श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 7

  • अध्याय एक: सर्वोच्च भगवान सभी के लिए समान है

  • अध्याय दो: हिरण्यकशिपु, राक्षसों का राजा

  • अध्याय तीन: हिरण्यकशिपु की अमर बनने की योजना

  • अध्याय चार: हिरण्यकशिपु ब्रह्मांड को आतंकित करता है

  • अध्याय पांच: हिरण्यकशिपु के पवित्र पुत्र प्रह्लाद महाराज

  • अध्याय छह: प्रह्लाद अपने राक्षसी सहपाठियों को निर्देश देता है

  • अध्याय सात: प्रह्लाद ने गर्भ में क्या सीखा

  • अध्याय आठ: भगवान नृसिंहदेव ने राक्षसों के राजा का वध किया

  • अध्याय नौ: प्रह्लाद ने प्रार्थनाओं से भगवान नृसिंहदेव को शांत किया

  • अध्याय दस: प्रह्लाद, श्रेष्ठ भक्तों में सर्वश्रेष्ठ

  • अध्याय ग्यारह: उत्तम समाज: चार सामाजिक वर्ग

  • अध्याय बारह: उत्तम समाज: चार आध्यात्मिक वर्ग

  • अध्याय तेरह: एक आदर्श व्यक्ति का व्यवहार

  • अध्याय चौदह: आदर्श पारिवारिक जीवन

  • अध्याय पन्द्रह: सभ्य मनुष्यों के लिए निर्देश

    अध्याय एक: सर्वोच्च भगवान सभी के लिए समान है

    7.1श्रीराजोबाचसम: प्रियः सुहड्गह्मन्भूतानां भगवान्स्वयम्‌ ।इन्द्रस्यार्थकथं दैत्यानवधीद्विषमो यथा ॥ १॥

    श्री-राजा उवाच--महाराज परीक्षित ने कहा; सम:--समान ; प्रिय: --प्रिय; सुहत्‌--मित्र; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण ( शुकदेव );भूतानाम्‌--समस्त जीवों के; भगवान्‌--परमे श्वर, विष्णु; स्वयम्‌--स्वयं; इन्द्रस्य--इन्द्र के; अर्थ--लाभ के लिए; कथम्‌--कैसे; दैत्यान्‌-- असुरों को; अवधीत्‌--मारा; विषम:ः--पक्षपात; यथा--मानो |

    राजा परीक्षित ने पूछा : हे ब्राह्मण, भगवान्‌ विष्णु सबों के शुभचिन्तक होने के कारण हरएक को समान रूप से अत्यधिक प्रिय हैं, तो फिर उन्होंने किस तरह एक साधारण मनुष्य कीभांति इन्द्र का पक्षपात किया और उसके शत्रुओं को मारा?

    सबों के प्रति समभाव रखने वाला" न हास्यार्थ: सुरगणैः साक्षान्रि: श्रेयसात्मनः ।नैवासुरेभ्यो विद्वेषो नोद्वेगश्रागुणस्य हि ॥

    २॥

    न--नहीं; हि--निश्चय ही; अस्य--उनके; अर्थ:--लाभ, हित; सुर-गणैः--देवताओं के साथ; साक्षात्‌--स्वयं; नि: श्रेयस--सर्वोच्च वरदान का; आत्मन:--जिसका स्वभाव; न--नहीं; एब--निश्चय ही; असुरेभ्य: --असुरों के लिए; विद्वेष: --ईर्ष्या, द्वेष;न--नहीं; उद्देगः--भय; च--तथा; अगुणस्य-- भौतिक गुणों से रहित; हि--निश्चय ही |

    भगवान्‌ विष्णु साक्षात्‌ भगवान्‌ तथा समस्त आनन्द के आगार हैं; अतएव उन्हें देवताओं कापक्ष-ग्रहण करने से क्या लाभ मिलेगा ?

    इस प्रकार उनका कौन सा स्वार्थ सधेगा ?

    जब भगवान्‌दिव्य हैं, तो फिर उन्हें असुरों से भय कैसा ?

    और उनसे ईर्ष्या कैसी ?

    " इति नः सुमहाभाग नारायणगुणान्प्रति ।संशयः सुमहाझ्जातस्तद्धवांश्छेत्तुमहति ॥

    ३॥

    इति--इस प्रकार; न:ः--हमारा; सु-महा-भाग--हे भाग्यवान्‌:; नारायण-गुणान्‌--नारायण के गुणों के; प्रति--प्रति; संशय:--सन्देह; सु-महान्‌--अत्यन्त महान्‌; जात:--उत्पन्न; तत्‌ू--वह; भवान्‌ू--आप; छेत्तुम्‌ अहति--कृपया दूर कर दें।

    है सौभाग्यशाली तथा विद्वान ब्राह्मण, यह अत्यन्त सन्देहास्पद विषय बन गया है किनारायण पक्षपातपूर्ण हैं या निष्पक्ष हैं ?

    कृपया निश्चित साक्ष्य द्वारा मेरे इस सन्देह को दूर करें किनारायण सर्वदा उदासीन तथा सबों के प्रति सम हैं।"

    श्रीऋषिरुवाचसाधु पृष्ठ महाराज हरेश्वरितमद्भुतम्‌ ।यद्भागवतमाहात्म्यं भगवद्धक्तिवर्धनम्‌ ॥

    ४॥

    गीयते परम॑ पुण्यमृषिभिर्नारदादिभि: ।नत्वा कृष्णाय मुनये कथयिष्ये हरे: कथाम्‌ ॥

    ५॥

    श्री-ऋषि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; साधु--सर्व श्रेष्ठ; पृष्टमू-- प्रश्न; महा-राज--हे महान्‌ राजा; हरे: --पर मे श्वर,हरि के; चरितम्‌-कार्यकलाप; अद्भुतम्‌--अद्भुत; यत्‌--जिससे; भागवत-- भगवान्‌ के भक्त ( प्रह्मद ) का; माहात्म्यम्‌--यश; भगवत्‌-भक्ति-- भगवान्‌ की भक्ति को; वर्धनमू--बढ़ाने वाली; गीयते--गाई जाती है; परमम्‌--अग्रणी; पुण्यम्‌--पवित्र; ऋषिभि:--ऋषियों के द्वारा; नारद-आदिभि:--नारद आदि द्वारा; नत्वा--नमस्कार करके ; कृष्णाय--कृष्णद्वैपायनव्यास को; मुनये--मुनि; कथयिष्ये-- मैं कह सुनाऊँगा; हरेः--हरि की; कथाम्‌ू--कथाएँ।

    महामुनि शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, आपने मुझसे अतीव श्रेष्ठ प्रश्न किया है।

    भगवान्‌ के कार्यकलापों से सम्बन्धित कथाएँ, जिनमें उनके भक्तों के भी यशों का वर्णन रहताहै, भक्तों को अत्यन्त भाने वाली हैं।

    ऐसी अद्भुत कथाएँ सदैव भौतिकतावादी जीवनशैली केकष्टों का निवारण करने वाली होती हैं।

    अतएव नारद-जैसे मुनि श्रीमद्भागवत के विषय मेंसदैव उपदेश देते रहते हैं, क्योंकि इससे मनुष्य को भगवान्‌ के अद्भुत कार्यकलापों के श्रवणतथा कीर्तन की सुविधा प्राप्त होती है।

    अब मैं श्रील व्यासदेव को सादर प्रणाम करके भगवान्‌हरि के कार्यकलापों से सम्बन्धित कथाओं का वर्णन प्रारम्भ करता हूँ।

    "

    निर्गुणोपि ह्ाजोव्यक्तो भगवान्प्रकृते: पर: ।

    स्वमायागुणमाविश्य बाध्यबाधकतां गत: ॥

    ६॥

    निर्गुण:--भौतिक गुणों से रहित; अपि--यद्यपि; हि--निश्चय ही; अज:--अजन्मा; अव्यक्त:--अप्रकट; भगवानू्‌--पर मेश्वर;प्रकृते:--भौतिक प्रकृति से; पर:--दिव्य; स्व-माया--अपनी शक्ति के; गुणम्‌--भौतिक गुण में; आविश्य--प्रवेश करके;बाध्य--बाध्य; बाधकताम्‌--बाध्य होने की स्थिति; गतः--स्वीकार करता है।

    भगवान्‌ विष्णु सदा भौतिक गुणों से परे रहने वाले हैं अतएव वे निर्गुण कहलाते हैं।

    अजन्मा होने के कारण उनका शरीर राग तथा द्वेष से प्रभावित नहीं होता।

    यद्यपि भगवान्‌ सदैव भौतिकजगत से ऊपर हैं, किन्तु अपनी आध्यात्मिक ( परा ) शक्ति से वे प्रकट हुए और बद्धजीव कीभाँति कर्तव्यों तथा दायित्वों ( बाध्यताओं ) को ऊपर से स्वीकार करके उन्होंने सामान्य मनुष्यकी भाँति कार्य किया।

    "

    सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणा: ।

    न तेषां युगपद्राजन्हास उल्लास एवं वा ॥

    ७॥

    सत्त्वमू--सतोगुण; रज:--रजोगुण; तम: --तमोगुण; इति--इस प्रकार; प्रकृते:-- भौतिक प्रकृति के; न--नहीं; आत्मन: --आत्मा के; गुणा:--गुण; न--नहीं; तेषाम्‌-- उनके; युगपत्‌--एकसाथ; राजन्‌--हे राजा; हास: --कमी; उल्लास: -- प्रधानता;एव--निश्चय ही; वा--अथवा।

    हे राजा परीक्षित, सत्व, रज, तम--ये तीनों भौतिक गुण भौतिक जगत से सम्बद्ध हैं, अतःये भगवान्‌ को छू तक नहीं पाते।

    ये तीनों गुण एकसाथ बढ़ या घट कर कार्य नहीं कर सकते।

    "

    जयकाले तु सत्त्वस्य देवर्षीत्रजसो सुरान्‌ ।

    तमसो यक्षरक्षांसि तत्कालानुगुणोभजत्‌ ॥

    ८॥

    जय-काले--प्रसिद्धि के समय में; तु--निस्मन्देह; सत्त्वस्थ--सतोगुण का; देव--देवताओं; ऋषीन्‌ू--तथा ऋषियों को;रजसः--रजोगुण का; असुरान्‌--असुरों को; तमस:--तमोगुण का; यक्ष-रक्षांसि--यक्षों तथा राक्षसों को; तत्‌ू-काल-अनुगुण:--विशेष अवसर के अनुकूल; अभजतू--अपनाया।

    जब सतोगुण प्रधान होता है, तो ऋषि तथा देवता उस गुण के बल पर समुन्नति करते हैंजिससे वे परमेश्वर द्वारा प्रोत्साहित एवं प्रेरित किये जाते हैं।

    इसी प्रकार जब रजोगुण प्रधान होताहै, तो असुरगण फूलते-फलते हैं और जब तमोगुण प्रधान होता है, तो यक्ष तथा राक्षस समृद्धिपाते हैं।

    भगवान्‌ प्रत्येक के हृदय में स्थित रह कर सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण के फलों कोपुष्ठ करते हैं।

    "

    ज्योतिरादिरिवाभाति सज्ञतान्न विविच्यते ।

    विदन्त्यात्मानमात्मस्थं मथित्वा कवयोउन्ततः ॥

    ९॥

    ज्योति:--अग्नि; आदि:--तथा अन्य तत्त्व; इब--सह्ृश; आभाति--प्रतीत होती हैं; सज्ञतात्‌--देवताओं तथा अन्यों के शरीरोंसे; न--नहीं; विविच्यते-- पहचाने जाते हैं; विदन्ति--अनुभव करते हैं; आत्मानम्‌--परमात्मा को; आत्म-स्थम्‌--हृदय मेंस्थित; मधित्वा--विलग करके; कवयः--दक्ष चिन्तक; अन्ततः-- भीतरसर्वव्यापी

    भगवान्‌ प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित रहते हैं और एक कुशल चिन्तक हीअनुभव कर सकता है कि वे अधिक या न्यून मात्रा में कैसे वहाँ उपस्थित हैं।

    जिस प्रकार काष्ठमें अग्नि, जलपात्र में जल या घड़े के भीतर आकाश को समझा जा सकता है उसी प्रकार जीवकी भक्तिमयी क्रियाओं को देखकर यह समझा जा सकता है कि वह जीव असुर है या देवता।

    विचारशील व्यक्ति किसी मनुष्य के कर्मों को देखकर यह समझ सकता है कि उस मनुष्य परभगवान्‌ की कितनी कृपा है।

    "

    यदा सिसृक्षु: पुर आत्मनः परोरजः सृजत्येष पृथक्स्वमायया ।

    सत्त्वं विचित्रासु रिरंसुरी श्वरःशयिष्यमाणस्तम ईरयत्यसौ ॥

    १०॥

    यदा--जब; सिसृक्षु:--सृष्टि करने को इच्छुक; पुर: -- भौतिक शरीर; आत्मन:--जीवों के लिए; पर:--भगवान्‌; रज: --रजोगुण; सृजति--प्रकट करता है; एष: --वह; पृथक्‌--अलग, मुख्यतया; स्व-मायया--अपनी सृजन शक्ति के द्वारा;सत्त्वम्‌--सतोगुण; विचित्रासु--विभिन्न प्रकार के शरीरों में; रिरंसु:--कर्म करने का इच्छुक; ईश्वरः-- भगवान्‌;शयिष्यमाण: --समाप्त करने के निकट; तमः--तमोगुण; ईरयति--प्रकट करता है; असौ--वह परमे श्वर।

    जब भगवान्‌ विभिन्न प्रकार के शरीर उत्पन्न करते हैं और प्रत्येक जीव को उसके चरित्र तथासकाम कर्मों के अनुसार विशिष्ट प्रकार का शरीर प्रदान करते हैं, तो वे प्रकृति के सारे गुणों--सत्त्व गुण, रजोगुण तथा तमोगुण--को पुनरुज्जीवित करते हैं।

    तब परमात्मा के रूप में वेप्रत्येक शरीर में प्रविष्ट होकर सृजन, पालन तथा संहार के गुणों को प्रभावित करते हैं जिनमें सेसतोगुण का उपयोग पालन के लिए, रजोगुण का उपयोग सृजन के लिए तथा तमोगुण काउपयोग संहार के लिए किया जाता है।

    "

    काल चरन्तं सृजतीश आश्रयं ।

    प्रधानपुम्भ्यां नरदेव सत्यकृत्‌ ॥

    ११॥

    कालमू--समय; चरन्तम्‌--गतिशील; सृजति--उत्पन्न करता है; ईशः--भगवान्‌; आश्रयम्‌--शरण; प्रधान--भौतिक शक्ति केलिए; पुम्भ्यामू--तथा जीव के द्वारा; नर-देव--हे मनुष्यों के शासक; सत्य--असली; कृत्‌--स्त्रष्टा

    हे महान्‌ राजा, भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के नियंता भगवान्‌, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके सत्रष्टा हैं, काल की सृष्टि करते हैं जिससे भौतिक शक्ति तथा जीव काल की सीमा के भीतरपरस्पर क्रिया कर सकें।

    इस प्रकार परम पुरुष न तो कभी काल के अधीन होता है, न हीभौतिक शक्ति ( माया ) के अधीन होता है।

    "

    य एघ राजन्नपि काल ईशितासत्त्वं॑ सुरानीकमिवैधयत्यत: ।

    तत्प्रत्यनीकानसुरान्सुरप्रियोरजस्तमस्कान्प्रमिणोत्युरु श्रवा: ॥

    १२॥

    यः--जो; एब:--यह; राजन्‌ू--हे राजा; अपि-- भी; काल:-- काल, समय; ईशिता-- पर मे श्वर; सत्त्वम्‌--सतोगुण; सुर-अनीकमू--अनेक देवताओं को; इब--निश्चय ही; एधयति--बढ़ाता है; अत:--अतएव; तत्-प्रत्यनीकान्‌ू-- उनके प्रति वैरभाव; असुरान्‌--असुरों को; सुर-प्रियः--देवताओं का मित्र होने से; रज:-तमस्कान्‌--रजो तथा तमों गुणों से आच्छादित;प्रमिणोति--नष्ट करता है; उरू-भ्रवा:--जिसका यश दूर-दूर तक फैला है।

    हे राजन्‌ यह काल सत्त्वगुण को बढ़ाता है।

    इस तरह यद्यपि परमेश्वर नियन्ता हैं, किन्तु वेदेवताओं पर कृपालु होते हैं, जो अधिकांशतः सतोगुणी होते हैं।

    तभी तमोगुणी असुरों काविनाश होता है।

    परमेश्वर काल को विभिन्न प्रकार से कार्य करने के लिए प्रभावित करते हैं,किन्तु वे कभी पक्षपात नहीं करते।

    उनके कार्यकलाप यशस्वी हैं, अतएव वे उरुश्रवा कहलातेहैं।

    "

    अन्नैवोदाहतः पूर्वमितिहास: सुर्षिणा ।

    प्रीत्या महाक्रतौ राजन्पृच्छतेजातशत्रवे ॥

    १३॥

    अत्र--इस प्रसंग में; एब--निश्चय; उदाहत: --सुनाया गया; पूर्वम्‌--पहले; इतिहास:--पुरानी कथा; सुर-ऋषिणा--देवर्षिनारद द्वारा; प्रीत्या--प्रसन्नतापूर्वक; महा-क्रतौ--महान्‌ राजसूय यज्ञ के अवसर पर; राजन्‌--हे राजा; पृच्छते--जिज्ञासा करनेवाले; अजात-शत्रवे--महाराज युथिष्टिर को, जिनका कोई शत्रु न था।

    हे राजन, पूर्वकाल में जब महाराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे थे तो महर्षि नारद ने उनकेपूछे जाने पर कुछ ऐतिहासिक तथ्य कह सुनाये जिससे पता चलता है कि भगवान्‌ असुरों कावध करते समय भी कितने निष्पक्ष रहते हैं।

    इस सम्बन्ध में उन्होंने एक जीवन्त उदाहरण प्रस्तुतकील ।

    "

    इृष्टा महाद्भुतं राजा राजसूये महाक्रतौ ।

    वबासुदेवे भगवति सायुज्यं चेदिभूभुज: ॥

    १४॥

    तत्रासीनं सुरऋषिं राजा पाण्डुसुतः क्रतौ ।

    पप्रच्छ विस्मितमना मुनीनां श्रृण्वतामिदम्‌ ॥

    १५॥

    इष्ठा--देखकर; महा-अद्भुतम्‌--अत्यन्त अद्भुत; राजा--राजा; राजसूये--राजसूय नामक; महा-क्रतौ--महान्‌ यज्ञ के अवसरपर; वासुदेवे--वासुदेव में; भगवति-- भगवान्‌ में; सायुज्यमू--लीन हुआ; चेदिभू-भुज:--चेदि के राजा शिशुपाल का; तत्र--वहाँ; आसीनम्‌--बैठा हुआ; सुर-ऋषिम्‌ू--नारदमुनि से; राजा--राजा; पाण्डु-सुत:ः--पाए-डु पुत्र युधिष्टिर ने; क्रतौ--यज्ञ में;पप्रच्छ--पूछा; विस्मित-मना:--आश्चर्यचकित होकर; मुनीनाम्‌--मुनियों की उपस्थिति में; श्रूण्वताम्‌--सुनते हुए; इदम्‌--यह |

    हे राजन, महाराज पाण्डु के पुत्र महाराज युथ्िष्ठिर ने राजसूय यज्ञ के समय शिशुपाल कोभगवान्‌ कृष्ण के शरीर में विलीन होते हुए स्वयं देखा।

    अतएवं आश्चर्यच्कित होकर उन्होंने वहींपर बैठे महर्षि नारद से इसका कारण पूछा।

    जब उन्होंने यह प्रश्न पूछा तो वहाँ पर उपस्थित सारेऋषियों ने भी इस प्रश्न को पूछे जाते सुना।

    "

    श्रीयुधिष्ठटिर उवाचअहो अत्यद्भुतं होतदुर्लभैकान्तिनामपि ।

    बासुदेवे परे तत्त्वे प्राप्तिश्षेद्यस्थ विद्विष: ॥

    १६॥

    श्री-युधिष्ठटिर: उवाच--महाराज युधिष्ठटिर ने कहा; अहो--ओह; अति-अद्भुतम्‌-- अत्यन्त आश्चर्यजनक; हि--निश्चय ही; एतत्‌--यह; दुर्लभ--प्राप्त करने में कठिन; एकान्तिनाम्‌ू--अध्यात्मवादियों के लिए; अपि-- भी; वासुदेवे --वासुदेव में; परे--परम;तत्त्वे--परम सत्य; प्राप्ति:--प्राप्ति; चैद्यस्य--शिशुपाल की; विद्विष:--ईर्ष्यालु |

    महाराज युधिष्ठिर ने पूछा : यह अत्यन्त आश्वर्यजनक है कि असुर शिशुपाल अत्यन्त ईर्ष्यालुहोते हुए भी भगवान्‌ के शरीर में लीन हो गया।

    यह सायुज्य मुक्ति बड़े-बड़े अध्यात्मवादियों केलिए भी दुष्प्राप्प है, तो फिर भगवान्‌ के शत्रु को यह कैसे प्राप्त हुई ?

    " एतद्ठेदितुमिच्छाम: सर्व एव बयं मुने ।

    भगवत्निन्दया वेनो द्विजैस्तमसि पातित: ॥

    १७॥

    एतत्‌--यह; वेदितुम्‌--जानना; इच्छाम:--चाहते हैं; सर्वे--सभी; एव--निश्चय ही; वयम्‌--हम सब; मुने--हे मुनि; भगवत्‌-निन्दया-- भगवान्‌ की निन्‍्दा करने के कारण; वेन:--वेन, पृथु महाराज का पुत्र; द्विजैः:--ब्राह्मणों के द्वारा; तमसि--नरक में;पातितः--गिरा दिया गया।

    हे मुनि, हम सभी भगवान्‌ की इस कृपा का कारण जानने के लिए उत्सुक हैं।

    मैंने सुना हैकि प्राचीन काल में वेन नामक राजा ने भगवान्‌ की निन्‍्दा की।

    फलस्वरूप सारे ब्राह्मणों ने उसेबाध्य किया कि वह नरक में जाये।

    शिशुपाल को भी नरक जाना चाहिए था।

    तो फिर वहभगवान्‌ के शरीर में किस तरह लीन हो गया ?

    " दमघोषसुतः पाप आरभ्य कलभाषणात्‌ ।

    सम्प्रत्यमर्षी गोविन्दे दन्तवक्र श्च दुर्मति:ः ॥

    १८ ॥

    दमघोष-सुत:ः--दमधघोष का पुत्र, शिशुपाल; पाप:--पापी; आरभ्य--प्रारम्भ करके; कल-भाषणात्‌--बालक जैसी तोतलीबोली से; सम्प्रति--आज भी; अमर्षी--ईर्ष्यालु; गोविन्दे-- श्रीकृष्ण के प्रति; दनन्‍्तवक्र:--दन्तवक़ ; च-- भी ; दुर्मति:--दुर्बद्धि

    अपने बाल्यकाल के प्रारम्भ से ही, जब वह ठीक से बोल नहीं पाता था, दमघोष के महापापी पुत्र शिशुपाल ने भगवान्‌ की निन्दा करनी प्रारम्भ कर दी थी और वह मृत्यु काल तकश्रीकृष्ण से ईर्ष्या करता रहा।

    इसी प्रकार उसका भाई दन्तवक्र भी ऐसी आदतें पाले रहा।

    "

    शपतोरसकृद्रिष्णुं यद्रह् परमव्ययम्‌ ।

    श्रित्रो न जातो जिह्दायां नान्धं विविशतुस्तम: ॥

    १९॥

    शपतो:--निन्दा करने वाले शिशुपाल तथा दन्तवक्र दोनों ही का; असकृत्‌--बारम्बार; विष्णुम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण को; यत्‌--जो; ब्रह्म परमू--परब्रह्म; अव्ययम्‌--बिना किसी कमी के; श्रित्र:-- श्वेत कुष्ठ; न--नहीं; जात:--प्रकट; जिह्लायाम्‌-- जीभ पर;न--नहीं; अन्धम्‌--अँधेरा; विविशतु:--वे घुसे; तम:--नरक में ।

    यद्यपि शिशुपाल तथा दन्तवक्र दोनों ही भगवान्‌ विष्णु ( कृष्ण ) की बारम्बार निन्‍्दा करतेरहे तो भी वे पूर्ण स्वस्थ रहे।

    न तो उनकी जीभों में ही श्वेत कुष्ठ रोग हुआ, न वे नारकीय जीवनके गहन अंधकार में प्रविष्ट हए।

    हम सचम्‌च इससे अत्यधिक चकित हैं।

    "

    कथ॑ं तस्मिन्भगवति दुरवग्राह्धामनि ।

    पश्यतां सर्वलोकानां लयमीयतुरञझसा ॥

    २०॥

    कथम्‌--कैसे; तस्मिन्‌ू--उसमें; भगवति-- भगवान्‌ में; दुरवग्राह्म--प्राप्त करने में कठिन; धामनि--जिसका स्वभाव;पश्यतामू--देखते-देखते; सर्ब-लोकानामू--सारे लोगों के; लयम्‌ ईयतु:--लीन हो गये; अद्भधसा--सरलता से

    यह कैसे सम्भव हो पाया कि शिशुपाल तथा दन्तवक्र अनेक महापुरुषों की उपस्थिति में उनकृष्ण के शरीर में सरलता से प्रविष्ट हो सके, जिन भगवान्‌ की प्रकृति को प्राप्त कर पाना इतनाकठिन है?

    " एतदश्राम्यति मे बुद्धिर्दीपाचिरिव वायुना ।

    ब्रूह्मेतदद्धुततमं भगवान्ह्त्र कारणम्‌ ॥

    २१॥

    एतत्‌--इसे लेकर; भ्राम्यति--डगमगा रही है; मे--मेरी; बुद्धिः:-- बुद्धि; दीप-अर्चि:ः--दीपक की लौ; इब--सहश; वायुना--वायु से; ब्रूहि--कृपा करके कहें; एतत्‌--यह; अद्भुततमम्‌--सर्वाधिक अद्भुत; भगवान्‌--समस्त ज्ञान से युक्त; हि--निश्चयही; अब्र--यहाँ; कारणम्‌--कारण यह विषय निस्सन्देह अत्यन्त अद्भुत है।

    मेरी बुद्धि उसी तरह डगमगा रही है, जिस तरहबहती हुई वायु से दीपक की लौ विचलित हो जाती है।

    हे नारद मुनि, आप सब कुछ जानते हैं।

    कृपा करके मुझे इस अदभुत घटना का कारण बताएँ।

    "

    श्रीबादरायणिरुवाचराज्ञस्तद्बब्य आकर्ण्य नारदो भगवानृषि: ।

    तुष्ट: प्राह तमाभाष्य श्रण्वत्यास्तत्सद: कथा; ॥

    २२॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; राज्:--राजा ( युधिष्ठटिर ) के; तत्‌ू--वे; वच:--शब्द; आकर्ण्य--सुनकर; नारद:--नारद मुनि ने; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; ऋषि: --ऋषि; तुष्ट: -- प्रसन्न होकर; प्राह--कहा; तम्‌--उसको; आभाष्य--सम्बोधित करके; श्रृण्वत्या: तत्‌ू-सदः--सभासदों की उपस्थित में; कथा:--कथाएँ।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महाराज युधिष्ठटिर की विनती सुनकर अत्यन्त शक्तिशालीगुरु नारद मुनि अत्यन्त प्रसन्न हुए, क्योंकि वे हर बात को जानने वाले हैं।

    इस तरह उन्होंने यज्ञ में भाग लेने वाले सभी व्यक्तियों के समक्ष उत्तर दिया।

    "

    श्रीनारद उवाचनिन्दनस्तवसत्कारन्यक्कारार्थ कलेवरम्‌ ।

    प्रधानपरयो राजन्नविवेकेन कल्पितम्‌ ॥

    २३॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; निन्दन--निन्दा; स्तव--स्तुति, प्रशंसा; सत्कार--सम्मान; न्यक्कार-- अपमान;अर्थम्‌-के प्रयोजन से; कलेवरम्‌--शरीर; प्रधान-परयो:--प्रकृति तथा भगवान्‌ का; राजन्‌--हे राजा; अविवेकेन--बिनाभेदभाव के; कल्पितम्‌ू--उत्पन्न |

    महर्षि नारद ने कहा : हे राजन, निन्दा तथा स्तुति, अपमान तथा सम्मान का अनुभव अज्ञानके कारण होता है।

    बद्धजीव का शरीर भगवान्‌ द्वारा अपनी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से इसजगत में कष्ट भोगने के लिए बनाया गया है।

    "

    हिंसा तदभिमानेन दण्डपारुष्ययोर्यथा ।

    वैषम्यमिह भूतानां ममाहमिति पार्थिव ॥

    २४॥

    हिंसा--कष्ट; तत्‌ू--इसका; अभिमानेन--मिथ्या धारणा; दण्ड-पारुष्ययो:--दण्ड तथा अपमान की; यथा--जिस तरह;वैषम्यम्‌-- भ्रान्ति; इह-- यहाँ ( इस शरीर में ); भूतानामू--जीवों का; मम-अहम्‌--मेरा और मैं; इति--इस प्रकार; पार्थिव--हेपृथ्वी के स्वामी

    हे राजन, देहात्म-बुद्धि के कारण बद्धजीव अपने शरीर को ही आत्मा मान लेता है औरअपने शरीर से सम्बद्ध हर वस्तु को अपनी मानता है।

    चूँकि उसे जीवन की यह मिथ्या धारणारहती है, अतएव उसे प्रशंसा तथा अपमान जैसे ढूंद्वों को भोगना पड़ता है।

    "

    यत्रिबद्धोइभिमानोयं तद्वधात्प्राणिनां वध: ।

    तथा न यस्य कैवल्यादभिमानोखिलात्मन: ।

    परस्य दमकर्तुहि हिंसा केनास्य कल्प्यते ॥

    २५॥

    यत्‌--जिसमें; निबद्ध:--बँधा हुआ; अभिमान:--मिथ्या धारणा; अयमू--यह; तत्‌--उस ( शरीर ) के; वधात्‌--विनाश से;प्राणिनामू--जीवों का; वध:--विनाश; तथा--उसी प्रकार से; न--नहीं; यस्य--जिसका; कैवल्यात्‌-- अद्वितीय या परम होनेके कारण; अभिमान:-- भ्रान्त धारणा; अखिल-आत्मन:--समस्त जीवों के परमात्मा का; परस्थ-- भगवान्‌ का; दम-कर्तु:--परम नियन्ता; हि--निश्चय ही; हिंसा-- क्षति; केन--कैसे; अस्य--उसका; कल्प्यते--सम्पन्न की जाती है।

    देहात्मा-बुद्धि के कारण बद्धजीव सोचता है कि जब शरीर नष्ट हो जाता है, तो जीव नष्ट होजाता है।

    भगवान्‌ विष्णु ही परम नियन्ता तथा समस्त जीवों के परमात्मा हैं।

    चूँकि उनका कोईभौतिक शरीर नहीं होता, अतएव उनमें 'मैं तथा मेरा ' जैसी भ्रान्त धारणा नहीं होती।

    अतएवयह सोचना सही नहीं है कि जब उनकी निन्दा की जाती है या उनकी स्तुति की जाती है, तो वेपीड़ा या हर्ष का अनुभव करते हैं।

    ऐसा कर पाना उनके लिए असम्भव है।

    इस प्रकार उनका नकोई शत्रु है और न कोई मित्र।

    जब वे असुरों को दण्ड देते हैं, तो उनकी भलाई के लिए ऐसाकरते हैं और जब भक्तों की स्तुतियाँ स्वीकार करते हैं, तो वह उनके कल्याण के लिए होता है।

    बे न तो स्तुतियों से प्रभावित होते हैं न निन्‍्दा से।

    "

    तस्मद्वैरानुबन्धेन निर्वरेण भयेन वा ।

    स्नेहात्कामेन वा युउ्ज्यात्कथद्धिन्नेक्षते पृथक्‌ ॥

    २६॥

    तस्मात्‌ू--अतएव; वैर-अनुबन्धेन--निरन्तर शत्रुता से; निर्वेण -- भक्ति से; भयेन-- भय से; वा--अथवा; स्नेहात्‌-स्नेह से;कामेन--विषय वासनाओं से; वा--अथवा; युज्ज्यात्‌-केन्द्रित करे; कथज्जित्‌ू--किसी न किसी तरह; न--नहीं; ईक्षते--देखता है; पृथक्‌ --अन्य कुछ

    अतएव यदि कोई बद्धजीव किसी तरह शत्रुता या भक्ति, भय, स्नेह या विषयवासनाद्वारा--इनमें से सभी या किसी एक के द्वारा--अपने मन को भगवान्‌ पर केन्द्रित करता है, तोपरिणाम एक सा मिलता है, क्योंकि अपनी आनन्दमयी स्थिति के कारण भगवान्‌ कभी भीशत्रुता या मित्रता द्वारा प्रभावित नहीं होते।

    "

    यथा वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात्‌ ।

    न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मति: ॥

    २७॥

    यथा--जिस तरह; बैर-अनुबन्धेन--निरन्‍्तर शत्रुता से; मर्त्य:--व्यक्ति; तत्‌-मयताम्‌--उनमें तल्‍लीनता; इयात्‌--प्राप्त करसकता है; न--नहीं; तथा--उसी तरह; भक्ति-योगेन-- भक्ति से; इति--इस प्रकार; मे--मेरा; निश्चिता--निश्चित; मति:--मत,विचार

    नारद मुनि ने आगे बताया--मनुष्य को भक्ति द्वारा भगवान्‌ के विचार में ऐसी गहनतल्लीनता प्राप्त नहीं हो सकती जितनी कि उनके प्रति शत्रुता के माध्यम से।

    ऐसा मेरा विचार है।

    "

    कीटः पेशस्कृता रुद्ध: कुड्यायां तमनुस्मरन्‌ ।

    संरम्भभययोगेन विन्दते तत्स्वरूपताम्‌ ॥

    २८॥

    एवं कृष्णे भगवति मायामनुज ईश्वरे ।

    वैरेण पूतपाप्मानस्तमापुरनुचिन्तया ॥

    २९॥

    कीट:--कीड़ा; पेशस्कृता--मधुमक्खी ( भूंगी ) द्वारा; रुद्ध:--बन्दी बनाया गया; कुड्यायाम्‌--दीवाल के छेद में; तम्‌--उस( मधुमक्खी ) को; अनुस्मरन्‌--सोचते हुए; संरम्भ-भय-योगेन-- अत्यधिक भय तथा शत्रुता के द्वारा; विन्दते--प्राप्त करता है;ततू--उस मक्खी का; स्व-रूपताम्‌--वही रूप; एवम्‌--इस प्रकार; कृष्णे--कृष्ण में; भगवति-- भगवान्‌; माया-मनुजे--जोअपनी ही शक्ति से मनुष्य रूप में; ईश्वेर--परम; वैरेण--शत्रुता से; पूत-पाप्मान:--पापों से शुद्ध हुए; तम्‌ू--उसको; आपु:--प्राप्त किया; अनुचिन्तया--चिन्तन से |

    एक मधुमक्खी ( भूंगी ) द्वारा दीवाल के छेद में बन्दी बनाया गया एक कीड़ा सदैव भयतथा शत्रुता के कारण उस मधुमक्खी के विषय में सोचता रहता है और बाद में मात्र चिन्तन सेस्वयं मधुमक्खी बन जाता है।

    इसी प्रकार यदि सारे बद्धजीव किसी तरह सच्चिदानन्द विग्रहश्रीकृष्ण का चिन्तन करें, तो वे पापों से मुक्त हो जाएँगे।

    वे भगवान्‌ को चाहे पूज्य रूप में मानेंया शत्रु के रूप में, निरन्तर उनका चिन्तन करते रहने से उन सबों को आध्यात्मिक शरीर कीपुनःप्राप्ति हो जाएगी।

    "

    कामाददवेषाद्धयात्स्नेहाद्यथा भक्त्येश्वेर मन: ।

    आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गता: ॥

    ३०॥

    कामात्‌--काम से; द्वेषातू-घृणा से; भयात्‌-- भय से; स्नेहातू-स्नेह से; यथा--तथा; भक्त्या--भक्ति से; ईश्वर--ई श्वर में;मनः--मन; आवेश्य--लीन करके; तत्‌--उस; अघम्‌--पाप को; हित्वा--त्याग कर; बहवः--अनेक; तत्‌--उस; गतिम्‌--मुक्ति के मार्ग को; गता:--प्राप्त हुए।

    अनेकानेक व्यक्तियों ने केवल अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक कृष्ण का चिन्तन करके तथापापपूर्ण कर्मों का त्याग करके मुक्ति प्राप्त की है।

    यह ध्यान कामवासनाओं, शजत्रुतापूर्णभावनाओं, भय, स्नेह या भक्ति के कारण हो सकता है।

    अब मैं यह बताऊँगा कि किस प्रकारसे मनुष्य भगवान्‌ में अपने मन को एकाग्र करके कृष्ण की कृपा प्राप्त करता है।

    "

    गोप्यः कामाद्धयात्कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपा: ।

    सम्बन्धाद्वष्णय: स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो ॥

    ३१॥

    गोप्य:--गोपियाँ; कामात्‌--काम-वासनाओं से; भयात्‌-- भय से; कंसः--राजा कंस; द्वेषात्‌-द्वेष से; चैद्य-आदय:--शिशुपाल तथा अन्य; नृपा:--राजा; सम्बन्धात्‌--नाते से; वृष्णय: --वृष्णिजन या यादवगण; स्नेहात्‌ू--स्नेह से; यूयमू--तुमसब, सारे ( पाण्डव ); भक्त्या--भक्ति से; वयम्‌--हम सब; विभो--हे महान्‌ राजा।

    हे राजा युधिष्ठिर, गोपियाँ अपनी विषयवासना से, कंस भय से, शिशुपाल तथा अन्य राजाईर्ष्या से, यदुगण कृष्ण के साथ पारिवारिक सम्बन्ध से, तुम सब पाण्डव कृष्ण के प्रति अपारस्नेह से तथा हम सारे सामान्य भक्त अपनी भक्ति से कृष्ण की कृपा को प्राप्त कर सके हैं।

    "

    कतमोपि न वेनः स्यात्पञ्ञानां पुरुषं प्रति ।

    तस्मात्केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्‌ ॥

    ३२॥

    कतमः अपि--कोई भी; न--नहीं; वेन:--नास्तिक राजा वेन; स्थातू--ग्रहण करेगा; पञ्ञानाम्‌--पाँचों का ( जिनका उल्लेखपहले हो चुका है ); पुरुषम्‌-- भगवान्‌ के; प्रति--प्रति; तस्मात्‌ू--अतएव; केनापि--किसी भी; उपायेन--उपाय से; मन:ः--मनको; कृष्णे--कृष्ण में; निवेशयेत्‌--स्थिर करना चाहिये।

    मनुष्य को किसी न किसी प्रकार से कृष्ण के स्वरूप पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए।

    तब ऊपर बताई गई पाँच विधियों में से किसी एक के द्वारा वह भगवद्धाम वापस जा सकता है।

    लेकिन राजा वेन जैसे नास्तिक इन पाँचों विधियों में से किसी एक के द्वारा कृष्ण के स्वरूप काचिन्तन करने में असमर्थ होने से मोक्ष नहीं पा सकते।

    अतएव मनुष्य को चाहिए कि जैसे भी हो,चाहे मित्र बनकर या शत्रु बनकर, वह भगवान्‌ का चिन्तन करे।

    "

    मातृष्वस््रेयो वश्चैद्यो दन्‍्तवक्रश्च पाण्डव ।

    पार्षदप्रवरौ विष्णोर्विप्रशापात्पदच्युतौ ॥

    ३३॥

    मातृ-स्वस्त्रे:ः --मौसी का पुत्र ( शिशुपाल ); व: --तुम्हारा; चैद्यः --राजा शिशुपाल; दन्तवक्र:--दन्तवक्र ; च--तथा;पाण्डव--हे पाण्डव; पार्षद-प्रवरौ --दोनों श्रेष्ठ पार्षद; विष्णो: --विष्णु के; विप्र--ब्राह्मणों के; शापात्‌ू--शाप से; पद--बैकुण्ठ लोक में अपने पद से; च्युतौ--गिरे हुए

    नारद मुनि ने आगे कहा : हे पाण्डवश्रेष्ठ, तुम्हारी मौसी के दोनों पुत्र तुम्हारे चचेरे भाईशिशुपाल तथा दन्तवक्र पहले भगवान्‌ विष्णु के पार्षद थे, लेकिन ब्राह्मणों के शाप से वेवैकुण्ठ लोक से इस भौतिक जगत में आ गिरे।

    "

    श्रीयुधिष्ठटिर उवाच'कीहशः कस्य वा शापो हरिदासाभिमर्शन: ।

    अश्रद्धेय इवाभाति हरेरेकान्तिनां भव: ॥

    ३४॥

    श्री-युधिष्ठटिर: उवाच--महाराज युधिष्ठटिर ने कहा; कीहश:--किस प्रकार का; कस्य--किसका; वा--अथवा; शाप: -- श्राप;हरि-दास--हरि का सेवक; अभिमर्शन:--हरा कर; अश्रद्धेयः--अविश्वसनीय; इब--मानो; आभाति-- प्रकट होता है; हरे: --हरि का; एकान्तिनामू--उनका जे श्रेष्ठ पार्षदों के रूप में अनुरक्त हैं; भव:--जन्म |

    महाराज युधिष्टिर ने पूछा : किस प्रकार के महानू श्राप ने मुक्त विष्णु-भक्तों को भीप्रभावित किया और किस तरह का व्यक्ति भगवान्‌ के भी पार्षदों को श्राप दे सका ?

    भगवान्‌ केहढ़ भक्तों के लिए इस भौतिक जगत में फिर से आ गिरना असम्भव है।

    मैं इस पर विश्वास नहींकर सकता।

    "

    देहेन्द्रियासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम्‌ ।

    देहसम्बन्धसम्बद्धमेतदाख्यातुमहसि ॥

    ३५॥

    देह-- भौतिक शरीर की; इन्द्रिय--इन्दियाँ; असु-- प्राण; हीनानाम्‌--जो रहित हैं उनका; बैकुण्ठ-पुर--वैकुण्ठ के;वासिनाम्‌--निवासियों का; देह-सम्बन्ध-- भौतिक शरीर में; सम्बद्धम्‌--बन्धन; एतत्‌--यह; आख्यातुम्‌ अहंसि--कृपया वर्णनकरें।

    वैकुण्ठवासियों के शरीर पूर्णतया आध्यात्मिक होते हैं, उनको भौतिक शरीर से, इन्द्रियों याप्राण से कुछ लेना-देना नहीं रहता।

    अतएवं कृपा करके बताइये कि किस तरह भगवान्‌ केपार्षदों को सामान्य व्यक्तियों की तरह भौतिक शरीर में अवतरित होने का श्राप दिया गया ?

    " श्रीनारद उवाचएकदा ब्रह्मण: पुत्रा विष्णुलोक॑ यहच्छया ।

    सनन्दनादयो जम्मुश्चरन्तो भुवनत्रयम्‌ ॥

    ३६॥

    श्री-नारद: उबाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; एकदा--एक बार; ब्रह्मण: --ब्रह्माजी के; पुत्रा:--पुत्र; विष्णु-- भगवान्‌ विष्णु के;लोकम्‌--लोक में; यहच्छया--संयोगवश; सनन्दन-आदय: --सनन्दन तथा अन्य; जग्मु;--गये; चरन्त:--विचरण करते;भुवन-त्रयम्‌--तीनों लोकों में |

    परम साधु नारद ने कहा--एक बार ब्रह्मा के चारों पुत्र जिनके नाम सनक, सनन्दन, सनातनतथा सनत्कुमार हैं, तीनों लोकों का विचरण करते हुए संयोगवश विष्णुलोक में आये।

    "

    पञ्जषड्डायनार्भाभा: पूर्वेषामपि पूर्वजा: ।

    दिग्वासस: शिशून्मत्वा द्वा:स्थौ तान्प्रत्यपेधताम्‌ ॥

    ३७॥

    पञ्ञ-षट्‌-धा--पाँच या छः वर्ष; आयन--लगभग; अर्भ-आभा:--बालकों जैसे; पूर्वेषाम्‌-ब्रह्माण्ड के पुराने लोग ( मरीचितथा अन्य ); अपि--यद्यपि; पूर्व-जा:--पहले उत्पन्न; दिकु-वासस:--नंगे होने से; शिशून्‌-- बच्चे; मत्वा--सोचकर; द्वा:-स्थौ--दो द्वारपालों, जय तथा विजय ने; तान्‌ू--उनको; प्रत्यषेधताम्‌--मना किया |

    यद्यपि ये चारों महर्षि मरीचि आदि ब्रह्मा के अन्य पुत्रों की अपेक्षा बड़े थे, किन्तु वे पाँच याछः वर्ष के छोटे-छोटे नंगे बच्चों जैसे प्रतीत हो रहे थे।

    जय तथा विजय नामक इन द्वारपालों नेजब उन्हें वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने का प्रयास करते देखा तो सामान्य बच्चे समझ कर उन्हेंप्रवेश करने से मना कर दिया।

    "

    अश्पन्कुपिता एवं युवां वासं न चारहथ: ।

    रजस्तमोभ्यां रहिते पादमूले मधुद्विष: ।

    पापिष्ठामासुरीं योनिं बालिशौ यातमाश्चतः ॥

    ३८॥

    अशपनू--शाप दिया; कुपिता:--क्रोध से भर कर; एवम्‌--इस प्रकार; युवाम्‌--तुम दोनों; वासम्‌--निवास स्थान; न--नहीं;च--तथा; अईथः --योग्य हो; रज:-तमोभ्याम्‌--रजो तथा तमो गुणों से; रहिते--रहित; पाद-मूले--चरण कमलों पर; मधु-द्विष:--मधु असुर का वध करने वाले विष्णु के; पापिष्ठामू--अत्यन्त पापी; आसुरीम्‌--आसुरी; योनिम्‌--योनि में, गर्भ में;बालिशौ--ओरे तुम दोनों मूर्ख; यातम्‌ू--जाओ; आशु--शीघ्र; अतः--इसलिए |

    जय तथा विजय नामक द्वारपालों द्वारा इस प्रकार रोके जाने पर सनन्दन तथा अन्य मुनियों नेक्रोधपूर्वक उन्हें श्राप दे दिया।

    उन्होंने कहा--' रे दोनों मूर्ख द्वारपालों, तुम रजो तथा तमोगुणों से क्षुभित होने के कारण मधुद्विष के चरण-कमलों की शरण में रहने के अयोग्य हो,क्योंकि वे ऐसे गुणों से रहित हैं।

    तुम्हारे लिए श्रेयस्कर होगा कि तुरन्त ही भौतिक जगत में जाओऔर अत्यन्त पापी असुरों के परिवार में जन्म ग्रहण करो।

    "

    'एवं शप्तौ स्वभवनात्पतन्तौ तौ कृपालुभि: ।

    प्रोक्तौ पुनर्जन्मभिर्वा त्रिभिलोकाय कल्पताम्‌ ॥

    ३९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; शप्तौ--शापित होकर; स्व-भवनात्‌--अपने निवास बैकुण्ठ से; पतन्तौ--गिरते हुए; तौ--वे दोनों ( जयतथा विजय ); कृपालुभि:--दयालु मुनियों ( सनन्दन आदि ) द्वारा ); प्रोक्तौ--सम्बोधित किये; पुनः--फिर; जन्मभि:--जन्मोंसे; वाम्‌--तुम्हारे; त्रिभिः--तीन; लोकाय--पद के लिए; कल्पताम्‌--सम्भव हो |

    मुनियों द्वारा इस प्रकार शापित होकर जब जय तथा विजय भौतिक जगत में गिर रहे थे तोउन मुनियों ने उन पर दया करके इस प्रकार सम्बोधित किया, 'हे द्वारपालो, तुम तीन जन्मों केबाद वैकुण्ठलोक में अपने-अपने पदों पर लौट सकोगे, क्योंकि तब श्राप की अवधि समाप्त होचुकी होगी।

    '" जज्ञाते तौ दितेः पुत्रौ दैत्यदानववन्दितौ ।

    हिरण्यकशिपुर्ज्येप्टो हिरण्याक्षोडनुजस्तत: ॥

    ४०॥

    जज्ञाते-उत्पन्न हुए; तौ--वे दोनों; दितेः--दिति के; पुत्रौ--दो पुत्र; दैत्य-दानव--समस्त असुरों से; वन्दितौ--पूजित;हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु; ज्येष्ठ: --बड़ा; हिरण्याक्ष: --हिरण्याक्ष; अनुज:--छोटा; तत:ः--तत्पश्चात्‌ |

    भगवान्‌ के ये दोनों पार्षद, जय तथा विजय, बाद में दिति के दो पुत्रों के रूप में जन्म लेकरइस भौतिक जगत में अवतरित हुए।

    इनमें हिरण्यकशिपु बड़ा और हिरण्याक्ष छोटा था।

    सारेदैत्यों तथा दानवों ( आसुरी योनियाँ ) द्वारा दोनों का अत्यधिक सम्मान किया जाता था।

    "

    हतो हिरण्यकशिपुरहरिणा सिंहरूपिणा ।

    हिरण्याक्षो धरोद्धारे बिभ्रता शौकरं वपु: ॥

    ४१॥

    हतः--मारा गया; हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु; हरिणा--हरि या विष्णु द्वारा; सिंह-रूपिणा--शेर के ( भगवान्‌ नृसिंह के )रूप में; हिरण्याक्ष:--हिरण्याक्ष; धरा-उद्धारे--पृथ्वी उठाने के लिए; बिभ्रता-- धारण करके; शौकरम्‌--सूकर जैसा; वपु:--स्वरूप।

    भगवान्‌ श्री हरि ने नूसिंह देव के रूप में प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का वध किया।

    जबभगवान्‌ गर्भोदक सागर में गिरी हुई पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे तो हिरण्याक्ष ने उन्हें रोकने काप्रयलल किया और बाद में भगवान्‌ ने वराह के रूप में हिरण्याक्ष का वध कर दिया।

    "

    हिरण्यकशिपु:ः पुत्र प्रह्दं केशवप्रियम्‌ ।

    जिघांसुरकरोन्नाना यातना मृत्युहेतवे ॥

    ४२॥

    हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु; पुत्रम्‌ू-पुत्र; प्रह्दम्‌--प्रहाद महाराज को; केशव-प्रियम्‌--केशव का प्रिय भक्त; जिघांसु:--मारने की इच्छा से; अकरोत्‌--किया; नाना--विविध; यातना:--यातनाएँ; मृत्यु--मृत्यु ; हेतवे--के हेतु |

    हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्ाद को, जो भगवान्‌ विष्णु का महान्‌ भक्त था, मारने के लिएनाना प्रकार के कष्ट दिये।

    "

    त॑ सर्वभूतात्मभूतं प्रशान्तं समदर्शनम्‌ ।

    भगवत्तेजसा स्पूष्ट नाशक्नोद्धन्तुमुद्यमै: ॥

    ४३॥

    तम्‌--उसको; सर्व-भूत-आत्म-भूतम्‌--समस्त जीवों में आत्मा; प्रशान्तम्‌-शान्त किन्तु घृणा आदि से रहित; सम-दर्शनम्‌--समदर्शी; भगवत्‌-तेजसा--भगवान्‌ की शक्ति से ; स्पृष्टम्‌--सुरक्षित; न--नहीं; अशक्नोत्‌--समर्थ हुआ; हन्तुम्‌-मारने में;उद्यमैः--महान्‌ प्रयत्नों तथा विविध अस्त्रों के द्वारा

    समस्त जीवों के परमात्मा भगवान्‌ गम्भीर शान्त तथा समदर्शा हैं।

    चूँकि महान्‌ भक्त प्रह्मादभगवान्‌ की शक्ति द्वारा सुरक्षित था, अतएव हिरण्यकशिपु नाना प्रकार के यत्न करने पर भी उसेमारने में असमर्थ रहा।

    "

    ततस्तौ राक्षसौ जातौ केशिन्यां विश्रव:सुतौ ।

    रावण: कुम्भकर्णश्र सर्वलोकोपतापनौ ॥

    ४४॥

    ततः--तत्पश्चात्‌८ तौ--दोनों द्वारपाल ( जय तथा विजय ); राक्षतौ--असुर; जातौ--उत्पन्न; केशिन्याम्‌--केशिनी के गर्भ से;विश्रवः-सुतौ--विश्रवा के पुत्र; रावण: --रावण; कुम्भकर्ण: --कुम्भकर्ण; च--तथा; सर्व-लोक--सभी लोगों को;उपतापनौ--कष्ट देने वाले |

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ विष्णु के दोनों द्वारपाल जय तथा विजय रावण तथा कुम्भकर्ण के रूप मेंविश्रवा द्वारा केशिनी के गर्भ से उत्पन्न किए गये।

    वे ब्रह्माण्ड के समस्त लोगों को अत्यधिककष्टप्रद थे।

    "

    तत्रापि राघवो भूत्वा न्यहनच्छापमुक्तये ।

    रामवीर्य श्रोष्यसि त्वं मार्कण्डेयमुखात्प्रभो ॥

    ४५॥

    तत्र अपि--तत्पश्चात्‌; राघव:--भगवान्‌ रामचन्द्र के रूप में; भूत्वा--प्रकट होकर; न्यहनत्‌--वध किया; शाप-मुक्तये--शाप-मुक्त करने के लिए; राम-वीर्यम्‌-- भगवान्‌ राम का पराक्रम; श्रोष्यसि--सुनोगे; त्वमू-तुम; मार्कण्डेय-मुखात्‌ू--ऋषिमार्कण्डेय के मुख से; प्रभो-हे प्रभु |

    नारद मुनि ने आगे कहा : हे राजा, जय तथा विजय को ब्राह्मणों के शाप से मुक्त करने केलिए भगवान्‌ रामचन्द्र रावण तथा कुम्भकर्ण का वध करने के लिए प्रकट हुए।

    अच्छा होगा कितुम भगवान्‌ रामचन्द्र के कार्यकलापों के विषय में मार्कण्डेय से सुनो।

    "

    तावत्र क्षत्रियौं जातौ मातृष्वस्त्रात्मजौ तव ।

    अधुना शापनिर्मुक्तौ कृष्णचक्रहतांहसौ ॥

    ४६॥

    तौ--दोनों; अत्र--यहाँ, तीसरे जन्म में; क्षत्रियौ--क्षत्रिय अथवा राजा; जातौ--उत्पन्न; मातृ-स्वसू-आत्म-जौ--मौसी के पुत्र;तब--तुम्हारी; अधुना--अब; शाप-निर्मुक्तौ--शाप से मुक्त; कृष्ण-चक्र--कृष्ण के चक्र द्वारा; हत--विनष्ट; अंहसौ--जिसकेपाप

    तीसरे जन्म में वही जय तथा विजय क्षत्रियों के कुल में तुम्हारी मौसी के पुत्रों के रूप मेंतुम्हारे मौसरे भाई बने हैं।

    चूँकि भगवान्‌ कृष्ण ने उनका वध अपने चक्र से किया है, अतएवउनके सारे पाप नष्ट हो चुके हैं और अब वे शाप से मुक्त हैं।

    "

    वैरानुबन्धतीब्रेण ध्यानेनाच्युतसात्मताम्‌ ।

    नीतौ पुन्रेः पार्श्व जम्मतुर्विष्णुपार्षदी ॥

    ४७॥

    वैर-अनुबन्ध--घृणा का बन्धन; तीव्रेण--तीक्र; ध्यानेन--ध्यान से; अच्युत-सात्मताम्‌--अच्युत भगवान्‌ के तेज को; नीतौ--प्राप्त किया; पुन:--फिर; हरेः:--हरि का; पार्श्रमू--सान्निध्य; जग्मतु:--वे पहुँचे; विष्णु-पार्षदौ-- भगवान्‌ विष्णु के द्वारपालपार्षद

    भगवान्‌ विष्णु के ये दोनों पार्षद, जय तथा विजय, दीर्घकाल तक शत्रुता का भाव बनायेरहे।

    इस प्रकार कृष्ण के विषय में सदैव चिन्तन करते रहने से भगवद्धाम जाने पर उन्हें पुनःभगवान्‌ की शरण प्राप्त हो गई।

    "

    श्रीयुधिष्ठटिर उवाचविद्वेषो दयिते पुत्रे कथमासीन्महात्मनि ।

    ब्रृहि मे भगवन्येन प्रह्मादस्याच्युतात्मता ॥

    ४८॥

    श्री-युधिष्ठटिर: उवाच--महाराज युधिष्टठिर ने कहा; विद्वेष:--घृणा, द्वेष; दयिते--अपने प्रिय; पुत्रे--पुत्र के लिए; कथम्‌--किसप्रकार; आसीत्‌-- था; महा-आत्मनि--महान्‌ आत्मा, प्रह्मद; ब्रृहि--कृपया कहें; मे--मुझे; भगवन्‌--हे श्रेष्ठ मुनि; येन--जिससे; प्रह्मदस्थ--प्रह्नाद महाराज की; अच्युत--अच्युत से; आत्मता--आत्मीयता, अत्यधिक आसक्ति |

    महाराज युथिष्टठिर ने पूछा : हे नारद मुनि, हिरण्यकशिपु तथा उसके प्रिय पुत्र प्रहाद महाराजके बीच ऐसी शत्रुता क्यों थी?

    प्रहाद महाराज भगवान्‌ कृष्ण के इतने बड़े भक्त कैसे बने?

    कृपया यह मुझे बतायें।

    "

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    अध्याय दो: हिरण्यकशिपु, राक्षसों का राजा

    7.2श्रीनारद उवाचभ्रायेंवं विनिहते हरिणा क्रोडमूर्तिना ।

    हिरण्यकशिपपूराजन्पर्यतप्यद्रुषा शुच्चा ॥

    १॥

    श्री-नारद: उबाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; भ्रातरि--जब उसका भाई ( हिरण्याक्ष ); एवम्‌--इस प्रकार; विनिहते--मार डालागया; हरिणा--हरि द्वारा; क्रोड-मूर्तिना--वराह के रूप में; हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु ने; राजन्‌--हे राजा; पर्यतप्यत्‌--पीड़ित; रुषा--क्रोध से; शुच्चा--शोक से |

    श्री नारद मुनि ने कहा : हे राजा युधिष्ठिर, जब भगवान्‌ विष्णु ने वराह रूप धारण करकेहिरण्याक्ष को मार डाला, तो हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकशिपु अत्यधिक क्रुद्ध हुआ औरविलाप करने लगा।

    "

    आह चेदं रुषा पूर्ण: सन्दष्टदशनच्छद: ।

    कोपोज्वलद॒भ्यां चक्षुर्भ्या निरीक्षन्धूप्रमम्बरम्‌ ॥

    २॥

    आह--कहा; च--तथा; इदम्‌ू--यह; रुषा--क्रो ध; पूर्ण:-- भरा हुआ; सन्दष्ट--काट दिया गया; दशन-छद: --जिसके होठ;कोप-उज्वलद्भ्याम्‌ू-क्रोध से जलता हुआ; चश्षुभभ्याम्‌-आँखों से; निरीक्षन्‌--देखते हुए; धूप्रमू-- धूमिल; अम्बरम्‌--आकाश को।

    क्रोध से भरकर तथा अपने होठ काटते हुए हिरण्यकशिपु ने क्रोध से जलती हुई आँखों सेआकाश को देखा तो वह सारा आकाश धूमिल हो गया।

    इस प्रकार वह बोलने लगा।

    "

    करालदूंष्टोग्रदृष्टया दुष्प्रेक्ष्यश्रुकुटीमुख: ।

    शूलमुद्यम्य सदसि दानवानिदमब्रवीत्‌ ॥

    ३॥

    'कराल-दंष्ट-- भयानक दाँतों से; उग्र-दृष्य्या--तथा भयानक दृष्टि से; दुष्प्रेक्ष्--देखने में भयावह; भ्रु-कुटी--रोषपूर्ण भौहों से;मुखः--जिसका मुँह; शूलम्‌-त्रिशूल को; उद्यम्य--उठाते हुए; सदसि--सभा में; दानवान्‌-- असुरों से; इदम्‌--यह;अब्रवीत्‌ू-कहा |

    अपने भयानक दाँत, उग्र दृष्टि तथा रोषपूर्ण भौहों को दिखाते हुए, देखने में भयानक उसनेअपना त्रिशूल धारण किया और अपने एकत्र असुर संगियों से इस प्रकार कहा।

    "

    भो भो दानवदैतेया द्विमूर्धस्त्यक्ष शम्बर ।

    शतबाहो हयग्रीव नमुचे पाक इल्बल ॥

    ४॥

    विप्रचित्ते मम वच: पुलोमन्शकुनादय:ः ।

    श्रुणुतानन्तरं सर्वे क्रियतामाशु मा चिरम्‌ ॥

    ५॥

    भो:--अरे; भोः--अरे; दानव-दैतेया: --दानवों तथा दैत्यों; द्वि-मूर्थन्‌ू-द्विमूर्थ ( दो सिर वाला ); त्रि-अक्ष--त्रयक्ष ( तीन नेत्रोंवाला ); शम्बर--शम्बर; शत-बाहो--शतबाहु ( सौ भुजाओं वाला ); हयग्रीव--हयग्रीव ( घोड़ेका सिर वाला ); नमुचे--नमुचि; पाक--पाक; इल्वल--इल्वल; विप्रचित्ते --विप्रचित्ति; मम--मेरे; वच:--शब्द; पुलोमन्‌--पुलोम; शकुन--शकुन;आदयः--इत्यादि; श्रुणुत--सुनो तो; अनन्तरम्‌-तत्पश्चात्‌; सर्वे--सभी; क्रियताम्‌ू--किया जाये; आशु--शीघ्र; मा--मत;चिरम्‌--देर करो |

    ओरे दानवो और दैत्यो, ओरे द्विमूर्थ, त्यक्ष, शम्बर तथा शतबाहु, ओरे हयग्रीव, नमुचि, पाकतथा इल्वल, आरे विप्रचित्ति, पुलोमन, शकुन तथा अन्य असुरों, तुम सब जरा मेरी बात कोध्यानपूर्वक सुनो और तब अविलम्ब मेरे बचनों के अनुसार कार्य करो।

    "

    सपलैर्घातित: क्षुद्रैश्नांता मे दयितः सुहृत्‌ ।

    पार्णिणग्राहेण हरिणा समेनाप्युपधावनै: ॥

    ६॥

    सपत्नैः:--शत्रुओं * द्वारा; घातित:--मारा गया; क्षुद्रै:--शक्ति में नगण्य; भ्राता-- भाई; मे--मेरा; दयित:--अत्यन्त प्रिय;सुहत--शुभेच्छु; पार्णिणि-ग्राहेण-- पीछे से आक्रमण करके; हरिणा-- भगवान्‌ द्वारा; समेन--समान, ( देवता तथा असुर दोनों );अपि--यद्यपि; उपधावनै:ः--पूजकों या देवताओं द्वारा |

    मेरे क्षुद्र शत्रु सारे देवता मेरे परम प्रिय तथा आज्ञाकारी शुभेच्छु भ्राता हिरण्याक्ष को मारने केलिए एक हो गये हैं।

    यद्यपि परमेश्वर विष्णु हम दोनों के लिए अर्थात्‌ देवताओं तथा असुरों केलिए सदैव समान हैं किन्तु इस बार देवताओं द्वारा अत्यधिक पूजित होने से उन्होंने उनका पक्षलिया और हिरण्याक्ष को मारने में उनकी सहायता की।

    "

    तस्य त्यक्तस्वभावस्य घृणेमायावनौकसः ।

    भजन्तं भजमानस्य बालस्येवास्थिरात्मनः ॥

    ७॥

    मच्छूलभिन्नग्रीवस्य भूरिणा रुधिरेण वै ।

    असृविप्रियं तर्पयिष्ये भ्रातरं मे गतव्यथ: ॥

    ८॥

    तस्यथ--उसका ( भगवान्‌ का ); त्यक्त-स्वभावस्य-- अपने स्वभाव ( समदर्शिता ) को जिसने त्याग दिया है; घृणेः--अत्यन्तगर्हित; माया-- भ्रामक शक्ति के प्रभाव से; बन-ओकसः:--जंगल में पशु के समान आचरण करते हुए; भजन्तम्‌--भक्ति में लगेभक्त को; भजमानस्थ--पूजित होकर; बालस्य-- लड़के के; इब--सहृश; अस्थिर-आत्मन:--सदैव अशान्त तथा परिवर्तित होनेवाला; मत्‌--मेरा; शूल--ब्रिशूल से; भिन्न-- अलग किया गया, छिन्न; ग्रीवस्थ--जिसकी गर्दन; भूरिणा--अत्यधिक;रुधिरिण--रक्त से; बै--निस्सन्देह; असृक्‌-प्रियम्‌--रक्त का प्यासा; तर्पयिष्ये-- प्रसन्न करूँगा; भ्रातरमू-- भाई को; मे--अपने;गत-व्यथ:--अपने को शान्त बनाकर।

    भगवान्‌ ने असुरों तथा देवताओं के प्रति समानता की अपनी सहज प्रवृत्ति त्याग दी है।

    यद्यपि वे परम पुरुष हैं, किन्तु अब माया के वशीभूत होकर उन्होंने अपने भक्तों अर्थात्‌ देवताओंको प्रसन्न करने के लिए वराह का रूप धारण किया है, जिस तरह एक अशान्त बालक किस की ओर उन्मुख हो जाये।

    अतएव मैं अपने त्रिशूल से भगवान्‌ विष्णु के सिर को उनके धड़ सेअलग कर दूँगा और उनके शरीर से निकले प्रचुर रक्त से अपने भाई हिरण्याक्ष को प्रसन्न करूँगाजो उनके रक्त को चूसने का शौकीन था।

    इस प्रकार मैं भी शान्त हो सकूँगा।

    "

    तस्मिन्कूटेहिते नष्टे कृत्तमूले वनस्पतौ ।

    विटपा इव शुष्यन्ति विष्णुप्राणा दिवौकस: ॥

    ९॥

    तस्मिनू--जब वह; कूटे--अत्यन्त मायावी; अहिते--शत्रु; नष्टे--नष्ट हो जाता है; कृत्त-मूले--जड़ें कट जाने पर; वनसू-पतौ--वृक्ष; विटपा:--डालें तथा पत्तियाँ; इब--सहृश; शुष्यन्ति--सूख जाती हैं; विष्णु-प्राणा:--जिनका प्राण विष्णु है;दिव-ओकसः--देवतागण।

    जब वृक्ष की जड़ काट दी जाती है, तो वह गिर पड़ता है और उसकी शाखायें एवं पत्तियाँस्वयमेव सूख जाती हैं।

    उसी तरह जब मैं इस मायावी विष्णु को मार डालूँगा तो सारे देवता,जिनके लिए भगवान्‌ विष्णु प्राण तथा आत्मा हैं, अपना जीवन-स्त्रोत खो देंगे और मुरझाजाएँगे।

    "

    तावचद्यात भुव॑ यूय॑ ब्रह्मक्षत्रसममेधिताम्‌ ।

    सूदयध्वं तपोयज्ञस्वाध्यायत्रतदानिन: ॥

    १०॥

    तावत्‌ू--जब तक ( मैं विष्णु के मारने में व्यस्त हूँ ); यात--जाओ; भुवम्‌--पृथ्वी लोक में; यूयम्‌--तुम सब; ब्रह्म-क्षत्र--ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का; समेधिताम्‌--कर्मो ( ब्राह्मण संस्कृति तथा वैदिक शासन ) द्वारा सम्पन्न बने हुए; सूदयध्वम्‌--विनष्टकर दो; तपः--तपस्या करने वालों को; यज्ञ--यज्ञ; स्वाध्याय--वैदिक ज्ञान का अध्ययन; ब्रत--अनुष्ठान सम्बन्धी प्रतिज्ञाएँ;दानिनः--तथा दान देने वालों का।

    जब तक मैं भगवान्‌ विष्णु के मारने के कार्य में लगा हूँ, तब तक तुम लोग पृथ्वी लोक मेंजाओ जो ब्राह्मण संस्कृति तथा क्षत्रिय शासन के कारण फल-फूल रहा है।

    ये लोग तपस्या,यज्ञ, वैदिक अध्ययन, आनुष्ठानिक व्रत तथा दान में लगे रहते हैं।

    ऐसे सारे लोगों को जाकरविनष्ट कर दो।

    "

    विष्णुद्विजक्रियामूलो यज्ञो धर्ममयः पुमान्‌ ।

    देवर्षिपितृभूतानां धर्मस्य च परायणम्‌ ॥

    ११॥

    विष्णु;:--भगवान्‌ विष्णु; द्विज--ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का; क्रिया-मूल:--जिसका मूल है यज्ञों एवं बेदों में वर्णित अनुष्ठानों कोसम्पन्न करना; यज्ञ:--साक्षात्‌ यज्ञ ( भगवान्‌ विष्णु जो यज्ञ पुरुष कहलाते हैं ); धर्म-मय:--धार्मिक सिद्धान्तों से पूर्ण; पुमानू--परम पुरुष; देव-ऋषि--देवताओं तथा व्यासदेव एवं नारद जैसे महान्‌ ऋषियों का; पितृ--पूर्वजों का; भूतानामू--तथा समस्तजीवों का; धर्मस्य--धार्मिक सिद्धान्तों का; च-- भी; परायणम्‌--आश्रय |

    ब्राह्मण-संस्कृति का मूल सिद्धान्त यज्ञों तथा अनुष्ठानों के साक्षात्‌ स्वरूप भगवान्‌ विष्णुको प्रसन्न करना है।

    भगवान्‌ विष्णु समस्त धार्मिक सिद्धान्तों के साक्षात्‌ आगार हैं और वे समस्तदेवताओं, महान्‌ पितरों तथा सामान्य जनता के आश्रय हैं।

    यदि ब्राह्मणों का वध कर दिया जायेतो क्षत्रियों को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित करने वाला कोई नहीं रहेगा और इस तरह सारेदेवता यज्ञों द्वारा प्रसन्न न किये जाने पर स्वतः मर जायेंगे।

    "

    यत्र यत्र द्विजा गावो वेदा वर्णाश्रमक्रिया: ।

    त॑ं त॑ं जनपदं यात सन्दीपयत वृश्चत ॥

    १२॥

    यत्र यत्र--जहाँ जहाँ; द्विजा:--ब्राह्मण गण; गाव:--सुरक्षित गाएँ; वेदा:ः--वैदिक संस्कृति; वर्ण-आश्रम--चार वर्णों तथाचार आश्रमों वाली आर्यसभ्यता के; क्रिया:--कार्यकलाप; तम्‌ तम्‌--उनको; जन-पदम्‌--नगर या शहर में; यात--जाओ;सन्दीपयत--अग्नि लगा दो; वृश्चत--( सारे वृक्षों को ) काट डालो।

    जहाँ कहीं भी गौवों तथा ब्राह्मणों को सुरक्षा प्राप्त है तथा जहाँ-जहाँ वर्णाश्रम नियमों केअनुसार वेदों का अध्ययन होता है, वहाँ-वहाँ तुरन्त जाओ।

    तुम लोग उन स्थानों में अग्नि लगादो और जीवन के स्त्रोत वृक्षों को जड़ से काट कर गिरा दो।

    "

    इति ते भर्तुनिर्देशभादाय शिरसाहता: ।

    तथा प्रजानां कदनं विदधु: कदनप्रिया: ॥

    १३॥

    इति--इस प्रकार; ते--वे; भर्तृ--स्वामी की; निर्देशम्‌--आज्ञा; आदाय--प्राप्त कर; शिरसा--सिर के बल; आहता:--आदरकरते हुए; तथा-- और ; प्रजानाम्‌ू--सारे नागरिकों का; कदनम्‌--दण्ड; विदधु: --दिया; कदन-प्रिया:--अन्यों को दण्ड देने मेंपटु

    इस तरह जघन्य कर्मों के इच्छुक असुरों ने हिरण्यकशिपु की आज्ञा को अत्यन्त आदरपूर्वकलिया और उसे नमस्कार किया।

    उसके निर्देशानुसार वे सारे जीवों के विरुद्ध ईर्ष्यापूर्णकार्यकलाप में जुट गये।

    "

    पुरग्रामब्रजोद्यानक्षेत्रारामा भ्रमाकरान्‌ ।

    खेटखर्वटघोषां श्र ददहुः पत्तनानि च ॥

    १४॥

    पुर--नगर तथा कस्बे; ग्राम--गाँव; ब्रज--चारागाहें; उद्यान--बगीचे; क्षेत्र--खेत; आराम--प्राकृतिक जंगल; आश्रम--सन्तजनों की कुटिया; आकरान्‌--खानें ( जिनसे ब्राह्मण-संस्कृति को बनाये रखने के लिए मूल्यवान धातुएं निकलती हैं ); खेट--गाँव; खर्वट--पहाड़ी गाँव; घोषानू-ग्वालों के छोटे-छोटे गाँव; च--तथा; ददहुः--जला दिया; पत्तनानि--राजधानियों को;च-भी |

    असुरों ने नगरों, गावों, चारागाहों, उद्यानों, खेतों तथा जंगलों में आग लगा दी।

    उन्होंने साधुपुरुषों के घरों, मूल्यवान धातु उत्पन्न करने वाली महत्त्वपूर्ण खानों, कृषकों के आवासों, पर्वतीयग्रामों, अहीरों की बस्तियों को जला दिया।

    उन्होंने सरकारी राजधानियाँ भी जला दीं।

    "

    केचित्खनित्रैषिभिदु: सेतुप्राकारगोपुरान्‌ ।

    आजीग्यांश्रिच्छिदुर्वृक्षान्केचित्पशुपाणय: ।

    प्रादहज्शरणान्येके प्रजानां ज्वलितोल्मुकै: ॥

    १५॥

    केचित्‌--कुछ असुर; खनित्रै:--फावड़ों से; बिभिदु:--खण्ड-खण्ड कर दिया; सेतु--पुल; प्राकार--रक्षा करने वली दीवालें,परकोटे; गोपुरान्‌ू--नगर के द्वारों को; आजीव्यान्‌--जीविका के साधन; चिच्छिदु;--काट डाला; वृक्षान्‌--वृक्षों को;केचित्‌--कुछ ने; परशु-पाणय:--हाथ में कुल्हाड़ी लेकर; प्रादहन्‌ू--जला डाला; शरणानि--आवास; एके --अन्य असुरों ने;प्रजानामू--नागरिकों के; ज्वलित--जलते हुए; उल्मुकै:--लुकाठों से |

    कुछ असुरों ने फावड़े लेकर पुल, परकोटे तथा नगरों के द्वारों ( गोपुरों ) को तोड़ डाला।

    कुछ ने कुल्हाड़े लेकर आम, कटहल के महत्त्वपूर्ण वृक्षों तथा अन्य भोज्य सामग्री वाले वृक्षोंको काट डाला।

    कुछ असुरों ने हाथ में जलते लुकाठे लेकर नागरिकों के रिहायशी मकानों मेंआग लगा दी।

    "

    एवं विप्रकृते लोके दैत्येन्द्रानुचरैर्मुहु: ।

    दिवं देवा: परित्यज्य भुवि चेरुरलक्षिता: ॥

    १६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विप्रकृते--सताये जाकर; लोके --जब सारे लोग; दैत्य-इन्द्र-अनुचरै:ः --दैत्यराज हिरण्यकशिपु केअनुयायियों द्वारा; मुहुः--पुनः पुनः; दिवम्‌--स्वर्ग लोक को; देवा:--देवतागण; परित्यज्य--त्याग कर; भुवि--पृथ्वी लोकपर; चेरु:--घूमने लगे ( उपद्रव का विस्तार देखने के लिये ); अलक्षिता:--असुरों से छिप कर।

    इस प्रकार हिरण्यकशिपु के अनुयायियों द्वारा बारम्बार अप्राकृतिक घटनाओं के रूप मेंसताये जाने पर सभी लोगों ने बाध्य होकर वैदिक संस्कृति की सारी गतिविधियाँ बन्द कर दीं।

    देवतागण भी यज्ञों का फल न पाने के कारण विचलित हो उठे।

    उन्होंने स्वर्गलोक के अपने-अपने आवास त्याग दिये और असुरों से अलक्षित होकर विनाश का अवलोकन करने के लिए वेपृथ्वीलोक में इधर-उधर विचरण करने लगे।

    "

    हिरण्यकशिपुर्भ्रातु: सम्परेतस्य दुःखितः ।

    कृत्वा कटोदकादीनि क्षातृपुत्रानसान्त्वचत्‌ ॥

    १७॥

    हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु ने; भ्रातु:-- भाई का; सम्परेतस्थय--मृत; दुःखितः --अत्यन्त दुखी; कृत्वा--करके; कटोदक-आदीनि- मृत्यु के पश्चात्‌ के कृत्य, अन्त्येष्टि क्रिया; भ्रातृ-पुत्रानू--अपने भाई के लड़कों को; असान्त्ववत्‌--सान्त्वना दी।

    अपने भाई की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न कर लेने के बाद हिरण्यकशिपु ने अत्यन्त दुखितहोकर अपने भतीजों को सान्त्वना प्रदान करने का प्रयास किया।

    "

    शकुनिं शम्बरं धृष्टिं भूतसन्तापनं वृकम्‌ ।

    कालनाभं महानाभं हरिश्मश्रुमथोत्कचम्‌ ॥

    १८ ॥

    तन्मातरं रुषाभानुं दितिं च जननीं गिरा ।

    श्लक्ष्णया देशकालज्ञ इदमाह जनेश्वर ॥

    १९॥

    शकुनिम्‌-शकुनि को; शम्बरम्‌--शम्बर को; धृष्टिम्‌-- धृष्टि को; भूतसन्तापनम्‌-- भूतसंतापन को; वृकम्‌--वृक को;कालनाभम्‌--कालनाभ को; महानाभम्‌--महानाभ को; हरिश्म श्रुमू--हरिश्मश्रु को; अथ--तथा; उत्कचम्‌--उत्कच को; ततू-मातरम्‌--उनकी माता; रुषाभानुम्‌--रुषाभानु को; दितिमू--दिति को; च--तथा; जननीम्‌--अपनी माता; गिरा--शब्दों से;एलक्ष्णया--अत्यन्त मधुर; देश-काल-ज्ञ:--जो काल तथा परिस्थिति को समझने में दक्ष हो; इदम्‌--यह; आह--कहा; जन-ईश्वर--हे राजा!

    हे राजा, हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रुद्ध था, किन्तु महान्‌ राजनीतिज्ञ होने के कारण वह देशतथा काल के अनुसार कर्म करना जानता था।

    अतएवं वह अपने भतीजों को मधुर वाणी सेसान्त्वना देने लगा।

    इनके नाम थे शकुनि, शम्बर, धृष्टि, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ,हरिश्मश्रु तथा उत्कच।

    उसने उनकी माता अर्थात्‌ अपनी अनुजवधू रुषाभानु एवं अपनी मातादिति को भी ढाढस बँधाया।

    वह उनसे इस प्रकार बोला।

    "

    श्रीहिरण्यकशिपुरुवाचअम्बाम्ब हे वधू: पुत्रा वीरं माईथ शोचितुम्‌ ।

    रिपोरभिमुखे एलाघ्य: शूराणां वध ईप्सित: ॥

    २०॥

    श्री-हिरण्यकशिपु: उबाच--हिरण्यकशिपु ने कहा; अम्ब अम्ब--मेरी माता, मेरी माता; हे--हे, ओ; वधू:--मेरी बहू; पुत्रा:--मेरे भाई के पुत्रों; वीरमू--वीर; मा--मत; अर्हथ--तुम्हें चाहिये; शोचितुम्‌--शोक करना; रिपो:--शत्रु के; अभिमुखे--समक्ष;इलाघ्य:--प्रशंसनीय; शूराणाम्‌--वास्तविक महान्‌ पुरुषों का; बध:--वध; ईप्सित:--वांछित |

    हिरण्यकशिपु ने कहा : हे माता, हे वधू तथा हे भतीजो, तुम लोगों को महान्‌ वीर की मृत्युके लिए शोक नहीं करना चाहिए, क्‍योंकि अपने शत्रु के समक्ष वीर की मृत्यु अत्यन्त प्रशंसनीयतथा वांछनीय होती है।

    "

    भूतानामिह संवासः प्रपायामिव सुत्रते ।

    दैवेनैकत्र नीतानामुन्नीतानां स्वकर्मभि: ॥

    २१॥

    भूतानाम्‌--समस्त जीवों का; इह--इस संसार में; संवास:--साथ-साथ रहना; प्रपायाम्‌ू--ठंडा जल पीने के स्थान, प्याऊ;इब--सहश; सु-ब्रते-हे भद्रे; दैवेन-- भाग्य द्वारा; एकत्र--एक स्थान पर; नीतानाम्‌--लाये गये; उन्नीतानाम्‌--दूर-दूर ले जानेवालों का; स्व-कर्मभि:-- अपने-अपने कर्मो से |

    हे माता, किसी भोजनालय या प्याऊ में अनेक राहगीर पास-पास आते हैं, किन्तु जल पीने के बाद अपने-अपने गन्तव्यों को चले जाते हैं।

    इसी प्रकार जीव भी किसी परिवार में आकरमिलते हैं किन्तु बाद में अपने-अपने कर्मों के अनुसार वे अपने-अपने गन्तव्यों को चले जाते हैं।

    "

    नित्य आत्माव्यय: शुद्धः सर्वग: सर्ववित्पर: ।

    धत्तेडउसावात्मनो लिड् मायया विसृजन्गुणान्‌ ॥

    २२॥

    नित्य:--शाश्वत; आत्मा--आत्मा; अव्यय:--न चुकने वाला; शुद्ध: -- भौतिक कल्मष से रहित; सर्व-ग:--भौतिक याआध्यात्मिक जगतों में कहीं भी जाने के योग्य; सर्व-वित्‌--ज्ञान से पूर्ण; पर:-- भौतिक दशाओं से परे; धत्ते--स्वीकार करताहै; असौ--वह आत्मा या जीव; आत्मन:--अपना; लिड्रमू--शरीर; मायया-- भौतिक शक्ति के द्वारा; विसृजन्‌--उत्पन्न करतेहुए; गुणान्‌ू--विविध भौतिक गुणों को

    आत्मा या जीव की मृत्यु नहीं होती, क्योंकि वह नित्य तथा अव्यय है।

    भौतिक कल्मष सेमुक्त होने के कारण वह भौतिक या आध्यात्मिक जगतों में कहीं भी जा सकता है।

    वह भौतिकशरीर से पूरी तरह अवगत होते हुए भी उससे सर्वथा भिन्न है, किन्तु अपनी किंचित स्वतंत्रता केदुरुपयोग के कारण उसे भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर धारण करने होते हैंऔर इस तरह उसे तथाकथित भौतिक सुख तथा दुख सहने होते हैं।

    अतएव किसी भी मनुष्य कोशरीर में से आत्मा के निकलने पर शोक नहीं करना चाहिए।

    "

    यथाम्भसा प्रचलता तरवोपि चला इब ।

    चक्षुषा भ्राम्यमाणेन हृश्यते चलतीव भू: ॥

    २३॥

    यथा--जिस तरह; अम्भसा--जल द्वारा; प्रचलता--गतिमान; तरव:--वृक्ष ( नदी के तट के ); अपि-- भी; चला:--गतिमान;इब--मानो; चक्षुषा--आँख से; भ्राम्यमाणेन--गतिमान; दृश्यते--देखा जाता है; चलती--चलती हुई, गतिमान; इब--मानो;भू:--धरती।

    जल की गति के कारण नदी के तटवर्ती वृक्ष जल में प्रतिबिम्बित होकर चलते प्रतीत होतेहैं।

    इसी प्रकार जब आँखें किसी मानसिक असंतुलन के कारण चलती रहती हैं, तो धरती( स्थल ) भी घूमती प्रतीत होती है।

    "

    एवं गुणैर्भ्राम्यमाणे मनस्यविकलः पुमान्‌ ।

    याति तत्साम्यतां भद्दे ह्लिझे लिड्रवानिव ॥

    २४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; गुणैः--प्रकृति के गुणों द्वारा; भ्राम्यमाणे--विचलित होने पर; मनसि--मन में; अविकलः --परिवर्तन केबिना; पुमानू--जीव; याति--पास जाता है; ततू-साम्यताम्‌ू--मन की विक्षोभ जैसी दशा; भद्वे--हे भद्र माता; हि--निश्चय ही;अलिड्डु--सूक्ष्म या स्थूल शरीर से रहित; लिड्र-वान्‌-- भौतिक शरीर से युक्त; इब--मानो |

    इसी तरह से हे मेरी भद्र माता, जब प्रकृति के गुणों की गति द्वारा यह मन विचलित होता( भटकता ) है तब जीव, चाहे वह कितना ही सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों की विभिन्न अवस्थाओं सेमुक्त क्‍यों न हो, यही सोचता है कि वह एक स्थिति से दूसरी में परिवर्तित हो गया है।

    "

    एष आत्मविपर्यासो हालिड़े लिड्रभावना ।

    एष प्रियाप्रियैयोंगो वियोग: कर्मसंसृति: ॥

    २५॥

    सम्भवश्च विनाशश्व शोकश्न विविध: स्मृतः ।

    अविवेकश्च चिन्ता च विवेकास्मृतिरिव च ॥

    २६॥

    एष:--यह; आत्म-विपर्यास:--जीवन का मोह; हि--निस्सन्देह; अलिड्ले-- भौतिक शरीरविहीन में; लिड्र-भावना--भौतिकशरीर को ही आत्मा मानना; एष:--यह; प्रिय--अत्यन्त प्रियों के साथ; अप्रियैः--तथा अप्रियों के साथ ( शत्रुओं, परिवार केबाहर वालों के साथ ); योग:--सम्बन्ध; वियोग:--वियोग; कर्म--कर्मफल; संसृति:--जीवन की भौतिक दशा; सम्भव:--जन्म स्वीकार करते हुए; च--तथा; विनाश: -- मृत्यु स्वीकार करते हुए; च--तथा; शोक:--शोक; च--तथा; विविध:--अनेक प्रकार के; स्मृत:--शास्त्रवर्णित; अविवेक:--विवेक-शक्ति का अभाव; च--तथा; चिन्ता--चिन्ता; च-- भी;विवेक--समुचित विवेक शक्ति का; अस्मृतिः --विस्मरण होना; एबव--निस्संदेह; च-- भी |

    मोहावस्था में जीव अपने शरीर तथा मन को आत्मा स्वीकार करके कुछ व्यक्तियों कोअपना सगा सम्बन्धी और अन्यों को बाहरी लोग मानने लगता है।

    इस भ्रान्ति के कारण उसे कष्टभोगना पड़ता है।

    निस्सन्देह, ऐसे मनोभावों का संचय ही सांसारिक दुख और तथाकथित सुखका कारण बनता है।

    इस प्रकार स्थित होकर बद्धजीव को विभिन्न योनियों में जन्म लेना होता हैऔर विभिन्न चेतनाओं में कर्म करना पड़ता है, जिससे नवीन शरीरों की उत्पत्ति होती है।

    यहसतत भौतिक जीवन संसार कहलाता है।

    जन्म, मृत्यु, शोक, मूर्खता तथा चिन्ता--ये सब ऐसेभौतिक विचारों के कारण होते हैं।

    इस तरह हम कभी उचित ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो कभीजीवन की भ्रान्त धारणा के पुनः शिकार बनते हैं।

    "

    अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌ ।

    यमस्य प्रेतबन्धूनां संवादं तं निबोधत ॥

    २७॥

    अत्र--इस प्रसंग में; अपि--निस्सन्देह; उदाहरन्ति--उदाहरण देते हैं; इमम्‌--यह; इतिहासम्‌ू--इतिहास; पुरातनम्‌-- अत्यन्तप्राचीन; यमस्य--यमराज का, जो मृत्यु का अधीक्षक है और मृत्यु के पश्चात्‌ निर्णय सुनाता है; प्रेत-बन्धूनामू--मृत मनुष्य केमित्रों की; संवादम्‌--बातचीत; तम्‌--उसको; निबोधत--समझने का प्रयास करो

    इस प्रसंग में प्राचीन इतिहास से एक उदाहरण दिया गया है।

    इसमें यमराज तथा मृत व्यक्तिके मित्रों के मध्य की वार्ता निहित है।

    कृपया इसे ध्यानपूर्वक सुनिये।

    "

    उशीनरेष्वभूद्राजा सुयज्ञ इति विश्रुतः ।

    सपलेीनिहतो युद्धे ज्ञातयस्तमुपासत ॥

    २८॥

    उशीनरेषु--उशीनर नामक राज्य में; अभूत्‌-- था; राजा--एक राजा; सुयज्ञ:--सुयज्ञ; इति--इस प्रकार; विश्रुत:-- प्रसिद्ध;सपत्नैः--शत्रुओं द्वारा; निहत:--मारा गया; युद्धे--युद्ध में; ज्ञातयः--सम्बन्धी जन; तम्‌--उसके; उपासत--चारों ओर बैठगए।

    उशीनर नामक राज्य में सुयज्ञ नाम का एक विख्यात राजा था।

    जब यह राजा युद्ध में शत्रुओंद्वारा मार डाला गया तो उसके सम्बन्धी मृत शरीर को घेर कर बैठ गये और उस मित्र की मृत्यु परशोक प्रकट करने लगे।

    "

    विशीर्णरलकवचं विश्रष्टाभरणस्त्रजम्‌ ।

    शरनिर्भिन्नहददयं शयानमसूृगाविलम्‌ ॥

    २९॥

    प्रकीर्णकेशं ध्वस्ताक्ष॑ं रभसा दष्टदच्छदम्‌ ।

    रजःकुण्ठमुखाम्भोजं छिन्नायुधभुजं मृथे ॥

    ३०॥

    उशीनरेन्द्रं विधिना तथा कृतंपतिं महिष्य: प्रसमीक्ष्य दु:खिता: ।

    हताः सम नाथेति करैरुरो भूशंघ्नन्त्यो मुहुस्तत्पदयोरुपापतन्‌ ॥

    ३१॥

    विशीर्ण--इधर-उधर बिखरे; रत्न--रत्नों से बना; कवचम्‌--सुरक्षा कवच; विशभ्रष्ट--गिरा हुआ; आभरण-- आभूषण;सत्रजमू--मालाएँ; शर-निर्भिन्न--बाणों से बिंधा; हदयम्‌ू--हृदय को; शयानम्‌--लेटा हुआ; असृक्‌ू-आविलम्‌--रक्तरंजित;प्रकीर्ण-केशम्‌--बिखरे हुए बाल को; ध्वस्त-अक्षम्‌--धँसी हुई आँख को; रभसा--क्रोध से; दष्ट--काटा हुआ; दच्छदम्‌--उसके होंठ को; रज:-कुण्ठ-- धूल से ढका; मुख-अम्भोजम्‌--उसके कमल जैसे मुख को; छिन्न--कटे हुए; आयुध-भुजम्‌--उसके हथियार तथा बाहों को; मृधे--युद्धस्थल में; उशीनर-इन्द्रमू--उशीनर राज्य के स्वामी को; विधिना--विधाता से; तथा--इस तरह; कृतम्‌--इस दशा को प्राप्त; पतिम्‌ू--पति को; महिष्य:--रानियाँ; प्रसमी क्ष्य--देखकर; दुःखिता:--अत्यन्त दुखी;हताः--मारी गयी; स्म--निश्चय ही; नाथ--हे स्वामी; इति--इस प्रकार; करैः--हाथों से; उरः--वक्षस्थल; भूशम्‌--निरन्तर;घ्नन्त्य:--पीटती हुई; मुहुः--बारम्बार; तत्‌-पदयो: --राजा के चरणों पर; उपापतन्‌--गिर पड़ीं |

    वध किया हुआ राजा युद्धस्थल में लेटा था।

    उसका सुनहला रलजटित कवच छिन्न-भिन्न होगया था, उसके आभूषण तथा वस्त्र अपने-अपने स्थान से विलग हो चुके थे, उसके बाल बिखरगये थे और उसकी आँखें कान्तिहीन हो चुकी थीं, उसका सारा शरीर रक्त से सना था औरउसका हृदय शत्रु के बाणों से बिंधा था।

    उसने मरते समय अपना शौर्य दिखाना चाहा, अतएवउसके होंठ दाँतों से भिच गये थे और दाँत उस स्थिति में थे।

    उसका कमल सदृश सुन्दर मुख अबकाला पड़ गया था और युद्धभूमि की धूल से भरा था।

    तलवार तथा अन्य हथियारों से युक्तउसकी भुजाएं कटकर टूट चुकी थी।

    जब उशीनर के राजा की रानियों ने अपने पति को इसस्थिति में पड़े देखा तो वे रोने लगीं--' हे नाथ, तुम्हारे मारे जाने से हम भी मारी जा चुकी हैं।

    इन शब्दों को टेर-टेर कर वे अपनी छाती पीट-पीट कर मृत राजा के चरणों पर गिर पड़ीं।

    "

    रुदत्य उच्चैर्दयिताड्प्रिपड्डजसिद्ञन्त्य अस््रै: कुचकुड्डु मारुणै: ।

    विस्त्रस्तकेशाभरणा: शुचं नृणांसृजन्त्य आक्रन्दनया विलेपिरि ॥

    ३२॥

    रुदत्य: --रोती हुई; उच्चै:--जोर-जोर से; दयित--अपने प्रिय पति के; अद्धप्रि-पड्रजम्‌ू--चरणकमलों को; सिद्धन्त्य:--भिगोती हुई; अस्नै:--आँसुओं से; कुच-कुड्डू म-अरुणै:--जो उसके वक्षस्थलों में लगे कुमकुम के कारण लाल हो रहे थे;विस््रस्त--बिखरे; केश--बाल; आभरणा:--तथा आभूषण; शुचम्‌--शोक; नृणाम्‌--सामान्य लोगों का; सृजन्त्य:--उत्पन्नकरते हुए; आक्रन्दनया--अत्यन्त करुणापूर्वक रो करके; विलेपिरि--शोक करने लगीं।

    रानियों के उच्च स्वर में रोने पर उनके आँसू वक्षस्थल पर लुढ़क आये जहाँ वे कुमकुम चूर्णसे लाल होकर फिर उनके पति के चरणकमलों पर गिर पड़े।

    उनके केश बिखर गये, उनकेआभूषण गिर गये और अन्यों के हृदय से सहानुभूति जगाती हुई रानियाँ अपने पति की मृत्यु परशोक करने लगीं।

    "

    अहो विधात्राकरुणेन नः प्रभोभवान्प्रणीतो हृगगोचरां दशाम्‌ ।

    उशीनराणामसि वृत्तिदः पुराकृतोधुना येन शुचां विवर्धन: ॥

    ३३॥

    अहो--ओह; विधात्रा--विधाता द्वारा; अकरुणेन-- अत्यन्त निर्दय; न:--हमारा; प्रभो--हे स्वामी; भवान्‌-- आप; प्रणीत: --छीना गया; हक्‌--दृष्टि की; अगोचराम्‌--सीमा के बाहर; दशाम्‌-- अवस्था को; उशीनराणाम्‌--उशीनर राज्य के वासियों को;असि--था; वृत्ति-द:--जीविका देने वाला; पुरा--पहले; कृत:--समाप्त; अधुना--अब; येन--जिससे; शुच्यामू--शोक को;विवर्धन:--बढ़ाते हुए

    हे नाथ, अब आप क्रूर विधाता द्वारा हमारी दृष्टि से ओझल कर लिये गये हैं।

    इसके पूर्व आपउशीनर के निवासियों को जीविका प्रदान करते थे जिससे वे सुखी थे, किन्तु अब आपकी दशाउनके दुख का कारण बनी है।

    "

    त्वया कृतज्ञेन वय॑ं महीपतेकथं विना स्याम सुहृत्तमेन ते ।

    तत्रानुयानं तब बीर पादयो:शुश्रूषतीनां दिश यत्र यास्यसि ॥

    ३४॥

    त्ववा--तुम; कृतज्ञेन--अत्यन्त कृतज्ञ व्यक्ति के; बयम्‌--हम; मही-पते--हे राजा; कथम्‌--कैसे; विना--बिना; स्थाम--रहेंगी; सुहत्‌-तमेन--हमारे मित्रों में श्रेष्ठ; ते--तुम्हारे; तत्र--वहाँ; अनुयानम्‌-- अनुगमन करते हुए; तब--तुम्हारा; वीर--हे वीरपुरुष; पादयो:--चरणकमलों की; शुश्रूषतीनाम्‌ू-- सेवा में लगे रहने वालों का; दिश--कृपया आज्ञा दें; यत्र--कहाँ;यास्यसि--जाओगे।

    हे राजा, हे वीर, आप अत्यन्त कृतज्ञ पति थे और हम सबों के अत्यन्त निष्ठावान्‌ मित्र थे।

    आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी?

    हे वीर, आप जहाँ भी जा रहे हैं, कृपा करके हमारा निर्देशनकरें जिससे हम आपके पदचिन्हों का अनुसरण कर सकें और पुनः आपकी सेवा कर सकें।

    हमें भी अपने साथ ले चलें।

    "

    एवं विलपतीनां वै परिगृह्य मृतं पतिम्‌ ।

    अनिच्छतीनां निर्हारमको स्तं सन्न्यवर्तत ॥

    ३५॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; विलपतीनाम्‌--विलाप करती रानियों का; बै--निस्सन्देह; परिगृह्य-- अपनी गोद में लेकर; मृतम्‌--मृत;पतिम्‌--पति को; अनिच्छतीनामू--न चाहती हुए; निर्हारमू--दाह संस्कार के लिए शव को ले जाते हुए; अर्क:--सूर्य;अस्तमू--डूबने के स्थान में; सन्न्यवर्तत--चला गया |

    यद्यपि शव-दाह के लिए समय उपयुक्त था लेकिन रानियाँ शव को अपनी गोद में लिए हुएविलाप करती रहीं और उन्होंने शव को ले जाने की अनुमति नहीं दी।

    तभी सूर्य पश्चिम दिशा मेंअस्त हो गया।

    "

    तत्र ह प्रेतबन्धूनामा श्रुत्य परिदेवितम्‌ ।

    आह तान्बालको भूत्वा यम: स्वयमुपागतः ॥

    ३६॥

    तत्र--वहाँ; ह--निश्चय ही; प्रेत-बन्धूनामू--मृत राजा के मित्रों तथा सम्बन्धियों के; आश्रुत्य--सुनकर; परिदेवितम्‌--तीत्रविलाप ( जो यमराज के लोक से भी सुना जा सकता था ); आह--कहा; तान्‌--उनसे ( शोकसन्तप्त रानियों से ); बालक:--एक लड़का; भूत्वा--बन कर; यम:--मृत्यु के अधीक्षक यमराज ने; स्वयम्‌--साक्षात्‌; उपागत:--आकर।

    जब रानियाँ राजा के मृत शरीर के लिए विलाप कर रही थीं तो उनका तीव्र विलाप यमलोकतक में सुनाई पड़ रहा था।

    अतएव बालक का रूप धारण करके यमराज मृतक के सम्बन्धियोंश़ के निकट पहुँचे और उन्हें इस प्रकार से उपदेश दिया।

    "

    श्रीयम उबाचअहो अमीषां वयसाधिकानांविपश्यतां लोकविधि विमोहः ।

    यत्रागतस्तत्र गतं मनुष्यस्वयं सधर्मा अपि शोचन्त्यपार्थम्‌ ॥

    ३७॥

    श्री-यमः उवाच-- श्री यमराज ने कहा; अहो--ओह; अमीषाम्‌--इनका; वयसा--उम्र से; अधिकानाम्‌ू--जिनकी आयु अधिकहै, उनका; विपश्यताम्‌-- प्रति दिन देखते हुए; लोक-विधिम्‌-- प्रकृति के नियम को ( कि हर कोई मरता है ); विमोह: --मोह;यत्र--जहाँ से; आगत:--आया हुआ; तत्र--वहाँ; गतमू--लौटा हुआ; मनुष्यम्‌--मनुष्य; स्वयम्‌--स्वयं; स-धर्मा:--स्वभावमें समान ( मरने के लिए उद्यत ); अपि--यद्यपि; शोचन्ति--विलाप करते हैं; अपार्थम्‌-व्यर्थ ही |

    श्री यमराज ने कहा--ओह! यह कितना आश्चर्यजनक है।

    ये लोग, जो मुझसे वय में बड़े हैंउन्हें अच्छी तरह अनुभव है कि सैकड़ों हजारों जीव जन्म लेते और मरते हैं।

    इस तरह उन्हेंसमझना चाहिए कि उन्हें भी मरना है, तो भी वे मोहग्रस्त रहते हैं।

    बद्धजीव अज्ञात स्थान से आतेहैं और मृत्यु के बाद उसी अज्ञात स्थान को लौट जाते हैं।

    इस नियम का कोई अपवाद नहींमिलता तो यह जानते हुए भी वे व्यर्थ शोक क्‍यों करते हैं ?

    " अहो वयं धन्यतमा यदत्रत्यक्ता: पितृभ्यां न विचिन्तयामः ।

    अभश्ष्यमाणा अबला वृकादिभि:स रक्षिता रक्षति यो हि गर्भ ॥

    ३८ ॥

    अहो--ओह; वयम्‌--हम सब; धन्य-तमा:--अत्यन्त भाग्यशाली; यत्‌--क्योंकि; अत्र--इस समय; त्यक्ता:--असुरक्षित,अकेले छोड़ी हुई; पितृभ्याम्‌ू--पिता तथा माता दोनों के द्वारा; न--नहीं; विचिन्तयाम: --चिन्ता करते; अभक्ष्यमाणा:--न खाईजाकर; अबला:--अत्यन्त निर्बल; वृक-आदिभिः--भेड़िया तथा अन्य हिंस्त्र पशुओं द्वारा; स:--वह ( भगवान्‌ ); रक्षिता--रक्षाकरेगा; रक्षति--रक्षा कर चुका है; यः--जो; हि--निश्चय ही; गर्भे--गर्भ के भीतर |

    यह कितना आश्चर्यजनक है कि इन वयोवृद्ध महिलाओं को हमारे जैसा भी उच्चतर जीवन-बोध नहीं है! निस्सन्देह, हम अत्यन्त भाग्यशाली हैं, क्योंकि यद्यपि हम बालक हैं और अपनेमाता-पिता के द्वारा जीवन-संघर्ष करने के लिए असुरक्षित छोड़ दिये गये हैं और यद्यपि हमअत्यन्त निर्बल हैं, तो भी हिंस्त्र पशुओं ने न तो हमें खाया, न विनष्ट किया।

    इस तरह हमें दृढ़विश्वास है कि जिस भगवान्‌ ने हमें माता के गर्भ में भी सुरक्षा प्रदान की है वे ही हमारी सर्वत्ररक्षा करते रहेंगे।

    "

    य इच्छयेश: सृजतीदमव्ययोय एव रक्षत्यवलुम्पते च यः ।

    तस्याबला: क्रीडनमाहुरीशितु-श्वराचरं निग्रहसड़ग्रहे प्रभु; ॥

    ३९॥

    यः--जो; इच्छया--उसकी इच्छा से ( किसी के द्वारा बाध्य होकर नहीं ); ईशः--परम नियन्ता; सृजति--उत्पन्न करता है;इदम्‌--इस ( भौतिक जगत ) को; अव्यय:--यथारूप में रहकर ( इतनी सारी भौतिक सृष्टियों को उत्पन्न करने के कारण अपनेअस्तित्व को खोये बिना ); यः--जो; एव--निस्सन्देह; रक्षति--पालन करता है; अवलुम्पते--संहार करता है; च-- भी; यः--जो; तस्थ--उसका; अबलाः: --हे दीन स्त्रियों; क्रीडनम्‌--खेल; आहु: --वे कहते हैं; ईशितु:-- भगवान्‌ का; चर-अचरम्‌--चरतथा अचर; निग्रह--विनाश में; सड्ग्रहे--या रक्षा में; प्रभु; --पूर्ण समर्थ |

    उस बालक ने स्त्रियों को सम्बोधित किया: हे अबलाओ, उस अविनाशी भगवान्‌ की इच्छासे सम्पूर्ण जगत का सृजन, पालन और संहार होता है।

    यह वेदों का निर्णय है।

    चर तथा अचर सेयुक्त यह भौतिक सृष्टि उनके खिलौने के समान है।

    परमेश्वर होने के कारण वे इसको विनष्टकरने तथा इसकी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हैं।

    "

    पथि च्युतं तिष्ठति दिष्टरक्षितंगृहे स्थितं तद्विहतं विनश्यति ।

    जीवत्यनाथोपि तदीक्षितो वनेगृहेउभिगुप्तोस्थ हतो न जीवति ॥

    ४०॥

    'पथि--रास्ते में; च्युतम्‌ू--गिरा हुआ, अधिकार से वंचित; तिष्ठति--बना रहता है; दिष्ट-रक्षितम्‌-- भाग्य द्वारा रक्षित; गृहे--घरमें; स्थितम्‌--यद्यपि स्थित; तत्‌-विहतम्‌--परमेश्वर की इच्छा से मारा गया; विनश्यति--नष्ट हो जाता है; जीवति--जीवित रहताहै; अनाथ: अपि--बिना रक्षक के भी; तत्‌-ईक्षित:-- भगवान्‌ द्वारा रक्षित होकर; वने--जगंल में; गृहे--घर में; अभिगुप्त:--पूरी तरह गुप्त तथा रक्षित; अस्य--इसका; हत:--मारा गया; न--नहीं; जीवति--बचता है।

    कभी-कभी मनुष्य अपना धन सड़क पर खो देता है जहाँ सभी उसे देख सकते हैं; फिर भीयह धन भाग्यवश सुरक्षित पड़ा रहता है और इसे कोई नहीं देख पाता।

    इस तरह जिस व्यक्ति नेइस धन को खोया था, उसे यह वापस मिल जाता है।

    दूसरी ओर, यदि भगवान्‌ सुरक्षा प्रदान नहींकरते तो घर में अत्यन्त सुरक्षित ढंग से रखा होने पर भी यह धन खो जाता है।

    यदि भगवान्‌किसी की रक्षा करते हैं, तो उसका कोई रक्षक न होते हुए भी तथा जंगल में रहते हुए भी वहजीवित रहता है जब कि घर पर सम्बन्धियों तथा अन्यों से रक्षित होते हुए भी मनुष्य कभी-कभीमर जाता है; कोई उसकी रक्षा नहीं कर पाता।

    "

    भूतानि तैस्तैर्निजयोनिकर्मभि-भवन्ति काले न भवन्ति सर्वशः ।

    न तत्र हात्मा प्रकृतावषि स्थित-स्तस्या गुणैरन्यतमो हि बध्यते ॥

    ४१॥

    भूतानि--जीवों के समस्त शरीर; तैः तैः--अपने अपने; निज-योनि--अपने शरीर उत्पन्न करके; कर्मभि:--पूर्व कर्मों के द्वारा;भवन्ति-- प्रकट होते हैं; काले--काल क्रम से; न भवन्ति--अहृश्य होते हैं; सर्वशः --सभी तरह से; न--नहीं; तत्र--वहाँ; ह--निस्सन्देह; आत्मा--आत्मा; प्रकृता--इस भौतिक जगत के भीतर; अपि--यद्यपि; स्थित:--स्थित; तस्या:--उस ( भौतिकशक्ति ) के; गुणैः--विभिन्न गुणों के द्वारा; अन्य-तम:--अत्यन्त भिन्न; हि--निस्सन्देह; बध्यते--बाँधा जाता है

    प्रत्येक बद्धजीव अपने कर्म के अनुसार भिन्न प्रकार का शरीर पाता है और जब उसकाकार्य समाप्त हो जाता है, तो शरीर भी नष्ट हो जाता है।

    यद्यपि आत्मा विभिन्न योनियों में विभिन्नप्रकार के सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों में स्थित रहता है, किन्तु वह उनसे बँधा नहीं रहता, क्योंकि वहव्यक्त शरीर से सदा-सदा पूर्णतया भिन्न माना जाता है।

    "

    इदं शरीर पुरुषस्य मोहजंयथा पृथर्भौतिकमीयते गृहम्‌ ।

    यथौदके: पार्थिवतैजसैर्जन:कालेन जातो विकृतो विनश्यति ॥

    ४२॥

    इदम्‌--इस; शरीरम्‌--शरीर को; पुरुषस्य--बद्धजीव का; मोह-जम्‌--अविद्या से उत्पन्न; यथा--जिस तरह; पृथक्‌-भिन्न;भौतिकम्‌-- भौतिक; ईयते--देखा जाता है; गृहम्‌ू--घर को; यथा--जिस तरह; उदकैः--जल से; पार्थिव-- पृथ्वी से;तैजसैः--तथा अग्नि से; जनः--बद्धजीव; कालेन--काल द्वारा; जातः--उत्पन्न; विकृत:--रूपान्तरित; विनश्यति--नष्ट होजाता है।

    जिस प्रकार एक गृहस्वामी अपने घर से पृथक्‌ होते हुए भी अपने घर को अपने से अभिन्नमानता है उसी प्रकार अज्ञानवश बद्धजीव इस शरीर को आत्मा मान बैठता है, यद्यपि शरीरआत्मा से वास्तव में भिन्न है।

    यह शरीर पृथ्वी, जल तथा अग्नि के अंशों के संयोग से प्राप्त होताहै और जब वे कालक्रम में रूपान्तरित हो जाते हैं, तो शरीर विनष्ट हो जाता है।

    आत्मा को शरीरके इस सृजन तथा विलय से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता।

    "

    यथानलो दारुषु भिन्न ईयतेयथानिलो देहगतः पृथक्स्थित: ।

    यथा नभः सर्वगतं न सज्जतेतथा पुमान्सर्वगुणा श्रयः परः ॥

    ४३॥

    यथा--जिस तरह; अनलः--आग; दारुषु--काष्ट में; भिन्न:--पृथक्‌; ईयते-- देखी जाती है; यथा--जिस प्रकार; अनिल:--वायु; देह-गत:--शरीर के भीतर; पृथक्‌--विलग; स्थित:--स्थित; यथा--जिस तरह; नभ:--आकाश; सर्व-गतम्‌--सर्वव्यापक; न--नहीं; सजते--मिलता है, लिप्त होता है; तथा--उसी प्रकार; पुमानू--जीव; सर्व-गुण-आश्रय: --यद्यपिप्रकृति के सभी गुणों का आश्रय; पर:ः--भौतिक कल्मष से परे।

    जिस तरह अगिन क्राष्ट में स्थित रहती है, किन्तु वह काष्ठ से भिन्न समझी जाती है, जिस तरहवायु मुँह तथा नथुनों के भीतर स्थित रहती है, किन्तु उनसे पृथक्‌ मानी जाती है और जिस तरहआकाश सर्वत्र व्याप्त होकर भी किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता उसी तरह जीव भी, जो भले हीइस समय भौतिक शरीर में बन्दी है, उस शरीर का स्त्रोत होते हुए भी उससे पृथक्‌ है।

    "

    सुयज्ञो नन्वयं शेते मूढा यमनुशोचथ ।

    यः श्रोता योउनुवक्तेह स न दृश्येत कहिचित्‌ ॥

    ४४॥

    सुयज्ञ:--सुयज्ञ नामक राजा; ननु--निस्सन्देह; अयम्‌--यह; शेते--लेटा है; मूढा:--हे मूर्ख जनो; यम्‌--जिसको;अनुशोचथ--रोदन करते हो; यः--जो; श्रोता--सुनने वाला; य:--जो; अनुवक्ता --बोलने वाला; इह--इस संसार में; सः--वह; न--नहीं; दृश्येत--दृष्टिगोचर है; कहिंचित्‌ू--किसी भी समय

    यमराज ने आगे कहा : हे शोक करने वालो, तुम सारे के सारे मूर्ख हो।

    तुम जिस सुयज्ञ नामव्यक्ति के लिए शोक कर रहे हो वह तुम्हारे समक्ष अब भी लेटा है।

    वह कहीं नहीं गया।

    तो फिरतुम्हारे शोक का क्‍या कारण है?

    पहले वह तुम्हारी बातें सुनता था और उत्तर देता था, किन्तु तुमलोग अब उसे न पाकर शोक कर रहे हो।

    यह विरोधमूलक आचरण है, क्योंकि तुमने वास्तव मेंउस व्यक्ति को शरीर के भीतर कभी नहीं देखा था, जो तुम्हें सुनता था और उत्तर देता था।

    तुम्हेंशोक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम जिस शरीर को हमेशा देखते आये हो वहतुम्हारे सामने पड़ा हुआ है।

    "

    न श्रोता नानुवक्तायं मुख्योउप्यत्र महानसु: ।

    यस्त्विहेन्द्रियवानात्मा स चान्य: प्राणदेहयो: ॥

    ४५ ॥

    न--नहीं; श्रोता--सुनने वाला; न--नहीं; अनुवक्ता--बोलने वाला; अयमू--यह; मुख्य:--मुख्य, प्रधान; अपि--यद्यपि;अतन्न--इस शरीर में; महानू--महान्‌; असुः--प्राणवायु; यः--जो; तु--लेकिन; इह--इस शरीर में; इन्द्रिय-वान्‌ू--समस्तइन्द्रियों से युक्त; आत्मा--आत्मा; सः--वह; च--तथा; अन्यः--भिन्न; प्राण-देहयो:--प्राणवायु तथा भौतिक शरीर से |

    शरीर में सबसे महत्वपूर्ण वस्तु प्राण है, किन्तु वह भी न तो श्रोता है और न वक्ता।

    यहाँ तककि प्राण से परे आत्मा भी कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि वास्तविक निदेशक तो परमात्मा है,जो जीवात्मा के साथ सहयोग करता है।

    शरीर की गतिविधियों को संचालित करने वालापरमात्मा शरीर तथा प्राण से भिन्न है।

    "

    भूतेन्द्रियमनोलिड्जन्देहानुच्चावचान्विभु: ।

    भजत्युत्सृजति हान्यस्तच्चापि स्वेन तेजसा ॥

    ४६॥

    भूत--पाँच भौतिक तत्त्वों से; इन्द्रिय--दस इन्द्रियाँ; मन:--तथा मन; लिझ्ञन्‌--लक्षणयुक्त; देहान्‌--स्थूल शरीरों को; उच्च-अवचानू--उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग को; विभु:--जीवात्मा, जो शरीर तथा इन्द्रियों का स्वामी है; भजति--प्राप्त करता है;उत्सूजति--त्याग देता है; हि--निस्सन्देह; अन्यः--पृथक्‌ होने से; तत्‌ू--उस; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; स्वेन-- अपने;तेजसा--उच्च ज्ञान की शक्ति से।

    पाँच भौतिक तत्त्व, दस इन्द्रियाँ तथा मन--ये सभी मिलकर स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों केविभिन्न अंगों का निर्माण करते हैं।

    जीव अपने भौतिक शरीरों के सम्पर्क में आता है, चाहे येउच्च हों या निम्न और बाद में अपनी निजी शक्ति से उन्हें त्याग देता है।

    यह शक्ति जीव की उसनिजी शक्ति में देखी जा सकती है, जिससे वह विभिन्न प्रकार के शरीर धारण कर सकता है।

    "

    यावल्लिड्डान्वितो ह्यात्मा तावत्कर्मनिबन्धनम्‌ ।

    ततो विपर्ययः क्लेशो मायायोगो<नुवर्तते ॥

    ४७॥

    यावत्‌--जब तक; लिड्ड-अन्वित: --सूक्ष्म शरीर द्वारा आवृत; हि--निस्सन्देह; आत्मा--आत्मा; तावत्‌--तब तक; कर्म--सकाम कर्मों का; निबन्धनम्‌--बन्धन; ततः--उससे; विपर्यय:--उल्टा ( धोखे से शरीर को आत्मा मानते हुए ); क्लेश:--कष्ट;माया-योग:--बहिरंगा भ्रामक शक्ति के साथ प्रबल सम्बन्ध; अनुवर्तते--पीछा करता है।

    जब तक आत्मा मन, बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार से युक्त सूक्ष्म शरीर द्वारा आवृत रहता हैतब तक वह अपने सकाम-कर्मों के फल से बाँधा रहता है।

    इस आवरण के कारण आत्माभौतिक शक्ति से जुड़ा रहता है।

    अतएवं उसे उसी के अनुसार जन्म-जन्मांतर भौतिक दशाओं एवंविपर्ययों को भोगना पड़ता है।

    "

    वितथाभिनिवेशोयं यदगुणेष्वर्थवग्वच: ।

    यथा मनोरथः स्वप्न: सर्वमैन्द्रियकं मृषा ॥

    ४८॥

    वितथ--व्यर्थ; अभिनिवेश:-- धारणा; अयम्‌--यह; यत्‌--जो; गुणेषु-- प्रकृति के गुणों में; अर्थ--तथ्य के रूप में; हक्‌-वचः--देखना तथा बोलना; यथा--जिस तरह; मनोरथ:--मानसिक कल्पना ( दिवास्वण ); स्वप्न: --स्वण; सर्वम्‌--सबकुछ; ऐन्द्रियकम्‌--इन्द्रियों से उत्पन्न; मृषा--झूठ ।

    प्रकृति के गुणों तथा उनसे उत्पन्न तथाकथित सुख तथा दुख को वास्तविक रूप से देखनातथा उनके विषय में बातें करना व्यर्थ है।

    जब दिन में मन विचरता रहता है और मनुष्य अपने कोअत्यन्त महत्वपूर्ण समझने लगता है या जब वह रात में सपने देखता है और अपने को किसीसुन्दरी के साथ रमण करते देखता है, तो ये मात्र मिथ्या स्वप्न होते हैं।

    इसी प्रकार से भौतिकइन्द्रियों द्वारा उत्पन्न सुखों तथा दुखों को व्यर्थ समझना चाहिए।

    "

    अथ नित्यमनित्यं वा नेह शोचन्ति तद्ठिदः ।

    नान्यथा शक्यते कर्तु स्वभाव: शोचतामिति ॥

    ४९॥

    अथ--अतएव; नित्यमू--शाश्वत आत्मा; अनित्यमू--नश्वर भौतिक शरीर; वा--अथवा; न--नहीं; इह--इस संसार में;शोचन्ति--शोक करते हैं; तत्‌ू-विदः--जो शरीर तथा आत्मा के ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं; न--नहीं; अन्यथा-- अन्यथा; शकक्‍्यते--समर्थ है; कर्तुमु--करने के लिए; स्व-भाव:--प्रकृति; शोचताम्‌--शोक करने वालों का; इति--इस प्रकार।

    जिन्हें आत्म-साक्षात्कार का पूरा-पूरा ज्ञान है, जो यह भलीभाँति जानते हैं कि आत्मा नित्यहै किन्तु शरीर नश्वर है, वे शोक द्वारा अभिभूत नहीं होते।

    किन्तु जिन्हें आत्म-साक्षात्कार काज्ञान नहीं होता वे शोक करते हैं।

    अतएव मोह-ग्रस्त व्यक्ति को शिक्षित कर पाना कठिन है।

    "

    लुब्धको विपिने कश्ित्पक्षिणां निर्मितोउन्तक:ः ।

    वितत्य जाल॑ विदथे तत्र तत्र प्रलोभयन्‌ ॥

    ५०॥

    लुब्धक:--बहेलिया; विपिने--जंगल में; कश्चित्‌--किसी; पक्षिणाम्‌--पक्षियों का; निर्मित:--नियुक्त; अन्तक: --मारने वाला;वितत्य--फैलाकर; जालम्‌--जाल; विदधे--पकड़ लिया; तत्र तत्र--यहाँ वहाँ; प्रलोभवन्‌-- अनाज का लालच देकर।

    एक बहेलिया था, जो पक्षियों को दानों का लालच देता था और तब एक जाल फैलाकरउन्हें पकड़ लेता था।

    वह इस तरह रह रहा था मानो साक्षात्‌ मृत्यु ने उसे पक्षियों का वधिकनियुक्त किया हो।

    "

    कुलिड्डमिथुनं तत्र विचरत्समदृश्यत ।

    तयो: कुलिड़ी सहसा लुब्धकेन प्रलोभिता ॥

    ५१॥

    कुलिड्र-मिथुनम्‌--कुलिंग नामक पक्षियों का जोड़ा ( नर तथा मादा ); तत्र--वहाँ ( जहाँ बहेलिया शिकार करता था );विचरत्‌--घूमते हुए; समहश्यत--उसने देखा; तयो:--जोड़े को; कुलिड्री--मादा पक्षी; सहसा--एकाएक; लुब्धकेन--बहेलिया द्वारा; प्रलोभिता--लालच में आ गई ।

    जंगल में घूमते हुए उस बहेलिया ने कुलिंग पक्षियों का एक जोड़ा देखा।

    इन दोनों में सेमादा पक्षी बहेलिया के प्रलोभन में आ गई।

    "

    सासज्जत सिच्स्तन्त्रयां महिष्य: कालयन्त्रिता ।

    कुलिड्डस्तां तथापत्नां निरीक्ष्य भूशदु:खितः ।

    स्नेहादकल्प: कृपण: कृपणां पर्यदेवयत्‌ ॥

    ५२॥

    सा--वह मादा पक्षी; असज॒त--फँस गई; सिच:--जाल की; तन्त्रयामू--रस्सी में; महिष्य:--हे रानियो; काल-यन्त्रिता--कालके वशीभूत होकर; कुलिड्ड:--नर कुलिंग पक्षी; तामू--उसको; तथा--उस अवस्था में; आपन्नाम्‌ू--पकड़ा हुआ; निरीक्ष्य--देखकर; भृूश-दुःखितः --अत्यन्त दुखी; स्नेहात्‌ू--स्नेहवश; अकल्प:--कुछ करने में असमर्थ; कृपण:--बेचारा पक्षी;कृपणाम्‌--बेचारी पत्नी के लिए; पर्यदेवयत्‌--शोक करने लगा।

    हे सुयज्ञ की रानियो, नर कुलिंग पक्षी अपनी पत्नी को विधाता के अत्यन्त स्वणपूर्ण चंगुलमें पड़ी देखकर अत्यन्त दुखी हुआ।

    स्नेहवश बेचारा पक्षी अपनी पत्नी को छुड़ा न सकने केकारण उसके लिए शोक करने लगा।

    "

    अहो अकरुणो देव: स्त्रियाकरुणया विभु: ।

    कृपणं मामनुशोचन्त्या दीनया कि करिष्यति ॥

    ५३॥

    अहो--ओह; अकरुण: --अत्यन्त क्रूर; देव:--विधाता; स्त्रिया--मेरी पत्ती से; आकरुणया--जो अत्यन्त करुणापूर्ण;विभु:--परमे श्वर; कृपणम्‌--बेचारा; माम्‌--मेरे लिये; अनुशोचन्त्या--शोक करती; दीनया--बेचारी; किम्‌--क्या;करिष्यति--करेगा।

    ओह! विधाता कितना क्रूर है।

    मेरी पत्ती असहाय होने से ही ऐसी विषम स्थिति में है--औरमेरे लिए विलाप कर रही है।

    भला विधाता इस बेचारे मादा पक्षी को लेकर क्‍या पाएगा ?

