँ; अस्वस्थम्-- अशान्त; आत्मानम्--मन को; भवत्या:--तुम्हारे; लक्षणैः--लक्षणों से;अहम्-मैं |
हे मनस्विनि! तुम्हारे सारे पुत्र कुशलपूर्वक तो हैं ? तुम्हारे म्लान मुख को देखकर मुझे लगताहै कि तुम्हारा मन शान्त नहीं है |
ऐसा क्यों है ? श्रीअदितिरुवाचभद्रं द्विजगवां ब्रह्मन्धर्मस्यास्य जनस्य च |
त्रिवर्गस्थ पर क्षेत्रं गृहमेधिन्गूहा इमे ॥
११॥
श्री-अदिति: उबाच-- श्रीमती अदिति ने कहा; भद्रमू--कल्याण हो; द्विज-गवाम्--ब्राह्मणों तथा गायों का; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण;धर्मस्य अस्य--शास्त्र वर्णित धर्म का; जनस्य--लोगों का; च--तथा; त्रि-वर्गस्थ--उन्नति की तीन विधियों ( धर्म, अर्थ तथाकाम ) का; परम्--परम; क्षेत्रमू-क्षेत्र; गृहमेधिन्--हे गृहस्थ जीवन में आसक्त मेरे पति; गृहा:--तुम्हारा घर; इमे--ये सारीवस्तुएँ |
अदिति ने कहा: हे मेरे पूज्य ब्राह्मण पति! सारे ब्राह्मण, गाएँ, धर्म तथा अन्य लोगकुशलपूर्वक हैं |
हे मेरे घर के स्वामी! धर्म, अर्थ तथा काम--ये तीनों गृहस्थ जीवन में ही फलते'फूलते हैं जिसके फलस्वरूप यह जीवन सौभाग्य से पूर्ण होता है |
अग्नयोतिथयो भृत्या भिक्षवो ये च लिप्सवः |
सर्व भगवतो ब्रह्मन्ननुध्यानान्न रिष्यति ॥
१२॥
अग्नय:--अग्नि की पूजा; अतिथयः--अतिथियों का स्वागत; भृत्या:--सेवकों को तुष्ट करना; भिक्षवः--भिखारियों को प्रसन्नरखना; ये--जो; च--तथा; लिप्सव:--वे जैसा चाहते हैं ( वैसा ही उनका ध्यान रखा जाता है ); सर्वम्--सारे के सारे;भगवतः--मेरे स्वामी आपका; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; अनुध्यानात्--निरन्तर ध्यान करने से; न रिष्यति--कुछ नहीं रह जाता ( सबकुछ ठीक से हो जाता है )
हे प्रिय पति! मैं अग्नि, अतिथि, सेवक तथा भिखारी इन सब की समुचित देखभाल करतीरही हूँ |
चूँकि मैं सदैव आपका चिन्तन करती रही हूँ अतएव धर्म में किसी प्रकार की उपेक्षा कीसम्भावना नहीं रही |
को नु मे भगवन्कामो न सम्पद्येत मानसः |
यस्या भवान्प्रजाध्यक्ष एवं धर्मान्प्रभाषते ॥
१३॥
कः--क्या; नु--निस्सन्देह; मे--मेरा; भगवन्--हे स्वामी; काम:--इच्छा; न--नहीं; सम्पद्येत--पूरा किया जा सकता है;मानस:--मन के भीतर; यस्या:--मेरे; भवान्--साक्षात् आप; प्रजा-अध्यक्ष: -- प्रजापति; एबम्--इस प्रकार; धर्मान्ू-- धार्मिकसिद्धान्तों की; प्रभाषते--बातें करते हैं|
हे स्वामी! जब आप प्रजापति हैं और धर्म के सिद्धान्तों के पालन में साक्षात् मेरे उपदेशक हैं,तो फिर मेरी इच्छाओं के पूरा न होने में क्या सम्भावना हो सकती है ? तबैव मारीच मनःशरीरजा:प्रजा इमा: सत्त्वरजस्तमोजुष: |
समो भवांस्तास्वसुरादिषु प्रभोतथापि भक्त भजते महेश्वरः ॥
१४॥
तब--तुम्हारा; एव--निस्सन्देह; मारीच--हे मरीचि के पुत्र; मनः-शरीर-जा:--आपके शरीर या मन से उत्पन्न ( सारे असुर तथादेवता ); प्रजा:--आपफसे उत्पन्न; इमा:--ये सब; सत्त्व-रज:-तम:-जुष:--सतो, रजो तथा तमो गुणों से दूषित; सम:--समान;भवान्--आप; तासु--उनमें से हर एक को; असुर-आदिषु--असुरों इत्यादि में; प्रभो--हे स्वामी; तथा अपि--फिर भी;भक्तमू-- भक्तों को; भजते--परवाह करता है; महा-ईश्वर:-- भगवान्, परम नियन्ता |
हे मरीचि पुत्र! आप महापुरुष होने के कारण असुरों तथा देवताओं के प्रति समभाव रखते हैंक्योंकि वे या तो आपके शरीर से उत्पन्न हैं या आपके मन से |
वे सतो, रजो तथा तमो गुणों में सेकिसी न किसी गुण से युक्त हैं |
लेकिन परम नियन्ता भगवान् समस्त जीवों पर समदर्शा होते हुए भी भक्तों पर विशेष रूप से अनकूल रहते हैं |
तस्मादीश भजल्त्या मे श्रेयश्चिन्तय सुब्रत |
हतश्नियो हतस्थानान्सपत्नै: पाहि नः प्रभो ॥
१५॥
तस्मात्ू--अतएव; ईश--हे परमशक्तिशाली नियन्ता; भजन्त्या:--अपने सेवक का; मे--मेरा; श्रेय:--कल्याण; चिन्तय--जराविचार करें; सु-ब्रत--हे भद्गर; हृत-भ्रिय:--ऐश्वर्यविहीन; हृत-स्थानान्ू--घर-बार से रहित; सपत्नैः--प्रतिद्वन्द्दियों द्वारा; पाहि--रक्षा कीजिये; न:ः--हम सबकी; प्रभो--हे स्वामी अतएबव हे भद्र स्वामी! अपनी दासी पर कृपा कीजिये |
हमारे प्रतिद्वन्द्दी असुरों ने अब हमेंऐश्वर्य तथा घर-बार से विहीन कर दिया है |
कृपा करके हमें संरक्षण प्रदान कीजिये |
परैर्विवासिता साहं मग्ना व्यसनसागरे |
ऐश्वर्य श्रीर्यशः स्थानं हतानि प्रबलैर्मम ॥
१६॥
परैः--अपने शत्रुओं द्वारा; विवासिता--अपने अपने घरों से निकाली जाकर; सा--वही; अहम्--मैं; मग्ना--डूबी हुई; व्यसन-सागरे--कष्ट के समुद्र में; ऐश्वर्यम्--ऐश्वर्य; श्री:--सौन्दर्य; यश:--कीर्ति; स्थानम्--स्थान; हतानि--छीने गये; प्रबलै:--अत्यन्त शक्तिशाली; मम--मेरा |
हमारे अत्यन्त शक्तिशाली शत्रु असुरों ने हमारा ऐश्वर्य, हमारा सौन्दर्य, हमारा यश यहाँ तककि हमारा घर भी हमसे छीन लिया है |
निस्सन्देह, हमें अब वनवास दे दिया गया है और हमविपत्ति के सागर में डूब रहे हैं |
यथा तानि पुनः साधो प्रपद्येरन््ममात्मजा: |
तथा विधेहि कल्याणं धिया कल्याणकृत्तम ॥
१७॥
यथा--जिस तरह; तानि--हमारी सारी खोई वस्तुओं को; पुनः--फिर से; साधो--हे साधु पुरुष; प्रपद्येरनू--पुनः प्राप्त करसकें; मम--मेरा; आत्मजा: --सन्तानें, पुत्र; तथा--उसी प्रकार; विधेहि--कृपा करके करें; कल्याणम्ू--कल्याण; धिया--विचारार्थ; कल्याण-कृत्-तम--हमारा कल्याण करने वाले सर्वोत्तम व्यक्ति आप |
हे श्रेष्ठ साधु, हे कल्याण करने वाले परम श्रेष्ठ! हमारी स्थिति पर विचार करें और मेरे पुत्रोंको ऐसा वर दें जिससे वे अपनी खोई हुई वस्तुएँ फिर से प्राप्त कर सकें |
श्रीशुक उबाचएवमभ्यर्थितोदित्या कस्तामाह स्मयन्निव |
अहो मायाबलं विष्णो: स्नेहबद्धमिदं जगत् ॥
१८॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार से; अभ्यर्थित:--प्रार्थना किये जाने पर; अदित्या--अदितिद्वारा; क:ः--कश्यपमुनि ने; तामू--उससे; आह--कहा; स्मयन्--मुस्काते हुए; इब--के सहश; अहो--ओह; माया-बलम्--माया का प्रभाव; विष्णो: --विष्णु की; स्नेह-बद्धम्--इस स्नेह से प्रभावित; इदम्--यह; जगत्--सारा संसार |
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब अदिति ने कश्यपमुनि से इस प्रकार प्रार्थना की तोवे कुछ मुस्काये और उन्होंने कहा ‘ओह! भगवान् विष्णु की माया कितनी प्रबल है, जिससेसारा संसार बच्चों के स्नेह से बँधा है |
'व देहो भौतिकोनात्मा क््व चात्मा प्रकृते: पर: |
कस्य के पतिपुत्राद्या मोह एव हि कारणम् ॥
१९॥
क्व--कहाँ है; देहः--यह भौतिक शरीर; भौतिक:--पाँच तत्त्व से बना; अनात्मा--जो आत्मा नहीं है; क्व--कहाँ है; च-- भी;आत्मा--आत्मा; प्रकृतेः:--भौतिक जगत के प्रति; पर:--दिव्य; कस्य--किसका; के--कौन है; पति--पति; पुत्र-आद्या:--अथवा पुत्र इत्यादि; मोह:--मोह; एव--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; कारणम्--कारण |
कश्यपमुनि ने आगे कहा : यह पाँच तत्त्वों से बना भौतिक शरीर है क्या? यह आत्मा सेभिन्न है |
निस््सन्देह, आत्मा उन भौतिक तत्त्वों से सर्वथा भिन्न है जिनसे यह शरीर बना हुआ है |
किन्तु शारीरिक आसक्ति के कारण ही किसी को पति या पुत्र माना जाता है |
ये मोहमय सम्बन्धअज्ञान के कारण उत्त्पन्न होते हैं |
उपतिष्ठस्व पुरुषं भगवन्तं जनार्दनम् |
सर्वभूतगुहावासं वासुदेव॑ जगद्गुरुम् ॥
२०॥
उपतिष्ठस्व--पूजने का प्रयास करो; पुरुषम्--परम पुरुष को; भगवन्तम्-- भगवान् को; जनार्दनमू--समस्त शत्रुओं का वध करसकने वाले को; सर्व-भूत-गुहा-वासम्--हर एक के हृदय में वास करने वाले; वासुदेवम्--वसुदेव के पुत्र, सर्वव्यापी वासुदेवकृष्ण को; जगत्-गुरुम्--सारे संसार के गुरु तथा शिक्षक को |
हे अदिति! तुम उन भगवान् की भक्ति में लगो जो हर एक के स्वामी हैं, जो हर एक केशत्रुओं का दमन करने वाले हैं तथा जो हर एक के हृदय के भीतर आसीन रहते हैं |
वे ही परमपुरुष, श्रीकृष्ण या वासुदेव, सब को शुभ वरदान दे सकते हैं क्योंकि वे विश्व के स्वामी हैं |
स विधास्यति ते कामान्हरिदीनानुकम्पन: |
अमोघा भगवद्धक्तिनेतरेति मतिर्मम ॥
२१॥
सः--वह ( वासुदेव ); विधास्यति--निश्चय ही पूरा करेगा; ते--तुम्हारी; कामान्ू--इच्छाएँ; हरिः-- भगवान्; दीन--दुखिया पर;अनुकम्पन:--अत्यन्त कृपालु; अमोघा--अच्युत; भगवत्-भक्ति: -- भगवान् की भक्ति; न--नहीं; इतरा-- भगवद्भक्ति केअतिरिक्त कुछ भी; इति--इस प्रकार; मतिः--अभिमत; मम--मेरा |
दीनों पर अत्यन्त दयालु भगवान् तुम्हारी सारी इच्छाओं को पूरा करेंगे क्योंकि उनकी भक्तिअच्युत है |
भक्ति के अतिरिक्त अन्य सारी विधियाँ व्यर्थ हैं |
ऐसा मेरा मत है |
श्रीअदितिरुवाचकेनाहं विधिना ब्रह्मन्रुपस्थास्ये जगत्पतिम् |
यथा मे सत्यसड्डूल्पो विदध्यात्स मनोरथम् ॥
२२॥
श्री-अदिति: उबाच-- श्रीमती अदिति प्रार्थना करने लगीं; केन--किसके द्वारा; अहम्--मैं; विधिना--विधानों द्वारा; ब्रह्मनू--हेब्राह्मण; उपस्थास्थे--प्रसन्न कर सकती हूँ; जगत्-पतिम्--ब्रह्माण्ड के स्वामी, जगन्नाथ को; यथा--जिससे; मे--मेरा; सत्य-सड्डल्प:--इच्छापूर्ति; विदध्यात्--पूरा करे; सः--वह ( भगवान् ); मनोरथम्--इच्छाएँ, कामनाएँ |
श्रीमती अदिति ने कहा : हे ब्राह्मण! मुझे वह विधि-विधान बतलायें जिससे मैं जगन्नाथ कीपूजा कर सकूँ और भगवान् मुझसे प्रसन्न होकर मेरी समस्त इच्छाओं को पूरा कर दें |
आदिश च्वं द्विजश्रेष्ठ विधि तदुपधावनम् |
आशु तुष्यति मे देव: सीदन्त्या: सह पुत्रकै: ॥
२३॥
आदिश--मुझे उपदेश दें; त्वमू-हे मेरे पति; द्विज-श्रेष्ठ--हे ब्राह्मणश्रेष्ठ; विधिमू--विधि-विधानों को; तत्-- भगवान्;उपधावनम्--पूजा की विधि; आशु--शीघ्र; तुष्यति--प्रसन्न हो जाता है; मे--मुझ पर; देव:-- भगवान्; सीदन्त्या:--अब शोककरते; सह--साथ; पुत्रकै:--अपने सारे पुत्र देवताओं के |
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ) कृपा करके मुझे भगवान् की भक्तिपूर्वक पूजा की पूर्ण विधि का उपदेश देंजिससे भगवान् मुझ पर तुरन्त ही प्रसन्न हो जायें और मुझे मेरे पुत्रों सहित इस अत्यन्त संकटपूर्णपरिस्थिति से उबार लें |
श्रीकश्यप उबाचएतन्मे भगवान्पृष्ट: प्रजाकामस्य पद्मज: |
यदाह ते प्रवक्ष्यामि ब्रतं केशवतोषणम् ॥
२४॥
श्री-कश्यप: उबाच--कश्यपमुनि ने कहा; एतत्--यह; मे--मेरे द्वारा; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; पृष्ठ: --पूछे जाने पर;प्रजा-कामस्य--सन््तान की इच्छा से; पद्य-ज:--कमल पुष्प से उत्पन्न ब्रह्माजी ने; यत्--जो भी; आह--कहा; ते--तुमको;प्रवक्ष्यामि--बताऊँगा; ब्रतम्--पूजा के रूप में; केशव-तोषणम्--जिसमें भगवान् केशव तुष्ट होते हैं |
श्री कश्यपमुनि ने कहा : जब मुझे सन््तान की इच्छा हुई तो मैंने कमलपुष्प से उत्पन्न होनेवाले ब्रह्माजी से जिज्ञासा की |
अब मैं तुम्हें वही विधि बताऊँगा जिसका उपदेश ब्रह्माजी ने मुझेदिया था और जिससे भगवान् केशव तुष्ट होते हैं |
फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतम् |
अर्चयेदरविन्दाक्ष॑ं भकत्या परमयान्वित: ॥
२५॥
फाल्गुनस्य--फाल्गुन मास ( फरवरी-मार्च ) को; अमले--शुक्लपक्ष; पक्षे--पखवारे में; द्वादश-अहम्--बारह दिनों तक,जिसका अन्त द्वादशी के दिन होता है; पयः-ब्रतम्--केवल दूध ग्रहण करने का ब्रत; अर्चयेत्--पूजा करे; अरविन्द-अक्षम्--'कमलनयन भगवान् की; भकत्या--भक्ति के साथ; परमया--शुद्ध; अन्वित:--से युक्त |
'फाल्गुन मास ( फरवरी-मार्च ) के शुक्लपक्ष में द्वादशी तक के बारह दिनों तक मनुष्य कोकेवल दूध पर आश्रित रहकर ब्रत रखना चाहिए और भक्तिपूर्वक कमलनयन भगवान् की पूजाकरनी चाहिए |
सिनीवाल्यां मृदालिप्य स्नायात्क्रोडविदीर्णया |
यदि लक्येत बै स्त्रोतस्येतं मन्त्रमुदीरयेत् ॥
२६॥
सिनीवाल्याम्--अमावस्या के दिन; मृदा--मिट्टी से; आलिप्य--शरीर में लेप करके; स्नायात्ू--नहाए; क्रोड-विदीर्णया--सूअर की दाढ़ से खोदी हुई; यदि--यदि; लभ्येत--उपलब्ध हो; बै--निस्सन्देह; स्नोतसि--प्रवाहमान नदी में; एतम् मन्त्रम्ू--इस मंत्र को; उदीरयेत्--उच्चारण करे |
यदि सूअर द्वारा खोदी गई मिट्टी उपलब्ध हो तो अमावस्या के दिन अपने शरीर पर इस मिट्टीका लेप करे और बहती नदी में स्नान करे |
स्नान करते समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारणकरे |
त्वं देव्यादिवराहेण रसाया: स्थानमिच्छता |
उद्धृतासि नमस्तुभ्य॑ पाप्मानं मे प्रणाशय ॥
२७॥
त्वमू--तुम; देवि--हे माता पृथ्वी; आदि-वराहेण--वराह के रूप में भगवान् द्वारा; रसाया:--ब्रह्माण्ड के निचले भाग से;स्थानम्--स्थान; इच्छता--चाहते हुए; उद्धृूता असि--ऊपर उठाई गई; नमः तुभ्यम्--तुम्हें मेरा नमस्कार है; पाप्मानम्--सारेपापकर्म तथा उनके फल; मे--मेरे; प्रणाशय--विनष्ट कर दो |
हे माता पृथ्वी! तुम्हारे द्वारा ठहरने के लिए स्थान पाने की इच्छा करने पर भगवान् ने वराहरूप में तुम्हें ऊपर निकाला था |
मैं प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके मेरे पापी जीवन के सारे'फलों को आप विनष्ट कर दें |
मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
निर्वर्तितात्मनियमो देवमर्चेत्समाहितः |
अर्चायां स्थण्डिले सूर्ये जले वह्लौ गुरावषि ॥
२८॥
निर्वर्तित--समाप्त; आत्म-नियम:--प्रक्षालन, मंत्रोच्चारण इत्यादि नैत्यिक कर्म; देवम्-- भगवान् को; अर्चेत्ू-पूजे;समाहित: --पूर्ण मनोयोग से; अर्चायाम्--अर्चाविग्रहों को; स्थण्डिले--वेदी को; सूर्य--सूर्य को; जले--जल को; वह्नौ--अग्नि को; गुरौ--गुरु को; अपि--निस्सन्देह
तत्पश्चात् वह अपने नित्य तथा नैमित्तिक आध्यात्मिक कार्य करे और तब बड़े ही मनोयोग सेभगवान् के अर्चाविग्रह की पूजा करे |
साथ ही बेदी, सूर्य, जल, अग्नि तथा गुरु को भी पूजे |
नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महीयसे |
सर्वभूतनिवासाय वासुदेवाय साक्षिणे ॥
२९॥
नमः तुभ्यमू--मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ; भगवते-- भगवान् को; पुरुषाय--परम पुरुष; महीयसे--सभी पुरूषों मेंश्रेष्ठ; सर्व-भूत-निवासाय--उस व्यक्ति को जो हर एक के हृदय में वास करता है; वासुदेवाय-- भगवान् को जो सर्वत्र निवासकरता है; साक्षिणे--सबके साक्षी
हे भगवान्, हे महानतम, हे सब के हृदय में वास करने वाले तथा जिनमें सभी जीव वासकरते हैं, हे प्रत्येक वस्तु के साक्षी, हे सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वव्यापी पुरुष वासुदेव! मैं आपको सादरनमस्कार करता हूँ |
नमोडव्यक्ताय सूक्ष्माय प्रधानपुरुषाय च |
चतुर्विशद््गुणज्ञाय गुणसड्ख्यानहेतवे ॥
३०॥
नमः--मैं आपको नमस्कार करता हूँ; अव्यक्ताय--जो भौतिक आँखों से नहीं देखे जाते; सूक्ष्माय--दिव्य; प्रधान-पुरुषाय--परम पुरुष को; च-- भी; चतु:-विंशत्--चौबीस; गुण-ज्ञाय-- तत्त्वों के ज्ञाता को; गुण-सड्ख्यान--सांख्ययोग पद्धति का;हेतवे--मूल कारण
हे परम पुरुष! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आपभौतिक आँखों से कभी नहीं दिखते |
आप चौबीस तत्त्वों के ज्ञाता हैं और आप सांख्ययोगपद्धति के सूत्रपात-कर्ता हैं |
नमो द्विशीष्ष्णे त्रिपदे चतु: श्रुड्भराय तन्तवे |
सप्तहस्ताय यज्ञाय त्रयीविद्यात्मने नम: ॥
३१॥
नमः--मैं आपको नमस्कार करता हूँ; द्वि-शीष्णें--दो सिरों वाले; त्रि-पदे--तीन पाँव वाले; चतु:-श्रुज्ञाय--चार सींगों वाले;तन्तवे--विस्तार करने वाले; सप्त-हस्ताय--सात हाथों वाले; यज्ञाय--यज्ञ पुरुष को; त्रयी--वैदिक अनुष्ठानों के तीन गुण;विद्या-आत्मने--समस्त ज्ञान के स्वरूप भगवान् को; नम:ः--नमस्कार करता हूँ |
हे भगवान्! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ जिनके दो सिर ( प्रायणीय तथा उदानीय ),तीन पाँव ( सवन-त्रय ), चार सींग ( चार वेद ) तथा सात हाथ ( सप्त छन्द यथा गायत्री ) हैं |
मैंआपको नमस्कार करता हूँ जिनका हृदय तथा आत्मा तीनों वैदिक काण्डों ( कर्मकाण्ड,ज्ञानकाण्ड तथा उपासना काण्ड ) हैं तथा जो इन काण्डों को यज्ञ के रूप में विस्तार देते हैं |
नमः शिवाय रुद्राय नम: शक्तिधराय च |
सर्वविद्याधिपतये भूतानां पतये नमः ॥
३२॥
नमः--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; शिवाय--शिवजी नामक अवतार को; रुद्राय--रुद्र नामक अंश को; नमः--नमस्कार;शक्ति-धराय--समस्त शक्तियों के आगार; च--तथा; सर्व-विद्या-अधिपतये--समस्त ज्ञान के भंडार; भूतानाम्--सारे जीवोंके; पतये--परम स्वामी को; नमः--नमस्कार करता हूँ
हे शिव, हे रुद्र! मैं समस्त शक्तियों के आगार, समस्त ज्ञान के भंडार तथा प्रत्येक जीव केस्वामी आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
नमो हिरण्यगर्भाय प्राणाय जगदात्मने |
योगैश्वर्यशरीराय नमस्ते योगहेतवे ॥
३३॥
नमः--मैं आपको नमस्कार करता हूँ; हिरण्यगर्भाय--चार सिरों वाले हिरण्यगर्भ अर्थात् ब्रह्मा के रूप में स्थित; प्राणाय--हरएक के जीवन-स्त्रोत; जगत्-आत्मने--सम्पूर्ण विश्व के परमात्मा; योग-ऐश्वर्य-शरीराय--ऐश्वर्य तथा योग शक्ति से पूर्ण शरीरवाले; नमः ते--आपको नमस्कार करता हूँ; योग-हेतवे--समस्त योगशक्ति के आदि स्वामी को |
हिरण्यगर्भ रूप में स्थित, जीवन के स्त्रोत, प्रत्येक जीव के परमात्मा स्वरूप आपको मैंसादर नमस्कार करता हूँ |
आपका शरीर समस्त योग के ऐश्वर्य का स्रोत है |
मैं आपको सादरनमस्कार करता हूँ |
नमस्त आदिदेवाय साक्षिभूताय ते नमः |
नारायणाय ऋषये नराय हरये नमः ॥
३४॥
नमः ते--आपको सादर नमस्कार करता हूँ; आदि-देवाय--आदि भगवान् को; साक्षि-भूताय--प्रत्येक के हृदय के भीतर हरबात के साक्षी स्वरूप; ते--तुम्हें; नम:--नमस्कार करता हूँ; नारायणाय--नारायण का अवतार धारण करने वाले; ऋषये --ऋषि को; नराय--मनुष्य के अवतार; हरये-- भगवान् को; नम:--मैं सादर नमस्कार करता हूँ |
मैं आदि भगवान्, प्रत्येक के हृदय में स्थित साक्षी तथा मनुष्य रूप में नर-नारायण ऋषि केअवतार आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
हे भगवान्! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
नमो मरकतश्यामवपुषेधिगतश्रिये |
केशवाय नमस्तुभ्यं नमस्ते पीतवाससे ॥
३५॥
नमः--मैं नमस्कार करता हूँ; मरकत-श्याम-वपुषे--जिनके शरीर का रंग मरकत मणि के समान श्यामल है; अधिगत-श्रिये--माता लक्ष्मी जिनके अधीन हैं; केशवाय--केशी असुर का वध करने वाले भगवान् केशव को; नमः तुभ्यम्--मैं आपकोनमस्कार करता हूँ; नमः ते--पुन:-पुनः नमस्कार करता हूँ; पीत-वाससे--पीताम्बर वाले |
हे पीताम्बरधारी भगवान्! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
आपके शरीर का रंग मरकतमणि जैसा है और आप लक्ष्मीजी को पूर्णतः वश में रखने वाले हैं |
हे भगवान् केशव! मैंआपको सादर नमस्कार करता हूँ |
त्वं सर्ववरद: पुंसां वरेण्य वरदर्षभ |
अतस्ते श्रेयसे धीरा: पादरेणुमुपासते ॥
३६॥
त्वमू-तुम; सर्व-वर-दः--सभी प्रकार का वरदान देने वाले; पुंसामू--सारे जीवों को; वरेण्य--हे परम पूज्य; वर-द-ऋषभ--समस्त वरदान देने वालों में सर्वशक्तिमान; अत:--इस कारण से; ते--तुम्हारा; श्रेयसे--समस्त कल्याण के स्त्रोत; धीरा:--अत्यन्त गम्भीर; पाद-रेणुम् उपासते--चरणकमलों की धूल को पूजते हैं |
हे परम पूज्य भगवान्, हे वरदायकों में श्रेष् आप हर एक की इच्छाओं को पूरा कर सकतेहैं अतएव जो धीर हैं, वे अपने कल्याण के लिए आपके चरणकमलों की धूल को पूजते हैं |
अन्ववर्तन्त य॑ देवा: श्रीक्ष तत्पादपदायो: |
स्पृहयन्त इवामोदं भगवान्मे प्रसीदताम् ॥
३७॥
अन्ववर्तन्त--भक्ति में रत; यम्--जिसको; देवा:--सारे देवता; श्री: च--तथा लक्ष्मीजी; तत्-पाद-पद्ायो: --उन भगवान् केचरणकमलों का; स्पृहयन्त:--चाहते हुए; इब--सहृश; आमोदम्--दैवी आनन्द; भगवान्-- भगवान्; मे--मुझ पर;प्रसीदताम्-प्रसन्न हों |
सारे देवता तथा लक्ष्मीजी भी उनके चरणकमलों की सेवा में लगी रहती हैं |
निस्सन्देह, वेउन चरणकमलों की सुगन्ध का आदर करते हैं |
ऐसे भगवान् मुझ पर प्रसन्न हों |
एतैर्मन्त्रईघीकेशमावाहनपुरस्कृतम् |
अर्चयेच्छुद्धया युक्त: पाद्योपस्पर्शनादिभि: ॥
३८॥
एतै: मन्त्रै:--इन मंत्रों के उच्चारण करने से; हषीकेशम्--समस्त इन्द्रियों के स्वामी भगवान् को; आवाहन--बुलाना;पुरस्कृतम्--सभी प्रकार से सम्मान करते हुए; अर्चयेत्--पूजा करे; श्रद्धया--श्रद्धा तथा भक्ति के साथ; युक्त:--लगा हुआ;पाद्य-उपस्पर्शन-आदिभि: --पूजा की साज-सामग्री ( पाद्य, अर्घध्य, आदि ) द्वारा )
कश्यप मुनि ने आगे कहा : इन सभी मंत्रों के उच्चारण द्वारा भगवान् का श्रद्धा तथा भक्तिके साथ स्वागत करके एवं उन्हें पूजा की वस्तुएँ ( पाद्य तथा अर्घ्य ) अर्पित करके मनुष्य कोकेशव अर्थात् हषीकेश भगवान् कृष्ण की पूजा करनी चाहिए |
अर्चित्वा गन्धमाल्याद्यैः पयसा स्नपयेद्विभुम् |
वस्त्रोपवीताभरणपाद्योपस्पशनिस्तत: |
गन्धधूपादिभिश्चार्चेद्द्वादशाक्षरविद्यया ॥
३९॥
अर्चित्वा--इस प्रकार पूजा करके; गन्ध-माल्य-आद्यि:--अगुरु, फूल की माला आदि के द्वारा; पयसा--दूध से; स्नपयेत्--नहलाए; विभुम्-- भगवान् को; वस्त्र--वस्त्र; उपवीत--जनेऊ; आभरण--गहने; पाद्य--चरणकमलों को धोने के लिए प्रयुक्तजल; उपस्पर्शनै: --स्पर्श द्वारा; ततः--तत्पश्चात्; गन्ध--सुगंध; धूप--धूपबत्ती; आदिभि:--इत्यादि से; च--तथा; अर्चेत्--पूजा करे; द्वादश-अक्षर-विद्यया--बारह अक्षरों वाले मंत्र से |
सर्वप्रथम भक्त को द्वादश अक्षर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए और फूल की माला, अगुरुइत्यादि अर्पित करने चाहिए |
इस प्रकार से भगवान् की पूजा करने के बाद भगवान् को दूध सेनहलाना चाहिए और उन्हें समुचित वस्त्र तथा यज्ञोपवीत ( जनेऊ ) पहनाकर गहनों से सजानाचाहिए |
तत्पश्चात् भगवान् के चरणों का प्रक्षालन करने के लिए जल अर्पित करके सुगंधितपुष्प, अगुरु तथा अन्य सामग्री से भगवान् की पुनः पूजा करनी चाहिए |
श्रृतं पयसि नेवेद्यं शाल्यन्नं विभवे सति |
ससर्पि: सगुडं दत्त्वा जुहुयान्मूलविद्यया ॥
४०॥
श्रुतम्--पकाया गया; पयसि--दूध में; नैवेद्यममू--अर्चाविग्रह को भेंट; शालि-अन्नमू--चावल; विभवे--यदि उपलब्ध हो;सति--इस प्रकार से; स-सर्पि:--घी के साथ; स-गुडम्-गुड़ के साथ; दत्त्वा--उन्हें प्रदान करके; जुहुयात्ू-- अग्नि मेंआहुतियाँ डाले; मूल-विद्यया--उसी द्वादशाक्षर मंत्र के उच्चारण के साथ-साथ |
यदि सामर्थ्य हो तो भक्त अर्चाविग्रह पर दूध में घी तथा गुड़ के साथ पकाये चावल चढ़ाए |
उसी मूल मंत्र का उच्चारण करते हुए यह सामग्री अग्नि में डाली जाये |
निवेदितं तद्धक्ताय दद्याद्धुब्जीत वा स्वयम् |
दत्त्वाचमनमर्चित्वा ताम्बूलं च निवेदयेत् ॥
४१॥
निवेदितम्-चढ़ाया हुआ प्रसाद; तत्-भक्ताय--उनके भक्त को; दद्यात्-दिया जाये; भुज्जीत--खाये; वा--अथवा; स्वयम्--खुद; दत्त्ता आचमनम्--हाथ तथा मुखमार्जन के लिए जल देकर; अर्चित्वा--पूजा करके; ताम्बूलम्ू--पान; च--भी;निवेदयेत्--प्रदान करे |
उसे चाहिए कि वह सारा प्रसाद या उसका कुछ अंश किसी वैष्णव को दे और तब कुछप्रसाद स्वयं ग्रहण करे |
तत्पश्चात् अर्चाविग्रह को आचमन कराए और तब पान सुपारी चढ़ाकरफिर से भगवान् की पूजा करे |
जपेदष्टोत्तरशतं स्तुवीत स्तुतिभि: प्रभुम् |
कृत्वा प्रदक्षिणं भूमौ प्रणमेहण्डवन्मुदा ॥
४२॥
जपेत्--मन ही मन उच्चारण करे; अष्टोत्तर-शतम्--एक सौ आठ बार; स्तुबीत--स्तुति करे; स्तुतिभि:--महिमा-स्तुतियों द्वारा;प्रभुमू-- भगवान् को; कृत्वा--करके ; प्रदक्षिणम्--प्रदक्षिणा; भूमौ-- भूमि पर; प्रणमेत्--प्रणाम करे; दण्डबत्--साष्टांग भूमिपर लोटकर; मुदा-प्रसन्नतापूर्वक
तत्पश्चात् उसे चाहिए कि वह मुँह में १०८ बार मंत्र का जप करे और भगवान् की महिमा कीस्तुतियाँ करे |
तब वह भगवान् की प्रदक्षिणा करे और अन्त में परम सन््तोष तथा प्रसन्नतापूर्वकभूमि पर लोटकर ( दण्डवत् ) प्रणाम करे |
कृत्वा शिरसि तच्छेषां देवमुद्दासयेत्तत: |
दव्यवरान्भोजयेद्विप्रान्यायसेन यथोचितम् ॥
४३ ॥
कृत्वा--चढ़ा करके; शिरसि--माथे पर; तत्-शेषाम्--सारा अवशिष्ट ( अर्चाविग्रह को चढ़ाया जल तथा फूल ); देवम्--अर्चाविग्रह को; उद्बासयेत्--पवित्र स्थान में ले जाकर फेंक देना चाहिए; ततः--तत्पश्चात्; द्वि-अवरान्--कम से कम दो;भोजयेत्--खिलाए; विप्रान्--ब्राह्मणों को; पायसेन--खीर से; यथा-उचितम्--जैसा उचित हो |
अर्चाविग्रह पर चढ़ाये गये जल तथा सभी फूलों को अपने सिर से छूने के बाद उन्हें किसीपवित्र स्थान पर फेंक दे |
तब कम से कम दो ब्राह्मणों को खीर का भोजन कराए |
भुझ्जीत तैरनुज्ञात: सेष्ट: शेषं सभाजितै: |
ब्रह्मचार्यथ तद्रात्रयां श्रो भूते प्रथमेडहनि ॥
४४॥
स्नातः शुचिर्यथोक्तेन विधिना सुसमाहितः |
'पयसा स्नापयित्वार्चेद्यावद्व्रतसमापनम् ॥
४५॥
भुझ्जीत--प्रसाद ग्रहण करे; तैः--उन ब्राह्मणों से; अनुज्ञातः-- अनुमति लेकर; स-इष्ट:--मित्रों तथा परिवार वालों के सहित;शेषम्-शेष बचा हुआ; सभाजितै:--उचित रूप से सम्मानित; ब्रह्मचारी --ब्रह्मचर्य त्रत का पालन; अथ--निस्सन्देह; ततू-रात््याम्ू--उस रात में; श्रः भूते--सबेरा होने पर; प्रथमे अहनि--पहले दिन; स्नात:--स्नान किया हुआ; शुच्रि:--पवित्र होकर;यथा-उक्तेन--जैसाकि पहले कहा जा चुका है; विधिना--विधिपूर्वक; सु-समाहित:--एकाग्र होकर; पयसा--दूध से;स्नापयित्वा--अर्चा विग्रह को स्नान कराकर; अर्चेत्ू--पूजा करे; यावत्--जब तक; ब्रत-समापनम्--पूजा की अवधि समाप्त नहो जाये |
जिन सम्मान्य ब्राह्मणों को भोजन कराया हो उनका भलीभाँति सत्कार करे और तब उनकीअनुमति से अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों सहित स्वयं प्रसाद ग्रहण करे |
उस रात में पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करे और दूसरे दिन प्रातः स्नान करने के बाद अत्यन्त शुद्धता तथा ध्यान के साथअर्चाविग्रह को दूध से स्नान कराए और विस्तारपूर्वक पूर्वोक्त विधियों के अनुसार उनकी पूजाकरे |
पयोभक्षो व्रतमिदं चरेद्विष्णवर्चनाहत: |
पूर्ववज्जुहुयादरगिन ब्राह्मणांश्रापि भोजयेत् ॥
४६॥
पय:-भक्ष:--केवल दूध का पान करने वाला; ब्रतम् इदम्ू--यह ब्रत; चरेत्--सम्पन्न करे; विष्णु-अर्चन-आहत:--अत्यन्तश्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णु की पूजा करते हुए; पूर्व-वत्--पहले की तरह; जुहुयातू--आहुतियाँ डाले; अग्निम्ू--अग्नि में; ब्राह्मणान्ू--ब्राह्मणों को; च अपि-- भी; भोजयेत्-- भोजन कराए
केवल दूधपान करते हुए और श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णु की पूजा करते हुएभक्त इस ब्रत का पालन करे |
उसे चाहिए कि वह अग्नि में हवन करे और पूर्वोक्त विधि सेब्राह्मणों को भोजन कराए |
एवं त्वहरहः कुर्याददूवादशाहं पयोव्रतम् |
हरेराराधनं होममरईणं द्विजतर्पणम् ॥
४७॥
एवम्--इस प्रकार; तु--निस्सन्देह; अहः अहः--दिन प्रतिदिन; कुर्यातू-करना चाहिए; द्वादइश-अहम्--बारह दिनों तक; पय:-ब्रतम्-पयक्रत; हरे: आराधनम्-- भगवान् की पूजा; होमम्--हवन करके; अर्हणम्--अर्चा विग्रह की पूजा; द्विज-तर्पणम्--भोजन कराकर ब्राह्मणों को प्रसन्न करना |
इस तरह बारह दिनों तक प्रतिदिन भगवान् का पूजन, नैत्यिक कर्म, हवन तथा ब्राह्मण-भोजन सम्पन्न कराकर यह पयोत्रत रखा जाये |
प्रतिपद्दिनमारभ्य यावच्छुक्लत्रयोदशीम् |
ब्रह्मचर्यमधःस्वप्नं स्नान॑ त्रिषवर्ण चरेत् ॥
४८ ॥
प्रतिपत् -दिनम्--प्रतिपत् के दिन; आरभ्य--प्रारम्भ करके; यावत्--जब तक; शुक्ल--शुक्लपक्ष की; त्रयोदशीम्--तेरस( एकादशी के दो दिन बाद ); ब्रह्मचर्यम्--पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन; अध:-स्वजम्--फर्श पर शयन; स्नानम्--स्नान; त्रि-सवनमू--तीन बार ( प्रातः, सायं तथा दोपहर में ); चरेत्ू--सम्पन्न करे |
प्रतिपदा से लेकर अगले शुक्लपक्ष की तेरस (शुक्ल त्रयोदशी ) तक पूर्ण ब्रह्मचर्य कापालन करे, फर्श पर सोये, प्रतिदिन तीन बार स्नान करे और इस ब्रत को सम्पन्न करे |
वर्जयेदसदालापं भोगानुच्चावचांस्तथा |
अहिंस्त्र: सर्वभूतानां वासुदेवपरायण: ॥
४९॥
वर्जयेत्--न करे; असत्-आलापमू--सांसारिक विषयों पर वृथा बातचीत; भोगान्--इन्द्रियतृप्ति; उच्च-अवचानू-- श्रेष्ठ यानिकृष्ट; तथा--और; अहिंस्त्र:--ईर्ष्यारहित होकर; सर्व-भूतानामू--सारे जीवों का; वासुदेव-परायण:-- भगवान् वासुदेव कामात्र भक्त बनकर |
इस अवधि में सांसारिक प्रपंचों या इन्द्रियतृप्ति के विषय पर अनावश्यक चर्चा न चलाये,वह सारे जीवों की ईर्ष्या से पूर्णतया मुक्त रहे और भगवान् वासुदेव का शुद्ध एवं सरल भक्तबने |
त्रयोदश्यामथो विष्णो: स्नपन॑ पञ्जञकैर्विभो: |
कारयेच्छास्त्रदष्टन विधिना विधिकोविदेः ॥
५०॥
त्रयोदश्याम्--तेरस को; अथो--तत्पश्चात्; विष्णो: -- भगवान् विष्णु का; स्नपनम्--स्नान कराना; पञ्ञकै:--पश्ञामृत द्वारा;विभो:-- भगवान्; कारयेत्--करे; शास्त्र-दृष्टेन--शास्त्रों द्वारा आदिष्ट; विधिना--विधि से; विधि-कोविदैः --विधि-विधानों कोजानने वाले पुरोहितों की सहायता से |
तत्पश्चात् शास्त्रविद् ब्राह्मणों की सहायता से शास्त्रों के आदेशानुसार शुक्लपक्ष की तेरस कोभगवान् विष्णु को पशञ्ञामृत ( दूध, मट्ठा, घी, चीनी तथा शहद ) से स्नान कराये |
पूजां च महतीं कुर्याद्वित्तशाठ्यविवर्जित: |
चर निरूप्य पयसि शिपिविष्टाय विष्णवे ॥
५१॥
सूक्तेन तेन पुरुष यजेत सुसमाहितः |
नैवेद्यं चातिगुणवद्द्यात्पुरुषतुष्टिदम् ॥
५२॥
पूजाम्ू--पूजा; च--भी; महतीम्--अत्यन्त तड़क-भड़क वाला; कुर्यात्ू-करे; वित्त-शाठ््य--कंजूसी की मनोवृत्ति;विवर्जित:--त्यागकर; चरुम्--यज्ञ में डाला गया अन्न; निरूप्प--ठीक से देखकर; पयसि--दूध के साथ; शिपिविष्टाय--प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित परमात्मा को; विष्णवे--विष्णु को; सूक्तेन--पुरुष-सूक्त नामक वैदिक मंत्रोच्चार से; तेन--उसकेद्वारा; पुरुषम्-- भगवान् की; यजेत--पूजा करे; सु-समाहित:--मनोयोग से; नैवेद्यमू-- अर्चाविग्रह को चढ़ाया गया भोजन;श़च--तथा; अति-गुण-वत्--समस्त सुस्वादु व्यंजन; दद्यात्--प्रदान करे; पुरुष-तुष्टि-दम्-- भगवान् को अत्यन्त प्रसन्न करनेवाली प्रत्येक वस्तु |
धन न खर्च करने की कंजूसी की आदत छोड़कर अन्तर्यामी भगवान् विष्णु की भव्य पूजाका आयोजन करे |
मनुष्य को चाहिए कि वह अत्यन्त मनोयोग से घी में पकाये अन्न तथा दूध सेआहुति ( हव्य ) तैयार करे और पुरुष-सूक्त मंत्रोच्चार करे और विविध स्वादों वाले भोजन भेंटकरे |
इस प्रकार मनुष्य को भगवान् का पूजन करना चाहिए |
आचार्य ज्ञानसम्पन्नं वस्त्राभरणधेनुभि: |
तोषयेह्त्विजश्चेव तद्विद्धयाराधनं हरे: ॥
५३॥
आचार्यम्-गुरु को; ज्ञान-सम्पन्नम्ू--आध्यात्मिक ज्ञान में बढ़ा-चढ़ा; वस्त्र-आभरण-थधेनुभि:--वस्त्र, गहने तथा अनेक गायोंसहित; तोषयेत्--तुष्ट करके; ऋत्विज: --गुरु द्वारा बताये गये पुरोहित; च एब--तथा; तत् विद्द्धि--उसे समझने का प्रयास करे;आराधनम्--पूजा; हरेः -- भगवान् की |
मनुष्य को चाहिए कि वह वैदिक साहित्य में पारंगत गुरु ( आचार्य ) को तुष्ट करे और उनकेसहायक पुरोहितों को (जो होता, उद््गाता, अध्वर्यु तथा ब्रह्म कहलाते हैं ) तुष्ट करे |
उन्हें वस्त्र,आभूषण तथा गाएँ देकर प्रसन्न करे |
यही विष्णु-आराधन अनुष्ठान है |
भोजसयेत्तान्गुणवता सदन्नेन शुचिस्मिते |
अन्यांश्व ब्राह्मणाउ्छक्त्या ये च तत्र समागता: ॥
५४॥
भोजयेत्-- प्रसाद बाँटे; तान्ू--उन सब को; गुण-बता--अच्छे भोजन से; सतू-अन्नेन--घी तथा दूध से बने भोजन से, जोअत्यन्त शुद्ध माना जाता है; शुचि-स्मिते--हे परम पवित्र स्त्री; अन्यान् च--अन्यों को भी; ब्राह्मणानू--ब्राह्मणों को; शकत्या--यथाशक्ति; ये-- जो; च-- भी; तत्र--वहाँ ( अनुष्ठानों में )) समागता: --एकत्र |
हे परम पवित्र स्त्री! मनुष्य को चाहिए कि वह ये सारे अनुष्ठान विद्वान आचार्यो केनिर्देशानुसार सम्पन्न करे और उन्हें तथा उनके पुरोहितों को तुष्ट करे |
उसे चाहिए कि प्रसादवितरण करके ब्राह्मणों को तथा वहाँ पर एकत्र हुए लोगों को भी तुष्ट करे |
दक्षिणां गुरवे दद्याहत्विग्भ्यश्च यथाहईत: |
अन्नाहेनाश्वपाकांश्व प्रीणयेत्समुपागतान् ॥
५५॥
दक्षिणाम्ू--धन या सोने का दान; गुरवे--गुरु को; दद्यातू--दे; ऋत्विग्भ्य:ः च--तथा गुरु द्वारा नियुक्त पुरोहितों को; यथा-अर्हतः--यथाशक्ति; अन्न-अद्येन-- प्रसाद वितरण द्वारा; आश्व-पाकान्--चंडाल तक को जो कुत्ते का माँस खाने के आदी हैं;च-भी; प्रीणयेत्--प्रसन्न करे; समुपागतान्--अनुष्ठान में एकत्र होने के कारण |
मनुष्य को चाहिए कि गुरु तथा सहायक पुरोहितों को वस्त्र, आभूषण, गाएँ तथा कुछ धनका दान देकर प्रसन्न करे |
तथा प्रसाद वितरण द्वारा वहाँ पर आये सभी लोगों को यहाँ तक किसबसे अधम व्यक्ति चण्डाल ( कुत्ते का माँस खाने वाले ) को भी तुष्ट करे |
भुक्तवत्सु च सर्वेषु दीनान््थकृपणादिषु |
विष्णोस्तत्प्रीणनं विद्वान्भुद्जीत सह बन्धुभि: ॥
५६॥
भुक्तवत्सु-- भोजन कराने के बाद; च--भी; सर्वेषु--वहाँ पर उपस्थित सब को; दीन--अत्यन्त निर्धन; अन्ध--अन्धा;कृपण--जो ब्राह्मण नहीं है; आदिषु--इत्यादि; विष्णो:--अन्तर्यामी भगवान् विष्णु का; तत्--वह ( प्रसाद ); प्रीणनम्--प्रसन्नकरते हुए; विद्वानू--इस दर्शन को जानने वाला; भुझ्जीत--स्वयं प्रसाद ग्रहण करे; सह--साथ; बन्धुभि:--मित्रों तथासम्बन्धियों के
मनुष्य को चाहिए कि वह दरिद्र, अन्धे, अभक्त तथा अब्राह्मण हर व्यक्ति को विष्णु-प्रसादबाँटे |
यह जानते हुए कि जब हर एक व्यक्ति पेट भरकर विष्णु-प्रसाद पा लेता है, तो भगवान्विष्णु परम प्रसन्न होते हैं, यज्ञकर्ता को अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों सहित प्रसाद ग्रहण करनाचाहिए |
नृत्यवादित्रगीतैश्व स्तुतिभि: स्वस्तिवाचकै: |
कारयेत्तत्कथाभिश्च पूजां भगवतोउन्वहम् ॥
५७॥
नृत्य--नाच कर; वादित्र--बाजा ( ढोल ) बजाकर; गीतैः--तथा गाकर; च-- भी ; स्तुतिभि: -- शुभ मंत्रोच्चार द्वारा; स्वस्ति-वाचकै: --स्तुति करके ; कारयेत्ू--सम्पन्न करे; तत्-कथाभि: -- भागवत, भगवद्गीता तथा इसी प्रकार का साहित्य सुनाकर;च--भी; पूजाम्-- पूजा; भगवतः -- भगवान् विष्णु की; अन्वहम्--प्रतिदिन ( प्रतिपदा से त्रयोदशी तक )॥
प्रतिपदा से त्रयोदशी तक इस अनुष्ठान को मनुष्य प्रतिदिन नाच, गाना, बाजा, स्तुति तथाशुभ मंत्रोच्चार एवं श्रीमद्भागवत के पाठ के साथ-साथ जारी रखे |
इस प्रकार मनुष्य भगवान्की पूजा करे |
एतत्पयोब्रतं नाम पुरुषाराधनं परम् |
पितामहेनाभिहितं मया ते समुदाहतम् ॥
