श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 5

  • अध्याय एक: महाराज प्रियव्रत की गतिविधियाँ

  • अध्याय दो: महाराज आग्नीध्र की गतिविधियाँ

  • अध्याय तीन: ऋषभदेव का राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से प्रकट होना

  • अध्याय चार: भगवान ऋषभदेव के लक्षण

  • अध्याय पाँच: भगवान ऋषभदेव की अपने पुत्रों को शिक्षाएँ

  • अध्याय छह: भगवान ऋषभदेव की गतिविधियाँ

  • अध्याय सात: राजा भरत की गतिविधियाँ

  • अध्याय आठ: भरत महाराज के चरित्र का वर्णन

  • अध्याय नौ: जड भरत का सर्वोच्च चरित्र

  • अध्याय दस: जड़ भरत और महाराज राहुगण के बीच चर्चा

  • अध्याय ग्यारह: जड़ भरत ने राजा रहूगण को निर्देश दिया

  • अध्याय बारह: महाराज राहुगण और जड़ भरत के बीच बातचीत

  • अध्याय तेरह: राजा राहुगण और जड़ भरत के बीच आगे की बातचीत

  • अध्याय चौदह: भौतिक संसार आनंद के महान वन के रूप में

  • अध्याय पन्द्रह: राजा प्रियव्रत के वंशजों की महिमा

  • अध्याय सोलह: जम्बूद्वीप का विवरण

  • अध्याय सत्रह: गंगा नदी का अवतरण

  • अध्याय अठारह: जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान को की गई प्रार्थनाएँ

  • अध्याय उन्नीस: जम्बूद्वीप का विवरण

  • अध्याय बीस: ब्रह्मांड की संरचना का अध्ययन

  • अध्याय इक्कीसवाँ: सूर्य की गति

  • अध्याय बाईसवां: ग्रहों की कक्षाएँ

  • अध्याय तेईसवाँ: शिशुमार ग्रह प्रणाली

  • अध्याय चौबीस: भूमिगत स्वर्गीय ग्रह

  • अध्याय पच्चीसवाँ: भगवान अनंत की महिमा

  • अध्याय छब्बीसवाँ: नारकीय ग्रहों का विवरण

    अध्याय एक: महाराज प्रियव्रत की गतिविधियाँ

    5.1राजोबाचप्रियत्रतो भागवत आत्माराम: कथं मुने ।गृहेरमत यन्मूल: कर्मबन्ध: पराभव: ॥ १॥

    राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; प्रिय-ब्रत:ः--राजा प्रियत्रत; भागवत:--परमभक्त; आत्म-आराम:--आत्म-साक्षात्कार मेंरुचि रखनेवाला; कथम्‌--क्यों; मुने--हे मुनि; गृहे--घर पर; अरमत-- भोग किया; यत्‌-मूल:--जिसे मूल कारण मानते हुए;कर्म-बन्ध:--सकाम कर्मों का बन्धन; पराभव: --उद्देश्य की पराजय ?

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे मुनिवरपरम आत्मदर्शी भगवद्भक्त राजाप्रियत्रत ने ऐसे गृहस्थ जीवन में रहना क्‍यों पसन्द किया, जो कर्म-बन्धन ( सकाम कर्म ) कामूल कारण तथा मानव जीवन के उद्देश्य को पराजित करने वाला है ?

    न नून॑ मुक्तसड़नां ताहशानां द्विजर्षभ ।ग्हेष्वभिनिवेशोयं पुंसां भवितुमहति ॥

    २॥

    न--नहीं; नूनम्‌--निश्चय ही; मुक्त-सड्जनाम्‌-विरक्त; ताहशानाम्‌--ऐसे; द्विज-ऋषभ-हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, विप्रवर; गृहेषु --गृहस्थ जीवन में; अभिनिवेश:--अत्यधिक अनुरक्ति; अयम्‌--यह; पुंसाम्‌ू--मनुष्यों का; भवितुम्‌--होना; अरहति--सम्भव है।

    भक्त-जन निश्चय ही मुक्त पुरुष होते हैं।

    अतः हे विप्रवर, वे सम्भवतः गृहकार्यों में दत्तचित्तनहीं रह सकते।

    महतां खलु विप्रर्षे उत्तमश्लोकपादयो: ।

    छायानिर्वृतचित्तानां न कुट॒ुम्बे स्पृहामति: ॥

    ३॥

    महताम्‌--परम भक्तों की; खलु--निश्चय ही; विप्र-ऋषे--हे विप्रों में ऋषि; उत्तम-शलोक-पादयो:-- भगवान्‌ के चरणकमलोंकी; छाया--छाया से; निर्वृत--तृप्त; चित्तानामू--जिनकी चेतना; न--नहीं; कुट॒म्बे--पारिवारिक सदस्यों पर; स्पृहा-मति: --आसक्ति सहित चेतना।

    जिन सिद्ध महात्माओं ने भगवान्‌ के चरणकमलों की शरण ली है वे उन चरणकमलों कीछाया से पूर्णतया तृप्त हैं।

    उनकी चेतना कभी भी कुट॒म्बीजनों में आसक्त नहीं हो सकती।

    संशयोउयं महान्ब्रह्मन्दारागारसुतादिषु ।

    सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ॥

    ४॥

    संशय: --सन्देह; अयम्‌--यह; महान्‌ू--महान्‌; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; दार--स्त्री; आगार--घर; सुत-- बच्चे; आदिषु--इत्यादि केप्रति; सक्तस्थ--अनुरक्त पुरुष का; यत्‌--क्योकिं; सिद्द्धि:--सिद्धि; अभूत्‌--हो गया; कृष्णे-- श्रीकृष्ण में; च-- भी; मति:--आसक्ति; अच्युता--अविचल।

    राजा ने आगे पूछा, हे विप्रवर, मेरा सबसे बड़ा सन्देह यही है कि राजा प्रियव्रत जैसे व्यक्तिके लिए, जो अपनी पत्नी, सन्‍्तान तथा घर के प्रति इतने आसक्त थे, कृष्ण-भक्ति में सर्वोच्चअविचल सिद्धि प्राप्त कर पाना कैसे सम्भव हो सका?

    श्रीशुक उवाचबाढमुक्त भगवत उत्तमश्लोकस्य श्रीमच्चरणारविन्दमकरन्दरस आवेशितचेतसो ।

    भागवतरमहंसदयितकथां किझ्ञिदन्तरायविहतां स्वां शिवतमां पदवीं न प्रायेण हिन्वन्ति ॥

    ५॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले; बाढ्म्‌--ठीक; उक्तम्‌--आपने जो कहा; भगवत:-- भगवान्‌ का; उत्तम-श्लोकस्य--जिनकी प्रशंसा उत्तम एलोकों से की जाती है; श्रीमत्‌-चरण-अरविन्द--अत्यन्त सुन्दर सुरभित कमल पुष्पों केसमान चरणों का; मकरन्द--मधु; रसे-- अमृत में; आवेशित--डुबोया हुआ, सराबोर; चेतस:--जिनके हृदय; भागवत--भक्तोंकी; परमहंस--मुक्त पुरुष; दयित--रुचिकर, मनोहारी; कथाम्‌--यशोगान; किश्जित्‌ू--क भी-क भी; अन्तराय--अवरोधों से;विहताम्‌-- अवरुद्ध; स्वाम्‌-- अपने; शिव-तमाम्‌--अत्यन्त शुभ; पदवीम्‌--पद को; न--नहीं; प्रायेण -- प्राय: ; हिन्वन्ति--त्यागते हैं।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--तुम्हारा कथन सही है।

    ब्रह्मा के समान सिद्ध पुरुषों के द्वारादिव्य एलोकों से प्रशंसित भगवान्‌ की कीर्ति परम भक्तों तथा मुक्त पुरुषों के लिए अत्यन्तमनोहारी है।

    जो भगवान्‌ के चरणकमलों के अमृततुल्य मधु में अनुरक्त है तथा जिसका मनसदैव उनकी कीर्ति में लीन रहता है, वह भले ही कभी कभी किसी बाधा से रुक जाये, किन्तुजिस परम पद को उसने प्राप्त किया है उसे वह कभी नहीं छोड़ता।

    यहिं वाव ह राजन्स राजपुत्र: प्रियत्रतः परमभागवतो नारदस्य चरणोपसेवयाझ्जसावगतपरमार्थसतत्त्वोब्रह्मसत्रेण ।

    दीक्षिष्यमाणोवनितलपरिपालनायाम्नातप्रवरगुणगणैकान्तभाजनतया स्वपित्रोपामन्द्रितोभगवति वासुदेव एवाव्यवधानसमाधियोगेन ।

    समावेशितसकलकारकक्रियाकलापो नैवाभ्यनन्दद्यद्यपि'तदप्रत्याम्नातव्यं तदधिकरण आत्मनो न्यस्मादसतोपि पराभवमन्वीक्षमाण: ॥

    ६॥

    यहि--चूँकि, क्योंकि; वाव ह--निस्संदेह; राजन्‌ू--हे राजन्‌; सः--वह; राज-पुत्र:--राजकुमार; प्रियव्रत:--प्रियत्रत; परम--महान; भागवतः -- भक्त; नारदस्य-- नारद के; चरण-- चरणकमल की; उपसेवया--सेवा से; अज्लसा--शीघ्र; अवगत--परिचित हो गया; परम-अर्थ--दिव्य विषय; स-तत्त्व:--समस्त ज्ञेय तथ्यों सहित; ब्रह्म-सत्रेण--ब्रह्म की निरन्तर चर्चा से;दीक्षिष्यमाण: --पूर्ण समर्पण की कामना से; अवनि-तल--भूतल पर; परिपालनाय--राज्य करने के लिए; आम्नात--शाम्त्तरों मेंनिर्दिष्ट; प्रवर--सर्वोच्च; गुण--गुणों के; गण--समूह से; एकान्त--विचलित हुए बिना, अविचल; भाजनतया--पात्रता केकारण; स्व-पित्रा--अपने पिता के द्वारा; उपामन्त्रित:--आज्ञा दिये जाने पर; भगवति-- भगवान्‌ में; वासुदेवे --सर्वव्यापी ईश्वरमें; एब--निश्चय ही; अव्यवधान--बिना विराम के; समाधि-योगेन--मग्न होकर योग साधने से; समावेशित-- अत्यन्त समर्पित;सकल--समस्त; कारक --इन्द्रियाँ; क्रिया-कलाप:--जिनके समस्त कार्य; न--नहीं; एव--इस प्रकार; अभ्यनन्दत्‌--अभिनन्दित; यद्यपि--यद्यपि; तत्‌--वह; अप्रत्याम्नातव्यमू--किसी प्रकार उल्लंघन न करने योग्य; तत्‌ू-अधिकरणे--उस पदको ग्रहण करने में; आत्मन:--अपने आपको; अन्यस्मात्‌--अन्य कार्यों से; असत:ः--भौतिक; अपि--निश्चय ही; पराभवम्‌--हास; अन्वीक्षमाण:--दूरदर्शिता से |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजन, राजकुमार प्रियत्रत महान्‌ भक्त थे क्‍योंकिउन्होंने अपने गुरु नारद के चरणकमलों को प्राप्त कर दिव्य ज्ञान में उच्चतम सिद्धि प्राप्त की।

    परम ज्ञान के कारण वे आत्म-विषयों की चर्चा में सदैव संलग्न रहे और उन्होंने अपना ध्यानकिसी ओर नहीं मोड़ा।

    इसके बाद राजकुमार के पिता ने आदेश दिया कि वह संसार पर राज्यकरने का भार ग्रहण करे।

    उन्होंने प्रियत्रत को आश्वस्त करना चाहा कि शास्त्रों के अनुसार यहउसका कर्तव्य है, किन्तु प्रियत्रत ने तो निरन्तर भक्तियोग की साधना में रत रह कर भगवान्‌ कास्मरण करते हुए समस्त इन्द्रियों को ईश्वर की सेवा में अर्पित कर रखा था।

    अतः पिता की आज्ञाअनुलंघ्य होने पर भी राजकुमार ने उसका स्वागत नहीं किया।

    इस प्रकार उन्होंने अपनेअन्तःकरण में यह प्रश्न किया कि संसार पर राज्य करने के उत्तरदायित्व को स्वीकार करकेकहीं वे अपनी भक्ति से पराड्मुख तो नहीं हो जायेंगे ?

    अथ ह भगवानादिदेव एतस्य गुणविसर्गस्य परिबृंहणानुध्यानव्यवसित।

    सकलजगदभिप्रायआत्मयोनिरखिलनिगमनिजगणपरिवेष्टित: स्वभवनादवततार ॥

    ७॥

    अथ--इस प्रकार; ह--निस्संदेह; भगवान्‌ू--सर्वशक्तिमान; आदि-देव:--प्रथम देवता; एतस्य--इस ब्रह्माण्ड के; गुण-विसर्गस्य--तीनों गुणों की उत्पत्ति; परिबृंहण--कल्याण; अनुध्यान--सदैव ध्यानमग्न; व्यवसित--ज्ञात; सकल--सप्पूर्ण;जगतू--ब्रह्मण्ड का; अभिप्राय: --परम उद्देश्य; आत्म--परम-आत्मा; योनि:--जिसके जन्म का स्त्रोत; अखिल--ससम्पूर्ण;निगम--वेदों के द्वारा; निज-गण--अपने गणों ( सहयोगियों ) से; परिवेष्टित: --घिरे हुए; स्व-भवनात्‌-- अपने धाम से;अवततार--नीचे आये |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोले: इस ब्रह्माण्ड के आदि जीव एवं सर्वशक्तिमान देवताब्रह्माजी हैं, जो इस सृष्टि की समस्त गतिविधियों के विकास के लिए उत्तरदायी हैं।

    भगवान्‌ सेप्रत्यक्ष जन्म लेकर वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के हित को ध्यान में रखते हुए कार्य करते हैं, क्योंकि वेसृष्टि का उद्देश्य जानते हैं।

    ऐसे परम शक्तिशाली देवता ब्रह्माजी अपने पार्षदों तथा मूर्तिमान वेदोंसहित अपने सर्वोच्च लोक से उस स्थान पर उतरे जहाँ राजकुमार प्रियव्रत ध्यान कर रहे थे।

    स तत्र तत्र गगनतल उडुपतिरिव विमानावलिभिरनुपथममरपरिवृढैरभिपूज्यमान: ।

    पथि पथि च वरूथशःसिद्धगन्धर्वसाध्यचारणमुनिगणैरुपगीयमानो गन्धमादनद्रोणीमवभासयन्नुपससर्प ॥

    ८ ॥

    सः--वह ( भगवान्‌ ब्रह्मा ); तत्र तत्र--यहाँ वहाँ; गगन-तले-- आकाश मंडप के नीचे; उडु-पतिः--चन्द्रमा; इब--सहश;विमान-आवलिभि:--अपने-अपने विमानों में; अनुपथम्‌--पथ में; अमर--देवताओं के ; परिवृढः:--नायकों द्वारा;अभिपूज्यमान: --पूजित होकर; पथ्िि पथि--एक के बाद एक पथ पर; च-- भी; वरूथश:ः --समूहों में; सिद्ध--सिद्धलोक केवासियों द्वारा; गन्धर्व--गन्धर्वलोक के वासियों द्वारा; साध्य--साध्यलोक के वासियों द्वारा; चारण--चारणलोक के वासियोंद्वारा; मुनि-गणैः--तथा मुनियों के द्वारा; उपगीयमान:--पूजित होकर; गन्ध-मादन--उस लोक का जहाँ गंधमादन पर्वत है;द्रोणीमू--घाटी या किनारे को; अवभासयन्‌-- प्रकाशित करते हुए; उपससर्प--पहुँचा |

    ज्योंही भगवान्‌ ब्रह्म अपने वाहन हंस पर आरूढ होकर नीचे उतरे, तो सिद्धलोक,गंधर्वलोक, साध्यलोक तथा चारणलोक के समस्त वासी तथा मुनि एवं अपने-अपने विमानों मेंउड़ते हुए देवताओं ने आकाशमण्डल के नीचे एकत्र होकर उनका स्वागत किया और पूजा की।

    विभिन्न लोकों के वासियों से आदर तथा स्तवन पाकर भगवान्‌ ब्रह्मा ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानोंप्रकाशमान नक्षत्रों से घिरा हुआ पूर्ण चन्द्रमा हो।

    तब ब्रह्माजी का विशाल हंस गंधमादन कीघाटी में प्रियत्रत के पास पहुँचा जहाँ वे बैठे हुए थे।

    तत्र ह वा एन॑ देवर्षिहेसयानेन पितरं भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपलभमान: ।

    सहसैवोत्थायाईहणेन सहपितापुत्राभ्यामवहिताझ्जलिरुपतस्थे ॥

    ९॥

    तत्र--वहाँ; ह वा--निश्चय ही; एनम्‌--उसको; देव-ऋषि:--देवर्षि नारद; हंस-यानेन-- अपने वाहन हंस द्वारा; पितरमू-- अपनेपिता; भगवन्तम्‌ू--सर्वशक्तिमान; हिरण्य-गर्भमू-- भगवान्‌ ब्रह्म को; उपलभमान:--समझकर; सहसा एव--तुरन्त; उत्थाय--उठ कर; अर्हणेन-- पूजन-सामग्री; सह--सहित; पिता-पुत्राभ्याम्‌-प्रियत्रत तथा उनके पिता स्वायंभुव मनु; अवहित-अज्जलि:ः--आदरपूर्वक हाथ जोड़कर; उपतस्थे-- अर्चना की |

    नारद मुनि के पिता भगवान्‌ ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं।

    नारद ने ज्योंही विशालहंस को देखा, वे तुरन्त समझ गये कि ब्रह्माजी आए हैं, अतः वे स्वायंभुव मनु तथा अपने द्वाराउपदेश दिये जाने वाले उनके पुत्र प्रियत्रत सहित अविलम्ब खड़े हो गये।

    तब उन्होंने हाथजोड़कर आदरपूर्वक भगवान्‌ की आराधना प्रारम्भ की।

    भगवानपि भारत तदुपनीताईएण: सूक्तवाकेनातितरामुदितगुणगणावतारसुजय: ।

    प्रियत्रतमादिपुरुषस्तंसदयहासावलोक इति होवाच ॥

    १०॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌ ब्रह्मा; अपि-- भी; भारत--हे राजा परीक्षित; तत्‌--उनके द्वारा; उपनीत--आगे लायी गयी; अर्हण: --पूजन-सामग्री; सूक्त--वैदिक शिष्टाचार के अनुसार; वाकेन--वाणी से; अतितराम्‌ू-- अत्यधिक; उदित-- प्रशंसित; गुण-गण--गुणसमूह; अवतार--नीचे उतरने के कारण; सु-जय:--जिसकी कीर्ति; प्रियत्रतम्‌--प्रियत्रत को; आदि-पुरुष: --आदिपुरुष; तम्‌--उनको; स-दय--दयापूर्वक; हास--हँसते हुए; अवलोक:--जिनकी दृष्टि; इति--इस प्रकार; ह--निश्चय ही;उवाच--कहा।

    हे राजा परीक्षित, चूँकि ब्रह्माजी सत्यलोक से भूलोक में उतर चुके थे, अतः नारद मुनि,राजकुमार प्रियत्रत तथा स्वायंभुव मनु ने आगे बढ़कर पूजन सामग्री अर्पित की और वैदिकविधि के अनुसार अत्यन्त शिष्ट वाणी से उनकी प्रशंसा की।

    तब इस ब्रह्माण्ड के प्रथम पुरुषब्रह्मा प्रियत्रत पर सदय मन्द मुस्कान-युक्त दृष्टि डालते हुए उनसे इस प्रकार बोले।

    श्रीभगवानुवाचनिबोध तातेदमृतं ब्रवीमिमासूयितु देवमर्हस्यप्रमेयम्‌ ।

    बयं भवस्ते तत एष महर्षि-वहाम सर्वे विवशा यस्य दिष्टम्‌ ॥

    ११॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच--परम पुरुष ब्रह्मा ने कहा; निबोध--ध्यानपूर्वक सुनो; तात--मेरे प्रिय पुत्र; इदम्‌--यह; ऋतम्‌--सत्य;ब्रवीमि--बोल रहा हूँ; मा--मत; असूचितुम्‌--ईर्ष्यालु; देवम्‌-- भगवान्‌; अहसि--तुम्हें चाहिए; अप्रमेयम्‌--जो हमारेप्रयोगात्मक ज्ञान से परे है; वयम्‌--हम; भव:--शिवजी; ते--तुम्हारा; ततः--पिता; एष:--यह; महा-ऋषि:--नारद;वहाम:ः--पालन करते हैं; सर्वे--सभी; विवशा:--विचलित होने में अशक्त; यस्य--जिसकी; दिष्टमू-- आज्ञा?

    इस ब्रह्माण्ड के परम पुरुष भगवान्‌ ब्रह्मा ने कहा--हे प्रियत्रतमैं जो कुछ कहूँ उसे ध्यान से सुनो।

    परमेश्वर से ईर्ष्या न करो क्योंकि वे हमारे प्रयोगात्मक परिमापों से परे हैं।

    हम सबों को,जिसमें शिवजी, तुम्हारे पिता तथा महर्षि नारद भी सम्मिलित हैं, परमेश्वर की आज्ञा का पालनकरना पड़ता है।

    हम उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते।

    न तस्य कश्_ित्तपसा विद्यया वान योगवीर्येण मनीषया वा ।

    नैवार्थधर्म: परत: स्वतो वाकृतं विहन्तुं तनुभृद्विभूयात्‌ ॥

    १२॥

    न--कभी नहीं; तस्थ--उसका; कश्चित्‌ू--कोई भी; तपसा--तप से; विद्यया--विद्या से; वा--अथवा; न--कभी नहीं;योग--योगबल से; वीर्येण--शारीरिक बल से; मनीषया--बुद्धि से; वा--अथवा; न--कभी नहीं; एब--निश्चय ही; अर्थ--भौतिक ऐश्वर्य से; धर्म: -- धर्म से; परतः--किसी बाह्य शक्ति से; स्वतः--अपने प्रयास से; वा-- अथवा; कृतम्‌--आज्ञा;विहन्तुमू--टालने में; तनु-भृत्‌-- भौतिक देह स्वीकार करने वाला जीवात्मा; विभूयात्‌--समर्थ है?

    भगवान्‌ की आज्ञा को कोई न तो तपोबल, वैदिक शिक्षा, योगबल, शारीरिक बल याबुद्धिबल से टाल सकता है, न ही कोई अपने धर्म की शक्ति या भौतिक ऐश्वर्य से अथवा किसीअन्य उपाय से, न स्वयं या न पराई सहायता से परमात्मा के आदेशों को चुनौती दे सकता है।

    ब्रह्मा से लेकर एक चींटी तक, किसी भी जीवात्मा के लिए ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है।

    भवाय नाशाय च कर्म कर्तुशोकाय मोहाय सदा भयाय ।

    सुखाय दुःखाय च देहयोग-मव्यक्तदिष्ट जनताड़ धत्ते ॥

    १३॥

    भवाय--जन्म के निमित्त; नाशाय--मृत्यु के लिए; च--भी; कर्म--कार्य ; कर्तुमू--करने के लिए; शोकाय--शोक के लिए;मोहाय--मोह के लिए; सदा--सदैव; भयाय--भय के लिए; सुखाय--सुख हेतु; दुःखाय--दुख हेतु; च-- भी; देह-योगम्‌--भौतिक देह से सम्बन्ध; अव्यक्त-- भगवान्‌ द्वारा; दिष्टम--निर्देशित; जनता--जीवात्माएँ; अड़--हे प्रियत्रत; धत्ते-- धारणकरती हैं।

    हे प्रियत्रत, भगवान्‌ की आज्ञा से ही सभी जीवात्माएँ जन्म, मृत्यु, कर्म, शोक, मोह, भविष्यके संकटों के प्रति भय, सुख तथा दुख के हेतु विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करती हैं।

    यद्वाचि तन्त्यां गुणकर्मदामभि:सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिता: ।

    सर्वे वहामो बलिमी श्वरायप्रोता नसीब द्विपदे चतुष्पद: ॥

    १४॥

    यत्‌--जिसका; वाचि--वैदिक आदेश के रूप में; तन्त्याम्‌--लम्बी रस्सी से; गुण--गुण; कर्म--( तथा ) कर्म की; दामभि:--रस्सियों से; सु-दुस्तरः--टाल पाना अत्यन्त कठिन है; वत्स--हे बालक; वयम्‌--हम; सु-योजिता:--लगे हुए हैं; सर्वे--सभी;वहामः--पालन करते हैं; बलिम्‌--ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए उनकी आज्ञाओं को; ईश्वराय-- भगवान्‌ को; प्रोता:--बद्धहोकर; नसि--नाक में; इब--सहश; द्वि-पदे--दो पैर वाले ( हाँकने वाले ) को; चतु:-पदः--चौपाया ( बैल )॥

    हे बालक, हम सभी अपने गुण तथा कर्म के अनुसार वैदिक आज्ञा द्वारा वर्णाअ्रम विभागोंमें बँधे हुए हैं।

    इन विभागों से बच पाना कठिन है, क्योंकि ये वैज्ञानिक विधि से व्यवस्थित हैं।

    अतः हमें वर्णा श्रम धर्म के कर्तव्यों का पालन उन बैलों के समान करना चाहिए जो नाक में बँधीनकेल खींचने वाले चालक के आदेश पर चलने के लिए बाध्य हैं।

    ईशाभिसूष्टं हावरुन्ध्महेउड़दुःखं सुखं वा गुणकर्मसझत्‌ ।

    आस्थाय तत्तद्यदयुड्र नाथश्‌चक्षुष्मतान्धा इब नीयमाना: ॥

    १५॥

    ईश-अभिसृष्टम्‌--ई श्वर द्वारा उत्पन्न या प्रदत्त; हि--निश्चय ही; अवरून्ध्महे --हमें स्वीकार करना होता है; अड्ग--हे प्रियब्रत;दुःखम्‌--दुख; सुखम्‌--सुख; बा--अथवा; गुण-कर्म--गुण तथा कार्य की; सड्भात्‌ू--संगति से; आस्थाय--स्थित होकर; तत्‌तत्‌--स्थिति; यत्‌--जो शरीर; अयुद्ध --उसने प्रदान किया; नाथ:--परमे श्वर; चक्षुष्मता--नेत्रयुक्त पुरुष के द्वारा; अन्धा: --अंधे पुरुष; इब--सहृश; नीयमाना:--ले जाया जाकर।

    हे प्रियत्रत, भगवान्‌ विभिन्न गुणों के साथ हमारे संसर्ग के अनुसार हमें विशिष्ट शरीर प्रदानकरते हैं और हम सुख तथा दुख प्राप्त करते हैं।

    अत: मनुष्य को चाहिए कि वह जिस रूप में हैवैसे ही रहे और भगवान्‌ द्वारा उसी प्रकार मार्गदर्शन प्राप्त करे जिस प्रकार एक अंधा व्यक्तिआँख वाले व्यक्ति से प्राप्त करता है।

    मुक्तोषपि तावद्विभूयात्स्वदेह-मारब्धमश्नन्नभिमानशून्य: ।

    यथानुभूतं प्रतियातनिद्र:कि त्वन्यदेहाय गुणान्न वृड्डे ॥

    १६॥

    मुक्त:--मुक्त पुरुष; अपि--ही; तावत्‌--तब तक; बिभूयात्‌-- धारण करना चाहिए; स्व-देहम्‌--अपना शरीर; आरब्धम्‌--पूर्वकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त; अश्नन्‌ू--स्वीकार करते हुए; अभिमान-शून्य:--अभिमान रहित; यथा--जिस प्रकार; अनुभूतम्‌--जैसा अनुभव किया गया हो; प्रतियात-निद्र:--निद्रा से जगा हुआ; किम्‌ तु--लेकिन; अन्य-देहाय--दूसरी देह के लिए;गुणान्‌--गुणों को; न--नहीं; वृड्ढे --भोगता है।

    मुक्त होते हुए भी मनुष्य पूर्व कर्मों के अनुसार प्राप्त देह को स्वीकार करता है।

    किन्तु वहभ्रान्तिरहित होकर कर्म-वश प्राप्त सुख तथा दुख को उसी प्रकार मानता है, जिस प्रकार जाग्रतमनुष्य सुप्तावस्था में देखे गये स्वप्णन को।

    इस तरह वह हृढ़प्रतिज्ञ रहता है और भौतिक प्रकृति केतीनों गुणों के वशीभूत होकर दूसरा शरीर पाने के लिए कभी कार्य नहीं करता।

    भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्थाद्‌यतः स आस्ते सहषदट्सपत्न: ।

    जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बु धस्यगृहा भ्रम: कि नु करोत्यवद्यम्‌ू ॥

    १७॥

    भयम्‌-- भय; प्रमत्तस्य--मोहग्रस्त का; वनेषु--वनों में; अपि-- भी; स्थात्‌ू--होना चाहिए; यतः--क्योंकि; सः--वह( जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं )।

    आस्ते--रहता है; सह--साथ; षट्‌-सपत्न:--छह सपत्नियाँ; जित-इन्द्रियस्थ--इन्द्रियों कोजीतने वाले का; आत्म-रते: --आत्मतुष्ट; बुधस्य--ऐसे विद्वान का; गृह-आश्रम:--गृहस्थ जीवन; किम्‌--क्या; नु--निस्सन्देह;'करोति--कर सकता है; अवद्यम्‌-- क्षति |

    जो मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत है, भले ही वह वन-वन विचरण करता रहे, तो भी उसेबन्धन का भय बना रहता है क्योंकि वह मन तथा ज्ञानेन्द्रियाँ--इन छः सपत्नियों के साथ रह रहाहोता है।

    किन्तु आत्मतुष्ट विद्वान जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो, उसे गृहस्थजीवन कोई क्षति नहीं पहुँचा पाता।

    यः षट्सपत्नान्विजिगीषमाणोगृहेषु निर्विश्य यतेत पूर्वम्‌ ।

    अत्येति दुर्गाअ्रित ऊर्जितारीन्‌श़ क्षीणेषु काम विचरेद्विपश्चित्‌ ॥

    १८॥

    यः--जो कोई; षघट्‌ू--छः:; सपत्नान्‌ू--प्रतिपक्षी ( शत्रु )) विजिगीषमाण:--जीतने की आकांक्षा रखने वाले; गृहेषु--गृहस्थजीवन में; निर्विश्य--प्रवेश करके; यतेत--प्रयत्त करना चाहिए; पूर्वम्‌--प्रथम; अत्येति--जीत लेता है; दुर्ग-आश्रित:--सुरक्षित स्थान ( दुर्ग ) में रहते हुए; ऊर्जित-अरीन्‌-- अत्यन्त प्रबल शत्रुओं को; क्षीणेषु-- क्षीण; कामम्‌--विषयवासना;विचरेत्‌--विचरण कर सकता है; विपश्चित्‌--अत्यन्त अनुभवीविद्वान?

    गृहस्थाश्रम में रह कर जो मनुष्य अपने मन तथा पाँचों इन्द्रियों को विधिपूर्वख जीत लेता है,वह उस राजा के समान है, जो अपने किले (दुर्ग ) में रहकर अपने बलशाली शत्रुओं कोपराजित करता है।

    गृहस्थाश्रम में प्रशिक्षित हो जाने पर तथा कामेच्छाओं को क्षीण करके मनुष्यबिना किसी भय के कहीं भी घूम सकता है।

    त्वं त्वब्जनाभाड्प्रिसरोजकोश-दुर्गाअतो निर्जितषट्सपत्न: ।

    भुड्झ्वेह भोगान्पुरुषातिदिष्टान्‌विमुक्तसड्ः प्रकृति भजस्व ॥

    १९॥

    त्वमू-तुम स्वयं; तु--तब; अब्ज-नाभ--जिनकी नाभि कमल-पुष्प के सहश है, ऐसे भगवान्‌; अड्प्रि--चरण; सरोज--कमल; कोश--मुँह, सम्पुट; दुर्ग--किला; आश्रित:--शरणागत; निर्जित--विजित; षट्‌-सपत्न: --छःशत्रु ( मन तथा अन्य पाँच इन्द्रियाँ ); भुड्क्ुव-- भोग करो; इह--जगत में; भोगान्‌ू-- भोग्य वस्तुएँ; पुरुष--परम पुरुष द्वारा; अतिदिष्टानू--विशेषतयाआदेशित; विमुक्त--मुक्त हुआ; सड़:-- भौतिक लगाव से; प्रकृतिमू--स्वाभाविक स्थिति; भजस्व-- भोग करो।

    ब्रह्माजी ने आगे कहा--हे प्रियत्रत, कमलनाभ ईश्वर के चरणकमल के कोश में शरणलेकर छहों ज्ञान इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो।

    तुम भौतिक सुख-भोग स्वीकार करो, क्योंकिभगवान्‌ ने तुम्हें विशेष रूप से ऐसा करने के लिए आज्ञा दी है।

    इस तरह तुम भौतिक संसर्ग सेमुक्त हो सकोगे और अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते हुए भगवान्‌ की आज्ञाएँ पूरी कर सकोगे।

    श्रीशुक उबाचइति समभिहितो महाभागवतो भगवतस्त्रिभुवनगुरोरनुशासनमात्मनो ।

    लघुतयावनतशिरोधरो बाढमितिसबहुमानमुवाह ॥

    २०॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; समभिहितः--पूर्णतया उपदिष्ट; महा-भागवत: --परमभक्त; भगवतः--अति शक्तिमान ब्रह्माजी का; त्रि-भुवन--तीनों लोकों के; गुरो:--गुरु की; अनुशासनम्‌--आज्ञा, आदेश;आत्मन:--स्वयं का; लघुतया--लघुता के कारण; अवनत--झुका हुआ; शिरोधर: --उसका शिर; बाढम्‌--जो आज्ञा; इति--इस प्रकार; स-बहु-मानम्‌-- अत्यन्त आदर समेत; उबाह--पालन किया।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--इस प्रकार तीनों लोकों के गुरू ब्रह्माजी द्वाराभलीभाँति उपदेश दिये जाने पर अपना पद छोटा होने के कारण प्रियत्रत ने नमस्कार करते हुएउनका आदेश शिरोधार्य किया और अत्यन्त आदरपूर्वक उसका पालन किया।

    भगवानपि मनुना यथावदुपकल्पितापचितिःप्रियत्रतनारदयोरविष ।

    ममभिसमीक्षमाणयोरात्मसमवस्थानमवाड्मनसं क्षयमव्यवहतं प्रवर्तयन्नगमत्‌, ॥

    २१॥

    भगवान्‌--परम शक्तिमान ब्रह्माजी; अपि-- भी; मनुना--मनु द्वारा; यथावत्‌ -- अभीष्ट रूप से; उपकल्पित-अपचिति: --आराधित होकर; प्रियब्रत-नारदयो:--प्रियत्रत तथा नारद की उपस्थिति में; अविषमम्‌--बिना द्वेष के; अभिसमीक्षमाणयो: --इष्टिपात करते हुए; आत्मसम्‌--अपने पद के अनुकूल; अवस्थानम्‌--अपने धाम को; अवाक्‌-मनसम्‌--मन तथा वाणी केवर्णन से परे; क्षयम्‌-ग्रह, लोक; अव्यवहृतम्‌--अपूर्व स्थित; प्रवर्तयन्‌--विदा लेते हुए; अगमत्‌--वापस चले गये ।

    इसके पश्चात्‌ मनु ने ब्रह्माजी को संतुष्ट करते हुए विधिवत्‌ पूजा की।

    प्रियत्रत तथा नारद नेभी किसी प्रकार का विरोध दिखाये बिना ब्रह्माजी की ओर देखा।

    प्रियत्रत से उसके पिता कीमनौती स्वीकार कराकर ब्रह्माजी अपने धाम सत्यलोक को चले गये, जिसका वर्णन भौतिक मनतथा वाणी के परे है।

    मनुरपि परेणैवं प्रतिसन्धितमनोरथ: सुर्षिवरानुमतेनात्म जमखिलधरामण्डलस्थितिगुप्तय ।

    आस्थाप्य स्वयमतिविषमविषयविषजलाशयाशाया उपरराम॥

    २२॥

    मण्डल--लोकों का; स्थिति--पालन; गुप्तये--रक्षा हेतु; आस्थाप्य--स्थापित करके; स्वयम्‌--स्वयं; अति-विषम--अत्यन्तभयावने; विषय--सांसारिक प्रपंच; विष--विष का; जल-आशय--समुद्र; आशाया: --कामनाओं से; उपरराम--निवृत्ति प्राप्तकी।

    इस प्रकार ब्रह्माजी की सहायता से स्वायंभुव मनु का मनोरथ पूर्ण हुआ।

    उन्होंने महर्षि नारदकी अनुमति से अपने पुत्र को समस्त भूमण्डल के पालन का भार सौंप दिया और इस तरह स्वयंभौतिक कामनाओं के अति दुस्तर तथा विषमय सागर से निवृत्ति प्राप्त कर ली।

    इति ह वाव स जगतीपतिरीश्वरेच्छयाधिनिवेशितकर्माधिकारो खिलजगद्ठन्धध्वंसनपरानुभावस्य ।

    भगवतआदिपुरुषस्याड्प्रियुगलानवरतध्यानानुभावेन परिरन्धितकषायाशयोवदातोपि ।

    मानवर्धनो महतांमहीतलमनुशशास ॥

    २३॥

    इति--इस प्रकार; ह वाव--निस्सन्देह; सः--वह; जगती-पति:--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का राजा; ई श्वर-इच्छया-- भगवान्‌ केआदेश से; अधिनिवेशित--पूर्णतया संलग्न; कर्म-अधिकार: -- भौतिक कार्यों में; अखिल-जगत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का;बन्ध--बन्धन; ध्वंसन--विनष्ट करते हुए; पर--दिव्य; अनुभावस्थ--जिसका प्रभाव; भगवतः--भगवान्‌ के; आदि-पुरुषस्थ--आदि पुरुष के; अड्ध्रि--चरणकमल में; युगल--दो; अनवरत--अहर्निश; ध्यान-अनुभावेन--ध ध्यान द्वारा;परिरन्धित--विनष्ट; कषाय--समस्त मल; आशय: --अपने हृदय में; अवदात:--नितान्त शुद्ध; अपि--यद्यपि; मान-वर्धन:--केवल सम्मान देने के लिए; महताम्‌--बड़ों को; महीतलम्‌-- भौतिक संसार पर; अनुशशास--राज्य किया।

    भगवान्‌ की आज्ञा का पालन करते हुए महाराज प्रियत्रत सांसारिक कार्यो में अनुरक्त रहनेलगे, किन्तु उन्हें सदैव भगवान्‌ के उन चरणकमलों का ध्यान बना रहा जो समस्त भौतिकआसक्ति से मुक्ति दिलाने वाले हैं।

    यद्यपि महाराज प्रियत्रत समस्त भौतिक कल्मषों से विमुक्त थे,किन्तु अपने बड़ों का मान रखने के लिए ही वे इस संसार पर शासन करने लगे।

    अथ च दुहितरं प्रजापतेर्वि श्रकर्मण उपयेमे बर्हिष्मतीं नाम तस्यामु ह ।

    वावआत्मजानात्मसमानशीलगुणकर्मरूपवीर्योदारान्द्श भावयाम्बभूव कन्यां च यवीयसीमूर्जस्वतीं नाम ॥

    २४॥

    अथ--त्पश्चात्‌; च-- भी; दुहितरम्‌--पुत्री को; प्रजापते: --प्रजापतियों में से एक की; विश्वकर्मण: --विश्वकर्मा नामक;उपयेमे--ब्याह लिया; बर्हिष्मतीम्‌--बर्हिष्मती को; नाम--नाम; तस्याम्‌ू--उसमें; उ ह--जैसाकि प्रसिद्ध है; वाव--आश्चर्यजनक; आत्म-जानू-- पुत्रों को; आत्म-समान--अपने ही सहृश्य; शील--चरित्र; गुण--गुण; कर्म--कार्य; रूप--सुन्दरता; वीर्य--बल; उदारान्‌ू--जिसकी उदारता; दश--दस; भावयाम्‌ बभूब--उसके उत्पन्न हुई; कन्याम्‌--कन्या; च-- भी;यवीयसीम्‌--सबसे छोटी; ऊर्जस्वतीम्‌--ऊर्जस्वती; नाम--नाम ?

    कीतदनन्तर महाराज प्रियब्रत ने प्रजापति विश्वकर्मा की कन्या बर्दिष्मती से विवाह किया।

    उससेउन्हें दस पुत्र प्राप्त हुए जो सुन्दरता, चरित्र, उदारता तथा अन्य गुणों में उन्हीं के समान थे।

    उनकेएक पुत्री भी हुई जो सबसे छोटी थी।

    उसका नाम ऊर्जस्वती था।

    आग्नीक्षेध्मजिहयज्ञबाहुमहावीरहिरण्यरेतोघृतपृष्ठसवनमे ।

    धातिधिवीतिहोत्रकवय इति सर्वएवाग्निनामान:, ॥

    २५॥

    आग्नीक्ष--आग्नी ध्र; इध्म-जिह्न--इध्मजिह्न; यज्ञ-बाहु--यज्ञबाहु; महा-वीर--महावीर; हिरण्य-रेत: --हिरण्यरेता; घृतपृष्ठ--घृतपृष्ठ; सवन--सवन; मेधा-तिथि--मेधातिथि; बीतिहोत्र--वीतिहोत्र ; कवयः--( तथा ) कवि; इति--इस प्रकार; सर्वे--येसभी; एव--निश्चय ही; अग्नि-- अग्नि देवता के; नामान:--नाम |

    महाराज प्रियत्रत के दस पुत्रों के नाम थे--आग्नीश्च, इध्मजिह्न, यज्ञबाहु, महावीर,हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सबन, मेधातिथि, वीतिहोत्र तथा कवि।

    ये अग्निदेव के भी नाम हैं।

    एतेषां कविर्महावीर: सवन इति त्रय आसन्चूध्वरेतसस्त ।

    आत्मविद्यायामर्भभावादारभ्य कृतपरिचया:पारमहंस्यमेवा भ्रममभजन्‌ ॥

    २६॥

    एतेषाम्‌--इनमें से; कवि:--कवि; महावीर:--महावीर; सवन:--सवन; इति--इस प्रकार; त्रय:ः--तीन; आसनू--थे; ऊर्ध्व-रेतस:ः--परम ( नैषप्ठिक ) ब्रह्मचारी; ते--वे; आत्म-विद्यायाम्‌--दिव्य ज्ञान में; अर्भ-भावात्‌--बचपन से; आरभ्य--प्रारम्भ करके; कृत-परिचया: -- अत्यधिक परिचित; पारमहंस्यम्‌--मानव जीवन की उच्चतम सिद्धि का; एब--निश्चय ही; आश्रमम्‌--आश्रम; अभजन्‌--पालन किया।

    इन दस पुत्रों में से तीन--कवि, महावीर तथा सवन--पूर्ण ब्रह्मचारी रहे।

    इस प्रकारबालपन से ब्रह्मचर्य जीवन की शिक्षा प्राप्त करने के कारण वे सर्वोच्च सिद्धि अर्थात्‌ परमहंसआश्रम से पूर्णतया परिचित थे।

    तस्मिन्नु ह वा उपशमशीला: परमर्षय: सकलजीवनिकायावासस्य भगवतो वासुदेवस्य भीतानांशरणभूतस्य श्रीमच्चरणारविन्दाविरतस्मरणाविगलितपरमभक्तियोगानु भावेन परिभावितान्तईदयाधिगतेभगवति सर्वेषां भूतानामात्मभूते प्रत्यगात्मन्येवात्मनस्तादात्म्यमविशेषेण समीयु: ॥

    २७॥

    तस्मिनू--उस परमहंस आश्रम में; उ--निश्चय ही; ह--इतना प्रसिद्ध; वा--निश्चय ही; उपशम-शीला:--संन्यास आश्रम में;'परम-ऋषय: --महान्‌ ऋषि; सकल--समस्त; जीव--जीवात्माओं का; निकाय--समूह; आवासस्य--निवास का; भगवतः --भगवान्‌; वासुदेवस्थ-- भगवान्‌ वासुदेव का; भीतानाम्‌--जो भौतिक अस्तित्व के कारण भयभीत हैं, उनका; शरण-भूतस्य--जो एकमात्र शरण है; श्रीमत्‌-- भगवान्‌ का; चरण-अरविन्द--चरणकमल; अविरत--निरन्तर; स्मरण--स्मरण; अविगलित--निष्कलुषित; परम--परम; भक्ति-योग--भक्ति का; अनुभावेन--बल से; परिभावित--शुद्धी कृत, विमल; अन्तः-- भीतरी;हृदय--हृदय; अधिगते--देखा हुआ; भगवति-- भगवान्‌; सर्वेषाम्‌--सब; भूतानाम्‌-- भूतात्माओं में से; आत्म-भूते--शरीर केभीतर स्थित; प्रत्यक्‌--प्रत्यक्ष; आत्मनि--परम-आत्मा में; एबव--निश्चय ही; आत्मन:--अपना; तादात्म्यमू--गुण में एक समान;अविशेषेण--बिना अन्तर के; समीयु:--साक्षात्कार किया।

    जीवन प्रारम्भ से ही संन्यास आश्रम में रहकर ये तीनों अपनी इन्द्रियों को पूर्णतया वश मेंकरते हुए महान सन्त हो गये।

    उन्होंने अपने मन को उन भगवान्‌ के चरणकमलों में सदैव केन्द्रितरखा, जो समस्त जीवात्माओं के विश्रामस्थल ( आश्रय ) हैं और वासुदेव नाम से विख्यात हैं।

    जोभव-स्थिति से भयभीत हैं उनके लिए भगवान्‌ वासुदेव ही एकमात्र शरण हैं।

    भगवान्‌ केचरणकमलों का निरन्तर ध्यान धारण करने के कारण महाराज प्रियत्रत के ये तीनों पुत्र शुद्धभक्ति से सिद्ध बन गये।

    वे अपनी भक्ति के बल से परमात्मा के रूप में प्रत्येक के हृदय मेंनिवास करने वाले भगवान्‌ का प्रत्यक्ष दर्शन कर सके और इसका अनुभव कर सके कि उनमेंतथा भगवान्‌ में, गुण के अनुसार, कोई अन्तर नहीं है।

    अन्यस्यामपि जायायां त्रयः पुत्रा आसच्रुत्तमस्तामसो रैवत इति मन्वन्तराधिपतय: ॥

    २८॥

    अन्यस्थाम्‌--अन्य; अपि-- भी; जायायाम्‌--स्त्री से; त्रय:ः--तीन; पुत्रा:--पुत्र; आसन -- थे; उत्तम: तामसः रैवत:--उत्तम,तामस तथा रैवत; इति--इस प्रकार; मनु-अन्तर--मन्वन्तर कल्प के; अधिपतय:--शासक ।

    महाराज प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से तीन पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम उत्तम, तामस तथा रैवतथे।

    बाद में इन्होंने मनवन्तर कल्पों का भार सँभाला।

    एवमुपशमायनेषु स्वतनयेष्वथ जगतीपतिज॑गतीमर्बुदान्येकादशपरिवत्सराणामव्याहताखिलपुरुषकारसारसम्भूतदोर्दण्डयुगलापीडितमौवीगुणस्तनितविरमितधर्म प्रतिपक्षोब्हिष्पत्याश्वानुदिनमेधमानप्रमोदप्रसरणयौषिण्यत्रीडाप्रमुषितहासावलोकरूचिरक्ष्वेल्यादिभि:'पराभूयमानविवेक इवानवबुध्यमान इव महामना बुभुजे ॥

    २९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; उपशम-अयनेषु--सभी सुयोग्य; स्व-तनयेषु-- अपने पुत्रों में से; अथ--तत्पश्चात्‌; जगती-पति:--ब्रह्माण्डके स्वामी; जगतीम्‌--ब्रह्माण्ड को; अर्बुदानि--अर्बुद ( १९०,००,००,००० की संख्या ); एकादश- ग्यारह; परिवत्सराणाम्‌--वर्षो का; अव्याहत--बिना रोकटोक के; अखिल--विश्वव्यापी; पुरुष-कार--शौर्य ; सार--शक्ति; सम्भृत--प्रदत्त; दोः-दण्ड:--बलिष्ठ भुजाओं वाले; युगल--दो; आपीडित--खींची गई; मौर्वी-गुण-- धनुष की डोरी; स्तनित--टंकार से;विरमित--पराजित; धर्म--धार्मिक नियम; प्रतिपक्ष:--विपक्षी; बर्हिष्मत्या:--अपनी पत्नी बर्हिष्मती का; च--तथा;अनुदिनम्‌-- प्रतिदिन; एधमान--वर्धमान; प्रमोद--मनोरंजन; प्रसरण--सुशीलता, सौजन्य; यौषिण्य--स्त्रियोचित व्यवहार;ब्रीडा--लज्जा से; प्रमुषित--संकुचित; हास--हँसी, हास्य; अवलोक--चितवन; रुचिर--मनोहर; क्वेलि-आदिभि: --विनोदइत्यादि; पराभूयमान--पराजित होकर; विवेक:-- अपने वास्तविक ज्ञान; इब--सहृश; अनवबुध्यमान: --विवेकहीन व्यक्ति;इब--सहश; महा-मना:--महान्‌ आत्मा; बुभुजे--राज्य किया, भोगा।

    इस प्रकार से कवि, महावीर तथा सवन के परमहंस अवस्था में भलीभाँति प्रशिक्षित हो जानेपर महाराज प्रियब्रत ने ग्यारह अर्बुद वर्षों तक ब्रह्माण्ड पर शासन किया।

    जिस समय वे अपनीबलशाली भुजाओं से धनुष की डोरी खींच कर तीर चढ़ा लेते थे उस समय धार्मिक जीवन केनियमों को न मानने वाले उनके विपक्षी विश्वपर शासन करने के उनके अद्वितीय शौर्य से डर करन जाने कहाँ भाग जाते थे।

    वे अपनी पतली बर्तहिष्मती को अगाध प्यार करते थे और समय बीतनेके साथ ही उनका प्रणय भी बढ़ता गया।

    अपनी स्त्रियोचित वेशभूषा, उठने-बैठने, हँसी तथा चितवन से महारानी बर्दिष्मती उन्हें शक्ति प्रदान करती थी।

    इस प्रकार महात्मा होते हुए भी वेअपनी पतली के स्त्री-उच्चित व्यवहार में खो गये।

    वे उसके साथ सामान्य पुरुष-सा आचरणकरते, किन्तु वे वास्तव में महान्‌ आत्मा थे।

    यावदवभासयति सुरगिरिमनुपरिक्रामन्भगवानादित्यो वसुधातलमर्धेनैव प्रतपत्यर्थेनावच्छादयति तदा हिभगवदुपासनोपचितातिपुरुषप्रभावस्तदनभिनन्दन्समजवेन रथेन ज्योतिर्मयेन रजनीमपि दिन करिष्यामीतिसप्तकृत्वस्तरणिमनुपर्यक्रामद्द्‌वतीय इब पतड़: ॥

    ३०॥

    यावत्‌--जब तक; अवभासयति--प्रकाश देता है; सुर-गिरिम्‌--सुमेरु पर्वत की; अनुपरिक्रामन्‌--परिक्रमा करते हुए;भगवान्‌--परम शक्तिमान; आदित्य: --सूर्यदेव; वसुधा-तलम्‌--अधोलोक पर; अर्धन--आधे से; एव--निश्चय ही; प्रतपति--तप्त करता है; अर्धेन--आधे से; अवच्छादयति-- अँधेरे से ढके रहता है, अँधेरा करता है; तदा--उस समय; हि--निश्चय ही;भगवत्ू-उपासना-- भगवान्‌ की उपासना द्वारा; उपचित--उन्‍्हें पूरी तरह प्रसन्न करके; अति-पुरुष-- परम पुरुष; प्रभाव:--प्रभाव; तत्‌ू--वह; अनभिनन्दन्‌--बिना प्रशंसा किये; समजवेन--समान बलशाली के द्वारा; रथेन--रथ पर; ज्योति: -मयेन--ज्योतिर्मय, प्रकाशवान्‌; रजनीम्‌--रात्रि को; अपि-- भी; दिनमू--दिन; करिष्यामि--बना दूँगा; इति--इस प्रकार; सप्त-कृत्‌--सात बार; वस्तरणिम्‌--सूर्य की कक्ष्या का अनुगमन करते हुए; अनुपर्यक्रामत्‌--परिक्रमा करते हुए; द्वितीय: --दूसरा; इब--सहश; पतड्र:--सूर्य |

    इस प्रकार सुचारु रूप से राज्य करते हुए राजा प्रियत्रत एक बार परम बलशाली सूर्यदेव कीपरिक्रमा से असन्तुष्ट हो गये।

    सूर्यदेव अपने रथ पर आरूढ़ होकर सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करतेहुए समस्त लोकों को प्रकाशित करते हैं, किन्तु जब सूर्य उत्तर दिशा में रहता है, तो दक्षिण भागको कम प्रकाश मिलता है और जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है, तो उत्तर भाग को कम प्रकाशमिलता है।

    राजा प्रियत्रत को यह स्थिति नहीं भायी इसलिए उन्होंने संकल्प किया कि ब्रह्माण्डके उस भाग में जहाँ रात्रि है, वहाँ वे दिन कर देंगे।

    उन्होंने एक प्रकाशमान रथ पर चढ़करसूर्यदेव की कक्ष्या का पीछा करके अपनी इच्छा पूर्ण की।

    वे ऐसे विस्मपजनक कार्यकलापइसीलिए कर पाये, क्योंकि उन्होंने भगवान्‌ की उपासना के द्वारा शौर्य अर्जित किया था।

    ये वा उ ह तद्रथचरणनेमिकृतपरिखातास्ते सप्त सिन्धव आसन्यत एव कृताः सप्त भुवो द्वीपा: ॥

    ३१॥

    ये--वे; वा उ ह--निश्चय ही; तत्‌-रथ--उस रथ के; चरण--पहियों की; नेमि--परिधि से; कृत--बने हुए; परिखाता: --खाइयाँ ( गड्ढे ); ते--वे; सप्त--सात; सिन्धव:--सागर; आसनू--हो गये; यत:--जिसके कारण; एब--निश्चय ही; कृता:--बने हुये; सप्त--सात; भुव:--भूमण्डल के ; द्वीपा:--ट्वीप |

    जब प्रियवत्रत ने अपना रथ सूर्य के पीछे हाँका, तो उनके रथ के पहियों की परिधि से जोचिह्न बन गये वे ही बाद में सात समुद्र हो गये और भूमण्डल सात द्वीपों में विभाजित हो गया।

    जम्बूप्लक्षशाल्मलिकुशक्रौज्ञशाक पुष्करसंज्ञास्तेषां परिमाणं पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो यथासड्ख्यंद्विगुणमानेन बहि: समन्तत उपक्रिप्ता: ॥

    ३२॥

    जम्बू--जम्बू; प्लक्ष-प्लक्ष; शाल्मलि--शाल्मलि; कुश--कुश; क्रौद्ध-क्रौंच; शाक--शाक; पुष्कर--पुष्कर; संज्ञा:--जाने जाते हैं; तेषाम्‌ू--उनमें से; परिमाणम्‌--परिमाप; पूर्वस्मात्‌ पूर्वस्मात्‌--अपने से पूर्व वाले से; उत्तर: उत्तर: --बाद वाले;यथा--क्रमानुसार; सड्ख्यम्‌--संख्या; द्वि-गुण--दो गुना; मानेन--माप से; बहि:--बाहर; समन्तत:--चारों ओर;उपक्रिप्ता:--उत्पन्न किया।

    (सात ) द्वीपों के नाम हैं--जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक तथा पुष्कर।

    प्रत्येकद्वीप अपने से पहले वाले द्वीप से आकार में दुगुना है और एक तरल पदार्थ से घिरा है, जिसकेआगे दूसरा द्वीप है।

    क्षारोदेक्षुससोदसुरोदघृतोदक्षीरोददधिमण्डोदशुद्धोदा: सप्त जलधय: सप्त द्वीपपरिखाइवाभ्यन्तरद्वीपसमाना एकैकश्येन यथानुपूर्व सप्तस्वपि बहिद्वपेषु पृथक्परित उपकल्पितास्तेषुजम्ब्वादिषु बर्हिष्मतीपतिरनुव्रतानात्मजानाग्नीश्नेध्मजिहयज्ञबाहुहिरण्यरेतोघृतपृष्ठमे धातिधिवीतिहोत्रसंज्ञान्यथास ड्ख्येनेकैकस्मिन्नेकमेवाधिपतिं विदधे ॥

    ३३॥

    क्षार--लवण, खारे; उद--जल; इक्षु-गरस--गन्ने का रस; उद--जल; सुरा--मदिरा; उद-- जल; घृत--घी; उद--जल; क्षीर--दुग्ध; उद--जल; दधि-मण्ड--मट्ठा; उद--जल; शुद्ध-उदा:--तथा पेय जल; सप्त--सात; जल-धय:--सागर; सप्त--सात;द्वीप--द्वीप; परिखा:ः--खाइयाँ; इब--सहृश्य; अभ्यन्तर-- भीतरी; द्वीप--द्वीप; समाना:--के तुल्य; एक-एकश्येन--एक केबाद दूसरा; यथा-अनुपूर्वम्‌-क्रमानुसार; सप्तसु--सात; अपि--यद्यपि; बहि:--बाह्द; द्वीपेषु--द्वीपों में; पृथक्‌ -- अलग;परितः--चारों ओर; उपकल्पिता: --स्थित; तेषु--उनमें से; जम्बू-आदिषु--जम्बूद्वीप तथा अन्य द्वीप; बर्हिष्मती--बर्हिष्मती का;'पति:ः--पति; अनुव्रतान्‌ू--जो पिता के नियमों का पालन करने वाले थे; आत्म-जानू--पुत्रों को; आग्नीक्च-इध्मजिह्न-यज्ञबाहु-हिरण्यरेत:-घृतपृष्ठ-मेधातिथि-बीतिहोत्र-संज्ञानू-- आग्नी क्र, इध्मजिह्न, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि, बीतिहोत्र नामवाले; यथा-सड्ख्येन--क्रमानुसार; एक-एकस्मिन्‌-- प्रत्येक द्वीप में; एकम्‌--एक; एब--निश्चय ही; अधि-पतिम्‌ू--राजा;विदधे--बना दिया।

    ये सातों समुद्र क्रमशः खारे जल, ईख के रस, सुरा, घृत, दुग्ध, मट्ठा तथा मीठे पेय जल सेपूर्ण हैं।

    सभी द्वीप इन सागरों से पूर्णतया घिरे हैं और प्रत्येक समुद्र घिरे हुए द्वीप के समान चौड़ाहै।

    रानी बर्हिष्मती के पति महाराज प्रियव्रत ने इन द्वीपों का एकक्षत्र राज्य अपने पुत्रों को दे दियाजिनके नाम क्रमश: आग्नीक्च, इध्मजिह्न, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि तथा बीतिहोत्रथे।

    इस प्रकार अपने पिता के आदेश से ये सभी राजा बन गये।

    दुहितरं चोर्जस्वतीं नामोशनसे प्रायच्छद्यस्थामासीद्देवयानी नाम काव्यसुता, ॥

    ३४॥

    दुहितरम्‌-पुत्री; च--भी; ऊर्जस्वतीम्‌--ऊर्जस्वती; नाम--नामक; उशनसे --महर्षि उशना ( शुक्राचार्य ) को; प्रायच्छत्‌ू--देदिया; यस्याम्‌--जिससे; आसीत्‌-- थी ( उत्पन्न हुई ); देवबानी--देवयानी; नाम--नामक; काव्य-सुता--शुक्राचार्य की पुत्री |

