श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 6

  • अध्याय एक: अजामिल के जीवन का इतिहास

  • अध्याय दो: विष्णुदत्त द्वारा अजामिल का उद्धार

  • अध्याय तीन: यमराज अपने दूतों को निर्देश देते हैं

  • अध्याय चार: प्रजापति दक्ष द्वारा भगवान को अर्पित की गई हंस-गुह्य प्रार्थनाएँ

  • अध्याय पाँच: नारद मुनि को प्रजापति दक्ष द्वारा श्राप

  • अध्याय छह: दक्ष की बेटियों की संतान

  • अध्याय सात: इंद्र ने अपने आध्यात्मिक गुरु बृहस्पति का अपमान किया।

  • अध्याय आठ: नारायण-कवच ढाल

  • अध्याय नौ: राक्षस वृत्रासुर की उपस्थिति

  • अध्याय दस: देवताओं और वृत्रासुर के बीच युद्ध

  • अध्याय ग्यारह: वृत्रासुर के दिव्य गुण

  • अध्याय बारह: वृत्रासुर की गौरवशाली मृत्यु

  • अध्याय तेरह: पापपूर्ण प्रतिक्रिया से राजा इंद्र पीड़ित

  • अध्याय चौदह: राजा चित्रकेतु का विलाप

  • अध्याय पंद्रह: संत नारद और अंगिरा राजा चित्रकेतु को निर्देश देते हैं

  • अध्याय सोलह: राजा चित्रकेतु का परम भगवान से मिलन

  • अध्याय सत्रह: माता पार्वती चित्रकेतु को श्राप देती हैं

  • अध्याय अठारह: दिति ने राजा इंद्र को मारने की प्रतिज्ञा की

  • अध्याय उन्नीस: पुंसवन अनुष्ठान समारोह करना

    अध्याय एक: अजामिल के जीवन का इतिहास

    6.1श्रीपरीक्षिदुवाचनिवृत्तिमार्ग: कथित आदौ भगवता यथा ।क्रमयोगोपलब्धेन ब्रह्मणा यदसंसृति: ॥ १॥

    श्री-परीक्षित्‌ उबाच--महाराज परीक्षित ने कहा; निवृत्ति-मार्ग:--मुक्ति का मार्ग; कथित:--वर्णन किया गया; आदौ--प्रारम्भ में; भगवता--आपके द्वारा; यथा-- भलीभभाँति; क्रम--क्रमश:; योग-उपलब्धेन--योग विधि द्वारा प्राप्त;ब्रह्मणा--ब्रह्मा के साथ ( ब्रहालोक पहुँचने के बाद ); यत्‌--जिस विधि से; असंसृति:--जन्म तथा मृत्यु के चक्र काअन्त)

    महाराज परीक्षित ने कहा : हे प्रभु! हे शुकदेव गोस्वामी, आप पहले ही ( द्वितीय स्कन्धमें) मुक्ति-मार्ग ( निवृत्ति मार्ग ) का वर्णन कर चुके हैं।

    उस मार्ग का अनुसरण करने सेमनुष्य निश्चित रूप से क्रमशः सर्वोच्च लोक अर्थात्‌ ब्रहलोक तक ऊपर उठ जाता है, जहाँसे वह ब्रह्म के साथ-साथ आध्यात्मिक जगत ( वैकुण्ठ ) जाता है। इस तरह भौतिक जगतमें जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।

    प्रवृत्तिलक्षणश्वैव त्रैगुण्यविषयो मुने ।योसावलीनप्रकृतेर्गुणसर्ग: पुनः पुनः ॥

    २॥

    प्रवृत्ति--झुकाव से; लक्षण:--लक्षित; च-- भी; एव--निस्सन्देह; त्रै-गुण्य--प्रकृति के तीनों गुण; विषय:--विषयों केरूप में; मुने--हे मुनि; यः--जो; असौ--वह; अलीन-प्रकृते: --जो माया के पाश से मुक्त नहीं हो पाता उसका; गुण-सर्ग:--जिसमें भौतिक शरीरों की सृष्टि होती है; पुनः पुन:--बारम्बार।

    हे मुनि शुकदेव गोस्वामी! जब तक जीव प्रकृति के भौतिक गुणों के संक्रमण से मुक्तनहीं हो लेता, वह विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त करता है जिनमें वह आनन्द या कष्ट पाता हैऔर शरीर के अनुसार उसमें विविध अभिरुचियाँ होती हैं।

    इन अभिरुचियों का अनुसरणकरने से वह प्रवृत्ति मार्ग से होकर गुजरता है, जिससे वह स्वर्गलोक तक ऊपर जा सकता है,जैसा कि आप पहले ( तृतीय स्कन्ध में ) वर्णन कर चुके हैं।

    अधर्मलक्षणा नाना नरकाश्चानुवर्णिता: ।

    मन्वन्तरश्व व्याख्यात आद्यः स्वायम्भुवो यतः ॥

    ३॥

    अधर्म-लक्षणा: --अपवित्र कार्यो के लक्षणों से युक्त; नाना--विविध; नरका: --नरक; च--भी; अनुवर्णिता: --वर्णितकिये गये; मनु-अन्तर: --मनुओं का परिवर्तन ( ब्रह्म के एक दिन में १४ मनु होते हैं )।

    च-- भी; व्याख्यात:--वर्णन कियेगये; आद्य:--आदि; स्वायम्भुव:ः--ब्रह्माजी के पुत्र; यत:ः--जिसमें |

    आपने नारकीय जीवन की उन विविध योनियों का भी वर्णन ( पंचम स्कन्ध के अन्तमें ) किया हैजो पाप कार्यों से फलित हैं और आपने प्रथम मन्वन्तर का वर्णन ( चतुर्थस्कन्ध में ) किया है, जिसकी अध्यक्षता ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु ने की थी।

    प्रियव्रतोत्तानपदोर्वशस्तच्चरितानि च ।

    द्वीपवर्षसमुद्राद्विनद्युद्यानवनस्पतीन्‌ ॥

    ४॥

    धरामण्डलसंस्थानं भागलक्षणमानत: ।

    ज्योतिषां विवराणां च यथेदमसूजद्विभु: ॥

    ५॥

    प्रियत्रत--प्रियत्रत का; उत्तानपदो:--तथा उत्तानपाद का; वंश:--कुल; तत्‌-चरितानि--उनके गुण; च-- भी; द्वीप--विभिन्न लोक; वर्ष--भूभाग; समुद्र--सागर; अद्वि--पर्वत; नदी--नदियाँ; उद्यान--बाग-बगीचे; वनस्पतीन्‌ू--तथा वृक्ष;धरा-मण्डल--पृथ्वी; संस्थानम्‌--स्थिति को; भाग--विभागों के अनुसार; लक्षण--विभिन्न लक्षण; मानतः --तथा मापें;ज्योतिषाम्‌--सूर्य तथा अन्य प्रकाशपिंडों का; विवराणाम्‌--निम्नलोकों का; च--तथा; यथा--जिस तरह; इृदम्‌--यह;असृजत्‌--उत्पन्न किया; विभुः--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने।

    हे प्रभु! आपने राजा प्रियत्रत तथा राजा उत्तानपाद के कुलों तथा गुणों का वर्णन कियाहै।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने इस भौतिक जगत की रचना विविध ब्रह्माण्डों, लोकों, ग्रहोंतथा नक्षत्रों, विविध भूभागों, समुद्रों, नदियों, उद्यानों तथा वृक्षों से की जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं।

    ये इस धरालोक, आकाश के प्रकाशपिंडों तथा अधोलोकों में विभाजित हैं।

    आपनेइन लोकों का तथा इनमें रहने वाले जीवों का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है।

    अधुनेह महाभाग यथैव नरकान्नरः ।

    नानोग्रयातनान्नेयात्तन्मे व्याख्यातुमहसि ॥

    ६॥

    अधुना--सम्प्रति; हह--इस भौतिक जगत में; महा-भाग--हे महान्‌ ऐ श्वर्यवान्‌ तथा भाग्यशाली शुकदेव गोस्वामी;यथा--जिससे; एव--निस्सन्देह; नरकान्‌--नारकीय स्थितियाँ जिनमें अधर्मियों को रखा जाता है; नर: --मनुष्य; नाना--अनेक प्रकार के; उग्र-- भयावह; यातनान्‌ू--यातनाओं या कष्टों को; न ईयात्‌--नहीं भोगें; तत्‌--वह; मे--मुझसे;व्याख्यातुम्‌ अहसि--कृपा करके वर्णन करें |

    है परम भाग्यशाली तथा ऐश्वर्यवान्‌ शुकदेव गोस्वामी! अब आप कृपा करके मुझेबतलायें कि मनुष्यों को किस तरह उन नारकीय स्थितियों में प्रवेश करने से बचाया जासकता है जिनमें उन्हें भीषण यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

    श्रीशुक उबाचन चेदिहैवापचितिं यथांहस:ःकृतस्य कुर्यान्मनउक्तपाणिभि: ।

    ध्रुवं स वै प्रेत्य नरकानुपैतिये कीर्तिता मे भवतस्तिग्मयातना: ॥

    ७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा; न--नहीं; चेत्‌--यदि; इह--इस जीवन में; एब--निश्चय ही;अपचितिम्‌-प्रतिकार, प्रायश्चित्त; यथा-- भलीभाँति; अंहसः कृतस्य--जब मनुष्य पापकर्म कर चुका होता है; कुर्यात्‌--करता है; मन:--मन से; उक्त--शब्दों से; पाणिभि:--तथा इन्द्रियों से; ध्रुवम्‌--निश्चित रूप से; सः--वह व्यक्ति; बै--निस्सन्देह; प्रेत्य--मृत्यु के बाद; नरकान्‌--नाना प्रकार की नारकीय स्थितियाँ; उपैति--प्राप्त करता है; ये--जो;कीर्तिता:--पहले ही वर्णित की जा चुकी हैं; मे--मेरे द्वारा; भवतः--तुमसे; तिग्म-यातना:--जिनमें अति भीषण कष्ट है |

    शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया-हे राजन्‌! यदि मनुष्य अपनी अगली मृत्यु के पूर्व इसजन्म में अपने मन, वचन तथा शरीर से किये गये पाप कर्मों का मनुसंहिता तथा अन्यधर्मशास्त्रों के विवरण के अनुसार समुचित प्रायश्चित्त द्वारा निगाकरण नहीं कर लेता है, तोवह मृत्यु के बाद अवश्य ही नरकलोकों में प्रविष्ट होगा और भीषण कष्ट उठायेगा, जैसा किमैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ।

    तस्मात्पुरैवाश्विह पापनिष्कृतौयतेत मृत्योरविपद्यतात्मना ।

    दोषस्य हृष्ठा गुरुलाघवं यथाभिषक्लिकित्सेत रुजां निदानवित्‌ ॥

    ८॥

    तस्मातू--इसलिए; पुरा--पहले; एव--निस्सन्देह; आशु--तुरन्‍्त; इह--इस जीवन में; पाप-निष्कृता--पापकर्मो के फलसे मुक्त बनने के लिए; यतेत--प्रयत्न करे; मृत्यो:--मृत्यु; अविपद्यत--रोग तथा वृद्धावस्था से सताया हुआ नहीं;आत्मना--शरीर से; दोषस्थ--पापकर्मो का; हृष्ठा--अनुमान करके; गुरु-लाघवम्‌-- भारीपन या हल्‍्कापन; यथा--जिसतरह; भिषक्‌--वैद्य; चिकित्सेत--उपचार करेगा; रुजामू--रोग का निदान-वित्‌--निदान में निपुण

    अतः अगली मृत्यु आने के पूर्व, जब तक मनुष्य का शरीर पर्याप्त सशक्त है, उसे शास्त्रोंके अनुसार प्रायश्चित्त की विधि तुरन्त अपनानी चाहिए; अन्यथा समय की क्षति होगी औरउसके पापों का फल बढ़ता जायेगा।

    जिस तरह एक कुशल वैद्य रोग का निदान और उपचार उसकी गम्भीरता के अनुसार करता है, उसी तरह मनुष्य को अपने पापों की गहनता केअनुसार प्रायश्चित्त करना चाहिए।

    श्रीराजोबाचइृष्टश्रुताभ्यां यत्पापं जानन्नप्यात्मनोहितम्‌ ।

    करोति भूयो विवश: प्रायश्चित्तमथो कथम्‌ ॥

    ९॥

    श्री-राजा उबाच--परीक्षित महाराज ने उत्तर दिया; दृष्ट--देखने से; श्रुताभ्याम्‌-शास्त्रों या विधि ग्रन्थों से सुनने से भी;यत्‌--चूँकि; पापम्‌--पापपूर्ण, अपराध पूर्ण कार्य; जानन्‌--जानते हुए; अपि--यद्यपि; आत्मन:--स्वयं का; अहितम्‌--हानिकर; करोति--करता है; भूय:--पुनः पुनः; विवश:--अपने को नियंत्रित करने में अक्षम; प्रायश्चित्तम्‌-प्रायश्ित्त;अथो--इसलिए; कथम्‌--क्या लाभ।

    महाराज परीक्षित ने कहा कि मनुष्य को जानना चाहिए कि पापकर्म उसके लिएहानिकर है, क्योंकि वह वस्तुतः यह देखता है कि अपराधी सरकार द्वारा दण्डित कियाजाता है और सामान्य लोगों के द्वारा दुत्कारा जाता है।

    और वह शास्त्रों तथा विद्वान पंडितों सेसुनता भी रहता है कि पापकर्म करने से मनुष्य अगले जीवन में नारकीय अवस्था में फेंकदिया जाता है।

    फिर भी ऐसा ज्ञान होते हुए मनुष्य को प्रायश्चित्त करने के बावजूद बारम्बारपाप करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

    अतः ऐसे प्रायश्चित्त का क्या महत्त्व ?

    क्वचित्रिवर्ततेभद्गात्क्वचिच्चरति तत्पुन: ।

    प्रायश्चित्तमथोपार्थ मनन्‍्ये कुझ्ओरशौचवत्‌ ॥

    १०॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; निवर्तते--बन्द कर देता है; अभद्रात्‌--पापकर्मों से; क्वचित्‌--क भी; चरति--करता है; तत्‌--वह ( पापकर्म ); पुन: --फिर; प्रायश्चित्तम्‌-प्रायश्चित्त की विधि; अथो--इसलिए; अपार्थम्‌-्यर्थ; मन्ये--मानता हूँ;कुझर-शौचवत्‌--हाथी के स्नान की ही तरह।

    कभी-कभी ऐसा व्यक्ति, जो पापकर्म न करने के प्रति अत्यधिक सतर्क रहता है पुनःपापमय जीवन के फेर में आ जाता है।

    इसलिए मैं बारम्बार पाप करने तथा प्रायश्चित्त करनेकी इस विधि को निरर्थक मानता हूँ।

    यह तो हाथी के स्नान करने जैसा है, क्योंकि हाथीपूर्ण स्नान करके अपने को स्वच्छ बनाता है, किन्तु स्थल पर वापस आते ही अपने सिर तथाशरीर पर धूल डाल लेता है।

    श्रीबादरायणिरुवाचकर्मणा कर्मनिर्हारो न ह्यात्यन्तिक इष्यते ।

    अविद्वदधिकारित्वाप्परायश्ित्तं विमर्शनम्‌ ॥

    ११॥

    श्री-बादरायणि: उबाच--व्यासपुत्र शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया; कर्मणा--कर्म से; कर्म-निर्हार:ः --सकाम कर्मों कानिराकरण; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; आत्यन्तिक:--अन्तिम; इष्यते--सम्भव होता है; अविद्वत्‌-अधिकारित्वातू--ज्ञानहुए बिना; प्रायश्चित्तमू--असली प्रायश्चित्त; विमर्शनम्‌--वेदान्त का पूर्ण ज्ञान।

    वेदव्यास-पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया : हे राजन्‌! चूँकि अपवित्र कर्मों कोनिष्प्रभावित करने के उद्देश्य से किये गये कर्म भी सकाम होते हैं, अतएव वे मनुष्य कोसकाम कर्म करने की प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं दिला सकते।

    जो व्यक्ति अपने को प्रायश्ित्त के विधि-विधानों के अधीन बना लेते हैं, वे तनिक भी बुद्धिमान नहीं हैं।

    अपितु, वे सभीतमोगुण में होते हैं।

    जब तक मनुष्य तमोगुण से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक एक कर्म कादूसरे से निराकरण करने का प्रयास करना निरर्थक है, क्योंकि इससे मनुष्य की इच्छाओं काउन्मूलन नहीं होगा।

    इस तरह ऊपर से पवित्र लगने वाला व्यक्ति निस्सन्देह पाप पूर्ण कर्मकरने के लिए उन्मुख होगा।

    अतएवं असली प्रायश्चित्त तो पूर्ण ज्ञान अर्थात्‌ वेदान्त में प्रबुद्धहोना है, जिससे मनुष्य परम सत्य भगवान्‌ को समझता है।

    नाएनतः पथ्यमेवान्नं व्याधयोडभिभवन्ति हि ।

    एवं नियमकृद्राजन्शनै: क्षेमाय कल्पते ॥

    १२॥

    न--नहीं; अश्नत:ः--खाने वाला; पथ्यम्‌--उपयुक्त; एबव--निस्सन्देह; अन्नमू--भोजन; व्याधय:--विभिन्न प्रकार के रोग;अभिभवन्ति--घेर लेते हैं; हि--निस्सन्देह; एवम्‌--इसी प्रकार; नियम-कृत्‌--नियमों का पालन करने वाला; राजन्‌--हेराजा; शनैः: --धीरे-धीरे; क्षेमाय--कल्याण के हेतु; कल्पते--स्वस्थ हो जाता है।

    हे राजन्‌! यदि रुग्ण व्यक्ति वैद्य द्वारा बताया गया शुद्ध अदूषित अन्न खाता है, तो वहधीरे-धीरे अच्छा हो जाता है और तब रोग का संक्रमण उसे छू तक नहीं पाता।

    इसी तरहयदि कोई ज्ञान के विधि-विधानों का पालन करता है, तो वह धीरे-धीरे भौतिक कल्मष सेमोक्ष की ओर प्रगति करता है।

    तपसा ब्रह्मचर्यण शमेन च दमेन च ।

    त्यागेन सत्यशौचाभ्यां यमेन नियमेन वा ॥

    १३॥

    देहवाग्बुद्धिजं धीरा धर्मज्ञा: श्रद्धयान्विता: ।

    क्षिपन्त्यघं महदपि वेणुगुल्ममिवानल: ॥

    १४॥

    तपसा--तपस्या या भौतिक भोग का स्वेच्छा से तिरस्कार द्वारा; ब्रह्मचर्येण--ब्रह्मचर्य द्वारा; शमेन--मन को वश में करनेसे; च--तथा; दमेन--इन्द्रियों को पूरी तरह वश में करने से; च-- भी; त्यागेन--स्वेच्छा से उत्तम कार्यो के लिए दान देनेसे; सत्य--सत्यता से; शौचाभ्यामू--तथा अपने आपको भीतर-बाहर से स्वच्छ रखने के विधानों का पालन करने से;यमेन--शाप देने तथा अहिंसा से बचने से; नियमेन-- भगवान्‌ के नाम का नियमित कीर्तन करने से; वा--तथा; देह-वाक्‌-बुद्धि-जम्‌ू--शरीर, वाणी तथा बुद्धि के द्वारा सम्पन्न; धीरा:--धीर लोग; धर्म-ज्ञाः--धार्मिक सिद्धान्तों के ज्ञान सेपूरित; श्रद्धया अन्विता:-- श्रद्धा से युक्त; क्षिपन्ति--नष्ट करते हैं; अधम्‌--सभी प्रकार के पापकर्मों को; महत्‌ अपि--यद्यपि अति महान्‌ तथा निन्दनीय; वेणु-गुल्मम्‌--बाँस के वृक्ष के नीचे की सूखी लतर; इब--सहृश; अनलः--अग्निमन को

    एकाग्र करने के लिए मनुष्य को ब्रह्मचर्य जीवन बिताना चाहिए औरअध:ःपतित नहीं होना चाहिए।

    उसे इन्द्रिय-भोग को स्वेच्छा से त्यागने की तपस्या करनीचाहिए।

    तब उसे मन तथा इन्द्रियों को वश में करना चाहिए, दान देना चाहिए, सत्यक्रती,स्वच्छ तथा अहिंसक होना चाहिए, विधि-विधानों का पालन करना चाहिए और नियमपूर्वकभगवजन्नाम का कीर्तन करना चाहिए।

    इस तरह धार्मिक सिद्धान्तों को जानने वाला धीर तथाश्रद्धावान्‌ व्यक्ति अपने शरीर, वचन तथा मन से किये गये सारे पापों से अस्थायी रूप सेशुद्ध हो जाता है।

    ये पाप बाँस के पेड़ के नीचे की लतरों की सूखी पत्तियों के समान हैं,जिन्हें अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, यद्यपि उनकी जड़ें अवसर पाते ही फिर से उगने केलिए शेष बची रहती हैं।

    केचित्केवलया भक्‍्त्या वासुदेवपरायणा: ।

    अघं धुन्वन्ति कार्त्स्येन नीहारमिव भास्कर: ॥

    १५॥

    केचित्‌--कुछ लोग; केवलया भकत्या--शुद्ध भक्ति के द्वारा; वासुदेव--सर्वव्यापक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण केप्रति; परायणा:--पूर्णतया आसक्त ( तपस्या, ज्ञान के अनुशीलन या पुण्यकर्मों पर आश्नित रहे बिना ऐसी सेवा के प्रति );अघम्‌--सभी प्रकार के पापपूर्ण फल; धुन्वन्ति--विनष्ट करते हैं; कार्त्स्येन--पूर्णतया ( इसकी ) सम्भावना के बिना किपापपूर्ण इच्छाएँ पुनर्जीवित होंगी; नीहारम्‌--कुहरा; इब--सहृश; भास्कर: --सूर्य |

    कोई विरला व्यक्ति ही, जिसने कृष्ण की पूर्ण शुद्ध भक्ति को स्वीकार कर लिया है, उनपापपूर्ण कार्यों के खरपतवार को समूल नष्ट कर सकता है जिनके पुनरुज्जीवित होने कीकोई सम्भावना नहीं रहती।

    वह भक्तियोग सम्पन्न करके इसे कर सकता है, जिस तरह सूर्यअपनी किरणों से कुहरे को तुरन्त उड़ा देता है।

    न तथा ह्यघवान्राजन्पूयेत तपआदिभि: ।

    यथा कृष्णार्पितप्राणस्तत्पुरुषनिषेवया ॥

    १६॥

    न--नहीं; तथा--उसी तरह; हि--निश्चय ही; अध-वान्‌--पापकर्मों से पूर्ण मनुष्य; राजन्‌ू--हे राजा; पूयेत--पतवित्र होसकता है; तपः-आदिभि: --तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा अन्य संस्कारों को सम्पन्न करने से; यथा--जिस तरह; कृष्ण-अर्पित-प्राण:-- भक्त जिसका जीवन कृष्णभावनाभावित हो; तत्‌-पुरुष-निषेवया--कृष्ण के प्रतिनिधि की सेवा में अपना जीवनलगाने से

    हे राजन्‌! यदि पापी व्यक्ति भगवान्‌ के प्रामाणिक भक्त की सेवा में लग जाता है औरइस तरह यह सीख लेता है कि अपना जीवन किस तरह कृष्ण के चरणकमलों में समर्पितकरना चाहिए तो वह पूर्णतया शुद्ध हो सकता है।

    तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा मेरे द्वारा पहलेवर्णित प्रायश्चित्त के अन्य साधनों को सम्पन्न करने मात्र से वह पापी शुद्ध नहीं बन सकता।

    सश्नीचीनो हाय॑ं लोके पन्था: क्षेमोडकुतोभयः ।

    सुशीला: साधवो यत्र नारायणपरायणा: ॥

    १७॥

    सक्नीचीन:--उपयुक्त; हि--निश्चय ही; अयम्‌--यह; लोके--संसार में; पन्था:--मार्ग ; क्षेम:--मंगलमय, शुभ; अकुतः-भय: --निर्भय; सु-शीला:--अच्छे आचरण वाले; साधव:--साथधु पुरुष; यत्र--जहाँ; नारायण-परायणा: -- जिन्होंनेनारायण के मार्ग अर्थात्‌ भक्ति को अपना सर्वस्व मान लिया है

    सुशील तथा सर्वोत्तम गुणों से युक्त शुद्ध भक्तों के द्वारा पालन किया जाने वाला मार्गनिश्चय ही इस भौतिक जगत का सबसे मंगलमय मार्ग है।

    यह भय से रहित है और शास्त्रोंद्वारा प्रमाणित है।

    प्रायश्चित्तानि चीर्णानि नारायणपराड्मुखम्‌ ।

    न निष्पुनन्ति राजेन्द्र सुराकुम्भमिवापगा: ॥

    १८॥

    प्रायश्चित्तानि--प्रायश्चित्त की विधियाँ; चीर्णानि--अच्छे ढंग से सम्पन्न; नारायण-पराड्सुखम्‌--अभक्त; न निष्पुनन्ति--पवित्र नहीं कर सकतीं; राजेन्द्र--हे राजन; सुरा-कुम्भम्‌--शराब से भरा पात्र; इब--सदृश; आप-गा:--नदियों का जल।

    हे राजन्‌! जिस तरह सुरा से सने हुए पात्र को अनेक नदियों के जल से धोने पर भी शुद्धनहीं किया जा सकता, उसी तरह अभक्तों को प्रायश्चित्त की विधियों से शुद्ध नहीं बनाया जासकता, भले ही वे उन्हें बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न क्यों न करें।

    सकृन्मनः कृष्णपदारविन्दयोर्‌निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह ।

    नते यम॑ पाशभृतश्न तद्धटान्‌स्वष्लेषपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृता: ॥

    १९॥

    सकृत्‌--केवल एक बार; मन:--मन; कृष्ण-पद-अरविन्दयो:--कृष्ण के दो चरणकमलों के प्रति; निवेशितम्‌--पूर्णशरणागत; तत्‌--कृष्ण का; गुण-रागि--जो गुण, नाम, यश तथा साज-सामग्री के प्रति कुछ-कुछ अनुरक्त रहता है;यैः--जिनके द्वारा; हह--इस जगत में; न--नहीं; ते--ऐसे पुरुष; यमम्‌--मृत्यु के अधिष्ठाता यमराज को; पाश-भूत:--( पापी पुरुषों को पकड़ने के लिए ) रस्सी ( पाश ) रखने वाले; च--तथा; तत्‌--उसके; भटानू--आदेश वाहकों या दूतोंको; स्वप्ने अपि--स्वपष्न में भी; पश्यन्ति--देखते हैं; हि--निस्सन्देह; चीर्ण-निष्कृता:--सही प्रायश्चित्त करने वाले |

    यद्यपि जिन पुरुषों ने कृष्ण का पूर्ण साक्षात्कार नहीं किया है, तो भी यदि एक बार भीउनके चरणकमलों की पूर्णरूपेण शरण ग्रहण कर ली है और जो उनके नाम, रूप, गुणोंतथा लीलाओं से आकृष्ट हो चुके हैं, वे सारे पापकर्मों से पूर्णतया मुक्त हो जाते हैं, क्योंकिइस तरह उन्होंने प्रायश्चित्त की सही विधि को स्वीकार किया है।

    ऐसे शरणागत व्यक्तियों कोयमराज या उनके दूत, जो कि पापी को बाँधने के लिए रस्सियाँ लिए रहते हैं, स्वप्न में भीदिखाई नहीं पड़ते।

    अन्न चोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌ ।

    दूतानां विष्णुयमयो: संवादस्तं निबोध मे ॥

    २०॥

    अत्र--इस सम्बन्ध में; च-- भी; उदाहरन्ति--उदाहरण देते हैं; इमम्‌ू--यह; इतिहासमू--( अजामिल का ) इतिहास;पुरातनम्‌--अत्यन्त प्राचीन; दूतानाम्‌--दूतों का; विष्णु-- भगवान्‌ विष्णु के; यमयो:--तथा यमराज के; संवाद: --बातचीत; तमू--उसको; निबोध--समझने का प्रयास करो; मे--मुझसे

    इस सम्बन्ध में विद्वान जन तथा सन्त पुरुष एक अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक घटना कावर्णन करते हैं जिसमें भगवान्‌ विष्णु तथा यमराज के दूतों के बीच संवाद हआ था।

    कृपाकरके इसे मुझसे सुनिये।

    कान्यकुब्जे द्विज: कश्चिद्दासीपतिरजामिल: ।

    नाम्ना नष्टसदाचारो दास्या: संसर्गदूषितः ॥

    २१॥

    कान्य-कुब्जे--कान्यकुब्ज नगर में ( कानपुर के निकट का नगर कन्नौज ); द्विज:--ब्राह्मण; कश्चित्‌--कोई; दासी-पति:--निम्न श्रेणी की स्त्री या वेश्या का पति; अजामिल:--अजामिल; नाम्ना--नामक; नष्ट-सत्‌ -आचार: --जो अपनेसारे ब्राह्मण-गुणों को खो चुका था; दास्या:--दासी या वेश्या की; संसर्ग-दूषित:--संगति से दूषित।

    कान्यकुब्ज नामक नगर में अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था, जिसने एक वेश्या दासीसे विवाह करके उस निम्न श्रेणी की स्त्री की संगति के कारण अपने सारे ब्राह्मण-गुण खोदिये।

    बन्द्यक्षे: केतवैश्वौयर्गर्हितां वृत्तिमास्थितः ।

    बिश्चत्कुटुम्बमशुचिर्यातयामास देहिन: ॥

    २२॥

    बन्दी-अक्षे:--व्यर्थ ही बन्दी बनाकर; कैतवै: --जुआ खेलने या पासा फेंकने में धोखा देकर; चौर्य:--चोरी करके;गर्हिताम्‌ू--निन्दनीय; वृत्तिमू-पेशों में; आस्थित:--जिसने अपना रखा है ( वेश्या की संगति के कारण ); बिभ्रतू--पालनकरते हुए; कुटुम्बम्‌--आश्रित पतली तथा बच्चों को; अशुचि:--अत्यन्त पापी होने से; यातयाम्‌ आस--कष्ट पहुँचाता था;देहिन:--अन्य जीवों को

    यह पतित ब्राह्मण अजामिल अन्यों को बन्दी बनाकर उन्हें जुए में धोखा देकर या सीधेउन्हें लूट कर कष्ट पहुँचाता था।

    इस तरह से वह अपनी जीविका चलाता था और अपनीपत्नी तथा बच्चों का भरण-पोषण करता था।

    एवं निवसतस्तस्य लालयानस्य तत्सुतान्‌ ।

    कालोउत्यगान्महान्राजन्नष्टाशीत्यायुष: समा: ॥

    २३॥

    एवम्‌--इस तरह से; निवसतः --रहते हुए; तस्थ--उस ( अजामिल ) के; लालयानस्य--पालन-पोषण का; तत्‌--उस( शूद्राणी ) के; सुतान्‌--पुत्रों को; काल:--समय; अत्यगात्‌--बीत गया; महान्‌--पर्याप्त; राजन्‌ू--हे राजा;अष्टाशीत्या--अट्टासी; आयुष: --आयु के; समा: --वर्ष |

    हे राजन्‌! इस तरह अनेक पुत्रों वाले अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए घृणास्पदपापपूर्ण कार्यो में अपना जीवन बिताते हुए उसके जीवन के अट्टासी वर्ष बीत गये।

    तस्य प्रवयस: पुत्रा दश तेषां तु योडवमः ।

    बालो नारायणो नाम्ना पित्रोश्व दयितो भूशम्‌ ॥

    २४॥

    तस्य--उस ( अजामिल ) का; प्रववसः--अत्यन्त वृद्ध; पुत्रा:--पुत्र; दश--दस; तेषाम्‌--उनमें से; तु--लेकिन; यः--एक जो; अवम:--सबसे छोटा; बाल:--बालक; नारायण:--नारायण; नाम्ना--नाम वाला; पित्रो:--माता-पिता का;च--तथा; दयित:--प्रिय; भूशम्‌-- अत्यधिक |

    उस वृद्ध अजामिल के दस पुत्र थे, जिनमें से सबसे छोटे का नाम नारायण था।

    चूँकिनारायण सबसे छोटा पुत्र था, अतः स्वाभाविक है कि वह अपने पिता तथा माता दोनों काही अत्यन्त लाड़ला था।

    स बद्धहदयस्तस्मिन्नभभके कलभाषिणि ।

    निरीक्षमाणस्तल्लीलां मुमुदे जरठो भूशम्‌ ॥

    २५॥

    सः--वह; बद्ध-हृदय:--अत्यधिक लिप्त; तस्मिनू--उस; अर्भके--छोटे बच्चे के प्रति; कल-भाषिणि--तोतली भाषा मेंबोलने वाला; निरीक्षमाण:--देखते हुए; तत्‌--उसकी; लीलाम्‌--क्रीड़ाएँ ( यथा चलना तथा पिता से बातें करना );मुमुदे--आनन्द लेता; जरठ:--वृद्ध व्यक्ति; भूशम्‌-- अत्यधिक

    बालक की तोतली भाषा तथा लड़खड़ाती चाल से वृद्ध अजामिल उसके प्रतिअत्यधिक अनुरक्त था।

    वह उस बालक की देखरेख करता तथा उसकी क्रीड़ाओं का आनन्दलेता।

    भुज्जान: प्रपिबन्खादन्बालकं स्नेहयन्त्रित: ।

    भोजयन्पाययन्मूढो न वेदागतमन्तकम्‌ ॥

    २६॥

    भुझ्जान:--खाते समय; प्रपिबन्‌--पीते हुए; खादन्‌--चबाते हुए; बालकम्‌--बालक को; स्नेह-यन्त्रित:--स्नेह द्वारा बँधाहुआ; भोजयन्‌--खिलाते हुए; पाययन्‌--पीने के लिए कुछ देते हुए; मूढ:--मूर्ख व्यक्ति; न--नहीं; वेद--जान पाया;आगतम्‌--आ गयी है; अन्तकम्‌--मृत्यु

    जब अजामिल भोजन करता तो वह बालक को खाने के लिए पुकारता और जब वहकुछ पीता तो उसे भी पीने के लिए बुलाता।

    उस बालक की देखरेख करने तथा उसका नामपुकारने में सदा लगा रहकर अजामिल यह न समझ पाया कि उसका समय अब समाप्त होचुका है और मृत्यु उसके सिर पर है।

    स एवं वर्तमानोज्ञो मृत्युकाल उपस्थिते ।

    मतिं चकार तनये बाले नारायणाहयये ॥

    २७॥

    सः--वह अजामिल; एवम्‌--इस प्रकार; वर्तमान: --जीवित; अज्ञ:--मूर्ख ; मृत्यु-काले--जब मृत्यु का समय;उपस्थिते--आ गया; मतिम्‌ चकार--अपना मन एकाग्र किया; तनये--अपने पुत्र पर; बाले--बालक; नारायण-आह्ये--जिसका नाम नारायण था।

    जब मूर्ख अजामिल की मृत्यु का समय आ गया तो वह एकमात्र अपने पुत्र नारायण केविषय में सोचने लगा।

    स पाशहस्तांस्त्रीन्दट्ठा पुरुषानतिदारुणान्‌ ।

    वक्रतुण्डानूर्ध्वरोम्ण आत्मानं नेतुमागतान्‌ ॥

    २८ ॥

    दूरे क्रीडनकासक्त पुत्रं नारायणाहयम्‌ ।

    प्लावितेन स्वरेणोच्चैराजुहावाकुलेन्द्रियः ॥

    २९॥

    सः--वह व्यक्ति ( अजामिल ); पाश-हस्तान्‌ू--उनके हाथों में रस्सियाँ लिए; त्रीन्‌ू--तीन; दृष्टा-- देखकर; पुरुषान्‌--पुरुषों को; अति-दारुणान्‌--अत्यन्त भयावह सूरत वाले; वक़्-तुण्डान्‌ू--टेढ़े मुखों वाले; ऊर्ध्व-रोग्ण:--खड़े रोमों वाले;आत्मानम्‌--स्वयं को; नेतुमू--ले जाने के लिए; आगतान्‌--आये हुए; दूरे-- थोड़ी दूरी पर; क्रीडनक-आसक्तम्‌--खेलमें लगे; पुत्रम्‌ू--पुत्र को; नारायण-आह्॒यम्‌--नारायण नाम के; प्लावितेन--अश्रुपूर्ण नेत्रों से; स्वरेण--वाणी से;उच्चै:--अत्यन्त ऊँची; आजुहाव--पुकारा; आकुल-इन्द्रियः--चिन्ता से पूरित होकर

    तब अजामिल ने तीन भयावह व्यक्तियों को देखा जिनके शरीर वक्र, भयानक औरमुख टेढ़े थे तथा शरीर पर रोम खड़े हुए थे।

    वे अपने हाथों में रस्सियाँ लिए हुए उसे यमराजके धाम ले जाने के लिए आये थे।

    जब उसने उन्हें देखा तो वह अत्यधिक विमोहित था औरकुछ दूर पर खेल रहे अपने बच्चे के प्रति आसक्ति के कारण अजामिल उसका नाम लेकरजोर- जोर से पुकारने लगा।

    इस तरह अपनी आँखों में आँसू भरे हुए किसी तरह से उसनेनारायण के पवित्र नाम का उच्चारण किया।

    निशम्य प्रियमाणस्य मुखतो हरिकीर्तनम्‌ ।

    भर्तुर्नाम महाराज पार्षदा: सहसापतन्‌ ॥

    ३०॥

    निशम्य--सुनकर; प्रियमाणस्थ--मरणासत्न व्यक्ति के; मुखत:--मुख से; हरि-कीर्तनम्‌--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ केपवित्र नाम का कीर्तन; भर्तु: नाम--अपने स्वामी का पवित्र नाम; महा-राज--हे राजा; पार्षदा: --विष्णु के दूत; सहसा--तुरन्त; आपतन्‌--आ गये।

    हे राजन्‌! जब विष्णुदूतों ने मरणासन्न अजामिल के मुख से अपने स्वामी के पवित्र नामको सुना, जिसने निश्चित ही पूर्ण उद्विग्नता में निरपराध भाव से उच्चारण किया था, तो वेतुरन्त वहाँ आ गये।

    विकर्षतोन्तईदयाद्यासीपतिमजामिलम्‌ ।

    यमप्रेष्यान्विष्णुदूता वारयामासुरोजसा ॥

    ३१॥

    विकर्षतः--छीनते हुए; अन्तः हृदयात्‌ू--हदय के भीतर से; दासी-पतिम्‌--वेश्या के पति; अजामिलम्‌-- अजामिल को;यम-प्रेष्यान्‌--यमराज के दूतों को; विष्णु-दूताः --विष्णु के दूतों ने; वारयाम्‌ आसु:--मना किया; ओजसा--गूंजतीवाणी में

    यमराज के दूत वेश्यापति अजामिल के हृदय के भीतर से आत्मा को खींच रहे थे,किन्तु भगवान्‌ विष्णु के दूतों ने गूंजती वाणी में उन्हें ऐसा करने से मना किया।

    जिसमें उसे अगले शरीर में रहना है।

    ऊचुर्निषेधितास्तांस्ते वैवस्वतपुर:सरा: ।

    के यूय॑ प्रतिषेद्धारो धर्मराजस्य शासनम्‌ ॥

    ३२॥

    ऊचु:--उत्तर दिया; निषेधिता:--मना किये जाने पर; तान्‌--विष्णुदूतों को; ते--वे; वैवस्वत--यमराज के; पुर: -सरा:--सहायक या दूत; के--कौन; यूयम्‌ू--तुम सब; प्रतिषेद्‌-धार:--कौन विरोध कर रहे हो; धर्म-राजस्य--धर्म के राजा,यमराज का; शासनमू्‌--राज्य अधिकार क्षेत्र

    जब सूर्य के पुत्र यमराज के दूतों को इस प्रकार मना किया गया तो उन्होंने कहा,'महाशय! आप कौन हैं जिन्होंने यमराज के अधिकार-क्षेत्र को ललकारने की धृष्टता कीहै?

    कस्य वा कुत आयाता: कस्मादस्य निषेधथ ।

    किं देवा उपदेवा या यूय॑ कि सिद्धसत्तमा: ॥

    ३३॥

    कस्य--किसके सेवक; वा--अथवा; कुतः--कहाँ से; आयाता:--तुम आये हो; कस्मात्‌--किस कारण से; अस्य--इसअजामिल का ( ले जाना ); निषेधथ--हम मना कर रहे हैं; किम्‌--क्या; देवा: --देवता; उपदेवा:--तथा उपदेवता; या:--जो; यूयम्‌--तुम सभी; किम्‌--क्या; सिद्ध-सत्‌-तमाः--सिद्धों या शुद्ध भक्तों में सर्व श्रेष्ठ |

    महाशयो! तुम किसके सेवक हो, कहाँ से आये हो और अजामिल का शरीर छूने से हमेंक्यों मना कर रहे हो ?

    क्या तुम लोग स्वर्गलोक के देवता हो, उपदेवता हो या कि सर्वश्रेष्ठभक्तों में से कोई हो ?

    सर्वे पद्यपलाशाक्षा: पीतकौशेयवासस: ।

    किरीटिन: कुण्डलिनो लसत्पुष्करमालिन: ॥

    ३४॥

    सर्वे च नूलवयस: सर्वे चारुचतुर्भुजा: ।

    धनुर्निषड्ञासिगदाशड्डुचक्राम्बुजश्रिय: ॥

    ३५॥

    दिशो वितिमिरालोका: कुर्वन्तः स्वेन तेजसा ।

    किमर्थ धर्मपालस्य किड्डूरान्नो निषिधथ ॥

    ३६॥

    सर्वे--आप सभी; पद्य-पलाश-अक्षा:--कमल के फूल की पंखड़ियों जैसी आँखों वाले; पीत--पीला; कौशेय--रेशमी;वाससः:--वस्त्र पहने हुए; किरीटिन:--मुकुट पहने; कुण्डलिन:--कान में कुंडल पहने; लसत्‌--चमचमाते; पुष्कर-मालिन:--कमल की माला पहने; सर्वे--आप सभी; च--भी; नूल-वयस:--अत्यन्त तरुण; सर्वे--आप सभी; चारु--अत्यन्त सुन्दर; चतु:-भुजा:--चार भुजाओं वाले; धनु:--धनुष; निषड़--तरकस; असि--तलवार; गदा-गदा; शद्बु--शंख; चक्र--चक्र; अम्बुज--कमल का फूल; श्रिय:--से सुशोभित; दिश:--सारी दिशाएँ; वितिमिर--अंधकाररहित;आलोका:--असामान्य प्रकाश; कुर्वन्त:--प्रकट करते हुए; स्वेन--अपने; तेजसा--तेज से; किम्‌ अर्थम्‌--क्या प्रयोजनहै; धर्म-पालस्य--धर्म के पालनकर्ता यमराज के; किड्जूरान्‌ू--सेवकों को; न:--हम; निषेधथ--मना कर रहे हो |

    यमदूतों ने कहा: आप सभी की आँखें कमल के फूल की पंखडियों के समान हैं।

    पीला रेशमी वस्त्र पहने, कमल की मालाओं से सुसज्जित तथा अपने सिरों में अत्यन्तआकर्षक मुकुट पहने एवं अपने कानों में कुंडल धारण किये तुम सभी नवयौवन से पूर्णप्रतीत हो रहे हो।

    आप सभी की चार लम्बी भुजाएँ धनुष तथा तरकस, तलवार, गदा, शंख,चक्र तथा कमल के फूलों से अलंकृत हैं।

    आपके तेज ने इस स्थान के अंधकार को अपनेअसामान्य प्रकाश से भगा दिया है।

    तो महोदय आप हमें क्‍यों रोक रहे हैं ?

    श्रीशुक उवाचइत्युक्ते यमदूतैस्ते वासुदेवोक्तकारिण: ।

    ताय्प्रत्यूचु: प्रहस्येदं मेघनि्ठांदया गिरा ॥

    ३७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्ते--कहे जाने पर; यमदूतै: --यमदूतों के द्वारा;ते--वे; वासुदेव-उक्त-कारिण: --भगवान्‌ वासुदेव के आदेशों को पूरा करने के लिए सदैव सन्नद्ध रहने वाले ( भगवान्‌विष्णु के निजी संगी जिन्हें सालोक्य मुक्ति प्राप्त हो चुकी है ); तान्‌ू--उनको; प्रत्यूचु:--उत्तर दिया; प्रहस्य--हँसकर;इदम्‌--यह; मेघ-निर्हादया--गरजने वाले बादल के समान गूँजती; गिरा--वाणी से।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : यमराज के दूतों द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जानेपर वासुदेव के सेवक मुसकाये और उन्होंने गर्जना करते हुए बादलों की ध्वनि जैसी गम्भीरवाणी में निम्नलिखित शब्द कहे।

    निर्णायक के सेवक होने का दावा करने वाले यमदूत धार्मिक कर्म के सिद्धान्तों से परिचित नहींहैं।

    अत: यह सोचकर विष्णुदूत हँसने लगे, 'ये लोग यह क्या बकवास कर रहे हैं ?

    यदि ये लोग सचमुच यमराज के सेवक हैं, तो इन्हें यह जानना चाहिए था कि अजामिल उनके द्वारा ले जायेजाने के लिए उपयुक्त पात्र नहीं है।

    'श्रीविष्णुदूता ऊचुःयूयं वै धर्मराजस्य यदि निर्देशकारिण: ।

    ब्रूत धर्मस्य नस्तत्त्वं यच्चाधर्मस्य लक्षणम्‌ ॥

    ३८॥

    श्री-विष्णुदूता: ऊचु:-- भगवान्‌ विष्णु के अहोभाग्य दूतों ने कहा; यूयम्‌--तुम सभी; बै--निस्सन्देह; धर्म-राजस्य-- धर्मके ज्ञाता यमराज के; यदि--यदि; निर्देश-कारिण:--आज्ञापालक; ब्रूत--तो कहो; धर्मस्य--धार्मिक सिद्धान्तों का;नः--हमसे; तत्त्वम्‌-सत्य; यत्‌--जो; च--भी; अधर्मस्य--अधार्मिक कार्यो का; लक्षणम्‌ू--लक्षण।

    अहोभाग्य विष्णुदूतों ने कहा : यदि तुम लोग सचमुच ही यमराज के सेवक हो तो तुम्हेंहमसे धार्मिक सिद्धान्तों के अर्थ तथा अधर्म के लक्षणों की व्याख्या करनी चाहिए।

    कथ्॑ स्विद्ध्रयते दण्ड: कि वास्य स्थानमीप्सितम्‌ ।

    दण्ड्या: कि कारिण: सर्वे आहो स्वित्कतिचिन्रणाम्‌ ॥

    ३९॥

    कथम्‌ स्वितू--किस साधन से; श्चियते--लगाया जाता है; दण्ड:--दण्ड; किम्--क्या; वा--अथवा; अस्य--इसका;स्थानम्‌--स्थान; ईप्सितम्‌ू--वांछित; दण्ड्या:--दण्डनीय; किम्‌-- क्या; कारिण:--सकाम कर्मी; सर्वे--समस्त; आहोस्वितू--अथवा कि; कतिचित्‌--कुछ; नृणाम्‌--मनुष्यों का |

    दूसरों को दण्ड देने की विधि क्‍या है?

    दण्ड के वास्तविक पात्र कौन हैं ?

    क्या सकामकर्मों में लगे सारे कर्मी दण्डनीय हैं या उनमें से केवल कुछ ही हैं ?

    यमदूता ऊचु:वबेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय: ।

    वबेदो नारायण: साक्षात्स्वयम्भूरिति शुश्रुम ॥

    ४०॥

    यमदूता: ऊचु:--यमदूतों ने कहा; वेद--चारों वेदों ( साम, यजु, ऋण तथा अथर्व ) से; प्रणिहित:--स्वीकृत, संस्तुत;धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; हि--निस्सन्देह; अधर्म:--अधार्मिक सिद्धान्त; ततू-विपर्यय:--उसके विपरीत ( जो वैदिकआदेशों द्वारा समर्थित नहीं है ); वेद:--ज्ञान के ग्रन्थ, वेद; नारायण: साक्षात्‌- प्रत्यक्ष पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ ( नारायणके शब्द होने से ); स्वयम्‌-भू: --स्वतः जन्मा, आत्मनिर्भर ( नारायण की श्वास से प्रकट होने वाला तथा अन्य किसी से नसीखा हुआ ); इति--इस प्रकार; शुश्रुम--हमने सुना है।

    यमदूतों ने उत्तर दिया: जो वेदों द्वारा संस्तुत है, वही धर्म है और इसका विलोम अधर्महै।

    वेद साक्षात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं, नारायण हैं और स्वयं उत्पन्न हुए हैं।

    हमने यमराजसे यह सुना है।

    येन स्वधाम्न्यमी भावा रजःसत्त्वतमोमया: ।

    गुणनामक्रियारूपैर्विभाव्यन्ते यथातथम्‌ ॥

    ४१॥

    येन--जिस ( नारायण ) के द्वारा; स्व-धाम्नि--यद्यपि अपने स्थान अर्थात्‌ आध्यात्मिक जगत में; अमी--ये सब; भावा:--अभिव्यक्तियाँ; रज:-सत्त्व-तम:-मया:-- भौतिक प्रकृति के तीन गुणों ( सतो, रजो तथा तमो ) द्वारा उत्पन्न; गुण--गुण;नाम--नाम; क्रिया--कार्यकलाप; रूपै:--तथा रूपों से; विभाव्यन्ते--विविध रूप में प्रकट हैं; यथा-तथम्‌--सही सही समस्त कारणों के परम कारण रूप नारायण आध्यात्मिक जगत में अपने धाम में स्थितहैं

    तथापि वे भौतिक प्रकृति के तीन गुणों--सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण--के अनुसारसम्पूर्ण विराट जगत का नियंत्रण करते हैं।

    इस तरह विभिन्न जीवों को भिन्न-भिन्न गुण, नाम( यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ), वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कार्य तथा रूप प्रदान किये जातेहैं।

    नारायण सम्पूर्ण विराट जगत के कारणस्वरूप है।

    सूर्योउग्नि: खं मरुद्देव: सोम: सन्ध्याहनी दिशः ।

    क॑ कुः स्वयं धर्म इति होते देह्यस्य साक्षिण: ॥

    ४२॥

    सूर्य:--सूर्यदेव; अग्नि:-- अग्नि; खम्‌--आकाश; मरुत्‌--वायु; देव: --देवता; सोम:--चन्द्रमा; सन्ध्या--सायंकाल;अहनी--दिन तथा रात; दिश:--दिशाएँ; कम्‌--जल; कुः-- पृथ्वी; स्वयम्‌--स्वयं; धर्म:--यमराज या परमात्मा; इति--इस प्रकार; हि--निस्सन्देह; एते--ये सभी; दैह्यस्थ--जीव के भौतिक तत्त्वों के शरीर में; साक्षिण:--साक्षी, गवाह।

    सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, देवगण, चन्द्रमा, संध्या, दिन, रात, दिशाएँ, जल, स्थलतथा स्वयं परमात्मा--ये सभी जीव के कार्यों के साक्षी हैं।

    एतैरधर्मो विज्ञातः स्थानं दण्डस्य युज्यते ।

    सर्वे कर्मानुरोधेन दण्डमर्हन्ति कारिण: ॥

    ४३॥

    एतै:--इन सबों ( सूर्य इत्यादि साक्षियों ) के द्वारा; अधर्म:--विधि विधानों से विचलन; विज्ञात:--ज्ञात है; स्थानम्‌--उचित स्थान; दण्डस्य--दंड का; युज्यते--के रूप में स्वीकार किया जाता है; सर्वे--समस्त; कर्म-अनुरोधेन-- सम्पन्नकार्यों पर विचार करते हुए; दण्डम्‌ू--दण्ड; अ्ईन्ति--योग्यता रखते हैं; कारिण:--पापकर्म करने वाले।

    दण्ड के पात्र वे हैं जिसकी पुष्टि इन अनेक साक्षियों ने की है कि वे निर्दिष्ट नियमितकार्यों से विचलित हुए हैं।

    सकाम कर्मों में लगा हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपने पापकर्मों केअनुसार दण्ड दिये जाने के लिए उपयुक्त होता है।

    सम्भवन्ति हि भद्राणि विपरीतानि चानघा: ।

    कारिणां गुणसझ्लेउस्ति देहवान्न ह्कर्मकृत्‌ ॥

    ४४॥

    सम्भवन्ति--हैं; हि--निस्सन्देह; भद्राणि--शुभ, पवित्र कार्य; विपरीतानि--बिल्कुल उल्टे ( अशुभ, पापकर्म ); च--भी;अनघा:--हे पापरहित वैकुण्ठवासियों; कारिणाम्‌--सकाम कर्मियों का; गुण-सड्डभ:--प्रकृति के तीन गुणों का कल्मष;अस्ति-- है; देह-वान्‌--इस भौतिक शरीर को स्वीकार करने वाला, देहधारी; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अकर्म-कृत्‌--कर्म किये बिना।

    हे वैकुण्ठवासियों! तुम लोग निष्पाप हो, किन्तु इस भौतिक जगत के भीतर रहने वालेसारे वासी कर्मी हैं, चाहे वे शुभ कर्म कर रहे हों या अशुभ।

    ये दोनों प्रकार के कर्म उनकेलिए सम्भव हैं, क्योंकि वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा कलुषित रहते हैं और उन्हें तदनुसारकर्म करना पड़ता है।

    जिसने भी भौतिक शरीर अपनाया है, वह निष्क्रिय नहीं हो सकताऔर प्रकृति के तीन गुणों के अधीन कर्म करने वाले के लिए पापकर्म से बच पाना असम्भवहै।

    इसलिए इस जगत के सारे जीव दण्डनीय हैं।

    येन यावान्यथाधर्मो धर्मो वेह समीहित: ।

    स एव तत्फलं भुड्डे तथा तावदमुत्र वै ॥

    ४५॥

    येन--जिस व्यक्ति द्वारा; यावान्‌ू--जिस हद तक; यथा--जिस रीति से; अधर्म:--अधार्मिक कार्य; धर्म:--धार्मिक कार्य;वा--अथवा; इह--इस जीवन में; समीहित:--सम्पन्न हुए; सः--वह व्यक्ति; एब--निस्सन्देह; तत्‌-फलम्‌--उसका विशेषफल; भुड्ढे --आनन्द लेता है या कष्ट उठाता है; तथा--उसी तरह से; तावत्‌--उसी हद तक; अमुत्र--अगले जीवन में;बै--निस्सन्देह

    इस जीवन में अपने धार्मिक या अधार्मिक कार्यों की मात्रा के अनुपात में मनुष्य अपनेअगले जीवन में अपने कर्म के अनुरूप फलों का भोग करता है या कष्ट उठाता है।

    यथेह देवप्रवरास्त्रविध्यमुपलभ्यते ।

    भूतेषु गुणवैचित्र्यात्तथान्यत्रानुमीयते ॥

    ४६॥

    यथा--जिस तरह; इह--इस जीवन में; देव-प्रवरा:--हे देवताओं में श्रेष्ठ; त्रै-विध्यम्‌--तीन प्रकार के गुण; उपलभ्यते--प्राप्त किये जाते हैं; भूतेषु--सारे जीवों के मध्य; गुण-बैचित्रयात्‌--तीन गुणों के द्वारा कल्मष की विविधता के कारण;तथा--उसी तरह; अन्यत्र--अन्य स्थानों में; अनुमीयते-- अनुमान लगा लिया जाता है।

    हे देवश्रेष्ठो! हम विभिन्न प्रकार के तीन जीवन देखते हैं, जो प्रकृति के तीन गुणों केकल्मष के कारण हैं।

    इस तरह जीव शान्त, अशान्त तथा मूर्ख; सुखी, दुःखी या इन दोनों केबीच; तथा धार्मिक, अधार्मिक या अर्धधार्मिक जाने जाते हैं।

    हम यह निष्कर्ष निकाल सकतेहैं कि अगले जीवन में ये तीन प्रकार की प्रकृतियाँ इसी प्रकार से कर्म करेंगी।

    वर्तमानोन्ययो: कालो गुणाभिज्ञापको यथा ।

    एवं जन्मान्ययोरेतद्धर्माधर्मनिदर्शनम्‌ ॥

    ४७॥

    वर्तमान:--वर्तमान; अन्ययो:-- भूत तथा भविष्य का; काल: --समय; गुण-अभिज्ञापक:--गुणों को प्रकट कराते हुए;यथा--जिस तरह; एवम्‌--इस प्रकार; जन्म--जन्म; अन्ययो: -- भूत तथा भावी जन्मों का; एतत्‌--यह; धर्म--धार्मिकसिद्धान्त; अधर्म--अधार्मिक सिद्धान्त; निदर्शनम्‌--सूचित करते हुए।

    जिस तरह वर्तमान वसन्‍्त काल भूत तथा भविष्य काल के वसन्‍त कालों को सूचितकरता है, उसी तरह सुख, दुःख या दोनों से मिश्रित यह जीवन मनुष्य के भूत तथा भावीजीवनों के धार्मिक तथा अधार्मिक कार्यों के विषय में साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

    मनसैव पुरे देव: पूर्वरूपं विपश्यति ।

    अनुमीमांसतेपूर्व मनसा भगवानज: ॥

    ४८॥

    मनसा--मन से; एव--निस्सन्देह; पुरे-- अपने धाम में या परमात्मा रूप में प्रत्येक के हृदय में; देव:--यमराज देव( दिव्यातीत देवः, जो सदैव तेजोमय तथा दीप्त रहे वह देवता कहलाता है ); पूर्व-रूपम्‌--विगत धार्मिक या अधार्मिकस्थिति; विपश्यति--पूरी तरह देखते भालते हैं; अनुमीमांसते--वह विचार करता है; अपूर्वम्‌-- भावी स्थिति; मनसा--अपने मन से; भगवान्‌--जो सर्वशक्तिमान है; अज:--ब्रह्म के ही समान

    सर्वशक्तिमान यमराज ब्रह्माजी के ही समान हैं, क्योंकि जब वे अपने निजी धाम यापरमात्मा की भांति हर एक के हृदय में स्थित होते हैं, वे मन के द्वारा जीव के विगत कार्योका अवलोकन करते हैं और यह समझ जाते हैं कि जीव अगले जीवन में किस तरह कर्मकरेगा।

    यथाज्ञस्तमसा युक्त उपास्ते व्यक्तमेव हि ।

    न वेद पूर्वमपरं नष्टजन्मस्मृतिस्तथा ॥

    ४९॥

    यथा--जिस तरह; अज्ञ:--मूर्ख जीव; तमसा--निद्रा में; युक्त:--लगा हुआ; उपास्ते--के अनुसार कार्य करता है;व्यक्तम्‌-स्वण में प्रकट शरीर; एब--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह; न वेद--नहीं जानता; पूर्वम्‌ू--विगत शरीर; अपरमू--अगला शरीर; नष्ट--नष्ट; जन्म-स्मृति:ः--जन्म लेने का स्मरण; तथा--उसी प्रकार |

    जिस तरह सोया हुआ व्यक्ति अपने स्वण में प्रकट हुए शरीर के अनुसार कार्य करता हैऔर उसे स्वयं मान लेता है उसी तरह मनुष्य अपने वर्तमान शरीर से अपनी पहचान बनाता है,जिसे उसने अपने विगत धार्मिक या अधार्मिक कार्यों के कारण प्राप्त किया है और वहअपने विगत या भावी जीवनों को जान पाने में असमर्थ रहता है।

    पञ्ञभिः कुरुते स्वार्थान्पञ्ञ वेदाथ पञ्ञभि: ।

    एकस्तु षोडशेन त्रीन्स्वयं सप्तदशोएनुते ॥

    ५०॥

    पशञ्नभि:--पाँच कर्मेन्द्रियों ( वाणी, बाहें, पांव, गुदा तथा जननांग ) से; कुरुते--करता है; स्व-अर्थान्‌--अपनी इच्छितरुचियाँ; पश्च--पाँच इन्द्रियविषय ( ध्वनि, रूप, स्पर्श, गन्ध तथा स्वाद ); वेद--जानता है; अथ--इस प्रकार; पशञ्चभि:--पाँच ज्ञान की ( सुनना, देखना, सूँघना, आस्वादन करना तथा अनुभव करना ) इन्द्रियों के द्वारा; एक:--एक; तु--लेकिन;घोडशेन--इन पन्द्रहों तथा मन, सोलह के द्वारा; त्रीन्‌--अनुभव की तीन कोटियाँ ( सुख, दुख तथा दोनों का मिश्रण );स्वयम्‌--वह, स्वयं जीव; सप्तदश:--सत्रहवीं वस्तु; अश्नुते-- भोग करता है।

    पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच इन्द्रियविषयों के ऊपर मन होता है, जोसोलहवाँ तत्त्व है।

    मन के ऊपर सत्तरहवाँ तत्त्व आत्मा स्वयं जीव है, जो अन्य सोलह केसहयोग से अकेले भौतिक जगत का भोग करता है।

    जीव तीन प्रकार की स्थितियों का भोगकरता है, यथा सुख दुःख तथा मिश्रित सुख-दुःख।

    तो वह अज्ञान के सागर से उबार लिया जाता है।

    तदेतत्वोडशकलं लिड्ं शक्तित्रयं महत्‌ ।

    धत्तेनुसंसूतिं पुंसि हर्षशोकभयार्तिदाम्‌ ॥

    ५१॥

    तत्‌--इसलिए; एतत्‌--यह; षघोडश-कलम्‌--सोलह अंशों से बना ( यथा दस इन्द्रियाँ, मन तथा पाँच इन्द्रिय-विषय );लिड्डम्‌ू--सूक्ष्म शरीर; शक्ति-त्रयम्‌--प्रकृति के तीन गुणों का प्रभाव; महत्‌--दुर्लध्य; धत्ते--देता है; अनुसंसूतिम्‌--विभिन्न प्रकार के शरीरों में निरन्तर भ्रमण तथा देहान्तरण; पुंसि--जीव में; हर्ष--हर्ष, शोक--शोक; भय--भय;आर्ति--कष्ठट; दाम्‌-देने वाला।

    सूक्ष्म शरीर सोलह अंगों से समन्वित होता है--पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियतृप्ति के विषय तथा मन।

    यह सूक्ष्म शरीर प्रकृति के तीन गुणों का प्रभाव है।

    यहदुर्लघ्य प्रबल इच्छाओं से बना हुआ है, अतएवं यह जीव को मनुष्य-जीवन, पशु-जीवनतथा देवता-जीवन में एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण कराता है।

    जब जीव को देवता काशरीर प्राप्त होता है, तो वह निश्चित रूप से हर्षित होता है; जब उसे मनुष्य शरीर प्राप्त होताहै, तो वह शोक करता है और जब उसे पशु-शरीर मिलता है, तो वह सदैव भयभीत रहताहै।

    किन्तु सभी स्थितियों में वह वस्तुतः दुःखी रहता है।

    उसकी यह दुःखित अवस्था संसतिया भौतिक जीवन में देहान्तरण कहलाती है।

    देहाज्ञोअजितषड्वर्गो नेच्छन्कर्माणि कार्यते ।

    कोशकार इवात्मानं कर्मणाच्छाद्य मुह्ाति ॥

    ५२॥

    देही--देहधारी आत्मा; अज्ञ:--पूर्णज्ञान से रहित; अजित-षटू-वर्ग:--जिसने अनुभवेन्द्रियों तथा मन को वश में नहींकिया; न इच्छन्‌ू--न चाहते हुए; कर्माणि-- भौतिक लाभ के लिए कर्म; कार्यते--करवाया जाता है; कोशकार:--रेशमका कीड़ा; इब--सहश; आत्मानमू्‌--स्वयं; कर्मणा--सकाम कर्मो से; आच्छाद्य--आवृत करके; मुहाति--मोहित होजाता है

    अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में करने में अक्षम मूर्ख देहधारी जीव अपनी इच्छाओंके विरुद्ध प्रकृति के गुणों के प्रभाव के अनुसार कर्म करने के लिए बाध्य होता है।

    वह उसरेशम के कीड़े के समान है, जो अपनी लार का प्रयोग बाह्य कोश बनाने के लिए करता है और फिर उसी में बँध जाता है, जिसमें से बाहर निकल पाने की कोई सम्भावना नहीं रहती।

    जीव अपने ही सकाम कर्मों के जाल में अपने को बन्दी कर लेता है और तब अपने कोछुड़ाने का कोई उपाय नहीं ढूँढ़ पाता।

    इस तरह वह सदैव मोहग्रस्त रहता है और बारम्बारमरता रहता है।

    नहि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।

    कार्यते ह्मवश: कर्म गुणै: स्वाभाविकैर्बलात्‌ ॥

    ५३॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; कश्चित्‌--कोई; क्षणम्‌ अपि--एक क्षण के लिए भी; जातु--किसी भी समय; तिष्ठति--रहताहै; अकर्म-कृत्‌ू--कुछ भी न करते हुए; कार्यते--करवाया जाता है; हि--निस्सन्देह; अवश: --स्वत:; कर्म--सकामकर्म; गुणैः--प्रकृति के गुणों द्वारा; स्वाभाविकै:--पिछले जन्मों में अपनी ही प्रवृत्तियों से उत्पन्न; बलात्‌--बलपूर्वक

    एक भी जीव बिना कार्य किये क्षणभर भी नहीं रह सकता।

    उसे प्रकृति के तीन गुणोंके अनुसार अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा कर्म करना ही पड़ता है, क्योंकि यह स्वाभाविकप्रवृत्ति उसे एक विशेष ढंग से कार्य करने के लिए बाध्य करती है।

    लब्ध्वा निमित्तमव्यक्तं व्यक्ताव्यक्त भवत्युत ।

    यथायोनि यथाबीजं स्वभावेन बलीयसा ॥

    ५४॥

    लब्ध्वा-प्राप्त करके; निमित्तमू--कारण; अव्यक्तम्‌ू--अदहृश्य, अथवा पुरुष को अज्ञात; व्यक्त-अव्यक्तम्‌-व्यक्त तथाअव्यक्त या स्थूल शरीर तथा सूक्ष्म शरीर; भवति--उत्पन्न होता है; उत--निश्चय ही; यथा-योनि--माता के ही सहश; यथा-बीजम्‌-पिता के ही सहश; स्व-भावेन--स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा; बलीयसा--जो अत्यन्त शक्तिशाली है।

    सजीव प्राणी जो भी सकाम कर्म करता है, वे चाहे पवित्र हों या अपवित्र, वे उसकीइच्छाओं की पूर्ति के अदृश्य कारण होते हैं।

    यह अदृश्य कारण ही जीव के विभिन्न शरीरोंकी जड़ है।

    जीव अपनी उत्कट इच्छा के कारण किसी विशेष परिवार में जन्म लेता है औरऐसा शरीर प्राप्त करता है, जो या तो उसकी या उसके पिता माता जैसा होता है।

    स्थूल तथासूक्ष्म शरीर उसकी इच्छा के अनुसार उत्पन्न होते हैं।

    ह तर तर तर कु न्‍ एष प्रकृतिसड्रेन पुरुषस्थ विपर्यय: ।

    आसीत्स एव न चिरादीशसझ़ट्ठिलीयते ॥

    ५५॥

    एष:--यह; प्रकृति-सड्रेन-- भौतिक प्रकृति के साथ संगति होने से; पुरुषस्य--जीव का; विपर्यय:--विस्मृति की स्थितिया विषम स्थिति; आसीत्‌ू--आ गई; सः--वह स्थिति; एव--निस्सन्देह; न--नहीं; चिरातू--दीर्घ काल तक; ईश-सड्भात्‌ू--परम ई श्वर ( परमेश्वर ) की संगति से; विलीयते--समाप्त हो जाती है।

    चूँकि जीव की संगति भौतिक प्रकृति से रहती है, अतएव वह बड़ी विषम स्थिति मेंहोता है, किन्तु यदि उसे मनुष्य जीवन में यह शिक्षा दी जाती है कि किस तरह पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ या उनके भक्त की संगति की जाये तो इस स्थिति पर काबू पाया जा सकता है।

    अयं हि श्रुतसम्पन्न: शीलवृत्तगुणालय: ।

    धृतब्रतो मृदुर्दान्तः सत्यवाड्मन्त्रविच्छुचि: ॥

    ५६॥

    गुर्वग्न्यतिथिवृद्धानां शुश्रूषुरनहड्डू तः ।

    सर्वभूतसुहत्साधुर्मितवागनसूयक: ॥

    ५७॥

    अयमू--यह व्यक्ति ( अजामिल नामक ); हि--निस्सन्देह; श्रुत-सम्पन्न:--वैदिक ज्ञान में सुशिक्षित; शील--अच्छे चरित्र;वृत्त--अच्छे चाल-चलन; गुण--तथा अच्छे गुण का; आलय:--आगार; धृत-ब्रतः--बैदिक आदेशों को सम्पन्न करने मेंहढ़; मृदु:ः--अत्यन्त विनीत; दान्त:--मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरह वश में करने वाला; सत्य-वाक्‌--सदैव सत्यत्रती;मन्त्र-वित्‌ू--वैदिक मंत्रों के उच्चारण की विधि को जानने वाला; शुचि: --सदैव अत्यन्त स्वच्छ; गुरु--गुरु; अग्नि--अग्नि; अतिथि--अतिथ्ि; वृद्धानामू-तथा घर के बड़े बूढ़ों का; शुश्रूषु;--आदरपूर्वक सेवा में लगा रहने वाला;अनहड्डू त:--गर्व या झूठी प्रतिष्ठा से रहित; सर्व-भूत-सुहृत्‌--सारे जीवों का मित्र; साधु;:--अच्छे स्वभाव वाला ( उसकेअरित्र में कोई दोष नहीं निकाल सका ); मित-वाक्‌ू--बात करते समय यह ध्यान रखने वाला कि व्यर्थ न बोला जाये;अनसूयकः --ईर्ष्यारहित

    प्रारम्भ में अजामिल नामक उस ब्राह्मण ने सारे वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन किया था।

    वह अच्छे चरित्र, अच्छे चाल-चलन तथा अच्छे गुणों का आगार था।

    वह सारे वैदिकआदेशों को सम्पन्न करने में दृढ़ था, वह अत्यन्त मृदु तथा सुशील था और अपने मन तथाइन्द्रियों को वश में रखता था।

    यही नहीं, वह सदा सच बोलता था, वह जानता था किवैदिक मंत्रों का उच्चारण करना होता है तथा वह अत्यन्त शुद्ध भी था।

    अजामिल अपनेगुरु, अग्निदेव, अतिथियों तथा घर के वृद्धजनों का अतीव आदर करता था।

    निस्सन्देह वहझूठी प्रतिष्ठा से मुक्त था।

    वह सरल, सभी जीवों के प्रति उपकार करने वाला तथा शिष्ट था।

    वह न तो व्यर्थ की बातें करता था, न किसी से ईर्ष्या करता था।

    एकदासौ वनं यात: पितृसन्देशकृद्दिवज: ।

    आदाय तत आवृत्त: फलपुष्पसमित्कुशान्‌ ॥

    ५८॥

    ददर्श कामिनं कन्धिच्छूद्रं सह भुजिष्यया ।

    पीत्वा च मधु मैरेयं मदाघूर्णितनेत्रया ॥

    ५९॥

    मत्तया विश्लथन्नीव्या व्यपेतं निरपत्रपम्‌ ।

    क्रीडन्तमनुगायन्तं हसन्तमनयान्तिके ॥

    ६०॥

    एकदा--एक बार; असौ--यह अजामिल; वनम्‌ यात:--जंगल में गया; पितृ--अपने पिता का; सन्देश-- आदेश; कृत्‌--पूरा करने के लिए; द्विज:--ब्राह्मण; आदाय--एकत्र करके; तत:--उस जंगल से; आवृत्त:--लौटते हुए; फल-पुष्प--'फल फूल; समित्‌-कुशान्‌--समित तथा कुश नामक दो प्रकार के तृण; दर्दर्श--देखा; कामिनम्‌-- अत्यन्त कामी;कझख्ित्‌ू-किसी; शूद्रमू-चतुर्थ वर्ण का व्यक्ति, शूद्र; सह--साथ; भुजिष्यया--सामान्य दासी या वेश्या के; पीत्वा--पीकर; च-- भी; मधु --अमृत; मैरेयम्‌--सोम पुष्पों से बना; मद--नशे से; आधूर्णित--घुमाती हुई; नेत्रया--अपनीआँखें; मत्तया--मदमत्त; विश्लथत्‌-नीव्या--शिथिल वस्त्रों वाली; व्यपेतम्‌--सही आचरण से गिरी हुई; निरपत्रपम्‌--जनता के मत के भय से रहित; क्रीडन्तम्‌-- भोग में लगी; अनुगायन्तम्‌-गाते हुए; हसन्तम्‌-हँसते हुए; अनया--उसकेसाथ; अन्तिके--पास ही

    एक बार यह ब्राह्मण अजामिल अपने पिता का आदेश पालन करते हुए जंगल से फल,'फूल तथा समित्‌ और कुश नामक दो प्रकार की घासें लाने जंगल गया।

    घर वापस आतेसमय उसे एक अत्यन्त कामुक, चतुर्थ वर्ण का व्यक्ति शूद्र मिला जो निर्लज्ज होकर एकवेश्या का आलिगंन तथा चुम्बन कर रहा था।

    यह शूद्र इस तरह हँसते, गाते हुए आनन्द लेरहा था मानो यही उचित आचरण हो।

    यह शूद्र तथा वेश्या दोनों ही सुरापान किये हुए थे।

    वेश्या की आँखें नशे से घूम रही थीं और उसके वस्त्र शिथिल पड़ गये थे।

    अजामिल ने उन्हेंऐसी दशा में देखा।

    इृष्टा तां कामलिप्तेन बाहुना परिरम्भिताम्‌ ।

    जगाम हच्छयवशं सहसैव विमोहित: ॥

    ६१॥

    इृष्ठा--देखकर; ताम्‌--उस ( वेश्या ) को; काम-लिप्तेन--कामेच्छाओं को उद्दीप्त करने के लिए हल्दी लगाये हुए;बाहुना--बाँह से; परिरम्भितामू-- आलिंगित; जगाम--चला गया; हत्‌-शय--हृदय के भीतर कामेच्छाओं का; वशम्‌--वशीभूत; सहसा--एकाएक; एव--निस्सन्देह; विमोहित:--मोहित हुआ।

    यह शूद्र हल्दी के चूर्ण से अपनी बाहें चमकाए हुए था और उस वेश्या का आलिंगनकर रहा था।

    जब अजामिल ने उसे देखा तो उसके हृदय में सुप्त कामेच्छाएँ जाग्रत हो उठींऔर वह सम्मोहित होकर उनके वश में हो लिया।

    स्तम्भयन्नात्मनात्मानं यावत्सत्त्वं यथा श्रुतम्‌ ।

    न शशाक समाधातुं मनो मदनवेपितम्‌ ॥

    ६२॥

    स्तम्भयन्‌ू--वश में करने का प्रयास करते हुए; आत्मना--बुद्धि से; आत्मानम्‌--मन को; यावत्‌ सत्त्वम्‌--यथासम्भवउसके लिए; यथा-श्रुतम्‌--आदेश का ( ब्रह्मचर्य का, स्त्री को देखने तक का ) स्मरण करके; न--नहीं; शशाक--समर्थथा; समाधातुम्‌--रोक पाने के लिए; मन:--मन; मदन-वेपितम्‌--कामदेव या कामेच्छाओं द्वारा चलायमान।

    उसने धैर्यपूर्वक स्त्री को न देखने के शास्त्रों के आदेश स्मरण करने का यथासम्भवप्रयास किया।

    इस ज्ञान तथा अपनी बुद्धि के बल पर उसने अपनी कामेच्छाओं को वश मेंकरने का प्रयास किया, किन्तु अपने भीतर कामदेव का वेग होने से वह अपने मन को साध न सका।

    तन्निमित्तस्मरव्याजग्रहग्रस्तो विचेतन: ।

    तामेव मनसा ध्यायन्स्वधर्माद्विराम ह ॥

    ६३॥

    ततू-निमित्त--उसे देखने से उत्पन्न; स्मर-व्याज--उसके विषय में लगातार सोचते रहने का लाभ उठाकर; ग्रह- ग्रस्त: --ग्रहण द्वारा पकड़ा हुआ; विचेतन:--अपनी असली स्थिति को पूरी तरह भूलकर; तामू--उसको; एव--निश्चय ही;मनसा--मन से; ध्यायन्‌-ध्यान करते हुए; स्व-धर्मात्‌-ब्राह्मण द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले अनुष्ठानों को; विरराम ह--उसने पूरी तरह बन्द कर दिया।

    जिस तरह सूर्य तथा चन्द्रमा एक श्षुद्र ग्रह द्वारा ग्रसित हो जाते हैं, उसी तरह उस ब्राह्मणने अपना सारा उत्तम ज्ञान खो दिया।

    इस स्थिति का लाभ उठाकर वह सदैव उस वेश्या केविषय में सोचता रहता और थोड़े समय बाद ही उसने उसे अपने घर में नौकरानी के रूप मेंरख लिया तथा ब्राह्मण के सारे अनुष्ठानों का परित्याग कर दिया।

    तामेव तोषयामास पित्र्येणार्थन यावता ।

    ग्राम्यैर्मनोरमै: काम: प्रसीदेत यथा तथा ॥

    ६४॥

    ताम्‌ू--उसको ( वेश्या को ); एब--निस्सन्देह; तोषयाम्‌ आस--उसने प्रसन्न करने का प्रयास किया; पित्येण-- अपने पिताकी गाढ़ी कमाई से प्राप्त; अर्थन-- धन से; यावता--यथासम्भव; ग्राम्यै: -- भौतिक; मन: -रमैः --उसके मन को सुहावनालगने वाले; कामै:--इन्द्रिय भोग के लिए उपहारों द्वारा; प्रसीदेत--उसे तुष्ट करना होगा; यथा--जिससे; तथा--उस तरहसे

    इस तरह अजामिल अपने पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त जो भी धन था उसे अपनेविविध उपहारों द्वारा उस वेश्या को तुष्ट करने में खर्च करने लगा, जिससे वह उससे प्रसन्नबनी रहे।

    उसने उस वेश्या को तुष्ट करने के लिए अपने सारे ब्राह्मण-कर्म भी छोड़ दिये।

    विप्रां स्वभार्यामप्रौढां कुले महति लम्भिताम्‌ ।

    विससर्जाचिरात्पाप: स्वैरिण्यापाड्भविद्धधी: ॥

    ६५॥

    विप्राम्‌--ब्राह्मण की पुत्री; स्व-भार्यामू--अपनी पत्नी को; अप्रौढाम्‌ू--अधिक आयु वाली नहीं ( युवती ); कुले--परिवारसे; महति--अतीव सम्माननीय; लम्भिताम्‌--विवाहिता; विससर्ज--त्याग दिया; अचिरातू--तुरन्त ही; पाप:--पापी होनेसे; स्वैरिण्या--वेश्या की; अपाडु-विद्ध-धी: --कामयुक्त चितवन से बिधी हुई उसकी बुद्धि

    चूँकि उसकी बुद्धि वेश्या की कामपूर्ण चितवन से बिंध चुकी थी, अतः शिकार हुआब्राह्मण अजामिल उसकी संगति में पापकर्म करने लगा।

    उसने अपनी अति सुन्दर तरुण पत्नीतक का साथ छोड़ दिया जो अति सम्मानित ब्राह्मण कुल से आई थी।

    यतस्ततश्लोपनिन्ये न्‍्यायतोन्यायतो धनम्‌ ।

    बभारास्या: कुटुम्बिन्या: कुटुम्बं मन्द्धीरयम्‌ ॥

    ६६॥

    यतः तत:ः--जहाँ भी और जैसे भी सम्भव; च--तथा; उपनिन्ये--उसे मिला; न्यायत:--उचित रीति से; अन्यायत: --अनुचित रीति से; धनम्‌--धन; बभार--भरण-पोषण किया; अस्या:--उसके; कुटुम्‌-बिन्या:--अनेक पुत्रियों तथा पुत्रोंवाला; कुट॒म्बम्‌--परिवार; मन्द-धी:--समस्त बुद्धि से रहित; अयम्‌--इस व्यक्ति ( अजामिल ) ने

    यद्यपि वह ब्राह्मण कुल में उत्पन्न था किन्तु वेश्या की संगति के कारण बुद्धि से विहीनउस धूर्त ने जैसे-तैसे करके धन कमाया चाहे वह उचित रीति उसको वेश्या के पुत्रों तथा पुत्रियों के भरण-पोषण में लगाया।

    यदसौ शास्त्रमुल्लड्घ्य स्वैरचार्यतिगर्हित: ।

    अवर्तत चिरं कालमघायुरशुचिर्मलात्‌ ॥

    ६७॥

    यत्‌--चूँकि; असौ--यह ब्राह्मण; शास्त्रम्‌ उल्लड्घ्य--शास्त्र के नियमों का उल्लंघन करके; स्वैर-चारी--मनमाने ढंग सेकार्य करते हुए; अति-गर्हित:--अत्यधिक निन्दनीय; अवर्तत--बिताया; चिरम्‌ कालम्‌--दीर्घकाल; अघ-आयु:--जिसका जीवन पापकर्मो से पूर्ण था; अशुच्ि:--अस्वच्छ; मलात्‌ू--गंदगी के कारण।

    इस ब्राह्मण ने पवित्र शास्त्रों के विधि-विधानों का उल्लंघन करके, अपव्यय करने तथावेश्या द्वारा बनाया भोजन करने में बड़े ही अनुत्तरदायित्त्व पूर्ण ढंग से अपनी दीर्घ आयुबिताई।

    इसीलिए वह पापों से पूर्ण है।

    वह अस्वच्छ है और निषिद्ध कर्मो में लिप्त रहता है।

    तत एन दण्डपाणे: सकाशं कृतकिल्बिषम्‌ ।

    नेष्यामोकृतनिर्वेशं यत्र दण्डेन शुद्धयति ॥

    ६८ ॥

    ततः--इसलिए; एनम्‌ू--उसको; दण्ड-पाणे: --यमराज के, जिसे दण्ड देने का अधिकार है; सकाशम्‌--समक्ष; कृत-किल्बिषम्‌--जिसने नियमित रूप से सारे पापकर्म किये हैं; नेष्याम:--हम ले जायेंगे; अकृत-निर्वेशम्‌--जिसने प्रायश्चित्तनहीं किया हो; यत्र--जहाँ; दण्डेन--दण्ड द्वारा; शुद्धयति--शुद्ध बना दिया जायेगा।

    इस अजामिल ने कोई प्रायश्चित्त नहीं किया।

    अत: उसके पापी जीवन के कारण हम इसेदण्ड देने के लिए यमराज के समक्ष ले जायेंगे।

    वहाँ यह अपने पापकर्मों की मात्रा केअनुसार दण्डित होगा और इस तरह शुद्ध बनाया जायेगा।

    TO

    अध्याय दो: विष्णुदत्त द्वारा अजामिल का उद्धार

    6.2एवं ते भगवहूता यमदूताभिभाषितम्‌ ।

    उपधार्याथ तान्नाजन्प्रत्याहुनंयकोविदा: ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उवाच--व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; ते--वे; भगवत्‌-दूता: --भगवान्‌ विष्णु के सेवक; यमदूत--यमराज के सेवकों द्वारा; अभिभाषितम्‌--कहा गया; उपधार्य--सुनकर; अथ--तब;तान्‌ू--उनसे; राजनू--हे राजन; प्रत्याहु:--ठीक से उत्तर दिया; नय-कोविदा:--उत्तम नीति में पटु होने से

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌! भगवान्‌ विष्णु के दूत नीति तथा तर्कशाम्््र मेंअति पटु होते हैं।

    यमदूतों के कथनों को सुनने के बाद उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया।

    श्रीविष्णुदूता ऊचुःअहो कष्ट धर्मदशामधर्म: स्पृशते सभाम्‌ ।

    यत्रादण्डब्रेष्वपापेषु दण्डो यैश्चियते वृथा ॥

    २॥

    श्री-विष्णुदूता: ऊचु:--विष्णुदूतों ने कहा; अहो--हाय; कष्टम्‌ू--कितना दुखदायी है; धर्म-हशाम्‌-- धर्मपालन करने मेंरुचि लेने वाले पुरुषों को; अधर्म:--अधर्म; स्पृशते--प्रभावित कर रहा है; सभाम्‌--सभा को; यत्र--जिसमें;अदण्ड्येषु--न दण्डित होने वाले पुरुषों पर; अपापेषु--पापरहित; दण्ड:--दण्ड; यैः--जिनके द्वारा; प्वियते--निर्धारितकिया जाता है; वृथा--व्यर्थ ही |

    विष्णुदूतों ने कहा : हाय! यह कितना दुःखद है कि ऐसी सभा में जहाँ धर्म का पालनहोना चाहिए, वहाँ अधर्म को लाया जा रहा है।

    दरअसल, धार्मिक सिद्धान्तों का पालनकरने के अधिकारी जन एक निष्पाप एवं अदण्डनीय व्यक्ति को व्यर्थ ही दण्ड दे रहे हैं।

    प्रजानां पितरो ये च शास्तार: साधव: समा: ।

    यदि स्यात्तेषु वैषम्यं क॑ यान्ति शरणं प्रजा: ॥

    ३॥

    प्रजानामू--नागरिकों के; पितर:--रक्षक, अभिभावक ( राजा या सरकारी नौकर ); ये--जो; च--तथा; शास्तार:--कानून तथा व्यवस्था का आदेश देने वाले; साधव:--समस्त सदगुणों से युक्त; समा:--हर एक के तुल्य; यदि--यदि;स्थात्‌--है; तेषु--उनमें से; वैषम्यम्‌--पक्षपात; कमू--किसकी; यान्ति-- जायेंगे; शरणम्‌--शरण में; प्रजा:--नागरिक |

    राजा या सरकारी शासक को इतना सुयोग्य होना चाहिए कि वह स्नेह और प्रेम के साथनागरिकों के पिता, पालक तथा संरक्षक के रूप में कार्य कर सके।

    उसे मानक शास्त्रों केअनुसार नागरिकों को अच्छी सलाह तथा आदेश देने चाहिए और हर एक के प्रति समभावरखना चाहिए।

    यमराज ऐसा करता है, क्योंकि वह न्याय का परम स्वामी है और उसकेपदचिन्हों पर चलने वाले भी वैसा ही करते हैं, किन्तु यदि ऐसे लोग दूषित हो जायेँ औरनिर्दोष तथा अबोध व्यक्ति को दण्डित करके पक्षपात प्रदर्शित करें तो फिर सारे नागरिकअपने भरण-पोषण तथा सुरक्षा के लिए शरण लेने हेतु कहाँ जायेंगे ?

    यद्यदाचरति श्रेयानितरस्तत्तदीहते ।

    स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

    ४॥

    यत्‌ यत्‌--जो जो; आचरति--सम्पन्न करता है; श्रेयान्‌ू-धार्मिक सिद्धान्तों की पूरी जानकारी से युक्त उच्चकोटि काव्यक्ति; इतर: --अधीन व्यक्ति; तत्‌ तत्‌ू--वही वही; ईहते--करता है; सः--वह ( महापुरुष ); यत्‌--जो जो; प्रमाणम्‌--प्रमाण या सही बात के रूप में; कुरुते--स्वीकार करती है; लोक:--आम जनता; तत्‌--वही; अनुवर्तते--अनुसरणकरती है।

    आम जनता समाज में नेता के उदाहरण का अनुगमन और उसके आचरण का अनुसरणकरती है।

    नेता जो भी मानता है उसे आप जनता प्रमाण रूप में स्वीकार करती है।

    यस्याड्ले शिर आधाय लोक: स्वपिति निर्वृतः ।

    स्वयं धर्ममधर्म वा न हि वेद यथा पशु: ॥

    ५॥

    स कथं न्यर्पितात्मानं कृतमैत्रमचेतनम्‌ ।

    विस्त्रम्भणीयो भूतानां सघृणो दोग्धुमहति ॥

    ६॥

    यस्य--जिसके; अछ्ले-गोद में; शिर:ः--सिर; आधाय--रखकर; लोक:--आम जनता; स्वपिति--सोती है; निर्वृत:ः--शान्ति से; स्वयम्‌--स्वयं; धर्मम्‌-धार्मिक सिद्धान्त या जीवन-लक्ष्य; अधर्मम्‌--अधार्मिक सिद्धान्त; वा--अथवा; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; वेद--जानते हैं; यथा--जिस तरह; पशु:--पशु; सः--ऐसा व्यक्ति; कथम्‌--कैसे; न्यर्पित-आत्मानम्‌--उस जीव के प्रति जिसने पूर्णतया आत्मसमर्पण कर दिया है; कृत-मैत्रम्‌ू-- श्रद्धा तथा मैत्री से समन्वित;अचेतनम्‌--अविकसित चेतना वाला, मूर्ख; विस्त्रम्भणीय:-- श्रद्धा का विषय बनने के योग्य; भूतानाम्‌ू--जीवों का; स-घृण:--सारे लोगों के कल्याण हेतु मृदु हृदय रखने वाला; दोग्धुम्‌--कष्ट देने के लिए; अरहति--समर्थ है।

    सामान्य लोग ज्ञान में इतने उन्नत होते है कि धर्म तथा अधर्म में भेदभाव कर सकें।

    अबोध, अप्रबुद्ध नागरिक उस अज्ञानी पशु की तरह है, जो अपने स्वामी की गोद में सिर रखकर शान्तिपूर्वक सोता रहता है और श्रद्धापूर्वक अपने स्वामी द्वारा अपने संरक्षण पर विश्वासकरता है।

    यदि नेता वास्तव में दयालु हो तथा जीव की श्रद्धा का भाजन बनने योग्य हो तोवह किसी मूर्ख व्यक्ति को किस तरह दण्ड दे सकता है या जान से मार सकता है, जिसनेश्रद्धा तथा मैत्री में पूर्णतया आत्मसमर्पण कर दिया हो ?

    अयं हि कृतनिर्वेशो जन्मकोट्यंहसामपि ।

    यद्व्याजहार विवशो नाम स्वस्त्ययनं हरे: ॥

    ७॥

    अयमू--यह व्यक्ति ( अजामिल ); हि--निस्सन्देह; कृत-निर्वेश: --सभी तरह के प्रायश्चित्त किये हैं; जन्म--जन्मों का;कोटि--करोड़ों; अंहसाम्‌--पापकर्मों के लिए; अपि-- भी; यत्‌--क्योंकि; व्याजहार--उच्चारण किया है; विवश: --असहाय अवस्था में; नाम--पवित्र नाम; स्वस्ति-अयनम्‌--मोक्ष का साधन; हरेः--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के |

    अजामिल पहले ही अपने सारे पापकर्मों के लिए प्रायश्चित्त कर चुका है।

    दरअसल,उसने न केवल एक जीवन में किये गये पापों का प्रायश्चित्त किया है, अपितु करोड़ों जीवनोंमें किये गये पापों के लिए किया है, क्योंकि उसने असहाय अवस्था में नारायण-नाम काउच्चारण किया है।

    यद्यपि उसने शुद्धरीति से यह उच्चारण नहीं किया, किन्तु उसने अपराधरहित उच्चारण किया है इसलिए अब वह पवित्र है और मोक्ष का पात्र है।

    एतेनैव हाघोनोस्य कृतं स्थादघनिष्कृतम्‌ ।

    यदा नारायणायेति जगाद चतुरक्षरम्‌ ॥

    ८॥

    एतेन--इस ( कीर्तन ) से; एब--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; अघोन:--पापपूर्ण फलों वाला; अस्य--इस ( अजामिल )का; कृतम्‌--किया हुआ; स्यात्‌--है; अघध--पापों का; निष्कृतम्‌--पूर्ण प्रायश्चित्त; यदा--जब; नारायण--हे नारायण( उसके पुत्र का नाम )) आय--कृपया आइये; इति--इस प्रकार; जगाद--उच्चारण किया; चतु:-अक्षरम्‌--चार अक्षर(ना-रा-य-ण )

    विष्णुदूतों ने आगे कहा : यहाँ तक कि पहले भी, खाते समय तथा अन्य अवसरों परयह अजामिल अपने पुत्र को यह कहकर पुकारा करता, प्रिय नारायण! यहाँ तो आओ।

    यद्यपि वह अपने पुत्र का नाम पुकारता था, फिर भी वह ना, रा, य तथा ण इन चार अक्षरोंका उच्चारण करता था।

    इस प्रकार केवल नारायण नाम का उच्चारण करने से उसने लाखोंजन्मों के पापपूर्ण फलों के लिए पर्याप्त प्रायश्चित्त कर लिए हैं।

    स्तेनः सुरापो मित्रश्नुग्ब्रह्महा गुरुतल्पग: ।

    स्त्रीराजपितृगोहन्ता ये च पातकिनोपरे ॥

    ९॥

    सर्वेषामप्यघवतामिदमेव सुनिष्कृतम्‌ ।

    नामव्याहरणं विष्णोर्यतस्तद्विषया मति: ॥

    १०॥

    स्तेन:--चुराने वाला; सुरा-प:--शराबी; मित्र-श्रुक्‌ु-- अपने मित्र या सम्बन्धी का विरोधी; ब्रह्म-हा--ब्राह्मण का वधकरने वाला; गुरु-तल्प-ग:--अपने गुरु की पतली के साथ संभोग करने वाला; स्त्री--स्त्रियाँ; राज--राजा; पितृ--पिता;गो--गौवों का; हन्ता--हत्यारा; ये--जो; च-- भी; पातकिन:--पापकर्मे किए; अपरे-- अन्य सारे; सर्वेषाम्‌--उनसबका; अपि-- भी; अघ-वताम्‌-- अनेक पाप कर चुके व्यक्ति; इदम्‌--यह; एबव--निश्चय ही; सु-निष्कृतम्‌--पूर्णप्रायश्चित्त; नाम-व्याहरणम्‌--नाम का कीर्तन; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु के; यत:--जिससे; तत्‌-विषया--पवित्र नाम काउच्चारण करने वाले पर; मति:--उनका ध्यान।

    भगवान्‌ विष्णु के नाम का कीर्तन सोना या अन्य मूल्यवान वस्तुओं के चोर, शराबी,मित्र या सम्बन्धी के साथ विश्वासघात करने वाले, ब्राह्मण के हत्यारे अथवा अपने गुरुअथवा अन्य श्रेष्ठजन की पत्नी के साथ संभोग करने वाले के लिए प्रायश्नित्त की सर्वोत्तम विधि है।

    स्त्रियों, राजा या अपने पिता के हत्यारे, गौवों का वध करने वाले तथा अन्य सारेपापी लोगों के लिए भी प्रायश्चित्त की यही सर्वोत्तम विधि है।

    भगवान्‌ विष्णु के पवित्र नामका केवल कीर्तन करने से ऐसे पापी व्यक्ति भगवान्‌ का ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं और वेइसीलिए विचार करते हैं कि, 'इस व्यक्ति ने मेरे नाम का उच्चारण किया है, इसलिए मेराकर्तव्य है कि उसे सुरक्षा प्रदान करूँ।

    'न निष्कृतैरुदितैर्ब्रह्यवादिभि-स्तथा विशुद्धब्॒त्यघवान्ब्रतादिभि: ।

    यथा हरे्नामपदैरुदाहतै-स्तदुत्तमशलोकगुणोपलम्भकम्‌ ॥

    ११॥

    न--नहीं; निष्कृतैः--प्रायश्चित्त की विधियों द्वारा; उदितैः--निर्धारित; ब्रह्म-वादिभि: --मनु जैसे विद्वान पंडितों द्वारा;तथा--उस सीमा तक; विशुद्धयति--शुद्ध हो जाता है; अघ-वान्‌--पापी व्यक्ति; ब्रत-आदिभि:--ब्रत तथा अन्य अनुष्ठानोंका पालन करने से; यथा--जिस तरह; हरेः-- भगवान्‌ हरि का; नाम-पदै:ः --नाम के अक्षरों से; उदाहतै:--उच्चरित;तत्‌--वह; उत्तमश्लोक --पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के; गुण--दिव्य गुणों का; उपलम्भकम्‌--किसी को स्मरण दिलातेहुए

    वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करने अथवा प्रायश्चित्त करने से पापी लोग उस तरह सेशुद्ध नहीं हो पाते जिस तरह एक बार भगवान्‌ हरि के पवित्र नाम का कीर्तन करने से शुद्धबनते हैं।

    यद्यपि आनुष्ठानिक प्रायश्चित्त मनुष्य को पापफलों से मुक्त कर सकता है, किन्तुयह भक्ति को जाग्रत नहीं करता जिस तरह परम भगवान्‌ के नाम का कीर्तन मनुष्य कोभगवान्‌ के यश, गुण, लक्षण, लीलाओं तथा साज-सामग्री का स्मरण कराता है।

    नैकान्तिकं तद्द्धि कृतेडपि निष्कृतेमनः पुनर्धावति चेदसत्पथे ।

    तत्कर्मनिर्हारमभी प्सतां हरे-गुणानुवाद: खलु सत्त्मभावन: ॥

    १२॥

    न--नहीं; ऐकान्तिकम्‌--पूरी तरह स्वच्छ किया हुआ; तत्‌--हृदय; हि--क्योंकि; कृते--अत्यन्त सुन्दर ढंग से सम्पन्न;अपि--यद्यपि; निष्कृते--प्रायश्चित्त; मन:ः--मन; पुनः--फिर; धावति--दौड़ता है; चेत्‌--यदि; असत्‌-पथे--भौतिककार्यो के मार्ग पर; तत्‌ू--इसलिए; कर्म-निर्हारमू-- भौतिक कर्मों के सकाम फलों का अन्त; अभीप्सताम्‌--उनके लिए जोगम्भीरतापूर्वक चाहते हैं; हरेः--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का; गुण-अनुवाद:--महिमा का निरन्तर कीर्तन; खलु--निस्सन्देह; सत्त्त-भावन:--वास्तव में जीवन को शुद्ध करने वाला

    धार्मिक शान्त्रों में संस्तुत किये गये प्रायश्चित्त के कर्मकाण्ड हृदय को पूरी तरह स्वच्छबनाने में अपर्याप्त होते हैं, क्योंकि प्रायश्चित्त के बाद मनुष्य का मन पुनः भौतिक कर्मों कीओर दौड़ता है।

    फलस्वरूप, जो व्यक्ति भौतिक कार्यो के सकाम फलों से मुक्ति चाहता है,उसके लिए हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन या भगवान्‌ के नाम, यश तथा लीलाओं की महिमाका गायन प्रायश्चित्त की सबसे पूर्ण विधि के रूप में संस्तुत किया जाता है, क्योंकि ऐसेकीर्तन से मनुष्य के हृदय में संचित धूल स्वच्छ हो जाती है।

    ओर दौड़ता है।

    फलस्वरूप, जो व्यक्ति भौतिक कार्यो के सकाम फलों से मुक्ति चाहता है,उसके लिए हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन या भगवान्‌ के नाम, यश तथा लीलाओं की महिमाका गायन प्रायश्चित्त की सबसे पूर्ण विधि के रूप में संस्तुत किया जाता है, क्योंकि ऐसेकीर्तन से मनुष्य के हृदय में संचित धूल स्वच्छ हो जाती है।

    अथेनं मापनयत कृताशेषाघनिष्कृतम्‌ ।

    यदसौ भगवतल्नाम प्रियमाण: समग्रहीत्‌ ॥

    १३॥

    अथ--इसलिए; एनम्‌--उसको ( अजामिल को ); मा--मत; अपनयत--ले जाने का प्रयास करो; कृत--पहले कियाहुआ; अशेष--- असीम; अघ-निष्कृतम्‌--उसके पापकर्मो के लिए प्रायश्चित्त; यत्‌--क्योंकि; असौ--उसने; भगवत्‌-नाम--भगवान्‌ का पवित्र नाम; प्रियमाण:--मरते समय; समग्रहीत्‌--पूर्णरूपेण उच्चारण किया |

    इस अजामिल ने मृत्यु के समय असहाय होकर तथा अत्यन्त जोर-जोर से भगवान्‌नारायण के पवित्र नाम का उच्चारण किया है।

    एकमात्र उसी उच्चारण ने पूरे पापमय जीवनके फलों से उसे पहले ही मुक्त कर दिया है।

    इसलिए हे यमराज के सेवको! तुम उसे नारकीयदशाओं में दण्ड देने के लिए अपने स्वामी के पास ले जाने का प्रयास मत करो।

    सद्ठेत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा ।

    वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदु: ॥

    १४॥

    सड्लेत्यम्‌ू--संकेत के रूप में; पारिहास्यम्‌--हँसी मजाक में; वा--अथवा; स्तोभम्‌--संगीतमय मनोरंजन में; हेलनम्‌--उपेक्षा भाव से; एब--निश्चय ही; वा--अथवा; बैकुण्ठ-- भगवान्‌ का; नाम-ग्रहणम्‌--पवित्रनाम का कीर्तन; अशेष--असीम; अघ-हरम्‌--पापमय जीवन के प्रभाव को दूर करने वाला; विदु:--उन्नत योगी जानते हैं

    जो व्यक्ति भगवन्नाम का कीर्तन करता है उसे तुरन्त अनगिनत पापों के फलों से मुक्तकर दिया जाता है।

    भले ही उसने यह कीर्तन अप्रत्यक्ष रूप में ( कुछ अन्य संकेत करने केलिए ), परिहास में, संगीतमय मनोरंजन के लिए अथवा उपेक्षा भाव से क्‍यों न किया हो।

    इसे शास्त्रों में पारंगत सभी विद्वान पंडित स्वीकार करते हैं।

    'पतितः स्खलितो भग्नः सन्दृष्टस्तप्त आहतः ।

    हरिरित्यवशेनाह पुमान्नाहति यातना: ॥

    १५॥

    'पतित:--गिरा हुआ; स्खलित:--फिसला हुआ; भग्न:--टूटी हड्डियों वाला; सन्दष्ट:--काटा हुआ; तप्त:--ज्वर या ऐसीही पीड़ादायक स्थिति से बुरी तरह आक्रान्त; आहत:--चोट खाया; हरि: -- भगवान्‌ कृष्ण; इति--इस प्रकार; अवशेन--अकस्मात्‌; आह--कीर्तन करता है; पुमान्‌ू--मनुष्य; न--नहीं; अर्हति--योग्य है; यातना:--नारकीय दशाएँ।

    यदि कोई हरिनाम का उचार करता है और तभी किसी आकस्मिक दुर्भाग्य से यथा छतसे गिरने, फिसलने या सड़क पर यात्रा करते समय हड्डी टूट जाने, सर्प द्वारा काटे जाने,पीड़ा तथा तेज ज्वर से आक्रान्त होने या हथियार से घायल होने से, मर जाता है, तो वहकितना ही पापी क्‍यों न हो नारकीय जीवन में प्रवेश करने से बह तुरन्त मुक्त कर दिया जाताहै।

    गुरूणां च लघूनां च गुरूणि च लघूनिच ।

    प्रायश्षित्तानि पापानां ज्ञात्वोक्तानि महर्षिभि: ॥

    १६॥

    गुरूणाम्‌-- भारी; च--तथा; लघूनाम्‌-- हल्के; च--तथा; गुरूणि -- भारी; च--तथा; लघूनि-- हल्के; च--भी;प्रायश्चित्तानि--प्रायश्चित्त की विधियाँ; पापानाम्‌ू--पापकर्मो की; ज्ञात्वा--ठीक से जानकर; उक्तानि--नियत की गई है;महा-ऋषिभि:--बड़े-बड़े ऋषियों द्वारा

    प्राधिकृत विज्ञ पंण्डितों तथा महर्षियों ने बड़ी ही सावधानी के साथ यह पता लगाया हैकि मनुष्य को भारी से भारी पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए प्रायश्चित की भारी विधि कातथा हल्के पापों के प्रायश्चित्त के लिए हल्की विधि का प्रयोग करना चाहिए।

    किन्तु हरे-कृष्ण-कीर्तन सारे पापकर्मो के प्रभावों को, चाहे वे भारी हों या हल्के, नष्ट कर देता है।

    तैस्तान्यघानि पूयन्ते तपोदानब्रतादिभि: ।

    नाधर्मजं तद्धूदयं तदपीशाड्प्रिसेवया ॥

    १७॥

    तैः--उनके द्वारा; तानि--वे सब; अधानि--पापकर्म तथा उनके फल; पूयन्ते--विनष्ट हो जाते हैं; तप:ः--तपस्या; दान--दान; ब्रत-आदिभि:--ब्रतों तथा अन्य कार्यो के द्वारा; न--नहीं; अधर्म-जम्‌--अधार्मिक कार्यों से उत्पन्न; तत्‌ू--उसका;हृदयम्‌--हृदय; तत्‌--वह; अपि-- भी; ईश-अड्प्रि-- भगवान्‌ के चरणकमलों की; सेवया--सेवा द्वारा

    यद्यपि तपस्या, दान, व्रत तथा अन्य विधियों से पापमय जीवन के फलों का निरसनकिया जा सकता है, किन्तु ये पुण्यकर्म किसी के हृदय की भौतिक इच्छाओं का उन्मूलननहीं कर सकते।

    किन्तु यदि वह भगवान्‌ के चरणकमलों की सेवा करता है, तो वह तुरन्तही ऐसे सारे कल्मषों से मुक्त कर दिया जाता है।

    अज्ञानादथवा ज्ञानादुत्तमएलोकनाम यत्‌ ।

    सड्डलीतितमघं पुंसो दहेदेधो यथानल: ॥

    १८॥

    अज्ञानात्‌ू--अज्ञानवश; अथवा--या; ज्ञानातू--जानकर; उत्तमएलोक-पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का; नाम--पवित्रनाम;यत्‌--जो; सड्लीतितम्‌--संकीर्तन किया गया; अघम्‌--पाप; पुंसः--मनुष्य का; दहेत्‌--जलाकर क्षार कर देता है;एध:--सूखी घास; यथा--जिस तरह; अनलः--अग्नि

    जिस तरह अग्नि सूखी घास को जला कर राख कर देती है, उसी तरह भगवतन्नाम, चाहेवह जाने-अनजाने में उच्चारण किया गया हो, मनुष्य के पापकर्मों के सभी फलों को निश्चितरूप से जलाकर राख कर देता है।

    यथागदं वीर्यतममुपयुक्तं यहच्छया ।

    अजानतो प्यात्मगुणं कुर्यान्मन्त्रोउप्युदाहत: ॥

    १९॥

    यथा--जिस तरह; अगदम्‌--दवा; वीर्य-तमम्‌--अत्यन्त तेज; उपयुक्तम्‌--उचित रीति से ली गई; यहच्छया--किसी -न-किसी तरह; अजानत: --ज्ञान से विहीन पुरुष द्वारा; अपि-- भी; आत्म-गुणम्‌--अपनी शक्ति से; कुर्यात्‌ू--प्रकट करता है;मन्त्र:--हरे कृष्ण मंत्र; अपि-- भी; उदाहत:--उच्चारण किया गया।

    यदि किसी दवा की प्रभावकारी शक्ति से अनजान व्यक्ति उस दवा को ग्रहण करता हैया उसे बलपूर्वक खिलाई जाती है, तो वह दवा उस व्यक्ति के जाने बिना ही अपना कार्यकरेगी, क्योंकि उसकी शक्ति रोगी के जानकारी पर निर्भर नहीं करती हैं।

    इसी तरह,भगवतन्नाम के कीर्तन के महत्त्व को न जानते हुए भी यदि कोई व्यक्ति जाने या अनजाने मेंउसका कीर्तन करता है, तो वह कीर्तन अत्यन्त प्रभावकारी होगा।

    श्रीशुक उबाचत एवं सुविनिर्णीय धर्म भागवतं नृप ।

    त॑ याम्यपाशान्निर्मुच्य विप्र॑ मृत्योरमूमुचन्‌ ॥

    २०॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; ते--वे ( विष्णुदूत ); एवम्‌--इस प्रकार; सु-विनिर्णीय--सुनिश्चितकरके; धर्ममू--असली धर्म; भागवतम्‌-- भक्ति के रूप में; नृप--हे राजा; तम्‌--उसको ( अजामिल को ); याम्य-पाशात्‌--यमदूतों के पाश से; निर्मुच्य--छुड़ाकर; विप्रम्‌--ब्राह्मण को; मृत्यो:--मृत्यु से; अमूमुचनू--बचा लिया।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन! तर्क-वितर्कों द्वारा भक्ति के सिद्धान्तों कापूरी तरह से निर्णय कर चुकने के बाद विष्णु के दूतों ने अजामिल को यमदूतों के पाश सेछुड़ा दिया और उसे आसन्न मृत्यु से बचा लिया।

    इति प्रत्युदिता याम्या दूता यात्वा यमान्तिकम्‌ ।

    यमराज्ञे यथा सर्वमाचचश्षुररिन्दम ॥

    २१॥

    इति--इस प्रकार; प्रत्युदिता:--( विष्णुदूतों द्वारा ) उत्तर पाकर; याम्या:--यमराज के सेवक; दूता:--दूत; यात्वा--जाकर; यम-अन्तिकम्‌--यमराज के धाम; यम-राज्ञे--यमराज के पास; यथा-- भलीभाँति; सर्वम्‌--सारी बातें;आचचक्षु: --विस्तार से सूचित किया; अरिन्दम--हे शत्रुओं के दमनकर्ता

    हे राजा परीक्षित! हे समस्त शत्रुओं के दमनकर्ता! जब यमराज के सेवकों ने विष्णुदूतोंसे उत्तर पा लिया, तो वे यमराज के पास गये और जो कुछ घटित हुआ था, सब कहसुनाया।

    द्विजः पाशाद्विनिर्मुक्तो गतभी: प्रकृतिं गत: ।

    बवबन्दे शिरसा विष्णो: किड्डरान्दर्शनोत्सवः ॥

    २२॥

    द्विज:--ब्राह्मण ( अजामिल ); पाशात्‌--फंदे से; विनिर्मुक्त:--छोड़ दिये जाने पर; गत-भी:--भय से मुक्त; प्रकृतिम्‌गतः--होश में आया, चेत हुआ; ववन्दे--अपना सादर प्रणाम अर्पित किया; शिरसा--अपना सिर झुकाकर; विष्णो: --भगवान्‌ विष्णु के; किड्डूरान्‌--सेवकों को; दर्शन-उत्सव:--उन्हें देखकर अतीव प्रसन्न

    यमराज के सेवकों के फन्‍्दे से छुड़ा दिये जाने पर ब्राह्मण अजामिल अब भय से मुक्तहोकर होश में आया और तुरन्त ही उसने विष्णुदूतों के चरणकमलों पर शीश झुकाकर उन्हेंनमस्कार किया।

    वह उनकी उपस्थिति से अत्यन्त प्रसन्न था, क्योंकि उसने यमराज के दूतों केहाथों से उन्हें अपना जीवन बचाते देखा था।

    त॑ं विवक्षुमभिप्रेत्य महापुरुषकिड्डूरा: ।

    सहसा पश्यतस्तस्य तत्रान्तर्दधिरिडनघ ॥

    २३॥

    तम्‌--उसको ( अजामिल को ); विवक्षुमू--बोलने की इच्छा करते हुए; अभिप्रेत्य--समझ कर; महापुरुष-किड्जूरा:--भगवान्‌ विष्णु के दूत; सहसा--एकाएक; पश्यतः तस्थ--उसके देखते-देखते; तत्र--वहाँ; अन्तर्दधिरे--अन्तर्धान हो गये;अनघ--हे निष्पाप महाराज परीक्षित।

    हे निष्पाप महाराज परीक्षित! पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णुदूतों ने देखा कि अजामिलकुछ कहना चाह रहा था, अतः वे सहसा उसके समक्ष से अन्तर्धान हो गये।

    अजामिलोप्यथाकर्णय्य दूतानां यमकृष्णयो: ।

    धर्म भागवतं शुद्ध त्रैवेद्यं च गुणाभ्रयम्‌ ॥

    २४॥

    भक्तिमान्भगवत्याशु माहात्म्यश्रवणाद्धरे: ।

    अनुतापो महानासीत्स्मरतोशुभमात्मन: ॥

    २५॥

    अजामिल:--अजामिल ने; अपि--भी; अथ--तत्पश्चात्‌; आकर्ण्य--सुनकर; दूतानाम्‌--दूतों का; यम-कृष्णयो: --यमराज तथा भगवान्‌ कृष्ण का; धर्मम्‌--वास्तविक धार्मिक सिद्धान्त; भागवतम्‌--जैसाकि श्रीमद्भागवत में वर्णित हैअथवा जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्त्म भगवान्‌ के बीच सम्बन्ध विषयक; शुद्धम्‌-शुद्ध; त्रै-वेद्यम्‌--तीनों बेदों में उल्लिखित;च--भी; गुण-अश्रयम्‌-- प्रकृति के गुणों के अधीन भौतिक धर्म; भक्ति-मान्‌--शुद्ध भक्त ( भौतिक गुणों से शुद्ध कियाहुआ ); भगवति--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के प्रति; आशु--तुरन्त; माहात्म्य--नाम, यश आदि का गुणगान; श्रवणात्‌--सुनने से; हरेः:-- भगवान्‌ के; अनुताप: -- खेद; महान्‌--अत्यधिक; आसीत्‌-- था; स्मरत:--स्मरण करता हुआ;अशुभम्‌--समस्त अशुभ कर्म; आत्मन:--अपने द्वारा किये हुए

    यमदूतों तथा विष्णुदूतों के बीच हुए वार्तालापों को सुनकर अजामिल उन धार्मिकसिद्धान्तों को समझ सका जो भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अधीन कार्य करते हैं।

    येसिद्धान्त तीन वेदों में उल्लिखित हैं।

    वह उन दिव्य धार्मिक सिद्धान्तों को भी समझ सका जोभौतिक प्रकृति के गुणों से ऊपर हैं और जो जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के बीच केसम्बन्ध से सम्बन्धित हैं।

    इतना ही नहीं, अजामिल ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के नाम, यश,गुणों तथा लीलाओं के गुणगान को सुना।

    इस तरह वह पूरी तरह शुद्ध भक्त बन गया।

    तबउसे अपने विगत पापकर्मों का स्मरण हुआ और उसे अत्यधिक पछतावा हुआ कि उसने येपाप क्‍यों किये।

    अहो मे परमं कष्टमभूदविजितात्मन: ।

    येन विप्लावितं ब्रह्म वृषल्यां जायतात्मना ॥

    २६॥

    अहो--हाय; मे--मेरी; परमम्‌-- अत्यधिक; कष्टम्‌--दुखी अवस्था; अभूत्‌--हो गई; अविजित-आत्मन:--क्योंकि मेरीइन्द्रियाँ अनियंत्रित थीं; येन--जिनके द्वारा; विप्लावितम्‌-विनष्ट; ब्रह्म--मेरे सारे ब्राह्मणगुण; वृषल्याम्‌--एक शूद्राणीया दासी से; जायता--उत्पन्न हुए; आत्मना--मेरे द्वारा

    अजामिल ने कहा : हाय! अपनी इन्द्रियों का दास बनकर मैं कितना अधम बन गया! मैंअपने सुयोग्य ब्राह्मण पद से नीचे गिर गया और मैंने एक वेश्या के गर्भ से बच्चे उत्पन्नकिये।

    धिड्मां विगर्हितं सद्धिर्दुष्कृतं कुलकज्जलम्‌ ।

    हित्वा बालां सतीं योहं सुरापीमसतीमगाम्‌ ॥

    २७॥

    धिक्‌ माम्‌--मुझे धिक्कार है; विगर्हितम्‌--निन्‍्दनीय; सद्द्धिः--ईमानदार व्यक्तियों द्वारा; दुष्कृतम्‌--पापकर्म करने वाला;कुल-कजलमू--जिसने कुल की परम्परा को कलंकित किया हो; हित्वा--त्यागकर; बालाम्‌--युवा पत्नी को; सतीम्‌--सती-साध्वी; यः--जो; अहम्‌--मैंने; सुरापीम्‌--शराब पीने वाली स्त्री के साथ; असतीम्‌--असाध्वी; अगाम्‌--संभोगकिया।

    हाय! मुझे धिक्कार है।

    मैंने इतना पापपूर्ण कार्य किया है कि अपनी मैने कुल-परम्पराको लज्जित किया है।

    दरअसल, मैंने शराब पीने वाली पतित वेश्या के साथ संभोग करने केलिए अपनी सती तथा सुन्दर युवा पत्नी को त्याग दिया है।

    धिक्कार है मुझे।

    वृद्धावनाथौ पितरौ नान्यबन्धू तपस्विनौ ।

    अहो मयाधुना त्यक्तावकृतज्ञेन नीचवत्‌ ॥

    २८॥

    वृद्धौ--वृद्ध; अनाथौ--जिनकी देखरेख करने वाला कोई न हो; पितरौ--अपने माता-पिता; न अन्य-बन्धू--जिनके कोईअन्य मित्र नहीं था; तपस्विनौ--जिन्होंने बड़े कष्ट सहे थे; अहो--हाय; मया--मेरे द्वारा; अधुना--सम्प्रति; त्यक्तौ-्यागेहुए; अकृत-ज्ञेन--अकृतज्ञ द्वारा; नीच-वत्‌--सबसे निन्दनीय व्यक्ति की तरह।

    मेरे माता-पिता वृद्ध थे और उनकी देखरेख करने वाला कोई अन्य पुत्र या मित्र न था।

    चूँकि मैंने उनकी देखभाल नहीं की, अतएव उन्हें बहुत ही कष्ट में रहना पड़ा।

    हाय! एकनिन्दनीय निम्न जाति के पुरुष की तरह मैंने उस स्थिति में अकृतज्ञतापूर्वक उन्हें छोड़ दिया।

    सोडहं व्यक्त पतिष्यामि नरके भूशदारुणे ।

    धर्मघ्ना: कामिनो यत्र विन्दन्ति यमयातना: ॥

    २९॥

    सः--ऐसा व्यक्ति; अहम्‌--मैं; व्यक्तम्‌--अब स्पष्ट है; पतिष्यामि--नीचे गिरूँगा; नरके--नरक में; भूश-दारुणे-- अत्यन्तकष्टमय; धर्म-घ्ना:--धार्मिक सिद्धान्तों को तोड़ने वाले; कामिन:--अत्यधिक कामुक; यत्र--जहाँ; विन्दन्ति--सहते हैं;यम-यातना: --यमराज द्वारा दी जाने वाली कष्टमय दशाएँ।

    अब यह स्पष्ट है कि ऐसे कर्मों के फलस्वरूप मुझ जैसे पापी व्यक्ति को उस नारकीयअवस्था में फेंक दिया जाना चाहिए जो धार्मिक सिद्धान्तों को तोड़ने वाले लोगों के निमित्तहोती है और मुझे वहाँ घोर कष्ट सहने चाहिए।

    किमिदं स्वण आहो स्वित्साक्षादूष्टमिहाद्धुतम्‌ ।

    क्‍्व याता अद्य ते ये मां व्यकर्षन्याशपाणय: ॥

    ३०॥

    किम्‌--क्या; इृदम्‌--यह; स्वप्ने--स्वण में; आहो स्वित्‌ू--अथवा; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; दृष्टमू--देखा हुआ; इह--यहाँ;अद्भुतमू- आश्चर्यजनक; क्व--कहाँ; याता: --चले गये; अद्य-- अभी; ते--वे सभी; ये--जो; माम्‌--मुझको;व्यकर्षनू--घसीट रहे थे; पाश-पाणय:--अपने हाथों में पाश लिये हुए |

    क्या मैंने यह सपना देखा था या यह सच्चाई थी?

    मैंने भयावह पुरुषों को हाथ में रस्सीलिये मुझको बन्दी बनाने के लिए आते और मुझे दूर घसीटकर ले जाते हुए देखा।

    वे कहाँचले गये हैं ?

    अथ ते क्‍्व गताः सिद्धाश्चत्वारश्चारुदर्शना: ।

    व्यामोचयन्नीयमानं बद्ध्वा पाशैरधो भुवः ॥

    ३१॥

    अथ--इसलिए; ते--वे व्यक्ति; क्ब--कहाँ; गता:--चले गये; सिद्धा:--मुक्त; चत्वार:--चारों व्यक्ति; चारु-दर्शना: --देखने में अतीव सुन्दर; व्यामोचयन्‌--उन्होंने छोड़ दिया; नीयमानम्‌--ले जाये जा रहे मुझे; बद्ध्वा--बन्दी बनाकर;पाशै:--रस्सियों से; अध: भुव:ः--नीचे नरक क्षेत्र को |

    और वे मुक्त तथा अति सुन्दर चार पुरुष कहाँ चले गये जिन्होंने मुझे बन्धन से मुक्तकिया और मुझे नारकीय क्षेत्रों में घमलीट कर ले जाये जाने से बचाया ?

    अथापि मे दुर्भगस्य विबुधोत्तमदर्शने ।

    भविततव्यं मड़लेन येनात्मा मे प्रसीदति ॥

    ३२॥

    अथ--इसलिए; अपि--यद्यपि; मे--मुझ; दुर्भगस्य--इतने अभागे का; विबुध-उत्तम--उच्च भक्तों का; दर्शने--दर्शनकरने से; भवितव्यम्‌ू--होगा; मड्गलेन--शुभ कार्य; येन--जिससे; आत्मा--आत्मा; मे--मेरी; प्रसीदति--वास्तव में सुखीहोती है।

    निश्चय ही मैं अति निन्दनीय तथा अभागा हूँ कि पापकर्मों के समुद्र में डूबा हुआ हूँ,किन्तु फिर भी अपने पूर्व आध्यात्मिक कर्मों के कारण मैं उन चार महापुरुषों का दर्शन करसका जो मुझे बचाने आये थे।

    उनके आने से अब मैं अत्यधिक सुखी अनुभव करता हूँ।

    अन्यथा प्रियमाणस्य नाशुचेर्वृषलीपते: ।

    वैकुण्ठनामग्रहणं जिह्ना वक्तुमिहाहति ॥

    ३३॥

    अन्यथा--अन्यथा, नहीं तो; प्रियमाणस्य--मरणासतन्न व्यक्ति का; न--नहीं; अशुचे:--अत्यन्त मलिन; वृषली-पते:--वेश्यागामी; बैकुण्ठ--वैकुण्ठ के भगवान्‌ का; नाम-ग्रहणम्‌--पवित्र नाम का कीर्तन; जिह्ला--जीभ; वक्तुम्‌--कहने में;इह--इस स्थिति में; अहति--समर्थ है।

    यदि मैने विगत में भक्ति न की होती तो मुझ मलिन वेश्यागामी को, जो मरणासन्न थाकिस तरह वैकुण्ठपति के पवित्र नाम का उच्चारण करने का अवसर मिल पाता ?

    निश्चय हीऐसा सम्भव न हो पाता।

    क्व चाहं कितव:ः पापो ब्रह्मध्तो निरपत्रपः ।

    क्व च नारायणेत्येतद्धगवन्नाम मड्भलम्‌ ॥

    ३४॥

    क्व--कहाँ; च-- भी; अहम्‌--मैं; कितव:ः--वंचक, ठग; पापः--मूर्त रूप में सारे पाप; ब्रह्म-घ्न:--ब्राह्मण संस्कृति काहत्यारा; निरपत्रप:--निर्लज; क्व--कहाँ; च-- भी; नारायण-- नारायण; इति--इस प्रकार; एतत्‌--यह; भगवत्‌-नाम--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पवित्र नाम; मड्गलम्‌--सर्व मंगलप्रद |

    अजामिल कहता रहा : मैं ऐसा निर्लज्ज ठग हूँ जिसने अपनी ब्राह्मण संस्कृति की हत्याकर दी है।

    निस्सन्देह, मैं साक्षात्‌ पाप हूँ।

    भला मैं भगवान्‌ नारायण के पवित्रनाम केसर्वमंगलकारी कीर्तन की बराबरी में कहाँ ठहर सकता हूँ?