५८॥
एतत्--यह; पयः-ब्रतम्--पयोत्रत नामक अनुष्ठान; नाम--नामक; पुरुष-आराधनम्-- भगवान् की पूजा विधि; परम्- श्रेष्ठ;पितामहेन--मेरे पितामह द्वारा; अभिहितम्--कही गई; मया--मेरे द्वारा; ते--तुमको; समुदाहतम्--विस्तार के साथ वर्णित |
यह धार्मिक अनुष्ठान पयोत्रत कहलाता है, जिसके द्वारा भगवान् की पूजा की जा सकती है |
यह ज्ञान मुझे अपने पितामह ब्रह्माजी से मिला और अब मैंने विस्तार के साथ इसका वर्णन तुमसेकिया है |
त्वं चानेन महाभागे सम्यक्नीणेंन केशवम् |
आत्मना शुद्धभावेन नियतात्मा भजाव्ययम् ॥
५९॥
त्वम् च--तुम भी; अनेन--इस विधि से; महा-भागे--हे भाग्यशालिनी; सम्यक् चीर्णेन-- भलीभाँति सम्पन्न करने पर;केशवम्--केशव को; आत्मना--अपने; शुद्ध-भावेन--शुद्ध मन से; नियत-आत्मा--अपने को वश में करते हुए; भज--पूजाकरते रहो; अव्ययम्-- भगवान् की, जो अक्षय हैं |
हे परम भाग्यशालिनी! तुम अपने मन को शुद्ध भाव में स्थिर करके इस पयोत्रत विधि कोसम्पन्न करो और इस तरह अच्युत भगवान् केशव की पूजा करो |
अयं बै सर्वयज्ञाख्य: सर्वत्रतमिति स्मृतम् |
तपःसारमिदं भद्रे दानं चेश्वरतर्पणम् ॥
६०॥
अयमू्--यह; वै--निस्सन्देह; सर्व-यज्ञ--सभी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान तथा यज्ञ; आख्य:--कहलाता है; सर्व-ब्रतम्--सारेधार्मिक अनुष्ठान; इति--इस प्रकार; स्मृतम्ू--समझा जाकर; तपः-सारम्ू--सारी तपस्याओं का सार; इृदम्--यह; भद्रे--हेउत्तम स्त्री; दानम्-दान के कार्य; च--तथा; ईश्वर-- भगवान्; तर्पणम्--प्रसन्न करने की विधि |
यह पयोत्रत सर्वयज्ञ भी कहलाता है |
दूसरे शब्दों में, इस यज्ञ को सम्पन्न कर लेने पर अन्यसारे यज्ञ स्वतः सम्पन्न हो जाते हैं |
इसे समस्त अनुष्ठानों में सर्वश्रेष्ठ भी माना गया है |
हे भद्गे! यहसमस्त तपस्याओं का सार है और दान देने तथा परम नियन्ता को प्रसन्न करने की विधि है |
त एवं नियमा: साक्षात्त एव च यमोत्तमा: |
तपो दान ब्रतं यज्ञो येन तुष्यत्यधोक्षज: ॥
६१॥
ते--वे; एव--निस्सन्देह; नियमा:--सारे विधि-विधान; साक्षात्- प्रत्यक्ष; ते--वे; एबव--निस्सन्देह; च-- भी; यम-उत्तमा: --इन्द्रियों को वश में करने की सर्वश्रेष्ठ विधि; तप:--तपस्या; दानमू--दान; ब्रतम्--व्रत; यज्ञ:--यज्ञ; येन--जिस विधि से;तुष्यति--प्रसन्न होता है; अधोक्षज:--भौतिक इन्द्रियों से अनुभव न हो सकने वाले भगवान् |
अधोक्षज नामक दिव्य भगवान् को प्रसन्न करने की यह सर्वोत्तम विधि है |
यह समस्तविधि-विधानों में श्रेष्ठ है, यह सर्व श्रेष्ठ तपस्या है, दान देने की और यज्ञ की सर्वश्रेष्ठ विधि है |
तस्मादेतदब्तं भद्दे प्रयता श्रद्धयाचर |
भगवान्परितुष्टस्ते वरानाशु विधास्यति ॥
६२॥
तस्मात्ू--अतएव; एतत्--यह; ब्रतम्--त्रत का पालन; भद्रे--प्रिय भद्र स्त्री; प्रयता--विधि-विधानों का पालन करके;श्रद्धबा-- श्रद्धा सहित; आचर--सम्पन्न करो; भगवान्-- भगवान्; परितुष्ट:--अत्यन्त प्रसन्न होकर; ते--तुमको; वरान्--वर,आशीर्वाद; आशु--शीघ्र; विधास्यति--प्रदान करेंगे |
अतएब हे भद्रे! तुम विधि-विधानों का हढ़ता से पालन करते हुए इस अनुष्ठानिक ब्रत कोसम्पन्न करो |
इस विधि से परम पुरुष तुम पर शाधघ्र ही प्रसन्न होंगे और तुम्हारी सारी इच्छाओं कोपूरा करेंगे |
अध्याय सत्रह: सर्वोच्च भगवान अदिति के पुत्र बनने के लिए सहमत हुए
8.17श्रीशुक उबाचइत्युक्ता सादिती राजन्स्वभर््रां कश्यपेन वै |
अन्वतिष्ठद्व्रतमिदं द्वादशाहमतन्द्रिता ॥
१॥
श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्ता--कहे जाने पर; सा--उस; अदिति:--अदिति ने;राजनू--हे राजा; स्व-भर्त्रा--अपने पति; कश्यपेन--कश्यपमुनि से; बै--निस्सन्देह; अनु--इसी प्रकार से; अतिष्ठत्--सम्पन्नकिया; ब्रतम् इदम्--इस पयोत्रत को; द्वादश-अहम्--बारह दिनों तक; अतन्द्रिता--बिना आलस्य के |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! इस प्रकार अपने पति कश्यपमुनि से दिए जाने परअदिति ने बिना आलस्य के उनके आदेशों का हढ़ता से पालन किया और पयोब्रत अनुष्ठानसम्पन्न किया |
चिन्तयन्त्येकया बुद्धया महापुरुषमी श्वरम् |
प्रगृह्मोन्द्रियदुष्टा श्रान्मनसा बुद्धिसारधि: ॥
२॥
मनश्लैकाग्रया बुद्धया भगवत्यखिलात्मनि |
वबासुदेवे समाधाय चचार ह पयोत्रतम् ॥
३॥
चिन्तयन्ति--निरन्तर चिन्तन करते हुए; एकया--एकचित्त होकर; बुद्धबया--तथा बुद्धि से; महा-पुरुषम्-- भगवान् को;ईश्वरम्--परमनियन्ता भगवान् विष्णु को; प्रगृह्य--पूर्णतया वश में करके; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; दुष्ट--शक्तिशाली; अश्वान्--घोड़ोंको; मनसा--मन द्वारा; बुद्धि-सारथि:--रथ को हाँकने वाली बुद्धि की सहायता से; मनः--मन; च-- भी; एक-अग्रया--एकाग्र होकर; बुद्धया--बुद्धि से; भगवति-- भगवान् को; अखिल-आत्मनि--सभी जीवों के परमात्मा को; वासुदेवे-- भगवान्वासुदेव को; समाधाय--पूर्ण मनोयोग से; चचार--सम्पन्न किया; ह--इस प्रकार; पय:-ब्रतम्--पयोत्रत नामक अनुष्ठान को
अदिति ने पूर्ण अचल ध्यान से भगवान् का चिन्तन किया और इस तरह उन्होंने शक्तिशालीघोड़ों जैसे अपने मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह अपने वश में कर लिया |
उन्होंने अपने मन कोभगवान् वासुदेव पर केन्द्रित कर दिया और इस तरह पयोत्रत नामक अनुष्ठान पूरा किया |
तस्याः प्रादुरभूत्तात भगवानादिपुरुष: |
पीतवासाश्चतुर्बाहु: शद्डुचक्रगदाधर: ॥
४॥
तस्या:--उसके सामने; प्रादुरभूत्ू--प्रकट हुए; तात--हे राजा; भगवान्-- भगवान्; आदि-पुरुष:--आदि पुरुष; पीत-वासा:--पीताम्बर धारण किये; चतु:-बाहु:--चार भुजाओं वाले; शद्भु-चक्र-गदा-धर:--शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये
है राजा! तब अदिति के समक्ष आदि भगवान् पीताम्बर वस्त्र पहने तथा अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किए हुए प्रकट हुए |
त॑ नेत्रगोचरं वीक्ष्य सहसोत्थाय सादरम् |
ननाम भुवि कायेन दण्डवत्प्रीतिविहला ॥
५॥
तम्--उसको ( भगवान् को ); नेत्र-गोचरम्--उसकी आँखों द्वारा दिखने वाले; वीक्ष्य--देखकर; सहसा--एकाएक; उत्थाय--उठकर; स-आदरमू--अत्यन्त आदर पूर्वक; ननाम--सादर नमस्कार किया; भुवि-- भूमि पर; कायेन--पूरे शरीर से; दण्ड-बत्--डंडे के समान गिरते हुए; प्रीति-विहला--दिव्य आनन्द के कारण अत्यन्त विहल |
जब अदिति की आँखों से भगवान् दिखने लगे तो दिव्य आनन्द के कारण वे इतनी विभोरहो उठीं कि वह तुरन्त ही उठकर भगवान् को सादर नमस्कार करने के लिए भूमि पर दण्ड केसमान गिर गईं |
सोत्थाय बद्धाञ्जलिरीडितुं स्थितानोत्सेह आनन्दजलाकुलेक्षणा |
बभूव तृूष्णीं पुलकाकुलाकृति-स्तदर्शनात्युत्सवगात्रवेपथु; ॥
६॥
सा--वह; उत्थाय--उठकर; बद्ध-अज्जलि: --हाथ जोड़े; ईंडितुमू-- भगवान् की पूजा करने के लिए; स्थिता--स्थित; नउत्सेहे-- प्रयतत नहीं कर सकी; आनन्द--दिव्य आनन्द से; जल--जल से; आकुल-ईक्षणा--पूरित आँखों से; बभूव--हो गई;तृष्णीमू--मौन; पुलक--रोमांच; आकुल--विहल; आकृति: --उसका रूप; तत्-दर्शन--भगवान् के दर्शन करने से; अति-उत्सव--अत्यन्त हर्ष से; गात्र--उसका शरीर; वेपथु;--काँपने लगा |
भगवान् की स्तुति करने में असमर्थ होने के कारण अदिति हाथ जोड़े मौन खड़ी रहीं |
दिव्यआनन्द के कारण उनकी आँखों में आँसू भर आये और उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये |
चूँकिवे भगवान् को अपने समक्ष देख रही थीं अतएव वे आह्वादित हो उठीं और उनका शरीर काँपनेलगा |
प्रीत्या शनेर्गद्गदया गिरा हरिंतुष्टाव सा देव्यदितिः कुरूद्बरह |
उद्वीक्षती सा पिबतीव चक्षुषारमापतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ॥
७॥
प्रीत्या--प्रेम के कारण; शनैः--पुनः-पुन:; गदगदया--थरथराती हुईं; गिरा--वाणी से; हरिम्ू-- भगवान् को; तुष्टाव--तुष्ट;सा--वह; देवी--देवी; अदिति:--अदिति; कुरु-उद्दद--हे महाराज परीक्षित; उद्ीक्षती--टकटकी लगाये हुए; सा--वह; पिबती इब--मानो पी रही हो; चक्षुषा--आँखों से; रमा-पतिमू--लक्ष्मी के पति, भगवान् को; यज्ञ-पतिम्--समस्त यज्ञों केभोक्ता भगवान् को; जगतू-पतिम्--सारे विश्व के प्रभु तथा स्वामी को |
हे महाराज परीक्षित! तब देवी अदिति ने थरथराती हुई वाणी से अत्यन्त प्रेमपूर्वक भगवान्की स्तुति प्रारम्भ की |
ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे लक्ष्मीपति, समस्त यज्ञों के भोक्ता तथासमग्र विश्व के प्रभु तथा स्वामी भगवान् को अपनी आँखों से पिये जा रही हों |
श्रीअदितिरुवाचयज्ञेश यज्ञपुरुषाच्युत तीर्थपादतीर्थश्रव: श्रवणमड़लनामधेय |
आपन्नलोकवृजिनोपशमोदयाद्यशं नः कृधीश भगवन्नसि दीननाथ: ॥
८॥
श्री-अदिति: उवाच--देवी अदिति ने कहा; यज्ञ-ईश--हे समस्त यज्ञों के नियन्ता; यज्ञ-पुरुष--सारे यज्ञों के लाभों का भोगकरने वाला पुरुष; अच्युत--कभी न चूकने वाला; तीर्थ-पाद--जिनके चरणकमलों पर सारे पवित्र तीर्थस्थान स्थित हैं; तीर्थ-श्रव:--समस्त सन्त पुरुषों के परम आश्रय के रूप में प्रसिद्ध; श्रवण--जिनके विषय में सुनना; मड़ल--शुभ है; नामधेय--उनके नाम का उच्चारण करना भी शुभ है; आपन्न--शरणागत; लोक--लोगों का; वृजिन--घातक भौतिक स्थिति; उपशम--कम करते हुए; उदय--प्रकट हुआ है; आद्य--आदि भगवान्; शम्--कल्याण; नः--हमारा; कृधि--कृपया हमें प्रदान करें;ईश--हे परमनियन्ता; भगवन्--हे भगवान्; असि--तुम हो; दीन-नाथ:--दीनों के एकमात्र आश्रय |
देवी अदिति ने कहा : हे समस्त यज्ञों के भोक्ता तथा स्वामी, हे अच्युत तथा परम प्रसिद्धपुरुष, जिनका नाम लेते ही मंगल का प्रसार होता है, हे आदि भगवान्, परमनियन्ता, समस्तपवित्र तीर्थस्थानों के आश्रय! आप समस्त दीन-दुखियों के आश्रय हैं और उनका कष्ट कम करनेके लिए प्रकट हुए हैं |
आप हम पर कृपालु हों और हमारे कल्याण का विस्तार करें |
विश्वाय विश्वभवनस्थितिसंयमायस्वैरं गृहीतपुरुशक्तिगुणाय भूम्ने |
स्वस्थाय शश्चदुपबूंहितपूर्णबोध-व्यापादितात्मतमसे हरये नमस्ते ॥
९॥
विश्वाय--समस्त विश्वरूप भगवान् को; विश्व--विश्व के; भवन--सृजन; स्थिति--पालन; संयमाय--तथा संहार के लिए;स्वैरम्-पूर्णतः स्वतंत्र; गृहीत--हाथ में लेकर; पुरु--पूर्णत:; शक्ति-गुणाय--प्रकृति के तीनों गुणों को वश में रखने वाले;भूम्ते--महानतम; स्व-स्थाय--सदा आदि रूप में स्थित रहने वाले; शश्वत्--सनातन रूप से; उपबूंहित--प्राप्त किया; पूर्ण --सम्पूर्ण; बोध--ज्ञान; व्यापादित--पूर्णतया विनष्ट; आत्म-तमसे--आपकी माया; हरये--परमेश्वर; नमः ते--आपको सादरनमस्कार करता हूँ |
हे प्रभु! आप सर्वव्यापी विश्वरूप इस विश्व के परम स्वतंत्र स्त्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं |
यद्यपि आप अपनी शक्ति को पदार्थ में लगाते हैं, तो भी आप सदैव अपने आदि रूप में स्थितरहते हैं और कभी उस पद से च्युत नहीं होते क्योंकि आपका ज्ञान अच्युत है और किसी भीस्थिति के लिए सदैव उपयुक्त है |
आप कभी मोहग्रस्त नहीं होते |
हे स्वामी! मैं आपको सादरनमस्कार करती हूँ |
आयु: पर वपुरभीष्टमतुल्यलक्ष्मी-होभूरसा: सकलयोगगुणास्त्रिवर्ग: |
ज्ञानं च केवलमनन्त भवन्ति तुष्टात्त्वत्तो नृणां किमु सपत्नजयादिराशी: ॥
१०॥
आयु:--आयु; परमू--ब्रह्मा के समान दीर्घ; वपु:ः--विशेष प्रकार का शरीर; अभीष्टम्--जीवन लक्ष्य; अतुल्य-लक्ष्मी:--जगतमें अद्वितीय ऐश्वर्य; द्यो--स्वर्गलोक; भू-- भूलोक; रसा:--अधोलोक; सकल--सभी प्रकार के; योग-गुणा:--आठ यौगिकसिद्ध्ियाँ; ब्रि-वर्ग:--धर्म, अर्थ तथा काम; ज्ञानम्--ज्ञान; च--तथा; केवलम्--पूर्ण; अनन्त--हे अनन्त; भवन्ति--सम्भव बनजाते हैं; तुष्ठात्-- आपकी तुष्टि से; त्वत्त:--आपसे; नृणाम्--सभी जीवों को; किम् उ--क्या कहा जाये; सपत्न--शत्रु; जय--जीत; आदि: --इत्यादि; आशी:--ऐसे आशीष या वर |
हे अनन्त! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मनुष्य को ब्रह्मा जैसी दीर्घायु, उच्च, मध्य या निम्नलोक मेंशरीर, असीम भौतिक ऐश्वर्य, धर्म, अर्थ तथा इन्द्रियतोष, पूर्ण दिव्यज्ञान तथा आठों योगसिद्ध्रियाँबड़ी आसानी से प्राप्त हो सकती हैं |
अपने प्रतिद्वंद्वियों पर विजय प्राप्त करने की बात करना तोअत्यन्त नगण्य उपलब्धि है |
श्रीशुक उबाचअदित्यैवं स्तुतो राजन्भगवान्पुष्करेक्षण: |
क्षेत्रज्ञ: सर्वभूतानामिति होवाच भारत ॥
११॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अदित्या--अदिति द्वारा; एवम्ू--इस प्रकार; स्तुतः--स्तुति किये जाने पर;राजन्--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); भगवान्-- भगवान् ने; पुष्कर-ईक्षण:--कमल जैसे नेत्रों वाले; क्षेत्र-ज्ञः--परमात्मा;सर्व-भूतानाम्--सभी जीवों के; इति--इस प्रकार; ह--निस्सन्देह; उबाच--उत्तर दिया; भारत--हे भरतवंश में श्रेष्ठ |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे भरतवंश में श्रेष्ठ, राजा परीक्षित! जब अदिति ने सभी जीवोंके परमात्मा कमलनयन की इस तरह पूजा की तो भगवान् ने इस प्रकार उत्तर दिया |
श्रीभगवानुवाचदेवमातर्भवत्या मे विज्ञातं चिरकाडक्षितम् |
यत्सपत्नैईतश्रीणां च्यावितानां स्वधामत: ॥
१२॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; देव-मातः--हे देवताओं की माता; भवत्या: --तुम्हारा; मे--मेरे द्वारा; विज्ञातम्--समझागया; चिर-काड्क्षितम्--दीर्घकाल से तुम्हें जिसकी अभिलाषा थी; यत्--क्योंकि; सपत्नैः --प्रतिद्वन्द्रियों द्वारा; हत-श्रीणाम्--समस्त ऐश्वर्य से विहीन तुम्हारे पुत्रों का; च्यावितानामू--विमुख; स्व-धामत:--अपने-अपने आवासों से |
भगवान् ने कहा : हे देवताओं की माता! मैं तुम्हारी उस दीर्घकालीन अभिलाषा को पहले हीसमझ गया हूँ जो तुम्हारे उन पुत्रों के कल्याण के विषय में है, जो शत्रुओं द्वारा अपने समस्तऐश्वर्य से च्युत कर दिये गये हैं और अपने-अपने घरों से खदेड़ दिये गये हैं |
तान्विनिर्जित्य समरे दुर्मदानसुरर्षभान् |
प्रतिलब्धजयश्रीभि: पुत्रैरिच्छस्युपासितुम् ॥
१३॥
तान्ू--उनको; विनिर्जित्य--हराकर; समरे--युद्ध में; दुर्मदान्ू--बल के कारण गर्वित; असुर-ऋषभान्--असुरों के नेताओं को;प्रतिलब्ध--पुनः प्राप्त करके ; जय--विजय; श्रीभि:--ऐ श्वर्य सहित; पुत्रैः--अपने पुत्रों सहित; इच्छसि--तुम चाहती हो;उपासितुमू--उनके साथ मिल कर मेरी पूजा करना |
हे देवी! मैं समझ रहा हूँ कि तुम अपने पुत्रों को पुनः प्राप्त करके, शत्रुओं को युद्धभूमि मेंपराजित करके तथा अपना धाम तथा ऐश्वर्य पुन: प्राप्त करके उन सब के साथ मिलकर मेरी पूजाकरना चाहती हो |
इन्द्रज्ये्ठे: स्वतनयैहतानां युधि विद्विषाम् |
स्त्रियो रुदन्तीरासाद्य द्रष्टमिच्छसि दु:खिता: ॥
१४॥
इन्द्र-ज्येष्ठे: --जिन व्यक्तियों में इन्द्र सबसे बड़ा है; स्व-तनयै: --अपने पुत्रों द्वारा; हतानाम्ू--जो मारे जा चुके हैं; युधि--युद्ध में;विद्विषाम्-शत्रुओं की; स्त्रियः--पत्नियाँ; रुदनन््ती:--विलाप करती; आसाद्य--अपने-अपने पतियों के शवों के निकट आकर;द्रष्टमू इच्छसि--देखना चाहती हो; दु:खिता: --अत्यन्त दुखित |
तुम अपने पुत्रों के शत्रु उन असुरों की पत्नियों को अपने-अपने पतियों की मृत्यु पर विलापकरते हुए देखना चाहती हो जब वे इन्द्रादि देवताओं द्वारा युद्ध में मारे जाएँ |
आत्मजान्सुसमृद्धांस्त्वं प्रत्याहतयश:भथ्रियः |
नाकपृष्ठमधिष्ठाय क्रीडतो द्रष्टमच्छसि ॥
१५॥
आत्म-जान्--अपने पुत्रों को; सु-समृद्धानू--अत्यन्त ऐश्वर्यवान्; त्वमू-तुम; प्रत्याहत--वापस पाकर; यश:--यश; थिय:--ऐश्वर्य; नाक-पृष्ठम्-स्वर्गलोक में; अधिष्ठाय--स्थित; क्रीडत:ः--विलास करते; द्रष्टभू--देखने के लिए; इच्छसि--इच्छा करतीहो
तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र खोया हुआ यश तथा ऐश्वर्य प्राप्त करें और पुनः पूर्ववत् अपनेस्वर्गलोक में निवास करें |
प्रायोधुना तेडसुरयूथनाथाअपारणीया इति देवि मे मतिः |
चत्तेनुकूले श्वरविप्रगुप्तान विक्रमस्तत्र सुखं ददाति ॥
१६॥
प्राय:--लगभग; अधुना--इस समय; ते--वे सभी; असुर-यूथ-नाथा: --असुरों के प्रधान; अपारणीया:--अजेय; इति--इसप्रकार; देवि--हे माता अदिति; मे--मेरी; मति: --सम्मति; यत्--क्योंकि; ते--सारे असुर; अनुकूल-ई श्वर-विप्र-गुप्ता: --ब्राह्मणों द्वारा सुरक्षित, जिनकी कृपा से ईश्वर सदैव उपस्थित रहते हैं; न--नहीं; विक्रम: --शक्ति का उपयोग; तत्र--वहाँ;सुखम्--सुख; ददाति--दे सकता है
हे देवताओं की माता! मेरे विचार से असुरों के सारे प्रधान अब अजेय हैं क्योंकि वे उनब्राह्मणों द्वारा सुरक्षित हैं जिन पर भगवान् की सदैव कृपा रहती है |
अतएव उनके विरुद्ध बल-प्रयोग अब सुख का स्त्रोत नहीं बन सकता |
अथाप्युपायो मम देवि चिन्त्यःसनन््तोषितस्य ब्रतचर्यया ते |
ममार्चन॑ नाईति गन्तुमन्यथाश्रद्धानुरूपं फलहेतुकत्वात् ॥
१७॥
अथ--अतएव; अपि--ऐसी स्थिति के बावजूद; उपाय:--कोई साधन; मम--मेरा; देवि--हे देवी; चिन्त्य:--सोचा जानाचाहिए; सन्तोषितस्य--अत्यन्त प्रसन्न; ब्रत-चर्यया--त्रत रखकर; ते--तुम्हारे द्वारा; मम अर्चनम्--मेरी पूजा करना; न--कभीनहीं; अरहति--योग्य है; गन्तुम् अन्यधा--और व्यर्थ होने के लिए; श्रद्धा-अनुरूपम्--अपनी श्रद्धा तथा भक्ति के अनुसार;'फल--फल; हेतुकत्वात्--कारण होने से |
हे देवी अदिति! फिर भी चाँकि मैं तुम्हारे ब्रत-कार्य से प्रसन्न हुआ हूँ अतएव मुझे तुम परकृपा करने के लिए कोई न कोई साधन खोजना होगा क्योंकि मेरी पूजा कभी भी व्यर्थ नहींजाती, प्रत्युत पात्रता के अनुरूप वाँछित फल देने वाली होती है |
त्वयार्चितश्चाहमपत्यगुप्तयेपयोक्रतेनानुगुणं समीडितः |
स्वांशेन पुत्रत्वमुपेत्य ते सुतान्गोप्तास्मि मारीचतपस्यधिष्ठित: ॥
१८ ॥
त्वया--तुम्हारे द्वारा; अर्चित:--पूजित होकर; च-- भी; अहम्--मैं; अपत्य-गुप्तये--तुम्हारे पुत्रों की सुरक्षा करते हुए; पयः-ब्रतेन--पयोव्रत द्वारा; अनुगुणम्--जहाँ तक सम्भव है; समीडित:--ठीक से पूजित; स्व-अंशेन-- अपने पूर्ण अंश द्वारा;पुत्रत्वम्--तुम्हारा पुत्र बनकर; उपेत्य--इस अवसर का लाभ उठाकर; ते सुतान्--तुम्हारे अन्य पुत्रों को; गोप्ता अस्मि--सुरक्षाप्रदान करूँगा; मारीच--कश्यपमुनि की; तपसि--तपस्या में; अधिष्ठित:--स्थित |
तुमने अपने पुत्रों की रक्षा के लिए मेरी स्तुति की है और महान् पयोत्रत रखकर मेरी समुचितपूजा की है |
मैं कश्यपमुनि की तपस्या के कारण तुम्हारा पुत्र बनना स्वीकार करूँगा और इसप्रकार तुम्हारे अन्य पुत्रों की रक्षा करूँगा |
उपधाव पतिं भद्दे प्रजापतिमकल्मषम् |
मां च भावयती पत्यावेवं रूपमवस्थितम् ॥
१९॥
उपधाव--जाकर पूजा करो; पतिम्--अपने पति की; भद्वे--हे भद्ग स्त्री; प्रजापतिम्ू--जो प्रजापति है; अकल्मषम्--जो अपनीतपस्या के कारण अत्यधिक शुद्ध बन गया है; माम्ू--मुझको; च-- भी; भाववती--मनन करती हुईं; पत्यौ--अपने पति में;एवम्--इस प्रकार; रूपम्--रूप; अवस्थितम्--वहाँ पर स्थित
तुम अपने पति कश्यप के शरीर के भीतर सदैव मुझे स्थित मानकर उनकी पूजा करोक्योंकि वे अपनी तपस्या से शुद्ध हो चुके हैं |
नैतत्परस्मा आख्येयं पृष्टयापि कथञ्ञन |
सर्व सम्पद्यते देवि देवगुह् सुसंवृतम् ॥
२०॥
न--नहीं; एतत्--यह; परस्मै--बाहरी लोगों को; आख्येयम्--प्रकट किया जाये; पृष्टया अपि--पूछे जाने पर भी; कथञ्लन--किसी के द्वारा; सर्वम्ू--सब कुछ; सम्पद्यते--सफल होता है; देवि--हे नारी; देव-गुह्ाम्--देवताओं के लिए भी गोपनीय; सु-संवृतम्-- भलीभाँति गुप्त रखा गया |
हे नारी! यदि कोई पूछे तो भी तुम्हें यह बात किसी को प्रकट नहीं करनी चाहिए |
यदि परमगोपनीय बात को गुप्त रखा जाता है, तो वह सफल होती है |
श्रीशुक उबाचएतावदुक्त्वा भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत |
अदितिर्दुर्लभं लब्ध्वा हरे्जन्मात्मनि प्रभो: |
उपाधावत्पतिं भक्त्या परया कृतकृत्यवत् ॥
२१॥
श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एतावत्--इस तरह; उक्त्वा--उससे कहकर; भगवानू-- भगवान्; तत्र एब--उसी स्थान में; अन्तः-अधीयत--अन्तर्धान हो गये; अदिति:--अदिति; दुर्लभम्--अत्यन्त दुर्लभ सफलता; लब्ध्वा--पाकर;हरेः--भगवान् का; जन्म--जन्म; आत्मनि--अपने में; प्रभो: -- भगवान् का; उपाधावत्--तुरन्त गई; पतिम्--अपने पति केपास; भकत्या--भक्तिपूर्वक; परया--महान्; कृत-कृत्य-वत्-- अपने को अत्यन्त सफल मानती हुईं |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : ऐसा कहकर भगवान् उस स्थान से अदृश्य हो गये |
भगवान् सेयह परम मूल्यवान आशीर्वाद पाकर कि वे उसके पुत्र रूप में प्रकट होंगे, अदिति ने अपने कोअत्यन्त सफल माना और वह अत्यन्त भक्तिपूर्वक अपने पति के पास गई |
स वै समाधियोगेन कश्यपस्तदबुध्यत |
प्रविष्टमात्मनि हरेरंशं हावितथेक्षण: ॥
२२॥
सः--वह; वै--निस्सन्देह; समाधि-योगेन-- ध्यान द्वारा; कश्यप:--कश्यपमुनि ने; तत्ू--तब; अबुध्यत--समझ सके;प्रविष्टम्[-- प्रवेश कर गया है; आत्मनि--अपने भीतर; हरेः-- भगवान् का; अंशम्-- अंश; हि--निस्सन्देह; अवितथ-ईक्षण: --जिसकी दृष्टि कभी धोखा नहीं खाती |
ध्यान समाधि में स्थित होने के कारण अचूक दृष्टि वाले कश्यपमुनि यह देख सके कि उनकेभीतर भगवान् का स्वांश प्रविष्ट कर गया है |
सोडदित्यां वीर्यमाधत्त तपसा चिरसम्भृतम् |
समाहितमना राजन्दारुण्यग्नि यथानिल: ॥
२३॥
सः--कश्यप ने; अदित्याम्--अदिति के भीतर; वीर्यम्--वीर्य; आधत्त--रख दिया; तपसा--तपस्या द्वारा; चिर-सम्भूतम्--दीर्घकाल तक कई वर्षो से रुका हुआ; समाहित-मना: --भगवान् पर पूर्णतया समाधि लगाये; राजन्--हे राजा; दारुणि--काठमें; अग्निमू-- अग्नि; यथा--जिस तरह; अनिल: --वायु
हे राजा! जिस तरह वायु काठ के दो टुकड़ों के बीच घर्षण को तेज करती है और अग्निउत्पन्न कर देती है उसी तरह भगवान् में पूर्णतया ध्यानमग्न कश्यपमुनि ने अपने वीर्य को अदितिकी कुक्षि में स्थानान््तरित कर दिया |
अदितेर्थिष्ठितं गर्भ भगवन्तं सनातनम् |
हिरण्यगर्भो विज्ञाय समीडे गुह्मनामभि: ॥
२४॥
अदितेः--अदिति के गर्भ में; धिष्ठितम्--स्थापित होकर; गर्भम्-गर्भ; भगवन्तम्-- भगवान् को; सनातनम्--सनातन;हिरण्यगर्भ: --ब्रह्माजी ने; विज्ञाय--यह जानकर; समीडे --स्तुति की; गुह्म-नामभि:--दिव्य नामों के साथ |
जब ब्रह्माजी को यह ज्ञात हो गया कि भगवान् अदिति के गर्भ में हैं, तो वे दिव्य नामों कापाठ करके भगवान् की स्तुति करने लगे |
श्रीब्रह्मोवाचजयोरूगाय भगवलन्नुरुक्रम नमोस्तु ते |
नमो ब्रह्मण्यदेवाय त्रिगुणाय नमो नमः: ॥
२५॥
श्री-ब्रह्मा उवाच--ब्रह्माजी ने स्तुति की; जय--जय हो; उरुगाय--जिनकी महिमा का निरन्तर गान होता है ऐसे भगवान् की;भगवनू--हे भगवान्; उरुक्रम--जिनके कार्यकलाप अत्यन्त यशस्वी हैं; नमः अस्तु ते--मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ;नमः--मेरा सादर नमस्कार; ब्रह्मण्य-देवाय--योगियों के भगवान् को; त्रि-गुणाय--प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता; नमःनमः--पुनः-पुनः नमस्कार करता हूँ |
ब्रह्मजी ने कहा : हे भगवान्! आपकी जय हो |
आप सब के द्वारा महिमान्वित हैं औरआपके कार्यकलाप असामान्य होते हैं |
हे योगियों के प्रभु, हे प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता!मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
मैं आपको पुनः-पुनः नमस्कार करता हूँ |
नमस्ते पृश्टनगर्भाय वेदगर्भाय वेधसे |
त्रिनाभाय त्रिपृष्ठाय शिपिविष्टाय विष्णवे ॥
२६॥
नमः ते--मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ; पृश्नि-गर्भाय--पृश्नि ( पूर्व जन्म में अदिति ) के गर्भ में वास करने वाले को;वेद-गर्भाय--सदैव वैदिक ज्ञान में निवास करने वाले को; वेधसे--ज्ञान से पूर्ण हैं, जो; त्रि-नाभाय--उन्हें जिनकी नाभि सेनिकले कमलदण्ड के भीतर तीनों लोक निवास करते हैं; त्रि-पृष्ठाय--जो तीनों लोकों से परे हैं; शिपि-विष्टाय--समस्त जीवोंके हृदयों में वास करने वाले को; विष्णवे--सर्वव्यापी भगवान् को
हे सर्वव्यापी भगवान् विष्णु! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ क्योंकि आप समस्त जीवोंके हृदयों के भीतर स्थित हैं |
तीनों लोक आपकी नाभि के भीतर निवास करते हैं, फिर भी आपइन तीनों लोकों से परे हैं |
पहले आप पृष्टिन के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे |
मैं उन परम स्त्रष्टा कोसादर नमस्कार करता हूँ जिन्हें केवल वैदिक ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है |
त्वमादिरन्तो भुवनस्य मध्यम्अनन्तशक्ति पुरुष यमाहु: |
'कालो भवानाक्षिपतीश विश्वस्त्रोतो यथान्तः पतितं गभीरम् ॥
२७॥
त्वमू-- आप; आदि: मूल कारण; अन्त:-- प्रलय के कारण भुवनस्य--ब्रह्माण्ड के मध्यम्-- इस जगत का पालन; अनन्त-शक्तिमू--असीम शक्ति के आगार; पुरुषम्-परम पुरुष को; यमू--जिसको; आहु:--कहते हैं; काल:--शाश्रत काल;भवान्ू--आप; आक्षिपति--आकर्षित करते हुए; ईश--परमेश्वर; विश्वम्--सारे ब्रह्माण्ड को; सत्रोत:--लहरें; यथा--जिस तरह;अन्तः पतितम्--जल के भीतर गिरी हुई; गभीरम्--अत्यन्त गहरे
हे प्रभु! आप तीनों लोकों के आदि, मध्य तथा अन्त हैं और वेदों में आप असीम शक्तियों के आगार परम पुरुष के रूप में विख्यात हैं |
हे स्वामी! जिस प्रकार लहरें गहरे जल में गिरी हुईटहनियों तथा पत्तियों को खींच लेती हैं उसी प्रकार परम शाश्वत काल रूप आप इस ब्रह्माण्ड कीप्रत्येक वस्तु को खींचते हैं |
त्वं वै प्रजानां स्थिरजड्रमानांप्रजापतीनामसि सम्भविष्णु: |
दिवौकसां देव दिवश्च्युतानांपरायणं नौरिव मज्जतोप्सु ॥
२८॥
त्वमू--आप; वै--निस्सन्देह; प्रजानामू--सारे जीवों के; स्थिर-जड्रमानामू--अचल अथवा चल; प्रजापतीनाम्ू--सारेप्रजापतियों के; असि--हो; सम्भविष्णु:--हर एक के जनक; दिव-ओकसाम्--उच्चलोक के निवासियों के; देव--हे परमेश्वर;दिव: च्युतानामू--अपने आवासों से नीचे गिरे हुए देवताओं के; परायणम्--परम आश्रय; नौ:--नाव; इब--सहृश; मज्जत:--डूबने वाले के; अप्सु--जल में
हे प्रभ! आप समस्त चर या अचर जीवों के आदि जनक हैं और आप प्रजापतियों के भीजनक हैं |
हे स्वामी! जिस प्रकार जल में डूबते हुए व्यक्ति के लिए नाव ही एकमात्र सहारा होतीहै उसी तरह आप इस समय अपने स्वर्ग-पद से च्युत देवताओं के एकमात्र आश्रय हैं |
अध्याय अठारह: भगवान वामनदेव, बौने अवतार
8.18श्रीशुक उबाचइत्थं विरिश्जस्तुतकर्मवीर्य:प्रादुर्बभूवामृतभूरदित्याम् |
चतुर्भुजः शद्भुगदाब्जचक्र:पिशड्रबासा नलिनायतेक्षण: ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्--इस तरह से; विरिज्ञ-स्तुत-कर्म-वीर्य:-- भगवान्, जिनके कार्यो एवंपराक्रम की प्रशंसा ब्रह्माजी भी करते हैं; प्रादुर्बभूव--प्रकट हुए; अमृत-भू:--जिनका प्राकट्य सदैव मृत्युरहित होता है;अदित्याम्--अदिति के गर्भ से; चतु:-भुज:--चार भुजाओं वाले; शद्भु-गदा-अब्ज-चक्र:--शंख, गदा, कमल तथा चक्र सेसुशोभित; पिशड्भ-वासा:--पीताम्बर धारण किये; नलिन-आयत-ईक्षण:-- कमल की पंखड़ियों के समान खिली हुई आँखोंबाले |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब ब्रह्माजी इस प्रकार भगवान् के कार्यो एवं पराक्रम का यशोगान कर चुके तो भगवान् जिनकी एक सामान्य जीव की भान्ति कभी मृत्यु नहीं होती,अदिति के गर्भ से प्रकट हुए |
उनके चार हाथ शंख, चक्र, गदा तथा पद्म से सुशोभित थे |
वेपीताम्बर धारण किये हुए थे और उनकी आँखें खिले हुए कमल की पंखड़ियों जैसी प्रतीत होरही थीं |
श्यामावदातो झषराजकुण्डल-त्विषोल्लसच्छीवदनाम्बुज: पुमान् |
श्रीवत्सवक्षा बलयाड्भदोल्लस-त्किरीटकाझ्लीगुणचारुनूपुरः ॥
२॥
श्याम-अवदात: --जिनका शरीर साँवला है और उन्माद से मुक्त है; झष-राज-कुण्डल--मगर के आकार के कुण्डल; त्विषा--कान्ति से; उललसत्--चमचमाते; श्री-वदन-अम्बुज:--सुन्दर कमल जैसे मुखमण्डल वाले; पुमानू--परम पुरुष; श्रीवत्स-वक्षा:--जिनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न है; बलय--कड़े; अड्भद--बाजूबंद; उल््लसत्--चमचमाते; किरीट--मुकुट;काञ्ञी--करधनी; गुण--जनेऊ; चारु--सुन्दर; नूपुरः--पायल
भगवान् का शरीर साँवले रंग का था और समस्त उन्मादों से मुक्त था |
उनका कमलमुखमकराकृति जैसे कान के कुण्डलों से सुशोभित होकर अत्यन्त सुन्दर लग रहा था और उनकेवक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न था |
वे कलाइयों में कंगन पहने थे, अपनी भुजाओं में बाजूबंदपहने थे, सिर पर मुकुट लगाये थे, उनकी कमर में करधनी थी, छाती पर जनेऊ पड़ा था औरउनके चरणकमलों को पायल सुशोभित कर रही थीं |
मधुव्रतव्नातविघुष्टया स्वयाविराजित: श्रीवनमालया हरिः |
प्रजापतेर्वेश्मतम: स्वरोचिषाविनाशयन्कण्ठनिविष्टकौस्तुभ: ॥
३॥
मधु-ब्रत--शहद के लिए दीवानी मधुमक्खियों का; ब्रात--समूह; विधुष्टया--गुंजार करते; स्वया--असामान्य; विराजित: --स्थित; श्री--सुन्दर; बन-मालया--फूलों की माला से; हरिः-- भगवान्; प्रजापते:--प्रजापति कश्यपमुनि का; वेश्म-तम:--घरका अंधकार; स्व-रोचिषा--अपने तेज से; विनाशयन्--नष्ट करते हुए; कण्ठ--गले में; निविष्ट--पहना हुआ; कौस्तुभ:--कौस्तुभ मणि
उनके वक्षस्थल पर सुन्दर फूलों असाधारण की माला सुशोभित थी और फूलों के अत्यधिकसुगन्धित होने से मधुमक्खियों का बड़ा सा समूह गुंजार करता हुआ शहद के लिए उन पर टूटपड़ा था |
जब भगवान् अपने गले में कौस्तुभ मणि पहन कर प्रकट हुए तो उनके तेज से प्रजापतिकश्यप के घर का अंधकार दूर हो गया |
दिशः प्रसेदु: सलिलाशयास्तदाप्रजा: प्रहष्टा ऋतवो गुणान्विता: |
झौरन्तरीक्ष॑ क्षितिरग्निजिल्लागावो द्विजा: सद्जहृषुर्नगाश्च ॥
४॥
दिशः--सारी दिशाएँ; प्रसेदु:--प्रसन्न हो उठीं; सलिल--जल के; आशया:--आगार; तदा--उस समय; प्रजा:--सारे जीव;प्रहष्टा:--अत्यन्त प्रसन्न; ऋतव:--सारी ऋतुएँ; गुण-अन्विता:--अपने-अपने गुणों से पूर्ण; द्यौ:--ऊपरी लोक; अन््तरीक्षम्--बाह्य आकाश; क्षिति: --पृथ्वी; अग्नि-जिह्ला:--देवतागण; गाव: --गौवें; द्विजा:--ब्राह्मणणण; सञ्जहृषु; --सभी प्रसन्न हो गये;नगा: च--तथा पर्वत |
उस समय सभी दिशाओं में, नदी तथा सागर जैसे जलागारों में तथा सब के हृदयों में प्रसन्नताव्याप्त हो गईं |
विभिन्न ऋतुएँ अपने-अपने गुण दिखलाने लगीं तथा उच्चलोक, बाह्य आकाशएवं पृथ्वी पर के सारे जीव हर्षित हो उठे |
देवता, गाएँ, ब्राह्मण तथा सारे पर्वत हर्ष से पूरित होगए |
श्रोणायां श्रवणद्वादश्यां मुहूर्तेडभिजिति प्रभु: |
सर्वे नक्षत्रताराद्याश्चक्ुस्तज्जन्म दक्षिणम् ॥
५॥
श्रोणायाम्--जब चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र पर था; श्रवण-द्वादश्याम्ू-- भाद्र मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी को, जो श्रवण-द्वादशीकहलाती हैं; मुहूर्ते--शुभ क्षण में; अभिजिति--अभिजित नक्षत्र में, जो श्रवण राशि का पूर्वार्द्ध है तथा अभिजित मुहूर्त में( मध्यान्ह के समय ); प्रभु:-- भगवान्; सर्वे--सभी; नक्षत्र--तारे; तारा--लोक; आद्या:--सूर्य आदि लोक; चक्रुः--बनाया;तत्-जन्म--भगवान् का जन्म दिन; दक्षिणम्--अत्यन्त भव्य
श्रवण-द्वादशी के दिन जब चन्द्रमा श्रवण राशि पर था और शुभ अभिजित मुहूर्त था,भगवान् इस ब्रह्माण्ड में प्रकट हुए |
भगवान् के प्राकट्य को अत्यन्त शुभ मानकर सूर्य से लेकरशनि इत्यादि समस्त तारे तथा ग्रह अत्यन्त दानी बन गये |
द्वादश्यां सवितातिष्ठन्मध्यन्दिनगतो नृप |
विजयानाम सा प्रोक्ता यस्यां जन्म विदुर्हरे: ॥
६॥
द्वादश्याम्ू-द्वादशी के दिन; सविता--सूर्य; अतिष्ठत्--स्थित था; मध्यम्-दिन-गत:--आकाश के मध्य भाग में; नृप--हे राजा;विजया-नाम--विजया नामक; सा--वह दिन; प्रोक्ता--कहा जाता है; यस्याम्--जिसमें; जन्म--प्रादुर्भाव; विदु:;--वे जानतेहैं; हरेः-- भगवान् हरि का |
हे राजा! द्वादशी के दिन जब भगवान् प्रकट हुए तो सूर्य मध्य आकाश में था, जैसा किप्रत्येक विद्वान को पता है |
यह द्वादशी विजया कहलाती है |
शब्भुदुन्दुभयो नेदुर्मृदढ़पणवानका: |
चित्रवादित्रतूर्याणां निर्घोषस्तुमुलोभवत् ॥
७॥
शद्भु--शंख; दुन्दुभय:--दुन्दुभी नामक वाद्य; नेदु:--बजने लगे; मृदढ़--ढोल; पणब-आनका:--पणव तथा आनक नाम केढोल; चित्र--विविध; वादित्र--संगीत ध्वनि; तूर्याणाम्ू--तथा अन्य वाद्ययंत्रों ( तुरहियों ) का; निर्धोष:--उच्चस्वर; तुमुल:--अत्यन्त कोलाहलपूर्ण; अभवत्--हो गया |
शंख, ढोल, मृदंग, पणव तथा आनक बजने लगे |
इन तथा अन्य विविध वबाद्ययंत्रों कीध्वनि अत्यन्त कोलाहलपूर्ण थी |
प्रीताश्चाप्सरसो नृत्यनान्धर्वप्रवरा जगु; |
तुष्ठवुर्मुनयो देवा मनव: पितरोग्नय: ॥
८॥
प्रीता:--अत्यन्त प्रसन्न होकर; च-- भी; अप्सरस:--अप्सराएँ; अनृत्यनू--नाचने लगीं; गन्धर्व-प्रवरा: -- श्रेष्ठ गन्धर्व गण;जगुः--गाने लगे; तुष्ठ॒वु:--स्तुतियों द्वारा भगवान् को हर्षित किया; मुनयः--मुनियों ने; देवा:--देवताओं ने; मनव: --मनुओं ने;पितरः:--पितृलोक के वासियों ने; अग्नयः--अग्नि
देवताओं नेअत्यधिक हर्षित होकर अप्सराएँ प्रसन्नता के मारे नाचने लगीं, श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे औरमहा-मुनि, देवता, मनु, पितरगण तथा अग्निदेवों ने भगवान् को प्रसन्न करने के लिए स्तुतियाँकीं |
सिद्धविद्याधरगणा: सकिम्पुरुषकिन्नरा: |
चारणा यक्षरक्षांसि सुपर्णा भुजगोत्तमा: ॥
९॥
गायन्तोतिप्रशंसन्तो नृत्यन्तो विबुधानुगा: |
अदित्या आश्रमपदं कुसुमै:ः समवाकिरन् ॥
१०॥
सिद्ध--सिद्धलोक के वासी; विद्याधर-गणा: --विद्याधर लोक के वासी; स--सहित; किम्पुरुष--किम्पुरुष लोक के वासी;किन्नराः--किन्नर लोक के निवासी; चारणा: --चारणलोक के वासी; यक्ष--यक्षगण; रक्षांसि--राक्षसगण; सुपर्णा:--सुपर्ण;भुजग-उत्तमा:--सर्पलोक के निवासियों में श्रेष्ठ; गायन्तः-- भगवान् का यशोगान करते; अति-प्रशंसन्तः--भगवान् की प्रशंसाकरते; नृत्यन्त:--नाचते हुए; विबुधानुगा:--देवताओं के अनुयायी; अदित्या:--अदिति के; आश्रम-पदम्--निवास स्थान;कुसुमैः--फूलों से; समवाकिरन्ू--ढका हुआ |
सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, सुपर्ण, सर्पलोक के सर्वश्रेष्ठनिवासी तथा देवताओं के अनुयायी--इन सबों ने भगवान् का यशोगान तथा प्रशंसा करते हुएएवं नृत्य करते हुए अदिति के निवास स्थान पर इतने फूल बरसाये कि उनका पूरा घर ढक गया |
इृष्टादितिस्तं निजगर्भसम्भवंपरं पुमांसं मुदमाप विस्मिता |
गृहीतदेहँ निजयोगमायया प्रजापतिश्चाह जयेति विस्मित: ॥
११॥