    उसके बाद राजा प्रियत्रत ने अपनी पुत्र ऊर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्य से कर दिया,जिसके गर्भ से देवयानी नामक पुत्री उत्पन्न हुई।

    नैवंविध: पुरुषकार उरूक्रमस्यपुंसां तदड्घ्रिरजसा जितषड्गुणानाम्‌ ।

    चित्र विदूरविगत: सकृदाददीतयन्नामधेयमधुना स जहाति बन्धम्‌ ॥

    ३५॥

    न--नहीं; एवम्‌-विध:--इस प्रकार; पुरुष-कार:--अपना प्रभाव; उरुू-क्रमस्थ-- भगवान्‌ का; पुंसाम्‌ू-- भक्तों का; ततू-अड्ध्रि--उनके चरणारविन्द की; रजसा-- धूलि से; जित-षट्‌-गुणानाम्‌-- जिन्होंने छः प्रकार के विकारों को जीत लिया है;चित्रमू--विस्मयजनक ; विदूर-विगत:--अस्पृश्य, पंचम वर्ण का व्यक्ति; सकृतू--एक बार; आददीत--यदि उच्चारण करे तो;यत्‌--जिसका; नामधेयम्‌--पवित्र नाम; अधुना--तुरन्त; सः--वह; जहाति--त्याग देता है; बन्धम्‌-- भौतिक बन्धन।

    हे राजन, जिस भक्त ने भगवान्‌ के चरणारविन्दों की धूलि में शरण ली है, वह षड््‌ विकारोंअर्थात्‌ भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु के प्रभाव तथा मन समेत छहों इन्द्रियों को जीतसकता है।

    किन्तु भगवान्‌ के शुद्ध भक्त के लिए यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं क्योंकि चारोंवर्णों से बाहर का व्यक्ति अर्थात्‌ अस्पृश्य व्यक्ति भी भगवान्‌ के नाम का एक बार उचार करलेने मात्र से भौतिक बन्धनों से तुरन्त छूट जाता है।

    स एवमपरिमितबलपराक्रम एकदा तु देवर्षिचरणानुशयनानुपतितगुणविसर्गसंसगेंणानिर्वृतमिवात्मानंमन्यमान आत्मनिर्वेद इदमाह ॥

    ३६॥

    सः--वह ( महाराज प्रियत्रत ); एवम्‌--इस प्रकार; अपरिमित--अद्वितीय; बल--शक्ति; पराक्रम:--जिसका प्रभाव; एकदा--एक बार; तु--तब; देव-ऋषि--महामुनि नारद के; चरण-अनुशयन---चरणकमलों में समर्पण; अनु--तत्पश्चात्‌; पतित--गिराहुआ; गुण-विसर्ग--विषयों के ( तीन गुणों से उत्पन्न ); संसर्गेण--सम्पर्क होने से; अनिर्वृतम्‌--असंतुष्ट; इब--सहश;आत्मानम्‌ू--अपने आपको; मन्यमान: --इस प्रकार सोचते हुए; आत्म--स्वयं; निर्वेद:--त्यागमय; इृदम्‌--यह; आह--कहा |

    इस प्रकार अपने पूर्ण पराक्रम तथा प्रभाव से भौतिक ऐश्वर्य का भोग करते हुए महाराजप्रियत्रत एक बार यह सोचने लगे कि यद्यपि मैं महामुनि नारद के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुकाथा और वास्तव में कृष्णभावनामृत के मार्ग पर था, किन्तु मैं अब न जाने क्‍यों फिर से भौतिककार्यो के बन्धन में फँस गया हूँ।

    इस प्रकार उनका मन अशान्त हो उठा।

    वे विरक्त होकर बोलने अहो असाध्वनुष्ठटितं यदभिनिवेशितोहमिन्द्रियरविद्यारचितविषमविषयान्धकूपे तदलमलममुष्या वनितायाविनोदमृगं मां धिग्धिगिति गहयां चकार ॥

    ३७॥

    अहो--ओह; असाधु--अच्छा नहीं; अनुष्ठितम्‌ू--हुआ; यत्‌--क्योंकि; अभिनिवेशित: --पूर्णतया निमग्न; अहम्‌--ैं;इन्द्रियैः--इन्द्रिय-भोग के लिए; अविद्या--अज्ञान से; रचित--बनाया हुआ; विषम--दुखदायी; विषय--इन्द्रियभोग; अन्ध-कूपे--अँधेरे कुएँ में; ततू--वह; अलम्‌--तुच्छ; अलम्‌--महत्त्वहीन या अधम का; अमुष्या:--उस; वनिताया:--पत्नी का;विनोद-मृगम्‌--नाचते हुए बन्दर की तरह; माम्‌--मुझको; धिक्‌-घधिक्कार है; धिक्‌-धिक्कार है; इति--इस प्रकार; गह॑याम्‌--आलोचना; चकार--की |

    राजा ने अपनी भर्त्सना इस प्रकार की--ओह! इन्द्रिय-भोग के कारण मैं कितना धिक्काराजाने योग्य हो गया हूँ।

    मैं अब भौतिक सुख के अंधकूप में गिर गया हूँ।

    बहुत हुआ! अब मुझेऔर भोग नहीं चाहिए।

    तनिक मेरी ओर देखो--मैं कैसे अपनी पतली के हाथों में नाचने वालाबन्दर बन गया हूँ।

    इसलिए मुझे धिक्कार है।

    परदेवताप्रसादाधिगतात्मप्रत्यवमरशें नानुप्रवृत्ते भ्य: पुत्रेभ्य इमां यथादायं विभज्य भुक्तभोगां च महिषींमृतकमिव सह महाविभूतिमपहाय स्वयं निहितनिर्वेदो हदि गृहीतहरिविहारानुभावो भगवतो नारदस्य'पदवीं पुनरेवानुससार ॥

    ३८॥

    पर-देवता-- भगवान्‌ के; प्रसाद--अनुग्रह से; अधिगत--प्राप्त किया; आत्म-प्रत्यवमर्शेन-- आत्म-साक्षात्कार से;अनुप्रवृत्ते भ्य:--जो उसके पथ का सही सही अनुसरण करता है; पुत्रेभ्य:--अपने पुत्रों को; इमाम्‌--यह पृथ्वी; यथा-दायम्‌--उत्तराधिकार के अनुसार; विभज्य--बाँटकर; भुक्त-भोगाम्‌--जिसका भोग अनेक प्रकार से किया; च-- भी; महिषीम्‌--रानी;मृतकम्‌ इब--मृत शरीर की भाँति; सह--सहित; महा-विभूतिम्‌--परम ऐ श्वर्य; अपहाय--त्याग कर; स्वयम्‌--स्वयं; निहित--पूर्णतया ग्रहण किया हुआ; निर्वेद:--त्याग; हृदि--हृदय में; गृहीत--स्वीकार किया; हरि-- भगवान्‌ की; विहार--लीलाएँ;अनुभाव: --ऐसे भाव में; भगवत:ः--परम साधु पुरुष का; नारदस्य--नारद मुनि का; पदवीम्‌--पद; पुन:ः--फिर; एब--निश्चयही; अनुससार-- अनुसरण करने लगा।

    भगवान्‌ के अनुग्रह से महाराज प्रियत्रत का विवेक पुनः जाग्रत हो उठा।

    उन्होंने अपनी सारीसम्पत्ति अपने आज्ञाकारी पुत्रों में बाँट दी।

    अपनी पत्ती को जिसके साथ उन्होंने इन्द्रियसुख भोगाथा और प्रभूत ऐश्वर्यशाली राज्य सहित सब कुछ त्याग कर वे सभी प्रकार की आसक्ति से रहितहो गये।

    विमल हो जाने से उनका हृदय भगवान्‌ की लीलाओं का स्थल बन गया।

    इस प्रकार वेकृष्णभावनामृत के पथ पर पुनः लौट आये और महामुनि नारद के अनुग्रह से जिस पद को प्राप्तकिया था उसको फिर से धारण किया।

    तस्य ह वा एते एलोकाः--प्रियव्रतकृतं कर्म को नु कुर्य द्विनेश्वरम्‌ ।

    यो नेमिनिम्नैरकरोच्छायां घ्नन्सप्त वारिधीन्‌ ॥

    ३९॥

    तस्य--उसका; ह वा--निश्चय ही; एते--ये सब; श्लोका:--श्लोक; प्रियत्रत--राजा प्रियत्रत द्वारा; कृतम्‌ू--किये हुए; कर्म --कर्म; कः--कौन; नु--तब; कुर्यात्‌ू--कर सकता है; विना--बिना; ई श्वरम्‌-- श्रीभगवान्‌; यः --जिसने; नेमि-- अपने रथ के'पहियों की परिधि के; निम्नैः--पहियों के दाब से; अकरोत्‌--कर दिया; छायाम्‌-- अंधकार; घ्नन्‌ू--दूर करते हुए; सप्त--सात; वारिधीन्‌--समुद्रों को?

    महाराज प्रियत्रत के कर्मों से सम्बन्धित अनेक श्लोक प्रसिद्ध हैं--'जो कुछ महाराजप्रियत्रत ने किया उसे भगवान्‌ के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता था।

    उन्होंने रात्रि केअंधकार को दूर किया और अपने रथ के पहियों की नेमी से सात समुद्र बना दिये।

    भूसंस्थानं कृतं येन सरिद््‌गरिवनादिभि: ।

    सीमा च भूतनिर्व॑त्यै द्वीपे द्वीपी विभागशः ॥

    ४०॥

    भू-संस्थानम्‌--पृथ्वी की स्थिति; कृतम्‌--बनी; येन--जिसके द्वारा; सरितू--नदियों से; गिरि--पर्वतों से; वन-आदिभि:--वनआदि से; सीमा--सीमा रेखाएँ; च-- भी; भूत--विभिन्न राष्ट्रों का; निर्व॒त्य--लड़ाई रोकने के लिए; द्वीपे द्वीपि--विभिन्न द्वीपोंमें; विभागशः--पृथक्‌-पृथक्‌ ।

    विभिन्न लोगों में पारस्परिक झगड़ों को रोकने के लिए महाराज प्रियब्रत ने नदियों, पर्वतोंके किनारों तथा वनों के द्वारा राज्यों की सीमाएँ निर्धारित कीं, जिससे कोई एक दूसरे कीसम्पत्ति में घुस न सके।

    भौम॑ दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम्‌ ।

    यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रिय: ॥

    ४१॥

    भौमम्‌--अधोलोक के; दिव्यम्‌--स्वर्ग के; मानुषम्‌--मनुष्यों के; च--भी; महित्वम्‌--समस्त ऐश्वर्य; कर्म--कर्म द्वारा;योग--योग द्वारा; जम्‌--उत्पन्न; य:--जिसने; चक्रे--किया; निरय--नरक से; औपम्यम्‌--उपमा अथवा समानता; पुरुष--भगवान्‌ के; अनुजन-- भक्त को; प्रिय:--अत्यन्त प्यारा |

    नारद मुनि के महान्‌ अनुयायी तथा भक्त महाराज प्रियत्रत ने अपने सकाम कर्मों तथा योगसे प्राप्त किये गये समस्त ऐश्वर्य को, चाहे वह स्वर्गलोग, अधोलोक अथवा मानव समाज काहो, नरक तुल्य समझा।

    TO

    अध्याय दो: महाराज आग्नीध्र की गतिविधियाँ

    5.2श्रीशुक उबाचएवं पितरि सम्प्रवृत्ते तदनुशासने वर्तमान आग्नीक्नो जम्बूद्वीपौकस:प्रजा औरसवद्धर्मावेक्षमाण:पर्यगोपायत्‌, ॥

    १॥

    श्री-शुक:-- श्रीशुकदेव गोस्वामी; उबाच--बोले; एवम्‌--इस प्रकार; पितरि--जब उसके पिता ने; सम्प्रवृत्ते--मुक्ति मार्गग्रहण किया; तत्‌-अनुशासने -- उसकी आज्ञानुसार; वर्तमान: --वर्तमान, उपस्थित; आग्नीक्च:--राजा आग्नी्ष; जम्बू-द्वीप-ओकसः:--जम्बूदीप के वासी; प्रजा:--नागरिक; औरस-वत्‌--अपने पुत्रों के समान; धर्म--धार्मिक नियम; अवेक्षमाण: --कठोरता से पालन करते हुए; पर्यगोपायत्‌--पूर्णतया सुरक्षित ?

    श्री शुकदेव गोस्वामी आगे बोले--अपने पिता महाराज प्रियत्रत के इस प्रकार आध्यात्मिकजीवन पथ अपनाने के लिए तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीक्ष ने उनकी आज्ञा का पूरीतरह पालन किया और धार्मिक नियमों के अनुसार उन्होंने जम्बूद्यीप के वासियों को अपने हीपुत्रों के समान सुरक्षा प्रदान की।

    स च कदाचित्पितृलोककामः सुरवरवनिताक्रीडाचलद्रोण्यां भगवन्तं विश्वसूजां'पतिमाभूतपरिचर्योपकरण आत्मैकाछयेण तपस्व्याराधयां बभूव ॥

    २॥

    सः--वह ( राजा आग्नीश्न ); च--भी; कदाचित्‌--एक बार; पितूुलोक--पितृलोक की; काम:ः--इच्छा करते हुए; सुर-वर--श्रेष्ठ देवताओं में से; बनिता--स्त्री जाति; आक्रीडा--विहार-स्थली; अचल-द्रोण्यामू--मन्दराचल की एक घाटी में;भगवन्तम्‌--सर्व शक्तिमान ( भगवान्‌ ब्रह्मा ) को; विश्व-सृजाम्‌--जिन विभूतियों ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की; पतिम्‌--स्वामीको; आभूत--संग्रह करके; परिचर्या-उपकरण:--पूजा की सामग्री; आत्म--मन का; एक-अछयेण--पूरे मनोयोग से;तपस्वी--तप करने वाला; आराधयाम्‌ बभूब--आराधना में लग गया।

    एक बार महाराज आग्नीक्ष ने सुयोग्य पुत्र प्राप्त करने तथा पितुलोक का वासी बनने कीकामना से भौतिक सृष्टि के स्वामी भगवान्‌ ब्रह्मा की आराधना की।

    वे मंदराचल की घाटी मेंगये जहाँ स्वर्गलोक की सुन्दरियाँ विहार करने आती हैं।

    वहाँ उन्होंने वाटिका से फूल तथा अन्यआवश्यक सामग्री एकत्र की और फिर कठिन तप तथा उपासना में लग गये।

    तदुपलभ्य भगवानादिपुरुष: सदसि गायन्तीं पूर्वचित्ति नामाप्सरसमभियापयामास ॥

    ३॥

    ततू--वह; उपलभ्य--समझकर; भगवान्‌--सर्वशक्तिमान; आदि-पुरुष: --इस ब्रह्माण्ड में उत्पन्न पहले जीव; सदसि--सभा में;गायन्तीम्‌--नर्तकी; पूर्वचित्तिम्‌-पूर्वचित्ति; नाम--नामक; अप्सरसम्‌--स्वर्ग की नर्तकी, अप्सरा को; अभियापयाम्‌ आस--नीचे भेजा।

    इस ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान तथा आदि पुरुष भगवान्‌ ब्रह्म ने राजा आग्नीक्ष कीअभिलाषा जानकर अपनी सभा की श्रेष्ठ अप्सरा को, जिसका नाम पूर्वचित्ति था, चुनकर राजाके पास भेजा।

    सा च तदाभ्रमोपवनमतिरमणीयंविविधनिबिडविटपिविटपनिकरसंश्लिष्टपुरटलतारूढस्थलविहडुममिथुनै: प्रोच्यमानश्रुतिभि:प्रतिबोध्यमानसलिलकुक्कुटकारण्डवकलहंसादिभिर्विचित्रमुपकूजितामलजलाशयकमलाकरमुपब भ्राम॥

    ४॥

    सा--वह ( पूर्वचित्ति ); च-- भी; तत्‌ू--महाराज आग्नीश्व को; आश्रम--ध ध्यान-स्थल के; उपवनम्‌--छोटा उद्यान, पार्क;अति--अ त्यन्त; रमणीयम्‌--सुन्दर; विविध--अनेक प्रकार के; निबिड--घना; विटपि--वृक्ष; विटप--डालों के; निकर--समूह; संश्लिप्ट--संलग्न; पुरट--स्वर्णिम; लता--लताओं सहित; आरूढ--ऊपर चढ़ी हुई; स्थल-विहड्रम--स्थल के पक्षियोंके; मिथुनै:--जोड़ों सहित; प्रोच्यमान--कूजन करते हुए; श्रुतिभि:--सुहावने शब्दों से; प्रतिबोध्यमान--प्रतिध्वनित; सलिल-कुकुट--जल-कुक्कुट; कारण्डब--बत्तख; कल-हंस--अनेक प्रकार के हंसों; आदिभि:--इत्यादि, सहित; विचित्रम्‌--नानाप्रकार के; उपकूजित--शब्द से प्रतिध्वनित; अमल--निर्मल; जल-आशय--सरोवर या झील में; कमल-आकरम्‌--कमलपुष्पों की खान; उपबध्राम--में चलने लगी।

    श्री ब्रह्मा द्वारा भेजी गई अप्सरा उस उपवन के निकट विचरने लगी जहाँ राजा ध्यान में'लगकर आराधना कर रहा था।

    वह उपवन सघन वृक्षों तथा स्वर्णिम लताओं के कारण अत्यन्तरमणीय था।

    वहाँ स्थल पर मयूर जैसे अनेक पक्षियों के जोड़े और सरोवर में बत्तख तथा हंससुमधुर कूजन कर रहे थे।

    इस प्रकार वह उपवन वृक्षों, निर्मल जल, कमल पुष्प तथा सुमधुरकूजन करते विविध पक्षियों के कारण अत्यन्त सुन्दर लग रहा था।

    तस्या: सुललितगमनपदविन्यासगतिविलासायाश्चानुपदं खणखणायमानरुचिरचरणाभरणस्वनमुपाकर्णय्यनरदेवकुमार: समाधियोगेनामीलितनयननलिनमुकुलयुगलमीषद्विकचय्य व्यचष्ट ॥

    ५॥

    तस्या:--उस ( पूर्वचित्ति ) के; सुललित--अत्यन्त सुन्दर; गमन--चाल; पद-विन्यास--चलने की शैली से; गति--आगे आगे;विलासाया:--जिनकी लीला; च--भी; अनुपदम्‌-- प्रत्येक पग से; खण-खणायमान--झंकार करते हुए; रुचिर--अत्यन्तमनोहर; चरण-आभरण--चरणों के आभूषण; स्वनम्‌ू--ध्वनि को; उपाकर्ण्य --सुनकर; नरदेव-कुमार:--राजकुमार ने;समाधि--समाधि दशा; योगेन--इन्द्रियों को नियंत्रित करके; आमीलित--अधखुले; नयन--नेत्र; नलिन--कमल की;मुकुल--कलियाँ; युगलम्‌--एक जोड़े के समान; ईषत्‌ू--कुछ-कुछ; विकचय्य--खोलकर; व्यचष्ट--देखा।

    ज्योंही अत्यन्त मनोहर गति तथा हावभाव से युक्त पूर्वचित्ति उस पथ से निकली त्योंहीप्रत्येक पग पर उसके चरण-नूपुरों की झंकार निकलने लगी।

    यद्यपि राजकुमार आग्नीक्षअथध्खुले नेत्रों से योग साध कर इन्द्रियों को वश में कर रहे थे, किन्तु अपने कमल सहश नेत्रों सेवे उसे देख सकते थे।

    तभी उन्हें उसके कंगनों की मधुर झंकार सुनाई दी।

    उन्होंने अपने नेत्रों कोकुछ और खोला, तो देखा कि वह उनके बिल्कुल निकट थी।

    तामेवाविदूरे मधुकरीमिव सुमनस उपजिद्रन्तींदिविजमनुजमनोनयनाहाददुधैर्गतिविहारतब्रीडाविनयावलोकसुस्वराक्षरावयवैर्मनसि नृणां कुसुमायुधस्यविदधतीं विवरं निजमुखविगलितामृतासवसहासभाषणामोदमदान्धमधुकरनिकरोपरोधेन द्रुतपदविन्यासेनवल्गुस्पन्दनस्तनकलशकबरभाररशनां देवीं तदवलोकनेन विवृतावसरस्य भगवतो मकरध्वजस्यवशमुपनीतो जडवदिति होवाच ॥

    ६॥

    तामू--उसको; एव--निस्संदेह; अविदूरे--निकट ही; मधुकरीम्‌ इव--मधुमक्खी के समान; सुमनस:--सुन्दर फूल;उपजिप्रन्तीमू--सूँघती हुई; दिवि-ज--स्वर्गलोक में उत्पन्न होने वालों का; मनु-ज--मर्त्यलोक में जन्म लेने वालों का; मनः--मन; नयन--नेत्रों के लिए; आह्ाद- प्रसन्नता; दुघैः--उत्पन्न करती हुई; गति--अपनी चाल से; विहार--आमोद-प्रमोद से;ब्रीडा--लज्जा से; विनय--विनयशीलता से; अवलोक--चितवन से; सु-स्वर-अक्षर-- अपनी मधुर वाणी से; अवयबै:--शरीरके अंगों से; मनसि--मन में; नृणाम्‌ू--मनुष्यों के; कुसुम-आयुधस्य--हाथ में पुष्प-धनुष धारण करने वाले कामदेव का;विदधतीम्‌--करती हुई; विवरम्‌--कर्णगत; निज-मुख--अपने मुँह से; विगलित--उड़ेलती हुईं; अमृत-आसब--मधु सहशअमृत; स-हास--अपने हँसी में; भाषण--तथा बोलने में; आमोद--प्रसन्नता से; मद-अन्ध--नशे में अन्धा हुआ; मधुकर--मधुमक्खियों का; निकर--समूह; उपरोधेन--उसके चारों ओर से घिरे होने से; द्रुत--शीघ्रगामी; पद--पाँव का; विन्यासेन--भावपूर्ण पद चाप से; वबल्गु--कुछ; स्पन्दन--गति; स्तन--उरोज; कलश--जल पात्र सहश; कबर--बालों की चोटी; भार--भार; रशनाम्‌ू--करधनी; देवीम्‌--देवी को; तत्‌ू-अवलोकनेन--उसकी दृष्टि मात्र से; विवृत-अवसरस्य--अवसर पाकर;भगवत:ः: --सर्वशक्तिमान का; मकर-ध्वजस्य--कामदेव का; वशम्‌--वश में; उपनीत:--लाया जाकर; जड-वत्‌--जड़ केसमान; इति--इस प्रकार; ह--निश्चय ही; उबाच--वह बोला।

    वह अप्सरा सुन्दर तथा आकर्षक फूलों को मधुमक्खी के समान सूँघ रही थी।

    वह अपनीचपल गति, लज्जा, विनय, चितवन तथा मुख से निकलने वाली मधुर ध्वनि और अपने अंगों कीगति से मनुष्यों तथा देवताओं के मन तथा ध्यान को आकर्षित करने वाली थी।

    इन सब गुणों केकारण उसने मनुष्यों के मनों में कुसुम धनुषधारी कामदेव के स्वागतार्थ कानों के मार्ग खोल दिये थे।

    जब वह बोलती, तो उसके मुख से अमृत झरता था।

    उसके श्वास लेने पर श्वास कास्वाद लेने के लिए भौरे मदान्ध होकर उसके कमलवत्‌ नेत्रों के चारों ओर मँडराने लगते।

    इनभौंरों से विचलित होकर वह जल्दी-जल्दी चलने का प्रयत्त करने लगी, किन्तु जल्दी चलने केलिए पैर उठाते ही उसके केश, उसकी करधनी तथा उसके जलकलश तुल्य स्तन इस प्रकार गतिकर रहे थे, जिससे वह अत्यन्त मनोहर एवं आकर्षक लग रही थी।

    दरअसल ऐसा प्रतीत होता थामानो वह अत्यन्त बलशाली कामदेव के लिए प्रवेश-मार्ग बना रही हो।

    अतः राजकुमार उसेदेखकर पूर्णतया वशी भूत हो गया और उससे इस प्रकार बोला।

    का त्वं चिकीर्षसि च किं मुनिवर्य शैलेमायासि कापि भगवत्परदेवताया: ।

    विज्ये बिभर्षि धनुषी सुहृदात्मनोर्थेकि वा मृगान्मृगयसे विपिने प्रमत्तानू ॥

    ७॥

    का--कौन; त्वम्--तुम हो; चिकीर्षसि--क्या करना चाहते हो; च-- भी; किम्‌--क्या; मुनि-वर्य--हे मुनिश्रेष्ठ; शैले--इसपर्वत पर; माया--माया; असि--हो; कापि-- कुछ; भगवत्‌-- भगवान्‌; पर-देवताया: --दिव्य ईश्वर का; विज्ये--बिना डोरीके; बिभर्षि-- धारण किये हुए; धनुषी--दो धनुष; सुहृत्‌--मित्र का; आत्मन:--अपने; अर्थ--हेतु; किम्‌ बा--अथवा;मृगान्‌ू--जंगली पशु; मृगयसे-- आखेट करने का प्रयत्न कर रहे हो; विपिने--इस बन में; प्रमत्तान्‌ू--धन से मतवालों का।

    राजकुमार ने भूल से अप्सरा को सम्बोधित किया--हे मुनिवर्य, तुम कौन हो ? इस पर्वत परक्यों आये हो और कया करना चाहते हो ? क्या तुम भगवान्‌ की कोई माया हो ? तुम बिना डोरीवाले इन दो धनुषों को क्‍यों धारण किये हो ? क्या इनसे कोई तुम्हारा प्रयोजन है या अपने मित्रके लिए इन्हें धारण किये हुए हो ? सम्भवत: तुम इन्हें इस वन के मतवाले ( पागल ) पशुओं कोमारने के लिए धारण किये हो।

    बाणाविमौ भगवतः शतपत्रपत्रौशान्तावपुद्भरुचिरावतितिग्मदन्तौ ।

    कस्मै युयुड्क्षसि बने विचरन्न विदा:क्षेमाय नो जडधियां तव विक्रमोउस्तु ॥

    ८॥

    बाणौ--दो बाण; इमौ--ये; भगवतः--आपके, सर्वशक्तिमान के; शत-पत्र-पत्रौ--कमल की पंखुडियों जैसे पंखों वाले;शान्तौ--शान्त; अपुद्ड--पंखरहित; रुचिरौ--अत्यन्त सुन्दर; अति-तिग्म-दन्तौ--अत्यन्त तीक्ष्ण नोक वाले; कस्मै--किसको;युयुद्क्षंसि--बेध देना चाहते हो; बने--वन में; विचरन्‌--इधर-उधर घूमते हुए; न विद्य:--हम समझ नहीं सकते; क्षेमाय--कल्याण के लिए; न:ः--हमारे; जड-धियाम्‌--जड़-बुद्धि वालों को; तब--तुम्हारा; विक्रम:--शौर्य; अस्तु--हो?

    तब आगम्नीक्ष ने पूर्वचित्ति के बाँके नेत्रों को देखा और कहा--हे मित्र, तुम्हारे बाँके नेत्र दोअत्यन्त शक्तिशाली बाण हैं।

    इन बाणों में कमल पुष्प की पंखुड़ियों जैसे पंख हैं।

    मूठरहित होनेपर भी वे अत्यन्त सुन्दर हैं और उनके सिरे नुकीले तथा भेदने वाले हैं।

    वे अत्यन्त शान्त लगते हैंजिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे किसी पर नहीं छोड़े जाएँगे।

    तुम इस वन में किसी न किसी कोइन बाणों से बेधने के लिए विचरण कर रहे होगे, किन्तु किसे ? यह मैं नहीं जानता।

    मेरी बुद्धिभी मन्द पड़ गई है और मैं तुम्हारा सामना नहीं कर सकता।

    दरअसल, पराक्रम में कोई भीतुम्हारी बराबरी नहीं कर सकता; इसीलिए, मेरी प्रार्थना है कि तुम्हारा पराक्रम मेरे लिएकल्याणकारी हो।

    शिष्या इमे भगवत: परित: पठन्तिगायन्ति साम सरहस्यमजस्त्रमीशम्‌ ।

    युष्मच्छिखाविलुलिता: सुमनोभिवृष्टी:सर्वे भजन्त्यूषिगणा इब वेदशाखा: ॥

    ९॥

    शिष्या:--शिष्य; इमे--ये; भगवतः -- पूज्य के; परित:--चारों ओर से घेरे हुए; पठन्ति--सुना रहे हैं; गायन्ति--गायन कर रहेहैं; साम--सामवेद; स-रहस्यम्‌--रहस्ययुक्त; अजस्त्रमू--निरन्तर; ईशम्‌--ई श्वर को; युष्मत्‌-- तुम्हारी; शिखा--चोटी से;विलुलिता:--गिरे हुए; सुमन: --पुष्पों की; अभिवृष्टी: --वृष्टि; सर्वे--समस्त; भजन्ति-- भोगते हैं; ऋषि-गणा:--ऋषि, मुनि;इब--सहश; वेद-शाखा:--वैदिक शास्त्रों की शाखाएँ।

    पूर्वच्ित्ति का अनुगमन करने वाले भौरों को देखकर महाराज आग्नीक्ष बोले--भगवन्‌,ऐसा प्रतीत होता है मानो तुम्हारे शरीर को घेरे हुए ये भौरे अपने पूज्य गुरु को घेरे हुए शिष्य हैं।

    वे सामवेद तथा उपनिषद्‌ के मंत्रों का निरन्तर गायन कर रहे हैं और इस प्रकार तुम्हारी स्तुति कररहे हैं।

    जैसे ऋषिगण वैदिक शास्त्रों की शाखाओं का अनुसरण करते हैं, ये भौरें तुम्हारी चोटीसे झड़ने वाले पुष्पों का आनन्द ले रहे हैं।

    वाचं परं चरणपद्रतित्तिरीणांब्रह्मन्नरूपमुखरां श्रुणवाम तुभ्यम्‌ ।

    लब्धा कदम्बरुचिरड्डृविटड्डूबिम्बेयस्यामलातपरिधि: क्व च वल्कलं ते ॥

    १०॥

    वाचम्‌--गुंजरित ध्वनि; परम्‌--एकमात्र; चरण-पञ्धर--नूपुरों की; तित्तिरीणाम्‌--तीतरों की; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; अरूप--बिना रूप के; मुखराम्‌--स्पष्ट सुनाई पड़ने वाला; श्रूणवाम--मैं सुनता हूँ; तुभ्यम्‌--तुम्हारा; लब्धा--प्राप्त; कदम्ब--कदम्बपुष्प सहश; रुचि: --मनोहर रंग; अड्जू-विटड्जू-बिम्बे--सुन्दर गोल नितम्बों पर; यस्याम्‌ू--जिस पर; अलात-परिधि:--ज्वलितअंगारों का घेरा; क्व--कहाँ; च-- भी; वल्कलम्‌--ढकने के लिए वस्त्र; ते--तुम्हारा |

    हे ब्राह्मण, मुझे तो तुम्हारे नूपुरों की झंकार ही सुनाई पड़ती है।

    ऐसा लगता है उनके भीतरतीतर पक्षी चहक रहे हैं।

    मैं उनके रूपों को नहीं देख रहा, किन्तु मैं सुन रहा हूँ कि वे किसप्रकार चहक रहे हैं।

    जब मैं तुम्हारे सुन्दर गोल नितम्बों को देखता हूँ, तो मुझे लगता है कि मानोवे कदम्ब के पुष्पों का सुन्दर रंग लिए हों।

    तुम्हारी कमर में जाज्वल्यमान अंगारों की मेखला पड़ीहुई है।

    दरअसल, ऐसा लगता है कि तुम वस्त्र धारण करना भूल गये हो।

    कि सम्भूतं रुचिरयोद्धिज श्रड़रयोस्तेमध्ये कृशो वहसि यत्र दशिः भ्रिता मे ।

    पड्लोरुण: सुरभीरात्मविषाण ईहग्‌येनाशअ्रमं सुभग मे सुरभीकरोषि ॥

    ११॥

    किम्‌--क्या; सम्भृतम्‌-- भरा हुआ; रुचिरयो: --अत्यन्त सुन्दर; द्विज--हे ब्राह्मण; श्रृड़यो:--दो सींगों के भीतर; ते--तुम्हारा;मध्ये--बीच में; कृशः--पतली; वहसि-- धारण करते हो; यत्र--जिसमें; इशि:--आँखें; भ्रिता--टिकी हुई; मे--मेरी;पड्डू:--चूर्ण; अरुण:--लाल; सुरभि:--सुगंधित; आत्म-विषाणे--दो सींगों पर; ईंहक्‌--ऐसा; येन--जिसके द्वारा;आश्रमम्‌ू--आश्रम; सु-भग--हे भाग्यवान्‌; मे--मेरा; सुरभी-करोषि--सुगन्धित बना रहे हो |

    तब आग्नीश्च ने पूर्वचित्ति के उभरे हुए उरोजों की प्रशंसा की।

    उन्होंने कहा--हे ब्राह्मण,तुम्हारी कमर अत्यन्त पतली है, किन्तु फिर भी तुम कष्ट सह कर इन दो सींगों को धारण कर रहेहो जिन पर मेरे नेत्र अटक गये हैं।

    इन दोनों सुन्दर सीगों के भीतर कया भरा है? तुमने इनकेऊपर सुगन्धित लाल-लाल चूर्ण छिड़क रखा है मानो अरुणोदय का सूर्य हो।

    हे भाग्यवान्‌, क्यामैं पूछ सकता हूँ कि तुम्हें ऐसा सुगन्धित चूर्ण कहाँ से मिला जो मेरे आश्रम को सुरभित कर रहाहै?

    लोकं प्रदर्शय सुहृत्तम तावकं मेयत्रत्य इत्थमुरसावयवावपूर्बों ।

    अस्मद्विधस्य मनउन्नयनौ बिभर्तिबहद्धुतं सरसराससुधादि वक्‍त ॥

    १२॥

    लोकम्‌--आवास स्थान, देश; प्रदर्शय--दिखा दो; सुहृत्‌-तम-हे श्रेष्ठ मित्र, मित्रवर; तावकम्‌--इस प्रकार; मे--मुझको;यत्रत्यः--जिसमें उत्पन्न पुरुष; इत्थम्‌--इस तरह; उरसा--वक्षस्थल से; अवयवौ--दो अंग ( उरोज ); अपूर्वो --अपूर्ब; अस्मत्‌-विधस्य--मुझ जैसे व्यक्ति को; मन:-उन्नयनौ--चित्त को क्षुब्ध करने वाला; बिभर्ति--बना हुआ है; बहु--अनेक; अद्भुतम्‌--अदभुत; सरस--मृदुबचन; रास--मुस्कान जैसा हावभाव; सुधा-आदि--अमृत के तुल्य; वक्‍्त्रे--मुख में ।

    मित्रवर, क्‍या तुम मुझे अपना निवास स्थान दिखा सकते हो? मैं कल्पना भी नहीं करसकता कि उस स्थान के वासियों को तुम्हारे उन्नत उरोजों के समान अद्भुत्‌ शारीरिक अंग किसतरह प्राप्त हुए हैं, जो मुझ जैसे देखने वाले के मन तथा नेत्रों को उद्देलित कर रहे हैं।

    उनकी मधुरवाणी तथा मृदु मुस्कान से इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि उनके मुख में अमृत बसता होगा।

    का वात्मवृत्तिरदनाद्धविरड़ वातिविष्णो: कलास्यनिमिषोन्मकरौ च कर्णों ।

    उद्विग्नमीनयुगलं द्विजपड़ि शोचि-रासबन्नभूड़निकरं सर इन्मुखं ते ॥

    १३॥

    का-क्या; वा--तथा; आत्म-वृत्तिः:--शरीर के पालन हेतु भोजन; अदनात्‌--पान के चबाने से; हविः--यज्ञ की हवन सामग्री;अड्ग-+मेरे प्रिय मित्र; वाति--फैल रही है; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु के; कला--शरीर का अंश; असि--हो; अनिमिष--अपलक; उन्मकरौ--दो उज्वल मगर; च--भी; कर्णौं--दो कान; उद्विग्ग--परेशान, अस्थिर; मीन-युगलम्‌--दो मछलियोंसहित; द्विज-पड्डि --दाँतों की पाँत; शोचि: --सुन्दरता; आसन्न--सन्निकट; भूड़-निकरम्‌--भौंरों का समूह; सर: इत्‌--सरोवरके सहृश; मुखम्‌--मुँह; ते--तुम्हारा |

    मित्रवर, शरीर पालने के लिए तुम कया खाते हो ? ताम्बूल चबाने से तुम्हारे मुख से सुगन्धफैल रही है।

    इससे यह सिद्ध होता है कि तुम सदैव विष्णु का प्रसाद खाते हो।

    निश्चय ही तुमभगवान्‌ विष्णु के अंश स्वरूप हो।

    तुम्हारा मुख मनोहर सरोवर के समान सुन्दर है।

    तुम्हारेरत्जटित कुंडल उन दो उज्वल मकरों के तुल्य हैं जिनके नेत्र विष्णु के समान अपलक रहनेवाले हैं।

    तुम्हारे दोनों नेत्र दो चंचल मछलियों के सद्ृश हैं।

    इस प्रकार तुम्हारे मुख-सरोवर में दोमकर तथा दो चंचल मछलियाँ एक साथ तैर रही हैं।

    इनके अतिरिक्त तुम्हारे दाँतों की धवलपंक्ति जल में श्वेत हंसों की पंक्ति के सहश प्रतीत होती है और तुम्हारे बिखरे बाल तुम्हारे मुख कीशोभा का पीछा करने वाले भौंरों के झुंड के समान हैं।

    योउसौ त्वया करसरोजहतः पतड़ेदिक्षु भ्रमन्भ्रमत एजयतेक्षिणी मे ।

    मुक्त न ते स्मरसि वक़््जटावरूथंकष्टोडनिलो हरति लम्पट एष नीवीम्‌ ॥

    १४॥

    यः--जो; असौ--वह; त्वया--तुम्हारे द्वारा; कर-सरोज--कमल के समान हथेली वाला; हत:--आहत; पतड्ु:--गेंद; दिक्षु--समस्त दिशाओं में; भ्रमन्‌ू--घूमते हुए; भ्रमतः--चल, अस्थिर; एजयते--विश्लुब्ध करता है; अक्षिणी--नेत्रों को; मे--मेरे;मुक्तम्‌--बिखरे हुए; न--नहीं; ते--तुम्हारा; स्मरसि-- क्या तुम्हें सुधि है; वक्र--घुँघराले; जटा--बालों का; वरूथम्‌--समूह,लटें; कष्ट:--कष्टदायी; अनिल: --वायु; हरति--बहा ले जाता है; लम्पट:-- धूर्त, परस्त्री पर आसक्त सहश; एष:--यह;नीवीम्‌-- अधोवस्त्र |

    मेरा मन पहले ही से चंचल है और तुम इस गेंद को अपनी कमल सहश हथेली से इधर-उधरफेंक कर मेरे नेत्रों को विश्षुब्ध कर रहे हो।

    तुम्हारे घुँधराले केश अब बिखरे हुए हैं, किन्तु तुम्हेंउनको सँभालने की सुधि नहीं है।

    तुम इन्हें सँभाल क्‍यों नहीं लेते? यह धूर्त वायु स्त्रियों मेंआसक्त लम्पट पुरुष के समान तुम्हारे अधोवस्त्र को उठाने का प्रयल कर रहा है।

    क्‍या तुम्हेंइसकी खबर नहीं है ?

    रूपं तपोधन तपश्चरतां तपोध्न॑ह्ोतत्तु केन तपसा भवतोपलब्धम्‌ ।

    चर्तु तपोहसि मया सह मित्र महांकि वा प्रसीदति स वै भवभावनो मे ॥

    १५॥

    रूपम्‌--सुन्दरता; तपः-धन-हे श्रेष्ठ तपस्वी; तप: चरताम्‌--तपस्या में संलग्न पुरुषों का; तपः-घ्नमू-तपों को विनष्ट करनेवाला; हि--निश्चय ही; एतत्‌--यह; तु--निस्सन्देह; केन--किस; तपसा--तपस्या के द्वारा; भवता--तुम्हारे द्वारा;उपलब्धम्‌--प्राप्त किया; चर्तुमू--करने के लिए; तप:--तप; अर्हसि--तुम्हें चाहिए; मया सह--मेरे साथ; मित्र--हे मित्र;महाम्‌--मुझको; किम्‌ वा--अथवा सम्भव है; प्रसीदति--प्रसन्न होता है; सः--वह; बै--निश्चय ही; भव-भावन:--इसब्रह्माण्ड का सृजनकर्ता; मे--मेरे साथ ।

    हे श्रेष्ठ तपस्वी, तुम्हें दूसरों की तपस्या को भंग करने वाला यह अदभुत्‌ रूप कहाँ से प्राप्तहुआ? तुमने यह कला कहाँ से सीखी ? हे मित्र, तुमने इस सुन्दरता को प्राप्त करने के लिए कौनसा तप किया है? मेरी इच्छा है कि तुम मेरे साथ तपस्या में सम्मिलित हो जाओ, क्योंकि होसकता है कि इस ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा भगवान्‌ ब्रह्मा ने मुझ पर प्रसन्न होकर तुम्हें मेरी पत्नी बननेके लिए भेजा हो।

    नत्वां त्यजामि दयितं द्विजदेवदत्तंयस्मिन्मनो हगपि नो न वियाति लग्नम्‌ ।

    मां चारुश्रृड्ग्यहसि नेतुमनुत्रतं तेचित्तं यतः प्रतिसरन्तु शिवा: सचिव्य: ॥

    १६॥

    न--नहीं; त्वाम्‌-तुमको; त्यजामि--छोड़ूँगा; दयितम्‌-- अत्यन्त प्रिय; द्विज-देव--ब्राह्मणों के उपास्य देवता, भगवान्‌ ब्रह्मा से;दत्तमू--दिया हुआ; यस्मिनू--जिसको; मन:--मन; हक्‌--आँखें; अपि-- भी; नः--मेरा; न वियाति--दूर नहीं जाता है;लग्नमू-हढ़तापूर्वक लगा हुआ; मामू--मुझको; चारु-श्रृद्धि--हे सुन्दर उन्नत उरोजों वाली स्त्री; अहंसि--तुम्हे चाहिए; नेतुम्‌--पथ प्रदर्शन करना; अनुव्रतम्‌-- अनुयायी; ते--तुम्हारा; चित्तमू--आकांक्षा; यतः--जहाँ कहीं भी; प्रतिसरन्तु--साथ चलें;शिवाः--अनुकूल; सचिव्य: --मित्रगण, सखियाँ |

    ब्राह्मणों के द्वारा पूजित भगवान्‌ ब्रह्मा ने मुझपर अत्यन्त अनुग्रह करके तुमको मुझे दिया है;इसलिए मैं तुमसे मिल पाया हूँ।

    मैं तुम्हारा साथ नहीं छोड़ना चाहता, क्योंकि मेरे मन तथा नेत्रतुम्हीं पर टिके हुए हैं और वे किसी तरह दूर नहीं किये जा सकते।

    हे सुन्दर उन्नत उरोजों वालीबाला, मैं तुम्हारा अनुचर हूँ।

    तुम मुझे जहाँ भी चाहे ले जा सकती हो और तुम्हारी सखियाँ भीमेरे साथ चल सकती हैं।

    श्रीशुक उबाचइति ललनानुनयातिविशारदो ग्राम्यवैदग्ध्यया परिभाषया तां विबुधवधूं विबुधमतिरधिसभाजयामास ॥

    १७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ललना--स्त्रियाँ; अनुनय--जीतने में; अति-विशारद: --अत्यन्त पटु; ग्राम्य-वैदग्ध्यया-- अपनी इच्छाओं को पूरा करने में पठु; परिभाषया--चुने शब्दों से; ताम्‌--उस;विबुध-वधूम्‌--देव-कन्या को; विबुध-मति:--देवताओं के तुल्य बुद्धि वाले आग्नीश्व ने; अधिसभाजयाम्‌ आस- प्रसन्न करलिया।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले--महाराज आग्नीक्ष देवताओं के समान बुद्धिमान औरस्त्रियों को रिझा करके अपने पक्ष में कर लेने की कला में अत्यन्त निपुण थे।

    अतः उन्होंने उसस्वर्गकन्या को अपनी कामपूर्ण वाणी से प्रसन्न करके उसको अपने पक्ष में कर लिया।

    सा च ततस्तस्य वीरयूथपतेर्बुद््विशीलरूपवय:श्रियौदार्येण पराक्षिप्तमनास्तेनसहायुतायुतपरिवत्सरोपलक्षणं कालं जम्बूद्वीपपतिना भौमस्वर्गभोगान्बुभुजे ॥

    १८॥

    सा--वह स्त्री; च-- भी; ततः--तत्पश्चात्‌; तस्य--उस; वीर-यूथ-पते: --वीरों के स्वामी की; बुद्धि--बुद्धि; शील--आचरण;रूप--सुन्दरता; वयः--अवस्था ( तरुण ); थ्रिया--ऐश्वर्य; औदार्येण--( तथा ) उदारता से; पराक्षिप्त--आकर्षित; मना:--मनवाली; तेन सह--उसके साथ; अयुत--दस हजार; अयुत--दस हजार; परिवत्सर--वर्ष ; उपलक्षणम्‌--विस्तृत; कालमू--काल, समय; जम्बूद्वीप-पतिना--जम्बूद्वीप के राजा के साथ; भौम--पृथ्वी का; स्वर्ग--स्वर्गिक; भोगान्‌ू--सुख, भोग;बुभुजे--भोग किया।

    आग्नीघ्र की बुद्धि, तरुणाई, सौन्दर्य, आचरण, ऐश्वर्य तथा उदारता से आकर्षित होकरपूर्वचित्ति जम्बूढ्लीप के राजा तथा समस्त वीरों के स्वामी आग्नीश्र के साथ कई हजार वर्षों तकरही और उसने भौतिक तथा स्वर्गिक दोनों प्रकार के सुखों का भरपूर भोग किया।

    तस्यामु ह वा आत्मजान्स राजवर आग्नीक्नोनाभिकिम्पुरुषहरिवर्षेलावृतरम्यकहिरण्मयकुरुभद्गाश्वकेतुमालसंज्ञान्रव पुत्रानजनयत्‌: ॥

    १९॥

    तस्याम्‌--उससे; उ ह वा--निश्चय ही; आत्म-जानू--पुत्र; सः--उसने; राज-वर:--राजाओं में श्रेष्ठ; आग्नीध्र: -- आग्नीष्ष ने;नाभि--नाभि; किंपुरुष--किम्पुरुष; हरि-वर्ष--हरिवर्ष, इलावृत--इलावृत; रम्थक--रम्यक; हिरण्मय--हिरण्यमय; कुरु--कुरु; भद्गाश्व-- भद्गा श्र; केतु-माल--केतुमाल; संज्ञानू--नामक; नव--नौ; पुत्रान्‌--पुत्रों को; अजनयत्‌--उत्पन्न किया |

    राजाओं में श्रेष्ठ महाराज आग्नीश्व को पूर्वचित्ति के गर्भ से नौ पुत्र प्राप्त हुए जिनके नामनाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्गाश्व तथा केतुमाल थे।

    सा सूत्वाथ सुतान्नवानुवत्सरं गृह एवापहाय पूर्वचित्तिर्भूय एवाज॑ देवमुपतस्थे ॥

    २०॥

    सा--वह; सूत्वा--जन्म देकर; अथ--तत्पश्चात्‌; सुतान्‌--पुत्रों को; नव--नौ; अनुवत्सरम्‌--प्रति वर्ष; गृहे--घर पर; एब--निश्चय ही; अपहाय--छोड़कर; पूर्वचित्ति: --पूर्वचित्ति; भूय:--पुन: ; एब--निश्चय ही; अजम्‌-- भगवान्‌ ब्रह्मा के; देवम्‌--देवता; उपतस्थे--पास गई, उपस्थित हुई ॥

    पूर्वचित्ति ने प्रति वर्ष एक-एक करके इन नौ पुत्रों को जन्म दिया, किन्तु जब वे बड़े हो गये, तो वह उन्हें घर पर छोड़कर ब्रह्मा की उपासना करने के लिए उनके पास उपस्थित हुई।

    आग्नीक्चसुतास्ते मातुरनुग्रहादौत्पत्तिकेनेव संहननबलोपेता: पित्रा विभक्ता आत्मतुल्यनामानि यथाभागंजम्बूद्वीपवर्षाणि बुभुजु: ॥

    २१॥

    आग्नीश्च-सुता:--महाराज आग्नीश्न के सब पुत्र; ते--वे; मातु:--माता के; अनुग्रहात्‌--अनुग्रह से अथवा माँ का दूध पीकर;औत्पत्तिकन--सहज; एव--ही; संहनन--सुगठित शरीर; बल--शक्ति; उपेता: --प्राप्त; पित्रा--पिता द्वारा; विभक्ता:--विभाजित; आत्म-तुल्य-- अपने ही समान; नामानि--नाम वाले; यथा-भागम्‌--ठीक से विभक्त; जम्बूद्वीप-वर्षाणि --जम्बूद्वीपके विभिन्न भागों ( सम्भवतः एशिया तथा यूरोप दोनों ); बुभुजु:--राज्य किया।

    अपनी माँ का दूध पीने के कारण आग्नीश्न के नवों पुत्र अत्यन्त बलिष्ठ एवं सुगठित शरीरवाले हुए।

    उनके पिता ने प्रत्येक को जम्बूद्यीप का एक-एक भाग दे दिया।

    इन राज्यों के नामपुत्रों के नामों के अनुसार पड़े।

    इस प्रकार आग्नीक्ष के सभी पुत्र पिता से प्राप्त राज्यों पर राज्यकरने लगे।

    आग्नीक्षो राजातृप्त: कामानामप्सरसमेवानुदिनमधिमन्यमानस्तस्या: सलोकतां श्रुतिभिरवारुन्ध यत्रपितरो मादयन्ते ॥

    २२॥

    आम्नीक्ष:--आग्नीक्ष; राजा--राजा; अतृप्त:--असम्तुष्ट; कामानाम्‌--इन्द्रियभोग से; अप्सरसम्‌--स्वर्ग सुन्दरी ( पूर्वचित्ति ) केविषय में; एव--निश्चय ही; अनुदिनम्‌--दिनोंदिन; अधि--अत्यधिक; मन्यमान: --सोचते हुए; तस्या: --उसका; स-लोकताम्‌--उसी लोक को; श्रुतिभिः--वेदों से; अवारुन्ध--प्राप्त किया; यत्र--जहाँ; पितर:--पूर्वज, पितृगण; मादयन्ते--आनन्द लेते हैं।

    पूर्वचचित्ति के चले जाने पर, अतृप्त वासना के कारण राजा आग्नीश्व उसी के विषय में सोचतेरहते।

    अतः वैदिक आज्ञाओं के अनुसार राजा मृत्यु के पश्चात्‌ उसी लोक में गये जहाँ उनकी पत्नीथी।

    यह लोक पितृलोक कहलाता है जहाँ कि पितरगण अत्यन्त आनन्द से रहते हैं।

    सम्परेते पितरि नव भ्रातरो मेरुदुहितृमेंरुदेवीं प्रतिरूपामुग्रदंष्टीं लतां रम्यां श्यामां नारीं भद्रां देववीतिमितिसंज्ञा नवोदवहन्‌, ॥

    २३॥

    सम्परेते पितरि--अपने पिता के प्रयाण के पश्चात्‌; नव--नौ; भ्रातरः-- भाई; मेरू-दुहितृ:--मेरु की पुत्रियाँ; मेरुदेवीम्‌--मेरुदेवी; प्रति-रूपाम्‌--प्रतिरूपा; उग्र-दंष्ठीम्‌--उग्रदंष्टी; लताम्‌-- लता; रम्याम्‌--रम्या; श्यामाम्‌ू--श्यामा; नारीम्‌--नारी;भद्राम्‌--भद्रा; देव-वीतिम्‌ू--देववीति को; इति--इस प्रकार; संज्ञा:--नाम; नव--नौ; उदवहन्‌--विवाह कर लिया।

    अपने पिता के प्रयाण के पश्चात्‌ नवों भाइयों ने मेरु की नौ पुत्रियों के साथ विवाह करलिया, जिनके नाम मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ठी, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा तथा देववीतिथे।

    TO

    अध्याय तीन: ऋषभदेव का राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से प्रकट होना

    5.3श्रीशुक उबाचनाभिरपत्यकामोप्रजया मेरुदेव्या भगवन्तं यज्ञपुरुषमवहितात्मायजत ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी बोले; नाभि:--महाराज आग्नीश्च के पुत्र ने; अपत्य-कामः --पुत्रेच्छा से; अप्रजया--जिसेकोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुईं थी; मेरुदेव्या--मेरुदेवी से; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌; यज्ञ-पुरुषम्‌--समस्त यज्ञों के भोक्ता तथा स्वामी,भगवान्‌ विष्णु को; अवहित-आत्मा--अत्यन्त ध्यानपूर्वक; अयजत--स्तुति और आराधना की |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--आग्नीक्ष के पुत्र महाराज नाभि ने सन्‍्तान की इच्छा की,इसलिए उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं स्वामी भगवान्‌ विष्णु की अत्यन्त मनोयोग से स्तुतिएवं आराधना प्रारम्भ की।

    उस समय तक महाराज नाभि की पतली मेरुदेवी ने किसी सन्‍्तान कोजन्म नहीं दिया था, अतः वह भी अपने पति के साथ भगवान्‌ विष्णु की आराधना करने लगी।

    तस्य ह वाव श्रद्धया विशुद्धभावेन यजतः प्रवर्ग्येषु प्रचरत्सुद्रव्यदेशकालमन्त्र्त्विग्दक्षिणाविधानयोगोपपत्त्या दुरधिगमो पि भगवान्भागवतवात्सल्यतया सुप्रतीकआत्मानमपराजितं निजजनाभिप्रेतार्थविधित्सया गृहीतहदयो हृदयड्मंमनोनयनानन्दनावयवाभिराममाविश्चवकार ॥

    २॥

    तस्य--जब वह ( नाभि ); ह वाव--निश्चय ही; श्रद्धया--अत्यन्त श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक; विशुद्ध-भावेन--शुद्ध, निष्कलुष मनसे; यजतः--आराधना कर रहा था; प्रवर्ग्येषु--जबकि प्रवर्ग्य नामक कर्म; प्रचरत्सु--पालन किये जा रहे थे; द्रव्य--सामग्री;देश--स्थान; काल--समय; मन्त्र--स्तुति, मंत्र; ऋत्विक्‌ु--पुरोहित; दक्षिणा--पुरोहितों को मिलने वाली भेंटें; विधान--विधि; योग--तथा साधनों का; उपपत्त्या--करने से; दुरधिगम:--अप्राप्य; अपि--यद्यपि; भगवान्‌-- भगवान्‌; भागवत-वात्सल्यतया-- भक्त पर वत्सलता के कारण; सु-प्रतीक:--अत्यन्त सुन्दर रूप धारण किये; आत्मानम्‌--अपने आपको;अपराजितम्‌--दुर्जेय; निज-जन--भक्त की; अभिप्रेत-अर्थ--कामना; विधित्सबा--पूर्ण करने; गृहीत-हृदय:ः--जिनका मनआकृष्ट हो गया हो; हृदयड्रमम्‌--मोहक; मन:-नयन-आनन्दन--मन तथा नेत्रों को आनन्द प्रदान करने वाले; अवयवब--अंगोंसे; अभिरामम्‌--सुन्दर; आविश्वकार--प्रकट किया |

    यज्ञ में भगवान्‌ का अनुग्रह प्राप्त करने के सात दिव्य साधन हैं--( १ ) बहुमूल्य सामग्रियोंया खाद्य पदार्थों का अर्पण ( द्रव्य ); (२) देश-अनुरूप कार्य करना, (३ ) काल-अनुरूपकार्य करना, (४) स्तुति अर्पण (मंत्र ) (५) पुरोहित लगाना ( ऋत्विक ), (६) पुरोहितों कोदान देना ( दक्षिणा ) तथा ( ७ ) विधि-नियमों का पालन करना।

    किन्तु सदैव ही इन सामग्रियोंसे भगवान्‌ को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

    तो भी ईश्वर अपने भक्त पर वत्सल रहते हैं।

    अतःजब भक्त महाराज नाभि ने शुद्ध मन से अत्यन्त श्रद्धा तथा भक्ति सहित प्रवर्ग्य यज्ञ करते हुएईश्वर की आराधना और प्रार्थना की तो अपने भक्तों पर वत्सलता के कारण परम कृपालु भगवान्‌राजा नाभि के समक्ष अपने दुर्जेय तथा चतुर्भुजी आकर्षक रूप में प्रकट हुए।

    इस प्रकार सेभगवान्‌ ने अपने भक्त की मनोकामना पूर्ण करने के लिए अपने भक्त के समक्ष अपना मनोहररूप प्रकट किया।

    यह रूप भक्तों के मन तथा नेत्रों को प्रमुदित करने वाला है।

    अथ ह तमाविष्कृतभुजयुगलद्ठयं हिरण्मयं पुरुषविशेषं कपिशकौशेयाम्बरधरमुरसिविलसच्छीवत्सललामं दरवरवनरूहवनमालाच्छूर्यमृतमणिगदादिभिरुपलक्षितंस्फुटकिरणप्रवरमुकुटकुण्डलकटककटिसूत्रहारकेयूरनूपुराद्यड्रभूषणविभूषितमृत्विक्सदस्यगृहपतयो धना इवोत्तमधनमुपलभ्य सबहुमानमर्हणेनावनतशीर्षाण उपतस्थु:, ॥

    ३॥

    अथ-तत्पश्चात्‌; ह--निश्चय ही; तम्‌--उसको; आविष्कृत-भुज-युगल-द्वयम्‌--जो चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए; हिरण्मयम्‌--अत्यन्त चमकीला; पुरुष-विशेषम्‌--समस्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ, पुरुषोत्तम; कपिश-कौशेय-अम्बर-धरम्‌--रेशमी पीताम्बर धारणकिये; उरसि--वक्षस्थल पर; विलसत्‌---सुन्दर; श्रीवत्स-- श्रीवत्स नामक; ललामम्‌--चिह्युक्त; दर-वर--शंख से; वन-रुह--कमल पुष्प; बन-माला--वन पुष्पों की माला; अच्छूरि--चक्र; अमृत-मणि--कौस्तुभ मणि; गदा-आदिभि:--गदा तथा अन्यचिह्नों से; उपलक्षितम्‌--लक्षणों से युक्त होकर; स्फुट-किरण--तेजस्वी, किरण-मण्डित; प्रवर-- श्रेष्ठ; मुकुट--मुकुट, किरीट;कुण्डल--कर्णाभूषण, बालियाँ; कटक--कंकण; कटि-सूत्र--करधनी; हार--हार; केयूर--बाजूबंद; नूपुर--पाँवों में पहनाजाने वाला आभूषण, पायल; आदि--इत्यादि; अड़--शरीर के; भूषण--आभूषणों से; विभूषितम्‌-- अलंकृत; ऋत्विक्‌ --पुरोहितगण; सदस्य--पार्षद; गृह-पतय: --( तथा ) राजा नाभि; अधना:--निर्धन व्यक्ति; इब--सहृश; उत्तम-धनमू-- प्रचुरधनराशि; उपलभ्य--पाकर; स-बहु-मानम्‌--अत्यन्त सत्कार सहित; अर्हणेन--पूजा सामग्री से; अवनत--झुका कर;शीर्षाण:--अपने शिर ( मस्तकों ); उपतस्थु:--स्तुति की ।