    उसेक्‍या लाभ होगा।

    "

    काम नयतु मां देवः किमर्धेनात्मनो हि मे ।

    दीनेन जीवता दुःखमनेन विधुरायुषा ॥

    ५४॥

    काममू--जैसा वह चाहता है; नयतु--ले जाए; माम्‌--मुझको; देव:-- भगवान्‌; किमू-- क्या लाभ; अर्धेन-- आधे से;आत्मन:--शरीर के; हि--निस्सन्देह; मे--मेरा; दीनेन--बेचारे द्वारा; जीवता--जीवित; दुःखम्‌--दुख में; अनेन--इस; विधुर-आयुषा--कष्टमय जीवन वाला।

    यदि निर्दय विधाता मेरी अर्धांगिनी, मेरी पली, को लिए जा रहा है, तो वह मुझे भी क्‍योंनहीं ले जाता ?

    आधा शरीर लेकर और अपनी पत्नी की क्षति से विरहित होकर मेरे जीने से क्यालाभ ?

    मुझे इस तरह से कया मिलेगा ?

    " कथं त्वजातपक्षांस्तान्मातृहीनान्बिभर्म्यहम्‌ ।

    मन्दभाग्या: प्रतीक्षन्ते नीडे मे मातरं प्रजा: ॥

    ५५॥

    कथम्‌-कैसे; तु--लेकिन; अजात-पक्षान्‌ू--जिनके उड़ने के पंख अभी नहीं उगे; तानू--उन; मातृ-हीनान्‌ू--माता से बिछुड़ेहुओं को; बिभर्मि-- पालन करूँगा; अहम्‌--मैं; मन्द-भाग्या:--अत्यन्त अभागे; प्रतीक्षन्ते--वे प्रतीक्षा करते हैं; नीडे--घोंसलेमें; मे--मेरे; मातरम्‌--अपनी माता की; प्रजा:--पक्षी के बच्चे

    पक्षी के अभागे बच्चे मातृविहीन होकर अपने घोंसले में उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वहआए तो उन्हें खिलाए।

    वे अब भी बहुत छोटे हैं और उनके पंख तक नहीं उगे हैं।

    मैं उनका किसप्रकार पालन कर सकूँगा " एवं कुलिड्डं विलपन्तमारात्‌प्रियावियोगातुरम श्रुकण्ठम्‌ ।

    स एवं तं शाकुनिकः शरेणविव्याध कालप्रहितो विलीन: ॥

    ५६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कुलिड्ल्‍रमू--पक्षी को; विलपन्तमू--विलाप करता; आरातू--दूरी से; प्रिया-वियोग--अपनी पत्नी की क्षतिके कारण; आतुरम्‌--अत्यन्त दुखी; अश्रु-कण्ठम्‌--आँखों में आँसू भर कर; सः--उसने ( बहेलिया ने ); एब--निस्सन्देह;तम्‌--उसको ( नर पक्षी को ); शाकुनिक:--जो गिद्ध तक को मार सके; शरेण--तीर से; विव्याध--बेध दिया; काल-प्रहित:ः--काल द्वारा प्रेरित होकर; विलीन:--छिपा, गुप्त।

    अपनी पत्नी की क्षति के कारण कुलिंग पक्षी आँखों में आँसू भर कर विलाप कर रहा था।

    तभी काल के आदेशों का पालन करते हुए अत्यन्त सावधानी से दूर छिपे बहेलिये ने अपना तीरछोड़ा जिसने कुलिंग पक्षी के शरीर को बेध कर उसे मार डाला।

    "

    एवं यूयमपश्यन्त्य आत्मापायमबुद्धय: ।

    नैनं प्राप्स्यथ शोचन्त्यः पतिं वर्षशतैरपि ॥

    ५७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; यूयम्‌ू--तुम सब; अपश्यन्त्य:--न देखकर; आत्म-अपायम्‌-- अपनी मृत्यु को; अबुद्धयः--हे मूर्खों; न--नहीं; एनम्‌ू--उसको; प्राप्स्थथ--प्राप्त करोगी; शोचन्त्य:--शोक करती हुईं; पतिम्‌ू--अपने पति के लिए; वर्ष-शतैः--सैकड़ोंवर्षों तक; अपि-- भी |

    इस प्रकार छोटे बालक के वेष में यमराज ने सभी रानियों को बताया : तुम सब इतनी मूर्खहो तुम शोक तो कर रही हो किन्तु तुम शोक तो कर रही हो किन्तु अपनी मृत्यु को भी नहीं देखरही हो।

    अल्प ज्ञान के वशीभूत होकर तुम यह नहीं जानती हो कि यदि तुम सैकड़ों वर्षों तक भीअपने मृत पति के लिए शोक करो तो भी तुम उसे जीवित नहीं कर सकती और तब तक तुम्हाराजीवन समाप्त हो जाएगा।

    "

    श्रीहिरण्यकशिपुरुवाचबाल एवं प्रवदति सर्वे विस्मितचेतसः ।

    ज्ञातयो मेनिरे सर्वमनित्यमयथोत्थितम्‌ ॥

    ५८ ॥

    श्री-हिरण्यकशिपु: उबाच-- श्री हिरण्यकशिपु ने कहा; बाले--बालक रूप में यमराज; एवम्‌--इस प्रकार; प्रवदति--दार्शनिकरूप में बोल रहा था; सर्वे--समस्त; विस्मित-- आश्वर्यचकित; चेतस:--हृदय वाले; ज्ञातय:ः --सम्बन्धीगण; मेनिरे-- उन्होंनेसोचा; सर्वम्‌--समस्त भौतिक वस्तुएँ; अनित्यम्‌ू--नाशवान्‌; अयथा-उत्थितम्‌--अस्थायी घटना से उदित।

    हिरण्यकशिपु ने कहा : जब यमराज इस तरह छोटे से बालक के वेष में सुयज्ञ के मृत शरीरको घेरे हुए समस्त सम्बन्धियों को उपदेश दे रहे थे तो सभी लोग उनके दार्शनिक बचनों कोसुनकर दंग थे।

    वे समझ सके कि प्रत्येक भौतिक वस्तु नाशवान्‌ है, वह सदा विद्यमान नहीं रहसकती।

    "

    यम एतदुपाख्याय तत्रैवान्तरधीयत ।

    ज्ञातयो हि सुयज्ञस्य चक्रुर्यत्साम्पपायिकम्‌ ॥

    ५९॥

    यमः--बालक रूप में यमराज; एतत्‌--यह; उपाख्याय--उपदेश देकर; तत्र--वहाँ; एव--निस्सन्देह; अन्तरधीयत--अन्तर्धानहो गया; ज्ञातव:ः --सम्बन्धियों ने; हि--निस्सन्देह; सुयज्ञस्थ--राजा सुयज्ञ के; चक्रुः--सम्पन्न किया; यत्‌--जो हैं;साम्परायिकम्‌--अन्येष्टि संस्कार।

    बालक रूप में यमराज सुयज्ञ के समस्त मूर्ख सम्बन्धियों को उपदेश देकर उनकी दृष्टि सेओझल हो गया।

    तब राजा सुयज्ञ के सम्बन्धियों ने अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की।

    "

    अतः शोचत मा यूय॑ परं चात्मानमेव वा ।

    क आत्मा कः परो वात्र स्वीयः: पारक्य एव वा ।

    स्वपराभिनिवेशेन विनाज्ञानेन देहिनाम्‌ ॥

    ६०॥

    अतः--अतएव; शोचत--शोक करो; मा--मत; यूयम्‌--तुम सब; परम्‌-- अन्य; च--तथा; आत्मानम्‌--अपने आप; एव--निश्चय ही; वा--अथवा; कः--कौन; आत्मा--अपना; क:--कौन; पर: --दूसरा; वा--अथवा; अत्र--इस भौतिक जगत में;स्वीय:--अपना; पारक्य:--अन्यों के लिए; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; स्व-पर-अभिनिवेशेन-- अपने तथा औरों केदेहात्मबुद्धि में लीन होने से; विना--अलावा; अज्ञानेन--ज्ञान का अभाव; देहिनाम्‌ू--समस्त जीवधारियों का।

    अतएव तुममें से किसी को भी शरीर-क्षति के लिए, चाहे तुम्हारा अपना शरीर हो या अन्योंका हो, शोकसंतप्त नहीं होना चाहिए।

    यह तो केवल अज्ञान है, जिससे मनुष्य यह सोचकरशारीरिक भेदभाव बरतता है कि मैं कौन हूँ?

    अन्य लोग कौन हैं?

    मेरा क्या है ?

    उनका क्‍या है?

    " श्रीनारद उवाचइति दैत्यपतेर्वाक्यं दितिराकर्ण्य सस्नुषा ।

    पुत्रशोकं क्षणात्त्यक्त्वा तत्त्वे चित्तमधारयत्‌ ॥

    ६१॥

    श्री-नारद: उवाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; इति--ईस प्रकार; दैत्य-पतेः--असुरों के राजा का; वाक्यम्‌--वाणी; दिति:--दिति, हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष की माता ने; आकर्ण्य--सुनकर; स-स्नुषा--हिरण्याक्ष की पत्नी सहित; पुत्र-शोकम्‌--अपने पुत्र हिरण्याक्ष का महान्‌ वियोग; क्षणात्‌--तुरन्त; त्यक्त्वा--छोड़कर; तत्त्वे--जीवन के असली दर्शन में; चित्तमू--हृदयको; अधारयत्‌--लगाया।

    श्री नारद ने आगे कहा : हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष की माता दिति ने अपनी पुत्रवधूहिरण्याक्ष की पत्नी रुषाभानु सहित हिरण्यकशिपु के उपदेशों को सुना।

    तब उसने अपने पुत्र कीमृत्यु के शोक को भुला दिया और उसने अपने मन तथा ध्यान को जीवन का असली दर्शनसमझने में लगा दिया।

    "

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    अध्याय तीन: हिरण्यकशिपु की अमर बनने की योजना

    7.3श्रीनारद उबाचहिरण्यकशिपू राजन्नजेयमजरामरम्‌ ।

    आत्मानमप्रतिद्वन्द्मेकराजं व्यधित्सत ॥

    १॥

    श्री-नारद: उवाच--नारद मुनि ने कहा; हिरण्यकशिपु:--दैत्यराज हिरण्यकशिपु; राजन्‌--हे राजा युथिष्ठटिर; अजेयम्‌--किसीशत्रु द्वारा न जीता जा सकने योग्य; अजर--जरा या व्याधि से रहित; अमरम्‌--अमर; आत्मानम्‌--स्वयं; अप्रतिद्वन्दम्‌--किसीप्रतिद्वन्द्दी या विरोधी से विहीन; एक-राजम्‌--ब्रह्माण्ड का एकछत्र राजा, चक्रवर्ती; व्यधित्सत--बनना चाहता था।

    नारद मुनि ने महाराज युथिष्ठिर से कहा : दैत्यराज हिरण्यकशिपु अजेय तथा वृद्धावस्था एवंशरीर की जर्जरता से मुक्त होना चाहता था।

    वह अणिमा तथा लघिमा जैसी समस्त योग-सिद्ध्ियों को प्राप्त करना, मृत्युरहित होना और ब्रह्मलोक समेत अखिल विश्व का एकछत्र राजाबनना चाहता था।

    "

    स तेपे मन्दरद्रोण्यां तप: परमदारुणम्‌ ।

    ऊर्ध्वबाहर्नभोदृष्टि: पादाडुष्ठाश्रितावनि: ॥

    २॥

    सः--उसने ( हिरण्यकशिपु ने ); तेपे--सम्पन्न किया; मन्दर-द्रोण्याम्‌--मन्दर पर्वत की घाटी में; तपः--तपस्या; परम--अत्यधिक; दारुणम्‌--कठिन; ऊर्ध्व--ऊपर उठाये; बाहु:--बाहें; नभ:--आकाश की ओर; दृष्टि: --अपनी दृष्टि; पाद-अद्जुष्ठ--अपने पाँव के अँगूठे से; आश्रित--सहारा लेकर; अवनि:--पृथ्वी पर।

    हिरण्यकशिपु ने मन्दर पर्वत की घाटी में अपने पाँव के अँगूठे के बल भूमि में खड़े होकर,अपनी भुजाएँ ऊपर किये तथा आकाश की ओर देखते हुए अपनी तपस्या प्रारम्भ की।

    यहअवस्था अतीव कठिन थी, किन्तु सिद्धि प्राप्त करने के लिए उसने इसे स्वीकार किया।

    "

    जटादीधितिभी रेजे संवर्तार्क इवांशुभि: ।

    तस्मिस्तपस्तप्यमाने देवा: स्थानानि भेजिरे ॥

    ३॥

    जटा-दीधितिभि:--सिर पर जटा के तेज से; रेजे--चमक रहा था; संवर्त-अर्क:--प्रलयकालीन सूर्य; इब--सद्दश; अंशुभि:--किरणों से; तस्मिनू--जब वह ( हिरण्यकशिपु ); तपः--तपस्या में; तप्यमाने--लगा था; देवा: --सारे देवता जो हिरण्यकशिपुके आसुरी कृत्यों को देखने के लिए सारे ब्रह्माण्ड में घूम रहे थे; स्थानानि--अपने-अपने स्थानों को; भेजिरे--लौट गये।

    हिरण्यकशिपु के जटाजूट से प्रलयकालीन सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान तथाअसह्य तेज प्रकट हुआ।

    ऐसी तपस्या देखकर सारे देवता, जो अभी तक सारे लोकों में भ्रमणकर रहे थे, अपने-अपने घरों को लौट गये।

    "

    तस्य मूर्ध्न: समुद्धूतः सधूमोग्निस्तपोमय: ।

    तीर्यगूर्ध्वमधो लोकान्प्रातपद्दिष्वगीरित: ॥

    ४॥

    तस्य--उसके ; मूर्ध्न:--सिर से; समुद्धृतः --उत्पन्न हुआ; स-धूम:--धुआँ के साथ; अग्नि:--आग; तपः-मय:--कठिन तपस्याके कारण; तीर्यकू--अगल-बगल ; ऊर्ध्वमू--ऊपर; अध:--नीचे; लोकान्‌--सारे लोक; प्रातपत्‌--गर्म हो उठे; विष्वक्‌ --चारों ओर; ईरितः--फैली हुईं।

    हिरण्यकशिपु की कठिन तपस्या के कारण उसके सिर से अग्नि प्रकट हुई और यह अग्नि अपने धुएँ समेत आकाश भर में फैल गई।

    उसने ऊर्ध्व तथा अध: लोकों को घेर लिया जिससे वेसभी अत्यन्त गर्म हो उठे।

    "

    चुक्षुभुर्नद्युदन्वन्तः सद्ठीपाद्रिश्चचाल भू: ।

    निपेतु: सग्रहास्तारा जज्वलुश्न दिशो दश ॥

    ५॥

    चुक्षुभ:--विचलित हो उठे; नदी-उदन्वन्तः--सारी नदियाँ तथा समुद्र; स-द्वीप--टद्वीपों समेत; अद्विः--पर्वत; चचाल--हिलनेलगे; भू:--भूमण्डल की सतह; निपेतु:--गिर पड़े; स-ग्रहा:--ग्रहों सहित; तारा:--तारे; जज्वलु: --प्रज्वलित हो उठीं; च--भी; दिशः दश--दसों दिशाएँ |

    उसकी कठिन तपस्या के बल से सारी नदियाँ तथा सारे समुद्र क्षुब्ध हो उठे, भूमण्डल कीसतह अपने पर्वतों तथा द्वीपों समेत हिलने लगी और तारे तथा ग्रह टूट कर गिर पड़े।

    सारीदिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं।

    "

    तेन तप्ता दिवं त्यक्त्वा ब्रहलोक॑ ययु: सुरा: ।

    धात्रे विज्ञापयामासुर्देवदेव जगत्पते ।

    दैत्येन्द्रपणसा तप्ता दिवि स्थातुं न शकक्‍नुम: ॥

    ६॥

    तेन--उस ( तपस्या की अग्नि ) के द्वारा; तप्ता:--झुलसे; दिवम्‌--उच्च लोकों में अपने रिहायशी मकान; त्यक्त्वा--छोड़कर;ब्रहा-लोकम्‌--ब्रह्मा के रहने वाले लोक को; ययु:--गये; सुराः:--देवतागण; धात्रे--इस ब्रह्माण्ड के प्रधान ब्रह्मजी तक;विज्ञापयाम्‌ आसु:--निवेदन किया; देव-देव--हे देवताओं में प्रमुख; जगत्‌-पते--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; दैत्य-इन्द्र-तपसा--दैत्यराज हिरण्यकशिपु द्वारा की जा रही कठोर तपस्या के द्वारा; तप्ता:--जले हुए; दिवि--स्वर्गलोक में; स्थातुम्‌--रूकने केलिए; न--नहीं; शक्‍्नुम:--हम सब समर्थ हैं।

    हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या से झुलसने तथा अत्यन्त विचलित होने के कारण समस्तदेवताओं ने अपने रहने के लोक छोड़ दिये और ब्रह्मा के लोक को गये जहाँ उन्होंने स्त्रष्टा को इसप्रकार सूचित किया--' हे देवताओं के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु, हिरण्यकशिपु की कठोरतपस्या के कारण उसके शिर से निकलने वाली अग्नि के कारण हम लोग इतने उद्दिग्न हैं किहम अपने लोकों में रह नहीं सकते, अतएव हम आपके पास आये हैं।

    "

    'तस्य चोपशमं भूमन्विधेहि यदि मन्यसे ।

    लोका न यावन्नड्छ््यन्ति बलिहारास्तवाभिभू: ॥

    ७॥

    तस्य--उसके ; च--निस्सन्देह; उपशमम्‌--समाप्ति; भूमन्‌ू--हे महापुरुष; विधेहि--कृपया करें; यदि--यदि; मन्यसे--आपसही समझते हैं; लोकाः--विभिन्न लोकों के सारे निवासी; न--नहीं; यावत्‌--तब तक; नद्छ्ष्यन्ति--नष्ट हो जाएँगे; बलि-हारा:--पूजा के प्रति आज्ञाकारी; तब--तुम्हारी; अभिभू:--हे समस्त ब्रह्माण्ड के प्रधान ।

    हे महापुरुष, हे ब्रह्माण्ड के प्रधान, यदि आप उचित समझें तो इन सारे उत्पातों को, जो सबकुछ विनष्ट करने के उद्देश्य से हो रहे हैं, कृपा करके रोक दें जिससे आपकी आज्ञाकारी प्रजाका संहार न हो।

    "

    तस्यायं किल सड्डूल्पश्चरतो दुश्चर तपः ।

    श्रूयतां कि न विदितस्तवाथापि निवेदितम्‌ ॥

    ८ ॥

    तस्य--उसका; अयम्‌--यह; किल--निश्चय ही; सड्जूल्प:--हृढ़ निश्चय; चरत:--सम्पन्न करने वाला; दुश्चरम्‌--अत्यन्त कठिन;तपः--तपस्या; श्रूयतामू--सुन लें; किम्‌ू--क्या; न--नहीं; विदित:--ज्ञात; तब--तुम्हारा; अथापि-- अब फिर भी;निवेदितम्‌--निवेदन किया गया।

    हिरण्यकशिपु ने अत्यन्त कठिन तपस्या का ब्रत ले रखा है।

    यद्यपि आपसे उसकी योजनाछिपी नहीं है, तो भी हम जिस रूप में उसके मन्तव्यों का निवेदन कर रहे हैं, कृपा करके उन्हेंसुन लें।

    "

    सृष्ठा चराचरमिदं तपोयोगसमाधिना ।

    अध्यास्ते सर्वधिष्ण्येभ्य: परमेष्ठी निजासनम्‌ ॥

    ९॥

    तदहं वर्धमानेन तपोयोगसमाधिना ।

    कालात्मनोश्व नित्यत्वात्साधयिष्ये तथात्मन: ॥

    १०॥

    सृष्टा--सृजन करके; चर--चल; अचरम्‌--तथा अचल; इृदम्‌--यह; तपः--तपस्या का; योग--तथा योग शक्ति का;समाधिना--समाधि के अभ्यास द्वारा; अध्यास्ते--स्थित है; सर्व-धिष्ण्ये भ्यः--स्वर्गलोक समेत समस्त लोकों की अपेक्षा;परमेष्ठी --ब्रह्माजी ने; निज-आसनम्‌--अपना सिंहासन; तत्‌--अतएव; अहमू--मैं; वर्धभानेन--वृद्धि के कारण; तप:--तपस्या; योग--योग शक्ति; समाधिना--तथा समाधि से; काल--समय का; आत्मनो:--तथा आत्मा का; च--तथा;नित्यत्वात्‌--नित्यता से; साधयिष्ये -- प्राप्त करेगा; तथा--इतना; आत्मन:--अपने लिए

    इस ब्रह्माण्ड में परमपुरुष ब्रह्माजी ने अपना उच्च पद कठिन तपस्या, योगशक्ति तथासमाधि द्वारा प्राप्त किया है।

    फलस्वरूप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के बाद वे इसके सर्वाधिकपूज्य देवता बने हैं।

    चूँकि मैं शाश्वत हूँ और काल भी शाश्रत है, अतएव मैं ऐसी ही तपस्या,योगशक्ति तथा समाधि के लिए अनेक जन्मों तक प्रयास करूँगा और वह स्थान ग्रहण करूँगाजो ब्रह्माजी ने प्राप्त किया है।

    "

    अन्यथेदं विधास्येडहमयथा पूर्वमोजसा ।

    किमन्यै: कालनिर्धूतिः कल्पान्ते वैष्णवादिभि: ॥

    ११॥

    अन्यथा--बिल्कुल उल्टा; इृदम्‌--यह ब्रह्माण्ड; विधास्ये--बना दूँगा; अहम्‌--मैं; अयथा--अनुपयुक्त; पूर्वम्‌ू--पहले जैसा;ओजसा--अपनी तपस्या के बल से; किम्‌ू--क्या लाभ; अन्यैः--दूसरे के साथ; काल-निर्धूतिः--काल के साथ समाप्त होनेवाला; कल्प-अन्ते--युग के अन्त में; वैष्णब-आदिभि:--ध्रुवलोक या बैकुण्ठ लोक जैसे लोकों से |

    अपनी कठोर तपस्या से मैं पुण्य तथा पाप कर्मों के फलों को उलट दूँगा।

    मैं इस संसारकी समस्त स्थापित प्रथाओं को पलट दूँगा।

    कल्प के अन्त में श्रुवलोक भी मिट जाएगा।

    अतएवइसका क्‍या लाभ है?

    मैं तो ब्रह्मा के पद पर बना रहना अधिक पसन्द करूँगा।

    "

    इति शुश्रुम निर्बन्धं तप: परममास्थित: ।

    विधत्स्वानन्तरं युक्त स्वयं त्रिभुवनेश्वर ॥

    १२॥

    इति--इस प्रकार; शुश्रुम--हमने सुना है; निर्बन्धम्‌-- प्रबल संकल्प; तप:ः--तपस्या; परमम्‌--अत्यन्त कठोर; आस्थित:--स्थित; विधत्स्व--कृपया कार्यवाही करें; अनन्तरम्‌--जल्दी से जल्दी; युक्तम्‌--उपयुक्त; स्वयम्‌-- अपने से, स्वयं; त्रि-भुवन-ईश्वर--हे तीनों संसारों के स्वामी

    हे प्रभु, हमने विश्वस्त सूत्रों से सुना है कि हिरण्यकशिपु आपका पद प्राप्त करने के लिएकठिन तपस्या में जुटा हुआ है।

    आप तीनों लोकों के स्वामी हैं।

    आप जैसा उचित समझें वैसाअविलम्ब करें।

    "

    तवासन द्विजगवां पारमेष्ठयं जगत्पते ।

    भवाय श्रेयसे भूत्यै क्षेमाय विजयाय च ॥

    १३॥

    तब--आपका; आसनमू--सिंहासन; द्विज--ब्राह्मण संस्कृति का अथवा ब्राह्मणों का; गवाम्‌--गौवों का; पारमेषछ्यम्‌--सर्वोच्च, परम; जगत्‌ू-पते--हे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी; भवाय--उन्नति के लिए; श्रेयसे--चरम सुख के लिए; भूत्यै--ऐश्वर्यबढ़ाने के लिए; क्षेमाय--पालन तथा सौभाग्य के लिए; विजयाय--विजय तथा बढ़ती प्रतिष्ठा के लिए; च--तथा |

    हे ब्रह्माजी, निश्चय ही आपका पद इस ब्रह्माण्ड के सभी लोगों के लिए, विशेष रूप सेब्राह्मणों तथा गायों के लिए, अत्यन्त कल्याणप्रद है।

    इससे ब्राह्मण-संस्कृति तथा गौ-सुरक्षा कोअधिकाधिक महिमामंडित किया जा सकता है और इस प्रकार सभी प्रकार के भौतिक सुख,ऐश्वर्य तथा सौभाग्य स्वतः वृद्धि करेंगे।

    किन्तु दुर्भाग्यवश यदि हिरण्यकशिपु आपका स्थानग्रहण करता है, तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

    "

    इति विज्ञापितो देवैर्भगवानात्मभूनूप ।

    परितो भृगुदक्षाद्यैर्ययौ दैत्येश्वराश्रमम्‌ ॥

    १४॥

    इति--इस प्रकार; विज्ञापित: --सूचित; देवैः --समस्त देवताओं द्वारा; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; आत्म-भू:--कमल सेउत्पन्न ब्रह्माजी; नृप--हे राजा; परित:--घिरा हुआ; भृगु--भूगु द्वारा; दक्ष--दक्ष से; आद्यै:--तथा अन्‍्यों से; ययौ--गये; दैत्य-ईश्वर--दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु के; आश्रमम्‌--तपस्या स्थल पर।

    हे राजा, देवताओं द्वारा इस प्रकार सूचित किये जाने पर अत्यन्त शक्तिशाली ब्रह्माजी भृगु,दक्ष तथा अन्य महर्षियों को साथ लेकर तुरन्त उस स्थान के लिए चल पड़े जहाँ हिरण्यकशिपुतपस्या कर रहा था।

    "

    न ददर्श प्रतिच्छन्नं वल्मीकतृणकीचकै: ।

    पिपीलिकाभिराचीर्ण मेदस्त्वड्मांसशोणितम्‌ ॥

    १५॥

    तपन्तं तपसा लोकान्यथाभ्रापिहितं रविम्‌ ।

    विलक्ष्य विस्मितः प्राह हसंस्तं हंसवाहन: ॥

    १६॥

    न--नहीं; ददर्श--देखा; प्रतिच्छन्नम्‌ू--आवृत, ढका हुआ; वल्मीक--बांबी; तृण--घास; कीचकै:--तथा बाँस के डंडे से;पिपीलिकाभि:--चींटियों द्वारा; आचीर्णम्‌--चारों ओर से खाया हुआ; मेद:--जिसकी चर्बी; त्वक्‌--चमड़ी; मांस--मांस;शोणितम्‌--तथा रक्त; तपन्तम्‌--तपाता हुआ; तपसा--कठिन तपस्या से; लोकान्‌ू--तीनों लोकों को; यथा--जिस तरह;अभ्र--बादलों से; अपिहितम्‌--आच्छादित; रविम्‌--सूर्य को; विलक्ष्य--देखकर; विस्मित:--आश्चर्य-चकित; प्राह--कहा;हसनू--हँसते हुए; तमू-- उसको; हंस-बवाहन: --हंस यान पर आसीन ब्रह्माजी ने।

    हंसयान पर चलने वाले ब्रह्माजी पहले तो यह नहीं देख पाये कि हिरण्यकशिपु कहाँ है,क्योंकि उसका शरीर बाँबी, घास तथा बाँस के ड़ड़ों से आच्छादित था।

    चूँकि हिरण्यकशिपुदीर्घकाल से वहाँ था अतएव चीटियाँ उसकी खाल, चर्बी, मांस तथा रक्त चट कर चुकी थीं।

    तब ब्रह्माजी तथा देवताओं ने उसे खोज निकाला।

    वह बादलों से आच्छादित सूर्य की भाँति सारेसंसार को अपनी तपस्या से तपा रहा था।

    आश्चर्यचकित होकर ब्रह्माजी हँस पड़े और उसे इसप्रकार सम्बोधित करने लगे।

    "

    श्रीब्रह्मोवाचउत्तिष्ठीत्तिष्ठ भद्वं ते तप:सिद्धोइसि काश्यप ।

    वरदोहमनुप्राप्तो व्रियतामीप्सितो वर: ॥

    १७॥

    श्री-ब्रह्म उवाच--ब्रह्माजी ने कहा; उत्तिष्ठट--उठो; उत्तिष्ठ--उठो; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; तपः-सिद्धः--तपस्याकरने में पूर्ण; असि--तुम हो; काश्यप--हे कश्यप पुत्र; वर-दः--वर देने वाला; अहम्‌--मैं; अनुप्राप्त:--आया हूँ;ब्रियताम्‌--माँग लो; ईप्सित:--वांछित; वर:--वरदान |

    ब्रह्मजी ने कहा : हे कश्यप मुनि के पुत्र, उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो।

    अब तुम अपनीतपस्या में सिद्ध हो चुके हो, अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ।

    तुम मुझसे जो चाहे सो माँग सकतेहो और मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करूँगा।

    "

    अद्वाक्षमहमेतं ते हत्सारं महदद्भुतम्‌ ।

    दंशभक्षितदेहस्य प्राणा ह्ास्थिषु शेरते ॥

    १८॥

    अद्राक्षम्‌--स्वयं देखा है; अहम्‌-मैंने; एतम्‌--यह; ते--तुम्हारी; हत्‌-सारम्‌--सहन शक्ति; महत्‌--अत्यधिक; अद्भुतम्‌--आश्चर्यजनक; दंश-भक्षित--कीड़ों तथा चीटियों से खायी हुईं; देहस्थ--देह का; प्राणा: --प्राण, प्राणवायु; हि--निस्सन्देह;अस्थिषु--हड्डियों में; शेरते--शरण ले रहा है।

    मैं तुम्हारे धर्य को देखकर अत्यन्त विस्मित हूँ।

    सभी तरह के कीड़ों तथा चीटियों द्वारा खायेतथा काटे जाने के बावजूद तुम अपनी अस्थियों में प्राणवायु को संचालित किये हुए हो।

    निस्सन्देह, यह आश्चर्यजजनक है।

    "

    नैतत्पूर्वर्षयश्चक्कु्न करिष्यन्ति चापरे ।

    निरम्बुर्धारयेत्प्राणान्को वै दिव्यसमा: शतम्‌ ॥

    १९॥

    न--नहीं; एतत्‌--यह; पूर्व-ऋषय:--तुम्हारे पहले के ऋषि यथा भूगु ने; चक्कु:--सम्पन्न किया; न--न तो; करिष्यन्ति--करेंगे;च--भी; अपरे--अन्य लोग; निरम्बु:--जल पिये बिना; धारयेत्‌--जीवित रख सकते हैं; प्राणान्‌--प्राण वायु को; कः--कौन;बै--निस्सन्देह; दिव्य-समा:--दैवी वर्ष; शतम्‌--एक सौ।

    यहाँ तक कि भूगु जैसे साधु पुरुष, जो पहले जन्म ले चुके हैं ऐसी कठिन तपस्या नहीं करसके हैं, न भविष्य में भी कोई ऐसा कर सकेगा।

    इस तीनों लोकों में ऐसा कौन होगा जो जलपिये बिना एक सौ दैवी वर्षों तक जीवन धारण कर सके ?

    " व्यवसायेन तेनेन दुष्करेण मनस्विनाम्‌ ।

    तपोनिष्ठेन भवता जितोहं दितिनन्दन ॥

    २०॥

    व्यवसायेन--संकल्प से; ते--तुम्हारा; अनेन--इस; दुष्करेण--दुष्कर; मनस्विनाम्‌ू--बड़े-बड़े ऋषियों तथा साथु पुरुषों केलिए भी; तपः-निष्ठेन--तपस्या करने के उद्देश्य से; भवता--तुम्हारे द्वारा; जित:--जीता गया; अहम्‌--मैं; दिति-नन्दन--हेदिति पुत्र

    हे दितिपुत्र, तुमने अपने महान्‌ संकल्प से तथा अपनी तपस्या से वह कर दिखाया है, जोबड़े-बड़े साधु पुरुषों के लिए भी दुष्कर है।

    इस तरह तुमने मुझे निश्चय ही जीत लिया है।

    "

    ततस्त आशिष: सर्वा ददाम्यसुरपुड्रव ।

    मर्तस्य ते हामर्तस्य दर्शनं नाफलं मम ॥

    २१॥

    ततः--इसके कारण; ते--तुमको; आशिष: --वरदान; सर्वा:--सभी; ददामि--दूँगा; असुर-पुड्रब--हे असुरों में श्रेष्ठ;मर्तस्थय--मरने वाले का; ते--तुम्हारी तरह; हि--निस्सन्देह; अमर्तस्थ--न मरने वाले का; दर्शनम्‌--दर्शन; न--नहीं;अफलम्‌--बिना फल के; मम--मेरा ।

    हे असुरों में श्रेष्ठ, इस कारण मैं तुम्हारी इच्छानुसार तुम्हें सारे वरदान देने के लिए तैयार हूँ।

    मैं देवताओं के दैवी संसार से सम्बन्धित हूँ, जहाँ देवतागण मनुष्यों की तरह नहीं मरते।

    अतएवयद्यपि तुम मर्त्य हो, किन्तु तुमने मेरा दर्शन किया है, अत: यह व्यर्थ नहीं जाएगा।

    "

    श्रीनारद उबाचइत्युक्त्वादिभवो देवो भक्षिताड़ंं पिपीलिकै: ।

    कमण्डलुजलेनौक्षद्दिव्येनामोघराधसा ॥

    २२॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; आदि-भव:--इस ब्रह्माण्ड का पहला जीवितप्राणी, ब्रह्माजी; देव:--प्रधान देवता; भक्षित-अड्डमू--हिरण्यकशिपु का शरीर जो प्रायः खाया जा चुका था; पिपीलिकै: --चींटियों द्वारा; कमण्डलु--ब्रह्माजी के हाथ के जलपात्र से; जलेन--जल से; औक्षत्‌--छिड़का; दिव्येन--आध्यात्मिक,सामान्य नहीं; अमोघ-- अचूक; राधसा--जिसकी शक्ति |

    श्री नारद मुनि ने आगे कहा : हिरण्यकशिपु से ये शब्द कहने के बाद इस ब्रह्माण्ड के प्रथमजीव ब्रह्माजी ने, जो अत्यन्त शक्तिमान हैं, उसके शरीर पर अपने कमण्डल से दिव्य अचूकआध्यात्मिक जल छिड़का, जिसे चींटियों तथा कीड़े-मकोड़ों ने खा लिया था।

    इस तरह उन्होंनेहिरण्यकशिपु को जीवित किया।

    "

    स तत्कीचकवल्मीकात्सहओजोबलान्वित: ।

    सर्वावयवसम्पन्नो वज़्संहननो युवा ।

    उत्थितस्तप्तहेमाभो विभावसुरिवैधस: ॥

    २३॥

    सः--वह हिरण्यकशिपु; तत्‌--उस; कीचक-वल्मीकात्‌--बाँबी तथा बाँस के कुंज से; सह:ः--मानसिक शक्ति; ओज:--इन्द्रिय शक्ति; बल--तथा पर्याप्त शारीरिक शक्ति से; अन्वित:--युक्त; सर्व--समस्त; अवयव--शरीर के अंग; सम्पन्न: --पूर्णतया फिर से पाकर; वज़-संहनन: --वज् के समान मजबूत शरीर वाला; युवा--तरूण; उत्थित: --उठा हुआ; तप्त-हेम-आभः--जिसके शरीर की कान्ति पिघले सोने के समान थी; विभावसु: --अग्नि; इब--सहश; एधस: --काष्ट से |

    ज्योंही ब्रह्म ने अपने कमंडल से उसके शरीर पर जल छिड़का त्योंही हिरण्यकशिपु उठबैठा।

    उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग इतने बलवान्‌ थे कि वह वज्ञ के आघात को भी सहन करसकता था।

    इतनी शारीरिक शक्ति एवं पिघले सोने की सी शारीरिक कान्ति से युक्त वह पूर्णतरुण पुरुष की भाँति बाँबी से उसी तरह प्रकट हुआ जिस तरह काष्ठ से अग्नि उत्पन्न होती है।

    "

    स निरीक्ष्याम्बरे देव हंसवाहमुपस्थितम्‌ ।

    ननाम शिरसा भूमौ तहर्शनमहोत्सव: ॥

    २४॥

    सः--उसने ( हिरण्यकशिपु ने ); निरीक्ष्य--देखकर; अम्बरे--आकाश में; देवम्‌--परम देवता; हंस-वाहम्‌--हंस-वायुयान परचढ़ने वाला; उपस्थितम्‌--अपने समक्ष स्थित; ननाम--नमस्कार किया; शिरसा--शिर के बल; भूमौ-- भूमि पर; तत्‌-दर्शन--ब्रह्माजी का दर्शन कर के; महा-उत्सव: --अत्यन्त प्रसन्न

    आकाश में हंस-वायुयान पर सवार ब्रह्मा को अपने समक्ष देखकर हिरण्यकशिपु अत्यन्तप्रसन्न हुआ।

    वह तुरन्त शिर के बल भूमि पर गिर पड़ा और भगवान्‌ के प्रति अपनी कृतज्ञताप्रकट करने लगा।

    "

    उत्थाय प्राज्जललि: प्रह्न ईक्षमाणो दशा विभुम्‌ ।

    हर्षाश्रुपुलकोद्धेदो गिरा गद्गदयागृणात्‌ ॥

    २५॥

    उत्थाय--उठकर; प्राज्ललि:--हाथ जोड़े; प्रह्ृः--विनीत भाव से; ईक्षमाण:--देखते हुए; दशा--अपनी आँखों से; विभुम्‌ू--इसब्रह्माण्ड के भीतर परम पुरुष को; हर्ष--प्रसन्नता के; अश्रु--आँसुओं से; पुलक--शरीर में रोमांच; उद्धेदः--सजीव; गिरा--शब्दों से; गदगदया--रूक-रूक कर; अगृणात्‌-प्रार्थना की |

    तब दैत्यराज भूमि से उठकर एवं ब्रह्माजी को अपने समक्ष देखकर प्रसन्नता से अभिभूत होगया।

    वह अअश्रुपूर्ण नेत्रों एवं कम्पित पुलकित शरीर से अपने हाथ जोड़कर तथा अवरुद्ध वाणीसे ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए विनीत मुद्रा में प्रार्थना करने लगा।

    "

    श्रीहिरण्यकशिपुरुवाचकल्पान्ते कालसूष्टेन योउन्धेन तमसावृतम्‌ ।

    अभिव्यनग्जगदिदं स्वयज्ज्योतिः स्वरोचिषा ॥

    २६॥

    आत्मना त्रिवृता चेदं सृजत्यवति लुम्पति ।

    रजःसत्त्वतमोधाम्ने पराय महते नम: ॥

    २७॥

    श्री-हिरण्यकशिपु: उबाच--हिरण्यकशिपु ने कहा; कल्प-अन्ते--ब्रह्माजी के प्रत्येक दिन के अन्त में; काल-सूष्टेन--काल( समय ) द्वारा सृजित; य:ः--जो; अन्धेन--घने अंधकार से; तमसा--अज्ञान से; आवृतम्‌--ढका हुआ; अभिव्यनक्‌-- प्रकट,व्यक्त; जगत्‌--विराट अभिव्यक्ति; इदम्‌--यह; स्वयम्‌-ज्योति:ः --आत्म-तेज; स्व-रोचिषा--अपने शरीर की किरणों से;आत्मना--अपने से; त्रि-वृता--प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा संचालित; च--भी; इदम्‌--यह भौतिक जगत; सृजति--उत्पन्नकरता है; अवति--पालन करना है; लुम्पति--संहार करता है; रज:--रजोगुण का; सत्त्व--सतोगुण; तम:ः--तथा तमोगुण का;धाम्ने--परम स्वामी को; पराय--परम को; महते--महान्‌ को; नमः--मेरा सादर नमस्कार।

    मैं इस ब्रह्माण्ड के परम स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ।

    उनके जीवन के प्रत्येक दिनके अन्त में यह ब्रह्माण्ड काल के प्रभाव से घने अंधकार द्वारा आच्छादित हो जाता है और दूसरेदिन पुनः वही आत्म-तेजस्वी स्वामी अपने निजी तेज से अपनी भौतिक शक्ति के माध्यम से, जोप्रकृति के तीन गुणों से युक्त है, सम्पूर्ण जगत का सृजन, पालन तथा संहार करता है।

    वे ब्रह्माजीही सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण--इन तीन प्रकृति के गुणों के आधार हैं।

    "

    नम आद्याय बीजाय ज्ञानविज्ञानमूर्तये ।

    प्राणेन्द्रियमनोबुद्धिविकारैर्व्यक्तिमीयुषे ॥

    २८ ॥

    नमः--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; आद्याय--आदि जीव को; बीजाय--विराट विश्व के बीज को; ज्ञान--ज्ञान के; विज्ञान--व्यावहारिक ज्ञान के; मूर्तये--अर्चा विग्रह या स्वरूप को; प्राण--प्राणों के ; इन्द्रिय--इन्द्रिय के; मनः--मन के; बुद्धि--बुद्धिके; विकारैः--रूपान्तरों से; व्यक्तिमू--अभिव्यक्ति; ईयुषे--जिसने प्राप्त कर लिया है।

    मैं इस ब्रह्माण्ड के आदि पुरुष ब्रह्मजी को नमस्कार करता हूँ जो ज्ञान विशेष हैं तथा जोइस विराट जगत को उत्पन्न करने में मन तथा अनुभूत बुद्धि का उपयोग कर सकते हैं।

    उनकेकार्य-कलापों के ही कारण इस ब्रह्माण्ड में हर वस्तु दृष्टिगोचर हो रही है, अतएव वे समग्रअभिव्यक्तियों के कारण हैं।

    "

    त्वमीशिषे जगतस्तस्थुषश्चप्राणेन मुख्येन पति: प्रजानाम्‌ ।

    चित्तस्य चित्तैर्मनइन्द्रियाणांपतिर्महान्भूतगुणाशयेश: ॥

    २९॥

    त्वमू--तुम; ईशिषे--वास्तविक नियंत्रण करते हो; जगत:--चल प्राणियों का; तस्थुष:--एक स्थान पर स्थिर रहने वालों का;च--तथा; प्राणेन--प्राण से; मुख्येन--समस्त कार्यकलापों का उद्गम; पति:--स्वामी; प्रजानाम्‌ू--समस्त जीवों का;चित्तस्य--मन का; चित्तै:--चेतना से; मनः--मन का; इन्द्रियाणाम्‌--तथा दो प्रकार की इन्द्रियों ( कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ )का; पति:--स्वामी; महान्‌--महान्‌; भूत-- भौतिक तत्त्वों का; गुण--तथा भौतिक तत्त्वों के गुण; आशय--इच्छाओं का;ईशः--परम स्वामी |

    आप ही इस भौतिक जगत के जीवन के उद्गम होने से चर तथा अचर दोनों प्रकार केजीवों के स्वामी तथा नियन्ता हैं और उनकी चेतना को प्रेरित करते रहते हैं।

    आप मन और कर्म तथा ज्ञान की इन्द्रियों को धारण करते हैं अतएवं आप समस्त भौतिक तत्त्वों तथा उनके गुणों केमहान्‌ नियन्ता हैं।

    आप समस्त इच्छाओं के भी नियन्ता हैं।

    "

    'त्वं सप्ततन्तून्वितनोषि तन्‍्वाअय्या चतुहोंत्रकविद्यया च ।

    त्वमेक आत्मात्मवतामनादि-रनन्तपार: कविरन्तरात्मा ॥

    ३०॥

    त्वमू--तुम; सप्त-तन्तून्‌ू--सात प्रकार के वैदिक अनुष्ठान, जिनमें पहला है अग्निष्टोम यज्ञ; वितनोषि--फैलाते हो; तन्वा--अपनेशरीर से; त्र्या--तीन वेद; चतुः-होत्रक--चार प्रकार के पुरोहित जो होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता कहलाते हैं; विद्यया--आवश्यक ज्ञान द्वारा; च-- भी; त्वम्‌--तुम; एक:--एक; आत्मा--परमात्मा; आत्म-वताम्‌--सारे जीवों का; अनादि: --आदिरहित; अनन्त-पार: --अन्तहीन; कवि: --परम प्रेरक; अन्त:-आत्मा--हृदय के भीतर स्थिर परमात्मा ।

    हे प्रभु, आप साक्षात्‌ वेदों के रूप में तथा समस्त याज्ञिक ब्राह्मणों के कार्यकलापों सेसम्बन्धित ज्ञान के द्वारा अग्निष्टोम इत्यादि सात प्रकार के यज्ञों के वैदिक अनुष्ठानों का विस्तारकरते हैं।

    निस्सन्देह, आप याज्ञिक ब्राह्मणों को तीनों वेदों में उल्लिखित अनुष्ठानों को सम्पन्नकरने के लिए प्रेरित करते हैं।

    समस्त जीवों की अन्तरात्मा होने से आप आदिरहित, अन्तरहिततथा सर्वज्ञ हैं, आप काल तथा देश की सीमाओं के परे हैं।

    "

    त्वमेव कालोनिमिषो जनाना-मायुर्लवाद्यवयवै: क्षिणोषि ।

    कूटस्थ आत्मा परमेष्ठय्जो महां-स्त्वं जीवलोकस्य च जीव आत्मा ॥

    ३१॥

    त्वमू--तुम, एक ही; एव--निश्चित; काल:--अनन्त समय; अनिमिष:--बिना पलक झाँपे; जनानाम्‌--समस्त जीवों के;आयु:--आयु, उप्र; लव-आदि--सेकंड, पल, मिनट तथा घन्टे आदि; अवयवै:--विभिन्न भागों से; क्षिणोषि-- क्षीण करते हो,घटाते हो; कूट-स्थ:--किसी से प्रभावित हुए बिना; आत्मा--परमात्मा; परमेष्ठी --परमे ्वर; अज: -- अजन्मा; महान्‌--महान;त्वमू--तुम; जीव-लोकस्य--इस भौतिक जगत का; च-- भी; जीव:--जीवन का कारण; आत्मा--परमात्मा |

    हे स्वामी, आप नित्य जागते रहते हैं और जो कुछ घटित होता है उसे देखते हैं।

    नित्य कालके रूप में आप अपने विभिन्न अंगों तथा क्षण, सेकंड, मिनट तथा घंटे से समस्त जीवों की आयुघटाते हैं फिर भी आप अपरिवर्तनशील हैं, एक ही साथ परमात्मा, साक्षी तथा अजन्मा,सर्वव्यापी नियन्ता हैं, जो समस्त जीवों के जीवन के कारण हैं।

    "

    त्वत्त: पर नापरमप्यनेज-देजच्च किश्ञिद्व्यतिरिक्तमस्ति ।

    विद्या: कलास्ते तनवश्च सर्वाहिरण्यगर्भो सि बृहत्रत्रिपृष्ठ: ॥

    ३२॥

    त्वत्त:--तुमसे; परम्‌--उच्चतर; न--नहीं; अपरम्‌--निम्नततर; अपि-- भी; अनेजत्‌-- अचर; एजत्‌--चर; च--तथा;किख्जित्‌--कोई वस्तु; व्यतिरिक्तमू-पृथक्‌; अस्ति-- है; विद्या: --विद्या, ज्ञान; कला:--अंश; ते--तुम्हारे; तनवः--शरीर केलक्षण; च--तथा; सर्वा:--सभी; हिरण्य-गर्भ: --अपने उदर में ब्रह्माण्ड को रखने वाला; असि--तुम हो; बृहत्‌--बड़े से बड़ा;त्रि-पृष्ठ:--प्रकृति के तीन गुणों से परे।

    आपसे पृथक्‌ कुछ भी नहीं है चाहे वह अच्छा हो या निम्नतर, अचर या चर।

    वैदिकवाड्मय से यथा उपनिषदों से तथा मूल वैदिक ज्ञान के उपायों से प्राप्त ज्ञान आपके बाह्य शरीरकी रचना करने वाले हैं।

    आप हिरण्यगर्भ अर्थात्‌ ब्रह्माण्ड के आगार हैं, लेकिन परम नियन्ता केरूप में स्थित होने से आप तीन गुणों से युक्त भौतिक जगत से परे हैं।

    "

    व्यक्त विभो स्थूलमिदं शरीरंयेनेन्द्रियप्राणमनोगुणांस्त्वम्‌ ।

    भुड्क्षे स्थितो धामनि पारमेष्ठय्रेअव्यक्त आत्मा पुरुष: पुराण: ॥

    ३३॥

    व्यक्तमू--प्रकट; विभो--हे प्रभु; स्थूलम्‌ू--विराट अभिव्यक्ति; इदम्‌ू--यह; शरीरम्‌--बाह्य शरीर; येन--जिससे; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; प्राण-- प्राण; मन:ः--मन; गुणान्‌--दिव्य गुण; त्वम्‌--तुम; भुद्क्षे-- भोग करते हो; स्थित:--स्थित; धामनि-- अपनेधाम में; पारमेष्ठथे--परम; अव्यक्त:--सामान्य ज्ञान से प्रकट न होने वाला; आत्मा--आत्मा; पुरुष: --परम पुरुष; पुराण: --आदि, सबसे प्राचीन।

    हे प्रभु, आप अपने धाम में निरन्तर स्थित रह कर अपने विराट रूप को इस विराट जगत केभीतर से विस्तारित करते हैं और इस तरह आप भौतिक जगत का आस्वादन करते प्रतीत होते हैं।

    "

    आप ब्रह्म, परमात्मा, सबसे प्राचीन ई श्वर हैं।

    अनन्ताव्यक्तरूपेण येनेदमखिलं ततम्‌ ।

    चिदचिच्छक्तियुक्ताय तस्मै भगवते नमः ॥

    ३४॥

    अनन्त-अव्यक्त-रूपेण-- असीम, अप्रकट रूप द्वारा; येन--जिससे; इदम्‌--यह; अखिलम्‌--सम्पूर्ण; ततम्‌--विस्तारित;चित्‌--आध्यात्मिक; अचित्‌-- भौतिक; शक्ति--शक्ति; युक्ताय--से युक्त; तस्मै--उस; भगवते-- भगवान्‌ को; नमः--मैंसादर नमस्कार करता हूँ।

    मैं उन परमब्रह्म को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अपने अनन्त, अव्यक्त रूप को विराट जगतके रूप में ब्रह्माण्ड की समग्रता में विस्तार किया है।

    उनमें बहिरंगा शक्ति तथा अन्तरंगा शक्तिऔर समस्त जीवों से समन्वित मिश्रित तटस्था शक्ति पाई जाती है।

    यदि दास्यस्यभिमतान्वरान्मे वरदोत्तम ।

    भूतेभ्यस्त्वद्विसृष्टे भ्यो मृत्युर्मा भून्मम प्रभो ॥

    ३५॥

    " यदि--यदि; दास्यसि--दोगे; अभिमतान्‌-- वांछित; वरान्‌ू-- वर; मे--मुझको; वरद-उत्तम--हे समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ;भूतेभ्य:--जीवों से; त्वत्‌--तुमसे; विसृष्टे भ्यः --उत्पन्न किये गये; मृत्यु:--मृत्यु; मा--नहीं; भूत्‌--हो; मम--मेरे; प्रभो--हेस्वामी

    हे प्रभो, हे श्रेष्ठ वरदाता, यदि आप मुझे मेरा मनचाहा वर देना ही चाहते हैं, तो यह वर देंकि मैं आपके द्वारा उत्पन्न किसी भी जीव के द्वारा मृत्यु को प्राप्त न होऊँ।

    "

    नान्तर्बहिर्दिवा नक्तमन्यस्मादपि चायुथे: ।

    न भूमौ नाम्बरे मृत्युर्न नरैन मृगैरपि ॥

    ३६॥

    न--नहीं; अन्तः-- भीतर ( घर या महल ); बहिः--घर के बाहर; दिवा--दिन के समय; नक्तम्‌--रात्रि के समय; अन्यस्मात्‌ --ब्रह्मा के परे अन्य किसी से; अपि-- भी; च-- भी; अयुधे:--इस जगत में प्रयुक्त होने वाले किसी भी हथियार से; न--न तो;भूमौ-- भूमि पर; न--नहीं; अम्बरे-- आकाश में; मृत्यु:--मृत्यु; न--नहीं; नरैः--किसी मनुष्य द्वारा; न--न तो; मृगैः--किसीपशु द्वारा; अपि-- भी ।

    मुझे यह वर दें कि मैं न तो घर के अन्दर, न घर के बाहर, न दिन के समय, न रात में, नभूमि पर, न आकाश में मरूँ।

    मुझे वर दें कि मेरी मृत्यु न तो आपके द्वारा उत्पन्न जीवों केअतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा हो, न किसी हथियार से हो, न किसी मनुष्य या पशु के द्वारा हो।

    "

    व्यसुभिर्वासुमद्धिवा सुरासुरमहोरगै: ।

    अप्ररिद्वन्द्वतां युद्धे ऐकपत्यं च देहिनामू ॥

    ३७॥

    सर्वेषां लोकपालानां महिमानं यथात्मन: ।

    तपोयोगप्रभावाणां यन्न रिष्यति कहिचित्‌ ॥

    ३८॥

    व्यसुभि:--निर्जीव वस्तुओं द्वारा; वा--अथवा; असुमद्धिः--सजीवों द्वारा; वा--अथवा; सुर--देवताओं द्वारा; असुर--दैत्योंद्वारा; महा-उरगैः--अधोलोक में वास करने वाले बड़े-बड़े सर्पों द्वारा; अप्रतिद्वन्द्वतामू--जिसकी बराबरी करने वाला न हो;युद्धे--युद्ध में; ऐक-पत्यम्‌-- श्रेष्ठठ; च--तथा; देहिनाम्‌ू-- भौतिक शरीरधारियों के ऊपर; सर्वेषाम्‌ू--सभी; लोक-पालानाम्‌ू--समस्त लोकों के प्रधान देवताओं का; महिमानम्‌--यश; यथा--जिस तरह; आत्मन: --आपका; तपः-योग-प्रभावाणाम्‌ू--उन सबों का जिन्हें तपस्या तथा योगाभ्यास द्वारा शक्ति प्राप्त होती है; यत्‌--जो; न--कभी नहीं; रिष्यति--नष्टहोती है; कर्हिचित्‌ू--कभी भी |

    आप मुझे वर दें कि किसी सजीव या निर्जीव प्राणी द्वारा मेरी मृत्यु न हो।

    मुझे यह भी वर देंकि मैं किसी देवता या असुर द्वारा या अधोलोकों के किसी बड़े सर्प द्वारा न मारा जाऊँ।

    चूँकिआपको युद्धभूमि में कोई मार नहीं सकता इसलिए आपका कोई प्रतिद्वन्द्दी भी नहीं है।

    इसीप्रकार आप मुझे यह भी वर दें कि मेरा भी कोई प्रतिद्वन्द्दी न हो।

    मुझे सारे जीवों तथा लोकपालोंका एकछत्र स्वामित्व प्रदान करें और उस पद से प्राप्त होने वाला समस्त यश दें।

    साथ ही मुझेलम्बी तपस्या तथा योगाभ्यास से प्राप्त होने वाली सारी योग शक्तियाँ दें, क्योंकि ये कभी भीविनष्ट नहीं हो सकतीं।

    "

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    अध्याय चार: हिरण्यकशिपु ब्रह्मांड को आतंकित करता है

    7.4श्रीनारद उवाचएवं वृतः शतधृतिर्हिरण्यकशिपोरथ ।

    प्रादात्तत्तपसा प्रीतो वरांस्तस्य सुदुर्लभान्‌ ॥

    १॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद मुनि ने आगे कहा; एवम्‌--इस प्रकार; वृत:--याचना की; शत-धृति: --ब्रह्माजी ने;हिरण्यकशिपो:--हिरण्यकशिपु की; अथ--तब; प्रादात्‌ू--प्रदान किया; तत्‌--उसकी; तपसा--कठिन तपस्या से; प्रीत:--प्रसन्न होकर; बरान्‌--वरों को; तस्य--हिरण्यकशिपु को; सु-दुर्लभान्‌ू--अत्यन्त अप्राप्य ।

    नारद मुनि ने कहा : ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु की दुष्कर तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न थे।

    अतएवजब उसने उनसे वर माँगे तो उन्होंने निस्सन्देह वे दुर्लभ वर प्रदान कर दिये।

    "

    श्रीब्रह्मोवाचतातेमे दुर्लभा: पुंसां यान्वृणीषे वरान्मम ।

    तथापि वितराम्यड़ वरान्यद्यपि दुर्लभान्‌ ॥

    २॥

    श्री-ब्रह्मा उबाच--ब्रह्माजी ने कहा; तात-हहे पुत्र; इमे--ये सभी; दुर्लभा:--बहुत कम प्राप्त होने वाले; पुंसाम्‌ू--मनुष्यों को;यानू--जो; वृणीषे--तुम माँगते हो; वरान्‌--वरों को; मम--मुझसे; तथापि--फिर भी; वितरामि--मैं तुम्हें प्रदान करूँगा;अड्ग-हे हिरण्यकशिपु; वरान्‌--वरों को; यद्यपि--यद्यपि; दुर्लभान्‌ू--सामान्यतया प्राप्त न होने वाले |

    ब्रह्मजी ने कहा : हे हिरण्यकशिपु, तुमने जो वर माँगे हैं, वे अधिकांश मनुष्यों को बड़ीकठिनाई से प्राप्त हो पाते हैं।

    हे पुत्र, यद्यपि ये वर सामान्यतया उपलब्ध नहीं हो पाते, तथापि मैंतुम्हें प्रदान करूँगा।

    "

    ततो जगाम भगवानमोधानुग्रहो विभु: ।

    'पूजितोसुरवर्येण स्तूयमान:ः प्रजे श्र: ॥

    ३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; जगाम--चले गये; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिमान, ब्रह्म जी; अमोघ--न चूकने वाले; अनुग्रह:--जिसका वर;विभुः--इस ब्रह्माण्ड में सर्वश्रेष्ठ; पूजित:--पूजित होकर; असुर-वर्येण--अत्यन्त सम्माननीय असुर हिरण्यकशिपु द्वारा;स्तूयमान:-- प्रशंसित होकर; प्रजा-ईश्ररः:--अनेक देवताओं द्वारा, जो विभिन्न क्षेत्रों के स्वामी हैं।

    तब अमोध वर देने वाले ब्रह्माजी दैत्यों में श्रेष्ठ हिरण्यकशिपु द्वारा पूजित तथा महर्षियों एवंसाधु पुरुषों द्वारा प्रशंसित होकर वहाँ से विदा हो गये।

    "

    एवं लब्धवरो दैत्यो बिभ्रद्धेममयं वपु: ।

    भगवत्यकरोदददवेषं भ्रातुर्वधमनुस्मरन्‌ ॥

    ४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; लब्ध-वरः--वांछित वरदान पाकर; दैत्य:--हिरण्यकशिपु; बिभ्रत्‌ू--प्राप्त करके; हेम-मयम्‌--सोने कीकान्ति वाला; वपु:--शरीर; भगवति-- भगवान्‌ विष्णु के प्रति; अकरोत्‌--निभाया; द्वेषम्‌--ईर्ष्या; भ्रातुः वधम्‌--अपने भाई केवध को; अनुस्मरनू--सदैव सोचते हुए।

    इस प्रकार बह्म जी से आशीष पाकर तथा कान्तियुक्त स्वर्णिम देह पाकर असुरहिरण्यकशिपु अपने भाई के वध का स्मरण करता रहा जिससे वह भगवान्‌ विष्णु का ईर्ष्यालुबना रहा।

    "

    स विजित्य दिश:ः सर्वा लोकां श्व त्रीन्‍्महासुरः ।

    देवासुरमनुष्येन्द्रगन्धर्वगरुडोरगान्‌ ॥

    ५॥

    सिद्धचारणविद्याश्रानृषीन्पितृपतीन्मनून्‌ ।

    यक्षरक्ष:पिशाचेशान्प्रेतभूतपतीनपि ॥

    ६॥

    सर्वसत्त्वपतीज्ित्वा वशमानीय विश्वजित्‌ ।

    जहार लोकपालानां स्थानानि सह तेजसा ॥

    ७॥

    सः--वह ( हिरण्यकशिपु ); विजित्य--जीतकर; दिशः--दिशाएँ; सर्वा:--सभी; लोकान्‌--लोकों को; च--भी; त्रीन्‌ू--तीन( उच्च, मध्य तथा निम्न ); महा-असुरः--महान्‌ दैत्य; देव--देवतागण; असुर--असुरगण; मनुष्य--मनुष्यों के; इन्द्र--राजा;गन्धर्व--गन्धर्वगण; गरुड--गरुड़; उरगान्‌--बड़े-बड़े सर्पो को; सिद्ध--सिद्ध; चारण--चारण; विद्याध्रान्‌ू--विद्याधरों को;ऋषीन्‌--ऋषियों तथा साधु पुरुषों को; पितृ-पतीन्‌--यमराज तथा पितरों के अन्य नायकों को; मनून्‌--सारे मनुओं को;यक्ष--यक्षगण; रक्ष:--राक्षसगण; पिशाच-ईशान्‌--पिशाच लोक के नायकों; प्रेत--प्रेतों; भूत--तथा भूतों के; पतीन्‌--स्वामियों को; अपि--भी; सर्व-सत्त्व-पतीन्‌--विभिन्न लोकों के स्वामियों को; जित्वा--जीतकर; वशम्‌ आनीय--वश मेंकरके; विश्व-जित्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का विजेता; जहार--अधीन कर लिया; लोक-पालानाम्‌--उन देवताओं का जो विश्व काकार्य सँभालते हैं; स्थानानि--स्थान; सह--सहित; तेजसा--उनकी सारी शक्ति |

    हिरण्यकशिपु समग्र ब्रह्माण्ड का विजेता बन गया।

    इस महान्‌ असुर ने तीनों लोकों--उच्च,मध्य तथा निम्न लोकों को जीत लिया जिसमें मनुष्यों, गन्धर्वों, गरुड़ों, महासपों, चारणों,विद्याधरों, महामुनियों, यमराजों, मनुष्यों, यक्षों, पिशाचों तथा उनके स्वामियों एवं भूत-प्रेतों केस्वामियों के लोक सम्मिलित थे।

    उसने उन सारे अन्य लोकों के शासकों को भी हरा दिया जहाँ-जहाँ जीव रहते थे और उन्हें अपने वश में कर लिया।

    सबों के निवासों को जीतकर उसने उनकीशक्ति तथा उनके प्रभाव को छीन लिया।

    "

    देवोद्यानभ्रिया जुष्टमध्यास्ते स्म त्रिपिष्टपम्‌ ।

    महेन्द्रभवन साक्षान्रिर्मितं विश्वकर्मणा ।

    त्रैलोक्यलक्ष्म्यायतनमध्युवासाखिलर्द्धिमत्‌ ॥

    ८ ॥

    देव-उद्यान--देवताओं के प्रसिद्ध बगीचों का; थ्रिया--ऐश्वर्य से; जुष्टम्‌--समृद्ध; अध्यास्ते स्म--रहता रहा; त्रि-पिष्टपम्‌--स्वर्गलोक जहाँ देवतागण निवास करते हैं; महेन्द्र-भवनम्‌--स्वर्ग के राजा इन्द्र का महल; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; निर्मितम्‌ू--बनायाहुआ; विश्वकर्मणा--देवताओं के प्रसिद्ध शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा; त्रैलोक्य--तीनों लोकों का; लक्ष्मी-आयतनम्‌--सम्पत्ति कीदेवी का निवास; अध्युवास--निवास करती थीं; अखिल-ऋद्धि-मत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ऐश्वर्य सहित |

    समस्त ऐश्वर्य से युक्त हिरण्यकशिपु स्वर्ग के सुप्रसिद्ध नन्दन उद्यान में रहने लगा, जिसकाभोग देवता करते हैं।

    वस्तुतः वह स्वर्ग के राजा इन्द्र के अत्यन्त ऐश्वर्यशाली महल में रहने लगा।

    इस महल को देवताओं के शिल्पी साक्षात्‌ विश्वकर्मा ने निर्मित किया था और इसे इतने सुन्दरढंग से बनाया गया था मानो सम्पूर्ण विश्व की लक्ष्मी वहीं निवास कर रही हो।

    "

    यत्र विद्युममोपाना महामारकता भुवः ।

    यत्र स्फाटिककुड्यानि बैदूर्यस्तम्भपड् यः ॥

    ९॥

    यत्र चित्रवितानानि पद्यरागासनानिच ।

    'पयःफेननिभा: शय्या मुक्तादामपरिच्छदा: ॥

    १०॥

    कूजद्धि्नूपुरिर्देव्य: शब्दयन्त्य इतस्ततः ।

    रतलस्थलीषु पश्यन्ति सुदतीः सुन्दरं मुखम्‌ ॥

    ११॥

    तस्मिन्महेन्द्रभवने महाबलो महामना निर्जितलोक एकराट्‌ ।

    रेमेउभिवन्द्याड्घ्रियुग: सुरादिभिःप्रतापितैरूजितचण्डशासन: ॥

    १२॥

    यत्र--जहाँ ( इन्द्र के आवास में ); विद्युम-सोपाना: --मूँगे की सीढ़ियाँ; महा-मारकता:--मरकत; भुवः--फर्श ; यत्र--जहाँ;स्फाटिक--स्फटिक, क्रिस्टल की; कुड्यानि--दीवालें; बैदूर्य--वैदूर्य मणि के; स्तम्भ--ख भों की; पड यः--कतारें; यत्र--जहाँ; चित्र--अद्भुत; वितानानि--चँदोवे; पद्मरग--मणियों से जड़े; आसनानि--आसन, बैठने के स्थान; च-- भी; पय:--दूध का; फेन--झाग; निभा:--के सहृश; शय्या:--सेज, बिछौने; मुक्तादाम--मोतियों के ; परिच्छदा: --किनारे वाले;कूजद्धिः--खनकती हुईं; नूपुरै:ः--घुंघुरूओं से; देव्य:--दैवी स्त्रियाँ; शब्द-यन्त्य:--मधुर ध्वनि करती हुई; इतः ततः--इधरउधर; रल-स्थलीषु--रत्नों से जटित स्थानों में; पश्यन्ति--देखती हैं; सु-दती:--सुन्दर दाँतों वाली; सुन्दरम्‌--सुन्दर; मुखम्‌--मुँह; तस्मिन्‌--उसमें; महेन्द्र-भवने--स्वर्ग के राजा के रिहायशी मकान में; महा-बलः--अत्यन्त शक्तिशाली; महा-मना:--अत्यधिक विचारवान; निर्जित-लोक: --सबों को वश में रखने वाला; एक-राट्‌ू--शक्तिशाली तानाशाह; रेमे-- भोग किया;अभिवन्द्य--पूजित; अड्प्रि-युग:--जिसके दोनों पैर; सुर-आदिभि:--देवताओं द्वारा; प्रतापितै:--उद्विग्न होकर; ऊर्जित--आशा से अधिक; चण्ड--कठिन; शासन: --जिसका शासन ।

    राजा इन्द्र के आवास की सीढ़ियाँ मूँगे की थीं, फर्श अमूल्य पन्ने से जटित था, दीवालेंस्फटिक की थीं और ख भे बैदूर्य मणि के थे।

    उसके अद्भुत वितान सुन्दर ढंग से सजाये गयेथे, आसन मणियों से जटित थे और झाग के सहश श्वेत रेशमी बिछौने मोतियों से सजाये गये थे।

    वे महल में इधर-उधर घूम रही थीं, उनके घुँघुरुओं से मधुर झनकार निकल रही थी और वे रत्नोंमें अपने सुन्दर प्रतिबिम्ब देख रही थीं।

    किन्तु अत्यधिक सताये गये देवताओं को हिरण्यकशिपुके चरणों पर सिर झुकाना पड़ता था, क्‍योंकि उसने देवताओं को अकारण ही दण्डित कर रखाथा।

    इस प्रकार हिरण्यकशिपु उस महल में रह रहा था और सबों पर कठोरता से शासन कर रहाथा।

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    तमड़ मत्तं मधुनोरुगन्धिनाविवृत्तताप्राक्षमशेषधिष्ण्यपा: ।

    उपासतोपायनपाणिभिर्विनात्रिभिस्तपोयोगबलौजसां पदम्‌ ॥

    १३॥

    तम्‌--उसको ( हिरण्यकशिपु को ); अड़--हे राजा; मत्तम्‌ू--मतवाला; मधुना--सुरा से; उरु-गन्धिना--तीक्ष्ण गन्‍्ध वाली;विवृत्त--चढ़ी हुईं; ताम्र-अक्षम्‌--ताँबे जैसी आँखों वाला; अशेष-धिष्ण्य-पा: --समस्त लोकों के प्रमुख व्यक्तियों ने;उपासत--पूजा की; उपायन--साज सामान से युक्त; पाणिभि: --अपने अपने हाथों से; विना--बिना, रहित; त्रिभि:--तीनप्रमुख देवता ( विष्णु, ब्रह्म तथा शिव ); तप:ः--तपस्या; योग--योग शक्ति; बल--शारीरिक शक्ति; ओजसाम्‌--इन्द्रियों कीशक्ति; पदम्‌-- धाम |

    हे राजा, हिरण्यकशिपु सदा ही तीक्ष्ण गन्‍्ध वाली सुरा पिये रहता था, अतएवं उसकी ताग्रजैसी ( लाल ) आँखें सदैव चढ़ी रहती थीं।

    फिर भी चूँकि उसने योग की महान्‌ तपस्या की थीऔर यद्यपि वह निन्दनीय था, किन्तु तीन देवताओं-ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु--के अतिरिक्त सारेदेवता अपने-अपने हाथों में विविध भेंटें लेकर उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी सेवा करते थे।

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    जगुर्महेन्द्रासनमोजसा स्थितविश्वावसुस्तुम्बुरुरस्मदादय: ।

    गन्धर्वसिद्धा ऋषयो स्तुवन्मुहु-विद्याधराश्चाप्सरसश्र पाण्डव ॥

    १४॥

    जगु:--यश गान किया; महेन्द्र-आसनम्‌--राजा इन्द्र का सिंहासन; ओजसा--निजी शक्ति से; स्थितम्‌ू--स्थित; विश्वावसु:--गन्धर्वों का मुख्य गायक; तुम्बुरु:--अन्य गन्धर्व गायक; अस्मत्‌-आदय: --हम सहित ( नारद तथा अन्यों ने भी हिरण्यकशिपु का यशोगान किया ); गन्धर्व--गन्धर्व लोक के वासी; सिद्धा:--सिद्ध लोक के वासी; ऋषय:--बड़े-बड़े ऋषि तथा साधुपुरुष; अस्तुवन्‌ू--स्तुतियाँ की; मुहुः--पुनःपुनः; विद्याधरा:--विद्याधर लोक के वासी; च--तथा; अप्सरस:--अप्सर लोक केवासी; च--तथा; पाण्डब--हे पाण्डु के वंशज

    हे पाण्डु के वंशज महाराज युध्रिष्ठटिर, हिरण्यकशिपु ने राजा इन्द्र के सिंहासन पर आसीनहोकर अपने निजी बल से अन्य सारे लोकों के निवासियों को वश में किया।

    विश्वावसु तथातुम्बुरु नामक दो गन्धर्व, मैं तथा विद्याधर, अप्सराएँ एवं साधुओं ने उसका यशोगन करने केलिए बारम्बार उसकी स्तुतियाँ की।

    "

    स एव वर्णाश्रमिभि: क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।

    इज्यमानो हविर्भागानग्रहीत्स्वेन तेजसा ॥

    १५॥

    सः--वह ( हिरण्यकशिपु ); एब--निस्सन्देह; वर्ण-आ श्रमिभि: --चारों वर्णो तथा चारों आश्रमों के विधि-विधानों को कड़ाईसे पालने वाले व्यक्तियों द्वारा; क्रतुभि:--अनुष्ठानों द्वारा; भूरि-- प्रचुर; दक्षिणैः --दक्षिणा से; इज्यमान:--पूजित होकर; हविः-भागान्‌ू--आहुति का अंश; अग्रहीत्‌--छीन लेता; स्वेन-- अपने; तेजसा--तेज से

    वर्णा श्रम धर्म का पालन करने वाले पुरुष बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करके उसकी पूजाकरते, तो वह यज्ञों की आहुतियाँ देवताओं को न देकर स्वयं ले लेता था।

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    अकृष्ट पच्या तस्यासीत्सप्तद्वीपवती मही ।

    तथा कामदुघा गावो नानाश्चर्यपदं नभः ॥

    १६॥

    अकृष्ट-पच्या--बिना जोते बोये अन्न देने वाली; तस्य--हिरण्यकशिपु के; आसीत्‌-- थी; सप्त-द्वीप-वती --सात द्वीपों वाली;मही--पृथ्वी; तथा--उसी तरह; काम-दुघा:--इच्छानुसार दूध देने वाली; गाव:ः--गायें; नाना--विविध; आश्वर्य-पदम्‌--अनोखी वस्तुएँ; नभः--आकाश

    ऐसा प्रतीत होता है मानों सात द्वीपों वाली पृथ्वी हिरण्यकशिपु के भय से, बिना जोते बोयेही अन्न प्रदान करती थी।

    इस प्रकार यह वैकुण्ठ लोक की सुरभि या स्वर्गलोक की कामदुधागायों के समान थी।

    पृथ्वी पर्याप्त अन्न प्रदान करती, गाएँ प्रचुर दूध देतीं तथा आकाश अनोखीघटनाओं से सुसज्जित रहता था।

    "

    रलाकराश्च रलौघांस्तत्पत्यश्वोहुरूमिंभि: ।

    क्षारसीधुघृतक्षौद्रदधिक्षीरामृ्तोदका: ॥

    १७॥

    रलाकरा:--समुद्र; च--तथा; रत्त-ओघानू--विविध प्रकार के मूल्यवान मणि; तत्‌-पत्य: --समुद्रों की पत्नियाँ अर्थात्‌ नदियाँ;च--भी; ऊहुः--ले जाती थीं; ऊर्मिभि:--अपनी-अपनी लहरों से; क्षार--खारा समुद्र; सीधु--सुरा सागर; घृत--घी का सागर;क्षौद्र--ईंख रस का सागर, इक्षु सागर; दधि--दही का सागर; क्षीर--दूध का सागर; अमृत--तथा अत्यन्त मीठा सागर;उदकाः--जल।

    ब्रह्माण्ड के विविध सागर अपनी पत्नियों स्वरूप नदियों तथा उनकी सहायक नदियों कीलहरों से हिरण्यकशिपु के उपयोग हेतु विविध प्रकार के रत्नों की पूर्ति करते थे।

    ये सागरलवण, इक्षु, सुरा, घृत, दुग्ध, दही तथा मीठे जल के थे।

    "

    शैला द्रोणीभिराक्रीडं सर्वर्तुषु गुणान्द्रुमा: ।

    दधार लोकपालानामेक एवं पृथग्गुणान्‌ ॥

    १८ ॥

    शैला:--पर्वत तथा पहाड़ियाँ; द्रोणीभि:--बीच की घाटियों सहित; आक्रीडम्‌ू--हिरण्यकशिपु की क्रीड़ा स्थली; सर्व--सभी;ऋतुषु--सभी ऋतुओं में; गुणान्‌-- विभिन्न प्रकार के गुण ( फल तथा फूल ); द्रमा:--पौधे; दधार--सम्पन्न किया; लोक-पालानाम्‌--विभिन्न विभागों के लिए अध्यक्ष; एक:--अकेला; एब--निस्सन्देह; पृथक्‌--भिन्न; गुणान्‌ू--गुण |

    पर्वतों के मध्य की घाटियाँ हिरण्यकशिपु की क्रीड़ास्थली बन गईं जिसके प्रभाव से सभी पौधे सभी ऋतुओं में प्रभूत फूल तथा फल देने लगे।

    जल वृष्टि कराना, सुखाना तथा जलाना जोविश्व के तीन विभागाध्यक्षों इन्द्र, वायु तथा अग्नि के गुण हैं, वे अब देवताओं की सहायता केबिना अकेले हिरण्यकशिपु द्वारा निर्देशित होने लगे।

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    स इत्थं निर्जितककुबेकराड्विषयान्प्रियान्‌ ।

    यथोपजोष॑ं भुज्जानो नातृप्यदजितेन्द्रिय: ॥

    १९॥

    सः--उसने ( हिरण्यकशिपु ); इत्थम्‌--इस प्रकार; निर्जित--जीत लीं; ककुपू--सारी दिशाएँ; एक-राटू--एकछत्र सम्राट;विषयानू--इन्द्रियविषयों को; प्रियान्‌--अत्यन्त प्रिय; यथा-उपजोषम्‌--यथासम्भव; भुझ्ान: --भोग करते हुए; न--नहीं;अतृप्यत्‌--सन्तुष्ट था; अजित-इन्द्रियः--इन्द्रियों को वश में न कर सकने के कारण।

    समस्त दिशाओं को वश में करने की शक्ति प्राप्त करके तथा यथासम्भव सभी प्रकार कीइन्द्रिय-तृप्ति का भोग करने के बावजूद हिरण्यकशिपु असमन्तुष्ट रहा, क्योंकि वह अपनी इन्द्रियोंको वश में करने के बजाय उनका दास बना रहा।

    "

    एवमैश्वर्यमत्तस्य हृ्तस्योच्छास्त्रवर्तिन: ।

    कालो महान्व्यतीयाय ब्रह्मशापमुपेयुष: ॥

    २०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; ऐश्वर्य-मत्तस्य--ऐश्वर्य से मदान्ध रहने वाले का; हृप्तस्य--अत्यन्त गर्वित; उत्‌-शास्त्र-वर्तिन:-- शास्त्रों मेंवर्णित विधि-विधानों का उल्लंघन करते हुए; काल:--अवधि; महान्‌--महान; व्यतीयाय--बिता दिया; ब्रह्म-शापम्‌--प्रतिष्ठितब्राह्मणों का श्राप; उपेयुष:--प्राप्त करके |

    इस प्रकार अपने ऐश्वर्य से अत्यधिक गर्वित एवं प्रामाणिक शास्त्रों के विधि-विधानों काउल्लंघन करते हुए हिरण्यकशिपु ने काफी समय बिताया।

    अतएव उसे चार कुमारों ने, जो किप्रतिष्ठित ब्राह्मण थे, शाप दे दिया।

    "

    तस्योग्रदण्डसंविग्ना: सर्वे लोका: सपालका: ।

    अन्यत्रालब्धशरणा: शरणं ययुरच्युतम्‌ ॥

    २१॥

    तस्य--उसकी ( हिरण्यकशिपु की ); उग्र-दण्ड--अत्यन्त भयावह ताड़ना से; संविग्ना:--विचलित; सर्वे--सभी; लोका:--सारे लोक; स-पालका: --अपने प्रधान शासकों सहित; अन्यत्र-- अन्य कहीं; अलब्ध--न प्राप्त करके; शरणा:--शरण;शरणम्‌--शरण के लिए; ययु:--पास आये; अच्युतम्‌--भगवान्‌ के |

    हिरण्यकशिपु द्वारा दिये गये कठोर दण्ड से सभी व्यक्ति, यहाँ तक कि विभिन्न लोकों केशासक भी, अत्यधिक पीड़ित थे।

    वे अत्यन्त भयभीत तथा उद्दिग्न होकर और अन्य किसी कीशरण न पा सकने के कारण अन्ततः भगवान्‌ विष्णु की शरण में आये।

    "

    तस्यै नमोस्तु काष्ठायै यत्रात्मा हरिरीश्वर: ।

    यद्गत्वा न निवर्तन्ते शान्ता: सन््यासिनोइमला: ॥

    २२॥

    इति ते संयतात्मान: समाहितधियोमला: ।

    उपतस्थुईषीकेशं विनिद्रा वायुभोजना: ॥

    २३॥

    तस्यै--उस; नमः--हमारा सादर नमस्कार; अस्तु--हो; काष्ठायै--दिशा को; यत्र--जहाँ; आत्मा--परमात्मा; हरिः:-- भगवान्‌;ईश्वरः--परम नियन्ता; यत्‌--जो; गत्वा--जाकर; न--कभी नहीं; निवर्तन्ते--लौटते हैं; शान्ता:--शान्त; सन््यासिन: --संन्यासीगण; अमला:--शुद्ध; इति--इस प्रकार; ते--वे; संयत-आत्मान:--मनों को वश में करके; समाहित--सुस्थिर;धियः--बुद्द्धि; अमला:--शुद्ध की गई; उपतस्थु:--पूजा की; हषीकेशम्‌--इन्द्रियों के स्वामी की; विनिद्रा:--बिना सोये;वायु-भोजना:--केवल वायु ले कर।

    'हम उस दिशा को सादर नमस्कार करते हैं जहाँ भगवान्‌ स्थित हैं, जहाँ संन्यास आश्रम मेंरहने वाले विशुद्ध आत्मा महान्‌ साधु पुरुष जाते हैं और जहाँ जाकर वे फिर कभी नहीं लौटते।

    'बिना सोये, अपने मनों को पूर्णतया वश में करके तथा केवल अपनी श्वास पर जीवित रहकरविभिन्न लोकपालों ने इस ध्यान से हषीकेश की पूजा करनी प्रारम्भ की।

    "

    तेषामाविरभूद्वाणी अरूपा मेघनि:स्वना ।

    सन्नादयन्ती ककुभः साधूनामभयड्डूरी ॥

    २४॥

    तेषाम्‌ू-सबों के समक्ष; आविरभूत्‌--प्रकट हुईं; बाणी--आवाज; अरूपा--रूपविहीन; मेघ-निःस्वना--बादल की सी ध्वनिकरती; सन्नादयन्ती--कम्पन उत्पन्न करती; ककुभ:--सभी दिशाएँ; साधूनाम्‌ू--साधु पुरुषों की; अभयड्डरी--अभय करनेबाली ।

    तब उन सबों के समक्ष दिव्य वाणी प्रकट हुई जो भौतिक नेत्रों से अहृश्य पुरुष से निकलीथी।

    यह वाणी मेघ की ध्वनि के समान गम्भीर थी और यह अत्यन्त प्रोत्साहन देने वाली तथासभी प्रकार का भय भगाने वाली थी।

    "

    मा भेष्ट विब्रुधश्रेष्ठा: सर्वेषां भद्रमस्तु व: ।

    महर्शनं हि भूतानां सर्व श्रेयोपपत्तये ॥

    २५॥

    ज्ञातमेतस्य दौरात्म्यं दैतेयापसदस्य यत्‌ ।

    'तस्य शान्ति करिष्यामि काल॑ तावत्प्रतीक्षत ॥

    २६॥

    मा--मत; भैष्ट--डरो; विबुध- श्रेष्ठाः-हे श्रेष्ठ विद्वान पुरुषों; सर्वेषामू--सबों का; भद्रमू--कल्याण करना, जो पूर्ण सत्य है;अस्तु--हो; वः--तुम्हारा; मत्‌-दर्शनम्‌--मेरा दर्शन ( मेरी प्रार्थना या मेरा श्रवण करना, जो पूर्ण सत्य है ); हि--निस्सन्देह;भूतानामू--समस्त जीवों का; सर्व-श्रेय--समस्त कल्याण की; उपपत्तये--प्राप्ति के लिए; ज्ञातम्‌ू--ज्ञात; एतस्य--इसका;दौरात्म्यम्‌-दुष्कर्म; दैतेय-अपसदस्य--महान्‌ असुर हिरण्यकशिपु का; यत्‌--जो; तस्य--उसकी; शान्तिम्‌ू--समाप्ति;'करिष्यामि-- करूँगा; कालमू--काल, समय की; तावत्‌ू--तब तक; प्रतीक्षत--प्रतीक्षा करो |

    भगवान्‌ की वाणी इस प्रकार गुंजायमान हुई--' हे परम श्रेष्ठ विद्वानो, डरो मत।

    तुम सबका कल्याण हो।

    तुम सभी मेरे श्रवण तथा कीर्तन द्वारा एवं मेरी स्तुति से मेरे भक्त बनो, क्योंकिइन सब का उद्देश्य सभी जीवों को आशीष देना है।

    मैं हिरण्यकशिपु के कार्यकलापों से परिचितहूँ और मैं उन्हें शीघ्र ही रोक दूँगा।

    तब तक तुम मेरी थैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो।

    "

    यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु ।

    धर्मे मयि च विद्वेष: स वा आशु विनश्यति ॥

    २७॥

    यदा--जब; देवेषु--देवताओं में; वेदेषु--वेदों में; गोषु--गायों में; विप्रेषु--ब्राह्मणों में; साधुषु--साधु पुरुषों में; धर्मे--धार्मिक नियमों में; मयि--मुझ भगवान्‌ में; च--तथा; विद्वेष:--ईर्ष्यालु; सः--ऐसा व्यक्ति; वै--निस्सन्देह; आशु--शीघ्र ही;विनश्यति--विनष्ट हो जाता है

    जब कोई व्यक्ति भगवान्‌ के प्रतिनिधि देवताओं, समस्त ज्ञान के दाता वेदों, गायों, ब्राह्मणों,वैष्णवों, धार्मिक सिद्धान्तों तथा अन्ततः मुझ भगवान्‌ से ईर्ष्या करता है, तो वह तथा उसकीसभ्यता दोनों अविलम्ब नष्ट हो जाएंगी।

    "

    निर्वैराय प्रशान्ताय स्वसुताय महात्मने ।

    प्रह्दाय यदा द्रुह्मेद्धनिष्येडपि वरोजिंतम्‌ ॥

    २८ ॥

    निर्वराय--शत्रुहीन; प्रशान्ताय--अत्यन्त गम्भीर तथा शान्त; स्व-सुताय--अपने ही पुत्र को; महा-आत्मने--महान्‌ भक्त;प्रह्दादाय--प्रह्दाद महाराज को; यदा--जब; ब्रुद्लेत्‌--सतायेगा; हनिष्ये--मैं मारूँगा; अपि--यद्यपि; वर-ऊर्जितम्‌--ब्रह्मा द्वारावर प्राप्त

    जब हिरण्यकशिपु अपने ही पुत्र परम भक्त प्रह्मद को सतायेगा, जो अत्यन्त शान्त, गम्भीरतथा शत्रुरहित है, तो मैं ब्रह्मा के समस्त वरों के होते हुए भी उसका तुरन्त ही वध कर दूँगा।

    "

    श्रीनारद उवाचइत्युक्ता लोकगुरुणा तं प्रणम्य दिवौकस: ।

    न्यवर्तन्त गतोद्वेगा मेनिरे चासुरं हतम्‌ ॥

    २९॥

    श्री-नारद: उबाच--परम साधु नारद मुनि ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्ता:--सम्बोधित; लोक-गुरुणा--सबों के परम गुरुद्वारा; तम्‌ू--उसको; प्रणम्य--प्रणाम करके; दिवौकसः--सारे देवता; न्यवर्तन्‍्त--लौट गये; गत-उद्देगा:--सारी चिन्ताओं सेमुक्त; मेनिरे--उन्होंने विचार किया; च-- भी; असुरम्‌--असुर ( हिरण्यकशिपु ) को; हतम्‌--मारा हुआ।

    परम साधु नारद मुनि ने आगे कहा : जब सबों के गुरु भगवान्‌ ने स्वर्ग में रहने वाले सभीदेवताओं को इस तरह आश्वस्त कर दिया तो उन सबों ने उन्हें प्रणाम किया और विश्वस्त होकरलौट आये कि अब तो हिरण्यकशिपु एक तरह से मर चुका है।

    "

    तस्य दैत्यपते: पुत्राश्चत्वार: परमाद्भुता: ।

    प्रह्मदो भून्महांस्तेषां गुणैरमहदुपासक: ॥

    ३०॥

    तस्य--उस ( हिरण्यकशिपु ); दैत्य-पतेः--दैत्यों के राजा के; पुत्रा:--पुत्रगण; चत्वार:--चार; परम-अद्भुता:--अत्यन्त योग्यतथा अद्भुत; प्रहाद:ः--प्रह्माद नामक; अभूत्‌-- था; महान्‌ू--सबसे बड़ा; तेषाम्‌--उनमें से; गुणैः--दिव्य गुणों के कारण;महत्‌-उपासकः-- भगवान्‌ का अनन्य भक्त होने के कारण ।

    हिरण्यकशिपु के चार अद्भुत सुयोग्य पुत्र थे जिसमें से प्रहाद नामक पुत्र सर्वश्रेष्ठ था।

    निस्सन्देह प्रह्मद समस्त दिव्य गुणों की खान थे, क्योंकि वे भगवान्‌ के अनन्य भक्त थे।

    "

    ब्रह्मण्य: शीलसम्पन्न: सत्यसन्धो जितेन्द्रिय: ।

    आत्मवत्सर्वभूतानामेकप्रियसुहृत्तम: ।

    दासवत्सन्नतार्याड्धप्रि: पितृवद्दीनवत्सल: ॥

    ३१॥

    भ्रातृवत्सहशे स्निग्धो गुरुष्वी श्वरभावन: ।

    विद्यार्थरूपजन्माद्यो मानस्तम्भविवर्जित: ॥

    ३२॥

    ब्रह्मण्य:--अच्छे ब्राह्मण के समान सुसंस्कृत; शील-सम्पन्न:--समस्त सदगुणों से युक्त; सत्य-सन्ध: --परम सत्य को जानने केलिए कृतसंकल्प; जित-इन्द्रियः--इन्द्रियों तथा मन को पूरी तरह वश में करते हुए; आत्म-बत्‌--परमात्मा के समान; सर्व-भूतानाम्‌ू--समस्त जीवों का; एक-प्रिय-- एकमात्र प्यारा; सुहत्‌-तम:--सर्व श्रेष्ठ मित्र; दास-बत्‌--नीच सेवक की तरह;सन्नत--सदैव आज्ञाकारी; आर्य-अड्डप्नि:--महान्‌ पुरुषों के चरणकमलों पर; पितृ-वत्‌--पिता के ही समान; दीन-वत्सल:--गरीबों पर दयालु; भ्रातृ-वत्‌-- भाई के ही समान; सहशे-- अपने समान वालों को; स्निग्ध: --अत्यन्त प्यारा; गुरुषु--गुरुओं में;ईश्वर-भावन:-- भगवान्‌ के समान मानने वाला; विद्या--शिक्षा; अर्थ-- धन; रूप--सौन्दर्य; जन्म--कुलीनता; आढ्य्:--सेसम्पन्न; मान--गर्व; स्तम्भ--अविवेक से; विवर्जित:--पूर्णतया मुक्त ।

    [ यहाँ पर हिरण्यकशिपु के पुत्र महाराज प्रह्नद के गुणों का उल्लेख हुआ है वे योग्यब्राह्मण के रूप में पूर्णतया संस्कृत, सच्चरित्र तथा परम सत्य को समझने के लिए हृढ़संकल्प थे।

    उन्हें अपनी इन्द्रियों तथा मन पर पूर्ण संयम था।

    परमात्मा की भाँति वे प्रत्येक जीव के प्रतिदयालु थे और हर एक के श्रेष्ठ मित्र थे।

    वे सम्मानित व्यक्ति के साथ दास की भाँति व्यवहारकरते थे, गरीबों के वे पिता तुल्य थे और समानधर्माओं के प्रति वे दयालु भ्राता की तरह अनुरक्तरहने वाले तथा अपने गुरुओं तथा पुराने गुरुभाइयों को भगवान्‌ की तरह मानने वाले थे।

    वे उसबनावटी गर्व ( मान ) से पूरी तरह मुक्त थे, जो उनकी अच्छी शिक्षा, धन, सौन्दर्य व उच्च जन्म केकारण संभव था।

    "

    नेद्विग्नचित्तो व्यसनेषु निःस्पृहःश्रुतेषु दृष्टेषु गुणेष्ववस्तुटक्‌ ।

    दान्तेन्द्रियप्राणशरीरधी: सदाप्रशान्तकामो रहितासुरोसुर: ॥

    ३३॥

    न--नहीं; उद्विग्न--विचलित; चित्त:--जिसकी चेतना; व्यसनेषु--कठिन परिस्थितियों में; निःस्पृहः --इच्छारहित; श्रुतेषु--सुनीहुई बातों में ( विशेषतया पुण्यकर्मों के कारण स्वर्ग लोक को उत्थान ); दृष्टेषु--साथ ही क्षणिक दृश्य वस्तुओं में; गुणेषु--भौतिक प्रकृति के गुणों के अन्तर्गत इन्द्रियतृप्ति वाले विषयों में; अवस्तु-हक्‌--देखते हुए मानो असार हों; दान्त--नियमितकरते हुए; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; प्राण--सजीव शक्ति; शरीर--शरीर; धी:--तथा बुद्द्धि; सदा--सदैव; प्रशान्त--शान्त कियागया; काम:--जिसकी भौतिक इच्छाओं से; रहित--पूर्णतया विहीन; असुरः--आसुरी प्रकृति; असुरः --यद्यपि असुर वंश मेंउत्पन्न

    यद्यपि प्रह्मद महाराज का जन्म असुर वंश में हुआ था, किन्तु वे स्वयं असुर न होकरभगवान्‌ विष्णु के परम भक्त थे।

    अन्य असुरों की तरह वे कभी भी वैष्णवों से ईर्ष्या नहीं करतेथे।

    कठिन परिस्थिति आने पर वे कभी क्षुब्ध नहीं होते थे और वेदों में वर्णित सकाम कर्मों मेंप्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी रुचि नहीं लेते थे।

    निस्सन्देह, वे हर भौतिक वस्तु को व्यर्थ मानतेथे; इसलिए वे भौतिक इच्छाओं से पूर्णतया रहित थे।

    वे सदैव अपनी इन्द्रियों तथा प्राणवायु परसंयम रखते थे।

    स्थिरबुद्धि तथा संकल्पमय होने के कारण उन्होंने सारी विषय-वासनाओं कादमन कर लिया था।

    "

    यस्मिन्महद्गुणा राजन्गृहान्ते कविभिरमुहुः ।

    न तेधुना पिधीयन्ते यथा भगवती श्वेर ॥

    ३४॥

    यस्मिनू--जिसमें; महत्‌-गुणाः --उच्चा दिव्य गुण; राजनू--हे राजा; गृह्मन्ते--यशोगान किया जाता है; कविभि:--विचारवान्‌तथा ज्ञानी पुरुषों द्वारा; मुहु:--सदैव; न--नहीं; ते--वे; अधुना--आजकल; पिधीयन्ते--अदृश्य हो जाते हैं; यथा--जिस तरह;भगवति-- भगवान्‌ में; ईश्वर--परम नियन्ता में |

    हे राजा, आज भी प्रह्नाद महाराज के सद्‌गुणों का यशोगान विद्वान सन्‍्तों तथा वैष्णवों द्वाराकिया जाता है।

    जिस तरह सारे सदगुण सदैव भगवान्‌ में विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार वे उनकेभक्त प्रह्मद महाराज में भी सदैव पाये जाते हैं।

    "

    यं साधुगाथासदसि रिपवोपि सुरा नूप ।

    प्रतिमानं प्रकुर्वन्ति किमुतान्ये भवाह॒शा: ॥

    ३५॥

    यम्‌--जिसको; साधु-गाथा-सदसि--ऐसे सभा में जहाँ साधु पुरुष एकत्र होते हैं या उच्च लक्षणों ( गुणों ) की व्याख्या होती है;रिपव:--ऐसे व्यक्ति जो प्रह्मद महाराज के शत्रु माने गये ( प्रहाद जैसे भक्त के भी शत्रु थे जिसमें उनका पिता तक सम्मिलितथा ); अपि-- भी; सुरा:--देवतागण ( जो असुरों के शत्रु हैं और चूँकि प्रह्ाद महाराज असुर वंश में जन्मे थे अतएव देवताओं कोउनका शत्रु होना चाहिए ); नृप--हे राजा युधिष्ठिर; प्रतिमानम्‌--भक्तों में सर्वश्रेष्ठ के उदाहरणरूप; प्रकुर्वन्ति--वे करते हैं; किम्‌उत--उनके विषय में क्या कहा जाये; अन्ये--दूसरे; भवाह॒शा:-- आपके समान महापुरुष |

    " गुणैरलमसड्ख्येयैर्माहात्म्यं तस्य सूच्यते ।

    वासुदेवे भगवति यस्य नैसर्गिकी रति: ॥

    ३६॥

    गुणैः--आध्यात्मिक गुणों से युक्त; अलम्‌ू--क्या आवश्यकता है; असड्ख्येयै:--जो असंख्य हैं; माहात्म्यम्‌ू--महानता; तस्य--उसकी ( प्रहाद महाराज की ); सूच्यते--सूचित किया जाता है; वासुदेवे-- भगवान्‌ कृष्ण में जो बसुदेव के पुत्र हैं; भगवति--भगवान्‌; यस्यथ--जिसकी; नैसर्गिकी-- प्राकृतिक; रतिः--आसक्ति ।

    भला ऐसा कौन है, जो प्रह्मद महाराज के असंख्य दिव्य गुणों के नाम गिना सके ?

    उनकोवासुदेव भगवान्‌ श्री कृष्ण ( बसुदेव के पुत्र ) में अविचल श्रद्धा एवं अनन्य भक्ति थी।

    भगवान्‌कृष्ण के प्रति उनकी अनुरक्ति अपनी पूर्व भक्ति के कारण स्वाभाविक थी।

    यद्यपि उनकेसदगुणों की गणना नहीं की जा सकती, किन्तु उनसे सिद्ध होता है कि वे महात्मा थे।

    "

    न्यस्तक्रीडनको बालो जडवत्तन्मनस्तया ।

    कृष्णग्रहगृहीतात्मा न वेद जगदीहशम्‌ ॥

    ३७॥

    न्यस्त--त्याग करके; क्रीडनक:ः --सभी प्रकार के खेल-कूद या बचपन में खेल की प्रवृत्ति; बाल:--बालक; जड-वत्‌--आलसी की तरह बिना किसी गतिविधि के; तत्‌-मनस्तया--कृष्ण में पूर्णतया लीन होने से; कृष्ण-ग्रह--कृष्ण के द्वारा जो किप्रबल प्रभाव के तुल्य ( ग्रह के समान ) हैं; गृहीत-आत्मा--जिसका मन पूर्णतया आकृष्ट है; न--नहीं; वेद--समझ पाया;जगत्‌--सम्पूर्ण भौतिक जगत; ईंहशम्‌--इस तरह का

    अपने बाल्यकाल के प्रारम्भ से ही प्रहाद महाराज को बालकों के खेल-कूद में अरुचि थी।

    निस्सन्देह, उन्होंने उन सबका परित्याग कर दिया था और कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन होकरशान्त तथा जड़ बने रहते थे।

    चूँकि उनका मन सदैव कृष्णभावनामृत से प्रभावित रहता था,अतएव वे यह नहीं समझ सके कि यह संसार किस प्रकार से इन्द्रियतृष्ति के कार्यों में निमग्नरहकर चलता रहता है।

    "

    आसीन: पर्यटन्नएनन्शयान: प्रपिबन्ब्रुवन्‌ ।

    नानुसन्धत्त एतानि गोविन्दपरिरम्भित: ॥

    ३८ ॥

    आसीन:--बैठते; पर्यटन्‌ू--घूमते; अश्नन्‌--खाते; शयान:--सोते; प्रपिबन्‌--पीते; ब्रुवन्‌--बोलते; न--नहीं; अनुसन्धत्ते --जान पाया; एतानि--ये सारे कार्यकलाप; गोविन्द-- भगवान्‌ द्वारा, जो इन्द्रियों को जगाने वाले हैं; परिरम्भित:--आलिंगितहोकर।

    प्रह्मद महाराज सदैव कृष्ण के विचारों में लीन रहते थे।

    इस प्रकार भगवान्‌ द्वारा आलिंगितउन्हें यह पता भी नहीं चल पाता था कि उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ यथा बैठना, चलना,खाना, सोना, पीना तथा बोलना किस तरह स्वतः सम्पन्न होती थीं।

    "

    क्वचिद्गुदति वैकुण्ठचिन्ताशबलचेतन: ।

    क्वचिद्धसति तच्चिन्ताह्नाद उद्गायति क्वचित्‌ ॥

    ३९॥

    क्वचित्‌--कभी; रुदति--रोता है; वैकुण्ठ-चिन्ता--कृष्ण के विचारों से; शबल-चेतन:--जिसका मन मोहग्रस्त; क्वचित्‌--कभी; हसति--हँसता है; तत्‌-चिन्ता--उसके विचारों से; आह्वाद:--प्रमुदित होकर; उद्गायति--उच्च स्वर में कीर्तन करता है;क्वचित्‌--कभी

    कृष्णभावनामृत में प्रगति होने से वह कभी रोता था, कभी हँसता था, कभी हर्षित होता थाऔर कभी उच्च स्वर में गाता था।

    "

    नदति क्वचिदुत्कण्ठो विलज्जो नृत्यति क्वचित्‌ ।

    क्वचित्तद्धावनायुक्तस्तन्‍्मयोनुचकार ह ॥

    ४०॥

    नद॒ति--जोर से चीखता ( हे कृष्ण कहकर ); क्वचित्‌--क भी; उत्कण्ठ:--उत्सुक होकर; विलज्ज:--लाजरहित; नृत्यति--नाचता है; क्वचित्‌ू--कभी; क्वचित्‌--कभी; तत्‌-भावना--कृष्ण के भावों से युक्त; युक्त:--लीन होकर; तत्‌-मय: --ऐसासोचते हुए कि वह कृष्ण बन गया है; अनुचकार--अनुकरण किया; ह--निस्सन्देह |

    कभी भगवान्‌ का दर्शन करके प्रह्नाद महाराज पूर्ण उत्सुकतावश जोर से पुकारने लगते।

    कभी-कभी वे प्रसन्नतावश अपनी लज्जा खो बैठते और हर्ष के भावावेश में नाचने लगते।

    कभी-कभी कृष्ण के भावों में विभोर होकर वे भगवान्‌ से एकाकार होने का अनुभव करतेऔर उनकी लीलाओं का अनुकरण करते।

    "

    क्वचिदुत्पुलकस्तृूष्णीमास्ते संस्पर्शनिर्वृतः ।

    अस्पन्दप्रणयानन्दसलिलामीलितेक्षण: ॥

    ४१॥

    क्वचित्‌--कभी; उत्पुलक:--रोमांचित होकर; तूष्णीम्‌--पूर्णतया मौन; आस्ते--रहता है; संस्पर्श-निर्वृतः-- भगवान्‌ के सम्पर्कमें अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करते हुए; अस्पन्द--स्थिर; प्रणय-आनन्द--प्रेम सम्बन्ध के कारण दिव्य आनन्द से;सलिल--अश्रु भर कर; आमीलित--अधखुली; ईक्षण:--जिसकी आँखें |

    कभी-कभी भगवान्‌ के करकमलों का स्पर्श अनुभव करके वे आध्यात्मिक रूप से प्रसन्नहोते और मौन बने रहते, उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते ( रोमांच हो आता ) और भगवान्‌ केप्रेम के कारण उनके अर्धनिमीलित नेत्रों से अश्रु ढुलकने लगते।

    "

    स उत्तमएलोकपदारविन्दयो-निषेवयाकिदज्नसड्नलब्धया ।

    तन्वन्परां निर्वतिमात्मनो मुहु-दुःसड्रदीनस्य मन: शमं व्यधात्‌ ॥

    ४२॥

    सः--वह ( प्रह्माद महाराज ); उत्तम-श्लोक-पद-अरविन्दयो: -- भगवान्‌ के चरणकमलों पर, जिसकी पूजा दिव्य स्तुतियों से कीजाती है; निषेवया--निरन्तर सेवा द्वारा; अकिज्ञन--उन भक्तों का जिन्हें इस जगत से कुछ भी लेना देना नहीं रहता; सड्र--संगति; लब्धया--प्राप्त हुआ; तन्वनू--विस्तार करने वाली; पराम्‌--सर्वोच्च; निर्वृतिमू-- आनन्द; आत्मन:--आत्मा का;मुहुः--निरन्तर; दुःसड़र-दीनस्थ--बुरी संगति के कारण आध्यात्मिक ज्ञान से विहिन; मन:--मन को; शमम्‌--शान्त; व्यधात्‌--बना दिया।

    पूर्ण, अनन्य भक्तों की संगति के कारण जिन्हें भौतिकता से कुछ भी लेना देना नहीं था।

    प्रह्माद महाराज निरन्तर भगवान्‌ के चरणकमलों की सेवा में लगे रहते थे।

    जब बे पूर्ण आनन्द मेंहोते तो उनके शारीरिक लक्षणों को देखकर आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन व्यक्ति भी शुद्ध हो जातेथे।

    दूसरे शब्दों में, प्रह्ाद महाराज उन्हें दिव्य आनन्द प्रदान करते थे।

    "

    'तस्मिन्महाभागवते महाभागे महात्मनि ।

    हिरण्यकशिपू राजन्नकरोदघमात्मजे ॥

    ४३॥

    तस्मिन्‌ू--उस; महा-भागवते-- भगवान्‌ के परम भक्त में; महा-भागे--अत्यन्त भाग्यशाली; महा-आत्मनि--जिनका मन अत्यन्तउदार है; हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु ने; राजनू--हे राजा; अकरोत्‌--किया; अघम्‌--अत्यन्त महापाप; आत्म-जे--अपने हीपुत्र के प्रति।

    हे राजा युथ्चिष्ठिर, उस असुर हिरण्यकशिपु ने इस महान्‌ भाग्यशाली भक्त प्रह्मद को सतायाथा, यद्यपि वह उसका निजी पुत्र था।

    "

    श्रीयुधिष्ठटिर उवाचदेवर्ष एतदिच्छामो वेदितुं तव सुब्रत ।

    यदात्मजाय शुद्धाय पितादात्साधवे ह्घम्‌ ॥

    ४४॥

    श्री-युधिष्ठटिरः उबाच--महाराज युधथिष्टिर ने प्रश्न किया; देव-ऋषे--हे देवताओं में श्रेष्ठ साधु पुरुष; एतत्‌--यह; इच्छाम:--हमारी इच्छा है; वेदितुमू--जानने के लिए; तब--तुमसे; सु-ब्रत--आध्यात्मिक उन्नति के लिए दृढ़संकल्प; यत्‌--क्योंकि;आत्म-जाय--अपने ही पुत्र को; शुद्धाय--जो अत्यन्त शुद्ध तथा सम्मानित था; पिता--पिता हिरण्यकशिपु ने; अदात्‌-दिया;साधवे--महान्‌ साधु को; हि--निस्सन्देह; अधम्‌-कष्ट

    महाराज युधिष्ठिर ने कहा : हे देवर्षि, हे श्रेष्ठ आध्यात्मिक नेता, हिरण्यकशिपु ने शुद्ध तथाश्रेष्ठ सन्त प्रह्माद महाराज को अपना पुत्र होने पर भी किस प्रकार इतना अधिक कष्ट दिया?

    मैंइसे आपसे जानना चाहता हूँ।

    "

    पुत्रान्विप्रतिकूलान्स्वान्पितर: पुत्रवत्सला: ।

    उपालभन्ते शिक्षार्थ नैवाघमपरो यथा ॥

    ४५॥

    पुत्रान्‌--पुत्रों को; विप्रतिकूलानू--पिता की इच्छा के प्रतिकूल कर्म करने वाले; स्वान्‌--अपने ही; पितरः --पिता; पुत्र-वत्सलाः--पुत्रों के प्रति अत्यन्त स्नेह जताने के कारण; उपालभन्ते--प्रताड़ित करते हैं; शिक्ष-अर्थम्‌--उन्हें पाठ पढ़ाने के लिए;न--नहीं; एव--निस्सन्देह; अधम्‌--दण्ड; अपर: --शत्रु; यथा--सहृश |

    माता तथा पिता सदा ही अपने बच्चों के प्रति वत्सल होते हैं।

    जब बच्चे आज्ञापालक नहींहोते तो माता-पिता उन्हें किसी शत्रुतावश नहीं, अपितु उन्हें शिक्षा देने तथा उनके भले के लिएदण्ड देते हैं।

    तो हिरण्यकशिपु ने क्योंकर अपने इतने नेक पुत्र प्रहाद महाराज को प्रताड़ितकिया?

    मैं यह जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।

    "

    किमुतानुवशान्साधूंस्ताइशान्गुरुदेवतान्‌ ।

    एतत्कौतूहलं ब्रह्मन्नस्माकं विधम प्रभो ।

    पितु: पुत्राय यद्द्वेषो मरणाय प्रयोजित: ॥

    ४६॥

    किम्‌ उत--काफी कम; अनुवशान्‌--आज्ञाकारी तथा पूर्ण पुत्रों को; साधून्‌ू--परम भक्त; ताहशान्‌--उस तरह के; गुरु-देवतान्‌ू--पिता को भगवान्‌ तुल्य सम्मान देने वाले; एतत्‌--यह; कौतूहलम्‌--संशय; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; अस्माकम्‌--हमारा;विधम--दूर कीजिये; प्रभो--हे स्वामी; पितु:--पिता का; पुत्राय--पुत्र के लिए; यत्‌--जो; द्वेष: --द्वेष ईर्ष्या; मरणाय--मारनेके लिए; प्रयोजित:--प्रयुक्त ।

    महाराज युथिष्टिर ने आगे पूछा : भला एक पिता के लिए यह कैसे सम्भव हुआ कि वहअपने आज्ञाकारी, सदाचारी तथा पिता का सम्मान करने वाले पुत्र के प्रति इतना उग्र बना ?

    हेब्राह्मण, हे स्वामी, मैंने कभी ऐसा विरोधाभास नहीं सुना कि कोई वत्सल पिता अपने नेक पुत्रको मार डालने के उद्देश्य से उसे दण्डित करे।

    कृपा करके इस सम्बन्ध में मेरे संशयों को दूर कीजिए।

    "

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    अध्याय पांच: हिरण्यकशिपु के पवित्र पुत्र प्रह्लाद महाराज

    7.5रीनारद उबाचपौरोहित्याय भगवान्वृत: काव्य: किलासुरैः ।

    षण्डामकाँ सुतौ तस्य दैत्यराजगृहान्तिके ॥

    १॥

    श्री-नारद: उबाच--महान्‌ सन्त नारद ने कहा; पौरोहित्याय--पुरोहित कर्म के लिए; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिमान; वृत:ः--चुनागया; काव्य:--शुक्राचार्य; किल--निस्सन्देह; असुरैः--असुरों के द्वारा; षण्ड-अमकौं--घण्ड तथा अमर्क; सुतौ--दो पुत्र;तस्य--उसके; दैत्य-राज--दैत्यों का राजाहिरण्यकशिपु; गृह-अन्तिके--घर के पास

    महामुनि नारद ने कहा : हिरण्यकशिपु आदि असुरों ने शुक्रचार्य को अनुष्ठान सम्पन्न करानेके लिए पुरोहित के रूप में चुना।

    शुक्राचार्य के दो पुत्र षण्ड तथा अमर्क हिरण्यकशिपु के महलके ही पास रहते थे।

    "

    तौ राज्ञा प्रापितं बालं प्रह्मदं नयकोविदम्‌ ।

    पाठयामासतु: पाठ्यानन्यांश्वासुरबालकान्‌ ॥

    २॥

    तौ--वे दोनों ( षण्ड और अर्मक ); राज्ञा--राजा द्वारा; प्रापितम्‌ू-- भेजे गये; बालम्‌ू--बालक को; प्रह्मदम्‌--प्रहाद नामक;नय-कोविदम्‌--नैतिक सिद्धान्तों से परिचित; पाठयाम्‌ आसतु:--पढ़ाया करते; पाठ्यान्‌ू-- भौतिक ज्ञान की पुस्तकें; अन्यान्‌--अन्य; च--भी; असुर-बालकान्‌--असुरों के बालकों को |

    प्रह्मद महाराज पहले से ही भक्ति में निपुण थे, किन्तु जब उनके पिता ने उन्हें पढ़ाने के लिएशुक्राचार्य के दोनों पुत्रों के पास भेजा तो उन दोनों ने उन्हें तथा अन्य असुरपुत्रों को अपनीपाठशाला में भर्ती कर लिया।

    "

    चत्तत्र गुरुणा प्रोक्ते शुश्रुवेडनुपपाठ च ।

    न साधु मनसा मेने स्वपरासदग्रहा भ्रयम्‌ ॥

    ३ ॥

    यत्‌--जो; तत्र--वहाँ ( पाठशाला में ); गुरुणा--अध्यापकों द्वारा; प्रोक्तमू--बताया गया; शुश्रुवे--सुना; अनुपपाठ--सुनाया;च--तथा; न--नहीं; साधु-- अच्छे; मनसा--मन से; मेने--विचार किया; स्व--निजी; पर--दूसरों का; असत्‌-ग्रह--बुरे भावसे; आश्रयम्‌-- पुष्ट किया गयासमर्थित

    प्रह्माद अध्यापकों द्वारा पढ़ाये गये राजनीति तथा अर्थशास्त्र के पाठों को सुनते और सुनातेअवश्य थे, किन्तु वे यह समझते थे कि राजनीति में किसी को मित्र माना जाता है और किसीको शत्रु।

    अतएव यह विषय उन्हें पसन्द न था।

    "

    एकदासुरराट्पुत्रमड्डमारोप्य पाण्डव ।

    पप्रच्छ कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्धवान्‌ ॥

    ४॥

    एकदा--एक बार; असुर-राट्‌--असुरों के सम्राट ने; पुत्रमू--अपने पुत्र को; अड्डमू--गोद में; आरोप्य--लेकर; पाण्डब--हेमहाराज युधिष्ठिर; पप्रच्छ--पूछा; कथ्यताम्‌ू--बतलाओ; बत्स--मेरे प्यारे पुत्र; मन्यते--मानते हो; साधु-- श्रेष्ठठम; यत्‌--जिसे;भवान्‌--तुम |

    हे राजा युधिष्ठटिर, एक बार असुरराज हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्दाद को अपनी गोद मेंलेकर बड़े ही दुलार से पूछा : हे पुत्र, मुझे यह बतलाओ कि तुमने अपने अध्यापकों से जितनेविषय पढ़े हैं उनमें से सर्वश्रेष्ठ कौन सा है।

    "

    श्रीप्रह्ाद उवाचतत्साधु मन्येउसुरवर्य देहिनांसदा समुद्विग्नधियामसदग्रहात्‌ ।

    हित्वात्मपातं गृहमन्धकृपंबन॑ गतो यद्धरिमाश्रयेत ॥

    ५॥

    श्री-प्रह्माद: उवाच--प्रह्माद महाराज ने कहा; तत्‌--वह; साधु --अत्यन्त उत्तम अथवा जीवन का श्रेष्ठ अंश; मन्ये--मानता हूँ;असुर-वर्य--हे असुरों के राजा; देहिनामू--शरीरधारियों का; सदा--सदैव; समुद्विग्न--चिन्ताओं से पूर्ण; धियाम्‌--जिसकीबुद्धि; असत्‌-ग्रहात्‌-- क्षणिक शरीर या शारीरिक सम्बन्धों को असली मानने के कारण ( यह सोचते हुए कि मैं यह शरीर हूँऔर इस शरीर से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु मेरी है ); हित्वा--त्याग कर; आत्म-पातम्‌--स्थान जहाँ जाकर आत्म-साक्षात्कार रूकजाता है; गृहम्‌--देहात्मबुद्धि या गृहस्थ जीवन; अन्ध-कूपम्‌--जो मात्र अंधा कुआँ है ( जहाँ जल नहीं होता किन्तु फिर भी लोगजल की तलाश करते हैं ); वनम्‌ू--जंगल में; गत:--जाकर; यत्‌-- जो; हरिम्‌-- भगवान्‌ को; आश्रयेत--शरण लेता है।

    प्रह्मद महाराज ने उत्तर दिया: हे असुरश्रेष्ठ दैत्वगाज, जहाँ तक मैंने अपने गुरु से सीखा है,ऐसा कोई व्यक्ति जिसने क्षणिक देह तथा क्षणिक गृहस्थ जीवन स्वीकार किया है, वह निश्चयही चिन्ताग्रस्त रहता है, क्योंकि वह ऐसे अंधे कुएँ में गिर जाता है जहाँ जल नहीं रहता, केवलकष्ट ही कष्ट मिलते हैं।

    मनुष्य को चाहिए कि इस स्थिति को त्याग कर वन में चला जाये।

    स्पष्टार्थ यह है कि मनुष्य को चाहिए कि वह वृन्दावन जाये जहाँ केवल कृष्णभावनामृत व्याप्त हैऔर इस तरह वह भगवान्‌ की शरण ग्रहण करे।

    "

    श्रीनारद उबाचश्रुत्वा पुत्रगिरो दैत्य: परपक्षसमाहिता: ।

    जहास बुद्धिर्बालानां भिद्यते परबुद्धिभि: ॥

    ६॥

    श्री-नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; श्रुत्वा--सुनकर; पुत्र-गिर:-- अपने पुत्र की उपदेशमयी वाणी; दैत्य:--हिरण्यकशिपु;पर-पक्ष--शत्रु की ओर; समाहिता:-- श्रद्धा युक्त; जहास--हँसा; बुद्द्धिः--बुद्धि; बालानाम्‌ू--छोटे बालकों की; भिद्यते--प्रदूषित होती है; पर-बुद्धिभि:--शत्रु पक्ष के सिखलाने से |

    नारद मुनि ने आगे कहा : जब प्रह्नाद महाराज ने भक्तिमय आत्म-साक्षात्कार के विषय मेंबतलाया और इस तरह अपने पिता के शत्रु-पक्ष के प्रति अपनी स्वामि-भक्ति दिखलाई तोअसुरराज हिरण्यकशिपु ने प्रह्मद की बातें सुनकर हँसते हुए कहा--' शत्रु की वाणी द्वारा बाल-बुद्धि इसी तरह बिगाड़ी जाती है।

    "

    सम्यग्विधार्यतां बालो गुरुगेहे द्विजातिभि: ।

    विष्णुपक्षै: प्रतिच्छन्नैर्न भिद्येतास्य धीर्यथा ॥

    ७॥

    सम्यक्‌--पूर्णतया; विधार्यताम्‌--उसकी सुरक्षा की जाये; बाल:--यह कम आयु का; गुरु-गेहे--गुरुकुल में, जहाँ बच्चों कोगुरु द्वारा पढ़ाये जाने के लिए भेज दिया जाता है; द्वि-जातिभिः--ब्राह्मणों द्वारा; विष्णु-पक्षैः --विष्णु की ओर के;प्रतिच्छन्नै:--छद्म वेश में रहने वाले; न भिद्येत--प्रभावित न होने पाए; अस्य--उसकी; धी: --बुद्धि; यथा--जिससे

    हिरण्यकशिपु ने अपने सहायकों को आदेश दिया: हे असुरो, इस बालक के गुरुकुल मेंजहाँ पर यह शिक्षा पाता है, इसकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखो जिससे इसकी बुद्धि छद्मावेश मेंघूमने वाले वैष्णवों द्वारा और अधिक न प्रभावित हो पाए।

    "

    गृहमानीतमाहूय प्रह्मादं दैत्ययाजकाः ।

    प्रशस्य शलक्ष्णया वाचा समपृच्छन्त सामभिः: ॥

    ८॥

    गृहम्‌--अध्यापकों ( षण्ड तथा अमर्क ) के घर तक; आनीतम्‌--लाया गया; आहूय--पुकार कर; प्रह्मदम्‌-प्रह्माद को; दैत्य-याजका:ः--हिरण्यकशिपु के पुरोहित; प्रशस्थ--शान्त करके; एशलक्ष्णया--अत्यन्त नप्रतापूर्वक; वाचा--वाणी; समपृच्छन्त--प्रश्न पूछा; सामभि:--अत्यन्त अनुकूल शब्दों से |

    जब हिरण्यकशिपु के नौकर बालक प्रह्नाद को गुरुकुल वापस ले आये तो असुरों केपुरोहित षण्ड तथा अमर्क ने उसे शान्त किया।

    उन्होंने अत्यन्त मृदु वाणी तथा स्नेह भरे शब्दों सेउससे इस प्रकार पूछा।

    "

    वत्स प्रह्मद भद्गं ते सत्यं कथय मा मृषा ।

    बालानति कुतस्तुभ्यमेष बुद्धिविपर्यय: ॥

    ९॥

    वत्स-हे पुत्र; प्रहाद--प्रह्मद; भद्रम्‌ ते--तुम्हारा कल्याण हो; सत्यम्‌--सत्य; कथय--बतलाओ; मा--मत; मृषा--मिथ्या,झूठ; बालान्‌ अति--अन्य असुर बालकों से बढ़कर; कुतः--कहाँ से; तुभ्यम्‌--तुमको; एष:--इस; बुद्धि--बुद्धि का;विपर्यय:--विकार, प्रदूषण |

    हे पुत्र प्रह्मद, तुम्हारा क्षेम तथा कल्याण हो ।

    तुम झूठ मत बोलना।

    ये बालक जिन्हें तुम देख रहे हो, वे तुम जैसे नहीं हैं, क्योंकि ये सब पथभ्रष्ट जैसे नहीं बोलते।

    तुमने ये उपदेश कहाँ सेसीखे ?