इृष्टा--देखकर; अदिति:--माता अदिति ने; तम्--उसको ( भगवान् को ); निज-गर्भ-सम्भवम्--अपने गर्भ से उत्पन्न; परम्--परम; पुमांसम्--पुरुष को; मुदम्--परम सुख; आप--उत्पन्न किया; विस्मिता--अत्यन्त चकित; गृहीत--स्वीकार किया;देहम्--शरीर या दिव्य रूप; निज-योग-मायया-- अपनी आध्यात्मिक शक्ति से; प्रजापति:--कश्यपमुनि ने; च-- भी; आह--कहा; जय--जय हो; इति--इस प्रकार; विस्मित:--आश्चर्यचकित होकर |
जब अदिति ने देखा कि भगवान् ने जो उनके अपने गर्भ से उत्पन्न हुए थे अपनी आध्यात्मिकशक्ति से दिव्य शरीर धारण कर लिया है, तो वे आश्वर्यचकित हो उठीं और अत्यन्त प्रसन्न हुईं |
उस बालक को देखकर प्रजापति कश्यप परम सुख एवं आश्चर्य के वशीभूत होकर जय! जय!की ध्वनि करने लगे |
चत्तद्वपुर्भाति विभूषणायुधै-रव्यक्तचिद्व्यक्तमधारयद्धरिः |
बभूव तेनैव स वामनो वदुःसम्पश्यतोर्दिव्यगतिर्यथा नट: ॥
१२॥
यत्--जो; तत्--वही; वपु:--दिव्य शरीर; भाति--दिखलाता है; विभूषण--आभूषणों; आयुधे:--तथा हथियारों समेत;अव्यक्त--अप्रकट; चितू-व्यक्तम्--आध्यात्मिक रूप से प्रकट; अधारयत्-- धारण कर लिया; हरिः-- भगवान् ने; बभूब--तुरन्त बन गया; तेन--उससे; एव--निश्चय ही; सः-- भगवान्; वामन: --बौना; वटुः--ब्राह्मण ब्रह्मचारी; सम्पश्यतो: -- अपनेमाता-पिता के देखते-देखते; दिव्य-गति:--अलौकिक गतियों वाला; यथा--जिस तरह; नट:--नट, अभिनेता |
भगवान् अपने आदि रूप में आभूषण पहने तथा हाथ में आयुध धारण किये प्रकट हुए |
यद्यपि उनका यह सदैव विद्यमान रहने वाला रूप भौतिक जगत में दृश्य नहीं है, तो भी वे इसीरूप में प्रकट हुए |
तत्पश्चात् अपने माता-पिता की उपस्थिति में ही उन्होंने उसी तरह ब्राह्मण वामनअर्थात् ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया जिस तरह कोई अभिनेता कर लेता है |
त॑ं बटुं वामनं हृष्ठा मोदमाना महर्षय: |
कर्माणि कारयामासु: पुरस्कृत्य प्रजापतिम् ॥
१३॥
तम्--उस; वटुम्--ब्रह्मचारी को; वामनम्--बौने; हृष्टा--देखकर; मोदमाना: --प्रसन्न मुद्रा में; महा-ऋषय: --महर्षियों ने;कर्माणि--अनुष्ठानों को; कारयाम् आसु:--सम्पन्न किया; पुरस्कृत्य--आगे करके; प्रजापतिमू--प्रजापति कश्यपमुनि को |
जब ऋषियों ने भगवान् को ब्रह्मचारी वामन के रूप में देखा तो वे निश्चय ही परम प्रसन्नहुए |
अतएव प्रजापति कश्यपमुनि को आगे करके उन्होंने सारे अनुष्ठान--यथा जन्म संस्कार--सम्पन्न किये |
तस्योपनीयमानस्य सावित्रीं सविताब्रवीतू |
बृहस्पतिब्रहासूत्रं मेखलां कश्यपोददात् ॥
१४॥
तस्य-- भगवान् वामनदेव का; उपनीयमानस्य--उपवीत संस्कार के समय; सावित्रीम्--गायत्री मंत्र का; सविता--सूर्यदेव ने;अब्रवीत्--उच्चारण किया; बृहस्पति:--देवताओं के गुरु बृहस्पति; ब्रह्म-सूत्रमू--उपबीत, यज्ञोपवीत; मेखलाम्--मूँज कीपेटी; कश्यप:--कश्यप मुनि ने; अददात्--प्रदान की |
वामनदेव के यज्ञोपवीत संस्कार के समय सूर्यदेव ने स्वयं गायत्री मंत्र का जप किया,बृहस्पति ने जनेऊ प्रदान किया और कश्यप मुनि ने मूँज की मेखला भेंट की |
ददौ कृष्णाजिनं भूमिर्दण्डं सोमो वनस्पति: |
कौपीनाच्छादनं माता झौएछत्रं जगतः पते: ॥
१५॥
ददौ--दिया, भेंट किया; कृष्ण-अजिनमू्--मृगछाला; भूमि:ः--माता पृथ्वी ने; दण्डम्--ब्रह्मचारी का डंडा; सोम:--चन्द्रदेवने; बन:-पति:--जंगल का राजा; कौपीन--लंगोट ; आच्छादनम्--शरीर को ढकने वाला; माता--उनकी माता अदिति ने;दौः--स्वर्गलोक; छत्रम्--छाता; जगत: --सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के; पतेः--स्वामी का |
माता पृथ्वी ने उन्हें मृगचर्म प्रदान किया तथा वनस्पतियों के राजा चन्द्रदेव ने उन्हें ब्रह्मदण्ड( ब्रह्माचारी का डंडा ) प्रदान किया |
उनकी माता अदिति ने उन्हें कौपीन के लिए वस्त्र तथास्वर्गलोक के अधिनायक देवता ने उन्हें छत्र प्रदान किया |
कमण्डलुं बेदगर्भ: कुशान्सप्तर्षयो ददुः |
अक्षमालां महाराज सरस्वत्यव्ययात्मन: ॥
१६॥
'कमण्डलुम्--कमण्डल, जलपात्र; वेद-गर्भ:--ब्रह्माजी ने; कुशान्ू--कुशा; सप्त-ऋषय: --सप्तर्षियों ने; ददुः--भेंट किया;अक्ष-मालाम्ू--रुद्राक्ष की माला; महाराज--हे राजा; सरस्वती--देवी सरस्वती ने; अव्यय-आत्मन:--भगवान् को |
हे राजा! ब्रह्माजी ने अव्यय भगवान् को कमण्डल प्रदान किया, सप्तर्षियों ने कुशा औरमाता सरस्वती ने उन्हें रुद्राक्ष की माला भेंट की |
तस्मा इत्युपनीताय यक्षराट्पात्रिकामदात् |
भिक्षां भगवती साक्षादुमादादम्बिका सती ॥
१७॥
तस्मै--उनको ( वामनदेव को ); इति--इस प्रकार; उपनीताय--जिनका उपवीत संस्कार हो चुका है; यक्ष-राट्--स्वर्ग केकोषाध्यक्ष तथा यक्षों के राजा कुवेर ने; पात्रिकाम्-भिक्षापात्र; अदात्ू-दिया; भिक्षाम्-भिक्षा के लिए; भगवती--शिवपत्नी, माता भवानी ने; साक्षात्- प्रत्यक्ष; उमा--उमा; अदात्--दिया; अम्बिका--ब्रह्मण्ड की जननी; सती--सती साध्वी
जब इस प्रकार से वामन देव का यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो चुका तो यक्षराज कुवेर नेउन्हें भिक्षा माँगने के लिए भिक्षापात्र एवं शिव पती, ब्रह्माण्ड की परम साध्वी, माता भगवती नेउन्हें पहली भिक्षा दी |
स ब्रह्मवर्चसेनैवं सभां सम्भावितो वटु: |
ब्रह्मर्षिगणसझ्ुष्टामत्यरोचत मारिष: ॥
१८॥
सः--वह ( वामनदेव ); ब्रह्म-वर्चसेन-- अपने ब्रह्म -तेज से; एबम्--इस प्रकार; सभाम्--सभा में; सम्भावित:--हर एक केद्वारा समादरित; वटुः--ब्रह्मचारी; ब्रह्म -ऋषि-गण-सझ्ुष्टाम्-- ब्राह्मण ऋषियों से पूरित; अति-अरोचत--सबको मात कर रहाथा, सुन्दर लगता था; मारिष:--ब्रह्मचारियों में सर्वश्रेष्ठ |
इस प्रकार सब के द्वारा स्वागत किये जाने पर ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ वामनदेव ने अपनाब्रह्मतेज प्रकट किया |
इस तरह महान् सन्त ब्राह्मणों की उस पूरी सभा में वे अपनी सुन्दरता मेंअद्वितीय लगते थे |
समिद्धमाहितं वह्निं कृत्वा परिसमूहनम् |
परिस्तीर्य समभ्यर्च्य समिद्धिरजुह्देदिदूवज: ॥
१९॥
समिद्धम्--प्रज्वलित; आहितम्--स्थित; वह्िम्-- अग्नि; कृत्वा--करके ; परिसमूहनम्--समुचित रीति से; परिस्तीर्य--सब सेबढ़कर; समभ्यर्च्य--पूजा करके ; समिद्धिः--आहुतियों के द्वारा; अजुहोत्--यज्ञ सम्पन्न किया; द्विज:--ब्राह्मण श्रेष्ठ |
तत्पश्चात् श्री वामनदेव ने यज्ञ-अग्नि प्रज्बलित की, पूजा सम्पन्न की और यज्ञशाला में यज्ञकिया |
श्रुत्वा श्रमेधैर्यजमानमूर्जितंबलिं भूगूणामुपकल्पितैस्तत: |
जगाम तत्राखिलसारसम्भूतोभारेण गां सन्नमयन्पदे पदे ॥
२०॥
श्रुत्वा--सुनकर; अश्वमेधेः--अश्वमेध यज्ञ द्वारा; यजमानम्--यज्ञकर्ता; ऊर्जितम्--अत्यन्त तेजस्वी; बलिम्--बलि महाराज को;भूगूणाम्-भूगुवंशी ब्राह्मणों के निर्देशन में; उपकल्पितैः --सम्पन्न किया गया; ततः--उस स्थान से; जगाम--चला गया;तत्र--वहाँ; अखिल-सार-सम्भूत:--समस्त सृष्टि के सार भगवान्; भारेण-- भार से; गाम्ू--पृथ्वी को; सन्नमयन्--दबाते हुए;पदे पदे-- प्रत्येक पग में |
जब भगवान् ने सुना कि बलि महाराज भृगुवंशी ब्राह्मणों के संरक्षण में अश्वमेध यज्ञ सम्पन्नकर रहे हैं, तो वे परमपूर्ण भगवान् बलि महाराज पर अपनी कृपा दिखाने के लिए वहाँ के लिएचल पड़े |
प्रत्येक डग भरने पर उनके भार से पृथ्वी नीचे धँसने लगी |
त॑ं नर्मदायास्तट उत्तरे बले-य॑ ऋत्विजस्ते भूगुकच्छसंज्ञके |
प्रवर्तयन्तो भूगव:ः क्रतृत्तमंव्यचक्षतारादुदितं यथा रविम् ॥
२१॥
तम्--उसको ( वामनदेव को ); नर्मदाया:--नर्मदा नदी के; तटे--किनारे पर; उत्तरे--उत्तरी; बलेः --महाराज बलि का; ये--जो; ऋत्विज: --अनुष्ठान में लगे पुरोहितगण; ते--वे सभी; भूगुकच्छ-संज्ञके -- भूगुकक्ष नामक क्षेत्र में; प्रवर्तयन्त: --सम्पन्नकरते हुए; भूगव:ः --सारे भृगुवंशी; क्रतु-उत्तमम्--अश्वमेध नामक महत्त्वपूर्ण यज्ञ; व्यचक्षत--देखा; आरात्--पास ही;उदितम्--उदय हुए; यथा--जिस तरह; रविम्--सूर्य को
नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर भृगुकक्ष नामक क्षेत्र में यज्ञ सम्पन्न करते हुए भूगुवंशी ब्राह्मणपुरोहितों ने वामनदेव को ऐसे देखा मानो पास ही सूर्य उदय हो रहा हो |
ते ऋत्विजो यजमान: सदस्याहतत्विषो वामनतेजसा नृप |
सूर्य: किलायात्युत वा विभावसु:सनत्कुमारोथ दिदृक्षया क्रतो: ॥
२२॥
ते--वे सभी; ऋत्विज: --पुरोहितगण; यजमान: --यज्ञ सम्पन्न कराने में व्यस्त बलि महाराज भी; सदस्या:--सभा के सारेसदस्य; हत-त्विष: --तेजरहित; वामन-तेजसा--वामन के चमकीले तेज से; नृूप--हे राजा; सूर्य: --सूर्य; किल--कहीं तो;आयाति--आ रहा है; उत वा--अथवा; विभावसु:--अग्निदेव; सनत्-कुमार:--सनत्कुमार; अथ-- अथवा; दिद्क्षया--देखनेकी इच्छा से; क्रतो:ः--यज्ञ |
है राजा! वामनदेव के चमकीले तेज से बलि महाराज एवं सभा के सारे सदस्यों सहित सारेपुरोहित तेजहीन हो गये |
वे परस्पर पूछने लगे कि कहीं साक्षात् सूर्यदेव अथवा सनत्कुमार याअग्निदेव तो यज्ञोत्सव को देखने नहीं आ गये ? इत्थं सशिष्येषु भृगुष्वनेक धावितर्क्यमाणो भगवान्स वामन: |
छत्र॑ सदण्डं सजलं कमण्डलुंविवेश बिभ्रद्धयमेधवाटम् ॥
२३॥
इत्थम्--इस प्रकार; स-शिष्येषु-- अपने शिष्यों सहित; भृगुषु-- भूगुओं के बीच; अनेकधा--अनेक प्रकार से; वितर्क्यमाण: --तर्क-वितर्क करते; भगवान्-- भगवान्; सः--वह; वामन:--वामन; छत्रम्--छाता; सदण्डम्ू--लाठी ( दंड ) सहित; स-जलम्--जल से पूरित; कमण्डलुमू--कमण्डल; विवेश--प्रवेश किया; बिभ्रत्ू--हाथ में लिए; हयमेध--अश्वमेध यज्ञ की;वाटम्-शाला में |
जब भृगुवंशी पुरोहित तथा उनके शिष्य अनेक प्रकार के तर्क-वितर्को में संलग्न थे उसीसमय भगवान् वामनदेव हाथों में दण्ड, छाता तथा जल से भरा कमण्डल लिए अश्वमेधयज्ञशाला में प्रविष्ट हुए |
मौज्ज्या मेखलया वीतमुपवीताजिनोत्तरम् |
जटिल वामनं विप्रं मायामाणवर्क हरिम् ॥
२४॥
प्रविष्टे वीक्ष्य भूगव: सशिष्यास्ते सहाग्निभि: |
प्रत्यगृहन्समुत्थाय सदड्क्षिप्तास्तस्थ तेजसा ॥
२५॥
मौउ्ज्या--मूँज की बनी; मेखलया--पेटी से; बीतम्--घिरा हुआ; उपवीत--जनेऊ; अजिन-उत्तरमू--मृगचर्म का उत्तरीय वस्त्रपहने हुए; जटिलम्--जटा धारण किये; वामनम्--वामन को; विप्रमू--ब्राह्मण; माया-माणवकम्--मनुष्य का मायावीपुत्र;हरिम्ू-- भगवान् को; प्रविष्टम्--प्रवेश किया हुआ; वीक्ष्य--देखकर; भूगव:--सारे भूगुबंशी पुरोहित; स-शिष्या:--अपनेशिष्यों समेत; ते--वे सभी; सह-अग्निभि: --यज्ञ अग्नि सहित; प्रत्यगृह्न्ू--ठीक से स्वागत किया गया; समुत्थाय--खड़ेहोकर; सद्क्षिप्ता:--घटा हुआ; तस्थ--उसके; तेजसा--तेज से |
भगवान् वामनदेव मूँज की मेखला, जनेऊ, मृगचर्म का उत्तरीय वस्त्र तथा जटाजूट धारणकिये हुए ब्राह्मण बालक के रूप में उस यज्ञशाला में प्रविष्ट हुए |
उनके तेज से सारे पुरोहितों एवंउनके शिष्यों का तेज घट गया; वे अपने-अपने आसनों से उठ खड़े हुए और प्रणाम करते हुएसबों ने समुचित रीति से उनका स्वागत किया |
यजमान: प्रमुदितो दर्शनीयं मनोरमम् |
रूपानुरूपावयवं तस्मा आसनमाहरत् ॥
२६॥
यजमान:--बलि महाराज, जिन्होंने सारे पुरोहितों को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए लगा रखा था; प्रमुदित:--अत्यन्त प्रसन्न होकर;दर्शनीयम्-देखने में सुहावना; मनोरमम्--इतना सुन्दर; रूप--सौन्दर्य से युक्त; अनुरूप--उनके शारीरिक सौन्दर्य के तुल्य;अवयवम्ू--शरीर के विभिन्न अंग; तस्मै--उनको; आसनम्--बैठने का स्थान; आहरत्-- प्रदान किया |
भगवान् वामनदेव को देखकर परम प्रफुल्लित बलि महाराज ने परम प्रसन्नतापूर्वक उन्हेंबैठने के लिए आसन प्रदान किया |
भगवान् के शरीर के सुन्दर अंग उनके शरीर की सुन्दरता कोयोगदान दे ले रहे थे |
स्वागतेनाभिनन्द्याथ पादौ भगवतो बलि: |
अवनिज्यार्चयामास मुक्तसड्रमनोरमम् ॥
२७॥
सु-आगतेन--स्वागत के शब्दों से; अभिनन्द्य--स्वागत करके; अथ--इस प्रकार; पादौ--दोनों चरणकमल; भगवत: --भगवान् के; बलि:--बलि महाराज ने; अवनिज्य--धोकर; अर्चयाम् आस--पूजा की; मुक्त-सड़-मनोरमम्--मुक्तात्माओं कोसुन्दर लगने वाले भगवान् को |
इस प्रकार मुक्तात्माओं को सदैव सुन्दर लगने वाले भगवान् का समुचित स्वागत करते हुएबलि महाराज ने उनके चरणकमलों को धोकर उनकी पूजा की |
तत्पादशौच॑ जनकल्मषापहंस धर्मविन्मूर्ध्यदधात्सुमड्रलम् |
यहद्देवदेवो गिरिशश्चन्द्रमौलिर्दधार मूर्ध्ना परया च भक्त्या ॥
२८॥
ततू-पाद-शौचम्-- भगवान् के चरणकमलों को धोने से प्राप्त जल; जन-कल्मष-अपहम्--जनता के समस्त पापों के फलों कोधो डालने वाला; सः--उसने ( बलि महाराज ने ); धर्म-वित्--धर्म से पूर्णतया ज्ञात; मूर्थि--सिर पर; अदधात्-- धारण किया;सु-मड्गलम्--सर्वकल्याणकारी; यत्--जो; देव-देव: --देवताओं में श्रेष्ठ; गिरिश:--शिवजी; चन्द्र-मौलि: --ललाट पर चन्द्रमाका चिह्न धारण करने वाला; दधार--धारण किया; मूर्ध्ना--सिर पर; परया--परम; च-- भी; भक्त्या--भक्तिपूर्वक |
देवताओं में सर्वश्रेष्ठ ललाट पर चन्द्रमा का चिन्ह धारण करने वाले शिवजी विष्णु केअँगूठे से निकलने वाले गंगाजल को अपने सिर पर भक्तिपूर्वक धारण करते हैं |
धार्मिकसिद्धान्तों को जानने वाले होने के कारण बलि महाराज को यह ज्ञात था; फलस्वरूप शिवजीका अनुसरण करते हुए उन्होंने भी भगवान् के चरणकमलों के प्रक्षालन से प्राप्त जल को अपनेसिर पर रख लिया |
श्रीबलिरुवाचस्वागतं ते नमस्तुभ्यं ब्रह्मन्कि करवाम ते |
ब्रह्मर्षीणां तपः साक्षान्मन्ये त्वार्य वपुर्धरम् ॥
२९॥
श्री-बलि: उवाच--बलि महाराज ने कहा; सु-आगतम्--स्वागत है; ते--आपका; नमः तुभ्यमू--मैं आपको नमस्कार करता हूँ;ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; किमू--क्या; करवाम--हम कर सकते हैं; ते--आपके लिए; ब्रह्य-ऋषीणाम्--ब्रह्मर्षियों की; तपः--तपस्या; साक्षात्- प्रत्यक्ष; मन्ये --मानता हूँ; त्वा--तुमको; आर्य-हे श्रेष्ठ; वपु:-धरम्--साकार |
तब बलि महाराज ने वामनदेव से कहा : हे ब्राह्मण! मैं आपका हार्दिक स्वागत करता हूँऔर आपको सादर नमस्कार करता हूँ |
कृपया बतायें कि हम आपके लिए क्या करें? हमआपको ब्रहार्षियों की तपस्या का साकार रूप मानते हैं |
अद्य नः पितरस्तृप्ता अद्य न: पावितं कुलम् |
अद्य स्विष्ट: क्रतुरयं यद्भधवानागतो गृहान् ॥
३०॥
अद्य--आज; नः--हमारे; पितर: --पितरगण; तृप्ता:--तृप्त; अद्य--आज; न: --हमारे; पावितम्--पवित्र हुए; कुलमू--पूरापरिवार; अद्य--आज; सु-इष्ट:--भलीभाँति सम्पन्न; क्रतु:--यज्ञ; अयम्--यह; यत्-- क्योंकि; भवान्ू--आप; आगत: --पधारेहैं; गृहानू-- हमारे घर में
हे प्रभ!ु आप कृपा करके हमारे घर पधारे हैं अतः मेरे सारे पूर्वज संतुष्ट हो गये, हमारापरिवार तथा समस्त वंश पवित्र हो गया और हम जिस यज्ञ को कर रहे थे वह आपकी उपस्थितिसे अब पूरा हो गया |
अद्याग्नयो मे सुहुता यथाविधिद्विजात्मज त्वच्चरणावनेजनै: |
हतांहसो वार्भिरियं च भूरहोतथा पुनीता तनुभिः पदैस््तव ॥
३१॥
अद्य--आज; अग्नयः -- अग्नि; मे--मेरे द्वारा सम्पन्न; सु-हुताः-- भलीभाँति आहुति डाली गई; यथा-विधि--शास्त्रीयआदेशानुसार; द्विज-आत्मज-हे ब्राह्मण पुत्र; त्वत्-चरण-अवनेजनै: --जिसने आपके चरणकमल धोये हैं; हत-अंहस:--सारेपापों के फलों से पवित्र हो गये हैं, जो; वार्भि:--जल के द्वारा; इयम्--यह; च-- भी; भू:--पृथ्वी पर; अहो--ओह; तथा--और; पुनीता--पवित्र; तनुभि: --छोटे; पदैः--चरणकमलों के स्पर्श से; तब--आपके |
हे ब्राह्मणपुत्र! आज यह यज्ञ-अग्नि शास्त्रादेशानुसार प्रज्वलित हुई है और आपकेपादप्रक्षालित जल से मैं अपने पापकर्मों के सभी फलों से मुक्त हो गया हूँ |
हे स्वामी! आपकेलघु चरणारविन्द के स्पर्श से समग्र जगती-तल पवित्र हो गया है |
यद्य॒ट्टो वाउ्छसि तत्प्रतीच्छ मेत्वामर्थिनं विप्रसुतानुतर्कये |
गां काञ्जनं गुणवद्धाम मूष्टेंतथान्नपेयमुत वा विप्रकन्याम् |
ग्रामान्समृद्धांस्तुरगान्गजान्वारथांस्तथाहईत्तम सम्प्रतीच्छ ॥
३२॥
यत् यत्--जो जो; वटो--हे ब्रह्मचारी; वाज्छसि--चाहते हो; तत्--वह; प्रतीच्छ--ले सकते हो; मे--मुझसे; त्वामू--तुम;अर्थिनम्--इच्छा रखने वाले; विप्र-सुत--हे ब्राह्मण पुत्र; अनुतर्कये--मैं मानता हे; गामू--गाएँ; काञ्लनम्--सोना; गुणवत्धाम--सज्जित घर; मृष्टम्ू--सुस्वादु; तथा--और; अन्न--अनाज; पेयम्--पेय पदार्थ; उत--निस्सन्देह; बा--अथवा; विप्र-कन्याम्-ब्राह्मण की पुत्री; ग्रामानू-ग्रामों; समृद्धानू--समृद्ध; तुरगानू-घोड़ों; गजान्--हाथियों ; वा--अथवा; रथान्--रथोंको; तथा--और; अर्हत्-तम--परम पूज्य; सम्प्रतीच्छ--ले सकते हो |
हे ब्राह्मणपुत्र! ऐसा प्रतीत होता है कि आप यहाँ मुझसे कुछ माँगने आये हैं |
अतएबवं आपजो भी चाहें मुझसे ले सकते हैं |
हे परम पूज्य! आप गाय, सोना, सज्जित घर, स्वादिष्ट भोजनतथा पेय, पत्नी के रूप में ब्राह्मण कन्या, समृद्ध गाँव, घोड़े, हाथी, रथ या जो भी इच्छा होमुझसे ले सकते हैं |
अध्याय उन्नीस: भगवान वामनदेव ने बलि महाराज से दान मांगा
8.19श्रीशुक उबाचइति वैरोचनेर्वाक्यं धर्मयुक्ते स सूनृतम् |
निशम्यभगवान्प्रीत: प्रतिनन्द्ेदमब्रवीत् ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; बैरोचने:--विरोचन के पुत्र के; वाक्यम्--शब्दों को;धर्म-युक्तम्-धर्म से युक्त; सः--वह; सू-नृतम्--अत्यन्त सुहावने; निशम्य--सुनकर; भगवान्-- भगवान्; प्रीत:ः--पूर्णतयाप्रसन्न होकर; प्रतिनन््य --उसको बधाई देकर; इदम्--निम्नलिखित शब्द; अब्रवीत्ू--कहे |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब भगवान् वामनदेव ने बलि महाराज को इस प्रकारसुहावने ढंग से बोलते हुए सुना तो वे परम प्रसन्न हुए क्योंकि बलि महाराज धार्मिक सिद्धान्तों केअनुरूप बोले थे |
इस तरह वे बलि की प्रशंसा करने लगे |
श्रीभगवानुवाचवचस्तवैतज्जनदेव सूनृतंकुलोचितं धर्मयुतं यशस्करम् |
यस्य प्रमाणं भूगवः साम्परायेपितामहः कुलदृद्धः प्रशान्त: ॥
२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; वच: --शब्द; तव--तुम्हारे; एतत्--इस प्रकार के; जन-देव--हे जनता के राजा; सू-नृतम्--अत्यन्त सच; कुल-उचितम्--तम्हारे वंश के अनुरूप; धर्म-युतम्-धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार; यश:ः-करम्--तुम्हारा यश फैलाने के लिए उपयुक्त; यस्य--जिसका; प्रमाणम्--साक्ष्य, प्रमाण; भूगव:-- भूगुवंशी ब्राह्मण; साम्पराये-- अगलेजगत में; पितामहः --तुम्हारे बाबा; कुल-वृद्ध:ः--कुल में सबसे बूढ़े, वयोवृद्ध; प्रशान्तः--अत्यन्त शान्त ( प्रह्मद महाराज ) |
भगवान् ने कहा : हे राजा! तुम सचमुच महान् हो क्योंकि तुम्हें वर्तमान सलाह देने वाले ब्राह्मण भृगुवंशी हैं, और तुम्हारे भावी जीवन के शिक्षक तुम्हारे बाबा ( पितामह ) प्रह्नद महाराजहैं, जो शान्त एवं सम्माननीय ( वयोवृद्ध ) हैं |
तुम्हारे कथन अत्यन्त सत्य हैं और वे धार्मिकशिष्टाचार से पूरी तरह मेल खाते हैं |
वे तुम्हारे वंश के आचरण के अनुरूप हैं और तुम्हारे यशको बढ़ाने वाले हैं |
न होतस्मिन्कुले कश्रिन्निःसत्त्व: कृपण: पुमान् |
प्रत्याख्याता प्रतिश्रुत्य यो वादाता द्विजातये ॥
३॥
न--नहीं; हि--निस्सन्देह; एतस्मिन्--इसमें; कुले--कुल या परिवार में; कश्चित्--कोई; निःसत्त्व: --संकुचित मन वाला;कृपण:--कंजूस; पुमान्-- कोई व्यक्ति; प्रत्याख्याता--मना करता है; प्रतिश्रुत्य-- वचन देकर; यः वा--अथवा; अदाता--नदेने वाला; द्विजातये--ब्राह्मणों को |
मुझे ज्ञात है कि आज तक तुम्हारे परिवार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जन्मा है, जो संकीर्ण मन वाला या कंजूस हो |
न तो किसी ने ब्राह्मणों को दान देने से मना किया है, न ही दान देने कावचन देकर कोई उसे पूरा करने से विमुख हुआ है |
न सन्ति तीर्थे युधि चार्थिनार्थिता:पराड्मुखा ये त्वमनस्विनो नृप |
युष्पत्कुले यद्यशसामलेनप्रह्मद उद्धाति यथोडुप: खे ॥
४॥
न--नहीं; सन्ति--हैं; तीर्थे--तीर्थस्थानों में; युधि--युद्धभूमि में; च-- भी; अर्थिना--ब्राह्मण या क्षत्रिय द्वारा; अर्थिता: --जिनसे माँगा गया हो; पराड्मुखा: --जिसने प्रार्थना को ठुकरा दिया हो; ये--ऐसे व्यक्ति; तु--निस्सन्देह; अमनस्विन:--ऐसे क्षुद्रहृदय वाले, निम्न कोटि के राजा; नृप--हे राजा ( बलि महाराज ); युष्मत्-कुले--तुम्हारे कुल में; यत्--जिसमें; यशसाअमलेन--निष्कलंक कीर्ति से; प्रह्मदः--प्रह्नाद महाराज; उद्धाति--उदय होता है; यथा--जिस प्रकार; उड़ुप:--चन्द्रमा; खे--आकाश में
हे राजा बलि! तुम्हारे कुल में कभी भी ऐसा क्षुद्र हृदय वाला राजा उत्पन्न नहीं हुआ जिसनेतीर्थस्थानों में ब्राह्मणों द्वारा माँगे जावे पर दान न दिया हो या युद्धभूमि में क्षत्रियों से लड़ने सेमना किया हो |
तुम्हारा वंश तो प्रहाद महाराज के कारण और भी यशस्वी है क्योंकि वे आकाशमें सुन्दर चन्द्रमा के समान हैं |
यतो जातो हिरण्याक्षश्नरन्नेक इमां महीम् |
प्रतिवीरं दिग्विजये नाविन्दत गदायुधः ॥
५॥
यतः--जिस वंश में; जात:--उत्पन्न हुआ था; हिरण्याक्ष:--हिरण्याक्ष नामक राजा; चरन्--घूमते हुए; एक:--अकेले;इमाम्--इस; महीम्--पृथ्वी को; प्रतिवीरम्--प्रतिद्वन्द्दी; दिकू-विजये--सारी दिशाओं को जीतने के लिए; न अविन्दत--नहींपा सका; गदा-आयुधः -- अपनी गदा लिए
तुम्हारे ही वंश में हिरण्याक्ष ने जन्म लिया था |
वह केवल अपनी गदा लेकर सारी दिशाओंको जीतने के लिए बिना किसी सहायता के सारी पृथ्वी में अकेले घूम आया, किन्तु उसे कोईऐसा वीर न मिला जो उस का सामना कर सके |
यं विनिर्जित्य कृच्छेण विष्णु: क्ष्मोद्धार आगतम् |
आत्मानं जयिन॑ मेने तद्वीर्य भूर्यनुस्मरन् ॥
६॥
यम्--जिसको; विनिर्जित्य--जीतकर; कृच्छेण--कठिनाई से; विष्णु;--वराह अवतार में भगवान् विष्णु ने; क्ष्मा-उद्धारे--पृथ्वी के उद्धार के समय; आगतम्--उनके समक्ष प्रकट हुआ; आत्मानम्--स्वयं; जयिनम्--विजयी; मेने--विचार किया; ततू-वीर्यमू-हिरण्याक्ष का पराक्रम; भूरि--निरन्तर, या अधिकाधिक; अनुस्मरन्--चिन्तन करते हुए |
गर्भोदक सागर से पृथ्वी का उद्धार करते समय भगवान् विष्णु ने वराह अवतार में हिरण्याक्षका वध किया जो उनके समक्ष प्रकट हो गया था |
तब घमासान युद्ध हुआ और भगवान् ने उसेबड़ी कठिनाई से मारा |
बाद में जब भगवान् ने हिरण्याक्ष के असाधारण पराक्रम के विषय मेंविचार किया, तो उन्होंने अपने को सचमुच विजयी अनुभव किया |
निशम्य तद्वधं भ्राता हिरण्यकशिपु: पुरा |
हन्तुं भ्रातृहणं क्रुद्धो जगाम निलयं हरे: ॥
७॥
निशम्य--सुनकर; तत्-वधम्--हिरण्याक्ष के वध को; भ्राता-- भाई; हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु; पुरा--बहुत पहले;हन्तुमू--मारने के लिए; भ्रातृ-हणम्-- अपने भाई के हत्यारे को; क्रुद्ध:--अत्यन्त क्रोधित; जगाम--गया; निलयमू--धाम में;हरेः--भगवान् के
जब हिरण्यकशिपु ने सुना कि उसके भाई का वध कर दिया गया है, तो वह अत्यन्त क्रुद्धहोकर अपने भाई के हत्यारे विष्णु को मारने उनके धाम गया |
तमायान्तं समालोक्य शूलपाणिं कृतान्तवत् |
चिन्तयामास कालनज्ञो विष्णुर्मायाविनां वर: ॥
८॥
तम्--उसको ( हिरण्यकशिपु को ); आयान्तमू--आगे आते हुए; समालोक्य--बारीकी से देखकर; शूल-पाणिम्--अपने हाथमें त्रिशूल लेकर; कृतान्त-वत्--साक्षात् काल के समान; चिन्तयाम् आस--सोचा; काल-ज्ञ:--काल की गति को जानने वाले;विष्णु: --विष्णु ने; मायाविनाम्--सभी प्रकार के मायावियों के; वर:--प्रमुख, मुखिया |
हिरण्यकशिपु को हाथ में त्रिशूल लिए साक्षात् काल की भाँति आगे बढ़ते देखकर समस्तमायावियों में श्रेष्ठ तथा काल की गति को जानने वाले भगवान् विष्णु ने इस प्रकार सोचा |
यतो यतोऊहं तत्रासौ मृत्यु: प्राणभूतामिव |
अतोहमस्य हृदयं प्रवेक्ष्यामि पराग्हशः: ॥
९॥
यतः यतः--जहाँ-जहाँ, जहाँ कहीं भी; अहम्--मैं; तत्र--वहीं; असौ--यह हिरण्यकशिपु; मृत्यु: --मृत्यु; प्राण-भूताम्--समस्त जीवों के; इब--सहृश; अतः--इसलिए; अहम्--मैं; अस्य--उसके; हृदयम्-- अन्तःस्थल में ; प्रवेक्ष्यामि-- प्रवेशकरूँगा; पराक्-हृशः--ऐसे व्यक्ति का जिसको केवल बाह्य दृष्टि प्राप्त है|
जहाँ कहीं भी मैं जाऊँगा, हिरण्यकशिपु मेरा पीछा करेगा जिस तरह मृत्यु सभी जीवों कापीछा करती है |
अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर होगा कि इसके अन्तःस्थल में प्रवेश कर जाऊँ |
तब यह अपनी केवल बहिर्मुखी दृष्टि की शक्ति के कारण मुझे नहीं देख सकेगा |
एवं स निश्चित्य रिपो: शरीर-माधावतो निर्विविशेड्सुरेन्द्रश्वासानिलान्तर्हितसूक्ष्मदेह-स्तत्प्राणरन्श्रेण विविग्नचेता: ॥
१०॥
एवम्--इस तरह से; सः--वह ( भगवान् विष्णु ); निश्चित्य--निर्णय करके; रिपो:--शत्रु के; शरीरम्--शरीर में; आधावत: --जो तेजी से भगवान् के पीछे-पीछे दौड़ रहा था; निर्विविशे--घुस गया; असुर-इन्द्र--हे असुर राजा ( महाराज बलि ); ध्वास-अनिल--साँस के साथ; अन्तर्हित-- अदृश्य; सूक्ष्म-देह:ः --अपने सूक्ष्म शरीर में; ततू-प्राण-रन्श्रेण--उसके नथुने के छिद्र सेहोकर; विविग्न-चेता: --अत्यन्त उत्सुक होकर |
भगवान् वामनदेव ने आगे कहा : हे असुर राजा! इस निर्णय के बाद भगवान् अपने पीछेतेजी से दौते अपने शत्रु हिरण्यकशिपु के शरीर में प्रवेश कर गये |
सूक्ष्म शरीर जिसकीहिरण्यकशिपु कल्पना भी न कर सकता था, धारण करके चिन्तामग्न भगवान् विष्णु उसकीश्वास के साथ उसके नथुने में प्रविष्ट हो गए |
स ततन्निकेतं परिमृश्य शून्य-मपश्यमान: कुपितो ननाद |
क्ष्मां द्यां दिशः खं विवरान्समुद्रान्विष्णुं विचिन्वन्न ददर्श वीर: ॥
११॥
सः--उस हिरण्यकशिपु ने; तत्-निकेतम्-- भगवान् विष्णु के निवास को; परिमृश्य--दूँढकर; शून्यम्--रिक्त; अपश्यमान: --विष्णु को न देखकर; कुपित:ः--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; ननाद--जोर से गर्जना की; क्ष्मामू--पृथ्वी पर; द्यामू--बाह्य आकाश में;दिशः--सभी दिशाओं में; खम्--आकाश में; विवरान्ू--सारी गुफाओं में; समुद्रान्--सारे समुद्रों में; विष्णुम्--विष्णु को;विचिन्वन्--ढूँढते हुए; न--नहीं; ददर्श--देखा; वीर:--यद्यपि वह अत्यन्त शक्तिशाली था |
भगवान् विष्णु के निवासस्थान को रिक्त देखकर हिरण्यकशिपु ने सर्वत्र उन की खोजकरनी शुरू की |
उन्हें न पाने के कारण क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने जोर से गर्जना की औरफिर सारे ब्रह्माण्ड, पृथ्वी, स्वर्गलोक, सारी दिशाओं तथा सारी गुफाओं एवं समुद्रों में उन्हेंखोजना शुरू किया |
किन्तु महान् वीर विष्णु को कहीं नहीं देख पाया |
अपश्यन्निति होवाच मयान्विष्टमिंदं जगत् |
भ्रातृहा मे गतो नूनं यतो नावर्तते पुमान् ॥
१२॥
अपश्यन्--उन्हें न देखकर; इति--इस प्रकार; ह उबाच--बोला; मया--मेरे द्वारा; अन्विष्टम्--खोजा गया; इदम्--यह सम्पूर्ण;जगत्--ब्रह्माण्ड; भ्रातृ-हा-- भाई का वध करने वाला विष्णु; मे--मेरे; गतः--चला गया होगा; नूनम्--निश्चय ही; यतः --जहाँ से; न--नहीं; आवर्तते--वापस आ सकता है; पुमान्--कोई मनुष्य |
उन्हें न देखकर हिरण्यकशिपु ने कहा : मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान मारा, किन्तु अपने भाई केहत्यारे विष्णु को मैं कहीं नहीं पा सका |
अतएव वह अवश्य ही ऐसी जगह चला गया होगा जहाँसे कोई भी लौट नहीं सकता ( अर्थात् वह अब मर गया होगा ) |
वैरानुबन्ध एतावानामृत्योरिह देहिनाम् |
अज्ञानप्रभवो मन्युरहंमानोपबृंहित: ॥
१३॥
वैर-अनुबन्ध:--शत्रुभाव, शत्रुता; एतावान्ू--इतनी अधिक; आमृत्यो:--मृत्यु पर्यन्त; इह--इस; देहिनाम्--देहात्मबुद्धि मेंलिप्त पुरुषों का; अज्ञान-प्रभव:--अज्ञान के महान् प्रभाव वश; मन्यु:--क्रोध; अहम्ू-मान--अहंकार से; उपबूंहित:--बढ़ाहुआ
भगवान् विष्णु के प्रति हिरण्यकशिपु का क्रोध उसकी मृत्यु तक बना रहा |
देहात्मबुद्धिवाले अन्य लोग केवल मिथ्या अहंकार तथा अज्ञान के प्रबल प्रभाव के कारण क्रोध बनायेरखते हैं |
पिता प्रह्मादपुत्रस्ते तद्विद्वान्द्रिजवत्सल: |
स्वमायुद्विजलिड्रेभ्यो देवेभ्योदात्स याचित: ॥
१४॥
पिता--पिता; प्रह्माद-पुत्र:--महाराज प्रह्लाद का पुत्र; ते--तुम्हारा; तत्-विद्वानू--यद्यपि यह उसे ज्ञात था; द्विज-वत्सलः--फिरभी ब्राह्मणों के प्रति प्रेम होने से; स्वम्ू--अपनी; आयु:--उम्र; द्विज-लिड्रेभ्य:--जो ब्राह्मणों के वेश में थे; देवेभ्य:--देवताओंको; अदात्ू--दे दिया; सः--उसने; याचित:ः--माँगे जाने पर |
तुम्हारे पिता विरोचन, जो महाराज प्रह्लाद के पुत्र थे, ब्राह्मणों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल थे |
यद्यपि वे भलीभान्ति जानते थे कि ब्राह्मणों का वेश धारण करके देवतागण उनके समक्ष आयेथे, किन्तु उनके मांगने पर उन्होंने उन्हें अपनी आयु दे डाली |
भवानाचरितान्धर्मानास्थितो गृहमेधिभिः |
ब्राह्मणै: पूर्वजै: शूरैरन्यैश्वोद्यामकीर्तिभि: ॥
१५॥
भवान्--आपने; आचरितान्--सम्पन्न किया; धर्मान्ू--धार्मिक सिद्धान्तों को; आस्थित:--स्थित होकर; गृहमेधिभि: --गृहस्थोंके द्वारा; ब्राह्मणैः ब्राह्मणों के द्वारा; पूर्व-जैः--अपने पुरखों के द्वारा; शूरै:--वीरों केद्वारा; अन्यै: च--तथा अन्यों के द्वाराभी; उद्दाम-कीर्तिभि: --अत्यन्त उच्च तथा प्रसिद्ध |
तुमने भी गृहस्थ ब्राह्मणों, अपने पुरखों तथा महान् कार्यों के लिए सुविख्यात शूरवीरों जैसेमहान् पुरुषों के सिद्धान्तों का पालन किया है |
तस्मात्त्वत्तो महीमीषद्गुणेहं वरदर्षभात् |
पदानि त्रीणि दैत्येन्द्र सम्मितानि पदा मम ॥
१६॥
तस्मात्--ऐसे व्यक्ति से; त्वत्त:--आपसे; महीम्--पृथ्वी; ईषत्-- थोड़ी सी; वृणे--माँग रहा हूँ; अहम्--मैं; वरद-ऋषभात् --मुक्तहस्त दान देने वाले व्यक्ति से; पदानि--पग; त्रीणि--तीन; दैत्य-इन्द्र--हे दैत्यराज; सम्मितानि--माप के बराबर; पदा--पाँव के द्वारा; मम--मेरे |
हे दैत्ययाज! ऐसे कुलीन एवं मुक्तहस्त दान देने वाले आपसे मैं अपने पैरों से मापकर केवलतीन पग भूमि की याचना करता हूँ |
नान्यत्ते कामये राजन्वदान्याज्जगदी श्वरात् |
नैनः प्राप्नोति बे विद्वान्यावदर्थप्रतिग्रहः ॥
१७॥
न--नहीं; अन्यत्--अन्य कुछ; ते--तुमसे; कामये--याचना करता हूँ; राजनू--हे राजा; वदान्यात्--जो इतने दानी हैं; जगत्-ईश्वरात्--सारे ब्रह्माण्ड के राजा से; न--नहीं; एन:--दुख; प्राप्पोति--प्राप्त करता है; वै--निस्सन्देह; विद्वानू--विद्वान;यावत्ू-अर्थ--जिसे जितना चाहिए; प्रतिग्रह:--अन्यों से दान लेना |
हे समग्र ब्रह्माण्ड के नियामक राजा! यद्यपि आप अत्यन्त उदार हैं और जितनी भूमि चाहूँमुझे दे सकते हैं, किन्तु मैं आपसे अनावश्यक वस्तु नहीं माँगना चाहता |
यदि कोई विद्वानब्राह्मण अन्यों से अपनी आवश्यकतानुसार दान लेता है, तो वह पापपूर्ण कर्मों में नहीं फँसता |
श्रीबलिरुवाचअहो ब्राह्मणदायाद वाच्स्ते वृद्धसम्मता: |
त्वं बालो बालिशमतिः स्वार्थ प्रत्यबुधो यथा ॥
१८॥
श्री-बलि: उबाच--बलि महाराज ने कहा; अहो--आह; ब्राह्मण-दायाद--ब्राह्मण पुत्र; वाच:--वचन; ते--तुम्हारे; वृद्ध-सम्मता:--विद्वानों तथा गुरुजनों को मान्य हैं; त्वम्--तुम; बाल:--बालक; बालिश-मतिः--पर्याप्तज्ञान के बिना; स्व-अर्थम्--स्वार्थ या हित; प्रति--के प्रति; अबुध:--ठीक से न जानते हुए; यथा--मानो |
बलि महाराज ने कहा : हे ब्राह्मण पुत्र! तुम्हारे उपदेश विद्वान तथा वयोवृद्ध पुरुषों जैसे हैं |
तो भी अभी तुम बालक हो और तुम्हारी बुद्धि अल्प है |
अतएव तुम्हें अपने हित का पूरी तरहज्ञान नहीं है |
मां वचोभि: समाराध्य लोकानामेकमी श्वरम् |
पदत्रयं वृणीते यो<बुद्धिमान्द्रीपदाशुषम् ॥
१९॥
माम्--मुझको; वचोभि: --मधुर वचनों से; समाराध्य--पर्याप्त तुष्ट करके; लोकानाम्--इस ब्रह्माण्ड के सारे लोकों का;एकम्--एकमात्र; ईश्वरम्--स्वामी, नियन्ता; पद-त्रयम्ू--तीन पग; वृणीते--माँग रहा है; यः--जो; अबुद्द्धिमानू-- मूर्ख; द्वीप-दाशुषम्-क्योंकि मैं तुम्हें समूचा द्वीप दे सकता हूँ |
मैं तुम्हें समूचा द्वीप दे सकता हूँ क्योंकि मैं ब्रह्माण्ड के तीनों विभागों का स्वामी हूँ |
तुममुझसे कुछ लेने आये हो और तुमने मुझे अपने मधुर बचनों से सन्तुष्ट किया है, किन्तु तुम केवलतीन पग भूमि माँग रहे हो अतएव तुम मुझे अधिक बुद्ध्धिमान् नहीं लगते हो |
न पुमान्मामुपब्रज्य भूयो याचितुमईति |
तस्माद्वत्तिकरीं भूमिं वटो काम॑ प्रतीच्छ मे ॥
२०॥
न--नहीं; पुमानू--कोई व्यक्ति; माम्--मेरे पास; उपब्रज्य--पास आकर; भूयः--पुनः; याचितुम्--माँगने के लिए; अर्हति--योग्य होता है; तस्मात्--इसलिए; वृत्ति-करीम्--अपना पालन करने के लिए उपयुक्त; भूमिमू-- भूमि को; बटो--हे लघुब्रह्मचारी; कामम्--जीवन की आवश्यकता के अनुसार; प्रतीच्छ--ले लो; मे--मुझसे |
हे बालक! जो एक बार कुछ माँगने के लिए मेरे पास आता है उसे अन्यत्र कुछ भी माँगनेकी आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए |
अतएवं, चाहो तो तुम मुझसे उतनी भूमि माँग सकते होजितने से तुम्हारी जीवन-यापन संबंधी आवश्यकता पूरी हो सके |
श्रीभगवानुवाचयावन्तो विषया:ः प्रेष्ठास्त्रिलोक्यामजितेन्द्रियम् |
न शब्नुवन्ति ते सर्वे प्रतिपूरयितुं नूप ॥
२१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; यावन्त:--यथासम्भव; विषया: --इन्द्रिय भोग के विषय; प्रेष्ठाः--हर एक के लिएसुहावना; त्रि-लोक्याम्--तीनों लोकों में; अजित-इन्द्रियम्ू--जिसकी इन्द्रियाँ वश में न हों; न शक््नुवन्ति-- असमर्थ हैं; ते--वे;सर्वे--सभी मिलाकर; प्रतिपूरयितुम्--सन्तुष्ट करने के लिए; नूप--हे राजा
भगवान् ने कहा: हे राजा! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं उसे तीनों लोकों मेंइन्द्रियों को तृप्त करने के लिए जो कुछ भी है संतुष्ट नहीं कर सकता |
त्रिभिः क्रमैरसन्तुष्टो द्वीपेनापि न पूर्यते |
नववर्षसमेतेन सप्तद्वीपवरेच्छया ॥
२२॥
त्रिभिः--तीन; क्रमैः--क्रमवार; असन्तुष्ट:--असन्तुष्ट; द्वीपेन--द्वीप से; अपि--यद्यपि; न पूर्यते--सन्तुष्ट नहीं होता; नव-वर्ष-समेतेन--नौ वर्षो को प्राप्त करके भी; सप्त-द्वीप-वर-इच्छया--सातों द्वीपों पर अधिकार पाने की इच्छा |
यदि मैं तीन पग भूमि से सन्तुष्ट न होऊँ तब तो यह निश्चित है कि नौ वर्षो से युक्त सातों द्वीपोंमें से एक द्वीप पाकर भी मैं सन्तुष्ट नहीं हो सकूँगा |
यदि मुझे एक द्वीप भी मिल जाये तो मैं अन्यद्वीपों को पाने की आशा करूँगा |
सप्तद्वीपाधिपतयो नृपा वैण्यगयादय: |
अर्थे: कामैर्गता नान्तं तृष्णाया इति नः श्रुतम् ॥
२३॥