    भगवान्‌ विष्णु राजा नाभि के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए।

    वे अत्यन्त तेजोमय थे औरसमस्त महापुरुषों में सर्वोत्तम प्रतीत होते थे।

    वे अधोभाग में रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे;उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न था, जो सदैव शोभा देता है।

    उनके चारों हाथों में शंख, कमल,चक्र तथा गदा थे उनके गले में वनपुष्पों की माला तथा कौस्तुभमणि थी।

    वे मुकुट, कुण्डल,कंकण, करधनी, मुक्ताहार, बाजूबंद, नूपुर तथा अन्य रत्नजटित आभूषणों से शोभित थे।

    भगवान्‌ को अपने समक्ष देखकर राजा नाभि, उनके पुरोहित तथा पार्षद वैसा ही अनुभव कर रहेथे जिस प्रकार किसी निर्धन को सहसा अथाह धनराशि प्राप्त हुई हो जाए।

    उन्होंने भगवान्‌ कास्वागत किया, आदरपूर्वक प्रणाम किया तथा स्तुति करके वस्तुएँ भेंट कीं।

    ऋत्विज ऊचुःअर्हसि मुहुर्त्तमाईहणमस्माकमनुपथानां नमो नम इत्येतावत्सदुपशिक्षितं कोहईतिपुमान्प्रकृतिगुणव्यतिकरमतिरनीश ई श्वरस्य परस्य प्रकृतिपुरुषयोरगाक्तिनाभिर्नामरूपाकृतिभीरूपनिरूपणम्‌; सकलजननिकायवृजिननिरसनशिवतमप्रवरगुणगणैकदेशकथनाहते ॥

    ४-५॥

    ऋत्विज: ऊचु:--ऋत्विजों ने कहा; अहंसि--( स्वीकार ) करें; मुहुः--पुनः पुनः; अहत्‌-तम-हे श्रेष्ठ पूज्य पुरुष; अर्हणम्‌--पूजा; अस्माकम्‌ू--हम सब की; अनुपथानाम्‌--जो आपके दास हैं; नमः--नमस्कार है; नम:ः--नमस्कार; इति--इस प्रकार;एतावत्‌--यहाँ तक; सतू- श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा; उपशिक्षितम्‌--सिखाये गये; क:ः--कौन; अर्हति--समर्थ है; पुमान्‌ू-- मनुष्य;प्रकृति-- भौतिक प्रकृति के; गुण--गुणों के; व्यतिकर--रूपान्तरों में; मतिः--जिसका मन ( मग्न है ); अनीश:--असमर्थ;ईश्वरस्थ-- भगवान्‌ के ; परस्थ--परम; प्रकृति-पुरुषयो:--तीनों गुणों के अन्तर्गत; अर्वाक्तनाभि:--जो वहाँ तक नहीं पहुँचतेअथवा जो इसी संसार के हैं; नाम-रूप-आकृतिभि:--नामों, रूपों तथा गुणों से; रूप--आपकी प्रकृति या स्थिति का;निरूपणम्‌--निश्चय करना; सकल--समस्त; जन-निकाय--मानव जाति का; वृजिन--पाप कर्म; निरसन--मिटाने वाले;शिवतम--अत्यन्त मंगलमय; प्रवर-- श्रेष्ठठम; गुण-गण--दिव्य गुणों का; एक-देश--एक अंश; कथनात्‌--कथन से; ऋते--केवल।

    ऋत्विजगण इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगे--हे परम पूज्य, हम आपके दास मात्र हैं।

    यद्यपि आप पूर्ण हैं, किन्तु अहैतुकी कृपावश ही सही, हम दासों की यत्किचित सेवा स्वीकारकरें।

    हम आपके दिव्य रूप से परिचित नहीं हैं, किन्तु जैसा वेदों तथा प्रामाणिक आचार्यों ने हमेंशिक्षा दी है, उसके अनुसार हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं।

    जीवात्माएँ प्रकृति के गुणों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होती हैं, अत: वे कभी भी पूर्ण नहीं हैं, किन्तु आप समस्त भौतिकअवधारणाओं से परे हैं।

    आपके नाम, रूप तथा गुण सभी दिव्य हैं और व्यावहारिक बुद्धि कीकल्पना के परे हैं।

    भला आपकी कल्पना कौन कर सकता है ? इस भौतिक जगत में हम केवलनाम तथा गुण देख पाते हैं।

    हम आपको अपना नमस्कार तथा स्तुति अर्पित करने के अतिरिक्तऔर कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं।

    आपके शुभ दिव्य गुणों के कीर्तन से समस्त मानव जातिके पाप धुल जाते हैं।

    यही हमारा परम कर्तव्य है और इस प्रकार हम आपकी अलौकिक स्थितिको अंशमात्र ही जान सकते हैं।

    'परिजनानुरागविरचितशबलसंशब्दसलिलसितकिसलयतुलसिकादूर्वाद्लू रैरपि सम्भूतया सपर्यया किलपरम परितुष्यसि ॥

    ६॥

    परिजन--आपके सेवकों द्वारा; अनुराग--अत्यन्त आह्ाद से; विरचित--की गई; शबल--गदगद्‌ वाणी से; संशब्द--स्तुति से;सलिल--जल; सित-किसलय--नव कोपलों से युक्त वृंत्त ( पल्‍लव ); तुलसिका--तुलसीदल; दूर्वा-अड्डु रैः --( तथा ) नई उगीदूब से; अपि-- भी; सम्भूतया--किया गया; सपर्यया--पूजा द्वारा; किल--निस्सन्देह; परम--हे परमे श्वर; परितुष्यसि--संतुष्टहो जाते हो |

    हे परमेश्वर, आप सभी प्रकार से पूर्ण हैं।

    जब आपके भक्त गदगद्‌ वाणी से आपकी स्तुतिकरते हैं तथा आह्वादवश तुलसीदल, जल, पल्‍लव तथा दूब के अंकुर चढ़ाते हैं, तो आप निश्चयही परम सन्तुष्ट होते हैं।

    अथानयापि न भवत इज्ययोरु भारभरया समुचितमर्थमिहोपलभामहे ॥

    ७॥

    अथ--अन्यथा; अनया--यह; अपि-- भी; न--नहीं; भवत:-- आपका; इज्यया--यज्ञ द्वारा; उठ भार-भरया--तमाम सामग्री केभार से बोझिल; समुचितम्‌--वांछित, आवश्यक; अर्थम्‌--उपयोग; इह--यहाँ; उपलभामहे--हम देखते हैं|हमने आपकी पूजा में आपको अनेक वस्तुएँ अर्पित की हैं और आपके लिए अनेक यज्ञकिये हैं, किन्तु हम सोचते हैं कि आपको प्रसन्न करने के लिए इतने सारे आयोजनों की कोईआवश्यकता नहीं है।

    आत्मन एवानुसवनमञ्जसाव्यतिरिकेण बोभूयमानाशेषपुरुषार्थस्वरूपस्य किन्तु नाथाशिषआशासानानामेतदभिसंराधनमात्रं भवितुमहति ॥

    ८ ॥

    आत्मन:--अपने आप; एव--निश्चय ही; अनुसवनम्‌-- प्रत्येक क्षण; अज्जसा- प्रत्यक्ष; अव्यतिरिकेण--बिना व्यवधान के;बोभूयमान--वर्धमान; अशेष-- असीम; पुरुष-अर्थ --जीवन-लक्ष्य; स्व-रूपस्थ--आपका वास्तविक रूप; किन्तु--लेकिन;नाथ--हे ईश्व:; आशिष:--भौतिक सुख हेतु आशीर्वाद; आशासानानाम्‌--हम सबका जिन्हें सदैव कामना रहती है; एतत्‌--यह; अभिसंराधन-- आपका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए; मात्रमू--केवल; भवितुम्‌ अहंति--हो सकता है।

    आप में प्रतिक्षण प्रत्यक्षतया, स्वयमेव, निरन्तर एवं असीमतः जीवन के समस्त लक्ष्यों एवं ऐश्वर्यों की वृद्धि हो रही है।

    दरअसल, आप स्वयं ही असीम सुख तथा आनन्द से युक्त हैं।

    हेईश्वर, हम तो सदा ही भौतिक सुखों के फेर में रहते हैं।

    आपको इन समस्त याज्ञिक आयोजनोंकी आवश्यकता नहीं है।

    ये तो हमारे लिए हैं जिससे हम आपका आशीर्वाद पा सकें।

    ये सारेयज्ञ हमारे अपने कर्म-फल के लिए किये जाते हैं और वास्तव में आपको इनकी कोईअवश्यकता ही नहीं है।

    तद्यथा बालिशानां स्वयमात्मन: श्रेयः परमविदुषां परमपरमपुरुष प्रकर्षकरुणया स्वमहिमानंचापवर्गाख्यमुपकल्पयिष्यन्स्वयं नापचित एवेतरवदिहोपलक्षितः ॥

    ९॥

    तत्‌--वह; यथा--जिस प्रकार; बालिशानामू--मूर्खो का; स्वयम्‌--स्वयं; आत्मन:--अपना; श्रेय:--कल्याण; परम्‌--परम;अविदुषाम्‌--अज्ञानियों का; परम-परम-पुरुष--हे ईश्वरों के भी ईश, इशाधीश; प्रकर्ष-करुणया--प्रभूत अहैतुक करुणावश;स्व-महिमानम्‌--अपनी व्यक्तिगत महिमा; च--तथा; अपवर्ग-आख्यम्‌--- अपवर्ग ( मुक्ति ) कहलाने वाली; उपकल्पयिष्यन्‌ --देने की इच्छा से; स्वयम्‌--स्वयं; न अपचित:--समुचित रीति से पूजा न होने से; एब--यद्यपि; इतर-वत्‌--सामान्य पुरुष कीभाँति; हह--यहाँ; उपलक्षित:--( आप ) हैं और ( हमारे द्वारा ) देखे जा रहे हैं।

    हे ईशाधश, हम धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से पूर्णतया अनजान हैं क्योंकि हमें जीवन-लक्ष्य का ठीक से पता नहीं है।

    आप यहाँ हमारे समक्ष साक्षात्‌ इस प्रकार प्रकट हुए हैं जिसप्रकार कोई व्यक्ति जानबूझ कर अपनी पूजा कराने के लिए आया हो।

    किन्तु ऐसा नहीं है, आपतो इसलिए प्रकट हुए हैं जिससे हम आपके दर्शन कर सकें।

    आप अपनी अगाध तथा अहैतुकीकरुणावश हमारा उद्देश्य पूरा करने, हमारा हित करने तथा अपवर्ग का लाभ प्रदान करने हेतुप्रकट हुए हैं।

    हम अपनी अज्ञानता के कारण आपकी ठीक से उपासना भी नहीं कर पा रहे हैं, तोभी आप पधरे हैं।

    अथायमेव वरो ह्ईत्तम यर्हि बर्हिषि राजर्षेवरदर्षभो भवान्निजपुरुषेक्षणविषय आसीतू ॥

    १०॥

    अथ--तब; अयम्‌--यह; एब--निश्चय ही; वर:--आशीर्वाद; हि--निस्सन्देह; अर्हत्‌ू-तम--पूज्यतम; यहिं-- क्योंकि;बर्हिषि--यज्ञ में; राज-ऋषे: --राजा नाभि का; वरद-ऋषभ: --वरदायकों में श्रेष्ठ; भवान्‌--आप; निज-पुरुष--अपने भक्तोंके; ईक्षण-विषय:--देखने योग्य वस्तु; आसीत्‌--हो गई है?

    हे पूज्यतम, आप समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ हैं और राजर्षि नाभि की यज्ञशाला में आपकाप्राकट्य हमें आशीर्वाद देने के लिए हुआ है।

    चूँकि हम आपको देख पाये हैं इसलिए आपने हमेंसर्वाधिक मूल्यवान वर प्रदान किया है।

    असड्डनिशितज्ञानानलविधूताशेषमलानां भवत्स्वभावानामात्मारामाणां मुनीनामनवरतपरिगुणितगुणगण'परममडुलायनगुणगणकथनोसि ॥

    ११॥

    असड्ग--वैराग्य से; निशित--हढ़ किया है; ज्ञान--ज्ञान की; अनल--अग्नि से; विधूत--हटाया गया; अशेष--असीम;मलानाम्‌--जिनकी मलिन वस्तुएँ; भवत्‌-स्वभावानाम्‌ू--जिन्होंने आपके गुण प्राप्त कर लिए हैं; आत्म-आरामाणाम्‌--जोआत्म-तुष्ट है, आत्माराम; मुनीनाम्‌--मुनियों का; अनवरत--लगातार, निरन्तर; परिगुणित--स्मरण करते; गुण-गण--जिसकेसदगुण समूह; परम-मड्भगल--परम-आनन्द; आयन--उत्पन्न करता है; गुण-गण-कथन:--जिसके लक्षणों का जप; असि--तुमहो?

    हे ईश्वर, समस्त विचारवान मुनि तथा साधु पुरुष निरन्तर आपके दिव्य गुणों का गान करते रहते हैं।

    इन मुनियों ने अपनी ज्ञान-अग्नि से अपार मलराशि को पहले ही दग्ध कर दिया है औरइस संसार से अपने वैराग्य को सुदृढ़ किया है।

    इस प्रकार वे आपके गुणों को ग्रहण कर आत्म-तुष्ट हैं।

    तो भी जिन्हें आपके गुणों के गान में परम-आनन्द आता है उनके लिए भी आपका दर्शनदुर्लभ है।

    अथ कथशज्ञित्स्खलनक्षुत्पतनजुृम्भणदुरवस्थानादिषु विवशानां न: स्मरणाय ज्वरमरणद्शायामपिसकलकश्मलनिरसनानि तव गुणकृतनामधेयानि वचनगोचराणि भवन्तु ॥

    १२॥

    अथ--अब भी; कथश्ञित्‌--किसी प्रकार से; स्खलन--ठोकर खाने; क्षुत्‌ू-- भूख; पतन--गिरने; जुम्भण--जम्हाई लेने;दुरवस्थान--प्रतिकूल स्थिति में रहने के कारण; आदिषु--इत्यादि; विवशानाम्‌-- असमर्थ; न:--हम सबका; स्मरणाय--यादरखने; ज्वर-मरण-दशायाम्‌--मृत्यु के समय तेज ज्वर की दशा में; अपि-- भी; सकल--समस्त; कश्मल--पाप; निरसनानि--दूर करने वाले; तब--तुम्हारे; गुण--गुण; कृत--कर्म; नामधेयानि--नाम; वचन-गोचराणि---उच्चरित हो सकने वाले;भवन्तु--हो सकें?

    हे ईश्वर, सम्भव है कि हम कँपकँपाने, भूखे रहने, गिरने, जम्हाई लेने या ज्वर के कारणमृत्यु के समय शोचनीय रुग्ण अवस्था में रहने के कारण आपके नाम का स्मरण न कर पाएँ।

    अतः हे ईश्वर, हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आप भक्तों पर वत्सल रहते हैं।

    आप हमें अपनेपवित्र नाम, गुण तथा कर्म को स्मरण कराने में सहायक हों जिससे हमारे पापी जीवन के सभीपाप दूर हो जाँय।

    किश्ञायं राजर्षिरपत्यकाम: प्रजां भवाहशीमाशासान ई श्वरमाशिषां स्वर्गापवर्गयोरपि भवन्तमुपधावतिप्रजायामर्थप्रत्ययो धनदरमिवाधन: फलीकरणम्‌ ॥

    १३॥

    किज्ञ--इसके अतिरिक्त; अयम्‌--यह; राज-ऋषि:--पवित्र राजा ( नाभि ); अपत्य-काम:--सन्तान का इच्छुक; प्रजामू--एकपुत्र; भवाहशीम्‌-- आपके ही सहश; आशासान:--आश्ा युक्त; ईश्वरम्‌--परम नियन्ता; आशिषाम्‌--आशीर्वादों का; स्वर्ग-अपवर्गयो:--स्वर्ग लोक तथा मुक्ति का; अपि--यद्यपि; भवन्तम्‌-- आपको; उपधावति--उपासना करता है; प्रजायाम्‌--लड़के-बच्चे, सन्तान; अर्थ-प्रत्यय:--जीवन का परम लक्ष्य मानते हुए; धन-दम्‌--दानी को; इब--सदह्ृश; अधन:--निर्धनपुरुष; फलीकरणम्‌-- थोड़ी सी भूसी?

    हे ईश्वर, आपके समक्ष ये महाराज नाभि, हैं जिनके जीवन का परम लक्ष्य आपके ही समानपुत्र प्राप्त करना है।

    हे भगवन्‌, उसकी स्थिति उस व्यक्ति जैसी है, जो एक अत्यन्त धनवान पुरुषके पास थोड़ा सा अन्न माँगने के लिए जाता है।

    पुत्रेच्छा से ही वे आपकी उपासना कर रहे हैंयहायपि आप उन्हें कोई भी उच्चस्थ पद प्रदान कर सकने में समर्थ हैं--चाहे वह स्वर्ग हो याभगवद्धाम का मुक्ति-लाभ ॥

    को वा इह तेडपराजितोपराजितयामाययानवसितपदव्यानावृतमतिर्विषयविषरयानावृतप्रकृतिरनुपासितमहच्चरण: ॥

    १४॥

    'कः वा--ऐसा कौन पुरुष है; इह--संसार में; ते--तुम्हारा ( श्रीभगवान्‌ का ); अपराजित:--न पराजित हो सकने वाला;अपराजितया--अपराजित द्वारा; मायया--माया के द्वारा; अनवसित-पदव्य--जिसका पथ निर्दिष्ट न किया जा सके; अनावृत-मतिः--जिसकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है; विषय-विष--विष तुल्य भौतिक सुख का; रय--पथ से होकर; अनावृत--खुला हुआ;प्रकृतिः--जिसका स्वभाव; अनुपासित--विना उपासना किये; महत्‌-चरण:--परम भक्तों के चरणकमल।

    हे ईश्वर, जब तक मनुष्य परम भक्तों के चरणकमलों की उपासना नहीं करता, तब तक उसेमाया परास्त करती रहेगी और उसकी बुद्धि मोहग्रस्त बनी रहेगी।

    दरअसल, ऐसा कौन है जोविष तुल्य भौतिक सुख की तरंगों में न बहा हो! आपकी माया दुर्जेय है।

    न तो इस माया के पथको कोई देख सकता है, न इसकी कार्य-प्रणाली को ही कोई बता सकता है।

    यदु ह वाव तव पुनरदश्रकर्तरिह समाहूतस्तत्रार्थधियां मन्दानां नस्तद्यद्देवहेलनं देवदेवाहसि साम्येनसर्वान्प्रतिवोढुमविदुषाम्‌ ॥

    १५॥

    यत्‌--क्योंकि; उ ह वाव--निस्संदेह; तब--तुम्हारा; पुन:--फिर; अद्न-कर्त:--हे ईश्वर, जो अनेक कर्म करता है; इह--यहाँ,इस-स्थल में; समाहूत:--आमंत्रित; तत्र--अतः; अर्थ-धियाम्‌-- भौतिक कामनाओं को पूरा करने के लिए इच्छुक;मन्दानाम्‌ू--कम बुद्धि वाले, मूढ़; नः--हम सबका; तत्‌--वह; यत्‌--जो; देव-हेलनम्‌-- भगवान्‌ की अवहेलना; देव-देव--परम देव; अर्हसि--जो पसन्द आए; साम्येन--समभाव के कारण; सर्वान्‌ू--सब कुछ; प्रतिवोढुम्‌--सहने करते हैं;अविदुषाम्‌--हम अल्प ज्ञानियों का।

    हे ईश्वर, आप अनेक अद्भुत कार्य कर सकने में समर्थ हैं।

    इस यज्ञ के करने का हमाराएकमात्र लक्ष्य पुत्र प्राप्त करना था, अतः हमारी बुद्धि अधिक प्रखर नहीं है।

    हमें जीवन-लक्ष्यनिर्धारित करने का कोई अनुभव नहीं है।

    निसन्देह भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किये गये इसतुच्छ यज्ञ में आपको आमंत्रित करके हमने आपके चरण कमलों में महान्‌ पाप किया है।

    अतः हेसर्वेश, आप अपनी अहैतुकी कृपा तथा समद्ृष्टि के कारण हमें क्षमा करें।

    श्रीशुक उबाचइति निगदेनाभिष्टूयमानो भगवाननिमिषर्षभो वर्षधराभिवादिताभिवन्दितचरण: सदयमिदमाह ॥

    १६॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; निगदेन--गद्य स्तुति द्वारा; अभिष्टयमान: --आराधितहोकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; अनिमिष-ऋषभ: -- समस्त देवताओं में प्रमुख; वर्ष-धर-- भारतवर्ष के सम्राट्‌ राजा नाभिद्वारा;अभिवादित--पूजित होकर; अभिवन्दित--झुककर; चरण:--जिनके पाँव; सदयम्‌--कृपापूर्वक; इदम्‌--यह; आह--कहा।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--भारतवर्ष के सम्राट, राजा नाभि द्वारा पूजित ऋत्विजों ने गद्यमें ( सामान्यतः पद्य में ) ईश्वर की स्तुति की और वे सभी उनके चरणकमलों पर झुक गये।

    देवताओं के अधिपति, परमेश्वर उनसे अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे इस प्रकार बोले।

    श्रीभगवानुवाचअहो बताहमृषयो भवद्धिरवितथगीर्भिर्वरमसुलभमभियाचितो यदमुष्यात्मजो मया सहृशो भूयादितिममाहमेवाभिरूप: कैवल्यादथापि ब्रह्मवादो न मृषा भवितुमहति ममैव हि मुखं यद्द््‌वजदेवकुलम्‌, ॥

    १७॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; अहो--ओह; बत--सचमुच प्रसन्न हूँ; अहम्‌--मैं; ऋषय:--हे ऋषियो; भवद्धि:--आपलोगों के द्वारा; अवितथ-गीर्भि:--जिनके वचन सत्य हैं; वरम्‌ू--वर पाने के लिए; असुलभम्‌-प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है;अभियाचितः--याचना किया हुआ; यत्‌--वह; अमुष्य--राजा नाभि का; आत्म-जः--पुत्र; मया सहश:--मेरे समान;भूयात्‌--हो; इति--इस प्रकार; मम--मेरा; अहम्‌--मैं; एबव--केवल; अभिरूप:--समान; कैवल्यात्‌--अद्वितीय; अथापि--तो भी; ब्रह्म-वाद: --ब्राह्मणों के वचन; न--नहीं; मृषा--झूठे; भवितुम्‌--होना; अहति--चाहिए; मम--मेरा; एब--निश्चयही; हि--चूँकि; मुखम्‌--मुख; यत्‌--वह; द्विज-देव-कुलम्‌-शुद्ध ब्राह्मणों का कुल।

    भगवान्‌ बोले--हे ऋषियो, मैं आपकी स्तुतियों से परम प्रसन्न हुआ हूँ।

    आप सभी सत्यवादीहैं।

    आप लोगों ने राजा नाभि के लिए मेरे समान पुत्र की प्राप्ति के लिए स्तुति की है, किन्तु ऐसापाना अति दुर्लभ है।

    चूँकि मैं अद्वितीय परम पुरुष हूँ और मेरे समान अन्य कोई नहीं है, अतःमुझ जैसा पुरुष पाना सम्भव नहीं है।

    तो भी आप सभी सयोग्य ब्राह्मण हैं, आपका वचन मिथ्यासिद्ध नहीं होना चाहिए।

    मैं सुयोग्य ब्राह्मणों को अपने मुख के समान उत्तम मानता हूँ।

    तत आग्नीश्चीयेडंशकलयावतरिष्याम्यात्मतुल्यमनुपलभमानः ॥

    १८॥

    ततः--अतः; आग्नीक्षीये--आग्नीश्र के पुत्र नाभि की स्त्री में; अंश-कलया--अपने रूप के एक अंश द्वारा; अवतरिष्यामि--मैंस्वयं अवतार लूँगा; आत्म-तुल्यम्‌--अपने ही समान; अनुपलभमान:--न पाकर।

    चूँकि मुझे अपने तुल्य और कोई नहीं मिल पा रहा, इसलिए मैं स्वयं ही अंश रूप मेंआग्नीक्ष के पुत्र महाराज नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से अवतार लूँगा।

    श्रीशुक उबाचइति निशामयन्त्या मेरुदेव्या: पतिमभिधायान्तर्दधे भगवान्‌, ॥

    १९॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; निशामयन्त्या: --सुनते हुए; मेरुदेव्या:--मेरुदेवी के समक्ष;पतिम्‌--उसके पति को; अभिधाय--कहकर; अन्तर्दधे--अन्‍्तर्धान हो गये; भगवान्‌ू-- भगवान्‌ |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--ऐसा कहकर भगवान्‌ अदृश्य हो गये।

    राजा नाभि कीपली मेरुदेवी अपने पति के पास में ही बैठी थीं, फलस्वरूप परमेश्वर ने जो कुछ कहा था उसे वेसुन रही थीं।

    बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान्परमर्षिभि: प्रसादितो नाभे: प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यांधर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततार ॥

    २०॥

    बर्हिषि--यज्ञ स्थल में; तस्मिन्‌ू--उस; एव--इस प्रकार; विष्णु-दत्त--हे महाराज परीक्षित; भगवान्‌-- भगवान्‌; परम-ऋषिभि:--महर्षियों द्वारा; प्रसादित:--प्रसन्न किये जाने पर; नाभे: प्रिय-चिकीर्षया--राजा नाभि को प्रसन्न करने के लिए; ततू-अवरोधायने--अपनी पत्नी में; मेरुदेव्यामू--मेरुदेवी में; धर्मानू-- धार्मिक नियम; दर्शायितु-काम:--यह दिखाने के लिए किकिस प्रकार करना चाहिए; वात-रशनानामू--संन्यासियों का ( जो वस्त्र नहीं धारण करते ); श्रमणानाम्‌ू--वानपप्रस्थियों का;ऋषीणाम्‌--ऋषियों का; ऊर्ध्व-मन्थिनामू--ब्रह्मचचारियों का; शुक्लया तनुवा--उनके आद्य सत्‌ स्वरूप में, जो गुणों के परे है;अवततार--अवतार लिया?

    हे विष्णुदत्त परीक्षित महाराज, उस यज्ञ के ऋषियों से भगवान्‌ अत्यन्त प्रसन्न हुए।

    फलस्वरूप उन्होंने स्वयं धर्माचरण करके दिखलाने ( जैसा कि ब्रह्मचारी, संन्‍्यासी, वानप्रस्थ तथा गृहस्थ करते हैं) और महाराज नाभि की मनोकामना को पूरा करने का निश्चय किया।

    अतःवे अपने गुणातीत आद्य सत्व रूप में मेरुदेवी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए।

    TO

    अध्याय चार: भगवान ऋषभदेव के लक्षण

    5.4श्रीशुक उवाचअथ ह ततमुत्पत्त्यवाभिव्यज्यमानभगवल्लक्षणंसाम्योपशमवैराग्यै श्वरर्यमहाविभूतिभिरनुदिनमेधमानानु भावंप्रकृतयः प्रजा ब्राह्मणा देवताश्नावनितलसमवनायातितरां जगृधु: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ ह--इस प्रकार ( भगवान्‌ के प्रकट होने के अनन्तर ); तम्‌--उसको;उत्पत्त्या--आविर्भाव काल से; एव--ही; अभिव्यज्यमान-- प्रकट रूप में; भगवत्‌-लक्षणम्‌--भगवान्‌ जैसे लक्षणों से युक्त;साम्य--समभाव वाला; उपशम--इन्द्रियों तथा मन को वश में करते समय पूर्णतया शान्त; वैराग्य--गृहत्याग; ऐश्वर्य--ऐश्वर्य;महा-विभूतिभि:--महान्‌ गुणों के कारण; अनुदिनम्‌--दिन-प्रतिदिन; एधमान--बढ़ता हुआ; अनुभावम्‌--उसकी शक्ति;प्रकृतथः--मंत्रीगण; प्रजा:-- प्रजा, नागरिक; ब्राह्मणा:--ब्रह्म को जानने वाले विद्वान; देवता:--देवतागण; च--तथा;अवनि-तल--पृथ्वी पर; समवनाय--शासन करने के लिए; अतितराम्‌--उत्कट; जगृधु:--अभिलाषा होने लगी।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--जन्म से ही महाराज नाभि के पुत्र में भगवान्‌ के लक्षणप्रकट थे, यथा चरणतल के चिह्न ( ध्वज, वज्ञ इत्यादि )।

    यह पुत्र सबों के साथ समभावरखनेवाला और अत्यन्त शान्त स्वभाव का था।

    यह अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में करसकता था और परम ऐश्वर्यवान होने के कारण उसे भौतिक सुख की लिप्सा नहीं थी।

    इन समस्तगुणों से सम्पन्न होने के कारण महाराज नाभि का पुत्र दिनोंदिन शक्तिशाली बनता गया।

    फलतःसमस्त नागरिकों, दिद्वान ब्राह्मणों, देवताओं तथा मंत्रियों ने चाहा कि ऋषभदेव पृथ्वी के शासकबनें।

    तस्य ह वा इत्थं वर्ष्षणा वरीयसा बृहच्छूलोकेन चौजसा बलेन थ्रिया यशसा वीर्यशौर्या भ्यां च पिताऋषभ इतीदं नाम चकार ॥

    २॥

    तस्य--उसके ; ह वा--निश्चय ही; इत्थम्‌--इस प्रकार; वर्ष्षणा--रंग-रूप से; वरीयसा-- श्रेष्ठ; बृहत्‌ू-श्लोकेन--कवियों द्वारावर्णित समस्त उत्तम गुणों से अलंकृत; च-- भी; ओजसा--शौर्य से; बलेन--बल से; भ्रिया--सुन्दरता से; यशसा--यश से;वीर्य-शौर्याभ्याम्‌-- प्रभाव तथा वीरता से; च--तथा; पिता--महाराज नाभि ने; ऋषभ: -- श्रेष्ठ; इति--इस प्रकार; इदम्‌--यह;नाम--नाम; चकार--रखा।

    जब महाराज नाभि का पुत्र प्रकट हुआ, तो उसमें महाकवियों द्वारा वर्णित समस्त उत्तम गुणदिखाई पड़े यथा ईश्वर के लक्षणों से युक्त सुगठित शरीर, शौर्य, बल, सुन्दरता, नाम, यश,प्रभाव तथा उत्साह ।

    जब उसके पिता महाराज नाभि ने इन समस्त गुणों को देखा, तो उसे मनुष्योंमें श्रेष्ठठम अथवा सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति मान कर उसका नाम ऋषभ रख दिया।

    यस्य हीन्द्र: स्पर्धभानो भगवान्वर्षे न बवर्ष तदवधार्य भगवानृषभदेवो योगेश्वर: प्रहस्थात्मयोगमाययास्ववर्षमजनाभं नामाभ्यवर्षतू, ॥

    ३॥

    यस्य--जिसका; हि--निस्संदेह; इन्द्र: --स्वर्ग का राजा इन्द्र; स्पर्धभान: --ईर्ष्या के कारण; भगवान्‌--परम ऐश्वर्यवान; वर्षे--भारतवर्ष में; न बवर्ष--वर्षा नहीं की; तत्‌--वह; अवधार्य--जानते हुए; भगवान्‌-- भगवान; ऋषभदेव: --ऋषभदेव; योग-ईश्वरः--समस्त योग के स्वामी; प्रहस्थ--हँसते हुए; आत्म-योग-मायया--अपने आत्मबल से; स्व-वर्षम्‌--अपने देश पर;अजनाभम्‌--अजनाभ; नाम--नामक; अभ्यवर्षत्‌--जल की वर्षा की |

    भौतिक रूप से महान्‌ ऐश्वर्यशाली स्वर्ग का राजा इन्द्र राजा ऋषभदेव से ईर्ष्या करने लगा।

    अतः उसने भारतवर्ष नामक लोक पर जल बरसाना बन्द कर दिया।

    उस समय समस्त योगों केस्वामी भगवान्‌ ऋषभदेव इन्द्र का प्रयोजन समझ गये और थोड़ा मुस्काये।

    तब उन्होंने अपने शौर्य तथा योगमाया से अजनाभ नाम से विख्यात अपने देश में अत्यधिक वर्षा की।

    नाभिस्तु यथाभिलषितं सुप्रजस्त्वमवरु ध्यातिप्रमोदभरविह्नलो गद्गदाक्षरया गिरा स्वैरंगृहीतनरलोकसधर्म भगवन्तं पुराणपुरुषं मायाविलसितमतिर्वत्स तातेति सानुरागमुपलालयन्परांनिर्वृतिमुपगत: ॥

    ४॥

    नाभिः--राजा नाभि; तु--निश्चय ही; यथा-अभिलषितम्‌--इच्छानुसार; सु-प्रजस्त्वम्‌-- अत्यन्त सुन्दर पुत्र; अवरुध्य--पाकर;अति-प्रमोद--अत्यधिक प्रसन्नता; भर--की अति से; विह्लः--विभोर होकर; गद्गद-अक्षरया--आह्ाद में शब्द न निकलनेसे; गिरा--वाणी से; स्वैरम्‌--स्वेच्छा से; गृहीत--स्वीकार किया; नर-लोक-सधर्मम्‌--मनुष्य की भाँति आचरण करके;भगवन्तमू-- श्री भगवान्‌ को; पुराण-पुरुषम्‌--जीवों में सर्वाधिक वय वाले; माया--योगमाया से; विलसित--मोह ग्रस्त;मति:--उसकी मति; वत्स--प्रिय पुत्र; तात--मेरे प्रिय; इति--इस प्रकार; स-अनुरागम्‌--अत्यन्त प्यार सहित; उपलालयनू--लालन-पालन करते हुए; पराम्‌--दिव्य; निर्वृतिमू--आनन्द; उपगत:--प्राप्त किया |

    अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर राजा नाभि दिव्य आनन्द के कारण विहल और पुत्र केप्रति अत्यन्त वत्सल हो उठे।

    उन्होंने गद्गद्‌ वाणी से उसे 'मेरे प्रिय पुत्र! मेरे प्यारे!' शब्दों सेसम्बोधित किया।

    ऐसी बुद्धि योगमाया से उत्पन्न हुई जिसके कारण उन्होंने परम पिता भगवान्‌को अपने पुत्र रूप में स्वीकार किया।

    ईश्वर भी अपनी परमेच्छा के कारण उनके पुत्र बने औरसबों के साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे वे कोई सामान्य मनुष्य हो।

    इस प्रकार वे अपने दिव्य पुत्रका बड़े ही लाड़-प्यार से लालन-पालन करने लगे और वे दिव्य आनन्द, हर्ष तथा भक्ति सेभावविभोर हो गये।

    विदितानुरागमापौरप्रकृति जनपदो राजा नाभिरात्मजं समयसेतुरक्षायामभिषिच्य ब्राह्मणेषूपनिधाय सहमेरुदेव्या विशालायां प्रसन्ननिपुणेन तपसा समाधियोगेन नरनारायणाख्यं भगवन्तं वासुदेवमुपासीनःकालेन तन्महिमानमवाप ॥

    ५॥

    विदित--भलीभाँति ज्ञात; अनुरागमू--लोकप्रियता; आपौर-प्रकृति--समस्त नागरिकों तथा प्रशासकों के बीच; जन-पदः--सामान्य जनों की सेवा की इच्छा से; राजा--राजा; नाभि:--नाभि; आत्मजम्‌-- अपने पुत्र को; समय-सेतु-रक्षायाम्-- धार्मिकजीवन के वैदिक नियमों के अनुसार जनता की रक्षा करते हुए; अभिषिच्य--राज्याभिषेक करके; ब्राह्मणेषु--ब्राह्मणों को;उपनिधाय--सौंप कर; सह--साथ; मेरुदेव्या--अपनी पत्नी मेरुदेवी के साथ मेरुदेवी; विशालायाम्‌--बदरिका श्रम में; प्रसन्न-निपुणेन--अत्यन्त संतोष एवं निपुणता के साथ रहते हुए; तपसा--तपस्या से; समाधि-योगेन--पूर्ण समाधि से; नर-नारायण-आख्यम्‌--नर-नारायण नामक; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌; वासुदेवम्‌-- श्रीकृष्ण को; उपासीन: --उपासना करते हुए; कालेन--'कालक्रम से; तत्‌-महिमानम्‌--महिमामय धाम, वैकुण्ठ लोक को; अवाप--प्राप्त किया ?

    राजा नाभि ने समझ लिया था कि उनका पुत्र ऋषभदेव नागरिकों, प्रशासकों तथा मंत्रियों मेंअत्यन्त लोकप्रिय है।

    अतः उन्होंने वैदिक धर्म-पद्धति अनुसार जनता की रक्षा के उद्देश्य से अपने पुत्र को संसार के सप्राट के रूप में अभिषिक्त कर दिया और उसे विद्वान ब्राह्मणों के हाथों मेंसौप दिया जो शासन चलाने में उसका मार्ग-दर्शन कर सकें।

    फिर महाराज नाभि अपनी पत्नीमेरुदेवी के साथ हिमालय पर्वत स्थित बदरिका श्रम में गये और वहाँ पर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वकएवं निपुणता के साथ तपस्या में लग गये।

    पूर्ण समाधि में उन्होंने कृष्ण के ही अंश रूप भगवान्‌नर-नारायण की उपासना की, अतः कालक्रम में महाराज नाभि को वबैकुण्ठ प्राप्त हुआ।

    यस्य ह पाण्डवेय श्लोकाबुदाहरन्ति--को नु तत्कर्म राजर्षेनाभिेरन्वाचरेत्पुमान्‌ ।

    अपत्यतामगाद्यस्य हरिः शुद्धेन कर्मणा ॥

    ६॥

    यस्य--जिसके; ह--निस्सन्देह; पाण्डवेय--वह महाराज परीक्षित; शलोकौ--दो श्लोक; उदाहरन्ति--सुनाते हैं; कः--कौन;नु--तब; तत्‌--वह; कर्म--कार्य; राज-ऋषे: --पवित्र राजा; नाभेः--नाभि का; अनु--अनुगमन करते हुए; आचरेत्‌--आचरण कर सकता था; पुमान्‌--मनुष्य; अपत्यताम्‌--पृत्रत्व, पुत्र बनना; अगात्‌--स्वीकार किया; यस्य--जिसका; हरि: --भगवान्‌ ने; शुद्धेन--पवित्र; कर्मणा--कर्म से?

    हे महाराज परीक्षित, महाराज नाभि के यशोगान में प्राचीन मुनियों ने दो एलोक रचे।

    उनमेंसे एक यह है, 'महाराज नाभि जैसी सिद्धि अन्य कौन प्राप्त कर सकता है? उनके कर्मों तककौन पहुँच सकता है ? उनकी भक्ति के कारण भगवान्‌ ने उनका पुत्र बनना स्वीकार किया।

    'ब्रह्मण्याउन्य: कुता नाभावप्रा मड्लपूजता: ।

    यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा ॥

    ७॥

    ब्रह्मण्य:--ब्राह्मण-भक्त; अन्य: --कोई दूसरा; कुत:ः--कहाँ है; नाभेः--महाराज नाभि के अतिरिक्त; विप्रा:--ब्राह्मण समुदाय;मड्डल-पूजिता:-- भली भाँति उपासित एवं तुष्ट; यस्थ--जिसका; बर्हिषि--यज्ञ-स्थल में; यज्ञ-ईशम्‌--समस्त यज्ञों के भोक्ता,श्रीभगवान्‌; दर्शयाम्‌ आसु:--दर्शन कराया; ओजसा--अपनी ब्राह्म शक्ति से |

    [दूसरी स्तुति इस प्रकार है 'महाराज नाभि से बढ़कर ब्राह्मणों का उपासक ( भक्त ) कौनहो सकता है? चूँकि राजा ने योग्य ब्राह्मणों को पूजा से पूर्णतया सन्तुष्ट कर दिया था, इसलिएअपने ब्राह्म-तेज से उन्होंने महाराज नाभि को भगवान्‌ नारायण का साक्षात्‌ दर्शन करा दिया।

    अथ ह भगवानृषभदेव: स्ववर्ष कर्मक्षेत्रमनुमन्यमान: प्रदर्शितगुरुकुलवासो लब्धवरैर्गुरुभिरनुज्ञातोगृहमेधिनां धर्माननुशिक्षमाणो जयन्त्यामिन्द्रदत्तायामुभयलक्षणं कर्मसमाम्नायाम्नातमभियुज्न्नात्मजानामात्मसमानानां शतं जनयामास ॥

    ८॥

    अथ--ततक्‍्पश्चात्‌ ( अपने पिता के प्रयाण के पश्चात्‌ ); ह--निस्संदेह; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; ऋषभ-देव: --ऋषभदेव; स्व--अपना; वर्षम्‌--राज्य; कर्म-द्षेत्रमू--कार्य-क्षेत्र; अनुमन्यमान:--के रूप में स्वीकार करते हुए; प्रदर्शित--उदाहरणस्वरूपदिखाया गया; गुरु-कुल-वास:--गुरुकुल में रहते हुए; लब्ध--प्राप्त करके; वरैः--वरदान; गुरुभि: --गुरुओं से; अनुज्ञात:--आदेशित होकर; गृह-मेधिनाम्‌--गृहस्थों के; धर्मान्‌--कर्तव्य; अनुशिक्षमाण:--उदाहरण द्वारा शिक्षा प्रदत्त; जयन्त्याम्‌ू--अपनीपती जयन्ती से; इन्द्र-दत्तायाम्‌-- भगवान्‌ इन्द्र द्वारा प्रदत्त; उभय-लक्षणम्‌--दोनों प्रकार के; कर्म--कर्म; समाम्नायाम्नातम्‌--शान्त्तरों में वर्णित; अभियुद्धन्‌ू--करते हुए; आत्मजानाम्‌--पुत्रों को; आत्म-समानानाम्‌--अपने ही समान; शतम्‌--एक सौ;जनयाम्‌ आस--उत्पन्न किया?

    महाराज नाभि के बदरिकाश्रम प्रस्थान के पश्चात्‌ परम ईश ऋषभदेव ने अपने राज्य को हीअपना कर्मक्षेत्र समझा।

    अतः उन्‍होंने सर्वप्रथम गुरुओं के निर्देश में ब्रह्मचर्य स्वीकार करकेअपना दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए गृहस्थ के कर्तव्यों की शिक्षा दी।

    वे गुरुकुल में वास करने भीगये।

    शिक्षा पूरी होने पर उन्होंने गुरु-दक्षिणा दी और तब गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुए।

    उन्होंनेजयन्ती नामक पतली ग्रहण की और उससे एक सौ पुत्र उत्पन्न किये जो उनके ही समान बलवानतथा योग्य थे।

    उनकी पत्नी जयन्ती स्वर्ग के राजा इन्द्र द्वारा उन्हें भेंट में दी गई थी।

    ऋषभदेव तथा जयन्ती ने श्रुति तथा स्मृति शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट अनुष्ठानों का पालन करते हुए गृहस्थ जीवनका आदर्श प्रस्तुत किया।

    येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ: श्रेष्टणगुण आसीद्येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ॥

    ९॥

    येषाम्‌--जिनमें से; खलु--निश्चय ही; महा-योगी--ईश्वर का महान्‌ भक्त; भरत:-- भरत; ज्येष्ठ:--सब से बड़ा; श्रेष्ठ-गुण:--उत्तम गुणों से सम्पन्न; आसीत्‌-- था; येन--जिसके द्वारा; इदम्‌--यह; वर्षम्‌--लोक, देश; भारतम्‌-- भारत; इति--इस प्रकार;व्यपदिशन्ति--लोग कहते हैं।

    ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र का नाम भरत था, जो श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न महान्‌भक्त था।

    उसी के सम्मान में इस लोक को भारतवर्ष कहते हैं।

    तमनु कुशावर्त इलावर्तो ब्रह्मावर्तो मलय: केतुर्भद्रसेन इन्द्रस्पृग्विदर्भ: कीकट इति नव नवतिप्रधाना: ॥

    १०॥

    तम्‌--उसको; अनु-- अनुसरण करते हुए; कुशावर्त--कुशावर्त; इलावर्त:--इलावर्त; ब्रह्मावर्त:--ब्रह्मावर्त; मलय:--मलय;केतु:ः--केतु; भद्ग-सेन: -- भद्ग सेन; इन्द्र-स्पूकू--इन्द्रस्पृक; विदर्भ:--विदर्भ; कीकट:--कीकट; इति--इस प्रकार; नव--नौ;नवति--नब्बे; प्रधाना:--से बड़े |

    भरत के अतिरिक्त उनके निन्यानवे पुत्र और भी थे।

    इनमें से नौ बड़े पुत्रों के नाम कुशावर्त,इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्गसेन, इन्द्रस्पूकू, विदर्भ तथा कीकट थे।

    कविर्दविरन्तरिक्ष: प्रबुद्ध: पिप्पलायन: ।

    आविदोंत्रोथ द्रुमिलश्षमस: करभाजन: ॥

    ११॥

    इति भागवतधर्मदर्शना नव महाभागवतास्तेषां सुचरितं भगवन्महिमोपबुंहितंवसुदेवनारदसंवादमुपशमायनमुपरिष्टाद्वर्णयिष्याम: ॥

    १२॥

    कवि:--कवि; हवि:--हवि; अन्तरिक्ष:--अन्तरिक्ष; प्रबुद्ध:--प्रबुद्ध पिप्पलायन:--पिप्पलायन; आविद्वोंत्र: --आविदोंत्र;अथ- भी; द्रुमिल: --द्रुमिल; चमस:--चमस; करभाजन:--करभाजन ; इति--इस प्रकार; भागवत- धर्म-दर्शना: --श्रीमद्भागवत के प्रामाणिक उपदेशक; नव--नौ; महा-भागवता:--परम भक्त; तेषाम्‌--उनमें से; सुचरितम्‌ू-- अच्छे लक्षण;भगवत्ू-महिमा-उपबुृंहितम्‌-- भगवान्‌ की महिमा से युक्त; वसुदेव-नारद-संवादम्‌-- वसुदेव तथा नारद की वार्ता के अन्तर्गत;उपशमायनम्‌--मन को परम सन्‍्तोष देने वाली; उपरिष्टात्‌--इसके बाद के, परवर्ती ( ग्यारहवें स्कंध में ); वर्णयिष्याम: --मैंविस्तार से व्याख्या करूँगा।

    इन पुत्रों के अतिरिक्त कवि, हवि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविदोंत्र, द्रमिल, चमसतथा करभाजन भी हुए।

    ये सभी परम भक्त एवं श्रीमद्भागवत के प्रामाणिक उपदेशक थे।

    येभक्त भगवान्‌ वासुदेव के प्रति अपनी उत्कट भक्ति के कारण महिमा-मण्डित थे।

    मन की पूर्णतुष्टि के लिए मैं ( शुकदेव गोस्वामी ) इन नौ भक्तों के चरित्रों का वर्णन आगे चलकर नारद-वसुदेव संवाद प्रसंग के अन्तर्गत करूँगा।

    यवीयांस एकाशीतिर्जायन्तेया: पितुरादेशकरा महाशालीना महाश्रोत्रिया यज्ञशीला: कर्मविशुद्धाब्राह्मणा बभूवु: ॥

    १३॥

    यवीयांस: --इनसे छोटे; एकाशीति:--इक्यासी; जायन्तेया: --ऋषभदेव की पत्नी जयन्ती के पुत्र; पितु:--अपने पिता के;आदेशकरा:--आदेशानुसार; महा-शालीना: -- परम विनीत; महा-श्रोत्रिया:--वैदिक ज्ञान में पारंगत; यज्ञ-शीला: --अनुष्ठानोंको करने में निपुण; कर्म-विशुद्धा: --अत्यन्त शुद्ध कर्मो वाले; ब्राह्मणा: --योग्य ब्राह्मण; बभूवु:--हुए?

    उपर्युक्त उन्नीस पुत्रों के अतिरिक्त ऋषभदेव तथा जयन्ती से इक्यासी पुत्र और थे।

    ये अपनेपिता की आज्ञानुसार अति सुसंस्कृत, शालीन, उज्वल कर्मों वाले तथा वैदिक ज्ञान तथाअनुष्ठानिक कार्यों में निपुण हुए।

    इस प्रकार ये सभी पूर्ण रूप से योग्य ब्राह्मण बन गये।

    भगवानृषभसंज्ञ आत्मतन्त्र: स्वयं नित्यनिवृत्तानर्थपरम्पर: केवलानन्दानुभव ईश्वर एवविपरीतवत्कर्माण्यारभमाण: कालेनानुगतं धर्ममाचरणेनोपशिक्षयन्नतद्विदां सम उपशान्तो मैत्र:कारुणिको धर्मार्थयश:प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु लोक॑ नियमयत्‌ ॥

    १४॥

    भगवानू-- भगवान्‌; ऋषभ--ऋषभ; संज्ञ:--नाम वाले; आत्म-तन्त्र:--पूर्णतया स्वतंत्र; स्ववम्‌--स्वयं; नित्य--शाश्वत;निवृत्त--विरक्त, मुक्त; अनर्थ--अनिच्छित वस्तुओं ( जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि ) की; परम्पर:--परम्परा; केवल--केवल;आनन्द-अनुभव:--दिव्य आनन्द से परिपूरित; ईश्वरः-- परमेश्वर, नियन्ता; एबव--निस्सन्देह; विपरीत-वत्‌--विरुद्ध जैसे;कर्माणि--कर्मों को; आरभमाण: --करते हुए; कालेन--कालक्रम से; अनुगतम्‌--उपेक्षित; धर्मम्‌--वर्णा श्रम धर्म;आचरणेन--करने से; उपशिक्षयन्‌--उपदेश देकर; अ-ततू-विदाम्‌--अज्ञानी पुरुष; सम:--समान; उपशान्तः --इन्द्रियों द्वाराअविचलित; मैत्र:--प्रत्येक व्यक्ति से मैत्री भाव; कारुणिक:--सबों पर सदय; धर्म--धार्मिक नियम; अर्थ--आर्थिक उन्नति;यशः--यश, कीर्ति; प्रजा--पुत्र तथा पुत्रियाँ; आनन्द-- भौतिक सुख; अमृत--अमर जीवन; अवरोधेन--प्राप्त करने के लिए;गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; लोकम्‌--सामान्य लोगों को; नियमयत्‌--नियमित किया।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के अवतार होने से भगवान्‌ ऋषभदेव पूर्ण स्वतंत्र थे क्योंकि उनकायह स्वरूप शाश्रत तथा दिव्य आनन्दमय था।

    उन्हें भौतिक तापों के चार नियमों ( जन्म, मृत्यु,जरा तथा व्याधि ) से कोई सरोकार न था, न ही वे भौतिक दृष्टि से आसक्त थे।

    वे समानदर्शी थे।

    अन्यों को दुखी देखकर दुखी होते थे।

    वे समस्त जीवात्माओं के शुभचिन्तक थे।

    यद्यपि वे महान्‌पुरुष, परमेश्वर तथा सर्व-नियन्ता थे, तो भी वे ऐसा आचरण कर रहे थे, मानो कोई सामान्यबद्धजीव हो।

    अतः उन्होंने हृढ़तापूर्वक वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए तदनुसार कर्म किया।

    कालान्तर में वर्णाश्रम धर्म के नियम उपेक्षित हो चुके थे, फलतः अपने निजी गुणों तथाआचरण से उन्होंने अज्ञानी जनता को वर्णाश्रम धर्म के अन्तर्गत कर्तव्य करना सिखाया।

    इसप्रकार उन्होंने सामान्य लोगों को गृहस्थाश्रम में प्रशिक्षित किया जिससे वे धार्मिक तथा आर्थिकउत्थान कर सकें और यश, सन्‍्तान, आनन्द तथा अन्त में शाश्वत जीवन प्राप्त कर सकें।

    अपनेउपदेशों से उन्होंने लोगों को गृहस्था श्रम में रहते हुए वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन करते हुएपरिपूर्ण बनने की शिक्षा दी।

    यदायच्छीर्षण्याचरितं तत्तदनुवर्तते लोक: ॥

    १५॥

    यत्‌ यत्‌--जो भी; शीर्षण्य--शीर्ष स्थ महापुरुषों द्वारा; आचरितम्‌--आचरण किया जाता है; तत्‌ तत्‌--वही; अनुवर्तते--अनुकरण करते हैं; लोक:--सामान्य जन।

    महापुरुष जैसा जैसा आचरण करते हैं, सामान्यजन उसी का अनुकरण करते हैं।

    यद्यपि स्वविदितं सकलधर्म ब्राह्मं गुह्मं ब्राह्मणैर्दशितमार्गेण सामादिभिरुपायैर्जनतामनुशशास ॥

    १६॥

    यद्यपि--यद्यपि; स्व-विदितम्‌--स्वतः ज्ञात; सकल-धर्मम्‌ू--विभिन्न प्रकार के कर्म; ब्राह्ममू--वैदिक उपदेश; गुह्मम्‌-- अत्यन्तगोपनीय; ब्राह्मणैः--ब्राह्मणों के द्वारा; दर्शित-मार्गुंण--दिखलाये गये मार्ग द्वारा; साम-आदिभि:--साम, दम, तितिक्षा इत्यादि;उपायैः--साधनों से; जनताम्‌ू--सामान्य जन पर; अनुशशास--राज्य किया |

    यद्यपि भगवान्‌ ऋषभदेव समस्त गुह्य वैदिक ज्ञान से परिचित थे, जिसमें सभी करणीयकर्मों से सम्बन्धित जानकारी सम्मिलित है, तो भी वे अपने को क्षत्रिय मान कर ब्राह्मणों के उनउपदेशों का अनुकरण करते थे, जिनका सम्बन्ध साम ( मन पर नियंत्रण ), दम ( इन्द्रियों परनियंत्रण ), तितिक्षा ( सहनशीलता ) इत्यादि से था।

    इस प्रकार उन्होंने वर्णाश्रम-धर्म पद्धति सेजनता पर शासन किया।

    इसके अनुसार ब्राह्मण क्षत्रियों को शिक्षा देता है और क्षत्रिय वैश्योंतथा शूद्रों के माध्यम से राज्य चलाता है।

    द्रव्यदेशकालवय: श्रद्धर्त्विग्विविधोद्देशोपचितै: सर्वरपि क्रतुभिर्यथोपदेशं शतकृत्व इयाज ॥

    १७॥

    द्रव्य--यज्ञ की साम्रगी; देश--विशिष्ट स्थान, तीर्थ या मन्दिर; काल--उपयुक्त समय, यथा वसन्‍्त; वय:--आयु, विशेषतयायुवावस्था; श्रद्धा--अच्छाई में विश्वास; ऋत्विक्‌--पुरोहितगण; विविध-उद्देश --विभिन्न प्रयोजनों से विभिन्न देवताओं की पूजाकरके; उपचितै:--समृद्ध होकर; सर्वै:--सभी प्रकार के; अपि--निश्चय ही; क्रतुभि:ः--याज्ञिक अनुष्ठानों द्वारा; यथा-उपदेशम्‌--उपदेश के अनुसार; शत-कृत्व:--एक सौ बार; इयाज--आराधना की |

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने शास्त्रों के अनुसार सभी यज्ञों को सौ सौ बार सम्पन्न किया और इसप्रकार से भगवान्‌ विष्णु को सभी प्रकार से तुष्ट किया।

    सभी अनुष्ठान उत्तम कोटि की सामग्री सेतथा उचित समय में और पवित्र स्थानों पर युवा तथा श्रद्धालु पुरोहितों द्वारा सम्पन्न हुए।

    इसप्रकार भगवान्‌ विष्णु की पूजा की गई और समस्त देवताओं को प्रसाद वितरित किया गया।

    सारे अनुष्ठान तथा उत्सव सफल हुए।

    कर हर हि नभगवतर्षभेण परिरक्ष्यमाण एतस्मिन्वर्षे न कश्चन पुरुषो वाउछत्यविद्यमानमिवात्मनोन्यस्मात्कथज्ञनकिमपि कर्हिचिदवेक्षते भर्तर्यनुसवनं विजृम्भितस्नेहातिशयमन्तरेण ॥

    १८ ॥

    भगवता-- भगवान्‌; ऋषभेण--ऋषभदेव द्वारा; परिरक्ष्यमाणे --परिरक्षित होकर; एतस्मिनू--इस; वर्षे -- भूखण्ड ( लोक ) में;न--नहीं; कश्चनन--कोई भी; पुरुष: --सामान्यजन; वाउछति-- आकांक्षा करता है; अविद्यमानम्‌--उपस्थित न रहकर; इब--केसमान; आत्मन:--अपने लिए; अन्यस्मात्‌--अन्य किसी से; कथञ्ञन--किसी प्रकार से; किमपि--कुछ भी; कर्हिंचित्‌ू--किसीसमय; अवेक्षते--देखने का साहस करता है; भर्तरि--स्वामी के प्रति; अनुसवनम्‌--सदैव; विजृम्भित--बढ़ने वाले; स्नेह-अतिशयम्‌--अत्यन्त स्नेह; अन्तरेण--अपनी आत्मा में |

    कोई भी व्यक्ति 'आकाश-कुसुम ' जैसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा नहीं करता क्योंकिउसे पता रहता है कि ऐसी वस्तुएँ विद्यमान नहीं हैं।

    जब भगवान्‌ ऋषभदेव इस भारतवर्ष-भूमि मेंराज्य कर रहे थे तो सामान्य जनता को भी किसी समय या किसी प्रकार से किसी वस्तु कीइच्छा नहीं रह गई थी।

    कोई भी 'आकाश कुसुम ' नहीं चाहता है।

    कहने का अभिप्राय यह है कि सभी लोग पूर्णतया सन्तुष्ट थे, अतः किसी को किसी भी प्रकार की वस्तु माँगने की आवश्यकतानहीं थी।

    सभी लोग राजा के अतीव स्नेह में मग्न थे।

    चूँकि यह स्नेह निरन्तर बढ़ता गया इसलिएवे किसी भी वस्तु की याचना करने के इच्छुक नहीं थे।

    हल चओऋचआ हब स कदाचिदटमानो भगवानृषभो ब्रह्मावर्तगतो ब्रह्मर्षिप्रवरसभायां प्रजानांनिशामयन्तीनामात्मजानवहितात्मन: प्रश्रयप्रणयभरसुयन्त्रितानप्युपशिक्षयन्रिति होवाच ॥

    १९॥

    सः--वह; कदाचित्‌--एक बार; अटमान:--घूमते-घूमते; भगवान्‌-- भगवान्‌; ऋषभ: -- ऋषभदेव; ब्रह्मावर्त-गत:--जब वेब्रह्मावर्त नामक देश में [ जिसे कुछ लोग बर्मा ( ब्रह्म ) देश और कुछ कानपुर के निकट ( बिदूर ) कहते हैं पहुँचे; ब्रह्म-ऋषि-प्रवर-सभायाम्‌--उच्चकोटि के ब्राह्मणों की सभा में; प्रजानामू--जबकि नागरिक; निशामयन्तीनामू--सुन रहे थे; आत्मजानू--अपने पुत्रों; अवहित-आत्मन:--सावधान; प्रश्रय--अच्छे आचरण वाले; प्रणय--भक्ति वाले; भर--अधिकता से; सु-यन्त्रितानू--सुनियंत्रित; अपि--यद्यपि; उपशिक्षयन्‌-- शिक्षा देकर; इति--इस प्रकार; ह--ही; उबाच--कहा |

    एक बार भगवान्‌ ऋषभदेव घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त नामक देश में पहुँचे।

    वहाँ पर विद्वानब्राह्मणों की एक बड़ी सभा हो रही थी और राजा के सभी पुत्र बड़े ही मनोयोग से ब्राह्मणों काउपेद्श सुन रहे थे।

    उस सभा में, समस्त नागरिकों के समक्ष ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को शिक्षादी, यद्यपि वे पहले से ही अच्छे आचरण वाले, भक्त और योग्य थे।

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    अध्याय पाँच: भगवान ऋषभदेव की अपने पुत्रों को शिक्षाएँ

    5.5ऋषभ उबाचनाय॑ देहो देहभाजां नूलोकेकष्टान्कामानईते विड्भुजां ये ।

    तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वंशुद्धबरेद्यस्माह्ह्मसौख्य॑ त्वनन्तम्‌ ॥

    १॥

    ऋषभ: उवाच-- भगवान्‌ ऋषभ ने कहा; न--नहीं; अयम्‌--यह; देह: --शरीर; देह-भाजाम्‌-- समस्त देहधारियों का; नू-लोके--इस संसार में; कष्टान्‌--कष्टकारक; कामान्‌--इन्द्रियतृप्ति, विषय; अरईते--चाहिए; विट्‌-भुजाम्‌--विष्ठा खाने वालोंका; ये--जो; तपः--तपस्या; दिव्यम्‌--दिव्य; पुत्रका: --हे पुत्रो; येन--जिसके द्वारा; सत्त्म्‌--हृदय; शुद्धग्रेत्‌--पवित्र होताहै; यस्मात्‌--जिससे; ब्रह्म-सौख्यम्‌ू-- आध्यात्मिक आनन्द; तु--निश्चय ही; अनन्तम्‌--अनन्त।

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा--हे पुत्रो, इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसेमनुष्य देह प्राप्त हुईं है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन-रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिएक्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर-सूकर भी कर लेते हैं।

    मनुष्य को चाहिए कि भक्ति कादिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने को तपस्या में लगाये।

    ऐसा करने से उसका हृदय शुद्धहो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है, तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलताहै, जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है।

    महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्ते-स्तमोद्वारं योषितां सड्भिसड्रम्‌ ।

    महान्तस्ते समचित्ता: प्रशान्ताविमन्यव: सुहृदः साधवो ये ॥

    २॥

    महत्‌-सेवाम्‌-- आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति जिन्हें महात्मा कहा जाता है, उन की सेवा; द्वारम्‌-मार्ग; आहुः--कहते हैं;विमुक्ते:--मुक्ति का; तमः-द्वारमू--नारकीय अंधकारमय जीवन का मार्ग; योषिताम्‌--स्त्रियों की; सड्धि--साथियों की;सड्डम्‌--संगति, साथ; महान्त:--महात्मा; ते--वे; सम-चित्ता:--सब प्राणियों को समभाव से देखने वाले; प्रशान्ता:--अत्यन्तशान्त, ब्रह्म या भगवान्‌ में लीन; विमन्‍्यव:--क्रोधहीन; सुहृदः --प्रत्येक प्राणी के शुभचिन्तक; साधव:--अनिंद्य आचरण वालेयोग्य भक्त; ये--जो?

    आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत महापुरुषों की सेवा करके ही मनुष्य भव-बन्धन से मुक्ति का मार्गप्राप्त कर सकता है।

    ये महापुरुष निर्विशेषवादी तथा भक्त होते हैं।

    ईश्वर से तदाकार होने अथवाभगवान्‌ का संग प्राप्त करने के इच्छुक प्रत्येक मनुष्य को महात्माओं की सेवा करनी चाहिए।

    ऐसे कर्मों में रुचि न रखने वाले लोग, जो स्त्री तथा मैथुन प्रेमी व्यक्तियों की संगति करते हैंउनके लिए नरक का द्वार खुला रहता है।

    महात्मा समभाव वाले होते हैं।

    वे एक जीवात्मा तथादूसरे में कोई अन्तर नहीं देखते।

    वे अत्यन्त शान्त होते हैं और भक्ति में पूर्णतया लीन रहते हैं।

    वेक्रोधरहित होते हैं और सभी के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।

    वे कोई निंद्य आचरण नहीं करते।

    ऐसे व्यक्ति महात्मा कहलाते हैं।

    ये वा मयीशे कृतसौहदार्थाजनेषु देहम्भरवार्तिकेषु ।

    गृहेषु जायात्मजरातिमत्सुन प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥

    ३॥

    ये--जो; वा--अथवा; मयि--मुझ; ईशे-- भगवान्‌ में; कृत-सौहद-अर्था: -- प्रेम बढ़ाने के लिए उत्सुक ( दास्य, सख्य,वात्सल्य या माधुर्य भाव में ); जनेषु--व्यक्तियों में; देहम्भर-वार्तिकेषु--जो शरीर का केवल निर्वाह करना चाहते हैं, जिन्हें मोक्षकी कामना नहीं है; गृहेषु--घर में; जाया-- पत्नी; आत्म-ज--बच्चे, सन्‍्तान; राति--धन या मित्र; मत्सु--से युक्त; न--नहीं;प्रीति-युक्ता:--अत्यन्त आसक्त; यावत्‌-अर्था:--जितना आवश्यक है उतना ही धन संग्रह करके रहने वाले; च--तथा; लोके--इस भौतिक जगत में।

    जो लोग कृष्णचेतना को पुनरुजीवित करने तथा अपना ईश्वर-प्रेम बढ़ाने के इच्छुक हैं, वेऐसा कुछ नहीं करना चाहते जो श्रीकृष्ण से सम्बन्धित न हो।

    वे उन लोगों से मेलजोल नहींबढ़ाते जो अपने शरीर-पालन, भोजन, शयन, मैथुन तथा स्वरक्षा में व्यस्त रहते हैं।

    वे गृहस्थ होतेहुए भी अपने घरबार के प्रति आसक्त नहीं होते।

    वे पत्नी, सन्तान, मित्र अथवा धन में भी आसक्तनहीं होते, किन्तु उसके साथ ही वे अपने कर्तव्यों के प्रति अन्यमनस्क नहीं रहते।

    ऐसे पुरुष अपनेजीवन-निर्वाह के लिए जितना धन चाहिए उतना ही संग्रह करते हैं।

    नूनं प्रमत्त: कुरुते विकर्मयदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति ।

    न साधु मन्‍्ये यत आत्मनोय-मसन्नपि क्लेशद आस देह: ॥

    ४॥

    नूनम्‌--निस्संदेह; प्रमत्त:--मदान्ध; कुरुते--करता है; विकर्म--शास्त्रों में वर्जित पापकर्म; यत्‌--जब; इन्द्रिय-प्रीतये--इन्द्रियतृष्ति के लिए; आपृणोति--प्रवृत्त होता है; न--नहीं; साधु--अच्छा, उपयुक्त; मन्‍्ये--मानता हूँ; यत:ः--जिससे;आत्मन:--आत्मा का; अयम्‌--यह; असनू-- क्षण-भंगुर; अपि--यद्यपि; क्लेश-दः--कष्टदायक; आस--सम्भव हो सका;देह:--शरीर।

    जब मनुष्य इन्द्रियतृप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मान बैठता है, तो वह भौतिक रहन-सहन केपीछे प्रमत्त होकर सभी प्रकार के पापकर्मों में प्रवृत्त होता है।

    वह नहीं जानता कि अपने विगतपापकर्मों के ही कारण उसे यह क्षणभंगुर शरीर प्राप्त हुआ है, जो दुखों की खान है।

    वास्तव मेंजीवात्मा को भौतिक देह नहीं मिलनी चाहिए थी, किन्तु इन्द्रियतृप्ति के लिए ऐसा हुआ है।

    अतःमैं मानता हूँ कि बुद्धिमान प्राणी के लिए यह शोभा नहीं देता कि वह पुनः इन्द्रियतृप्ति के कार्योंमें प्रवृत्त हो, जिससे एक के बाद दूसरा शरीर उसे प्राप्त होता रहता है।

    'पराभवस्तावदबोधजातोयावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम्‌ ।

    यावत्तक्रियास्तावदिदं मनो वैकर्मात्मकं येन शरीरबन्ध: ॥

    ५॥

    पराभव:--हार, कष्ट; तावत्‌--तब तक; अबोध-जात:--अज्ञान से उत्पन्न; यावत्‌--जब तक; न--नहीं; जिज्ञासते--जिज्ञासाकरता है; आत्म-तत्त्वम्‌--आत्मा विषयक सत्य; यावत्‌--जब तक; क्रिया:--कर्म; तावत्‌ू--तब तक; इृदम्‌--यह; मन:--मन;वै--निस्सन्देह; कर्म-आत्मकम्‌-- कर्मों में व्यस्त; येन--जिसके द्वारा; शरीर-बन्ध: -- भौतिक शरीर का बन्धन, देह बन्धन।

    जब तक जीव को आत्म-तत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती तब तक उसे अज्ञानजन्य कष्ट भोगनेपड़ते हैं और उसकी पराजय होती रहती है।

    कर्म का फल पाप अथवा पुण्य कुछ भी हो सकताहै।

    यदि मनुष्य किसी कर्म में व्यस्त रहता है, तो उसका मन सकाम कर्म में रँगा हुआ कहा जाताहै।

    जब तक मन अशुद्ध रहता है, चेतना अस्पष्ट रहती है और जब तक मनुष्य सकाम कर्मों मेंलगा रहता है, तब तक उसे देह धारण करनी पड़ती है।

    एवं मनः कर्मवशं प्रयुड्ठेअविद्ययात्मन्युपधीयमाने ।

    प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवेन मुच्यते देहयोगेन तावत्‌ ॥

    ६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मन:--मन; कर्म-वशम्‌--कर्म के वशीभूत; प्रयुड़े --कार्य करता है; अविद्यया--अविद्या अथवा अज्ञानसे; आत्मनि--जब जीवात्मा; उपधीयमाने--ढका रहता है; प्रीति:--प्रेम; न--नहीं; यावत्‌--जब तक; मयि--मुझ; वासुदेवे--वासुदेव अथवा कृष्ण में; न--नहीं; मुच्यते--छुटकारा पाता है; देह-योगेन--देह के सम्पर्क से; तावत्‌--तब तक |

    जब जीवात्मा तमोगुण से आच्छादित रहता है, तो वह न तो आत्मा को और न परम-आत्माको समझता है और उसका मन सकाम कर्म के वशीभूत रहता है।

    अतः जब तक उसकी मुझबासुदेव में प्रीति नहीं होती, तब तक उसे देह-बन्धन को स्वीकार करने से छुटकारा नहीं मिलपाता।

    यदा न पश्यत्ययथा गुणेहांस्वार्थे प्रमत्त: सहसा विपश्चित्‌ ।

    गतस्मृतिर्विन्दति तत्र तापान्‌आसाद्य मैथुन्यमगारमज्ञ: ॥

    ७॥

    यदा--जब; न--नहीं; पश्यति--देखता है; अथथा--- अनावश्यक; गुण-ईहाम्‌--इन्द्रियतुष्टि की चेष्टा; स्व-अर्थे--आत्म-हितमें; प्रमत्त:--पागल; सहसा--शीघ्र ही; विपश्चित्‌ू-- ज्ञानी भी; गत-स्मृति:--स्मृति खोकर; विन्दति--पाता है; तत्र--वहाँ;तापान्‌--क्लेश; आसाद्य--पाकर; मैथुन्यम्‌ू-- मैथुन आश्रित; अगारम्‌-घर; अज्ञ:--अज्ञानवश |

    भले कोई कितना ही विद्वान तथा चतुर क्‍यों न हो, यदि वह यह नहीं समझ पाता किइन्द्रियतृप्ति के लिए की जाने वाली चेष्टाएँ व्यर्थ ही समय की बरबादी है, तो वह पागल है।

    वहआत्म-हित को भूलकर इस संसार में विषयवासना-प्रधान तथा समस्त भौतिक क्लेशों के आगारअपने घर में आसक्त रहकर प्रसन्न रहना चाहता है।

    इस प्रकार मनुष्य मूर्ख पशु के ही तुल्य होताहै।

    पुंसः स्त्रिया मिथुनीभावमेतंतयोर्मिथो हृदयग्रन्थिमाहु: ।

    अतो गृहक्षेत्रसुताप्तवित्तैर्‌जनस्य मोहोयमहं ममेति ॥

    ८॥

    पुंस:--पुरुष ( नर ) का; स्त्रिया: --स्त्री का; मिथुनी-भावम्‌--कामभोग वासनापूर्ण-जीवन के लिए आकर्षण; एतम्‌--यह;तयो:--उन दोनों का; मिथ: --परस्पर; हृदय-ग्रन्थिमू--हृदयों की गाँठ; आहुः--कहते हैं; अतः--तत्पश्चात्‌; गृह--घर; क्षेत्र--खेत; सुत--पुत्र; आप्त--सम्बन्धी, स्वजन; वित्तै:--( तथा ) धन से; जनस्य--जीवात्मा का; मोह: --मोह; अयम्‌--यह;अहमू--ैं; मम--मेरा; इति--इस प्रकार?

    स्त्री तथा पुरुष के मध्य का आकर्षण भौतिक अस्तित्व का मूल नियम है।

    इस भ्रांत धारणाके कारण स्त्री तथा पुरुष के हृदय परस्पर जुड़े रहते हैं।

    इसी के फलस्वरूप मनुष्य अपने शरीर,घर, सनन्‍्तान, स्वजन तथा धन के प्रति आकृष्ट होता है।

    इस प्रकार वह जीवन के मोहों को बढ़ाताहै और 'मैं तथा मेरा ' के रूप में सोचता है।

    यदा मनोहृदयग्रन्थिरस्यकर्मानुबद्धो हह आश्लथेत ।

    तदा जन: सम्परिवर्ततेउस्माद्‌मुक्त: परं यात्यतिहाय हेतुम्‌ू ॥

    ९॥

    यदा--जब; मन:--मन; हृदय-ग्रन्थि:-- हृदय की गाँठ; अस्य--इस व्यक्ति का; कर्म-अनुबद्धः--पूर्व कर्मों के फलों सेआबद्ध; दृढः--अत्यन्त प्रबल; आश्लथेत--ढीली पड़ती है; तदा--उस समय; जन:--बद्धजीव; सम्परिवर्तते--विमुख हो जाताहै; अस्मात्‌--विषयी जीवन के प्रति आसक्ति से; मुक्त:--मुक्त; परम्‌--दिव्य लोक को; याति--जाता है; अतिहाय--त्यागकर; हेतुमू--मूल कारण |

    जब पूर्व कर्म-फलों के कारण भौतिक जीवन में फँसे हुए व्यक्ति के हृदय की मजबूत गाँठढीली पड़ जाती है, तो वह घर, स्त्री तथा सन्‍्तान के प्रति अपनी आसक्ति से विमुख होने लगताहै।

    इस तरह उसका मोह ( मैं तथा मेरा ) टूट जाता है, वह मुक्त हो जाता है और उसे दिव्य लोककी प्राप्ति होती है।

    हंसे गुरौ मयि भक्त्यानुवृत्यावितृष्णया द्वन्द्दतितिक्षया च ।

    सर्वत्र जन्तोर्व्यसनावगत्याजिज्ञासया तपसेहानिवृत्त्या ॥

    १०॥

    मत्कर्मभिर्मत्कथया च नित्यमद्देवसड्रादगुणकीर्तनान्मे ।

    निर्वेरसाम्योपशमेन पुत्राजिहासया देहगेहात्मबुद्धे: ॥

    ११॥

    अध्यात्मयोगेन विविक्तसेवयाप्राणेन्द्रियात्माभिजयेन सध्य्रक्‌ ।

    सच्छुद्धया ब्रह्मचर्येण शश्वद्‌असम्प्रमादेन यमेन वाचाम्‌ ॥

    १२॥

    सर्वत्र मद्भावविचक्षणेनज्ञानेन विज्ञानविराजितेन ।

    योगेन धृत्युद्यमसत्त्वयुक्तोलिड़ं व्यपोहेत्कुशलोहमाख्यम्‌ ॥

    १३॥

    हंसे--परमहंस अथवा अध्यात्म में उन्नत; गुरौ--गुरु में; मयि--मुझ भगवान्‌ में; भक्त्या--भक्ति के द्वारा; अनुवृत्या--पालनकरके; वितृष्णया--इन्द्रियतृप्ति से विरक्ति द्वारा; द्न्द्द--संसार की द्वैतता का; तितिक्षया--सहिष्णुता से; च-- भी ; सर्वत्र --सभी जगह; जन्तो: --जीवात्मा का; व्यसन--जीव्‌न की क्लेशमय दशा; अवगत्या--समझ कर; जिज्ञासया--सत्य के सम्बन्धमें पूछताछ द्वारा; तपसा--तपस्या से; ईहा-निवृत्त्या--इन्द्रियतृप्ति के प्रयास को त्यागने से; मत्‌-कर्मभि:--मेरे लिए कार्य करनेसे; मत्‌ू-कथया--मेरी कथा सुनकर; च-- भी; नित्यमू--सदैव; मत्‌-देव-सड्भात्‌--मेरे भक्तों की संगति से; गुण-कीर्तनात्‌ मे--मेरे दिव्य गुणों के कीर्तन तथा महिमागान से; निर्वर--शत्रुतारहित; साम्य--आत्मज्ञान के कारण सबों को समान देखते हुए;उपशमेन--क्रोध, शोक इत्यादि को जीत कर; पुत्रा:--हे पुत्रो; जिहासया--त्याग करने की इच्छा से; देह--देह से साथ; गेह--घर के साथ; आत्म-बुद्धेः--आत्मबो ध; अध्यात्म-योगेन--शास्त्रों के अध्ययन से; विविक्त-सेवया--एकान्त वास द्वारा; प्राण--श्वास; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्म--मन; अभिजयेन--नियंत्रण द्वारा; सध्य्रक्‌ -- पूर्णतया; सत््‌-श्रद्धया-- धार्मिक ग्रन्थों में श्रद्धाउत्पन्न करके; ब्रह्मचर्येण--ब्रह्मचर्य पालन द्वारा; शश्वत्‌ू--सदैव; असम्प्रमादेन--किंकर्तव्यमूढ़ न होकर; यमेन--संयम से;वाचाम्‌--शब्दों का; सर्वत्र--सभी जगह; मत्‌-भाव--मेरा है, यह भाव; विचक्षणेन-- अवलोकन द्वारा; ज्ञानेन--ज्ञान बढ़ाकर; विज्ञान--ज्ञान के सम्प्रयोग द्वारा; विराजितेन-- प्रकाशित; योगेन-- भक्तियोग के अभ्यास से; धृति--धैर्य; उद्यम --उत्साह;सत्त्व--विवेक; युक्त: --युक्त; लिड्रमू-- भौतिक बन्धन का कारण; व्यपोहेत्‌-त्यागा जा सकता है; कुशलः--पूर्ण कुशलतामें; अहम्‌-आख्यम्‌--झूठा अहंकार, भौतिक संसार के साथ झूठी पहचान ।

    हे पुत्रो, तुम्हें सिद्ध गुरु अर्थात्‌ परमहंस को ग्रहण करना चाहिए।

    इस प्रकार तुम मुझ पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ पर अपनी श्रद्धा तथा प्रेम रखो।

    तुम्हें इन्द्रियतृप्ति से घृणा करनी चाहिए तथाग्रीष्म एवं शीत ऋतु के समान आनन्द तथा पीड़ा की द्वैतता को सहना चाहिए।

    उन जीवात्माओंकी कष्टमय दशा को समझने का प्रयास करो, जो स्वर्ग में भी दुखी रहती हैं।

    सत्य का दार्शनिकतौर पर अन्वेषण करो।

    फिर भक्ति के निमित्त समस्त प्रकार की तपस्या करो।

    इन्द्रिय-सुख केलिए प्रयत्नों का परित्याग करके ईश्वर की सेवा में लगो।

    भगवान्‌ की कथा का श्रवण करो औरसदैव भक्तों की संगति करो।

    ईश्वर का कीर्तन और गुणगान करो और सबों को आध्यात्मिक स्तरपर समभाव से देखो।

    शत्रुता त्याग कर क्रोध तथा शोक का दमन करो।

    स्वयं को देह तथा घरके साथ न जोड़ते हुए शास्त्रों का अध्ययन करो।

    एकान्त वास करो और प्राणवायु ( श्वास ), मनतथा इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करने का अभ्यास करो।

    वैदिक साहित्य अर्थात्‌ शास्त्रों पर पूर्णश्रद्धा रखो और सदैव ब्रह्मचर्य ब्रत का पालन करो।

    अपने कर्तव्यों को करते हुए व्यर्थ की बातेंकरने से बचो।

    सदैव भगवान्‌ का चिन्तन करते हुए सही स्त्रोत से ज्ञान प्राप्त करो।

    इस प्रकारउत्साह एवं धैर्यपूर्वक भक्तियोग का अभ्यास करते रहने से तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा और अहंकारजाता रहेगा।

    कर्माशयं हृदयग्रन्थिबन्ध-मविद्ययासादितमप्रमत्त: ।

    अनेन योगेन यथोपदेशंसम्यग्व्यपोह्योपरमेत योगात्‌ ॥

    १४॥

    कर्म-आशयम्‌--कर्म की आकांक्षा; हृदय-ग्रन्थि--हृदय में स्थित गाँठ; बन्धम्‌--बन्धन; अविद्यया--अविद्या के कारण;आसादितमू्‌--लाई गई; अप्रमत्त:--अत्यन्त सावधान, जो मोहग्रस्त न हो; अनेन--इस; योगेन--योग-अभ्यास से; यथा-उपदेशम्‌--जैसा उपदेश दिया गया; सम्यक्‌--पूर्णतया; व्यपोह्म-- मुक्त होकर; उपरमेत--विरत होना चाहिए; योगात्‌--मुक्तिके साधन योगाभ्यास से |

    हे पुत्रो, तुम्हें मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करना चाहिए।

    अत्यन्त सावधान रहना।

    इनविधियों से तुम लोग सकर्म-अभिलाषा की अविद्या से छूट सकोगे और तुम्हारे हृदय में स्थितबन्धनरूपी ग्रंथि पूर्णतया कट जाएगी।

    तदनन्तर और अधिक उन्नति के लिए तुम्हें साधनों कापरित्याग कर देना चाहिए, अर्थात्‌ तुम्हें मुक्ति-क्रिया में ही आसक्त नहीं हो जाना चाहिए।

    पुत्रांश्व शिष्यांश्व नृपो गुरु्वामल्लोककामो मदनुग्रहार्थ: ।

    इत्थं विमन्युरनुशिष्यादतज्ज्ञान्‌न योजसयेत्कर्मसु कर्ममूढान्‌ ।

    कं योजयन्मनुजो<र्थ लभेतनिपातयन्रष्टदशं हि गर्ते ॥

    १५॥

    पुत्रानू--पुत्रों को; च--तथा; शिष्यान्‌--शिष्यों को; च--तथा; नृप:--राजा; गुरु:--गुरु; बा--अथवा; मत्‌-लोक-काम:--मेरे धाम के इच्छुक; मतू-अनुग्रह-अर्थ: --मेरे अनुग्रह को जीवन लक्ष्य मानने वाले; इत्थम्‌--इस प्रकार से; विमन्यु:--क्रोधरहित; अनुशिष्यात्‌--शिक्षा देनी चाहिए; अ-तत्‌-ज्ञानू--आत्मज्ञान से विहीन; न--नहीं; योजयेत्‌--लगाना चाहिए;कर्मसु--कर्म में; कर्म-मूढान्‌--केवल पुण्य या पाप कर्म में रत रहने वालों को; कम्‌--क्या; योजयनू-प्रवृत्त करते हुए; मनु-जः--मनुष्य; अर्थम्‌--लाभ; लभेत--प्राप्त कर सकता है; निपातयन्‌ू-- धकेल कर; नष्ट-हशम्‌--दिव्य ज्योति से विहीन; हि--निस्संदेह; गर्ते-गड़े में |

    यदि किसी मनुष्य को घर लौटने अर्थात्‌ ईश्वर के धाम वापस जाने की अभिलाषा हो, तोउसे चाहिए कि वह भगवान्‌ के अनुग्रह को जीवन का परम लक्ष्य माने।

    यदि वह पिता है, तोअपने पुत्रों को, यदि गुरु है, तो अपने शिष्यों को और यदि राजा है, तो अपनी प्रजा को, इसीप्रकार शिक्षा दे जैसा कि मैंने उपदेश दिया है।

    उसे चाहिए कि क्रोधरहित होकर इन्हें शिक्षा देतेरहें, भले ही शिष्य, पुत्र अथवा प्रजा उनकी आज्ञा का पालन करने में कभी-कभी असमर्थ क्‍योंन रहें।

    कर्म-मूढों को जो पाप एवं पुण्य कर्मो में लगे रहते हैं, चाहिए कि वे सभी प्रकार से भक्तिमें लगें।

    उन्हें सकाम कर्म से सदैव बचना चाहिए।

    यदि शिष्य, पुत्र या प्रजा, जो दिव्य दृष्टि सेरहित हो, उसे कर्म के बन्धन में डाला जाये तो भला वह कैसे लाभान्वित होगा? यह अंधे मनुष्यको अंधेरे कुएं तक ले जाने और उसे गिरने देने जैसा है।

    लोक: स्वयं श्रेयसि नष्टदृष्टि-योडर्थान्समीहेत निकामकामः ।

    अन्योन्यवैर: सुखलेशहेतो-रनन्तदु:खं च न वेद मूढ: ॥

    १६॥

    लोक:ः--लोग; स्वयम्‌--स्वयं; श्रेयसि--कल्याण-मार्ग का; नष्ट-दृष्टिः--जिनकी दृष्टि नष्ट हो चुकी है; यः--जो; अर्थानू--विषय-भोग की वस्तुएँ; समीहेत--आकांक्षा करते हैं; निकाम-काम:--इन्द्रियसुख के लिए अनेक कामेच्छाओं वाला, कामी;अन्योन्य-वैर:-- परस्पर ईर्ष्यालु होकर; सुख-लेश-हेतोः--केवल क्षणिक सुख के लिए; अनन्त-दुःखम्‌--अपार कष्ट; च-- भी;न--नहीं; वेद--जानते हैं; मूढः--मूढ़ लोग ?

    मूर्ख अज्ञानवश भौतिकतावादी व्यक्ति अपना सच्चा हित नहीं समझ पाता जो जीवन काकल्याणकारी मार्ग है।

    वह भौतिक सुख की कामेच्छाओं से बँधा रहता है और उसकी सारीयोजनाएँ इसी एक कार्य के लिए तैयार की जाती हैं।

    ऐसा व्यक्ति क्षणक सुख के लिए वैरपूर्णसमाज की सृष्टि करता है और अपनी मानसिकता के कारण वह दुख के सागर में कूद पड़ता है।

    ऐसे मूर्ख व्यक्ति को इसका ज्ञान भी नहीं होता।

    कस्तं स्वयं तदभिज्ञो विपश्चिद्‌अविद्यायामन्तरे वर्तमानम्‌ ।

    इष्ठा पुनस्तं सघृण: कुबुद्द्धिप्रयोजयेदुत्पथगं यथान्धम्‌ ॥

    १७॥

    कः--ऐसा कौन व्यक्ति है; तमू--उसको; स्वयम्‌--स्वयं; तत्‌-अभिज्ञ: --तत्त्व-ज्ञान जानते हुए; विपश्चित्‌--विद्वान;अविद्यायाम्‌ अन्तरे--अज्ञानवश; वर्तमानम्‌--वर्तमान रहते हुए; दृष्टा--देख कर; पुन:--फिर; तमू--उसको; स-घृण: --अत्यन्त दयालु; कु-बुद्धिम्‌--संसार मार्ग में लिप्त; प्रयोजयेत्‌--लगायेगा; उत्पथ-गम्‌--उल्टे मार्ग पर अग्रसर होने वाला;यथा--सहश; अन्धम्‌--अंधा पुरुष?

    यदि कोई अज्ञानी है और संसार-पथ में लिप्त है, तो भला उसे कोई विद्वान, दयालु तथाआत्मज्ञानी पुरुष सकाम कर्म करने तथा भौतिक संसार में और अधिक फँसने के लिए क्योंकरप्रवृत्त करेगा ? यदि कोई अन्धा व्यक्ति उल्टी राह पर जा रहा हो, तो ऐसा कौन-सा सज्जन पुरुषहोगा, जो उसे संकट के पथ पर और आगे जाने देगा ? वह इस विधि को क्‍यों सही मानने लगा ?कोई भी बुद्धिमान अथवा दयालु व्यक्ति ऐसा नहीं होने देगा।

    गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्‌पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्‌ ।

    दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्था-न्न मोचयेद्य: समुपेतमृत्युम्‌ ॥

    १८॥

    गुरुः--गुरु; न--नहीं; सः--वह; स्यात्‌--हो; स्व-जन: --कुट॒ुम्बी; न--नहीं; सः--ऐसा व्यक्ति; स्थात्‌ू--हो; पिता--पिता;न--नहीं; सः--वह; स्थात्‌ू--हो; जननी--माता; न--नहीं; सा--वह; स्थातू--होवे; दैवमू-- अर्चाविग्रह; न--नहीं; तत्‌ू--वह; स्थात्‌--हो; न--नहीं; पति:--पति; च-- भी; सः--वह; स्थात्‌ू--होय; न--नहीं; मोचयेत्‌--उबार सकता है; यः--जो;समुपेत-मृत्युम्‌ू--बारम्बार जन्म-मृत्यु के मार्ग पर अग्रसर होनेवाले को।

    जो अपने आश्रित को बारम्बार के जन्म-मृत्यु के पथ से न उबार सके उसे कभी भी गुरु,पिता, पति, माँ या आराध्य देव नहीं बनना चाहिए।

    इदं शरीरं मम दुर्विभाव्य॑सत्त्वं हि मे हृदयं यत्र धर्म: ।

    पृष्ठे कृतो मे यदधर्म आराद्‌अतो हि मामृषभ प्राहुराया: ॥

    १९॥

    इदम्‌--यह; शरीरम्‌--दिव्य देह अथवा सच्चिदानन्द विग्रह; मम--मेरा; दुर्विभाव्यम्‌ू-- अकल्पनीय; सत्त्वमू-- भौतिकगुणरहित; हि--निस्संदेह; मे--मेरा; हदयम्‌--हृदय; यत्र--जहाँ पर; धर्म:--धर्म का वास्तविक पद अथवा भक्तियोग; पृष्ठे--पीठ पर; कृत:--बनाया हुआ; मे--मेरे द्वारा; यत्‌ू--क्योंकि; अधर्म:--अधर्म; आरात्‌ू--अत्यन्त दूर; अत:--इसलिए; हि--निस्संदेह; माम्‌--मुझको; ऋषभम्‌--जीवों में श्रेष्ठ; प्राहु:--पुकारते हैं; आर्या:-- श्रेष्ठ जन, सत्पुरुष |

    मेरा दिव्य शरीर ( सच्चिदाननन्द विग्रह) मानव सहृश दिखता है, किन्तु यह भौतिक मनुष्य-शरीर नहीं है।

    यह अकल्पनीय है।

    मुझे प्रकृति द्वारा बाध्य होकर किसी विशेष प्रकार का शरीरनहीं धारण करना पड़ता, मैं अपनी इच्छानुकूल शरीर धारण करता हूँ।

    मेरा हृदय भी दिव्य हैऔर मैं सदैव अपने भक्तों का कल्याण चाहता रहता हूँ।

    इसलिए मेरे हृदय में भक्ति पूरित है, जोभक्तों के लिए है।

    मैंने अधर्म को हृदय से बहुत दूर भगा दिया है।

    मुझे अभक्ति के कार्य बिल्कुलअच्छे नहीं लगते।

    इन दिव्य गुणों के कारण सामान्य रूप से लोग मेरी उपासना भगवान्‌ऋषभदेव के रूप में करते हैं, जो भी जीवात्माओं में श्रेष्ठ है।

    तस्माद्धवन्तो हृदयेन जाता:सर्वे महीयांसममुं सनाभम्‌ ।

    अक्लष्टबुद्धया भरतं भजध्वंशुश्रूषणं तद्धरणं प्रजानाम्‌ू ॥

    २०॥

    तस्मात्‌ू--अतः ( क्योंकि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ ); भवन्त:ः--तुम लोग; हृदयेन--मेरे हृदय से; जाता:--उत्पन्न; सर्वे--सभी;महीयांसम्‌--सर्व श्रेष्ठ; अमुमू--वह; स-नाभम्‌- भ्राता; अक्लिष्ट-बुद्धया-- भौतिक कलुषहीन आपकी बुद्धि से; भरतम्‌ू-- भरतकी; भजध्वमू--सेवा करने का यत्न मात्र करो; शुश्रूषणम्‌--सेवा; तत्‌--वह; भरणम्‌ प्रजानाम्‌--नागरिकों ( प्रजा ) परशासन।

    मेरे प्रिय पुत्रो, तुम सभी मेरे हृदय से उत्पन्न हो जो समस्त दिव्य गुणों का केन्द्र है।

    अतः तुम्हेंसंसारी तथा ईर्ष्यालु मनुष्यों के समान नहीं होना है।

    तुम अपने सबसे बड़े भाई भरत को मानो,क्योंकि वह भक्ति में श्रेष्ठ है।

    यदि तुम लोग भरत की सेवा करोगे तो उसकी सेवा में मेरी सेवासम्मिलित होगी और तुम स्वयमेव प्रजा पर शासन करोगे।

    भूतेषु वीरुदभ्य उदुत्तमा येसरीसृपास्तेषु सबोधनिष्ठा: ।

    ततो मनुष्या: प्रमथास्ततोपिगन्धर्वसिद्धा विबुधानुगा ये ॥

    २१॥

    देवासुरे भ्यो मघवत्प्रधानादक्षादयो ब्रह्मसुतास्तु तेषाम्‌ ।

    भव: पर: सोथ विरिज्जवीर्य:स मत्परोहं द्विजदेवदेवः ॥

    २२॥

    भूतेषु--समस्त उत्पन्न जीवों में ( चाहे चर हों या अचर ); वीरुद्भ्य:--पौधों से; उदुत्तमा:--कहीं अधिक श्रेष्ठ; ये--जो;सरीसूपा:--रेंगने वाले प्राणी, यथा सर्प; तेषु--उनमें से; स-बोध-निष्ठा:--वे, जिन्होंने बुद्धि विकसित कर ली है; ततः--उनमेंसे; मनुष्या: --मनुष्य; प्रमथा: -- भूत; ततः अपि--उनसे भी श्रेष्ठ; गन्धर्व--गंधर्वलोक के वासी ( देव लोक में गायक के रूप मेंनियुक्त ); सिद्धा:--सिद्ध लोक के वासी, जिनमें योग शक्ति रहती है; विबुध-अनुगा:--किन्नरगण; ये--जो; देव--देवता;असुरेभ्य:--असुरों की अपेक्षा; मघवत्‌-प्रधाना: --इन्द्र आदि; दक्ष-आदय:--दक्ष आदि; ब्रह्म-सुता:--ब्रह्मा के पुत्र; तु--तब;तेषाम्‌--उनमें से; भव: -- भगवान्‌ शिव; परः-- श्रेष्ठ; सः--वह ( शिव ); अथ--आगे, और; विरिज्ञ-वीर्य: --भगवान्‌ ब्रह्मा सेउत्पन्न होने से; सः--वह ( ब्रह्मा ); मत्‌-परः--मेरा भक्त; अहमू--मैं; द्विज-देव-देव:--ब्राह्मणों का उपासक अथवा ब्राह्मणोंका भगवान्‌?

    दो प्रकार की प्रकट शक्तियों ( आत्मा तथा जड़ पदार्थ ) में से जीव-शक्ति ( वनस्पति, घास,वृक्ष तथा पौधे ) जड़ पदार्थ ( पत्थर, पृथ्वी इत्यादि ) से श्रेष्ठ है।

    इन अचर पौधों तथा वनस्पतियोंकी तुलना में रेंगने वाले कीट तथा सरीसूप श्रेष्ठ हैं।

    कीटों तथा सरीसूपों से पशु श्रेष्ठ हैं क्योंकिउनमें बुद्धि है।

    पशुओं से मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों से भूत-प्रेत क्योंकि उनके कोई भौतिकशरीर नहीं होता।

    भूत-प्रेतों से गंधर्व और गंधर्वों से सिद्ध श्रेष्ठ होते हैं।

    सिद्धों से किन्नर औरकिकन्नरों से असुर श्रेष्ठ हैं।

    असुरों से देवता और देवताओं में स्वर्ग का राजा इन्द्र श्रेष्ठ है।

    इन्द्र से भीश्रेष्ठ ब्रह्मा के पुत्र, जैसे कि राजा दक्ष और ब्रह्मा के इन पुत्रों में भगवान्‌ शिव सर्वश्रेष्ठ हैं।

    शिवब्रह्मा के पुत्र हैं इसलिए ब्रह्मा श्रेष्ठ माने जाते हैं किन्तु वे मुझ भगवान्‌ के अधीन हैं।

    चूँकि मैंब्राह्मणों को पूज्य मानता हूँ इसलिए ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं।

    न ब्राह्मणैस्तुलये भूतमन्यत्‌पश्यामि विप्रा: किमतः परं तु ।

    यस्मिन्रृभिः प्रहुतं श्रद्धयाह-मश्नामि काम न तथाग्निहोत्रे ॥

    २३॥

    न--नहीं; ब्राह्मणैः--ब्राह्मणों के; तुलये-- मैं समान मानता हूँ; भूतम्‌--जीव; अन्यत्‌-- अन्य; पश्यामि--मैं देखता हूँ; विप्रा: --हे समागत ब्राह्मणो; किमू--कुछ भी; अतः--ब्राह्मणों से; परम्‌-- श्रेष्ठ; तु--निश्चय ही; यस्मिन्‌--जिनमें से; नृभि: --मनुष्यों केद्वारा; प्रहुतम्‌--यज्ञों के विधिवत्‌ सम्पन्न होने पर दान किया गया भोजन; श्रद्धया--श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक; अहम्‌--मैं;अश्नामि--खाता हूँ; कामम्‌--परम प्रसन्नतापूर्वक; न--नहीं; तथा--उस प्रकार; अग्नि-होत्रे--अग्नियज्ञ में |

    हे पूज्य ब्राह्मणो, जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, इस संसार में ब्राह्मणों के तुल्य या उनसे श्रेष्ठअन्य कोई नहीं है।

    मैं उनके तुलना योग्य किसी को नहीं पाता।

    वैदिक नियमों के अनुसार यज्ञकरने के पीछे जो मेरा उद्देश्य है, उसे जब लोग समझ लेते हैं, तो वे मेरे निमित्त अर्पित भोगअत्यन्त श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक ब्राह्मण-मुख के द्वारा मुझे प्रदान करते हैं।

    इस प्रकार प्रदत्त भोजनको मैं अत्यन्त प्रसन्न होकर ग्रहण करता हूँ।

    निस्‍्संदेह इस प्रकार से प्रदत्त भोजन को मैं अग्निहोत्रमें होम किये भोजन की अपेक्षा अधिक प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करता हूँ।

    श़ धृता तनूरुशती मे पुराणीयेनेह सत्त्वं परमं पवित्रम्‌ ।

    शमो दमः सत्यमनुग्रहश्नतपस्तितिक्षानुभवश्च यत्र ॥

    २४॥

    धृता--दिव्य शिक्षा द्वारा धारण किया गया; तनू: --शरीर; उशती--भौतिक कलुष से मुक्त; मे--मेरा; पुराणी --शाश्वत; येन--जिससे; इह--इस संसार में; सत्त्वम्‌ू--सतोगुण; परमम्‌--परम, सर्वश्रेष्ठ; पवित्रमू--पवित्र; शम:--मन का नियंत्रण; दम:--इन्द्रियों का नियंत्रण; सत्यम्‌ू--सत्य; अनुग्रह:--अनुग्रह, कृपा; च--तथा; तप:--तपस्या; तितिक्षा--सहनशीलता; अनुभव:--ईश्वर तथा जीवात्मा का बोध; च--तथा; यत्र--जिसमें |

    वेद मेरे शाश्रत दिव्य शब्दावतार हैं, इसलिए वे शब्द-ब्रह्म हैं।

    इस जगत में ब्राह्मण समस्तवेदों का सम्यक्‌ अध्ययन करते हैं और उनको आत्मसात्‌ कर लेते हैं, इसलिए उन्हें साक्षात्‌मूर्तरूप वेद माना जाता है।

    ब्राह्मण सतोगुणी होते हैं फलस्वरूप उनमें शम, दम एवं सत्य के गुणपाये जाते हैं।

    वे वेदों का मूल अर्थ वर्णन करते हैं और अनुग्रहवश समस्त बद्धजीवों को वेदों केउद्देश्य का उपदेश देते हैं।

    वे तपस्या तथा तितिक्षा का अभ्यास करते हैं और जीवात्मा तथा परमईश्वर के पदों का अनुभव करते हैं।

    ये ही ब्राह्मणों के आठ गुण ( सत्त्व, शम, दम, सत्य,अनुग्रह, तपस्या, तितिक्षा यथा अनुभव ) हैं।

    अत: समस्त जीवों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं।

    मत्तोप्यनन्तात्परतः परस्मात्‌स्वर्गापवर्गाधिपतेर्न किल्जित्‌ ।

    येषां किमु स्थादितरेण तेषा-मकिदझ्ञनानां मयि भक्तिभाजाम्‌ ॥

    २५॥

    मत्त:--मुझसे; अपि-- भी; अनन्तात्‌ू--बल तथा ऐश्वर्य में असीम; परत: परस्मात्‌--सर्वोच्च से ऊँचा; स्वर्ग-अपवर्ग-अधिपतेः --स्वर्ग में प्राप्प सुख को मुक्ति द्वारा अथवा भौतिक सुखोपभोग द्वारा और फिर मुक्ति द्वारा प्रदान करने में समर्थ; न--नहीं; किल्लित्‌--कुछ भी; येषामू--जिसका; किम्‌--क्या प्रयोजन; उ-- ओह; स्थातू--क्या हो सकता है; इतरेण--जिन्हें किसीवस्तु की अन्य किसी से; तेषघामू--उनका; अकिश्जनानाम्‌ू--आवश्यकता नहीं है अथवा जिन्हें सम्पत्ति की इच्छा नहीं; मयि--मुझमें; भक्ति-भाजाम्‌-- भक्ति करने वाले |

    मैं ब्रह्मा तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र से भी अधिक ऐश्वर्यवान, सर्वशक्तिमान तथा श्रेष्ठ हूँ।

    मैंस्वर्गलोक में प्राप्त होने वाले समस्त सुखों को तथा मोक्ष को देने वाला हूँ।

    तो भी ब्राह्मण मुझसेभौतिक सुख की कामना नहीं करते।

    वे अत्यन्त पवित्र तथा निस्पृह हैं।

    वे एकमात्र मेरी भक्ति मेंलगे रहते हैं।

    भला उन्हें अन्य किसी से भौतिक लाभों के लिए याचना करने की क्‍याआवश्यकता है ?

    सर्वाणि मद्ध्विष्ण्यतया भवद्धि-श्वराणि भूतानि सुता श्रुवाणि ।

    सम्भावितव्यानि पदे पदे वोविविक्तरग्भिस्तदु हाईणं मे ॥

    २६॥

    सर्वाणि--समस्त; मत्‌-धिष्ण्यतया--मेरा आसन होने के कारण; भवद्धि:ः--तुम्हारे द्वारा; चराणि--चर; भूतानि--जीवात्माएँ;सुता:-हे पुत्रो; ध्ुवाणि--अचर; सम्भावितव्यानि--आदरणीय; पदे पदे--पग पग पर, प्रतिक्षण; वः--तुम लोगों के द्वारा;विविक्त-दग्भि: --स्पष्ट दृष्टि तथा ज्ञान से युक्त ( परमात्मा रूप में भगवान्‌ सर्वव्यापी हैं ); तत्‌ उ--अप्रत्यक्षतः जो; ह--निश्चयही; अर्हणम्‌--आदर देते हुए; मे--मुझे?

    हे पुत्रो, तुम्हें चराचर किसी जीवात्मा से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।

    यह जानते हुए कि मैंउनमें स्थित हूँ, प्रत्येक क्षण उनका समादर करना चाहिए इस प्रकार तुम मेरा आदर करो।

    मनोवचोहक्करणेहितस्यसाक्षात्कृतं मे परिबईणं हि ।

    विना पुमान्येन महाविमोहात्‌कृतान्तपाशान्न विमोक्तुमीशेत्‌ ॥

    २७॥

    मनः--मन; वचः --शब्द; हक्‌ू--दृष्टि; करण--इन्द्रियों का; ईहितस्थ--समस्त कर्मों ( शरीर, समाज, मैत्री इत्यादि बनाये रखनेके लिए ) का; साक्षात्‌-कृतम्‌-- प्रत्यक्षत: प्रदत्त; मे--मुझको; परिबर्हणम्‌--पूजा; हि-- क्योंकि; विना--बिना; पुमान्‌--कोईव्यक्ति; येन--जो; महा-विमोहात्‌--परम मोह से; कृतान्त-पाशात्‌--यमराज के पाश से; न--नहीं; विमोक्तुम--मुक्त होने केलिए; ईशेत्‌--समर्थ होता है।

    मन, दृष्टि, वचन तथा समस्त ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय इन्द्रियों का वास्तविक कार्य मेरी सेवामें लगे रहना है।

    जब तक जीवात्मा की इन्द्रियाँ इस प्रकार सेवारत नहीं रहतीं, तब तक जीवात्माको यमराज के पाश सदृश सांसारिक बन्धन से निकल पाना दुष्कर है।

    श्रीशुक उबाचएवमनुशास्यात्मजान्स्वयमनुशिष्टानपि लोकानुशासनार्थ महानुभाव: परमसुहद्धगवानूषभापदेशउपशमशीलानामुपरतकर्मणां महामुनीनां भक्तिज्ञानवैराग्यलक्षणं पारमहंस्यधर्ममुपशिक्षमाण:स्वतनयशतमज्येष्ठं परमभागवतं भगवज्जनपरायणं भरतं धरणिपालनायाभिषिच्य स्वयं भवनएवोर्वरितशरीरमात्रपरिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधान: प्रकीर्णकेश आत्मन्यारोपिताहवनीयोब्रह्मावर्तात्प्रवव्राज ॥

    २८॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; अनुशास्य--उपदेश दे चुकने पर; आत्म-जानू--अपनेपुत्रों को; स्वयम्‌--स्वयं; अनुशिष्टानू--सुशिक्षित; अपि--यद्यपि; लोक-अनुशासन-अर्थम्‌--लोगों को शिक्षा देने के लिए;महा-अनुभाव:--महान्‌ पुरुष; परम-सुहत्‌--हर एक का शुभ चिन्तक; भगवान्‌-- भगवान्‌; ऋषभ-अपदेश: -- जो ऋषभदेव के नाम से विख्यात हैं; उपशम-शीलानाम्‌--निस्पृह व्यक्तियों का; उपरत-कर्मणाम्‌--सकाम कर्मो से विरक्त; महा-मुनीनाम्‌--संन्यासी; भक्ति-- भक्ति; ज्ञान-- पूर्ण ज्ञान; वैराग्य--विरक्ति; लक्षणम्‌-- लक्षण; पारमहंस्य-- श्रेष्ठ मनुष्यों का; धर्मम्‌--कर्तव्य;उपशिक्षमाण: --उपदेश देते हुए; स्व-तनय--अपने पुत्रों का; शत--सौ; ज्येष्ठम्‌--जेष्ठ; परम-भागवतम्‌--ईश्वर का परम भक्त;भगवत्‌-जन-परायणम्‌--ई श्वर के भक्तों ( ब्राह्मणों तथा वैष्णवों ) का अनुगमन करने वाला; भरतम्‌-- भरत महाराज को;धरणि-पालनाय--संसार पर राज्य करने की दृष्टि से; अभिषिच्य-- अभिषेक करके, सिंहासन पर बैठाकर; स्वयमू--स्वयं;भवने--घर पर; एबव--यद्यपि; उर्वरित-- रहते हुए; शरीर-मात्र--केवल शरीर; परिग्रह:--स्वीकार करते हुए; उन्मत्त:--पागल;इब--सहश; गगन-परिधान: --आकाश को अपना वस्त्र बनाते हुए, दिगम्बर; प्रकीर्ण-केश:--बिखरे वालों वाला; आत्मनि--अपने में; आरोपित--आरोप करके; आहवनीय: --वैदिक अग्नि, अग्निहोत्र; ब्रह्मावर्तातू--ब्रह्मावर्त देश से; प्रवत्राज--सम्पूर्णसंसार में घूमने लगे।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--इस प्रकार सबके हितैषी परमेश्वर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों कोउपदेश दिया।

    यह आदर्श प्रस्तुत करने के लिए कि गृहस्थ जीवन से विरक्त होने के पूर्व पिताअपने पुत्रों को किस प्रकार शिक्षा दे, उन्होंने उन्हें शिक्षा दी, यद्यपि वे सभी पूर्णतया शिक्षिततथा शिष्ट थे।

    इन उपदेशों से सकाम कर्मों से न बँधने वाले तथा अपनी भौतिक कामनाओं कोनष्ट करने के बाद भक्ति में लीन रहने वाले संन्यासी भी लाभ उठाते हैं।

    ऋषभदेव ने अपने एकसौ पुत्रों को शिक्षा दी जिनमें से सबसे बड़ा भरत था, जो परम भक्त तथा वैष्णवों का अनुयायीथा।

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को सिंहासन पर इसलिए बिठाया कि वह सारे संसारपर शासन करे।

    इसके पश्चात्‌ घर में रहते हुए भी भगवान्‌ ऋषभदेव पागल के सहृश नंगे तथाबाल बिखेरे रहने लगे।

    तब यज्ञ-अग्नि को अपने में लीन करके विश्व का भ्रमण करने के लिएउन्होंने ब्रह्मावर्त को छोड़ दिया।

    जडान्धमूकबधिरपिशाचोन्मादकवदवधूतवेषो उभिभाष्यमाणोपि जनानां गृहीतमौनब्रतस्तूष्णीं बभूव ॥

    २९॥

    जड--अचर, स्थिर; अन्ध--अंधा; मूक--गूँगा; बधिर--बहरा; पिशाच-- भूत; उन्‍्मादक--पागल; वत्‌--सहृश; अवधूत-बेष: --अवधूत के समान रहते हुए ( संसार से विमुख ); अभिभाष्यमाण:--इस प्रकार ( बहरा, गूँगा तथा अंधा ) संबोधितहोकर; अपि--यद्यपि; जनानाम्‌--लोगों द्वारा; गृहीत--ग्रहण कर लिया; मौन--न बोलने का; ब्रत:--ब्रत, संकल्प; तृष्णीम्‌बभूव--चुप रहने लगा।

    अवधूत रूप धारण करके भगवान्‌ ऋषभदेव अंधे, बहरे तथा गूँगे, जड़, भूत अथवा पागलके समान मनुष्य-समाज में घूमने लगे।

    यद्यपि लोग उन्हें इन नामों से पुकारते, किन्तु वे मूक बनेरहते और किसी से कुछ नहीं बोलते थे।

    तत्र तत्र पुरग्रामाकरखेटवाटखर्वटशिबिरब्रजघोषसार्थगिरिवना श्रमादिष्वनुपथमवनिचरापसदै:'परिभूयमानो मक्षिकाभिरिववनगजस्तर्जनताडनावमेहनष्ठीवनग्रावशकृद्रज: प्रक्षेपपूतिवातदुरुक्तैस्तदविगणयज्नेवासत्संस्थानएतस्मिन्देहोपलक्षणे सदपदेश उभयानुभवस्वरूपेणस्वमहिमावस्थानेनासमारोपिताहंममाभिमानत्वादविखण्डितमना: पृथिवीमेकचर: परिबभ्राम ॥

    ३०॥

    तत्र तत्र--यहाँ वहाँ; पुर--नगरों; ग्राम--गाँवों; आकर--खानों; खेट--खेतों; वाट--बगीचों; खर्वट--घाटी में स्थित गाँवों( पहाड़ी गाँवों ); शिबिर--सेना की छावनियों; ब्रज--गोशालाओं ; घोष--अहीरों की बस्तियों; सार्थ--यात्रियों केविश्रामालयों; गिरि--पर्वतों; बन--जंगलों; आश्रम--मुनियों के वासस्थानों; आदिषु--इत्यादि में; अनुपथम्‌--मार्ग से जातेहुए; अवनिचर-अपसदैः--अवांछित तत्त्वों द्वारा, दुष्ट पुरुषों के द्वारा; परिभूयमान:--घिरकर; मक्षिकाभि:--मक्खियों से;इब--सहश्य; वन-गज:--जंगली हाथी; तर्जन--चिंग्घाड़ से; ताडन-- प्रताड़ित होकर; अवमेहन--शरीर पर पेशाब करते हुए;पष्टीवन--शरीर पर थूकते हुए; ग्राव-शकृत्‌--पत्थर और मल; रज:--धूलि; प्रक्षेप--फेंकते हुए; पूति-बात--शरीर पर अधोवायुछोड़ते हुए; दुरुक्तै:--( तथा ) गालियों से; तत्‌ू--वह; अविगणयनू--बिना परवाह किये; एव--इस प्रकार; असत्ू-संस्थाने--भद्र पुरुष के अयोग्य स्थान; एतस्मिन्‌ू--इसमें; देह-उपलक्षणे--देह के रूप में; सत्‌-अपदेशे--सत्य कहलाने वाला; उभय-अनुभव-स्वरूपेण--देह तथा आत्मा की वास्तविक स्थिति समझने से; स्व-महिम--अपनी महिमा में; अवस्थानेन--स्थिर होकरके; असमारोपित-अहमू-मम-अभिमानत्वात्‌---' मैं तथा मेरी ' ममता को अस्वीकार करने से; अविखण्डित-मना:--अविचलित मन से; पृथिवीम्‌--सारे संसार में; एक-चर:--अकेले; परिबध्राम--घूमता था |

    ऋषभदेव नगरों, गाँवों, खानों, किसानों की बस्तियों, घाटियों, बागों, सैनिक छावनियों,गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों, यात्रियों के विश्रामालयों, पर्वतों, जंगलों तथा आश्रमों केबीच घूमने लगे।

    जहाँ भी वे जाते, उन्हें दुष्ट जन उसी प्रकार घेर लेते जिस प्रकार जंगली हाथीको मक्खियाँ घेर लेती हैं।

    उन्हें डराया धमकाया और मारा जाता, उन पर पेशाब किया जाताऔर थूका जाता।

    यहाँ तक कि कभी-कभी उन पर पत्थर, विष्ठा और धूल फेंकी जाती और कभी-कभी तो लोग उनके समक्ष अपानवायु निकालते।

    इस प्रकार लोग उन्हें भला-बुरा कहतेऔर अत्यधिक यातना देते, किन्तु उन्होंने कभी भी इसकी परवाह नहीं की, क्‍योंकि वे यहसमझते थे कि इस शरीर का यही अन्त है।

    वे आत्म-पद पर स्थित थे और सिद्ध होने से ऐसेभौतिक तिरस्कारों की तनिक भी परवाह नहीं करते थे।

    अर्थात्‌ उन्हें इसका पूर्ण ज्ञान हो चुकाथा कि पदार्थ ( देह ) तथा आत्मा पृथक्‌-पृथक्‌ हैं।

    उनमें देहात्म-बुद्धि न थी।

    अत: वे किसी परक्रुद्ध हुए बिना सारे संसार में अकेले ही घूमने लगे।

    अतिसुकुमारकरचरणोर:स्थलविपुलबाह्डंसगलवदनाद्यवयवविन्यास: प्रकृतिसुन्दरस्वभावहाससुमुखोनवनलिनदलायमानशिशिरतारारुणायतनयनरुचिर: सहशसुभगकपोलकर्णकण्ठनासोविगूढस्मितवदनमहोत्सवेन पुरवनितानां मनसि कुसुमशरासनमुपदधान:'परागवलम्बमानकुटिलजटिलकपिशकेश भूरिभारोवधूतमलिननिजशरीरेण ग्रहगृहीत इवाहश्यत ॥

    ३१॥

    अति-सु-कुमार--अत्यन्त कोमल; कर--हाथ; चरण--पाँव; उर:-स्थल--वक्षस्थल, छाती; विपुल--दीर्घ, लम्बे; बाहु--भुजाएँ; अंस--कंधे; गल--गला; वदन--मुख; आदि--इत्यादि; अवयव--अंग; विन्यास:--सुगठित; प्रकृति--स्वभाव से;सुन्दर--आकर्षक; स्व-भाव--स्वाभाविक; हास--मन्द मुस्कान; सु-मुख:--सुन्दर मुख; नव-नलिन-दलायमान--नवविकसित कमल पुष्प की पंखड़ियों के समान दिखने वाला; शिशिर--सब दुखों को हरने वाले; तार--नेत्र गोलक; अरुण--लाली लिए हुए; आयत--फैले हुए, विशाल; नयन--नेत्रों से; रूचिर:ः --मोहक; सहश--समान; सुभग--सुन्दर; कपोल--गाल; कर्ण--कान; कण्ठ-गर्दन; नास:--नासिका, नाक; विगूढ-स्मित--अस्फुट हास; वदन--मुख से; महा-उत्सवेन--उत्सव सहश लगने वाला; पुर-वनितानाम्‌ू--पुर-नारियों के; मनसि--मन में ; कुसुम-शरासनम्‌--कामदेव; उपदधान: --जागरितकरते हुए; पराकु--चारों ओर; अवलम्बमान--खुली,फैली; कुटिल-- घुँघराले; जटिल--जटायुक्त; कपिश-- भूरे; केश--बालों की; भूरि-भार:-- अधिकता; अवधूत--उपेक्षित; मलिन--गंदा, धूल-धूसरित; निज-शरीरेण---अपने शरीर से; ग्रह-गृहीतः--भूतग्रस्त; इब--मानो; अहृश्यत--दिखाई पड़ता था।

    भगवान्‌ ऋषभदेव के हाथ, पाँव तथा वक्षस्थल अत्यन्त दीर्घ थे।

    उनके कंधे, मुख तथाअंग-प्रत्यंग अत्यन्त सुगठित तथा सुकोमल थे।

    उनका मुख उनकी सहज मुस्कान से मंडित थाऔर उनके खुले हुए लाल-लाल नेत्र ऐसे प्रतीत होते थे मानो प्रातःकालीन ओस कणों से युक्तनव विकसितकमल पुष्प की पंखड़ियाँ हों।

    इस कारण वे और भी अधिक सुन्दर दिखते थेउनकी पुतलियाँ इतनी मनोहर थीं कि देखने वालों का सारा सन्ताप हर लेती थीं।