    तुम्हारी बुद्धि इस तरह कैसे बिगड़ गई है?

    " बुद्धिभेदः परकृत उताहो ते स्वतोभवत्‌ ।

    भण्यतां श्रोतुकामानां गुरूणां कुलनन्दन ॥

    १०॥

    बुद्धि- भेद: --बुद्धि भ्रष्ट होना; पर-कृतः--शत्रुओं द्वारा किया गया; उताहो--अथवा; ते--तुम्हारा; स्वतः -- अपने से;अभवत्‌ू--था; भण्यताम्‌--हमें बताओ; श्रोतु-कामानाम्‌--सुनने के इच्छुक; गुरूणाम्‌--अपने अध्यापकों का; कुल-नन्दन--है अपने वंश के सर्वश्रेष्ठ

    हे कुलश्रेष्ठ, तुम्हारी बुद्धि का यह विकार अपने आप आया है या शत्रुओं द्वारा लाया गयाहै?

    हम सब तुम्हारे अध्यापक हैं और इसके विषय में जानने के इच्छुक हैं।

    हमसे सच-सचकहो।

    "

    श्रीप्रहाद उवाच'परः स्वश्वैत्यसदग्राहः पुंसां यन्‍्मायया कृतः ।

    विमोहितधियां दृष्टस्तस्मे भगवते नमः ॥

    ११॥

    श्री-प्रह्ाद: उवाच--प्रह्माद महाराज ने उत्तर दिया; पर: --शत्रु; स्व: --स्वजन या मित्र; च-- भी; इति--इस प्रकार; असत्‌ू-ग्राहः--जीवन की भौतिक धारणा; पुंसाम्‌--मनुष्यों की; यत्‌ू--जिसकी; मायया--माया से; कृत:--उत्पन्न; विमोहित--मोहग्रस्त; धियाम्‌--बुद्धिवालों का; दृष्ट:--साक्षात्‌ अनुभव किया गया; तस्मै--उस; भगवते-- भगवान्‌ को; नम:--मेरानमस्कार है।

    प्रह्मद महाराज ने उत्तर दिया: मैं उन भगवान्‌ को सादर नमस्कार करता हूँ जिनकी माया नेमनुष्यों की बुद्धि को चकमा देकर 'मेरे मित्र' तथा 'मेरे शत्रु' में अन्तर उत्पन्न किया है।

    निस्सन्देह, मुझको अब इसका वास्तविक अनुभव हो रहा है, यद्यपि मैंने पहले इसके विषय मेंप्रामाणिक स्त्रोतों से सुन रखा है।

    "

    स यदानुव्रतः पुंसां पशुबुद्धिर्विभिद्यते ।

    अन्य एष तथान्योहमिति भेदगतासती ॥

    १२॥

    सः--वह भगवान्‌; यदा--जब; अनुब्रतः--अनुकूल या प्रसन्न; पुंसामू-बद्धजीवों का; पशु-बुर्द्ध:--जीवन के विषय में'पाशविक धारणा है ( कि मैं भगवान्‌ हूँ और हर एक ईश्वर है ); विभिद्यते--नष्ट हो जाता है; अन्य:--दूसरा; एष:--यह; तथा--भी; अन्य:--दूसरा; अहम्‌-मैं; इति--इस प्रकार; भेद--अन्तर; गत--से युक्त; असती--संकटपूर्ण

    जब भगवान्‌ किसी जीव से उसकी भक्ति के कारण प्रसन्न हो जाते हैं, तो वह पण्डित बनजाता है और वह शत्रु, मित्र तथा अपने में कोई भेद नहीं मानता।

    तब वह बुद्धिमानी से सोचता हैकि हम सभी ईश्वर के नित्य दास हैं, अतएव हम एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं।

    "

    एष आत्मा स्वपरेत्यबुद्धिभि-दुरत्ययानुक्रमणो निरूप्यते ।

    मुहान्ति यद्वर्त्मनि वेदवादिनोब्रह्मादयो होष भिनत्ति मे मतिमू ॥

    १३॥

    सः--वह; एष:--यह; आत्मा-- प्रत्येक हृदय में स्थित परमात्मा; स्व-पर--यह मेरा कार्य है और वह दूसरे का है; इति--इसप्रकार; अबुद्धिभि:--ऐसी खराब बुद्धि वालों के द्वारा; दुरत्यय--पालन करना अत्यन्त दुष्कर; अनुक्रमण:--जिसकी भक्ति;निरूप्यते--निश्चित की जाती है ( शास्त्रों या गुरु के उपदेशों से ); मुह्ान्ति--मोहित हो जाते हैं; यत्‌--जिसके ; वर्त्मनि--रास्तेमें; वेद-वादिन:--वैदिक आदेशों के अनुयायी; ब्रह्मू-आदय:--ब्रह्मा से लेकर देवगण तक; हि--निस्सन्देह; एब:--यह;भिनत्ति--बदल देती है; मे--मेरी; मतिम्‌--बुद्धि को |

    जो लोग सदैव 'शत्रु' तथा 'मित्र' के बारे में सोचते हैं, वे अपने भीतर परमात्मा को स्थिरकर पाने में असमर्थ रहते हैं।

    इनकी जाने दें, ब्रह्मा जैसे बड़े-बड़े पुरुष जो वैदिक साहित्य से पूरी तरह अभिज्ञ हैं कभी-कभी भक्ति के सिद्धान्तों का पालन करते हुए मोहग्रस्त हो जाते हैं।

    जिसभगवान्‌ ने यह परिस्थिति उत्पन्न की है उसी ने ही मुझे आपके तथाकथित शत्रु का पक्षधर बननेकी बुद्धि दी है।

    "

    यथा क्षाम्यत्ययो ब्रह्मन्स्वयमाकर्षसन्निधौ ।

    तथा मे भिद्यते चेतश्रक्रपाणेर्यटच्छया ॥

    १४॥

    यथा--जिस प्रकार; भ्राम्यति--घूमता है; अयः--लोह; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मणो; स्ववम्‌ू--अपने आप; आकर्ष--चुम्बक के;सन्निधौ--निकट; तथा--उसी तरह; मे--मेरी; भिद्यते--बदलती है; चेत:--चेतना; चक्र-पाणे:--हाथ में चक्र धारण करनेवाले भगवान्‌ विष्णु की; यहच्छया--केवल इच्छा मात्र से |

    हे ब्राह्मणों ( आध्यापको ), जिस प्रकार चुम्बक से आकर्षित लोह स्वतः चुम्बक की ओरजाता है, उसी प्रकार भगवान्‌ विष्णु की इच्छा से बदली हुई मेरी चेतना उन चक्रधारी की ओरआकृष्ट होती है।

    इस प्रकार मुझे कोई स्वतंत्रता नहीं है।

    "

    श्रीनारद उवाचएतावद्राह्मणायोक्त्वा विरराम महामति: ।

    त॑ सन्निभर्त्स्थ कुपितः सुदीनो राजअसेवक: ॥

    १५॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद महामुनि ने कहा; एतावत्‌--इतना; ब्राह्मणाय--शुक्राचार्य के पुत्रों से, जो ब्राह्मण थे; उक्त्वा--कहकर; विरराम--मौन हो गये; महा-मति:--महा न्‌ बुद्धि वाले प्रह्मद महाराज; तम्‌--उसको ( प्रह्द महाराज को );सन्निभर्त्स्थ--अत्यन्त भर्त्सना करते हुए; कुपित:--क्रुद्ध होकर; सु-दीन: --विचारों में दरिद्र या अत्यधिक शोकमग्न; राज-सेवक:--राजा हिरण्यकशिपु के सेवकगण।

    श्री नारद महामुनि ने आगे कहा : शुक्राचार्य के पुत्रों अर्थात्‌ अपने शिक्षकों षण्ड तथाअमर्क से यह कहने के बाद महात्मा प्रह्मद महाराज मौन हो गये।

    तब ये तथाकथित ब्राह्मण उनपर कुद्ध हुए।

    चूँकि वे हिरण्यकशिपु के दास थे अतएव वे अत्यन्त दुखी थे।

    वे प्रहाद महाराजकी भर्त्सना करने के लिए इस प्रकार बोले।

    "

    आनीयतामेरे वेत्रमस्माकमयशस्करः ।

    कुलाडूडरस्य दुर्बुद्धेश्चतुर्थों स्योदितो दम: ॥

    १६॥

    आनीयताम्‌--लायी जाये; ओर--ओह; वेत्रमू--बेंत, छड़ी; अस्माकम्‌--हमारी; अयशस्कर:--अपयश लाने वाला; कुल-अक्ञरस्थ--जो कुल में अंगार के सहश है उसका; दुर्बुद्धेः--दुर्बुद्धि वाले; चतुर्थ: --चौथा; अस्य--उसका; उदितः --घोषित;दमः--दण्ड ( हठ न्याय ) आरे! मेरी छड़ी तो लाओ! यह प्रह्माद हम लोगों के नाम और यश में बट्टा लगा रहा है।

    अपनीदुर्बुद्धि के कारण यह असुरों के कुल में अंगार बन गया है।

    अब राजनीतिक कूटनीति के चार प्रकारों में से चौथे के द्वारा इसका उपचार किये जाने की आवश्यकता है।

    "

    दैतेयचन्दनवने जातोयं कण्टकद्गुम: ।

    यन्मूलोन्मूलपरशोर्विष्णोर्नालायितोर्भक: ॥

    १७॥

    दैतेय--दैत्य वंश के; चन्दन-वने--चन्दन वन में; जात:--उत्पन्न; अयमू--यह; कण्टक-द्रुम:--कँटीला वृक्ष; यत्‌ू--जिसकी;मूल--जड़ों के; उन्मूल--काटने में; परशो: --जो कुल्हाड़े की भाँति है; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु; नालायित:--हत्था या बेंट;अर्भक:--बालकयह धूर्त प्रहाद चन्दन के वन में कँटीले वृक्ष के समान प्रकट हुआ है।

    चन्दन-वृक्ष काटने केलिए कुल्हाड़े की आवश्यकता होती है और कँटीले वृक्ष की लकड़ी ऐसे कुल्हाड़े का हत्थाबनाने के लिए अत्यन्त उपयुक्त होती है।

    भगवान्‌ विष्णु दैत्य वंश रूपी चन्दन बन को काटगिराने के लिए कुल्हाड़े के तुल्य हैं और यह प्रह्माद उस कुल्हाड़े का हत्था ( बेंट ) है।

    "

    इति तं विविधोपायैर्भीषयंस्तर्जनादिभि: ।

    प्रह्मादं ग्राहयामास त्रिवर्गस्योपपादनम्‌ ॥

    १८ ॥

    इति--इस तरह से; तम्‌--उसको ( प्रह्माद महाराज को ); विविध-उपायैः--अनेक प्रकार से; भीषयन्‌-- धमकाते हुए; तर्जन-आदिभि:--ताड़ना आदि के द्वारा; प्रह्ददम्‌--प्रह्मद महाराज को; ग्राहयाम्‌ आस--पढ़ाया; त्रि-वर्गस्थ--जीवन के तीन लक्ष्य( धर्म, अर्थ तथा काम ); उपपादनम्‌--शास्त्र जो प्रस्तुत करता है।

    प्रह्ाद महाराज के शिक्षक षण्ड तथा अमर्क ने अपने शिष्य को तरह-तरह से डराया-धमकाया और उसे धर्म, अर्थ तथा काम के मार्गों के विषय में पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया।

    यह थीउनकी शिक्षा देने की विधि।

    "

    तत एन गुरुज्ञात्वा ज्ञातज्ञेयचतुष्टयम्‌ ।

    दैत्येन्द्रं दर्शयामास मातृमृष्टमलड्डू तम्‌ ॥

    १९॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; एनम्‌--उसको ( प्रह्नमाद महाराज को ); गुरु:ः--उसके गुरु; ज्ञात्वा--जानकर; ज्ञात--जाना हुआ; ज्ञेय--जिन्हेंजानना है; चतुष्टयम्‌--चार कूटनीतिक सिद्धान्त-साम, दाम, दंड, भेद; दैत्य-इन्द्रम्‌--दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु को; दर्शयाम्‌आस--ले गये, प्रस्तुत किया; मातृ-मृष्टम्‌--अपनी माता के द्वारा नहलाया जाकर; अलड्डू तम्‌ू--आभूषणों से सजाया जाकर।

    कुछ काल बाद षण्ड तथा अमर्क नामक शिक्षकों ने सोचा कि प्रह्नमाद महाराज जनता केनेताओं को शान्त करने, उन्हें लाभप्रद आकर्षक नौकरीयाँ देकर प्रसन्न करने, उनमें फूट डालकरउन पर शासन करने तथा अवज्ञा करने पर उन्हें दण्डित करने के कूटनीतिक मामलों में पर्याप्तशिक्षा प्राप्त कर चुका है।

    तब एक दिन जब प्रह्नद की माता अपने पुत्र को स्वयं नहला-धुलाकर तथा पर्याप्त आभूषणों से अलंकृत कर चुकी थीं तो उन शिक्षकों ने उसे उसके पिता केसमक्ष लाकर प्रस्तुत कर दिया।

    "

    पादयो: पतितं बाल प्रतिनन्द्याशिषासुर: ।

    परिष्वज्य चिरं दोर्भ्या परमामाप निर्व॒ृतिमू ॥

    २०॥

    पादयो:--पावों पर; पतितम्‌--गिरा हुआ; बालम्‌--बालक ( प्रह्माद महाराज ) को; प्रतिनन्द्य--प्रोत्साहित करते हुए;आशिषा--आशशीर्वादों से ( 'प्रिय पुत्र, तुम दीर्घायु हो और प्रसन्न रहो ' ); असुरः--असुर हिरण्यकशिपु ने; परिष्वज्य--चूमकर; चिरम्‌--प्यारवश दीर्घकाल तक ; दोर्भ्याम्‌--अपनी दोनों बाहों से; परमाम्‌--महान; आप--प्राप्त किया; निर्वुतिम्‌ू--हर्ष,आनन्द

    जब हिरण्यकशिपु ने देखा कि उसका पुत्र उसके चरणों पर विनत है और प्रणाम कर रहा है,तो उसने तुरन्त ही वत्सल पिता की भाँति अपने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए उसे अपनी दोनों बाँहोंमें भरकर उसका आलिंगन किया।

    पिता स्वभावत: अपने पुत्र का आलिंगन करके प्रसन्न होता हैऔर इस तरह हिरण्यकशिपु अत्यन्त प्रसन्न हुआ।

    "

    आरोप्याड्डमवप्राय मूर्धन्यश्रुकलाम्बुभि: ।

    आसिजश्जन्विकसद्ठक्त्रमिदमाह युधिष्ठटिर ॥

    २१॥

    आरोप्य--बैठाकर; अड्डमू--गोद में; अवध्राय मूर्थनि--उसका सिर सूँघ कर; अश्रु--आँसुओं की; कला-अम्बुभि: --बूँदों केजल से; आसिद्जन्‌-भिगोते हुए; विकसत्‌-वक्त्रमू- प्रसन्न मुख; इदम्‌--यह; आह--कहा; युधिष्टिर--हे महाराज युधिष्टिर |

    नारद मुनि ने आगे बताया: हे राजा युथ्रिष्टिर, हिरण्यकशिपु ने प्रह्माद महाराज को अपनीगोद में बैठा लिया और उसका सिर सूँघने लगा।

    फिर अपने नेत्रों से प्रेमाश्रु ढरकाते हुए औरबालक के हँसते मुख को भिगोते हुए वह अपने पुत्र से इस प्रकार बोला।

    "

    हिरण्यकशिपुरुवाचप्रह्मादानूच्यतां तात स्वधीतं किद्धिदुत्तमम्‌ ।

    कालेनैतावतायुष्मन्यदशिक्षद्गुरोर्भवान्‌ ॥

    २२॥

    हिरण्यकशिपु: उबाच--राजा हिरण्यकशिपु ने कहा; प्रह्मद--हे प्रह्माद; अनूच्यतामू--बतलाओ; तात--मेरे पुत्र; स्वधीतम्‌--भलीभाँति सीखा हुआ; किश्ञित्‌--कुछ; उत्तमम्‌--अत्यन्त सुन्दर; कालेन एतावता--इतने काल में; आयुष्मन्‌--चिरंजीव;यत्‌--जो; अशिक्षत्‌--सीखा है; गुरो:--अपने गुरुओं से; भवान्‌--तुमने |

    हिरण्यकशिपु ने कहा : हे प्रह्ाद, मेरे पुत्र, हे चिरज्जीव, इतने काल में तुमने अपने गुरुओं सेबहुत सारी बातें सुनी हैं।

    अब तुम उन सब में जिसे सर्व श्रेष्ठ समझते हो उसे मुझसे कह सुनाओ।

    "

    श्रीप्रहाद उवाचश्रवण कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्‌ ।

    अर्चनं बन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्‌ ॥

    २३॥

    इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्रैन्नवलक्षणा ।

    क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येधीतमुत्तमम्‌ ॥

    २४॥

    श्री-प्रह्दाद: उबाच--प्रह्माद महाराज ने कहा; श्रवणम्‌--सुनना; कीर्तनम्‌--कीर्तन करना; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु का ( अन्यकिसी का नहीं ); स्मरणम्‌--स्मरण करना; पाद-सेवनम्‌--चरणों की सेवा करना; अर्चनम्‌--पूजा करना ( षोडशोपचार अर्थात्‌१६ प्रकार की साजसामग्री द्वारा ); वन्दनं--स्तुति करना; दास्यम्‌ू--दास बनना; सख्यम्‌--सर्व श्रेष्ठ मित्र बनना; आत्म-निवेदनम्‌--अपने पास की प्रत्येक वस्तु को समर्पित करना; इति--इस प्रकार; पुंसा अर्पिता--भक्त द्वारा अर्पित; विष्णौ--भगवान्‌ विष्णु पर ( अन्य किसी पर नहीं ); भक्ति:-- भक्ति; चेत्‌ू--यदि; नव-लक्षणा--नौ प्रकार वाली; क्रियेत--करनाचाहिए; भगवति-- भगवान्‌ में; अद्धा--प्रत्यक्षतः या पूर्णत:; तत्‌--वह; मन्ये--मैं मानता हूँ; अधीतम्‌--विद्या अध्ययन;उत्तमम्‌--सर्वोच्च |

    प्रह्ाद महाराज ने कहा : भगवान्‌ विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथालीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान्‌ के चरणकमलोंकी सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान्‌ की सादर पूजा करना, भगवान्‌ से प्रार्थनाकरना, उनका दास बनना, भगवान्‌ को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्वन्योछावर करना ( अर्थात्‌ मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना )--शुद्ध भक्ति की ये नौविधियाँ स्वीकार की गई हैं।

    जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवनअर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्तकर लिया है।

    "

    निशम्यैतत्सुतवचो हिरण्यकशिपुस्तदा ।

    गुरुपुत्रमुवाचेदं रुषा प्रस्फुरिताधर: ॥

    २५॥

    निशम्य--सुनकर; एतत्‌--यह; सुत-वच: --पुत्र की वाणी; हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु ने; तदा--उस समय; गुरु-पुत्रमू--अपने गुरु शक्राचार्य के पुत्र से; उबाच--कहा; इृदम्‌--यह; रुषा--क्रोध से; प्रस्फुरित--हिलते हुए; अधर:ः --जिसके होठ ।

    अपने पुत्र प्रह्द के मुख से इन वचनों को सुनकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रुद्ध हुआ।

    उसनेकाँपते होठों से अपने गुरु शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड से इस प्रकार कहा।

    "

    ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते विपक्ष श्रयतासता ।

    असारं ग्राहितो बालो मामनाहत्य दुर्मते ॥

    २६॥

    ब्रह्म-बन्धो--हे ब्राह्मण के अयोग्य पुत्र; किम्‌ एतत्‌--यह क्या है; ते--तुम्हारे द्वारा; विपक्षम्‌--मेरे शत्रु दल का; श्रयता--आश्रय लेकर; असता--अ त्यन्त दुष्ट; असारम्‌ू--सारहीन, व्यर्थ; ग्राहित:--पढ़ाया गया; बाल:--बालक; माम्‌--मुझको;अनाहत्य--अनादर करके; दुर्मते--ेरे मूर्ख अध्यापक ।

    ओरे ब्राह्मण के अत्यन्त नृशंस (घृणित ) अयोग्य पुत्र, तुमने मेरे आदेश की अवज्ञा की हैऔर मेरे श॒त्रु-पक्ष की शरण ले रखी है।

    तुमने इस बेचारे बालक को भक्ति का पाठ पढ़ाया है।

    यह क्‍या बकवास है?

    " सन्ति ह्मसाधवो लोके दुर्मैत्राएछद्यवेषिण: ।

    तेषामुदेत्यघं काले रोग: पातकिनामिव ॥

    २७॥

    सन्ति--हैं; हि--निस्सन्देह; असाधव:--असाधु मनुष्य; लोके--इस संसार में; दुर्मैत्रा:-- धोखा देने वाले मित्र; छद्य-वेषिण: --दिखावटी पहनावा पहने; तेषाम्‌--उन सबों का; उदेति--उदय होता है; अधम्‌ू--पापमय जीवन का फल; काले--काल क्रममें; रोग:--रोग; पातकिनाम्‌--पापी मनुष्यों के; इब--सहृश |

    समय के साथ, उन लोगों में अनेक प्रकार के रोग प्रकट होते हैं, जो पापी हैं।

    इसी प्रकार सेइस संसार में छद्यवेष धारण किये हुए जितने धोखेबाज मित्र हैं अन्ततोगत्वा उनके मिथ्याआचरण से उनकी वास्तविकता शत्रुता में प्रकट हो जाती है।

    "

    श्रीगुरुपुत्र उवाचन मत्प्रणीतं न परप्रणीतंसुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो ।

    नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्‌ नियच्छ मन्युं कददा: सम मा न: ॥

    २८॥

    श्री-गुरु-पुत्र: उबाच--हिरण्यकशिपु के गुरु शुक्राचार्य के पुत्र ने कहा; न--नहीं; मत्‌-प्रणीतम्‌--मेरे द्वारा पढ़ाने से; न--नतो; पर-प्रणीतम्‌--किसी अन्य द्वारा पढ़ाने से; सुत:--पुत्र ( प्रहलाद ); वदति--कहता है; एब:--यह; तव--तुम्हारा; इन्द्र-शत्रो--इन्द्र के शत्रु; नैसर्गिकी--प्राकृतिक; इयम्‌--यह; मतिः-- प्रवृत्ति; अस्य--उसकी; राजन्‌--हे राजा; नियच्छ--त्याग दें;मन्युम्‌--अपना क्रोध; कत्‌ू--दोष; अदा: --लगाइये; स्म--निस्सन्देह; मा--नहीं; न:ः--हम पर।

    हिरण्यकशिपु के गुरु शुक्राचार्य के पुत्र ने कहा : हे इन्द्र के शत्रु, हे राजनू, आपके प्रह्मादपुत्र ने जो भी कहा है, वह न तो मेरे द्वारा पढ़ाया गया है, न किसी अन्य के द्वारा।

    उसमें यहभक्ति स्वतः विकसित हुई है।

    अतएवं आप अपना क्रोध त्याग दें और व्यर्थ ही हमें दोषी नठहराएँ।

    एक ब्राह्मण को इस प्रकार अपमानित करना अच्छा नहीं है।

    "

    श्रीनारद उबाचगुरुणैवं प्रतिप्रोक्तो भूय आहासुर: सुतम्‌ ।

    न चेद्गुरुमुखीयं ते कुतोभद्रासती मतिः ॥

    २९॥

    श्री-नारद: उबाच--नारद मुनि ने कहा; गुरुणा--अध्यापक द्वारा; एवम्‌--इस प्रकार; प्रतिप्रोक्त:--उत्तर दिये जाने पर; भूय:--पुनः; आह--कहा; असुरः--महान्‌ दैत्य, हिरण्यकशिपु ने; सुतम्‌--अपने पुत्र को; न--नहीं; चेत्‌ू--यदि; गुरु-मुखी--गुरु केमुख से निकली; इयम्‌--यह; ते--तुम्हारा; कुतः:--कहाँ से; अभद्र--हे अशुभ; असती --अत्यन्त बुरी; मति: --प्रवृत्ति,रुझान

    श्री नारद मुनि ने आगे कहा : जब हिरण्यकशिपु को अध्यापक से यह उत्तर मिल गया तोउसने पुनः अपने पुत्र को सम्बेधित किया।

    हिरण्यकशिपु ने कहा 'रे धूर्त! हमारे परिवार केसबसे पतित! यदि तुमने यह शिक्षा अपने अध्यापकों से नहीं प्राप्त की, तो बतला कि इसे कहाँसे प्राप्त की ?

    '!श्रीप्रहाद उवाचमतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वामिथोभिपद्येत गृहव्रतानाम्‌ ।

    "

    अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्त्रपुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम्‌ ॥

    ३०॥

    श्री-प्रहाद: उवाच-- श्री प्रहाद ने कहा; मतिः--झुकाव; न--कभी नहीं; कृष्णे-- भगवान्‌ कृष्ण में; परत:--अन्यों के उपदेशोंसे; स्वतः--अपनी बुद्धि से; वा--अथवा; मिथ: --संयुक्त प्रयास से; अभिपद्येत--विकसित होती है; गृह-ब्रतानाम्‌--भौतिकवादी देहात्मबुद्धि के प्रति अनुरक्त लोगों का; अदान्त--अनियंत्रित; गोभि:--इन्द्रियों द्वारा; विशताम्‌--प्रवेश करते हुए;तमिस््रमू--नारकीय जीवन में; पुन:--फिर से; पुनः --फिर से; चर्वित--पहले से चबाई गई वस्तुएँ; चर्वणानाम्‌--जो चबा रहेहैं।

    प्रह्माद महाराज ने उत्तर दिया: अपनी असंयमित इन्द्रियों के कारण जो लोग भौतिकतावादीजीवन के प्रति अत्यधिक लिप्त रहते हैं, वे नरकगामी होते हैं और बार-बार उसे चबाते हैं, जिसेपहले ही चबाया जा चुका है।

    ऐसे लोगों का कृष्ण के प्रति झुकाव न तो अन्यों के उपदेशों से,न अपने निजी प्रयासों से, न ही दोनों को मिलाकर कभी होता है।

    "

    न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुंदुराशया ये बहिरर्थमानिनः ।

    अन्धा यथान्थैरुपनीयमाना-स्तेडपीशतन्त्यामुरुदाम्नि बद्धा: ॥

    ३१॥

    न--नहीं; ते--वे; विदुः--जानते हैं; स्व-अर्थ-गतिम्‌--जीवन का चरम लक्ष्य या अपने असली हित को; हि--निस्सन्देह;विष्णुम्‌-- भगवान्‌ विष्णु तथा उनके धाम को; दुराशया:--इस भौतिक जगत का भोग करने के इच्छुक; ये--जो; बहि:--बाह्यइन्द्रिय विषय; अर्थ-मानिन:--महत्त्वपूर्ण मानते हुए; अन्धा:-- अन्धे व्यक्ति; यथा--जिस प्रकार; अन्थै:--दूसरे अन्धे व्यक्तियोंद्वारा; उपनीयमाना: --ले जाए जाकर; ते--वे; अपि--यद्यपि; ईश-तन्त्रयामू-- भौतिक प्रकृति की रस्सियों ( नियमों ) को;उरू--अत्यन्त शक्तिशाली; दाम्नि--रस्सियाँ; बद्धा:--बँधी हुई

    जो लोग भौतिक जीवन के भोग की भावना द्वारा हृढ़ता से बँधे हैं और जिन्होंने अपने हीसमान बाह्य इन्द्रिय विषयों से आसक्त अन्धे व्यक्ति को अपना नेता या गुरु स्वीकार कर रखा है,वे यह नहीं समझ सकते कि जीवन का लक्ष्य भगवद्धाम को वापस जाना तथा भगवान्‌ विष्णुकी सेवा में लगे रहना है।

    जिस प्रकार अन्धे व्यक्ति द्वारा ले जाया गया दूसरा अन्धा व्यक्ति सहीमार्ग भूल सकता है और गड्ढे में गिर सकता है उसी प्रकार भौतिकता से आसक्त व्यक्ति अपने हीजैसे किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मार्ग दिखलाये जाने पर सकाम कर्म की रस्सियों द्वारा बंधे रहते हैं,जो अत्यन्त मजबूत धागों से बनी होती हैं और ऐसे लोग तीनों प्रकार के कष्ट सहते हुए पुनः-पुनःभौतिक जीवन प्राप्त करते रहते हैं।

    "

    नैषां मतिस्तावदुरुक्रमादिंम्रस्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ: ।

    महीयसां पादरजोभिषेकंनिष्किज्ञनानां न वृणीत यावत्‌ ॥

    ३२॥

    न--नहीं; एषाम्‌--इनकी; मति:-- चेतना; तावत्‌--तब तक; उरुक्रम-अड्प्रिमू-- भगवान्‌ के चरणकमल, जो असामान्य कार्यकरने के लिए विख्यात हैं; स्पृशति--छूती है; अनर्थ--अंवाछित वस्तुओं का; अपगम:--विलोप, छिपना; यत्‌--जिसका;अर्थ:--प्रयोजन; महीयसाम्‌--महात्माओं ( या भक्तों ) का; पाद-रज:--चरणकमल की धूल द्वारा; अभिषेकम्‌--राजतिलक;निष्किज्नानामू--उन भक्तों का जिन्हें इस भौतिक जगत से कुछ भी लेना-देना नहीं है; न--नहीं; वृणीत--स्वीकार करे;यावत्‌--जब तक।

    जब तक भौतिकतावादी जीवन के प्रति झुकाव रखने वाले लोग ऐसे वैष्णवों केचरणकमलों की धूलि अपने शरीर में नहीं लगाते जो भौतिक कल्मष से पूर्णतया मुक्त हैं, तबतक वे भगवान्‌ के चरणकमलों के प्रति आसक्त नहीं हो सकते जिनका यशोगान उनके अपनेअसामान्य कार्यकलापों के लिए किया जाता है।

    केवल कृष्णभावनाभावित बनकर एवं इसप्रकार से भगवान्‌ के चरणकमलों की शरण ग्रहण करके ही मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त होसकता है।

    "

    इत्युक्त्वोपरतं पुत्रं हिरण्यकशिपू रुषा ।

    अन्धीकृतात्मा स्वोत्सड्रान्निरस्थत महीतले ॥

    ३३॥

    इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; उपरतम्‌--रुक गया; पुत्रमू-पुत्र को; हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु ने; रुषा--अत्यधिक क्रोध से; अन्धीकृत-आत्मा--आत्म-साक्षात्कार से अन्धा बना हुआ; स्व-उत्सड्ञात्‌--अपनी गोद से; निरस्थत--फेंकदिया; मही-तले--भूमि पर।

    जब प्रह्नाद महाराज इस प्रकार बोलकर शान्त हो गये तो क्रोध से अन्धे हिरण्यकशिपु ने उन्हेंअपनी गोद से उठाकर भूमि पर फेंक दिया।

    "

    आहामर्षरुषाविष्ट: कषायीभूतलोचन: ।

    वध्यतामाश्चयं वध्यो निःसारयत नेरृता: ॥

    ३४॥

    आह--उसने कहा; अमर्ष--रोष; रुषा--तथा क्रोध से; आविष्ट: --पराभूत, वशी भूत; कषायी-भूत--गरम लाल ताँबे की भाँतिहुए; लोचन:--जिसकी आँखें; वध्यताम्‌ू--मार डालो; आशु--तुरन्‍्त; अयम्‌--इसको; वध्य:--मारने के योग्य है, जो;निःसारयत--बाहर निकाल दो; नैरृता:--हे असुरो।

    अत्यन्त क्रुद्ध तथा पिघले ताम्र जैसी लाल-लाल आँखें किये हिरण्यकशिपु ने अपने नौकरोंसे कहा : अरे असुरो, इस बालक को मेरी आँखों से दूर करो।

    यह वध करने योग्य है।

    इसेजितनी जल्दी हो सके मार डालो।

    "

    अयं मे भ्रातृहा सोयं हित्वा स्वान्सुहदोधमः ।

    पितृव्यहन्तु: पादौ यो विष्णोर्दासवर्दर्चति ॥

    ३५॥

    अयम्‌--यह; मे--मेरे; भ्रातृ-हा-- भाई को मारने वाला; सः--वह; अयम्‌--यह; हित्वा--त्यागकर; स्वान्‌-- अपने; सुहृदः --शुभचिन्तक; अधमः--अत्यन्त नीच; पितृव्य-हन्तु:--चाचा हिरण्याक्ष के मारने वाले के; पादौ--चरणों पर; यः--जो;विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु के; दास-बत्‌--नौकर की तरह; अर्चति--सेवा करता है।

    यह बालक प्रह्लाद मेरे भाई को मारने वाला है, क्योंकि इसने एक तुच्छ नौकर की भाँति मेरेशत्रु भगवान्‌ विष्णु की सेवा में संलग्न रहने के लिए अपने परिवार को छोड़ दिया है।

    "

    विष्णोर्वा साध्वसौ कि नु करिष्यत्यसमझ्जस: ।

    सौहदं दुस्त्यजं पित्रोरहाद्यः पञ्ञह्यायन: ॥

    ३६॥

    विष्णो;--विष्णु को; वा--अथवा; साधु-- अच्छा; असौ--यह; किम्‌--क्या; नु--निस्सन्देह; करिष्यति--करेगा;असमझ्जसः:--विश्वास न करने योग्य; सौहदम्‌--प्रिय सम्बन्ध; दुस्त्यजम्‌--छोड़ पाना कठिन; पित्रो:--अपने पिता-माता का;अहातू--छोड़ दिया; यः--जो; पश्च-हायन:--केवल पाँच वर्ष का।

    यद्यपि प्रह्मद केवल पाँच वर्ष का है, किन्तु इसी अल्पावस्था में उसने अपने माता-पिता केस्नेह-सम्बन्ध को त्याग दिया है।

    अतएव यह निश्चय ही विश्वास करने योग्य नहीं है।

    निस्सन्देह,इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि वह विष्णु के प्रति भी ठीक से आचरण करेगा।

    "

    परोउप्यपत्यं हितकृद्यथौषध॑स्वदेहजोप्यामयवत्सुतोहितः ।

    छिन्द्यात्तदड़ं यदुतात्मनोहितंशेष सुखं जीवति यद्विवर्जनात्‌ू ॥

    ३७॥

    'परः--उसी परिवार से सम्बन्धित न होना; अपि--यद्यपि; अपत्यमू--बालक; हित-कृत्‌--जो लाभप्रद है; यथा--जिस प्रकार;औषधम्‌---औषधि; स्व-देह-ज:--अपने ही शरीर से उत्पन्न; अपि--यद्यपि; आमय-वत्‌--रोग के समान; सुतः--पुत्र;अहितः--जो हितैषी नहीं है; छिन्द्यातू--काट देना चाहिए; तत्‌--उस; अड्भमू--शरीर के भाग को; यत्‌--जो; उत--निस्सन्देह;आत्मन:--शरीर का; अहितम्‌--अनुपयोगी; शेषम्‌--बचा हुआ, शेष; सुखम्‌--सुखपूर्वक; जीवति--जीवित रहता है; यत्‌--जिसके; विवर्जनात्‌ू--काट देने से

    यद्यपि औषधि ( जड़ी-बूटी ) जंगल में उत्पन्न होने के कारण मनुष्य की श्रेणी में परिगणितनहीं होती किन्तु लाभप्रद होने पर अत्यन्त सावधानी से रखी जाती है।

    इसी प्रकार यदि अपनेपरिवार से बाहर का कोई व्यक्ति अनुकूल हो तो उसे पुत्र के समान संरक्षण प्रदान किया जानाचाहिए।

    दूसरी ओर, यदि किसी के शरीर का कोई अंग रोग से विषाक्त हो जाये तो उसे काटकर अलग कर देना चाहिए जिससे शेष शरीर सुखपूर्वक जीवित रहे।

    इसी प्रकार भले ही अपनाआत्मज पुत्र ही क्‍यों न हो, यदि वह प्रतिकूल है, तो उसका परित्याग कर देना चाहिए।

    "

    सर्वैरुपायहन्तव्य: सम्भोजशयनासनै: ।

    सुहल्लिड्रधरः शत्रुर्मुनेर्दुष्ठमिवेन्द्रियम्‌ ॥

    ३८ ॥

    सर्वै:--सभी; उपायै:--उपायों के द्वारा; हन्तव्यः--मार डाला जाये; सम्भोज--खाते; शयन--लेटे; आसनै:--बैठे हुए; सुहत्‌-लिड्ड-धरः--मित्र का बाना धारण किये हुए; शत्रु;--दुश्मन; मुनेः--मुनियों की; दुष्टम्‌--अनियंत्रित; इव-- जैसे; इन्द्रियम्‌ू--इन्द्रियाँ ॥

    जिस प्रकार असंयमित इन्द्रियाँ आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने के लिए व्यस्त योगियों कीशत्रु होती हैं उसी प्रकार यह प्रह्माद मित्र के समान प्रतीत होकर भी मेरा शत्रु है, क्योंकि इस परमेरा वश नहीं चलता।

    अतएव खाते, बैठे या सोते हुए, सभी तरह से इस शत्रु को मार डालाजाये।

    "

    नैरतास्ते समादिष्टा भर्रा वै शूलपाणयः ।

    तिम्मदंष्टकरालास्यास्ताम्रश्मश्रुशिरोरुहा: ॥

    ३९॥

    नदन्तो भेरवं नादं छिन्धि भिन्धीति वादिन: ।

    आसीनं चाहन््शूलैः प्रह्म॒दं सर्वमर्मसु ॥

    ४० ॥

    नैर्ताः--असुर; ते--वे; समादिष्टाः:--आज्ञा पाकर; भर्त्रा--अपने स्वामी से; बै--निस्सन्देह; शूल-पाणय:-- अपने हाथों मेंत्रिशूल लेकर; तिग्म--अत्यन्त तीखे; दंघ्ट--दाँत; कराल--तथा भयानक; आस्या:--मुख; ताम्र-श्मश्रु--ताँबे जैसी मूछें;शिरोरुहाः--सिर के बाल; नदन्तः--ध्वनि करते; भैरवम्‌-- भयानक; नादम्‌-- ध्वनि; छिन्धि--काट दो; भिन्धि--छोट-छोटेटुकड़े कर डालो; इति--इस प्रकार; वादिन:--बोलते हुए; आसीनम्‌--चुपचाप बैठा हुआ; च--तथा; अहनन्‌--आक्रमणकिया; शूलैः--अपने त्रिशूलों से; प्रहादम्‌--प्रह्माद पर; सर्व-मर्मसु--शरीर के कोमल भागों ( मर्मस्थलों ) पर।

    इस प्रकार हिरण्यकशिपु के सारे नौकर राक्षसगण प्रह्नाद महाराज के शरीर के नग्न भागों( मर्मस्थलों ) पर अपने त्रिशूल से वार करने लगे।

    इन राक्षसों के मुख अत्यन्त भयानक थे, दाँततीखे तथा दाढ़ी एवं बाल ताँबे जैसे थे और वे सब अत्यन्त भयावने प्रतीत हो रहे थे।

    वे उच्चस्वर से 'उसके टुकड़े-टुकड़े कर दो।

    उसे छेद डालो ' इस तरह चिल्ला कर प्रह्नमाद महाराज परजो शान्त भाव से भगवान्‌ का ध्यान करते हुए आसीन थे प्रहार करने लगे ।

    "

    परे ब्रह्मण्यनिर्देश्ये भगवत्यरिलात्मनि ।

    युक्तात्मन्यफला आसन्नपुण्यस्येव सत्क्रिया: ॥

    ४१॥

    परे--परम; ब्रह्मणि--ब्रहा; अनिर्देश्ये--इन्द्रियों से अहश्य; भगवति-- भगवान्‌ में; अखिल-आत्मनि--सबों के परमात्मा; युक्त-आत्मनि--जिसका मन लगा था, उस ( प्रह्मद ) पर; अफला:--निष्फल, व्यर्थ; आसनू-- थे; अपुण्यस्य--ऐसे व्यक्ति काजिसके पास पुण्यकर्मो की पूँजी न हो; इब--सहृश; सत्-क्रिया:--सत्कर्म ( यथा यज्ञ तथा तपस्या )।

    ऐसा व्यक्ति जिसके पास कोई पुण्यकर्म की कमाई नहीं होती यदि वह कोई अच्छा कार्यकरे भी तो उसका कोई परिणाम नहीं निकलता।

    इसी प्रकार राक्षसों के हथियारों का प्रह्मादमहाराज पर कोई प्रकट प्रभाव नहीं पड़ रहा था, क्योंकि वे भौतिक दशाओं से अविचलित रहनेवाले भक्त थे और उन भगवान्‌ का ध्यान करने तथा सेवा करने में व्यस्त थे, जो अनश्वर थे,जिन्हें भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता और जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आत्मा हैं।

    "

    प्रयासेपहते तस्सिन्दैत्येन्द्र: परिशद्धितः ।

    चकार तद्वधोपायात्रिर्बन्धेन युधिष्ठटिर ॥

    ४२॥

    प्रयासे--प्रयास में; अपहते--व्यर्थ; तस्मिन्‌--उस; दैत्य-इन्द्र:--दैत्यों का राजा हिरण्यकश्पु; परिशद्धितः--अत्यन्त भयभीत( यह सोचकर कि बालक की रक्षा हो रही है ); चकार--किया; तत्‌-वध-उपायान्‌--उसे मारने के विविध उपाय; निर्बन्धेन--संकल्प से; युथिष्ठटिर--हे राजा युधिष्टिर |

    हे राजा युधिष्ठिर, जब प्रह्द महाराज को मार डालने के असुरों के सारे प्रयास निष्फल होगये तो दैत्यराज हिरण्यकशिपु अत्यन्त भयभीत होकर उसे मारने के अन्य उपायों की योजनाकरने लगा।

    "

    दिग्गजैर्दन्दशूकेन्द्रैभिचारावपातनै: ।

    मायाभिः सन्निरोधेश्व गरदानैरभोजने: ।

    हिमवाय्वग्निसलिलै: पर्वताक्रमणैरपि ॥

    ४३॥

    न शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम्‌ ।

    चिन्तां दीर्घ॑तमां प्राप्तस्तत्कर्तु नाभ्यपद्यत ॥

    ४४॥

    दिक्‌-गजैः--बड़े-बड़े हाथियों द्वारा, जिन्हें अपने पैरों तले किसी भी वस्तु को कुचल डालने का प्रशिक्षण दिया गया था; दन्द-शूक-इन्द्रै:--राजा के जहरीले साँपों द्वारा कटा कर; अभिचार--विध्वंसक जादू द्वारा; अवपातनै:--पर्वत की चोटी से गिराकर; मायाभिः --युक्तियों द्वारा; सन्निरोधै:--बन्दी बना कर; च--तथा; गर-दानै:ः --विष पिला कर; अभोजनै: -- भूखों रखकर; हिम-वायु-अग्नि--ठिठुरती ठंड, हवा तथा अग्नि; सलिलैः--तथा जल से; पर्वत-आक्रमणै:--बड़े-बड़े पत्थरों तथापहाड़ियों से कुचला कर; अपि-- भी; न शशाक--समर्थ न हुआ; यदा--जब; हन्तुम्‌ू--मारने के लिए; अपापम्‌--जो तनिकभी पापी न था; असुरः--असुर ( हिरण्यकशिपु ); सुतम्‌--अपने पुत्र को; चिन्ताम्‌-चिन्ता; दीर्घ-तमाम्‌--अधिक काल सेचली आ रही; प्राप्त:--प्राप्त किया; ततू-कर्तुमू--उसे करने के लिए; न--नहीं; अभ्यपद्यत--प्राप्त किया।

    हिरण्यकशिपु अपने पुत्र को विशाल हाथी के पाँवों के नीचे, बड़े-बड़े भयानक साँपों केबीच में, विध्वसंक जादू का प्रयोग करके, पर्वत की चोटी से नीचे गिरा कर, मायावी तरकीबेंकरके, विष देकर, भूखों रख कर, ठिठुरती ठंड, हवा, अग्नि तथा जल में रखकर या उस परभारी पत्थर फेंक कर भी नहीं मार पाया।

    जब उसने देखा कि वह निर्दोष प्रहाद को किसी तरहहानि नहीं पहुँचा पाया, तो वह अत्यन्त चिन्ता में पड़ गया कि आगे क्‍या किया जाये।

    "

    एष मे बह्साधूक्तो वधोपायाश्च निर्मिता: ।

    तैस्तैद्रेहिरसद्धमर्मुक्त: स्वेनेव तेजसा ॥

    ४५॥

    एष:--यह; मे--मेरा; बहु-- अनेक; असाधु-उक्त:--गालियाँ; वध-उपाया:--उसे मारने के अनेक उपायों द्वारा; च--तथा;निर्मिता:--कल्पित, बनाया; तैः--उनके द्वारा; तैः--उनके द्वारा; द्रोहैः--विश्वासधात से; असत्‌ू-धर्मै:--घृषण्ित कर्म के द्वारा;मुक्त:--छूटा हुआ; स्वेन-- अपने; एव--निस्सन्देह; तेजसा--तेज से |

    हिरण्यकशिपु ने विचार किया: मैंने इस बालक को दण्डित करने के लिए अनेक गालियाँदी हैं, अपशब्द कहे हैं और उसे मार डालने के लिए अनेक उपाय किये हैं, किन्तु मेरे समस्तप्रयत्तों के बावजूद यह मरा नहीं।

    निस्सन्देह, इन विश्वासघातों तथा घृणित कर्मों के द्वारा वहतनिक भी प्रभावित नहीं हुआ और अपनी ही शक्ति से उसने अपने को बचाया है।

    "

    वर्तमानोविदूरे वै बालोप्यजडधीरयम्‌ ।

    न विस्मरति मेउनार्य शुनः शेप इव प्रभु; ॥

    ४६॥

    वर्तमान:--स्थित होकर; अविदूरे--अधिक दूरी पर नहीं; बै--निस्सन्देह; बाल:--शिशु मात्र; अपि--यद्यपि; अजड-धी:--पूर्ण निर्भीक; अयमू--यह; न--नहीं; विस्मरति-- भूलता है; मे--मेरा; अनार्यम्‌--दुर्व्यवहार; शुनः शेप: --कुत्ते की टेढ़ी पूँछ;इब--सहश; प्रभु:--समर्थ होकर |

    यद्यपि यह मेरे अत्यन्त निकट है और निरा बालक है फिर भी यह पूर्ण निर्भीक है।

    यह उसकुत्ते की टेढ़ी पूँछ के समान है, जो कभी सीधी नहीं की जा सकती, क्योंकि यह मेरे दुर्व्यवहार तथा अपने स्वामी भगवान्‌ विष्णु से अपने सम्बन्ध को कभी भी नहीं भूलता है।

    "

    अप्रमेयानुभावोयमकुतश्चिद्धयोउमरः ।

    नूनमेतद्विरो धेन मृत्युर्मे भविता न वा ॥

    ४७॥

    अप्रमेष--असीम; अनुभाव: --यश; अयम्‌--यह; अकुतश्चित्‌- भयः--किसी भी ओर से भय न होना; अमर:--अमर; नूनम्‌--निश्चय ही; एतत्‌-विरोधेन--इसका विरोध करने से; मृत्यु:--मृत्यु; मे--मेरी; भविता--हो जाये; न--नहीं; बवा--अथवा

    मैं देखता हूँ कि इस बालक की शक्ति असीम है, क्योंकि यह मेरे किसी भी दण्ड सेभयभीत नहीं हुआ।

    यह अमर प्रतीत होता है, अतएवं इसके प्रति शत्रुता के भाव से मैं मरूँगा।

    या ऐसा नहीं भी हो सकता।

    "

    इति तच्चिन्तया किज्ञिन्म्लानअरयमधोमुखम्‌ ।

    शण्डामर्कावौशनसौ विविक्त इति होचतु: ॥

    ४८ ॥

    इति--इस प्रकार; ततू्‌-चिन्तया--प्रहाद महाराज की स्थिति के कारण चिन्ता से पूर्ण; किल्जित्‌ू-- कुछ-कुछ; म्लान--मुरझाया;भ्रियम्‌ू--शारीरिक कान्ति; अध:-मुखम्‌--नीचे मुँह किये; शण्ड-अमरकौं--षण्ड तथा अमर्क; औशनसौ--शुक़राचार्य के पुत्रो;विविक्ते--गुप्त स्थान में; इति--इस प्रकार; ह--निस्सन्देह; ऊचतु:--बोले

    इस प्रकार सोचते हुए चिन्तित तथा कान्तिहीन दैत्यराज अपना मुँह नीचा किये चुप रह गया।

    शुक्राचार्य के दोनों पुत्र षण्ड तथा अमर्क एकान्त में उससे बोले।

    "

    जित॑ त्वयैकेन जगत्त्रयं भ्रुवोर्‌विजृम्भणत्रस्तसमस्तधिष्णयपम्‌ ।

    न तस्य चिन्त्यं तव नाथ चक्ष्वहेन वै शिशूनां गुणदोषयो: पदम्‌ ॥

    ४९॥

    " जितम्‌--जीता गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; एकेन--अकेले; जगत््‌-त्रयम्‌--तीनों जगत; भ्रुवो: --भौहों के ; विजृम्भण--फैलनेसे; त्रस्त-- भयभीत हो जाते हैं; समस्त--सारे; धिष्णयपम्‌-- प्रत्येक लोक के प्रमुख व्यक्ति; न--नहीं; तस्य--उसकी;चिन्त्यमू--चिन्ता; तब--तुम्हारा; नाथ--हे स्वामी; चक्ष्वहे--हम देख रहे हैं; न--न तो; बै--निस्सन्देह; शिशूनाम्‌--बच्चों के;गुण-दोषयो: --उत्तम गुण या दोष का; पदम्‌--विषय |

    हे स्वामी, हम जानते हैं कि यदि आप अपनी भौहों को हिला भी दें तो विविध लोकों केनायक ( पालक ) अत्यन्त भयभीत हो उठते हैं।

    आपने किसी की सहायता लिए बिना ही तीनोंलोकों को जीत लिया है।

    इसलिए हमें आपके चिन्तित होने का कोई कारण नहीं दिख रहा।

    जहाँ तक प्रह्माद का प्रश्न है, वह एक बालक मात्र है और वह चिन्ता का कारण नहीं बनसकता।

    अन्ततः उसके गुणों या अवगुणों का कोई महत्व नहीं है।

    "

    इमं तु पाशैर्वरुणस्य बद्ध्वानिधेहि भीतो न पलायते यथा ।

    बुद्धिश्च पुंसो वयसार्यसेवयायावद्गुरुर्भागव आगमिष्यति ॥

    ५०॥

    इमम्‌--इसको; तु--लेकिन; पाशैः--रस्सियों से; वरुणस्य--वरुण देव की; बद्ध्वा--बाँध कर; निधेहि--रखो; भीत:ः--डराहुआ; न--नहीं; पलायते-- भागे; यथा-- जिससे; बुद्धि:--बुद्धि; च-- भी; पुंसः--मनुष्य की; वयसा--उप्र बढ़ने से; आर्य--अनुभवी व्यक्तियों की; सेवया--सेवा से; यावत्‌--जब तक; गुरु:--हमारा गुरु; भार्गव:ः--शुक्राचार्य; आगमिष्यति--आजाएगा।

    हमारे गुरु शुक्राचार्य के लौट आने तक इस बालक को वरुण की रस्सियों से बाँध दोजिससे वह डर कर भाग न सके।

    हर हालत में, जब वह कुछ-कुछ बड़ा हो जाएगा और हमारेउपदेशों को आत्मसात्‌ कर चुकेगा या हमारे गुरु की सेवा कर लेगा तो इसकी बुद्धि बदलजाएगी।

    इस प्रकार चिन्ता की कोई बात नहीं है।

    "

    तथेति गुरुपुत्रोक्तमनुज्ञायेदमब्रवीत्‌ ।

    धर्मो हास्योपदेष्टव्यो राज्ञां यो गृहमेधिनाम्‌ ॥

    ५१॥

    तथा--इस प्रकार से; इति--इस तरह; गुरु-पुत्र-उक्तम्‌--शुक्राचार्य के पुत्रों, षण्ड तथा अमर्क द्वारा सलाह दिये जाने पर;अनुज्ञाय--मानकर; इदम्‌--यह; अब्नवीत्‌--कहा; धर्म:--कर्तव्य; हि--निस्सन्देह; अस्य--प्रह्माद को; उपदेष्टव्य: --उपदेशदेना चाहिए; राज्ञामू--राजाओं के; यः--जो; गृह-मेधिनाम्‌--गृहस्थ जीवन में जिनकी रुचि है।

    अपने गुरु पुत्र षण्ड तथा अमर्क के इन उपदेशों को सुनकर हिरण्यकशिपु राजी हो गयाऔर उनसे प्रह्माद को इस वृत्तिपरक धर्म का उपदेश देने की प्रार्थना की जिसका पालन राजसी गृहस्थ परिवार करते हैं।

    "

    धर्ममर्थ च काम च नितरां चानुपूर्वशः ।

    प्रह्दायोचतू राजन्प्रश्रितावनताय च॥

    ५२॥

    धर्मम्‌--संसारी वृत्तिपरक कर्तव्य; अर्थभमू--आर्थिक विकास; च--तथा; काममू्‌--इन्द्रिय तृप्ति; च--तथा; नितराम्‌--सदैव;च--तथा; अनुपूर्वश: --क्रमानुसार, प्रारम्भ से लेकर अन्त तक; प्रह्मदाय--प्रह्मद महाराज के लिए; ऊचतु: --उन्होंने कहा;राजनू--हे राजा; प्रश्रित--नम्र; अवनताय--तथा विनीत; च-- भी |

    तत्पश्चात्‌ षण्ड तथा अमर्क ने अत्यन्त नम्न एवं विनीत प्रह्माद महाराज को क्रमशः तथानिरन्तर धर्म, अर्थ तथा काम के विषय में पढ़ाना शुरू किया।

    "

    यथा त्रिवर्ग गुरुभिरात्मने उपशिक्षितम्‌ ।

    न साधु मेने तच्छिक्षां द्वन्द्दारामोपर्णिताम्‌ ॥

    ५३॥

    यथा--इस प्रकार; त्रि-वर्गम्‌--तीन विधियाँ ( धर्म, अर्थ तथा काम ); गुरुभि:--अध्यापकों द्वारा; आत्मने-- अपने ( प्रह्मद )को; उपशिक्षितम्‌--उपदेश दिया; न--नहीं; साधु--वास्तव में अच्छा; मेने--उसने माना; तत्‌-शिक्षाम्‌--उस शिक्षा को; द्वन्द्द-आराम--द्वैत ( शत्रुता तथा मित्रता ) में आनन्द लेने वाले व्यक्तियों द्वारा; उपवर्णिताम्‌--संस्तुत

    घण्ड तथा अमर्क नामक शिक्षकों ने प्रहाद महाराज को धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन प्रकारके भौतिक विकास के बारे में शिक्षा दी।

    किन्तु प्रह्दाद महाराज इन उपदेशों से ऊपर थे, अतएवउन्होंने इन्हें पसन्द नहीं किया, क्योंकि ऐसे उपदेश संसारी मामलों के द्वैत पर आधारित होते हैं,जो मनुष्य को भौतिकतावादी जीवन-शैली में फंसा लेते हैं जिसमें जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधिप्रमुख हैं।

    "

    यदाचार्य: परावृत्तो गृहमेधीयकर्मसु ।

    वयस्यैर्बालकैस्तत्र सोपहूतः कृतक्षणै: ॥

    ५४॥

    यदा--जब; आचार्य: --शिक्षकगण; परावृत्त:--काम में लग गये; गृह-मेधीय--गृहस्थ जीवन के; कर्मसु--कार्यों में;वयस्यै:--समान आयु वाले अपने मित्रों; बालकैः--बालकों के द्वारा; तत्र--वहाँ; सः--वह ( प्रह्द महाराज ); अपहूत: --बुलाया गया; कृत-क्षणैः:--उचित अवसर पाकर

    जब शिक्षक अपने घरेलू काम करने अपने घर चले जाते थे, तो प्रह्मद महाराज केसमवयस्क छात्र उन्हें इस अवकाश ( छुट्टी ) को खेलने में लगाने के लिए बुला लेते।

    "

    अथ ताउ्एलश््णया वाचा प्रत्याहूय महाबुध: ।

    उवाच दिद्दांस्तन्निष्ठां कृपया प्रहसन्निव ॥

    ५५॥

    अथ--तब; तान्‌--सहपाठियों को; एलक्ष्णया--अत्यन्त सुहावनी; वाचा--वाणी से; प्रत्याहूय--सम्बोधित करके; महा-बुध:--अत्यन्त बुद्धिमान तथा आध्यात्मिक चेतना में अग्रसर प्रह्माद महाराज ने ( महा-महान्‌, बुध:-पंडित ); उबाच--कहा;विद्वानू--अत्यन्त विद्वान; तत्‌-निष्ठाम्‌--ईश्वर साक्षात्कार का मार्ग; कृपया--दयालु होकर; प्रहसन्‌--हँसते हुए; इब--सहश |

    तब प्रह्नमाद महाराज ने, जो सचमुच परम विद्वान पुरुष थे, अपने सहपाठियों से अत्यन्त मधुरवाणी में कहा।

    उन्होंने हँसते हुए भौतिकतावादी जीवन-शैली की अनुपयोगिता के विषय मेंबताना शुरू किया।

    उन पर अत्यन्त कृपालु होने के कारण उन्होंने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया।

    "

    ते तु तद्गौरवात्सवें त्यक्तक्रीडापरिच्छदा: ।

    बाला अदूषितधियो द्वन्द्वारामेरितेहिते: ॥

    ५६॥

    पर्युपासत राजेन्द्र तन्न्यस्तहदयेक्षणा: ।

    तानाह करुणो मैत्रो महाभागवतोउसुर: ॥

    ५७॥

    ते--वे; तु--निस्सन्देह; तत्‌-गौरवात्‌-- प्रहाद महाराज के शब्दों के प्रति महान्‌ आदर से ( उनके भक्त होने के कारण ); सर्वे--वे सभी; त्यक्त--त्याग; क्रीडा-परिच्छदा:-- खेलने के खिलौने; बाला:--लड़के; अदूषित-धिय:--जिनकी बुद्धि अपनेपिताओं के समान दूषित नहीं हुई; द्वन्द-द्वैत्य भाव में; आराम--आनन्द लेने वाले ( यथा षण्ड तथा अमर्क जैसे शिक्षक );ईरित--उपदेशों द्वारा; ईहितैः--तथा कार्यों से; पर्युपासत--चारों ओर बैठ गये; राज-इन्द्र--हे राजा युधिष्ठिर; तत्‌--उसको;न्यस्त--त्याग करके; हृदय-ईक्षणा:-- अपने हृदय तथा नेत्र; तानू--उनको; आह--बोला; करुण:--अत्यन्त दयालु; मैत्र: --असली मित्र; महा-भागवतः --अत्यन्त पूज्य भक्त; असुरः--यद्यपि असुर पिता से उत्पन्न प्रह्माद महाराज |

    हे राजा युधिष्टिर, सारे बालक प्रह्नाद महाराज को अत्यधिक चाहते थे और उनका सम्मानकरते थे।

    अपनी अल्पायु के कारण बे अपने शिक्षकों के उपदेशों एवं कार्यों से जितने दूषित नहींहुए थे जबकि उनके शिक्षक निन्दा, द्वैत तथा शारीरिक सुविधा के प्रति आसक्त थे।

    इस तरहसारे बालक अपने-अपने खिलौने छोड़कर प्रह्माद महाराज की बात सुनने के लिए उनके चारोंओर बैठ गये।

    उनके हृदय तथा नेत्र उन पर टिके थे और वे उन्हें उत्साहपूर्वक देख रहे थे।

    प्रह्मादमहाराज यद्यपि असुर कुल में पैदा हुए थे, किन्तु महान्‌ भक्त थे और वे असुरों की कल्याण-कामना करते थे।

    इस प्रकार उन्होंने उन बालकों को भौतिकतावादी जीवन की व्यर्थता के विषयमें उपदेश देना प्ररम्भ किया।

    "

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    अध्याय छह: प्रह्लाद अपने राक्षसी सहपाठियों को निर्देश देता है

    7.6श्रीप्रह्दाद उबाचकौमार आच्रेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह ।

    दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यश्लुवमर्थदम्‌ ॥

    १॥

    श्री-प्रह्माद: उवाच--प्रह्माद महाराज ने कहा; कौमार:--बाल्य काल में; आचरेत्‌--अभ्यास करे; प्राज्:--बुद्धिमान व्यक्ति;धर्मान्‌--वृत्तिपरक कर्तव्य; भागवतान्‌ू--जो भगवान्‌ की भक्ति हैं; हह--इस जीवन में; दुर्लभम्‌--अत्यन्त दुर्लभ; मानुषम्‌--मनुष्य का; जन्म--जन्म; तत्‌ू--वह; अपि-- भी; अध्रुवम्‌--नश्वर; अर्थ-दम्‌--अर्थ से पूर्ण

    प्रह्माद महाराज ने कहा : पर्याप्त बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ से हीअर्थात्‌ बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यो के अभ्यास में इस मानवशरीर का उपयोग करे।

    यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान्‌होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है।

    यदि निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है।

    "

    यथा हि पुरुषस्थेह विष्णो: पादोपसर्पणम्‌ ।

    यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मे श्वरः सुहत्‌ ॥

    २॥

    यथा--जिससे कि; हि--निस्सन्देह; पुरुषस्थ--जीव का; इह--यहाँ; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु का; पाद-उपसर्पणम्‌--चरणकमलों के निकट आना; यत्‌--क्योंकि; एष:--यह; सर्व-भूतानाम्‌--समस्त जीवों का; प्रिय: --प्रिय; आत्म-ई श्वर: --आत्मा का स्वामी, परमात्मा; सुहत्‌ू--शुभचिन्तक तथा मित्र

    यह मनुष्य-जीवन भगवद्धाम जाने का अवसर प्रदान करता है अतएव प्रत्येक जीव को,विशेष रूप से उसे जिसे मनुष्य जीवन मिला है, भगवान्‌ विष्णु के चरणकमलों की भक्ति मेंप्रवृत्त होना चाहिए।

    यह भक्ति स्वाभाविक है क्योंकि भगवान्‌ विष्णु सर्वाधिक प्रिय, आत्मा केस्वामी तथा अन्य सब जीवों के शुभचिन्तक हैं।

    "

    सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम्‌ ।

    सर्वत्र लभ्यते देवाद्यथा दुःखमयत्नतः ॥

    ३॥

    सुखम्‌--सुख; ऐन्द्रियकम्‌-- भौतिक इन्द्रियों के प्रसंग में; दैत्या:--दैत्य कुल में उत्पन्न मेरे मित्रो; देह-योगेन--विशेष प्रकार काशरीर होने के कारण; देहिनाम्‌ू--समस्त देहधारी जीवों का; सर्वत्र--सभी जगह ( किसी योनि में ); लभ्यते--उपलब्ध हैं;दैवात्‌-- भाग्य से; यथा--जिस प्रकार; दुःखम्‌--दुख; अयलतः--बिना प्रयास के |

    प्रहाद महाराज ने आगे कहा: हे दैत्य कुल में उत्पन्न मेरे मित्रों, शरीर के सम्पर्क सेइन्द्रियविषयों से जो सुख अनुभव किया जाता है, वह तो किसी भी योनि में अपने विगत सकामकर्मों के अनुसार प्राप्त किया जा सकता है।

    ऐसा सुख बिना प्रयास के उसी तरह स्वतः प्राप्तहोता है, जिस प्रकार हमें दुख प्राप्त होता है।

    "

    तत्प्रयासो न कर्तव्यो यत आयुर्व्यय: परम्‌ ।

    न तथा विन्दते क्षेम॑ मुकुन्दचरणाम्बुजम्‌ ॥

    ४॥

    ततू--उस ( काम तथा अर्थ ) के लिए; प्रयास:--प्रयतत; न--नहीं; कर्तव्य:--करणीय; यत:--जिससे; आयु:-व्यय:ः--आयुकी हानि; परमू--एकमात्र या अन्ततः; न--न तो; तथा--उस तरह से; विन्दते-- भोगता है; क्षेममू--जीवन का अन्तिम लक्ष्य;मुकुन्द-- भव-बन्धन से उद्धार करने वाले भगवान्‌ के; चरण-अम्बुजम्‌--चरणकमलों को |

    केवल इन्द्रिय-तृप्ति या भौतिक सुख के लिए आर्थिक विकास द्वारा प्रयत नहीं करनाचाहिए, क्योंकि इससे समय तथा शक्ति की हानि होती है और वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता।

    यदि कोई कृष्णभावनामृत को लक्ष्य बनाकर प्रयत्न करे तो वह निश्चित रूप से आत्म-साक्षात्कारके आध्यात्मिक पद को प्राप्त कर सकता है।

    आर्थिक विकास में अपने आपको संलग्न रखने सेकोई ऐसा लाभ प्राप्त नहीं होता।

    "

    ततो यतेत कुशल: क्षेमाय भवमाश्रित: ।

    शरीरं पौरुषं यावन्न विपद्येत पुष्कलम्‌ ॥

    ५॥

    ततः--अतएव; यतेत--प्रयल करना चाहिए; कुशल: --बुद्धिमान मनुष्य जो जीवन के अन्तिम लक्ष्य में रुचि रखता हो;क्षेमाय--जीवन के असली लाभ के लिए या भव-बन्धन से मुक्ति के लिए; भवम्‌ आश्लित:--जो भौतिक संसार में है;शरीरम्‌--शरीर; पौरुषम्‌--पुरुष का; यावत्‌--जब तक; न--नहीं; विपद्येत--असफल होता है; पुष्कलम्‌ू-हृष्ट-पुष्ट |

    अतएबव इस संसार में रहते हुए ( भवम्‌ आश्रितः ) भले तथा बुरे में भेद करने में सक्षम व्यक्तिको चाहिए कि जब तक शरीर हृष्ट-पुष्ट रहे और विनष्ट होने से चिन्ताग्रस्त न हो तब तक वहजीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करे।

    "

    पुंसो वर्षशतत ह्यायुस्तदर्ध चाजितात्मन: ।

    निष्फलं यदसौ रात्र्यां शेतेउन्धं प्रापितस्तम: ॥

    ६॥

    पुंस:--प्रत्येक मनुष्य के लिए; वर्ष-शतम्‌--एक सौ वर्ष; हि--निस्सन्देह; आयु:--आयु, उप्र; तत्‌-- उसका; अर्धम्‌--आधा;च--तथा; अजित-आत्मन:--ऐसे व्यक्ति का जो अपनी इन्द्रियों का दास है; निष्फलम्‌--बिना लाभ के, निरर्थक; यत्‌--क्योंकि; असौ--वह व्यक्ति; रात््यामू--रात में; शेते--सोता है; अन्धम्‌--अज्ञान ( अपने शरीर तथा आत्मा को भूल कर );प्रापित: --पूर्णतया प्राप्त करके; तम:--अंधकार |

    प्रत्येक व्यक्ति की अधिकतम आयु एक सौ वर्ष है, किन्तु जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वशमें नहीं कर पाता, उसकी आयु के आधे वर्ष तो रात्रि में बारह घण्टे अज्ञानवश सोने में ही बीतजाते हैं।

    अतएव ऐसे व्यक्ति की आयु केवल पचास वर्ष होती है।

    "

    मुग्धस्य बालये कैशोरे क्रीडतो याति विंशतिः ।

    जरया ग्रस्तदेहस्य यात्यकल्पस्य विंशति: ॥

    ७॥

    मुग्धस्य--मोहग्रस्त या पूर्ण ज्ञान में न होने वाले व्यक्ति का; बाल्ये--बचपन में; कैशोरे--किशोरावस्था में; क्रीडत:--खेलतेहुए; याति--बीतता है; विंशति:--बीस वर्ष; जरया--वृद्धावस्था से; ग्रस्त-देहस्य--ग्रस्त मनुष्य का; याति--बीत जाता है;अकल्पस्थ--बिना संकल्प के क्‍योंकि भौतिक कार्यो के करने में असमर्थ रहता है; विंशति:-- और बीस वर्ष |

    मनुष्य अपने बाल्यकाल की कोमल अवस्था में, जब सभी मोहग्रस्त होते हैं, दस वर्ष बितादेता है।

    इसी प्रकार किशोर अवस्था में, खेल-कूद में लगकर वह अगले दस वर्ष बिता देता है।

    इस प्रकार बीस वर्ष व्यर्थ चले जाते हैं।

    इसी तरह से वृद्धावस्था में जब मनुष्य अक्षम हो जाता हैऔर वह भौतिक कार्यकलाप भी सम्पन्न नहीं कर पाता, उसमें उसके बीस वर्ष और निकल जातेहैं।

    "

    दुरापूरेण कामेन मोहेन च बलीयसा ।

    शेषं गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्यापयाति हि ॥

    ८॥

    दुराप्रेण--जो कभी पूरा नहीं होता; कामेन-- भौतिक जगत को भोगने की प्रबल इच्छा से; मोहेन--मोह से; च--भी;बलीयसा--जो बलिष्ठ तथा दुर्जेय है; शेषम्‌--जीवन के बचे हुए वर्ष; गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; सक्तस्थ-- अत्यधिक आसक्तका; प्रमत्तस्य--पागल का; अपयाति--व्यर्थ बिता देता है; हि--निस्सन्देह |

    जिसके मन तथा इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं वह अतृप्त कामेच्छाओं तथा प्रबल मोह के कारणपारिवारिक जीवन में अधिकाधिक आसक्त होता जाता है।

    ऐसे पागल मनुष्य के जीवन के शेषवर्ष भी व्यर्थ जाते हैं, क्योंकि वह इन वर्षों में भी अपने को भक्ति में नहीं लगा सकता।

    "

    को गृहेषु पुमान्सक्तमात्मानमजितेन्द्रिय: ।

    स्नेहपाशैईढेर्बद्धमुत्सहेत विमोचितुम्‌ ॥

    ९॥

    कः--कौन सा; गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; पुमान्‌ू--मनुष्य; सक्तम्‌--अत्यधिक आसक्त; आत्मानम्‌--स्वयं, आत्मा; अजित-इन्द्रियः:--जिसने कभी इन्द्रियों को वश में नहीं किया; स्नेह-पाशैः--स्नेह की रस्सियों से; हृढे:ः--अत्यन्त शक्तिशाली; बद्धम्‌--हाथ तथा पैर बाँधा हुआ; उत्सहेत--समर्थ है; विमोचितुम्‌-- भव-बन्धन से छुड़ाने के लिए

    ऐसा कौन मनुष्य होगा जो अपनी इन्द्रियों को वश में करने में असमर्थ होने के कारण गृहस्थजीवन से अत्यधिक आसक्त होकर अपने आपको मुक्त कर सके ?

    आसक्त गृहस्थ अपनों ( पत्नी,बच्चे तथा अन्य सम्बन्धी ) के स्नेह-बन्धन से अत्यन्त हढ़तापूर्वक बँधा रहता है।

    "

    को न्वर्थतृष्णां विसूजेत्प्राणे भ्योडपि य ईप्सित: ।

    यं क्रीणात्यसुभि: प्रेष्ठस्तस्कर: सेवको वणिक्‌ ॥

    १०॥

    कः--कौन; नु--निस्सन्देह; अर्थ-तृष्णामू--धन अर्जित करने की प्रबल इच्छा को; विसूजेत्‌--त्याग सकता है; प्राणेभ्य:--जीवन की अपेक्षा; अपि--निस्सन्देह; यः--जो; ईप्सित:--अधिक वांछित; यम्‌--जिसको; क्रीणाति--प्राप्त करने का प्रयासकरता है; असुभिः--अपने ही प्राण से; प्रेष्टे: --अत्यन्त प्रिय; तस्कर:--चोर; सेवक:--नौकर; वणिक्‌--व्यापारी ।

    धन इतना प्रिय होता है कि लोग इसे मधु से भी मीठा मानने लगते हैं, अतएव ऐसा कौनहोगा जो धन संग्रह करने की तृष्णा का परित्याग कर सकता है और वह भी गृहस्थ जीवन में ?

    चोर, व्यावसायिक नौकर ( सैनिक ) तथा व्यापारी अपने प्रिय प्राणों की बाजी लगाकर भी धनप्राप्त करना चाहते हैं।

    "

    कथ॑ प्रियाया अनुकम्पिताया:सड़ूं रहस्यं रुचिरां श्व॒ मन्त्रान्‌ ।

    सुहत्सु तत्स्नेहसित: शिशूनां कलाक्षराणामनुरक्तचित्त: ॥

    ११॥

    पुत्रान्स्मरंस्ता दुहितृहदय्या भ्रातृन्स्वसूर्वा पितरौ च दीनौ ।

    गृहान्मनोज्ञोरुपरिच्छदां श्रवृत्तीश्च कुल्या: पशुभृत्यवर्गान्‌ ॥

    १२॥

    त्यजेत कोशस्कृदिवेहमान:कर्माणि लोभादवितृप्तकाम: ।

    औपस्थ्यजैह्वंं बहुमन्यमान:कथं विरज्येत दुरन्‍्तमोहः ॥

    १३॥

    कथम्‌--कैसे; प्रियाया:--परमप्रिय पत्नी की; अनुकम्पिताया:--सदैव स्नेहिल एवं दयालु; सड्रमू-- साथ; रहस्यम्‌--एकान्त;रुचिरान्‌ू--अत्यन्त सुखद तथा भाने वाला; च--तथा; मन्त्रान्‌--उपदेश; सुहत्सु--पत्नी तथा बच्चों को; तत्‌-स्नेह-सितः --उनके स्नेह से बँधा हुआ; शिशूनाम्‌--छोटे-छोटे बच्चों का; कल-अक्षराणाम्‌--तोतली बोली बोलते हुए; अनुरक्त-चित्त:--व्यक्ति जिसका मन मोहित है; पुत्रान्‌ू--बच्चों को; स्मरन्‌--सोचने में; ता:--उनको; दुहितृः--पुत्रियाँ ( विवाहित तथा अपनीससुराल में रहती हुई ); हृदय्या:--हृदय में वास करने वाली; भ्रातृन्‌ू-- भाइयों को; स्वसृ: वा--अथवा बहिनों को; पितरौ--माता-पिता; च--तथा; दीनौ--वृद्धावस्था के कारण अत्यधिक अशक्त; गृहान्‌ू--घरेलू मामले; मनोज्ञ--अत्यन्त आकर्षक;उरू--अत्यधिक; परिच्छदानू--साज-सामान; च--तथा; वृत्ती:--आय के महान्‌ साधन ( उद्योग व्यापार ); च--तथा;कुल्या:--परिवार से सम्बद्ध; पशु--पशुओं( गायों, हाथियों तथा और घरेलू पशुओं ); भृत्य--नौकर-नौकरानियों के; वर्गानू--समूहों को; त्यजेत--छोड़ सकता है; कोशः-कृत्‌--रेशम का कीड़ा; इब--सहृश; ईहमान: --सम्पन्न करते हुए; कर्माणि--विभिन्न कार्यकलाप; लोभात्‌-- अतृप्त इच्छाओं के कारण; अवितृप्त-काम:ः--जिनकी बढ़ती हुई इच्छाएँ पूरी नहीं होती;औपस्थ्य-कर्मेन्द्रियाँ; जैहमू--तथा जीभ से प्राप्त आनन्द; बहु-मन्यमान:-- अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानते हुए; कथम्‌--कैसे;विरज्येत--त्यागने में समर्थ है; दुरन्‍्त-मोह:ः--अत्यधिक मोह में होने से |

    भला ऐसा मनुष्य, जो अपने परिवार के प्रति अत्यधिक स्नेहिल हो और जिसके हृदय मेंसदैव उनकी आकृतियां रहती हों, वह किस तरह उनका संग छोड़ सकता है?

    विशेषकर पत्नीसदैव अत्यन्त दयालु तथा सहानुभूति पूर्ण होती है और अपने पति को सदैव एकान्त में प्रसन्नकरती है।

    भला ऐसा कौन होगा जो ऐसी प्रिय तथा स्नेहिल पत्नी की संगति का त्याग करता हो ?

    छोटे-छोटे बालक तोतली बोली बोलते हैं, जो सुनने में अत्यन्त मधुर लगती है और उनके पितासदैव उनके मधुर शब्दों के विषय में सोचते रहते हैं।

    वह भला उनका संग किस तरह छोड़सकता है?

    किसी भी मनुष्य को अपने वृद्ध माता-पिता, अपने पुत्र तथा पुत्रियाँ भी अत्यन्त प्रियहोते हैं।

    पुत्री अपने पिता की अत्यन्त लाड़ली होती है और अपनी ससुराल में रहती हुई भी वहउसके मन में बसी रहती है।

    भला कौन है, जो इस संग को छोड़ेगा?

    इसके अतिरिक्त भी घर मेंअनेक अलंकृत साज-सामान होते हैं और अनेक पशु तथा नौकर भी रहते हैं।

    भला ऐसे आरामको कौन छोड़ना चाहता है?

    आसक्त गृहस्थ उस रेशम-कीट की तरह है, जो अपने चारों ओरधागा बुनकर अपने को बन्दी बना लेता है और फिर उससे निकल पाने में असमर्थ रहता है।

    केवल दो इन्द्रियों--शिश्न तथा जिह्ला--की तुष्टि के लिए मनुष्य भौतिक दशाओं से बँध जाता है।

    कोई इनसे कैसे बच सकता है?

    " कुटुम्बपोषाय वियन्निजायुर्‌न बुध्यतेर्थ विहतं प्रमत्त: ।

    सर्वत्र तापत्रयदुःखितात्मानिर्विद्यते न स्वकुटुम्बराम: ॥

    १४॥

    कुटुम्ब--पारिवारिक सदस्यों के; पोषाय--पालन-पोषण के लिए; वियत्‌--इनकार करते हुए; निज-आयु: --अपनी उप्र; न--नहीं; बुध्यते--समझता है; अर्थम्‌--जीवन का हित या प्रयोजन; विहतम्‌--विनष्ट; प्रमत्त:-- भौतिक परिस्थिति में पागल होकर;सर्वत्र--सभी जगह; ताप-त्रय--तीनों दुखमय स्थितियों से ( अध्यात्मिक, अधिदैविक तथा अधिभौतिक ); दुःखित--सतायाजाकर; आत्मा--आत्मा; निर्विद्यते--पछताता है; न--नहीं; स्व-कुटुम्ब-राम:--परिवार का भरण-पोषण करके ही भोगभोगता है

    अत्यधिक आसक्त मनुष्य यह नहीं समझ सकता कि वह अपना बहुमूल्य जीवन अपने परिवार के ही पालन-पोषण में व्यर्थ बिता रहा है।

    वह यह भी नहीं समझ पाता कि इस मनुष्य-जीवन का जो परम सत्य के साक्षात्कार के लिए उपयुक्त है, उद्देय अहृश्य रूप से विनष्ट हो रहाहै।

    फिर भी वह इतनी चतुरता एवं सावधानी से देखता रहता है कि दुर्व्यवस्था के कारण एक भीपाई न खोई जाए।

    इस प्रकार यद्यपि संसार में आसक्त व्यक्ति सदैव तीनों प्रकार के कष्ट सहतारहता है, किन्तु वह इस संसार के प्रति अरूचि उत्पन्न नहीं कर पाता।

    "

    वित्तेषु नित्याभिनिविष्टचेताविद्ठां श्व दोषं परवित्तहर्तु: ।

    प्रेत्पेह वाथाप्यजितेन्द्रियस्त-दशान्तकामो हरते कुटुम्बी ॥

    १५॥

    वित्तेषु-- भौतिक सम्पत्ति में; नित्य-अभिनिविष्ट-चेता:--जिसका मन सदैव रमा रहता है; विद्वानू--जानते हुए; च-- भी;दोषम्‌--बुराई; पर-वित्त-हर्तु:--ठगकर या काला बाजारी से अन्यों का धन चुराने वाले का; प्रेत्य--मरने के बाद; इह--इससंसार में; वा--अथवा; अथापि--फिर भी; अजित-इन्द्रिय:--इन्द्रियों को वश में न कर सकने के कारण; तत्‌--वह; अशान्त-'काम:ः--जिसकी इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होती, अतृप्त; हरते--चुराता है; कुटुम्बी--अपने परिवार को अत्यधिक चाहने वाला।

    यदि कोई मनुष्य पारिवारिक भरण-पोषण के कर्तव्यों के प्रति अत्यधिक आसक्त होने केकारण अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता और उसका मन सदैव इसी में डूबा रहता है किधन का संग्रह कैसे करे।

    यद्यपि वह जानता रहता है कि जो अन्यों का धन लेता है उसे सरकारी नियमों और मृत्यु के बाद यमराज के नियमों द्वारा दण्डित होना पड़ेगा।

    तो भी वह धन अर्जितकरने के लिए दूसरों को धोखा देता रहता है।

    "

    विद्वानपीत्थं दनुजाः कुटुम्बंपुष्णनस्वलोकाय न कल्पते वे ।

    यः स्वीयपारक्यविभिन्नभाव-स्तमः प्रपद्येत यथा विमूढ: ॥

    १६॥

    विद्वानू--जानते हुए ( विशेष रूप से गृहस्थ जीवन में असुविधाओं को ); अपि--यद्यपि; इत्थम्‌--इस प्रकार; दनु-जा:-हेअसुर पुत्रो; कुटुम्बम्‌ू--परिवार के सदस्य या दूर के लोग ( यथा जाति, समाज, राष्ट्र या राष्ट्रकुलों के लोग ); पुष्णनू--जीवन कीसारी सुविधाएँ प्रदान करते हुए; स्व-लोकाय--अपने को समझने में; न कल्पते--समर्थ नहीं होता; वै--निस्सन्देह; यः--जो;स्वीय--अपना; पारक्य--अन्यों का; विभिन्न--पृथक्‌; भाव:--जीवन की धारणा वाला; तम:ः--केवल अंधकार; प्रपद्येत--प्रवेश करता है; यथा--जिस प्रकार; विमूढ: --शिक्षारहित व्यक्ति या पशु जैसा

    हे मित्रों, हे असुरपुत्रो, इस भौतिक जगत में शिक्षा में अग्रणी लगने वाले व्यक्ति भी यहविचार करने की प्रवृत्ति रखते हैं 'यह मेरा है और यह पराया है।

    इस प्रकार वे सीमितपारिवारिक जीवन की धारणा में अपने परिवारों को जीवन की आवश्यकताएँ प्रदान करने मेंलगे रहते हैं मानो अशिक्षित कुत्ते-बिल्ली हों।

    वे आध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकते प्रत्युतवे मोहग्रस्त तथा अज्ञान से पराभूत हैं।

    "

    यतो न कश्रित्क्व च कुत्रचिद्ठादीनः स्वमात्मानमलं समर्थ: ।

    विमोचितुं कामहशां विहार-क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्ग: ॥

    १७॥

    ततो विदृरात्परिहृत्य दैत्यादैत्येषु सड़ं विषयात्मकेषु ।

    उपेत नारायणमादिदेवंस मुक्तसड्रैरिषितोपवर्ग: ॥

    १८॥

    यतः--क्योंकि; न--कभी नहीं; कश्चित्‌--कोई; क्व--किसी भी स्थान में; च--भी; कुत्रचित्‌ू--किसी समय; वा--अथवा;दीन:ः--अल्प ज्ञान वाला; स्वम्‌--अपना; आत्मानम्‌--स्वयं; अलम्‌--अत्यधिक; समर्थ: --सशक्त; विमोचितुम्‌-मुक्त करने केलिए; काम-हृशाम्‌--कामलोलुप स्त्रियों का; विहार--विषय सुख में; क्रीडा-मृग:--खिलौना, मनोरंजन का साधन; यत्‌--जिसमें; निगडः--जो भव-बन्धन की जंजीर है; विसर्ग:--पारिवारिक सम्बन्धों का विस्तार; ततः--ऐसी परिस्थिति में;विदूरात्‌-दूर से ही; परिहत्य--त्याग करके; दैत्या:-हे दैत्यों के पुत्र मेरे मित्रो; दैत्येषु--दैत्यों के मध्य; सड्रमू--साथ; विषय-आत्म-केषु-- जिन्हें इन्द्रियभोग की लत है, व्यसनी; उपेत--पास जाना चाहिए; नारायणम्‌-- भगवान्‌ नारायण के; आदि-देवमू--समस्त देवताओं के उद्गम; सः--वह; मुक्त-सड्डैः--मुक्त पुरुषों की संगति द्वारा; इषित:--इच्छित; अपवर्ग: --मुक्तिका मार्ग

    हे मित्रों, हे दैत्य पुत्रो, यह निश्चित है कि भगवान्‌ के ज्ञान से विहीन कोई भी अपने कोकिसी काल या किसी देश में मुक्त करने में समर्थ नहीं रहा है।

    उल्टे, ऐसे ज्ञान-विहीन लोगभौतिक नियमों से बाँधे जाते हैं।

    वे वास्तव में इन्द्रियविषय में लिप्त रहते हैं और उनका लक्ष्यस्त्रियाँ होती है।

    निस्सन्देह, ऐसे लोग आकर्षक स्त्रियों के हाथ के खिलौने बने रहते हैं।

    ऐसीजीवन-धारणोओं के शिकार बनकर वे बच्चों, नातियों तथा पनातियों से घिरे रहते हैं और इसतरह वे भव-बन्धन की जंजीरों से जकड़े जाते हैं।

    जो लोग ऐसी जीवन-धारणा में बुरी तरहलिप्त रहते हैं, वे दैत्य कहलाते हैं।

    इसलिए यद्यपि तुम सभी दैत्यों के पुत्र हो, किन्तु ऐसेव्यक्तियों से दूर रहो! और भगवान्‌ नारायण की शरण ग्रहण करो जो समस्त देवताओं के उद्गमहैं, क्योंकि नारायण-भक्तों का चरम लक्ष्य भव-बन्धन से मुक्ति पाना है।

    "

    न हाच्युतं प्रीणयतो बह्लायासोसुरात्मजा: ।

    आत्मत्वात्सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः ॥

    १९॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अच्युतम्‌--कभी न गिरने वाले भगवान्‌; प्रीणयत:--तुष्ट करते हुए; बहु--अत्यधिक; आयास:--प्रयास; असुर-आत्म-जा: --हे असुरपुत्रों; आत्मत्वात्‌ू-सिद्ध होने के कारण; सर्व-भूतानाम्‌ू--सारेजीवों का; सिद्धत्वात्‌--स्थापित होने से; इह-- इस संसार में; सर्वतः--सभी दिशाओं में, सभी कालों में तथा सभी दृष्टिकोणों से |

    हे दैत्यपुत्रो, भगवान्‌ नारायण ही समस्त जीवों के पिता और मूल परमात्मा हैं।

    फलस्वरूपउन्हें प्रसन्न करने में या किसी भी दशा में उनकी पूजा करने में बच्चे या वृद्ध को कोई अवरोधनहीं होता।

    जीव तथा भगवान्‌ का अन्तःसम्बन्ध एक तथ्य है अतएवं भगवान्‌ को प्रसन्न करने मेंकोई कठिनाई नहीं है।

    "

    परावरेषु भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु ।

    भौतिकेषु विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च ॥

    २०॥

    गुणेषु गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा ।

    एक एव परो ह्वात्मा भगवानीश्वरोव्यय: ॥

    २१॥

    प्रत्यगात्मस्वरूपेण हृश्यरूपेण च स्वयम्‌ ।

    व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो हानिर्देश्योडईविकल्पित: ॥

    २२॥

    केवलानुभवानन्दस्वरूप: परमेश्वर: ।

    माययान्तर्तितै श्वर्य ईयते गुणसर्गया ॥

    २३॥

    पर-अवरेषु--जीवन की श्रेष्ठ या नारकीय स्थिति में; भूतेषु--जीवों में; ब्रह्म-अन्त--ब्रह्मा में समाप्त होने वाले; स्थावर-आदिषु--पेड़-पौधों जैसे अचल प्राणियों से लेकर; भौतिकेषु-- भौतिक तत्त्वों में; विकारेषु --रूपान्तरों में; भूतेषु--प्रकृति केपाँच स्थूल तत्त्वों में; अथ--साथ ही; महत्सु--महत्‌ तत्त्व में पूर्ण शक्ति; च-- भी; गुणेषु-- प्रकृति के गुणों से; गुण-साम्ये--भौतिक गुणों के संतुलन में; च--तथा; गुण-व्यतिकरे-- प्रकृति के नियमों के असमान प्राकट्य में; तथा--और; एक:--एक;एव--एकमात्र; पर:--दिव्य; हि--निस्सन्देह; आत्मा--मूल स्त्रोत; भगवान्‌-- भगवान्‌; ईश्वर:ः--नियन्ता; अव्यय:--विकाररहित; प्रत्यक्‌ --आन्तरिक ; आत्म-स्वरूपेण--परमात्मा के रूप में, अपने मूल स्वाभाविक पद के द्वारा; दृश्य-रूपेण--अपने दृश्य रूपों द्वारा; च-- भी; स्वयमू--स्वयं; व्याप्य--व्याप्त; व्यापक --सर्वव्यापी; निर्देश्य:--वर्णन किया जाने वाला;हि--निश्चय; अनिर्देश्य:--जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ( सूक्ष्म उपस्थिति के कारण ); अविकल्पित:--बिना भेदभावके; केवल--एकमात्र; अनुभव-आनन्द-स्वरूप: -- जिसका स्वरूप आनन्द पूर्ण तथा ज्ञान से युक्त है; परम-ई श्वर:--पर मे श्वर,परम शासक; मायया--माया द्वारा; अन्तर्हित--आवृत, ढका हुआ; ऐश्वर्य:--जिसका असीम ऐश्वर्य; ईयते-- भूल से मान लियाजाता है; गुण-सर्गया--प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया से |

    परम नियन्ता भगवान्‌ जो अच्युत तथा अजेय हैं जीवन के विभिन्न रूपों में यथा पौधे जैसेस्थावर जीवों से लेकर प्रथम जन्मे प्राणी ब्रह्मा तक में उपस्थित हैं।

    वे अनेक प्रकार की भौतिकसृष्टियों में भी उपस्थित हैं तथा सारे भौतिक तत्त्वों, सम्पूर्ण भौतिक शक्ति एवं प्रकृति के तीनोंगुणों ( सतो, रजो तथा तमो गुण ) के साथ-साथ अव्यक्त प्रकृति एवं मिथ्या अंहकार में भीउपस्थित हैं।

    एक होकर भी वे सर्वत्र उपस्थित रहते हैं।

    वे समस्त कारणों के कारण दिव्यपरमात्मा भी हैं, जो सारे जीवों के अन्तस्तल में प्रेक्षक के रूप में उपस्थित हैं।

    उन्हें व्याप्य तथासर्वव्यापक परमात्मा के रूप में इंगित किया गया है, लेकिन वास्तव में उनको इंगित नहीं कियाजा सकता।

    वे अपरिवर्तित तथा अविभाज्य हैं।

    वे परम सच्चिदानन्द के रूप में अनुभव कियेजाते हैं।

    माया के आवरण से ढके होने के कारण नास्तिक को वे अविद्यमान प्रतीत होते हैं।

    "

    तस्मात्सवेंषु भूतेषु दयां कुरुत सौहदम्‌ ।

    भावमासुरमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षज: ॥

    २४॥

    तस्मात्‌ू--अतएव; सर्वेषु--समस्त; भूतेषु--जीवों पर; दयाम्‌--दया; कुरुत--दिखालाओ; सौहदम्‌--मैत्री; भावम्‌-- भाव,प्रवृत्ति; आसुरम्‌--असुरों का ( जो मित्रों तथा शत्रुओं को पृथक्‌ करते हैं ); उन्मुच्य--त्याग कर; यया--जिससे; तुष्यति--प्रसन्नहोता है; अधोक्षज:-- भगवान्‌ जो इन्द्रियों की अनभूति के परे है।

    अतएव हे असुरों से उत्पन्न मेरे प्यारे तरुण मित्रो, तुम सब ऐसा करो कि ऐसे भगवान्‌, जोभौतिक ज्ञान की धारणा से परे हैं, वे तुम पर प्रसन्न हों।

    तुम अपनी आसुरी प्रकृति छोड़ दो औरशत्रुता या द्वैत रहित होकर कर्म करो।

    सभी जीवों में भक्ति जगाकर उन पर दया प्रदर्शित करोऔर इस प्रकार उनके हितैषी बनो।

    "

    तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्येकि तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धा: ।

    धर्मादय: किमगुणेन च काड्क्षितेनसारं जुषां चरणयोरूपगायतां नः ॥

    २५॥

    तुष्टे--तुष्ट होने पर; च-- भी; तत्र--वहाँ; किमू--क्या; अलभ्यम्‌--अप्राप्य; अनन्ते-- भगवान्‌ में; आद्ये--समस्त वस्तुओं केअनादि स्रोत, समस्त कारणों के कारण; किमू--और क्‍या चाहिए; तैः --उनसे; गुण-व्यतिकरात्‌-- प्रकृति के गुणों की क्रिया;इह--इस संसार में; ये--जो; स्व-सिद्धा:--स्वयमेव प्राप्त; धर्म-आदय: -- भौतिक उन्नति के तीन सिद्धान्त ( अर्थात्‌ धर्म, अर्थतथा काम ); किम्‌ू--क्या आवश्यकता; अगुणेन--परमेश्वर में मुक्ति के साथ; च--तथा; काड्क्षितेन-- वांछित; सारम्‌--सारेनिचोड़; जुषाम्‌--स्वाद लेते हुए; चरणयो:--भगवान्‌ के दो चरणकमल; उपगायताम्‌-- भगवान्‌ के गुणों का गान करने वाले;नः--हमारा

    जिन भक्तों ने समस्त कारणों के कारण, समस्त वस्तुओं के आदि स्त्रोत भगवान्‌ को प्रसन्नकर लिया है उनके लिए कुछ भी दुष्प्राप्प नहीं है।

    भगवान्‌ असीम आध्यात्मिक गुणों के आगारहैं।

    अतएव उन भक्तों के लिए जो प्रकृति के गुणों से परे हैं उन्हें धर्म, अर्थ काम, मोक्ष केसिद्धान्तों का पालन करने से क्‍या लाभ, क्‍योंकि ये तो प्रकृत्ति के गुणों के प्रभावों के अन्तर्गतस्वतः प्राप्त हैं! हम भक्तगण सदैव भगवान्‌ के चरणकमलों का यशोगान करते हैं अतएव हमेंधर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की याचना नहीं करनी चाहिए।

    "

    धर्मार्थकाम इति योउभिहितस्त्रिवर्गईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता ।

    मन्ये तदेतद्खिलं निगमस्य सत्यस्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः ॥

    २६॥

    धर्म--धर्म; अर्थ-- आर्थिक उन्नति; काम:--संयमित इन्द्रियतृप्ति; इति--इस प्रकार; यः--जो; अभिहित:--बताये गये; त्रि-वर्ग:--तीन का समूह; ईक्षा--आत्म-साक्षात्कार; त्रयी-- वैदिक अनुष्ठान; नय--तर्क; दमौ--तथा विधि एवं व्यवस्था कीविद्या; विविधा--अनेक प्रकार; च--भी; वार्ता--वृत्तिपरक कर्तव्य या जीविका; मन्ये--मैं मानता हूँ; तत्‌ू--उनको; एतत्‌--वे; अखिलम्‌--सारा; निगमस्य--वेदों का; सत्यम्‌--सत्य; स्व-आत्म-अर्पणम्‌--अपने को पूरी तरह अर्पित कर देना; स्व-सुहृदः--अपने परम मित्र को; परमस्य--परम; पुंस:--पुरुष |

    धर्म, अर्थ तथा काम--इन तीनों को वेदों में त्रिवर्ग अर्थात्‌ मोक्ष के तीन साधन कहा गयाहै।

    इन तीन वर्गों के अन्तर्गत ही शिक्षा तथा आत्म-साक्षात्कार, वैदिक आदेशानुसार सम्पन्नकर्मकाण्ड, विधि तथा व्यवस्था विज्ञान एवं जीविका अर्जित करने के विविध साधन आते हैं।

    येतो वेदों के अध्ययन के बाह्य विषय हैं अतएव मैं उन्हें भौतिक मानता हूँ।

    किन्तु मैं भगवान्‌ विष्णुके चरणकमलों में समर्पण को दिव्य मानता हूँ।

    "

    ज्ञानं तदेतदमलं दुरवापमाहनारायणो नरसख: किल नारदाय ।

    एकान्तिनां भगवतस्तदकिझ्जनानांपादारविन्दरजसाप्लुतदेहिनां स्थातू ॥

    २७॥

    ज्ञानमू--ज्ञान; ततू--वह; एतत्‌--यह; अमलम्‌--कल्मषरहित; दुरबापम्‌--समझ पाना कठिन ( भक्ति की कृपा के बिना );आह--बतलाया; नारायण: -- भगवान्‌ नारायण ने; नर-सख: --सारे जीवों ( विशेषतया मनुष्यों ) के मित्र; किल--निश्चय ही;नारदाय--महर्षि नारद को; एकान्तिनाम्‌--उनका, जिन्होंने एकमात्र भगवान्‌ की शरण ले रखी है; भगवत:-- भगवान्‌ का;तत्‌--वह ( ज्ञान ); अकिद्जनानाम्‌--जिन्हें कोई भौतिक सम्पत्ति नहीं चाहिए; पाद-अरविन्द-- भगवान्‌ के चरणकमलों की;रजसा--धूल से; आप्लुत--स्नात, नहाये हुए; देहिनामू--जिनके शरीर; स्यात्‌ू--सम्भव है।

    समस्त जीवों के शुभचिन्तक एवं मित्र भगवान्‌ नारायण ने यह दिव्य ज्ञान पहले परम सन्तनारद को दिया।

    ऐसा ज्ञान नारद जैसे सन्त पुरुष की कृपा के बिना समझ पाना कठिन है, किन्तुजिसने भी नारद की परम्परा की शरण ले रखी है, वह इस गुह्य ज्ञान को समझ सकता है।

    "

    श्रुतमेतन्मया पूर्व ज्ञानं विज्ञानसंयुतम्‌ ।

    धर्म भागवतं शुद्ध नारदाद्देवदर्शनात्‌ ॥

    २८ ॥

    श्रुतम्‌--सुना गया; एतत्‌--यह; मया--मेरे द्वारा; पूर्वम्‌ू--इसके पहले; ज्ञानम्‌-गुद्य ज्ञान; विज्ञान-संयुतम्‌--अपने व्यावहारिकसम्प्रयोग से संयुक्त; धर्मम्‌--दिव्य धर्म; भागवतम्‌-- भगवान्‌ से सम्बद्ध; शुद्धम्‌-शुद्ध, जिसे भौतिक कार्यो से कुछ लेना-देनानहीं है; नारदातू--महान्‌ सन्त नारद से; देव--भगवान्‌ का; दर्शनातू--जो सदैव दर्शन करने वाले |

    प्रह्ाद महाराज ने आगे कहा : मैंने यह ज्ञान भक्ति में सदैव तलल्‍लीन रहने वाले परम सन्तनारद से प्राप्त किया है।

    यह ज्ञान भागवत धर्म कहलाता है, जो अत्यन्त वैज्ञानिक है।

    यह तर्कतथा दर्शन पर आधारित है और समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त है।

    "

    श्रीदैत्यपुत्रा ऊचुःप्रह्माद त्वं वयं चापि नर्तेउन्यं विद्यहे गुरुम्‌ ।

    एताभ्यां गुरुपुत्रा भ्यां बालानामपि ही श्वरो ॥

    २९॥

    बालस्यथान्तःपुरस्थस्य महत्सड़ो दुरन्‍्वयः ।

    छिन्धि नः संशयं सौम्य स्याच्चेद्विस्रम्भकारणम्‌ ॥

    ३०॥

    श्री-दैत्य-पुत्रा: ऊचु:--दैत्य पुत्रों ने कहा; प्रह्माद--हे मित्र प्रह्माद; त्वम्‌--तुम; वयम्‌--हम सब; च--तथा; अपि-- भी; न--नहीं; ऋते--सिवाय; अन्यमू--अन्य; विद्यह--जानते हैं; गुरुम्‌--गुरु को; एताभ्यामू--इन दोनों; गुरु-पुत्राभ्यामू--शुक्राचार्यके पुत्रों से; बालानामू--बच्चों के; अपि--यद्यपि; हि--निस्सन्देह; ईश्वरौ--दो नियन्ता; बालस्थ--बच्चों का; अन्तःपुर-स्थस्य--घर या महल के भीतर रहते हुए; महत्‌-सड्भगः--नारद-जैसे महापुरुष की संगति; दुरन्‍्वय:--अत्यन्त कठिन; छिन्धि--कृपया दूर करो; न:--हमारा; संशयम्‌--संशय, शंका; सौम्य--हे भद्ग; स्थात्‌--हो सके; चेत्‌--यदि; विस्त्रम्भ-कारणम्‌--तुम्हारे बचनों में श्रद्धा का कारण।

    दैत्य पुत्रों ने उत्तर दिया: प्रहाद, न तुम और न ही हम शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड तथा अमर्क केअतिरिक्त अन्य किसी अध्यापक या गुरु को जानते हैं।

    अन्ततः हम बच्चे हैं और वे हमारेनियंत्रक हैं।

    तुम जैसे सदैव महल के भीतर रहने वाले के लिए ऐसे महापुरुष की संगति करपाना अत्यन्त कठिन है।

    हे परम भद्र मित्र, क्या तुम यह बतलाओगे कि तुम्हारे लिए नारद से सुनपाना कैसे सम्भव हो सका ?

    इस सम्बन्ध में हमारी शंका को दूर करो।

    "

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    अध्याय सात: प्रह्लाद ने गर्भ में क्या सीखा

    7.7श्रीनारद उबाचएवं दैत्यसुतैः पृष्ठो महाभागवतोसुरः ।

    उवबाच तान्स्मयमान:स्मरन्मदनुभाषितम्‌ ॥

    १॥

    श्री-नारद: उवाच--महान्‌ सन्त नारद मुनि ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; दैत्य-सुतैः--दैत्य को पुत्रों द्वारा; पृष्ट:--पूछे जाने पर;महा-भागवतः-- भगवान्‌ के महान्‌ भक्त ने; असुरः--दैत्यों के वंश में उत्पन्न; उबाच--कहा; तान्‌ू--उनसे ( असुर पुत्रों से );स्मयमान:--हँसते हुए; स्मरन्‌--स्मरण करते हुए; मत्‌-अनुभाषितम्‌--मेरे द्वारा कहा गया |

    नारद मुनि ने कहा : यद्यपि प्रह्मद महाराज असुरों के परिवार में जन्मे थे, किन्तु वे समस्तभक्तों में सबसे महान्‌ थे।

    इस प्रकार अपने असुर सहपाठियों द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने मेरे द्वाराकहे गये शब्दों का स्मरण किया और अपने मित्रों से इस प्रकार कहा।

    "

    श्रीप्रहाद उवाचपितरि प्रस्थितेउस्माकं तपसे मन्दराचलम्‌ ।

    युद्धोद्यमं परं चक्रुर्विबुधा दानवान्प्रति ॥

    २॥

    श्री-प्रह्मद: उबाच--प्रह्माद महाराज ने कहा; पितरि--असुर पिता हिरण्यकशिपु के; प्रस्थिते--यहाँ से जाने पर; अस्माकम्‌--हमारे; तपसे--तपस्या करने के लिए; मन्दर-अचलम्‌ू--मन्दराचल नामक पर्वत पर; युद्ध-उद्यमम्‌--युद्ध करने का उद्योग;परम्‌-महान्‌; चक्रु:--सम्पन्न किया; विबुधा:--इन्द्र इत्यादि देवताओं ने; दानवान्‌ू--असुरों के ; प्रति--प्रति |

    प्रहाद महाराज ने कहा : जब हमारे पिता हिरण्यकशिपु कठिन तपस्या करने के लिएमन्दराचल पर्वत चले गये तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र इत्यादि देवताओं ने युद्ध में सारे असुरोंका दमन करने का घोर प्रयास किया।

    "

    पिपीलिकैरहिरिव दिछ्या लोकोपतापन: ।

    पापेन पापोभक्षीति वदनतो वासवादयः ॥

    ३॥

    पिपीलिकैः--छोटी-छोटी चीटियों के द्वारा; अहिः--साँप; इब--सहश; दिछ्या--ओह; लोक-उपतापन:--सदैव सबों काउत्पीड़न करने वाला; पापेन--अपने ही पाप कर्मों से; पाप:--पापी हिरण्यकशिपु; अभक्षि--खा लिया गया; इति--इस प्रकार;वदन्तः--कहते हुए; वासव-आदय:--राज इन्द्र आदि देवता

    ओह! जिस प्रकार साँप को छोटी-छोटी चींटियाँ खा जाती हैं उसी प्रकार कष्टदायकहिरण्यकशिपु जो सभी प्रकार के लोगों पर कहर ढहाता था अपने ही पापकर्मों के कारणपराजित किया जा चुका है।

    ऐसा कहकर इन्द्रादि देवताओं ने असुरों से लड़ने की योजनाबनाई।

    "

    तेषामतिबलोद्योगं निशम्यासुरयूथपा: ।

    वध्यमाना: सुरैर्भीता दुद्ग॒ुवु: सर्वती दिशम्‌ ॥

    ४॥

    कल्नत्रपुत्रवित्ताप्तान्गृहान्पशुपरिच्छदान्‌ ।

    नावेक्ष्यमाणास्त्वरिता: सर्वे प्राणपरीप्सव: ॥

    ५॥

    तेषाम्‌ू--इन्द्र आदि देवताओं का; अतिबल-उद्योगम्‌--अत्यधिक शक्ति तथा उद्योग; निशम्य--सुन कर; असुर-यूथपा:-- असुरोंके महन नायक; वध्यमाना:--एक के बाद एक मारे जाकर; सुरैः--देवताओं द्वारा; भीता:-- भयभीत; दुद्गुवु:-- भाग गये;सर्वतः--समस्त; दिशम्‌-दिशाओं में; कलत्र--पत्नियाँ; पुत्र-वित्त--लड़के तथा सम्पत्ति; आप्तान्‌ू--सम्बन्धी; गृहानू--घरोंको; पशु-परिच्छदान्‌ू-- पशु तथा गृहस्थी के सामान को; न--नहीं; अवेक्ष्यमाणा:--देखते हुए; त्वरिता:--जल्दी-जल्दी;सर्वे--सभी; प्राण-परीप्सब:ः--जीवित रहने की अत्यधिक इच्छा करते हुए।

    एक के बाद एक मारे जाने पर जब असुरों के महान्‌ नायकों ने लड़ाई में देवताओं का अभूतपूर्व पराक्रम देखा, तो वे तितर-बितर होकर सभी दिशाओं में भागने लगे।

    अपने प्राणों कीरक्षा करने के लिए वे अपने घरों, पत्नियों, बच्चों, पशुओं तथा घर के सारे साज-समान कोछोड़कर जल्दी-जल्दी भाग गये।

    उन्होंने इन सबकी परवाह नहीं की और मात्र भागना आरम्भकर दिया।

    "

    व्यलुम्पन्‌ राजशशिबिर्ममरा जयकाडक्षिण: ।

    इन्द्रस्तु राजमहिषीं मातरं मम चाग्रहीत्‌ ॥

    ६॥

    व्यलुम्पन्‌-- लूटा; राज-शिबिरम्‌-मेरे पिता हिरण्यकशिपु के महल को; अमरा:--देवताओं ने; जय-काड्क्षिण:--विजयी होनेके लिए उत्सुक; इन्द्र:--देवताओं के प्रमुख राजा इन्द्र ने; तु--लेकिन; राज-महिषीम्‌--रानी; मातरम्‌--माता को; मम--मेरी;च--भी; अग्रहीत्‌ू--पकड़ लिया।

    विजयी देवताओं ने असुरराज हिरण्यकशिपु के महल को लूट लिया और उसके भीतर कीसारी वस्तुएँ नष्ट-भ्रष्ट कर दीं।

    तब स्वर्ग के राजा इन्द्र ने मेरी माता को बन्दी बना लिया।

    "

    नीयमानां भयोद्विग्नां रूदतीं कुररीमिव ।

    यहच्छयागतत्तत्र देवर्षिदेदशे पथि ॥

    ७॥

    नीयमानाम्‌--ले जाई जाती हुई; भय-उद्विग्नाम्‌--उद्विग्न तथा भयभीत; रुदतीम्‌ू--रोती हुईं; कुररीम्‌ इब--कुररी पक्षी की तरह;यहच्छया--दैववश; आगतः --आये हुए; तत्र--उस स्थान पर; देव-ऋषि: --परम सन्त नारद ने; दहशे -- देखा; पथि--रास्ते में |

    जब इस प्रकार वे गृद्ध द्वारा पकड़ी गई कुररी पक्षी की भाँति भय से चिललाती हुई ले जाईजा रही थीं तो देवर्षि महर्षि नारद जो उस समय किसी भी कार्य में व्यस्त नहीं थे, घटनास्थल परप्रकट हुए और उन्होंने उस अवस्था में उन्हें देखा।

    "

    प्राह नैनां सुरपते नेतुमरहस्यनागसम्‌ ।

    मुझ्न मुझ महाभाग सतीं परपरिग्रहम्‌ ॥

    ८॥

    प्राह--कहा; न--नहीं; एनाम्‌--इसको; सुर-पते--हे देवताओं के राजा; नेतुमू--घसीटने के लिए; अहसि--तुम्हें चाहिए;अनागसम्‌--पापरहित, निर्दोष; मुझ मुझ्ञ--छोड़ दो, छोड़ दो; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; सतीम्‌--सती; पर-परिग्रहम्‌--पराये पुरुष की पत्नी को

    नारद मुनि ने कहा: हे देवराज इन्द्र, यह स्त्री निश्चय ही पापरहित है।

    तुम्हें इसे इस तरहक्रूरतापूर्वक घसीटना नहीं चाहिए।

    हे परम सौभाग्यशाली, यह सती स्त्री किसी दूसरे की पत्नी है।

    तुम इसे तुरन्त छोड़ दो।

    "

    श्रीइन्द्र बाचआस्तेस्या जठरे वीर्यमविषटह्वंं सुरद्विष: ।

    आस्यतां यावत्प्रसवं मोक्ष्येडर्थपदवीं गत: ॥

    ९॥

    श्री-इन्द्र: उवाच--राजा इन्द्र ने कहा; आस्ते--है; अस्या:--उसके ; जठरे--उदर में; वीर्यम्‌--वीर्य; अविषह्ाम्‌-- असहनीय;सुर-द्विष:--देवताओं के शत्रु का; आस्यताम्‌--इसे रहने दें ( हमारी कैद में ); यावत्‌--जब तक; प्रसवम्‌--बच्चे का जन्म;मोक्ष्ये--मैं छोड़ दूँगा; अर्थ-पदवीम्‌--मेंरे लक्ष्य का मार्ग; गत:--प्राप्त हुआ |

    राजा इन्द्र ने कहा : इस असुरपत्नी के गर्भ में उस असुर हिरण्यकशिपु का वीर्य है।

    अतएवइसे तब तक हमारे संरक्षण में रहने दें जब तक बच्चा उत्पन्न नहीं हो जाता।

    तब हम इसे छोड़देंगे।

    "

    श्रीनारद उवाचअयं निष्किल्बिष: साक्षान्महाभागवतो महान्‌ ।

    त्वया न प्राप्स्यते संस्थामनन्तानुचरो बली ॥

    १०॥

    श्री-नारद: उबाच--महान्‌ सन्त नारद मुनि ने कहा; अयम्‌--यह ( गर्भस्थ बालक ); निष्किल्बिष:--पूर्णतया पापरहित;साक्षात्‌-प्रत्यक्ष; महा-भागवतः--सन्त भक्त; महान्‌ू--महान्‌; त्वया--तुम्होरे द्वारा; न प्राप्स्थते--नहीं प्राप्त करेगा; संस्थाम्‌--अपनी मृत्यु; अनन्त-- भगवान्‌ का; अनुचर:--दास; बली--अत्यन्त शक्तिशाली |

    नारद मुनि ने उत्तर दिया: इस स्त्री के गर्भ में स्थित बालक निर्दोष या निष्पाप है।

    निस्सन्देह,वह महान्‌ भक्त तथा भगवान्‌ का शक्तिशाली दास है।

    अतएव तुम उसे मार पाने में सक्षम नहींहोगे।

    "

    इत्युक्तस्तां विहायेन्द्रो देवर्षेमानियन्वच: ।

    अनन्तप्रियभक्त्यैनां परिक्रम्य दिवं ययौ ॥

    ११॥

    इति--इस प्रकार; उक्त:--सम्बोधित होकर; तामू--उसको; विहाय--छोड़ कर; इन्द्र: --स्वर्ग का राजा; देव-ऋषे:--नारद मुनिके; मानयन्‌--मानते हुए, सम्मान करते हुए; वच:--शब्दों का; अनन्त-प्रिय-- भगवान्‌ के प्रिय; भक्त्या--भक्ति से; एनामू--इसको ( स्त्री को ); परिक्रम्य--परिक्रमा करके; दिवम्‌--स्वर्ग लोक को; ययौ--वापस चला गया |

    जब परम सन्त नारद मुनि ने इस प्रकार कहा तो राजा इन्द्र ने नारद के वचनों का सम्मानकरते हुए तुरन्त ही मेरी माता को छोड़ दिया।

    चूँकि मैं भगवद्भक्त था, अतएवं सब देवताओं नेमेरी माता की परिक्रमा की और तब वे सभी अपने अपने स्वर्गधाम को वापस चले गये।

    "

    ततो मे मातरमृषि: समानीय निजाश्रमे ।

    आश्वास्येहोष्यतां वत्से यावत्ते भर्तुरागम: ॥

    १२॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; मे--मेरी; मातरम्‌--माता को; ऋषि: --नारद ऋषि ने; समानीय--लाकर; निज-आश्रमे--अपने आश्रम में;आश्वास्य--आश्वासन देकर; इह--यहाँ; उष्यतामू--निवास करो; वत्से--मेरी बेटी; यावत्‌--जब तक; ते--तुम्हारे; भर्तु:--पति का; आगमः--आगमन, आना।

    प्रह्दाद महाराज ने आगे बताया: परम सन्त नारद मुनि मेरी माता को अपने आश्रम ले गयेऔर यह कहकर सभी प्रकार से सुरक्षा का आश्वासन दिया 'मेरी बेटी, तुम मेरे आश्रम में अपने पति के वापस आने तक रहो।

    "

    'तथेत्यवात्सीद्देवर्षरन्तिके साकुतोभया ।

    यावद्दैत्यपति्घोरात्तपसो न न्यवर्तत ॥

    १३॥

    तथा--ऐसा ही हो; इति--इस प्रकार; अवात्सीत्‌--रहती रही; देव-ऋषे:--देवर्षि नारद के; अन्तिके--निकट; सा--वह ( मेरीमाता ); अकुतो-भया--किसी भी प्रकार के भय के बिना; यावत्‌--जब तक; दैत्य-पति:--मेंरे पिता असुरराज हिरण्यकशिपुने; घोरातू-- अत्यन्त कठिन; तपस:-- तपस्या; न--नहीं; न्यवर्तत--बन्द कर दिया।

    देवर्षि नारद के उपदेशों को मानकर मेरी माता बिना किसी प्रकार के भय के उनकी देख-रेख में तब तक रहती रही जब तक मेरे पिता दैत्ययाज अपनी घोर तपस्या से मुक्त नहीं हो गये।

    "

    ऋषिं पर्यचरत्तत्र भक्त्या परमया सती ।

    अन्तर्वली स्वगर्भस्य क्षेमायेच्छाप्रसूतये ॥

    १४॥

    ऋषिम्‌--नारद मुनि की; पर्यचरत्‌--सेवा करती रही; तत्र--वहाँ ( आश्रम में ); भक्त्या-- श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक; परमया--परम; सती--आज्ञाकारी स्त्री; अन्तर्वली--गर्भवती; स्व-गर्भस्य-- अपने गर्भ के; क्षेमाय--कल्याण के लिए; इच्छा--इच्छानुसार; प्रसूतये--सन्तान उत्पन्न करने के लिए

    मेरी माता गर्भवती होने के कारण अपने गर्भ की सुरक्षा चाहती थीं और चाहती थीं कि पतिके आगमन के बाद सन्तान उत्पन्न हो।

    इस तरह वे नारद मुनि के आश्रम पर रहती रहीं जहाँ वेअत्यन्त भक्तिपूर्वक नारद मुनि की सेवा करती रहीं।

    "

    ऋषि: कारुणिकस्तस्या: प्रादादुभयमी श्वरः ।

    धर्मस्य तत्त्वं ज्ञानं च मामप्युद्दिश्य निर्मलम्‌ ॥

    १५॥

    ऋषि:--नारद मुनि; कारुणिक:--पतितों पर अत्यधिक स्नेहिल या कृपालु; तस्या: --उसको ; प्रादातू--उपदेश दिया;उभयम्‌--दोनों को; ईश्वर: --शक्तिमान नियन्ता नारद मुनि जो चाहे सो कर दे; धर्मस्य-- धर्म का; तत्त्वम्‌--सत्य; ज्ञामम्‌ू--ज्ञान;च--तथा; मामू--मुझको; अपि--विशेष रूप से; उद्दिश्य--इंगित करके ; निर्मलम्‌ू--भौतिक कल्मष से रहित |

    नारद मुनि ने गर्भ में स्थित मुझे तथा अपनी सेवा में लगी मेरी माता दोनों को उपदेश दिया।

    चूँकि वे स्वभाव से पतितों पर अत्यन्त दयालु हैं, अतएवं अपनी दिव्य स्थिति के कारण उन्होंनेधर्म तथा ज्ञान के विषय में उपदेश दिये।

    ये उपदेश भौतिक कल्मष से रहित थे।

    "

    तत्तु कालस्य दीर्घ॑त्वास्त्रीत्वान्मातुस्तिरोदधे ।

    ऋषिणानुगृहीतं मां नाधुनाप्यजहात्स्मृति: ॥

    १६॥

    तत्‌--वह ( धर्म तथा ज्ञान विषयक उपदेश ); तु--निस्सन्देह; कालस्य--समय के; दीर्घत्वात्‌--दीर्घ होने के कारण;स्त्रीत्वात्‌--स्त्री होने के कारण; मातुः--मेरी माता का; तिरोदधे--लुप्त हो गया; ऋषिणा--ऋषि द्वारा; अनुगृहीतम्‌-- आशीर्वादसे; मामू--मुझको; न--नहीं; अधुना--आज; अपि-- भी; अजहात्‌--छोड़ पाई; स्मृति: --स्मृति ( नारद मुनि के उपदेशों की )॥

    अधिक काल बीत जाने तथा स्त्री होने से अल्पज्ञ होने के कारण मेरी माता उन सारे उपदेशोंको भूल गईं, किन्तु ऋषि नारद ने मुझे आशीर्वाद दिया था, अतएव मैं नहीं भूल पाया।

    "

    भवतामपि भूयान्मे यदि श्रदधते बच: ।

    वैज्ञारदी धी: श्रद्धातः स्त्रीबालानां च मे यथा ॥

    १७॥

    भवताम्‌--तुम लोगों की; अपि-- भी; भूयात्‌--हो सकता है; मे--मेरा; यदि--यदि; श्रद्धधते--तुम विश्वास करो; वच:--शब्द; वैशारदी--अत्यन्त दक्ष, या परमेश्वर के प्रति; धीः--बुद्द्धि; श्रद्धात:--हृढ़ श्रद्धा के कारण; स्त्री--स्त्रियों के;बालानाम्‌ू--बालकों के; च--भी; मे--मेरा; यथा--जिस तरह।

    प्रह्माद महाराज ने कहा : हे मित्रों, यदि तुम मेरी बातों पर श्रद्धा करो तो तुम भी उसी श्रद्धासे मेरे ही समान दिव्य ज्ञान को समझ सकते हो, भले ही तुम सभी छोटे-छोटे बालक क्‍यों नहो।

    इसी प्रकार एक स्त्री भी दिव्य ज्ञान को समझ सकती है और यह जान सकती है कि आत्माक्या है तथा भौतिक पदार्थ कया है।

    हः न ते" जन्माद्या: षडिमे भावा दृष्टा देहस्य नात्मन: ।

    'फलानामिव वृक्षस्य कालेने श्वरमूर्तिना ॥

    १८॥

    जन्म-आद्या:--जन्म से लेकर; षघट्‌ू--छः ( जन्म, अस्तित्व, वृद्धि, रूपान्तर, क्षय तथा अन्त में मृत्यु ); इमें--ये सब; भावा:--शरीर की विभिन्न अवस्थाएँ; दृष्टा:--देखे जाते हैं; देहस्थ--शरीर के; न--नहीं; आत्मन:--आत्मा के; फलानामू-- फलों के;इब--सहश्; वृक्षस्थ--वृक्ष के; कालेन--काल क्रम से; ईश्वर-मूर्तिना--जिसका स्वरूप रूपान्तर करने या शारीरिककार्यकलापों को वश में करने की क्षमता है।

    जिस प्रकार वृक्ष के फलों तथा फूलों में कालक्रम से छः प्रकार के परिवर्तन--जन्म,अस्तित्व, वृद्धि, रूपान्तर, क्षय तथा अन्त में मृत्यु--होते हैं उसी प्रकार विभिन्न परिस्थितियों मेंआत्मा को जो भौतिक शरीर प्राप्त होता है उसमें भी ऐसे ही परिवर्तन होते हैं।

    किन्तु आत्मा मेंऐसे परिवर्तन नहीं होते।

    "