सप्त-द्वीप-अधिपतय:--सात द्वीपों के मालिक; नृपाः--राजा; वैण्य-गय-आदय:--महाराज पृथु, महाराज गय तथा अन्य;अर्थे:--उद्देश्यपूर्ति के लिए; कामैः--अपनी इच्छाओं की तुष्टि हेतु; गता: न--नहीं पहुँच सके; अन्तम्--अन्त तक; तृष्णाया:--अपनी इच्छाओं के; इति--इस प्रकार; नः--हमारे द्वारा; श्रुतम्--सुना गया |
हमने सुना है कि यद्यपि महाराज पृथु तथा महाराज गय जैसे शक्तिशाली राजाओं ने सातोंद्वीपों पर स्वामित्व प्राप्त कर लिया था, किन्तु फिर भी उन्हें न तो सन्तोष प्राप्त हुआ न ही वेअपनी आकांक्षाओं का कोई अन्त पा सके |
यहच्छयोपपन्नेन सन्तुष्टो वर्तते सुखम् |
नासन्तुष्टस्त्रभिलेकिरजितात्मोपसादितै: ॥
२४॥
यहच्छया--अपने कर्म के अनुसार परम सत्ता द्वारा जो कुछ प्रदत्त है; उपपन्नेन--जो कुछ मिला है उससे; सन्तुष्ट:--मनुष्य कोसन््तुष्ट होना चाहिए; वर्तते--है; सुखम्--सुख; न--नहीं; असन्तुष्ट:ः --असन्तुष्ट के लिए; त्रिभि: लोकैः--तीनों लोकों को पालने पर; अजित-आत्मा--जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता; उपसादितैः -- भले ही प्राप्त क्यों न कर ले |
मनुष्य को अपने प्रारब्ध से जो कुछ मिलता है उससे सन्तुष्ट रहना चाहिए क्योंकि असन्तोष पुंसोयं संसूतेहतुरसन्तोषो रथ कामयो: |
यहच्छयोपपत्नेन सन्तोषो मुक्तये स्मृत: ॥
२५॥
पुंस:--जीव का; अयम्--यह; संसृतेः--संसार में आवागमन का; हेतु:--कारण; असन्तोष: -- भाग्य में लिखे फल सेअसंतोष; अर्थ-कामयो: --काम तथा अर्थ के लिए; यहच्छया--प्रारब्ध से; उपपन्नेन--प्राप्त हुआ; सनन््तोष:--सन्तोष; मुक्तये--मुक्ति के लिए; स्मृत:ः--उपयुक्त माना जाता है |
भौतिक जीवन कामेच्छा की पूर्ति एवं अधिक धन पाने की इच्छा में असन्तोष उत्पन्न करताहै |
बारम्बार जन्म तथा मृत्यु से पूर्ण भौतिक जीवन के बने रहने का यही कारण है |
किन्तु प्रारब्धसे जो कुछ प्राप्त होता है उसी से सन्तुष्ट रहने वाला मनुष्य इस भौतिक जगत से मुक्ति पाने केयोग्य है |
यहच्छालाभतुष्टस्य तेजो विप्रस्य वर्धते |
तत्प्रशाम्यत्यसन्तोषादम्भसेवाशुशुक्षणि: ॥
२६॥
यहच्छा-लाभ-तुष्टस्थ-- भगवान् की कृपा से जो कुछ प्राप्त हो जाये उसी से सन्तुष्ट; तेज:--तेज; विप्रस्थ--ब्राह्मण का;वर्धते--बढ़ जाता है; तत्ू--वह ( तेज ); प्रशाम्यति--कम हो जाता है; असन्तोषात्--असन्तोष के कारण; अम्भसा--जलडालने से; इब--मानो; आशुशुक्षणि: --अग्नि
जो ब्राह्मण प्रारब्ध से जो कुछ भी प्राप्त होता है उसी से सन्तुष्ट रहता है, वह आध्यात्मिकशक्ति में निरन्तर बढ़ते जाकर प्रबुद्ध होता रहता है, किन्तु असन्तुष्ट ब्राह्मण की आध्यात्मिकशक्ति उसी तरह क्षीण होती जाती है, जिस प्रकार पानी छिड़कने से अग्नि की ज्वलनशक्ति घटतीहै |
तस्मात्त्रीणि पदान्येव वृणे त्वद्वरदर्षभात् |
एतावतैव सिद्धोहं वित्त यावत्प्रयोजनम् ॥
२७॥
तस्मात्ू--आसानी से मिली हुईं वस्तुओं से सन्तुष्ट होने के कारण; त्रीणि---तीन; पदानि--पग; एव--निस्सन्देह; वृणे--मैंयाचना करता हूँ; त्वत्--आपसे; वरद-ऋषभात् --मुक्तहस्त दान करने वाले से; एतावता एव--इतने ही से; सिद्ध: अहम्--मैंपूर्ण सन््तोष अनुभव करूँगा; वित्तम्ू--उपलब्धि; यावत्--जहाँ तक; प्रयोजनम्--आवश्यक है |
अतएव हे राजा! दानियों में सर्वश्रेष्ठ आपसे मैं केवल तीन पग भूमि माँग रहा हूँ |
इस दान सेमैं अत्यधिक प्रसन्न हो जाऊँगा क्योंकि सुखी होने की विधि यही है कि जो नितान्त आवश्यक होउसे पाकर पूर्ण सन्तुष्ट हो लिया जाये |
श्रीशुक उबाचइत्युक्त: स हसन्नाह वाउ्छात: प्रतिगृह्मताम् ॥
वामनाय महीं दातुं जग्राह जलभाजनम् ॥
२८ ॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति उक्त:--इस प्रकार कहे जाने पर; सः--उसने ( बलि महाराज ने );हसन्--हँसते हुए; आह--कहा; वाज्छात:--जैसी तुमने इच्छा की है; प्रतिगृह्मयताम्-- अब मुझसे ले लो; वामनाय--वामनभगवान् को; महीम्-- भूमि; दातुम्-देने के लिए; जग्राह--लिया; जल-भाजनम्--जलपात्र
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब बलि महाराज से भगवान् इस प्रकार बोले तो बलिहँस पड़े और उन्होंने कहा '‘बहुत अच्छा |
अब जो इच्छा हो प्राप्त करो |
वामनदेव को इच्छितभूमि देने के अपने वचन की पुष्टि करने के लिए उन्होंने अपना जलपात्र उठाया |
विष्णवे क्ष्मां प्रदास्यन्तमुशना असुरे श्वरम् |
जानंश्रिकीर्षितं विष्णो: शिष्यं प्राह विदां वर: ॥
२९॥
विष्णवे-- भगवान् विष्णु ( वामनदेव ) को; क्ष्मामू-- भूमि; प्रदास्यन्तम्--देने के लिए उद्यत; उशना:--शुक्राचार्य ने; असुर-ईश्वरम्--असुरों के राजा ( बलि महाराज ) को; जानन्-- भलीभाँति जानते हुए; चिकीर्षितम्--जो योजना थी; विष्णो: --भगवान् विष्णु की; शिष्यम्--अपने शिष्य से; प्राह--कहा; विदाम् वर: --हर बात को जानने वालों में श्रेष्ठ |
भगवान् विष्णु के प्रयोजन को जानते हुए दिद्वानों में श्रेष्ठ शुक्राचार्य ने तुरन्त ही अपने शिष्यबलि से, जो भगवान् वामनदेव को सब कुछ देने जा रहे थे, इस प्रकार कहा |
श्रीशुक्र उवाचएष वैरोचने साक्षाद्धगवान्विष्णुरव्ययः |
कश्यपाददितेरजातो देवानां कार्यसाधकः ॥
३०॥
श्री-शुक्र: उवाच--शुक्राचार्य ने कहा; एष:--यह ( वामन रूप बालक ); बैरोचने--हे विरोचनपुत्र; साक्षात्- प्रत्यक्ष;भगवान्-- भगवान्; विष्णु: --विष्णु; अव्यय:--अव्यय; कश्यपात्-- अपने पिता कश्यप से; अदिते:--अपनी माता अदिति केगर्भ से; जातः--उत्पन्न; देवानामू--देवताओं का; कार्य-साधक:--हित में काम करने वाला
शुक्राचार्य ने कहा : हे विरोचनपुत्र! यह वामन रूपधारी ब्रह्मचारी साक्षात् अव्यय भगवान्विष्णु है |
यह कश्यप मुनि को अपना पिता और अदिति को अपनी माता स्वीकार करकेदेवताओं का हित साधने के लिए प्रकट हुआ है |
प्रतिश्रुतं त्वयैतस्मै यदनर्थमजानता |
न साधु मन्ये दैत्यानां महानुपगतोनय: ॥
३१॥
प्रतिश्रुतम्--वचन दिया गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; एतस्मै--उसको; यत् अनर्थम्--जो अहित होना है; अजानता--न जाननेवाले तुम्हारे द्वारा; न--नहीं; साधु--उत्तम; मन्ये--मैं सोचता हूँ; दैत्यानामू--असुरों का; महान्--महान्; उपगत:--प्राप्त कियाहुआ; अनय:--अशुभ कार्य, अन्याय
तुम यह नहीं जान पा रहे कि इन्हें भूमि देने का वचन देकर तुमने कैसी घातक स्थितिअंगीकार कर ली है |
मेरी समझ में यह वचन ( प्रतिज्ञा ) तुम्हारे लिए उत्तम नहीं है |
इससे असुरोंको महान् क्षति होगी |
एष ते स्थानमैश्वर्य श्रियं तेजो यश: श्रुतम् |
दास्यत्याच्छिद्य शक्राय मायामाणवको हरि; ॥
३२॥
एष:--यह व्यक्ति जो ब्रह्मचारी लग रहा है; ते--तुम्हारी; स्थानम्-- अधिकृत भूमि; ऐ श्वर्यम्-- धन-धान्य; अ्रियम्-- भौतिकसौन्दर्य; तेज:--भौतिक शक्ति; यश: --कीर्ति, ख्याति; श्रुतम्--शिक्षा; दास्यति--देगा; आच्छिद्य--तुमसे लेकर; शक्राय--तुम्हारे शत्रु इन्द्र को; माया--नकली; माणवक:--मनुष्य का ब्रह्मचारी पुत्र; हरिः--वास्तव में भगवान् हरि है |
यह व्यक्ति जो ऊपर से ब्रह्मचारी लग रहा है वास्तव में भगवान् हरि है, जो तुम्हारी सारीभूमि, सम्पत्ति, सौन्दर्य, शक्ति, यश तथा शिक्षा लेने के लिए इस रूप में आया है |
यह तुम्हारासर्वस्व छीनकर तुम्हारे शत्रु इन्द्र को दे देगा |
त्रिभि: क्रमैरिमाल्लोकान्विश्वकाय: क्रमिष्यति |
सर्वस्वं विष्णवे दत्त्वा मूढ वर्तिष्यसे कथम् ॥
३३॥
त्रिभिः--तीन; क्रमैः--पगों द्वारा; इमानू--इन सभी; लोकान्--तीनों लोकों को; विश्व-काय:--विश्व रूप धारण करके;क्रमिष्यति--वे क्रमशः विस्तार करेंगे; सर्वस्वम्--सब कुछ; विष्णवे-- भगवान् विष्णु को; दत्त्वा--दान देकर; मूढ-हे मूर्ख;वर्तिष्यसे--तुम जीविका चलाओगे; कथम्--कैसे |
तुमने उन्हें दान में तीन पग भूमि देने का वचन दिया है, किन्तु जब तुम देने इसे दे दोगे तो वेतीनों लोकों में अधिकार जमा लेंगे |
तुम निपट मूर्ख हो |
तुम नहीं जानते कि तुमने कितनी बड़ीभूल की है |
भगवान् विष्णु को सर्वस्व दान देने पर तुम्हारे पास जीविका का कोई साधन नहींरहेगा |
तब तुम कैसे जिओगे ?क्रमतो गां पदैकेन द्वितीयेन दिवं विभो: |
खं च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गति: ॥
३४॥
क्रमतः--क्रमशः; गाम्-- भूमि; पदा एकेन--एक पग से; द्वितीयेन--दूसरे पग से; दिवम्ू--सारा बाह्य आकाश; विभो: --विश्वरूप का; खम् च--आकाश भी; कायेन--उनके दिव्य शरीर के विस्तार से; महता--विश्वरूप से; तार्तीयस्थ--जहाँ तकतीसरे पग की बात है; कुत:--कहाँ है; गतिः--पग रखने के लिए
सर्वप्रथम वामनदेव एक पग से तीनों लोकों को घेर लेंगे, तत्पश्चात् वे दूसरा पग भरेंगे औरबाह्य आकाश की प्रत्येक वस्तु को ले लेंगे और तब वे अपने विश्वरूप का विस्तार करके सर्वस्वपर अधिकार जमा लेंगे |
तब तुम उन्हें तीसरा पग रखने के लिए कहाँ स्थान दोगे ? निष्ठां ते नरके मन्ये ह्यप्रदातुः प्रतिश्रुतम् |
प्रतिश्रुतस्थ योउनीश: प्रतिपादयितुं भवान् ॥
३५॥
निष्ठामू-शाश्वत निवास स्थान; ते--तुम्हारा; नरके--नरक में; मन्ये--सोचता हूँ; हि--निस्सन्देह; अप्रदातु:--वचन पूरा न करसकने वाले पुरुष का; प्रतिश्रुम्--जिसको वचन दिया गया हो; प्रतिश्रुतस्थ--किसी के द्वारा दिये गये वचन का; यःअनीश:--अशक्त; प्रतिपादयितुम्--पूरी तरह पूर्ण करने में; भवान्--आप |
तुम निश्चित रूप से अपना वचन पूरा करने में असमर्थ होगे और मैं सोचता हूँ कि अपनी इसअसमर्थता के कारण तुम्हें नरक में शाश्रत निवास करना पड़ेगा |
न तह्दानं प्रशंसन्ति येन वृत्तिर्विपद्यते |
दान॑ यज्ञस्तपः कर्म लोके वृत्तिमतो यत: ॥
३६॥
न--नहीं; तत्--उस; दानम्--दान की; प्रशंसन्ति--सन्तजन प्रशंसा करते हैं; येन--जिससे; वृत्तिः--जीविका; विपद्यते--संकट में पड़ जाये; दानम्--दान; यज्ञ:--यज्ञ; तप:--तपस्या; कर्म--सकाम कर्म; लोके --इस संसार में; वृत्तिमतः--अपनीजीविका के अनुसार; यत:--जैसाकि है |
विद्वान व्यक्ति उस दान की प्रशंसा नहीं करते जिससे किसी की अपनी जीविका खतरे में पड़जाये |
दान, यज्ञ, तप तथा सकाम कर्म वही कर सकता है, जो अपनी जीविका कमाने में पूर्णसक्षम हो ( जो अपना भरण-पोषण न कर सके उसके लिए ये कार्य असम्भव हैं ) |
धर्माय यशसे<र्थाय कामाय स्वजनाय च |
पञ्ञधा विभजन्वित्तमिहामुत्र च मोदते ॥
३७॥
धर्माय--धर्म के लिए; यशसे--अपने यश के लिए; अर्थाय--अपना ऐश्वर्य बढ़ाने के लिए; कामाय--इन्द्रियतृप्ति के हेतु; स्व-जनाय च--तथा कुट॒म्बीजनों के पालन पोषण के लिए; पञ्ञधा--इन पाँच भिन्न-भिन्न लक्ष्यों के लिए; विभजनू्--बाँटते हुए;वित्तमू--अपने संचित धन को; इह--इस संसार में; अमुत्र--अगले संसार में; च--तथा; मोदते-- भोग करता है |
अतएव जो ज्ञानी है उसे चाहिए कि अपने संचित धन को पाँच भागों में विभाजित कर दे--धर्म के लिए, यश के लिए, ऐश्वर्य के लिए, इन्द्रियतृप्ति के लिए तथा कुट॒ुम्बी-जनों के भरण-पोषण के लिए |
ऐसा व्यक्ति इस लोक में तथा परलोक में भी सुखी रहता है |
अत्रापि बहृचैर्गातं श्रुणु मेउसुरसत्तम |
सत्यमोमिति यत्प्रोक्त यन्नेत्याहानृतं हि ततू ॥
३८ ॥
अतन्र अपि--इस सम्बन्ध में भी ( सत्य क्या है, क्या नहीं ); बहु-ऋचै:-- श्रुति मंत्रों के द्वारा जो बह्नच श्रुति कहलाते हैं और वेदोंका साक्ष्य हैं; गीतम्--गाया हुआ; श्रुणु--सुनो; मे-- मुझसे; असुर-सत्तम--हे असुरश्रेष्ठ; सत्यम्--सत्य है; ओम् इति--» सेआरम्भ होने वाला; यत्--जो; प्रोक्तमू--कहा हुआ; यत्--जो; न--» से आरम्भ नहीं होता; इति--इस प्रकार; आह--कहाजाता है; अनृतम्--असत्य; हि--निस्सन्देह; तत्ू--वह |
कोई यह तर्क कर सकता है कि चूँकि तुमने पहले ही वचन दे दिया है अतएवं अब कैसेमना कर सकते हो ? हे असुरश्रेष्ठ! तुम मुझसे बह्नच-श्रुति का साक्ष्य ले सकते हो जो यह कहतीहै कि वह वचन सत्य है, जिसके आरम्भ में ३४ हो; वह असत्य है, जो ३४ से आरम्भ न हो |
सत्य॑ पुष्पफलं विद्यादात्मवृक्षस्थ गीयते |
वृक्षेउजीवति तन्न स्थादनृतं मूलमात्मन: ॥
३९॥
सत्यम्--वास्तविक सत्य; पुष्प-फलम्--फूल तथा फल; विद्यातू-समझा जाना चाहिए; आत्म-वृक्षस्थ--शरीर रूपी वृक्ष के;गीयते--जैसा वेदों में वर्णित है; वृक्षे अजीवति--यदि वृक्ष ही न जीवित रहे; तत्--वह ( पुष्पफलम् ); न--नहीं; स्थात्ू-हो;अनृतम्--झूठ; मूलम्--जड़; आत्मन:--शरीर की |
वेदों का आदेश है कि शरीर रूपी वृक्ष का वास्तविक परिणाम तो इस से मिलने वाले उत्तम'फल तथा फूल हैं |
किन्तु यदि यह शरीर रूपी वृक्ष ही न रहे तो फिर इन वास्तविक फल-फूलोंके होने की कोई सम्भावना नहीं है |
यहाँ तक कि यदि शरीर असत्य की नींव पर भी टिका होतो भी शरीर रूपी वृक्ष के बिना वास्तविक फल-फूल नहीं हो सकते |
तद्यथा वृक्ष उन्मूल: शुष्यत्युद्वर्ततेडचिरात् |
एवं नष्टानृत: सद्य आत्मा शुष्येन्न संशय: ॥
४०॥
तत्--अतएव; यथा--जिस प्रकार; वृक्ष:ः--वृक्ष; उन््मूल:--जड़ समेत उखाड़ने पर; शुष्यति--सूख जाता है; उद्दर्तते--गिरपड़ता है; अचिरातू--शीघ्र ही; एवम्--उसी तरह; नष्ट--नष्ट हुआ; अनृतः--यह नाशवान् शरीर; सद्यः--तुरन्त; आत्मा--शरीर;शुष्येत्--सूख जाता है; न--नहीं; संशयः--कोई सन्देह |
जड़ समेत उखाड़ने पर वृक्ष तुरन्त गिर जाता है और सूखने लगता है |
इसी प्रकार यदि कोईइस शरीर की परवाह नहीं करता, जो असत्य माना जाता है--अर्थात् यदि इस असत्य काउन्मूलन कर दिया जाये--तो यह शरीर निश्चय ही सूख जाता है |
पराग्रिक्तमपूर्ण वा अक्षर यत्तदोमिति |
यत्किझ्िदोमिति ब्रूयात्तेन रिच्येत वै पुमान् |
भिक्षवे सर्वम् कुर्वन्नालं कामेन चात्मने ॥
४१॥
पराक्--जो पृथक् करे; रिक्तमू--जो आसक्ति से मुक्त बनाये; अपूर्णम्--अपूर्ण, अधूरा; वा--अथवा; अक्षरम्--यह अक्षर;यत्--जो; तत्--वह; ओम्--ओछ्डार; इति--इस प्रकार कहा गया; यत्--जो; किश्ञित्--जो कुछ भी; ३७--ओड्डार; इति--इस प्रकार; ब्रूयातू--यदि तुम कहो; तेन--ऐसा कहने से; रिच्येत--मुक्त हो जाता है; बै--निस्सन्देह; पुमान्--मनुष्य;भिक्षवे--भिक्षुक को; सर्वम्--सारा; ३» कुर्वन्-- ३» शब्द का उच्चारण करते हुए दान देने से; न--नहीं; अलमू्--पर्याप्त;'कामेन--इन्द्रियतृप्ति के लिए; च-- भी; आत्मने--आत्म-साक्षात्कार के लिए
शब्द का उच्चारण ही मनुष्य के धनधान्य के वियोग का सूचक है |
दूसरे शब्दों में, ३४७का उच्चारण करने से मनुष्य धन के प्रति आसक्ति से छूट जाता है क्योंकि उसका धन उससे लेलिया जाता है |
किन्तु धनविहीन होना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसी अवस्था में मनुष्य अपनीइच्छाओं को पूरा नहीं कर सकता |
दूसरे शब्दों में, ७ शब्द का उच्चारण करने से मनुष्य विपन्नहो जाता है |
विशेषतया जब कोई किसी दरिद्र व्यक्ति या भिक्षुक को दान देता है, तो उसकाआत्म-साक्षात्कार तथा उसकी इन्द्रियतृप्ति अधूरे रह जाते हैं |
अशेतत्पूर्णमभ्यात्मं यच्च नेत्यनृतं वच: |
सर्व नेत्यनृतं ब्रूयात्स दुष्कीर्ति: श्वसन्मृत: ॥
४२॥
अथ--अतएव; एतत्--यह; पूर्णम्--पूर्णतया; अभ्यात्मम्-- अपने आपको नितान््त निर्धन बताकर दूसरे की सहानुभूति माँगना;यत्--जो; च-- भी; न--नहीं; इति--इस प्रकार; अनृतम्--मिथ्या, झूठा; बचः--शब्द; सर्वम्--पूर्णतया; न--नहीं; इति--इस प्रकार; अनृतम्--असत्य; ब्रूयातू--बोले; सः--ऐसा व्यक्ति; दुष्कीर्ति:--अपयश; श्रसन्--साँस लेता हुआ या जीवित;मृतः--मृत है या मार डाला जाये |
अतएबव सुरक्षित उपाय है कि 'नहीं' कह दिया जाये |
यद्यपि यह असत्य है, किन्तु इससे पूरीरक्षा हो जाती है, इससे अपने प्रति दूसरों की सहानुभूति भी मिलती है और अपने लिए अन्यों सेधन एकत्र करने में पूरी सुविधा मिलती है |
फिर भी यदि कोई सदा यही कहे कि उसके पासकुछ नहीं है, तो उसकी निनन््दा होती है क्योंकि वह जीवित रहकर भी मृत है या उसे जीवित हीमार डालना चाहिए |
स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसड्डूटे |
गोब्राह्मणार्थ हिंसायां नानृतं स्थाज्जुगुप्सितम् ॥
४३॥
स्त्रीषु--स्त्री को प्रोत्साहित करके उसे अपने वश में करने के लिए; नर्म-विवाहे--हँसी में या विवाह में; च-- भी; वृत्ति-अर्थे--अपनी जीविका कमाने के लिए; प्राण-सड्भूटे--अथवा संकट आने पर; गो-ब्राह्मण-अर्थै--गोरक्षा तथा ब्राह्मण संस्कृति केलिए; हिंसायाम्ू--शत्रुता के कारण हत्या किये जाने वाले व्यक्ति के लिए; न--नहीं; अनृतम्--असत्य; स्यात्--होता है;जुगुप्सितम्-गर्हित
अपने वश में लाने के लिए किसी स्त्री से चिकनी-चुपड़ी बातें करने में, हास-परिहास में,विवाह-उत्सव में, अपनी जीविका कमाने में, प्राणों का संकट उपस्थित होने पर, गायों तथाब्राह्मण संस्कृति की रक्षा करने या शत्रु के हाथों से किसी व्यक्ति की रक्षा करने में असत्यभाषण भी कभी निन्दनीय नहीं माना जाता |
अध्याय बीस: बलि महाराज ने ब्रह्मांड का समर्पण कर दिया
8.20श्रीशुक उबाचबलिरेवं गृहपति: कुलाचार्येण भाषितः |
तूष्णीं भूत्वा क्षणंराजन्नुवाचावहितो गुरुम् ॥
१॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; बलि: --महाराज बलि ने; एवम्--इस प्रकार; गृह-पति:--गृहस्थी केस्वामी, यद्यपि पुरोहितों द्वारा मार्गदर्शित; कुल-आचार्येण--पारिवारिक गुरु के द्वारा; भाषित:--सम्बोधित किया गया;तृष्णीमू--मौन; भूत्वा--होकर; क्षणम्--एक क्षण के लिए; राजन्--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); उबाच--कहा; अवहितः--पूर्ण विचार-विमर्श करने के बाद; गुरुम्--अपने गुरु से
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित! जब बलि महाराज को उनके गुरु एवंकुलपुरोहित शुक्राचार्य ने इस प्रकार सलाह दी तो वे कुछ समय तक चुप रहे और फिर पूर्णविचार-विमर्श के बाद अपने गुरु से इस प्रकार बोले |
श्रीबलिरुवाचसत्यं भगवता प्रोक्त धर्मोड्यं गृहमेधिनाम् |
अर्थ काम यशो वृत्ति यो न बाधेत कहिंचित् ॥
२॥
श्री-बलिः उवाच--बलि महाराज ने कहा; सत्यम्ू--सत्य है; भगवता--आपके द्वारा; प्रोक्तम्ू--कहा गया; धर्म:--धर्म;अयम्--यह; गृहमेधिनाम्--विशेष रूप से गृहस्थों के लिए; अर्थम्--आर्थिक विकास; कामम्--इन्द्रियतृप्ति; यशः वृत्तिम्--यश एवं जीविका का साधन; यः--जो धर्म; न--नहीं; बाधेत--बाधा पहुँचाता है; कर्हिचित्--किसी समय |
बलि महाराज ने कहा : जैसा कि आप कह चुके हैं, जो धर्म किसी के आर्थिक विकास,इन्द्रियतृप्ति, यश तथा जीविका के साधन में बाधक नहीं होता वही गृहस्थ का असली धर्म है |
मैंभी सोचता हूँ कि यही धर्म सही है |
स चाहं वित्तलोभेन प्रत्याचक्षे कथ॑ं द्विजम् |
प्रतिश्रुत्य ददामीति प्राह्मादि: कितवो यथा ॥
३॥
सः--वह पुरुष; च-- भी; अहम्--मैं हूँ; वित्त-लोभेन-- धन के लालच से; प्रत्याचक्षे--मैं धोखा दूँ या हाँ कहकर अब नाकरूँ; कथम्--कैसे; द्विजम्ू--ब्राह्मण को; प्रतिश्रुत्य--पहले ही वचन दे चुकने पर; ददामि--कि मैं दूँगा; इति--इस प्रकार;प्राह्मादिः--मैं जो महाराज प्रह्माद के पौत्र के रूप में प्रसिद्ध हूँ; कितवः--सामान्य ठग; यथा--जिस तरह |
मैं महाराज प्रह्माद का पौत्र हूँ |
जब मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं यह भूमि दान में दूँगा तोफिर धन के लालच से मैं अपने वचन से किस तरह विचलित हो सकता हूँ? मैं किस तरह एकसामान्य वज्ञक का आचरण कर सकता हूँ और वह भी एक ब्राह्मण के प्रति? न हासत्यात्परो धर्म इति होवाच भूरियम् |
सर्व सोढुमलं मन््ये ऋतेडलीकपरं नरम् ॥
४॥
न--नहीं; हि--निस्सन्देह; असत्यात्--असत्य से; पर:--बढ़कर; अधर्म: --अधर्म; इति--इस प्रकार; ह उवाच--सचमुच कहाहै; भूः--माता पृथ्वी ने; इयम्--यह; सर्वम्--सर्वस्व; सोढुमू--सहन करने के लिए; अलम्--मैं समर्थ हूँ; मन्ये-- यद्यपि मैंमानता हूँ; ऋते--के अतिरिक्त, सिवाय; अलीक-परम्--अत्यन्त जघन्य झूठा; नरमू--मनुष्य |
असत्य से बढ़कर पापमय कुछ भी नहीं है |
इसी कारण से एक बार माता पृथ्वी ने कहा था,’मैं किसी भी भारी बोझ को सहन कर सकती हूँ, किसी झूठे व्यक्ति को नहीं |
नाहं बिभेमि निरयान्नाधन्यादसुखार्णवात् |
न स्थानच्यवनान्मृत्योर्यथा विप्रप्रलम्भनात् ॥
५॥
न--न तो; अहम्--मैं; बिभेमि--डरता हूँ; निरयात्ू--नारकीय अवस्था से; न--न तो; अधन्यात्--गरीबी की अवस्था से;असुख-अर्णवात्--दुख रूपी समुद्र से; न--नहीं; स्थान-च्यवनात्--पदच्युत होने से; मृत्यो: --मृत्यु से; यथा--जिस तरह;विप्र-प्रलम्भनात्--ब्राह्मण को ठगने से |
मैं नरक, दरिद्रता, दुख रूपी सुमद्र, पदच्युत होने या साक्षात् मृत्यु से उतना नहीं डरताजितना कि एक ब्राह्मण को ठगने से डरता हूँ |
यद्यद्धास्यति लोकेउस्मिन्सम्परेतं धनादिकम् |
तस्य त्यागे निमित्तं किं विप्रस्तुष्येन्न तेन चेत् ॥
६॥
यत् यत्--जो कुछ भी; हास्यति--छोड़ेगा; लोके--संसार में; अस्मिन्--इस; सम्परेतम्--पहले से मृत; धन-आदिकम्--उसका धनधान्य; तस्य--ऐसी सम्पत्ति के; त्यागे--त्याग में; निमित्तम्-हेतु; किम्ू--क्या है; विप्र: --ब्राह्मण जो गुप्त रूप मेंभगवान् विष्णु है; तुष्येत्-- प्रसन्न किया जाना चाहिए; न--नहीं है; तेन--ऐसे धन से; चेतू--काश
हे प्रभ!! आप यह भी देख सकते हैं कि इस संसार का सारा भौतिक ऐश्वर्य उसके स्वामी कीमृत्यु के समय निश्चित रूप से विलग हो जाता है |
अतएवं यदि ब्राह्मण वामनदेव दिये गयेउपहारों ( दान ) से तुष्ट नहीं होते तो क्यों न उन्हें उस धन से तुष्ट कर लिया जाये जो मृत्यु के समयचला जाने वाला है? श्रेय: कुर्वन्ति भूतानां साधवो दुस्त्यजासुभि: |
दध्यड्शिबिप्रभूतयः को विकल्पो धरादिषु ॥
७॥
श्रेयः:--अत्यधिक महत्त्व के कार्यकलाप; कुर्वन्ति--करते हैं; भूतानामू--जन सामान्य के; साधव:--सन्त पुरुष; दुस्त्यज--जिनका त्याग पाना कठिन है; असुभिः--अपने प्राणों के द्वारा; दध्यड---महाराज दधीचि; शिबि--महाराज शिब्रि; प्रभूतयः--तथा अन्य महापुरुष; कः--क्या; विकल्प:--सोच-विचार; धरा-आदिषु--ब्राह्मण को भूमि देने में |
दधीचि, शिवि तथा अन्य अनेक महापुरुष जनसाधारण के लाभ हेतु अपने प्राणों तक कीआहुति देने के इच्छुक थे |
इतिहास इसका साक्षी है |
तो फिर इस नगण्य भूमि को क्यों न त्यागदिया जाये ? इसके लिए गम्भीर सोच विचार कैसा ? यैरियं बुभुजे ब्रहान्दैत्येन्द्रैनिवर्तिभि: |
तेषां कालोग्रसील्लोकान्न यशोउधिगतं भुवि ॥
८॥
यैः--जिनके द्वारा; इयमू--यह जगत; बुभुजे-- भोग किया गया; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण- श्रेष्ठ; दैत्य-इन्द्रै:-- असुर कुलों में उत्पन्नशूरवीरों तथा राजाओं द्वारा; अनिवर्तिभि:--उनके द्वारा जो लड़कर मरने या विजयी होने के लिए हृढ़संकल्प थे; तेषामू--ऐसेव्यक्तियों का; काल:--काल ने; अग्रसीत्ू--हर लिया; लोकान्--सारी सम्पत्ति, भोग की सारी वस्तुओं को; न--नहीं; यश: --यश; अधिगतम्ू--प्राप्त किया; भुवि--इस जगत में
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! निस्सन्देह, उन महान् असुर राजाओं ने इस संसार का भोग किया है, जो युद्धकरने से कभी भी हिचकिचाते नहीं थे, किन्तु कालान्तर में उनकी कीर्ति के अतिरिक्त उनके पासकी हर वस्तु छीन ली गई और वे उसी कीर्ति के बल पर आज भी विद्यमान हैं |
दूसरे शब्दों में,मनुष्य को चाहिए कि सब कुछ छोड़कर सुयश अर्जित करने का प्रयास करे |
सुलभा युधि विप्रषें ह्मनिवृत्तास्तनुत्यज: |
न तथा तीर्थ आयाते श्रद्धया ये धनत्यज: ॥
९॥
सु-लभा:--सहज ही प्राप्त; युधि--युद्धभूमि में; विप्र-ऋषे--हे ब्राह्मण श्रेष्ठ; हि--निस्सन्देह; अनिवृत्ता:--लड़ने से न डरकर;तनु-त्यज:--इस प्रकार अपना जीवन होम दिया; न--नहीं; तथा--उसी तरह; तीर्थे आयाते--सन्त पुरुषों के आगमन पर,जिनसे तीर्थस्थल बनते हैं; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक; ये--जो; धन-त्यज:--संचित धन को त्याग सकते हैं |
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ) ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने युद्ध से न डरकर युद्धभूमि में अपने प्राणों कीबलि दे दी है, किन्तु ऐसा अवसर किसी को विरले ही मिला है जब किसी मनुष्य ने अपनासंचित धन किसी ऐसे साधु पुरुष को निष्ठापूर्वक दान दिया हो जो तीर्थस्थल को जन्म देता है |
मनस्विनः कारुणिकस्य शोभनंयदर्थिकामोपनयेन दुर्गतिः |
कुतः पुनर्ब्रह्मविदां भवाहशांततो वटोरस्य ददामि वाउ्छतम् ॥
१०॥
मनस्विन:ः --अ त्यन्त उदार; कारुणिकस्य--अत्यन्त कृपालु पुरुषों का; शोभनम्--अत्यन्त शुभ; यत्--जो; अर्थि-- धन के लिएजरूरतमन्द व्यक्तियों का; काम-उपनयेन-- इच्छा पूर्ति द्वारा; दुर्गतिः--दरिद्रता का मारा; कुतः--क्या; पुन:ः--फिर; ब्रह्म-विदाम्--ब्रह्मविद्या में पटु पुरुषों का; भवाहशाम्ू--आप जैसे; ततः--अतएव; वटो: --ब्रह्मचारी का; अस्य--इस वामनदेव;ददामि--दूँगा; वाज्छितम्ू--वह जो भी चाहता है |
दान देने से उदार तथा दयालु व्यक्ति निस्सन्देह और अधिक शुभ बन जाता है, विशेषतयाजब वह आप जैसे व्यक्ति को दान देता है |
ऐसी परिस्थिति में मुझे इस लघु ब्रह्मचारी को उसकामुँहमाँगा दान देना चाहिए |
यजन्ति यज्ञ क्रतुभिर्यमाहताभवन्त आम्नायविधानकोविदा: |
स एव विष्णुर्वरदोस्तु वा परोदास्याम्यमुष्मै क्षितिमीप्सितां मुने ॥
११॥
यजन्ति-- पूजा करते हैं; यज्ञम्--यज्ञभोक्ता; क्रतुभि:--यज्ञ की विविध सामग्रियों द्वारा; यमू--परम पुरुष को; आहता: --अत्यन्त आदरपूर्वक; भवन्त:--आप सभी; आम्नाय-विधान-कोविदा:--यज्ञ सम्पन्न करने के वैदिक नियमों से पूर्णतया ज्ञातमहान् सन्त पुरुष; सः--वह; एव--निस्सन्देह; विष्णु: -- भगवान् विष्णु है; वरद:ः--या तो वह आशीर्वाद देने के लिए तैयार है;अस्तु--हो जाता है; वा--अथवा; पर: --शत्रु रूप में आता है; दास्यामि--दूँगा; अमुष्मै--उसको ( विष्णु या वामनदेव को );क्षितिमू-- भूमि; ईप्सितामू-- अभीष्ट; मुने--हे मुनि
हे महामुनि! आप जैसे सन्त महापुरुष जो कर्मकाण्ड तथा यज्ञ सम्पन्न करने के वैदिकसिद्धान्तों से पूर्णतया ज्ञात हैं सभी परिस्थितियों में भगवान् विष्णु की आराधना करते हैं |
अतएववही भगवान् विष्णु यहाँ चाहे मुझे वरदान देने के लिए आये हों या शत्रु के रूप में मुझे दण्ड देनेआये हों, मेरा कर्तव्य है कि मैं उनके आदेश का पालन करूँ और बिना हिचक के उनके द्वारामाँगी गई भूमि उन्हें दूँ |
यद्यप्यसावधर्मेण मां बध्नीयादनागसम् |
तथाप्येनं न हिंसिष्ये भीतं ब्रह्मतनुं रिपुम् ॥
१२॥
यद्यपि--यद्यपि; असौ-- भगवान् विष्णु; अधर्मेण--छल से; माम्--मुझको; बध्नीयात्--मारते हैं; अनागसम्--यद्यपि मैं पापीनहीं हूँ; तथापि--फिर भी; एनम्--उनके विरुद्ध; न--नहीं; हिंसिष्ये--बदला लूँगा; भीतम्--क्योंकि वे भयभीत हैं; ब्रह्म-तनुम्--ब्राह्मण ब्रह्मचारी का वेश धारण करके; रिपुम्-भले ही वे मेरे शत्रु हों
यद्यपि वे साक्षात् विष्णु हैं, किन्तु भयवश उन्होंने मेरे पास भिक्षा माँगने आने के लिएब्राह्मण का वेश धारण कर रखा है |
ऐसी परिस्थिति में जब उन्होंने ब्राह्यण रूप धारण कर रखाहै, तो वे चाहे अधर्म द्वारा मुझे बन्दी बनाते हैं या मेरा वध भी कर देते हैं तब भी मैं उनसे बदलानहीं लूँगा यद्यपि वे मेरे शत्रु हैं |
एष वा उत्तमएलोको न जिहासति यद्य॒श: |
हत्वा मैनां हरेद्युद्धे शयीत निहतो मया ॥
१३॥
एप: --यह ( ब्रह्मचारी ); वा--अथवा; उत्तम-श्लोक:-- भगवान् विष्णु जिनकी पूजा वैदिक स्तुतियों से की जाती है; न--नहीं;जिहासति--त्यागना चाहता है; यत्--क्योंकि; यश: --यश; हत्वा--मारकर; मा--मुझको; एनाम्--इस भूमि; हरेत्--ले लेगा;युद्धे--युद्ध में; शयीत--लेट जायेगा; निहतः--मारा जाकर; मया--मेरे द्वारा
यदि यह ब्राह्मण वास्तव में भगवान् विष्णु है, जिसकी पूजा वैदिक स्तुतियों द्वारा की जातीहै, तो वह अपने सर्वव्यापक यश को कभी नहीं छोड़ेगा; वह या तो मेरे द्वारा मारा जाकर लेटजायेगा या युद्ध में मेरा वध कर देगा |
श्रांशुक उबाचएवमश्रद्धितं शिष्यमनादेशकरं गुरु: |
शशाप दैवप्रहितः सत्यसन्धं मनस्विनम् ॥
१४॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; अश्रद्धितम्-गुरु के आदेश का आदर न करने वाले;शिष्यम्ू-शिष्य को; अनादेश-करम्--जो अपने गुरु के आदेश का पालन करने को तैयार न था; गुरु:--गुरु ( शुक्राचार्य ) ने;शशाप--शाप दिया; दैव-प्रहितः -- भगवान् से प्रेरित होकर; सत्य-सन्धम्--जो सत्य पर अडिग थे; मनस्विनम्--जिसका चरित्रअत्युच्च था, सच्चरित्र |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : तत्पश्चात् भगवान् से प्रेरित होकर गुरु शुक्राचार्य नेअपने उच्च शिष्य बलि महाराज को शाप दे दिया जो इतने उदार एवं सत्यनिष्ठ थे कि अपने गुरुके आदेशों को मानने की बजाये उनकी आज्ञा का उल्लघंन करना चाह रहे थे |
हढं पण्डितमान्यज्ञः स्तब्धोस्यस्मदुपेक्षया |
मच्छासनातिगो यस्त्वमचिरादभ्रश्यसे अ्रियः ॥
१५॥
हढम्--तुम अपने निर्णय में इतने हढ़ हो; पण्डित-मानी--अपने को अत्यधिक विद्वान मानने वाले; अज्ञ:--मूर्ख; स्तब्ध:--धुृष्ट,उद्धत; असि--हो गये हो; अस्मत्--हम सबकी; उपेक्षया--उपेक्षा करके; मत्-शासन-अतिग: --मेरे शासन की सीमा काअतिक्रमण करते हुए; यः--ऐसा व्यक्ति ( जैसे तुम ); त्वम्--तुम; अचिरातू--शीघ्र ही; भ्रश्यसे--नीचे गिर जाओगे; थ्रिय:--सारे ऐश्वर्य से |
यद्यपि तुम्हें कोई ज्ञान नहीं है फिर भी तुम तथाकथित विद्वान पुरुष बन गये हो; और इतनेधृष्ट होकर तुम मेरे आदेश का उल्लंघन करने का दुस्साहस कर रहे हो |
मेरी आज्ञा का उल्लंघनकरने के कारण तुम शीघ्र ही सारे ऐश्वर्य से विहीन हो जाओगे |
एवं शप्तः स्वगुरुणा सत्यान्न चलितो महान् |
वामनाय ददावेनामर्चित्वोदकपूर्वकम् ॥
१६॥
एवम्--इस प्रकार से; शप्त:--शापित होकर; स्व-गुरुणा -- अपने ही गुरु द्वारा; सत्यात्ू--सत्य से; न--नहीं; चलित:--चलायमान; महान्--महापुरुष; वामनाय--वामनदेव को; ददौ--दान में दे दिया; एनाम्--सारी भूमि; अर्चित्वा--पूजा करके;उदक-पूर्वकम्--पहले जल अर्पित करके
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : अपने गुरु द्वारा इस प्रकार शापित होने पर भी महापुरुषहोने के नाते बलि महाराज अपने संकल्प से टले नहीं |
अतएव प्रथा के अनुसार उन्होंने सर्वप्रथमवामनदेव को जल अर्पित किया और तब उन्हें वह भूमि भेंट की जिसके लिए वे वचन दे चुकेथे |
विन्ध्यावलिस्तदागत्य पत्नी जालकमालिनी |
आनिन्ये कलशं हैममवनेजन्यपां भूतम् ॥
१७॥
विन्ध्यावलि:--विन्ध्यावलि; तदा--उस समय; आगत्य--वहाँ आकर; पत्ती--महाराज बलि की पत्नी; जालक-मालिनी--मोतियों की माला से सुसज्जित; आनिन्ये--ले आईं; कलशम्--जलपात्र; हैमम्--सोने का; अवनेजनि-अपाम्-- भगवान् केचरण धोने के लिए जल से युक्त; भूतम्-- भरा हुआ
बलि महाराज की पतली विध्यावलि जो गले में मोतियों की माला पहने थीं वहाँ पर तुरन्तआईं और भगवान् के चरणकमलों को धोकर उनकी पूजा करने के निमित्त अपने साथ पानी सेभरा सोने का एक बड़ा जलपात्र लेती आईं |
यजमान: स्वयं तस्य श्रीमत्पादयुगं मुदा |
अवनिज्यावहन्मूर्धिन तदपो विश्वपावनी: ॥
१८॥
यजमान:--पूजा करने वाला ( बलि महाराज ); स्वयम्--स्वयम्; तस्थ--वामनदेव के; श्रीमत् पाद-युगम्--शुभ एवं सुन्दरचरणकमल युगुल; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; अवनिज्य--ठीक से धोकर; अवहत्--चढ़ाया; मूर्ध्नि--सिर पर; तत्--वह; अपः--जल; विश्व-पावनी:--सारे संसार को मुक्ति देने वाला |
वामनदेव की पूजा करने वाले बलि महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक भगवान् के चरणकमलों कोधोया; फिर उस जल को अपने सिर पर चढ़ाया क्योंकि वह जल सम्पूर्ण विश्व का उद्धार करताहै |
तदासुरेन्द्रं दिवि देवतागणागन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणा: |
तत्कर्म सर्वेषपि गृणन्त आर्जवंप्रसूनवर्ष्ववृषुर्मुदान्विता: ॥
१९॥
तदा--उस समय; असुर-इन्द्रमू--असुरों के राजा बलि महाराज को; दिवि--स्वर्गलोक में; देवता-गणा:--देवता लोग;गन्धर्व--गन्धर्वगण; विद्याधर--विद्याधर; सिद्ध--सिद्धलोक के वासी; चारणा:--चारण लोक के वासी; तत्--उस; कर्म --काम; सर्वे अपि--सारे के सारे; गृणन्त:--घोषित करते हुए; आर्जवम्--सरल; प्रसून-वर्षै:--फूलों की वर्षा से; बवृषु:--वर्षाकी; मुदा-अन्विता: --उससे परम प्रसन्न होकर |
उस समय स्वंगलोक के निवासी--यथा देवता, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध तथा चारणसभी--बलि महाराज के इस सरल द्वैतरहित कार्य से परम प्रसन्न हुए और उन्होंने उनके गुणों कीप्रशंसा की तथा उन पर लाखों फूल बरसाये |
नेदुर्मुहरर्दुन्दुभयः सहस्त्रशोगन्धर्वकिम्पूरुषकिन्नरा जगुः |
मनस्विनानेन कृतं सुदुष्करंविद्वानदाद्यद्रिपवे जगत्त्रयम् ॥
२०॥
नेदु:--बजने लगीं; मुहुः--पुनः पुनः; दुन्दुभय: --दुन्दुभियाँ; सहस्नरश:--हजारों; गन्धर्व--गन्धर्वलोक के वासी; किम्पूरूुष--किम्पुरुष लोक के वासी; किन्नरा:--किन्नर लोक के वासी; जगु:--गाने लगे; मनस्विना--अत्यन्त पूज्य व्यक्ति के द्वारा;अनेन--बलि महाराज द्वारा; कृतम्--किया गया; सु-दुष्करम्--अत्यन्त कठिन कार्य; विद्वानू--विद्वान होने के कारण;अदातू--दान दिया; यत्--जो; रिपवे--शत्रु को, बलि महाराज के शत्रु देवताओं का पक्ष लेने वाले विष्णु को; जगत्-त्रयम्--तीनों लोक |
गन्धर्वों, किम्पुरुषों तथा किन्नरों ने पुनः पुनः हजारों दुन्दुभियाँ बजाईं और परम प्रसन्न होकरगाना शुरू किया, '‘बलि महाराज कितने महान् पुरुष हैं और उन्होंने कितना कठिन कार्य सम्पन्नकिया है |
यद्यपि वे जानते थे कि भगवान् विष्णु उनके शत्रुओं के पक्ष में हैं, तो भी उन्होंनेभगवान् को दान में सम्पूर्ण तीनों लोक दे दिये |
'तद्वामनं रूपमवर्धताद्भुतंहरेरनन्तस्य गुणत्रयात्मकम् |
भू: खं दिशो द्यौर्विवरा: पयोधय-स्तिर्यडनूदेवा ऋषयो यदासत ॥
२१॥
तत्--वह; वामनम्-- भगवान् वामन का अवतार; रूपम्--रूप; अवर्धत--बढ़ने लगा; अद्भुतम्-- आश्चर्यजनक; हरे:--भगवान् का; अनन्तस्य--अनन्त का; गुण-त्रय-आत्मकम्--जिनका शरीर तीन गुणों से युक्त भौतिक शक्ति द्वारा विस्तारित है;भू:-- भूमि; खमू-- आकाश; दिशः--सभी दिशाएँ; द्यौ:--लोक ; विवरा:--ब्रह्माण्ड के विभिन्न छिद्र; पयोधय:--महान्सागर; तिर्यक्ू--निम्न पशु, पक्षी; नृ--मनुष्य; देवा:--देवता; ऋषय:--ऋषिगण; यत्--जिसमें; आसत--निवास करते थे |
तब अनन्त भगवान्, जिन्होंने वामन का रूप धारण कर रखा था, भौतिक शक्ति की दृष्टि सेआकार में बढ़ने लगे यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड की सारी वस्तुएँ जिनमें पृथ्वी, अन्य लोक, आकाश,दिशाएँ, ब्रह्माण्ड के विभिन्न छिद्र, समुद्र, पक्षी, पशु, मनुष्य, देवता तथा ऋषिगण सम्मिलित थे,उनके शरीर के भीतर समा गये |