    सोहं तथा यतिष्यामि यतचित्तेन्द्रयानिल: ।

    यथा न भूय आत्मानमन्धे तमसि मज्जये ॥

    ३५॥

    सः--ऐसा व्यक्ति; अहम्‌-मैं; तथा--इस तरह से; यतिष्यामि--मैं प्रयत्त करूँगा; यत-चित्त-इन्द्रिय--मन तथा इन्द्रियोंको नियंत्रित करूँगा; अनिल:--तथा आन्तरिक वायु; यथा--जिससे; न--नहीं; भूयः--पुनः; आत्मानम्‌--मेरी आत्मा;अन्धे--अंधकार में; तमसि--अज्ञान में; मजये--मैं डूब रहा हूँ।

    मैं ऐसा पापी व्यक्ति हूँ, किन्तु अब मुझे यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मैं अपने मन,जीवन ( प्राण ) तथा इन्द्रियों को पूरी तरह से वश में करके भक्ति में अपने को लगाऊँगाजिससे मैं पुन: गहन अंधकार तथा भौतिक जीवन के अज्ञान में न गिरूँ।

    विमुच्य तमिमं बन्धमविद्याकामकर्मजम्‌ ।

    सर्वभूतसुहच्छान्तो मैत्र: करुण आत्मवान्‌ ॥

    ३६॥

    मोचवये ग्रस्तमात्मानं योषिन्मय्यात्ममायया ।

    विक्रीडितो ययैवाहं क्रीडामृग इवाधम: ॥

    ३७॥

    विमुच्य--छूटकर; तम्‌--उससे; इमम्‌--यह; बन्धम्‌--बन्धन; अविद्या--अविद्या के कारण; काम--कामेच्छाओं केकारण; कर्म-जम्‌--कार्यों से उत्पन्न; सर्व-भूत--सारे जीवों का; सुहृत्‌--मित्र; शान्त:ः--अत्यन्त शान्त; मैत्र: --मैत्रीपूर्ण ;करुण:--दयालु; आत्म-वान्‌--स्वरूपसिद्ध; मोचये--मैं पाशमुक्त करूँगा; ग्रस्तम्‌--कसा हुआ; आत्मानम्‌--मेरी आत्मा; योषित्‌-मय्या--स्त्री रूप में; आत्म-मायया-- भगवान्‌ की मोहिनी शक्ति से; विक्रीडित:--खिलवाड़ करता;यया--जिससे; एव--निश्चय; अहम्‌--मैं; क्रीडा-मृग:--वशीभूत पशु; इब--सहृश; अधम:--इतना पतित

    शरीर से अपनी पहचान बनाने के कारण मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छाओं के अधीनहोता है और इस तरह वह अपने को अनेक प्रकार के पवित्र तथा अपवित्र कार्यो में लगाताहै।

    यही भौतिक बन्धन है।

    अब मैं अपने आपको उस भौतिक बन्धन से छुड़ाऊँगा जो स्त्री केरूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की मोहिनी शक्ति द्वारा उत्पन्न किया गया है।

    सर्वाधिकपतितात्मा होने से मैं माया का शिकार बना और उस नाचने वाले कुत्ते के समान बन गयाजो स्त्री के हाथ के इशारे पर चलता है।

    अब मैं सारी कामेच्छाओं को त्याग दूँगा और इसमोह से अपने को मुक्त कर लूँगा।

    मैं दयालु एवं समस्त जीवों का शुभेषी मित्र बनूंगा तथाकृष्णभावनामृत में अपने को सदैव लीन रखूँगा।

    ममाहमिति देहादौ हित्वामिथ्यार्थधीर्मतिम्‌ ।

    धास्ये मनो भगवति शुद्ध तत्कीर्तनादिभि: ॥

    ३८॥

    मम--मेरा; अहमू--मैं; इति--इस प्रकार; देह-आदौ--शरीर तथा उससे सम्बद्ध वस्तुओं में; हित्वा--त्यागकर;अमिथ्या--मिथ्या नहीं; अर्थ--मूल्यों पर; धी:--अपनी चेतना से; मतिम्‌--प्रवृत्ति को; धास्ये--लगाऊँगा; मन:--मेरामन; भगवति--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ में; शुद्धमू-शुद्ध; तत्‌ू--उनका नाम; कीर्तन-आदिभि:--कीर्तन , श्रवण इत्यादिके द्वारा

    चूँकि मैंने भक्तों की संगति में भगवान्‌ के पवित्र नाम का केवल कीर्तन किया है,इसलिए मेरा हृदय अब शुद्ध बन रहा है।

    इसलिए मैं अब पुनः भौतिक इन्द्रियतृष्ति के झूठेआकर्षणों का शिकार नहीं बनूँगा।

    चूँकि अब मैं परम सत्य में स्थित हो चुका हूँ, अतः अबउसके बाद मैं शरीर के साथ अपनी पहचान नहीं करूँगा।

    'मैं' तथा 'मेरा ' के मिथ्याविचारों को त्यागकर मैं अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों में स्थिर करूँगा।

    इति जातसुनिर्वेद: क्षणसड्रेन साधुषु ।

    गड़्ाद्वारमुपेयाय मुक्तसर्वानुबन्धन: ॥

    ३९॥

    इति--इस प्रकार; जात-सुनिर्वेद: --( अजामिल ) जो भौतिक देहात्मबुद्धि से विरक्त हो चुका था; क्षण-सट्डेन-- क्षण भरकी संगति से; साधुषु--भक्तों की; गड़्ा-द्वारम्‌--हरद्वार ( हरिद्वार )।

    उपेयाय--गया; मुक्त--मुक्त होकर; सर्व-अनुबन्धन:--सभी प्रकार के भौतिक बन्धनों सेभक्तों ( विष्णुदूतों ) की क्षण-भर की संगति के कारण अजामिल ने अपने मन कोसंकल्पपूर्वक भौतिक देहात्मबुद्धि से विलग कर लिया।

    इस तरह समस्त भौतिक आकर्षणसे मुक्त हुआ वह तुरन्त हरद्वार के लिए चल पड़ा।

    स तस्मिन्देवसदन आसीनो योगमास्थित: ।

    प्रत्याहतेन्द्रियग्रामो युयोज मन आत्मनि ॥

    ४०॥

    सः--उसने ( अजामिल ने ); तस्मिन्‌ू--उस स्थान ( हरद्वार ) में; देव-सदने--एक विष्णु मन्दिर में; आसीन: --स्थित होकर;योगम्‌ आस्थित:--भक्तियोग सम्पन्न किया; प्रत्याहत--इन्द्रिय तृप्ति के समस्त कार्यों से विलग; इन्द्रिय-ग्राम:--अपनीइन्द्रियाँ; युयोज--स्थिर किया; मन:--मन; आत्मनि--आत्मा, परमात्मा या पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ पर।

    हरद्वार में अजामिल ने एक विष्णुमन्दिर में शरण ली जहाँ उसने भक्तियोग की विधि कोसम्पन्न किया।

    उसने अपनी इन्द्रियों को वश में किया और अपने मन को पूरी तरह सेभगवान्‌ की सेवा में लगा दिया।

    ततो गुणेभ्य आत्मानं वियुज्यात्मसमाधिना ।

    युयुजे भगवद्धाम्नि ब्रह्मण्यनुभवात्मनि ॥

    ४१॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; गुणेभ्य: --प्रकृति के गुणों से; आत्मानम्‌--मन को; वियुज्य--विलग करके; आत्म-समाधिना-- भक्तिमें पूरी तरह; युयुजे--लगा दिया; भगवत्‌ू-धाम्नि-- भगवान्‌ के रूप में; ब्रह्मणि--जो परब्रह्म है ( मूर्ति पूजा नहीं );अनुभव-आत्मनि--जिसके विषय में सदैव सोचा जाता है ( चरणकमलों से शुरू करके धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़तेहुए)

    अजामिल पूरी तरह से भक्ति में लग गया।

    इस तरह उसने इन्द्रियतृप्ति से अपने मन कोविलग कर लिया और वह भगवान्‌ के स्वरूप का चिन्तन करने में पूरी तरह लीन हो गया।

    यह[पारतधीस्तस्मित्रद्राक्षीत्पुरुषान्पुर: ।

    उपलभ्योपलब्धाय्प्राग्ववन्दे शिरसा द्विज: ॥

    ४२॥

    यहि--जब; उपारत-धी:--उसका मन तथा बुद्द्धि स्थिर थे; तस्मिनू--उस समय; अद्राक्षीत्‌-देखा था; पुरुषान्‌ू--पुरुषोंको ( विष्णुदूतों को ); पुरः--अपने समक्ष; उपलभ्य--पाकर; उपलब्धानू--जो पहले मिल चुके थे; प्राकु--पहले;ववन्दे--नमस्कार किया; शिरसा--सिर के बल; द्विज:--ब्राह्मण ने।

    जब ब्राह्मण अजामिल की बुद्धि तथा मन भगवान्‌ के स्वरूप पर स्थिर हो गये तो उसनेपुनः उन चार दिव्य पुरुषों को अपने समक्ष देखा।

    वह समझ गया कि ये वही हैं, जिन्हें वह पहले देख चुका है, अतः उनके समक्ष उसने नतमस्तक होकर नमस्कार किया।

    हित्वा कलेवरं तीर्थ गड़ायां दर्शनादनु ।

    सद्यः स्वरूपं जगृहे भगवत्पाश्श्ववर्तिनामू ॥

    ४३॥

    हित्वा--त्यागकर; कलेवरम्‌-- भौतिक शरीर; तीर्थे--तीर्थस्थान में; गड्जायाम्‌ू--गंगानदी के तट पर; दर्शनात्‌ अनु--दर्शनकरने के बाद; सद्यः--तुरन्त; स्व-रूपम्-- अपना आदि आध्यात्मिक रूप; जगृहे-- धारण कर लिया; भगवत्‌-पार्श्व-वर्तिनामू--जो भगवान्‌ के पार्षद के लिए उपयुक्त है

    विष्णुदूतों का दर्शन करने के बाद अजामिल ने गंगानदी के तट पर हरद्वार में अपनाभौतिक शरीर त्याग दिया।

    उसे अपना आदि आध्यात्मिक शरीर पुनः मिल गया जो भगवान्‌के पार्षद के लिए उपयुक्त था।

    जे जलसाकं विहायसा विप्रो महापुरुषकिड्जरै: ।

    हैमं विमानमारुह्म ययौ यत्र भ्रिय: पति: ॥

    ४४॥

    साकम्‌--साथ; विहायसा--आकाश मार्ग द्वारा; विप्र: --ब्राह्मण ( अजामिल ); महापुरुष-किड्जरैः--विष्णुदूतों के साथ;हैमम्‌--सोने का बना; विमानम्‌--विमान में; आरुह्म--सवार होकर; ययौ--गया; यत्र--जहाँ; थ्रियः पति:--लक्ष्मी-पतिविष्णु।

    भगवान्‌ विष्णु के दूतों के साथ अजामिल सोने के बने हुए विमान पर सवार हुआ।

    वहआकाश मार्ग से जाते हुए सीधे लक्ष्मीपति भगवान्‌ विष्णु के धाम गया।

    एवं स विप्लावितसर्व धर्मादास्या: पतिः पतितो गह्ाकर्मणा ।

    निपात्यमानो निरये हतक्रतःसद्यो विमुक्तो भगवन्नाम गृहन्‌ ॥

    ४५॥

    एवम्‌--इस तरह से; सः--वह ( अजामिल ); विप्लावित-सर्व-धर्मा:--जिसने सारे धर्मों को त्याग दिया था; दास्याः'पति:--वेश्या का पति; पतित:--पतित; ग्ह-कर्मणा--गर्हित कामों में लगे रहने से; निपात्यमान:--गिरते हुए; निरये--नरक में; हत-ब्रतः--जिसने अपने सारे ब्रतों को तोड़ रखा था; सद्यः--तुरन्त; विमुक्त:--मुक्त; भगवत्‌-नाम--भगवान्‌का पवित्र नाम; गृहन्‌ू--कीर्तन करते हुए

    अजामिल ब्राह्मण था जिसने कुसंगति के कारण सारी ब्राह्मण-संस्कृति तथा धार्मिकनियमों को त्याग दिया था।

    सर्वाधिक पतित होने से वह चोरी करता, शराब पीता तथा अन्यगहित कार्य करता था।

    उसने एक वेश्या भी रख ली थी।

    इस तरह उसका यमराज के दूतोंद्वारा नरक ले जाया जाना सुनिश्चित था, किन्तु नारायण के पवित्र नाम का लेश मात्रउच्चारण करने से ही तुरन्त उसे बचा लिया गया।

    नातः परं कर्मनिबन्धकृन्तनंमुमुक्षतां तीर्थपदानुकीर्तनात्‌ ।

    न यत्पुनः कर्मसु सज्जते मनोरजस्तमोभ्यां कलिलं ततोउन्यथा ॥

    ४६॥

    न--नहीं; अत:ः--इसलिए; परम्‌-- श्रेष्ठठर साधन; कर्म-निबन्ध--सकाम कर्मों के फलस्वरूप कष्ट भोगने की बाध्यता;कृन्तनम्‌--जो पूरी तरह छिन्न कर दे; मुमुक्षताम्‌-- भव-बन्धन के पाश से बाहर निकलने की इच्छा रखने वाले पुरुषों का;तीर्थ-पद--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के विषय में, जिनके पाँवों पर सारे तीर्थस्थान स्थित हैं; अनुकीर्तनात्‌-- प्रामाणिक गुरुके निर्देशानुसार कीर्तन करने की अपेक्षा; न--नहीं; यत्‌--क्योंकि; पुन:--फिर; कर्मसु--सकाम कर्मों में; सजते--लिप्तहोता है; मनः--मन; रज:-तमोभ्याम्‌--रजो तथा तमो गुणों द्वारा; कलिलम्‌-दूषित; तत:--तत्पश्चात्‌; अन्यथा--किसीअन्य साधन से

    अतः जो व्यक्ति भवबन्धन से मुक्त होना चाहता है, उसे चाहिए कि उन पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ के नाम, यश, रूप तथा लीलाओं के कीर्तन तथा गुणगान की विधि को अपनाए,जिनके चरणों पर सारे तीर्थस्थान स्थित हैं।

    अन्य साधनों से, यथा पवित्र पश्चात्ताप, ज्ञान,यौगिक ध्यान से उसे उचित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसी विधियों का पालनकरने पर भी मनुष्य अपने मन को वश में न कर सकने के कारण पुनः सकाम कर्म करनेलगता है, क्योंकि मन प्रकृति के निम्न गुणों से--यथा रजो तथा तमो गुणों से--संदूषितरहता है।

    य एत॑ परम गुह्ामितिहासमघापहम्‌ ।

    श्रृणुयाच्छुद्धया युक्तो यश्व भक्त्यानुकीर्तयेत्‌ ॥

    ४७॥

    न वै स नरक याति नेक्षितो यमकिड्जरै: ।

    यद्यप्यमड़लो मर्त्यों विष्णुलोके महीयते ॥

    ४८ ॥

    यः--जो कोई; एतम्‌--इस; परमम्‌-- अत्यन्त; गुह्मम्‌ू--गोपनीय; इतिहासम्‌--ऐतिहासिक कथा को; अघ-अपहम्‌--पापोंके सारे फलों से मुक्त करने वाली; श्रुणुयात्‌-सुनता है; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; युक्त: --से युक्त; यः:--जो; च-- भी;भकत्या--महती भक्ति से; अनुकीर्तयेत्‌--दुहराता है; न--नहीं; बै--निस्सन्देह; स:ः--ऐसा व्यक्ति; नरकम्‌ू--नरक को;याति--जाता है; न--नहीं ; ईक्षितः --देखा जाता है; यम-किड्जरैः--यमराज के दूतों द्वारा; यदि अपि--यद्यपि;अमड्गल:--अशुभ; मर्त्य:--भौतिक शरीर में; विष्णु-लोके--वैकुण्ठलोक में; महीयते--सादर स्वागत किया जाता हैच

    ूँकि इस अतिगोपनीय ऐतिहासिक कथा में सारे पापफलों को नष्ट करने की शक्ति है,अतः जो भी इसे श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक सुनता है या सुनाता है, वह नरकभागी नहीं होता,चाहे उसे भौतिक शरीर मिला हो और चाहे वह कितना ही पापी क्‍यों न रहा हो।

    दरअसल,यमराज के आदेशों का पालन करने वाले यमदूत उसे आँख उठाकर देखने के लिए भीउसके पास नहीं जाते।

    अपना शरीर त्यागने के बाद वह भगवद्धाम लौट जाता है जहाँ उसकासादर स्वागत किया जाता है और पूजा की जाती है।

    प्रियमाणो हरे्नाम गृणन्पुत्रोपचारितम्‌ ।

    अजामिलोप्यगाद्धाम किमुत श्रद्धया गृणन्‌ ॥

    ४९॥

    प्रियमाण: --मृत्यु के समय; हरे: नाम--हरि का पवित्र नाम; गृणन्‌--उच्चारण करते हुए; पुत्र-उपचारितम्‌-- अपने पुत्र कीओर इशारा करते; अजामिल: --अजामिल; अपि--तक; अगात्‌--गया; धाम--आध्यात्मिक जगत; किम्‌ उत--क्या कहाजा सकता है; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक ; गृणन्‌--उच्चारण करते हुए

    अजामिल ने मृत्यु के समय कष्ट भोगते हुए भगवान्‌ के पवित्र नाम का उच्चारण कियाऔर यद्यपि उसका यह उच्चारण उसके पुत्र की ओर लक्षित था फिर भी वह भगवद्धामवापस गया।

    इसलिए यदि कोई श्रद्धापूर्वक तथा निरपराध भाव से भगवन्नाम का उच्चारणकरता है, तो वह भगवान्‌ के पास लौटेगा इसमें सन्देह कहाँ है ?

    TO

    अध्याय तीन: यमराज अपने दूतों को निर्देश देते हैं

    6.3श्रीराजोबाचनिशम्य देव: स्वभटोपवर्णितंप्रत्याह कि तानपि धर्मराज: ।

    एवं हताज्ञो विहतान्मुरारे-नैदेशिकैर्यस्थ वशे जनोउयम्‌ ॥

    १॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; निशम्य--सुनकर; देव: --यमराज; स्व-भट--अपने सेवकों का; उपवर्णितम्‌--कथन;प्रत्याह--उत्तर दिया; किमू--क्या; तानू--उनको; अपि-- भी; धर्म-राज:--यमराज, जो मृत्यु के अधीक्षक तथा धार्मिकएवं अधार्मिक कार्यों के निर्णायक हैं; एवम्‌--इस प्रकार; हत-आज्ञ:--जिनका आदेश व्यर्थ हो चुका था; विहतान्‌ू--जोपराजित किये गये थे; मुरारे: नेदेशिकैः --मुरारी अर्थात्‌ कृष्ण के दूतों द्वारा; यस्थ--जिसके ; वशे--अधीन; जन: अयमू--संसार के सारे लोग

    राजा परीक्षित ने कहा : हे प्रभु, हे शुकदेव गोस्वामी! यमराज सारे जीवों के धार्मिकतथा अधार्मिक कार्यो के नियंत्रक हैं, लेकिन उनका आदेश व्यर्थ कर दिया गया है।

    जबउनके सेवकों अर्थात्‌ यमदूतों ने उनसे विष्णुदूतों द्वारा अपनी पराजय की जानकारी दीजिन्होंने उन्हें अजामिल को बन्दी बनाने से रोका था, तो यमराज ने क्या उत्तर दिया ?

    यमस्य देवस्य न दण्डभड्ःकुतश्चनर्षे श्रुतपूर्व आसीत्‌ ।

    एतनन्‍्मुने वृश्चति लोकसंशयंन हि त्वदन्य इति मे विनिश्चितम्‌ ॥

    २॥

    यमस्य--यमराज का; देवस्थ--न्याय के अधिकारी देवता; न--नहीं; दण्ड-भड़:--आदेश का तोड़ा जाना; कुतश्चन--कहीं से भी; ऋषे--हे ऋषि; श्रुत-पूर्व:--पहले सुना हुआ; आसीत्‌-- था; एतत्‌--यह; मुने--हे मुनि; वृश्चति--नष्ट करसकता है; लोक-संशयम्‌--लोगों का सन्देह; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; त्वत्‌-अन्य:--आपके अतिरिक्त; इति--इसप्रकार; मे--मेरे द्वारा; विनिश्चितम्‌--निष्कर्ष को प्राप्त |

    हे महर्षि! इसके पूर्व यह कहीं भी सुनाई नहीं पड़ा कि यमराज के आदेश का उल्लंघनहुआ हो।

    इसलिए मैं सोचता हूँ कि लोगों को इस पर सन्देह होगा जिसका उन्मूलन अन्यकोई नहीं, अपितु आप ही कर सकते हैं।

    चूँकि ऐसी मेरी दृढ़ धारणा है, इसलिए कृपा करकेइन घटनाओं के कारणों की व्याख्या करें।

    श्रीशुक उवाचभगवत्पुरुषै राजन्याम्या: प्रतिहतोद्यमा: ।

    पतिं विज्ञापयामासुर्यमं संयमनीपतिम्‌ ॥

    ३॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; भगवत्-पुरुषै:-- भगवान्‌ के आज्ञापालकों या विष्णुदूतों द्वारा; राजन्‌ू--हेराजन्‌; याम्या:--यमराज के दूत; प्रतिहत-उद्यमा:--जिनके प्रयास व्यर्थ हुए; पतिम्‌--अपने स्वामी; विज्ञापयाम्‌ आसु:--सूचित किया; यमम्‌--यमराज को; संयमनी-पतिम्‌--संयमनी पुरी के स्वामी |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: हे राजन्‌! जब यमराज के दूत विष्णुदूतों द्वारा चकरादिये गये और पराजित कर दिये गये तो वे अपने स्वामी संयमनीपुरी के नियंत्रक तथा पापीपुरुषों के स्वामी यमराज के पास इस घटना को बताने पहुँचे।

    यमदूता ऊचु:कति सन्‍्तीह शास्तारो जीवलोकस्य वै प्रभो ।

    त्रैविध्यं कुर्वतः कर्म फलाभिव्यक्तिहेतवः ॥

    ४॥

    यमदूता: ऊचु:--यमराज के दूतों ने कहा; कति--कितने; सन्ति--हैं; इहह--इस जगत में; शास्तार:--नियंत्रक याशासक; जीव-लोकस्य--इस भौतिक जगत के; बै--निस्सन्देह; प्रभो--हे स्वामी; त्रै-विध्यम्‌--प्रकृति के तीन गुणों केअधीन; कुर्वतः--करते हुए; कर्म--कर्म; फल--फलों की; अभिव्यक्ति-- अभिव्यक्ति के; हेतव:--कारण।

    यमदूतों ने कहा : हे प्रभु! इस भौतिक जगत में कितने नियंत्रक या शासक हैं ?

    प्रकृतिके तीन गुणों ( सतो, रजो तथा तमो गुणों ) के अधीन सम्पन्न कर्मों के विविध फलों कोप्रकट करने के लिए कितने कारण उत्तरदायी हैं ?

    यदि स्युर्बहवो लोके शास्तारो दण्डधारिण: ।

    कस्य स्यातां न वा कस्य मृत्युश्नामृतमेव वा ॥

    ५॥

    यदि--यदि; स्यु:--हैं; बहव:--अनेक; लोके --इस जगत में; शास्तार: --शासक या नियंत्रक; दण्ड-धारिण:--पापीलोगों को दण्ड देने वाले; कस्य--किसका; स्याताम्‌ू--हो सकता है; न--नहीं; वा--अथवा; कस्य--किसका; मृत्यु: --कष्ट या दुख; च--तथा; अमृतमू--सुख; एब--निश्चय ही; वा--अथवायदि

    इस ब्रह्माण्ड में अनेक शासक तथा न्यायकर्ता हैं, जो दण्ड तथा पुरस्कार के विषयमें मतभेद रखते हों, तो उनके विरोधी कार्य एक दूसरे को प्रभावहीन कर देंगे और न तोकोई दण्डित होगा न पुरस्कृत होगा।

    अन्यथा, यदि उनके विरोधी कार्य एक दूसरे कोप्रभावहीन नहीं कर पाते तो हर एक को दण्ड तथा परस्कार दोनों ही देने होंगे।

    किन्तु शास्तृबहुत्वे स्याह्नहूनामिह कर्मिणाम्‌ ।

    शास्तृत्वमुपचारो हि यथा मण्डलवर्तिनाम्‌ ॥

    ६॥

    किन्तु--लेकिन; शास्तृ--राज्यपालकों या निर्णायकों का; बहुत्वे--विविधता में; स्थातू--हो सकता है; बहूनाम्‌--अनेकोंका; इह--इस जगत में; कर्मिणाम्‌ू--कर्म करने वाले पुरुषों का; शास्तृत्वम्‌ू--विभागीय व्यवस्था; उपचार:--प्रशासन;हि--निस्सन्देह; यथा--जिस तरह; मण्डल-वर्तिनाम्‌ू--विभागीय अध्यक्षों का

    यमदूतों ने आगे कहा : चूँकि कर्मी अनेक हैं, अतएवं उनके न्याय करने वाले निर्णायकया शासक भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु जिस तरह एक केन्द्रीय सप्राट विभिन्न विभागीय शासकों को नियंत्रित करता है, उसी तरह सारे निर्णायकों के मार्गदर्शन हेतु एक परमनियन्ता होना चाहिए।

    अतस्त्वमेको भूतानां सेश्वराणामधी श्वर: ।

    शास्ता दण्डधरो नृणां शुभाशुभविवेचन: ॥

    ७॥

    अतः--अत:; त्वम्‌ू--तुम; एक:--एक; भूतानाम्‌--सारे जीवों के; स-ईश्वराणाम्‌--सारे देवताओं सहित; अधी श्वर:--परम स्वामी; शास्ता--परम शासक; दण्ड-धरः--दण्ड का परम प्रशासक; नृणाम्‌--मानव समाज का; शुभ-अशुभ-विवेचन:--जो शुभ तथा अशुभ में भेदभाव करता है।

    परम निर्णायक तो एक होना चाहिए, अनेक नहीं।

    हम तो यही समझते थे कि आप परमनिर्णायक हैं और आपका देवताओं पर भी अधिकार है।

    हमारी यह धारणा थी कि आप सारेजीवों के स्वामी हैं, जो सारे मनुष्यों के शुभ तथा अशुभ कर्मों में भेदभाव करते हैं।

    तस्य ते विहितो दण्डो न लोके वर्ततेधुना ।

    चतुर्भिरद्धुतेः सिद्धैराज्ञा ते विप्रलम्भिता ॥

    ८॥

    तस्य--प्रभाव का; ते-- आपको; विहित:--नियत; दण्ड:--दण्ड; न--नहीं; लोके--इस जगत में ; वर्तते--विद्यमान है;अधुना--अब; चतुर्भि:--चार; अद्भुतै:--अतीव अद्भुत; सिद्धैः--सिद्ध पुरुषों द्वारा; आज्ञा--आदेश; ते--तुम्हारा;विप्रलम्भिता--उल्लंघन किया हुआ।

    किन्तु अब हम देखते हैं कि आपके अधिकार के अन्तर्गत नियत किया हुआ दण्डप्रभावी नहीं है, क्योंकि चार अद्भुत सिद्ध पुरुषों द्वारा आपके आदेश का उल्लंघन कियाजा चुका है।

    नीयमानं तवादेशादस्माभिर्यातनागृहान्‌ ।

    व्यामोचयन्पातकिनं छित्त्वा पाशान्प्रसहा ते ॥

    ९॥

    नीयमानम्‌--लाया जा रहा; तव आदेशात्‌--आपके आदेश से; अस्माभि:--हमारे द्वारा; यातना-गृहान्‌ू--यातना के कक्षोंया नरक लोकों को; व्यामोचयन्‌--छुड़ाते हुए; पातकिनम्‌--पापी अजामिल को; छित्त्वा--काटकर; पाशान्‌--रस्सियोंको; प्रसह्या--बलपूर्वक; ते--वे |

    हम आपके आदेशानुसार महान्‌ पापी अजामिल को नरक की ओर ला रहे थे, तभीसिद्धलोक के उन सुन्दर पुरुषों ने बलपूर्वक उन रस्सियों की गाँठों को काट दिया जिनसे हमउसे बन्दी बनाये हुए थे।

    तांस्‍्ते वेदितुमिच्छामो यदि नो मन्यसे क्षमम्‌ ।

    नारायणेत्यभिहिते मा भेरित्याययुर्द्तमू ॥

    १०॥

    तान्‌--उनके विषय में; ते--आप से; वेदितुम्‌ू--जानने के लिए; इच्छाम:--हम चाहते हैं; यदि--यदि; न:--हमारे लिए;मन्यसे--आप सोचते हैं; क्षमम्‌--उपयुक्त; नारायण--नारायण; इति--इस प्रकार; अभिहिते--उच्चारण किया गया;मा--नहीं; भे: -- डरो; इति--इस प्रकार; आययु:--वे आये; द्रतम्‌--बहुत शीघ्र |

    ज्योंही पापी अजामिल ने नारायण नाम का उच्चारण किया, ये चारों सुन्दर व्यक्ति तुरन्त वहाँ आ गये और यह कहकर उसे पुनः आश्वस्त किया, 'डरो मत।

    मत डरो।

    हम आपसेउनके विषय में जानना चाहते हैं।

    यदि आप यह सोचते हैं कि हम उनके विषय में जान सकतेहैं, तो कृपा करके बताइये कि वे कौन हैं।

    श्रीबादरायणिरुवाचइति देव: स आपृष्ट: प्रजासंयमनो यम: ।

    प्रीत: स्वदूतान्प्रत्याह स्मरन्पादाम्बुजं हरे: ॥

    ११॥

    श्री-बादरायणि: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; देव: --देवता; सः--वह; आपृष्ट: --पूछे जाने पर;प्रजा-संयमन: यम:--यमराज, जो जीवों पर नियंत्रण रखते हैं; प्रीत:--प्रसन्न होकर; स्व-दूतान्‌ू--अपने सेवकों को;प्रत्याह--उत्तर दिया; स्मरन्‌--स्मरण करते हुए; पाद-अम्बुजमू--चरणकमलों को; हरे: -- भगवान्‌ हरि के

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार पूछे जाने पर जीवों के परम नियन्ता यमराजअपने दूतों से नारायण का पवित्र नाम सुनकर उन पर परम प्रसन्न हुए।

    उन्होंने भगवान्‌ केचरणकमलों का स्मरण किया और उत्तर देना शुरू किया।

    यम उवाचपरो मदन्यो जगतस्तस्थुषश्चओतं प्रोतं॑ पटवद्य॒त्र विश्वम्‌ ।

    यदंशतोस्य स्थितिजन्मनाशानस्योतवद्यस्थ वशे च लोक: ॥

    १२॥

    यम: उवाच--यमराज ने उत्तर दिया; पर: -- श्रेष्ठ; मत्‌--मुझसे; अन्य:--दूसरा; जगत:ः--समस्त चर वस्तुओं का;तस्थुष:--अचर वस्तुओं का; च--तथा; ओतम्‌--चौड़ाई में, आर-पार; प्रोतम्‌--लम्बाई में; पटवत्‌--बुने हुए वस्त्र कीभाँति; यत्र--जिसमें; विश्वम्‌--विराट जगत; यत्‌--जिसका; अंशत:--आंशिक विस्तार से; अस्य--इस ब्रह्माण्ड का;स्थिति--पालन; जन्म--सृजन; नाशा:--तथा संहार; नसि--नाक में; ओत-वत्‌--रस्सी की तरह; यस्य--जिसका;वशे--वश में; च--तथा; लोकः--सारी सृष्टि

    यमराज ने कहा : मेरे प्रिय सेवको! तुम लोगों ने मुझे सर्वोच्च स्वीकार किया है, किन्तुमैं वास्तव में हूँ नहीं।

    मेरे ऊपर तथा इन्द्र एवं चन्द्र समेत अन्य सारे देवताओं के ऊपर एकपरम स्वामी तथा नियन्ता हैं।

    उनके आंशिक स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हैं, जो ब्रह्माण्डके सृष्टि पालन एवं संहार के भार को संभालते हैं।

    वे उन दो धागों के तुल्य हैं, जो बुने हुएवस्त्र की लम्बाई तथा चौड़ाई या ताने-बाने का निर्माण करते हैं।

    सम्पूर्ण जगत उनके द्वाराउसी तरह नियंत्रित होता है, जिस तरह एक बैल अपने नाक की रस्सी द्वारा नियंत्रित होता है।

    यो नामभिर्वाचि जन॑ निजायांबध्नाति तन्त्रयामिव दामभिर्गा: ।

    यस्मै बलिं त इमे नामकर्म-निबन्धबद्धाश्रकिता वहन्ति ॥

    १३॥

    यः--जो; नामभि: --विभिन्न नामों से; वाचि--वैदिक भाषा में; जनम्‌--सारे लोगों को; निजायाम्‌--जो स्वयं उनसेउद्भूत है; बध्नाति--बाँधता है; तन्त्यामू--रस्सी को; इब--सहश; दामभि:--रस्सी से; गा: --बैल; यस्मै--जिसको;बलिम्‌ू--कर की छोटी सी भेंट; ते--वे सभी; इमे--इन; नाम-कर्म--नामों तथा विभिन्न कार्यों का; निबन्ध--कृतज्ञतासे; बद्धा:--बँधा हुआ; चकिता:-- भयभीत; वहन्ति--ढोते हैं |

    जिस तरह बैलगाड़ी का चालक अपने बैलों को वश में करने के लिए उनके नथुनों सेनिकालकर रस्सियाँ ( नाथ ) बाँध देता है उसी तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ सारे व्यक्तियोंको वेदों में कहे अपने वचनों रूपी रस्सियों ( नाथ ) के द्वारा बाँधते हैं, जो मानव समाज केविभिन्न वर्णो के नामों तथा कार्यो ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ) को निर्धारित करते हैं।

    इन वर्णों के लोग भयवश परम भगवान्‌ की पूजा अपने-अपने कर्मों के अनुसार भेंटें अर्पित करते हुए करते हैं।

    अहं महेन्द्रो निरृतिः प्रचेता:सोमोग्निरीश: पवनो विरिज्धि: ।

    आदित्यविश्वे वसवोथ साध्यामरुद्गणा रुद्रगणा: ससिद्धा: ॥

    १४॥

    अन्ये च ये विश्वसृजो मरेशाभृग्वादयोस्पृष्टरजस्तमस्का: ।

    यस्थेहितं न विदुः स्पृष्टमाया:सत्त्वप्रधाना अपि कि ततोउन्ये ॥

    १५॥

    अहम्‌ू--मैं, यमराज; महेन्द्र: --इन्द्र, स्वर्ग का राजा; निरृति:ः--निर्क्रति; प्रचेता:--जल का नियन्ता, वरुण; सोम:--चन्द्रमा; अग्नि:--अग्नि; ईश:--शिव; पवन: --पवनदेव; विरिज्ञि:--ब्रह्मा; आदित्य--सूर्य; विश्वे--विश्वासु; वसव:--आठों बसु; अथ-भी; साध्या:--देवतागण; मरुत्‌ -गणा:--वायु के स्वामी; रुद्र-गणा:--शिव के अंश; स-सिद्धा:--सिद्ध लोक के निवासियों सहित; अन्ये--अन्य; च--तथा; ये--जो; विश्व-सृज:--मरीचि तथा विश्व मामलों के अन्यस्त्रष्ठा; अमर-ईशा: --बृहस्पति जैसे देवता; भूगु-आदय:-- भूगु इत्यादि ऋषिगण; अस्पृष्ट-- अकलुषित; रज:-तमस्का: --प्रकृति के निम्नतर गुणों ( रजोगुण तथा तमोगुण ) द्वारा; यस्थ--जिसका; ईहितम्‌-कार्य; न विदुः: --नहीं जानते; स्पृष्ट-माया:--माया द्वारा मोहित; सत्त्व-प्रधाना: --मुख्यरूप से सतोगुणी; अपि--यद्यपि; किम्‌--क्या कहा जाये; तत:--उनकी अपेक्षा; अन्ये-- अन्य

    मैं यमराज, स्वर्ग का राजा इन्द्र, निर्रति, वरुण, चन्द्र, अग्नि, शिव, पवन, ब्रह्मा, सूर्य,विश्वासु, आठों वरुण, साध्यगण, मरुतगण, सिद्धगण; तथा मरीचि एवं अन्य ऋषिगण जोब्रह्माण्ड के विभागीय कार्यकर्ताओं को चलाने में लगे रहते हैं, बृहस्पति इत्यादि सर्वोत्तमदेवतागण तथा भूगु आदि मुनिगण--ये सभी प्रकृति के दो निम्न गुणों--रजो तथा तमोगुणके प्रभाव से निश्चित रूप से मुक्त होते हैं।

    फिर भी, यद्यपि हम सतोगुणी हैं, तो भी हम पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ के कार्यों को नहीं समझ सकते।

    तो फिर दूसरों के विषय में क्‍या कहाजाये जो मोह के अधीन होने से ईश्वर को जानने के लिए केवल मानसिक ऊहापोह करतेहों?

    यं वै न गोभिर्मनसासुभिर्वाहृदा गिरा वासुभूतो विचक्षते ।

    आत्मानमन्तईदि सन्तमात्मनांचक्षुर्यथेवाकृतयस्ततः परम्‌ ॥

    १६॥

    यम्‌--जिसको; वै--निस्सन्देह; न--नहीं; गोभि: --इन्द्रियों द्वारा; मनसा--मन से; असुभि:--प्राण वायु द्वारा; वा--अथवा; हृदा--विचारों से; गिरा--शब्दों से; वा--अथवा; असु-भूत: --जीव; विचक्षते--देखते या जानते हैं;आत्मानम्‌--परमात्मा को; अन्त:-हृदि--हृदय के भीतर; सन्तम्‌--विद्यमान; आत्मनामू--जीवों के; चक्षु:--नेत्र; यथा--जिस तरह; एब--निस्सन्देह; आकृतय:--शरीर के विभिन्न अंग; तत:--उनकी तुलना में; परम्‌--उच्चतर |

    जिस तरह शरीर के विभिन्न अंग आँखों को नहीं देख सकते, उसी तरह सारे जीवपरमेश्वर को नहीं देख सकते जो हर एक के हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित रहते हैं।

    न तोइन्द्रियों से, न मन से, न प्राणवायु से, न हृदय के अन्दर के विचारों से, न ही शब्दों की ध्वनिसे जीवात्माएँ परमेश्वर की असली स्थिति को निश्चित कर सकते हैं।

    तस्यात्मतन्त्रस्थ हरेरधीशितुःपरस्य मायाधिपतेर्महात्मन: ।

    प्रायेण दूता इह वै मनोहरा-अ्वरन्ति तद्गूपगुणस्वभावा: ॥

    १७॥

    तस्य--उसका; आत्म-तन्त्रस्थ--आत्मनिर्भर, किसी अन्य व्यक्ति पर आश्नित नहीं; हरेः--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का;अधीशितु: -- प्रत्येक वस्तु का स्वामी; परस्यथ--ब्रह्मा का; माया-अधिपते:--माया के स्वामी; महा-आत्मन:--सर्व श्रेष्ठचेतन आत्मा; प्रायेण-- प्राय: ; दूता:--दूत; इह--इस जगत में; बै--निस्सन्देह; मनोहरा:--बर्ताव तथा शारीरिक स्वरूप मेंसुहावना; चरन्ति--चलते फिरते हैं; तत्‌--उसका; रूप--शारीरिक रूप वाला; गुण--दिव्य गुण; स्वभावा:--तथास्वभाव।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ आत्म-निर्भर तथा पूरी तरह स्वतंत्र हैं।

    वे माया समेत हर एक केस्वामी हैं।

    वे रूप, गुण तथा स्वभाव से युक्त हैं और इसी तरह उनके आदेशपालक, अर्थात्‌वैष्णव, जो अत्यन्त सुन्दर होते हैं, उन्हीं जैसे ही शारीरिक स्वरूप दिव्य गुण तथा दिव्यस्वभाव से युक्त होते हैं।

    वे इस जगत में पूर्ण स्वतंत्रता के साथ सदैव विचरण करते हैं।

    भूतानि विष्णो: सुरपूजितानिदुर्दर्शलिड्रानि महाद्भुतानि ।

    रक्षन्ति तद्धक्तिमतः परेभ्योमत्तश्च मर्त्यानथ सर्वतश्च ॥

    १८॥

    भूतानि--जीव या सेवक; विष्णो: --विष्णु के; सुर-पूजितानि--देवताओं द्वारा पूजित; दुर्दर्शशलिड्ञानि--सरलता से नदिखने वाले रूपों वाले; महा-अद्भुतानि--अत्यन्त अद्भुत; रक्षन्ति--वे रक्षा करते हैं; तत्‌-भक्ति-मतः-- भगवान्‌ के भक्त;परेभ्य:--अन्यों से, जो शत्रुता रखते हैं; मत्त:--मुझ ( यमराज ) से तथा मेरे दूतों से; च--तथा; मर्त्यानू--मनुष्यों को;अथ--इस प्रकार; सर्वतः--हर वस्तु से; च--तथा।

    भगवान्‌ विष्णु के दूत, जिनकी पूजा देवता भी किया करते हैं, विष्णु जैसे ही अद्भुतशारीरिक लक्षणों से युक्त होते हैं और विरले ही दिखाई देते हैं।

    ये विष्णुदूत भगवद्भक्तों कीरक्षा उनके शत्रुओं, ईर्ष्यालु व्यक्तियों और मेरे अधिकार क्षेत्र के साथ ही साथ प्राकृतिकउत्पातों से भी करते हैं।

    धर्म तु साक्षाद्धगवत्प्रणीतंन वै विदुरृषयो नापि देवा: ।

    न सिद्धमुख्या असुरा मनुष्या:कुतो नु विद्याधरचारणादय: ॥

    १९॥

    धर्ममू--असली धार्मिक सिद्धान्त या धर्म के प्रामाणिक नियम; तु--लेकिन; साक्षात्‌--प्रत्यक्षत:; भगवत्‌--पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ द्वारा; प्रणीतम्‌ू--निर्मित; न--नहीं; वै--निस्सन्देह; विदु:--वे जानते हैं; ऋषय: -- भूगु जैसे महान्‌ ऋषि; न--नहीं; अपि-- भी; देवा:--देवता; न--नहीं; सिद्ध-मुख्या:--सिद्धलोक के मुख्य नेता; असुरा:--असुरगण; मनुष्या:--भूलोंक के निवासी; कुतः--कहाँ; नु--निस्सन्देह; विद्याधर--विद्याधर नामक कनिष्ठ देवता; चारण--उन लोकों केनिवासी जहाँ के लोग स्वभाव से महान्‌ संगीतकार होते हैं; आदय:--इत्यादि |

    असली धार्मिक सिद्धान्तों का निर्माण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ द्वारा किया जाता है।

    पूर्णतया सतोगुणी महान्‌ ऋषि तक भी, जो सर्वोच्च लोकों में स्थान पाये हुए हैं, वे भीअसली धार्मिक सिद्धान्तों को सुनिश्चित नहीं कर सकते, न ही देवतागण, न सिद्धलोक केनामक ही कर सकते हैं, तो असुरों, सामान्य मनुष्यों, विद्याधरों तथा चारणों की कौन कहे ?

    स्वयम्भू्नारद: शम्भु: कुमार: कपिलो मनु: ।

    प्रह्दो जनको भीष्मो बलिवैंयासकिर्वयम्‌ ॥

    २०॥

    द्वादशैते विजानीमो धर्म भागवतं भटा: ।

    गुह्यं विशुद्धं दुर्बोध॑ य॑ ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥

    २१॥

    स्वयम्भू:--ब्रह्मा; नारद:--महान्‌ सन्त नारद; शम्भु:--शिवजी; कुमार: --चार कुमार; कपिल:--कपिल; मनु:--स्वायम्भुव मनु; प्रह्मादः--प्रह्दाद महाराज; जनक:--जनक महाराज; भीष्म:--भीष्म पितामह; बलि:--बलि महाराज;वैयासकि:--व्यासदेव के पुत्र शुकदेव; वयम्‌--हम; द्वादश--बारह; एते--ये; विजानीम:--जानते हैं; धर्मम्‌ू--असलीधार्मिक सिद्धान्तों को; भागवतम्‌--जो यह शिक्षा देता है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से किस तरह प्रेम किया जाये;भटा:-हे सेवको; गुहाम्‌--अत्यन्त गोपनीय; विशुद्धमू-- अलौकिक, भौतिक गुणों से दूषित नहीं; दुर्बोधम्‌--आसानी सेसमझ में न आने वाला; यम्‌--जिसको; ज्ञात्वा--जानकर; अमृतम्‌--शा श्रवत जीवन; अश्नुते-- भोग करता है

    ब्रह्मजी, भगवान्‌ नारद, शिवजी, चार कुमार, भगवान्‌ कपिल ( देवहूति के पुत्र ),स्वायंभुव मनु, प्रह्दाद महाराज, जनक महाराज, भीष्म पितामह, बलि महाराज, शुकदेवगोस्वामी तथा मैं असली धर्म के सिद्धान्त को जानने वाले हैं।

    हे सेबको! यह अलौकिकधार्मिक सिद्धान्त, जो भागवत धर्म या परम भगवान्‌ की शरणागति तथा भगवत्प्रेम कहलाताहै, प्रकृति के तीनों गुणों से अकलुषित है।

    यह अत्यन्त गोपनीय है और सामान्य मनुष्य केलिए दुर्बोध है, किन्तु संयोगवश यदि कोई भाग्यवान्‌ इसे समझ लेता है, तो वह तुरन्त मुक्तहो जाता है और इस तरह भगवद्धाम लौट जाता है।

    एतावानेव लोके स्मिन्पुंसां धर्म: पर: स्मृतः ।

    भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभि: ॥

    २२॥

    एतावान्‌--इतना; एव--निस्सन्देह; लोके अस्मिन्‌ू--इस भौतिक जगत में; पुंसामू--जीवों का; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त;पर:--दिव्य; स्मृत:--मान्यता प्राप्त; भक्ति-योग:--भक्तियोग या भक्तिमय सेवा; भगवति--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ केप्रति ( देवताओं के प्रति नहीं ); तत्‌--उसका; नाम--पवित्र नाम का; ग्रहण-आदिभि:--कीर्तन इत्यादि |

    भगवान्‌ के नाम के कीर्तन से प्रारम्भ होने वाली भक्ति ही मानव-समाज में जीव केलिए परम धार्मिक सिद्धान्त है।

    नामोच्चारणमाहात्म्यं हरे: पश्यत पुत्रका: ।

    अजामिलोपि येनैव मृत्युपाशादमुच्यत ॥

    २३॥

    नाम--पवित्र नाम के; उच्चारण--उच्चारण का; माहात्म्यम्‌--उच्च स्थान; हरेः--परम ईश्वर का; पश्यत--जरा देखो;पुत्रका:--हे मेरे पुत्रवत्‌ सेवको; अजामिल: अपि--अजामिल ( जो महापापी था ) भी; येन--जिसके कीर्तन से; एव--निश्चय ही; मृत्यु-पाशात्‌--मृत्यु की रस्सियों से; अमुच्यत--छूट गया

    हे मेरे पुत्रवत्‌ सेवको! जरा देखो न, भगवजन्नाम का कीर्तन कितना महिमायुक्त है! परमपापी अजामिल ने यह न जानते हुए कि वह भगवान्‌ के पवित्र नाम का उच्चारण कर रहा है,केवल अपने पुत्र को पुकारने के लिए नारायण नाम का उच्चारण किया।

    फिर भी भगवान्‌के पवित्र नाम का उच्चारण करने से उसने नारायण का स्मरण किया और इस तरह से वहतुरन्त मृत्यु के पाश से बचा लिया गया।

    एतावतालमघनिहरणाय पुंसांसड्डीर्तन॑ं भगवतो गुणकर्मनाम्नाम्‌ ।

    विक्रुश्य पुत्रमघवान्यदजामिलोपिनारायणेति प्रियमाण इयाय मुक्तिम्‌ ॥

    २४॥

    एतावता--इतने से; अलम्‌--पर्याप्त; अध-निर्हरणाय--पापकर्मो के फलों को दूर करने के लिए; पुंसाम्‌--मनुष्यों का;सड्डलीर्तनम्‌--सामूहिक कीर्तन; भगवतः--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के; गुण--अलौकिक गुणों का; कर्म-नाम्नामू--तथाउनके कार्यों एवं लीलाओं के अनुसार उनके नामों का; विक्रुश्य--अपराधरहित, क्रन्दन; पुत्रमू--अपने पुत्र से; अधवान्‌ू--पापी; यत्‌--चूँकि; अजामिल: अपि--अजामिल तक ने; नारायण--भगवान्‌ का नाम, नारायण; इति--इस प्रकार;प्रियमाण:--मरणासत्न; इयाय--प्राप्त की; मुक्तिमू--मुक्ति।

    अतएव यह समझ लेना चाहिए कि मनुष्य भगवान्‌ के पवित्र नाम का और उनके गुणोंतथा कार्यों का कीर्तन करने से समस्त पाप फलों से सरलता से छुटकारा पा जाता है।

    पापफलों से छुटकारा पाने के लिए इसी एकमात्र विधि की संस्तुति की जाती है।

    यदि कोई अशुद्ध उच्चारण द्वारा भी भगवान्‌ के नाम का कीर्तन करता है, तो उसे भवबन्धन सेछुटकारा मिल जायेगा, किन्तु यदि वह अपराधरहित होकर कीर्तन करे।

    उदहारणार्थ,अजामिल अत्यन्त पापी था, किन्तु मरते समय उसने पवित्र नाम का उच्चारण किया औरयद्यपि वह अपने पुत्र को पुकार रहा था, किन्तु उसे पूर्ण मुक्ति प्राप्त हुई, क्योंकि उसनेनारायण के नाम का स्मरण किया।

    प्रायेण वेद तदिदं न महाजनोयंदेव्या विमोहितमतिर्बत माययालम्‌ ।

    त्रय्यां जडीकृतमतिर्मधुपुष्पितायांवबैतानिके महति कर्मणि युज्यमान: ॥

    २५॥

    प्रायेण--लगभग सदा; वेद--जानो; तत्‌--वह; इृदम्‌--यह; न--नहीं; महाजन:--स्वायंभुव मनु, शम्भु तथा इनकेअतिरिक्त अन्य महापुरुष; अयम्‌--यह; देव्या--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की शक्ति द्वारा; विमोहित-मतिः--जिसकी बुद्धिमोहग्रस्त है; बत--निस्सन्देह; मायया--माया द्वारा; अलमू--अत्यधिक; त्रय्याम्‌--तीन वेदों में; जडी-कृत-मति: --जिसकी बुद्धि जड़ हो चुकी है; मधु-पुष्पितायामू-कर्मकाण्ड के फलों का वर्णन करने वाली अलंकारमयी बैदिक भाषामें; वैतानिके--वेदवर्णित अनुष्ठानों में; महति--अति महान्‌; कर्मणि--सकाम कर्म में; युज्यमान:--लगे हुए

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की माया द्वारा मोहग्रस्त होने के कारण याज्ञवल्क्य, जैमिनितथा अन्य शास्त्रप्रणेता भी बारह महाजनों की गुह्य धार्मिक प्रणाली को नहीं जान सकते।

    वेभक्ति करने या हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करने के दिव्य महत्त्व को नहीं समझ सकते।

    चूँकिउनके मन वेदों--विशेषतया यजुर्वेद, सामवेद तथा ऋग्वेद में उल्लिखित कर्मकाण्डों केप्रति आकृष्ट रहते हैं, इसलिए उनकी बुद्धि जड़ हो गई है।

    इस तरह वे उन कर्मकाण्डों केलिए सामग्री एकत्र करने में व्यस्त रहते हैं, जो केवल नश्वर लाभ देने वाले हैं--यथा भौतिकसुख के लिए स्वर्गलोक जाना।

    वे संकीर्तन आन्दोलन के प्रति आकृष्ट नहीं होते बल्कि वेश़ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में रुचि लेते हैं।

    एवं विमृश्य सुधियो भगवत्यनन्तेसर्वात्मना विदधते खलु भावयोगम्‌ ।

    ते मे न दण्डमर्हन्त्यथ यद्यमीषांस्यात्पातकं तद॒पि हन्त्युरुगायवाद: ॥

    २६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विमृश्य--विचार करके ; सु-धिय:--वे जिनकी बुद्द्धि प्रखर है; भगवति--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ में;अनन्ते--असीम; सर्व-आत्मना--प्राणप्रण से; विद्धते--ग्रहण करते हैं; खलु--निस्सन्देह; भाव-योगम्‌--भक्तिमय सेवाकी विधि; ते--ऐसे लोग; मे--मेरा; न--नहीं; दण्डम्‌--दण्ड के; अर्हन्ति--योग्य हैं; अथ--इसलिए; यदि--यदि;अमीषाम्‌--उनका; स्यात्‌ू--है; पातकम्‌--कोई पाप कर्म; तत्‌ू--वह; अपि-- भी; हन्ति--नष्ट करता है; उरुगाय-वाद:--परमेश्वर के नाम का कीर्तन

    अतः इन सभी बातों पर विचार करते हुए बुद्धिमान लोग हर एक के हृदय में स्थित तथासमस्त शुभ गुणों की खान भगवान्‌ के पवित्र नाम के कीर्तन की भक्ति को अपनाकर सारीसमस्याओं को हल करने का निर्णय करते हैं।

    ऐसे लोग दण्ड देने के मेरे अधिकार क्षेत्र मेंनहीं आते।

    सामान्यतया वे कभी कोई पापकर्म नहीं करते, किन्तु यदि वे भूलवश यामोहवश कभी कोई पापकर्म करते भी हैं, तो वे पापफलों से बचा लिये जाते हैं, क्योंकि वेसदैव हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करते हैं।

    ते देवसिद्धपरिगीतपवित्रगाथाये साधवः समहशो भगवत्प्रपन्ना: ।

    तान्नोपसीदत हरेर्गदयाभिगुप्तान्‌नैषां वयं न च वयः प्रभवाम दण्डे ॥

    २७॥

    ते--वे; देव--देवताओं; सिद्ध--तथा सिद्धलोक के वासियों द्वारा; परिगीत--गाई गयी; पवित्र-गाथा: --शुद्ध कथाएँ;ये--जो; साधव:--भक्तजन; समहशः --समानदर्शी ; भगवत्‌-प्रपन्ना:--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के शरणागत; तानू--उनको; न--नहीं; उपसीदत--पास जाना चाहिए; हरे: --पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के; गदया--गदा से; अभिगुप्तान्‌--पूरी तरह सुरक्षित; न--नहीं; एषामू--इनका; वयम्‌--हम; न च--तथा नहीं; वयः--असीम काल; प्रभवाम--समर्थ हैं;दण्डे--दण्ड देने में

    मेरे प्रिय सेवको! ऐसे भक्तों के पास मत जाना, क्‍योंकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ केचरणकमलों में पूरी तरह शरणागत हो चुके होते हैं।

    वे समदर्शी होते हैं और उनकी गाथाएँदेवताओं तथा सिद्धलोक के निवासियों द्वारा गाई जाती हैं।

    तुम लोग उनके निकट भी मतजाना।

    वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की गदा द्वारा सदैव रक्षित रहते हैं, इसलिए ब्रह्मा तथा मैंऔर काल भी उन्हें दण्ड देने में समर्थ नहीं हैं।

    तानानयध्वमसतो विमुखान्मुकुन्द-पादारविन्दमकरन्दरसादजस्त्रम्‌ ॥

    निष्किद्ञनैः परमहंसकुलैरसड्ै-जुष्टादगृहे निरयवर्त्मनि बद्धतृष्णान्‌ ॥

    २८॥

    तान्‌ू--उनको; आनयध्वम्‌--मेरे सामने लाओ; असत:--अभक्त ( जिन्होंने कृष्णभावनामृत नहीं स्वीकार किया );विमुखान्‌--जो विमुख हैं; मुकुन्द--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ मुकुन्द के; पाद-अरविन्द--चरणकमलों के; मकरन्द--मधुसे; रसात्‌ू--स्वाद से; अजस्त्रमू--निरन्तर; निष्किज्जनै:--भौतिक आसक्ति से पूर्णतया मुक्त पुरुषों द्वारा; परमहंस-कुलैः --परम सम्मानित व्यक्ति परमहंसों द्वारा; असड्रैः--भौतिक आसक्ति से रहित; जुष्टात्‌ू--जो भोगा जाता है, भोग्य; गृहे--गृहस्थ जीवन में; निरय-वर्त्मनि--नरक ले जाने का रास्ता; बद्ध-तृष्णान्‌ू--जिनकी इच्छाएँ बद्ध हैं |

    परमहंस सम्माननीय पुरुष होते हैं, जिन्हें भौतिक भोग में कोई रुचि नहीं है तथा जोभगवान्‌ के चरणकमलों का मधु-पान करते हैं।

    मेरे सेवको! मेरे पास ऐसे व्यक्तियों को हीदण्डित किये जाने के लिए लाओ जो उस मधु के आस्वादन से विमुख हैं, जो परमहंसों कीसंगति नहीं करते तथा जो गृहस्थ जीवन एवं सांसारिक भोग में लिप्त हैं, क्योंकि ये नरक लेजाने वाले रास्ते हैं।

    जिह्ला न वक्ति भगवद्गुणनामधेयंचेतश्व न स्मरति तच्चरणारविन्दम्‌ ।

    कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापितानानयध्वमसतोकृतविष्णुकृत्यान्‌ू ॥

    २९॥

    जिह्ला--जीभ; न--नहीं; वक्ति--कीर्तन करती है; भगवत्‌--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के; गुण--अलौकिक गुण; नाम--तथा पवित्र नाम का; धेयम्‌--प्रदान करते हुए; चेत:--हृदय; च-- भी; न--नहीं; स्मरति--स्मरण करता है; तत्‌--उसके;चरण-अरविन्दमू--चरणकमलों को; कृष्णाय-- भगवान्‌ कृष्ण को, मन्दिर में उनके अर्चाविग्रह के माध्यम से; नो--नहीं;नमति--झुकता है; यत्‌--जिसका; शिर:--सिर; एकदा अपि--एक बार भी; तानू--उनको; आनयध्वम्‌--मेरे समक्ष लेआओ; असतः: --अभक्तों को; अकृत--न करने वाले; विष्णु-कृत्यानू-- भगवान्‌ विष्णु के प्रति कर्तव्य

    हे मेरे प्यार सेवको! तुम लोग केवल उन्हीं पापी पुरुषों को मेरे पास लाना जिनकी जीभकृष्ण के नाम तथा गुणों का कीर्तन नहीं करती, जिनके हृदय कृष्ण के चरणकमलों काएक बार भी स्मरण नहीं करते तथा जिनके सिर एक बार भी कृष्ण के समक्ष नहीं झुकते।

    मेरे पास उन लोगों को भेजना जो विष्णु के प्रति अपने उन कर्तव्यों को पूरा नहीं करते जोमानव जीवन के एकमात्र कर्तव्य हैं।

    ऐसे सभी मूर्खो तथा धूर्तों को मेरे पास लाना।

    तद्क्षम्यतां स भगवान्पुरुष: पुराणोनारायण: स्वपुरुषैर्यदसत्कृतं नः ।

    स्वानामहो न विदुषां रचिताझलीनांक्षान्तिर्गरीयसि नमः पुरुषाय भूम्ने ॥

    ३०॥

    तत्‌--वह; क्षम्यताम्‌-- क्षमा करने योग्य; सः--वह; भगवान्‌--परम पुरुषोत्तम भगवान्‌; पुरुष: --परम पुरुषोत्तम;पुराण:--सबसे प्राचीन; नारायण:--नारायण; स्व-पुरुषै: -- अपने सेवकों द्वारा; यत्‌--जो; असत्‌--ढिठाई; कृतम्‌--सम्पन्न; न:ः--हमारा; स्वानामू--हमारे ही लोगों का; अहो--हाय; न विदुषाम्‌--न जानते हुए; रचित-अज्जलीनाम्‌--आपसेक्षमा माँगने के लिए हाथ जोड़े हुए; क्षान्तिः--क्षमाशीलता; गरीयसि--महिमामयी है; नम:--नमस्कार; पुरुषाय--पुरुषको; भूम्ने--परम तथा सर्वव्यापक[

    तब यमराज स्वयं को तथा अपने सेवकों को अपराधी मानते हुए, भगवान्‌ सेक्षमायाचना करते हुए इस प्रकार बोले हे प्रभु! मेरे सेवकों ने निश्चित रूप से अजामिल जैसेवैष्णव को बन्दी बनाकर महान्‌ अपराध किया है।

    हे नारायण, हे परम एवं पुरातन पुरुषोत्तम! आप हमें क्षमा कर दें।

    अपने अज्ञान के कारण हम अजामिल को आपके सेवकके रूप में नहीं पहचान सके और इस तरह हमने निश्चित रूप से महान्‌ अपराध किया है।

    अतएव हम हाथ जोड़ कर आपसे क्षमा माँगते हैं।

    हे प्रभु! आप अत्यन्त दयालु हैं औरसदगुणों से सदैव पूर्ण रहते हैं।

    कृपया हमें क्षमा कर दें।

    हम आपको सादर नमस्कार करतेहैं।

    तस्माल्सड्डीर्तनं विष्णोर्जगन्मड्रलमंहसाम्‌ ।

    महतामपि कौरव्य विद्धबैकान्तिकनिष्कृतम्‌ ॥

    ३१॥

    तस्मात्‌--इसलिए; सड्लीर्तनम्‌--पवित्र नाम का सामूहिक कीर्तन; विष्णो: --भगवान्‌ विष्णु के; जगत्‌-मड्रलम्‌ू--इसभौतिक जगत के भीतर सर्वाधिक शुभ कार्य; अंहसाम्‌--पापकर्मों के लिए; महताम्‌ अपि--महान्‌ होते हुए भी; कौरव्य--हे कुरुवंश के वंशज; विद्धि--समझो; ऐकान्तिक--चरम; निष्कृतम्‌-प्रायश्ित्त |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌! भगवन्नाम का कीर्तन बड़े से बड़े पापों के फलोंको भी उन्मूलित करने में सक्षम है।

    इसलिए सड्भीर्तन आन्दोलन का कीर्तन सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें सबसे शुभ कार्य है।

    कृपया इसे समझने का प्रयास करें जिससे अन्य लोग इसेगम्भीरतापूर्वक ग्रहण कर सकें ।

    श्रण्वतां गृणतां वीर्याण्युद्यामानि हरेमुहु: ।

    यथा सुजातया भक्त्या शुद्धब्रेन्नात्मा ब्रतादिभि: ॥

    ३२॥

    श्रण्वताम्‌--सुनने वालों; गृणताम्‌--तथा कीर्तन करने वालों के; वीर्याणि-- अद्भुत कार्य; उद्यमानि--पाप का निवारणकरने में सक्षम; हरे:--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के; मुहुः--सदैव; यथा--जिस प्रकार; सु-जातया--आसानी से समक्षलाया गया; भक्त्या-भक्ति द्वारा; शुद्धबेत्‌ू-शुद्ध किया जा सकता है; न--नहीं; आत्मा--हृदय तथा आत्मा; ब्रत-आदिभि:--कर्मकाण्ड करने से

    जो व्यक्ति भगवन्नाम का निरन्तर श्रवण तथा कीर्तन करता है और भगवान्‌ के कार्योंका श्रवण तथा कीर्तन करता है, वह बहुत ही आसानी से शुद्ध भक्ति पद को प्राप्त करसकता है, जो उसके हृदय के मैल को शुद्ध करने वाला है।

    केवल ब्रत रखने तथा वैदिककर्मकाण्ड करने से ऐसी शुद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।

    कृष्णाड्प्रिपद्ममधुलिण्न पुनर्विसूष्ट -मायागुणेषु रमते वृजिनावहेषु ।

    अन्यस्तु कामहत आत्मरज: प्रमार्ट -मीहेत कर्म यत एवं रज: पुनः स्यात्‌ ॥

    ३३॥

    कृष्ण-अद्ध्रि-पद्य--कृष्ण के चरणकमलों का; मधु--शहद; लिटू--चाटने वाला; न--नहीं; पुनः--फिर; विसृष्ट--पहले से विरक्त; माया-गुणेषु-- प्रकृति के भौतिक गुणों में; रमते--आनन्द लेना चाहता है; वृजिन-अवहेषु--दुखदायी;अन्य: --दूसरा; तु--फिर भी; काम-हतः--काम द्वारा विमोहित; आत्म-रज:--हृदय की पापपूर्ण छूत; प्रमा्टमू--स्वच्छकरने के लिए; ईहेत--सम्पन्न करता है; कर्म--कार्य; यतः--जिसके बाद; एव--निस्सन्देह; रज:--पापपूर्ण कर्म;पुन:--फिर; स्यथात्‌--प्रकट होते हैं।

    जो भक्तगण भगवान्‌ कृष्ण के चरणकमलों के मधु को जो भक्तगण सदैव चाटते रहतेहैं, वे उन भौतिक कर्मों की तनिक भी चिन्ता नहीं करते जो प्रकृति के तीन गुणों के अधीनसम्पन्न किये जाते हैं और जो केवल दुःखदायी होते हैं।

    दरअसल, भौतिक कर्मों में वापसआने के लिए भक्तगण कभी भी कृष्ण के चरणकमलों को नहीं छोड़ते।

    किन्तु अन्य लोग,जो भगवान्‌ के चरणकमलों की सेवा की उपेक्षा करने तथा कामेच्छाओं से विमोहित होने से वैदिक कर्मकाण्डों में लिप्त रहते हैं, कभी-कभी प्रायश्चित्त के कर्म करते हैं।

    फिर भीअपूर्णरूप से शुद्ध होने से वे पुन:-पुनः पापकर्मो में लौट आते हैं।

    इत्थं स्वभर्तृगदितं भगवन्महित्वंसंस्मृत्य विस्मितधियो यमकिड्डूरास्ते ।

    नैवाच्युता श्रयजनं प्रतिशड्भमानाद्रष्ठे च बिभ्यति ततः प्रभूति सम राजन्‌ ॥

    ३४॥

    इत्थम्‌--ऐसी शक्ति का; स्व-भर्तू-गदितम्‌--अपने स्वामी ( यमराज ) द्वारा बतलाया गया; भगवत्‌-महित्वम्‌--पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ तथा उनके नाम, यश, रूप तथा गुणों की अद्वितीय महिमा; संस्मृत्य--स्मरण करके; विस्मित-धिय: --जिनके मन विस्मित; यम-किड्जरा:--यमराज के सारे सेवक; ते--वे; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; अच्युत-आश्रय-जनम्‌--अच्युत अर्थात्‌ कृष्ण के चरणकमलों पर शरण प्राप्त व्यक्ति; प्रतिशड्रमाना:--सदैव भयभीत; द्रष्टम्‌--देखने केलिए; च--तथा; बिभ्यति-- भयभीत हैं; ततः प्रभूति--तब से प्रारम्भ करके; स्म--निस्सन्देह; राजन्‌ू--हे राजन्‌ |

    अपने स्वामी के मुख से भगवान्‌ की अद्वितीय महिमा तथा उनके नाम, यश तथा गुणोंके विषय में सुनकर यमदूत आश्चर्यचकित रह गये।

    तब से, जैसे ही वे किसी भक्त को देखतेहैं, तो वे उससे डरते हैं और उसकी ओर फिर से देखने का साहस नहीं करते।

    इतिहासमिमं गुह्ं भगवान्कुम्भसम्भव: ।

    कथयामास मलय आसीनो हरिमर्चयन्‌ ॥

    ३५॥

    इतिहासम्‌--इतिहास; इमम्‌--यह; गुह्मम्‌--अत्यन्त गोपनीय; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; कुम्भ-सम्भव:--अगस्त्यमुनि, कुम्भ के पुत्र; कथयाम्‌ आस--बतलाया; मलये--मलय पर्वत में; आसीन:--निवास करते हुए; हरिम्‌ अर्चयन्‌--भगवान्‌ की पूजा करते हुए।

    जब कुम्भ के पुत्र अगस्त्य मुनि मलय पर्वत पर निवास कर रहे थे और पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ की पूजा कर रहे थे तो मैं उनके पास गया और उन्होंने मुझे यह गुह्य इतिहासबतलाया।

    TO

    अध्याय चार: प्रजापति दक्ष द्वारा भगवान को अर्पित की गई हंस-गुह्य प्रार्थनाएँ

    6.4श्रीराजोबाच देवासुरनृणां सर्गो नागानां मृगपक्षिणाम्‌ ।

    सामासिकस्त्वया प्रोक्तो यस्तु स्वायम्भुवेउन्तरे ॥

    १॥

    तस्यैव व्यासमिच्छामि ज्ञातुं ते भगवन्यथा ।

    अनुसर्ग यया शक्त्या ससर्ज भगवान्पर: ॥

    २॥

    श्री-राजा उबाच--राजा ने कहा; देव-असुर-नृणाम्‌ू--देवताओं तथा मनुष्यों की; सर्ग:--सृष्टि; नागानाम्‌--नागों ( सर्पजैसे जीव ) के; मृग-पक्षिणाम्‌-पशुओं तथा पक्षियों के; सामासिक:--संक्षेप में; त्वया--तुम्हारे द्वारा; प्रोक्त:--वर्णित;यः--जो; तु--किन्तु; स्वायम्भुवे--स्वायम्भुव मनु की; अन्तरे-- अवधि में; तस्थ--उसके; एव--निस्सन्देह; व्यासम्‌--विस्तृत वर्णन; इच्छामि--चाहता हूँ; ज्ञातुमू--जानने के लिए; ते--तुमसे; भगवन्‌--हे प्रभु; यथा--साथ ही; अनुसर्गम्‌--गौण सृष्टि; यया--जिस; शक्त्या--शक्ति से; ससर्ज--उत्पन्न किया; भगवान्‌-- भगवान्‌ से; पर:--दिव्य |

    वर प्राप्त राजा ने शुकदेव गोस्वामी से कहा : हे प्रभु! देवता, असुर, मनुष्य, नाग, पशुतथा पक्षी स्वायम्भुव मनु के शासन काल में उत्पन्न किये गये थे।

    आपने इस सृष्टि के विषयमें संक्षेप में ( तृतीय स्कन्ध में ) कहा है।

    अब मैं इसके विषय में विस्तार से जानना चाहता हूँ।

    मैं भगवान्‌ की उस शक्ति के विषय में भी जानना चाहता हूँ जिससे उन्होंने गौण सृष्टि की।

    श्रीसूत उबाचइति सम्प्रश्नमाकर्ण्य राजर्षे्बादरायणि: ।

    प्रतिनन्द्य महायोगी जगाद मुनिसत्तमा: ॥

    ३॥

    श्री-सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; सम्प्रश्नम्‌--जिज्ञासा; आकर्ण्य--सुनकर; राजर्षे:--राजापरीक्षित की; बादरायणि: --शुकदेव गोस्वामी ने; प्रतिनन्द्य-- प्रशंसा करके; महा-योगी--महान्‌ योगी; जगाद--उत्तरदिया; मुनि-सत्तमा:-हे मुनियों में श्रेष्ठ

    सूत गोस्वामी ने कहा : हे ( नैमिषारण्य में एकत्र ) महामुनियो! जब महान्‌ योगी शुकदेवगोस्वामी ने राजा परीक्षित की जिज्ञासा सुनी तो उन्होंने उसकी प्रशंसा की और इस प्रकारउत्तर दिया।

    श्रीशुक उवाचयदा प्रचेतस: पुत्रा दश प्राचीनबर्हिष: ।

    अन्तःसमुद्रादुन्मग्ना दहशुर्गा द्रुमैरवृताम्‌ ॥

    ४॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; यदा--जब; प्रचेतस:--प्रचेताओं ने; पुत्रा:--पुत्र; दश--दस;प्राचीनबर्हिष: --राजा प्राचीन बर्हि के; अन्तः-समुद्रात्‌--समुद्र के भीतर से; उन्मग्ना:--बाहर आये; दहशु: --उन्होंने देखा;गाम्‌--सम्पूर्णलोक को; द्रुमै: वृतामू--वृक्षों से आवृत |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब प्राचीनबर्हि के दसों पुत्र उस जल से बाहर निकले जिसमें वे तपस्या कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि संसार की समूची सतह वृक्षों से ढक गई है।

    ब्रुमेभ्य: क्रुध्यमानास्ते तपोदीपितमन्यव: ।

    मुखतो वायुमग्नि च ससृजुस्तद्दधिधक्षया ॥

    ५॥

    द्रुमेभ्य: --वृक्षों से; क्रुध्यमाना: --अत्यन्त क्रुद्ध होकर; ते--वे ( प्राचीनबर्हि के दसों पुत्र ); तपः-दीपित-मन्यव:--दीर्घतपस्या के कारण जिनका क्रोध बढ़ गया था; मुखतः--मुख से; वायुम्‌ू--वायु; अग्निमू--आग; च--तथा; ससूजु:--उन्होंने उत्पन्न किया; तत्‌ू--उन जंगलों को; दिधक्षया--जला डालने की इच्छा से |

    जल में दीर्घकाल तक तपस्या करने के कारण प्रचेतागण वृक्षों पर अत्यधिक क्रुद्ध थे।

    उन्हें जलाकर भस्म करने की इच्छा से उन्होंने अपने मुखों से वायु तथा अग्नि उत्पन्न की ।

    ताभ्यां निर्दह्ममानांस्तानुपलभ्य कुरूद्वह ।

    राजोबाच महान्सोमो मन्युं प्रशमयत्रिव ॥

    ६॥

    ताभ्याम्‌--वायु तथा अग्नि द्वारा; निर्दह्ममानान्‌ू--जलाये गये; तान्‌ू--उन ( वृक्षों ) को; उपलभ्य--देखकर; कुरूद्ठह-हेमहाराज परीक्षित; राजा--जंगलों के राजा; उवाच--कहा; महान्‌--महान्‌; सोम:--चन्द्रमा का अधिष्ठाता देव, सोमदेव ने;मन्युम्‌ू-क्रोध को; प्रशमयन्‌--शान्त करते हुए; इब--सहृश

    हे राजा परीक्षित! जब वृक्षों के राजा तथा चन्द्रमा के अधिष्ठाता देव सोम ने अग्नि तथावायु को समस्त वृक्षों को जलाकर राख करते देखा तो उसे अपार दया आई, क्योंकि वहसमस्त वनस्पतियों तथा वृक्षों का पालनकर्ता है।

    प्रचेताओं के क्रोध को शान्त करने के लिएसोम इस प्रकार बोला।

    न द्रुमेभ्यो महाभागा दीनेभ्यो द्रोग्धुमईथ ।

    विवर्धयिषवो यूय॑ प्रजानां पतय: स्मृता: ॥

    ७॥

    न--नहीं; द्रुमेभ्य:--वृक्षों को; महा-भागा:--हे परम भाग्यशाली; दीनेभ्य:--अत्यन्त गरीबों; द्रोग्धुमू--जलाकर भस्मकरने के लिए; अर्हथ--तुम्हें चाहिए; विवर्धयिषव: --वृद्धि लाने के लिए इच्छुक; यूयम्‌--तुम सब; प्रजानामू--सारे जीवोंका, जिन्होंने तुम्हारी शरण ले रखी है; पतय:--स्वामी या रक्षक; स्मृता: --के रूप में ज्ञात |

    हे भाग्यवान्‌ महाशयों! तुम लोगों को चाहिए कि इन बेचारे वृक्षों को जलाकर भस्म न करो।

    तुम लोगों का कर्तव्य नागरिकों ( प्रजा ) के लिए समस्त समृद्द्धि की कामना करनातथा उनके रक्षकों के रूप में कार्य करना है।

    अहो प्रजापतिपतिर्भगवान्हरिरव्यय: ।

    वनस्पतीनोषधी श्र ससर्जोर्जमिषं विभु: ॥

    ८॥

    अहो--हाय; प्रजापति-पति: --जीवों के स्वामियों का स्वामी; भगवान्‌ हरि:-- भगवान्‌ हरि; अव्यय:--अविनाशी;वनस्पतीन्‌--वृक्षों को; ओषधी: --जड़ी बूटियों को; च--तथा; ससर्ज--उत्पन्न किया; ऊर्जम्‌--स्फूर्तिदायी; इषम्‌--भोजन; विभु:--परम पुरुष ने |

    भगवान्‌ श्री हरि सारे जीवों के स्वामी हैं जिनमें ब्रह्मा जैसे सारे प्रजापति सम्मिलित हैं।

    चूँकि वे सर्वव्यापक तथा अविनाशी प्रभु हैं, अतः उन्होंने अन्य जीवों के लिए खाद्य वस्तुओंके रूप में इन सारे वृक्षों तथा शाकों को उत्पन्न किया है।

    अन्न चराणामचरा हापदः पादचारिणाम्‌ ।

    अहस्ता हस्तयुक्तानां द्विपदां च चतुष्पद: ॥

    ९॥

    अन्नम्‌ू--भोजन; चराणाम्‌--चलने वालों या पंखों वालों का; अचरा:--न चलने वालों ( फलों-फूलों ) का; हि--निस्सन्देह; अपद:--बिना पैर वाले जीव यथा घास; पाद-चारिणाम्‌--पैरों पर चलने वाले पशुओं, यथा गौवों तथा भेसोंके; अहस्ता:--बिना हाथ वाले पशु; हस्त-युक्तानाम्‌-हाथों से युक्त पशुओं यथा बाघ आदि का; द्वि-पदाम्‌--दो पैरोंवाले मनुष्यों का; च--तथा; चतु:-पदः--चार पैरों वाले हिरण जैसे पशु |

    प्रकृति की व्यवस्था के द्वारा फलों तथा फूलों को कीड़ों तथा पक्षियों का भोजन मानाजाता है; घास तथा अन्य बिना पैर वाले जीव गायों तथा भेसों जैसे चौपायों के भोजन केलिए हैं।

    वे पशु, जो अपने अगले पैरों को हाथों की तरह काम में नहीं ला सकते पंजों वालेबाघों जैसे पशुओं के भोजन हैं तथा हिरन एवं बकरे जैसे चौपाये जानवर तथा खाद्यान्न भीमनुष्यों के भोजन के निमित्त होते हैं।

    यूयं च पित्रान्वादिष्टा देवदेवेन चानघा: ।

    प्रजासर्गाय हि कथ वृक्षात्रिर्दग्धुमहथ ॥

    १०॥

    यूयम्‌--तुम सब; च--भी; पित्रा--अपने पिता द्वारा; अन्वादिष्टा:--आदेश दिये गये; देव-देवेन--स्वामियों के भी स्वामीभगवान्‌ द्वारा; च-- भी; अनघा: --हे निष्पाप; प्रजा-सर्गाय--सन्तान उत्पन्न करने के लिए; हि--निस्सन्देह; कथम्‌--कैसे;वृक्षान्‌ू--वृक्षों को; निर्दग्धुमू--जलाकर भस्म करने के लिए; अर्हथ--समर्थ हैं

    हे शुद्ध हृदयवाले! तुम्हारे पिता प्राचीनबर्हि तथा भगवान्‌ ने तुम सबों को प्रजा उत्पन्नकरने का आदेश दिया है।

    अतः तुम लोग इन वृक्षों तथा वनस्पतियों को किस तरह जलाकरभस्म कर सकते हो जिनकी आवश्यकता तुम्हारी प्रजा तथा तुम्हारे वंशजों के पालन के लिएपड़ेगी ?

    आतिष्ठत सतां मार्ग कोपं यच्छत दीपितम्‌ ।

    पित्रा पितामहेनापि जुष्टं व: प्रपितामहै: ॥

    ११॥

    आतिष्ठत--पालन करो; सताम्‌ मार्गम्‌-महापुरुषों के मार्ग का; कोपम्‌--क्रोध; यच्छत--दमन करो; दीपितम्‌--जो अबजाग्रत है; पित्रा--पिता द्वारा; पितामहेन अपि--तथा पितामह द्वारा; जुष्टम्‌--सम्पन्न; व: --तुम्हारा; प्रपितामहै: --तुम्हारेपरदादाओं द्वारा

    तुम्हारे पिता, पितामह तथा परदादाओं ने जिस अच्छाई के मार्ग का अनुसरण किया था,वह प्रजा के पालन करने का था जिसमें मनुष्य, पशु तथा वृक्ष सम्मिलित हैं।

    तुम लोगों कोउसी मार्ग का पालन करना चाहिए व्यर्थ का क्रोध तुम्हारे कर्तव्य के विरुद्ध है।

    अतएव मेरीप्रार्थना है कि तुम लोग अपने क्रोध को नियंत्रित करो।

    तोकानां पितरौ बन्धू हृशः पक्ष्म स्त्रिया: पति: ।

    पति: प्रजानां भिश्चूणां गृह्मज्ञानां बुध: सुहत्‌ ॥

    १२॥

    तोकानाम्‌--बच्चों का; पितरौ--माता-पिता; बन्धू--मित्र; हश:--आँख की; पक्ष्म--पलक; स्त्रिया:--स्त्रियों का;पति:--पति; पति: --रक्षक; प्रजानाम्‌--प्रजा का; भिक्षूणाम्‌ू--भिखारियों का; गृही--गृहस्थ का; अज्ञानाम्‌ू--अज्ञानियोंका; बुध: --विद्वान; सु-हत्‌-

    -मित्रपिता तथा माता जिस तरह अपनी सनन्‍्तानों के मित्र और पालनकर्ता होते हैं, जिस तरहपलक आँख की रक्षा करती है, पति जिस तरह पत्नी का भर्त्ता तथा रक्षक होता है, जिसतरह गृहस्थ भिखारियों का अन्नदाता तथा रक्षक होता है तथा जिस तरह विद्वान अज्ञानी कामित्र होता है, उसी तरह राजा अपनी प्रजा का रक्षक तथा जीवनदाता होता है।

    वृक्ष भी राजाकी प्रजा होते हैं, अतएव उन्हें भी संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।

    अन्तर्देहिषु भूतानामात्मास्ते हरिरी श्वर: ।

    सर्व तद्धिष्ण्यमीक्षध्वमेवं वस्तोषितो हासौ ॥

    १३॥

    अन्त: देहेषु--शरीरों ( हृदयों ) के भीतर; भूतानामू--सारे जीवों के; आत्मा--परमात्मा; आस्ते--निवास करता है; हरि:ः--भगवान्‌; ईश्वर: -- स्वामी या निदेशक; सर्वम्‌--समस्त; तत्‌-धिष्ण्यम्‌--उसका आवास स्थान; ईक्षध्वम्‌--देखने का प्रयासकरते हैं; एवम्‌--इस प्रकार; व:--तुमसे; तोषित:--तुष्ट; हि--निस्सन्देह; असौ-- भगवान्‌ |

    भगवान्‌ सारे जीवों के हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं, चाहे वे चर हों या अचर।

    इनमेंमनुष्य, पक्षी, पशु, वृक्ष तथा सारे जीव सम्मिलित हैं।

    इसलिए तुम लोगों को प्रत्येक शरीरको भगवान्‌ का वासस्थान या मन्दिर मानना चाहिए।

    इस दृष्टिकोण से तुम लोग भगवान्‌ कोतुष्ठ कर सकोगे।

    तुम लोगों को क्रोध में आकर वृक्षों रूपों में स्थित इन जीवों का वध नहींकरना चाहिए।

    यः समुत्पतितं देह आकाशान्मन्युमुल्बणम्‌ ।

    आत्मजिज्ञासया यच्छेत्स गुणानतिवर्तते ॥

    १४॥

    यः--जो कोई ; समुत्पतितम्‌--सहसा जाग्रत हुआ; देहे--शरीर में; आकाशात्‌-- आकाश से; मन्युम्‌ू--क्रोध; उल्बणम्‌ --शक्तिशाली; आत्म-जिज्ञासया--आध्यात्मिक या आत्म-साक्षात्कार के प्रति पूछताछ से; यच्छेत्‌--दमन करता है; सः--वह व्यक्ति; गुणान्‌ू-- भौतिक प्रकृति के गुणों को; अतिवर्तते--लाँघ जाता है

    जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की जिज्ञासा करता है और इस तरह अपने शक्तिशालीक्रोध को--जो शरीर में सहसा जाग्रत हो जाता है, मानों आकाश से गिरा हो उसे दबाता है,वह भौतिक प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है।

    अलं दबः्धेर्द्रमैर्दीनी: खिलानां शिवमस्तु व: ।

    वार्क्षी छोषा बरा कन्या पतीत्वे प्रतिगृह्मयताम्‌ू ॥

    १५॥

    अलम्‌--पर्याप्त; दग्धै: --जल रहे; द्वुमै: --वृश्षों द्वारा; दीनै:ः--बेचारे; खिलानाम्‌--शेष वृक्षों का; शिवम्‌--सर्व सौभाग्य;अस्तु--हो; व:--तुम लोगों का; वारक्षी--वृक्षों से पालित; हि--निस्सन्देह; एघा--यह; वरा--रूचि; कन्या--कन्या,पुत्री; पत्नीत्वे--पत्नी के रूप में; प्रतिगृह्मताम्‌--स्वीकार करो।

    अब इन बेचारे वृक्षों को जलाने की आवश्यकता नहीं है।

    जो वृश्ष शेष हैं उन्हें सुखपूर्वक रहने दें।

    निस्सन्देह, तुम लोगों को भी सुखी रहना चाहिए।

    यहाँ पर एक सुयोग्यसुन्दर लड़की है, जिसका नाम मारिषा है और जिसका पालन-पोषण इन वृक्षों ने अपनी पुत्रीके रूप में किया है।

    तुम लोग इस सुन्दर लड़की को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करसकते हो।

    इत्यामन्त्र्य वरारोहां कन्यामाप्सरसीं नृप ।

    सोमो राजा ययौ दत्त्वा ते धर्मेणोपयेमिरे ॥

    १६॥

    इति--इस प्रकार; आमन््य--सम्बोधित करके; वर-आरोहाम्‌--उठे सुन्दर कूल्हों वाली; कनन्‍्याम्‌--कन्या को;आप्सरसीम्‌--अप्सरा से उत्पन्न; नृप--हे राजा; सोम:--चन्द्रमा का अधिष्ठाता सोम देव ने; राजा--राजा; ययौ--दे दिया;दत्त्वा--देकर; ते--वे; धर्मेण-- धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार; उपयेमिरे--ब्याही गई।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन! प्रचेताओं को तुष्ठट करने के बाद चन्द्रमा केराजा सोम ने प्रम्लोचा अप्सरा से उत्पन्न सुन्दर कन्या उन्हें प्रदान की।

    प्रचेताओं ने प्रम्लोचाकी कन्या का स्वागत किया।

    उसके उठे हुए नितम्ब अतीव सुन्दर थे।

    उन्होंने धार्मिक पद्धतिके अनुसार उसके साथ विवाह कर लिया।

    तेभ्यस्तस्यां समभवद्दक्ष: प्राचेतस: किल ।

    यस्य प्रजाविसगेण लोका आपूरितास्त्रय: ॥

    १७॥

    तेभ्य:--सारे प्रचेताओं से; तस्थाम्‌--उसमें; समभवत्‌--उत्पन्न हुआ; दक्ष:--दक्ष, सन्तान उत्पन्न करने में दक्ष; प्राचेतस:--प्रचेताओं का पुत्र; किल--निस्सन्देह; यस्य--जिसका; प्रजा-विसगगेंण--जीवों की उत्पत्ति द्वारा; लोका:--जगत;आपूरिता:--पूरित; त्रयः--तीनों

    उस लड़की के गर्भ से प्रचेताओं ने दक्ष नामक एक पुत्र उत्पन्न किया जिसने तीनों लोकोंको जीवों से भर दिया।

    यथा ससर्ज भूतानि दक्षो दुहितृबत्सल: ।

    रेतसा मनसा चैव तन्ममावहितः श्रुणु ॥

    १८॥

    यथा--जिस तरह; ससर्ज--उत्पन्न किया; भूतानि--जीवों को; दक्ष:--दक्ष ने; दुहितृ-वत्सल:--अपनी पुत्रियों के प्रतिअतीव स्नेहिल; रेतसा--वीर्य से; मनसा--मन से; च--भी; एव--निस्सन्देह; तत्‌--वह; मम--मुझसे; अवहित:--सावधान होकर; श्रुणु--सुनो

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : कृपया अत्यन्त ध्यानपूर्वक मुझसे सुनें कि किस तरहप्रजापति दक्ष ने, जो अपनी पुत्रियों के प्रति अति स्नेहिल थे, अपने वीर्य से तथा मन सेविभिन्न प्रकार के जीवों को उत्पन्न किया।

    मनसैवासूजत्पूर्व प्रजापतिरिमा: प्रजा: ।

    देवासुरमनुष्यादीन्रभ:स्थलजलौकस: ॥

    १९॥

    मनसा--मन से; एव--निस्सन्देह; असृजत्‌---उत्पन्न किया; पूर्वम्‌-प्रारम्भ में; प्रजापति:--प्रजापति ( दक्ष ) ने; इमा:--इन; प्रजा:--जीवों; देव--देवताओं; असुर--असुरों; मनुष्य-आदीन्‌--मनुष्यों इत्यादि को; नभ:--आकाश में; स्थल--भूमि पर; जल--अथवा जल के भीतर; ओकस:ः--जिनके निवास हैं।

    प्रजापति दक्ष ने सर्वप्रथम अपने मन से सभी तरह के देवताओं, असुरों, मनुष्यों,पक्षियों, पशुओं, जलचरों इत्यादि को उत्पन्न किया।

    तमबूंहितमालोक्य प्रजासर्ग प्रजापति: ।

    विन्ध्यपादानुपब्रज्य सोचरदुष्करं तप:ः ॥

    २०॥

    तम्‌--उसको; अबूंहितम्‌--न बढ़ते हुए; आलोक्य--देखकर; प्रजा-सर्गम्‌--जीवों की सृष्टि; प्रजापति:--जीवों के जनकदक्ष; विन्ध्य-पादान्‌--विन्ध्याचल पर्वत के निकट; उपक्रज्य--जाकर; सः--उसने; अचरत्‌--सम्पन्न किया; दुष्करम्‌--अत्यन्त कठिन; तप:ः--तपस्या |

    किन्तु जब प्रजापति दक्ष ने देखा कि वे ठीक से सभी प्रकार के जीवों को उत्पन्न नहींकर पा रहे हैं, तो वे विन्ध्याचल पर्वतश्रेणी के निकट एक पर्वत पर गये और वहाँ पर उन्होंनेअत्यन्त कठिन तपस्या की।

    तत्राधमर्षणं नाम तीर्थ पापहरं परम्‌ ।

    उपस्पृश्यानुसबनं तपसातोषयद्धरिम्‌ ॥

    २१॥

    तत्र--वहाँ पर; अधघमर्षणम्‌-- अघमर्षण; नाम--नामक; तीर्थम्‌--पतवित्र स्थान; पाप-हरम्‌--सारे पापफलों को विनष्टकरने के लिए उपयुक्त; परम्‌--सर्व श्रेष्ठ; उपस्पृश्य--आचमन तथा स्नान करके; अनुसवनम्‌--नियमित रूप से; तपसा--तपस्या द्वारा; अतोषयत्‌--प्रसन्न किया; हरिम्‌-- भगवान्‌ को

    उस पर्वत के निकट अघमर्षण नामक एक तीर्थस्थल था।

    वहाँ पर प्रजापति दक्ष ने सारेकर्मकाण्ड सम्पन्न किये और भगवान्‌ हरि को प्रसन्न करने के लिए महान्‌ तपस्या में संलग्नहोकर उन्हें संतुष्ट किया।

    अस्तौषीद्धंसगुह्ेन भगवन्तमधोक्षजम्‌ ।

    तुभ्यं तदभिधास्यामि कस्यातुष्यद्यथा हरि: ॥

    २२॥

    अस्तौषीतू--तुष्ट किया; हंस-गुहोन--हंसगुहा नामक प्रसिद्ध स्तुतियों से; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌; अधोक्षजम्‌--इन्द्रियों कीपहुँच से परे; तुभ्यम्‌--तुमको; तत्‌ू--वह; अभिधास्थामि--बतलाऊँगा; कस्य--प्रजापति दक्ष से; अतुष्यत्‌--तुष्ट हो गया;यथा--जिस तरह; हरि:ः--भगवान्‌ |

    हे राजन्‌! अब मैं आपसे हंसगुहा नामक स्तुतियों की पूरी व्याख्या करूँगा जिन्हें दक्ष नेभगवान्‌ को अर्पित किया और मैं बताऊँगा कि किस तरह उन स्तुतियों से भगवान्‌ उन परप्रसन्न हुए।

    श्रीप्रजापतिरुवाचनमः परायावितथानुभूतयेगुणत्रयाभासनिमित्तबन्धवे ।

    अदष्ट धाम्ने गुणतत्त्वबुद्धिभि-निवृत्तमानाय दधे स्वयम्भुवे ॥

    २३॥

    श्री-प्रजापति: उबाच--प्रजापति दक्ष ने कहा; नम:--सादर नमस्कार; पराय--परब्रह्मै को; अवितथ--सही; अनुभूतये--उसको, जिसकी आध्यात्मिक शक्ति उसकी अनुभूति कराती है; गुण-त्रय--प्रकृति के तीनों गुणों का; आभास--प्रकटहोने वाले जीवों का; निमित्त--तथा भौतिक शक्ति का; बन्धवे--नियन्ता को; अद्ृष्ट-धाम्ने--जो अपने धाम में देखे नहींजाते; गुण-तत्त्व-बुद्धिभि:--बद्धजीवों द्वारा

    जिनकी मन्द बुद्धि बताती है कि असली सत्य प्रकृति के तीन गुणों कीअभिव्यक्ति में पाया जाता है; निवृत्त-गानाय--जो सारे भौतिक मापों तथा गणनाओं को पार कर चुका हो; दधे--अर्पितकरता हूँ; स्वयम्भुवे--परमे श्वर, बिना कारण के प्रकट होने वाले भगवान्‌ को |

    प्रजापित दक्ष ने कहा : भगवान्‌ माया तथा उससे उत्पन्न शारीरिक कोटियों से परे हैं।

    उनमें अचूक ज्ञान तथा परम इच्छा-शक्ति रहती है और वे जीवों तथा माया के नियन्ता हैं।

    जिन बद्धात्माओं ने इस भौतिक जगत को सर्वस्व समझ रखा है वे उन्हें नहीं देख सकते,क्योंकि वे व्यावहारिक ज्ञान के प्रमाण से परे हैं।

    वे स्वतः प्रकट तथा आत्म-तुष्ट हैं।

    वे किसीकारण द्वारा उत्पन्न नहीं किये जाते।

    मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।

    न यस्य सख्यं पुरुषो वैति सख्यु:सखा वसन्संवसत: पुरेउस्मिन्‌ ।

    गुणो यथा गुणिनो व्यक्तदृष्टे-स्तस्मै महेशाय नमस्करोमि ॥

    २४॥

    न--नहीं; यस्य--जिसका; सख्यम्‌--मैत्री भाव; पुरुष: -- जीव; अवैति--जानता है; सख्यु:--परम मित्र का; सखा--मित्र; वसन्‌--रहते हुए; संवसतः--साथ रहने वाले के; पुरे--शरीर में; अस्मिन्‌ू--यह; गुण:--इन्द्रिय अनुभूति का विषय;यथा--जिस तरह; गुणिन: --उसी इन्द्रिय का; व्यक्त-दृष्ट:--जो भौतिक जगत का निरीक्षण करता है; तस्मै--उस; महा-ईशाय--परम नियन्ता को; नमस्करोमि--मैं नमस्कार करता हूँ।

    जिस तरह इन्द्रियविषय ( रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा ध्वनि ) यह नहीं समझ सकते कि इन्द्रियाँ उनकी अनुभूति किस तरह करती हैं, उसी तरह बद्ध-आत्मा यद्यपि अपने शरीरमें परमात्मा के साथ-साथ निवास करता है, यह नहीं समझ सकता कि भौतिक सृष्टि केस्वामी परम आध्यात्मिक पुरुष किस तरह उसकी इन्द्रियों को निर्देश देते हैं।

    मैं उन परमपुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ जो परम नियन्ता हैं।

    देहोसवोक्षा मनवो भूतमात्रा-मात्मानमन्यं च विदु: परं यत्‌ ।

    सर्व पुमान्वेद गुणांश्व तज्ज्ञोन वेद सर्वज्ञमनन्तमीडे ॥

    २५॥

    देह:--यह शरीर; असव: --प्राण वायु; अक्षा: --विभिन्न इन्द्रियाँ; मनव: --मन, ज्ञान, बुद्धि तथा अहंकार; भूत-मात्राम्‌ू--पाँच स्थूल तत्त्व तथा पाँच इन्द्रिय-विषय ( रूप, स्वाद, ध्वनि इत्यादि ); आत्मानम्‌--अपने आप; अन्यम्‌-- अन्य; च--तथा; विदुः--जानते हैं; परम्‌--परे; यत्‌--जो; सर्वम्‌--हर वस्तु; पुमान्‌ू--जीव; वेद--जानता है; गुणान्‌--प्रकृति केगुणों को; च--तथा; तत्‌-ज्ञ:--उन वस्तुओं को जानने वाला; न--नहीं; वेद--जानता है; सर्व-ज्ञम्‌--सर्वज्ञ को;अनन्तमू-- असीम; ईडे--मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

    केवल पदार्थ होने के कारण शरीर, प्राण वायु, बाह्य तथा आन्तरिक इन्द्रियाँ, पाँचस्थूल तत्त्व तथा सूक्ष्म इन्द्रियविषय ( रूप, स्वाद, गन्ध, ध्वनि तथा स्पर्श ) अपने स्वभावको, अन्य इन्द्रियों के स्वभाव को या उनके नियन्ताओं के स्वभाव को नहीं जान पाते हैं।

    किन्तु जीव अपने आध्यात्मिक स्वभाव के कारण अपने शरीर, प्राणवायु, इन्द्रियों, तत्त्वोंतथा इन्द्रियविषयों को जान सकता है और वह तीन गुणों को भी, जो उनके मूल में होते हैं,जान सकता है।

    इतने पर भी, यद्यपि जीव उनसे पूर्णतया भिज्ञ होता है, किन्तु वह परम पुरुषको, जो सर्वज्ञ तथा असीम है, देख पाने में अक्षम रहता है।

    इसलिए मैं उन्हें सादर नमस्कारकरता हूँ।

    यदोपरामो मनसो नामरूप-रूपस्य दृष्टस्मृतिसम्प्रमोषात्‌ ।

    य ईयते केवलया स्वसंस्थयाहंसाय तस्मै शुचिसदाने नम: ॥

    २६॥

    यदा--जब समाधि में; उपराम:--पूर्ण विराम; मनसः--मन का; नाम-रूप--भौतिक नाम तथा रूप; रूपस्य--उसकाजिससे वे प्रकट होते हैं; दृष्ट-- भौतिक दृष्टि का; स्मृति--तथा स्मरण का; सम्प्रमोषात्‌--विनाश के कारण; यः--जो( भगवान्‌ ); ईयते--अनुभव किया जाता है; केवलया--आध्यात्मिक; स्व-संस्थया--अपने आदि रूप से; हंसाय--परमविशुद्ध को; तस्मै--उस; शुच्चि-सदाने--जो आध्यात्मिक अस्तित्व की शुद्ध अवस्था में ही अनुभव किया जाता है; नम:--मैं सादर नमस्कार करता हूँ।

    जब मनुष्य की चेतना स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक जगत के कल्मष से पूरी तरह शुद्ध होजाती है और कार्य करने तथा स्वण देखने की अवस्थाओं से विचलित नहीं होती तथा जबमन सुषुप्ति अर्थात्‌ गहरी नीद में लीन नहीं होता तो वह समाधि के पद को प्राप्त होता है।

    तबउसकी भौतिक दृष्टि तथा मन की स्मृतियाँ, जो नामों तथा रूपों को प्रकट करती हैं, विनष्टहो जाती हैं।

    केवल ऐसी ही समाधि में भगवान्‌ प्रकट होते हैं।

    अतः हम उन भगवान्‌ कोनमस्कार करते हैं, जो उस अकलुषित दिव्य अवस्था में देखे जाते हैं।

    मनीषिणोन्तईदि सन्निवेशितंस्वशक्तिभिर्नवशिश्र त्रिवृद्धिः ।

    वह्निं यथा दारुणि पाञ्जदश्यंमनीषया निष्कर्षन्ति गूढम्‌ ॥

    २७॥

    स वे ममाशेषविशेषमायानिषेधनिर्वाणसुखानुभूतिः ।

    स सर्वनामा स च विश्वरूप:प्रसीदतामनिरुक्तात्मशक्ति: ॥

    २८॥

    मनीषिण:--महान्‌ विद्वान ब्राह्मण जो अनुष्ठानों तथा यज्ञों को सम्पन्न करे; अन्त:-हदि--हृदय के भीतर; सन्निवेशितम्‌--स्थित होते हुए; स्व-शक्तिभि:--अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से; नवभि:--नौ भिन्न-भिन्न भौतिक शक्तियों से भी( प्रकृति, पूर्ण भौतिक शक्ति, अहंकार, मन तथा पाँच इन्द्रिय विषय ); च--और ( पांच स्थूल भौतिक तत्त्वों तथा दसकार्येन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय ); त्रिवृद्धि:ः--प्रकृति के तीनों भौतिक गुणों द्वारा; वहिम्‌--अग्नि; यथा--जिस तरह; दारुणि--काष्ठ के भीतर; पात्नदश्यम्‌--सामिधेनि मंत्र नामक पन्द्रह मंत्रों के उच्चारण से उत्पन्न; मनीषया--शुद्ध बुद्धि द्वारा;निष्कर्षन्ति--निचोड़ते हैं; गूढम्‌--यद्यपि प्रकट न करते हुए; सः-- भगवान्‌; बै--निस्सन्देह; मम--मेरे प्रति; अशेष--समस्त; विशेष--किस्में; माया--माया की; निषेध--निषेध विधि द्वारा; निर्वाण--मुक्ति का; सुख-अनुभूति: --जो दिव्यआनन्द द्वारा अनुभव किया जाता है; सः--भगवान्‌; सर्व-नामा--सभी नामों का स्रोत; सः--वह, भगवान्‌; च-- भी;विश्व-रूप:--ब्रह्माण्ड का विराट रूप; प्रसीदताम्‌ू--दयालु हो; अनिरुक्त--अचिन्त्य; आत्म-शक्ति:--समस्त आध्यात्मिकशक्तियों का आगार।

    जिस तरह कर्मकाण्ड तथा यज्ञ करने में निपुण प्रकांड विद्वान ब्राह्मण पन्द्रह सामिधेनीमंत्रों का उच्चारण करके काष्ठ के भीतर सुप्त अग्नि को बाहर निकाल सकते हैं और इसतरह वैदिक मंत्रों की दक्षता को सिद्ध करते हैं, उसी तरह जो लोग कृष्णभावनामृत मेंवस्तुतः बढ़े-चढ़े होते हैं--दूसरे शब्दों में, जो कृष्णभावनाभावित होते हैं--वे परमात्मा कोढूँढ सकते हैं, जो अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा हृदय के भीतर स्थित रहते हैं।

    हृदयप्रकृति के तीनों गुणों से तथा नौ भौतिक तत्त्वों ( प्रकृति, कुल भौतिक शक्ति, अहंकार, मनतथा इन्द्रिय तृप्ति के पाँचों विषय) एवं पाँच भौतिक तत्त्वों तथा दस इन्द्रियों द्वाराआच्छादित रहता है।

    ये सत्ताईस तत्त्व मिलकर भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति का निर्माण करतेहैं।

    बड़े बड़े योगी भगवान्‌ का ध्यान करते हैं, जो परमात्मा रूप में हृदय के भीतर स्थित हैं।

    वह परमात्मा मुझ पर प्रसन्न हों।

    जब कोई भौतिक जीवन की असंख्य विविधताओं से मुक्तिके लिए उत्सुक होता है, तो परमात्मा का साक्षात्कार होता है।

    वस्तुतः उसे ऐसी मुक्ति तबमिलती है जब वह भगवान्‌ की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है और अपनी सेवा प्रवृत्ति केकारण भगवान्‌ का साक्षात्कार करता है।

    भगवान्‌ को उन अनेक आध्यात्मिक नामों सेसम्बोधित किया जा सकता है, जो भौतिक इन्द्रियों के लिए अकल्पनीय हैं।

    वे भगवान्‌ मुझपर कब प्रसन्न होंगे?

    यद्यन्निरुक्त वचसा निरूपितं॑धियाक्षभिर्वा मनसोत यस्य ।

    मा भूत्स्वरूपं गुणरूपं हि तत्तत्‌स वै गुणापायविसर्गलक्षण: ॥

    २९॥

    यत्‌ यत्‌--जो भी; निरुक्तमू--कथित; वचसा--शब्दों से; निरूपितम्‌--सुनिश्चित; धिया--तथाकथित ध्यान या बुद्धि से;अक्षभि:--इन्द्रियों से; वा--अथवा; मनसा--मन से; उत--निश्चय ही; यस्य--जिसका; मा भूतू--नहीं हो सकता; स्व-रूपम्‌ू--भगवान्‌ का वास्तविक रूप; गुण-रूपम्‌--तीनों गुणों से युक्त; हि--निस्सन्देह; तत्‌ तत्‌ू--वह; सः--वहभगवान्‌; वै--निस्सन्देह; गुण-अपाय--तीन गुणों से बनी हुई हर वस्तु के संहार का कारण; विसर्ग--तथा सृष्टि;लक्षण:--के रूप में प्रकट

    भौतिक ध्वनियों द्वारा व्यक्त, भौतिक बुद्धि द्वारा सुनिश्चित तथा भौतिक इन्द्रियों द्वाराअनुभव की गई अथवा भौतिक मन के भीतर गढ़ी गई कोई भी वस्तु भौतिक प्रकृति केगुणों के प्रभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं होती, इसलिए भगवान्‌ के असली स्वभाव से उसकाकिसी तरह का सम्बन्ध नहीं होता।

    परमेश्वर इस भौतिक जगत की सृष्टि के परे हैं, क्योंकि वेभौतिक गुणों तथा सृष्टि के स्त्रोत हैं।

    सभी कारणों के कारण होते हुए, वे सृष्टि के पूर्व तथासृष्टि के पश्चात्‌ विद्यमान रहते हैं।

    मैं उन्हें सादर प्रणाम करना चाहता हूँ।

    यस्मिन्यतो येन च यस्य यस्मैयद्यो यथा कुरुते कार्यते च ।

    परावरेषां परम॑ प्राक्प्रसिद्धंतद्ढह्यम तद्धेतुरनन्यदेकम्‌ ॥

    ३०॥

    यस्मिनू--जिसमें ( भगवान्‌ या परम धाम में ); यत:ः--जिससे ( हर वस्तु उदभूत है ); येन--जिसके द्वारा ( हर वस्तु निर्मितहै ); च--भी; यस्य--जिसकी ( हर वस्तु है ); यस्मै--जिसको ( हर वस्तु अर्पित की जाती है ); यत्‌--जो; यः--जो;यथा--जिस तरह; कुरुते--सम्पन्न करता है; कार्यते--कराया जाता है; च-- भी; पर-अवरेषामू-- भौतिक तथाआध्यात्मिक दोनों जगतों में; परमम्‌--परम; प्राकु--उद्गम; प्रसिद्धमू--हर एक को भलीभाँति ज्ञात; तत्‌ू--वह; ब्रह्म--परब्रह्म; तत्‌ हेतु:--समस्त कारणों के कारण; अनन्यत्‌--अन्य कारण न होते हुए; एकम्‌--अद्वितीय |

    परब्रह्म कृष्ण प्रत्येक वस्तु के परम आश्रय तथा उद्गम हैं।

    हर कार्य उन्हीं के द्वारा कियाजाता है, हर वस्तु उन्हीं की है और हर वस्तु उन्हीं को अर्पित की जाती है।

    वे ही परम लक्ष्य हैंऔर चाहे वे स्वयं कार्य करते हों या अन्यों से कराते हों, वे परम कर्ता हैं।

    वैसे उच्च तथानिम्न अनेक कारण हैं, किन्तु समस्त कारणों के कारण होने से वे परब्रह्म कहलाते हैं, जोसमस्त कार्यकलापों के पहले से विद्यमान थे।

    वे अद्वितीय हैं और उनका कोई अन्य कारणनहीं है।

    मैं उनको सादर प्रणाम करता हूँ।

    यच्छक्तयो वदतां वादिनां वैविवादसंवादभुवो भवन्ति ।

    कुर्वन्ति चैषां मुहुरात्ममोहंतस्मै नमोनन्तगुणाय भूम्ने ॥

    ३१॥

    यत्‌-शक्तय:--जिसकी नाना शक्तियाँ; वदताम्‌--विभिन्न दर्शनों को बताने वाली; वादिनाम्‌ू--वक्ताओं के; वै--निस्सन्देह; विवाद--तर्क का; संवाद--तथा रजामन्दी, विचार ऐक्य; भुव:--कारण; भवन्ति--हैं; कुर्वन्ति--उत्पन्न करतेहैं; च--तथा; एषाम्‌--उनके ( सिद्धान्तवादियों के ); मुहुः--निरन्तर; आत्म-मोहम्‌ू--आत्मा के अस्तित्व के विषय मेंमोह; तस्मै--उसको; नम:--मेरा सादर नमस्कार; अनन्त--असीम; गुणाय--दिव्य गुणों वाले; भूम्ने--सर्वव्यापक प्रभु |

    मैं उन सर्वव्यापक भगवान्‌ को सादर नमस्कार करता हूँ जो अनन्त दिव्य गुणों से युक्तहैं।

    वे विभिन्न मतों का प्रसार करने वाले समस्त दार्शनिकों के हृदय के भीतर से कार्य करतेहुए उनसे उनकी ही आत्मा को भुलवाते हैं, कभी उनमें परस्पर मतैक्य कराते हैं, तो कभीमत भिन्नता कराते हैं।

    इस तरह वे इस भौतिक जगत में ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसमें वेकिसी भी दार्शनिक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते।

    मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

    अस्तीति नास्तीति च वस्तुनिष्ठयो-रकस्थयोभिन्नविरुद्धधर्मणो: ।

    अवेक्षितं किज्लन योगसाड्ख्ययो:सम॑ पर हानुकूलं बृहत्तत्‌ ॥

    ३२॥

    अस्ति--है; इति--इस प्रकार; न--नहीं; अस्ति-- है; इति--इस प्रकार; च--तथा; वस्तु-निष्ठयो:--परम कारण के ज्ञानका अनुयायी; एक-स्थयो: --एक ही विषय, ब्रह्म को स्थापित करने से युक्त; भिन्न--अलग दिखाते हुए; विरुद्ध-धर्मणो:--तथा विरोधी; अवेक्षितम्‌-- अनुभूत किया; किज्लन--वह जो कुछ; योग-साड्ख्ययो:--योग तथा सांख्य-दर्शनका; समम्‌ू--समान; परम्‌--दिव्य; हि--निस्सन्देह; अनुकूलम्‌--निवास स्थान; बृहत्‌ तत्‌ू--वह परम कारण ।

    संसार मे दो वर्ग हैं--आस्तिक तथा नास्तिक।

    परमात्मा को मानने वाला आस्तिकसम्पूर्ण योग में आध्यात्मिक कारण को पाता है।

    किन्तु भौतिक तत्त्वों का मात्र विश्लेषणकरने वाला सांख्यधर्मी निर्विशेषवाद के निष्कर्ष को प्राप्त होता है और परम कारण को, चाहे वह भगवान्‌ हो, परमात्मा हो या ब्रह्म ही क्‍यों न हो, स्वीकार नहीं करता।

    उल्टे, बहभौतिक प्रकृति के व्यर्थ बाह्य कार्यो में व्यस्त रहता है।

    किन्तु अन्ततोगत्वा दोनों वर्ग एकपरम सत्य की स्थापना करते हैं, क्योंकि विरोधी कथन करते हुए भी उनका लक्ष्य एक हीपरम कारण होता है।

    वे दोनों ही जिस एक परब्रह्म के पास पहुँचते हैं उन्हें मैं सादर नमस्कारकरता हूँ।

    योजनुग्रहार्थ भजतां पादमूल-मनामरूपो भगवाननन्तः ।

    नामानि रूपाणि च जन्मकर्मभि-भेजे स मह्ंं परम: प्रसीदतु ॥

    ३३॥

    यः--जो ( भगवान्‌ ); अनुग्रह-अर्थम्‌-- अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के लिए; भजताम्‌--उन भक्तों को जो सदैव भक्तिकरते हैं; पाद-मूलम्‌--उनके दिव्य चरणकमलों को; अनाम--किसी भौतिक नाम के बिना; रूप:--या भौतिक रूप;भगवान्‌-- भगवान्‌; अनन्तः--असीम, सर्वव्यापक तथा नित्य विद्यमान; नामानि--दिव्य नाम; रूपाणि--दिव्य रूप; च--भी; जन्म-कर्मभि: --दिव्य जन्म तथा कार्यों के साथ; भेजे--प्रकट करता है; सः--वह; महाम्‌--मुझ पर; परम:--परम;प्रसीदतु--कृपालु हों

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ जो कि अचिन्त्य रूप से ऐश्वर्यवान्‌ हैं, जो सारे भौतिक नामों,रूपों तथा लीलाओं से रहित हैं तथा जो सर्वव्यापक हैं, उन भक्तों पर विशेषरूप से कृपालु रहते हैं, जो उनके चरणकमलों की पूजा करते हैं।

    इस तरह वे विभिन्न लीलाओं सहित दिव्यरूपों तथा नामों को प्रकट करते हैं।

    ऐसे भगवान्‌, जो सच्चिदानन्द विग्रह हैं, मुझ पर कृपालुहों।

    यः प्राकृतैर्ज्ञानपथेर्जनानांयथाशयं देहगतो विभाति ।

    यथानिल: पार्थिवमाश्नितो गुणंस ईश्वरो मे कुरुतां मनोरथम्‌ ॥

    ३४॥

    यः--जो; प्राकृतैः--निम्न श्रेणी के; ज्ञान-पथैः--पूजा के मार्गों द्वारा; जनानाम्‌ू--जीवों के; यथा-आशयमू--इच्छा केअनुसार; देह-गत:--हृदय के भीतर स्थित; विभाति--प्रकट होता है; यथा--जिस तरह; अनिल: --वायु; पार्थिवम्‌--पृथ्वी का; आश्रित:--प्राप्त करते हुए; गुणम्‌--गुण ( गंध तथा रंग इत्यादि ); सः--वह; ईश्वर: -- भगवान्‌; मे--मेरा;कुरुताम्‌--पूरा करे; मनोरथम्‌--( भक्ति के लिए ) इच्छा

    जिस तरह वायु भौतिक तत्त्वों के विविध गुण यथा फूल की गंध या वायु में धूल केमिश्रण से उत्पन्न विभिन्न रंग अपने साथ ले जाती है, उसी तरह भगवान्‌ मनुष्य की इच्छाओंके अनुसार पूजा की निम्नतर प्रणालियों के माध्यम से प्रकट होते हैं, यद्यपि वे देवताओं केरूप में प्रकट होते हैं, अपने आदि रूप में नहीं।

    तो इन अन्य रूपों का क्‍या लाभ है?

    ऐसेआदि भगवान्‌ मेरी इच्छाएँ परिपूर्ण करें।

    श्रीशुक उवाचइति स्तुतः संस्तुवतः स तस्मिन्नधमर्षणे ।

    प्रादुरासीत्कुरु श्रेष्ठ भगवान्भक्तवत्सल: ॥

    ३५॥

    कृतपादः सुपर्णासे प्रलम्बाष्टमहाभुज: ।

    चक्रशट्डासिचर्मेषुधनु:पाशगदाधर: ॥

    ३६॥

    पीतवासा घनश्याम:ः प्रसन्नवदनेक्षण: ।

    वनमालानिवीताज़ो लसच्छीवत्सकौस्तुभ: ॥

    ३७॥

    महाकिरीटकटकः स्फुरन्मकरकुण्डल: ।

    काा्च्यद्भुलीयवलयनूपुराड्रदभूषित: ॥

    ३८॥

    त्रैलोक्यमोहनं रूप॑ बिश्रत्त्रिभुवने श्वर: ।

    वबृतो नारदनन्दाद्यैः पार्षद: सुरयूथपै: ।

    स्तूयमानोनुगायद्धि: सिद्धगन्धर्वचारणै: ॥

    ३९॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; स्तुत:--प्रशंसित होकर; संस्तुवत:--स्तुति कर रहेदक्ष का; सः--वह भगवान्‌; तस्मिन्‌ू--उस; अघमर्षणे-- अघमर्षण नामक पवित्र स्थान पर; प्रादुरासीत्‌ू--प्रकट हुआ;कुरु-श्रेष्ठ-हे कुरुवंश में सर्वश्रेष्ठ; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; भक्त-वत्सल:--अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त दयालु; कृत-पाद:--जिसके चरणकमल रखे थे; सुपर्ण-अंसे--उनके वाहन गरुड़ के कंधे पर; प्रलम्ब--अत्यन्त लम्बे; अष्ट-महा-भुज:--आठ बलशाली भुजाओं वाले; चक्र--चक्र; शद्बगु--शंख; असि--तलवार; चर्म--ढाल; इषु--बाण; धनु:--धनुष; पाश--रस्सी; गदा--गदा; धर:--धारण किये; पीत-वासा:--पीताम्बर सहित; घन-श्याम:--जिनेक शरीर कावर्ण गहरे नीले-काले रंग का था; प्रसन्न--अत्यन्त प्रसन्न; वदन--जिसका मुख; ईक्षण:---तथा चितवन; बन-माला--जंगली फूलों की माला से; निवीत-अड्भ:--जिसका शरीर गले से पाँव तक सजा हुआ था; लसत्‌--चमकता हुआ;श्रीवत्स-कौस्तुभ:--कौस्तुभ मणि तथा श्रीवत्स चिह्न; महा-किरीट--विशाल मुकुट का; कटकः--वृत्त, मंडल;स्फुरत्‌ू-चमकता हुआ; मकर-कुण्डल:--मकर की आकृति के कान के कुण्डल; काञ्ञी --पेटी सहित; अड्डुलीय--अंगूठी; वलय--कंगन; नूपुर--पायल; अड्भद--बिजावट; भूषित:--सुसज्जित; त्रै-लोक्य-मोहनम्‌--तीनों लोकों कोमोहित करने वाला; रूपमू--उनका शारीरिक स्वरूप; बिभ्रतू--चमकता हुआ; त्रि-भुवन--तीनों लोकों का; ईश्वर: --परमेश्वर; वृत:--घिरा हुआ; नारद--नारद इत्यादि बड़े बड़े भक्तों से; नन्द-आद्यै:--तथा नन्द इत्यादि; पार्षदैः--नित्यसंगियों से; सुर-यूथपै:--तथा देवताओं के प्रधानों द्वारा; स्तूयमान:--स्तुति किये जाने पर; अनुगायद्धि:--उनके पीछे पीछेगाते हुए; सिद्ध-गन्धर्व-चारणै: --सिद्धों, गन्धर्वो तथा चारणों द्वारा

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक स्नेहिल भगवान्‌ हरि दक्षद्वारा की गई स्तुतियों से अत्यधिक प्रसन्न हुए, अतः वे अघमर्षण नामक पवित्र स्थान पर प्रकट हुए।

    हे श्रेष्ठ कुरुबंशी महाराज परीक्षित! भगवान्‌ के चरणकमल उनके वाहन गरुड़के कंधों पर रखे थे और वे अपनी आठ लम्बी बलिष्ठ अतीव सुन्दर भुजाओं सहित प्रकटहुए।

    अपने हाथों में वे चक्र, शंख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, रस्सी तथा गदा धारण कियेथे-प्रत्येक हाथ में अलग-अलग हथियार थे और सबके सब चमचमा रहे थे।

    उनके वस्त्रपीले थे और उनके शरीर का रंग गहरा नीला था।

    उनकी आँखें तथा मुख अतीव मनोहर थेऔर उनके गले से लेकर पाँवों तक फूलों की लम्बी माला लटक रही थी।

    उनका वक्षस्थलकौस्तुभ मणि तथा श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित था।

    उनके सिर पर विशाल गोल मुकुट थाऔर उनके कान मछलियों के सहृश कुण्डलों से सुशोभित थे।

    ये सारे आभूषण असाधारणरूप से सुन्दर थे।

    भगवान्‌ अपनी कमर में सोने की पेटी, बाहों में बिजावट, अंगुलियों मेंअँगूठियाँ तथा पाँवों में पायल पहने थे।

    इस तरह विविध आभूषणों से सुशोभित भगवान्‌हरि, जो तीनों लोकों के जीवों को आकर्षित करने वाले हैं, पुरुषोत्तम कहलाते हैं।

    उनकेसाथ नारद, नन्द जैसे महान्‌ भक्त तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र इत्यादि प्रमुख देवता एवं उच्चतरलोकों यथा सिद्धलोक, गन्धर्वलोक तथा चारणलोक के निवासी थे।

    भगवान्‌ के दोनों ओरतथा उनके पीछे भी स्थित ये भक्त निरन्तर उनकी स्तुतियाँ कर रहे थे।

    रूप॑ तन्महदाश्चर्य विचक्ष्यागतसाध्वसः ।

    ननाम दण्डवद्धूमौ प्रहष्टात्मा प्रजापति: ॥

    ४०॥

    रूपम्‌ू--दिव्य रूप; ततू--वह; महत्‌-आश्चर्यम्‌--अत्यधिक आश्चर्यजनक; विचक्ष्य--देखकर; आगत-साध्वस: --प्रारम्भमें भयभीत हुआ; ननाम--नमस्कार किया; दण्ड-वत्‌--डण्डे की तरह; भूमौ-- भूमि पर; प्रहष्ट-आत्मा--शरीर, मन तथाआत्मा से प्रसन्न होकर; प्रजापति:--दक्ष नामक प्रजापति ने।

    भगवान्‌ के उस अद्भुत तथा तेजवान स्वरूप को देखकर प्रजापति दक्ष पहले तो कुछभयभीत हुए, किन्तु बाद में भगवान्‌ को देखकर अतीव प्रसन्न हुए और उन्हें नमस्कार करनेके लिए भूमि पर दण्डवत्‌ गिर पड़े।

    न किञ्ञनोदीरयितुमशकत्तीब्रया मुदा ।

    आपूरितमनोद्दारैहदिन्य इव निझरै: ॥

    ४१॥

    न--नहीं; किज्लन--कोई वस्तु; उदीरयितुमू--कहने के लिए; अशकत्‌--समर्थ था; तीब्रया--अत्यधिक; मुदा--सुख;आपूरित--भरा हुआ; मनः-द्वारै: --इन्द्रियों के द्वारा; हृदिन्य:--नदियों; इब--सहश; निझरैः--पर्वत से मूसलाधार वर्षाद्वारा

    जिस तरह पर्वत से प्रवाहित होने वाले जल से नदियाँ भर जाती हैं उसी तरह दक्ष कीसारी इन्द्रियाँ प्रसन्नता से पूरित हो गईं।

    अत्यधिक सुख के कारण दक्ष कुछ भी नहीं कहसके, अपितु भूमि पर पड़े रहे।

    तं तथावनतं भक्त प्रजाकामं प्रजापतिम्‌ ।

    चित्तज्ञ: सर्वभूतानामिदमाह जनार्दन: ॥

    ४२॥

    तम्‌--उस ( प्रजापति दक्ष ); तथा--उस तरह से; अवनतम्‌--अपने सामने नमित; भक्तम्‌-महान्‌ भक्त को; प्रजा-कामम्‌--जनसंख्या बढ़ाने का इच्छुक; प्रजापतिम्‌--प्रजापति ( दक्ष ) को; चित्त-ज्ञ:--हदय की बात समझने वाला; सर्व-भूतानाम्‌--सारे जीवों के; इदम्‌--यह; आह--कहा; जनार्दन:-- भगवान्‌ ने

    जो हर एक की इच्छाओं को पूरा कर सकतेहैं।

    यद्यपि प्रजापति दक्ष कुछ भी नहीं कह सके, किन्तु हर एक के हृदय की बात जाननेवाले भगवान्‌ ने जब अपने भक्त को इस प्रकार से नमित तथा जनसंख्या बढ़ाने की इच्छा सेयुक्त देखा तो उन्होंने उसे इस प्रकार से सम्बोधित किया।

    श्रीभगवानुवाचप्राचेतस महाभाग संसिद्धस्तपसा भवान्‌ ।

    यच्छुद्धया मत्परया मयि भावं परं गत: ॥

    ४३॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; प्राचेतस--हे प्राचेतस; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; संसिद्ध:ः--सिद्धि प्राप्त;तपसा--तुम्हारी तपस्या से; भवान्‌ू--आप; यत्‌--क्योंकि; श्रद्धबा--अतीव श्रद्धा से; मत्‌-परया--जिसका लक्ष्य मैं हूँ;मयि--मुझमें; भावम्‌-- भाव, आनन्द; परम्‌ू--परम; गतः--प्राप्त |

    भगवान्‌ ने कहा : हे परम भाग्यशाली प्राचेतस! तुमने मुझ पर अपनी महती श्रद्धा केकारण परम भक्तिमय भाव को प्राप्त किया है।

    निस्सन्देह, तुम्हारी महती भक्ति के साथ-साथ तुम्हारी तपस्या के कारण तुम्हारा जीवन अब सफल है।

    तुमने पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लीहै।

    प्रीतोहं ते प्रजानाथ यत्तेउस्योह्रृंहणं तपः ।

    ममैष कामो भूतानां यद्भूयासुर्विभूतय: ॥

    ४४॥

    प्रीत:--अत्यधिक प्रसन्न; अहम्‌--मैं; ते--तुमसे; प्रजा-नाथ--हे प्रजापति; यत्‌--क्योंकि; ते--तुम्हारा; अस्य--इसभौतिक जगत का; उद्दृंहणम्‌--वृद्धि करते हुए; तप:ः--तपस्या; मम--मेरी; एब: --यह; काम:--इच्छा; भूतानाम्‌--जीवोंका; यत्‌--जो; भूयासु: --हो; विभूतयः--सभी प्रकार से उन्नति।

    हे प्रजापति दक्ष! तुमने संसार के कल्याण तथा वृद्द्धि के लिए घोर तपस्या की है।

    मेरी भी यही इच्छा है कि इस जगत में हरेक प्राणी सुखी हो।

    इसलिए मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्नहूँ, क्योंकि तुम सम्पूर्ण जगत के कल्याण की मेरी इच्छा को पूरी करने का प्रयत्न कर रहेहो।

    ब्रह्म भवो भवन्तश्न मनवो विबुधेश्वरा: ।

    विभूतयो मम होता भूतानां भूतिहेतव: ॥

    ४५॥

    ब्रह्मा--ब्रह्मा; भव: --शिव; भवन्त:ः--तुम सारे प्रजापति; च--तथा; मनव:--सारे मनु; विबुध-ईश्वरा:--विभिन्न देवता( यथा सूर्य, चन्द्र, शुक्र, मगंल तथा बृहस्पति जो संसार के कल्याण हेतु विभिन्न कार्यों का भार सँभालते हैं ); विभूतय: --शक्ति का विस्तार; मम--मेरा; हि--निस्सन्देह; एता:--ये, इन सब; भूतानाम्‌--सारे जीवों का; भूति--कल्याण के;हेतव:--कारण।

    ब्रह्मा, शिव, मनुगण, उच्च लोकों के अन्य सारे देवता तथा जनसंख्या बढ़ाने वाले तुमसारे प्रजापति सारे जीवों के लाभार्थ कार्य कर रहे हो।

    इस तरह मेरी तटस्था शक्ति के अंशरूप तुम सभी मेरे विभिन्न गुणों के अवतार हो।

    तपो मे हृदयं ब्रह्मांस्तनुर्विद्या क्रियाकृति: ।

    अड्भनि क्रतवो जाता धर्म आत्मासव: सुरा: ॥

    ४६॥

    तपः--मन का नियंत्रण, योग तथा ध्यान जैसी तपस्याएँ; मे--मेरा; हृदयम्‌--हृदय; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; तनु: --शरीर;विद्या--वैदिक शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान; क्रिया--आध्यात्मिक कार्य; आकृति:--स्वरूप; अज्ञनि--शरीर के अंग; क्रतव:--बैदिक वाड्मय में उल्लिखित कर्मकाण्ड तथा यज्ञ; जाता:--पूर्ण किये गये; धर्म:--कर्मकाण्ड सम्पन्न करने के लिएधार्मिक सिद्धान्त; आत्मा--मेरी आत्मा; असव:ः--प्राणवायु; सुरा:--देवता जो भौतिक जगत के विभिन्न विभागों में मेरेआदेशों को लागू करते हैं।

    हे ब्राह्मण! ध्यान रूप में तपस्या ही मेरा हृदय है, स्तुतियों तथा मंत्रों के रूप में वैदिकज्ञान ही मेरा शरीर है और आध्यात्मिक कार्य तथा आनन्दानुभूतियां ही मेरा वास्तविक स्वरूपहै।

    उचित रीति से सम्पन्न हुए कर्मकाण्ड तथा यज्ञ मेरे शरीर के विविध अंग हैं; पुण्य याआध्यात्मिक कार्यों से उत्पन्न अदृश्य सौभाग्य मेरा मन है और विविध विभागों में मेरे आदेशोंको लागू करने वाले देवता मेरे जीवन तथा आत्मा हैं।

    अहमेवासमेवाग्रे नान्यत्किज्ञान्तरं बहिः ।

    संज्ञानमात्रमव्यक्तं प्रसुप्तमिव विश्वतः ॥

    ४७॥

    अहमू-मैं, भगवान्‌; एव--एकमात्र; आसम्‌-- था; एब--निश्चय ही; अग्रे--प्रारम्भ में, सृष्टि से पूर्व; न--नहीं; अन्यत्‌--अन्य; किज्ञ--कुछ भी; अन्तरम्‌ू--मेरे अतिरिक्त; बहि:--बाहरी (चूँकि विराट जगत आध्यात्मिक जगत से बाहर हैइसलिए जब भौतिक जगत न था, तो आध्यात्मिक जगत विद्यमान था ); संज्ञान-मात्रमू--केवल जीव की चेतना;अव्यक्तम्‌ू--अप्रकट; प्रसुप्तम्‌--सुप्त; इब--सहृश; विश्वत: --सर्वत्रइस विराट जगत की सृष्टि के पूर्व

    अकेला मैं अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक शक्तियों केसाथ विद्यमान था।

    तब चेतना प्रकट नहीं हुई थी, जिस तरह नींद के समय मनुष्य की चेतनाअप्रकट रहती है।

    मय्यनन्तगुणेउनन्ते गुणतो गुणविग्रहः ।

    यदासीत्तत एवाद्य: स्वयम्भू: समभूदज: ॥

    ४८॥

    मयि--मुझमें; अनन्त-गुणे-- असीम शक्ति से युक्त; अनन्ते--असीम; गुणत:--माया नामक मेरी शक्ति से; गुण-विग्रह:--ब्रह्माण्ड जो कि प्रकृति के गुणों का परिणाम है; यदा--जब; आसीत्‌--जगत में आया; ततः--उसमें; एब--निस्सन्देह; आद्य:--प्रथम जीव; स्वयम्भू: --ब्रह्मा; समभूत्‌--उत्पन्न हुआ; अज:--यद्यपि भौतिक माता से नहीं |

    मैं असीम शक्ति का आगार हूँ, इसलिए मैं अनन्त या सर्वव्यापक के नाम से प्रसिद्ध हूँ।

    मेरी भौतिक शक्ति से मेरे भीतर विराट जगत प्रकट हुआ और इस विराट जगत में मुख्य जीवब्रह्मा प्रकट हुए जो तुम लोगों के स्त्रोत हैं और वे किसी भौतिक माता से नहीं जन्मे हैं।

    स बै यदा महादेवो मम वीर्योपबृंहितः ।

    मेने खिलमिवात्मानमुद्यतः स्वर्गकर्मणि ॥

    ४९॥

    अथ मेभिहितो देवस्तपोतप्यत दारुणम्‌ ।

    नव विश्वसूजो युष्मान्येनादावसृजद्विभु: ॥

    ५०॥

    सः--वह ( ब्रह्मा ); बै--निस्सन्देह; यदा--जब; महा-देव: --समस्त देवताओं के प्रधान; मम--मेरा; वीर्य-उपबृंहित:--शक्ति से वर्धित हुआ; मेने--सोचा; खिलम्‌--अशक्त; इब--मानो; आत्मानमू्‌-- स्वयं; उद्यतः--प्रयलशील; स्वर्ग-कर्मणि--विश्व-प्रपंचों की सृष्टि में; अथ--उस समय; मे--मेरे द्वारा; अभिहित: --सलाह दिया गया; देव:--उस ब्रह्मा ने;तपः--तपस्या; अतप्यत--सम्पन्न की; दारुणम्‌--अत्यन्त कठिन; नव--नौ; विश्व-सृज:--ब्रह्माण्ड की रचना करने केलिए महत्त्वपूर्ण व्यक्ति; युष्मान्‌ू--तुम सभी; येन--जिसके द्वारा; आदौ-प्रारम्भ में; असृजत्‌--उत्पन्न किया; विभु:--महान्‌।

    जब ब्रह्माण्ड के मुख्य देवता ब्रह्मा ( स्वयंभू ) मेरी शक्ति के द्वारा प्रेरणा पाकर सृजनकरने का प्रयास कर रहे थे तो उन्होंने अपने को असमर्थ पाया।

    इसलिए मैंने उन्हें सलाह दीऔर मेरे आदेशों के अनुसार उन्होंने कठिन तपस्या की।

    इस तपस्या के कारण सृजन केकार्यो में अपनी सहायता के लिए उन्होंने तुम समेत नौ महापुरुषों को उत्पन्न किया।

    एषा पदञ्जजनस्याड् दुहिता वै प्रजापते: ।

    असिकक्‍नी नाम पतीत्वे प्रजेश प्रतिगृह्मयताम्‌ू ॥

    ५१॥

    एषा--यह; पञ्ञजनस्य--पञ्ञजन की; अड्ग--हे पुत्र; दुहिता--पुत्री; बै--निस्सन्देह; प्रजापते:-- अन्य प्रजापति; असिक्नीनाम--असिक्‍नी नामक; पत्नीत्वे--अपनी पत्नी के रूप में; प्रजेश--हे प्रजापति; प्रतिगृह्मताम्‌--स्वीकार करो।

    हे पुत्र दक्ष! प्रजापति पञ्ञजन के असिक्नी नामक पुत्री है, जिसे मैं तुम्हें प्रदान करता हूँजिससे तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर सको।

    मिथुनव्यवायथर्मस्त्व॑ प्रजासर्गमिमं पुनः ।

    मिथुनव्यवायधर्मिण्यां भूरिशो भावयिष्यसि ॥

    ५२॥

    मिथुन--पुरुष तथा स्त्री का; व्यवाय--संभोग; धर्म: --जो धार्मिक कृत्य द्वारा स्वीकार करता है; त्वमू--तुम; प्रजा-सर्गम्‌--जीवों की सृष्टि; इमम्‌ू--यह; पुनः--फिर; मिथुन--स्त्री तथा पुरुष के संयोग का; व्यवाय-धर्मिण्याम्‌--संभोग केधार्मिक कृत्य के अनुसार; भूरिश:--अनेक बार; भावयिष्यसि--तुम उत्पन्न करोगे।

    अब पुरुष तथा स्त्री रूप में यौन जीवन में संयुक्त हो जाओ और इस तरह संभोग द्वारातुम इस कन्या के गर्भ से जनसंख्या की वृद्धि करने के लिए सैकड़ों सनन्‍्तानें उत्पन्न करसकोगे।

    त्वत्तोधस्तात्प्रजा: सर्वा मिथुनी भूय मायया ।

    मदीयया भविष्यन्ति हरिष्यन्ति च मे बलिम्‌ ॥

    ५३॥

    त्वत्त:--तुम; अधस्तात्‌--बाद में; प्रजा:--जीव; सर्वा: --सारे; मिथुनी-भूय--यौन जीवन वाले; मायया--माया द्वारा दीगई सुविधाओं या प्रभाव के कारण; मदीयया--मेरा; भविष्यन्ति--हो जायेंगे; हरिष्यन्ति--वे प्रदान करेंगे; च-- भी; मे--मेरे प्रति; बलिम्‌-- भेंटें ॥

    जब तुम हजारों सन्‍्तानों को जन्म दे चुकोगे, तो वे भी मेरी माया द्वारा मोहित की जातीरहेंगी और तुम्हारी ही तरह संभोग में संलग्न होंगी।

    किन्तु तुम पर और उन पर मेरी कृपा केकारण, वे भी मुझे भक्ति की भेंटें प्रदान कर सकेंगे।

    श्रीशुक उबाचइत्युक्त्वा मिषतस्तस्य भगवान्विश्वभावन: ।

    स्वप्नोपलब्धार्थ इव तत्रैवान्तर्दधे हरि: ॥

    ५४॥

    श्री-शुक:ः उबाच--शुकदेव गोस्वामी कहने लगे; इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; मिषत: तस्य--जब वह ( दक्ष )स्वयं देख रहा था; भगवानू-- भगवान्‌; विश्व-भावन:--विश्व के मामलों को उत्पन्न करने वाले; स्वप्न-उपलब्ध-अर्थ:--स्वण में प्राप्त वस्तु; इब--सहश; तत्र--वहाँ; एव--निश्चय ही; अन्तर्दधे--अन्तर्धान हो गए; हरिः-- भगवान्‌ हरि।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हरि प्रजापति दक्ष के सामने इस तरह बोल चुके तो बे तुरन्त अन्तर्धान हो गये, मानो वे स्वप्नमें अनुभव की गई कोई वस्तु रहे हों।

    TO

    अध्याय पाँच: नारद मुनि को प्रजापति दक्ष द्वारा श्राप

    6.5श्रीशुक उबाचतस्यां स पाञ्जजन्यां वै विष्णुमायोपबूंहितः ।

    हर्यश्वसंज्ञानयुतं पुत्रानजनयद्विभु: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; तस्याम्‌--उस; सः--प्रजापति दक्ष; पाज्जजन्याम्‌--पाञ्जजनी नामकअपनी पली; बै--निश्चितही; विष्णु-माया-उपबृंहित:-- भगवान्‌ विष्णु की माया द्वारा सक्षम बनाया गया; हर्यश्व-संज्ञानू--हर्यश्व नामक; अयुतम्‌--दस हजार; पुत्रानू--पुत्रों को; अजनयत्‌--जन्म दिया; विभु:--शक्तिशाली होने से ।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ विष्णु की माया से प्रेरित होकर प्रजापति दक्षने पात्जनी ( असिक्नी ) के गर्भ से दस हजार पुत्र उत्पन्न किये।

    हे राजन! ये पुत्र हर्यश्रकहलाये।

    अपृथग्धर्मशीलास्ते सर्वे दाक्षायणा नृप ।

    पित्रा प्रोक्ता: प्रजासगें प्रतीचीं प्रययुर्दिशम्‌ ॥

    २॥

    अपूथक्‌--एकसमान; धर्म-शीला:--अच्छा चरित्र तथा स्वभाव; ते--वे; सर्वे--सभी; दाक्षायणा:--दक्ष के पुत्र; नृप--हे राजन्‌; पित्रा--पिता द्वारा; प्रोक्ताः--आदेश दिये गये; प्रजा-सर्गे--जनसंख्या बढ़ाने के लिए; प्रतीचीम्‌--पश्चिमी;प्रययु:--वे गये; दिशम्‌--दिशा में |

    हे राजन! प्रजापति दक्ष के सारे पुत्र समान रूप से अत्यन्त विनम्र तथा अपने पिता केआदेशों के प्रति आज्ञाकारी थे।

    जब उनके पिता ने सन्तानें उत्पन्न करने के लिए उन्हें आदेशदिया तो वे सभी पश्चिमी दिशा की ओर चले गये।

    तत्र नारायणसरस्तीर्थ सिन्धुसमुद्रयो: ।

    सड़मो यत्र सुमहन्मुनिसिद्धनिषेवितम्‌ ॥

    ३॥

    तत्र--उस दिशा में; नारायण-सर:--नारायण सरस नामक झील; तीर्थम्‌--अत्यन्त पवित्र स्थान; सिन्धु-समुद्रयो: --सिन्धुनदी तथा समुद्र का; सड्रम:--संगम; यत्र--जहाँ; सु-महत्‌--अत्यन्त महान्‌; मुनि--मुनियों; सिद्ध--तथा सिद्ध मनुष्योंद्वारा; निषेवितम्‌--रहते हुए |

    पश्चिम में, जहाँ सिन्धु नदी सागर से मिलती है, नारायण सरस नामक एक महान्‌तीर्थस्थान है।

    वहाँ पर अनेक मुनि तथा आध्यात्मिक चेतना में उन्नत अन्य लोग रहते हैं।

    तदुपस्पर्शनादेव विनिर्धूतमलाशया: ।

    धर्मे पारमहंस्ये च्‌ प्रोत्पन्नमतयोप्युत ॥

    ४॥

    तेपिरे तप एवोग्रं पित्रादेशेन यन्त्रिता: ।

    प्रजाविवृद्धये यत्तान्देवर्षिस्तान्ददर्श ह ॥

    ५॥

    तत्‌--उस तीर्थस्थान का; उपस्पर्शनात्‌ू--उस जल में स्नान करने से या इसे छूने से; एब--केवल; बिनिर्धूत--पूर्णतया धुलगये; मल-आशया:--जिनकी अशुद्ध इच्छाएँ; धर्मे-- अभ्यासों को; पारमहंस्ये--सर्वोच्च संन्यासियों द्वारा सम्पन्न; च--भी; प्रोत्पन्न--अत्यधिक उन्मुख; मतयः--जिनके मन; अपि उत--बद्यपि; तेपिरि--उन्होंने किया; तप:--तपस्या; एव--निश्चय ही; उग्रमू--कठिन; पितृ-आदेशेन--अपने पिता के आदेश से; यन्त्रिता:--लगाये गये; प्रजा-विवृद्धये--जनसंख्याबढ़ाने के उद्देश्य से; यत्तान्‌ू--तैयार; देवर्षि:--नारद ऋषि; तान्‌ू--उनको; ददर्श--देखा; ह--निस्सन्देह |

    उस तीर्थस्थान में हर्यश्रगण नियमित रूप से नदी का जल स्पर्श करने और उसमें स्नानकरने लगे।

    धीरे धीरे अत्यधिक शुद्ध हो जाने पर वे परमहंसों के कार्यों के प्रति उन्मुख होगये।

    फिर भी चूँकि उनके पिता ने उन्हें जनसंख्या बढ़ाने का आदेश दिया था, अतः पिताकी इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने कठिन तपस्या की।

    एक दिन जब महर्षि नारद ने इन बालकोंको जनसंख्या बढ़ाने के लिए ऐसी उत्तम तपस्या करते देखा तो वे उनके निकट आये।

    उबाच चाथ हर्यश्वा: कथं स्त्रक्ष्यथ वै प्रजा: ।

    अह्ष्टान्तं भुवो यूयं बालिशा बत पालका: ॥

    ६॥

    तथेकपुरुषं राष्ट्र बिल॑ चाहृष्टनिर्गमम्‌ ।

    बहुरूपां स्त्रियं चापि पुमांसं पुंश्नलीपतिम्‌ ॥

    ७॥

    नदीमुभयतो वाहां पञ्ञपञ्ञाद्भधुतं गृहम्‌ ।

    क्वचिद्धंसं चित्रकथ्थ॑ क्षौरपव्यं स्वयं भ्रमि ॥

    ८॥

    उवाच--उसने कहा; च-- भी; अथ--इस प्रकार; हर्यश्वा: --हे हर्यश्वो, प्रजापति दक्ष के पुत्रो; कथम्‌--क्यों; स््रक्ष्यथ--उत्पन्न करोगे; बै--निस्सन्देह; प्रजा:--सन्तानें; अदृष्ठा--बिना देखे; अन्तम्‌-- अन्त; भुवः--इस पृथ्वी का; यूयम्‌--तुमसभी; बालिशा: -- अनुभवहीन; बत--हाय; पालका:--यद्यपि शासन चलाने वाले राजकुमार; तथा--उसी तरह भी;एक--एक; पुरुषम्‌--मनुष्य; राष्ट्रमू--राज्य; बिलमू--छेद; च-- भी; अदृष्ट-निर्गमम्‌--जिससे कोई बाहर नहीं आ रहा;बहु-रूपाम्‌ू-- अनेक रूप धारण करते हुए; स्त्रियम्‌ू-स्त्री को; च--तथा; अपि-- भी; पुमांसम्‌--मनुष्य को; पुंश्चली-पतिम्‌--वेश्या का पति; नदीम्‌--नदी को; उभयतः--दोनों ओर से; वाहाम्‌ू--बहती है; पञ्ञ-पञ्ञ--पाँच गुणित पाँच( पच्चीस ); अद्भुतम्‌--आश्चर्य; गृहम्‌--घर; क्वचित्‌--कहीं पर; हंसम्‌--हंस; चित्र-कथम्‌--जिसकी कथा विचित्र है;क्षौर-पव्यम्‌-तेज छूरों तथा बज्नों से बना; स्वयम्‌--स्वयं; भ्रमि--घूमने वाला |

    महामुनि नारद ने कहा : हे हर्यश्रो! तुमने पृथ्वी के छोरों को नहीं देखा है।

    एक ऐसाराज्य है, जिसमें केवल एक व्यक्ति रहता है और उसमें जहाँ पर एक छेद है, उसमें से भीतरघुसने वाला कभी निकल कर बाहर नहीं आता।

    वहाँ पर एक स्त्री है, जो अत्यन्त कुमार्गिनी( असाध्वी ) है और वह नाना प्रकार के आकर्षक वस्त्रों से अपने को सुसज्जित करती है औरवहाँ जो पुरुष रहता है, वह उसका पति है।

    उस राज्य में एक नदी है, जो दोनों दिशाओं मेंबहती है, पच्चीस पदार्थों से बना हुआ एक अद्भुत घर है, एक हंस है, जो नाना प्रकार कीध्वनियाँ करता है और एक स्वत: घूमने वाली वस्तु है, जो तेज छूरों तथा वज्नों से बनी है।

    तुम लोगों ने इन सबों को नहीं देखा इसलिए तुम लोग उच्च ज्ञान से रहित अनुभवहीनबालक हो।

    तो फिर तुम किस तरह सन्तान उत्पन्न करोगे ?