    आत्मा नित्योव्ययः शुद्ध एक: क्षेत्रज्ञ आश्रय: ।

    अविक्रिय: स्वह्ग्‌ हेतुर्व्यापकोसड्ग्यनावृतः ॥

    १९॥

    एतैर्द्गठाद्शभिर्विद्वानात्मनो लक्षणै: परैः ।

    अहं ममेत्यसद्धावं देहादौ मोहजं त्यजेतू ॥

    २०॥

    आत्मा--आत्मा, भगवान्‌ का अंश; नित्य:--जन्म या मृत्यु से रहित; अव्यय:--क्षीण होने की सम्भावना से रहित; शुद्ध: --आसक्ति तथा विरक्ति के भौतिक कल्मष से रहित; एक: --अकेला।

    क्षेत्र-ज्ञ:--जानने वाला अतएव भौतिक शरीर से पृथक्‌;आश्रय:--मूल आधार; अविक्रिय:--शरीर की तरह परिवर्तन नहीं होते; स्व-हक्‌-- आत्म-प्रकाशित; हेतु:--समस्त कारणों केकारण; व्यापक:--चेतना के रूप में सारे शरीर में फैला हुआ; असड्री--शरीर पर आश्रित न रहकर ( एक शरीर से दूसरे मेंदेहान्तर करने के लिए मुक्त ); अनावृत:--भौतिक कल्मष के द्वारा आच्छादित नहीं; एतैः--इन सबों के द्वारा; द्वादशभि:--बारह; विद्वानू-व्यक्ति जो मूर्ख नहीं हैं, अपितु वस्तुओं के यथारूप से परिचित हैं; आत्मन:--आत्मा के; लक्षणैः--लक्षणों से;'परैः--दिव्य; अहम्‌--मैं ( मैं यह शरीर हूँ ); मम--मेरा ( इस शरीर से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु मेरी है ); इति--इस प्रकार;असत्‌-भावम्‌--जीवन की मिथ्या धारणा; देह-आदौ--अपनी पहचान भौतिक देह से और फिर अपनी पली, सन्‍्तान, परिवार,या जाति, राष्ट्र आदि से करना; मोह-जम्‌--मोहमय ज्ञान से उत्पन्न; त्यजेत्‌ू-त्याग देना चाहिए।

    'आत्मा' परमेश्वर या जीवों का सूचक है।

    ये दोनों ही आध्यात्मिक हैं, जन्म-मृत्यु से मुक्त हैंतथा क्षय से रहित एवं भौतिक कल्मष से भी मुक्त हैं।

    ये व्यष्टि हैं, ये बाह्य शरीर के ज्ञाता हैं,प्रत्येक वस्तु के आश्रय या आधार हैं।

    ये भौतिक परिवर्तन से मुक्त हैं, ये आत्मप्रकाशित हैं, येसमस्त कारणों के कारण हैं तथा सर्वव्यापी हैं।

    इन्हें भौतिक शरीर से कोई सरोकार नहीं रहता,अतएव ये सदैव अनाकृष्ट रहते हैं।

    इस दिव्य गुणों से युक्त जो मनुष्य वास्तव में विद्वान है उसेजीवन की भ्रान्त धारणा का परित्याग करना चाहिए जिसमें वह सोचता है 'मैं यह भौतिक शरीरहूँ और इस शरीर से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु मेरी है।

    "

    स्वर्ण यथा ग्रावसु हेमकारःक्षेत्रेषु योगैस्तदभिज्ञ आप्नुयात्‌ ।

    क्षेत्रेषु देहेषु तथात्मयोगै-रध्यात्मविद्वह्गतिं लभेत ॥

    २१॥

    स्वर्णमू--सोने को; यथा--जिस प्रकार; ग्रावसु--स्वर्ण खनिज के पत्थरों में; हेम-कारः--स्वर्ण के विषय में जानने वाला,विशेषज्ञ; क्षेत्रेषु--सोने की खानों में; योगै:--विभिन्न विधियों द्वारा; तत्‌-अभिज्ञ:--जानकार जो यह जानता है कि सोना कहाँहै; आणुयात्‌--सरलता से प्राप्त कर लेता है; क्षेत्रेषु-- भौतिक खेतों में; देहेषु--मनुष्य शरीरों तथा शेष चौरासी लाख योनियोंमें; तथा--उसी प्रकार; आत्म-योगैः--आध्यात्मिक विधियों से; अध्यात्म-वित्‌--आत्मा तथा पदार्थ के अन्तर को समझने मेंपटु; ब्रह्म गगतिम्‌-- आध्यात्मिक जीवन में सिद्धि; लभेत--प्राप्त कर सकता है|

    एक दक्ष भूविज्ञानी समझ सकता है कि सोना कहाँ पर है और वह उसे स्वर्णखनिज में सेविविध विधियों द्वारा निकाल सकता है।

    इसी प्रकार आध्यात्मिक रूप से अग्रसर व्यक्ति यहसमझ सकता है कि शरीर के भीतर किस तरह आध्यात्मिक कण विद्यमान रहते हैं और इसप्रकार आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

    फिर भी जिस प्रकारएक अनाड़ी यह नहीं समझ पाता कि सोना कहाँ पर है, उसी प्रकार जिस मूर्ख व्यक्ति नेआध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन नहीं किया वह यह नहीं समझ सकता कि शरीर के भीतरआत्मा किस तरह विद्यमान रह सकता है।

    "

    अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्तासत्रय एव हि तद्गुणा: ।

    विकाराः षोडशाचार्य: पुमानेक: समन्वयात्‌ ॥

    २२॥

    अष्टौ-- आठ; प्रकृतबः--भौतिक शक्तियाँ; प्रोक्ताः--कही गयी हैं; त्रय:--तीन; एव--निश्चय ही; हि--निश्चित; तत्‌-गुणा:--भौतिक शक्ति के गुण; विकारा:--रूपान्तर, दोष; षोडश--सोलह; आचार्य: --अधिकारियों द्वारा; पुमान्‌ू-- जीव; एक:--एक; समन्वयात्‌--समन्वय से |

    भगवान्‌ की आठ भिन्न भौतिक शक्तियों, प्रकृति के तीन गुणों तथा सोलह विकारों ( ग्यारहइन्द्रियों तथा पाँच स्थूल तत्त्व यथा पृथ्वी तथा जल ) के अन्तर्गत एक ही आत्मा साक्षी के रूप मेंविद्यमान रहता है।

    अतएव सारे महान्‌ आचार्यो ने यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा इन्हींभौतिक तत्त्वों द्वारा बद्ध है।

    "

    देहस्तु सर्वसड्जातो जगत्तस्थुरिति द्विधा ।

    अन्रैव मृग्यः पुरुषो नेति नेतीत्यतत्त्यजन्‌ ॥

    २३॥

    देह:--शरीर; तु--लेकिन; सर्व-सक्लतः--चौबीसों तत्त्वों का मेल; जगत्‌--चलायमान दिखने वाला चर; तस्थु:ः--तथा एकस्थान पर खड़ा, अचर; इति--इस प्रकार; द्विधा--दो प्रकार; अत्र एब--इस पदार्थ में; मृग्य:--खोजा जाना चाहिए; पुरुष: -- जीव, आत्मा; न--नहीं; इति--इस प्रकार; न--नहीं; इति--इस प्रकार; इति--इस प्रकार; अतत्‌--जो आत्मा नहीं है;त्यजन्‌-त्यागते हुए

    प्रत्येक जीवात्मा के दो प्रकार के शरीर होते हैं--पाँच स्थूल तत्त्वों से बना स्थूल शरीर तथातीन सूक्ष्म तत्त्वों से बना सूक्ष्म शरीर।

    किन्तु इन्हीं शरीरों में आत्मा है।

    मनुष्य को चाहिए कि वह'यह नहीं है, यह नहीं है' कहकर विश्लेषण द्वारा आत्मा का अनुसन्धान करे।

    इस तरह उसेआत्मा को पदार्थ से पृथक्‌ कर लेना चाहिए।

    "

    अन्वयव्यतिरिकेण विवेकेनोशतात्मना ।

    स्वर्गस्थानसमाम्नायर्विमृशद्धिरसत्वरै: ॥

    २४॥

    अन्वय-प्रत्यक्षतः; व्यतिरिकेण--तथा अप्रत्यक्ष रूप से; विवेकेन--प्रौढ़ विवेकता; उशता--शुद्ध हुआ; आत्मना--मन से;स्वर्ग--सृष्टि; स्थान--पालन; समाम्नायै: --तथा विनाश द्वारा; विमृशद्धिः--गम्भीर विश्लेषण करने वालों के द्वारा; असतू-वरैः--अत्यन्त धीर।

    धीर तथा दक्ष पुरुषों को चाहिए कि आत्मा का अनुसन्धान वैश्लेषिक अध्ययन के द्वाराशुद्ध हुए मनों से करें जो सृष्टि, पालन तथा संहार होने वाली सारी वस्तुओं से आत्मा के सम्बन्धतथा अन्तर के रूप में किया गया हो।

    "

    बुद्धेर्जागरणं स्वप्न: सुषुप्तिरिति वृत्तयः ।

    ता येनैवानुभूयन्ते सोध्यक्ष: पुरुष: पर: ॥

    २५॥

    बुद्धेः--बुद्धि का; जागरणम्‌--जागरण या स्थूल इन्द्रियों की सक्रिय अवस्था; स्वप्न: --स्वष्न ( स्थूल शरीर के बिना ही इन्द्रियोंकी सक्रियता ); सुषुप्तिः:--प्रगाढ़, निद्रा या सारे कार्यकलापों का बन्द होना ( यद्यपि जीव दर्शक होता है ); इति--इस प्रकार;वृत्तय:--विभिन्न कार्यकलाप; ता:--वे; येन--जिससे; एब--निस्सन्देह; अनुभूयन्ते-- अनुभव किये जाते हैं; सः--वह;अध्यक्ष:--साक्षी ( जो कार्यकलापों से भिन्न है ); पुरुष:-- भोक्ता; पर:--दिव्यसक्रियता की तीन अवस्थाओं ( वृत्तियों ) में बुद्धि की अनुभूति की जा सकती है--जाग्रत,स्वप्न तथा सुषुप्ति।

    जो व्यक्ति इन तीनों का अनुभव करता है उसे ही मूल स्वामी या शासक,पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ माना जाना चाहिए।

    "

    एभिस्त्रिवर्णै: पर्यस्तैर्बुद्धिभेदेः क्रियोद्धवै: ।

    स्वरूपमात्मनो बुध्येद्गन्धैर्वायुमिवान्बयात्‌ ॥

    २६॥

    एमिः--इन; त्रि-वर्णै:--तीन गुणों के द्वारा निर्मित; पर्यस्तै:--पूर्णतया तिरस्कृत ( प्राण का स्पर्श न करने से ); बुद्धि--बुद्धिके; भेदेः --प्रकारों से; क्रिया-उद्धवैः:--विभिन्न कार्यकलापों से उत्पन्न; स्वरूपम्‌ू--स्वाभाविक स्थिति; आत्मन:--आत्मा की;बुध्येत्‌ू-- समझना चाहिए; गन्धैः --गन्ध से; वायुमू--वायु को; इब--ठीक उसी तरह; अन्वयात्‌--घनिष्ठ सम्बन्ध से।

    जिस प्रकार वायु की उपस्थिति उसके द्वारा ले जाई जाने वाली सुगन्धियों के द्वारा जानीजाती है उसी तरह भगवान्‌ के निर्देशन में मनुष्य बुद्धि के इन तीन विभागों द्वारा जीवात्मा कोसमझ सकता है।

    किन्तु ये तीन विभाग आत्मा नहीं हैं, वे तीन गुणों से बने होते हैं और क्रियाओंसे उत्पन्न होते हैं।

    "

    एतद्दवारो हि संसारो गुणकर्मनिबन्धन: ।

    अज्ञानमूलोपार्थो उपि पुंसः स्वप्न इवार्प्पते ॥

    २७॥

    एतत्‌--यह; द्वारः--जिसका द्वार; हि--निस्सन्देह; संसार: -- भौतिक जगत जिसमें मनुष्य तीन प्रकार के कष्ट पाता है; गुण-कर्म-निबन्धन:--प्रकृति के तीन गुणों द्वारा बन्दी बनना; अज्ञान-मूलः--जिसकी जड़ अज्ञान है; अपार्थ:--निरर्थक; अपि--यद्यपि; पुंसः--जीव का; स्वप्न:--स्वण; इब--सहश; अर्प्यते--रखा जाता है।

    दूषित बुद्धि के कारण मनुष्य को प्रकृति के गुणों के अधीन रहना पड़ता है और इस प्रकारवह भवबन्धन में पड़ जाता है।

    इस संसार को, जिसका कारण अज्ञान है, उसी प्रकार अवांछिततथा नश्वर मानना चाहिए जिस प्रकार स्वप्नावस्था में मनुष्य को झूठे ही कष्ट भोगना पड़ता है।

    "

    तस्माद्धवद्धि: कर्तव्यं कर्मणां त्रिगुणात्मनाम्‌ ।

    बीजनिहरणं योग: प्रवाहोपरमो धियः ॥

    २८ ॥

    तस्मात्‌ू--अतएव; भवद्धि:--तुम लोगों द्वारा; कर्तव्यमू--करणीय; कर्मणाम्‌--सारे भौतिक कार्यकलापों का; त्रि-गुण-आत्मनाम्‌-प्रकृति के तीन गुणों द्वारा; बीज-निहरणम्‌--बीज का जलना; योग:--पर मे श्वर से जुड़ने की विधि; प्रवाह--जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति के रूप में निरन्तर धारा की; उपरम:--समाप्ति; धियः--बुद्धि का |

    अतएव हे मित्रो, हे असुर पुत्रो, तुम्हारा कर्तव्य है कि कृष्णभावनामृत को ग्रहण करो जोप्रकृति के गुणों द्वारा कृत्रिम रूप से उत्पन्न सकाम कर्मों के बीज को जला सकता है और जाग्रत,स्वप्न तथा सुषुप्त अवस्था में बुद्धि के प्रवाह को रोक सकता है।

    दूसरे शब्दों में, कृष्णभावनामृतग्रहण करने पर मनुष्य का अज्ञान तुरन्त विनष्ट हो जाता है।

    "

    तत्रोपायसहस्त्राणामयं भगवतोदितः ।

    यदीश्वरे भगवति यथा यैरज्जसा रति: ॥

    २९॥

    तत्र--उस सम्बन्ध में ( भवबन्धन से छूटने में )) उपाय--विधियों में; सहस्त्राणामू--हजारों; अयम्‌--यह; भगवता उदित: --भगवान्‌ द्वारा प्रदत्त; यत्‌ू--जो; ईश्वेर--ई श्वर में; भगवति-- भगवान्‌ में; यथा--जिस प्रकार; यैः--जिसके द्वारा; अज्ञसा--तेजीसे; रतिः--प्रेम तथा स्नेह से आसक्ति।

    भौतिक जीवन से छूटने के लिए जितनी विधियाँ संस्तुत हैं उनमें से उस एक को जिसे स्वयंभगवान्‌ ने बताया है और स्वीकार किया है, सभी तरह से पूर्ण समझना चाहिए।

    वह विधि हैकर्तव्य का सम्पन्न किया जाना जिससे परमेश्वर के प्रति प्रेम विकसित होता है।

    "

    गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च ।

    सड्डेन साधुभक्तानामी श्वराराधनेन च ॥

    ३०॥

    श्रद्धया तत्कथायां च कीर्तनैर्गुणकर्मणाम्‌ ।

    तत्पादाम्बुरुहध्यानात्तल्लिड्रेक्षाईणादिभि: ॥

    ३१॥

    गुरु-शुश्रूषया-- प्रामाणिक गुरु की सेवा द्वारा; भक्त्या-- श्रद्धा तथा भक्ति से; सर्व--समस्त; लब्ध-- भौतिक लाभों के;अर्पणेन--अर्पण से ( गुरु को या गुरु के माध्यम से कृष्ण को ); च--तथा; सड़ेन--संगति से; साधु-भक्तानामू-- भक्तों तथासाधु पुरुषों की; ईश्वर-- भगवान्‌ की; आराधनेन-- पूजा से; च--तथा; श्रद्धबा--अत्यन्त श्रद्धापूर्वक; तत्‌-क थायाम्‌--भगवान्‌ की कथाओं में; च--तथा; कीर्तनै:--यशोगान द्वारा; गुण-कर्मणाम्‌-- भगवान्‌ के दिव्य गुणों तथा कर्मों का; तत्‌--उसके; पाद-अम्बुरुह--चरणकमलों पर; ध्यानात्‌ू-ध्यान से; तत्‌--उसका; लिड्ड--स्वरूप ( अर्चाविग्रह ); ईक्ष--दर्शन;अ्हण-आदिभि: --तथा पूजा द्वारा

    मनुष्य को प्रामाणिक गुरु स्वीकार करना चाहिए और अत्यन्त भक्ति तथा श्रद्धा से उसकीसेवा करनी चाहिए।

    उसके पास जो कुछ भी हो उसे गुरु को अर्पित करना चाहिए और सन्तपुरुषों तथा भक्तों की संगति में भगवान्‌ की पूजा करनी चाहिए, श्रद्धापूर्वक भगवान्‌ के यशका श्रवण करना चाहिए, भगवान्‌ के दिव्य गुणों तथा कार्यकलापों का यशोगान करना चाहिए,सदैव भगवान्‌ के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए तथा शास्त्र एवं गुरु के आदेशानुसारभगवान्‌ के अर्चाविग्रह की पूजा करनी चाहिए।

    "

    हरिः सर्वेषु भूतेषु भगवानास्त ईश्वर: ।

    इति भूतानि मनसा कामैस्तै: साधु मानयेत्‌ ॥

    ३२॥

    हरिः--भगवान; सर्वेषु--समस्त; भूतेषु--जीवों में; भगवान्‌ू--परम पुरुष; आस्ते--स्थित है; ईश्वर:--सर्व श्रेष्ठ नियन्ता; इति--इस प्रकार; भूतानि--सारे जीव; मनसा--ऐसी समझ से; कामैः--इच्छाओं से; तैः--उन; साधु मानयेत्‌--मनुष्य को चाहिए किअत्यधिक आदर करे।

    मनुष्य को चाहिए कि भगवान्‌ को उनके अन्तर्यामी प्रतिनिधि स्वरूप में परमात्मा को सदैवस्मरण करे, जो प्रत्येक जीव के अंतःकरण में स्थित हैं।

    इस प्रकार उसे जीव की स्थिति यास्वरूप के अनुसार प्रत्येक जीव का आदर करना चाहिए।

    "

    एवं निर्जितषड्वर्गैं: क्रियते भक्तिरीश्वरे ।

    वबासुदेवे भगवति यया संलभ्यते रति: ॥

    ३३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निर्जित--दमन किया गया; षट्-वर्गैं: --इन्द्रियों के छह लक्षणों ( काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मत्सर )से; क्रियते--की जाती है; भक्तिः--भक्ति; ईश्वरे--परम नियन्ता में; वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेव में; भगवति-- भगवान्‌;यया--जिससे; संलभ्यते-- प्राप्त की जाती है; रतिः--आसक्ति |

    इन ( उपर्युक्त ) कार्यकलापों द्वारा मनुष्य शत्रुओं--काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या --के प्रभाव को दमन करने में समर्थ होता है और ऐसा कर लेने पर वह भगवान्‌ की सेवा करसकता है।

    इस प्रकार वह भगवान्‌ की प्रेमाभक्ति को निश्चित रूप से प्राप्त कर लेता है।

    "

    निशम्य कर्माणि गुणानतुल्यान्‌वीर्याणि लीलातनुभिः कृतानि ।

    यदातिहर्षोत्पुलका श्रुगद्गदंप्रोत्कण्ठ उद्‌गायति रौति नृत्यति ॥

    ३४॥

    निशम्य--सुनकर; कर्माणि--दिव्य कार्यकलापों को; गुणान्‌ू--आध्यात्मिक गुणों का; अतुल्यान्‌--असामान्य ( जो सामान्यपुरुष में नहीं दिखते ); वीर्याणि--अत्यन्त शक्तिमान; लीला-तनुभि: --अनेक लीला स्वरूपों के द्वारा; कृतानि--किये गये;यदा--जब; अतिहर्ष--अत्यन्त प्रसन्नता के कारण; उत्पुलक--रोमांच; अश्रु--आँखों में आँसू; गदगदम्‌--अवरुद्ध कण्ठ;प्रोत्कण्ठ:--खुले स्वर से; उद्गायति--उच्च स्वर से कीर्तन करता है; रौति--रोता है; नृत्यति--नाचता है

    जो भक्ति के पद पर आसीन हो जाता है, वह निश्चय ही इन्द्रियों का नियंत्रक है और इसतरह वह एक मुक्त पुरुष हो जाता है।

    जब ऐसा मुक्त पुरुष या शुद्ध भक्त विभिन्न लीलाएँ करनेके लिए भगवान्‌ के अवतारों के दिव्य गुणों तथा कार्यकलापों के विषय में सुनता है, तो उसकेशरीर में रोमांच हो आता है, उसकी आँखों से आँसू झरने लगते हैं और आध्यात्मिक अनुभूति केकारण उसकी वाणी अवरुद्ध हो जाती है।

    कभी वह नाचता है, तो कभी जोर-जोर से गाता हैऔर कभी रोने लगता है।

    इस प्रकार वह अपने दिव्य हर्ष को व्यक्त करता है।

    "

    यदा ग्रहग्रस्त इव क्वचिद्धस-त्याक्रन्दते ध्यायति बन्दते जनम्‌ ।

    मुहुः श्वसन्वक्ति हरे जगत्पतेनारायणेत्यात्ममतिर्गतत्रप: ॥

    ३५॥

    यदा--जब; ग्रह-ग्रस्त:--प्रेत द्वारा सताया गया; इब--सहश; क्वचित्‌--क भी; हसति--हँसता है; आक्रन्दते--जोर सेचिल्लाता है ( भगवान्‌ के दिव्य गुणों का स्मरण करके ); ध्यायति--ध्यान करता है; वन्दते--नमस्कार करता है; जनम्‌ू--सारेजीवों को ( उन्हें भगवान्‌ की सेवा में प्रवृत्त सोचकर ); मुहुः--निरन्तर; श्रसन्‌--तेजी से साँस लेते; वक्ति--बोलता है; हरे--हेप्रभु; जगत्‌-पते--हे सम्पूर्ण संसार के स्वामी; नारायण--हे नारायण; इति--इस प्रकार; आत्म-मति:-- भगवान्‌ के विचारों मेंपूर्णतया मग्न; गत-त्रप:--लज्जारहित |

    जब भक्त प्रेतग्रस्त व्यक्ति के समान बन जाता है, तो वह हँसता है और उच्च स्वर से भगवान्‌के गुणों के विषय में कीर्तन करता है।

    कभी वह ध्यान करने बैठता है और कभी प्रत्येक जीवको भगवान्‌ का भक्त मानते हुए प्रणाम करता है।

    लगातार तेज साँस लेता हुआ वह सामाजिकशिष्टाचार के प्रति बेपरवाह हो जाता है और पागल व्यक्ति की तरह जोर-जोर से ' हरे कृष्ण, हरेकृष्ण, हे भगवान्‌, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, ' का उच्चारण करता है।

    "

    तदा पुमान्मुक्तसमस्तबन्धन-स्तद्भावभावानुकृताशयाकृतिः ।

    निर्दग्धबीजानुशयो महीयसाभक्तिप्रयोगेण समेत्यधोक्षजम्‌ ॥

    ३६॥

    तदा--उस समय; पुमान्‌ू--जीव; मुक्त--मुक्त; समस्त-बन्धन:--भक्ति पथ के समस्त अवरोधों से; तत्‌ू-भाव-- भगवान्‌ केकार्यकलापों की स्थिति के; भाव--चिन्तन से; अनुकृत--उसी प्रकार का बनाया हुआ; आशय-आकृति: --जिसका मन तथाशरीर; निर्दग्ध--पूर्णतया जला हुआ; बीज--बीज या जगत का मूल कारण; अनुशय: --इच्छा; महीयसा-- अत्यन्तशक्तिशाली; भक्ति--भक्ति का; प्रयोगेण--सम्प्रयोग से; समेति--प्राप्त करता है; अधोक्षजम्‌-- भगवान्‌ को, जो मन तथा ज्ञानकी पहुँच से परे हैं।

    तब भक्त सारे भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह निरन्तर भगवान्‌ कीलीलाओं के विषय में सोचता रहता है और उसका मन तथा शरीर आध्यात्मिक गुणों में बदलचुके होते हैं।

    उसकी उत्कट भक्ति के कारण उसका अज्ञान, भौतिक चेतना तथा समस्त प्रकारकी भौतिक इच्छाएँ जलकर पूर्णतया भस्म हो जाती हैं।

    यही वह अवस्था है जब मनुष्य भगवान्‌के चरणकमलों की शरण प्राप्त कर सकता है।

    "

    अधोक्षजालम्भमिहाशुभात्मन:शरीरिण: संसृतिचक्रशातनम्‌ ।

    तद्गह्मनिर्वाणसुखं विदुर्बुधा-स्ततो भजध्व॑ हृदये हृदीश्वरम्‌ ॥

    ३७॥

    अधोक्षज-- भगवान्‌ से, जो भौतिकतावादी मन या प्रायोगिक ज्ञान की पहुँच से परे हैं; आलम्भम्‌--निरन्तर सम्पर्क में रहते हुए;इह--इस भौतिक जगत में; अशुभ-आत्मन: --जिसका मन भौतिकता से कलुषित है; शरीरिण:--देहधारी जीव का; संसृति--संसार का; चक्र--चक्कर; शातनमू-- पूर्णतया रोकते हुए; तत्‌--वह; ब्रह्म-निर्वाण--परब्रह्म या परम सत्य से जुड़ा हुआ;सुखम्‌--दिव्य सुख; विदुः--समझो; बुधा:--आध्यात्मिक दृष्टि से आगे बढ़े हुए; ततः--इसलिए; भजध्वम्‌-भक्ति में लगजाओ; हृदये--हृदय के भीतर; हत्‌-ईश्वरमू--हृदय के भीतर परमात्मा को।

    जीवन की असली समस्या जन्म-मृत्यु का चक्कर है, जो पहिये ( चक्र ) की भाँति बारम्बारऊपर-नीचे चलता रहता है।

    किन्तु जब कोई भगवान्‌ के सम्पर्क में रहता है, तो यह चक्र पूरीतरह रुक जाता है।

    दूसरे शब्दों में, भक्ति में निरन्तर मग्न रहने से जो दिव्य आनन्द मिलता हैउससे वह इस संसार से पूर्णतया मुक्त हो जाता है।

    सारे विद्वान व्यक्ति इसे जानते हैं।

    अतएवं हेमित्रो, हे असुरपुत्रो, तुम सभी लोग तुरन्त अपने-अपने हृदय में स्थित परमात्मा का ध्यान औरपूजन प्रारम्भ कर दो।

    "

    कोतिप्रयासोसुरबालका हरे-रुपासने स्वे हृदि छिद्गवत्सतः ।

    स्वस्यात्मन: सख्युरशेषदेहिनांसामान्यतः कि विषयोपपादने: ॥

    ३८॥

    कः--क्या; अति-प्रयास:--कठिन प्रयास; असुर-बालका:ः--हे असुरपुत्रो; हरेः-- भगवान्‌ की; उपासने--भक्ति करने में;स्वे--अपने; हृदि--हृदय में; छिद्र-वत्‌--अवकाश की तरह; सतः--सदैव विद्यमान; स्वस्य--अपना या जीव का; आत्मन:--परमात्मा का; सख्यु:--शुभचिन्तक मित्र; अशेष-- असीम; देहिनाम्‌--देहधारी जीवों का; सामान्यत:--सामान्य रूप से;किम्‌--क्या आवश्यकता है; विषय-उपपादनै:--इन्द्रियभोग के लिए इन्द्रिय प्रदान करने वाली क्रियाओं से |

    हे मित्रो, हे असुरपुत्रो, परमात्मा रूप में भगवान्‌ सदैव समस्त जीवों के अंतःकरण मेंविद्यमान रहते हैं।

    निस्सन्देह, वे सारे जीवों के शुभचिन्तक तथा मित्र हैं और भगवान्‌ की पूजाकरने में कोई कठिनाई भी नहीं है।

    तो फिर, लोग उनकी भक्ति क्‍यों नहीं करते ?

    वे इन्द्रियतृष्तिके लिए कृत्रिम साज-सामान बनाने में व्यर्थ ही क्‍यों लिप्त रहते हैं ?

    " राय: कलत्र॑ पशव: सुतादयोगृहा मही कुझ्ऋरकोशभूतय: ।

    सर्वे<र्थकामाः क्षणभड्डुरायुषःकुर्वन्ति मर्त्यस्य कियत्प्रियं चला: ॥

    ३९॥

    राय:--सम्पत्ति; कलत्रम्‌ू--अपनी पत्नी तथा सखियाँ; पशव: --गाय, घोड़े, गधे, बिल्ली, कुत्ते जैसे घरेलू पशु; सुत-आदय: --पुत्र इत्यादि; गृहा:--बड़े-बड़े महल तथा आवास; मही -- भूमि; कुझ्अज--हा थी; कोश-- खजाना; भूतय: --तथा इन्द्रियतृप्तिएवं भोगविलास की अन्य सामग्रियाँ; सर्वे--सभी; अर्थ--आर्थिक विकास; कामाः--तथा इन्द्रियतृप्ति; क्षण-भट्ठुर-- क्षण भरमें विनाश-शील; आयुष: --आयु वाले का; कुर्वन्ति--करते हैं या लाते हैं; मर्त्यस्थ--मरने वाले का; कियत्‌--कितना;प्रियमू-- आनन्द; चला:--क्षणिक या चलायमान।

    मनुष्य का धन, सुन्दर स्त्री तथा सखियाँ, उसके पुत्र तथा पुत्रियाँ, उसका घर, उसके घरेलूपशु जैसे गाएँ, हाथी तथा घोड़े, उसका खजाना, आर्थिक विकास तथा इन्द्रियतृप्ति, यहाँ तककि उसकी आयु जिसमें वह इन भौतिक ऐश्वर्यों का भोग कर सकता है निश्चित रूप से क्षणभंगुरएवं नश्वर हैं।

    चूँकि मनुष्य जीवन का अवसर अस्थायी है अतएव ये सारे भौतिक ऐश्वर्य ऐसेसमझदार व्यक्ति को कौन सा लाभ पहुँचा सकते हैं जिसने अपने आपको शाश्वत समझ रखा है ?

    " एवं हि लोकाः क्रतुभिः कृता अमीक्षयिष्णव: सातिशया न निर्मला: ।

    तस्माददृष्टश्रुतदूषणं परंभक्त्योक्तयेशं भजतात्मलब्धये ॥

    ४०॥

    एवम्‌--इसी प्रकार ( जिस तरह सांसारिक सम्पत्ति तथा कुट॒म्बी नश्वर हैं ); हि--निश्चय ही; लोकाः--उच्चतरलोक, यथा स्वर्ग,चन्द्रमा, सूर्य तथा ब्रह्मलोक; क्रतुभि:--बड़े-बड़े यज्ञों को सम्पन्न करने से; कृता:--प्राप्त किया; अमी--ये सब; क्षयिष्णव:--अस्थायी, नश्वर; सातिशया:--यद्यपि अधिक आरामदेह तथा भाने वाले; न--नहीं; निर्मला:--शुद्ध ( उत्पातों से रहित );तस्मातू--इसलिए; अदृष्ट-श्रुत--न तो देखा हुआ, न सुना गया; दूषणम्‌--जिसकी त्रुटि; परम्‌--परम; भक्त्या--अत्यन्तभक्तिपूर्वक; उक्तया--जिस तरह वैदिक साहित्य में वर्णित है ( ज्ञान कर्म मिश्रित नहीं ); ईशम्‌-- भगवान्‌ को; भजत--पूजाकरो; आत्म-लब्धये--आत्म-साक्षात्कार के लिए।

    वैदिक साहित्य से पता चलता है कि बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न करके मनुष्य स्वर्गाद लोक तकऊपर उठ सकता है।

    किन्तु स्वर्गलोक का जीवन पृथ्वी के जीवन की अपेक्षा सैकड़ों -हजारों गुनाअधिक सुखकर होने पर भी स्वर्गलोक न तो शुद्ध ( निर्मल ) हैं, न भौतिक जगत के दोष सेरहित हैं।

    सारे स्वर्गलोक भी नश्वर हैं, अतएवं ये जीवन के लक्ष्य नहीं हैं।

    किन्तु यह न तो कभीदेखा गया, न ही सुना गया कि भगवान्‌ में उनन्‍्माद होता है।

    फलस्वरूप तुम्हें अपने निजी लाभ तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए शास्क्रोक्त विधि से अत्यन्त भक्ति के साथ भगवान्‌ की पूजाकरनी चाहिए।

    "

    यदर्थ इह कर्माणि विद्वन्मान्यसकृन्नर: ।

    करोत्यतो विपर्यासममोघं विन्दते फलम्‌ ॥

    ४१॥

    यत्‌--जिसके; अर्थे--लिए; इह--इस भौतिक जगत में; कर्माणि--अनेक कार्य ( फैक्टरियों, उद्योगों, चिन्तन आदि में );विद्वत्‌ू--ज्ञान में बढ़ा-चढ़ा; मानी--मानने वाला; असकृत्‌--पुनः पुनः; नरः--पुरुष; करोति--करता है; अत:--इससे;विपर्यासम्‌--विपरीत; अमोघम्‌-- श्वुव; विन्दते--प्राप्त करता है; फलम्‌--फल।

    भौतिकतावादी मनुष्य अपने को अत्यन्त बुद्धिमान समझ कर निरन्तर आर्थिक विकास केलिए कर्म करता रहता है।

    किन्तु जैसाकि वेदों में बताया गया है, वह या तो इसी जीवन में याअगले जीवन में भौतिक कर्मों द्वारा बार-बार निराश होता रहता है।

    निस्सन्देह, उसे अपनीइच्छाओं से सर्वथा विपरीत फल मिलते हैं।

    "

    सुखाय दुःखमोक्षाय सड्जूल्प इह कर्मिण: ।

    सदाप्नोतीहया दुःखमनीहाया: सुखावृतः ॥

    ४२॥

    सुखाय--जीवन के तथाकथित उच्चतर स्तर के द्वारा सुख प्राप्त करने के लिए; दुःख-मोक्षाय--दुख से छुटकारा पाने के लिए;सड्डूल्प:--संकल्प; इह--इस संसार में; कर्मिण:-- आर्थिक विकास के लिए प्रयलशील जीव का; सदा--सदैव; आप्नोति--प्राप्त करता है; ईहया--कर्म या महत्त्वाकांक्षा द्वारा; दुःखम्‌--केवल दुख; अनीहाया:--आर्थिक विकास न चाहते हुए; सुख--सुख से; आवृत:--ढका हुआ।

    इस भौतिक जगत में प्रत्येक भौतिकतावादी सुख का इच्छुक रहता है और अपने दुख कमकरना चाहता है, अतएवं वह तदनुसार कर्म करता है।

    किन्तु वास्तव में कोई तभी तक सुखीरहता है जब तक वह सुख के लिए प्रयत्नशील नहीं होता।

    ज्योंही वह सुख के लिए कार्य प्रारम्भकर देता है त्योंही उसकी दुख की अवस्था प्रारम्भ होती है।

    "

    कामान्कामयते काम्यैर्यदर्थमिह पूरूष: ।

    स वै देहस्तु पारक्‍्यो भड्ुरो यात्युपैति च ॥

    ४३॥

    कामान्‌--इन्द्रिय तृप्ति की वस्तुओं को; कामयते--इच्छा करता है; काम्यैः--विभिन्न अभिलिषित कार्यो द्वारा; यत्‌--जिस;अर्थमू--के लिए; इह--इस भौतिक जगत में; पूरुष:--जीवात्मा; सः--वह; वै--निस्सन्देह; देह:--शरीर; तु-- लेकिन;पारक्य:--अन्यों का ( कुत्ता, चील्हों इत्यादि का ) ; भद्ठुरः--नश्वर; याति--चला जाता है; उपैति--आत्मा का आलिंगन करताहै; च--तथा।

    जीवात्मा अपने शरीर के लिए सुख चाहता है और इस उद्देश्य से वह अनेक योजनाएँ बनाताहै, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि यह शरीर तो दूसरों की सम्पत्ति होता है।

    निस्सन्देह, नश्वरशरीर जीवात्मा को गले लगाता है और फिर उसे छोड़कर चल देता है।

    "

    किमु व्यवहितापत्यदारागारधनादय:ः ।

    राज्यकोशगजामात्यभृत्याप्ता ममतास्पदा: ॥

    ४४॥

    किम्‌ उ--क्या कहा जाये; व्यवहित--पृथक्‌ किया गया; अपत्य--सन्तानें; दार--पत्लियाँ; अगार--निवासस्थान; धन--सम्पत्ति; आदय:--इत्यादि; राज्य--राज्य; कोश--खजाना; गज--बड़े बड़े हाथी तथा घोड़े; अमात्य--मंत्री; भृत्य--नौकर-चाकर; आप्ता: --सम्बन्धी; ममता-आस्पदा: --घनिष्ठ सम्बन्धियों के झूठे स्थान या घर ( अपने लोग )॥

    चूँकि शरीर को अन्ततः मल या मिट्टी में बदल जाना है अतएव इस शरीर से सम्बन्धितसाज-सामान--यथा पत्नियाँ, घर, धन, बच्चे, सम्बन्धी, नौकर-चाकर, मित्र, राज्य, खजाने,पुश तथा मंत्रियों--से क्‍या प्रयोजन ?

    ये सभी नश्वर हैं।

    इनके विषय में और अधिक क्या कहाजा सकता है?

    " किमेतैरात्मनस्तुच्छै: सह देहेन नश्वरै: ।

    अनर्धरथ्सड्डाशैर्नित्यानन्दरसोदधे; ॥

    ४५॥

    किमू--क्या लाभ; एतै:--इन सबों से; आत्मन:--अपने को; तुच्छै: --जो प्रायः नगण्य हैं; सह--साथ; देहेन--शरीर के;नश्वरैः--नाशवान; अनर्थै: --अनिच्छित; अर्थ-सड्डाशै:--ऐसा प्रतीत होता है मानो आवश्यक हों; नित्य-आनन्द--नित्य सुखके; रस--अमृत के; उदधे:--समुद्र के लिए

    ये सारे साज-सामान तभी तक अत्यन्त प्रिय लगते हैं जब तक यह शरीर है किन्तु ज्योंही यहशरीर नष्ट हो जाता है त्योंही शरीर से सम्बद्ध ये सारी वस्तुएँ भी समाप्त हो जाती हैं।

    अतएववास्तव में किसी को इनसे कुछ लेना-देना नहीं रहता है किन्तु वह अज्ञानवश ही इन्हें मूल्यवानसमझ बैठता है।

    शाश्वत सुख के सागर की तुलना में ये सारी वस्तुएँ अत्यन्त नगण्य हैं।

    शाश्वतजीव के लिए ऐसे नगण्य सम्बन्धों से क्या लाभ है ?

    " निरूप्यतामिह स्वार्थ: कियान्देहभूतोसुरा: ।

    निषेकादिष्ववस्थासु क्लिश्यमानस्य कर्मभि: ॥

    ४६॥

    निरूप्यताम्‌--निश्चित हो जाने दें; इह--इस संसार में; स्व-अर्थ:--निजी लाभ; कियान्‌--कितना; देह-भूतः--शरीरधारी जीवका; असुरा:--हे असुरपुत्रो; निषिक-आदिषु--मैथुन आदि से प्राप्त होने वाले सुख इत्यादि; अवस्थासु--नश्वर दशाओं में;क्लिश्यमानस्य--घोर कठिनाइयों को भोगने वाले का; कर्मभि:--पूर्वकर्मो के द्वारा ।

    हे मित्रो, हे असुरपुत्रो, जीव को अपने पूर्वकर्मों के अनुसार नाना प्रकार के शरीर प्राप्त होतेहैं।

    इस तरह वह अपने विशिष्ट जीवन की सभी स्थितियों में--गर्भ में प्रवेश करने से लेकर अपनेइस विशेष शरीर तक--कष्ट ही कष्ट भोगता प्रतीत होता है।

    अतएव तुम लोग पूरी तरह विचारकरके मुझे बतलाओ कि जीव का ऐसे सकाम कर्मों में वास्तविक स्वार्थ क्या है, जबकि ये दुखतथा कष्ट प्रदान करने वाले हैं ?

    " कर्माण्यारभते देही देहेनात्मानुवर्तिना ।

    कर्मभिस्तनुते देहमुभयं त्वविवेकतः ॥

    ४७॥

    कर्माणि--सकाम कर्म; आरभते--प्रारम्भ करता है; देही--देहधारी जीव; देहेन--उस शरीर से; आत्म-अनुवर्तिना--अपनीइच्छा तथा पूर्वकर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाला; कर्मभि: --ऐसे कर्मों के द्वारा; तनुते--विस्तीर्ण करता है; देहम्‌--दूसरा शरीर;उभयम्‌--दोनों; तु--निस्सन्देह; अविवेकतः--अज्ञान के कारण

    वह जीव, जिसे यह वर्तमान शरीर अपने विगत कर्म के कारण प्राप्त हुआ है, अपने इसजीवन में ही अपने कर्म के फलों को समाप्त कर सकता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता किवह शरीर के बन्धन से मुक्त हो गया है।

    जीव को एक प्रकार का शरीर मिलता है और वह इसशरीर से कर्म करके दूसरे शरीर को जन्म देता है।

    इस प्रकार वह अपने अज्ञान के कारण जन्म-मरण के चक्र द्वारा एक शरीर से दूसरे में देहान्तर करता रहता है।

    "

    तस्मादर्थाश्व॒ कामाश्च धर्माश्न यदपाश्रया: ।

    भजतानीहयात्मानमनीहं हरिमी श्वरम्‌ ॥

    ४८ ॥

    तस्मातू--इसलिए; अर्था:--आर्थिक विकास के लिए आकांक्षाएँ; च--तथा; कामा:--इन्द्रिय तृप्ति के लिए आकाशक्षाएँ; च--भी; धर्मा:--धर्म के कर्तव्य; च--तथा; यत्‌--जिस पर; अपा श्रया:-- आश्रित; भजत--पूजा करो; अनीहया--उनके लिएकिसी प्रकार की इच्छा से रहित; आत्मानम्‌-परमात्मा को; अनीहम्‌--विरस; हरिम्‌-- भगवान्‌ को; ईश्वरम्‌-ई धर कोआध्यात्मिक जीवन के चार सिद्धान्त--धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-- भगवान्‌ की रुचि परआश्रित हैं।

    अतएव हे मित्रो, भक्तों के चरणचिन्हों का अनुगमन करो।

    बिना किसी प्रकार कीइच्छा किये ( निष्काम भाव से ) परमेश्वर पर आश्रित रहकर भक्तिपूर्वक परमात्मा की पूजा करो।

    "

    सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्मे श्वर: प्रिय: ।

    भूतर्महद्धिः स्वकृतैः कृतानां जीवसंज्ञित: ॥

    ४९॥

    सर्वेषाम्‌--समस्त; अपि--निश्चय ही; भूतानाम्‌--जीवों में से; हरिः-- भगवान्‌ जो जीव के कष्टों को शमन करने वाले हैं;आत्मा--जीवन का आदि स्त्रोत; ईश्वर:-- पूर्ण नियन्ता; प्रियः--प्रिय; भूतेः--पाँच भौतिक तत्त्वों द्वारा; महद्धिः--समग्र भौतिकशक्ति महत्‌ तत्त्व से उदभूत; स्व-कृतैः--जो स्वतः प्रकट होते हैं; कृतानाम्‌ू--उत्पन्न; जीव-संज्ञित:--जीव के नाम से ज्ञात,क्योंकि सारे जीव भगवान्‌ की तटस्था शक्ति के अंश हैं।

    भगवान्‌ हरि समस्त जीवों के आत्मा तथा परमात्मा हैं।

    प्रत्येक जीव जीवित आत्मा तथाभौतिक शरीर के रूप में उनकी शक्ति का प्राकट्य है।

    अतएवं भगवान्‌ अत्यन्त प्रिय हैं और परमनियन्ता हैं।

    "

    देवोउसुरो मनुष्यो वा यक्षो गन्धर्व एव वा ।

    भजन्मुकुन्दचरणं स्वस्तिमान्स्याद्यथा वयम्‌ ॥

    ५०॥

    देवः--देवता; असुर:--असुर; मनुष्य: --मनुष्य; वा--अथवा; यक्ष:--यक्ष ( आसुरी योनि का सदस्य ); गन्धर्व:--गन्धर्व;एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; भजनू--सेवा करते हुए; मुकुन्द-चरणम्‌--मुक्तिदाता मुकुन्द या भगवान्‌ कृष्ण के चरणकमलोंपर; स्वस्ति-मानू--समस्त कल्याण से ओत-प्रोत; स्थात्‌ू--हो जाता है; यथा--जिस प्रकार; वयम्‌--हम ( प्रह्माद महाराज )

    यदि देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व या अन्य कोई इस संसार के भीतर मुक्तिदाता मुकुन्दके चरणकमलों की सेवा करता है, तो वह हमारे ( प्रह्माद महाराज जैसे महाजनों के ) ही समानजीवन की सर्वश्रेष्ठ कल्याणकारी स्थितियों कल्याण का भाजन होता है।

    "

    नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजा: ।

    प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ॥

    ५१॥

    न दानं न तपो नेज्या न शौचं न ब्रतानिच ।

    प्रीयतेडमलया भक्‍त्या हरिरन्यद्विडम्बनम्‌ ॥

    ५२॥

    न--नहीं; अलमू--पर्या प्त; ट्विजत्वम्‌--अत्यन्त पूर्ण एवं योग्य ब्राह्मण होना; देवत्वम्‌-देवत्व; ऋषित्वम्‌--साधु पुरुष होना;बा--अथवा; असुर-आत्म-जा:--हे असुरों के वंशजो; प्रीणनाय--प्रसन्न करने के लिए; मुकुन्दस्य-- भगवान्‌ मुकुन्द का; न वृत्तमू--बुरा आचरण; न--नहीं; बहु-ज्ञता--पाण्डित्य; न--न तो; दानमू--दान; न--न तो; तपः--तपस्या; न--न तो;इज्या--पूजा; न--न तो; शौचम्‌--स्वच्छता; न ब्रतानि--न ब्रतों का पालन; च--भी; प्रीयते--प्रसन्न किया जाता है;अमलया--निष्कलंक; भक्त्या--भक्ति द्वारा; हरिः--भगवान्‌; अन्यत्‌--अन्य वस्तुएँ; विडम्बनम्‌--मात्र दिखावा।

    हे मित्रो, हे असुरपुत्रो, तुम लोग न तो पूर्ण ब्राह्मण, देवता या महान्‌ सन्‍त बनकर, न हीसदाचरण या प्रकाण्ड ज्ञान के द्वारा परमेश्वर को प्रसन्न कर सकते हो।

    इनमें से किसी भी योग्यतासे भगवान्‌ प्रसन्न होने वाले नहीं हैं।

    न ही दान, तपस्या, यज्ञ, शुद्धता या ब्रतों से उन्हें कोई प्रसन्नकर सकता है।

    भगवान्‌ तो तभी प्रसन्न होते हैं जब मनुष्य उनकी अविचल अनन्य भक्ति करताहै।

    एकनिष्ठ भक्ति के बिना सब कुछ दिखावा मात्र है।

    "

    ततो हरौ भगवति भक्ति कुरुत दानवा: ।

    आत्मौपम्थेन सर्वत्र सर्वभूतात्मनी श्वरे ॥

    ५३॥

    ततः--अतएव; हरौ-- भगवान्‌ हरि के प्रति; भगवति-- भगवान्‌; भक्तिम्‌-- भक्ति; कुरुत--करो; दानवा: --मेरे मित्रों,असुर॒पुत्रों; आत्म-औपम्येन-- अपनी ही तरह; सर्वत्र--सभी जगह; सर्व-भूत-आत्मनि--जो समस्त जीवों में आत्मा तथापरमात्मा के रूप में स्थित है; ईश्वर--नियन्ता भगवान्‌ में

    हे मित्र असुरपुत्रो, जिस प्रकार तुम सब अपने आपको देखते हो और अपनी देखभाल करतेहो उसी तरह समस्त जीवों में परमात्मा के रूप में सर्वत्र विद्यमान रहने वाले भगवान्‌ को प्रसन्नकरने के लिए उनकी भक्ति स्वीकार करो।

    "

    दैतेया यक्षरक्षांसि स्त्रियः शूद्रा त्रजौकसः ।

    खगा मृगाः पापजीवा: सन्ति ह्ाच्युततां गता;: ॥

    ५४॥

    स्दैतेया:--हे असुरो; यक्ष-रक्षांसि--यक्ष तथा राक्षस कहलाने वाले; स्त्रियः--स्त्रियाँ; शूद्रा:-- श्रमिक वर्ग; ब्रज-ओकस:--ग्रामीण ग्वाले; खगा:--पक्षी; मृगा:--पशु; पाप-जीवा:--पापी जीव; सन्ति--हो सकते हैं; हि--निश्चय ही; अच्युतताम्‌--अच्युत भगवान्‌ के गुण को; गता:--प्राप्त |

    हे मित्रो! हे असुरपुत्रो, प्रत्येक व्यक्ति जिसमें तुम भी शामिल हो, ( यक्ष तथा राक्षस ) अज्ञानीत्रियाँ, शूद्र, ग्वाले, पक्षी, निम्नतर पशु तथा पापी जीव अपना-अपना मूल शाश्रत आध्यात्मिकजीवन पुनः प्राप्त कर सकते हैं और भक्तियोग के सिद्धान्तों को स्वीकार करने मात्र से सदा-सदाइसी तरह बने रह सकते हैं।

    "

    एतावानेव लोकेस्मिन्पुंसः स्वार्थ: पर: स्मृतः ।

    एकान्तभक्तिगेंविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम्‌ ॥

    ५५॥

    एतावान्‌--इतना; एव--निश्चय ही; लोके अस्मिन्‌ू--इस जगत में ; पुंसः--जीव का; स्व-अर्थ:--असली हित; पर:--दिव्य;स्मृत:--माना जाने वाला; एकान्त-भक्ति: --अनन्य भक्ति; गोविन्दे--गोविन्द के प्रति; यत्‌--जो; सर्वत्र--सभी तरह; ततू-ईक्षणम्‌--गोविन्द या कृष्ण के साथ सम्बन्ध को देखना।

    इस भौतिक जगत में समस्त कारणों के कारण गोविन्द के चरणकमलों के प्रति सेवा करनाऔर सर्वत्र उनका दर्शन करना ही एकमात्र जीवन-लक्ष्य है।

    जैसाकि समस्त शास्त्रों ने बतलायाहै मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य इतना ही है।

    "

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    अध्याय आठ: भगवान नृसिंहदेव ने राक्षसों के राजा का वध किया

    7.8श्रीनारद उबाचअथ दैत्यसुता: सर्वे श्रुत्वा तदनुवर्णितम्‌ ।

    जगुहुर्निरवद्यत्वान्नैव गुर्वनुशिक्षितम्‌ ॥

    १॥

    श्री-नारद: उवाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; अथ--तत्पश्चात्‌; दैत्य-सुता:--असुरों के पुत्र ( प्रह्दाद महाराज के सहपाठी );सर्वे--सभी; श्रुत्वा--सुनकर; तत्‌--उससे ( प्रह्मद से ); अनुवर्णितम्‌-- भक्तिमय जीवन के विषय में कथन; जगृहु: --स्वीकारकिया; निरवद्यत्वात्‌--उस उपदेश के श्रेष्ठ उपयोग के कारण; न--नहीं; एब--निस्सन्देह; गुरु-अनुशिक्षितम्‌--जो उनके गुरुओंने पढ़ाया था।

    नारद मुनि ने आगे कहा : सारे असुए॒पुत्रों ने प्रह्दाद महाराज के दिव्य उपदेशों की सराहना कीऔर उन्हें अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहण किया।

    उन्होंने षण्ड तथा अमर्क नामक अपने गुरुओंद्वारा दिये गये भौतिकतावादी उपदेशों का तिरस्कार कर दिया।

    "

    अथाचार्यसुतस्तेषां बुद्धिमेकान्तसंस्थिताम्‌ ।

    आलक्ष्य भीतस्त्वरितो राज्ञ आवेदयद्यथा ॥

    २॥

    अथ--तदुपरान्त; आचार्य-सुतः--शुक्राचार्य के पुत्र; तेषामू--उन ( असुर पुत्रों ) की; बुद्धिम्‌--बुद्धि; एकान्त-संस्थिताम्‌--केवल एक ही विषय, भक्ति, में स्थिर; आलक्ष्य--देखकर; भीत:-- भयभीत होकर; त्वरित:--तुरन्त; राज्ञे--राजा( हिरण्यकशिपु ) से; आवेदयत्‌--कह सुनाया; यथा--उचित ढंग से

    जब शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड तथा अमर्क ने देखा कि सारे विद्यार्थी असुर पुत्र प्रहाद महाराजकी संगति से कृष्णभक्ति में आगे बढ़ रहे हैं, तो वे डर गये।

    अतएवं वे असुरराज के पास गयेऔर उनसे सारी स्थिति वर्णन कर दी।

    "

    कोपावेशचलदगात्र: पुत्र हन्तुं मनो दधे ।

    क्षिप्ता परुषया वाचा प्रह्मदमतदर्हणम्‌ ।

    अहेक्षमाण: पापेन तिरश्रीनेन चक्षुषा ॥

    ३॥

    प्रश्रयावनतं दान्तं बद्धाह्ललिमवस्थितम्‌ ।

    सर्प: पदाहत इव श्वसन्प्रकृतिदारुण: ॥

    ४॥

    कोप-आवेश--अत्यन्त क्रुद्ध मुद्रा में; चलत्‌--काँपता हुआ; गात्र:--पूरा शरीर; पुत्रमू--अपने पुत्र को; हन्तुमू--मारने केलिए; मनः--मन को; दधे--स्थिर किया; क्षिप्त्वा--डाँटते हुए; परुषया--अत्यन्त कटु; वाचा--वाणी से; प्रह्मदम्‌--महाराजप्रह्दाद को; अ-तत्‌-अर्हणम्‌--( अपने उत्तम चरित्र तथा कोमल आयु के कारण ) प्रताड़ना के अयोग्य; आह--कहा;ईक्षमाण: --क्रोध में उसे देखते हुए; पापेन--अपने पापकर्मों के कारण; तिरश्लीनेन--टेढ़ी; चक्षुषा--आँखों से; प्रश्नय-अवनतम्‌--अत्यन्त विनप्रता से; दान्तमू--संयमित; बद्ध-अज्ञलिम्‌--हाथ जोड़े; अवस्थितम्‌--स्थित; सर्प:--साँप; पद-आहतः--पाँव से कुचला जाकर; इब--सहश; श्वसन्‌--फुफकारते; प्रकृति-- प्रकृति से; दारुण:--अत्यन्त दुष्ट |

    जब हिरण्यकशिपु सारी स्थिति समझ गया तो वह इतना अधिक क्रुद्ध हुआ कि उसका साराशरीर काँपने लगा।

    इस तरह उसने अन्ततः अपने पुत्र प्रह्दाद को मार डालने का निश्चय करलिया।

    वह स्वभाव से अत्यन्त क्रूर था और अपने को अपमानित हुआ जानकर वह पाँव से कुचले सर्प की भाँति फुफकारने लगा।

    उसका पुत्र प्रह्मद शान्त, विनप्र तथा उदार था, वहइन्द्रियसंयमी था और हिरण्यकशिपु के समक्ष हाथ जोड़े खड़ा था।

    वह अपनी आयु तथाआचरण के अनुसार प्रताड़ना के योग्य न था।

    फिर भी हिरण्यकशिपु ने टेढ़ी नजर से उसे घूरतेहुए निम्नलिखित कदु शब्दों के द्वारा फटकारा।

    "

    जेश्रीहिरण्यकशिपुरुवाचहे दुर्विनीत मन्दात्मन्कुलभेदकराधम ।

    स्तब्धं मच्छासनोद्वृत्तं नेष्ये त्वाद्य यमक्षयम्‌ ॥

    ५॥

    श्री-हिरण्यकशिपु: उवाच--वरदान प्राप्त हिरण्यकशिपु ने कहा; हे--ेरे; दुर्विनीत--अत्यन्त बेशर्म, धृष्ट; मन्द-आत्मन्‌-- अरेमूर्ख; कुल-भेद-कर--परिवार को फोड़ने वाले; अधम--ओरे नीच; स्तब्धम्‌--अत्यन्त हठी; मत्‌ -शासन--मेरी आज्ञा का;उद्धत्तमू--उल्लंघन करके; नेष्ये--मैं भेजूँगा; त्वा--तुमको; अद्य--आज; यम-क्षयम्‌--मृत्यु के अधीक्षक यमराज के पास

    हिरण्यकशिपु ने कहा : अरे उहण्ड, निपट दुर्बुद्धि, परिवार को फोड़ने वाले! अरे नीच!तुमने अपने ऊपर शासन करने वाली शक्ति का उल्‍लघंन किया है, अतएव तू हठी मूर्ख है।

    आजमैं तुझे यमराज के घर भेजूंगा ।

    "

    क्रुद्धस्य यस्य कम्पन्ते त्रयो लोकाः सहेश्वरा: ।

    तस्य मेभीतवन्मूढ शासन कि बलोउत्यगा: ॥

    ६॥

    क्रुद्धस्य-क्रुद्ध होने पर; यस्य--जिसके; कम्पन्ते--काँपते हैं; त्रयः लोकाः--तीनों लोक; सह-ईश्वरा:-- अपने-अपने नायकोंसमेत; तस्य--उस; मे--मेरे ( हिरण्यकशिपु के ); अभीत-वत्‌--निर्भीक; मूढ--धूर्त; शासनम्‌ू--आदेश; किम्‌--क्या;बल:ः--बल; अत्यगा: --अति हो गई है|

    मेरे दुष्ट पुत्र प्रह्माद! तुम जानते हो कि जब मैं क्रुद्ध होता हूँ तो तीनों लोक अपने-अपनेनायकों सहित काँपने लगते हैं।

    तो फिर तुम किसके बल पर इतने धृष्ट हो गये हो कि तुमनिर्भीक होकर मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो ?

    " श्रीप्रहाद उवाचन केवल मे भवतश्च राजन्‌सवै बल॑ बलिनां चापरेषाम्‌ ।

    परेवरेमी स्थिरजड़मा येब्रह्मादयो येन वशं प्रणीता: ॥

    ७॥

    श्री-प्रह्ाद: उवाच--प्रह्नाद महाराज ने उत्तर दिया; न--नहीं; केवलम्‌--केवल; मे--मेरा; भवत: -- आपका; च--तथा;राजनू--हे राजा; सः--वह; बै--निस्सन्देह; बलमू--बल; बलिनामू--बलियों के; च--तथा; अपरेषाम्‌--अन्यों का; परे--सम्माननीय; अबरे--अधीन; अमी--वे; स्थिर-जड्रमा:--चल या अचल जीव; ये--जो; ब्रह्म -आदय: --ब्रह्मा इत्यादि; येन--जिसके द्वारा; वशम्‌--वश में; प्रणीता:--लाया गया।

    प्रह्ाद महाराज ने कहा, हे राजनू, आप जिस बल के मेरे स्रोत को जानना चाह रहे हैं वहआपके बल का भी स्त्रोत है।

    निस्सन्देह, समस्त प्रकार के बलों का मूल स्रोत एक ही है।

    वह नकेवल आपका या मेरा बल है, अपितु सबों का एकमात्र बल है।

    उसके बिना किसी को कोईबल नहीं मिल सकता।

    चाहे चल हो या अचल, उच्च हो या नीच, ब्रह्मा समेत सारे जीव भगवान्‌के बल द्वारा नियंत्रित हैं।

    "

    स ईश्वरः काल उरुक्रमोसा-वोज: सहः सत्त्वबलेन्द्रियात्मा ।

    स एव विश्व परम: स्वशक्तिभि:सृजत्यवत्यत्ति गुणत्रयेश: ॥

    ८॥

    सः--वह ( भगवान्‌ ); ईश्वर: --परम नियन्ता; काल:--काल; उरुक्रम:-- भगवान्‌ जिनके सारे कार्य असाधारण होते हैं;असौ--वे ही; ओज:--इन्द्रियों की शक्ति; सहः--मन की शक्ति; सत्त्व--स्थैर्य; बल--शारीरिक शक्ति; इन्द्रिय--तथा इन्द्रियोंका; आत्मा--आत्मा; सः--वह; एव--निस्सन्देह; विश्वम्‌--सारा विश्व; परम:--परम; स्व-शक्तिभि:--अपनी विविध दिव्यशक्तियों से; सृजति--सृजन करता है; अवति--पालन करता है; अत्ति--संहार कर देता है; गुण-त्रय-ईशः--तीनों गुणों कास्वामी |

    परम नियन्ता एवं काल रूप भगवान्‌ इन्द्रियों के बल, मन के बल, शरीर के बल तथाइन्द्रियों के प्राण हैं।

    उनका प्रभाव असीम है।

    वे समस्त जीवों में श्रेष्ठ तथा प्रकृति के तीनों गुणोंके नियन्ता हैं।

    वे अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं।

    "

    जह्ासुरं भावमिमं त्वमात्मन:सम॑ मनो धत्स्व न सन्ति विद्विष: ।

    ऋतेजितादात्मन उत्पथे स्थितात्‌तदिद्वि ह्मनन्तस्य महत्समहणम्‌ ॥

    ९॥

    जहि-्याग दो; आसुरम्‌--आसुरी; भावम्‌-प्रवृत्ति को; इमम्‌--इस; त्वम्‌--तुम ( मेरे पिता ); आत्मन:--अपने; समम्‌--बराबर; मन:ः--मन; धत्स्व--बनाओ; न--नहीं; सन्ति-- हैं; विद्विष:--शत्रु; ऋते--के अतिरिक्त; अजितातू--अनियंत्रित;आत्मन:--मन; उत्पथे--अवांछित प्रवृत्तियों के कुमार्ग पर; स्थितात्‌ू--स्थित होकर; तत्‌ हि--वह ( प्रवृत्ति ); हि--निस्सन्देह;अनन्तस्य--असीम भगवान्‌ की; महत्‌--सर्व श्रेष्ठ; समहणम्‌--पूजा-विधि |

    प्रह्माद महाराज ने कहा : हे पिता, आप अपनी आसुरी प्रवृत्ति त्याग दें।

    आप अपने हृदय मेंशत्रु-मित्र में भेदभाव न लाएँ, आप अपने मन को सबों के प्रति समभाव बनाएँ।

    इस संसार मेंअनियंत्रित तथा पथशभ्रष्ट मन के अतिरिक्त कोई शत्रु नहीं है।

    जब कोई मनुष्य प्रत्येक व्यक्ति कोसमता के पद पर देखता है तभी वह भगवान्‌ की ठीक से पूजा करने की स्थिति में होता है।

    "

    दस्यून्पुरा षण्न विजित्य लुम्पतोमन्यन्त एके स्वजिता दिशो दश ।

    जितात्मनो ज्ञस्थ समस्य देहिनांसाधो: स्वमोहप्रभवा: कुतः परे ॥

    १०॥

    दस्यूनू--लुटेरे; पुरा--प्रारम्भ में; घट्‌ू--छह; न--नहीं; विजित्य--जीत कर; लुम्पतः--किसी की सारी सम्पत्ति चुराते हुए;मन्यन्ते--मानते हैं; एके--कुछ; स्व-जिता:--जीता हुआ; दिशः दश--दसों दिशाएँ; जित-आत्मन:--जिसने इन्द्रियों को जीतलिया है, इन्द्रियजित; ज्स्य--विद्वान का; समस्य--समदर्शी ; देहिनामू--समस्त जीवों के प्रति; साधो:--ऐसे साधु पुरुष का;स्व-मोह-प्रभवा:--अपने ही मोह से उत्पन्न; कुतः--कहाँ; परे--शत्रु या विरोधी तत्त्व

    प्राचीन काल में आपके समान ही अनेक मूढ हुए हैं जिन्होंने उन छह शत्रुओं को नहीं जीताजो शरीर रूपी सम्पत्ति को चुरा ले जाते हैं।

    ये मूढ यह सोचकर गर्वित होते हैं 'मैंने तो दसोंदिशाओं के सारे शत्रुओं को जीत लिया है।

    ' किन्तु यदि कोई व्यक्ति इन छह शत्रुओं पर विजयी होता है और सारे जीवों पर समभाव रखता है, तो उसके लिए शत्रु नहीं होते।

    शत्रु की कल्पनामूर्खतावश की जाती है।

    "

    श्रीहिरण्यकशिपुरुवाचव्यक्त त्वं मर्तुकामोसि योऊतिमात्रं विकत्थसे ।

    मुमूर्षूणां हि मन्दात्मन्ननु स्युर्विक्लवा गिर: ॥

    ११॥

    श्री-हिरण्यकशिपु: उबाच--वर प्राप्त हिरण्यकशिपु ने कहा; व्यक्तम्‌-स्पष्ट रूप से; त्वमू--तुम; मर्तु-काम: --मृत्यु के इच्छुक;असि-हो; यः--जो; अतिमात्रम्‌--असीम; विकत्थसे--डींग मार रहे हो ( मानो तुमने इन्द्रियों जीत ली हों और तुम्हारे पिता ने नजीती हों ); मुमूर्षूणाम्‌--तुरन्त ही मरने वाले व्यक्तियों का; हि--निस्सन्देह; मन्द-आत्मनू--हे मूर्ख; ननु--निश्चय ही; स्युः--होजाते हैं; विक्‍्लवा:--ऊटपटाँग; गिर:--शब्द |

    हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया: रे मूर्ख! तू मेरे महत्त्व को घटाने का प्रयास कर रहा है मानो तूमुझसे अधिक इन्द्रिय-संयमी है।

    यह अति-बुद्धिमत्ता है।

    अतएवं मैं समझ रहा हूँ कि तुम मेरेहाथों मरना चाहते हो, क्योंकि ऐसी बेसिर-पैर की ( ऊटपटाँग ) बातें वे ही करते हैं, जोमरणासतन्न होते हैं।

    "

    यस्त्वया मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः ।

    क्वासौ यदि स सर्वत्र कस्मात्स्तम्भे न दृश्यते ॥

    १२॥

    यः--जो; त्वया--ेरे द्वारा; मन्द-भाग्य--अरे अभागे; उक्त:--कहा गया; मत्‌-अन्य:--मेरे अतिरिक्त; जगत्‌-ईश्वर:--ब्रह्माण्डका परम नियन्ता; क्व--कहाँ; असौ--वही; यदि--यदि; सः--वह; सर्वत्र--सभी जगह ( सर्वव्यापी ); कस्मात्‌ू-क्यों;स्तम्भे--मेरे समक्ष के ख भे में; न हृश्यते-- नहीं दिखता।

    अरे अभागे प्रह्नाद! तूने सदैव मेरे अतिरिक्त किसी परम पुरुष का वर्णन किया है, जो हरएक के ऊपर है, हर एक का नियन्ता है तथा जो सर्वव्यापी है।

    लेकिन वह है कहाँ?

    यदि वहसर्वत्र है, तो वह मेरे समक्ष के इस ख भे में क्‍यों उपस्थित नहीं है ?

    " सोहं विकत्थमानस्य शिरः कायाद्धरामि ते ।

    गोपायेत हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम्‌ ॥

    १३॥

    सः--वह; अहम्‌--मैं; विकत्थमानस्थ--ऐसे अनर्गल प्रलाप करने वालों का; शिर:--सिर; कायात्‌--शरीर से; हरामि-छित्नकर दूँगा; ते--तुम्हारा; गोपायेत--वह तुम्हारी रक्षा करे; हरिः-- भगवान्‌ हरि; त्वा--तुमको; अद्य--अब; यः--जो; ते--तुम्हारा; शरणम्‌--रक्षक; ईप्सितम्‌--वांछित |

    चूँकि तुम इतना अधिक अनर्गल प्रलाप कर रहे हो अतएव अब मैं तुम्हारे शरीर से तुम्हाराशिर छिन्न कर दूँगा।

    अब मैं देखूँगा कि तुम्हारा परमाराध्य ई श्वर तुम्हारी रक्षा किस तरह करता है।

    मैं उसे देखना चाहता हूँ।

    "

    एवं दुरुक्तेमुहुरर्दयन्रुषासुतं महाभागवतं महासुरः ।

    खड़गं प्रगृद्योत्पतितो वरासनात्‌स्तम्भं तताडातिबल: स्वमुष्टिना ॥

    १४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; दुरुक्तैः:--कटु वचनों से; मुहुः--निरन्तर; अर्दयनू--प्रताड़ित किया जाकर; रुषा--अनावश्यक क्रोधसहित; सुतम्‌--अपने पुत्र को; महा-भागवतम्‌--महान्‌ भक्त; महा-असुरः--महान्‌ असुर हिरण्यकशिपु ने; खड्गम्‌--तलवार;प्रगृह्य --ग्रहण करके; उत्पतित:--उठकर; वर-आसनात्‌ -- अपने अत्यन्त उच्च सिंहासन से; स्तम्भम्‌--ख भे को; तताड-- प्रहारकिया; अति-बल:--बलशाली; स्व-मुष्टिना--अपनी मुट्ठी या घूँसे से ।

    अतिशय क्रोध के कारण अत्यन्त बलशाली हिरण्यकशिपु ने अपने महाभागवत पुत्र कोअत्यन्त कटु वचन कहे और उसकी भर्त्सना की।

    उसे बारम्बार श्राप देते हुए हिरण्यकशिपु नेअपनी तलवार निकाली, अपने राजसी सिंहासन से उठ खड़ा होकर और अत्यन्त क्रोध के साथख भे पर मुष्टिका-प्रहार किया।

    "

    तदेव तस्मिन्निनदोउइतिभीषणोबभूव येनाण्डकटाहमस्फुटत्‌ ।

    यं वै स्वधिष्ण्योपगतं त्वजादयःश्र॒ुत्वा स्वधामात्ययमड़ मेनिरे ॥

    १५॥

    तदा--उसी समय; एव--ठीक; तस्मिन्‌ू--उस ( ख भे ) के भीतर; निनदः-- ध्वनि; अति-भीषण: --अत्यन्त भयावनी; बभूब--हुई; येन--जिससे; अण्ड-कटाहम्‌--ब्रह्माण्ड आवरण ( कोश ); अस्फुटतू--चिटखता प्रतीत हुआ; यम्‌ू--जिसको; बै--निस्सन्देह; स्व-धिष्ण्य-उपगतम्‌-- अपने-अपने घर पहुँच कर; तु--लेकिन; अज-आदय:--ब्रह्माजी इत्यादि देवतागण;श्रुत्वा--सुनकर; स्व-धाम-अत्ययम्‌--अपने-अपने निवासों का ध्वंस; अड़--हे राजा युधिष्ठिर; मेनिरि--सोचा ।

    तब उस ख भे से एक भयानक आवाज आई जिससे ब्रह्माण्ड का आवरण विदीर्ण होताप्रतीत हुआ।

    है युधिष्ठिर, यह आवाज ब्रह्मा आदि देवताओं के निवासों तक पहुँच गई और जबदेवताओं ने इसे सुना तो उन्होंने सोचा ' ओह! अब हमारे लोकों का विनाश होने जा रहा है।

    '" स विक्रमम्पुत्रवधेप्सुरो जसानिशम्य निर्हादमपूर्वमद्भुतम्‌ ।

    अन्तःसभायां न ददर्श तत्पदंवितत्रसुर्येन सुरारियूथया: ॥

    १६॥

    सः--वह ( हिरण्यकशिपु ); विक्रमन्‌--अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए; पुत्र-वध-ईप्सु:--अपने ही पुत्र का वध करने काइच्छुक; ओजसा--अत्यन्त बलपूर्वक; निशम्य--सुनकर; निर्हादम्‌ू-- भयानक ध्वनि को; अपूर्बम्‌--पहले कभी न सुनी गई;अद्भुतम्‌-अत्यन्त अद्भुत; अन्तः-सभायामू--सभा के भीतर; न--नहीं; दरदर्श--देखा; तत्‌-पदम्‌--उस भयानक आवाज केस्त्रोत को; वितत्रसु:--भयभीत हुए; येन--जिस ध्वनि से; सुर-अरि-यूथ-पा:--असुरों के अन्य नेता ( हिरण्यकशिपु ही नहीं ) |

    अपने पुत्र को मारने के इच्छुक हिरण्यकशिपु ने जो इस तरह अपना अद्वितीय शौर्य दिखलारहा था जब एक अद्भुत भीषण ( घोर ) ध्वनि सुनी जिसे इसके पूर्व उसने कभी नहीं सुना था।

    इसी ध्वनि को सुनकर अन्य असुरनायक भी भयभीत हुए।

    उस सभा में इस ध्वनि के उद्गम कोकोई नहीं ढूँढ़ पाया।

    "

    सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषित॑व्याप्ति च॒ भूतेष्वखिलेषु चात्मन: ।

    अदृश्यतात्यद्धुतरूपमुठ्ठह न्‌स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम्‌ ॥

    १७॥

    सत्यमू--सच; विधातुम्‌--सिद्ध करने के लिए; निज-भृत्य-भाषितम्‌--अपने दास के ही शब्दों को ( प्रह्नाद महाराज द्वारा कहेगये शब्द कि भगवान्‌ सर्वव्यापी हैं ); व्याप्तिमू--उपस्थिति; च--तथा; भूतेषु--जीवों तथा तत्त्वों के मध्य; अखिलेषु--समस्त;च--तथा; आत्मन: --अपना; अदृश्यत--दिखाई पड़ा; अति--अत्यन्त; अद्भुत--अद्भुत; रूपमू--रूप को; उद्ददन्‌ू-- धारणकरके; स्तम्भे--ख भे में; सभायाम्‌ू--सभा के भीतर; न--नहीं; मृगम्‌ू--पशु; न--न तो; मानुषम्‌--मनुष्य ।

    अपने दास प्रह्मद महाराज के वचनों को सिद्ध करने के लिए कि वे सत्य हैं--अर्थात्‌ यहसिद्ध करने के लिए कि भगवान्‌ सर्वत्र उपस्थित हैं, यहाँ तक कि सभा भवन के ख भे के भीतरभी हैं-- भगवान्‌ श्री हरि ने अपना अभूतपूर्व अद्भुत रूप प्रकट किया।

    यह रूप न तो मनुष्य काथा, न सिंह का।

    इस प्रकार भगवान्‌ उस सभाकक्ष में अपने अद्भुत रूप में प्रकट हुए।

    "

    स सत्त्वमेनं परितो विपश्यन्‌ स्तम्भस्य मध्यादनुनिर्जिहानम्‌ ।

    नाय॑ मृगो नापि नरो विचित्र-महो किमेतन्नमृगेन्द्ररूपम्‌ ॥

    १८ ॥

    सः--वह ( दैत्यराज हिरण्यकशिपु ); सत्त्वम्‌--सजीव प्राणी को; एनम्‌--इस; परितः--चारों ओर; विपश्यन्‌--देखते हुए;स्तम्भस्य--ख भे के; मध्यात्‌--बीच से; अनुनिर्जिहानम्‌ू--निकल कर; न--नहीं; अयम्‌ू--यह; मृग:-- पशु; न--नहीं;अपि--निस्सन्देह; नर:--मनुष्य; विचित्रम्‌-- अत्यन्त अद्भुत; अहो--ओह; किम्‌--किया; एतत्‌--यह; नृ-मृग-इन्द्र-रूपमू--मनुष्य तथा पशुओं के राजा सिंह का रूप |

    जब हिरण्यकशिपु उस ध्वनि का स्त्रोत ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर देख रहा था तो उस ख भेसे भगवान्‌ का एक अद्भुत रूप प्रकट हुआ जो न तो मनुष्य का था और न सिंह का माना जाताथा।

    हिरण्यकशिपु आश्चर्यचकित हुआ, 'यह कैसा प्राणी है, जो आधा पुरुष तथा आधा सिंहहै !" मीमांसमानस्य समुत्थितोग्रतो ।

    नृसिंहरूपस्तदलं भयानकम्‌ ॥

    १९॥

    प्रतप्तचामीकरचण्डलोचनंस्फुरत्सटाकेशरजृम्भिताननम्‌ ॥

    'करालदंएं करवालचञ्ललक्षुरान्तजिह्वं भ्रुकुटीमुखोल्बणम्‌ ॥

    २०॥

    स्तब्धोर्ध्वकर्ण गिरिकन्दराद्भधुत-व्यात्तास्यनासं हनुभेदभीषणम्‌ ।

    दिविस्पृशत्कायमदीर्घपीवर-ग्रीवोरुवक्ष:स्थलमल्पमध्यमम्‌ ॥

    २१॥

    अन्द्रांशुगौरैश्छुरितं तनूरुहै-विंष्वग्भुजानीकशतं नखायुधम्‌ ।

    दुरासदं सर्वनिजेतरायुध-प्रवेकविद्रावितदैत्यदानवम्‌ ॥

    २२॥

    मीमांसमानस्य-- भगवान्‌ के अद्भुत रूप के विषय में उधेड़-बुन करने वाले हिरण्यकशिपु के ; समुत्थित:--प्रकट हुआ;अग्रतः--समक्ष; नूसिंह-रूप:--नृसिंह देव ( आधा सिंह तथा आधा मनुष्य ) के रूप; ततू--वह; अलम्‌--विलक्षण रीति से;भयानकम्‌--अत्यन्त भयावना; प्रतप्त--पिघला हुआ; चामीकर--सोना; चण्ड-लोचनम्‌-- भयानक आँखों वाला; स्फुरत्‌--चमकाते हुए; सटा-केशर--अपनी गरदन के बाल; जृम्भित-आननम्‌--मुँह फैलाये; कराल-- भयानक; दंष्टम्‌--दाँतों से युक्त;'करवाल-चञ्जल--पैनी तलवार जैसी हिलती; क्षुर-अन्त--तथा छुरे के समान तेज; जिहम्‌ू--अपनी जीभ को; ध्रुकुटी -मुख--अपने क्रोध-पूर्ण मुख के कारण; उल्बणम्‌--डरावना; स्तब्ध--स्थिर; ऊर्ध्व--ऊपर की ओर फैले; कर्णम्‌--कान; गिरि-कन्दर--पर्वत की गुफाओं के सहश; अद्भुत--अत्यन्त भयानक; व्यात्तास्थ--मुँह फैलाये; नासम्‌--तथा नथुने; हनु-भेद-भीषणमू्‌--जबड़े अलग होने से भय उत्पन्न करता; दिवि-स्पृशत्‌-- आकाश को छूता हुआ; कायम्‌--शरीर; अदीर्घ--लघु;पीवर--मोटी; ग्रीव--गर्दन; उरुू--चौड़ा; वक्ष:-स्थलम्‌--सीना; अल्प--छोटा; मध्यमम्‌--शरीर का मध्य भाग; चन्द्र-अंशु--चन्द्रमा की किरणों की तरह; गौरैः--गौर वर्ण के; छुरितम्‌ू--आवृत; तनूरुहैः--बालों से; विष्वक्‌--सभी दिशाओं में; भुज--भुजाओं का; अनीक-शतम्‌--एक सौ पंक्तियों वाला; नख--नाखून; आयुधम्‌--घातक हथियार के रूप में; दुरासदम्‌--जीतपाना कठिन; सर्व--समस्त; निज--स्वयं; इतर--तथा अन्य; आयुध--हथियारों का; प्रवेक--सर्व श्रेष्ठ ( हथियार ) के प्रयोगद्वारा; विद्रावित--दौने लगा; दैत्य--असुरों; दानवम्‌--तथा धूर्तो ( नास्तिकों ) को

    हिरण्यकशिपु ने अपने समक्ष खड़े नृसिंह देव के रूप का निश्चय करने के लिए भगवान्‌ केरूप को ध्यान से देखा।

    भगवान्‌ का रूप पिघले सोने के सदश था।

    उनकी क्रुद्ध आँखों केकारण जो पिघले स्वर्ण से मिलती थी वह रूप अत्यन्त भयानक लग रहा था; उनके चमकीलेअयाल ( गर्दन के बाल) उनके भयानक मुखमण्डल के आकार को फैला रहे थे; उनके दाँतमृत्यु-जैसे भयानक थे, उनकी उस्तरे जैसी तीक्ष्ण जीभ लड़ाई में तलवार के समान इधर-उधरचल रही थी; उनके कान खड़े तथा स्थिर थे और उनके नथुने तथा खुला मुख पर्वत की गुफा-जैसे लग रहे थे।

    उनके जबड़े फैले हुए थे जिससे भय उत्पन्न हो रहा था और उनका समूचा शरीरआसमान को छू रहा था।

    उनकी गर्दन अत्यन्त छोटी तथा मोटी थी; उनकी छाती चौड़ी थी तथाकमर पतली थी।

    उनके शरीर के रोएँ चन्द्रमा की किरणों के समान श्रेत लग रहे थे।

    उनकी भुजाएं चारों दिशाओं में फैले सैनिकों की टुकड़ियों से मिलती जुलती थी, जब वे असुरों धूर्तोंतथा नास्तिकों का अपने शंख, चक्र, गदा, कमल तथा अन्य प्राकृतिक अस्त्र-शस्त्रों से वध कररहे थे।

    "

    प्रायेण मेयं हरिणोरुमायिनावध: स्मृतोनेन समुद्यतेन किम्‌ ।

    एवं ब्रुव॑स्त्वभ्यपतद्गदायुधोनदन्नूसिंहं प्रति दैत्यकुझरः: ॥

    २३॥

    प्रायेण--शायद; मे--मेरा; अयम्‌--यह; हरिणा-- भगवान्‌ द्वारा; उरु-मायिना--अत्यधिक योग शक्ति वाले; बध:--मृत्यु;स्मृत:---आयोजित; अनेन--इस; समुद्यतेन-- प्रयास के साथ; किमू--क्या लाभ; एवम्‌--इस प्रकार; ब्रुवन्‌ू--मन ही मन कहा;तु--निस्सन्देह; अभ्यपतत्‌--आक्रमण किया; गदा-आयुध: -- अपने गदा रूपी आयुध से युक्त; नदन्‌--जोर से गर्जना करतेहुए; नू-सिंहमू--आधा सिंह तथा आधा मनुष्य के रूप में प्रकट होने वाले भगवान्‌; प्रति--के प्रति; दैत्य-कुझर:--हाथी केतुल्य असुर हिरण्यकशिपु ने |

    हिरण्यकशिपु ने मन ही मन कहा : 'अत्यधिक योग शक्ति वाले भगवान्‌ विष्णु ने मेरा बधकरने के लिए यह योजना बनाई है, किन्तु ऐसा प्रयास करने से क्या लाभ है ?

    भला ऐसा कौनहै, जो मुझसे युद्ध कर सकता है ?

    ' ऐसा सोचते हुए हाथी के समान हिरण्यकशिपु ने अपनीगदा उठाकर भगवान्‌ पर आक्रमण कर दिया।

    "

    अलक्षितोग्नौ पतितः पतड़मोयथा नृसिंहौजसि सोसुरस्तदा ।

    न तद्विचित्र॑ं खलु सत्त्वधामनिस्वतेजसा यो नु पुरापिबत्तम: ॥

    २४॥

    अलक्षित:--अहृश्य; अग्नौ--अग्नि में; पतित:--गिरा हुआ; पतड्रम:--पतंगा; यथा--जिस तरह; नूसिंह -- भगवान्‌ नृसिंह देवका; ओजसि-ेज में; सः--वह; असुरः--हिरण्यकशिपु; तदा--उस समय; न--नहीं; तत्‌--वह; विचित्रमू-- अद्भुत;खलु--निस्सन्देह; सत्त्त-धामनि--सतोगुणी भगवान्‌ में; स्व-तेजसा--अपने तेज से; यः--जो भगवान्‌; नु--निस्सन्देह; पुरा--प्राचीन काल में; अपिबत्‌ू--निगल लिया; तम:ः--भौतिक सृष्टि के भीतर अंधकार।

    जिस तरह एक बेचारा छोटा पतंगा बरबस अग्नि में गिरकर अदृश्य हो जाता है उसी तरहजब हिरण्यकशिपु ने तेजोमय भगवान्‌ पर आक्रमण किया तो वह अदृश्य हो गया।

    यहआश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि भगवान्‌ सदैव सतोगुण की स्थिति में रहते हैं।

    प्राचीन काल मेंसृष्टि के समय वे अंधकारपूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हो गये थे और उसे उन्होंने अपने आध्यात्मिकतेज से प्रकाशित कर दिया था।

    "

    ततोभिपसद्या भ्यहनन्महासुरोरुषा नृसिंहं गदयोरूुवेगया ।

    त॑ विक्रमन्तं सगदं गदाधरोमहोरगं तार्श््यसुतो यथाग्रहीत्‌ ॥

    २५॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; अभिपद्य--आक्रमण करके; अभ्यहनत्‌-- प्रहार किया; महा-असुर:--महान्‌ असुर ( हिरण्यकशिपु ) ने;रुषा--क्रुद्ध होकर; नृसिंहम्‌-- भगवान्‌ नृसिंह देव पर; गदया--अपनी गदा से; उरु-वेगया--अत्यधिक बलपूर्वक; तमू--उसे( हिरण्यकशिपु को ); विक्रमन्तम्‌--अपना पराक्रम दिखाते हुए; स-गदम्‌--उसकी गदा सहित; गदा-धर: --हाथ में गदा लिएभगवान्‌ नृसिंह देव ने; महा-उरगम्‌--विशाल सर्प को; तार्श्य-सुत:--तार्क्ष्य पुत्र गरूड़; यथा--जिस तरह; अग्रहीतू--पकड़ ले।

    तत्पश्चात्‌ अत्यन्त क्रुद्ध उस महान्‌ असुर हिरण्यकशिपु ने तेजी से नूसिंह देव पर अपनी गदासे आक्रमण कर दिया और उन्हें मारने लगा।

    किन्तु भगवान्‌ नृसिंह देव ने उस महान्‌ असुर कोउसकी गदा समेत उसी तरह पकड़ लिया जिस तरह गरुड़ किसी साँप को पकड़ ले।

    "

    स तस्य हस्तोत्कलितस्तदासुरोविक्रीडतो यद्वदहिर्गरुत्मतः ।

    असाध्वमन्यन्त हतौकसोमराघनच्छदा भारत सर्वधिष्ण्यपा: ॥

    २६॥

    सः--वह ( हिरण्यकशिपु ); तस्य--उस दिव्य ( भगवान्‌ नृसिंह ) के; हस्त--हाथों से; उत्कलित:--छूट गया; तदा--उस समय;असुरः--दैत्यराज हिरण्यकशिपु; विक्रीडत:--खेलते हुए; यद्वत्‌ू--के सहश; अहिः--सर्प; गरुत्मतः--गरुड़ का; असाधु--बुरा; अमन्यन्त--मान लिया; हत-ओकस:--जिनके धाम हिरण्यकिशपु ने छीन लिये थे; अमरा:--देवगण; घन-च्छदा: --बादलों के पीछे स्थित; भारत--हे भरतपुत्र; सर्व-धिष्णय-पा: --समस्त स्वर्गलोकों के शासक।

    हे भरत के महान्‌ पुत्र युधिष्ठिर, जब नृसिंह देव ने हिरण्यकशिपु को अपने हाथ से छूट जानेका अवसर दे दिया, जिस तरह से कभी-कभी गरुड़ साँप के साथ खिलवाड़ करते हुए उसेअपने मुँह से सरक जाने देता है, तो सारे देवताओं ने, जिनके निवास स्थान उनके हाथों सेनिकल चुके थे और जो असुर के भय से बादलों के पीछे छिपे थे, इस घटना को शुभ नहींमाना।

    निस्सन्देह, वे अत्यधिक विचलित थे।

    "

    तं मन्यमानो निजवीर्यशड्ितंयद्धस्तमुक्तो नृहरिं महासुरः ।

    पुनस्तमासज्जत खड्गचर्मणीप्रगृह्म वेगेन गतश्रमो मृथे ॥

    २७॥

    तम्‌--उसको ( नृसिंह देव को ); मन्यमान:--सोचते हुए; निज-वबीर्य-शद्भितम्‌--अपने शौर्य से भयभीत; यत्‌--क्योंकि; हस्त-मुक्त:--भगवान्‌ के चंगुल से मुक्त; नृ-हरिम्‌-- भगवान्‌ नूसिंह देव को; महा-असुरः: --महान्‌ असुर ने; पुन:--फिर से; तम्‌ू--उस पर; आसजत--आक्रमण किया; खड्ग-चर्मणी--अपनी ढाल-तलवार; प्रगृह्य--लेकर; वेगेन-- अत्यन्त वेग के साथ;गत-श्रम:--थकान से मुक्त; मृधे--युद्ध भूमि में |

    जब हिरण्यकशिपु नृसिंह देव के हाथों से छूट गया तो उसे यह मिथ्या विचार हुआ किभगवान्‌ उसके शौर्य से डर गये हैं।

    अतएव युद्ध से थोड़ा विश्राम करके उसने अपनी ढाल-तलवार निकाली और फिर से अत्यन्त बलपूर्वक भगवान्‌ पर आक्रमण कर दिया।

    "

    तं॑ श्येनवेगं शतचन्द्रवर्त्मभिश्‌चरन्तमच्छिद्रमुपर्य धो हरि: ।

    कृत्वाइहासं खरमुत्स्वनोल्बणंनिमीलिताक्ष॑ं जगूहे महाजवः ॥

    २८॥

    तम्‌--उसको ( हिरण्यकशिपु को ); श्येन-वेगम्‌--बाज जैसी गति वाले; शत-चन्द्र-वर्त्मभि:--अपनी तलवार तथा एक सौचन्द्रमा जैसे चिह्नों से युक्त ढाल को भाँजते हुए; चरन्तम्‌--गति करते हुए; अच्छिद्रमू--किसी तरह का स्थान छोड़े बिना; उपरि-अधः--ऊपर तथा नीचे; हरिः-- भगवान्‌; कृत्वा--करते हुए; अट्ट-हासम्‌--जोर की हँसी; खरम्‌--अत्यन्त तीखी; उत्स्वन-उल्बणम्‌--इस तीक्र गर्जन से अत्यन्त भयभीत; निमीलित--बन्द; अक्षम्‌--आँखें; जगृहे--पकड़ लिया; महा-जब:--अत्यन्तशक्तिशाली भगवान्‌ ने।

    अट्टहास करते हुए अत्यन्त प्रबल तथा शक्तिशाली भगवान्‌ नारायण ने हिरण्यकशिपु कोपकड़ लिया जो किसी प्रकार का वार करने की संभावना छोड़े बिना अपनी तलवार-ढाल सेअपनी रक्षा कर रहा था।

    वह कभी बाज की गति से आकाश में चला जाता और कभी पृथ्वी परचला आता था।

    वह नृसिंहदेव की हँसी के भय से अपनी आखें बन्द किये था।

    "

    विष्वक्स्फुरन्तं ग्रहणातुरं हरि-व्यालो यथाखुं कुलिशाक्षतत्वचम्‌ ।

    द्वार्यूरूमापत्य ददार लीलयानखैर्यथाहिं गरूडो महाविषम्‌ ॥

    २९॥

    विष्वक्‌--चारों ओर; स्फुरन्तम्‌--अपने अंग हिलाते हुए; ग्रहण-आतुरम्‌-पकड़े जाने से पीड़ित; हरिः-- भगवान्‌, नृसिंह देवने; व्याल:--साँप; यथा--जिस तरह; आखुम्‌--चूहे को; कुलिश-अक्षत--जो इन्द्र के वज्र द्वारा भी न काटी जा सके;त्वचम्‌ू-त्वचा या खाल को; द्वारि--देहली पर; ऊरुम्‌--अपनी जाँघ पर; आपत्य--रखकर; ददार--फाड़ डाला; लीलया--सरलता से; नखैः--अपने नाखूनों से; यथा--जिस प्रकार; अहिमू--साँप को; गरुड:--गरुड़, विष्णु का वाहन; महा-विषम्‌--अत्यन्त विषधर

    जिस प्रकार कोई साँप किसी चूहे को या कोई गरुड़ किसी अत्यन्त विषैले सर्प को पकड़ले उसी तरह भगवान्‌ नृसिंहदेव ने उस हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया जिसकी त्वचा में इन्द्र कावज् भी नहीं घुस सकता था।

    ज्योंही पकड़े जाने पर वह अत्यन्त पीड़ित होकर अपने अंग इधर-उधर तथा चारों ओर हिलाने लगा त्योंही नूसिंहदेव ने उस असुर को अपनी गोद में रख लिया औरअपनी जांघों का सहारा देकर उस सभा भवन की देहली पर अपने हाथ के नाखूनों सेसरलतापूर्वक उस असुर को छिन्न-भिन्न कर डाला।

    "

    संरम्भदुष्प्रेन्‍्यफराललोचनोव्यात्ताननान्तं विलिहन्स्वजिहया ।

    असृग्लवाक्तारुणकेशराननोयथान्त्रमाली द्विपहत्यया हरि: ॥

    ३०॥

    संरम्भ--अत्यन्त क्रोध के कारण; दुष्प्रेक्ष्य--अत्यन्त कठिनाई से दिखने वाला; कराल--अत्यन्त भयावह; लोचन:--आँखें;व्यात्त--फैली हुई; आनन-अन्तम्‌--मुँह की कोरों को; विलिहन्‌--चाटते हुए; स्व-जिह्या--अपनी जीभ से; असृक्‌ू-लव--रक्त के धब्बों से; आक्त--पुता हुआ; अरुण--लाल-लाल; केशर--गरदन के बाल; आनन:--तथा मुख; यथा--जिस तरह;अन्त्र-माली--आँतों की माला से विभूषित; द्विप-हत्यया--किसी हाथी को मारने से; हरिः--सिंह

    भगवान्‌ नृसिंहदेव के मुख तथा गरदन के बाल रक्त के छींटों से सने थे और क्रोध से पूर्णहोने के कारण उनकी भयानक आँखों की ओर देख पाना असम्भव था।

    वे अपने मुँह की कोरोंको जीभ से चाट रहे थे तथा हिरण्यकशिपु के उदर से निकली आँतों की माला से सुशोभित थे।

    वे उस सिंह की भाँति प्रतीत हो रहे थे जिस ने अभी-अभी किसी हाथी को मारा हो।

    "

    नखाडु रोत्पाटितहत्सरोरुहंविसृज्य तस्यानुचरानुदायुधान्‌ ।

    अहन्समस्तान्नखशस्त्रपाणिभि-दोर्दिण्डयूथोनुपथान्सहस्त्रश: ॥

    ३१॥

    नख-अह्'ु र--नुकीले नाखूनों से; उत्पाटित--चीरा गया; हत्‌-सरोरुहम्‌ू--कमल पुष्प जैसे हृदय को; विसृज्य--एक तरफ फेंककर; तस्य--उसके; अनुचरान्‌ू--अनुयायियों ( सैनिक तथा अंगरक्षकों ) को; उदायुधानू--हथियार उठाते हुए; अहन्‌ू--मारडाला; समस्तान्‌--सभी; नख-शस्त्र-पाणिभि: --अपने नाखूनों तथा हाथ के अन्य हथियारों से; दोर्दण्ड-यूथ: --असंख्य बाहुओंवाले; अनुपथान्‌--हिरण्यकशिपु के अनुचरों को; सहस्त्रश:--हजारों |

    अनेकानेक भुजाओं वाले भगवान्‌ ने सर्वप्रथम हिरण्यकशिपु का हृदय निकाल लिया औरउसे एक ओर फेंक दिया।

    फिर वे असुर के सैनिकों की ओर मुड़े।

    ये सैनिक हजारों के झुंड मेंभगवान्‌ से लड़ने आये थे और हाथों में हथियार उठाए थे।

    ये हिरण्यकशिपु के अत्यन्तस्वामिभक्त अनुचर थे, किन्तु नृसिंह देव ने उन्हें अपने नाखून की नोकों से ही मार डाला।

    "

    सटावधूता जलदा: परापतन्‌ग्रहाश्व तद्दृष्टिविमुष्टरोचिष: ।

    अम्भोधय: श्वासहता विचुक्षुभु-निर्हादभीता दिगिभा विचुक्रुशु: ॥

    ३२॥

    सटा--नृसिंह देव की जटा से; अवधूता: --हिले हुए; जलदा:--बादल; परापतन्‌--बिखरे हुए; ग्रहा:-- चमकी ले ग्रह; च--तथा; तत्‌-दृष्टि--पैनी दृष्टि से; विमुष्ट--निकाल ली गईं; रोचिष:--जिसका तेज; अम्भोधय:--समुद्रों का जल; श्वास-हता:ः --नृसिंह देव के श्वास से प्रताड़ित; विचुश्षुभु:--क्षुब्ध हो उठा; निर्हाद-भीता:--नृसिंह देव की गर्जना से भयभीत; दिगिभा:--दिशाओं की रखवाली करने वाले सारे हाथी; विचुक्रुशु:--चिग्घाड़ उठे ॥

    नृसिंह देव के सिर के बालों से बादल हिलकर इधर-उधर बिखर गये।

    उनकी जलती आँखोंसे आकाश के नक्षत्रों का तेज मंद पड़ गया और उनके श्वास से समुद्र क्षुब्ध हो उठे।

    उनकीगर्जना से संसार के सारे हाथी भय से चिग्घाड़ने लगे।

    "

    चझौस्तत्सटोल्क्षिप्तविमानसड्डू लाप्रोत्सर्पत क्ष्मा च पदाभिपीडिता ।

    शैला: समुत्पेतुरमुष्य रंहसातत्तेजसा खं ककुभो न रेजिरे ॥

    ३३॥

    झौः--बाह्य आकाश; तत्‌-सटा--उनके बालों से; उत्क्षिप्--बाहर फेंका हुआ; विमान-सड्डु ला--विमानों से पूरित;प्रोत्सपत--स्थान से सरक गया; क्ष्मा--पृथ्वी; च-- भी; पद-अभिपीडिता-- भगवान्‌ के चरणकमलों के गुरु भार से पीड़ित;शैला:--पर्वत; समुत्पेतु:--ऊपर उठ गया; अमुष्य--उस ( भगवान्‌ ) के; रंहसा--असह्य बल से; तत्‌-तेजसा--उसके तेज से;खम्‌--आकाश; ककुभ:--दसों दिशाएँ; न रेजिरे--नहीं चमकीं

    नूसिंह देव के सिर के बालों से वायुयान ( विमान ) बाह्य आकाश तथा उच्च लोकों में जागिरे।

    भगवान्‌ के चरणकमलों के दबाव से पृथ्वी अपनी स्थिति से छिटकती प्रतीत हुई औरउनके असहा बल से सारे पर्वत ऊपर उछल गये।

    भगवान्‌ के शारीरिक तेज से आकाश तथासमस्त दिशाओं का प्राकृतिक प्रकाश घट गया।

    "

    ततः सभायामुपविष्ठ मुत्तमेनृपासने सम्भूततेजसं विभुम्‌ ।

    अलक्षितद्वैरथमत्यमर्षणंप्रचण्डवक्‍त्रं न बभाज कश्चन ॥

    ३४॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; सभायामू--सभाभवतन में; उपविष्टमू--बैठे हुए; उत्तमे-- श्रेष्ठ; नूप-आसने--सिंहासन पर जिस परहिरण्यकश्पु बैठता था; सम्भृत-तेजसम्‌--पूर्ण तेजोमय; विभुम्‌--परमेश्वर को; अलक्षित-द्वैरथम्‌--जिनका प्रतिद्वन्द्दी या शत्रुदिख नहीं रहा था; अति--अत्यन्त; अमर्षणम्‌--( अपने क्रोध के कारण ) भयानक; प्रचण्ड-- भयंकर; वक्त्रमू--मुखमंडल;न--नहीं; बभाज--पूजे; कश्नन--कोई

    अपना पूर्ण तेज तथा भंयकर मुखमंडल दिखलाते हुए नूसिंह देव अत्यन्त क्रुद्ध होने तथाअपने बल एवं ऐश्वर्य का सामना करने वाले किसी को न पाकर सभा भवतन में राजा के श्रेष्ठतमसिंहासन पर जा बैठे।

    भय तथा आज्ञाकारिता के कारण किसी में साहस न हुआ कि सामनेआकर भगवान्‌ की सेवा करे।

    "

    निशाम्य लोकत्रयमस्तकज्वरंतमादिदेत्यं हरिणा हतं मृथे ।

    प्रहर्षवेगोत्कलितानना मुहुःप्रसूनवर्षर्ववृषु: सुरस्त्रिय: ॥

    ३५॥

    निशाम्य--सुनकर; लोक-त्रय--तीनों लोकों का; मस्तक-ज्वरम्‌--सिर दर्द; तम्‌ू--उसको; आदि--मूल; दैत्यम्‌ू--असुर को;हरिणा--भगवान्‌ द्वारा; हतम्‌--मारा गया; मृधे--युद्ध में; प्रहर्ष-वेग-- प्रसन्नता के मारे; उत्तलित-आनना: --खिले हुए चेहरोंवाली; मुहुः--पुनः पुनः; प्रसून-वर्षै:--फूलों की वर्षा से; ववृषु:--वर्षा की; सुर-स्त्रियः--देवताओं की स्त्रियों ने

    हिरण्यकशिपु तीनों लोकों का सिर दर्द बना हुआ था।

    अतएव जब स्वर्गलोक में देवताओंकी पत्नियों ने देखा कि इस महान्‌ असुर का वध भगवान्‌ के हाथों से हो गया है, तो उनके चेहरेप्रसन्नता के मारे खिल उठे।

    देवताओं की स्त्रियों ने स्वर्ग से भगवान्‌ नृसिंह देव पर पुनः पुनः'फूलों की वर्षा की।

    "

    तदा विमानावलिभिर्नभस्तलंदिदक्षतां सट्डु लमास नाकिनाम्‌ ।

    सुरानका दुन्दुभयोथ जघ्निरेगन्धर्वमुख्या ननृतुर्जगुः स्त्रियः ॥

    ३६॥

    तदा--उस समय; विमान-आवलिभि:--विभिन्न प्रकार के विमानों से; नभस्तलम्‌--आकाश को; दिदृक्षताम्‌--देखने केइच्छुक; सद्डु लम्‌--समूहबद्ध; आस--हो गया; नाकिनाम्‌-देवातओं के; सुर-आनका:--देंवताओं के ढोल; दुन्दुभय:--दुन्दुभियाँ; अथ--तथा; जध्निरि--बजायी गईं; गन्धर्व-मुख्या: --गन्धर्वों के प्रमुख; ननृतु:--नाचने लगीं; जगुः--गाने लगे;स्त्रियः--स्वर्ग की स्त्रियाँ॥

    उस समय भगवान्‌ नारायण का दर्शन करने के इच्छुक देवताओं के विमानों से आकाश पटगया।

    देवतागण ढोल तथा नगाड़े बजाने लगे जिन्हें सुनकर देव लोक की स्त्रियाँ नाचने लगींऔर गन्धर्वो के मुखिया मधुर गान गाने लगे।

    "

    तत्रोपब्रज्य विबुधा ब्रह्ोन्द्रगरिशादय:ः ।

    ऋषय: पितरः सिद्धा विद्याधरमहोरगा: ।

    मनव: प्रजानां पतयो गन्धर्वाप्सरचारणा: ॥

    ३७॥

    यक्षा: किम्पुरुषास्तात वेताला: सहकिन्नरा: ।

    ते विष्णुपार्षदा: सर्वे सुनन्दकुमुदादयः ॥

    ३८ ॥

    मूर्ध्नि बद्धाज्अलिपुटा आसीनं तीब्रतेजसम्‌ ।

    ईडिरे नरशार्दुलं नातिदूरचरा: पृथक्‌ ॥

    ३९॥

    तत्र--वहाँ ( आकाश में ); उपब्रज्य--( अपने-अपने विमानों से ) आकर; विबुधा: --सारे देवता; ब्रह्म-इन्द्र-गिरिश-आदय:--ब्रह्मा, इन्द्र, शिव आदि; ऋषय:--ऋषिगण; पितरः--पितृलोक के निवासी; सिद्धा:--सिद्धलोक के निवासी; विद्याधर--विद्याधर लोक के निवासी; महा-उरगा:--सर्प लोक के वासी; मनवः--मनुष्यगण; प्रजानाम्‌ू--( विभिन्न लोक के ) जीवों के;'पतय:--प्रमुख; गन्धर्व--गन्धर्व लोक के वासी; अप्सर--अप्सरा लोक के वासी; चारणा:--चारण लोक के वासी; यक्षा:--यक्षगण; किम्पुरुषा:--किम्पुरुषणण; तात--हे प्रिय; बेताला:--वेतालगण; सह-किन्नरा: --किन्नरों समेत; ते--वे; विष्णु-पार्षदा:--( विष्णु लोक में ) भगवान्‌ विष्णु के निजी सहयोगी; सर्वे--सभी; सुनन्‍्द-कुमुद-आदय:--सुनन्द तथा कुमुद आदि;मूर्धि--अपने सिरों पर; बद्ध-अद्जलि-पुटा:--हाथ जोड़े; आसीनम्‌ू--सिंहासन पर बैठे हुए; तीब्र-तेजसम्‌--अपना आध्यात्मिकतेज बिखेरते हुए; ईंडिरि--सादर पूजा की; नर-शार्दुलम्‌--आधा मनुष्य तथा आधा सिंह के रूप में प्रकट होने वाले भगवान्‌ को;न अति-दूरचरा:--पास आकर; पृथक्‌ --अलग-अलग।

    हे राजा युधिष्ठिर, तब सारे देवता भगवान्‌ के निकट आ गये।

    उनमें ब्रह्माजी, इन्द्र तथा शिवजी प्रमुख थे और उनके साथ बड़े-बड़े साधु पुरुष एवं पितुलोक, सिद्धलोक, विद्याधर लोकतथा नागलोक के निवासी भी थे।

    वहीं सारे मनु तथा अन्य लोकों के प्रजापति भी पहुँच गये।

    अप्सराओं के साथ-साथ गन्धर्व, चारण, यक्ष, किन्नर, बेताल, किम्पुरुष लोक के वासी तथाविष्णु के पार्षद सुनन्‍्द एवं कुमुद आदि भी पहुँचे।

    ये सभी भगवान्‌ के निकट आये जो अपनेतीव्र प्रकाश से चमक रहे थे।

    इन सबों ने अपने-अपने सिरों के ऊपर हाथ जोड़कर नमस्कारकिया और स्तुतियाँ कीं।

    "

    श्रीब्रह्मोवाचनतोअस्म्यनन्ताय दुरन्तशक्तयेविचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे ।

    विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान्गुणैःस्वलीलया सन्दधतेव्ययात्मने ॥

    ४०॥

    श्री-ब्रह्मा उबाच--ब्रह्माजी ने कहा; नतः--नतमस्तक; अस्मि--हूँ; अनन्ताय-- अनन्त भगवान्‌ को; दुरन्‍्त--जिसका अन्त ढूँढ़पाना कठिन है; शक्तये--विभिन्न शक्तियों से युक्त; विचित्र-वीर्याय--नाना प्रकार के पराक्रम से युक्त; पवित्र-कर्मणे--जिनकेकर्म का फल नहीं होता ( चाहे बुरा ही कर्म क्यों न करें, वे भौतिक गुण से दूषित नहीं होते ); विश्वस्य--विश्व की; सर्ग--सृष्टि;थिति--पालन; संयमान्‌--तथा संहार; गुणैः--गुणों से; स्व-लीलया--आसानी से; सन्दधते--सम्पन्न करता है; अव्यय-आत्मने--जिनके व्यक्तित्व का हास नहीं होता।

    ब्रह्माजी ने प्रार्थना की: हे प्रभु, आप अनन्त हैं और आपकी शक्ति का कोई अन्त नहीं है।

    कोई भी आपके पराक्रम तथा अद्भुत प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकता, क्योंकि आपके कर्ममाया द्वारा दूषित नहीं होते।

    आप भौतिक गुणों से सहज ही ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथासंहार करते हैं लेकिन तो भी आप अव्यय बने रहते हैं।

    अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करताहूँ।

    "

    श्रीरुद्र उबाचकोपकालो युगान्तस्ते हतोयमसुरोडइल्पक: ।

    तत्सुतं पाह्मुपसृतं भक्त ते भक्तवत्सल ॥

    ४१॥

    श्री-रुद्रः उबाच--शिवजी ने स्तुति की; कोप-काल:--( ब्रह्माण्ड का संहार करने के लिए ) आपके क्रोध का उचित समय;युग-अन्तः--कल्प का अन्त; ते--तुम्हारे द्वारा; हतः--मारा गया; अयम्‌--यह; असुरः--महान्‌ दैत्य; अल्पक:--नगण्य; ततू-सुतम्‌--उसके पुत्र ( प्रहाद महाराज ) की; पाहि--रक्षा करो; उपसृतम्‌--शरणागत होकर पास ही खड़ा; भक्तम्‌-- भक्त; ते--तुम्हारा; भक्त-वत्सल--हे भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल प्रभु!

    शिव जी ने कहा : कल्प का अन्त ही आपके क्रोध का समय होता है।

    अब जबकि यहनगण्य असुर हिरण्यकशिपु मारा जा चुका है, हे भक्तवत्सल प्रभु, कृपा करके उसके पुत्र प्रह्मदमहाराज की रक्षा करें जो आपके निकट पूर्ण शरणागत भक्त के रूप में खड़ा हुआ है।

    "

    श्रीइन्द्र उबाचप्रत्यानीता: परम भवता त्रायता नः स्वभागादैत्याक्रान्तं हृदयकमलं तदगृहं प्रत्यवोधि ।

    कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां तेमुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरै: किम्‌ ॥

    ४२॥

    श्री-इन्द्र: उबाच--स्वर्ग के राजा इन्द्र ने कहा; प्रत्यानीता:--लौटना है; परम--हे परम; भवता--आपके द्वारा; त्रायता--रक्षाकिये जाकर; नः--हम; स्व-भागा: --यज्ञ का अंश; दैत्य-आक्रान्तम्‌--दैत्य से पीड़ित; हृदय-कमलम्‌--अपने कमल रूपीहृदय; तत्‌-गृहम्‌--जो आपका वास्तविक धाम है; प्रत्यवोधि--प्रकाशित किया जा चुका; काल- ग्रस्तमू--समय द्वारा कबलित;कियत्‌--नगण्य; इदम्‌--यह ( संसार ); अहो--ओह; नाथ--हे स्वामी; शुश्रूषताम्‌--सेवा में लगे रहने वालों के लिए; ते--तुम्हारा; मुक्तिः-- भवबन्धन से मोक्ष; तेषामू--उनका ( शुद्ध भक्तों का ); न--नहीं; हि--निस्सन्देह; बहुमता--बहुत आवश्यकसमझा; नार-सिंह--हे नूसिंह देव; अपरैः किमू-- अन्य किसी सम्पत्ति से क्या लाभ ?

    राजा इन्द्र ने कहा : हे परमेश्वर, आप हमारे उद्धारक तथा रक्षक हैं।

    आपने देत्य से हमारेवास्तविक यज्ञ भाग जो वास्तव में आपके हैं लौटाये हैं।

    चूँकि असुरराज हिरण्यकशिपु अत्यन्त भयानक था, अतः आपके स्थायी निवास हमारे हृदय उसके द्वारा विजित हो चुके थे।

    अबआपकी उपस्थिति से हमारे हृदयों से निराशा तथा अंधकार दूर हो गये हैं।

    हे प्रभु, जो लोगआपकी सेवा में सदैव लगे रहते हैं उनके लिए सारा भौतिक ऐश्वर्य तुच्छ है, क्योंकि आपकीसेवा मोक्ष से भी बढ़कर है।

    वे जब मोक्ष की भी परवाह नहीं करते तो काम, अर्थ तथा धर्म केविषय में क्‍या कहा जाये ?

    " श्रीऋषय ऊचु:त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजोयेनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्क्थ ।

    तद्ठिप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपालरक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्था: ॥

    ४३॥

    श्री-ऋषय: ऊचु:--ऋषियों ने कहा; त्वमू--तुम; न:ः--हमारी; तपः--तपस्या; परमम्‌--सर्वोच्च; आत्थ--उपदेश दिया; यत्‌ --जो; आत्म-तेज:--आपकी आध्यात्मिक शक्ति; येन--जिससे; इदम्‌--यह ( भौतिक जगत ); आदि-पुरुष--हे परम आदिभगवान्‌; आत्म-गतमू--आपके भीतर लीन; ससक््थ--( आपने ) उत्पन्न किया; तत्‌ू--तप की वह विधि; विप्रलुप्तम्‌--चुराईगई; अमुना--उस दैत्य ( हिरण्यकशिपु ) द्वारा; अद्य--अब; शरण्य-पाल--शरणागत के परम पालक; रक्षा-गृहीत-वपुषा--आपके शरीर द्वारा जिसे आप रक्षा प्रदान करने के लिए धारण करते हैं; पुन:--फिर; अन्वमंस्था:-- आपने अनुमोदित किया है।

    सारे उपस्थित ऋषियों ने उनकी इस प्रकार स्तुति की: हे प्रभु, हे शरणागत पालक, हे आदिपुरुष, आपने हमें पहले जिस तपस्या की विधि का उपदेश दिया है, वह आपकी ही आध्यात्मिकशक्ति है।

    आप तपस्या से ही भौतिक जगत का सृजन करते हैं।

    यह तपस्या आपमें सुप्त रहती है।

    इस दैत्य ने अपने कार्यकलापों से इसी तपस्या को रोक सा रखा था, किन्तु अब हम लोगों कीरक्षा करने के लिए आप जिस नृसिंह देव के रूप में प्रकट हुए हैं उससे तथा इस असुर को मारनेसे तपस्या की विधि का फिर से अनुमोदन हुआ है।

    "

    श्रीपितर ऊचु:श्राद्धानि नोधिबुभुजे प्रसभं तनूजै-दत्तानि तीर्थसमयेप्यपिबत्तिलाम्बु ।

    तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद्य आर्च्छत्‌तस्मै नमो नृहरयेडखिलधर्मगोप्जे ॥

    ४४॥

    श्री-पितर: ऊचु:--पितृलोक के वासियों ने कहा; श्राद्धानि-- श्राद्ध कर्म ( मृत पुरुखों को एक विशेष विधि से प्रदत्त भोज्यसामग्री ); नः--हमारा; अधिबुभुजे-- भोग किया; प्रसभम्‌--बल द्वारा; तनूजैः--अपने पुत्रों-पौत्रों द्वारा; दत्तानि-- प्रदत्त; तीर्थ-समये--तीर्थ स्थानों में स्नान करते समय; अपि-- भी; अपिबत्‌--पिया; तिल-अम्बु--तिल के साथ जलांजलि; तस्थ--उसअसुर के; उदरात्‌--पेट से; नख-विदीर्ण--नाखून से फाड़ा गया; वपात्‌ू--जिसकी आँतों की चमड़ी; यः--जिस ( भगवान्‌ )ने; आर्च्छत्‌ू--प्राप्त किया; तस्मै--उसको ( भगवान्‌ को ); नम:ः--नमस्कार; नृ-हरये--नृहरि को जो आधे सिंह तथा आधेपुरुष के रूप में प्रकट हुए; अखिल--विश्वजनीन; धर्म--धार्मिक नियम; गोप्त्रे--पालन करने वाले।

    पितृलोक के वासियों ने प्रार्थना की: हम ब्रह्माण्ड के धार्मिक नियमों के पालनकर्ता भगवान्‌नृसिंह देव को सादर नमस्कार करते हैं।

    आपने उस असुर को मार डाला है, जो हमारे श्राद्ध केअवसर पर हमारे पुत्रों-पौत्रों द्वारा अर्पित बलि को छीनकर खा जाता था और तीर्थस्थलों परअर्पित की जाने वाली तिलांजलि को पी जाता था।

    हे प्रभु, आपने इस असुर को मारकर अपनेनाखूनों से इसके पेट को विदीर्ण करके उसमें से समस्त चुराई हुई सामग्री निकाल ली है।

    अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

    "

    श्रीसिद्धा ऊचुःयो नो गति योगसिद्धामसाधु-रहार्षद्योगतपोबलेन ।

    नाना दर्प तं नखैर्विददारतस्मै तुभ्य॑ प्रणता: स्मो नूसिंह ॥

    ४५॥

    श्री-सिद्धा: ऊचुः--सिद्धलोक के वासियों ने कहा; यः--जिस व्यक्ति ने; नः--हमारी; गतिम्‌--सिद्धि को; योग-सिद्धाम्‌ू--योग द्वारा प्राप्त: असाधु;:--अत्यन्त असभ्य तथा असत्यनिष्ठ; अहार्षीत्‌ू--चुरा लिया; योग--योग; तप:ः--तथा तप का;बलेन--बलपूर्वक; नाना दर्पम्‌--सम्पत्ति, ऐश्वर्य तथा शक्ति के कारण घमंडी; तम्‌--उसको; नखैः--नाखूनों से; विददार--'फाड़ डाला; तस्मै--उस; तुभ्यम्‌--तुम्हें; प्रणताः--नतमस्तक; स्मः--हम हैं; नूसिंह--हे नूसिंहदेव ॥

    सिद्धलोक के वासियों ने प्रार्थना की: हे भगवान्‌ नृसिंह देव, हम लोग सिद्धलोक केनिवासी होने के कारण अष्टांग योग में स्वतःसिद्ध होते हैं।

    तो भी हिरण्यकशिपु इतना धूर्त थाकि उसने अपने बल तथा तपस्या से हमारी सारी शक्तियाँ छीन ली थीं।

    इस तरह वह अपने योग-बल के प्रति घमंडी हो गया था।

    अब आपके नखों से इस दुष्ट का वध हो जाने के कारण हमआपको सादर नमस्कार करते हैं।

    "

    श्रीविद्याधरा ऊचुःविद्यां पृथग्धारणयानुराद्धांन्यषेधदज्ो बलवीर्यहप्त: ।

    स येन सड्ख्ये पशुवद्धतस्तंमायानृसिंहं प्रणता: सम नित्यम्‌ ॥

    ४६॥

    श्री-विद्याधरा: ऊचु:--विद्याधर लोक के निवासियों ने प्रार्थना की; विद्यामू--जो विद्याएँ ( जिनसे प्रकट तथा अप्रकट हुआ जासकता है ); पृथक्‌ू-भिन्न-भिन्न; धारणया--मन के भीतर विविध ध्यानों से; अनुराद्धाम्‌-प्राप्त किया गया; न्यषेधत्‌-- रोकदिया; अज्ञ:--इस मूर्ख ने; बल-वीर्य-हप्त:--शारीरिक शक्ति तथा हर एक को जीत लेने की सामर्थ्य से फूल कर; सः--वह( हिरण्यकशिपु ); येन--जिसके द्वारा; सड्ख्ये--युद्ध में; पशु-बत्‌-- पशु के समान; हतः--मारा गया; तमू--उसको; माया-नृसिंहम्‌--अपनी माया के प्रभाव द्वारा नरसिंह रूप में प्रकट होने वाले नूसिंह देव को; प्रणता:--विनत; स्म--निश्चय ही;नित्यमू-शाश्रवत।

    विद्याधर के निवासियों ने प्रार्थना की: उस मूर्ख हिरण्यकशिपु ने विविध प्रकार के ध्यान केअनुसार प्रकट तथा अप्रकट होने की हमारी शक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, क्योंकि उसेअपनी श्रेष्ठ शारीरिक शक्ति तथा अन्यों को जीत लेने की सामर्थ्य का घमण्ड था।

    अब भगवान्‌ने उसका उसी तरह वध कर दिया है जैसे वह असुर कोई पशु हो।

    हम भगवान्‌ नृसिंह देव के उसलीला रूप को सादर प्रणाम करते हैं।

    "

    श्रीनागा ऊचु:येन पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हतानि नः ।

    तद्क्षःपाटनेनासां दत्तानन्द नमोस्तु ते ॥

    ४७॥

    श्री-नागा: ऊचु:--नागलोक के वासी, जो नाग सहृश दिखते हैं; येन--जिस व्यक्ति से; पापेन--अत्यन्त पापी ( हिरण्यकशिपु );रत्तानि--हमारे सिरों की मणियाँ; स्त्री-रत्तानि--सुन्दर स्त्रियाँ; हतानि--हर ली गईं; न:ः--हमारी; तत्‌--उसका; वक्ष:-पाटनेन--वक्षस्थल को चीर कर; आसाम्‌--समस्त स्त्रियों का ( जिनका अपहरण हुआ था ); दत्त-आनन्द--हे आनन्द के स्रोत;नमः--हमारा सादर नमस्कार; अस्तु--हो; ते--तुम्हारे प्रति

    नागलोक के वासियों ने कहा : अत्यन्त पापी हिरण्यकशिपु ने हम सबके फणों की मणियाँतथा हम सबकी सुन्दर पत्नियाँ छीन ली थीं।

    अब चूँकि उसके वक्षस्थल को आपने अपनेनाखूनों से विदीर्ण कर दिया है, अतएव आप हमारी पत्नियों की परम प्रसन्नता के कारण हैं।

    इसतरह हम सभी मिलकर आपको सादर नमस्कार करते हैं।

    "

    श्रीमनव ऊचु:मनवो वयं तव निदेशकारिणोदितिजेन देव परिभूतसेतव: ।

    भवता खल: स उपसंहतः प्रभो'करवाम ते किमनुशाधि किड्डूरान्‌ ॥

    ४८॥

    श्री-मनव: ऊचु:--सभी मनुओं ने यह कहकर नमस्कार किया; मनवः--संसारी कार्यो के नेता ( विशेष रूप से भगवान्‌ कीसुरक्षा में विधिपूर्वक रहने के लिए मानवता को ज्ञान प्रदान करने में ); वयम्‌--हम; तब--आपके ; निदेश-कारिण: --आज्ञापालक; दिति-जेन--दिति के पुत्र हिरण्यकशिपु द्वारा; देव--हे प्रभु; परिभूत--अवहेलना करके; सेतव:--मानव समाजमें वर्णा श्रम पद्धति सम्बन्धी नैतिक नियम; भवता--आपके द्वारा; खलः--दुष्ट; सः--वह; उपसंहत: --मारा गया; प्रभो--हेप्रभु; करवाम--हम करें; ते--तुम्हारा; किमू--क्या; अनुशाधि--कृपया आदेश दें; किड्जूरान्‌--अपने शाश्वत सेवकों को |

    समस्त मनुओं ने इस प्रकार प्रार्थना की: हे प्रभो, हम सारे मनु आपके आज्ञापालक के रूपमें मानव समाज के लिए विधि प्रदान करते हैं किन्तु इस महान्‌ असुर हिरण्यकशिपु कीक्षणभंगुर श्रेष्ठठा के कारण वर्णाश्रम धर्म पालन विषयक हमारे नियम नष्ट हो गये थे।

    हे स्वामी,अब आपके द्वारा इस महान्‌ असुर का वध हो जाने से हम अपनी सहज स्थिति में हैं।

    कृपयाअपने इन शाश्वत दासों को आज्ञा दें कि अब वे क्या करें।

    "

    श्रीप्रजापतय ऊचु:प्रजेशा वयं ते परेशाभिसूष्टान येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धा: ।

    स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेतेजगन्मड्रलं सत्त्वमूर्तेअवतार: ॥

    ४९॥

    श्री-प्रजापतय: ऊचु:--विभिन्न प्राणियों को उत्पन्न करने वाले महापुरुषों ने यह कहकर प्रार्थनाएँ कीं; प्रजा-ईशा:--जीवों कीअनेक पीढ़ियों को जन्म देने वाले ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न सारे प्रजापति; वयम्‌--हम सभी; ते--तुम्हारे; पर-ईश--हे परमेश्वर;अभिसूष्टा:--उत्पन्न; न--नहीं; येन--जिस ( हिरण्यकशिपु ) से; प्रजा:--सारे जीव; बै--निस्सन्देह; सृजाम:--हम उत्पन्न करतेहैं; निषिद्धा:--मना किया गया; सः--वह ( हिरण्यकशिपु ); एष:--यह; त्वया-- तुम्हारे द्वारा; भिन्न-वक्षा:--जिसका वक्षस्थलविदीर्ण किया जा चुका है; नु--निस्सन्देह; शेते--शयन करता है; जगत्‌-मड्गनलम्‌--सारे जगत के कल्याण के लिए; सत्त्व-मूर्ते--शुद्ध सतोगुण के दिव्य रूप में; अवतार: --यह अवतार |

    प्रजापतियों ने इस प्रकार स्तुति की: हे परमेश्वर, हे ब्रह्मा तथा शिव जी के भी पूज्य प्रभु, हमसारे प्रजापति आपके द्वारा दी गई आज्ञा के पालन के लिए उत्पन्न किये गये थे, किन्तुहिरण्यकशिपु ने हमें और उत्तम सन्‍्तान उत्पन्न करने से रोक दिया।

    अब यह असुर हमारे समक्षमृत पड़ा है, जिसके वक्षस्थल को आपने विदीर्ण कर दिया है।

    अतएव हम आपको सादरनमस्कार करते हैं, क्योंकि इस शुद्ध सात्विक रूप में आपका यह अवतार समग्र ब्रह्माण्ड केकल्याण के निमित्त है।

    श्रीगन्धर्वा ऊचु:बयं विभो ते नटनाट्यगायकायेनात्मसाद्वीर्यबलौजसा कृता: ।

    स एष नीतो भवता दशामिमांकिमुत्पथस्थ: कुशलाय कल्पते ॥

    ५०॥

    श्री-गन्धर्वा: ऊचु:--गन्धर्वलोक के निवासी ( जो सामान्यतः स्वर्ग के गायक होते हैं ) बोले; वयम्‌--हम; विभो--हे प्रभु; ते--तुम्हारे; नट-नाट्यू-गायका:--नाटक के नर्तक तथा गायक; येन--जिससे; आत्मसात्‌--पराधीन; वीर्य--उसके पराक्रम;बल--तथा शारीरिक शक्ति के; ओजसा--प्रभाव से; कृता:--बने ( लाये हुए ); सः--वह ( हिरण्यकशिपु ); एष:--यह;नीतः--लाया गया; भवता--आपके द्वारा; दशाम्‌ इमामू--इस दशा को; किमू--क्या; उत्पथस्थ:--कुमार्गगामी; कुशलाय--कल्याण के लिए; कल्पते--समर्थ है।

    गन्धर्वलोक के निवासियों ने प्रार्थना की: हे भगवान्‌, हम नाच तथा अभिनय में गायन द्वाराआपकी सेवा में लगे रहते थे, किन्तु इस हिरण्यकशिपु ने अपनी शारीरिक शक्ति तथा पराक्रम सेहमें अपने अधीन बना लिया था।

    अब आपके द्वारा यह इस अधम दशा को प्राप्त हुआ है।

    भलाहिरण्यकशिपु जैसे कुमार्गगामी के कार्यकलापों से हमें क्या लाभ हो सकता है ?