काये बलिस्तस्य महाविभूते:सहर्खिगाचार्यसदस्य एतत् |
ददर्श विश्व त्रिगुणं गुणात्मकेभूतेन्द्रियार्थाशयजीवयुक्तम् ॥
२२॥
काये--शरीर में; बलि:--महाराज बलि; तस्य-- भगवान् का; महा-विभूते:--समस्त अद्भुत ऐश्वर्यों से युक्त पुरुष का; सह-ऋत्विक्-आचार्य-सदस्यः--समस्त पुरोहितों, आचार्यों तथा उस पवित्र सभा के सदस्यों सहित; एतत्--यह; ददर्श--देखा;विश्वम्--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; त्रि-गुणम्--तीन गुणों वाले; गुण-आत्मके--ऐसे समस्त गुणों के स्त्रोत में; भूत-- भौतिक तत्त्वोंसमेत; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अर्थ--इन्द्रिय-विषयों सहित; आशय--मन, बुद्धि तथा अहंकार सहित; जीव-युक्तम्--समस्त जीवोंके सहित |
बलि महाराज ने अपने समस्त पुरोहितों, आचार्यों तथा सभा के सदस्यों सहित भगवान् केविश्वरूप को देखा जो षड्ऐश्वर्यों से युक्त था |
उस शरीर में ब्रह्माण्ड की सारी वस्तुएँ विद्यमानथीं--सारे भौतिक तत्त्व, इन्द्रियाँ, इन्द्रिय-विषय, मन, बुद्द्धि, अहंकार, विविध जीव तथा प्रकृतिके तीनों गुणों के कर्म तथा उनके फल |
रसामचष्टाड्प्रितलेथ पादयो-म॑हीं महीक्रान्पुरुषस्य जड्डयो: |
पतत्रत्रिणो जानुनि विश्वमूर्ते-रूवोर्गणं मारुतमिन्द्रसेन: ॥
२३॥
रसामू--अधोलोक; अचष्ट--देखा; अड्प्रि-तले--पाँव के नीचे, तलवे के नीचे; अथ--तत्पश्चात्; पादयो:--पाँवों पर;महीम्-- भूमि को; महीक्रान्--पर्वतों को; पुरुषस्य--विराट पुरुष की; जड्डयो:--पिंडलियों में; पतत्त्रिण:--उड़ने वाले जीव;जानुनि--घुटनों पर; विश्व-मूर्तें:--विराट भगवान् के रूप का; ऊर्वो:--जाँघों पर; गणम् मारुतम्ू--वायु के प्रकार; इन्द्रसेन:--बलि महाराज जिसे इन्द्र के सिपाही मिल गये थे और जो इन्द्र पद पर आसीन थे
तत्पश्चात् राजा इन्द्र के आसन पर आसीन बलि महाराज ने अधोलोकों को, यथा रसातलको, भगवान् के विराट रूप के पाँव के तलवों पर देखा |
उन्होंने भगवान् के पाँवों पर पृथ्वी को,पिंडलियों पर सारे पर्वतों को, घुटनों पर विविध पक्षियों को तथा जाँघों पर वायु के विभिन्नप्रकारों ( मरुदगण ) को देखा |
सन्ध्यां विभोर्वाससि गुह्य ऐक्षत्प्रजापतीज्घने आत्ममुख्यान् |
नाभ्यां नभः कुक्षिषु सप्तसिन्धू-नुरुक्रमस्योरसि चर्क्षमालाम् ॥
२४॥
सन्ध्यामू--शाम; विभो: --पर मे श्वर के ; वाससि--वस्त्र में; गुह्ो --गुप्तांगों में; ऐश्वत्--उसने देखा; प्रजापतीन्ू--विभिन्नप्रजापतियों को, जिन्होंने सारे जीवों को जन्म दिया; जघने--कूल्हों पर; आत्म-मुख्यान्ू--बलि महाराज के विश्वस्त मंत्रियों;नाभ्यामू--नाभि पर; नभ:--पूरा आकाश; कुक्षिषु--कमर में; सप्त--सात; सिन्धून्--समुद्रों के; उरुक्रमस्थ-- भगवान् के जोअदभुत कार्य कर रहे थे; उरसि--वक्षस्थल पर; च-- भी; ऋक्ष-मालाम्--तारों का समूह |
बलि महाराज ने अद्भुत कार्य करने वाले भगवान् के बस्त्रों के नीचे संध्या देखी, उनकेगुप्तांगों में प्रजापतियों को देखा और उनके कटि प्रदेश के गोल भाग में उन्होंने अपने को तथाअपने विश्वस्त पार्षदों को देखा |
उन्होंने भगवान् की नाभि में आकाश, कमर में सातों समुद्र तथाउनके वक्षस्थल में तारों के सारे समूह देखे |
हद्यड़ धर्म स्तनयोर्मुरारे-ऋत॑ च सत्यं च मनस्यथेन्दुम् |
श्रियं च वक्षस्यरविन्दहस्तांकण्ठे च सामानि समस्तरेफान् ॥
२५॥
इन्द्रप्रधानानमरान्भुजेषुतत्कर्णयो: ककुभो द्यौश्व मूर्धि |
केशेषु मेघाउ्छुसनं नासिकाया-मक्ष्णोश्व सूर्य वबदने च वह्विमू ॥
२६॥
वाण्यां च छन्दांसि रसे जलेशंभ्रुवोर्निषेधं च विधि च पक्ष्मसु |
अहृश्न रात्रिं च परस्य पुंसोमन्युं ललाटेउधर एवं लोभम् ॥
२७॥
स्पर्शे च काम नृप रेतसाम्भ:पृष्ठे त्वधर्म क्रमणेषु यज्ञम् |
छायासु मृत्युं हसिते च मायांतनूरुहेष्वोषधिजातयश्व ॥
२८॥
नदीश्व नाडीषु शिला नखेषुबुद्धावजं देवगणानृषीं श्व |
प्राणेषु गात्रे स्थिरजड्रमानिसर्वाणि भूतानि ददर्श वीर: ॥
२९॥
हृदि--हृदय के भीतर; अड्ु--हे राजा परीक्षित; धर्मम्-धर्म के; स्तनयो: --स्तनों पर; मुरारे:--मुरारि के; ऋतम्--अत्यन्त मधुरशब्द; च-- भी; सत्यम्--सत्य को; च-- भी; मनसि--मन में; अथ--तत्पश्चात्; इन्दुमू--चन्द्रमा को; थ्रियमू--लक्ष्मी को;च--भी; वक्षसि--छाती पर; अरविन्द-हस्ताम्--अपने हाथ में सदैव कमल धारण करने वाली; कण्ठे--गले में; च-- भी;सामानि--सारे वेद ( साम, यजुर्, ऋक् तथा अथर्व ); समस्त-रेफान्--सारी ध्वनियों को; इन्द्र-प्रधानान्ू--इन्द्र आदि को;अमरान्--सारे देवताओं को; भुजेषु--भुजाओं पर; तत्-कर्णयो: --कानों पर; ककुभः--सारी दिशाएँ; द्यौ: च--तथाज्योतिष्क; मूर्ध्ति--सिर के ऊपर; केशेषु--बालों में; मेघान्ू--बादलों को; श्रसनम्-- ध्वास; नासिकायाम्--नथुनों पर; अक्ष्णो:च--आँखों में; सूर्यम्--सूर्य को; वदने--मुख में; च-- भी; वहिम्--आग को; वाण्याम्--वाणी में; च-- भी; छन्दांसि--वैदिक स्तुतियाँ; रसे--जीभ में; जल-ईशम्--जल के देवता को; श्रुवो:--भौंहों पर; निषेधम्--चेतावनी; च-- भी; विधिम्--विधि-विधान; च-- भी; पक्ष्मसु--पलकों में; अह: च--दिन; रात्रिमू--रात; च--भी; परस्थ--परम; पुंसः--पुरुष का;मन्युमू--क्रोध को; ललाटे--मस्तक पर; अधरे--होठों पर; एब--निस्सन्देह; लोभम्--लालच; स्पर्शे--स्पर्श में; च-- भी;कामम्--कामेच्छाएँ; नृप--हे राजा; रेतसा--वीर्य से; अम्भ: --जल; पृष्ठे--पीठ पर; तु--लेकिन; अधर्मम्--अधर्म को;क्रमणेषु-- अद्भुत कार्यो में; यज्ञममू--अग्नि यज्ञ को; छायासु--छाया में; मृत्युम्--मृत्यु को; हसिते--हँसी में; च-- भी;मायाम्--माया को; तनू-रुहेषु--शरीर के बालों प;; ओषधि-जातय: --ओषधियों की सारी किसमें; च--तथा; नदी: --नदियोंको; च--भी; नाडीषु--नाड़ियों में; शिला:--चट्टानें; नखेषु--नाखूनों में; बुद्धौ--बुद्धि में; अजम्--ब्रह्मा को; देव-गणान्--देवताओं को; ऋषीन् च--तथा ऋषियों को; प्राणेषु--इन्द्रियों में; गात्रे--शरीर में; स्थिर-जड्रमानि--जड़ तथा चेतन को;सर्वाणि--सारे; भूतानि--जीवों को; ददर्श--देखा; बीर:--बलि महाराज ने |
हे राजा! उन्होंने भगवान् मुरारि के हृदय में धर्म, वक्षस्थल पर मधुर शब्द तथा सत्य, मन मेंचन्द्रमा, वक्षस्थल पर हाथ में कमल पुष्प लिए लक्ष्मीजी, गले में सारे वेद तथा सारी शब्दध्वनियां, बाहुओं में इन्द्र इत्यादि सारे देवता, दोनों कानों में सारी दिशाएँ, सिर पर उच्चलोक,बालों में बादल, नथुनों में वायु, आँखों में सूर्य और मुख में अग्नि को देखा |
उनके शब्दों से सारेवैदिक मंत्र निकल रहे थे, उनकी जीभ पर जलदेवता वरुणदेव थे, उनकी भौहों पर विधि-विधान तथा उनकी पलकों पर दिन-रात थे ( आँखें खुली रहने पर दिन और बन्द होने पर रात्रि ) |
उनके मस्तक पर क्रोध और उनके होठों पर लालच था |
हे राजा! उनके स्पर्श में कामेच्छाएँ,उनके वीर्य में सारे जल, उनकी पीठ पर अधर्म, उनके अद्भुत कार्यों या पगों में यज्ञ की अग्निथी |
उनकी छाया में मृत्यु, उनकी मुस्कान में माया थी और उनके शरीर के सारे बालों परओषधियाँ तथा लताएँ थीं |
उनकी नाड़ियों में सारी नदियाँ, उनके नाखूनों में सारे पत्थर, उनकीबुद्धि में ब्रह्माजी, देवता तथा महान् ऋषिगण और उनके सारे शरीर तथा इन्द्रियों में सारे जड़तथा चेतन जीव थे |
इस प्रकार बलि महाराज ने भगवान् के विराट शरीर में प्रत्येक वस्तु कोदेखा |
सर्वात्मनीदं भुवनं निरीक्ष्यसर्वेड्सुरा: कश्मलमापुरड्र |
सुदर्शन चक्रमसह्मतेजोधनुश्च शार्ड सस््तनयिलुघोषम् ॥
३०॥
सर्व-आत्मनि--परम पूर्ण या भगवान् में; इदम्--यह ब्रह्माण्ड; भुवनम्--तीनों लोक; निरीक्ष्य--देखकर; सर्वे--सभी;असुरा:--असुर, बलि महाराज के पार्षद; कश्मलम्--विलाप; आपु:--प्राप्त किया; अड्भ--हे राजा; सुदर्शनम्--सुदर्शननामक; चक्रमू--चक्र; असहा--न सहा जाने योग्य; तेज:--ताप; धनु: च--तथा धनुष; शार्डम्-शार्ड़ नामक; स्तनयित्नु--घिरे हुए बादलों की ध्वनि; घोषम्--की तरह ध्वनि करती |
हे राजा! जब महाराज बलि के समस्त असुर अनुयायियों ने भगवान् के विराट रूप कोदेखा, जिन्होंने अपने शरीर के भीतर सब कुछ समा लिया था, और जब उन्होंने भगवान् के हाथमें सुदर्शन नामक चक्र को देखा जो असह्य ताप उत्पन्न करता है और जब उन्होंने उनके धनुष कीकोलाहलपूर्ण ध्वनि सुनी तो इन सब के कारण उनके हृदयों में विषाद उत्पन्न हो गया |
पर्जन्यघोषो जलज: पाञ्जजन्यःकौमोदकी विष्णुगदा तरस्विनी |
विद्याधरोसि: शतचन्द्रयुक्त-स्तृणोत्तमावक्षयसायकौ च ॥
३१॥
पर्जन्य-घोष:--बादलों जैसी गर्जन; जलज:ः-- भगवान् का शंख; पाञ्जजन्य:--पाज्जजन्य नामक; कौमोदकी--कौमोदकीनामक; विष्णु-गदा--विष्णु की गदा; तरस्विनी--अत्यन्त वेगवान्; विद्याधर: --विद्याधर नामक; असि:--तलवार; शत-चन्द्र-युक्त:--सैकड़ों चन्द्रमाओं से अलंकृत ढाल; तूण-उत्तमौ-- श्रेष्ठ तरकस; अक्षयसायकौ--अक्षयसायक नामक; च--भीबादल की सी ध्वनि करने वाला भगवान् का पाझ्जजन्य नामक शंख, अत्यन्त वेगवान्कौमोदकी नामक गदा, विद्याधर नामक तलवार, सैकड़ों चन्द्रमा जैसे चिह् से अलंकृत ढालएवं तरकसों में सर्वश्रेष्ठ अक्षयसायक--ये सभी भगवान् की स्तुति करने के लिए एक साथप्रकट हुए |
सुनन्दमुख्या उपतस्थुरीशंपार्षदमुख्या: सहलोकपाला: |
स्फुरत्किरीटाड्ुदमीनकुण्डलःश्रीवत्सरत्नोत्तममेखलाम्बरै: ॥
३२॥
मधुव्रतस्त्रग्वनमालयावृतोरराज राजन्भगवानुरुक्रमः |
क्षितिं पदैकेन बलेविंचक्रमेनभ:ः शरीरेण दिशश्च बाहुभि: ॥
३३॥
सुनन्द-मुख्या: --सुनन्द आदि भगवान् के पार्षद; उपतस्थु:--स्तुति करने लगे; ईशम्-- भगवान् की; पार्षद-मुख्या:--अन्यप्रमुख पार्षद; सह-लोक-पाला:--समस्त लोकों के प्रधान देवों सहित; स्फुरत्ू-किरीट--चमकीले मुकुट सहित; अड्भद--बाजूबन्द; मीन-कुण्डल:--तथा मछली के आकार के कुण्डल; श्रीवत्स--उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स नामक बाल; रत्न-उत्तम-श्रेष्ठ रतन ( कौस्तुभ ); मेखला--पेटी; अम्बरैः--पीत वस्त्र सहित; मधु-वब्रत--भौंरों का; स्रकू--माला; वनमालया--फूलों की माला से; आवृतः --ढका; रराज-- प्रकट; राजन्--हे राजा; भगवान्-- भगवान्; उरुक्रम:-- अपने अद्भुत कार्यों सेप्रत्यक्ष; क्षितिमू--सारे विश्व को; पदा एकेन--एक ही पग से; बले: --बलि महाराज के; विचक्रमे--ढक लिया; नभ:--आकाश; शरीरेण--अपने शरीर से; दिशः च--तथा सारी दिशाएँ; बाहुभि:--अपनी भुजाओं से
सुनन्द तथा अन्य प्रमुख पार्षदों के साथ-साथ विभिन्न लोकों के प्रधान देवों ने भगवान् कीस्तुति की जो चमकीला मुकुट, बाजूबन्द तथा चमकदार मकराकृत कुण्डल पहने हुए थे |
भगवान् के वक्षस्थल पर श्रीवत्स नामक बालों का गुच्छा और दिव्य कौस्तुभ मणि थे |
वे'पीतवस्त्र पहने थे जिसके ऊपर कमर की पेटी बंधी थी |
वे फूलों की माला से सज्जित थे जिसकेचारों ओर भौरे मँडरा रहे थे |
हे राजा! इस प्रकार अपने आपको प्रकट करते हुए अद्भुतकार्यकलापों वाले भगवान् ने अपने एक पग से सम्पूर्ण पृथ्वी को, अपने शरीर से आकाश कोऔर अपनी भुजाओं से समस्त दिशाओं को ढक लिया |
पद द्वितीयं क्रमतस्त्रिविष्टपंन वे तृतीयाय तदीयमण्वपि |
उरुक्रमस्याडूप्रिरुपर्युपर्य थोमहर्जनाभ्यां तपस: परं गत: ॥
३४॥
'पदम्--पग; द्वितीयम्ू--दूसरा; क्रमत:ः--आगे बढ़ाकर; त्रि-विष्टपम्--सारा स्वर्गलोक; न--नहीं; वै--निस्सन्देह; तृतीयाय--तीसरे पग के लिए; तदीयम्--भगवान् के; अणु अपि-- भूमि का एक कण भी शेष बचा; उरुक्रमस्थ--असामान्य कार्य करनेवाले भगवान् का; अद्घ्रि:--ऊपर तथा नीचे घेरने वाले पग; उपरि उपरि--ऊपर और उससे भी ऊपर; अथो--अब; महः-जनाभ्याम्ू--महलोंक तथा जनलोक से भी; तपसः--तपोलोक; परम्ू--उससे भी परे; गत:--पहुँच गया |
जब भगवान् ने अपना दूसरा पग भरा तो उसमें सारे स्वर्गलोक आ गये |
अब तीसरे पग केलिए रंचमात्र भी भूमि न बची क्योंकि भगवान् का पग महलोक, जनलोक, तपोलोक, यहाँ तककि सत्यलोक से भी ऊपर तक फैल गया |
अध्याय इक्कीसवाँ: बाली महाराज को भगवान ने गिरफ्तार कर लिया
8.21श्रीशुक उबाचसत्यं समीक्ष्याब्जभवो नखेन्दुभि-ईतस्वधामद्युतिरावृतो भ्यगात् |
मरीचिमिश्रा ऋषयो बृहद्व्वताःसनन्दनाद्या नरदेव योगिन: ॥
१॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सत्यम्--सत्यलोक; समीक्ष्य--देखकर; अब्ज-भव:--कमल से उत्पन्नब्रह्माजी ने; नख-इन्दुभि:ः--नाखूनों के तेज से; हत--क्षीण हुआ; स्व-धाम-द्युतिः--अपने धाम का प्रकाश; आवृत:--आच्छादित; अभ्यगात्--आया; मरीचि-मिश्रा:--मरीचि जैसे मुनियों के साथ; ऋषय:--ऋषिगण; बृहत्ू-ब्रता:--सारे के सारेपरम ब्रह्मचारी; सनन्दन-आद्या:--सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार जैसे; नर-देव--हे राजा; योगिन:--योगी |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब कमलपुष्प से उत्पन्न ब्रह्माजी ने देखा कि उनके धामब्रह्मलोक का तेज भगवान् वामनदेव के अँगूठे के नाखूनों के चमकीले तेज से कम हो गया है,तो वे भगवान् के पास गये |
ब्रह्मजी के साथ मरीचि इत्यादि ऋषि तथा सननन््दन जैसे योगीजनथे, किन्तु हे राजा! उस तेज के समक्ष ब्रह्म तथा उनके पार्षद भी नगण्य प्रतीत हो रहे थे |
वेदोपवेदा नियमा यमान्विता-स्तर्केतिहासाड्रपुराणसंहिता: |
ये चापरे योगसमीरदीपित-ज्ञानाग्निना रन्धितकर्मकल्मषा: ॥
२॥
बवबन्दिरे यत्स्मरणानुभावतःस्वायम्भुवं धाम गता अकर्मकम् |
अथाडख़ये प्रोन्नमिताय विष्णो-रुपाहरत्पद्ठ भवो ईणोदकम् |
समर्च्य भक्त्याभ्यगृणाच्छुचि श्रवायन्नाभिपड्लेरूहसम्भव: स्वयम् ॥
३॥
बेद--चारों वेद ( साम, यजुर, ऋग् तथा अथर्व ), भगवान् द्वारा प्रदत्त मूल ज्ञान; उपवेदा:--पूरक तथा गौण वैदिक ज्ञान यथाआयुर्वेद, धनुर्वेद; नियमा:--विधि-विधान; यम--संयम करने की विधियाँ; अन्विता: --ऐसे मामलों में पटु; तर्क--तर्क;इतिहास--इतिहास; अड्ग--वैदिक शिक्षा; पुराण--पुराण; संहिता:--संहिताएँ यथा ब्रह्म-संहिता, वेदों के पूरक ग्रंथ; ये--अन्य; च--भी; अपरे--ब्रह्मा तथा उनके पार्षदों के अतिरिक्त; योग-समीर-दीपित--योगाभ्यास की वायु से प्रज्वलित; ज्ञान-अग्निना--ज्ञान की आग से; रन्धित-कर्म-कल्मषा: --जिनके लिए कर्म का सारा दूषण रुक चुका है; ववन्दिरे--स्तुति की;यतू-स्मरण-अनुभावत:ः ---जिनका ध्यान मात्र करने से; स्वायम्भुवम्--ब्रह्म जी का; धाम--निवास स्थान; गता:--प्राप्त कियाथा; अकर्मकम्--जो सकाम कर्म से प्राप्त नहीं किया जा सकता; अथ--तत्पश्चात्; अड्घ्रये--चरणकमलों पर; प्रोन्नमिताय--प्रणाम किया; विष्णो: --विष्णु के; उपाहरत्--पूजा की; पद्य-भव:--कमल से उत्पन्न ब्रह्मजी ने; अहण-उदकम्--जल द्वाराअर्घ्य देना; समर्च्य--पूजा करके; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; अभ्यगृणात्--उन्हें प्रसन्न किया; शुचि- भ्रवा:--परम प्रसिद्ध वैदिकविद्वान; यत्-नाभि-पट्लेरुह-सम्भव: स्वयम्--जिनकी नाभि से निकले कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी |
जो महापुरुष भगवान् के चरणकमलों की पूजा के लिए आए उनमें वे भी थे जिन्होंनेआत्मसंयम तथा विधि-विधानों में सिद्धि प्राप्त की थी |
साथ ही वे तर्क, इतिहास, सामान्य शिक्षातथा कल्प नामक ( प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बन्धित ) वैदिक वाड्मय में दक्ष थे |
अन्यलोग ब्रह्म संहिताओं जैसे वैदिक उपविषयों, वेदों के अन्य ज्ञान तथा वेदांगों ( आयुर्वेद, धनुर्वेद,इत्यादि ) में पटु थे |
अन्य ऐसे थे जिन्होंने योगाभ्यास से जागृत दिव्यज्ञान के द्वारा कर्मफलों सेअपने को मुक्त कर लिया था |
कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने सामान्य कर्म से नहीं प्रत्युत उच्च वैदिकज्ञान द्वारा ब्रहलोक में निवासस्थान प्राप्त किया था |
जल तर्पण द्वारा भगवान् के ऊपर उठेचरणकमलों की भक्तिपूर्वक पूजा कर लेने के बाद भगवान् विष्णु की नाभि से निकले कमलसे उत्पन्न ब्रह्माजी ने भगवान् की स्तुति की |
धातु: कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्यपादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र |
स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निर्माष्टिलोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्ति: ॥
४॥
धातु:--ब्रह्मजी का; कमण्डलु-जलम्--कमण्डल का पानी; तत्--वही; उरुक़मस्य-- भगवान् विष्णु का; पाद-अवनेजन-पवित्रतया-- भगवान् विष्णु के चरणकमलों को धोने और इस तरह दिव्य रूप से पवित्र होने से; नर-इन्द्र--हे राजा; स्वर्धुनी--दिव्यलोक की स्वर्धुनी नामक नदी; अभूत्--हो गई; नभसि--बाह्य आकाश में; सा--वह; पतती--नीचे गिरती हुई; निमाष्टि--पवित्र करती; लोक-त्रयम्--तीनों लोकों को; भगवत:-- भगवान् के; विशदा--इतनी पवित्र; इब--मानो; कीर्ति:--यश यायशस्वी कार्यकलाप |
हे राजा! ब्रह्म के कमण्डल से निकला जल अद्भुत कार्यो को करने वाले उरुक्रम भगवान्वामनदेव के चरणकमलों को धोने लगा |
इस प्रकार यह जल इतना शुद्ध हो गया कि यहगंगाजल में परिणत होकर आकाश से नीचे बहता हुआ तीनों लोकों को शुद्ध करने लगा मानोभगवान् का विमल यश हो |
ब्रह्मादयो लोकनाथा: स्वनाथाय समाहता: |
सानुगा बलिमाजहु: सदड्क्षिप्तात्मविभूतये ॥
५॥
ब्रह्य-आदय: -- ब्रह्मा इत्यादि महापुरुष; लोक-नाथा:--विभिन्न लोकों के प्रमुख देवता; स्व-नाथाय--अपने परम स्वामी को;समाहता:--अत्यधिक आदर के साथ; स-अनुगा:--अपने अनुयायियों सहित; बलिम्ू--पूजा की सामग्री; आजह्ु:-- एकत्रकिया; सड्क्षिप्त-आत्म-विभूतये-- भगवान् को
जिन्होंने अपने निजी ऐश्वर्य का विस्तार किया था, किन्तु अब वामन रूप मेंघटा लिया था |
ब्रह्माजी तथा विभिन्न लोकों के समस्त प्रधान देवता अपने उन परम स्वामी भगवान्वामनदेव की पूजा करने लगे जिन्होंने अपने सर्वत्र-व्यापक रूप को छोटा करके अपना आदिरूप ग्रहण कर लिया था |
उन्होंने पूजा की सारी सामग्री एकत्रित की |
तोयैः समर्हणै: स्रश्भिर्दिव्यगन्धानुलेपनै: |
धूपैदीपै: सुरभिभिरलाजाक्षतफलाडुरै: ॥
६॥
स्तवनैर्जयशब्दै श्व तद्वीय॑महिमाड़ितेः |
नृत्यवादित्रगीतैश्न शद्भुदुन्दुभिनि:स्वनै: ॥
७॥
तोयबैः--चरणकमल धोने तथा स्नान के लिए आवश्यक जल से; समर्हणै: -- भगवान् की पूजा के लिए पाद्य, अर्ध्य इत्यादिसामग्री से; स्नग्भिः--फूल की मालाओं से; दिव्य-गन्ध-अनुलेपनै:--चन्दन अगुरु से भगवान् वामनदेव के शरीर पर करने केलिए लेप के द्वारा; धूपैः--धूप के द्वारा; दीपैः--दीपकों के द्वारा; सुरभिभि: --अत्यन्त सुगन्धित; लाज--लावा से; अक्षत--अक्षत द्वारा; फल--फलों से; अह्डुरैः --जड़ों तथा अंकुरों से; स्तवनैः--स्तुतियों से; जय-शब्देः--जयजयकार द्वारा; च-- भी;ततू-वीर्य-महिमा-अड्डितैः--जिससे भगवान् के यशस्वी कार्य सूचित होते हैं; नृत्य-वादित्र-गीतै: च--नाच, संगीत यंत्रो केवबादन तथा गीतगायन से; शद्भु--शंख; दुन्दुभि--दुन्दुभि; निःस्वनै: -- ध्वनि से उन्होंने सुगन्धित पुष्प, जल, पाद्य तथा अर्घ्य, चन्दन तथा अगुरु के लेप, धूप, दीप, लावा,अक्षत, फल, मूल तथा अंकुर से भगवान् की पूजा की |
ऐसा करते समय उन्होंने भगवान् केयशस्वी कार्यों को सूचित करने वाली स्तुतियाँ कीं और जयजयकार किया |
इस तरह भगवान्की पूजा करते हुए उन्होंने नृत्य किया, वाद्ययंत्र बजाये, गाया और शंख और दुन्दुभियां बजाईं |
जाम्बवानृक्षराजस्तु भेरीशब्देर्मनोजव: |
विजय दिश्लु सर्वासु महोत्सवमघोषयत् ॥
८ ॥
जाम्बवान्--जाम्बवान ने; ऋक्ष-राज: तु--रीछों के राजा; भेरी-शब्दै:--बिगुल बजाकर; मन:-जव: --मनमौज में; विजयम्--विजय, जीत; दिक्षु--सारी दिशाओं में; सर्वासु--सर्वत्र; महा-उत्सवम्--महोत्सव; अघोषयत्--घोषित कर दिया |
रीछों के राजा जाम्बवान भी इस उत्सव में सम्मिलित हो गये |
उन्होंने सारी दिशाओं में बिगुलबजाकर भगवान् वामनदेव की विजय का महोत्सव घोषित कर दिया |
महीं सर्वा हतां दृष्ठा त्रिपदव्याजयाच्जया |
ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्यमर्षिता: ॥
९॥
महीम्-पृथ्वी को; सर्वाम--सारी; हताम्--छीनी हुई; दृष्ठा--देखकर; त्रि-पद-व्याज-याच्जया--केवल तीन पग भूमि माँगनेके बहाने; ऊचु:--कहा; स्व-भर्तु:--अपने स्वामी; असुरा:--असुरगण; दीक्षितस्य--यज्ञ के लिए हढ़संकल्प बलि महाराज के;अति--अत्यधिक; अमर्षिता:--यह उत्सव जिनके लिए असहा था |
जब बलि महाराज के असुर अनुयायियों ने देखा कि उनके स्वामी ने जिन्होंने यज्ञ सम्पन्नकरने का संकल्प कर रखा था |
वामनदेव द्वारा तीन पग भूमि माँगे जाने के बहाने सब कुछ गँवादिया है, तो वे अत्यधिक क्रुद्ध हुए और इस प्रकार बोले |
न वायं ब्रह्मबन्धुर्विष्णुर्मायाविनां वर: |
द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्य चिकीर्षति ॥
१०॥
न--नहीं; वा--अथवा; अयम्--यह; ब्रह्म-बन्धु;--ब्राह्मण वेश में वामनदेव; विष्णु:--साक्षात् विष्णु है; मायाविनाम्--सारेठगों में; बर:-- श्रेष्ठ; द्विज-रूप--ब्राह्मण का रूप बनाकर; प्रतिच्छन्न:--ठगने के लिए वेश धारण किये है; देव-कार्यम्--देवताओं के हित के लिए; चिकीर्षति--प्रयत्न कर रहा है
यह वामन निश्चित रूप से ब्राह्मण न होकर ठगराज भगवान् विष्णु है |
उसने ब्राह्मण का रूपधारण करके अपने असली रूप को छिपा लिया है और इस तरह यह देवताओं के हित के लिएकार्य कर रहा है |
अनेन याच्मानेन शत्रुणा वटुरूपिणा |
सर्वस्वं नो हतं भर्तु्न्यस्तदण्डस्य ब्हिषि ॥
११॥
अनेन--इसके द्वारा; याचमानेन--भिखारी के पद को प्राप्त; शत्रुणा --शत्रु के द्वारा; बटु-रूपिणा--ब्रह्मचारी के वेश में;सर्वस्वम्--सर्वस्व; न:ः--हमारे; हतम्--ले लिया गया है; भर्तु:--स्वामी का; न्यस्त--फेंका गया; दण्डस्य--दण्ड देने कीशक्ति का; बर्हिषि--अनुष्ठान का ब्रत लेने के कारण |
हमारे स्वामी बलि महाराज यज्ञ करने की स्थिति में होने के कारण दण्ड देने की अपनीशक्ति त्याग बैठे हैं |
इसका लाभ उठाकर हमारे शाश्वत शत्रु विष्णु ने ब्रह्मचारी भिखारी के वेश मेंउनका सर्वस्व छीन लिया है |
सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः |
नानृतं भाषितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्थ दयावत: ॥
१२॥
सत्य-ब्रतस्य--सत्यसन्ध महाराज बलि का; सततम्--सदैव; दीक्षितस्थ--यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दीक्षित हुए; विशेषतः--विशेष रूप से; न--नहीं; अनृतम्--झूठ, असत्य; भाषितुम्ू--बोलने के लिए; शक्यम्--समर्थ है; ब्रह्मण्यस्थ--ब्राह्मण सभ्यताया ब्राह्मण का; दया-वतः--दयावान्
हमारे स्वामी बलि महाराज सदैव सत्य पर हढ़ रहते हैं और इस समय तो विशेष रूप सेक्योंकि उन्हें यज्ञ करने के लिए दीक्षा दी गई है |
वे ब्राह्मणों के प्रति सदैव दयालु तथा सदय रहतेहैं और कभी भी झूठ नहीं बोल सकते |
तस्मादस्य वधो धर्मों भर्तु: शुश्रूषणं च न: |
इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचरासुरा: ॥
१३॥
तस्मात्ू--इसलिए; अस्य--इस ब्रह्मचारी वामन का; वध:--वध; धर्म:--हमारा कर्तव्य है; भर्तु:--हमारे स्वामी की; शुश्रूषणम्च--तथा सेवा करने का तरीका भी है; न:ः--हमारा; इति--इस प्रकार; आयुधानि--हथियार; जगृहुः--उठा लिया; बले:--बलि महाराज के; अनुचर-- अनुयायी; असुरा: --सारे असुरों ने |
अतएव इस वामनदेव भगवान् विष्णु को मार डालना हमारा कर्तव्य है |
यह हमारा धर्म हैऔर अपने स्वामी की सेवा करने का तरीका है |
इस निर्णय के बाद महाराज बलि के असुरअनुयायियों ने वामनदेव को मारने के उद्देश्य से अपने-अपने हथियार उठा लिये |
ते सर्वे वामनं हन्तुं शूलपट्टिशपाणय: |
अनिच्छन्तो बले राजन्प्राद्रवद्भातमन्यव: ॥
१४॥
ते--वे असुर; सर्वे--सभी; वामनम्-- भगवान् वामनदेव को; हन्तुम्ू-मारने के लिए; शूल--त्रिशूल; पट्टिश-- भाले;पाणय:--हाथ में लेकर; अनिच्छन्त:--इच्छा के विपरीत; बले:--बलि महाराज की; राजनू--हे राजा; प्राद्रवन्ू--आगे बढ़े;जात-मन्यव:--सामान्य क्रोध के द्वारा भड़क कर |
हे राजा! असुरों का सामान्य क्रोध भड़क उठा, उन्होंने अपने-अपने भाले तथा त्रिशूल अपनेहाथों में ले लिये और बलि महाराज की इच्छा के विरुद्ध वे वामनदेव को मारने के लिए आगेबढ़ गये |
तानभिद्रवतो हृष्टा दितिजानीकपान्नूप |
प्रहस्यानुचरा विष्णो: प्रत्यषेधन्ुदायुधा: ॥
१५॥
तान्ू--उनको; अभिद्रवत:--इस प्रकार आगे बढ़ते; हृष्टा--देखकर; दितिज-अनीक-पान्--असुरों के सैनिक; नृप--हे राजा;प्रहस्थ--हँसकर; अनुचरा: --सहयोगी; विष्णो: -- भगवान् विष्णु के; प्रत्यषे धन्ू--मना किया; उदायुधा:--अपने हथियार ग्रहणकरने को
हे राजा! जब विष्णु के सहयोगियों ने देखा कि असुर सैनिक हिंसा पर उतारू होकर आगेबढ़े आ रहे हैं, तो वे हँसने लगे |
उन्होंने अपने हथियार उठाते हुए असुरों को ऐसा प्रयत्न करने सेमना किया |
नन्दः सुनन्दोथ जयो विजय: प्रबलो बल: |
कुमुदः कुमुदाक्षश्च विष्वक्सेन: पतत्नरिराटू ॥
१६॥
जयन्तः श्रुतदेवश्च पुष्पदन्तोथ सात्वतः |
सर्वे नागायुतप्राणाश्चमूं ते जघ्नुरासुरीम्ू ॥
१७॥
नन्दः सुनन्दः--विष्णु के संगी यथा नन्द तथा सुनन्द; अथ--इस प्रकार; जय: विजय: प्रबल: बल: कुमुदः कुमुदाक्ष: चविष्वक्सेन:--तथा जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष तथा विष्वक्सेन; पतत्ति-राट्--पशक्षिराज गरुड़; जयन्त: श्रुतदेव:च पुष्पदन्त: अथ सात्वत:--जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त तथा सात्वत; सर्वे--सभी; नाग-अयुत-प्राणा: --दस हजार हाथियों केसमान शक्तिशाली; चमूम्--सेना को; ते--उन्होंने; जघ्नु;--मार डाला; आसुरीम्--असुरों की |
नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, पतत्त्रिराट् ( गरुड़ ),जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन््त तथा सात्वत--ये सभी भगवान् विष्णु के संगी थे |
वे दस हजारहाथियों के तुल्य बलवान् थे |
अब वे असुरों के सैनिकों को मारने लगे |
हन्यमानान्स्वकान्हष्ठा पुरुषानुचरैर्बलि: |
वारयामास संरब्धान्काव्यशापमनुस्मरन् ॥
१८ ॥
हन्यमानानू--मारे जा रहे; स्वकान्--अपने सैनिकों को; दृष्टा--देखकर; पुरुष-अनुचरै: --परम पुरुष के अनुचरों द्वारा;बलि:--बलि महाराज ने; वारयाम् आस--मना किया; संरब्धान्--अत्यधिक क्रुद्ध होते हुए भी; काव्य-शापम्--शुक्राचार्य केद्वारा प्रदत्त शाप को; अनुस्मरन्ू--याद करते हुए |
जब बलि महाराज ने देखा कि उनके अपने सैनिक भगवान् विष्णु के अनुचरों द्वारा मारे जारहे हैं, तो उन्हें शुक्राचार्य का शाप याद आया और उन्होंने अपने सैनिकों को युद्ध जारी रखने सेमना कर दिया |
हे विप्रचित्ते हे राहो हे नेमे श्रूयतां वचः |
मा युध्यत निवर्तध्वं न न: कालोयमर्थकृत् ॥
१९॥
हे विप्रचित्ते--हे विप्रचित्ति; हे राहो--हे राहु; हे नेमे--हे नेमि; श्रूयताम्--सुनो तो; वचः--मेरे शब्द; मा--मत; युध्यत--लड़ो;निवर्तध्वम्--यह लड़ाई बन्द करो; न--नहीं; नः--हमारा; काल: --उपयुक्त समय; अयम्--यह; अर्थ-कृत्ू--सफल होने का |
हे विप्रचित्ति, हे राहु, हे नेमि! जरा मेरी बात तो सुनो! तुम लोग मत लड़ो |
तुरन्त रुक जाओक्योंकि यह समय हमारे अनुकूल नहीं है |
यः प्रभु: सर्वभूतानां सुखदु:ःखोपपत्तये |
तं नातिवर्तितुं दैत्या: पौरुषैरी श्वरः पुमान् ॥
२०॥
यः प्रभुः--जो परम पुरुष, स्वामी; सर्व-भूतानाम्ू--सभी जीवों का; सुख-दुःख-उपपत्तये--सुख तथा दुख देने के लिए; तमू--उसको; न--नहीं; अतिवर्तितुम्-जीतने के लिए; दैत्या:--हे दैत्यो; पौरुषै:--मानवीय प्रयास से; ईश्वरः--परम नियन्ता;पुमानू-पुरुष
हे दैत्यो! कोई भी व्यक्ति मानवीय प्रयासों से उन भगवान् को परास्त नहीं कर सकता जो समस्त जीवों को सुख तथा दुख देने वाले हैं |
यो नो भवाय प्रागासीदभवाय दिवौकसाम् |
स एवं भगवानद्य वर्तते तद्विपर्ययम् ॥
२१॥
यः--भगवान् का प्रतिनिधि काल; न:--हम सबकी; भवाय--उन्नति के लिए; प्राक्--पहले; आसीत्--स्थित था; अभवाय--हार के लिए; दिव-ओकसाम्--देवताओं का; सः--वही काल; एब--निस्सन्देह; भगवान्--परम पुरुष का प्रतिनिधि; अद्य--आज,; वर्तते--उपस्थित है; तत्-विपर्ययम्--हमारे पक्ष के विपरीत |
परम काल जो भगवान् का प्रतिनिधि है और जो पहले हमारे अनुकूल और देवताओं केप्रतिकूल था, वही काल अब हमारे विरुद्ध है |
बलेन सचिवीर्बुद्धया दुग्गैर्मनत्रौषधादिभि: |
सामादिभिरुपायैश्न काल॑ नात्येति वै जनः ॥
२२॥
बलेन--बल द्वारा; सचिवै:--मंत्रियों की सलाह से; बुद्धवा--बुद्धि से; दुर्गैं:--किलों से; मन्त्र-औषध-आदिभि:--योगमंत्रों याऔषधियों के द्वारा; साम-आदिभि: --राजनीति तथा अन्य ऐसे साधनों से; उपायै: च--इसी प्रकार के अन्य उपायों से; कालमू--काल जो भगवान् का प्रतिनिधि है; न--कभी नहीं; अत्येति--जीत सकता है; बै--निस्सन्देह; जनः--कोई व्यक्ति
कोई भी व्यक्ति भौतिक बल, मंत्रियों की सलाह, बुद्धि, राजनय, किला, मंत्र, औषधि,जड़ी-बूटी या अन्य किसी उपाय से भगवान् स्वरूप काल स्वरूप को परास्त नहीं कर सकता |
भवद्धिर्निर्जिता होते बहुशोनुचरा हरे: |
दैवेनद् स्त एवाद्य युधि जित्वा नदन्ति नः ॥
२३॥
भवद्धिः--तुम सारे असुरों के द्वारा; निर्जिता:--पराजित किये गये थे; हि--निस्सन्देह; एते--देवताओं के सारे सैनिक;बहुशः--बड़ी संख्या में; अनुचरा:-- अनुयायी; हरे: --विष्णु के; दैवेन-- भाग्यवश; ऋष्ैः--ऐश्वर्य बढ़ने से; ते--वे ( देवता );एव--निस्सन्देह; अद्य--आज; युधि--युद्ध में; जित्वा--जीतकर; नदन्ति--हर्ष से नाद कर रहे हैं; नः--हमें |
पहले तुम सब ने भाग्य द्वारा शक्ति प्राप्त करके भगवान् विष्णु के ऐसे अनेक अनुयायियोंको परास्त किया था |
किन्तु आज वे ही अनुयायी हमें परास्त करके शेरों की तरह हर्ष से दहाड़रहे हैं |
एतान्वयं विजेष्यामो यदि दैवं प्रसीदति |
तस्मात्काल प्रतीक्षध्वं यो नो$र्थत्वाय कल्पते ॥
२४॥
एतानू--देवताओं के इन सारे सैनिकों को; वयम्--हम; विजेष्याम:--जीत लेंगे; यदि--यदि; दैवम्-- भाग्य; प्रसीदति--हमारेअनुकूल है; तस्मात्ू--इसलिए; कालम्--अनुकूल काल की; प्रतीक्षध्वम्--तब तक प्रतीक्षा करो; यः--जो; नः--हमारा;अर्थत्वाय कल्पते--पक्ष में माना जाना चाहिए |
जब तक भाग्य हमारे अनुकूल न हो तब तक हम विजय प्राप्त नहीं कर सकेंगे |
अतएव हमेंउस उपयुक्त काल की प्रतीक्षा करनी चाहिए जब हम उन्हें पराजित कर सकेंगे |
श्रीशुक उबाचपत्युर्निंगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपा: |
रसां निर्विविशू राजन्विष्णुपार्षद ताडिता: ॥
२५॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; पत्यु:--अपने स्वामी ( बलि महाराज ) को; निगदितम्--जिसका इस तरहवर्णन हुआ; श्रुत्वा--सुनकर; दैत्य-दानव-यूथ-पा:--दैत्यों तथा दानवों के सेनापति; रसाम्ू--रसातल लोक में; निर्विविशू:--घुस गये; राजन्--हे राजा; विष्णु-पार्षद--विष्णु के अनुचरों द्वारा; ताडिता:--खदेड़े जाकर |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा! अपने स्वामी बलि महाराज के आदेश के अनुसारदैत्यों तथा दानवों के सारे सेनापति ब्रह्माण्ड के निचले भागों में प्रविष्ट हुए जहाँ उन्हें विष्णु केसैनिकों ने खदेड़ दिया था |
अथ तार्क्च्यसुतो ज्ञात्वा विराट्प्रभुचिकीर्षितम् |
बबन्ध वारुणै: पाशैर्बलिं सूत्येडहनि क्रतो ॥
२६॥
अथ-तत्पश्चात्; ताकक्ष्य-सुतः--गरुड़ ने; ज्ञात्वा--जानकर; विराट्--पक्षिराज; प्रभु-चिकीर्षितम्-- भगवान् वामनदेव की इच्छासे; बबन्ध--बन्दी बना लिया; वारुणैः:--वरुण से सम्बन्धित; पाशैः--रस्सियों से; बलिम्--बलि को; सूत्ये--सोमरस पान के;अहनि--दिन; क्रतौ--यज्ञ के समय |
तत्पश्चात् यज्ञ समाप्त हो जाने के बाद सोमपान के दिन पक्षिराज गरुड़ ने अपने स्वामी कीइच्छा जानकर बलि महाराज को वरुणपाश से बन्दी बना लिया |
हाहाकारो महानासीद्रोदस्यो: सर्वतों दिशम् |
निगृह्ममाणेसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना ॥
२७॥
हाहा-कार:--विलाप का कोलाहलपूर्ण नाद; महान्--अत्यधिक; आसीतू-- था; रोदस्यो:--अधो एवं ऊर्ध्व दोनों लोकों में;सर्वतः--सर्वत्र; दिशम्--सारी दिशाएँ; निगृह्ममाणे--दबाये जाने के कारण; असुर-पतौ--असुरों के स्वामी बलि महाराज को;विष्णुना--विष्णु द्वारा; प्रभविष्णुना--जो सर्वत्र अत्यन्त शक्तिशाली है |
जब बलि महाराज परम शक्तिशाली भगवान् विष्णु द्वारा इस प्रकार बन्दी बना लिये गये तोब्रह्माण्ड के अधो तथा ऊर्ध्व लोकों की समस्त दिशाओं में विलाप का आर्तनाद हुआ |
तं बद्धं वारुणै: पाशैर्भगवानाह वामन: |
नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारणशसं नूप ॥
२८ ॥
तम्--उसको; बद्धम्--बाँधे गये; वारुणैः पाशैः--वरुण पाश द्वारा; भगवान्-- भगवान; आह--कहा; वामन:--वामनदेव ने;नष्ट-अयम्--शारीरिक कान्ति से विहीन बलि महाराज से; स्थिर-प्रज्ञमम्--किन्तु फिर भी अपने निर्णय पर अटल; उदार-यशसम्--अत्यन्त सुन्दर एवं विख्यात; नृप--हे राजा
हे राजा! तब भगवान् वामनदेव अत्यन्त उदार एवं विख्यात बलि महाराज से बोले जिन्हेंउन्होंने वरुणपाश से बन्दी बनवा लिया था |
यद्यपि बलि महाराज के शरीर की सारी कान्ति जाचुकी थी तो भी वे अपने निर्णय पर अटल थे |
पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्महां त्वयासुर |
द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय ॥
२९॥
पदानि--पग; त्रीणि--तीन; दत्तानि--दिये गये; भूमेः-- भूमि के; महमम्--मुझको; त्वया--तुम्हारे द्वारा; असुर--हे असुरराज;द्वाभ्यामू--दो पगों द्वारा; क्रान्ता--घेरी हुई; मही--सारी भूमि; सर्वा--पूर्णतया; तृतीयम्--तीसरे पग के लिए; उपकल्पय--साधन ढूँढो |
हे असुरराज! तुमने मुझे तीन पग भूमि देने का वचन दिया है, किन्तु मैंने तो दो ही पग मेंसारा ब्रह्माण्ड घेर लिया है |
अब बताओ कि मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ? यावत्तपत्थसौ गोभिर्यावदिन्दु: सहोडुभि: |
यावद्वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तब ॥
३०॥
यावत्--जब तक; तपति--चमक रहा है; असौ--सूर्य; गोभि:-- प्रकाश द्वारा; यावत्--जब तक या जहाँ तक; इन्दुः--चन्द्रमा; सह-उड़ुभि:--अन्य तारों के साथ; यावत्--जहाँ तक; वर्षति--वर्षा करते हैं; पर्जन्य:--बादल; तावती--उतनी दूरीतक; भू:--पृथ्वी; इयम्--यह; तब--तुम्हारे अधिकार में |
जहाँ तक सूर्य तथा तारों सहित चन्द्रमा चमक रहे हैं और जहाँ तक बादल वर्षा करते हैं,वहाँ तक ब्रह्माण्ड की सारी भूमि आपके अधिकार में है |
पदैकेन मयाक्रान्तो भूलोंक: खं दिशस्तनो: |
स्वलोकिस्ते द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना ॥
३१॥