    कथ्॑ स्वपितुरादेशमविद्वांसो विपश्चित: ।

    अनुरूपमविज्ञाय अहो सर्ग करिष्यथ ॥

    ९॥

    कथम्‌--किस तरह; स्व-पितु:--अपने पिता का; आदेशम्‌--आदेश; अविद्वांस:--अज्ञान; विपश्चित: --प्रत्येक बातजानने वाला; अनुरूपम्‌--तुम्हारे अनुरूप; अविज्ञाय--बिना जाने; अहो--हाय; सर्गम्‌--सृष्टि; करिष्यथ--तुम करोगे।

    हाय! तुम्हारा पिता तो सर्वज्ञ है, किन्तु तुम उनके असली आदेश को नहीं जानते।

    अपनेपिता के असली उद्देश्य को जाने बिना तुम किस तरह सन्‍्तान उत्पन्न करोगे ?

    श्रीशुक उबाचतन्निशम्याथ हर्यश्ला औत्पत्तिकमनीषया ।

    वबाच: कूटं तु देवर्षे: स्वयं विममृशुरधिया ॥

    १०॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; तत्‌--वह; निशम्य--सुनकर; अथ--इसके बाद; हर्यश्वा:--प्रजापतिदक्ष के सारे पुत्र; औत्पत्तिक--स्वभावतः जाग्रत; मनीषया--विचार करने की शक्ति होने से; वाच:--वाणी का; कूटम्‌--आसानी से समझ में न आने वाली बात; तु--लेकिन; देवर्षे:--नारद मुनि की; स्वयम्‌--स्वयं; विममृशु:--विचार किया;धिया--पूरी बुद्धि से |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : नारदमुनि के गूढ़ शब्दों को सुनकर हर्यश्वों ने अपनीस्वाभाविक बुद्धि से दूसरों से सहायता लिये बिना विचार किया।

    भू: क्षेत्र जीवसंज्ञं यदनादि निजबन्धनम्‌ ।

    अद्दष्टा तस्य निर्वाणं किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    ११॥

    भू:--पृथ्वी; क्षेत्रमू--कार्यक्षेत्र; जीव-संज्ञम--कर्म के विभिन्न फलों से बँधने की आध्यात्मिक जीव की उपाधि; यत्‌--जो; अनादि--अनादि काल से विद्यमान; निज-बन्धनम्‌--अपना ही बन्धन उत्पन्न करके; अददप्ठा--देखे बिना; तस्य--इसका; निर्वाणम्‌--अन्त; किमू--क्या लाभ; असत्‌-कर्मभि:--क्षणिक सकाम कर्मो से; भवेत्‌--हो सकता है।

    [हर्यश्ों ने नारद के शब्दों का अर्थ इस प्रकार समझा थू: शब्द कर्मक्षेत्र का द्योतक है।

    यह भौतिक शरीर जो मनुष्य के कर्मों का फल होता है, उसका कर्मक्षेत्र है और यह उसे झूठीउपाधियाँ देता है।

    अनादि काल से मनुष्य को विविध प्रकार के भौतिक शरीर प्राप्त होते रहेहैं, जो भौतिक जगत से बन्धन के मूल हैं।

    यदि कोई मनुष्य मूर्खतावश क्षणिक सकाम कर्मोंमें अपने को लगाता है और इस बन्धन को समाप्त करने की ओर नहीं देखता तो उसकोकर्मों का क्‍या लाभ मिलेगा ?

    एक एवेश्वरस्तुर्यों भगवान्स्वाश्रय: पर: ।

    तमहृष्ठाभवं पुंसः किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    १२॥

    एक:ः--एक; एव--निस्सन्देह; ई श्वरः --परम नियन्ता; तुर्य:--चतुर्थ दिव्य अवस्था, तुरीय; भगवान्‌-- भगवान्‌; स्व-आश्रयः--्वतंत्र, अपना ही आश्रय होने से; पर: --इस भौतिक सृष्टि के परे; तम्‌ू--उसको; अद्ृष्ठा --बिना देखे;अभवम्‌--जो उत्पन्न नहीं हुआ; पुंसः--मनुष्य का; किम्‌--क्या लाभ; असत्‌ू-कर्मभि: -- क्षणिक सकाम कर्मों से;भवेत्‌--हो सकता है

    नारद मुनि ने कहा था कि एक ऐसा राज्य है जहाँ केवल एक नर है।

    हर्यश्वों को इसकथन के आशय की अनुभूति हुई एकमात्र भोक्ता भगवान्‌ हैं, जो हर वस्तु को हर जगहदेखते हैं।

    वे षड़॒ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और अन्य सबों से पूर्णतया स्वतंत्र हैं।

    वे कभी भी भौतिकप्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित नहीं होते, क्योंकि वे सदा से इस भौतिक सृष्टि से परे रहे हैं।

    यदि मानव-समाज के सदस्य ज्ञान तथा कर्मों की प्रगति के माध्यम से उन परम पुरुष कोनहीं समझते बल्कि क्षणिक सुख के लिए रात-दिन कुत्ते-बिल्लियों की तरह अत्यधिककठोर श्रम करते हैं, तो उनके कार्यों से क्या लाभ ?

    पुमान्नैवैति यद्गत्वा बिलस्वर्ग गतो यथा ।

    प्रत्यग्धामाविद इह किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    १३॥

    पुमान्‌ू--मनुष्य; न--नहीं; एबव--निस्सन्देह; एति--वापस आता है; यत्‌--जिस तक; गत्वा--जाकर; बिल-स्वर्गम्‌--पाताल तक; गत:--गया हुआ; यथा--जिस तरह; प्रत्यकू-धाम--तेजोमय आध्यात्मिक जगत; अविदः--अज्ञानी मनुष्यका; इह--इस भौतिक जगत में; किमू--क्या लाभ; असत््‌-कर्मभि:--नश्वर सकाम कर्म से; भवेत्‌--हो सकता है |

    [नारद मुनि ने कहा था कि एक बिल या छेद है, जिसमें प्रवेश करने के बाद कोईलौटता नहीं।

    हर्यश्र इस रूपक का अर्थ समझ गये।

    एक बार जो व्यक्ति पाताल नाम निम्नतर लोकों में प्रवेश करता है, वह मुश्किल से लौटता देखा जाता है।

    इसी तरह यदिकोई वैकुण्ठ धाम ( प्रत्यग्‌ धाम ) में प्रवेश करता है, तो वह इस भौतिक जगत में लौटकरनहीं आता।

    यदि कोई ऐसा स्थान है जहाँ जाकर मनुष्य इस दुखमय भौतिक जीवन में नहींलौटता तो फिर नश्वर भौतिक जगत में बन्दरों की तरह उछलने-कूदने एवं उस स्थान को नदेखने या समझने से क्या लाभ ?

    इससे क्‍या लाभ होगा ?

    नानारूपात्मनो बुद्धि: स्वैरिणीव गुणान्विता ।

    तन्निष्ठामगतस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    १४॥

    नाना--विविध; रूपा--रूप या वेश वाले; आत्मन:--जीव की; बुर्द्धि:--बुद्धि; स्वैरिणी--वेश्या जो स्वतंत्र रूप से नानाप्रकार के बस्त्रों तथा गहनों से अपने को सजाती है; इब--सहृश; गुण-अन्विता--रजोगुण इत्यादि से समन्वित; ततू-निष्ठामू--उसका अन्त; अगतस्य--जिसने नहीं प्राप्त किया है उसका; इह--इस भौतिक जगत में; किम्‌ असत्‌-कर्मभिःभवेत्‌--नश्वर सकाम कर्म करने से क्या लाभ |

    [ नारद मुनि ने एक स्त्री का वर्णन किया था, जो पेशेवर वेश्या है।

    हर्यश्रों को इस स्त्रीकी पहचान समझ में आ गईं रजोगुण से मिश्रित हुई प्रत्येक जीव की अस्थिर बुद्धि उसवेश्या के समान है, जो किसी के ध्यान को आकृष्ट करने के लिए अपने वस्त्र बदलती रहतीहै।

    यदि कोई मनुष्य यह जाने बिना कि यह किस तरह हो रहा है, पूरी तरह क्षणभंगुर सकामकर्मों में लगा रहता है, तो उसे वास्तव में कया लाभ मिलता है?

    तत्सड्रभ्रंशितैश्वर्य संसरन्तं कुभार्यवत्‌ ।

    तद्गतीरबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    १५॥

    तत्‌-सड़--बुद्धिरूपी वेश्या की संगति से; भ्रंशित--हरी गई; ऐश्वर्यम्‌--स्वतंत्रता का ऐ श्वर्य; संसरन्तम्‌-- भौतिक जीवन-शैली बिताते हुए; कु-भार्य-वत्‌--उस व्यक्ति की तरह जिसकी पतली दूषित है; तत्‌-गती:ः --दूषित बुद्धि की हरकतें;अबुधस्य--न जानने वाले की; इह--इस जगत में; किम्‌ असत्‌-कर्मभि: भवेत्‌--

    क्षिणिक सकाम कर्मो के करने से क्‍यालाभ हो सकता है ?

    [ नारद मुनि ने एक ऐसे मनुष्य की भी बात कही थी जो वेश्या का पति है।

    हर्यश्रों नेइसे इस प्रकार समझा यदि कोई पुरुष किसी वेश्या का पति बनता है, तो वह अपनी सारीस्वतंत्रता खो देता है।

    इसी तरह यदि जीव की बुद्धि दूषित है, तो वह अपने भौतिकतावादीजीवन को बढ़ा लेता है।

    भौतिक प्रकृति से निराश होकर उसे बुद्धि की गतियों का अनुसरण करना पड़ता है, जो सुख तथा दुख की विविध स्थितियों को लाती हैं।

    यदि कोई ऐसीस्थितियों में सकाम कर्म करता है, तो इससे क्या लाभ होगा ?

    सृष्टय्॒प्ययकरीं मायां वेलाकूलान्तवेगिताम्‌ ।

    मत्तस्य तामविज्ञस्थ किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    १६॥

    सृष्टि--सृष्टि; अप्यय--प्रलय; करीम्‌--करने वाली; मायाम्‌--मोहिनी शक्ति; वेला-कूल-अन्त--किनारे के निकट;वेगिताम्‌--अत्यन्त तेज होने से; मत्तस्य--उन्मत्त का; तामू--उस भौतिक प्रकृति को; अविज्ञस्थ--न जानने वाला; किम्‌असत्‌ू-कर्मभिः भवेत्‌--क्षणिक सकाम कर्म करने से क्या लाभ हो सकता है[

    नारद मुनि ने कहा था कि एक नदी है, जो दोनों दिशाओं में बहती है।

    हर्यश्वों ने इसकथन का तात्पर्य समझा भौतिक प्रकृति दो प्रकार से कार्य करती है--सृजन द्वारा तथासंहार द्वारा।

    इस तरह भौतिक प्रकृति-रूपी नदी दोनों दिशाओं में बहती है।

    जो जीवअनजाने में इस नदी में गिर जाता है, वह इसकी लहरों में डूबता-उतराता जाता है और चूँकिनदी के किनारों के निकट धारा अधिक तेज रहती है, इसलिए वह बाहर निकल पाने मेंअसमर्थ रहता है।

    माया-रूपी उस नदी में सकाम कर्म करने से क्या लाभ होगा ?

    पञ्जञविंशतितत्त्वानां पुरुषोद्भुतदर्पण: ।

    अध्यात्ममबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    १७॥

    पञ्ञ-विंशति--पच्चीस; तत्त्वानामू--तत्त्वों में से; पुरुष:-- भगवान्‌; अद्भुत-दर्पण: --अद्भुत का प्रकट कर्ता;अध्यात्ममू--समस्त कार्यो तथा कारणों का द्रष्टा; अबुधस्य--न जानने वाले का; इह--इस संसार में; किम्‌ असत्‌-कर्मभिःभवेत्‌--क्षणभंगुर सकाम कार्यो में लगे रहने से क्या लाभ हो सकता है ?

    [ नारद मुनि ने कहा था कि पच्चीस तत्त्वों से बना हुआ एक घर है।

    हर्यश्वों को यहरूपक समझ में आ गया भगवान्‌ पच्चीस तत्त्वों के आगार हैं और परम पुरुष होने केकारण कार्य-कारण के संचालक रूप में वे उनकी अभिव्यक्ति करते हैं।

    यदि कोई व्यक्तिक्षणभंगुर सकाम कर्मों में अपने को लगाता है और उस परम पुरुष को नहीं जानता तो उसेक्या लाभ प्राप्त होगा ?

    ऐश्वरं शास्त्रमुत्सृज्य बन्धमोक्षानुदर्शनम्‌ ।

    विविक्तपदमज्ञाय किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    १८॥

    ऐश्वरम्‌-ईश्वर का ज्ञान या कृष्णभावनामृत लाना; शास्त्रमू--वैदिक साहित्य; उत्सृज्य--त्यागकर; बन्ध--बन्धन का;मोक्ष--तथा मोक्ष का; अनुदर्शनम्‌--विधियों की जानकारी देना; विविक्त-पदम्‌--आत्मा को पदार्थ से पृथक्‌ करना;अज्ञाय--न जानते हुए; किम्‌ असत्‌-कर्मभिः भवेत्‌--क्षणभंगुर सकाम कर्मों का क्या लाभ हो सकता है।

    [ नारद मुनि ने हंस की बात की थी।

    इस श्लोक में हंस की व्याख्या की गई है ।

    वैदिकग्रन्थ ( शास्त्र ) भलीभाँति यह बताते हैं, कि समस्त भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्ति के स्त्रोतभगवान्‌ को किस तरह समझना चाहिए।

    दरअसल, वे इन दोनों शक्तियों की विस्तार सेव्याख्या करते हैं।

    हंस वह है, जो पदार्थ तथा आत्मा में अन्तर करता है, जो हर वस्तु के सारको ग्रहण करता है और जो बन्धन के तथा मोक्ष के उपायों की व्याख्या करता है।

    शास्त्रों केशब्द विविध प्रकार की ध्वनियों के रूप में हैं।

    यदि कोई मूर्ख धूर्त व्यक्ति नश्वर कार्यों मेंलगने के लिए इन शास्त्रों के अध्ययन को ताक पर रख देता है, तो फिर परिणाम क्‍याहोगा ?

    कालचक् भ्रमि तीक्ष्णं सर्व निष्कर्षयजगत्‌ ।

    स्वतन्त्रमबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत्‌ ॥

    १९॥

    काल-चक्रम्‌--नित्यकाल का चक्र; भ्रमि-- स्वतः घूमता हुआ; तीक्ष्णम्‌-- अत्यन्त तेज; सर्वम्‌--समस्त; निष्कर्षयत्‌ --हाँकते हुए; जगत्‌--संसार; स्व-तन्त्रम्‌--स्वतंत्र तथाकथित विज्ञानियों तथा दार्शनिकों की परवाह न करते हुए;अबुधस्य--( काल के नियम को ) न जानने वाले का; इह--इस भौतिक जगत में; किम्‌ असत्‌-कर्मभि: भवेत्‌-- क्षणिकसकाम कर्मों में लगने से क्या लाभ |

    [ नारद मुनि ने तेज छुरों तथा बज्रों से बनी एक भौतिक वस्तु की बात की थी।

    हर्य्रों नेइस रूपक को इस प्रकार समझा नित्य काल बहुत ही तीक्ष्णता से गति करता है, मानो छुरोंतथा बचज्ों से बना हुआ हो।

    यह काल अबाध रूप से तथा पूर्णतया स्वतंत्र होकर सारे जगतके कार्यो का संचालन करता है।

    यदि मनुष्य नित्य काल तत्त्व का अध्ययन करने का प्रयासनहीं करता तो वह क्षणिक भौतिक कार्यों को करने से क्‍या लाभ प्राप्त कर सकता है?

    शास्त्रस्य पितुरादेशं यो न वेद निवर्तकम्‌ ।

    कथं तदनुरूपाय गुणविस्प्रम्भ्युपक्रमेत्‌ ॥

    २०॥

    शास्त्रस्य--शास्त्रों का; पितु:--पिता का; आदेशम्‌-- आदेश; य:ः--जो कोई; न--नहीं; वेद--समझता है; निवर्तकम्‌--जो जीवन की भौतिक शैली का अन्त कर देता है; कथम्‌--कैसे; तत्‌-अनुरूपाय--शास्त्रों के आदेश का पालन करने केलिए; गुण-विस्त्रम्भी-- प्रकृति के तीन गुणों में फँसा व्यक्ति; उपक्रमेत्‌--सन्तति उत्पन्न करने के काम में लग सकता है।

    [ नारद मुनि ने पूछा था कि मनुष्य किस तरह अज्ञानवश अपने ही पिता की आज्ञा काउल्लंघन कर सकता है।

    हर्यश्रों ने इस प्रश्न का अर्थ समझ लिया था मनुष्य को शास्त्र केमूल आदेशों को स्वीकार करना चाहिए।

    वैदिक सभ्यता के अनुसार मनुष्य को द्वितीय जन्मके चिहृमरूप में यज्ञोपवीत ( जनेऊ ) प्रदान किया जाता है।

    वह प्रामाणिक गुरु से शास्त्रों केआदेश प्राप्त कर चुकने के फलस्वरूप दूसरा जन्म पाता है।

    इसलिए शास्त्र असली पिता है।

    सारे शास्त्रों का आदेश है कि मनुष्य अपने जीवन की भौतिक शैली को समाप्त कर दे।

    यदिवह पिता अर्थात्‌ शास्त्रों के आदेशों का उद्देश्य नहीं समझता तो वह अज्ञानी है।

    जो पिताअपने पुत्र को भौतिक कार्यों में लगाये रखने का प्रयल करता है, उसके वचन पिता केअसली आदेश नहीं होते।

    इति व्यवसिता राजन्हर्यश्रा एकचेतस: ।

    प्रययुस्तं परिक्रम्य पन्‍्थानमनिवर्तनम्‌ ॥

    २१॥

    इति--इस प्रकार; व्यवसिता:--नारद मुनि के उपदेशों से पूर्णतया आश्वस्त हुए; राजन्‌ू--हे राजन्‌; हर्यश्वा: --प्रजापति दक्षके पुत्र; एक-चेतस:--सभी एकमत होने से; प्रययु:--विदा ली; तम्‌--नारदमुनि को; परिक्रम्य--प्रदक्षिणा करके;पन्थानम्‌ू--पथ पर; अनिवर्तनम्‌--जिससे इस भौतिक जगत में फिर से कोई वापस नहीं आता।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजन्‌! नारद मुनि के उपदेशों को सुनने के बादप्रजापति दक्ष के पुत्र हर्यश्वों को पूरी तरह से समझ में आ गया।

    उन सबों ने उनके उपदेशों मेंविश्वास किया और वे एक ही निष्कर्ष पर पहुँचे।

    उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लेने पर उन्होंनेउस महामुनि की प्रदक्षिणा की और उस पथ का अनुसरण किया जिससे कोई इस जगत मेंफिर नहीं लौटता।

    स्वरब्रह्मणि निर्भातहषीकेशपदाम्बुजे ।

    अखण्डं चित्तमावेश्य लोकाननुचरन्मुनि: ॥

    २२॥

    स्वर-ब्रह्मणि-- आध्यात्मिक ध्वनि में; निर्भात--मन के समक्ष स्पष्ट रूप से रखते हुए; हषीकेश-- भगवान्‌ कृष्ण का, जोकि इन्द्रियों के स्वामी हैं; पदाम्बुजे--चरणकमलों पर; अखण्डम्‌--अटूट; चित्तम्‌ू--चेतना; आवेश्य--लगाकर;लोकानू--सारे लोकों; अनुचरत्‌--चारों ओर यात्रा की; मुनि:--नारदमुनि ने |

    संगीत यंत्रों में सात स्वरों--ष, ऋ, गा, म, प, ध तथा नि का प्रयोग किया जाता है,किन्तु ये सातों स्वर मूलतः सामवेद से आये।

    महामुनि नारद भगवान्‌ की लीलाओं का वर्णनकरते हुए ध्वनियाँ करते हैं।

    ऐसी दिव्य ध्वनियों यथा हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरेहरे।

    हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे, से वे अपने मन को भगवान्‌ के चरणकमलों परस्थिर करते हैं।

    इस तरह वे इन्द्रियों के स्वामी हषीकेश का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं।

    हर्यश्रों काउद्धार करने के बाद नारद मुनि ने अपने मन को भगवान्‌ के चरणकमलों में सदा स्थिर रखतेहुए सारे लोकों में अपनी यात्रा जारी रखी।

    नाशं निशम्य पुत्राणां नारदाच्छीलशालिनाम्‌ ।

    अन्वतप्यत कः शोचन्सुप्रजस्त्व॑ं शुच्चां पदम्‌ ॥

    २३॥

    नाशम्‌--हानि; निशम्य--सुनकर; पुत्राणाम्‌--अपने पुत्रों की; नारदात्‌ू--नारद से; शील-शालिनाम्‌--सुशील व्यक्तियों मेंसर्वश्रेष्ठ; अन्वतप्पत--सहन किया; क:--प्रजापति दक्ष; शोचन्‌--शोक करते हुए; सु-प्रजस्त्वम्‌--दस हजार सुशील पुत्रोंवाला; शुच्याम्‌--शोक का; पदम्‌--स्थान

    प्रजापति दक्ष के पुत्र हर्यश्व अत्यन्त सुशील, सुसंस्कृत पुत्र थे, किन्तु दुर्भाग्यवश नारदमुनि के उपदेशों से वे अपने पिता के आदेश से विपथ हो गये।

    जब दक्ष ने यह समाचारसुना, जिसे उन तक नारद मुनि लाये थे, तो वे पश्चाताप करने लगे।

    यद्यपि वे ऐसे उत्तम पुत्रोंश़ के पिता थे, किन्तु वे सब उनके हाथ से निकल चुके थे।

    निश्चय ही यह शोचनीय था।

    स भूयः पाञ्जजन्यायामजेन परिसान्त्वित: ।

    पुत्रानजनयहक्षः सवलाश्चान्सहस्त्रिण: ॥

    २४॥

    सः--प्रजापति दक्ष:; भूय:--पुनः ; पाद्जजन्यायामू-- अपनी पत्नी अस्किनी या पाञ्जजनी के गर्भ से; अजेन--ब्रह्मा द्वारा;परिसान्त्वित:--सान्त्वना दिये जाने पर; पुत्रानू--पुत्रों को; अजनयत्‌--उत्पन्न किया; दक्ष:--प्रजापति दक्ष ने;सवलाश्चान्‌ू--सवलाश्रों के नामवाले; सहस्त्रिणप:--एक हजार।

    जब प्रजापति दक्ष अपने खोये हुए पुत्रों के लिए शोक कर रहे थे तो ब्रह्मा ने उपदेशदेकर उन्हें सान्वना दी और उसके बाद दक्ष ने अपनी पत्नी पाज्जजनी के गर्भ से एक हजारसनन्‍्तानें और उत्पन्न कीं।

    इस बार के उनके पुत्र सवलाश्व कहलाये।

    ते च पित्रा समादिष्टा: प्रजासगें ध्ृतब्रता: ।

    नारायणसरो जम्मुर्यत्र सिद्धाः स्वपूर्वजा: ॥

    २५॥

    ते--ये पुत्र ( सबलाश्व ); च--तथा; पित्रा--अपने पिता द्वारा; समादिष्टा:--आदेश दिये गये; प्रजा-सर्गे--सन्तति याजनसंख्या बढ़ाने में; धृत-ब्रता:--ब्रत स्वीकार किया; नारायण-सर:--नारायण सरस नामक पवित्र झील; जग्मु:--गये;यत्र--जहाँ; सिद्धा:--पूरा किया; स्व-पूर्व-जा:--उनके बड़े भाई जो पहले वहाँ गये थे।

    सन्तानें उत्पन्न करने के अपने पिता के आदेशानुसार पुत्रों की यह दूसरी टोली भीनारायण सरस नामक उस स्थान पर गई, जहाँ उनके भाइयों ने इसके पूर्व नारद के उपदेशोंका पालन करते हुए सिद्धि प्राप्त की थी।

    तपस्या का महान्‌ व्रत लेकर सवलाश्व उस पवित्र स्थान पर रहने लगे।

    तदुपस्पर्शनादेव विनिर्धूतमलाशया: ।

    जपन्तो ब्रह्म परम॑ तेपुस्तत्र महत्तप: ॥

    २६॥

    तत्‌--उस तीर्थस्थान के; उपस्पर्शनात्‌ू--जल में नियमित स्नान करने से; एब--निस्सन्देह; विनिर्धूत--पूर्णतया शुद्ध हुए;मल-आशया:--हदय के भीतर की सारी धूल से; जपन्त:--कीर्तन करते या गुनगुनाते हुए; ब्रह्म-- ॐ से शुरु होने वाले मंत्र ( यथा ॐ तद्‌ विष्णो: परम पदं सदा पश्यन्ति सूरय: ); परमम्‌--चरम लक्ष्य; तेपु:--सम्पन्न किया; तत्र--वहाँ;महत्‌--महान्‌; तपः--तपस्या |

    नारायण सरस पर पुत्रों की दूसरी टोली ने पहली टोली की ही तरह तपस्या की।

    उन्होंनेपवित्र जल में स्नान किया और इसके स्पर्श से उनके हृदयों की सारी मलिन भौतिक इच्छाएँदूर हो गईं।

    उन्होंने ॐकार से प्रारम्भ होने वाले मंत्रों का मन में जप किया और कठिनतपस्याएं की।

    अब्भक्षा: कतिचिन्मासान्कतिचिद्वायुभोजना: ।

    आराधयन्मन्त्रमिममभ्यस्यन्त इडस्पतिम्‌ ॥

    २७॥

    नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने ।

    विशुद्धसत्त्वधिष्ण्याय महाहंसाय धीमहि ॥

    २८॥

    अपू-भक्षा:--केवल जल पीते हुए; कतिचित्‌ मासान्‌ू--कुछ महीनों तक; कतिचित्‌--कुछ; वायु-भोजना: --वायु खातेहुए अथवा केवल श्वास लेते हुए; आराधयन्‌--पूजा की; मन्त्रम्‌ इममू--इस मंत्र का, जो नारायण से अभिन्न है;अभ्यस्यन्तः:--अभ्यास करते हुए; इड:-पतिम्‌--सभी मंत्रों के स्वामी, भगवान्‌ विष्णु को; ३४»-हे प्रभु; नम:ः--सादरनमस्कार; नारायणाय--नारायण को; पुरुषाय--परम पुरुष को; महा-आत्मने --उच्च परमात्मा; विशुद्ध-सत्त्व-धिष्ण्याय--सदैव दिव्य धाम में स्थित रहने वाले; महा-हंसाय--महान्‌ हंस के समान भगवान्‌ को; धीमहि--हम सदैवअर्पित करते हैं

    प्रजापति दक्ष के पुत्रों ने कुछ महीनों तक केवल जल पिया और वायु खायी।

    इस तरहमहान्‌ तपस्या करते हुए उन्होंने इस मंत्र का जाप किया, 'हम उन भगवान्‌ नारायण कोनमस्कार करते हैं, जो सदैव अपने दिव्य धाम में स्थित रहते हैं।

    चूँकि वे परम पुरुष( परमहंस ) हैं, अतएवं हम उन्हें सादर नमस्कार करते हैं।

    'इति तानपि राजेन्द्र प्रजासर्गधियो मुनि: ।

    उपेत्य नारद: प्राह वाच: कूटानि पूर्ववत्‌ ॥

    २९॥

    इति--इस प्रकार; तान्‌--उनको ( प्रजापति दक्ष के पुत्र सवलाश्वों को ); अपि-- भी; राजेन्द्र--हे राजा परीक्षित; प्रजा-सर्ग-धिय: --जो इस विचार के थे कि सन्‍्तान उत्पन्न करना सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है; मुनि:--महान्‌ ऋषि; उपेत्य--पासजाकर; नारद:--नारद ने; प्राह--कहा; वाच:--शब्द; कूटानि--गूढ़ पहेली जैसे; पूर्व-वत्‌--पहले की ही तरह

    हे राजा परीक्षित! नारदमुनि प्रजापति दक्ष के उन पुत्रों के पास पहुँचे जो सन्‍्तान उत्पन्नकरने के लिए तपस्या में लगे हुए थे और उनसे उसी तरह के गूढ़ शब्द कहे जैसे उनके ज्येष्ठभाइयों से कहे थे।

    दाक्षायणा: संश्रुणुत गदतो निगम मम ।

    अन्विच्छतानुपदवीं भ्रातृणां भ्रातृवत्सला: ॥

    ३०॥

    दाक्षायणा: --हे प्रजापित दक्ष के पुत्रो; संश्रूणुत-- ध्यानपूर्वक सुनो; गदत: --जो मैं कह रहा हूँ; निगमम्‌--उपदेश; मम--मेरा; अन्विच्छत-- अनुगमन करो; अनुपदवीम्‌--मार्ग ; भ्रातृणाम्‌-- अपने भाइयों का; भ्रातृ-वत्सला:--हे अपने भाइयों केपरम वत्सल।

    हे दक्षपुत्रो! मेरे उपदेशरूपी वचनों को ध्यानपूर्वक सुनो।

    तुम सभी अपने ज्येष्ठ भाइयों,हर्यश्वों, के प्रति अति वत्सल हो।

    अतएव तुम्हें उनके मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

    भ्रातृणां प्रायणं भ्राता योउनुतिष्ठति धर्मवित्‌ ।

    स पुण्यबन्धु: पुरुषो मरुद्धि: सह मोदते ॥

    ३१॥

    भ्रातृणाम्‌--ज्येष्ठ भाइयों का; प्रायणम्‌--मार्ग; भ्राता--आज्ञाकारी भाई; यः--जो; अनुतिष्ठति--अनुगमन करता है; धर्म-वित्‌--धार्मिक सिद्धान्तों का ज्ञाता; सः--वह; पुण्य-बन्धु: --अत्यधिक पवित्र; पुरुष:--पुरुष; मरुद्धि:--वायु केदेवताओं के; सह--साथ; मोदते--जीवन का आनन्द भोगता हैं |

    धर्म के नियमों से अवगत भाई अपने ज्येष्ठ भाइयों के पदचिन्हों का अनुगमन करता है।

    अत्यधिक बढ़े-चढ़े होने से ऐसा पवित्र भाई मरुत जैसे देवताओं की संगति करने तथाआनन्द भोगने का अवसर प्राप्त करता है, जो सभी प्रकार से अपने भाइयों के प्रति स्नेहिलहै।

    एतावदुकक्‍्त्वा प्रययौ नारदोमोघदर्शन:ः ।

    तेडपि चान्वगमन्मार्ग भ्रातृणामेव मारिष ॥

    ३२॥

    एतावत्‌--इतना; उक्‍्त्वा--कहकर; प्रययौ--उस स्थान से चले गये; नारद: --नारद मुनि; अमोघ-दर्शन:--जिनकीचितवन सर्वमंगलमय है; ते--वे; अपि-- भी; च--तथा; अन्वगमन्‌-- अनुगमन किया; मार्गम्‌-मार्ग का; भ्रातृणाम्‌--अपने पहले वाले भाइयों का; एव--निस्सन्देह; मारिष--हे महान्‌ आर्य राजा

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे आर्यों में सर्व अग्रणी! नारदमुनि, जिनकी कृपादृष्टिकभी व्यर्थ नहीं जाती, प्रजापति दक्ष के पुत्रों से इतना कहकर अपनी योजना के अनुसारवहाँ से विदा हो गये।

    दक्ष के पुत्रों ने अपने बड़े भाइयों का अनुसरण किया।

    सन्तानें उत्पन्नकरने का प्रयास न करके वे कृष्णभावनामृत में लग गये।

    सश्नीचीनं प्रतीचीनं परस्यानुप्थ गता: ।

    नाद्मपि ते निवर्तन्ते पश्चिमा यामिनीरिव ॥

    ३३॥

    सश्चीचीनम्‌--पूर्णतया सही; प्रतीचीनम्‌--सर्वोच्च लक्ष्य, भक्ति, की लक्षित जीवन शैली अपनाने से प्राप्य; परस्य--भगवान्‌ का; अनुपथम्‌--मार्ग; गता: --ग्रहण करके; न--नहीं; अद्य अपि--आज तक भी; ते--वे ( प्रजापति दक्ष केपुत्र ); निवर्तन्ते--वापस आये हैं; पश्चिमा:--पश्चिमी ( जो बीत चुके हैं ); यामिनी:--रातें; इब--सहशसवला

    श्रों ने सही मार्ग अपनाया जो भक्ति को प्राप्त करने के निमित्त जीवन-शैली द्वाराप्राप्प है या भगवान्‌ की कृपा से प्राप्य है।

    वे रात्रियों की तरह पश्चिम की ओर गये हैं, किन्तुअभी तक वापस नहीं आये हैं।

    एतस्मिन्काल उत्पातान्बहून्पश्यन्प्रजापति: ।

    पूर्ववन्नारदकृतं पुत्रनाशमुपा श्रुणोत्‌ ॥

    ३४॥

    एतस्मिनू--इस; काले--समय में; उत्पातान्‌ू--उत्पात; बहूनू--अनेक; पश्यन्‌ू--देखकर; प्रजापति: --प्रजापति दक्ष ने;पूर्व-बत्‌--पहले की तरह; नारद--नारद मुनि द्वारा; कृतम्‌ू--किया हुआ; पुत्र-नाशम्‌--अपने पुत्रों की क्षति;उपाश्रणोत्‌--सुना

    इस समय प्रजापति दक्ष ने अनेक अपशकुन देखे और विविध स्त्रोतों से सुना कि उनकेपुत्रों की दूसरी टोली, सबलाश्ों, ने नारद मुनि के उपदेशों के अनुसार अपने ज्येष्ठ भाइयों के ही मार्ग का अनुसरण किया है।

    चुक्रोध नारदायासौ पुत्रशोकविमूर्च्छित: ।

    देवर्षिमुपलभ्याह रोषाद्विस्फुरिताधर: ॥

    ३५॥

    चुक्रोध--अत्यन्त क्रुद्ध हुआ; नारदाय--नारदमुनि पर; असौ--वह ( दक्ष ); पुत्र-शोक --अपने पुत्रों की क्षति के शोक केकारण; विमूर्च्छित: --प्राय: अचेत; देवर्षिम्‌--देवर्षि नारद को; उपलभ्य--देखकर; आह--कहा; रोषात्‌-महान्‌ क्रोधवश; विस्फुरित--काँपते हुए; अधर:--होठों वाला।

    जब दक्ष ने सुना कि सवलाश्ो ने भी भक्ति में संलग्न होने के लिए इस जगत को छोड़दिया है, तो वे नारद पर क्रुद्ध हुए और शोक के कारण वे अचेतप्राय हो गये।

    जब दक्ष कीनारद से भेंट हुई तो क्रोध से दक्ष के होंठ काँपने लगे और वे इस प्रकार बोले।

    श्रीदक्ष उवाचअहो असाधो साधूनां साधुलिड्रेन नस्त्वया ।

    असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्ग: प्रदर्शित: ॥

    ३६॥

    श्री-दक्ष: उवाच--प्रजापति दक्ष ने कहा; अहो असाधो--हे अत्यन्त बेईमान अभक्त; साधूनाम्‌--भक्तों तथा महामुनियों केसमाज का; साधु-लिड्रेन--सन्त पुरुषों का वेश धारण किये; न:--हमको; त्वया--तुम्हारे द्वारा; असाधु--बेईमानी;अकारि--की गई है; अर्भकाणाम्‌--अनुभवहीन बेचारे बालकों को; भिक्षो: मार्ग:--भिखारी या भिक्षुक संन्यासी कामार्ग; प्रदर्शित:--दिखाया गया।

    प्रजापति दक्ष ने कहा : हाय नारदमुनि! तुम सन्त पुरुष का वेश धारण करते हो, किन्तुतुम वास्तव में सन्त हो नहीं।

    यद्यपि अब मैं गृहस्थ जीवन में हूँ, किन्तु मैं सन्तपुरुष हूँ।

    तुमनेमेरे पुत्रों को संन्यास का मार्ग दिखाकर मेरे साथ निन्दनीय अन्याय किया है।

    ऋणैस्त्रिभिरमुक्तानाममीमांसितकर्मणाम्‌ ।

    विघात: श्रेयस: पाप लोकयोरुभयो: कृत: ॥

    ३७॥

    ऋणै: --कर्जे से; त्रिभि:ः--तीन; अमुक्तानाम्‌--ऐसे पुरुषों का जो मुक्त नहीं हैं; अमीमांसित--विचार न करते हुए;कर्मणाम्‌-कर्तव्य-पथ; विघात:--नष्ट कर देते हैं; श्रेयस:--सौभाग्य-पथ का; पाप--हे परम पापी ( नारद मुनि );लोकयो:--लोकों का; उभयो: --दोनों; कृत:--किया हुआ

    प्रजापति दक्ष ने कहा : मेरे पुत्र अपने तीन ऋणों से मुक्त भी नहीं हुए थे।

    दरअसल,उन्होंने ठीक से अपने कर्तव्यों पर विचार भी नहीं किया था।

    रे नारदमुनि! रे साक्षात्‌पापकर्म! तुमने इस जगत में उनके सौभाग्य की प्रगति में बाधा डाली है और दूसरी बात यहकि अभी भी वे सन्त पुरुषों, देवताओं तथा अपने पिता के ऋणी हैं।

    एवं त्वं निरनुक्रोशो बालानां मतिभिद्धरे: ।

    पार्षदमध्ये चरसि यशोहा निरपत्रप: ॥

    ३८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार; त्वम्‌--तुम ( नारद ); निरनुक्रोश:--दयाविहीन; बालानामू-- अबोध, अनुभवहीन बालकों का; मति-भित्‌--चेतना को दूषित करते हुए; हरेः--भगवान्‌ के; पार्षद-मध्ये--निजी संगियों के बीच; चरसि--विचरण करते हुए;यशः:-हा-- भगवान्‌ को बदनाम करने वाले; निरपत्रप:--निर्लज्ज ( यद्यपि तुम नहीं जानते कि तुम कया कर रहे हो, किन्तुतुम पापकर्म कर रहे हो )।

    प्रजापति दक्ष ने आगे कहा : इस तरह अन्य जीवों के प्रति हिंसा करके भी अपने कोभगवान्‌ विष्णु का पार्षद कहते हुए तुम भगवान्‌ को बदनाम कर रहे हो।

    तुमने व्यर्थ हीअबोध बालकों में संन्यास की प्रवृत्ति उत्पन्न की, इसलिए तुम निर्लज्ज निर्दयी हो।

    तुमभगवान्‌ के निजी संगियों के साथ किस तरह विचरण कर सकते हो ?

    ननु भागवता नित्यं भूतानुग्रहकातरा: ।

    ऋते त्वां सौहद्नं वै वैरड्रडरमवैरिणाम्‌ ॥

    ३९॥

    ननु--अब; भागवता:-- भगवद्भक्त; नित्यम्‌-शा श्वत रूप से; भूत-अनुग्रह-कातरा:--पतित बद्धजीवों को वर देने केलिए अतीव उत्सुक; ऋते--सिवाय; त्वाम्‌--तुम्हारे; सौहद-घ्नम्‌--मैत्री तोड़ने वाले ( अतएव भागवतों में गिनती कियेजाने के अयोग्य ); बै--निस्सन्देह; वैरम्‌-करम्‌--तुम शत्रुता उत्पन्न करते हो; अवैरिणाम्‌--जो शत्रु नहीं हैं ऐसे पुरुषों केप्रति।

    तुम्हें छोड़कर अन्य सारे भगवद्भक्त बद्धजीवों के प्रति अत्यन्त दयालु हैं और दूसरों कोलाभ पहुँचाने के इच्छुक रहते हैं।

    यद्यपि तुम भक्त का वेश धारण करते हो, किन्तु तुम उन लोगों के साथ शत्रुता उत्पन्न करते हो जो तुम्हारे शत्रु नहीं हैं, या तुम मित्रों के बीच मैत्रीतोड़ते हो और शत्रुता उत्पन्न करते हो।

    क्‍या इन गर्हित कार्यों को करते हुए अपने को भक्तकहने से लज्जित नहीं होते ?

    नेत्थं पुंसां विराग: स्यात्त्तया केवलिना मृषा ।

    मन्यसे यद्युपशमं स्नेहपाशनिकृन्तनम्‌ ॥

    ४०॥

    न--नहीं; इत्थम्‌--इस तरह से; पुंसामू--पुरुषों का; विराग:--वैराग्य; स्थात्‌ू--सम्भव है; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; केवलिनामृषा--मिथ्या ज्ञान वाला; मन्यसे--मैं सोचता हूँ; यदि--यदि; उपशमम्‌-- भौतिक भोग का वैराग्य; स्नेह-पाश--स्नेह केबन्धन; निकृन्तनम्‌--काटते हुए

    प्रजापति दक्ष ने आगे कहा : यदि तुम यह सोचते हो कि वैराग्य की भावना जाग्रत करदेने से ही मनुष्य भौतिक जगत से विरक्त हो जायेगा तो मैं कहूँगा कि पूर्णज्ञान के जाग्रत हुएबिना तुम्हारी तरह केवल वेश बदलने से सम्भवतया वैराग्य नहीं उत्पन्न किया जा सकता।

    नानुभूय न जानाति पुमान्विषयती क्ष्णताम्‌ ।

    निर्विद्यते स्वयं तस्मान्न तथा भिन्नधी: परैः ॥

    ४१॥

    न--नहीं; अनुभूय--अनुभव करके; न--नहीं; जानाति--जानता है; पुमान्‌ू--पुरुष; विषय-ती क्ष्णताम्‌-- भौतिक भोगकी तीक्ष्णता; निर्विद्यते--कट जाता है; स्वयम्‌--स्वयं; तस्मात्‌--उससे; न तथा--उस तरह का नहीं; भिन्न-धी:--बदलीहुई बुद्धि वाला; परैः--अन्यों द्वारा

    निस्सन्देह भौतिक भोग ही सभी दुखों का कारण है, किन्तु कोई इसे तब तक नहीं छोड़ पाता जब तक वह स्वयं यह अनुभव नहीं कर लेता कि यह कितना कष्टप्रद हैं।

    इसलिए मनुष्य को तथाकथित भौतिक भोग में रहने देना चाहिए, साथ ही साथ उसे इसमिथ्या भौतिक सुख के कष्ट का अनुभव करने के ज्ञान में प्रगति करते रहने देना चाहिए।

    तब अन्यों की सहायता के बिना ही वह भौतिक भोग को घृणित पायेगा।

    जिनके मन अन्योंद्वारा परिवर्तित किये जाते हैं, वे उतने विरक्त नहीं होते जितने कि निजी अनुभव वाले व्यक्ति।

    यन्नस्त्वं कर्मसन्धानां साधूनां गृहमेधिनाम्‌ ।

    कृतवानसि दुर्मर्ष विप्रियं तब मर्षितम्‌ ॥

    ४२॥

    यत्‌--जो; न:--हमारे लिए; त्वम्‌--तुम; कर्म-सन्धानाम्‌--जो वैदिक आदेशों के अनुसार सकाम कर्मकाण्डों का हृढ़तासे पालन करता है; साधूनाम्‌--जो ईमानदार हैं ( क्योंकि हम उच्च सामाजिक स्तर तथा शारीरिक सुविधाओं कीईमानदरीपूर्वक खोज करते हैं ); गृह-मेधिनाम्‌--यद्यपि पत्नी तथा बच्चों के साथ रह रहे; कृतवान्‌ असि--उत्पन्न किया है;दुर्मर्षमू-- असहा; विप्रियम्‌ू--गलत; तब--तुम्हारा; मर्षितम्‌-- क्षमा किया हुआ।

    यद्यपि मैं अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ गृहस्थ जीवन में रहता हूँ, किन्तु मैं पापफलोंसे रहित जीवन का आनन्द भोगने के लिए सकाम कर्म में लगकर वैदिक आदेशों काईमानदारी के साथ पालन करता हूँ।

    मैंने सभी प्रकार के यज्ञ सम्पन्न किये हैं जिनमें देवयज्ञ,ऋषियज्ञ, पितृयज्ञ तथा नृयज्ञ सम्मिलित हैं।

    चूँकि ये यज्ञ ब्रत कहलाते हैं इसलिए मैं गृहत्रतकहलाता हूँ।

    दुर्भाग्यवश तुमने मेरे पुत्रों को अकारण ही वैराग्य के मार्ग में गुमराह करकेमुझे अत्यधिक दुख पहुँचाया है।

    इसे एक बार तो सहन किया जा सकता है।

    तन्तुकृन्तन यन्नस्त्वमभद्रमचर: पुनः ।

    तस्माल्लोकेषु ते मूढ न भवेद्भ्रमत: पदम्‌ ॥

    ४३॥

    तन्तु-कृन्तन--हे शैतान, जिसने निर्दयतापूर्वक मेरे पुत्रों को मुझसे विलग कर दिया है; यत्‌--जो; नः--हमको; त्वमू--तुम; अभद्रमू--अशभु वस्तु; अचर:--किया है; पुनः--फिर से; तस्मात्‌ू--इसलिए; लोकेषु--ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सभीलोकों में; ते--तुम्हारा; मूढ--रे धूर्त, जो यही नहीं जानता कि कैसे व्यवहार करना चाहिए; न--नहीं; भवेत्‌--हो सकताहै; भ्रमत:-- भ्रमण करने वाले; पदम्‌-- धाम, घर।

    तुमने मेरे पुत्रों को मुझसे एक बार विलग कराया और अब पुनः तुमने वही अशुभ कार्यकिया है।

    अतः तुम धूर्त हो जो यह नहीं जानता कि अन्यों के साथ किस तरह व्यवहार करनाचाहिए।

    भले ही तुम ब्रह्माण्ड भर में भ्रमण करते रहते हो, किन्तु मैं शाप देता हूँ कि तुम्हाराकहीं भी निवासस्थान न हो।

    श्रीशुक उवाचप्रतिजग्राह तद्बवाढ॑ नारद: साधुसम्मत: ।

    एतावान्साधुवादो हि तितिक्षेतेश्वर: स्वयम्‌ ॥

    ४४॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; प्रतिजग्राह--स्वीकार किया; तत्‌--वह; बाढम्‌--तथास्तु; नारद: --नारदमुनि; साधु-सम्मतः --जो माने हुए साधु हैं; एतावान्‌--इतना; साधु-वाद:--साधु पुरुष के अनुकूल; हि--निस्सन्देह;तितिक्षेत--वह सहन कर सके; ईश्वर:--यद्यपि प्रजापति दक्ष को शाप देने में समर्थ; स्वयम्‌--स्वयं।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌! चूँकि नारद मुनि माने हुए साधु पुरुष हैं, अतःजब प्रजापति दक्ष ने उन्हें शाप दिया तो उन्होंने उत्तर दिया तद्‌ बाढ्मू---' ठीक, तुमने जो भीकहा है उत्तम है।

    मैं इस शाप को स्वीकार करता हूँ।

    वे चाहते तो उलट कर प्रजापति दक्षको शाप दे सकते थे, किन्तु उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की, क्योंकि वे सहिष्णु तथा दयालुसाधु हैं।

    TO

    अध्याय छह: दक्ष की बेटियों की संतान

    6.6श्रीशुक उबाचततः प्राचेतसोउसिक्न्यामनुनीतः स्वयम्भुवा ।

    षष्टिं सञ्लनयामास दुहितृ: पितृवत्सला: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; तत:ः--इस घटना के बाद; प्राचेतस:--दक्ष; असिक्न्याम्‌--असिक्नीनामक पत्नी से; अनुनीत:--शान्त किये गये; स्वयम्भुवा-- श्री ब्रह्मा के द्वारा; षष्टिमू--साठ; सज्लनयाम्‌ आस--उत्पन्नकिया; दुहितृ:--कन्याएँ; पितृ-वत्सला:--अपने पिता की परम प्यारी |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा, हे राजन्‌! तदनन्तर ब्रह्माजी की प्रार्थना पर प्रजापति दक्षने, जिन्हें प्राचेतस कहा जाता है, अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं।

    सभी कन्याएँ अपने पिता को अत्यधिक स्नेह करती थीं।

    दश धर्माय कायादादि्द्वषदट्त्रिणव चेन्दवे ।

    भूताड्रिरःकृशा श्रेभ्यो द्वे द्वे ताक्ष्याय चापरा: ॥

    २॥

    दश--दस; धर्माय--राजा धर्म अर्थात्‌ यमराज को; काय--कश्यप को; अदातू--दे दिया; द्वि-षट्‌--छह की दूनी तथाएक ( तेरह ); त्रि-नव--नौ का तिगुना ( सत्ताईंस ); च--भी; इन्दवे--चन्द्रदेव को; भूत-अड्डिर:-कृशाश्रेभ्य: -- भूत,अंगिरा तथा कृशाश्व को; द्वे द्वे--दो दो; ताक्ष्याय--पुन: कश्यप को; च--तथा; अपरा:--शेष |

    उन्होंने धर्ममाज ( यमराज ) को दस, कश्यप को तेरह, चन्द्रमा को सत्ताईस तथा अंगिरा,कृशाश्व एवं भूत को दो-दो कन्याएँ दान स्वरूप दे दीं।

    शेष चार कन्याएँ कश्यप को दे दीगईं ( इस प्रकार कश्यप को कुल सत्रह कन्याएँ प्राप्त हुईं )।

    नामथधेयान्यमूषां त्वं सापत्यानां च मे श्रूणु ।

    यासां प्रसूतिप्रसवैलोका आपूरितास्त्रयः ॥

    ३॥

    नामधेयानि--विभिन्न नाम; अमूषाम्‌--उनको; त्वम्‌--तुम; स-अपत्यानाम्‌-- अपनी संतानों सहित; च--तथा; मे--मुझसे;श्रुणु--कृपया सुनिये; यासाम्‌ू--उन सबों के; प्रसूति-प्रसवैः--अनेक सन्तानों तथा वंशजों के द्वारा; लोका:--समस्तलोक; आपूरिता:--बसे हुए हैं; त्रय:--तीन ( ऊपरी, बीच के तथा निम्न लोक )

    अब मुझसे इन समस्त कन्याओं तथा उनके वंशजों के नाम सुनो, जिनसे ये तीनों लोकपूरित हैं।

    भानुर्लम्बा ककुद्यामिरविश्वा साध्या मरुत्वती ।

    वसुर्मुहूर्ता सड्डूल्पा धर्मपत्य: सुताउश्रूणु ॥

    ४॥

    भानु:--भानु; लम्बा-- लम्बा; ककुत्‌ू--ककुद; यामि:--यामि; विश्वा--विश्वा; साध्या--साध्या; मरुत्वती --मरुत्वती;वसुः--वसु; मुहूर्ता--मुहूर्ता; सड्डूल्पा--संकल्पा; धर्म-पत्य:--यमराज की पत्नियाँ; सुतान्‌ू--उनके पुत्र; श्रुणु--सुनो |

    यमराज को प्रदत्त दस कन्याओं के नाम थे भानु, लम्बा, ककुद, यामि, विश्वा, साध्या,मरुत्वती, बसु, मुहूर्ता तथा संकल्पा।

    अब उनके पुत्रों के नाम सुनो।

    भानोस्तु देवऋषभ इन्द्रसेनस्ततो नूप ।

    विद्योत आसील्लम्बायास्ततश्च स्तनयित्वव: ॥

    ५॥

    भानो:- भानु के गर्भ से; तु--निस्सन्देह; देव-ऋषभ:--देव-ऋषभ; इन्द्रसेन:--इन्द्रसेन; ततः--उस ( देवऋषभ ) से;नृप--हे राजन्‌; विद्योत:--विद्योत; आसीतू--उत्पन्न हुआ; लम्बाया: --लम्बा के गर्भ से; तत:ः--उससे; च--तथा;स्तनयित्तव:--समस्त बादल।

    हे राजन! भानु के गर्भ से देव-ऋषभ नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसके इन्द्रसेन नामका एक पुत्र हुआ।

    लम्बा के गर्भ से विद्योत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने समस्त बादलोंको जन्म दिया।

    ककुदः सड्जूटस्तस्थ कीकटस्तनयो यतः ।

    भुवो दुर्गाणि यामेय: स्वर्गो नन्दिस्ततोभवत्‌ ॥

    ६॥

    ककुदः--ककुद के गर्भ से; सड्डूट:ः--संकट; तस्थ--उसके; कीकट:--कीकट; तनय: --पुत्र; यतः--जिससे; भुव:--पृथ्वी के; दुर्गाण--अनेक देवता, इस ब्रह्माण्ड के रक्षक ( जिनका नाम दुर्गा है ); यामेय:--यमी के; स्वर्ग:--स्वर्ग;नन्दि:--नन्दि; ततः--उस ( स्वर्ग ) से; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ।

    ककुद के गर्भ से संकट नाम का पुत्र हुआ जिसके पुत्र का नाम कीकट था।

    कीकट सेदुर्गा नामक देवतागण हुए।

    यामी के पुत्र का नाम स्वर्ग था जिससे नन्दि नाम का पुत्र उत्पन्नहुआ।

    विश्वेदेवास्तु विश्वाया अप्रजांस्तान्प्रचक्षते ।

    साध्योगणश्च साध्याया अर्थसिद्धिस्तु तत्सुतः: ॥

    ७॥

    विश्वे-देवा:--विश्वदेव नाम के देवता; तु--लेकिन; विश्वाया:--विश्वा से; अप्रजान्‌ू--पुत्ररहित; तान्‌-- उनको; प्रचक्षते--कहा जाता है; साध्य:-गण:--साध्य नाम के देवतागण; च--तथा; साध्याया: --साध्या के गर्भ से; अर्थसिर्द्धिः --अर्थसिद्धि; तु--लेकिन; तत्‌-सुतः--साध्यों का पुत्र |

    विश्वा के पुत्र विश्वदेव हुए, जिनके कोई सन्‍्तान नहीं थी।

    साध्या के गर्भ से साध्यगणहुए जिनके पुत्र का नाम अर्थसिद्धि था।

    मरुत्वांश्व जयन्तश्न मरुत्वत्या बभूवतु: ।

    जयन्तो वासुदेवांश उपेन्द्र इति यं विदु: ॥

    ८ ॥

    मरुत्वानू--मरुत्वान; च-- भी; जयन्त:--जयन्त; च--तथा; मरुत्वत्या:--मरुत्वती से; बभूवतु:--जन्म लिया; जयन्त:--जयन्त; वासुदेव-अंश:--वासुदेव के अंश स्वरूप; उपेन्द्र:--उपेन्द्र; इति--इस प्रकार; यम्‌--जिसको; विदु: --जानते हैं

    मरुत्वती के गर्भ से मरुत्वान तथा जयन्त नामक दो पुत्रों ने जन्म लिया।

    जयन्त भगवान्‌वासुदेव के अंश हैं और उपेन्द्र कहे जाते हैं।

    मौहूर्तिका देवगणा मुहूर्तायाश्व जज्ञिरे ।

    ये वै फलं प्रयच्छन्ति भूतानां स्वस्वकालजम्‌ ॥

    ९॥

    मौहूर्तिका:--मौहूर्तिक गण; देव-गणा:--देवता; मुहूर्ताया: --मुहूर्ता के गर्भ से; च--तथा; जज्ञिरि--जन्म ग्रहण किया;ये--जिन सबों ने; बै--निस्सन्देह; फलम्‌--फल, परिणाम; प्रयच्छन्ति--प्रदान करते हैं; भूतानाम्‌--समस्त जीवात्माओंका; स्व-स्व--अपना-अपना; काल-जम्‌--काल से उत्पन्न

    मुहूर्ता के गर्भ से मौहूर्तिकगण नामक देवताओं ने जन्म ग्रहण किया।

    ये देवता अपने-अपने कालों में जीवात्माओं को उनके कर्मों का फल प्रदान करने वाले हैं।

    सड्डल्पायास्तु सट्डूल्प:ः काम: सट्डूल्पजः स्पृतः ।

    वसवोछष्टौ बसोः पुत्रास्तेषां नामानि मे श्रूणु ॥

    १०॥

    द्रोण: प्राणो श्रुवोको उग्निर्दोषो वास्तुर्विभावसु: ।

    द्रोणस्यथाभिमते: पत्या हर्षशोकभयादय: ॥

    ११॥

    सड्जलुल्पाया:--संकल्पा के गर्भ से; तु--लेकिन; सड्जूल्प: --संकल्प; काम:--काम; सड्लडूल्प-ज:--संकल्प का पुत्र;स्मृत:--विख्यात; वसव: अष्टौ--आठों वसु; वसो:--वसु के; पुत्रा:--पुत्र; तेषामू--उनके ; नामानि-- नाम; मे--मुझसे;श्रुणु--सुनो; द्रोण:--द्रोण; प्राण: --प्राण; ध्रुव:--ध्रुव; अर्क:--अर्क; अग्नि: --अग्नि; दोष:--दोष; वास्तु:--वास्तु;विभावसु:--विभावसु; द्रोणस्थ--द्रोण के; अभिमते: --अभिमति से; पल्या:--पत्ली; हर्ष-शोक-भय-आदय:--हर्ष,शोक, भय आदि नाम वाले पुत्र।

    संकल्पा का पुत्र संकल्प कहलाया जिससे काम की उत्पत्ति हुईं।

    बसु के पुत्र अष्ट बसुकहलाये।

    उनके नाम सुनो--द्रोण, प्राण, श्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वास्तु तथा विभावसु।

    द्रोण नामक बसु की पत्नी अभिमति से हर्ष, शोक, भय इत्यादि पुत्रों का जन्म हुआ।

    प्राणस्योर्जस्वती भार्या सह आयु: पुरोजवः ।

    ध्रुवस्य भार्या धरणिरसूत विविधा: पुर: ॥

    १२॥

    प्राणस्य--प्राण की; ऊर्जस्वती--ऊर्जस्वती; भार्या--पतली; सह:--सह; आयु:--आयुस; पुरोजव: --पुरोजव; ध्रुवस्थ--ध्रुव की; भार्या--पत्नी; धरणि:-- धरणि; असूत--उत्पन्न किया; विविधा:-- अनेक; पुर:--नगरप्राण की पत्नी ऊर्जस्वती के गर्भ से सह, आयुस तथा पुरोजब नामक तीन पुत्र उत्पन्नहुए।

    ध्रुव की पत्नी का नाम धरणी था जिसके गर्भ से विभिन्न नगरों की उत्पत्ति हुई।

    अर्कस्य वासना भार्या पुत्रास्तर्षादय: स्मृता: ।

    अग्नेर्भार्या वसोर्धारा पुत्रा द्रविणगकादय: ॥

    १३॥

    अर्कस्य--अर्क की; वासना--वासना; भार्या--पली; पुत्रा:--कई पुत्र; तर्ष-आदय:--तर्ष इत्यादि; स्मृता:--विख्यात;अग्ने:--अग्नि की; भार्या--पली; वसो:--वसु की; धारा--धारा; पुत्रा:--पुत्र; द्रविणक-आदय:--द्रविणक इत्यादि

    अर्क की पत्नी वासना के गर्भ से कई पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें तर्ष प्रमुख था।

    अग्नि नामकवसु की पत्नी धारा से द्रविणक इत्यादि कई पुत्र उत्पन्न हुए।

    स्कन्दश्न कृत्तिकापुत्रो ये विशाखादयस्तत: ।

    दोषस्य शर्वरीपुत्र: शिशुमारो हरे: कला ॥

    १४॥

    स्कन्दः--स्कन्द; च--भी; कृत्तिका-पुत्र:--कृत्तिका का पुत्र; ये--जो; विशाख-आदय: --विशाख इत्यादि; तत:--उस( स्कन्द ) से; दोषस्थ--दोष का; शर्वरी-पुत्र:--उसकी पत्नी शर्वरी का पुत्र; शिशुमार: --शिशुमार; हरे: कला--भगवान्‌का अंश।

    अग्नि की दूसरी पत्नी कृत्तिका से स्कन्द ( कार्तिकेय ) नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जिसकेपुत्रों में विशाख प्रमुख था।

    दोष नामक वसु की पत्नी शर्वरी से शिशुमार नाम का पुत्र उत्पन्नहुआ जो श्रीभगवान्‌ का अंश था।

    वास्तोराड्डिरसीपुत्रो विश्वकर्माकृतीपतिः ।

    ततो मनुश्चाक्षुषोभूद्िश्वे साध्या मनो: सुता: ॥

    १५॥

    वास्तो:--वास्तु; आड्लिसी--आंगिरसी नामक पतली से; पुत्र:--पुत्र; विश्वकर्मा--विश्वकर्मा; आकृती-पति:--आकूती कापति; ततः--उससे; मनु: चाक्षुष:--मनु जिनका नाम चाक्षुष है; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; विश्वे--विश्वदेवणण; साध्या: --साध्यगण; मनो:--मनु के; सुता:--पुत्र |

    वास्तु नामक वसु की पत्नी आंगिरसी से महान्‌ शिल्पी विश्वकर्मा का जन्म हुआ।

    विश्वकर्मा आकृती के पति बने जिनसे चाश्लुष मनु ने जन्म ग्रहण किया।

    मनु के पुत्र विश्वदेवतथा साध्यगण कहलाये।

    विभावसोरसूतोषा व्युष्ट रोचिषमातपम्‌ ।

    पञ्ञयामोथ भूतानि येन जाग्रति कर्मसु ॥

    १६॥

    विभावसो: --विभावसु के; असूत--उत्पन्न हुए; ऊषा--उषा; व्युष्टम्‌--्युष्ट; रोचिषम्‌--रोचिष; आतपम्‌--आतप;पञ्ञयाम:--पंचयाम; अथ--तत्पश्चात्‌; भूतानि--जीवात्माएँ; येन--जिसके द्वारा; जाग्रति--जाग्रित होते हैं; कर्मसु--भौतिक कार्यों में |

    विभावसु की पत्नी ऊषा के तीन पुत्र उत्पन्न हुए--व्युष्ट, रोचिष तथा आतप।

    इनमें सेआतप के पशञ्ञयाम ( दिन ) उत्पन्न हुआ जो समस्त जीवात्माओं को भौतिक कार्यों के लिएप्रेरित करता है।

    सरूपासूत भूतस्य भार्या रुद्रांश्व कोटिशः ।

    रैवतोजो भवो भीमो वाम उग्रो वृषाकपि: ॥

    १७॥

    अजैकपादहिर््रध्नो बहुरूपो महानिति ।

    रुद्रस्य पार्षदाश्वान्ये घोरा: प्रेतविनायका: ॥

    १८॥

    सरूपा--सरूपा ने; असूत--उत्पन्न किया; भूतस्य-- भूत की; भार्या--पली; रुद्रानू--रुद्रों को; च--तथा; कोटिश: --एक करोड़; रैवत:--रैवत; अज:--अज; भव: --भव; भीम: -- भीम; वाम:--वाम ; उग्र:--उग्र; वृषाकपि: --वृषाकपि;अजैकपात्‌-- अजैकपात्‌; अहिर्ब्रध्न:--अहिर्ब्रध्न; बहुरूप:--बहुरूप; महान्‌--महान्‌; इति--इस प्रकार; रुद्रस्थ--इनरुद्रों के; पार्षदा:--उनके पार्षद; च--तथा; अन्ये-- अन्य; घोरा:--अत्यन्त भयानक; प्रेत-- भूत; विनायका:--तथाविनायक।

    भूत की पत्नी सरूपा ने एक करोड़ रुद्रों को जन्म दिया, जिनमें से प्रमुख ग्यारह रुद्र येहैं--रैवत, अज, भव, भीम, वाम, उग्र, वृषाकपि, अजैकपात्‌, अहिर््रध्न, बहुरूप तथामहान्‌।

    भूत की दूसरी पत्नी भूता से उनके साथी भयंकर भूतों तथा विनायकादि का जन्महुआ।

    प्रजापतेरड्डिरस: स्वधा पत्नी पितृनथ ।

    अथर्वाड्टिस्सं वेदं पुत्रत्वे चाकरोत्सती ॥

    १९॥

    प्रजापते: अड्धिरस:--अंगिरा नामक अन्य प्रजापति को; स्वधा--स्वधा; पत्नी--पत्नी; पितृन्‌ू--पितरगण; अथ--तत्पश्चात्‌; अथर्व-आड्रिरसम्‌-- अथर्वांगिरस; वेदम्‌--साक्षात्‌ वेद; पुत्रत्वे--पुत्र के रूप में; च--तथा; अकरोत्‌--स्वीकारकिया; सती--सती ने।

    प्रजापति अंगिरा के दो पत्लियाँ थीं--स्वधा तथा सती।

    स्वधा ने समस्त पितरों को पुत्ररूप में स्वीकार किया और सती ने अथर्वागिरस वेद को ही पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया।

    कृशाश्रो चिंषि भार्यायां धूमकेतुमजीजनतू ।

    धिषणायां वेदशिरो देवलं वयुनं मनुम्‌ ॥

    २०॥

    कृशाश्च: --कृशाश्व; अर्चिषि--अर्चिस; भार्यायाम्‌ू-- अपनी पत्नी से; धूमकेतुम्‌-- धूमकेतु को; अजीजनत्‌--जन्म दिया;धिषणायाम्‌--धिषणा नामक पतली से; वेदशिर: --वेदशिरा; देवलमू--देवल; वयुनम्‌--वयुन; मनुम्‌--मनु।

    कृश्चाश्च के अर्चिस्‌ तथा धिषणा नामक दो पत्रियाँ थीं।

    अर्चथिस्‌ से धूमकेतु और धिषणासे वेदशिरा, देवल, वयुन तथा मनु नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए।

    ताक्ष्यस्य विनता कद्भू: पतड़ी यामिनीति च ।

    पतड़्ग्यसूत पतगान्यामिनी शलभानथ ॥

    २१॥

    सुपर्णासूत गरुडं साक्षाद्यज्लेशवाहनम्‌ ॥

    सूर्यसूतमनूरुं च कद्ू्नागाननेकशः ॥

    २२॥

    ताश््यस्य--तारक्ष्य अर्थात्‌ कश्यप की; विनता--विनता; कद्गूः--कढ्गू; पतड़ी--पतंगी; यामिनी--यामिनी; इति--इसप्रकार; च--तथा; पतड़ी--पतंगी ने; असूत--जन्म दिया; पतगान्‌--विभिन्न प्रकार के पक्षी; यामिनी--यामिनी ने;शलभानू--टिड्डियों को ( जन्म दिया ); अथ--तत्पश्चात्‌; सुपर्णा--विनता नामक पत्नी ने; असूत--जन्म दिया; गरुडम्‌--विख्यात पक्षिराज गरुड़ को; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; यज्ञेश-वाहनम्‌-- भगवान्‌ विष्णु का वाहन; सूर्य-सूतम्‌--सूर्यदेव कासारथी; अनूरुम्‌-- अनुरु; च--तथा; कद्गू: --कद्ू ने; नागान्‌--सर्पों को; अनेकश: --अनेक प्रकार के |

    कश्यप अर्थात्‌ ताक्ष्य की चार पत्नियाँ थीं--बिनता (सुपर्णा ), कद्गू, पतंगी तथायामिनी।

    पतंगी ने नाना प्रकार के पक्षियों को जन्म दिया और यामिनी ने टिड्डियों को।

    विनता ( सुपर्णा ) ने भगवान्‌ विष्णु के वाहन गरुड़ तथा सूर्यदेव के सारथी अनूरु अथवाअरुण को जन्म दिया।

    कढद्गू के गर्भ से अनेक प्रकार के नाग उत्पन्न हुए।

    कृत्तिकादीनि नक्षत्राणीन्दो: पत्यस्तु भारत ।

    दक्षशापात्सो नपत्यस्तासु यक्ष्मग्रहार्दित: ॥

    २३॥

    कृत्तिका-आदीनि--कृत्तिका इत्यादि; नक्षत्राणि--नक्षत्रगण; इन्दो:--चन्द्रदेव की; पत्य:--पत्नियाँ; तु--लेकिन;भारत--हे महाराज परीक्षित, भारत के वंशधर; दक्ष-शापात्‌-दक्ष के शाप से; सः--चन्धदेव; अनपत्य:--सन्तानरहित;तासु--अनेक पलियों में ; यक्ष्म-ग्रह-अर्दित:--क्षय रोग से पीड़ित ।

    हे भारतश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! कृत्तिका नामक राशियाँ चन्द्रदेव की पत्ियाँ थीं।

    चूँकिप्रजापति दक्ष ने चन्द्रदेव को शाप दिया था कि उसे क्षय रोग हो जाये, अतः किसी भी पत्नीसे कोई सन्‍्तान नहीं हुई।

    पुनः प्रसाद्य तं सोम: कला लेभे क्षये दिता: ।

    श्रृणु नामानि लोकानां मातृणां शट्डाराणि च ॥

    २४॥

    अथ कश्यपपलीनां यत्प्रसूतमिदं जगत्‌ ।

    अदितिर्दितिर्दनु: काष्ठा अरिष्टा सुससा इला ॥

    २५॥

    मुनि: क्रोधवशा ताम्रा सुरभि: सरमा तिमि: ।

    तिमेर्यादोगणा आसन्श्रापदा: सरमासुता: ॥

    २६॥

    पुनः--फिर; प्रसाद्य-प्रसन्न करके; तम्‌--उसको ( प्रजापति दक्ष को ); सोम:--चन्द्रदेव; कला:--प्रकाश के अंश;लेभे--प्राप्त किया; क्षये--क्रमिक ह्वास में ( कृष्ण पक्ष ); दिता:--हटा दिया; श्रेणु--सुनो; नामानि--सभी नामों;लोकानाम्‌--लोकों के; मातृणाम्‌--माताओं के; शट्भूराणि--मंगलकारी; च--तथा; अथ-- अब; कश्यप-पतीनाम्‌ --कश्यप की पत्नियों के; यत्‌-प्रसूतम्‌ू--जिनसे उत्पन्न; इदम्‌--यह; जगत्‌--सारा ब्रह्माण्ड; अदिति: --अदिति; दिति:--दिति; दनुः--दनु; काष्ठा--काष्ठा; अरिष्टा--अरिष्टा; सुरसा--सुरसा; इला--इला; मुनि:--मुनि; क्रोधवशा--क्रो धवशा;ताम्रा--ताम्रा; सुरभि: --सुरभि; सरमा--सरमा; तिमि:--तिमि; तिमेः --तिमि से; याद:-गणा:--जलचर; आसनू--प्रकटहुए; श्रापदा:--सिंह तथा बाघ जैसे हिंसक पशु; सरमा-सुता:--सरमा के पुत्र |

    तत्पश्चात्‌ चन्द्रदेव ने प्रजापति को विनीत बचनों के द्वारा प्रसन्न करके रुग्णावस्था मेंक्षीण हुए प्रकाश को फिर से प्राप्त कर लिया, किन्तु तो भी उनके कोई सन्‍्तान नहीं हुई।

    चन्द्रमा कृष्णपक्ष में अपना प्रकाश खो देता है, किन्तु शुक्ल पश्च में उसे पुन: प्राप्त कर लेता है।

    हे राजा परीक्षित! अब मुझसे कश्यप की पत्नियों के नाम सुनो, जिनके गर्भ से इससमस्त ब्रह्माण्ड के प्राणी उत्पन्न हुए हैं।

    वे लगभग समस्त ब्रह्माण्ड के सचराचर की माताएँहैं और उनके नामों को सुनना शुभ है।

    उनके नाम हैं--अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा,सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताप्रा, सुरभि, सरमा तथा तिमि।

    तिमि के गर्भ से समस्तजलचर उत्पन्न हुए और सरमा से सिंह तथा बाघ जैसे क्रूर पशु उत्पन्न हुए।

    सुरभेर्महिषा गावो ये चान्ये द्विशफा नृप ।

    ताम्राया: इयेनगृश्चाद्या मुनेरप्सरसां गणा;: ॥

    २७॥

    सुरभे: --सुरभि के गर्भ से; महिषा:-- भेंस; गाव: --गाएँ; ये-- जो; च--तथा; अन्ये--अन्य; द्वि-शफा:--फटे खुरोंवाले, खुरदार; नृप--हे राजा; ताप्राया:--ताम्रा से; श्येन--बाज, चील्ह; गृश्च-आद्या: --गीध इत्यादि; मुने: --मुनि से;अप्सरसाम्‌--अप्सराओं के; गणा:--समूह

    हे राजा परीक्षित! सुरभि के गर्भ से भेंस, गाय तथा अन्य फटे खुरों वाले पशु उत्पन्न हुए,जब कि ताम्रा के गर्भ से बाज, गीध तथा अन्य बड़े शिकारी पक्षियों ने जन्म लिया।

    मुनि सेअप्सराएँ उत्पन्न हुईंदन्दशूकादय: सर्पा राजन्क्रोधवशात्मजा: ।

    इलाया भूरुहाः सर्वे यातुधानाश्व सौरसा: ॥

    २८॥

    दन्दशूक-आदय: --दंदशूक तथा अन्य सर्प; सर्पा:-रेंगने वाले प्राणी; राजन्‌--हे राजन्‌; क्रोधवशा-आत्म-जा: --क्रोधवशा से उत्पन्न; इलाया:--इला के गर्भ से; भूरूहा:--लताएँ तथा वृक्ष; सर्वे--समस्त; यातुधाना:--मानवभक्षी,राक्षस; च--भी; सौरसा:--सुरसा के गर्भ से।

    क्रोधवशा से दंदशूक नामक सर्प, रेंगने वाले अन्य प्राणी तथा मच्छर उत्पन्न हुए।

    इलाके गर्भ से समस्त लताएँ तथा वृक्ष उत्पन्न हुए।

    सुरसा के गर्भ से राक्षसों ने जन्म लिया।

    अरिष्टायास्तु गन्धर्वा: काष्ठाया द्विशफेतरा: ।

    सुता दनोरेकषष्टिस्तेषां प्राधानिकाउशूूणु ॥

    २९॥

    द्विमूर्धा शम्बरोरिष्टो हयग्रीवो विभावसु: ।

    अयोमुख: शड्डु शिरा: स्वर्भानु: कपिलोरुण: ॥

    ३०॥

    पुलोमा वृषपर्वा च एकचक्रोनुतापन: ।

    धूप्रकेशो विरूपाक्षो विप्रचित्तिश्च दुर्जय: ॥

    ३१॥

    अरिष्टाया:--अरिष्टा के गर्भ से; तु--लेकिन; गन्धर्वा: --सारे गन्धर्व; काष्ठाया: --काष्टा से; ट्वि-शफ-इतरा:--दो खुरोंवाले पशुओं से इतर पशु यथा घोड़े इत्यादि, जिनके खुर विभाजित नहीं हैं; सुता:--पुत्र; दनो:--दनु के गर्भ से; एक-षष्टि:--इकसठ; तेषाम्‌--उनके ; प्राधानिकान्‌-- प्रमुख प्रमुख; श्रूणु--सुनो; द्विमूर्धा--द्विमूर्धा; शम्बर: --शम्बर;अरिष्ट:--अरिष्ट; हयग्रीव:--हयग्रीव; विभावसु:--विभावसु; अयोमुख:--अयोमुख; शड्डू शिरा:--शंकुशिरा;स्वर्भानु:--स्वर्भानु; कपिल:--कपिल; अरुण: --अरुण; पुलोमा--पुलोमा; वृषपर्वा--वृषपर्वा; च--भी; एकचक्र: --एकचक्र; अनुतापन:--अनुतापन; धूप्रकेश: -- धूम्रकेश; विरूपाक्ष:--विरूपाक्ष; विप्रचित्ति:--विप्रचित्ति; च--तथा;दुर्जय:--दुर्जय |

    अरिष्टा के गर्भ गश्धर्व उत्पन्न हुए और काष्टठा से घोड़े इत्यादि एक खुर वाले पशु।

    हेराजन! दनु के इकसठ पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से अठारह प्रमुख हैं।

    इनके नाम इस प्रकार हैं--द्विमूर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अयोमुख, शंकुशिरा, स्वर्भानु, कपिल, अरुण,पुलोमा, वृषपर्वा, एकचक्र, अनुतापन, धूम्रकेश, विरूपाक्ष, विप्रचित्ति तथा दुर्जय ।

    स्वर्भानो: सुप्रभां कन्यामुवाह नमुचि: किल ।

    वृषपर्वणस्तु शर्मिष्ठां ययातिर्नाहुषो बली ॥

    ३२॥

    स्वर्भानो: --स्वर्भानु की; सुप्रभाम्‌--सुप्रभा; कन्याम्‌--कन्या, पुत्री; उवाह--ब्याह किया; नमुचि:--नमुचि ने; किल--निस्सन्देह; वृषपर्वण:--वृषपर्व का; तु--लेकिन; शर्मिष्ठाम्‌--शर्मिष्ठा; ययाति:--राजा ययाति; नाहुष:--नहुष का पुत्र;बली--अत्यन्त बलवानस्वर्भानु की कन्या सुप्रभा से नमुच्ि ने विवाह किया।

    वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा नहुष केपुत्र महाबली राजा ययाति को दी गई।

    वैश्वानरसुता याश्व चतस्त्रश्नारुदर्शना: ।

    उपदानवी हयशिरा पुलोमा कालका तथा ॥

    ३३॥

    उपदानवीं हिरण्याक्ष: क्रतुर्दयशिरां नृप ।

    पुलोमां कालकां च द्वे वैश्वानरसुते तु कः ॥

    ३४॥

    उपयेमेथ भगवान्कश्यपो ब्रह्मचोदितः ।

    पौलोमा: कालकेयाश्व दानवा युद्धशालिन: ॥

    ३५॥

    तयोः षष्टिसहस्त्राणि यज्ञघ्नांस्ते पितु: पिता ।

    जघान स्वार्गतो राजन्नेक इन्द्रप्रियड्रः ॥

    ३६॥

    वैश्वानर-सुता:--वैश्वानर की पुत्रियाँ; या:--जो; च--तथा; चतस्त्र:--चार; चारु-दर्शना: --अत्यन्त सुन्दरी; उपदानवी--उपदानवी; हयशिरा--हयशिरा; पुलोमा--पुलोमा; कालका--कालका; तथा--और ; उपदानवीम्‌--उपदानवीसे;हिरण्याक्ष:--असुर हिरण्याक्षने; क्रतु:--क्रतु ने; हयशिराम्‌ू--हयशिरा ने; नृप--हे राजन; पुलोमाम्‌ कालकाम्‌ च--पुलोमा तथा कालका ने; द्वे--दोनों; वैश्वानर-सुते--वैश्वानर की कन्याएँ; तु--लेकिन; कः--प्रजापति ने; उपयेमे--ब्याहकिया; अथ--तब; भगवान्‌--परम शक्तिमान; कश्यप: --कश्यप मुनि; ब्रह्म-चोदित:--ब्रह्मा के अनुनय-विनय से;पौलोमा: कालकेया: च--पौलोम तथा कालकेय नामक; दानवा:--दानव; युद्ध-शालिन:--युद्धप्रिय, योद्धा; तयो: --उनमें से; षष्टि-सहस्त्राणि--साठ हजार; यज्ञ-घ्नानू--यज्ञ को विध्वंस करने वाले; ते--तुम्हारे; पितु:--पिता का; पिता--पिता; जघान--मार डाला; स्व:-गत:--स्वर्गलोक में; राजन्‌ू--हे राजन्‌; एक:--अकेले; इन्द्र-प्रियम्‌ू-कर:--राजा इन्द्रको प्रसन्न करने के लिए

    दनु के पुत्र वैश्वानर के चार सुन्दर कन्याएँ थीं जिनके नाम थे--उपदानवी, हयशिरा,पुलोमा तथा कालका।

    इनमें से उपदानवी के साथ हिरण्याक्ष का तथा हयशिरा के साथ क्रतुका विवाह हुआ।

    तत्पश्चात्‌ श्रीत्रह्ा के अनुनय-विनय पर प्रजापति कश्यप ने वैश्वानर कीअन्य दो कन्याओं, पुलोमा तथा कालका के साथ विवाह कर लिया।

    कश्यप की इन दोनोंपत्नियों के गर्भ से साठ हजार पुत्र हुए जो पौलोम तथा कालकेय के नाम से विख्यात हुए,जिनमें से निवातकवच प्रमुख था।

    वे सब अत्यन्त वीर तथा युद्ध कुशल थे और उनका लक्ष्यमुनियों के द्वारा सम्पन्न यज्ञों में विध्न डालना था।

    हे राजन्‌! जब तुम्हारे पितामह अर्जुन स्वर्गलोक गये तो उन्होंने अकेले ही इन असुरों का वध किया था जिससे राजा इन्द्र उनका परमप्रिय बन गया।

    विप्रचित्ति: सिंहिकायां शतं चैकमजीजनत्‌ ।

    राहुज्येष्ठ केतुशतं ग्रहत्वं य उपागता: ॥

    ३७॥

    विप्रचित्ति:--विप्रचित्तिने; सिंहिकायाम्‌-- अपनी पत्नी सिंहिका के गर्भ से; शतम्‌--एक सौ; च--तथा; एकम्‌--एक;अजीजनतू--जन्म दिया; राहु-ज्येष्ठमू--जिनमें से राहु सबसे बड़ा है; केतु-शतम्‌--एक सौ केतु; ग्रहत्वम्‌-ग्रह होने का;ये--सबके सब; उपागता:--प्राप्त किया |

    विप्रच्ित्ति को अपनी पत्नी सिंहिका से एक सौ एक पुत्र प्राप्त हुए जिनमें राहु सबसे ज्येष्ठ था और अन्य एक सौ केतु थे।

    इन सबों को प्रभावशाली ग्रहों ( लोकों ) में स्थान प्राप्तहुआ।

    अथातः श्रूयतां बंशो योउदितेरनुपूर्वश: ।

    यत्र नारायणो देव: स्वांशेनावातरद्विभु: ॥

    ३८॥

    विवस्वानर्यमा पूषा त्वष्टाथ सविता भग: ।

    धाता विधाता वरुणो मित्र: शत्रु उरुक्रम: ॥

    ३९॥

    अथ--त्पश्चात्‌: अत:--अब; श्रूयताम्‌--सुनो; वंश: --वंश; य:--जो; अदिते: --अदिति से; अनुपूर्वश:--तिथिवार क्रममें; यत्र--जिसमें; नारायण:-- भगवान्‌; देव:--ई श्वर; स्व-अंशेन-- अपने अंश से; अवातरत्‌--अवतार लिया; विभु:--परमेश्वर; विवस्वान्‌ू--विवस्वान्‌; अर्यमा--अर्यमा; पूषा--पूषा; त्वष्टा--त्वष्टा; अथ--तत्पश्चात्‌;: सविता--सविता;भगः--भग; धाता-- धाता; विधाता--विधाता; वरुण: --वरूण; मित्र:--मित्र; शत्रु; --शत्रु; उरुक्रम: --उरुक्रम |

    अब सुनो, मैं अदिति की वंश-परम्परा का तिथि-क्रमानुसार वर्णन कर रहा हूँ।

    इस वंशमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ नारायण ने स्वांश रूप में अवतार लिया।

    अदिति के पुत्रों के नामइस प्रकार हैं--विवस्वान्‌, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र,शत्रु तथा उरुक्रम ।

    विवस्वतः श्राद्धदेवं संज्ञासूयत वै मनुम्‌मिथुन च महाभागा यम॑ देव यरमीं तथा ।

    सैव भूत्वाथ वडवा नासत्यौ सुषुवे भुवि ॥

    ४०॥

    विवस्वत: --सूर्यदेव की; श्राद्धदेवम्‌-- श्राद्धदेव नामक; संज्ञा--संज्ञा ने; असूयत--जन्म दिया; बै--निस्सन्देह; मनुम्‌--मनु को; मिथुनम्‌--युगल; च--तथा; महा-भागा--परमभाग्यवती संज्ञा; यमम्‌ू--यमराज को; देवम्‌--देवता; यमीम्‌--उनकी बहन यमी को; तथा--और; सा--वह; एव-- भी; भूत्वा--होकर; अथ--तब; वडवा--घोड़ी; नासत्यौ--अश्विनीकुमारों को; सुषुबे--जन्म दिया; भुवि--पृथ्वी पर

    सूर्यदेव विवस्वान्‌ की भाग्यवती पत्नी संज्ञा से श्राद्धदेव मनु तथा यमराज और यमुनानदी ( यमी ) का जोड़ा उत्पन्न हुआ।

    तब यमी ने घोड़ी का रूप धारण करके इस पृथ्वी परविचरण करते हुए अश्विनी कुमारों को जन्म दिया।

    छाया शनैश्वरं लेभे सावर्णि च मनुं ततः ।

    कन्यां च तपतीं या वै वत्रे संवरणं पतिम्‌ ॥

    ४१॥

    छाया--सूर्यदेव की अन्य पत्नी छाया ने; शनैश्वरम्‌--शनि को; लेभे--उत्पन्न किया; सावर्णिम्‌--सावर्णि; च--तथा;मनुम्‌-मनु को; तत:ः--उस ( विवस्वान्‌ ) से; कन्याम्‌--एक पुत्री; च-- भी; तपतीम्‌--तपती नाम की; या--जो; बै--निस्सन्देह; वब्रे--ब्याह किया; संवरणम्‌--संवरण को; पतिम्‌--पति।

    सूर्य की अन्य पतली छाया से शनैश्वर तथा सावर्णि मनु नामक दो पुत्र तथा तपती नामकएक पुत्री उत्पन्न हई जिसने संवरण के साथ विवाह कर लिया।

    अर्यम्णो मातृका पती तयोश्रर्षणय: सुता: ।

    यत्र वै मानुषी जातिब्रह्वणा चोपकल्पिता ॥

    ४२॥

    अर्यम्ण:--अर्यमा की; मातृका--मातृका; पत्नी--पत्ली; तयो:--उनके संयोग से; चर्षणय: सुता:--अनेक विद्वान पुत्र;यत्र--जिनमें; बै--निस्सन्देह; मानुषी--मनुष्य की; जाति: --जाति; ब्रह्मणा-- श्रीज्रह्मा के द्वारा; च--तथा;उपकल्पिता--सृष्टि की गई

    अर्यमा की पत्नी मातृका की कुक्षि से कई विद्वान पुत्र उत्पन्न हुए।

    श्रीत्रह्मा ने उन्हीं में सेमनुष्य की जातियों की सृष्टि की जो आत्म-निरीक्षण की प्रवृत्ति से सम्पन्न हैं।

    पूषानपत्य: पिष्टादो भग्नदन्तोभवत्पुरा ।

    योउसौ दक्षाय कुपितं जहास विवृतद्विज: ॥

    ४३॥

    पूषा--पूषा; अनपत्य:--संतानरहित; पिष्ट-अदः--आटा खाकर निर्वाह करने वाला; भग्न-दन्तः--टूटे दाँतों वाला;अभवत््‌-हो गया; पुरा--प्राचीन काल में; यः--जो; असौ--वह; दक्षाय--दक्ष पर; कुपितम्‌--अत्यन्त क्रुद्ध; जहास--हँसा; विवृत-द्विजः --दाँत निकालकर।

    पूषा के कोई सन्‍्तान नहीं हुईं।

    जब भगवान्‌ शिव दक्ष पर क्रुद्ध हुए तो पूषा दाँतनिकाल कर हँसा था।

    अतः उसके दाँत जाते रहे और तब से वह पिसा हुआ अन्न खाकरजीवन-निर्वाह करता रहा।

    त्वष्टुदेत्यात्मजा भार्या रचना नाम कन्यका ।

    सन्निवेशस्तयोर्जज्ञे विश्वरूपश्च वीर्यवान्‌ ॥

    ४४॥

    त्वष्ठ:--त्वष्टा की; दैत्य-आत्म-जा--असुर की कन्या; भार्या--पत्नी; रचना--रचना; नाम--नाम की; कन्यका--कुमारी;सन्निवेश:--सन्निवेश; तयो: --उन दोनों के; जज्ञे--उत्पन्न हुआ; विश्वरूप: --विश्वरूप; च--तथा; वीर्यवान्‌--अत्यन्तबलशाली।

    दैत्यों की पुत्री रचना प्रजापति त्वष्टा की पली बनी।

    उसके गर्भ से सन्निवेश तथाविश्वरूप नामक दो अत्यन्त पराक्रमी पुत्र हुए।

    त॑ बक्रिरे सुरगणा स्वस्त्रीयं द्विषतामपि ।

    विमतेन परित्यक्ता गुरुणाड़िरसेन यत्‌ ॥

    ४५॥

    तम्‌--उस ( विश्वरूप ) को; वक्रिरि--पुरोहित के रूप में स्वीकार किया; सुर-गणा:--देवताओं ने; स्वस्त्रीयम्‌--पुत्री कापुत्र; द्विषताम्‌ू--शत्रु असुरों की; अपि--यद्यपि; विमतेन-- अपमानित होकर; परित्यक्ता:--छोड़े हुए; गुरुणा--अपने गुरु;आड्िरसेन--बृहस्पति द्वारा; यत्‌ू-क्योंकि

    यद्यपि विश्वरूप देवताओं के कट्टर शत्रु असुरों की पुत्री का पुत्र था, किन्तु उन्होंने ब्रह्माकी आज्ञा से उसे अपना पुरोहित बनाना स्वीकार किया।

    देवताओं द्वारा अपमान किये जानेपर गुरु बृहस्पति ने इनका परित्याग कर दिया था, इसीलिए इन्हें पुरोहित की आवश्यकतापड़ी।

    TO

    अध्याय सात: इंद्र ने अपने आध्यात्मिक गुरु बृहस्पति का अपमान किया।

    6.7श्रीराजोबाचकस्य हेतोः परित्यक्ता आचार्येणात्मन: सुरा: ।

    एतदाचक्ष्वभगवडिछष्याणामक्रमं गुरौ ॥

    १॥

    श्री-राजा उवाच--राजा ने पूछा; कस्य हेतो: --किस कारण से; परित्यक्ता:--त्यागे गये; आचार्येण --अपने गुरु बृहस्पतिद्वारा; आत्मन:--अपने ही; सुरा:--समस्त देवता; एतत्‌--यह; आचश्ष्व--कृपया वर्णन करें; भगवन्‌--हे मुनि ( शुकदेवगोस्वामी ); शिष्याणाम्‌--शिष्यों का; अक्रमम्‌-- अपराध; गुरौ--गुरु के प्रति।

    महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे महामुनि! देवताओं के गुरु बृहस्पतिने देवताओं का परित्याग क्‍यों किया जो उनके ही शिष्य थे।

    देवताओं ने अपने गुरु के साथऐसा कौन सा अपराध किया ?

    कृपया मुझसे इस घटना का वर्णन करें।

    श्रीबादरायणिरुवाचइन्द्रस्त्रिभुवनै श्वर्यमदोल्लड्डितसत्पथ: ।

    मरुद्धिर्वसुभी रुद्रैरादित्यैरभुभिनृप ॥

    २॥

    विश्वेदेवैश्व साध्यैश्व नासत्याभ्यां परिश्रितः ।

    सिद्धचारणगन्धर्वैर्मुनिभिव्नह्मयवादिभि: ॥

    ३॥

    विद्याधराप्सरोभिश्व किन्नरै: पतगोरगैः ।

    निषेव्यमाणो मघवान्स्तूयमानश्च भारत ॥

    ४॥

    उपगीयमानो ललितमास्थानाध्यासनाञितः ।

    पाण्डुरेणातपत्रेण चन्द्रमण्डलचारुणा ॥

    ५॥

    युक्तश्नान्यै: पारमेष्ठगैश्वामरव्यजनादिभि: ।

    विराजमान: पौलम्या सहार्धासनया भूशम्‌ ॥

    ६॥

    स यदा परमाचार्य देवानामात्मनश्च ह ।

    नाभ्यनन्दत सपम्प्रापंत प्रत्युत्थानासनादिभि: ॥

    ७॥

    वाच्स्पतिं मुनिवरं सुरासुरनमस्कृतम्‌ ।

    नोच्चचालासनादि-न्द्र: पश्यन्नपि सभागतम्‌ ॥

    ८॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया; इन्द्र:--राजा इन्द्र; त्रि-भुवन-ऐश्वर्य--तीनों लोकों के ऐश्वर्यका स्वामी होने के कारण; मद--घमंड से; उललड्डित--जिसने उल्लंघन किया; सत्‌-पथ:--वैदिक सभ्यता का मार्ग;मरुद्धि:ः--वायु के देवताओं द्वारा, जो मरुत्गण कहलाते हैं; वसुभि:--आठ वसुओं द्वारा; रुद्रैः --ग्यारह रुद्रों के द्वारा;आदित्यै:--आदित्यों के द्वारा; ऋभुभि: --ऋभुओं के द्वारा; नृप--हे राजन; विश्वेदेवै: च--तथा विश्वदेवों के द्वारा;साध्यै:--साध्यों के द्वारा; च-- भी; नासत्याभ्याम्‌-दोनों अश्विनीकुमारों द्वारा; परिश्रित:--घिरे हुए; सिद्ध--सिद्धलोकके निवासियों द्वारा; चारण--सभी चारण; गन्धर्वै: --तथा गन्धर्वों से; मुनिभि:--बड़े बड़े साधुओं द्वारा; ब्रह्मवादिभि: --अत्थन्त विद्वान निर्गुणवादियों द्वारा; विद्याधर-अप्सरोभि: च--तथा विद्याधरों और अप्सराओं द्वारा; किन्नरैः--किन्नरों केद्वारा; पतग-उरगै: --पक्षियों तथा सर्पो के द्वारा; निषेव्यमाण:--सेवित होकर; मघवानू--राजा इन्द्र; स्तूयबमान: च--तथास्तुति किये जाने पर; भारत--हे महाराज परीक्षित; उपगीयमान: --कीर्ति का गान होने पर; ललितम्‌--अत्यन्त मधुर;आस्थान--अपनी सभा में; अध्यासन-आश्रितः --सिंहासन पर विराजमान; पाण्डुरेण-- श्वेत; आतपत्रेण--सिर के ऊपर छत्र सहित; चन्द्र-मण्डल-चारुणा--चन्द्रमा के मंडल के समान सुन्दर; युक्त:--से युक्त; च अन्यै:--तथा अन्य से;पारमेष्ठबै:--महाराजोचित; चामर--चँवर; व्यजन-आदिभि:--पंखे आदि सामग्रियों से; विराजमान:--चमकता हुआ;पौलम्या-- अपनी पत्नी शच्ची के; सह--साथ; अर्ध-आसनया-- आधे सिंहासन पर स्थित; भूशम्‌-- अत्यधिक; सः--वह( इन्द्र )) यदा--जब; परम-आचार्यम्‌ू--परमादरणीय गुरु को; देवानाम्‌--समस्त देवताओं के; आत्मन:--स्वयं का; च--और; ह--निस्सन्देह; न--नहीं; अभ्यनन्दत--सत्कार किया; सम्प्राप्तम्‌--सभा में प्रकट होकर; प्रत्युत्थान--सिंहासन सेउठकर; आसन-आदिभि:--तथा आसन इत्यादि से; वाचस्पतिम्‌--देवताओं के पुरोहित, बृहस्पति को; मुनि-वरम्‌--साथुओं में श्रेष्ठ; सुर-असुर-नमस्कृतम्‌--देवताओं तथा असुरों के द्वारा समान रूप से सम्मानित; न--नहीं; उच्चचाल--उठकर खड़ा हुआ; आसनातू--सिंहासन से; इन्द्र: --इन्द्र; पश्यन्‌ अपि--देखकर भी; सभा-आगतमू--सभा में आते हुए

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजन्‌! एक बार तीनों लोकों के ऐश्वर्य से अत्यधिकगर्वित हो जाने के कारण स्वर्ग के राजा इन्द्र ने वैदिक आचार-संहिता का उल्लंघन करदिया।

    वे सिंहासन पर आसीन थे और उनके चारों ओर मरूत, वसु, रुद्र, आदित्य, ऋभु,विश्वदेव, साध्य, अश्विनी-कुमार, सिद्ध, चारण, गंधर्व तथा सभी बड़े बड़े ऋषि मुनियों केअतिरिक्त विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पतग ( पक्षी ) तथा उरग (सर्प ) भी बैठे थे।

    वे सभीइन्द्र की स्तुति और सेवा कर रहे थे और अप्सराएँ तथा गन्धर्व नृत्य कर रहे थे और अपनेमधुर वाद्ययंत्रों के साथ गायन कर रहे थे।

    इन्द्र के सर पर पूर्ण चन्द्रमा के समान तेजवान्‌ श्वेतछत्र तना था, चँवर झला जा रहा था और समस्त राजसी ठाठ-बाट सजा था।

    इन्द्र अपनीअर्धांगिनी शचीदेवी सहित सिंहासन पर बैठे थे तभी उस सभा में परम साधु बृहस्पति काप्रवेश हुआ।

    सर्वश्रेष्ठ साधु बृहस्पति इन्द्र समेत सभी देवताओं के गुरु थे और देवताओं तथाअसुरों के द्वारा समान रूप से सम्मानित थे।

    तो भी अपने गुरु को समक्ष देखकर इन्द्र न तोअपने आसन से उठा, न अपने गुरु को बैठने के लिए आसन दिया और न उनका आदरपूर्वक सत्कार ही किया।

    ततो निर्गत्य सहसा कविराड्डिरसः प्रभु: ।

    आययौ स्वगहं तृष्णीं विद्वान्श्रीमदविक्रियाम्‌ ॥

    ९॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; निर्गत्य--बाहर जाकर; सहसा--अचानक; कवि: --परम विद्वान; आड्रिरस: --बृहस्पति; प्रभु:--देवताओं के स्वामी; आययौ--लौटे; स्व-गृहम्‌--अपने घर को; तूष्णीम्‌--मौन; विद्वानू--ज्ञात करके; श्री-मद-विक्रियाम्‌--ऐ श्वर्य के मद से विकार ग्रस्त |

    बृहस्पति को सब कुछ ज्ञात था कि भविष्य में क्‍या होने वाला है।

    इन्द्र द्वारा सारेशिष्टाचार का उल्लंघन देखकर वे पूरी तरह समझ गये कि इन्द्र ऐश्वर्य के मद से फूल उठा है।

    वे चाहते तो इन्द्र को शाप दे सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया।

    वे उस सभा सेनिकलकर चुपचाप अपने घर चले आये।

    तहींव प्रतिबुध्येन्द्रो गुर्हेलनमात्मन: ।

    गहयामास सदसि स्वयमात्मानमात्मना ॥

    १०॥

    तहिं--तब तुरन्त; एव--निस्सन्देह; प्रतिबुध्य--समझकर; इन्द्र: --राजा इन्द्र; गुरु-हेलनम्‌--गुरु की अवहेलना;आत्मन:--अपने; गहईयाम्‌ आस--पश्चात्ताप करने लगा; सदसि--उस सभा में; स्वयम्‌--स्वयं; आत्मानम्‌-- अपनेआपको; आत्मना--अपने द्वारा।

    स्वर्ग के राजा इन्द्र ने तुरन्त ही अपनी भूल समझ ली।

    यह जानते हुए कि उन्होंने अपनेगुरु का निरादर किया है, उन्होंने उस सभा के समस्त सदस्यों के समक्ष स्वयं ही अपनीभर्सना की।

    अहो बत मयासाधु कृत॑ वै दभ्रबुद्धिना ।

    यन्मयैश्चर्यमत्तेन गुरु: सदसि कात्कृत: ॥

    ११॥

    अहो--ओह; बत--निस्सन्देह; मया--मेरे द्वारा; असाधु--निरादरपूर्ण; कृतम्‌-कार्य; बै--निश्चय ही; दक्न-बुद्धिना--मन्द बुद्धि होने से; यत्‌--क्योंकि; मया--मेरे द्वारा; ऐश्वर्य-मत्तेन--भौतिक एऐ श्वर्य के नशे में चूर होने के कारण; गुरु:--गुरु; सदसि--इस सभा में; कात्‌-कृत:--दुर्व्यवहार किया गया |

    ओह! अपनी अल्प बुद्धि के कारण तथा भौतिक ऐश्वर्य के मद-वश मैंने यह क्या करलिया! जब मेरे गुरु इस सभा में प्रविष्ट हुए तो मैंने उनका सत्कार क्‍यों नहीं किया ?

    सचमुचमैंने उनका अनादर किया है।

    को गृध्येत्पण्डितो लक्ष्मीं त्रिपिषप्टपपतेरपि ।

    ययाहमासुरं भावं नीतोउद्य विबुधेश्वरः ॥

    १२॥

    कः--कौन; गृध्येत्‌--स्वीकार करेगा; पण्डित:--विद्वान मनुष्य; लक्ष्मीम्‌--ऐश्वर्य; त्रि-पिष्ट-प-पतेः अपि--यद्यपि मैंदेवताओं का स्वामी हूँ; यया--जिससे; अहम्‌--मैं; आसुरम्‌--आसुरी; भावम्‌--विचार; नीत:--लाकर; अद्य-- अब;विबुध--देवताओं के, जो सतोगुण युक्त हैं; ईश्वर:--राजा |

    यद्यपि मैं सतोगुणी देवताओं का राजा हूँ, किन्तु थोड़े से ऐश्वर्य से गर्वित और अहंकारसे दूषित था।

    भला ऐसी दशा में कौन इस ऐश्वर्य को स्वीकार करेगा जिससे उसका पतनहो?

    हाय! मेरे धन एवं ऐश्वर्य को धिक्कार है! यः पारमेष्ठयं धिषणमधितिष्ठन्न कञ्नन ।

    प्रत्युत्तिष्ठेदिति ब्रूयुर्धर्म ते न परं विदु: ॥

    १३॥

    यः--जो भी; पारमेछ्यम्‌--राजसी; धिषणम्‌--सिंहासन पर; अधितिष्ठन्‌-- आसीन; न--नहीं; कञज्लन--कोई भी;प्रत्युत्तिष्ठेत्‌--पहले उठना चाहिए; इति--इस प्रकार; ब्रूयु:--जो ऐसा कहते हैं; धर्मम्‌--धर्मादेश; ते--वे; न--नहीं;परम्‌--अत्यधिक; विदुः:--जानते हैं |

    यदि कोई यह कहे कि राजा के उच्च सिंहासन पर आसीन व्यक्ति को दूसरे राजा याब्राह्मण के सत्कार हेतु उठकर खड़ा नहीं होना चाहिए, तो यही समझना चाहिए कि वह श्रेष्ठ धार्मिक नियमों को नहीं जानता।

    तेषां कुपथदेष्टणां पततां तमसि हाथ: ।

    ये श्रद्दध्युर्वचस्ते वै मज्जन्त्यश्मप्लवा इब ॥

    १४॥

    तेषाम्‌--उन ( बुरे नेताओं ) का; कु-पथ-देष्टणाम्‌--कुमार्ग दिखाने वाले; पतताम्‌ू--स्वयं गिरकर; तमसि--अंधकार में;हि--निस्सन्देह; अध:--नीचे; ये--जो कोई; श्रद्ृध्यु;-- श्रद्धा रखते हैं; वच: --शब्द; ते--वे; बै--निस्सन्देह; मजजन्ति--डूब जाते हैं; अश्म-प्लवा:--पत्थर की नाव; इब--के समान |

    जो नेता अज्ञानी हैं और लोगों को विनाश के कुमार्ग पर ले जाते हैं ( जैसा कि पिछलेइलोक में कहा गया है ) वे वास्तव में पत्थर की नाव पर सवार हैं और उनके पीछे अंधेहोकर चलने वाले भी वैसे हैं।

    पत्थर की नाव पानी में नहीं तैर सकती ।

    वह तो यात्रियों समेतपानी में डूब जायेगी।

    इसी प्रकार जो लोग मनुष्यों को कुमार्ग पर ले जाते हैं, वे अपनेअनुयायियों समेत नरक को जाते हैं।

    अथाहममराचार्यमगाधधिषणं द्विजम्‌ ।

    प्रसादयिष्ये निशठ: शीर्ष्णा तच्चरणं स्पृशन्‌ ॥

    १५॥

    अथ--अत:; अहमू--मैं; अमर-आचार्यम्‌ू--देवताओं के गुरु को; अगाध-धिषणम्‌--अगाध आतमज्ञान से युक्त; द्विजम्‌ू--पूर्ण ब्राह्मण को; प्रसादयिष्ये--मैं प्रसन्न करूँगा; निशठ:--बिना कपट के; शीर्ष्णा--अपने शिर से; तत्‌-चरणम्‌--उनकेचरणकमल का; स्पृशन्‌--स्पर्श करके |

    राजा इन्द्र ने कहा--अतः अब मैं अत्यन्त खुले मन से तथा निष्कपट भाव से देवताओं के गुरु बृहस्पति के चरणारविन्द में अपना शीश झुकाऊँगा।

    सात्त्विक होने के कारण वेसमस्त ज्ञान से पूर्णतया अवगत हैं और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं।

    अब मैं उनके चरणारविन्द कास्पर्श करके उन्हें प्रसन्न करने के उद्देश्य से प्रणाम करूँगा।

    एवं चिन्तयतस्तस्य मघोनो भगवान्गृहात्‌ ।

    बृहस्पतिर्गतो हृष्टां गतिमध्यात्ममायया ॥

    १६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; चिन्तयतः --गम्भीरतापूर्वक सोचते हुए; तस्थय--वह; मघोन: --इन्द्र; भगवान्‌--परम शक्तिमान;गृहात्‌--अपने घर से; बृहस्पति: --बृहस्पति; गत: --चले गये; अदृष्टामू--अदृश्य; गतिम्‌ू--दशा को; अध्यात्म --आत्मचेतना में अत्यधिक उठा हुआ होने के कारण; मायया--अपनी शक्ति से

    जिस समय देवताओं के राजा इन्द्र इस प्रकार सोच रहे थे और अपनी ही सभा मेंपश्चात्ताप कर रहे थे, परम शक्तिमान गुरु बृहस्पति उनके भाव को जान गये।

    अतः अदृश्यहोकर वे अपने घर से चले गये, क्योंकि राजा इन्द्र की अपेक्षा वे आत्मज्ञान में अत्यधिकआगे थे।

    गुरोर्नाधिगतः संज्ञां परीक्षन्भगवान्स्वराट्‌ ।

    ध्यायन्धिया सुरैर्युक्त: शर्म नालभतात्मन: ॥

    १७॥

    गुरो:--अपने गुरु का; न--नहीं; अधिगत:--पाकर; संज्ञामू-चिह्न; परीक्षन्‌ू--चारों ओर खोजते हुए; भगवान्‌--महान्‌शक्तिशाली इन्द्र; स्वराट्‌--स्वतंत्र; ध्यायन्‌ू-- ध्यान धरते हुए; धिया--बुद्द्धि से; सुरै:--देवताओं से; युक्त:--घिरे हुए;शर्म--शान्ति; न--नहीं; अलभत-प्राप्त किया; आत्मन:--मानसिक ।

    यद्यपि इन्द्र ने अन्य देवताओं की सहायता से गुरु बृहस्पति की काफी खोजबीन की,किन्तु वे उन्हें न पा सके।

    तब इन्द्र ने सोचा, 'हाय! मेरे गुरु मुझसे अप्रसन्न हो गये हैं औरअब सौभाग्य प्राप्त करने का मेरे पास कोई अन्य साधन नहीं रह गया है।

    यद्यपि इन्द्रदेवताओं से घिरे हुए थे, किन्तु उन्हें मानसिक शान्ति नहीं मिल सकी।

    तच्छुत्वैवासुरा: सर्व आश्नित्यौशनसं मतम्‌ ।

    देवाय्प्रत्युद्यमं चक्रुर्दुमदा आततायिन: ॥

    १८॥

    तत्‌ श्रुत्वा--उस समाचार को सुनकर; एव--निस्सन्देह; असुरा:--असुर; सर्वे--सभी; आश्रित्य--शरण जाकर;औशनसम्‌ू-शुक्राचार्य के; मतम्‌--आदेश; देवान्‌ू--देवता; प्रत्युद्यमम्‌--के विरुद्ध आक्रमण; चक्रु:--किया;दुर्मदा: --मूर्ख; आततायिन:--युद्ध के लिए शस्त्रास्त्रों से सज्जित

    इन्द्र की दयनीय दशा का समाचार पाकर असुरों ने अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेश सेअपने आपको हथियारों से सज्जित किया और देवताओं के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।

    तैविसूष्टेषुभिस्ती&णर्निभिन्नाड्रोसुबाहव: ।

    ब्रह्माणं शरणं जग्मु: सहेन्द्रा नतकन्धरा: ॥

    १९॥

    तैः--उनके ( असुरों के ) द्वारा; विसृष्ट--फेंके गये; इषुभि:--तीरों के द्वारा; तीक्षणै:--अत्यन्त नुकीले; निर्भिन्न-- भेदकर;अड्ग--शरीर; उरु--जंघा; बाहव:ः--तथा भुजाएँ; ब्रह्मणम्‌--ब्रह्मजी की; शरणम्‌--शरण में; जग्मु:--गये; सह-इन्द्रा:--राजा इद्ध के साथ; नत-कन्धरा:--अपने शीश झुकाये हुए

    जब असुरों के तीक्ष्ण बाणों से देवताओं के शिर, जंघाएँ, बाँहें तथा शरीर के अन्य अंगक्षत-विक्षत हो गये तो इन्द्र समेत सभी देवता, कोई अन्य उपाय न देखकर नतमस्तक होकरतुरन्त श्रीत्रह्म की शरण लेने तथा उचित आदेश प्राप्त करने के लिए पहुँचे।

    तांस्तथाभ्यर्दितान्वीक्ष्य भगवानात्मभूरज: ।

    कृपया परया देव उवाच परिसान्त्वयन्‌ ॥

    २०॥

    तान्‌--उनको ( देवताओं को ); तथा--उस प्रकार; अभ्यर्दितान्‌--असुरों के हथियारों से चोट खाकर; वीक्ष्य--देखकर;भगवान्‌--परम शक्तिमान; आत्म- भू: --ब्रह्मा जी; अज:--जो सामान्य जन की तरह जन्म नहीं लेता; कृपया--अहैतुकीकृपावश; परया--अधिक; देव: -- श्री ब्रह्म ने; उवाच--कहा; परिसान्त्वयन्‌--उन्हें सान्त्वना देकर |

    जब सर्वाधिक शक्तिमान ब्रह्माजी ने असुरों के बाणों से शरीर बुरी तरह घायल हुएदेवताओं को अपनी ओर आते देखा तो उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपावश उन्हें ढाढ़स बँधायाऔर इस प्रकार बोले।

    श्रीब्रह्मोवाचअहो बत सुरक्रेष्ठा हाभद्रं वः कृतं महत्‌ ।

    ब्रहिष्ट ब्राह्मणं दान्तमैश्चर्यान्नाभ्यनन्द्त ॥

    २१॥

    श्री-ब्रह्मा उवाच-- श्रीब्रह्मा ने कहा; अहो--ओह; बत--बड़ा आश्चर्य है; सुर-श्रेष्ठा:--हे देवताओं में श्रेष्ठ; हि--निस्सन्देह; अभद्रमू--अन्याय; व:--तुम्हारे द्वारा; कृतमू--किया हुआ; महत्‌--महान्‌; ब्रहिष्ठटम्‌--परब्रह्म के प्रतिआज्ञाकारी पुरुष; ब्राह्मणम्‌--ब्राह्मण का; दान्तम्‌ू--मन तथा इन्द्रियों को वश में करने वाला; ऐश्वर्यात्‌--अपने भौतिकऐश्वर्य से; न--नहीं; अभ्यनन्दत--उचित रीति से स्वागत किया।

    श्रीब्रह्मा ने कहा, हे श्रेष्ठ देवताओ! तुम लोगों ने अपने ऐश्वर्य-मद के कारण सभा मेंआने पर बृहस्पति का सत्कार नहीं किया।

    वे परब्रह्म-ज्ञाता और इन्द्रियों को वश में रखनेवाले हैं, अतः वे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं।

    अतः यह अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि तुम लोगों नेउनके साथ इस प्रकार दुर्व्यवहार किया है।

    तस्यायमनयस्यासीत्परेभ्यो व: पराभव: ।

    प्रक्षीणेभ्य: स्ववैरिभ्य: समृद्धानां च यत्सुरा: ॥

    २२॥

    तस्य--उस; अयम्‌--यह; अनयस्य--तुम्हारी कृतघ्नता का; आसीत्‌--था; परेभ्य:--अन्यों के द्वारा; व:--तुम सबों की;पराभव:--पराजय; प्रक्षीणेभ्य:--निर्बल होते हुए भी; स्व-वैरिभ्य:--तुम्हारे अपने शत्रुओं द्वारा जो पहले तुम्हारे द्वारापराजित हुए थे; समृद्धानाम्‌--तुम्हारे ऐश्वर्यशाली होने से; च--तथा; यत्‌--जो; सुरा:--हे देवो

    हे देवो! तुम लोग बृहस्पति के प्रति किये गये अपने दुराचरण के कारण असुरों के द्वारापराजित हुए हो।

    अन्यथा असुर तो अत्यन्त निर्बल थे और तुम लोगों के द्वारा अनेक बारपराजित हो चुके थे।

    भला फिर ऐश्वर्य से इतना समृद्ध होते हुए तुम लोग उनसे कैसे हारसकते थे?

    मघवन्द्रिषतः पश्य प्रक्नीणान्गुर्वतिक्रमात्‌सम्प्रत्युपचितान्भूय: काव्यमाराध्य भक्तितः ।

    आददीरन्निलयनं ममापि भृगुदेवता: ॥

    २३॥

    मघवनू--हे इन्द्र; द्विषतः--तुम्हारे शत्रु; पश्य--जरा देखो; प्रक्षीणान्‌ू--( पहले ) अत्यन्त निर्बल होने से; गुरु-अतिक्रमात्‌--अपने गुरु शुक्राचार्य का अनादर करने से; सम्प्रति--इस समय; उपचितानू--शक्तिशाली; भूय: -- पुनः ;काव्यम्‌ू--अपने गुरु, शुक्राचार्य को; आराध्य--पूजा करके; भक्तित:--अत्यन्त भक्ति सहित; आददीरन्‌--ले सकते हैं;निलयनम्‌--धाम, सत्यलोक को; मम--मेरा; अपि--भी; भृगु-देवता:-- भूगु के शिष्य शुक्राचार्य के प्रबल भक्त |

    हे इन्द्र! तुम्हारे शत्रु असुरगण शुक्राचार्य के प्रति अनादर करने के कारण अत्यन्त निर्बलहो गये थे, किन्तु अब उन्होंने अत्यन्त भक्तिपूर्वक शुक्राचार्य की पूजा की है, अतः वे पुनःबलशाली बन गये हैं।

    अपनी भक्ति के द्वारा उन्होंने अपनी शक्ति इतनी बढ़ा ली है, कि वेअब मुझसे मेरा धाम ( सत्यलोक ) तक लेने में समर्थ हो चुके हैं।

    त्रिपिष्टपं कि गणयन्त्यभेद्य-मन्त्रा भूगूणामनुशिक्षितार्था: ।

    न विप्रगोविन्दगवी श्वराणांभवन्त्यभद्राणि नरेश्वराणाम्‌ ॥

    २४॥

    त्रि-पिष्ट-पम्‌--ब्रह्म जी सहित सभी देवतागण; किम्‌--क्या; गणयन्ति--परवाह करते हैं; अभेद्य-मन्त्रा:--गुरु के आदेशोंके पालन के लिए हृढ़प्रतिज्ञ; भूगूणाम्‌-- भूगूमुनि के शिष्यों का, यथा शुक्राचार्य; अनुशिक्षित-अर्था:--शिक्षाओं कापालन करने के हेतु; न--नहीं; विप्र--ब्राह्मण; गोविन्द-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण; गो--गाएँ; ईश्वराणाम्‌--पूजनीय व्यक्तियोंका; भवन्ति-- हैं; अभद्राणि--दुर्भाग्य; नर-ईश्वराणाम्‌-- अथवा उन राजाओं को जो इस नियम का पालन करते हैं

    शुक्राचार्य के शिष्य, असुरगण अपने गुरु की शिक्षाओं के पालन में हृढ़प्रतिज्ञ होने केकारण देवताओं की अब तनिक भी परवाह नहीं करते।

    सच तो यह है कि जो राजा अथवाअन्य व्यक्ति ब्राह्मणों, गायों तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण की कृपा में अटूट श्रद्धारखते हैं और इन तीनों की सदैव पूजा करते हैं, वे अपनी स्थिति में सदैव बलशाली रहते हैं।

    तद्ठिश्वरूपं भजताशु विप्रंतपस्तिनं त्वाष्टमथात्मवन्तम्‌ ।

    सभाजितो४र्थान्स विधास्यते वोयदि क्षमिष्यध्वमुतास्य कर्म ॥

    २५॥

    तत्‌--अतः; विश्वरूपमू--विश्वरूप; भजत--गुरु रूप में पूजा करो; आशु--शीघ्र ही; विप्रम्‌ू-पूर्ण ब्राह्मण;तपस्विनम्‌--तपस्वी; त्वाषप्टम्‌-्वष्टा के पुत्र; अथ--तथा; आत्म-वन्तम्‌--अत्यन्त स्वतंत्र; सभाजित:--पूज्य; अर्थानू--स्वार्थ; सः--वह; विधास्यते--पूरा करेगा; व:--तुम सबों का; यदि--यदि; क्षमिष्यध्वम्‌--तुम सहन करो; उत--निस्सन्देह; अस्य--उसका; कर्म--कार्य ( दैत्यों की सहायता का )

    हे देवो! मैं तुम्हें त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाने का आदेश देता हूँ।

    तुम उन्हें अपनागुरु स्वीकार करो।

    वे अत्यन्त शुद्ध एवं शक्तिशाली तपस्वी ब्राह्मण हैं।

    तुम्हारी पूजा से प्रसन्नहोकर वे तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करेंगे, यदि तुम लोग उनके असुरों के प्रति झुकाव कोसहन कर सको।

    श्रीशुक उबाचत एवमुदिता राजन्ब्रह्मणा विगतज्वरा: ।

    ऋषिं त्वाष्ट्रमुपब्रज्य परिष्वज्येदमब्रुवन्‌ ॥

    २६॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; ते--सभी देवता; एवम्‌--इस प्रकार; उदिता:--शिक्षा पाकर; राजन्‌ू--हेराजा परीक्षित; ब्रह्मणा-- श्रीत्रह्मा द्वारा; विगत-ज्वरा: --असुरों द्वारा दिये जाने वाले कष्टों से मुक्त होकर; ऋषिम्‌--परमसाधु; त्वाष्टम्‌-त्वष्टा के पुत्र के पास; उपब्रज्य--जाकर; परिष्वज्य--हृदय से लगाकर; इृदम्‌--यह; अन्लुवन्‌--बोले।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा इस प्रकार श्रीब्रह्मा के द्वारा आदेशित एवं अपनीचिन्ता से मुक्त होकर सभी देवता त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप ऋषि के पास गये।

    हे राजन! उन्होंनेविश्वरूप को हृदय से लगा लिया और इस प्रकार बोले।

    श्रीदेवा ऊचुःबय॑ तेडतिथय: प्राप्ता आश्रमं भद्रमस्तु ते ।

    काम: सम्पाद्यतां तात पितृणां समयोचित: ॥

    २७॥

    श्री-देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; वयम्‌--हम सब; ते--तुम्हारे; अतिथय: -- अतिथि, मेहमान; प्राप्ता:--आये हैं;आश्रमम्‌--तुम्हारे आवास; भद्रमू--कल्याण; अस्तु--हो; ते--तुम्हारा; काम:--कामना; सम्पाद्यताम्‌--पूरी हो; तात--हेप्रिय; पितृणाम्‌--तुम्हारे पिता के तुल्य हम सबों का; समयोचित:--इस समय के अनुकूल, सामयिक।

    देवताओं ने कहा, हे विश्वरूप! तुम्हारा कल्याण हो।

    हम सभी देवता तुम्हारे अतिथि होकर तुम्हारे आश्रम में आये हैं।

    चूँकि हम तुम्हारे पिता तुल्य हैं इसलिए समयानुसार हमारीइच्छाओं को पूरा करो।

    पुत्राणां हि परो धर्म: पितृशुश्रूषणं सताम्‌ ।

    अपि पुत्रवतां ब्रह्मन्किमुत ब्रह्मचारिणाम्‌ ॥

    २८ ॥

    पुत्राणाम्‌--पुत्रों का; हि--निस्सन्देह; पर: -- श्रेष्ठ; धर्म: --धर्म; पितृ-शुश्रूषणम्‌--पितरों की सेवा; सताम्‌ू--उत्तम;अपि- भी; पुत्र-वताम्‌--पुत्रवानों का; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; किम्‌ उत--क्या कहना; ब्रह्मचारिणाम्‌--ब्रह्मचारियों का

    हे ब्राह्मण! पुत्र का परम धर्म है कि वह अपने माता-पिता की सेवा करेभले ही उसकेभी अपने पुत्र क्यों न हों और फिर उस पुत्र का क्‍या कहना जो ब्रह्मचारी हो ?