    " श्रीचारणा ऊचुःहरे तवाड्प्रिपड्ठजं भवापवर्गमाश्रिता: ।

    यदेष साधुहच्छयस्त्वयासुरः समापित: ॥

    ५१॥

    श्री-चारणा: ऊचुः:--चारणलोक के निवासियों ने कहा; हरे--हे भगवान्‌; तब--तुम्हारे; अड्प्नि-पल्लडजम्‌ू--चरणकमल; भव-अपवर्गम्‌ू--संसार के कल्मष से मुक्त होने के लिए एकमात्र शरण; आश्रिता:--शरणागत; यत्‌--क्योंकि; एब: --यह; साधु-हत्‌-शयः--समस्त ईमानदार मनुष्यों के हृदयों में संकट; त्वया-- आपके द्वारा; असुरः--असुर ( हिरण्यकशिपु ); समापित:--मार डाला गया।

    चारणलोक के निवासियों ने कहा : हे प्रभु, आपने उस असुर हिरण्यकशिपु को विनष्ट करदिया जो सारे निष्कपट पुरुषों के हृदयों में आतंक बना हुआ था।

    अब हमें शान्ति मिली है।

    हमसभी आपके उन चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो बद्धजीव को भौतिक कल्मष सेमुक्ति दिलानेवाले हैं।

    "

    श्रीयक्षा ऊचु:वयमनुचरमुख्या: कर्मभिस्ते मनोझै-स्त इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम्‌ ।

    स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता तेनरहर उपनीतः पश्ञतां पञ्ञविंश ॥

    ५२॥

    श्री-यक्षा: ऊचु:--यक्षलोक के निवासियों ने प्रार्थना की; वयम्‌--हम; अनुचर-मुख्या:--आपके प्रमुख सेवक; कर्मभि:--सेवाओं से; ते--तुम्हारे; मनो-जैः--अत्यन्त अच्छे लगने वाले; ते--वे; इह--इस समय; दिति-सुतेन--दिति पुत्र हिरण्यकशिपुद्वारा; प्रापिता:--बलात्‌ लगाये गये; वाहकत्वम्‌--कहार के कार्य में; सः--वह; तु--लेकिन; जन-परितापम्‌--मनुष्य कीदयनीय स्थिति; तत्‌-कृतम्‌ू--उसके द्वारा की गई; जानता--जानते हुए; ते--तुम्हारे द्वारा; नर-हर--हे नूसिंह रूप; उपनीत:--प्राप्त, लाया गया है; पञ्ञताम्‌-- मृत्यु को; पञ्ञ-विंश--हे पच्चीसवें सिद्धान्त ( अन्य चौबीस तत्त्वों के नियंत्रक )।

    यक्षलोक के निवासियों ने प्रार्थना की: हे चौबीस तत्त्वों के नियामक, हम आपको भानेवाली सेवाएँ करने के कारण आपके सर्वश्रेष्ठ सेवक माने जाते हैं फिर भी दितिपुत्रहिरण्यकशिपु के आदेश पर हमसे पालकी ढोने का कार्य लिया जाता था।

    हे नूसिंह देव, आपयह जानते हैं कि इस असुर ने किस तरह सबों को कष्ट पहुँचाया है, किन्तु अब आपने इसकावध कर दिया है और इसका शरीर पंच तत्त्वों में मिल गया है।

    "

    श्रीकिम्पुरुषा ऊचुःवयं किम्पुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वर: ।

    अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ॥

    ५३॥

    श्री-किम्पुरुषा: ऊचु:--किम्पुरुष लोक के निवासियों ने कहा; वयम्‌--हम; किम्पुरुषा: --किम्पुरुष लोक के वासी अथवा क्षुद्रप्राणी; त्वमू--आप; तु--फिर भी; महा-पुरुष: --परमे श्वर; ई श्वर:ः -- परम नियन्ता; अयम्‌--यह; कु-पुरुष:--अत्यन्त पापीपुरुष, हिरण्यकशिपु; नष्ट:--वध किया गया; धिक्‌-कृतः--तिरस्कृत होकर; साधुभि:--साधु पुरुषों द्वारा; यदा--जब

    किम्पुरुषलोक के वासियों ने कहा : हम क्षुद्र जीव हैं और आप परम नियामक महापुरुष हैं।

    अतएव हम आपकी समुचित स्तुति कैसे कर सकते हैं ?

    जब भक्तों ने तंग आकर इस असुर कातिरस्कार कर दिया तो आपने इसका वध कर दिया।

    "

    श्रीवैतालिका ऊचुःसभासु सत्रेषु तवामलं यशोगीत्वा सपर्या महतीं लभामहे ।

    अस्तामनैषीद्वशमेष दुर्जनोद्विप्ठया हतस्ते भगवन्यथामय: ॥

    ५४॥

    श्री-वैतालिका: ऊचु:--वैतालिकलोक के वासियों ने कहा; सभासु--सभाओं में; सत्रेषु--यज्ञ-स्थल में; तब--तुम्हारा;अमलम्‌--किसी प्रकार के भी कल्मष से रहित, निर्मल; यश:--यश, कीर्ति; गीत्वा--गाते हुए; सपर्याम्‌--सम्माननीय पद;महतीम्‌--महान्‌; लभामहे--हमने प्राप्त किया; यः--जो; ताम्‌--उस ( आदरणीय पद ) को; अनैषीत्‌--ले आया; वशम्‌--अपने वश में; एब:--यह; दुर्जन:ः--कुटिल व्यक्ति; द्विष्ठया--सौभाग्य से; हतः--मारा गया; ते--तुम्हारे द्वारा; भगवन्‌--हेभगवान्‌; यथा--जिस तरह; आमय:--रोग |

    वैतालिकलोक के निवासियों ने कहा : हे प्रभु, सभाओं तथा यज्ञस्थलों में आपके निर्मलयश का गायन करने के कारण प्रत्येक व्यक्ति हमें आदर प्रदान करता था।

    किन्तु इस असुर नेहमारे उस पद को छीन लिया था।

    अब हमारा बड़ा भाग्य है कि आपने इस महान्‌ असुर का उसीतरह वध कर दिया जिस प्रकार कोई भीषण रोग को अच्छा कर देता है।

    "

    श्रीकिन्नरा ऊचु:वयमीश किन्नरगणास्तवानुगादितिजेन विष्टिममुनानुकारिता: ।

    भवता हरे स वृजिनोवसादितोनरसिंह नाथ विभवाय नो भव ॥

    ५५॥

    श्री-किन्नरा: ऊचु:--किन्नर लोक के निवासियों ने कहा; वयम्‌--हम सभी; ईश--हे ईश्वर; किन्नर-गणा:--किन्नर लोक केवासी; तब--तुम्हारे; अनुगा:--आज्ञाकारी दास; दिति-जेन--दिति पुत्र द्वारा; विष्टिमू--बिना किसी प्रकार के पारिश्रमिक केसेवा, बेगार; अमुना--उससे; अनुकारिता: --कराया गया; भवता--आपके द्वारा; हरे--हे भगवान्‌; सः--वह; वृजिन:--अत्यन्त पापी; अवसादितः--विनष्ट; नरसिंह--हे नूसिंह देव; नाथ--हे स्वामी; विभवाय--सुख तथा ऐश्वर्य के लिए; न:--हमारे; भव--हों |

    किन्नरों ने कहा : हे परम नियन्ता, हम आपके सतत सेवक हैं, लेकिन आपकी सेवा में युक्तन होकर हम सभी इस असुर की बेगार में लगाये गये थे।

    अब आपने इस पापी का वध कर दियाहै, अतएव हे नृसिंहदेव, हे स्वामी, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

    कृपा करके हमारेसंरक्षक बने रहें।

    "

    श्रीविष्णुपार्षदा ऊचु:अद्यैतद्धरिनररूपमद्भुतं तेहृ्ट न: शरणद सर्वलोकशर्म ।

    सोयं ते विधिकर ईश विप्रशप्त-स्तस्थेदं निधनमनुग्रहाय विदा: ॥

    ५६॥

    श्री-विष्णु-पार्षदा: ऊचु:--वैकुण्ठलोक के भगवान्‌ विष्णु के पार्षदों ने कहा; अद्य--आज; एतत्‌--यह; हरि-नर--आधा सिंहतथा आधा पुरुष; रूपमू--रूप को; अद्भुतम्‌-- अद्भुत; ते--तुम्हारा; दृष्टमू--देखा हुआ; नः--हमारा; शरण-द--शाश्वतशरण प्रदान करने वाला; सर्व-लोक-शर्म--विभिन्न लोकों में सौभाग्य लाने वाला; सः--वह; अयम्‌--यह; ते--तुम्हारा;विधिकरः:--आज्ञापालक ( दास ); ईश--हे ईश्वर; विप्र-शप्त:--ब्राह्मण द्वारा शापित; तस्य--उसका; इृदम्‌--यह; निधनम्‌--वध; अनुग्रहाय--विशेष कृपा के लिए; विद्यः--हम समझते हैं|

    विष्णु के वैकुण्ठलोक के पार्षदों ने यह प्रार्थना की: हे स्वामी, हे शरणदाता, आज हमनेनृसिंहदेव के रूप में आपके अद्भुत रूप का दर्शन किया है, जो समस्त जगत में सौभाग्य लानेवाला है।

    हे भगवान्‌, हम यह समझते हैं कि हिरण्यकशिपु आपकी सेवा में रत रहने वाला जयही था, किन्तु उसे ब्राह्मणों ने शाप दे दिया था जिससे उसे असुर का शरीर प्राप्त हुआ था।

    हमसमझते हैं कि उसका मारा जाना उस पर आपकी विशेष कृपा है।

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    अध्याय नौ: प्रह्लाद ने प्रार्थनाओं से भगवान नृसिंहदेव को शांत किया

    7.9श्रीनारद उवाचएवं सुरादयः सर्वे ब्रह्मरुद्रपुरः सरा: ।

    नोपैतुमशकन्मन्युसंरम्भं सुदुरासदम्‌ ॥

    १॥

    श्री-नारद उबाच--नारद मुनि ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; सुर-आदय: --देवताओं का समूह; सर्वे--सारे; ब्रह्म-रुद्र-पुरःसराः--ब्रह्मा तथा शिव द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाकर; न--नहीं; उपैतुम्‌-- भगवान्‌ के समक्ष जाने के लिए; अशकनू--समर्थ ;मन्यु-संरम्भम्‌--अत्यन्त क्ुद्ध होकर; सु-दुरासदम्‌--जिन तक पहुँच पाना दुष्कर है ( नूसिंहदेव ), उन्हें |

    नारद मुनि ने आगे कहा : ब्रह्मा, शिव इत्यादि अन्य बड़े-बड़े देवताओं का साहस न हुआकि वे भगवान्‌ के समक्ष जायूँ, क्योंकि उस समय वे अत्यन्त कुद्ध थे।

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    साक्षाल्श्री: प्रेषिता देवै्ईट्टा तं महदद्भुतम्‌ ।

    अददष्टा श्रुतपूर्वत्वात्सा नोपेयाय शड्धिता ॥

    २॥

    साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; श्री:--लक्ष्मी जी; प्रेषिता-- भगवान्‌ के समक्ष जाने के लिए प्रार्थना की गईं; देवै:--सारे देवताओं ( ब्रह्मा,शिव इत्यादि ) द्वारा; दृघ्ला--देखकर; तम्‌--उस ( नृसिंहदेव ) को; महत्‌--अत्यन्त विशाल; अद्भुतम्‌-- अद्भुत; अदृष्ट--कभी नदेखा गया; अश्रुत--कभी न सुना गया; पूर्वत्वातू--कभी पहले; सा--वह लक्ष्मी; न--नहीं; उपेयाय-- भगवान्‌ के समक्ष गई;शद्;िता--अत्यधिक भयभीत

    वहाँ पर उपस्थित भयभीत सारे देवताओं ने लक्ष्मी जी से प्रार्थना की कि वे भगवान्‌ केसमक्ष जाएँ।

    किन्तु उन्होंने भी भगवान्‌ का ऐसा अद्भुत तथा असामान्य रूप कभी नहीं देखा था,अतएव वे उनके पास नहीं जा सकीं।

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    प्रह्मादं प्रेषयामास ब्रह्मावस्थितमन्तिके ।

    तात प्रशमयोपेहि स्वपित्रे कुपितं प्रभुम्‌ ॥

    ३॥

    प्रह्दादम्‌ू--प्रह्माद महाराज से; प्रेषयाम्‌ आस-- अनुरोध किया; ब्रह्मा--ब्रह्माजी ने; अवस्थितम्‌--स्थित; अन्तिके -- अत्यन्तनिकट; तात--मेरे प्रिय पुत्र; प्रशमय--शान्त कराने का प्रयास करो; उपेहि--पास जाओ; स्व-पित्रे--तुम्हारे पिता के आसुरीकार्यों के कारण; कुपितम्‌--अत्यधिक क्ुद्ध; प्रभुमू-- भगवान्‌ को |

    तत्पश्चात्‌ ब्रह्मजी ने अपने पास ही खड़े प्रह्मद महाराज से अनुरोध किया-हे पुत्र, भगवान्‌नृसिंहदेव तुम्हारे आसुरी पिता पर अत्यधिक क्रुद्ध हैं।

    अतएव तुम आगे जाकर भगवान्‌ को शान्तकरो।

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    तथेति शनकै राजन्महाभागवतो<रभक: ।

    उपेत्य भुवि कायेन ननाम विधृताझ्जललि: ॥

    ४॥

    तथा--ऐसा ही हो; इति--इस प्रकार ब्रह्माजी के वचनों को मानकर; शनकै:-- धीरे-धीरे; राजन्‌ू--हे राजा ( युधिष्ठिर ); महा-भागवतः--अत्यन्त महान्‌ भक्त ( प्रह्मद महाराज ); अर्भक:ः--यद्यपि छोटे बालक ही थे; उपेत्य-- धीरे-धीरे निकट जाकर;भुवि--पृथ्वी पर; कायेन--अपने शरीर से; ननाम-- प्रणाम किया; विधृत-अज्जञलि:--हाथ जोड़े हुए।

    नारद मुनि ने आगे कहा : हे राजा, यद्यपि महान्‌ भक्त प्रह्मद महाराज केवल छोटे से बालकथे, लेकिन उन्होंने ब्रह्माजी की बातें मान लीं।

    वे धीरे-धीरे भगवान्‌ नूसिंहदेव की ओर बढ़े औरहाथ जोड़कर पृथ्वी पर गिर कर उन्हें सादर नमस्कार किया।

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    स्वपादमूले पतितं तमर्भक॑विलोक्य देव: कृपया परिप्लुतः ।

    उत्थाप्य तच्छीष्णर्यदधात्कराम्बुजंकालाहिवित्रस्तधियां कृताभयम्‌ ॥

    ५॥

    स्व-पाद-मूले--अपने चरणकमलों पर; पतितम्‌--गिरा हुआ; तम्‌--उस ( प्रहाद महाराज ); अर्भकम्‌--छोटे से बालक को;विलोक्य--देखकर; देव:--नृसिंहदेव ने; कृपया--अपनी अहैतुकी कृपा से; परिप्लुत:-- भावविभोर होकर; उत्थाप्य--उठाकर; तत्‌-शीर्ष्णि--उसके सिर पर; अदधात्‌--रख दिया; कर-अम्बुजमू--अपना कर कमल; काल-अहि--काल रूपी सर्प का(जो तुरन्त ही मार सकता है ); वित्रस्त--डरा हुआ; धियाम्‌--उन सबों के जिनके मन; कृत-अभयम्‌--निर्भय बनाता है।

    जब नृसिंहेदव ने देखा कि छोटे से बालक प्रह्मद महाराज ने चरमकमलों पर साष्टांग प्रणामकिया है, तो वे अपने भक्त के प्रति अत्यधिक भाव-विभोर हो उठे।

    प्रह्मद को उठाते हुए उन्होंनेअपना कर-कमल उस बालक के सिर पर रख दिया।

    उनका हाथ उनके समस्त भक्तों कोअभय-दान करने वाला है।

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    स तत्करस्पर्शधुताखिलाशुभ:सपद्यभिव्यक्तपरात्मदर्शन: ।

    तत्पादपद्दां हृदि निर्वृतों दधौहष्यत्तनु: क्लिन्नहदश्रुलोचन: ॥

    ६॥

    सः--वह ( प्रह्नद महाराज ); तत्‌-कर-स्पर्श--नूसिंहदेव के कर कमल द्वारा स्पर्श किये जाने पर; धुत--पवित्र होकर;अखिल--सम्पूर्ण; अशुभ:--अशुभ या भौतिक इच्छाएँ; सपदि--तुरन्त; अभिव्यक्त--प्रकट; पर-आत्म-दर्शन:--परमात्मा कासाक्षात्कार; तत्‌-पाद-पद्मम्‌--नृसिंहदेव के चरणकमल को; हृदि--हृदय में; निर्वृत:--दिव्य आनन्द से पूरित; दधौ--बन्दी बनालिया; हृष्यत्‌-तनुः--शरीर में दिव्य आनन्द का प्रकट्य; क्लिन्न-हत्‌--दिव्य आनन्द के कारण मृदु हुए हृदय वाला; अश्रु-लोचन:--अपनी आँखों में आँसू भर कर।

    भगवान्‌ नृसिंहदेव द्वारा प्रह्दाद महाराज का सिर स्पर्श करने से प्रह्द के समस्त भौतिककल्मष तथा इच्छाएँ पूर्णतया धुल गईं।

    अतएव वे दिव्य पद को प्राप्त हो गये और उनके शरीर मेंआनन्द के सारे लक्षण प्रकट हो गए।

    उनका हृदय प्रेम से पूरित हो उठा, उनकी आँखों में आँसूआ गये और उन्होंने अपने हृदय में भगवान्‌ के चरणकमलों को बन्दी बना लिया।

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    अस्तौषीद्धरिमेकाग्रमनसा सुसमाहितः ।

    प्रेमगद्गदया वाचा तन्न्यस्तहदयेक्षण: ॥

    ७॥

    अस्तौषीतू--वह प्रार्थना करने लगा; हरिम्‌-- भगवान्‌ की; एकाग्र-मनसा-- भगवान्‌ के चरणकमलों पर अपने मन को स्थिरकरके; सु-समाहित:--अ त्यन्त मनोयोग से; प्रेम-गद्गदया--दिव्य आनन्द की अनुभूति के कारण बोल सकने में असमर्थ;वाचा--वाणी से; तत्‌-न्यस्त--उन ( नृसिंहदेव ) पर पूर्णतया समर्पित; हृदय-ईक्षण: --हृदय तथा दृष्टि सहित |

    प्रह्मद महाराज ने पूर्ण समाधि में पूरे मनोयोग से अपने मन तथा दृष्टि को भगवान्‌ नृसिंहदेवपर स्थिर कर दिया।

    तब वे स्थिर मन से अवरुद्ध वाणी से प्रेमपूर्वक प्रार्थना करने लगे।

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    श्रीप्रह्दाद उवाचब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोथ सिद्धाःसत्वैकतानगतयो वचसां प्रवाहैः ।

    नाराधितु पुरुगुणैरधुनापि पिप्रु:कि तोष्ट्महति स मे हरिरुग्रजाते: ॥

    ८॥

    श्री-प्रह्माद: उवाच--प्रह्माद महाराज ने प्रार्थना की; ब्रह्मय-आदय:--ब्रह्माजी तथा अन्यों ने; सुर-गणा:--उच्च लोक के निवासी;मुनयः--परम साधु व्यक्ति; अथ-- भी ( यथा चारों कुमार इत्यादि ); सिद्धा:--जिन्‍्होंने सिद्धि या पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है;सत्त्व--आध्यात्मिक स्थिति के लिए; एकतान-गतय: --जिन्होंने बिना विचलन के किसी भी भौतिक कार्यकलाप को ग्रहण करलिया है; वचसाम्‌--वृत्तान्तों या बचनों का; प्रवाहैः--धाराओं के द्वारा; न--नहीं; आराधितुम्‌--प्रसन्न करने के लिए; पुरु-गुणैः --यद्यपि पूर्णतया योग्य; अधुना--अब तक; अपि--भी; पिप्रु:--समर्थ थे; किम्‌--क्या; तोष्टमू--प्रसन्न करने के लिए;अहति--समर्थ है; सः--वह ( भगवान्‌ ); मे--मेरा; हरिः-- भगवान्‌; उग्र-जाते:--असुर परिवार में जन्मा।

    प्रह्नद महाराज ने प्रार्थना की: असुर परिवार में जन्म लेने के कारण यह कैसे सम्भव होसकता है कि मैं भगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिए उपयुक्त प्रार्थना कर सकूँ ?

    आज तक ब्रह्माइत्यादि सारे देवता तथा समस्त मुनिगण उत्तमोत्तम वाणी से भगवान्‌ को प्रसन्न नहीं कर पाये, यद्यपि ये सारे व्यक्ति सतोगुणी एवं परम योग्य हैं, तो फिर मेरे विषय में क्या कहा जाये ?

    मैं तोबिल्कुल ही अयोग्य हूँ।

    "

    मन्ये धनाभिजनरूपतप: श्रुतौज-स्तेज:प्रभावबलपौरुषबुद्धियोगा: ।

    नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसोभकत्या तुतोष भगवान्गजयूथपाय ॥

    ९॥

    मन्ये--मैं मानता हूँ; धन--सम्पत्ति; अभिजन--राजसी परिवार; रूप--सुन्दरता; तप:ः--तपस्या; श्रुत--वेदाध्ययन से प्राप्तज्ञान; ओज:--इन्द्रिय पराक्रम; तेज:--शारीरिक तेज; प्रभाव--प्रभाव; बल--शारीरिक शक्ति; पौरुष--उद्यम; बुद्धि--बुद्धि;योगाः--योग शक्ति; न--नहीं; आराधनाय--प्रसन्न करने के लिए; हि--निस्सन्देह; भवन्ति--हैं; परस्य--दिव्य का; पुंसः--भगवान्‌; भक्त्या--केवल भक्ति से; तुतोष--तुष्ट हो गया था; भगवान्‌-- भगवान्‌; गज-यूथ-पाय--हाथियों के राजा ( गजेन्द्र )के हेतु

    प्रह्माद महाराज ने आगे कहा : भले ही मनुष्य के पास सम्पत्ति, राजसी परिवार, सौन्दर्य,तपस्या, शिक्षा, दक्षता, कान्ति, प्रभाव, शारीरिक शक्ति, उद्यम, बुद्ध्धि तथा योगशक्ति क्‍यों न हो,किन्तु मेरी समझ से इन सारी योग्यताओं से भी कोई व्यक्ति भगवान्‌ को प्रसन्न नहीं कर सकता।

    किन्तु भक्ति से वह ऐसा कर सकता है।

    गजेन्द्र ने ऐसा किया और इस तरह भगवान्‌ उससे प्रसन्नहो गये।

    "

    विप्राद्‌ द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ-पादारविन्दविमुखात्श्वपचं वरिष्ठम्‌ ।

    मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ-प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमान: ॥

    १०॥

    विप्रात्‌-ब्राह्मण की अपेक्षा; द्वि-षट्‌ू-गुण-युतात्‌--बारह ब्राह्मण गुणों से सम्पन्न *; अरविन्द-नाभ--भगवान्‌, विष्णु, जिनकीनाभि से कमल निकला है; पाद-अरविन्द--चरणकमलों की; विमुखात्‌--भक्ति से विमुख; श्र-पचम्‌--निम्नकुल में जन्मे याचाण्डाल को; वरिष्ठम्‌--अत्यन्त यशस्वी; मन्ये--मानता हूँ; तत्‌-अर्पित-- भगवान्‌ के चरणकमलों में शरणागत; मन:--अपनामन; वचन--शब्द; ईहित--प्रत्येक प्रयास; अर्थ--सम्पत्ति; प्राणम्‌ू--तथा जीवन; पुनाति--शुद्ध करता है; सः--वह ( भक्त );कुलम्‌--अपने परिवार को; न--नहीं; तु--लेकिन; भूरिमान:--जो झूठे ही अपने को प्रतिष्ठित पद पर सोचते हैं।

    पूर्ण ब्राह्मण के बारह गुण इस प्रकार हैं--धर्म पालन, सत्य भाषण, तपस्या द्वारा इन्द्रिय निग्रह, ईर्ष्या सेरहित होना, बुद्धिमान होना, सहिष्णु होना, शत्रु न बनाना, यज्ञ करना, दान देना, स्थिर रहना, वेदाध्ययन मेंपारंगत होना तथा ब्रत पालना।

    शात॑ तल,यदि किसी ब्राह्मण में बारहों योग्यताएँ ( सनत्युजात ग्रन्थ में उल्लिखित ) हों किन्तु यदि वहभक्त नहीं है और भगवान्‌ के चरणकमलों से विमुख है, तो वह उस चाण्डाल भक्त से भी अधमहोता है, जिसने अपना सर्वस्व मन, वचन, कर्म, सम्पत्ति तथा जीवन भगवान्‌ को अर्पित करदिया है।

    ऐसा भक्त उस ब्राह्मण से श्रेष्ठ है, क्योंकि भक्त अपने सारे परिवार को पवित्र करसकता है जब कि झूठी प्रतिष्ठा वाला तथाकथित ब्राह्मण अपने आप को आप भी शुद्ध नहीं करपाता।

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    नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णोमानं जनादविदुष: करुणो वृणीते ।

    यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानतच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखशभ्री: ॥

    ११॥

    न--न तो; एव--निश्चय ही; आत्मन:--अपने निजी लाभ के लिए; प्रभुः--स्वामी; अयम्‌--यह; निज-लाभ-पूर्ण: --जो सदैवअपने में तुष्ट रहता है ( अन्यों की सेवाओं द्वारा प्रसन्न किये जाने की उसे कोई आवश्यकता नहीं रहती ); मानमू--आदर;जनातू--व्यक्ति से; अविदुष:--जो यह नहीं जानता कि जीवन का लक्ष्य भगवान्‌ को प्रसन्न करना है; करूण:--( भगवान्‌ ) जोइस मूर्ख अज्ञानी व्यक्ति पर इतना दयालु है; वृणीते--स्वीकार करता है; यत्‌ यत्‌--जो भी; जन:--व्यक्ति; भगवते-- भगवान्‌पर; विदधीत--अर्पित करे; मानम्‌--पूजा; तत्‌--वह; च--निस्सन्देह; आत्मने--अपने लाभ के लिए; प्रति-मुखस्य--दर्पण मेंमुख के प्रतिबिम्ब का; यथा--जिस तरह; मुख-श्री:--मुँह का सौन्दर्य ॥

    भगवान्‌ सदैव आत्मतुष्ट रहने वाले हैं, अतएव जब उन्हें कोई भेंट अर्पित की जाती है, तोभगवत्कृपा से यह भेंट भक्त के लाभ के लिए ही होती है, क्योंकि भगवान्‌ को किसी की सेवाकी आवश्यकता नहीं है।

    उदाहरणार्थ, यदि किसी का मुख सज्जित हो तो दर्पण में उसके मुखका प्रतिबिम्ब भी सज्जित दिखता है।

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    तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्यसर्वात्मना महि गृणामि यथा मनीषम्‌ ।

    नीचोजया गुणविसर्गमनुप्रविष्ट:पूयेत येन हि पुमाननुवर्णितेन ॥

    १२॥

    तस्मात्‌ू--अतएव; अहम्‌--मैं; विगत-विक्लव:--अयोग्य होने का चिन्तन छोड़कर; ईश्वरस्थ--ई श्रर का; सर्व-आत्मना--पूर्णशरणागत होकर; महि--यश; गृणामि-- कीर्तन या वर्णन करूँगा; यथा मनीषम्‌-- अपनी बुद्धि के अनुसार; नीच:--यद्यपिनिम्न कुल ( मेरे पिता असुर रहे और समस्त सद्‌गुणों से विहीन ) में उत्पन्न; अजया--अज्ञान के कारण; गुण-विसर्गम्‌ू-- भौतिकजगत ( जिसमें जीव गुणों के कल्मष के अनुसार जन्म लेता है ); अनुप्रविष्ट:--के भीतर प्रविष्ट; पूयेत--शुद्ध हो; येन--जिससे( भगवान्‌ के यश से ); हि--निस्सन्देह; पुमान्‌ू--मनुष्य; अनुवर्णितेन--कीर्तन किये जाने या पाठ किये जाने पर।

    अतएव यद्यपि मैंने असुरकुल में जन्म लिया है, तो भी निस्सन्देह, जहाँ तक मेरी बुद्धि जातीहै मैं पूरे प्रयास से भगवान्‌ की प्रार्थना करूंगा।

    जो भी व्यक्ति अज्ञान के कारण इस भौतिकजगत में प्रविष्ट होने को बाध्य हुआ है, वह भौतिक जीवन को पवित्र बना सकता है यदि वहभगवान्‌ की प्रार्थना करे और उनके यश का श्रवण करे।

    "

    सर्वे हामी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नोब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्त: ।

    क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्यविक्रीडितं भगवतो रुचिरावतारैः ॥

    १३॥

    सर्वे--सभी; हि--निश्चय; अमी--ये; विधि-करा:--आदेश पालनकर्ता; तव--तुम्हारे; सत्त्व-धाम्न:--सदैव दिव्य जगत मेंस्थित रहकर; ब्रह्य-आदय:--ब्रह्मा इत्यादि देवता; वयम्‌--हम; इब--समान; ईश--हे भगवान्‌; न--नहीं; च--तथा;उद्विजन्त:-- भयभीत ( आपके भयानक रूप से ); क्षेमाय--रक्षा के लिए; भूतये--वृद्धि के लिए; उत--कहा जाता है; आत्म-सुखाय--ऐसी लीलाओं से निजी तुष्टि के लिए; च-- भी; अस्य--इस ( भौतिक जगत ) का; विक्रीडितम्‌--प्रकट; भगवतः --आपके; रुचिर--अत्यन्त मनोहर; अवतारैः-- अवतार से।

    हे भगवान, ब्रह्म आदि सारे देवता आपके निष्ठावान्‌ दास हैं, क्योंकि वे दिव्य पद पर स्थितहैं।

    अतः वे हमारी ( प्रहाद तथा उनके असुर पिता हिरण्यकशिपु की ) तरह नहीं हैं।

    इस भयानकरूप में आपका प्राकट्य स्वान्त:सुख के लिए आपकी लीला है।

    ऐसा अवतार सदा ही ब्रह्माण्डकी रक्षा तथा सुधार ( अभ्युदय ) के लिए होता है।

    "

    तद्यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्यमोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या ।

    लोकाश्च निर्वृतिमिता: प्रतियन्ति सर्वेरूप॑ नूसिंह विभयाय जना: स्मरन्ति ॥

    १४॥

    तत्‌--अतएव; यच्छ--कृपया त्याग दें; मन्युमू-- अपना क्रोध; असुरः --मेरा पिता, महा असुर हिरण्यकशिपु; च-- भी; हतः--मारा गया; त्ववा--आपके द्वारा; अद्य--आज; मोदेत-प्रसन्न होते हैं; साधु: अपि--साधु पुरुष भी; वृश्चिक-सर्प-हत्या--साँपया बिच्छू मार कर; लोकाः--सारे लोक; च--निस्सन्देह; निर्वृतिमू-- आनन्द; इता:--प्राप्त किया है; प्रतियन्ति--प्रतीक्षा कररहे हैं ( आपके क्रोध शान्त होने की ); सर्वे--वे सभी; रूपमू--यह रूप; नूसिंह-- हे नूसिंहदेव; विभवाय--उनका भय दूर करनेके लिए; जना:--ब्रह्माण्ड के सारे लोग; स्मरन्ति--स्मरण करेंगे।

    अतएव हे नृसिंहदेव भगवान्‌, आप अपना क्रोध अब त्याग दें, क्योंकि मेरा पिता महा असुरहिरण्यकशिपु मारा जा चुका है।

    चूँकि साधु पुरुष भी साँप या बिच्छू के मारे जाने पर प्रसन्न होतेहैं, अतएव इस असुर की मृत्यु से सारे लोकों को परम सनन्‍्तोष हुआ है।

    अब वे अपने सुख केप्रति आश्वस्त हैं और भय से मुक्त होने के लिए आपके इस कल्याणप्रद अवतार का सदैव स्मरणकरेंगे।

    "

    नाहं बिभेम्यजित तेडतिभयानकास्य-जिह्ार्कनेत्रभ्रुकुटी रभसोग्रदंष्टात्‌ ।

    आन्त्रसत्रजः क्षतजकेशरशड्डू 'कर्णा-ब्रिर्ठादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात्‌ ॥

    १५॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; बिभेमि-- भयभीत हूँ; अजित--हे अजेय, परम विजयी पुरुष; ते--तुम्हारा; अति--अत्यन्त; भयानक--भयावना; आस्य--मुख; जिह्ला--जीभ; अर्क-नेत्र--सूर्य की तरह चमकती आँखें; भ्रुकुटी--क्रुद्ध भौहें; रभस--प्रबल; उग्र-दंष्रात्‌ू-- भयावने दाँत; आन्त्र-सत्रज:--आँतों की माला पहने; क्षतज--रक्त से सने; केशर--गर्दन के बाल; शड्ढु -कर्णातू--बर्छेजैसे पैने कान; निर्हाद--गर्जना ( आपके द्वारा की गई ) से; भीत--डरा हुआ; दिगिभात्‌--जिससे बड़े-बड़े हाथी भी; अरि-भित्‌--शत्रु को फाड़ने वाला; नख-अग्रात्‌ू--अपने नाखून के अग्र भाग से |

    हे अजित भगवान्‌, मैं न तो आपके भयानक मुख तथा जीभ से, न ही सूर्य के समानचमकीली आँखों से या टेढ़ी भौहों से भयभीत हूँ।

    मैं आपके तेज नुकीले दाँतों से, आँतों कीमाला से, रक्त रंजित गर्दन के बालों से या बछे जैसे पैने कानों से भी नहीं डर रहा हूँ।

    न ही मैंआपके सिंहनाद से भयभीत हूँ जिससे हाथी भाग कर दूर चले जाते हैं।

    न मैं आपके नाखूनों सेभयभीत हूँ जो आपके शत्रु को मारने के निमित्त हैं।

    "

    अस्तोस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्रसंसारचक्रकदनादग्रसतां प्रणीतः ।

    बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेड्प्रिमूलंप्रीतोडपवर्गशरणं हृयसे कदा नु ॥

    १६॥

    त्रस्त:--डरा हुआ; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं; कृपण-वत्सल--पतित आत्माओं पर अत्यन्त दयालु मेरे प्रभु; दुःसह-- असहनीय;उग्र-- भयानक; संसार-चक्र -- जन्म मृत्यु का चक्कर; कदनात्‌--ऐसी बुरी अवस्था से; ग्रसताम्‌--एक दूसरे को भक्षण करनेवाले बद्धजीवों में से; प्रणीत:--फेंका जाकर; बद्धः--बँधा हुआ; स्व-कर्मभि:--अपने कर्मों के द्वारा; उशत्तम-हहे दुर्जेय;ते--तुम्हारे; अड्धप्नि-मूलम्‌--चरण कमलों के तलवे; प्रीत:--( मुझपर ) प्रसन्न होकर; अपवर्ग-शरणम्‌--जो इस भयावहभौतिक संसार से मुक्ति के लिए शरण हैं; हृयसे--आप मुझे बुला लेंगे; कदा--कब; नु--निस्सन्देह

    हे पतितों पर सदय, परम शक्तिशाली दुर्जेय प्रभु, मैं अपने कर्मों के कारण असुरों की संगतिमें आ पड़ा हूँ, अतएवं मैं इस संसार में अपनी जीवन दशा से अत्यधिक भयभीत हूँ।

    वह क्षण कब होगा जब आप मुझे उन चरणकमलों की शरण में बुला लेंगे जो बद्ध जीवन से मोक्ष केचरम लक्ष्य हैं?

    " अस्मात्प्रियाप्रियवियोगसंयोगजन्म-शोकाग्निना सकलयोनिषु दह्ममान: ।

    दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्द्धियाहंभूमन्भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम्‌ ॥

    १७॥

    यस्मात्‌ू--जिसके कारण ( इस संसार में अस्तित्व के कारण ); प्रिय--अच्छा लगने वाला; अप्रिय--न अच्छा लगने वाला;वियोग--विरह; संयोग--तथा मिलन के कारण; जन्म--जिसका जन्म; शोक-अग्निना--शोक की अग्नि से; सकल-योनिषु--किसी भी प्रकार के शरीर में; दह्ममान: --जल कर; दुःख-औषधम्‌--दुखी जीवन के लिए उपचार; तत्‌ू--वह;अपि-भी; दुःखम्‌--कष्ट; अ-तत्‌-धिया--शरीर को आत्मा मानकर; अहम्‌--मैं; भूमन्‌--हे महान; भ्रमामि--घूम रहा हूँ(जन्म मरण के चक्र में ); वद--कृपया उपदेश दें; मे--मुझको; तब--तुम्हारा; दास्य-योगम्‌--सेवा कार्य |

    हे महान, हे परमेश्वर, प्रिय तथा अप्रिय परिस्थितियों के संयोग से तथा उनसे बिछुड़ने केकारण मनुष्य स्वर्ग या नरक लोकों में अत्यन्त शोचनीय स्थिति को प्राप्त होता है मानो संताप कीअग्नि में जल रहा हो।

    यद्यपि इस दुखमय जीवन से निकलने की अनेक औषधियाँ हैं किन्तुभौतिक जगत में ये औषधियाँ दुखों से भी अधिक कष्टकारक हैं।

    अतएव मैं सोच रहा हूँ किइसकी एकमात्र औषधि आपकी सेवा में संलग्न होना है।

    कृपया मुझे ऐसी सेवा का उपदेश दें।

    "

    सोडहं प्रियस्थ सुहृदः परदेवतायालीलाकथास्तव नृसिंह विरिज्ञगीता: ।

    अज्जस्तितर्म्यनुगृणन्गुणविप्रमुक्तोदुर्गाणि ते पदयुगालयहंससड़: ॥

    १८॥

    सः--वह; अहम्‌--मैं ( प्रहाद महाराज ); प्रियस्थ--अत्यन्त प्रिय की; सुहृदः--शुभचिन्तक; परदेवताया: -- भगवान्‌ का;लीला-कथा:--लीलाओं की कथाएँ; तव--तुम्हारी; नूसिंह--हे नूसिंहदेव; विरिज्ल-गीता:--शिष्य परम्परा से ब्रह्मा द्वारा प्रदत्त;अज्ञ:--सरलता से; तितर्मि--पार कर लूँगा; अनुगृणन्‌--निरन्तर वर्णन करते हुए; गुण--प्रकृति के गुणों से; विप्रमुक्त:--विशेषतया अदूषित होने से; दुर्गाणि--जीवन की समस्त दुखमय परिस्थितियाँ; ते--तुम्हारे; पद-युग-आलय--चरणकमलों मेंलीन; हंस-सड्रः--हंसों अर्थात्‌ मुक्तात्माओं की संगति पाकर ( भौतिक गुणों से जिनका कोई सम्बन्ध नहीं है )

    हे भगवान्‌ नृसिंहदेव, मुक्तात्माओं ( हंसों ) की संगति में आपकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगेरहकर मैं प्रकृति के तीन गुणों के स्पर्श से पूर्णतः कल्मषहीन हो सकूँगा और अपने अत्यन्त प्रियस्वामी आपकी महिमाओं का कीर्तन कर सकूँगा।

    मैं ब्रह्मा तथा उनकी शिष्य परम्परा के पद-चिन्हों पर ठीक तरह से चलकर आपकी महिमाओं का कीर्तन करूँगा।

    इस प्रकार मैं अज्ञान केसागर को निश्चय ही पार कर सकूँगा।

    "

    बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंहनार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौ: ।

    तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाझ्सेष्ट-स्तावद्विभो तनुभूतां त्वदुपेक्षितानाम्‌ू ॥

    १९॥

    बालस्य--छोटे बच्चों का; न--नहीं; इह--इस संसार में; शरणम्‌--शरण ( रक्षा ); पितरौ--पिता तथा माता; नूसिंह--नृसिंहदेव; न--न तो; आर्तस्य--किसी रोग से पीड़ित व्यक्ति का; च-- भी; अगदम्‌--दवा; उदन्‍्वति--सागर के जल में;मज्जतः--डूबते व्यक्ति की; नौ:--नाव; तप्तस्थ-- भौतिक दुख से पीड़ित व्यक्ति का; तत्‌ू-प्रतिविधि: --( जगत के दुखों कोरोकने के लिए खोजी गई ) शमन विधि; यः--जो; इह--इस संसार में; अज्लसा--अत्यन्त सरलता से; इष्ट:--स्वीकृत ( दवा केरूप में ); तावत्‌--उसी तरह; विभो--हे स्वामी; तनु-भूताम्‌-- भौतिक शरीर स्वीकार करने वाले जीवों का; त्वतू-उपेक्षितानामू--आपके द्वारा उपेक्षित तथा अस्वीकृत |

    हे नृसिंहदेव, हे परमेश्वर, देहात्मबुद्धि के कारण आपके द्वारा उपेक्षित देहधारी जीव अपनेकल्याण के लिए कुछ भी नहीं कर पाते।

    वे जो भी उपचार स्वीकार करते हैं, उन से यद्यपिकदाचित क्षणिक लाभ पहुँचता है, किन्तु वे स्थायी नहीं रह पाते।

    उदाहरणार्थ, माता तथा पिताअपने बालक की रक्षा नहीं कर पाते, वैद्य तथा दवा रोगी का कष्ट दूर नहीं कर पाते तथा समुद्रमें कोई नाव डूबते हुए मनुष्य को नहीं बचा पाती।

    "

    यस्मिन्यतो यहिं येन च यस्य यस्माद्‌यस्मै यथा यदुत यस्त्वपर: परो वा ।

    भाव: करोति विकरोति पृथक्स्वभावःसजञ्ञोदितस्तदखिलं भवत:ः स्वरूपम्‌ ॥

    २०॥

    यस्मिनू--जीवन की किसी भी दशा में; यत:--किसी कारण से; यहिं--किसी भी समय ( भूत, वर्तमान या भविष्य ) में; येन--किसी से; च-- भी; यस्य--किसी के विषय में; यस्मात्‌--किसी कारण से; यस्मै--किसी के प्रति ( स्थान, व्यक्ति या काल काविचार किये बिना ); यथा--जिस तरह; यत्‌--चाहे जो भी हो; उत--निश्चय ही; यः--जो; तु--लेकिन; अपर: --दूसरा;'परः--परम; वा--अथवा; भाव: -- प्राणी; करोति--करता है; विकरोति--बदलता है; पृथक्‌-भिन्न; स्वभाव: --प्रकृति( प्रकृति के विभिन्न गुणों ) के वशीभूत होकर; सञ्ञोदित:--प्रभावित होकर; तत्‌--वह; अखिलमू-- समस्त; भवतः--आपका;स्वरूपमू--आपकी विभिन्न शक्तियों से निस्सृत |

    हे प्रभु, इस जगत में प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों--सतो, रजो तथा तमो गुणों के अधीनहै।

    सर्वोच्च व्यक्ति ब्रह्माजी से लेकर एक श्षुद्र चींटी तक सारे प्राणी इन्हीं गुणों के वशीभूत होकर कार्य करते हैं।

    अतएवं इस जगत में सारे व्यक्ति आपकी शक्ति के वशीभूत हैं।

    वे जिसकारण से कर्म करते हैं, जिस स्थान में कर्म करते हैं, जिस काल में कर्म करते हैं, जिस पदार्थके कारण कर्म करते हैं, जिस जीवन-लक्ष्य को उन्होंने अन्तिम मान रखा है तथा इस लक्ष्य कोप्राप्त करने की जो विधि है--ये सभी आपकी शक्ति की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहींहैं।

    निस्सन्देह, शक्ति तथा शक्तिमान के अभिन्न होते हैं, वे सब आपकी ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

    "

    माया मन: सृजति कर्ममयं बलीय:कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंस: ।

    छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारंसंसारचक्रमज कोउतितरेत्त्वदन्य: ॥

    २१॥

    माया--भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति; मनः*--मन; सृजति--उत्पन्न करती है; कर्म-मयम्‌--हजारों इच्छाएँ उत्पन्न करके उसकेअनुसार कर्म करती हुई; बलीय:--अत्यन्त शक्तिशाली, दुर्जेय; कालेन--समय द्वारा; चोदित-गुण--जिनके तीनों गुण विश्लुब्धहोते हैं; अनुमतेन--कृपादृष्टि से अनुमति प्राप्त ( काल ); पुंसः-- भगवान्‌ कृष्ण के अंश विष्णु का; छन्दः-मयम्‌--वेदों केनिर्देशों से प्रभावित; यत्‌--जो; अजया--अज्ञान अंधकार के कारण; अर्पित--चढ़ाया गया; षोडश--सोलह; अरम्‌--तीलियाँ;संसार-चक्रम्‌--विभिन्न योनियों में बारम्बार जन्म-मृत्यु का चक्र ( पहिया ); अज--हे अजन्मा; कः--ऐसा कौन है;अतितरेत्‌ू--बाहर निकलने में समर्थ; त्वत्‌-अन्य:--आपके चरणकमलों की शरण लिए बिना।

    हे भगवान्‌, हे परम शाश्वत, आपने अपने स्वांश का विस्तार करके काल द्वारा क्षुब्ध होनेवाली अपनी बहिरंगा शक्ति के द्वारा जीवों के सूक्ष्म शरीरों की सृष्टि की है।

    इस प्रकार मन जीवको अनन्त प्रकार की इच्छाओं में फाँस लेता है जिन्हें कर्मकाण्ड के वैदिक आदेशों तथा सोलहतत्वों के द्वारा पूरा किया जाना होता है।

    भला ऐसा कौन है, जो आपके चरणकमलों की शरणग्रहण किये बिना इस बन्धन से छूट सके ?

    " स त्वं हि नित्यविजितात्मगुण: स्वधाम्नाकालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्ति: ।

    चक्रे विसृष्टमजये श्वर घोडशारेनिष्पीड्यमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम्‌ ॥

    २२॥

    सः--वह ( परम स्वतंत्र व्यक्ति ने अपनी बहिरंगा शक्ति से भौतिक मन की सृष्टि की जो इस भौतिक जगत के समस्त दुख काकारण है ); त्वम्‌ू--तुम ( हो ); हि--निस्सन्देह; नित्य--शा श्वत रूप से; विजित-आत्म--जीता गया; गुण:--जिसका बुद्धिगुण; स्व-धाम्ना--अपनी निजी आध्यात्मिक शक्ति से; काल:--काल तत्त्व ( जो सृजन तथा संहार करता है ); वशी-कृत--आपके अधीन; विसृज्य--जिससे सारे प्रभाव; विसर्ग--तथा सारे कारण; शक्ति: --शक्ति; चक्रे --काल चक्र में ( जन्म-मृत्युका चक्र ); विसृष्टभमू--फेंका जाकर; अजया--आपकी बहिरंगा शक्ति, तमोगुण से; ईश्वर--हे परम नियन्ता; षोडश-अरे--सोलह तीलियों वाले ( पाँच भौतिक तत्त्व, दस इन्द्रियाँ तथा इन सबका नायक मन ); निष्पीड्यमानम्‌--विदलित ( पहिए केनीचे ) होकर; उपकर्ष--कृपया मुझे ले लें ( अपने चरणकमलों की शरण में ); विभो--हे महानतम्‌; प्रपन्नम्‌ू-- आपकी शरण मेंआया।

    हे प्रभु, हे महानतम, आपने सोलह अवयवों से इस भौतिक जगत की रचना की है, किन्तुआप उनके भौतिक गुणों से परे हैं।

    दूसरे शब्दों में, ये भौतिक गुण पूर्णतया आपके वह में हैंऔर आप कभी भी उनके द्वारा जीते नहीं जाते।

    अतएवं काल तत्त्व आपका प्रतिनिधित्व करताहै।

    हे प्रभु, हे महान, आपको कोई नहीं जीत सकता किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैं तोकालचक्र द्वारा पिसा जा रहा हूँ; अतएव मैं आपको पूर्ण आत्म-समर्पण करता हूँ।

    अब आप मुझेअपने पाद-पढ् में संरक्षण प्रदान करें।

    "

    इृष्टा मया दिवि विभोडखिलधिष्णयपाना-मायु: थ्रियो विभव इच्छति याझ्जनोयम्‌ ।

    येउस्मत्पितु: कुपितहासविजृम्भितभ्रू-विस्फूर्जितेन लुलिता: स तु ते निरस्त: ॥

    २३॥

    इृष्टा:--व्यावहारिक रूप से देखा गया; मया--मेरे द्वारा; दिवि--उच्च लोकों में; विभो--हे प्रभु; अखिल--समस्त; धिष्ण्य-पानामू--विभिन्न राज्यों या लोकों के प्रधानों की; आयु:--आयु, उप्र; भ्रियः--ऐश्वर्य; विभव:--यश, प्रभाव; इच्छति--इच्छाकरते हैं; यानू--जो सब; जन: अयमू्‌--ये सारे लोग; ये--जो ( आयु, ऐश्वर्य आदि ); अस्मत्‌ पितु:--हमारे पिता हिरण्यकशिपुके; कुपित-हास--क्रुद्ध होने पर अपनी हँसी द्वारा; विजुम्भित--फैली हुई; भ्रू--भौंहों के; विस्फूर्जितेन--केवल स्वरूप से;लुलिताः--नीचे गिराई हुईं या समाप्त; सः--वह ( मेरा पिता ); तु--लेकिन; ते--तुम्हारे द्वारा; निरस्त:--पूर्णतया विनष्ट |

    हे भगवान्‌, सामान्यतः लोग दीर्घ आयु, ऐश्वर्य तथा भोग के लिए उच्च लोकों में जानाचाहते हैं, किन्तु मैंने अपने पिता के कार्यकलापों से इन सबों को देख लिया है।

    जब मेरे पिताक्रुद्ध होते थे और देवताओं पर व्यंग्य हँसी हँसते थे तो वे उनकी भौहों की गतियों को देखने सेही तुरन्त विनष्ट हो जाते थे।

    तो भी मेरे इतने शक्तिशाली पिता अब एक क्षण में आपके द्वाराध्वस्त कर दिये गये।

    "

    तस्मादमूस्तनुभूतामहमाशिषो ज्ञआयु: श्रियं विभवमैन्द्रियमाविरिज्च्यात्‌ ।

    नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेणकालात्मनोपनय मां निजभृत्यपा श्वम्‌ ॥

    २४॥

    तस्मात्‌ू--अत; अमू:--इन सारे ( ऐश्वर्यों ); तनु-भृताम्‌-देहधारी जीवों के प्रसंग में; अहम्‌--मैं; आशिष: अज्ञ:--ऐसेआशीर्वाद के फल को भलीभाँति जानता हुआ; आयु:--दीर्घ आयु; श्रियम्‌ू--भौतिक एऐश्वर्य; विभवम्‌--प्रभाव तथा यश;ऐन्द्रियम्‌ू--इन्द्रियतृप्ति के सारे साधन; आविरिज्च्यात्‌-ब्रह्मा से लेकर ( एक क्षुद्र चींटी तक ); न--नहीं; इच्छामि--चाहता हूँ;ते--तुम्हारे द्वारा; विलुलितान्‌ू--समाप्त किये जाने वाले; उरु-विक्रमेण--अत्यन्त शक्तिशाली; काल-आत्मना--काल केस्वामी के रूप में; उपनय--कृपया ले चलें; मामू--मुझको; निज-भृत्य-पार्श्रम्‌ू-- अपने अत्यन्त आज्ञाकारी भक्त की संगति में।

    हे भगवन्‌, अब मुझे सांसारिक ऐश्वर्य, योगशक्ति, दीर्घायु तथा ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्रचींटी तक के सारे जीवों द्वारा भोग्य अन्य भौतिक आनन्दों का पूरा-पूरा अनुभव है।

    आपशक्तिशाली काल के रूप में इन सबों को नष्ट कर देते हैं।

    अतः मैं अपने अनुभव के आधार परइन सबों को नहीं लेना चाहता।

    हे भगवान्‌, मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे अपने शुद्ध भक्त केसम्पर्क में रखें और निष्ठावान्‌ दास के रूप में उसकी सेवा करने दें।

    "

    कुत्राशिष: श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाःक्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोह: ।

    निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान्‌कामानलं मधुलवै: शमयन्दुरापै: ॥

    २५॥

    कुत्र--कहाँ; आशिष:--आशीर्वाद, वर; श्रुति-सुखा:--सुनने में मधुर लगने वाले; मृगतृष्णि-रूपा:--मरुस्थल में मृगतृष्णा केसमान; क्व--कहाँ; इृदम्‌--यह; कलेवरम्‌--शरीर; अशेष--- असीम; रुजामू-- रोग का; विरोह: --उत्पत्ति स्थान; निर्विद्यते--तुष्ट होता है; न--नहीं; तु--लेकिन; जनः--सामान्य लोग; यत्‌ अपि--यद्यपि; इति--इस प्रकार; विद्वानू--तथाकथितदार्शनिक, विज्ञानी तथा राजनीतिज्ञ; काम-अनलम्‌--कामेच्छा की प्रज्वलित अग्नि; मधु-लवैः--शहद ( सुख ) की बूँदों से;शमयन्‌ू--नियंत्रण करते हुए; दुरापैः -- प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन

    इस भौतिक जगत में प्रत्येक जीव कुछ न कुछ भावी सुख की कामना करता है, जोमरुस्थल में मृग-मरीचिका के समान है।

    भला मरुस्थल में जल कहाँ?

    दूसरे शब्दों में, इसभौतिक जगत में सुख कहाँ?

    जहाँ तक इस शरीर की बात है, इसका मूल्य ही क्‍या है?

    यहविभिन्न रोगों का स्त्रोत मात्र है।

    तथाकथित दार्शनिक, विज्ञानी तथा राजनीतिज्न इसे भली-भाँतिजानते हैं फिर भी वे क्षणिक सुख की आकांक्षा रखते हैं।

    सुख प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन हैलेकिन वे अपनी इन्द्रियों को वश में न रख पाने के कारण भौतिक जगत के तथाकथित सुख केपीछे दौते हैं और सही निष्कर्ष तक कभी नहीं पहुँच पाते।

    "

    क्वाहं रजःप्रभव ईश तमोधिकेस्मिन्‌जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा ।

    न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमायायन्मेडर्पित: शिरसि पद्मकरः प्रसाद: ॥

    २६॥

    क्व--कहाँ; अहम्‌--मैं हूँ; रज:-प्रभवः --रजोगुणी शरीर में उत्पन्न होकर; ईश--हे ईश्वर; तम:--तमोगुण; अधिके-- बढ़कर;अस्मिनू--इस; जात: --उत्पन्न; सुर-इतर-कुले--नास्तिकों या असुरों के परिवार में ( जो भक्तों से निम्न कोटि हैं ); क्व--कहाँ;तवब--तुम्हारी; अनुकम्पा--अहैतुकी कृपा; न--नहीं; ब्रह्मण: --ब्रह्मजी का; न--नहीं; तु--लेकिन; भवस्थ--शिवजी का;न--न तो; वै--ही; रमाया: -- लक्ष्मी जी का; यत्‌--जो; मे--मेरा; अर्पित: -- चढ़ाया गया; शिरसि--सिर पर; पद्म-कर:--कमल जैसा हाथ; प्रसाद:--कृपा का प्रतीक |

    हे प्रभु, हे परमात्मा, कहाँ घोर नारकीय रजो तथा तमोगुणी परिवार में उत्पन्न हुआ मैं औरकहाँ आपकी अहैतुकी कृपा जो ब्रह्माजी, शिव जी या लक्ष्मी जी को कभी प्राप्त नहीं हो पाई ?

    आप कभी भी इनके सिरों पर अपना कमल जैसा हाथ नहीं रखते, किन्तु आपने मेरे सिर पर इसेरखा है।

    "

    नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्या-ज्न्तोर्यथात्मसुहदो जगतस्तथापि ।

    संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसाद:सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम्‌ ॥

    २७॥

    न--नहीं; एघा--यह; पर-अवर--उच्च या निम्न का; मतिः--ऐसा भेद-भाव; भवत:--आपका; ननु--निस्सन्देह; स्थात्‌ू--होवे; जन्तो: --सामान्य जीवों का; यथा--जिस प्रकार; आत्म-सुहृदः --मित्र का; जगतः--समूचे संसारे का; तथापि--फिर भी( मैत्री या मतभेद का ऐसा प्रदर्शन होता है ); संसेवया--भक्त द्वारा की गई सेवा की कोटि के अनुसार; सुरतरो: इब--बैकुण्ठलोक में कल्पवृक्ष की भाँति ( जो भक्त को इच्छानुसार फल देने वाला है ); ते--तुम्हारा; प्रसाद:--आशीर्वाद या आशीष;सेवा-अनुरूपम्‌-- भगवान्‌ के प्रति की गईं सेवा की कोटि के अनुसार; उदय:--अभिव्यक्ति; न--नहीं; पर-अवरत्वम्‌--छोटे-बड़े का भेदभाव

    हे भगवान्‌, आप सामान्य जीवों की तरह मित्र तथा शत्रु एवं अनुकूल तथा प्रतिकूल के मध्यभेदभाव नहीं बरतते, क्योंकि आप में ऊँच-नीच की कोई भावना नहीं है।

    फिर भी आप सेवा केस्तर के अनुसार ही अपना आशीष प्रदान करते हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कल्पवृक्षइच्छाओं के अनुसार ही फल देता है और ऊँच-नीच में भेदभाव नहीं बरतता।

    "

    एवं जन॑ निपतितं प्रभवाहिकूपे'कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसड्भातू ।

    कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतःसोहं कथं नु विसूजे तव भृत्यसेवाम्‌ ॥

    २८॥

    एवम्‌--इस तरह; जनम्‌--सामान्य व्यक्ति को; निपतितम्‌--गिरा हुआ; प्रभव--भौतिक जगत के; अहि-कूपे--सर्पो से पूर्णअंधे कुएँ में; काम-अभिकामम्‌--इन्द्रियविषयों की कामना; अनु--अनुसरण करते हुए; यः--जो व्यक्ति; प्रपतन्‌ू--( इसअवस्था में ) गिर कर; प्रसड़ात्‌-बुरी संगति के कारण या भौतिक इच्छाओं की अधिकाधिक संगति से; कृत्वा आत्मसात्‌--मुझको ( अपने [ नारद जैसे आध्यात्मिक गुण प्राप्त करने के लिए ) वाध्य करके; सुर-ऋषिणा--महान्‌ सन्त पुरुष ( नारद )द्वारा; भगवन्‌--हे भगवान्‌; गृहीत:--स्वीकार; सः--वह व्यक्ति; अहम्‌--मैं; कथम्‌--कैसे; नु--निस्सन्देह; विसूजे--त्यागसकता हूँ; तब--तुम्हारी; भृत्य-सेवाम्‌-शुद्ध भक्त की सेवा |

    हे भगवान्‌, मैं एक-एक करके भौतिक इच्छाओं की संगति में आने से सामान्य लोगों काअनुगमन करते हुए सर्पो के अन्धे कुएँ में गिरता जा रहा था।

    किन्तु आपके दास नारद मुनि नेकृपा करके मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और मुझे यह शिक्षा दी कि इसदिव्य पद को किस तरह प्राप्त किया जाये।

    अतएव मेरा पहला कर्तव्य है कि मैं उनकी सेवाकरूँ।

    भला मैं उनकी यह सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ?

    " मत्प्राणरक्षणमनन्त पितुर्वधश्चमन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम्‌ ।

    खड़गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सु-स्त्वामीश्वरो मदपरोवतु कं हरामि ॥

    २९॥

    मत्‌-प्राण-रक्षणम्‌--मेंरे जीवन की रक्षा करके; अनन्त--हे अनन्त असीम दिव्य गुणों के आगार; पितु:--मेरे पिता का; बधःच--तथा वध; मन्ये--मानता हूँ; स्व-भृत्य--आपके अनन्य दासों का; ऋषि-वाक्यम्‌--तथा नारद मुनि के शब्दों को;ऋतम्‌--सत्य; विधातुम्‌-सिद्ध करने के लिए; खड्गम्‌--तलवार; प्रगृद्य--हाथ में धारण करके; यत्‌--चूँकि; अवोचत्‌--मेरेपिता ने कहा; असत्‌ू-विधित्सु:--बड़े ही अपवित्र ढंग से कर्म करने की इच्छा से; त्वामू--तुमको; ईंश्वरः:--कोई परम नियामक;मत्‌-अपरः--मेरी अपेक्षा दूसरा कोई; अवतु--बचा ले; कम्‌--तुम्हारा सिर; हरामि--अब मैं छिन्न कर दूँगा।

    हे भगवान्‌, हे दिव्य गुणों के असीम आगार, आपने मेरे पिता हिरण्यकशिपु का वध कियाहै और मुझे उनकी तलवार से बचा लिया है।

    उन्होंने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा था 'यदि मेरेअतिरिक्त कोई परम नियन्ता है, तो वह तुम्हें बचाए।

    अब मैं तुम्हारे सिर को तुम्हारे शरीर सेकाटकर अलग कर दूँगा।

    अतएव मैं सोच रहा हूँ कि मुझे बचाने तथा उन्हें मारने--दोनों हीकार्यों में आपने अपने भक्त के वचनों को सत्य करने के लिए ही कर्म किया है।

    इसका कोईअन्य कारण नहीं है।

    "

    एकस्त्वमेव जगदेतममुष्य यत्त्व-माद्यन्तयो: पृथगवस्यसि मध्यतश्न ।

    सृष्ठा गुणव्यतिकर निजमाययेदंनानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्ट: ॥

    ३०॥

    एकः--एक; त्वम्‌--तुम; एव--एकमात्र; जगत्‌--हृश्य जगत; एतम्‌--यह; अमुष्य--उस ( समग्र ब्रह्माण्ड ) का; यत्‌--चूँकि;त्वमू--तुम; आदि--प्रारम्भ में; अन्तयो:--अन्त में; पृथक्‌ू--अलग से; अवस्यसि--विद्यमान हो ( कारण रूप में ); मध्यतःच--बीच में भी ( आदि तथा अन्त के मध्य में ); सृष्ठा--उत्पन्न करके; गुण-व्यतिकरम्‌--प्रकृति के तीनों गुणों का रूपान्तर;निज-मायया--अपनी निजी बहिरंगा शक्ति से; इृदम्‌--यह; नाना इब-- अनेक किस्मों की तरह; तैः--उनके ( गुणों के ) द्वारा;अवसित:ः--अनुभव किया; तत्‌--वह; अनुप्रविष्ट: --प्रवेश करके |

    हे भगवान्‌, अकेले आप ही अपने आपको विराट्‌ जगत के रूप में प्रकट करते हैं, क्योंकिआप सृष्टि के पूर्व विद्यमान थे, संहार के बाद भी विद्यमान रहते हैं और आदि तथा अन्त के बीचमें पालक होते हैं।

    यह सब प्रकृति के तीनों गुणों की क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा किया जाता है।

    अतएव भीतर तथा बाहर जो कुछ भी विद्यमान है, वहकेवल आप हैं।

    "

    त्वं वा इदं सदसदीश भवांस्ततोन्योमाया यदात्मपरबुद्धिरियं हापार्था ।

    यद्यस्यथ जन्म निधन स्थितिरीक्षणं चतद्बैतदेव वसुकालवदष्टितर्वो: ॥

    ३१॥

    त्वमू--तुम; वा--या तो; इदम्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; सत्‌ू-असत्‌--कार्य कारण से युक्त ( आप कारण हैं और आपकी शक्ति कार्यहै); ईश--हे ईश्वर परम नियन्ता; भवानू--आप; ततः--ब्रह्माण्ड से; अन्य:--पृथक्‌ स्थित ( भगवान्‌ सृष्टि करते हैं फिर भी वेसृष्टि से पृथक्‌ रहते हैं ); माया--शक्ति जो पृथक्‌ सृष्टि प्रतीत होती है; यत्‌--जिससे; आत्म-पर-बुद्धिः--अपने तथा पराये कीधारणा; इयम्‌ू--यह; हि--निस्सन्देह; अपार्था--अर्थहीन ( आप ही सब कुछ हैं अतएव 'मेरा' तथा 'तेरा' समझ पाने की आशानहीं है ); यत्‌--जिस वस्तु से; यस्थ--जिसका; जन्म--सृजन; निधनम्‌--संहार; स्थितिः--पालन; ईक्षणम्‌-- अभिव्यक्ति;च--तथा; तत्‌--वह; वा--या; एतत्‌--यह; एव--निश्चय ही; वसुकाल-वत्‌--पृथ्वी होने के गुण तथा उससे आगे पृथ्वी केसूक्ष्म तत्त्व ( गन्‍्ध ) के समान; अष्टि-तर्वो:--बीज ( कारण ) तथा वृक्ष ( कारण का कार्य )।

    हे भगवान्‌, हे परमेश्वर, यह समग्र सृष्टि आपके द्वारा उत्पन्न है और विराट जगत आपकीशक्ति का परिणाम है।

    यद्यपि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है फिर भी आपअपने को उससे पृथक्‌ रखते हैं।

    'मेरा' तथा 'तुम्हारा' की धारणा निश्चय ही एक प्रकार का मोह(माया ) है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु आपसे उद्धृूत होने के कारण आपसे भिन्न नहीं है।

    निस्सन्देह,विराट जगत आपसे अभिन्न है और संहार भी आपके द्वारा ही किया जाता है।

    आप तथा ब्रह्माण्डके बीच का यह सम्बन्ध बीज तथा वृक्ष अथवा सूक्ष्म कारण तथा स्थूल अभिव्यक्ति के उदाहरणके द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।

    "

    न्यस्थेदमात्मनि जगद्ठिलयाम्बुमध्येशेषेत्मना निजसुखानुभवो निरीहः ।

    योगेन मीलितहगात्मनिपीतनिद्र-स्तुर्ये स्थितो न तु तमो न गुणांश्व युड्क्षे ॥

    ३२॥

    न्यस्य--फेंककर; इदम्‌--यह; आत्मनि--अपने आप में; जगत्‌--आपके द्वारा उत्पन्न विराट संसार; विलय-अम्बु-मध्ये--कारणार्णव में, जिसमें प्रत्येक वस्तु सुरक्षित शक्ति के रूप में संरक्षित रहती है; शेषे--सोये हुए के समान कर्म करते हो;आत्मना--अपने से; निज--अपना; सुख-अनुभव:--आध्यात्मिक आनन्द की अवस्था का अनुभव; निरीह:--कुछ भी न करतेहुए प्रतीत होना; योगेन--योग शक्ति के द्वारा; मीलित-हक्‌--बन्द आँखें; आत्म--अपने प्राकट्य द्वारा; निपीत--रोका गया;निद्र:--जिसकी नींद; तुर्ये--दिव्य अवस्था में; स्थित:--अपने को रखते हुए; न--नहीं; तु--लेकिन; तम:ः--सोने की भौतिकअवस्था; न--न तो; गुणान्‌-- भौतिक गुण; च--तथा; युद्क्षे--अपने को लगाते हो

    हे परमेश्वर, संहार के बाद सृजनात्मक शक्ति आप में स्थित रखी जाती है और आप अपनीअधखुली आँखों से सोते प्रतीत होते हैं।

    किन्तु तथ्य तो यह है कि आप एक सामान्य व्यक्ति कीभाँति सोते नहीं, क्योंकि आप भौतिक जगत की सृष्टि के परे सदैव दिव्य अवस्था में रहते हैं औरसदैव दिव्य आनन्द का अनुभव करते हैं।

    इस तरह क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में आप भौतिक वस्तुओं को छुए बिना अपनी दिव्य स्थिति में बने रहते हैं।

    यद्यपि आप सोते प्रतीत होते हैं, किन्तुयह सोना अविद्या की निद्रा से पृथक्‌ होता है।

    "

    तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्यासजञ्जोदितप्रकृतिधर्मण आत्मगूढम्‌ ।

    अम्भस्यनन्तशयनाद्विरमत्समाधे-नभिरभूत्स्वकणिकावटवन्महाब्जम्‌ ॥

    ३३॥

    तस्य--उस भगवान्‌ का; एव--निश्चय ही; ते--तुम्हारा; वपु:--शरीर; इृदम्‌--यह ( ब्रह्माण्ड ); निज-काल-शक्त्या--शक्तिशाली काल द्वारा; सञझ्ञोदित-श्षुब्ध; प्रकृति-धर्मण: --उनका जिनसे प्रकृति के तीनों गुण; आत्म-गूढम्‌--आप में निहित;अम्भसि--कारणार्णव के जल में; अनन्त-शयनात्‌-- अनन्त ( जो आपका अन्य रूप है ) नामक शय्या से; विरमत्‌-समाधे: --समाधि से जगकर; नाभे:--नाभि से; अभूत्‌-- प्रकट हुआ; स्व-कणिका--बीज से; वट-वत्‌--महान्‌ बट वृक्ष की तरह; महा-अब्जम्‌--संसार का महान्‌ कमल ( जो इसी तरह उगा है )

    यह विराट भौतिक जगत भी आपका ही शरीर है।

    यह पदार्थ का पिंड आपकी काल शक्तिद्वारा क्षुब्ध होता है और इस तरह प्रकृति के तीनों गुण प्रकट होते हैं।

    तब आप शेष या अनन्त कीशय्या से जागते हैं और आपकी नाभि से एक क्षुद्र दिव्य बीज उत्पन्न होता है।

    इसी बीज से विराटजगत का कमल पुष्प प्रकट होता है ठीक उसी तरह जिस प्रकार एक छोटे बीज से विशाल वटवृक्ष उगता है।

    "

    तत्सम्भवः 'कविरतोन्यदपश्यमान-स्त्वां बीजमात्मनि ततं स बहिर्विचिन्त्य ।

    नाविन्ददब्दशतमप्सु निमज्ञमानोजातेड्डुरे कथमुहोपलभेत बीजम्‌ ॥

    ३४॥

    तत्‌-सम्भव:ः --उस कमल से उत्पन्न; कवि:--सृष्टि के सूक्ष्म कारण को समझने वाला ( ब्रह्मा ); अतः:--उस ( कमल ) से;अन्यत्‌--अन्य कुछ; अपश्यमान: --देख सकने में अक्षम; त्वामू--आपको; बीजम्‌--कमल के कारण को; आत्मनि-- अपनेमें; ततम्‌--विस्तार कर लिया; सः--उसने ( ब्रह्मा ); बहिः विचिन्त्य--अपने को बाहरी मानकर; न--नहीं; अविन्दत्‌--( आपको ) समझा; अब्द-शतम्‌--देवताओं के अनुसार एक सौ वर्षों तक ( देवताओं का एक दिन हमारे छः मास के तुल्य );अप्सु--जल के भीतर; निमज्ञममान:--गोता लगाकर; जाते अछ्जू रे--जब बीज अंकुरित होकर लता रूप में प्रकट होता है;कथम्‌--कैसे; उह--हे भगवान्‌; उपलभेत--कोई देख सकता है; बीजम्‌--पहले से फलित बीज को |

    उस विशाल कमल पुष्प से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए किन्तु उन्हें उस कमल के सिवाय कुछ भी नहींदिखा।

    अतएव आप को बाहर स्थित जानकर उन्होंने जल में गोता लगाया और वे एक सौ वर्षोतक उस कमल के उद्गम को खोजने का प्रयत्न करते रहे।

    किन्तु उन्हें आपका कोई पता नहींचल पाया क्‍योंकि जब बीज फलीभूत होता है, तो असली बीज नहीं दिख पाता।

    "

    स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आश्नितोब्जंकालेन तीब्रतपसा परिशुद्धभाव: ।

    त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्म॑भूतेन्द्रयशयमये विततं दरदर्श ॥

    ३५॥

    सः--वह ( ब्रह्मा ); तु--लेकिन; आत्म-योनि:--बिना माता के उत्पन्न ( सीधे पिता विष्णु से उत्पन्न ); अति-विस्मित:--अत्यधिक चकित ( अपने जन्म का उद्गम न पाकर ); आभ्रित:--आसीन; अब्जम्‌--कमल; कालेन--काल के द्वारा; तीब्र-तपसा--धोर तपस्या द्वारा; परिशुद्ध-भावः--पूर्णतया शुद्ध होकर; त्वामू--आपको; आत्मनि--अपने शरीर में; ईश--हे ईश्वर;भुवि--पृथ्वी के भीतर; गन्धम्‌--गन्ध; इब--सहश; अति-सूक्ष्मम्‌--अत्यन्त सूक्ष्म; भूत-इन्द्रिय--तत्त्वों तथा इन्द्रियों से बना;आशय-मये--तथा जो इच्छाओं से पूर्ण ( मन ); विततमू--फैला हुआ; दरदर्श--देखा

    आत्मयोनि के नाम से विख्यात अर्थात्‌ बिना माता के उत्पन्न ब्रह्मजी को आश्चर्य हुआ।

    अतएव उन्होंने कमल पुष्प की शरण ग्रहण की और जब वे सैकड़ों वर्षों तक कठोर तपस्याकरने के बाद शुद्ध हुए तो वे देख पाये कि समस्त कारणों के कारण भगवान्‌ उनके अपने पूरेशरीर तथा इन्द्रियों में उसी तरह व्याप्त थे जिस प्रकार गन्ध अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी पृथ्वी मेंअनुभव की जाती है।

    "

    एवं सहस्त्रवदनाड्प्रिशिर:ःकरोरु -नासाद्यकर्णनयनाभरणायुधाढ्यम्‌ ॥

    मायामयं सदुपलक्षितसन्निवेशंइष्ठा महापुरुषमाप मुद्दे विरिज्ञ: ॥

    ३६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सहस्त्र--हजार; वदन-- मुख; अड्प्रि--पाँव; शिर:--सिर; कर--हाथ; उरु--जाँघें; नास-आद्य-- नाकइत्यादि ; कर्ण--कान; नयन--आँखें; आभरण--तरह-तरह के गहनों; आयुध--तरह-तरह के हथियारों से; आढ्यम्‌--लैस;माया-मयम्‌--असीम शक्ति द्वारा प्रदर्शित; सत्‌-उपलक्षित--विभिन्न लक्षणों में प्रकट होकर; सन्निवेशम्‌ू--एकसाथ मिलकर;इष्ठा--देख कर; महा-पुरुषम्‌-- भगवान्‌ को; आप--प्राप्त किया; मुदम्‌-दिव्य आनन्द; विरिज्ञ:--ब्रह्मा ने

    तब ब्रह्माजी ने आपको हजारों मुखों, पाँवों, सिरों, हाथों, जांघो, नाकों, कानों तथा आँखोंसे युक्त देखा।

    आप भलीभाँति वस्त्र धारण किये थे और नाना प्रकार के आभूषणों तथा आयुधोंसे सुशोभित थे।

    आपको विष्णु रूप में देखकर तथा आपके दिव्य लक्षणों एवं अधोलोकों सेफैले हुए आपके चरणों को देखकर ब्रह्माजी को दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ।

    "

    तस्मै भवान्हयशिरस्तनुवं हि बिभ्रद्‌वेदद्रुहावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ ।

    हत्वानयच्छुतिगणां श्र रजस्तमश्नसत्त्व॑ तव प्रियतमां तनुमामनन्ति ॥

    ३७॥

    तस्मै--उन ब्रह्मा को; भवान्‌ू--आप; हय-शिरः--घोड़े का शिर तथा गर्दन वाले; तनुवम्‌-- अवतार; हि--निस्सन्देह; बिभ्रत्‌ू--स्वीकार करते हुए; बेद-द्रहौ--दो असुर जो वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध थे; अति-बलौ--अत्यन्त बलशाली; मधु-कैटभ-आख्यौ--मधु तथा कैटभ नाम से विख्यात; हत्वा--मारकर; अनयत्‌-- प्रदान किया; श्रुति-गणान्‌ू--सारे भिन्न-भिन्न वेद (साम, यजुः, ऋग तथा अथर्व ); च--तथा; रज: तम: च--रजो तथा तमो गुणों द्वारा अंकित करके; सत्त्वम्‌--शुद्ध दिव्यसतोगुण; तब--तुम्हारा; प्रिय-तमाम्‌--सर्वाधिक प्रिय; तनुमू--रूप का ( हयग्रीव ); आमनन्ति--आदर करते हैं।

    हे भगवान्‌, जब आप घोड़े का शिर धारण करके हयग्रीव रूप में प्रकट हुए तो आपने रजोतथा तमो गुणों से पूर्ण मधु तथा कैटभ नामक दो असुरों का संहार किया।

    फिर आपने ब्रह्मा कोवैदिक ज्ञान प्रदान किया।

    इसी कारण से सारे महान्‌ ऋषिगण आपके रूपों को दिव्य अर्थात्‌भौतिक गुणों से अछूता मानते हैं।

    "

    इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारै-लोॉकान्विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान्‌ ।

    धर्म महापुरुष पासि युगानुवृत्तंछन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोथ स त्वम्‌ ॥

    ३८ ॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; नृ--यथा मनुष्य ( यथा कृष्ण तथा रामचन्द्र ); तिर्यक्‌--पशु की तरह का ( जेसै शूकर ); ऋषि--महान्‌ऋषि की तरह ( परशुराम ); देव--देवता गण; झष--लचर ( जैसे मछली तथा कछुवा ); अवतारैः--ऐसे विभिन्न अवतारों केद्वारा; लोकान्‌ू--सारे लोकों को; विभावयसि--रक्षा करते हो; हंसि--( कभी-कभी ) मारते हो; जगत्‌ प्रतीपान्‌ू--इस संसार मेंबाधा उत्पन्न करने वालों को; धर्मम्‌-धार्मिक सिद्धान्तों को; महा-पुरुष--हे महान्‌ पुरुष; पासि--रक्षा करते हो; युग-अनुवृत्तम्‌-विभिन्न युगों के अनुसार; छन्न:--ढका हुआ; कलौ--कलियुग में; यत्‌-- क्योंकि; अभव: --हुए हैं ( और भविष्यमें होंगे ); त्रि-युग:ः--त्रियुणग नामक; अथ--अतएव; स:--वही पुरुष; त्वमू-तुम |

    हे प्रभु, इस प्रकार आप विभिन्न अवतारों में जैसे मनुष्य, पशु, ऋषि, देवता, मत्स्य याकच्छप के रूप में प्रकट होते हैं और इस प्रकार से विभिन्न लोकों में सम्पूर्ण सृष्टि का पालनकरते हैं तथा आसुरीं सिद्धन्तों का वध करते हैं।

    हे भगवान्‌, आप युग के अनुसार धार्मिकसिद्धान्तों की रक्षा करते हैं।

    किन्तु कलियुग में आप स्वयं को भगवान्‌ के रूप में घोषित नहींकरते।

    इसलिए आप 'त्रियुग' कहलाते हैं, अर्थात्‌ तीन युगों में प्रकट होने वाले भगवान्‌।

    "

    नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथसम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीब्रम्‌ ।

    कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्ततस्मिन्कर्थ तव गतिं विमृशामि दीन: ॥

    ३९॥

    न--निश्चय ही नहीं; एतत्‌--यह; मन: --मन; तब--तुम्हारी; कथासु--दिव्य कथाओं में; विकुण्ठ-नाथ--हे चिन्तारहितबैकुण्ठ के स्वामी; सम्प्रीयते--शान्त हो जाता है या रूचि रखता है; दुरित--पापकर्मो से; दुष्टम्‌--बेईमान; असाधु--झूठा;तीब्रमू--वश में करना कठिन; काम-आतुरम्‌--सदैव विभिन्न इच्छाओं तथा कामेच्छाओं से पूर्ण; हर्ष -शोक--कभी हर्ष द्वारा तोकभी दुख द्वारा; भय--तथा कभी भय द्वारा; एषणा--तथा इच्छा द्वारा; आर्तम्‌--दुखी; तस्मिन्‌ू--उस मानसिक स्थिति में;कथम्‌--कैसे; तब--तुम्हारा; गतिम्‌ू--दिव्य कार्यकलाप; विमृशामि--मैं विचार करूँगा और समझने का प्रयास करूँगा;दीन:ः--अत्यन्त पतित तथा गरीब।

    चिन्तारहित वैकुण्ठलोकों के स्वामी, मेरा मन अत्यन्त पापी तथा कामी है, कभी यह सुखीकहलाता है, तो कभी दुखी है।

    मेरा मन शोक तथा भय से पूर्ण है और सदैव अधिकाधिक धनकी खोज में रहता है।

    इस तरह यह अत्यधिक दूषित गया है और आपकी कथाओं से कभी तुष्टनहीं होता।

    अतएव मैं अत्यन्त पतित तथा दलित हूँ।

    ऐसी जीवन-स्थिति में भला मैं आपकेकार्यकलापों की व्याख्या करने में किस तरह समर्थ हो सकता हूँ?

    " जिह्नैकतोच्युत विकर्षति मावितृप्ताशिश्नोन्यतस्त्वगुदर श्रवण कुतश्चित्‌ ।

    घ्राणोउन्यतश्चपलहक्क्व च कर्मशक्ति-ब॑ह्व्य: सपत्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥

    ४०॥

    जिह्मा--जीभ; एकत:ः--एक ओर; अच्युत--हे अच्युत भगवान्‌; विकर्षति-- आकर्षित करती है; मा--मुझको; अवितृप्ता--सन्तुष्ट न होने से; शिश्न: --जननेन्द्रियाँ; अन्यतः--दूसरी ओर; त्वक्‌--चमड़ी ( मुलायम वस्तु को छूने के लिए ); उदरम्‌--पेट( तरह-तरह के भोजन के लिए ); श्रवणम्‌--कान ( किसी मधुर संगीत को सुनने के लिए ); कुतश्चित्‌--किसी अन्य ओर तक;प्राण:--नाक ( सूँघने के लिए ); अन्यतः--और भी दूसरी ओर को; चपल-हक्‌ --चंचल दृष्टि; क्व च--कहीं पर; कर्म-शक्ति:--सक्रिय इन्द्रियाँ; बह्व्य:--अनेक; स-पत्य:--सौतें; इब--सहश; गेह-पतिम्‌--गृहस्थ को; लुनन्ति--नष्ट कर देतीहैं

    हे अच्युत भगवान्‌, मेरी दशा उस पुरुष की भाँति है, जिसकी कई पत्लियाँ हों और वे सभीउसे अपने अपने ढंग से आकर्षित करने का प्रयास कर रही हों।

    उदाहरणार्थ, जीभ स्वादिष्टव्यंजनों की ओर आकृष्ट होती है, जननेन्द्रियाँ किसी आकर्षक स्त्री के साथ संभोग करने के लिए और स्पर्श इन्द्रियाँ मुलायम वस्तुओं का स्पर्श करने के लिए आकृष्ट होती हैं।

    पेट भरा रहने परभी अधिक खाना चाहता है और कान आपके विषय में न सुन कर सामान्यतः सिनेमा गीतों कीओर आकदकृष्ट होते हैं।

    प्राण की इन्द्रिय किसी अन्य ओर ही आकृष्ट होती है, चंचल आँखेंइन्द्रियतृप्ति के हश्यों की ओर आकृष्ट होती हैं तथा सक्रिय इन्द्रियाँ अन्यत्र आकृष्ट होती हैं।

    इसतरह मैं सचमुच ही दुविधा में रहता हूँ।

    "

    एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्या-मन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम्‌ ।

    पश्यञ्जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रहन्तेति पारचर पीपृहि मूढमद्य ॥

    ४१॥

    एवम्‌--इस तरह; स्व-कर्म-पतितम्‌--अपने भौतिक कार्यकलापों के फल के कारण पतित हुआ; भव--अज्ञान जगत ( जन्म,मृत्यु, जरा, व्याधि की तुलना में ); वैतरण्याम्‌--वैतरणी नदी में ( जो मृत्यु के अधीक्षक यमराज के द्वार के समक्ष बहती है );अन्य: अन्य--एक के बाद एक; जन्म--जन्म; मरण--मृत्यु; आशन--विभिन्न प्रकार का भोजन; भीत-भीतम्‌-- अत्यधिकभयभीत; पश्यन्‌--देखते हुए; जनमू--जीव को; स्व--अपना; पर--पराया; विग्रह--शरीर में; बैर-मैत्रमू--मित्रता तथा शत्रुतामानते हुए; हन्त--हाय; इति--इस तरह; पारचर--मृत्यु की नदी के दूसरी ओर स्थित आप; पीपृहि--कृपया हम सबों को ( इसघातक स्थिति से ) बचा लें; मूढम्‌--आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन हम सभी मूर्ख हैं; अद्य--आज ( क्योंकि आप स्वयं यहाँउपस्थित हैं )॥

    हे भगवान्‌, आप सदैव मृत्यु की नदी के दूसरी ओर ( उस पार ) दिव्य रूप में स्थित रहते हैं,किन्तु हम सभी अपने पापकर्मों के फलों के कारण इस ओर कष्ट भोग रहे हैं।

    निस्सन्देह, हमइस नदी में गिर गये हैं और जन्म-मृत्यु की वेदनाओं से बारम्बार कष्ट उठा रहे हैं तथा भयानकवस्तुएँ खा रहे हैं।

    अब कृपा करके हम पर दृष्टि डालिये--न केवल मुझ पर अपितु उन सबों परजो कष्ट उठा रहे हैं--और अपनी अहैतुकी कृपा तथा दया से हमारा उद्धार कीजिए तथा हमारापालन कीजिये।

    "

    को न्वत्र तेडखिलगुरो भगवन्प्रयासउत्तारणेस्य भवसम्भवलोपहेतो: ।

    मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धोकि तेन ते प्रियजनाननुसेवर्ता न: ॥

    ४२॥

    कः--कौन सा; नु--निस्सन्देह; अत्र--इस मामले में; ते--आपका; अखिल-गुरो--हे सम्पूर्ण सृष्टि के परम गुरु; भगवन्‌--हेभगवान्‌; प्रयास:--प्रयास; उत्तारणे--इन पतित आत्माओं के उद्धार हेतु; अस्य--इसका; भव-सम्भव--सृजन तथा पालन का;लोप--तथा प्रलय का; हेतोः--कारण का; मूढेषु--इस भौतिक जगत में सड़ने वाले मूर्ख व्यक्तियों में; बै--निस्सन्देह; महत्‌-अनुग्रहः-- भगवान्‌ द्वारा दया; आर्त-बन्धो--हे पीड़ित जीवों के मित्र; किम्‌ू--क्या कठिनाई है; तेन--उससे; ते--तुम्हारे; प्रिय-जनानू-प्रिय पुरुषों ( भक्तों ) को; अनुसेवताम्‌--जो सदैव सेवा करने में लगे हैं उनका; न:ः--हमारी तरह ( जो इस तरह लगेहैं)

    हे परमेश्वर, हे समग्र जगत के आदि आध्यात्मिक गुरु, आप ब्रह्माण्ड के कार्यो के प्रबन्धकहैं, अतएव आपकी सेवा में लगे हुए पतितात्माओं का उद्धार करने में आपको कौन सी कठिनाईहै?

    आप सभी दुखी मानवता के मित्र हैं और महापुरुषों के लिए मूर्खों पर दया दिखलानाआवश्यक है।

    अतएव मैं सोचता हूँ कि आप हम जैसे मनुष्यों पर अहैतुकी कृपा प्रदर्शित करेंगेजो आपकी सेवा में लगे हुए हैं।

    "

    त्वद्वीयगायनमहामृतमग्नचित्त: ।

    शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थमायासुखाय भरमुद्गहतो विमूढान्‌ ॥

    ४३॥

    न--नहीं; एव--निश्चय ही; उद्विजे--मैं उद्विगन अथवा भयभीत हूँ; पर--हे पर; दुरत्यय--पार करना कठिन; बैतरण्या: --वैतरणी नदी को ( भौतिक जगत की नदी ); त्वत्‌-वीर्य--आपके यश तथा कार्यकलाप का; गायन--कीर्तन करने से यावितरित करने से; महा-अमृत-- अमृत के समान आध्यात्मिक आनन्द के महासागर में; मग्न-चित्त:--लीन चित्त वाला; शोचे--मैं केवल पछता रहा हूँ; तत:--उससे; विमुख-चेतस:--वे मूर्ख तथा धूर्त जो कृष्णभावनामृत से विहीन हैं; इन्द्रिय-अर्थ--इन्द्रियतृप्ति में; माया-सुखाय--क्षणिक मोहमय सुख के लिए; भरम्‌ू--मिथ्या भार या उत्तरदायित्व ( अपने परिवार, समाज तथा राष्ट्रके पालन के लिए तथा उस हेतु विशद प्रबन्ध ); उद्ददतः--उठाये हुए ( इस प्रबन्ध के लिए महान्‌ योजनाएं बना कर );विमूढान्‌--यद्यपि वे मूर्खो तथा धूर्तों के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं ( मैं उनके विषय में भी सोच रहा हूँ )।

    हे श्रेष्ठ महापुरुष, मैं भौतिक जगत से तनिक भी भयभीत नहीं हूँ, क्योंकि मैं जहाँ कहीं भीठहरता हूँ आपके यश तथा कार्यकलाप के विचारों में लीन रहता हूँ।

    मैं एकमात्र उन मूर्खो तथाधूर्तों के लिए चिन्तित हूँ जो भौतिक सुख के लिए तथा अपने परिवार, समाज तथा देश केपालन हेतु बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाते हैं।

    मैं मात्र उन के प्रति प्रेम के बारे में चिन्तित हूँ।

    "

    प्रायेण देव मुनय: स्वविमुक्तिकामा मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा: ।

    नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एकोनान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोनुपश्ये ॥

    ४४॥

    प्रायेण-- प्रायः सभी मामलों में, सामान्यतया; देव--हे ई श्वर; मुन॒य:--बड़े बड़े सन्त पुरुष; स्व--निजी; विमुक्ति-कामा:--इसभौतिक जगत से मुक्ति के इच्छुक; मौनम्‌--मूक भाव से; चरन्ति--विचरण करते हैं ( हिमालय के जंगल में जहाँभौतिकतावादियों के कार्यकलापों से कोई सम्पर्क नहीं रहता ); विजने--एकान्त स्थान में; न--नहीं; पर-अर्थ-निष्ठा:--कृष्णभावनामृत आन्दोलन का लाभ पहुँचाने के लिए अन्यों के लिए काम करने में रूचि रखने वाला; न--नहीं; एतान्‌ू--इन;विहाय--छोड़कर; कृपणान्‌--मूर्खों तथा धूर्तों को ( जो मनुष्य जीवन का लाभ न जानते हुए भौतिक कार्य में लगे रहते हैं );विमुमुक्षे--मैं मुक्त होना और भगवद्धाम लौट जाना चाहता हूँ; एक:--अकेला; न--नहीं; अन्यम्‌--दूसरा; त्वत्‌--आपके लिएही; अस्य--इसकी; शरणम्‌--शरण; भ्रमत:ः--ब्रह्माण्ड भर में घूमने और भटकने वाले जीव की; अनुपश्ये--मैं देखूँ॥

    हे भगवान्‌ नृसिंहदेव, मैं देख रहा हूँ कि सन्त पुरुष तो अनेक हैं, किन्तु वे अपने ही मोक्ष मेंरुचि रखते हैं।

    वे बड़े-बड़े नगरों की परवाह न करते हुए मौन व्रत धारण करके ध्यान करने केलिए हिमालय या बन में चले जाते हैं; वे दूसरों की मुक्ति में रुचि नहीं रखते, किन्तु जहाँ तकमेरी बात है मैं इन बेचारे मूर्खो तथा धूर्तों को छोड़कर अकेले अपनी मुक्ति नहीं चाहता।

    मैंजानता हूँ कि कृष्णभावनामृत के बिना और आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किये बिनाकोई सुखी नहीं हो सकता।

    अतएव मैं उन सबों को आपके चरणकमलों की शरण में वापसलाना चाहता हँ।

    "

    यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छेकण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम्‌ ।

    तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाज:कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीर: ॥

    ४५॥

    यतू--जो ( इन्द्रिय तृप्ति के निमित्त है ); मैथुन-आदि--काम चर्चा, काम साहित्य का पठन या विषयी जीवन का भोग ( घर में,या बाहर यथा क्लब में ); गृहमेधि-सुखम्‌--परिवार, समाज, मैत्री इत्यादि से अनुरक्त रहने के आधार पर सभी प्रकार काभौतिक सुख; हि--निस्सन्देह; तुच्छम्‌--तुच्छ, नगण्य; कण्डूयनेन--खुजलाने से; करयो:--दोनों हाथों के ( खुजली दूर करनेके लिए ); इब--सहश; दुःख-दुःखम्‌--विभिन्न प्रकार के दुख ( इन्द्रियतृप्ति की खुजली के पश्चात्‌ होनेवाले ); तृप्यन्ति--तुष्टहो जाते हैं; न--कभी नहीं; इह-- भौतिक इन्द्रिय तृप्ति में; कृपणा:--मूर्ख व्यक्ति; बहु-दुःख-भाज:ः--विभिन्न प्रकार के दुखोंको प्राप्त; कण्डूति-वत्‌--यदि ऐसी खुजलाहट से सीख ले सके; मनसि-जम्‌--जो मात्र मानसिक कल्पना है ( वास्तविक सुखनहीं होता ); विषहेत--तथा ( ऐसी खुजलाहट ) सहन करता है; धीर:--अत्यन्त पूर्ण तथा गम्भीर व्यक्ति (बन सकता है )

    विषयी जीवन की तुलना खुजली दूर करने हेतु दो हाथों को रगड़ने से की गई है।

    गृहमेथीअर्थात्‌ तथाकथित गृहस्थ जिन्हें कोई आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, सोचते हैं कि यह खुजलानासर्वोत्कृष्ट सुख है, यद्यपि वास्तव में यह दुख का मूल है।

    कृपण जो ब्राह्मणों से सर्वथा विपरीतहोते हैं, बारम्बार ऐन्द्रिय भोग करने पर भी तुष्ट नहीं होते।

    किन्तु जो धीर हैं और इस खुजलाहटको सह लेते हैं उन्हें मूखों तथा धूर्तो जैसे कष्ट नहीं सहने पड़ते।

    "

    मौनब्रतश्रुततपो ध्ययनस्वधर्म -व्याख्यारहोजपसमाधय आपवर्ग्या: ।

    प्राय: पर पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणांवार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम्‌ ॥

    ४६ ॥

    मौन--चुप्पी; ब्रत--ब्रत; श्रुत--वैदिक ज्ञान; तपः--तपस्या; अध्ययन--शास्त्र का अध्ययन; स्व-धर्म--वर्णाश्रम धर्म कापालन; व्याख्या--शास्त्रों की विवेचना; रहः--एकान्त स्थान में रहना; जप--कीर्तन अथवा मंत्रों का उच्चारण; समाधय:--समाधि में रहना; आपवर्ग्या:--मोशक्ष मार्ग में प्रगति करने के लिए किये जाने वाले दस प्रकार के कार्य; प्रायः--सामान्यतया;परम्‌ू--एकमात्र साधन; पुरुष-हहे प्रभु; ते--वे सब; तु--लेकिन; अजित-इन्द्रियाणाम्‌ू--उन व्यक्तियों का जो इन्द्रियों को वशमें नहीं कर सकते; वार्ता:--जीविका; भवन्ति-- हैं; उत-- इसलिए ऐसा कहा जाता है; न--नहीं; वा--अथवा; अतन्र--इससम्बन्ध में; तु--लेकिन; दाम्भिकानाम्‌ू--मिथ्या गर्व करने वाले व्यक्तियों का।

    हे भगवन्‌, मोक्ष मार्ग के लिए दस विधियाँ संस्तुत हैं--मौन रहना, किसी से बातें न करना,ब्रत रखना, सभी प्रकार का वैदिक ज्ञान संचित करना, तपस्या करना, वेदाध्ययन करना,वर्णाश्रम धर्म के कर्तव्यों को पूरा करना, शास्त्रों की व्याख्या करना, एकान्त स्थान में रहना,मौन मंत्रोच्चार करना, समाधि में लीन रहना।

    मोक्ष की ये विभिन्न विधियाँ सामान्यतया उन लोगोंके लिए व्यापारिक अभ्यास और जीविकोपार्जन के साधन हैं जिन्होंने इन्द्रियों को जीता नहीं।

    चूँकि ऐसे लोग मिथ्या अहंकारी होते हैं अतएव हो सकता है कि ये विधियाँ सफल न भी हों।

    "

    रूपे इमे सदसती तव वेदसूष्टेबीजाड्लू राविव न चान्यदरूपकस्य ।

    युक्ता: समक्षमुभयत्र विचक्षन्ते त्वांयोगेन वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात्‌ ॥

    ४७॥

    रूपे--रूपों में; इमे--इन दो; सत्‌-असती--कार्य तथा कारण; तब--तुम्हारा; बेद-सृष्टे--वेदों में व्याख्यायित; बीज-अह्ढु रौ--बीज तथा अंकुर; इब--सदहृश; न--कभी नहीं; च-- भी; अन्यत्‌-- अन्य कोई; अरूपकस्य--बिना आकार वालेआपका; युक्ता:--आपकी भक्ति में लीन; समक्षम्‌-- आँखों के सामने; उभयत्र--दोनों तरह से ( आध्यात्मिक तथा भौतिक रीति से ); विचक्षन्ते--वास्तव में देख सकते हैं; त्वामू--तुमको; योगेन--केवल भक्ति के द्वारा; वहिम्‌--आग; इब--सहश;दारुषु--काठ में; न--नहीं; अन्यत:--अन्य किसी विधि से; स्थातू--सम्भव है।

    प्रामाणिक वैदिक ज्ञान द्वारा मनुष्य यह देख सकता है कि विराट जगत में कार्य तथा कारणके रूप भगवान्‌ के ही हैं, क्योंकि यह विराट जगत उन की शक्ति है।

    कार्य तथा कारण दोनों हीभगवान्‌ की शक्तियों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।

    अतएव हे प्रभु, जिस तरह कोई चतुरमनुष्य कार्य-कारण पर विचार करते हुए यह देख सकता है कि अग्नि किस तरह काठ में व्याप्तहै उसी तरह भक्ति में लगे हुए व्यक्ति समझ सकते हैं कि आप किस प्रकार से कार्य तथा कारणदोनों ही हैं।

    "

    त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बु मात्रा:प्राणेन्द्रियाणि हृदयं चिदनुग्रहश्च ।

    सर्व त्वमेव सगुणो विगुणश्र भूमन्‌नान्यत्त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम्‌ ॥

    ४८ ॥

    त्वमू--तुम ( हो ); वायु;:--वायु; अग्नि:-- अग्नि; अवनि:-- पृथ्वी; वियत्‌-- आकाश; अम्बु--जल; मात्रा:--इन्द्रियविषय;प्राण--प्राणवायु; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; हृदयम्‌--मन; चित्‌ू--चेतना; अनुग्रह: च--तथा मिथ्या अहंकार या देवता; सर्वम्‌--हरवस्तु; त्वम्‌ू--तुम; एब--एकमात्र; स-गुण:--तीन गुणों से युक्त प्रकृति; विगुण:--आध्यात्मिक स्फुलिंग तथा परमात्मा जो भौतिक प्रकृति से परे हैं; च--तथा; भूमन्‌--हे भगवान्‌; न--नहीं; अन्यत्‌--दूसरा; त्वत्‌--तुम्हारी अपेक्षा; अस्ति--है;अपि--यद्यपि; मन:-वचसा--मन तथा वाणी से; निरुक्तम्‌--प्रत्येक प्रकट वस्तुहे परमेश्वर, आप वास्तव में वायु, भूमि, अग्नि, आकाश तथा जल हैं।

    आप तन्मात्राएँ,प्राणवायु, पाँचों इन्द्रियाँ, मन, चेतना तथा मिथ्या अहंकार हैं।

    निस्सन्देह, आप स्थूल तथा सूक्ष्महर वस्तु हैं।

    भौतिक तत्त्व तथा शब्दों या मन से व्यक्त प्रत्येक वस्तु आपके अतिरिक्त अन्य कुछनहीं है।

    "

    नैते गुणा न गुणिनो महदादयो येसर्वे मनः प्रभूतय: सहदेवमर्त्या: ।

    आद्चन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वा-मेवं विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात्‌ ॥

    ४९॥

    न--न तो; एते--ये सब; गुणा:--प्रकृति के तीन गुण; न--न तो; गुणिन: --तीन गुणों के अधिष्ठाता देव ( यथा ब्रह्मा रजोगुणके प्रधान देव हैं तथा शिव तमोगुण के ); महत्‌-आदय:--पाँच तत्त्व, इन्द्रियाँ तथा तन्मात्राएँ; ये--जो; सर्वे--सभी; मन:--मन; प्रभूतयः --इत्यादि; सह-देव-मर्त्या:--देवताओं तथा मर्त्य मनुष्यों सहित; आदि-अन्त-वन्तः--जिनका आदि तथा अन्त है;उरुगाय--सभी साधु पुरुषों द्वारा महिमा-मण्डित होने वाले हे परमेश्वर; विदन्ति--समझतेहैं; हि--निस्सन्देह; त्वाम्‌--तुमको;एवम्‌--इस प्रकार; विमृश्य--विचार करके; सुधिय:--सारे बुद्धिमान पुरुष; विरमन्ति--रुक जाते हैं; शब्दात्‌--वेदों काअध्ययन करने या समझने से।

    न तो प्रकृति के तीन गुण ( सतो, रजो तथा तमो ), न इन तीनों गुणों के नियामक अधिष्ठातादेव, न पाँच स्थूल तत्त्व, न मन, न देवता, न मनुष्य ही आपको समझ सकते हैं, क्योंकि ये सभीजन्म तथा संहार के वशीभूत रहते हैं।

    ऐसा विचार करके आध्यात्मिक दृष्टि से प्रगत व्यक्ति भक्ति करने लगे हैं।

    ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति वैदिक अध्ययन की परवाह नहीं करते, निस्सन्देह वेव्यावहारिक भक्ति में अपने आपको लगाते हैं।

    "

    तत्तेईत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजा:कर्म स्मृतिश्चरणयो: श्रवणं कथायाम्‌ ।

    संसेवया त्वयि विनेति षडड़या किभक्ति जन: परमहंसगतौ लभेत ॥

    ५०॥

    तत्‌--अतएव; ते--तुम्हारा; अर्हत्‌-तम-हे सर्वश्रेष्ठ पूज्य; नम:--नमस्कार; स्तुति-कर्म-पूजा: --प्रार्थना तथा अन्य भक्ति कार्योसे भगवान्‌ की पूजा करना; कर्म--आपको समर्पित कर्म; स्मृति:ः--निरन्तर स्मरण; चरणयो: --चरणकमलों का; श्रवणम्‌--निरन्तर सुनना; कथायाम्‌--( आपकी ) कथाओं का; संसेवया--ऐसी भक्ति; त्वयि--तुम में; विना--रहित; इति--इस प्रकार;घट्‌-अड्डया--छह अंगों वाला; किमू-कैसे; भक्तिमू-- भक्ति को; जन:--व्यक्ति; परमहंस-गतौ--परम हंस द्वारा प्राप्त;लभेत--प्राप्त कर सकता है।

    अतएव हे श्रेष्ठठम पूज्य भगवान्‌, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि षडंग भक्तिकिये बिना परमहंस को प्राप्त होने वाला लाभ भला कौन प्राप्त कर सकता है?