पदा एकेन--एक पग से ही; मया--मेरे द्वारा; आक्रान्तः--आच्छादित; भूलोक:--समस्त भूलोक; खम्--आकाश; दिशः--तथा सारी दिशाएँ; तनो:--मेरे शरीर द्वारा; स्वलोक:--उच्च स्वर्गलोक; ते--तुम्हारे अधिकार में हैं, वे; द्वितीयेन--दूसरे पग में;पश्यतः ते--तुम्हारे देखते-देखते; स्वम्--तुम्हारा अपना; आत्मना--मेरे द्वारा
इन में से मैंने एक पग से भूलोक को अपना बना लिया है और अपने शरीर से मैंने साराआकाश तथा सारी दिशाएँ अपने अधिकार में कर ली हैं |
तुम्हारी उपस्थिति में ही मैंने अपने दूसरेपग से उच्च स्वर्गलोक को अपना लिया है |
प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते |
विश त्वं निरयं तस्मादगुरुणा चानुमोदितः ॥
३२॥
प्रतिश्रुतम्--वचन दिया गया; अदातु:--न दे सका; ते--तुम्हारा; निरये--नरक में; वास: --वासस्थान; इष्यते--संस्तुत;विश--अब प्रवेश करो; त्वम्--तुम; निरयम्ू--नरकलोक में; तस्मात्ू--इसलिए; गुरुणा -- अपने गुरु द्वारा; च-- भी;अनुमोदित:--अनुमोदन किया हुआ |
चूँकि तुम अपने वचन के अनुसार दान देने में असमर्थ रहे हो अतएव नियम कहता है कितुम नरकलोक में रहने के लिए चले जाओ |
इसलिए अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेश से अब तुमनीचे जाओ और वहाँ रहो |
वृथा मनोरथस्तस्य दूरः स्वर्ग: पतत्यध: |
प्रतिश्रुतस्थादानेन योउडर्थिनं विप्रलम्भते ॥
३३॥
वृथा--किसी अच्छे फल से रहित; मनोरथ: --मन की इच्छाएँ; तस्थ--उसकी; दूर:--दूर; स्वर्ग:--स्वर्गलोक को जाना;'पतति--गिरता है; अध:--जीवन की नारकीय अवस्था में; प्रतिश्रुतस्थ--जिन वस्तुओं के लिए वचन दिया गया हो; अदानेन--न दे सकने के कारण; य:--जो कोई; अर्थिनम्--भिखारी को; विप्रलम्भते--ठगता है
जो कोई भिखारी को वचन देकर ठीक से दान नहीं देता उसका स्वर्ग जाना या उसकी इच्छापूरी होना तो दूर रहा वरन् वह नारकीय जीवन में जा गिरता है |
विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना |
तद्व्यलीकफलं भुड्छ्व निरयं कतिचित्समा: ॥
३४॥
विप्रलब्ध:--मैं ठगा गया हूँ; ददामि--तुम्हें दूँगा ऐसा वचन देता हूँ; इति--इस प्रकार; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अहम्--मैं; च--भी; आढ्य-मानिना--अपने ऐश्वर्य पर गर्वित होने के कारण; तत्--अतएव; व्यलीक-फलम्--ठगने का दुष्परिणाम; भुड्छक््व--भोगो; निरयम्--नारकीय जीवन में; कतिचित्-- थोड़े; समा: --वर्ष |
अपने वैभव पर वृथा गर्वित होकर तुमने मुझे भूमि देने का वचन दिया, किन्तु तुम अपनावचन पूरा नहीं कर पाये |
अतएवं अब तुम्हारे वचन ( वादे ) झूठे हो जाने के कारण तुम्हें कुछवर्षों तक नारकीय जीवन बिताना होगा |
अध्याय बाईसवाँ: बलि महाराज ने अपना जीवन समर्पण कर दिया
8.22श्रीशुक उबाचएवं विप्रकृतो राजन्बलिभर्भगवतासुर: |
भिद्यमानोप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार, जैसाकि पहले कहा जा चुका है; विप्रकृत:--संकट में'पड़कर; राजन्--हे राजा; बलि:--बलि महाराज ने; भगवता--भगवान् वामनदेव द्वारा; असुर:--असुरराज; भिद्यमान: अपि--इस कष्टदायक स्थिति में रहकर भी; अभिन्न-आत्मा--शरीर या मन से विचलित हुए बिना; प्रत्याह--उत्तर दिया; अविक्लवम्--अविचल भाव से; वच:--निम्नलिखित शब्द |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! यद्यपि ऊपर से ऐसा लग रहा था कि भगवान् ने बलिमहाराज के साथ दुर्व्यवहार किया है, किन्तु बलि महाराज अपने संकल्प पर अडिग थे |
यहसोचते हुए कि मैंने अपना वचन पूरा नहीं किया है, वे इस प्रकार बोले |
श्रीबलिरुवाचयद्युत्तमश्लोक भवान्ममेरितंवबचो व्यलीकं सुरवर्य मन्यते |
करोम्यूतं तन्न भवेत्प्रलम्भनंपदं तृतीयं कुरु शीर्णिणि मे निजम् ॥
२॥
श्री-बलि: उबाच--बलि महाराज ने कहा; यदि--यदि; उत्तमएलोक --हे परमेश्वर; भवान्ू--आप; मम--मेरा; ईरितम्--वादाकिया गया; वच:--वचन, शब्द; व्यलीकम्--झूठे; सुर-वर्य --हे सुरों ( देवताओं ) में महानतम; मन्यते--ऐसा सोचते हों;करोमि--करूँगा; ऋतम्--सत्य; तत्--वह ( वादा ); न--नहीं; भवेत्--होगा; प्रलम्भनम्ू-- धोखा; पदम्--पग; तृतीयम्--तीसरा; कुरुू--करें; शीर्ष्णि--सिर पर; मे--मेरे; निजम्--अपने चरणकमलों को
बलि महराज ने कहा : हे परमेश्वर, हे सभी देवताओं के परम पूज्य! यदि आप सोचते हैं किमेरा वचन झूठा हो गया है, तो मैं उसे सत्य बनाने के लिए अवश्य ही भूल सुधार दूँगा |
मैं अपनेवचन को झूठा नहीं होने दे सकता |
अतएवं आप कृपा करके अपना तीसरा कमलरूपी पग मेरेसिर पर रखें |
बिभेमि नाहं निरयात्पदच्युतोन पाशबन्धादव्यसनाहुरत्ययात् |
नैवार्थकृच्छाद्धवतो विनिग्रहा-दसाधुवादाद्धृशमुद्दिजे यथा ॥
३॥
बिभेमि--डरता हूँ; न--नहीं; अहम्--मैं; निरयात्ू--नरक जाने से; पद-च्युत:--न ही अपने स्थान से नीचे गिरने से डरता हूँ;न--न तो; पाश-बन्धात्ू--वरुण के पाश द्वारा बाँधे जाने से; व्यसनात्ू--कष्ट से; दुरत्ययात्--असहा; न--न तो; एव--निश्चयही; अर्थ-कृच्छात्--गरीबी से, धनाभाव से; भवत:ः--आप; विनिग्रहात्--उस दंड से जिसे अब मैं भोग रहा हूँ; असाधु-वादात्--अपयश से; भृशम्-- अत्यधिक; उद्विजे--चिन्तित हूँ; यथा--जिस तरह |
मैं अपनी सारी सम्पत्ति से वंचित होने, नारकीय जीवन बिताने, गरीबी के लिए वरुणपाशद्वारा बाँधे जाने या आपके द्वारा दण्डित होने से उतना भयभीत नहीं होता हूँ जितना कि मैं अपनीअपकाीर्ति से डरता हूँ |
पुंसां एलाघ्यतमं मन्ये दण्डमर्हत्तमार्पितम् |
यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशन्ति हि ॥
४॥
पुंसामू--मनुष्यों का; शलाघध्य-तमम्ू--अत्यन्त प्रशंसनीय; मन्ये--मानता हूँ; दण्डम्--दण्ड को; अहैत्तम-अर्पितम्ू--परमआराध्य आपके द्वारा दिये गये; यम्ू--जो; न--न तो; माता--माता; पिता--पिता; भ्राता-- भाई; सुहृदः --मित्रगण; च-- भी;आदिशन्ति--अर्पित करते हैं; हि--निस्सन्देह |
यद्यपि कभी-कभी किसी व्यक्ति के पिता, माता, भाई या मित्र उसके हितैषी होने के कारणउसे दण्डित कर सकते हैं, किन्तु वे कभी भी अपने आश्रित को इस प्रकार दण्डित नहीं करते |
किन्तु आप परम पूज्य भगवान् हैं अतएव आपने मुझे जो दण्ण्ड दिया है उसे मैं अत्यन्त प्रशंसनीयसमझता हूँ |
त्वं नूनमसुराणां नः परोक्ष: परमो गुरु: |
यो नोउनेकमदान्धानां विभ्रृशं चश्षुरादिशत् ॥
५॥
त्वमू--तुम; नूनम्--निस्सन्देह; असुराणाम्-- असुरों का; नः--हम जिस तरह हैं; परोक्ष:--अप्रत्यक्ष; परम:--परम; गुरु:--गुरु; यः--जो ( आप ); न:ः--हमारा; अनेक--कई ; मद-अन्धानाम्-- भौतिक ऐश्वर्य से अन्धा बना; विश्रेंशम्ू--हमारी मिथ्याप्रतिष्ठा को विनष्ट करके; चश्षु:--ज्ञान का नेत्र; आदिशत्--दिया |
चूँकि आप हम असुरों के अप्रत्यक्ष रूप से महानतम शुभचिन्तक हैं, आप हमारे शत्रु कावेश धारण करके भी हमारे सर्वोच्च कल्याण के लिए कर्म करते हैं |
चूँकि हम-जैसे असुर सदैवमिथ्या प्रतिष्ठा का पद पाने की महत्त्वाकांक्षा करते हैं, अतएब आप हमें दण्डित करके हमारेज्ञान-नेत्र खोलते हैं जिनसे हम सन्मार्ग देख सकें |
अस्मिन्वैरानुबन्धेन व्यूढेन विबुधेतरा: |
बहवो लेभिरे सिद्धि यामु हैकान्तयोगिन: ॥
६॥
तेनाहं निगृहीतोस्मि भवता भूरिकर्मणा |
बद्धश्च वारुणै: पाशैर्नातिब्रीडे न च व्यथे ॥
७॥
यस्मिनू--जिसको; वैर-अनुबन्धेन--लगातार शत्रु-जैसा व्यवहार करके; व्यूढेन--ऐसी बुद्धि द्वारा स्थिर; विबुध-इतरा:--असुर(देवताओं से भिन्न ); बहव:ः--उनमें से अनेक ने; लेभिरे--प्राप्त की; सिद्धिम्--सिद्धि; यामू--जिसको; उ ह--यह भलीभाँतिज्ञात है; एकान्त-योगिन:--अत्यन्त सफल योगियों की उपलब्धियों के तुल्य; तेन--अतएव; अहम्--मैं; निगृहीतः अस्मि--यद्यपि मैं दण्डित हो रहा हूँ; भवता-- आपके द्वारा; भूरि-कर्मणा-- अदभुत कर्म करने वाला; बद्धः च--मैं बन्दी हूँ; वारुणैःपाशैः--वरुण के पाश द्वारा; न अति-ब्रीडे--मैं इससे तनिक भी लज्जित नहीं हूँ; न च व्यथे--न ही मुझे अधिक कष्ट है |
आपसे लगातार शत्रुता रखने वाले अनेक असुरों ने अन्ततः महान् योगियों की सिद्धि्रि प्राप्तकी |
आप एक ही कार्य से अनेक उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं; फलस्वरूप यद्यपि आपने मुझेअनेक प्रकार से दण्डित किया है फिर भी मुझे वरुणपाश से बंदी बनाये जाने की न तो लज्जा हैन ही मैं कोई कष्ट अनुभव कर रहा हूँ |
पितामहो मे भवदीयसम्पतःप्रह्माद आविष्कृतसाधुवाद: |
भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसंसम्प्रापितस्त्वं परम: स्वपित्रा ॥
८॥
पितामह:--बाबा; मे--मेरे; भवदीय-सम्मतः-- आपके भक्तों द्वारा मान्य; प्रहाद:--प्रहाद महाराज; आविष्कृत-साधु-वाद: --सर्वत्र भक्त के रूप में प्रसिद्ध; भवत्-विपक्षेण--आपके विरुद्ध होने मात्र से ही; विचित्र-वैशसम्--विभिन्न प्रकार से उत्पीड़नकरते हुए; सम्प्रापित:--कष्ट उठाया; त्वम्--तुमने; परम: --परम आश्रय; स्व-पित्रा--अपने ही पिता द्वारा |
मेरे बाबा प्रहाद महाराज आपके सारे भक्तों द्वारा मान्य होकर प्रसिद्ध हैं |
यद्यपि उनके पिताहिरण्यकशिपु ने उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट दिए थे, फिर भी वे आपके चरणकमलों का आश्रयलेकर आज्ञाकारी बने रहे |
किमात्मनानेन जहाति योउन्ततःकि रिक्थहारैः स्वजनाख्यदस्युभि: |
कि जायया संसूृतिहेतु भूतयामर्त्यस्य गेहै: किमिहायुषो व्यय: ॥
९॥
किम्--क्या लाभ; आत्मना अनेन--इस शरीर से; जहाति--त्याग देता है; यः--जो ( शरीर ); अन्ततः--जीवन के अन्त में;किमू्--क्या लाभ; रिक्थ-हारैः--धन के लुटेरों से; स्वजन-आख्य-दस्युभि:--जो स्वजनों के नाम से वास्तव में लुटेरे हैं;किमू--क्या लाभ; जायया--पत्नी से; संसृति-हेतु-भूतया--जो भौतिक दशाओं की वृद्द्धि की स्त्रोत है; मर्त्वस्थ--मरणशीलव्यक्ति का; गेहैः--घर, परिवार तथा जाति से; किम्--क्या लाभ; इह--जिस घर में; आयुष: --जीवन का; व्यय: --मात्रविनाश |
उस भौतिक शरीर से क्या लाभ जो जीवन के अन्त में अपने स्वामी को स्वतः छोड़ देता है?और परिवार के उन सभी सदस्यों से क्या लाभ जो वास्तव में उस धन का अपहरण कर लेते हैं,जो दिव्य ऐश्वर्य के लिए भगवान् की सेवा में उपयोगी हो सकता है? उस पत्नी से भी क्या लाभजो भौतिक दशाओं को बढ़ाने की स्त्रोत मात्र है |
उस परिवार, घर, देश तथा जाति से भी क्यालाभ जिसमें आसक्त होने से सारे जीवन की मूल्यवान शक्ति का मात्र अपव्यय होता है |
इत्थं स निश्चित्य पितामहो महा-नगाधबोधो भवतः पादपद्मम् |
ध्रुवं प्रपेदे ह्कृतोभयं जनादूभीतः स्वपक्षक्षपणस्य सत्तम ॥
१०॥
इत्थम्--इसके कारण; सः--वे प्रह्मद महाराज; निश्चित्य--इस बात को निश्चित करके; पितामह:--मेरे बाबा; महान्--महान्भक्त; अगाध-बोध: --मेरे पितामह जिन्होंने अपनी भक्ति के द्वारा असीम ज्ञान प्राप्त किया; भवत:-- आपके; पाद-पदाम्--चरणकमल की; ध्रुवम्--अच्युत नित्य आश्रय; प्रपेदे--शरण ग्रहण की; हि--निस्सन्देह; अकुतः-भयम्--पूर्णतया निर्भय;जनातू--सामान्यजनों से; भीतः--डरकर; स्वपक्ष- क्षपणस्थय-- आपका, जो हमारे पक्ष के असुरों का वध करते हैं; सत्-तम--हेश्रेष्ठों में श्रेष्ठ |
मेरे पितामह जो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ थे और जिन्होंने असीम ज्ञान प्राप्त किया था और जोहर एक द्वारा पूज्य थे, इस जगत के सामान्य लोगों से भयभीत रहते थे |
आपके चरणकमलों मेंप्राप्त होने वाले आश्रय को पूर्णतया समझकर ही उन्होंने आपके द्वारा मारे गये अपने पिता तथाअपने असुर मित्रों की इच्छा के विरुद्ध आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी |
अथाहमप्यात्मरिपोस्तवान्तिकंदैवेन नीतः प्रसभं त्याजितश्री: |
इदं कृतान्तान्तिकवर्ति जीवितंययाश्चुव॑ स्तब्धमतिर्न ब॒ुध्यते ॥
११॥
अथ--इसलिए; अहम्--मैं; अपि-- भी; आत्म-रिपो:--परिवार के परम्परागत शत्रु का; तब--तुम्हारे; अन्तिकम्ू-- आश्रय;दैवेन--विधिवश; नीतः--लाया गया; प्रसभम्--बलपूर्वक; त्याजित--विहीन; श्री:--सारे ऐश्वर्य से; इदम्ू--जीवन का यहदर्शन; कृत-अन्त-अन्तिक-वर्ति-- मृत्यु की सुविधा प्राप्त; जीवितम्ू--आयु; यया--ऐसे ऐश्वर्य से; अध्रुवम्-- क्षणिक; स्तब्ध-मतिः--ऐसा मूर्ख व्यक्ति; न ब॒ुध्यते--समझ नहीं सकता
मैं तो दैववश ही मजबूर होकर आपके चरणों में लाया गया हूँ और अपने समस्त ऐश्वर्य सेविहीन हो गया हूँ |
सामान्य संसारी लोग भौतिक स्थितियों में रहते हुए नश्वर ऐश्वर्य द्वारा उत्पन्नमोह के कारण पग पग पर आकस्मिक मृत्यु का सामना करते हुए भी नहीं समझ पाते कि यहजीवन नश्वर है |
मैं तो दैववश ही उस स्थिति से बच गया हूँ |
श्रीशुक उबाचतस्येत्थं भाषमाणस्य प्रह्मदो भगवत्प्रिय: |
आजगाम कुरुश्रेष्ठ राकापतिरिवोत्थित: ॥
१२॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तस्थ--बलि महाराज का; इत्थम्--इस प्रकार; भाषमाणस्य--अपनीभाग्यशाली स्थिति का वर्णन करते हुए; प्रह्मद: --महाराज प्रह्माद; भगवत्ू-प्रियः-- भगवान् के सर्वाधिक प्रिय भक्त;आजगाम--वहाँ प्रकट हुए; कुरु-श्रेष्ट--हे कुरुओं में श्रेष्ठ महाराज परीक्षित; राका-पति:--चन्द्रमा; इब--सहृश; उत्थित:--उदित हुए |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे कुरुश्रेष्ठी जब बलि महाराज इस प्रकार अपने भाग्य कीप्रशंसा कर रहे थे तो भगवान् के परम प्रिय भक्त प्रह्मद महाराज वहाँ प्रकट हुए मानो रात्रि मेंअन्द्रमा उदय हो गया हो |
तमिन्द्रसेन: स्वपितामहं अ्रियाविराजमान नलिनायतेक्षणम् |
प्रांशूं पिशड्राम्बरमझ्जनत्विषंप्रलम्बबाहुं शुभगर्षभमैक्षत ॥
१३॥
तम्--उन प्रह्मद महाराज को; इन्द्र-सेन:--बलि महाराज जिनके पास इन्द्र की सारी सेना थी; स्व-पितामहम्-- अपने पितामहको; थ्रिया--सारे सुन्दर अंगों से युक्त उपस्थित; विराजमानम्--वहाँ पर खड़े; नलिन-आयत-ईक्षणम्--कमल की पंखड़ियोंजितनी चौड़ी आँखों से; प्रांशुम्-- अत्यन्त सुन्दर शरीर को; पिशड्भ-अम्बरम्--पीत वस्त्र धारण किये; अद्जन-त्विषम्--आँखोंके अंजन सहृश शरीर से; प्रलम्ब-बाहुमू--अत्यन्त लम्बी भुजाएँ; शुभग-ऋषभम्--सर्व श्रेष्ठ शुभ पुरुष; ऐक्षत--देखा तब
बलि महाराज ने परम भाग्यशाली व्यक्ति अपने पितामह प्रह्माद महाराज को देखाजिनका श्यामल शरीर आँखों के अंजन जैसा लग रहा था |
उनका लम्बा, भव्य शरीर पीताम्बरधारण किये था, उनकी भुजाएँ लम्बी थीं और उनकी सुन्दर आँखें कमल की पंखड़ियों केसमान थीं |
वे सबके अत्यन्त प्रिय तथा मोहक थे |
तस्मै बलिवारुणपाशयन्त्रितःसमर्हणं नोपजहार पूर्ववत् |
ननाम मूर्ध्ना भ्रुविलोललोचन:सब्रीडनीचीनमुखो बभूव ह ॥
१४॥
तस्मै--प्रह्दद महाराज को; बलि: --बलि महाराज ने; वारुण-पाश-यन्त्रित:--वरुणपाश द्वारा बाँधा गया; समर्हणम्--उपयुक्तसम्मान; न--नहीं; उपजहार-- प्रदान किया; पूर्ब-बत्--पहले की तरह; ननाम--प्रणाम किया; मूर्धना--सिर के बल; अश्रु-बिलोल-लोचन:--अश्रुपूरित नेत्र; स-ब्रीड--लज्जा सहित; नीचीन--नीचा; मुख: --मुख; बभूब ह--हो गया |
वरुणपाश से बँधे होने के कारण बलि महाराज पहले की तरह प्रह्माद महाराज कोभलीभाँति सम्मान नहीं दे पाये |
उन्होंने केवल सिर के द्वारा प्रणाम किया, उनके नेत्र अश्रुपूरित थेऔर लज्जा से उनका सिर नीचा था |
स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिंहरिं सुनन्दाद्यनुगैरुपासितम् |
उपेत्य भूमौ शिरसा महामनाननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविक्लव: ॥
१५॥
सः--प्रह्माद महाराज ने; तत्र--वहाँ; ह आसीनम्--बैठे हुए को; उदीक्ष्य--देखकर; सत्-पतिम्--मुक्तात्माओं के स्वामीभगवान; हरिम्ू--हरि को; सुनन्द-आदि-अनुगैः--सुनन्द आदि अपने अनुयायियों द्वारा; उपासितम्--पूजित; उपेत्य--पासजाकर; भूमौ-- भूमि पर; शिरसा--सिर के बल ( झुककर ); महा-मना:--महान् भक्त; ननाम--प्रणाम किया; मूर्ध्ना--सिर केबल; पुलक-अश्रु-विक्लव:--हर्ष के आँसुओं से विचलित |
जब प्रह्नाद महाराज ने देखा कि वहाँ पर सुनन्द जैसे अपने घनिष्ठ संगियों से घिर कर एवंपूजित होकर भगवान् बैठे हैं, तो उनकी आँखें प्रेमाश्रुओं से छलछला उठीं |
उनके पास जाकरऔर भूमि पर गिरकर उन्होंने सिर के बल भगवान् को प्रणाम किया |
श्रीप्रह्दाद उवाचत्वयैव दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितंहतं तदेवाद्य तथेव शोभनम् |
मन्ये महानस्य कृतो हानुग्रहोविभ्रेशितो यच्छिय आत्ममोहनात् ॥
१६॥
श्री-प्रह्माद: उबाच--प्रह्मद महाराज ने कहा; त्वया--आपके द्वारा; एब--निस्सन्देह; दत्तम्ू--दिया गया; पदम्--यह स्थान;ऐन्द्रमू--इन्द्र का; ऊर्जितम्--अत्यन्त महान्; हतम्ू--छीन लिया गया; तत्--वह; एब--निस्सन्देह; अद्य--आज; तथा--जिसप्रकार; एब--निस्सन्देह; शोभनम्--सुन्दर; मन्ये--मानता हूँ; महानू--महान्; अस्य--इसका ( बलि महाराज का ); कृत:--आपके द्वारा की गई; हि--निस्सन्देह; अनुग्रह:--कृपा; विभ्रशित:--से विहीन; यत्-- क्योंकि; अ्िय:--उस ऐश्वर्य से; आत्म-मोहनात्ू--जो आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया को आच्छादित करने वाला था |
प्रह्माद महाराज ने कहा : हे प्रभु! इस बलि को इन्द्र पद का महान् ऐश्वर्य आपकी ही देन हैऔर अब उस को आपने ही छीन लिया है |
मेरे विचार से आपका देना-लेना एक सा सुन्दर है |
चूँकि स्वर्ग के राजा का उच्च पद उसे अज्ञान के अंधकार में डाले हुए था अतएवं आपने उसकासारा ऐश्वर्य छीनकर उसके ऊपर महान् अनुग्रह किया है |
यया हि विद्वानपि मुहाते यत-स्तत्को विचष्टे गतिमात्मनो यथा |
तस्मै नमस्ते जगदी श्वराय वेनारायणायाखिललोकसाक्षिणे ॥
१७॥
यया--जिस ऐश्वर्य से; हि--निस्सन्देह; विद्वान अपि--विद्वान भी; मुह्यते--मोहित हो जाता है; यत:--आत्म-नियंत्रित; तत्--वह; कः--कौन; विचष्टे--ढूँढ सकता है; गतिम्--उन्नति; आत्मन:--अपनी; यथा-- भलीभाँति; तस्मै-- उसको; नमः --सादरनमस्कार करता हूँ; ते--तुमको; जगत्-ईश्वराय--ब्रह्माण्ड के स्वामी को; बै--निस्सन्देह; नारायणाय--नारायण को; अखिल-लोक-साक्षिणे--समस्त सृष्टि के साक्षी
भौतिक ऐश्वर्य इतना मोहक है कि विद्वान तथा आत्मसंयमी व्यक्ति भी आत्म-साक्षात्कार केलक्ष्य को खोजना भूल जाता है |
लेकिन भगवान् नारायण, जो ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं, अपनीइच्छानुसार प्रत्येक वस्तु को देख सकते हैं |
अतएव मैं उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ |
श्रीशुक उबाचतस्यानुश्रुण्वतो राजन्प्रह्नदस्य कृताझले: |
हिरण्यगर्भो भगवानुवाच मधुसूदनम् ॥
१८ ॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तस्य--उस; अनुश्रृण्बतः--जिससे वह सुन सके; राजनू--हे राजा परीक्षित;प्रह्मदस्थ--प्रह्ाद महाराज का; कृत-अज्जले:--हाथ जोड़े खड़ा; हिरण्यगर्भ: --ब्रह्माजी ने; भगवान्--सर्वशक्तिमान; उबाच--कहा; मधुसूदनम्--मधुसूदन भगवान् से |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा परीक्षित! तब ब्रह्माजी अपने पास हाथ जोड़करखड़े प्रह्दाद महाराज को सुनाकर भगवान् से कहने लगे |
बद्धं वीक्ष्य पतिं साध्वी तत्पत्ती भयविहला |
प्राज्नलिः प्रणतोपेन्द्रं बभाषेडबाड्मुखी नूप ॥
१९॥
बद्धम्--बन्दी किया गया; वीक्ष्य--देखकर; पतिम्-- अपने पति को; साध्वी--सती स्त्री; तत्ू-पत्ती--बलि महाराज की पत्नीने; भय-विहला--डर के मारे अत्यन्त उद्विग्न; प्राज्ललि:--हाथ जोड़े; प्रणता--नमस्कार करके; उपेन्द्रमू--वामनदेव को;बभाषे--सम्बोधित किया; अवाक्-मुखी --सिर नीचा किये; नृप--हे महाराज परीक्षित |
लेकिन बलि महाराज की सती पत्नी अपने पति को बन्दी देखकर भयभीत तथा दुःखी थी |
उसने तुरन्त भगवान् वामनदेव ( उपेन्द्र ) को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली |
क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत्कृतं तेस्वाम्यं तु तत्र कुधियोपर ईश कुर्यु: |
कर्तुः प्रभोस्तव किमस्थत आवहन्तित्यक्तहियस्त्वदवरोपषितकर्तृवादा: ॥
२०॥
श्री-विन्ध्यावलि: उबाच--बलि महाराज की पली विन्ध्यावलि ने कहा; क्रीडा-अर्थम्--लीला के लिए; आत्मन:--अपनी;इदम्--यह; त्रि-जगत्--तीनों लोक ( ब्रह्माण्ड ); कृतम्--उत्पन्न किया गया; ते--आपके द्वारा; स्वाम्यम्--स्वामित्व; तु--लेकिन; तत्र--तत्पश्चात्; कुधिय: --मूर्खजन; अपरे-- अन्य; ईश--हे परम पालक, हे प्रभु; कुर्यु:--स्थापित किया है; कर्तु:--परमस्त्रष्टा के लिए; प्रभो:--परम पालक के लिए; तवब--तुम्हारे लिए; किम्--क्या; अस्यत:--परम संहारक को; आवहन्ति--अर्पित कर सकते हैं; त्यक्त-हियः--निर्लज्न, बुद्धिहीन; त्वत्--आपके द्वारा; अवरोपित--अल्पज्ञान के कारण आरोपित; कर्तृ-वादाः--ऐसे मूर्खो का स्वामित्व |
श्रीमती विन्ध्यावलि ने कहा : हे प्रभु! आपने निजी लीलाओं का आनन्द उठाने के लिएसम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की है, किन्तु मूर्ख तथा बुद्धिहीन व्यक्तियों ने भौतिक भोग के लिएउस पर अपना स्वामित्व जताया है |
निस्सन्देह, वे निर्लज्ज संशयवादी हैं |
वे झूठे ही स्वामित्वजताकर यह सोचते हैं कि वे उसको दान दे सकते हैं और भोग सकते हैं |
ऐसी दशा में भला वेआपकी कौन सी भलाई कर सकते हैं, जो इस ब्रह्माण्ड के स्वतंत्र स्त्रष्टा, पालक तथा संहारकहैं? श्रीब्रह्मोवाचभूतभावन भूतेश देवदेव जगन्मय |
मुझेनं हतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम् ॥
२१॥
श्री-ब्रह्मा उबाच--ब्रह्माजी ने कहा; भूत-भावन--हे सबके शुभेच्छु; भूत-ईश--हे सबके स्वामी; देव-देव--हे देवताओं के भीपूज्य देव; जगत्-मय-हे सर्वव्यापक; मुझ्न--कृपया छोड़ दें; एनम्--इस बेचारे बलि महाराज को; हत-सर्वस्वम्--जिसकासर्वस्व छिन गया है; न--नहीं; अयम्--यह बेचारा; अ्हति--पात्र है; निग्रहम्ू--दण्ड का
ब्रह्माजी ने कहा : हे समस्त जीवों के हितैषी एवं स्वामी, हे सभी देवताओं के पूज्य देव, हेसर्वव्यापी भगवान्! अब यह व्यक्ति पर्याप्त दण्ड पा चुका है क्योंकि आपने इसका सर्वस्व लेलिया है |
अब आप इसे छोड़ दें |
अब यह अधिक दण्डित होने का पात्र नहीं है |
कृत्सना तेउनेन दत्ता भूलोंकाः कर्मार्जिताश्व ये |
निवेदितं च सर्वस्वमात्माविक्लवया धिया ॥
२२॥
कृत्स्नाः:--सभी; ते--तुमको; अनेन--बलि महाराज द्वारा; दत्ता:--दिया जा चुका; भू: लोकाः--सारी भूमि तथा सारे लोक;कर्म-अर्जिता: च--जो कुछ उसने अपने पुण्यकर्मों से प्राप्त किया था; ये--जो; निवेदितम् च--आपको अर्पित हो चुके;सर्वस्वम्--उसके पास जो कुछ था वह सब; आत्मा--यहाँ तक कि शरीर भी; अविक्लवया--बिना हिचक के; धिया--ऐसीबुद्धि से बलि महाराज ने आपको पहले ही अपना सर्वस्व दे दिया था |
उन्होंने बिना हिचक के अपनीभूमि, अपने सारे लोक तथा अपने पुण्यकर्मों से जो कुछ अन्य भी अर्जित किया था, यहाँ तककि अपने शरीर को भी अर्पित कर दिया है |
यत्पादयोरशठधी: सलिलं प्रदायदूर्वाड्डुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम् |
अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकींदाश्वानविक्लवमना: कथमार्तिमृच्छेत्ू ॥
२३॥
यत्ू-पादयो:--आपके चरणकमलों पर; अशठ-धी:--द्वैतरहित विशाल हृदय वाला व्यक्ति; सलिलमू--जल; प्रदाय--देकर;दूर्वा--घास; अह्'ुरैः --तथा फूल की कलियों से; अपि--यद्यपि; विधाय--अर्पित करके; सतीम्--परम पूज्य; सपर्याम्ू-पूजासहित; अपि--यद्यपि; उत्तमाम्--अत्यन्त उच्च; गतिमू--लक्ष्य; असौ--ऐसा पूजक; भजते--पात्र होता है; त्रि-लोकीम्--तीनों लोकों को; दाश्वानू--आपको देते हुए; अविक्लव-मना:--बिना किसी मानसिक द्वैत के; कथम्--कैसे; आर्तिम्--बन्दी बनायेजाने के क्लेश का; ऋच्छेत्-- भागी है |
जिनके मन में द्वैत नहीं होता वे आपके चरणों में केवल जल, दूर्वादल या अंकुर अर्पितकरके बैकुण्ठ में उच्चतम स्थान प्राप्त कर सकते हैं |
इन बलि महाराज ने अब बिना द्वैत के तीनोंलोकों की प्रत्येक वस्तु आपको अर्पित कर दी है |
तो फिर वे बन्दी होने के कष्ट के भागी कैसेहो सकते हैं ? श्रीभगवानुवाचब्रह्मन्यमनुगृह्लामि तद्विशो विधुनोम्यहम् |
यन्मद: पुरुष: स्तब्धो लोक मां चावमन्यते ॥
२४॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; ब्रह्मनू--हे ब्रह्माजी; यमू--जिस पर; अनुगृह्ञामि--मैं दया करता हूँ; तत्--उसका;विशः--ऐश्वर्य; विधुनोमि--छीन लेता हूँ; अहम्ू--मैं; यत्-मदः --इस धन के कारण झूठी प्रतिष्ठा होने से; पुरुष:--ऐसाव्यक्ति; स्तब्ध:--कुंद बुद्धि होकर; लोकम्--तीनों लोक; माम् च--मेरी भी; अवमन्यते--अवहेलना करता |
भगवान् ने कहा : हे ब्रह्माजी! भौतिक ऐश्वर्य के कारण मूर्ख व्यक्ति मन्दबुद्धि एवं पागल होजाता है |
इस तरह तीनों लोकों में वह किसी का सम्मान नहीं करता और मेरी सत्ता की भीअवहेलना करता है |
सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति की सारी सम्पत्ति छीनकर मैं उस पर विशेष अनुग्रहप्रदर्शित करता हूँ |
यदा कदाचिज्ीवात्मा संसरन्निजकर्मभि: |
नानायोनिष्वनीशोयं पौरूषीं गतिमाव्रजेतू ॥
२५॥
यदा--जब; कदाचित्--कभी -क भी; जीव-आत्मा--जीव; संसरन्--जन्म तथा मृत्यु के चक्र में घूमते हुए; निज-कर्मभि: --अपने कर्मो के कारण; नाना-योनिषु--अनेक योनियों में; अनीश:--पराभ्रित ( माया के वश में ); अयम्--यह जीव; पौरुषीम्गतिमू--मनुष्य का पद; आब्रजेत्-- प्राप्त करना चाहता है|
अपने ही सकाम कर्मों के कारण विभिन्न योनियों में जन्म-मरण के चक्र में बारम्बार घूमतेहुए परतंत्र जीव भाग्यवश मनुष्य का शरीर प्राप्त कर सकता है |
यह मनुष्य-जन्म विरले ही प्राप्तहो पाता है |
जन्मकर्मवयोरूपविद्यैश्वर्थथनादिभि: |
यद्यस्य न भवेत्स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रह: ॥
२६॥
जन्म--कुलीन परिवार में जन्म लेकर; कर्म--अद्भुत कर्मो या पुण्य कर्मों के द्वारा; वयः--आयु से, विशेषतया युवावस्था मेंजब मनुष्य अनेक कार्य कर सकता है; रूप--निजी सौन्दर्य से, जिससे सभी आकृष्ट होते हैं; विद्या--विद्या से; ऐश्वर्य--ऐश्वर्यसे; धन--धन; आदिभि:--इत्यादि से; यदि--यदि; अस्य--स्वामी का; न--नहीं; भवेत्--है; स्तम्भ:--घमंड; तत्र--ऐसीअवस्था में; अयम्-्यक्ति; मत्-अनुग्रह:--समझो कि उसे मेरी विशेष कृपा प्राप्त हो गई है |
यदि कोई मनुष्य उच्चकुल में जन्मा हो, यदि वह अद्भुत कर्म करे, यदि वह तरुण हो, यदिउसके पास सौन्दर्य, उत्तम शिक्षा तथा प्रचुर सम्पत्ति हो और यदि वह इतने पर भी अपने ऐश्वर्यपर न इतराये तो यह समझना चाहिए कि उस पर भगवान् की विशेष कृपा है |
मानस्तम्भनिमित्तानां जन्मादीनां समन्ततः |
सर्वश्रेय:प्रतीपानां हन्त मुहोन्न मत्पर: ॥
२७॥
मान--झूठी प्रतिष्ठा का; स्तम्भ--इस थधृष्टता के कारण; निमित्तानामू--कारणों का; जन्म-आदीनाम्--उच्चकुल में जन्मइत्यादि; समन्ततः--सब मिलाकर; सर्व-श्रेय:--जीवन के परम लाभ के लिए; प्रतीपानामू--बाधाओं का; हन्त--भी; मुह्ेत्--मोहग्रस्त हो जाता है; न--नहीं; मत्-पर:--मेरा अनन्य भक्त
यद्यपि उच्चकुल में जन्म एवं ऐसे अन्य ऐश्वर्य भक्ति की उन्नति में बाधक होते हैं क्योंकि येझूठी प्रतिष्ठा तथा घमंड के कारण हैं, किन्तु ये ऐश्वर्य भगवान् के अनन्य भक्त को कभीविचलित नहीं करते |
एष दानददैत्यानामग्रनी: कीर्तिवर्धन: |
अजैषीदजयां मायां सीदन्नपि न मुहाति ॥
२८॥
एष:--यह बलि महाराज; दानव-दैत्यानाम्--असुरों तथा नास्तिकों में; अग्रनी:--अग्रगण्य भक्त; कीर्ति-वर्धन:--अत्यन्तविख्यात; अजैषीत्--पहले ही बाजी मार चुका है; अजयाम्--अजेय; मायाम्--माया को; सीदन्--( सारे ऐश्वर्य से ) विहीनहोकर; अपि--यद्यपि; न--नहीं; मुह्मति--मोहग्रस्त होता है |
बलि महाराज असुरों एवं नास्तिकों में सर्वाधिक विख्यात हो गये हैं क्योंकि अपने सारे ऐश्वर्यसे वंचित होकर भी वे अपनी भक्ति में अचल हैं |
क्षीणरिक्थए्च्युतः स्थानात्क्षिप्तो बद्धश्च शत्रुभि: |
ज्ञातिभिश्च परित्यक्तो यातनामनुयापित: ॥
२९॥
गुरुणा भर्त्सितः शप्तो जहौ सत्य॑ं न सुब्रतः |
छलैरुक्तो मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाकू ॥
३०॥
क्षीण-रिक्थ:--समस्त प्रकार के धनधान्य से विहीन; च्युत:--गिरा हुआ; स्थानात्--अपने श्रेष्ठ स्थान से; क्षिप्त:--बलपूर्वकफेंका गया; बद्ध: च--तथा जबरदस्ती बाँधा गया; शत्रुभिः--अपने शत्रुओं द्वारा; ज्ञातिभि: च--तथा अपने कुटुम्बियों द्वारा;परित्यक्त:--त्यागा गया; यातनाम्--सभी प्रकार के कष्ट; अनुयापित:--असामान्य रूप से गहन दुख भोगा हुआ; गुरुणा--अपने गुरु द्वारा; भर्त्सित:--भर्त्सना किया गया; शप्त:--तथा शापित; जहौ--छोड़ दिया; सत्यम्--सत्य को; न--नहीं; सु-ब्रतः--अपने ब्रत में अटल; छलै:--छल द्वारा; उक्त:--कहा गया; मया--मेरे द्वारा; धर्म:--धर्म; न--नहीं; अयम्--यह बलिमहाराज; त्यजति--त्याग देता है; सत्य-वाक्--अपने वचन का पक्का
बलि महाराज यद्यपि धनविहीन, अपने मौलिक पद से च्युत, अपने शत्रुओं द्वारा पराजिततथा बन्दी बनाये गये, अपने कुटुम्बियों तथा मित्रों द्वारा भर्तिसित हुए और परित्यक्त, बाँधे जानेकी पीड़ा से पीड़ित तथा अपने गुरु द्वारा भर्त्सित तथा शापित थे, किन्तु वे अपने व्रत में अटलरहे |
उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा |
मैंने तो निश्चित रूप से छल से धर्म के विषय में बातें कहीं,किन्तु उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा क्योंकि वे अपने बचन के पक्षे हैं |
एष मे प्रापितः स्थान दुष्प्रापममररपि |
सावर्णेरन्तरस्यायं भवितेन्द्रो मदाअ्रयः ॥
३१॥
एष:--बलि महाराज; मे--मेरे द्वारा; प्रापित:--प्राप्त किया है; स्थानम्ू--स्थान; दुष्प्रापम्--प्राप्त करने में अत्यन्त कठिन;अमर: अपि--यहाँ तक कि देवताओं के द्वारा भी; सावर्णे: अन्तरस्थ--सावर्णि मनु के काल में; अयम्--यह बलि महाराज;भविता--होगा; इन्द्र: --स्वर्ग का स्वामी; मत्-आश्रय: --पूर्णतः मेरे संरक्षण में ॥
भगवान् ने आगे कहा : उसकी महान् सहनशक्ति के कारण मैंने उसे वह स्थान प्रदान कियाहै, जो देवताओं को भी सुलभ नहीं हो पाता |
वह सावर्णि मनु के काल में स्वर्ग का राजा बनेगा |
तावत्सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम् |
यदाधयो व्याधयश्व क्लमस्तन्द्रा पराभव: |
नोपसर्गा निवसतां सम्भवन्ति ममेक्षया ॥
३२॥
तावत्--जब तक तुम इन्द्र के पद पर नहीं हो; सुतलम्--सुतल नामक लोक; अध्यास्ताम्--वहाँ जाकर उस स्थान पर अधिकारजमाओ; विश्वकर्म-विनिर्मितम्--विश्वकर्मा द्वारा विशेष रूप से निर्मित; यत्--जिसमें; आधय:--मानसिक क्लेश; व्याधय: --शरीर सम्बन्धी कष्ट; च-- भी; कलम:-- थकान; तन्द्रा-- आलस्य; पराभव:--पराजित होकर; न--नहीं; उपसर्गा:-- अन्यउपद्रवों के लक्षण; निवसताम्--वहाँ रहने वालों का; सम्भवन्ति--सम्भव होते हैं; मम--मेरी; ईक्षया--विशेष निगरानी से
जब तक बलि महाराज स्वर्ग के राजा ( इन्द्र ) का पद प्राप्त नहीं कर लेते तब तक वेसुतललोक में रहेंगे जिसे विश्वकर्मा ने मेरे आदेश से निर्मित किया था |
चूँकि इसकी रक्षा मेरेद्वारा विशेष रूप से होती है अतएवं यह मानसिक तथा शारीरिक व्याधियों, थकान, आलस्य,'पराजय तथा अन्य सभी उपद्रवों से मुक्त है |
हे बलि महाराज! अब तुम वहाँ जाकर शान्तिपूर्वकरह सकते हो |
इन्द्रसेन महाराज याहि भो भद्गमस्तु ते |
सुतलं स्वर्गिशि: प्रार्थ्य ज्ञातिभि: परिवारित: ॥
३३॥
इन्द्रसेन--हे महाराज बलि; महाराज--हे राजा; याहि--जाओ; भो:--हे राजा; भद्रमू--कल्याण; अस्तु--हो; ते--तुम्हारा;सुतलम्--सुतललोक में; स्वर्गिभि: --देवताओं द्वारा; प्रार्थ्यम्--वांछित; ज्ञातिभिः--आपके कुटुम्बियों द्वारा; परिवारित:--घिरेहुए
हे बलि महाराज ( इन्द्रसेन )) तुम उस सुतललोक में जाओ जिसकी कामना देवता भी करतेहैं |
वहाँ अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों की संगति में शान्तिपूर्वक रहो |
तुम्हारा कल्याण हो |
न त्वामभिभविष्यन्ति लोकेशा: किमुतापरे |
त्वच्छासनातिगान्दैत्यां श्रक्रं मे सूदयिष्यति ॥
३४॥
न--नहीं; त्वामू--तुमको; अभिभविष्यन्ति--जीत सकेंगे; लोक-ईशा:--विभिन्न लोकों के प्रधान देवता; किम् उत अपरे--सामान्य लोगों के विषय में क्या कहा जाये; त्वत्-शासन-अतिगान्--जो तुम्हारे आदेशों का उल्लंघन करते हैं; दैत्यानू--ऐसेदैत्यों को; चक्रमू--चक्र; मे--मेरा; सूदयिष्यति--मार डालेगा सुतललोक में
सामान्य लोग तो क्या, अन्य लोकों के प्रधान देवता भी तुम्हें नहीं जीतपायेंगे |
रही असुरों की बात, यदि वे तुम्हारे शासन का उल्लंघन करेंगे तो मेरा चक्र उनका वधकर देगा |
रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम् |
सदा सन्निहितं बीर तत्र मां द्रक्ष्य्ते भवान् ॥
३५॥
रक्षिष्ये--रक्षा करूँगा; सर्वतः--सभी प्रकार से; अहम्--मैं; त्वाम्--तुम्हारी; स-अनुगम्--तुम्हारे संगियों सहित; स-परिच्छदम्--साज-सामान सहित; सदा--सदैव; सन्निहितम्--पास ही रहकर; वीर--हे शूरवीर; तत्र--वहाँ, अपने स्थान में;माम्--मुझको; द्रक्ष्यते--देख सकोगे; भवान्ू--तुम |
हे शूरवीर! मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा और तुम्हारे संगियों तथा साज-सामग्री समेत तुम्हेंसभी प्रकार से संरक्षण प्रदान करूँगा |
साथ ही, तुम वहाँ मुझे सदैव देख सकोगे |
तत्र दानददैत्यानां सद्जात्ते भाव आसुरः |
इृष्टा मदनुभावं वै सद्य: कुण्ठो विनड्झ््यति ॥
३६॥
तत्र--उस स्थान में; दानव-दैत्यानाम्--असुरों तथा दानवों की; सड्भात्ू--संगति से; ते--तुम्हारी; भाव: --मनोवृत्ति; आसुर: --आसुरी; दृष्टा--देखकर; मत्-अनुभावम्--मेरी सर्वश्रेष्ठ शक्ति; बै--निस्सन्देह; सद्यः --तुरन्त; कुण्ठ:--चिन्ता; विनड्छ््यति--नष्ट हो जायेगी |
चूँकि तुम्हें वहाँ मेरे परम पराक्रम का दर्शन होगा अतएवं असुरों तथा दानवों की संगति सेतुममें जो भौतिकतावादी विचार एवं चिन्ताएँ उदित हुई हैं, वे तुरन्त ही विनष्ट हो जायेंगी |
अध्याय तेईसवाँ: देवताओं को स्वर्गीय ग्रह पुनः प्राप्त हुए
8.23श्रीशुक उबाचइत्युक्तवन्तं पुरुष पुरातनंमहानुभावोखिलसाधुसम्मतः |
बद्धाञलिबंष्पकलाकुलेक्षणोभकत्युत्कलो गद्गदया गिराब्रवीत् ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्तवन्तम्-- भगवान् के आदेश पर; पुरुषम्-- भगवान्को; पुरातनम्--सबसे अधिक पुरातन; महा-अनुभाव: --बलि महाराज जो महात्मा थे; अखिल-साधु-सम्मत:--सभी सन्तपुरुषों द्वारा अनुमोदित; बद्ध-अज्जञलि:--हाथ जोड़कर; बाष्प-कल-आकुल-ईक्षण:-- अश्रुपूरित नेत्रों से; भक्ति-उत्कल:--प्रेमा-भक्ति से पूरित; गद्गदया--भक्ति-भाव में अवरुद्ध होती; गिरा--वाणी से; अब्नवीत्ू--कहा |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब परम पुरातन नित्य भगवान् ने सर्वत्रमान्य शुद्ध भक्त एवंमहात्मा बलि महाराज से यह कहा तो बलि महाराज ने आँखों में आँसू भरकर, हाथ जोड़करतथा भक्ति-भाव के कारण लड़खड़ाती वाणी से इस प्रकार कहा |