    आचार्यो ब्रह्मणो मूर्ति: पिता मूर्ति: प्रजापते: ।

    भ्राता मरुत्पतेमूर्तिमाता साक्षात्क्षितेस्तनु; ॥

    २९॥

    दयाया भगिनी मूर्तिर्धर्मस्यात्मातिथि: स्वयम्‌ ।

    अग्नेरभ्यागतो मूर्ति: सर्वभूतानि चात्मन:ः ॥

    ३०॥

    आचार्य:--अपने आचरण द्वारा वैदिक ज्ञान प्रदान करने वाला शिक्षक या गुरु; ब्रह्मण: --समस्त वेदों की; मूर्ति: --साक्षात्‌; पिता--पिता; मूर्ति:--साक्षात्‌; प्रजापते:-- श्रीज्रह्मा की; भ्राता-- भाई; मरुतू-पतेः मूर्ति:--साक्षात्‌ इन्द्र; माता--माता; साक्षात्‌--साक्षात्‌; क्षिते:--पृथ्वी का; तनु:--शरीर; दयाया:--कृपा की; भगिनी--बहन; मूर्ति:--साक्षात्‌;धर्मस्थ-- धर्म का; आत्म--स्वयं; अतिथि:--अतिथि; स्वयम्‌--स्वयं; अग्ने:--अग्निदेव का; अभ्यागत:--आमंत्रितमेहमान; मूर्तिः--साक्षात्‌; सर्व-भूतानि--समस्त जीव; च--तथा; आत्मन:--परमे श्वर विष्णु का |

    आचार्य अर्थात्‌ गुरु, जो समस्त वैदिक ज्ञान की शिक्षा देता है और यज्ञोपवीत प्रदानकरके दीक्षित करता है साक्षात्‌ वेद है।

    इसी प्रकार पिता ब्रह्मा का रूप, भाई राजा इन्द्र का,माता पृथ्वीलोक तथा बहन कृपा की, अतिथि धर्म का, आमंत्रित मेहमान अग्निदिव का औरसमस्त जीव भगवान्‌ विष्णु का साक्षात्‌ रूप होते हैं।

    तस्मात्पितृणामार्तानामार्ति परपराभवम्‌ ।

    तपसापनयंस्तात सन्देशं कर्तुमहसि ॥

    ३१॥

    तस्मात्‌ू--अतः ; पितृणाम्‌--पितरों का; आर्तानाम्‌ू--जो संकट ग्रस्त हैं; आर्तिमू--शोक; पर-पराभवम्‌--शत्रुओं द्वारापराजित होकर; तपसा--तुम्हारे तपोबल से; अपनयन्‌--हटाकर; तात--हे पुत्र; सन्देशम्‌--हमारी इच्छा; कर्तुम्‌ अहसि--पूरा करने में समर्थ हो।

    हे पुत्र! हम अपने शत्रुओं से पराजित होने के कारण अत्यन्त शोकमग्न हैं।

    तुम अपनेतपोबल से हमारे कष्टों को दूर करके हमारी इच्छाओं को पूरा करो।

    हमारी प्रार्थनाओं कोपूरा करो।

    वृणीमहे त्वोपाध्यायं ब्रहविष्ठ॑ ब्राह्मणं गुरुम्‌ ।

    यथाझ्जसा विजेष्याम: सपत्नांस्तव तेजसा ॥

    ३२॥

    वृणीमहे--हम चुनते हैं; त्वा--तुमको; उपाध्यायमू-शिक्षक तथा गुरु; ब्रहिष्टम्‌-परब्रह्म को पूरी तरह जानने के कारण;ब्राह्मणम्‌--योग्य ब्राह्मण; गुरुम्‌-पूर्ण गुरु; यथा--जिससे; अज्ञसा--सरलता से; विजेष्याम:--हम पराजित कर सकें;सपत्नान्‌ू--अपने प्रतिद्वन्द्दी को; तब--तुम्हारे; तेजसा--तपोबल से

    चूँकि तुम परब्रह्म से पूर्णतया परिचित हो और पूर्ण ब्राह्मण हो, अतः तुम जीवन केसभी आश्रमों के गुरु हो।

    हम तुम्हें अपना गुरु तथा अध्यक्ष स्वीकार करते हैं जिससे तुम्हारेतपोबल से हम अपने उन शत्रुओं को, जिन्होंने हमें परास्त किया है, सरलता से जीत सकें।

    न गर्हयन्ति ह्ार्थेषु यविष्ठाइट्यभिवादनम्‌ ।

    छन्दोभ्योउन्यत्र न ब्रह्मन्वयो ज्यैप्यस्य कारणम्‌ ॥

    ३३॥

    न--नहीं; गहयन्ति--मना करते हैं; हि--निस्सन्देह; अर्थेषु--स्वार्थ के लिए; यविष्ठ-अड्घ्रि--अपने से छोटे केचरणकमलों पर; अभिवादनम्‌--नमस्कार; छन्दोभ्य:--वैदिक मंत्रों से; अन्यत्र--छोड़कर; न--नहीं; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण;वयः--आयु; ज्यैछ्यस्य--गुरुता का; कारणम्‌--कारण

    देवताओं ने आगे कहा हमसे छोटे होने के कारण अपनी आलोचना से मत डरो।

    ऐसाशिष्टाचार वैदिक मंत्रों पर लागू नहीं होता।

    वैदिक मंत्रों को छोड़कर, सर्वत्र गुरुता आयु सेनिर्धारित होती है, किन्तु यदि कोई वैदिक मंत्रों के उच्चारण में बढ़ाचढ़ा हो तो ऐसे कमआयु वाले व्यक्ति को भी नमस्कार किया जा सकता है।

    अतः तुम भले ही सम्बन्ध में हमसेछोटे हो, किन्तु तुम बिना किसी हिचक के हमारे पुरोहित हो सकते हो।

    श्रीऋषिरुवाचअभ्यर्थितः सुरगणै: पौरहित्ये महातपा: ।

    स विश्वरूपस्तानाह प्रसन्न: श्लक्ष्णया गिरा ॥

    ३४॥

    श्री-ऋषि: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अभ्यर्थित: --प्रार्थना किये जाने पर; सुर-गणै:--देवताओं द्वारा;पौरहित्ये--पुरोहिती स्वीकार करने के लिए; महा-तपा:--परम तपस्वी; सः--वह; विश्वरूप:--विश्वरूप; तान्‌ू--देवताओंसे; आह--बोला; प्रसन्न:--प्रसन्न होकर; श्लक्ष्णया--मृदु; गिरा--वाणी से

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा जब सब देवताओं ने महान्‌ विश्वरूप से पुरोहित बनने के लिएप्रार्थना की तो महातपस्वी विश्वरूप अत्यन्त प्रसन्न हुए।

    उन्होंने उन्हे इस प्रकार उत्तर दिया।

    श्रीविश्वरूप उवाचविगर्तितं धर्मशीलैब्रहावर्चउपव्ययम्‌ ।

    कर्थ॑ नु मद्विधो नाथा लोकेशैरभियाचितम्‌प्रत्याख्यास्यति तच्छिष्य: स एव स्वार्थ उच्यते ॥

    ३५॥

    श्री-विश्वरूप: उबाच-- श्री विश्वरूप ने कहा; विगर्हितम्‌--निन्दनीय; धर्म-शीलै:-- धर्म में आस्था रखने वाले; ब्रह्म-वर्च:--ब्राह्मण के तेज का; उपव्ययम्‌-- क्षीण करता है; कथम्‌--कैसे; नु--निस्सन्देह; मत्‌ू-विध:--मुझ जैसा पुरुष;नाथा:--हे स्वामीगण; लोक-ईशै:--विभिन्न लोकों के शासकों द्वारा; अभियाचितम्‌--विनय; प्रत्याख्यास्यति--मनाकरेगा; तत्‌-शिष्य: --उनका शिष्य; स:--वह; एव--निस्सन्देह; स्व-अर्थ:--वास्तविक हित, स्वार्थ; उच्यते--कहलाताहै।

    श्री विश्वरूप ने कहा, हे देवो! यद्यपि पुरोहिती स्वीकारने की निन्‍्दा की जाती है, किइसकी स्वीकृति से पूर्ब-अर्जित ब्रह्मतेज घटता है, किन्तु मुझ जैसा व्यक्ति आपकी व्यक्तिगतप्रार्थना को कैसे ठुकरा सकता है?

    आप सभी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के महान्‌ आदेशक हैं।

    मैं तोआपका शिष्य हूँ और मुझे तो आपसे अनेक शिक्षाएँ ग्रहण करनी चाहिए।

    अतः मैं आपको'न' नहीं कर सकता।

    मैं अपने ही स्वार्थ के लिए इसे स्वीकार करता हूँ।

    अकिझ्जनानां हि धनं शिलोउ्छनंतेनेह निर्वर्तितसाधुसत्क्रिय: ।

    कथ॑ विगर् नु करोम्यधी श्वरा:पौरोधसं हृष्यति येन दुर्मति: ॥

    ३६॥

    अकिद्ञनानाम्‌--उन पुरुषों का जिन्होंने संसार से विरक्त होने के लिए तपस्या करनी स्वीकार की है; हि--निश्चय ही;धनमू--सम्पत्ति; शिल--खेत में गिरे हुए अन्न का संग्रह; उब्छनम्‌--थोक बाजार में गिरे हुए अन्न का संग्रह; तेन--उसउपाय के द्वारा; हह--यहाँ; निर्वर्तित--प्राप्त करके; साधु--महान्‌ साधुओं के; सत्‌-क्रिय:ः--समस्त पुण्य कर्म; कथम्‌--कैसे; विगर्ईम्‌--निन्दनीय; नु--निस्सन्देह; करोमि-- करूँगा; अधीश्वरा:--हे लोकों के महान्‌ अधीक्षको; पौरोधसम्‌--पुरोहिती कर्म; हृष्यति--प्रसन्न होता है; येन--जिससे; दुर्मतिः:--अल्पज्ञानी

    है लोकपालो! सच्चा ब्राह्मण वह है, जिसके कोई भौतिक सम्पत्ति नहीं होती है, वहशिलोच्छन वृत्ति से ही अपना उदर-पोषण करता है।

    दूसरे शब्दों में, वह खेतों में गिरे हुएऔर बड़े-बड़े हाट-स्थलों पर गिरे हुए अन्न को बीनता है।

    इस प्रकार गृहस्थ ब्राह्मण जोवास्तव में तपस्या के सिद्धान्त का पालन करते हुए स्वयं का तथा अपने परिवार का भरणकरता है और आवश्यक पुण्य कर्म करता रहता है।

    जो ब्राह्मण पुरोहिती कर्म द्वारा धनअर्जित करके सुखी बनना चाहता है, वह अत्यन्त तुच्छ मन वाला होता है।

    बताओ, मैं इसपुरोहिती को कैसे स्वीकार करूँ ?

    तथापि न प्रतिब्रूयां गुरुभिः प्रार्थितं कियत्‌ ।

    भवतां प्रार्थितं सर्व प्राणैरथैश्व साधये ॥

    ३७॥

    तथा अपि--तो भी; न--नहीं; प्रतिब्रूयाम्‌--मैं अस्वीकार कर सकता हूँ; गुरुभि:--अपने गुरु तुल्य व्यक्तियों के द्वारा;प्रार्थितम्‌--प्रार्थना; कियत्‌--तुच्छ; भवताम्‌--आप सबों की; प्रार्थितम्‌--इच्छा; सर्वम्‌--पूर्ण ; प्राणै:--अपने जीवन से;अर्थै:--अपने धन से; च-- भी; साधये--मैं पूरा करूँगाआप सभी मुझसे बड़े हैं।

    अतः भले ही पुरोहिती को स्वीकार करना निन्दनीय है, मैंआप लोगों की छोटी-से-छोटी प्रार्थना को नकार नहीं सकता।

    मैं आपका पुरोहित बननास्वीकार करता हूँ।

    मैं अपना जीवन तथा धन अर्पित करके आपकी प्रार्थना पूरी करूँगा।

    श्रीबादरायणिरुवाचतेभ्य एवं प्रतिश्रुत्य विश्वरूपो महातपा: ।

    पौरहित्यं वृतश्चक्रे परमेण समाधिना ॥

    ३८॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तेभ्य:--उन ( देवताओं ) को; एवम्‌--इस प्रकार; प्रति श्रुत्य--वचन देकर; विश्वरूप:--विश्वरूप; महा-तपा:--महापुरुष; पौरहित्यम्‌ू--पुरोहिती कार्य; वृत:--उनके द्वारा घिरा; चक्रे --करने लगे; परमेण--- परम; समाधिना--मनोयोग से

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा हे राजन्‌! देवताओं को यह वचन देकर, चारों ओरसे देवताओं से घिरे हुए महान्‌ विश्वरूप अत्यन्त उत्साह एवं मनोयोग से आवश्यक पुरोहितीकर्म करने लगा।

    सुरद्विषां थ्रियं गुप्तामौशनस्यापि विद्यया ।

    आच्चिद्यादान्महेन्द्राय वैष्णव्या विद्यया विभु: ॥

    ३९॥

    सुर-द्विषामू-देवों के शत्रु; अयम्‌--ऐश्वर्य; गुप्तामू--सुरक्षित; औशनस्य--शुक्राचार्य की; अपि--यद्यपि; विद्यया--प्रतिभा से; आच्छिद्य--संग्रह करके; अदात्‌--दिया है; महा-इन्द्राय--राजा इन्द्र को; वैष्णव्या-- भगवान्‌ विष्णु की;विद्यया-प्रार्थना से; विभु:--अत्यन्त शक्तिमान विश्वरूप

    यद्यपि शुक्राचार्य ने अपनी प्रतिभा एवं नीति-बल से देवताओं के शत्रुओं के नाम से विख्यात असुरों के ऐश्वर्य को सुरक्षित कर दिया था, किन्तु अत्यन्त शक्तिमान विश्वरूप नेनारायण कवच नामक एक सुरक्षात्मक स्तोत्र की रचना की।

    इस बुद्ध्रिमत्तापूर्ण मंत्र सेउन्होंने असुरों का ऐश्वर्य छीन कर स्वर्ग के राजा इन्द्र को दे दिया।

    यया गुप्त: सहस्त्राक्षो जिग्येउसुरचमूर्विभु: ।

    तां प्राह स महेन्द्राय विश्वरूप उदारधी: ॥

    ४०॥

    यया--जिससे; गुप्त:--सुरक्षित; सहस्त्र-अक्ष: --एक हजार नेत्रों वाले इन्द्र देवता ने; जिग्ये--जीता; असुर--असुरों की;चमू:--सैन्यशक्ति; विभु:--अत्यन्त शक्तिशाली होकर; ताम्‌--उससे; प्राह--बोला; स: महेन्द्राय--स्वर्ग के राजा महेन्द्रको; विश्वरूप: --विश्वरूप; उदार-धी: --अत्यन्त उदार चित्त वाला।

    अत्यन्त उदारचित्त वाले विश्वरूप ने राजा इन्द्र ( सहस्त्राक्ष ) को वह गुप्त स्तोत्र बता दियाजिससे इन्द्र की रक्षा हो सकी और असुरों की सैन्यशक्ति जीत ली गई।

    TO

    अध्याय आठ: नारायण-कवच ढाल

    6.8श्रीराजोबाचयया गुप्तः सहस्त्राक्ष: सवाहात्रिपुसैनिकान्‌ ।

    क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे अ्ियम्‌ ॥

    १॥

    भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्‌ ।

    यथाततायिनः शत्रून्येन गुप्तोडजयन्मृथे ॥

    २॥

    श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; यया--जिससे ( आध्यात्मिक-कवच से ); गुप्त: --सुरक्षित; सहस्त्र-अक्ष:--एकहजार नेत्रों वाला राजा इन्द्र; स-वाहान्‌ू--अपने वाहनों सहित; रिपु-सैनिकान्‌--शत्रुओं के सिपाही तथा सेना-नायक;क्रीडन्‌ इब--खेल के समान; विनिर्जित्य--जीतकर; त्रि-लोक्या:--तीनों लोकों ( उच्च, मध्य तथा निम्नलोक ) का;बुभुजे-- भोग किया; थियम्‌--ऐश्वर्य; भगवन्‌--हे मुनि; तत्‌ू--वह; मम--मुझको; आख्याहि--कृपया बताइये; वर्म--मंत्र से निर्मित कवच; नारायण-आत्मकम्‌--नारायण की कृपा से युक्त; यथा--जिस प्रकार; आततायिन: --जो उसे मारनाचाह रहे थे; शत्रूनू--शत्रु; येन--जिससे; गुप्त:--रक्षित होकर; अजयत्‌--जीत लिया; मृधे--युद्ध में

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे प्रभो! कृपा करके मुझे वह विष्णु-मंत्र-कवच बताएँ जिससे राजा इन्द्र की रक्षा हो सकी और वह अपने शत्रुओं को उनके वाहनोंसहित परास्त करके तीनों लोकों के ऐश्वर्य का उपभोग कर सका।

    कृपया मुझे वह नारायण-कवच बताएँ जिसके द्वारा इन्द्र ने युद्ध में अपने उन शत्रुओं को हराकर सफलता प्राप्त कीजो उसे मारने का प्रयत्न कर रहे थे।

    श्रीबादरायणिरुवाचवबृतः पुरोहितस्त्वाष्टी महेन्द्रायानुपृच्छते ।

    नारायणाख्यं वर्माह तदिहिकमना: श्रूणु ॥

    ३॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; वृतः--चुना गया; पुरोहित:--पुरोहित; त्वाष्ट:--त्वष्टा का पुत्र;महेन्द्राय--राजा इन्द्र के लिए; अनुपृच्छते--इन्द्र द्वारा पूछे जाने पर; नारायण-आख्यम्‌--नारायण-कवच नामक; वर्म--मंत्र से निर्मित सुरक्षा कवच; आह--उसने कहा; तत्‌ू--वह; इह--यह; एक-मना: --ध्यानपूर्वक; श्रुणु--मुझसे सुनो |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--देवताओं के राजा इन्द्र ने देवताओं के द्वारा पुरोहित के रूप में नियुक्त विश्वरूप से नारायण-कवच के सम्बन्ध में पूछा।

    विश्वरूप द्वारा दिये गये उत्तरको तुम ध्यानपूर्वक सुनो।

    श्रीविश्वरूप उवाचधौताड्प्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदड्मुख: ।

    कृतस्वाड्रकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुच्चि: ॥

    ४॥

    नारायणपरं वर्म सन्नह्रद्धय आगते ।

    पादयोर्जानुनोरूवोरूदरे हृद्यथोरसि ॥

    ५॥

    मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्‌ ।

    नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ॥

    ६॥

    श्री-विश्वरूप: उबाच-- श्रीविश्वरूप ने कहा; धौत--पूरी तरह धोया हुआ; अड्ध्रि--पाँव; पाणि:--हाथ; आचम्य--आचमन करके ( नियत मंत्र का जप करने के बाद तीन बार जल चूसना ); स-पवित्र:--कुश की बनी पवित्री या पैती( जिह्ें प्रत्येक हाथ की अँगुलियों में पहना जाता है ); उदक्‌-मुख:--उत्तर की ओर मुख; कृत--करके; स्व-अड्ग-कर-न्‍्यास:--शरीर के आठ भाग तथा हाथों के बारह भागों का मानसिक समर्पण ( न्यास ); मन्त्राभ्याम्‌--दो मंत्रों ( ३७ नमोभगवते वासुदेवाय तथा ३७ नमो नारायणाय ) के साथ; वाकू-यत:--मौन रहकर; शुच्रि:--पवित्र होकर; नारायण-परमू-- भगवान्‌ नारायणमय; वर्म--कवच; सन्नहत्‌-- धारण करे; भये--जब डर; आगते--आया है; पादयो:--दोनोंपैरों पर; जानुनो:--दोनों घुटनों पर; ऊर्वो:--दोनों जाँघों पर; उदरे--पेट पर; हदि--हृदय पर; अथ--इस प्रकार; उरसि--छाती पर; मुखे-- मुँह में; शिरसि--सिर पर; आनुपूर्व्यात्‌-एक के बाद एक, क्रमश:; ओंकार-आदीनि--ऊँकार सेप्रारम्भ करके; विन्यसेत्‌ू--रखे; ३४-- प्रणव; नम:--नमस्कार; नारायणाय-- भगवान्‌ नारायण को; इति--इस प्रकार;विपर्ययम्‌--विपरीत क्रम-से, उलटकर; अथ अपि--और भी; वा--अथवाविश्वरूप ने कहा--किसी प्रकार के भय का अवसर उपस्थित होने पर मनुष्य कोचाहिए कि पहले अपने हाथ-पाँव धोये और तब यह मंत्र--& अपवित्र: पवित्रो वासर्वावस्थां गतोपि वा / यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्ष॑ स बाह्याभ्यन्तर: शुच्िः / श्रीविष्णु श्रीविष्णुश्रीविष्पु--जप कर आचमन करे।

    तब उसे चाहिए कि कुश को छूकर शान्त भाव से उत्तरकी ओर मुख करके बैठ जाये।

    पूर्णतया शुद्ध होने पर उसे चाहिए कि आठ शब्दों वाले मंत्रको अपने शरीर के दाहिनी ओर के आठ भागों में छुवाये और बारह शब्दों वाले मंत्र कोहाथों में छुवाये।

    फिर नारायण-कवच से स्वयं को इस प्रकार बाँधे--पहले आठ शब्दों वालेमंत्र ( ३७ नमो नारायणाय ) का जप करते हुए, प्रथम शब्द ३» या प्रणव से प्रारम्भ करकेअपने हाथों से अपने शरीर के आठों अंगों का स्पर्श करे--पहले दोनों पाँव छुए फिर क्रमशःघुटने, जाँघ, पेट, हृदय, छाती, मुँह तथा सिर को छुये।

    इसके बाद उलटे क्रम से मंत्र काजप करे अर्थात्‌ अन्तिम शब्द 'य' से प्रारम्भ करे और अपने शरीर के अंगों को भी उलटेक्रम से छुए।

    ये दोनों विधियाँ क्रमशः उत्पत्ति-न्यास तथा संहार-न्यास कहलाती हैं।

    करन्यासं ततः कुर्यादद्वादशाक्षरविद्यया ।

    प्रणवादियकारान्तमड्डुल्यडुष्ठ पर्वसु ॥

    ७॥

    कर-न्यासम्‌--करन्यास नामक कर्मकाण्ड, जिसमें अँगुलियों के लिए मंत्र के अक्षर होते है; तत:ः--तत्पश्चात्‌; कुर्यात्‌--करे; द्वादश-अक्षर--बारह अक्षरों वाला; विद्यया--मंत्र से; प्रणव-आदि--ऊँकार से प्रारम्भ करके; य-कार-अन्तमू-यअक्षर में अन्त होने तक; अड्डुलि--अंगुलियों पर, तर्जनी से प्रारम्भ करके; अद्जुष्ठ-पर्वसु--अँगूठों के पोरों ( गाँठों )

    तकतब उसे चाहिए कि बारह अक्षरों वाले मंत्र ( ३७ नमो भगवते वासुदेवाय ) का जप करे।

    इस मंत्र के बारह अक्षरों को दाहिने हाथ की तर्जनी से प्रारम्भ करके बाँये हाथ की तर्जनी तक प्रत्येक अँगुली के छोर पर प्रत्येक अक्षर का उच्चारण करते हुए रखे।

    शेष चार अक्षरोंको अँगूठों के पोरों पर रखे।

    न्यसेद्धूदय ओंकारं विकारमनु मूर्थनि ।

    षकार॑ तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया न्यसेत्‌ ॥

    ८॥

    वेकार नेत्रयोर्युड्यान्नकारं सर्वसन्धिषु ।

    मकारमस्त्रमुद्िश्य मन्त्रमूर्तिभवेद्रुथ: ॥

    ९॥

    सविसर्ग फडन्तं तत्सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्‌ ।

    ३% विष्णवे नम इति ॥

    १०॥

    न्यसेत्‌--रखे; हृदये--हृदय पर; ओंकारम्‌-- प्रणव, ३४कार; वि-कारम्‌--विष्णवे का 'वि' अक्षर; अनु--तत्पश्चात्‌;मूर्थनि--शिर के ऊपर; ष-कारम्‌-- ष' अक्षर; तु--तथा; भ्रुवो: मध्ये--दोनों भौंहों के बीच; ण-कारम्‌--'ण' अक्षर;शिखया--चोटी ( शिखा ) पर; न्यसेत्‌--रखे; वेकारम्‌--' वे ' अक्षर; नेत्रयो: --दोनों नेत्रों के मध्य; युड्ज्यात्‌--रखा जाये;न-कारमू--नमः शब्द का 'न' अक्षर; सर्व-सन्धिषु--सभी जोड़ों पर; म-कारम्‌--नमः शब्द का 'म' अक्षर; अस्त्रमू--हथियार; उद्दिश्य-- ध्यान करते हुए; मन्त्र-मूर्ति:--मंत्र का स्वरूप; भवेत्‌--हो; बुध: --बुद्धिमान मनुष्य; स-विसर्गम्‌ू--विसर्ग ( अः ) सहित; फट्‌-अन्तम्‌-फट्‌ ध्वनि से अन्त होने वाला; तत्‌--उस; सर्व-दिक्षु--सभी दिशाओं में;विनिर्दिशेत्‌ू--बाँध दे; ३४-- प्रणव; विष्णवे-- भगवान्‌ विष्णु को; नम: --नमस्कार; इति--इस प्रकार

    फिर उसे छः अक्षरों वाला मंत्र ( ३७ विष्णवे नमः ) जपना चाहिए।

    उसे ओं को अपनेहृदय पर, 'वि को शिरो भाग पर, 'ष' को भौहों के मध्य, 'ण' को चोटी पर तथा 'वे' कोनेत्रों के मध्य रखना चाहिए।

    तब मंत्र जपकर्ता 'न' अक्षर को अपने शरीर के समस्त जोड़ोंपर रखे और 'म' अक्षर को अस्त्र के रूप में ध्यान धरे।

    इस प्रकार वह साक्षात्‌ मंत्र होजायेगा।

    तत्पश्चात्‌ उसे चाहिए कि अन्तिम शब्द 'म' में विसर्ग लगाकर 'मः अस्त्राय फट्‌' इसमंत्र का जप पूर्व दिशा से प्रारम्भ करके सभी दिशाओं में करे।

    इस तरह सभी दिशाएँ इसमंत्र के सुरक्षा-कवच से बँध जायेंगी।

    आत्मानं परम ध्यायेद्धग्रेयं घट्शक्तिभिर्युतम्‌ ।

    विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत्‌ ॥

    ११॥

    आत्मानम्‌--स्वयं; परमम्‌--परम को; ध्यायेत्‌-- ध्यान धरे; ध्येयम्‌-- ध्यान धरने योग्य; घट्‌ू-शक्तिभि: --छहों ऐश्वर्य से;युतम्‌--युक्त; विद्या--विद्या; तेज:--प्रभाव; तप:ः--तपस्या; मूर्तिम्‌--साक्षात्‌; इमम्‌--यह; मन्त्रमू--मंत्र को;उदाहरेत्‌ू--जप करे

    इस प्रकार जप कर लेने के पश्चात्‌ मनुष्य को चाहिए कि वह छः ऐश्वर्यों से युक्त तथाध्यातव्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के साथ अपने आपको गुण की दृष्टि से तदाकार समझे।

    तब उसे चाहिए कि वह निम्नलिखित नारायण-कवच अर्थात्‌ भगवान्‌ नारायण की सुरक्षास्तुति का जप करे।

    हरिरविदध्यान्मम सर्वरक्षांन्यस्ताडूप्रिपद्य: पतगेन्द्रपृष्ठे ।

    दरारिचर्मासिगदेषुचाप-पाशान्दधानोडष्टगुणोष्टबाहु:; ॥

    १२॥

    हरिः-- भगवान्‌; विदध्यात्‌--हमें प्रदान करें; मम--मेरा; सर्व-रक्षाम्‌ू--सभी ओर से सुरक्षा; न्यस्त--रखाहुआ; अड्प्रि-पदा:--जिनके चरणकमल; पतगेन्द्र-पृष्ठे--समस्त पक्षियों के राजा गरुड़ की पीठ पर; दर--शंख; अरि--चक्र; चर्म--ढाल; असि--तलवार; गदा--गदा; इषु--तीर; चाप-- धनुष; पाशान्‌--पाश, फंदा; दधान: --ग्रहण कियेहुए; अष्ट--आठ; गुण: --सिद्धियों से युक्त; अष्ट--आठ; बाहु:-- भुजाएँ |

    परमेश्वर पक्षिराज गरुड़ की पीठ पर आसीन हैं और अपने चरण-कमल से उसका स्पर्शकर रहे हैं।

    वे अपने हाथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, तीर, धनुष तथा पाश धारणकिये हैं।

    ऐसे आठ भुजाओं वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ सभी समय मेरी रक्षा करें।

    वेसर्वशक्तिमान हैं, क्योंकि वे आठ योग-शक्तियों ( अणिमा, लघिमा इत्यादि ) से समन्वित हैं।

    जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात्‌ ।

    स्थलेषु मायावटुवामनोव्यात्‌त्रिविक्रमः खेउवतु विश्वरूप: ॥

    १३॥

    जलेषु--जल में; माम्‌--मुझको; रक्षतु--बचाएं; मत्स्य-मूर्ति:--मत्स्य रूप में परमेश्वर; याद:-गणेभ्य:--हिंस्त्र जलजन्तुओंसे; वरुणस्थ--वरुण नामक देवता के; पाशात्‌--बंदी बनाने वाले फंदे से; स्थलेषु--स्थल पर; माया-वटु--वामन केरूप में ईश्वर का कृपामय रूप; वामन:--वामनदेव; अव्यात्‌--रक्षा करें; त्रिविक्रम: --त्रिविक्रम, जिनके तीन चरणों नेबलि के तीनों लोक नाप लिए; खे--आकाश में; अवतु--ईश्वर रक्षा करें; विश्वरूप:--विराट ब्रह्माण्ड रूप।

    जल के भीतर वरुण देवता के पार्षद हिंस्त्र पशुओं से मत्स्यरूप धारण करने वालेभगवान्‌ मेरी रक्षा करें।

    उन्होंने अपनी माया का विस्तार करके वामन का रूप धारण किया।

    वामन-देव स्थल पर मेरी रक्षा करें।

    उनका विराट स्वरूप, विश्वरूप, तीनों लोकों, को जीतनेवाला है, आकाश में मेरी रक्षा करे।

    दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभु:पायान्रूसिंहो सुरयूथपारि: ।

    विमुज्जतो यस्य महाइहासंदिशो बिनेदुर्न्यपतंश्व गर्भा: ॥

    १४॥

    दुर्गेषु-दुर्गम स्थानों में; अटवि--घने जंगल में; आजि-मुख-आदिषु--युद्धस्थल इत्यादि में; प्रभु:--परमे श्वर; पायात्‌--वेरक्षा करें; नूसिंह:-- भगवान्‌ नृसिंह देव; असुर-यूथप--असुरों के नायक, हिरण्यकशिपु का; अरि:--शत्रु; विमुज्ञतः--छोड़ा गया; यस्य--जिसका; महा-अट्ट-हासम्‌--महान्‌ तथा भयानक अट्टहास; दिशः --समस्त दिशाएँ; विनेदु: --अनुगूँजित; न्यपतन्‌--गिर पड़े; च--तथा; गर्भा:--असुरों की पत्नियों के गर्भहिरण्यकशिपु के शत्रु रूप में प्रकट होने वाले भगवान्‌ नृसिंह देव समस्त दिशाओं मेंमेरी रक्षा करें।

    उनके घोर अट्टहास से समस्त दिशाएँ गूँज उठी थीं और असुरों की पत्नियों केगर्भपात हो गये थे।

    भगवान्‌ जंगल तथा युद्धभूमि जैसे विकट स्थानों में कृपा करके मेरी रक्षा करें।

    रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पःस्वदंष्टयोन्नीतधरो वराह: ।

    रामोउद्विकूटेष्बथ विप्रवासेसलक्ष्मणोडव्याद्धरताग्रजोउस्मान्‌ ॥

    १५॥

    रक्षतु--ई श्वर रक्षा करें; असौ--वह; मा--मुझको; अध्वनि--मार्ग में; यज्ञ-कल्प:--जिनकी पुष्टि यज्ञों के द्वारा की जातीहै, यज्ञमूर्ति; स्व-दंष्रया--अपनी ही दाढ़ों से; उन्नीत--उठाया जाकर; धर:--पृथ्वी लोक; वराह:-- भगवान्‌ वराह; राम:--भगवान्‌ राम; अद्वि-कूटेषु--पर्वतों की चोटियों पर; अथ--तब; विप्रवासे--विदेशों में; स-लक्ष्मण:--अपने भाई लक्ष्मणसहित; अव्यात्‌--रक्षा करें; भरत-अग्रज: --महाराज भरत के ज्येष्ठ भ्राता; अस्मान्‌ू--हमारी |

    परम अविनाशी भगवान्‌ को यज्ञों के द्वारा जाना जाता है, इसीलिए वे यज्ञेश्वर कहलातेहैं।

    भगवान्‌ वराह के रूप में अवतार लेकर उन्होंने पृथ्वी लोक को ब्रह्माण्ड के गर्त से जलमें से निकालकर अपनी नुकी दाढ़ों में धारण किया।

    ऐसे भगवान्‌ मार्ग में दुष्टों से मेरी रक्षाकरें।

    परशुराम मेरी पर्वत शिखरों पर रक्षा करें और भरत के अग्रज भगवान्‌ रामचन्द्र अपनेभाई लक्ष्मण सहित विदेशों में मेरी रक्षा करें।

    मामुग्रधर्मादरिबिलात्प्रमादान्नारायण: पातु नरश्व हासात्‌ ।

    दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथ:पायादगुणेश: कपिल: कर्मबन्धात्‌ ॥

    १६॥

    मामू--मुझको; उमग्र-धर्मात्‌--अनावश्यक धार्मिक नियमों से; अखिलातू--सभी प्रकार के कार्यो से; प्रमादातू--पागलपनमें किये गये; नारायण: -- भगवान्‌ नारायण; पातु--रक्षा करें; नर: च--तथा नर; हासात्‌--वृथा गर्व से; दत्त:--दत्तात्रेय;तु--निस्सन्देह; अयोगात्‌--मिथ्या योग के मार्ग से; अथ--निस्सन्देह; योग-नाथ:--समस्त योगशक्तियों के स्वामी,योगेश्वर; पायात्‌ू--रक्षा करें; गुण-ईश:ः--समस्त आध्यात्मिक गुणों के स्वामी; कपिल:-- श्रीकपिल; कर्म-बन्धात्‌ू-कर्मोके बन्धन से।

    मिथ्या धर्मों के अनावश्यक पालन तथा प्रमादवश कर्तव्यच्युत होने से भगवान्‌ नारायणमेरी रक्षा करें।

    नर-रूप में प्रकट भगवान्‌ मुझे वृथा गर्व से बचाएँ।

    भक्तियोग के पालन सेच्युत होने से योगेश्वर दत्तात्रेय मेरी रक्षा करें।

    समस्त श्रेष्ठ गुणों के स्वामी कपिल सकाम कर्मके भौतिक बन्धन से मेरी रक्षा करें।

    सनत्कुमारोवतु कामदेवा-व्यशीर्षा मां पथि देवहेलनात्‌ ।

    देवर्षिवर्य: पुरुषार्चनान्तरात्‌कूर्मो हरिर्मा निरयादशेषात्‌ ॥

    १७॥

    सनतू-कुमार:--परम ब्रह्मचारी सनत्कुमार; अवतु--रक्षा करें; काम-देवात्‌--कामदेव के चंगुल से अर्थात्‌ कामवासनाओंसे; हय-शीर्षा--हयग्रीव ईश्वर का अवतार जिसका मुख घोड़े के समान था; मामू--मुझको; पथि--मार्ग में; देव-हेलनात्‌--ब्राह्मणों, वैष्णवों तथा परमेश्वर को नमस्कार न करने से; देवर्षि-वर्य:--देवर्षियों में श्रेष्ठ, नारद; पुरुष-अर्चन-अन्तरात्‌-विग्रह के पूजन में हुए अपराधों से; कूर्म:-- भगवान्‌ कूर्म ( कच्छप ); हरिः-- भगवान्‌ हरि; मामू--मुझको;निरयात्‌--नरक से; अशेषात्‌-- असीम |

    सनत्कुमार कामवासनाओं से मेरी रक्षा करें।

    जैसे ही मैं कोई शुभकार्य शुरू करूँ,श्रीहयग्रीव मेरी रक्षा करें जिससे मैं परमेश्वर को नमस्कार न करने का अपराधी न बनूँ।

    श्रीविग्रह की अर्चना में कोई अपराध न हो इसके लिए देवर्षि नारद मेरी रक्षा करें।

    भगवान्‌कूर्म असीम नरकलोक में गिरने से मुझे बचाएँ।

    धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्याद्‌दन्द्ाद्धबाहषभो निर्जितात्मा ।

    यज्ञश्व लोकादवताज्नान्ताद्‌बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्र: ॥

    १८॥

    धन्वन्तरि:--वैद्यराज धन्वन्तरि; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; पातु--मेरी रक्षा करें; अपथ्यात्‌--स्वास्थ्य के लिए हानिकरवस्तुओं, यथा मांस तथा मादक ब्र॒व्यों से; द्वन्द्दात्‌-द्विधा से; भयात्‌-- भय से; ऋषभ:-- श्रीऋषभदेव; निर्जित-आत्मा--मन तथा स्वयं को वश में रखने वाला; यज्ञ:--यज्ञ; च--तथा; लोकात्‌ू--जनता के अपयश से; अवतात्‌--रक्षा करें;जन-अन्तात्‌--अच्य व्यक्तियों द्वारा उत्पन्न भयानक परिस्थितियों से; बल:-- भगवान्‌ बलराम; गणातू्‌--गणों से; क्रोध-वशात्‌-क्रुद्ध सर्पो से; अहीन्द्र:--शेष नाग के रूप में भगवान्‌ बलराम |

    श्रीभगवान्‌ अपने धन्वन्तरि अवतार के रूप में मुझे अवांछित खाद्य पदार्थों से दूर रखेंऔर शारीरिक रुग्णता से मेरी रक्षा करें।

    अपनी अन्तः तथा बाह् इन्द्रियों को वश में करनेवाले श्रीऋषभदेव सर्दी तथा गर्मी के द्वैत से उत्पन्न भय से मेरी रक्षा करें।

    भगवान्‌ यज्ञ जनतासे मिलने वाले अपयश तथा हानि से मेरी रक्षा करें और शेष-रूप भगवान्‌ बलराम मुझेईर्ष्यालु सर्पो से बचायें।

    द्वैषायनो भगवानप्रबोधाद बुद्धस्तु पाषण्डगण प्रमादात्‌ ।

    कल्किः कले: कालमलात्प्रपातुधर्मावनायोरुकृतावतार: ॥

    १९॥

    द्वैपायन:--वैदिक ज्ञान के दाता श्रील व्यासदेव; भगवान्‌--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सर्वशक्तिमान अवतार;अप्रबोधात्‌-शास्त्र के अज्ञान से; बुद्ध: तु--तथा भगवान्‌ बुद्ध; पाषण्ड-गण--अबोध व्यक्तियों में मायाजाल फैलानेवाले नास्तिकों का; प्रमादातू--पागलपन से; कल्किः--केशव के अवतार भगवान्‌ कल्कि; कलेः--इस कलियुग के;काल-मलात्‌--इस युग के अंधकार से; प्रपातु--रक्षा करें; धर्म-अवनाय--धर्म की रक्षा हेतु; उरू--महान्‌; कृत-अवतार:--जो अवतरित हुए

    वैदिक-ज्ञान से विहीन होने के कारण सभी प्रकार की अविद्या से श्रीभगवान्‌ केअवतार व्यासदेव मेरी रक्षा करें।

    वेद विरुद्ध कर्मों से तथा आलस्य से, जिसके कारणप्रमादवश वेद ज्ञान तथा अनुष्ठान भूल जाते हैं, भगवान्‌ बुद्धदेव मुझे बचाएँ।

    भगवान्‌कल्कि देव, जिनका अवतार धार्मिक नियमों की रक्षा के लिए हुआ, मुझे कलियुग कीमलिनता से बचायें।

    मां केशवो गदया प्रातरव्याद्‌गोविन्द आसड्डवमात्तवेणु: ।

    नारायण: प्राह्न उदात्तशक्तिर्‌मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणि: ॥

    २०॥

    मामू--मुझको; केशव: -- भगवान्‌ केशव; गदया--अपनी गदा से; प्रात:ः--प्रातःकाल; अव्यात्‌--रक्षा करें; गोविन्द:--भगवान्‌ गोविन्द; आसड्भबम्‌-दिन के चढ़े; आत्त-वेणु:--अपनी बाँसुरी लेकर; नारायण: --चतुर्भुज भगवान्‌ नारायण;प्राह्न--दोपहर के पूर्व; उदात्त-शक्ति:--विभिन्न प्रकार की शक्तियों को वश में रखने वाले; मध्यम्‌-दिने--दोपहर को;विष्णु:-- भगवान्‌ विष्णु; अरीन्द्र-पाणि: --शत्रुओं को मारने के लिए हाथ में चक्र धारण किये।

    भगवान्‌ केशव दिन के पहले चरण में अपनी गदा से तथा दिन के दूसरे चरण में अपनीबाँसुरी से गोविन्द मेरी रक्षा करें।

    सर्व शक्तियों से सम्पन्न भगवान्‌ नारायण दिन के तीसरेचरण में और शत्रुओं का वध करने के लिए हाथ में चक्र धारण करनेवाले भगवान्‌ विष्णुदिन के चौथे चरण में मेरी रक्षा करें।

    देवोपराद् मधुहोग्रधन्वासायं त्रिधामावतु माधवो माम्‌ ।

    दोषे हषीकेश उतार्धरात्रेनिशीथ एकोवतु पदानाभ: ॥

    २१॥

    देवः--भगवान्‌; अपराह्ने--दिन के पंचम चरण में; मधु-हा--मधुसूदन; उग्र-धन्वा--शार्ड् नाम के प्रचण्ड धनुष कोधारण करने वाले; सायम्‌--दिन के छठे चरण में, संध्या समय; त्रि-धामा--ब्रह्मा, विष्णु तथा महे श्वर त्रिमूर्ति; अवतु--रक्षा करें; माधव: --माधव; मामू--मुझको; दोषे--रात के प्रथम भाग में; हृषीकेश:-- श्रीहृषीकेश; उत-- भी; अर्ध-रात्रे--रात्रि के दूसरे भाग अथवा अर्ध रात्रि में; निशीथे--रात्रि के तीसरे चरण में; एक:--अकेले; अवतु--रक्षा करें;पद्ानाभ:--भगवान्‌ पदानाभ।

    असुरों के लिए भयावना धनुष धारण करने वाले भगवान्‌ मधुसूदन दिन के पंचम चरणमें मेरी रक्षा करें।

    संध्या समय ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर त्रिमूर्ति के रूप में प्रकट होकर भगवान्‌ माधव और रात्रि प्रारम्भ होने पर भगवान्‌ हषीकेश मेरी रक्षा करें।

    अर्थ रात्रि में( रात्रि के दूसरे तथा तीसरे चरण में ) केवल भगवान्‌ पद्मानाभ मेरी रक्षा करें।

    श्रीवत्सधामापररात्र ईशःप्रत्यूष ईशोसिधरो जनार्दन: ।

    दामोदरोव्यादनुसन्ध्यं प्रभातेविश्वेश्वरो भगवान्कालमूर्ति; ॥

    २२॥

    श्रीवत्स-धामा-- श्रीवत्स चिह्न धारण करने वाले भगवान्‌; अपर-रात्रे--रात्रि के चतुर्थ भाग में; ईश: --पर मे श्वर; प्रत्यूषे--रात्रि के अन्त में; ईशः--परमे श्वर; असि-धर:--हाथ में तलवार धारण करने वाले; जनार्दन:-- भगवान्‌ जनार्दन;दामोदर:--भगवान्‌ दामोदर; अव्यात्‌--वे रक्षा करें; अनुसन्ध्यम्‌-- प्रत्येक संध्या को; प्रभाते--प्रातःकाल ( राति के छठेभाग ); विश्व-ई श्वरः-- समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; काल-मूर्तिः--साक्षात्‌ काल।

    वक्ष पर श्रीवत्स धारण करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अर्धरात्रि के पश्चात्‌ सेआकाश के गुलाबी होने तक मेरी रक्षा करें।

    खड्गधारी भगवान्‌ जनार्दन रात्रि के समाप्तहोने पर ( रात्रि की अंतिम चार घटिकाओं में ) मेरी रक्षा करें।

    भगवान्‌ दामोदर बड़े भोर मेंतथा भगवान्‌ विश्वेश्वर दिन तथा रात की संधियों के समय मेरी रक्षा करें।

    चक्र युगान्तानलतिग्मनेमिभ्रमत्समन्ताद्धगवत्प्रयुक्तम्‌ ।

    दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशुकक्ष यथा वातसखो हुताश: ॥

    २३॥

    चक्रम्‌--भगवान्‌ का चक्र; युग-अन्त--युग के अन्त में; अनल--विध्वंसक अग्नि सहश; तिग्म-नेमि--ती क्ष्ण किनारे;भ्रमतू--घूमते हुए; समन्तात्‌--चारों ओर; भगवत्-प्रयुक्तम्‌ू-- भगवान्‌ द्वारा लगाया गया; दन्दग्धि दन्दग्धि--पूरी तरहजला दें; अरि-सैन्यम्‌-हमारे शत्रुओं की सेना; आशु--शीघ्रता से; कक्षम्‌--सूखी घास; यथा--सहृश; वात-सख:--वायु का मित्र; हुताश:-- धधकती आग।

    श्रीभगवान्‌ द्वारा चलाया जाने वाला तथा चारों दिशाओं में घूमने वाला तीखे किनारेवाला उनका चक्र युगान्त में प्रलय-अग्नि के समान विनाशकारी है।

    जिस प्रकारप्रातःकालीन मन्द पवन के सहयोग से धधकती अग्नि सूखी घास को भस्म कर देती है, उसी प्रकार यह सदुर्शन चक्र हमारे शत्रुओं को जला कर भस्म कर दे।

    गदेशनिस्पर्शनविस्फुलिड्रेनिष्पिणिढ निष्पिण्ड्यूजितप्रियासि ।

    कुष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-भूतग्रहां श्रूर्णप चूर्णयारीन्‌ू ॥

    २४॥

    गदे--श्रीभगवान्‌ के हाथों में स्थित हे गदा; अशनि--वज् के समान; स्पर्शन--जिसका स्पर्श ; विस्फुलिज़े--अग्नि कीचिनगारियाँ छोड़ता हुआ; निष्पिण्डि निष्पिण्डि--कुचल दीजिये, कुचल दीजिये; अजित-प्रिया-- श्रीभगवान्‌ को अत्यन्तप्रिय; असि--हो; कुष्माण्ड--कुष्माण्ड नामक निशाचर; बैनायक--वैनायक नामक प्रेत; यक्ष--यक्ष नामक भूत प्रेत;रक्ष:--राक्षस; भूत-- भूत नामक प्रेत; ग्रहान्‌ू--तथा ग्रह नामक दुष्ट असुर; चूर्णय--चूर-चूर कर दो; चूर्णय--चूर-चूरकर दो; अरीन्‌-मेरे शत्रुओं को

    हे श्रीभगवान्‌ के हाथ की गदे! तुम वज़ के समान शक्तिशाली अग्नि की चिनगारियाँउत्पन्न करो, तुम भगवान्‌ की अत्यन्त प्रिय हो।

    मैं भी उन्हीं का दास हूँ, अतः कुष्माण्ड,वैनायक, यक्ष, राक्षस, भूत तथा ग्रह-गणों को कुचल देने में मेरी सहायता करो।

    कृपापूर्वकउन्हें चूर चूर कर दो।

    त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ -पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्‌ ।

    दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितोभीमस्वनो४रेईदयानि कम्पयन्‌ ॥

    २५॥

    त्वमू--तुम; यातुधान--राक्षस; प्रमथ--प्रमथगण; प्रेत--प्रेतमण; मातृ--माताएँ; पिशाच--पिशाच; विप्र-ग्रह--ब्रह्मराक्षस; घोर-दृष्टीनू-- अत्यन्त भयानक नेत्रों वाले; दरेन्द्र-हे भगवान्‌ के हाथों के शंख, पांचजन्य; विद्रावय--भगा दें;कृष्ण-पूरितः--कृष्ण द्वारा फूँके जाने पर; भीम-स्वन:--अत्यन्त डरावना शब्द करते हुए; ओरेः --शत्रु के; हदयानि--हृदयों को; कम्पयन्‌--हिलाते हुए |

    भगवान्‌ के हाथों में धारण किए हुए हे शंखश्रेष्ठ, हे पांचजन्य! तुम भगवान्‌ श्रीकृष्णकी श्वास से सदैव पूरित हो, अतः तुम ऐसी डरावनी ध्वनि उत्पन्न करो जिससे राक्षस, प्रमथभूत, प्रेत, माताएँ, पिशाच तथा ब्रह्म राक्षस जैसे शत्रुओं के हृदय काँपने लगें।

    त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य-मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि ।

    चक्षूंषि चर्मज्छतचन्द्र छादयद्विषामघोनां हर पापचश्षुषाम्‌ ॥

    २६॥

    त्वमू--तुम; तिग्म-धार-असि-वर--हे तीक्ष्ण धारवाली श्रेष्ठ तलवार; अरि-सैन्यम्‌ू-शत्रु के सैनिकों को; ईश-प्रयुक्त:--श्रीभगवान्‌ द्वारा काम में लाई जाने वाली; मम--मेरा; छिन्धि छिन्धि--खण्ड-खण्ड कर दो, खण्ड-खण्ड कर दो;चक्षूंषि-- आँखें; चर्मन्‌--हे ढाल; शत-चन्द्र--एक सौ चन्द्रमाओं के समान तेजवान्‌ मण्डल; छादय--ढक दो; द्विषाम्‌ू--मुझसे विद्वेष करने वालों को; अघोनाम्‌--पूर्ण पापी; हर--निकाल लो; पाप-चक्षुषाम्‌-पापपूर्ण आँखों वाले |

    हे तलवबारों में श्रेष्ठ तीक्षण धार वाली तलवार! तुम श्रीभगवान्‌ द्वारा काम में लायी जातीहो।

    कृपा करके तुम मेरे शत्रुओं के सैनिकों को खण्ड-खण्ड कर दो; कृपया उन्हें खण्ड-खण्ड कर दो।

    हे सैकड़ों चन्द्रमण्डल के समान वृत्ताकारों से अंकित तेजमान ढाल! पापीदुश्मनों की आँखें ढक दो और उनकी पापी आँखों को निकाल लो।

    यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत्केतुभ्यो नृभ्य एबच ।

    सरीसृपेभ्यो दंष्टिभ्यो भूतेभ्योहो भ्य एव च ॥

    २७॥

    सर्वाण्येतानि भगवतन्नामरूपानुकीर्तनात्‌ ।

    प्रयान्तु सड्क्षयं सद्यो ये न: श्रेय:प्रतीपका: ॥

    २८॥

    यत्‌--जो; न:--हमारे; भयम्‌-- भव ; ग्रहेभ्य: --ग्रह नामक असुर से; अभूत्‌-- था; केतुभ्य:--गिरने वाले तारों से;नृभ्य:--विद्देषी मनुष्यों से; एव च-- भी; सरीसूपेभ्य:--साँपों या बिच्छुओं से; दंष्टिभ्य:--बाघों, भेड़ियों तथा असुरों जैसेतीक्ष्ण दाँतों वाले पशुओं से; भूतेभ्य:--भूतों से अथवा भौतिक तत्त्वों ( क्षिति, जल, अग्नि आदि ) से ); अंहोभ्य:--पापकर्मो से; एव च-- भी; सर्वाणि एतानि--ये सब; भगवत्‌-नाम-रूप-अनुकीर्तनात्‌-- श्रीभगवान्‌ के दिव्य रूप, नाम,लक्षण तथा वैशिष्टय्य के कीर्तन से; प्रयान्तु--प्राप्त होने दो; सड्क्षयम्‌--पूर्ण विनाश को; सद्यः --तुरन्त; ये--जो; न:--हमारा; श्रेय:-प्रतीपका: --कल्याण में बाधक

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के दिव्य नामरूप, गुण तथा साजसामग्री का कीर्तन हमेंअशुभ नक्षत्रों, केतुओं, विद्वेषी मनुष्यों, सर्पों, बिच्छुओं तथा बाघों-भेड़ियों जैसे पशुओं केप्रभाव से बचाये।

    वह प्रेतों से तथा क्षिति, जल, पावक, वायु, जैसे भौतिक तत्त्वों औरतड़ित से तथा पूर्व पापों से हमारी रक्षा करे।

    हम अपने शुभ जीवन में इन बाधाओं से सदैवभयभीत रहते हैं, अतः हरे कृष्ण महामंत्र के जप से इन सबका पूर्ण विनाश हो।

    गरुडो भगवास्स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमय: प्रभु: ।

    रक्षत्वशेषकृच्छे भ्यो विष्वक्सेन: स्वनामभि: ॥

    २९॥

    गरुड: --भगवान्‌ विष्णु का वाहन, गरुड़; भगवान्‌-- श्री भगवान्‌ के समान शक्तिशाली; स्तोत्र-स्तोभ: --जिनकी स्तुतिचुने हुए एलोकों एवं गीतों से की जाती है; छनन्‍्द:-मय:--साक्षात्‌ वेद; प्रभु:ः--भगवान्‌; रक्षतु--रक्षा करें; अशेष-कृच्छेभ्य: -- अनन्त दुखों से; विष्वक्सेन: -- श्रीविष्वक्सेन; स्व-नामभि: ---अपने पवित्र नाम से |

    भगवान्‌ विष्णु के वाहन श्रीगरुड़ श्रीभगवान्‌ के समान शक्तिशाली होने के कारणसर्वपूज्य हैं।

    वे साक्षात्‌ वेद हैं और चुने हुए एलोकों से उनकी पूजा की जाती है।

    वे सभीभयानक स्थितियों में हमारी रक्षा करें।

    भगवान्‌ विष्वक्सेन अपने पवित्र नामों के द्वारा हमेंसभी संकटों से बचायें।

    सर्वापद्भ्यो हरेनामरूपयानायुधानि नः ।

    बुद्धीन्द्रियमनः प्राणान्पान्तु पार्षदभूषणा: ॥

    ३०॥

    सर्व-आपद्भ्य:--सभी प्रकार की विपत्तियों से; हरेः-- श्री भगवान्‌ का; नाम--पवित्र नाम; रूप--दिव्य रूप; यान--वाहन; आयुधानि--तथा सभी श्त्रास्त्र; न:--हमारी; बुद्धि--बुद्धि; इन्द्रिय--इन्द्रिय; मन:--मन; प्राणान्‌--प्राण वायु;पान्तु--रक्षा तथा पालन करें; पार्षद-भूषणा:--आभूषण तुल्य पार्षद गण

    श्रीभगवान्‌ के पवित्र नाम, दिव्य रूप, वाहन तथा आयुध, जो उनके पार्षदों के समानउनकी शोभा बढ़ाने वाले हैं, हमारी बुद्धि, इन्द्रियों, मन तथा प्राण की सभी प्रकार केसंकटों से रक्षा करें।

    यथा हि भगवानेव वस्तुत: सदसच्च यत्‌ ।

    सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवा: ॥

    ३१॥

    यथा--जिस प्रकार; हि--निस्सन्देह; भगवान्‌-- श्री भगवान्‌; एव--निश्चय ही; वस्तुत:--अन्तिम रूप से; सत्‌--प्रकट;असत्‌--अप्रकट; च--तथा; यत्‌--जो भी; सत्येन--सत्य से; अनेन--यह; नः--हमारे; सर्वे--सभी; यान्तु-- चले जाँय,दूर हों; नाशम्‌--संहार को; उपद्रवा:--उपद्रव |

    यह सूक्ष्म तथा स्थूल दृश्य जगत भौतिक है, तो भी यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ सेअभिन्न है, क्योंकि वस्तुतः वे ही समस्त कारणों के कारण हैं।

    कारण तथा कार्य वास्तव मेंएक ही हैं, क्योंकि कार्य में कारण विद्यमान रहता है।

    अतः परम सत्य श्रीभगवान्‌ हमारेसमस्त संकटों को अपने किसी भी शक्तिशाली अंग से नष्ट कर सकते हैं।

    यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहित: स्वयम्‌ ।

    भूषणायुधलिड्डाख्या धत्ते शक्ती: स्वमायया ॥

    ३२॥

    तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान्हरि: ।

    पातु सर्वे: स्वरूपैर्न: सदा सर्वत्र सर्वग: ॥

    ३३॥

    यथा--जिस प्रकार; ऐकात्म्य--विभिन्न रूपों में प्रकट एकरूपता; अनुभावानाम्‌--विचारकों के; विकल्प-रहित:--भेदरहित; स्वयम्‌-स्वयं; भूषण--अलंकरण; आयुध--श्त्रास्त्र; लिड्र-आख्या:--गुण तथा विभिन्न नाम; धत्ते--धारणकरता है; शक्ती:--ऐश्वर्य, प्रभाव, शक्ति, ज्ञान, सौंदर्य तथा त्याग जैसी शक्तियाँ; स्व-मायया--अपनी आत्मशक्ति केप्रसार से; तेन एब--उसके द्वारा; सत्य-मानेन--वास्तविक ज्ञान; सर्व-ज्ञ:--सर्वज्ञाता; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; हरि: --जीवात्माओं के मोह को हरने वाले; पातु--रक्षा करें; सर्वे:--सभी; स्व-रूपै: --अपने रूपों से; न:--हमको; सदा--सदैव; सर्वत्र--सभी जगहों पर; सर्व-ग:--सर्वव्यापी |

    श्रीभगवान्‌, जीवात्माएँ, भौतिक शक्ति, आध्यात्मिक शक्ति तथा सम्पूर्ण सृष्टि--वे सभीव्यष्टियाँ हैं।

    अन्ततोगत्वा ये सब मिलकर परब्रह्म का निर्माण करती हैं।

    अतः जो आत्मज्ञानीहैं, वे भिन्नता में एकता देखते हैं।

    ऐसे बढ़ेचढ़े पुरुषों के लिए भगवान्‌ के शारीरिकअलंकरण, उनके नाम, उनका यश, उनके लक्षण एवं रूप तथा आयुध उनकी शक्ति की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

    उनके समुन्नत आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार विभिन्न रूपों में प्रकट होनेवाले सर्वज्ञ भगवान्‌ सर्वत्र विद्यमान हैं।

    वे सदैव सभी विपदाओं से सर्वत्र हमारी रक्षा करें।

    विदिदक्षु दिक्षूर्ध्वमध: समन्‍्ता-दन्‍्तर्बहिर्भगवान्नारसिंह: ।

    प्रहापयँल्‍लोक भय स्वनेनस्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजा: ॥

    ३४॥

    विदिक्षु--सभी कोनों में; दिक्षु--समस्त दिशाओं में ( पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण ) में; ऊर्ध्वम्‌--ऊपर; अध:--नीचे;समन्तात्‌ू--चारों ओर; अन्त: -- भीतर; बहि:--बाहर; भगवान्‌-- श्री भगवान्‌; नारसिंह:--नृसिंह( आधे सिंह तथा आधेमनुष्य ) देव के रूप में; प्रहापयन्‌--पूर्णतया विनष्ट करते हुए; लोक-भयम्‌--पशु, विष, आयुध, जल, वायु, अग्निइत्यादि से उत्पन्न भय; स्वनेन-- अपनी गर्जना से अथवा अपने भक्त प्रह्मद महाराज के स्वर से; स्व-तेजसा-- अपने निजीतेज से; ग्रस्त--आच्छादित; समस्त--अन्य सभी; तेजा: --प्रभाव |

    प्रहाद महाराज ने भगवान्‌ नृसिंहदेव के पवित्र नाम का उच्चस्वर से जप किया।

    अपनेभक्त प्रह्मद महाराज के लिए गर्जना करने वाले श्रीनूसिंहदेव! आप उन संकटों के भय सेहमारी रक्षा करें जो विष, आयुध, जल, अग्नि, वायु इत्यादि के द्वारा समस्त दिशाओं मेंमहा-भटों के द्वारा फैलाया जा चुका है।

    हे भगवान्‌! आप अपने दिव्य प्रभाव से इनकेप्रभाव को आच्छादित कर लें।

    नृसिंहदेव समस्त दिशि-दिशाओं में, ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर हमारी रक्षा करें।

    मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम्‌ ।

    विजेष्यसेझ्ञसा येन दंशितोसुरयूथपान्‌ ॥

    ३५॥

    मघवनू--हे इन्द्र; इदम्--यह; आख्यातम्‌--कह सुनाया; वर्म--रहस्यमय कवच; नारायण-आत्मकम्‌-- नारायण सेसम्बन्धित; विजेष्यसे--तुम जीतोगे; अज्ञसा--सरलतापूर्वक; येन--जिससे; दंशित:--सुरक्षित होकर; असुर-यूथपान्‌ --असुरों के मुखियों को

    विश्वरूप ने आगे कहा-हे इन्द्र! मैंने तुमसे नारायण के इस गुप्त कवच को कहसुनाया।

    तुम इस सुरक्षात्यक कवच को धारण करके असुरों के नायकों को जीतने में निश्चयही समर्थ होगे।

    एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा ।

    पदा वा संस्पृशेत्सद्य: साध्वसात्स विमुच्यते ॥

    ३६॥

    एतत्‌--यह; धारयमाण:-- धारण करने वाला व्यक्ति; तु--लेकिन; यम्‌ यम्‌ू--जिस किसी को; पश्यति--देखता है;चक्षुषा--अपनी आँखों से; पदा--अपने पैरों से; वा--अथवा; संस्पृशेत्‌--छूता है; सद्यः--तुरन्त; साध्वसात्‌--समस्तभय से; सः--वह; विमुच्यते--मुक्त हो जाता है।

    यदि कोई इस कवच को धारण करता है, तो वह जिस किसी को अपने नेत्रों से देखताहै, अथवा पैरों से छू देता है, वह तुरन्त ही उपर्युक्त समस्त संकटों से विमुक्त हो जाता है।

    न कुतश्चिद्धयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्‌ ।

    राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याध्यादिभ्यश्चव क्हिंचित्‌ ॥

    ३७॥

    न--नहीं; कुतश्चित्‌--कहीं से; भयम्‌-- भय; तस्थ--उसका; विद्याम्‌--यह रहस्यमय स्तोत्र; धारयत: --प्रयोग करते हुए;भवेत्‌--प्रकट हो; राज--सरकार से; दस्यु--चोर-उचक्कों से; ग्रह-आदिभ्य: -- असुरों आदि से; व्याधि-आदिभ्य:--रोगोंइत्यादि से; च-- भी; कह्िंचित्‌--किसी समय।

    नारायण-कवच नामक यह स्तोत्र नारायण के दिव्यरूप से सम्बद्ध सूक्ष्म ज्ञान से युक्तहै।

    जो इस स्तोत्र का प्रयोग करता है, वह सरकार, लुटेरों, दुष्ट असुरों या किसी प्रकार केरोग द्वारा न तो विचलित किया जाता है न ही सताया जाता है।

    इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन्द्रिज: ।

    योगधारणया स्वाड्रं जहौ स मरुधन्वनि ॥

    ३८॥

    इमाम्‌ू--यह; विद्याम्‌--स्तोत्र; पुरा-- प्राचीन काल में; कश्चित्‌--कोई; कौशिक: -- कौशिक; धारयन्‌-- प्रयोग करके;द्विज:--ब्राह्मण; योग-धारणया--योग बल से; स्व-अड्भरम्‌-- अपना शरीर; जहौ--त्याग दिया; सः--वह; मरू-धन्वनि--मरुस्थल में |

    हे देवेन्द्र! प्राचीन काल में कौशिक नाम के एक ब्राह्मण ने इस कवच का प्रयोग कियाऔर उसने अपने योगबल से मरु भूमि में जान बूझ कर अपना शरीर त्याग दिया।

    तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरिकदा ।

    ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतों यत्र द्विजक्षय: ॥

    ३९॥

    तस्य--उसके मृतशरीर के; उपरि--ऊपर; विमानेन--विमान से; गन्धर्व-पति:--गन्धर्व लोक के राजा चित्ररथ; एकदा--एक बार; ययौ--गया; चित्ररथ: --चित्ररथ; स्त्रीभि:--अनेक सुन्दर स्त्रियों द्वारा; वृत:--घिरा हुआ; यत्र--जहाँ; द्विज-क्षय:--ब्राह्मण कौशिक मरा था।

    एक बार अनेक सुन्दरियों से घिरा, गन्धर्वलोक का राजा चित्ररथ अपने विमान से उसस्थान के ऊपर से निकला, जहाँ वह ब्राह्मण मरा था और उसका मृत शरीर पड़ा हुआ था।

    गगनाज्ष्यपतत्सद्य: सविमानो हावाक्शिरा: ।

    स वालिखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः ।

    प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगातू ॥

    ४०॥

    गगनात्‌ू--आकाश से; न्यपतत्‌--गिरा; सद्यः--अचानक; स-विमान: --अपने विमान समेत; हि--निश्चय ही; अवाक्‌-शिरा:--नीचे की ओर सिर किये; सः--वह; वालिखिल्य--वालिखिल्य नामक मुनियों के; वचनात्‌--उपदेश से;अस्थीनि--सभी अस्थियाँ; आदाय--लाकर; विस्मित:--आश्चर्यचकित; प्रास्य--फेंक कर; प्राची-सरस्वत्याम्‌--पूर्व कीओर बहने वाली सरस्वती नदी में; स्नात्वा--उस नदी में नहाकर; धाम--धाम को; स्वम्‌-- अपने; अन्वगात्‌--लौट गया।

    अचानक चित्ररथ सिर के बल अपने विमान सहित नीचे गिरने पर विवश कर दियागया।

    उसे आश्चर्य हुआ।

    वालिखिल्य मुनियों ने उसे आदेश दिया कि उस ब्राह्मण कीअस्थियाँ वह निकट ही स्थित सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दे।

    उसे ऐसा ही करना पड़ा तथाअपने धाम लौटने के पूर्व नदी में स्नान करना पड़ा।

    श्रीशुक उबाचयडइदं श्रृणुयात्काले यो धारयति चाहत: ।

    त॑ नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतोी भयात्‌ ॥

    ४१॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; यः--जो कोई; इृदम्‌--यह; श्रूणुयात्‌--सुनेगा; काले--भय के समय;यः--जो कोई; धारयति--इस स्तोत्र का प्रयोग करता है; च--भी; आहतः-- श्रद्धा तथा आदर के साथ; तम्‌--उसको;नमस्यन्ति--नमस्कार करते हैं; भूतानि--सभी जीव; मुच्यते--छूट जाते हैं; सर्वतः--समस्त; भयात्‌--भयों से

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा, हे महाराज परीक्षित! जो कोई इस कवच का उपयोगकरता है अथवा इसके विषय में श्रद्धा तथा सम्मानपूर्वक श्रवण करता है, वह भौतिकसंसार की स्थितियों से उत्पन्न समस्त प्रकार के भयों से तुरन्त मुक्त हो जाता है और सभीजीवों द्वारा पूजा जाता है।

    एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतु: ।

    त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृथेउसुरानू ॥

    ४२॥

    एतामू--यह; विद्याम्‌--स्तोत्र; अधिगत:--प्राप्त; विश्वरूपात्‌-विश्वरूप ब्राह्मण से; शत-क्रतु:--स्वर्ग के राजा इन्द्र ने;त्रैलोक्य-लक्ष्मीमू--तीनों लोकों का समस्त ऐश्वर्य; बुभुजे-- भोग किया; विनिर्जित्य--जीतकर; मृधे--युद्ध में;असुरान्‌--सभी असुरों को

    एक सौ यज्ञों को करने वाले राजा इन्द्र ने इस रक्षा-स्तोत्र को विश्वरूप से प्राप्त किया।

    असुरों को जीत लेने के बाद उसने तीनों लोकों के सभी ऐश्वर्य का भोग किया।

    TO

    अध्याय नौ: राक्षस वृत्रासुर की उपस्थिति

    6.9तस्यासन्विश्वरूपस्य शिरांसि त्रीणि भारत ।

    सोमपीथं सुरापीथमन्नादमिति शुश्रुम ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; तस्थ--उसका; आसनू--थे; विश्वरूपस्थ--देवताओं के पुरोहितविश्वरूप को; शिरांसि--शिर; त्रीणि--तीन; भारत--हे महाराज परीक्षित; सोम-पीथम्‌--सोम पान के लिए; सुरा-पीथम्‌--मदिरा पान के लिए; अन्न-अदम्‌-खाने के लिए; इति--इस प्रकार; शुश्रुम--परम्परा प्रणाली से मैंने सुन रखाहै।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--देवताओं के पुरोहित विश्वरूप के तीन सिर थे।

    इनमें सेएक से वह सोमपान करता था, तो दूसरे से मदिरा पान और तीसरे से भोजन ग्रहण करताथा।

    हे राजा परीक्षित! ऐसा मैंने विद्वानों से सुना है।

    सवै बर्दिषि देवेभ्यो भागं प्रत्यक्षमुच्चकै: ।

    अददद्यस्य पितरो देवा: सप्रश्नयं नृप ॥

    २॥

    सः--वह ( विश्वरूप ); बै--निस्सन्देह; बर्हिषि--यज्ञ की अग्नि में; देवेभ्य:--विशिष्ट देवताओं के लिए; भागम्‌--उचितहिस्सा; प्रत्यक्षम्‌ू-- आँखों के सामने; उच्चकै:--मंत्रों के तेज उच्चारण से; अददत्‌--दिया गया; यस्य--जिसके; पितर: --पितृगण; देवा:--देवता; स-प्रश्रयम्‌--विनीत स्वर से; नृप--हे राजा परीक्षित।

    है महाराज परीक्षित! देवतागण विश्वरूप के पितापक्ष से सम्बन्धित थे, अतः विश्वरूप सबों के समक्ष अग्नि में घी की आहुति इन मंत्रों का उच्चारण करके दे रहा था--'इन्द्रायइदं स्वाहा ' ( 'यह राजा इन्द्र के लिए है' ) तथा 'इदम्‌ अग्नये' ( यह अग्नि देव के लिएहै )।

    वह मंत्र का उच्चारण उच्च स्वर से कर रहा था और प्रत्येक देवता को उसका उचितभाग प्रदान करता जा रहा था।

    स एव हि ददौ भागं परोक्षमसुरान्प्रति ।

    यजमानोवहद्धागं मातृस्नेहवशानुग: ॥

    ३॥

    सः--वह ( विश्वरूप ); एब--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; ददौ--प्रदान किया; भागम्‌--हिस्सा; परोक्षम्‌--देवताओं सेछिपाकर; असुरान्‌-- असुरगण; प्रति--को; यजमान:--यज्ञ करते हुए; अवहत्‌-- प्रदान किया; भागम्‌--हिस्सा; मातृ-स्नेह--अपनी माता के स्नेह वश; वश-अनुग:--बाध्य होकर

    वह यद्यपि देवताओं के नाम से यज्ञ की अग्नि में घी आहुति डाल रहा था, किन्तुदेवताओं के बिना जताये वह असुरों के नाम की भी आहुति डालता जाता था, क्‍योंकि वेउसकी माता के पक्ष के सम्बंधी थे।

    तद्देवहेलनं तस्य धर्मालीकं सुरेश्वर: ।

    आलक्ष्य तरसा भीतस्तच्छीर्षाण्यच्छिनद्रुषा ॥

    ४॥

    तत्‌--वह; देव-हेलनमू--देवताओं के प्रति अपराध; तस्य--उस ( विश्वरूप ) का; धर्म-अलीकम्‌ू--धर्म के नाम परधोखा; सुर-ई श्वरः --देवताओं का राजा; आलक्ष्य--देखकर; तरसा--शीघ्र; भीत:--डरा हुआ ( कि विश्वरूप केआशीर्वाद से असुर शक्ति प्राप्त कर लेंगे ); तत्‌--उसका ( विश्वरूप का ); शीर्षाणि--सिर; अच्छिनत्‌--काट दिया;रुषा--क्रोध से

    किन्तु एक बार स्वर्ग के राजा इन्द्र को पता चल गया कि विश्वरूप देवताओं को धोखादेकर असुरों की आहुतियाँ दे रहा है।

    अतः वह असुरों द्वारा पराजित किये जाने से अत्यधिक भयभीत हो उठा और अतीव क्रोध में उसने विश्वरूप के तीनों सिरों को उसके कंधों से अलगकर दिया।

    सोमपीथं तु यत्तस्य शिर आसीत्कपिश्जल: ।

    कलविड्जू: सुरापीथमन्नादं यत्स तित्तिरि: ॥

    ५॥

    सोम-पीथम्‌--सोमरस पीने वाले; तु--लेकिन; यत्‌--जो; तस्थ--उस ( विश्वरूप ) का; शिर:--सिर; आसीतू--हो गया;कपिझ्जल:--पपीहा; कलविड्डू: --गौरैया; सुरा-पीथम्‌--मदिरा पीने वाला; अन्न-अदम्‌--भोजन करने वाला; यत्‌--जो;सः--वह; तित्तिरि:--तीतर।

    तत्पश्चात्‌ सोमरस पीनेवाला सिर पपीहे में, सुरापान करने वाला सिर गौरैया में औरभोजन करने वाला सिर तीतर में बदल गया।

    ब्रह्महत्यामञ्जञलिना जग्राह यदपी श्वरः ।

    संवत्सरान्ते तदघं भूतानां स विशुद्धये ।

    भूम्यम्बुद्रमयोषिद्भ्यक्षतुर्धा व्यभजद्धरि: ॥

    ६॥

    ब्रह्म-हत्याम्‌--ब्राह्मण को मारने से लगने वाला पाप; अद्लिना--हाथ जोड़कर; जग्राह--स्वीकार कर लिया; यत्‌अपि--यद्यपि; ईश्वर:--अत्यन्त शक्तिमान; संवत्सर-अन्ते--एक वर्ष बाद; तत्‌ अधम्‌--वह पाप; भूतानाम्‌ू-- भौतिकतत्त्वों का; सः--वह; विशुद्धये-शुर्द्धि के लिए; भूमि--पृथ्वी के लिए; अम्बु--जल; द्रुम--वृक्ष; योषिद्भ्यः--तथास्त्रियों के लिए; चतुर्धा--चार भागों में; व्यभजत्‌--बाँट दिया; हरि: --राजा इन्द्र ने।

    इन्द्र इतना शक्तिशाली था कि यदि चाहता तो ब्रह्महत्या के पापफल को निरस्त करसकता था, किन्तु उसने हाथ जोड़ कर पछताते हुए पाप-भार को स्वीकार कर लिया।

    उसनेएक वर्ष तक यातना भोगी और तब अपनी शुद्धि के लिए हत्या के पाप को पृथ्वी, जल,वृक्ष तथा स्त्रियों में बाँट दिया।

    भूमिस्तुरीयं जग्राह खातपूरवरेण वे ।

    ईरिणं ब्रह्महत्याया रूपं भूमौ प्रहश्यते ॥

    ७॥

    भूमि:--पृथ्वी; तुरीयम्‌--चतुर्थाश; जग्राह--स्वीकार कर लिया; खात-पूर-गटड्टों को भरने का; वरेण--आशीर्वाद केकारण; बै--निस्सन्देह; ईरिणम्‌--मरुस्थल; ब्रह्म-हत्याया:--ब्राह्मण की हत्या से लगे पाप का; रूपम्‌ू--रूप; भूमौ--पृथ्वी पर; प्रहश्यते--दिखाई पड़ता है |

    पृथ्वी ने, राजा इन्द्र से बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं भी गड्ढे होंगे वे समयपर अपने आप भर जायेंगे, ब्रह्महत्या के पापों का चतुर्थाश स्वीकार कर लिया।

    उन पापों केकारण ही हमें पृथ्वी पर अनेक मरुस्थल दिखाई पढ़ते हैं।

    तुर्य छेदविरोहेण बरेण जगृहुर्द्रमा: ।

    तेषां निर्यासरूपेण ब्रह्महत्या प्रहश्यते ॥

    ८ ॥

    तुर्यमू--चतुर्थाश; छेद--काटे जाने पर; विरोहेण--फिर से बढ़ने का; वरेण--आशीर्वाद से; जगृहुः--स्वीकार करलिया; द्वुमा:--वृक्षों ने; तेषामू--उनका; निर्यास-रूपेण--वृज्षों से निकलने वाले द्रव ( गोंद ) से; ब्रह्म-हत्या--ब्राह्मण कोमारने का पाप; प्रहश्यते--दिखाई पड़ता है।

    वृक्षों ने, इन्द्र से बदले में यह वरदान लिया कि काटे जाने पर भी उनकी शाखाएँ फिरसे उग आयेंगी, ब्रह्महत्या के पापफल का चतुर्थाश ले लिया।

    ये पापफल वृक्षों से निकलनेवाले रस के रूप में दिखाई पड़ते हैं ( इसलिए इस रस को पीना वर्जित है )।

    शश्वत्कामवरेणांहस्तुरीयं जगृहुः स्त्रियः ।

    रजोरूपेण तास्वंहो मासि मासि प्रहश्यते ॥

    ९॥

    शश्वत्‌--निरन्तर; काम--कामेच्छा के; वरेण--वर से; अंह:--ब्रह्महत्या पाप; तुरीयम्‌--चुतर्थाश; जगृहु:--स्वीकार करलिया; स्त्रियः--स्त्रियाँ; रज:-रूपेण--रजोकाल के रूप में; तासु--उनमें; अंह:ः --पाप बन्धन; मासि मासि-प्रत्येकमहीने; प्रहश्यते--दिखाई पड़ता है|

    स्त्रियों ने, इन्द्र से बदले में यह वरदान प्राप्त करके कि वे अपनी काम-वासनाओं को,जब तक वे भ्रूण के लिए हानिकर न हों, गर्भकाल में भी निरन्तर पूरी कर सकेंगी, पापफलों का चतुर्थाश स्वीकार कर लिया।

    फलस्वरूप स्त्रियों में प्रत्येक मास रजोदर्शन होता है।

    द्रव्यभूयोवरेणापस्तुरीयं जगृहुर्मलम्‌ ।

    तासु बुह्दुदफेनाभ्यां दृष्टे तद्धरति क्षिपन्‌ ॥

    १०॥

    द्रव्य--अन्य वस्तुएँ; भूय:--बढ़ने को; वरेण--वरण से; आप:--जल; तुरीयम्‌--चतुर्थाश; जगृहुः --स्वीकार कर लिया;मलम्‌ू--पाप; तासु--जल में; बुद्दुद-फेनाभ्याम्‌ू--बुलबुलों तथा फेन से; दृष्टमू--हश्य; तत्‌--वह; हरति-- भरता है;क्षिपनू--फेंककर, हटाकर।

    जल ने इन्द्र से बदले में यह वर प्राप्त करके कि किसी अन्य वस्तु में जल मिलाने सेउसका आयतन बढ़ जायेगा, पापफलों का चतुर्थाश स्वीकार कर लिया।

    इसीलिए जल मेंबुलबुले तथा फेन उठते हैं।

    मनुष्य को चाहिए कि इन्हें हटाकर के ही जल भरे।

    हतपुत्रस्ततस्त्वष्टा जुहावेन्द्राय शत्रवे ।

    इन्द्रशत्रो विवर्धस्व मा चिरं जहि विद्विषम्‌ ॥

    ११॥

    हत-पुत्र:--जिसका पुत्र मर चुका है; तत:ः--तत्पश्चात्‌; त्वष्टा--त्वष्टा ने; जुहाव--यज्ञ किया; इन्द्राय--इन्द्र के लिए;शत्रवे--एक शत्रु उत्पन्न करने के लिए; इन्द्र-शत्रो--हे इन्द्र के शत्रु; विवर्धस्व--बढ़ो; मा--मत; चिरम्‌--दीर्घकाल केबाद; जहि--मारो; विद्विषम्‌ू-- अपना शत्रु

    विश्वरूप के वध के पश्चात्‌ उसके पिता त्वष्टा ने इन्द्र को मारने के लिए अनुष्ठान किये।

    उसने अग्नि में यह उच्चारण करके आहुति डाली, 'हे इन्द्र के शत्रु! तुम्हारी अभिवृद्धि हो,तुम अविलम्ब अपने शत्रु का वध करो।

    'अथान्वाहार्यपचनादुत्थितो घोरदर्शन:ः ।

    कृतान्त इब लोकानां युगान्तसमये यथा ॥

    १२॥

    अथ--तदनन्तर; अन्वाहार्य-पचनात्‌--अन्वाहार्य नामक अग्नि से; उत्थितः--निकला; घोर-दर्शन:--अत्यन्त भयानकलगने वाला; कृतान्त:--साक्षात्‌ प्रलय; इब--सहृश; लोकानाम्‌--समस्त लोकों का; युग-अन्त--कल्पान्त; समये--समय पर; यथा--जिस प्रकार।

    तत्पश्चात्‌ अन्वाहार्य नामक यज्ञ अग्नि के दक्षिणी कोने से एक भयावना व्यक्ति प्रकटहुआ जो युगान्त में समग्र ब्रह्माण्ड का विनाश करने वाले के समान प्रतीत हो रहा था।

    विष्वग्विवर्धमानं तमिषुमात्र दिने दिने ।

    दग्धशैलप्रतीकाशं सन्ध्याभ्रानीकवर्चसम्‌ ॥

    १३॥

    तप्तताग्रशिखाशमश्रुं मध्याह्वार्को ग्रलोचनम्‌ ॥

    १४॥

    देदीप्यमाने त्रिशिखे शूल आरोप्य रोदसी ।

    नृत्यन्तमुन्नदन्‍्तं च चालयन्तं पदा महीम्‌ ॥

    १५॥

    दरीगम्भीरवक्तरेण पिबता च नभस्तलम्‌ ।

    लिहता जिहयर्श्नाणि ग्रसता भुवनत्रयम्‌ ॥

    १६॥

    महता रौद्रदंष्टेण जृम्भमाणं मुहुर्मुहु: ।

    वित्रस्ता दुद्ुवुर्लोका वीक्ष्य सर्वे दिशो दश ॥

    १७॥

    विष्वक्‌--चारों ओर; विवर्धमानम्‌--बढ़ता हुआ; तम्‌--उसको; इषु-मात्रमू--बाण की उड़ान; दिने दिने-- प्रतिदिन;दग्ध--जला हुआ; शैल--पर्वत; प्रतीकाशम्‌--सहश; सन्ध्या--शाम को; अभ्र-अनीक --बादलों के समूह की तरह;वर्चसम्‌ू--तेजमय; तप्त--पिघला हुआ; ताप्र--ताँबे के समान; शिखा--बाल; इमश्रुम्‌--मूछें तथा दाढ़ी; मध्याह--दोपहर; अर्क--सूर्य के समान; उग्र-लोचनम्‌--प्रचण्ड नेत्र वाला; देदीप्यमाने--प्रकाशमान; त्रि-शिखे--तीन नोंक वाले;शूले--अपने भाले में; आरोप्य--रखकर; रोदसी--पृथ्वी तथा स्वर्ग; नृत्यन्तम्‌--नाचते हुए; उन्नदन्तम्‌--उच्चस्वर करतेहुए; च--तथा; चालयन्तम्‌--चलते हुए; पदा--अपने पाँव से; महीम्‌--पृथ्वी को; दरी-गम्भीर--गुफा के समान गहरी;वक्‍्टेण--मुख से; पिबता--पीता हुआ; च-- भी; नभस्तलम्‌--आकाश को; लिहता--चाटते हुए; जिहया--जीभ से;ऋक्षाणि--तारों को; ग्रसता--निगल कर; भुवन-त्रयम्‌--तीनों लोकों को; महता--महान्‌; रौद्र-दंष्टेण-- भयानक दाँतोंसे; जृम्भभाणम्‌--जम्हाई लेते हुए; मुहुः मुहुः--पुनः पुनः; वित्रस्ता:--भयानक; दुद्ग॒वु:;--दौड़ा; लोका: --लोग; वीक्ष्य--देखकर; सर्वे--समस्त; दिश: दश--दशों दिशाओं में |

    उस असुर का शरीर चारों दिशाओं में छोड़े हुए बाण के समान प्रतिदिन बढ़ने लगा।

    वहलम्बा और काला था, मानो कोई जला हुआ पर्वत हो।

    वह संध्याकालीन बादलों के समूहकी भाँति दीप्ति से युक्त था।

    असुर के शरीर के बाल तथा उसकी दाढ़ी-मूछें पिघले ताँबे केरंग की थीं।

    उसके नेत्र मध्यान्हकालीन सूर्य की भाँति भेदने वाले थे।

    वह दुर्जय था औरऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अपने प्रज्वलित त्रिशूल पर तीनों लोकों को धारण किये हो।

    उच्चस्वर करके उसके नाचने और गाने से सारी पृथ्वी हिल उठी मानो भूकम्प आया हो।

    वहपुनः पुनः जम्हाई ले रहा था, मानो कन्दरा के समान अपने विशाल मुख में वह सारे आकाशको निगल जाना चाहत हो।

    ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह आकाश के सभी तारों कोअपनी जीभ से चाट रहा हो और अपने लम्बे पैने दाँतों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को खाने जा रहाहो।

    उस विराट असुर को देखकर सभी व्यक्ति डर के मारे इधर-उधर चारों दिशाओं में भागनेलगे।

    येनावृता इमे लोकास्तपसा त्वाष्टरमूर्तिना ।

    स वै वृत्र इति प्रोक्त: पाप: परमदारुण: ॥

    १८॥

    येन--जिसके द्वारा; आवृता:--प्रच्छून्न; इमे--ये सब; लोका:--लोक; तपसा--तपस्या से; त्वाष्ट-मूर्तिना--त्वष्टा के पुत्रके रूप में; सः--वह; बै--निस्सन्देह; वृत्र:--वृत्र; इति--इस प्रकार; प्रोक्त:--कहलाया; पाप:--साक्षात्‌ पाप; परम-दारुण:--अत्यन्त भयानक

    उस अत्यन्त भयानक असुर ने, जो वास्तव में त्वष्टा का ही पुत्र था, अपने तप बल सेसभी लोकों को आच्छादित कर लिया था।

    इसलिए वह वृत्र अर्थात्‌ प्रत्येक वस्तु कोआच्छादित करने वाला कहलाया।

    त॑ निजध्नुरभिद्गुत्य सगणा विबुधर्षभा: ।

    स्वैः स्वैर्दिव्यास्त्रशस्त्रौधै: सोग्रसत्तानि कृत्सनशः ॥

    १९॥

    तम्‌--उसको; निजषघ्नु:--टूट पड़े; अभिद्गुत्य--दौड़कर; स-गणा: --सैनिकों सहित; विबुध-ऋषभा:--सभी बड़े-बड़ेदेवता; स्वै: स्वै:-- अपने -अपने; दिव्य--दिव्य; अस्त्र-- धनुष-बाण; शस्त्र-ओघै:--विभिन्न प्रकार के आयुध से युक्त;सः--वह ( वृत्र ); अग्रसत्‌ू--निगल गया; तानि--उन ( आयुधों ) को; कृत्सनश:--एकसाथ |

    इन्द्र इत्यादि सभी देवता अपने सैनिकों सहित उस असुर पर टूट पड़े।

    वे अपने दिव्यधनुष-बाणों तथा अन्य हथियारों से उसे मारने लगे, किन्तु वृत्रासुर उनके सभी हथियारनिगलता गया।

    ततस्ते विस्मिता: सर्वे विषण्णा ग्रस्ततेजस: ।

    प्रत्यज्ञमादिपुरुषमुपतस्थु: समाहिता: ॥

    २०॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; ते--वे ( देवता ); विस्मिता:--आश्चर्यचकित; सर्वे --सभी; विषण्णा: --अत्यन्त दुखी; ग्रस्त-तेजस: --अपनी शक्ति खोकर; प्रत्यज्ञम्‌--परमात्मा को; आदि-पुरुषम्‌--आदि पुरुष की; उपतस्थु: --प्रार्थना की; समाहिता: --सभी एकत्र होकर।

    उस असुर की शक्ति देखकर सभी देवता अत्यन्त आश्चर्यचकित तथा निराश हो गये औरउनकी सारी शक्ति जाती रही।

    अतः वे सभी परमात्मा अर्थात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌नारायण की पूजा करके उन्हें प्रसन्न करने के निमित्त एकत्र हुए।

    श्रीदेवा ऊचुःवाय्वम्बराग्न्यप्क्षितयस्त्रिलोकाब्रह्मादयो ये वयमुद्ठिजन्तः ।

    हराम यस्मै बलिमन्तकोसौबिभेति यस्मादरणं ततो न: ॥

    २१॥

    श्री-देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; वायु--वायु; अम्बर--आकाश; अग्नि--अग्नि; अपू--जल ; क्षितय: --तथा पृथ्वीसे निर्मित; त्रि-लोकाः--तीनों लोक; ब्रह्य-आदय:--ब्रह्मा इत्यादि; ये--जो; वयम्‌--हम सब; उद्विजन्तः--अत्यन्तउद्विग्न; हराम--प्रदान करते हैं; यस्मै--जिसको; बलिम्‌--भेंट; अन्तक:--संहर्ता, मृत्यु; असौ--वह; बिभेति--डरता है;यस्मात्‌--जिससे; अरणम्‌--शरण; ततः--इसलिए; न: -- हमारा |

    देवताओं ने कहा--तीनों लोकों की सृष्टि पंचतत्त्वों--क्षिति, जल, पावक, गगन तथासमीर--से हुईं हैं, जिनको ब्रह्मा आदि विभिन्न देवता अपने वश में रखते हैं।

    हम काल सेअत्यन्त भयभीत है कि वह हमारे अस्तित्व का अन्त कर देगा, इसलिए वह जैसा चाहता हैहम वैसा कार्य करके उसको अपनी भेंट चढ़ाते हैं।

    किन्तु काल श्रीभगवान्‌ से स्वयं डरताहै।

    अत: हम उसी एकमात्र परमेश्वर की आराधना करें जो हमारी पूरी तरह से रक्षा कर सकताहै।

    अविस्तमितं त॑ परिपूर्णकामंस्वेनेव लाभेन सम॑ प्रशान्तम्‌ ।

    विनोपसर्पत्यपरं हि बालिशःश्वलाडुलेनातितितर्ति सिन्धुम्‌ ॥

    २२॥

    अविस्मितमू--जो कभी विस्मित नहीं होता; तम्‌ू--उस ( ईश्वर ) को; परिपूर्ण-कामम्‌--परम संतुष्ट; स्वेन--अपने आप से;एव--निस्सन्देह; लाभेन--लाभ; समम्‌--सम- दृष्टि; प्रशान्तम्‌-- अत्यन्त स्थिर; विना--बिना; उपसर्पति--पास जाता है;अपरम्‌ू--अन्य; हि--निस्सन्देह; बालिश:--मूढ़; श्व--कुत्ते की; लाडुलेन--पूँछ से; अतितितर्ति--पार करना चाहता है;सिन्धुम्‌-समुद्र को |

    भगवान्‌ समस्त सांसारिक कल्पना से रहित और सदैव विस्मयविहीन हैं, वे सदेवप्रसन्नचित्त एवं अपनी स्वरूप-सिद्धि से परम संतुष्ट रहने वाले हैं।

    उनकी कोई सांसारिकउपाधि नहीं होती, अतः वे स्थिर एवं विरक्त रहते हैं।

    वही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ सबों केएकमात्र आश्रय हैं।

    अतः जो मनुष्य किसी अन्य से अपनी रक्षा की कामना करता है, वहअवश्य ही बड़ा मूर्ख है और कुत्ते की पूँछ पकड़ कर समुद्र को पार करना चाहता है।

    यस्योरुश्रुद्धे जगतीं स्वनावंमनुर्यथाबध्य ततार दुर्गम्‌ ।

    स एव नस्त्वाप्टभयाहुरन्तात्‌त्राताअितान्वारिचरोपि नूनम्‌ ॥

    २३॥

    यस्य--जिसके; उरु--अत्यधिक बलवान्‌ तथा ऊँचे; श्रृड़्े--सींग पर; जगतीम्‌--संसार के रूप में; स्व-नावम्‌--अपनीनाव; मनु:--मनु, राजा सत्यव्रत; यथा--जिस प्रकार; आबध्य--बाँधकर; ततार--पार किया; दुर्गम्‌--दुर्लघ्य; सः--वह( श्रीभगवान्‌ ); एबव--निश्चय ही; न:ः--हमको; त्वाष्ट-भयात्‌--्वष्टा के पुत्र के भय से; दुरन्तात्‌ू--अन्तहीन; त्राता--रक्षक; आश्रितान्‌--( हम जैसे ) आश्रितों को; वारि-चर: अपि--यद्यपि मछली का रूप धारण करके; नूनम्‌--निस्सन्देह

    पहले राजा सत्यव्रत नामक मनु ने मत्स्य अवतार के सींग में समग्र ब्रह्माण्ड रूपी छोटीनौका को बाँधकर आत्मरक्षा की थी।

    उनकी कृपा से मनु ने बाढ़ के महान्‌ संकट से अपनेको बचाया था।

    वे ही मत्स्यावतार त्वष्टा के पुत्र से उत्पन्न इस गम्भीर संकट से हमारी रक्षाकरें।

    पुरा स्वयम्भूरपि संयमाम्भ-स्युदीर्णवातोर्मिरवै: कराले ।

    एको<रविन्दात्पतितस्ततारतस्माद्धयाद्येन स नोउस्तु पार: ॥

    २४॥

    पुरा--पहले ( सृष्टि के समय ); स्वयम्भू: --ब्रह्माजी; अपि-- भी; संयम-अम्भसि--बाढ़ के जल में; उदीर्ण--अत्युच्च;वबात--वायु के; ऊर्मि--तथा लहरों के; रवैः --शोर से; कराले--अत्यन्त भयावना; एक:--अकेले; अरविन्दातू--कमलआसन से; पतित:--गिरा हुआ; ततार--बच गये; तस्मात्‌--उस; भयात्‌-- भयानक स्थिति से; येन--जिसके ( ईश्वर )द्वारा; सः--वह; न:ः--हम सबका; अस्तु--हो; पार:--मोक्ष, उद्धार |

    सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचणड वायु से बाढ़ के जल में भयानक लहरें उठने लगीं।

    इनसे ऐसाभयावना शोर हुआ कि ब्रह्माजी अपने कमल-आसन से प्रलय जल में प्रायः गिर ही पड़े,किन्तु भगवान्‌ की सहायता से वे बच गये।

    उसी प्रकार हम भी भगवान्‌ से इस भयावहस्थिति से अपनी रक्षा की आशा करते हैं।

    य एक ईशो निजमायया नःससर्ज येनानुसृजाम विश्वम्‌ ।

    बयं न यस्यापि पुर: समीहतःपश्याम लिड्डं पृथगीशमानिन: ॥

    २५॥

    यः--वह जो; एक: -- एक; ईशः -- नियन्ता; निज-मायया-- अपनी दिव्य शक्ति से; नः--हमको; ससर्ज--उत्पन्न किया;येन--जिसके द्वारा ( जिनकी कृपा से ); अनुसूजाम--हम भी सृष्टि करते हैं; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; वयम्‌--हम; न--नहीं;यस्य--जिसका; अपि--यद्यपि; पुरः--हमारे समक्ष; समीहत:--कार्य करने वाले को; पश्याम--देखते; लिड्रमू--रूप;पृथक्‌-भिन्न; ईश--नियन्ता रूप में; मानिन:--अपने बारे में सोचते हुए |

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ जिन्होंने अपनी बहिरंगा शक्ति से हमारी सृष्टि की और जिनकीकृपा से हम इस विश्व की सृष्टि का विस्तार करते हैं, वे निरन्तर हमारे समक्ष परमात्मा रूप मेंविद्यमान हैं, किन्तु हम उनके रूप को नहीं देख पाते।

    हम इसीलिए देखने में असमर्थ हैं,क्योंकि हम सभी अपने आपको पृथक्‌ तथा स्वतंत्र ईश्वर के रूप में मानते हैं।

    यो नः सपलैर्भूशमर्चमानान्‌देवर्षितिर्यडनूषु नित्य एवं ।

    कृतावतारस्तनुभिः स्वमाययाकृत्वात्मसात्पाति युगे युगे च ॥

    २६॥

    तमेव देव॑ वयमात्मदैवतंपरं प्रधान पुरुषं विश्वमन्यम्‌ ।

    ब्रजाम सर्वे शरणं शरण्यंस्वानां स नो धास्यति शं महात्मा ॥

    २७॥

    यः--जो; नः--हमको; सपत्नैः--हमारे शत्रुओं, असुरों से; भूशम्‌--प्राय:; अर्द्यमानानू--पीड़ित; देव--देवताओं केबीच; ऋषि--साधु पुरुष; तिर्यक्‌--पशु; नूषु--तथा मनुष्य; नित्य:--सदैव; एब--अवश्य; कृत-अवतार: -- अवतार रुपमें प्रकट होते हैं; तनुभि:--विभिन्न रुपों में; स्व-मायया--अपनी अन्तरंगा शक्ति से; कृत्वा आत्मसात्‌--अपने को उनकाअत्वन्त प्रिय मानकर; पाति--रक्षा करता है; युगे युगे--प्रत्येक कल्प ( युग ) में; च--तथा; तम्‌--उसको; एव--निस्सन्देह; देवम्‌--परमे श्वर; वयम्‌--हम सभी; आत्म-दैवतम्‌--समस्त जीवात्माओं के स्वामी; परम्‌--दिव्य; प्रधानम्‌--सम्पूर्ण भौतिक शक्ति के मूल कारण; पुरुषम्‌--परम भोक्ता; विश्वम्‌ू--जिसकी शक्ति से यह ब्रह्माण्ड बना; अन्यम्‌--पृथक्‌ स्थित; ब्रजाम--हम चलें; सर्वे--सभी; शरणम्‌--शरण; शरण्यम्‌--शरण के उपुयक्त; स्वानाम्‌ू--अपने भक्तों को;सः--वह; नः--हमको; धास्यति--प्रदान करेगा; शम्‌--कल्याण; महात्मा--परमात्मा |

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अपनी अचिन्त्य अन्तरंगा शक्ति से अनेक दिव्य शरीरों में विस्तारकरते हैं, यथा देवताओं की शक्ति के अवतार वामनदेव, ऋषियों के अवतार परशुराम,पशुओं के अवतार नरसिंह देव एवं बराह और जलचरों के अवतार मत्स्य तथा कूर्म।

    वे सभीप्रकार की जीवात्माओं के बीच विभिन्न दिव्य देह धारण करते हैं और मनुष्यों के बीचविशेष रूप से भगवान्‌ कृष्ण तथा राम के रुप में प्रकट होते हैं।

    अपनी अहैतुकी कृपा से वेअसुरों द्वारा सदा सताये गये देवताओं की रक्षा करते हैं।

    वे समस्त जीवात्माओं के पूज्यश्रीविग्रह हैं।

    वे परम कारण हैं और स्त्री तथा पुरुष की सृजन शक्तियों के रूप में प्रकट होतेहैं।

    यद्यपि वे इस ब्रह्माण्ड से पृथक्‌ हैं, वे विराट रूप में विद्यमान रहते हैं।

    अतः अपनीइसभयभीत अवस्था में हमें चाहिए कि उनकी शरण ग्रहण करें क्योंकि हमें विश्वास है किपरमात्मा हमें अपना संरक्षण प्रदान करेंगे।

    श्रीशुक उबाचइति तेषां महाराज सुराणामुपतिष्ठताम्‌ ।

    प्रतीच्यां दिश्यभूदावि: शद्भुच्क्रगदाधर: ॥

    २८॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; तेषामू--उनका; महाराज--हे राजन्‌; सुराणाम्‌--देवताओं का; उपतिष्ठताम्‌-- प्रार्थना करते हुए; प्रतीच्यामू-- अन्तःकरण में; दिशि--दिशा में; अभूत्‌--हो गया; आवि: --इृष्टिगोचर; शट्बगु-चक्र-गदा-धर:--दिव्यायु

    ध्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजन्‌! जब समस्त देवताओं ने उनकी प्रार्थना की तो श्रीभगवान्‌ हरि शंख, चक्र तथा गदा धारण किये हुए पहले उनके अन्तःकरण में और तबउनके सम्मुख प्रकट हुए।

    आत्मतुल्यै: घोडशभिर्विना श्रीवत्सकौस्तुभौ ।

    पर्युपासितमुन्निद्रशरदम्बुरुहेक्षणम्‌ ॥

    २९॥

    इृष्ठा तमवनौ सर्व ईक्षणाह्नादविक्लवा: ।

    दण्डवत्पतिता राजज्छनैरुत्थाय तुष्ठुवु: ॥

    ३०॥

    आत्म-तुल्यैः --अपने समान; षोडशभि: --सोलहों ( पार्षदों ) से; विना--रहित; श्रीवत्स-कौस्तुभौ-- श्रीवत्स चिह्न तथाकौस्तुभ-मणि: ; पर्युपासितम्‌--सभी दिशाओं से सेवित; उन्निद्र--उनींदा; शरत्‌ू--शरद्‌ ऋतु का; अम्बुरुह--कमल केसमान; ईक्षणम्‌--नेत्र युक्त; दृघ्टा--देखकर; तम्‌--उस ( परमेश्वर, नारायण ) को; अवनौ-- भूमि पर; सर्वे--वे सभी; ईक्षण--देखने से; आह्ाद--प्रसन्नतापूर्वक ; विक्लवा:--विकल होकर; दण्ड-वत्‌--डण्डे के समान; पतिता:--गिर पड़े;राजनू--हे राजा; शनै:--धीरे-धीरे; उत्थाय--उठ कर; तुष्ठवु:--प्रार्थना की ॥

    श्रीभगवान्‌ को घेरे हुए उनके सोलह पार्षद उनकी सेवा कर रहे थे।

    वे आभूषणों सेअलंकृत थे और भगवान्‌ के ही समान लग रहे थे, किन्तु श्रीवत्स चिन्ह तथा कौस्तुभमणि सेरहित थे।

    हे राजन्‌! जब देवताओं ने उस मुद्रा में शरत्कालीन कमल की पंखड़ियों के समाननेत्रों वाले स्मित हास से युक्त श्रीभगवान्‌ को देखा तो बे प्रसन्नता से अभिभूत हो गये औरउन्होंने तुरन्त पृथ्वी पर गिर कर दण्डवत्‌ प्रणाम किया।

    फिर वे धीरे-धीरे उठे और अपनीस्तुतियों द्वारा उन्होंने भगवान्‌ को प्रसन्न किया।

    श्रीदेवा ऊचुःनमस्ते यज्ञवीर्याय वयसे उत ते नमः ।

    नमस्ते हास्तचक्राय नमः सुपुरुहूतये ॥

    ३१॥

    श्री-देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; नम:--नमस्कार; ते--आपको; यज्ञ-वीर्याय--यज्ञों के फलदाता श्रीभगवान्‌ को;वयसे--काल, जो यज्ञों के फलों का अन्त करने वाला है; उत--यद्यपि; ते--आपको; नम:--नमस्कार; नमः--नमस्कार;ते--आपको; हि--निस्सन्देह; अस्त-चक्राय--जो अपना चक्र चलाता है; नम:--नमस्कार; सुपुरु-हूतये -- अनेक प्रकारके दिव्य नामों से युक्तदेवताओं ने कहा--हे भगवन्‌! आप यज्ञ फल को देने में समर्थ हैं।

    आप ही वह कालहैं, जो इन फलों को कालान्तर में नष्ट कर देता है।

    आप असुरों को मारने के लिए चक्र कोचलाते हैं।

    हे अनेक नामधारण करनेवाले भगवान्‌! हम लोग आपको सादर नमस्कार करतेहैं।

    चयत्ते गतीनां तिसृणामीशितु: परमं पदम्‌ ।

    नार्वाचीनो विसर्गस्य धातर्वेदितुमहति ॥

    ३२॥

    यत्‌--जो; ते--तुम्हारी; गतीनाम्‌ तिसणाम्‌--तीन प्रकार के गन्तव्य ( स्वर्ग लोक, मर्त्य लोक तथा नरक ); ईशितु:--नियामक; परमम्‌ पदम्‌--परम धाम, वैकुण्ठलोक; न--नहीं ; अर्वाचीन:--बाद में आने वाला पुरुष; विसर्गस्य--सृष्टि;धातः--हे परम नियामक; वेदितुम्‌--जानने हेतु; अहति--सक्षम है

    है परम नियामक! आप तीनों गन्तव्यों [ स्वर्ग लोक में पहुँचना, मनुष्य के रूप में जन्मतथा नरक में यातना को वश में रखने वाले हैं, फिर भी आपका परम धाम वैकुण्ठलोकहै।

    चूँकि आपके द्वारा इस दृश्य जगत की उत्पत्ति के बाद हम प्रकट हुए हैं, अतः हम आपकेकार्यकलापों को समझने में असमर्थ हैं।

    अतः हमारे पास आपको अर्पित करने के लिएनमस्कार करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

    नमस्तेस्तु भगवन्नारायण वासुदेवादिपुरुष महापुरुष महानुभाव परममड्ल परमकल्याणपरमकारुणिक केवल जगदाधार लोकैकनाथ सर्वेश्वर लक्ष्मीनाथ परमहंसपरिव्राजकै:परमेणात्मयोगसमाधिना परिभावितपरिस्फुटपारमहंस्यधर्मेणोद्धाटिततम:कपाठटद्वारे चित्तेडपावृतआत्मलोके स्वयमुपलब्धनिजसुखानुभवो भवान्‌ ॥

    ३३॥

    नम: -- नमस्कार; ते--आपको; अस्तु--हो; भगवन्‌--हे भगवन्‌; नारायण--समस्त जीवात्माओं के वास,नारायण; वासुदेव-- भगवान्‌ वासुदेव, श्रीकृष्ण; आदि-पुरुष--आदि पुरुष; महा-पुरुष--महा पुरुष; महा-अनुभाव--परम ऐ श्वर्यवान्‌; परम-मड्गल--परम शुभ; परम-कल्याण--परम आशीर्वाद; परम-कारुणिक--परम करुणामय(दयालु ); केवल--परिवर्तनरहित; जगत्‌-आधार--हृश्य जगत के अवलम्बन्‌; लोक-एक-नाथ--समस्त लोकों केएकमात्र स्वामी; सर्व-ईश्वर--परम नियामक; लक्ष्मी-नाथ-- भाग्य की देवी के पति; परमहंस-परिव्राजकै:--समस्त संसारमें भ्रमण करने वाले सर्वोच्च संन्यासी के द्वारा; परमेण-- अत्यन्त; आत्म-योग-समाधिना-- भक्तियोग में मग्न;परिभावित--अत्यन्त शुद्ध; परिस्फुट--तथा पूर्ण प्रकट; पारमहंस्य-धर्मेण-- भक्ति की दिव्य विधि को सम्पन्न करके;उद्धाटित--खोला हुआ; तम:--अज्ञान का; कपाट--जिसमें किवाड़; द्वारे--द्वार पर स्थित; चित्ते--मन में; अपावृते--कल्मषहीन; आत्म-लोके -- आत्म जगत में ; स्वयम्‌--अपने आप; उपलब्ध-- अनुभव करके; निज--स्वयं के, अपने;सुख-अनुभव:--सुख का अनुभव; भवान्‌ू--आप |

    हे भगवन्‌, हे नारायण, हे वासुदेव, हे आदि पुरुष, परम अनुभव, साक्षात्‌ मंगल! हे परमवरदान स्वरूप अत्यन्त कृपालु तथा अपरिवर्तनीय! हे हश्य जगत के आधार, हे समस्त लोकोंतथा प्रत्येक पदार्थ के स्वामी तथा लक्ष्मी देवी के पति! आपका साक्षात्कार श्रेष्ठ संन्‍्यासी हीकर पाते हैं, जो भक्तियोग में पूर्णतया समाधिमग्न होकर सारे विश्व में कृष्णभावनामृत काउपदेश देते हैं।

    वे अपने ध्यान को आप में ही केन्द्रीभूत रखते हैं, अतः अपने शुद्धअन्तःकरण में आपके स्वरूप को ग्रहण करते हैं।

    जब उनके हृदयों का अंधकार पूर्णतयाहट जाता है और आपका साक्षात्कार होता है तब उन्हें आपके दिव्य स्वरूप का दिव्य आनन्दप्राप्त होता है।

    ऐसे व्यक्तियों के सिवाय और कोई आप का अनुभव नहीं कर पाता, अत: हमआपको सादर नमस्कार करते हैं।

    दुरवबोध इव तवायं विहारयोगो यदशरणोशरीर इदमनवेक्षितास्मत्समवाय आत्मनैवाविक्रियमाणेनसगुणमगुणः सृजसि पासि हरसि ॥

    ३४॥

    दुरवबोध: --दुर्बोध; इब--अत्यन्त; तब--आपका; अयम्‌--यह; विहार-योग:--सृष्टि, पालन तथा संहार की लीलाओं मेंव्यस्तता; यत्‌ू--जो; अशरण: --किसी अन्य पर आश्रित न होना; अशरीर:ः --शरीररहित; इृदम्‌--यह; अनवेक्षित--बिनाप्रतीक्षा किये; अस्मत्‌--हम सबसे; समवाय:--सहयोग; आत्मना--आपके द्वारा; एब--निस्सन्देह; अविक्रियमाणेन--बिना परिवर्तित हुए; स-गुणम्‌-प्रकृति के तीन गुण; अगुण:--ऐसे भौतिक गुणों से दिव्य; सृजसि--आप सृष्टि करते हैं;पासि--पालन करते हैं; हरसि--संहार करते हैं।

    हे भगवन्‌! आपको किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं है।

    भौतिक शरीर से रहित होनेपर भी आपको हमारे सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती।

    चूँकि आप इस दृश्य जगत के कारणहैं और अपरिवर्तित रूप में ही इसके भौतिक अवयवों की पूर्ति करते हैं, अतः आप स्वतःइसकी सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं।

    तो भी भौतिक कार्यों में व्यस्त प्रतीत होते हुए भीआप समस्त भौतिक गुणों से परे हैं।

    अतः आपके दिव्य कार्य कलापों को समझ पानाकठिन है।

    अथ तत्र भवान्कि देवदत्तवदिह गुणविसर्गपतित: पारतन्येण स्वकृतकुशलाकुशलंफफलमुपाददात्याहोस्विदात्माराम उपशमशील: समझसदर्शन उदास्त इति ह वाव न विदामः ॥

    ३५॥

    अथ--अत:; तत्र--उसमें; भवान्‌--आप; किम्‌-- क्या; देव-दत्त-वत्‌--अपने कर्मफल से अधीन सामान्य मनुष्य कीभाँति; हह--इस भौतिक जगत में; गुण-विसर्ग-पतित:-- भौतिक प्रकृति के गुणों से बाध्य होकर भौतिक शरीर मेंगिरकर; पारतन््येण--काल, स्थान, कर्म तथा प्रकृति के आश्रित होने से; स्व-कृत--अपने से किया गया; कुशल--शुभ;अकुशलम्‌--अशुभ; फलम्‌--कर्मफल; उपाददाति--स्वीकार करता है; आहोस्वित्‌ू--अथवा; आत्माराम:--पूर्णतयाआत्म-तृष्ट; उपशम-शील:--आत्मसंयमी; समझस-दर्शन:--पूर्ण आध्यात्मिक शक्तियों से विहीन न होकर; उदास्ते--साक्षी रूप में उदासीन रहता है; इति--इस प्रकार; ह वाव--निश्चय ही; न विदाम:--हम समझ नहीं पाते |

    ये ही हमारी जिज्ञासाएँ हैं।

    सामान्य बद्धजीव भौतिक नियमों के अधीन है और उसेअपने कर्मों का फल मिलता है।

    क्या आप भौतिक गुणों से उत्पन्न शरीर में सामान्य मनुष्योंकी भाँति इस संसार में उपस्थित रहते हैं?

    क्‍या आप काल, पूर्व कर्म आदि के वशीभूतहोकर अच्छे या बुरे कर्मों को भोगते हैं?

    अथवा, इसके विपरीत क्या आप ऐसे उदासीनसाक्षी के रूप में यहाँ उपस्थित हैं, जो आत्मनिर्भर, समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित तथाआध्यात्मिक शक्ति से सदैव परिपूर्ण रहता है ?

    हम निश्चित रूप से आपकी वास्तविक स्थितिको नहीं समझ सकते।

    न हि विरोध उभयं भगवत्यपरिमितगुणगणईश्वरेडनवगाह्ममाहात्म्येडर्वांचीनविकल्पवितर्कविचारप्रमाणा भासकुतर्कशास्त्रकलिलान्त:करणा श्रयदुरवग्रहवादिनां विवादानवसर उपरत [समस्तमायामये केवल एवात्ममायामन्तर्धाय को न्वर्थों दुर्घटड्व भवति स्वरूपट्ठयाभावातू, ॥

    ३६॥

    न--नहीं; हि--निश्चय ही; विरोध: --विरोध; उभयम्‌--दोनों; भगवति-- भगवान्‌ में; अपरिमित-- असीम; गुण-गणे --जिसके दिव्य गुण; ईश्वर--परम नियन्ता में; अनवगाह्य --से युक्त; माहात्म्ये--अथाह शक्ति तथा महिमा; अर्वाचीन--आधुनिक; विकल्प--विकल्प; वितर्क--विरोधी तर्क; विचार--विचार; प्रमाण-आभास--अपूर्ण प्रमाण; कुतर्क --बेकार के तर्क; शास्त्र--अवैध धर्मग्रंथों के द्वारा; कलिल--विश्लुब्ध; अन्तःकरण--मन; आश्रय--जिसकी शरण;दुरवग्रह--दुराग्रहों से; वादिनाम्‌ू--सिद्धान्तवादियों का; विवाद--झगड़ों का; अनवसरे--सीमा से बाहर; उपरत--हटाकर; समस्त--जिनसे सब; माया-मये--माया; केवले--अकेला, अद्वितीय; एब--निस्सन्देह; आत्म-मायाम्‌ू--माया,जो सब कुछ बना-बिगाड़ सकती है; अन्तर्धाय--बीच में रखकर; कः--क्या; नु--निस्सन्‍्देह; अर्थ: --अर्थ; दुर्घट:--असम्भव; इब--मानो; भवति--है; स्व-रूप--प्रकृतियाँ; द्य--दो के; अभावात्‌--कमी सेहै

    भगवन्‌! सभी विरोधों का आप में तिरोधान होता है।

    हे ईश्वर! चूँकि आप परम पुरुष,अनन्त दिव्य गुणों के आगार, परम नियन्ता हैं, अतः आपकी असीम महिमा बद्धजीवों कीकल्पना के परे है।

    अनेक सिद्धान्तवादी बिना जाने कि वास्तव में सच क्या है, सत्य तथामिथ्या के विषय में तर्क करते हैं।

    उनके तर्क झूठे होते हैं और फैसले अनिर्णीत, क्योंकिउनके पास आपको जानने का कोई बैध प्रमाण नहीं है।

    चूँकि उनके मन धर्म ग्रंथों के झूठेनिष्कर्षों से विक्षुब्ध रहते हैं, अत: वे यह नहीं समझ पाते कि सत्य कया है।

    यही नहीं, सही-सही निष्कर्ष प्राप्त करते समय उनकी उत्कण्ठा दूषित रहती है, जिससे उनके सिद्धान्तआपका वर्णन करने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि आप उनकी भौतिक बुद्धि से परे हैं।

    आपअद्वितीय हैं, अतः आप में करणीय तथा अकरणीय, सुख तथा दुख जैसे विरोध नहीं हैं।

    आपकी उस शक्ति के द्वारा आपके लिए क्‍या असम्भव है ?

    आपकी स्वाभाविक स्थिति द्वैतसे रहित है, अतः आप अपनी शक्ति के प्रभाव से सब कुछ कर सकते हैं।

    समविषममतीनां मतमनुसरसि यथा रज्जुखण्ड: सर्पादिधियाम्‌, ॥

    ३७॥

    सम--समान या उचित; विषम--तथा असमान या अनुचित; मतीनाम्‌--बुद्धिमानों का; मतम्‌--निष्कर्ष; अनुसरसि--पालन करते हो; यथा--जिस प्रकार; रज्जु-खण्ड:--रस्सी का टुकड़ा; सर्प-आदि--साँप इत्यादि ; धियाम्‌-देखने वालोंका

    मोहग्रस्त पुरुष रस्सी को सर्प मान बैठता है, अतः उसे रस्सी भय उत्पन्न करती है, किन्तुसमुचित बुद्धि वाले मनुष्य में रस्सी ऐसा नहीं कर पाती क्योंकि वह इसे केवल रस्सी हीजानता है।

    इसी प्रकार सबों के हृदयों में उनकी बुद्धि के ही अनुसार परमात्मा-स्वरूप आपभय या निर्भीकता का भाव उत्पन्न करने वाले हैं, किन्तु आप स्वयं अद्ठैत हैं।

    स एव हि पुनः सर्ववस्तुनि वस्तुस्वरूप: सर्वे श्वर:ः सकलजगत्कारणकारणभूत:सर्व प्रत्यगात्मत्वात्सर्वगुणाभासोपलक्षित एक एव पर्यवशेषित:, ॥

    ३८ ॥

    सः--वे ( श्रीभगवान्‌ ); एव--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; पुनः--फिर; सर्व-वस्तुनि--भौतिक तथा आध्यात्मिक सभीवस्तुओं में; वस्तु-स्वरूप:--वस्तु; सर्व-ई श्वरः --सभी वस्तुओं के नियन्ता; सकल-जगत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में; कारण--कारणों का; कारण-भूतः--कारण बनकर; सर्व-प्रत्यक्‌-आत्मत्वात्‌-- प्रत्येक वस्तु का परमात्मा होने अथवा प्रत्येक वस्तुमें, यहाँ तक कि परमाणु में भी उपस्थित होने के कारण; सर्व-गुण--प्रकृति के सभी गुणों के प्रभावों का ( यथा बुद्धितथा इन्द्रियाँ ); आभास--प्रकाश से; उपलक्षित:--देखा गया; एक:--अकेला; एव--निस्सन्देह; पर्यवशेषित:--शेषछूटा हुआ।

    विचार-विमर्श से यह देखा जा सकता है कि परमात्मा यद्यपि विभिन्न प्रकार से प्रकटहोते हैं, किन्तु प्रत्येक वस्तु के मूल तत्त्व वे ही हैं।

    सम्पूर्ण भौतिक शक्ति इस संसार काकारण है, किन्तु यह शक्ति उन्हीं से उद्भूत है, अतः वे ही समस्त कारणों के कारण हैं औरबुद्धि तथा इन्द्रियों के प्रकाशक हैं।

    वे प्रत्येक वस्तु में परमात्मा रूप में देखे जाते हैं।

    उनके बिना प्रत्येक वस्तु मृत हो जायेगी।

    परमात्मा रूप में आप परम नियन्ता ही एकमात्र शेष बचेहैं।

    अथ ह वाव तब महिमामृतरससमुद्रविप्रुषा सकृदवलीढया स्वमनसि निष्यन्दमानानवरतसुखेनविस्मारितदृष्ठश्रुत॒विषयसुखलेशा भासा: परमभागवता एकान्तिनो भगवति सर्वभूत (प्रियसुहृदिसर्वात्मनि नितरां निरन्तरं निर्वृतमनस: कथमु ह वा एते मधुमथन पुनः स्वार्थकुशला ह्ात्मप्रियसुहदःसाधव्स्त्वच्चरणाम्बुजानुसेवां विसृजन्ति न यत्र पुनरयं संसारपर्यावर्त: ॥

    ३९॥

    अथ ह--अत:; वाव--निस्सन्देह; तब--तुम्हारी; महिम--महिमा का; अमृत-- अमृत का; रस--रस का; समुद्र--समुद्रकी; विप्रुषा--एक बूँद से; सकृत्‌ू--केवल एक बार; अवलीढया--चखा जाकर; स्व-मनसि--अपने मन में;निष्यन्दमान-- प्रवाहित; अनवरत--निरन्तर; सुखेन--दिव्य आनन्द से; विस्मारित--विस्मृत; दृष्ट-- भौतिक दृष्टि से; श्रुत--तथा ध्वनि; विषय-सुख--भौतिक सुख का; लेश-आभासा:--झलक मात्र; परम-भागवता:--महान्‌ भक्तगण;एकान्तिन:--एकनिष्ठ श्रद्धा रखने वाले; भगवति-- श्री भगवान्‌ में; सर्व-भूत--समस्त जीवात्माओं को; प्रिय-- अत्यन्तप्रिय; सुहदि--मित्र; सर्व-आत्मनि--सबों का परमात्मा; नितराम्‌--पूर्णतः ; निरन्तरम्‌--सतत; निर्वृत--सुख से; मनस:--जिनके मन; कथम्‌--किस प्रकार; उ ह--तब; वा--अथवा; एते--ये; मधु-मथन--हे मधु नामक असुर के मारने वाले;पुन:--फिर; स्व-अर्थ-कुशला:--जो स्वार्थ में कुशल हैं; हि--निस्सन्देह; आत्म-प्रिय-सुहृदः --जिन्होंने आपकोपरमात्मा, परमप्रिय तथा मित्र रूप में अंगीकार किया है; साधव:--भक्तगण; त्वत्‌-चरण-अम्बुज-अनुसेवाम्‌--आपकेचरणारविन्द की सेवा; विसृजन्ति--छोड़ सकते हैं; न--नहीं; यत्र--जिसमें; पुन:--फिर; अयम्‌--यह; संसार-पर्यावर्त: --इस संसार में जन्म-मरण का चक्कर।

    अतः हे मधुसूदन! जिन्होंने आपकी महिमा के समुद्र की एक भी अमृतमयी बूँद कोचख लिया है, उनके मन में निरन्तर आनन्द की धारा प्रवाहित होती रहती है।

    ऐसे महात्माभक्त दृश्य तथा श्रवणेन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले तथाकथित भौतिक सुख की झलक कोभूल जाते हैं।

    ऐसे भक्त समस्त इच्छाओं से मुक्त होकर सभी जीवात्माओं के वास्तविक मित्रहोते हैं।

    वे अपने मन को आप में समर्पित करके दिव्य आनन्द उठाते हुए जीवन के असलीउद्देश्य को प्राप्त करने में कुशल होते हैं।

    हे भगवन्‌) आप ऐसे भक्तों के, जिन्हें इस भौतिकजगत में कभी वापस नहीं आना पड़ता, प्रिय मित्र एवं आत्मा हैं।

    भला वे आपकी भक्ति कोकिस प्रकार त्याग सकते हैं ?

    त्रिभुवनात्मभवन त्रिविक्रम त्रिनयन त्रिलोकमनोहरानुभाव तबैव विभूतयो दितिजदनुजादयश्चापितेषामुपक्रमसमयोयमिति स्वात्ममायया सुरनरमृगमिश्रित ।

    जलचराकृतिभिर्यथापराध॑ दण्डं दण्डधरदधर्थ एवमेनमपि भगवद्धहि त्वाष्टमुत यदि मन्यसे ॥

    ४०॥

    त्रि-भुवन-आत्म-भवन--हे भगवान्‌, आप लोकों के आश्रय हैं क्योंकि आप तीनों लोकों के परमात्मा हैं; त्रि-विक्रम--हेवामनरूप धारी भगवान्‌, आपकी शक्ति तथा ऐश्वर्य तीनों लोकों में फैले हैं; त्रि-नयन--तीनों लोकों के पालक तथा दूत;त्रि-लोक-मनोहर-अनुभाव--हे तीन लोकों में परम सुन्दर दिखाई पड़ने वाले; तब--तुम्हारा; एब--निश्चय ही;विभूतय: --शक्ति के अंश; दिति-ज-दनु-ज-आदय: --दिति के असुर पुत्र तथा दानव, जो अन्य प्रकार के असुर हैं; च--तथा; अपि--( मनुष्य ) भी; तेषाम्‌--उन सबों में से; उपक्रम-समय:--उन्नति का अवसर; अयम्‌--यह; इति--इस प्रकार;स्व-आत्म-मायया--आपकी स्वयं की शक्ति से; सुर-नर-मृग-मिश्रित-जलचर-आकृतिभि:--विभिन्न रूपों से यथादेवता, मनुष्य, पशु, मिश्रित तथा जलचर ( वामन, भगवान्‌ रामचन्द्र, कृष्ण, वराह, हयग्रीव, नूसिंह, मत्स्य तथा कूर्मअवतार ); यथा-अपराधम्‌-- अपने अपने अपराधों के अनुसार; दण्डम्‌--दंड, सजा; दण्ड-धर--हे परम दण्डदाता;दधर्थ--आपने फल दिया; एवम्‌--इस प्रकार; एनम्‌--यह एक ( वृत्रासुर ); अपि-- भी; भगवन्‌--हे भगवन्‌; जहि--मारडालिये; त्वाष्टम्‌-त्वष्टा के पुत्र; उत--निस्सन्देह; यदि मन्यसे--यदि उचित समझते हैं, तो

    हे भगवन्‌, हे साक्षात्‌ त्रिलोकी, तीनों लोकों के जनक! हे वामन अवतार के रूप मेंतीनों लोकों के पराक्रम! हे नृसिंहदेव के त्रि-नेत्र रूप, हे तीनों लोकों में परम सुन्दर पुरुष!प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक प्राणी जिसमें मनुष्य तथा दैत्य और दानव भी सम्मिलित हैं, आपकेही शक्ति के अंश हैं।

    हे परम शक्तिमान! जब-जब असुर शक्तिशाली हुए हैं तब-तब आपउन्हें दण्ड देने के लिए विभिन्न अवतारों के रूप में प्रकट हुए हैं।

    आप भगवान्‌ वामनदेव,राम और कृष्ण के रूप में प्रकट हुए हैं।

    कभी आप पशु के रूप में प्रकट होते हैं यथाभगवान्‌ वराह, तो कभी मिश्रित अवतार के रूप में यथा भगवान्‌ नृसिंहदेव तथा भगवान्‌हयग्रीव और कभी जलचर रूप में यथा भगवान्‌ मस्य तथा भगवान्‌ कूर्म।

    आपने ऐसे अनेकरूप धारण करके सदैव असुरों तथा दानवों को दण्ड दिया है।

    अतः हम आपसे प्रार्थना करतेहैं कि आप यदि आवश्यक समझें तो महा असुर वृत्रासुर को मारने के लिए आज किसीअन्य अवतार के रूप में प्रकट हों।

    अस्माक॑ तावकानां तततत नतानां हरे तब चरणनलिनयुगलध्यानानुबद्धहदयनिगडानांस्वलिड्रविवरणेनात्मसात्कृतानामनुकम्पानुरज्लितविशदरुचिरशिशिरस्मितावलोकेनविगलित मधुरमुखरसामृतकलया चान्तस्तापमनघाईसि शमयितुम्‌, ॥

    ४१॥

    अस्माकम्‌--हमारा; तावकानाम्‌--जो आप पर पूर्णतया आश्रित हैं, निज जन; तत-तत--हे पिता के पिता अर्थात्‌पितामह; नतानाम्‌--जिन्होंने पूर्णतया आपको आत्मसमर्पण कर दिया है; हरे--हे हरि; तव--तुम्हारे; चरण--पाँवों पर;नलिन-युगल--दो नील कमलों के समान; ध्यान--मनन से; अनुबद्ध--बँधे हुए; हृदय--हृदय में; निगडानाम्‌ू--जिसकीजंजीरें ( बंधन ); स्व-लिड्र-विवरणेन-- अपना रूप प्रकट करके; आत्मसात्‌-कृतानाम्‌--जिन्होंने आपको अपना लिया है;अनुकम्पा--दयाभाव से; अनुरज्चित--रंजित होकर; विशद्‌--चमकीला; रुचिर--अत्यन्त मनोहर; शिशिर--शीतल;स्मित--मंद हँसी से युक्त; अवलोकेन--अपनी चितवन से; विगलित--दयाभाव से पिघला हुआ; मधुर-मुख-रस--आपके मुख से अत्यन्त मीठे शब्द; अमृत-कलया--अमृत की बूँदों से; च--तथा; अन्तः--अन्तःकरण में; तापम्‌--अधिक जलन; अनघ--हे परम पवित्र; अहंसि--आपको चाहिए; शमयितुम्‌-शान्त करनाहै परम रक्षक

    हे पितामह, हे परम पवित्र, हे परमेश्वर! हम सभी आपके चरणकमलों परसमर्पित हैं।

    दरअसल, हमारे मन ध्यान में प्रेम-पाश द्वारा आपके चरणाविन्द से बँधे हुए हैं।

    अब आप अपना अवतार-रूप प्रकट कीजिये।

    हमें आप अपना शाश्वत दास तथा भक्तमानकर हम पर प्रसन्न हों और हमारे ऊपर दया करें।

    आप अपनी प्रेमपूर्ण चितवन, शीतलतथा दयापूर्ण मममोहक हँसी तथा सुन्दर मुख से झरने वाले अमृत शब्दों से हम सबों की उसचिन्ता को दूर करें जो वृत्रासुर के कारण उत्पन्न हुई है और सदैव हमारे हृदयों को कष्ट देतीहै।

    अथ भगवंस्तवास्माभिरखिलजगदुत्पत्तिस्थितिलयनिमित्तायमानदिव्यमायाविनोदस्यसकलजीवनिकायानामन्तईदयेषु बहिरपि च॒ ब्रह्मप्रत्यगात्मस्वरूपेण प्रधानरूपेण चयथादेशकालदेहावस्थानविशेषं तदुपादानोपलम्भकतयानुभवत: सर्वप्रत्ययसाक्षशरीरस्य साक्षात्परब्रह्मण: परमात्मनः कियानिह वार्थविशेषो विज्ञापनीय:स्याद्विस्फुलिड्रादिभिरिव हिरण्यरेतस: ॥

    ४२॥

    अथ--अत:; भगवनू--हे भगवन्‌; तब--तुम्हारा; अस्माभि:--हम सबों के द्वारा; अखिल--सम्पूर्ण; जगत्‌-- भौतिकसंसार की; उत्पत्ति--उत्पत्ति का; स्थिति--पालन; लय--तथा संहार; निमित्तायमान--कारण होने से; दिव्य-माया--आध्यात्मिक शक्ति से; विनोदस्य--आपका, जो स्वयं ही विनोद करने वाले हैं; सकल--समस्त; जीव-निकायानाम्‌--जीवात्माओं के समूहों का; अन्तः-हृदयेषु--हृदयों के भीतर; बहि: अपि--बाहर से भी; च--तथा; ब्रह्म--निर्गुण ब्रह्मअथवा परम सत्य; प्रत्यक्‌-आत्म--परमात्मा का; स्व-रूपेण-- अपने रूपों के द्वारा; प्रधान-रूपेण--बाह्य अवयवों केरूप में अपने स्वरूप द्वारा; च--तथा; यथा--के अनुसार; देश-काल-देह-अवस्थान--देश, काल, शरीर तथा अवस्थाका; विशेषम्‌--विशेष; तत्‌ू--उन सबका; उपादान-- भौतिक कारणों का; उपलम्भकतया--प्रकाशक के रूप में;अनुभवतः --साक्षी बनकर; सर्व-प्रत्यय-साक्षिण:--विभिन्न कार्यो का साक्षी; आकाश-शरीरस्य--समस्त ब्रह्माण्ड कापरमात्मा; साक्षात्‌--प्रकट रूप में; पर-ब्रह्मण:--परब्रह्म, परम सत्य; परमात्मन:--परमात्मा; कियानू--किस हद तक;इह--यहाँ; वा-- अथवा; अर्थ-विशेष:--विशेष आवश्यकता; विज्ञापनीय:--सूचित करने योग्य; स्थात्‌--हो सकता है;विस्फुलिड्ड-आदिभि: --अग्नि की चिनगारियों के द्वारा; इब--सहृश; हिरण्य-रेतस:--आदि अग्नि को।

    है भगवान्‌! जिस प्रकार अग्नि की छोटी-छोटी चिनगारियाँ पूर्ण ( आदि ) अग्नि काकार्य करने में असमर्थ हैं, वैसे ही आपकी चिनगारी रूप हम सभी अपने जीवन कीआवश्यकता बता पाने में अक्षम हैं।

    आप पूर्ण ब्रह्म हैं, अतः हमें आपको बताने की क्‍याआवश्यकता ?