    उनके कपोल,कान, गर्दन, नाक तथा अन्य अंग अतीव सुन्दर थे।

    उनके मन्द हास से उनका मुख इतनाआकर्षक प्रतीत होता था कि विवाहित नारियों का भी मन रिंबच जाता था।

    ऐसा प्रतीत होता थामानो कामदेव ने अपने बाणों से उन्हें बींध दिया हो।

    उनके सिर के चारों ओर घुँघराली भूरीजटाएँ थीं।

    उनके सिर के बाल छितरे थे क्योंकि उनका शरीर गंदा और उपेक्षित था।

    ऐसा प्रतीतहोता था मानो उन्हें किसी भूत ने सता रखा हो।

    यहिं वाव स भगवान्लोकमिमं योगस्याद्धा प्रतीपमिवाचक्षाणस्तत्प्रतिक्रियाकर्म बीभत्सितमितिब्रतमाजगरमास्थित: शयान एवाश्नाति पिबति खादत्यवमेहति हदति सम चेष्टमान उच्चरितआदिग्धोद्देश: ॥

    ३२॥

    यहिं वाव--जब; सः--उस; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; लोकम्‌--जनता को; इममू--इस; योगस्य--योग का; अद्धा- प्रत्यक्ष;प्रतीपम्‌--विरुद्ध; इब--सहृश्य; आचक्षाण: --देखते हुए; तत्‌--उसकी; प्रतिक्रिया--विरोध में; कर्म--क्रिया; बीभत्सितम्‌--बीभत्स, घृणित; इति--इस प्रकार; ब्रतमू--आचरण, वृत्ति; आजगरम्‌--अजगर का ( एक स्थान पर पड़े रहने का );आस्थित:--स्वीकार करके; शयान:ः --लेटे रहना; एव--निस्सन्देह; अश्नाति-- भोजन करता है; पिबति--पीता है; खादति--खाता ( चबाता ) है; अवमेहति--पेशाब करता है; हदति--मल-त्याग करता है; स्म--इस प्रकार; चेष्टमान:--लुढ़कते हुए;उच्चरिते--मल तथा मूत्र में; आदिग्ध-उद्देश: --इस प्रकार उसका शरीर लथपथ हो गया |

    जब भगवान्‌ ऋषभदेव ने देखा कि जनता उनकी योग-साथधना में विघ्न रूप है, तो उन्होंनेइसकी प्रतिक्रिया में अजगर का सा आचरण ( वृत्ति ) ग्रहण कर लिया।

    वे एक ही स्थान पर लेटेरहने लगे।

    वे लेटे ही लेटे खाते, पीते, पेशाब तथा मल त्याग करते और उसी पर लोट-पोटकरते।

    यहाँ तक कि वे अपने सारे शरीर को अपने ही मल-मूत्र से सान लेते जिससे उनकेविरोधी उन्हें विच्चत्नित न करें।

    तस्य ह यः पुरीषसुरभिसौगन्ध्यवायुस्तं देशं दशयोजनं समन्तात्सुरभि चकार ॥

    ३३॥

    तस्यथ--उसकी; ह--निस्संदेह; यः--जो; पुरीष--मल की; सुरभि--सुगन्धि से; सौगन्ध्य--सुरभित होकर; वायु:--वायु;तम्‌--उस; देशम्‌--देश को; दश योजनम्‌--दस योजन तक ( एक योजन आठ मील के तुल्य ); समन्तात्‌--चारों ओर;सुरभिम्‌--सुगन्धित; चकार--कर दिया।

    इस अवस्था में रहने के कारण जनता ने ऋषभदेव को परेशान नहीं किया।

    परंतु उनके मल-मूत्र से दुर्गन्धि नहीं निकली।

    उल्टे, उनका मल-मूत्र इतना सुगन्धित था कि अस्सी मील तक काप्रदेश इसकी सगन्ध से भर गया।

    एवं गोमृगकाकचर्यया ब्रजंस्तिष्ठन्नासीन: शयान: काकमृगगोचरितः पिबति खादत्यवमेहति सम ॥

    ३४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; गो--गायों; मृग--हिरन; काक--कौबवे की; चर्यया--चर्या ( क्रिया ) द्वारा; ब्रजन्‌--घूमते हुए; तिष्ठन्‌--खड़े-खड़े; आसीन:--बैठे हुए; शयान:--लेटे हुए; काक-मृग-गो-चरितः--कौबों, हिरणों तथा गायों की भाँति आचरणकरते हुए; पिबति--पीता है; खादति--खाता है; अवमेहति--पेशाब करता है; स्म--उसने ऐसा किया।

    इस प्रकार ऋषभदेव ने गायों, हिरणों तथा कौवों की वृत्ति का अनुगमन किया।

    कभी वेइधर-इधर चलते तो कभी एक स्थान पर बैठे रहते।

    कभी वे लेट जाते।

    इस प्रकार वे गाय,हिरण तथा कौवे के समान ही आचरण करते।

    उन्हीं के समान वे खाते-पीते तथा मल-मूत्र कात्याग करते।

    इस प्रकार वे लोगों को धोखे में रखे रहे।

    इति नानायोगचर्याचरणो भगवान्कैवल्यपतिरृषभो विरतपरममहानन्दानु भव आत्मनिसर्वेषांभूतानामात्मभूते भगवति वासुदेव आत्मनोव्यवधानानन्तरोदरभावेन सिद्धसमस्तार्थपरिपूर्णो योगै श्वर्याणिवैहायसमनोजवान्तर्धानपरकायप्रवेशदूरग्रहणादीनि यहच्छयोपगतानि नाञजसा नृप हृदयेना भ्यनन्दत्‌, ॥

    ३५॥

    इति--इस प्रकार; नाना--अनेक; योग--योग की; चर्या--क्रियाएँ; आचरण: --अभ्यास करते हुए; भगवान्‌-- भगवान्‌;कैवल्य-पति:--कैवल्य के स्वामी अथवा सायुज्य मुक्ति के दाता; ऋषभ:ः--ऋषभदेव; अविरत--निरन्तर; परम--परम; महा--अत्यधिक; आनन्द-अनुभव:-- आनन्द के अनुभव द्वारा; आत्मनि--परम-आत्मा में; सर्वेषाम्‌--सब; भूतानाम्‌--जीवात्माओंके; आत्म-भूते--हृदय में स्थित होकर; भगवति-- भगवान्‌; वासुदेवे --वसुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण में; आत्मन:--स्वयं का;अव्यवधान--विधान में अन्तर न आने से; अनन्त-- असीम; रोदर--यथा रोदन, हास तथा सिहरन; भावेन--प्रेम के लक्षणों से;सिद्ध--सिद्ध, पूर्ण; समस्त--सब; अर्थ--वांछित धन; परिपूर्ण: --पूरित; योग-ऐश्वर्याणि---योग-शक्तियाँ; वैहायस-- आकाशमें उड़ना; मनः-जब--मन की गति से दौड़ना; अन्तर्धान--अहृश्य होने की शक्ति; परकाय-प्रवेश --दूसरे के शरीर में प्रवेशकरने की क्षमता; दूर-ग्रहण--दूर की वस्तुओं को देखने की शक्ति, दूर-दृष्टि; आदीनि--इत्यादि; यहच्छया--स्वतः, बिनाकिसी बाधा के; उपगतानि-- प्राप्त किया; न--नहीं; अद्जसा- प्रत्यक्षत: ; नृप--हे राजा परीक्षित; हृदयेन--हृदय से;अभ्यनन्दत्‌ू--स्वीकार कर लिया।

    हे राजा परीक्षित, श्रीकृष्ण के अंश भगवान्‌ ऋषभदेव ने समस्त योगियों को योगसाधनाप्रदर्शित करने के उद्देश्य से अनेक विचित्र कार्य किये।

    वे मुक्ति के स्वामी थे और दिव्य आनन्दमें सतत लीन रहते थे।

    जो हजारों गुणा बढ़ गया था।

    वसुदेव के पुत्ररुप वासुदेव कृष्ण उनकेआदि कारण हैं।

    उनके स्वरूप में कोई अन्तर नहीं; फलतः भगवान्‌ ऋषभदेव रोने, हँसने तथाथरथराने के प्रिय लक्षण प्रकट करने लगे।

    वे दिव्य प्रेम में सदैव निमग्न रहते।

    फलस्वरूप सभीयोग शक्तियाँ अपने आप उनके पास पहुँचती--यथा मन की गति से आकाश-गमन, प्रकट औरअदृश्य होना, अन्यों के शरीर में प्रवेश कर जाना तथा दूरस्थ वस्तुओं को देख पाना।

    यद्यपि वेइन सबको कर सकने में समर्थ थे, किन्तु उन्होंने इन शक्तियों का प्रयोग नहीं किया।

    TO

    अध्याय छह: भगवान ऋषभदेव की गतिविधियाँ

    5.6राजोबाचन नूनं भगव आत्मारामाणां योगसमीरितज्ञानावभर्जितकर्मबीजानामैश्वर्याणि पुनः क्लेशदानिभवितुमईन्ति यहच्छयोपगतानि ॥

    १॥

    राजा उवाच--राजा परीक्षित ने पूछा; न--नहीं; नूनम्‌--निस्सन्देह; भगव:--हे सर्वशक्तिमान शुकदेव गोस्वामी;आत्मारामाणाम्‌--भक्ति में रत विशुद्ध भक्तों का; योग-समीरित--योग साधना से प्राप्त; ज्ञान--ज्ञान से; अवभर्जित--दग्ध;कर्म-बीजानाम्‌--कर्मरूपी बीजों का; ऐश्वर्याणि--योग शक्तियों से; पुन:--फिर; क्लेशदानि--क्लेश के कारण; भवितुम्‌ू--होने में; अर्हन्ति--समर्थ हैं; यहच्छया--स्वतः, स्वयं ही; उपगतानि--प्राप्त हो जाती हैं।

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे भगवन्‌, जो पूर्णरूपेण विमल हृदय हैं उन्हेंभक्तियोग से ज्ञान प्राप्त होता है और सकाम कर्म के प्रति आसक्ति जलकर राख हो जाती है।

    ऐसेव्यक्तियों में योग शक्तियाँ स्वतः उत्पन्न होती हैं।

    इनसे किसी प्रकार का क्लेश नहीं पहुँचता, तोफिर ऋषभदेव ने उनकी उपेक्षा क्यों की ?

    ऋषिरुवाचसत्यमुक्त किन्त्विह वा एके न मनसोउद्धा विश्रम्भभनवस्थानस्य शठकिरात इव सड्डभच्छन्ते ॥

    २॥

    ऋषि: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सत्यम्‌--सत्य वचन; उक्तम्‌--कहा गया; किन्तु--लेकिन; इह--इस संसार में;वा--अथवा; एके --कुछ; न--नहीं; मनस: --मन का; अद्धा- प्रत्यक्ष, साक्षात्‌; विश्रम्भम्‌-विश्वासपात्र; अनवस्थानस्य--अस्थिर होकर; शठ--अत्यन्त चालाक; किरात:--बहेलिया; इव--सहश; सड़च्छन्ते--हो जाते हैं।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया--हे राजन, तुमने बिल्कुल सत्य कहा है।

    किन्तु जिसप्रकार चालाक बहेलिया पशुओं को पकड़ने के बाद उन पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि वेभाग सकते हैं।

    उसी प्रकार महापुरुष अपने मन पर भरोसा नहीं करते।

    दरअसल, वे सदाजागरूक रहते हुए मन की गति पर नजर रखे रहते हैं।

    तथा चोक्तम्‌--न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्ानवस्थिते ।

    यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्ण चस्कन्द तप ऐश्वरम्‌ ॥

    ३॥

    तथा--इस प्रकार; च--और; उक्तम्‌--कहा गया है; न--कदापि नहीं; कुर्यात्‌--करना चाहिए; कर्हिचित्‌ू--किसी समय याकिसी से; सख्यम्‌--मित्रता; मनसि--मन से; हि--निश्चय ही; अनवस्थिते--चंचल; यत्‌--जिसमें; विश्रम्भात्‌-- अत्यधिकविश्वास करने से; चिरात्‌ू--दीर्घ काल तक; चीर्णम्‌--अभ्यास की गई; चस्कन्द--विचलित हो गयी; तपः--तपस्या; ऐ श्वरम्‌--शिव तथा सौभरि जैसे महापुरुषों की।

    सभी विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं।

    मन स्वभाव से अत्यन्त चंचल है।

    मनुष्यको चाहिए कि वे इससे मित्रता न करे।

    यदि हम मन पर पूर्ण विश्वास करते हैं, तो यह किसीक्षण धोखा दे सकता है।

    यहाँ तक कि शिवजी श्रीकृष्ण के मोहिनी रूप को देखकर उत्तेजित होउठे और सौभरि मुनि भी योग की सिद्धावस्था से च्युत हो गये।

    नित्यं ददाति कामस्य चिछिद्रं तमनु येडरयः ।

    योगिनः कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली ॥

    ४॥

    नित्यमू--सदा; ददाति--देता है; कामस्थ--विषय की; छिद्रम्‌ू--सुविधा; तम्‌--वह ( विषय ); अनु--पीछा करता हुआ; ये--जो; अरयः--शत्रुजन; योगिन:--आध्यत्मिक जिवन में प्रगति की इच्छा करनेवाला अथवा योगियों का; कृत-मैत्रस्थ--मन मेंविश्वास करके; पत्यु:--पति का; जाया इब--पत्नी के समान; पुंश्वली--व्यभिचारिणीजार पुरुषों के बहकावे में आने वालीस्त्री ?

    व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों के बहकावे में आसानी से आकर कभी कभी अपने पति काउनसे बध करवा देती है।

    यदि योगी अपने मन के ऊपर संयम नहीं रखता और उसे अवसर(छूट ) प्रदान करता है, तो उसका मन एक प्रकार से काम, क्रोध तथा लोभ जैसे शत्रुओं कोप्रश्रय देगा है, जो निश्चय ही योगी को मार डालेंगे।

    कामो मन्युर्मदो लोभ: शोकमोहभयादय: ।

    कर्मबन्धश्न यन्मूल: स्वीकुर्यात्को नु तद्दुध: ॥

    ५॥

    'कामः--विषय ; मन्यु;--क्रो ध; मदः--घमंड; लोभ:--लालच; शोक --पश्चात्ताप; मोह--मोह; भय--_डर; आदय:--ये सभी;कर्म-बन्ध: --सकाम कर्म के लिए बन्धन स्वरूप; च--तथा; यत्‌-मूल:--जिसका कारण; स्वीकुर्यात्‌-- स्वीकार करेगा;कः--कौन; नु--निस्संदेह; तत्‌--वह मन; बुध:--यदि बुद्धिमान है।

    काम, क्रोध, मद, लोभ, पश्चाताप, मोह तथा भय का मूल कारण तो मन ही है।

    ये सारेमिल कर कर्म-बन्धन की रचना करते हैं।

    भला कौन बुद्धिमान मन पर विश्वास कर सकेगा ?

    अथेवमखिललोकपालललामोपि विलक्षणैर्जडवदवधूतवेषभाषाचरितैरविलक्षितभगवत्प्रभावो योगिनांसाम्परायविधिमनुशिक्षयन्स्वकलेवरं जिहासुरात्मन्यात्मानमसंव्यवहितमनर्थान्तरभावेनान्वी क्षमाणउपरतानुवृत्तिरुपरराम ॥

    ६॥

    अथ-तत्पश्चात्‌; एवम्‌--इस प्रकार से; अखिल-लोक-पाल-ललाम:--इस ब्रह्माण्ड के समस्त राजाओं के प्रमुख; अपि--यद्यपि; विलक्षणै:--विभिन्न; जड-वत्‌--जड़-सदृश ( मूढ़ के समान ); अवधूत-वेष- भाषा-चरितै:-- अवधूत के वेष, उसकीभाषा तथा आचरण से; अविलक्षित-भगवत्‌-प्रभाव:-- भगवान्‌ के ऐश्वर्य को छिपाते हुए ( अपने को सामान्य पुरुष की तरहरखते हुए ); योगिनामू--योगियों का; साम्पराय-विधिम्‌--इस देह के त्याग की विधि; अनुशिक्षयन्‌--सिखाते हुए; स्व-कलेवरम्‌--अपने शरीर को जो किंचित्मात्र भौतिक नहीं था; जिहासु:--सामान्य मनुष्य की भाँति त्यागने की इच्छा से;आत्मनि--आदिपुरुष वासुदेव में; आत्मानम्‌--अपने आप, भगवान्‌ विष्णु के ' आवेश-अवतार ' होने से ऋषभदेव स्वयं को;असंव्यवहितम्‌ू--माया के व्यवधान के बिना; अनर्थ-अन्तर-भावेन--विष्णुपद में स्वयं; अन्वीक्षमाण:-- सदैव देखते हुए;उपरत-अनुवृत्ति:--ऐसा दिखा रहे थे मानो अपना भौतिक शरीर त्याग रहे हों; उपरराम--राजा के रूप में इस लोक की लीलाएँछोड़ दीं?

    भगवान्‌ ऋषभदेव इस ब्रह्माण्ड के समस्त राजाओं में प्रमुख थे, किन्तु अवधूत का भेष तथाउसकी भाषा स्वीकार करके वे इस प्रकार आचरण कर रहे थे मानो जड़ तथा बद्ध जीव हों।

    'फलतः कोई उनके ईश्वरीय ऐश्वर्य को नहीं देख सका।

    उन्होंने योगियों को देह त्यागने की विधिसिखाने के लिए ही ऐसा आचरण किया; तो भी वे वासुदेव कृष्ण के अंश रूप बने रहे।

    इसदशा में रहते हुए उन्होंने इस संसार में भगवान्‌ ऋषभदेव के रूप में की गईं लीलाओं को त्यागदिया।

    यदि कोई ऋषभदेव के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए इस सूक्ष्म देह को त्याग सकताहै, तो उसे पुनः भौतिक देह नहीं धारण करनी पड़ती।

    तस्य ह वा एवं मुक्तलिड्रस्य भगवत ऋषभस्य योगमायावासनया देह इमां जगतीमभिमानाभासेनसड्क्रममाण: कोड्डवेड्डकुटकान्दक्षिणकर्णाटकान्देशान्यदच्छयोपगत: कुटकाचलोपवन आस्यकृताश्मकवल उन्माद इव मुक्तमूर्थजोसंवीत एवं विचचार, ॥

    ७॥

    तस्य--उस ( भगवान्‌ ऋषभदेव ) का; ह वा--मानो; एवम्‌--इस प्रकार; मुक्त-लिड्डस्य--जिसका स्थूल व सूक्ष्म शरीरों केसाथ तादात्म्य नहीं है; भगवत:-- भगवान का; ऋषभस्य--ऋषभदेव का; योग-माया-वासनया-- भगवान्‌ की लीलाओं हेतुयोगमाया की प्राप्ति से; देह:--देह; इमाम--यह; जगतीम्‌--पृथ्वी; अभिमान-आभासेन--यह देह भौतिक तत्त्वों से निर्मित है,इस प्रकार के आभास से; सड्क्रममाण:-- भ्रमण करते हुए; कोड्जू-वेड्ड-कुटकान्‌--कोंक, वेंक तथा कुटक; दक्षिण--दक्षिणभारत में; कर्णाटकानू--कर्नाट राज्य में; देशान्‌--समस्त देशों; यहच्छया-- अपनी इच्छा से; उपगतः--पहुँचे; कुटकाचल-उपवने--कुटकाचल के निकटस्थ जंगल में; आस्य--मुँह के भीतर; कृत-अश्म-कवल:--मुँह में पत्थर भर कर; उन्मादः इब--पागल के समान; मुक्त-मूर्थज: --मुक्त ( बिखरे ) केशों से युक्त; असंबीत:--नग्न; एब--ही; विचचार-- भ्रमण करने लगे?

    वास्तव में भगवान्‌ ऋषभदेव के कोई भौतिक शरीर न था, किन्तु योगमाया से वे अपनेशरीर को भौतिक मान रहे थे।

    अतः सामान्य मनुष्य की भाँति आचरण करके उन्होंने वैसीमानसिकता का त्याग किया।

    वे संसार भर में घूमने लगे।

    घूमते-घूमते वे दक्षिण भारत केकर्णाट प्रदेश में पहुँचे जहाँ के रास्ते में कोंक, वेंक तथा कुटक पड़े।

    इस दिशा में घूमने कीउनकी कोई योजना न थी, किन्तु कुटकाचल के निकट उन्होंने एक जंगल मे प्रवेश किया।

    उन्होंने अपने मुँह में पत्थर के टुकड़े भर लिए और जंगल में नग्न तथा बाल बिखेरे पागल कीभाँति घूमने लगे।

    अथ समीरवेगविधूतवेणुविकर्षणजातोग्रदावानलस्तद्वनमालेलिहान: सह तेन ददाह ॥

    ८॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; समीर-वेग--वायु के झोंके से; विधूत--झकझोरे हुए; वेणु--बाँसों की; विकर्षण--रगड़ से; जात--उत्पन्नहुईं; उग्र--प्रबल; दाव-अनलः: --दावाग्नि; तत्‌--उस; वनम्‌--कुटकाचल के निकट के जंगल को; आलेलिहान:--चारों ओरसे भक्षण करती; सह--संग; तेन--वह शरीर; ददाह--जल कर राख हो गया।

    जब वे भटक रहे थे तो प्रबल दावाग्नि लग गई।

    यह अग्नि वायु से झकझोरे गये बाँसों कीरगड़ से उत्पन्न हुई थी।

    इस अग्नि में कुटकाचल का पूरा जंगल तथा ऋषभदेव का शरीरभस्मसात्‌ हो गए।

    यस्य किलानुचरितमुपाकर्णय्य कोड्डूवेड्डकुटकानां राजाईन्नामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणेभवितव्येन विमोहितः स्वधर्मपथमकुतो भयमपहाय कुपथपाखण्डमसमझ्जसं निजमनीषया मन्दःसम्प्रवर्तयिष्यते ॥

    ९॥

    यस्य--जिस ( भगवान्‌ ऋषभदेव ) का; किल अनुचरितम्‌ू--परमहंस के रूप में लीलाएँ, वर्णाश्रम सिद्धान्त के नियमों से परे;उपाकर्ण्य--सुन कर; कोड्ड-वेड्ग-कुटकानाम्‌-कोंक, वेंक तथा कुटक का; राजा--राजा; अहत्‌-नाम--जिसका नाम अहत्‌( अब जैन कहलाता है ) था; उपशिक्ष्य--परमहंस रूप में भगवान्‌ ऋषभदेव के कार्यों का अनुकरण करके; कलौ--इसकलियुग में; अधर्मे उत्कृष्ममाणे--अधर्म की वृद्धि के कारण; भवितव्येन-- भावी द्वारा; विमोहित:--मोहित; स्व-धर्म-पथम्‌--धर्म-पथ; अकुतः-भयम्‌--समस्त प्रकार के भयों से मुक्त; अपहाय--त्याग कर ( यथा स्वच्छता, सत्यभाषण, इन्द्रियनिग्रह,सादगी, धर्माचरण, ज्ञान का सद्प्रयोग ); कु-पथ-पाखण्डम्‌--नास्तिकता का बुरा ( उल्टा ) मार्ग; असमझसम्‌ू--वेदविरुद्ध,अनुचित; निज-मनीषया--अपने मस्तिष्क से; मन्दः--मूढ़; सम्प्रवर्तयिष्यते-- प्रचार करेगा, चलायेगा।

    शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को आगे बताया कि हे राजन, कोंक, बेंक तथाकुटक के राजा ने, जिसका नाम अर्हत्‌ था, ऋषभदेव के कार्य-कलापों के विषय में सुना औरउसने ऋषभदेव के नियमों का अनुकरण करते हुए एक नवीन धर्म-पद्धति चला दी।

    पापमयकर्मो के इस युग, कलियुग, का लाभ उठाकर मोहवश राजा अर्हत ने बाधारहित वैदिक नियमोंको छोड़ दिया और वेदविरुद्ध एक नवीन धर्म-पद्धति गढ़ ली।

    यही जैन धर्म का शुभारम्भ था।

    अन्य अनेक तथाकथित धर्मों ने इस नास्तिकवाद को ग्रहण किया।

    येन ह वाव कलौ मनुजापसदा देवमायामोहिता: स्वविधिनियोगशौचचारित्रविहीना देवहेलनान्यपब्रतानिनिजनिजेच्छया गृह्ञाना अस्नानानाचमनाशौचकेशोल्लुञ्लननादीनि कलिनाधर्मबहुलेनोपहतधियोब्रह्मत्राह्णयज्ञपुरुषलोकविदूषका: प्रायेण भविष्यन्ति, ॥

    १०॥

    येन--जिस छढ्म धार्मिक प्रकृति से; ह वाव--निश्चय ही; कलौ--इस कलियुग में; मनुज-अपसदा: --अत्यन्त नीच व्यक्ति; देव-माया-मोहिता:-- भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहग्रस्त, शक्ति या माया से मोहित; स्व-विधि-नियोग-शौच-चारित्र-विहीना:--अपने कर्तव्यों के अनुसार निर्मित विधानों, स्वच्छता तथा चरित्र से विहीन ( शास्त्र विहित आचारों तथा शौच सेरहित ); देव-हेलनानि-- भगवान्‌ के प्रति तिरस्कार; अपब्रतानि--अपवित्र व्रत, पाखंड; निज-निज-इच्छया-- अपनी अपनीरुचि के अनुसार; गृह्नाना: --स्वीकार करते हुए; अस्नान-अनाचमन-अशौच-केश-उल्लुञ्लनन-आदीनि--गढ़े हुए धार्मिक नियमयथा अस्नान ( न नहाना ), मुख न धोना, अशुद्ध रहना तथा केश नुचवाना; कलिना--कलियुग के प्रभाव से; अधर्म-बहुलेन--अधर्म की बहुलता वाले; उपहत-धिय:ः--जिसका अन्तःकरण विनष्ट हो गया है, बुद्द्धिहीन; ब्रह्म-ब्राह्मण-यज्ञ-पुरुष-लोक-विदूषका:--वेद, ब्राह्मण, यज्ञ, भगवान्‌ तथा भक्तों की निन्‍्दा करने वाले; प्रायेण--प्राय:; भविष्यन्ति--हों गे?

    अधम तथा परमेश्वर की माया से मोहित व्यक्ति मूल वर्णाश्रम धर्म तथा उसके नियमों कापरित्याग कर देंगे।

    वे नित्य तीन बार स्नान करना और ईश्वर की आराधना करना छोड़ देंगे।

    वेशौच तथा परमेश्वर को त्याग कर अटपटे नियमों को ग्रहण करेंगे।

    नियमित स्नान न करनेअथवा अपना मुख न धोने से वे सदा गंदे रहेंगे और अपने केश नुचवाएँगे।

    ढोंग धर्म काअनुसरण करते हुए वे फूलेंगे, फलेंगे।

    इस कलिकाल में लोग अधार्मिक पद्धतियों की ओरअधिक उन्मुख होंगे।

    फलस्वरूप वे वेद, वेदों के अनुयायी ब्राह्मणों, भगवान्‌ तथा अनेक भक्तोंका उपहास करेंगे।

    ते च ह्ार्वाक्तनया निजलोकयात्रयान्धपरम्परया श्रस्तास्तमस्यन्धे स्वयमेव प्रपतिष्यन्ति, ॥

    ११॥

    ते--वे लोग जो वेदों का अनुसरण नहीं करते; च--तथा; हि--निश्चय ही; अर्वाक्तनया--वैदिक धर्म के शाश्वत नियमों सेविचलित होकर; निज-लोक-यात्रया--स्वेच्छाकृत प्रवृत्ति से; अन्ध-परम्परया--अन्धे अज्ञानी पुरुषों की परम्परा से;आश्वस्ता:--प्रोत्साहित होकर; तमसि--अज्ञान के अंधकार में; अन्धे--अंधापन; स्वयम्‌ एब-- अपने आप; प्रपतिष्यन्ति--गिरेंगे?

    अधम लोग अपने अज्ञानवश वैदिक नियमों से हटकर चलने वाली धार्मिक प्रणाली कासूत्रपात करते हैं।

    वे अपने मानसिक ढोंगों के कारण स्वयं ही घोर अंधकार में गिरते हैं।

    अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थ: ॥

    १२॥

    अयम्‌ अवतार:--यह अवतार ( भगवान्‌ ऋषभदेव ); रजसा--रजोगुण से; उपप्लुत-- भरा हुआ; कैवल्य-उपशिक्षण-अर्थ:--लोगों को मुक्ति मार्ग की शिक्षा देने के उद्देश्य से।

    इस कलियुग में लोग रजो तथा तमो गुणों से भरे हुए हैं।

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने इन लोगों कोमाया के चंगुल से छुड़ाने के लिए ही अवतार लिया था।

    तस्यानुगुणानएलोकान्गायन्ति--अहो भुव: सप्तसमुद्रवत्याद्वीपेषु वर्षेष्वधिपुण्यमेतत्‌ ।

    गायन्ति यत्रत्यजना मुरारेःकर्माणि भद्राण्यवतारवन्ति ॥

    १३॥

    तस्य--उसके ( ऋषभदेव के ); अनुगुणानू--मुक्ति के उपदेशों के अनुसार; श्लोकान्‌ू--श्लोक; गायन्ति--गाते हैं, जप करते हैं;अहो--ओह; भुव:--इस पृथ्वी लोक का; सप्त-समुद्र-वत्या:--सात समुद्रों वाले; द्वीपेषु--द्वीपों में से; वर्षषु -- भूभागों में से;अधिपुण्यम्‌ू--अन्य किसी द्वीप से अधिक पवित्र; एतत्‌--यह ( भारत-वर्ष ); गायन्ति--गायन करते हैं; यत्रत्य-जना:--इसभूभाग के लोग; मुरारे:-- भगवान्‌ मुरारी के; कर्माणि--कार्यो का; भद्गराणि--शुभ; अवतारवन्ति--अनेक अवतारों में?

    यथा ऋषभदेव विद्वानजन भगवान्‌ ऋषभदेव के दिव्य गुणों का जाप इस प्रकार करते हैं--' ओह! इसपृथ्वीलोक में सात समुद्र तथा अनेक द्वीप और वर्ष हैं जिनमें से भारतवर्ष सबसे अधिक पवित्रहै।

    भारतवर्ष के लोग भगवान्‌ के कार्यकलापों का, ऋषभदेव तथा अन्य अनेक अवतारों केरूप में, गुणगान करने के अभ्यस्त हैं।

    ये सारे कार्य मानवता के कल्याण हेतु अत्यन्त शुभ हैं।

    अहो नु वंशो यशसावदातःप्रैयव्नतो यत्र पुमान्पुराण: ।

    कृतावतारः पुरुष: स आद्य-श्वचार धर्म यदकर्महेतुम्‌ू ॥

    १४॥

    अहो--ओह; नु--निस्संदेह; वंश:--वंश; यशसा--चतुर्दिक ख्याति से; अवदात:--अत्यन्त विमल; प्रैयव्रतः--राजा प्रियत्रतका; यत्र--जिसमें; पुमानू-- परम पुरुष; पुराण:--आदि; कृत-अवतार:-- अवतार लेकर; पुरुष:-- भगवान्‌; सः --उसने;आद्यः--आदि-पुरुष; चचार--आचरण किया; धर्मम्‌-धार्मिक नियम; यत्‌--जिससे; अकर्म-हेतुमू-कर्मो के अन्त काकारण?

    ओह! भला मैं प्रियत्रत के वंश के सम्बन्ध में क्या कहूँ जो इतना विमल तथा अत्यन्तविख्यात है।

    इसी वंश में परम पुरुष भगवान्‌ ने अवतार लिया और कर्मफलों से मुक्त करने वालेधार्मिक नियमों का आचरण किया।

    को न्वस्य काष्ठामपरो नुगच्छे-न्मनोरथेनाप्यभवस्य योगी ।

    यो योगमाया:ः स्पृहयत्युदस्ताहासत्तया येन कृतप्रयत्ना: ॥

    १५॥

    कः--कौन; नु--निस्संदेह; अस्य-- भगवान्‌ ऋषभदेव का; काष्ठाम्‌--आदर्श; अपरः--अन्य; अनुगच्छेत्‌-- अनुगमन करसकता है; मनः-रथेन--मन से; अपि-- भी; अभवस्यथ-- अजन्मा का; योगी--योगी; य:--जो; योग-माया: --योग सिद्धि;स्पृहयति--स्पृहा करता है, कामना करता है; उदस्ता:--ऋषभदेव द्वारा परित्यक्त; हि--ही; असत्तया--अपूर्ण होने से, असत्‌ से;येन--जिसके द्वारा ( ऋषभदेव द्वारा ); कृत-प्रयत्ता:--यद्यपि सेवा करने के लिए इच्छुक |

    'भला ऐसा कौन योगी है जो अपने मन से भी भगवान्‌ ऋषभदेव के आदर्शों का पालन कर सके ? उन्होंने उन समस्त योग-सिद्ध्रियों का तिरस्कार कर दिया था जिसके लिए अन्य योगीलालायित रहते हैं।

    भला ऐसा कौन योगी है जो भगवान्‌ ऋषभदेव की समता कर सके ?

    इति ह सम सकलवेदलोकदेवब्राह्मणगवां परमगुरोर्भगवत ऋषभाख्यस्य विशुद्धाचरितमीरितं पुंसांसमस्तदुश्चरिताभिहरणं परममहामड्रलायनमिदमनुश्रद्धयोपचितयानु श्रुणोत्या श्राववति वावहितो भगवतितस्मिन्वासुदेव एकान्ततो भक्तिरनयोरपि समनुवर्तते ॥

    १६॥

    इति--इस प्रकार; ह स्म--निस्संदेह; सकल--सम्पूर्ण; वेद--ज्ञान का; लोक--जनता का; देव--देवताओं का; ब्राह्मण--समस्त ब्राह्मणों का; गवाम्‌ू--गायों का; परम--परम; गुरोः--गुरु, स्वामी; भगवत:--भगवान्‌ का; ऋषभ-आख्यस्य--जिसका नाम ऋषभ था; विशुद्ध-शुद्ध; आचरितम्‌ू--कार्यकलाप; ईरितम्‌--अब व्याख्या किया गया; पुंसाम्‌-प्रत्येकजीवात्मा का; समस्त--सम्पूर्ण ; दुश्चरित--पाप कर्म; अभिहरणम्‌--विनाश करते हुए; परम--अग्रणी; महा--महान्‌; मड़ल--कल्याण का; अयनम्‌--वास, शरण, घर; इदम्‌--यह; अनुश्रद्धया-- श्रद्धा से; उपचितया--बढ़ती हुई; अनुश्वूणोति--अधिकारी से सुनता है; आश्राववति--दूसरे से कहता है; वा--अथवा; अवहित:ः--सावधान होकर; भगवति-- भगवान्‌ में;तस्मिन्‌ू--उस; वासुदेवे--वासुदेव, श्रीकृष्ण में; एक-अन्ततः--एकान्त भाव से; भक्ति: -- भक्ति; अनयो:--श्रोता तथा वक्तादोनों समूहों का; अपि--निश्चय ही; समनुवर्तते--वास्तव में प्रारम्भ होती है।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, 'ऋषभदेव समस्त वैदिक ज्ञान, मनुष्यों, देवताओं, गायोंतथा ब्राह्मणों के स्वामी हैं।

    मैं पहले ही उनके विशुद्ध, दिव्य कार्य-कलापों का विस्तार से वर्णनकर चुका हूँ जिनसे समस्त जीवात्माओं के पापकर्म मिट जाएँगे।

    भगवान्‌ ऋषभदेव कीलीलाओं का यह वर्णन समस्त मंगल वस्तुओं का आगार है।

    जो भी आचार्यों का अनुसरणकरते हुए इन्हें ध्यान से सुनता या कहता है उसे निश्चय ही भगवान्‌ वासुदेव के चरणकमलों कीशुद्ध भक्ति प्राप्त होगी।

    ' यस्यामेव कवय आत्मानमविरतं विविधवृजिनसंसारपरितापोपतप्यमानमनुसवनं स्नापयन्तस्तयैव परयानिर्व॒त्या ह्यापवर्गमात्यन्तिकं परमपुरुषार्थमपि स्वयमासादितं नो एवाद्रियन्ते भगवदीयत्वेनैव'परिसमाप्तसर्वार्था: ॥

    १७॥

    यस्याम्‌ एब--जिसमें ( कृष्णभावनामृत अथवा भक्ति के अमृत में ); कवय:--पण्डित जन, आध्यात्मिक जीवन का दार्शनिक;आत्मानम्‌--आत्म, स्वयं; अविरतम्‌--निरन्तर; विविध-- अनेक; वृजिन--पापपूर्ण; संसार-- भौतिक संसार में; परिताप--दुखोंसे; उपतप्यमानम्‌--तपे हुए, दुखी; अनुसवनम्‌--निरन्तर; स्नापयन्त:ः --स्नान करते हुए; तया--उससे; एब--निश्चय ही;परया--महान्‌; निर्व॒त्या--प्रसन्नतापूर्वक; हि--ही; अपवर्गम्‌--मुक्ति; आत्यन्तिकम्‌--बिना अवरोध के, निरन्तर; परम-पुरुष-अर्थम्‌--मानवी सफलताओं में सर्वश्रेष्ठ; अपि--यद्यपि; स्वयम्‌--स्वयं; आसादितमू--प्राप्त; नो--नहीं; एव--निश्चय ही;आद्वियन्ते--प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं; भगवदीयत्वेन एव-- भगवान्‌ से सम्बन्ध होने के कारण; परिसमाप्त-सर्व-अर्था: --जिनकी समस्त भौतिक कामनाओं का अन्त हो चुका है।

    भक्त जन भौतिक संसार के विभिन्न संकटों से मुक्त होने के लिए निरन्तर भक्ति-सरिता मेंस्नान करते रहते हैं।

    इससे उन्हें परम आनन्द प्राप्त होता है और साक्षात्‌ मुक्ति उनकी सेवा करनेआती है।

    तो भी वे उस सेवा को स्वीकार नहीं करते, भले ही भगवान्‌ स्वयं क्‍यों न सेवा के लिएतत्पर हों।

    भक्तों के लिए मुक्ति महत्त्वहीन है, क्योंकि ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाने परउनकी प्रत्येक आकांक्षा पूरी हो गई होती है और वे समस्त भौतिक कामनाओं से ऊपर उठ चुकेहोते हैं।

    राजन्पतिर्गुरुरलं भवतां यदूनांदेव प्रियः कुलपति: क्व च किड्डरो व: ।

    अस्त्वेवमड़ भगवान्भजतां मुकुन्दोमुक्ति ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम्‌ ॥

    १८॥

    राजनू--हे राजन; पति:--पालक; गुरुः--गुरु; अलमू--निश्चय ही; भवताम्‌--आपका; यदूनाम्‌ू--यदुवंश का; दैवम्‌--आरशध्य श्रीविग्रह; प्रियः--अत्यन्त प्रिय मित्र; कुल-पति:--वंश का स्वामी; क्व च--यहाँ तक कि कभी-कभी; किड्डर: --सेवक; वः--तुम सबका ( पांडवों का ); अस्तु--हो; एवम्‌--इस प्रकार; अड्ग--हे राजा; भगवान्‌-- भगवान्‌; भजताम्‌--सेवामें रत भक्तों का; मुकुन्दः--भगवान्‌; मुक्तिम्‌--मुक्ति; ददाति--देता है; कर्हिचित्‌ू--किसी भी समय; स्म--निस्सन्देह; न--नहीं; भक्ति-योगम्‌-प्रेमा भक्ति |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजन, परम पुरुष मुकुन्द सभी पांडवों तथा यदुवंशियोंके वास्तविक पालक हैं।

    वे तुम्हारे गुरु, आराध्य अर्चाविग्रह, मित्र तथा तुम्हारे कर्मों के निदेशकहैं।

    यही नहीं, वे कभी-कभी दूत या सेवक के रूप में भी तुम्हारे परिवार की सेवा करते हैं।

    इसका अर्थ यह हुआ कि वे सामान्य सेवकों की तरह कार्य करते हैं।

    जो ईश्वर की सेवा में लगेरहकर प्रिय पात्र बनना चाहते हैं उन्हें मुक्ति सरलता से मिल जाती है, किन्तु वे अपनी प्रत्यक्ष सेवाकरने का अवसर बहुत उनसे कम ही प्रदान करते हैं।

    नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्ण:श्रेयस्थतद्गरचचनया चिरसुप्तबुद्धे: ।

    लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकम्‌आख्थान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥

    १९॥

    नित्य-अनुभूत--अपने वास्तविक रूप के प्रति सदैव जागरूक होने के कारण; निज-लाभ-निवृत्त-तृष्ण:--अपने में पूर्ण होनेके कारण, कामनारहित; श्रेयसि--जीवन के वास्तविक कल्याण में; अ-तत्‌-रचनया--देह को आत्मा मानकर भौतिक क्षेत्र में कर्मो का प्रसार करके; चिर--दीर्घकाल तक; सुप्त--सोया हुआ; बुद्धेः--जिसकी बुद्धि; लोकस्य--लोगों का; यः--जो( भगवान्‌ ऋषभदेव ); करुणया--अहैतुकी कृपा से; अभयम्‌--निर्भय; आत्म-लोकम्‌--आत्म-स्वरूप; आख्यात्‌--उपदेशदिया; नमः --नमस्कार है; भगवते-- भगवान्‌; ऋषभाय--ऋषभदेव को; तस्मै-- उस |

    भगवान्‌ ऋषभदेव को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध था, अतः वे आत्म-तुष्ट थे औरउन्हें किसी बाह्म तुष्टि की आकांक्षा नहीं रह गई थी।

    अपने में पूर्ण होने के कारण उन्हें किसीसफलता की स्पूहा नहीं थी।

    जो वृथा ही देहात्मबुद्धि में लगे रहते हैं और भौतिकता का परिवेशतैयार करते हैं, वे अपने वास्तविक हित को नहीं पहचानते।

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने अहैतुकीकृपावश वास्तविक आत्मबुद्धि तथा जीवन लक्ष्य की शिक्षा दी।

    अतः हम उन भगवान्‌ ऋषभदेवको नमस्कार करते हैं।

    TO

    अध्याय सात: राजा भरत की गतिविधियाँ

    5.7श्रीशुक उबाचभरतस्तु महाभागवतो यदा भगवतावनितलपरिपालनाय सश्ञिन्तितस्तदनुशासनपरः पञ्ञजनींविश्वरूपदुहितरमुपयेमे ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; भरतः--महाराज भरत; तु--लेकिन; महा-भागवतः --ई श्वर का महान्‌ भक्त;यदा--जब; भगवता--अपने पिता भगवान्‌ ऋषभदेव की आज्ञा से; अवनि-तल--पृथ्वी पर; परिपालनाय--शासन करने केलिए; सश्जिन्तितः--हढ़-निश्चय; तत्‌-अनुशासन-परः -- पृथ्वी पर शासन करने में रत; पञ्ञजनीम्‌--पंचजनी; विश्वरूप-दुहितरम्‌--विश्वरूप की पुत्री को; उपयेमे--विवाह कर लिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को और आगे बताया--हे राजन, भरत महाराजसर्वोच्च भक्त थे।

    अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए जिन्होंने उन्हें सिंहासन पर बैठानेका निर्णय पहले ही ले रखा था।

    वे तदनुसार पृथ्वी पर राज्य करने लगे।

    समस्त संसार पर राज्यकरते हुए वे अपने पिता के आदेशों का पालन करने लगे और उन्होंने विश्वरूप की कन्यापंचजनी से विवाह कर लिया।

    तस्यामु ह वा आत्मजान्कार्त्स्थेनानुरूपानात्मन: पञ्ञ जनयामास भूतादिरिव भूतसूक्ष्माणि सुमतिं राष्ट्रभूतसुदर्शनमावरणं धूप्रकेतुमिति ॥

    २॥

    तस्यथाम्‌--उसके गर्भ में; उह वा--निस्संदेह; आत्म-जानू--पुत्रों को; कार्त्स्येन--पूर्णत:; अनुरूपान्‌ू-- अनुरूप, समान;आत्मन:--अपने; पश्च-- पाँच; जनयाम्‌ आस--उत्पन्न किया; भूत-आदि: इब--अहंकार के सहश; भूत-सूक्ष्माणि--पाँच भूत,तन्मात्र; सु-मतिम्‌ू--सुमति; राष्ट्र-भृतम्‌--राष्ट्रभृत; सु-दर्शनम्‌--सुदर्शन; आवरणम्‌--आवरण; धूम्र-केतुम्‌-- धूमके तु; इति--इस प्रकार।

    जिस प्रकार मिथ्या अहंकार से भूत-तन्मात्र ( सूक्ष्म-इन्द्रिय विषय ) उत्पन्न होते हैं वैसे हीमहाराज भरत को अपनी पत्नी पंचजनी के गर्भ से पाँच पुत्र प्राप्त हुए।

    इन पुत्रों के नाम थे--सुमति, राष्ट्रभूत, सुदर्शन, आवरण तथा धूमप्रकेतु।

    अजनाभ॑ नामैतद्वर्ष भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति ॥

    ३॥

    अजनाभम्‌---अजनाभ; नाम--नाम से; एतत्‌--यह; वर्षम्‌-द्वीप; भारतम्‌-- भारत; इति--इस प्रकार; यत:ः--जिससे;आरभ्य--प्रारम्भ करके; व्यपदिशन्ति-- कहते हैं, पुकारते हैं।

    पहले इस देश का नाम अजनाभवर्ष था, किन्तु महाराज भरत के शासन काल से इसकानाम भारतवर्ष पड़ा।

    स बहुविन्महीपति: पितृपितामहवदुरूवत्सलतया स्वे स्वे कर्मणि वर्तमाना: प्रजा: स्वधर्ममनुवर्तमान:पर्यपालयतू, ॥

    ४॥

    सः--वह राजा ( महाराज भरत ); बहु-वित्‌--महान्‌ ज्ञानी; मही-पति:--पृथ्वी का शासक, राजा; पितृ--पिता; पितामह--बाबा; वत्‌--सहृश; उरु-वत्सलतया--नागरिकों ( प्रजा ) पर अत्यधिक वत्सल ( स्नेहिल ) होने के कारण; स्वे स्वे-- अपनेअपने; कर्मणि--कर्तव्य में; वर्तमाना: --रहकर; प्रजा: --प्रजा; स्व-धर्मम्‌ अनुवर्तमान: --अपने कर्तव्य में लगे रहकर;पर्यपालयत्‌ू--शासन किया।

    भरत महाराज इस पृथ्वी पर अत्यन्त ज्ञानी तथा अनुभवी राजा थे।

    वे स्वयं अपने कार्यों मेंसंलग्न रह कर प्रजा पर अच्छी प्रकार से राज्य करते थे।

    वे अपनी प्रजा के प्रति उतने ही वत्सलथे जितने उनके पिता तथा पितामह रह चुके थे।

    उन्होंने प्रजा को अपने अपने कर्तव्यों में व्यस्तरख कर इस पृथ्वी पर शासन किया।

    ईजे च भगवन्तं यज्ञक्रतुरूपं क्रतुभिरुच्चावचै: श्रद्धयाहताग्निहोत्रदर्शपूर्णमासचातुर्मास्यपशुसोमानांप्रकृतिविकृतिभिरनुसवनं चातुरहोंत्रविधिना ॥

    ५॥

    ईजे--आराधना की; च--भी; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ की; यज्ञ-क्रतु-रूपम्‌--पशु सहित तथा पशु रहित यज्ञों वाले; क्रतुभि:--ऐसे यज्ञों से; उच्चावचै:--अत्यन्त बड़े तथा अत्यन्त छोटे; श्रद्धया- श्रद्धा समेत; आहत--किया गया; अग्नि-होत्र-- अग्नि होत्रयज्ञ का; दर्श--दर्श यज्ञ का; पूर्णमास--पूर्णमास यज्ञ का; चातुर्मास्थ--चातुर्मास्य यज्ञ का; पशु-सोमानामू--पशु तथा सोमरस से सम्पन्न यज्ञों का; प्रकृति--पूर्ण अनुष्ठानों द्वारा; विकृतिभिः--तथा आंशिक अनुष्ठानों द्वारा; अनुसवनम्‌-प्राय:; चातु:-होबत्र-विधिना--चार प्रकार के पुरोहितों ( ऋत्विजों ) द्वारा निर्देशित यज्ञ विधि-विधानों के द्वारा |

    राजा भरत ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अनेक प्रकार के यज्ञ किये।

    इनके नाम हैं अग्निहोत्र, दर्श,पूर्णमास, चातुर्मास्थ, पशु-यज्ञ ( जिसमें अश्व की बलि दी जाती थी ) तथा सोम-यज्ञ ( जिसमेंसोमरस प्रयुक्त होता था ) भेंट किया जाता था ।

    कभी ये यज्ञ पूर्ण रूप से तो कभी आंशिक रूपमें सम्पन्न किये जाते थे।

    प्रत्येक दशा में समस्त यज्ञों में चातुहोंत्र नियमों का हढ़ता से पालनकिया जाता था।

    इस प्रकार भरत महाराज भगवान्‌ की उपासना करते थे।

    सम्प्रचरत्सु नानायागेषु विरचिताडुक्रियेष्वपूर्व यत्तत्क्रियाफलं धर्माख्यं परे ब्रह्मणि यज्ञपुरुषेसर्वदेवतालिझनां मन्त्राणामर्थनियामकतया साक्षात्कर्तरि परदेवतायां भगवति वासुदेव एवं भावयमान आत्मनैपुण्यमृदितकषायो हवि:घष्वध्वर्युभिर्गृह्मामाणेषु स यजमानो यज्ञभाजोदेवांस्तान्पुरुषावयवेष्व भ्यध्यायत्‌ ॥

    ६॥

    सम्प्रचरत्सु-- अनुष्ठान प्रारम्भ करते समय; नाना-यागेषु--अनेक प्रकार के यज्ञ; विरचित-अड्गभ-क्रियेषु--जिसमें गौण कृत्यकिये जाते थे; अपूर्वम्‌--सुदूर; यत्‌--जो भी; तत्‌ू--वह; क्रिया-फलम्‌--यज्ञ का फल; धर्म-आख्यमू-- धर्म के नाम से; परे--दिव्य; ब्रह्मणि--पर ब्रह्म में; यज्ञ-पुरुषे--समस्त यज्ञों का भोक्ता; सर्व-देवता-लिज्ञनाम्‌-- देवताओं को प्रकट करने वाले;मन्त्राणाम्‌--मंत्रों का, वैदिक स्तुतियों का; अर्थ-नियाम-कतया--पदार्थों का नियन्ता होने से; साक्षात्‌-कर्तरि--साक्षात्‌ करनेवाला; पर-देवतायाम्‌--समस्त देवाताओं के कारण; भगवति--भगवान्‌; वासुदेवे-- श्रीकृष्ण में; एब--निश्चय ही;भावयमान: --सदैव चिन्तन करते हुए; आत्म-नैपुण्य-मृदित-कषाय: --समस्त काम तथा क्रोध से रहित; हविःषु--यज्ञ में डालीजाने वाली सामग्री, हवि; अध्वर्युभिः--जब अथर्ववेद में वर्णित यज्ञों में दक्ष पुरोहित; गृह्ममाणेषु-- लेते हुए; सः--महाराज भरतने; यजमान:--यज्ञ करने वाला; यज्ञ-भाज:--यज्ञ-फल को पाने वाले; देवान्‌--समस्त देवताओं को; तान्‌ू--उन; पुरुष-अवयवेषु-- भगवान्‌ गोविन्द के शरीर के अंग प्रत्यंगों में; अभ्यध्यायत्‌--सोचा |

    विभिन्न यज्ञों के प्रारम्भिक कार्यों को कर लेने के बाद महाराज भरत यज्ञफलों को धर्म केनाम पर भगवान्‌ वासुदेव को अर्पण कर देते थे।

    अर्थात्‌, वे भगवान्‌ वासुदेव कृष्ण को प्रसन्नकरने के लिए समस्त यज्ञ करते थे।

    महाराज भरत सोचते थे कि सभी देवता भगवान्‌ वासुदेव केशरीर के अंगस्वरूप हैं और वैदिक मंत्रों में जो भी वर्णित है वे उसके नियन्ता हैं।

    इस प्रकार सेचिन्तन के फलस्वरूप महाराज भरत आसक्ति, काम तथा लोभ जैसे भौतिक कल्मष से मुक्त थे।

    जब पुरोहितगण अग्नि में हवि अर्पित करने वाले होते तो महाराज भरत को यह ज्ञात हो जाता थाकि विभिन्न देवताओं को दी जाने वाली यह हवि ईश्वर के विभिन्न अवयवों ( अंगों ) के निमित्तहै।

    उदाहरणार्थ, इन्द्र भगवान्‌ के बाहु स्वरूप और सूर्य उनके नेत्र हैं।

    इस प्रकार महाराज भरत नेविचार किया कि विभिन्न देवताओं को दी जाने वाली आहुतियाँ वास्तव में भगवान्‌ वासुदेव केअंग-प्रत्यंग के निमित्त हैं।

    एवं कर्मविशुद्धया विशुद्धसत्त्वस्यान्तईदयाकाशशरीरे ब्रह्मणि भगवति वासुदेवे महापुरुषरूपोपलक्षणेश्रीवत्सकौस्तुभवनमालारिदरगदादिभिरुपलक्षिते निजपुरुषहल्लिखितेनात्मनि पुरुषरूपेण विरोचमानउच्चैस्तरां भक्तिरनुदिनमेधमानरयाजायत ॥

    ७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कर्म-विशुद्धब्ा-- श्री भगवान्‌ को प्रत्येक वस्तु अर्पित करते हुए अपने पुण्यकर्मों के फल की अभिलाषा नकरते हुए, कर्म शुद्धि से; विशुद्ध-सच्त्वस्य-- भरत महाराज का, जिनका जीवन पूर्णतः शुद्ध था; अन्त:-हदय-आकाश-शरीरे--योगियों द्वारा ध्यान किये जाने वाले अन्‍्तर्यामी परमात्मा; ब्रह्मणि--निराकार ब्रह्म में, जिसकी आराधना निर्गुण ज्ञानी करते हैं;भगवति--श्रीभगवान्‌ में; वासुदेवे--वासुदेव श्रीकृष्ण में; महा-पुरुष--परम पुरुष का; रूप--स्वरूप, आकार; उपलक्षणे--लक्षणों वाला; श्रीवत्स-- भगवान्‌ के वक्षस्थल का चिह्न, श्रीवत्स; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि; वन-माला--पुष्पों का हार; अरि-दर--चक्र तथा शंख; गदा-आदिभि:--( तथा ) गदा इत्यादि अन्य लक्षणों से; उपलक्षिते--पहचाना जाकर; निज-पुरुष-हतू-लिखितेन--जो अपने भक्तों के हृदय में चित्र की भाँति स्थित हैं; आत्मनि--अपने मन में; पुरुष-रूपेण-- अपने स्वरूप से;विरोचमाने--चमकता; उच्चैस्तराम्‌--अति उच्च स्तर पर; भक्ति:--भक्ति; अनुदिनम्‌ू--दिन प्रति दिन; एधमान--बढ़ता हुआ;रया--बलशाली; अजायत--प्रकट हुआ।

    इस प्रकार यज्ञों से परिष्कृत महाराज भरत का हृदय सर्वथा कल्मषहीन हो गया।

    दिन प्रतिदिन वासुदेव श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति बढ़ती रही।

    वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण आदि भगवान्‌ हैं,जो परमात्मा रूप में तथा निर्गुण ब्रह्म के रूप में प्रकट होते हैं।

    योगी लोग अपने हृदय में स्थितपरमात्मा का ध्यान धरते हैं, ज्ञानी परम सत्य निर्गुण ब्रह्म के रूप में उपासना करते हैं और भक्तजन शाम्त्रों में वर्णित दिव्य देहधारी भगवान्‌ वासुदेव की आराधना करते हैं।

    उनका शरीरश्रीवत्स, कौस्तुभ मणि तथा पुष्पहार से सुशोभित है और वे हाथों में शंख, चक्र, गदा तथाकमल धारण किये हुए हैं।

    नारद जैसे भक्त अपने अन्तःकरण में उनका सदा ध्यान धरते हैं।

    एवं वर्षायुतसहस्त्रपर्यन्तावसितकर्मनिर्वाणावसरोधिभुज्यमानं स्वतनयेभ्यो रिक्थं पितृपैतामहं यथादायंविभज्य स्वयं सकलसम्पन्निकेतात्स्वनिकेतात्पुलहा श्रमं प्रवत्राज ॥

    ८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार सदैव कार्यरत रहकर; वर्ष-अयुत-सहस्त्र--दस हजार वर्षो के एक हजार गुने वर्ष अर्थात्‌ एक करोड़ वर्ष;पर्यन्त--बीतने तक; अवसित-कर्म-निर्वाण-अवसरः --राज्य-ऐश्वर्य का अन्त समझ कर महाराज भरत; अधिभुज्यमानम्‌--उसकाल तक इस प्रकार भोगी जाकर; स्व-तनयेभ्य:--अपने पुत्रों को; रिक्थम्‌--सम्पत्ति; पितृ-पैतामहम्‌-- अपने पिता तथापूर्वजों से प्राप्त: यथा-दायम्‌--मनु के दाय-भाक्‌ नियम के अनुसार ( यथायोग्य ); विभज्य--बाँट कर; स्वयम्‌--स्वयं, आप;सकल-सम्पत्‌--सभी प्रकार के ऐश्वर्यों का; निकेतातू-घर से; स्व-निकेतात्‌--अपने पैतृक घर से; पुलह-आश्रमम्‌ प्रवत्राज--हरद्वार में पुलह आश्रम चला गया ( जहाँ शालग्राम शिलाएँ प्राप्त होती हैं ) ?