श्रीबलिरुवाचअहो प्रणामाय कृतः समुद्यमःप्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहित: |
यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहो उमरै-रलब्धपूर्वोडपसदेउसुरेडर्पित: ॥
२॥
श्री-बलिः उवाच--बलि महाराज ने कहा; अहो--ओह; प्रणामाय-- अपना सादर नमस्कार अर्पित करने के लिए; कृत:--मैंनेकिया; समुद्यम:--केवल एक प्रयास; प्रपन्न-भक्त-अर्थ-विधौ--शुद्ध भक्तों द्वारा माने जाने वाले विधि-विधानों में;समाहितः--समर्थ है; यत्--जो; लोक-पालै: --विभिन्न लोकों के प्रधानों द्वारा; त्वत्-अनुग्रहः-- आपकी अहैतुकी कृपा;अमरैः--देवताओं द्वारा; अलब्ध-पूर्व:--इसके पूर्व अप्राप्त; अपसदे--मुझ जैसे पतित व्यक्ति पर; असुरे--असुर वंश वाले;अर्पित:--अर्पित |
बलि महाराज ने कहा : आपको सादर नमस्कार करने के प्रयास में भी कैसा अद्भुत प्रभावहै! मैंने तो आपको अपना नमस्कार अर्पित करने का प्रयास ही किया था, किन्तु वह प्रयास शुद्धभक्तों के प्रयासों के समान सफल सिद्ध हुआ |
आपने मुझ पतित असुर पर जो अहैतुकी कृपाप्रदर्शित की है, वह देवताओं या लोकपालों को भी कभी प्राप्त नहीं हुई |
ह कि तः कि ते जज कि तेश्रीशुक उवाचइत्युक्त्वा हरिमानत्य ब्रह्माणं सभवं ततः |
विवेश सुतलं प्रीतो बलिर्मुक्त: सहासुरै: ॥
३॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति उक्त्वा--यह कहकर; हरिम्--हरि को; आनत्य--नमस्कार करके;ब्रह्मणम्--ब्रह्माजी को; स-भवम्--शिवजी के साथ; ततः--तत्पश्चात्; विवेश--प्रवेश किया; सुतलम्ू--सुतललोक में;प्रीतः--पूरी तरह प्रसन्न; बलि:--बलि महाराज ने; मुक्त:--इस प्रकार बन्धन से मुक्त; सह असुरैः--अपने असुर संगियों केसाथ
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार कहने के पश्चात् बलि महाराज ने सर्वप्रथमभगवान् हरि को और फिर ब्रह्माजी तथा शिवजी को नमस्कार किया |
इस तरह वे नागपाश ( वरुणपाश ) से मुक्त कर दिये गये और पूर्णतया सन्तुष्ट होकर सुतललोक में प्रविष्ट हुए |
एवमिन्द्राय भगवाद्प्रत्यानीय त्रिविष्टपम् |
पूरयित्वादिते: काममशासत्सकलं जगत् ॥
४॥
एवम्--इस तरह; इन्द्राय--इन्द्र को; भगवानू-- भगवान् ने; प्रत्यानीय--वापस देकर; त्रि-विष्टपम्--स्वर्ग लोकों में अपनीश्रेष्ठता; पूरयित्वा--पूरा करके; अदितेः--अदिति की; कामम्--इच्छा; अशासत्--शासन किया; सकलम्ू-ूर्ण; जगत्--ब्रह्माण्ड |
इस प्रकार इन्द्र को स्वर्गलोकों का स्वामित्व प्रदान करके तथा देवमाता अदिति की इच्छापूरी करके भगवान् ब्रह्माण्ड के कार्यकलापों पर शासन करने लगे |
लब्धप्रसादं निर्मुक्तं पौत्रं वंशधरं बलिम् |
निशाम्य भक्तिप्रवण: प्रह्मद इृदमब्रवीत् ॥
५॥
लब्ध-प्रसादम्ू--जिसे भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था; निर्मुक्तम्--बन्धन से छोड़ा गया; पौत्रम्--अपने नाती को; बंश-धरम्--वंशज; बलिम्--बलि महाराज को; निशाम्य--सुनकर; भक्ति-प्रवण:--भक्ति-भाव से पूरित; प्रह्मद:--प्रह्माद महाराजने; इदम्--यह; अब्रवीत्ू--कहा
जब प्रह्नाद महाराज ने सुना कि उनका पौत्र तथा वंशज बलि महाराज किस तरह बन्धन सेमुक्त किया गया है और उसे भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त हुआ है, तो वे अत्यधिक प्रेमा-भक्तिके स्वर में इस प्रकार बोले |
श्रीप्रहाद उवाचनेमं विरिश्ञो लभते प्रसादंन श्रीर्न शर्व: किमुतापरेउन्ये |
यन्नोउसुराणामसि दुर्गपालोविश्वाभिवन्दैरभिवन्दिताड्ध्रि: ॥
६॥
श्री-प्रह्मद: उवाच-- प्रह्नाद महाराज ने कहा; न--नहीं; इमम्--यह; विरिज्ञः--ब्रह्माजी भी; लभते--प्राप्त कर सकता है;प्रसादम्-- आशीर्वाद; न--न तो; श्री:--लक्ष्मीजी; न--न तो; शर्व:--शिवजी; किम् उत--क्या कहा जाये; अपरे अन्ये--अन्य; यत्--जो आशीर्वाद; नः--हम; असुराणाम्--असुरों का; असि--हो; दुर्ग-पाल:--पालक; विश्व-अभिवन्द्चै:--समस्तब्रह्माण्ड में पूजित ब्रह्माजी तथा शिवजी जैसे महापुरुषों के द्वारा; अभिवन्दित-अड्धघ्रि:--जिनके चरणकमल पूज्य हैं |
प्रह्ाद महाराज ने कहा : हे भगवान्! आप विश्वपूज्य हैं, यहाँ तक कि ब्रह्माजी तथा शिवजीभी आपके चरणकमलों की पूजा करते हैं |
इतने महान् होते हुए भी आपने कृपापूर्वक हम असुरों की रक्षा करने का वचन दिया है |
मेरा विचार है कि ब्रह्माजी, शिवजी या लक्ष्मीजी को भी कभीऐसी दया प्राप्त नहीं हुईं; तो अन्य देवताओं या सामान्य व्यक्तियों की बात ही क्या है! यत्पादपद्ममकरन्दनिषेवणेनब्रह्मादय: शरणदाश्नुवते विभूती: |
कस्माह्दयं कुसृतयः खलयोनयस्तेदाक्षिण्यदृष्टिपदवीं भवतः प्रणीता: ॥
७॥
यत्--जिसके ; पाद-पढ--चरणकमल के; मकरन्द--मधु का; निषेवणेन--सेवा करने की मिठास को चखकर; ब्रह्म-आदय: --ब्रह्माजी जैसे महापुरुष; शरण-द--हे सबके परम आश्रय भगवान्; अश्नुवते-- भोग करते हैं; विभूती:--आपके द्वारादिये गये आशीर्वाद; कस्मात्ू-कैसे; वयम्--हम सब; कु-सृतयः--सारे धूर्त तथा चोर; खल-योनय:--ईर्ष्या रखने वाले वंश( असुर वंश ) में उत्पन्न; ते--वे असुर; दाक्षिण्य-दृष्टि-पदवीम्--दयादृष्टि से प्राप्त पद; भवतः--आपका; प्रणीता:--प्राप्त कियाहै |
हे सबके परम आश्रय! ब्रह्माजी जैसे महापुरुष आपके चरणकमलों की सेवा रूपी मधु कास्वाद चखने मात्र से सिद्धि को भोग पाते हैं |
किन्तु हम लोगों पर, जो सारे के सारे धूर्त हैं औरअसुरों के ईर्ष्यालु वंश में जन्मे हैं आपकी कृपा किस प्रकार हो सकी ? यह तो केवल इसीलिएसम्भव हो सका है क्योंकि आपकी कृपा अहैतुकी है |
चित्र तवेहितमहो मितयोगमाया-लीलाविसूष्टभुवनस्य विशारदस्य |
सर्वात्मग: समहशोविषम: स्वभावोभक्तप्रियो यदसि कल्पतरुस्वभाव: ॥
८॥
चित्रम्--अत्यन्त अद्भुत; तव ईहितम्--तुम्हारे सारे कार्यकलाप; अहो --ओह; अमित-- असीम; योगमाया--आपकीआध्यात्मिक शक्ति की; लीला--लीला द्वारा; विसृष्ट-भुवनस्य--आपका, जिन्होंने समस्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि की है;विशारदस्य--सभी प्रकार से पटु आपका; सर्व-आत्मन:--सर्वव्यापी भगवान् का; सम-हृश:--सबके प्रति समभाव रखने वाला; अविषम:ः--बिना भेदभाव के; स्वभाव:--यही आपका लक्षण है; भक्त-प्रिय:--ऐसी परिस्थिति में आप भक्तों केअत्यन्त अनुकूल बन जाते हो; यत्--क्योंकि; असि--हो; कल्पतरु-स्वभाव:--कल्पवृक्ष के गुण वाला |
हे प्रभ!ु आपकी लीलाएँ आपकी अचिन्त्य आध्यात्मिक शक्ति द्वारा विचित्र ढंग से सम्पन्नहोती हैं और अपने विकृत प्रतिबिम्ब अर्थात् भौतिक शक्ति ( माया ) द्वारा आपने सारे ब्रह्माण्डोंकी सृष्टि की है |
आप सभी जीवों के परमात्मा के रूप में हर बात जानते हैं; अतएव निश्चय ही,आप सब पर समान दृष्टि रखते हैं |
तो भी आप अपने भक्तों का पक्ष लेते हैं |
यह पक्षपात नहीं हैक्योंकि आपका यह गुण उस कल्पवृक्ष की तरह है, जो इच्छानुसार कोई भी वस्तु प्रदान करताहै |
श्रीभगवानुवाचवत्स प्रह्माद भद्गं ते प्रयाहि सुतलालयम् |
मोदमानः स्वपौत्रेण ज्ञातीनां सुखभावह ॥
९॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; वत्स-हे प्रिय पुत्र; प्रह्दाद--हे प्रह्ाद महाराज; भद्रम् ते--तुम्हारा कल्याण हो;प्रयाहि--जाओ; सुतल-आलयमू--सुतल नामक स्थान को; मोदमान:--प्रसन्न मन से; स्व-पौत्रेण-- अपने पौत्र ( बलिमहाराज ) सहित; ज्ञातीनाम्ू-कुटुम्बियों तथा मित्रों का; सुखम्--सुख; आवह--भोग करो
भगवान् ने कहा : हे मेरे प्रिय पुत्र प्रह्मद! तुम्हारा मंगल हो |
अभी तुम सुतल नामक स्थानको जाओ और वहाँ अपने पौत्र एवं अन्य कुटुम्बियों तथा मित्रों सहित सुख भोगो |
नित्यं द्रष्टासि मां तत्र गदापाणिमवस्थितम् |
महर्शनमहाह्लादध्वस्तकर्मनिबन्धन: ॥
१०॥
नित्यमू--निरन्तर; द्रष्ठा--देखने वाला; असि--हो; माम्ू--मुझको; तत्र--वहाँ ( सुतललोक में ); गदा-पाणिम्ू--हाथ में गदालिए; अवस्थितम्--वहाँ स्थित; मत्-दर्शन--उस रूप में मेरा दर्शन करके; महा-आह्वाद--दिव्य आनन्द से; ध्वस्त--विनष्ट;कर्म-निबन्धन:--सकाम कर्मों का बन्धन |
भगवान् ने प्रहाद महाराज को आश्वासन दिया कि तुम वहाँ पर हाथों में शंख, चक्र, गदातथा कमल लिए मेरे नित्य रूप का दर्शन कर सकोगे |
वहाँ मेरे निरन्तर प्रत्यक्ष दर्शन से दिव्यआनन्द प्राप्त करके तुम और अधिक कर्म-बन्धन में नहीं पड़ोगे |
श्रीशुक उवाचआज्ञां भगवतो राजन्प्रहादो बलिना सह |
बाढमित्यमलप्रज्ञो मूर्ध्याधाय कृताझ्ललि: ॥
११॥
परिक्रम्यादिपुरुषं सर्वासुरचमूपति: |
प्रणतस्तदनुज्ञातः प्रविवेश महाबिलम् ॥
१२॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; आज्ञामू--आदेश; भगवतः -- भगवान् का; राजन्--हे राजा ( परीक्षितमहाराज ); प्रह्मदः--प्रह्माद महाराज; बलिना सह--बलि महाराज के साथ-साथ; बाढम्--महोदय, आप जो कहते हैं ठीक है;इति--इस प्रकार; अमल-प्रज्ञ:--विमल बुद्धि वाले प्रह्मद महाराज; मूर्धिन--अपने सिर पर; आधाय--रखकर; कृत-अज्जलि:--हाथ जोड़े; परिक्रम्य--प्रदक्षिणा करके; आदि-पुरुषम्--परम आदि पुरुष भगवान् को; सर्व-असुर-चमूपति: --असुरों के समस्त नायकों के स्वामी; प्रणतः--नमस्कार करके ; तत्-अनुज्ञात:--उनसे ( वामन से ) अनुमति पाकर; प्रविवेश--प्रवेश किया; महा-बिलम्ू--सुतल नामक लोक में
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित! समस्त असुर-पतियों के स्वामी प्रह्लादमहाराज ने बलि महाराज समेत हाथ जोड़कर भगवान् के आदेश को सिर पर चढ़ाया |
भगवान्से हाँ कह कर, उनकी प्रदक्षिणा करके तथा उन्हें सादर प्रणाम करके उन्होंने सुतल नामकअधोलोक में प्रवेश किया |
अथाहोशनसं राजन्हरिनारायणोउन्तिके |
आसीनमृत्विजां मध्ये सदसि ब्रह्मवादिनाम् ॥
१३॥
अथ--त्पश्चात्; आह--कहा; उशनसम्--शुक्राचार्य से; राजन्--हे राजा; हरि: -- भगवान् ने; नारायण: -- स्वामी; अन्तिके --निकट ही; आसीनम्--बैठे हुए; ऋत्विजाम् मध्ये--सभी पुरोहितों की टोली में; सदसि--सभा में; ब्रह्म-वादिनाम्--वैदिकनियमों के पालनकर्ताओं की |
तत्पश्चात् भगवान् हरि या नारायण ने शुक्राचार्य को सम्बोधित किया जो पुरोहितों ( ब्रह्म,होता, उद्गाता तथा अध्वर्यु ) के निकट ही सभा में बैठे थे |
हे महाराज परीक्षित! ये सभी पुरोहितब्रह्मवादी थे अर्थात् यज्ञ सम्पन्न करने के लिए वैदिक सिद्धान्तों का पालन करने वाले थे |
ब्रह्मन्सन्तनु शिष्यस्य कर्मच्छिद्रं वितन्वतः |
यत्तत्कर्मसु वैषम्यं ब्रह्मदृष्ट सम॑ भवेत् ॥
१४॥
ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; सन्तनु--कृपया वर्णन करें; शिष्यस्थ--अपने शिष्य का; कर्म-छिद्रमू--सकाम कर्म के दोष; वितन्वतः--यज्ञकर्ता के; यत् तत्--जो; कर्मसु--कार्यों में; वैषम्यम्--त्रुटि; ब्रह्म-दृष्टमू-ब्राह्मणों की दृष्टि में; समम्--सम; भवेत्--होजाती है
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ शुक्राचार्य! आप यज्ञ में लगे अपने शिष्य बलि महाराज का अपराध या कमीबतलाइये |
इस अपराध का निराकरण योग्य ब्राह्मणों की उपस्थिति में निर्णय लेने पर होजाएगा |
श्रीशुक्र उवाचकुतस्तत्कर्मवैषम्यं यस्य कर्मे श्वरो भवान् |
यज्ञेशो यज्ञपुरुष: सर्वभावेन पूजित: ॥
१५॥
श्री-शुक्र: उबाच-- श्री शुक्राचार्य ने कहा; कुतः--कहाँ है; तत्ू--उसका ( बलि का ); कर्म-वैषम्यम्--सकाम कर्म करने मेंत्रुटि; यस्थ--जिसका ( बलि का ); कर्म-ईश्वरः-- सारे सकाम कर्मों के स्वामी; भवान्ू--आप; यज्ञ-ईशः--सारे यज्ञों केभोक्ता; यज्ञ-पुरुष:--आप ही वे पुरुष हैं जिनकी प्रसन्नता के लिए सारे यज्ञ किये जाते हैं; सर्व-भावेन--सभी प्रकार से;'पूजित:--पूजित होकर |
शुक्राचार्य ने कहा : हे प्रभु! आप यज्ञ के भोक्ता हैं और सभी यज्ञों को सम्पन्न कराने वालेहैं |
आप यज्ञपुरुष हैं अर्थात् आप ही वे पुरुष हैं जिनके लिए सारे यज्ञ किये जाते हैं |
यदि किसीने आपको पूरी तरह संतुष्ट कर लिया तो फिर उसके यज्ञ करने में त्रुटियों अथवा दोषों के होने का अवसर ही कहाँ रह जाता है? मन्त्रतस्तन्त्रतश्छद्रं देशकालाईवस्तुत: |
सर्व करोति निश्छद्रमनुसड्डीर्तन॑ तब ॥
१६॥
मन्त्रतः--वैदिक मंत्रों का गलत उच्चारण करने से; तन्त्रतः--कर्मकाण्ड पालन के लिए अधूरे ज्ञान से; छिद्रमू--दोष; देश--देश; काल--तथा समय; अई--तथा पात्र; वस्तुतः--तथा सामग्री; सर्वम्ू--ये सब; करोति--बनाता है; निश्छिद्रमू--त्रुटिहीन;अनुसड्डीर्तनम्-पवित्र नाम का निरन्तर कीर्तन; तब--आपका |
मंत्रों के उच्चारण तथा कर्मकाण्ड के पालन में त्रुटियाँ हो सकती हैं |
देश, काल, व्यक्तितथा सामग्री के विषय में भी कमियाँ रह सकती हैं |
किन्तु भगवन्! यदि आपके पवित्र नाम काकीर्तन किया जाए तो हर वस्तु दोषरहित बन जाती है |
तथापि बदतो भूमन्करिष्याम्यनुशासनम् |
एतच्छेय: परं पुंसां यत्तवाज्ञानुपालनम् ॥
१७॥
तथापि--यद्यपि बलि महाराज का कोई दोष न था, तो भी; वदतः--आपके आदेश के कारण; भूमन्--हे परम; करिष्यामि--मैं करुँगा; अनुशासनम्ू-- क्योंकि यह आपका आदेश है; एतत्--यह; श्रेयः--शुभ; परमू--परम; पुंसामू--सभी मनुष्यों का;यत्--क्योंकि; तव आज्ञा-अनुपालनमू--आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए |
हे भगवान् विष्णु) तो भी मैं आपके आदेशानुसार आपकी आज्ञा का पालन करूँगा क्योंकिआपके आदेश का पालन करना परम शुभ है और हर एक का सर्वोपरि कर्तव्य है |
श्रीशुक उबाचप्रतिनन्द्य हरेराज्ञामुशना भगवानिति |
यज्ञच्छिद्रं समाध्षत्त बलेविंप्र्षिभि: सह ॥
१८॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; प्रतिनन्द्य--नमस्कार करके; हरेः-- भगवान् की; आज्ञामू--आज्ञा को;उशना:--शुक्राचार्य; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; इति--इस प्रकार; यज्ञ-छिद्रमू--यज्ञ करने में त्रुटियाँ; समाधत्त--पूराकरने का निश्चय किया; बलेः:--बलि महाराज का; विप्र-ऋषिभि:--योग्यब्राह्मणों के; सह--साथ |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार परम शक्तिशाली शुक्राचार्य ने आदरपूर्वकभगवान् की आज्ञा स्वीकार कर ली |
उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मणों के साथ बलि महाराज द्वारा सम्पन्न यज्ञकी त्रुटियों को पूरा करना शुरू कर दिया |
एवं बलेम॑हीं राजन्भिक्षित्वा वामनो हरि: |
ददौ क्षात्रे महेन्द्राय त्रिदिवं यत्परईतम् ॥
१९॥
एवम्--इस प्रकार; बलेः--बलि महाराज से; महीम्-- भूमि को; राजनू--हे राजा परीक्षित; भिक्षित्वा--माँगकर; वामन:--भगवान् वामनदेव; हरि: -- भगवान् ने; ददौ--दे दिया; भ्रात्रे-- अपने भाई को; महा-इन्द्राय--स्वर्ग के राजा इन्द्र को;त्रिदिवमू--देवलोक; यत्--जो; परैः--अन्यों द्वारा; हतम्--छीन लिया गया था |
हे राजा परीक्षित! इस प्रकार भिक्षा के रूप में बलि महाराज की सारी भूमि लेकर भगवान्वामनदेव ने उसे अपने भाई इन्द्र को दे दिया जिसे इन्द्र के शत्रु ने ले लिया था |
प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा देवर्षिपितृभूमिपैः |
दक्षभूग्वड्धिरोमुख्यै: कुमारेण भवेनच ॥
२०॥
कश्यपस्यादिते:ः प्रीत्ये सर्वभूतभवाय च |
लोकानां लोकपालानामकरोद्वामनं पतिम् ॥
२१॥
प्रजापति-पति:--सारे प्रजापतियों के स्वामी; ब्रह्मा --ब्रह्माजी ने; देब--देवताओं सहित; ऋषि--सन्त पुरुषों के साथ; पितृ--पितृलोक के निवासियों के साथ; भूमिपै:--मनुओं के साथ; दक्ष--दक्ष; भूगु--भूगु मुनि; अड्भिरः--अंगिरा मुनि के साथ;मुख्यैः--विभिन्न लोकों के प्रधानों के साथ; कुमारेण--कार्तिकेय के साथ; भवेन--शिवजी के साथ; च-- भी; कश्यपस्य--कश्यप मुनि की; अदिते:--अदिति की; प्रीत्यै--प्रसन्नता के लिए; सर्व-भूत-भवाय--समस्त जीवों के मंगल हेतु; च-- भी;लोकानाम्--सारे लोकों के; लोक-पालानाम्--समस्त लोकों के प्रधान पुरुषों का; अकरोत्--बना दिया; वामनमू--वामनको; पतिमू--परम नेता |
ब्रह्माजी ने (जो राजा दक्ष तथा अन्य सभी प्रजापतियों के स्वामी हैं ) सारे देवताओं, महान्सन््तों, पितृलोक के वासियों, मनुओं, मुनियों और दक्ष, भूगु तथा अंगिरा जैसे नायकों एवंकार्तिकेय तथा शिवजी सहित भगवान् वामनदेव को हर एक के संरक्षक के रूप में ग्रहणकिया |
यह सब उन्होंने कश्यप मुनि तथा उनकी पत्नी अदिति की प्रसन्नता के लिए एवं ब्रह्माण्डके समस्त वासियों तथा उनके विभिन्न नायकों के कल्याण के लिए किया |
वेदानां सर्वदेवानां धर्मस्य यशस: थियः |
मड़लानां ब्रतानां च कल्पं स्वर्गापवर्गयो: ॥
२२॥
उपेन्द्रं कल्पयां चक्रे पतिं सर्वविभूतये |
तदा सर्वाणि भूतानि भृशं मुमुदिरि नृूप ॥
२३॥
वेदानाम्--समस्त वेदों की ( रक्षा के लिए ); सर्व-देवानाम्--सारे देवताओं का; धर्मस्थ--सारे धर्मों का; यशसः--सारे यशका; श्रिय:--समस्त ऐश्वर्यों का; मड्लानाम्--सारे कल्याण का; ब्रतानाम् च--तथा सारे ब्रतों का; कल्पम्--अत्यन्त पटु;स्वर्ग-अपवर्गयो: --स्वर्ग जाने या भवबन्धन से मुक्ति के लिए; उपेन्द्रमू-- भगवान् वामनदेव को; कल्पयाम् चक्रे --यह योजनाबनाई; पतिम्--स्वामी को; सर्व-विभूतये--सभी कार्यो के लिए; तदा--उस समय; सर्वाणि--सभी; भूतानि--जीवों को;भृशम्--अत्यधिक; मुमुदिरि--प्रसन्न हो गये; नृप--हे राजा
हे राजा परीक्षित! इन्द्र को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का राजा माना जाता था, किन्तु ब्रह्माजी समेतअन्य देवता उपेन्द्र अर्थात् वामनदेव को वेदों, धर्म, यश, ऐश्वर्य, मंगल, व्रत, स्वर्गलोक तकउन्नति तथा मुक्ति के रक्षक के रूप मे चाहते थे |
इसलिए उन्होंने उपेन्द्र अर्थात् भगवान् वामनदेव,को सबका परम स्वामी स्वीकार कर लिया |
इस निर्णय से सारे जीव अत्यधिक प्रसन्न हो गए |
ततस्त्विन्द्र: पुरस्कृत्य देवयानेन वामनम् |
लोकपार्लैर्दिवं निन्ये ब्रह्मणा चानुमोदित: ॥
२४॥
ततः--तत्पश्चात्; तु--लेकिन; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; पुरस्कृत्य--आगे रखकर; देव-यानेन--देवताओं द्वारा प्रयुक्त वायुयानद्वारा; वामनम्--वामनदेव को; लोक-पालै:--अन्य सभी लोकों के प्रधानों द्वारा; दिवम्--स्वर्ग को; निन््ये--ले आया;ब्रह्मणा--ब्रह्माजी द्वारा; च-- भी; अनुमोदित: --अनुमति प्राप्त |
तत्पश्चात् स्वर्गलोकों के सारे प्रधानों सहित स्वर्ग के राजा, इन्द्र, वामनदेव को अपने समक्ष करके ब्रह्मा की अनुमति से, उन्हें दैवी वायुयान में बैठा कर स्वर्गलोक ले आये |
प्राप्य त्रिभुवन चेन्द्र उपेन्द्रभुजपालित: |
श्रिया परमया जुष्टो मुमुदे गतसाध्वस: ॥
२५॥
प्राप्प--प्राप्त करके; त्रि-भुवनम्--तीनों लोक; च-- भी ; इन्द्र: --स्वर्ग के राजा ने; उपेन्द्र-भुज-पालितः --उपेन्द्र अर्थात्वामनदेव के बाहुबल से रक्षित होकर; थ्रिया--ऐश्वर्य के द्वारा; परमया--परम; जुष्ट:--सेवा किया गया; मुमुदे-- भोग किया;गत-साध्वस:--असुरों के भय से रहित
इस प्रकार भगवान् वामनदेव की बाहुओं से रक्षित होकर स्वर्ग के राजा इन्द्र ने तीनों लोकोंका अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया और निर्भय होकर तथा पूर्णतया सन्तुष्ट होकर वे अपनेपरम ऐश्वर्यशाली पद पर पुनः प्रतिष्ठित कर दिए गए |
ब्रह्मा शर्व: कुमारश्च भृग्वाद्या मुनयो नृप |
पितरः सर्वभूतानि सिद्धा वैमानिकाश्व ये ॥
२६॥
सुमहत्कर्म तद्विष्णोर्गायन्तः परमद्भुतम् |
धिष्ण्यानि स्वानि ते जग्मुरदितिं च शशंसिरे ॥
२७॥
ब्रह्मा--ब्रह्माजी; शर्व:--शिवजी; कुमार: च--तथा कार्तिकेय; भृगु-आद्या:--सप्तर्षियों में से एक भृगुमुनि आदि; मुनयः--मुनिगण; नृप--हे राजा; पितर:--पितृलोक के निवासी; सर्व-भूतानि--अन्य जीव; सिद्धा:--सिद्धलोक के निवासी;वैमानिका: च--वायुयान द्वारा आकाश में कहीं भी विचरण कर सकने वाले मनुष्य; ये--जो लोग; सुमहत्--अत्यधिकप्रशंसनीय; कर्म--कार्यकलाप; तत्--वे सब ( कर्म ); विष्णो:--भगवान् विष्णु द्वारा किये गये; गायन्त:--महिमागायन करतेहुए; परम् अद्भुतम्--असामान्य तथा अद्भुत; धिष्ण्यानि--लोकों को; स्वानि--अपने-अपने; ते--वे सब; जम्मु:;--चले गये;अदितिम् च--अदिति को भी; शशंसिरे-- भगवान् के इन कार्यकलापों की प्रशंसा की |
ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, महर्षि भूगु, अन्य सन्त, पितृलोक के वासी तथा सिद्धलोक केनिवासी एवं वायुयान द्वारा बाह्रा आकाश की यात्रा करने वाले जीवों के समेत वहाँ पर उपस्थितसारे मनुष्यों ने भगवान् वामनदेव के असामान्य कार्यो की महिमा का गायन किया |
हे राजा!भगवान् का कीर्तन एवं उनकी महिमा का गायन करते हुए वे सभी अपने-अपने स्वर्ग लोकों कोलौट गये |
उन्होंने अदिति के पद की भी प्रशंसा की |
सर्वमेतन्मयाख्यातं भवतः कुलनन्दन |
उरुक्रमस्थ चरितं श्रोतृणामघमोचनम् ॥
२८॥
सर्वम्ू--सब; एतत्--ये घटनाएँ; मया--मेरे द्वारा; आख्यातम्ू--वर्णित की गईं हैं; भवतः--आपकी; कुल-नन्दन--अपने वंशके आनन्द, हे महाराज परीक्षित; उरुक़मस्थ-- भगवान् के ; चरितम्--कार्यकलापों को; श्रोतृणाम्-- श्रोताओं का; अघ-मोचनम्--पापों के फलों को नष्ट करने |
हे महाराज परीक्षित! हे अपने वंश के आनन्द! मैंने अब तुमसे भगवान् वामनदेव के अद्भुतकार्यों के विषय में सारा वर्णन कर दिया है |
जो लोग इसे सुनते हैं, वे निश्चित रूप से पापकर्मोके सभी फलों से मुक्त हो जाते हैं |
पारं महिम्न उरुविक्रमतो गृणानोयः पार्थिवानि विममे स रजांसि मर्त्य: |
कि जायमान उत जात उपैति मर्त्यइत्याह मन्त्रहगृषि: पुरुषस्थ यस्थय ॥
२९॥
पारमू--माप; महिम्न:--यश की; उरुविक्रमत:-- अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् का; गृणान:--गिन सकता है; यः--जोव्यक्ति; पार्थिवानि--सम्पूर्ण पृथ्वी लोक का; विममे--गिन सकता है; सः--वह; रजांसि--कण; मर्त्य:--मरणशील मनुष्य;किम्--क्या; जायमान:--भविष्य में जन्म लेकर; उत--या तो; जात:--उत्पन्न; उपैति--कर सकता है; मर्त्य:--मरणशीलव्यक्ति; इति--इस प्रकार; आह--कहा; मन्त्र-हक्--जो वैदिक मंत्रों को पहले से ही देख सकते थे; ऋषि:--वसिष्ठ मुनि;पुरुषस्थ--परम पुरुष का; यस्य--जिसका |
मरणशील व्यक्ति भगवान् त्रिविक्रम अर्थात् विष्णु की महिमा की थाह नहीं पा सकता जिसप्रकार कि वह सम्पूर्ण पृथ्वी लोक के कणों की संख्या नहीं जान सकता |
कोई भी व्यक्ति जिसनेजन्म धारण किया है या जो जन्म लेने वाला है ऐसा नहीं कर सकता |
इसका गायन महर्षि वसिष्ठने किया है |
य इदं देवदेवस्य हरेरद्भधुतकर्मण: |
अवतारानुचरितं श्रुण्वन्याति परां गतिम् ॥
३०॥
यः--जो कोई; इृदम्--यह; देव-देवस्य-- भगवान् का, जो देवताओं द्वारा पूज्य हैं; हरेः-- भगवान् कृष्ण या हरि का; अद्भुत-कर्मण:--जिनके कार्यकलाप अद्भुत हैं; अवतार-अनुचरितम्--उनके विभिन्न अवतारों में सम्पन्न कार्यकलाप; श्रण्वनू--सुनतेहुए; याति--जाता है; पराम् गतिम्ू--परम सिद्धि को, भगवद्धाम को |
यदि कोई भगवान् के विभिन्न अवतारों के असामान्य कार्यकलापों का श्रवण करता है, तोवह निश्चित रूप से स्वर्गलोक को भेजा जाता है या भगवान् के धाम को वापस जाता है |
क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्येथ मानुषे |
यत्र यत्रानुकीरत्येत तत्तेषां सुकृतं विदु: ॥
३१॥
क्रियमाणे--सम्पन्न हो जाने पर; कर्मणि-- अनुष्ठान का; इृदम्--वामनदेव के गुणों का यह विवरण; दैवे--देवताओं को प्रसन्नकरने के लिए; पित्रये--या पूर्वजों को प्रसन्न करने यथा श्राद्ध उत्सव में; अथ--या तो; मानुषे--मानव समाज के आनन्द केलिए यथा विवाहों में; यत्र--जहाँ भी; यत्र--जब भी; अनुकीर्त्येत--वर्णन किया जाता है; तत्--वह; तेषाम्ू--उनके लिए;सुकृतम्--शुभ; विदु:--हर एक को समझना चाहिए
जब भी कर्मकाण्ड के दौरान, चाहे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए या पितृलोक केपितरों को प्रसन्न करने के लिए कोई उत्सव किया जाए, या विवाह जैसा सामाजिक कृत्य मनानेके लिए वामनदेव के कार्यकलापों का वर्णन हो, तो उस उत्सव को परम मंगल-मय समझनाचाहिए |
अध्याय चौबीस: मत्स्य, भगवान का मछली अवतार
8.24श्रीराजोबाचभगवज्छोतुमिच्छामि हरेरद्धुतकर्मण: |
अवतारकथामाद्यांमायामत्स्यविडम्बनम् ॥
१॥
श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; भगवन्--हे शक्तिमान; श्रोतुम्--सुनने की; इच्छामि--इच्छा करता हूँ; हरेः--भगवान् हरि के; अद्भुत-कर्मण:--जिनके कार्यकलाप अद्भुत हैं; अवतार-कथाम्--अवतार की लीलाएँ; आद्याम्-प्रथम;माया-मत्स्य-विडम्बनमू--जो मछली का अनुकरण मात्र है |
महाराज परीक्षित ने कहा : भगवान् हरि नित्य ही अपने दिव्य पद पर स्थित हैं; फिर भी वेइस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं और विभिन्न रूपों में अपने आपको प्रकट करते हैं |
उनकापहला अवतार एक बड़ी मछली के रूप में हुआ |
हे सर्व-शक्तिमान शुकदेव गोस्वामी! मैं आपसेउस मत्स्यावतार की लीलाएँ सुनने का इच्छुक हूँ |
यदर्थमदधादूपं मात्स्यं लोकजुगुप्सितम् |
तमःप्रकृतिदुर्मर्ष कर्मग्रस्त इवेश्वर: ॥
२॥
एतन्नो भगवन्सर्व यथादद्वक्तुमहसि |
उत्तमएलोकचरितं सर्वलोकसुखावहम् ॥
३॥
यतू-अर्थम्-किस हेतु; अदधात्--स्वीकार किया; रूपम्ू--रूप; मात्स्यमू--मछली का; लोक-जुगुप्सितम्--इस संसार मेंतुच्छ मानी जाने वाली; तम:ः--तमोगुणी; प्रकृति--आचरण; दुर्मर्षम्ू--जो अत्यन्त पीड़ा-दायक तथा गर्हित है; कर्म-ग्रस्त:--कर्म के नियमों के अधीन; इब--सहश; ईश्वरः:-- भगवान्; एतत्--ये सारे तथ्य; न:--हमको; भगवनू--हे अत्यन्त शक्तिशालीसाधु; सर्वम्--हर वस्तु; यथावत्--ठीक से; वक्तुम् अहंसि--कृपा करके बतलायें; उत्तमशएलोक-चरितम्-- भगवान् कीलीलाएँ; सर्व-लोक-सुख-आवहम्--जिसको सुनने से सभी सुखी होते हैं |
किस कारण से भगवान् ने कर्म-नियम के अन्तर्गत विविध रूप धारण करने वाले सामान्यजीव की भाँति ग्ित मछली का रूप स्वीकार किया ? मछली का रूप निश्चित रूप से गर्हित एवंघोर पीड़ा से पूर्ण होता है |
हे प्रभु! इस अवतार का क्या उद्देश्य था? कृपा करके मुझे समझाइयेक्योंकि भगवान् की लीलाओं का श्रवण हर एक के लिए मंगलकारी होता है |
श्रीसूत उबाचइत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान्बादरायणि: |
उवबाच चरितं विष्णोर्मत्स्यरूपेण यत्कृतम् ॥
४॥
श्री-सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; इति उक्त: --इस प्रकार पूछे जाने पर; विष्णु-रातेन--महाराज परीक्षित द्वारा, जोविष्णुरात कहलाते हैं; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; बादरायणि:--व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गास्वामी ने; उवाच--कहीं;चरितम्--लीलाएँ; विष्णो:-- भगवान् विष्णु की; मत्स्य-रूपेण--मछली के रूप में उनके द्वारा; यत्--जो भी; कृतम्--कीगईं |
सूत गोस्वामी ने कहा : जब परीक्षित महाराज ने शुकदेव गोस्वामी से इस प्रकार जिज्ञासाप्रकट की तो उस महान् शक्तिशाली साधु पुरुष ने भगवान् के मत्स्यावतार की लीलाओं कावर्णन करना प्रारम्भ कर दिया |
श्रीशुक उबाचगोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वर: |
रक्षामिच्छंस्तनूर्थत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि ॥
५॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गो--गायों का; विप्र--ब्राह्मणों का; सुर--देवताओं का; साधूनाम्ू--तथाभक्तों का; छन्दसाम् अपि--यहाँ तक कि वैदिक वाड्मय का भी; च--तथा; ईश्वर: --परम नियन्ता; रक्षाम्--रक्षा; इच्छन् --चाहते हुए; तनूः धत्ते--अवतारों के रूप धारण करते हैं; धर्मस्य-- धर्म का; अर्थस्य--जीवन के उद्देश्य के नियमों का; च--तथा; एब--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही |
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन! गायों, ब्राह्मणों, देवताओं, भक्तों, वैदिक वाड्मय,धार्मिक सिद्धान्तों तथा जीवन के उद्देश्य को पूरा करने वाले नियमों की रक्षा करने के लिएभगवान् अवतरित होते हैं |
उच्चावचेषु भूतेषु चरन्वायुरिवेश्वर: |
नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्द्धियो गुणै: ॥
६॥
उच्च-अवचेषु--उच्च या निम्न स्वरूपों वाले; भूतेषु--जीवों में; चरन्ू--आचरण करते हुए; वायु: इब--वायु की भाँति;ईश्वरः--परमे श्वर; न--नहीं ; उच्च-अवचत्वम्-- उच्च या निम्न कोटि के जीवन का गुण; भजते--स्वीकार करते हैं;निर्गुणत्वात्ू--समस्त भौतिक गुणों से ऊपर या दिव्य होने के कारण; धिय:--सामान्यतया; गुणै:-- प्रकृति के गुणों के द्वारा |
यद्यपि भगवान् कभी मनुष्य रूप में और कभी निम्न पशु के रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु वेविभिन्न प्रकार के वायुमण्डल में से गुजरने वाली वायु की तरह प्रकृति से सदैव परे रहते हैं |
प्रकृति के गुणों से परे रहने के कारण वे उच्च तथा निम्न रूपों से प्रभावित नहीं होते |
आसीदतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लय॒ः |
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नूप ॥
७॥
आसीतू--था; अतीत-- भूतकाल में; कल्प-अन्ते--कल्प के अन्त में; ब्राह्मः--ब्रह्मा के एक दिन का; नैमित्तिक:--उसकेकारण; लयः--प्लावन, बाढ़; समुद्र--समुद्र में; उपप्लुताः--जलमग्न हो गये; तत्र--वहाँ; लोका:--सारे लोक; भूः-आदयः -भू:, भुवः तथा स्वः ये तीनों लोक; नृप--हे राजा
है राजा परीक्षित! विगत कल्प के अन्त में, ब्रह्म का दिन समाप्त होने पर ब्रह्मा की निद्रा केकारण रात में प्रलय आ गई और तीनों लोक समुद्र के जल से प्लवित हो गये |
कालेनागतनिद्रस्य धातु: शिशयिषोर्बली |
मुखतो निःसृतान्वेदान्हयग्रीवो उन्तिके हरत् ॥
८॥
कालेन--काल ( ब्रह्म के दिन के अन्त ) के कारण; आगत-निद्रस्य--जब उन्हें नींद आने लगी; धातु:--ब्रह्मा का;शिशयिषो:--सोने के लिए लेटने की इच्छा करते हुए; बली--शक्तिशाली; मुखत:--मुख से; निःसृतान्ू--निकलता हुआ;वेदानू--वैदिक ज्ञान को; हयग्रीव:--हयग्रीव नामक असुर ने; अन्तिके--पास ही; अहरत्--चुरा लिया |
ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर जब ब्रह्मा को नींद आने लगी और वे लेटने की इच्छा करनेलगे तब उस समय उनके मुख से वेद निकल रहे थे |
तभी हयग्रीव नामक महान् राक्षस ने उसवैदिक ज्ञान को चुरा लिया |
ज्ञात्वा तद्दानवेन्द्रस्थ हयग्रीवस्य चेष्टितम् |
दधार शफरीरूपं भगवान्हरिरीश्वर: ॥
९॥
ज्ञात्वा--जानकर; तत्--उस; दानव-इन्द्रस्य--महान् असुर; हयग्रीवस्य--हयग्रीव का; चेष्टितम्ू--कार्यकलाप; दधार-- धारणकिया; शफरी-रूपम्ू--मछली का रूप; भगवान्-- भगवान्; हरि: -- हरि ने; ईश्वर: --परम नियन्ता |
यह जानकर कि यह कार्य महान् असुर हयग्रीव ने किया है, सर्व-ऐश्वर्यशाली भगवान् हरि नेमछली का रूप धारण किया और उस असुर को मारकर वेदों को बचाया |
तत्र राजऋषि: कश्रिन्नाम्ना सत्यव्रतो महान् |
नारायणपरोतपत्तप: स सलिलाशन: ॥
१०॥
तत्र--उस प्रसंग में; राज-ऋषि:--राजा जो ऋषि के समान भी योग्य हो; कश्चित्ू--कोई; नाम्ना--नाम वाला; सत्यब्रत:--सत्यव्रत; महान्ू--महापुरुष; नारायण-पर:ः -- भगवान् नारायण का महान् भक्त; अतपत्--तपस्या की; तपः--तपस्या; सः--उसने; सलिल-आशन:--केवल जल पीकर
चाक्षुष मन्वन्तर में सत्यव्रत नाम का एक महानू् राजा हुआ जो भगवान् का बड़ा भक्त था |
उसने केवल जल-पान को आधार बनाकर तपस्या की |
योसावस्मिन्महाकल्पे तनयः: स विवस्वत: |
श्राद्धदेव इति ख्यातो मनुत्वे हरिणार्पित: ॥
११॥
यः--जो; असौ--वह ( परम पुरुष ); अस्मिन्ू--इसमें; महा-कल्पे--महा कल्प में; तनय:--पुत्र; सः--वह; विवस्वत: --सूर्यदेव का; श्राद्धदेव:--श्राद्धदेव के नाम से; इति--इस प्रकार; ख्यात:--प्रसिद्ध; मनुत्वे--मनु के पद पर; हरिणा-- भगवान्द्वारा; अर्पित:--स्थित था |
इस ( वर्तमान ) कल्प में राजा सत्यव्रत बाद में सूर्यलोक के राजा विवस्वान का पुत्र बनाऔर श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुआ |
भगवान् की कृपा से उसे मनु का पद प्राप्त हुआ |
एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम् |
तस्याञ्जल्युदके काचिच्छफर्येका भ्यपद्मयत ॥
१२॥
एकदा--एक दिन; कृतमालायाम्--कृतमाला नदी के तट पर; कुर्बतः--देते हुए; जल-तर्पणम्--जल का अर्घ्य; तस्थ--उसकी; अज्जलि--अंजुलि भर; उदके--जल में; काचित्--कोई; शफरी--छोटी मछली; एका--एक; अभ्यपद्यत--प्रकटहुई
एक दिन जब राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर जल का तर्पण करके तपस्या कर रहा था, तो उसकी अंजुली के जल में एक छोटी सी मछली प्रकट हुईं |
सत्यव्रतोझजलिगतां सह तोयेन भारत |
उत्ससर्ज नदीतोये शफरीं द्रविडेश्वरः ॥
१३॥
सत्यव्रतः--राजा सत्यव्रत; अज्ञलि-गताम्--राजा की अंजुली के पानी में आई हुई; सह--साथ; तोयेन--जल के; भारत--हेराजा परीक्षित; उत्ससर्ज--फेंक दिया; नदी-तोये--नदी के जल में; शफरीम्--छोटी मछली को; द्रविड-ई श्ररः--द्रविड देश केराजा सत्यक्रत ने |
हे भरतवंशी राजा परीक्षित! द्रविडदेश के राजा सत्यव्रत ने अपनी अंजुली के जल के साथउस मछली को नदी के जल में फेंक दिया |
तमाह सातिकरुणं महाकारुणिकं नृपम् |
यादोभ्यो ज्ञातिघातिभ्यो दीनां मां दीनवत्सल |
कथ॑ं विसृजसे राजन्भीतामस्मिन्सरिज्ले ॥
१४॥
तम्--उससे ( सत्यव्रत से )) आह--कहा; सा--उस छोटी मछली ने; अति-करुणम्--अत्यन्त करुणामय; महा-कारुणिकम्--अत्यन्त कृपालु; नृपम्--राजा सत्यव्रत को; यादोभ्य:--जलच्रों के द्वारा; ज्ञाति-घातिभ्य:--जो छोटी मछलियों को खाने केलिए सदैव उत्सुक रहते हैं; दीनामू--बेचारी; माम्--मुझको; दीन-वत्सल--हे दीनों के रक्षक; कथम्--क््यों; विसृजसे--फेंकरहे हो; राजन्--हे राजा; भीताम्-- अत्यन्त भयभीत; अस्मिनू--इस; सरित्-जले--नदी के जल में |
उस बेचारी छोटी मछली ने अत्यन्त कृपालु राजा सत्यव्रत से करुणापूर्ण स्वर में कहा : हेदीनों के रक्षक राजा! आप मुझे नदी के जल में क्यों फेंक रहे हैं जहाँ पर अन्य जलचर हैं, जोमुझे मार सकते हैं ? मैं उनसे बहुत भयभीत हूँ |
तमात्मनो नुग्रहार्थ प्रीत्या मत्स्यवपुर्धरम् |
अजानन्रक्षणार्थाय शफर्या: स मनो दधे ॥
१५॥
तम्--उस; आत्मन:--निजी; अनुग्रह-अर्थम्--अनुग्रह दिखाने के लिए; प्रीत्या--अत्यधिक प्रसन्न होकर; मत्स्य-वपु:-धरम्--मछली का शरीर धारण करने वाले भगवान् को; अजाननू--बिना जाने; रक्षण-अर्थाय--रक्षा करने के लिए; शफर्या:--मछलीकी; सः--उस राजा ने; मन:ः--मन में; दधे--निश्चय किया |