    आप सब कुछ जानने वाले हैं क्योंकि आप दृश्य जगत के आदि कारण,इसके पालक तथा सम्पूर्ण सृष्टि के संहर्ता हैं।

    आप अपनी दिव्य तथा भौतिक शक्तियों सेलीलाएँ करते रहते हैं क्योंकि आप ही इन समस्त शक्तियों के नियामक हैं।

    आप इन विभिन्नशक्तियों के नियामक हैं।

    आप सभी जीवों के भीतर दृश्य सृष्टि में और उस से परे भी रहतेहैं।

    आप अन्तःकरणों में परब्रह्म के रुप में और बाह्मत: भौतिक सृष्टि के अवयवों के रूप मेंस्थित हैं।

    अत: यद्यपि आप विभिन्न अवस्थाओं, विभिन्न कालों तथा स्थानों और विभिन्न देहोंमें प्रकट होते रहते हैं, तो भी हे भगवन्‌! आप ही समस्त कारणों के आदि कारण हैं।

    वास्तवमें आप ही मूल तत्त्व हैं।

    आप समस्त गतिविधियों के साक्षी हैं, किन्तु आकाश के समानमहान्‌ होने के कारण किसी के द्वारा स्पृश्य नहीं हैं।

    आप परब्रह्म तथा परमात्मा के रूप मेंप्रत्येक वस्तु के साक्षी हैं।

    हे भगवान्‌! आपसे कुछ भी छिपा नहीं है।

    चरणकमलों की शरण में क्‍यों आये हैं, जिनकी छाया समस्त भौतिक अशान्तियों सेछुटकारा दिलाने वाली है।

    चूँकि आप परम गुरु हैं और सब कुछ जानते हैं, अतः हमनेआदेश प्राप्त करने के लिए आपके चरणकमलों का आश्रय लिया है।

    कृपया हमारे वर्तमानदुखों को दूर करके हमें शरण दीजिये।

    आपके चरणकमल ही पूर्ण समर्पित भक्त केएकमात्र आश्रय हैं और इस भौतिक जगत के संतापों को शमित करने के एकमात्र साधनहैं।

    अत एव स्वयं तदुपकल्पयास्माकं भगवतः परमगुरोस्तव चरणशतपलाशच्छायांविविधवृजिन [संसारपरिश्रमोपशमनीमुपसूतानां बयं यत्कामेनोपसादिता:. ॥

    ४३॥

    अत एव--अत:; स्वयम्‌-- अपने आप; तत्‌--वह; उपकल्पय--कृपया प्रबन्ध करें; अस्माकम्‌--हमारा; भगवत:--श्रीभगवान्‌ का; परम-गुरो:--सबसे बड़ा गुरु; तब--तुम्हारा; चरण--पाँवों का; शत-पलाशत्‌--एक सौ पंखड़ियों वालेकमल पुष्प की भाँति; छायाम्‌--छाया; विविध-- अनेक; वृजिन--घातक स्थितियों से; संसार--इस बद्ध जीवन का;परिश्रम--कष्ट; उपशमनीम्‌--छुटकारा दिला कर; उपसृतानामू--आपके चरणकमलों में शरण लेने वाले भक्त; वयम्‌--हम; यत्‌--जिसके लिए; कामेन--इच्छाओं से; उपसादिता:--( आपके चरणकमलों की शरण में ) आने को बाध्य ।

    है भगवान्‌! आप सर्वज्ञाता हैं, अतः आप अच्छी तरह जानते हैं कि हम आपके चरणकमलों की शरण में क्‍यों आये हैं, जिनकी छाया समस्त भौतिक अशान्तियों से छुटकारा दिलाने वाली है।

    चूँकि आप परम गुरु हैं और सब कुछ जानते हैं, अतः हमने आदेश प्राप्त करने के लिए आपके चरणकमलों का आश्रय लिया है।

    कृपया हमारे वर्तमान दुखों को दूर करके हमें शरण दीजिये।

    आपके चरणकमल ही पूर्ण समर्पित भक्त के एकमात्र आश्रय हैं और इस भौतिक जगत के संतापों को शमित करने के एकमात्र साधन हैं।

    अथो ईश जहि त्वाष्ट्र ग्रसन्‍्तं भुवनत्रयम्‌ ।

    ग्रस्तानि येन नः कृष्ण तेजांस्यस्त्रायुधानि च ॥

    ४४॥

    अथो--अत:; ईश--हे परम नियन्ता; जहि--मारिये; त्वाष्टम्‌--त्वष्टा के पुत्र, वृत्रासुर को; ग्रसन्‍्तम्‌--जो निगले जा रहा है;भुवन-त्रयम्‌--तीनों लोक; ग्रस्तानि--निगले हुए; येन--जिसके द्वारा; न:--हमारा; कृष्ण--हे भगवान्‌ श्रीकृष्ण;तेजांसि--समस्त शक्ति तथा तेज; अस्त्र--तीर; आयुधानि--तथा अन्य हथियार; च--भी

    अतः हे परम नियन्ता, हे भगवान्‌ श्रीकृष्ण! त्वष्टा के पुत्र इस घातक असुर वृत्रासुर कासंहार कीजिये।

    जिसने हमारे समस्त शस्त्रास्त्र, युद्ध की सारी सामग्री तथा हमारे बल औरतेज को निगल रखा है।

    हंसाय दहनिलयाय निरीक्षकायकृष्णाय मृष्ठयशसे निरुपक्रमाय ।

    सत्सड्ूग्रहाय भवपान्थनिजा श्रमाप्ता-वबन्ते परीष्टगतये हरये नमस्ते ॥

    ४५॥

    हंसाय--महान्‌ तथा शुद्ध को ( पवित्र॑ परमम्‌, परम शुद्ध ); दह--अन्तःस्थल में; निलयाय--जिसका धाम; निरीक्षकाय--प्रत्येक आत्मा की गतिविधियों का निरीक्षण करने के लिए; कृष्णाय--परमात्मा को, जो श्रीकृष्ण के अंश रूप हैं; मृष्ट-यशसे--जिनका यश अत्यन्त प्रकाशमान्‌ है; निरुपक्रमाय--जिसका आदि नहीं है, अनादि; सत्‌-सड्ग्रहाय--शुद्ध भक्तोंद्वारा ज्ञेय; भव-पान्थ-निज-आश्रम-आप्तौ--इस भौतिक जगत में प्राणियों के लिए श्रीकृष्ण की शरण प्राप्त करके;अन्ते--अन्त में; परीष्ट-गतये--जीवन की सबसे बड़ी सफलता, उन श्रीभगवान्‌ को जो परम-लक्ष्य हैं; हरये-- श्री भगवान्‌को; नमः--सादर नमस्कार; ते--तुम्हें ( आपको )

    हे भगवान्‌! हे परम शुद्ध! आप सबों के अन्तःस्थल में रहते हैं और बद्धजीवों की समस्तआकांक्षाओं तथा गतिविधियों का निरीक्षण करते हैं।

    श्रीकृष्ण के रूप में विख्यात हेभगवान्‌! आपका यश अत्यन्त प्रकाशमान है।

    आपका आदि नहीं है क्योंकि आप प्रत्येकवस्तु के उद्गम हैं।

    शुद्ध भक्त इससे परिचित हैं क्योंकि आप शुद्ध तथा सत्यनिष्ठ के लिएसुगम हैं।

    जब करोड़ों वर्षो तक भौतिक जगत में भटकने के बाद बद्धात्माएँ आपकेचरणकमलों पर मुक्त होकर शरण पाती हैं, तो उन्हें जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त हो जाता है।

    अतः हे भगवान्‌! हम आपके चरणारविन्द को सादर नमस्कार करते हैं।

    श्रीशुक उबाचअथैवमीडितो राजन्सादरं त्रिदशैर्हरि: ।

    स्वमुपस्थानमाकर्णय्य प्राह तानभिनन्दितः ॥

    ४६॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तत्पश्चात्‌;: एवम्‌--इस प्रकार; ईंडित:--पूजा तथा नमस्कार कियेजाने पर; राजन्‌--हे राजन्‌; स-आदरम्‌--आदरपूर्वक; त्रि-दशै:--स्वर्ग के समस्त देवताओं के द्वारा; हरिः-- श्री भगवान्‌;स्वम्‌ उपस्थानम्‌--अपना यशोगान; आकर्णर्य--सुनकर; प्राह--उत्तर दिया; तानू--उन ( देवताओं ) को; अभिनन्दित:--प्रसन्न होकर।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजा परीक्षित! जब देवताओं ने इस प्रकार सेभगवान्‌ की सच्ची स्तुति की तो उसे उन्होंने कृपापूर्वक सुना और प्रसन्न होकर देवताओं कोउत्तर दिया।

    श्रीभगवानुवाचप्रीतोहं वः सुरभ्रेष्ठा मदुपस्थानविद्यया ।

    आत्मैश्वर्यस्मृति: पुंसां भक्तिश्चेव यया मयि ॥

    ४७॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- श्री भगवान्‌ ने कहा; प्रीत:--प्रसन्न; अहम्‌--मैं; व:--तुमसे; सुर-श्रेष्ठा:--हे देवताओं में श्रेष्ठ; मत्‌-उपस्थान-विद्यया--महान्‌ ज्ञान तथा स्तुतियों से; आत्म-ऐश्वर्य-स्मृति:--अपनी परम दिव्य स्थिति की स्मृति; पुंसाम्‌--मनुष्यों की; भक्ति:-- भक्ति; च--तथा; एव--निश्चय ही; यया--जिससे; मयि--मुझको |

    श्रीभगवान्‌ ने कहा--हे प्यारे देवो! तुम लोगों ने अत्यन्त ज्ञानपूर्वक मेरी स्तुति की है,जिससे मैं तुम लोगों से अत्यन्त प्रसन्न हूँ।

    मनुष्य ऐसे ज्ञान के कारण मुक्त हो जाता है और मेरेउच्च पद को स्मरण करता रहता है, जो भौतिक जीवन की स्थितियों के ऊपर है।

    ऐसा भक्तपूर्ण ज्ञान में रहकर स्तुति करने पर शुद्ध हो जाता है।

    मेरी भक्ति करने का यही स्त्रोत है।

    किं दुरापं मयि प्रीते तथापि विबुधर्षभा: ।

    मय्येकान्तमतिर्नान्यन्मत्तो वाउ्छति तत्त्ववित्‌ ॥

    ४८ ॥

    किम्‌-क्या; दुरापम्‌ू-दुर्लभ; मयि--जब मैं; प्रीते--प्रसन्न; तथापि--फिर भी; विबुध-ऋषभा:--हे बुद्धिमान देवताओंमें श्रेष्ठ मयि--मुझमें; एकान्त-- अनन्य; मति:--जिसका ध्यान; न अन्यत्‌--और कहीं नहीं; मत्त:--मेरी अपेक्षा;वाउ्छति--चाहता है; तत्त्व-वित्‌--जो सत्य को जानता है |

    हे बुद्धिमान देवताओं में श्रेष्ठ) यद्यपि यह सत्य है कि मेरे प्रसन्न हो जाने पर किसी केलिए कुछ भी प्राप्त कर लेना कठिन नहीं है, तो भी शुद्ध भक्त, जिसका मन विशिष्ठ भाव सेमुझ पर स्थिर है, वह मेरी भक्ति में निरत रहने के अवसर के अतिरिक्त मुझसे और कुछ भीनहीं माँगता।

    न वेद कृपण: श्रेय आत्मनो गुणवस्तुटक्‌ ।

    तस्य तानिच्छतो यच्छेद्यदि सोडपि तथाविध: ॥

    ४९॥

    न--नहीं; वेद--जानता है; कृपण:--कंजूस जीवात्मा; श्रेय:--परम आवश्यकता, हित; आत्मन:--आत्मा की; गुण-वस्तु-हक्‌--जो त्रिगुण की सृष्टि से मोहित है; तस्थ--उसका; तानू--माया द्वारा उत्पन्न वस्तुएँ; इच्छत:--इच्छा करते हुए;यच्छेत्‌-- प्रदान करता; यदि--यदि; सः अपि--वह भी; तथा-विध: --उसी प्रकार का ( मूर्ख कृपण जो अपने असली हितको नहीं पहचानता )

    जो लोग भौतिक सम्पत्ति को ही सब कुछ या जीवन का परम ध्येय मानते हैं, वे कृपणकहलाते हैं।

    वे आत्मा की परम आवश्यकता (हित ) को नहीं जानते।

    यही नहीं, यदि कोईऐसे मूर्खों की इच्छा की पूर्ति करता है, उसे भी मूर्ख समझना चाहिए।

    स्वयं निःश्रेयसं विद्वान्न वक्‍त्यज्ञाय कर्म हि ।

    न राति रोगिणोपथ्यं वाउ्छतोपि भिषक्तम: ॥

    ५०॥

    स्वयम्‌--स्वतः ; नि: श्रेयसम्‌ू--जीवन का परम लक्ष्य अर्थात्‌ भगवान्‌ का आह्वादकारी प्रेम प्राप्त करने के साधन; वित्‌ू-वान्‌--जिसने भक्ति में पूर्णता प्राप्त कर ली है; न--नहीं; वक्ति--शिक्षा देता है; अज्ञाय--मूर्ख को जो जीवन के चरमलक्ष्य से परिचित नहीं है; कर्म--सकाम कर्म; हि--निस्सन्देह; न--नहीं; राति--पिलाता है; रोगिण:--रोगी को;अपथध्यम्‌-- अखाद्य; वाउ्छत:--इच्छुक; अपि--यद्यपि; भिषक्‌-तम: --अनुभवी वैद्य |

    भक्तियोग में दक्ष शुद्ध भक्त कभी भी मूर्ख पुरुष को भौतिक सुख के लिए सकाम कर्मकरने का उपदेश नहीं देगा, ऐसे कार्यों में सहायता करना तो दूर रहा।

    ऐसा भक्त उसअनुभवी वैद्य के समान है, जो रोगी के चाहने पर भी उसे ऐसा पशथ्य ग्रहण करने के लिएप्रोत्साहित नहीं करता जो उसे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो।

    मघवन्यात भद्गं वो दध्यज्लमृषिसत्तमम्‌ ।

    विद्या्रततपःसारं गात्रं याचत मा चिरम्‌ ॥

    ५१॥

    मघवनू--हे इन्द्र; यात--जाओ; भद्रमू--कल्याण; व:--तुम सबों का; दध्यजञ्ञम्‌--दध्यञ्ञ के पास; ऋषि-सत्‌-तमम्‌--सर्वश्रेष्ठ साधु पुरुष; विद्या--विद्या का; ब्रत--ब्रत; तपः--तथा तपस्या; सारम्‌--निष्कर्ष; गात्रम्‌ू--उसका शरीर;याचत--माँगो; मा चिरम्‌--बिना देरी किये |

    हे मघवा ( इन्द्र )! तुम्हारा कल्याण हो।

    मैं तुम्हें महान्‌ साधु दध्यज्ञ ( दधीचि ) के पासजाने की राय देता हूँ।

    वे ज्ञान, ब्रत तथा तपस्या में अत्यन्त सिद्ध हैं और उनका शरीर अत्यन्तसुदृढ़ है।

    अब देर न लगाओ।

    उनके पास जाकर उनका शरीर माँगो।

    स वा अधिगतो दध्यड्डाश्रिभ्यां ब्रह्म निष्कलम्‌ ।

    यद्वा अश्वशिरो नाम तयोरमरतां व्यधात्‌ ॥

    ५२॥

    सः--वह; वा--निश्चय ही; अधिगत:--प्राप्त करके; दध्यड्--दध्यञ्ञ; अश्विभ्याम्‌ू-दोनों अश्विनीकुमारों को; ब्रह्म--आध्यात्मिक ज्ञान; निष्कलम्‌--शुद्ध; यत्‌ वा--जिससे; अश्वशिर: -- अश्वशिर; नाम--नामक; तयो:--दोनों का;अमरताम्‌--जीवन से मुक्ति; व्यधात्‌--प्रदान किया |

    ऋषि दध्यञ्ञ ने जो दधीचि के नाम से भी विख्यात हैं ब्रह्मज्षान को आत्मसात्‌ किया थाऔर फिर उसे अश्विनीकुमारों को दिया।

    कहा जाता है कि दध्यञ्ञ ने उनको अश्वमुख ( घोड़ेके मुँह ) से मंत्र दिये इसलिए वे मंत्र अश्वशिर कहलाते हैं।

    ऋषि दधीचि से ये मंत्र प्राप्त करअश्विनीकुमार जीवनमुक्त हो गये।

    दध्यड्डाथर्वणस्त्वष्टे वर्माभेद्य मदात्मकम्‌ ।

    विश्वरूपाय यत्प्रादात्त्वष्टा यत्त्मधास्तत: ॥

    ५३॥

    दध्यड्--दध्यञ्ञ; आथर्वण: --अथर्वा का पुत्र; त्वष्टे--त्वष्टा के लिए; वर्म--कवच, नारायण कवच; अभेद्यम्‌ू--जो भेदान जा सके; मत्‌-आत्मकम्‌--मुझसे युक्त; विश्वरूपाय--विश्वरूप के लिए; यत्‌--जो; प्रादात्‌-प्रदत्त; त्वष्टा-्वष्टा;यतू--जो; त्वम्‌--तुम; अधा: --प्राप्त; तत:ः--उससे |

    दध्यज्ञ का नारायण-कवच नामक अभेद्य कवच त्वष्टा को मिला जिसने इसे अपने पुत्रविश्वरूप को दिया और जिससे तुमने इसे प्राप्त किया है।

    इस नारायण-कवच के कारणदधीचि का शरीर अब अत्यन्त पुष्ठ है।

    अतः तुम जाकर उनसे उनका शरीर माँग लो।

    युष्मभ्यं याचितोउश्विभ्यां धर्मज्ञोडड्डरानि दास्यति ।

    ततस्तैरायुधश्रेष्ठो विश्वकर्मविनिर्मित: ।

    येन वृत्रशिरो हर्ता मत्तेजउपबृंहित: ॥

    ५४॥

    युष्मभ्यम्‌ू--तुम सबों के लिए; याचित:--माँगा जाकर; अश्विभ्याम्‌--अश्विनीकुमारों द्वारा; धर्म-ज्ञ:--धर्म के ज्ञाता,दधीचि; अड्ञानि-- अपने अंग; दास्यति--देगा; तत:--तत्पश्चात्‌; तैः--उन हड्डियों से; आयुध--हथियारों का; श्रेष्ठ: --अत्यन्त शक्तिशाली ( वज्ज ); विश्वकर्म-विनिर्मित:--विश्वकर्मा द्वारा तैयार किया गया; येन--जिससे ; वृत्र-शिर:--वृत्रासुरका सिर; हर्ता--काट लिया जाऐगा; मत्‌-तेज:--मेरे बल से; उपबूंहित: --बढ़े हुए।

    जब तुम्हारी ओर से अश्विनीकुमार दधीचि का शरीर माँगेंगे, तो वे स्नेहवश अवश्य देदेंगे।

    इसमें सन्देह मत करो, क्योंकि दधीचि धर्म के ज्ञानी हैं।

    जब दधीचि तुम्हें अपना शरीरदे देंगे तो विश्वकर्मा उनकी हड्डियों ( अस्थियों ) से एक वज्ज तैयार कर देगा।

    यह वज् मेरीशक्ति से युक्त होने के कारण निश्चित रूप से वृत्रासुर का वध करेगा।

    तस्मिन्विनिहते यूयं तेजो स्त्रायुधसम्पदः ।

    भूय: प्राप्स्थथ भद्गं वो न हिंसन्ति च मत्परान्‌ ॥

    ५५॥

    तस्मिनू--जब वह ( वृत्रासुर ); विनिहते--मारा जाता है; यूयम्‌ू--तुम सभी; तेज: --तेज; अस्त्र--तीर; आयुध--अन्यहथियार; सम्पदः--तथा ऐश्वर्य; भूय:--फिर; प्राप्स्थथ--प्राप्त करोगे; भद्रमू--समस्त कल्याण; व: --तुमको; न--नहीं ;हिंसन्ति--पीड़ा पहुँचाएँगे; च--तथा; मत्‌-परान्‌--मेरे भक्त |

    जब वृत्रासुर मेरे आत्मबल ( ब्रह्मतेज ) से मर जायेगा, तो तुम्हें पुन अपना तेज आयुधतथा सम्पत्ति प्राप्त हो जायेगी।

    इस प्रकार तुम सबका कल्याण होगा।

    यद्यपि वृत्रासुर तीनों लोकों को विनष्ट कर सकता हैं, किन्तु तुम मत डरो कि वह तुम्हें हानि पहुँचायेगा।

    वह भीभक्त है और तुमसे कभी भी विद्वेष नहीं करेगा।

    TO

    अध्याय दस: देवताओं और वृत्रासुर के बीच युद्ध

    6.10श्रीबादरायणिरुवाचइन्द्रमेवं समादिश्य भगवान्विश्वभावन: ।

    पश्यतामनिमेषाणां तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इन्द्रम्‌ू--इन्द्र को; एवम्‌--इस प्रकार; समादिश्य--उपदेश देकर;भगवान्‌--श्रीभगवान्‌; विश्व-भावन: --समस्त विश्व का आदि कारण; पश्यताम्‌ अनिमेषाणाम्‌--देवताओं द्वारा टकटकीलगाकर देखे जाने पर; तत्र--वहीं पर; एब--निस्सन्देह; अन्तर्दधे--अन्तर्धान हो गये; हरिः-- भगवान्‌ |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--इस प्रकार इन्द्र को आदेश देकर भगवान्‌ हरि, जो दृश्यजगत के कारणस्वरूप हैं, देवताओं के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये।

    तथाभियाचितो देवैरृषिराथर्वणो महान्‌ ।

    मोदमान उवाचेदं प्रहसन्निव भारत ॥

    २॥

    तथा--इस प्रकार; अभियाचित:--माँगे जाने पर; देवै:ः--देवताओं के द्वारा; ऋषि:--परम साधु पुरुष; आथर्वण: --अर्थर्वा के पुत्र, दधीचि ने; महान्‌--महापुरुष; मोदमान: --प्रसन्न होकर; उवाच--कहा; इृदम्‌--यह; प्रहसन्‌--हँसते हुए;इब--कुछ-कुछ; भारत--हे महाराज परीक्षित!

    हे राजा परीक्षित! भगवान्‌ की आज्ञानुसार देवतागण अथर्वा के पुत्र दधीचि के पासपहुँचे।

    वे अत्यन्त उदार थे और जब देवताओं ने उनसे शरीर देने के लिए प्रार्थना की तो वेतुरन्त तैयार से हो गये।

    किन्तु उनसे धार्मिक उपदेश सुनने के उद्देश्य से वे हँसे और विनोद मेंइस प्रकार बोले।

    अपि वृन्दारका यूयं न जानीथ शरीरिणाम्‌ ।

    संस्थायां यस्त्वभिद्रोहो दुःसहश्चेतनापह: ॥

    ३॥

    अपि--यद्यपि; वृन्दारका:--देवताओ; यूयम्‌--तुम सब; न जानीथ--नहीं जानते; शरीरिणाम्‌--शरीरधारियों की;संस्थायाम्‌--मृत्यु के समय या शरीर त्यागते समय; य:--जो; तु--तब; अभिद्रोह: --तीक्ष्ण वेदना; दुःसह:--असहा;चेतन--चेतना; अपह:--चली जाती है

    है देवताओ! मृत्यु के समय तीक्ष्ण असह्ा वेदना के कारण समस्त देहधारी जीवात्माओंकी चेतना जाती रहती है।

    क्या तुम्हें इस वेदना का पता नहीं है ?

    जिजीविषूणां जीवानामात्मा प्रेष्ठ इहेप्सितः ।

    क उत्सहेत तं दातुं भिक्षमाणाय विष्णवे ॥

    ४॥

    जिजीविषूणाम्‌--जीवित रहने के इच्छुक; जीवानाम्‌--समस्त जीवात्माओं का; आत्मा--शरीर; प्रेष्ठ:--अत्यन्त प्रिय;इह--यहाँ; ईप्सित:--इच्छित; कः--कौन; उत्सहेत--सह सकता है; तमू--उस शरीर को; दातुम्‌-देने के लिए;भिक्षमाणाय--माँगने के लिए; विष्णवे-- भगवान्‌ विष्णु को भी |

    इस भौतिक जगत में प्रत्येक जीवात्मा को अपना शरीर अत्यन्त प्रिय है।

    अपने शरीर कोअक्षुण्ण बनाये रखने के संघर्ष में वह सभी प्रकार से, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व न्यौछावरकरके, बचाये रखने का प्रयत्त करता है।

    अतः ऐसा कौन है, जो अपना शरीर किसी अन्यको दान देना चाहेगा, भले ही भगवान्‌ विष्णु क्यों न माँगें ?

    तात्पर्य : कहा गया है-- आत्मान॑ सर्वतो रक्षेत्‌ तो धर्म तो धनम--मनुष्य को सब प्रकार से श्रीदेवा ऊचुःकि नु तहुस्त्यजं ब्रह्मन्पुंसां भूतानुकम्पिनाम्‌ ।

    भवद्विधानां महतां पुण्यश्लोकेड्यकर्मणाम्‌ ॥

    ५॥

    श्री-देवा: ऊचु;--देवताओं ने कहा; किमू--क्या; नु--निस्सन्देह; तत्‌ू--वह; दुस्त्यजम्‌--छोड़ना कठिन; ब्रह्मनू-हे पूज्यब्राह्मण; पुंसामू--मनुष्यों का; भूत-अनुकम्पिनाम्‌--जीवात्माओं के दुखों के प्रति अत्यन्त सहानुभूत लोग; भवत्‌-विधानाम्‌--आप जैसे; महताम्‌--महान्‌; पुण्य-श्लोक-ईड्य-कर्मणाम्‌--जिनके पुण्यकार्यों की सभी विद्वान प्रशंसा करतेहैं।

    देवताओं ने उत्तर दिया--हे ब्रह्मन्‌! आप जैसे पवित्र तथा प्रशंसनीय कार्यों वाले पुरुषसभी व्यक्तियों पर परम दयालु एवं वत्सल होते हैं।

    ऐसी पवित्र आत्माएँ परोपकार के लिएक्या नहीं दे सकतीं ?

    वे सब कुछ, यहाँ तक कि अपना शरीर भी, दे सकती हैं।

    नून॑ स्वार्थपरो लोको न वेद परसड्ड्टम्‌ ।

    यदि वेद न याचेत नेति नाह यदी श्वर: ॥

    ६॥

    नूनम्‌ू--निश्चय ही; स्व-अर्थ-पर:--इस अथवा अगले जीवन में मात्र इन्द्रिय तृप्ति में रुचि रखने वाला; लोक:--सामान्यभौतिकतावादी व्यक्ति; न--नहीं; वेद--जानते हैं; पर-सड्डूटम्‌--अन्यों का कष्ट; यदि--यदि; बेद--जानते हैं; न--नहीं;याचेत--माँगें; न--नहीं; इति--इस प्रकार; न आह--कहता नहीं; यत्‌--चूँकि; ईश्वर: --दान देने में समर्थ।

    जो नितान्त स्वार्थी होते हैं, वे अन्यों की पीड़ा को सोचे बिना उनसे कुछ याचना करतेहैं।

    किन्तु यदि याचक दाता की कठिनाई को जान ले तो वह कोई वस्तु न माँगे।

    इसी प्रकारजो दान दे सकता हैं वह याचक ( भिखारी ) की कठिनाई नहीं समझता अन्यथा जो कुछ भीवह माँगे वह उसे देने से इनकार नहीं करेगा।

    श्रीऋषिरुवाचधर्म वः श्रोतुकामेन यूय॑ मे प्रत्युदाहता: ।

    एष व: प्रियमात्मानं त्यजन्तं सन्त्यजाम्यहम्‌ ॥

    ७॥

    श्री-ऋषि: उवाच--महर्षि दधीचि ने कहा; धर्मम्‌--धर्म की बातें; व:--तुमसे; श्रोतु-कामेन--सुनने की इच्छा से;यूयम्‌--तुम; मे-- मुझसे; प्रत्युदाहता:--विपरीत उत्तर पाकर; एब: --यह; व: --तुम्हारे लिए; प्रियम्‌--प्रिय; आत्मानम्‌--शरीर; त्यजन्तमू--आज या कल मुझे छोड़ कर; सन्त्यजामि--छोड़ता हूँ; अहम्‌-मैं

    परमसाधु दधीचि ने कहा--मैने तुम लोगों से धर्म की बातें सुनने के लिए ही तुम्हारेमांगने पर अपना शरीर देने से इनकार कर दिया है।

    अब, यद्यपि मुझे अपना शरीर अत्यन्तप्रिय है, तो भी तुम लोगों के कल्याण के लिए मैं इसको छोड़ दूँगा, क्योंकि मैं जानता हूँ कियह आज नहीं तो कल अवश्य मुझे छोड़ देगा।

    योडश्रुवेणात्मना नाथा न धर्म न यशः पुमान्‌ ।

    ईहेत भूतदयया स शोच्य: स्थावरैरपि ॥

    ८॥

    यः--जो कोई ; अश्लुवेण-- अस्थायी; आत्मना--शरीर से; नाथा: --हे देवो; न--नहीं; धर्मम्‌-- धार्मिक नियम; न--नहीं;यश: -कीर्ति; पुमानू--मनुष्य; ईहेत--के लिए प्रयत्त करता है; भूत-दयया--जीवों के लिए दया से; सः--वह मनुष्य;शोच्य:--शोचनीय; स्थावरै:--जड़ जीवों के द्वारा; अपि-- भी |

    हे देवो! जो न तो दुखी प्राणियों पर दया दिखाता है और न धार्मिक नियमों या अक्षुण्णकीर्ति के महान्‌ कार्यों के लिए अपने नश्वर शरीर की बलि कर सकता है, वह निश्चय ही जड़प्राणियों तक के द्वारा धिक्कारा जाता है।

    एतावानव्ययो धर्म: पुण्यश्लोकैरुपासित: ।

    यो भूतशोकहर्षा भ्यामात्मा शोचति हृष्यति ॥

    ९॥

    एतावानू--इतने; अव्यय:--अविनाशी; धर्म:--धार्मिक नियम; पुण्य-श्लोकै:--अत्यन्त पवित्र कहे जाने वाले प्रसिद्धपुरुषों द्वारा; उपासित:--मान्य; य:--जो; भूत--जीवों का; शोक --दुख से; हर्षाभ्याम्‌ू--तथा सुखसे; आत्मा--मन;शोचति--पश्चात्ताप करता है; हृष्यति-- प्रसन्न होता है।

    यदि कोई मनुष्य दूसरे जीवों के दुख से दुखी होता है और उनके सुख को देखकर प्रसन्नहोता है, तो पवित्र तथा परोपकारी महापुरुषों द्वारा ऐसे पुरुष के धर्म को अविनाशी मानागया है।

    अहो दैन्यमहो कष्ट पारक्यैः क्षणभड्डुरै ।

    यन्नोपकुर्यादस्वार्थर्मर्त्य: स्वज्ञातिविग्रहै: ॥

    १०॥

    अहो--ओह; दैन्यम्‌-दीन स्थिति; अहो--ओह; कष्टम्‌-कोरे कष्ट; पारक्यै:--जो मृत्यु के बाद कुत्ते तथा गीदड़ों केद्वारा भक्ष्य हैं; क्षण-भद्गरैः--किसी भी क्षण नष्ट होने वाला; यत्‌--क्योंकि; न--नहीं; उपकुर्यात्‌ू--काम आएगा; अ-स्व-अर्थ: --अपने हित के लिए नहीं; मर्त्य:--जीवात्मा जिसकी मृत्यु ध्रुव है; स्व--अपनी सम्पत्ति; ज्ञाति--परिजनों तथामित्रों; विग्रहैः--तथा अपने शरीर से।

    यह शरीर, जिसे मृत्यु के पश्चात्‌ कुत्ते तथा गीदड़ खा जायेंगे, मेरे अपने किसी काम कानहीं है।

    यह कुछ काल तक ही काम आने वाला है और किसी भी क्षण नष्ट हो सकता है।

    यह शरीर तथा इसके सभी कुट॒म्बी तथा सम्पत्ति परोपकार में लगने चाहिए, अन्यथा वे सबदुख एवं विपत्ति के कारण बनेंगे।

    श्रीबादरायणिरुवाचएवं कृतव्यवसितो दध्यड्ड्थर्वणस्तनुम्‌ ।

    परे भगवति ब्रह्मण्यात्मानं सन्नयज़्हौ ॥

    ११॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; कृत-व्यवसित:--निश्चय करके कि क्‍याकरना है ( देवों को शरीर देना है ); दध्यड्---दधीचि मुनि; आथर्वण: --अथर्वा का पुत्र; तनुमू--शरीर को; परे--परम;भगवति-- भगवान्‌ को; ब्रह्मणि--परब्रह्म को; आत्मानम्‌--स्वत:, आत्मा; सन्नयन्‌-- भेंट करके; जहौ--त्याग दिया।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--इस प्रकार अर्थवा के पुत्र दधीचि मुनि ने देवताओं कीसेवा के लिए अपना शरीर त्यागने का निश्चय किया।

    उन्होंने अपने आप ( आत्मा ) को पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ के चरणारविन्द में रख कर पंचभूत से निर्मित अपने स्थूल शरीर को त्यागदिया।

    यताक्षासुमनोबुद्धिस्तत्त्वहग्ध्वस्तबन्धन: ।

    आस्थित: परमं योगं न देहं बुबुधे गतम्‌ ॥

    १२॥

    यत--वश में; अक्ष--इन्द्रियाँ; असु--प्राणवायु; मन: --मन; बुद्धि:--बुद्धि; तत्त्त-हक्‌--तत्त्वों एवं भौतिक तथाआत्मशक्तियों का ज्ञाता; ध्वस्त-बन्धन:--बन्धन से मुक्त; आस्थित: --स्थित होकर; परमम्‌--परम; योगम्‌-- ध्यान,समाधि को; न--नहीं; देहम्‌-- भौतिक शरीर को; बुबुधे--देखा; गतमू--निकला हुआ।

    दधीचि मुनि ने अपनी इन्द्रियों, प्राण, मन तथा बुद्धि को संयमित किया और समाधि मेंलीन हो गये।

    इस प्रकार उनके समस्त भव-बन्धन छिन्न हो गये।

    वे यह नहीं देख सकते थेकि उनका भौतिक शरीर किस प्रकार आत्मा से पृथक्‌ हो गया।

    अथेन्द्रो वज्रमुद्यम्य निर्मितं विश्वकर्मणा ।

    मुने: शक्तिभिरुत्सिक्तो भगवत्तेजसान्वित: ॥

    १३॥

    वबृतो देवगणै: सर्वैर्गजेन्द्रोपर्यशो भत ।

    स्तूयमानो मुनिगणैस्त्रैलोक्यं हर्षयन्निव ॥

    १४॥

    अथ-- त्पश्चात्‌; इन्द्र: --स्वर्ग का राजा; वज़्म्‌--वज्ञ को; उद्यम्य--हृढ़तापूर्वक लेकर; निर्मितम्‌--बनाया हुआ;विश्वकर्मणा--विश्वकर्मा द्वारा; मुने:--दधीचि मुनि की; शक्तिभि:--शक्ति से; उत्सिक्त:--सिक्त होकर; भगवत्‌--श्रीभगवान्‌ की; तेजसा--आध्यात्मिक शक्ति से; अन्वित:--प्रदत्त; वृत:--घिरे हुए; देव-गणै:-- अन्य देवताओं से;सर्वै:--समस्त; गजेन्द्र--अपने हाथी के; उपरि--पीठ पर; अशोभत--चमकने लगा; स्तूयमान:--स्तुति किया जाकर;मुनि-गणै: --मुनियों के द्वारा; त्रै-लोक्यम्‌्--तीनों लोकों को; हर्षयन्‌--प्रसन्न करते हुए; इब--मानो

    तत्पश्चात्‌ राजा इन्द्र ने विश्वकर्मा द्वारा दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्ञ कोहढ़तापूर्वक धारण किया।

    दधीचि मुनि की परम शक्ति से आविष्ट एवं श्रीभगवान्‌ के तेज सेप्रकाशित होकर इन्द्र अपने वाहन ऐराबत की पीठ पर सवार हुआ।

    उसे समस्त देवता घेरे हुएथे और सभी मुनिगण उसकी प्रशंसा कर रहे थे।

    इस तरह जब वह वृत्रासुर का वध करने के लिए सवार होकर चला तो वह अत्यन्त सुशोभित हो रहा था और तीनों लोकों को भा रहाथा।

    वृत्रमभ्यद्रवच्छबत्रुमसुरानीकयूथपै: ।

    पर्यस्तमोजसा राजन्क्रुद्धो रुद्र इबान्तकम्‌ ॥

    १५॥

    वृत्रमू--वृत्रासुर पर; अभ्यद्रवत्‌-- आक्रमण किया; शत्रुम्‌-शत्रु; असुर-अनीक-यूथपै: -- असुरों के सैनिकों केसेनापतियों द्वारा; पर्यस्तम्‌ू--घिरा हुआ; ओजसा--अत्यन्त वेग से; राजनू--हे राजन्‌; कुद्ध:ः--क्रोधित होकर; रूद्र: --भगवान्‌ शिव का अवतार; इब--सहृश; अन्तकम्‌--अन्तक अथवा यमराज

    हे राजा परीक्षित! जिस प्रकार रूद्र अत्यन्त क्रुद्ध होकर पहले समय में अन्तक( यमराज ) को मारने के लिए उसकी ओर दौड़े थे, उसी प्रकार इन्द्र ने अत्यन्त क्रुद्ध होकरबड़े ही वेग से आसुरी सेना के नायकों से घिरे वृत्रासुर पर धावा बोल दिया।

    ततः सुराणामसुरै रण: परमदारुण: ।

    त्रेतामुखे नर्मदायामभवत्प्रथमे युगे ॥

    १६॥

    ततः--तदनन्तर; सुराणाम्‌ू--देवताओं का; असुरैः--असुरों के साथ; रण:--महान्‌ युद्ध; परम-दारुण: --अत्यन्तभयानक; त्रेता-मुखे--त्रेतायुग के प्रारम्भ में; नर्मदायाम्‌--नर्मदा नदी के तट पर; अभवत्‌--हुआ; प्रथमे--प्रथम; युगे--कल्प में।

    तत्पश्चात्‌ सत्ययुग के अन्त तथा त्रेतायुग के प्रारम्भ में नर्मदा नदी के तट पर देवों तथाअसुरों के मध्य घमासान युद्ध हुआ।

    रुद्रैवसुभिरादित्यैरश्चिभ्यां पितृवह्निभि: ।

    मरुद्धिर॒भुभिः साध्यैर्विश्वेदेवैर्मरुत्पतिमू ॥

    १७॥

    हृष्ठा वज्धरं श॒क्रं रोचमानं स्वया थ्रिया ।

    नामृष्यन्नसुरा राजन्मृथे वृत्रपुर:सरा: ॥

    १८ ॥

    रुद्रै:--रुद्रों के द्वारा; वसुभि:--वसुओं के द्वारा; आदित्यै:--आदित्यों के द्वारा; अश्विभ्याम्‌--अश्विनी कुमारों के द्वारा;पितृ--पितरों से; वह्िभि:--वह्नियों के द्वारा; मरुद्धिः--मरुतों के द्वारा; ऋभुभि: --ऋभुओं के द्वारा; साध्यै:--साध्यों केद्वारा; विश्वे-देवै:--विश्वदेवों के द्वारा; मरुत्‌-पतिम्‌--स्वर्ग के राजा इन्द्र को; दृष्टा--देखकर; वज्भ-धरम्‌--वज्ञ धारणकिये; शक्रम्‌--इन्द्र का अन्य नाम; रोचमानम्‌--चमकते हुए; स्वया--अपने आप से; थ्रिया--ऐश्वर्य; न--नहीं;अमृष्यनू--सहा, सहनीय; असुरा:--सभी असुर; राजन्‌--हे राजा; मृथे--युद्ध में; वृत्र-पुरःसरा: --वृत्रासुर के नेतृत्व में |

    हे राजन्‌! जब वृत्रासुर को आगे करके सभी असुर युद्धभूमि में आये तो उन्होंने देखा किराजा इन्द्र बज़ धारण किये हुए है और रूद्रों, बसुओं, आदित्यों, अश्वनी-कुमारों, पितरों,वह्लियों, मरुतों, ऋभुओं, साध्यों तथा विश्वदेवों से घिरा हुआ है और इस प्रकार से देदीप्यमानहै कि उसका तेज असुरों के लिए असहा था।

    नमुचि: शम्बरोनर्वा द्विमूर्धा ऋषभोउसुर: ।

    हयग्रीव: शड्जू शिरा विप्रचित्तिययोमुख: ॥

    १९॥

    पुलोमा वृषपर्वा च प्रहेतिहतिरुत्कल: ।

    दैतेया दानवा यक्षा रक्षांसि च सहस्त्रश: ॥

    २०॥

    सुमालिमालिप्रमुखा: कार्तस्वरपरिच्छदा: ।

    प्रतिषिध्येन्द्रसेनाग्रं मृत्योरपि दुरासदम्‌ ॥

    २१॥

    अभ्यर्दयन्नसम्भ्रान्ता: सिंहनादेन दुर्मदा: ।

    गदाभिः परिधैर्बाणै: प्रासमुद्गरतोमरै: ॥

    २२॥

    नमुचि:--नमुचि; शम्बर: --शम्बर; अनर्वा--अनर्वा ; द्विमूर्धा--द्विमूर्धा; ऋषभ: --ऋषभ; असुरः--असुर; हयग्रीव:--हयग्रीव; शद्भु शिरा:--शंकुशिरा; विप्रचित्ति:--विप्रचित्ति; अयोमुख: --अयोमुख; पुलोमा--पुलोमा; वृषपर्वा--वृषपर्वा;च-भी; प्रहेति:--प्रहेति; हेतिः --हेति; उत्तल:--उत्कल; दैतेया: --दैत्यगण; दानवा:--दानवगण; यक्षा:--यक्षगण;रक्षांसि--राक्षस; च--तथा; सहस्त्रश:--हजारों में; सुमालि-मालि-प्रमुखा: --सुमालि तथा मालि आदि अन्य; कार्तस्वर--सोने के; परिच्छदा:--आशभूषणों से युक्त; प्रतिषिध्य--पीछे रहकर; इन्द्र-सेना-अग्रम्‌ू--इन्द्र की सेना के आगे; मृत्यो: --मृत्यु के लिए; अपि-- भी; दुरासदम्‌--पहुँचना कठिन; अभ्यर्दयन्‌--सताये हुए; असम्भ्रान्ता:--डर रहित; सिंह-नादेन--सिंह की सी गर्जना से; दुर्मदा:-- भयानक; गदाभि:--गदा से; परिधै:--लौहगदा से; बाणै:--बाणों से; प्रास-मुद्गर-तोमरैः--कँटीले प्रक्षेपास्त्रों

    मुगदर तथा भालों से सैकड़ों हजारों असुरों, यक्षों, राक्षसों ( मनुष्य-भक्षकों ) तथा सुमालि, मालि आदिअन्यों ने राजा इन्द्र की सेनाओं को रोका जिन्हें साक्षात्‌ काल भी नहीं जीत सकता था।

    असुरों में नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, ऋषभ, असुर, हयग्रीव, शंकु-शिरा, विप्रचित्ति,अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति, हेति तथा उत्कल सम्मिलित थे।

    ये अजेय असुरस्वर्णाभूषणों से भूषित होकर सिंह के समान निर्भीक होकर घोर नाद कर रहे थे और गदा,परिघ, बाण, प्रास, मुद्गर तथा तोमर जैसे हथियारों से देवताओं को पीड़ा पहुँचा रहे थे।

    शूलै: परश्रथे: खड़्गै: शतघ्नीभिर्भुशुण्डिभि: ।

    सर्वतोवाकिरन्शस्त्रैरस्त्रैश्व विबुधर्षभान्‌ ॥

    २३॥

    शूलै:--बर्छो से; परश्रधैः --फरसों से; खड्गैः--तलवारों से; शतघ्नीभि:--शतघ्नियों से; भुशुण्डिभि:-- भुशुण्डियों से;सर्वतः--चारों ओर; अवाकिरन्‌--तितर-बितर करके; शस्त्र: --शस्त्रों से; अस्त्रै:--बाणों से; च--तथा; विबुध-ऋषभान्‌--देवताओं के प्रमुख ।

    बछों, त्रिशूलों, फरसों, तलवारों तथा शतघ्नी एवं भुशुण्डी जैसे अन्य हथियारों सेसुसज्जित होकर असुरों ने विभिन्न दिशाओं से आक्रमण कर दिया और देवताओं की सेना केसमस्त नायकों को तितर-बितर कर दिया।

    न तेडदृश्यन्त सज्छन्नाः शरजालै: समन्ततः ।

    पुझ्ननुपुड्डुपतितैज्योतीषीव नभोघनै: ॥

    २४॥

    न--नहीं; ते--वे ( देवता ); अहृश्यन्त--देखे गये; सउछन्ना:--पूर्णतया आच्छादित; शर-जालै:--बाणों के जाल से;समन्ततः:--चारों ओर; पुद्छ-अनुपुद्ड-एक के बाद एक तीर; पतितै:--गिरने से; ज्योत्ीषि इब-- आकाश में तारों केसमान; नभः-घनै:--घने बादलों के द्वारा।

    जिस प्रकार घने बादलों के आकाश में छा जाने के बाद तारे नहीं दिखाई पड़ते उसीप्रकार एक के बाद एक गिरने वाले बाणों के जाल से पूर्णतया आच्छादित हो जाने सेदेवतागण दिखाई नहीं पड़ रहे थे।

    न ते शस्त्रास्त्रवर्षोघा ह्यासेदु: सुरसैनिकान्‌ ।

    छिन्ना: सिद्धपथे देवैलघुहस्तै: सहस्त्रधा ॥

    २५॥

    न--नहीं; ते--वे; शस्त्र-अस्त्र-वर्ष-ओघा:--बाणों तथा अन्य हथियारों की वर्षा; हि--निस्सन्देह; आसेदु:--पहुँची; सुर-सैनिकान्‌--देवताओं की सेना; छिन्ना: --कटी हुई; सिद्ध-पथे--आकाश में; देवै: --देवताओं के द्वारा; लघु-हस्तैः--तेजीसे चलते हाथों द्वारा, लाघव से; सहस्त्रधा--हजारों खण्डों में |

    देवताओं की सेना को मारने के लिए हथियारों तथा बाणों के द्वारा की गई वर्षा उन तकनहीं पहुँच पाई, क्योंकि उन्होंने अपने हस्तलाघव से आकाश में इन हथियारों को काटकरखण्ड-खण्ड कर दिया।

    अथ क्षीणास्त्रशस्त्रौा गिरिश्रुड्रद्रमोपलै: ।

    अभ्यवर्षन्सुरबलं चिच्छिदुस्तां श्र पूर्ववत्‌ ॥

    २६॥

    अथ--त्पश्चात्‌; क्षीण--अत्यन्त दुर्बल; अस्त्र--मंत्र द्वारा छोड़े गये बाणों का; शस्त्र--तथा हथियार; ओघा:--समूह;गिरि--पर्वत की; श्रूक़ु--चोटी से; द्रुम--वृक्षों से; उपलैः--तथा पत्थरों से; अभ्यवर्षन्‌--वर्षा करते हुए; सुर-बलम्‌--देवताओं के सैनिक; चिच्छिदु:--खण्ड खण्ड कर दिया; तान्‌ू--उनको; च--तथा; पूर्व-वत्‌--पहले की तरह।

    जब असुरों के हथियार तथा मंत्र चुक गये, तो उन्होंने देवताओं पर पर्वतों के शिखर,वृक्ष तथा पत्थर बरसाना प्रारम्भ कर दिया।

    किन्तु देवता इतने प्रभावशाली तथा दक्ष थे किउन्होंने पूर्ववत्‌ इन सभी हथियारों को आकाश में खण्ड-खण्ड कर दिया।

    तानक्षतान्स्वस्तिमतो निशाम्य शस्त्रास्त्रपूगैरथ वृत्रनाथा: ।

    द्रुमैर्टषद्धिर्विविधाद्िश्रुड्ेरविज्षतांस्तत्रसुरिद्धसैनिकान्‌ ॥

    २७॥

    तान्‌--उनको ( देवों के सैनिकों को ); अक्षतान्‌--बिना चोट के; स्वस्ति-मत:--अत्यन्त स्वस्थ; निशाम्य--देखकर;शस्त्र-अस्त्र-पूगै:--हथियारों तथा मंत्रों के समूहों द्वारा; अथ--तत्पश्चात्‌; वृत्र-नाथा:--वृत्रासुर के अधीन सैनिक; ह्रुमैः --वृक्षों से; हृषद्धिः--पत्थरों से; विविध-- अनेक; अद्वि--पर्वतों के; श्रृद्ढी:--शिखरों द्वारा; अविक्षतानू--बिना घायल;तत्रसु:-- भयभीत हो गये; इन्द्र-सेनिकान्‌--राजा इन्द्र के सैनिक |

    जब वृत्रासुर द्वारा आदेशित असुर सैनिकों ने देखा कि इन्द्र के सैनिक अनेक शस्त्रास्त्रोंके समूह से, यहाँ तक कि वृक्षों, पत्थरों तथा पर्वत-श्रुगों के द्वारा भी घायल नहीं हो सके हैंऔर अक्षत बने हुए हैं, तो असुरगण अत्यन्त भयभीत हुए।

    सर्वे प्रयासा अभवन्विमोघा:कृताः कृता देवगणेषु दैत्यै: ।

    कृष्णानुकूलेषु यथा महत्सुध्षुद्रे: प्रयुक्ता ऊषती रूक्षवाच: ॥

    २८॥

    सर्वे--समस्त; प्रयासा:--प्रयल; अभवनू--हो गये; विमोघा:--निष्फल; कृता:--किया हुआ; कृता:--पुनः किया गया;देव-गणेषु--देवताओं में; दैत्यैः--असुरों द्वारा; कृष्ण-अनुकूलेषु--जो श्रीकृष्ण द्वारा सदैव रक्षित हैं; यथा--जिस प्रकार;महत्सु--वैष्णवों को; क्षुद्रैः--तुच्छ मनुष्यों द्वारा; प्रयुक्ता:--प्रयुक्त; ऊषती:--प्रतिकूल; रूक्ष--कठोर; वाच:--शब्द |

    जब तुच्छ लोग सन्त पुरुषों पर झूठे, क्रुद्ध आरोप लगाने के लिए दुर्वचनों का व्यवहारकरते हैं, तो निरर्थक वचनों से महापुरुष विचलित नहीं होते।

    इसी प्रकार श्रीकृष्ण द्वारासुरक्षित देवताओं के विरुद्ध किये जाने वाले असुरों के सभी प्रयास निष्फल हो रहे थे।

    ते स्वप्रयासं वितथ॑ निरीक्ष्यहरावभक्ता हतयुद्धदर्पा: ।

    पलायनायाजिमुखे विसृज्यपतिं मनस्ते दधुरात्तसारा: ॥

    २९॥

    ते--वे ( असुर ); स्व-प्रयासम्‌--अपने प्रयत्नों से; वितथम्‌--निष्फल; निरीक्ष्य--देखकर; हरौ अभक्ता:--जो श्रीभगवान्‌के भक्त नहीं हैं, असुर; हत--पराजित; युद्ध-दर्पा:--लड़ने में उनका घमंड; पलायनाय--युद्धभूमि से भगने के लिए;आजि-मुखे--युद्ध के प्रारम्भ में; विसृज्य--एक ओर छोड़कर; पतिम्‌ू--अपने सेनानायक, वृत्रासुर को; मन:--उनकेमन; ते--वे सब; दधु:--दिया; आत्त-सारा:--शौर्य-विहीन |

    जब श्रीभगवान्‌ कृष्ण के अभक्त असुरों ने देखा कि उनके सारे प्रयास निष्फल हो गये हैं, तो युद्ध करने का उनका सारा घमंड जाता रहा।

    उन्होंने अपने नायक को युद्ध शुरू होनेके समय ही छोड़कर वहाँ से भागने का निश्चय कर लिया, क्योंकि उनके शत्रुओं ने उनकासारा शौर्य छीन लिया था।

    वृत्रोउसुरांस्ताननुगान्मनस्वीप्रधावत: प्रेक्ष्य बभाष एतत्‌ ।

    पलायित॑ प्रेक्ष्य बल॑ च भग्नंभयेन तीब्रेण विहस्य वीर: ॥

    ३०॥

    वृत्र:--वृत्रासुर, असुरों का सेनानायक; असुरान्‌--सभी असुरों को; तान्‌ू--उन; अनुगान्‌--उसके अनुयायियों को;मनस्वी--विशाल हृदय वाला; प्रधावत:--भागते हुए; प्रेक्ष्य--देखकर; बभाष--बोला; एतत्‌--यह; पलायितम्‌-- भागतेहुए; प्रेक्ष्ष--देखकर; बलम्‌--सेना को; च--तथा; भग्नमू--टूटा हुआ; भयेन-- भय से; तीव्रेण--तीव्र; विहस्थ--हँसकर; वीर:--बहादुर।

    अपनी सेना को क्षत-विक्षत तथा समस्त असुरों को, यहाँ तक कि जो परमवीर कहलातेथे, अत्यन्त भय के कारण युद्धभूमि से भागते देखकर सचमुच विशाल हृदय वाला बहादुरवृत्रासुर हँसा और इन शब्दों में बोला।

    कालोपपपन्नां रुचिरां मनस्विनांजगाद वाचं पुरुषप्रवीर: ।

    हे विप्रचित्ते नमुचे पुलोमन्‌मयानर्वज्छम्बर मे श्रुणुध्वम्‌ ॥

    ३१॥

    काल-उपपन्नाम्‌ू--काल तथा परिस्थिति के अनुकूल; रुचिराम्‌--अत्यन्त सुन्दर; मनस्विनाम्‌ू--महान्‌, विशाल हृदय वालेपुरुषों के; जगाद--बोला; वाचम्‌--शब्द; पुरुष-प्रवीर: --वीरों का वीर, वृत्रासुर; हे--ेरे; विप्रचित्ते--विप्रचित्ति;नमुचे--हे नमुचि; पुलोमन्‌--हे पुलोमा; मय--हे मय; अनर्वन्‌--हे अनर्वा; शम्बर--हे शम्बर; मे--मुझसे; श्रृणुध्वम्‌--कृपया सुनो ।

    अपनी स्थिति तथा काल और परिस्थितियों के अनुसार वीरशिरोमणि बृत्रासुर ने ऐसेवचन कहे जो विचारवान्‌ पुरुषों द्वारा प्रशंसा के योग्य थे।

    उसने असुर-वीरों को बुलाया,'हे विप्रच्चित्ति, हे नमुचि, हे पुलोमा, हे मय, हे अनर्वा तथा शम्बर! भागो नहीं, मेरी बात तोसुन लो।

    'जातस्य मृत्युर्धुव एवं सर्वतःप्रतिक्रिया यस्य न चेह क्लृप्ता ।

    लोको यशश्चाथ ततो यदि ह्ामुंको नाम मृत्युं न वृणीत युक्तम्‌ ॥

    ३२॥

    जातस्य--जिसने जन्म लिया है ( समस्त जीव ) उनकी; मृत्युः--मृत्यु:; श्रुवः--अनिवार्य; एब--निस्सन्देह; सर्वत:ः--संसारमें सर्वत्र; प्रतिक्रिया--बचने का उपाय, काट; यस्य--जिसका; न--नहीं; च-- भी; इह--इस संसार में; क्लछ॒प्ता--बनायागया; लोक:--स्वर्गलोक; यश:--कीर्ति; च--तथा; अथ--तब; ततः -- उससे; यदि--यदि; हि--निस्सन्देह; अमुम्‌--वह; कः--कौन; नाम--निस्सन्देह; मृत्युम्‌--मृत्यु; न--नहीं; वृणीत--स्वीकार करेगा; युक्तम्‌-- अनुकूल |

    वृत्रासुर ने कहा--इस संसार में जन्मे सभी जीवों को मरना है।

    निश्चित ही, इस संसार मेंकोई भी मृत्यु से बचने के किसी उपाय को नहीं ढूँढ सका है।

    विधाता तक ने इससे बचनेका कोई उपाय नहीं बताया।

    ऐसी परिस्थितियों में जब कि मृत्यु अपरिहार्य है और यदिस्वर्गलोक की प्राप्ति हो रही हो और उपयुक्त मृत्यु के कारण सदैव यश तथा कीर्ति बनी रहेतो भला कौन पुरुष होगा जो ऐसी यशस्वी मृत्यु को स्वीकार नहीं करेगा ?

    द्वौ सम्मताविह मृत्यू दुरापौयद्वह्मसन्धारणया जितासु: ॥

    कलेवरं योगरतो विजह्माद्‌यदग्रणीवीरशयेडनिवृत्त: ॥

    ३३॥

    द्वौ--दो; सम्मतौ--( शास्त्रों तथा महापुरुषों द्वारा ) सम्मत; इह--इस संसार में; मृत्यू--मृत्युएँ; दुरापौ--अत्यन्त दुर्लभ;यत्‌--जो; ब्रह्म-सन्धारणया--ब्रह्म, परमात्मा या परब्रह्म कृष्ण में ध्यानमग्न होकर; जित-असु: --मन तथा इन्द्रयों को वशमें करके; कलेवरम्‌--शरीर को; योग-रत:--योग-साधना में लीन; विजह्यात्‌--त्याग सकता है; यत्‌--जो; अग्रणी :--आगे चलकर, पथ-पदर्शक बनकर; वीर-शये--युद्धभूमि में ; अनिवृत्त:--पीठ न दिखाकर |

    यशस्वी मृत्यु को वरण करने के दो उपाय हैं और वे दोनों अत्यन्त दुर्लभ हैं।

    पहला है,योग-साधना, विशेष रूप से भक्तियोग के द्वारा मरना जिसमें मनुष्य मन तथा प्राण को वशमें करके पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के चिन्तन में लीन होकर मृत्यु को प्राप्त होता है।

    दूसरा हैयुद्धभूमि में सेना का नेतृत्व करते हुए तथा कभी पीठ न दिखाते हुए मर जाना।

    शास्त्र में इनदो प्रकार की मृत्युओं को यशस्वी कहा गया है।

    TO

    अध्याय ग्यारह: वृत्रासुर के दिव्य गुण

    6.11श्रीशुक उवाचत एवं शंसतो धर्म वच: पत्युरचेतस: ।

    नैवागृह्नन्त सम्भ्रान्ताः पलायनपरा नूप ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; ते--वे; एवम्‌--इस प्रकार; शंसत:--प्रशंसा करते; धर्मम्‌--धर्म केनियम को; वच: --शब्द; पत्यु:--अपने स्वामी के; अचेतस: --अत्यन्त विचलित मन से; न--नहीं; एव--निस्सन्देह;अगृहन्त--स्वीकार किया; सम्भ्रान्ता:-- भयभीत; पलायन-परा: -- भागने को उद्यत; नृप--हे राजन

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजन्‌! असुरों के प्रधान सेनानायक वृत्रासुर ने अपनेसेनानायकों को धर्म के नियमों का उपदेश दिया, किन्तु वे कायर तथा भगोड़े सेनानायकभय से इतने विचलित हो चुके थे कि उन्होंने उसके वचनों को नहीं माना।

    विशीर्यमाणां पृतनामासुरीमसुरर्षभ: ।

    कालानुकूलैस्त्रिदशै: काल्यमानामनाथवत्‌ ॥

    २॥

    इृष्टातप्यत सड्क्रुद्ध इन्द्रशत्रुरमर्पित: ।

    तान्निवार्यौजसा राजन्निर्भत्स्येदमुवाच ह ॥

    ३॥

    विशीर्यमाणाम्‌--छिन्न-भिन्न; पृतनाम्‌ू--सेना को; आसुरीम्‌--असुरों की; असुर-ऋषभ:--असुरों में श्रेष्ठ, वृत्रासु; काल-अनुकूलै:--समय के अनुसार परिस्थितियों का पालन करते हुए; त्रिदशै:--देवताओं के द्वारा; काल्यमानामू--पीछा कियेगये; अनाथ-वत्‌--असुरक्षित की तरह; दृष्टा--देखकर; अतप्यत--दुखी हुआ; सड्क्रुद्ध:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; इन्द्र-शत्रु;--इन्द्र का वैरी, वृत्रासुर; अमर्षित:--न सह सकने से; तान्‌ू--उन ( देवताओं ) को; निवार्य--रोक कर; ओजसा--अत्यन्त बलपूर्वक से; राजन्‌ू--हे राजा परीक्षित; निर्भरत्स्य--डॉँटकर; इृदम्‌--यह; उवाच--कहा; ह--निस्सन्देह

    हे राजा परीक्षित! समय द्वारा प्रदत्त अनुकूल अवसर का लाभ उठाकर देवताओं नेअसुरों की सेना पर पीछे से आक्रमण कर दिया और असुर सैनिकों को खदेड़कर इधर-उधरबिखेर दिया, मानो उनकी सेना में कोई नायक ही न हो।

    अपने सैनिकों की दयनीय दशा कोदेखकर असुरश्रेष्ठ वृत्रासुर जिसे इन्द्रशत्रु कहा जाता था, अत्यन्त दुखी हुआ।

    ऐसी पराजय नसह सकने के कारण उसने देवताओं को रोका और बलपूर्वक डाँटते हुए क्रुद्धभाव से इसप्रकार कहा।

    किं व उच्चरितर्मातुर्धावद्धधि: पृष्ठतो हतेः ।

    न हि भीतवध: एलाध्यो न स्वर्ग्य: शूरमानिनाम्‌ ॥

    ४॥

    किम्‌--क्या लाभ; वः--तुम्हारे लिए; उच्चरितैः --मल-मूत्र के समान; मातु:--माता का; धावद्धिः-- भागते हुए;पृष्ठतः:--पीछे से; हतैः--मारा; न--नहीं; हि--निश्चय ही; भीत-वध:-- भयभीत पुरुष का वध; एलाघ्य:--प्रशंसनीय;न--न तो; स्वर्ग्य:--स्वर्गलोक की प्राप्ति; शूर-मानिनाम्‌--शूर वीरों का

    है देवताओ! इन असुर सौनिकों का जन्म वृथा ही हुआ।

    निस्सन्देह, ये अपनी माताओंके शरीर से मलमूत्र के समान आये हैं।

    ऐसे शत्रुओं को, जो डर के मारे भाग रहे हैं, पीछे सेमारने में क्या लाभ होगा?

    अपने को वीर कहलाने वाले को चाहिए कि वह अपनी मृत्यु सेभयभीत शत्रु का वध न करे।

    ऐसा वध न तो प्रशंसनीय है, न ही इससे किसी को स्वर्ग कीप्राप्ति होती है।

    यदि व: प्रधने श्रद्धा सारं वा क्षुल्लका हृदि ।

    अग्रे तिष्ठत मात्र मे न चेद्ग्राम्यसुखे स्पृह्ा ॥

    ५॥

    यदि--यदि; व:--तुम सबका; प्रधने--युद्ध में; श्रद्धा--विश्वास; सारम्‌-- धैर्य; वा--अथवा; क्षुल्लका:--हे नीचो;हृदि--हृदय में; अग्रे--सामने; तिष्ठत--जरा ठहरो; मात्रमू--एक क्षण के लिए; मे--मेरे; न--नहीं; चेत्‌ू--यदि; ग्राम्य-सुखे--इन्द्रियतृप्ति में; स्पृहा-- आकांक्षा

    हे तुच्छ देवो! यदि तुम्हें अपनी वीरता में सचमुच विश्वास है, यदि तुम्हारे अन्तस्थल मेंधैर्य है और यदि तुम इन्द्रियतृप्ति के कामी नहीं हो, तो क्षण भर मेरे समक्ष ठहरो।

    एवं सुरगणान्क्रुद्धो भीषयन्वपुषा रिपून्‌ ।

    व्यनदत्सुमहाप्राणो येन लोका विचेतस: ॥

    ६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सुर-गणान्‌--देवतागण को; क्रुद्ध:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; भीषयन्‌--डरावने; वपुषा-- अपने शरीरसे; रिपूनू--अपने शत्रुओं को; व्यनदत्‌--गरजा; सु-महा-प्राण:--परम बलवान्‌ वृत्रासुर; येन--जिससे; लोका:--सभीलोग; विचेतस:--अचेत, बेहोश

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--अति क्रुद्ध एवं अत्यन्त शक्तिशाली वीर वृत्रासुर देवताओंको अपने बलिष्ठ एवं गठित शरीर से भयभीत करने लगा।

    जब उसने जोर से गर्जना की तोलगभग सारे जीव अचेत हो गये।

    तेन देवगणा: सर्वे वृत्रविस्फोटनेन वे ।

    निपेतुर्मूर्च्छिता भूमौ यथेवाशनिना हता: ॥

    ७॥

    तेन--उससे; देव-गणा:--देवता; सर्वे--समस्त; वृत्र-विस्फोटनेन--वृत्रासुर की भयानक गर्जना से; बै--निस्सन्देह;निपेतु:--गिर पड़े; मूर्च्छिता:--मूर्च्छित होकर; भूमौ--पृथ्वी पर; यथा--जिस प्रकार; एब--निस्सन्देह; अशनिना--वज्ञसे; हता:--मारे गये

    जब समस्त देवताओं ने वृत्रासुर की सिंह जैसी भयानक गर्जना सुनी तो वे मूर्च्छितहोकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो उन पर वज्ञपात हुआ हो।

    मर्मर्द पदभ्यां सुरसैन्यमातुरंनिमीलिताक्ष॑ रणरड्डदुर्मद: ।

    गां कम्पयत्रुद्यतशूल ओजसानालं वन॑ यूथपतिर्यथोन्मद: ॥

    ८॥

    ममर्द--कुचल दिया; पद्भ्याम्‌--अपने पैरों से; सुर-सैन्यम्‌--देवताओं की सेना को; आतुरम्‌-- अत्यन्त भयभीत;निमीलित-अक्षम्‌--बन्द नेत्रों वाले; रण-रड्ड-दुर्मद:--युद्धभूमि में अजेय; गाम्‌--पृथ्वी मंडल को; कम्पयन्‌--हिलातेहुए; उद्यत-शूलः--अपना त्रिशूल लेकर; ओजसा--अपने बल से; नालम्‌ू--नरकट के; वनम्‌--जंगल; यूथ-पति:--हाथी; यथा--जिस प्रकार; उन्मद:--पगलाया |

    ज्योंही देवताओं ने डर के मारे अपनी आँखें बन्द कर लीं, वृत्रासुर ने अपना त्रिशूल उठाकरके और अपने बल से पृथ्वी को दहलाते हुए युद्धभूमि में देवताओं को अपने पैरों के तलेउसी प्रकार रौंद डाला जिस प्रकार पागल हाथी नरकट के वन को रौंद डालता है।

    विलोक्य तं वज्ञधरोत्यमर्षित:स्वशत्रवेभिद्रवते महागदाम्‌ ।

    चिक्षेप तामापततीं सुदुःसहांजग्राह वामेन करेण लीलया ॥

    ९॥

    विलोक्य--देखकर; तम्‌--उस ( वृत्रासुर ) को; वज्ञर-धर:--वज् धारण किये हुए ( राजा इन्द्र ) ने; अति--अत्यधिक;अमर्षित:--क्रुद्ध; स्व-- अपने; शत्रवे --शत्रु के प्रति; अभिद्रवते--दौड़ते हुए; महा-गदाम्‌--अत्यन्त शक्तिशाली गदा;चिक्षेप--फेंका; तामू--उस ( गदा ) को; आपततीम्‌--अपनी ओर आती; सु-दुःसहाम्‌--सामना करना कठिन; जग्राह--पकड़ लिया; वामेन-- अपने बाएँ; करेण--हाथ से; लीलया--आसानी से

    वृत्रासुर की करतूत देखकर स्वर्ग का राजा इन्द्र अधीर हो उठा और उस पर अपनी एकगदा फेंकी, जिसको रोकपाना अत्यन्त दुष्कर था।

    फिर भी ज्योंही वह गदा उसकी ओरपहुँची, वृत्रासुर ने उसे अपने बाएँ हाथ से सरलतापूर्वक पकड़ लिया।

    स इन्द्रशत्रु: कुपितो भूशं तयामहेन्द्रवाहं गदयोरुविक्रमः ।

    जघान कुम्भस्थल उन्नदन्मृधेतत्कर्म सर्वे समपूजयन्रूप ॥

    १०॥

    सः--वह; इन्द्र-शत्रु;--वृत्रासुर; कुपित:--क्रुद्ध; भूशम्‌-- अत्यधिक; तया--उससे; महेन्द्र-वाहम्‌--इन्द्र का वाहन जोहाथी है; गदया--गदा से; उरू-विक्रम:--अपने बल के लिए विख्यात; जघान--मारा; कुम्भ-स्थले--सिर पर; उन्नदन्‌--चिग्घाड़ करता हुआ; मृथे--युद्ध में; तत्‌ कर्म--वह कार्य ( इन्द्र के हाथी के सिर पर वार ); सर्वे--सभी सैनिक दोनोंपक्षों के समपूजयन्‌--प्रशंसा की; नृप--हे राजा परीक्षित!

    हे राजा परीक्षित! इन्द्र के शत्रु, पराक्रमी वृत्रासुर ने उस गदा से क्रोधपूर्वक इन्द्र के हाथीके सिर पर जोर से प्रहार किया जिससे वह युद्धभूमि में चिग्घाड़ने लगा।

    इस वीरता पूर्णकार्य के लिए दोनों पक्षों के सैनिकों ने उसकी प्रशंसा की।

    ऐरावतो वृत्रगदाभिमृष्टोविघूर्णितोउद्रवि: कुलिशाहतो यथा ।

    अपासरद्धिन्नमुखः सहेन्द्रोमुझ्नन्नसृक्सप्तधनुर्भशार्त: ॥

    ११॥

    ऐराबत: --राजा इन्द्र का हाथी, ऐरावत; वृत्र-गदा-अभिमृष्ट:--वृत्रासुर की गदा के आघात से; विघूर्णित: --चकराकर;अद्विः--पर्वत; कुलिश--वबज़ से; आहत: -- प्रताड़ित; यथा--जिस प्रकार; अपासरत्‌--पीछे हट गया; भिन्न-मुख: --मुँहटूट जाने से; सह-इन्द्र:--इन्द्र सहित; मुझ्ननू--उगलते हुए; असृक्‌--रक्त; सप्त-धनु:--सात बाणों के तुल्य दूरी ( लगभगचौदह गज ); भूश--अत्यधिक; आर्त:--व्याकुल।

    वृत्रासुर की गदा के आघात से ऐरावत हाथी वज़न के द्वारा ताड़ित पर्वत के समान, तीत्रवेदना का अनुभव करता हुआ तथा अपने टूटे मुँह से रक्त उगलता हुआ चौदह गज पीछेछिटक गया।

    भारी वेदना के कारण वह पीठ पर बैठे इन्द्र के समेत भूमि पर गिर पड़ा।

    न सन्नवाहाय विषण्णचेतसेप्रायुड्र भूय: स गदां महात्मा ।

    इन्द्रोडमृतस्यन्दिकराभिमर्शवीतव्यथक्षतवाहोवतस्थे ॥

    १२॥

    न--नहीं; सन्न-- थकित; वाहाय--अपने वाहन के हेतु; विषण्ण-चेतसे--अपने चित्त में अत्यन्त खिन्न; प्रायुड् --चलाया;भूय:--पुनः; सः--उस ( वृत्रासुर ) ने; गदाम्‌--गदा; महा-आत्मा--वह महापुरुष ( इन्द्र को खिन्न देखकर उस पर गदा नचलाने वाला ); इन्द्र:--इन्द्र; अमृत-स्यन्दि-कर--अमृत उत्पन्न करने वाले अपने हाथ के; अभिमर्श--स्पर्श से; वीत--मुक्त; व्यध--पीड़ा से; क्षत--तथा घाव; वाह:--जिसका वाहन हाथी; अवतस्थे--वहाँ आ खड़ा हुआ

    जब उसने देखा कि इन्द्र-वाहन हाथी थका हुआ एवं घायल है और उसे इस तरह आहत हुआ देखकर इन्द्र स्वयं खिन्न है, तो वह महापुरुष वृत्रासुर धर्म के नियमों का पालन करतेहुए इन्द्र पर अपनी गदा से पुनः प्रहार करने से हिचका।

    इस अवसर का लाभ उठाकर इन्द्र नेअपने अमृतवर्षी हाथ से हाथी को छू दिया जिससे उस पशु की पीड़ा जाती रही और उसकेघाव ठीक हो गये।

    तब हाथी तथा इन्द्र दोनों चुपचाप खड़े हो गए।

    स तं नृपेन्द्राहवकाम्यया रिपुंवज़ायुध॑ भ्रातृहणं विलोक्य ।

    स्मरंश्व तत्कर्म नृशंसमंहःशोकेन मोहेन हसझगाद ॥

    १३॥

    सः--वह ( वृत्रासुर ); तम्‌--उस ( इन्द्र ) को; नूप-इन्द्र--हे राजा परीक्षित; आहव-काम्यया--युद्ध की इच्छा से; रिपुम्‌--शत्रु को; वज्ञ-आयुधम्‌--जिसका हथियार वज् ( दधीचि की अस्थियों से निर्मित ) था; भ्रातृ-डहणम्‌--अपने भाई का वधकरने वाले; विलोक्य--देखकर; स्मरन्‌--स्मरण करके; च--तथा; तत्‌-कर्म--उसके कार्य; नृ-शंसम्‌--क्रूर; अंह:--बड़ा पाप; शोकेन--शोक से; मोहेन--मोहवश; हसन्‌--हँसता हुआ; जगाद--कहने लगा |

    हे राजन्‌! जब महा भट्ट वृत्रासुर ने अपने शत्रु तथा अपने भाई के हत्यारे इन्द्र को अपनेसमश्ष लड़ने के लिए हाथ में बज्न लिए हुए देखा तो उसे स्मरण हो आया कि इन्द्र ने किसक्रूरता के साथ उसके भाई का वध किया था।

    इन्द्र के पापकर्मों को सोचते हुए वह शोकतथा विस्मृति से पागल हो उठा।

    व्यंग्य से हँसते हुए उसने इस प्रकार कहा।

    श्रीवृत्र उबाचदिष्ठदय्या भवान्मे समवस्थितो रिपु-र्यो ब्रह्महा गुरुहा भ्रातृह्ा च ।

    दिष्टद्यानुणोउद्याहमसत्तम त्वयामच्छूलनिर्भिन्नदषद्धूदाचिरात्‌ ॥

    १४॥

    श्री-वृत्र: उवाच--महान्‌ वीर वृत्रासुर ने कहा; दिछ्या--सौभाग्य से; भवान्‌ू-- आप; मे--मेरे; समवस्थित:--( समक्ष )स्थित; रिपु:--मेरा शत्रु; यः--जो; ब्रह्म-हा--ब्राह्मण का वध करने वाला; गुरु-हा--अपने गुरु का वध करने वाला;भ्रातृ-हा--मेरे भाई का वध करने वाला; च-- भी; दिष्टयया--सौभाग्य से; अनृण: --उऋण ( भाई के ); अद्य--आज;अहम्‌-मैं; असत्‌-तम--हे परम घृणित; त्वया--तुम्हारे द्वारा; मत्‌-शूल-मेरे त्रिशूल से; निर्भिन्न-- भेदे जाकर; दृषत्‌--पत्थर की तरह; हृदा--जिसका हृदय; अचिरात्‌--तुरन्त |

    श्रीवृत्रासुर ने कहा : वह जिसने ब्राह्मण की हत्या की है, वह जिसने अपने गुरु का वधकिया है, वह जिसने मेरे भाई की हत्या की है, इस समय सौभाग्यवश मेरे शत्रु के रूप में मेरेसामने खड़ा हुआ है।

    अरे नीच! जब मैं तुम्हारे पत्थर-सह॒श हृदय को अपने त्रिशूल से भेदडालूँगा तब मैं अपने भाई के ऋण से उऋण हो सकूँगा।

    यो नोग्रजस्यात्मविदो द्विजाते-गुरोरपापस्य च दीक्षितस्य ।

    विश्रभ्य खड्गेन शिरांस्यवृश्चत्‌पशोरिवाकरुण: स्वर्गकाम: ॥

    १५॥

    यः--जो; न:ः--हमारे; अग्र-जस्य--बड़े भाई का; आत्म-विद:--जिसे आत्म-साक्षात्कार हो चुका है, स्वरूपसिद्ध; द्वि-जाते: --सुपात्र ब्राह्मण; गुरो:--तुम्हारा गुरु; अपापस्थ--समस्त पापकर्मो से मुक्त; च--भी; दीक्षितस्य--यज्ञ की दीक्षादेने वाले के रूप में नियुक्त; विश्रभ्य--विश्वासपूर्वक; खड्गेन-- अपनी तलवार से; शिरांसि--सिर; अवृश्चत्‌--काटलिया; पशो:--पशु का; इब--सहृश; अकरुण: --निर्दय; स्वर्ग-काम: --स्वर्ग लोक की इच्छा करने वाले |

    तुमने स्वर्ग में निवास करते रहने के उद्देश्य से मेरे बड़े भाई का, जो स्वरूपसिद्ध( आत्मवेत्ता ), निष्पाप एवं सुपात्र ब्राह्मण था, जिसे तुमने अपना मुख्य पुरोहित नियुक्त कियाथा, वध कर दिया है।

    वह तुम्हारा गुरु था और यद्यपि तुमने अपना यज्ञ कराने का सारा भारउस पर छोड़ रखा था, किन्तु बाद में अत्यन्त क्रूरता के साथ उसके सिर को शरीर से उसीप्रकार छिन्न कर दिया जिस प्रकार कोई पशु की हत्या कर दे।

    श्रीह्लीदयाकीर्तिभिरुज्झितं त्वांस्वकर्मणा पुरुषादैश्च गहाम्‌ ।

    कृच्छेण मच्छूलविभिन्नदेह-मस्पृष्टवह्निं समदन्ति गृश्रा: ॥

    १६॥

    श्री--ऐश्वर्य या सौन्दर्य; ही --लज्जा; दया--दया; कीर्तिभि:ः--तथा कीर्ति से; उज्झितम्‌--विहीन होकर; त्वाम्‌ू--तुम;स्व-कर्मणा--अपने कर्मों से; पुरुष-अदैः --राक्षसों ( मनुष्य भक्षी ) के द्वारा; च--तथा; गहा॑म्‌--निनन्‍्दनीय; कृच्छेण--कठिनाई से; मत्‌-शूल--मेंरे त्रिशूल से; विभिन्न--बिंध कर; देहम्‌--तुम्हारा शरीर; अस्पृष्ट-वह्िम्‌-- अग्नि द्वारा न छुआजाकर; समदन्ति--खा जायेंगे; गृक्षा:--गीधओआरे

    इन्द्र! तुम सभी प्रकार की लज्जा, दया, कीर्ति तथा ऐश्वर्य से विहीन हो।

    अपनेसकाम कर्मों के फल से इन सदगुणों से रहित होकर तुम राक्षसों के द्वारा भी निन्दनीय हो।

    अब मैं तुम्हारे शरीर को अपने त्रिशूल से बेध डालूँगा और जब तुम घोर कष्ट से मरोगे तोअग्नि भी तुम्हारा स्पर्श नहीं करेगी, केवल गीध तुम्हारे शरीर को खायेंगे।

    अन्येजनु ये त्वेह नृशंसमज्ञायदुद्यतास्त्रा: प्रहरन्ति महाम्‌ ।

    तैर्भूतनाथान्सगणान्निशातत्रिशूलनिर्भिन्नगलैर्यजामि ॥

    १७॥

    अन्ये--अन्य लोग; अनु--अनुमान करते हैं; ये--जो; त्वा--तुम; इह--इस सम्बध में; नू-शंसम्‌--अत्यन्त क्रूर; अज्ञा:--जो मेरे शौर्य से परिचित नहीं हैं; यत्‌--यदि; उद्यत-अस्त्रा:--अपनी तलावारें उठाये हुए; प्रहरन्ति-- आक्रमण करते हैं;महाम्‌--मुझको; तैः--उनसे; भूत-नाथान्‌--भूतों के स्वामियों को, यथा भेरव; स-गणान्‌--अपने गणों सहित; निशात--तेज किया हुआ; त्रि-शूल--त्रिशूल से; निर्भिन्न--बेधा हुआ या भिन्न किया हुआ; गलै: --गर्दनों वाले; यजामि--बलिदूँगा।

    तुम स्वभाव से क्रूर हो।

    यदि अन्य देवता मेरे शौर्य से अपरिचित रह कर तुम्हारे अनुयायीबनकर अपने उठे हुए हथियारों से मुझ पर आक्रमण करते हैं, तो मैं अपने इस तीक्ष्ण त्रिशूलसे उनके सिर काट लूँगा और उन सिरों को भेरव तथा उनके गणों सहित अन्य भूतों केनायकों को बलि चढ़ाऊँगा।

    अथो हरे मे कुलिशेन वीरहर्ता प्रमथ्यैव शिरो यदीह ।

    तत्रानृणो भूतबलिं विधायमनस्विनां पादरजः प्रपत्स्ये ॥

    १८॥

    अथो--अन्यथा; हरे--हे इन्द्र; मे--मेरे; कुलिशेन--अपने वज् से; वीर--हे वीर; हर्ता--काट लो; प्रमथ्य--मेरी सेना कोनष्ट करके; एव--निश्चय ही; शिर:--सिर; यदि--यदि; इह--इस युद्ध में; तत्र--उस दशा में; अनृूण:--उऋण; भूत-बलिम्‌--समस्त जीवात्माओं के लिए भेंट; विधाय--व्यवस्था करके; मनस्विनाम्‌--नारद मुनि जैसे परम साधुओं की;पाद-रज:--चरणकमलों की धूलि; प्रपत्स्े--प्राप्त करूँगा |

    किन्तु यदि तुम इस युद्ध में अपने वज्ञ से मेरा सर काट लेते हो और मेरे सैनिकों को मारडालते हो तो हे इन्द्र, हे महान्‌ वीर! मैं अपने शरीर को अन्य जीवात्माओं ( यथा सियारों तथागीधों ) को भेंट करने में अति प्रसन्न हूँगा।

    इस कारण मैं अपने कर्मबन्धन के फलों से छूटजाऊँगा और यह मेरा अहोभाग्य होगा कि मैं नारद मुनि जैसे परम भक्तों के चरणकमलों कीधूलि प्राप्त करूँगा।

    सुरेश कस्मान्न हिनोषि वजनपुरः स्थिते वैरिणि मय्यमोघम्‌ ।

    मा संशयिष्ठा न गदेव वज्रःस्थान्निष्फल: कृपणार्थेव याच्ञा ॥

    १९॥

    सुर-ईश-हे देवों के राजा; कस्मात्‌ू-क्यों; न--नहीं; हिनोषि--छोड़ते; वज़म्‌--वज्; पुरः स्थिते--तुम्हारे समक्ष खड़ाहुआ; वैरिणि--तुम्हारा शत्रु; मयि--मुझ पर; अमोघम्‌--न चूकने वाला ( वज् ); मा--मत; संशयिष्ठा:--सन्देह करो;न--नहीं; गदा इब--गदा के समान; वज्ञ:--वज़; स्यथात्‌ू--हो सकता है; निष्फल:--बेकार; कृपण--कंजूस व्यक्ति से;अर्था--धन के लिए; इव--सहृश; याच्ञा--याचना।

    हे स्वर्ग के राजा इन्द्र! तुम अपने समक्ष खड़े अपने शत्रु मुझ पर अपना वज्र क्‍यों नहींछोड़ते ?

    यद्यपि गदा द्वारा मुझ पर किया गया तुम्हारा प्रहार निश्चय ही उसी प्रकार निष्फल होगया था, जिस प्रकार कंजूस से धन की याचना निष्फल होती है, किन्तु तुम्हारे द्वारा धारणकिया गया यह वज्र निष्फल नहीं होगा।

    तुम्हें इस विषय में तनिक भी सन्देह नहीं करनाचाहिए।

    नन्वेष वज्स्तव शक्र तेजसाहरेर्दधीचेस्तपसा च तेजित: ।

    तेनैव शत्रुं जहि विष्णुयन्त्रितोयतो हरिरविजय: श्रीर्गुणास्ततः ॥

    २०॥

    ननु--निश्चय ही; एष:--यह; वज्ः --वज़; तव--तुम्हारा; शक्र--हे इन्द्र; तेजसा--तेज से; हरेः-- भगवान्‌ विष्णु के;दधीचे:--दधीचि की; तपसा--तपस्या से; च--तथा; तेजित:--शक्तिसम्पन्न; तेन--उससे; एव--निश्चय ही; शत्रुम्‌--अपने शत्रु को; जहि--मारो; विष्णु-यन्त्रित:-- भगवान्‌ विष्णु द्वारा आदेशित; यतः--जहाँ कहीं भी; हरिः-- भगवान्‌विष्णु; विजय:--विजय; श्री: --ऐश्वर्य; गुणा:--अन्य सद्‌गुण; तत:--वहाँ |

    हे स्वर्ग के राजा इन्द्र! तुमने जिस वज्र को मुझे मारने के लिए धारण किया है, वहभगवान्‌ विष्णु के तेज तथा दधीचि की तपस्या-शक्ति से समन्वित है।

    चूँकि तुम यहाँभगवान्‌ विष्णु की आज्ञा से मुझे मारने आये हो अत: इसमें अब कोई सन्‍्देह नहीं कि तुम्हारेवज् के छूटने से मैं मारा जाऊँगा।

    भगवान्‌ विष्णु तुम्हारा साथ दे रहे हैं, अतः विजय, ऐश्वर्यतथा समस्त सदगुण निश्चय ही तुम्हारे साथ हैं।

    विजय तो वृत्रासुर की होनी थी, इन्द्र की नहीं।

    अहं समाधाय मनो यथाह नःसट्डूर्षणस्तच्चरणारविन्दे ।

    त्वद्बज़रंहोलुलितग्राम्यपाशोगतिं मुनेर्याम्यपविद्धलोक: ॥

    २१॥

    अहम्‌-मैंने; समाधाय--स्थिर करके; मन: --मन; यथा--जिस प्रकार; आह--कहा; नः--हमारा; सड्डूर्षण:-- भगवान्‌संकर्षण; ततू-चरण-अरविन्दे--उनके चरण कमलों पर; त्वत्‌-वज्--तुम्हारे बज़ को; रंह:--वेग से; लुलित--विच्छेदित;ग्राम्य-- भौतिक आसक्ति; पाश:--फन्दा; गतिम्‌--गन्तव्य; मुनेः --नारद मुनि तथा अन्य भक्तों का; यामि--प्राप्त करूँगा;अपविद्ध-त्याग कर; लोक:--यह संसार जहाँ सभी प्रकार की नश्वर वस्तुओं की कामना की जाती है।

    तुम्हारे वज़ के वेग से मैं भौतिक बन्धन से मुक्त हो जाऊँगा और यह शरीर तथा भौतिक'कामनाओं वाला यह संसार त्याग दूँगा।

    मैं भगवान्‌ संकर्षण के चरणकमलों पर अपने मनको स्थिर करके नारद मुनि जैसे महामुनियों के गन्तव्य को प्राप्त कर सकूँगा जैसा किभगवान्‌ संकर्षण ने कहा है।

    रखते हैं और कभी भी भगवान्‌ के धाम लौट जाने के इच्छुक नहीं रहते।

    पुंसां किलैकान्तधियां स्वकानांया: सम्पदो दिवि भूमौ रसायाम्‌ ।

    न राति यददवेष उद्देग आधि-मंद: कलिवर्यसनं सम्प्रयास: ॥

    २२॥

    पुंसामू--मनुष्यों को; किल--निश्चय ही; एकान्त-धियाम्‌-- आध्यात्मिक चेतना में उन्नत; स्वकानाम्‌-- श्री भगवान्‌ केअपने; या:--जो; सम्पद: --ऐश्वर्य; दिवि--स्वर्गलोक में; भूमौ--मध्यलोक में; रसायाम्‌ू--तथा अध: लोकों में; न--नहीं; राति-- प्रदान करता है; यत्‌--जिससे; द्वेष:--द्वेष, ईर्ष्या; उद्देग:--चिन्ता; आधि:--मानसिक क्षोभ; मदः--घमंड;कलि:--कलह; व्यसनम्‌--हानि के कारण उत्पन्न दुख; सम्प्रयास: --महान्‌ प्रयत |

    श्रीभगवान्‌ के चरणारविन्द में जो व्यक्ति पूर्णतया समर्पित होते हैं और निरन्तर उनकेचरणारविन्द का चिन्तन करते हैं, उन्हें भगवान्‌ अपने पार्षदों या सेवकों के रूप में स्वीकारकर लेते हैं।

    भगवान्‌ ऐसे सेवकों को उच्च, मध्य तथा निम्न लोकों का आकर्षक ऐश्वर्यप्रदान नहीं करते, क्योंकि जब उन्हें इन लोकों में से किसी एक की भी प्राप्ति हो जाती है, तोउससे शत्रुता, चिन्ता, मानसिक क्षोभ, अभिमान तथा कलह की वृद्धि होती है।

    इस प्रकारमनुष्य को अपनी सम्पत्ति को बढ़ाने और उसको बनाये रखने में काफी प्रयास करना पड़ताहै और जब सम्पत्ति की क्षति हो जाती है, तो उसे भारी दुख होता है।

    अऔैवर्गिकायासविघातमस्मत्‌ -पतिर्विधत्ते पुरुषस्य शक्र ।

    ततो<नुमेयो भगवत्प्रसादोयो दुर्लभोडकिद्ञनगोचरो उन्यै: ॥

    २३॥

    त्रै-वर्गिक--तीन उद्देश्यों के लिए जो धर्म, अर्थ तथा काम हैं; आयास--प्रयत्त; विघातम्‌--विनाश; अस्मत्‌--हमारा;पति:--भगवान्‌; विधत्ते--करता है; पुरुषस्थ--भक्त का; शक्र--हे इन्द्र; ततः--जिससे; अनुमेय: --यह अनुभव लगायाजाता है; भगवत्‌-प्रसाद:-- श्री भगवान्‌ की विशेष कृपा; यः--जो; दुर्लभ:--प्राप्त करना अत्यन्त कठिन; अकिञ्ञन-गोचरः--शुद्ध भक्तों की पहुँच में; अन्यैः--दूसरों के द्वारा, जो भौतिक सुख चाहते हैं।

    हमारे भगवान्‌ अपने भक्तों को धर्म, अर्थ तथा काम ( इन्द्रिय-तृप्ति ) के लिए वृथाप्रयास करने के प्रति वर्जित करते हैं।

    हे इन्द्र! इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है किभगवान्‌ कितने दयालु हैं।

    ऐसी कृपा केवल शुद्ध भक्तों को प्राप्य है, भौतिक लाभ चाहनेवाले व्यक्तियों को नहीं।

    अहं हरे तव पादैकमूल-दासानुदासो भवितास्मि भूयः ।

    मनः स्मरेतासुपतेग्ुणांस्तेगृणीत वाक्र्म करोतु कायः ॥

    २४॥

    अहम्‌; हरे--हे भगवन्‌; तव--तुम्हारे ( आपके ); पाद-एक-मूल--जिसकी एकमात्र शरण भगवत-चरणकमल है;दास-अनुदास:--आपके दास का भी दास; भवितास्मि--होऊँगा; भूयः--पुन:; मन: --मेरा मन; स्मरेत--स्मरण करे;असु-पते:--मेरे जीवन के स्वामी का; गुणान्‌ू--गुण समूह; ते--आपका; गृणीत--जप करें; वाक्‌--मेरे शब्द; कर्म--आपकी सेवा के लिए कार्य; करोतु--करे; काय:--मेरा शरीर।

    है भगवन्‌! कया मैं पुन आपका दासानुदास बन सकूँगा जो आपके ही चरमकमल कीशरण लेते हैं ?

    हे मेरे जीवनाधार! कया मैं आपके दासों का दास बन सकूँगा जिससे मेरा मनसदैव आपके दिव्य गुणों को स्मरण करता रहे, मेरी वाणी नित्य आपके गुणों का गानकरती रहे और मेरा शरीर आपकी प्रेम-भक्ति में निरन्तर लगा रहे?

    न नाकपृष्ठे न च पारमेष्ठयंन सार्वभौम॑ न रसाधिपत्यम्‌ ।

    न योगसिद्धीरपुनर्भव॑ं वासमझस त्वा विरहय्य काड्झे ॥

    २५॥

    न--नहीं; नाक-पृष्ठम्‌--स्वर्गलोक या ध्रुवलोक; न--न तो; च-- भी; पारमेष्ठयम्‌--जिस लोक में ब्रह्मा रहते हैं; न--नतो; सार्व-भौमम्‌--समस्त पृथ्वी लोकों पर एकाधिपत्य; न--नहीं; रसा-आधिपत्यम्‌--अधोलोकों का स्वामित्व; न--नहीं; योग-सिद्धी:--आठ प्रकार की यौगिक शक्तियाँ ( अणिमा, लघिमा, महिमा इत्यादि ) ; अपुन:-भवम्‌--पुनर्जन्म सेछुटकारा; वा--अथवा; समझजस--हे समस्त अवसरों के स्त्रोत; त्वा--तुम से; विरहय्य--से पृथक्‌ किया हुआ; काइक्षे--कामना करता हूँ।

    हे समस्त सौभाग्य के स्त्रोत भगवान्‌! मुझे न तो श्रुवलोक में, न स्वर्ग में अथवाब्रह्मलोक में सुख भोगने की इच्छा है और न ही मैं समस्त भू-लोकों अथवा अधःलोकों कासर्वोच्च अधिपति बनना चाहता हूँ।

    मैं योग शक्तियों का स्वामी भी नहीं बनना चाहता, न हीआपके चरणकमलों को त्याग कर मोक्ष की कामना करता हूँ।

    अजातपक्षा इव मातरं खगा:स्तन्यं यथा वत्सतरा: श्षुधार्ता: ।

    प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णामनो रविन्दाक्ष दिहक्षते त्वाम्‌ू ॥

    २६॥

    अजात-पक्षा:--जिनके अभी तक पंख नहीं उगे; इब--सद्ृश; मातरम्‌--माता; खगा: --छोटे पक्षी; स्तन्यम्‌ू--स्तन कादूध; यथा--जिस प्रकार; वत्सतरा:--बछड़े; क्षुध्‌-आर्ता:-- भूख से पीड़ित; प्रियम्‌--प्रिय या पति; प्रिया--पत्नी याप्रेमिका; इब--सहश; व्युषितम्‌--प्रवासी, घर से दूर; विषण्णा--दुखी; मन:ः--मेरा मन; अरविन्द-अक्ष--हे कमल नेत्रवाले; दिद्दक्षेते--देखना चाहता है; त्वाम्‌ू--तुमको

    है कमलनयन भगवान्‌! जैसे पक्षियों के पंखविहीन बच्चे अपनी माँ के लौटने तथाखिलाये जाने की प्रतीक्षा करते रहते हैं, जैसे रस्सियों से बँधे छोटे-छोटे बछड़े गाय दुहे जानेकी प्रतीक्षा करते रहते हैं जिससे उन्हें अपनी माताओं का दूध पीने को मिले या जैसेवियोगिनी पत्नी घर से दूर बसे अपने प्रवासी पति के लौटने तथा सभी प्रकार से तुष्ट कियेजाने के लिए लालायित रहती है, उसी प्रकार मैं आपकी प्रत्यक्ष सेवा करने के अवसर पानेके लिए सदैव उत्कण्ठित रहता हूँ।

    ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यंसंसारचक्रे भ्रमतः स्वकर्मभि: ।

    त्वन्माययात्मात्मजदारगेहेष्व्‌आसक्तचित्तस्य न नाथ भूयात्‌ ॥

    २७॥

    मम--मेरा; उत्तम-श्लोक-जनेषु-- भक्तों में से, जो श्रीभगवान्‌ के प्रति आसक्त हैं; सख्यम्‌--मित्रता; संसार-चक्रे --जन्म-मरण के चक्कर में; भ्रमत:--घूमता हुआ; स्व-कर्मभि:--अपने ही कर्मो के फल से; त्वत्‌ू-मायया--आपकी माया से;आत्म--शरीर; आत्म-ज--सनन्‍्तान; दार--पतली; गेहेषु--तथा घर में; आसक्त--लिप्त; चित्तस्य--जिसका मन; न--नहीं;नाथ--हे भगवान्‌; भूयात्‌--हो |

    हे भगवान्‌, हे स्वामी! मैं अपने सकाम कर्मों के फलस्वरूप इस पूरे भौतिक जगत मेंघूम रहा हूँ और मैं आपके पवित्र तथा प्रबुद्ध भक्तों की संगति की ही खोज कर रहा हूँ।

    आपकी बहिरंगा शक्ति अर्थात्‌ माया के प्रभाव से अपने शरीर, पत्नी, सन्‍्तान तथा घर केप्रति मेरी आसक्ति बनी हुई है, किन्तु मैं अब और अधिक आसक्त नहीं बने रहना चाहता।

    मेरा मन, मेरी चेतना तथा मेरा सर्वस्व आपके ही प्रति आसक्त रहे।

    TO

    अध्याय बारह: वृत्रासुर की गौरवशाली मृत्यु

    6.12एवं जिहासुर्न॑प देहमाजौमृत्युं वर विजयान्मन्यमान: ।

    शूलंप्रगृह्माभ्यपतत्सुरेनद्रंयथा महापुरुषं कैटभोप्सु ॥

    १॥

    श्री-ऋषि: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; जिहासु:--त्यागने के लिए उत्सुक; नृप--हे राजापरीक्षित; देहम्‌ू--शरीर; आजौ--युद्ध में; मृत्युम्‌ू--मृत्यु; वरम्‌-- श्रेष्ठ; विजयात्‌--विजय से; मन्यमान: --सोचते हुए;शूलम्‌-त्रिशूल; प्रगृह्य--लेकर; अभ्यपतत्‌-- आक्रमण कर दिया; सुर-इन्द्रम्‌ू--स्वर्ग के राजा इन्द्र पर; यथा--जिसप्रकार; महा-पुरुषम्‌-- श्री भगवान्‌ पर; कैटभ: --कैटभ नामक असुर ने; अप्सु--जब सारा ब्रह्माण्ड जलमग्न था

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--अपना शरीर छोड़ने की इच्छा से बृत्रासुर ने विजय कीअपेक्षा युद्ध में अपनी मृत्यु को श्रेयस्कर समझा।

    हे राजा परीक्षित! उसने अत्यन्त बलपूर्वकअपना त्रिशूल उठाया और बड़े वेग से स्वर्ग के राजा पर उसी प्रकार से आक्रमण किया जिसप्रकार ब्रह्माण्ड के जलमग्न होने पर कैटभ ने श्रीभगवान्‌ पर बड़े ही बल से आक्रमण कियाथा।

    ततो युगान्ताग्निकठोरजिह्न-माविध्य शूलं तरसासुरेन्द्र: ।

    क्षिप्त्वा महेन्द्राय विनद्य वीरोहतोसि पापेति रुषा जगाद ॥

    २॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; युग-अन्त-अग्नि-- प्रत्येक कल्पान्त की अग्नि के समान; कठोर--तीखी; जिह्म्‌--नोकों वाली;आविध्य--घुमाकर; शूलम्‌--त्रिशूल को; तरसा--वेग से; असुर-इन्द्र:--असुरों में परम वीर, वृत्रासुर; क्षिप्त्वा--'फेंककर; महा-इन्द्राय--राजा इन्द्र पर; विनद्य--गरजकर; वीर:--महान्‌ वीर ( वृत्रासुर ); हतः--मरा हुआ; असि--तुमहो; पाप--हे पापी; इति--इस प्रकार; रुषा--अत्यन्त क्रोध से; जगाद--चिल्लाया।

    तब असुरों में महान्‌ वीर वृत्रासुर ने कल्पान्त ( प्रलय ) की धधकती अग्नि की लपटों केसमान तीखी नोकों वाले त्रिशूल को अत्यन्त क्रोध एवं वेग से इन्द्र पर चला दिया।

    उसनेगरजकर कहा, 'आरे पापी, मैं तेरा वध किये देता हूँ।

    'ख आपतत्तद्विचलद्ग्रहोल्कव-च्रिरीक्ष्य दुष्प्रेन्‍्यमजातविक्लव: ।

    वज्जेण वज्जी शतपर्वणाच्छिनद्‌भुजं च तस्योरगराजभोगम्‌ ॥

    ३॥

    खे--आकाश में; आपतत्‌--उसकी ओर उड़ कर; तत्‌--वह त्रिशूल; विचलत्‌--चक्कर लगाता हुआ; ग्रह-उल्क-वत्‌--गिरते तारे के समान; निरीक्ष्य--देखकर; दुष्प्रेक्ष्ममू--न देखा जा सकने वाला; अजात-विक्लव:-- भयभीत न होकर;वज्ेण--वज् से; वज्जी--वज़ को धारण करने वाला इन्द्र; शत-पर्वणा--एक सौ गाँठों ( जोड़ों ) वाला; आच्छिनत्‌--काटलिया; भुजमू--बाँह; च--तथा; तस्य--उस ( वृत्रासुर ) का; उरग-राज--महान्‌ सर्प वासुकि का; भोगम्‌--शरीर कीतरह

    आकाश में उड़ता हुआ वृत्रासुर का त्रिशूल प्रकाशमान उल्का के समान था।

    यद्यपि इसप्रज्बलित आयुध की ओर देख पाना कठिन था, किन्तु राजा इन्द्र ने निर्भोक होकर अपनेवज्र से उसके खण्ड-खण्ड कर दिये।

    उसी समय उसने वृत्रासुर की एक भुजा काट ली, जोसर्पों के राजा वासुकि के शरीर के समान मोटी थी।

    छिल्नैकबाहुः परिघेण वृत्रःसंरब्ध आसाद्य गृहीतवज्म्‌ ।

    हनौ तताडेन्द्रमथामरेभंवज्जं च हस्ताज््यपतन्मघोनः ॥

    ४॥

    छिन्न--कटा हुआ; एक--एक; बाहु:--जिसकी भुजा; परिघेण--लौह के बने बल्‍लम ( परिघ ) से; वृत्र:--वृत्रासुर;संरब्ध:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; आसाद्य--पहुँचकर; गृहीत--पकड़ते हुए; वज़म्‌--वज् को; हनौ--ठोड़ी पर; तताड--प्रहार किया; इन्द्रमू--इन्द्रदेव पर; अथ-- भी; अमर-इभम्‌--उसका हाथी; वज़्म्‌--वज़; च--तथा; हस्तात्‌ू--हाथ से;न्यपतत्‌--गिर पड़ा; मघोन:ः--राजा इन्द्र के |

    शरीर से एक भुजा के कट जाने पर भी वृत्रासुर क्रोधपूर्वक राजा इन्द्र के निकट पहुँचाऔर लोहे के बल्‍लम ( परिघ ) से उसकी ठोड़ी पर प्रहार किया।

    उसने इन्द्र के हाथी पर भीप्रहार किया।

    इससे इन्द्र के हाथ से उसका वज्ज गिर गया।

    वृत्रस्य कर्मातिमहाद्भुतं तत्‌सुरासुराश्चारणसिद्धसड्जा: ।

    अपूजयंस्तत्पुरुहूतसड्डू्टनिरीक्ष्य हा हेति विचुक्रुशुर्भशम्‌ ॥

    ५॥

    वृत्रस्थ--वृत्रासुर का; कर्म--कार्य; अति--अत्यन्त; महा--महान्‌; अद्भुतम्‌ू--अद्भुत, विस्मयजनक; तत्‌--वह; सुर--देवता; असुरा:--तथा सारे असुर; चारण--चारण; सिद्ध-सज्ञ:--तथा सिद्धों का समाज; अपूजयन्‌-- प्रशंसा कियागया; तत्‌--वह; पुरुहूत-सड्डूटम्‌--इन्द्र की संकट-पूर्ण दशा; निरीक्ष्य--देखकर; हा हा--हाय हाय; इति--इस प्रकार;विचुक्रुशु:--विलाप करने लगे; भूशम्‌--अत्यधिक |

    विभिन्न लोकों के वासी, यथा देवता, असुर, चारण तथा सिद्ध, वृत्रासुर के कार्य कीप्रशंसा करने लगे, किन्तु जब उन्होंने देखा कि इन्द्र महान्‌ संकट में है, तो वे 'हाय हाय'करके विलाप करने लगे।

    इन्द्रो न वज्र॑ जगृहे विलज्जित-शच्युतं स्वहस्तादरिसन्निधौ पुनः ।

    तमाह वृत्रो हर आत्तवज्नोजहि स्वशत्रुं न विषादकाल: ॥

    ६॥

    इन्द्रः--राजा इन्द्र ने; न--नहीं; वज्ञम्‌--वज्; जगृहे-- धारण किया; विलज्जित:--लज्जित होकर; च्युतम्‌--गिरा हुआ;स्व-हस्तात्‌-- अपने हाथ से; अरि-सन्निधौ--अपने शत्रु के समक्ष; पुन:--फिर; तम्‌--उससे; आह--कहा; वृत्र:--वृत्रासुरने; हरे--हे इन्द्र; आत्त-वज्ञ:--अपना वज् उठाकर; जहि--मारो; स्व-शत्रुम्‌--अपने शत्रु को; न--नहीं; विषाद-काल:--विलाप करने का समय

    शत्रु की उपस्थिति में अपने हाथ से वज्ञ गिर जाने पर इन्द्र एक प्रकार से पराजित होगया था और अत्यन्त लज्जित हुआ।

    उसने पुनः अपना आयुध उठाने का दुस्साहस नहीं किया।

    किन्तु वृत्रासुर ने उसे यह कहते हुए प्रोत्साहित किया, 'अपना वज्ञ उठा लो औरअपने शत्रु को मार दो।

    यह भाग्य को कोसने का अवसर नहीं है।

    'युयुत्सतां कुत्रचिदाततायिनांजय: सदैकत्र न वै परात्मनाम्‌ ।

    विनैकमुत्पत्तिलयस्थिती श्वरंसर्वज्ञमाद्यं पुरुष सनातनम्‌ ॥

    ७॥

    युयुत्सताम्‌--जो युद्ध के लिए उत्सुक हैं; कुत्रचितू--कभी-कभी; आततायिनाम्‌--आयुधों से लैस; जय:--विजय;सदा--सदैव; एकत्र--एक स्थान में; न--नहीं; बै--निस्सन्देह; पर-आत्मनामू--अधीन जीवात्माओं का, जो परमात्मा केनिर्देश में कार्य करती हैं; विना--के अतिरिक्त; एकम्‌--एक; उत्पत्ति--सृष्टि; लय--संहार; स्थिति--तथा पालन का;ईश्वरम्‌--नियन्ता; सर्व-ज्ञ़म्‌--जो सब कुछ ( भूत, वर्तमान, भविष्य ) जानता है; आद्यम्‌--आदि; पुरुषम्‌-- भोक्ता;सनातनम्‌--

    नित्यवृत्रासुर ने आगे कहा--हे इन्द्र! आदि भोक्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के अतिरिक्तकिसी की सदैव विजय होना निश्चित नहीं है।

    वे ही उत्पत्ति, पालन और प्रलय के कारण हैंऔर सब कुछ जानने वाले हैं।

    अधीन होने तथा भौतिक देहों को धारण करने के लिए बाध्यहोने के कारण युद्धप्रिय अधीनस्थ कभी विजयी होते हैं, तो कभी पराजित होते हैं।

    लोका: सपाला यस्येमे श्रसन्ति विवशा वशे ।

    द्विजा ड्व शिचा बद्धा: स काल इह कारणम्‌ ॥

    ८ ॥

    लोका:--विभिन्न लोक; स-पाला:--अपने प्रमुख लोकपाल या अधिपतियों सहित; यस्य--जिसका; इमे--ये सब;श्रसन्ति--जीते हैं; विवशा:--नितान्त आश्रित; वशे--वहश्न में; द्विजा:--पक्षी; इब--सहृश; शिचा--जाल के द्वारा;बद्धा:--बँधे हुए; सः--वह; काल:--काल, समय; इह--इसमें; कारणम्‌--कारण ।

    समस्त लोकों के प्रमुख लोकपालों सहित, इस ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों के समस्तजीव, पूर्णतः भगवान्‌ के वश में हैं।

    वे जाल में पकड़े गये उन पक्षियों के समान कार्य करतेहैं, जो स्वतंत्रतापूर्वक विचरण नहीं कर सकते।

    ओज: सहो बल प्राणममृतं मृत्युमेव च ।

    तमज्ञाय जनो हेतुमात्मानं मन्‍्यते जडम्‌ ॥

    ९॥

    ओज: --इन्द्रियों का बल; सह:--मनोबल; बलम्‌--शरीर का बल; प्राणम्‌--जीवित अवस्था; अमृतम्‌-- अमरत्व;मृत्युम--मृत्यु; एव--निस्सन्देह; च-- भी; तम्‌ू--उस ( परमेश्वर ) को; अज्ञाय--बिना जाने; जन: --मूर्ख पुरुष; हेतुम्‌--कारण; आत्मानमू--शरीर; मन्यते--मानता है; जडम्‌--यद्यपि पत्थर की तरह।

    हमारी इन्द्रियों का शौर्य, मानसिक शक्ति, दैहिक बल, जीवन शक्ति, अमरत्व एवं मृत्युसभी कुछ परम भगवान्‌ की देखरेख के अधीन हैं।

    इससे अनवगत मूर्ख लोग अपने जड़शरीर को ही अपने कार्यकलापों का कारण मानते हैं।

    यथा दारुमयी नारी यथा पत्रमयो मृग: ।

    एवं भूतानि मघवन्नीशतन्त्राणि विद्धधि भो; ॥

    १०॥

    यथा--जिस प्रकार; दारु-मयी--लकड़ी की बनी; नारी--स्त्री; यथा--जिस प्रकार; पत्र-मय: --पत्तियों से बना; मृग: --पशु; एवम्‌--इस प्रकार; भूतानि--सभी वस्तुएँ; मघवन्‌--हे राजा इन्द्र; ईश-- श्रीभगवान्‌; तन्त्राणि-- आश्रित रह कर;विद्द्धि--कृपया जानें; भो;--हे महाशय |

    हे देवराज इन्द्र! जिस प्रकार काठ की पुतली जो स्त्री के समान प्रतीत होती है अथवाघास-फूस का बना हुआ पशु न तो हिल-डुल सकता है और न अपने आप नाच सकता है,वरन्‌ उसे हाथ से चलाने वाले व्यक्ति पर पूरी तरह निर्भर रहता है, उसी प्रकार हम सभी परमनियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की इच्छानुसार नाचते हैं।

    कोई भी स्वतंत्र नहीं है।

    पुरुष: प्रकृतिर्व्यक्तमात्मा भूतेन्द्रियाशया: ।

    शबक्नुवन्त्यस्य सर्गादौ न विना यदनुग्रहात्‌ ॥

    ११॥

    पुरुष:--समस्त भौतिक शक्ति का जनक; प्रकृतिः--भौतिक शक्ति या भौतिक प्रकृति; व्यक्तम्‌--अभिव्यक्ति के सिद्धान्त( महत्‌ तत्त्व ); आत्मा--मिथ्या अहंकार; भूत--पाँच भौतिक तत्त्व; इन्द्रिय--दस इन्द्रियाँ; आशया:--मन, बुद्धि तथाचेतना; शक्नुवन्ति--समर्थ हैं; अस्य--इस ब्रह्माण्ड के; सर्ग-आदौ--सृष्टि इत्यादि में; न--नहीं ; विना--रहित; यत्‌ --जिसकी; अनुग्रहात्‌ू-कृपा से तीनों पुरुष--कारणोदकशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायीविष्णु--भौतिक प्रकृति, समग्र भौतिक शक्ति (महत्‌ तत्त्व)

    मिथ्या अहंकार, पाँचोंभौतिक तत्त्व, भौतिक इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा चेतना, ये सब भगवान्‌ के आदेश के बिनाभौतिक जगत की सृष्टि नहीं कर सकते।

    अदिद्वानेवमात्मानं मन्यतेनीशमी श्वरम्‌ ।

    भूतेः सृजति भूतानि ग्रसते तानि तै: स्वयम्‌ ॥

    १२॥

    अदिद्वानू--ज्ञानरहित, मूर्ख; एवम्‌--इस प्रकार; आत्मानम्‌--स्वयं; मन्यते--मानता है; अनीशम्‌--यद्यपि अन्यों पर पूर्णतःआश्रित; ई श्वरमू--परम नियन्ता के रूप में, स्वतंत्र; भूतेः--जीवात्माओं के द्वारा; सृजति--वह ( भगवान्‌ ) उत्पन्न करता है;भूतानि--अन्य जीवों को; ग्रसते--लील लेता है; तानि--उनको; तैः--अन्य जीवों के द्वारा; स्वयम्‌-स्वयं।

    ज्ञानरहित मूर्ख व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ को नहीं समझ सकता।

    वह शाश्रत अधीनरहकर भी अपने आपको झूठे ही सर्वोच्च मानता है।

    यदि कोई यह सोचे कि अपने पूर्वसकाम कर्मों के अनुसार उसका भौतिक शरीर उसके माता-पिता द्वारा उत्पन्न किया गया हैऔर उसी शरीर को दूसरा कोई विनष्ट कर देता है जैसे कि बाघ दूसरे पशु को निगल जाताहै, तो यह सही ज्ञान नहीं है।

    श्रीभगवान्‌ स्वयं सृष्टि करते हैं और अन्य जीवों के द्वारा जीवोंको निगलते रहते हैं।

    आयु: श्री: कीर्तिरिश्वर्यमाशिष: पुरुषस्य या: ।

    भवन्त्येव हि तत्काले यथानिच्छोर्विपर्यया: ॥

    १३॥

    आयु:--दीर्घजीविता; श्री:--ऐश्वर्य; कीर्ति:--यश; ऐश्वर्यम्‌--शक्ति; आशिष:--आशीर्वाद, वर; पुरुषस्य--जीवात्माका; या:--जो; भवन्ति--हो ते हैं; एव--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; तत्‌-काले--ठीक समय पर; यथा--जिस प्रकार;अनिच्छो:--न चाहने वाले का; विपर्यया: --विपरीत परिस्थितियाँ |

    जिस प्रकार मरने की इच्छा न रखने पर भी मनुष्य को मृत्यु के समय अपनी आयु,ऐश्वर्य, यश तथा अन्य सब कुछ त्याग देना पड़ता है उसी प्रकार जब ईश्वर की कृपा होती है,तो विजय के नियत समय के अनुकूल होने पर ये सारी वस्तुएँ उसे मिल जाती हैं।

    तस्मादकीर्तियशसोर्जयापजययोरपि ।

    सम: स्यात्सुखदुःखाभ्यां मृत्युजीवितयोस्तथा ॥

    १४॥

    तस्मातू--अतः ( श्रीभगवान्‌ की इच्छा पर पूर्णतया निर्भर होने के कारण ); अकीर्ति--अपयश का; यशसो:--तथा यश;जय--विजय का; अपजययो:--तथा पराजय; अपि-- भी; सम: --समान; स्थात्‌--हो; सुख-दुःखाभ्याम्‌--सुख तथादुख से; मृत्यु--मृत्यु; जीवितयो:---अथवा जीवित का; तथा--और।

    चूँकि प्रत्येक वस्तु भगवान्‌ की परम इच्छा पर निर्भर है, अतः मनुष्य को यश-अपयश,हार-जीत तथा जीवन-मृत्यु में निश्चित्त रह कर समभाव बनाये रखना चाहिए।

    सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणा: ।

    तत्र साक्षिणमात्मानं यो वेद स न बध्यते ॥

    १५॥

    सत्त्वमू--सतोगुण; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; इति--इस प्रकार; प्रकृते:-- भौतिक प्रकृति के; न--नहीं;आत्मन:--आत्मा के; गुणा:--गुण; तत्र--ऐसी स्थिति में; साक्षिणम्‌--गवाह, साक्षी; आत्मानम्‌--आत्मा; यः--जोकोई; वेद--जानता है; सः--वह; न--नहीं ; बध्यते--बँधता है।

    जो पुरुष यह जानता है कि सतो, रजो तथा तमो गुण--ये तीनों आत्मा के नहीं, वरन्‌भौतिक प्रकृति के गुण हैं और जो यह जानता है कि शुद्ध आत्मा इन गुणों के कर्मों तथाफलों का साक्षी मात्र है, उसे मुक्त पुरुष मानना चाहिए।

    वह इन गुणों से नहीं बंधता।

    पश्य मां निर्जितं शत्रु वृक्णायुधभुजं मृधे ।

    घटमानं यथाशक्ति तव प्राणजिहीर्षया ॥

    १६॥

    पश्य--देखो; माम्‌--मुझको; निर्जितम्‌ू--पहले से पराजित; शत्रु--हे शत्रु; वृक्ण--काट डालो; आयुध--ेरा हथियार;भुजम्‌ू--तथा मेरी भुजा; मृधे--इस युद्ध में; घटमानम्‌--अब भी प्रयत्नशील; यथा-शक्ति--अपनी शक्ति के अनुसार;तब--तुम्हारा; प्राण--जीवन; जिहीर्षया--ले लेने की इच्छा से ॥

    ओरे मेरे शत्रु! जरा मेरी ओर देख।

    मैं पहले ही पराजित हो चुका हूँ, क्योंकि मेरा हथियारतथा मेरी भुजा पहले ही खंड-खंड हो चुके हैं।

    तुमने मुझे पहले ही परास्त कर दिया है, तोभी मैं तुम्हें मारने की प्रबल इच्छा के कारण तुमसे लड़ने का भरसक प्रयत्न कर रहा हूँ।

    ऐसी विषम परिस्थिति में भी मैं तनिक भी दुखी नहीं हूँ।

    अतः तुम उदासीनता त्याग करकेयुद्ध जारी रखो।

    प्राणग्लहोयं समर इृष्वक्षो वाहनासनः ।

    अत्र न ज्ञायतेमुष्य जयोमुष्य पराजय: ॥

    १७॥

    प्राण-ग्लह:--प्राणों की बाजी; अयम्‌ू--यह; समर:--युद्ध; इषु-अक्ष:--तीर रूपी पाँसे; वाहन-आसनः: --हाथी तथाघोड़े जैसे वाहन चौसर हैं; अत्र--यहाँ ( इस जुएँ के खेल में ); न--नहीं; ज्ञायते--ज्ञात है; अमुष्य--उस एक की; जय: --विजय; अमुष्य--अमुक की; पराजय:--हार।

    अरे मेरे शत्रु) इस युद्ध को द्यूतक्रीड़ा का खेल मानो जिसमें हमारे प्राणों की बाजी लगीहै, बाण पासे हैं और वाहक पशु चौसर हैं।

    कोई नहीं जानता कि कौन हारेगा और कौनजीतेगा।

    यह सब विधाता पर निर्भर है।

    श्रीशुक उबाचइन्द्रो वृत्रवच: श्रुत्ता गतालीकमपूजयत्‌ ।

    गृहीतवज्ञ: प्रहसंस्तमाह गतविस्मयः ॥

    १८॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इन्द्र:--राजा इन्द्र ने; वृत्र-वच:--वृत्रासुर के वचन; श्रुत्वा--सुनकर;गत-अलीकम्‌ू--द्वैतभाव से रहित; अपूजयत्‌--पूजा की; गृहीत-वज्ञ:--वज़ धारण किये हुए; प्रहसन्‌--हँसते हुए; तम्‌--वृत्रासुर से; आह--कहा; गत-विस्मय:--आश्चर्यरहित होकर |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--वृत्रासुर के निष्कपट तथा निर्देशात्मकवचन सुनकर राजा इन्द्र ने उसकी प्रशंसा की और अपने वज्ञ को पुनः हाथ में धारणकर लिया।

    इसके बाद बिना मोह या द्वैत-भाव से वह हँसा और वृत्रासुर से इस प्रकार बोला।

    इन्द्र उबाचअहो दानव सिद्धोउसि यस्य ते मतिरीहशी ।

    भक्त: सर्वात्मनात्मानं सुहृदं जगदी श्वरम्‌ ॥

    १९॥

    इन्द्र: उबाच--इन्द्र ने कहा; अहो--ओह; दानव--हे असुर; सिद्ध: असि--तुम अब सिद्ध हो चुके हो; यस्य--जिसका;ते--तुम्हारी; मतिः--चेतना; ईहशी--इस प्रकार की; भक्त:--परम भक्त; सर्व-आत्मना--विचलित हुए बिना;आत्मानम्‌--परमात्मा को; सुहृदम्‌--परम मित्र; जगत्‌-ईश्वरम्‌-- श्रीभगवान्‌ को |

    इन्द्र ने कहा, हे असुरश्रेष्ठ! मैं देखता हूँ कि संकटमय स्थिति में होते हुए भी अपनेविवेक तथा भक्तियोग में निष्ठा के कारण तुम श्रीभगवान्‌ के पूर्ण भक्त तथा जन-जन केमित्र हो।

    भवानतार्षीन्मायां वै वैष्णवीं जनमोहिनीम्‌ ।

    यद्विहायासुरं भावं महापुरुषतां गत: ॥

    २०॥

    भवान्‌--आप; अतार्षीत्‌--पार कर चुके हो; मायाम्‌ू--माया को; बै--निस्सन्देह; वैष्णवीम्‌-- भगवान्‌ विष्णु की; जन-मोहिनीम्‌--जनसमूह को मोहने वाली; यत्‌--क्योंकि; विहाय--त्याग कर; आसुरम्‌--असुरों का; भावम्‌--मानसिकता,भाव; महा-पुरुषताम्‌-महान्‌ भक्त का पद; गत:--प्राप्त कर चुके हो।

    तुमने भगवान्‌ विष्णु की माया को पार कर लिया है और इस मुक्ति के कारण तुमनेआसुरी भाव का परित्याग करके महान्‌ भक्त का पद प्राप्त कर लिया है।

    खल्विदं महदाश्चर्य यद्रज:प्रकृतेस्तव ।

    वबासुदेवे भगवति सत्त्वात्मनि हा मति: ॥

    २१॥

    खलु--निस्सन्देह; इदम्‌--यह; महत्‌ आश्चर्यम्‌-महान्‌ आश्चर्य; यत्‌--जो; रज:--रजोगुण से प्रभावित; प्रकृते:--जिसकास्वभाव; तब--तुम्हारा; वासुदेवे-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण में; भगवति--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌; सत्त्व-आत्मनि--शुद्धसतोगुण में स्थित; हढा--हढ़; मति:--चेतना

    हे वृत्रासुर! असुर सामान्यतः रजोगुणी होते हैं, अतः यह कितना महान्‌ आश्चर्य है।

    कहाजायेगा कि असुर होकर भी तुमने भक्त-भाव ग्रहण करके अपने मन को पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ वासुदेव में स्थिर कर दिया है, जो सदैव शुद्ध सत्त्व में स्थित रहते हैं।

    यस्य भक्तिर्भगवति हरौ नि: श्रेयसे श्वरे ।

    विक्रीडतोमृताम्भोधौ कि क्षुद्रैे: खातकोदकै: ॥

    २२॥

    यस्य--जिसकी; भक्ति:--भक्ति; भगवति--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ में; हरौ--भगवान्‌ हरि में; नि:श्रेयस-ई श्र --परममुक्ति के नियामक; विक्रीडत: --तैरते या खेलते हुए; अमृत-अम्भोधौ--अमृत के समुद्र में; किम्‌--क्या लाभ है;क्षुद्री:--छोटे; खातक-उदकै:--गटड्ढों के जल से

    जो मनुष्य परम कल्याणकारी परमेश्वर हरि की भक्ति में स्थिर है, वह अमृत के समुद्र मेंतैरता है।

    उसके लिए छोटे-छोटे गड्ढों के जल से क्या प्रयोजन ?