    प्रारब्ध ने महाराज भरत के लिए भौतिक ऐश्वर्य-भोग की अवधि एक करोड़ वर्ष नियत करदी थी।

    जब यह अवधि समाप्त हुई तो उन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग दिया और अपने पूर्वजों सेप्राप्त सम्पत्ति को अपने पुत्रों में बाँट दिया, उन्होंने समस्त ऐश्वर्य के आगार अपने पैतृकगृह कोछोड़ दिया और वे पुलहाश्रम के लिए चल पड़े जो हरद्वार में स्थित है।

    वहाँ शालग्राम शिलाएँप्राप्त होती हैं।

    यत्र ह वाव भगवान्हरिरद्यापि तत्रत्यानां निजजनानां वात्सल्येन सन्निधाप्यत इच्छारूपेण ॥

    ९॥

    यत्र--जहाँ; ह वाव--निश्चय ही; भगवान्‌-- श्रीभगवान; हरि: --ईश्वर; अद्य-अपि-- आज भी; तत्रत्यानाम्‌--उस स्थान में रहतेहुए; निज-जनानाम्‌--अपने भक्तों के; वात्सल्येन-- अपने दिव्य स्नेह से; सन्निधाप्यते--हृश्य होता है; इच्छा-रूपेण-- भक्त कीइच्छानुसार।

    पुलह आश्रम में भगवान्‌ हरि अपने भक्तों के दिव्य वात्सल्य-वश होकर दृश्य होते रहते हैंऔर उन सबकी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं।

    यत्राभ्रमपदान्युभयतो नाभिभिर्द षच्चक्रै श्रक्रनदी नाम सरित्प्रवरा सर्वतः पवित्रीकरोति ॥

    १०॥

    यत्र--जहाँ; आश्रम-पदानि--सभी आश्रम; उभयत:--ऊपर तथा नीचे, दोनों ओर; नाभिभि:--नाभि चिह्न सदश; हृषत्‌ू--हृश्य;अक्रैः--चक्रों से; चक्र-नदी--चक्र नदी ( जिसे गंडकी कहते हैं ); नाम--नामक; सरित्‌-प्रवरा--नदियों में श्रेष्ठ; सर्वतः --सर्वत्र; पवित्री-करोति--पवित्र करती है |

    पुलह आश्रम में गण्डकी नदी है जो समस्त नदियों में श्रेष्ठ है।

    यहाँ इन समस्त स्थलों कोपवित्र करने वाली शालग्राम शिलाएँ ( संगमरमर की बटियाँ ) हैं।

    इनमें ऊपर तथा नीचे दोनोंओर नाभि जैसे चक्र दृष्टिगोचर होते हैं।

    तस्मिन्वाव किल स एकल: पुलहाश्रमोपवने विविधकुसुमकिसलयतुलसिकाम्बुभिःकन्दमूलफलोपहारैश्व समीहमानो भगवत आराधनं विविक्त उपरतविषयाभिलाष उपभृतोपशमः परांनिर्वृतिमवाप ॥

    ११॥

    तस्मिनू--उस आश्रम में; वाव किल--निस्सन्देह; सः--भरत महाराज; एकल: --अकेले, एकान्त; पुलह-आश्रम-उपवने--पुलह आश्रम के उद्यानों में; विविध-कुसुम-किसलय-तुलसिका-अम्बुभि: --अनेक पुष्प, किसलय तथा तुलसीदल के साथ-साथ जल से; कन्द-मूल-फल-उपहारैः--मूल, कन्द तथा फलों की भेंट से; च--तथा; समीहमान:--करते हुए; भगवतः --भगवान्‌ की; आराधनम्‌--आराधना, अर्चना; विविक्त: --विशुद्ध; उपरत--मुक्त होकर; विषय-अभिलाष: -- भौतिक इन्द्रिय-सुख की कामना; उपभृत--बढ़ी हुई; उपशमः--शान्ति; पराम्‌--दिव्य; निर्वुतिमू--सन्तोष, प्रसन्नता; अवाप--प्राप्त किया |

    पुलह आश्रम के उपबन में महाराज भरत अकेले रहकर अनेक प्रकार के फूल, किसलयतथा तुलसीदल एकत्र करने लगे।

    वे गंडकी नदी का जल तथा विभिन्न प्रकार के मूल, फल तथाकन्द भी एकत्र करते।

    वे इन सबसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव को भोजन अर्पित करतेऔर उनकी आराधना करते हुए सन्‍्तुष्ट रहने लगे।

    इस प्रकार उनका हृदय अत्यन्त निष्कलुष होगया और उन्हें भौतिक सुख के लिए लेशमात्र भी इच्छा न रही ।

    उनकी समस्त भौतिक कामनाएँदूर हो गईं।

    इस स्थिर दशा में उन्हें परम सन्‍्तोष हुआ और वे भक्ति में बने रहे।

    तयेत्थमविरतपुरुषपरिचर्यया भगवति प्रवर्धभानानुरागभरद्वरुतहदयशैधिल्य:प्रहर्षवेगेनात्मन्युद्धिद्यमानरोमपुलककुलक औत्कण्ठ्यप्रवृत्तप्रणयबाष्पनिरुद्धावलोकनयन एवंनिजरमणारुणचरणारविन्दानुध्यानपरिचितभक्तियोगेनपरिप्लुतपरमाह्ादगम्भीरहदयह्दावगाढधिषणस्तामपि क्रियमाणां भगवत्सपर्या न सस्मार ॥

    १२॥

    तया--उसके द्वारा; इत्थम्‌--इस प्रकार; अविरत--निरन्तर; पुरुष--परमे श्वर की; परिचर्यया--सेवा द्वारा; भगवति-- श्री भगवान्‌में; प्रवर्धभान--निरन्तर बढ़ती हुईं; अनुराग--आसक्ति का; भर--भार से; द्रुत--द्रवित; हृदय--हृदय; शैधिल्य:--शिथधिलता;प्रहर्ष-वेगेन--दिव्य हर्ष के वेग से; आत्मनि--अपने शरीर में; उद्धिद्यमान-रोम-पुलक-कुलक:--रोमांच, रोमों का खड़ा होना;औत्कण्ठ्य--उत्कंठा के कारण; प्रवृत्त--उत्पन्न; प्रणय-बाष्प-निरुद्ध-अवलोक-नयन: --प्रेमा श्रु प्रकट होने से दृष्टि में अबरो ध;एवम्‌--इस प्रकार; निज-रमण-अरुण-चरण-अरविन्द--ईश्वर के लाल लाल चरणकमलों पर; अनुध्यान-- ध्यान करने से;'परिचित--बढ़ा हुआ; भक्ति-योगेन-- भक्ति के कारण; परिप्लुत--सर्वत्र फैलकर; परम--सर्वोच्च; आह्ाद-- आनन्द का;गम्भीर--अत्यन्त गहरा; हृदय-हृद--हृदय रूपी सरोवर; अवगाढ--डूबा हुआ; धिषण:--जिसकी बुद्धि; तामू--वह; अपि--यद्यपि; क्रियमाणाम्‌--करते हुए; भगवत्‌-- श्रीभगवान्‌ का; सपर्यामू--आराधना; न--नहीं; सस्मार--स्मरण रहा |

    इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ भक्त महाराज भरत ईश्वर की भक्ति में निरन्तर लगे रहे।

    स्वाभाविक रूपसे वासुदेव श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम बढ़ता गया और अन्ततः उनका हृदय द्रवित हो उठा।

    'फलतः धीरे-धीरे समस्त विधि-विधानों के प्रति उनकी आसक्ति जाती रही।

    उन्हें रोमांच होने लगाऔर आह्ाद के सभी शारीरिक लक्षण ( भाव ) प्रकट होने लगे।

    उनके नेत्रों से अश्रुओं कीअविरल धारा बहने लगी जिससे वे कुछ भी देखने में असमर्थ हो गये।

    इस प्रकार वे निरन्तर ईश्वरके अरुण चरणारविन्द पर ध्यान लगाये रहते।

    उस समय उनका सरोवर के सदृश हृदय आनन्द-जल से पूरित हो गया।

    जब उनका मन इस सरोवर में निमग्न हो गया तो वे नियमपूर्वक सम्पन्नकी जाने वाली भगवद्‌ पूजा भी भूल गये।

    इत्थं धृतभगवद्व्रत ऐणेयाजिनवाससानुसवनाभिषेकार्द्कपिशकुटिलजटाकलापेन च विरोचमान:सूर्यर्चा भगवन्तं हिरण्मयं पुरुषमुज्जिहाने सूर्यमण्डलेभ्युपतिष्ठन्नेतदु होवाच ॥

    १३॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; धृत-भगवत्‌-ब्रत:-- भगवान्‌ की सेवा का व्रत स्वीकार करके; ऐणेय-अजिन-वासस--मृगचर्म वस्त्र धारणकिये; अनुसवन--प्रति दिन तीन बार; अभिषेक --स्तान द्वारा; अर्द्र--गीला; कपिश-- भूरा; कुटिल-जटा--घुँघराले केशों कीजटा; कलापेन--समूह से; च--तथा; विरोचमान:--अत्यन्त सुन्दर ढंग से सजाई गई; सूर्यर्चा--सूर्य में स्थित भगवान्‌ नारायणके अंश-विस्तार की वैदिक ऋचाओं द्वारा पूजा; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ को; हिरण्मयम्‌--स्वर्णकान्ति वाले भगवान्‌; पुरुषम्‌--भगवान्‌; उज्जिहाने--उदय होते हुए; सूर्य-मण्डले--सूर्यमंडल में; अभ्युपतिष्ठन्‌--पूजा करते हुए; एतत्‌--यह; उ ह--निश्चय ही;उवाच--कहा।

    महाराज भरत अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।

    उनके शीश पर घुँघराले बालों की राशि थी जो दिनमें तीन बार स्नान करने से गीली थी।

    वे मृगचर्म धारण करते और स्वर्णिम तेजोमय शरीर तथासूर्य के भीतर वास करने वाले श्रीनारायण की पूजा करते।

    वे ऋग्वेद की ऋचाओं का जप करतेहुए भगवान्‌ नारायण की उपासना करते और सूर्योदय होते ही निम्नलिखित एलोक का पाठकरते।

    'परोरजः सवितुर्जातवेदोदेवस्य भर्गो मनसेदं जजान ।

    सुरेतसाद: पुनराविश्य चष्टेहंसं गृक्माणं नृषद्रिड्रिरामिम: ॥

    १४॥

    'परः-रज:--रजोगुण से परे ( सतोगुण में स्थित ); सवितुः--सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को आलोकित करने वाले का; जात-वेद:--जिससे भक्तों की कामनाएँ पूरी होती है; देवस्थ-- भगवान्‌ का; भर्ग:--आत्म-तेज; मनसा--मात्र चिन्तन से; इदम्‌--यह;जजान--उत्पन्न किया; सु-रेतसा--दिव्य-शक्ति से; अद:--यह सृष्टि; पुनः --फिर; आविश्य-- प्रवेश करके ; चष्टे--देखता यापालन करता है; हंसम्‌--जीव को; गृश्षाणम्‌-- भौतिक सुख की कामना करते हुए; नृषत्‌--बुद्धि के लिए; रिड्विरामू--गतिप्रदान करने वाले; इम:ः--नमस्कार है।

    'पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं।

    वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित करते हैंऔर अपने भक्तों को सभी वर देते हैं।

    ईश्वर ने अपने दिव्य तेज से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है।

    वे अपनी ही इच्छा से इस ब्रह्माण्ड में परमात्मा के रूप में प्रविष्ट हुए और अपनी विभिन्न शक्तियोंसे भौतिक सुख की इच्छा रखने वाले समस्त जीवों का पालन करते हैं।

    ऐसे बुच्धिदायकभगवान्‌ को मैं नमस्कार करता हूँ।

    TO

    अध्याय आठ: भरत महाराज के चरित्र का वर्णन

    5.8श्रीशुक उवाचएकदा तु महानद्यां कृताभिषेकनैयमिकावश्यको ब्रह्माक्षरमभिगृणानो मुहूर्तत्रयमुदकान्त उपविवेश ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक बार; तु--लेकिन; महा-नद्यामू--गण्डकी नामक महानदी में;कृत-अभिषेक-नैयमिक-अवश्यक :--नित्य नैमित्तिक तथा शौचादि कार्यों से निवृत्त होकर, स्नान करके ; ब्रह्म-अक्षरम्‌-- प्रणवमंत्र ( ३७ ) का; अभिगृणान:--जप करते हुए; मुहूर्त-त्रयम्‌--तीन मुहूर्त तक; उदक-अन्ते--नदी के तट पर; उपविवेश--बैठगये?

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजन्‌! एक दिन प्रातःकालीन नित्य-नैमित्तिकशौचादि कृत्यों से निवृत्त होकर महाराज भरत कुछ क्षणों के लिए गण्डकी नदी के तट पर बैठकर ओगकार से प्रारम्भ होनेवाले अपने मंत्र का जप करने लगे।

    तत्र तदा राजन्हरिणी पिपासया जलाशयाभ्याशमेकैवोपजगाम ॥

    २॥

    तत्र--नदी के तट पर; तदा--उस समय; राजन्‌--हे राजा; हरिणी--मृगी; पिपासया--प्यास के कारण; जलाशय-अभ्याशम्‌--नदी के निकट; एक--एक; एव--निश्चय ही; उपजगाम--आई ।

    हे राजनू, जब महाराज भरत उस नदी के तट पर बैठे हुए थे उसी समय एक प्यासी हिरनीपानी पीने आई।

    तया पेपीयमान उदके तावदेवाविदूरेण नदतो मृगपतेरुनत्नादो लोकभयड्भूर उदपतत्‌, ॥

    ३॥

    तया--उस मृगी द्वारा; पेपीयमाने--अत्यन्त तृप्ति के साथ पिया गया; उदके--जल; तावत्‌ एब--ठीक उसी समय; अविदूरेण--अत्यन्त निकट; नदत:--गरजता हुआ; मृग-पते: --सिंह की; उन्नाद: --दहाड़; लोक-भयम्‌-कर--समस्त जीवों के लिए अत्यन्तडरावनी; उदपतत्‌--उठी |

    जब वह हिरनी अगाध तृप्ति के साथ जल पी रही थी तो पास ही एक सिंह ने घोर गर्जनाकी।

    यह समस्त जीवों के लिए डरावनी थी और इसे उस मृगी ने भी सुना।

    तमुपश्रुत्य सा मृगवधू: प्रकृतिविक्लवा चकितनिरीक्षणा सुतरामपि हरिभयाभिनिवेशव्यग्रहदयापारिप्लवदृष्टिरगततृषा भयात्सहसैवोच्चक्राम ॥

    ४॥

    तम्‌ उपश्रुत्य--उस दहाड़ को सुनकर; सा--वह; मृग-वधू:--मृगी; प्रकृति-विक्लवा--स्वभाव से अन्यों द्वारा मारे जाने सेभयभीत; चकित-निरी क्षणा--चकित नेत्रों वाली; सुतराम्‌ अपि--तुरन्त ही; हरि--सिंह के; भय--डर; अभिनिवेश-- आने से;व्यग्र-हदया--व्यग्र-चित्त वाली; पारिप्लव-दृष्टि:--चौकज्ने नेत्रों वाली; अग॒त-तृषा--अपनी प्यास बुझाये बिना; भयात्‌--डरसे; सहसा--अचानक; एव--ही; उच्चक्राम--नदी पार करने लगी।

    मृगी स्वभाव से अन्यों द्वारा वध किये जाने से डर रही थी और लगातार शंकित दृष्टि से देखरही थी।

    जब उसने सिंह की दहाड़ सुनी तो वह अत्यन्त उद्विग्न हो उठी।

    चौकन्नी दृष्टि से इधर-उधर देख कर वह मृगी अभी जल पीकर पूर्णतया तृप्त भी नहीं हुई थी कि सहसा उसने नदी पारकरने के लिए छलाँग लगा दी।

    तस्या उत्पतन्त्या अन्तर्वत्न्या उरभयावगलितो योनिनिर्गतो गर्भ: स्त्रोतसि निपपषात ॥

    ५॥

    तस्या:--उसके; उत्पतन्त्या: --बलपूर्वक कूदने से; अन्तर्वल्या: --गर्भ होने से; उर-भय--अत्यन्त डर के कारण; अवगलित:--छिटक कर; योनि-निर्गतः--गर्भ से बाहर आकर; गर्भ:--गर्भस्थ शिशु; स्नोतसि--बहते जल में; निपषात--गिर गया।

    मृगी गर्भिणी थी, अतः जब डर के मारे वह कूद पड़ी तो शिशु मृग उसके गर्भ से निकलकर नदी के बहते जल में गिर गया।

    तत्प्रसवोत्सर्पणभयखेदातुरा स्वगणेन वियुज्यमाना कस्याश्ञिहर्या कृष्णसारसती निपपाताथ च ममार ॥

    ६॥

    तत्‌ू-प्रसब--उसके ( मृग शावक ) असामयिक गिर जाने से; उत्सर्पण--नदी में छलांग लगाने से; भय--( तथा ) भय से;खेद--निर्बलता से; आतुरा--पीड़ित; स्व-गणेन--मृग-झुंड से; वियुज्यमाना--विलग हुई; कस्याश्चित्‌ू--किसी; दर्याम्‌-पर्वतकी गुफा में; कृष्ण-सारसती--कृष्ण मृग की पत्नी ( मृगी ); निपषात--गिर गई; अथ--अतः:; च--तथा; ममार--मर गई |

    अपने झुंड से विलग होने तथा गर्भपात से त्रस्त्र हो जाने से वह कृष्णा-मृगी नदी को पारकरके अत्यन्त भयभीत हुई।

    अतः एक गुफा में गिर कर वह तुरन्त मर गई।

    त॑ त्वेणकुणकं कृपणं स्त्रोतसानूह्ममानमभिवीक्ष्यापविद्धं बन्धुरिवानुकम्पया राजर्षिभरत आदायमृतमातरमित्याश्रमपदमनयत्‌, ॥

    ७॥

    तम्‌--उस; तु--लेकिन; एण-कुणकम्‌--मृग शावक ( हरिणी का बच्चा ) को; कृपणम्‌--बेचारे; सत्रोतसा--लहरों के द्वारा;अनूह्ममानम्‌--तैरता हुआ; अभिवीक्ष्य--देख कर; अपविद्धम्‌--आत्म-जन से विलग ( वियुक्त ); बन्धु: इब--मित्र की भाँति;अनुकम्पया--दयावश; राज-ऋषि: भरत:--परम सन्त तुल्य राजा भरत; आदाय--लाकर; मृत-मातरम्‌--मातृविहीन; इति--ऐसा सोचते हुए; आश्रम-पदम्‌--आश्रम में; अनयत्‌--ले गया।

    नदी के तीर पर बैठे हुए महान्‌ राजा भरत ने अपनी माँ से बिछुड़े बच्चे को नदी में उतरातेदेखा।

    यह देख कर उन्हें बड़ी दया आई।

    उन्होंने विश्वासपात्र मित्र की भाँति उस नन्हेशावक कोलहरों से निकाल लिया और मातृहीन जान कर वे उसे अपने आश्रम में ले आये।

    तस्य ह वा एणकुणकउच्चैरेतस्मिन्कृतनिजाभिमानस्याहरहस्तत्पोषणपालनलालनप्रीणनानुध्यानेनात्मनियमा: सहयमा:पुरुषपरिचर्यादय एकैकश: कतिपयेनाहर्गणेन वियुज्यमाना: किल सर्व एवोदवसन्‌ ॥

    ८॥

    तस्य--राजा का; ह वा--निसन्देह; एण-कुणके --मृग शावक में; उच्चै;:--अत्यधिक; एतस्मिनू--इसमें; कृत-निज-अभिमानस्थ--जिसने मृगशावक को पुत्रवत्‌ स्वीकार किया; अह:-अहः-- प्रतिदिन; तत्‌-पोषण--उस छौने को पाल कर बड़ाकरना; पालन--संकटों से रक्षा; लालन--लाड़-प्यार; प्रीणन--पुचकारना; अनुध्यानेन--ऐसी आसक्ति से; आत्म-नियमा:--अपने शरीर की रक्षा हेतु किये गये कृत्य; सह-यमा:--यम अर्थात्‌ अहिंसा, सहनशीलता तथा सरलता से युक्त; पुरुष-परिचर्या-आदय:--भगवान्‌ की आराधना तथा अन्य कृत्य; एक-एकश:--एक-एक करके; कतिपयेन--कुछ ही; अह:-गणेन--दिनोंमें; वियुज्यमाना:--त्यागे जाकर; किल--निस्सन्देह; सर्वे--समस्त; एव--ही; उदवसनू--नष्ट हो गये |

    धीरे-धीरे महाराज भरत उस मृग के प्रति अत्यन्त वत्सल होते गये।

    वे घास खिला-खिलाकरउसका पालन करने लगे।

    वे बाघ तथा अन्य हिंस्त्र पशुओं के आक्रमण से उसकी सुरक्षा के प्रति सदैव सतर्क रहते थे।

    जब उसे खुजली होती तो वे सहलाते और उसे आरामदेह स्थिति में रखनेका प्रयल करते।

    कभी-कभी प्रेमवश उसे चूमते भी थे।

    इस प्रकार मृग के पालन पोषण मेंआसक्त हो जाने से महाराज भरत आध्यात्मिक जीवन के यम-नियम भूलते गये, यहाँ तक किधीरे-धीरे भगवान्‌ की आराधना भी भूल गये।

    कुछ दिनों के बाद वे अपनी आध्यात्मिक उन्नतिके विषय में सब कुछ भूल गये।

    अहो बतायं हरिणकुणक: कृपण ईंश्वररथचरणपरिभ्रमणरयेण स्वगणसुहद्वन्धु भ्य: परिवर्जित: शरणं चमोपसादितो मामेव मातापितरी भ्रातृज्ञातीन्यौथिकांश्रेवोपेयाय नान्‍्यं कञ्जन वेद मय्यतिविस्त्रब्धश्नात एवमया मत्परायणस्य पोषणपालनप्रीणनलालनमनसूयुनानुष्ठेयं शरण्योपेक्षादोषविदुषा ९॥

    अहो बत--ओह; अयम्‌--यह; हरिण-कुणकः--मृग शावक; कृपण: -- असहाय; ईश्वर-रथ-चरण-परिभ्रमण-रयेण--भगवान्‌ के काल-चक्र के वेग से; स्व-गण--अपने झुंड; सुहृत्‌--तथा मित्रों; बन्धुभ्य:--स्वजनों से; परिवर्जित:--वियुक्त;शरणम्‌--शरण; च--तथा; मा--मेरी; उपसादितः --प्राप्त करके; माम्‌--मुझको; एव--ही; माता-पितरौ --माता-पिता;भ्रातृ-ज्ञातीन्‌ू--बन्धुओं तथा सम्बंधियों; यौधिकान्‌--झुंड से सम्बद्ध; च-- भी; एब--निश्चय ही; उपेयाय-- भूलकर, बिछुड़कर; न--नहीं; अन्यमू--अन्य कोई; कञ्लनन--कोई व्यक्ति; वेद--यह जानता है; मयि--मुझमें; अति--अत्यधिक; विस्त्रब्ध:--श्रद्धा रखने वाला; च--तथा; अतः एव--इसलिए; मया--मेरे द्वारा; मत्‌-परायणस्यथ--इस प्रकार मेरे आश्रित का; पोषण-पालन-प्रीणन-लालनम्‌--पोषण, पालन, संतुष्ट करना तथा दुलारना; अनसूयुना--अनसूया ( द्वेष ) रहित मैं; अनुष्ठेयम्‌--कियाजाने वाला; शरण्य--शरणागत; उपेक्षा --उपेक्षा; दोष-विदुषा--जो दोष जानता है।

    महान्‌ राजा भरत सोचने लगे--अहो! बेचारा यह मृगशावक भगवान्‌ के प्रतिनिधि काल-चक्र के वेग से अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों से विलग हो गया है और मेरी शरण में आया है।

    यहअन्य किसी को न जानकर केवल मुझे अपना पिता, माता, भाई तथा स्वजन मानने लगा है।

    मेरेही ऊपर इसकी निष्ठा है।

    यह मेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता, अतः मुझे ईर्ष्यावश यहनहीं सोचना चाहिए कि इस मृग के कारण मेरा अकल्याण होगा।

    मेरा कर्तव्य है कि मैं इसकालालन, पालन, रक्षण करूँ तथा इसे दुलारूँ-पुचकारूँ।

    जब इसने मेरी शरण ग्रहण कर ली है,तो भला इसे मैं कैसे दुत्कारूँ ? यद्यपि इस मृग से मेरे आध्यात्मिक जीवन में व्यतिक्रम हो रहा है,किन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि इस प्रकार से कोई असहाय व्यक्ति यदि शरणागत हो तो उसकीउपेक्षा नहीं की जा सकती।

    तब तो यह बड़ा भारी दोष होगा।

    नूनं ह्र्या: साधव उपशमशीला: कृपणसुहृद एवंविधार्थे स्वार्थानपि गुरुतरानुपेक्षन्ते ॥

    १०॥

    नूनम्‌--निस्संदेह; हि--निश्चय ही; आर्या:--परम सभ्य; साधव:--साधुजन; उपशम-शीला: --संन्यास लेने पर भी; कृपण-सुहृदः--असहायों के मित्र; एवं-विध-अर्थे--ऐसे नियमों का पालन करने के लिए; स्व-अर्थान्‌ अपि-- अपने स्वार्थों तक का;गुरु-तरानू--अत्यन्त महत्त्वपूर्ण; उपेक्षन्ते--उपेक्षा करते हैं।

    भले ही कोई संन्यास ले चुका हो, किन्तु जो महान्‌ है, वह निश्चित रूप से दुखी जीवात्मा केप्रति दया का अनुभव करता है।

    मनुष्य को चाहिए कि शरणागत की रक्षा के हेतु अपने बड़े सेबड़े स्वार्थ की परवाह न करे।

    इति कृतानुषड़ आसनशयनाटनस्नानाशनादिषु सह मृगजहुना स्नेहानुबद्धहदय आसीतू ॥

    ११॥

    इति--इस प्रकार; कृत-अनुषड्रः--आसक्ति बढ़ने से; आसन--बैठना; शयन--सोना ( नींद ); अटन--टहलना; स्नान--नहाना; आशन-आदिषु--खाने आदि में; सह मृग-जहुना--मृगछौने के साथ-साथ; स्नेह-अनुबद्ध--स्नेह से बँधा हुआ;हृदयः--हृदय वाला; आसीत्‌--हो गया।

    मृग के प्रति आसक्ति बढ़ जाने से महाराज भरत उसी मृग के साथ लेटते, टहलते, स्नानकरते, यहाँ तक कि उसी के साथ खाना भी खाते।

    इस प्रकार उनका हृदय मृग के स्नेह में बँधगया।

    कुशकुसुमसमित्पलाशफलमूलोदकान्याहरिष्यमाणो वृकसालाबृकादिभ्यो भयमाशंसमानो यदा सहहरिणकुणकेन वन समाविशति ॥

    १२॥

    कुश--अनुष्ठानों में प्रयुक्त एक प्रकार की घास, कुश; कुसुम--फूल; समित्‌--समिधा, जलाने की लकड़ी; पलाश-पत्ते;'फल-मूल--फल तथा कन्द; उदकानि--( तथा ) जल; आहरिष्यमाण:--एकत्र करने की इच्छा होने पर; वृकसाला-बवृक--भेड़ियों तथा कुत्तों से; आदिभ्य:--तथा अन्य पशु यथा बाघ आदि से; भयम्‌-- भय, डर; आशंसमान:--आशंकित; यदा--जब; सह--साथ; हरिण-कुणकेन--मृग-छौना के; वनम्‌--जंगल में ; समाविशति--प्रवेश करता है?

    जब महाराज भरत को कुश, फूल, लकड़ी, पत्ते, फल, कन्द तथा जल लाने के लिए जंगलमें जाना होता तो उन्हें भय बना रहता कि कुत्ते, सियार, बाघ तथा अन्य हिंस्त्र पशु आकर मृग कोमार न डालें।

    अतः वे जंगल में जाते समय उसे अपने साथ-ले जाते।

    पश्चिषु च मुग्धभावेन तत्र तत्र विषक्तमतिप्रणयभरहदय: कार्पण्यात्स्कन्धेनोद्ठहति एवमुत्सड्र उरसिचाधायोपलालयन्मुदं परमामवाप ॥

    १३॥

    पथिषु--वन मार्ग में; च-- भी; मुग्ध-भावेन--मृग के बचकाने आचरण से; तत्र तत्र--वहाँ वहाँ; विषक्त-मति-- अत्यधिकआकृष्ट मन वाला; प्रणय--प्रेम से; भर--पूरित; हृदयः--जिसका हृदय; कार्पण्यात्‌ू--स्नेह तथा प्रेम के कारण; स्कन्धेन--कंधे से; उद्ददति--ले जाता है; एवम्‌--इस प्रकार; उत्सड्रे--क भी-कभी गोद में; उरसि--सोते समय वक्षस्थल के ऊपर; च--भी; आधाय--ले कर; उपलालयनू--दुलारते हुए; मुदम्‌ू--सुख; परमाम्‌-- अत्यधिक; अवाप--अनुभव किया।

    जंगल के मार्ग में वह मृग अपने चपल स्वभाव के कारण महाराज भरत को अत्यन्तआकर्षक लगता।

    महाराज भरत उसे अपने कंधों में भी चढ़ा कर स्नेहवश दूर तक ले जाते।

    उनका हृदय मृग-प्रेम से इतना पूरित था कि वे कभी उसे अपनी गोद में ले लेते, तो कभी सोतेसमय उसे अपनी छाती पर चढ़ाए रखते।

    इस प्रकार उस पशु को दुलारते हुए उन्हें अत्यधिक सुखका अनुभव होता था।

    क्रियायां निर्वर्यमानायामन्तरालेप्युत्थायोत्थाय यदैनमभिचक्षीत तहिं वाव स वर्षपतिः प्रकृतिस्थेनमनसा तस्मा आशिष आशास्ते स्वस्ति स्ताद्वत्स ते सर्वत इति ॥

    १४॥

    क्रियायाम्-ईश्वर की पूजा करने या नित्य-नैमित्तिक क्रियाएँ करने में; निर्वर्यमानायाम्‌--बिना समाप्त किये ही; अन्तराले--बीच-बीच में; अपि--यद्यपि; उत्थाय उत्थाय--उठ उठ कर; यदा--जब; एनम्‌--मृगछौना को; अभिचक्षीत--देख लियाकरते; तहिं वाव--उस समय; स:--वह; वर्ष-पति:--महाराज भरत; प्रकृति-स्थेन--प्रसन्न; मनसा-- अपने मन में; तस्मै--उसको; आशिष:ः आशास्ते--आशीर्वाद देते; स्वस्ति--कल्याण; स्तात्‌ू--हो; वत्स--हे मेरे मृग-शावक; ते--तुम्हारा; सर्वतः--सभी प्रकार से; इति--इस प्रकार?

    जब महाराज भरत ईश्वर की आराधना में या अन्य अनुष्ठान में व्यस्त रहते तो अनुष्ठानों कोसमाप्त किए बिना बीच-बीच में ही वे उठ उठ जाते और देखने लगते कि मृग कहाँ है।

    इसप्रकार जब वे यह देख लेते कि वह मृग सुखपूर्वक है, तब कहीं उनके मन तथा हृदय को सन्तोषहोता और तब वे उस मृग को यह कह कर आशीष देते, 'हे वत्स, तुम सभी प्रकार से सुखीरहो।

    अन्यदा भृशमुद्विग्नमना नष्टद्रविण इव कृपण: सकरुणमतितर्षेणहरिणकुणकविरहविहलहदयसन्तापस्तमेवानुशोचन्किल कश्मलं महदभिरम्भित इति होवाच ॥

    १५॥

    अन्यदा--कभी कभी ( मृग छौने को न देखकर ); भृूशम्‌--अत्यधिक; उद्ठिग्ग-मना:--चिन्ताओं से युक्त मन; नष्ट-द्रविण: --जिसका धन लुट गया हो; इब--सहृश; कृपण:--कंजूस व्यक्ति; स-करुणम्‌--करुणापूर्वक; अति-तर्षेण --अत्यन्त चिन्ता से;हरिण-कुणक--ूृग छौने के; विरह--वियोग से; विहल--व्याकुल; हृदय--मन या हृदय में; सन्‍्ताप: --शोक; तम्‌--उन छौनेको; एव--केवल; अनुशोचन्‌--निरन्तर ध्यान करते; किल--निश्चय ही; कश्मलमू--मोह; महत्‌-- अत्यधिक; अभिरम्भित: --प्राप्त किया; इति--इस प्रकार; ह--निश्चय ही; उवाच--कहा।

    कभी कभी भरत महाराज यदि उस मृग को न देखते तो उनका मन अत्यन्त व्याकुल होउठता।

    उनकी स्थिति उस कंजूस व्यक्ति के समान हो जाती जिसे कुछ धन प्राप्त हुआ हो, किन्तुउसके खो जाने से वह अत्यन्त दुखी हो गया हो।

    जब मृग चला जाता, तो उन्हें चिन्ता हो जातीऔर वियोग के कारण वे विलाप करने लगते।

    इस प्रकार मोहग्रस्त होने पर वे निम्नलिखितप्रकार से कहते।

    अपि बत स वै कृपण एणबालको मृतहरिणीसुतोहो ममानार्यस्य शठकिरातमतेरकृतसुकृतस्यकृतविस्त्रम्भ आत्पप्रत्ययेन तदविगणयन्सुजन इवागमिष्यति ॥

    १६॥

    अपि--निस्सन्देह; बत--अहो; सः--वह छौना; वै--निश्चय ही; कृपण:--दीन; एण-बालकः--मृगशावक; मृत-हरिणी-सुतः--मृत हरिणी का बच्चा; अहो--ओह; मम--मेरा; अनार्यस्य--अनार्य का, असभ्य आदिवासी; शठ--धोखेबाज का;किरात--अथवा असभ्य आदिवासी का; मते:ः --मन वाले; अकृत-सुकृतस्य--पुण्यहीन; कृत-विस्त्रम्भ:--विश्वास करते हुए;आत्म-प्रत्ययेन--मुझे अपने ही समान समझते हुए; तत्‌ अविगणयन्‌--इन सब बातों को सोचे बिना; सु-जन: इब--भद्गर पुरुषकी भाँति; अगमिष्यति--क्या वह फिर से लौटेगा ?

    भरत महाराज सोचते--ओह! यह मृग अब असहाय है।

    मैं अत्यन्त अभागा हूँ और मेरा मनचतुर शिकारी की भाँति है क्योंकि यह सदैव छल तथा निष्ठुरता से पूर्ण रहता है।

    इस मृग ने मुझपर उसी प्रकार विश्वास किया है, जिस प्रकार एक भद्र पुरुष धूर्त मित्र के दुराचार को भूलकरउस पर विश्वास प्रकट करता है।

    यद्यपि मैं अविश्वासी सिद्ध हो चुका हूँ, किन्तु क्या यह मृग मुझपर विश्वास करके पुनः लौट आएगा ?

    अपि क्षेमेणास्मिन्ना भ्रमोपवने शष्पाणि चरन्तं देवगुप्तं द्रक्ष्यामि ॥

    १७॥

    अपि--हो सकता है कि; क्षेमेण--हिंस्त्र पशुओं के अभाव के कारण निर्भय होने से; अस्मिन्‌ू--इस; आश्रम-उपवने-- आश्रमके उद्यान में; शष्पाणि चरन्तम्‌--मुलायम घास चरते हुए; देव-गुप्तम्‌--देवताओं द्वारा रक्षित; द्रक्ष्यामि--क्या मैं देखूँगा ?

    ओह! क्या ऐसा हो सकता है कि मैं इस पशु को देवताओं से रक्षित तथा हिंस्त्र पशुओं सेनिर्भय रूप में फिर देखूँ? क्या मैं उसे पुनः उद्यान में मुलायम घास चरते हुए देख सकूँगा ??

    अपि च न वृकः सालावृकोन्यतमो वा नैकचर एकचरो वा भक्षयति ॥

    १८॥

    अपि च--अथवा; न--नहीं; वृक:--भेड़िया; साला-वृक:--कुत्ता; अन्यतम: -- अनेक में से कोई एक; वा--अथवा; न-एक-चरः--झुंड के झुंड विचरने वाले शूकर; एक-चर:--अकेला घूमने वाला व्याप्र; वा--अथवा; भक्षयति--( बेचारे पशु को )खा रहा है।

    मुझे पता नहीं, किन्तु हो सकता है कि भेड़िये या कुत्ते अथवा झुंडों में रहने वाले सुअर याफिर अकेले घूमने वाले बाघ ने उस मृग को खा लिया हो।

    निम्लोचति ह भगवान्सकलजगरक्ष्षेमोदयस्त्रय्यात्माद्यापि मम न मृगवधून्यास आगच्छति ॥

    १९॥

    निम्लोचति--डूब रहा है; ह--ओह; भगवान्‌--सूर्य के रूप में भगवान्‌; सकल-जगत्‌--समस्त ब्रह्माण्ड का; क्षेम-उदय:--कल्याण करने वाला; त्रयी-आत्मा--तीन वेदों से युक्त; अद्य अपि--अब भी; मम--मेरा; न--नहीं; मृग-वधू-न्यास:--मृगीकी धरोहर; आगच्छति--वापस आया है।

    ओह! सूर्य के उदय होते ही सभी शुभ कार्य होने लगते हैं।

    दुर्भाग्यवश, मेरे लिए ऐसा नहीं हो रहा है।

    सूर्यदेव साक्षात्‌ वेद हैं, किन्तु मैं समस्त वैदिक नियमों से शून्य हूँ।

    वे सूर्यदेव अबअस्त हो रहे हैं, तो भी वह बेचारा पशु, जिसने अपनी माता की मृत्यु होने पर मुझपर विश्वासकिया था, अभी तक नहीं लौटा है।

    अपि स्विदकृतसुकृतमागत्य मां सुखयिष्यति हरिणराजकुमारोविविधरुचिरदर्शनीयनिजमृगदारकविनोदैरसन्तोष॑ स्वानामपनुदन्‌ ॥

    २०॥

    अपि स्वित्‌ू--क्या वह करेगा; अकृत-सुकृतम्‌-- जिसने कभी कोई पुण्य कार्य नहीं किया; आगत्य--वापस आकर; माम्‌--मुझको; सुखयिष्यति--आनन्दित करेगा; हरिण-राज-कुमार: --हिरण, जिसका पालन राजकुमार के समान हुआ; विविध--अनेक; रुचिर--मनोहर; दर्शनीय--देखने योग्य; निज--अपना; मृग-दारक--मृगशावक के उपयुक्त; विनोदैः--क्रीड़ाओं से;असन्तोषम्‌--असनन्‍्तोष; स्वानामू--स्वजनों का; अपनुदन्‌-दूर करते हुए।

    वह मृग राजकुमार के तुल्य है।

    वह कब लौटेगा? वह कब फिर अपनी मनोहर क्रीड़ाएँदिखायेगा ? वह कब मेरे आहत-हृदय को पुनः शान्त करेगा ? अवश्य ही मेरे पुण्य शेष नहीं हैं,अन्यथा अब तक वह मृग अवश्य लौट आया होता।

    क््वेलिकायां मां मृषासमाधिनामीलितह॒शं प्रेमसंरम्भेण चकितचकित आगत्य पृषदपरुषविषाणाग्रेणलुठति ॥

    २१॥

    क््वेलिकायाम्‌--खेल में; माम्‌-- मुझको; मृषा--झूठ मूठ; समाधिना--समाधि से; आमीलित-हशम्‌--बन्द आँखों से; प्रेम-संरम्भेण--प्रेम के कारण उत्पन्न क्रोध से; चकित-चकितः--डर से; आगत्य--आकर; पृषत्‌--जल बिन्दुओं के समान;अपरुष--अत्यन्त नप्र; विषाण--सींगों के; अग्रेण-- अग्रभाग से, नोक से; लुठति--मेरा शरीर छूता है?

    ओह! जब यह छोटा-सा हिरण, मेरे साथ खेलते हुए और मुझे आँखें बन्द करके झूठ-मूठध्यान करते देख कर, प्रेम से उत्पन्न क्रोध के कारण मेरे चारों ओर चक्कर लगाता और डरते हुएअपने मुलायम सींगों की नोकों से मुझे छूता, जो मुझे जल बिन्दुओं के समान प्रतीत होते।

    आसादितहविषि बर्हिषि दूषिते मयोपालब्धो भीतभीत:ः सपद्युपरतरास ऋषिकुमारवदवहितकरणकलापआस्ते ॥

    २२॥

    आसादित--रख देता; हविषि--यज्ञ की सामग्री, हवि; बर्हिषि--कुश के ऊपर; दूषिते--अपवित्र होने पर; मया उपालब्ध: --मेरेद्वारा डाँटे जाने पर; भीत-भीतः--अत्यन्त डर से; सपदि--शीघ्र, तुरन्त; उपरत-रास:--अपना खेल बन्द करता हुआ; ऋषि-कुमारवत्‌--ऋषि के पुत्र या शिष्य के समान; अवहित--पूर्णतया रोका जाकर; करण-कलापः--समस्त इन्द्रियाँ; आस्ते--बैठजाता।

    जब मैं यज्ञ की समस्त सामग्री को कुश पर रखता तो यह मृग खेल-खेल में कुश को अपनेदाँतों से छूकर अपवित्र कर देता।

    जब मैं मृग को दूर हटा कर डाँटता-डपटता तो वह तुरन्त डरजाता और बिना हिले डुले बैठ जाता मानो ऋषि का पुत्र हो।

    तब वह अपना खेल ( क्रीड़ा ) बन्दकर देता।

    किं वा अरे आचरितं तपस्तपस्विन्यानया यदियमवनि:सविनयकृष्णसारतनयतनुतरसु भगशिवतमाखरखुरपदपड्धिभिद्रविणविधुरातुरस्यथ कृपणस्य ममद्रविणपदवीं सूचयन्त्यात्मानं च सर्वतः कृतकौतुकं द्विजानां स्वर्गापवर्गकामानां देवयजनं करोति ॥

    २३॥

    किम्‌ वा--क्या; अरे--ओह; आचरितम्‌--साधते हुए; तप:--तपस्या; तपस्विन्या--अत्यन्त भाग्यशाली के द्वारा; अनया--इसभूलोक पर; यत्‌--चूँकि; इयम्‌--यह; अवनि:--पृथ्वी; स-विनय--विनयपूर्वक; कृष्ण-सार-तनय--कृष्ण-मृग के शावकका; तनुतर--छोटे-छोटे; सुभग--सुन्दर; शिव-तम--अन्यन्त मंगलकारी; अखर-- मुलायम; खुर--खुरों के; पद-पड़ि भि:--पदचिह्लों की पंक्तियों से; द्रविण-विधुर-आतुरस्य--धन की हानि से अत्यन्त दुखी व्यक्ति का; कृपणस्य--अत्यन्त दुखी प्राणीका; मम-मेरे लिए; द्रविण-पदवीम्‌--उस धन को प्राप्त करने का मार्ग; सूचयन्ति--सूचित करते हुए; आत्मानम्‌--अपनाशरीर; च--तथा; सर्वतः--चारों दिशाओं में; कृत-कौतुकम्‌-- अलंकृत; द्विजानाम्‌ू--ब्राह्मणों का; स्वर्ग-अपवर्ग-कामानामू--स्वर्ग या मुक्ति की आकांक्षा करने वाले; देव-यजनमू--देवताओं के लिए किया जाने वाला यज्ञ-स्थल; करोति--करता है।

    इस प्रकार एक पागल की भाँति बोलते हुए महाराज भरत उठे और बाहर निकल गए।

    धरतीपर मृग के पदचिह्नें को देखकर उनकी प्रशंसा में अत्यन्त प्रेम से कहा, ' अरे अभागे भरत! इसपृथ्वी के तप की तुलना में तुम्हारे तप तुच्छ हैं, क्योंकि पृथ्वी की कठोर तपस्या से ही उस पर इसमृग के छोटे-छोटे, सुन्दर अत्यन्त कल्याणकारी तथा मुलायम पदचिह्न बने हुए हैं।

    पदचिह्नों कीयह श्रेणी मृग-विछोह से दुखी मुझ जैसे व्यक्ति को दिखा रही है कि वह पशु इस जंगल सेहोकर किस प्रकार आगे गया है और मैं उस खोई हुई सम्पत्ति को किस तरह पुनः प्राप्त करसकता हूँ।

    इन पदचिह्नों के कारण यह भूमि स्वर्ग या मुक्ति की इच्छा से देवताओं के हेतु यज्ञकरने वाले ब्राह्मणों के लिए उत्तम स्थान बन गई है।

    अपि स्विदसौ भगवानुडुपतिरेनं मृगपतिभयान्मृतमातरं मृगबालकं स्वाश्रमपरिभ्रष्टमनुकम्पयाकृपणजनवत्सलः परिपाति ॥

    २४॥

    अपि स्वित्‌ू--कहीं ऐसा तो नहीं है; असौ--वह; भगवानू--सर्वशक्तिमान; उडु-पति:-- चन्द्रमा; एनमू--इस; मृग-पति-भयात्‌--सिंह के भय से; मृत-मातरम्‌--मातृविहीन; मृग-बालकम्‌--मृग शावक की; स्व-आश्रम-परिभ्रष्टमू--अपने आश्रम सेबिछुड़ कर; अनुकम्पया--दयावश; कृपण-जन-वत्सल:--( चन्द्रमा ) जो दुखी प्राणियों पर अत्यन्त सदय है; परिपाति--सुरक्षाकर रहा है।

    भरत महाराज उन्मत्त पुरुष की भाँति बोलते रहे।

    अपने सिर के ऊपर उदित चन्द्रमा में मृग केसहश काले धब्बों को देखकर उन्होंने कहा--कहीं दुखी मनुष्य पर दया करने वाले इस चन्द्रमाने यह जानते हुए कि मेरा मृग अपने घर से बिछुड़ गया है और मातृविहीन हो गया है, उस पर भीदया की हो? इस चन्द्रमा ने सिंह के अचानक आक्रमण से बचाने के लिए ही मृग को अपनेनिकट शरण दे दी हो।

    कि वात्मजविश्लेषज्वरदवदहनशिखाभिरुपतप्यमानहदयस्थलनलिनीकं मामुपसृतमृगीतनयंशिशिरशान्तानुरागगुणितनिजवदनसलिलामृतमयगभस्तिभि: स्वधयतीति च ॥

    २५॥

    किम्‌ वा--अथवा ऐसा हो कि; आत्म-ज--पुत्र से; विश्लेष--वियोग के कारण; ज्वर--ताप; दव-दहन--दावाग्नि की;शिखाभि:--लपटों से; उपतप्यमान--ज्वलित; हृदय--हृदय; स्थल-नलिनीकम्‌--लाल कमल पुष्प के सहश; माम्‌--मुझको;उपसृत-मृगी-तनयम्‌--जिससे मृगछौना अत्यन्त हिला-मिला हुआ था; शिशिर-शान्त--अत्यन्त शीतल एवं शान्त; अनुराग--प्रेमवश; गुणित--प्रवहमान; निज-वदन-सलिल--अपने मुख का जल; अमृत-मय--अमृत के सहश उत्तम; ग्भस्तिभि:--चन्द्रमा की किरणों से; स्वधयति--मुझे आनन्द दे रहा है; इति--इस प्रकार; च--तथा?

    चाँदनी को देखकर महाराज भरत उन्मत्त पुरुष की भाँति बोलते रहे।

    उन्होंने कहा--यहमृगछौना इतना विनम्र घुलमिल गया था और मुझे इतना प्रिय था कि इसके वियोग से मुझे अपनेपुत्र जैसा वियोग हो रहा है।

    इसके वियोग-ताप से मुझे दावाग्नि से जल जाने जैसा कष्ट हो रहाहै।

    मेरा हृदय-स्थल कुमुदिनी जैसा जल रहा है।

    मुझे इतना दुखी देखकर चन्द्रमा मेरे ऊपरचमकते हुए अमृत जैसी वर्षा कर रहा है मानो प्रखर ज्वर से पीड़ित व्यक्ति पर उसका मित्र जलछिड़क रहा हो।

    इस प्रकार यह चन्द्रमा मुझे सुख देने वाला है।

    एवमघटमानमनोरथाकुलहृदयो मृगदारकाभासेन स्वारब्धकर्मणा योगारम्भणतो विश्रेशितः सयोगतापसो भगवदाराधनलक्षणाच्च 'कथमितरथा जात्यन्तर एणकुणक आसड्रःसाक्षात्रिः श्रेयसप्रतिपक्षतया प्राक्परित्यक्तदुस्त्यजहदयाभिजातस्य तस्यैवमन्तरायविहतयोगारम्भणस्यराजर्षेर्भरतस्य तावन्मृगार्भकपोषणपालनप्रीणनलालनानुषड्रेणाविगणयत आत्मानमहिरिवाखुबिलंदुरतिक्रमः काल: करालरभस आपद्यत, ॥

    २६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; अघटमान--दुर्लभ; मन:-रथ--इच्छाओं से जो मन के रथ के तुल्य हैं; आकुल--दुखी; हृदयः--जिसकाहृदय; मृग-दारक-आभासेन--मृग छौने के समान; स्व-आरब्ध-कर्मणा--अपने प्रारब्ध के बुरे कर्म-फलों से; योग-आरम्भणतः--योगानुष्ठान से; विश्रंशित: --च्युत; सः--वह ( महाराज भरत ); योग-तापस:--योग तथा तपस्या करता हुआ;भगवत्‌-आराधन-लक्षणात्‌-- श्रीभगवान्‌ की भक्ति सम्बन्धी क्रियाओं से; च--तथा; कथम्‌--किस प्रकार; इतरथा-- अन्य;जाति-अन्तरे--अन्य जातियोनि वाले; एण-कुणके--मृग छौने के शरीर के प्रति; आसड्डर:--अत्यधिक आसक्ति; साक्षात्‌--प्रत्यक्ष; निः श्रेयस--चरम जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने के लिए; प्रतिपक्षतया--प्रतिरोध; प्राकु--पहले; परित्यक्त--छोड़ा हुआ;दुस्त्यज--यद्यपि त्याग करने में अत्यन्त कठिन; हृदय-अभिजातस्य--अपने हृदय से उत्पन्न अपने पुत्रों; तस्थ--उसका; एवम्‌--इस प्रकार; अन्तराय--उस प्रतिरोध ( विघ्न ) से; विहत--रोका जाकर; योग-आरम्भणस्य--जिसकी योग-साधना का पथ;राज-ऋषे:--राजर्षि; भरतस्य--महाराज भरत का; तावत्‌--तब तक; मृग-अर्भक--मृगछौना; पोषण-- भरण में ( दूध पिलानेमें )) पालन--सुरक्षा में; प्रीणन--प्रसन्न रखने में; लालन--दुलारने में; अनुषड्रेण --निरन्तर ध्यान करते रहने से;अविगणयत:--उपेक्षा करते हुए; आत्मानमू--अपनी आत्मा की; अहिः इब--सर्प के तुल्य; आखु-बिलम्‌--चूहे का बिल;दुरतिक्रम:--दुर्लध्य; काल:--मृत्यु; कराल-- भयानक; रभसः--गतिमान; आपद्यत--आ गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, हे राजन, इस प्रकार महाराज भरत दुर्दमनीय आकांक्षा सेअभिभूत हो गये जो मृग के रूप में प्रकट हुई।

    अपने पूर्वकर्मों के फल के कारण वे योग, तपतथा भगवान्‌ की आराधना से च्युत हो गये।

    यदि यह पूर्वकर्मों के कारण नहीं हुआ तो वेक्योंकर अपने पुत्र तथा परिवार को अपने आध्यात्मिक जीवन के पथ पर अवरोध समझ करत्याग देने के बाद भी मृग से इतना आकृष्ट होते ? वे मृग के लिए इतना दुर्दम्य स्नेह क्‍यों प्रकटकरते? यह निश्चय ही उनके पूर्वकर्म का फल था।

    राजा मृग को सहलाने तथा उसके लालन-पालन में इतने व्यस्त रहते कि वे अपने आध्यात्मिक वृत्तियों से नीचे गिर गये।

    कालान्तर में,दुल॑घ्य मृत्यु उनके समक्ष उपस्थित हो गई जिस प्रकार कोई विषधर सर्प चूहे के द्वारा निर्मित छिद्रमें चुपके से घुस जाता है।

    तदानीमपि पार्श्वर्तिममात्मजमिवानुशोचन्तमभिवी क्षमाणो मृग एवाभिनिवेशितमना विसृज्य लोकमिमंसह मृगेण कलेवरं मृतमनु न मृतजन्मानुस्मृतिरितरवन्मृगशरीरमवाप ॥

    २७॥

    तदानीम्‌--उस समय; अपि--निस्संदेह; पार्श्ू-वर्तिनम्‌-- अपनी मृत्युशय्या के निकट; आत्म-जम्‌--अपने पुत्र; इब--सहृश;अनुशोचन्तम्‌--शोकातुर; अभिवीक्षमाण:--देखते हुए; मृगे--मृग में; एब--निश्चय ही; अभिनिवेशित-मना: --उसका मन उसीमें लगा हुआ; विसृज्य--त्याग कर; लोकम्‌--संसार को; इममू--इस; सह--साथ; मृगेण--मृग के; कलेवरम्‌--उसका शरीर;मृतमू--मरा हुआ; अनु--तत्पश्चात्‌; न--नहीं; मृत--विनष्ट; जन्म-अनुस्मृतिः --मृत्यु के पूर्व की घटना की याद; इतर-वत्‌--अन्यों की तरह; मृग-शरीरम्‌--मृग का शरीर; अवाप--प्राप्त किया।

    राजा ने देखा कि उनकी मृत्यु के समय वह मृग उनके पास बैठा था मानो उनका पुत्र हो औरवह उनकी मृत्यु से शोकातुर था।

    वास्तव में राजा का चित्त मृग के शरीर में रमा हुआ था, फलतःकृष्णभावनामृत से रहित मनुष्यों की भाँति उन्होंने यह संसार, मृग तथा अपना भौतिक शरीरत्याग दिया और मृग का शरीर प्राप्त किया।

    किन्तु इससे एक लाभ हुआ।

    यद्यपि उन्होंने मानवशरीर त्याग कर मृग का शरीर प्राप्त किया था, किन्तु उन्हें अपने पूर्व जीवन की घटनाएँ भूल नहीं पाईं थीं।

    तत्रापि ह वा आत्मनो मृगत्वकारणं भगवदाराधनसमीहानुभावेनानुस्मृत्य भूशमनुतप्यमान आह ॥

    २८॥

    तत्र अपि--उस जम्म में; ह वा--निस्संदेह; आत्मन:--स्वयं का; मृगत्व-कारणम्‌--मृग शरीर स्वीकार करने का कारण;भगवत्‌-आराधन-समीहा-- भक्ति में पूर्व कर्मों के; अनुभावेन--परिणामस्वरूप; अनुस्मृत्य--स्मरण करके; भृशम्‌--सर्वदा;अनुतप्य-मान:--पश्चात्ताप करते हुए; आह--कहा।

    मृग शरीर प्राप्त करने पर भी भरत महाराज अपने पूर्वजन्म की दृढ़ भक्ति के कारण उसशरीर को धारण करने का कारण जान गये थे।

    अपने विगत तथा वर्तमान शरीर पर विचार करतेहुए वे अपने कृत्यों पर पश्चात्ताप करते हुए इस प्रकार बोले।

    अहो कष्ट भ्रष्टोउहमात्मवतामनुपथाद्द्विमुक्तसमस्तसड़ुस्य विविक्तपुण्यारण्यशरणस्यात्मवत आत्मनिसर्वेषामात्मनां भगवति वासुदेवे तदनुअरवणमननसड्डीर्तनाराधनानुस्मरणाभियोगेनाशून्यसकलयामेनकालेन समावेशितं समाहित कार्त्स्येन मनस्तत्तु पुनर्ममाबुधस्यारान्मृगसुतमनु परिसुसत्राव ॥

    २९॥

    अहो कष्टमू--ओह, कितना कष्टमय जीवन है; भ्रष्ट:--पतित; अहमू--मैं ( हूँ ); आत्म-बताम्‌--सिद्धिप्राप्त महान्‌ भक्तों की;अनुपथात्‌--जीवन शैली से; यत्‌--जिससे; विमुक्त-समस्त-सड्डस्य--यद्यपि अपने सगे पुत्रों तथा घर का साथ त्यागे हुए;विविक्त--एकान्त; पुण्य-अरण्य--पवित्र वन की; शरणस्य--शरण लिए हुए के; आत्म-वतः--दिव्य पद को प्राप्त;आत्मनि--परमात्मा में; सर्वेषामू--समस्त; आत्मनामू--जीवात्माओं के; भगवति-- श्रीभगवान्‌ में; वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेवमें; तत्‌ू--उसका; अनुश्रवण--निरन्तर सुनना; मनन--चिन्तन; सड्जीर्तन--जप; आराधन--पूजा, उपासना; अनुस्मरण--निरन्तरस्मरण करना; अभियोगेन--लीन रह कर; अशून्य--पूरित; सकल-यामेन--जिसमें सारे समय; कालेन--काल से;समावेशितम्‌--पूर्णतया प्रतिष्ठित; समाहितम्‌--स्थिर; कार्त्स्येन--पूर्णतया; मनः--चित्त; तत्‌ू--वह मन; तु--लेकिन; पुन:--फिर; मम--मुझ; अबुधस्य--अज्ञानी का; आरातू--दूरी से; मृग-सुतम्‌--मृगछौना; अनु--के पीछे, के वश में; परिसुस्नाव--च्युत हो गया।

    मृग के शरीर में भरत महाराज पश्चात्ताप करने लगे--कैसा दुर्भाग्य है कि मैं स्वरूपसिद्धोंके पथ से गिर गया हूँ! आध्यात्मिक जीवन बिताने के लिए मैंने अपने पुत्रों, पत्ती तथा घर कापरित्याग किया और वन के एकान्त पवित्र स्थान में आश्रय लिया।

    मैं आत्मसंयमी तथा स्वरूप-सिद्ध बना और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव की भक्ति, श्रवण, चिन्तन, कीर्तन, पूजन तथास्मरण में निरन्तर लगा रहा।

    मैं अपने प्रयत्न में सफल रहा, यहां तक कि मेरा मन सर्वदा भक्ति मेंडूबा रहता था।

    किन्तु, अपनी मूर्खता के कारण मेरा मन पुनः आसक्त हो गया--इस बार मृग में।

    अब मुझे मृग शरीर प्राप्त हुआ है और मैं अपनी भक्ति-साधना से बहुत नीचे गिर चुका हूँ।

    इत्येवं निगूढनिर्वेदो विसृज्य मृर्गीं मातरं पुनर्भगवद््षेत्रमुपशमशीलमुनिगणदयितं शालग्रामंपुलस्त्यपुलहा श्रमं कालझ्जरात्प्रत्याजगाम ॥

    ३०॥

    इति--इस प्रकार; एवम्‌--इस विधि से; निगूढ--छिपी; निर्वेद:--वैराग्य भावना; विसृज्य--त्याग कर; मृगीम्‌ू--मृगी को;मातरम्‌--अपनी माता; पुनः--फिर; भगवत्‌क्षेत्रम्‌ू--वह क्षेत्र जहाँ परमेश्वर पूजित हैं; उपशम-शील--सांसारिक आसक्तियों सेसर्वथा विरक्त; मुनि-गण-दबितम्‌--जो मुनियों को अत्यधिक प्रिय है; शालग्रामम्‌--शालग्राम नामक ग्राम; पुलस्त्य-पुलह-आश्रमम्‌--पुलस्त्य तथा पुलह जैसे ऋषियों के आश्रम को; कालझझरात्‌--कालंजर पर्वत से, जहाँ उसने मृगी के गर्भ से जन्मलिया था; प्रत्याजगाम--चला आया।

    यद्यपि भरत महाराज को मृग शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु निरन्तर पश्चात्ताप करते रहने से वेसांसारिक वस्तुओं से पूर्णतः विरक्त हो गये थे।

    उन्होंने ये बातें किसी को प्रकट नहीं होने दीं।

    उन्होंने अपनी मृगी माता को अपने जन्मस्थान कालंजर पर्वत पर ही छोड़ दिया और स्वयंशालग्राम के बन में पुलस्त्य तथा पुलह के आश्रम में पुनः: चले आये।

    तस्मिन्नपि काल प्रतीक्षमाण: सझ़च्च भृशमुद्विग्न आत्मसहचरः शुष्कपर्णतृणवीरु धा वर्तमानोमृगत्वनिमित्तावसानमेव गणयन्मृगशरीरं तीर्थोदकक्लिन्नमुत्ससर्ज ३१॥

    तस्मिन्‌ अपि--उस आश्रम ( पुलह आश्रम ) में; कालम्‌--मृग शरीर में जीवन का अन्त; प्रतीक्षमाण:--सदैव प्रतीक्षा में रत;सड्भात्‌ू--संगति से; च--तथा; भूशम्‌--लगातार; उद्विग्न:--चिन्तापूर्ण; आत्म-सहचरः --परमात्मा को ही एकमात्र संगी मानकर( किसी को अकेले नहीं समझना चाहिए ); शुष्क-पर्ण-तृण-वीरुधा--केवल सूखी पत्तियाँ तथा बूटियाँ खाकर; वर्तमान: --( जीवित ) रहते हुए; मृगत्व-निमित्त--मृग शरीर धारण करने के कारण; अवसानम्‌--अन्त; एव--केवल; गणयन्‌--विचारकरते हुए; मृग-शरीरम्‌--मृग के शरीर को; तीर्थ-उदक-क्ललिन्नम्‌ू--उस तीर्थ स्थान के जल में स्नान करते हुए; उत्ससर्ज--त्यागदिया?