    षडंग भक्ति केअंग हैं-- प्रार्थना करना, समस्त कर्म फलों को भगवान्‌ को समर्पित करना, पूजा करना, आपकेनिमित्त कर्म करना, आपके चरणकमलों को सदैव स्मरण करना तथा आपके यश का श्रवणकरना।

    "

    श्रीनारद उवाचएतावद्वर्णितगुणो भक्त्या भक्तेन निर्गुण: ।

    प्रह्मादं प्रणतं प्रीतो यतमन्युरभाषत ॥

    ५१॥

    श्री-नारदः उवाच-- श्री नारद ने कहा; एतावत्‌--यहाँ तक; वर्णित--वर्णन किया गया; गुण:--दिव्य गुण; भक्त्या--भक्ति से;भक्तेन--भक्त ( प्रह्नाद महाराज ) द्वारा; निर्गुण:--दिव्य भगवान्‌; प्रह्नदम्‌--प्रह्माद महाराज को; प्रणतम्‌-- भगवान्‌ केचरणकमलों की शरण में आया हुआ; प्रीत:--प्रसन्न होकर; यत-मन्यु:--क्रोध को वश में करके; अभाषत--इस प्रकार बोलनेलगे

    महान्‌ ऋषि नारद ने कहा : इस प्रकार अपने भक्त प्रह्मद महाराज द्वारा दिव्य पद से प्रार्थनाकिये जाने पर भगवान्‌ नृसिंह देव शान्त हो गये।

    उन्होंने अपना क्रोध त्याग दिया और दण्डवत्‌प्रणाम करने वाले प्रह्नाद पर अत्यधिक दयालु होने के कारण उनसे इस प्रकार बोले।

    "

    श्रीभगवानुवाचप्रह्मद भद्र भद्रं ते प्रीतोहं तेडसुरोत्तम ।

    वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोस्म्यहं नृणाम्‌ ॥

    ५२॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; प्रह्मद--हे प्रह्माद; भद्र--तुम इतने सौम्य हो; भद्रमू-- कल्याण हो; ते--तुम्हारा;प्रीत:ः--प्रसन्न; अहम्‌--मैं ( हूँ ); ते--तुम्हारा; असुर-उत्तम--हे असुर वंश ( नास्तिकों ) में श्रेष्ठ भक्त; वरमू-- आशीर्वाद;वृणीष्व--( मुझसे ) माँग लो; अभिमतम्‌--वांछित; काम-पूर:--हर एक की इच्छा पूरी करने वाला; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं;नृणाम्‌--सारे मनुष्यों का

    श्री भगवान्‌ ने कहा : हे सौम्य प्रह्द, हे असुरोत्तम, तुम्हारा कल्याण हो।

    मैं तुमसे अतिप्रसन्न हूँ।

    मैं हर जीव की इच्छा पूर्ण करना मेरी लीला है; इसलिए तुम मुझसे कोई मनोवाड्छितवर माँग सकते हो।

    "

    मामप्रीणत आयुष्मन्दर्शन॑ दुर्लभं हि मे ।

    इष्टा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमहति ॥

    ५३॥

    मामू--मुझको; अप्रीणतः--बिना प्रसन्न किये; आयुष्मन्‌--हे दीर्घजीवी प्रह्नाद; दर्शनम्‌--दर्शन; दुर्लभभ्‌ू--कभी -क भी; हि--निस्सन्देह; मे--मेरा; हृष्ठा--देख कर; माम्‌--मुझको; न--नहीं; पुन:--फिर; जन्तु:--जीव; आत्मानम्‌--अपने लिए;तप्तुमू--पछताने के लिए; अर्हति--पात्र है, योग्य है।

    हे प्रह्मद, तुम दीर्घजीवी होओ, मुझे प्रसन्न किये बिना कोई न तो मुझे जान सकता है, न मेरेमहत्त्व को समझ सकता है, किन्तु जिसने मेरा दर्शन कर लिया है या मुझे प्रसन्न कर लिया है उसेअपनी तुष्टि के लिए पछताना नहीं पड़ता।

    "

    प्रीणन्ति हाथ मां धीरा: सर्वभावेन साधव: ।

    श्रेयस्कामा महाभाग सर्वासामाशिषां पतिम्‌ ॥

    ५४॥

    प्रीणन्ति--प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं; हि--निस्सन्देह; अथ--इसके कारण; माम्‌--मुझको; धीरा:--जो गम्भीर तथाबुद्धिमान हैं; सर्व-भावेन--सभी प्रकार से, भक्ति के विभिन्न भावों से; साधव:--सदाचारी पुरुष ( सभी प्रकारसे पूर्ण ); श्रेयस्‌-कामाः--जीवन में श्रेष्ठ लाभ की इच्छा करने वाले; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; सर्वासामू--समस्त; आशिषाम्‌--आशीर्वादों के; पतिम्‌-स्वामी को ( मुझको )॥

    हे प्रहाद, तुम अत्यन्त भाग्यशाली हो।

    तुम मुझसे यह जान लो कि जो अत्यन्त चतुर तथाऊपर उठे हुए हैं, वे सभी विभिन्न भावों द्वारा मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं, क्योंकि मैं हीऐसा व्यक्ति हूँ जो हर एक की सारी इच्छाओं को पूरा कर सकता हूँ।

    "

    श्रीनारद उवाचएवं प्रलोभ्यमानोपि वरैलॉकप्रलोभनै: ।

    एकान्तित्वाद्धगवति नैच्छत्तानसुरोत्तम: ॥

    ५५॥

    श्री-नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; प्रलोभ्यमान:--लुभाया जाकर; अपि--यद्यपि; वरैः --आशीषों से;लोक--जगत को; प्रलोभनैः--विभिन्न प्रकार के लोभों से; एकान्तित्वात्‌-पूर्ण समर्पण करने के कारण; भगवति-- भगवान्‌में; न ऐच्छत्‌--नहीं चाहा; तानू--उन आशीर्वादों को; असुर-उत्तम:--असुरों के परिवार में श्रेष्ठ प्रह्मद महाराज ने |

    नारद मुनि ने कहा : प्रह्मद महाराज भौतिक सुख की सदा कामना करने वाले असुरकुल केसर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं।

    यद्यपि भगवान्‌ ने उन्हें भौतिक सुख के लिए सभी वरदान दिए थे और वे उन्हेंप्रलोभन दे रहे थे फिर भी अपनी अनन्य कृष्ण-भक्ति के कारण उन्होंने इन्द्रिय-तृप्ति के लिएकोई भी भौतिक लाभ स्वीकार करना पसन्द नहीं किया।

    "

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    अध्याय दस: प्रह्लाद, श्रेष्ठ भक्तों में सर्वश्रेष्ठ

    7.10श्रीनारद उवाचभक्तियोगस्य तत्सर्वमन्तरायतयार्भक: ।

    मन्यमानो हषीकेशंस्मयमान उवाच ह ॥

    १॥

    श्री-नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; भक्ति-योगस्य--भक्ति के नियमों का; तत्‌--वे ( नृसिंहदेव द्वारा दिये गये वर );सर्वमू--उनमें से प्रत्येक; अन्तरायतया--अवरोध के होने से ( भक्तियोग के पथ पर ); अर्भक:--बालक रूप प्रह्मद महाराज;मन्यमान:--मानते हुए; हषीकेशम्‌--नृसिंहदेव को; स्मयमान: --मुसकाते हुए; उवाच--कहा; ह-- भूतकाल का सूचक |

    नारद मुनि ने आगे कहा : यद्यपि प्रह्ाद महाराज बालक थे किन्तु जब उन्होंने नूसिंहदेव द्वारादिये गये बरों को सुना तो उन्होंने इन्हें भक्ति के मार्ग में अवरोध समझा।

    तब वे विनीत भाव सेमुसकाये और इस तरह बोले।

    "

    श्रीप्रह्दाद उवाचमा मां प्रलोभयोत्पत्त्या सक्तंकामेषु तेवर: ।

    तत्सड़भीतो निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामुपाअ्रित: ॥

    २॥

    श्री-प्रह्दाद: उबाच--प्रह्द महाराज ने ( भगवान्‌ से ) कहा; मा--मत; माम्‌--मुझको; प्रलोभय--लालच दीजिए; उत्पत्त्या--मेरे जन्म के कारण ( असुर कुल में ); सक्तम्‌--( मैं पहले से ही ) अनुरक्त; कामेषु-- भौतिक भोग में; तैः--उन सभी; वरै:--भौतिक सम्पत्ति के वरों द्वारा; तत्‌ू-सड्र-भीतः--ऐसी भौतिक संगति से डर कर; निर्विण्णग:-- भौतिक इच्छाओं से पूर्णतयाविरक्त होकर; मुमुक्षुः--भौतिक जीवन से मुक्त होने का इच्छुक; त्वामू--आपके चरणकमलों में; उपाश्रित:--मैंने शरण ले लीहै।

    प्रह्ाद महाराज ने आगे कहा : हे प्रभु, हे भगवान्‌, नास्तिक परिवार में जन्म लेने के कारणमैं स्वभावत: भौतिक भोग के प्रति अनुरक्त हूँ; अतएव आप मुझे इन मोहों से मत ललचाइये।

    मैंभौतिक दशाओं से अत्यधिक भयभीत हूँ और भौतिकतावादी जीवन से मुक्त होने का इच्छुक हूँ।

    यही कारण है कि मैंने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है।

    "

    भृत्यलक्षणजिज्ञासुर्भक्त कामेष्वबचोदयत्‌ ।

    भवान्संसारबीजेषु हृदयग्रन्थिषु प्रभो ॥

    ३॥

    भृत्य-लक्षण-जिज्ञासु:--शुद्ध भक्त के लक्षण प्रकट करने का इच्छुक; भक्तम्‌-- भक्त को; कामेषु-- भौतिक जगत में, जहाँकामेच्छाएँ प्रधान हैं; अचोदयत्‌-- भेजा; भवान्‌-- आपने; संसार-बीजेषु--इस जगत में उपस्थित रहने का मूल कारण; हृदय-ग्रन्थिपु--( भौतिक सुख की इच्छाएं ) जो समस्त बद्धजीवों के हृदयों के भीतर हैं; प्रभो--हे पूज्य भगवान्‌

    हे मेरे अराध्य देव, चूँकि हर एक के हृदय में भौतिक संसार के मूल कारण कामेच्छाओं काबीज रहता है, अतएव आपने मुझे इस भौतिक जगत में शुद्ध भक्त के लक्षण प्रकट करने केलिए भेजा है।

    "

    नान्यथा तेडखिलगुरो घटेत करुणात्मन: ।

    यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्य: स वै वणिक्‌ ॥

    ४॥

    न--नहीं; अन्यथा--और कुछ; ते--तुम्हारा; अखिल-गुरो--हे समस्त सृष्टि के परम शिक्षक; घटेत--ऐसा हो सकता है;'करुणा-आत्मन:--परम पुरुष जो अपने भक्तों पर अत्यन्त दयालु हैं; यः--जो व्यक्ति; ते--तुमसे; आशिष:-- भौतिक लाभ;आशास्ते--इच्छा करता है ( आपकी सेवा करने के बदले में ); न--नहीं; सः--ऐसा व्यक्ति; भृत्यः:--सेवक; सः--ऐसा व्यक्ति;वै--निस्सन्देह; वणिक्‌--व्यापारी ( जो अपने व्यापार से लाभ उठाना चाहता है )।

    अन्यथा हे भगवान्‌, हे समस्त जगत के परम शिक्षक, आप अपने इस भक्त के प्रति इतनेदयालु हैं कि आपने उससे कुछ भी ऐसा करने को प्रेरित नहीं किया जो उसके लिए अलाभकारीहो।

    दूसरी ओर, जो व्यक्ति आपकी भक्ति के बदले में कुछ भौतिक लाभ चाहता है, वह आपकाशुद्ध भक्त नहीं हो सकता।

    वह उस व्यापारी की तरह ही है, जो सेवा के बदले में लाभ चाहताहै।

    "

    आशासानो न वै भृत्य: स्वामिन्याशिष आत्मन: ।

    न स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन्यो राति चाशिष: ॥

    ५॥

    आशासान:--( सेवा के बदले ) इच्छाएँ रखने वाला व्यक्ति; न--नहीं; बै--निस्सन्देह; भृत्य:--योग्य सेवक या भगवान्‌ काशुद्ध भक्त; स्वामिनि--स्वामी से; आशिष:--भौतिक लाभ; आत्मन:--अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए; न--न तो; स्वामी--स्वामी, प्रभु; भृत्यतः--सेवक से; स्वाम्यम्‌--स्वामी होने के श्रेष्ठ पद से; इच्छन्‌--चाहते हुए; यः--ऐसा स्वामी जो; राति--प्रदान करता है; च-- भी; आशिष:-- भौतिक लाभ ।

    जो सेवक अपने स्वामी से भौतिक लाभ की इच्छा रखता है, वह निश्चय ही योग्य सेवक याशुद्ध भक्त नहीं है।

    इसी प्रकार जो स्वामी अपने सेवक को इसलिए आशीष देता है कि स्वामी केरूप में उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे, वह भी शुद्ध स्वामी नहीं है।

    "

    अहं त्वकामस्‍स्त्वद्धक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रय: ।

    नान्यथेहावयोरथों राजगसेवकयोरिव ॥

    ६॥

    अहम्‌--जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है; तु--निस्सन्देह; अकाम:--निष्काम; त्वत्‌-भक्त:--निष्काम भाव से आपके प्रति पूर्णतयाआसक्त; त्वम्‌ च--आप भी; स्वामी--असली मालिक; अनपाश्रय: --निष्काम भाव से ( सकाम होने पर आप स्वामी नहीं बनसकते ); न--नहीं; अन्यथा--सेवक-सेव्य जैसे सम्बन्ध के बिना; उहह--यहाँ; आवयो: --हमारा; अर्थ:--किसी स्वार्थ के ( भगवान्‌ शुद्ध स्वामी हैं और प्रह्मद महाराज निःस्वार्थ शुद्ध भक्त हैं ); राज--राजा; सेवकयो:--तथा सेवक के; इब--सदृश( जिस तरह राजा सेवक के लाभ हेतु कर लेता है या जनता राजा हेतु कर देती है )॥

    हे प्रभु, मैं आपका निःस्वार्थ सेवक हूँ और आप मेरे नित्य स्वामी हैं।

    सेवक तथा स्वामी होनेके अतिरिक्त हमें कुछ भी नहीं चाहिए।

    आप प्राकृतिक रूप से मेरे स्वामी हैं और मैं आपकासेवक हूँ।

    हम दोनों में कोई अन्य सम्बन्ध नहीं है।

    "

    यदि दास्यसि मे कामान्वरांस्त्वं वरदर्षभ ।

    कामानां हद्यसंरोह भवतस्तु वृणे वरम्‌ ॥

    ७॥

    यदि--यदि; दास्यसि--देना चाहते हैं; मे--मुझको; कामान्‌ू--इच्छित वस्तु; वरान्‌ू--अपने आशीर्वाद के रूप में; त्वमू--तुम;वरद-ऋषभ--हे भगवान्‌ आप कोई भी वर दे सकते हैं; कामानाम्‌ू-- भौतिक सुख की सारी इच्छाओं का; हदि--अपने हृदय केभीतर; असंरोहम्‌--वृद्धि का न होना; भव त:--आपसे; तु--तब; वृणे-- प्रार्थना करता हूँ; वरम्‌ू-- ऐसे वरदान के लिए

    हे सर्वश्रेष्ठ वरदाता स्वामी, यदि आप मुझे कोई वांछित वर देना ही चाहते हैं, तो मेरी आपसेप्रार्थना है कि मेरे हृदय में किसी प्रकार की भौतिक इच्छाएँ न रहें।

    "

    इन्द्रियाणि मन: प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मति: ।

    हीः श्रीस्तेज: स्मृति: सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना ॥

    ८॥

    इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; मनः--मन; प्राण: -- प्राण; आत्मा--शरीर; धर्म:--धर्म; धृतिः --धैर्य; मतिः --बुद्द्धि; ही: --लज्जा;श्री:--ऐश्वर्य; तेज:--बल; स्मृतिः--स्मरण शक्ति; सत्यम्‌ू--सत्य; यस्य--जिसकी कामेच्छाएँ; नश्यन्ति--विनष्ट हो जाती हैं;जन्मना--जन्म से ही।

    हे भगवान्‌, जन्म काल से ही कामेच्छाओं के कारण मनुष्य की इन्द्रियों के कार्य, मन,जीवन, शरीर, धर्म, थैर्य, बुद्धि, लज्जा, ऐश्वर्य, बल, स्मृति तथा सत्यनिष्ठा समाप्त हो जाते हैं।

    "

    विमुज्ञति यदा कामान्मानवो मनसि स्थितान्‌ ।

    तहोंव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते ॥

    ९॥

    विमुञ्नति--छोड़ देता है; यदा--जब भी; कामान्‌--समस्त भौतिक इच्छाओं को; मानवः--मानव समाज; मनसि--मन केभीतर; स्थितान्‌ू--स्थित; तहि--तभी; एब--निस्सन्देह; पुण्डकीक-अक्ष--हे कमलनयन भगवान्‌; भगवत्त्वाय--भगवान्‌ केसमान ही ऐश्वर्यवान होने का; कल्पते--पात्र बनता है।

    हे प्रभु, जब मनुष्य अपने मन से सारी भौतिक इच्छाएँ निकालने में सक्षम हो जाता है, तोवह आपके ही समान सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य का पात्र बन जाता है।

    "

    » नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने ।

    हरयेद्धुतसिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने ॥

    १०॥

    ४७--हे भगवान्‌; नमः --मैं नमस्कार करता हूँ; भगवते--परम पुरुष को; तुभ्यम्‌--तुम्हें; पुरुषाय--परम पुरुष को; महा-आत्मने--परमात्मा को; हरये--भक्तों के समस्त दुखों को हरने वाले भगवान्‌ को; अद्भुत-सिंहाय--आपके अद्भुत सिंह रूपनृसिंहदेव को; ब्रह्मणे -- परब्रह्म को; परम-आत्मने--परमात्मा को |

    हे षड्ऐश्वर्यवान्‌ प्रभु, हे परम पुरुष, हे परमात्मा, हे समस्त दुखों के विनाशक, हे अद्भुतनृसिंह रूप में परम पुरुष, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    "

    श्रीभगवानुवाचनैकान्तिनो मे मयि जात्विहाशिषआशासतेअमुत्र च ये भवद्विधा: ।

    तथापि मन्वन्तरमेतदत्रदैत्येश्वराणामनुभुड्छ््व भोगान्‌ ॥

    ११॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; न--नहीं; एकान्तिन: --अनन्य भक्ति के अतिरिक्त और किसी इच्छा से विहीन; मे--मुझसे; मयि-- मुझमें ; जातु-- किसी समय; इह--इस संसार में; आशिष: --वरदान; आशासते--आन्तरिक इच्छा; अमुत्र--अगले जीवन में; च--तथा; ये--जो भक्त; भवत्‌-विधा:--आपकी तरह; तथापि--फिर भी; मन्वन्तरम्‌--एक मनु की आयुतक; एतत्‌-- यह; अत्र--इस संसार में; दैत्य-ई श्वरराणाम्‌ू-- भौतिकतावादी मनुष्यों के ऐश्वर्यों का; अनुभुड्क्व-- भोग कर सकतेहो; भोगान्‌ू--सभी भौतिक ऐश्वर्यों को

    भगवान्‌ ने कहा : हे प्रिय प्रह्माद, तुम जैसा भक्त न तो इस जीवन में, न ही अगले जीवन मेंकिसी प्रकार के भौतिक ऐश्वर्य की कामना करता है।

    तो भी मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम इसमन्वन्तर तक असुरों के राजा के रूप में इस भौतिक जगत में उनके ऐश्वर्य का भोग करो।

    "

    कथा मदीया जुषमाण: प्रियास्त्व-मावेश्य मामात्मनि सन्तमेकम्‌ ।

    सर्वेषु भूतेष्वधियज्ञमीशंयजस्व योगेन च कर्म हिन्बन्‌ ॥

    १२॥

    कथा: --सन्देश या उपदेश; मदीया: --मेरे द्वारा प्रदत्त; जुषमाण:--सदैव सुनकर या विचार करके; प्रिया:--अत्यन्त प्रिय;त्वम्‌--तुम; आवेश्य--पूर्णतया लीन होकर; माम्‌--मुझको; आत्मनि--अपने हृदय में; सनन्‍्तम्‌--विद्यमान रहकर; एकम्‌--एक ( वही परमात्मा ); सर्वेषु--समस्त; भूतेषु--जीवों में; अधियज्ञम्‌--समस्त कर्मकाण्डों के भोक्ता; ईशम्‌--परमे श्वर को;यजस्व--पूजो; योगेन--भक्ति योग द्वारा; च-- भी; कर्म--सकाम कर्म; हिन्वनू--त्यागकर।

    भले ही तुम इस भौतिक जगत में ही क्‍यों न रहो, लेकिन तुम्हें निरन्तर मेरे उपदेशों तथावचनों को सुनना चाहिए और मेरे ही विचार में लीन रहना चाहिए, क्योंकि मैं हर एक के हृदयमें परमात्मा रूप में निवास करता हूँ।

    अतएवं तुम सकाम कर्मों का परित्याग करके मेरी पूजाकरो।

    "

    भोगेन पुण्यं कुशलेन पाप॑ंकलेवर कालजवेन हित्वा ।

    कीर्ति विशुद्धां सुरलोकगीतांविताय मामेष्यसि मुक्तबन्ध: ॥

    १३॥

    भोगेन--भौतिक सुख की अनुभूतियों से; पुण्यम्‌--पुण्य कर्म या उनके काम; कुशलेन--पवित्रतापूर्वक कर्म करके ( समस्तपवित्र कर्मों में भक्ति सर्वश्रेष्ठ है ); पापम्‌--अपवित्र कार्यों के सभी प्रकार के फल; कलेवरम्‌--शरीर; काल-जवेन--शक्तिशाली काल द्वारा; हित्वा--त्याग कर; कीर्तिम्‌ू--कीर्ति, ख्याति; विशुद्धाम्‌-दिव्य या पूर्णतया शुद्ध; सुर-लोक-गीताम्‌--स्वर्ग में भी प्रशंसित; विताय--सारे ब्रह्माण्ड में विस्तार करके; माम्‌--मुझ तक; एष्यसि--वापस आओगे; मुक्त-बन्ध:--बन्धन से मुक्त होकर

    हे प्रहाद, इस भौतिक जगत में रहते हुए तुम सुख का अनुभव करके अपने पुण्यकर्म से सारेफलों को समाप्त कर सकोगे और पुण्यकर्म करके पापकर्मों को विनष्ट कर दोगे।

    शक्तिशालीकाल के कारण तुम अपना शरीर-त्याग करोगे, किन्तु तुम्हारे कार्यों की ख्याति का गुणगानस्वर्गलोक तक में होगा।

    तुम बन्धनों से मुक्त होकर भगवद्धाम को लौट सकोगे।

    "

    य एतत्कीर्तयेन्मह् त्ववा गीतमिदं नरः ।

    त्वां च मां च स्मरन्‍्काले कर्मबन्धात्प्रमुच्यते ॥

    १४॥

    यः--जो कोई; एतत्‌--यह कार्य ; कीर्तयेत्‌ू--कीर्तन करता है; महामम्‌--मुझको; त्वया-- तुम्हारे द्वारा; गीतम्‌--प्रार्थना की गई;इदम्‌--यह; नरः--मनुष्य; त्वामू--तुमको; च-- भी; माम्‌ च--मुझको भी; स्मरन्‌--स्मरण करते हुए; काले--कालान्तर में;कर्म-बन्धातू-कर्म के बन्धन से; प्रमुच्यते--छूट जाता है।

    जो व्यक्ति तुम्हारे तथा मेरे कार्यो का सदैव स्मरण करता है और तुम्हारे द्वारा की गईप्रार्थनाओं का कीर्तन करता है, वह कालान्तर में भौतिक कर्म-फलों से मुक्त हो जाता है।

    "

    श्रीप्रह्दाद उवाचवर वरय एतत्ते वरदेशान्महेश्वर ।

    यदनिन्दत्पिता मे त्वामदिद्वांस्तेज ऐश्वरम्‌ू ॥

    १५॥

    विद्धामर्षाशयः साक्षात्सर्वलोकगुरुं प्रभुम्‌ ।

    भ्रातृहेति मृषाहृष्टिस्त्वद्धक्ते मयि चाघवान्‌ ॥

    १६॥

    तस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताहुस्तरादघात्‌ ।

    पूतस्तेपाड्रसंदृष्टस्तदा कृपणवत्सल ॥

    १७॥

    श्री-प्रह्माद: उवाच--प्रह्माद महाराज ने कहा; वरम्‌--आशीर्वाद; वरये--माँगता हूँ; एतत्‌--यह; ते-- आपसे; वरद-ईशात्‌--जोब्रह्मा तथा शिव देवताओं को भी वर प्रदान करते हैं ऐसे ईश्वर से; महा-ईश्वर--हे परमेश्वर; यत्‌--उस; अनिन्दत्‌--निन्‍्दा की;पिता--पिता ने; मे--मेरे; त्वामू--आपकी; अविद्वानू--ज्ञान-विहीन; तेज:--बल; ऐश्वरम्‌-- श्रेष्ठठा; विद्ध--दूषित होकर;अमर्ष--क्रोध में; आशय: --हृदय के भीतर; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; सर्व-लोक-गुरुम्‌--समस्त जीवों के परम गुरु को; प्रभुम्‌--परम स्वामी को; भ्रातृ-ह--उसके भाई की हत्या करने वाला; इति--इस प्रकार; मृषा-दृष्टि:--मिथ्या बोध के कारण ईर्ष्यालु;त्वतू-भक्ते--आपके भक्त; मयि--मुझमें; च--तथा; अघ-वान्‌--घोर पाप करने वाला; तस्मात्‌--उससे; पिता--पिता; मे--मेरा; पूयेत--शुद्ध हो जावे; दुरन्‍्तातू--महान्‌; दुस्तरात्‌ू--दुस्तर; अघात्‌--समस्त पापकर्मों से; पूत:--पवित्र हुआ ( यद्यपि वहथा ); ते--तुम्हारी; अपाड्ु--चितवन से; संदृष्ट: --देखा जाकर; तदा--उस समय; कृपण-बत्सल--हे भौतिकतावादी परदयालु।

    प्रह्माद महाराज ने कहा : हे परमेश्वर, चूँकि आप पतितात्माओं पर इतने दयालु हैं अतएव मैंआपसे एक ही वर माँगता हूँ।

    मैं जानता हूँ कि आपने मेरे पिता की मृत्यु के समय अपनीकृपादृष्टि डालकर उन्हें पवित्र बना दिया था, किन्तु वे आपकी शक्ति तथा श्रेष्ठता से अनजान होनेके कारण आप पर मिथ्या ही यह सोचकर क्रुद्ध थे कि आप उनके भाई को मारने वाले हैं।

    इसतरह उन्होंने समस्त जीवों के गुरु आपकी प्रत्यक्ष निन्दा की थी और आपको भक्त अर्थात्‌ मेरेऊपर जघन्य पातक किये थे।

    मेरी इच्छा है कि उन्हें इन पापों के लिए क्षमा कर दिया जाये।

    "

    श्रीभगवानुवाचत्रिःसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेडनघ ।

    यत्साधोस्य कुले जातो भवान्वै कुलपावन: ॥

    १८॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; त्रिः-सप्तभि:--सात गुणित तीन अर्थात्‌ इक्कीस; पिता--पिता; पूतः--पतवित्र;पितृभि:--तुम्हारे पुरखों सहित; सह--सभी एकसाथ; ते--तुम्हारा; अनघ-हे निष्पाप व्यक्ति ( प्रहाद महाराज ); यत्‌--चूँकि;साधो--हे परम साधु पुरुष; अस्य--इस व्यक्ति के; कुले--वंश में; जात:--जन्म लिया; भवानू--तुमने; वै--निस्सन्देह; कुल-पावन:--पूरे वंश को पवित्र करनेवाले।

    भगवान्‌ ने कहा : हे परम पवित्र, साधु पुरुष, तुम्हारे पिता तुम्हारे परिवार के इक्कीस पुरखोंसहित पवित्र कर दिये गये हैं।

    चूँकि तुम इस परिवार में उत्पन्न हुए थे, अतएवं सारा कुल पवित्रहो गया।

    "

    यत्र यत्र च मद्धक्ता: प्रशान्ता: समदर्शिनः ॥

    साधव: समुदाचारास्ते पूयन्तेषपि कीकटा: ॥

    १९॥

    यत्र यत्र--जहाँ-जहाँ; च-- भी; मत्‌-भक्ता: --मेरे भक्त; प्रशान्ता:--अत्यन्त शान्त; सम-दर्शिन:--सबों को समभाव से देखनेवाले; साधव:--समस्त सदगुणों से युक्त; समुदाचारा:--समान रूप से उदार; ते--वे सभी; पूयन्ते--पतवित्र हो जाते हैं; अपि--भी; कीकटा:--पतित देश या उसके वासी |

    जहाँ कहीं भी सदाचारी तथा सद्गुणसम्पन्न, शान्त एवं समदर्शी भक्त होते हैं वह देश तथापरिवार भले ही गर्हित क्‍यों न हो, पवित्र हो जाते हैं।

    "

    सर्वात्मना न हिंसन्ति भूतग्रामेषु किज्न ।

    उच्चावचेषु दैत्येन्द्र मद्भावविगतस्पृहा: ॥

    २०॥

    सर्व-आत्मना--सभी प्रकार से, यहाँ तक कि क्रोध तथा ईर्ष्या से युक्त; न--कभी नहीं; हिंसन्ति--ईर्ष्या करते हैं; भूत-ग्रामेषु--समस्त योनियों में; किज्लन--इनमें से किसी के प्रति; उच्च-अवचेषु--ऊँच-नीच जीवों में; दैत्य-इन्द्र--हे दैत्यों के राजा, प्रह्मद;मत्‌-भाव--मेरी भक्ति के कारण; विगत--त्यागा हुआ; स्पृहा:--क्रोध तथा लालच के सभी गुण।

    हे दैत्यराज प्रह्मद, मेरी भक्ति में अनुरक्त रहने के कारण मेरा भक्त उच्च तथा निम्न जीवों मेंभेद-भाव नहीं बरतता।

    सभी तरह से वह किसी से ईर्ष्या नहीं करता।

    "

    भवन्ति पुरुषा लोके मद्धक्तास्त्वामनुव्रता: ।

    भवान्मे खलु भक्तानां सर्वेषां प्रतिरूपधृकू ॥

    २१॥

    भवन्ति--हो जाते हैं; पुरुषा:--मनुष्य; लोके--इस संसार में; मत्‌-भक्ता:--मेरे शुद्ध भक्त; त्वाम्‌--तुमको; अनुव्रता: --अनुसरण करते हुए; भवान्‌--तुम; मे--मेरा; खलु--निस्सन्देह; भक्तानाम्‌ू--समस्त भक्तों का; सर्वेषाम्‌--विभिन्न रसों में;प्रतिरूप-धूक्‌ू--यथार्थ आदर्श |

    जो तुम्हारे आदर्श का अनुसरण करेंगे वे स्वभावत:ः मेरे शुद्ध भक्त हो जाएँगे।

    तुम मेरे भक्तका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हो और अन्य लोग तुम्हारे पदचिन्हों का अनुसरण करेंगे।

    "

    कुरु त्व॑ प्रेतकृत्यानि पितु: पूतस्य सर्वशः ।

    मदड़स्पर्शनेनाड़ लोकान्यास्यति सुप्रजा: ॥

    २२॥

    कुरू--सम्पन्न करो; त्वमू--तुम; प्रेत-कृत्यानि-- मृत्यु के बाद के क्रिया-कर्म; पितु:--अपने पिता के; पूतस्य--पहले ही शुद्धहुए; सर्वश:--सभी प्रकार से; मत्‌-अड्ु--मेरा शरीर; स्पर्शनेन--स्पर्श करने से; अड्र--हे बालक; लोकान्‌--लोकों को;यास्यति--जाएगा; सु-प्रजा:--भक्त-नागरिक बनने के लिए।

    मेरे बालक, तुम्हारा पिता अपनी मृत्यु के समय मेरे शरीर के स्पर्श मात्र से पहले ही पवित्र होचुका है।

    तो भी पुत्र का कर्तव्य है कि वह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ श्राद्ध-क्रिया सम्पन्नकरे जिससे उसका पिता ऐसे लोक को जा सके जहाँ वह अच्छा नागरिक तथा भक्त बन सके।

    "

    पित्रयं च स्थानमातिष्ठ यथोक्तं ब्रह्मवादिभि: ।

    मय्यावेश्य मनस्तात कुरु कर्माणि मत्पर: ॥

    २३॥

    पिन्यम्‌ू--पैतृक; च-- भी; स्थानम्‌--स्थान पर, सिंहासन पर; आतिष्ठ--बैठो; यथा-उक्तम्‌--जैसा कहा गया है;ब्रह्मवादिभि:--वैदिक सभ्यता के पालनकर्ताओं द्वारा; मयि--मुझमें; आवेश्य-- पूर्णतया लीन करके; मन:--मन को; तात--हे मेरे बालक; कुरू--सम्पन्न करो; कर्माणि--वैधानिक कार्य; मत्‌-परः--मेरे कार्य के लिए

    अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न करने के बाद तुम अपने पिता के साम्राज्य का भार सँभालो।

    तुमसिंहासन पर बैठो और भौतिक कार्यकलापों से तनिक भी विचलित मत होओ।

    तुम अपना मनमुझ पर स्थिर रखो।

    तुम शिष्टाचार के रूप में वेदों के आदेशों का उल्लंघन किये बिना अपनाविहित कार्य कर सकते हो।

    "

    श्रीनारद उवाचप्रह्मदोडपि तथा चक्रे पितुर्यत्साम्परायिकम्‌ ।

    यथाह भगवात्राजन्नभिषिक्तो द्विजातिभि: ॥

    २४॥

    श्री-नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; प्रह्मद:ः --प्रहाद महाराज; अपि-- भी; तथा--उस तरह से; चक्रे --सम्पन्न किया;पितुः--अपने पिता का; यत्‌--जो कुछ; साम्परायिकम्‌--मृत्यु के पश्चात्‌ किये जाने वाले कर्मकाण्ड; यथा--जिस तरह;आह--आज्ञा दी; भगवान्‌-- भगवान्‌; राजनू--हे राजा युधिष्टिर; अभिषिक्त:--सिंहासन पर बैठाया गया; द्वि-जातिभि:--उपस्थित ब्राह्मणों द्वारा |

    श्री नारद मुनि ने आगे कहा : भगवान्‌ की आज्ञानुसार प्रह्माद महाराज ने अपने पिता कीअन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की।

    हे राजा युधिष्ठटिर, तब उसे हिरण्यकशिपु के राजसिंहासन पर ब्राह्मणोंके निर्देशानुसार बैठाया गया।

    "

    प्रसादसुमुखं दृष्ठा ब्रह्मा नरहरिं हरिम्‌ ।

    स्तुत्वा वाग्भि: पवित्राभि: प्राह देवादिभि्वृतः ॥

    २५॥

    प्रसाद-सुमुखम्‌-- भगवान्‌ के प्रसन्न होने से जिसका मुख तेजोमय था; दृष्टा--यह दशा देखकर; ब्रह्मा--ब्रह्माजी; नर-हरिम्‌--नृसिंहदेव को; हरिम्‌-- भगवान्‌; स्तुत्वा--प्रार्थना करके; वाग्भि:--दिव्य शब्दों से; पवित्राभि:--पवित्र; प्राह-- बोले; देव-आदिभि: --अन्य देवताओं से; वृत:--घिरे हुए

    अन्य देवताओं से घिरे हुए ब्रह्मजी का मुखमण्डल चमक रहा था क्योंकि भगवान प्रसन्नथे।

    अतएव उन्होंने दिव्य शब्दों से भगवान्‌ की प्रार्थना की।

    "

    श्रीब्रह्मोवाचदेवदेवाखिलाध्यक्ष भूतभावन पूर्वज ।

    दिष्टया ते निहतः पापो लोकसन्तापनोउसुर: ॥

    २६॥

    श्री-ब्रह्म उवाच--ब्रह्माजी ने कहा; देव-देव--हे समस्त देवताओं के स्वामी; अखिल-अध्यक्ष--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी;भूत-भावन--हे समस्त जीवों के कारण; पूर्व-ज--हे आदि पुरुष; दिष्ठयया-- अपने उदाहरण से या हमारे सौभाग्य से; ते--तुम्हारेद्वारा; निहतः--मारा गया; पाप:--अत्यन्त पापी; लोक-सन्तापन:--समग्र ब्रह्माण्ड को दुख देने वाला; असुरः--हिरण्यकशिपुनामक असुर।

    ब्रह्माजी ने कहा : हे देवताओं के परम स्वामी, हे समग्र ब्रह्माण्ड के अध्यक्ष, हे समस्त जीवोंके वरदाता, हे आदि पुरुष, यह हमारा सौभाग्य है कि आपने इस पापी असुर को मार डाला जोसमग्र ब्रह्माण्ड को दुख देने वाला था।

    "

    योउसौ लब्धवरो मत्तो न वध्यो मम सृष्टिभि: ।

    तपोयोगबलोन्नद्धः समस्तनिगमानहन्‌ ॥

    २७॥

    यः--जो व्यक्ति; असौ--वह ( हिरण्यकशिपु ); लब्ध-वर:--असामान्य वर प्रदान किये जाने पर; मत्त:--मुझसे; न वध्य:--नमारा जा सकने वाला; मम सृष्टिभि:--मेरे द्वारा उत्पन्न किसी भी जीव द्वारा; तप:-योग-बल--तपस्या, योग तथा बलद्वारा;उन्नद्ध:ः--इस प्रकार से अत्यन्त गर्वित; समस्त--सारे; निगमान्‌ू--वैदिक आदेशों को; अहनू--न मानते हुए, उल्लंघन करके |

    इस असुर हिरण्यकशिपु ने मुझसे यह वरदान प्राप्त किया था कि वह मेरी सृष्टि में किसी भीजीव के द्वारा मारा नहीं जाएगा।

    इस आश्वासन के कारण तथा तपस्या और योग से प्राप्त बलद्वारा वह अत्यन्त गर्वित हो उठा और समस्त वैदिक आदेशों का उल्लंघन करने लगा।

    "

    दिष्टय्या तत्तनय: साधुर्महाभागवतोर्भकः ।

    त्वया विमोचितो मृत्योर्दिष्ठय्या त्वां समितोधुना ॥

    २८॥

    दिछ्टयया-- भाग्य से; तत्‌-तनय:--उसका पुत्र; साधु: --साधु पुरुष; महा-भागवत:ः --महान्‌ भक्त; अर्भक:--बालक होते हुए;त्वया--आपके द्वारा; विमोचित:--मुक्त किया हुआ; मृत्यो: --मृत्यु के बन्धन से; दिछ्टयया -- भाग्य से; त्वाम्‌ समितः --पूर्णतःआपकी शरण में; अधुना--इस समय |

    सौभाग्य से हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहाद अब मृत्यु से बचा लिया गया है और यद्यपि वहअभी बालक है, किन्तु है महाभागवत, अब वह पूर्णतया आपके चरणकमलों की शरण में है।

    "

    एतद्वपुस्ते भगवन्ध्यायत: परमात्मन: ।

    सर्वतो गोप्तृ सन्त्रासान्मृत्योरपि जिघांसतः ॥

    २९॥

    एतत्‌--यह; वपु:--शरीर; ते--तुम्हारा; भगवन्‌--हे भगवान्‌; ध्यायत:--जो ध्यान करते हैं; परम-आत्मन:--परम पुरुष का;सर्वतः--सभी जगह से; गोप्तृ--रक्षक; सन्त्रासातू--सभी प्रकार के भय से; मृत्यो: अपि--यहाँ तक कि मृत्यु भय से भी;जिघांसतः --यदि शत्रु भी ईर्ष्या करे।

    हे भगवान्‌, हे पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर! आप परमात्मा हैं।

    यदि कोई आपके दिव्य शरीर काध्यान करता है, आप सभी प्रकार के भय से, यहाँ तक कि आसतन्न मृत्यु-भय से भी, उसकी रक्षाकरते हैं।

    "

    श्रीभगवानुवाचमैवं विभोउ्सुराणां ते प्रदेयः पद्मसम्भव ।

    बरः क्रूरनिसर्गाणामहीनाममृतं यथा ॥

    ३०॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने ( ब्रह्मा को ) उत्तर दिया; मा--मत; एवम्‌--इस प्रकार; विभो--हे महापुरुष; असुराणाम्‌ू--असुरों के; ते--तुम्हारे द्वारा; प्रदेयः --दिया हुआ वर; पढ्य-सम्भव--हे कमल पुष्प से उत्पन्न ब्रह्माजी; वर: --वरदान; क्रूर-निसर्गाणाम्‌--जो व्यक्ति प्रकृति से अत्यन्त क्रूर तथा ईर्ष्यालु होते हैं; अहीनाम्‌ू--साँपों को; अमृतम्‌--अमृत या दूध; यथा--जिस प्रकार

    भगवान्‌ ने उत्तर दिया: हे ब्रह्मा, हे कमल पुष्प से उत्पन्न महानूप्रभु, जिस प्रकार साँप को दूधपिलाना घातक होता है उसी तरह असुरों को वर प्रदान करना घातक होता है, क्योंकि वे प्रकृतिसे क्रूर तथा ईर्ष्यालु होते हैं।

    मैं तुम्हें सचेत करता हूँ कि तुम फिर से किभी किसी असुर को ऐसाबर मत प्रदान करना।

    "

    श्रीनारद उवाचइत्युक्त्वा भगवात्राजंस्ततश्चान्तर्दधे हरि: ।

    अदृश्य: सर्वभूतानां पूजितः परमेष्ठिना ॥

    ३१॥

    श्री-नारद: उबाच--नारद मुनि ने कहा; इति उक्त्वा--ऐसा कहकर; भगवानू-- भगवान्‌; राजन्‌--हे राजा युथिष्ठटिर; ततः--उसस्थान से; च-- भी; अन्तर्दधे--अन्तर्धान हो गये; हरि: -- भगवान्‌ हरि; अदृश्य: --अदृश्य; सर्व-भूतानाम्‌--समस्त जीवों केद्वारा; पूजित:--पूजे जाकर; परमेष्ठटिना--ब्रह्मा द्वारा |

    नारद मुनि ने आगे कहा : हे राजा युधिष्ठिर, ब्रह्मा को उपदेश देते हुए सामान्य व्यक्ति को नदिखने वाले भगवान्‌ इस तरह बोले।

    तब ब्रह्मा द्वारा पूजित होकर भगवान्‌ उस स्थान से अहृश्यहो गये।

    "

    ततः सम्पूज्य शिरसा वबन्दे परमेष्ठिनम्‌ ।

    भवं प्रजापतीन्देवान्प्रहोदो भगवत्कला: ॥

    ३२॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; सम्पूज्य--पूजा करके; शिरसा--सिर झुका करके; ववन्दे--प्रार्थना की; परमेष्ठिनम्‌--ब्रह्मा को; भवम्‌--शिव को; प्रजापतीन्‌--प्रजापतियों को; देवान्‌--सारे बड़े-बड़े देवताओं को; प्रह्मद: --प्रह्ाद महाराज ने; भगवत्‌-कला: --भगवान्‌ के अंश ।

    तब प्रह्नाद महाराज ने भगवान्‌ के अंश रूप समस्त देवताओं की यथा ब्रह्मा, शिव तथाप्रजापतियों की पूजा और स्तुति की।

    "

    ततः काव्यादिभि: सार्थ मुनिभि: कमलासन: ।

    दैत्यानां दानवानां च प्रह्नदमकरोत्पतिम्‌ ॥

    ३३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; काव्य-आदिभि:--शुक्राचार्य तथा अन्यों के; सार्थम्‌--साथ; मुनिभि:--बड़े-बड़े सन्त पुरुषों के; कमल-आसनः--ब्रह्माजी; दैत्यानाम्‌ू--सारे असुरों का; दानवानाम्‌--सारे देवताओं का; च--तथा; प्रह्मदम्‌--प्रह्मद महाराज को;अकरोत्‌--बना दिया; पतिम्‌ू--राजा या स्वामी |

    तत्पश्चात्‌ शुक्राचार्य तथा अन्य बड़े-बड़े सन्त पुरुषों सहित कमलासीन ब्रह्माजी ने प्रहाद कोब्रह्माण्ड के सारे असुरों तथा दानवों का राजा बना दिया।

    "

    प्रतिनन्द्य ततो देवा: प्रयुज्य परमाशिष: ।

    स्वधामानि ययू राजन्ब्रह्माद्या: प्रतिपूजिता: ॥

    ३४॥

    प्रतिनन्द्य--बधाई देकर; ततः--तत्पश्चात्‌; देवा: --सारे देवता; प्रयुज्य--देकर; परम-आशिष:--शुभ आशीर्वाद; स्व-धामानि-- अपने-अपने धामों को; ययु:--लौट गये; राजनू--हे राजा युधिष्टिर; ब्रहा-आद्या:--ब्रह्मा आदि सारे देवता;प्रतिपूजिता:--( प्रह्द महाराज द्वारा ) भली-भाँति पूजित होकर।

    हे राजा युधिष्टिर, प्रह्मद महाराज द्वारा भली-भाँति पूजित होकर ब्रह्मादि सारे देवताओं नेउन्हें अपने-अपने आशीर्वाद दिये और फिर अपने-अपने आवासों को वापस चले गये।

    "

    एवं च पार्षदौ विष्णो: पुत्रत्वं प्रापितौ दितेः ।

    हृदि स्थितेन हरिणा वैरभावेन तौ हतौ ॥

    ३५॥

    एवम्‌--इस तरह से; च--भी; पार्षदौ--दो निजी संगी; विष्णो: --विष्णु के ; पुत्रत्वम्‌-पुत्र बनकर; प्रापितौ--प्राप्त करके;दितेः--दिति के; हृदि--हृदय में; स्थितेन-- स्थित; हरिणा--पर मे श्वर द्वारा; वैर-भावेन--शत्रु मानकर; तौ--दोनों; हतौ--मारेगये।

    इस प्रकार भगवान्‌ विष्णु के दोनों पार्षद, जो दिति के पुत्र हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपुबने थे, मार डाले गये।

    भ्रमवश उन्होंने सोचा था कि हर एक के हृदय में निवास करने वालेपरमेश्वर उनके शत्रु हैं।

    "

    पुनश्च विप्रशापेन राक्षसौ तौ बभूवतु: ।

    कुम्भकर्णदशग्रीवौ हतौ तौ रामविक्रमै: ॥

    ३६॥

    पुनः--फिर; च--भी; विप्र-शापेन--ब्राह्मण द्वारा शापित होकर; राक्षसौ--दो राक्षस; तौ--वे दोनों; बभूवतु:--अवतरित हुए;कुम्भकर्ण-दश-ग्रीवौ--कुम्भकर्ण तथा दशशीश रावण के नाम से विख्यात; हतौ--वे भी मार डाले गये; तौ--दोनों; राम-विक्रमैः-- भगवान्‌ राम के अतुलित बल से

    ब्राह्मणों द्वारा शापित होने से इन दोनों पार्षदों ने कुम्भकर्ण तथा दशग्रीव रावण के रूप मेंफिर से जन्म लिया।

    ये दोनों राक्षस भगवान्‌ रामचन्द्र के अतुलित पराक्रम द्वारा मारे गये।

    "

    शयानौ युधि निर्भिन्नहदयौ रामशायकै: ।

    तच्चित्तौ जहतुर्देह यथा प्राक्तनजन्मनि ॥

    ३७॥

    शयानौ--लेटे हुए; युधि--युद्धस्थल में; निर्भिन्न--बींधे जाकर; हृदयौ--हृदय में; राम-शायकै:--रामचन्द्र के बाणों से; तत्‌ू-चित्तौ-- भगवान्‌ राम के विषय में सोचते हुए; जहतु:--त्याग दिया; देहम्‌--शरीर; यथा--जिस प्रकार; प्राक्तन-जन्मनि--पूर्वजन्मों में

    भगवान्‌ रामचन्द्र के बाणों से बिंध कर कुम्भकर्ण तथा रावण दोनों ही युद्धभूमि में पड़े रहेऔर भगवान्‌ के विचार में लीन होकर उसी तरह अपने अपने शरीर छोड़ दिये जिस तरह अपनेपूर्व-जन्म में हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु के रूप में किया था।

    "

    ताविहाथ पुनर्जाता शिशुपालकरूषजौ ।

    हरौ वैरानुबन्धेन पश्यतस्ते समीयतु: ॥

    ३८ ॥

    तौ--दोनों; इह--इस मानव समाज में; अथ--इस प्रकार; पुन:--फिर; जातौ--जन्म लिया; शिशुपाल--शिशुपाल; करूष-जौ--दन्तवक्र; हरौ-- भगवान्‌ में; वैर-अनुबन्धेन-- भगवान्‌ को शत्रु मानने के बन्धन द्वारा; पश्यतः--देखते हुए; ते--तुम्हारे;समीयतु:-- भगवान्‌ के चरणकमलों में लीन हो गये या चले गये।

    उन्होंने फिर से मानव समाज में शिशुपाल तथा दन्तवक्र के रूप में जन्म लिया और भगवान्‌से वैसा ही वैर-भाव बनाये रखा।

    ये वही थे, जो ही तुम्हारे समक्ष भगवान्‌ के शरीर में लीन होगये।

    "

    एनः पूर्वकृतं यत्तद्राजान: कृष्णवैरिण: ।

    जहुस्तेन्ते तदात्मानः: कीट: पेशस्कृतो यथा ॥

    ३९॥

    एन:--यह पापकर्म ( भगवान्‌ की निन्दा का ); पूर्व-कृतम्‌--पूर्व जन्म में किया गया; यत्‌--जो; तत्‌--वह; राजान:--राजागण; कृष्ण-वैरिण:--सदैव कृष्ण के शत्रु बने रहने वाले; जहुः--त्याग दिया; ते--वे सभी; अन्ते--मृत्यु के समय; तत्‌ू-आत्मान:--वही आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त करके; कीट: --कीड़ा; पेशस्कृत:--काली भृड़ी द्वारा ( पकड़ा गया ); यथा--जिसतरह

    न केवल शिशुपाल तथा दन्तवक्र अपितु अन्य अनेकानेक राजा जो कृष्ण के शत्रु बने हुएथे अपनी मृत्यु के समय मोक्ष को प्राप्त हुए।

    चूँकि वे भगवान्‌ के विषय में सोचते थे, अतः उन्हेंभगवान्‌-जैसा आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त हुआ जिस तरह भूंगी द्वारा पकड़ा गया कीड़ा भृंगी काशरीर प्राप्त कर लेता है।

    "

    यथा यथा भगवतो भक्‍त्या परमयाभिदा ।

    नृपाश्चैद्यादयः सात्म्यं हरेस्तच्चिन्तया ययु: ॥

    ४०॥

    यथा यथा--जिस जिस तरह; भगवतः -- भगवान्‌ की; भक्त्या-- भक्ति से; परमया--परम; अभिदा--ऐसे कार्यकलापों कासतत चिन्तन करते हुए; नृपा:--राजा; चैद्य-आदय:--शिशुपाल, दन्तवक्र आदि; सात्म्यम्‌--वही रूप; हरेः-- भगवान्‌ का;तत्‌-चिन्तया--निरन्तर उनका चिन्तन करने से; ययु:--भगवद्धाम वापस गये।

    जो शुद्ध भक्त भक्ति के द्वारा भगवान्‌ का निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं, वे उन्हीं जैसा शरीरप्राप्त करते हैं।

    यह सारूप्य मुक्ति कहलाती है।

    यद्यपि शिशुपाल, दन्तवक्र तथा अन्य राजा कृष्णका अपने शत्रु के रूप में चिंतन करते थे, किन्तु उन्हें भी वैसा ही फल प्राप्त हुआ।

    "

    आख्यातं सर्वमेतत्ते यन्मां त्वं परिपृष्टवान्‌ ।

    दमघोषसुतादीनां हरे: सात्म्यमपि द्विषाम्‌ ॥

    ४१॥

    आख्यातम्‌--वर्णन किया गया; सर्वम्‌--सब कुछ; एतत्‌--यह; ते-- तुमसे; यत्‌--जो भी; माम्‌--मुझसे; त्वम्‌--तुमने;परिषृष्टवान्‌-- पूछा; दमघोष-सुत-आदीनाम्‌--दमघोष के पुत्र ( शिशुपाल ) तथा अन्यों का; हरेः-- भगवान्‌ का; सात्म्यम्‌--समान स्वरूप से; अपि-- भी; द्विषाम्‌--यद्यपि वे शत्रु थे।

    तुमने मुझसे पूछा था कि किस तरह शिशुपाल तथा अन्यों ने भगवान्‌ का शत्रु होते हुए भीमोक्ष प्राप्त किया सो वह सब कुछ मैंने तुम्हे बतला दिया है।

    "

    एषा ब्रह्मण्यदेवस्थ कृष्णस्थ च महात्मन: ।

    अवतारकथा पुण्या वधो यत्रादिदैत्ययो: ॥

    ४२॥

    एषा--यह सब; ब्रह्मण्य-देवस्थ-- भगवान्‌ का, जो समस्त ब्राह्मणों द्वारा पूजित हैं; कृष्णस्य--आदि भगवान्‌ कृष्ण का; च--भी; महा-आत्मन:--परमात्मा; अवतार-कथा--उनके अवतार की कथाएँ; पुण्या--पवित्र, शुद्ध करने वाली; वध:--माराजाना, वध; यत्र--जिसमें; आदि-- प्रारम्भिक कल्प में; दैत्ययो: --दोनों असुरों ( हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु ) का।

    भगवान्‌ कृष्ण सम्बन्धी इस कथा में भगवान्‌ के विभिन्न अवतार वर्णन किए गये हैं।

    साथही इसमें हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु नामक दो असुरों के वध का भी वर्णन किया गया है।

    "

    प्रह्मदस्यानुचरितं महाभागवतस्य च ।

    भक्तिज्ञान विरक्तिश्च याथार्थ्य चास्य वै हरे: ॥

    ४३॥

    सर्गस्थित्यप्ययेशस्य गुणकर्मानुवर्णनम्‌ ।

    परावरेषां स्थानानां कालेन व्यत्ययो महान्‌ ॥

    ४४॥

    प्रह्मादस्य-- प्रह्दाद महाराज की; अनुचरितम्‌--विशेषताएँ ( पढ़कर या कार्यकलापों का वर्णन करके समझी गई ); महा-भागवतस्य--महान्‌ भक्त की; च--भी; भक्ति:-- भगवान्‌ की भक्ति; ज्ञानमू--आध्यात्म का पूर्णज्ञान ( ब्रह्म, परमात्मा तथाभगवान्‌ ); विरक्ति:-- भौतिक संसार से वैराग्य; च--भी; याथार्थ्यम्‌--उन्हें सही सही समझने के लिए; च--तथा; अस्य--इसका; वै--निस्सन्देह; हरेः--सदैव भगवान्‌ के सन्दर्भ में; सर्ग--सृजन; स्थिति--पालन; अप्यय--तथा संहार का; ईशस्य--स्वामी ( भगवान्‌ ) का; गुण--दिव्य गुण तथा ऐश्वर्य; कर्म--तथा कार्यकलापों का; अनुवर्णनम्‌--परम्परा के भीतर वर्णन(अनु का अर्थ है 'पश्चात्‌'।

    अधिकारी व्यक्ति पूर्व आचार्यों का पालन करते हैं, वे कोई नई चीज नहीं बनाते ); पर-अवरेषाम्‌--देवता तथा असुर नामक विभिन्न प्रकार के जीवों का; स्थानानाम्‌--विभिन्न लोकों या रहने के स्थानों का; कालेन--समय आनेपर; व्यत्यय:--हर वस्तु का संहार; महान्‌ू--यद्यपि महान्‌।

    यह कथा महाभागवत प्रह्नाद महाराज के गुणों, उनकी हढ़ भक्ति, उनके पूर्ण ज्ञान तथाभौतिक कल्मष से पूर्ण विरक्ति को बताती है।

    यह सृजन, पालन तथा संहार के कारणस्वरूपभगवान्‌ का भी वर्णन करती है।

    प्रहाद महाराज ने अपनी स्तुतियों में भगवान्‌ के दिव्य गुणों केसाथ ही यह भी बताया कि किस तरह देवताओं तथा असुरों के आवास भगवान्‌ के निर्देश मात्रसे ध्वस्त हो जाते हैं चाहे वे भौतिक ऐश्वर्य से कितने ही भरे क्यों न हो।

    "

    धर्मो भागवतानां च भगवान्येन गम्यते ।

    आख्यानेस्मिन्समाम्नातमाध्यात्मिकमशेषत: ॥

    ४५॥

    धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; भागवतानाम्‌-- भक्तों का; च--तथा; भगवान्‌-- भगवान्‌; येन--जिससे; गम्यते--समझे जा सकतेहैं; आख्याने--कथा में; अस्मिनू--इस; समाम्नातम्‌--पूर्णतया वर्णित है; आध्यात्मिकम्‌--अध्यात्म; अशेषतः --किसी भेदभावके बिनाधर्म के जिन सिद्धान्तों से भगवान्‌ को वास्तव में समझा जा सकता है, वह भागवत धर्मकहलाता है।

    अतएव इस कथा में इन सिद्धान्तों का समावेश होने से वास्तविक अध्यात्म काभली-भाँति वर्णन हुआ है।

    "

    य एतत्पुण्यमाख्यानं विष्णोर्वी्योपबृंहितम्‌ ।

    कीर्तयेच्छुद्धया श्रुत्वा कर्मपाशैर्विमुच्यते ॥

    ४६॥

    यः--जो कोई; एतत्‌--इस; पुण्यम्‌--पवित्र; आख्यानम्‌--कथा को; विष्णो: --भगवान्‌ विष्णु की; वीर्य--परम शक्ति;उपबूंहितम्‌-के वर्णन से युक्त; कीर्तयेत्‌--कीर्तन करता या दुहराता है; श्रद्धया--अतीव श्रद्धापूर्वक; श्रुत्वा--उचित स्त्रोत सेसुन कर; कर्म-पाशै: --सकाम कर्मो के बन्धन से; विमुच्यते--छूट जाता है।

    जो कोई भगवान्‌ विष्णु की सर्वव्यापकता विषयक इस कथा को सुनता है और इसकाकीर्तन करता है, वह निश्चित रूप से भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।

    "

    एतद्य आदिपुरुषस्य मृगेन्धलीलांदैत्येन्द्रयूथपवर्ध प्रयतः पठेत ।

    दैत्यात्मजस्य च सतां प्रवरस्य पुण्यश्रुत्वानुभावमकुतो भयमेति लोकम्‌ ॥

    ४७॥

    एतत्‌--यह कथा; यः--जो कोई; आदि-पुरुषस्य-- आदि भगवान्‌ की; मृग-इन्द्र-लीलाम्‌--नरसिंह की लीलाओं को; दैत्य-इन्द्र--असुरों का राजा; यूथ-प--हाथी के समान बलिष्ठ; वधम्‌--वध; प्रयत:--ध्यानपूर्वक; पठेत--पढ़ता है; दैत्य-आत्म-जस्य--असुर॒पुत्र प्रहाद महाराज का; च-- भी; सताम्‌- श्रेष्ठ भक्तों में; प्रवरस्य-- श्रेष्ठठम; पुण्यम्‌--पतवित्र; श्रुत्वा--सुनकर;अनुभावम्‌--कार्यकलाप; अकुतः-भयम्‌--जहाँ किसी समय तथा कहीं भी कोई भय नहीं है; एति--पहुँचता है; लोकम्‌--आध्यात्मिक जगत में |

    प्रहाद महाराज भक्तों में सर्वश्रेष्ठ थे।

    जो कोई प्रह्माद महाराज के कार्यकलापों,हिरण्यकशिपु के वध तथा भगवान्‌ नृसिंहदेव की लीलाओं से सम्बद्ध इस कथा को अत्यन्तमनोयोग से सुनता है, वह निश्चयपूर्वक आध्यात्मिक जगत में पहुँचता है जहाँ कोई चिन्ता नहींरहती है।

    "

    यूयं नूलोके बत भूरिभागालोकं पुनाना मुनयोउभियन्ति ।

    येषां गृहानावसतीति साक्षाद्‌गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिड्रम्‌ ॥

    ४८ ॥

    यूयम्‌ू--तुम सभी ( पांडव ); नू-लोके--इस भौतिक जगत में; बत--फिर भी; भूरि-भागा: --अत्यन्त भाग्यशाली; लोकम्‌--सारे लोकों को; पुनाना:--पवित्र कर सकने वाले; मुनय:--बड़े-बड़े साधु पुरूष; अभियन्ति--सदैव देखने आते हैं; येषाम्‌--जिनके; गृहानू--घर में; आवसति--रहते हैं; इति--इस प्रकार; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; गूढम्‌--परम गोपनीय; परम्‌ ब्रह्म--परब्रह्म,परमेश्वर; मनुष्य-लिड्रमू--मनुष्य की भाँति प्रकट होकर।

    नारद मुनि ने आगे कहा : हे महाराज युथ्रिष्ठिर, तुम सभी ( पाण्डव ) अत्यन्त भाग्यशाली हो,क्योंकि भगवान्‌ कृष्ण तुम्हारे महल में सामान्य मनुष्य की भाँति निवास करते हैं।

    बड़े-बड़े साधुपुरुष इसे भली-भाँति जानते हैं इसीलिए वे निरन्तर इस घर में आते रहते हैं।

    "

    सवा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य-कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूति: ।

    प्रिय: सुहृद्द: खलु मातुलेयआत्माईणीयो विधिकृद्गुरुश्च ॥

    ४९॥

    सः--वह ( भगवान्‌ कृष्ण ); वा-- भी; अयम्‌--यह; ब्रह्म--निराकार ब्रह्म ( जो कृष्ण का तेज है ); महत्‌--महापुरुषों के द्वारा;विमृग्य--खोजा जाकर; कैवल्य--एकत्व; निर्वाण-सुख--दिव्य सुख का; अनुभूति:--व्यावहारिक अनुभव का स्त्रोत;प्रियः--अत्यधिक प्रिय; सुहृत्‌--शुभचिन्तक; वः--तुम्हारा; खलु--निस्सन्देह; मातुलेय: --मामा का पुत्र; आत्मा--शरीर तथा आत्मा के ही समान; अ्हणीय: --पूज्य ( भगवान्‌ होने से ); विधि-कृतू--सन्देशवाहक की तरह ( फिर भी बह तुम्हारी सेवाकरता है ); गुरु:--तुम्हारा परम सलाहकार; च--भी |

    निराकार ब्रह्म साक्षात्‌ कृष्ण हैं, क्योंकि कृष्ण निराकार ब्रह्म के स्त्रोत हैं।

    वे बड़े-बड़े साधुपुरुषों द्वारा तलाश किये जाने वाले दिव्य आनन्द के उत्स हैं फिर भी परम पुरुष तुम्हारे सर्वाधिकप्रिय मित्र तथा चिरन्तन सुहृद्‌ हैं और तुम्हारे मामा के पुत्ररूप में तुमसे घनिष्ठतः सम्बन्धित हैं।

    निस्सन्देह, वे सदैव तुम्हारे शरीर तथा आत्मा के सदृश हैं।

    वे पूज्य हैं फिर भी वे तुम्हारे सेवक कीतरह और कभी-कभी तुम्हारे गुरु की तरह कार्य करते हैं।

    "

    न यस्य साक्षाद्धवपदाजादिभीरूप॑ धिया वस्तुतयोपवर्णितम्‌ ।

    मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितःप्रसीदतामेष स सात्वतां पति: ॥

    ५०॥

    न--नहीं; यस्य--जिसका; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; भव--शिवजी; पद्य-ज--ब्रह्म ( कमल से उत्पन्न ); आदिभि:--उनके तथाअन्यों के द्वारा भी; रूपमू--रूप; धिया--ध्यान के द्वारा भी; वस्तुतया--मूल रूप से; उपवर्णितम्‌--वर्णित तथा अनुभूत;मौनेन--समाधि या गहन ध्यान द्वारा; भक्त्या--भक्ति द्वारा; उपशमेन--त्याग द्वारा; पूजित:--पूजित; प्रसीदताम्‌--प्रसन्न हो;एष: --यह; सः--वह; सात्वताम्‌--महान्‌ भक्तों का; पति: --स्वामी |

    शिव तथा ब्रह्माजी जैसे महापुरुष भगवान्‌ कृष्ण के सत्य का सही-सही वर्णन नहीं करपाये।

    वे भगवान्‌ हम पर प्रसन्न हों जो सदा समस्त भक्तों के रक्षक रूप में उन महान्‌ सन्तों द्वारापूजे जाते हैं, जो मौन, ध्यान, भक्ति तथा त्याग का ब्रत लिए रहते हैं।

    "

    स एष भगवात्राजन्व्यतनोद्विहतं यश: ।

    पुरा रुद्रस्य देवस्य मयेनानन्तमायिना ॥

    ५१॥

    सः एष: भगवान्‌--वही भगवान्‌ कृष्ण जो परकब्रह्म हैं; राजन्‌ू--हे राजा; व्यतनोत्‌--विस्तार किया; विहतम्‌--खोया; यशः--कीर्ति में; पुरा-- प्राचीन काल में; रुद्रस्य--शिवजी की ( जो देवताओं में सर्वाधिक शक्तिमान हैं ); देवस्य--देवता का;मयेन--मय नामक असुर द्वारा; अनन्त--असीम; मायिना--तकनीकी ज्ञान से युक्त

    हे राजा युधिष्ठटिर, बहुत समय पहले तकनीकी ज्ञान में अत्यन्त कुशल मय नामक दानव नेशिवजी के यश्ञ में बड्ठा लगाया।

    उस स्थिति में भगवान्‌ कृष्ण ने शिवजी की रक्षा की थी।

    "

    राजोबाचकस्मिन्कर्मणि देवस्य मयोहझ्जगदीशितु: ।

    यथा चोपचिता कीर्ति: कृष्णेनानेन कथ्यताम्‌ ॥

    ५२॥

    राजा उवाच--राजा ने कहा; कस्मिनू--किस कारण से; कर्मणि--किन कार्यों से; देवस्थ--महादेव ( शिव ) के; मय:--मयदानव; अहनू्‌--नष्ट करना चाहता था; जगत्‌-ईशितुः--शिव की, जो भौतिक शक्ति का नियंत्रण करते हैं और दुर्गा देवी के पतिहैं; यथा--जिस प्रकार; च--तथा; उपचिता--पुनः विस्तार किया; कीर्ति:--कीर्ति; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; अनेन--इस;कथ्यताम्‌ू--कृपया कह सुनायें |

    महाराज युधिष्ठिर ने पूछा : मय दानव ने किस कारण से शिवजी की कीर्ति नष्ट की ?

    कृष्णने किस तरह शिव जी की रक्षा की?

    और किस तरह उनकी कीर्ति का पुनः विस्तार किया ?

    कृपया इन घटनाओं को कह सुनायें।

    "

    श्रीनारद उवाचनिर्जिता असुरा देवैर्युध्यनेनोपबूंहितैः ।

    मायिनां परमाचार्य मयं शरणमाययु: ॥

    ५३॥

    श्री-नारदः उवाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; निर्जिता:--हार कर; असुरा:ः--सारे असुर; देवै:--देवताओं से; युधि--लड़ाई में;अनेन--कृष्ण द्वारा; उपबृंहितैः--शक्ति बढ़ाकर; मायिनाम्‌--सारे असुरों की; परम-आचार्यम्‌--सर्वश्रेष्ठ तथा महानतम;मयम्‌--मय दानव की; शरणम्‌--शरण; आययु:--ग्रहण की

    नारद मुनि ने कहा : जब परम देवताओं ने जो भगवान्‌ कृष्ण की दया से सदा शक्तिशालीबने रहते हैं असुरों से युद्ध किया तो असुर हार गये, अतएव उन्होंने महानतम असुर मय दानव कीशरण ग्रहण की।

    "

    स निर्माय पुरस्तिस्त्रो हैमीरौप्यायसीर्विभु: ।

    दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदा: ॥

    ५४॥

    ताभिस्तेसुरसेनान्यो लोकांस्त्रीन्सेश्वरात्रप ।

    स्मरन्तो नाशयां चक्रु: पूर्ववैरमलक्षिता: ॥

    ५५॥

    सः--वह ( मय दानव ); निर्माय--निर्मित करके; पुरः--बड़े-बड़े आवास; तिस्त्र:ः--तीन; हैमी--स्वर्ण से बने; रौप्या--चाँदीसे बने; आयसी: --लोहे से बने; विभु:--अत्यधिक शक्तिशाली; दुर्लक्ष्य-- अकूत; अपाय-संयोगा:--आने-जाने कीगतिविधियाँ; दुर्वितर्क्य--असामान्य; परिच्छदा:--साज-सामग्री से युक्त; ताभि:ः--उन सबों ( विमान जैसे तीन आवासों ) केद्वारा; ते--वे; असुर-सेना-अन्य:-- असुरों के सेनानायक; लोकानू्‌ त्रीन्‌ू--तीनों लोकों को; स-ई श्वरान्‌-- उनके प्रधान शासकोंसहित; नृप--हे राजा युधिष्टिर; स्मरन्तः--स्मरण करते हुए; नाशयाम्‌ चक्रु:--विनाश करने लगा; पूर्व--पहले की; वैरम्‌--शत्रुता; अलक्षिता:-- अहृश्य रहकर;असुरों के महान्‌ नायक

    मय दानव ने तीन अदृश्य आवास तैयार किये और उन्हें असुरों कोसौंप दिया।

    ये तीनों आवास सोने, चाँदी तथा लोहे के बने विमानों जैसे थे और उनमें अपूर्वसाज-सामग्री थी।

    हे राजा युधिष्टिर, इन तीनों आवसों के कारण असुरों के सेनानायक देवताओं से अदृश्य हो गए थे।

    इस अवसर का लाभ उठाकर तथा अपनी पूर्व शत्रुता का स्मरण करते हुएअसुरगण तीनों लोकों--ऊर्ध्व, मध्य तथा अधो लोकों--का विनाश करने लगे।

    "

    ततस्ते सेश्वरा लोका उपासाद्येश्वर नता: ।

    त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरलय: ॥

    ५६॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; ते--वे ( देवगण ); स-ईश्वराः--अपने शासकों समेत; लोका:--सारे लोक; उपासाद्य--निकट जाकर;ईश्वरमू--शिवजी को; नता:--शरणागत होकर गिर पड़े; त्राहि--रक्षा करें; न:--हमारी; तावकान्‌ू--आपके होकर भी अत्यन्तभयभीत; देव-हे प्रभु; विनष्टान्‌ू--प्रायः विनष्ट; त्रिपुएर-आलयै: --उन तीनों पुरों में रहने वाले असुरों द्वारा

    तत्पश्चात्‌ जब असुरगण स्वर्गलोकों को तहस-नहस करने लगे तो उन लोकों के शासकशिवजी की शरण में आये और उन्होंने कहा--हे प्रभु, हम तीन लोकों के वासी देवता विनष्टहोने वाले हैं।

    हम आपके अनुयायी हैं।

    कृपया हमारी रक्षा करें।

    अथा" नुगृहा भगवान्मा भैष्टेति सुरान्विभुः ।

    शरं धनुषि सन्धाय पुरेष्वस्त्रं व्यमुज्ञत ॥

    ५७॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; अनुगृह्य--उन पर कृपा करके; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; मा--मत; भैष्ट--डरो; इति--इस प्रकार;सुरानू--देवताओं को; विभु:--शिवजी ने; शरम्‌--बाण; धनुषि-- धनुष पर; सन्धाय--चढ़ाकर; पुरेषु--असुरों से युक्त उनतीनों आवासों में; अस्त्रम्‌ू--अस्त्र; व्यमुज्ञत--छोड़ा |

    अत्यन्त शक्तिशाली एवं समर्थ शिवजी ने उन्हें धैर्य बँधाते हुए कहा 'डरो मत।

    ' तब उन्होंनेअपने धनुष पर बाण चढ़ाकर असुरों द्वारा निवसित तीनों आवासों की ओर छोड़ा।

    "

    ततोग्निवर्णा इषव उत्पेतु: सूर्यमण्डलातू ।

    यथा मयूखसन्दोहा नाहश्यन्त पुरो यतः ॥

    ५८॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; अग्नि-वर्णा: --अग्नि के समान चमकीले; इषव:--बाण; उत्पेतु:--छोड़े; सूर्य-मण्डलात्‌--सूर्यमण्डल से;यथा--जिस प्रकार; मयूख-सन्दोहा:-- प्रकाश की किरणें; न अहृश्यन्त--देखे नहीं जा सके; पुर:--तीनों आवास; यत:--इसके कारण ( शिवजी के बाणों से घिर कर )

    शिवजी द्वारा छोड़े गये बाण सूर्यमण्डल से निकलने वाली प्रज्वचलित किरणों जैसे लग रहेथे।

    उनसे तीनों आवास-रूपी विमान आच्छादित हो गये जिससे वे दिखने बन्द हो गये।

    "

    ते स्पृष्टा व्यसवः सर्वे निपेतु: सम पुरौकसः ।

    तानानीय महायोगी मयः कूपरसेउक्षिपत्‌ ॥

    ५९॥

    तैः--उन ( बाणों ) के द्वारा; स्पृष्टा:--फ्पर्श किये जाने या आक्रमण किये जाने से; व्यसव:--निष्प्राण; सर्वे--सारे असुर;निपेतु:--गिर पड़े; स्म--पूर्वकाल में; पुर-ओकसः --उपर्युक्त तीनों आवासरूपी विमानों के निवासी होने के कारण; तानू--उनसबों को; आनीय--लाकर; महा-योगी--महान्‌ योगी; मयः--मय दानव ने; कूप-रसे--अमृत के कुएँ में ( जिसे महायोगी मयने बनाया था ); अक्षिपत्‌--रख दिया।

    शिवजी के सुनहरे बाणों से आक्रमण किये जाने से उन तीनों आवासों के निवासी असुरनिष्प्राण होकर गिर पड़े।

    तब परम योगी मय दानव ने उन्हें अपने द्वारा निर्मित अमृत कूप मेंलाकर डाल दिया।

    "

    सिद्धामृतरसस्पृष्टा वज़सारा महौजसः ।

    उत्तस्थुमेंघदलना वैद्युता इव वह्यः ॥

    ६०॥

    सिद्ध-अमृत-रस-स्पृष्टा:--शक्तिशाली योग के अमृत का स्पर्श पाकर असुरगण; बज़-सारा:--जिनके शरीर वज्ञ के समान होगये हैं; महा-ओजसः--अत्यन्त बलिष्ठ; उत्तस्थु:--फिर से उठ खड़े हो गये; मेघ-दलना:--बादलों को चीरकर जाने वाले;वैद्युता:--बिजली ( जो बादल को चीर देती है ); इब--सहृश; वह्यः--अग्नि जैसे |

    असुरों के मृत शरीर इस अमृत का स्पर्श करते ही बज्ञ के समान अभेद्य हो गये।

    महान्‌शक्ति प्राप्त करने के कारण वे बादलों को विदीर्ण करने वाली बिजली की भाँति उठ खड़े होगये।

    "

    विलोक्य भग्नसड्डूल्पं विमनस्कं वृषध्वजम्‌ ।

    तदायं भगवान्विष्णुस्तत्रोपायमकल्पयत्‌ ॥

    ६१॥

    विलोक्य--देखकर; भग्न-सड्जलूल्पम्‌--निराश; विमनस्कम्‌-- अत्यन्त अप्रसन्न, अन्यमनस्क ; वृष-ध्वजम्‌--शिवजी को; तदा--उस समय; अयम्‌--यह; भगवान्‌-- भगवान्‌; विष्णु: --विष्णु ने; तत्र--अमृत कूप के पास; उपायम्‌--उपाय ( रोकने का );अकल्पयत्‌--विचार किया।

    शिवजी को अत्यन्त दुखी तथा निराश देखकर भगवान्‌ विष्णु ने विचार किया कि मयदानव द्वारा उत्पन्न इस उत्पात को किस प्रकार रोका जाये।

    "

    वत्सश्चासीत्तदा ब्रह्मा स्वयं विष्णुरयं हि गौ: ।

    प्रविश्य त्रिपुरं काले रसकूपामृतं पपौ ॥

    ६२॥

    वत्स:--बछड़ा; च-- भी; आसीतू्‌--बन गये; तदा--उस समय; ब्रह्मा--ब्रह्माजी; स्वयम्‌ू--खुद; विष्णु: -- भगवान्‌ विष्णु;अयम्‌--यह; हि--निस्सन्देह; गौ: --गाय; प्रविश्य--घुसकर; त्रि-पुरम्‌ू--तीनों निवासस्थानों को; काले--दोपहर में; रस-कूप-अमृतम्‌-कुएँ के अमृत को; पपौ--पी लिया।

    तब ब्रह्माजी बछड़ा और भगवान्‌ विष्णु गाय बन गये और दोपहर के समय आवासों मेंप्रवेश करके वे कुएं का सारा अमृत पी गये।

    "

    तेडसुरा ह्ापि पश्यन्तो न न्यषेधन्विमोहिता: ।

    तद्विज्ञाय महायोगी रसपालानिदं जगौ ।

    स्मयन्विशोकः शोकार्तान्स्मरन्दैवगतिं च तामू ॥

    ६३॥

    ते--वे; असुराः:--असुरगण; हि--निस्सन्देह; अपि-- यद्यपि; पश्यन्तः--देखते हुए ( कि बछड़ा तथा गाय अमृत पी रहे हैं );न--नहीं; न्यषेधन्‌--मना किया; विमोहिता:--मोह- ग्रस्त होने से; तत्‌ विज्ञाय--यह भली-भाँति जानकर; महा-योगी--महान्‌ योगी मय दानव ने; रस-पालान्‌ू--अमृत की रक्षा करने वाले असुरों से; इदम्‌--यह; जगौ--कहा; स्मयन्‌--मोहग्रस्त हुए;विशोक:--बहुत अप्रसन्न न होते हुए; शोक-आर्तान्‌ू--अत्यधिक पश्चात्ताप करते; स्मरन्‌--स्मरण करते हुए; दैव-गतिम्‌--आध्यात्मिक शक्ति को; च-- भी; तामू--उस |

    असुरों ने बछड़े तथा गाय को देखा लेकिन भगवान्‌ द्वारा उत्पन्न मोह शक्ति के कारण वे उन्हेंरोक नहीं पाये।

    महायोगी मय असुर को पता चल गया कि बछड़ा तथा गाय अमृत पी रहे हैं औरवह यह समझ गया कि यह अदृश्य दैवी शक्ति के कारण हो रहा है।

    इस प्रकार वह पश्चात्तापकरते हुए असुरों से बोला।

    "

    देवोसुरो नरोउन्यो वा नेश्वरोउस्तीह कश्चन ।

    आत्मनोन्यस्य वा दि्टे दैवेनापोहितुं द्वययो: ॥

    ६४॥

    देवः--देवता; असुर:--असुर; नरः--मनुष्य; अन्य:--अथवा कोई दूसरा; वा--या तो; न--नहीं; ईश्वर: --परमनियन्ता;अस्ति-- है; इह--इस संसार में; कश्चन--कोई; आत्मन:--अपना; अन्यस्य--दूसरे का; वा--अथवा; दिष्टमू-- भाग्य; दैवेन--भगवान्‌ द्वारा प्रदत्त; अपोहितुमू--मिटा सकने के लिए; द्यो:--दोनों का |

    मय दानव ने कहा : जो अपने, पराये अथवा दोनों के भाग्य में भगवान्‌ द्वारा निश्चित करदिया गया है उसे कोई भी कहीं भी मिटा नहीं सकता चाहे वह देवता, असुर, मनुष्य या अन्यकोई क्‍यों न हो।

    "

    अथासौ शक्तिभिः स्वाभि: शम्भो: प्राधानिकं व्यधात्‌ ।

    धर्मज्ञानविरक्त्यूद्द्धितपोविद्याक्रियादिभि: ॥

    ६५॥

    रथं सूतं ध्वजं वाहान्धनुर्वर्मशरादि यत्‌ ।

    सन्नद्धो रथमास्थाय शरं धनुरुपाददे ॥

    ६६॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; असौ--वह ( भगवान्‌ कृष्ण ); शक्तिभि:--अपनी शक्तियों से; स्वाभि: --निजी; शम्भो:--शिवजी की;प्राधानिकम्‌--अवयव; व्यधात्‌--उत्पन्न किया; धर्म--धर्म; ज्ञान--ज्ञान; विरक्ति--वैराग्य; ऋद्द्धि--ऐश्वर्य ; तप:ः--तपस्या;विद्या--विद्या; क्रिया--कार्यकलाप; आदिभि:--इत्यादि के द्वारा; रथम्‌--रथ को; सूतम्‌--सारथी को; ध्वजम्‌--झंडे को;वाहान्‌ू--हाथी-घोड़ों को; धनु:--धनुष; वर्म--ढाल; शर-आदि--बाण इत्यादि; यत्‌-- प्रत्येक आवश्यक वस्तु से; सन्नद्ध:--संयुक्त; रथम्‌--रथ पर; आस्थाय--आसीन होकर; शरम्‌--बाण; धनु:-- धनुष पर; उपाददे--चढ़ाया, जोड़ा |

    नारद मुनि ने आगे कहा--तत्पश्चात्‌ कृष्ण ने शिवजी को अपनी निजी शक्ति से, जो धर्म,ज्ञान, त्याग, ऐश्वर्य, तपस्या, विद्या तथा कर्म से युक्त थी, सभी प्रकार की साज-सामग्री से--यथा रथ, सारथी, ध्वजा, घोड़े, हाथी, धनुष, ढाल तथा बाण से संयुक्त कर दिया।

    इस तरह सेसंयुक्त होकर शिव जी अपने धनुष-बाण द्वारा असुरों से लड़ने के लिए रथ पर आसीन हुए।

    "

    शरं धनुषि सन्धाय मुहूर्तेडभिजिती श्वर: ।

    ददाह तेन दुर्भेद्या हरोथ त्रिपुरो नृप ॥

    ६७॥

    शरम्‌--बाणों को; धनुषि-- धनुष पर; सन्धाय--एकसाथ जोड़कर; मुहूर्त अभिजिति--दोपहर के समय; ईश्वर: -- भगवान्‌शिव; ददाह-- अग्नि लगा दी; तेन--उन ( बाणों के द्वारा ); दुर्भेद्या:--दुर्भद्य, जिसको भेद पाना दुष्कर हो; हरः--शिवजी ने;अथ--झस प्रकार से; त्रि-पुरः--असुरों के तीनों निवासस्थान; नृप--हे राजा युथिष्टिर

    हे राजा युधिष्ठिर, परम शक्तिशाली शिवजी ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाये और दोपहर केसमय असुरों के तीनों आवासों में अग्नि लगाकर उन्हें नष्ट कर दिया।

    "

    दिवि दुन्दुभयो नेदुर्विमानशतसड्डू ला: ।

    देवर्षिपितृसिद्धेशा जयेति कुसुमोत्करैः ।

    अवाकिरज्जगुईप्टा ननृतुश्चाप्सरोगणा: ॥

    ६८ ॥

    दिवि--आकाश् में; दुन्दुभय:--दुन्दुभियाँ; नेदु:--बज उठीं; विमान--विमानों के; शत--सैकड़ों हजारों; सह्ढु लाः--एकत्र;देव-ऋषि--सारे देवता तथा सन्त; पितृ--पितृलोक के निवासी; सिद्ध--सिद्धलोक के निवासी; ईशा:--सभी महापुरुष; जयइति--'जय हो ' इस प्रकार उच्चारण किया; कुसुम-उत्करैः--तरह-तरह के फूलों से; अवाकिरन्‌ू--शिवजी के ऊपर वर्षा की;जगुः--उच्चारण किया; हृष्टा:--अत्यन्त प्रसन्नता में; ननृतु:--नाचा; च--तथा; अप्सरः-गणा: --स्वर्गलोक की सुन्दरी स्त्रियोंने

    तब आकाश में अपने-अपने विमानों में आसीन उच्चलोकों के निवासियों ने दुन्दुभियाँबजाईं।

    देवताओं, ऋषियों, पितरों, सिद्धों तथा विविध महापुरुषों ने शिव जी के ऊपर पुष्प-वर्षाकी और जयजयकार की।

    अप्सराएँ परम प्रमुदित होकर नाचने-गाने लगीं।

    "

    एवं दग्ध्वा पुरस्तिस्त्रो भगवान्पुरहा नूप ।

    ब्रह्मादिभि: स्तूयमान: स्वं धाम प्रत्यपद्मयत ॥

    ६९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; दग्ध्वा-- भस्म करके; पुरः तिस्त्रः--असुरों के तीनों आवासों ( पुरियों ) को; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली;पुर-हा-पुरों को नष्ट करने वाला; नृप--हे राजा युधिष्टिर; ब्रह्म-आदिभि:--ब्रह्माजी तथा अन्य देवताओं द्वारा; स्तूबमान: --पूजित होकर; स्वम्‌--अपने; धाम--धाम; प्रत्यपद्यत--लौट गये |

    हे राजा युथिष्टिर, इस प्रकार शिवजी त्रिपुरारी कहलाते हैं, क्योंकि उन्होंने असुरों की तीनोंपुरियों को भस्म कर दिया था।

    ब्रह्मा समेत समस्त देवताओं से पूजित होकर शिव जी अपने धामलौट गये।

    "

    एवं विधान्यस्य हरे: स्वमाययाविडम्बमानस्य नृलोकमात्मनः ॥

    वीर्याणि गीतान्यूषिभिर्जगद्‌गुरो-लेक पुनानान्यपरं वदामि किमू ॥

    ७०॥

    एवम्‌ विधानि--इस विधि से; अस्य--कृष्ण की; हरेः-- भगवान्‌ की; स्व-मायया--अपनी दिव्य शक्तियों से; विडम्बमानस्थ--सामान्य मनुष्य की भाँति कार्य करते हुए; नू-लोकम्‌--मानव समाज में; आत्मन:--अपने; वीर्याणि--दिव्य कार्यकलापों की;गीतानि--कथाओं को; ऋषिभि:--ऋषियों द्वारा; जगतू-गुरो: --परम प्रभु का; लोकम्‌--सारे लोक; पुनानानि--पवित्र करतेहुए; अपरम्‌--और क्या; वदामि किमू--मैं क्या कह सकता हूँ।

    यद्यपि भगवान्‌ कृष्ण मनुष्य के रूप में प्रकट हुए थे फिर भी उन्होंने अपनी शक्ति से अनेकअसामान्य तथा आश्चर्यजनक लीलाएँ सम्पन्न कीं।

    उन महान्‌ सन्त पुरुषों द्वारा जो कुछ कहा जा चुका है उससे भला मैं और अधिक क्‍या कह सकता हूँ?

    प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी व्यक्ति सेभगवान्‌ के कार्यकलापों के श्रवण मात्र से शुद्ध हो सकता है।

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    अध्याय ग्यारह: उत्तम समाज: चार सामाजिक वर्ग

    7.11श्रीशुक उवाचश्रुत्वेहितं साधु सभासभाजितंमहत्तमाग्रण्य उरुक्रमात्मन: ।

    युथिष्ठिरो दैत्यपतेर्मुदान्वितःपप्रच्छ भूयस्तनयं स्वयम्भुव: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; श्रुत्वा--सुनकर; ईहितमू--कथा, वृत्तान्त; साधु सभा-सभाजितम्‌--जो ब्रह्मातथा शिव जैसे भागवतों की सभा में चर्चित होता है; महत्‌-तम-अग्रण्य:--साधु पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ ( युधिष्टिर ); उरुक्रम-आत्मन:--भगवान्‌ में सदैव अपना मन लगाये रखने वाले ( प्रह्द महाराज ) का जो सदैव असाधारण विधि से कार्य करता है;युथिष्ठिर: --राजा युधिष्ट्िर ने; दैत्य-पतेः--असुरों के स्वामी का; मुदा-अन्वित:-- प्रसन्न मुद्रा में; पप्रच्छ--पूछा; भूय:--पुनः;तनयमू--पुत्र से; स्वयम्भुवः--ब्रह्माजी के |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : प्रह्द महाराज, जिनके कार्यकलाप तथा चरित्र की पूजातथा चर्चा ब्रह्म तथा शिव जी जैसे महापुरुष करते हैं, उनके विषय में सुनने के बाद महापुरुषोंमें सर्वाधिक आदरणीय राजा युध्िष्ठटिर महाराज ने नारद मुनि से अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में पुनः पूछा।

    "

    श्रीयुधिष्ठिर उवाचभगवन्श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्म सनातनम्‌ ।

    वर्णाश्रमाचारयुतं यत्पुमान्विन्दते परम्‌ ॥

    २॥

    श्री-युथिष्टिर: उबाच--महाराज युधिष्ठिर ने पूछा; भगवन्‌--हे प्रभु; श्रोतुम्‌ू--सुनने के लिए; इच्छामि--मेरी इच्छा है; नृणाम्‌--मानव समाज के; धर्मम्‌--वृत्तिपरक कार्यो को; सनातनम्‌--सामान्य तथा ( प्रत्येक के लिए ) नित्य; वर्ण-आश्रम-आचार-युतम्‌ू--समाज तथा आध्यात्मिक प्रगति के चार विभागों के सिद्धान्तों पर आधारित; यत्‌--जिससे; पुमान्‌ू--सामान्य लोग;विन्दते--शान्तिपूर्वक भोग कर सकते हैं; परम्‌ू--परम ज्ञान ( जिससे भक्ति प्राप्त की जा सकती है )॥

    महाराज युधिष्ठिर ने कहा : हे प्रभु, मैं आपसे धर्म के उन सिद्धान्तों के विषय में सुनने काइच्छुक हूँ जिनसे मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य भक्ति को प्राप्त कर सकता है।

    मैं मानव समाज केसामान्य वृत्तिपरक कर्तव्यों तथा वर्णाश्रम धर्म के नाम से विख्यात सामाजिक तथा आध्यात्मिकउन्नति की प्रणाली के विषय में सुनना चाहता हूँ।

    "

    भवान्प्रजापते: साक्षादात्मज: परमेष्ठटिन: ।

    सुतानां सम्मतो ब्रह्म॑स्‍्तपोयोगसमाधिभि: ॥

    ३॥

    भवान्‌--आप; प्रजापते:--प्रजापति ( ब्रह्मा ) के; साक्षात्‌-प्रत्यक्ष; आत्म-ज:--पुत्र; परमेष्ठटिन:--इस ब्रह्माण्ड के परम पुरुष( ब्रह्म ) को; सुतानाम्‌ू--सारे पुत्रों में से; सम्मतः--सर्व श्रेष्ठ माने हुए; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण श्रेष्ठ; तप:--तपस्या; योग--योगाभ्यास; समाधिभि:--तथा समाधि या चिन्तन द्वारा ( सभी तरह से आप उत्तम हैं )।

    हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, आप प्रजापति ( ब्रह्मा ) के साक्षात्‌ पुत्र हैं।

    आप अपनी तपस्या, योग तथासमाधि के कारण ब्रह्मा के समस्त पुत्रों में से सर्व श्रेष्ठ माने जाते हैं।

    "

    नारायणपरा विप्रा धर्म गुह्ंं परं विदु: ।

    करुणा: साधव: शान्तास्त्वद्विधा न तथापरे ॥

    ४॥

    नारायण-परा:-- भगवान्‌ के प्रति सदैव आज्ञाकारी रहने वाले; विप्रा:--ब्राह्मणों में श्रेष्ठ; धर्मम्‌--धार्मिक सिद्धान्त; गुहाम्‌--अत्यन्त गोपनीय; परमू-- परम; विदुः--जानते हैं; करुणा: --ऐसे व्यक्ति अत्यन्त दयालु होते हैं ( भक्त होने से ); साधव:--जिनका आचरण अत्यन्त श्रेष्ठ है; शान्ता:--शान्त; त्वत्‌ू-विधा:--आपके ही समान; न--नहीं; तथा--इस तरह; अपरे-- अन्य (भक्ति के अतिरिक्त अन्य विधियों के अनुयायी)

    शान्‍्त जीवन तथा दया में आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है और आपसे बढ़कर कोई यह नहीं जानताकि भक्ति किस तरह की जाये या ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ किस प्रकार बना जाये।

    अतएवं आप गुहायधार्मिक जीवन के समस्त सिद्धान्तों के जानने वाले हैं और आपसे बढ़कर उन्हें अन्य कोई नहींजानता।

    "

    श्रीनारद उबाचनत्वा भगवतेजाय लोकानां धर्मसेतवे ।

    वक्ष्ये सनातन धर्म नारायणमुखाच्छुतम्‌ ॥

    ५॥

    श्री-नारदः उवाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; नत्वा--नमस्कार करके; भगवते-- भगवान्‌ को; अजाय---अजन्मा, सदैव विद्यमान;लोकानाम्‌--सप्पूर्ण ब्रह्माण्ड भर के; धर्म-सेतवे-- धार्मिक सिद्धान्तों का रक्षक; वक्ष्ये--मैं बतलाऊँगा; सनातनम्‌--नित्य;धर्मम्‌--वृत्तिपरक कर्तव्य ( धर्म ); नारायण-मुखात्‌--नारायण के मुँह से; श्रुतम्‌--जिसे मैंने सुन रखा है।

    श्री नारद मुनि ने कहा : मैं सर्वप्रथम समस्त जीवों के धार्मिक सिद्धान्तों के रक्षक भगवान्‌कृष्ण को नमस्कार करके नित्य धार्मिक पद्धति ( सनातन धर्म ) के सिद्धान्तों को बताता हूं जिन्हेंमैंने नारायण के मुख से सुना है।

    "

    योउवतीर्यात्मनोउंशेन दाक्षायण्यां तु धर्मतः ।

    लोकानां स्वस्तये ध्यास्ते तपो बदरिकाश्रमे ॥

    ६॥

    यः--जो ( नारायण ); अवतीर्य--अवतार लेकर; आत्मन:--अपने; अंशेन--अंश ( नर ) के द्वारा; दाक्षायण्याम्‌--महाराज दक्षकी पुत्री दाक्षायणी के गर्भ में; तु--निस्सन्देह; धर्मतः--धर्म महाराज से; लोकानाम्‌--सारे लोगों के; स्वस्तये--लाभ हेतु;अध्यास्ते--सम्पन्न करता है; तप:--तपस्या; बदरिकाश्रमे --बद्विका श्रम नामक स्थान में |

    भगवान्‌ नारायण अपने अंश नर समेत इस संसार में दक्ष महाराज की मूर्ति नामक पुत्री सेप्रकट हुए।

    धर्म महाराज द्वारा उनका जन्म समस्त जीवों के लाभ हेतु था।

    वे आज भीबदरिकाश्रम नामक स्थान के निकट महान्‌ तपस्या करने में लगे हुए हैं।

    "

    धर्ममूलं हि भगवान्सर्ववेदमयो हरि: ।

    स्मृतं च तद्विदां राजन्येन चात्मा प्रसीदति ॥

    ७॥

    धर्म-मूलम्‌--धार्मिक सिद्धान्तों की जड़; हि--निस्सन्देह; भगवान्‌-- भगवान्‌; सर्व-वेद-मय:--समस्त वैदिक ज्ञान का सार;हरिः--परम पुरुष; स्मृतम्‌ च--तथा शास्त्र; तत्‌ू-विदाम्‌--परमे श्वर को जानने वाले का; राजनू--हे राजा; येन--जिससे; च--भी; आत्मा--आत्मा, मन, शरीर तथा हर वस्तु; प्रसीदति--पूर्णतया प्रसन्न हो जाती है

    परम पुरुष भगवान्‌ समस्त वैदिक ज्ञान के सार, समस्त धर्मों के मूल तथा महापुरुषों कीस्मृति हैं।

    हे राजा युधिष्ठटिर, इस धर्म के सिद्धान्त को प्रमाणस्वरूप समझना चाहिए।

    इसी धार्मिकसिद्धान्त के आधार पर सबों की तुष्टि होती है, यहाँ तक कि मनुष्य के मन, आत्मा तथा शरीरकी भी तुष्टि होती है।

    "

    सत्यं दया तपः शौच तितिक्षेक्षा शमो दम: ।

    अहिंसा ब्रह्मचर्य च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्‌ ॥

    ८॥

    सन्तोषः समहकसेवा ग्राम्येहोपरम: शनेः ।

    नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्‌ ॥

    ९॥

    अन्नाठ्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्च यथाईतः ।

    तेष्वात्मदेवताबुद्द्धि: सुतरां नृूषु पाण्डव ॥

    १०॥

    श्रवण कीर्तन चास्य स्मरणं महतां गतेः ।

    सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्‌ ॥

    ११॥

    नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहतः ।

    त्रिंशल्लक्षणवात्राजन्सर्वात्मा येन तुष्पति ॥

    १२॥

    सत्यम्‌-बिना तोड़े-मरोड़े सत्य का भाषण; दया-- प्रत्येक दुखी व्यक्ति पर सहानुभूति; तप:--तपस्या ( यथा एकादशी के दिनमास में दो बार उपवास करना ); शौचम्‌--स्वच्छता ( दिन में दो बार, सुबह-शाम, नियमित रूप से स्नान करना तथा भगवान्‌ केनाम का जप करना याद रखना ); तितिक्षा--सहनशक्ति ( ऋतु परिवर्तनों या असुविधाजनक परिस्थितियों में भी अश्षुब्ध रहना );ईक्षा--सद्‌-असद्‌ में अन्तर करना; शम:--मन का संयम ( मन को मनमाना कार्य न करने देना ); दम:--इन्द्रियों का संयम( इन्द्रियों को असंयमित न होने देना ); अहिंसा--अहिंसा ( किसी जीव को तीन प्रकार के तापों से पीड़ित न होने देना );ब्रह्मचर्यम्‌--अपने वीर्य का दुरुपयोग न होने देना ( अपनी पतली के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री से संभोग न करना तथा वर्जितअवसरों पर यथा मासिक धर्म के अवसर पर पत्नी के साथ संभोग न करना ); च--तथा; त्याग: -- अपनी आय का कम से कमपचास प्रतिशत दान में देना; स्वाध्याय:-- भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, रामायण, महाभारत जैसे दिव्य ग्रंथों का पठन ( अथवाजो बैदिक संस्कृति के लोग नहीं हैं, उनके द्वारा बाइबिल या कुरान का पठन ); आर्जवम्‌--सादगी( मानसिक द्वन्द्द से मुक्ति );सनन्‍्तोष:--कठिन प्रयास के बिना जो भी उपलब्ध हो उसी में सन्तुष्ट रहना; समहक्‌-सेवा--उन साधु पुरुषों की सेवा करना जोएक जीव तथा दूसरे जीव में अन्तर नहीं करते तथा जो प्रत्येक जीव को आत्मा के रूप में देखते हैं ( पण्डिता: समदर्शिनः );ग्राम्य-ईह-उपरम:--तथाकथित परोपकारी कार्यो में भाग न लेते हुए; शनैः-- धीरे-धीरे; नृणाम्‌--मानव समाज में; विपर्यय-ईहा--अनावश्यक कार्य; ईक्षा--वाद-विवाद; मौनम्‌--गम्भीर तथा शान्त रहना; आत्म--अपने में; विमर्शनम्‌--शोध ( यह किमनुष्य शरीर है या आत्मा ); अन्न-आद्य-आदे:--अन्न, पेय आदि का; संविभाग:--समान वितरण; भूतेभ्य:--विभिन्न जीवों केलिए; च-- भी; यथा-अर्हत:--अनुकूल; तेषु--सारे जीवों में; आत्म-देवता-बुर्द्धि:--आत्मा या देवताओं के रूप में स्वीकारकरना; सुतराम्‌ू--प्रारम्भिक रूप से; नृषु--सारे मनुष्यों में; पाण्डब--हे महाराज युथिष्ठटिर; श्रवणम्‌--सुनना; कीर्तनम्‌-कीर्तनकरना; च--भी; अस्य--उस ( भगवान ) का; स्मरणम्‌--स्मरण करना ( भगवान्‌ के शब्दों तथा कार्यों का ); महताम्‌--महापुरुषों का; गतेः-- आश्रय स्वरूप; सेवा--सेवा; इज्या-- पूजा; अवनति:ः --नमस्कार करना; दास्यम्‌--सेवा करना;सख्यम्‌--मित्र मानना; आत्म-समर्पणम्‌--अपना सब कुछ अर्पित कर देना; नृणाम्‌--सारे मनुष्यों का; अयम्‌--यह; पर: --सर्वश्रेष्ठ; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; सर्वेषामू--सबों में; समुदाहृतः --पूर्णतया वर्णित; त्रिंशत्‌-लक्षण-वान्‌--तीस लक्षणों सेयुक्त; राजनू--हे राजा; सर्व-आत्मा--सबों का परमात्मा; येन--जिससे; तुष्यति--तुष्ट होता है |

    सभी मनुष्यों को जिन सामान्य नियम का पालन करना होता है, ये हैं--सत्य, दया, तपस्या,( महीने में कुछ दिन उपवास करना ), दिन में दो बार स्नान, सहनशीलता , अच्छे बुरे काविवेक, मन का संयम, इन्द्रिय संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दान, शास्त्रों का अध्ययन, सादगी,सन्तोष, साधु पुरुषों की सेवा, अनावश्यक कार्यों से क्रमशः अवकाश लेना, मानव समाज केअनावश्यक कार्यों की व्यर्थता समझना, गम्भीर तथा शान्त बने रहना एवं व्यर्थ की बातें करने सेबचना, मनुष्य शरीर या इस आत्मा के विषय में विचार करना, सभी जीवों ( पशुओं तथामनुष्यों ) में अन्न का समान वितरण करना, प्रत्येक आत्मा को ( विशेषतया मनुष्य को ) परमेश्वरका अंश मानना, भगवान्‌ के कार्यकलापों तथा उनके उपदेशों को सुनना ( भगवान्‌ साधु पुरुषोंके आश्रय हैं ), इन कार्यों तथा उपदेशों का कीर्तन करना, इनका नित्य स्मरण करना, सेवाकरने का प्रयास, पूजा करना, नमस्कार करना, दास बनना, मित्र बनना और आत्म-समर्पणकरना।

    हे राजा युथ्रिष्टिर, मनुष्य जीवन में इन तीस गुणों को अर्जित करना चाहिए मनुष्य इनगुणों को अर्जित करने मात्र से भगवान्‌ को प्रसन्न कर सकता है।

    "

    संस्कारा यत्राविच्छिन्ना: स द्विजोडउजो जगाद यम्‌ ।

    इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम्‌ ।

    जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्वा भ्रमचोदिता: ॥

    १३॥

    संस्कारा:--संस्कार, शुद्द्विकरण की विधियाँ; यत्र--जिसमें; अविच्छिन्ना:--बिना किसी क्रम भंग के; सः--ऐसा व्यक्ति; द्वि-जः--दो बार जन्मा; अज:--ब्रह्मा ने; जगाद--विधान किया; यम्‌--जो; इज्या--पूजा; अध्ययन--वेदाध्ययन; दानानि--तथादान; विहितानि--बताये गये; द्वि-जन्मनाम्‌--द्विजों का; जन्म--जन्म से; कर्म--तथा कर्म से; अवदातानामू--विमल, पवित्र;क्रिया:--कार्यकलाप; च-- भी; आश्रम-चोदिता:--चारों आश्रमों के लिए संस्तुत।

    जो लोग अविच्छिन्न रूप से वैदिक मंत्रों द्वारा सम्पन्न होने वाले गर्भाधान संस्कार तथा अन्यनियत विधियों द्वारा शुद्ध किये जा चुके हैं तथा जिनकी स्वीकृति ब्रह्मा द्वारा दी जा चुकी है, वेद्विज कहलाते हैं।

    ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जो अपनी पारिवारिक परम्परा तथा अपनेआचरण द्वारा शुद्ध किये जा चुके हैं उन्हें चाहिए कि भगवान्‌ की पूजा करें, वेदों का अध्ययनकरें तथा दान दें।

    इस पद्धति में उन्हें आश्रमों ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास ) केनियमों का पालन करना चाहिए।

    "

    विप्रस्याध्ययनादीनि षडन्यस्याप्रतिग्रह: ।

    राज्ञो वृत्ति: प्रजागोप्तुरविप्राद्या करादिभि: ॥

    १४॥

    विप्रस्थ--ब्राह्मण का; अध्ययन-आदीनि--वेदाध्ययन इत्यादि; षघट्‌ू--छ:ः ( वेदों का अध्ययन, वेदों का अध्यापन, दैव पूजा,अन्यों को पूजा-विधि बताना, दान ग्रहण करना तथा दान देना ); अन्यस्य--ब्राह्मण के अलावा अन्य ( क्षत्रियों ) का;अप्रतिग्रह:--अन्यों से दान लिए बिना ( क्षत्रिय ब्राह्मणों के लिए नियत अन्य पाँच कर्तव्य निभा सकता है ); राज्ञ:--क्षत्रिय की;वृत्तिः--जीविका का साधन; प्रजा-गोप्तु:--प्रजा के पालक; अविप्रात्‌--जो ब्राह्मण नहीं हैं उससे; वा--अथवा; कर-आदिभिः--कर, दण्ड हेतु, जुर्माना आदि वसूल करके |

    ब्राह्मण के लिए छः वृत्तिपरक कर्तव्य हैं।

    क्षत्रिय के लिए दान लेना वर्जित है किन्तु वहइनमें से अन्य पाँच कर्तव्य कर सकता है।

    राजा या क्षत्रिय को ब्राह्मण से कर वसूलने कीअनुमति नहीं है, किन्तु वह अपनी अन्य प्रजा पर न्यूनतम कर तथा दण्ड के लिए जुर्माना लगाकरअपनी जीविका चला सकता है।

    "

    वैश्यस्तु वातवित्ति: स्यान्नित्यं ब्रहाकुलानुग: ।

    शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा वृत्तिश्व स्वामिनो भवेत्‌ ॥

    १५॥

    वैश्य:--व्यवसायी वर्ग; तु--निस्सन्देह; वार्ता-वृत्तिः--कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार में लगे; स्थात्‌--हो; नित्यम्‌--सदैव; ब्रह्म-कुल-अनुग:--ब्राह्मणों के निर्देशों का पालन करते हुए; शूद्रस्थ-- श्रमिकों का, चतुर्थ श्रेणी के लोग; द्विज-शुश्रूषा --तीन उच्चवर्गों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ) की सेवा; वृत्ति:--जीविका-साधन; च--तथा; स्वामिनः -- स्वामी; भवेत्‌--उसे होनाचाहिए।

    व्यवसायी वर्ग को सदैव ब्राह्मणों के आदेशों का पालन करना चाहिए और कृषि, व्यापारतथा गोरक्षा जैसे वृत्तिपरक कर्तव्यों में लगे रहना चाहिए।

    शूद्र का एकमात्र कर्तव्य है उच्चवर्ण मेंसे किसी को स्वामी बनना और उस की सेवा करना।

    "

    वार्ता विचित्रा शालीनयायावरशिलोड्छनम्‌ ।

    विप्रवृत्तिश्चतुर्थयं श्रेयसी चोत्तरोत्तरा ॥

    १६॥

    वार्ता--वैश्य की जीविका का साधन ( कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार ); विचित्रा--विभिन्न प्रकार; शालीन--बिना प्रयास के प्राप्तजीविका; यायावर--थोड़ा धान माँगने के लिए खेत में जाना; शिल--खेत में गिरे हुए अन्न को चुनना; उज्छनम्‌--दूकानों मेंबोरों से गिरे हुए अन्न को चुनना; विप्र-वृत्ति:--ब्राह्मणों की जीविका; चतुर्धा--चार प्रकार की; इयम्‌--यह; श्रेयसी --श्रेयस्कर, श्रेष्ठतर; च-- भी; उत्तर-उत्तरा--उत्तरोत्तर।

    विकल्प के रूप में ब्राह्मण वैश्य की कृषि, गोरक्षा या व्यापार की वृत्तियाँ ग्रहण कर सकताहै।

    जो कुछ बिना माँगे मिल जाये वह उस पर आश्रित रह सकता है, वह प्रति दिन धान के खेतमें जाकर भिक्षा माँग सकता है, वह स्वामी द्वारा खेत में थोडा अन्न इकट्ठा कर सकता है; या अन्न के व्यापारियों की दूकान में पिछले गिरे हुए अन्न को एकत्र कर सकता है।

    जीविका के ये चारसाधन हैं जिन्हें ब्राह्मण भी अपना सकते हैं।

    इन चारों में से प्रत्येक साधन अपने पिछेले से( उत्तरोत्तर ) श्रेष्ठ है।

    "

    जघन्यो नोत्तमां वृत्तिमनापदि भजेन्नर: ।

    ऋते राजन्यमापत्सु सर्वेषामपि सर्वशः ॥

    १७॥

    जघन्य:--निम्न ( पुरुष ); न--नहीं; उत्तमाम्‌ू--उच्च; वृत्तिमू--जीविका का साधन; अनापदि--जहाँ सामाजिक उपद्गव नहींहोते; भजेत्‌--स्वीकार करे; नर:--मनुष्य; ऋते--के अतिरिक्त; राजन्यमू--क्षत्रिय का व्यवसाय; आपत्सु--आपात्काल में;सर्वेषाम्‌--जीवन के प्रत्येक स्तर के प्रत्येक व्यक्ति का; अपि--निश्चय ही; सर्वश:--सारे

    व्यवसाय या वृत्तिपरक कर्तव्यआपात्काल के अतिरिक्त निम्न लोगों को उच्च वर्ग के वृत्तिपरक कार्य नहीं करने चाहिए।

    हाँ, यदि आपात्काल हो तो क्षत्रिय के अतिरिक्त अन्य सभी लोग अन्यों की जीविकाएँ स्वीकारकर सकते हैं।

    "

    ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा ।

    सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत््या कदाचन ।

    ऋतमुज्छशिल प्रोक्तममृतं यदयाचितम्‌ ॥

    १८ ॥

    मृतं तु नित्ययाच्ञा स्यात्प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्‌ ।

    सत्यानृतं च वाणिज्यं श्ववृत्तिनीचसेवनम्‌ ॥

    १९॥

    वर्जयेत्तां सदा विप्रो राजन्यश्न जुगुप्सिताम्‌ ।

    सर्ववेदमयो विप्र: सर्वदेवमयो नृपः ॥

    २०॥

    ऋत-अमृता भ्याम्‌ू--ऋत तथा अमृत नामक वृत्तियों से; जीवेत--जीवित रहे; मृतेन--मृत वृत्ति द्वारा; प्रमतेन बा-- अथवा प्रमृतवृत्ति द्वारा; सत्यानृताभ्याम्‌ अपि--सत्य अनृत वृत्ति के द्वारा भी; वा--अथवा; न--कभी नहीं; श्व-वृत्त्या--कूकर वृत्ति द्वारा;कदाचन--कभी भी; ऋतम्‌--ऋत; उब्छशिलम्‌--खेत या बाजार से गिरे अन्न बीनने की वृत्ति; प्रोक्तमू--कहा गया; अमृतम्‌--अमृत वृत्ति; यत्‌--जो; अयाचितम्‌--किसी से माँगे बिना प्राप्त; मृतम्‌--मृत की वृत्ति; तु--लेकिन; नित्य-याच्ञा-- प्रतिदिनकिसानों से अन्न की भीख माँगना; स्थात्‌--हो; प्रमृतम्‌--प्रमृत वृत्ति; कर्षणम्‌--खेत जोतना; स्मृतम्‌--ऐसा स्मरण किया जाताहै; सत्यानृतम्‌--सत्यानृत वृत्ति; च--तथा; वाणिज्यम्‌--व्यापार; श्व-वृत्ति:--कूकरों की वृत्ति; नीच-सेवनम्‌--नीचों ( वैश्योंतथा शूद्रों ) की सेवा; वर्जयेत्‌--छोड़ देनी चाहिए; ताम्‌--उसको ( कूकर वृत्ति ); सदा--सदैव; विप्र: --ब्राह्मण; राजन्य: च--तथा क्षत्रिय; जुगुप्सिताम्‌ू--अत्यन्त ग्हित; सर्व-वेद-मय:--सारे वैदिक ज्ञान में पटु; विप्र:--ब्राह्मण; सर्व-देव-मयः--साक्षात्‌समस्त देवता; नृप:--क्षत्रिय या राजा)

    आपात्काल में मनुष्य ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत तथा सत्यनृत नामक विभिन्न वृत्तियों में सेकिसी एक को स्वीकार कर सकता है।

    किन्तु कूकर वृत्ति से कभी नहीं अपनानी चाहिए।

    उज्छशिल वृत्ति में अर्थात्‌ खेती से अन्न एकत्र करने की वृत्ति को होता है।

    इसे ही ऋत कहते हैं।

    बिना भीख माँगे एकत्र करना अमृत कहलाता है, अन्न की भीख माँगना मृत है, जमीन कोजोतना प्रमृत है और व्यापार करना सत्यानृत है।

    किन्तु निम्न पुरुषों की सेवा करना श्रवृत्ति याकूकर वृत्ति कहलाती है।

    विशेषतः ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों को शूद्रों की निम्न तथा गर्हित सेवा मेंनही लगना चाहिए।

    ब्राह्मणों को समस्त वैदिक ज्ञान में पटु होना चाहिए और क्ष्त्रियों कोदेवताओं की पूजा से भली भान्ति परिचित होना चाहिए।

    "

    शमो दमस्तपः शौच सन्‍्तोष: क्षान्तिराज॑वम्‌ ।

    ज्ञानं दयाच्युतात्मत्वं सत्यं च ब्रह्मलक्षणम्‌ ॥

    २१॥

    शमः--मन का संयम; दमः--इन्द्रिय संयम; तप:--तपस्या; शौचम्‌--पतवित्रता; सन्तोष: --तुष्टि; क्षान्ति:--क्षमाशीलता ( क्रोधसे विश्लुब्ध न होना ); आर्जवम्‌--सरलता; ज्ञानम्‌--ज्ञान; दया--दया; अच्युत-आत्मत्वम्‌-- अपने को ईश्वर का नित्य दासमानना; सत्यम्‌्-सत्य; च--भी; ब्रह्म-लक्षणम्‌--ब्राह्मण के लक्षण

    ब्राह्मण के लक्षण इस प्रकार हैं--मन का संयम, इन्द्रिय संयम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष,क्षमाशीलता, सरलता, ज्ञान, दया, सत्य तथा भगवान्‌ के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण ।

    "

    शौर्य वीर्य धृतिस्तेजस्त्यागश्चात्मजय: क्षमा ।

    ब्रह्मण्यता प्रसादश्च सत्यं च क्षत्रलक्षणम्‌ ॥

    २२॥

    शौर्यम्‌--युद्ध में पराक्रम; वीर्यम्‌ू--अजेय होना; धृतिः--धैर्य ( यहाँ तक कि हारने पर भी क्षत्रिय गम्भीर रहता है ); तेज:--अन्यों को पराजित करने की सामर्थ्य; त्याग:--दान देना; च--तथा; आत्म-जय: --शारीरिक आवश्यकताओं से अभिभूत नहोना; क्षमा-- क्षमाशीलता; ब्रह्मण्यता--ब्राह्मण नियमों के प्रति आज्ञाकारिता; प्रसाद:--जीवन की किसी भी परिस्थिति मेंप्रसन्न रहना; च--तथा; सत्यम्‌ च--तथा सत्य; क्षत्र-लक्षणम्‌--ये क्षत्रिय के लक्षण हैं।

    युद्ध में प्रभावशाली, अजेय, थेर्यवान, तेजवान तथा दानवीर होना, शारीरिकआवश्यकताओं को वश्ञ में करना, क्षमाशील होना, ब्राह्मण नियमों का पालन करना तथा सदैवप्रसन्न रहना और सत्यनिष्ठ होना--ये क्षत्रिय के लक्षण हैं।

    "

    देवगुर्वच्युते भक्तिस्त्रिवर्गपरिपोषणम्‌ ।

    आस्तिक्यमुद्यमो नित्य॑ नैपुण्यं वैश्यलक्षणम्‌ ॥

    २३॥

    देव-गुरु-अच्युते--देवताओं, गुरु तथा भगवान्‌ विष्णु में; भक्ति:-- भक्तिभाव; त्रि-वर्ग--पवित्र जीवन के तीन सिद्धान्तों ( धर्म,अर्थ तथा काम ) का; परिपोषणम्‌--सम्पन्न होना; आस्तिक्यम्‌-शास्त्रों, गुरु तथा परमे श्वर में श्रद्धा; उद्यम:--सक्रिय;नित्यमू--निरन्तर, अनवरत; नैपुण्यम्‌--निपुणता; वैश्य-लक्षणम्‌--वैश्य के लक्षण |

    देवता, गुरु तथा भगवान्‌ विष्णु के प्रति सदैव अनुरक्ति, धर्म, अर्थ तथा काम मेंप्रयलशीलता; गुरु तथा शास्त्र के शब्द में विश्वास; तथा धनार्जन में निपुणता सहित प्रयलशीलहोना--ये वैश्य के लक्षण हैं।

    "

    शूद्रस्य सन्नतिः शौचं सेवा स्वामिन्यमायया ।

    अमन्त्रयज्ञो हास्तेयं सत्यं गोविप्ररक्षणम्‌ ॥

    २४॥

    शूद्रस्थ--शूद्र ( समाज के चतुर्थ वर्ण, श्रमिक ) का; सन्नतिः--उच्च वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ) के प्रति आज्ञाकारिता;शौचम्‌--पवित्रता; सेवा--सेवा भाव; स्वामिनि--अपने पालने वाले स्वामी के प्रति; अमायया--द्विविधता के बिना; अमन्त्र-यज्ञ:--बिना मंत्रों के यज्ञ करना; हि--ही; अस्तेयम्‌--चोरी न करने का अभ्यास; सत्यम्‌ू--सत्य; गो--गाय; विप्र--ब्राह्मणकी; रक्षणम्‌--रक्षा |

    समाज के उच्च वर्णों ( ब्राह्मणों, क्षत्रिय तथा वैश्यों ) को नमस्कार करना, सदैव स्वच्छरहना, द्वैतभाव से मुक्त रहना, अपने स्वामी की सेवा करना, मंत्र पढ़े बिना यज्ञ करना, चोरी नकरना, सदा सत्य बोलना तथा गायों एवं ब्राह्मणों को सदा संरक्षण प्रदान करना--ये शूद्र केलक्षण हैं।

    "

    स्त्रीणां च पतिदेवानां तच्छुश्रूषानुकूलता ।

    तद्वन्धुष्वनुवृत्तिश्च नित्यं तद्व्रतधारणम्‌ ॥

    २५॥

    स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों का; च-- भी; पति-देवानाम्‌--जिन्होंने अपने पतियों को पूज्य मान रखा है; तत्‌-शुश्रूषा-- अपने पति कीसेवा करने में तत्परता; अनुकूलता--अपने पति के प्रति अनुकूल रहना; ततू-बन्धुषु--पति के मित्रों तथा सम्बन्धियों में;अनुवृत्ति:--उसी प्रकार अनुकूलता ( पति के सन्‍्तोष के लिए उनसे भी सद्व्यवहार करना ); च--तथा; नित्यम्‌ू--नियमित रूपसे; तत्‌-ब्रत-धारणम्‌-पति के ब्रतों को स्वीकार करते हुए अथवा पति के अनुसार कर्म करना।

    पति की सेवा करना, अपने पति के अनुकूल रहना, पति के सम्बन्धियों तथा मित्रों के प्रतिभी समान रूप से अनुकूल रहना तथा पति के ब्रतों का पालन करना--ये चार नियम पतिब्रतास्त्री के लिए पालनीय हैं।

    "

    सम्मार्जनोपलेपाभ्यां गृहमण्डनवर्तनै: ।

    स्वयं च मण्डिता नित्यं परिमृष्टपरिच्छदा ॥

    २६॥

    कामैरुच्चावचे: साध्वी प्रश्रयेण दमेन च ।

    वाक्यै: सत्य: प्रियैः प्रेम्णा काले काले भजेत्पतिम्‌ ॥

    २७॥

    सम्मार्जन--साफ करने; उपलेपाभ्यामू--जल या तरल पदार्थ से लीपने; गृह--घर; मण्डन--सजाने; वर्तनैः--घर में रहकर ऐसेकार्यों में व्यस्त रहने; स्ववम्‌--खुद; च-- भी; मण्डिता--सुन्दर वस्त्रों से विभूषित; नित्यमू--सदैव; परिमृष्ट-- स्वच्छ किया;परिच्छदा--वस्त्र तथा घरेलू बर्तन; कामैः--पति की इच्छानुसार; उच्च-अवचै: --बड़ा तथा छोटा दोनों; साध्वी--पतित्रता स्त्री;प्रश्रयेण--विनयपूर्वक; दमेन--इन्द्रिय संयम से; च-- भी; वाक्यै:--वाणी से; सत्यैः --सत्य से; प्रियैः--अत्यन्त सुहावने;प्रेम्णा--प्रेमपूर्वक; काले काले--अनुकूल समय पर; भजेत्‌--पूजा करे; पतिम्‌ू--पति की |

    पतिक्रता ( साध्वी ) स्त्री को चाहिए कि अपने पति की प्रसन्नता के लिए स्वयं को अच्छे-अच्छे वस्त्रों से सजाये तथा स्वर्णाभूषणों से अलंकृत हो।

    सदैव स्वच्छ तथा आकर्षक वस्त्रपहने।

    अपना घर बुहारे तथा उसे पानी तरल पदार्थों से धोए जिससे सारा घर सदा शुद्ध तथास्वच्छ रहे।

    उसे गृहस्थी की सामग्री एकत्र करनी चाहिए और घर को अगुरु तथा पुष्पों सेसुगन्धित रखना चाहिए।

    उसे अपने पति की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

    साध्वीस्त्री को विनीत तथा सत्यनिष्ठ रहकर, अपनी इन्द्रियों पर संयम रख कर तथा मधुर वचन बोलकरकाल तथा परिस्थिति के अनुसार अपने पति की प्रेमपूर्ण सेवा में लगना चाहिए।

    "

    सन्तुष्टालोलुपा दक्षा धर्मज्ञा प्रियसत्यवाक्‌ ।

    अप्रमत्ता शुचि: स्निग्धा पतिं त्वपतितं भजेत्‌ ॥

    २८॥

    सन्तुष्टा-- सदैव तुष्ठ; अलोलुपा--लालची हुए बिना; दक्षा--सेवा करने में पटु; धर्म-ज्ञा-- धार्मिक नियमों से पूर्णतया परिचित;प्रिय--सुहावना; सत्य--सत्यनिष्ठ; वाक्‌--बोलने में; अप्रमत्ता--अपने पति की सेवा में दत्तचित; शुचिः--सदैव स्वच्छ तथाशुद्ध; स्निग्धा--स्नेहिल; पतिम्‌--पति को; तु--लेकिन; अपतितम्‌--जो पतित नहीं है; भजेत्‌--पूजा करे

    साध्वी स्त्री को लालची नहीं होना चाहिए, अपितु उसे सभी परिस्थितियों में संतुष्ट रहनाचाहिए।

    उसे गृहस्थी के काम-काज में अत्यन्त पटु होना चाहिए और धार्मिक नियमों से पूर्णतयाअवगत होना चाहिए।

    उसे मधुर तथा सत्यभाषिणी होना चाहिए; उसे अत्यन्त सतर्क तथा सदैव शुद्ध एवं पवित्र रहना चाहिए।

    इस प्रकार एक साध्वी स्त्री को उस पति की प्रेमपूर्वक सेवा करनीचाहिए जो पतित न हो।

    "

    या पति हरिभावेन भजेत्श्रीरिव तत्परा ।

    हर्यात्मना हरेलोंकि पत्या श्रीरिव मोदते ॥

    २९॥

    या--जो स्त्री; पतिमू--अपने पति को; हरि-भावेन--मानसिक रूप से उसे हरि या भगवान्‌ के समान मानकर; भजेत्‌--पूजाकरती है या सेवा करती है; श्री: इब--लक्ष्मी के समान; तत्‌-परा--अनुरक्त होकर; हरि-आत्मना--हरि के विचारों में लीन; हरेः लोके--आध्यात्मिक जगत या बैकुण्ठलोक में; पत्या--अपने पति के साथ; श्री: इब--लक्ष्मी के सहश; मोदते--आध्यात्मिकनित्य जीवन का भोग करती है।

    जो स्त्री लक्ष्मी जी के पदचिन्हों पर पूरी तरह चलकर अपने पति की सेवा में लगी रहती है,वह निश्चित रूप से अपने भक्त पति के साथ भगवद्धाम वापस जाती है और वैकुण्ठलोक मेंअत्यन्त सुखपूर्वक रहती है।

    "

    वृत्ति: सड्भूरजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत्‌ ।

    अचौराणामपापानामन्त्यजान्तेवसायिनाम्‌ ॥

    ३०॥

    वृत्तिः--वृत्तिपरक कर्तव्य; सट्ढटर-जातीनाम्‌-मिश्रित वर्णो के लोगों का ( चारों वर्णो के अतिरिक्त ); तत्‌ू-तत्‌--वे-वे; कुल-कृता--पारिवारिक परम्परा; भवेत्‌--हो; अचौराणाम्‌--जो वृत्ति से चोर नहीं हैं; अपापानाम्‌--जो पापी नहीं हैं; अन्त्यज--निम्न वर्ग के; अन्तेबसायिनामू--अन्तेवसायी या चाण्डाल नाम से ज्ञात

    संकर जातियों में से जो चोर नहीं होते वे अन्तेबसायी या चण्डाल ( कुत्ता खाने वाले )कहलाते हैं और उनके कुल में चले आने वाले रीति-रिवाजों को होते हैं।

    "

    प्राय: स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे ।

    वेदहृग्भि: स्मृतो राजन्प्रेत्य चेह च शर्मकृत्‌ ॥

    ३१॥

    प्राय:--सामान्यतया; स्व-भाव-विहितः--नियत, अपने गुण के अनुसार; नृणाम्‌ू--मानव समाज का; धर्म:--वृत्तिपरककर्तव्य; युगे युगे-- प्रत्येक युग में; वेद-हग्भिः--वैदिक ज्ञान में पारंगत ब्राह्मण के द्वारा; स्मृत:--मान्य; राजनू--हे राजा;प्रेत्य--मृत्यु के बाद; च--तथा; इह--यहाँ ( इस शरीर में ); च-- भी; शर्म-कृतू--शुभ, कल्याणकारी |

    हे राजन, वैदिक ज्ञान में पारंगत ब्राह्मणों का निर्णय है कि प्रत्येक युग में अपने-अपनेभौतिक गुणों के अनुसार विभिन्न वर्णों के लोगों का आचरण इस जीवन में तथा अगले जीवनमें कल्याणकारी होता है।

    "

    वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमान: स्वकर्मकृत्‌ ।

    हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात्‌ ॥

    ३२॥

    वृत््या--वृत्ति से; स्व-भाव-कृतया--अपने भौतिक गुणों के अनुसार किया गया; वर्तमान:--विद्यमान; स्व-कर्म-कृत्‌--अपना-अपना कार्य करते हुए; हित्वा--त्याग कर; स्व-भाव-जम्‌--अपने ही गुणों से उत्पन्न; कर्म--कार्य ; शनैः -- धीरे-धीरे;निर्गुणतामू--दिव्य स्थिति; इयात्‌-- प्राप्त कर सकता है।

    यदि कोई अपनी प्रकृति जन्य भौतिक स्थिति के अनुसार अपना वृत्तिपरक कार्य करता हैतथा धीरे-धीरे इन कार्यों को छोड़ देता है, तो उसे निष्काम अवस्था प्राप्त हो जाती है।

    "

    उप्यमान मुहुः क्षेत्र स्वयं निर्वीर्यतामियात्‌ ।

    न कल्पते पुनः सूत्यै उप्तं बीज॑ च नश्यति ॥

    ३३॥

    एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया ।

    विरज्येत यथा राजन्नग्निवत्कामबिन्दुभि: ॥

    ३४॥

    उप्यमानम्‌--इस प्रकार जोतने से; मुहुः--पुनः-पुन:; क्षेत्रमू--खेत; स्वयम्‌--अपने आप; निर्वार्यताम्‌--बंजर; इयात्‌--हो जाताहै; न कल्पते--उपयुक्त नहीं है; पुन:--फिर; सूत्यै--अगली फसल उगाने के लिए; उप्तम्‌--बोया गया; बीजम्‌--बीज; च--तथा; नश्यति--नष्ट हो जाता है; एवम्‌--इस प्रकार; काम-आशयम्‌--कामेच्छाओं से पूर्ण; चित्तम्‌--अन्तःकरण; कामानामू--वांछित वस्तुओं के; अति-सेवया--बारम्बार भोग के कारण; विरज्येत--विरक्त हो सकता है; यथा--जिस तरह; राजनू--हेराजा; अग्नि-वत्‌--अग्नि; काम-बिन्दुभि:--घी की छोटी-छोटी बूँदों से |

    हे राजनू, यदि कोई खेत को बारम्बार जोता-बोया जाता है, तो उसकी उत्पादन शक्ति घटजाती है और जो भी बीज बोये जाते हैं वे नष्ट हो जाते हैं।

    जिस प्रकार घी की एक एक बूँदडालने से अग्नि कभी नहीं बुझती अपितु घी की धारा से वह बुझ जाएगी उसी प्रकारविषयवासना में अत्यधिक लिप्त होने पर ऐसी इच्छाएँ पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं।

    "

    यस्य यल्‍लक्षणं प्रोक्त पुंसो वर्णाभिव्यज्ञकम्‌ ।

    यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनेव विनिर्दिशेत्‌ ॥

    ३५॥

    यस्य--जिसका; यत्‌--जो; लक्षणम्‌--लक्षण; प्रोक्तम्‌--कहे गये ( ऊपर ); पुंसः --मनुष्य के; वर्ण-अभिव्यज्ञलकम्‌--विभाजनको सूचित करने वाले ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इत्यादि ); यत्‌--यदि; अन्यत्र--कहीं और; अपि-- भी; दृश्येत--देखाजाता है; तत्‌ू--वह; तेन--उस लक्ष्य से; एब--निश्चय ही; विनिर्दिशेत्‌--उसका नाम धरना चाहिए।

    यदि कोई उपर्युक्त प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के लक्षण प्रदर्शित करता है, तोभले ही वह भिन्न जाति का क्‍यों न हो, उसे वर्गीकरण के उन लक्षणों के अनुसार स्वीकार किया जाना चाहिए।

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    अध्याय बारह: उत्तम समाज: चार आध्यात्मिक वर्ग

    7.12श्रीनारद उवाचब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोहितम्‌ ।

    आचरन्दासवन्नीचो गुरौ सुदहहसौहद: ॥

    १॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; ब्रह्मचारी--गुरु के घर पर रहने वाला विद्यार्थी, ब्रह्मचारी; गुरु-कुले--गुरु केनिवासस्थान पर; वसन्‌--रहते हुए; दान्तः--निरन्तर इन्द्रिय संयम करते हुए; गुरो: हितम्‌ू--केवल गुरु के लाभ के लिए ( अपनेलाभ के लिए नहीं ); आचरन्‌--अभ्यास करते हुए; दास-वत्‌--दास के समान अत्यन्त विनीत होकर; नीच:--विनप्र; गुरौ--गुरु में; सु-हढ--इहढ़तापूर्वक; सौहद:--मित्रता में या शुभकामना में |

    नारद मुनि ने कहा : विद्यार्थी को चाहिए कि वह अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखने काअभ्यास करे।

    उसे विनीत होना चाहिए और गुरु के साथ हृढ़ मित्रता की प्रवृत्ति रखनी चाहिए।

    ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह महान्‌ ब्रत लेकर गुरुकुल में केवल अपने गुरु के लाभ ही रहे।

    "

    सायं प्रातरुपासीत गुर्वग्न्यर्कसुरोत्तमान्‌ ।

    सन्ध्ये उभे च यतवाग्जपन्ब्रह् समाहित: ॥

    २॥

    सायमू--संध्या समय; प्रातः--प्रातः काल; उपासीत--पूजा करे; गुरु--गुरु; अग्नि--आग ( अग्नि यज्ञ द्वारा ); अर्क--सूर्य ;सुर-उत्तमानू--तथा पुरुषों में श्रेष्ठ ( पुरुषोत्तम ) भगवान्‌ विष्णु को; सन्ध्ये--प्रातः: तथा सायंकाल; उभे--दोनों; च-- भी; यत-वाक्‌--बिना बोले, मौन रहकर; जपन्‌--मन ही मन गुनगुनाते हुए; ब्रह्म-- गायत्री मंत्र में; समाहित:--पूर्णतया लीन

    दिन तथा रात्रि के संधिकाल में अर्थात्‌ प्रातःकाल तथा संध्या समय उसे गुरु, अग्नि, सूर्यदेवतथा भगवान्‌ विष्णु के विचारों में लीन रहना चाहिए और गायत्री मंत्र को जपते हुए उनकी पूजाकरनी चाहिए।

    "

    छन्दांस्यधीयीत गुरोराहूतश्ेत्सुयन्त्रितः ।

    उपक्रमेउवसाने च चरणौ शिरसा नमेत्‌ ॥

    ३॥

    छन्दांसि--वेदों के मंत्र यथा हरे कृष्ण महामंत्र तथा गायत्री मंत्र; अधीयीत--उच्चारण करे या नियम से पढ़े; गुरो:--गुरु से;आहूत:--बुलाया जाकर; चेत्‌--यदि; सु-यन्त्रितः:-- आज्ञाकारी, सभ्य; उपक्रमे--प्रारम्भ में; अवसाने--अन्त में ( वेद मंत्रों केपढ़ने में ); च-- भी; चरणौ--चरणकमलों पर; शिरसा--सिर के बल; नमेत्‌--नमस्कार करे

    गुरु द्वारा बताए जाने पर विद्यार्थी को चाहिए कि वह उनसे नियमपूर्वक वैदिक मंत्रों काअध्ययन करे।

    शिष्य को प्रतिदिन अपना अध्ययन प्रारम्भ करने के पूर्व तथा अध्ययन के अन्त मेंअपने गुरु को सादर नमस्कार करना चाहिए।

    "

    मेखलाजिनवासांसि जटादण्डकमण्डलून्‌ ।

    बिभूयादुपवीतं च दर्भपाणिर्यथोदितम्‌ ॥

    ४॥

    मेखला--मूँज की मेखला; अजिन-वासांसि--मृगचर्म से बने वस्त्र; जटा--बालों की जटा; दण्ड--डण्डा; कमण्डलूनू--'कमण्डल या जलपात्र; बिभूयात्‌-- उसे ( ब्रह्मचारी को ) सदैव पहनना या लिये रहना चाहिए; उपवीतम्‌ च--तथा जनेऊ; दर्भ-पाणि:--शुद्ध कुश हाथ में लिये; यथा उदितम्‌--शास्त्रों में बताई विधि से

    अपने हाथ में शुद्ध कुश घास लिए हुए ब्रह्मचारी को मूँज की मेखला तथा मृगछाला कावस्त्र पहनना चाहिए।

    उसे शास्त्रोक्त विधि से जटा रखना चाहिए, दण्ड धारण करना चाहिए,कमण्डल लेना चाहिए और यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।

    "

    सायं प्रातश्चरेद्धैक्ष्यं गुरवे तन्निवेदयेत्‌ ।

    भुझ्जीत यद्यनुज्ञातो नो चेदुपवसेत्क्वचित्‌ ॥

    ५॥

    सायम्‌--संध्या समय; प्रात:--प्रातःकाल; चरेत्‌--बाहर जाना चाहिए; भेक्ष्यमू-भिक्षा माँगने; गुरबे--गुरु को; तत्‌--वहजितना एकत्र करता है; निवेदयेत्‌--अर्पित करे; भुञ्जीत-- खाए; यदि--यदि; अनुज्ञात:--( गुरु द्वारा ) आज्ञा दिये जाने पर;नो--अन्यथा; चेत्‌--यदि; उपवसेत्‌--उपवास रखे; क्वचित्‌ू--कभी |

    ब्रह्मचारी को सुबह-शाम भिक्षा माँगने के लिए बाहर जाना चाहिए और जो कुछ भी भिक्षामें मिले उसे लाकर गुरु को दे दे।