    श्रीशुक उवाचइति ब्रुवाणावन्योन्यं धर्मजिज्ञासया नूप ।

    युयुधाते महावीर्याविन्द्रवृत्री युधाम्पती ॥

    २३॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ब्रुवाणौ--बोलते हुए; अन्योन्यम्‌--परस्पर; धर्म-जिज्ञासया--परम धार्मिक नियम ( भक्तियोग ) जानने की इच्छा से; नृप--हे राजन्‌; युयुधाते--युद्ध किया; महा-वीयौं --दोनों वीर; इन्द्र--राजा इन्द्र; वृत्रौ--तथा वृत्रासुर ने; युधाम्‌ पती--दोनों महान्‌ सेनानायक ।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--वृत्रासुर तथा राजा इन्द्र ने युद्धभूमि में भी भक्तियोग केसम्बन्ध में बातें कीं और अपना कर्तव्य समझकर दोनों पुनः युद्ध में भिड़ गये।

    हे राजन!दोनों ही बड़े योद्धा और समान रूप से शक्तिशाली थे।

    आविध्य परिधं वृत्र: कार्ष्णायसमरिन्दम: ।

    इन्द्राय प्राहिणोद्धोरं वामहस्तेन मारिष ॥

    २४॥

    आविध्य--घुमाकर; परिघम्‌--परिघ को; वृत्र:--वृत्रासुर ने; कार्ष्ण-अयसम्‌--लोहे का बना; अरिम्‌ -दम:--अपने शत्रुको जीतने में सक्षम, शत्रुसदन; इन्द्राय--इन्द्र पर; प्राहिणोत्‌ू--फेंका; घोरम्‌--अत्यन्त भयानक; वाम-हस्तेन-- अपने बाएँहाथ से; मारिष--हे राजाओं में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित |

    हे महाराज परीक्षित! अपने शत्रु को वश में करने में पूर्ण सक्षम वृत्रासुर ने अपना लोहेका परिघ उठाकर चारों ओर घुमाया और इन्द्र को लक्ष्य बनाकर अपने बाएँ हाथ से उस परफेंका।

    स तु वृत्रस्थ परिघं करं च करभोपमम्‌ ।

    चिच्छेद युगपद्देवो वज़ेण शतपर्वणा ॥

    २५॥

    सः--उस ( राजा इन्द्र ) ने; तु--फिर भी; वृत्रस्थ--वृत्रासुर का; परिधम्‌--लोहे का परिघ; करम्‌--उसका हाथ; च--तथा; करभ-उपमम्‌-हाथी के सूँड़ के समान बली; चिच्छेद--खण्ड खण्ड कर दिया; युगपत्‌--एकसाथ; देव: --श्रीइन्द्र; वज़ेण--वज् से; शत-पर्वणा--एक सौ जोड़ों वाले

    इन्द्र ने अपने शतपर्वन नामक वज्ञ से वृत्रासुर के परिघ तथा उसके बचे हुए हाथ कोएक साथ खण्ड-खण्ड कर डाला।

    दोर्भ्यामुत्कृत्तमूलाभ्यां बभौ रक्तस्त्रवोउसुरः ।

    छिन्नपक्षो यथा गोत्र: खादभ्रष्टो वज़िणा हतः ॥

    २६॥

    दोर्भ्याम्‌-दोनों भुजाओं से; उत्कृत्त-मूलाभ्यामू--जड़ से कटी हुई; बभौ--था; रक्त-स्त्रव:--तेजी से रक्त की धार बहने;असुरः--वृत्रासुर; छिन्न-पक्ष: --कटे पंखों वाला; यथा--जिस प्रकार; गोत्र:--पर्वत; खातू--आकाश से; भ्रष्ट: --गिरकर; वज़िणा--वज़्धारी इन्द्र के द्वारा; हतः--मारा हुआ

    जड़ से दोनों भुजाएँ कट जाने से तेजी से रक्त बहने के कारण वृत्रासुर उड़ते हुए पर्वतके समान सुन्दर लग रहा था जिसके पंखों को इन्द्र ने खण्ड-खण्ड कर दिया हो।

    महाप्राणो महावीर्यों महासर्प इव द्विपम्‌कृत्वाधरां हनुं भूमौ देत्यो दिव्युत्तरां हनुम्‌ ।

    नभोगम्भीरवक्हेण लेलिहोल्बणजिह्॒या ॥

    २७॥

    दंष्टाभि: कालकल्पाभिग्र॑सन्निव जगत्रयम्‌ ।

    अतिमात्रमहाकाय आश्षिपंस्तरसा गिरीन्‌ ॥

    २८॥

    गिरिराट्पादचारीव पदभभ्यां निर्जरयन्महीम्‌ ।

    जग्रास स समासाद्य वज़िणं सहवाहनम्‌ ॥

    २९॥

    महा-प्राण: --महान्‌ शारीरिक शक्ति वाला; महा-वीर्य:--असामान्य शौर्य से सम्पन्न; महा-सर्प:--सबसे बड़ा साँप; इव--समान; द्विपम्‌--हाथी; कृत्वा--रखकर; अधराम्‌--निचले; हनुम्‌--जबड़ा; भूमौ-- भूमि पर; दैत्य:--असुर; दिवि--आकाश में; उत्तराम्‌ हनुमू--ऊपरी जबड़ा; नभ:--आकाश के समान; गम्भीर--गहरा; वक्हेण-- अपने मुख से;लेलिह--साँप की तरह; उल्बण-- भयानक; जिह्ृ॒या--जीभ से; दंष्टाभि:--दाँतों से; काल-कल्पाभि:--काल अर्थात्‌मृत्यु के ही समान; ग्रसन्‌--लीलते हुए; इब--मानो; जगत्‌-त्रयम्‌-तीनों लोकों को; अति-मात्र--अत्युच्च; महा-काय:--जिसका विशाल शरीर; आक्षिपन्‌ू--हिलाते हुए; तरसा--वेग से; गिरीन्‌--पर्वतों को; गिरि-राट्‌--हिमालयपर्वत; पाद-चारी--पाँवों से चलते हुए; इब--मानो; पद्भ्याम्‌-- अपने पाँवों से; निर्जरयन्‌--कुचलते हुए; महीम्‌--भूपृष्ठको; जग्रास--निगल गया; स:-- वह; समासाद्य--पहुँच कर; वज़िणम्‌--वज्धारी इन्द्र को; सह-वाहनम्‌--उसके वाहनहाथी समेत।

    वृत्रासुर अत्यन्त शक्तिशाली तथा वीर्यवान्‌ था।

    उसने अपने निचले जबड़े को भूमि परऔर ऊपरी जबड़े को आकाश में गड़ा दिया।

    उसका मुख इतना गहरा हो गया मानो आकाशहो और उसकी जीभ बहुत बड़े सर्प के सहश लग रही थी।

    अपने काल के समान करालदाँतों से वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को निगलने का प्रयास करता प्रतीत हुआ।

    इस प्रकार विराट शरीर धारण करके उस महान्‌ असुर वृत्रासुर ने पर्वतों तक को हिला दिया और अपने पाँवोंसे पृथ्वी की सतह को इस प्रकार मर्दित करने लगा मानो वह चलता हुआ साक्षात्‌ हिमालयपर्वत हो।

    वह इन्द्र के सामने आया और उसके वाहन ऐरावत समेत उसे इस प्रकार निगलगया मानो एक बड़े अजगर ने हाथी निगल लिया हो।

    वृत्रग्रस्तं तमालोक्य सप्रजापतय: सुरा: ।

    हा कष्टमिति निर्विण्णाश्चुक्रुशु: समहर्षय: ॥

    ३०॥

    वृत्र-ग्रस्तम्‌--वृत्रासुर द्वारा निगला जाकर; तम्‌--उसको ( इन्द्र को )) आलोक्य--देखकर; स-प्रजापतय:--ब्रह्माजी समेतअन्य प्रजापतियों के साथ; सुरा:--सभी देवता; हा--हाय; कष्टम्‌--कितना कष्ट है; इति--इस प्रकार; निर्विण्णा:--अत्यन्त दुखी होकर; चुक़्ुशु:--विलाप करने लगे; स-महा-ऋषय:--महान्‌ ऋषियों समेत |

    जब देवताओं, ब्रह्मा समेत अन्य प्रजापतियों तथा अन्य बड़े-बड़े साधु पुरुषों ने देखाकि असुर ने इन्द्र को निगल लिया है, तो वे अत्यन्त दुखी हुए और ' हाय हाय 'कितनी बड़ीविपत्ति '! कह करके विलाप करने लगे।

    निगीर्णो प्यसुरेन्द्रेण न ममारोदरं गत: ।

    महापुरुषसन्नद्धो योगमायाबलेन च ॥

    ३१॥

    निगीर्ण:--निगला जाकर; अपि--यद्यपि; असुर-इन्द्रेण-- असुरों में श्रेष्ठ, वृत्रासुर द्वारा; न--नहीं; ममार--मरा; उदरम्‌--उदर में; गतः--जाकर; महा-पुरुष--परमे श्रर नारायण के कवच से; सन्नद्ध:--सुरक्षित रहकर; योग-माया-बलेन--इन्द्रकी अपनी योगशक्ति से; च--भी |

    इन्द्र के पास नारायण का जो सुरक्षा कवच था, वह स्वयं भगवान्‌ नारायण से अभिन्नथा।

    उस कवच के द्वारा तथा अपनी योगशक्ति से सुरक्षित होने पर राजा इन्द्र वृत्रासुर द्वारानिगले जाने पर भी उस असुर के उदर में मरा नहीं।

    भित्त्वा वज्जेण तत्कुश्नि निष्क्रम्य बलभिद्ठिभु: ।

    उच्चकर्त शिरः शत्रोर्गिरिश्रुड्डमिवौजसा ॥

    ३२॥

    भित्त्वा--बेध कर; वज़ेण--वज् से; तत्‌-कुक्षिम्‌--वृत्रासुर के उदर को; निष्क्रम्य--बाहर आकर; बल-भित्‌--बल असुरको मारने वाला; विभु:--शक्तिशाली इन्द्र ने; उच्चकर्त--काट लिया; शिर:--सिर:; शत्रो:--शत्रु का; गिरि- श्रूड़म्‌ू--पर्वत की चोटी; इब--सहृ॒श; ओजसा--अत्यन्त वेग से |

    अत्यन्त शक्तिशाली राजा इन्द्र ने अपने वज्ज के द्वारा वृत्रासुर का पेट फाड़ डाला औरबाहर निकल आया।

    बल असुर के मारने वाले इन्द्र ने उसके तुरन्त बाद वृत्रासुर के पर्वत-श्रृंग जैसे ऊँचे सिर को काट लिया।

    वज़स्तु तत्कन्धरमाशुवेग:कृन्तन्समन्तात्परिवर्तमानः ।

    न्यपातयत्तावदहर्गणेनयो ज्योतिषामयने वार्त्रहत्ये ॥

    ३३॥

    वज्ञ:--वज़; तु--लेकिन; तत्‌-कन्धरम्‌्--उसकी गर्दन को; आशु-बेग: --यद्यपि अत्यन्त तेज; कृन्तन्‌--काटते हुए;समन्तात्‌ू--चारों ओर; परिवर्तमान:--घूमते हुए; न्‍्यपातयत्‌--गिरा दिया; तावत्‌--बहुत से; अह:-गणेन--दिनों से; यः--जो; ज्योतिषाम्‌--सूर्य, चन्द्र जैसे नक्षत्रों का; अयने--विषुवत्‌ रेखा के दोनों ओर जाने में; वार्त्र-हत्ये--वृत्रासुर के वध केलिए उपयुक्त समय पर।

    यद्यपि वज्र वृत्रासुर की गर्दन के चारों ओर अत्यन्त वेग से घूम रहा था, किन्तु उसकेशरीर से सिर को विलग करने में पूरा एक वर्ष--३६० दिन--लग गया, जो सूर्य, चन्द्र तथाअन्य नक्षत्रों के उत्तरी तथा दक्षिणी यात्रा पूर्ण करने में लगने वाले समय के तुल्य है।

    तबवृत्रासुर के वध का उपयुक्त समय ( योग ) उपस्थित होने पर उसका सिर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

    तदा च खे दुन्दुभयो विनेदु-गन्धर्वसिद्धा: समहर्षिसड्डा: ।

    वार्त्रघ्नलिड्रैस्तमभिष्ठृवानामन्त्रैमुदा कुसुमैरभ्यवर्षन्‌ ॥

    ३४॥

    तदा--उस समय; च--भी; खे--आकाश के स्वर्गिक लोकों में; दुन्दुभय:--दुन्दुभी ( नगाड़े ); विनेदु:--बज उठे;गन्धर्व--गन्धर्व; सिद्धा:--तथा सिद्धगण; स-महर्षि-सज्ञ:--महर्षियों की सभा समेत; वार्त्र-घ्न-लिड्वैः--वृत्रासुर का वधकरने वाले के शौर्य का उत्सव मनाते हुए; तम्‌--उसको ( इन्द्र को ); अभिष्ठृवाना: --अभिनन्दन करते हुए; मन्त्रै:--विविधमंत्रों से; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; कुसुमैः--फूलों से; अभ्यवर्षन्‌ू--वर्षा की ।

    वृत्रासुर के मारे जाने पर, गन्धर्वों तथा सिद्धों ने हर्षित होकर स्वर्गलोक में दुन्दुभियाँबजाईं।

    उन्होंने वृत्रासुर के संहर्ता इन्द्र के शौर्य का वेद-स्त्रोत्रों से अभिनन्दन किया औरअत्यन्त प्रसन्न होकर उस पर फूलों की वर्षा की।

    वृत्रस्य देहान्निष्क्रान्तमात्मज्योतिररिन्दम ।

    पश्यतां सर्वदेवानामलोक॑ समपद्यत ॥

    ३५॥

    वृत्रस्थ--वृत्रासुर के; देहात्‌ू--शरीर से; निष्क्रान्तम्‌--निकली हुई; आत्म-ज्योति:--आत्मा, जो ब्रह्म तेज के समानप्रकाशमान था; अरिम्‌-दम--शत्रुओं का दमन करने वाले हे राजा परीक्षित; पश्यताम्‌ू--देख रहे थे; सर्व-देवानामू--जबसभी देवता; अलोकम्‌--ब्रह्मतेज से पूरित, परम धाम; समपद्यत--प्राप्त किया |

    हे शत्रुओं का दमन करने वाले राजा परीक्षित! तब वृत्रासुर के शरीर से सजीव ज्योतिनिकल कर बाहर आई और भगवान्‌ के परम धाम को लौट गई।

    सभी देवताओं के देखते-देखते वह भगवान्‌ संकर्षण का संगी बनने के लिए दिव्य लोक में प्रविष्ट हुआ।

    TO

    अध्याय तेरह: पापपूर्ण प्रतिक्रिया से राजा इंद्र पीड़ित

    6.13श्रीशुक उबाचवृत्रे हते त्रयो लोका विना शक्रेण भूरिद ।

    सपालाह्ाभवन्सद्यो विज्वरा निर्वृतेन्द्रिया: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; बृत्रे हते--वृत्रासुर के मारे जाने पर; त्रयः लोका:--तीनों लोक ( उच्च,मध्य तथा अध:लोक ); विना--के सिवा; शक्रेण--इन्द्र, जिसे शक्र भी कहते हैं; भूरि-द--हे अत्यन्त दानी महाराजपरीक्षित; स-पाला:--विभिन्न लोकों के अधिपतियों सहित; हि--निस्सन्देह; अभवन्‌--हुआ; सद्य:--तुरन्त; विज्वरा: --मृत्यु के भय से रहित; निर्वृत--अत्यधिक प्रसन्न; इन्द्रियाः--जिसकी इन्द्रियाँ |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे महादानी राजा परीक्षित! वृत्रासुर के बध से इन्द्र केअतिरिक्त तीनों लोकों के लोकपाल एवं समस्त निवासी तुरन्त ही प्रसन्न हुए और उनकी सबचिन्ताएँ जाती रहीं।

    देवर्षिपितृभूतानि दैत्या देवानुगा: स्वयम्‌ ।

    प्रतिजग्मु: स्वशिष्ण्यानि ब्रह्मेशेन्द्रादयस्तत: ॥

    २॥

    देव--देवता; ऋषि--परम साधु पुरुष; पितृ-पितृलोक के वासी; भूतानि--तथा अन्य जीवात्माएँ; दैत्या:--असुर; देव-अनुगाः --देवताओं के नियमों का पालन करने वाले अन्य लोकों के वासी; स्वयम्‌--स्वतंत्र रूप से ( इन्द्र की अनुमतिमांगने के बिना ); प्रतिजग्मु;:--वापस चले गये; स्व-धिष्ण्यानि-- अपने-अपने लोकों तथा आवासों को; ब्रह्म-- श्रीत्रह्मा;ईश-- श्रीशिव ; इन्द्र-आदय: --तथा इन्द्र आदि देवता; ततः--तत्पश्चात्‌ |

    तत्पश्चात्‌ सभी देवता, महान्‌ साधु पुरुष, पितृलोक तथा भतूलोक के सभी वासी,असुर, देवताओं के अनुचर तथा ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र के अधीन देवगण अपने-अपने धामोंको लौट गये।

    किन्तु विदा लेते समय वे इन्द्र से कुछ बोले नहीं।

    श्रीराजोबाचइन्द्रस्थानिर्वृतेहैतुं श्रोतुमिच्छामि भो मुने ।

    येनासन्सुखिनो देवा हरे्दुःखं कुतोभवत्‌ ॥

    ३॥

    श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने पूछा; इन्द्रस्य--इन्द्र का; अनिर्वृतेः--दुख का; हेतुमू--कारण; श्रोतुमू-- सुनना;इच्छामि--चाहता हूँ; भो:ः--हे भगवान्‌; मुने--हे मुनि शुकदेव गोस्वामी; येन--जिससे; आसन्‌ू-- थे; सुखिन: --अत्यन्तप्रसन्न; देवा: --समस्त देवता; हरे: --इन्द्र का; दुःखम्‌--दुख, अप्रसन्नता; कुतः--कहाँ से; अभवत्‌-- था।

    महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे मुनि! इन्द्र की अप्रसन्नता का कारणक्या था?

    मैं इसके विषय में सुनना चाहता हूँ।

    जब उसने वृत्रासुर का वध कर दिया तो सभीदेवता प्रसन्न हुए, तो फिर इन्द्र स्वयं क्‍यों अप्रसन्न था ?

    श्रीशुक उवाचवृत्रविक्रमसंविग्ना: सर्वे देवा: सहर्षिभि: ।

    तद्गधायार्थयत्निन्द्रं नैच्छद्धीतो बृहद्वधात्‌ ॥

    ४॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; वृत्र--वृत्रासुर के; विक्रम--शौर्य से; संविग्ना:--चिन्तायुक्त होकर;सर्वे--सभी; देवा:--देवतागण; सह ऋषिभि:--महान्‌ साधुओं समेत; तत्‌-वधाय--उसके वध के लिए; आर्थयन्‌--प्रार्थना की; इन्द्रमू--इन्द्र से; न ऐच्छत्‌--इनकार कर दिया; भीत:--डरकर; बृहत्‌ -बधात्‌--ब्राह्मण वध के कारण |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया--जब समस्त ऋषि तथा देवता वृत्रासुर कीअसाधारण शक्ति से विचलित हो रहे थे तो उन्होंने एकत्र होकर इन्द्र से उसका वध करने केलिए याचना की थी।

    किन्तु इन्द्र ने ब्राह्मण-हत्या के भय से उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी थी।

    इन्द्र उबाचस्त्रीभूद्रुमजलैरेनो विश्वरूपवधोद्धवम्‌ ।

    विभक्तमनुगृह्नद्धिर्वृत्रहत्यां कब मार्ज्म्यहम्‌ ॥

    ५॥

    इन्द्र: उबाच--राजा इन्द्र ने उत्तर दिया; स्त्री--स्त्री; भू--पृथ्वी; द्रम--वृक्ष; जलै:ः--तथा जल के द्वारा; एन:--यह(पाप ); विश्वरूप--विश्वरूप के; वध--वध से; उद्धवम्‌--उत्पन्न; विभक्तम्‌--बाँट लिया; अनुगृह्नद्धिः-- अपने अपनेअनुग्रह से; वृत्र-हत्याम्‌--वृत्र की हत्या से; क्व--कैसे; मार्ज्पि-- मुक्त हो सकूँगा; अहम्‌ू--मैं

    राजा इन्द्र ने उत्तर दिया--जब मैंने विश्वरूप का वध किया, तो मुझे अत्यधिक पाप-बन्धन मिला था, किन्तु स्त्रियों, धरती, वृक्षों तथा जल ने मेरे ऊपर अनुग्रह किया था, जिससेमैं अपने पाप को उन सबों में बाँठ सका।

    किन्तु यदि मैं अब एक अन्य ब्राह्मण, वृत्रासुर, कावध करूँ तो भला पाप-बन्धनों से मैं अपने को किस प्रकार मुक्त कर सकूँगा ?

    श्रीशुक उवाचऋषयस्तदुपाकर्णय महेन्द्रमिदमब्रुवन्‌ ।

    याजयिष्याम भद्गं ते हयमेधेन मा सम भे; ॥

    ६॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; ऋषय: --परम साधुगण; तत्‌--वह; उपाकर्ण्य--सुनकर; महा-इन्द्रम्‌--राजा इन्द्र से; इदम्‌--यह; अब्लुवन्‌--कहा; याजयिष्याम: --हम महान्‌ यज्ञ करेंगे; भद्रमू--कल्याण; ते--तुम्हारा;हयमेथेन--अश्वमेध यज्ञ से; मा सम भेः--मत भयभीत हो |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--यह सुनकर ऋषियों ने इन्द्र को उत्तर दिया, ' हे स्वर्ग केराजा! तुम्हारा कल्याण हो।

    तुम डरो नहीं।

    हम तुम्हें ब्राह्मण-हत्या से लगने वाले किसी भीपाप से मुक्ति के लिए एक अश्वमेघ यज्ञ करेंगे।

    'हयमेधेन पुरुषं परमात्मानमीश्चरम्‌ ।

    इष्ठा नारायण देव॑ मोक्ष्यसेडपि जगद्ठधात्‌ ॥

    ७॥

    हयमेथेन--अश्वमेध यज्ञ से; पुरुषम्‌--परम पुरुष; परमात्मानमू--परमात्मा को; ई श्ररम्‌ू--परम नियन्ता; इष्टा--पूजा करके;नारायणम्‌-- भगवान्‌ नारायण को; देवम्‌-परमे श्वर; मोक्ष्यसे--तुम मुक्त हो जाओगे; अपि-- भी; जगत्‌-वधात्‌--सारेसंसार का वध करने के पाप से

    ऋषियों ने आगे कहा--हे राजा इन्द्र! अश्वमेध यज्ञ करके उसके द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ को, जो परमात्मा, भगवान्‌, नारायण और परम नियन्ता हैं, प्रसन्न करके मनुष्य सारेसंसार के वध के पाप-फलों से भी मुक्त हो सकता है, वृत्रासुर जैसे एक असुर के वध कीतो बात ही कया है?

    ब्रह्मा पितृहा गोघ्नो मातृहाचार्यहाघवान्‌ ।

    श्राद: पुल्कसको वापि शुद्धग्रेरन्यस्य कीर्तनात्‌ ॥

    ८॥

    तमश्वमेधेन महामखेनश्रद्धान्वितोउस्माभिरनुष्ठितेन ।

    हत्वापि सब्रह्मचराचरं त्वंन लिप्यसे कि खलनिग्रहेण ॥

    ९॥

    ब्रह्-हा--ब्राह्मण की हत्या करने वाला; पितृ-हा--पिता की हत्या करने वाला; गो-घ्नः--गोहत्या करने वाला; मातृ-हा--माता का वध करने वाला; आचार्य-हा--अपने गुरु की हत्या करने वाला; अघ-वान्‌--ऐसा पापी पुरुष; श्र-अदः --कुत्ता खाने वाला; पुल्कसक:--चाण्डाल, जो शूद्र से भी नीच होता है; वा--अथवा; अपि-- भी; शुद्धबेरनू--शुद्ध कियाजा सकता है; यस्य--जिस ( भगवान्‌ नारायण ) के; कीर्तनातू--नाम जप से; तमू--उसको; अश्वमेधेन-- अश्वमेधयज्ञ केद्वारा; महा-मखेन--समस्त यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ; श्रद्धा-अन्वित: -- श्रद्धा युक्त; अस्माभि: --हमारे द्वारा; अनुष्ठितेन--कियागया; हत्वा--मार कर; अपि-- भी; स-ब्रह्म -चर-अचरम्‌--ब्राह्मणों समेत सभी जीवात्माएँ; त्वमू--तुम; न--नहीं;लिप्यसे--कल्मषग्रस्त होते हो; किम्‌ू--तो फिर कया; खल-निग्रहेण --एक दुष्ट असुर को मारने से।

    भगवान्‌ नारायण के पवित्र नाम के जप-मात्र से ब्राह्मण, गाय, पिता, माता, गुरू कीहत्या करने वाला मनुष्य समस्त पाप-फलों से तुरन्त मुक्त किया जा सकता है।

    अन्य पापीमनुष्य भी, यथा कुत्ते को खाने वाले तथा चांडाल, जो शूद्रों से भी निम्न हैं, इसी प्रकार सेमुक्त हो जाते हैं।

    फिर आप तो भक्त हैं और हम सभी महान्‌ अश्वमेध यज्ञ करके आपकीसहायता करेंगे।

    यदि आप भी इस प्रकार भगवान्‌ नारायण को प्रसन्न करें तो फिर आपकोडर कैसा?

    तब आप मुक्त हो जायेंगे, भले ही आप ब्राह्मणों सहित सारे ब्रह्माण्ड की हत्याक्यों न कर दें।

    भला वृत्रासुर जैसे विघ्नकारी एक असुर की हत्या की क्‍या बात है ?

    श्रीशुक उबाचएवं सञ्जोदितो विप्रैरमरुत्वानहनद्रिपुम्‌ ।

    ब्रह्महत्या हते तस्मिन्नाससाद वृषाकपिम्‌ ॥

    १०॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; सझ्ञोदित:--प्रोत्साहित होकर; विप्रै:--ब्राह्मणों केद्वारा; मरुत्वानू--इन्द्र ने; अहनत्‌--वध कर दिया; रिपुम्‌--अपने शत्रु, वृत्रासुर को; ब्रह्म-हत्या--एक ब्राह्मण की हत्याका पाप; हते--मारे जाने पर; तस्मिन्‌--जब वह ( वृत्रासुर ) आससाद--पास गया; वृषाकपिम्‌--इन्द्र जिसको वृषाकपिभी कहते हैं |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--ऋषियों के बचनों से प्रोत्साहित होकर इन्द्र ने वृत्रासुरका वध कर दिया और जब वह मारा गया तो ब्रह्महत्या का पाप फल इन्द्र के पास पहुँचा।

    तयेन्द्र: स्मासहत्तापं निर्वृतिर्नामुमाविशत्‌ ।

    हीमन्तं वाच्यतां प्राप्त सुखयन्त्यपि नो गुणा: ॥

    ११॥

    तया--उस कार्य से; इन्द्र: --राजा इन्द्र ने; स्म--निस्सन्देह; असहत्‌--सहन किया; तापम्‌--क्लेश या दुख; निर्वृतिः--प्रसन्नता; न--नहीं; अमुम्‌--उसको; आविशत्‌-- प्रवेश किया; हीमन्तम्‌--लज्जाशील; वाच्यताम्‌-- अपयश ; प्राप्तम्‌--प्राप्त करके; सुखयन्ति--प्रसन्नता प्रदान करते हैं; अपि--यद्यपि; नो--नहीं ; गुणा:--उतम गुण यथा ऐश्वर्य आदि।

    देवताओं की सलाह से इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया और इस पापपूर्ण हत्या केकारण उसे कष्ट उठाना पड़ा।

    यद्यपि अन्य देवतागण प्रसन्न थे, किन्तु वृत्रासुर की हत्या सेउसे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई।

    इन्द्र के इस क्लेश में अन्य उत्तम गुण, यथा धैर्य तथाऐश्वर्य, उसके सहायक नहीं बन सके।

    तां दरदर्शानुधावन्तीं चाण्डालीमिव रूपिणीम्‌ ।

    जरया वेषमानाड़ीं यक्ष्मग्रस्तामसृक्पटाम्‌ ॥

    १२॥

    विकीर्य पलितान्केशांस्तिष्ठ तिष्ठेति भाषिणीम्‌ ।

    मीनगन्ध्यसुगन्धेन कुर्वतीं मार्गदूषणम्‌ ॥

    १३॥

    तामू--ब्रह्म हत्या को; दरदर्श--देखा; अनुधावन्तीम्‌--पीछा करते हुए; चाण्डालीम्‌--निम्न श्रेणी की स्त्री; इब--सहृश;रूपिणीम्‌--रूप धारण करके; जरया--बुढ़ापे के कारण; वेपमान-अड्रीम्‌--काँपते हुए अंगों वाली; यक्ष्म-ग्रस्ताम्‌ू--यक्ष्मा रोग से ग्रस्त; असृक्‌-पटाम्‌--रक्त से सने वस्त्रों वाली; विकीर्य--बिखेरे हुए; पलितान्‌-- श्वेत; केशान्‌ू--बाल; तिष्ठतिष्ठ--ठहरो ठहरो; इति--इस प्रकार; भाषिणीम्‌--कहते हुए; मीन-गन्धि--मछली की गन्ध; असु--जिसकी श्वास;गन्धेन--गन्ध से; कुर्वतीम्‌--करती हुई; मार्ग-दूषणम्‌--सारे रास्ते का प्रदूषण |

    इन्द्र ने साक्षात्‌ ब्रह्महत्या के फल को एक चाण्डाल स्त्री के समान प्रकट होकर अपनापीछा करते देखा।

    वह अत्यन्त वृद्धा प्रतीत होती थी और उसके शरीर के सभी अंग काँप रहेथे।

    यक्ष्मा रोग से पीड़ित होने के कारण उसका सारा शरीर तथा वस्त्र रक्त से सने थे।

    उसकीश्वास से मछली की-सी असह्य दुगन्ध निकल रही थी जिससे सारा रास्ता दूषित हो रहा था।

    उसने इन्द्र को पुकारा, 'ठहरो! ठहरो! 'नभो गतो दिश्ञः सर्वाः सहस्त्राक्षो विशाम्पते ।

    प्रागुदीचीं दिशं तूर्ण प्रविष्टो नूप मानसम्‌ ॥

    १४॥

    नभः--आकाश को; गत:--जाकर; दिश:--दिशाओं को; सर्वा:--समस्त; सहस्त्र-अक्ष:--इन्द्र, जिसके एक हजारआँखें हैं; विशाम्पते--हे राजा; प्राक्‌-उदीचीम्‌--उत्तरपूर्व; दिशम्‌--दिशा में; तूर्णम्‌--अत्यन्त बेग से; प्रविष्ट:--प्रवेशकिया; नृप--हे राजा; मानसम्‌ू--मानस-सरोवर नामक झील में |

    हे राजन! इन्द्र पहले आकाश की ओर भागा, किन्तु उसने वहाँ भी उस ब्रह्महत्या रूपिणी स्त्री को अपना पीछा करते देखा।

    जहाँ कहीं भी वह गया, यह डायन उसका पीछा करतीरही।

    अन्त में बह तेजी से उत्तरपूर्व की ओर गया और मानस सरोवर में घुस गया।

    स आवसत्पुष्करनालतन्तू-नलब्धभोगो यदिहाग्निदूत: ।

    वर्षाणि साहसत्रमलक्षितो न्‍्तःसश्ञिन्तयन्ब्रह्मवधाद्विमोक्षम्‌ ॥

    १५॥

    सः--वह ( इन्द्र )) आवसत्‌--रहता रहा; पुष्कर-नाल-तन्तूनू--कमल नाल के तन्तुजाल में; अलब्ध-भोग: --किसी प्रकारकी भौतिक सुविधा न पाते हुए; यत्‌--जो; इह--यहाँ; अग्नि-दूत:--अग्निदेव नामक दूत; वर्षाणि--स्वर्गीय वर्षो तक;साहस्रमू--एक हजार; अलक्षित:--अदृश्य; अन्त:--अपने हृदय में; सश्चिन्तयन्‌--सदैव सोचते हुए; ब्रह्म-बधात्‌--ब्रहमहत्या से; विमोक्षम्‌-मुक्ति

    सदैव यह सोचते हुए कि ब्रह्महत्या से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त हो, राजा इन्द्र, सबोंसे अदृश्य रहकर सरोवर में कमलनाल के सूक्ष्म तन्तुओं के भीतर एक हजार वर्ष तक रहा।

    अग्निदेव उसे समस्त यज्ञों का उसका भाग लाकर देते, क्योंकि अग्निदेव जल में प्रवेश करनेसे भयभीत थे, अतः इन्द्र एक तरह से भूखों मर रहा था।

    तावत्त्रिणाक॑ नहुष: शशासविद्यातपोयोगबलानुभाव: ।

    स सम्पदैश्चर्यमदान्धबुद्धि-नींतस्तिरश्लां गतिमिन्द्रपल्या ॥

    १६॥

    तावतू--तब तक; त्रिणाकम्‌--स्वर्गलोक; नहुष:--नहुष; शशास--शासन करता रहा; विद्या--शिक्षा; तप:--तपस्या;योग--योग; बल--तथा शक्ति से; अनुभाव:--से युक्त; सः--वह ( नहुष ); सम्पत्‌--प्रभूत सम्पत्ति का; ऐश्वर्य--तथाऐश्वर्य; मद--घमंड से; अन्ध--अन्धा; बुद्द्धिः--उसकी बुर्द्धि; नीत:--ले जाया गया; तिरश्वाम्‌--सर्पों की; गतिम्‌--गन्तव्य को; इन्द्र-पत्या--इन्द्र की पत्नी शी देवी द्वारा।

    जब तक राजा इन्द्र कमलनाल के भीतर जल में रहा, नहुष अपने ज्ञान, तप तथा योग के कारण स्वर्गलोक का शासन चलाने के लिए सक्षम बना दिया गया।

    किन्तु शक्ति तथा ऐश्वर्यके मद से अंधा होकर उसने इन्द्र की पत्नी के साथ रमण करने का अवांछित प्रस्ताव रखा।

    इस प्रकार वह एक ब्राह्मण द्वारा शापित हुआ और बाद में सर्प बन गया।

    ततो गतो ब्रह्मगिरोपहूतऋतम्भरध्याननिवारिताघ: ।

    पापस्तु दिग्देवतया हतौजा-स्तं नाभ्यभूदवितं विष्णुपत्या ॥

    १७॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; गत:--चले गये; ब्रह्म--ब्राह्मणों के; गिरा--शब्दों से; उपहूत:--आमंत्रित होकर; ऋतम्भर--सत्य कापोषण करने वाले परमेश्वर में; ध्यान--ध्यान द्वारा; निवारित--रोका जाकर; अघ:--जिसका पाप; पापः--पाप-पूर्ण कर्म;तु--तब; दिक्‌-देवतया--रुद्रदेव द्वारा; हत-ओजा:--समस्त शौर्य के क्षीण होने पर; तमू--उस ( इन्द्र ) को; नअभ्यभूत्‌-परास्त नहीं कर सका; अवितम्‌--सुरक्षित होने से; विष्णु-पतल्या--धन की देवी

    भगवान्‌ विष्णु की पत्नीद्वारासमस्त दिशाओं के देवता रुद्र के प्रताप से इन्द्र के पाप कम हो गये।

    चूँकि इन्द्र की रक्षामानस-सरोवर के कमल कुंजों में निवास करने वाली धन की देवी भगवान्‌ विष्णु की पत्नीद्वारा की जा रही थी, अतः इन्द्र के पापों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

    अन्त में भगवान्‌विष्णु की निष्ठा-पूर्वक पूजा करने से इन्द्र के सारे पाप छूट गये।

    तब ब्राह्मणों ने उसे पुनःस्वर्गलोक में बुलाकर उसके पूर्व पद पर स्थापित कर दिया।

    तं च ब्रह्मर्षयोभ्येत्य हयमेधेन भारत ।

    यथादद्ीक्षयां चक्र: पुरुषाराधनेन ह ॥

    १८॥

    तम्‌--उसको ( इन्धर को ); च--तथा; ब्रह्म-ऋषय: --सभी ऋषि तथा ब्राह्मण; अभ्येत्य--के पास जाकर; हयमेधेन--अश्वमेध यज्ञ के द्वारा; भारत--हे राजा परीक्षित; यथावत्‌--विधिपूर्वक; दीक्षयाम्‌ चक्कु:--दीक्षा दी; पुरुष-आराधनेन--परम पुरुष हरि की आराधना द्वारा; ह--निस्सन्देह |

    हे राजन्‌! जब इन्द्र स्वर्गलोक में पहुँच गया तो साधुवत्‌ ब्राह्मण उसके पास गये औरपरमेश्वर को प्रसन्न करने के निमित्तअश्वमेध यज्ञ के लिए उसे समुचित रूप से दीक्षित किया।

    अथेज्यमाने पुरुषे सर्वदेवमयात्मनि ।

    अश्रमेथधे महेन्द्रेण वितते ब्रह्मगादिभि: ॥

    १९॥

    स वै त्वाष्टवधो भूयानपि पापचयो नृप ।

    नीतस्तेनैव शून्याय नीहार इब भानुना ॥

    २०॥

    अथ--अतः; इज्यमाने--पूजित होकर; पुरुषे-- श्री भगवान्‌; सर्व--समस्त; देव-मय-आत्मनि--परमात्मा तथा देवताओंके पालक; अश्रमेधे--अश्वमेध यज्ञ के माध्यम से; महा-इन्द्रेण--राजा इन्द्र द्वारा; वितते--सम्पन्न कराया गया; ब्रह्म-वादिभि:--वैदिक ज्ञान में दक्ष ऋषियों तथा ब्राह्मणों द्वारा; स:ः--वह; वै--निस्सन्देह; त्वाष्ट-वध: --त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुरका वध; भूयात्‌--हो; अपि--यद्यपि; पापचय: -- पाप समूह; नृप--हे राजा; नीत:--लाया गया; तेन--उस ( अश्वयज्ञ )के द्वारा; एव--निश्चय ही; शून्याय--शून्य, कुछ नहीं; नीहार:--कोहरा; इब--सहद्ृश; भानुना--तेजमय सूर्य के द्वारा।

    ऋषितुलय ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न किये गये अश्वमेध यज्ञ ने इन्द्र को समस्त पाप-बन्धनों सेमुक्त कर दिया, क्‍योंकि उस यज्ञ में उसने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा की थी।

    हे राजन!यद्यपि उसने गम्भीर पापकृत्य किया था, किन्तु उस यज्ञ से वह पाप कृत्य तुरन्त उसी प्रकारविनष्ट हो गया, जिस प्रकार सूर्य के तेज प्रकाश से कोहरा छँट जाता है।

    स वाजिमेधेन यथोदितेनवितायमानेन मरीचिमिश्रे: ।

    इष्टाधियज्ञं पुरुष पुराण-मिन्द्रो महानास विधूतपाप: ॥

    २१॥

    सः--वह ( इन्द्र )) वाजिमेधेन--अश्वमेध यज्ञ से; यथा--जिस प्रकार; उदितेन--वर्णित; वितायमानेन--सम्पन्न होकर;मरीचि-मिश्रे:--मरीचि आदि पुरोहितों द्वारा; इश्ठा--पूजा करके; अधियज्ञम्‌--परम परमात्मा को; पुरुषम्‌ पुराणम्‌--आदिभगवान्‌; इन्द्र:--राजा इन्द्र; महानू--पूज्य; आस--हो गया; विधूत-पाप:--समस्त पापों के धुल जाने से ।

    मरिचि तथा अन्य महर्षियों ने राजा इन्द्र पर कृपा की और विधिपूर्वक आदि पुरुष,परमात्मा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा कर के यज्ञ सम्पन्न किया।

    इस प्रकार इन्द्र नेअपनी उन्नत स्थिति पुनः प्राप्त कर ली तथा वह प्रत्येक के द्वारा फिर से सम्मानित हुआ।

    इदं महाख्यानमशेषपाप्मनांप्रक्षालनं तीर्थपदानुकीर्तनम्‌ ।

    भक्त्युच्छुयं भक्तजनानुवर्णनंमहेन्द्रमोक्षं विजयं मरुत्वत: ॥

    २२॥

    पठेयुराख्यानमिदं सदा बुधा: श्रुण्वन्त्यथो पर्वणि पर्वणीन्द्रियम्‌ ।

    धन्यं यशस्यं निखिलाघमोचनंरिपुद्जयं स्वस्त्ययनं तथायुषम्‌ ॥

    २३॥

    इदम्‌--यह; महा-आख्यानम्‌--महान्‌ ऐतिहासिक घटना; अशेष-पाप्मनाम्‌-- अनन्त पापों की; प्रक्षालनम्‌--स्वच्छ करनेके लिए; तीर्थपद-अनुकीर्तनम्‌--तीर्थयद कहे जाने वाले श्रीभगवान्‌ का यशोगान करते हुए; भक्ति-- भक्तियोग का;उच्छुयम्‌--बढ़ते हुए; भक्त-जन--भक्तगण; अनुवर्णनम्‌--वर्णन करते हुए; महा-इन्द्र-मोक्षम्‌--स्वर्ग के राजा की मुक्ति;विजयमू्‌--विजय; मरुत्वत:--राजा इन्द्र की; पठेयु:--पढ़ना चाहिए; आख्यानम्‌--कथा; इृदम्‌--यह; सदा--सदैव;बुधा:--विद्वान पुरुष; श्रृण्वन्ति--सुनते रहते हैं; अथो--भी; पर्वणि पर्वणि--बड़े उत्सवों के अवसर पर; इन्द्रियम्‌--इन्द्रियों को तीक्ष्ण करने वाला; धन्यम्‌--धन लाता है; यशस्यम्‌ू--यश लाता है; नेखिल--सभी; अघ-मोचनम्‌--पापों सेमुक्त करते हुए; रिपुम्‌-जयम्‌--शत्रुओं के ऊपर विजयी बनाता है; स्वस्ति-अयनम्‌--सबों के लिए कल्याणकारी है;तथा--उसी प्रकार; आयुषम्‌--आयु।

    इस महान्‌ आख्यान में भगवान्‌ नारायण की महिमा का वर्णन हुआ है, भक्तियोग कीमहानता के सम्बन्ध में कथन दिए गए हैं, इन्द्र तथा वृत्रासुर जैसे भक्तों के वर्णन आए हैंतथा पापी जीवन से इन्द्र के मोक्ष एवं असुरों के साथ लड़े गये युद्धों में उसकी विजय केसम्बन्ध में विवरण दिए गये हैं।

    इस आख्यान को समझ लेने पर सभी पाप-फलों सेछुटकारा मिल जाता है।

    अतः विद्वानों को सदा सलाह दी जाती है कि इस आख्यान को पढ़ें ।

    जो ऐसा करेगा उसकी इन्द्रियाँ अपने कार्य में निपुण होंगी, उसका ऐश्वर्य बढ़ेगा और यशचारों ओर फैलेगा।

    उसके समस्त पाप-फल मिट जायेंगे, उसे अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्तहोगी और उसकी आयु बढ़ेगी।

    चूँकि यह आख्यान सभी तरह से कल्याणकारी है, अतःदिद्वान व्यक्ति इसको प्रत्येक शुभ उत्सव के अवसर पर नियमित रूप से सुनते और दोहरातेहैं।

    TO

    अध्याय चौदह: राजा चित्रकेतु का विलाप

    6.14श्रीपरीक्षिदुवाचरजस्तमःस्वभावस्य ब्रह्मन्वृत्रस्थ पाप्मन: ।

    नारायणे भगवति कथमासीहूढा मतिः ॥

    १॥

    श्री-परीक्षित्‌ उवाच--राजा परीक्षित ने पूछा; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; स्व-भावस्य--स्वभाव वाला; ब्रह्मनू-हेविद्वान ब्राह्मण; वृत्रस्थ--वृत्रासुर का; पाप्मन:--जो पापी था; नारायणे-- भगवान्‌ नारायण में; भगवति--श्री भगवान्‌;कथम्‌-किस प्रकार; आसीतू-- थी; हृढा--अत्यन्त हृढ़; मति:ः--चेतना, भक्ति |

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे विद्वान ब्राह्मण! रजो तथा तमो गुणों सेआविष्ट होने के कारण असुर सामान्यतः पापी होते हैं।

    तो फिर वृत्रासुर भगवान्‌ नारायण केप्रति इतना परम प्रेम किस प्रकार प्राप्त कर सका ?

    देवानां शुद्धसत्त्वानामृषीणां चामलात्मनाम्‌ ।

    भक्तिर्मुकुन्दचरणे न प्रायेणोपजायते ॥

    २॥

    देवानाम्‌ू-देवताओं का; शुद्ध-सत्त्वानामू--जिनके मन विमल हैं; ऋषीणाम्‌--महान्‌ साधु पुरुषों के; च--तथा; अमल-आत्मनाम्‌--जिन्होंने अपने जन्म को पवित्र कर लिया है; भक्ति:-- भक्ति; मुकुन्द-चरणे--मुक्तिदायक भगवान्‌ मुकुन्द केचरण कमलों में; न--नहीं; प्रायेण--प्राय:; उपजायते--उपजती हैबढ़ती है

    प्राय: सत्त्वमय देवता तथा भौतिक सुख-रूपी रज से निष्कलंक ऋषि अत्यन्त कठिनाईसे मुकुन्द के चरण-कमलों की शुद्ध भक्ति कर पाते हैं।

    [तो फिर वृत्रासुर इतना बड़ा भक्तकिस प्रकार बन सका ?

    रजोभि: समसड्ख्याता: पार्थिवैरिह जन्तवः ।

    तेषां ये केचनेहन्ते श्रेयो वै मनुजादय: ॥

    ३॥

    रजोभि:--कणों से; सम-सड्ख्याता:--समान संख्या में; पार्थिवै: -- पृथ्वी के; इहह--इस संसार में; जन्तव:--जीवात्माएँ;तेषाम्‌--उनकी; ये--जो; केचन-- कुछ; ईहन्ते--कार्य करते हैं; श्रेय:--धधार्मिक सिद्धान्तों के लिए; बै--निस्सन्देह;मनुज-आदय: --मनुष्य इत्यादि

    इस भौतिक जगत में जीवात्माओं की संख्या उतनी ही है जितने कि धूल कण।

    इनजीवात्माओं में से कुछ ही मनुष्य होते हैं और उनमें से कुछ ही धार्मिक नियमों के पालन मेंरुचि दिखलाते हैं।

    प्रायो मुमुक्षवस्तेषां केचनैव द्विजोत्तम ।

    मुमुक्षूणां सहस्त्रेषु कश्निन्मुच्येत सिध्यति ॥

    ४॥

    प्रायः--प्रायः, लगभग सदा; मुमुक्षवः--मुक्ति के इच्छुक लोग; तेषामू--उनका; केचन--कुछ; एव--निस्सन्देह; द्विज-उत्तम-हे ब्राह्मण श्रेष्ठ; मुमुक्षूणाम्‌--मुक्ति पाने के इच्छुक लोगों का; सहस्त्रेषु--हजारों में से; कश्चित्‌--कोई एक;मुच्येत--वास्तव में मुक्ति लाभ करता है; सिध्यति--सिद्ध ( पूर्ण ) होता हैब्राह्मण- श्रेष्ठ

    हे शुकदेव गोस्वामी! धार्मिक नियमों का पालन करने वाले अनेक मनुष्योंमें से कुछ ही भौतिक जगत से मुक्ति पाने क

    े इच्छुक रहते हैं।

    मुक्ति चाहने वाले हजारों में सेकिसी एक को वास्तव में मुक्ति-लाभ होता है और वह समाज, मित्रता, प्यार, देश, घर, स्त्रीतथा सन्‍्तान के प्रति अपनी आसक्ति का परित्याग कर पाता है।

    ऐसे हजारों मुक्त पुरुषों में सेमुक्ति का वास्तविक अर्थ जानने वाला कोई विरला ही होता है।

    मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायण: ।

    सुदुर्लभ: प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने ॥

    ५॥

    मुक्तानामू--मुक्त पुरुषों में से; अपि-- भी; सिद्धानाम्‌--सिद्ध पुरुषों में से; नारायण-परायण:--ऐसा मनुष्य जिसने यहनिष्कर्ष निकाला है कि नारायण हैं; सु-दुर्लभ:--अत्यन्त दुर्लभ है, कठिनाई से प्राप्त होता है; प्रशान्त--परम शान्त;आत्मा--जिसका मन; कोटिषु--करोड़ों में से; अपि-- भी; महा-मुने--हे परम साथु!

    हे परम साधु! लाखों मुक्त तथा मुक्ति के ज्ञान में पूर्ण पुरुषों में से कोई एक भगवान्‌नारायण अथवा कृष्ण का भक्त हो सकता है।

    ऐसे भक्त, जो परम शान्त हों, अत्यन्त दुर्लभहैं।

    text:वृत्रस्तु स कथं पाप: सर्वलोकोपतापन: ।

    इत्थं दढमति: कृष्ण आसीत्सड्ग्राम उल्बणे ॥

    ६॥

    वृत्र:--वृत्रासुर; तु--लेकिन; सः--वह; कथम्‌--किस प्रकार; पाप:--( आसुरी शरीर प्राप्त करने में ) यद्यपि पापी; सर्व-लोक--तीनों लोकों का; उपतापन:--कष्ट का कारण; इत्थम्‌--ऐसा; हृढ-मति:--हढ़ बुर्द्धि; कृष्णे--कृष्ण में; आसीत्‌--था; सड्य़्ामे उल्बणे--युद्ध की ज्वाला में वृत्रासुर

    युद्ध की धधकती ज्वाला में स्थित था और पापी असुर अन्यों को सदैव कष्ट तथा चिन्ता पहुँचाने के लिए कुख्यात था।

    ऐसा असुर किस प्रकार इतना बड़ा कृष्ण भक्त हो सका?

    सका अत्र नः संशयो भूयाञ्छोतुं कौतूहलं प्रभो ।

    यः पौरुषेण समरे सहस्त्राक्षमतोषयत्‌ ॥

    ७॥

    अत्र--इस सम्बन्ध में; न:ः--हमारा; संशय:--सन्देह; भूयान्‌ू-- अत्यधिक; श्रोतुम्‌--सुनने के लिए; कौतूहलम्‌--उत्कंठा,कुतूहल; प्रभो--हे प्रभो; यः--जो; पौरुषेण--पराक्रम से; समरे--युद्ध में ; सहस्त्र-अक्षम्‌--जिनके एक हजार नेत्र हैं,भगवान्‌ इन्द्र को; अतोषयत्‌--सन्तुष्ट किया, प्रसन्न कर लिया।

    हे प्रभो, शुकदेव गोस्वामी! यद्यपि वृत्रासुर पापी असुर था, किन्तु उसने सर्वाधिक उन्नतक्षत्रिय का पराक्रम दिखाकर युद्ध में इन्द्र को प्रसन्न कर लिया।

    ऐसा असुर भगवान्‌ कृष्णका महान्‌ भक्त क्योंकर हो सका ?

    इन विरोधी बातों से मेरे मन में अत्यधिक सन्देह उत्पन्न होगया है, अतः मैं इस सम्बन्ध में आपसे सुनने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ।

    श्रीसूत उबाचपरीक्षितोथ सम्प्रश्नं भगवान्बादरायणि: ।

    निशम्य श्रद्धानस्य प्रतिनन्द्य वचोब्रवीत्‌ ॥

    ८ ॥

    श्री-सूतः उवाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; परीक्षित:--महाराज परीक्षित का; अथ--इस प्रकार; सम्प्रश्नम्‌-- श्रेष्ठ प्रश्न;भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; बादरायणि: --व्यासदेव के पुत्र शुकदेव गोस्वामी; निशम्य--सुनकर; श्रदधानस्य-- अपनेश्रद्धालु शिष्य का; प्रतिनन्‍्द्य--अभिनन्दन करते हुए; वच:--शब्द; अब्रवीत्‌--बोले |

    श्री सूत गोस्वामी ने कहा--महाराज परीक्षित के इस उत्तम प्रश्न को सुनकर परमशक्तिमान ऋषि शुकदेव गोस्वामी अपने शिष्य को अत्यन्त प्रेमपूर्वक उत्तर देने लगे।

    श्रीशुक उबाचश्रुणुष्वावहितो राजन्नितिहासमिमं यथा ।

    श्रुतं द्वैपायनमुखान्नारदाद्ेवलादपि ॥

    ९॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; श्रृणुष्व--सुनो; अवहितः--अत्यन्त ध्यान से; राजन्‌--हे राजा;इतिहासम्‌--इतिहास को; इमम्‌ू--इस; यथा--जिस प्रकार; श्रुतम्‌--सुना हुआ; द्वैषायन--व्यासदेव के; मुखात्‌--मुँह से;नारदात्‌ू--नारद से; देवलात्‌ू--देवल ऋषि से; अपि-- भी

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजन्‌! मैं उस इतिहास को तुमसे कहूँगा जिसे मैंनेव्यासदेव, नारद तथा देवल के मुखों से सुना है।

    इसे ध्यानपूर्वक सुनो।

    आसीढ्राजा सार्वभौम: शूरसेनेषु वै नृप ।

    चित्रकेतुरिति ख्यातो यस्यासीत्कामधुड्मही ॥

    १०॥

    आसीत्‌--था; राजा--एक राजा; सार्व-भौम:--चक्रवर्ती राजा; शूरसेनेषु--शूरसेन नामक देश में; बै--निस्सन्देह; नूप--है राजन; चित्रकेतु:--चित्रकेतु; इति--इस प्रकार; ख्यात:--विख्यात; यस्य--जिसकी; आसीत्‌-- थी; काम-धुक्‌--समस्त आवश्यकताओं को प्रदान करने वाली; मही--पृथ्वी |

    हे राजा परीक्षित! शूरसेन प्रदेश में चित्रकेतु नाम का एक चक्रवर्ती राजा था।

    उसकेराज्य में पृथ्वी से जीवन की समस्त आवश्यक वस्तुएँ उत्पन्न होती थीं।

    तस्य भार्यासहस्त्राणां सहस्त्राणि दशाभवन्‌ ।

    सान्तानिकश्चापि नूपो न लेभे तासु सन्‍्ततिम्‌ ॥

    ११॥

    तस्थ--उसकी ( चित्रकेतु की ); भार्या--पत्तियों के; सहस्त्राणामू-हजारों; सहस्त्राणि-- हजार; दश--दस; अभवनू--थीं; सान्तानिक:--सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ; च--तथा; अपि--यद्यपि; नृप:--राजा; न--नहीं; लेभे--प्राप्त किया;तासु--उनसे; सनन्‍्ततिम्‌-पुत्र |

    राजा चित्रकेतु के एक करोड़ पत्नियाँ थीं और यद्यपि वह सन्‍्तान उत्पन्न करने में समर्थ था, किन्तु उनसे उसे कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुई।

    संयोगवश सभी पत्नियां बाँझ थीं।

    रूपौदार्यवयोजन्मविद्यैश्वर्यश्रियादिभि: ।

    सम्पन्नस्य गुण: सर्वैश्विन्ता बन्ध्यापतेरभूतू ॥

    १२॥

    रूप--सुन्दरता; औदार्य --उदारता; वय: --युवावस्था; जन्म--उच्चकुल में जन्म; विद्या--विद्या; ऐश्वर्य--ऐश्वर्य; अ्रिय-आदिभि:--सम्पत्ति आदि से; सम्पन्नस्य--युक्त; गुणै: --गुणों से; सर्वै:--समस्त; चिन्ता--चिन्ता; बन्ध्या-पते: --अनेकबाँझ पत्नियों के पति चित्रकेतु की; अभूत्‌-- थी |

    इन करोड़ पत्तियों का पति चित्रकेतु अत्यन्त रूपवान उदार तथा तरुण था।

    वह उच्चकुल में उत्पन्न हुआ था, उसे पूर्ण शिक्षा प्राप्त हुई थी और वह सम्पत्तिवान्‌ एवं ऐश्वर्यवान्‌ था।

    फिर भी इन समस्त गुणों के होते हुए किन्तु कोई पुत्र न होने से वह अत्यन्त चिन्तायुक्त रहताथा।

    न तस्य सम्पद:ः सर्वा महिष्यो वामलोचना: ।

    सार्वभौमस्य भूश्वेयमभवन्प्रीतिहितव: ॥

    १३॥

    न--नहीं; तस्य--उसकी ( चित्रकेतु की ); सम्पद:--अपार ऐश्वर्य; सर्वा:--सभी; महिष्य:--रानियाँ; वाम-लोचना:--अत्यन्त आकर्षक नेत्रों वाली; सार्व-भौमस्थ--महाराज की; भू:--पृथ्वी; च--भी; इयम्‌--यह; अभवनू-- थे; प्रीति-हेतव:--प्रसन्नता के कारण

    उनकी सभी रानियाँ सुमुखी एवं आकर्षक नेत्रों वाली थीं, फिर भी न तो उसका ऐश्वर्यतथा सैकड़ों-हजारों रानियाँ, न वे प्रदेश, जिनका वह सर्वोच्च स्वामी था, उसे प्रसन्न करसकते थे।

    तस्यैकदा तु भवनमड़िरा भगवानृषि: ।

    लोकाननुचरत्नेतानुपागच्छद्यहच्छया ॥

    १४॥

    तस्य--उसके ; एकदा--एक बार; तु--लेकिन; भवनम्‌--महल में; अड्भिरा:--अंगिरा; भगवान्‌-- अत्यन्त शक्तिशाली;ऋषि:--साथधु; लोकान्‌--लोकों में; अनुचरन्‌--चारों ओर घूमते हुए; एतान्‌--इन; उपागच्छत्‌-- आये; यहच्छया--अचानक

    एक बार समस्त ब्रह्माण्ड में विचरण करते हुए अंगिरा नामक शक्तिशाली ऋषिअकस्मात्‌ अपनी शुभेच्छा से राजा चित्रकेतु के महल में पधारे।

    तं॑ पूजयित्वा विधिवत्प्रत्युत्थानाईणादिभि: ।

    कृतातिथ्यमुपासीदत्सुखासीनं समाहित: ॥

    १५॥

    तम्‌--उसको; पूजयित्वा--पूजा करके; विधि-वत्‌--उच्च अतिथियों के सत्कार के नियमों के अनुसार विधिपूर्वक;प्रत्युत्थान--सिंहासन से उठकर; अहण-आदिभि:--पूजा आदि के द्वारा; कृत-अतिथ्यम्‌--सत्कार किया जाकर;उपासीदत्‌--निकट आकर बैठ गया; सुख-आसीनम्‌--सुखपूर्वक विराजमान; समाहित:--मन तथा इन्द्रियों को वश मेंकरते हुए।

    चित्रकेतु तुरन्त ही अपने सिंहासन से उठकर खड़ा हो गया और उनकी अर्चना की।

    उसने जल तथा खाद्य सामग्री भेंट की और इस प्रकार अपने परम अतिथि के प्रति मेजवानका अपना कर्तव्य पूरा किया।

    जब अंगिरा ऋषि सुखपूर्वक आसन ग्रहण कर चुके तो राजाअपने मन तथा इन्द्रियों को संयमित करके ऋषि के चरणों के निकट भूमि पर बैठ गया।

    महर्षिस्तमुपासीनं प्रश्रयावनतं क्षितौ ।

    प्रतिपूज्य महाराज समाभाष्येदमब्रवीत्‌ ॥

    १६॥

    महा-ऋषि:--परम साधु; तमू--उस ( राजा ) के; उपासीनम्‌--निकट बैठकर; प्रश्रय-अवनतम्‌--विनयवश सिर झुकाकर;क्षितौ--पृथ्वी पर; प्रतिपूज्य--साधुवाद देते हुए; महाराज--हे राजा परीक्षित; समाभाष्य--सम्बोधित करके; इृदम्‌--यह;अब्रवीत्‌ू--कहा |

    हे राजा परीक्षित! जब चित्रकेतु विनीत भाव से नत होकर ऋषि के चरण-कमलों केनिकट बैठ गया तो ऋषि ने उसकी विनयशीलता तथा उनके आतिथ्य के लिए साधुवाददिया और उसे निम्नलिखित शब्दों से सम्बोधित किया।

    अड़्रा उबाचअपि तेनामयं स्वस्ति प्रकृतीनां तथात्मन: ।

    यथा प्रकृतिभिर्गुप्त: पुमात्राजा च सप्तभि: ॥

    १७॥

    अड्डिराः उवाच--ऋषि अंगिरा ने कहा; अपि--क्या; ते--तुमको; अनामयम्‌--स्वास्थ्य; स्वस्ति--कुशलता;प्रकृतीनामू-- अपनी राज्य-सामग्री का ( पार्षद तथा सामग्री ); तथा--और; आत्मन:--अपने शरीर, मन तथा आत्मा का;यथा--सहश; प्रकृतिभि:--प्रकृति के तत्त्वों से; गुप्त:--आरक्षित; पुमान्‌ू--जीवित प्राणी; राजा--राजा; च-- भी;सप्तभि:--सातसे |

    ऋषि अंगिरा ने कहा--हे राजन्‌! आशा है कि तुम अपने शरीर तथा मन और अपनेराज्य-पार्षदों तथा सामग्री सहित कुशल से हो।

    जब प्रकृति के सातों गुण [सम्पूर्ण भौतिकशक्ति ( माया ), अहंकार तथा इन्द्रियतृप्ति के पाँचों पदार्थ अपने-अपने क्रम में ठीक रहतेहैं, तो भौतिक तत्त्वों के भीतर जीवात्मा सुखी रहता है।

    इन सात तत्त्वों के बिना कोई रहनहीं सकता।

    इसी प्रकार राजा सात तत्त्वों द्वारा सदा आरक्षित रहता है।

    ये तत्त्व हैं--उसकाउपदेशक (स्वामी या गुरु ), उसके मंत्री, उसका राज्य, उसका दुर्ग, उसका कोष, उसकेराज्याधिकार तथा उसके मित्र।

    आत्मानं प्रकृतिष्वद्धा निधाय श्रेय आप्नुयात्‌ ।

    राज्ञा तथा प्रकृतयो नरदेवाहिताधय: ॥

    १८॥

    आत्मानम्‌--स्वयं; प्रकृतिषु--इन सात राजसी तत्त्वों के अन्तर्गत; अद्धघा-प्रत्यक्षत:; निधाय--रखकर; श्रेय:--परमसुख; आप्नुयात्‌--प्राप्त कर सकता है; राज्ञा--राजा के द्वारा; तथा--उसी प्रकार, वैसे ही; प्रकृतयः--प्रकृतियाँ; नर-देव--हे राजन; आहित-अधय:--सम्पत्ति तथा अन्य वस्तुएँ भेंट करके

    हे राजन, हे मानवता के ईश! जब राजा अपने पार्षदों पर प्रत्यक्षतः आश्रित रहता है औरउनके आदेशों का पालन करता है, तो वह सुखी रहता है।

    इसी प्रकार जब पार्षद राजा कोभेंटें प्रदान करते हैं और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तो वे भी सुखी रहते हैं।

    अपि दाराः प्रजामात्या भृत्या: श्रेण्योथ मन्त्रिण: ।

    पौरा जानपदा भूपा आत्मजा वशवर्तिन: ॥

    १९॥

    अपि--क्या; दारा:--पत्याँ; प्रजा--नागरिक जन; अमात्या: --( तथा ) सचिवगण; भृत्या:--सेवक; श्रेण्य: --व्यापारीजन; अथ--तथा; मन्त्रिण: --मन्त्री ( सलाहकार ); पौरा:--महल के वासी; जानपदा: --राज्यपाल; भूषा:--भूमिधर; आत्म-जा:--पुत्र; वश-वर्तिन: --पूरी तरह तुम्हारे वश में ॥

    हे राजन! तुम्हारी पत्तियाँ, नागरिक, सचिव तथा सेवक एवं मसाले तथा तेल केविक्रेता व्यापारी तुम्हारे वश में तो हैं?

    तुमने अपने मंत्रियों, महल के निवासियों( पुरवासियों ), अपने राज्यपालों, अपने पुत्रों तथा अन्य आश्रितों को अपने नियंत्रण में तोकर रखा है ?

    यस्यात्मानुवशश्वैत्स्यात्सवें तद्कशगा इमे ।

    लोकाः सपाला यच्छन्ति सर्वे बलिमतन्द्रिता: ॥

    २०॥

    यस्य--जिसका; आत्मा--मन; अनुवश: --वश में; चेत्‌--यदि; स्यात्‌--हो; सर्वे--समस्त; तत्‌ -वश-गा:--उसकेअधीन; इमे--ये; लोका:--विभिन्न लोक; स-पाला:--पालकों या राज्यपालों सहित; यच्छन्ति--अर्पण करते हैं; सर्वे--समस्त; बलिम्‌--भेंट; अतन्द्रिता:--आलस्य से मुक्त |

    यदि राजा का मन अपने वश्ञ में रहता है, तो उसके समस्त पारिवारिक प्राणी एवं राज-अधिकारी उसके अधीन रहते हैं।

    उसके प्रान्तपालक ( राज्यपाल ) समय पर अवरोध-रहितकर प्रस्तुत करते हैं, छोटे-छोटे सेवकों की तो कोई बात ही नहीं है।

    आत्मन: प्रीयते नात्मा परत: स्वत एवं वा ।

    लक्षयेउलब्धकामं त्वां चिन्तया शबलं मुखम्‌ ॥

    २१॥

    आत्मन:--तुम स्वयं; प्रीयते--सन्तुष्ट हो; न--नहीं; आत्मा--मन; परत:--अन्य कारणों से; स्वत:--अपने कारण; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा; लक्षये--मैं देख सकता हूँ; अलब्ध-कामम्‌--अपेक्षित लक्ष्य को न प्राप्त करके; त्वाम्‌ू--तुमको;चिन्तया--चिन्ता के कारण; शबलमू--पीला; मुखम्‌--मुख, चेहरा।

    हे राजा चित्रकेतु! मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारा मन सन्तुष्ट नहीं है।

    ऐसा लगता है तुम्हेंवांच्छित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाया है।

    यह स्वतः तुम्हिरे अपने कारण अथवा अन्य किसीकारण से ऐसा हुआ है ?

    तुम्हारे पीले मुख से तुम्हारी गहरी चिन्ता झलकती है।

    एवं विकल्पितो राजन्विदुषा मुनिनापि सः ।

    प्रश्रयावनतो भ्याह प्रजाकामस्ततो मुनिम्‌ ॥

    २२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विकल्पित:--पूछे जाने पर; राजन्‌--हे राजा परीक्षित; विदुषघा--परम विद्वान; मुनिना--मुनि( दार्शनिक ) के द्वारा; अपि--यद्यपि; सः--उसत ( राजा चित्रकेतु ) ने; प्रश्रय-अवनत:--विनयवश झुककर; अभ्याह--उत्तर दिया; प्रजा-काम:--पुत्र की इच्छा से; तत:--तत्पश्चात्‌; मुनिमू--मुनि को

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजा परीक्षित! यद्यपि महर्षि अंगिरा को सब कुछ ज्ञातथा फिर भी उन्होंने राजा से इस प्रकार पूछा।

    अतः पुत्र के इच्छुक राजा चित्रकेतु अत्यन्तविनीत भाव से नीचे झुक गये और महर्षि से इस प्रकार बोले।

    चित्रकेतुरुवाचभगवन्कि न विदितं तपोज्ञानसमाधिभि: ।

    योगिनां ध्वस्तपापानां बहिरन्तः शरीरिषु ॥

    २३॥

    चित्रकेतु: उवाच--राजा चित्रकेतु ने उत्तर दिया; भगवन्‌--हे परम शक्तिशाली साधु; किमू--क्या; न--नहीं ; विदितम्‌--ज्ञात है; तप:--तपस्या; ज्ञान--ज्ञान; समाधिभि: --तथा समाधि से; योगिनाम्‌--महान्‌ योगियों या भक्तों द्वारा; ध्वस्त-पापानाम्‌--समस्त पापकर्मों से पूर्णतया विमुक्त; बहि:--बाहर से; अन्तः--भीतर से; शरीरिषु--बद्धजीवों में, जिनकेभौतिक देह हैं |

    राजा चित्रकेतु ने कहा--हे महाप्रभु अंगिरा! तपस्या, ज्ञान तथा दिव्य समाधि से आपपापमय जीवन के समस्त बन्धनों से मुक्त हैं; अतः आप सिद्ध योगी के रूप में हम जैसेबद्धजीवों के अन्दर और बाहर की प्रत्येक बात को जान सकते हैं।

    तथापि पृच्छतो ब्रूयां ब्रह्मन्नात्मनि चिन्तितम्‌ ।

    भवतो विदुषश्चापि चोदितस्त्वदनुज्ञया ॥

    २४॥

    तथापि--तो भी; पृच्छत:--पूछने पर; ब्रूयामू--बोलने की आज्ञा दें; ब्रह्मनू--हे परम ब्राह्मण; आत्मनि--मन में;चिन्तितम्‌ू--चिन्ता; भवत:--आपको; विदुष: --सब कुछ जानने वाले, सर्वज्ञ; च--तथा; अपि--यद्यपि; चोदित: --प्रेरित होकर; त्वत्‌--आपकी; अनुज्ञया--आज्ञा से

    हे परम आत्मन्‌! आप सब कुछ जानते हैं, तो भी आप मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं चिन्ता सेपूर्ण क्‍यों हूँ।

    अतः मैं आपकी आज्ञा के प्रत्युत्तर में कारण को प्रकट कर रहा हूँ।

    लोकपालैरपि प्रार्थ्या: साम्राज्यैश्वर्यसम्पद: ।

    न नन्दयन्त्यप्रज॑ मां क्षुत्तूटूकाममिवापरे ॥

    २५॥

    लोक-पालै:--बड़े-बड़े देवताओं द्वारा; अपि-- भी; प्रार्थ्या:--लालायित; साम्राज्य--बृहद्‌ राज्य; ऐश्वर्य--सांसारिकसम्पत्ति; सम्पद:--धन; न नन्दयन्ति--आनन्द नहीं प्रदान करते; अप्रजम्‌--पुत्र न होने से; माम्‌--मुझको; क्षुत्‌-- भूख;तृटू--प्यास; कामम्‌--विषय; इब--सहृश; अपरे--अन्य भोग्य वस्तुएँ

    जिस प्रकार भूखा तथा प्यासा व्यक्ति फूल की मालाओं या चंदन-लेप जैसी बाह्य तृप्तिसे संतुष्ट नहीं होता, उसी प्रकार पुत्र न होने से मैं अपने साम्राज्य, ऐश्वर्य या सम्पदा से, जिनकेलिए बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं, सन्तुष्ट नहीं हूँ।

    ततः पाहि महाभाग पूर्व: सह गतं तमः ।

    यथा तरेम दुष्पारं प्रजया तद्विधेहि नः ॥

    २६॥

    ततः:--अतः, इस कारण से; पाहि--मेरी रक्षा कीजिये; महा-भाग--हे परम साथु; पूर्व: सह--अपने पितरों समेत;गतम्‌--गया हुआ; तम:ः--अंधकार में; यथा--जिससे; तरेम--पार कर सकें; दुष्पारम्‌--पार करना अत्यन्त कठिन;प्रजया--पुत्र प्राप्ति करके; तत्‌--वह; विधेहि--कृपया करें; न:--हम सबों के लिए

    अतः हे परम साधु! मेरी तथा मेरे पितरों की रक्षा कीजिये ( उबारिये ), क्योंकि मेरेसंतान न होने से वे नरक के अंधकार में धँसते जा रहे हैं।

    कृपया कुछ ऐसा करें जिससे मुझेपुत्र प्राप्त हो, जो हम सबों को नारकीय दशाओं से उबार सके।

    श्रीशुक उबाचइत्यर्थित: स भगवान्कृपालुर्ब्रह्मण: सुतः ।

    अश्रपयित्वा चर त्वाष्ट्र त्वष्टारमयजद्ठविभु: ॥

    २७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; अर्थित:--प्रार्थना किये जाने पर; सः--उस ( अंगिरा )ने; भगवान्‌--परम शक्तिमान; कृपालु:--अत्यन्त दयालु; ब्रह्मण:-- भगवान्‌ ब्रह्मा का; सुत:--पुत्र ( भगवान्‌ ब्रह्म के मनसे उत्पन्न ); श्रपयित्वा--पका कर; चरुम्‌--खीर का विशिष्ट पिण्ड, चरु; त्वाष्टमू-त्वष्टा नामक देवता के लिए;त्वष्टाम्‌--त्वष्टा की; अयजत्‌--अर्चना की; विभु:--परम साधु |

    महाराज चित्रकेतु द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भगवान्‌ ब्रह्मा के मन से उत्पन्न( मानसपुत्र ) अंगिरा ऋषि राजा के प्रति अत्यन्त दयाद्र हो उठे।

    अपने अत्यन्त शक्तिशालीव्यक्तित्व के कारण ऋषि ने त्वष्टा नामक देवता को खीर का पिण्डदान करके यज्ञ सम्पन्नकिया।

    ज्येष्ठा श्रेष्ठा च या राज्ञो महिषीणां च भारत ।

    नाम्ना कृत्द्युतिस्तस्यै यज्ञोच्छिष्टमदादिदूवज: ॥

    २८॥

    ज्येष्ठा--ज्येष्ठ, सबसे बड़ी; श्रेष्ठा--परम गुणवती; च--तथा; या--जो; राज्:--राजा की; महिषीणाम्‌--समस्त रानियों में;च--भी; भारत--हे महाराज परीक्षित; नाम्ना--नामक; कृतद्युति:--कृतद्युति; तस्यै--उसको; यज्ञ--यज्ञ का;उच्छिष्टम्‌--अवशेष प्रसाद; अदात्‌--प्रदान किया; द्विज: --महान्‌ ऋषि ( अंगिरा ) ने

    हे महाराज परीक्षित! अंगिरा ऋषि ने यज्ञ के अवशेष प्रसाद को चित्रकेतु की लाखोंरानियों में सबसे बड़ी तथा परम गुणवती रानी को प्रदान किया, जिसका नाम कृतद्युति था।

    अथाह नृपतिं राजन्भवितैकस्तवात्मज: ।

    हर्षशोकप्रदस्तुभ्यमिति ब्रह्मसुतो ययौ ॥

    २९॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; आह--कहा; नृपतिम्‌--राजा को; राजन्‌--हे राजा चित्रकेतु; भविता--होगा; एक:--एक; तव--तुम्हारे; आत्मज: --पुत्र; हर्ष -शोक--प्रसन्नता तथा दुख; प्रद:ः--प्रदान करने वाला; तुभ्यम्‌--तुमको; इति--इस प्रकार;ब्रह्म-सुत:-- भगवान्‌ ब्रह्मा के पुत्र, अंगिरा ऋषि; ययौ--चले गये।

    तत्पश्चात्‌ ऋषि ने राजा से कहा--'हे राजन्‌! अब तुम्हारे एक पुत्र होगा जो हर्ष तथाशोक दोनों का कारण बनेगा।

    ऐसा कहकर चित्रकेतु के उत्तर की प्रतीक्षा न करके ऋषिचले गये।

    सापि तत्प्राशनादेव चित्रकेतोरधारयत्‌ ।

    गर्भ कृतद्युतिर्देवी कृत्तिकाग्नेरिवात्मजम्‌ ॥

    ३०॥

    सा--वह ( रानी ); अपि--भी; तत्‌-प्राशनात्‌ू--यज्ञ के अवशेष प्रसाद को खाने से; एब--निस्सन्देह; चित्रकेतो:--चित्रकेतु से; अधारयत्‌-- धारण किया; गर्भम्‌--गर्भ; कृतद्युति:--रानी कृतद्युति ने; देवी--देवी; कृत्तिका--कृत्तिका;अग्ने:--अग्नि से; इब--के समान; आत्म-जमू--पुत्र।

    अंगिरा द्वारा सम्पन्न यज्ञ के अवशेष को खाकर कृत्द्युति ने चित्रकेतु के वीर्य से उसप्रकार गर्भ धारण किया जिस प्रकार कृत्तिकादेवी ने अग्नि से भगवान्‌ शिव का वीर्य प्राप्तकरके स्कन्द ( कार्तिकेय ) नामक पुत्र को गर्भ में धारण किया था।

    तस्या अनुदिनं गर्भ: शुक्लपक्ष इवोडुप: ।

    ववृधे शूरसेनेशतेजसा शनकैर्नूप ॥

    ३१॥

    तस्याः--उसका; अनुदिनम्‌-दिनोंदिन; गर्भ:--गर्भ; शुक्ल-पक्षे--शुक्लपक्ष में ( चन्द्रमा बढ़ता जाता है ); इब--सहश;उड्डप:--चन्द्रमा; ववृधे --क्रमश:ः बढ़ने लगा; शूरसेन-ईश--शूरसेन के राजा; तेजसा--वीर्य से; शनकै:--थोड़ा-थोड़ाकरके, क्रमशः; नृप--हे राजा परीक्षित!

    हे राजा परीक्षित! शूरसेन के राजा महाराज चित्रकेतु के वीर्य से कृतद्युति का गर्भ उसीप्रकार क्रमशः बढ़ने लगा, जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा बढ़ता जाता है।

    अथ काल उपावृत्ते कुमार: समजायत ।

    जनयन्शूरसेनानां श्रृण्वतां परमां मुदम्‌ ॥

    ३२॥

    अथ--त्पश्चात्‌; काले उपावृत्ते--कालक्रम से, समय आने पर; कुमार:--पुत्र ने; समजायत--जन्म लिया; जनयनू--जन्महोने का; शूरसेनानाम्‌ू--शूरसेन देश के निवासियों का; श्रुण्वताम्‌ू--सुनकर; परमाम्‌-- अत्यधिक; मुदम्‌--हर्ष आनन्द |

    तदनन्तर समय आने पर राजा के पुत्र उत्पन्न हुआ।

    इस समाचार को सुनकर शूरसेन देश के समस्त वासी अत्यधिक प्रसन्न हुए।

    हष्टो राजा कुमारस्य स्नात: शुचिरलड्डू तः ।

    वाचयित्वाशिषो विप्रै; कारयामास जातकम्‌ ॥

    ३३॥

    हृष्ट:--अत्यधिक प्रसन्न; राजा--राजा चित्रकेतु; कुमारस्थ--नवजात पुत्र का; स्नात:--नहाकर; शुचि: --पवित्र होकर;अलछड्डू तः--आभूषणों से सुसज्जित होकर; वाचयित्वा--स्वस्तिवाचन कराकर; आशिष: --आशीर्वाद के शब्द; विप्रै:--विद्वान ब्राह्मणों से; कारयाम्‌ आस--सम्पन्न कराया; जातकम्‌--जातकर्म संस्कारराजा चित्रकेतु विशेष रूप से प्रसन्न थे।

    स्नान करके, पवित्र होकर तथा आभूषणों सेसज्जित होकर उन्होंने विद्वान ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन और आशीर्वाद लेकर पुत्र काजातकर्म-संस्कार करवाया।

    तेभ्यो हिरण्यं रजतं वासांस्याभरणानि च ।

    ग्रामान्हयान्गजान्प्रादाद्धेनूनामर्बुदानि घटू ॥

    ३४॥

    तेभ्य:--उन ( ब्राह्मणों ) को; हिरण्यम्‌--सोना; रजतम्‌--चाँदी; वासांसि--वस्त्र; आभरणानि--गहने, आभूषण; च--तथा; ग्रामानू--अनेक गाँव; हयान्‌ू--धघोड़े; गजान्‌--हाथी; प्रादात्‌--दान में दिया; धेनूनाम्‌--गायों का; अर्बुदानि--दसकरोड़; घटू--छह |

    राजा ने इस अनुष्ठान में भाग लेने वाले समस्त ब्राह्मणों को दान में सोना, चाँदी, वस्त्र,आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और साठ करोड़ गौएँ दीं।

    ववर्ष कामानन्येषां पर्जन्य इव देहिनाम्‌ ।

    धन्यं यशस्यमायुष्यं कुमारस्थ महामना: ॥

    ३५॥

    ववर्ष--वर्षा की, दान में दिया; कामान्‌--मुँहमाँगी वस्तुएँ; अन्येषाम्‌--अन्यों की; पर्जन्य:--बादल; इब--सहश;देहिनामू--समस्त जीवात्माओं का; धन्यम्‌ू-ऐश्वर्य वृद्धि की आकांक्षा सहित; यशस्यम्‌--यश में वृद्धि; आयुष्यम्‌--तथाआयुवृद्धि; कुमारस्थ--नवजात शिशु की; महा-मना:--उदारचेता राजा चित्रकेतु ने।

    जिस प्रकार बादल बिना पक्षपात के पृथ्वी पर वर्षा करता है, उसी तरह उदारचेता राजाचित्रकेतु ने अपने पुत्र के यश, ऐश्वर्य तथा आयु की वृद्धि के लिए सबों को मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं।

    कृच्छुलब्धेथ राजर्षेस्तनयेउनुदिनं पितु: ।

    यथा निःस्वस्य कृच्छाप्ते धने स्नेहोउनन्‍्ववर्धत ॥

    ३६॥

    कृच्छु--कठिनाई से; लब्धे--प्राप्त; अथ--तदनन्तर; राज-ऋषे: --पवित्र राजा चित्रकेतु का; तनये--पुत्र के लिए;अनुदिनम्‌--प्रतिदिन; पितु:--पिता का; यथा--जिस प्रकार; निःस्वस्य--निर्धन पुरुष का; कृच्छु-आप्ते-- अत्यन्तकठिनाई से प्राप्त; धने--धन के लिए; स्नेह: --स्नेह, प्यार; अन्ववर्धत--बढ़ता गया।

    जिस प्रकार किसी निर्धन व्यक्ति को बड़ी कठिनाई से कुछ धन मिलता है, तो उसमेंप्रतिदिन उसकी आसक्ति बढ़ती जाती है, इसी प्रकार जब राजा चित्रकेतु को अत्यन्तकठिनाई से पुत्र की प्राप्ति हुई तो दिन प्रति दिन पुत्र के प्रति उसका स्नेह बढ़ता गया।

    मातुस्त्वतितरां पुत्रे स्नेहो मोहसमुद्धवः ।

    कृतद्युते: सपत्नीनां प्रजाकामज्वरोभवत्‌ ॥

    ३७॥

    मातु:--माता का; तु-- भी; अतितराम्‌--अत्यधिक; पुत्रे--पुत्र के लिए; स्नेह:--वत्सलता; मोह--अविद्यावश;समुद्धव:--उत्पन्न; कृतद्युते:--कृतद्युति की; सपत्नीनाम्‌ू--सौतों का; प्रजा-काम--पुत्रेच्छा का; ज्वर:--ताप, ज्वर;अभवत्‌--था।

    पिता की ही भाँति माँ का भी आकर्षण एवं स्नेह पुत्र के प्रति बढ़ता गया।

    कृतद्युति केपुत्र को देख देख कर राजा की अन्य पत्नियाँ पुत्र की कामना से अत्यधिक श्षुब्ध रहने लगीं,मानो उन्हें उच्च ज्वर हो।

    चित्रकेतोरतिप्रीतिर्यथा दारे प्रजावति ।

    न तथान्येषु सझ्जज्ञे बालं लालयतोन्वहम्‌ ॥

    ३८॥

    चित्रकेतो: --राजा चित्रकेतु का; अतिप्रीति:--अत्यधिक आकर्षण; यथा--जिस प्रकार; दारे--अपनी पतली में; प्रजा-वति--जिसने पुत्र को जन्म दिया हो, पुत्रवती; न--नहीं; तथा--उसी प्रकार; अन्येषु--अन्यों का; सज्ञज्ञे--उठा, उत्पन्नहुआ; बालम्‌--पुत्र को; लालयत:--लाड़-प्यार करते हुए; अन्वहम्‌--लगातार।

    ज्यों-ज्यों राजा चित्रेकेतु अपने पुत्र का बड़ी सावधानी से लाड़-प्यार करने लगे त्यों-त्यों रानी कृत्द्युति के प्रति भी उनका प्रेम प्रगाढ़ होता गया और पुत्रहीन अन्य रानियों के प्रतिउनका प्रेम क्रमशः घटने लगा।

    ताः पर्यतप्यन्नात्मानं गईयन्त्यो भ्यसूयया ।

    आनपत्येन दुःखेन राज्ञश्चानादरेण च ॥

    ३९॥

    ताः--वे ( पुत्रहीन रानियाँ ); पर्यतप्यन्‌--पश्चात्ताप करने लगीं; आत्मानम्‌--अपने आपको; गईयन्त्य:--धिक्कारती हुई;अभ्यसूयया--डाह से; आनपत्येन--पुत्रहीन होने के कारण; दुःखेन--दुख से; राज्:--राजा की; च--भी; अनादरेण--उपेक्षा के कारण; च--भी।

    अन्य रानियाँ निपूती होने के कारण अत्यन्त अप्रसन्न थीं।

    अपने प्रति राजा की उपेक्षा सेवे डाहवश अपने आपको धिक्कारने और पश्चात्ताप करने लगीं।

    धिगप्रजां स्त्रियं पापां पत्युश्नागृहसम्मताम्‌ ।

    सुप्रजाभि: सपत्नीभिर्दासीमिव तिरस्कृताम्‌ ॥

    ४०॥

    धिक्‌-धिक्कार है; अप्रजाम्‌--पुत्रहीना; स्त्रियम्‌--स्त्री को; पापाम्‌--पाप कर्मों से पूर्ण; पत्यु;--पति के द्वारा; च-- भी;अ-गृह-सम्मताम्‌--जिसका घर में अनादर हो, अनाहत; सु-प्रजाभि:--पुत्रवती; सपत्नीभि: --सौतों के द्वारा; दासीम्‌--दासी, नौकरानी; इब--के समान; तिरस्कृताम्‌--तिरस्कृत, अनाहत |

    जिस पत्नी के पुत्र नहीं होते वह घर में अपने पति द्वारा उपेक्षित रहती है और सौतों द्वारादासी के समान अनाहत होती है।

    निश्चय ही ऐसी स्त्री अपने पापी जीवन के कारण सब तरहसे धिक्कारी जाती है।

    दासीनां को नु सनन्‍्तापः स्वामिनः परिचर्यया ।

    अभीक्ष्णं लब्धमानानां दास्या दासीव दुर्भगा: ॥

    ४१॥

    दासीनाम्‌--दासियों का; कः--क्या; नु--निस्सन्देह; सन्ताप:--पश्चाताप, शोक; स्वामिन:--स्वामी की; परिचर्यया--सेवा करके; अभीक्ष्णम्‌--निरन्तर; लब्ध-मानानाम्‌--सम्मानित; दास्या: --दासी का; दासी इब--दासी के समान;दुर्भगा:--अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण, हतभाग्या

    यहाँ तक कि जो दासियाँ अपने पति की निरन्तर सेवा करती हैं, वे भी अपने पति कासम्मान पाती रहती हैं, अतः उनको किसी बात के लिए पश्चाताप नहीं करना पड़ता।

    किन्तुहमारी स्थिति तो दासी की दासियों के समान है, अतः हम सर्वाधिक हतभाग्या हैं।

    एवं सन्दह्ममानानां सपत्या: पुत्रसम्पदा ।

    राज्ञोअसम्मतवृत्तीनां विद्वेषो बलवानभूत्‌ ॥

    ४२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सन्दह्ममानानाम्‌ू--शोक से निरन्तर जलती रहने वाली रानियों का; सपत्या:--कृतद्युति की सौतों का;पुत्र-सम्पदा--पुत्र रूपी सम्पत्ति के कारण; राज्ञ:--राजा के द्वारा; असम्मत-वृत्तीनामू--अधिक पक्षपात न किये जाने से;विद्वेष: --ईर्ष्या; बलवान्‌--प्रबल शक्तिशाली; अभूत्‌--हो गया

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--अपने पति द्वारा उपेक्षित होने तथा कृतद्युति कीगोद भरी हुई देखकर, सभी सौतें द्वेषघ से अधिकाधिक जलने लगीं।

    विद्वेषनष्टमतय: स्त्रियो दारुणचेतस: ।

    गरं ददुः कुमाराय दुर्मर्षा नृपतिं प्रति ॥

    ४३॥

    विद्वेष-नष्ट-मतय: --द्वेष के कारण बुद्धि नष्ट हो जाने से; स्त्रियः--स्त्रियाँ; दारुण-चेतस:--कठोर हृदय वाली; गरम्‌--विष; ददुः--पिला दिया; कुमाराय--बालक को; दुर्मर्षा:--चिढ़कर; नृपतिम्‌--राजा के; प्रति--प्रति |

    द्वेष बढ़ जाने से रानियों की मति मारी गईं।

    अत्यधिक कठोर हृदय होने तथा राजा कीउपेक्षा को न सह सकने के कारण उन्होंने अन्त में बालक को विष खिला दिया।

    कृतद्युतिरजानन्ती सपत्नीनामघं महत्‌ ।

    सुप्त एवेति सद्धिन्त्य निरीक्ष्य व्यचरदगृहे ॥

    ४४॥

    कृतद्युतिः--रानी कृतद्युति; अजानन्ती--न जानती हुई; सपत्नीनाम्‌ू--अपनी सौतों के; अघधम्‌--पाप-कृत्य; महत्‌--महान्‌,घोर; सुप्त:--सोया हुआ; एव--निस्सन्देह; इति--इस प्रकार; सद्धिन्त्य--सोचकर; निरीक्ष्य--देखकर; व्यचरत्‌--घूमतीरही; गृहे--घर में ।

    अपनी सौतों द्वारा विष दिये जाने की घटना को न जानती हुई रानी कृतद्युति यहसोचकर कि उसका पुत्र गहरी निद्रा में सो रहा है घर में इधर-उधर विचरती रही।

    उसे पता नचल पाया कि वह मर चुका है।

    शयानं सुचिरं बालमुपधार्य मनीषिणी ।

    पुत्रमानय मे भद्दे इति धात्रीमचोदयत्‌ ॥

    ४५॥

    शयानम्‌--सोता हुआ; सु-चिरम्‌ू--दीर्घकाल से; बालमू--पुत्र को; उपधार्य--सोचकर; मनीषिणी --अत्यन्त बुद्धिमान,बुद्द्विमती; पुत्रमू--पुत्र; आनय--ले आओ; मे--मेंरे पास; भद्वे--हे सखी या कल्याणी; इति--इस प्रकार; धात्रीम्‌ू--धायको; अचोदयत्‌--आज्ञा दी

    यह सोचकर कि उसका पुत्र बड़ी देर से सो रहा है--उस अत्यन्त बुद्धिमान रानीकृतद्युति ने धाय को आज्ञा दी, 'हे सखी! मेरे पुत्र को यहाँ ले आओ।

    सा शयानमुपत्रज्य इृष्टा चोत्तारतोचनम्‌ ।

    प्राणेन्द्रियात्मभिस्त्यक्त हतास्मीत्यपतद्भुवि ॥

    ४६॥

    सा--वह ( दासी ); शयानम्‌--सोते हुए; उपब्रज्य--के पास जाकर; हृष्टा--देखकर; च-- भी; उत्तार-लोचनम्‌--ऊपरउलटी हुई आँखें ( जैसे मृत शरीर की होती हैं ); प्राण-इन्द्रिय-आत्मभि:--प्राण, इन्द्रियों तथा मन से; त्यक्तम्‌--छोड़ाहुआ; हता अस्मि--मैं मरी, मैं मारी गई; इति--इस प्रकार; अपतत्‌--गिर पड़ी; भुवि--पृथ्वी पर।

    जब धाय उस सोते हुए बच्चे के पास पहुँची तो उसने देखा कि उसकी आँखें ऊपर कीओर उलट गई हैं, उसके शरीर में प्राण का कोई संचार नहीं है और उसकी समस्त इन्द्रियाँनिष्क्रिय हो गई हैं।

    अतः वह समझ गई कि बालक मर चुका है।

    यह देखकर वह तुरन्त चिल्ला उठी, 'हाय मैं मारी गई' और पृथ्वी पर गिर पड़ी।

    तस्यास्तदाकर्णय भृशातुरं स्वरंघ्नन्त्या: कराभ्यामुर उच्चकैरपि ।

    प्रविश्य राज्ञी त्वरयात्मजान्तिकंददर्श बाल सहसा मृतं सुतम्‌ ॥

    ४७॥

    तस्या:--उस ( दासी ) का; तदा--उस समय; आकर्णर्य--सुनकर; भृूश-आतुरम्‌-- अत्यन्त कातर एवं क्षुब्ध; स्वर्मू--स्वर, आवाज; घ्नन्त्या:--पीट पीटकर; कराभ्याम्‌ू--दोनों हाथों से; उरः--छाती; उच्चकै:ः --तेजी से, जोर जोर से;अपि--भी; प्रविश्य--घुस कर; राज्ञी--रानी; त्वरया--जल्दी जल्दी; आत्मज-अन्तिकम्‌--अपने पुत्र के निकट; दरदर्श--देखा; बालमू्‌--पुत्र को; सहसा--अकस्मात्‌; मृतम्‌ू--मृत, मरा हुआ; सुतम्‌--पुत्र को ।

    अत्यन्त विश्लुब्ध होकर वह धाय अपने दोनों हाथों से अपनी छाती पीटने लगी औरआर्तस्वर में जोर-जोर से चिल्‍लाने लगी।

    उसकी तेज आवाज सुनकर रानी तुरन्त आ गई औरजब वह अपने पुत्र के पास पहुँची, तो देखा कि वह सहसा ही मर चुका है।

    पपात भूमौ परिवृद्धया शुचा ।

    मुमोह विश्रष्टशिरोरूहाम्बरा ॥

    ४८॥

    पपात--गिर पड़ी; भूमौ--पृथ्वी पर; परिवृद्धया--अत्यधिक; शुचा--शोक के कारण; मुमोह--मूर्च्छित हो गई;विभ्रष्ट--बिखरे हुए; शिरोरूह--बाल, केश; अम्बरा--तथा वस्त्र

    अगाध शोक के कारण रानी मूच्छित होकर पृथ्वी पर ऐसे गिर पड़ी कि उस के बालतथा वस्त्र बिखर गये ।

    ततो नृपान्तःपुरवर्तिनो जनानराश्च नार्यश्व निशम्य रोदनम्‌ ।

    आगत्य तुल्यव्यसना: सुदुःखितास्‌ताश्व व्यलीकं रुरुदु: कृतागसः ॥

    ४९॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; नृप--हे राजा; अन्तःपुर-वर्तिन:--रनिवास के सभी वासी; जना:--सभी व्यक्ति; नरा:--पुरुष; च--तथा; नार्य:--स्त्रियाँ; च--भी; निशम्य--सुनकर; रोदनम्‌ू--रोना; आगत्य--आकर; तुल्य-व्यसना:--समान रूप सेश़ संतप्त होकर; सु-दुःखिता:--अत्यधिक विलखती हुई; ताः--वे; च--तथा; व्यलीकम्‌--झूठमूठ, ढोंग करके; रुरुदु:--रोने लगीं; कृत-आगस: --अपराध करने ( विष देने ) वाली |

    हे राजा परीक्षित! रानी का जोर-जोर से विलखना सुनकर, रनिवास के सभी स्त्री-पुरुषआ पहुँचे।

    समान रूप से संतप्त होने के कारण रोने लगे।

    जिन रानियों ने विष दिया था,अपने अपराध को भलीभाँति जानती हुई, वे भी झूठमूठ रोने का ढोंग करने लगीं।

    श्र॒त्वा मृतं पुत्रमलक्षितान्तकंविनष्टदृष्टि: प्रपतन्स्खलन्पधि ।

    स्नेहानुबन्धैधितया शुचा भूशंविमू्च्छितो<नुप्रकृतिद्विजै्वृत: ॥

    ५०॥

    पपात बालस्थ स पादमूलेमृतस्य विस्त्रस्तशिरोरुहाम्बर: ।

    दीर्घ श्वसन्बाष्पकलोपरोधतोनिरुद्धकण्ठो न शशाक भाषितुम्‌ ॥

    ५१॥

    श्रुव्वा-- सुनकर; मृतम्‌--मरा हुआ; पुत्रम्‌ू--पुत्र को; अलक्षित-अन्तकम्‌--मृत्यु का कारण न ज्ञात होने से; विनष्ट-इृष्ट:--ठीक से देख न सकने से; प्रपतन्‌--लगातार गिरते पड़ते; स्खलन्‌--लुढ़कते हुए; पथि--मार्ग पर; स्नेह-अनुबन्ध--स्नेह के कारण; एधितया--अत्यधिक बढ़े हुए; शुचा--शोक से; भृूशम्‌--अत्यधिक; विमूर्च्छित:--मूर्च्छितहोकर; अनुप्रकृति:--अपने मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों के साथ; द्विजैः--विद्वान ब्राह्मणों से; वृत:--घिरे हुए;पपात--गिर पड़ा; बालस्य--लड़के के; सः--वह ( राजा ); पाद-मूले--पाँवों पर; मृतस्थ--मृत शरीर के; विस्त्रस्त--बिखरे हुए; शिरोरूह--बाल; अम्बर: --( तथा ) वस्त्र; दीर्घम्--लम्बी; श्रसन्‌-- ध्रास; बाष्प-कला-उपरोधत: --अश्रुपूरितहोकर चिल्लाने से; निरुद्ध-कण्ठ:--रुँधी हुई वाणी से; न--नहीं; शशाक--समर्थ था; भाषितुम्‌--बोलने में |

    जब राजा चित्रकेतु ने सुना कि न जाने कैसे उसका पुत्र मर गया है, तो वह प्रायःअन्धासा हो गया।

    पुत्र के प्रति अगाध स्नेह के कारण उसका विलाप जलती हुईं अग्नि केसमान बढ़ता गया और रास्ते भर वह भूमि पर लगातार गिरता-पड़ता तथा लुढ़कता हुआ उसमृत बालक को देखने गया।

    अपने मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों एवं विद्वान ब्राह्मणों सेघिरा हुआ वह राजा वहाँ पहुँचा और उस बालक के चरणों पर अचेत होकर गिर पड़ा।

    उसके बाल तथा वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये।

    जब दीर्घ श्वास लेते हुए राजा को होश आया तोउसके नेत्र आसुओं से भरे हुए थे और वह बोल नहीं पा रहा था।

    पतिं निरीक्ष्योरुशुचार्पितं तदामृतं च बाल सुतमेकसन्ततिम्‌ ।

    जनस्य राज्ञी प्रकृतेश्व हद्गुजंसती दधाना विललाप चित्रधा ॥

    ५२॥

    पतिम्‌--पति को; निरीक्ष्य--देखकर; उरू--अत्यधिक; शुचच--शोक से; अर्पितम्‌--पीड़ित; तदा--उस समय; मृतम्‌--मृत; च--तथा; बालमू--बालक को; सुतम्‌--पुत्र; एक-सन्ततिम्‌--परिवार के एकलौते पुत्र को; जनस्य--वहाँ परएकत्रित समस्त पुरुषों का; राज्ञी--रानी; प्रकृतेः च--तथा अधिकारियों और मंत्रियों का; हत्‌-रुजम्‌--हृदय की पीड़ा;सती दधाना--बढ़ती हुई; विललाप--विलाप करने लगी; चित्रधा-- अनेक प्रकार से

    जब रानी ने अपने पति राजा चित्रकेतु को अत्यधिक शोकाकुल और अपने एकलौतेपुत्र को मरा हुआ देखा तो वह अनेत प्रकार से शोक प्रकट करने लगी।

    इससे रनिवास केसमस्त वासियों, मंत्रियों तथा समस्त ब्राह्मणों के हृदय की व्यथा बढ़ गई।

    स्तनद्ढयं कुड्डू मपड्डूमण्डितंनिषिश्ञती साझझजनबाष्पबिन्दुभि: ।

    विकीर्य केशान्विगलत्सत्रज: सुतंशुशोच चित्र कुररीव सुस्वरम्‌ ॥

    ५३॥

    स्तन-द्वयम्‌-दोनों स्तन; कुड्डु म--कुंकुम चूर्ण से ( जिसे स्त्रियाँ अपने स्तनों पर मलती हैं ); पड्लू-- अंजन; मण्डितम्‌-सुशोभित; निषिशज्ञती--भिगोती हुई; स-अद्न--आँख के काजल से मिलकर; बाष्प--आँसुओं के; बिन्दुभि:--बूँदों से;विकीर्य--बिखर कर; केशान्‌--बाल; विगलत्‌--गिर रहा था; स्त्रज:--जिस पर पुष्प हार; सुतम्‌--अपने पुत्र के लिए;शुशोच--विलाप करने लगी; चित्रम्‌ू-भाँति-भाँति से; कुररी इब--कुररी पक्षी की तरह; सु-स्वरम्‌--अत्यन्त मधुर स्वरमें

    रानी के सिर को सुशोभित करने वाली फूलों की माला गिर पड़ी और उसके बालबिखर गये।

    उसके आँसुओं से नेत्रों में लगा अंजन धुल गया और कुंकुम चूर्ण से लेपितउसके स्तन भीग गये।

    पुत्र की मृत्यु पर शोक करती हुई उस रानी का दारुण बिलाप कुररीपक्षी के आर्त स्वर की तरह लग रहा था।

    अहो विधातस्त्वमतीव बालिशो यस्त्वात्मसूष्ठय्रप्रतिरूपमीहसे ।

    परे नु जीवत्यपरस्य या मृति-विंपर्ययश्वेत्त्वमसि ध्रुव: पर: ॥

    ५४॥

    अहो--ओह ( शोक में ); विधात:--हे विधाता, ईश्वर; त्वमू-तुम ( तू ); अतीव--अत्यन्त; बालिश: --मूर्ख; यः --जो;तु--निस्सन्देह; आत्म-सृष्टि-- अपनी स्वयं बनाई हुई सृष्टि के; अप्रतिरूपम्‌-- प्रतिकूल; ईहसे--कार्य करते तथा इच्छाकरते हैं; परे--पिता या अन्य बड़ा; नु--निस्सन्देह; जीवति--जीवित रहता है; अपरस्य--बाद में जन्म लेने वाले का;या--जो; मृतिः-- मृत्यु; विपर्यय:--विपरीत; चेत्‌ू--यदि; त्वमू--तुम; असि--हो; श्रुवः--निस्सन्देह; पर:--वैरी, शत्रु

    हे विधाता, हे सृष्टिकर्ता! तू निश्चय ही अपने सृष्टि-कार्य में अनुभव-हीन है क्योंकि पिताके रहते हुए तूने उसके पुत्र की मृत्यु होने दी और इस तरह से अपनी ही सृष्टि के नियमों केविपरीत कार्य किया है।

    यदि तू नियमभंग करने पर ही तुला है, तो तू निश्चय ही समस्तजीवात्माओं का शत्रु है और निर्दयी है।

    न हि क्रमश्रेदिह मृत्युजन्मनो:शरीरिणामस्तु तदात्मकर्मभि: ।

    यः स्नेहपाशो निजसर्गवृद्धयेस्वयं कृतस्ते तमिमं विवृश्चसि ॥

    ५५॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; क्रम:--तिथिक्रम; चेत्‌ू--यदि; इह--इस भौतिक जगत में; मृत्यु--मृत्यु; जन्मनो: --तथा जन्मका; शरीरिणाम्‌ू--बद्धजावों का जिन्होंने देह धारण करना स्वीकार किया है; अस्तु--हो; तत्‌ू--वह; आत्म-कर्मभि:--अपने अपने कर्मों के फलों के द्वारा; यः--जो; स्नेह-पाश:--स्नेह बन्धन; निज-सर्ग--अपनी सृष्टि; वृद्धये--बढ़ाने केलिए; स्वयम्‌--अपने आप; कृत:--बनाई हुई; ते--तुम्हारे द्वारा; तम्‌--उसे; इमम्‌--यह; विवृश्चसि--तुम काट रहे हो

    हे ईश्वर! आप यह कह सकते हैं कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि पुत्र के जीवनकाल मेंही पिता की मृत्यु हो और पिता के जीवन काल में ही पुत्र उत्पन्न हो, क्योंकि प्रत्येक व्यक्तिअपने कर्मों के अनुसार जीता और मरता है।

    फिर भी, यदि कर्म इतना प्रबल है कि जन्म तथामृत्यु उसी पर निर्भर करते हों तो फिर नियन्ता या ईश्वर की आवश्यकता नहीं है ?

    पुनः यदि तूकहे कि नियन्‍ता की आवश्यकता इसलिए है, क्‍योंकि माया में कार्य करने की शक्ति नहींहोती, तो कोई यह भी तो कह सकता है कि यदि कर्म के द्वारा तेरे बनाये हुए स्नेह-बंधनटूटते हैं, तो कोई भी संतान को स्नेहपूर्वक नहीं पालेगा वरन्‌ सभी लोग अपनी संतानों कीनिर्दयता से उपेक्षा करने लगेंगे।

    चूँकि तूने स्नेह के उन बंधनों को काटा है, जिसके वशीभूतहोकर माता-पिता अपनी सन्‍्तान का पालन-पोषण करने के लिए विवजश्ञ हो जाते हैं,इसलिए तू अनुभवहीन एवं बुद्धिहीन प्रतीत होता है।

    त्वं तात नाहसि च मां कृपणामनाथांत्यक्तुं विचक्ष्व पितरं तव शोकतप्तम्‌ ।

    अज्भस्तरेम भवताप्रजदुस्तरं यद्‌ध्वान्तं न याह्यकरुणेन यमेन दूरम्‌ ॥

    ५६॥

    त्वमू--तुम्हें; तात--हे पुत्र; न--नहीं; अहसि-- चाहिए; च--तथा; मामू--मुझ; कृपणाम्‌-- अत्यन्त दीन को;अनाथाम्‌--रक्षकविहीन, अनाथ को; त्यक्तुमू--छोड़ना; विचक्ष्व--देखो; पितरम्‌--पिता को; तब--तुम्हारे; शोक-तप्तमू--शोक संतप्त; अज्ञ:ः--सरलतापूर्वक; तरेम--हम पार कर सकते हैं; भवता--तुम्हारे द्वारा; अप्रज-दुस्तरम्‌--बिनापुत्र के पार करना दुष्कर; यत्‌--जो; ध्वान्तम्‌--अंधकार का राज्य; न याहि--दूर मत जाओ; अकरुणेन--निर्दय, क्रूर;यमेन--यमराज के साथ; दूरमू-दूर।

    प्यारे बेटे! मैं असहाय एवं अत्यधिक शोकाकुल हूँ?

    तुम्हें मेगा साथ नहीं छोड़नाचाहिए।

    तुम अपने शोकाकुल पिता की ओर तो देखो।

    हम ( दोनों ) असहाय हैं क्योंकि पुत्रके बिना हमें घोर नरक में यातनाएँ सहनी पड़ेंगी।

    तुम्हीं एकमात्र सहारा हो जिसके बल परहम इस अंधकारमय प्रदेश से उबर सकते हैं; अतः मेरी प्रार्थना है कि तुम निर्दयी यमराज केसाथ और आगे न जाओ।

    उत्तिष्ठ तात त इमे शिशवो वयस्या-स्त्वामाह्यन्ति नृपनन्दन संविहर्तुम्‌ ।

    सुप्तश्चिर हाशनया च भवान्परीतोभुड्छ्ष्व स्तनं पिब शुच्चो हर न: स्वकानाम्‌ ॥

    ५७॥

    उत्तिष्ठ--उठो; तात--मेरे प्यारे बेटे; ते--वे; इमे--ये सब; शिशव:--बालक; वयस्या:--साथी, संगी; त्वाम्‌ू--तुमको;आह्नयन्ति--बुला रहे हैं; नृप-नन्दन--हे राजपुत्र; संविहर्तुमू--तुम्हारे साथ खेलने के लिए; सुप्त:ः--तुम सोये हुए हो;चिरम्‌--देर से; हि--निस्सन्देह; अशनया-- भूख से; च-- भी; भवान्‌ू--आप; परीत: --परास्त; भुड्छ्व--खाओ;स्तनम्‌ू--( अपनी माँ के ) स्तनों को; पिब--पियो; शुच्चः--शोक; हर--हरो, दूर करो; नः--हमारा; स्वकानाम्‌--सम्बन्धियों के ।

    प्यारे बेटे! तुम बहुत देर से सो रहे हो।

    अब उठ जाओ।

    तुम्हारे संगी तुम्हें खेलने के लिएबुला रहे हैं।

    चूँकि तुम्हें बहुत भूख लगी होगी इसलिए उठो, मेरे स्तनों से दूध पिओ औरहमारा शोक दूर करो।

    नाहं तनूज दहशे हतमड़ला तेमुग्धस्मितं मुदितवीक्षणमाननाब्जम्‌ ।

    कि वा गतो स्यपुनरन्वयमन्यलोक॑नीतोघृणेन न श्रूणोमि कला गिरस्ते ॥

    ५८ ॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैंने; तनू -ज--( मेरे शरीर से उत्पन्न ) मेरे प्यारे पुत्र; दहशे--देखा; हत-मड्ला--हतभाग्य होने से; ते--तुम्हारा; मुग्ध-स्मितम्‌-मनोहर हँसी से युक्त; मुदित-वीक्षणम्‌--बन्द नेत्रों से; आनन-अब्जम्‌ू--कमल तुल्य मुख; किवबा--अथवा; गत:--चले गये; असि--हो; अ-पुन:-अन्वयम्‌--जहां से फिर कोई नहीं लौटता; अन्य-लोकम्‌--अन्यलोक अथवा यमलोक को; नीतः--ले जाये जाकर; अघृणेन--क्रूर यमराज द्वारा; न--नहीं; श्रुणोमि--सुनती हूँ;कला: --अ त्यन्त मधुर; गिर:--तोतली बोली; ते--तुम्हारी

    प्रिय पुत्र! मैं सचमुच अभागिनी हूँ क्योंकि मैं अब तुम्हारे मुख पर मन्द हँसी नहीं देखसकती हूं।

    तुमने सदा के लिए आँखें बन्द कर ली हैं; अतः मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कितुम इस लोक से दूसरे लोक में ले जाये गये हो जहाँ से तुम लौट नहीं पाओगे।

    बेटे! मैंतुम्हारी मममोहक वाणी अब और आगे नहीं सुन सकती हूँ।

    श्रीशुक उबाचविलप्न्त्या मृतं पुत्रमिति चित्रविलापनै: ।

    चित्रकेतुर्भुशं तप्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥

    ५९॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी बोले; विलपन्त्या--विलाप करती पत्नी के साथ; मृतम्‌--मृत; पुत्रमू--पुत्र केलिए; इति--इस प्रकार; चित्र-विलापनै:--अनेक प्रकार से विलाप करते हुए; चित्रकेतु:--राजा चित्रकेतु; भृूशम्‌--अत्यधिक; तप्त:--व्याकुल; मुक्त-कण्ठ: --फूट-फूट कर; रुरोद--रोने लगा; ह--निस्सन्देह |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--इस प्रकार अपने प्रिय पुत्र के लिए विलाप करतीहुई अपनी पत्नी के साथ ही राजा चित्रकेतु भी अत्यन्त शोक से संतप्त होकर फूट-फूट कररोने लगा।

    तयोर्विलपतो: सर्वे दम्पत्योस्तदनुब्रता: ।

    रुरुदुः सम नरा नार्य: सर्वमासीदचेतनम्‌ ॥

    ६०॥

    तयो:--उन दोनों के; विलपतो:--विलाप करते हुए; सर्वे--सभी; दम्‌-पत्यो:--अपनी पत्नी सहित राजा; तत्‌-अनुब्रता:--उनके अनुयायी; रुरुदु:--जोर-जोर से रोने लगे; स्म--निस्सन्देह; नरा:--पुरुष; नार्य:--नारियाँ, स्त्रियाँ;सर्वम्‌--समस्त राज्य; आसीतू्‌--हो गया; अचेतनम्‌--अचेत सा

    राजा तथा रानी को विलाप करते देखकर उनके समस्त अनुयायी स्त्री तथा पुरुष भी रोनेलगे।

    इस आकस्मिक घटना से राज्य-भर के सभी नागरिक अचेत-से हो गये।

    एवं कश्मलमापन्न॑ नष्टसंज़्मनायकम्‌ ।

    ज्ञात्वाड्रिरा नाम ऋषिराजगाम सनारदः ॥

    ६१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कश्मलम्‌--वेदना; आपन्नम्‌--प्राप्त करके; नष्ट--गत, रहित; संज्ञमम्‌--चेतना; अनायकम्‌--- असहाय;ज्ञात्वा--जानकर; अध्डिराः--अंगिरा; नाम--नामक; ऋषि: --साधु पुरुष; आजगाम--आ गये; स-नारद:--नारद मुनि केसाथ।

    जब ऋषि अंगिरा ने समझ लिया कि राजा शोक-समुद्र में मृत-प्राय हो चुका है, तो वेनारद ऋषि के साथ वहाँ गये।

    TO

    अध्याय पंद्रह: संत नारद और अंगिरा राजा चित्रकेतु को निर्देश देते हैं

    6.15श्रीशुक उबाचऊचतुर्मृतकोपान्ते पतितं मृतकोपमम्‌ ।

    शोकाभिभूतं राजानं बोधयन्तौ सदुक्तिभि: ॥

    १॥

    श्री-शुक: उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; ऊचतु:--वे बोले; मृतक --मृत शरीर; उपान्ते--निकट; पतितम्‌--गिराहुआ; मृतक-उपमम्‌--शव के तुल्य; शोक-अभिभूतम्‌--शोक से अत्यधिक संतप्त; राजानम्‌--राजा को; बोधयन्तौ--उपदेश देकर; सत्-उक्तिभि:--उपदेशों सेजो क्षणिक नहीं वरन्‌ वास्तविक हैं।

    श्री शुकदेव गोस्वामी बोले--जब राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर अपने पुत्र के शव केनिकट पड़े मृतप्राय हुए थे तो नारद तथा अंगिरा नामक दो महर्षियों ने उन्हें आध्यात्मिकचेतना के सम्बन्ध में इस प्रकार उपदेश दिया।

    कोअयं स्यात्तव राजेन्द्र भवान्यमनुशोचति ।

    त्वं चास्य कतमः सृष्ठौ पुरेदानीमत: परम्‌ ॥

    २॥

    कः--कौन; अयम्‌--यह; स्यात्‌ू--है; तव--तुम्हारे लिए; राज-इन्द्र--राजाओं में श्रेष्ठ भवानू--आप; यम्‌ू--जिसको;अनुशोचति--शोक कर रहे हो; त्वमू--तुम; च--और; अस्य--उसका ( शव का ); कतम:--कौन; सृष्टी--जन्म में;पुरा--गत; इृदानीम्‌--इस समय; अतः परमू--अतः

    हे राजन्‌! जिस शव के लिए तुम शोक कर रहे हो उसका तुमसे और तुम्हारा उसके साथक्या सम्बन्ध है?

    तुम कह सकते हो कि इस समय तुम पिता हो और वह पुत्र है, किन्तु क्यातुम सोचते हो कि यह सम्बन्ध पहले भी था?

    क्या सचमुच अब भी यह सम्बन्ध है?

    क्या यहभविष्य में भी बना रहेगा ?

    यथा प्रयान्ति संयान्ति स्रोतोवेगेन बालुका: ।

    संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिन: ॥

    ३॥

    यथा--जिस प्रकार; प्रयान्ति--विलग होते; संयान्ति--पास पास आते हैं; स्त्रोत:-वेगेन--लहरों के वेग से; बालुका: --बालू के सूक्ष्म कण; संयुज्यन्ते--परस्पर जुड़ते; वियुज्यन्ते--पृथक्‌ होते हैं; तथा--उसी प्रकार; कालेन--काल के द्वारा;देहिन:--देहधारी जीवात्माएँ |

    हे राजन्‌! जिस प्रकार बालू के छोटे-छोटे कण लहरों के वेग से कभी एक दूसरे केनिकट आते हैं और कभी विलग हो जाते हैं, उसी प्रकार से देहधारी जीवात्माएँ काल के वेगसे कभी मिलती हैं, तो कभी बिछुड़ जाती हैं।

    यथा धानासु वै धाना भवन्ति न भवन्ति च ।

    एवं भूतानि भूतेषु चोदितानीशमायया ॥

    ४॥

    यथा--जिस प्रकार; धानासु--धान के बीजों से; वै--निस्सन्देह; धाना:--अन्न; भवन्ति--उत्पन्न होते हैं; न--नहीं;भवन्ति--उत्पन्न होते हैं; च-- भी; एवम्‌--इस प्रकार; भूतानि--जीवात्माएँ; भूतेषु-- अन्य जीवों में; चोदितानि--बाध्य;ईश-मायया-- श्री भगवान्‌ की शक्ति के द्वारा

    जब बीजों को धरती में बोया जाता है, तो वे कभी तो उगते हैं और कभी नहीं उगते।

    कभी धरती उपजाऊ नहीं रहती जिससे बीजों का बोना निरर्थक हो जाता है।

    इसी प्रकारपरमात्मा की शक्ति से बाध्य होने पर भावी पिता को कभी सनन्‍्तान की प्राप्ति होती है, तोकभी गर्भ ही नहीं रहता।

    अतः मनुष्य को चाहिए कि वह माता-पिता जैसे बनावटी सम्बन्धके लिए शोक न करे, क्योंकि अन्ततः इसका नियंत्रण परमेश्वर के हाथों में रहता है।

    वयं च त्वं च ये चेमे तुल्यकालाश्चराचरा: ।

    जन्ममृत्योर्यथा पश्चात्प्राइनेवमधुनापि भो: ॥

    ५॥

    वयम्‌--हम ( बड़े-बड़े साधु तथा मंत्री एवं राजा के अनुयायी ); च--तथा; त्वम्‌ू--तुम; च-- भी; ये--जो; च-- भी;इमे--ये; तुल्य-काला:--समकालीन; चर-अचरा:--समस्त स्थावर तथा जंगम; जन्म--जन्म; मृत्यो: --( तथा ) मृत्यु;यथा--जिस प्रकार; पश्चात्‌--बाद में; प्राकु--पहले; न--नहीं; एवम्‌--इस प्रकार; अधुना--इस समय; अपि--यद्यपि;भो:--हे राजन

    हे राजन्‌! तुम तथा हम अर्थात्‌ तुम्हारे परामर्शदाता, पत्ियाँ एवं मंत्री और समस्त सम्पूर्णजगत में इस समय जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी हैं, वे सभी क्षणभंगुर हैं।

    यह स्थिति न तोहमारे जन्म के पूर्व थी और न हमारी मृत्यु के पश्चात्‌ रहेगी।

    अत: इस समय हमारी स्थितिक्षणिक ( अस्थायी ) है, यद्यपि वह मिथ्या नहीं है।

    भूतैर्भूतानि भूतेश: सृजत्यवति हन्ति च ।

    आत्मसूष्टैरस्वतन्त्रैरनपेक्षोपि बालवत्‌ ॥

    ६॥

    भूतैः--कुछ जीवों से; भूतानि--अन्य जीवात्माओं को; भूत-ईश:ः--सबके स्वामी, श्रीभगवान्‌; सृजति--उत्पन्न करता है;अवति--पालन करता है; हन्ति--मारता है; च-- भी; आत्म-सूष्टे:--अपने द्वारा उत्पन्न; अस्वतन्त्रै:--पराधीन; अनपेक्ष:--( सृष्टि में ) न रुचि रखने से; अपि--यद्यपि; बाल-वत्‌--बालक के समान।

    सबों के स्वामी तथा प्रत्येक वस्तु के मालिक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ निश्चय ही क्षणिकहए्य जगत में तनिक भी रुचि नहीं रखते।

    तो भी जिस प्रकार समुद्र के किनारे पर बैठा हुआबालक अनचाही किसी न किसी वस्तु (घरौंदा ) को बनाता है उसी प्रकार से भगवान्‌ प्रत्येक वस्तु को अपने वश में रखते हुए सृजन, पालन तथा संहार का कार्य करते रहते हैं।

    वेपिता से पुत्र उत्पन्न कराकर सृष्टि करते हैं, प्रजा के कल्याण हेतु सरकार या राजा नियुक्तकरके पालन करते हैं तथा सर्प जैसे माध्यमों से संहार करते हैं।

    सृजन, पालन तथासंहारकर्ता माध्यमों की कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं होती, किन्तु माया के सम्मोहन से वे अपनेको कर्त्ता, पालक तथा संहारक मान बैठते हैं।

    देहेन देहिनो राजन्देहाहेहोडभिजायते ।

    बीजादेव यथा बीजं देह्यर्थ इव शाश्वत: ॥

    ७॥

    देहेन--शरीर से; देहिन:--शरीर ( माता के ) में; राजन्‌ू--हे राजन; देहात्‌--शरीर से ( माता के ); देह:--अन्य शरीर;अभिजायते--उत्पन्न होता है; बीजात्‌ू--एक बीज से; एव--निस्सन्देह; यथा--जिस प्रकार; बीजम्‌--अन्य बीज; देही--भौतिक शरीरधारी मनुष्य; अर्थ:--भौतिक तत्त्व; इब--सहृश; शाश्रत:--शा श्वत

    हे राजन्‌! जिस प्रकार एक बीज से दूसरा बीज उत्पन्न होता है, उसी प्रकार एक शरीर(पिता के शरीर ) द्वारा अन्य ( माता के ) शरीर के माध्यम से एक तीसरा ( पुत्र का ) शरीरउत्पन्न होता है।

    जैसे भौतिक शरीर के तत्त्व नित्य हैं, वैसे ही इन भौतिक तत्त्वों से प्रकट होनेवाली जीवात्मा भी नित्य है।

    देहदेहिविभागोयमविवेककृतः पुरा ।

    जातिव्यक्तिविभागोयं यथा वस्तुनि कल्पितः ॥

    ८॥

    देह--इस शरीर का; देहि--तथा शरीर धारण करनेवाला; विभाग:--विभाजन; अयमू--यह; अविवेक--अविद्या से;कृतः--निर्मित; पुरा--अनादि काल से; जाति--वर्ण या जाति; व्यक्ति--तथा व्यक्ति का; विभाग:--विभाजन; अयमू--यह; यथा--जिस प्रकार; वस्तुनि--आदि वस्तु में; कल्पित:--कल्पना किया हुआ

    राष्ट्रीयता तथा व्यक्तिगत सत्ता जैसे सामान्य तथा विशिष्ट विभाजन उन व्यक्तियों कीकल्पनाएँ हैं, जो उन्नत ज्ञानी नहीं हैं।

    श्रीशुक उबाचएवमाश्चवासितो राजा चित्रकेतुद्धिजोक्तिभि: ।

    विमृज्य पाणिना वक्त्रमाधिम्लानमभाषत ॥

    ९॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; आश्वासित:--आश्चवासन दिये जाने पर, समझाने -बुझाने पर; राजा--राजा; चित्रकेतु:--चित्रकेतु ने; द्विज-उक्तिभि: --( नारद तथा अंगिरा जैसे ) ब्राह्मणों के उपदेश से;विमृज्य--पोंछ कर; पाणिना--हाथ से; वकक्‍्त्रम्‌ू--मुख; आधि-म्लानमू--शोक के कारण मुरझझाया; अभाषत--बुद्धिमानीके साथ कहा

    श्री शुकदेव गोस्वामी आगे बोले--नारद तथा अंगिरा द्वारा इस प्रकार समझाये-बुझायेजाने पर राजा चित्रकेतु को ज्ञान के कारण आशा बँधी।

    राजा अपने हाथ से अपना मुरझायामुखमण्डल पोंछते हुए कहने लगा।

    श्रीराजोबाचकौ युवां ज्ञानसम्पन्नौ महिष्ठी च महीयसाम्‌ ।

    अवधूतेन वेषेण गूढाविह समागतौ ॥

    १०॥

    श्री-राजा उवाच--राजा चित्रकेतु बोला; कौ--कौन; युवाम्‌--तुम दोनों; ज्ञान-सम्पन्नौ--ज्ञान से पूर्ण; महिष्ठौ --सर्व श्रेष्ठ;च--भी; महीयसाम्‌--अन्य महापुरुषों में; अवधूतेन-- अवधूत के; वेषेण--वेष में; गूढौ--छिपे हुए; इह--इस स्थान पर;समागतौ--आये हुए।

    राजा चित्रकेतु ने कहा--आप दोनों अपनी पहचान को छुपाए हुए अवधूत वेश में यहाँ आये हैं, किन्तु मैं देख रहा हूँ कि सभी पुरुषों में आप दोनों परम ज्ञानवान्‌ हैं।

    आप सब कुछजानते हैं, अतः समस्त महापुरुषों से भी आप महान हैं।

    चरन्ति हावनौ काम ब्राह्मणा भगवत्प्रिया: ।

    माहशां ग्राम्यबुद्धीनां बोधायोन्मत्तलिड्रिन: ॥

    ११॥

    चरन्ति--विचरण करते हैं; हि--निस्सन्देह; अवनौ--पृथ्वी पर; कामम्‌--इच्छानुसार; ब्राह्मणा: --ब्राह्मण; भगवत्‌-प्रिया:-- श्री भगवान्‌ के अत्यन्त प्रिय, वैष्णव भी; मा-हशाम्‌--मुझ जैसे; ग्राम्य-बुद्धीनामू-- क्षणिक भौतिक चेतना सेग्रस्त; बोधाय--उपदेश करने के लिए; उन्मत्त-लिड्डिन:--प्रमत्त का-सा वेष बनाये हुए |

    श्रीकृष्ण के सर्वाधिक प्रिय सेवक, ब्राह्मणजन, जो वैष्णव पद को प्राप्त हैं, कभी-कभी अवधूतों जैसा वेष बना लेते हैं और हम जैसे भौतिकतावादियों को, जो इन्द्रियतृप्ति मेंसदेव आसक्त रहते हैं, लाभ पहुँचाने एवं उनकी अविद्या दूर करने के लिए अपनीइच्छानुसार भूमण्डल पर विचरण करते रहते हैं।

    कुमारो नारद ऋभुरड्रिरा देवलोडसितः ।

    अपान्तरतमा व्यासो मार्कण्डेयोथ गौतम: ॥

    १२॥

    वसिष्ठो भगवात्राम: कपिलो बादरायणि: ।

    दुर्वासा याज्ञवल्क्यश्व जातुकर्णस्तथारुणि: ॥

    १३॥

    रोमशश्च्यवनो दत्त आसुरि: सपतझ्जलि: ।

    ऋषिवेंदशिरा धौम्यो मुनि: पञ्णञशिखस्तथा ॥

    १४॥

    हिरण्यनाभ: कौशल्य: श्रुददेव ऋतध्वज: ।

    एते परे च सिद्धेशा श्वरन्ति ज्ञान तव: ॥

    १५॥

    कुमार:--सनत्कुमार; नारद:--नारद मुनि; ऋभु: --ऋभु ; अद्धिरा:--अंगिरा; देवल:--देवल; असित:--असित;अपान्तरतमा:--अपान्तरतमा, व्यास का पहिले का नाम; व्यास:--व्यास; मार्कण्डेय:--मार्कण्डेय; अथ--तथा;गौतम:--गौतम; वसिष्ठ:--वसिष्ठ; भगवान्‌ राम:--परशुराम; कपिल: -- कपिल; बादरायणि: --शुकदेव गोस्वामी;दुर्वासा:--दुर्वासा; याज्ञवल्क्य:--याज्ञवाल्क्य; च--भी; जातुकर्ण:--जातुकर्ण; तथा-- और; अरुणि:--अरुणि;रोमश:--रोमश; च्यवन:--च्यवन; दत्त: --दत्तात्रेय; आसुरि: -- आसुरि; स-पतञ्जञलि:-- पतंजलि ऋषि समेत; ऋषि: --ऋषि; वेद-शिरा:--वेदों का प्रमुख; धौम्य:--धौम्य; मुनि:--मुनि; पञ्णञशिख:--पंचशिख; तथा-- और; हिरण्यनाभ: --हिरण्यनाभ; कौशल्य: --कौशल्य; श्रुतदेव:-- श्रुतदेव; ऋतध्वज: --ऋतध्वज; एते--ये सभी; परे--- अन्य; च--तथा;सिद्ध-ईशा: --योगे श्वर; चरन्ति--विचरण करते हैं; ज्ञान-हेतवः--अत्यन्त विद्वान पुरुष जो सारे संसार में उपदेश देते हैं।

    हे महात्माओ! मैंने सुना है कि अविद्या से ग्रस्त मनुष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिएभूमण्डल-भर में जो महापुरुष विचरण करते रहते हैं उनमें सनत्‌ कुमार, नारद, ऋशभु,अंगिरा, देवल, असित, अपान्तरतमा (व्यासदेव ), मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान्‌परशुराम, कपिल, शुकदेव, दुर्वासा, याज्ञवल्क्य, जातुकर्ण तथा अरुणि हैं।

    अन्यों के नामइस प्रकार हैं--रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पतंजलि, वेदों के प्रधान परम साधु धौम्य,पंचशिख, हिरण्यनाभ, कौशल्य, श्रुतदेव तथा ऋतध्वज।

    आप अवश्य ही इनमें से हैं।

    तस्माद्ुवां ग्राम्यपशोर्मम मूढधिय: प्रभू ।

    अन्धे तमसि मग्नस्य ज्ञानदीप उदीर्यताम्‌ ॥

    १६॥

    तस्मात्‌--अतः ; युवाम्‌--आप दोनों; ग्राम्य-पशो: --शूकर या कूकर जैसे पशु का; मम--मुझे; मूढ-धिय:--अत्यन्तमूर्ख; प्रभू--हे दोनों स्वामियो; अन्धे--गहरे; तमसि--अंधकार में; मग्नस्थ--मग्न रहने वाले का; ज्ञान-दीप:--ज्ञान काप्रकाश; उदीर्यताम्‌--प्रकाशित कीजिये।

    चूंकि आप दोनों महापुरुष हैं, अतः मुझे वास्तविक ज्ञान देने में समर्थ हैं।

    मैं अविद्या केअंधकार में डूबा रहने के कारण शूकर अथवा कूकर जैसे ग्राम्य पशु के समान मूढ़ हूँ।

    अतःमुझे उबारने के लिए ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करें।

    श्रीअड़िरा उवाचअहं ते पुत्रकामस्य पुत्रदोस्म्यड्धिरा नृप ।

    एप ब्रह्मससुतः साक्षान्नारदो भगवानृषिः ॥

    १७॥

    श्री-अड्वभिरा: उवाच--अंगिरा ऋषि बोले; अहम्‌--मैं; ते--तुमको; पुत्र-कामस्य--पुत्र की कामना करने वाले; पुत्र-दः--पुत्र देने वाला; अस्मि--हूँ; अड्भिरा:--अंगिरा ऋषि; नृप--हे राजन; एब:--यह; ब्रह्म-सुत:-- भगवान्‌ ब्रह्मा का पुत्र;साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; नारद:--नारद मुनि; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिमान; ऋषि:--साधु।

    अंगिरा ने कहा--हे राजन्‌! जब तुमने पुत्र की कामना की थी तो मैं तुम्हारे पास आयाथा।

    दरअसल वही अंगिरा ऋषि हूँ जिसने तुम्हें यह पुत्र दिया था।

    ये जो तुम्हारे पास हैं,भगवान्‌ ब्रह्मा के प्रत्यक्ष पुत्र, महान्‌ ऋषि नारद हैं।

    इत्थं त्वां पुत्रशोकेन मग्नं तमसि दुस्तरे ।

    अतदर्हमनुस्मृत्य महापुरुषगोचरम्‌ ॥

    १८॥

    अनुग्रहाय भवत: प्राप्तावावामिह प्रभो ।

    ब्रह्मण्यो भगवद्धक्तो नावासादितुमहसि ॥

    १९॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; त्वामू--तुमको; पुत्र-शोकेन--अपने पुत्र के शोक के कारण; मग्नम्‌ू--डूबे हुए; तमसि-- अंधकारमें; दुस्तरे--न पार कर सकने योग्य; अ-तत्‌-अर्हम्‌-तुम जैसे पुरुष के लिए उपयुक्त नहीं है; अनुस्मृत्य--स्मरण करने के;महा-पुरुष-- श्री भगवान्‌; गोचरम्‌--जो ज्ञानसम्पन्न हैं; अनुग्रहाय--अनुग्रह करने के लिए; भवत:--आपके ऊपर;प्राप्ती--आये हैं; आवाम्‌--हम दोनों; इह--इस स्थान पर; प्रभो--हे राजन्‌; ब्रह्मण्य:--जो परम सत्य को प्राप्त हैं;भगवत्‌-भक्त:-- श्रीभगवान्‌ का उच्च भक्त; न--नहीं; अवासादितुम्‌--शोक करने के; अ्हसि--योग्य हो

    हे राजन! तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के परम भक्त हो।

    किसी भौतिक वस्तु की हानिके लिए इस प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है।

    अत: हम दोनों तुम्हें इस मिथ्याशोक से उबारने के लिए आये हैं, जो आप के अविद्या के अंधकार में डूबे रहने के कारणउत्पन्न है।

    जो आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न हैं उनके लिए इस प्रकार से भौतिक लाभ तथाहानि से प्रभावित होना बिल्कुल अवांछनीय है।

    तदैव ते परं ज्ञानं ददामि गृहमागतः ।

    ज्ञात्वान्याभिनिवेशं ते पुत्रमेव ददाम्यहम्‌ ॥

    २०॥

    तदा--तब; एव--निस्सन्देह; ते--तुमको; परम्‌ू--दिव्य; ज्ञानम्‌--ज्ञान; ददामि--दिया होता; गृहम्‌--तुम्हारे घर पर;आगतः --आया था; ज्ञात्वा--जानकर; अन्य-अभिनिवेशम्‌--अन्य बातों में उलझा हुआ; ते--तुम्हारा; पुत्रम्‌ू--पुत्र;एव--केवल; ददामि--दिया; अहम्‌-मैंने

    जिस समय पहले-पहल मैं तुम्हारे घर आया था, उसी समय मैं तुम्हें परम दिव्य ज्ञानदेता, किन्तु जब मैंने देखा कि तुम्हारा मन भौतिक वस्तुओं में उलझा हुआ है, तो मैंने तुम्हेंकेवल एक पुत्र प्रदान किया जो तुम्हारे हर्ष और शोक का कारण बना।

    अधुना पुत्रिणां तापो भवतैवानुभूयते ।

    एवं दारा गृहा रायो विविधैश्वर्यसम्पदः ॥

    २१॥

    शब्दादयश्च विषयाश्चला राज्यविभूतय: ।

    मही राज्यं बल॑ कोषो भृत्यामात्यसुहज्जना: ॥

    २२॥

    सर्वेडपि शूरसेनेमे शोकमोहभयार्तिदा: ।

    गन्धर्वनगरप्रख्या: स्वप्नमायामनोरथा: ॥

    २३॥

    अधुना--इस समय; पुत्रिणाम्‌ू--पुत्रवानों को; ताप:--कष्ट; भवता--आपके द्वारा; एब--निस्सन्देह; अनुभूयते-- अनुभवकिया जाता है; एवम्‌--इस प्रकार; दारा:--सुपती; गृहा:--घर; राय:-- धन; विविध--नाना प्रकार के; ऐश्वर्य--ऐश्वर्य;सम्पदः--सम्पत्ति; शब्द-आदय: --शब्द इत्यादि; च--तथा; विषया: --इन्द्रियतृप्ति की वस्तुएँ; चला:--क्षणिक;राज्य--राज्य का; विभूतय:--ऐश्वर्य; मही--पृथ्वी; राज्यम्‌ू--राज्य; बलमू--बल; कोष: -- खजाना; भृत्य--नौकर;अमात्य--मंत्री; सुहृत्‌-जना:--मित्र; सर्वे--सभी; अपि--निस्सन्देह; शूरसेन--हे शूरसेन के राजा; इमे--ये; शोक--शोक का; मोह--मोह का; भय-- भय का; अर्ति--तथा दुख; दाः--देने वाले; गन्धर्व-नगर-प्रख्या:--गंधर्व नगर(जंगल के मध्य एक बड़ा महल ) की माया-६ृष्टि से प्रेरित; स्वप्न--स्वप्न; माया--माया; मनोरथा:--तथा कल्पनाएँ

    हे राजन्‌! अब तुम्हें ऐसे व्यक्ति के कष्ट का वास्तविक अनुभव हो रहा है, जिसके पुत्रतथा पुत्रियाँ होती हैं।

    हे सूरसेन देश के राजा! पत्नी, घर, राज्य का ऐश्वर्य, अन्य सम्पत्ति तथाइन्द्रिय अनुभूति के विषय--ये सब इस बात में एक-से हैं, कि वे अनित्य हैं।

    राज्य, सैनिक,शक्ति, कोष, नौकर, मंत्री, मित्र तथा सम्बन्धी--ये सभी भय, मोह, शोक तथा दुख केकारण हैं।

    ये गंधर्व-नगर की भाँति हैं, जिसे जंगल के बीच स्थित समझा जाता है, किन्तुजिसका अस्तित्व नहीं होता।

    चूँकि ये सब वस्तुएँ अनित्य हैं, अतः ये मोह, स्वप्न तथामनोरथों से श्रेष्ठ नहीं हैं।

    हृश्यमाना विनार्थेन न दृश्यन्ते मनोभवा: ।

    कर्मभिर्ध्यायतो नानाकर्माणि मनसोभवन्‌ ॥

    २४॥

    हृश्यमाना: --देखे जाकर; विना--रहित, बिना; अर्थेन--वस्तु या सच्चाई; न--नहीं; दृश्यन्ते--देखे जाते हैं; मनोभवा:--मनोरथ; कर्मभि:--सकाम कर्म के द्वारा; ध्यायत:ः--चिन्तन करते हुए; नाना--विविध, अनेक; कर्माणि--सकाम कर्म;मनसः--मन से; अभवनू-प्रकट होते हैं।

    स्त्री, संतान तथा सम्पत्ति जैसी दृश्य वस्तुएँ स्वप्न एवं मनोरथों के तुल्य हैं।

    वास्तव मेंहम जो कुछ देखते हैं उसका स्थायी अस्तित्व नहीं होता है।

    वे कभी दिखती हैं, तो कभीनहीं।

    अपने पूर्वकर्मों के अनुसार हम मनोरथ का सृजन करते हैं और इन्हीं के कारण हमआगे कार्य करते हैं।

    अयं हि देहिनो देहो द्र॒व्यज्ञानक्रियात्मक: ।

    देहिनो विविधक्लेशसन्तापकृदुदाहत: ॥

    २५॥

    अयम्‌--यह; हि--निश्चय ही; देहिन:--जीवात्मा का; देह:--शरीर; द्रव्य-ज्ञान-क्रिया-आत्मक:--भौतिक तत्त्वों,ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों समेत; देहिन:--जीवात्मा का; विविध--नाना प्रकार का; क्लेश--कष्ट; सन्‍्ताप--तथा पीड़ाका; कृतू--कारण; उदाहत:--घोषित किया जाता है |

    देहात्मबुद्धि के कारण जीवात्मा अपने शरीर में, जो भौतिक तत्त्वों, पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथामन समेत पाँच कर्मेन्द्रियों का संपुंज है, मग्न रहता है।

    मन के कारण जीवात्मा को तीनप्रकार के--अधिभौतिक, अधिदेविक तथा अध्यात्मिक-ताप सहने पड़ते हैं।

    अतः यह शरीरसमस्त दुखों का मूल है।

    तस्मात्स्वस्थेन मनसा विमृश्य गतिमात्मन: ।

    दवैते ध्रुवार्थविश्रम्भं त्यजोपशममाविश ॥

    २६॥

    तस्मात्‌ू--अतः ; स्वस्थेन-- स्वस्थ, सतर्क; मनसा--मन से; विमृश्य--विचार करके; गतिम्‌--वास्तविक स्थिति;आत्मन:--अपनी; द्वैते--द्वैत में; शुव--स्थायी; अर्थ--वस्तु; विश्रम्भम्‌--विश्वास; त्यज--छोड़ दो; उपशमम्‌--शान्तिपूर्ण स्थिति; आविश--ग्रहण करो

    अतः हे चित्रकेतु! आत्मा की स्थिति पर ठीक से विचार करो अर्थात्‌ यह समझने काप्रयत्त करो कि तुम कौन हो--शरीर, मन, या आत्मा?