    उस आश्रम में रहते हुए महाराज भरत अब कुसंगति का शिकार न होने के प्रति सतर्क रहनेलगे।

    किसी को भी अपना विगत जीवन बताये बिना वे उस आश्रम में मात्र सूखी पत्तियाँ खाकररहते थे।

    वास्तव में वे अकेले न थे क्योंकि उनके साथ परमात्मा जो थे।

    इस प्रकार वे इस मृगशरीर के अन्त की प्रतीक्षा करते रहे।

    अन्त में उस तीर्थस्थल में स्नान करते हुए उन्होंने वह शरीर छोड़ दिया।

    TO

    अध्याय नौ: जड भरत का सर्वोच्च चरित्र

    5.9श्रीशुक उबाचअथ कस्यचिदि्द््‌वजवरस्याड्िरःप्रवरस्यशमदमतप:ःस्वाध्यायाध्ययनत्यागसन्तोषतितिक्षाप्र श्रयविद्यानसूयात्मज्ञानानन्दयुक्तस्यात्मसद॒श श्रुत(शी लाचाररूपौदार्यगुणा नव सोदर्या अड्गजा बभूवुर्मिथुनं च यवीयस्यां भार्यायाम्यस्तु तत्र पुमांस्तं परमभागवतराजर्षिप्रवरं भरतमुत्सृष्टमृगशरीरं चरमशरीरेण विप्रत्वं गतमाहु: ॥

    १-२॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा; अथ--तत्पश्चात्‌: कस्यचित्‌--किसी; द्विज-वरस्य--ब्राह्मण के; अड्डिर:-प्रवरस्थ--आंगिरा गोत्र के; शम--मन का नियंत्रण; दम--इन्द्रियों का नियंत्रण ( दमन ); तप:--तपस्या; स्वाध्याय-- वैदिकसाहित्य का पठन; अध्ययन--- अध्ययन; त्याग--त्याग; सन्‍्तोष--सन्तोष; तितिक्षा--सहिष्णुता; प्रश्रय--विनय; विद्या--ज्ञान;अनसूय--ईष्यारहित; आत्म-ज्ञान-आनन्द--आत्म-साक्षात्कार में प्रसन्न; युक्तस्य--गुणसम्पन्न; आत्म-सहश--तथा अपने हीसमान; श्रुत--विद्या में; शील--चरित्र में; आचार--आचरण में; रूप--सुन्दरता में; औदार्य--उदारता में; गुणा:--समस्तगुणोंवाला; नव स-उदर्या:--एकही गर्भ से उत्पन्न नौ भ्राता, नौ सहोदर; अड़-जा:--पुत्र; बभूवु:--उत्पन्न हुए; मिथुनम्‌--जुड़वाँभाई तथा बहन; च--तथा; यवीयस्याम्‌--सबसे छोटी; भार्यायाम्‌--स्त्री से; यः--जो; तु--लेकिन; तत्र--वहाँ; पुमानू--पुरुष( लड़का ); तम्‌--उसको; परम-भागवतम्‌--परम भक्त; राज-ऋषि--राजर्षि; प्रवरम्‌-- अत्यन्त सम्मानित; भरतम्‌--महाराजभरत को; उत्सृष्ट--त्याग कर; मृग-शरीरम्‌--मृग का शरीर; चरम-शरीरेण --- अन्तिम शरीर से; विप्रत्वम्‌-ब्राह्मणत्व; गतमू--प्राप्त किया; आहुः--उनका कथन है।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, हे राजन, मृग शरीर त्याग कर भरत महाराज ने एकविशुद्ध ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया।

    वह ब्राह्मण अंगिरा गोत्र से सम्बन्धित था और ब्राह्मण केसमस्त गुणों से सम्पन्न था।

    वह अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करने वाला तथा वैदिक एवंअन्य पूरक साहित्यों का ज्ञाता था।

    वह दानी, संतुष्ट, सहनशील, विनम्र, पंडित तथा किसी से नईर्ष्या करने वाला था।

    वह स्वरूपसिद्ध एवं ईश्वर की सेवा में तत्पर रहने वाला था।

    वह सदैवसमाधि में रहता था।

    उसकी पहली पत्नी से उसी के समान योग्य नौ पुत्र हुए और दूसरी पत्नी सेजुड़वाँ भाई-बहन पैदा हुए जिनमें से लड़का सर्वोच्च भक्त तथा राजर्षियों में अग्रणी भरतमहाराज के नाम से विख्यात हुआ।

    तो यह कथा है उसके मृग शरीर को त्याग कर पुनः जन्म लेनेकी।

    तत्रापि स्वजनसझ्भच्च भृशमुद्दिजमानो भगवतःकर्मबन्धविध्वंसनश्रवणस्मरणगुणविवरणचरणारविन्दयुगलं मनसा विद्धदात्मन: प्रतिघातमाशड्डूमानोभगवदनुग्रहेणानुस्मृतस्वपूर्वजन्मावलिरात्मानमुन्मत्तजडान्धबधिरस्वरूपेण दर्शयामास लोकस्य ॥

    ३॥

    तत्र अपि--उस ब्राह्मण जन्म में भी; स्व-जन-सड्भात्‌ू--अपने मित्रों तथा परिजनों की संगति से; च--तथा; भृशम्‌--अत्यधिक;उद्विजमान:--सदैव भयभीत रहते हुए कि कहीं पुनः भ्रष्ट न हो जाये; भगवतः -- श्री भगवान्‌ का; कर्म-बन्ध--कर्म-फलों काबन्धन; विध्वंसन--विनष्ट करने वाले; श्रवण--सुनना; स्मरण--याद करना; गुण-विवरण-- भगवान्‌ के गुणों का वर्णनसुनना; चरण-अरविन्द--चरणकमल; युगलम्‌--दोनों; मनसा--मन से; विद्धत्‌--सदैव ध्यान धरते हुए; आत्मन:--अपनीआत्मा का; प्रतिघातम्‌--भक्ति मार्ग में बाधा; आशड्डूमान: --सदैव सशंकित; भगवत््‌-अनुग्रहेण-- श्रीभगवान्‌ के अनुग्रह से;अनुस्मृत--स्मरण करते हुए; स्व-पूर्व--अपने पहिले; जन्म-आवलि:--जन्मों की श्रृंखला; आत्मानम्‌--स्वयं; उन्मत्त--पागल;जड--कुन्द, पत्थर तुल्य; अन्ध-- अंधा; बधिर--बहरा; स्वरूपेण--स्वरूप के कारण; दर्शयाम्‌ आस--प्रदर्शित किया, प्रकटकिया; लोकस्य--सामान्य जनता को |

    भगवत्कृपा से भरत महाराज को अपने पूर्वजन्म की घटनाएँ स्मरण थीं।

    यद्यपि उन्हें ब्राह्मणका शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु वे अपने स्वजनों तथा मित्रों से, जो भक्त नहीं थे, अत्यन्तभयभीत थे।

    वे ऐसी संगति से सदैव सतर्क रहते, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं पुनः पथच्युत नहो जाँय।

    फलत:ः वे जनता के समक्ष उन्मत्त ( पागल ), जड़, अंधे तथा बहरे के रूप में प्रकटहोते रहे जिससे दूसरे लोग उनसे बात करने की चेष्टा न करें।

    इस प्रकार उन्होंने कुसंगति से अपनेको बचाए रखा।

    वे अपने अन्तःकरण में सदा भगवान्‌ के चरणकमल का ध्यान धरते और उनकेगुणों का जप करते रहते जो मनुष्य को कर्म-बन्धन से बचाने वाला है।

    इस प्रकार उन्होंने अपनेको अभक्त संगियों के आक्रमण से बचाए रखा।

    तस्यापि ह वा आत्मजस्य विप्र: पृत्रस्नेहानुबद्धमना आसमावर्तनात्संस्कारान्यथोपदेशं विदधान उपनीतस्यच पुनः शौचाचमनादीन्कर्मनियमाननभिप्रेतानपि समशिक्षयदनुशिष्टेन हि भाव्यं पितु: पुत्रेणेति, ॥

    ४॥

    तस्य--उस; अपि ह वा--निश्चय ही; आत्म-जस्य--अपने पुत्र का; विप्र:--जड़ भरत के ब्राह्मण पिता ( विक्षिप्त भरत ); पुत्र-स्नेह-अनुबद्ध-मना: --पुत्र प्रेम के कारण मन बँध जाने से; आ-सम-आवर्तनात्‌ू--ब्रह्मचर्य आश्रम के समाप्त होने तक;संस्कारान्‌ू--संस्कारों को; यथा-उपदेशम्‌--शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार; विदधान:--करते हुए; उपनीतस्थ--जिसकाउपनयन संस्कार हो, उसका; च--तथा; पुनः--फिर; शौच-आचमन-आदीनू--स्वच्छता-मुख, हाथ, पाँव धोने इत्यादि काअभ्यास; कर्म-नियमान्‌--कर्म के विधि-विधान; अनभिप्रेतानू अपि--जड़ भरत के न चाहने पर भी; समशिक्षयत्‌--शिक्षा दी;अनुशिष्टेन--विधि-विधानों का पालन करना सिखाया; हि--निश्चय ही; भाव्यम्‌--हो; पितु:ः--पिता से; पुत्रेण--पुत्र; इति--इस प्रकार?

    ब्राह्मण पिता का मन अपने पुत्र जड़ भरत ( भरत महाराज ) के प्रति सदैव स्नेह से पूरितरहता था।

    उससे सदा अनुरक्त रहते थे।

    क्योंकि जड़ भरत गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिएअयोग्य थे, अतः ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति तक ही उनके संस्कार पूरे हुए।

    यद्यपि जड़ भरतअपने पिता की शिक्षाओं को मानने में आनाकानी करते तो भी उस ब्राह्मण ने यह सोचकर किपिता का कर्तव्य है कि अपने पुत्र को शिक्षा दे, जड़ भरत को स्वच्छ रहने तथा प्रक्षालन करनेकी शिक्षा दी।

    स चापि तदु ह पितृसन्निधावेवासश्रीचीनमिव सम करोति छन्दांस्यध्यापयिष्यन्सह व्याहृतिभि:सप्रणवशिरस्त्रिपदीं सावित्री ग्रैष्पवासन्तिकान्मासानधीयानमप्यसमवेतरूपं ग्राहयामास ॥

    ५॥

    सः--वह ( जड़ भरत ); च--भी; अपि--निस्संदेह; तत्‌ उह--जो कुछ उसका पिता शिक्षा देता; पितृ-सन्निधौ--अपने पिताकी उपस्थिति में, पिता के सामने; एब--ही; असश्नीचीनम्‌ इब--मानो उसने कुछ नहीं समझा, असत्य; सम करोति--करता था;छन्दांसि अध्यापयिष्यन्‌ू--चातुर्मास में अथवा श्रावण मास से शुरू करके वेद मंत्रों की शिक्षा देने का इच्छुक; सह--साथ-साथ;व्याहतिभि:--स्वर्गलोक ( भू: भुव: स्व: ) के नामों का उच्चारण; स-प्रणव-शिर:--ओकार से प्रारम्भ करके; त्रि-पदीम्‌--तीन पदों वाले; सावित्रीम्‌--गायत्री मंत्र; ग्रैष्प-वासन्तिकान्‌ मासान्‌ू--चैत्र से ( १५ मई से ) प्रारम्भ होने वाले चार मास; अधीयानम्‌अपि--अध्ययन करते रहने पर भी; असमवेत-रूपम्‌--अपूर्ण रूप में; ग्राहयाम्‌ आस--जो सिखला दिया, अभ्यास करा दिया।

    अपने पिता द्वारा वैदिक ज्ञान की समुचित शिक्षा दिये जाने पर भी जड़ भरत उनके समक्षमूर्ख ( जड़ ) की भाँति आचरण करते।

    वे ऐसा आचरण इसलिए करते जिससे उनके पिता यहसमझें कि वे शिक्षा के अयोग्य हैं और इस प्रकार उसे आगे शिक्षा देना बन्द कर दें।

    वे सर्वथाविपरीत आचरण करते।

    यद्यपि शौच के बाद हाथ धोने को कहा जाता, किन्तु वे उन्हें उसकेपहले ही धो लेते।

    तो भी उनके पिता उन्हें बसनन्‍्त तथा ग्रीष्म काल में वैदिक शिक्षा देना चाहतेथे।

    उन्होंने उसे ओंकार तथा व्याहति के साथ-साथ गायत्री मंत्र सिखाने का यत्न किया, किन्तुचार मास बीत जाने पर भी वे उसे सिखाने में सफल न हो सके।

    एवं स्वतनुज आत्मन्यनुरागावेशितचित्तःशौचाध्ययनब्रतनियमगुर्वनलशुश्रूषणाद्यौपकुर्वाणककर्माण्यनभियुक्तान्यपि समनुशिष्टिनभाव्यमित्यसदाग्रह: पुत्रमनुशास्य स्वयं तावदनधिगतमनोरथ: कालेनाप्रमत्तेन स्वयं गृह एव प्रमत्तउपसंहतः ॥

    ६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; स्व--निज; तनु-जे--पुत्र जड़ भरत में; आत्मनि--जिसे वे आत्मवत्‌ मानते थे; अनुराग-आवेशित-चित्त: --अपने पुत्र के प्रेम में अनुरक्त ब्राह्मण; शौच--पतवित्रता, स्वच्छता; अध्ययन--वैदिक साहित्य का अध्ययन; ब्रत--समस्त ब्रतोंका पालन; नियम--विधि-विधान; गुरु--गुरु का; अनल--अग्नि का; शुश्रूषण-आदि--सेवा इत्यादि; औपकुर्वाणक --ब्रह्मचर्य आश्रम के; कर्माणि--समस्त कर्म; अनभियुक्तानि अपि--पुत्र के न चाहने पर भी; समनुशिष्टेन--पूर्णतया शिक्षितहोकर; भाव्यम्‌--हो; इति--इस प्रकार; असतू-आग्रह: --अग्राह्म मूर्खता वाले; पुत्रमू--पुत्र को; अनुशास्य--शिक्षा देकर;स्वयम्‌--स्वयं; तावत्‌--उस तरह; अनधिगत-मनोरथ:--अपनी आकांक्षाएँ पूरी न होने से; कालेन--काल के प्रभाव से;अप्रमत्तेन--जो भुलक्कड़ नहीं है; स्वयम्‌--साक्षात्‌; गृहे-- अपने घर में; एव--निश्चय ही; प्रमत्त:--बुरी तरह से आसक्त;उपसंहतः--मृत्यु हो गई, मर गया।

    जड़ भरत का ब्राह्मण पिता अपने पुत्र को अपनी आत्मा तथा हृदय के समान मानता, अतःवह उससे अत्यधिक अनुरक्त था।

    उसने अपने पुत्र को सुशिक्षित बनाना चाहा और अपने इसअसफल प्रयास में उसने अपने पुत्र को ब्रह्मचर्य के विधि-विधान सिखाने प्रारम्भ किये, जिनमेंवैदिक अनुष्ठान, शौच, वेदाध्ययन, कर्मकाण्ड, गुरु की सेवा, अग्नि यज्ञ करने की विधिसम्मिलित थे।

    उसने इस प्रकार से अपने पुत्र को शिक्षा देने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु वहअसफल रहा।

    उसने अपने अन्तःकरण में यह आशा बाँध रखी थी कि उसका पुत्र विद्वान होगा,किन्तु उसके सारे प्रयत्न निष्फल रहे।

    प्रत्येक प्राणी की भाँति यह ब्राह्मण भी अपने घर के प्रतिआसक्त था और वह यह भूल ही गया था कि एक दिन उसे मरना है।

    किन्तु मृत्यु कभी भूलती नहीं।

    वह उचित समय पर प्रकट हुई और उसे उठा ले गई।

    अथ यवीयसी द्विजसती स्वगर्भजातं मिथुनं सपत्न्या उपन्यस्य स्वयमनुसंस्थया पतिलोकमगातू ॥

    ७॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; यवीयसी--सबसे छोटी; द्विज-सती--ब्राह्मण की पत्नी; स्व-गर्भ-जातम्‌--अपने गर्भ से उत्पन्न; मिथुनम्‌--जुड़वाँ बच्चे; सपत्यै-- अपनी सौत को; उपन्यस्थ--सौंप कर; स्वयम्‌-- स्वयं; अनुसंस्थया--अपने पति का अनुगमन करतीहुई; पति-लोकम्‌--पतिलोक को; अगातू--चली गई।

    तत्पश्चात्‌ ब्राह्मण की छोटी पत्नी अपने जुड़वाँ बच्चों--एक लड़का तथा एक लड़की--कोअपनी बड़ी सौत को सौंप कर अपनी इच्छा से अपने पति के साथ मर कर पतिलोक चली गई।

    पितर्युपरते भ्रातर एनमतत्प्रभावविदस्त्रय्यां विद्यायामेव पर्यवसितमतयो न परविद्यायां जडमतिरितिभ्रातुरनुशासननिर्बन्धान्ष्यवृत्सन्त, ॥

    ८॥

    पितरि उपरते--पिता की मृत्यु के पश्चात्‌; भ्रातरः--सौतेले भाइयों ने; एनमू--इस जड़ भरत को; अ-तत्‌-प्रभाव-विदः --उसकीमहानता को समझे बिना; त्रय्याम्‌-तीनों वेदों के; विद्यायामू--कर्मकाण्ड सम्बन्धी ज्ञान में; एब--निस्सन्देह; पर्यवसित--स्थिर; मतयः--जिनके मन; न--नहीं; पर-विद्यायाम्‌--भक्ति के दिव्य ज्ञान में; जड-मति:--अत्यन्त मन्द बुद्धि; इति--इसप्रकार; भ्रातु:--अपने भाई ( जड़ भरत ) को; अनुशासन-निर्बन्धात्‌-पढ़ाने का प्रयत्ल; न्यवृत्सन्त--छोड़ दिया ?

    पिता की मृत्यु के बाद जड़ भरत के नौ सौतेले भाइयों ने उसे जड़ तथा बुद्धि-हीन समझकरउसको पूर्ण शिक्षा प्रदान करने के उनके पिता का प्रयत्न छोड़ दिया।

    जड़ भरत के ये भाई तीनोंवेदों--ऋग्‌, साम यथा यजुर्वेद में पारंगत थे, जो सकाम कर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन देते हैं।

    किन्तु वे नवों भाई ईश्वर की भक्तिमयसेवा से तनिक भी परिचित न थे।

    फलस्वरूप वे जड़ भरतकी सिद्ध अवस्था को नहीं समझ सके।

    सच प्राकृतैद्धिपदपशुभिरुन्मत्तजडबधिरमूकेत्यभिभाष्यमाणो यदा तदनुरूपाणि प्रभाषते कर्माणि चकार्यमाण: परेच्छया करोति विष्टितो वेतनतो वा याच्जया यहच्छया वोपसादितमल्पं बहु मृष्टे कदन्नंवाभ्यवहरति पर नेन्द्रियप्रीतिनिमित्तम्‌, नित्यनिवृत्तनिमित्तस्वसिद्धविशुद्धानुभवानन्दस्वात्मलाभाधिगम:सुखदुःखयोदईनद्वनिमित्तयोरसम्भावितदेहाभिमान: शीतोष्णवातवर्षेषु वृष इवानावृताड़ु: पीन: संहननाडुःस्थण्डिलसंवेशनानुन्मर्दनामज्जनरजसा महामणिरिवानभिव्यक्तब्रह्मवर्चस:कुपटावृतकटिरूपवीतेनोरुमषिणा द्विजातिरिति ब्रह्मबन्धुरिति संज्ञयातज्ज़्जनावमतो विचचार, ॥

    ९-१०॥

    सः च--वह भी; प्राकृतैः--सामान्य जनों द्वारा जिनकी पहुँच आत्मतत्त्व तक नहीं है; द्वि-पद-पशुभि:--जो दो पैरों वाले पशुओंसे कम नहीं है; उन्मत्त--पागल; जड--मन्द; बधिर--बहरा; मूक --गूँगा; इति--इस प्रकार; अभिभाष्यमाण: --सम्बोधितकिये जाने पर; यदा--जब; तत्‌-अनुरूपाणि -- उनका उत्तर देने के लिए उपयुक्त शब्द; प्रभाषते--बोलता था; कर्माणि--कर्म;च--भी; कार्यमाण: --कराते हुए; पर-इच्छया--अन्यों की आज्ञा से; करोति--किया करता था; विष्टित:--बल प्रयोग से,बेगार; वेतनतः--अथवा मजदूरी से; वा--अथवा; याच्जया-- भीख माँगने से; यहच्छया-- अपनी इच्छानुसार; वा--अथवा;उपसादितमू--प्राप्त; अल्पम्‌--अत्यल्प मात्रा; बहु--बहुत सा; मृष्टम्‌--सुस्वादु; कत्‌-अन्नम्‌ू--बासी, स्वादहीन भोजन; वा--अथवा; अभ्यवहरति--खा लेता था; परमू--केवल; न--नहीं ; इन्द्रिय-प्रीति-निमित्तम्‌--इन्द्रियों की तृप्ति हेतु; नित्य--शाश्वत;निवृत्त--त्याग दिया; निमित्त--सकाम कर्म; स्व-सिद्ध--स्वतः सिद्ध; विशुद्ध-दिव्य; अनुभव-आनन्द--आनन्दपूर्ण अनुभव;स्व-आत्म-लाभ-अधिगम: --जिसे आत्रजज्ञान प्राप्त हो गया हो; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख दोनों में; द्वन्द्न-निमित्तयो: --द्वैतके कारणों में; असम्भावित-देह-अभिमान:--देह से भिन्न; शीत--जाड़े में; उष्ण-- ग्रीष्म में; वात--हवा में; वर्षेषु--वर्षा में;वृष:--साँड़; इब--सहृश; अनावृत-अड्डभ४--नंगी देह; पीन: --हृष्ट-पुष्ट; संहनन-अड्भः--गठित अंग; स्थण्डिल-संवेशन-- पृथ्वीपर पड़े रहने से; अनुन्मर्दन--बिना मालिश के; अमजजन--बिना नहाये; रजसा-- धूलि से; महा-मणि:--बहुमूल्य मणि; इब--सहश; अनभिव्यक्त--अप्रकट; ब्रह्म-वर्चसः --ब्रह्म-तेज; कु-पट-आवृत--गन्दे वस्त्र से ढका; कटि:ः--जिसकी कमर;उपवीतेन--यज्ञोपवीत से; उरू-मषिणा--धूल के कारण अत्यन्त मलिन ( काला ); द्वि-जाति:--ब्राह्मण कुल में उत्पन्न; इति--इस प्रकार, ( घृणा के कारण कहते हुए ); ब्रह्म-बन्धु;--ब्रह्म बन्धु; इति--इस प्रकार; संज्ञया--ऐसे नामों से; अ-तत्‌ू-ज्ञ-जन--उन व्यक्तियों द्वारा जो उसकी स्थिति से अपरिचित थे; अवमतः--अनाहत होकर; विचचार--विचरण करता था।

    नीच पुरुष पशुओं के तुल्य होते हैं।

    अन्तर इतना ही है कि पशुओं के चार पैर होते हैं औरऐसे मनुष्यों के केवल दो।

    ऐसे दो पैर वाले पाशविक पुरुष जड़ भरत को पागल, मन्द बुद्धि,बहरा तथा गूँगा कहते थे।

    वे उसके साथ दुर्व्यवहार करते और जड़ भरत बहरे, अंधे या जड़पागल की भाँति आचरण करता।

    न तो वह कभी प्रतिवाद करता, न ही उन्हें आश्वस्त करने काप्रयलल करता कि वह ऐसा नहीं है।

    यदि कोई उससे कुछ कराना चाहता तो वह उनकी इच्छा केअनुसार कार्य करता।

    उसे भिक्षा या मजदूरी से अथवा अपने आप जो भी भोजन मिलता--चाहेवह थोड़ा हो, स्वादु, बासी या अस्वादु--उसे ग्रहण करता और खाता।

    वह इन्द्रिय-तृप्ति के लिएकभी कुछ नहीं खाता था, क्योंकि वह पहले से उस देहात्म-बुद्धि से मुक्त हो गया था, जिसकेवशीभूत होकर स्वादिष्ट या बेस्वाद भोजन किया जाता है।

    वह भक्ति की दिव्य भावना से पूर्णथा, फलत:ः देहात्म-बुद्धि से उठने वाले द्वन्द्ठों से सर्वथा अप्रभावित रहता था।

    वास्तव में उसकाशरीर साँड़ के समान बलिषप्ठ था और उसके अंग-प्रत्यंग हृष्ट-पुष्ट थे।

    उसे न तो सर्दी-गर्मी याबयार-वर्षा की परवाह थी और न ही कभी वह अपने शरीर को ढकता था।

    वह जमीन पर लेटारहता।

    वह अपने शरीर में न तो कभी तेल लगाता, न ही कभी स्नान करता था।

    शरीर मलिनहोने के कारण उसका ब्रह्मतेज तथा ज्ञान उसी प्रकार ढके हुए थे जिस प्रकार धूल जमने सेकिसी मूल्यवान मणि का तेज छिप जाता है।

    उसने केवल एक गन्दा कौपीन और एक यज्ञोपवीतपहन रखा था जो काला पड़ गया था।

    यह जानते हुए भी कि वह ब्राह्मण कुल में उत्पन्न है, लोगउसे ब्रह्मबन्धु तथा अन्य नामों से पुकारते थे।

    इस प्रकार भौतिकतावादी लोगों द्वारा अपमानितएवं उपेक्षित होकर वह इधर-उधर घूमता रहता था।

    तात्पर्य : श्रील नरोत्तरदास ठाकुर का गीत है-- देह-स्मृति नाहि यार, संसारबंधन काहाँ तार ।

    जिसेअपने शरीर-पालन की इच्छा न रहे, अथवा जो अपने शरीर को ढंग से रखने का इच्छुक न हो और जोकिसी भी परिस्थिति में संतुष्ट रहे वह या तो पागल होगा या फिर मुक्त।

    वास्तव में जड़भरत के रूप मेंजन्म लेकर भरत महाराज भौतिक हुंद्वों से सर्वथा मुक्त थे।

    वे परमहंस थे, अत: उन्हें शारीरिक सुख की चिन्ता न थी।

    यदा तु परत आहारं कर्मवेतनत ईहमान: स्वभ्रातृभिरपि केदारकर्मणि निरूपितस्तदपि करोति किन्तु नसमं विषम न्यूनमधिकमिति वेदकणपिण्याकफलीकरणकुल्माषस्थालीपुरीषादीन्यप्यमृतवदभ्यवहरति ॥

    ११॥

    यदा--जब; तु-- लेकिन; परत:--अन्यों से; आहारम्‌ू-- भोजन; कर्म-वेतनतः--काम करने के बदले मजदूरी; ईहमान:--पालते देखकर; स्व- भ्रातृभि: अपि--अपने सौतेले भाइयों तक से; केदार-कर्मणि--खेत में काम करने तथा कृषिकार्य देखनेमें; निरूपित:--लगा हुआ; तत्‌ अपि--उस समय भी; करोति--वह करता था; किन्तु--लेकिन; न--नहीं; समम्‌--समतल;विषमम्‌--विषम, ऊबड़-खाबड़; न्यूनम्‌ू--कम; अधिकम्‌---अधिक उठी हुई; इति--इस प्रकार; वेद--जानता था; कण--धान के टूटे दाने, कना; पिण्याक--खली; फली-करण--धान की भूसी; कुल्माष--घुन-लगा अन्न; स्थाली-पुरीष-आदीनि--बर्तन में लगा जला चावल आदि; अपि--भी; अमृत-वत्‌--अमृत के समान; अभ्यवहरति--खा लेता था।

    जड़ भरत केवल भोजन के लिए काम करता था।

    उसके सौतेले भाइयों ने इसका लाभउठाकर उसे कुछ भोजन के बदले खेत में काम करने में लगा दिया, किन्तु उसे खेत में ठीक सेकाम करने की विधि ज्ञात न थी।

    उसे यह ज्ञात न था कि कहाँ मिट्टी डाली जाये अथवा कहाँभूमि को समतल या ऊँचा-नीचा रखा जाये।

    उसके भाई उसे टूटे चावल ( कना ), खली, धानकी भूसी, घुना अनाज तथा रसोई के बर्तनों की जली हुई खुरचन दिया करते थे, किन्तु वह इनसबको प्रसन्नतापूर्वक अमृत के समान स्वीकार कर लेता था।

    उसे किसी प्रकार की शिकायत नरहती और वह इन सब चीजों को प्रसन्नतापूर्वक खा लेता था।

    अथ कदाचित्कश्चिद्दषलपतिर्भद्रकाल्यै पुरुषपशुमालभतापत्यकामः ॥

    १२॥

    अथ-त्पश्चात्‌: कदाचित्‌--किसी समय; कश्चित्‌--कोई; वृषल-पति:--अन्यों की सम्पत्ति लूटने वाले शूद्रों का सरदार;भद्ग-काल्यै-- भद्रकाली नामक देवी को; पुरुष-पशुम्‌--मनुष्य के रूप में पशु की; आलभत--बलि देने लगा; अपत्य-'कामः--पुत्र का इच्छुक?

    इसी समय, पुत्र की कामना से, डाकुओं का एक सरदार जो शूद्र कुल का था, किसी पशु-तुल्य जड़ मनुष्य की भद्गरकाली पर बलि चढ़ाकर उपासना करना चाहता था।

    तस्य ह दैवमुक्तस्य पशो: पदवीं तदनुचरा: परिधावन्तो निशि निशीथसमये तमसावृतायामनधिगतपशवआकस्मिकेन विधिना केदारान्वीरासनेन मृगवराहादिभ्य: संरक्षमाणमड्धिर:प्रवरसुतमपश्यन्‌, ॥

    १३॥

    तस्य--उस सरदार का; ह--निश्चय ही; दैव-मुक्तस्य--संयोग्यवश बच जाने से; पशो: --नर-पशु का; पदवीम्‌--मार्ग ; तत्‌-अनुचरा:--उसके अनुयायी; परिधावन्त:--इधर-उधर ढूँढने के लिए दौड़ते हुए; निशि--रात्रि में; निशीथ-समये-- अर्द्ध॑रात्रि में;तमसा आवृतायाम्‌--अंधेरे से ढका हुआ; अनधिगत-पशव:--नर-पशु न पकड़ सकने से; आकस्मिकेन विधिना--दैवयोग सेअकस्मात्‌; केदारान्‌ू--खेतों में; वीर-आसनेन--ऊँचे स्थान पर बने आसन से; मृग-वराह-आदिभ्य:--मृग, जंगली सुअर आदिसे; संरक्षमाणम्‌--रक्षा करता हुआ; अड्डिर:-प्रवर-सुतम्‌--अंगिरा गोत्र वाले ब्राह्मण पुत्र को; अपश्यन्‌ू-देखा |

    डाकुओं के सरदार ने बलि के लिए एक नर-पशु पकड़ा, किन्तु वह बचकर निकल भागाऔर सरदार ने अपने सेवकों को उसे ढूँढने के लिए आज्ञा दी।

    वे विभिन्न दिशाओं में दोड़ै किन्तुउसे ढूंढ न सके।

    अर्द्धरात्रि के गहन अंधकार में इधर-उधर घूमते हुए, वे एक धान के खेत मेंपहुँचे जहाँ उन्होंने अंगिरा वंश के एक ब्राह्मणकुमार ( जड़भरत ) को देखा जो एक ऊँचे स्थानपर बैठ कर मृग तथा जंगली सुअरों से खेत की रखवाली कर रहा था।

    अथ त एनमनवद्यलक्षणमवमृश्य भर्तृकर्मनिष्पत्ति मन्यमाना बद्ध्वा रशनया चण्डिकागृहमुपनिन्युर्मुदाविकसितवदनाः: ॥

    १४॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; ते--वे ( सरदार के सेवक ); एनम्--इस ( जड़ भरत ); अनवद्य-लक्षणम्‌--मन्द पशु के से लक्षणों वालाक्योंकि उसका शरीर साँड़ जैसा मोटा था और वह बहरा तथा गूँगा था; अवमृश्य--पहचान कर; भर्तु-कर्म-निष्पत्तिम्‌ू-- अपनेस्वामी के कार्य की सिद्धि; मन्यमाना:--मानते हुए, समझकर; बद्ध्वा--बाँधकर; रशनया--रस्सियों से; चण्डिका-गृहम्‌--देवी काली के मन्दिर में; उपनिन्यु:--ले आये; मुदा--परम प्रसन्नतापूर्वक; विकसित-वदना: --प्रसन्नमुख |

    डाकू सरदार के सेवकों तथा अनुचरों ने नर-पशु के लक्षणों सें युक्त जड़ भरत को अत्यन्तउपयुक्त समझ कर उसे बलि के लिए अत्युत्तम पाया।

    अतः प्रसन्नता के मारे उनके मुख चमकनेलगे, उन्होंने उसे रस्सियों से बाँध लिया और देवी काली के मन्दिर में ले आये।

    अथ पणयस्तं स्वविधिनाभिषिच्याहतेन वाससाच्छाद्य भूषणालेपस्त्क्तिलकादिभिरुपस्कृतं भुक्तवन्तंधूपदीपमाल्यलाजकिसलयाड्लू रफलोपहारोपेतया वैशससंस्थया महता गीतस्तुतिमृदड्पणवघोषेण चपुरुषपशुं भद्गकाल्या: पुरत उपवेशयामासु:, ॥

    १५॥

    अथ--तदनन्तर; पणय: --डाकू के समस्त अनुचरों ने; तमू--उसको ( जड़ भरत को ); स्व-विधिना--अपने विधि-विधानों केअनुसार; अभिषिच्य--नहलाकर; अहतेन--नये; वाससा--वस्त्र से; आच्छाद्य--ढक कर; भूषण--गहने; आलेप--चन्दन सेलेपकर; सत्रकू--पुष्प माला; तिलक-आदिभि:--तिलक आदि से; उपस्कृतम्‌-पूर्णतया सजाकर; भुक्तवन्तम्‌-- भोजन कराकर; धूप--सुंगधित द्रव्य; दीप--दीपक; माल्य--माला; लाज--लावा; किसलय-अह्डु र--नये पत्ते तथा अंकुर; फल--फल;उपहार--अन्य सामग्री; उपेतया--पूर्णतया सज्जित; वैशस-संस्थया--बलि के लिए पूरी तैयारी; महता--अत्यधिक; गीत-स्तुति--गाना तथा प्रार्थना का; मृदड़--मृदंग; पणव--तुरही की; घोषेण-- ध्वनि से; च-- भी; पुरुष-पशुम्‌--नर-पशु को;भद्ग-काल्या: --देवी काली के; पुरत:--ठीक सामने; उपवेशयाम्‌ आसु: --बैठा दिया।

    इसके पश्चात्‌ चोरों ने नर-पशु बलि की काल्पनिक पद्धति के अनुसार जड़ भरत कोनहलाया, नये वस्त्र पहनाए, पशु के अनुकूल आभूषणों से अलंकृत किया, उसके शरीर परसुगन्धित लेप किया तथा तिलक, चन्दन एवं हार से सुसज्जित किया।

    उसे अच्छी तरह भोजनकराने के बाद वे उसे देवी काली के समक्ष ले आये और देवी को धूप, दीप, माला, खील, पत्ते,अंकुर, फल तथा फूल की भेंट चढ़ाई।

    इस प्रकार उन्होंने नर-पशु का वध करने के पूर्व गीत,स्तुति द्वारा एवं मृदंग तथा तुरही आदि बजाकर देवी की पूजा की।

    इसके पश्चात्‌ जड़ भरत कोमूर्ति के समक्ष बैठा दिया।

    अथ वृषलराजपणि: पुरुषपशोरसृगासवेन देवीं भद्गकालींयक्ष्यमाणस्तदभिमन्त्रितमसिमतिकरालनिशितमुपाददे ॥

    १६॥

    अथ--तदनन्तर; वृषल-राज-पणि:--डाकुओं के सरदार का पुरोहित; पुरुष-पशो:--बलि के लिए लाये गये पशु तुल्य नर( जड़ भरत ) का; असृकू-आसवेन--रक्त के आसव से; देवीम्‌--अर्चाविग्रह को; भद्र-कालीम्‌--देवी काली; यक्ष्यमाण: --बलि देने का इच्छुक; तत्‌-अभिमन्त्रितम्‌-- भद्गकाली के मंत्र से पवित्र की गयी; असिमू--तलवार, खड़्ग; अति-कराल--अत्यन्त भयानक; निशितम्‌--अत्यन्त पैनी; उपाददे--हाथ में ली ।

    उस समय, पुरोहित के रूप में कार्य कर रहा एक चोर भद्गरकाली को पीने के लिए नर-पशुजड़-भरत का रक्त-आसव चढ़ाने के लिए तत्पर था।

    अतः उसने अत्यन्त भयावनी तथा पैनीतलवार निकाली और भद्गरकाली के मंत्र से अभि मंत्रित करके जड़ भरत को मारने के लिए उसेउठाया।

    इति तेषां वृषलानां रजस्तमःप्रकृतीनां धनमदरजउत्सिक्तमनसां भगवत्कलावीरकुलं कदर्थीकृत्योत्पथेनस्वैरं विहरतां हिंसाविहाराणां कर्मातिदारुणं यद्गह्मभूतस्य साक्षाद्रह्मर्षिसुतस्य निर्वरस्य सर्वभूतसुहृदःसूनायामप्यननुमतमालम्भनं तदुपलभ्य ब्रह्मतेजसातिदुर्विषहेण दन्दह्ममानेन वपुषा सहसोच्चचाट सैवदेवी भद्रकाली ॥

    १७॥

    इति--इस प्रकार; तेषाम्‌ू--उन; वृषलानाम्‌--शूद्रों का जिनसे समस्त धार्मिक नियम नष्ट होते हैं; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; प्रकृतीनाम्‌ू--गुणों वाले; धन-मद--सम्पत्ति के कारण उत्पन्न गर्व; रज:--काम द्वारा; उत्सिक्त--फूला हुआ, उन्मत्त;मनसाम्‌--जिनके मन; भगवत्‌-कला-- श्रीभगवान्‌ के अंश का विस्तार, अंशस्वरूप; वीर-कुलम्‌-महान्‌ पुरुषों ( ब्राह्मणों )का कुल ( समूह ); कत्‌-अर्थी-कृत्य--अनादर करके; उत्पथेन--कुमार्ग से; स्वैरम्‌--स्वेच्छा से; विहरताम्‌--आगे बढ़ रहे;हिंसा-विहाराणाम्‌--जिनका कार्य अन्यों पर हिंसा करना है; कर्म--कर्म, कार्य; अति-दारुणम्‌ू--अत्यन्त भयावह; यत्‌--जो;ब्रह्म-भूतस्य--ब्राह्मण कुल में उत्पन्न स्वरूपसिद्ध व्यक्ति; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; ब्रह-ऋषि-सुतस्य--ब्रह्म-ऋषि के पुत्र का;निर्वरस्थ--वैरविहीन का; सर्व-भूत-सुहृद:ः--सबों का शुभचिन्तक; सूनायाम्‌ू--अन्तिम क्षण में; अपि--यद्यपि; अननुमतम्‌--अविहित; आलम्भनम्‌--ई श्रर की इच्छा के विपरीत; तत्‌--वह; उपलभ्य--देखकर; ब्रह्म-तेजसा--दिव्य आनन्द के तेज से;अति-दुर्विषहेण-- अत्यन्त प्रखर अतः असहा; दन्दह्ममानेन--ज्वलित; वपुषा--शरीर से; सहसा--एकाएक; उच्चचाट--मूर्तिको विदीर्ण करके ; सा--वह ( देवी ); एब--निस्संदेह; देवी--देवी; भद्र-काली-- भद्रकाली ।

    जिन चोर-उचक्ों ने देवी काली के पूजन का प्रबन्ध कर रखा था वे अत्यन्त नीच थे औररजो तथा तमो गुणों से आबद्ध थे।

    वे धनवान बनने की कामना से ओतप्रोत थे, अतः उन्होंनेवेदों के आदेशों का तिरस्कार किया।

    यहाँ तक कि वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न स्वरूपसिद्धजीवात्मा जड़ भरत का वध करने के लिए उद्यत थे।

    द्वेषवश वे उन्हें देवी काली के समक्ष बलिचढ़ाने के लिए लाये थे।

    ऐसे व्यक्ति सदैव ईर्ष्यालु कार्यो में रत रहते हैं, इसीलिए वे जड़ भरत को मारने का दुस्साहस कर सके।

    जड़ भरत समस्त जीवों के परम मित्र थे।

    वे किसी के भी शत्रुन थे और सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के ध्यान में मग्न रहते थे।

    उनका जन्म उत्तम ब्राह्मणकुल में हुआ था, अतः यदि वे किसी के शत्रु होते अथवा आक्रामक होते तो भी उनका वधवर्जित था।

    किसी भी दशा में जड़ भरत को वध किये जाने का कोई औचित्य न था, अतः यहभद्रकाली से सहन नहीं हो सका।

    वे तुरन्त समझ गईं कि ये पापी डाकू ईश्वर के एक परम भक्तका वध करने वाले हैं।

    अतः सहसा मूर्ति का शरीर विदीर्ण हो गया और साक्षात्‌ देवी कालीप्रकट हुईं।

    उनका शरीर प्रखर एवं असह्य तेज से जल रहा था।

    भृशममर्षरोषावेशरभसविलसितश्रुकुटिविटपकुटिलदंष्टारुणेक्षणाटोपातिभयानकव दना हन्तुकामेवेदंमहाटहासमतिसंरम्भेण विमुझ्जन्ती तत उत्पत्य पापीयसां दुष्टानां तेनेवासिना विवृक्णशीर्ष्णागलात्सवन्तमसृगासवमत्युष्णं सह गणेन निपीयातिपानमदविहलोच्चैस्तरां स्वपार्षदै: सह जगौ ननर्त चविजहार च शिरःकन्दुकलीलया, ॥

    १८॥

    भूशम्‌--अत्यधिक; अमर्ष--पापों के कारण अत्यन्त असहनशीलता; रोष--क्रोध; आवेश--डूबे रहने से; रभस-विलसित--चढ़ी हुई; भ्रु-कुटि-- भौंहें; विटप--शाखाएँ; कुटिल--टेढ़ी; दंष्ट--बड़े दाँत ( दाढ़ें )) अरूण-ईक्षण--लाल लाल नेत्र;आटोप--विक्षोभ से; अति--अत्यधिक; भयानक--डरावना; वदना--मुख वाली; हन्तु-कामा--संहार करने की इच्छुक;इब--मानो; इृदम्‌--यह ब्रह्माण्ड; महा-अट्ट-हासम्‌ू--अत्यन्त डरावनी हँसी; अति--अत्यधिक; संरम्भेण--क्रो ध के कारण;विमुश्जन्ती --छोड़ती हुई; ततः--उस बलि बेदी से; उत्पत्य--उछल कर; पापीयसाम्‌ू--समस्त पापी; दुष्टानाम्‌--दुष्टों का; तेनएवं असिना--उसी तलवार से; विवृकण--छितन्न; शीर्ष्णामू--सिर; गलातू्‌-गर्दन से; स्त्रवन्तम्‌--बहते हुए; असृक्‌ू-आसवम्‌--रक्त रूपी मादक द्रव ( आसव ); अति-उष्णम्‌-- अत्यन्त गरम; सह--समेत; गणेन--अपने गणों के; निपीय--पीते हुए; अति-'पान--अत्यधिक पीने से; मद--नशे के; विहला--वश में आये हुए; उच्चैः-तराम्‌-- अत्यन्त उच्च स्वर से; स्व-पार्षदैः--अपनेगणों के; सह--साथ; जगौ--गाया; ननर्त--नाचा; च-- भी; विजहार--खेल किया; च--भी; शिर:-कन्दुक--सिरों को गेंदके समान प्रयुक्त करते हुए; लीलया--खेल में |

    किए गये अत्याचारों को न सहन कर सकने के कारण क्रुद्ध देवी काली ने अपनी आँखेंचमकायी और उनके कराल वक्र दाँत ( दाढ़ें ) दिखाए।

    उनकी लाल-लाल आँखें दहकने लगींऔर उनकी आकृति डरावनी हो गई।

    उन्होंने अत्यन्त भयावना रूप धारण कर लिया मानो समस्तसृष्टि का संहार करने को उद्यत हों।

    वे बलिवेदी से तेजी से कूदीं और तुरन्त ही उन चोर-उचक्ोंके सिर उसी तलवार से काट लिये जिससे वे जड़ भरत का वध करने जा रहे थे।

    फिर छिन्न सिरोंवाले उन उच्चकों-चोरों के गले से निकलने वाले तप्त रक्त को पीने लगीं मानो मदिरा ( आसव )पान कर रही हों।

    दरअसल उन्होंने अपने गणों के सहित, जिनमें डाइनें तथा चुड़ैलें थीं, उसआसव का पान किया और फिर प्रमत्त होकर वे सब उच्च स्वर से गाने तथा नाचने लगीं मानोसमस्त ब्रह्माण्ड का संहार कर डालेंगी।

    उसी समय वे उनके सिरों को गेंद के समान उछाल-उछाल कर खेलने लगीं।

    एवमेव खलु महदभिचारातिक्रमः कार्त्स्येनात्मने फलति ॥

    १९॥

    एवम्‌ एव--इस प्रकार; खलु--निस्संदेह; महत्‌--महापुरुषों के साथ; अभिचार--ईर्ष्या के रूप में; अति-क्रम:--अपराध कीसीमा; कार्त्स्येन--सदैव; आत्मने--अपने ही ऊपर; फलति--प्रतिफलित होता है, पड़ता है।

    जब कोई ईर्ष्यालु व्यक्ति किसी महापुरुष के समक्ष कोई अपराध करता है, तो उसे सदैवउपर्युक्त विधि से दंडित होना पड़ता है।

    न वा एतद्विष्णुदत्त महदद्भुतं यदसम्भ्रम: स्वशिरए्छेदन आपतितेडपिविमुक्तदेहाद्यात्मभावसुदृढहदय ग्रन्थीनां सर्वसत्त्वसुहृदात्मनां निर्वराणांसाक्षाद्धशवतानिमिषारिवरायुधेना प्रमत्तेन तैस्तैर्भावै: परिरक्ष्यमाणानां तत्पादमूलमकुतश्रिद्धयमुपसूतानांभागवतपरमहंसानाम्‌ ॥

    २०॥

    न--नहीं; वा--अथवा; एतत्‌--यह; विष्णु-दत्त--हे भगवान्‌ विष्णु द्वारा रक्षित, महाराज परीक्षित; महत्‌--महान; अद्भुतम्‌--आश्चर्य; यत्‌ू--जो; असम्भ्रम: --व्याकुलता का अभाव; स्व-शिरः-छेदने-- अपना सिर काटे जाते समय; आपतिते--आ पड़नेपर; अपि--यद्यपि; विमुक्त--पूर्णतया मुक्त; देह-आदि-आत्म-भाव--जीवन का मिथ्या देहात्म भाव; सु-हृढ--सुदृढ़; हृदय-ग्रन्थीनामू--हृदय-ग्रन्थि वालों का; सर्व-सत्त्व-सुहृत्‌-आत्मनाम्‌--अपने मन में सबों का कल्याण चाहने वाले व्यक्तियों का;निर्वरणाम्‌--जिनके एक भी शत्रु नहीं हैं, उनका; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; भगवता-- श्री भगवान्‌ द्वारा; अनिमिष--तत्काल; अरि-वर-शम्त्रों में श्रेष्ठ सुदर्शन चक्र; आयुधेन--आयुधधारी द्वारा; अप्रमत्तेन--कभी क्षुब्ध न होने वाला; तैः तैः--उन उन;भावै:-- श्री भगवान्‌ के रूपों से; परिरक्ष्यमाणानाम्‌--रक्षित पुरुषों का; तत्‌-पाद-मूलम्‌-- श्रीभगवान्‌ के चरणकमल में;अकुतश्चितू--कहीं से भी नहीं; भयम्‌--डर, भय; उपसृतानाम्‌--शरणागतों का; भागवत--ई श्वर के भक्तों का; परम-हंसानामू--परमहंसों का, मुक्त पुरुषों का।

    तब शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा--हे विष्णुदत्त, आत्मा को शरीर सेपृथक्‌ मानने वाले, अजेय हृदय-ग्रंथि से मुक्त, समस्त जीवों के कल्याण कार्य में निरन्तरअनुरक्त तथा दूसरों का अहित न सोचने वाले व्यक्ति चक्रधारी तथा असुरों के लिए परम कालएवं भक्तों के रक्षक श्रीभगवान्‌ द्वारा सदैव संरक्षित होते हैं।

    भक्त सदैव भगवान्‌ के चरणकमलकी शरण ग्रहण करते हैं।

    फलत: सिर कटने का अवसर आने पर भी वे सदैव अश्षुब्ध रहते हैं।

    यह उनके लिए तनिक भी विस्मयकारी नहीं होता है।

    TO

    अध्याय दस: जड़ भरत और महाराज राहुगण के बीच चर्चा

    5.10श्रीशुक उवाचअथ सिन्धुसौवीरपते रहूगणस्य ब्रजत इश्लुमत्यास्तटे तत्कुलपतिनाशिबिकावाहपुरुषान्वेषणसमयेदैवेनोपसादित: स द्विजवर उपलब्ध एष पीवा युवा संहननाड़ुं गोखरवद्भुरं वोढुमलमिति पूर्व॑विष्टिगृहीतैःसह गृहीतः प्रसभमतदर्ह उवाह शिबिकां स महानुभावः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी बोले; अथ--इस प्रकार; सिन्धु-सौबीर-पते: --सिंधु तथा सौवीर राज्यों के शासक के;रहू-गणस्य--रहूगण नामक राजा के; ब्रजतः--( कपिल के आश्रम ) जाते हुए; इक्षु-मत्या: तटे--इक्षुमती के तट पर; ततू-कुल-पतिना--पालकी ढोने वालों के सरदार द्वारा; शिबिका-वाह--पालकीवाहक बनने के लिए; पुरुष-अन्वेषण-समये--आदमी की खोज करते हुए; दैवेन-- भाग्य से; उपसादित:--पास गये हुए; सः--वह; द्विज-वरः--ब्राह्मण पुत्र, जड़ भरत;उपलब्ध: --प्राप्त; एष:--यह पुरुष; पीवा--अत्यधिक बलिष्ठ; युवा--तरूण; संहनन-अड्डभ --सुगठित अंगों वाला; गो-खर-बत्‌--बैल या गधे के समान; धुरम्‌-- भार, बोझा; वोढुम्--ले जाने के लिए; अलम्‌--समर्थ; इति--इस प्रकार सोचते हुए;पूर्व-विष्टि-गृहीतैः--बलपूर्वक काम कराये जाने वाले, बेगारी में पकड़े गये; सह--साथ; गृहीत:--पकड़ा जाकर; प्रसभम्‌--बलपूर्वक; अ-तत्‌-अर्ह:--पालकी ढोने के अयोग्य होते हुए भी; उबाह--ढोता था; शिबिकामू--पालकी; सः--वह; महा-अनुभाव:--महापुरुष |

    शुकदेव गोस्वामी आगे बोले, हे राजन, इसके बाद सिंधु तथा सौवीर प्रदेशों का शासकरहूगण कपिलाश्रम जा रहा था।

    जब राजा के मुख्य कहार ( पालकीवाहक ) इश्लुमती के तट परपहुँचे तो उन्हें एक और कहार की आवश्यकता हुईं।

    अतः वे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज करनेलगे और दैववश उन्हें जड़ भरत मिल गया।

    उन्होंने सोचा कि यह तरुण और बलिष्ठ है औरइसके अंग-प्रत्यंग सुदृढ़ हैं।

    यह बैलों तथा गधों के तुल्य बोझा ढोने के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।

    ऐसा सोचते हुए यद्यपि महात्मा जड़ भरत ऐसे कार्य के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थे तो भी कहारोंने बिना झिझक के पालकी ढोने के लिए उन्हें बाध्य कर दिया।

    यदा हि द्विजवरस्येषुमात्रावलोकानुगतेर्न समाहिता पुरुषगतिस्तदा विषमगतां स्वशिबिकां रहूगण उपधार्यपुरुषानधिवहत आह हे वोढारः साध्वतिक्रमत किमिति विषममुहाते यानमिति ॥

    २॥

    यदा--जब; हि--निश्चय ही; द्विज-वरस्थय--जड़ भरत का; इषु-मात्र--एक बाण आगे तक ( ३ फुट ); अवलोक-अनुगते: --देखकर ही चलने से; न समाहिता--मेल न खाता हुआ; पुरुष-गतिः --कहारों की चाल; तदा--उस समय; विषम-गताम्‌--असन्तुलित होने पर; स्व-शिबिकाम्‌--अपनी पालकी को; रहूगण: --राजा रहूगण ने; उपधार्य--समझ कर; पुरुषान्‌ू--पुरुषोंसे; अधिवहतः--पालकी ले जाने वाले; आह--कहा; हे --ेरे; वोढार: --कहारो; साधु अतिक्रमत--एक बराबर चलो जिससेउछाल न हो; किम्‌ इति--किस कारण; विषमम्‌--असंतुलित, ऊँची-नीची; उह्नते--ले जाई जा रही है; यानमू--पालकी;इति--इस प्रकार।

    किन्तु अपने अहिंसक भाव के कारण जड़ भरत पालकी को ठीक से नहीं ले जा रहे थे।

    जैसे ही वे आगे बढ़ते, हर तीन फुट पहले वे यह देखने के लिए रुक जाते कि कहीं कोई चींटीपर पांव तो नहीं पड़ रहा है।

    फलतः वे अन्य कहारों से ताल-मेल नहीं बैठा पा रहे थे।

    इसके कारण पालकी हिल रही थी।

    अतः राजा रहूगण ने तुरन्त कहारों से पूछा, 'तुम लोग इसपालकी को ऊँची-नीची करके क्‍यों लिए जा रहे हो ? अच्छा हो, यदि उसे ठीक से ले चलो।

    'अथ त ईश्वरवच: सोपालम्भमुपाकर्ण्योपायतुरीयाच्छड्लितमनसस्तं विज्ञापयां बभूवु:, ॥

    ३॥

    अथ--इस प्रकार; ते--वे ( कहार ); ईश्वर-वच:--अपने स्वामी राजा रहूगण के शब्द; स-उपालम्भम्‌--उलाहनापूर्वक;उपाकर्ण्य --सुनकर; उपाय--साधन; तुरीयात्‌--चौथे से; शद्धित-मनस:ः--सशंकित मन वाले; तम्‌ू--उसको (राजा को );विज्ञापयाम्‌ बभूवु:--सूचित किया।

    जब कहारों ने महाराजा रहूगण की धमकी सुनी तो वे उसके दण्ड से अत्यन्त भयभीत होगये और उनसे इस प्रकार कहने लगे।

    न वयं नरदेव प्रमत्ता भवन्नियमानुपथा: साध्वेव वहाम: अयमधुनैव नियुक्तोपि न द्वुतं त्रजति नानेन सहवोढुमु ह बयं पारयाम इति ॥

    ४॥

    न--नहीं; वयम्‌--हम सब; नर-देव--हे मनुष्यों में ईश्वर तुल्य ( राजा को देव अर्थात्‌ श्रीभगवान्‌ का प्रतिनिधि माना जाता है );प्रमत्ता:--कार्य के प्रति असावधान; भवत्‌-नियम-अनुपथा:--सदैव आपके आज्ञाकारी हैं; साधु--ठीक से; एव--निश्चय ही;वहामः--ले जा रहे हैं; अयम्‌--यह मनुष्य; अधुना--नया; एव--निस्संदेह; नियुक्त:--लगाया गया; अपि--यद्यपि; न--नहीं;ब्रुतम्‌ू-शीघ्रता से; ब्रजति--चलता है, काम करता है; न--नहीं; अनेन--इसके; सह--साथ; बोढुम्‌--ढोने में; उह-- ओह;वयम्‌--हम सभी; पारयाम:ः --समर्थ हैं; इति--इस प्रकारहे स्वामी, कृपया ध्यान दें कि हम अपना कार्य करने में तनिक भी असावधान नहीं हैं।

    हमइस पालकी को आपको इच्छानुसार निष्ठा से ले जा रहे हैं, किन्तु यह व्यक्ति, जिसे हाल ही मेंकाम में लगाया गया है, तेजी से नहीं चल पा रहा।

    अत: हम उसके साथ पालकी ले जाने मेंअसमर्थ हैं।

    सांसर्गिको दोष एव नूनमेकस्यापि सर्वेषां सांसर्गिकाणां भवितुमईतीति निश्चित्य निशम्य कृपणवचोराजा रहूगण उपासितवृद्धोपि निसर्गेण बलात्कृत ईंषदुत्थितमन्युरविस्पष्टब्रह्मतजसं जातवेदसमिवरजसावृतमतिराह ॥

    ५॥

    सांसर्गिक:--संसर्ग से उत्पन्न; दोष:--अवगुण, त्रुटि; एब--निस्संदेह; नूनम्‌--निश्चय ही; एकस्य--एक व्यक्ति का; अपि--यद्यपि; सर्वेषाम्‌-- अन्य सभी; सांसर्गिकाणाम्‌--उसके संसर्ग में आने वाले व्यक्तियों का; भवितुम्‌--होना; अर्हति--सम्भव है;इति--इस प्रकार; निश्चित्य--निश्चय करके ; निशम्य--सुनकर; कृपण-वच: --दण्ड-भय से भयभीत दीन सेवकों के वचन;राजा--राजा; रहूगण: --रहूगण ने; उपासित-वृद्ध:--अनेक महापुरुषों का उपेदश सुना तथा उनकी सेवा किया हुआ; अपि--तो भी; निसर्गेण--अपने स्वभाव से, जो क्षत्रिय का था; बलात्‌ू--बलपूर्वक; कृत:--किया हुआ; ईषत्‌--कुछ-कुछ;उत्थित--जागृत; मन्यु:--क्रोध; अविस्पष्ट--ठीक से दृष्टिगोचर न होने वाला, अस्पष्ट; ब्रह्य-तेजसम्‌--उस ( जड़ भरत ) का ब्रह्मतेज; जात-वेदसम्‌--वैदिक अनुष्ठानों में भस्म से ढकी हुई अग्नि; इब--के समान; रजसा आवृत--रजोगुण से ढकी हुई;मतिः--जिसकी बुद्धि; आह--कहा।

    राजा रहूगण दण्ड से भयभीत कहारों के वचन का अभिप्राय समझ रहा था।

    उसकी समझमें यह भी आ गया कि मात्र एक व्यक्ति के दोष के कारण पालकी ठीक से नहीं चल रही।