    वह तभी भोजन करे जब गुरु उसे भोजन करने का आदेश दे,अन्यथा यदि कभी गुरु आदेश न दे, तो वह कभी कभी उपवास करे।

    "

    सुशीलो मितभुग्दक्ष: श्रददधानो जितेन्द्रिय: ।

    यावदर्थ व्यवहरेत्सत्रीषु स्त्रीनिर्जितेषु च ॥

    ६॥

    सु-शील:--अत्यन्त नम्न तथा सभ्य; मित-भुक्‌ू--आवश्यकता से न तो कम और न अधिक भोजन करना; दक्ष:--पटु, आलस्यसे रहित, सदैव कार्यरत; श्रदधान:--शास्त्र तथा गुरु के आदेशों में पूर्ण श्रद्धा रखने वाला; जित-इन्द्रियः--इन्द्रियों पर पूर्णसंयम रखने वाला; यावत्‌-अर्थम्‌--जितना आवश्यक हो; व्यवहरेत्‌--बाह्यरूप से आचरण करे; स्त्रीषु--स्त्रियों से; स्त्री-निर्जितेषु--पुरुष जो स्त्री के वश में होते हैं; च-- भी |

    बहाचारी को सदाचारी तथा भद्र होना चाहिए।

    उसे न तो आवश्यकता से अधिक खानाचाहिए न एकत्र करना चाहिए।

    उसे सदैव क्रियाशील तथा पटु होना चाहिए और गुरु तथाशास्त्रों के आदेशों में पूर्ण विश्वास रखना चाहिए।

    उसे अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखते हुएस्त्रियों से या स्त्रियों के वशीभूत पुरुषों से उतनी ही संगति करनी चाहिए जितनी कि आवश्यकहो।

    "

    वर्जयेत्प्रमदागाथामगृहस्थो बृहद्व्गतः ।

    इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्त्यपि यतेर्मन: ॥

    ७॥

    वर्जयेत्‌--त्याग दे; प्रमदा-गाथाम्‌--स्त्रियों से बातें करना; अगृहस्थ: --जिसने गृहस्थ आश्रम नहीं स्वीकार किया ( ब्रह्मचारी यासंन्यासी ); बृहत्‌-ब्रत:--ब्रह्मचर्य व्रत का पालन; इन्द्रियाणि--इन्द्रियों को; प्रमाथीनि-- प्रायः अजेय; हरन्ति--चुरा लेती हैं;अपि--भी; यतेः -- संन्यासी का; मन:ः--मन

    ब्रह्मचारी या अगृहस्थ को स्त्रियों से बातें करने या उनके विषय में बातें करने से हृढ़तापूर्वकबचना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि वे संन्यासी के मन को भी विचलित करसकती हैं।

    "

    केशप्रसाधनोन्मर्दस्नपना भ्यज्ञनादिकम्‌ ।

    गुरुस्त्रीभिर्युवतिभि: कारयेन्नात्मनो युवा ॥

    ८॥

    केश-प्रसाधन--बाल काढ़ना; उन्मर्द--शरीर की मालिश; स्नपन--स्नान; अभ्यज्ञन-आदिकम्‌--तैल मर्दन आदि; गुरु-स्त्रीभि:--गुरु की पतली से; युवतिभि:--युवती; कारयेत्‌ू--करवाए; न--नहीं; आत्मन:--निज सेवा के लिए; युवा--यदिविद्यार्थी युवक हो |

    यदि गुरुपत्नी युवती हो तो युवा ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह न तो उससे अपने बालकढ़वाए, न शरीर में तेल मालिश करवाए और न उसे माता तुल्य प्यार से स्नान कराने दे।

    "

    नन्वग्निः प्रमदा नाम घृतकुम्भसम: पुमान्‌ ।

    सुतामपि रहो जह्यादन्यदा यावदर्थकृत्‌ ॥

    ९॥

    ननु--निश्चय ही; अग्नि:--अग्नि; प्रमदा--स्त्री ( पुरुष के मन को मोहने वाली ); नाम--नाम ही; घृत-कुम्भ--धघी के बर्तन के;समः--समान; पुमान्‌ू--मनुष्य; सुताम्‌ अपि--अपनी पुत्री के भी; रहः--एकान्त स्थान में; जह्यात्‌-साथ न रहे; अन्यदा--किसी अन्य स्त्री के साथ भी; यावत्‌--जितना; अर्थ-कृतू--आवश्यक हो |

    स्त्री अग्नि के तुल्य है और पुरुष घी के घड़े के समान होता है।

    अतएव पुरुष को चाहिए किअपनी पुत्री के साथ भी एकान्त में न रहे।

    इसी प्रकार उसे अन्य स्त्रियों की संगति से बचनाचाहिए स्त्रियों से आवश्यक कार्य के लिए ही मिलना चाहिए, अन्यथा नहीं।

    "

    'कल्पयित्वात्मना यावदाभासमिदमी श्वर: ।

    द्वैत॑ तावन्न विरमेत्ततो हास्य विपर्यय: ॥

    १०॥

    कल्पयित्वा--निश्चय करके; आत्मना--आत्म-साक्षात्कार द्वारा; यावतू--जब तक; आभासम्‌--प्रतिबिम्ब ( मूल शरीर तथाइन्द्रियों का ); इदम्‌--यह ( शरीर इन्द्रियाँ ); ईश्वरः--मोह से पूर्णतया मुक्त; द्वैतम्‌--द्वन्द् तावत्‌--तब तक; न--नहीं;विरमेत्‌--देखता है; ततः--ऐसे द्वैत से; हि--निश्चय ही; अस्थ--पुरुष का; विपर्यय:--प्रतिक्रिया, जवाबी कार्यवाही |

    जब तक जीव पूर्णरूपेण स्वरूपसिद्ध नहीं है--जब तक वह देहात्मबुद्धि की भ्रान्त धारणासे मुक्त नहीं हो लेता जो कि मूल शरीर तथा इन्द्रियों का प्रतिबिम्ब मात्र है तब तक वह उस द्वैतभाव से छुटकारा नहीं पा सकता जो स्त्री तथा पुरुष के मध्य द्वैत का सूचक है।

    इस तरह हरइसकी हर सम्भावना रहती है कि वह नीचे गिर जाए, क्योंकि उसकी बुद्धि मोहित होती है।

    "

    एतत्सर्व गृहस्थस्य समाम्नातं यतेरपि ।

    गुरुवृत्तिविकल्पेन गृहस्थस्य्तुगामिन: ॥

    ११॥

    एतत्‌--यह; सर्वम्‌--सारे; गृहस्थस्य--गृहस्थ का; समाम्नातम्‌--वर्णित; यते: अपि--यहाँ तक कि संन्यासी का; गुरु-वृत्तिःविकल्पेन--गुरु के आदेशों का पालन करने के लिए; गृहस्थस्य--गृहस्थ का; ऋतु-गामिन:-- प्रजनन के लिए ऋतुकाल केसमय ही मैथुन करना।

    सारे नियम तथा विधान गृहस्थ तथा संन्यासी दोनों पर समान रूप से लागू होते हैं।

    किन्तुगृहस्थ को उपयुक्त अवसर पर प्रजनन के लिए मैथुन करने के लिए गुरु अनुमति प्रदान करता है।

    "

    अद्भनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्यवलेखामिषं मधु ।

    स््रग्गन्धलेपालड्डारांस्त्यजेयुयें बृहद्व्रता: ॥

    १२॥

    अज्जन--आँख में लगाया जाने वाला सुरमा; अभ्यज्ञन--शिर की मालिश; उन्मर्द--शरीर की मालिश; स्त्री-अवलेख--स्त्री परइृष्टि डालना या स्त्री का चित्र बनाना; आमिषम्‌-मांसाहार; मधु--शराब या शहद पीना; सत्रकू--शरीर को फूलों के हारों सेसजाना; गन्ध-लेप--शरीर पर सुगन्धित लेप लगाना; अलड्डारानू--शरीर को आभूषणों से अलंकृत करना; त्यजेयु:--त्याग देनाचाहिए; ये--जिन्होंने; बृहत्‌-ब्रताः:--ब्रह्मचर्य का व्रत धारण कर रखा है।

    ब्रह्मचारियों या उन गृहस्थों को जिन्होंने उपर्युक्त विधि से वर्णित ब्रह्मचर्य ब्रत धारण कररखा है उनके लिए आँखों में सुरमा या अंजन लगाना, सिर में तेल मलना, हाथ से शरीर कीमालिश करना, स्त्री को देखना या उसका चित्र बनाना, मांस खाना, शराब पीना, शरीर कोफूलों के हार से सजाना, शरीर में इत्र-फुलेल लगाना या शरीर को आभूषणों से अलंकृत करनामना है।

    उन्हें इन सबका परित्याग करना चाहिए।

    "

    उपित्वैवं गुरुकुले द्विजोधीत्यावबुध्य च ।

    त्रयीं साज्ञेपनिषदं यावदर्थ यथाबलम्‌ ॥

    १३॥

    दत्त्वा वरमनुज्ञातो गुरो: काम॑ यदीश्वरः ।

    गृहं बन वा प्रविशेत्प्रत्नजेत्तत्र वा वसेतू ॥

    १४॥

    उषित्वा--रहते हुए; एवम्‌--इस प्रकार; गुरु-कुले--गुरु के संरक्षण में; द्वि-ज:--ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य, जिनका दो बारजन्म होता है; अधीत्य--वैदिक साहित्य पढ़कर; अवबुध्य--इसे ठीक से समझकर; च--तथा; त्रयीमू--वैदिक वाड्मय; स-अड़--सहायक अंशों सहित; उपनिषदम्‌--तथा उपनिषदों को; यावत्‌-अर्थम्‌--जहाँ तक सम्भव हो; यथा-बलम्‌--यथाशक्ति;दत्त्वा--देकर; वरम्‌--पारिश्रमिक ( दक्षिणा ); अनुज्ञात:-- पूछे जाने पर; गुरो:--गुरु की; कामम्‌--इच्छाएँ; यदि--यदि;ईश्वर: --समर्थ; गृहम्‌--गृहस्थ जीवन; वनम्‌--विरक्त जीवन; वा--अथवा; प्रविशेत्‌--प्रवेश करना चाहिए; प्रव्रजेत्‌--याबाहर जाना चाहिए; तत्र--वहाँ; वा--या तो; वसेत्‌-- रहना चाहिए

    उपर्युक्त विधि-विधानों के अनुसार द्विज को--ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य को-गुरु केसंरक्षण में गुरुकुल में निवास करना चाहिए।

    वहाँ उसे वेद, वेदाड़ तथा उपनिषदों का अध्ययनअपनी शक्ति तथा सामर्थ्य भर करना चाहिए।

    यदि सम्भव हो तो शिष्य को चाहिए कि वह तबगुरु द्वारा माँगी गई दक्षिणा दे और तब गुरु के आदेशानुसार गुरुकुल छोड़ दे और अपनी इच्छासे किसी अन्य आश्रम को--यथा गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम--को स्वीकार करे।

    "

    अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेष्वधोक्षजम्‌ ।

    भूतेः स्वधामभि: पश्येदप्रविष्ट प्रविष्टठत्‌ ॥

    १५॥

    अग्नौ--अग्नि में; गुरौ--गुरु में; आत्मनि--अपने में, आत्मा में; च--भी; सर्व-भूतेषु--प्रत्येक जीव में; अधोक्षजम्‌-- भगवान्‌को, जो न तो भौतिक आँखों से देखे जा सकते हैं और न ही अन्य भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हैं; भूतिः--सारे जीवों केसाथ; स्व-धामभि:--भगवान्‌ के सामान के साथ-साथ; पश्येत्‌--देखना चाहिए; अप्रविष्टम्‌ू--बिना प्रविष्ट हुए; प्रविष्ट-बत्‌--प्रविष्ट हुए की भाँति

    मनुष्य को इसकी अनुभूति करनी चाहिए कि भगवान्‌ विष्णु एक ही साथ अग्नि, गुरु,आत्मा तथा समस्त जीवों में सभी परिस्थितियों में प्रविष्ट हैं और नहीं भी हैं।

    वे प्रत्येक वस्तु केपूर्ण नियामक के रूप में बाह्य तथा आन्तरिक रूप से स्थित हैं।

    "

    एवं विधो ब्रह्मचारी वानप्रस्थो यति्गृही ।

    चरन्विदितविज्ञान: परं ब्रह्माधिगच्छति ॥

    १६॥

    एवम्‌ विध: --इस विधि से; ब्रह्मचारी --चाहे ब्रह्मचारी हो; वानप्रस्थ: --चाहे कोई वानप्रस्थ आ भ्रम का हो; यतिः--या किसंन्यास आश्रम में हो; गृही--या गृहस्था श्रम में हो; चरन्‌--आत्म-साक्षात्कार के अभ्यास तथा परम सत्य के ज्ञान द्वारा; विदित-विज्ञान:--परम सत्य विषयक विज्ञान से पूर्णतया अवगत; परमू-- परम; ब्रह्म--परम सत्य; अधिगच्छति--समझ सकता है।

    इस प्रकार से अभ्यास करते हुए चाहे कोई ब्रह्मचारी आश्रम में हो, गृहस्थ आश्रम में होअथवा वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में हो, उसे परम सत्य ( ब्रह्म ) की सर्वव्यापकता की सदैवअनुभूति होनी चाहिए, क्योंकि इस विधि से ब्रह्म को समझा जा सकता है।

    "

    वानप्रस्थस्य वक्ष्यामि नियमान्मुनिसम्मतान्‌ ।

    यानास्थाय मुनिर्गच्छेहषिलोकमुहाज्लसा ॥

    १७॥

    वानप्रस्थस्य--वानप्रस्थ आ श्रम वाले व्यक्ति के ( अवकाश प्राप्त जीवन ); वक्ष्यामि--अब मैं बतलाऊँगा; नियमान्‌ू--नियमों याविधि-विधानों को; मुनि-सम्मतान्‌--बड़े-बड़े मुनियों, दार्शनिकों तथा साधु पुरुषों द्वारा मान्य; यानू--जिनको; आस्थाय--अभ्यास करके या स्थापित करके; मुनि:--साधु व्यक्ति; गच्छेत्‌--प्रोन्नत कर दिया जाता है; ऋषि-लोकम्‌--ऋषियों, मुनियोंवाले लोक ( महलोंक ) को; उह--हे राजा; अज्खसा--बिना कठिनाई के।

    हे राजा, अब मैं वानप्रस्थ की योग्यताओं का वर्णन करूँगा, जो कि पारिवारिक जीवन सेविरक्ति है।

    वानप्रस्थ के विधि-विधानों का कठोरता से पालन करते हुए वह महलोंक नामकउच्चतर लोक को सरलता से भेजा जा सकता है।

    "

    न कृष्टपच्यमएनीयादकृष्टं चाप्यकालतः ।

    अग्निपक्वमथामं वा अर्कपक्वमुताहरेत्‌ ॥

    १८॥

    न--नहीं; कृष्ट-पच्यम्‌ू-- भूमि को जोतकर उगाये गये अन्न; अश्नीयात्‌ू--खाना चाहिए; अकृष्टम्‌--बिना भूमि जोते उगे; च--तथा; अपि-- भी; अकालत:-- समय से पहले पका हुआ; अग्नि-पक्वम्‌-- अग्नि में पकाया हुआ अन्न; अथ-- भी; आमम्‌--आम; वा--अथवा; अर्क-पक्वम्‌--सूर्य के प्रकाश से अपने आप पका भोजन; उत--ऐसा आदेश है; आहरेत्‌--वानप्रस्थखाए

    वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाले व्यक्ति को जुती हुई जमीन में उगा अन्न नहीं खाना चाहिए।

    उसे बिना जुती जमीन में उगे उन अन्नों को भी नहीं खाना चाहिए जो पूरी तरह पके न हों।

    न हीवानप्रस्थ को अग्नि में पका अन्न खाना चाहिए निस्सन्देह, उसे सूर्य प्रकाश में पके फल ही खानेचाहिए।

    "

    वन्यैश्चरुपुरोडाशान्निर्वपेत्कालचोदितान्‌ ।

    लब्धे नवे नवेन्नाद्ये पुराणं च परित्यजेतू ॥

    १९॥

    वन्यैः--बिना जोते जंगल में उत्पन्न फलों तथा अन्नों से; चरू--अग्नि-यज्ञ में आहुति में डाले जाने वाले अन्न; पुरोडाशान्‌ू--चरुसे तैयार किए गए पिंड; निर्वपेत्‌--सम्पन्न करना चाहिए; काल-चोदितान्‌ू-- अपने आप उगा; लब्धे--प्राप्त होने पर; नवे--नवीन; नवे अन्न-आद्ये--नया उत्पन्न किया गया अन्न; पुराणम्‌ू-पुराने अन्न का संग्रह; च--तथा; परित्यजेत्‌--छोड़ दे

    वानप्रस्थ को चाहिए कि जंगल में अपने आप उगे फलों तथा अन्नों से पुरोडाश को यज्ञ मेंडालने के लिए तैयार करे।

    जब उसे थोड़ा सा नया अन्न प्राप्त हो जाए तो वह अन्न के पुराने संग्रहको त्याग दे।

    "

    अग्न्यर्थमेव शरणमुटजं वाद्रिकन्दरम्‌ ।

    श्रयेत हिमवाय्वग्निवर्षार्कातपषाट्स्वयम्‌ ॥

    २०॥

    अग्नि--अग्नि; अर्थम्‌--रखने के लिए; एब--केवल; शरणम्‌--झोपड़ी; उट-जम्‌--फूस की बनी; वा--अथवा; अद्वि-कन्दरम्‌--पर्वत की कन्दरा में; श्रयेत--वानप्रस्थी शरण ले; हिम--बर्फ; वायु--तेज हवा; अग्नि-- आग; वर्ष --वर्षा; अर्क --सूर्य का; आतप--चमकना; षाटू--सहन करते हुए; स्वयम्‌--स्वयं |

    वानप्रस्थ को चाहिए कि पवित्र अग्नि को रखने के लिए वह या तो फूस की झोपड़ी बनाएया केवल पर्वत की कन्दरा में शरण ले, किन्तु वह स्वयं हिमपात, प्रभंजन, अग्नि, वर्षा तथासूर्य के ताप को सहन करने का अभ्यास करे।

    "

    केशरोमनखश्मश्रुमलानि जटिलो दधत्‌ ।

    'कमण्डल्वजिने दण्डवल्कलाग्निपरिच्छदान्‌ ॥

    २१॥

    केश--सिर के बाल; रोम--शरीर पर उगे रोएँ; नख--नाखून; श्मश्रु--मूँछें; मलानि--तथा शरीर का मैल; जटिल:--बाल कीजटा; दधत्‌--रखे; कमण्डलु--जलपात्र; अजिने-- तथा मृगचर्म; दण्ड--डण्डा; वल्कल--पेड़ की छाल; अग्नि--आग;परिच्छदान्‌--वस्त्रों को

    वानप्रस्थ को चाहिए कि सिर पर जटा रखे और अपने शरीर के बाल, नाखून तथा मूँछेंबढ़ने दे।

    वह अपने शरीर की धूल साफ न करे।

    वह कमण्डल, मृगछाला तथा दण्ड रखे, पेड़की छाल का आवरण पहने और अग्नि जैसे ( गेरुवे ) रंग के वस्त्रों का प्रयोग करे।

    "

    चरेद्वने द्वादशाब्दानष्टी वा चतुरो मुनि: ।

    द्वावेक॑ वा यथा बुद्धिर्न विपद्येत कृच्छूतः: ॥

    २२॥

    चरेत्‌--रहता रहे; वने--जंगल में; द्वादश-अब्दानू--बारह वर्षो तक; अष्टौ--आठ वर्ष तक; वा--अथवा; चतुर: --चार वर्ष;मुनि:--सन्त विचारवान्‌ व्यक्ति; द्वौ--दो; एकम्‌--एक; वा--अथवा; यथा--जिससे; बुद्धि: --बुद्धि; न--नहीं; विपद्येत--मोहग्रस्त; कृच्छृतः:--कठिन तपस्या के कारण

    अत्यधिक विचारवान्‌ होने के कारण वानप्रस्थी को बारह वर्ष, आठ वर्ष, चार वर्ष, दो वर्षया कम से कम एक वर्ष तक जंगल में रहना चाहिए।

    उसे इस तरह व्यवहार करना चाहिए किवह अत्यधिक तपस्या के कारण विचलित या त्रस्त न हो उठे।

    "

    यदाकल्पः स्वक्रियायां व्याधिभिर्जरयाथवा ।

    आन्वीक्षिक्यां वा विद्यायां कुर्यादनशनादिकम्‌ ॥

    २३॥

    यदा--जब; अकल्प:ः--कार्य करने में अक्षम; स्व-क्रियायाम्‌--अपने नियत कार्यों में; व्याधिभि: --रोग के कारण; जरया--यावृद्धावस्था के कारण; अथवा--या; आन्वीक्षिक्याम्‌--आध्यात्मिक प्रगति में; वा--अथवा; विद्यायाम्‌--ज्ञान की प्रगति में;कुर्यात्‌--करे; अनशन-आदिकम्‌--पर्याप्त भोजन न ग्रहण करना।

    जब वह रोग या वृद्धावस्था के कारण आध्यात्मिक चेतना में प्रगति करने या वेदाध्ययन मेंअपने निमत कार्य करने में असमर्थ हो जाये तब उसे अन्न न खाने के व्रत का अभ्यास करनाचाहिए।

    "

    आत्मन्यग्नीन्समारोप्य सन्न्यस्याहं ममात्मताम्‌ ।

    कारणेषु न्यसेत्सम्यक्सड्ञातं तु यथाहतः ॥

    २४॥

    आत्मनि--अपने में ही; अग्नीन्‌ू--शरीर के भीतर की अग्नि-तत्त्वयों को; समारोप्प--ठीक से रखकर; सन्न्यस्य--त्याग कर;अहमू--मिथ्या पहचान; मम--मिथ्या धारणा; आत्मताम्‌--अपने ही शरीर की; कारणेषु--पाँचों तत्त्वों में जो भौतिक शरीर केकारण हैं; न्यसेत्‌--लीन कर दे; सम्यक्‌--पूर्णतया; सट्ठातम्‌--संयोग, मेल; तु--लेकिन; यथा-अर्हतः--जैसा अनुकूल हो

    उसे अग्नि को अपने में ( आत्मा में ) भलीभाँति रख लेना चाहिए और इस तरह शारीरिकममत्व को छोड़ दे जिसके कारण वह शरीर को निजी या आत्मा मानता है।

    वह धीरे-धीरेभौतिक शरीर को पाँच तत्त्वों ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ) में लीन कर दे।

    "

    खे खानि वायौ निश्चवासांस्तेज:सूष्माणमात्मवान्‌ ।

    अप्स्वसूकश्लेष्मपूयानि क्षितौ शेषं यथोद्धवम्‌ ॥

    २५॥

    खे--आकाश में; खानि--शरीर के सारे छिद्रों को; वायौ--वायु में; निश्चासान्‌ू--शरीर के भीतर चक्कर लगाने वाली विभिन्नवायु को ( प्राण, अपान इत्यादि ); तेज:सु--अग्नि में; उष्माणम्‌--शरीर की गर्मी को; आत्म-वान्‌--आत्मा को जानने वालाव्यक्ति; अप्सु--जल में; असृक्‌ू--रक्त; एलेष्प--कफ; पूयानि--तथा मूत्र; क्षितौ--पृथ्वी में; शेषम्‌--शेष या बचे हुए को( चमड़ी, हड्डी तथा शरीर के अन्य कठोर अंग ); यथा-उद्धवम्‌--जिससे सभी उत्पन्न |

    गम्भीर, स्वरूपसिद्ध, ज्ञानवान व्यक्ति को चाहिए कि वह शरीर के विभिन्न अंगों को उनकेमूल स्त्रोतों में लीन कर दे।

    शरीर के छिद्र आकाश द्वारा उत्पन्न हैं, श्वास की क्रिया वायु से उत्पन्नहै, शरीर की ऊष्मा अग्नि द्वारा जनित है और वीर्य, रक्त तथा कफ जल द्वारा उत्पन्न हैं।

    त्वचा, पेशी तथा अस्थि जैसी कठोर वस्तुएँ पृथ्वी द्वारा उत्पन्न हैं।

    इस प्रकार शरीर के सारे अवयवविभिन्न तत्त्वों द्वारा उत्पन्न होते हैं।

    अतएव इन सबों को पुनः उन्हीं तत्त्वों में लीन कर देना चाहिए।

    "

    वाचमग्नौ सवक्तव्यामिन्द्रे शिल्पं करावषि ।

    पदानि गत्या वयसि रत्योपस्थं प्रजापतोौ ॥

    २६॥

    मृत्यौ पायुं विसर्ग च यथास्थानं विनिर्दिशेत्‌ ।

    दिक्षु श्रोत्रं सनादेन स्पर्शेनाध्यात्मनि त्वचम्‌ ॥

    २७॥

    रूपाणि चकश्षुषा राजन्ज्योतिष्यभिनिवेशयेत्‌ ।

    अप्सु प्रचेतसा जिह्लां प्रेयैप्नाणं क्षितौ न्‍्यसेत्‌ ॥

    २८ ॥

    वाचम्‌--वाणी; अग्नौ-- अग्नि देव में; स-वक्तव्याम्‌--वाणी के कर्म को; इन्द्रे--इन्द्र में; शिल्पमू--हाथ से कर्म करने कीसामर्थ्य या कला-कौशल को; करौ--तथा हाथ में; अपि--निस्सन्देह; पदानि--पाँवों को; गत्या--चलने की शक्ति सहित;वयसि--भगवान्‌ विष्णु में; रत्या--कामेच्छा; उपस्थम्‌--यौनेन्द्रियों समेत; प्रजापतौ--प्रजापति में; मृत्यौ--मृत्युदेव में;पायुम्‌--गुदा को; विसर्गम्‌--इसकी क्रिया सहित, मलोतसर्ग करना; च--भी; यथा-स्थानम्‌ --सही स्थान में; बिनिर्दिशेत्‌--सूचित करे; दिश्षु--विभिन्न दिशाओं में; श्रोत्रमू-- श्रवेणन्द्रिय; स-नादेन--कम्पन समेत; स्पर्शेन--स्पर्श से; अध्यात्मनि--वायुदेव में; त्वचम्‌--स्पर्शेन्द्रिय को; रूपाणि--स्वरूप; चक्षुषा--आँखों की ज्योति समेत; राजन्‌--हे राजा; ज्योतिषि--सूर्य में;अभिनिवेशयेत्‌--लीन करे; अप्सु--जल में; प्रचेतसा--वरुण देव समेत; जिह्माम्‌ू--जी भ को; प्रेये:--सुगन्ध विषय के साथ;घ्राणम्‌ू--सूँघने की शक्ति; क्षितौ--पृथ्वी में; न्‍्यसेत्‌--लीन कर दे।

    तत्पश्चात्‌ वाणी-विषय को वाक्‌ इन्द्रिय (जीभ ) सहित अग्नि को समर्पित कर दे।

    कला-कौशल तथा दोनों हाथ इन्द्रदेव को दे दे।

    गति करने की शक्ति तथा पाँव भगवान्‌ विष्णु को देदे।

    उपस्थ सहित इन्द्रियसुख प्रजापति को सौंप दे।

    गुदा को मलोत्सर्ग क्रिया सहित उसके असलीस्थान मृत्यु को सौंप दे।

    ध्वनि-कम्पन समेत श्रवणेन्द्रिय को दिशाओं के अधिपति को दे दे।

    स्पर्श समेत स्पर्शेन्द्रिय वायु को समर्पित कर दे।

    दृष्टि समेत रूप को सूर्य को सौंप दे।

    वरुण देवसमेत जीभ जल को दे दे तथा दोनों अश्विनी कुमार देवों सहित प्राणशक्ति पृथ्वी को अर्पित करदे।

    "

    मनो मनोरथेश्चन्द्रे बुद्धि बोध्यै: कवौ परे ।

    कर्माण्यध्यात्मना रुद्रे यदहं ममताक्रिया ।

    सत्त्वेन चित्त क्षेत्रज्ञे गुणैवैकारिकं परे ॥

    २९॥

    अप्सु क्षितिमपो ज्योतिष्यदो वायौ नभस्यमुम्‌ ।

    कूटस्थे तच्च महति तदव्यक्तेक्षेर च तत्‌ ॥

    ३०॥

    मनः--मन को; मनोरथे:-- भौतिक इच्छाओं समेत; चन्द्रे--चन्द्रमा में जो मनोदशा के देवता हैं; बुद्धिम्‌--बुद्धि को; बोध्यै:--बुद्धि के विषय समेत; कवौ परे--परम बुद्धिमान व्यक्ति ब्रह्माजी में; कर्माणि--- भौतिक कार्यो को; अध्यात्मना--मिथ्याअहंकार समेत; रुद्रे--शिव ( रूद्र ) में; यत्‌--जहाँ; अहम्‌--मैं शरीर हूँ; ममता--शरीर सम्बन्धी प्रत्येक वस्तु मेरी है; क्रिया--ऐसा कार्य; सत्त्वेन--जगत की धारणा सहित; चित्तम्‌--चेतना को; क्षेत्र-ज्ञे--आत्मा में; गुणैः-- भौतिक गुणों के द्वारासंचालित भौतिक कार्यकलापों समेत; वैकारिकम्‌-- भौतिक गुणों के अधीन जीवों को; परे--परमात्मा में; अप्सु--जल में;क्षितिमू--पृथ्वी; अप:--जल; ज्योतिषि-- ज्योतिष्कों में, विशेषतया सूर्य में; अदः--चमक; वायौ--वायु में; नभसि---आकाशमें; अमुम्‌--वह; कूटस्थे--देहात्मबुद्धि में; तत्‌--वह; च-- भी; महति--महत्तत्व में; तत्‌ू--वह; अव्यक्ते--अप्रकट में;अक्षरे--परमात्मा में; च-- भी; तत्‌--उस |

    मन को मनोरथों समेत चन्द्रदेव में लीन कर दे।

    बुद्धि के सारे विषयों को बुद्धि समेतब्रह्माजी में स्थापित कर दे।

    मिथ्या अहंकार, जो प्रकृति के गुणों के अधीन रहता है और मनुष्यको यह सोचने के लिए प्रेरित करता है 'मैं यह शरीर हूँ और इस शरीर से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तुमेरी है' उसे भौतिक कार्यकलापों समेत मिथ्या अहंकार के अधिपति रुद्र में लीन कर दे।

    भौतिक चेतना को विचार के लक्ष्य समेत प्रत्येक जीवात्मा में और भौतिक प्रकृति गुणों केअधीन कर्म करने वाले देवताओं को विकारयुक्त जीव समेत परब्रह्म में लीन कर दे।

    पृथ्वी कोजल में, जल को सूर्य की ज्योति में, इस ज्योति को वायु में, वायु को आकाश में, आकाश कोमिथ्या अहंकार में, मिथ्या अहंकार को समस्त भौतिक शक्ति ( महत्तत्व ) में, फिर इस महत्तत्वको अप्रकट अवयवों ( भौतिक शक्ति का प्रधान स्वरूप ) में तथा इस अप्रकट अवयव कोपरमात्मा में लीन कर दे।

    "

    इत्यक्षरतयात्मानं चिन्मात्रमवशेषितम्‌ ।

    ज्ञात्वाद्ययोथ विरमेहग्धयोनिरिवानलः ॥

    ३१॥

    इति--इस प्रकार; अक्षरतया-- आध्यात्मिक होने से; आत्मानम्‌--स्वयं ( जीवात्मा ); चितू-मात्रम्‌--पूर्णतया आध्यात्मिक;अवशेषितम्‌--शेषलब्धि ( तत्त्वों के एक-एक करके परमात्मा में लीन हो जाने पर ); ज्ञात्वा--जानकर; अद्दय:--बिना अन्तरके या परमात्मा के ही गुण वाला; अथ--इस प्रकार; विरमेत्‌ू-- भौतिक जगत से अलग हो जाए; दग्ध-योनि:--जिसका स्रोत( काष्ठ ) जल चुका है; इब--सहृश; अनलः--लपडटें

    जब इस तरह सारी भौतिक उपाधियाँ अपने-अपने तत्त्वों में मिल जाँय तो जीव अन्ततोगत्वापूर्णतया आध्यात्मिक हो जाता है और गुण में परब्रह्म जैसा।

    इस संसार से वह उसी तरहअवकाश ले ले जिस प्रकार काठ के जल जाने पर उससे उठने वाली लपडटें शान्त हो जाती हैं।

    जब भौतिक शरीर विविध भौतिक तत्त्वों में लौट जाता है, तो केवल आध्यात्मिक जीव बचताहै।

    यही ब्रह्म है और यह गुण में परब्रह्म के तुल्य है।

    "

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    अध्याय तेरह: एक आदर्श व्यक्ति का व्यवहार

    7.13श्रीनारद उवाचकल्पस्त्वेवं परिव्रज्य देहमात्रावशेषितः।

    ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्नरेन्महीम्‌ ॥

    १॥

    श्री-नारद: उबाच--नारद मुनि ने कहा; कल्प:--वह व्यक्ति जो संन्यास आश्रम की तपस्या करने या दिव्य ज्ञान का अनुशीलनकरने के लिए दक्ष है; तु--लेकिन; एवम्‌--इस प्रकार ( जैसाकि पहले कहा गया है ); परिव्रज्य--अपनी आत्मिक पहचान कोसमझते हुए तथा एक स्थान से दूसरे स्थान का विचरण करते हुए; देह-मात्र--केवल शरीर का पालन करते हुए; अवशेषित:--अन्ततः; ग्राम--गाँव में; एक--केवल एक; रात्र--रात गुजारने का; विधिना--विधि से; निरपेक्ष:--किसी वस्तु पर आश्रित नरहते हुए; चरेत्‌--एक स्थान से दूसरे की यात्रा करे; महीम्‌--पृथ्वी पर।

    श्री नारद मुनि ने कहा : जो व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन कर सकता है उसे सारेभौतिक सम्बन्धों का परित्याग कर देना चाहिए और शरीर को सक्षम बनाये रखकर उसे प्रत्येक गाँव में केवल एक रात बिताते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करनी चाहिए।

    इस प्रकारसंन्‍्यासी को शरीर की आवश्यकताओं के लिए किसी पर निर्भर रहे बिना सारे संसार में विचरणकरना चाहिए।

    "

    बिभूयाद्यद्यसौ वास: कौपीनाच्छादनं परम्‌ ।

    त्यक्त न लिझ्जहण्डादेरन्यत्किज्निदनापदि ॥

    २॥

    बिभूयात्‌-- प्रयोग करे; यदि--यदि; असौ--संन्यास आश्रम का व्यक्ति; वास:--वस्त्र या अंगोछा; कौपीन--लंगोटा ( गुप्तांगोंको ढकने के लिए ); आच्छादनम्‌ू--ढकने के लिए; परम्‌--केवल, इतना ही; त्यक्तम्‌--छोड़ा गया; न--नहीं; लिड्रात्‌--संन्यासी के लक्षणों की अपेक्षा; दण्ड-आदे:--डंडा जैसा ( त्रिदण्ड ); अन्यतू--दूसरा; किश्लित्‌--कुछ भी; अनापदि-- सामान्यआपत्तिरहित समय में |

    संन्यास आश्रम के व्यक्ति को अपना शरीर ढकने के लिए वस्त्र तक का भी उपयोग नहींकरना चाहिए।

    यदि उसे कुछ पहनना हो तो उसे कौपीन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पहननाचाहिए और यदि आवश्यकता न हो तो संनन्‍्यासी को दण्ड भी नहीं धारण करना चाहिए।

    संन्यासी को दण्ड तथा कमण्डल के अतिरिक्त कुछ भी साथ में नहीं रखना चाहिए।

    "

    एक एव चरेद्धिक्षुरात्मारामोउनपा श्रयः ।

    सर्वभूतसुहच्छान्तो नारायणपरायण: ॥

    ३॥

    एकः--अकेला; एव--केवल; चरेत्‌--घूम सकता है; भिक्षु;--भिक्षा माँगने वाला संन्यासी; आत्म-आराम:--आत्तमतुष्ट;अनपाश्रय:ः--किसी वस्तु पर आश्रित न रहकर; सर्व-भूत-सुहृत्‌--सभी जीवों का शुभचिन्तक बनकर; शान्त:--पूर्णतयाशान्त; नारायण-परायण: --नारायण पर आश्वित होकर एवं उनका भक्त बनकर।

    आत्मतुष्ट संन्यासी को चाहिए कि वह द्वार-द्वार से भीख माँगकर जीवन-यापन करे।

    किसीव्यक्ति या स्थान पर आश्रित न रहकर उसे समस्त जीवों का सुहृद्‌ होना चाहिए।

    उसे नारायण काशान्त अनन्य भक्त होना चाहिए।

    इस प्रकार उसे एक स्थान से दूसरे स्थान में घूमते रहना चाहिए।

    "

    पश्येदात्मन्यदो विश्व परे सदसतोउव्यये ।

    आत्मानं च परं ब्रह्म सर्वत्र सदसन्मये ॥

    ४॥

    पश्येतू--देखे; आत्मनि--परमात्मा में; अद:--इस; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड को; परे--परे; सत्‌-असतः--सृष्टि या सृष्टि का कारण;अव्यये--अव्यय ब्रह्म में; आत्मानम्‌--स्वयं; च-- भी; परम्‌--सर्वश्रेष्ठ; ब्रह्म--ब्रह्म में; सर्वत्र--सभी जगह; सत्‌-असत्‌ू --'कारण-कार्य में; मये--सर्वव्यापी

    संन्यासी को चाहिए कि वह परब्रह्म को प्रत्येक वस्तु में सदा व्याप्त देखने का प्रयास करेऔर ब्रह्माणु समेत प्रत्येक वस्तु को जिसमें यह ब्रह्माण्ड भी है, जो परब्रह्म पर टिका देखे ।

    "

    सुप्तिप्रबोधयो: सन्धावात्मनो गतिमात्महक्‌ ।

    पश्यन्बन्ध॑ च मोक्ष च मायामात्र न वस्तुत: ॥

    ५॥

    सुप्ति--अचेतनावस्था में; प्रबोधयो: --चेतना अवस्था में; सन्धौ--सन्धि अवस्था में; आत्मन:--अपनी आत्मा में; गतिम्‌--गति;आत्म-हक्‌--जो आत्मा को देख सकता है; पश्यन्‌ू--देखने या समझने का प्रयास करते हुए; बन्धम्‌--जीवन की बद्ध अवस्था;च--तथा; मोक्षम्‌--जीवन की मुक्त अवस्था; च--भी; माया-मात्रम्‌--मात्र मोह; न--नहीं; वस्तुतः--वास्तव में |

    उसे अचेतना तथा चेतना अवस्थाओं में इन दोनों के बीच की अवस्था में अपने आपकोसमझने का प्रयत्त करना चाहिए और आत्म-स्थित होना चाहिए।

    इस प्रकार उसे यह अनुभवकरना चाहिए कि जीवन की बद्ध तथा मुक्त अवस्थाएँ मात्र भ्रम हैं, वे वास्तविक नहीं हैं।

    ऐसेउच्च ज्ञान से उसे सर्वव्यापी परम सत्य का दर्शन करना चाहिए।

    "

    नाभिनन्देद्ध्सवं मृत्युमश्रुवं वास्य जीवितम्‌ ।

    काल परं प्रतीक्षेत भूतानां प्रभवाप्ययम्‌ ॥

    ६॥

    न--नहीं; अभिनन्देत्‌--प्रशंसा करे; ध्रुवम्‌--निश्चित्‌, श्लुव; मृत्युम्‌ू-मृत्यु; अध्ुवम्‌--अनिश्चित; वा--अथवा; अस्य--इसशरीर की; जीवितम्‌--उप्र; कालमू--शाश्वत समय; परम्‌--परम; प्रतीक्षेत--अवलोकन करे; भूतानामू--जीवों का; प्रभव--प्राकट्य; अप्ययम्‌-- अन्तर्धान होना |

    चूँकि भौतिक शरीर का विनाश निश्चित है और मनुष्य की आयु स्थिर नहीं है अतएव न तोमृत्यु की, न ही जीवन की प्रशंसा की जानी चाहिए प्रत्युत मनुष्य को नित्य काल काअवलोकन करना चाहिए जिसमें जीव अपने आपको प्रकट करता है और अन्तर्धान होता है।

    "

    नासच्छास्त्रेषु सज्जेत नोपजीवेत जीविकाम्‌ ।

    वादवादांस्त्यजेत्तर्कान्पक्ष॑ कंच न संश्रयेत्‌ ॥

    ७॥

    न--नहीं; असत्-शास्त्रेषु--समाचार पत्र, उपन्यास, नाटक, कल्पित-कथा जैसा साहित्य; सजेत--पढ़े या आसक्त हो; न--नतो; उपजीवेत--रहने का प्रयास करे; जीविकाम्‌--किसी व्यावसायिक साहित्यिक वृत्तिपरक ; वाद-वादान्‌--दर्शन के विविधपक्षों पर वृथा के तर्क वितर्क; त्यजेत्‌ू--छोड़ दे; तर्कानू--तर्को को; पक्षम्‌--पक्ष, दल; कंच--कोई; न--नहीं; संश्रयेत्‌--शरण ग्रहण करे |

    समय का व्यर्थ अपव्यय कराने वाले अर्थात्‌ आध्यात्मिक लाभ से विहीन साहित्य कातिरस्कार करना चाहिए।

    न तो कोई अपनी जीविका कमाने के लिए वृत्तिपरक शिक्षक बने, नवाद-विवाद में भाग ले।

    न ही वह किसी कारण या पक्ष की शरण ले।

    "

    न शिष्याननुबध्नीत ग्रन्थान्रैवाभ्यसेद्वहून्‌ ।

    न व्याख्यामुपयुद्धीत नारम्भानारभेत्क्वचित्‌ ॥

    ८॥

    न--नहीं; शिष्यान्‌--शिष्यों को; अनुबध्नीत-- भौतिक लाभ के लिए प्रेरित करे; ग्रन्थान्‌ू--व्यर्थ का साहित्य; न--नहीं; एब--निश्चय ही; अभ्यसेत्‌--समझने या अनुशीलन करने का प्रयास करे; बहूनू--अनेक; न--नहीं; व्याख्याम्‌-व्याख्यान को;उपयुद्भीत--जीविका का साधन बनाए; न--न तो; आरम्भान्‌-- अनावश्यक ऐश्वर्य; आरभेत्‌--बढ़ाने का यत्न करे; क्वचित्‌--कभी भी।

    संन्यासी को चाहिए कि वह न तो अनेक शिष्य एकत्र करने के लिए भौतिक लाभों काप्रलोभन दे, न व्यर्थ ही अनेक पुस्तकें पढ़े, न जीविका के साधन के रूप में व्याख्यान दे।

    न व्यर्थही भौतिक ऐश्वर्य बढ़ाने का कभी कोई प्रयास करे।

    "

    न यतेराश्रम: प्रायो धर्महेतुर्महात्मन: ।

    शान्तस्य समचित्तस्य बिभूयादुत वा त्यजेत्‌ ॥

    ९॥

    न--नहीं; यतेः --संन्यासी का; आश्रम:--प्रतीकात्मक वेश ( दण्ड तथा कमण्डलु ); प्राय:--लगभग सदैव; धर्म-हेतु:--आध्यात्मिक जीवन में प्रगति का कारण; महा-आत्मन:--जो वास्तव में महान्‌ है; शान्तस्थ--जो शान्त है; सम-चित्तस्य--समदर्शी का; बिभूयात्‌--( ऐसे प्रतीक ) स्वीकार कर ले; उत--निस्सन्देह; वा--अथवा; त्यजेतू-त्याग दे |

    ऐसे शानन्‍्त समदर्शी व्यक्ति को जो आध्यात्मिक चेतना में सचमुच बढ़ा-चढ़ा है, संन्यासी केप्रतीकों--यथा त्रिदण्ड तथा कमण्डल--को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

    वह आवश्यकतानुसार इन प्रतीकों को कभी धारण कर सकता है, तो कभी छोड़ सकता है।

    "

    अव्यक्तलिड्रे व्यक्तार्थों मनीष्युन्मत्तनबालवत्‌ ।

    कविर्मूकवदात्मानं स दृष्टय्या दर्शयेत्रणाम्‌ ॥

    १०॥

    अव्यक्त-लिड्र:--जिसमें संन्यास के लक्षण नहीं हैं; व्यक्त-अर्थ:--जिसका अभिप्राय प्रकट हो; मनीषी--ऐसा महान्‌ सन्तपुरुष; उन्मत्त--बेचैन; बाल-वत्‌--बच्चे के समान; कवि:--महान्‌ कवि या वक्ता; मूक-वत्‌--गूँगे व्यक्ति के समान;आत्मानमू्‌-- स्वयं; सः--वह; दृष्ठयया--उदाहरण से; दर्शयेत्‌-- प्रस्तुत करे; नृणाम्‌ू--मानव समाज को

    साधु पुरुष भले ही मानव समाज के समक्ष अपने आपको प्रकट न करे, किन्तु उस केआचरण से उसका उद्देश्य प्रकट हो जाता है।

    उसे मानव समाज के समक्ष अपने को एक चंचलबालक की भाँति प्रस्तुत करना चाहिए और सर्वश्रेष्ठ विचारवान्‌ वक्ता होकर भी उसे अपने कोमूक व्यक्ति की तरह प्रदर्शित करना चाहिए।

    "

    अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌ ।

    प्रह्मदस्थ च संवादं मुनेराजगरस्यथ च ॥

    ११॥

    अत्र--यहाँ पर; अपि--यद्यपि सामान्य लोगों के समक्ष प्रकट नहीं होता; उदाहरन्ति--विद्वान साधु उदाहरण देते हैं; इमम्‌--इस;इतिहासमू--ऐतिहासिक घटना को; पुरातनम्‌--अत्यन्त प्राचीन; प्रह्मदस्थ--प्रह्द महाराज की; च-- भी; संवादम्‌--वार्तालाप;मुनेः--महान्‌ सन्त पुरुष का; आजगरस्य-- अजगर की वृत्ति धारण किये; च--भी |

    इसके ऐतिहासिक उदाहरण के रूप में विद्वान मुनिजन एक प्राचीन वार्तालाप की कथासुनाते हैं, जो प्रह्दाद महाराज तथा अजगर वृत्ति धारण किये एक महामुनि के मध्य हुआ था।

    "

    तं॑ शयानं धरोपस्थे कावेर्या सह्यसानुनि ।

    रजस्वलैस्तनूदेशैर्निंगूहामलतेजसम्‌ ॥

    १२॥

    ददर्श लोकान्विचरन्लोकतत्त्वविवित्सया ।

    वृतोमात्यै: कतिपयै: प्रह्मदो भगवत्प्रियः ॥

    १३॥

    तम्‌--उसको ( साधु पुरुष ); शयानम्‌--लेटे हुए; धरा-उपस्थे--पृथ्वी पर; कावे्याम्‌--कावेरी नदी के तट पर; सहा-सानुनि--सहाय नामक पर्वत की तलहटी पर; रज:-वलैः -- धूल-धूसरित; तनू-देशै:--शरीर के सारे अंगों से; निगूढ--अत्यन्त गहरा;अमल--निर्मल, स्वच्छ; तेजसम्‌--आध्यात्मिक शक्ति; दरदर्श--देखा; लोकान्‌--विभिन्न लोकों में; विचरन्‌--घूमते हुए;लोक-तत्त्व--जीवों की प्रकृति ( विशेषतया उनकी जो कृष्णभावनामृत में आगे बढ़ना चाहते हैं ); विवित्सया--समझने काप्रयास करने के लिए; बृत:--घिरा हुआ; अमात्यै:--राजसी पार्षदों से; कतिपयैः --कुछ; प्रह्मद: --महाराज प्रह्माद; भगवत्‌-प्रियः:--जो भगवान्‌ को अत्यन्त प्रिय है।

    एकबार भगवान्‌ के सर्वाधिक प्रिय सेवक प्रह्मद महाराज अपने कतिपय विश्वस्त पार्षदों केसाथ संत पुरुषों की प्रकृति का अध्ययन करने के लिए विश्व का भ्रमण करने निकले।

    वे कावेरीतट पर पहुँचे जहाँ सहा नामक एक पर्वत है।

    वहाँ पर उन्हें एक महान्‌ साधु पुरुष मिला जो भूमिपर लेटा था और धूल-धूसरित था, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से वह अत्यन्त बढ़ा-चढ़ा था।

    "

    कर्मणाकृतिभिर्वाचा लिड्लैर्वर्णा अमादिभि: ।

    न विदन्ति जना यं वै सोइसाविति न वेति च ॥

    १४॥

    कर्मणा--कर्म से; आकृतिभि:--शारीरिक बनावट से; वाचा--शब्दों से; लिड्रै:--लक्षणों से; वर्ण-आश्रम--वर्णा श्रम के चारभौतिक और जार आध्यात्मिक विभागों से सम्बन्धित; आदिभि:--अन्य लक्षणों से; न विदन्ति--नहीं समझ सके; जना:--सामान्य लोग; यम्‌--जिसको; बै--निस्सन्देह; सः--कि वह; असौ--यही व्यक्ति था; इति--इस प्रकार; न--नहीं; वा--अथवा; इति--इस प्रकार; च-- भी |

    लोग न तो उस साधु पुरुष के कर्मों से, न शारीरिक लक्षणों से, न उसके शब्दों से, न उसकेवर्णाश्रम धर्म के लक्षणों से यह समझ पाये कि यह वही पुरुष है, जिसे वे जानते थे।

    "

    त॑ नत्वाभ्यर्च्य विधिवत्पादयो: शिरसा स्पृशन्‌ ।

    विवित्सुरिदमप्राक्षीन्‍्महाभागवतोउसुर: ॥

    १५॥

    तम्‌--उसको ( साधु पुरुष को ); नत्वा--प्रणाम करके ; अभ्यर्च्य--तथा पूजा करके; विधि-वत्‌--शिष्टाचार के नियमानुसार;'पादयो:--साधु पुरुष के चरणकमलों को; शिरसा--सिर के बल; स्पृशन्‌--स्पर्श करते हुए; विवित्सु:--उसके विषय में जाननेके इच्छुक; इृदम्‌--यह; अप्राक्षीत्‌--पूछा; महा- भागवत: -- भगवान्‌ के महान्‌ भक्त ने; असुर:ः--यद्यपि असुर कुल में उत्पन्न ॥

    महाभागवत प्रह्नमाद महाराज ने उस साधु पुरुष की विधिवत्‌ पूजा की और प्रणाम कियाजिसने अजगर-वृत्ति धारण कर रखी थी।

    इस प्रकार उस साधु पुरुष की पूजा करके तथा उसकेचरणकमलों को अपने सिर से स्पर्श करके प्रह्माद महाराज ने उसे समझने के उद्देश्य से विनीतभाव से इस प्रकार पूछा।

    "

    बिभर्षि कायं पीवानं सोद्यममो भोगवान्यथा ॥

    १६॥

    वित्तं चैवोद्यमवतां भोगो वित्तवतामिह ।

    भोगिनां खलु देहोयं पीवा भवति नान्यथा ॥

    १७॥

    बिभर्षि--पालन कर रहे हो; कायम्‌--शरीर; पीवानम्‌--स्थूल; स-उद्यम: --उद्यम करने वाला; भोगवान्‌-- भोग करने वाला;यथा--जिस तरह; वित्तमू-- धन; च--भी; एब--निश्चय ही; उद्यम-वताम्‌--सदा आर्थिक विकास में लगे रहने वाले पुरुषोंका; भोग: --इन्द्रिय तृप्ति; वित्त-वताम्‌-- प्रचुर धनी व्यक्तियों का; इह--इस संसार में; भोगिनाम्‌-- भोक्ताओं का, कर्मियों का;खलु--निस्सन्देह; देह:--शरीर; अयम्‌--यह; पीवा--अत्यन्त स्थूल; भवति--हो जाता है; न--नहीं; अन्यथा--अन्य कुछ उस साधु पुरुष को अत्यन्त स्थूल ( मोटा ) देखकर

    प्रह्माद महाराज ने कहा : महोदय, आपअपनी जीविका अर्जित करने के लिए कोई उद्यम नहीं करते तो भी आपका शरीर उसी तरह हष्ट-पुष्ट है जैसाकि भौतिकतावादी कर्मी ( भोगी ) का होता है।

    मुझे ज्ञात है कि यदि कोई अत्यन्तधनी हो और उसके पास कुछ भी काम करने को नहीं हो तो वह खाकर, सोकर और कोई कामन करके अत्यधिक स्थूल ( मोटा ) हो जाता है।

    "

    न ते शयानस्य निरुद्यमस्यब्रह्मन्नु हार्थो यत एव भोग: ।

    अभोगिनो<यं तब विप्र देहःपीवा यतस्तद्वद नः क्षमं चेत्‌ ॥

    १८॥

    न--नहीं; ते--तुम्हारा; शयानस्य--लेटे हुए; निरुद्यमस्थ--बिना काम-काज के; ब्रह्मनू--हे साधु पुरुष; नु--निस्सन्देह; ह--स्पष्ट है; अर्थ:-- धन; यत:ः--जिससे; एव--निस्सन्देह; भोग:--इन्द्रियभोग; अभोगिन:--इन्द्रिय भोग में न लगे हुए का;अयम्‌--यह; तव--तुम्हारा; विप्र--हे विद्वान ब्राह्मण; देह:--शरीर; पीवा--स्थूल; यत:--जिस तरह; तत्‌--वह तथ्य; बद--कृपा करके कहो; नः--हमको; क्षमम्‌-- क्षमा करो; चेत्‌--यदि मैंने धृष्टता की हो |

    हे अध्यात्मज्ञानी ब्राह्मण, आपको कुछ नहीं करना पड़ता जिसके कारण आप लेटे हुए हैं।

    यह भी माना जा सकता है कि इन्द्रियभोग के लिए आपके पास धन नहीं है।

    तो फिर आपकाशरीर इतना स्थूल कैसे हो गया है?

    ऐसी परिस्थिति में यदि आप मेरे प्रश्न को प्रमादपूर्ण नहींमानते तो कृपा करके बतलाएँ कि यह किस तरह से हुआ है ?

    " कवि: कल्पो निपुणदक्त्न्रप्रियकथः समः ।

    लोकस्य कुर्वतः कर्म शेषे तद्वीक्षितापि वा ॥

    १९॥

    कविः--अत्यन्त विद्वान; कल्प: --दक्ष; निपुण-हक्‌ --बुद्द्धिमान; चित्र-प्रिय-कथ:--मन को भाने वाले मधुर शब्द बोलने मेंसमर्थ; सम:--समदर्शी; लोकस्य--सामान्य लोगों का; कुर्बत:--लगे हुए; कर्म--सकाम कर्म; शेषे--तुम लेटे रहते हो; तत्‌ू-वीक्षिता--उन सब को देखते हुए; अपि--यद्यपि; वा--अथवा |

    आप विद्वान, दक्ष तथा सभी प्रकार से बुद्धिमान प्रतीत होते हैं।

    आप बहुत अच्छा बोलसकते हैं और हृदय को भाने वाली बातें कर सकते हैं।

    आप देख रहे हैं कि सामान्य लोग सकामकर्मों में लगे हुए हैं फिर भी आप यहाँ पर निष्क्रिय लेटे हैं।

    "

    श्रीनारद उवाचस इत्थं दैत्यपतिना परिपृष्टो महामुनि: ।

    स्मयमानस्तमभ्याह तद्बागमृतयन्दत्रितः ॥

    २०॥

    श्री-नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; सः--वह साधु ( लेटा हुआ ); इत्थम्‌--इस प्रकार से; दैत्य-पतिना--दैत्यों के राजा( प्र्माद ) द्वारा; परिपृष्ट:--पूछा जाने पर; महा-मुनि:--महान्‌ साधु पुरुष ने; स्मथमान:--मुसकाते हुए; तम्‌--उसको ९ प्रह्मादको ); अभ्याह--उत्तर देने को तैयार हुआ; तत्‌ू-वाक्‌--उसके शब्दों का; अमृत-यन्त्रित:--अमृत के द्वारा मुग्ध होकर

    नारद मुनि ने आगे कहा : जब दैत्यराज प्रह्मद महाराज इस तरह से साधु पुरुष से प्रश्न कररहे थे तो वह शब्दों की अमृत वर्षा से मुग्ध हो गया और उसने मुसकाते हुए प्रह्माद महाराज कीउत्सुकता का इस प्रकार जवाब दिया।

    "

    श्रीत्राह्मण उबाचवेदेदमसुरश्रेष्ठ भवान्नन्वार्यसम्मतः ।

    ईहोपरमयोर्नुृणां पदान्यध्यात्मचक्षुषा ॥

    २१॥

    श्री-ब्राह्मण: उवाच--ब्राह्मण ने उत्तर दिया; वेद--ठीक से जान लो; इदम्‌--ये सारी चीजें; असुर-श्रेष्ठ--हे असुरों में श्रेष्ठ;भवान्‌ू--आप; ननु--निस्सन्देह; आर्य-सम्मतः--जिनके कार्य सभ्य मनुष्यों द्वारा अनुमोदित होते हैं; ईहा-- प्रवृत्ति का;उपरमयो: --हास का; नृणाम्‌--सामान्य लोगों की; पदानि--विभिन्न अवस्थाएँ; अध्यात्म-चक्षुषा--दिव्य आँखों के द्वारा

    साधु ब्राह्मण ने कहा : हे असुरश्रेष्ठ, हे महान्‌ तथा सभ्य पुरुष द्वारा सम्मान्य प्रह्मद महाराज,आप जीवन की विभिन्न अवस्थाओं से अवगत हैं, क्योंकि आप मनुष्य के चरित्र को अपनीस्वाभाविक दिव्य दृष्टि से देख सकते हैं और इस तरह आप कर्मों की स्वीकृति तथा अस्वीकृतिके परिणामों से भलीभाँति परिचित हैं।

    "

    यस्य नारायणो देवो भगवान्हद्गतः सदा ।

    भक्‍्त्या केवलयाज्ञानं धुनोति ध्वान्तमर्कवत्‌ ॥

    २२॥

    यस्य--जिसका; नारायण: देव:-- भगवान्‌ नारायण; भगवान्‌-- भगवान्‌; हत्‌-गत:--हृदय के अन्दर; सदा--सदैव; भक्‍्त्या--भक्ति द्वारा; केवलया--अकेली; अज्ञानमू--अज्ञान को; धुनोति--स्वच्छ करता है; ध्वान्तम्‌--अंधकार को; अर्क-वत्‌--सूर्यके समान।

    भगवान्‌ नारायण, जो समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं आपके हृदय में अग्रणी हैं क्योंकि आप शुद्धभक्त हैं।

    वे सदैव अज्ञान के अंधकार को उसी तरह दूर करते हैं जिस प्रकार सूर्य ब्रह्माण्ड सेअंधकार को दूर कर देता है।

    "

    तथापि बरूमहे प्रश्नांस्तव राजन्यथा श्रुतम्‌ ।

    सम्भाषणीयो हि भवानात्मनः शुद्द्धमिच्छता ॥

    २३॥

    तथापि--फिर भी; ब्रूमहे --मैं उत्तर दूँगा; प्रश्नान्‌--सारे प्रश्नों का; तब--तुम्हारे; राजन्‌--हे राजा; यथा- श्रुतम्‌-- जैसा मैंनेअधिकारियों से सुनकर सीखा है; सम्भाषणीय:--सम्बोधित किये जाने योग्य; हि--निस्सन्देह; भवानू--आप; आत्मन: --आत्मा की; शुद्धिम्‌-शुद्धि; इच्छता--इच्छा करने वाले के द्वारा।

    हे राजन, आप सब कुछ जानते हैं किन्तु आपने कुछ प्रश्न किये हैं, अतएव जैसा मैंनेअधिकारियों से सुनकर सीखा है उसी के अनुसार उनका उत्तर देने का प्रयास करूँगा।

    मैं इसमामले में मौन नहीं रह सकता, क्योंकि जो आत्मशुद्धि का इच्छुक है उसके द्वारा आप जैसेव्यक्ति से वार्तालाप करना उपयुक्त होगा।

    "

    तृष्णया भववाहिन्या योग्यै: कामैरपूर्यया ।

    कर्माणि कार्यमाणोहं नानायोनिषु योजित: ॥

    २४॥

    तृष्णया--इच्छाओं के कारण; भव-वाहिन्या-- प्रकृति के भौतिक नियमों की चपेट में; योग्यै:--क्योंकि यह; कामैः-- भौतिकइच्छाओं से; अपूर्यया--अन्तहीन, एक के बाद एक; कर्माणि--कार्यकलाप; कार्यमाण:--कार्य करने के लिए बाध्य;अहम्‌--ैं; नाना-योनिषु--जीवन के विभिन्न रूपों में; योजित:--जीवन-संघर्ष में लगा हुआ।

    अतृप्त भौतिक इच्छाओं के कारण मैं प्राकृतिक नियमों की तरंगों द्वारा बहा या लिए जा रहाथा और जीवन की विभिन्न योनियों में जीवन-संघर्ष करते हुए विभिन्न कार्यकलापों में लगा रहा।

    "

    यहच्छया लोकमिमं प्रापित: कर्मभिर्भ्रमन्‌ ।

    स्वर्गापवर्गयोद्दारिं तिरश्नां पुनरस्य च ॥

    २५॥

    यहच्छया--भौतिक प्रकृति की तरंगों द्वारा ले जाया जाकर; लोकम्‌--मनुष्य रूप; इमम्‌--यह; प्रापित: --प्राप्त किया हुआ;कर्मभि:--विभिन्न सकाम कर्मों के प्रभाव द्वारा; भ्रमन्‌ू--एक जीवन से दूसरे जीवन में घूमते हुए; स्वर्ग--स्वर्गलोक;अपवर्गयो:--मुक्ति के; द्वारमू--द्वार तक; तिरश्चाम्‌ू--निम्न योनियों तक; पुनः--फिर; अस्य--मनुष्यों की; च--तथा |

    मैंने विकास प्रक्रिया के दौरान जो अवांछित भौतिक इन्द्रियतृप्ति के कारण सकाम कर्मो सेउत्पन्न होती है यह मनुष्य रूप प्राप्त किया है, जो हमें स्वर्गलोकों तक, मुक्ति तक, निम्न योनियोंतक या मनुष्य के बीच पुनर्जन्म लेने तक पहुँचा सकता है।

    "

    तत्रापि दम्पतीनां च सुखायान्यापनुत्तये ।

    कर्माणि कुर्वतां दृष्ठा निवृत्तोडस्मि विपर्ययम्‌ ॥

    २६॥

    तत्र--वहाँ; अपि-- भी; दम्‌-पतीनाम्‌--विवाह द्वारा जुड़े पुरुषों तथा स्त्रियों के; च--तथा; सुखाय--आनन्द के लिए,विशेषतया विषयी जीवन के आनन्द हेतु; अन्य-अपनुत्तये--दुख से बचने के लिए; कर्माणि--सकाम कर्मो को; कुर्वताम्‌--सदैव करते हुए; दृध्ठा--देखकर; निवृत्त: अस्मि--( ऐसे कार्यो से ) अब मैं निवृत्त हूँ; विपर्ययम्‌--उल्टा |

    इस मनुष्य-जीवन में पुरुष तथा स्त्री का मिलन मैथुन-सुख के लिए होता है, किन्तु हमनेवास्तविक अनुभव से देखा है कि उनमें से कोई भी सुखी नहीं है।

    इसीलिए विपरीत परिणामोंको देखकर मैंने भौतिकतावादी कार्यों में भाग लेना बन्द कर दिया है।

    "

    सुखमस्यात्मनो रूप॑ सर्वेहोपरतिस्तनु: ।

    मनःसंस्पर्शजान्दष्ठा भोगान्स्वप्स्थामि संविशन्‌ ॥

    २७॥

    सुखम्‌--सुख; अस्य--उसका; आत्मन:--जीव का; रूपमू्‌--प्राकृतिक स्थिति; सर्व--समस्त; ईह--भौतिक कर्म; उपरति:--पूर्णतया स्थगित करके; तनु;--अभिव्यक्ति का माध्यम; मन:-संस्पर्श-जानू--इन्द्रियतृप्ति के लिए माँगों से उत्पन्न; दृष्ठा--देखकर; भोगान्‌--इन्द्रियभोगों को; स्वप्स्थामि--चुप बैठा हूँ और इन भौतिक कार्यों के विषय में गहराई से सोच रहा हूँ;संविशन्‌--ऐसे कार्यो में पैठकर |

    जीवों के लिए जीवन का वास्तविक स्वरूप आध्यात्मिक सुख का है और यही असली सुखहै।

    यह सुख तभी प्राप्त किया जा सकता है जब मनुष्य सारे भौतिकतावादी कार्यकलापों कोबन्द कर दे।

    भौतिक इन्द्रियभोग कोरी कल्पना है, अतएवं इस विषय पर विचार कर मैंने सारेभौतिक कार्यकलाप बन्द कर दिये हैं और अब यहाँ लेटा हुआ हूँ।

    "

    इत्येतदात्मन: स्वार्थ सन्तं विस्मृत्य वै पुमान्‌ ।

    विचित्रामसति द्वैते घोरामाप्नोति संसृतिम्‌ ॥

    २८ ॥

    इति--इस प्रकार; एतत्‌--बद्ध पुरुष; आत्मन:--अपना; स्व-अर्थम्‌--निजी हित; सन्तमू--अपने भीतर स्थित होकर;विस्मृत्य-- भुलाकर; बै--निस्सन्देह; पुमान्‌ू--जीव; विचित्रामू-- आकर्षक मिथ्या वस्तुएँ; असति-- भौतिक जगत में; द्वैते--आत्मा के अतिरिक्त; घोराम्‌--अत्यन्त भयावह ( जन्म-मृत्यु को बारबार स्वीकार करने से )) आणोति--फँस जाता है;संसृतिम्‌--संसृति में |

    इस प्रकार बद्ध आत्मा शरीर के भीतर रहकर अपने हित को भूल जाता है, क्योंकि वहअपनी पहचान शरीर के रूप में करने लगता है।

    चूँकि, शरीर भौतिक होता है अतएवं उसकीसहज प्रवृत्ति भौतिक जगत की विविधताओं की ओर आकृष्ट होने की रहती है।

    इस तरह जीवइस संसार के कष्टों को भोगता है।

    "

    जल तदुद्धवैश्छन्नं हित्वाज्ो जलकाम्यया ।

    मृगतृष्णामुपाधावेत्तथान्यत्रार्थडक्स्वत: ॥

    २९॥

    जलम्‌--जल; ततू-उद्धवै:--उस जल से उत्पन्न घास द्वारा; छन्नम्‌ू--ढका; हित्वा--छोड़कर; अज्ञ:--मूर्ख पशु; जल-काम्यया--जल पीने की अभिलाषा से; मृगतृष्णाम्‌-- मृगतृष्णा के; उपाधावेत्‌ू--पीछे दौड़ता है; तथा--उसी प्रकार; अन्यत्र--कहीं दूसरी जगह; अर्थ-हक्‌--स्वार्थरत; स्वतः--अपने में |

    जिस प्रकार एक हिरन अज्ञानतावश घास से ढके कुएँ के जल को न देख कर जल के लिएअन्यत्र दौड़ता फिरता रहता है उसी प्रकार भौतिक शरीर से आवृत यह जीव अपने भीतर के सुखको नहीं देख पाता और भौतिक जगत में सुख के पीछे दौड़ता रहता है।

    "

    देहादिभिदेवतन्त्रैरात्मनः सुखमीहतः ।

    दुःखात्ययं चानीशस्य क्रिया मोघा: कृता: कृता: ॥

    ३०॥

    देह-आदिभि:ः--शरीर, मन, अहंकार तथा बुद्धि से; दैव-तन्त्रै:--परम शक्ति के अधीन; आत्मन:ः--आत्मा का; सुखम्‌--सुख;ईहतः--खोज करते हुए; दुःख-अत्ययम्‌--दुखों की कमी; च-- भी; अनीशस्य--प्रकृति के अधीन जीव; क्रिया: --कार्यकलाप तथा योजनाएँ; मोघा: कृताः कृता:--पुनः-पुनः व्यर्थ हो जाती हैं |

    जीव सुख प्राप्त करना चाहता है और दुख के कारणों से छूटना चाहता है, लेकिन चूँकीजीवों के शरीर प्रकृति के पूर्ण नियंत्रण में होते हैं, अतएव जीव एक के बाद एक विभिन्न शरीरोंको पाकर जितनी भी योजनाएँ बनाता है वे अन्ततोगत्वा व्यर्थ हो जाती हैं।

    "

    आध्यात्मिकादिभिर्दु:खैरविमुक्तस्य कर्हिचित्‌ ।

    मर्त्यस्य कृच्छोपनतैरथें: कामै: क्रियेत किम्‌ू ॥

    ३१॥

    आध्यात्मिक-आदिभि:--अध्यात्मिक, अधिदैविक तथा अधिभौतिक; दुःखैः-- भौतिक जीवन के तीन प्रकार के दुखों से;अविमुक्तस्थ--ऐसी दुखी अवस्थाओं से मुक्त न होने वाले का; कहिंचित्‌ू--क भी-कभी; मर्त्यस्थ--मरणशील जीव का; कृच्छू-उपनतैः--दारुण दुखों के कारण प्राप्त वस्तुएँ; अर्थै:--यदि कुछ लाभ भी प्राप्त हो सके; कामैः--भौतिक इच्छाओं से पूरित;क्रियेत--जो वे करते हैं; किमू--और ऐसे सुख का क्या महत्त्व है।

    भौतिकतावादी कार्यकलाप सदैव तीन प्रकार के दुखों--अध्यात्मिक, अधिदैविक तथाअधिभौतिक--से मिले-जुले होते हैं।

    अतएवं यदि कोई ऐसे कार्य सम्पन्न करके कुछ सफलताप्राप्त भी कर ले तो उससे क्‍या लाभ है?

    उसे फिर भी जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि तथा अपनेकर्मफलों को भोगना होगा।

    "

    पश्यामि धनिनां कलेशं लुब्धानामजितात्मनाम्‌ ।

    भयादलब्धनिद्राणां सर्वतोडभिविशद्धिनाम्‌ ॥

    ३२॥

    पश्यामि--देखता हूँ; धनिनाम्‌--अत्यन्त धनी व्यक्तियों में; क्लेशम्‌--कष्ट; लुब्धानाम्‌ू-- अत्यन्त लालची; अजित-आत्मनाम्‌ू--अपनी इन्द्रियों के शिकार बनने वाले; भयात्‌--डर के कारण; अलब्ध-निद्राणाम्‌--जिन्‍्हें अनिद्रा का रोग है; सर्वतः--चारोंओर से; अभिविशड्डिनाम्‌--विशेष रूप से भयभीत

    ब्राह्मण ने आगे कहा : मैं सचमुच देख रहा हूँ कि अपनी इन्द्रियों के वशीभूत हुआ एक धनीव्यक्ति किस तरह धन संचित करने का अत्यन्त लोभी होता है।

    अतएव सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य होतेहुए भी चारों ओर से भय के कारण वह अनिद्र रोग का शिकार बन जाता है।

    "

    राजतश्लौरतः शत्रो: स्वजनात्पशुपक्षित: ।

    अर्धिभ्य: कालतः स्वस्मान्नित्यं प्राणार्थवद्धयम्‌ ॥

    ३३॥

    राजतः--राज्य से; चौरत:--चोरों तथा ठगों से; शत्रो: --शत्रुओं से; स्व-जनात्‌--सम्बन्धियों से; पशु-पक्षित:--पशुओं तथापक्षियों से; अर्थिभ्य:--भिखारियों तथा दान लेने वालों से; कालतः--समय से; स्वस्मात्‌--तथा अपने आप से; नित्यम्‌ू--नित्य;प्राण-अर्थ-बत्‌--जीवन या धन वाले के लिए; भयम्‌ू--डर

    जिन्हें भौतिक दृष्टि से शक्तिशाली तथा धनी माना जाता है वे सामान्यतः सरकारी नियमों,चोर-उचक्रों, शत्रुओं, स्वजनों, पशुओं, पक्षियों, दान लेने वालों, काल, यहाँ तक कि अपनेआप से चिन्तित रहते हैं।

    इस प्रकार वे अनिवार्यतः भयभीत रहते हैं।

    "

    शोकमोहभयक्रोधरागक्लैब्यश्रमादय: ।

    यन्मूला: स्युर्नुणां जह्मात्स्पूहां प्राणार्थयोर्बुध: ॥

    ३४॥

    शोक--शोक; मोह-- मोह; भय-- डर; क्रोध--क्रोध; राग-- आसक्ति; क्लैब्य--दरिद्रता; श्रम--वृथा मेहनत; आदय: --इत्यादि; यत्‌-मूला:--इन सबों का मूल कारण; स्यु:ः--हो जाँए; नृणाम्‌--मनुष्यों का; जह्यात्‌--छोड़ देना चाहिए; स्पृहाम्‌--इच्छा; प्राण--शारीरिक शक्ति या प्रतिष्ठा; अर्थयो:--तथा धन संग्रह करने के लिए; बुध:--बुद्धिमान |

    मानव समाज के बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे शोक, लोभ, भय, क्रोध, अनुराग,दरिद्रता तथा अनावश्यक श्रम के मूल कारण को त्याग दें।

    इन सबों का मूल कारण अनावश्यकप्रतिष्ठा तथा धन की लालसा है।

    "

    मधुकारमहासर्पो लोके स्मिन्नो गुरूत्तमौ ।

    वैराग्यं परितोषं च प्राप्ता यच्छिक्षया वयम्‌ ॥

    ३५॥

    मधुकार--मधुमक्खियाँ जो शहद एकत्र करने के लिए एक फूल से दूसरे फूल पर जाती हैं; महा-सर्पौं--बड़ा साँप ( अजगर,अन्यत्र नहीं जाता ); लोके --संसार में; अस्मिन्‌ू--इस; न:ः--हमारा; गुरु--गुरु; उत्तमौ--उच्चकोटि का; वैराग्यम्‌ू--वैराग्य,त्याग; परितोषम्‌ च--तथा संतोष; प्राप्ता:--प्राप्त किया हुआ; यत्‌-शिक्षया--जिसके आदेश से; वयम्‌--हम |

    मधुमक्खी तथा अजगर दो श्रेष्ठ गुरु हैं, जो हमें इस सम्बन्ध में आदर्श उपदेश देते हैं किकिस तरह थोड़ा-थोड़ा संग्रह करके सन्‍्तुष्ट रहा जाये और किस तरह एक ही स्थान में ठरहाजाये--हिला न जाये।

    "

    विराग: सर्वकामेभ्य: शिक्षितो मे मधुव्रतात्‌ ।

    कृच्छाप्तं मधुवद्वित्तं हत्वाप्यन्यो हरेत्पतिमू ॥

    ३६॥

    विराग: --विर॑क्ति; सर्व-कामेभ्य:--समस्त भौतिक इच्छाओं से; शिक्षित:--पढ़ाया गया; मे--मुझको; मधु-ब्रतातू--मधुमक्खीसे; कृच्छ--अत्यन्त कठिनाई से; आप्तमू--अर्जित; मधु-वत्‌--शहद के समान ( धन ही शहद है ); वित्तम्‌-- धन; हत्वा--मारकर; अपि-- भी; अन्य:--दूसरा; हरेतू--ले लेता है; पतिम्‌--स्वामी को

    मधुमक्खी से मैंने सीखा है कि धन संग्रह करने से किस तरह विरक्त रहना चाहिए, क्योंकियद्यपि धन शहद जैसा है, किन्तु कोई भी धन के स्वामी को मार कर धन को ले जा सकता है।

    "

    अनीहः परितुष्टात्मा यहच्छोपनतादहम्‌ ।

    नो चेच्छये बह्हानि महाहिरिव सत्त्ववान्‌ ॥

    ३७॥

    अनीह:--और अधिक रखने की इच्छा का होना; परितुष्ट-- अत्यन्त सन्तुष्ट; आत्मा--आत्मा; यहच्छा--अपने आप, बिना यतललके; उपनतात्‌--मिली हुई वस्तुओं से; अहम्‌--मैं; नो--नहीं; चेत्‌--यदि ऐसा; शये-- लेटा रहता हूँ; बहु-- अनेक; अहानि--दिन; महा-अहि:ः--अजगर; इब--सहश; सत्त्व-वानू-- धैर्यवान्‌ |

    मैं किसी भी वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न नहीं करता, अपितु जो कुछ भी अपनेआप मिल जाता है उसी से सन्तुष्ट रहता हूँ।

    यदि मुझे कुछ भी नहीं मिलता तो अजगर की तरह मैंअविक्षिप्त रहते हुए धैर्यपूर्ण रहता हूँ और कई-कई दिनों तक पड़ा रहता हूँ।

    "

    क्वचिदल्पं क्‍्वचिद्धूरि भुझ्लेउन्न॑ स्वाद्वस्वादु वाक्वचिद्धूरि गुणोपेतं गुणहीनमुत क्वचित्‌ ।

    श्रद्धयोपहतं क्वापि कदाचिन्मानवर्जितम्‌भुझ्ले भुक्त्वाथ कसिमिश्रविद्दिवा नक्ते यहच्छया ॥

    ३८॥

    क्वचित्‌--कभी; अल्पम्‌--अत्यन्त थोड़ा; क्वचित्‌--कभी; भूरि--काफी मात्रा; भुझ्जे--खाता हूँ; अन्नम्‌ू-- भोजन; स्वादु--स्वादिष्ट; अस्वादु--बासी; वा--अथवा; क्वचित्‌--कभी; भूरि--अधिक; गुण-उपेतम्‌--सुगंधित; गुण-हीनम्‌--गंधरहित;उत--चाहे; क्वचित्‌--कभी; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; उपहतम्‌--किसी के द्वारा लाया गया; क्वापि--कभी; कदाचित्‌--कभी;मान-वर्जितम्‌--बिना सम्मान के प्रदत्त; भुझे--खाता हूँ; भुक्त्वा--खाकर; अथ--इस तरह; कस्मिन्‌ चितू--कभी किसीस्थान पर; दिवा--दिन; नक्तम्‌--अथवा रात्रि में; यहच्छया--जैसा भी मिल जाय

    कभी मैं थोड़ा खाता हूँ और कभी अधिक ।

    कभी भोजन स्वादिष्ट होता है, तो कभी बासी।

    कभी बड़े आदर के साथ मुझे प्रसाद दिया जाता है और कभी अत्यन्त उपेक्षा से भोजन मिलताहै।

    कभी मैं दिन में खाता हूँ तो कभी रात में।

    इस प्रकार मुझे जो कुछ आसानी से मिल जाता हैउसे ही खाता हूँ।

    "

    क्षौमं दुकूलमजिनं चीर॑ वल्कलमेव वा ।

    वसेउन्यदपि सम्प्राप्तं दिष्टभुक्तुष्टधीरहम्‌ ॥

    ३९॥

    क्षौममू--लिनन का कपड़ा; दुकूलमू--रेशमी या सूती; अजिनम्‌--मृगचर्म; चीरम्‌ू--चिरकुट, लंगोट; वल्कलम्‌--छाल;एव--जैसा हो; वा--अथवा; वसे-- धारण करता हूँ; अन्यत्‌-- अन्य कुछ; अपि--यद्यपि; सम्प्राप्तम्‌--उपलब्ध; दिष्ट-भुक्‌ --भाग्यवश; तुष्ट--संतुष्ट; धी:--मन; अहमू--मैं हूँ।

    शरीर ढकने के लिए मेरे भाग्य से मुझे जो कुछ भी मिल जाता है, चाहे क्षौम वस्त्र हो यारेशमी या सूती कपड़ा, चाहे पेड़ की छाल हो या मृगछाला, उसे मैं काम में लाता हूँ।

    मैं पूर्णसंतुष्ट रहता हूँ तथा विचलित नहीं होता।

    "

    क्वचिच्छये धरोपस्थे तृणपर्णाश्मभस्मसु ।

    क्वचित्प्रासादपर्यड्जे कशिपौ वा परेच्छया ॥

    ४०॥

    क्वचित्‌--कभी; शये--लेटता हूँ; धर-उपस्थे--पृथ्वी की सतह पर; तृण--घास पर; पर्ण--पत्तियाँ; अश्म--पत्थर;भस्मसु--या राख के ढेर पर; क्वचित्‌--कभी; प्रासाद--महल में; पर्यज्ले--उच्चकोटि के बिस्तर पर; कशिपौ--तकिया पर;वा--अथवा; पर--दूसरे की; इच्छया--इच्छा से |

    कभी मैं पृथ्वी पर, कभी पत्तियों पर, घास या पत्थर पर तो कभी राख के ढेर पर अथवाकभी-कभी अनन्‍्यों की इच्छा से महल के उच्च कोटि के बिस्तर तथा तकिये पर सोता हूँ।

    "

    क्वचित्स्नातोनुलिप्ताड़ु: सुवासा: स्त्रग्व्यलड्डू तः ।

    रथेभाश्चैश्वेरे क्वापि दिग्वासा ग्रहवद्धिभो ॥

    ४१॥

    क्वचित्‌--कभी; स्नात:--ठीक से नहाया; अनुलिप्त-अड्ग:--सारे शरीर में चन्दन का लेप लगा; सु-वासा:--सुन्दर उस्त्रों सेसज्जित; स्रग्वी--पुष्प हारों से सजा; अलड्डू तः--विभिन्न प्रकार के आभूषणों से सुशोभित; रथ--रथ; इभ--हाथी; अश्वैः:--याघोड़े की पीठ पर; चरे--मैं विचरण करता हूँ; क्वापि--कभी; दिक्‌-वासा:--पूर्णतया नग्न; ग्रह-वत्‌--मानो भूत-प्रेत पीछाकिये हों; विभो--हे स्वामी |

    हे स्वामी, कभी मैं ठीक से स्नान करके सारे शरीर में चन्दन का लेप करता हूँ, फूलों कीमाला पहनता हूँ और सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण धारण करता हूँ।

    फिर मैं राजा की तरह हाथी कीपीठ पर या रथ या घोड़े पर सवार होकर विचरण करता हूँ।

    किन्तु कभी-कभी मैं भूत-प्रेत द्वारासताये व्यक्ति की तरह नंग-धड़ंग घूमता हूँ।

    "

    नाहं निन्दे न च स्तौमि स्वभावविषमं जनम्‌ ।

    एतेषां श्रेय आशासे उतैकात्म्यं महात्मनि ॥

    ४२॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; निनन्‍्दे--निन्‍्दा करता हूँ; न--न तो; च-- भी; स्तौमि-- प्रशंसा करता हूँ; स्व-भाव--जिसका स्वभाव;विषमम्‌--विपरीत; जनम्‌--जीव या मनुष्य; एतेषाम्‌--उन सबों का; श्रेय:--चरम लाभ; आशासे--चाहता हूँ, मनाता हूँ;उत--निस्सन्देह; ऐकात्म्यम्‌--एकात्मता; महा-आत्मनि--परमात्मा या परब्रह्म ( कृष्ण ) में |

    विभिन्न लोग विभिन्न स्वभाव के होते हैं; अतएवं उनकी प्रशंसा करना या उनकी निन्दाकरना मेरा कार्य नहीं है।

    मैं तो इस आशा से उनके कल्याण की कामना करता हूँ कि वेपरमात्मा, भगवान्‌ श्रीकृष्ण के साथ एकात्मता स्वीकार करेंगे।

    "

    विकल्पं जुहुयाच्चित्तौ तां मनस्यर्थविश्रमे ।

    मनो वैकारिके हुत्वा तं मायायां जुहोत्यनु ॥

    ४३॥

    विकल्पम्‌-- भेदभाव ( अच्छे-बुरे, एक दूसरे व्यक्ति, एक दूसरे राष्ट्र में ); जुहुयात्‌ू--आहुति डाले; चित्तौ--चेतना रूपी अग्निमें; तामू--उस चेतना को; मनसि--मन में; अर्थ-विभ्रमे--समस्त स्वीकृति तथा अस्वीकृति की जड़; मनः--उस मन को;वैकारिके--पदार्थ के साथ अपनी पहचान के मिथ्या अहंकार में; हुत्वा--आहुति देकर ; तम्‌--इस मिथ्या अहंकार को;मायायाम्‌--माया में; जुहोति--आहुति डालता है; अनु--इस सिद्धान्त का पालन करते हुए।

    अच्छे तथा बुरे के भेदभाव की जो मानसिक कल्पना ( मनोरथ ) है उसे इकाई रूप मेंस्वीकार करके उसे मन में लगाना चाहिए और तब मन को मिथ्या अहंकार में लगाना चाहिए।

    इस मिथ्या अहंकार को माया में लगाना चाहिए।

    मिथ्या भेदभाव से लड़ने की विधि यही है।

    "

    आत्मानुभूतौ तां मायां जुहुयात्सत्यहड्सुनि: ।

    ततो निरीहो विरमेत्स्वानुभूत्यात्मनि स्थित: ॥

    ४४॥

    आत्म-अनुभूतौ--आत्म-साक्षात्कार में; तामू--उस; मायाम्‌ू--शरीर के मिथ्या अहंकार को; जुहुयात्‌ू-- आहुति कर देना चाहिए;सत्य-हक्‌--परम सत्य की वास्तविक अनुभूति करने वाले का; मुनि:--विचारवान्‌ व्यक्ति; ततः--इस आत्म-साक्षात्कार केकारण; निरीह:-- भौतिक इच्छाओं से रहित; विरमेत्‌-- भौतिक कार्यो से अवकाश ले लेना चाहिए; स्व-अनुभूति-आत्मनि--आत्म-साक्षात्कार में; स्थित: --स्थित |

    विद्वान विचारवान्‌ व्यक्ति को इसकी अनुभूति होनी चाहिए कि यह भौतिक जगत मोह हैकिन्तु ऐसा आत्म-साक्षात्कार द्वारा ही सम्भव है।

    ऐसे स्वरूपसिद्ध व्यक्ति को, जिसने सत्य का वास्तविक साक्षात्कार किया है, आत्म-साक्षात्कार होने के कारण समस्त भौतिक कार्यकलापोंसे अवकाश ले लेना चाहिए।

    "

    स्वात्मवृत्तं मयेत्थं ते सुगुप्तमपि वर्णितम्‌ ।

    व्यपेतं लोकशास्त्राभ्यां भवानिहि भगवत्पर: ॥

    ४५॥

    स्व-आत्म-वृत्तम्‌ू-- आत्म-साक्षात्कार के इतिहास की सूचना; मया--मेरे द्वारा; इत्थम्‌--इस प्रकार; ते--तुम्हें; सु-गुप्तम्‌--अत्यन्त गोपनीय; अपि--यद्यपि; वर्णितम्‌--बतलाई गई; व्यपेतम्‌--के बिना; लोक-शास्त्राभ्याम्‌--सामान्य व्यक्ति या सामान्यग्रंथों का मत; भवान्‌ू--आप; हि--निस्सन्देह; भगवत्‌-परः -- भगवान्‌ का भलीभाँति साक्षात्कार करके |

    प्रह्माद महाराज, आप निश्चय ही स्वरूपसिद्ध आत्मा तथा भगवद्धक्त हैं।

    आप न तो जन-मतकी परवाह करते हैं, न ही तथाकथित शास्त्रों की।

    इस कारण मैंने आपसे निःसंकोच भाव सेअपने आत्म-साक्षात्कार का इतिहास कह सुनाया।

    "

    श्रीनारद उवाचधर्म पारमहंस्यं वै मुनेः श्रुत्वासुरे श्वरः ।

    'पूजयित्वा ततः प्रीत आमन्त्रय प्रययौ गृहम्‌ ॥

    ४६॥

    श्री-नारद: उबाच--नारद मुनि ने कहा; धर्मम्‌--वृत्तिपरक कर्तव्य; पारमहंस्यम्‌-परमहंसों अर्थात्‌ अत्यन्त पूर्ण मनुष्यों का;बै--निस्सन्देह; मुनेः--साधु पुरुष से; श्रुत्वा--सुनकर; असुर-ईश्वरः --असुरों के राजा प्रह्ाद महाराज ने; पूजयित्वा--साधुपुरुष की पूजा करके; ततः--तत्पश्चात्‌; प्रीत:--अत्यन्त प्रसन्न होकर; आमन्त्रय-- अनुमति लेकर; प्रययौ--उस स्थान को छोड़दिया; गृहम्‌--अपने घर जाने के लिए

    नारद मुनि ने आगे कहा : साधु से ये उपदेश सुन कर असुरराज प्रह्लाद महाराज पूर्ण पुरुष( परमहंस ) के वृत्तिपरक कर्तव्य समझ गये।

    इस प्रकार उन्होंने उस सन्त की विधिपूर्वक पूजाकी और उससे अनुमति लेकर अपने घर के लिए विदा हुए।

    "

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    अध्याय चौदह: आदर्श पारिवारिक जीवन

    7.14श्रीयुधिष्ठटिर उवाचगृहस्थ एतां पदवीं विधिना येन चा्जसा ।

    यायाद्देवऋषेब्रूहि माहशो गृहमूढधीः ॥

    १॥

    श्री-युधिष्ठटिरः उबाच--युथिष्टिर महाराज ने कहा; गृहस्थ:--अपने परिवार के साथ रहने वाला व्यक्ति; एताम्‌--इस ( पिछलेअध्याय में वर्णित विधि ); पदवीम्‌--मुक्ति पद को; विधिना--वैदिक शास्त्र के आदेशानुसार; येन--जिससे; च-- भी;अज्ञसा--सरलता से; यायात्‌--पा सके; देव-ऋषे--हे देवताओं में श्रेष्ठ साधु; ब्रूहि--कृपा करके बताएँ; माहशः --मेरे समान;गृह-मूढ-धी: --जीवन लक्ष्य से पूर्णतया अनजान

    महाराज युधिष्टिर ने नारद मुनि से पूछा : हे स्वामी, हे महर्षि, कृपा करके यह बतलाएँ किजीवन-लक्ष्य के ज्ञान से रहित, घर पर रहने वाले हम लोग किस तरह वेदों के आदेशानुसारसरलता से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं ?

    " श्रीनारद उवाचगृहेष्ववस्थितो राजन्क्रिया: कुर्वन्यथोचिता: ।

    बासुदेवार्पणं साक्षादुपासीत महामुनीन्‌ ॥

    २॥

    श्री-नारदः उबाच-- श्री नारद मुनि ने उत्तर दिया; गृहेषु--घर पर; अवस्थित:--रुककर ( गृहस्थ सामान्यतया अपनी पतली तथाबच्चों के साथ घर पर रहा करता है ); राजनू--हे राजा; क्रिया: --कार्य; कुर्वन्‌--करते हुए; यथोचिता: --उपयुक्त ( गुरु तथाशास्त्र द्वारा आदिष्ट ); वासुदेव-- भगवान्‌ वासुदेव को; अर्पणम्‌--अर्पित करना; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; उपासीत--पूजा करे; महा-मुनीन्‌ू-महान्‌ भक्तों को

    नारद मुनि ने उत्तर दिया: हे राजन, जो लोग घर पर गृहस्थ बन कर रहते हैं उन्हें अपनीजीविका अर्जित करने के लिए कार्य करना चाहिए और अपने कर्मो का फल स्वयं भोगने काप्रयास न करके इन फलों को वासुदेव कृष्ण को अर्पित करना चाहिए।

    इस जीवन में वासुदेवको किस तरह प्रसन्न किया जाये इसे भगवद्धक्तों की संगति के माध्यम से भलीभाँति सीख जासकता है।

    "

    श्रुण्वन्भगवतोभीक्ष्णमवतारकथामृतम्‌ ।

    श्रद्धानो यथाकालमुपशान्तजनावृत: ॥

    ३॥

    सत्सड्राच्छनकै: सड्भमात्मजायात्मजादिषु ।

    विमुज्जेन्मुच्यमानेषु स्वयं स्वप्नवदुत्थित: ॥

    ४॥

    श्रृण्बन्‌ू--सुनते हुए; भगवत:-- भगवान्‌ की; अभीक्ष्णम्‌--सदैव; अवतार--अवतारों की; कथा--कथाएँ; अमृतम्‌ू-- अमृत;अ्रद्दान:-- भगवान्‌ के विषय में सुनने में अत्यन्त श्रद्धालु; यथा-कालम्‌--समय के अनुसार ( सामान्यतया गृहस्थ को सायंकालया दोपहर में अवकाश मिलता है ); उपशान्त-- भौतिक कार्यो से पूर्णतया छुटकारा पाकर; जन--लोगों के द्वारा; आवृत:ः--धघिरकर; सत्‌-सड़ात्‌--ऐसी अच्छी संगति से; शनकै:-- धीरे-धीरे; सड्रम्‌--संगति; आत्म--शरीर में; जाया--पती में; आत्म-ज-आदिषु--तथा सन्तानों में भी; विमुझ्लेत्‌--ऐसी संगति से छुटकारा पा ले; मुच्यमानेषु--विलग होकर; स्वयम्‌--स्वयं; स्वप्नबत्‌--सपने की तरह; उत्थित:--जाग्रत ।

    गृहस्थ व्यक्ति को चाहिए कि वह साधु पुरुषों की संगति बारम्बार करे और अत्यन्तश्रद्धापूर्वक भगवान्‌ तथा उनके अवतारों के कार्यकलापों के अमृत का उस रूप में श्रवण करेजिस रूप में वे श्रीमद्धागवत तथा अन्य पुराणों में वर्णित हैं।

    इस प्रकार मनुष्य को चाहिए किवह धीरे-धीरे अपनी पत्नी तथा सन्‍्तानों के स्नेह से उसी तरह विरक्त होता रहे जिस प्रकार जागजाने पर मनुष्य स्वप्न से विरक्त हो जाता है।

    "

    यावदर्थमुपासीनो देहे गेहे च पण्डित: ।

    विरक्तो रक्तवत्तत्र नुलोके नरतां न्‍्यसेत्‌ ॥

    ५॥

    यावत््‌-अर्थम्‌--जीविका के लिए जितने प्रयास की आवश्यकता हो उतना ही; उपासीन: --कमाते हुए; देहे--शरीर में; गेहे--घरेलू मामलों में; च-- भी; पण्डित:ः--विद्वान; विरक्त:--अनासक्त; रक्त-वत्‌--अत्यधिक आसक्त की भाँति; तत्र--उसमें; नू-लोके--मानव समाज में; नरताम्‌--मानव जीवन में ; न्‍्यसेत्‌--चित्रित करे |

    वास्तविक विद्वान को चाहिए कि वह शरीर पालन के लिए जितना आवश्यक हो उतना हीअर्जित करने के लिए कार्य करे और पारिवारिक मामलों से अनासक्त होकर मानव समाज मेंरहे, यद्यपि बाहर से वह उसमें अत्यधिक आसक्त प्रतीत हो।

    "

    ज्ञातयः पितरौ पुत्रा भ्रातरः सुहृदोपरे ।

    यद्वदन्ति यदिच्छन्ति चानुमोदेत निर्मम: ॥

    ६॥

    ज्ञातय: --सम्बन्धी, पारिवारिक सदस्य; पितरौ--माता तथा पिता; पुत्रा:--सन्तानें; भ्रातर: -- भाई; सुहृदः--मित्र; अपरे--तथाअन्य लोग; यत्‌--जो भी; वदन्ति--सुझाते हैं ( जीविका के साधन के लिए ); यत्‌--जो भी; इच्छन्ति--चाहते हैं; च--तथा;अनुमोदेत--उसे मानना चाहिए; निर्मम:ः--गम्भीरता से न ग्रहण करते हुए।

    मानव समाज में बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि अपने कार्यकलापों की योजना को अत्यन्तसहज बनाए।

    यदि उसका मित्र, पुत्र, माता-पिता, भाई या अन्य कोई कुछ सुझाव देता है, तोउसे ऊपर से मानते हुए यह कहना चाहिए 'हाँ, यह ठीक है' किन्तु भीतर से उसे हृढ़संकल्पहोना चाहिए कि कहीं वह अपने जीवन को दूभर न बना ले जिससे जीवन का प्रयोजन पूरा न होसके।

    "

    दिव्यं भौम॑ चान्तरीक्षं वित्तमच्युतनिर्मितम्‌ ।

    तत्सर्वमुपयुझ्जान एतत्कुर्यात्स्वतो बुध: ॥

    ७॥

    दिव्यमू--आकाश से वर्षा होने के कारण सरलता से प्राप्प; भौमम्‌--खानों तथा समुद्र से प्राप्त; च--तथा; आन्तरीक्षम्‌-- भाग्यसे प्राप्त; वित्तमू--सारी सम्पत्ति; अच्युत-निर्मितम्‌-- भगवान्‌ द्वारा बनायी गयी; तत्‌--वस्तुएँ; सर्वम्‌--सारी; उपयुज्ञान--(मानव समाज या सारे जीवों के लिए ) उपयोग में लाते हुए; एतत्‌--यह ( शरीर पालन ); कुर्यात्‌--करे; स्वतः--अतिरिक्त श्रमकिये बिना, स्वतः प्राप्त; बुध:--बुद्धिमान व्यक्ति |

    भगवान्‌ द्वारा उत्पन्न प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग जीवों के शरीरों तथा आत्माओं का पालनकरने के लिए किया जाना चाहिए।

    जीवन की आवश्यकताएँ तीन प्रकार की हैं--वे जो आकाश से (वर्षा से ) उत्पन्न हैं, वे जो पृथ्वी से ( खानों, समुद्रों या खेतों से ) उत्पन्न हैं तथा वेजो वायुमण्डल से ( जो अचानक तथा अनपेक्षित रूप से ) उत्पन्न होती हैं।

    "

    यावदि्भ्रियेत जठरं तावत्स्वत्वं हि देहिनाम्‌ ।

    अधिक योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमरईति ॥

    ८॥

    यावत्‌--जितना; प्रियेत-- भरा जा सकता है; जठरम्‌--पेट; तावत्‌ू--उतना; स्वत्वम्‌--स्वामित्व; हि--निश्चय ही; देहिनामू--जीवों का; अधिकम्‌--इससे अधिक; य:--जो; अभिमन्येत--स्वीकार कर सकता है; सः--वह; स्तेन:--चोर; दण्डमू--दण्डके; अहति--योग्य है |

    शरीर के पालन के लिए जितने धन की आवश्यकता हो उतने के स्वामित्व का ही अधिकाररखना चाहिए, किन्तु जो इससे अधिक का स्वामी बनने की कामना करता है उसे चोर माननाचाहिए और प्रकृति के नियमों द्वारा दण्डनीय है।

    "

    मृगोष्टखरमकाखुसरीसूप्खगमक्षिका: ।

    आत्मनः पुत्रवत्पश्येत्तेरेषामन्तरं कियत्‌ ॥

    ९॥

    मृग--हिरन; उष्ट-- ऊँट; खर--गदहा; मर्क --बन्दर; आखु--चूहा; सरीसूपू--साँप; खग--पक्षी; मक्षिका:--मक्खियाँ;आत्मन:--अपने; पुत्र-वत्‌--पुत्र के समान; पश्येत्‌--देखे; तैः--उन पुत्रों से; एघामू--इन पशुओं का; अन्तरम्‌--अन्तर;कियत्‌--कितना कम

    मनुष्य को चाहिए कि हिरन, ऊँट, गधा, बन्दर, चूहा, साँप, पक्षी तथा मक्खी जैसे पशुओंके साथ अपने पुत्र के ही समान बर्ताव करे।

    इन निर्दोष पशुओं तथा पुत्रों के बीच वास्तव मेंअन्तर ही कितना है?

    " त्रिवर्ग नातिकृच्छेण भजेत गृहमेध्यपि ।

    यथादेशं यथाकालं यावद्दैवोपपादितम्‌ ॥

    १०॥

    ब्रि-वर्गमू--तीन सिद्धान्त, धर्म, अर्थ तथा काम; न--नहीं; अति-कृच्छेण--कठिन प्रयत्न के द्वारा; भजेत--सम्पन्न करे; गृह-मेधी--गृहस्थ जीवन में ही रुचि रखने वाला व्यक्ति; अपि--यद्यपि; यथा-देशम्‌--स्थान के अनुसार; यथा-कालम्‌--समय केअनुसार; यावत्‌--जो भी; दैव-- भगवत्कृपा से; उपपादितम्‌--प्राप्त |

    यदि कोई ब्रह्मचारी, संन्यासी या वानप्रस्थ न होकर मात्र गृहस्थ हो तो भी उसे धर्म, अर्थ याकाम के लिए अधिक श्रम नहीं करना चाहिए।

    यहाँ तक कि गृहस्थ जीवन में भी स्थान तथाकाल के अनुसार न्यूनतम प्रयास से जो कुछ भगवत्कृपा से उपलब्ध हो जाये, उसी से अपनाजीवन-यापन करते हुए सन्तुष्ट रहना चाहिए।

    मनुष्य को अपने आपको उग्र कर्म में नहीं लगानाचाहिए।

    "

    आश्राघान्तेडवसायिभ्यः कामान्संविभजेद्यथा ।

    अप्येकामात्मनो दारां नृणां स्वत्वग्रहो यतः ॥

    ११॥

    आ--यहाँ तक कि; श्व--कुत्ता; अध--पापपूर्ण पशु या जीव; अन्ते अवसायिभ्य:--सबसे नीच चाण्डाल को; कामान्‌--जीवन की आवश्यकताएँ; संविभजेत्‌--विभाजित करे; यथा--जितना; अपि-- भी; एकाम्‌--एक; आत्मन:--अपनी;दाराम्‌--स्त्री को; नृणाम्‌--सामान्य लोगों का; स्वत्व-ग्रह:ः--स्त्री को अपना ही समझ कर स्वीकार किया जाता है; यत:--जिसके कारण।

    कुत्तों, पतित पुरुषों तथा चाण्डाल समेत अछूतों को उनकी समुचित आवश्यकताएँ प्रदानकरके उनका पालन करना चाहिए।

    आवश्यकताएँ गृहस्थों द्वारा पूरी की जानी चाहिए।

    यहाँ तककि घर की अपनी उस पत्नी को भी, जिससे मनुष्य घनिष्ठतापूर्वक आसक्त होता है, अतिथियोंतथा सामान्य जनों के स्वागत में नियुक्त करना चाहिए।

    "

    जह्याद्यदर्थ स्वान्प्राणान्हन्याद्वा पितरं गुरुम्‌ ।

    तस्यां स्वत्वं स्त्रियां जह्याद्यस्तेन ह्जितो जित: ॥

    १२॥

    जह्यात्‌--छोड़ दे; यत्‌-अर्थ--जिसके लिए; स्वानू--अपना; प्राणानू--जीवन को; हन्यात्‌--मार डाले; वा--अथवा;पितरम्‌--पिता को; गुरुम्‌--गुरु या शिक्षक को; तस्याम्‌--उसमें; स्वत्वम्‌-- अधिकार, स्वामित्व; स्त्रियाम्‌--पत्नी में;जह्यात्‌-त्याग दे; यः--जो ( भगवान्‌ ); तेन--उसके द्वारा; हि--निस्सन्देह; अजितः--जो जीता नहीं जा सकता; जित:--जीता गया।

    मनुष्य अपनी पत्नी को इतनी गम्भीरतापूर्वक अपना मानता है कि वह कभी-कभी उसकेलिए स्वयं को या अन्यों को यथा अपने माता-पिता या गुरु अथवा शिक्षक को मार डालता है।

    अतएव यदि कोई ऐसी पत्नी के प्रति अपनी आसक्ति का परित्याग कर सकता है, तो वह उनभगवान्‌ को जीत लेता है, जो अजेय हैं।

    "

    कृमिविड्भस्मनिष्ठान्तं क्वेदं तुच्छं कलेवरम्‌ ।

    क्व तदीयरतिर्भार्या क्वायमात्मा नभश्छदि: ॥

    १३॥

    कृमि--कीड़े-मकोड़े; विटू--विष्ठा, मल; भस्म--राख; निष्ठ--आसक्ति; अन्तमू--अन्त में; क्व--क्‍्या है; इदम्‌--यह( शरीर ); तुच्छम्‌--अत्यन्त नगण्य; कलेवरम्‌-- भौतिक शरीर; क्व--क्‍्या है; तदीय-रति:ः--उस शरीर के प्रति आकर्षण;भार्या--पली; क्व अयमू्‌--इस शरीर का क्‍या लाभ; आत्मा--परमात्मा; नभ:-छदि:-- आकाश के समान सर्वव्यापी |

    समुचित विचार-विमर्श करके मनुष्य को अपनी पत्नी के शरीर के प्रति आकर्षण त्याग देनाचाहिए, क्योंकि यह शरीर अन्ततोगत्वा छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों, मल या राख में परिणत होजाएगा।

    तो भला इस तुच्छ शरीर का क्या महत्त्व है ?

    परम पुरुष कितना महान्‌ है, जो आकाशके समान सर्वव्यापी है?