    यह विचार करो कि तुम कहाँ सेआये हो, यह शरीर छोड़कर कहाँ जाओगे और तुम भौतिक शोक के वश में क्यों हो ?

    इसप्रकार तुम अपनी वास्तविक स्थिति जानने का यत्न करो, तभी तुम अनावश्यक आसक्ति सेछुटकारा पा सकोगे।

    तब तुम इस विश्वास का भी परित्याग कर सकोगे कि यह भौतिक जगत या अन्य कोई वस्तु जिसका श्रीकृष्ण की सेवा से सीधा सम्बन्ध नहीं है, शाश्वत है।

    इस तरह तुम्हें शान्ति प्राप्ति हो सकेगी।

    श्रीनारद उवाचएतां मन्त्रोपनिषदं प्रतीच्छ प्रयतो मम ।

    यां धारयन्सप्तरात्राद्द्रष्टा सड्डर्षणं विभुम्‌ ॥

    २७॥

    श्री-नारद:ः उवाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; एताम्‌--यह; मन्त्र-उपनिषदम्‌--मंत्र के रूप में उपनिषद्‌ जिससे जीवन काउच्चादर्श प्राप्त किया जा सकता है; प्रतीच्छ--स्वीकार करो; प्रयतः--सावधानीपूर्वक ( मृत पुत्र का दाह संस्कार करने केपश्चात्‌ ); मम--मुझसे; याम्‌ू--जो; धारयन्‌--स्वीकार करके; सप्त-रात्रातू-सात रात्रियों के बाद; द्रष्टा--तुम देखोगे;सड्डर्षणम्‌--संकर्षण, श्रीभगवान्‌; विभुम्‌-- भगवान्‌ को |

    नारद मुनि ने आगे कहा--हे राजन! तुम एकाग्रचित्त होकर मुझसे अत्यन्त शुभ मंत्रग्रहण करो।

    इसे स्वीकार कर लेने के बाद सात रातों में ही तुम साक्षात्‌ भगवान्‌ का दर्शनकर सकोगे।

    यत्पादमूलमुपसृत्य नरेन्द्र पूर्वशर्वादयो भ्रममिमं द्वितयं विसृज्य ।

    सद्यस्तदीयमतुलानधिकं महित्वंप्रापुर्भवानपि परं न चिरादुपैति ॥

    २८ ॥

    यत्‌-पाद-मूलम्‌--जिनके ( भगवान्‌ संकर्षण के ) चरणकमल; उपसृत्य--शरण लेकर; नर-इन्द्र--हे राजन्‌; पूर्वे--प्राचीन काल में; शर्ब-आदय: -- भगवान्‌ महादेव जैसे बड़े-बड़े देवता; भ्रमम्‌--मोह; इमम्‌--यह; द्वितयम्‌--द्वैत भाव;विसृज्य--त्याग कर; सद्यः--तुरन्‍्त; तदीयम्‌--उसका; अतुल--अद्वितीय; अनधिकम्‌--अलंघ्य; महित्वमू--यश;प्रापु:--प्राप्त किया; भवान्‌--आप; अपि-- भी; परमू--परम धाम; न--नहीं; चिरातू--बहुत काल बाद; उपैति--प्राप्तकर लोगे

    हे राजन! प्राचीनकाल में भगवान्‌ शिव तथा अन्य देवताओं ने संकर्षण के चरणारविन्दकी शरण ली थी।

    इस प्रकार वे द्वैत-मोह से तुरन्त मुक्त हो गये और उन्होंने आध्यात्मिकजीवन में अद्वितीय तथा अलंघ्य यश प्राप्त किया।

    तुम शीघ्र ठीक वैसा ही पद प्राप्त करोगे।

    TO

    अध्याय सोलह: राजा चित्रकेतु का परम भगवान से मिलन

    6.16श्रीबादरायणिरुवाचअथ देवऋषी राजन्सम्परेतं नृपात्मजम्‌ ।

    दर्शयित्वेतिहोवाच ज्ञातीनामनुशोचताम्‌ ॥

    १॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--इस प्रकार; देव-ऋषि:--परम साधु नारद; राजन्‌-हेराजन; सम्परेतम्‌--मृत; नृप-आत्मजम्‌--राजा के पुत्र को; दर्शयित्वा--दिखलाकर; इति--इस प्रकार; ह--निस्सन्देह;उवाच--बताया; ज्ञातीनामू--समस्त सम्बन्धियों को; अनुशोचताम्‌--शोक करने वाले।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजा परीक्षित! नारद ऋषि ने अपनी योगशक्ति सेशोकाकुल स्वजनों के समक्ष उस पुत्र को ला दिया और फिर वे इस प्रकार बोले।

    श्रीनारद उबाचजीवात्मन्पश्य भद्गं ते मातरं पितरं च ते ।

    सुहृदो बान्धवास्तप्ता: शुचा त्वत्कृतया भूशम्‌ ॥

    २॥

    श्री-नारद: उवाच-- श्री नारद मुनि ने कहा; जीव-आत्मन्‌--हे जीवात्मा; पश्य--देखो; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारे;मातरम्‌--माता; पितरम्‌--पिता; च--तथा; ते--तुम्हारे; सुहदः--मित्र; बान्धवा:--सम्बन्धी; तप्ता:--संतप्त, दुखी;शुच्ा--शोक से; त्वत्‌-कृतया--तुम्हारे कारण; भूशम्‌--अत्यधिक |

    श्री नारद मुनि ने कहा--हे जीवात्मा! तुम्हारा कल्याण हो।

    जरा अपने माता-पिता कोतो देखो।

    तुम्हारे चले जाने ( मरने ) से तुम्हारे समस्त मित्र तथा सम्बन्धी शोकाकुल हैं।

    कलेवरं स्वमाविश्य शेषमायु: सुहृद्दतः ।

    भुड्द्व भोगान्पितृप्रत्तानधितिष्ठ नूपासनम्‌ ॥

    ३॥

    कलेवरम्‌--शरीर में; स्वमू--अपना; आविश्य--प्रवेश करके; शेषम्‌--शेष, बाकी; आयु:--जीवन अवधि; सुहत्‌-बृतः--अपने मित्र तथा सम्बन्धियों से घिरे हुए; भुड्झ््व-- भोग करो; भोगान्‌--समस्त भोग्य ऐश्वर्य; पितृ-- अपने पिताद्वारा; प्रत्तान्‌-- प्रदत्त; अधितिष्ठ --स्वीकार करो; नृप-आसनम्‌--राजसिंहासन को

    तुम असमय ही मरे थे इसलिए तुम्हारी आयु अब भी शेष है।

    अतः तुम अपने शरीर मेंपुनः प्रवेश करक

    े अपने मित्रों तथा स्वजनों की संगति में शेष जीवन का भोग करो।

    अपनेपिता द्वारा प्रदत्त यह समस्त ऐ श्वर्य तथा राजसिंहासन स्वीकार करो।

    जीव उबाच'कस्मिझ्जन्मन्यमी महां पितरो मातरोभवन्‌ ।

    कर्मभिर्भ्राम्यमाणस्य देवतिर्यडनूयोनिषु ॥

    ४॥

    जीव: उबाच--जीवात्मा ने कहा; कस्मिनू--किस; जन्मनि--जन्म में; अमी--ये सब; महाम्‌--मुझको; पितर: --पितृगण;मातरः--माताएँ; अभवनू-- थे; कर्मभि:--कर्मफल से; भ्राम्यमाणस्य-- भ्रमण करने वालों के; देव-तिर्यक्‌--देवताओंतथा निम्न पशुओं के; नू--तथा मनुष्य जाति के; योनिषु--गर्भो में |

    नारद मुनि की योगशक्ति से जीवात्मा थोड़े समय के लिए मृत शरीर में पुनः प्रविष्ट हुआऔर नारद मुनि के अनुरोध पर इस प्रकार बोला, 'मैं ( जीव ) अपने कर्म-फलों के अनुसारएक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तर करता रहता हूँ; इस प्रकार कभी देवताओं की योनि मेंरहता हूँ तो कभी निम्न पशुओं, अथवा वनस्पतियों में और कभी मनुष्य योनि में रहता हूँ।

    अतः ये किस जन्म में मेरे माता तथा पिता थे?

    वास्तव में न तो कोई मेरी माता है और नकोई पिता।

    तो मैं इन दोनों व्यक्तियों को अपने माता-पिता के रूप में केसे स्वीकार करसकता हूँ?

    बश्धुज्ञात्यरिमध्यस्थमित्रोदासीनविद्विष: ।

    सर्व एव हि सर्वेषां भवन्ति क्रमशो मिथः ॥

    ५॥

    बन्धु--दोस्त; ज्ञाति--कुटुम्बी; अरि--शत्रु; मध्यस्थ--बिचौलिए; मित्र--शुभचिन्तक; उदासीन---उदासीन ; विद्विष:--अथवा द्वेषी; सर्वे-- सभी; एव--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; सर्वेषाम्‌--सबों का; भवन्ति--होते हैं; क्रमश:--धीरे-धीरे;मिथः--परस्पर |

    यह भौतिक जगत नदी की भाँति प्रवहमान है, जो अपने जीवात्मा को लिये जा रही हैऔर जिसमें सभी लोग समयानुसार मित्र, कुटुम्बी तथा शत्रु बनते रहते हैं।

    वे उदासीन,मध्यस्थ, द्वेषी तथा कई अन्य प्रकारों से कार्य करते हैं।

    इतने पर भी कोई किसी से स्थायीरूप से सम्बद्ध नहीं है।

    यथा वस्तूनि पण्यानि हेमादीनि ततस्ततः ।

    पर्यटन्ति नरेष्वेब॑ जीवो योनिषु कर्तृषु ॥

    ६॥

    यथा--जिस प्रकार; वस्तूनि--वस्तुएँ; पण्यानि--क्रय-विक्रय के हेतु; हेम-आदीनि--यथा सोना; ततः ततः--यहाँ सेवहाँ; पर्यटन्ति--घूमते रहते हैं; नरेषु--मनुष्यों के बीच; एवम्‌--इस प्रकार; जीव:--जीवात्मा; योनिषु--विभिन्न योनियोंमें; कर्तुषु--विभिन्न भौतिक पिता के रूपों में ।

    जिस प्रकार सोना तथा अन्य व्यापारिक वस्तुएँ समय-समय पर क्रम-विक्रम के कारणलगातार एक स्थान से दूसरे स्थान को स्थानान्तरित होती रहती हैं उसी प्रकार जीवात्मा भीअपने कर्मो के कारण पूरे ब्रह्माण्ड में घूमता रहता है।

    नित्यस्यार्थस्य सम्बन्धो ह्ानित्यो दृश्यते नूषु ।

    यावद्यस्य हि सम्बन्धो ममत्वं तावदेव हि ॥

    ७॥

    नित्यस्य--नित्य; अर्थस्य--वस्तु का; सम्बन्ध:--सम्बन्ध; हि--निस्सन्देह; अनित्य:--अनित्य, क्षणिक; दृश्यते--दिखाईपड़ता है; नूषु--मानव समाज में; यावत्‌--जब तक; यस्य--जिसका; हि--निसन्देह; सम्बन्ध: --सम्बन्ध:; ममत्वम्‌ू--मालिकाना, ममता; तावत्‌--तब तक; एव--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही |

    कुछ ही जीवात्माएँ मनुष्य योनि में जन्म लेती हैं और शेष दूसरी पशु-योनि में जन्मती हैं।

    यद्यपि ये दोनों ही जीवात्माएँ हैं, किन्तु इनके सम्बन्ध अस्थायी हैं।

    कोई पशु किसी मनुष्य केअधिकार में कुछ काल तक रहकर किसी दूसरे के अधिकार में जा सकता है।

    जब पशु चला जाता है पहले वाले मालिक का स्वामित्व भी चला जाता है।

    जब तक वह पशु उसकेअधिकार में रहता है, उसके प्रति उसका लगाव रहता है, किन्तु उसको बेचते ही सारा लगावछूट जाता है।

    एवं योनिगतो जीव: स नित्यो निरहड्डू तः ।

    यावद्यत्रोपलभ्येत तावत्स्वत्वं हि तस्य ततू ॥

    ८॥

    एवम्‌--इस प्रकार; योनि-गत:--किसी विशेष योनि में जाकर; जीव: --जीवात्मा; सः--वह; नित्य:--नित्य, शाश्वत;निरहडु तः--अहंकाररहित; यावत्‌--जब तक; यत्र--जहाँ; उपलभ्येत--वह पाया जा सकता है; तावत्‌--तब तक;स्वत्वमू--स्व का ज्ञान; हि--निस्सन्देह; तस्थ--उसका; तत्‌--वह

    भले ही एक जीवात्मा मर्त्यदेहों के सम्बन्धों के कारण दूसरी जीवात्मा से सम्बद्ध जानपड़े, किन्तु जीवात्मा शाश्वत है।

    वास्तव में शरीर ही जन्मता है और नष्ट होता है, जीवात्मानहीं।

    हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि जीवात्मा की उत्पत्ति या मृत्यु होती है।

    जीवात्मा कातथाकथित माता-पिता से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

    जब तक जीवात्मा अपने पूर्व कर्म केफलस्वरूप किन्हीं माता-पिता का पुत्र बन कर प्रकट होता है तभी तक माता-पिता द्वाराप्रदत्त शरीर से उसका नाता रहता है।

    इस प्रकार वह अपने को मिथ्या ही उनका पुत्र मानकरअत्यन्त स्नेह जताता है।

    मरने के बाद यह सम्बन्ध नष्ट हो जाता है।

    ऐसी परिस्थितियों मेंमनुष्य को झूठे ही हर्ष तथा शोक में लीन नहीं होना चाहिए।

    एष नित्योव्यय: सूक्ष्म एष सर्वाश्रय: स्वहक्‌ ।

    आत्ममायागुणर्विश्वमात्मानं सृजते प्रभु: ॥

    ९॥

    एष:--यह जीवात्मा; नित्य:--नित्य, शाश्वत; अव्यय:--अविनाशी; सूक्ष्म: --सूक्ष्म ( आँख से न दिखाई पड़ने वाला );एष:--यह जीवात्मा; सर्व-आश्रय: --विभिन्न प्रकार के देहों का कारण; स्व-हक्‌--स्वयं-तेज; आत्म-माया-गुणै: --श्रीभगवान्‌ की माया के गुणों द्वारा; विश्वम्‌--इस भौतिक जगत में; आत्मानम्‌--अपने आपको; सृजते-- प्रकट कर देताहै; प्रभु:--स्वामी |

    जीवात्मा नित्य तथा अविनाशी है क्योंकि इसका आदि तथा अन्त नहीं है।

    न तो उसकाजन्म होता है, न मृत्यु।

    वह समस्त प्रकार की देहों का मूल है, तो भी उसकी दैहिक वर्ग में गिनती नहीं होती।

    जीवात्मा इतना उच्च है कि परमात्मा के ही समधर्मा है।

    तो भी, अत्यन्तसूक्ष्म होने से वह बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित होता रहता है और अपनी इच्छाओं के अनुसारअपने लिए विभिन्न देहें उत्पन्न करता है।

    न हास्यास्ति प्रिय: कश्रिन्नाप्रिय: स्व: परोडपि वा ।

    एक: सर्वधियां द्रष्टा कर्तृणां गुणदोषयो: ॥

    १०॥

    न--न तो; हि--निस्सन्देह; अस्य--जीवात्मा का; अस्ति--है; प्रियः--प्रिय; कश्चित्‌ू--कोई; न--न तो; अप्रिय: --अप्रिय; स्व:--अपना; पर: --पराया; अपि-- भी; वा-- अथवा; एक: --एक ; सर्व-धियाम्‌--बुद्धि के विभिन्न प्रकारोंका; द्रष्टा--देखने वाला; कर्तृणाम्‌ू--करने वालों का; गुण-दोषयो: --गुण तथा दोष का, उचित-अनुचित का

    इस जीवात्मा को न तो कोई प्रिय है, न कोई अप्रिय।

    यह अपने पराये में भेद-भाव नहींरखता।

    यह अनन्य है, अर्थात्‌ यह न तो मित्रों तथा शत्रुओं, न ही शुभचिन्तकों या दुराग्रहकरने वालों से प्रभावित होता है।

    यह मनुष्यों के विभिन्न गुणों का मात्र दर्शक अथवा साक्षीहै।

    नादत्त आत्मा हि गुणं न दोष न क्रियाफलम्‌ ।

    उदासीनवदासीनः परावरहगीश्वर: ॥

    ११॥

    न--नहीं; आदत्ते--स्वीकार करता है; आत्मा--परमात्मा; हि--निश्चय ही; गुणम्‌--सुख; न--नहीं; दोषम्‌--दुख; न--नतो; क्रिया-फलम्‌--किसी कर्म का फल; उदासीन-वत्‌--उदासीन पुरुष की तरह; आसीन:--बैठे हुए ( हृदय में ); पर-अवर-हक्‌-कार्य और कारण को देखते हुए; ई श्वरः--पर मे श्वर।

    कार्य और कारण का स्त्रष्टा यह आत्मा सकाम कर्मों से जनित सुख तथा दुख कोस्वीकार नहीं करता।

    वह भौतिक देह स्वीकार करने या न करने के लिए परम स्वतंत्र है औरभौतिक शरीर न होने के कारण वह सदैव उदासीन या तटस्थ रहता है।

    जीवात्मा ईश्वर काभिन्न अंश है और सूक्ष्म मात्रा में उनके गुणों को धारण किए रहता है।

    अतः मनुष्य को शोक से प्रभावित नहीं होना चाहिए।

    श्रीबादरायणिरुवाचइत्युदीर्य गतो जीवो ज्ञातयस्तस्य ते तदा ।

    विस्मिता मुमुचु: शोकं छित्त्वात्मस्नेहश्रूद्धुलामू ॥

    १२॥

    श्री-बादरायणि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उदीर्य--कहकर; गत:--चला गया; जीव:--जीवात्मा ( जो महाराज चित्रकेतु के पुत्र रूप में प्रकट हुआ था ); ज्ञातय: --सगे-सम्बन्धी; तस्य--उसके; ते--वे; तदा--उस समय; विस्मिता:-- चकित; मुमुचु:--त्याग दिया; शोकम्‌ू--शोक; छित्त्वा--काट कर; आत्म-स्नेह-- सम्बन्ध केकारण स्नेह की; श्रृद्डलाम्‌ू--लोहे की जंजीर।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--जब महाराज चित्रकेतु के पुत्र रूप में वहबद्धजीव इस प्रकार बोलकर जब चला गया तो चित्रकेतु तथा मृत पुत्र के अन्य सम्बन्धीअत्यन्त विस्मित हुए।

    तब उन्होंने उसके साथ अपने सम्बन्ध से उत्पन्न स्नेह-बन्धन को काटदिया और शोक का परित्याग कर दिया।

    निर्ईत्य ज्ञातयो ज्ञातेर्देह कृत्वोचिता: क्रिया: ।

    तत्यजुर्दुस्त्यजं स्नेहे शोकमोहभयार्तिदम्‌ ॥

    १३॥

    निईत्य--हटा कर; ज्ञातय: --राजा चित्रकेतु तथा अन्य सम्बन्धी; ज्ञातेः --पुत्र का; देहम्‌--शरीर; कृत्वा--सम्पन्न करके;उचिता:--समुचित; क्रिया:--क्रियाएँ; तत्यजु:--त्याग दिया; दुस्त्यजम्‌-दुस्त्यज, छोड़ने में कठिन; स्नेहम्‌--स्नेह;शोक-शोक; मोह--मोह; भय--डर; अर्ति--तथा दुख; दम्‌--देने वाला।

    मृत बालक के शरीर का दाह-संस्कार तथा यथोचित अनुष्ठान सम्पन्न करने के बादसम्बन्धियों ने उस स्नेह को भी त्याग दिया जिसके कारण मोह, शोक, भय तथा दुख कीप्राप्ति होती है।

    निस्सन्देह, ऐसे स्नेह को त्याग पाना कठिन है, किन्तु उन्होंने सरलता सेपरित्याग कर दिया।

    बालघ्न्यो ब्रीडितास्तत्र बालहत्याहतप्रभा: ।

    बालहत्याव्रतं चेरुब्राह्मणैर्यन्रिरूपितम्‌ ।

    यमुनायां महाराज स्मरन्त्यो द्विजभाषितम्‌ ॥

    १४॥

    बाल-घ््यः--बालक का वध करने वाली; ब्रीडिता: -- अत्यन्त लज्जित; तत्र--वहाँ; बाल-हत्या--बालक को मारने केकारण; हत--हीन; प्रभा: --समस्त शारीरिक द्युति; बाल-हत्या-ब्रतम्‌--बालक की हत्या का प्रायश्ित्त्‌; चेरु:--क्रिया;ब्राह्मणै: --पुरोहितों के द्वारा; यत्‌ू--जो; निरूपितम्‌--कथित; यमुनायाम्‌--यमुना नदी के तट पर; महा-राज--हे राजापरीक्षित; स्मरन्त्यः--स्मरण करते हुए; द्विज-भाषितम्‌--ब्राह्मण के द्वारा दिये गये आदेश ।

    रानी कृतद्युति की सौतें, जिन्होंने बालक को विष दिया था, अत्यन्त लज्जित हुई और उनके शरीर कान्तिविहीन हो गये।

    हे राजन्‌! शोक करते हुए उन्हें ऋषि अंगिरा के उपदेशस्मरण हो आए और उन्‍होंने पुत्र उत्पन्न करने की कामना का परित्याग कर दिया।

    ब्राह्मणों केनिर्देशानुसार वे यमुना के तट पर गईं, वहाँ पर स्नान किया और अपने पापकर्मो के लिएप्रायश्वित्त किया।

    स इश्थं प्रतिबुद्धात्मा चित्रकेतुद्विजोक्तिभि: ।

    गृहान्धकृपान्निष्क़रान्तः सरःपड्ढादिव द्विपः ॥

    १५॥

    सः--वह; इत्थम्‌--इस प्रकार; प्रतिबुद्ध-आत्मा--आत्मज्ञान से भली-भाँति परिचित होकर; चित्रकेतु:--राजा चित्रकेतु;द्विज-उक्तिभि:--परम ब्राह्मणों ( अंगिरा तथा नारद मुनि ) के आदेश से; गृह-अन्ध-कूपात्‌-गृहस्थ जीवन के अन्धे कुएँसे; निष्क्रान्त:--बाहर निकल आया; सर: --झील या जलाशय के; पड्ढातू--कीचड़ से; इब--समान; द्विप: --हाथी के

    परम ब्राह्मण अंगिरा तथा नारद के उपदेशों से जाग्रत होकर राजा चित्रकेतु आत्मज्ञान सेभलीभाँति अवगत हो गया।

    जिस प्रकार हाथी कीचड़-युक्त जलाशय से बाहर निकल आताहै, वैसे ही राजा चित्रकेतु गृहस्थ जीवन के अंधकूप से बाहर निकल आया।

    कालि-न्द्ां विधिवत्स्नात्वा कृतपुण्यजलक्रिय: ।

    मौनेन संयतप्राणो ब्रह्मपुत्राववन्दत ॥

    १६॥

    कालिन्द्यामू--यमुना नदी में; विधि-वत्‌--विधिपूर्वक; स्नात्वा--नहा कर; कृत--पूरा करते हुए; पुण्य--पावन; जल-क्रियः--तर्पण, जल देने की क्रिया; मौनेन--गम्भीरतापूर्वक; संयत-प्राण:--मन तथा इन्द्रियों को संयमित करके; ब्रह्म-पुत्रौ--ब्रह्माजी के दोनों पुत्रों ( अंगिरा तथा नारद ) की; अवन्दत--वन्दना की |

    राजा ने यमुना जल में स्नान किया और विधिपूर्वक अपने पितरों तथा देवताओं को जलका अर्घध्य दिया।

    फिर इन्द्रियों तथा मन को बड़े विकटता से संयमित करते हुए उन्होंनेब्रह्माजी के दोनों पुत्रों ( अंगिरा तथा नारद ) को नमस्कार किया।

    अथ तस्मै प्रपन्नाय भक्ताय प्रयतात्मने ।

    भगवान्नारदः प्रीतो विद्यामेतामुवाच ह ॥

    १७॥

    अथ--तदनन्तर; तस्मै--उस; प्रपन्नाय--शरणागत; भक्ताय--भक्त को; प्रयत-आत्मने-- आत्म-संयमी; भगवानू-- अत्यन्तशक्तिमान; नारद: --नारद; प्रीत:--अत्यधिक प्रसन्न; विद्यामू-दिव्य ज्ञान; एतामू--यह; उवाच--बोले; ह--निस्सन्देह।

    तत्पश्चात्‌ आत्मसंयमी तथा शरणागत भक्त चित्रकेतु पर अत्यधिक प्रसन्न होकरसर्वाधिक शक्तिमान मुनि नारद ने निम्नानुस्तर दिव्य उपदेश दिया।

    नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय धीमहि ।

    प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नम: सड्डूर्षणाय च ॥

    १८॥

    नमो विज्ञानमात्राय परमानन्दमूर्तये ।

    आत्मारामाय शान्ताय निवृत्तद्वैतदृष्टये ॥

    १९॥

    ॐ--हे ईश्वर; नम:--नमस्कार है; तुभ्यमू--तुमको; भगवते-- श्री भगवान्‌; वासुदेवाय--वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण को;धीमहि--ध्यान करने दो; प्रद्यम्नाय--प्रद्यम्न को; अनिरुद्धाय--अनिरुद्ध को; नम:--नमस्कार है; सड्डर्षणाय-- भगवान्‌संकर्षण को; च--भी; नम:ः--नमस्कार है; विज्ञान-मात्राय--ज्ञान से पूर्ण रूप को; परम-आनन्द-मूर्तये--दिव्य आनन्द सेपूर्ण; आत्म-आरामाय--आत्मनिर्भर ( आत्माराम ) भगवान्‌ को; शान्ताय--तथा शान्त; निवृत्त-द्वैत-दृष्टये--जिसकी दृष्टिद्वैत से हट गई है, अथवा जो अद्वितीय है।

    [नारद ने चित्रकेतु को निम्नलिखित मंत्र प्रदान किया।

    ३»कार ( प्रणव ) नाम सेसम्बोधित किये जाने वाले हे ईश्वर, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌! मैं आपको सादर नमस्कारकरता हूँ।

    हे भगवान्‌ वासुदेव! मैं आपका ध्यान करता हूँ।

    हे भगवान्‌ प्रद्यम्मन, भगवान्‌अनिरुद्ध तथा भगवान्‌ संकर्षण! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    हे दिव्य शक्ति केआगार, हे परमानन्द! मैं आत्मनिर्भर ( आत्माराम ) तथा परम शान्त आपको सादर नमस्कारकरता हूँ।

    हे परम सत्य, अद्वितीय! आप ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान्‌ रूप में जाने जाते हैं,अतः आप समस्त ज्ञान के आगार हैं।

    मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    आत्मानन्दानु भूत्यैव न्यस्तशक्त्यूमये नमः ।

    हृषीकेशाय महते नमस्तेनन्तमूर्तये ॥

    २०॥

    आत्म-आनन्द--आपके अपने आनन्द की; अनुभूत्या-- अनुभूति से; एब--निश्चय ही; न्यस्त--परित्यक्त; शक्ति-ऊर्मये --भौतिक शक्ति ( माया ) की लहरें; नम:ः--नमस्कार; हषीकेशाय--इन्द्रियों के परम नियामक को; महते--परमात्मा को;नमः--नमस्कार; ते--तुमको; अनन्त--असीम; मूर्तये--जिनका विस्तार ( प्रकाश )

    अपने व्यक्तिगत आनन्द का अनुभव करते हुए आप सदैव भौतिक प्रकृति की लहरों केपरे हैं।

    अतः हे ईश्वर! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    आप इन्द्रियों के परम नियामक( प्रेरक ) हैं और आपके रूप के प्रकाश ( विस्तार ) अनन्त हैं।

    आप परम महान्‌ हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    वच्स्युपरतेउप्राप्प य एको मनसा सह ।

    अनामरूपश्रिन्मात्र: सोउव्यान्न: सदसत्पर: ॥

    २१॥

    वचसि--जब शब्द ( वाणी ); उपरते--नहीं रहते; अप्राप्प--लक्ष्य न प्राप्त करके; य:--जो; एक:--एक; मनसा--मनके; सह--साथ; अनाम--बिना नाम का; रूप:--अथवा भौतिक रूप; चित्‌-मात्र:--पूर्णतया आध्यात्मिक; सः--वह;अव्यातू--रक्षा करे; न:ः--हमारी; सत्‌-असत्‌-पर:--जो समस्त कारणों का कारण ( परम कारण ) है

    बद्धजीव की वाणी तथा मन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ तक नहीं पहुँच पाते क्योंकि वेनितान्त आत्मस्वरूप, स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों की अवधारणाओं से परे हैं, अतः उन परभौतिक नाम तथा रूप लागू नहीं होते।

    निर्गुण ब्रह्म उनके अन्य रूपों में से है।

    वे अपनेआनन्द-स्वरुप से हमारी रक्षा करें।

    यस्मिन्निदं यतश्वैदं तिष्ठत्यप्पेति जायते ।

    मृण्मयेष्विव मृज्जातिस्तस्मै ते ब्रह्मणे नम: ॥

    २२॥

    यस्मिनू--जिसमें; इदम्‌--यह ( दृश्य जगत ); यत:--जिससे; च-- भी; इदम्‌--यह ( हृश्य जगत ); तिष्ठति--स्थित है;अप्येति--विलीन होता है; जायते--उत्पन्न होता है; मृत्‌-मयेषु--मिट्टी से बनी वस्तुओं में; इब--के जैसा; मृत्‌-जाति: --मिट्टी से जन्मा; तस्मै--उस ( ईश्वर ); ते--तुमको; ब्रह्मणे--परम कारण; नम:--नमस्कार |

    जिस प्रकार मिट्टी के पात्र बनाये जाने के बाद पृथ्वी पर स्थित रहते हैं और तोड़ दियेजाने पर पुनः मिट्टी बन जाते हैं, उसी प्रकार से यह हृश्य जगत परम ब्रह् द्वारा उत्पन्न कियाजाता है, उन्हीं में स्थित रहता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है।

    अतः ब्रह्म के कारणस्वरूप पूर्ण पुरुषोत्तम को हमारा सादर नमस्कार है।

    यन्न स्पृशन्ति न विदुर्मनोबुद्धीन्द्रियासव: ।

    अन्तर्बहिश्च विततं व्योमवत्तन्नतोस्म्यहम्‌ ॥

    २३॥

    यत्‌--जिसको; न--नहीं; स्पृशन्ति--छू सकता है; न--नहीं; विदु:--जान सकता है; मन: --मन; बुद्धि--बुद्धि;इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; असव: -- प्राण; अन्त:ः--भीतर; बहि:ः--बाहर; च-- भी; विततम्‌-- प्रसारित; व्योम-वत्‌-- आकाश केसमान; तत्‌--उसको; नतः--प्रणत; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं |

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से प्रादुर्भूत होकर परम ब्रह्म व्योम की तरह विस्तृत हो जाता है।

    यद्यपि इसको कोई भौतिक पदार्थ स्पर्श नहीं कर सकता, किन्तु यह भीतर तथा बाहरविद्यमान है।

    तो भी मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ तथा प्राणशक्ति न तो उसका स्पर्श कर सकती हैं, नउसे जान सकती हैं।

    मैं उनको सादर नमस्कार करता हूँ।

    देहेन्द्रियप्राणमनोधियो मीयदंशविद्धा: प्रचरन्ति कर्मसु ।

    नैवान्यदा लौहमिवाप्रतप्तंस्थानेषु तद्द्रष्टपदेशमेति ॥

    २४॥

    देह--शरीर; इन्द्रिय--इन्द्रिय; प्राण--प्राणशक्ति; मन:--मन; धिय: --तथा बुद्द्धि; अमी--ये सब; यत्‌-अंश-विद्धा:--ब्रह्म या परमेश्वर की किरणों से प्रभावित; प्रचरन्ति--फैलती हैं; कर्मसु--विभिन्न गतिविधियों में; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; अन्यदा--अन्य अवसरों पर; लौहम्‌--लोहा; इब--के समान; अप्रतप्तम्‌ू--( अग्नि से ) अतप्त; स्थानेषु--उनस्थितियों में; तत्‌--वह; द्रष्ट-अपदेशम्‌--किसी दृष्ट वस्तु का नाम; एति--प्राप्त करता है

    जिस प्रकार अग्नि के सम्पर्क से तप्त हुआ लोहा भस्म कर देने में समर्थ है उसी प्रकारशरीर, इन्द्रियाँ, प्राणशशक्ति, मन तथा बुद्धि पदार्थ के पिण्ड मात्र होते हुए भी श्रीभगवान्‌द्वारा चेतना के कणमात्र से पूरित होने पर अपने-अपने कार्य करने लगते हैं।

    जिस प्रकारअग्नि में तप्त हुए बिना लोहा कुछ भी जला पाने में अशक्त रहता है उसी प्रकार ये शारीरिकइन्द्रियाँ परमेश्वर की कृपादृष्टि के बिना कार्य नहीं कर सकतीं।

    नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतयेसकलसात्वतपरिवृढनिकर |

    रकमलकुड्मलोपलालितचरणारविन्दयुगल परमपरमेष्ठिन्नमस्ते ॥

    २५॥

    नम:--नमस्कार; भगवते--छ: ऐश्वर्यों से पूर्ण ब्रह्म आपको; महा-पुरुषाय--परम भोक्ता; महा-अनुभावाय--परम सिद्ध आत्मा या परमात्मा; महा-विभूति-पतये--समस्त योग-शक्तियों के स्वामी; सकल-सात्वत-परिवृढ--समस्त श्रेष्ठ भक्तों का; निकर--समूह; कर-कमल--कमल रूपी हाथों का; कुड्मल--कलियों का;उपलालित--सेवित; चरण-अरविन्द-युगल--जिनके दोनों चरणकमल; परम--सर्वोच्च; परमे-ष्ठटिन्‌ू--वैकुण्ठलोक मेंस्थित; नमः ते--आपको नमस्कार है।

    हे वैकुण्ठलोक में आसीन दिव्य ईश्वर! आपके चरणकमल सदैव श्रेष्ठ-भक्तों के समुदायके करकमलों के द्वारा चाँपे जाते हैं।

    आप छः ऐश्वर्यों से पूर्ण श्रीभगवान्‌ हैं।

    आप पुरुषसूक्तकी स्तुतियों में वर्णित परम पुरुष हैं।

    आप परम पूर्ण, समस्त योग-शक्तियों के स्वरूपसिद्धस्वामी हैं।

    मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    श्रीशुक उवाचभक्तायैतां प्रपन्नाय विद्यामादिश्य नारद: ।

    ययावड्डिरसा साक॑ धाम स्वायम्भुवं प्रभो ॥

    २६॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; भक्ताय--भक्त को; एताम्‌--यह; प्रपन्नाय--शरणागत को; विद्याम्‌ू--दिव्य ज्ञान; आदिश्य--उपदेश देकर; नारद:--परम साधु नारद; ययौ--चले गये; अड्भिससा--परम सन्त अंगिरा;साकम्‌--के साथ; धाम--सर्वोच्च लोक के लिए; स्वायम्भुवम्‌--ब्रह्माजी के; प्रभो--हे राजन्‌ |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--चित्रकेतु के पूर्णतः शरणागत होने पर गुरु होजाने के कारण नारद ने इस स्तुति के द्वारा उसे पूरा पूरा उपदेश दिया।

    हे राजा परीक्षित!तत्पश्चात्‌ अंगिरा ऋषि सहित नारद मुनि ब्रह्मलोक नामक सर्वोच्च लोक के लिए चल पड़े।

    चित्रकेतुस्तु तां विद्यां यथा नारदभाषिताम्‌ ।

    धारयामास सप्ताहमब्भक्षः सुसमाहितः ॥

    २७॥

    चित्रकेतु:--राजा चित्रकेतु ने; तु--निस्सन्देह; तामू--उस; विद्याम्‌-दिव्य ज्ञान को; यथा--जिस प्रकार; नारद-भाषिताम्‌ू--परम साधु नारद द्वारा उपदेश दिया गया; धारयाम्‌ आस--जाप किया; सप्त-अहम्‌--लगातार एक सप्ताहतक; अपू-भक्ष:--केवल जल पीकर; सु-समाहितः--अत्यन्त ध्यानपूर्वक |

    केवल जल पीकर उपवास करते हुए राजा चित्रकेतु ने नारद मुनि द्वारा दिये गये मंत्र काएक सप्ताह तक अत्यन्त ध्यानपूर्वक लगातार जप किया।

    ततः स सप्तरात्रान्ते विद्यया धार्यमाणया ।

    विद्याधराधिपत्यं च लेभेप्रतिहतं नूप ॥

    २८ ॥

    ततः--इससे; सः--वह; सप्त-रात्र-अन्ते--सात रातों के बाद; विद्यया--स्तुतियों से; धार्यमाणया--अत्यन्त सावधानी सेअभ्यास करने से; विद्याधर-अधिपत्यम्‌--विद्याधरों का स्वामित्व ( बीच के फल के रूप में ); च-- भी; लेभे--प्राप्तकिया; अप्रतिहतम्‌--गुरु द्वारा दिये गये उपदेशों से विचलित न होते हुए; नृप--हे राजा परीक्षित |

    हे राजा परीक्षित! अपने गुरु से प्राप्त मंत्र को केवल सात दिनों तक अभ्यास करने परराजा चित्रकेतु को अन्तिम फल के रूप में आत्मज्ञान हो जाने से विद्याधर लोक का राज्यप्राप्त हुआ।

    ततः कतिपयाहोभिर्विद्ययेद्धमनोगति: ।

    जगाम देवदेवस्य शेषस्थ चरणान्तिकम्‌ ॥

    २९॥

    ततः--तदनन्तर; कतिपय-अहोभि:--कुछ ही दिनों के भीतर; विद्यया--आध्यात्मिक मंत्र से; इद्ध-मन:-गति:--मन केपथ के प्रकाशित होने से; जगाम--गया; देव-देवस्थ-- अन्य देवताओं के स्वामी; शेषस्थ-- भगवान्‌ शेष के; चरण-अन्तिकम्‌--चरणकमल की शरण में।

    तदनन्तर कुछ ही दिनों में चित्रकेतु द्वारा जपे गए मंत्र के प्रभाव से उस का मन आत्म-ज्ञान से अत्यधिक प्रकाशित हो गया और उन्होंने अनन्त देव के चरणारविन्द की शरण प्राप्त मृणालगौरं शितिवाससं स्फुरत्‌-किरीटकेयूरकटित्रकड्भूणम्‌ ।

    प्रसन्नवक्त्रारुणलोचनं वृतंददर्श सिद्धेश्वरमण्डलै: प्रभुम्‌ ॥

    ३०॥

    मृणाल-गौरम्‌--कमल के रेशों के समान श्वेत; शिति-वाससम्‌--नीले रेशम के वस्त्र धारण किये; स्फुरत्‌ू--चमकते हुए;किरीट--मुकुट; केयूर--बाजूबंद, बिजावट; कटित्र--करधनी; कड्ढडूणम्‌--जिनके कंगन; प्रसन्न-वक्त्र--स्मित मुख;अरुण-लोचनम्‌--लाल-लाल नेत्र वाला; वृतम्‌--घिरा हुआ; दरदर्श--देखा; सिद्ध-ईश्वर-मण्डलै:--परम सिद्ध भक्तों केद्वारा; प्रभुमू-- श्रीभगवान्‌ को

    भगवान्‌ शेष की शरण में पहुँचकर चित्रकेतु ने देखा कि वे कमल-पुष्प के श्वेत रेशों केसमान ही श्वेत वर्ण के थे।

    उन्होंने नीला वस्त्र धारण कर रखा था और चमचमाते मुकुट, बाजूबंद, करधनी तथा कंगन से आभूषित थे।

    उनका मुख मन्द हँसी से युक्त था।

    उनके नेत्ररक्तिम थे।

    वे सनत्कुमार जैसे मुक्त पुरुषों से घिरे हुए थे।

    तदर्शनध्वस्तसमस्तकिल्बिषःस्वस्थामलान्त:ःकरणो भ्ययान्मुनि: ।

    प्रवृद्धभक्‍त्या प्रणया श्रुलोचन:प्रहष्टरोमानमदादिपुरुषम्‌ ॥

    ३१॥

    तत्‌-दर्शन-- श्री भगवान्‌ के दर्शन से; ध्वस्त--विनष्ट; समस्त-किल्बिष:--समस्त पाप; स्वस्थ--स्वस्थ; अमल--तथाशुद्ध; अन्तःकरण: --जिसके हृदय का अभ्यन्तर; अभ्ययात्‌--आमने-सामने पहुँच कर; मुनि:--राजा, जो मानसिक तुष्टिसे शान्त था; प्रवृद्ध-भक्त्या--भक्ति बढ़ने की प्रवृत्ति के कारण; प्रणय-अश्रु-लोचन:--प्रेम के कारण अश्रुपूरित नेत्र;प्रहष्ट-रोम--हर्ष के कारण रोमांचित; अनमत्‌--नमस्कार किया; आदि-पुरुषम्‌--आदि पुरुष को

    परमेश्वर का दर्शन पाते ही महाराज चित्रकेतु के समस्त भौतिक कल्मष धुल गये और वेपूर्णतः पवित्र हो जाने के कारण अपनी मूल कृष्णचेतना ( भक्ति ) में स्थित हो गये।

    वेपूर्णतः पवित्र हो जाने के कारण शान्त एवं गम्भीर हो गये, ईश्वर के प्रेमवश उनकी आँखों सेअश्रु झरने लगे और अन्त में उन्हें रोमांच हो आया।

    उन्होंने अत्यन्त भक्ति तथा प्रेम-पूर्वकआदि भगवान्‌ को सादर नमस्कार किया।

    स उत्तमश्लोकपदाब्जविष्टरंप्रेमा श्रुलेशैरुपमेहयन्मुहु: ।

    प्रेमोपरुद्धाखिलवर्णनिर्गमोनैवाशकत्तं प्रसमीडितुं चिरम्‌ ॥

    ३२॥

    सः--वह; उत्तमश्लोक-पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का; पद-अब्ज--चरणकमल का; विष्टरम्‌ू--आसन ( चौकी )प्रेम -अश्रु--शुद्ध प्रेम के आँसुओं के; लेशै:--बूँदों से; उपमेहयन्‌ू--सिक्त करके; मुहुः--पुनः पुनः; प्रेम-उपरुद्ध--प्रेम से गलारुँधकर; अखिल--समस्त; वर्ण--अक्षरों का; निर्गम:--बाहर निकलना; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; अशकत्‌--समर्थ;तम्‌--उसको; प्रसमीडितुम्‌-- प्रार्थना करने में; चिरम्‌--दीर्घ काल तक।

    चित्रकेतु के प्रेमाश्रुओं से भगवान्‌ के चरणकमल का आसन ( चौकी ) बार बार भीगजाता था।

    आल्हाद के कारण वाणी अवरुद्ध हो जाने से वे लम्बे अन्तराल तक भगवान्‌ कीउचित स्तुति में एक भी शब्द का उच्चारण न कर पाये।

    ततः समाधाय मनो मनीषयाबभाष एतत्प्रतिलब्धवागसौ ।

    नियम्य सर्वेन्द्रियबाह्यवर्तनंजगदगुरुं सात्वतशास्त्रविग्रहम्‌ ॥

    ३३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; समाधाय--संयमित करके; मन:--मन को; मनीषया--अपनी बुद्धि से; बभाष--बोला; एतत्‌--यह;प्रतिलब्ध--पुनः प्राप्त करके; वाक्‌ू--वाणी; असौ--वह ( राजा चित्रकेतु ); नियम्य--वश में करके; सर्व-इन्द्रिय--समस्त इन्द्रियों को; बाह्म--बाहरी; वर्तनम्‌--घूमने को; जगत्‌-गुरुम्‌--जो सबों का गुरु; सात्वत--भक्ति का; शास्त्र--शास्त्रों का; विग्रहम्‌-मूर्त रूप |

    तत्पश्चात्‌ अपनी बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके और अपनी इन्द्रियों को बाह्यविषयों से समेट कर वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द ढूँढ सके।

    इस प्रकार वे उन भगवान्‌ की स्तुति करने लगे जो साक्षात्‌ शास्त्रों ( ब्रह्म-संहिता तथा नारद-पंचरात्र जैसी सात्वत संहिताओं ) के स्वरूप हैं एवं सबों के गुरु हैं।

    उन्होंने निम्नवत्‌ स्तुति की।

    चित्रकेतुरुवाचअजित जितः सममतिभिःसाधुभिर्भवान्जितात्मभिर्भवता ।

    विजितास्तेडपि च भजता-मकामात्मनां य आत्मदोतिकरुणः ॥

    ३४॥

    चित्रकेतु: उबाच--राजा त्रित्रकेतु ने कहा; अजित-हे दुर्जेय भगवान्‌; जित:--जीता गया; सम-मतिभि:--मन को वश मेंकरने वाले पुरुषों द्वारा; साधुभि:--भक्तों के द्वारा; भवान्‌ू--आप; जित-आत्मभि: --जिन्होंने इन्द्रियों को पूरी तरह जीतलिया है; भवता--आपके द्वारा; विजिता:--जीता जाकर; ते--वे; अपि-- भी; च--तथा; भजताम्‌ू-- आपकी भक्ति मेंलगे रहने वालों को; अकाम-आत्मनाम्‌-- भौतिक लाभ की कामना से रहित, निष्काम; य:--जो; आत्म-द:ः--अपने आपको देने वाले; अति-करुण:--अत्यन्त दयालु

    चित्रकेतु ने कहा--हे अजेय भगवान्‌! यद्यपि आप को कोई जीत नहीं सकता, किन्तुउन भक्तों के द्वारा अवश्य जीत लिये जाते हैं जिनका अपने मन तथा इन्द्रियों पर संयम है।

    वे आपको इसलिए वश में रख पाते हैं क्योंकि आप उन भक्तों पर अकारण दयालु हैं, जोआपसे किसी प्रकार के लाभ की कामना नहीं करते।

    निस्सन्देह, आप उन्हें अपने आपकोप्रदान कर देते हैं; इसलिए अपने भक्तों पर आपका भी पूरा नियंत्रण रहता है।

    तव विभव: खलु भगवन्‌जगदुदयस्थितिलयादीनि ।

    विश्वसृजस्तेडशांशास्‌तत्र मृषा स्पर्धन्ति पृथगभिमत्या ॥

    ३५॥

    तवब--तुम्हारा; विभव:--ऐश्वर्य; खलु--निस्सन्देह; भगवन्‌--हे भगवान्‌; जगत्‌--हृश्य जगत का; उदय--सृष्टि; स्थिति--पालन; लय-आदीनि--संहार इत्यादि; विश्व-सृज:--दृश्य जगत के कर्ता; ते--वे; अंश-अंशा:--आपके अंश के भीअंशस्वरूप; तत्र--उसमें; मृषा--व्यर्थ; स्पर्धन्ति--स्पर्धा करते हैं; पृथक्‌ू-- अलग; अभिमत्या--मिथ्या विचार से |

    हे ईश्वर! यह दृश्य जगत तथा इसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार--ये सभी आपके ऐश्वर्यहैं।

    चूँकि ब्रह्मा तथा अन्य कर्ता ( निर्माता ) आपके अंश के भी क्षुद्र अंश हैं, अतः सृष्टि करनेकी उनकी आंशिक शक्ति उन्हें ईश्वर नहीं बना सकती।

    तो भी अपने को पृथक्‌ ईश्वर मानबैठने की चेतना उनके अहंकार मात्र की द्योतक है।

    यह वैध नहीं है।

    परमाणुपरममहतोस्‌त्वमाद्यन्तान्तरवर्ती त्रयविधुर: ।

    आदावन्तेडपि च सत्त्वानांयदध्रूवं तदेवान्तरालेडपि ॥

    ३६॥

    परम-अणु--सूक्ष्म कणों का; परम-महतो:--तथा सबसे बड़े ( परमाणुओं के संयोग से बने ) कणों का; त्वम्‌--तुम्हीं;आदि-अन्त--आदि तथा अन्त; अन्तर--तथा बीच में; वर्ती--स्थित; त्रय-विधुर:--आरम्भ, अन्त अथवा मध्य से विहीन;आदौ- प्रारम्भ में; अन्ते--अन्त में; अपि-- भी; च--तथा; सत्त्वानामू--समस्त अस्तित्वों का; यत्‌--जो; ध्रुवमू--अचल;ततू--वह; एब--निश्चय ही; अन्तराले--मध्य में; अपि-- भी

    आप इस दृश्य जगत के ननन्‍हें से नन्‍्हें कण-परमाणु से लेकर विराट ब्रह्माण्डों तथासमस्त भौतिक शक्ति तक की प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अन्त में विद्यमान हैं।

    फिरभी आप नित्य हैं, जिसका न कोई आदि है, न अन्त या मध्य।

    आप इन तीनों स्थितियों में विद्यमान देखे जाते हैं; इस तरह आप अटल हैं।

    जब इस दृश्य जगत का अस्तित्व नहीं रहतातो आप आदि शक्ति के रूप में विद्यमान रहते हैं।

    क्षित्यादिभिरिष किलावृतःसप्तभिर्दशगुणोत्तरैरण्डकोश: ।

    यत्र पतत्यणुकल्पःसहाण्डकोटिकोटिभिस्तदनन्त: ॥

    ३७॥

    क्षिति-आदिभि:-- भौतिक जगत के अवयवों द्वारा, यथा पृथ्वी इत्यादि; एषघ:--यह; किल--निस्सन्देह; आवृत:--ढकाहुआ; सप्तभि:--सात; दश-गुण-उत्तरैः--प्रत्येक अपने से पहले वाले से दस गुना; अण्ड-कोश:--अण्डाकार ब्रह्माण्ड;यत्र--जिसमें; पतति--गिरता है; अणु-कल्प:--सूक्ष्म कण की भाँति; सह--के साथ; अण्ड-कोटि-कोटिभि:--ऐसेकरोड़ों ब्रह्मण्डों से; तत्‌--अत: ; अनन्त:--( आप ) अनन्त ( कहलाते हैं )

    प्रत्येक ब्रह्माण्ड सात आवरणों--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सकल भौतिकशक्ति तथा अहंकार--से घिरा है जिनमें से प्रत्येक अपने से पहले वाले से दस गुना बड़ा है।

    इस ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त भी असंख्य ब्रह्माण्ड हैं, जो असीम और विशाल हैं और आपमेंस्थित परमाणुओं की भाँति चक्कर लगाते रहते हैं।

    इसलिए आप अनन्त कहलाते हैं।

    विषयतृषो नरपशवोय उपासते विभूतीर्न परं त्वाम्‌ ।

    तेषामाशिष ईशतदनु विनश्यन्ति यथा राजकुलम्‌ ॥

    ३८॥

    विषय-तृष: --इन्द्रिय-तृप्ति के उत्सुक; नर-पशव: --पशुतुल्य मनुष्य; ये--जो; उपासते--अत्यन्त भव्य आराधना करते हैं;विभूती:--परमे श्वर के लघु कण ( देवतागण ); न--नहीं; परम्‌--परमात्मा; त्वामू-तुम ( आप ) को; तेषाम्‌--उनका;आशिष: --आशीर्वाद; ईश--हे परम नियन्ता; तत्‌--उन ( देवताओं ) को; अनु--तत्पश्चात्‌; विनश्यन्ति--विनष्ट होंगे;यथा--जिस प्रकार; राज-कुलम्‌--सरकार ( राज्य ) द्वारा सहायता प्राप्त ( सरकार के भंग होने पर ) ॥

    हे भगवन्‌, हे परमेश्वर! इन्द्रियतृप्ति के भूखे तथा विभिन्न देवताओं की उपासना करनेवाले अज्ञानी पुरुष नर-वेश में पशुओं के समान हैं।

    वे पाशविक वृत्ति के कारण आपकीउपासना न करके नगण्य देवताओं को, जो आपके यश की लघु चिनगारी के समान हैं,पूजते हैं।

    समस्त ब्रह्माण्ड के संहार के साथ ये देवता तथा इनसे प्राप्त आशीर्वाद उसी प्रकारविनष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार राजा की सत्ता छिन जाने पर राजकीय अधिकारी।

    'कामधियस्त्वयि रचितान परम रोहन्ति यथा करम्भबीजानि ।

    ज्ञानात्मन्यगुणमयेगुणगणतोउस्य द्न्द्दजालानि ॥

    ३९॥

    'काम-धिय:--इन्द्रिय-तृप्ति की आकांक्षाएँ; त्वयि--तुममें; रचिता:--सम्पन्न की गई; न--नहीं; परम-- भगवान्‌;रोहन्ति--उगते हैं ( अन्य शरीर उत्पन्न करते हैं ); यथा--जिस प्रकार; करम्भ-बीजानि--भुने बीज; ज्ञान-आत्मनि--तुममेंजो ज्ञान से पूर्ण हैं; अगुण-मये--जो भौतिक गुणों से अप्रभावित रहता है; गुण-गणत:--भौतिक गुणों में से; अस्य--व्यक्ति का; इन्द्र-जालानि--द्वैतता का जाल।

    हे परमेश्वर! यदि ऐश्वर्य द्वारा इन्द्रियतृप्ति पाने के इच्छुक व्यक्ति भी समस्त ज्ञान के स्त्रोततथा भौतिक गुणों से परे आपकी उपासना करते हैं, तो उनका पुनर्जन्म नहीं होता जिसप्रकार भुने बीज से पौधे नहीं उत्पन्न होते।

    जीवात्माओं को जन्म तथा मृत्यु का चक्र भोगनापड़ता है क्योंकि वे भौतिक प्रकृति द्वारा बद्ध हैं परन्तु आप दिव्य हैं, अतः जो आपसे संगतिकरता है, वह भौतिक प्रकृति के बन्धन से छूट जाता है।

    जितमजित तदा भवतायदाह भागवतं धर्ममनवद्यम्‌ ।

    निष्किज्ञना ये मुनयआत्मारामा यमुपासतेपवर्गाय ॥

    ४०॥

    जितम्‌ू--जीत लिया; अजित--हे अजित, न जीते जा सकने योग्य; तदा--तब; भवता--आपके द्वारा; यदा--जब;आह--कहा; भागवतम्‌--जो भक्त को ईश्वर के पास पहुँचाने में सहायक होता है; धर्मम्‌-- धर्म; अनवद्यम्‌--दोषरहित( निष्कलुष ); निष्किज्ना:--जो ऐश्वर्य के द्वारा सुखी होने की इच्छा नहीं रखते; ये--जो; मुनयः --बड़े-बड़े विचारकतथा महान्‌ साधु; आत्म-आरामा:--आत्म-तुष्ट, आत्माराम; यम्‌--जिसको; उपासते--पूजते हैं; अपवर्गाय-- भौतिकबन्धन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए

    है अजित! जब आपने भागवत-धर्म कह सुनाया जो आप के चरणकमलों में शरण लेनेके लिए अकलुषित धार्मिक प्रणाली थी, तो वह आपकी विजय थी।

    आत्मतुष्ट ( आत्माराम )चतुःसन के समान निष्काम व्यक्ति, भौतिक कल्मष से मुक्त होने के लिए आपकी उपासनाकरते हैं।

    दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि वे आपके चरणारविन्द की शरण प्राप्तकरने के लिए भागवतधर्म को ग्रहण करते हैं।

    विषममतिर्न यत्र नृणांत्वमहमिति मम तवेति च यदन्यत्र ।

    विषमधिया रचितो यःस ह्वविशुद्ध: क्षयिष्णुरधर्मबहुल: ॥

    ४१॥

    विषम--असमान ( तेरा धर्म, मेरा धर्म या तेरा विश्वास, मेरा विश्वास ); मतिः--चेतना; न--नहीं ; यत्र--जिसमें; नृणाम्‌--मानव समाज का; त्वम्‌--तुम; अहम्‌--मैं; इति--इस प्रकार; मम--मेरा; तब--तेरा; इति--इस प्रकार; च-- भी; यत्‌--जो; अन्यत्र--और कहीं ( भागवत-धर्म के अतिरिक्त ); विषम-धिया--इस विषम बुद्धि के कारण; रचित: --निर्मित;यः--जो; सः--वह धर्म-पद्धति; हि--निस्सन्देह; अविशुद्ध:--अशुद्ध; क्षयिष्णु:--क्षणिक, नाशवान्‌; अधर्म-बहुल: --अधर्म से पूर्ण

    भागवतधर्म को छोड़कर शेष सभी धर्म पारम्पारिक विरोधाभासों से पूर्ण हैं औरकर्मफल की सकाम विचारधारा और 'तू और मैं' तथा 'तेरा और मेरा' जैसे भेदभावों से पूर्णहैं।

    श्रीमद्भागवत के अनुयायियों में ऐसी चेतना नहीं रहती।

    वे कृष्णभावनामृत से पूरितरहते हैं और अपने को श्रीकृष्ण का और श्रीकृष्ण को अपना मानते हैं।

    कुछ निम्नकोटि कीभी धार्मिक पद्धतियाँ हैं, जो शत्रुओं को मारने या योगशक्ति प्राप्त करने के लिए निर्मित हैं,किन्तु ये काम तथा द्वेष से पूर्ण होने के कारण अशुद्ध एवं नाशवानू्‌ हैं।

    द्वेषपूर्ण होने से वेअधर्म से पूर्ण हैं।

    कः क्षेमो निजपरयो:कियान्वार्थ: स्वपरद्गुहा धर्मेण ।

    स्वद्रोहात्तव कोपःपरसम्पीडया च तथाधर्म: ॥

    ४२॥

    कः--क्या; क्षेम:--लाभ; निज-- अपना; परयो: --तथा पराया; कियान्‌ू--कितना; वा-- अथवा; अर्थ:--उद्देश्य; स्व-पर-द्रुहा--जो कर्ता तथा अन्यों के प्रति द्वेष करता है; धर्मेण-- धर्म से; स्व-द्रोहात्‌-- अपने आप द्वेष पूर्ण होने से; तब--तुम्हारा; कोप:--क्रो ध; पर-सम्पीडया--अन्यों को कष्ट पहुँचा कर; च-- भी; तथा-- और; अधर्म:--अधर्म ।

    ऐसा धर्म जिससे अपने तथा परायों में द्वेष उत्पन्न होता है किस प्रकार लाभप्रद हो सकताहै?

    ऐसे धर्म का पालन करने से कौन सा कल्याण हो सकता है?

    इससे आखिर क्‍यामिलेगा?

    आत्म द्वेष के द्वारा अपने आपको तथा अन्यों को कष्ट पहुँचा कर मनुष्य आपके( भगवान्‌ के ) क्रोध का भाजन होता है और अधर्म करता है।

    न व्यभिचरति तवेक्षायया हाभिहितो भागवतो धर्म: ।

    स्थिरचरसत्त्वकदम्बेष्व्‌अपृथग्धियो यमुपासते त्वार्या: ॥

    ४३॥

    न--नहीं; व्यभिचरति-- असफल होती है; तब--तुम्हारी; ईक्षा--दृष्टि; यया--जिससे; हि--निस्सन्देह; अभिहित: --कथित; भागवत:--आपके उपदेशों तथा गतिविधियों के अनुसार; धर्म:--धार्मिक नियम; स्थिर--अचल; चर--चल;सत्त्व-कदम्बेषु--जीवात्माओं में से; अपूथक्‌-धिय:--जो भेदभाव नहीं विचारते; यम्‌ू--जिसको; उपासते--पालन करतेहैं; तु--निश्चय ही; आर्या:--सभ्यता में अग्रणी लोग।

    है भगवन्‌! जीवन के महदुद्देश्य से विचलित न होने वाले आपके दृष्टिकोण के अनुसारमनुष्य का वृत्तिपरक धर्म श्रीमद्भागवत तथा भ्रगवद्गीता में उपदिष्ट होना है।

    जो मनुष्यआपके आदेशानुसार इस धर्म का पालन करते हैं, जड़ तथा चेतन समस्त जीवात्माओं कोसमान मानते हैं और किसी को उच्च तथा निम्न नहीं मानते हैं, वे आर्य कहलाते हैं।

    ऐसे आर्यआप की अर्थात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की उपासना करते हैं।

    न हि भगवन्नघटितमिदंत्वदर्शनात्रणामखिलपापक्षय: ।

    यन्नाम सकृच्छुवणात्‌पुक्कशोपि विमुच्यते संसारात्‌ ॥

    ४४॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; भगवन्‌--हे भगवान्‌; अधटितमू--जो कभी न हुआ हो; इृदम्‌--यह; त्वत्‌--तुम्हारे;दर्शनात्‌ू-दर्शन से; नृणाम्‌--समस्त मनुष्यों का; अखिल--सम्पूर्ण; पाप--पापों का; क्षय:--संहार; यत्‌-नाम--जिसकानाम; सकृतू--केवल एक बार; श्रवणात्‌--सुनने से; पुक्कश:--निम्नतम जाति, चण्डाल; अपि-- भी; विमुच्यते--छूटजाता है; संसारातू--इस संसार के बन्धन से।

    है भगवन्‌! आपके दर्शनमात्र से किसी के लिए भी समस्त भौतिक कल्मषों से तुरन्त मुक्त हो जाना असम्भव नहीं है।

    आपको प्रत्यक्ष देखने की बात तो एक ओर रही; आपकेपवित्र नाम को एक बार सुन लेने से ही चण्डाल तक समस्त भौतिक कल्मष से विमुक्त होजाते हैं।

    ऐसी दशा में आपके दर्शनमात्र से ऐसा कौन है, जो भौतिक कल्मष से मुक्त नहीं होपायेगा?

    अथ भगवन्वयमशथ्चुनात्वदवलोकपरिमृष्टाशयमला: ।

    सुरऋषिणा यत्कथितंतावकेन कथमन्यथा भवति ॥

    ४५॥

    अथ--अत:; भगवनू--हे भगवन्‌; वयम्‌--हम; अधुना--इस समय; त्वत्‌ू-अवलोक--आपके दर्शन से; परिमृष्ट--धुलजाती हैं; आशय-मला:--हृदय की दूषित कामनाएँ; सुर-ऋषिणा--देवताओं में ऋषि ( नारद ) द्वारा; यत्‌--जो;कथितम्‌--कहा गया; तावकेन--जो आपका भक्त है; कथम्‌--किस प्रकार; अन्यथा--और कुछ; भवति--हो सकताहै।

    अतः हे भगवन्‌! आपके दर्शन मात्र मेरे समस्त पापकर्मों के कल्मष एवं भौतिकआसक्ति तथा कामासक्त विषयों के फल, जिनसे मेरा मन तथा अन्तःस्थल पूरित था, सदा-सर्वदा के लिए धो दिये हैं।

    जो कुछ नारद मुनि ने भविष्यवाणी की है, वह अन्यथा नहीं होसकता।

    दूसरे शब्दों में, नारद मुनि के द्वारा शिक्षित किये जाने के कारण ही मुझे आपकासात्रिध्य प्राप्त हो सका है।

    विदितमनन्त समस्तंतव जगदात्मनो जनैरिहाचरितम्‌ ।

    विज्ञाप्यं परमगुरो:कियदिव सवितुरिव खद्योतै: ॥

    ४६॥

    विदितम्‌--ज्ञात; अनन्त--हे अनन्त; समस्तम्‌--सब कुछ; तब--तुम्हारा; जगत्‌-आत्मन:--समस्त जीवों का परमात्मा;जनै:--जनसमूह या जीवों द्वारा; हह--इस संसार में; आचरितम्‌--किया हुआ; विज्ञाप्पम्‌--सूचित किया गया; परम-गुरो:--परम स्वामी, परमेश्वर को; कियत्‌--कितना; इब--निश्चय ही; सवितु:--सूर्य को; इब--के समान; खद्योतै: --जुगनुओं के द्वारा

    हे अनन्त भगवान्‌! इस भौतिक जगत में जीवात्मा जो भी करता है, वह आपको भली-भाँति विदित रहता है क्योंकि आप परमात्मा हैं।

    सूर्य की उपस्थिति में जुगनुओं के प्रकाश सेकुछ भी उद्दीप्त नहीं होता ?

    इसी प्रकार, चूँकि आप सब कुछ जानने वाले हैं, अतः आपकीउपस्थिति में मेरे बताने के लिए कुछ भी नहीं है।

    नमस्तुभ्यं भगवतेसकलजगत्स्थितिलयोदयेशाय ।

    दुरवसितात्मगतयेकुयोगिनां भिदा परमहंसाय ॥

    ४७॥

    नमः--नमस्कार; तुभ्यम्‌ू--तुमको; भगवते--हे भगवान्‌; सकल--समस्त; जगत्‌--हृश्य जगत की; स्थिति--पालन;लय--संहार; उदय--तथा उत्पत्ति; ईशाय--ईश्वर को; दुरवसित--समझ पाना असम्भव; आत्म-गतये--जिसकी अपनीस्थिति; कु-योगिनाम्‌--ऐन्द्रिय पदार्थों में आसक्त रहने वालों का; भिदा--भेददृष्टि के मिथ्या ज्ञान के कारण; परम-हंसाय--परम पवित्र को |

    हे भगवान्‌! आप ही इस दृश्य जगत के स्त्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं, किन्तु घोर संसारी तथा भेदवादी जनों के पास वे नेत्र ही नहीं होते जिनसे वे आपको देख सकें।

    वेआपकी वास्तविक स्थिति को न समझ पाने के कारण इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि यहहृए्य-जगत आपके ऐश्वर्य से स्वतंत्र है।

    हे भगवान्‌! आप परम विशुद्ध हैं और सभी छहोंऐश्वर्यों से ओतप्रोत हैं।

    अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    यं वै श्रसन्तमनु विश्वसृज: श्वसन्तियं चेकितानमनु चित्तय उच्चकन्ति ।

    भूमण्डलं सर्षपायति यस्य मूर्थिनतस्मै नमो भगवतेःस्तु सहस्त्रमूथ्नें ॥

    ४८ ॥

    यम्‌--जिसको; बै--निस्सन्देह; श्रसन्तम्‌-चेष्टा से; अनु--पीछे-पीछे; विश्व-सृज:--हृश्य जगत के अधीक्षक; श्रसन्ति--चेष्टा करते हैं; यम्‌ू--जिसको; चेकितानम्‌--देखते हुए; अनु--पीछे; चित्तय:--समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ; उच्चकन्ति--देखती हैं ;भू-मण्डलम्‌-विशाल ब्रह्माण्ड; सर्षपायति--सरसों के बीज सहश बन जाता हैं; यस्य--जिसके; मूर्ध्ि--शीश पर;तस्मै--उनको; नम:--नमस्कार है; भगवते--छ: ऐश्वर्यों से पूर्ण, श्रीभगवान्‌; अस्तु--हो; सहस्त्र-मूध्नें--सहस्त्र फनोंवाले है

    भगवान्‌! आपकी चेष्टा से ही भगवान्‌ ब्रह्मा, इन्द्र तथा हश्य जगत के अन्य अधीक्षकअपने अपने कार्यों में निरत हो जाते हैं।

    हे ईश्वर! आपके द्वारा भौतिक शक्ति को देखे जानेपर ही इन्द्रियाँ देख पाती हैं।

    अनन्त भगवान्‌ समस्त ब्रह्माण्डों को अपने सर पर सरसों के बीजों के समान धारण किये रहते हैं।

    हे सहस्त्र-फण वाले परम पुरुष! मैं आपको सादरनमस्कार करता हूँ।

    श्रीशुक उबाचसंस्तुतो भगवानेवमनन्तस्तमभाषत ।

    विद्याधरपतिं प्रीतश्रित्रकेतुं कुरूद्ददह ॥

    ४९॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; संस्तुत:--पूजित होकर; भगवान्‌-- श्री भगवान्‌; एवम्‌--इस प्रकार;अनन्त:-- भगवान्‌ अनन्त; तम्‌--उससे; अभाषत--बोले; विद्याधर-पतिम्‌--विद्याधरों के राजा; प्रीत:--प्रसन्न होकर;चित्रकेतुम्‌-चित्रकेतु; कुरु-उद्दद-हे कुरु वंश में श्रेष्ठ

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे कुरुवंश में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित! विद्याधरों केराजा चित्रकेतु द्वारा की गई स्तुति से अत्यधिक प्रसन्न होकर भगवान्‌ अनन्तदेव ने इस प्रकारउत्तर दिया।

    श्रीभगवानुवाचयन्नारदाड्रिरोभ्यां ते व्याहतं मेडनुशसनम्‌ ।

    संसिद्धोउसि तया राजन्विद्यया दर्शनाच्च मे ॥

    ५०॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- भगवान्‌ संकर्षण ने उत्तर दिया; यत्‌--जो; नारद-अड्डिरोभ्यामू--नारद तथा अंगिरा द्वारा; ते--तुमसे; व्याहतम्‌--कहे गये; मे--मेरी; अनुशासनम्‌--पूजा; संसिद्ध:--परम सिद्धि प्राप्त असि--हो; तया--उससे;राजनू--हे राजन्‌; विद्यया--मंत्र से; दर्शनात्‌ू-- प्रत्यक्ष दर्शन से; च-- भी; मे--मेरे |

    भगवान्‌ अनन्त देव ने इस प्रकार उत्तर दिया--हे राजन्‌! परम साधु नारद तथा अंगिराद्वारा मेरे सम्बन्ध में दिये गये उपदेशों को अंगीकार करने के फलस्वरूप तुम दिव्य ज्ञान सेभली-भाँति अवगत हो चुके हो।

    आध्यात्मिक ज्ञान में शिक्षित हो जाने के कारण अब तुमनेमेरा साक्षात्‌ दर्शन किया है, अतः तुम अब पूर्णतया सिद्ध हो चुके हो।

    अहं वै सर्वभूतानि भूतात्मा भूतभावन: ।

    शब्दब्रह्म परं ब्रह्म ममोभे शाश्वती तनू ॥

    ५१॥

    अहम्‌--ैं; वै--निस्सन्देह; सर्व-भूतानि--जीवात्माओं के विभिन्न रूपों में विस्तार करके; भूत-आत्मा--समस्तजीवात्माओं की परम आत्मा ( उनके परम निर्देशक तथा भोक्ता ); भूत-भावन:--समस्त जीवात्माओं के दृष्टिगोचर होने केकारण; शब्द-ब्रह्म --दिव्य शब्द का स्पंदन ( हरे कृष्ण मंत्र ); परम्‌ ब्रह्म--परम सत्य; मम--मेरा; उभे--दोनों, उभय( शब्द तथा रूप ); शाश्वती--नित्य; तनू--दोनों शरीर।

    समस्त चर तथा अचर जीवात्माएँ मेरे ही प्रकाश ( विस्तार ) हैं और मुझसे पृथक्‌ हैं।

    मैंही समस्त जीवों का परमात्मा हूँ; मेरे प्रकाशित करने के ही कारण उनका अस्तित्व है।

    मैं हीऊँकार तथा हरे कृष्ण हरे राम मंत्र जैसे दिव्य शब्दों का रूप हूँ और मैं ही परम सत्य हूँ।

    येदोनों रूप--दिव्य शब्द तथा श्रीविग्रह का शाश्रत आनन्दमय दिव्य रूप--मेरे शाश्वत रूपहैं, वे भौतिक नहीं हैं।

    लोके विततमात्मानं लोक॑ चात्मनि सन्ततम्‌ ।

    उभयं चर मया व्याप्तं मयि चैवोभयं कृतम्‌ ॥

    ५२॥

    लोके--इस भौतिक जगत में; विततम्‌--विस्तीर्ण ( भौतिक सुख के प्रसंग में ); आत्मानम्‌--जीवात्मा; लोकमू-- भौतिकजगत; च--भी; आत्मनि--जीवात्मा में; सन्‍्ततम्‌--विस्तृत; उभयम्‌--दोनों ( भौतिक जगत तथा जीवात्मा ); च--तथा;मया--मेरे द्वारा; व्याप्तम्‌-व्याप्त; मयि--मुझमें; च-- भी; एव--निस्सन्देह; उभयम्‌--दोनों ही; कृतम्‌--उत्पन्न |

    बद्धजीव इस भौतिक जगत में, जिसे वह सुख के साधनों से भरा हुआ समझता है, यहसोचकर विस्तार करता है कि वही इस जगत का भोक्ता है।

    इसी प्रकार यह भौतिक जगतजीवात्मा के सुख के साधनस्वरूप विस्तार करता है।

    इस प्रकार दोनों ही विस्तार करते हैं, किन्तु दोनों ही मेरी शक्तियाँ होने के कारण मुझसे युक्त हैं।

    परमेश्वर होने के कारण मैं इन'फलों का कारण हूँ और मनुष्य को यह जानना चाहिए कि ये दोनों ही मुझमें व्याप्त हैं।

    यथा सुषुप्त: पुरुषो विश्व पश्यति चात्मनि ।

    आत्मानमेकदेशस्थ॑ं मन्यते स्वप्न उत्थित: ॥

    ५३॥

    एवं जागरणादीनि जीवस्थानानि चात्मन: ।

    मायामात्राणि विज्ञाय तद्द्रष्टारं परं स्मरेत्‌ ॥

    ५४॥

    यथा--जिस प्रकार; सुषुप्त:--सोया हुआ; पुरुष:--व्यक्ति; विश्वम्‌--समस्त ब्रह्माण्डों को; पश्यति--देखता है; च--भी;आत्मनि--अपने भीतर; आत्मानम्‌-- अपने आपको; एक-देश-स्थम्‌--एक स्थान में स्थित होकर; मन्यते--मानता है;स्वप्ने--स्वणावस्था में; उत्थित:--जगकर; एवम्‌--इस प्रकार; जागरण-आदीनि--जागृत अवस्था तथा अन्य; जीव-स्थानानि--जीव की विभिन्न स्थितियाँ; च-- भी; आत्मन:-- श्री भगवान्‌ की; माया-मात्राणि--माया शक्ति के प्रदर्शन;विज्ञाय--जानकर; तत्‌--उनका; द्रष्टारमू--जनक या द्रष्टा; परम्‌--परमात्मा; स्मरेत्‌ू--स्मरण करना चाहिए।

    जब मनुष्य गाढ़ निद्रा में होता है, तो वह स्वप्न देखता है और अपने अन्तर में विशालपर्वत तथा नदियाँ या सम्भवतः सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को भी देखता है, यद्यपि ये सारी वस्तुएँअत्यन्त दूर हैं।

    किन्तु कभी कभी जब वह स्वप्न से जगता है, तो अपने को मनुष्य रूप मेंएक स्थान पर बिस्तर पर लेटा पाता है।

    तब वह अपने को अनेक स्थितियों में पाता है यथाविशेष राष्ट्रीयता, परिवार आदि में।

    प्रगाढ़-निद्रा, स्वप्न तथा जाग्रत ये समस्त अवस्थाएँभगवान्‌ की ही शक्तियाँ हैं।

    मनुष्य को इन अवस्थाओं के मूल स्त्रष्टा को, जो इनसे प्रभावितनहीं होता, सदैव स्मरण रखना चाहिए।

    येन प्रसुप्तः पुरुष: स्वापं वेदात्मनस्तदा ।

    सुखं च निर्गुणं ब्रह्म तमात्मानमवेहि माम्‌ ॥

    ५५॥

    येन--जिसके ( परकब्रह्म ) द्वारा; प्रसुप्त:--सोया हुआ; पुरुष: --व्यक्ति; स्वापम्‌--स्वप्न के विषय को; वेद--जानता है;आत्मन:--अपना; तदा--उस समय; सुखम्‌--सुख; च--भी; निर्गुणम्‌-- भौतिक परिवेश से किसी प्रकार के सम्पर्क सेरहित, सम्पर्कहीन; ब्रह्म--परमात्मा; तम्‌--उसको; आत्मानम्‌--सर्वव्यापी; अवेहि--जानो; मामू--मुझको |

    तुम मुझे परब्रह्म जानो, जो सर्वव्यापी परमात्मा है और जिसके माध्यम से सुप्त जीवात्माअपनी सुप्तावस्था तथा इन्द्रियातीत सुखों का अनुभव कर सकता है।

    कहने का तात्पर्य यह है।

    कि सुप्त जीवात्माओं की गतिविधियों का कारण मैं ही हूँ।

    उभयं स्मरतः पुंसः प्रस्वापप्रतिबोधयो: ।

    अन्वेति व्यतिरिच्येत तज्ज्ञानं ब्रह्म तत्परम्‌ ॥

    ५६॥

    उभयम्‌--दोनों अवस्थाएँ ( निद्रा तथा जागृति ); स्मरत:--स्मरण रखते हुए; पुंसः--पुरुष का; प्रस्वाप--निद्रा के समयचेतना का; प्रतिबोधयो:--तथा जगते रहने पर चेतना का; अन्वेति--विस्तार होता है; व्यतिरिच्येत--के परे पहुँच सकताहै; तत्‌ू--वह; ज्ञानम्‌--ज्ञान; ब्रह्म--परब्रह्म ; तत्‌ू--वह; परम्‌--दिव्य

    यदि निद्रा के समय देखे गये स्वप्न केवल परमात्मा द्वारा ही देखे गए विषय हैं, तो फिरजीवात्मा, जो परमात्मा से पृथक्‌ है, स्वप्नों के क्रियाकलापों को क्‍यों स्मरण रखता है ?

    एकव्यक्ति के अनुभवों को दूसरा नहीं समझ सकता।

    अतः जीवात्मा, जो तथ्यों का ज्ञाता है औरस्वप्न तथा जागृति में प्रकट होने वाली घटनाओं के विषय में जिज्ञासा करता है आकस्मिककार्यों से पृथक्‌ है।

    जानने वाला तो ब्रह्म है।

    दूसरे शब्दों में जानने का गुण जीवात्मा तथापरमात्मा से सम्बन्धित है।

    इसलिए जीवात्मा को भी स्वप्न तथा जागृति की घटनाओं काअनुभव हो सकता है।

    दोनों दशाओं में ज्ञाता वही रहता है और गुणरूप में वह परब्रह्म सेएकाकार है।

    यदेतद्विस्मृतं पुंसो मद्भावं भिन्नमात्मन: ।

    ततः संसार एतस्य देहाद्ेहो मृतेमृति: ॥

    ५७॥

    यत्‌--जो; एतत्‌--यह; विस्मृतम्‌-- भूला हुआ; पुंसः--जीवात्मा का; मत्‌-भावम्‌--मेरी स्थिति; भिन्नम्‌ू--भिन्न, विलग;आत्मन:--परमात्मा से; ततः--उससे; संसार:-- भौतिक, बद्ध जीवन; एतस्य--जीवात्मा का; देहात्‌ू--एक शरीर से;देह:ः--दूसरा शरीर; मृते:--एक मृत्यु से; मृति:--दूसरी मृत्यु

    जब जीवात्मा अपने आपको मुझसे भिन्न मानकर ज्ञान तथा आनन्द में मुझसे अपने गुणरूप में दिव्य तादात्म्य को भूल जाता है तभी उसका यह भौतिक बद्ध जीवन प्रारम्भ होता है।

    कहने का अभिप्राय यह है कि वह मुझमें तादात्म्य न मानकर अपने सांसारिक वि्तारों में,यथा पत्नी, सन्‍्तान तथा धन में अभिरुचि दिखाने लगता है।

    इस प्रकार अपने कर्मों केप्रभाव से एक शरीर के बाद दूसरा शरीर और एक मृत्यु के बाद दूसरी मृत्यु का चक्करलगाता रहता है।

    लब्ध्वेह मानुषीं योनिं ज्ञानविज्ञानसम्भवाम्‌ ।

    आत्मानं यो न बुद्धग्रेत न क्वचित्क्षेममाप्नुयात्‌ू ॥

    ५८ ॥

    लब्ध्वा--प्राप्त करके; इह--इस संसार ( विशेषतः भारतवर्ष की इस पवित्र भूमि पर ) में; मानुषीम्‌--मनुष्य की;योनिम्‌--योनि; ज्ञान--वैदिक शास्त्रों के माध्यम से ज्ञान का; विज्ञान--तथा जीवन में उस ज्ञान का व्यवहार; सम्भवाम्‌--सम्भाव्यता, सम्भावना; आत्मानम्‌ू--अपना वास्तविक स्वरूप; यः--जो भी; न--नहीं; बुद्धयेत--समझता है; न--क भीनहीं; क्वचित्‌--किसी समय; क्षेमम्‌ू--जीवन में सफलता; आप्नुयात्‌--प्राप्त कर सकता है।

    वैदिक ज्ञान तथा उसके व्यवहार के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार द्वारा मनुष्य अपनेजीवन में सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

    ऐसा भारत में जन्म लेने वाले मनुष्य के लिए विशेषरूप से सम्भव है।

    जो मनुष्य ऐसी उपयुक्त परिस्थिति में जन्म लेकर अपने आपको नहीं जानपाता वह परम सिद्धि को प्राप्त कर सकने में अक्षम रहता है भले ही वह स्वर्ग लोक को प्राप्त क्यों न हो जाए।

    स्मृत्वेहायां परिक्लेशं ततः फलविपर्ययम्‌ ।

    अभयं चाप्यनीहायां सड्डूल्पाद्विरमेत्कवि: ॥

    ५९॥

    स्मृत्वा--स्मरण करके; ईहायाम्‌--कर्मफल के उद्देश्य से किये गये कर्म के क्षेत्र में; परिक्लेशम्‌--शक्ति का क्षय तथादयनीय स्थिति; ततः--उससे; फल-विपर्ययम्‌--इच्छा से विपरीत फल; अभयमू--निर्भयता; च--भी; अपि--निस्सन्देह;अनीहायाम्‌--जब कर्मफल की कोई आकांक्षा नहीं रह जाती; सड्डल्पात्‌ू-- भौतिक कामना से; विरमेत्‌--रूक जानाचाहिए; कवि: --ज्ञानी पुरुष

    यह स्मरण रखते हुए कि कर्मफल हेतु सम्पन्न कर्मों के क्षेत्र में बड़ी बड़ी अड़चनें आतीहैं और इच्छा से विपरीत फल प्राप्त होते हैं चाहे वे भौतिक कर्मों से उत्पन्न हों या वैदिक ग्रंथोंद्वारा बताये सकाम कर्मों के फल हों, बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह सकाम कर्मों कीइच्छा का परित्याग कर दे क्‍योंकि ऐसी चेष्टाओं से जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त नहीं होसकता।

    दूसरी ओर यदि कोई कर्मफल के हेतु निष्काम भाव से कर्म करता है अर्थात्‌ वहभक्ति-कार्यों में लगता है, तो दयनीय स्थितियों से मुक्त रहकर वह जीवन का परम उद्देश्यप्राप्त कर सकता है।

    इस पर विचार करते हुए मनुष्य को चाहिए कि भौतिक कामनाओं कापरित्याग करे।

    सुखाय दुःखमोक्षाय कुर्वाते दम्पती क्रिया: ।

    ततो<निवृत्तिरप्राप्तिर्दु:खस्य च सुखस्य च ॥

    ६०॥

    सुखाय--सुख के लिए; दुःख-मोक्षाय--दुख से छुटकारा पाने के लिए; कुर्वाते--करते हैं; दम्‌-पती--पत्नी तथा पति;क्रिया:--कर्म; तत:--उससे; अनिवृत्ति:--विश्राम न मिलना; अप्राप्ति:--लाभ न होना; दुःखस्य--दुख का; च--भी;सुखस्य--सुख का; च--भी |

    पुरुष तथा स्त्री जैसे दम्पत्ति के रूप में कई प्रकार से पारस्परिक सहयोग करके सुखप्राप्त करने तथा दुख को कम करने के लिए कई प्रकार से योजना बनाते हैं; किन्तुकामनाओं से पूर्ण होने के कारण उनके कर्मों से न तो कभी सुख प्राप्त होता है और न दुखमें कमी आती है।

    उल्टे, ये भारी दुख के कारण बनते हैं।

    एवं विपर्ययं बुद्ध्वा नृणां विज्ञाभिमानिनाम्‌ ।

    आत्मनश्च गति सूक्ष्मां स्थानत्रयविलक्षणाम्‌ ॥

    ६१॥

    इृष्टश्रुताभिर्मात्राभिर्निर्मुक्त: स्वेन तेजसा ।

    ज्ञानविज्ञानसन्तृप्तो मद्धक्त: पुरुषो भवेत्‌ ॥

    ६२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विपर्ययम्‌--विपरीत; बुद्ध्वा--समझकर; नृणाम्‌--मनुष्यों का; विज्ञ-अभिमानिनाम्‌--जो अपने कोविज्ञान से पूर्ण मानते हैं; आत्मनः--अपने आप का; च--भी; गतिम्‌--उन्नति; सूक्ष्मम्‌--समझने में अत्यन्त कठिन;स्थान-त्रय--जीवन की तीन दशाएँ ( गाढ़ निद्रा, स्वप्न तथा जागृति ); विलक्षणाम्‌--से विलग; दृष्ट-- प्रत्यक्ष देखा हुआ;श्रुताभि:--अथवा अधिकारियों की सूचना से समझा हुआ; मात्राभि:--वस्तुओं से; निर्मुक्त:--मुक्त होकर; स्वेन-- अपनेआप से; तेजसा--विवेक से; ज्ञान-विज्ञान--ज्ञान तथा इस ज्ञान के व्यवहार से; सन्तृप्त:--पूर्णतया सन्तुष्ट; मत्‌-भक्त:--मेरा भक्त; पुरुष:--पुरुष; भवेत्‌--हो जाना चाहिए।

    मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि जो व्यक्ति अपने भौतिक अनुभव पर गर्व करते हैंउन्हें जगते, सोते तथा प्रगाढ़ निद्रा में कल्पित किए गये फलों के विपरीत फल मिलते हैं।

    मनुष्य को यह भी समझना चाहिए कि यद्यपि भौतिकतावादी व्यक्ति के लिए आत्मा कोदेख पाना दुष्कर है, तो भी वह इन समस्त स्थितियों से परे है और उसे अपने विवेक केआधार पर इस जन्म में तथा अगले जन्म में कर्म-फल की इच्छा का परित्याग कर देनाचाहिए इस प्रकार दिव्य ज्ञान में अनुभवी बनकर ही किसी को मेरा भक्त बनना चाहिए।

    एतावानेव मनुजैयोगनैपुण्यबुद्धिभि: ।

    स्वार्थ: सर्वात्मना ज्ञेयो यत्परात्मैकदर्शनम्‌ ॥

    ६३॥

    एतावान्‌ू--इतना; एव--निस्सन्देह; मनुजैः--मनुष्यों के द्वारा; योग--भक्ति योग के द्वारा, परमेश्वर से जुड़ने की विधिद्वारा; नैपुण्य--निपुणता; बुद्धिभि:--बुद्धिमानों के द्वारा; स्व-अर्थ:--जीवन का परम उद्देश्य; सर्व-आत्मना--सब प्रकारसे; ज्ञेः--जानने योग्य; यत्‌--जो; पर--दिव्य ईश्वर का; आत्म--तथा आत्मा का; एक--एकत्व का; दर्शनम्‌--समझ |

    जो पुरुष जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे परम पुरुषतथा जीवात्मा का भलीभाँति अवलोकन करें जो अंश तथा पूर्ण होने के कारण गुण रूप सेएक ही हैं।

    जीवन की यही सबसे बड़ी समझ है।

    इससे बढ़कर और कोई सत्य नहीं है।

    त्वमेतच्छुद्धया राजन्नप्रमत्तो वचो मम ।

    ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो धारयन्नाशु सिध्यसि ॥

    ६४॥

    त्वमू--तुम; एतत्‌--यह; श्रद्धया--परम श्रद्धापूर्वक; राजनू--हे राजन्‌; अप्रमत्त: --प्रमत्त हुए बिना किसी अन्य निष्कर्षको न पहुँचते हुए; बच: --उपदेश; मम--मेरा; ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न:--ज्ञान तथा विज्ञान से भलीभाँति अवगत होकर;धारयन्‌--स्वीकार करते हुए; आशु--शीघ्र ही; सिध्यसि--सिद्ध हो सकोगे।

    हे राजन्‌! यदि तुम भौतिक सुख से विरक्त रह कर परम श्रद्धा सहित मुझसे संलग्नहोकर ज्ञान तथा इसकी जीवन में व्यवहारिकता में निपुण बन कर मेरे इस निष्कर्ष कोस्वीकार करोगे तो तुम परम सिद्धि को प्राप्त होगे।

    श्रीशुक उबाचआश्वास्य भगवानित्थ॑ चित्रकेतुं जगद्गुरु: ।

    'पश्यतस्तस्य विश्वात्मा ततश्चान्तर्दधे हरि: ॥

    ६५॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; आश्वास्य--आश्वासन देकर; भगवानू-- भगवान्‌; इत्थम्‌--इस प्रकार;चित्रकेतुम्‌--राजा चित्रकेतु को; जगत्‌-गुरु:--परम गुरु; पश्यत:--देखते देखते; तस्य--उसके ; विश्व-आत्मा--समस्तब्रह्माण्ड का परमात्मा; ततः--वहाँ से; च-- भी; अन्तर्दधे--अन्तर्धान हो गया; हरिः-- भगवान्‌ हरि।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--इस प्रकार चित्रकेतु को उपदेश देकर और उसेसिद्धि का आश्वासन देकर जगदगुरु परमात्मा भगवान्‌ संकर्षण उस स्थान से चित्रकेतु केदेखते-देखते अन्तर्धान हो गये।

    TO

    अध्याय सत्रह: माता पार्वती चित्रकेतु को श्राप देती हैं

    6.17श्रीशुक उबाचयतश्चान्तर्हितो नन्तस्तस्यै कृत्वा दिशे नमः ।

    विद्याधरकश्रित्रकेतुश्नचचार गगने चर: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; यत:--जिस ( दिशा ); च--तथा; अन्तर्हित:--अन्तर्धान; अनन्त:--भगवान्‌ अनन्त; तस्यै--उसको; कृत्वा--करके; दिशे--दिशा में; नम:ः--नमस्कार; विद्याधर: --विद्याधर लोक का राजा;चित्रकेतु:--चित्रकेतु; चचार--यात्रा की; गगने--बाह्य अन्तरिक्ष में; चर:--चल |

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा--जिस दिशा में भगवान्‌ अनन्त अन्तर्धान हुए थे उसदिशा की ओर नमस्कार करके, राजा चित्रकेतु विद्याधरों का अगुवा बनकर बाह्य अन्तरिक्षमें यात्रा करने लगा।

    स लक्षं वर्षलक्षाणामव्याहतबलेन्द्रिय: ।

    स्तूयमानो महायोगी मुनिभिः सिद्धचारणै: ॥

    २॥

    कुलाचलेन्द्रद्रोणीषु नानासड्डूल्पसिद्धिषु ।

    रेमे विद्याधरस्त्रीभिर्गापयन्हरिमी ध्रम्‌ ॥

    ३॥

    सः--वह ( चित्रकेतु ); लक्षम्‌--एक लाख; वर्ष--वर्ष; लक्षाणाम्‌--एक लाख का; अव्याहत--बाधारहित; बल-इन्द्रियः:--जिसकी इन्द्रियों का बल तथा शक्ति; स्तूयमान:--प्रशंसित होकर; महा-योगी--परम योगी; मुनिभि:--मुनियोंद्वारा; सिद्ध-चारणै:--सिद्धों तथा चारणों से; कुलाचलेन्द्र-द्रोणीषु--कुलाचलेन्द्र अथवा सुमेरु पर्वत की घाटियों में;नाना-सड्जुल्प-सिद्धिषु--जहाँ समस्त प्रकार की योग शक्तियाँ सिद्ध हो जाती हैं; रेमे--भोग किया; विद्याधर-स्त्रीभि: --विद्याधर लोक की स्त्रियों के साथ; गापयन्‌-- प्रशंसा करती हुई; हरिम्‌-- भगवान्‌, हरि; ईश्वरम्‌--नियन्ता की |

    महान्‌ साधुओं तथा मुनियों एवं सिद्धलोक तथा चारणलोक के वासियों द्वारा प्रशंसित,सर्वाधिक शक्तिशाली योगी चित्रकेतु लाखों वर्षो तक जीवन का आनन्द भोगता हुआविचरता रहा।

    शारीरिक शक्ति तथा इन्द्रियों के क्षीण हुए बिना वह सुमेरु पर्वत की घाटियोंमें घूमता रहा वहाँ जो विभिन्न प्रकार की योग-शक्तियों की सिद्धि का स्थान है।

    उसनेभगवान्‌ हरि की महिमा का जप करते हुए विद्याधटलोक की रमणियों के साथ जीवन काआनन्द उठाया।

    एकदा स विमानेन विष्णुदत्तेन भास्वता ।

    गिरिशं दहशे गच्छन्परीतं सिद्धचारणै: ॥

    ४॥

    आलिड्ग्याड्डीकृतां देवीं बाहुना मुनिसंसदि ।

    उवाच देव्या: श्रृण्वन्त्या जहासोच्चैस्तदन्तिके ॥

    ५॥

    एकदा--एक बार; सः--उस ( राजा चित्रकेतु ) ने; विमानेन--विमान से; विष्णु-दत्तेन-- भगवान्‌ विष्णु द्वारा प्रदत्त;भास्वता--देदीप्यमान्‌ू, तेजोमय; गिरिशम्‌--भगवान्‌ शिव को; दहृशे--देखा; गच्छन्‌--जाते हुए; परीतम्‌-घिरे हुए;सिद्ध--सिद्धलोक के वासियों से; चारणै:--तथा चारणलोक के वासियों से; आलिड्ग्य--आलिंगन करते हुए;अड्डीकृताम्‌--अपनी गोद में बैठाये हुए; देवीम्‌-- अपनी पार्वती को; बाहुना--अपने हाथ से; मुनि-संसदि--अनेक बड़े-बड़े साधुओं की उपस्थिति में; उबाच--वह बोला; देव्या:--जब देवी पार्वती; श्रृण्वन्त्या:--सुन रही थीं; जहास--वहहँसा; उच्चैः--अत्यन्त तेजी से; तद्‌ू-अन्तिके--पास में |

    एक बार जब राजा चित्रकेतु भगवान्‌ विष्णु द्वारा प्रदत्त अत्यन्त तेजोमय विमान परबैठकर बाह्य अन्तरिक्ष में यात्रा कर रहा था, तो उन्होंने भगवान्‌ शिव को सिद्धों एवं चारणोंसे घिरा हुआ देखा।

    शिवजी महामुनियों की सभा में बैठे थे और देवी पार्वती को अपनी गोदमें बैठाकर अपने हाथ से उनका आलिंगन कर रहे थे।

    राजा चित्रकेतु पार्वती के निकटजाकर तेजी से हँसे और कहने लगे।

    चित्रकेतुरुवाचएष लोकगुरुः साक्षाद्धर्म वक्ता शरीरिणाम्‌ ।

    आस्ते मुख्य: सभायां वै मिथुनीभूय भार्यया ॥

    ६॥

    चित्रकेतु: उबाच--चित्रकेतु ने कहा; एष:--यह; लोक-गुरु:--वैदिक शिक्षाओं को मानने वाले लोगों के गुरु;साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; धर्मम्‌--धर्म का; वक्ता--बोलने वाला; शरीरिणाम्‌--देहधारी समस्त जीवात्माओं के; आस्ते--बैठानाहै; मुख्य:--प्रधान, मुखिया; सभायाम्‌--सभा में; बै--निस्सन्देह; मिथुनी-भूय--आलिंगन करते हुए; भार्यया--अपनीपतली के साथ

    चित्रकेतु ने कहा--शिवजी समस्त जगत के गुरु हैं और भौतिक देहधारी जीवात्माओं मेंसर्वश्रेष्ठ हैं।

    वे ही धर्मपद्धति के व्याख्याता हैं, तो भी यह कितना आश्चर्यजनक है कि वे बड़ेबड़े सन्त पुरुषों की सभा के बीच अपनी पत्नी पार्वती का आलिंगन कर रहे हैं! जटाधरस्तीव्रतपा ब्रह्मवादिसभापति: ।

    अड्डजीकृत्य स्त्रियं चास्ते गतह्ली: प्राकृतो यथा ॥

    ७॥

    जटा-धर:--जटा धारण करने वाले; तीव्र-तपा:--कठिन तपस्या के कारण सिद्ध; ब्रह्म-वादि--वैदिक नियमों के कट्टरअनुयायी का; सभा-पति:ः--अध्यक्ष, सभापति; अड्डीकृत्य--आलिंगन करके; स्त्रियम्‌--स्त्री को; च--तथा; आस्ते--बैठा है; गत-ही:--निर्लज्ज; प्राकृतः--प्रकृति द्वारा बद्ध पुरुष; यथा--जिस प्रकार |

    जटाधरी शिवजी ने निस्सन्देह कठिन तपस्या की है।

    वे वैदिक नियमों के कट्टरअनुयायियों की सभा के अध्यक्ष हैं।

    किन्तु तो भी वे साधु पुरुषों के मध्य अपनी गोद मेंअपनी पत्नी को लेकर विराजमान हैं और सामान्य निर्लज्ज व्यक्ति की भाँति उसका आलिंगनकर रहे हैं।

    प्रायश: प्राकृताश्रापि स्त्रियं रहसि बिभ्रति ।

    अयं महाव्रतधरो बिभर्ति सदसि स्त्रियम्‌ ॥

    ८॥

    प्रायशः--सामान्यतः ; प्राकृताः--बद्धजीव; च-- भी; अपि--यद्यपि; स्त्रियमू--स्त्री को; रहसि--निर्जन स्थान में;बिभ्रति--आलिंगन करता है; अयम्‌--यह ( शिवजी ); महा-ब्रत-धर:--महान्‌ ब्रतों तथा तपस्याओं का स्वामी; बिभर्ति--भोग कर रहा है; सदसि--महान्‌ पुरुषों की सभा में; स्त्रियमू--अपनी पत्नी का।

    प्रायः सामान्य पुरुष एकान्त में ही अपनी पत्नियों का आलिंगन और भोग करते हैं।

    यहकितना आश्चर्यजनक है कि इतने बड़े तपस्वी महादेव परम साधुओं की सभा के बीच अपनीपत्नी का सबों के समक्ष आलिंगन कर रहे हैं! श्रीशुक उवाचभगवानपि तच्छ॒त्वा प्रहस्यागाधधीर्नूप ।

    तृष्णीं बभूव सदसि सभ्याश्च तदनुव्रता: ॥

    ९॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; भगवान्‌-- भगवान्‌ शिव; अपि-- भी; तत्‌--वह; श्रुत्वा--सुनकर;प्रहस्थ--हँसकर; अगाधधी: --अगाध बुद्धि वाला; नूप--हे राजा; तृष्णीम्‌--चुप; बभूव--हो गया; सदसि--सभा में;सभ्या:--सारे सदस्यों ने; च--तथा; तत्‌-अनुव्रता:-- भगवान्‌ शिव का अनुसरण किया ( चुप रहे )।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजा! चित्रकेतु के वचन सुनकर परम बलशाली, अगाध ज्ञानवान्‌ देवाधिदेव शिव केवल हँस दिये और चुप रहे।

    सभा के समस्तसदस्यों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया और कुछ नहीं कहा।

    इत्यतद्वीर्यविदुषि ब्रुवाणे बह्ह॒शोभनम्‌ ।

    रुषाह देवी धृष्टाय निर्जितात्माभिमानिने ॥

    १०॥

    इति--इस प्रकार; अ-तत्‌-वीर्य-विदुषि--शिव के शौर्य को न जानने के कारण चित्रकेतु ने; ब्रुवाणे--कहा; बहु-अशोभनम्‌--अत्यन्त अशोभनीय बातें उच्चपदीय शिव की आलोचना; रुषा--क्रोध से; आह--कहा; देवी--देवी पार्वती;धृष्टाय--निर्लज्ज चित्रकेतु से; निर्जित-आत्म--जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है; अभिमानिने--अपने आपकोमानते हुए।

    शिवजी तथा पार्वती के शौर्य ( वीर्य ) को न जानते हुए राजा चित्रकेतु ने उनकी तीखीआलोचना की।

    उसके बचन तनिक भी अच्छे लगने वाले न थे, अतः अत्यन्त क्रुद्ध देवीपार्वती चित्रकेतु से, जो अपने को इन्द्रियों के नियंत्रण में शिवजी से श्रेष्ठ समझ रहा था, इसप्रकार बोलीं ।

    श्रीपार्वत्युवाचअयं किमधुना लोके शास्ता दण्डधर: प्रभु: ।

    अस्मद्विधानां दुष्टानां निर्लज्ञानां च विप्रकृत्‌ ॥

    ११॥

    श्री-पार्वती उवाच--देवी पार्वती ने कहा; अयम्‌--यह; किम्‌--क्या; अधुना--अब; लोके--संसार में; शास्ता--परमनियन्ता; दण्ड-धर:--दण्ड देने वाला; प्रभु:ः--स्वामी; अस्मत्‌-विधानाम्‌--इन जैसे व्यक्तियों का; दुष्टानामू--अपराधी;निर्लजञानाम्‌ू--निर्लज्जों का; च--तथा; विप्रकृत्‌--नियंत्रण रखने वाला रोकने वाला

    देवी पार्वती ने कहा--ओह, क्या हम जैसे निर्लज्ज व्यक्तियों को दण्ड देने के लिए इसनेदण्डधारी का पद ले लिया है?

    क्‍या इसे शासक नियुक्त किया गया है?

    क्या यही सबों काएकमात्र स्वामी है ?

    न वेद धर्म किल पदायोनि-न॑ ब्रह्मपुत्रा भूगुनारदाद्या: ।

    न वै कुमार: कपिलो मनुश्नये नो निषेधन्त्यतिवर्तिनं हरमू ॥

    १२॥

    न--नहीं; वेद--जानता है; धर्मम्‌-धर्म को; किल--निस्सन्देह; पद्य-योनि:-- भगवान्‌ ब्रह्मा; न--न तो; ब्रह्म-पुत्रा:--भगवान्‌ ब्रह्म के पुत्र; भूगु-- भूगु; नारद-- नारद; आद्या: --इत्यादि; न--न तो; बै--निस्सन्देह; कुमार: --चारों अश्विनीकुमार; कपिल: -- भगवान्‌ कपिल; मनु:--स्वयं मनु; च--तथा; ये--जो; नो--नहीं; निषेधन्ति--रोक लगाते हैं; अति-वर्तिनम्‌--नियमों तथा आदेशों के परे; हरम्‌-- भगवान्‌ शिव को।

    अहो! ऐसा प्रतीत होता है कि न तो कमल-पुष्प से जन्म लेने वाले ब्रह्मा, न भूगु तथा नारद जैसे महामुनि अथवा सनत कुमार आदि चारों कुमार ही धर्म के नियमों को जानते हैं।

    मनु तथा कपिल भी उन नियमों को भूल चुके हैं।

    मैं सोचती हूँ कि इसलिए उन्होंने कभीशिवजी को इस प्रकार अनुचित ढंग से आचरण करने के लिए नहीं टोका।

    एषामनुध्येयपदाब्जयुग्मंजगदगुरुं मड्भलमड्रलं स्वयम्‌ ।

    यः क्षत्रबन्धु: परिभूय सूरीन्‌प्रशास्ति धृष्टस्तदयं हि दण्ड्य: ॥

    १३॥

    एषाम्‌--इन सबों में ( महापुरुषों ) में; अनुध्येय-- ध्यान करने योग्य; पद-अब्ज-युग्मम्‌--जिनके दो चरणकमल; जगत्‌ू-गुरुम्‌ू--सारे विश्व का गुरु; मड्रल-मड्गलम्‌--साक्षात्‌ सर्वश्रेष्ठ धार्मिक नियम; स्वयम्‌--स्वयं; यः--जो; क्षत्र-बन्धु ;--क्षत्रियों में सबसे निकृष्ठ; परिभूय--मात देकर; सूरीन्‌--देवतागण ( यथा ब्रह्मा तथा अन्य ); प्रशास्ति--दण्ड देता है;धृष्ट:--ढीठ ने; तत्‌--अत:; अयम्‌--यह व्यक्ति; हि--निस्सन्देह; दण्ड्यः--दण्डनीय है।

    यह चित्रकेतु में घोर निकृष्ट है क्योंकि इसने उन शिवजी का तिरस्कार करके ब्रह्मा तथाअन्य देवताओं को मात कर दिया है, जो उनके चरणकमलों पर बैठकर सदैव ध्यान धरतेरहते हैं।

    भगवान्‌ शिव साक्षात्‌ धर्म तथा समस्त जगत के गुरु हैं अतः चित्रकेतु दण्डनीय है।

    नायमर्हति वैकुण्ठपादमूलोपसर्पणम्‌ ।

    सम्भावितमति: स्तब्ध: साधुभि: पर्युपासितम्‌ ॥

    १४॥

    न--नहीं; अयम्‌--यह व्यक्ति; अ्हति--के योग्य है; बैकुण्ठ-पाद-मूल-उपसर्पणम्‌-- भगवान्‌ विष्णु के चरणकमल कीशरण प्राप्त करने का; सम्भावित-मति:--अपने को अत्यन्त पूज्य समझकर; स्तब्ध:--घमंडी; साधुभि:--बड़े बड़े सन्तपुरुषों के द्वारा; पर्युपासितम्‌--पूजनीय |

    यह व्यक्ति ऐसा सोचकर अपनी सफलता से फूला हुआ है कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ।

    यहव्यक्ति भगवान्‌ विष्णु के उन चरणकमलों के निकट, जिनकी उपासना सभी साधु पुरुषकरते हैं, जाने के योग्य ही नहीं है क्योंकि यह अपने को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझ करघमंडी बन गया है।

    अतः पापीयसीं योनिमासुरीं याहि दुर्मते ।

    यथेह भूयो महतां न कर्ता पुत्र किल्बिषम्‌ ॥

    १५॥

    अतः --इसलिए; पापीयसीम्‌--अत्यन्त पापपूर्ण; योनिमू--योनि को; आसुरीम्‌--आसुरी; याहि--जाओ; दुर्मते--हे दुर्मति( कुबुद्धि ); यथा--जिससे; इह--इस संसार में; भूयः --फिर; महताम्‌--महान्‌ पुरुष को; न--नहीं; कर्ता--करोगे;पुत्र--हे पुत्र; किल्बिषम्‌--कोई पाप

    ऐ मेरे दुर्बुद्धि बेटे! अब तुम असुरों के निम्न तथा पापी परिवार में जन्म ग्रहण करोजिससे तुम पुनः इस संसार में महान्‌ सन्त पुरुषों के प्रति ऐसा पाप न कर सको।

    श्रीशुक उबाचएवं शप्तश्नित्रकेतुर्विमानादवरुह्म सः ।

    प्रसादयामास सत्तीं मूर्ध्ना नप्रेण भारत ॥

    १६॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुक देव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; शप्त:--शापित; चित्रकेतु:--राजा चित्रकेतु;विमानात्‌ू--विमान से; अवरुह्म--उतर कर; सः--वह; प्रसादयाम्‌ आस--परम प्रसन्न हुआ; सतीम्‌--पार्वती को; मूर्ध्ना--शिर से; नप्रेण--नीचे झुक कर; भारत--हे राजा परीक्षित।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजा परीक्षित! पार्वती द्वारा शाप दिये जाने परचित्रकेतु अपने विमान से नीचे उतरा, उनके समक्ष विनप्रतापूर्वक नतमस्तक हुआ और उसनेउन्हें पूर्णरूपेण प्रसन्न कर दिया।

    चित्रकेतुरुवाचप्रतिगृह्ञामि ते शापमात्मनोञ्जलिनाम्बिके ।

    देवैर्म्त्याय यत्प्रोक्त पूर्वदिष्टे हि तस्य तत्‌ ॥

    १७॥

    चित्रकेतु: उवाच--राजा चित्रकेतु ने कहा; प्रतिगृह्ञामि-- अंगीकार करता हूँ; ते--तुम्हारा; शापम्‌--शाप; आत्मन: --अपने; अज्ञलिना--बद्ध हाथों से; अम्बिके--हे माता; देवै:--देवताओं द्वारा; मर्त्याय--मनुष्य को; यत्‌--जो; प्रोक्तम्‌--नियत; पूर्व-दिष्टम्‌--पूर्वकर्मों के अनुसार पहले से निश्चित; हि--निस्सन्देह; तस्य--उसका; तत्‌--वह ।

    चित्रकेतु ने कहा--हे माता! मैं अपने हाथ जोड़ कर आपका शाप स्वीकार करता हूँ।

    मुझे शाप की परवाह नहीं है, क्योंकि मनुष्य के पूर्वकर्मों के अनुसार ही देवताओं द्वारा सुखया दुख प्रदान किये जाते हैं।

    संसारचक्र एतस्मिझ्जन्तुरज्ञानममोहितः ।

    भ्राम्यन्सुखं च दुःखं च भुड़ढे सर्वत्र सर्वदा ॥

    १८॥

    संसार-चक्रे --इस संसार रूपी पहिए में; एतस्मिन्‌ू--यह; जन्तुः--जीवात्मा; अज्ञान-मोहित:--अज्ञान के कारण मोहग्रस्त;भ्राम्यनू--घूमता हुआ; सुखम्‌--सुख; च--तथा; दुःखम्‌--दुख; च--भी; भुड़े --भोगता है; सर्वत्र--सभी जगह;सर्वदा--सदैव |

    अज्ञान से मोहग्रस्त होकर यह जीवात्मा इस संसार रूपी जंगल में भटकता रहता है औरहर जगह तथा हर समय अपने पूर्वकर्मों के फलस्वरूप सुख तथा दुख पाता रहता है ( अतःहे माता! इस घटना के लिए न आप दोषी हैं न मैं )।

    नैवात्मा न परश्रापि कर्ता स्यात्सुखदुःखयो: ।

    कर्तारें मन्यतेउत्राज्ञ आत्मानं परमेव च ॥

    १९॥

    न--नहीं; एव--निस्सन्देह; आत्मा--आत्मा; न--न तो; पर:--दूसरा ( शत्रु या मित्र ); च-- भी; अपि--निस्सन्देह;कर्ता--करने वाला; स्थात्‌--हो सकता है; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख का; कर्तारम्‌--करनेवाला; मन्यते--मानताहै; अब्र--इस सम्बन्ध में; अज्ञ:--मूर्ख; आत्मानम्‌ू--अपने आपको; परम्‌ू-- अन्य; एब--निस्सन्देह; च-- भी |

    इस संसार में न तो स्वयं जीवात्मा और न पराये ( मित्र तथा शत्रु ) ही भौतिक सुख तथादुख के कारण हैं।

    केवल अज्ञानतावश जीवात्मा यह सोचता है कि वह तथा पराये लोगइसके कारणस्वरूप हैं।

    गुणप्रवाह एतस्मिन्क: शाप: को न्वनुग्रह: ।

    कः स्वर्गो नरकः को वा किं सुखं दुःखमेव वा ॥

    २०॥

    गुण-प्रवाहे-- प्रकृति के गुणों की धारा में; एतस्मिन्‌ू--यह; कः--क्‍्या; शाप:--शाप; क:-- क्या; नु--निस्सन्देह;अनुग्रह:--कृपा; क:--क्या; स्वर्ग:--सफ्वर्गलोक के पद तक पहुँचना; नरक:--नरक; कः--क्या; वा--अथवा; किम्‌--क्या; सुखम्‌--सुख; दुःखम्‌--दुख; एव--निस्सन्देह; वा--अथवा

    यह संसार सतत प्रवाहमान्‌ नदी की तरंगों के समान है, अतः इसमें क्या शाप और क्‍याअनुग्रह ?

    क्‍या स्वर्गलोक और क्‍या नरकलोक ?

    क्‍या सुख और क्‍या वास्तविक दुख?

    निरन्तर प्रवाहित होते रहने के कारण तरंगें कोई शाश्वत प्रभाव नहीं छोड़तीं।

    एक: सृजति भूतानि भगवानात्ममायया ।

    एषां बन्ध॑ च मोक्ष च सुखं दुःखं च निष्कल: ॥

    २१॥

    एक:ः--एक; सृजति--उत्पन्न करता है; भूतानि--विभिन्न प्रकार की जीवात्माओं को; भगवानू-- श्री भगवान्‌; आत्म-मायया--आत्म स्वरूप शक्तियों से; एघाम्‌ू--समस्त बद्धजीवों का; बन्धम्‌--बद्ध जीवन; च--तथा; मोक्षम्‌--मुक्तजीवन; च-- भी; सुखम्‌-- सुख; दुःखम्‌--दुख; च--तथा; निष्कलः--भौतिक गुणों से अप्रभावित |

    श्रीभगवान्‌ एक हैं।

    वे भौतिक जगत की स्थितियों से प्रभावित हुए बिना आत्मस्वरूपशक्ति से समस्त जीवों की सृष्टि करते हैं।

    माया से दूषित होकर जीवात्मा अविद्या को प्राप्त होता है और अनेक प्रकार के बन्धनों में जा पड़ता है।

    कभी-कभी ज्ञान के कारण जीवात्माको मुक्ति दी जाती है।

    सत्व तथा रजो गुणों के कारण उसे सुख तथा दुख मिलते हैं।

    न तस्य कश्चिदयितः प्रतीपोन ज्ञातिबन्धुर्न परो न च स्व: ।

    समसस्‍्य सर्वत्र निरज्धनस्यसुखे न राग: कुत एवं रोष: ॥

    २२॥

    न--नहीं; तस्य--उस ( परमेश्वर ) का; कश्चित्‌--कोई; दयितः--प्रिय; प्रतीप:--अप्रिय; न--नहीं; ज्ञाति--परिजन;बन्धु:--मित्र; न--नहीं; पर: --पराया; न--नहीं; च--भी; स्व: -- अपना; समस्य--समानधर्मा; सर्वत्र--सभी जगह;निरज्नस्य-प्रकृति द्वारा अप्रभावित; सुखे--सुख में; न--नहीं; राग:--आसक्ति; कुतः--कहाँ से; एव--निस्सन्देह;रोष:--क्रोध

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ समस्त जीवों को एकसमान देखते हैं; अतः न तो कोई उनकाअत्यन्त प्रिय है, न कोई शत्रु; न तो उनका कोई मित्र है न कोई परिजन।

    इस भौतिक जगतसे अनासक्त होने के कारण उन्हें तथाकथित सुख के लिए न तो कोई स्नेह है, न दुख के लिए किसी प्रकार की घृणा।

    सुख तथा दुख सापेक्ष हैं।

    भगवान्‌ सदैव प्रसन्न रहने वाले हैं,अतः उनके लिए दुख का कोई अर्थ नहीं है।

    तथापि तच्छक्तिविसर्ग एषांसुखाय दुःखाय हिताहिताय ।

    बन्धाय मोक्षाय च मृत्युजन्मनो:शरीरिणां संसृतयेडबकल्पते ॥

    २३॥

    तथापि--तो भी; तत्‌-शक्ति--ईश्वर की शक्ति का; विसर्ग:--सृष्टि; एघामू--इन सबों ( बद्धजीवों ) का; सुखाय--सुखके लिए; दुःखाय--दुख के लिए; हित-अहिताय--लाभ तथा हानि के लिए; बन्धाय--बन्धन के लिए; मोक्षाय--मुक्तिके लिए; च- भी; मृत्यु--मृत्यु; जन्मनो:--तथा जन्म का; शरीरिणाम्‌ू--समस्त देहधारियों का; संसृतये-- आवागमन केलिए; अवकल्पते--कर्म करता है।

    यद्यपि परमेश्वर कर्म के अनुसार प्राप्त होने वाले हमारे सुख दुख से अनासक्त हैं औरकोई भी उनका शत्रु या मित्र नहीं है, तो भी वे अपनी भौतिक शक्ति ( माया ) के द्वारा शुभतथा अशुभ कर्मों की उत्पत्ति करते हैं।

    इस प्रकार भौतिक जीवन को चालू रखने के लिए वेसुख-दुख, लाभ-हानि, बन्धन-मोश्ष, जन्म-मृत्यु की सृष्टि करते हैं।

    अथ प्रसादये न त्वां शापमोक्षाय भामिनि ।

    यन्मन्यसे हासाधूक्त मम तत्क्षम्यतां सति ॥

    २४॥

    अथ--अत:; प्रसादये--प्रसन्न करने का प्रयत्त कर रहा हूँ; न--नहीं; त्वामू--तुमको; शाप-मोक्षाय--शाप से मुक्ति पानेके लिए; भामिनि--हे छुद्धा; यत्‌--जो; मन्यसे--तुम मान लो; हि--निस्सन्देह; असाधु-उतक्तम्‌-- अनुचित बात; मम--मेरी; तत्‌--वह; क्षम्यताम्‌-- क्षमा करें; सति--हे सती !हे माता! आप अब वृथा ही क्रुद्ध हैं।

    चूँकि मेरे समस्त सुख-दुख मेरे पूर्वकर्मों के द्वारासुनिश्चित हैं, अतः मैं न तो क्षमा-प्रार्थी हूँ और न आपके शाप से मुक्त होना चाहता हूँ।

    यद्यपि मैंने जो कुछ कहा है अनुचित नहीं है, किन्तु जो कुछ आप अनुचित समझती होंउसके लिए क्षमा करें।

    श्रीशुक उवाचइति प्रसाद्य गिरिशौ चित्रकेतुररिन्दम ।

    जगाम स्वविमानेन पश्यतो: स्मयतोस्तयो: ॥

    २५॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; प्रसाद्य--प्रसन्न करके; गिरिशौ--भगवान्‌ शिव तथाउनकी पत्नी पार्वती को; चित्रकेतु:--राजा चित्रकेतु; अरिम्‌-दम--शत्रुओं को दमन करने में समर्थ हे राजा परीक्षित;जगाम--चला गया; स्व-विमानेन--अपने विमान द्वारा; पश्यतो:--देखते देखते; स्मयतो: --हँसते हुए; तयो: -- भगवान्‌शिव तथा पार्वती दोनों के |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे शत्रुओं को दमन करने वाले राजा परीक्षित!शिवजी तथा पार्वती को प्रसन्न करने के बाद चित्रकेतु अपने विमान पर बैठ गये और उनकेदेखते-देखते प्रस्थान कर गये।

    जब शिवजी तथा पार्वती ने देखा कि शापित होने पर भीचित्रकेतु निर्भय था, तो वे उसके आचरण पर विस्मित होकर हँस पड़े।

    ततस्तु भगवान्रुद्रो रुद्राणीमिदमत्रवीत्‌ ।

    देवर्षिदैत्यसिद्धानां पार्षदानां च श्रूण्वताम्‌ ॥

    २६॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; तु--तब; भगवानू--सर्वशक्तिमान; रुद्र:-- भगवान्‌ शिव ने; रुद्राणीमू--अपनी पत्नी पार्वती से; इदम्‌--यह; अब्नवीत्‌--कहा; देवर्षि-- जबकि परम साधु नारद; दैत्य--असुरों ; सिद्धानाम्‌ू--तथा योगशक्ति में पटु सिद्धलोक केवासियों के; पार्षदानाम्‌ू--अपने निजी सहयोगियों के; च--भी; श्रुण्वताम्‌--सुन रहे थे |

    तत्पश्चात्‌ परमसाधु नारद, असुरों, सिद्धलोक के वासियों तथा अपने व्यक्तिगतसहयोगियों के समक्ष सर्वशक्तिमान भगवान्‌ शिव अपनी पत्नी पार्वती से बोले और वे सबसुनते रहे।

    श्रीरुद्र उवाचइृष्टवत्यसि सुश्रोणि हरेरद्भधुतकर्मण: ।

    माहात्म्य॑ भृत्यभृत्यानां निःस्पूहाणां महात्मनाम्‌ ॥

    २७॥

    श्री-रुद्र: उवाच--शिवजी ने कहा; दृष्टबती असि--क्या तुमने देखा; सु-श्रोणि--हे सुन्दरी पार्वती; हरेः-- श्री भगवान्‌ के;अद्भुत-कर्मण: --विस्मयपूर्ण कार्य; माहात्म्यम्‌--महानता; भृत्य-भृत्यानामू--दासानुदासों की; निःस्पृहाणाम्‌--इन्द्रियतृप्ति की आकांक्षा से रहित; महात्मनाम्‌-महान्‌ पुरुषों का |

    शिवजी ने कहा--हे सुन्दरी! तुमने वैष्णवों की महानता देख ली?