राजा सत्यव्रत ने यह न जानते हुए कि यह मछली भगवान् है अपनी प्रसन्नता के लिए सहर्षउस मछली को संरक्षण प्रदान करने का निर्णय लिया |
तस्या दीनतरं वाक्यमाश्रुत्य स महीपति: |
कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य आश्रमम् ॥
१६॥
तस्या:--उस मछली के; दीन-तरम्--अत्यन्त कारुणिक; वाक्यम्--वचन को; आश्रुत्य--सुनकर; सः --वह; मही-पतिः --राजा; कलश-अप्सु--कलश में रखे जल में; निधाय--रखकर; एनाम्--इस मछली को; दयालु:--दयालु; निन््ये--ले आया;आश्रमम्--अपने घर
उस मछली के कारुणिक शब्दों से प्रभावित होकर उस दयालु राजा ने उस मछली को एकजलपात्र में रख लिया और उसे अपने घर ले आया |
सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धभाना कमण्डलौ |
अलब्ध्वात्मावकाशं वा इृदमाह महीपतिम् ॥
१७॥
सा--वह मछली; तु--लेकिन; तत्र--वहाँ; एक-रात्रेण--एक ही रात में; वर्धभाना--बढ़कर; कमण्डलौ--जलतपात्र में;अलब्ध्वा--न पाकर; आत्म-अवकाशम्--अपने शरीर के लिए सुविधाजनक स्थान; वा--अथवा; इृदम्--यह; आह--कहा;मही-पतिम्--राजा से |
किन्तु मछली एक ही रात में इतनी बड़ी हो गई कि उसे उस जलपात्र में अपना शरीर इधर-उधर घुमाने में कठिनाई होने लगी |
तब उसने राजा से इस प्रकार कहा |
नाहं कमण्डलावस्मिन्कृच्छूं वस्तुमिहोत्सहे |
कल्पयौक: सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम् ॥
१८॥
न--नहीं; अहम्--मैं; कमण्डलौ--जलपात्र में; अस्मिन्ू--इस; कृच्छुमू--बड़ी कठिनाई से; वस्तुम्--रहने के लिए; इह--यहाँ; उत्सहे-- पसन्द करती हूँ; कल्पय--जरा सोचो; ओक:--रहने का स्थान; सु-विपुलम्--अधिक विस्तृत; यत्र--जहाँ;अहम्--मैं; निवसे--रह सकूँ; सुखम्--सुखपूर्वक हे
मेरे प्रिय राजा! मैं इस जलपात्र में इतनी कठिनाई से रहना पसन्द नहीं करती हूँ |
अतएवकृपा करके इससे अच्छा जलाशय ढूँढें जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ |
स एनां तत आदाय न्यधादौदग्जनोदके |
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन हस्तत्रयमवर्धत ॥
१९॥
सः--राजा ने; एनाम्ू--मछली को; ततः--तत्पश्चात; आदाय--निकाल कर; न्यधात्--डाल दिया; औदश्लन-उदके--कुएँ केजल में; तत्र--वहाँ; क्षिप्ता--फेंकी जाकर; मुहूर्तेन--एक ही क्षण में; हस्त-त्रयमू--तीन हाथ; अवर्धत--तुरन्त बढ़ गई
तत्पश्चात् राजा ने उस मछली को जलपात्र से निकाल कर एक विशाल कुएँ में डाल दिया |
किन्तु वह मछली एक क्षण में ही बढ़कर तीन हाथ की हो गई |
नम एतदलं राजन्सुखं वस्तुमुदक्लनम् |
पृथु देहि पदं मह्यं यत्त्वाहं शरणं गता ॥
२०॥
न--नहीं; मे--मुझको; एतत्--यह; अलमू्--उपयुक्त; राजन्ू--हे राजा; सुखम्--सुख से; वस्तुम्ू--रहने के लिए; उदख्लननम्--जलाशय; पृथु--काफी बड़ा; देहि--दीजिये; पदम्--स्थान; महामम्--मुझको; यत्--जो; त्वा--तुम्हारी; अहम्--मैं;शरणमू--शरण में; गता--आई हुई
तब मछली ने कहा : हे राजा! यह जलाशय मेरे सुखमय निवास के लिए उपयुक्त नहीं है |
कृपया और अधिक विस्तृत जलाशय प्रदान करें क्योंकि मैं आपकी शरण में आई हूँ |
तत आदाय सा राज्ञा क्षिप्ता राजन्सरोवरे |
तदावृत्यात्मना सोयं महामीनोन्ववर्धत ॥
२१॥
ततः--वहाँ से; आदाय--लाकर; सा--वह मछली; राज्ञा--राजा द्वारा; क्षिप्ता--डाली जाकर; राजनू--हे राजा परीक्षित;सरोवरे--झील में; तत्--उस; आवृत्य--ढ़ककर; आत्मना--शरीर से; सः--मछली; अयम्--यह; महा-मीन:--विशालमछली; अन्ववर्धत--तुरन्त बढ़ गई |
हे महाराज परीक्षित! राजा ने उस मछली को कुएँ से निकाला और उसे एक झील में डालदिया, किन्तु तब उस मछली ने जल के विस्तार से भी अधिक विशाल रूप धारण कर लिया |
नैतन्मे स्वस्तये राजन्नुदकं सलिलौकस: |
निधेहि रक्षायोगेन ह॒ंदे मामविदासिनि ॥
२२॥
न--नहीं; एतत्--यह; मे--मुझको; स्वस्तये--सुखी; राजनू--हे राजा; उदकम्--जल; सलिल-ओकस:--क्योंकि मैं विशालजलवचर हूँ; निधेहि--रख दें; रक्षा-योगेन--किसी उपाय से; हृदे--झील में; माम्--मुझको; अविदासिनि--शाश्वत |
तब मछली ने कहा : हे राजा! मैं विराट जलचर हूँ और यह जल मेरे लिए तनिक भी उपयुक्तनहीं है |
अब कृपा करके मुझे बचाने का कोई उपाय ढूँढ निकालिए |
अच्छा हो यदि आप मुझेऐसी झील के जल में रखें जो कभी न घटे |
इत्युक्त: सोउनयन्मत्स्यं तत्र तत्राविदासिनि |
जलाशयेसम्सितं तं समुद्रे प्राक्षिपज्झषम् ॥
२३॥
इति उक्त:--इस प्रकार प्रार्थना किया गया; सः--राजा; अनयत्--ले गया; मत्स्यम्ू--मछली को; तत्र--वहाँ; तत्र--जहाँ;अविदासिनि--जल कभी नहीं घटता; जल-आशये--जल के आगार में; असम्मितम्-- असीम; तम्--उसको; समुद्रे--समुद्र में;प्राक्षिपत्--डाल दिया; झषम्--विशाल मछली को
इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर राजा सत्यव्रत उस मछली को जल के सबसे बड़े आगार मेंले आया |
किन्तु जब वह भी अपर्याप्त सिद्ध हुआ तो राजा ने अन्त में उस मछली को समुद्र मेंडाल दिया |
क्षिप्पमाणस्तमाहेदमिह मां मकरादय: |
अदन्त्यतिबला वीर मां नेहोत्स्त्रष्टमहसि ॥
२४॥
क्षिप्पमाण: --समुद्र में फेंके जाने पर; तमू--राजा से; आह--मछली ने कहा; इदम्--यह; इह--इस स्थान में; मामू--मुझको;मकर-आदयः:--मगर जैसे घातक जलचर; अदन्ति--खा लेंगे; अति-बला:--अत्यन्त बलशाली होने के कारण; वीर--हे वीरराजा; मामू--मुझको; न--नहीं; इह--इस जल में; उत्स्रष्टमू--फेंकना; अर्हसि--तुम्हें चाहिए |
समुद्र में फेंके जाते समय मछली ने राजा सत्यव्रत से कहा : हे वीर! इस जल में अत्यन्तशक्तिशाली एवं घातक मगर हैं, जो मुझे खा जायेंगे |
अतएव तुम मुझे इस स्थान में मत डालो |
एवं विमोहितस्तेन बदता वल्गुभारतीम् |
तमाह को भवानस्मान्मत्स्यरूपेण मोहयन् ॥
२५॥
एवम्--इस प्रकार; विमोहित:--मोह ग्रस्त; तेन--उस मछली के द्वारा; बदता--कहे जाने पर; वल्गु-भारतीम्--मधुर वचन;तम्ू--उससे; आह--कहा; क: -- कौन; भवान्--आप; अस्मान्--हमको; मत्स्य-रूपेण--मछली के रूप में; मोहयन्--मोहितकरने वाले |
मत्स्यरूप भगवान् से इन मधुर बचनों को सुनकर मोहित हुए राजा ने पूछा : आप कौन हैं ?आप तो हम सबको मोहित कर रहे हैं |
नैवं वीयों जलचरो दृष्टोउस्माभि: श्रुतोडपि वा |
यो भवान्योजनशतमह्नाभिव्यानशे सर: ॥
२६॥
न--नहीं; एवम्--इस प्रकार; वीर्य:--शक्तिशाली; जल-चर:--जलचर; दृष्ट:--देखा गया; अस्माभि: --हमारे द्वारा; श्रुतःअपि--न ही सुना गया; वा--अथवा; यः--जो; भवान्ू--आप; योजन-शतम्--सैकड़ों मील तक; अद्वा--एक दिन में;अभिव्यानशे--बढ़कर; सर:--जल |
हे प्रभु! एक ही दिन में आपने अपना विस्तार सैकड़ों मील तक करके नदी तथा समुद्र केजल को आच्छादित कर लिया है |
इससे पहले मैंने न तो ऐसा जलचर पशु देखा था और न हीसुना था |
नून॑ त्वं भगवान्साक्षाद्धरिनारायणोव्ययः |
अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम् ॥
२७॥
नूनम्--निश्चय ही; त्वम्--तुम हो; भगवान्-- भगवान्; साक्षात्- प्रत्यक्ष; हरिः-- भगवान्; नारायण: -- भगवान् ; अव्यय:--अव्यय; अनुग्रहाय--दया दिखाने के लिए; भूतानाम्--सारे जीवों के लिए; धत्से--धारण किया है; रूपमू--रूप; जल-ओकसाम्--जलचर की तरह |
हे प्रभु! आप निश्चय ही अव्यय भगवान् नारायण श्री हरि हैं |
आपने जीवों पर अपनी कृपाप्रदर्शित करने के लिए ही अब जलचर का स्वरूप धारण किया है |
नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ स्थित्युत्पत्त्यप्यये श्वर |
भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो हयात्मगतिर्विभो ॥
२८॥
नमः--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; ते--तुमको; पुरुष-श्रेष्ठ--हे जीवों में श्रेष्ठ, समस्त भोक्ताओं में श्रेष्ठ; स्थिति--पालन;उत्पत्ति--सृष्टि; अप्यय--तथा संहार के; ईश्वर--परमेश्वर; भक्तानाम्--अपने भक्तों के; नः--हम जैसे; प्रपन्नानामू--शरणागतोंके; मुख्य:--परम; हि--निस्सन्देह; आत्म-गति:--परम गन्तव्य; विभो-- भगवान् विष्णु |
हे प्रभु, हे सृष्टि, पालन तथा संहार के स्वामी! हे भोक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् विष्णु! आप हमजैसे शरणागत भक्तों के नेता तथा गन्तव्य हैं |
अतएव मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ |
सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां भूतिहेतव: |
ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थ भवता धृतम् ॥
२९॥
सर्वे--सारी; लीला--लीलाएँ; अवतारा:--अवतार; ते--आपके ; भूतानाम्--जीवों के; भूति--फूलने-फलने ( अभ्युदय ) कीस्थिति के लिए; हेतवः--कारण; ज्ञातुमू--जानने के लिए; इच्छामि--इच्छा करता हूँ; अदः--यह; रूपम्--रूप; यत्-अर्थम्--जिसलिए; भवता--आपके द्वारा; धृतमू--धारण किया गया |
आपकी सारी लीलाएँ तथा अवतार निश्चय ही समस्त जीवों के कल्याण के लिए होते हैं |
अतएव हे प्रभु! मैं वह प्रयोजन जानना चाहता हूँ जिसके लिए आपने यह मत्स्यरूप धारण कियाहै |
न तेरविन्दाक्ष पदोपसर्पणंमृषा भवेत्सर्वसुहत्प्रियात्मन: |
यथेतरेषां पृथगात्मनां सता-मदीहृशो यद्वपुरद्भधुतं हि न: ॥
३०॥
न--कभी नहीं; ते--आपके ; अरविन्द-अक्ष--हे कमलनेत्रों वाले मेरे प्रभु; पद-उपसर्पणम्--चरणकमलों की पूजा; मृषा--व्यर्थ; भवेत्ू--हो सकती है; सर्व-सुहृत्--सबों के मित्र; प्रिय--सबों के प्यारे; आत्मन:--हर एक के परमात्मा; यथा--जिसप्रकार; इतरेषाम्--अन्यों ( देवताओं ) का; पृथक्-आत्मनाम्--आत्मा से भिन्न देहधारी जीव; सताम्--अध्यात्म में स्थित लोगोंका; अदीहश:--आपने दिखलाया है; यत्--जो; वपु:--शरीर; अद्भुतम्ू--अद्भुत; हि--निस्सन्देह; न:ः--हमको |
हे कमल की पंखुरियों के समान नेत्रों वाले प्रभु! देहात्मबुद्धि वाले देवताओं की पूजा सभीतरह से व्यर्थ है |
चूँकि आप हर एक के परम मित्र तथा प्रियतम परमात्मा हैं अतएव आपकेचरणकमलों की पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती |
इसलिए आपने मछली का रूप दिखलाया है |
श्रीशुक उबाचइति ब्लुवाणं नृपतिं जगत्पतिःसत्यक्रतं मत्स्यवपुर्युगक्षये |
विहर्तुकाम: प्रलयार्णवेब्रवी-चिविकीर्षुरिकान्तजनप्रिय: प्रियम् ॥
३१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ब्रुवाणम्--बोलते हुए; नृपतिम्--राजा को; जगत्-पतिः--सम्पूर्ण विश्व के स्वामी; सत्यव्रतम्--सत्यव्रत को; मत्स्य-वपु:--मत्स्य का शरीर धारण करने वाले भगवान् ने; युग-क्षये--युग के अन्त में; विहर्तु-काम:--अपनी लीलाओं का भोग करने के लिए; प्रलय-अर्णवे--बाढ़ के जल में; अब्नवीत्--कहा; चिकीर्षु:--करने का इच्छुक; एकान्त-जन-प्रिय:--भक्तों के परम प्रिय; प्रियम्--अत्यन्त लाभप्रद वस्तु |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब राजा सत्यवब्रत ने इस तरह कहा तो अपने भक्त को लाभपहुँचाने तथा बाढ़ के जल में अपनी लीलाओं का आनन्द उठाने के लिए युग के अन्त में मछलीका रूप धारण करने वाले भगवान् ने इस प्रकार उत्तर दिया |
श्रीभगवानुवाचसप्तमे हाद्यतनादूर्ध्वमहन्येतदरिन्दम |
निमदृछ्त्यत्यप्ययाम्भोधौ त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम् ॥
३२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; सप्तमे--सातवें; हि--निस्सन्देह; अद्यतनात्ू-- आज से; ऊर्ध्वम्ू-- आगे; अहनि--दिनमें; एतत्--यह सृष्टि; अरिम्दम--हे शत्रुओं को दमन कर सकने वाले राजा; निमड्छ््यति--जल में डूब जायेगी; अप्यय-अम्भोधौ--प्रलय के सागर में; त्रैलोक्यम्--तीनों लोक; भू:-भुव-आदिकम्-- भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वलॉक
भगवान् ने कहा : हे शत्रुओं को दमन कर सकने वाले राजा! आज से सातवें दिन भू:,भुवः, तथा स्वः ये तीनों लोक बाढ़ के जल में डूब जायेंगे |
त्रिलोक्यां लीयमानायां संवर्ताम्भसि वै तदा |
उपस्थास्यति नौ: काचिद्विशाला त्वां मयेरिता ॥
३३॥
त्रि-लोक्याम्--तीनों लोकों; लीयमानायाम्--जलमग्न हो जाने पर; संवर्त-अम्भसि--प्रलय के जल में; बै--निस्सन्देह; तदा--उस समय; उपस्थास्थति-- प्रकट होगी; नौ: --नाव; काचित्--एक; विशाला--बहुत बड़ी; त्वाम्--तुम्हारे पास; मया--मेरेद्वारा; ईरिता-- भेजी गयी |
जब तीनों लोक जल में डूब जायेंगे तो मेरे द्वारा भेजी गई एक विशाल नाव तुम्हारे समक्षप्रकट होगी |
त्वं तावदोषधीः सर्वा बीजान्युच्यावचानि च |
सप्तर्षिभि: परिवृतः सर्वसत्त्वोपबृंहित: ॥
३४॥
आरुह्य बृहतीं नावं विचरिष्यस्यविक्लव: |
एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा ॥
३५॥
त्वमू--तुम; तावत्--उस समय तक; ओषधी:-- औषधियाँ; सर्वा:--सभी तरह की; बीजानि--बीज; उच्च-अवचानि--उच्चतथा निम्न; च--तथा; सप्त-ऋषिभि:--सात ऋषियों से; परिवृत:--घिरा हुआ; सर्व-सत्त्व--सभी प्रकार के जीव;उपबृूंहितः--से घिरा; आरुह्य--चढ़कर; बृहतीम्--अत्यन्त बड़ी; नावम्ू--नाव में; विचरिष्यसि--विचरण करोगे;अविक्लव:--खिन्नतारहित; एक-अर्णवे--बाढ़ के सागर में; निरालोके --बिना प्रकाश के; ऋषीणाम्--ऋषियों के; एव--निस्सन्देह; वर्चसा--तेज से |
हे राजा! तत्पश्चात् तुम सभी तरह की औषधियाँ एवं बीज एकत्र करोगे और उन्हें उस विशालनाव में लाद लोगे |
तब सप्तर्षियों समेत एवं सभी प्रकार के जीवों से घिरकर तुम उस नाव मेंचढ़ोगे और बिना किसी खिन्नता के तुम अपने संगियों सहित बाढ़ के समुद्र में सुगमता सेविचरण करोगे |
उस समय ऋषियों का तेज ही एकमात्र प्रकाश होगा |
दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा |
उपस्थितस्य मे श्रुड्धे निबध्नीहि महाहिना ॥
३६॥
दोधूयमानाम्--डगमगाती; ताम्--उस; नावम्--नाव को; सरमीरेण--हवा से; बलीयसा--शक्तिशाली; उपस्थितस्थ--पास हीउपस्थित; मे--मेरे; श्रृद्धे--सींग में; निबध्नीहि--बाँध देना; महा-अहिना--महान् सर्प ( वासुकी ) से
तब ज्योंही नाव तेज हवा से डगमगाने लगे तुम उसे महान् सर्प वासुकि के द्वारा मेरे सींग सेबाँध देना क्योंकि मैं तुम्हारे पास ही उपस्थित रहूँगा |
अहं त्वामृषिभि: सार्थ सहनावमुदन्वति |
विकर्षन्विचरिष्यामि यावद्वाह्मी निशा प्रभो ॥
३७॥
अहमू--ैं; त्वामू--तुमको; ऋषिभि:--सारे ऋषियों के; सार्थम्ू--साथ; सह--से युक्त; नावम्--नाव; उदन्वति--प्रलय केजल में; विकर्षन्ू--खींचते हुए; विचरिष्यामि--विचरण करूँगा; यावत्--जब तक; ब्राह्मी--ब्रह्मा की; निशा--रात्रि; प्रभो--हे राजा
हे राजा! नाव में बैठे तुम्हं तथा सारे ऋषियों को खींचते हुए, प्रलय-जल में मैं तब तकविचरण करूँगा जब तक ब्रह्मा की शयन-रात्रि समाप्त नहीं हो जाती |
मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति शब्दितम् |
वेल्स्यस्यनुगृहीतं मे सम्प्रश्नेर्विवृतं हदि ॥
३८ ॥
मदीयम्--मेरी; महिमानम्ू--महिमा; च--तथा; परम् ब्रह्म--परम ब्रह्म, परम सत्य; इति--इस प्रकार; शब्दितम्--विख्यात;वेत्स्यसि--तुम समझोगे; अनुगृहीतम्--कृपा पाकर; मे--मेरे द्वारा; सम्प्रश्नै:--प्रश्नों के द्वारा; विवृतम्--पूर्णतया व्याख्याकिया गया; हृदि--हृदय में
मैं तुम्हें ठीक से सलाह दूँगा और तुम्हारा पक्ष भी लूँगा और मुझ परब्रह्म की महिमाओं केविषय में तुम्हारी जिज्ञासाओं के कारण हर बात तुम्हारे हृदय के भीतर प्रकट होगी |
इस तरह तुममेरे विषय में सब कुछ जान लोगे |
इत्थमादिश्य राजानं हरिरन्तरधीयत |
सोडन्ववैक्षत तं काल॑ यं हषीकेश आदिशत् ॥
३९॥
इत्थम्--जैसाकि पहले कहा जा चुका है; आदिश्य-- आदेश देकर; राजानम्--राजा ( सत्यक्रत ) को; हरिः-- भगवान्अन्तरधीयत--उस स्थान से अदृश्य हो गये; सः--वह ( राजा ); अन्ववैक्षत--प्रतीक्षा करने लगा; तम् कालम्--उस समय की;यम्--जो; हषीक-ईश: --समस्त इन्द्रियों के स्वामी, हषीकेश ने; आदिशत्--आदेश दिया |
राजा को इस प्रकार आदेश देने के बाद भगवान् तुरन्त अन्तर्धान हो गये |
तब राजा सत्यत्रतउस काल की प्रतीक्षा करने लगा, जिसका आदेश भगवान् दे गये थे |
आस्तीर्य दर्भान्प्राकूलान्राजर्षि: प्रागुदद्मुख: |
निषसाद हरे: पादौ चिन्तयन्मत्स्यरूपिण: ॥
४०॥
आस्तीर्य--फैलाकर; दर्भानू-कुशों; प्राकु-कूलान्ू--जिसके सिरे पूर्व की ओर थे; राज-ऋषि:--सन्तराजा सत्यक्रत; प्राक्-उदक्-मुखः:--उत्तर पूर्व ( ईशान् ) की ओर मुख किये; निषसाद--बैठ गया; हरेः -- भगवान् के; पादौ--चरणकमलों पर;चिन्तयन्--ध्यान करते हुए; मत्स्य-रूपिण:--जिसने मछली का रूप धारण किया था |
सन्त राजा ने कुशों के सिरों को पूर्व दिशा की ओर करके उन्हें बिछा दिया और स्वयं उत्तरपूर्व की ओर मुख करके कुशों पर बैठकर उन भगवान् विष्णु का ध्यान करने लगा जिन्होंनेमछली का रूप धारण किया था |
ततः समुद्र उद्ेल: सर्वतः प्लावयन्महीम् |
वर्धमानो महामेघैर्वर्षद्धि: समहश्यत ॥
४१॥
ततः--तत्पश्चात्; समुद्र: --समुद्र; उद्वेल:--उमड़ता हुआ; सर्वतः--सर्वत्र; प्लावयन्ू--जलमग्न करते हुए; महीम्--पृथ्वी को;वर्धमान:--अधिकाधिक बढ़कर; महा-मेघै:--विशाल बादलों के द्वारा; वर्षद्धिः--लगातार वर्षा द्वारा; समहश्यत--राजा नेदेखा
तत्पश्चात् विशाल बादलों ने झड़ी लगाकर समुद्र के जल को और अधिक चढ़ा दिया |
इससेसमुद्र बढ़कर स्थल के ऊपर बहने लगा और उसने समस्त विश्व को जलमग्न करना आरम्भ करदिया |
ध्यायन्भगवदादेशं दहशे नावमागताम् |
तामारुरोह विप्रेन्द्रेशदायौषधिवीरुध: ॥
४२॥
ध्यायन्ू--स्मरण करते हुए; भगवत्-आदेशम्-- भगवान् के आदेश; दहशे--उसने देखा; नावम्--नाव को; आगताम्--पासआती हुई; तामू--उसमें; आरुरोह--चढ़ गया; विप्र-इन्द्रै:--साधु ब्राह्मणों सहित; आदाय--लेकर; औषधि---औषधियाँ;वीरुध:--तथा लताएँ |
ज्योंही सत्यत्रत को भगवान् का आदेश स्मरण आया त्योंही उसे अपनी ओर आती हुई एकनाव दिखी |
तब उसने वनस्पतियों तथा लताओं को एकत्र किया और वह साधु ब्राह्मणों कोसाथ लेकर उस नाव में चढ़ गया |
तमूचुर्मुनयः प्रीता राजन्ध्यायस्व केशवम् |
स वै नः सड्डूटादस्मादविता शं विधास्यति ॥
४३॥
तम्--उस राजा से; ऊचु:--कहा; मुनयः:--सारे सन्त ब्राह्मणों ने; प्रीता:--प्रसन्न होकर; राजन्--हे राजा; ध्यायस्व--ध्यानकरो; केशवम्-- भगवान् केशव का; सः--वह; बै--निस्सन्देह; न:ः--हमको; सड्जूटात्--संकट से; अस्मात्--जैसा अब दिखरहा है; अविता--बचायेगा; शम्--कल्याण की; विधास्यति--योजना करेगा
उन सन्त ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर राजा से कहा: हे राजा! भगवान् केशव का ध्यान'कीजिए |
वे हमें इस आसन्न संकट से उबार लेंगे और हमारे कल्याण की व्यवस्था करेंगे |
सोनुध्यातस्ततो राज्ञा प्रादुरासीन्महार्णवे |
एकश्रूड्रधरो मत्स्यो हैमो नियुतयोजन: ॥
४४॥
सः--भगवान्; अनुध्यात:--ध्यान किये जाने पर; ततः--त त्पश्चात् ( सन्त ब्राह्मणों के वचन सुनकर ); राज्ञा--राजा के द्वारा;प्रादुरासीत्ू--( उसके समक्ष ) प्रकट हुईं; महा-अर्णवे--प्रलय सागर में; एक-श्रूड़-धर:ः--एक सींग धारण किये; मत्स्य:--बड़ीमछली; हैमः--सोने की बनी; नियुत-योजन:ः--अस्सी लाख मील लम्बी
जब राजा भगवान् का निरन्तर ध्यान कर रहे थे तो प्रलय सागर में एक बड़ी सुनहरी मछलीप्रकट हुईं |
इस मछली के एक सींग था और वह अस्सी लाख मील लम्बी थी |
निबध्य नावं तच्छुड़े यथोक्तो हरिणा पुरा |
वरत्रेणाहिना तुष्टस्तुष्ठाव मधुसूदनम् ॥
४५ ॥
निबध्य--बांध कर; नावम्--नाव को; तत्- श्रृड़े-- बड़ी मछली के सींग पर; यथा-उक्त:--जैसी सलाह दी गई थी; हरिणा--भगवान् द्वारा; पुरा--पहले; वरत्रेण--रस्सी के द्वारा; अहिना--विशाल सर्प ( वासुकि ) द्वारा; तुष्ट:--प्रसन्न होकर; तुष्टाव--उसने प्रसन्न कर लिया; मधुसूदनम्--मधु के हन्ता भगवान् को
जैसा कि भगवान् पहले आदेश दे चुके थे उसका पालन करते हुए राजा ने वासुकि सर्प कोरस्सी बनाकर उस नाव को मछली के सींग में बाँध दिया |
फिर सन्तुष्ट होकर भगवान् की स्तुतिकरनी प्रारम्भ कर दी |
श्रीराजोबाचअनाद्यविद्योपहतात्मसंविद-स्तन्मूलसंसारपरिश्रमातुरा: |
यहच्छयोपसूता यमाप्नुयु-विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान् ॥
४६॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने निम्नवत् स्तुति की; अनादि--अनन्त काल से; अविद्या--अज्ञान से; उपहत--विनष्ट हो गया है;आत्म-संविद:--आत्म-ज्ञान; तत्--वह है; मूल--जड़; संसार--भौतिक बन्धन; परिश्रम--दुखद स्थिति तथा कठिन श्रम सेपूर्ण; आतुरा:--कष्ट सहने वाले; यहच्छया--परम इच्छा से; उपसृता:--आचार्य का कृपापात्र; यम्-- भगवान् को; आजुयु:--प्राप्त कर सकता है; विमुक्ति-दः--मुक्ति की प्रक्रिया; न:ः--हमारा; परम: --परम; गुरु:--गुरु; भवानू--आप |
राजा ने कहा : भगवान् की कृपा से उन लोगों को जो अनन्त काल से आत्मज्ञान खो बैठे हैंऔर इस अविद्या के कारण भौतिक कष्टमय बद्ध जीवन में रह रहें हैं भगवद्भक्तों से भेंट करनेका अवसर मिलता है |
मैं उन भगवान् को परम आध्यात्मिक गुरु स्वीकार करता हूँ |
जनोबुधोयं निजकर्मबन्धन:सुखेच्छया कर्म समीहतेसुखम् |
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिंग्रन्थि स भिन्द्यादधृदयं स नो गुरु: ॥
४७॥
जनः--जन्म तथा मृत्यु के अधीन बद्धजीव; अबुध:--शरीर को आत्मा स्वीकार करने के कारण सर्वाधिक मूर्ख; अयम्ू--यह;निज-कर्म-बन्धन:--अपने पापपूर्ण कार्यो के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के शरीरों को स्वीकार करते हुए; सुख-इच्छया--इसजगत में सुखी बनने की इच्छा से; कर्म--सकाम कर्म; समीहते--योजना बनाता है; असुखम्--केवल दुख के लिए; यत्-सेवया--जिसकी सेवा करने से; ताम्--कर्म बन्धन को; विधुनोति--स्वच्छ बनाता है; असत्-मतिमू--मलिन मनोवृत्ति ( शरीरको आत्मा मानते हुए ); ग्रन्थिम्--कठिन गाँठ; सः-- भगवान्; भिन्द्यात्ू--काटी जाकर; हृदयम्--हृदय में; सः--वह( भगवान् ); नः--हमारा; गुरु:--गुरु |
इस संसार में सुखी बनने की आकांक्षा से मूर्ख बद्धजीव सकाम कर्म करता है जिनसे केवलकष्ट ही मिलते हैं |
किन्तु भगवान् की सेवा करने से मनुष्य सुख की ऐसी झूठी इच्छाओं से मुक्तहो जाता है |
हे मेरे गुरु! मेरे हृदय से झूठी इच्छाओं की ग्रंथि को काट दें |
यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनंपुमान्विजह्यान्मलमात्मनस्तम: ॥
भजेत वर्ण निजमेष सोव्ययोभूयात्स ईशः परमो गुरो्गुरु: ॥
४८ ॥
यत्-सेवया--जिस ( भगवान् की ) सेवा से; अग्ने: --अग्नि के स्पर्श में; इब--मानो; रुद्र-रोदनम्--चाँदी या सोने का टुकड़ापवित्र हो जाता है; पुमान्ू--पुरुष; विजह्मत्ू--त्याग सकता है; मलम्--संसार की सारी गंदी वस्तुओं को; आत्मन:--अपनी;तमः--तमोगुण, जिसके अन्तर्गत मनुष्य पवित्र तथा अपवित्र कर्म करता है; भजेत--असली रूप को प्राप्त करता है; वर्णम्--मूल पहचान; निजमू-- अपनी; एष:--ऐसा; सः--वह; अव्यय:--अव्यय; भूयात्--हो; सः--वह; ईशः-- भगवान्; परम: --परम; गुरो: गुरु:--गुरुओं के
गुरुभवबन्धन से जो छूटना चाहता है उसे भगवान् की सेवा करनी चाहिए और पवित्र तथाअपवित्र कर्मों से युक्त तमोगुण का संसर्ग छोड़ देना चाहिए |
इस तरह मनुष्य को अपनी मूलपहचान फिर से प्राप्त होती है, जिस प्रकार अग्नि में तपाने पर चाँदी या सोने का टुकड़ा अपनासारा मल छुड़ा कर शुद्ध हो जाता है |
ऐसे अव्यय भगवान्! आप हमारे गुरु बनें क्योंकि आपअन्य सभी गुरुओं के आदि गुरु हैं |
न यत्प्रसादायुतभागलेश-मन्ये च देवा गुरवो जना: स्वयम् |
कर्तु समेताः प्रभवन्ति पुंस-स्तमीथ्वरं त्वां शरणं प्रपदे ॥
४९॥
न--नहीं; यत्-प्रसाद-- भगवान् की कृपा; अयुत-भाग-लेशम्--मात्र दस हजारवाँ भाग; अन्ये-- अन्य; च-- भी; देवा: --देवता तक; गुरब:--तथाकथित गुरु; जना:--सारे लोग; स्वयम्--स्वयं; कर्तुमू--सम्पन्न करने के लिए; समेता:--कुलमिलाकर; प्रभवन्ति--समान रूप से समर्थ बन सकते हैं; पुंस:-- भगवान् द्वारा; तम्ू--उसको; ईश्वरम्--ई श्वर को; त्वामू--तुम्हारी; शरणम्--शरण; प्रपद्ये--ग्रहण करने दें |
न तो सारे देवता, न तथाकथित गुरू, न ही अन्य सारे लोग, स्वतंत्र रूप से या साथमिलकर, आपकी कृपा के दस हजारवें भाग के बराबर भी कृपा प्रदान कर सकते हैं |
अतएव मैंआपके चरणकमलों की शरण लेना चाहता हूँ |
अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणी: कृतस् तथा जनस्याविदुषोबुधो गुरु: |
त्वमर्कहक्सर्वह॒शां समीक्षणोबृतो गुरु: स्वगतिं बुभुत्सताम् ॥
५०॥
अचक्षु:--जिसमें देखने की शक्ति न हो; अन्धस्य--अन्धे पुरुष का; यथा--जिस तरह; अग्रणी:--आगे चलने वाला नेता;कृतः--स्वीकृत; तथा--उसी प्रकार; जनस्य--ऐसे व्यक्ति का; अविदुष: --जिसे जीवन के लक्ष्य का कोई ज्ञान नहो; अबुध:--मूर्ख, मूढ़; गुरु: --गुरु; त्वमू--तुम; अर्क-हक्--सूर्य के समान प्रतीत होते हो; सर्व-हशाम्--ज्ञान के सारे स्त्रोतों में से;समीक्षण:--पूर्ण द्रष्टा; वृत:--स्वीकृत; गुरु:--गुरु; न:--हमारा; स्व-गतिम्-- अपने असली जीवन-लक्ष्य को जानने वाला;बुभुत्सताम्-ऐसे प्रबुद्ध व्यक्ति को |
जिस प्रकार एक अन्धा पुरुष न देख सकने के कारण दूसरे अन्धे को अपना नायक मानलेता है, उसी तरह जो लोग जीवन-लक्ष्य को नहीं जानते वे किसी न किसी धूर्त तथा मूर्ख कोअपना गुरु बना लेते हैं, किन्तु हमारा लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है अतएव हम आपको अपना गुरूस्वीकार करते हैं क्योंकि आप सभी दिशाओं में देखने में समर्थ हैं और सूर्य की तरह सर्वज्ञ हैं |
जनो जनस्यादिशतेसतीं गतिंयया प्रपद्येत दुरत्ययं तम: |
त्वं त्वव्ययं ज्ञामममोघमझसाप्रपद्यते येन जनो निजं पदम् ॥
५१॥
जनः--व्यक्ति जो प्रामाणिक गुरु नहीं है ( साधारण मनुष्य ); जनस्य--उस साधारण व्यक्ति का जिसे जीवन का लक्ष्य ज्ञात नहींहै; आदिशते--आदेश देता है; असतीम्--नश्वर, भौतिक; गतिम्--जीवन लक्ष्य; यया--ऐसे ज्ञान से; प्रपद्येत--शरण में जाताहै; दुरत्ययम्--दुर्लघ्य; तम:--अज्ञान; त्वमू--तुम; तु--लेकिन; अव्ययम्--जो विनष्ट न किया जा सके; ज्ञानमू--ज्ञान;अमोघम्--बिना भौतिक कल्मष के; अज्ञसा--तुरन्त; प्रपद्यते--प्राप्त करता है; येन--ऐसे ज्ञान से; जनः--व्यक्ति; निजमू--अपना; पदम्--मूल स्थान |
तथाकधित भौतिकतावादी गुरु अपने भौतिकतावादी शिष्यों को आर्थिक विकास एवंइन्द्रियतृप्ति के विषय में उपदेश देता है और ऐसे उपदेशों से मूर्ख शिष्य अज्ञान के भौतिक संसारमें पड़े रहते है |
किन्तु आप शाश्वत ज्ञान प्रदान करते हैं और बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसा ज्ञान प्राप्तकरके तुरन्त ही अपनी मूल वैधानिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है |
त्वं सर्वलोकस्य सुहत्प्रिये श्वरोह्ात्मा गुरुज्ञानमभीष्टसिद्धि: |
तथापि लोको न भवन्तमन्धधी-जानाति सन््तं हृदि बद्धकामः ॥
५२॥
त्वमू--तुम, हे भगवान्; सर्व-लोकस्य--सारे लोकों एवं उनके निवासियों के; सुहृत्--शुभचिन्तक; प्रिय--अत्यन्त प्यारे;ईश्वर:-- परम नियन्ता; हि-- भी; आत्मा--परमात्मा; गुरु:--गुरु; ज्ञाममू--परम ज्ञान; अभीष्ट-सिद्धि:--समस्त इच्छाओं कीपूर्ति; तथा अपि--फिर भी; लोक:--लोग; न--नहीं; भवन्तम्--आपको; अन्ध-धी:--अन्धी बुद्धि के कारण; जानाति--जानसकता है; सन््तम्--स्थित; हृदि--उसके हृदय में; बद्ध-कामः-- भौतिक कामेच्छाओं से मोहित होने के कारण |
हे प्रभु! आप सबों के परम हितैषी तथा प्रियतम मित्र, नियन्ता, परमात्मा, परम उपदेशक,परम ज्ञान के दाता तथा समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं |
यद्यपि आप हृदय में रहते हैं,किन्तु हृदय में बसी कामेच्छाओं के कारण मूर्ख व्यक्ति आपको समझ नहीं पाता |
श़ त्वं त्वामहं देववरं वरेण्यंप्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय |
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन्वचोभि-ग्रन््थीन्हदय्यान्विवृणु स्वमोक: ॥
५३॥
त्वमू--आप कितने उच्च हैं; त्वामू--तुमको; अहम्--मैं; देव-वरम्--देवताओं द्वारा पूजित; वरेण्यम्--सबों में महान्; प्रपद्ये--पूरी तरह शरणागत; ईशम्--परम नियन्ता को; प्रतिबोधनाय--जीवन के असली प्रयोजन को समझने के लिए; छिन्धि--काटदो; अर्थ-दीपैः--साभिप्राय उपदेश रूपी प्रकाश के द्वारा; भगवन्--हे भगवान्; वचोभि:--अपने शब्दों से; ग्रन्थीन्--गाँठोंको; हृदय्यान्--हृदय के भीतर बँधी; विवृणु--बतलाइये; स्वम् ओक:ः--जीवन में मेरा गन्तव्य
हे परमेश्वर! आत्म-साक्षात्कार के लिए मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ |
आप सभी वस्तुओंके परम नियन्ता के रूप में देवताओं द्वारा पूजित होते हैं |
आप अपने उपदेशों से जीवन केप्रयोजन को प्रकट करते हुए कृपया मेरे हृदय की ग्रंथि को काट दीजिये और मुझे जीवन कालक्ष्य बतलाइये |
श्रीशुक उबाचइत्युक्तवन्तं नृपतिं भगवानादिपूरुष: |
मत्स्यरूपी महाम्भोधौ विहरंस्तत्त्वमत्रवीत्ू ॥
५४॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्तवन्तम्--महाराज सत्यक्रत के द्वारा कहे जाने पर;नृपतिम्--राजा को; भगवान्-- भगवान्; आदि-पूरुष: --आदि पूरुष; मत्स्य-रूपी--मछली के रूप में; महा-अम्भोधौ--बाढ़के जल में; विहरन्ू--विचरण करते; तत्त्वम् अब्नवीत्-परम सत्य के विषय में बतलाया |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब सत्यक्रत ने मत्स्य रूप धारण करने वाले भगवान् सेइस प्रकार प्रार्थना की तो उसको बाढ़ के जल में विचरण करते हुए भगवान् ने परम सत्य केविषय में उपदेश दिया |
पुराणसंहितां दिव्यां साड्ख्ययोगक्रियावतीम् |
सत्यब्रतस्य राजर्षेरात्मगुह्ममशेषत: ॥
५५॥
पुराण--पुराणों में, विशेष रूप से मत्स्य पुराण में, बतलाई गईं विषय-वस्तु; संहिताम्ू--ब्रह्म-संहिता तथा अन्य संहिताओं मेंनिहित वैदिक आदेश; दिव्याम्--सारा दिव्य वाड्मय; साइख्य--सांख्ययोग; योग--आत्म-साक्षात्कार का विज्ञान याभक्तियोग; क्रियावतीम्--जीवन में व्यवहारिक रूप में प्रयुक्त; सत्यव्रतस्थ--राजा सत्यव्रत के; राज-ऋषे: --राजर्षि; आत्म-गुहाम्--आत्म-साक्षात्कार के सारे रहस्य; अशेषत:ः--सभी शाखाओं सहित |
इस प्रकार भगवान् ने राजा सत्यव्रत को वह आध्यात्मिक विज्ञान बतलाया जो सांख्ययोगकहलाता है, जिससे पदार्थ तथा आत्मा का अन्तर ( अर्थात् भक्तियोग ) जाना जाता है |
इसकेसाथ ही भगवान् ने पुराणों ( प्राचीन इतिहास ) तथा संहिताओं में पाये जाने वाले उपदेश भीबतलाये |
भगवान् ने इन सरे ग्रंथों में अपनी व्याख्या की है |
अश्रौषीदषिभिः साकमात्मतत्त्वमसंशयम् |
नाव्यासीनो भगवता प्रोक्त ब्रह्म सनातनम् ॥
५६॥
अश्रौषीत्--उसने सुना; ऋषिभि:--ऋषियों के; साकम्ू--साथ; आत्म-तत्त्वम्ू-आत्म-साक्षात्कार का विज्ञान; असंशयम्--बिना किसी सन््देह के ( क्योंकि यह भगवान् द्वारा कहा गया था ); नावि आसीन:--नाव में बैठा; भगवता-- भगवान् द्वारा;प्रोक्तमू--बताया गया; ब्रह्म--सारा दिव्य साहित्य; सनातनम्--सदा विद्यमान
राजा सत्यव्रत ने ऋषियों सहित नाव में बैठे-बैठे आत्म-साक्षात्कार के विषय में भगवान् केउपदेशों को सुना |
ये सारे उपदेश शाश्रत वैदिक साहित्य ( ब्रह्म ) से थे |
इस तरह राजा तथाऋषियों को परम सत्य ( परब्रह्म ) के विषय में कोई संशय नहीं रहा |
अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे |
हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान्प्रत्याहरद्धरि: ॥
५७॥
अतीत--बीता हुआ; प्रलय-अपाये--बाढ़ के अन्त में; उत्थिताय--निद्रा के बाद होश में लाने के लिए; सः--भगवान् ने;वेधसे--ब्रह्मा को; हत्वा--मारकर; असुरम्--असुर; हयग्रीवम्--हयग्रीव को; वेदान्--सारे वैदिक अभिलेख; प्रत्याहरत्--लाकर दे दिए; हरिः--भगवान् ने |
( स्वायंभुव मनु के काल में ) पिछली बाढ़ के अन्त में भगवान् ने हयग्रीव नामक असुर कोमारा और ब्रह्मा के निद्रा से जगने पर उन्हें सारा वैदिक साहित्य प्रदान कर दिया |
स तु सत्यब्रतो राजा ज्ञानविज्ञानसंयुतः |
विष्णो: प्रसादात्कल्पेस्मिन्नासीद्वैवस्वतो मनु: ॥
५८ ॥
सः--वह; तु--निस्सन्देह; सत्यव्रत:--सत्यव्रत; राजा--राजा; ज्ञान-विज्ञान-संयुतः--ज्ञान तथा उसके व्यावहारिक उपयोग सेअभिज्ञ; विष्णो: -- भगवान् विष्णु की; प्रसादातू-कृपा से; कल्पे अस्मिन्ू--इस काल में ( वैवस्वत मनु के राज्य में );आसीत्--हो गया; बैवस्व॒त: मनु:--वैवस्वत मनु |
भगवान् विष्णु की कृपा से राजा सत्यव्रत को सारा वैदिक ज्ञान प्राप्त हो गया और इस कालमें उसने अब सूर्यदेव के पुत्र वैवस्वत मनु के रूप में जन्म लिया है |
सत्यब्रतस्य राजर्षे्मायामत्स्यस्य शार्किण: |
संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत किल्बिषात्ू ॥
५९॥
सत्यव्रतस्थ--राजा सत्यतब्रत का; राज-ऋषे: -महान् राजा; माया-मत्स्यस्य--तथा मत्स्यावतार का; शाहिणः -+सिर पर एकसींग वाला; संवादम्--वर्णन या व्यवहार; महत्-आख्यानम्--महान् कथा; श्रुत्वा--सुनकर; मुच्येत--उबर जाता है;किल्बिषात्--सारे पापों के फलों से |
महान् राजा सत्यव्रत तथा भगवान् विष्णु के मत्स्यावतार से सम्बन्धित यह कथा एक महान्दिव्य आख्यान है |
जो भी इसे सुनता है, वह पापमय जीवन के फलों से छूट जाता है |
अवतारं हरेयोंयं कीर्तयेदन्वहं नरः |
सड्डूल्पास्तस्य सिध्यन्ति स याति परमां गतिम् ॥
६०॥
अवतारम्--अवतार; हरेः -- भगवान् का; यः--जो भी; अयम्--यह; कीर्तयेत्ू--कहता है और कीर्तन करता है; अन्वहम्--रोज; नरः--ऐसा व्यक्ति; सड्डूल्पा:--सारी आकांक्षाएं; तस्य--उसकी; सिध्यन्ति--सफल होती हैं; सः--ऐसा व्यक्ति; याति--वापस जाता है; परमाम् गतिमू-- भगवद्धाम या परम स्थान को |
जो कोई मत्स्य अवतार तथा राजा सत्यव्रत के इस वर्णन को सुनाता है उसकी सारीआकाक्षाएं पूरी होंगी और वह निश्चित रूप से भगवद्धाम वापस जाएगा |
प्रलयपयसि धातु: सुप्तशक्तिर्मुखे भ्य:श्रुतिगणमपनीत प्रत्युपादत्त हत्वा |
दितिजमकथयद्यो ब्रह्म सत्यव्रतानांतमहमखिलहेतुं जिहामीनं नतोस्मि ॥
६१॥
प्रलय-पयसि--बाढ़ के जल में; धातु:--ब्रह्माजी से; सुप्त-शक्ते:--जो नींद के कारण निष्क्रिय था; मुखेभ्य: --मुँहों से; श्रुति-गणम्--वैदिक अभिलेख; अपनीतम्--चुराये गये; प्रत्युपादत्त--वापस दे दिया; हत्वा--मारकर; दितिजम्--महान् असुर को;अकथयत्--बतलाया; यः--जो; ब्रह्म--वैदिक ज्ञान; सत्यब्रतानाम्--सत्यब्रत तथा महर्षियों के प्रकाश हेतु; तम्-- उसको;अहम्--मैं; अखिल-हेतुम्--समस्त कारणों के कारण को; जिहा-मीनम्--बड़ी मछली का बहाना करके प्रकट होने वाले को;नतः अस्मि--मैं सादर नमस्कार करता हूँ |
मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्होंने उस विशाल मछली का रूप धारण करने का बहाना किया जिसने ब्रह्मा के निद्रा से जगने पर उन्हें वैदिक साहित्य वापस लाकरदिया और राजा सत्यक्रत तथा महर्षियों को वैदिक साहित्य का सार कह समझाया |