    " सिद्धैर्यज्ञावशिष्टार्थ: कल्पयेद्वुत्तिमात्मनः ।

    शेषे स्वत्वं त्यजन्प्राज्ञ: पदवीं महतामियात्‌ ॥

    १४॥

    सिद्धैः:--भगवान्‌ की दया से प्राप्त वस्तुएँ; यज्ञा-अवशिष्ट-अर्थै:-- पञ्ञ महायज्ञ सम्पन्न करने के बाद या भगवान्‌ को यज्ञ अर्पितकरने के बाद प्राप्त वस्तुएँ; कल्पयेत्‌--विचार करे; वृत्तिमू--जीविका का साधन; आत्मन:--अपने लिए; शेषे--अन्त में;स्वत्वमू--अपनी पत्नी, बच्चों, घर, व्यापार इत्यादि का तथाकथित स्वामित्व; त्यजन्‌--त्यागते हुए; प्राज्ञ:--बुद्धिमान लोग;पदवीम्‌--पद; महताम्‌--आध्यात्मिक चेतना में पूर्णतया सन्तुष्ट महापुरुषों का; इयात्‌ू--प्राप्त करना चाहिए।

    बुद्धिमान व्यक्ति को प्रसाद खाकर या पाँच विभिन्न प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करके तुष्ट रहनाचाहिए।

    ऐसे कार्यों से मनुष्य शरीर तथा शरीर के तथाकथित स्वामित्व के प्रति अपनी अनुरक्ति को त्याग सकता है।

    जब वह ऐसा करने में समर्थ होता है, तो वह महात्मा के पद पर दृढ़ स्थितहो जाता है।

    "

    देवानृषीत्रृभूतानि पितृनात्मानमन्वहम्‌ ।

    स्ववृत्त्यागतवित्तेन यजेत पुरुषं पृथक्‌ ॥

    १५॥

    देवानू--देवताओं को; ऋषीन्‌--ऋषियों को; नृ--मानव समाज को; भूतानि--जीवों को; पितृन्‌ू--पुरखों को; आत्मानम्‌ू--अपने को या परमात्मा को; अन्वहम्‌--नित्यप्रति; स्व-वृत््या--अपनी जीविका के साधन से; आगत-वित्तेन--स्वतः आने वालेधन से; यजेत--पूजा करे; पुरुषम्‌--प्रत्येक के हृदय स्थित व्यक्ति को; पृथक्‌--अलग से |

    मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन वह उन परम पुरुष की पूजा करे जो हर एक के हृदय मेंस्थित हैं और इसी आधार पर उसे देवताओं, साधु पुरुषों, सामान्य मनुष्यों तथा जीवों, अपनेपुरखों तथा स्वयं की अलग-अलग पूजा करनी चाहिए।

    इस प्रकार वह प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मेंस्थित परम पुरुष की पूजा कर सकता है।

    "

    यह्ाात्मनोधिकाराद्या: सर्वा: स्युर्यज्ञसम्पदः ।

    वैतानिकेन विधिना अग्निहोत्रादिना यजेत्‌ ॥

    १६॥

    यहि--जब; आत्मन:-- अपना; अधिकार-आद्या:--पूर्ण अधिकार के अन्तर्गत उसके पास की वस्तुएँ; सर्वा:--सारी; स्युः--होजाता है; यज्ञ-सम्पदः --यज्ञ सम्पन्न करने की सामग्री या भगवान्‌ को प्रसन्न करने के साधन; बैतानिकेन--यज्ञ करने को बतानेवाली प्रामाणिक पुस्तकों से; विधिना--विधानों के अनुसार; अग्नि-होत्र-आदिना--अग्नि में यज्ञ करने से; यजेत्‌-- भगवान्‌की पूजा करे।

    जब कोई व्यक्ति सम्पत्ति तथा ज्ञान से समृद्ध हो, जो उसके पूर्ण नियंत्रण में हों और जिनसेवह यज्ञ सम्पन्न कर सके या भगवान्‌ को प्रसन्न कर सके तो उसे शास्त्रों के निर्देशानुसार अग्नि मेंआहुतियाँ डालकर यज्ञ करना चाहिए।

    इस तरह उसे भगवान्‌ की पूजा करनी चाहिए।

    "

    न हाग्निमुखतोयं वै भगवान्सर्वयज्ञभुक्‌ ।

    इज्येत हविषा राजन्यथा विप्रमुखे हुतेः ॥

    १७॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अग्नि--आग; मुखतः--मुख से, ज्वाला से; अयम्‌ू--यह; बै--निश्चय ही; भगवान्‌-- भगवान्‌श्रीकृष्ण; सर्व-यज्ञ-भुक्‌ू--सभी प्रकार के यज्ञों के फलों का भोक्ता; इज्येत--पूजा जाता है; हविषा--घी की आहुति से;राजन्‌--हे राजा; यथा--जिस प्रकार; विप्र-मुखे--ब्राह्मण के मुँह से होकर; हुतैः--उत्तम भोजन की भेंट करके |

    भगवान्‌ श्री कृष्ण सारी यज्ञ-आहुतियों के भोक्ता हैं।

    यद्यपि वे अग्नि में डाली गई आहुतियाँखाते हैं फिर भी हे राजा, जब उन्हें अन्न तथा घी से बना व्यंजन योग्य ब्राह्मणों के मुख से होकरअर्पित किया जाता है, तो वे और भी प्रसन्न होते हैं।

    "

    तस्माद्वाह्मणदेवेषु मर्त्यादिषु यथाईत: ।

    तैस्तैः कामर्यजस्वैन क्षेत्रज्ञ ब्राह्मणाननु ॥

    १८ ॥

    तस्मात्‌ू--अतएव; ब्राह्मण-देवेषु--ब्राह्मणों तथा देवताओं के माध्यम से; मर्त्य-आदिषु--सामान्य मनुष्यों तथा अन्य जीवों केमाध्यम से; यथा-अहतः--अपनी सामर्थ्य के अनुसार; तैः तैः--उन सभी; कामैः-- भोग की विविध वस्तुओं से, यथाभव्यभोजन, पुष्पों की माला, चन्दन आदि से; यजस्व--पूजा करे; एनम्‌--इस; क्षेत्र-ज्ञमू--सभी प्राणियों के हृदय में वास करनेवाले परमेश्वर को; ब्राह्मणान्‌ू--ब्राह्मणों को; अनु--बाद में |

    अतएबव हे राजा, सर्वप्रथम ब्राह्मणों तथा देवताओं को प्रसाद प्रदान करो और जब वेभलीभाँति खा चुकें तो तुम अपनी सामर्थ्य के अनुसार अन्य जीवों को प्रसाद बाँटो।

    इस प्रकारतुम सारे जीवों की अर्थात्‌ प्रत्येक जीव के भीतर के परम पुरुष की पूजा कर सकोगे।

    "

    कुर्यादपरपश्षीयं मासि प्रौष्ठपदे द्विज: ।

    श्राद्धं पित्रोर्यथावित्तं तद्वन्धूनां च वित्तवान्‌ ॥

    १९॥

    कुर्यात्‌ू-करना चाहिए; अपर-पक्षीयम्‌--कृष्ण पक्ष में; मासि--आश्चिन ( अक्टूबर-नवम्बर ) महीने में; प्रौष्ठ-पदे-- भाद्र( अगस्त-सितम्बर ) माह में; द्विज:--दो बार उत्पन्न; श्राद्धमू--आहुतियाँ; पित्रो:--पितरों के लिए; यथा-वित्तमू--अपनी आयके अनुसार; तत्‌-बन्धूनाम्‌ च--तथा पूर्वजों के सम्बन्धियों को भी; वित्त-वान्‌--जो पर्याप्त धनी है।

    काफी धनवान ब्राह्मण को भाद्र मास के कृष्ण पक्ष में पितरों को आहुति देनी चाहिए।

    इसीप्रकार पूर्वजों के सम्बन्धियों को आश्विन मास में महालया पर्व के अवसर पर आहुति देनीचाहिए।

    "

    अयने विषुवे कुर्याद्‌व्यतीपाते दिनक्षये ।

    अन्द्रादित्योपरागे च द्वादश्यां भ्रवणेषु चच ॥

    २०॥

    तृतीयायां शुक्लपक्षे नवम्यामथ कार्तिके ।

    अतसृष्वप्यष्टकासु हेमन्ते शिशिरि तथा ॥

    २१॥

    माघे च सितसप्तम्यां मघाराकासमागमे ।

    राकया चानुमत्या च मासक्श्नाणि युतान्यपि ॥

    २२॥

    द्वादश्यामनुराधा स्याच्छुवणस्तिस्त्र उत्तरा: ।

    तिसृष्वेकादशी वासु जन्मर्क्ष ओऋरोणयोगयुक्‌ू ॥

    २३॥

    अयने--मकर संक्राति के दिन, जब सूर्य उत्तरायण दिशा में जाने लगता है तथा कार्तिक संक्रान्ति के दिन जब सूर्य दक्षिणायनकी ओर जाने लगता है; विषुवे--मेष संक्रान्ति तथा तुला संक्रान्ति पर; कुर्यातू--करे; व्यतीपाते--व्यतीपात योग में; दिन-क्षये--उस दिन जब तीनों तिथियाँ मिलती हैं; चन्द्र-आदित्य-उपरागे--सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के समय; च--तथा; द्वादश्याम्‌श्रवणेषु-- श्रावण नक्षत्र में तथा द्वादशी के दिन; च--तथा; तृतीयायाम्‌--अक्षय तृतीया के दिन; शुक्ल-पक्षे--शुक्ल पक्ष में;नवम्यामू--नवमी के दिन; अथ--भी; कार्तिके--कार्तिक ( अक्टूबर, नवम्बर ) मास में; चतसूषु--चतुर्थी को; अपि-- भी;अष्टकासु--अष्टका के दिन; हेमन्ते--शीत ऋतु के पूर्व; शिशिरे--शीत ऋतु में; तथा-- भी और; माघे--माघ ( जनवरीफरवरी ) मास में; च--तथा; सित-सप्तम्याम्‌ू--शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन; मघा-राका-समागमे--मघा नक्षत्र तथा पूर्णिमाके संयोग के समय; राकया--पूर्ण चन्द्रमा के दिन; च--तथा; अनुमत्या--शुक्ल पक्ष में पूर्ण चन्द्रमा से थोड़ा पहले; च--तथा;मास-ऋक्षाणि--नक्षत्र जो विभिन्न नामों के स्रोत हैं; युतानि--परस्पर मिल जाते हैं; अपि-- भी; द्वादश्यामू-द्वादशी के दिन;अनुराधा--अनुराधा नक्षत्र; स्थातू--हो सकता है; श्रवण:-- श्रावण नक्षत्र; तिस्त्र:ः--तीन ( नक्षत्र ); उत्तरा:--उत्तरा नामक नक्षत्र( उत्तर-फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तर-भाद्रपद ); तिसूषु--तीनों पर; एकादशी--एकादशी; वा--अथवा; आसु--इन पर; जन्म-ऋक्ष--अपने जन्म नक्षत्र का; श्रोण-- श्रवण नक्षत्र के; योग--संयोग से; युक्‌--युक्त |

    महालया पर्व आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है और वैदिकचान्द्र वर्ष के अन्तिम दिन का सूचक है।

    मनुष्य को चाहिए कि मकर संक्रान्ति ( जब सूर्य उत्तरायण की ओर जाने लगता है ) के दिनया कर्कट संक्रान्ति ( जब सूर्य दक्षिणायन की ओर जाने लगता है ) के दिन श्राद्धकर्म करे; वहइस श्राद्धकर्म को मेष संक्रान्ति के दिन तथा तुला संक्रान्ति के दिन, जब तीनों चन्द्र तिथियाँएकसाथ मिलती हैं, व्यतीपात नामक योग में, चन्द्र या सूर्यग्रहण के समय द्वादशी के दिन तथाश्रवण नक्षत्र में करे।

    मनुष्य को चाहिए कि अक्षय तृतीया को, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष कीनवमी को, शीतऋतु में चारों अष्टकाओं के दिन, माघ मास की शुक्ला सप्तमी के दिन, मघानक्षत्र तथा पूर्णिमा के योग के समय तथा जब चन्द्रमा पूर्ण हो या लगभग पूर्ण हो, उन दिनों मेंजब ये दिन उन नक्षत्रों के साथ योग करें जिनसे महीनों के नाम प्राप्त हुए हैं श्राद्धकर्म करे।

    श्राद्धकर्म द्वादशी को भी किया जाये जब वह अनुराधा, श्रवण, उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा याउत्तर भाद्रपद नामक नक्षत्रों में से किसी के साथ योग करे।

    यही नहीं, एकादशी को भी श्राद्धकिया जाये जब यह उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा या उत्तर भाद्रपद के योग में हो।

    अन्त में, मनुष्यको चाहिए अपने जन्म नक्षत्र या श्रवण नक्षत्र के योग वाले दिनों में श्राद्धकर्म करे।

    "

    त एते श्रेयसः काला नृणां श्रेयोविवर्धना: ।

    कुर्यात्सवत्मनैतेषु श्रेयोडमोघं तदायुष: ॥

    २४॥

    ते--इसलिए; एते--ये सब ( ज्योतिष सम्बन्धी गणनाएँ ); श्रेयसः--कल्याण के; कालाः:--समय; नृणाम्‌ू--मनुष्यों का;श्रेय:--कल्याण; विवर्धना: --बढ़ाते हैं; कुर्यातू--करे; सर्व-आत्मना--अन्य कार्यों से ( केवल श्राद्ध कर्म ही नहीं ); एतेषु--इन ( ऋतुओं ) में; श्रेय:--कल्याण ( करने वाले ); अमोघम्‌--तथा सफलता; तत्‌--मनुष्य की; आयुष: --आयु का।

    ऋतुओं के सारे अवसर मानवता के लिए अत्यन्त शुभ माने जाते हैं।

    ऐसे अवसरों पर सारेकल्याण (शुभ ) कार्य किये जाने चाहिए, क्‍योंकि ऐसे कार्यों से मनुष्य अपने छोटे सेजीवनकाल में सफलता प्राप्त कर लेता है।

    "

    एषु स्नान जपो होमो ब्रतं देवद्विजार्चनम्‌ ।

    पितृदेवनृभूते भ्यो यद्दत्तं तद्धयनश्वरम्‌ ॥

    २५॥

    एषु--इन सारी ( ऋतुओं ) में; स्नानम्‌ू--गंगा, यमुना में स्नान या किसी अन्य पुण्य स्थल में स्नान; जप: --कीर्तन; होम:-- अग्नियज्ञ; ब्रतमू--ब्रत रखना; देव-- भगवान्‌; द्विज-अर्चनम्‌--ब्राह्मणों या वैष्णवों की पूजा करना; पितृ--पितर; देव--देवता;नू--मनुष्य; भूतेभ्य:--तथा अन्य सारे जीवों को; यत्‌--जो भी; दत्तम्‌-प्रदान किया हुआ; तत्‌--वह; हि--निस्सन्देह;अनश्वरम्‌--स्थायी रूप से लाभप्रद।

    ऋतु-परिवर्तन के इन अवसरों पर यदि कोई गंगा या यमुना में या किसी तीर्थस्थान में स्नानकरता है, यदि कोई कीर्तन करता है, अग्नि यज्ञ करता है, व्रत रखता है या यदि कोई भगवान्‌की, ब्राह्मणों की, पितरों की, देवताओं की तथा सामान्य जीवों की पूजा करता है या जो कुछदान देता है, तो उसका स्थायी लाभप्रद फल मिलता है।

    "

    संस्कारकालो जायाया अपत्यस्यात्मनस्तथा ।

    प्रेतसंस्था मृताहश्च कर्मण्यभ्युदये नूप ॥

    २६॥

    संस्कार-काल:--वैदिक संस्कारों को संम्पन्न करने के लिए बताये गये उचित समय पर; जायाया:--पत्नी के लिए; अपत्यस्थ--सन्‍्तानों के लिए; आत्मन:--तथा अपने लिए; तथा--और; प्रेत-संस्था--दाह संस्कार; मृत-अह:--बरसी या वार्षिक श्राद्धदिन; च--तथा; कर्मणि--सकाम कर्म का; अभ्युदये--बढ़ोत्तरी के लिए; नृप--हे राजा |

    हे राजा युधिष्ठटिर, अपने, अपनी पत्नी या अपनी सन्तान के संस्कार अनुष्ठानों के लिए नियतसमय पर या अच्त्येष्टि संस्कार तथा बरसी के अवसर पर मनुष्य को सकाम कर्मों में आगे बढ़नेके लिए उपर्युक्त शुभ उत्सव सम्पन्न करने चाहिए।

    "

    अथ देशान्प्रवक्ष्यामि धर्मादिश्रेयआवहान्‌ ।

    सबै पुण्यतमो देश: सत्पात्रं यत्र लभ्यते ॥

    २७॥

    बिम्बं भगवतो यत्र सर्वमेतच्चराचरम्‌ ।

    यत्र ह ब्राह्मणकुलं तपोविद्यादयान्वितम्‌ ॥

    २८ ॥

    अथ-त्पश्चात्‌; देशान्‌--स्थानों का; प्रवक््यामि--वर्णन करूँगा; धर्म-आदि--धार्मिक कृत्य आदि; श्रेय--कल्याण;आवहानू--जो ला सकता है; सः--वह; वै--निस्सन्देह; पुण्य-तम:--सर्वाधिक पवित्र; देश:--स्थान; सतू-पात्रमू--वैष्णव;यत्र--जहाँ; लभ्यते-- उपलब्ध होता है; बिम्बम्‌--अर्चाविग्रह ( मन्दिर में )) भगवत:ः-- भगवान्‌ का ( जो आश्रय हैं ); यत्र--जहाँ; सर्वम्‌ एतत्‌--इस समग्र विराट जगत का; चर-अचरम्‌--सारे जड़ तथा चेतन प्राणियों सहित; यत्र--जहाँ; ह--निस्सन्देह;ब्राह्मण-कुलमू--ब्राह्मणों की संगति; तपः--तपस्या; विद्या--शिक्षा; दया--कृपा; अन्वितम्‌--से युक्त

    नारद मुनि ने आगे कहा : अब मैं उन स्थानों का वर्णन करूँगा जहाँ धार्मिक अनुष्ठान अच्छीतरह सम्पन्न किये जा सकते हैं।

    जिस किसी स्थान में वैष्णव हो वह स्थान समस्त कल्याणकारीकृत्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ है।

    भगवान्‌ समस्त चर तथा अचर प्राणियों समेत इस समग्र विराट जगतके आश्रय हैं और वह मन्दिर जहाँ भगवान्‌ का अर्चाविग्रह स्थापित किया जाता है सर्वाधिकपवित्र स्थान होता है।

    यही नहीं, जिन स्थानों में विद्वान ब्राह्मण तपस्या, विद्या तथा दया के द्वारावैदिक नियमों का पालन करते हैं, वे भी अत्यन्त शुभ तथा पवित्र होते हैं।

    "

    यत्र यत्र हरेरर्चा स देश: श्रेयसां पदम्‌ ।

    यत्र गड़ादयो नद्यः पुराणेषु च विश्रुता: ॥

    २९॥

    यत्र यत्र--जहाँ कहीं; हरेः-- भगवान्‌ कृष्ण की; अर्चा--अर्चाविग्रह पूजा जाता है; सः--वह; देश:--स्थान, देश या पड़ोस;श्रेयसाम्‌--समस्त कल्याण का; पदमू--स्थान; यत्र--जहाँ; गड्ढा-आदय:--गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी जैसी; नद्य: --पवित्रनदियाँ; पुराणेषु--पुराणों में; च-- भी; विश्रुता:--प्रसिद्ध हैं

    निस्सन्देह, वे स्थान कल्याणकारी हैं जहाँ भगवान्‌ कृष्ण का मन्दिर हो जिसमें उनकीविधिवत्‌ पूजा होती हो।

    वे स्थान भी कल्याणकारी हैं जहाँ पुराणों जैसे अनुपूरक वैदिक शास्त्रोंमें उल्लिखित गंगा सहश प्रसिद्ध पवित्र नदियाँ बहती हैं।

    निश्चय ही वहाँ जो भी आध्यात्मिककार्य किया जाता है, वह अत्यन्त प्रभावशाली होता है।

    "

    सरांसि पुष्करादीनि क्षेत्राण्यर्हाश्रितान्युत ।

    कुरुक्षेत्र गयशिरः प्रयाग: पुलहाश्रम: ।

    नैमिषं फाल्गुन॑ सेतु: प्रभासोथ कुशस्थली ॥

    ३०॥

    वाराणसी मधुपुरी पम्पा बिन्दुसरस्तथा ।

    नारायणाश्रमो नन्दा सीतारामाश्रमादय: ॥

    ३१॥

    सर्वे कुलाचला राजन्महेन्रमलयादय: ।

    एते पुण्यतमा देशा हरेरचाश्रिताश्व ये ॥

    ३२॥

    एतान्देशात्रिषेवेत श्रेयस्कामो हाभीक्षणश: ।

    धर्मो ह्त्रेहितः पुंसां सहस्त्राधिफलोदय: ॥

    ३३॥

    सरांसि--झीलें; पुष्कर-आदीनि--यथा पुष्कर; क्षेत्राणि--पवित्र स्थान ( यथा कुरुक्षेत्र, गया क्षेत्र तथा जगन्नाथपुरी ); अ्ह--पूज्य साधु पुरुषों के लिए; आश्रितानि--आश्रय; उत--विख्यात; कुरुक्षेत्रमू--विशेष पवित्र स्थान ( धर्मक्षेत्र )।

    गय-शिरः--गया नामक स्थान जहाँ गयासुर ने भगवान्‌ विष्णु के चरणकमलों में शरण ग्रहण की; प्रयाग: --गंगा तथा यमुना नामक दोपवित्र नदियों के संगम पर स्थित इलाहाबाद; पुलह-आश्रम:--पुलह मुनि का निवास स्थान; नैमिषम्‌--नैमिषारण्य ( लखनऊ केपास ); फाल्गुनम्‌--वह स्थान जहाँ फाल्गु नदी बहती है; सेतु:--सेतुबन्ध जहाँ भगवान्‌ रामचन्द्र ने भारत तथा लंका के मध्यपुल बनाया था; प्रभास: --प्रभास क्षेत्र; अथ--तथा; कुश-स्थली--द्वारावती या द्वारका; वाराणसी--बनारस; मधु-पुरी --मथुरा; पम्पा--वह स्थान जहाँ पम्पा सरोवर है; बिन्दु-सर:ः--वह स्थान जहाँ विन्दु सरोवर है; तथा--वहाँ; नारायण-आश्रम:--बदरिका श्रम; नन्दा--वह स्थान जहाँ नन्‍्दा नदी बहती है; सीता-राम-- भगवान्‌ रामचन्द्र तथा माता सीता का; आश्रम-आदयः--शरण स्थलियाँ तथा चित्रकूट; सर्वे--सभी ( स्थान ); कुलाचला:--पहाड़ी स्थल; राजन्‌--हे राजा; महेन्द्र-महेन्द्र;मलय-आदय: --तथा मलयाचल आदि; एते--ये सभी; पुण्य-तमा:--अत्यन्त पवित्र; देशा:--स्थान; हरेः-- भगवान्‌ के; अर्च-आश्चिता:--जहाँ राधाकृष्ण का अर्चाविग्रह पूजा जाता है ( यथा अमरीका के न्यूयार्क, लास ऐंजिलिस तथा सैनफ्रांसिस्को जैसेबड़े-बड़े शहर और लन्दन, पेरिस जैसे यूरोपीय शहर या जहाँ भी कृष्णभावनामृत के केन्द्र हैं); च-- भी; ये--जो; एतान्‌देशान्‌ू--इन देशों को; निषेबेत--पूजा करे या देखने जाए; श्रेय:-काम:--कल्याणकामी; हि--निस्सन्देह; अभीक्षणश:--पुनःपुनः; धर्म:--धार्मिक कार्य; हि--जिससे; अत्र--इन स्थानों में; ईहितः--सम्पन्न किया गया; पुंसाम्‌--पुरुषों का; सहस्त्र-अधि--एक हजार गुणा से अधिक; फल-उदयः--प्रभावशाली |

    पुष्कर जैसे पवित्र सरोवर तथा वे स्थान जहाँ साधु पुरुष रहते हैं यथा कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग,पुलहाभ्रम, नैमिषारण्य, फाल्गु नदी का तट, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, वाराणसी, मथुरा, पम्पा,बिन्दु सरोवर, बदरिकाश्रम ( नारायणाश्रम ), वे स्थान जहाँ से होकर नन्दा नदी बहती है, वेस्थल जहाँ भगवान्‌ रामचन्द्र तथा माता सीता ने शरण ली, यथा चित्रकूट तथा महेन्द्र और मलयनामक पहाड़ी क्षेत्र भी--इन सभी स्थानों को अत्यन्त पवित्र एवं पुण्य माना जाता है।

    इसी प्रकारभारत के बाहर के स्थान जहाँ कृष्णभावनामृत आन्दोलन के केन्द्र हैं और जहाँ राधाकृष्णअर्चाविग्रह पूजे जाते हैं, उन स्थानों में आध्यात्मिक रूप से बढ़ने-चढ़ने की इच्छा रखने वालेव्यक्तियों को जाना चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए।

    जो आध्यात्मिक जीवन में आगेबढ़ना चाहता है, वह इन सारे स्थानों की यात्रा कर सकता है और अनुष्ठान कर सकता है,जिससे अन्य स्थानों में सम्पन्न किये गये उन्हीं कृत्यों से हजार गुना अच्छे फल प्राप्त हो सकते हैं।

    "

    पात्र त्वत्र निरुक्त वै कविभिः पात्रवित्तमै: ।

    हरिरिवैक उर्वीश यन्मयं वै चराचरम्‌ ॥

    ३४॥

    पात्रमू--सही व्यक्ति जिसे दान दिया जा सके; तु--लेकिन; अत्र--इस संसार में; निरुक्तम्‌ू--निश्चित; वै--निस्सन्देह;कविभिः--विद्वानों द्वारा; पात्र-वित्तमैः--दान के सुयोग्य पात्र को खोज निकालने में दक्ष; हरिः-- भगवान्‌; एव--निस्सन्देह;एकः--एकमात्र; उर्वी-ईश--हे पृथ्वी के राजा; यत्‌-मयम्‌--जिस पर हर वस्तु टिकी है; बै--जिससे हर वस्तु उत्पन्न है; चर-अचरमू--इस ब्रह्माण्ड के जड़ या चेतन प्राणी

    हे पृथ्वीपति, पटु तथा विद्वान अध्येताओं ने यह तय किया है कि भगवान्‌ कृष्ण ही सर्वश्रेष्ठपुरुष हैं जिन्हें प्रत्येक वस्तु प्रदान की जानी चाहिए, जिन पर ब्रह्माण्ड के सारे जड़ या चेतनटिके हैं और सारी वस्तुएँ उन्हीं से उत्पन्न होती हैं।

    "

    देवर्ष्यहत्सु वै सत्सु तत्र ब्रह्मात्मजादिषु ।

    राजन्यदग्रपूजायां मतः पात्रतयाच्युत: ॥

    ३५॥

    देव-ऋषि--देवताओं तथा महान्‌ सन्त पुरुषों में से, जिनमें नारद मुनि आते हैं; अर्हत्सु--अत्यन्त आदरणीय तथा पूजनीय व्यक्ति;बै--निस्सन्देह; सत्सु--महान्‌ भक्तों में से; तत्र--वहाँ ( राजसूय यज्ञ में ); ब्रह्य-आत्म-जादिषु--तथा ब्रह्मा के पुत्र ( सनक,सनन्दन, सनत तथा सनातन ); राजन्‌--हे राजा; यत्‌--जिससे; अग्र-पूजायाम्‌--जिसकी पूजा सबसे पहले होनी हो; मतः--निर्णय; पात्रतया--राजसूय यज्ञ की अध्यक्षता के लिए चुना गया सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति; अच्युतः--कृष्ण

    हे राजा युधिष्ठिर, तुम्हारे राजसूय यज्ञ उत्सव में मेरे सहित देवता, मुनि तथा साधुओं केअतिरिक्त ब्रह्माजी के चारों पुत्र उपस्थित थे, किन्तु जब यह प्रश्न उठा कि किस व्यक्ति कीसर्वप्रथम पूजा की जाये तो सबों ने परम पुरुष कृष्ण को ही चुना।

    "

    जीवराशिभिराकीर्ण अण्डकोशाड्प्रिपो महान्‌ ।

    तन्मूलत्वादच्युतेज्या सर्वजीवात्मतर्पणम्‌ ॥

    ३६॥

    जीव-राशिभि: --करोड़ों जीवों द्वारा; आकीर्ण:--भरा हुआ या विस्तीर्ण; अण्ड-कोश--समग्र ब्रह्माण्ड; अद्धघ्रिप:--वृक्ष केसमान; महान्‌--अत्यन्त विशाल; तत्‌-मूलत्वात्‌--इस वृक्ष की जड़ होने से; अच्युत-इज्या-- भगवान्‌ की पूजा; सर्व--सबों की;जीव-आत्म--जीव; तर्पणम्‌-तुष्टि |

    जीवों से भरा हुआ समग्र ब्रह्माण्ड एक वृक्ष के समान है, जिसकी जड़ भगवान्‌ अच्युत( कृष्ण ) हैं।

    इसलिए भगवान्‌ कृष्ण की पूजा करने से समस्त जीवों की पूजा हो सकती है।

    "

    पुराण्यनेन सृष्टानि नृतिर्यगृषिदेवता: ।

    शेते जीवेन रूपेण पुरेषु पुरुषो हासौ ॥

    ३७॥

    पुराणि--रहने के स्थान या शरीर; अनेन--उनके ( भगवान्‌ ) द्वारा; सृष्टानि--इन सृष्टियों में; नू--मनुष्य; तिर्यक्‌--मनुष्यों केअतिरिक्त ( पशु, पक्षी आदि ); ऋषि--साधु पुरुष; देवता:--तथा देवगण; शेते--लेट जाता है; जीवेन--जीवों से; रूपेण --परमात्मा के रूप में; पुरेषु--इन रहने के स्थानों या शरिरों में; पुरुष: --परमे श्वर; हि--निस्सन्देह; असौ--वह ( भगवान्‌ )॥

    भगवान्‌ ने अनेक पुर अर्थात्‌ रहने के स्थान बनाये हैं, यथा मनुष्यों के शरीर, पशु, पक्षी,ऋषि तथा देवता।

    इन असंख्या-शरीर रूपों में भगवान्‌ परमात्मा रूप में जीव के साथ निवासकरते हैं।

    इस प्रकार वे पुरुषावतार कहलाते हैं।

    "

    तेष्वेव भगवान्नाजंस्तारतम्येन वर्तते ।

    तस्मात्पात्रं हि पुरुषो यावानात्मा यथेयते ॥

    ३८॥

    तेषु--विभिन्न प्रकार के शरीरों ( देव, मनुष्य, पशु, पक्षी के ) से ); एव--निस्सन्देह; भगवान्‌--परमात्मा रूप में भगवान्‌;राजनू--हे राजा; तारतम्येन--अपेक्षतया, कम या ज्यादा; वर्तते--स्थित है; तस्मात्‌--इसलिये; पात्रमू--परम पुरुष; हि--निस्सन्देह; पुरुष: --परमात्मा; यावान्‌ू--जहाँ तक; आत्मा--ज्ञान की सीमा; यथा--तपस्या का विकास; ईयते--प्रकट है।

    हे राजा युथिष्टिर, प्रत्येक जीव में परमात्मा उसकी समझने की क्षमता के अनुसार बुद्धिप्रदान करता है।

    अतएव शरीर के भीतर परमात्मा प्रमुख होता है।

    परमात्मा जीव में उसके ज्ञान केसापेक्ष विकास, तपस्या आदि के अनुसार जीव के समक्ष प्रकट होता है।

    "

    इष्ठा तेषां मिथो नृणामवज्ञानात्मतां नूप ।

    त्रेतादिषु हरेरर्चा क्रियाये कविभि: कृता ॥

    ३९॥

    इृष्ठा--देखकर; तेषाम्‌--ब्राह्मणों तथा वैष्णवों में; मिथ: --पारस्परिक; नृणाम्‌--मानव समाज का; अवज्ञान-आत्मताम्‌--परस्पर अनादरपूर्ण व्यवहार ( अपमान ); नृष--हे राजा; त्रेता-आदिषु--त्रेतायुग तथा अन्यों में; हरे: -- भगवान्‌ का; अर्चा--देवपूजा ( मन्दिर में ); क्रियायै--पूजाविधि चालू करने के लिए; कविभि:--विद्वान पुरुषों द्वारा; कृता--किया गया।

    हे राजनू, जब ऋषियों-मुनियों ने देखा कि त्रेतायुग के प्रारम्भ में ही परस्पर अनादारपूर्णव्यवहार चालू हो गया तो मन्दिर में अर्चाविग्रह की साज-सामग्री सहित पूजा का सूत्रपात हुआ।

    "

    ततोडर्चायां हरिं केचिस्सं श्रद्धाय सपर्यया ।

    उपासत उपास्तापि नार्थदा पुरुषद्विषाम्‌ ॥

    ४०॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; अर्चायामू--अर्चाविग्रह; हरिमू--जो भगवान्‌ है; केचित्‌--कोई ; संश्रद्धाय-- श्रद्धा सहित; सपर्यया--आवश्यक साज-सामान सहित; उपासते--पूजा करता है; उपास्ता अपि--यद्यपि श्रद्धा और नियमपूर्वक पूजा करते रहने पर भी;न--नहीं; अर्थ-दा--लाभप्रद; पुरुष-द्विषाम्‌-- भगवान्‌ विष्णु तथा उनके भक्तों से ईर्ष्या करने वालों के लिए।

    कभी-कभी नवदीक्षित भक्त भगवान्‌ की पूजा में सारी साज-सामग्री अर्पित करता है औरवह वास्तव में भगवान्‌ की पूजा अर्चाविग्रह के रूप में करता है लेकिन भगवान्‌ विष्णु केअधिकृत भक्तों से ईर्ष्यालु होने के कारण भगवान्‌ उसकी भक्ति से कभी प्रसन्न नहीं होते।

    पुरुषेष्वपि राजेन्द्र सुपात्र॑ ब्राह्मणं विदु: ।

    "

    'पुरुषेष्वपि राजेन्द्र सुपात्रं ब्राह्मणं विदु: ।

    तपसा विद्यया तुष्ठया धत्ते वेदं हरेस्तनुम्‌ ॥

    ४१॥

    पुरुषेषु-- पुरुषों में; अपि--निस्सन्देह; राज-इन्द्र--हे नृपश्रेष्ठ; सु-पात्रम्‌ू-- श्रेष्ठ पुरुष; ब्राह्मणम्‌--योग्य ब्राह्मण को; विदुः--जानना चाहिए; तपसा--तपस्या से; विद्यया--विद्या से; तुष्ठया--तथा तुष्टि से; धत्ते--धारण करता है; बेदम्‌ू--वेद नामक दिव्यज्ञान; हरेः-- भगवान्‌ का; तनुमू--शरीर या अभिव्यक्ति

    हे राजन, सभी पुरुषों में सुयोग्य ब्राह्मण को इस संसार में सर्वोत्तम मानना चाहिए क्योंकिवह तपस्या, वैदिक अध्ययन तथा संतुष्टि द्वारा भगवान्‌ का प्रतिरूप बन जाता है।

    "

    नन्वस्य ब्राह्मणा राजन्कृष्णस्य जगदात्मन: ।

    पुनन्तः पादरजसा त्रिलोकीं दैवतं महत्‌ ॥

    ४२॥

    ननु--लेकिन; अस्य--उसका; ब्राह्मणा: --योग्य ब्राह्मण; राजन्‌--हे राजा; कृष्णस्य-- भगवान्‌ कृष्ण द्वारा; जगत्‌-आत्मन:--जो सारी सृष्टि के जीवन तथा आत्मा हैं; पुनन्‍्तः--पवित्र करते हुए; पाद-रजसा--चरणकमलों की धूल से; त्रि-लोकीम्‌्--तीनोंलोक को; दैवतम्‌--पूज्य; महत्‌--अत्यन्त महान्‌ |

    हे राजा युधिष्ठटिर, ऐसे ब्राह्मण जो विशेषत: पूरे विश्व में भगवान्‌ की महिमा के प्रचार में लगेरहते हैं, सारी सृष्टि के आत्मा भगवान्‌ द्वारा मान्य और पूजित होते हैं।

    ब्राह्मण अपने प्रचार द्वारातीनों लोकों को अपने चरणकमलों की धूलि से पवित्र बनाते हैं और इस तरह वे कृष्ण के भीपूज्य हैं।

    "

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    अध्याय पन्द्रह: सभ्य मनुष्यों के लिए निर्देश

    7.15श्रीनारद उवाचकर्मनिष्ठा द्विजा: केचित्तपोनिष्ठा नृपापरे।

    स्वाध्यायेउन्ये प्रवचचने केचन ज्ञानयोगयो; ॥

    १॥

    श्री-नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; कर्म-निष्ठा:--अनुष्ठानों के प्रति आसक्त ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होने केअनुसार ); द्वि-जा:--दो बार जन्म लेने वाले ( विशेषतया ब्राह्मण ); केचित्‌--कुछ; तपः-निष्ठा:--तपस्या में आसक्त; नृप--हेराजा; अपरे--अन्य; स्वाध्याये--वैदिक वाडमय का अध्ययन करने में; अन्ये-- अन्य लोग; प्रवचने--वैदिक वाड्मय पर भाषणदेते हुए; केचन--कुछ; ज्ञान-योगयो:--ज्ञान का अनुशीलन करने तथा भक्तियोग का अभ्यास करने में |

    नारद मुनि ने कहा : हे राजन, कुछ ब्राह्मण सकाम कर्मों में अत्यधिक आसक्त रहते हैं, कुछतपस्या में और कुछ वैदिक साहित्य का अध्ययन करने में तो कुछ ( भले ही कम क्‍यों न हों )ज्ञान का अनुशीलन करते हैं और विभिन्न योगों का, विशेष रूप से भक्ति योग का अभ्यास करतेहैं।

    "

    ज्ञाननिष्ठाय देयानि कव्यान्यानन्त्यमिच्छता ।

    दैवे च तदभावे स्यादितरेभ्यो यथाईहईत: ॥

    २॥

    ज्ञान-निष्ठाय--निर्विशेषवादी या ब्रह्म में लीन होने के इच्छुक अध्यात्मवादी को; देयानि--दान में दिया जाने वाला; कव्यानि--पितरों को तर्पण में दी गई सामग्री; आनन्त्यम्‌-- भव बन्धन से मुक्ति; इच्छता--इच्छुक व्यक्ति को; दैवे--देवताओं को दी जानेवाली सामग्री; च--भी; तत्‌-अभावे --ऐसे प्रगत अध्यात्मवादियों के न रहने पर; स्थात्‌ू--किया जाय; इतरेभ्य:--अन्यों को(यथा सकाम कर्मियों को ); यथा-अ्हत:--योग्यता अनुसारविवेक सेजो व्यक्ति अपने पितरों या स्वयं की मुक्ति का इच्छुक हो उसे चाहिए कि ऐसे ब्राह्मण कोदान दे जो निर्विशेष-अद्वैतवाद में निष्ठा ( ज्ञान निष्ठा ) रखता हो।

    ऐसे उच्च ब्राह्मण के अभाव में,सकाम कर्मों ( कर्मकाण्ड ) में अनुरक्त ब्राह्मण को दान दिया जाय।

    "

    द्वै दैवे पितृकार्ये त्रीनेकेकमुभयत्र वा ।

    भोजयेत्सुसमृद्धोउपि श्राद्धे कुर्यान्न विस्तरम्‌ ॥

    ३॥

    द्वै--दो; दैवे--देवताओं को आहुति देते समय; पितृ-कार्ये-- श्राद्ध कर्म करते समय, जिसमें पितरों को आहुति दी जाती है;त्रीनू-तीन; एक--एक; एकम्‌--एक; उभयत्र--दोनों अवसरों पर; वा--अथवा; भोजयेत्‌-- भोजन दे; सु-समृद्धः अपि--भले ही वह अत्यन्त धनी हो; श्राद्धे--पितरों को आहुतियाँ देते समय; कुर्यात्‌ू--करे; न--नहीं; विस्तरम्‌--विशद व्यवस्था

    मनुष्य को चाहिए कि देवताओं को आहुति देते समय केवल दो ब्राह्मणों को और पितरोंको आहुति देते समय तीन ब्राह्मणों को आमंत्रित करे।

    अथवा इन दोनों में केवल एक-एकब्राह्मण काफी होगा।

    कोई कितना ही ऐश्वर्यवान क्यों न हो, उसे अधिक ब्राह्मण नहीं आमंत्रितकरने चाहिए या इन अवसरों पर अत्यन्त खर्चीली व्यवस्था नहीं करनी चाहिए।

    "

    देशकालोचितश्रद्धाद्र॒व्यपात्राईणानि च ।

    सम्यग्भवन्ति नैतानि विस्तरात्स्वजनार्पणात्‌ ॥

    ४॥

    देश--स्थान; काल--समय; उचित--उचित; श्रद्धा--आदर; द्र॒व्य--अवयव; पात्र--उपयुक्त व्यक्ति; अर्हणानि--पूजा सामग्री;च--तथा; सम्यक्‌ू--उचित; भवन्ति--हैं; न--नहीं; एतानि--ये सब; विस्तरातू--विस्तार के कारण; स्व-जन-अर्पणात्‌--अथवा सम्बन्धियों को आमंत्रित करने से |

    यदि कोई श्राद्ध कर्म के समय अनेक ब्राह्मणों या सम्बन्धियों को भोजन कराने कीव्यवस्था करता है, तो काल, देश, श्राद्ध, पदार्थ, पात्र और पूजन विधि में त्रुटियाँ होंगी।

    "

    देशे काले च सम्प्राप्ते मुन्यन्नं हरिदेवतम्‌ ।

    श्रद्धया विधिवत्पात्रे न्यस्तं कामधुगक्षयम्‌ ॥

    ५॥

    देशे--उचित स्थान पर यथा तीर्थस्थान पर; काले--शुभ समय पर; च--भी; सम्प्राप्ते--प्राप्त होने पर; मुनि-अन्नम्‌ू--घी सेतैयार भोजन जो बड़े-बड़े मुनियों के खाने के योग्य हो; हरि-दैवतम्‌-- भगवान्‌ हरि को; श्रद्धया--प्रेम तथा स्नेह से; विधि-बत्‌--गुरु तथा शास्त्रों के आदेशानुसार; पात्रे--उपयुक्त व्यक्ति में; न्‍्यस्तम्‌ू--अर्पित किया गया; कामधुक्‌--सम्पन्नता कासाधन बन जाता है; अक्षयम्‌--अक्षय, अविनाशी |

    जब उपयुक्त शुभ अवसर तथा स्थान प्राप्त हो तो मनुष्य को चाहिए कि अत्यन्त प्रेमपूर्वकभगवान्‌ के अर्चाविग्रह को घी में बना भोजन अर्पित करे और फिर उपयुक्त व्यक्ति अर्थात्‌ वैष्णवया ब्राह्मण को प्रसाद दे।

    इससे अक्षय समृद्द्धि आएगी।

    "

    देवर्षिपितृभूते भ्य आत्मने स्वजनाय च ।

    अन्न संविभजन्पश्येत्सर्व तत्पुरुषात्मकम्‌ ॥

    ६॥

    देव--देवता; ऋषि--साधु पुरुष; पितृ--पितरगण; भूतेभ्य:--सामान्य जीवों को; आत्मने--सम्बन्धियों; स्व-जनाय--पारिवारिक सदस्यों तथा मित्रों को; च--तथा; अन्नमू-- भोजन ( प्रसाद ); संविभजन्‌--अर्पित करते हुए; पश्येत्‌--देखे ;सर्वम्‌--सबों को; तत्‌--उस; पुरुष-आत्मकम्‌-- भगवान्‌ से सम्बन्धित |

    मनुष्य को चाहिए कि देवताओं, साधु पुरुषों, अपने पितरों, लोगों, अपने पारिवारिकसदस्यों, अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों को भगवान्‌ के भक्तों के रूप में देखते हुए प्रसाद प्रदानकरे।

    "

    नदद्यादामिषं श्राद्धे न चाद्याद्धर्मतत्त्ववित्‌ ।

    मुन्यन्नैः स्यात्परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया ॥

    ७॥

    न--कभी नहीं; दद्यात्‌--प्रदान करे; आमिषम्‌--मांस, मछली, अंडा इत्यादि; श्राद्धे-- श्राद्ध कर्म में; न--न तो; च-- भी;अद्यातू--स्वयं खाए; धर्म-तत्त्व-वित्‌--धधार्मिक कृत्यों का वास्तविक विद्वान; मुनि-अन्नै:--सन्त पुरुषों के लिए घी से बनायेगये व्यंजनों से; स्थात्‌ू--हो; परा--उच्चकोटि की; प्रीतिः:--तुष्टि; यथा-- भगवान्‌ तथा पितरों के लिए; न--न; पशु-हिंसया--व्यर्थ ही पशुओं की बलि द्वारा।

    धार्मिक सिद्धान्तों से भली-भाँति अवगत मनुष्य को चाहिए कि वह श्राद्ध कर्म में मांस,अंडे या मछली जैसी कोई वस्तु अर्पित न करे और न ही स्वयं भी ऐसी वस्तु खाए, चाहे वहक्षत्रिय ही क्यों न हो।

    जब घी से बना उपयुक्त भोजन सन्त जनों को दिया जाता है, तो यह कृत्य पितरों तथा भगवान्‌ को अत्यन्त प्रिय लगता है, क्योंकि वे यज्ञ के नाम पर पशुओं का वध कियेजाने पर कभी प्रसन्न नहीं होते।

    "

    नैताहशः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम्‌ ।

    न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः ॥

    ८॥

    न--कभी नहीं; एताहश:ः--इस तरह का; पर:--परम या श्रेष्ठ; धर्म: --धर्म; नृणाम्‌--मनुष्यों का; सत्‌-धर्मम्‌- श्रेष्ठ धर्म;इच्छताम्‌--के लिए इच्छुक; न्यास:--त्याग कर; दण्डस्य--ईर्ष्या के कारण कष्ट देते हुए; भूतेषु--जीवों में; मन: --मन;वाक्‌--शब्द; काय-जस्य--तथा शरीर से; यः--जो |

    जो लोग श्रेष्ठ धर्म में प्रगति करना चाहते हैं उन्हें सलाह दी जाती है कि वे अन्य जीवों सेशरीर, वाणी या मन सम्बन्धी सारी ईर्ष्या छोड़ दें।

    इससे बढ़कर कोई अन्य धर्म नहीं है।

    "

    एके कर्ममयान्यज्ञान्ज्नानिनो यज्वित्तमा: ।

    आत्मसंयमनेनीहा जुह्ृति ज्ञानदीपिते ॥

    ९॥

    एके --कोई-कोई, कुछ; कर्म-मयान्‌--कर्मफल से युक्त ( यथा पशु-वध ); यज्ञान्‌ू--यज्ञ; ज्ञानिन:--ज्ञान में अग्रसर लोग;यज्ञ-वित्‌-तमा:--यज्ञ के उद्देश्य को भलीभाँति जानने वाला; आत्म-संयमने--आत्म संयम द्वारा; अनीहा: --निष्काम; जुह्मति--यज्ञ करता है; ज्ञान-दीपिते--पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित |

    आध्यात्मिक ज्ञान से जागृत होने से यज्ञ के विषय में बुद्धिमान व्यक्ति, धार्मिक नियमों केवास्तविक ज्ञाता तथा निष्काम व्यक्ति अपने को आध्यात्मिक ज्ञान की अथवा परम सत्य विषयकज्ञान की अग्नि में संयमित बनाते हैं।

    वे कर्मकाण्डीय अनुष्ठान विधि को त्याग सकते हैं।

    "

    द्रव्ययज्ञैर्यक्ष्यमाणं इृष्ठा भूतानि बिभ्यति ।

    एष माकरुणो हन्यादतज्ज्ञो हासुतृप्श्रुवम्‌ ॥

    १०॥

    द्रव्य-यज्जै:--पशुओं तथा अन्य खाद्य वस्तुओं से; यक्ष्यमाणम्‌--ऐसे यज्ञों में व्यस्त व्यक्ति; दृष्टा--देख कर; भूतानि--जीवों( पशु ) को; बिभ्यति--डर जाता है; एष:--यह व्यक्ति ( यज्ञकर्ता )।

    मा--मुझको; अकरुण:--निर्दयी; हन्यात्‌--मार डालेगा;अ-तत्‌-ज्ञ:--अत्यन्त अज्ञानी; हि--निस्सन्देह; असु-तृप्‌--अन्यों को मार कर सन्तुष्ट रहने वाला; श्रुवम्‌--निश्चय ही |

    यज्ञ सम्पन्न करने वाले व्यक्ति को देखकर बलि दिये जाने वाले सारे पशु यह सोचकरअत्यन्त डरे रहते हैं कि 'यह निर्दय यज्ञकर्ता यज्ञ के उद्देश्य से अनजान होने तथा अन्यों का वधकरके परम सनन्‍्तुष्ट होने के कारण हमें निश्चित रूप से मार डालेगा।

    "

    'तस्माहैवोपपन्नेन मुन्यन्नेनापि धर्मवित्‌ ।

    सन्तुष्टोहरहः कुर्यान्नित्यनैमित्तिकी: क्रिया: ॥

    ११॥

    तस्मात्‌--अतएव; दैव-उपपन्नेन-- भगवत्कृपा से सरलता से प्राप्य; मुनि-अन्नेन--( घी से तैयार तथा भगवान्‌ को अर्पित )भोजन से; अपि--निस्सन्देह; धर्म-वित्‌--धर्म में बढ़ा-चढ़ा; सन्तुष्ट:--अत्यन्त सुखपूर्वक; अह: अहः--दिन प्रति दिन;कुर्यातू-करे; नित्य-नैमित्तिकी:--नियमित तथा कभी-कभी; क्रिया:--कर्तव्य

    अतएव जो वास्तव में धर्म के सिद्धान्तों से अभिज्ञ है और बेचारे पशुओं से अत्यधिक ईर्ष्यानहीं करता उसे दिन-प्रति-दिन प्रसन्नतापूर्वक नैत्यिक तथा किन्हीं विशेष अवसरों पर किये जानेवाले यज्ञों को भगवत्कृपा से जो भी भोजन सरलता से उपलब्ध हो जाये उसी से सम्पन्न करनाचाहिए।

    "

    विधर्म: परधर्म श्र आभास उपमा छल: ।

    अधर्मशाखा: पश्ञेमा धर्मज्ञोउधर्मवत्त्यजेत्‌ू ॥

    १२॥

    विधर्म: --अधर्म ; पर-धर्म:--अमन्यों द्वारा अभ्यास किये जाने वाला धर्म; च--तथा; आभास: --दिखावटी धर्म; उपमा--सिद्धान्त जो धार्मिक लगते हैं किन्तु होते नहीं; छल:--ठगने वाला धर्म; अधर्म-शाखा:--जो अधर्म की विभिन्न शाखाएँ हैं;पश्च--पाँच; इमाः--ये; धर्म-ज्ञ:--धर्म को जानने वाला; अधर्म-वत्‌--उन्हें अधार्मिक के रूप में स्वीकार करते हुए; त्यजेतू--त्याग दे।

    अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं, जो विधर्म, परधर्म, आभास, उपधर्म तथा छल धर्म के नाम सेउचित रूप में विख्यात हैं।

    जो असली धार्मिक जीवन से अवगत हो उसे इन पाँचों को अधर्ममानकर इनका परित्याग कर देना चाहिए।

    "

    धर्मबाधो विधर्म: स्यात्परधर्मो उन्‍्यचोदित: ।

    उपधर्मस्तु पाखण्डो दम्भो वा शब्दभिच्छल: ॥

    १३॥

    धर्म-बाध:--अपने धर्म को लागू होने से रोकता है; विधर्म:-- धर्म के विरुद्ध; स्थात्‌--हो; पर-धर्म:--ऐसे धर्म का अनुकरणजिसके लिए वह अनुपयुक्त हो; अन्य-चोदित:--किसी अन्य के द्वारा चालू किया गया; उपधर्म:--मनगढंत धर्म; तु--निस्सन्देह;'पाखण्ड:--जो वेदों के नियमों, प्रामाणिक शास्त्रों के विरुद्ध है; दम्भ:--जो मिथ्या ही गर्वित है; वा--अथवा; शब्द-भित्‌--शब्द जाल से; छल:--ठगने वाला धर्म ।

    जो धार्मिक नियम किसी को अपना धर्म पालन करने से रोकते हैं विधर्म कहलाते हैं।

    अन्योंद्वारा चालू किये गये धार्मिक नियम पर-धर्म कहलाते हैं।

    जो मिथ्या गर्व करता है और वेदों केनियमों का विरोध करता है उसके द्वारा सृजित नये प्रकार का धर्म उपधर्म कहलाता है।

    शब्दजाल द्वारा विवेचना छल धर्म है।

    "

    यस्त्विच्छया कृतः पुम्भिराभासो हा श्रमात्पृथक्‌ ।

    स्वभावविहितो धर्म: कस्य नेष्ट: प्रशान्तये ॥

    १४॥

    यः--जो; तु--निस्सन्देह; इच्छबया--मनमाने ढंग से; कृत:ः--किया गया; पुम्भि:--मनुष्यों द्वारा; आभास:--धुँधली छाया;हि--निस्सन्देह; आश्रमात्‌--जीवन के आश्रम से; पृथछ्‌--भिन्न; स्व-भाव--अपने स्वभाव के अनुसार; विहित:--संयमित;धर्म:--धार्मिक नियम; कस्य--किस बात में; न--नहीं; इष्ट: --समर्थ; प्रशान्तये--सभी प्रकार के कष्ट से छुटकारे के लिए

    ऐसी कोई भी बनावटी धार्मिक प्रणाली, जो ऐसे व्यक्ति द्वारा बनाई गई हो जो जानबूझ करअपने आश्रम के नियत कर्तव्यों की उपेक्षा करता है, आभास कहलाती है।

    किन्तु यदि कोईअपने किसी आश्रम विशेष या वर्ण के अनुसार अपने नियत कर्तव्य करता है, तो फिर वे सारेभौतिक कष्टों को भगाने के लिए पर्याप्त क्यों नहीं हैं ?

    " धर्मार्थमपि नेहेत यात्रार्थ वाधनो धनम्‌ ।

    अनीहानीहमानस्य महाहेरिव वृत्तिदा ॥

    १५॥

    धर्म-अर्थम्‌--धर्म तथा आर्थिक विकास में; अपि--निस्सन्देह; न--नहीं; ईहेत--प्राप्त करने का प्रयत्न करे; यात्रा-अर्थम्‌--एकसाथ शरीर और आत्मा के जीवननिर्वाह के लिए; वा--अथवा; अधन:ः--निर्धन; धनम्‌-- धन; अनीहा--अनिच्छा;अनीहमानस्य--ऐसे व्यक्ति का, जो अपनी जीविका कमाने के लिए प्रयास नहीं करता; महा-अहे:-- अजगर; इब--सहृश;वृत्ति-दा--जो प्रयास किये बिना जीविका प्राप्त करता है।

    निर्धन होकर भी मनुष्य को अपने शरीर-निर्वाह के लिए या विख्यात धर्मज्ञ बनने के लिएअपनी आर्थिक दशा सुधारने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

    जिस प्रकार एक अजगर एक हीस्थान पर पड़ा रहकर तथा अपनी जीविका के लिए कोई प्रयास ( चेष्टा ) न करते हुए भी शरीर-निर्वाह के लिए भोजन प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार निष्काम व्यक्ति बिना किसी चेष्टा के अपनीजीविका कमा लेता है।

    "

    सन्तुष्टस्य निरीहस्य स्वात्मारामस्य यत्सुखम्‌ ।

    कुतस्तत्कामलोभेन धावतो<र्थेहया दिशः ॥

    १६॥

    सन्तुष्टस्य--कृष्णभावनामृत से संतुष्ट व्यक्ति का; निरीहस्य--अपनी जीविका के लिए चेष्टा न करने वाले का; स्व--निज;आत्म-आरामस्य--आत्मतुष्ट का; यत्‌--जो; सुखम्‌--सुख; कुतः--कहाँ; तत्‌--ऐसा सुख; काम-लोभेन--विषय तथा लोभसे प्रेरित; धावतः--इधर-उधर दौने वाले का; अर्थ-ईहया-- धन संग्रह करने की इच्छा से; दिशः--सभी दिशाओं में

    जो आत्मतुष्ट है और अपने कर्मो को प्रत्येक हृदय में निवास करने वाले भगवान्‌ से जोड़ताहै, वह अपनी जीविका के लिए चेष्टा किये बिना दिव्य सुख भोगता है।

    भला उस भौतिकतावादीके लिए ऐसा सुख कहाँ जो विषय तथा लोभ से प्रेरित रहता है और जो धन जोड़ने की इच्छा सेसभी दिशाओं में भागता रहता है?

    " सदा सन्तुष्टमनस: सर्वा: शिवमया दिश:ः ।

    शर्कराकण्टकादिभ्यो यथोपानत्पदः शिवम्‌ ॥

    १७॥

    सदा--सदैव; सन्तुष्ट-मनसः--आत्मतुष्ट व्यक्ति के लिए; सर्वा:--हर वस्तु; शिव-मया:--शुभ; दिश:--सभी दिशाओं में;शर्करा--कंकड़ों पत्थरों; कण्टक-आदिभ्य:--तथा काँटा आदि से; यथा--जिस तरह; उपानत्‌-पदः--ऐसे व्यक्ति के लिए जोपाँवों में जूते पहने हो; शिवम्‌--कोई भय नहीं है ( शुभ )

    जिसके पाँवों में उचित जूते हों उसे कंकड़-पत्थरों तथा काँटों पर चलने में कोई भय नहींलगता।

    उसके लिए सभी कुछ कल्याणमय ( शुभ ) है।

    इसी प्रकार जो सदैव आत्मतुष्ट रहता हैउसे दुख नहीं सताते; वह सर्वत्र सुख का अनुभव करता है।

    "

    सन्तुष्ट: केन वा राजन्न वर्तेतापि वारिणा ।

    औपस्थ्यजैह्व्यकार्पण्याद्गृहपणालायते जन: ॥

    १८॥

    सन्‍्तुष्ट:--सदैव आत्मतुष्ट रहने वाला व्यक्ति; केन--क्यों; वा--अथवा; राजन्‌ू--हे राजा; न--नहीं; वर्तेत--( सुखपूर्वक ) रहनाचाहिए; अपि-- भी; वारिणा-- जल पीकर; औपस्थ्य--विषयेन्द्रियों के कारण; जैह्व्य--तथा जीभ के कारण; कार्पण्यात्‌--बुरी दशा होने से; गृह-पालायते--घरेलू कुत्ते की तरह बन जाता है; जनः--ऐसा व्यक्ति

    हे राजन, आत्मतुष्ट व्यक्ति केवल जल पीकर भी सुखी रह सकता है।

    किन्तु जो व्यक्तिइन्द्रियों द्वारा चालित है, विशेष रूप से जो जीभ और जननेन्द्रियों के वश में होता है उसे अपनीइन्द्रियों की तुष्टि के लिए घरेलू कुत्ते का पद स्वीकार करना पड़ता है।

    "

    असन्तुष्टस्य विप्रस्थ तेजो विद्या तपो यशः ।

    स््रवन्तीन्द्रियलौल्येन ज्ञानं चैवावकीर्यते ॥

    १९॥

    असन्तुष्टस्थ--आत्मतुष्ट न होने वाले; विप्रस्थ--ब्राह्मण का; तेज:--बल; विद्या--शिक्षा; तप:ः--तपस्या; यश:--कीर्ति;स्त्रवन्ति--चुक जाते हैं; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; लौल्येन--लालच से; ज्ञानमू--ज्ञान; च--तथा; एब--निश्चय ही; अवकीर्यते--धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है।

    भक्त या ब्राह्मण जो आत्म-तुष्ट नहीं होता, उसका आध्यात्मिक ज्ञान, विद्या, तपस्या तथाकीर्ति उसकी इन्द्रियलोलुपता के कारण क्षीण हो जाते हैं और उसका ज्ञान शनैः शने: लुप्त होजाता है।

    "

    कामस्यान्त हि क्षुत्तड्भ्यां क्रोधस्यैतत्फलोदयात्‌ ।

    जनो याति न लोभस्य जित्वा भुक्त्वा दिशो भुवः ॥

    २०॥

    कामस्य--इन्द्रियतृप्ति या शरीर की किसी अविलम्ब आवश्यकता के लिए इच्छा का; अन्तम्‌--अन्त; हि--निस्सन्देह; क्षुत्‌-तृड्भ्याम्‌ू- भूखे या प्यासे के द्वारा; क्रोधस्य--क्रोध का; एतत्‌--यह; फल-उदयात्‌--प्रताड़न का उदय होने तथा उसके फल से; जन:ः--मनुष्य; याति--पार कर लेता है; न--नहीं; लोभस्य--लालच का; जित्वा--जीतकर; भुक्त्वा-- भोगकर; दिश:--सारी दिशाएँ; भुवः--भूमण्डल की।

    भूख तथा प्यास से पीड़ित मनुष्य की प्रबल शारीरिक इच्छाएँ तथा आवश्यकताएँ भोजनकरने के बाद निश्चित रूप से तुष्ट हो जाती हैं।

    इसी प्रकार यदि कोई क्रोध करता है, तो प्रताड़नातथा उसके फल द्वारा क्रोध तुष्ट हो जाता है।

    लेकिन जहाँ तक लालच की बात है, यदि लालचीव्यक्ति संसार की सारी दिशाओं को जीत ले या संसार की प्रत्येक वस्तु का भोग कर ले तो भीवह तुष्ट नहीं होगा।

    "

    पण्डिता बहवो राजन्बहुज्ञा: संशयच्छिद: ।

    सदसस्पतयोउप्येके असन्तोषात्पतन्त्यध: ॥

    २१॥

    'पण्डिता:--पण्डित; बहव:-- अनेक; राजन्‌--हे राजा ( युथिष्टिर ); बहु-ज्ञाः--अनुभवी व्यक्ति; संशय-च्छिद: --कानूनी सलाहदेने में पटु; सदसः पतय:--विद्वत्‌ सभाओं का सभापति चुने जाने योग्य व्यक्ति; अपि-- भी; एके--एक अवगुण से;असन्तोषात्‌--केवल असन्तोष या लालसा के कारण; पतन्ति--नीचे गिरते हैं; अध:--जीवन के नरक में।

    हे राजा युथ्चिष्ठि, अनेक अनुभवी व्यक्ति, अनेक विधि सलाहकार, अनेक विद्वान तथाविद्वत्सभाओं के सभापति बनने योग्य अनेक व्यक्ति अपने-अपने पदों से सन्तुष्ट न होने के कारणनारकीय जीवन में जा गिरते हैं।

    "

    असड्डूल्पाज्येत्कामं क्रोधं कामविवर्जनात्‌ ।

    अर्थानर्थेक्षया लोभ॑ भयं तत्त्वावमर्शनात्‌ ॥

    २२॥

    असडजल्पात्‌ू--संकल्प से; जयेत्‌--जीते; कामम्‌--कामेच्छाओं को; क्रोधम्‌--क्रोध को; काम-विवर्जनात्‌--इन्द्रिय इच्छा केविषय को त्याग देने से; अर्थ--धन संग्रह; अनर्थ--दुख का कारण; ईक्षया--मानने से; लोभमू--लोभ को; भयम्‌-- भय को;तत्त्व--सत्य; अवमर्शनात्‌ू--विचार करने सेदृढ़ता-पूर्वक योजनाएँ बनाकर

    मनुष्य को इन्द्रियतृप्ति की कामपूर्ण इच्छाएँ त्याग देनीचाहिए इस प्रकार ईर्ष्या त्यागकर क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, धन संग्रह करने के दोषों'पर विचार-विमर्श करके लोभ का परित्याग करना चाहिए और सत्य की विवेचना करके भयका त्याग करना चाहिए ।

    "

    आन्वीक्षिक्या शोकमोहौ दम्भं महदुपासया ।

    योगान्तरायान्मौनेन हिंसां कामाद्यनीहया ॥

    २३॥

    आन्वीक्षिक्या-- भौतिक तथा आध्यात्मिक विषयों में विचार-विमर्श करके; शोक--शोक ; मोहौ--तथा मोह; दम्भम्‌--मिथ्याअभिमान को; महत्‌--वैष्णव; उपासया--सेवा द्वारा; योग-अन्तरायान्‌--योग के मार्ग में अवरोधों पर; मौनेन--मौन से;हिंसाम्‌--ईर्ष्या; काम-आदि--इन्द्रिय तृप्ति के लिए; अनीहया--बिना चेष्टा के |

    आध्यात्मिक ज्ञान के विवेचन से शोक तथा मोह पर विजय प्राप्त की जा सकती है, महान्‌भक्त की सेवा करके अहंकाररहित बना जा सकता है, मौन रह कर योग मार्ग के अवरोधों सेबचा जा सकता है और इन्द्रियतृष्ति को रोक देने से ही ईर्ष्या पर विजय पाई जा सकती है।

    "

    कृपया भूतजं दुःखं दैव॑ जह्यात्सममाधिना ।

    आत्मजं योगवीर्येण निद्रां सत्त्निषिवया ॥

    २४॥

    'कृपया--अन्य जीवों पर दयालु होने से; भूत-जम्‌ू--अन्य जीवों के कारण; दुःखम्‌--दुख; दैवम्‌-- भाग्य द्वारा प्रदत्त दुख;जह्यात्‌-त्याग दे; समाधिना--समाधि या ध्यान द्वारा; आत्म-जम्‌--शरीर तथा मन के कारण दुख; योग-वीर्येणग--हठयोग,प्राणायाम इत्यादि के अभ्यास से; निद्रामू--नींद को; सत्त्व-निषेबया--सतोगुण या ब्राह्मण-गुणों का विकास करके |

    मनुष्य को चाहिए कि अन्य जीवों के कारण होने वाले दुखों का प्रतिकार अच्छे आचरण(सदाचार ) तथा ईर्ष्या से रहित होकर करे, भाग्य द्वारा प्रदत्त कष्टों का सामना समाधि में ध्यानकरके करे और शरीर तथा मन से उत्पन्न दुखों का प्रतिकार हठ योग, प्राणायाम आदि केअभ्यास द्वारा करे।

    इसी प्रकार विशेष रूप से सतोगुण का विकास करके खाने के मामले में,निद्रा पर विजय पाई जाये।

    "

    रजस्तमश्च सत्त्वेन सत्त्वं चोपशमेन च ।

    एतसत्सर्व गुरौ भक्त्या पुरुषो हाज्खलसा जयेत्‌ ॥

    २५॥

    रज: तम:ः--रजो तथा तमो गुण; च--तथा; सत्त्वेन--सतोगुण विकसित करने से; सत्त्वमू--सतोगुण; च--भी; उपशमेन--आसक्ति त्यागने से; च--तथा; एतत्‌--ये; सर्वम्‌--सभी; गुरौ--गुरु में; भकत्या--भक्तिपूर्वक सेवा करने से; पुरुष: --पुरुष;हि--निस्सन्देह; अज्लसा--सरलता से; जयेत्‌--विजय पा सकता है।

    मनुष्य को सतोगुण विकसित करके रजोगुण तथा तमोगुण को जीतना चाहिए और तबशुद्ध सत्त के पद तक उठ कर सतोगुण से विरक्त हो लेना चाहिए।

    यदि कोई श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक गुरु की सेवा में लगा रहे तो यह सब कुछ स्वतः हो सकता है।

    इस प्रकार प्रकृति केगुणों के प्रभाव पर विजय पाई जा सकती है।

    "

    यस्य साक्षाद्धगवति ज्ञानदीपप्रदे गुरौ ।

    मर्त्यासद्धी: श्रुतं तस्य सर्व कुझ्शौचवत्‌ ॥

    २६॥

    यस्य--जो; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; भगवति-- भगवान्‌ में; ज्ञान-दीप-प्रदे--जो ज्ञान रूपी दीप से प्रकाशित करता है; गुरौ--गुरु में;मर्त्य-असत्‌-धी:--गुरु को सामान्य मनुष्य मानता है और ऐसी प्रतिकूल मनोवृत्ति रखता है; श्रुतम्‌--वैदिक ज्ञान; तस्थ--उसका; सर्वम्‌-प्रत्येक वस्तु; कुझ्ओर-शौच-वत्‌--झील में हाथी के स्नान के समान।

    गुरु को साक्षात्‌ भगवान्‌ मानना चाहिए, क्‍योंकि वह प्रकाश के लिए दिव्य ज्ञान प्रदानकरता है।

    फलस्वरूप जो यह भौतिक धारणा रखता है कि गुरु सामान्य मनुष्य होता है उसकेलिए हर वस्तु निराशाजनक रहती है।

    उसका प्रकाश, उसका वैदिक अध्ययन तथा ज्ञान झील मेंहाथी के स्नान के समान होता है।

    "

    एष वै भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वर: ।

    योगेश्वरैविमृग्याड्प्रिलोको यं मन्यते नरम्‌ ॥

    २७॥

    एषः--यह; वै--निस्सन्देह; भगवान्‌-- भगवान्‌; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; प्रधान-- प्रकृति के मुख्य कारण; पुरुष--पुरुषावतारभगवान्‌ विष्णु का या समस्त जीवों का; ईश्वर:--परम नियन्ता; योग-ईश्वरै:--बड़े-बड़े साधु पुरुषों या योगियों द्वारा; विमृग्य-अदूप्रि:-- भगवान्‌ कृष्ण के चरणकमल, जिनकी खोज की जाती है; लोक:--सामान्य जन; यम्‌--उसको; मन्यते--मानते हैं;नरमू--मनुष्य |

    भगवान्‌ कृष्ण अन्य समस्त जीवों के तथा भौतिक प्रकृति के स्वामी हैं।

    व्यास जैसे महर्षिउनके चरणकमलों की तलाश करते और उन्हें पूजते हैं।

    तो भी कुछ ऐसे मूर्ख हैं, जो कृष्ण कोसामान्य मनुष्य मानते हैं।

    "

    घड्वर्गसंयमैकान्ता: सर्वा नियमचोदना: ।

    तदन्ता यदि नो योगानावहेयु: श्रमावहा: ॥

    २८॥

    घट््‌-वर्ग--छः तत्त्व, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा छठा मन; संयम-एकान्ता:--इन्द्रिय-दमन का चरम लक्ष्य; सर्वा:--ऐसे सारेकार्यकलाप; नियम-चोदना: --इन्द्रियों तथा मन को वश में करने के लिए अन्य विधान; तत्‌ू-अन्ता:--ऐसे कार्यकलापों काचरमलक्ष्य; यदि--यदि; नो--नहीं; योगान्‌ू--ब्रह्म के साथ जुड़ने की कड़ी; आवहेयु:--ले जाती है; श्रम-आवहा:--समयतथा श्रम का अपव्यय।

    अनुष्ठान ( कर्मकाण्ड ), विधि-विधान, तपस्या तथा योगाभ्यास--ये सभी इन्द्रियों तथा मनको वश में करने के लिए हैं, किन्तु इन्द्रियों तथा मन को वश में कर लेने के बाद भी यदि वहभगवान्‌ का ध्यान नहीं करता तो ये सारे कार्यकलाप श्रम के अपव्यय मात्र हैं।

    "

    यथा वार्तादयो हार्था योगस्यार्थ न बिभ्रति ।

    अनर्थाय भवेयु: स्म पूर्तमिष्ट तथासतः ॥

    २९॥

    यथा--जिस प्रकार; वार्ता-आदय: --वृत्तिपरक कर्तव्य आदि कार्यकलाप; हि--निश्चय ही; अर्था:--आय ( ऐसे वृत्तिपरककार्यों से )) योगस्थ--आत्म-साक्षात्कार के लिए योग का; अर्थम्‌--लाभ; न--नहीं; बिभ्रति-- सहायता करते हैं; अनर्थाय--अर्थहीन ( जन्म-मरण के चक्र में बाँधते हुए ); भवेयु:--वे हैं; स्म--सभी काल में; पूर्तम्‌ इष्टम्‌--वैदिक कर्मकाण्ड; तथा--उसी तरह; असत:--अभक्त का।

    जिस तरह वृत्तिपरक कार्यकलाप या व्यापार के लाभ किसी की आध्यात्मिक उन्नति मेंसहायक नहीं बन सकते, अपितु वे भौतिक बन्धन के कारण बन जाते हैं उसी तरह वैदिककर्मकाण्ड ऐसे किसी व्यक्ति की सहायता नहीं कर सकते जो भगवान्‌ का भक्त नहीं है।

    "

    यश्वित्तविजये यत्त: स्यान्निःसड़ो परिग्रह: ।

    एको विविक्तशरणो भिक्षुभैक्ष्यमिताशन: ॥

    ३०॥

    यः--जो; चित्त-विजये--मन को जीतकर; यत्त:--लगा रहता है; स्थात्‌--हो; निःसड्भरः--दूषित संगति से रहित; अपरिग्रह:--आश्ित न रहकर ( परिवार पर ); एक:--अकेले; विविक्त-शरण:--एकान्त स्थान की शरण लेकर; भिक्षु:--संन्यासी;भैक्ष्य--केवल शरीर पालन के लिए भीख माँग कर; मित-अशन:--कम खाने वाला।

    जो मन पर विजय पाने का इच्छुक हो उसे अपने परिवार का साथ छोड़ते हुए दूषित संगितसे मुक्त एकान्त स्थान में रहना चाहिए।

    अपने शरीर-पोषण के लिए उसे उतना ही माँगना चाहिएजितने से जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी हो जायूँ।

    "

    देशे शुच्ौ समे राजन्संस्थाप्यासनमात्मन: ।

    स्थिरं सुखं सम॑ तस्मिन्नासीतर्ज्वड़ ओमिति ॥

    ३१॥

    देशे--स्थान पर; शुचौ--अत्यन्त पवित्र; समे--समतल; राजन्‌--हे राजा; संस्थाप्य--रखकर; आसनमू्‌-- आसन पर;आत्मन:--स्वयं को; स्थिरम्‌--अत्यन्त स्थिर; सुखम्‌--सुखपूर्वक; समम्‌--समतल; तस्मिनू--उस आसन पर; आसीत--बैठजाये; ऋजु-अड्रः--शरीर को सीधा करके; ३४--वैदिक मंत्र प्रणव; इति--इस प्रकार।

    हे राजा, योग सम्पन्न करने के लिए पवित्र तथा पुण्य तीर्थस्थल में किसी एक स्थान कोचुने।

    यह स्थान समतल हो--न तो अधिक ऊँचा और न नीचा।

    तब वहाँ सुखपूर्वक स्थिर तथासमभाव से बैठकर शरीर को सीधा रखकर वैदिक प्रणव का उच्चारण प्रारम्भ करे।

    "

    प्राणापानौ सन्निरुन्ध्यात्पूरकुम्भकरेचकै: ।

    यावन्मनस्त्यजेत्कामान्स्वनासाग्रनिरीक्षण: ॥

    ३२॥

    यतो यतो निःसरति मन: कामहतं भ्रमत्‌ ।

    ततस्तत उपाहत्य हृदि रुन्ध्याच्छनैर्बुध: ॥

    ३३॥

    प्राण-- भीतर जाने वाली श्वास; अपानौ--बाहर निकलने वाली श्वास; सन्निरुन्ध्यात्‌--रोके रहे; पूर-कुम्भक-रेचकै:-- श्वासभीतर खींचना, बाहर निकालना तथा रोकना, इन तीनों को क्रमशः पूरक, कुम्भक तथा रेचक कहा जाता है; यावत्‌--जब तक;मनः--मन; त्यजेत्‌ू--छोड़ दे; कामानू--सारी भौतिक इच्छाएँ; स्व-- अपनी; नास-अग्र--नाक का अग्रभाग; निरीक्षण:--देखना; यतः यतः--जहाँ कहीं से जे कुछ; निःसरति--निकलती है; मनः--मन; काम-हतम्‌--कामेच्छाओं से पराजित होकर;भ्रमत्‌ू--घूमते हुए; ततः ततः--यहाँ-वहाँ से; उपाहत्य--वापस लाकर; हृदि--हृदय के भीतर; रुन्ध्यात्‌ू-रोके ( मन को );शनैः--अभ्यास से, धीरे-धीरे; बुध:--विद्वान योगी |

    विद्वान योगी अपनी नाक के अग्रभाग पर निरन्तर दृष्टि लगाकर पूरक, कुम्भक तथा रेचकनामक श्वास लेने के आसन का--अर्थात्‌ वह श्वास भीतर ले जाने, बाहर निकालने और फिरदोनों को रोक देने का--अभ्यास करता है।

    इस प्रकार योगी अपने मन को भौतिक आसक्तियोंसे रोकता है और सारी मानसिक इच्छाएँ त्याग देता है।

    ज्योंही मन कामेच्छाओं के वशीभूतहोकर इन्द्रियतृप्ति की भावनाओं की ओर हटे त्योंही योगी को उसे तुरन्त वापस लाकर हृदय केभीतर बाँध लेना चाहिए।

    "

    एवमशभ्यस्यतश्ित्तं कालेनाल्‍पीयसा यते: ।

    अनिश्‌ तस्य निर्वाणं यात्यनिन्धनवह्विवत्‌ ॥

    ३४॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; अभ्यस्यत:--इस योग पद्धति का अभ्यास करने वाले व्यक्ति का; चित्तमू--हृदय; कालेन--कालान्तरमें; अल्पीयसा--तुरन्त ही; यतेः--योगाभ्यासी व्यक्ति का; अनिशम्‌--बिना रुके, निरन्तर; तस्य--उसका; निर्वाणम्‌--समस्तकल्मष से शुद्धि; याति--प्राप्त करता है; अनिन्धन--बिना लपट या धुँआ के; वह्िवत्‌--आग के समान

    जब योगी इस तरह नियमित रूप से अभ्यास करता है, तो अल्प काल में उसका हृदय स्थिरहो जाता है और विचलित नहीं होता जिस प्रकार लपट या धूम से रहित अग्नि स्थिर हो जाती है।

    "

    कामादिभिरनादविद्ध॑ं प्रशान्ताखिलवृत्ति यत्‌ ।

    चित्तं ब्रह्मसुखस्पृष्टे नेवोत्तिष्ठत कर्हिचित्‌ ॥

    ३५॥

    काम-आदिभिः:--विभिन्न कामेच्छाओं से; अनाविद्धम्‌--अप्रभावित; प्रशान्त--शान्त; अखिल-वृत्ति--हर तरह से अथवा सारेकार्यो में; यत्‌ू--जो; चित्तम्‌--चेतना; ब्रह्म-सुख-स्पृष्टमू--शाश्रवत आनन्द के दिव्य पद पर स्थित; न--नहीं; एव--निस्सन्देह;उत्तिष्ठत--बाहर आ सकता है; कर्हिचित्‌ू--किसी समय ।

    जब मनुष्य की चेतना भौतिक कामेच्छाओं से अदूषित होती है, तो वह सभी कार्यो में शान्तहो जाती है, क्योंकि मनुष्य नित्य आनन्दमय जीवन को प्राप्त होता है।

    एक बार इस पद पर स्थितहो जाने पर मनुष्य फिर भौतिक कार्यकलापों की ओर वापस नहीं जाता।

    "

    यः प्रव्नज्य गृहात्पूर्व त्रिवर्गावपनात्पुन: ।

    यदि सेवेत तान्भिक्षु: स वै वान्ताश्यपत्रप: ॥

    ३६॥

    यः--जो; प्रव्रज्य--वन जाकर ( दिव्य सुख में स्थिर होकर ); गृहात्‌--घर से; पूर्वम्‌--सर्वप्रथम; त्रि-वर्ग--धर्म, अर्थ तथाकाम, ये तीन सिद्धान्त; आवपनातू्‌--बोये गये खेत में से; पुनः --फिर; यदि--यदि; सेवेत--स्वीकार करना चाहिए; तानू--भौतिकतावादी कार्यकलापों को; भिक्षु:--संन्यासी; सः--वह पुरुष; वै--निस्सन्देह; वान्त-आशी--वमन करके खाने वाला;अपत्रप: --लज्जारहित, निर्लज्ज |

    जो संन्यास आश्रम स्वीकार करता है, वह धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन भौतिकतावादीकार्यकलापों के सिद्धान्तों को छोड़ देता है, जिनमें मनुष्य गृहस्थ जीवन में लिप्त रहता है।

    जोव्यक्ति पहले संन्यास स्वीकार करता है, किन्तु बाद में ऐसी भौतिकतावादी क्रियाओं में लौटआता है, वह वान्ताशी अर्थात्‌ अपनी ही वमन को खाने वाला कहलाता है।

    निस्सन्देह, वहनिर्लज्न व्यक्ति है।

    "

    यैः स्वदेहः स्मृतोनात्मा मर्त्यों विट्कृमिभस्मवत्‌ ।

    त एनमात्मसात्कृत्वा झएलाघयन्ति हासत्तमा: ॥

    ३७॥

    यैः--जिन संन्यासियों द्वारा; स्व-देह:--अपना शरीर; स्मृतः--मानते हैं; अनात्मा-- आत्मा से भिन्न; मर्त्य:--पमृत्यु से प्रभावित;विट्‌ू--मल या विष्ठा बन कर; कृमि--कीड़े-मकोड़े; भस्म-वत्‌--या राख के सहश; ते--ऐसे लोग; एनम्‌--इस शरीर को;आत्मसात्‌ कृत्वा--फिर से अपने साथ पहचान करके; श्लाघयन्ति--अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कह कर महिमा गाते हैं; हि--निस्सन्देह;असतू-तमाः--सबसे बड़े धूर्त ॥

    जो संन्‍्यासी पहले यह समझते हैं कि शरीर मर्त्य है और यह विष्ठा, कृमि या राख में परिणतहो जाएगा किन्तु जो पुनः शरीर को महत्त्व प्रदान करते हैं तथा आत्मा कहकर उसका गुणगानकरते हैं उन्हें सबसे बड़ा धूर्त मानना चाहिए।

    "

    गृहस्थस्य क्रियात्यागो ब्रतत्यागो वटोरपि ।

    तपस्विनो ग्रामसेवा भिक्षोरिन्द्रियलोलता ॥

    ३८ ॥

    आश्रमापसदा होते खल्वाश्रमविडम्बना: ।

    देवमायाविमूढांस्तानुपेक्षेतानुकम्पया ॥

    ३९॥

    गृहस्थस्य--गृहस्थ जीवन में स्थित व्यक्ति का; क्रिया-त्याग:--गृहस्थ के कर्तव्य को छोड़ना; ब्रत-त्याग:--ब्रतों तथा तपस्याका त्याग; वटोः--ब्रह्मचारी के लिए; अपि-- भी; तपस्विन:--वानप्रस्थ के लिए, वह जिसने तप युक्त जीवन स्वीकार किया है;ग्राम-सेवा--गाँव में रहकर लोगों की सेवा करना; भिक्षो:-- भीख माँग कर रहने वाले संन्‍्यासी के लिए; इन्द्रिय-लोलता--इन्द्रियभोग में अनुरक्ति; आश्रम--आश्रम का; अपसदा:--अत्यन्त गहित; हि--निस्सन्देह; एते--ये सब; खलु--निस्सन्देह;आश्रम-विडम्बना:--विभिन्न आश्रमों का अनुसरण करते और धोखा देते; देव-माया-विमूढान्‌ू-- भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति केद्वारा मोहग्रस्तों को; तानू--उन; उपेक्षेत--उपेक्षा करे और प्रमाणित न माने; अनुकम्पया-- अथवा दया द्वारा ( उन्हें असली जीवनकी शिक्षा दे )

    गृहस्थ आश्रम में रहने वाले व्यक्ति के लिए विधि-विधानों का परित्याग करना, गुरु केसंरक्षण में रहते हुए ब्रह्मचारी के लिए ब्रह्मचर्य ब्रत का पालन न करना, वानप्रस्थ के लिए गाँवमें रहना और तथाकथित सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहना अथवा संन्यासी के लिए इन्द्रियतृप्ति मेंअनुरक्त रहना निन्दनीय हैं।

    जो ऐसा करता है, वह अत्यन्त निम्न श्रेणी का माना जाता है।

    ऐसादिखावटी व्यक्ति भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहग्रस्त रहता है।

    मनुष्य को चाहिए कि वहऐसे व्यक्ति को किसी भी पद से निकाल दे या हो सके तो उस पर दया करके उसे शिक्षा देजिससे वह अपने मूल पद पर वापस चला जाए।

    "

    आत्मानं चेद्विजानीयात्परं ज्ञानधुताशयः ।

    किमिच्छन्कस्य वा हेतोर्देहं पुष्णाति लम्पट: ॥

    ४०॥

    आत्मानम्‌--आत्मा तथा परमात्मा को; चेत्‌--यदि; विजानीयात्‌--समझ सकता है; परमू--दिव्य, इस जगत से परे; ज्ञान--ज्ञानसे; धुत-आशय: --जिसने अपनी चेतना विमल कर ली है; किम्‌--क्या; इच्छन्‌-- भौतिक सुविधाओं की इच्छा करते हुए;कस्य--किसके लिए; वा--अथवा; हेतो: --किस कारण से; देहम्‌-- भौतिक शरीर को; पुष्णाति--पालन-पोषण करता है;लम्पट:--अवैध रूप से इन्द्रियतृप्ति में अनुरक्त रहकर।

    मनुष्य का शरीर आत्मा तथा परमात्मा को जानने के निमित्त होता है और ये दोनोंआध्यात्मिक पद पर स्थित हैं।

    यदि उच्च ज्ञान से परिष्कृत हुए व्यक्ति द्वारा इन दोनों को जाना जासकता है, तो फिर मूर्ख तथा लालची व्यक्ति किसके लिए और किस कारण से इस शरीर कापालन इन्द्रियतृप्ति के लिए करता है ?

    " आहुः शरीर रथमिन्द्रियाणिहयानभीषून्मन इन्द्रियेशम्‌ ।

    वर्त्मानि मात्रा धिषणां च सूतंसत्त्वं बृहद्वन्धुरमीशसृष्टम्‌ ॥

    ४१॥

    आहुः--कहा गया है; शरीरमू--शरीर को; रथम्‌--रथ; इन्द्रियाणि--इन्द्रियों को; हयान्‌ू--घोड़े; अभीषूनू-- लगाम; मन: --मन; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; ईशम्‌--स्वामी; वर्त्मानि--लक्ष्य; मात्रा:--इन्द्रियविषय; धिषणाम्‌--बुद्धि को; च--तथा; सूतम्‌--सारथी, रथ हाँकने वाला; सत्त्वम्‌--चेतना को; बृहत्‌--महान; बन्धुरम्‌--बन्धन; ईश--परमे श्वर द्वारा; सृष्टम्‌ू--रचा गया |

    ज्ञान में बढ़े-चढ़े अध्यात्मवादी भगवान्‌ के आदेश से बने शरीर की तुलना रथ से करते हैं;इन्द्रियाँ घोड़ों के तुल्य हैं; इन्द्रियों का स्वामी मन लगाम सहश है, इन्द्रियविषय गन्तव्य हैं, बुद्द्धसारथी है और सारे शरीर में व्याप्त चेतना इस भौतिक जगत के बन्धन का कारण है।

    "

    अक्ष॑ दशप्राणमधर्म धर्मोअक्रेभिमानं रथिनं च जीवम्‌ ।

    धनुर्हि तस्य प्रणवं पठन्तिशरं तु जीवं परमेव लक्ष्यम्‌ ॥

    ४२॥

    अक्षम्‌--अरा ( रथ के पहिये के ); दश--दस; प्राणम्‌--शरीर के भीतर प्रवाहित होने वाली दस प्रकार की वायु; अधर्म--अधर्म; धर्मा--तथा धर्म ( पहिए के ऊपरी तथा निचले भाग ); चक्रे--पहिए में; अभिमानम्‌--मिथ्या पहचान; रथिनम्‌--रथ कास्वामी या शरीर का स्वामी; च--भी; जीवम्‌--जीव; धनुः-- धनुष; हि--निस्सन्देह; तस्य--उसका; प्रणबम्‌--वैदिक ओड्ड्ारमंत्र; पठन्ति--कहा जाता है; शरम्‌--तीर; तु--लेकिन; जीवमू--जीव; परम्‌--परमे श्वर; एव--निस्सन्देह; लक्ष्यम्‌--लक्ष्य |

    शरीर के भीतर कार्यशील दस प्रकार की वायुओं की तुलना रथ के पहिए के आरों(तीलियों ) से की गई है और इस पहिए के ऊपरी तथा निचले भाग धर्म तथा अधर्म कहलाते हैं।

    देहात्मबुद्धि में रहने वाला जीव रथ का स्वामी है।

    वैदिक प्रणव मंत्र ही धनुष है, साक्षात्‌ शुद्धजीव तीर है और परम पुरुष उसका लक्ष्य है।

    "

    रागो द्वेषश्च लोभश्व शोकमोहौ भयं॑ मदः ।

    मानोवमानोसूया च माया हिंसा च मत्सर: ॥

    ४३॥

    रजः प्रमाद: क्षुत्निद्रा शत्रवस्त्वेवमादय: ॥

    रजस्तमःप्रकृतयः सत्त्वप्रकृतयः क्वचित्‌ ॥

    ४४॥

    राग:--आसक्ति; द्वेष:--शत्रुता;।

    च-- भी; लोभ:--लालच; च-- भी; शोक --सन्ताप; मोहौ--मोह; भयम्‌-- भय; मद: --'पागलपन; मान:--प्रतिष्ठा; अवमान:-- अपमान; असूया--छिद्रान्वेषण, दूसरों के कार्यों में से दोष ढूँढ़ना; च-- भी; माया--छलावा; हिंसा--ईर्ष्या; च-- भी; मत्सर: --असहिष्णुता; रज: --रजोगुण ( कामेच्छा ); प्रमाद: --मोह; क्षुत्‌-- भूख; निद्रा--नींद; शत्रवः --शत्रु; तु--निस्सन्देह; एवम्‌ आदय:--जीव की अन्य ऐसी ही धारणाएँ तक; रज:-तम:--रजो तथा तमोगुण;प्रकृतवः--कारण; सत्त्व--सतो गुण से; प्रकृतब:ः--कारण; क्वचित्‌ू--कभी-कभी |

    बद्ध-अवस्था में मनुष्य की जीवन सम्बन्धी धारणाएँ कभी कभी कामेच्छा तथा अज्ञान(रजो तथा तमो गुण ) के कारण दूषित हो जाती हैं, जो आसक्ति, शत्रुता, लोभ, शोक, मोह,भय, मद, झूठी प्रतिष्ठा, अपमान, छिद्रान्वेषण, छलावा, ईर्ष्या, असहिष्णुता, कामेच्छा, मोह,भूख तथा निद्रा के रूप में प्रकट होती हैं।

    ये सभी शत्रु हैं।

    कभी-कभी सतोगुण के द्वारा भीमनुष्य की धारणाएँ दूषित हो जाती हैं।

    "

    यावन्नकायरथमात्मवशोपकल्पंधत्ते गरिष्ठतचरणार्चनया निशातम्‌ ।

    ज्ञानासिमच्युतबलो दधदस्तशत्रुःस्वानन्दतुष्ट उपशान्त ड्दं विजह्मात्‌ ॥

    ४५ ॥

    यावत्‌--जब तक; नू-काय--यह मनुष्य शरीर; रथम्‌ू--रथ रूप; आत्म-वश--अपने नियंत्रण पर आश्रित; उपकल्पम्‌--जिसमेंअनेक अधीन अंग हैं; धत्ते-- धारण करता है; गरिष्ठ-चरण-- श्रेष्ठ गुरूजनों के चरणकमल; अर्चनया--सेवा करके; निशातम्‌--तेज की हुई; ज्ञान-असिमू--ज्ञान रूपी तलवार या हथियार; अच्युत-बल:--कृष्ण की दिव्य शक्ति से; दधत्‌ू--पकड़ कर;अस्त-शत्रु:ः--जब तक शत्रु पराजित न हो जाये; स्व-आनन्द-तुष्ट:--दिव्य आनन्द से पूर्णतया सन्तुष्ट; उपशान्त:--समस्तभौतिक कल्मष से शुद्ध चेतना; इृदम्‌--इस शरीर को; विजद्यातू-त्याग दे।

    जब तक मनुष्य को इस शरीर को इसके विभिन्न अंगों तथा साज-सामान सहित जो पूर्णतयाअपने वषश में नहीं हैं स्वीकार करना है, तब तक उसे अपने श्रेष्ठ जनों--अपने गुरु तथा गुरु केपूर्ववर्तियों व्यक्तियों के चरणकमलों को धारण करना चाहिए।

    उनकी कृपा से वह ज्ञान कीतलवार को तेज कर सकता है और भगवत्‌ कृपा के बल पर तब वह उपर्युक्त शत्रुओं कोपराजित कर सकता है।

    इस प्रकार भक्त को अपने ही दिव्य आनन्द में लीन रहने में समर्थ होनाचाहिए और तब वह अपना शरीर त्याग कर अपनी आध्यात्मिक पहचान फिर से पा सकता है।

    "

    नोचेत्प्रमत्तमसदिन्द्रियवाजिसूतानीत्वोत्पथं विषयदस्युषु निश्चिपन्ति ।

    ते दस्यव: सहयसूतममुं तमो उन्धेसंसारकूप उसमृत्युभये क्षिपन्ति ॥

    ४६॥

    नोचेत्‌--यदि हम अच्युत कृष्ण के उपदेशों का पालन नहीं करते तथा बलराम की शरण नहीं ग्रहण करते; प्रमत्तमू--लापरवाह;असत्‌--जो सदैव भौतिक चेतना की ओर उन्मुख रहती हैं; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; वाजि--घोड़े की तरह कार्य करते हुए; सूता:--रथ हाँकने वाला ( बुद्धि ); नीत्वा--लाकर; उत्पथम्‌-- भौतिक इच्छा रूपी पथ पर; विषय--इन्द्रिय विषय; दस्युषु--लुटेरों केहाथों में; निक्षिपन्ति--फेंकते हैं; ते--वे; दस्थव:--लुटेरों; स--सहित; हय-सूतम्‌--घोड़े तथा सारथी को; अमुमू--वे सब;तमः--अंधकार; अन्धे--अंधा; संसार-कूपे--संसार रूपी कुएँ में; उरू--विशाल; मृत्यु-भये--मृत्यु का डर; क्षिपन्ति--फेंकतेहैं।

    अन्यथा यदि मनुष्य अच्युत कृष्ण तथा बलदेव की शरण ग्रहण नहीं कर लेता तो इन्द्रियाँरूपी घोड़े तथा बुद्धि रूपी सारथी दोनों ही भौतिक कल्मष के प्रति उन्मुख होने से अनजाने हीशरीर रूपी रथ को इन्द्रियतृप्ति के मार्ग पर ला खड़ा करते हैं।

    इस प्रकार जब विषय के धूरत्तों--खाना, सोना तथा मैथुन--के द्वारा वह आकृष्ट होता है, तो घोड़े तथा सारथी संसार के अन्धकूपमें गिरा दिए जाते हैं और मनुष्य पुन: जन्म-मृत्यु की घातक तथा अत्यन्त भयावह स्थिति में आपड़ता है।

    "

    प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्‌ ।

    आवतते प्रवृत्तेन निवृत्तेनाशनुतेडमृतम्‌ ॥

    ४७॥

    प्रवृत्तर्‌-- भौतिक भोग के लिए झुकाव; च--तथा; निवृत्तम्‌ू-- भौतिक भोग का अन्त; च--तथा; द्वि-विधम्‌--इन दो प्रकारों;कर्म--कर्मों का; वैदिकम्‌--वेदों द्वारा संस्तुत; आवर्तते--संसार के चक्र में ऊपर-नीचे घूमता है; प्रवृत्तेन-- भौतिककार्यकलापों के भोग की प्रवृत्ति द्वारा; निवृत्तेन--ऐसे कार्यों को बन्द करने से; अश्नुते-- भोग करता है; अमृतम्‌ू--शा श्रतजीवन।

    वेदों के अनुसार प्रवृत्ति तथा निवृत्ति दो प्रकार के कार्यकलाप होते हैं--प्रवृत्ति कार्यो काअर्थ है अपने को भौतिकतावादी जीवन की निम्नतर अवस्था से उच्चतर अवस्था तक उठानाजबकि निवृत्ति का अर्थ है भौतिक इच्छा का अन्त।

    प्रवृत्ति कार्यों से मनुष्य भौतिक बन्धन मेंकष्ट उठाता है, किन्तु निवृत्ति कार्यो से वह शुद्ध हो जाता है और नित्य आनन्दमय जीवन कोभोगने के योग्य बनता है।

    "

    हिंस्त्र॑ द्रव्यमयं काम्यमग्निहोत्राद्मशान्तिदम्‌ ।

    दर्शश्न पूर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशु: सुतः ॥

    ४८ ॥

    एतदिष्टं प्रवृत्ताख्यं हुत॑ प्रहुतमेव च ।

    पूर्त सुरालयारामकूपाजीव्यादिलक्षणम्‌ ॥

    ४९॥

    हिंस्रमू--पशुओं की बलि की पद्धति; द्रव्य-मयम्‌--जिसमें तमाम साज-सामग्री की आवश्यकता हो; काम्यम्‌--असीमइच्छाओं से पूरित; अग्नि-होत्र-आदि--अग्नि होम यज्ञ जैसे अनुष्ठान; अशान्ति-दमू--चिन्ता उत्पन्न करने वाले; दर्शः--दर्शनामक अनुष्ठान; च--तथा; पूर्णमास:--पूर्णमास अनुष्ठान; च--भी; चातुर्मास्थम्‌--चार मास पर होने वाला विधान; पशु:--पशु यज्ञ; सुत:--सोम यज्ञ; एतत्‌--ये सारे; इष्टम्‌--लक्ष्य; प्रवृत्त-आख्यम्‌-- भौतिक आसक्ति नाम से ज्ञात; हुतम्‌--वैश्व देव,जो भगवान्‌ के अवतार हैं; प्रहुतमू--बलिहरण नाम का उत्सव; एव--निस्सन्देह; च--भी; पूर्तम्‌--जनता के लाभ के हेतु; सुर-आलय--देवताओं के लिए मन्दिर बनवाना; आराम--विश्रामालय तथा बगीचे; कूप--कुँआ खुदवाना; आजीव्य-आदि--भोजन तथा जल वितरण जैसे कार्य; लक्षणम्‌--लक्षण |

    अग्निहोत्र-यज्ञ, दर्श-यज्ञ, पूर्णमास-यज्ञ, चातुर्मास्य-यज्ञ, पशु-यज्ञ तथा सोम-यज्ञ नामकसारे अनुष्ठानों तथा यज्ञों की विशेषता पशुओं का वध करना तथा अनेक अमूल्य पदार्थों को,विशेष रूप से अन्नों को, जलाना है।

    ये सब भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए सम्पन्न किये जातेहैं तथा ये चिन्ता ( अशान्ति ) उत्पन्न करते हैं।

    ऐसे यज्ञ करना, वैश्वदेव का पूजन तथा बलिहरणउत्सव सम्पन्न करना जो सभी सम्भवतः जीवन लक्ष्य माने जाते हैं तथा देवताओं के लिए मन्दिरबनवाना, विश्रमागृह तथा बगीचे बनवाना, जल वितरण के लिए कुएँ खुदवाना, भोजन वितरणके लिए केन्द्रों की स्थापना करना तथा जन-कल्याण के कार्य करना--ये सब लक्षण भौतिकइच्छाओं के प्रति आसक्ति से अभिव्यक्त होते है।

    "

    द्रव्यसूक्ष्मविपाक श्व धूमो रात्रिरपक्षय: ।

    अयनं दक्षिणं सोमो दर्श ओषधिवीरुध: ॥

    ५०॥

    अन्नं रेत इति क्ष्मेश पितृयान॑ पुनर्भवः ।

    एकैकश्येनानुपूर्व भूत्वा भूत्वेह जायते ॥

    ५१॥

    द्रव्य-सूक्ष्म-विपाक:--अग्नि की आहुति दी जाने वाली सामग्री यथा अन्न तथा घी; च--तथा; धूम:--धुएँ में परिणत या धुएँका अधिष्ठाता देवता; रात्रि:--रात्रि का अधिष्ठाता; अपक्षय:--अंधेरे पाख में; अयनम्‌--सूर्य के पार करने का अधिष्ठाता देवता;दक्षिणम्‌--दक्षिणी मंडल में; सोम:--चन्द्रमा; दर्शः--लौटते हुए; ओषधि--पौधे ( पृथ्वी पर ); वीरुध:--सामान्य वनस्पति(शोक का जन्म ); अन्नम्‌--अन्न; रेत: --वीर्य; इति--इस प्रकार से; क्ष्म-ईश--हे पृथ्वी के राजा, युधिष्ठटिर; पितृ-यानम्‌--पिताके वीर्य से जन्म ग्रहण करने का मार्ग; पुन:-भव:--फिर-फिर; एक-एकश्येन--एक के बाद एक, क्रमशः; अनुपूर्वम्‌--क्रमवार, क्रमानुसार; भूत्वा--जन्म लेकर; भूत्वा--पुनः जन्म लेकर; इह--इस भौतिक जगत में; जायते-- भौतिक जीवनबिताता है।

    हे राजा युधिष्ठटिर, जब यज्ञ में घी, अन्न (यथा जौ एवं तिल ) की आहुतियाँ दी जाती हैं, तोवे दिव्य धुएँ में परिणत हो जाती हैं, जो मनुष्य को क्रमश: उच्च से उच्चतर लोकों को या धूम,रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणम्‌ तथा अन्त में चन्द्र लोक को ले जाता हैं।

    किन्तु यज्ञकर्ता फिर पृथ्वीपर उतर कर औषधियाँ, लताएँ, वनस्पतियाँ तथा अन्न बन जाते हैं।

    तब वे विभिन्न जीवों द्वाराखाये जाते हैं और वीर्य में परिणत होते हैं जिसे मादा शरीर में प्रविष्ठ किया जाता है।

    इस प्रकारमनुष्य पुन:-पुनः जन्म लेता है।

    "

    निषेकादिश्मशानान्तै: संस्कार: संस्कृतो द्विज: ।

    इन्द्रियेषु क्रियायज्ञान्ल्ञानदीपेषु जुह्डति ॥

    ५२॥

    निषेक-आदि--जीवन का प्रारम्भ ( गर्भाधान संस्कार ); श्मशान-अन्तैः --तथा मृत्यु के समय, जब शरीर को एमशान घाट परजला कर राख कर दिया जाता है; संस्कारैः--संस्कार द्वारा; संस्कृत:ः--शुद्ध किया गया; द्विज:--दो बार जन्म लेने वालाब्राह्मण; इन्द्रियेषु--इन्द्रियों में; क्रिया-यज्ञान्‌--कर्म तथा यज्ञ ( जिनसे उच्च लोक में जाया जाता है ); ज्ञान-दीपेषु-- असली ज्ञानके प्रकाश से; जुह्ति--अर्पित करता है

    द्विज ( द्वि-जन्मा ब्राह्मण ) को गर्भाधान संस्कार के द्वारा अपने माता-पिता की अनुकम्पा सेअपना जीवत्व प्राप्त होता है।

    जीवन के अन्त में अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की जाती है।

    और तबतक अन्य संस्कार भी संपन्न किए जाते हैं।

    इस तरह योग्य ब्राह्मण को कुछ समय के बादभौतिकतावादी कार्यों तथा यज्ञों में अरुचि हो जाती है, किन्तु वह ऐन्द्रिय यज्ञों को पूर्ण ज्ञान केसाथ कर्मेन्द्रियों को अर्पित कर देता है, जो ज्ञान की अग्नि से प्रकाशित रहती हैं।

    "

    इन्द्रियाणि मनस्यूमों वाचि वैकारिक मन: ।

    बाचं वर्णसमाम्नाये तमोड्डारे स्वरे न्यसेत्‌ ।

    ओड्डारं बिन्दौ नादे तं तं तु प्राणे महत्यमुम्‌ ॥

    ५३॥

    इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ ( कर्म तथा ज्ञान सम्बन्धी ); मनसि--मन में; ऊर्मों --स्वीकृति-अस्वीकृति की तरंगों में; वाचि--शब्दों में;वैकारिकम्‌--परिवर्तनों से दूषित; मनः--मन को; वाचम्‌--शब्द को; वर्ण-समाम्नाये--सभी अक्षरों का समूह; तमू--उस;ओड्डरे--ओड्लार के संक्षिप्त रूप में; स्वरे--कम्पन में; न्यसेत्‌--छोड़ दे; ओड्लारम्‌--संक्षिप्त शब्द ध्वनि को; बिन्दौ --ओ्लारबिन्दु में; नादे--ध्वनि स्पन्दन में; तमू--उसको; तम्‌--उस ( नाद ); तु--निस्सन्देह; प्राणे--प्राणवायु में; महति--परम में;अमुम्‌--जीव।

    मन स्वीकृति तथा अस्वीकृति की तरंगों से सदैव विश्षुब्ध होता रहता है।

    अतएव इन्द्रियों केसारे कार्यकलाप मन को अर्पित कर देना चाहिए और मन को अपने शब्दों में अर्पित कर देनाचाहिए; फिर इन शब्दों को समस्त वर्णो के समूह में अर्पित करना चाहिए जिसे ओड्ढार केसंक्षिप्त रूप को अर्पित कर दिया जाना चाहिए।

    ओड्डार को बिन्दु में, बिन्दु को नाद में और उसनाद को प्राणवायु में समर्पित करना चाहिए।

    जो शेष रूप में जीव बचे उसे परम ब्रह्म में स्थापितकरे।

    यही यज्ञ की विधि है।

    "

    अग्नि: सूर्यो दिवा प्राह्मः शुक्लो राकोत्तरं स्वराट्‌ ।

    विश्वोथ तैजसः प्राज्ञस्तुर्य आत्मा समन्वयात्‌ ॥

    ५४॥

    अग्निः--अग्नि; सूर्य:--सूर्य; दिवा--दिन; प्राह्मः--संध्या; शुक्ल:--शुक्ल पक्ष; राक--पूर्णमासी; उत्तरमू--वह अवधि जबसूर्य उत्तर दिशा से होकर जाता है; स्व-राट्‌--परम्‌ ब्रह्म या ब्रह्माजी; विश्व: --स्थूल उपाधि; अथ--ब्रह्मलोक, सर्वोच्च भौतिकआनन्द; तैजस:--सूक्ष्म उपाधि; प्राज्ञ:--कारण रूप उपाधि का साक्षी; तुर्य:--दिव्य; आत्मा--आत्मा; समन्वयात्‌-- प्राकृतिकपरिणाम के रूप में।

    ऊपर जाते हुए जीव अग्नि, सूर्य, दिन, सायं, शुक्ल पक्ष, पूर्ण चन्द्रमा तथा सूर्य के उत्तरदिशा जाने की अवधि ( उत्तरम्‌ ) एवं इनके अधिष्ठाता देवताओं के विभिन्न लोकों में प्रवेशकरता है।

    जब वह ब्रह्मलोक में प्रविष्ट होता है, तो वहाँ लाखों वर्षो तक जीवन भोग करने केबाद अन्त में उसकी भौतिक उपाधि समाप्त हो जाती है।

    तब वह सूक्ष्म उपाधि प्राप्त करता है,जिससे उसे कारण रूप उपाधि प्राप्त होती है, जो समस्त पूर्ववर्ती अवस्थाओं की साक्षी होती है।

    इस अवस्था के विनष्ट होने पर उसे शुद्ध अवस्था प्राप्त होती है, जिसमें वह परमात्मा के साथअपनी पहचान करता है।

    इस प्रकार से जीव दिव्य बन जाता है।

    "

    देवयानमिदं प्राहुर्भूत्वा भूत्वानुपूर्वशः ।

    आत्मयाज्युपशान्तात्मा ह्यात्मस्थो न निवर्तते ॥

    ५५॥

    देव-यानम्‌--देवयान नाम ऊपर उठने की विधि को; इृदम्‌--इस; प्राहु:--कहा गया है; भूत्वा भूत्वा--बारम्बार जन्म लेकर;अनुपूर्वश:--लगातार; आत्म-याजी--आत्म-साक्षात्कार का इच्छुक; उपशान्त-आत्मा--समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतयामुक्त; हि--निस्सन्देह; आत्म-स्थ:--अपने में स्थित; न--नहीं; निवर्तते--लौटता है ।

    आत्म-साक्षात्कार तक उठने की यह क्रमिक विधि उन लोगों के लिए है, जो सचमुच परमसत्य से अवगत हैं।

    इस देवयान नामक मार्ग पर बारम्बार जन्म लेने से ये क्रमिक अवस्थाएँ प्राप्तहोती हैं।

    जो आत्मा में स्थित है और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतया मुक्त है उसे इस बारम्बारजन्म-मृत्यु के मार्ग से गुजरने की आवश्यकता नहीं होती।

    "

    य एते पितृदेवानामयने वेदनिर्मिते ।

    शास्त्रेण चक्षुषा वेद जनस्थोपि न मुह्ाति ॥

    ५६॥

    यः--जो; एते--इस मार्ग पर ( जो ऊपर बताया गया है ); पितृ-देवानामू--पितृयान तथा देवयान नामक; अयने--इस मार्ग पर;वबेद-निर्मिते--वेदों में बताये गये; शास्त्रेण--शास्त्रों के नियमित अध्ययन से; चक्षुषा--जाग्रत आँखों से; वेद--पूर्णतया अवगतहै; जन-स्थः--शरीर में स्थित व्यक्ति; अपि--यद्यपि; न--कभी नहीं; मुह्मोति--मोहग्रस्त होता है।

    इस भौतिक शरीर में स्थित रहते हुए भी जो पितृयान तथा देवयान मार्गों से पूर्णतया अवगतरहता है और जिसकी आँखें वैदिक ज्ञान की दृष्टि से इस प्रकार खुली रहती हैं वह भौतिक जगतमें कभी मोहग्रस्त नहीं होता।

    "

    आदावन्ते जनानां सद्बहिरन्त: परावरम्‌ ।

    ज्ञानं ज्ञेयं बचो वाच्यं तमो ज्योतिस्त्वयं स्‍्वयम्‌ ॥

    ५७॥

    आदौ-प्रारम्भ में; अन्ते--अन्त में; जनानामू--सभी जीवों का; सत्‌--सदैव विद्यमान; बहिः--बाहर; अन्तः-- भीतर से; पर--दिव्य; अवरम्‌--पदार्थ; ज्ञाम्‌--ज्ञान; ज्ञेयमू-- लक्ष्य; वच:ः--वाणी, अभिव्यक्ति; वाच्यमू--चरम लक्ष्य; तम:--अँधेरा;ज्योति:-- प्रकाश; तु--निस्सन्देह; अयम्‌--यह ( भगवान्‌ ); स्वयम्‌--स्वयं

    जो भीतर बाहर, सभी वस्तुओं तथा जीवों के प्रारम्भ तथा अन्त में, भोग्य तथा भोक्ता केरूप में, उच्च तथा नीच के रूप में विद्यमान है, वह परम सत्य है।

    वह सदैव ज्ञान तथा ज्ञेय,अभिव्यक्ति तथा अभिज्ञेय, अंधकार तथा प्रकाश के रूप में रहता है।

    इस तरह वे परमेश्वर सर्वस्वहैं।

    "

    आबाधितोपि ह्याभासो यथा वस्तुतया स्मृतः ।

    दुर्घटत्वादैन्द्रियकं तद्गदर्थविकल्पितम्‌ ॥

    ५८ ॥

    आबाधित:--अस्वीकृति; अपि--यद्यपि; हि--निश्चय ही; आभास: --प्रतिबिम्ब; यथा--जिस तरह; वस्तुतया--वास्तविकताके रूप में; स्मृत:ः --स्वीकृत; दुर्घटत्वात्‌ू--वास्तविकता को सिद्ध करना कठिन होने के कारण; ऐन्द्रियकम्‌--इन्द्रियों से प्राप्तज्ञान; तद्बत्‌ू--उसी तरह; अर्थ--वास्तविकता; विकल्पितम्‌--कल्पित या संदेहास्पद

    दर्पण से प्राप्त सूर्य के प्रतिबिम्ब को मिथ्या माना जा सकता है, किन्तु इसका वास्तविकअस्तित्व तो होता ही है।

    उसी तरह कल्पना (ज्ञान) द्वारा यह सिद्ध करना कि तत्त्व का कोईअस्तित्व नहीं होता अत्यन्त कठिन होगा।

    "

    क्षित्यादीनामिहार्थानां छाया न कतमापि हि ।

    न सद्जातो विकारोपि न पृथड्नान्वितो मृषा ॥

    ५९॥

    क्षिति-आदीनाम्‌--पृथ्वी आदि पाँच तत्त्वों का; इह--इस संसार में; अर्थानाम्‌--उन पाँचों तत्त्वों का; छाया--प्रतिबिम्ब; न--नतो; कतमा--इनमें से कौन; अपि--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; न--न तो; सट्जात:-- संयोग; विकार:--रूपान्तर; अपि--यद्यपि; न पृथक्‌-भिन्न नहीं; न अन्वित:--न तो निहित; मृषा--ये सब सिद्धान्त निरर्थक हैं।

    "

    इस जगत में पाँच तत्त्व हैं--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश।

    किन्तु शरीर न तोउनका प्रतिबिम्ब है, न उनका संयोग या उनका रूपान्तर।

    चूँकि शरीर तथा इसके अवयव न तोपृथक्‌-पृथक्‌ हैं, न मिश्रित अतएवं ऐसे सारे सिद्धान्त निराधार हैं।

    "

    धातवोवयवित्वाच्च तन्मात्रावयवैर्विना ।

    न स्युर्हासत्यवयविन्यसन्नवयवो उन्‍्तत: ॥

    ६०॥

    धातवः:--पाँचों तत्त्व; अवयवित्वात्‌ू--देहात्मबुद्धि का कारण होने से; च--तथा; तत्-मात्र--इन्द्रियविषय ( ध्वनि, स्वाद, स्पर्शआदि ); अवयवबै: --अंगों से; विना--रहित; न--नहीं; स्यु:--विद्यमान रह सकता है; हि--निस्सन्देह; असति--मिथ्या, झूठा;अवयविनि--शरीर के निर्माण में; असन्‌ू--न रहते हुए; अवयव:ः--शरीर का अंग; अन्ततः--अन्त में |

    चूँकि शरीर पाँच तत्त्वों से बना है अतएव यह सूक्ष्म इन्द्रियविषयों के बिना अस्तित्व में नहींरह सकता।

    चूँकि शरीर मिथ्या है, अतएव इन्द्रियविषय भी स्वभावतः मिथ्या या क्षणिक हैं।

    "

    स्यात्साइश्यभ्रमस्तावद्विकल्पे सति वस्तुनः ।

    जाग्रत्स्वापौ यथा स्वप्ने तथा विधिनिषेधता ॥

    ६१॥

    स्थातू--हो; साहश्य--समानता; भ्रम:--भूल, त्रुटि; तावत्‌--तब तक; विकल्पे--अलग से; सति--अंश; वस्तुन:ः--वस्तु से;जाग्रतू--जगा हुआ; स्वापौ--सोता हुआ; यथा--जिस तरह; स्वप्ने-- स्वण में; तथा--उसी तरह; विधि-निषेधता-- आदेशोंतथा निषेधों से युक्त विधान |

    जब किसी वस्तु को उसके अंशों से पृथक््‌ कर दिया जाता है, तो उनमें समानता ( साहश्य )मानना भ्रम ( मोह ) कहलाता है।

    स्व देखते समय मनुष्य जागने तथा सोने की स्थितिओं मेंअन्तर उत्पन्न कर देता है।

    ऐसी मानसिक अवस्था में शास्त्रों के विधानों की, जो आदेशों तथानिषेधों के रूप में होते हैं, संस्तुति की जाती है।

    "

    भावद्वैतं क्रियाद्वैतं द्रव्याद्वैतं तथात्मन: ।

    वर्तयन्स्वानुभूत्येह त्रीन्स्वप्नान्धुनुते मुनि: ॥

    ६२॥

    भाव-अद्वैतम्‌--देहात्म-बुद्धि में एकत्व; क्रिया-अद्वैतम्‌--कर्म में एकत्व; द्रव्य-अद्बैतम्‌--विभिन्न सामग्री में एकत्व; तथा--और; आत्मन:--आत्मा का; वर्तयन्‌--विचार करते हुए; स्व--अपना; अनुभूत्या--अनुभूति के अनुसार; इह--इस भौतिकजगत में; त्रीन्‌--तीन; स्वप्नानू--जीवित दशाएँ ( जाग्रत, स्वप्न, सुषुष्ति ); धुनुते--त्याग देता है; मुनिः--दार्शनिक याचिन्तकहा

    भाव, क्रिया तथा द्रव्य की अद्बैतता ( एकत्व ) पर विचार करने के बाद तथा आत्मा कोसमस्त कार्य-कारणों से पृथक्‌ मानते हुए मुनि अपनी ही अनुभूति से जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्तिइन तीन अवस्थाओं को त्याग देता है।

    "

    कार्यकारणवस्त्वैक्यदर्शनं पटतन्तुवत्‌ ।

    अक्स्तुत्वाद्विकल्पस्य भावाद्वैतं तदुच्यते ॥

    ६३॥

    कार्य--फल या प्रभाव; कारण--कारण; वस्तु--वस्तु; ऐक्य--एकत्व; दर्शनम्‌--देखना; पट--वस्त्र; तन्तु--डोरा, सूत;बत्‌--सदृश; अव्स्तुत्वात्‌ू--अवास्तविक होने से; विकल्पस्थ--विकल्प का; भाव-अद्वैतम्‌--एकत्व का भाव; तत्‌ उच्यते--वह कहलाता है।

    जब मनुष्य यह समझता है कि फल तथा कारण एक हैं और द्वैत अन्ततः इस विचार कीभाँति अवास्तविक है कि वस्त्र के धागे वस्त्र से भिन्न हैं, तो वह एकत्व के मान को प्राप्त होताहै, जिसे भावाद्वैत कहते हैं।

    "

    यद्वह्मणि परे साक्षात्सर्वकर्मसमर्पणम्‌ ।

    मनोवाक्तनुभिः पार्थ क्रियाद्वैतं तदुच्यते ॥

    ६४॥

    यत्‌--जो; ब्रह्मणि--परब्रह्म में; परे--दिव्य; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; सर्व--समस्त; कर्म--कर्म; समर्पणम्‌--निवेदन, समर्पण;मनः--मन से; वाक्‌ू--वाणी से; तनुभि:--तथा शरीर से; पार्थ--हे महाराज युधिष्ठिर; क्रिया-अद्वैतम्‌--कर्म का एकत्व; तत्‌उच्यते--वह कहलाता है।

    हे युधिष्ठिर ( पार्थ ), जब मनुष्य के मन, वाणी तथा शरीर द्वारा किये गये सारे कार्य साक्षात्‌भगवान्‌ की सेवा में समर्पित किये जाते हैं, तो उसे क्रियाद्वैत नामक कर्मों का एकत्व प्राप्त होताहै।

    "

    आत्मजायासुतादीनामन्येषां सर्वदेहिनाम्‌ ।

    यत्स्ार्थकामयोरैक्यं द्रव्याद्वैतं तदुच्यते ॥

    ६५॥

    आत्म--अपनी; जाया--पली; सुत-आदीनाम्‌--तथा सनन्‍्तानों का; अन्येषाम्‌-- अपने सम्बन्धियों का; सर्व-देहिनाम्‌ू-- समस्तजीवों का; यत्‌--जो भी; स्व-अर्थ-कामयो:--अपने चरम लक्ष्य तथा लाभ का; ऐक्यम्‌--एकत्व, अद्ठैत; द्रव्य-अद्दैतम्‌--स्वार्थ का एकत्व; तत्‌ उच्यते--कहा जाता है।

    जब किसी मनुष्य का चरम लक्ष्य अपना तथा अपनी पत्नी का, अपनी सनन्‍्तानों का, अपनेसम्बन्धियों का तथा अन्य समस्त देहधारियों का स्वार्थ एक ही हो तो यह द्रव्याद्वैत कहलाता है।

    "

    यद्यस्य वानिषिद्धं स्याद्येन यत्र यतो नूप ।

    स तेनेहेत कार्याणि नरो नान्यैरनापदि ॥

    ६६॥

    यत्‌--जो भी; यस्य--मनुष्य का; वा--या तो; अनिषिद्धम्‌--जिसकी मनाही न हो; स्थात्‌--ऐसा हो; येन--जिससे; यत्र--स्थान तथा समय में; यत:ः--जिससे; नृप--हे राजा; सः--ऐसा व्यक्ति; तेन--ऐसी विधि से; ईहेत--सम्पन्न करे; कार्याणि--नियत कार्यकलाप; नरः:--मनुष्य; न--नहीं; अन्यै:-- दूसरी विधियों से; अनापदि--संकट की अनुपस्थिति में |

    हे राजा युथ्चिष्ठिर, संकट न रहने पर सामान्य परिस्थितियों में मनुष्य को चाहिए कि वह अपनेजीवन-स्तर के अनुसार नियत कार्यकलापों को ऐसी वस्तुओं, प्रयासों तथा विधियों से सम्पन्नकरे तथा ऐसे स्थानों पर निवास करे जो उसके लिए निषिद्ध न हों ।

    वह अन्य विधियों काउपयोग न करे।

    "

    एतैरन्यैश् वेदोक्तेवर्तमान: स्वकर्मभि: ।

    गृहेप्यस्य गतिं यायाद्राजंस्तद्धक्तिभाड़नर: ॥

    ६७॥

    एतै:--इन विधियों से; अन्यै:--अन्य विधियों से; च--तथा; वेद-उक्तै:--जैसा वैदिक वाड्मय में निर्देश है; वर्तमान:--पालनकरते हुए; स्व-कर्मभि: --अपने वृत्तिपरक कर्तव्य से; गृहे अपि--घर पर भी; अस्य-- भगवान्‌ कृष्ण के; गतिम्‌ू--गन्तव्य;यायात्‌--पहुँच सकता है; राजन्‌ू--हे राजा; तत्‌-भक्ति-भाक्‌ -- भगवान्‌ की भक्ति करने वाला; नरः--व्यक्ति |

    हे राजा, मनुष्य को अपने वृत्तिपरक कर्तव्य इन निर्देशों तथा बैदिक ग्रन्थों में दिए गये अन्यनिर्देशों के अनुसार सम्पन्न करने चाहिए जिससे वह भगवान्‌ कृष्ण का भक्त बना रहे।

    इस प्रकारघर पर रहकर भी मनुष्य अपने गन्तव्य तक पहुँच सकता है।

    "

    यथा हि यूय॑ नृपदेव दुस्त्यजा-दापद्गणादुत्तरतात्मन: प्रभो: ।

    यत्पादपड्जेरूहसेवया भवा-नहारषीन्निर्जितदिग्गज: क्रतूनू ॥

    ६८॥

    यथा--जिस तरह; हि--निस्सन्देह; यूयम्‌--तुम सभी ( पाण्डव ); नृप-देव--हे राजाओं, मनुष्यों तथा देवताओं के स्वामी;दुस्त्वजात्‌ू--अजेय; आपत्‌--सड्डूटपूर्ण स्थितियाँ; गणात्‌--सबों से; उत्तरत--बच निकले; आत्मन:--अपना; प्रभो:-- भगवान्‌का; यत्‌-पाद-पड्लेरू-- जिनके चरणकमल; सेवया--सेवा करने से; भवान्‌--आपने; अहारषीत्‌--सम्पन्न किया; निर्जित--हराकर; दिक्‌ू-गज:--हाथियों जैसे अत्यन्त शक्तिशाली शत्रु; क्रतून्‌ू-- अनुष्ठान |

    हे राजा युथिष्ठिर, तुम सभी पाण्डवों ने परमेश्वर की सेवा के कारण अनेक राजाओं तथादेवताओं द्वारा उत्पन्न बड़े से बड़े संकटों पर विजय प्राप्त कर ली।

    तुमने कृष्ण के चरणकमलोंकी सेवा करके हाथियों के समान बड़े-बड़े शत्रुओं को जीत लिया है और अपने यज्ञ के लिएसामग्री एकत्र की है।

    भगवत्कृपा से तुम भव-बन्धन से छूट जाओगे।

    "

    अहं पुराभवं कश्चिद्गन्धर्व उपबहण: ।

    नाम्नातीते महाकल्पे गन्धर्वाणां सुसम्मतः ॥

    ६९॥

    अहम्‌-ैं; पुरा--पूर्वजन्म में; अभवम्‌-- था; कश्ित्‌ गन्धर्व:--गर्न्धलोक के निवासी के रूप में; उपबर्हण:--उपबर्हण;नाम्ना--नाम से; अतीते--बहुत काल पूर्व; महा-कल्पे--ब्रह्म के जीवन में जो महाकल्प कहलाता है; गन्धर्वाणाम्‌-गन्धर्वोंमें; सु-सम्मतः --अत्यन्त सम्मानित व्यक्ति |

    बहुत समय पूर्व, एक अन्य महाकल्प ( ब्रह्मा का युग ) में मैं उपबहण नामक गन्धर्व के रूपमें था।

    अन्य गन्धर्वों में मेरा अत्यधिक सम्मान था।

    "

    रूपपेशलमाधुर्यसौगन्ध्यप्रियदर्शन: ।

    स्त्रीणां प्रियतमो नित्य मत्त: स्वपुरलम्पट: ॥

    ७०॥

    रूप--सौन्दर्य; पेशल--शरीर की बनावट; माधुर्य--आकर्षण; सौगन्ध्य--फूलों की मालाओं तथा चन्दन लेप से अलंकृत होनेसे अत्यन्त सुगन्धित; प्रिय-दर्शन:--देखने में अत्यन्त सुन्दर; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों का; प्रिय-तम:--सहज भाव से आकृष्ट;नित्यमू-- प्रतिदिन; मत्त:--पागल की तरह गर्वित; स्व-पुर--अपने शहर में; लम्पट: --कामेच्छा के कारण स्त्रियों के प्रतिअत्यधिक आसक्त।

    मेरा मुखमण्डल सुन्दर था और मेरी शारीरिक रचना आकर्षक तथा सुहावनी थी।

    फूल केहारों से तथा चन्दन लेप से अलंकृत होने से मैं अपने नगर की स्त्रियों को अत्यन्त मोहक लगताथा।

    इस तरह मैं मोहग्रस्त था और विषय-वासनाओं से सदैव पूर्ण रहता था।

    "

    एकदा देवसत्रे तु गन्धर्वाप्सरसां गणा: ।

    उपहूता विश्वसृग्भिहरिगाथोपगायने ॥

    ७१॥

    एकदा--एक बार; देव-सत्रे--देवताओं की सभा में; तु--निस्सन्देह; गन्धर्व--गन्धर्व लोक के वासी; अप्सरसाम्‌--तथाअप्सरलोक के वासियों के; गणा:--सभी; उपहूता:--बुलाये गये थे; विश्व-सृग्भि:--प्रजापति नामक बड़े-बड़े देवताओं द्वारा;हरि-गाथ-उपगायने -- भगवान्‌ की महिमा गायन के कीर्तन के समय ।

    एक बार देवताओं की सभा में भगवान्‌ की महिमा के गायन के लिए एक संकीर्तन कियागया जिसमें गन्धर्वों तथा अप्सराओं को भाग लेने के लिए प्रजापतियों ने आमंत्रित किया।

    "

    अहं च गायंस्तद्विद्वान्स्नीभि: परिवृतो गतः ।

    ज्ञात्वा विश्वसृजस्तन्मे हेलनं शेपुरोजसा ।

    याहि त्वं शूद्रतामाशु नष्टश्री: कृतहेलनः ॥

    ७२॥

    अहम्‌--मैं; च--तथा; गायन्‌-- भगवान्‌ की महिमा का गायन न करके अन्य देवताओं का गायन करते हुए; ततू-विद्वानू-- गानेकी कला में निपुण; स्त्रीभि:--स्त्रियों द्वारा; परिवृत:--घिरा हुआ; गत:ः--वहाँ गया; ज्ञात्वा--अच्छी तरह जानते हुए; विश्व-सृज:ः--प्रजापति, जिन्हें ब्रह्माण्ड की व्यवस्था सौंपी गई है; तत्‌--मेंरे गायन की प्रवृत्ति; मे--मेरी; हेलनम्‌--उपेक्षा; शेपु: --शाप दे दिया; ओजसा--बड़े वेग से; याहि--बन जाओ; त्वमू--तुम; शूद्रतामू-शूद्र; आशु--शीघ्र; नष्ट--रहित; श्री: --सौन्दर्य; कृत-हेलनः--शिष्टाचार भंग करने के कारण

    नारद मुनि ने आगे कहा : उत्सव में बुलाये जाने पर मैं भी वहां गया।

    स्त्रियों से घिर कर मैंनेदेवताओं की महिमा का संगीतात्मक गायन प्रारम्भ किया।

    इसके कारण प्रजापितयों ने मुझे इनशब्दों में बलात्‌ शाप दे डाला 'चूँकि तुमने अपराध किया है अतएव तुम तुरन्त सौन्दर्य से विहीनशूद्र बन जाओ।

    "

    तावह्दास्यामहं जज्ञे तत्रापि ब्रह्मवादिनाम्‌ ।

    शुश्रूषयानुषड्जेण प्राप्तोहं ब्रह्मपुत्रताम्‌ू ॥

    ७३॥

    तावत्‌--शाप दिये जाने के समय से; दास्याम्‌--दासी के गर्भ में; अहम्‌ू--मैंने; जज्ञे--जन्म लिया; तत्रापि--यद्यपि ( शूद्रहोकर ); ब्रह्म-बादिनाम्‌--वैदिक ज्ञान में पारंगत लोगों की; शुश्रूषया--सेवा करके; अनुषड़ेण--एक ही समय; प्राप्त:--प्राप्तकिया; अहमू--मैंने; ब्रह्म-पुत्रताम्‌--ब्रह्मा के पुत्र के रूप में जन्म ( इस जन्म में )

    यद्यपि मैंने एक दासी के गर्भ से शूद्र के रूप में जन्म लिया किन्तु मैं वैदिक ज्ञान में पारंगतवैष्णवों की सेवा में लग गया।

    फलस्वरूप इस जीवन में मुझे ब्रह्माजी के पुत्र रूप में जन्म लेनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ।

    "

    धर्मस्ते गृहमेधीयो वर्णित: पापनाशनः ।

    गृहस्थो येन पदवीमझ्जसा न्‍्यासिनामियात्‌ ॥

    ७४॥

    धर्म:--वह धार्मिक विधि; ते--तुम्हें; गृह-मेधीय:--गृहस्थ जीवन में अनुरक्त रहकर; वर्णित:--( जैसा मैंने ) बताया; पाप-नाशन:--पापकर्मों का विनाश; गृहस्थ: --गृहस्थ जीवन बिताने वाला; येन--जिससे; पदवीम्‌--पद; अज्ञसा--सरलता से;न्यासिनाम्‌ू--संन्यासियों का; इयात्‌--प्राप्त कर सकता है।

    भगवान्‌ के पवित्र नाम का संकीर्तन इतना शक्तिशाली है कि इससे गृहस्थ भी उसी चरम'फल को सरलता से प्राप्त कर लेते हैं, जो संन्यासियों को प्राप्त होता है।

    हे महाराज युधिष्टिर, मैंनेतुम्हें धर्म की वह विधि बतला दी है।

    यूयं नूलोके बत भूरिभागालोकं पुनाना मुनयोउभियन्ति ।

    येषां गृहानावसतीति साक्षाद्‌गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिड्रमू ॥

    ७५॥

    यूयम्‌--तुम सभी पाण्डव; नृ-लोके--इस जगत में; बत--निस्सन्देह; भूरि-भागा: --अत्यन्त भाग्यशाली; लोकम्‌-ब्रह्माण्ड केसारे लोक; पुनाना:--शुद्ध कर सकते हो; मुनय:--बड़े-बड़े साधु पुरुष; अभियन्ति--( सामान्य पुरुष की भाँति ) देखने आतेहैं; येघामू--जिसके ; गृहान्‌ू--पाण्डवों के घर को; आवसति--रहता है; इति--इस प्रकार; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; गूढम्‌-- अत्यन्तगोपनीय; परम्‌--दिव्य; ब्रह्म--परब्रह्म, कृष्ण; मनुष्य-लिड्रम्‌--मानो सामान्य व्यक्ति हों।

    हे महाराज युथ्रिष्ठिर, तुम सभी पाण्डव इस संसार में इतने भाग्यशाली हो कि ब्रह्माण्ड केसमस्त लोकों को पवित्र करने वाले अनेकानेक सन्तजन तुम्हारे घर में सामान्य दर्शक के रूप मेंआते हैं।

    साथ ही, भगवान्‌ कृष्ण तुम्हारे घर में गोपनीय ढंग से तुम्हारे भाई के समान रह रहे हैं।

    "

    स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्यकैवल्यनिर्वाणसुखानुभूति: ।

    प्रिय: सुहृद्द: खलु मातुलेयआत्माईणीयो विधिकृद्गुरुश्च ॥

    ७६॥

    सः--भगवान्‌; वा--या तो; अयम्‌--कृष्ण; ब्रह्म--परब्रह्म ; महत्‌-विमृग्य--बड़े-बड़े सन्त पुरुष ( कृष्ण भक्त ) द्वारा खोजेजाने वाले; कैवल्य-निर्वाण-सुख--मोक्ष तथा दिव्य आनन्द के; अनुभूतिः--साक्षात्कार के लिए; प्रिय:--प्रिय; सुहत्‌ू--शुभचिन्तक; वः--तुम सारे पाण्डवों; खलु--के रूप में प्रसिद्ध; मातुलेय:--मामा का पुत्र, ममेरा भाई; आत्मा--हृदय तथा आत्मा;अर्हणीय:--अत्यन्त पूजनीय; विधि-कृत्‌--निर्देश देते; गुरु:--तुम्हारा गुरु; च--और।

    यह कितना आश्चर्यजनक है कि वे परब्रह्म कृष्ण जिन्हें बड़े-बड़े मुनि अपनी मुक्ति तथाशाश्वत आनन्द प्राप्ति के लिए ढूँढते रहते हैं तुम्हारे श्रेष्ठ शुभचिन्तक, मित्र, ममेरे भाई, आत्मा,पूज्य निर्देशक तथा गुरु की भाँति कार्य कर रहे हैं।

    "

    न यस्य साक्षाद्धवपद्यजादिभीरूप॑ धिया वस्तुतयोपवर्णितम्‌ ।

    मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितःप्रसीदतामेष स सात्वतां पति: ॥

    ७७॥

    न--नहीं; यस्य--जिसका ( श्रीकृष्ण का ); साक्षात्‌--प्रत्यक्ष; भव--शिवजी; पद्य-ज-आदिभि:--ब्रह्मा आदि के द्वारा;रूपमू--रूप को; धिया--ध्यान से; वस्तुतया--वस्तुत:ः ; उपवर्णितम्‌--बताया जा सकता है; मौनेन--मौन से; भक्त्या-- भक्तिसे; उपशमेन--सारे भौतिक कार्यकलापों को पूरा करके; पूजित:--जिनकी इस तरह पूजा की जाती है; प्रसीदताम्‌--हम परप्रसन्न हों; एषच:--यह; सः--वही भगवान्‌; सात्वताम्‌-- भक्तों का; पति:--पालक, स्वामी तथा मार्गदर्शक |

    यहाँ अब वही भगवान्‌ उपस्थित हैं जिनका असली रूप ब्रह्मा तथा शिव जी जैसे महापुरुषोंकी भी समझ में नहीं आता।

    उनके भक्त अपने निष्ठापूर्ण आत्मसमर्पण द्वारा उनका साक्षात्कारकरते हैं।

    ऐसे भगवान्‌ जो अपने भक्तों के पालनकर्ता हैं और जिनकी पूजा मौन, भक्ति तथाउपश्म द्वारा की जाती है हम पर प्रसन्न हों।

    "

    श्रीशुक उबाचइति देवर्षिणा प्रोक्ते निशम्य भरतर्षभ: ।

    'पूजयामास सुप्रीत: कृष्णं च प्रेमविहल: ॥

    ७८ ॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; देव-ऋषिणा--देवर्षि ( नारद ) द्वारा; प्रोक्तम्‌--वर्णित;निशम्य--सुनकर; भरत-ऋषभ: -- भरत महाराज के श्रेष्ठ वंशज, महाराज युधिष्ठटिर; पूजयाम्‌ आस--पूजा की; सु-प्रीत:--अत्यधिक प्रसन्न होकर; कृष्णम्‌--कृष्ण की; च-- भी; प्रेम-विह्लः--कृष्ण के प्रेम में विभोर।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : श्रेष्ठ भरतवंशी युधिष्ठिर ने नारद मुनि के वर्णन से सब कुछजान लिया।

    इन उपदेशों को सुनने के बाद उन्हें अपने हृदय में अत्यन्त आनन्द का अनुभव हुआऔर उन्होंने अत्यन्त प्रेमविह्लल होकर भगवान्‌ कृष्ण की पूजा की।

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    कृष्णपार्थावुपामन्त्रय पूजित: प्रययौ मुनि: ।

    श्र॒त्वा कृष्णं परं ब्रह्म पार्थ: परमविस्मित: ॥

    ७९॥

    कृष्ण--कृष्ण; पार्थी --तथा महाराज युथिष्टिर; उपामत्य--विदा होकर; पूजित:--उनके द्वारा पूजित होकर; प्रययौ--चले गये;मुनि:--नारद मुनि; श्रुत्वा--सुनकर; कृष्णम्‌--कृष्ण के विषय में; परम्‌ ब्रह्म-- भगवान्‌ के रूप में; पार्थ:--महाराज युधिष्ठिर;'परम-विस्मित:--अत्यधिक चकित ।

    कृष्ण तथा महाराज युधिष्टिर द्वारा पूजे जाकर नारद मुनि उनसे विदा लेकर चले गये।

    युधिष्ठिर महाराज अपने ममेरे भाई कृष्ण को भगवान्‌ के रूप में सुनकर अत्यधिक चकित हुए।

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    इति दाक्षायणीनां ते पृथग्वंशा: प्रकीर्तिता: ।

    देवासुरमनुष्याद्या लोका यत्र चराचरा: ॥

    ८०॥

    इति--इस प्रकार; दाक्षायणीनामू--महाराज दक्ष की कन्याओं के, जैसे अदिति तथा दिति; ते--तुम्हारा; पृथक्‌-- अलग;वंशा:--वंश; प्रकीर्तिता:--( मेरे द्वारा ) वर्णित किये गये; देब--देवता; असुर--असुरगण; मनुष्य--मनुष्य; आद्या: --इत्यादि;लोकाः--इस ब्रह्माण्ड के सारे लोक; यत्र--जिसमें ; चर-अचरा: -- जड़ तथा चेतन प्राणी |

    इस ब्रह्माण्ड के भीतर समस्त लोकों में सारे जड़ तथा चेतन प्राणी जिनमें देवता, असुर तथामनुष्य सम्मिलित हैं महाराज दक्ष की पुत्रियों से उत्पन्न हुए।

    इस तरह मैंने उन सबों का तथा उनकेविभिन्न वंशों का वर्णन कर दिया है।

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