    श्रीभगवान्‌ हरि केदासानुदास होकर वे महान्‌ पुरुष होते हैं और किसी प्रकार के सांसारिक सुख में रुचि नहींरखते।

    नारायणपरा: सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति ।

    स्वर्गापवर्गनरकेेष्वपि तुल्यार्थदर्शिन: ॥

    २८ ॥

    नारायण-परा:--जो केवल नारायण की सेवा में रुचि रखते हैं, शुद्ध भक्त; सर्वे--समस्त; न--नहीं; कुतश्चन--कहीं भी;बिभ्यति--ड रते हैं; स्वर्ग--स्वर्ग लोक; अपवर्ग--मुक्ति; नरकेषु--तथा नरक में; अपि--भी; तुल्य--समान; अर्थ--महत्त्व; दर्शिन:--देखने वाले |

    पूरी तरह से भगवान्‌ नारायण की सेवा में लीन रहने वाले भक्तजन जीवन की किसी भीअवस्था से भयभीत नहीं होते।

    उनके लिए स्वर्ग, मुक्ति तथा नरक एकसमान हैं क्योंकि ऐसेभक्त ईश्वर की सेवा में ही रुचि रखते हैं।

    देहिनां देहसंयोगाद्द्वन्द्दानी श्रलीलया ।

    सुखं दु:खं मृतिर्जन्म शापो३नुग्रह एव च ॥

    २९॥

    देहिनामू--देहधारी व्यक्तियों का; देह-संयोगात्‌-- भौतिक देह के सम्पर्क से; द्वन्द्दानि--द्वैत भावनाएँ; ई श्वर-लीलया--ईश्वर की परम इच्छा से; सुखम्‌--सुख; दुःखम्‌--दुख; मृतिः --मृत्यु; जन्म--जन्म; शाप: --शाप; अनुग्रह:--कृपा;एव--निश्चय ही; च--तथा |

    परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति के कार्यों के कारण जीवात्माएँ भौतिक देह के सम्पर्क मेंबद्ध हैं।

    सुख तथा दुख, जन्म तथा मृत्यु, शाप तथा अनुग्रह के द्वैतभाव संसार के सम्पर्क केसहज गौण फल हैं।

    अविवेककृतः पुंसो हार्थभेद इवात्मनि ।

    गुणदोषविकल्पश्च भिदेव स्त्रजिवत्कृत: ॥

    ३०॥

    अविवेक-कृतः--अज्ञानता में किया गया; पुंसः--जीवात्मा का; हि--निस्सन्देह; अर्थ-भेद:--महत्त्व का अन्तर; इब-केसहश; आत्मनि--अपने आप में; गुण-दोष--गुण तथा दोष का; विकल्प:--कल्पना; च--तथा; भित्‌-- अन्तर; एव--निश्चय ही; स्रजि--माला में; बत्‌--सहृश; कृत:--बनी हुई |

    जिस प्रकार मनुष्य फूलमाला को सर्प समझ बैठता है अथवा स्वप्न में सुख तथा दुखका अनुभव करता है उसी प्रकार भौतिक संसार में सुविचार के अभाव में हम सुख तथा दुखमें एक को अच्छा तथा दूसरे को बुरा समझ कर विभेद करते हैं।

    वासुदेवे भगवति भक्तिमुद्दहतां नृणाम्‌ ।

    ज्ञानवैराग्यवीर्याणां न हि कश्चिद्व्यपाअ्रयः ॥

    ३१॥

    वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेव, कृष्ण में; भगवति-- भगवान्‌; भक्तिम्‌-भक्ति में प्रेम तथा श्रद्धा; उद्दहतामू-- धारण करनेवालों के लिए; नृणाम्‌--मनुष्यों का; ज्ञान-वैराग्य--वास्तविक ज्ञान तथा विरक्ति का; वीर्याणाम्‌ू--शक्तिमान; न--नहीं;हि--निस्सन्देह; कश्चित्‌ू--कुछ भी; व्यपाश्रय:--शरण के रूप में ।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव कृष्ण की भक्ति में अनुरक्त व्यक्ति स्वभावत: परमज्ञानी तथा इस संसार से विरक्त रहने वाले होते हैं।

    अतः ऐसे भक्त न तो इस संसार केतथाकथित सुख में न ही तथाकथित दुख में कोई रुचि रखते हैं।

    नाहं विरिज्ञो न कुमारनारदौन ब्रह्मपुत्रा मुनयः सुरेशा: ।

    विदाम यस्येहितमंशकांशकान तत्स्वरूपं पृथगीशमानिन: ॥

    ३२॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं ( शिव ); विरिज्ञः--ब्रह्मा जी; न--नहीं; कुमार--अश्विनीकुमार; नारदौ--देवर्षि नारद; न--नहीं;ब्रह्म-पुत्रा:-- भगवान्‌ ब्रह्मा के पुत्र; मुन॒य:ः--परम साधु पुरुष; सुर-ईशा:--समस्त देवता; विदाम--जानते हैं; यस्य--जिसका; ईहितमू--गतिविधि; अंशक-अंशका:--अंशों के भी अंश; न--नहीं; तत्‌--उसका; स्व-रूपम्‌ू--वास्तविकव्यक्तित्व; पृथक्‌--भिन्न; ईश--राजा; मानिन:--मान बैठे हैं

    नतो मैं ( शिव ), न ब्रह्मा या अश्विनीकुमार, न ही नारद या ब्रह्म के अन्य साधु-पुत्रऔर न देवता ही परमेश्वर की लीलाओं को तथा उनके स्वरूप को समझ सकते हैं।

    भगवान्‌के अंश होते हुए भी हम अपने को स्वतंत्र तथा पृथक्‌ शासक ( नियन्ता ) मान बैठते हैंजिससे हम उनके स्वरूप को नहीं समझ सकते।

    न हास्यास्ति प्रियः कश्रिन्नाप्रिय: स्व: परोडपि वा ।

    आत्मत्वात्सर्वभूतानां सर्वभूतप्रियो हरि: ॥

    ३३॥

    न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अस्य--ईश्वर का; अस्ति-- है; प्रिय:--अत्यन्त प्यारा; कश्चित्‌ू--कोई; न--नहीं; अप्रिय:--जोप्रिय न हो; स्व:--अपना; पर:--पराया; अपि-- भी; वा--या; आत्मत्वात्‌ू-आत्मा की भी आत्मा होने से; सर्व-भूतानाम--सभी जीवात्माओं का; सर्व-भूत--सभी जीवात्माओं के लिए; प्रियः--अत्यधिक प्रिय; हरि:--भगवान्‌ हरिभगवान्‌ को न कोई अति प्रिय है और न कोई अप्रिय।

    उनके न तो कोई स्वजन है औरन कोई पराया है।

    वे वास्तव में समस्त जीवों के आत्मा के आत्मा हैं।

    इस प्रकार वे समस्तजीवों के कल्याणकारी मित्र तथा उन सबों के अत्यन्त प्रिय हैं।

    तस्य चायं महाभागश्रित्रकेतु: प्रियोइनुग: ।

    सर्वत्र समहक्शान्तो ह्ाहं चैवाच्युतप्रियः ॥

    ३४॥

    तस्मान्न विस्मय: कार्य: पुरुषेषु महात्मसु ।

    महापुरुषभक्तेषु शान्तेषु समदर्शिषु ॥

    ३५॥

    तस्य--उस (ईश्वर ) का; च--तथा; अयम्‌--यह; महा-भाग:--परम भाग्यशाली; चित्रकेतु:--राजा चित्रकेतु; प्रिय:--प्यारा; अनुग: --आज्ञापालक सेवक; सर्वत्र--सभी जगह; सम-हक्‌--समान दृष्टि; शान्त:--अत्यन्त शांत; हि--निस्सन्देह;अहम्‌-मैं; च-- भी; एब--निश्चय ही; अच्युत-प्रिय:--कभी न चूकने वाले भगवान्‌ कृष्ण को प्रिय; तस्मात्‌ू--अतः;न--नहीं; विस्मय:--आश्चर्य; कार्य: --करणीय, कार्य; पुरुषेषु--पुरुषों में से; महा-आत्मसु--जो महात्मा है; महा-पुरुष-भक्तेषु--भगवान्‌ विष्णु के भक्त; शान्तेषु--शान्त; सम-दर्शिषु--सम-दर्शियों में, सबको समान मानने वाले

    यह परम उदार चित्रकेतु ईश्वर का प्रिय भक्त है।

    यह सभी जीवों का समदर्शी है औरआसक्ति तथा घृणा से मुक्त है।

    इसी प्रकार मैं भी भगवान्‌ नारायण का परम प्रिय हूँ, अतःनारायण के उच्च भक्तों की गतिविधियों को देखकर चकित नहीं होना चाहिए क्योंकि वेआसक्ति तथा द्वेष से मुक्त रहते हैं।

    वे सदैव शान्‍्त रहते हैं और समदर्शा होते हैं।

    श्रीशुक उवाचइति श्रुत्वा भगवत: शिवस्योमाभिभाषितम्‌ ।

    बभूव शान्तधी राजन्देवी विगतविस्मया ॥

    ३६॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; श्रुत्वा--सुनकर; भगवत:--अत्यन्त शक्तिमान देवता;शिवस्य--शिव का; उमा--पार्वती; अभिभाषितम्‌-- भाषण; बभूब--हो गई; शान्त-धी: --अत्यन्त शान्त; राजन्‌ू--हेराजा परीक्षित; देवी--देवी; विगत-विस्मया--आश्चर्य से मुक्त |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा, हे राजन्‌! अपने पति से यह संभाषण सुनकर देवी उमा(शिव की पत्नी ) को राजा चित्रकेतु के व्यवहार पर जो विस्मय उत्पन्न हुआ था वह जातारहा और उनकी बुद्धि स्थिर हो गई।

    इति भागवतो देव्या: प्रतिशप्तुमलन्तम: ।

    मूर्धश्ना स जगृहे शापमेतावत्साधुलक्षणम्‌ ॥

    ३७॥

    इति--इस प्रकार; भागवत:--परम भक्त; देव्या:--देवी पार्वती का; प्रतिशप्तुमू--बदले में शाप देने; अलन्तम: --समर्थ ;मूर्ध्न--सिर से; सः--वह ( चित्रकेतु ); जगृहे--स्वीकार किया; शापम्‌--शाप; एतावत्‌--इतना बड़ा; साधु-लक्षणम्‌--भक्त के लक्षण

    महान्‌ भक्त चित्रकेतु इतना शक्तिमान था कि यदि वह चाहता तो पलट कर ( बदले में )माता पार्वती को शाप दे देता, किन्तु ऐसा न करके उसने नप्रता से शाप को स्वीकार कियाऔर शिवजी तथा उनकी पली के सम्मुख अपना शिर झुकाया।

    इसे वैष्णव का आदर्शआचरण समझना चाहिए ।

    जज्ने त्वष्टृर्दक्षिणाग्नौ दानवीं योनिमाश्रित: ।

    वृत्र इत्यभिविख्यातो ज्ञानविज्ञानसंयुत: ॥

    ३८॥

    जज्ञे--उत्पन्न हुआ; त्वष्ठः --त्वष्टा नामक ब्राह्मण का; दक्षिण-अग्नौ--दक्षिणाग्नि नामक यज्ञ की अग्नि में; दानवीम्‌--आसुरी; योनिमू--योनि; आश्रित:--शरणागत; वृत्र:--वृत्र; इति--इस प्रकार; अभिविख्यात:--विख्यात; ज्ञान-विज्ञान-संयुतः--जीवन के दिव्य ज्ञान तथा व्यावहारिक ज्ञान से युक्त |

    माता दुर्गा ( भवानी, शिवजी की पत्नी ) से शापित होकर उसी चित्रकेतु ने आसुरी योनिमें जन्म लिया।

    वह त्वष्टा द्वारा किये गये यज्ञ से असुर के रूप में प्रकट हुआ, यद्यपि वहदिव्य ज्ञान और उसके व्यावहारिक उपयोग में अभी भी परिपूर्ण था और इस प्रकार वहवृत्रासुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

    एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।

    वृत्रस्यासुरजाते श्व कारणं भगवन्मते: ॥

    ३९॥

    एतत्‌--यह; ते--तुमको; सर्वम्‌--सब कुछ; आख्यातम्‌--बता दिया; यत्‌--जो; माम्‌-- मुझसे; त्वम्‌--तुमने;परिपृच्छसि--पूछा था; वृत्रस्थ--वृत्रासुर का; असुर-जाते: --असुर योनि में उत्पन्न; च--तथा; कारणम्‌--कारण;भगवत्‌-मते: --कृष्णभावना में उन्नत बुद्धि का |

    हे राजा परीक्षित! तुमने मुझसे पूछा था कि परम भक्त वृत्रासुर ने असुर वंश में किसप्रकार जन्म लिया; अतः मैंने तुम्हें उसके विषय में सब कुछ बताने का प्रयास किया है।

    इतिहासमिमं पुण्यं चित्रकेतोर्महात्मन: ।

    माहात्म्य॑ विष्णुभक्तानां श्रुत्वा बन्धाद्विमुच्यते ॥

    ४०॥

    इतिहासम्‌--इतिहास; इमम्‌--यह; पुण्यम्‌--परम पवित्र; चित्रकेतो:--चित्रकेतु का; महा-आत्मन:--परम भक्त;माहात्म्यमम्‌-महिमायुक्त; विष्णु-भक्तानाम्‌ू--विष्णु के भक्तों का; श्रुत्वा--सुनकर; बन्धात्‌--जीवन के बन्धन से;विमुच्यते--मुक्त हो जाता है।

    चित्रकेतु महान्‌ भक्त ( महात्मा ) था।

    यदि कोई मनुष्य किसी शुद्ध भक्त से चित्रकेतु केइस इतिहास को सुने तो श्रोता भी इस संसार में अपने बद्ध जीवन से मुक्त हो जाता है।

    य एतत्प्रातरुत्थाय श्रद्धया वाग्यत: पठेत्‌ ।

    इतिहासं हरिं स्मृत्वा स याति परमां गतिम्‌ ॥

    ४१॥

    यः--जो भी व्यक्ति; एतत्‌--यह; प्रात:ः--प्रातःकाल; उत्थाय--उठकर, जगकर; श्रद्धया--श्रद्धापूर्वक; वाक्‌ू-यत:--मनतथा वाणी को वश में करके; पठेत्‌-पढ़े ; इतिहासमू--इतिहास; हरिम्‌--पर मे श्वर; स्मृत्वा--स्मरण करके; सः--वहव्यक्ति; याति--जाता है; परमाम्‌ गतिम्‌-- भगवान्‌ के धाम कोजो व्यक्ति प्रातःकाल उठकर अपने मन तथा वाणी को वश में रखकर तथा श्रीभगवान्‌का स्मरण करके चित्रकेतु का यह इतिहास पढ़ता है, वह बिना कठिनाई के भगवान्‌ केधाम को चला जाता है।

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    अध्याय अठारह: दिति ने राजा इंद्र को मारने की प्रतिज्ञा की

    6.18श्रीशुक उबाचपृश्निस्तु पत्नी सवितु: सावित्रीं व्याहतिं त्रयीम्‌ ।

    अग्निहोत्रं पशुं सोम॑ चातुर्मास्यं महामखान्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; पृश्नि:--पृश्टिन; तु--तब; पत्नी -- भार्या; सवितु:--सविता की;सावित्रीम्‌--सावित्री; व्याह॒तिम्‌--व्याहति; त्रयीम्‌--त्रयी; अग्निहोत्रमू--अग्निहोत्र; पशुम्‌--पशु; सोमम्‌ू--सोम;चातुर्मास्थम्‌-चातुर्मास्थ; महा-मखान्‌--पाँचों महायज्ञ |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा--पृश्नि, जो अदिति के बारह पुत्रों में से पाँचवें पुत्रसविता की पत्नी थी, तीन पुत्रियाँ सावित्री, व्याह॒ति तथा त्रयी और अग्निहोत्र, पशु, सोम,चार्तुमास्य तथा पंच महायज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुए।

    सिद्धिभंगस्य भार्याड्र महिमान॑ विभुं प्रभुम्‌ ।

    आशिषं च वरारोहां कन्यां प्रासूत सुब्रताम्‌ ॥

    २॥

    सिद्धिः:--सिद्धि; भगस्य--भग की; भार्या--पली; अड्ग--हे राजा; महिमानम्‌--महिमा; विभुम्‌--विभु; प्रभुम्‌-प्रभु;आशिषम्‌--आशीष; च--तथा; वरारोहाम्‌--अत्यन्त सुन्दरी; कन्याम्‌--पुत्री को; प्रासूत--जन्म दिया; सु-ब्रताम्‌--सदाचारिणी।

    है राजन्‌! अदिति के छठे पुत्र भग की पत्नी का नाम सिद्धि था जिसके महिमा, विभुतथा प्रभु नामक तीन पुत्र तथा आशीष नामक एक अत्यन्त सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई।

    धातु: कुहू: सिनीवाली राका चानुमतिस्तथा ।

    सायं दर्शमथ प्रातः पूर्णमासमनुक्रमात्‌ ॥

    ३॥

    अग्नीन्पुरीष्यानाध्त्त क्रियायां समनन्तरः ।

    चर्षणी वरुणस्यासीद्यस्यां जातो भृगु: पुनः ॥

    ४॥

    धातु:ः--धाता के; कुहूः--कुहू; सिनीवाली--सिनीवाली; राका--राका; च--तथा; अनुमति:-- अनुमति; तथा-- भी;सायम्‌--सायम; दर्शम्‌-दर्श; अथ-- भी; प्रातः --प्रात:; पूर्णमासम्‌--पूर्णमास; अनुक्रमात्‌-- क्रमश: ; अग्नीन्‌--अग्निदेव; पुरीष्यान्‌ू--पुरीष्य नामक; आधत्त--जन्म दिया; क्रियायाम्‌ू--क्रिया से; समनन्तर:--अगला पुत्र विधाता;चर्षणी--चर्षणी; वरुणस्थय--वरुण का; आसीत्‌ --था; यस्याम्‌--जिसमें; जात:--जन्म लिया; भृगुः-- भूगु ने; पुन:--फिर

    अदिति के सातवें पुत्र धाता के चार पत्नियाँ थीं जिनके नाम थे कुह्दू, सिनीवाली, राकातथा अनुमति।

    इन चारों से क्रमशः सायम्‌, दर्श, प्रातः तथा पूर्णमास नामक चार पुत्र हुए।

    अदिति के आठवें पुत्र विधाता की पत्नी का नाम क्रिया था जिससे पुरीष्य नामक पाँच पुत्रउत्पन्न हुए।

    अदिति के नवें पुत्र वरूण की पत्नी चर्षणी थी जिसके गर्भ से ब्रह्मा के पुत्र भूगुने फिर जन्म लिया।

    वाल्मीकिश्न महायोगी वल्मीकादभवत्किल ।

    अगस्त्यश्व वसिष्ठश्च मित्रावरूणयोरृषी ॥

    ५॥

    वाल्मीकि: --वाल्मीकि; च--तथा; महा-योगी--परम योगी; वलल्‍्मीकात्‌--बाँबी से; अभवत्‌--जन्म लिया; किल--निस्सन्देह; अगस्त्य:--अगस्त्य; च--तथा; वसिष्ठ:--वशिष्ठ; च-- भी; मित्रा-वरुणयो:--मित्र तथा वरुण दोनों के;ऋषी--दो ऋषि

    वरुण के वीर्य से परम योगी वाल्मीकि ने बाँबी से जन्म लिया।

    भूगु तथा वाल्मीकिवरुण के विशिष्ट पुत्र थे, जबकि अगस्त्य तथा वसिष्ठ ऋषि वरुण तथा मित्र ( अदिति केदसवें पुत्र ) के संयुक्त पुत्र थे।

    रेत: सिषिचतु: कुम्भे उर्वश्या: सन्निधौ द्रुतम्‌ ।

    रेवत्यां मित्र उत्सर्गमरिष्टे पिप्पलं व्यधात्‌ ॥

    ६॥

    रेत:--वीर्य; सिषिचतु:--स्खलित; कुम्भे-ड़े में; उर्वश्या:--उर्वशी का; सन्निधौ--उपस्थिति में; द्रतम्‌--उड़कर;रेबत्यामू-रेवती में; मित्र:--मित्र; उत्सर्गम्‌--उत्सर्गम्‌; अरिष्टम्‌--अरिष्ट; पिप्पलम्‌ू--पिप्पल; व्यधात्‌--जन्म लिया

    स्वर्ग-सुन्दरी उर्वशी को देखकर मित्र तथा वरुण दोनों का वीर्य स्खलित हो गया जिसेउन्होंने एक मिट्टी के पात्र में रख दिया।

    बाद में इसी पात्र से अगस्त्य तथा वसिष्ठ नामक दोपुत्र उत्पन्न हुए।

    ये मित्र तथा वरुण के संयुक्त ( उभयनिष्ट ) पुत्र हैं।

    मित्र को अपनी पत्नीरेबती से तीन पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम उत्सर्ग, अरिष्ट तथा पिप्पल थे।

    पौलोम्यामिन्द्र आध्त्त त्रीन्पुत्रानिति नः श्रुतम्‌ ।

    जयन्तमृषभं तात तृतीय मीदुषं प्रभु; ॥

    ७॥

    पौलोम्याम्‌--पौलोमी ( शच्ची देवी ) ने; इन्द्र:--इन््ध ने; आधत्त--उत्पन्न किया; त्रीन्‌ू--तीन; पुत्रान्‌--पुत्र; इति--इसप्रकार; नः--हमोरे द्वारा; श्रुतम्‌--सुना हुआ; जयन्तमू--जयन्त; ऋषभम्‌--ऋषभ; तात--हे राजन; तृतीयम्‌--तीसरा;मीढुषम्‌--मीदुष; प्रभुः--राजा |

    हे राजा परीक्षित! अदिति के ग्यारहवें पुत्र एवं स्वर्गलोक के राजा इन्द्र की पत्नी पौलोमीके गर्भ से जयन्त, ऋषभ तथा मीढुष नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए।

    ऐसा हमने सुना है।

    उरुक्रमस्थ देवस्य मायावामनरूपिण: ।

    कीतीं पत्यां बृहच्छूलोकस्तस्यासन्सौभगादय: ॥

    ८॥

    उरुक़मस्य--उरुक़म की; देवस्य-- भगवान्‌ की; माया--अन्तरंगा शक्ति से; वामन-रूपिण: --वामन के रूप में; की्तों --कीर्ति से; पत्याम्‌-- अपनी पली; बृहच्छूलोक:--बृहत्टहलोक; तस्य--उसके; आसन्‌ू-- थे; सौभग-आदय:--सौभग आदिपुत्र |

    अनेक शक्तियों वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अपनी शक्ति से बौने ( वामन ) के रूप मेंप्रकट हुए जो अदिति के बारहवें पुत्र उरुक्रम कहलाते हैं।

    उनकी पत्नी कीर्ति के गर्भ सेबृहत्तलोक नामक एक पुत्र ने जन्म लिया जिसके सौभग इत्यादि कई पुत्र हुए।

    तत्कर्मगुणवीर्याणि काश्यपस्य महात्मन: ।

    पश्चाद्वक्ष्यामहेउदित्यां यथेवावततार ह ॥

    ९॥

    तत्‌--उसका; कर्म--कर्म; गुण--गुण; वीर्याणि--तथा शक्ति; काश्यपस्थ--कश्यप के पुत्र के; महा-आत्मन:--परमआत्मा; पश्चात्‌--बाद में; वक्ष्यामहे -- मैं वर्णन करूँगा; अदित्याम्‌--अदिति से; यथा--कैसे; एव--निश्चय ही;अवततार--अवतार लिया; ह--निस्सन्देह |

    बाद में ( आठवें स्कंध में ) मैं यह वर्णन करूँगा कि किस प्रकार उरुक्रम अर्थात्‌भगवान्‌ वामनदेव परम साधु कश्यप के पुत्र के रूप में प्रकट हुए और किस प्रकार तीनोंलोकों को अपने पगों से नाप लिया।

    मैं उनके अपूर्व कर्मों, गुणों, शक्ति तथा अदिति के गर्भसे जन्म ग्रहण करने के सम्बन्ध में वर्णन करूँगा।

    अथ कश्यपदायादान्दैतेयान्कीर्तयामि ते ।

    यत्र भागवत: श्रीमान्प्रहादो बलिरेवच ॥

    १०॥

    अथ--अब; कश्यप-दायादान्‌--कश्यप के पुत्रों का; दैतेयान्‌--दिति से उत्पन्न; कीर्तवामि--वर्णन करूँगा; ते--तुमसे;यत्र--जहाँ; भागवत:--परम भक्त; श्री-मान्‌ू--यशस्वी; प्रह्मदः--प्रह्मद; बलि:--बलि; एव--निश्चय ही; च-- भी ।

    अब मैं दिति के उन पुत्रों का वर्णन करूँगा जो कश्यप के द्वारा उत्पन्न किये गये किन्तुजो असुर बने।

    इस असुर वंश में परम भक्त प्रह्मद महाराज तथा बलि महाराज प्रकट हुए।

    असुरों को दैत्य कहा जाता है क्योंकि वे दिति के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

    दितेद्वाविव दायादौ दैत्यदानववन्दितौ ।

    हिरण्यकशिपुर्नाम हिरण्याक्षश्व॒ कीर्तितोी ॥

    ११॥

    दितेः--दिति के; द्वौ--दो; एव--निश्चय ही; दायादौ--पुत्र; दैत्य-दानव--दैत्यों तथा दानवों के द्वारा; वन्दितौ--पूजित;हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु; नाम--नामक; हिरण्याक्ष: --हिरण्याक्ष; च-- भी; कीर्तितौ--विख्यात |

    सर्वप्रथम दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।

    येदोनों अत्यन्त शक्तिशाली थे और दैत्यों तथा दानवों द्वारा पूजित थे।

    हिरण्यकशिपोर्भार्या कयाधुर्नाम दानवी ।

    जम्भस्य तनया सा तु सुषुवे चतुर: सुतान्‌ ॥

    १२॥

    संहादं प्रागनुह्ादं हादं प्रह्मदमेव च ।

    तत्स्वसा सिंहिका नाम राहुं विप्रचितोग्रहीत्‌ ॥

    १३॥

    हिरण्यकशिपो: --हिरण्यकशिपु की; भार्या--पत्नी; कयाधु: --कयाधु; नाम--नामक; दानवी--दनु की संतान;जम्भस्य--जम्भ की; तनया--पुत्री; सा--उसने; तु--निस्सन्देह; सुषुवे--जन्म दिया; चतुरः--चार; सुतान्‌--पुत्रों को;संहादम्‌--संह्ाद; प्राकु-पहले; अनुह्ादम्‌--अनुह्ाद; हादम्‌--हाद; प्रह्नदम्‌--प्रह्द; एब-- भी; च--तथा; तत्‌-स्वसा--उसकी बहन; सिंहिका--सिंहिका; नाम--नाम की; राहुम्‌--राहु को; विप्रचित:--विप्रचित से; अग्रहीत्‌--प्राप्तकिया।

    हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु नाम से विख्यात थी।

    वह जम्भ की पुत्री एवं दनु कीवंशज थी।

    उसके एक एक करके चार पुत्र हुए जिनके नाम संह्वाद, अनुहाद, ह्ाद तथाप्रह्मद थे।

    इन चारों भाइयों की बहन का नाम सिंहिका था।

    उसने विप्रचित नामक असुर सेब्याह करके राहु नामक असुर को जन्म दिया।

    शिरोहरद्यस्य हरिश्चक्रेण पिबतोमृतम्‌ ।

    संहादस्य कृतिर्भार्यासूत पञ्नजनं तत: ॥

    १४॥

    शिरः--शीश; अहरत्‌--काट लिया; यस्य--जिसका; हरि: -- हरि ने; चक्रेण--चक्र से; पिबत:--पीते हुए; अमृतम्‌--अमृत; संहादस्य--संहाद की; कृति:--कृति; भार्या--पत्नी ने; असूत--जन्म दिया; पञ्ञजनम्‌--पंचजन; तत: --उससेजब राहु वेश बदलकर देवताओं के बीच में अमृत पी रहा था, तो भगवान्‌ हरि ने उसकासिर काट लिया।

    संह्वाद की पत्नी का नाम कृति था।

    इन दोनों के संयोग से कृति के पंचजननाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    हादस्य धमनिर्भा्यासूत वातापिमिल्वलम्‌ ।

    योगस्त्याय त्वतिथये पेचे वातापिमिल्वल: ॥

    १५॥

    हादस्य--हाद की; धमनि:--धमनि; भार्या--पत्नी; असूत--जन्म दिया; वातापिमू--वातापि; इल्वलम्‌ू--इल्वल को;यः--जो; अगस्त्याय--अगस्त्य के लिए; तु--लेकिन; अतिथये--अपने अतिथि; पेचे--पकाया; वातापिम्‌--वातापिको; इल्वल:--इल्वल ने।

    ह्ाद की पत्नी का नाम धमनि था।

    उसने वातापि तथा इल्वल नामक दो पुत्रों को जन्मदिया।

    जब अगस्त्य मुनि इल्बल के अतिथि बने तो उसने वातापि को, जो मेढे के रूप में था,पकाकर भोजन करवाया।

    अनुह्वादस्य सूर्यायां बाष्कलो महिषस्तथा ।

    विरोचनस्तु प्राह्मादिद्देव्यां तस्याभवद्ठलि: ॥

    १६॥

    अनुहादस्य--अनुहाद की; सूर्यायाम्‌--सूर्या से; बाष्कल: --बाष्कल; महिष:--महिष; तथा-- और; विरोचन: --विरोचन;तु--निस्सन्देह; प्राह्मदि: -- प्रह्मद का पुत्र; देव्यामू--उसकी पत्नी से; तस्थ--उसके; अभवत्‌--हुआ; बलि:--बलि |

    अनुह्ाद की पत्नी सूर्या थी।

    उसने बाष्कल तथा महिष नामक दो पुत्रों को जन्म दिया।

    प्रहाद के विरोचन नामक एक पुत्र हुआ जिसकी पत्नी से बलि महाराज ने जन्म लिया।

    बाण-्येष्ठं पुत्रशतमशनायां ततोभवत्‌ ।

    तस्यानुभावं सुश्लोक्यं पश्चादेवाभिधास्यते ॥

    १७॥

    बाण--्येष्ठम्‌--सबसे बड़ा बाण; पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; अशनायाम्‌--अशना से; तत:--उससे; अभवत्‌--हुए;तस्य--उसके ; अनुभावम्‌--चरित्र, महिमा; सु-श्लोक्यम्‌--प्रशंसनीय; पश्चात्‌--बाद में ; एब--निश्चय ही;अभिधास्यते--वर्णन किया जायेगा |

    इसके पश्चात्‌ अशना की कोख से महाराज बलि को एक सौ पुत्र प्राप्त हुए जिनमें राजाबाण ज्येष्ठ था।

    बलि महाराज का चरित्र ( महिमा ) अत्यन्त प्रशंसनीय है और उनका वर्णनआगे ( आठवें स्कंध में ) होगा।

    बाण आशश्य गिरिशं लेभे तद्गणमुख्यताम्‌ ।

    यत्पाश्वें भगवानास्ते ह्ाद्यापि पुरपालक: ॥

    १८॥

    बाण:--बाण ने; आराध्य--पूजा करके; गिरिशम्‌--शिवजी की; लेभे--प्राप्त किया; तत्‌ू--उसका ( भगवान्‌ शिव );गण-मुख्यताम्‌--प्रमुख पार्षदों में से एक का पद; यत्‌-पार्थ्वे--जिसके निकट; भगवान्‌-- भगवान्‌ शिव; आस्ते--रहताहै; हि--जिसके कारण; अद्यू--अब; अपि--भी; पुर-पालकः --राजधानी का रक्षक ।

    चूँकि राजा बाण शिवजी का उपासक था, अतः वह उनके सर्वश्रेष्ठ पार्षदों ( गणों ) मेंसे एक बन गया।

    आज भी शिवजी राजा बाण की राजधानी की रक्षा करते हैं और सदैवउसके निकट खड़े रहते हैं।

    मरुतश्न दितेः पुत्राश्चत्वारिंशन्नवाधिका: ।

    त आसचन्नप्रजा: सर्वे नीता इन्द्रेण सात्मतामू ॥

    १९॥

    मरुत:--मरुत गण; च--तथा; दिते:--दिति के; पुत्रा:--पुत्र; चत्वारिंशत्‌--चालीस; नव-अधिका: --तथा नौ; ते--वे;आसनू--थे; अप्रजा: --निःसन्तान; सर्वे--सभी; नीता: -- लाये गये; इन्द्रेण--इन्द्र के द्वारा; स-आत्मताम्‌--देवताओं केपद को

    दिति के गर्भ से उनचास मरुतदेव भी उत्पन्न हुए।

    इनमें से किसी के सन्तान नहीं हुई।

    यद्यपि दिति ने उन्हें जन्मा था किन्तु इन्द्र ने उन्हें देव-पद प्रदान किया।

    श्रीराजोबाचकथं त आसुरं भावमपोहात्पत्तिकं गुरो ।

    इन्द्रेण प्रापिता: सात्म्यं कि तत्साधु कृतं हि तै; ॥

    २०॥

    श्री-राजा उबाच--राजा परीक्षित ने कहा; कथम्‌--क्योंकर; ते--वे; आसुरम्‌-- आसुरी; भावम्‌--वृत्ति; अपोह्म --त्यागकर; औत्पत्तिकम्‌--जन्म के कारण; गुरो--हे प्रभो; इन्द्रेण--इन्द्र के द्वारा; प्रापिता:--बदले गए; स-आत्म्यम्‌ू--देवताओं को; किमू--क्या; तत्‌--अत:; साधु--पुण्यकर्म; कृतम्‌--सम्पन्न किये गये; हि--निस्सन्देह; तैः--उनके द्वारा

    राजा परीक्षित ने पूछा--हे प्रभो! जन्म के कारण वे उनचासों मरुत आसुरी वृत्ति से परिपूर्ण रहे होंगे तो फिर स्वर्ग के राजा इन्द्र ने उन्हें देवता क्‍यों बनाया?

    क्‍या उन्होंने कोईपुण्यकर्म या अनुष्ठान किए थे?

    इमे श्रद्धते ब्रह्मन्नघयो हि मया सह ।

    इमे अ्रहधते ब्रह्मन्नपयो हि मया सह ।

    परिज्ञानाय भगवंस्तन्नो व्याख्यातुमहसि ॥

    २१॥

    इमे--ये; श्रहदध्यते--उत्सुक हैं; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; ऋषय:--साधुजन; हि--निस्सन्देह; मया सह--मेंरे साथ; परिज्ञानाय--जानने के लिए; भगवनू--हे महात्मन्‌; तत्‌--अतः ; नः--हमको; व्याख्यातुम्‌ अहसि--कृपा करके बताएँ।

    हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! मैं तथा यहाँ पर उपस्थित सभी साधुजन इसे जानने के लिए परम उत्सुकहैं।

    अतः हे महात्मन्‌! हमसे इसका कारण बताएँ।

    श्रीसूत उबाचतद्ठिष्णुरातस्थ स बादरायणि-वंचो निशम्याहतमल्पमर्थवत्‌ ।

    सभाजयन्सन्निभृतेन चेतसाजगाद सत्रायण सर्वदर्शन: ॥

    २२॥

    श्री-सूतः उवाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; तत्‌--वे; विष्णुरातस्य--महाराज परीक्षित का; सः--उस; बादरायणि: --शुकदेव गोस्वामी ने; वच:--शब्द; निशम्य--सुनकर; आहतम्‌--आदरपूर्ण; अल्पम्‌--संक्षिप्त; अर्थ-वत्‌--सप्रयोजन;सभाजयन्‌ सन्‌-प्रशंसा करते हुए; निभृतेन चेतसा--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; जगाद--उत्तर दिया; सत्रायण--हे शौनक;सर्व-दर्शन:--सर्वज्ञातासर्वदर्शी श्री सूत गोस्वामी ने कहा--हे महर्षि शौनक! महाराजा परीक्षित को सविनय एवं संक्षेपमें आवश्यक विषयों पर बोलते हुए सुनकर सर्वज्ञाता शुकदेव गोस्वामी ने उनके प्रयत्नों कीप्रशंसा की और इस प्रकार उत्तर दिया।

    श्रीशुक उबाचहतपुत्रा दितिः शक्रपार्ण्णिग्राहेण विष्णुना ।

    मन्युना शोकदीप्तेन ज्वलन्ती पर्यचिन्तयत्‌ ॥

    २३॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; हत-पुत्रा--जिसके पुत्रों का वध किया जा चुका था; दिति:--दिति ने;शक्र-पार्णिण-ग्राहेण--जो इन्द्र की सहायता कर रहा था; विष्णुना-- भगवान्‌ विष्णु के द्वारा; मन्युना--क्रो धपूर्वक; शोक-दीप्तेन--शोक से उद्दीप्त; ज्वलन्ती--जलते हुए; पर्यचिन्तवत्‌--सोचा |

    श्री शुकदेव गोस्वामी बोले--इन्द्र की सहायता करने मात्र के लिए भगवान्‌ विष्णु नेहिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष नामक दोनों भाइयों का वध कर दिया।

    उनके मारे जाने सेउनकी माता दिति शोक तथा क्रोध से परिपूर्ण होकर इस प्रकार सोचने लगी।

    कदा नु भ्रातृहन्तारमिन्द्रियाराममुल्बणम्‌ ।

    अक्लन्नहदयं पापं घातयित्वा शये सुखम्‌ ॥

    २४॥

    कदा--कब; नु--निस्सन्देह; भ्रातृ-हन्तारम्‌--बन्धुओं को मारने वाला; इन्द्रिय-आरामम्‌--इन्द्रियतृप्ति का अत्यधिकइच्छुक; उल्बणम्‌--क्रूर; अक्लिन्न-हदयम्‌--कठोर हृदय; पापम्‌--पापी; घातयित्वा--मरवाकर; शये--दम लूँगी;सुखम्‌--सुखपूर्वक |

    अत्यन्त इन्द्रियलोलुप भगवान्‌ इन्द्र ने हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष इन दोनों भाइयों कावध भगवान्‌ विष्णु के माध्यम से किया है।

    अतः वह क्रूर, कठोर हृदय एवं पापी है।

    मैं कब उसे मारकर शान्तचित्त होकर दम ले सकूँगी ?

    कृमिविड्भस्मसंज्ञासीद्यस्येशाभिहितस्य च ।

    भूतश्रुक्तत्कृते स्वार्थ कि वेद निरयो यत: ॥

    २५॥

    कृमि--कीड़े; विट्‌ू--विष्ठा, मल; भस्म--राख; संज्ञा--नाम; आसीत्‌--होता है; यस्य--जिस ( शरीर ) का; ईश-अभिहितस्य--राजा कहलाने पर भी; च--भी; भूत-ध्रुकू--अन्यों को पीड़ा पहुँचाने वाला; तत्‌-कृते--उसके लिए; स्व-अर्थम्‌-स्वार्थ के लिए; किम्‌ वेद--क्या वह जानता है; निरय:--नरक में यातना; यत:--जिससे।

    समस्त राजाओं तथा महान्‌ नायकों के शरीर मृत्यु के पश्चात्‌ कीड़ों, विष्ठा अथवा राखमें परिणत हो जाएंगे।

    यदि कोई ऐसे शरीर की रक्षा के लिए ईर्ष्यावश अन्यों का बध करताहै, तो क्या वह जीवन के वास्तविक हित को जानता है?

    निश्चय ही वह नहीं जानता क्योंकिअन्य जीवों के प्रति ईर्ष्या करने से वह अवश्य ही नरक को जाता है।

    आशासानस्य तसयेदं श्रुवमुन्नद्धचेतस: ।

    मदशोषक इन्द्रस्य भूयाद्येन सुतो हि मे ॥

    २६॥

    आशासानस्य--सोचते हुए; तस्थ--उसका; इृदम्‌--यह ( शरीर ); ध्रुवम्‌-शाश्वत; उन्नद्ध-चेतस:--जिसका मन वश मेंनहीं है; मद-शोषक:--प्रमत्तता को दूर करने वाला; इन्द्रस्य--इन्द्र की; भूयात्‌--हो सकता है कि; येन--जिससे; सुतः--पुत्र; हि--निश्चय ही; मे--मेरा

    दिति ने विचार किया: कि इन्द्र अपने शरीर को शाश्वत समझ कर अनियंत्रित हो गयाहै।

    अतः मैं ऐसा पुत्र चाहूँगी जो इन्द्र की उन्मत्तता को दूर कर दे।

    इसके लिए मैं कुछ न कुछउपाय करती हूँ।

    इति भावेन सा भर्तुराचचारासकृत्प्रियम्‌ ।

    शुश्रूषयानुरागेण प्रश्रयेण दमेन च ॥

    २७॥

    भक्‍्त्या परमया राजन्मनोज्ञैर्वल्गुभाषितै: ।

    मनो जग्राह भावज्ञा सस्मितापाडुवीक्षणै: ॥

    २८॥

    इति--इस प्रकार; भावेन--विचार से; सा--उसने; भर्तु:--पति का; आचचार--सम्पन्न किया; असकृत्‌--निरन्तर;प्रियम्‌ू--प्रिय कार्य; शुश्रूषधा--सेवा से; अनुरागेण --प्रेम से; प्रश्रयेण--विनम्रता से; दमेन-- आत्म-संयम से; च-- भी;भक्त्या-- भक्ति से; परमया--महान्‌; राजनू--हे राजन्‌; मनोज्लैः--मनोहर; वल्गु-भाषितै:ः--मीठे वचनों से; मनः--उसकामन; जग्राह-- अपने वश में कर लिया; भाव-ज्ञा--उसकी प्रकृति को जानने वाली; स-स्मित--मुस्कान से पूर्ण; अपाड़-वीक्षणै:--तिरछी चितवन से

    इस प्रकार सोचती हुई ( इन्द्र को मारने के लिए एक ऐसे पुत्र की इच्छा से ) दितिनिरन्तर अपने पति कश्यप को अपने मोहक आचरण से प्रसन्न रखने लगी।

    हे राजन्‌! दितिकश्यप की सभी आज्ञाओं का अत्यन्त निष्ठा से पालन करती रही।

    वह सेवा, प्रेम, विनयतथा आत्म-संयम एवं अपनी मृदुल वाणी से और अपनी मन्द हँसी और बाँकी चितवन सेकश्यप के मन को आकृष्ट करते हुए उसने उन्हें अपने वश में कर लिया।

    एवं स्त्रिया जडीभूतो विद्वानपि मनोज्ञया ।

    बाढमित्याह विवशो न तच्चित्रं हि योषिति ॥

    २९॥

    एवम्‌--इस प्रकार से; स्त्रिया--स्त्री द्वारा; जडीभूत:--मंत्रमुग्ध; विद्वानू--विद्वान; अपि--भी; मनोज्ञया--अत्यन्त दक्ष;बाढम्‌--तथास्तु, स्वीकार है; इति--इस प्रकार; आह--कहा; विवश:--उसके वश में; न--नहीं; तत्‌--वह; चित्रम्‌--आश्चर्यजनक; हि--निस्सन्देह; योषिति--स्त्रियों के मामले में।

    यद्यपि कश्यप मुनि एक विद्वान पुरुष थे, किन्तु वे दिति के बनावटी व्यवहार से मोहितहो गये जिससे वे उसके वश में आ गये।

    अतः उन्होंने अपनी पत्नी को विश्वास दिलाया कि वेउसकी इच्छाओं की पूर्ति करेंगे।

    पति द्वारा ऐसा वचन तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।

    विलोक्यैकान्तभूतानि भूतान्यादौ प्रजापति: ।

    स्त्रियं चक्रे स्वदेहार्थ यया पुंसां मतिईता ॥

    ३०॥

    विलोक्य--देखकर; एकान्त-भूतानि--विरक्त; भूतानि--जीवात्माएँ; आदौ--प्रारम्भ में; प्रजापति: -- भगवान्‌ ब्रह्मा;स्त्रियम्‌--स्त्री; चक्रे --उत्पन्न किया; स्व-देह--अपने शरीर से; अर्धम्‌--आधा; यया--जिससे; पुंसाम्‌--मनुष्यों का;मति:--मन; हता--हर लिया गया।

    सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माण्ड की जीवात्माओं के पिता ब्रह्माजी ने देखा कि समस्तजीवात्मा विरक्त हो रहे हैं।

    अतः उन्होंने जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य से पुरुष के आधे अंग सेस्त्री की रचना की क्योंकि स्त्री का आचरण मनुष्य के मन को हर लेता है।

    एवं शुश्रूषितस्तात भगवान्कश्यपः स्त्रिया ।

    प्रहस्य परमप्रीतो दितिमाहाभिनन्द्य च ॥

    ३१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; शुश्रूषित:--सेवा किये जाने पर; तात--हे प्रिय; भगवान्‌--परम शक्तिमान; कश्यप: --कश्यप मुनिने; स्त्रिया--स्त्री के द्वारा; प्रहस्थ--हँसकर; परम-प्रीत:--अत्यन्त प्रसन्न होकर; दितिमू--दिति से; आह--कहा;अभिनन्द्य--स्वीकृति देते हुए; च-- भी

    है प्रिय! अपनी पत्नी दिति के विनम्र आचरण से अत्यधिक प्रसन्न होकर परमशक्तिशाली साधु पुरुष कश्यप हँस पड़े और इस प्रकार बोले।

    श्रीकश्यप उबाचवर वरय वामोरु प्रीतस्तेडहमनिन्दिते ।

    स्त्रिया भर्तरि सुप्रीते कः काम इह चागम: ॥

    ३२॥

    श्री-कश्यप: उवाच--कश्यप मुनि ने कहा; वरमू--वर, आशीर्वाद; वरय--माँगो; वामोरु--हे सुन्दरी; प्रीत:--प्रसन्न;ते--तुमसे; अहम्‌--मैं; अनिन्दिते--हे अनिन्‍्द्य स्त्री; स्त्रिया:--स्त्री के लिए; भर्तरि--जब उसका पति; सु-प्रीते--प्रसन्नहो; क:--क्या; काम: --इच्छा; इह-- यहाँ; च--तथा; अगम:--प्राप्त करना कठिन ।

    कश्यप मुनि ने कहा--हे अनिन्‍्द्य सुन्दरी! मैं तुम्हारे आचरण से परम प्रसन्न हूँ, अतः तुमचाहे जो भी वर माँग सकती हो।

    यदि पति प्रसन्न हो तो चाहे इस लोक की या अन्य लोककी वह कौन सी इच्छा है, जो पूरी न हो सके ?

    पतिरेव हि नारीणां दैवतं परम स्मृतम्‌ ।

    पतिरेव हि नारीणां दैवतं परम स्मृतम्‌ ।

    मानस: सर्वभूतानां वासुदेव: भ्रिय: पति: ॥

    ३३॥

    स एव देवतालिड्लैनामरूपविकल्पितै: ।

    इज्यते भगवान्पुम्भिः स्त्रीभिश्चव पतिरूपधृक्‌ ॥

    ३४॥

    'पति:--पति; एव--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; नारीणाम्‌--स्त्रियों की; दैवतम्‌--देवता; परमम्‌--परम, सर्व श्रेष्ठ;स्मृतम्‌ू--माना जाता है; मानस:--हृदय में स्थित; सर्व-भूतानाम्‌--समस्त जीवात्माओं के; वासुदेव: --वासुदेव; थ्रिय:--सौभाग्य की देवी का; पति:--पति; सः--वह; एव--निश्चय ही; देवता-लिड्लैः--देवताओं के स्वरूपों से; नाम--नाम;रूप--स्वरूप; विकल्पितैः: --कल्पित; इज्यते--पूजा जाता है; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; पुम्भि: --मनुष्यों के द्वारा;स्त्रीभि:--स्त्रियों के द्वारा; च-- भी; पति-रूप-धृक्‌ --पति के रूप में |

    पति ही स्त्रियों के लिए परम देवता होता है।

    लक्ष्मीपति भगवान्‌ वासुदेव सबों के हृदयमें स्थित हैं और सकाम भक्तों द्वारा विभिन्न नामों तथा देव-रूपों में पूजे जाते हैं।

    इसी प्रकारपति भगवान्‌ के रूप में पत्नी के लिए पूजा की वस्तु है।

    तस्मात्पतिब्रता नार्य: श्रेयस्कामा: सुमध्यमे ।

    यजन्तेनन्यभावेन पतिमात्मानमी श्वरम्‌ ॥

    ३५॥

    तस्मातू--अतः ; पति-ब्रता:--पति-परायण: ; नार्य:--स्त्रियाँ; श्रेय:-कामा:--कल्याण चाहने वाले; सु-मध्यमे--हेतन्वंगी; यजन्ते--पूजा करते हैं; अनन्य-भावेन--भक्तिपूर्वक; पतिम्‌ू--पति को; आत्मानम्‌--परमात्मा; ईश्वरम्‌ू--श्रीभगवान्‌ के प्रतिनिधि को |

    हे सुन्दर शरीर वाली, तन्‍्वंगी प्रिये! कर्तव्यनिष्ठा पली को सदाचारिणी और अपने पतिकी आज्ञाकारिणी होना चाहिए।

    उसे अपने पति की पूजा वासुदेव के प्रतिनिधि के रूप मेंभक्तिपूर्वक करनी चाहिए।

    सोउहं त्वयार्चितो भद्दे ईहग्भावेन भक्तित: ।

    तं ते सम्पादये काममसतीनां सुदुर्लभम्‌ ॥

    ३६॥

    सः--ऐसा व्यक्ति; अहम्‌--मैं; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अर्चित:--पूजित; भद्रे--हे कल्याणी; ईहक्‌-भावेन--इस प्रकार से;भक्तित:--भक्तिपूर्वक; तम्‌--उस; ते--तुम्हारी; सम्पादये--पूरी करूँगा; कामम्‌ू--इच्छा को; असतीनाम्‌ू--असतियों केलिए; सु-दुर्लभम्‌ू--अप्राप्य

    हे कल्याणी! तुमने मुझे श्रीभगवान्‌ का प्रतिनिधि मानकर अत्यन्त भक्तिपूर्वक मेरी पूजाकी है, अतः मैं तुम्हारी इच्छाओं को पूरा करके तुम्हें पुरस्कृत करूँगा, जो किसी अ-सतीपली के लिए दुर्लभ है।

    दितिरुवाचबरदो यदि मे ब्रह्मन्पुत्रमिन्द्रहणं वृणे ।

    अमृत्युं मृतपुत्राहं येन मे घातितो सुतो ॥

    ३७॥

    दिति: उबाच--दिति ने कहा; वर-दः--वरदान देने वाला; यदि--यदि; मे--मुझको; ब्रह्मनू--हे परम आत्मन्‌; पुत्रम्‌--पुत्र की; इन्द्र-हणम्‌--इन्द्र का वध करने वाला; वृणे--याचना करती हूँ; अमृत्युमू-- अमर; मृत-पुत्रा--जिसके पुत्र मरचुके हैं; अहम्‌-मैं; येन--जिसके द्वारा; मे--मेंरे; घातितौ--मारे गये; सुतौ--दो पुत्र

    दितिने उत्तर दिया--हे पतिदेव! हे महात्मन्‌! मैं अपने दो पुत्र खो चुकी हूँ।

    यदि आपमुझे वर देना चाहते हैं, तो मैं ऐसा अमर पुत्र चाहूँगी जो इन्द्र का वध कर सके।

    मैं इसलिएयह प्रार्थना कर रही हूँ क्योंकि इन्द्र ने विष्णु की सहायता से मेरे दो पुत्रों, हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु, का वध किया है।

    निशम्य तद्बचो विप्रो विमना: पर्यतप्यत ।

    अहो अधर्म: सुमहानद्य मे समुपस्थितः ॥

    ३८॥

    निशम्य--सुनकर; तत्‌-वच:--उसके शब्द; विप्र:--ब्राह्मण; विमना:--खिन्न; पर्यतप्यत--पछताने लगा; अहो--ओह;अधर्म: --अधर्म; सु-महान्‌--अत्यन्त महान्‌; अद्यू--आज; मे--मुझ पर; समुपस्थित:--आ गया है।

    दिति की प्रार्थना सुनकर कश्यप मुनि अत्यधिक उद्विग्न हो गये।

    वे पश्चाताप करने लगे,'हाय, अब मेरे समक्ष इन्द्र को वध करने के अपवित्र कार्य का संकट आया है।

    अहो अर्थेन्द्रियारामो योषिन्मय्येह मायया ।

    गृहीतचेता: कृपण: पतिष्ये नरके श्रुवम्‌ ॥

    ३९॥

    अहो--ओह; अर्थ-इन्द्रिय-आराम:-- भौतिक सुख में अत्यधिक लिप्त; योषित्‌-मय्या--स्त्री के रूप में; हह--यहाँ;मायया--माया के द्वारा; गृहीत-चेता:--मेरा मोहित मन; कृपण:--कंजूस, निष्ठुर; पतिष्ये--मैं जा गिरूँगा; नरके--नरकमें; शुवम्‌--निश्चय ही।

    कश्यप मुनि ने सोचा, ओह! मैं अब भौतिक सुख के प्रति अत्यधिक आसक्त हो चुकाहूँ।

    अत: इस अवसर का लाभ उठाकर मेरा मन श्रीभगवान्‌ की माया द्वारा स्त्री ( अपनीपत्नी ) के रूप में आकृष्ट हुआ है।

    अतः मैं अत्यन्त नीच हूँ और अवश्य ही नरक में जागिरूँगा।

    कोठउतिक्रमो<नुवर्तन्त्या: स्वभावमिह योषित: ।

    धिड्मां बताबुध॑ स्वार्थे यद॒हं त्वजितेन्द्रिय:ः ॥

    ४०॥

    कः--क्या; अतिक्रम:--पाप ( दोष ); अनुवर्तन्त्या:--अनुसरण करते हुए; स्व-भावम्‌--उसकी प्रकृति; इह--यहाँ;योषित:--स्त्री का; धिकू-धिक्कार है; मामू--मुझको; बत--हाय, ओह; अबुधम्‌-- अपरिचित; स्व-अर्थे-- अपने लाभके हेतु; यत्‌ू--क्योंकि; अहम्‌--मैं; तु--निस्सन्देह; अजित-इन्द्रियः:--अपनी इन्द्रियों को वश में करने में अशक्त |

    मेरी इस पतली ने उस साधन का सहारा लिया है, जो उसकी प्रकृति का अनुगामी है,अतः उसको दोष नहीं दिया जा सकता।

    किन्तु मैं तो पुरुष हूं।

    सारा दोष तो मेरा है क्योंकिमैं तनिक भी जान न पाया कि मेरी भलाई किसमें है क्योंकि मैं अपनी इन्द्रियों को वश मेंनहीं रख सका।

    शरत्पद्ोत्सवं वकत्रं वचश्च श्रवणामृतम्‌ ।

    हृदयं क्षुरधाराभे स्त्रीणां को वेद चेष्टितम्‌ ॥

    ४१॥

    शरत्‌--शरद ऋतु में; पदा--कमल-पुष्प; उत्सवम्‌--फूलते हुए; वक्त्रमू--मुख; वच:--शब्द; च-- भी; श्रवण--कानके लिए; अमृतम्‌--सुख देने वाले; हृदयम्‌--हृदय; क्षुर-धारा--छुरे की धार; आभम्‌--सहश; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के;कः--कौन; वेद--जानता है; चेष्टितम्‌--चरित्र को |

    स्त्री का मुख शरदकालीन खिले हुए कमल-पुष्प के समान आकर्षक तथा सुन्दर होताहै।

    उसके शब्द अत्यन्त मधुर और कानों को प्रिय लगने वाले होते हैं, किन्तु यदि उसके हृदयका अध्ययन किया जाये, तो पता चलेगा कि वह छुरे की धार के समान अत्यन्त पैना है।

    भला ऐसा कौन है, जो स्त्री के कार्यकलापों को जान सके ?

    न हि कश्रित्प्रियः सत्रीणामझसा स्वाशिषात्मनाम्‌ ।

    पतिं पुत्र भ्रातरं वा घ्नन्त्यर्थ घातयन्ति च ॥

    ४२॥

    न--नहीं; हि--निश्चय ही; कश्चित्‌--कोई; प्रिय:--प्रिय; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों का; अज्ञसा--वास्तव में; स्व-आशिषा--अपने स्वार्थ के लिए; आत्मनाम्‌--सर्वाधिक प्रिय; पतिम्‌--पति को; पुत्रम्‌--पुत्र को; भ्रातरम्‌-- भाई को; वा--अथवा;घ्नन्ति--मार डालती हैं; अर्थ--अपने स्वार्थ के लिए; घातयन्ति--वध करवाती हैं; च-- भी

    अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए स्त्रियाँ मनुष्यों के साथ ऐसा व्यवहार करती हैं मानो वेउनकी सर्वाधिक प्रिय हों, किन्तु वास्तव में उनका कोई प्रिय नहीं होता।

    स्त्रियों को अतिसाधु स्वभाव का माना जाता है, किन्तु अपने स्वार्थ के लिए वे अपने पति, पुत्र या भाई कीभी हत्या कर सकती हैं या दूसरों से करा सकती हैं।

    प्रतिश्रुतं ददामीति वचस्तन्न मृषा भवेत्‌ ।

    वर्ध॑ नाहति चेन्द्रोडपि तत्रेदमुपकल्पते ॥

    ४३॥

    प्रतिश्रुभ्‌--वचन दिया गया; ददामि--दूँगा; इति--इस प्रकार; वच:ः--कथन; तत्‌ू--वह; न--नहीं ; मृषा--झूठा;भवेत्‌--हो सकता है; वधम्‌--हत्या; न--नहीं; अर्हति--उपयुक्त है; च--तथा; इन्द्र: --इन्द्र; अपि-- भी; तत्र--उस प्रसंगमें; इदम्‌--यह; उपकल्पते--उपयुक्त है

    मैंने उसे एक वर देने का वचन दिया है, जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता,लेकिन इन्द्र वध किये जाने योग्य नहीं है।

    इस स्थिति में मैने जो उपाय ( हल ) सोचा है, वहउपयुक्त है।

    इति सन्ञिन्त्य भगवान्मारीच: कुरुनन्दन ।

    उवाच किझ्ञित्कुपित आत्मानं च विगहयन्‌ ॥

    ४४॥

    इति--इस प्रकार; सद्धिन्त्य--सोचकर; भगवान्‌--शक्तिमान; मारीच:--कश्यप मुनि; कुरु-नन्दन--हे कुरुवंशी;उवाच--बोला; किश्ञित्‌ू--कुछ-कुछ; कुपित: --क्रुद्ध; आत्मानम्‌-- अपने आप को; च--भी; विगर्हयन्‌ू-धिक्कारते हुए

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--इस प्रकार विचारते हुए कश्यप मुनि कुछ-कुछ क्रुद्ध होगये।

    हे कुरुवंशी महाराज परीक्षित! वे अपने आपको धिक्कारते हुए दिति से इस प्रकार बोले।

    श्रीकश्यप उबाचपुत्रस्ते भविता भद्रे इन्द्रहादेवबान्धवः ।

    संवत्सरं ब्रतमिदं यद्यजझ्लो धारयिष्यसि ॥

    ४५॥

    श्री-कश्यप: उबाच--कश्यप मुनि ने कहा; पुत्र: --पुत्र; ते--तुम्हारा; भविता--होगा; भद्रे--हे कल्याणी; इन्द्र-हा--इन्द्रका वध करने वाला, अथवा इन्द्र का अनुयायी; अदेव-बान्धव:--असुरों का मित्र ( अथवा देव-बान्धव: --देवताओं कामित्र ); संवत्सरम्‌--एक वर्ष तक; ब्रतम्‌--त्रत को; इदम्‌--इस; यदि--यदि; अज्ञः--उचित रीति से; धारयिष्यसि--पालन करोगी।

    कश्यप मुनि ने कहा, हे कल्याणी! यदि तुम अपने इस ब्रत के सम्बन्ध में मेरे उपदेशोंका कम से कम एक वर्ष तक पालन करोगी तो तुम्हें निश्चित रूप से पुत्र प्राप्त होगा जो इन्द्रका वध करने में सक्षम होगा।

    किन्तु यदि तुम वैष्णव नियमों का पालन करने वाले इस ब्रत से तनिक भी विचलित होगी तो तुम्हें जो पुत्र प्राप्त होगा वह इन्द्र का अनुयायी होगा।

    दितिरुवाचधारयिष्ये ब्रतं ब्रह्मन्ब्रूहि कार्याणि यानि मे ।

    यानि चेह निषिद्धानि न ब्रतं घ्नन्ति यान्युत ॥

    ४६॥

    दितिः उवाच--दिति ने कहा; धारयिष्ये--अंगीकार करूँगी; व्रतम्‌--ब्रत; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; ब्रूहि--कृपया कहें;कार्याणि--करणीय; यानि--जो सब; मे--मुझसे; यानि--जो सब; च--तथा; इह--यहाँ; निषिद्धानि-- वर्जित; न--नहीं; ब्रतम्‌--ब्रत; घ्नन्ति--तोड़ते हैं; यानि--जो सब; उत-- भी

    दिति ने उत्तर दिया--हे ब्राह्मण! मैं आपके परामर्श को स्वीकार करती हूँ।

    मैं व्रत कापालन करूँगी।

    अब मुझे बतावें कि मुझे क्या करना है, क्या नहीं करना है और किस प्रकारयह ब्रत भंग नहीं हो सकेगा ?

    कृपा करके यह सब स्पष्ट बताए।

    श्रीकश्यप उबाचन हिंस्याद्धृूतजातानि न शपेन्नानृतं बदेत्‌ ।

    न छिन्द्यानच्नखरोमाणि न स्पृशेद्यदमड्रलम्‌ ॥

    ४७॥

    श्री-कश्यप: उवाच--कश्यप मुनि ने कहा; न हिंस्थात्‌ू--हिंसा न करे; भूत-जातानि--जीवात्माओं की; न शपेत्‌--शाप नदे; न--नहीं; अनृतम्‌--झूठ; वदेत्‌--बोले; न छिन्द्यातू--न काटे; नख-रोमाणि--नाखून तथा रोएँ; न स्पृशेत्‌ू-स्पर्श नकरे; यत्‌ू--जो; अमड्रलमू-- अशुभ

    कश्यप मुनि ने कहा, हे प्रिये! इस व्रत का पालन करते समय न तो उग्र बने, न ही किसीको कष्ट पहुँचाए।

    न तो किसी को शाप दे, न असत्य भाषण करे।

    न तो अपने नाखून तथाबाल काटे और न हड्डियों तथा खोपड़ी जैसी अशुद्ध वस्तुओं का स्पर्श करे।

    नाप्सु स्नायान्न कुप्येत न सम्भाषेत दुर्जनै: ।

    न वसीताधौतवास: स्त्रजं च विधृतां क्वचित्‌ ॥

    ४८ ॥

    न--नहीं; अप्सु--जल में; स्नायातू--नहाए; न कुप्येत--न क्रोध करे; न सम्भाषेत--न बोले; दुर्जनै:--बुरे लोगों से; नवसीत--न धारण करे; अधौत-वास: --बिना धुले कपड़े; सत्रजम्‌ू--फूलों की माला; च--तथा; विधृताम्‌--पहनी हुई;क्वचित्‌--कभी |

    कश्यप मुनि ने आगे कहा--हे कल्याणी! नहाते समय पानी में कभी न घुसे, कभीक्रोध न करे और न दुष्ट लोगों से कभी बोले या संगति करे।

    कभी भी बिना धुले वस्त्र नपहने और पहले धारण की गई माला को कभी न पहने।

    नोच्छिष्ठटं चण्डिकान्नं च सामिषं वृषलाहतम्‌ ।

    भुड्जीतोदक्यया दृष्ट पिबेन्नाज्ललिना त्वप: ॥

    ४९॥

    न--नहीं; उच्छिष्टम्‌--जूठा भोजन; चण्डिका-अन्नमू--देवी काली को चढ़ाया गया भोजन; च--तथा; स-आमिषम्‌--मांस से युक्त; वृषल-आहतम्‌--शूद्र द्वारा लाया हुआ; भुञ्लीत--खाए; उदक्यया--रजस्वला स्त्री द्वारा; दृष्टमू--देखा गया;पिबेत्‌ न--नहीं पिये; अज्ललिना--दोनों हाथों की अँजुली द्वारा; तु--भी; अप:--जल |

    कभी भी जूठा भोजन न खायें, देवी काली (दुर्गा) को चढ़ाया हुआ प्रसाद न खायेंऔर मांस या मछली से मिश्रित कोई भी वस्तु न खायें।

    शूद्र द्वारा लाई गई या शूद्र द्वारा स्पर्शकी गईं अथवा रजस्वला स्त्री द्वारा देखी गई किसी भी सामग्री को न खायें।

    अंजली से पानीन पियें।

    नोच्छिष्टास्पृष्टसलिला सम्ध्यायां मुक्तमूर्थजा ।

    अनचितासंयतवाक्नासंबीता बहिश्नरेत्‌ ॥

    ५०॥

    न--नहीं; उच्छिष्टा --जूठा; अस्पृष्ट-सलिला--बिना धोये; सन्ध्यायाम्‌ू--सायंकाल; मुक्त-मूर्थजा--बाल खोले हुए;अनर्चिता--आभूषण रहित; असंयत-वाक्‌--वाणी के संयम बिना; न--नहीं; असंवीता--बिना ओढ़े; बहि:--बाहर;चरेत्‌--जाए।

    भोजन करने के पश्चात्‌ तुम्हें मुँह, हाथ तथा पाँव धोये बिना बाहर सड़क पर नहीं जाना चाहिए तुम्हें न तो शाम को या बाल खोले हुए और न आभूषणों से सज्जित हुए बिना बाहरजाना चाहिए।

    जब तक वाणी का संयम न हो और शरीर ठीक से ढका न हो तब तक तुम्हेंघर से बाहर नहीं जाना चाहिए।

    नाधौतपादाप्रयता नार्द्रपादा उदक्शिरा: ।

    शयीत नापराड्नान्यैर्न नग्ना न च सन्ध्ययो: ॥

    ५१॥

    न--नहीं; अधौत-पादा--बिना धुले पाँव; अप्रयता--बिना शुद्ध हुए; न--नहीं; अर्द्र-पादा-- भीगे पाँव; उदक्‌ -शिरा:--उत्तर की ओर सिर करके; शयीत--सोए; न--नहीं; अपराक्‌-- पश्चिम की ओर सिर करके; न--नहीं; अन्यै:--अन्यस्त्रियों के साथ; न--नहीं; नग्ना--निर्वस्त्र होकर; न--नहीं; च--तथा; सन्ध्ययो:--सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय ।

    तुम्हें न तो दोनों पाँव धोये बिना या शुद्ध हुए बिना, न ही गीले पाँव अथवा अपना सिरपश्चिम या उतर करके सोना चाहिए सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय, निर्वस्त्र होकर तथाअन्य स्त्रियों के साथ नहीं लेटना चाहिए।

    धौतवासा शुचिर्नित्यं सर्वमड्जलसंयुता ।

    पूजयेत्प्रातराशात्प्राग्गोविप्राउ्श्रयमच्युतम्‌ ॥

    ५२॥

    धौत-वासा--थुले वस्त्र पहन कर; शुचि:--शुद्ध होकर; नित्यम्‌--सदैव; सर्व-मड़ल--समस्त शुभ सामग्रियों सहित;संयुता--सज्जित होकर; पूजयेत्‌ू--पूजा करनी चाहिए; प्रातः-आशातू्‌ प्राकु-कलेवा के पूर्व; गो-विप्रानू--गायों तथाब्राह्मणों; भ्रियम्‌ू--सम्पत्ति की देवी; अच्युतम्‌-- श्री भगवान्‌ को ।

    मनुष्य को चाहिए कि धुला वस्त्र पहन कर, सदैव शुद्ध रहकर तथा हल्दी, चंदन और अन्य मांगलिक सामग्रियों से अलंकृत होकर कलेवा करने के पूर्व गायों, ब्राह्मणों, ऐश्वर्य कीदेवी ( लक्ष्मी ) तथा श्रीभगवान्‌ की पूजा करे।

    स्त्रियो वीरवर्तीश्षार्चेत्स्रग्गन्धबलिमण्डनै: ।

    पतिं चार्च्योपतिष्ठेत ध्यायेत्कोष्ठगतं च तम्‌ ॥

    ५३॥

    स्त्रियः:--स्त्रियाँ; वीर-वती:--पति तथा पुत्रों से सम्पन्न; च--तथा; अर्चेतू-पूजन करना चाहिए; सत्रक्‌-पुष्प मालाओंसे; गन्ध--चन्दन; बलि--भेंट; मण्डनै:--तथा आभूषणों से; पतिम्‌ू--पति की; च--तथा; आर्च्य--पूजा करके;उपतिष्ठेत--स्तुति करना चाहिए; ध्यायेत्‌ू-- ध्यान करनी चाहिए; कोष्ठट-गतम्‌--गर्भ में रहकर; च-- भी; तमू--उसको |

    इस ब्रत का पालन करने वाली स्त्री को चाहिए कि वह पुष्प माला, चन्दन, आभूषणतथा अन्य सामग्रियों से पुत्रवती तथा सौभाग्यवती स्त्रियों की पूजा करे।

    गर्भवती स्त्री कोअपने पति की पूजा करके उसकी स्तुति करनी चाहिए।

    उसे उसका ध्यान यह सोचकर करनाचाहिए कि वह उसके गर्भ में स्थित है।

    सांवत्सरं पुंसवनं ब्रतमेतदविप्लुतम्‌ ।

    धारयिष्यसि चेत्तुभ्यं शक्रहा भविता सुत: ॥

    ५४॥

    सांवत्सरम्‌--एक वर्ष तक; पुंसवनम्‌--पुंसवन नामक; ब्रतम्‌-ब्रत; एतत्‌--यह; अविप्लुतम्‌--तोड़े बिना, अतिक्रमणकिये बिना; धारयिष्यसि--करोगी; चेत्‌--यदि; तुभ्यम्‌--तुम्हारे; शक्र -हा--इन्द्र का वधकर्ता; भविता--होगा; सुतः--पुत्र |

    कश्यप मुनि ने आगे कहा--यदि तुम श्रद्धापूर्वक कम से कम एक वर्ष तक इस ब्रत मेंलगी रहकर इस पुंसवन अनुष्ठान को करोगी तो तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होगा जो इन्द्र का वधकरेगा।

    किन्तु यदि इस ब्रत को करने में कुछ भी त्रुटि रह गई तो तुम्हारा पुत्र इन्द्र का मित्रबन जाएगा।

    बाढमित्यभ्युपेत्याथ दिती राजन्महामना: ।

    कश्यपादगर्भमाधत्त ब्रतं चाझ्लो दधार सा ॥

    ५५॥

    बाढम्‌--तथास्तु; इति--इस प्रकार; अभ्युपेत्य--स्वीकार करके; अथ--तब; दिति: --दिति ने; राजन्‌ू--हे राजा; महा-मना:--हर्षित; कश्यपात्‌ू--कश्यप से; गर्भम्‌--वीर्य; आधत्त--प्राप्त करके; ब्रतम्‌-ब्रत; च--तथा; अज्भञ:--ठीक से;दधार--पालन किया; सा--उसने |

    हे राजा परीक्षित! कश्यप की पत्नी दिति ने पुंसतन नामक शुद्धिकर्त्नीं विधि को करनाअंगीकार कर लिया।

    उसने कहा, 'हाँ, मैं आपके उपदेशानुसार सब कुछ करूँगी।

    वहअत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कश्यप का वीर्य धारण कर गर्भवती हुईं और श्रद्धापूर्वक व्रत कापालन करती रही।

    मातृष्वसुरभिप्रायमिन्द्र आज्ञाय मानद ।

    शुश्रूषणेनाश्रमस्थां दितिं पर्यचरत्कवि: ॥

    ५६॥

    मातृ-स्वसु: --अपनी माता की बहन ( मौसी ) का; अभिप्रायम्‌--मन्तव्य; इन्द्र:--इन्द्र; आज्ञाय--समझकर; मान-द--सबों को सम्मान देने वाले, हे राजा परीक्षित; शुश्रूषणेन--सेवा से; आश्रम-स्थाम्‌-- आश्रम में रहने वाली; दितिम्‌--दिति;पर्यचरत्‌--परिचर्या की गई; कवि:--अपना स्वार्थ देखकर।

    सबों का सम्मान करने वाले हे राजा! इन्द्र ने दिति का मन्तव्य जान लिया, अतः वहअपना स्वार्थ साधने की युक्ति सोचने लगा।

    इस तर्क का अनुसरण करते हुए कि आत्म-रक्षाप्रकृति का प्रथम नियम है, उसने दिति की प्रतिज्ञा को भंग करना चाहा।

    अतः वहआश्रमवासिनी अपनी मौसी दिति की सेवा करने लगा।

    नित्यं वनात्सुमनस: फलमूलसमित्कुशान्‌ ।

    पत्राद्डु रमृदोपश्च काले काल उपाहरत्‌ ॥

    ५७॥

    नित्यमू-- प्रतिदिन; वनात्‌ू--वन से; सुमनस:--फूल; फल--फल; मूल--जड़ें; समित्‌--यज्ञ के लिए समिधा ( लकड़ी );कुशान्‌--तथा कुश; पत्र--पत्तियाँ; अब्डु र--कलियाँ; मृदः--तथा मिट्टी; अप:--जल; च--भी; काले काले--उचितसमय पर; उपाहरत्‌--ले आने लगा।

    इन्द्र प्रतेदिन जंगल से फूल, फल, कंद तथा यज्ञ के लिए समिधा लाकर अपनी मौसीकी सेवा करने लगा।

    वह उचित समय पर कुश, पत्तियाँ, कलियाँ, मिट्टी तथा जल भी लेआता था।

    एवं तस्या ब्रतस्थाया ब्रतच्छिद्रं हरिनृप ।

    प्रेप्सु; पर्यचरज्जिहो मृगहेव मृगाकृति: ॥

    ५८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार; तस्या:--उस ( दिति ) का; ब्रत-स्थाया:-- श्रद्धापूर्वक अपना व्रत का पालन करने वाली; ब्रत-छिद्गरमू--ब्रत पालन करने में त्रुटि ( कमी ); हरिः--इन्द्र; नृप--हे राजन; प्रेप्सु:--ढूँढने की इच्छा से; पर्यचरत्‌--सेवा कीगई; जिहा: --छलपूर्ण; मृग-हा--बहेलिया; इब--सहृश; मृग-आकृति:--हिरन के रूप में |

    है राजा परीक्षित! जिस प्रकार बहेलिया हिरन को मारने के लिए हिरन की खाल पहनकर छदावेष धारण करता है उसी प्रकार से इन्द्र, हृदय से दिति पुत्रों का शत्रु किन्तु बाहर सेमित्र बनकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक दिति की सेवा करने लगा।

    इन्द्र का मन्तव्य दिति के ब्रत केअनुष्ठान में त्रुटि निकालकर उसे धोखा देना था, किन्तु साथ ही वह नहीं चाहता था कि कोई उसे पहचान सके इसलिए वह अत्यन्त सतर्कता के साथ उसकी सेवा करने लगा।

    नाध्यगच्छद्व्रतच्छिद्रं तत्परोथ महीपते ।

    चिन्तां तीव्रां गत: शक्रः केन मे स्याच्छिवं त्विह ॥

    ५९॥

    न--नहीं; अध्यगच्छत्‌--पा सका; ब्रत-छिद्गरम्‌-व्रत पालन में त्रुटि; तत्‌-पर: --उसमें व्यस्त; अथ--तत्पश्चात्‌; मही-पते--हे विश्व के स्वामी; चिन्ताम्‌ू--चिन्ता को; तीव्राम्‌ू--तीत्र; गत: --प्राप्त; शक्र:--इन्द्र; केन--किस प्रकार; मे--मेरा; स्थातू--हो सकता है; शिवम्‌--शुभ; तु--तब; इह--यहाँ

    हे विश्वेश्वर! जब इन्द्र को कोई त्रुटि न मिली तो उसने सोचा, अब मेरा कल्याण कैसेहो ?

    इस प्रकार वह गहरी चिन्ता में डूब गया।

    एकदा सा तु सन्ध्यायामुच्छिष्ठा ब्रतकर्शिता ।

    अस्पृष्ठवार्यधौताड्प्रि: सुष्वाप विधिमोहिता ॥

    ६०॥

    एकदा--एक बार; सा--वह; तु--लेकिन; सन्ध्यायाम्‌--संध्या समय; उच्छिष्टा-- भोजन के तुरन्त बाद; ब्रत--ब्रत से;कर्शिता--दुर्बल तथा अशक्त; अस्पृष्ट--बिना आचमन लिए; वारि--जल; अधौत--बिना धोये; अद्भप्रि:--अपने पाँव;सुष्वाप--सोने के लिए गई; विधि--दैववश; मोहिता--मोहित होकर

    कठोरता से ब्रत का पालन करते रहने से अत्यन्त क्षीण एवं अशक्त हो जाने सेदुर्भाग्यवश दिति ने भोजन के पश्चात्‌ मुँह, हाथ तथा पाँव धोने में लापरवाही बरती औरसन्ध्या में ही सो गई।

    लब्ध्वा तदन्तरं शक्रो निद्रापहतचेतस: ।

    दितेः प्रविष्ट उदर योगेशो योगमायया ॥

    ६१॥

    लब्ध्वा--पाकर; तत्‌-अन्तरम्‌ू--तत्पश्चात्‌; शक्र: --इन्द्र; निद्रा--नींद से; अपहत-चेतस:--अचेत; दितेः--दिति के;प्रविष्ट:--घुस गया; उदरम्‌--गर्भ में; योग-ईश:--योग के स्वामी, योगेश्वर; योग--योग-सिद्धियों की; मायया--शक्तिसे

    इस त्रुटि को पाकर समस्त योगशक्तियों ( योग सिद्धियाँ यथा अणिमा, लघिमा ) कास्वामी इन्द्र घोर निद्रा में अचेत दिति के गर्भ में प्रविष्ट हो गया।

    चकर्त सप्तधा गर्भ वज़ेण कनकप्रभम्‌ ।

    रुदन्तं सप्तथैकैक मा रोदीरिति तान्पुन: ॥

    ६२॥

    चकर्त--काट दिया; सप्त-धा--सात खंडों में; गर्भभू--गर्भ को; वज्जेण-- अपने वज़ से; कनक--स्वर्ण की; प्रभम्‌--ज्योति वाले; रुदन्‍्तम्‌--रोते हुए; सप्त-धा--सात खंडों में; एक-एकम्‌-प्रत्येकों; मा रोदी:--मत रोओ; इति--इसप्रकार; तानू--उनको; पुन:--फिर।

    दिति के गर्भ में प्रविष्ट होकर इन्द्र ने अपने बज्ञ से चमकते हुए सोने के समान गर्भ( भ्रूण ) को सात खण्डों में काट डाला।

    सात स्थानों में सात विभिन्न जीव रोने लगे।

    इन्द्र ने'मत रो' ऐसा कहकर प्रत्येक को पुनः सातखण्डों में काट डाला।

    तमूचु: पाट्यमानास्ते सर्वे प्राज्ञलयो नूप ।

    कि न इन्द्र जिघांससि भ्रातरो मरूतस्तव ॥

    ६३॥

    तम्‌--उसकी; ऊचु:--कहा; पाट्यमाना:--संतप्त होकर; ते--वे; सर्वे--समस्त; प्राज्ललय:--हाथ जोड़े; नृप--हे राजा;किमू--क्‍्यों; न:--हमको; इन्द्र--हे इन्द्र; जिघांससि--मारना चाहते हो; भ्रातर:-- भाइयों को; मरूत:--मरूद्गण;तब--तुम्हारेअत्यन्त संतप्त होकर

    हाथ जोड़कर उन्होंने इन्द्र से कहा--'हे राजन! हे इन्द्र! हम तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं।

    तुम हमें क्‍यों मार रहे हो ?

    'मा भेष्ट भ्रातरो मह्मं यूयमित्याह कौशिक: ।

    अनन्यभावान्पार्षदानात्मनो मरुतां गणान्‌ ॥

    ६४॥

    मा भैष्ट-- मत डरो; भ्रातर: -- भाई; महाम्‌--मेरे; यूयम्‌--तुम सब; इति--इस प्रकार; आह--कहा; कौशिक: --इन्‍्द्र;अनन्य-भावान्‌-भक्तिपूर्ण; पार्षदान्‌-- अनुयायीगण; आत्मन:--अपने; मरुताम्‌ गणान्‌--मरूदगणों से

    जब इन्द्र ने देखा कि वे वास्तव में उसके भक्त-अनुयायी हैं, तो उसने उनसे कहा कियदि तुम सचमुच मेरे भाई हो तो तुम्हें मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है।

    न ममार दितेगर्भ: श्रीनिवासानुकम्पया ।

    बहुधा कुलिशश्षुण्णो द्रौण्यस्त्रेण यथा भवान्‌ ॥

    ६५॥

    न--नहीं; ममार--मरा; दितेः--दिति का; गर्भ:--गर्भ ( भ्रूण ); श्रीनिवास--लक्ष्मी के निवास स्थान, भगवान्‌ विष्णु के;अनुकम्पया--अनुग्रह से; बहु-धा--अनेक खण्डों में; कुलिश--वज़ से; क्षुणण:--कटा हुआ; द्रौणि--अश्वत्थामा के;अस्त्रेण--अस्त्र से; यथा--जिस प्रकार; भवान्‌ू--आप |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा, हे राजा परीक्षित! आप अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जला दियेगये थे, किन्तु जब श्रीकृष्ण आपकी माता के गर्भ में प्रविष्ट हुए तो आप बच गए।

    इसीप्रकार यद्यपि इन्द्र ने एक गर्भ को वज् द्वारा उनचास खण्डों में काट डाला था, किन्तु वेसभी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के अनुग्रह से बच गये।

    सकृदिष्ठादिपुरुषं पुरुषो याति साम्यताम्‌ ।

    संवत्सरं किद्धिदूनं दित्या यद्धरिरचित: ॥

    ६६॥

    सजूरिन्द्रेण पञ्ञाशद्देवास्ते मरूतोभवन्‌ ।

    व्यपोह्य मातृदोषं ते हरिणा सोमपा: कृता: ॥

    ६७॥

    सकृत्‌--एक बार; इष्ठा--पूजा करके; आदि-पुरुषम्‌--आदि पुरुष को; पुरुष: --एक व्यक्ति; याति--जाता है;साम्यताम्‌ू-- भगवान्‌ जैसा शरीर धारण किये हुए; संवत्सरम्‌--एक वर्ष; किल्जित्‌ ऊनम्‌--कुछ कम; दित्या--दिति केद्वारा; यत्‌-- क्योंकि; हरिः-- भगवान्‌ हरि; अर्चित:--पूजित; सजू:--के साथ; इन्द्रेण--इन्द्र; पञ्चाशत्‌--पचास; देवा:--देवता; ते--वे; मरुत: --मरुद्गण; अभवन्‌--हुए; व्यपोह्म--हटाकर; मातृ-दोषम्‌--अपनी माता का दोष; ते--वे;हरिणा-- भगवान्‌ हरि द्वारा; सोम-पा:--सोमरस पीने वाले; कृता:--बनाये गये थे।

    यदि कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा एक बार भी करता है, तो वह बैकुण्ठ मेप्रवेश करने का अधिकारी हो जाता है तथा भगवान्‌ विष्णु के रूप को प्राप्त करता है।

    संकल्पपूर्वक कड़ाई से नियमों का पालन करते हुए दिति ने लगभग एक वर्ष तक भगवान्‌विष्णु की पूजा की।

    आध्यात्मिक जीवन की इस शक्ति के कारण उनचास मरुद्रगण पैदाहुए।

    यद्यपि मरुद्रगण दिति के गर्भ से पैदा हुए, किन्तु परम भगवान्‌ की कृपा से वे देवताओंकी बराबरी पर आ गये, यह कैसा आश्चर्य है?

    दितिरुत्थाय ददशे कुमाराननलप्रभान्‌ ।

    इन्द्रेण सहितान्देवी पर्यतुष्यदनिन्दिता ॥

    ६८॥

    दिति:--दिति ने; उत्थाय--उठकर; ददशे --देखा; कुमारान्‌ू--बालकों को; अनल-प्रभान्‌--अग्नि के समान तेजस्वी;इन्द्रेण सहितानू--इन्द्र के साथ; देवी--देवी; पर्यतुष्यत्‌--प्रसन्न थी; अनिन्दिता--शुद्ध हुई |

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा करने से दिति पूर्णतया शुद्ध हो गई थी।

    जब वहबिस्तर से उठी तो उसने इन्द्‌ समेत अपने उनचास पुत्रों को देखा।

    ये उनचासों पुत्र अग्नि केसमान तेजवान थे और इन्द्र के मित्र थे अतः वह अतीव प्रसन्न थी।

    अथेन्द्रमाह ताताहमादित्यानां भयावहम्‌ ।

    अपत्यमिच्छन्त्यचरं ब्रतमेतत्सुदुष्करम्‌ ॥

    ६९॥

    अथ--तदनन्तर; इन्द्रमू--इन्द्र से; आह--बोली; तात--प्यारे बेटे; अहम्‌--मैं; आदित्यानाम्‌-- आदित्यों से; भय-आवहमू-- भयभीत करने वाली; अपत्यम्‌--पुत्र; इच्छन्‍्ती--इच्छा करती हुई; अचरम्‌--पालन किया; ब्रतम्‌--ब्रत;एतत्‌--यह; सु-दुष्करम्‌--जो कर पाना अत्यन्त कठिन है।

    तदनन्तर, दिति ने इन्द्र से कहा--हे पुत्र! मैं इस कठोर व्रत का इसलिए पालन कर रही थी कि तुम बारहों आदित्यों को मारने के लिए एक पुत्र प्राप्त कर सकूँ।

    एक: सद्डूल्पितः पुत्र: सप्त सप्ताभवन्‍्कथम्‌ ।

    यदि ते विदितं पुत्र सत्यं कथय मा मृषा ॥

    ७०॥

    एक:--एक; सड्जूल्पित:--प्रार्थना की थी; पुत्र:--पुत्र; सप्त सप्त--उनचास; अभवनू--हो गये; कथम्‌--किस प्रकार;यदि--यदि; ते--तुम्हारे द्वारा; विदितमू--ज्ञात; पुत्र--हे पुत्र!; सत्यम्‌ू--सच सच; कथय--कहो; मा--मत ( बोलना );मृषा--झूठ |

    मैंने केवल एक पुत्र के लिए प्रार्थना की थी, किन्तु मैं देखती हूँ कि ये तो उनचास हैं।

    यह किस तरह सम्भव हो सका ?

    मेरे पुत्र इन्द्र! यदि तुम जानते हो तो मुझसे सच सच कहो।

    झूठ बोलने का प्रयास मत करना।

    इन्द्र उबाचअम्ब तेहं व्यवसितमुपधार्यागतोउन्तिकम्‌ ।

    लब्धान्तरोच्छिदं गर्भमर्थबुद्धिर्न धर्महक्‌ ॥

    ७१॥

    इन्द्र: उबाच--इन्द्र ने कहा; अम्ब--हे माता; ते--तुम्हारा; अहम्‌--मैं; व्यवसितम्‌--ब्रत; उपधार्य--समझकर; आगत:--आया; अन्तिकम्‌--पास ही; लब्ध--पाकर; अन्तर:--त्रुटि, दोष; अच्छिदम्‌--मैंने काट दिया; गर्भम्‌ू--गर्भ; अर्थ-बुद्धिः--स्वार्थवश; न--नहीं; धर्म-हक्‌-- धर्म-दृष्टि वाला

    इन्द्र ने उत्तर दिया--हे माता! स्वार्थ से अंधा होने के कारण मैंने धर्म से मुँह मोड़ लियाथा।

    जब मुझे ज्ञात हुआ कि आप आध्यात्मिक जीवन का महान्‌ व्रत धारण कर रही हैं, तो मैंउसमें कोई त्रुटि निकालना चाहता था।

    और जब मुझे त्रुटि मिल गईं तो मैं आपके गर्भ मेंप्रविष्ट हो गया और मैंने गर्भ को खंड खंड कर दिया।

    कृत्तो मे सप्तधा गर्भ आसन्सप्त कुमारका: ।

    तेडपि चैकैकशो वृकणा: सप्तधा नापि मप्निरि ॥

    ७२॥

    कृत्त:--काटा गया; मे--मेरे द्वारा; सप्त-धा--सात खण्डों में; गर्भ:--गर्भ ( भ्रूण )) आसन्‌--हो गया; सप्त--सात;कुमारका:--शिशु; ते--वे; अपि--यद्यपि; च-- भी; एक-एकशः-- प्रत्येक; वृक्णा:--काटे गये; सप्त-धा--सप्तखण्डों में; न--नहीं; अपि---अब तक; मम्निरे--मरे।

    सर्वप्रथम मैंने गर्भस्थ शिशु को सात खण्डों में काट डाला जिससे सात शिशु बन गये।

    तब फिर मैंने प्रत्येक शिशु के भी सात सात खण्ड कर दिये।

    किन्तु परमेश्वर के अनुग्रह सेइनमें से कोई भी मरा नहीं।

    ततस्तत्परमाश्चर्य वीक्ष्य व्यवसितं मया ।

    महापुरुषपूजाया: सिद्धिः काप्यानुषड्धिणी ॥

    ७३॥

    ततः--तब; तत्‌--वह; परम-आश्चर्यम्‌-महान्‌ आश्चर्य; वीक्ष्--देखकर; व्यवसितम्‌--यह निश्चय किया गया; मया--मेरे द्वारा; महा-पुरुष-- भगवान्‌ विष्णु की; पूजाया:--पूजा का; सिर्द्ध:--फल; कापि--कुछ; आनुषड्धिणी --आनुसंगिक, गौण।

    हे माता! जब मैंने देखा कि उनचासों पुत्र जीवित हैं, तो निश्चित ही मुझे आश्चर्य हुआ।

    मुझे विश्वास हो गया कि यह आपके द्वारा विष्णु-उपासना के लिए की गई नियमितभक्तिपूर्ण सेवा का ही आनुषंगिक फल है।

    आराधनं भगवत ईहमाना निराशिष: ।

    ये तु नेच्छन्त्यपि परं ते स्वार्थकुशला: स्मृता: ॥

    ७४॥

    आराधनम्‌--उपासना; भगवत:-- श्री भगवान्‌ की; ईहमाना: -- वांछित; निराशिष: -- भौतिक इच्छाओं से रहित, निष्काम;ये--जो; तु--निस्सन्देह; न इच्छन्ति--कामना नहीं करते; अपि-- भी; परम्‌-- मुक्ति; ते--वे; स्व-अर्थ--अपने हित में;कुशला:--कुशल, दक्ष; स्मृता:--माने हुए |

    यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की उपासना में ही निरत रहने वालों को भगवान्‌ सेकिसी भी प्रकार की भौतिक इच्छा, यहाँ तक कि मुक्ति की भी कामना नहीं रहती, तो भीभगवान्‌ कृष्ण उनकी समस्त कामनाओं को परिपूर्ण करते हैं।

    आश्ध्यात्पप्रदं देवं स्वात्मानं जगदी श्वरम्‌ ।

    को वृणीत गुणस्पर्श बुध: स्यान्नरकेडपि यत्‌ ॥

    ७५॥

    आराध्य--उपासना के बाद; आत्म-प्रदम्‌--जो अपने आपको अर्पित करता है; देवम्‌-- भगवान्‌ को; स्व-आत्मानम्‌--परम-प्रिय; जगत्‌-ईश्वरम्‌--ब्रह्माण्ड के स्वामी को; कः--क्या; वृणीत--चुनेगा; गुण-स्पर्शम्‌--भौतिक सुख; बुध:--बुद्धिमान मनुष्य; स्थात्‌--है; नरके --नरक में; अपि--भी; यत्‌--जो |

    समस्त आकांक्षाओं का अन्तिम लक्ष्य भगवान्‌ का दास बनना है।

    यदि कोई बुद्धिमानमनुष्य अपने भक्तों को आत्मसमर्पित करने वाले परम प्रिय भगवान्‌ की सेवा करता है, तोवह भौतिक सुख की कामना कैसे कर सकता है, जो नरक में भी प्राप्य है ?

    तदिदं मम दौर्जन्यं बालिशस्य महीयसि ।

    क्षन्तुमहसि मातस्त्वं दिष्ठद्या गर्भो मृतोत्थित: ॥

    ७६॥

    तत्‌--वह; इृदम्‌--यह; मम--मुझ ; दौर्जन्यम्‌--कुकृत्य; बालिशस्य--मूर्ख का; महीयसि-हे श्रेष्ठ स्त्री; क्षन्तुम्‌ अहसि--कृपा करके क्षमा करें; मात:--हे माता; त्वम्‌ू-तुम; दिष्टया--सौभाग्य से; गर्भ:--गर्भस्थ शिशु; मृत--मारा हुआ;उत्थित:--जीवित हो उठा ।

    हे माता, हे महीयसी! मैं मूर्ख हूँ।

    मैंने जो भी पाप किये हैं उसके लिए आप मुझे क्षमाप्रदान करें।

    आपके उनचासों पुत्र बिना किसी क्षति के आपकी भक्ति के कारण ही उत्पन्नहुए हैं।

    मैंने शत्रु होने के नाते उनको खण्ड खण्ड कर दिया था, किन्तु आपकी परम भक्तिके कारण वे मरे नहीं।

    श्रीशुक उबाचइन्द्रस्तयाभ्यनुज्ञातः शुद्धभावेन तुष्टया ।

    मरुद्धिः सह तां नत्वा जगाम त्रिदिवं प्रभु; ॥

    ७७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इन्द्र:--इन्द्र; तया--उस ( दिति ) से; अभ्यनुज्ञात:--अनुमति पाकर;शुद्ध-भावेन--शुद्ध आचरण से; तुष्टया--संतुष्ट होकर; मरुद्धि: सह--मरुतों के साथ; तामू--उसको; नत्वा--नमस्कारकरके; जगाम--चला गया; त्रि-दिवम्‌--स्वर्गलोक को; प्रभु:-- भगवान्‌ |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--दिति इन्द्र के इस उत्तम आचरण से अत्यन्त प्रसन्नहुई।

    तब इन्द्र ने अपनी मौसी को अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम किया और उसकी आज्ञा सेअपने मरुद्गण भाइयों सहित स्वर्गलोक को चला गया।

    एवं ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।

    मड्ल॑ मरुतां जन्म कि भूयः कथयामि ते ॥

    ७८॥

    एवम्‌--इस प्रकार; ते--तुमको; सर्वम्‌--सब कुछ; आख्यातम्‌--कह सुनाया; यत्‌--जो; माम्‌--मुझसे; त्वम्‌--तुमने;परिपृच्छसि--पूछा; मड्गलम्‌--शुभ, कल्याणकारी; मरुताम्‌--मरुतों का; जन्म--उत्पत्ति; किमू--क्या; भूय:--आगे;कथयामि--कहूँगा; ते--तुम से |

    हे राजा परीक्षित! मैंने यथासम्भव तुम्हारे द्वारा पूछे गये प्रश्नों, विशेष रूप से मरुतों केइस शुद्ध मंगलकारी वर्णन, का उत्तर दिया।

    अब तुम आगे जो पूछना चाहते हो पूछो, मैं उसेभी विस्तार से बताऊँगा।

    TO

    अध्याय उन्नीस: पुंसवन अनुष्ठान समारोह करना

    6.19श्रीराजोबाचब्रत॑ पुंसव्नं ब्रह्मनम्भवता यदुदीरितम्‌ ।

    तस्य वेदितुमिच्छामि येन विष्णु: प्रसीदति ॥

    १॥

    श्री-राजा उवबाच--महाराज परीक्षित ने कहा; ब्रतम्‌-ब्रत; पुंसवनम्‌--पुंसवन नामक; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; भवता--आपके द्वारा; यत्‌--जो; उदीरितम्‌--कहा गया है; तस्थ--उसका; वेदितुम्‌--जानना; इच्छामि--चाहता हूँ; येन--जिससे;विष्णु:-- भगवान्‌ विष्णु; प्रसीदति--प्रसन्न होते हैं |

    महाराज परीक्षित ने कहा--हे प्रभो! आप पुंसवन ब्रत के सम्बन्ध में पहले ही बता चुकेहैं।

    अब मैं इसके विषय में विस्तार से सुनना चाहता हूँ क्योंकि मैं समझता हूँ कि इस व्रत कापालन करके भगवान्‌ विष्णु को प्रसन्न किया जा सकता है।

    श्रीशुक उबाचशुक्ले मार्गशिरे पक्षे योषिद्ध्तुरनुज्ञया ।

    आरभेत ब्रतमिदं सार्वकामिकमादित:ः ॥

    २॥

    निशम्य मरुतां जन्म ब्राह्मणाननुमन्््य च ।

    स्नात्वा शुक्लदती शुक्ले वसीतालड्डू ताम्बरे ।

    पूजयेत्प्रातराशात्प्राग्भगवन्तं भ्रिया सह ॥

    ३॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; शुक्ले--शुक्ल पक्ष के; मार्गशरि-- अगहन ( नवम्बर-दिसम्बर ) मास में;पक्षे--पक्ष ( पखबारे ) में; योषित्‌--स्त्री; भर्तु:--पति की; अनुज्ञया-- अनुमति से; आरभेत--प्रारम्भ करे; ब्रतम्‌-ब्रत;इदम्‌--यह; सार्व-कामिकम्‌--समस्त कामनाओं को पूरा करने वाले; आदित:--पहले दिन से; निशम्य--सुनकर;मरुतामू-मरुतों के; जन्म--जन्म, उत्पत्ति; ब्राह्मणानू-ब्राह्मणों से; अनुमन््य--उपदेश लेकर; च--तथा; स्नात्वा--नहाकर; शुक्ल-दती--साफ किये गये दाँतों से; शुक्ले-- श्वेत; वबसीत-- धारण करे; अलड्डू ता--आभूषण; अम्बरे--वस्त्र;पूजयेत्‌--पूजा करे; प्रात:-आशातू्‌ प्राकु--कलेवा से पहले; भगवन्तम्‌-- श्रीभगवान्‌ की; अया सह--लक्ष्मी सहित |

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--स्त्री को चाहिए कि अगहन मास ( नवम्बर-दिसम्बर ) केशुक्लपश्ष की प्रतिपदा को अपने पति की अनुमति से इस नैमित्यिक भक्ति को तप के ब्रत सहित प्रारम्भ करे क्योंकि इससे सभी मनोकामनाएँ पूरी हो सकती हैं।

    भगवान्‌ विष्णु कीउपासना करने के पूर्व स्त्री को चाहिए कि वह मरुतों के जन्म की कथा को सुने।

    योग्यब्राह्मणों के निर्देशानुसार वह प्रातःकाल अपने दाँत साफ करे, नहाए, श्रेत साड़ी पहने औरआभूषण धारण करे और फिर कलेवा करने के पूर्व भगवान्‌ विष्णु तथा लक्ष्मी की पूजाकरे।

    अलं ते निरपेक्षाय पूर्णकाम नमोउस्तु ते ।

    महाविभूतिपतये नमः: सकलसिद्धये ॥

    ४॥

    अलमू--पर्याप्त; ते--तुम्हारे लिए; निरपेक्षाय--उदासीन; पूर्ण-काम--जिसकी कामना सदैव पूर्ण होती है, ऐसे भगवान्‌;नमः--नमस्कार; अस्तु--हो; ते--तुमको; महा-विभूति--लक्ष्मी के; पतये--पति को; नम:--नमस्कार; सकल-सिद्धये--समस्त सिद्ध्रियों के स्वामी को[

    तब वह भगवान्‌ की इस प्रकार से प्रार्थना करे |

    --हे भगवन्‌।

    आप समस्त ऐश्वर्यों सेपूर्ण हैं किन्तु मैं ऐश्वर्य की कामना नहीं करती हूँ।

    मैं आपको सहज भाव से सादर नमस्कारकरती हूँ।

    आप उन सम्पत्ति की देवी लक्ष्मी देवी के पति और स्वामी हैं, जो समस्त ऐश्वर्यों सेयुक्त हैं।

    आप समस्त योग के स्वामी हैं।

    मैं आपको केवल नमस्कार करती हूँ।

    यथा त्वं कृपया भूत्या तेजसा महिमौजसा ।

    जुष्ट ईश गुणै: सर्वैस्ततोसि भगवान्प्रभु: ॥

    ५॥

    यथा--जिस प्रकार; त्वमू--तुम; कृपया--कृपा से; भूत्या--ऐश्वर्य से; तेजसा--तेज से; महिम-ओजसा--महिमा तथाबल से; जुष्ट:--युक्त; ईश--हे ई श्वर; गुणै:--दिव्य गुणों से; सर्वै:--समस्त; तत:--अत: ; असि--हो; भगवान्‌ --श्रीभगवान्‌ प्रभु:--स्वामी ।

    हे भगवन्‌! आप अहैतुकी कृपा, समस्त ऐश्वर्य, समस्त तेज तथा समस्त महिमा, बल एवंदिव्य गुणों से युक्त होने के कारण हर एक के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं।

    विष्णुपत्नि महामाये महापुरुषलक्षणे ।

    प्रीयेथा मे महाभागे लोकमातर्नमोस्तु ते ॥

    ६॥

    विष्णु-पत्ति--हे भगवान्‌ विष्ण की पत्नी; महा-माये--हे भगवान्‌ विष्णु की शक्ति; महा-पुरुष-लक्षणे-- भगवान्‌ विष्णुके गुणों एवं ऐश्वर्यों से युक्त; प्रीयेधा:--कृपापूर्वक प्रसन्न हों; मे--मुझ पर; महा-भागे--हे लक्ष्मी की देवी; लोक-मातः--हे संसार की माता; नमः--नमस्कार; अस्तु--हो; ते--तुमको |

    [ भगवान्‌ विष्णु को समुचित नमस्कार करने के बाद भक्तों को चाहिए कि वे धन-धान्य की देवी लक्ष्मी माता को सादर नमस्कार करें और इस प्रकार से प्रार्थना करें-- हेविष्णु-पत्ली, हे भगवान्‌ विष्णु की अंतरंगा शक्ति! आप विष्णु के ही समान श्रेष्ठ हैं क्योंकिआपमें भी उनके सारे गुण तथा ऐश्वर्य निहित हैं।

    हे धन-धान्य की देवी! आप मुझ पर कृपालु हों।

    हे जगन्माता! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्बलिमुपहरामीति;अनेनाहरहर्मन्त्रेणविष्णोरावाहनार्घ्यपाद्योपस्पर्शनस्नानवासउपवीतविभूषणगन्धपुष्पधूप दीपोपहाराद्युपचारान्सुसमाहितोपाहरेतू ॥

    ७॥

    नम:--नमस्कार; भगवते-- श्री भगवान्‌ को, जो छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं; महा-पुरुषाय-- श्रेष्ठ भोक्ता;महा-अनुभावाय--सर्वशक्तिमान; महा-विभूति-- धन की देवी के; पतये--पति; सह--साथ; महा-विभूतिभि:--पार्षद;बलिम्‌--भेंट; उपहरामि-- अर्पित कर रहा हूँ; इति--इस प्रकार; अनेन--इस; अहः-अहः --प्रतिदिन; मन्त्रेण--मंत्र से;विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु का; आवाहन--आवाहन; अर्घ्य-पाद्य-उपस्पर्शन--हाथ, पाँवों तथा मुँह को प्रक्षालित करने केलिए जल; स्नान--नहाने के लिए जल; वास--वस्त्र; उपवीत--यज्ञोपवीत, जनेऊ; विभूषण--गहने; गन्ध--सुगन्धितद्रव्य; पुष्प--फूल; धूप-- धूप; दीप--दीपक; उपहार-- भेंट; आदि--इत्यादि; उपचारान्‌--निवेदन, भेंट; सु-समाहिता--मनोयोग से; उपाहरेत्‌--अर्पित करे |

    हे छः ऐश्वर्यों से युक्त भगवान्‌ विष्णु) आप सर्वश्रेष्ठ भोक्ता एवं सर्व-शक्तिमान हैं।

    हेमाता लक्ष्मी के पति! मैं विश्वक्सेन जैसे पार्षदों की संगति में रहने वाले आपको सादरनमस्कार करता हूँ।

    मैं आपको समस्त पूजा-सामग्री अर्पित करता हूँ।

    मनुष्य को चाहिएकि प्रतिदिन अत्यन्त मनोयोग से भगवान्‌ विष्णु की पूजा-यथा उनके हाथ, पाँव तथा मुखधोने के लिए और स्नान के लिए जल इत्यादि पूजा सामग्रियों से पूजा करते हुए इस मंत्र का उच्चारण करे।

    उसे चाहिए कि उन्हें वस्त्र, उपबीत, आभूषण, सुगंधि, पुष्प, अगुरु तथादीपक अर्पित करे।

    हविःशेषं च जुहुयादनले द्वादशाहुती ।

    नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतये स्वाहेति ॥

    ८॥

    हविः-शेषम्‌--शेष नैवेद्य; च--तथा; जुहुयात्‌--अर्पित करे; अनले-- अग्नि में; द्वादश--बारह; आहुती:--आहुतियाँ;३»-हे भगवान्‌; नम:--नमस्कार; भगवते-- श्रीभगवान्‌ को; महा-पुरुषाय--परम भोक्ता; महा-विभूति-- धन की देवीके; पतये--पति को; स्वाहा--आहुति; इति--इस प्रकार |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--उपर्युक्त समस्त पूजा सामग्री से भगवान्‌ की पूजाकरने के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह '३» नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतयेस्वाहा ' इस मंत्र का जप करे और पवित्र अग्नि में बारह बार घी की आहुतियाँ दे।

    श्रियं विष्णुं च वरदावाशिषां प्रभवावुभौ ।

    भक्त्या सम्पूजयेन्नित्यं यदीच्छेत्सर्वसम्पदः ॥

    ९॥

    श्रियमू--सौभाग्य की देवी को; विष्णुम्‌-- भगवान्‌ विष्णु को; च--तथा; वर-दौ--वरों को देने वाली; आशिषाम्‌--आशीर्वादों का; प्रभवौ--साधन; उभौ--दोनों; भक्त्या--भक्ति से; सम्पूजयेत्‌--पूजे; नित्यम्‌--प्रतिदिन; यदि--यदि;इच्छेत्‌--चाहता है; सर्व--समस्त; सम्पदः--ऐश्वर्य

    यदि किसी को समस्त ऐश्वर्यों की चाहत है, तो उसका कर्तव्य है कि प्रतिदिन भगवान्‌विष्णु की पूजा उनकी पत्नी लक्ष्मी सहित करे।

    उसे परम आदर से उपर्युक्त विधि से उनकीपूजा करनी चाहिए।

    भगवान्‌ विष्णु तथा ऐश्वर्य की देवी का अत्यन्त शक्तिशाली संयोग है।

    वे समस्त वरों को देने वाले हैं तथा समस्त सौभाग्य के स्त्रोत हैं।

    अतः हर एक का कर्तव्य हैकि लक्ष्मी-नारायण की पूजा करे।

    प्रणमेद्ण्डवद्धूमौ भक्तिप्रह्मेण चेतसा ।

    दशवारं जपेन्मन्त्रं ततः स्तोत्रमुदीरयेत्‌ ॥

    १०॥

    प्रणमेत्‌ू--नमस्कार करना चाहिए; दण्ड-वत्‌--दण्ड के समान; भूमौ-- भूमि पर; भक्ति--भक्ति से; प्रह्मेण--विनीत;चेतसा-- भाव से; दश-वारम्‌--दस बार; जपेत्‌--उच्चारण करना चाहिए; मन्त्रमू--मंत्र; तत:--तब; स्तोत्रम्‌-- प्रार्थना;उदीरयेत्‌ू--जप करे

    भक्ति के साथ विनीत भाव से भगवान्‌ को नमस्कार करना चाहिए।

    भूमि पर दण्ड केसमान गिरते समय ( दण्डवत करते हुए ) उपर्युक्त मंत्र का दस बार उच्चारण करना चाहिए।

    तब उसे निम्नानुसार प्रार्थना करनी चाहिए।

    युवां तु विश्वस्थ विभू जगत: कारणं परम्‌ ।

    इयं हि प्रकृति: सूक्ष्मा मायाशक्तिर्दुरत्यया ॥

    ११॥

    युवाम्‌--तुम दोनों; तु--निस्सन्देह; विश्वस्थ--ब्रह्माण्ड के; विभू--स्वामी; जगत:--जगत के; कारणम्‌--कारण;परमू--सर्व श्रेष्ठ; इयमू--यह; हि--निश्चय ही; प्रकृतिः:--शक्ति; सूक्ष्मा--समझने में कठिन; माया-शक्ति:--अन्तरंगाशक्ति; दुरत्यया--पार पाना कठिन है

    हे भगवान्‌ विष्णु तथा माता लक्ष्मी! आप दोनों समस्त सृष्टि के स्वामी हैं।

    वास्तव में इस सृष्टि के कारण आप ही हैं।

    माता लक्ष्मी को समझ पाना अत्यन्त कठिन है क्योंकि वे इतनीशक्तिशाली हैं कि उनकी शक्ति की सीमा का पार पाना कठिन है।

    माता लक्ष्मी को भौतिकजगत में बहिरंगा शक्ति के रूप में अंकित किया जाता है, परन्तु वास्तव में वे सदेव ईश्वर कीअन्तरंगा शक्ति हैं।

    तस्या अधी श्वरः साक्षात्त्वमेव पुरुष: पर: ।

    त्वं सर्वयज्ञ इज्येयं क्रियेयं फलभुग्भवान्‌ ॥

    १२॥

    तस्या:--उसका; अधी श्वर: -- स्वामी; साक्षात्‌--प्रत्यक्षतः; त्वम्‌--तुम; एव--निश्चय ही; पुरुष:-- पुरुष; पर: --परम;त्वमू-तुम; सर्व-यज्ञ:--साक्षात्‌ यज्ञ; इज्या--पूजा; इयम्‌ू--यह ( लक्ष्मी ); क्रिया--कार्यकलाप; इयम्‌--यह; फल-भुक्‌ू-फलों के भोक्ता; भवान्‌ू--आप।

    हे ईश्वर, आप शक्ति के स्वामी हैं, अतः आप परम पुरुष हैं।

    आप साक्षात्‌ यज्ञ हैं।

    आत्मक्रिया की प्रतिरूप लक्ष्मी आपको अर्पित उपासना की आदि रूपा हैं, जबकि आपसमस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।

    गुणव्यक्तिरियं देवी व्यज्ञको गुणभुग्भवान्‌ ।

    त्वं हि सर्वशरीर्यात्मा श्री: शरीरेन्द्रियाशया: ।

    नामरूपे भगवती प्रत्ययस्त्वमपाश्रय: ॥

    १३॥

    गुण-व्यक्ति: --गुणों का आगार; इयम्‌--यह; देवी --देवी; व्यज्ञक:--प्रकाशक, प्रकट करने वाले; गुण-भुक्‌-गुणोंके भोक्ता; भवान्‌ू--आप; त्वम्‌--तुम; हि--निस्सन्देह; सर्व-शरीरी आत्मा--समस्त जीवात्माओं की परम आत्मा; श्री:--ऐश्वर्य की देवी; शरीर--शरीर, देह; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आशया:--तथा मन; नाम--नाम; रूपे--तथा रूप; भगवती--लक्ष्मी; प्रत्ययः--प्रकाशक; त्वम्‌--तुम; अपा श्रय: -- आधार

    यहाँ पर उपस्थित माता लक्ष्मी समस्त गुणों की आगार हैं जबकि आप इन गुणों केप्रकाशक तथा भोक्ता हैं।

    दरअसल, आपही प्रत्येक वस्तु के भोक्ता हैं।

    आप समस्तजीवात्माओं के परमात्मा के रूप में रहते हैं और लक्ष्मी देवी उनके शरीर, इन्द्रिय तथा मन कारूप हैं।

    उनके भी पवित्र नाम तथा रूप हैं और आप समस्त नामों तथा रूपों के आधार हैं।

    आप उनके प्रकाशन का कारण हैं।

    यथा युवां त्रिलोकस्य वरदौ परमेष्ठिनौ ।

    तथा म उत्तमश्लोक सनन्‍्तु सत्या महाशिष: ॥

    १४॥

    यथा--चूँकि; युवाम्‌-तुम दोनों; त्रि-लोकस्य--तीनों लोकों में; वर-दौ--वर देने वाले, वरदानी; परमे-प्ठलिनौ--परमशासक; तथा--अतः ; मे--मेरा; उत्तम-शलोक--उत्तम एलोकों से वन्दित, हे भगवान्‌; सन्तु--हों; सत्या:--पूर्ण; महा-आशिषः:--बड़ी बड़ी अभिलाषाएँ।

    आप दोनों ही तीनों लोकों के परम अधिष्ठाता एवं वरदाता हैं, अतः हे उत्तमएलोकभगवान्‌! आपके अनुग्रह से मेरी अभिलाषाएँ पूर्ण हों।

    इत्यभिष्टूय वरदं श्रीनिवासं अिया सह ।

    तन्निःसार्योपहरणं दत्त्वाचमनमर्चयेत्‌ ॥

    १५॥

    इति--इस प्रकार; अभिष्टय--स्तुति करके; वर-दम्‌--वर देने वाले को; श्री-निवासम्‌ू--ऐश्वर्य की देवी के धाम, भगवान्‌विष्णु को; अरिया सह--लक्ष्मी सहित; तत्‌ू--तब; नि:सार्य--हटाकर; उपहरणम्‌--पूजा की सामग्री; दत्त्वा--अर्पितकरके; आचमनम्‌--हाथ तथा मुँह धोने का जल; अर्चयेत्‌--पूजा कर

    ेश्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--इस प्रकार श्रीनिवास भगवान्‌ विष्णु की पूजाऐश्वर्य की देवी माता लक्ष्मी जी के साथ साथ उपर्युक्त विधि से स्तुतियों द्वारा की जाये।

    फिरपूजा की सारी सामग्री हटाकर उनका हाथ-मुंह धुलाने के लिये जल अर्पित करे और फिर सेउनकी पूजा करे।

    ततः स्तुवीत स्तोत्रेण भक्तिप्रह्मेण चेतसा ।

    यज्ञोच्छिष्टमवपष्राय पुनरभ्यर्चयेद्धरिम्‌ ॥

    १६॥

    ततः--तब; स्तुवीत--स्तुति करे; स्तोत्रेण -- प्रार्थना से; भक्ति--भक्ति से; प्रह्मेण--विनप्र; चेतसा--मन से; यज्ञ-उच्छिष्टमू--यज्ञावशेष; अवप्राय--सूँघकर; पुन:ः--फिर; अभ्यर्चयेत्‌--पूजा करे; हरिम्‌-- भगवान्‌ विष्णु की |

    तत्पश्चात्‌ अत्यन्त भक्ति एवं विनीत भाव से मनुष्य भगवान्‌ तथा लक्ष्मी की स्तुति करे।

    तब यज्ञावशेष को सूँघकर विष्णु तथा लक्ष्मी की पुनः पूजा करे।

    पतिं च परया भकत्या महापुरुषचेतसा ॥

    प्रियैस्तैस्तैरुपनमेत्प्रेमशील: स्वयं पति: ।

    बिभूयात्सर्वकर्माणि पत्या उच्चावचानि च ॥

    १७॥

    पतिम्‌--पति; च--तथा; परया--परम; भकक्‍्त्या--भक्ति से; महा-पुरुष-चेतसा--परम पुरुष मानकर; प्रियैः--प्रिय; तैःतैः--उन उन ( भेंटों ) से; उपनमेत्‌ --उपासना करे; प्रेम-शील:--प्रेमपूर्वक; स्वयम्‌--स्वयं; पति:--पति; बिभूयात्‌ --सम्पन्न करे; सर्व-कर्माणि--सारे कार्य; पत्या:--पत्नी के; उच्च-अवचानि--उच्च तथा निम्न, छोटे बड़े; च--तथा।

    पत्नी अपने पति को परमेश्वर का प्रतिनिधि मानकर और उसे प्रसाद देकर विशुद्ध भक्तिसे उसकी पूजा करे।

    पति भी अपनी पत्नी से परम प्रमुदित होकर अपने परिवार के कार्यों मेंलग जाए।

    कृतमेकतरेणापि दम्पत्योरु भयोरपि ।

    पत्यां कुर्यादनर्हायां पतिरितत्समाहित: ॥

    १८॥

    कृतम्‌ू--किया गया; एकतरेण--एक के द्वारा; अपि-- भी; दम्‌-पत्यो:--पति तथा पत्नी का; उभयो:--दोनों; अपि--तोभी; पल्याम्‌--जब पत्नी; कुर्यात्‌ू--उसे करना चाहिए, वह करे; अनर्हायाम्‌--अक्षम; पति:--पति; एतत्‌--यह;समाहित: --मनोयोग से

    पति-पत्नी दोनों में से कोई एक इस भक्ति को निष्पादित कर सकता है।

    उनके मधुरसम्बन्धों के कारण दोनों को फल मिलता है।

    अतः यदि पत्नी इस व्रत को करने में असमर्थ हो तो पति सावधानी से इसे करे।

    इससे उसकी आज्ञाकारिणी पत्नी को भी उसका फलमिलेगा।

    विष्णो्ब्रतमिदं बिश्रन्न विहन्यात्कथञ्ञन ।

    विप्रान्स्त्रियो वीरवतीः स्त्रग्गन्थबलिमण्डनै: ।

    अर्चेदहरहर्भक्त्या देव॑ नियममास्थिता ॥

    १९॥

    उद्वास्य देवं स्वे धाम्नि तन्निवेदितमग्रतः ।

    अद्यादात्मविशुद्धरर्थ सर्वकामसमृद्धये ॥

    २०॥

    विष्णो:--विष्णु का; ब्रतम्‌-ब्रत; इृदम्‌--यह; बिभ्रतू-करते हुए; न--नहीं; विहन्यात्‌-- भंग करे; कथञ्नन--किसीकारण से; विप्रान्‌--ब्राह्मण; स्त्रियः--स्त्रियाँ; वीर-वती: --पतियों तथा पुत्रों से युक्त; स्रकू--मालाओं; गन्ध--चंदन;बलि--भोजन की भेंट; मण्डनै:--तथा आभूषणों से; अर्चेत्‌--पूजा करे; अह:-अहः --नित्यप्रति; भक्त्या--भक्ति से;देवमू-- भगवान्‌ विष्णु; नियमम्‌--विधि-विधान; आस्थिता--पालन करते हुए; उद्वास्य--रखकर; देवम्‌-- भगवान्‌ को;स्वे--उनके अपने; धाम्नि--घर में; तत्‌--उसको; निवेदितम्‌-- अर्पित; अग्रतः--दूसरों को बाँट कर; अद्यात्‌ू-खाए;आत्म-विशुद्धि-अर्थम्‌--आत्मशुद्धि के लिए; सर्व-काम--समस्त अभिलाषाएँ; समृद्धये--पूर्ण करने के लिए।

    मनुष्य को चाहिए कि इस भक्तिपूर्ण विष्णु-त्रत को माने और किसी अन्य कार्य मेंव्यस्त होने के लिए इसके पालन से विचलित न हो।

    उसे चाहिए कि नित्यप्रति ब्राह्मणों तथाउन सौभाग्यवती स्त्रियों अर्थात्‌ अपने पतियों के साथ शान्तिपूर्वक रहने वाली स्त्रियों कोबचा हुआ प्रसाद, पुष्प माला, चन्दन तथा आभूषण अर्पित करके उनकी पूजा करे।

    पत्नीको चाहिए कि अत्यन्त भक्तिपूर्वक विधि-विधानों के अनुसार भगवान्‌ विष्णु की पूजा करे।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ विष्णु को शयन कराए और इसके बाद प्रसाद ग्रहण करे।

    इस प्रकार पतितथा पतली परिशुद्ध हो जाएंगे और उनकी समस्त कामनाएँ पूरी होंगी।

    एतेन पूजाविधिना मासान्द्रादश हायनम्‌ ।

    नीत्वाथोपरमेत्साध्वी कार्तिक चरमेहहनि ॥

    २१॥

    एतेन--इससे; पूजा-विधिना--पूजा की विधि से; मासान्‌ द्वादश--बारह मास; हायनम्‌--एक वर्ष; नीत्वा--बिताकर;अथ--फिर; उपरमेत्‌--उपवास करे; साध्वी--एकनिष्ठ पत्नी; कार्तिके--कार्तिक मास में; चरमे अहनि--अन्तिम दिन।

    साध्वी स्त्री को चाहिए कि एक वर्ष के लिए इस भक्तिमय सेवा को निरन्तर करे।

    जबएक वर्ष बीत जाये तो उसे चाहिए कि कार्तिक मास ( अक्टूबर-नवम्बर ) की पूर्णिमा कोउपवास करे।

    श्रोभूतेडप उपस्पृश्य कृष्णमशभ्यर्च्य पूर्ववत्‌ ।

    पय:श्रृतेन जुहुयाच्यरूणा सह सर्पिषा ।

    पाकयज्ञविधानेन द्वादशैवाहुती: पति: ॥

    २२॥

    श्रः-भूते--उसके दूसरे दिन प्रातःकाल; अप:--जल; उपस्पृश्य--छू कर; कृष्णम्‌--भगवान्‌ कृष्ण को; अभ्यर्च्य--पूजकर; पूर्व-वत्‌--पहले की तरह; पय:-श्रुतेन--उबाले हुए दूध से; जुहुयात्‌--अर्पित करे; चरुणा--खीर; सह--सहित;सर्पिषा--घी; पाक-यज्ञ-विधानेन---' गृह्य सूत्रों के आदेशानुसार; द्वादश--बारह; एब--निश्चय ही; आहुती:--आहुतियाँ;'पति:--पति।

    दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान करके और भगवान्‌ कृष्ण की पूर्वबत्‌ पूजा करके गुह्म-सूत्रोंके निर्देशानुसार वर्णित भोजन बनाए जैसा उत्सवों पर बनाया जाता है।

    घी से खीर तैयार करेऔर पति को चाहिए कि वह इस सामग्री से अग्नि में बारह बार आहुति दे।

    आशिष: शिरसादाय द्विजैः प्रीते: समीरिता: ।

    प्रणम्य शिरसा भकत्या भुझ्जीत तदनुज्ञया ॥

    २३॥

    आशिष:--आशीर्वाद; शिरसा--सिर से; आदाय--स्वीकार करके; द्विजै:ः--ब्राह्मणों के द्वारा; प्रीते:--प्रसन्न;समीरिता: --उच्चरित; प्रणम्य--प्रणाम करके; शिरसा--शिर के बल; भक्त्या-भक्तिपूर्वक; भुञ्जीत-- भोजन ग्रहण करे;तत्‌-अनुज्ञया--उनकी अनुमति से |

    तत्पश्चात्‌ वह ( पति ) ब्राह्मणों को संतुष्ट करे और जब ब्राह्मण प्रसन्न होकर आशीर्वाद देंतो अपने शिर के द्वारा उन्हें सादर प्रणाम करे और उनकी अनुमति लेकर प्रसाद ग्रहण करे।

    आचार्यमग्रतः कृत्वा वाग्यतः सह बन्धुभि: ॥

    द््यात्पल्यै चरो: शेषं सुप्रजास्त्व॑ं सुसौ भगम्‌ ॥

    २४॥

    आचार्यम्‌--आचार्य को; अग्रत:--सर्वप्रथम; कृत्वा--समुचित स्वागत करके; वाक्‌ू-यत:--वाणी को वश में करते हुए;सह--साथ; बन्धुभि:--मित्रों तथा स्वजनों के साथ; दद्यात्‌--प्रदान करे; पल्यै--पत्ली को; चरो:--खीर की आहुति का;शेषम्‌--शेष भाग; सु-प्रजास्त्वम्‌-जिससे अच्छी सन्तान निश्चित हो; सु-सौभगम्‌--जिससे सौभाग्य प्राप्त हो पति को चाहिए कि

    भोजन करने के पूर्व सर्वप्रथम आचार्य को सुखद आसन दे औरअपने मित्रों तथा स्वजनों के साथ, वाणी को वश में रखते हुए गुरु को प्रसाद भेंट करे।

    तबपत्नी को चाहिए कि घी में पकाई गई खीर की आहुति से बचे भाग को खाए।

    इस अवशेषको खाने से विद्वान तथा भक्त पुत्र की और समस्त सौभाग्य की प्राप्ति निश्चित हो जाती है।

    एतच्चरित्वा विधिवद्व्रतं विभो-रभीप्सितार्थ लभते पुमानिह ।

    स्त्री चैतदास्थाय लभेत सौभगंश्रियं प्रजां जीवपतिं यशो गृहम्‌ ॥

    २५॥

    एतत्‌--यह; चरित्वा--करके; विधि-वत्‌--शास्त्रानुमोदित विधि से; ब्रतम्‌--त्रत; विभो: -- भगवान्‌ से; अभीष्सित--वांछित; अर्थम्‌--वस्तु; लभते--प्राप्त करता है; पुमानू--पुरुष; इह--इस जीवन में; स्त्री--सत्री; च--तथा; एतत्‌--यह;आस्थाय--करके; लभेत--प्राप्त कर सकती है; सौभगम्‌--सौभाग्य; थ्रियमू--ऐश्वर्य; प्रजामू--संतति; जीव-पतिम्‌--दीर्घजीवी पति; यश:--ख्याति; गृहम्‌-घरयदि

    इस ब्रत या अनुष्ठान को शास्त्र सम्मत विधि के अनुसार किया जाये तो इसी जीवनमें मनुष्य को ईश्वर से मनवांछित आशीष ( वर ) प्राप्त हो सकते हैं।

    जो पत्नी इस अनुष्ठान कोकरती है उसे अवश्य ही सौभाग्य, ऐश्वर्य, पुत्र, दीर्घजीवी पति, ख्याति तथा अच्छा घरबारप्राप्त होता है।

    कन्या च विन्देत समग्रलक्षणंपतिं त्ववीरा हतकिल्बिषां गतिम्‌ ।

    मृतप्रजा जीवसुता धनेश्वरीसुदुर्भगा सुभगा रूपमछयम्‌ ॥

    २६॥

    विन्देद्विरूपा विरुजा विमुच्यतेय आमयावीन्द्रियकल्यदेहम्‌ ।

    एतत्पठन्नभ्युदये च कर्म-ण्यनन्ततृप्ति: पितृदेवतानाम्‌ ॥

    २७॥

    तुष्टा: प्रयच्छन्ति समस्तकामान्‌होमावसाने हुतभुक्श्रीहरिश्च ।

    राजन्महन्मरुतां जन्म पुण्यंदितेब्रेतं चाभिहितं महत्ते ॥

    २८॥

    कन्या--अविवाहित लड़की; च--तथा; विन्देत--प्राप्त कर सकती है; समग्रलक्षणम्‌--समस्त अच्छे गुणों वाला;पतिम्‌--पति को; तु--और; अवीरा--पति या पुत्र रहित स्त्री; हत-किल्बिषाम्‌--दोषरहित; गतिम्‌--गन्तव्य; मृत-प्रजा--स्त्री जिसके पुत्र मर चुके हैं; जीव-सुता--दीर्घजीवी पुत्रों वाली; धन-ईश्वरी-- धनवान; सु-दुर्भगा--अभागी; सु-भगा--भाग्यवान्‌; रूपम्‌--सुन्दरता; अछयमू-- श्रेष्ठ; विन्देत्‌--प्राप्त कर सकती है; विरूपा--कुरुप स्त्री; विरुजा--रोग से;विमुच्यते--मुक्त हो जाती है; यः--जो; आमया-वी--रूग्ण पुरुष; इन्द्रिय-कल्य-देहम्‌--हृष्ट पुष्ट देह; एतत्‌--यह;पठनू--सुनाना; अभ्युदये च कर्मणि--तथा यज्ञ में जिसमें पितरों तथा देवों को आहुति दी जाती है; अनन्त--अपार;तृप्तिः--तुष्टि; पितृ-देवतानाम्‌-पितरों तथा देवताओं के; तुष्टा:--प्रसन्न होकर; प्रयच्छन्ति-- प्रदान करते हैं; समस्त--सभी; कामान्‌--इच्छाएँ; होम-अवसाने--इस अनुष्ठान के पूर्ण हो जाने पर; हुत-भुक्‌ू--यज्ञ का भोक्ता; श्री-हरिः--भगवान्‌ विष्णु; च--तथा; राजन्‌--हे राजा; महत्‌--महान्‌; मरुताम्‌ू--मरुतों का; जन्म--जन्म; पुण्यम्‌--पतवित्र;दितेः--दिति का; ब्रतम्‌-ब्रत; च-- भी; अभिहितम्‌--कहा गया; महत्‌--महान्‌; ते--तुमसे

    यदि अविवाहित कन्या इस ब्रत को रखती है, तो उसे सुन्दर पति मिल सकता है।

    यदिअवीरा स्त्री ( जिसका कोई पति या पुत्र नहीं है ) इस अनुष्ठान को करती है, तो उसे वैकुण्ठजगत को भेजा जा सकता है।

    जिस स्त्री की संतानें जन्म लेने के बाद मर चुकी हों, उसेदीर्घजीवी सन्‍्तान के साथ ही साथ सम्पत्ति भी प्राप्त होती है।

    अभागी स्त्री का भाग्य खुलजाता है और कुरूपा स्त्री सुन्दर हो जाती है।

    इस व्रत को रखने से रोगी पुरुष को रोग से मुक्ति मिल सकती है और कार्य करने के लिए स्वस्थ शरीर प्राप्त हो सकता है।

    यदि इसकथा को कोई अपने पितरों तथा देवों को आहुति देते समय विशेषतया श्राद्ध-पश्ष में सुनातातो देवता तथा पितृलोक के वासी उससे अत्यन्त प्रसन्न होंगे और उसकी समस्त इच्छाओं कोपूर्ण करते हैं।

    इस अनुष्ठान के करने से भगवान्‌ विष्णु तथा माता लक्ष्मी उस पर अत्यन्तप्रसन्न होते हैं।

    हे राजा परीक्षित! मैंने पूरी तरह से बता दिया है कि दिति ने किस प्रकार इसव्रत को किया और उसे श्रेष्ठ पुत्र--मरुतृगण तथा सुखी जीवन--प्राप्त हुए।

    मैंने तुम्हें यथा शक्ति विस्तार से सुनाने का प्रयत्न किया है।

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