    यहसब अच्छी प्रकार जानते हुए तथा उनकी विनती सुनकर वह कुछ-कुछ क्रुद्ध हुआ, यद्यपि वहराजनीति में निपुण एवं अत्यन्त अनुभवी था।

    उसका यह क्रोध राजा के जन्मजात स्वभाव सेउत्पन्न हुआ था।

    वस्तुतः राजा रहूगण का मन रजोगुण से आवृत था, अतः वह जड़ भरत से,जिनका ब्रह्मतेज राख से ढकी अग्नि के समान सुस्पष्ट नहीं था, इस प्रकार बोला।

    अहो कष्ट भ्रातर्व्यक्तमुरुपरिश्रान्तो दीर्घमध्वानमेक एवं ऊहिवान्सुचिरं नातिपीवा न संहननाड़ों जरसाचोपद्गुतो भवान्सखे नो एवापर एते सट्डृट्टिन इति बहुविप्रलब्धोप्यविद्ययारचितद्र॒व्यगुणकर्माशयस्वचरमकलेवरेवस्तुनि संस्थानविशेषेहं ममेत्यनध्यारोपितमिथ्याप्रत्ययोब्रह्मभूतस्तूष्णीं शिबिकां पूर्ववदुवाह, ॥

    ६॥

    अहो--ओह; कष्टमू--कितना कष्टप्रद है यह; भ्रातः--मेरे भाई; व्यक्तम्‌ू--स्पष्ट; उरू--अत्यन्त; परिश्रान्तः--थके हुए;दीर्घमू--लम्बा; अध्वानम्‌-मार्ग; एक:--अकेले; एव--ही; ऊहिवान्‌--ढोते हुए; सु-चिरम्‌--दीर्घ काल तक; न--नहीं;अति-पीवा--अत्यन्त हट्टा कट्टा; न--नहीं; संहनन-अड्रः --सुगठित शरीर; जरसा--बुढ़ापे से; च--भी; उपद्गुत:--विचलित,दबाया हुया; भवान्‌--आप; सखे-मेरे मित्र; नो एब--निश्चय ही नहीं; अपरे--दूसरे; एते--ये सब; सट्डट्टिन:--सह-कर्मी ;इति--इस प्रकार; बहु--अत्यधिक; विप्रलब्ध:--ताना मारे जाने पर; अपि--यद्यपि; अविद्यया--अज्ञान से; रचित--रचा हुआ;द्र॒व्य-गुण-कर्म-आशय--भौतिक तत्त्वों, गुणों तथा कर्मफल एवं आकांक्षाओं के मिश्रण में; स्व-चरम-कलेवरे--शरीर में, जोसूक्ष्म तत्त्वों ( मन, बुद्धि तथा अहं ) से चालित है; अवस्तुनि--ऐसी भौतिक वस्तुओं में; संस्थान-विशेषे--विशेष मनोवृत्तिवाला; अहम्‌ मम--मैं तथा मेरा; इति--इस प्रकार; अनध्यारोपित--ऊपर से थोपा नहीं; मिथ्या--झूठा; प्रत्ययः--विश्वास;ब्रह्म-भूत:--स्वरूप-सिद्ध, ब्रह्म पद को प्राप्त; तृष्णीमू--चुप रहकर; शिविकाम्‌--पालकी; पूर्ब-बत्‌--पहले की तरह;उबाह--ले गया।

    राजा रहूगण ने जड़ भरत से कहा : मेरे भाई, यह कितना कष्टप्रद है! तुम निश्चित ही अत्यन्तथके लग रहे हो, क्योंकि तुम बहुत समय से और लम्बी दूरी से किसी की सहायता के बिनाअकेले ही पालकी ला रहे हो।

    इसके अतिरिक्त, बुढ़ापे के कारण तुम अत्यधिक परेशान हो।

    हेमित्र, मैं देख रहा हूँ कि तुम न तो मोटे-ताजे हो, न ही हट्टे-कट्टे हो।

    क्या तुम्हारे साथ के कहारतुम्हें सहयोग नहीं दे रहे ?इस प्रकार राजा ने जड़ भरत को ताना मारा, किन्तु इतने पर भी जड़ भरत को शरीर कीसुधि नहीं थी।

    उसे ज्ञान था कि वह शरीर नहीं है, क्योंकि वह स्वरूपसिद्ध हो चुका था।

    वह नतो मोटा था, न पतला, न ही उसे पंच स्थूल भूतों तथा तीन सूक्ष्म तत्त्वों के इस स्थूल पदार्थ सेकुछ लेना-देना था।

    उसे भौतिक शरीर तथा इसके दो हाथों तथा दो पैरों से कोई सरोकार न था।

    दूसरे शब्दों में, कहना चाहें तो कह सकते हैं कि वह ' अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात्‌ ब्रह्म रूप को प्राप्तहो चुका था।

    अतः राजा की व्यंग्य पूर्ण आलोचना का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

    वह बिनाकुछ कहे पूर्ववत्‌ पालकी को उठाये चलता रहा।

    अथ पुनः स्वशिबिकायां विषमगतायां प्रकुपित उबाच रहूगण: किमिदमरे त्वं जीवन्मृतो मां कदर्थीकृत्यभर्तुशासनमतिचरसि प्रमत्तस्य च ते करोमि चिकित्सां दण्डपाणिरिव जनताया यथा प्रकृति स्वांभजिष्यस इति ॥

    ७॥

    अथ--तदनन्तर; पुनः --फिर से; स्व-शिबिकायाम्‌--अपनी पालकी में; विषम-गतायाम्‌--जड़ भरत के ठीक से न चलने केकारण ऊँची-नीची होने से; प्रकुपित:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; उबाच--कहा; रहूगण: --राजा रहूगण ने; किम्‌ इदमू--यह क्याहो रहा है; ओरे--हे मूर्ख ; त्वम्‌--तुम ( तू ); जीवत्‌ू--जिन्दा; मृत:--मरा हुआ; मामू--मुझको; कत्‌-अर्थी-कृत्य-- उपेक्षाकरके; भर्तू-शासनम्‌--स्वामी का निरादर; अतिचरसि--उल्लंघन कर रहे हो; प्रमत्तस्य--पागल का; च-- भी; ते--तुम;'करोमि--करूँगा; चिकित्सामू--समुचित उपचार; दण्ड-पाणि: इब--यमराज के समान; जनताया: --सामान्य लोगों की;यथा--जिससे; प्रकृतिमू--स्वाभाविक स्थिति; स्वामू--स्वतः; भजिष्यसे--ग्रहण करोगे; इति--इस प्रकार।

    तत्पश्चात्‌, जब राजा ने देखा कि उसकी पालकी अब भी पूर्ववत्‌ हिल रही थी, तो वहअत्यन्त क्रुद्ध हुआ और कहने लगा--ेओरे दुष्ट ! तू क्या कर रहा है? क्‍या तू जीवित ही मर गयाहै? कया तू नहीं जानता कि मैं तेरा स्वामी हूँ? तू मेरा अनादर कर रहा है और मेरी आज्ञा काउल्लंघन भी।

    इस अवज्ञा के लिए मैं अब तुझे मृत्यु के अधीक्षक यमराज के ही समान दण्डदूँगा।

    मैं तेरा सही उपचार किये देता हूँ, जिससे तू होश में आ जाएगा और ठीक से काम करेगा।

    एवं बह्बद्धमपि भाषमाणं नरदेवाभिमानं रजसा तमसानुविद्धेन मदेन तिरस्कृताशेष भगवत्तप्रियनिकेत॑'पण्डितमानिनं स भगवान्ब्राह्मणो ब्रह्म भूतसर्वभूतसुहृदात्मा योगे श्वरचर्यायां नातिव्युत्पन्नमतिं स्मथमान इबविगतस्मय इृदमाह ॥

    ८॥

    एवम्‌--इस प्रकार; बहु--अधिक; अबद्धम्‌--अनाप-शनाप; अपि--यद्यपि; भाषमाणम्‌--बोलता हुआ; नर-देव-अभिमानम्‌--राजा रहूगण, जो अपने को शासक मानता था; रजसा--रजोगुण से; तमसा--तथा तमोगुण से; अनुविद्धेन--बढ़ते हुए; मदेन--दम्भ ( पागलपन ) से; तिरस्कृत-- डाँटा जाकर; अशेष--असंख्य; भगवत्-प्रिय-निकेतम्--ईश्वर के भक्त;'पण्डित-मानिनम्‌ू--अपने को अत्यन्त पंडित मानते हुए; सः--वह; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिमान ( जड़ भरत ); ब्राह्मण: --परमयोग्य ब्राह्मण; ब्रह्म-भूत--स्वरूपसिद्ध; सर्व-भूत-सुहृत्‌-आत्मा--जो समस्त प्राणियों का मित्र है; योग-ईश्वर--सिद्ध योगियोंके; चर्यायाम्‌ू--आचरण में; न अति-व्युत्पन्न-मतिम्‌--राजा रहूगण को, जो वस्तुतः अनुभवी न था; स्मयमान:--कुछ-कुछमुस्काते हुए; इब--सहृश; विगत-स्मय:--समस्त मिथ्या अभिमान से रहित; इृदमू--यह; आह--कहा ?

    राजा रहूगण अपने को राजा समझने के कारण देहात्मबुद्धि से ग्रस्त था और भौतिक प्रकृतिके रजो तथा तमो गुणों से प्रभावित था।

    दम्भ के कारण उसने जड़ भरत को अशोभनीय वचनोंसे दुत्कारा।

    जड़ भरत महान्‌ भक्त और श्रीभगवान्‌ के प्रिय धाम थे।

    यद्यपि राजा अपने आपको बड़ा विद्वान मानता था, किन्तु वह न तो महान्‌ भक्त की स्थिति से और न उसके गुणों से परिचितथा।

    जड़ भरत तो साक्षात्‌ भगवान्‌ के परम धाम थे और अपने हृदय में ईश्वर के स्वरूप कोधारण करते थे।

    वे समस्त प्राणियों के प्रिय मित्र थे और किसी प्रकार की देहात्म-बुद्धि को नहींमानते थे।

    अतः वे मुस्काये और इस प्रकार बोले।

    ब्राह्मण उवाचत्वयोदितं व्यक्तमविप्रलब्धंभर्तुः स मे स्याद्यदि वीर भार: ।

    गन्तुर्यदि स्थादधिगम्यमध्वापीवेति राशौ न विदां प्रवाद: ॥

    ९॥

    ब्राह्मण: उवाच--योग्य ब्राह्मण ( जड़ भरत ) बोला; त्वया--तुम्हारे द्वारा; उदितम्‌--कहा गया; व्यक्तम्‌--अत्यन्त स्पष्ट;अविप्रलब्धम्‌--विरोधाभास रहित; भर्तुः--ढोने वाले का, शरीर; सः--वह; मे--मेरा; स्थात्‌ू--ऐसा होता; यदि--यदि; वीर--हे वीर पुरुष ( महाराज रहूगण ); भार:-- भार, बोझा; गन्तुः--चलने वाले का, अथवा शरीर; यदि--अगर; स्यात्‌--होना था;अधिगम्यम्‌--लक्ष्य; अध्वा--पथ; पीवा--अत्यन्त हृष्ट-पुष्ठ; इति--इस प्रकार; राशौ--शरीर में; न--नहीं; विदाम्‌ू--स्वरूपसिद्ध पुरुषों का; प्रवाद:--वाद-विवाद का विषय |

    महान्‌ ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा--हे राजन्‌ तथा वीर, आपने जो कुछ व्यंग्य में कहा है, वहसचमुच ठीक है।

    ये मात्र उलाहनापूर्ण शब्द नहीं हैं, क्योंकि शरीर तो वाहक ( ढोने वाला ) है।

    शरीर द्वारा ढोया जाने वाला भार मेरा नहीं है, क्योंकि मैं तो आत्मा हूँ।

    आपके कथनों में तनिक भी विरोधाभास नहीं है, क्योंकि मैं शरीर से भिन्न हूँ।

    मैं पालकी का ढोने वाला नहीं हूँ, वह तोशरीर है।

    निस्सन्देह, जैसा आपने संकेत किया है, पालकी ढोने में मैंने कोई श्रम नहीं किया है,क्योंकि मैं तो शरीर से पृथक्‌ हूँ।

    आपने कहा कि मैं हष्ट-पुष्ट नहीं हूँ।

    ये शब्द उस व्यक्ति केसर्वथा अनुरूप हैं, जो शरीर तथा आत्मा का अन्तर नहीं जानता।

    शरीर मोटा या दुबला होसकता है, किन्तु कोई भी बुद्धिमान यह बात आत्मा के लिए नहीं कहेगा।

    जहाँ तक आत्मा काप्रश्न है मैं न तो मोटा हूँ न दुबला।

    अतः जब आप कहते हैं कि मैं हष्ट-पुष्ट नहीं हूँ तो आप सहीहैं और यदि इस यात्रा का बोझ तथा वहाँ तक जाने का मार्ग मेरे अपने होते तो मेरे लिए अनेककठिनाइयाँ होतीं, किन्तु इनका सम्बन्ध मुझसे नहीं मेरे शरीर से है, अतः मुझे कोई कष्ट नहीं है।

    स्थौल्यं कार्य व्याधय आधयश्चक्षुत्तृड्भयं कलिरिच्छा जरा च ।

    निद्रा रतिर्मन्युरहं मदः शुच्चोदेहेन जातस्य हि मे न सन्ति ॥

    १०॥

    स्थौल्यम्‌--स्थूलता, मोटापा; कार्श्यम्‌--कृशता, दुबलापन; व्याधय:--शरीर के कष्ट यथा रोग; आधय:--मानसिक कष्ट;च--तथा; क्षुत्‌ तूटू भयम्‌ू-- भूख, प्यास तथा भय; कलिः--कलह, दो व्यक्तियों के बीच झगड़ा; इच्छा--कामनाएँ; जरा--वृद्धावस्था; च--तथा; निद्रा--नींद; रति:--इन्द्रियतृप्ति के लिए आसक्ति; मन्यु:--क्रोध; अहम्‌--झूठी पहचान ( देहात्मबोध ); मदः --मोह; शुच्च: --शोक; देहेन--इस शरीर से; जातस्य--उत्पन्न हुए का; हि--निश्चय ही; मे--मुझमें; न--नहीं;सन्ति--हैं।

    मोटापा, दुबलापन शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, भूख, प्यास, भय, कलह, भौतिक सुखकी कामना, बुढ़ापा, निद्रा, भौतिक पदार्थों में आसक्ति, क्रोध, शोक, मोह तथा देहाभिमान--येसभी आत्मा के भौतिक आवरण के रूपान्तर हैं।

    जो व्यक्ति देहात्मबुद्धि में लीन रहता है, वही इनसे प्रभावित होता है, किन्तु मैं तो समस्त प्रकार की देहात्मबुद्धि से मुक्त हूँ।

    फलतः मैं न तोमोटा हूँ, न पतला, न ही वह सब जो आपने मेरे सम्बन्ध में कहा है।

    जीवन्यृतत्वं नियमेन राजन्‌आइ्वन्तवद्यद्विकृतस्य दृष्टम्‌ ।

    स्वस्वाम्यभावो श्लुव ईड्य यत्रतहा[॑च्यतेउसौ विधिकृत्ययोग: ॥

    ११॥

    जीवतू-मृतत्वम्‌--जीवित रहकर भी मृत होने का गुण; नियमेन--प्रकृति के नियमों द्वारा; राजनू--हे राजा; आदि-अन्त-वत्‌--प्रत्येक पदार्थ का आदि और अन्त होता है; यत्‌--क्योंकि; विकृतस्थ--विकारी वस्तु का, यथा शरीर का; दृष्टमू--देखी जातीहै; स्व-स्वाम्य-भाव:--सेवक तथा स्वामी का भाव; श्रुवः--अपरिवर्तनीय, स्थिर; ईंड्य--हे पूज्य; यत्र--जहाँ; तहिं--तभी;उच्यते--यह कहा जाता है; असौ--वह; विधि-कृत्य-योग:--आज्ञा तथा कर्तव्य का संयोग।

    हे राजनू, आपने वृथा ही मुझ पर जीवित होने पर भी मृततुल्य होने का आरोप लगाया है।

    इस भौतिक सम्बन्ध में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि ऐसा सर्वत्र है, क्योंकि प्रत्येक भौतिकवस्तु का अपना आदि तथा अन्त होता है।

    आपका यह सोचना कि, 'मैं राजा तथा स्वामी हूँ!और इस प्रकार आप द्वारा मुझे आज्ञा दिया जाना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि ये पद अस्थायी हैं।

    आज आप राजा हैं और मैं आपका दास हूँ, किन्तु कल स्थिति बदल सकती है और आप मेरेदास हो सकते हैं, मैं आपका स्वामी।

    ये नियति द्वारा उत्पन्न अस्थायी परिस्थितियाँ हैं।

    विशेषबुद्धेर्विवर मनाक्नपश्याम यन्न व्यवहारतोउन्यत्‌ ।

    'क ईश्वरस्तत्र किमीशितव्यंतथापि राजन्करवाम कि ते ॥

    १२॥

    विशेष-बुद्धेः --स्वामी तथा सेवक के भेद की बुद्धि का; विवरमू--क्षेत्र, प्रसार; मनाक्‌ू --किंचित; च-- भी; पश्याम:--मैंदेखता हूँ; यत्‌--जो; न--नहीं; व्यवहारत:--व्यवहार के सिवा; अन्यत्‌-- अन्य; कः--कौन; ईश्वर: -- स्वामी; तत्र--इसमें;किमू--कौन; ईशितव्यम्‌ू--वश में किया जाये; तथापि--तो भी; राजनू--हे राजा; करवाम--मैं करूँ; किमू-- क्या; ते--तुम्हारे लिए?

    हे राजन, यदि आप अब भी यह सोचते हैं कि आप राजा हैं और मैं आपका दास, तो आपआज्ञा दें और मुझे आपकी आज्ञा का पालन करना होगा।

    तो मैं यह कह सकता हूँ कि यह अन्तरक्षणिक है और व्यवहार या परम्परावश प्राप्त होता है।

    मुझे इसका अन्य कारण नहीं दिखाईपड़ता।

    उस दशा में कौन स्वामी है और कौन दास ? प्रत्येक प्राणी प्रकृति के नियमों द्वारा प्रेरितहोता है।

    अतः न तो कोई स्वामी है, न कोई दास।

    इतने पर भी यदि आप सोचते हैं कि मैंआपका दास हूँ और आप मेरे स्वामी हैं, तो मैं इसे स्वीकार कर लूँगा।

    कृपया आज्ञा दें।

    मैं आपकी कया सेवा करूँ ?

    उन्मत्तमत्तजडवत्स्वसंस्थांगतस्य मे वीर चिकित्सितेन ।

    अर्थ: कियान्भवता शिक्षितेनस्तब्धप्रमत्तस्य च पिष्टपेष: ॥

    १३॥

    उन्मत्त--पागलपन; मत्त--शराबी; जड-वत्‌--जड़ की भाँति; स्व-संस्थाम्‌--मेरी मूल स्वाभाविक स्थिति; गतस्य--प्राप्तकिया हुआ; मे-- मुझको; वीर--हे राजा; चिकित्सितेन--अपनी भर्त्सना से; अर्थ:--प्रयोजन; कियान्‌--कौन सा; भवता--आपके द्वारा; शिक्षितेन--शिक्षा दिये गए; स्तब्ध--जड़; प्रमत्तस्य--पागल मनुष्य का; च--भी; पिष्ट-पेष:-- आटा पीसनेजैसा?

    है राजन, आपने कहा 'रे दुष्ट, जड़ तथा पागल! मैं तुम्हारी चिकित्सा करने जा रहा हूँ औरतब तुम होश में आ जाओगे।

    इस सम्बन्ध में मुझे कहना है कि यद्यपि मैं जड़, गूँगे तथा बहरेमनुष्य की भाँति रहता हूँ, किन्तु मैं सचमुच एक स्वरूप-सिद्ध व्यक्ति हूँ।

    आप मुझे दण्डितकरके क्या पाएँगे ? यदि आपका अनुमान ठीक है और मैं पागल हूँ तो आपका यह दंड एक मरेहुए घोड़े को पीटने जैसा होगा।

    उससे कोई लाभ नहीं होगा।

    जब पागल को दंडित किया जाताहै, तो उसका पागलपन ठीक नहीं होता है।

    एतावदनुवादपरिभाषया प्रत्युदीर्य मुनिवर उपशमशील उपरतानात्म्यनिमित्त उपभोगेन कर्मारब्धंव्यपनयतन्राजयानमपि तथोवाह ॥

    १४॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी आगे बोले; एतावत्‌--इतना; अनुवाद-परिभाषया--राजा द्वारा कहे गये शब्दों के दोहरानेसे; प्रत्युदीर्य--एक के बाद एक उत्तर देते हुए; मुनि-वरः--मुनिश्रेष्ठ जड़ भरत; उपशम-शील:--परम शान्त; उपरत--चुप होगये; अनात्म्य-- आत्मा से सम्बन्ध न रखने वाली वस्तुएँ; निमित्त:--जिसका कारण ( अज्ञान ) जो आत्मा से सम्बन्धित नहीं हैउससे अपनी पहचान स्थापित करना; उपभोगेन--कर्मफल को अंगीकार करने से; कर्म-आरब्धम्‌--इस समय मिलने वालाकर्मफल; व्यपनयन्‌-- पूरा करते हुए; राज-यानम्‌--राजा की पालकी; अपि-- पुनः; तथा--पूर्ववत्‌; उबाह-- लेकर चलनेलगे।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे महाराज परीक्षित, जब राजा रहूगण ने परम भक्त जड़ भरतको अपने कटु बचनों से मर्माहत किया, तो उस शान्त मुनिवर ने सब कुछ सहन कर लिया औरसमुचित उत्तर दिया।

    अज्ञानता का कारण देहात्मबुद्धि है, किन्तु जड़ भरत उससे प्रभावित नहींथे।

    अपनी स्वाभाविक विनप्रता के कारण उन्होंने अपने को कभी भी महान्‌ भक्त नहीं माना औरअपने पूर्व कर्मफल को भोगना स्वीकार किया।

    सामान्य मनुष्य की भाँति उन्होंने सोचा कि वेपालकी ढोकर अपने पूर्व अपकृत्यों के फल को विनष्ट कर रहे हैं।

    ऐसा सोचकर वे पूर्ववत्‌पालकी लेकर चलने लगे।

    स चापि पाण्डवेय सिन्धुसौवीरपतिस्तत्त्वजिज्ञासायां सम्यक्श्रद्धयाधिकृताधिकारस्तद्धृदयग्रन्थिमोचनंद्विजवच आश्रुत्य बहुयोगग्रन्थसम्मतं त्वरयावरुह्म शिरसा पादमूलमुपसृतः क्षमापयन्विगतनूपदेवस्मयउबाच, ॥

    १५॥

    सः--वह ( महाराज रहूगण ); च--भी; अपि--निस्संदेह; पाण्डवेय--हे पांडुवंश के श्रेष्ठ ( महाराज परीक्षित ); सिन्धु-सौवीर-पतिः--सिंधु तथा सौवीर नामक राज्यों का राजा; तत्त्व-जिज्ञासायाम्‌--परम सत्य के सम्बन्ध में जानने की इच्छा के बारे में;सम्यक्‌-श्रद्धया--इन्द्रियों तथा मन पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाली श्रद्धा से; अधिकृत-अधिकार: --समुचित योग्यताप्राप्त;तत्‌--उस; हृदय-ग्रन्थि--हृदय के भीतर झूठे विचारों की गाँठ; मोचनम्‌--खोलने वाले; द्विज-बच:--ब्राह्मण ( जड़ भरत ) केशब्द; आश्रुत्य--सुनकर; बहु-योग-ग्रन्थ-सम्मतम्‌--समस्त योग तथा उनके ग्रन्थों द्वारा सम्मत ( समर्थित ); त्वरया--शीघ्रतापूर्वक; अवरुह्म--उतर कर ( पालकी से ); शिरसा--अपने सिर से; पाद-मूलम्‌--चरणकमल पर; उपसृत:--दण्डप्रणामकरके; क्षमापयन्‌--अपने अपराध के लिए क्षमा प्राप्त करके; विगत-नूप-देव-स्मय:--राजा होने का झूठा अभिमान तथापूज्यभाव त्याग कर; उबाच--कहा |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा-हे श्रेष्ठ पाण्डुबंशी ( महाराज परीक्षित ), सिंधु तथा सौवीरके राजा ( रहूगण ) की परम सत्य की चर्चाओं में श्रद्धा थी।

    इस प्रकार सुयोग्य होने के कारण,उसने जड़ भरत से वह दार्शनिक उपदेश सुना जिसकी संस्तुति सभी योग साधना के ग्रन्थ करतेहैं और जिससे हृदय में पड़ी गाँठ ढीली पड़ती है।

    इस प्रकार उसका राज-मद नष्ट हो गया।

    वहतुरन्त पालकी से नीचे उतर आया और जड़ भरत के चरण-कमलों में अपना सिर रखकर पृथ्वीपर दण्डवत्‌ गिर गया जिससे वह इस ब्राह्मण-श्रेष्ठ को कहे गये अपमानपूर्ण शब्दों के लिए क्षमाप्राप्त कर सके ।

    तब उसने इस प्रकार प्रार्थना की।

    कर्त्वं निगूढश्चरसि द्विजानांबिभर्षि सूत्र कतमोवधूत: ।

    कस्यासि कुत्रत्य इहापि कस्मात्‌क्षेमाय नश्लेदसि नोत शुक्ल: ॥

    १६॥

    'कः त्वमू--आप कौन हैं; निगूढ:--प्रच्छन्न; चरसि--इस संसार में विचरण कर रहे हैं; द्विजानामू--ब्राह्मणों अथवा साधु पुरुषोंमें; बिभर्षि-- आपने धारण कर रखा है; सूत्रमू--उपवीत, ब्राह्मणों द्वारा धारण किया जाने वाला जनेऊ; कतमः--कौन से;अवधूत:--अत्यन्त महान्‌ पुरुष; कस्य असि--आप किसके हैं ( किसके पुत्र या शिष्य हैं ); कुत्रत्यः--कहाँ से; इह अपि--यहाँइस स्थान पर; कस्मात्‌--किस लिए; क्षेमाय--लाभार्थ; न:--हम सबों के ; चेतू--यदि; असि--आप हैं; न उत--अथवा नहीं;शुक्ल:--विशुद्ध-सत्त्व-स्वरूप ( कपिल देव )?

    राजा रहूगण बोले, हे ब्राह्मण, आप इस जगत में अत्यन्त प्रच्छन्न भाव से तथा अज्ञात रूप सेविचरण करते प्रतीत हो रहे हैं।

    आप कौन हैं ? क्या आप विद्वान ब्राह्मण तथा साधु पुरुष हैं ?आपने जनेउ धारण कर रखा है।

    कहीं आप द्त्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई विद्वान तो नहींहैं? क्‍या मैं पूछ सकता हूँ कि आप किसके शिष्य हैं? आप कहाँ रहते हैं? आप इस स्थान परक्यों आये हैं? कहीं आप हमारे कल्याण के लिए तो यहां नहीं आये ? कृपया बतायें कि आपकौन हैं?

    नाहं विशड्ले सुरराजवज्ञा-न त्र्यक्षशूलात्र यमस्य दण्डातू ।

    नाग्न्यर्कसोमानिलवित्तपास्त्राच्‌छड्ले भूशं ब्रह्मकुलावमानात्‌ ॥

    १७॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; विशद्जे-- भयभीत हूँ; सुर-राज-वज़ात्‌--स्वर्ग के राजा इन्द्र के बज़ से; न--न तो; तयक्ष-शूलात्‌--भगवान्‌ शिव के त्रिशूल से; न--न तो; यमस्य--मृत्यु के अधीक्षक यमराज के; दण्डात्‌--दण्ड से; न--न तो; अग्नि-- अग्निके; अर्क--सूर्य के असह्य ताप के; सोम--चन्द्रमा के; अनिल--वायु के; वित्त-प-- धन के स्वामी कुबेर के; अस्त्रात्‌--अस्त्रोंसे; शद्भे-- भयभीत हूँ; भूशम्‌-- अत्यधिक; ब्रह्म गकुल--ब्राह्मण-वृन्द के; अवमानात्‌ू--अपमान से |

    महानुभाव, न तो मुझे इन्द्र के बज़ का भय है, न नागदंश का, न भगवान्‌ शिव के त्रिशूल का।

    मुझे न तो मृत्यु के अधीक्षक यमराज के दण्ड की परवाह है, न ही मैं अग्नि, तप्त सूर्य,चन्द्रमा, वायु अथवा कुबेर के अस्त्रों से भयभीत हूँ।

    परन्तु मैं ब्राह्मण के अपमान से डरता हूँ।

    मुझे इससे बहुत भय लगता है।

    तदूहासड़ो जडवन्निगूढ-विज्ञानवीर्यो विचरस्यपार: ।

    वचांसि योगग्रथितानि साधोन नः क्षमन्ते मनसापि भेत्तुम्‌ू ॥

    १८॥

    तत्‌--अतः; ब्रूहि--कृपया बतलाइये; असड्रः--संसार के साथ किसी प्रकार का सम्पर्क न रखने वाला; जड-वत्‌--मूक तथागूँगे मनुष्य की तरह लगने वाला; निगूढ--पूर्णतया प्रच्छन्न; विज्ञान-वीर्य:--आत्मतत्त्व के ज्ञान से पूर्ण तथा शक्तिशाली;विचरसि--घूम रहे हो; अपार: --अनन्त दिव्य महिमा वाला; वचांसि--उच्चरित शब्द; योग-ग्रथितानि--योग का समग्र अर्थवहन करने वाला; साधो--हे साधु; न--नहीं; न:--हम सब; क्षमन्ते--समर्थ हैं; ममनसा अपि--यहाँ तक कि मन से भी;भेत्तुम--विश्लेषणात्मक विधि से समझना ।

    महाशय, ऐसा प्रतीत होता है कि आपका महत्‌ आध्यात्मिक ज्ञान प्रच्छन्न है।

    आप समस्तभौतिक संसर्ग से रहित हैं और परमात्मा के विचार में पूर्णतया तल्‍लीन हैं।

    इसलिए आपकाआध्यात्मिक ज्ञान अनन्त है।

    कृपया बलताने का कष्ट करें कि आप जड़वतू्‌ सर्वत्र क्यों घूम रहेहैं ? हे साधु, आपने योगसम्मत शब्द कहे हैं, किन्तु हमारे लिए उनको समझ पाना सम्भव नहीं है।

    अतः कृपा करके विस्तार से कहें।

    अहं च योगे श्वरमात्मतत्त्व-विदां मुनीनां परम॑ गुरु वे ।

    प्रष्टे प्रवृत्तः किमिहारणं तत्‌साक्षाद्धरिं ज्ञानकलावतीर्णम्‌ ॥

    १९॥

    अहम्‌-मैं; च--तथा; योग-ईश्वरम्‌ू--योग के स्वामी; आत्म-तत्त्व-विदाम्‌--आत्मतत्त्वं के विज्ञान्‌ से परिचित विद्वान;मुनीनाम्‌--मुनियों का; परमम्‌-- श्रेष्ठ; गुरुम्‌--गुरु, उपदेशक; वै--निस्संदेह; प्रष्टमू--पूछने हेतु; प्रवृत्त:--कार्यलग्न; किमू--क्या; इह--इस संसार में; अरणम्‌--सुरक्षित शरण; तत्‌--वह जो; साक्षात्‌ हरिम्‌-प्रत्यक्ष ?

    श्रीभगवान्‌; ज्ञान-कला-अवतीर्णम्‌--जो सम्पूर्ण ज्ञान के अवतार के रूप में अंशधारी कपिल के रूप में अवतरित हुए हैं।

    मैं आपको योग शक्ति का प्रतिष्ठित स्वामी मानता हूँ।

    आप आत्मज्ञान से भली भाँति परिचितहैं।

    आप साधुओं में परम पूज्य हैं और आप समस्त मानव समाज के कल्याण के लिए अवतरितहुए हैं।

    आप आत्मज्ञान प्रदान करने आये हैं और ईश्वर के अवतार तथा ज्ञान के अंश कपिलदेव के साक्षात्‌ प्रतिनिधि हैं।

    अतः मैं आपसे पूछ रहा हूँ,'हे गुरु, इस संसार में सर्वाधिक सुरक्षितआश्रय कौन सा है?

    स वे भवॉल्लोकनिरीक्षणार्थ-मव्यक्तलिड्रो विचरत्यपि स्वित्‌ ।

    योगेश्वराणां गतिमन्धबुद्धिःकथं विचक्षीत गृहानुबन्ध: ॥

    २०॥

    सः--वह भगवान्‌ या उनका अवतार श्रीकपिल देव; बै--निस्संदेह; भवान्‌ू--आप; लोक-निरीक्षण-अर्थम्‌--इस संसार केलोगों के चरित्रों का अध्ययन करने के लिए ही; अव्यक्त-लिड्र:--अपनी वास्तविक पहचान प्रकट किए बिना; विचरति--इससंसार में भ्रमण कर रहे हैं; अपि स्वित्‌--क्या; योग-ईश्वराणाम्‌-- समस्त योगियों का; गतिम्‌--वास्तविक आचरण, चरित्र;अन्ध-बुद्धि:--मोहग्रस्त होने से आत्मज्ञान के प्रति अन्धे; कथम्‌--किस प्रकार; विचक्षीत--जान सकता है; गृह-अनुबन्ध:--गृहस्थ जीवन या सांसारिकता में आसक्त रहने वाला, मैं।

    कया यह सच नहीं कि आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के अवतार कपिल देव के साक्षात्‌प्रतिनिधि हैं ? मनुष्यों की परीक्षा लेने और यह देखने के लिए कि वास्तव में कौन मनुष्य है औरकौन नहीं, आपने अपने आपको गूँगे तथा बहरे मनुष्य की भाँति प्रस्तुत किया है।

    क्या आपसंसार भर में इसलिए नहीं इस रूप में घूम रहे? मैं तो गृहस्थ जीवन तथा सांसारिक कार्यों मेंअत्यधिक आसक्त हूँ और आत्मज्ञान से रहित हूँ।

    इतने पर भी अब मैं आपसे प्रकाश पाने केलिए आपके समक्ष उपस्थित हूँ।

    आप बताएँ कि मैं किस प्रकार आत्मजीवन में प्रगति कर सकताहूँ?

    हृष्ट: श्रम: कर्मत आत्मनो वैभर्तुर्गन्तुर्भवतश्चानुमन्ये ।

    यथासतोदानयनाद्यभावात्‌समूल दइष्टो व्यवहारमार्ग: ॥

    २१॥

    इृष्ट:--प्रत्येक प्राणी का अनुभव है; श्रमः-- श्रम, थकान; कर्मत:ः--कोई भी काम करने से; आत्मन:--आत्मा का; वै--निस्संदेह; भर्त::--पालकी वाहक या कहार का; गन्तु:--चलने वाले का; भवतः--आपका; च--तथा; अनुमन्ये--मेरा अनुमान है; यथा--जितना; असता--असत से, जो तथ्य नहीं हैं, उससे; उद--जल का; आनयन-आदि--लाने इत्यादि का कार्य;अभावात्‌-- अभाव से; स-मूल:--साध्य पर आधारित; इष्ट:--पूज्य; व्यवहार-मार्ग:--प्रत्यक्ष ज्ञान-विषयक |

    आपने कहा कि, 'मैं श्रम करने में थकता नहीं हूँ' यद्यपि आत्मा देह से पृथक्‌ है, किन्तुशारीरिक श्रम करने से थकान लगती है और ऐसा लगता है कि यह आत्मा की थकान है।

    जबआप पालकी ले जा रहे होते हैं, तो निश्चय ही आत्मा को भी कुछ श्रम करना पड़ता होगा।

    ऐसामेरा अनुमान है।

    आपने यह भी कहा है कि स्वामी तथा सेवक का बाह्य आचरण वास्तविक नहींहै, किन्तु प्रत्यक्ष जगत में यह वास्तविकता भले न हो तो भी प्रत्यक्ष जगत पदार्थों से वस्तुएँप्रभावित तो हो ही सकती हैं।

    ऐसा दृश्य तथा अनुभवगम्य है।

    अत: भले ही भौतिक कार्यकलापअस्थायी हों, किन्तु उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता।

    स्थाल्यग्नितापात्पयसो भिताप-स्तत्तापतस्तण्डुलगर्भरन्धि: ।

    देहेन्द्रियास्वाशयसन्निकर्षात्‌तत्संसृतिः पुरुषस्थानुरोधात्‌ ॥

    २२॥

    स्थालि--पकाने का पात्र; अग्नि-तापातू-- अग्नि के ताप से; पयसः--पात्र में भरा दूध; अभिताप:--तप्त हो जाता है; ततू-तापतः--उसके ताप से, दूध के गर्म होने से; तण्डुल-गर्भ-रन्धि: --दूध में रहने से चावल का भीतरी भाग पक जाता है; देह-इन्द्रिय-अस्वाशय--इन्द्रियाँ; सन्निकर्षात्‌--से सम्बन्ध होने से; तत्‌-संसृति:-- श्रम तथा अन्य कष्टों का अनुभव; पुरुषस्थ--आत्मा का; अनुरोधात्‌--शरीर, इन्द्रियाँ और मन से अत्यधिक आसक्ति के कारण अनुरोध से।

    राजा रहूगण आगे बोला--महाशय, आपने बताया कि शारीरिक स्थूलता तथा कृशता जैसीउपाधियाँ आत्मा के लक्षण नहीं हैं।

    यह सही नहीं है, क्योंकि सुख तथा दुख जैसी उपाधियों काअनुभव आत्मा को अवश्य होता है।

    आप दूध तथा चावल को एक पात्र में भर कर अग्नि केऊपर रखें तो दूध तथा चावल क्रम से स्वतः तप्त होते हैं।

    इसी प्रकार शारीरिक सुखों तथा दुखोंसे हमारी इन्द्रियाँ, मन तथा आत्मा प्रभावित होते हैं।

    आत्मा को इस परिवेश से सर्वथा बाहर नहींरखा जा सकता।

    शास्ताभिगोप्ता नृपतिः प्रजानांयः किड्डूरो वै न पिनष्टि पिष्टम्‌ ।

    स्वधर्ममाराधनमच्युतस्ययदीहमानो विजहात्यघौघम्‌ ॥

    २३॥

    शास्ता--शासक; अभिगोप्ता--नागरिकों का शुभचिन्तक; नृ-पति:--राजा; प्रजानाम्‌ू--नागरिकों का; य:--जो; किड्जरः --आज्ञा पालने वाला; बै--निस्सन्देह; न--नहीं; पिनष्टि पिष्टमू--पहले से पिसे हुए को पीसता है; स्व-धर्मम्‌--अपना कर्तव्य;आराधनम्‌--उपासना; अच्युतस्य-- श्रीभगवान्‌ की; यत्‌--जो; ईहमान: --करते हुए; विजहाति--मुक्त कर दिये जाते हैं; अघ-ओघम्‌--सभी प्रकार के पाप तथा दोषपूर्ण कर्म से |

    महाशय, आपने बताया कि राजा तथा प्रजा अथवा स्वामी और सेवक के सम्बन्ध शाश्रत नहीं होते।

    यद्यपि ऐसे सम्बन्ध अस्थायी हैं, तो भी जब कोई व्यक्ति राजा बनता है, तो उसकाकर्तव्य नागरिकों पर शासन करना और नियमों की अवज्ञा करने वालों को दण्डित करना है।

    उनको दण्डित करके वह नागरिकों को राज्य के नियमों का पालन करने की शिक्षा देता है।

    पुनःआपने कहा है कि मूक तथा बधिर को दण्ड देना चर्वित को चर्वण करना या पिसी लुगदी कोफिर से पीसना है, जिसका अभिप्राय यह हुआ कि इससे कोई लाभ नहीं होता।

    किन्तु यदि कोईपरमेश्वर द्वारा आदिष्ट अपने कर्तव्यों के पालन में लगा रहता है, तो उसके पापकर्म निश्चय ही घटजाते हैं।

    अतः यदि किसी को बलपूर्वक उसके कर्तव्यों में लगा दिया जाये तो उसे लाभ पहुँचताहै, क्योंकि इस प्रकार उसके समस्त पाप दूर हो सकते हैं।

    तन्मे भवान्नरदेवाभिमान-मदेन तुच्छीकृतसत्तमस्य ।

    कृषीष्ट मैत्रीहृशमार्तबन्धोयथा तरे सदवध्यानमंह: ॥

    २४॥

    तत्‌ू--अतः; मे--मुझ पर; भवान्‌--आप; नर-देव-अभिमान-मदेन--राजा की देह पाने के अभिमान से उन्मत्त; तुच्छीकृत--अवज्ञा करने वाले; सतू्‌-तमस्य--मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ आपका; कृषीष्ट--कृपया प्रदर्शित करें; मैत्री-दहशम्‌--मित्र के समान मुझ'पर अपनी अहैतुकी कृपा; आर्त-बन्धो--दीनों का साथी; यथा--जिस प्रकार; तरे--मुक्त हो सकूँ; सत्‌-अवध्यानम्‌--आप जैसेमहापुरुष की उपेक्षा करने के; अंह:--पाप से।

    आपने जो भी कहा है उसमें मुझे विरोधाभास लगता है।

    हे दीनबन्धु, मैंने आपको अपमानितकरके बहुत बड़ा अपराध किया है।

    राजा का शरीर धारण करने के कारण मैं झूठी प्रतिष्ठा से'फूला हुआ था, अतः इसके लिए मैं अवश्य ही अपराधी हूँ।

    अब मेरी प्रार्थना है कि मुझ परअहैतुक अनुग्रह की दृष्टि डालें।

    यदि आप ऐसा करें तो आपका अपमान करके मैंने जो पापकर्मकिया है उससे मुक्त हो सकूँगा।

    न विक्रिया विश्वसुहृत्सखस्यसाम्येन वीताभिमतेस्तवापि ।

    महद्विमानात्स्वकृतादरिद्वि माहडःनदुक्ष्यत्यद्रादपि शूलपाणि: ॥

    २५॥

    न--नहीं; विक्रिया-- भौतिक परिवर्तन; विश्व-सुहृत्‌-प्रत्येक प्राणी के मित्र, श्रीभगवान्‌ का; सखस्य--मित्र ( आप ) का;साम्येन--आपके मानसिक सन्तुलन के कारण; वीत-अभिमते:--जिसने जीवन के देहात्मबोध को सर्वथा त्याग दिया है; तब--तुम्हारा; अपि--निस्सन्देह; महत्‌-विमानात्‌ू--महान्‌ भक्त का अपराध करने से; स्व-कृतात्‌ू--मेरे अपने कार्य से; हि--निश्चितरूप से; माहक्‌-- मुझ जैसा व्यक्ति; नड्छ्ष्यति--विनष्ट हो जाएगा; अदूरात्‌-शीघ्र ही; अपि--निश्चय ही; शूल-पाणि:--भगवान्‌ शिव ( शूलपाणि ) के समान शक्तिशाली होकर भी |

    हे स्वामी, आप समस्त जीवात्माओं के मित्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के सखा हैं।

    अतः आपसबों के लिए समान हैं और देहात्म-बुद्धि से सर्वथा मुक्त हैं।

    यद्यपि मैंने आपकी अवमाननाकरके अपराध किया है, किन्तु मैं जानता हूँ कि मेरे इस तिरस्कार से आपको कोई हानि या लाभनहीं होने वाला है।

    आप हृढ़ संकल्प हैं जबकि मैं अपराधी हूँ।

    इसलिए भले ही मैं भगवान्‌ शिवके समान बलवान्‌ क्‍यों न होऊँ, किन्तु एक वैष्णव के चरणकमल पर अपराध करने के कारणमैं तुरन्त ही नष्ट हो जाऊँगा।

    TO

    अध्याय ग्यारह: जड़ भरत ने राजा रहूगण को निर्देश दिया

    5.11ब्राह्मण उवाचअकोविद: कोविदवादवादान्‌वदस्यथो नातिविदां वरिष्ठ: ।

    न सूरयो हि व्यवहारमेनंतत्त्वावमशेन सहामनन्ति ॥

    १॥

    ब्राह्मण: उबाच--ब्राह्मण ने कहा; अकोविद:-- अनु भवहीन; कोबिद-वाद-वादान्‌-- अनुभवी व्यक्तियों के द्वारा प्रयुक्त शब्द;वदसि--तुम बोल रहे हो; अथो--अत:; न--नहीं; अति-विदाम्‌--अत्यन्त अनुभवी व्यक्तियों का; वरिष्ठ: --अत्यन्त महत्त्वपूर्ण;न--नहीं; सूरय:--ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति; हि--निस्सन्देह; व्यवहारम्‌--सांसारिक तथा सामाजिक आचरण ( कर्म ); एनम्‌--यह; तत्त्व--सत्य का; अवमर्शेन--बुद्धि द्वारा उत्तम न्याय के; सह--साथ; आमनन्ति--विवेचना करते हैं।

    ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा--' हे राजन्‌, यद्यपि तुम थोड़ा भी अनुभवी नहीं हो तो भी तुमअत्यन्त अनुभवी व्यक्ति के समान बोलने का प्रयत्न कर रहे हो।

    अतः तुम्हें अनुभवी व्यक्ति नहीं माना जा सकता।

    अनुभवी व्यक्ति कभी भी तुम्हारे समान स्वामी तथा सेवक अथवा भौतिकसुखों और दुखों के सम्बन्ध में इस प्रकार से नहीं बोलता।

    ये तो मात्र बाह्य कार्य हैं।

    कोई भीमहान्‌ अनुभवी व्यक्ति परम सत्य को जानते हुए इस प्रकार बातें नहीं करता।

    'तथेव राजन्नुरुगाहमेध-वितानविद्योरुविजृम्भितेषु ।

    न वेदवादेषु हि तत्त्ववादःप्रायेण शुद्धो नु चकास्ति साधु; ॥

    २॥

    तथा--अतः; एव--निस्संदेह; राजन्‌--हे राजन; उरू-गाई-मेध--गृहस्थ जीवन से संबद्ध अनुष्ठान; वितान-विद्या--विस्तारशीलज्ञान; उरु--अत्यधिक; विजृम्भितेषु--रुचि रखने वालों में; न--नहीं; वेद-वादेषु--वेद वाक्य बोलने वाले; हि--निस्सन्देह;तत्त्व-वाद:--आत्म-तत्त्व; प्रायेण--प्राय:; शुद्ध:--समस्त कल्मषों से रहित, विशुद्ध; नु--निस्संदेह; चकास्ति--प्रतीत होते हैं;साथुः--भक्ति को प्राप्त पुरुष?

    हे राजन, स्वामी तथा सेवक, राजा तथा प्रजा इत्यादि के प्रसंग तो भौतिक विषय हैं।

    वेदों मेंप्रतिपादित भौतिक विषयों में रुचि रखने वाले व्यक्ति यज्ञों को करके तथा भौतिक विषयों केप्रति श्रद्धालु बने रहने पर तुले रहते हैं।

    ऐसे लोगों को कभी आत्म-तत्त्व प्रकट नहीं हो पाता।

    न तस्थ तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्‌वरीयसीरपि वाच: समासन्‌ ।

    स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यंन यस्य हेयानुमितं स्वयं स्थात्‌ ॥

    ३॥

    न--नहीं; तस्थ--उसका ( वेदपाठी का ); तत्त्व-ग्रहणाय--वैदिक ज्ञान के वास्तविक प्रयोजन को स्वीकारने के लिए;साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; वरीयसी:--परम आदरणीय; अपि--यद्यपि; वाच: --वेद वाक्य; समासन्‌--अत्यधिक हो गया; स्वप्ने--स्वण में; निरुक्त्या--उदाहरण से; गृह-मेधि-सौख्यम्‌--इस जगत के भीतर सुख; न--नहीं; यस्य--जिसका; हेय-अनुमितम्‌ --तुच्छ जान पड़ने से; स्वयम्‌--स्वतः; स्थात्‌--हो?

    वे स्वप्न मनुष्य को स्वतः झूठा और व्यर्थ लगने लगता है।

    इसी प्रकार उसे इस लोक में अथवास्वर्ग में, इसी जीवन में अथवा अगले जन्म में, भौतिक सुख की कामना तुच्छ प्रतीत होने लगतीहै।

    जब उसे इसका बोध हो जाता है, तो श्रेष्ठ साधन होने पर भी वेद सत्य का प्रत्यक्ष ज्ञान करानेमें अपर्याप्त लगने लगते हैं।

    यावन्मनो रजसा पूरुषस्यसत्त्वेन वा तमसा वानुरुद्धम्‌ ।

    चेतोभिराकूतिभिरातनोतिनिरह्ठु शं कुशलं चेतरं वा ॥

    ४॥

    यावत्‌--जब तक; मन: --मन; रजसा--रजोगुण से; पूरुषस्थ--जीवात्मा का; सत्त्वेन--सतोगुण से; वा--अथवा; तमसा--तमोगुण से; वा--अथवा; अनुरुद्धम्‌--नियंत्रित; चेतोभि:--ज्ञानेन्द्रियों से; आकूतिभि:--कर्मेन्द्रियों से; आतनोति--फैलाता है;निरड्भु शम्‌-हाथी के समान स्वच्छन्द ( जिसको अंकुश से वश में लिया जाता है ); कुशलम्‌--कुशलता, कल्याण; च--भी;इतरम्‌--कुशलता के अतिरिक्त अर्थात्‌ पापकर्म; वा--अथवा।

    जब तक जीवात्मा का मन तीन गुणों ( सतो, रजो तथा तमोगुणों ) से दूषित रहता है, तबतक वह स्वच्छन्द, अनियंत्रित हाथी के समान रहता है।

    वह इन्द्रियों का उपयोग करके शुभ तथा अशुभ कर्मो के क्षेत्र को केवल बृहत्तर बनाता है।

    परिणाम यह निकलता है कि जीवात्मा इससंसार में भौतिक कर्मों के कारण मात्र सुख तथा दुख का अनुभव करता है।

    स वासनात्मा विषयोपरक्तोगुणप्रवाहो विकृत: षोडशात्मा ।

    बिश्षत्पृथड्नामभि रूपभेद-मन्तर्बहिष्ठ॑ च पुरैस्तनोति ॥

    ५॥

    सः--वह; वासना--अनेक कामनाओं से युक्त; आत्मा--मन; विषय-उपरक्त:-- भौतिक सुख में आसक्त इन्द्रियतृप्ति; गुण-प्रवाह:--सत्व, रजो अथवा तमोगुण की शक्ति से प्रेरित; विकृत:--काम आदि से विरूपित; षोडश-आत्मा-- प्रमुख सोलहतत्त्वों ( पाँच स्थूल तत्त्व तथा दस ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन ) का प्रधान तत्त्व; बिभ्रतू-घूमते हुए; पृथक्‌-नामभि: --विभिन्न नामों से;रूप-भेदम्‌--विभिन्न रूप धारण करते हुए; अन्तः-बहिष्ठम्‌--प्रथम कोटि या निम्न कोटि का गुण, उत्तमता या अधमता; च--तथा; पुरैः--विभिन्न शारीरिक रूपों से; तनोति--प्रकट करता है।

    शुभ तथा अशुभ कर्मों की आकांक्षाओं में लीन रहने के कारण मन स्वभावत: काम तथाक्रोध के विकारों से ग्रस्त होता रहता है।

    इस प्रकार वह भौतिक इन्द्रिय-सुख के प्रति आकृष्टहोता है।

    कहने का तात्पर्य यह है कि मन सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण से संचालित होता है।

    ग्यारह इन्द्रियों तथा पाँच तत्त्वों--इन सब सोलह कलाओं में से मन प्रधान है।

    अतः मन के हीकारण विभिन्न देवताओं, मनुष्यों, पशुओं तथा पक्षियों के शरीरों में जन्म लेना पड़ता है।

    उच्च यानिम्न पद पर स्थित होने के अनुसार ही मन उच्च या निम्न भौतिक देह अंगीकार करता है।

    दुःखं सुखं व्यतिरिक्त च तीव्रकालोपपन्नं फलमाव्यनक्ति ।

    आलिड्ग्य मायारचितान्तरात्मास्वदेहिनं संसृतिचक्रकूट: ॥

    ६॥

    दुःखम्‌--अशुभ कर्मो के कारण दुख; सुखम्‌-शुभ कर्म से उत्पन्न सुख; व्यतिरिक्तम्‌ू--मोह; च--तथा; तीब्रम्‌ू--अत्यन्तकठिन; काल-उपपन्नम्‌ू--काल-क्रम में प्राप्त; फलमू--फल; आव्यनक्ति--उत्पन्न करता है; आलिड्ग्य--आलिंगन करते हुए;माया-रचित-- प्रकृति द्वारा उत्पन्न; अन्तः-आत्मा--मन; स्व-देहिनम्‌--स्वयं जीव; संसृति--संसार की प्रतिक्रियाओं का; चक्र-'कूट:--जो जीव को चक्कर में डाल देता है।

    सांसारिक मन जीव की आत्मा को आच्छादित करके उसे विभिन्न योनियों में ले जाता है।

    इसे संसृति कहते हैं।

    मन के ही कारण जीवात्मा को भौतिक दुख तथा सुख का बोध होता है।

    इस प्रकार से मोहग्रस्त यह शुभ तथा अशुभ विषयों तथा उनके कर्म को उत्पन्न करता है।

    इसप्रकार आत्मा बद्ध हो जाता है।

    तावानयं व्यवहारः सदाविःक्षेत्रज्ञसाक्ष्यो भवति स्थूलसूक्ष्म: ।

    तस्मान्मनो लिड्रमदो वदन्तिगुणागुणत्वस्यथ परावरस्यथ ॥

    ७॥

    तावान्‌ू--उस समय तक; अयमू्‌--यह; व्यवहार: --कृत्रिम उपाधियाँ ( मोटा, दुबला दैव या मानवीय ); सदा--सदैव; आवि:--प्रकट करते हुए; क्षेत्र-ज्ञ--जीवात्मा का; साक्ष्य:--प्रमाण; भवति-- है; स्थूल-सूक्ष्म:--मोटा तथा दुबला; तस्मात्‌--अतः;मनः--मन; लिड्रमू--कारण; अदः--यह; वदन्ति--कहते हैं; गुण-अगुणत्वस्य--गुणों अथवा अगुणों का; पर-अवरस्य--तथा जीवन की उच्च और निम्न दशाएँ।

    मन जीवात्मा को इस संसार में विभिन्न योनियों में फिरता रहता है, जिससे जीवात्मा कोमनुष्यों, देवताओं, स्थूल-कृश मनुष्यों इत्यादि विविध रूपों का लौकिक अनुभव होता है।

    विद्वानों का कथन है कि देह का रूपायन बन्धन तथा मुक्ति का कारण मन ही है।

    गुणानुरक्त व्यसनाय जन्तोःक्षेमाय नेर्गुण्यमथो मनः स्यात्‌ ।

    यथा प्रदीपो घृतवर्तिमश्नन्‌शिखा: सधूमा भजति ह्ान्यदा स्वम्‌ ।

    पदं तथा गुणकर्मानुबद्धवृत्तीर्मन: श्रयतेउन्यत्र तत्त्वम्‌ू ॥

    ८॥

    गुण-अनुरक्तम्‌-गुणों के प्रति आसक्त होकर; व्यसनाय--संसार में बद्ध होने के लिए; जन्तो: --जीवात्मा के; क्षेमाय--परमकल्याण के लिए; नैर्गुण्यम्‌ू--गुणों से अप्रभावित रहकर; अथो--इस प्रकार; मनः--मन; स्थात्‌--हो जाता है; यथा--जिसप्रकार ( जितना कि ); प्रदीप: --दीपक; घृत-वर्तिम्‌--घी के भीतर रखी बत्ती; अश्नन्‌ू--जलकर; शिखा: --ज्वाला, लौ;सधूमा:--धुँआ से युक्त; भजति-- भोगती है; हि--निश्चय ही; अन्यदा--अन्यथा; स्वमू--अपने आप; पदम्‌--पद; तथा--उसीतरह; गुण-कर्म-अनुबद्धम्‌-गुणों तथा कर्मो से बद्ध; वृत्तीः--नाना प्रकार के कार्य; मनः--मन; श्रयते--शरण लेता है;अन्यत्र--अन्यथा; तत्त्वम्‌-- अपनी मूल स्थिति की |

    जब जीवात्मा का मन सांसारिक इन्द्रिय-तृप्ति में लीन हो जाता है, तो जीवन-बंधन तथासांसारिक कष्ट प्राप्त होते हैं।

    किन्तु जब वह उनसे अनासक्त हो जाता है, तो वही मुक्ति काकारण बनता है।

    जब दीपक की बत्ती से ठीक-ठीक लौ नहीं उठती तो दीपक पर कालिख लगजाती है।

    किन्तु घी से भरा होने पर यह ठीक से जलता है और तीक्र प्रकाश निकलता है।

    इसी प्रकार जब मन इन्द्रिय-तृप्ति में संलग्न रहता है, तो इससे कष्ट प्राप्त होते हैं और जब यह उनसेविरक्त हो जाता है, तो कृष्णभावनामृत का आदि प्रकाश निकलने लगता है।

    एकादशासन्मनसो हि वृत्तयआकूतय: पञ्ञ धियोडभिमान: ।

    मात्राणि कर्माणि पुरं च तासांवबदन्ति हैकादश वीर भूमी: ॥

    ९॥

    एकादश- ग्यारह; आसनू-- हैं; मनसः--मन की; हि--निश्चय ही; वृत्तय:--वृत्तियाँ; आकूतय: --कर्मेन्द्रियाँ; पञ्ञ-पाँच;धियः-ज्ञानेन्द्रियाँ; अभिमान:--अहंकार; मात्राणि--विभिन्न विषय; कर्माणि--विभिन्न कर्म; पुरम्‌ च--तथा शरीर, समाज,राष्ट्र, परिवार या जन्मभूमि; तासाम्‌--इन कार्यों का; वदन्ति--कहते हैं; ह--ओह; एकादश--ग्यारह; वीर--हे वीर पुरुष;भूमी:--कार्य-द्षेत्र, कर्मक्षेत्र ?

    पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ।

    इनके साथ ही अहंकार भी है।

    इस प्रकार मन कीग्यारह प्रकार की वृत्तियाँ हैं।

    हे वीर, इन्द्रियों के विषय ( यथा शब्द और स्पर्श ), कायिक कर्म(यथा मलत्याग ) तथा विभिन्न प्रकार के देह, समाज, मैत्री तथा व्यक्तित्व--इन सबको पण्डितलोग मन के कार्य के अन्तर्गत मानते हैं।

    गन्धाकृतिस्पर्शरस श्रवांसिविसर्गरत्यरत्यभिजल्पशिल्पा: ।

    एकादशं स्वीकरणं ममेतिशय्यामहं द्वादशमेक आहु: ॥

    १०॥

    गन्ध--गन्ध, महक; आकृति--रूप; स्पर्श--छूने का बोध; रस--स्वाद; श्रवांसि--तथा शब्द; विसर्ग--मलत्याग; रति--संभोग; अर्ति--गति, संचलन; अभिजल्प-- भाषण; शिल्पा:--पकड़ना या छोड़ना, लेना-देना; एकादशम्‌--ग्यारह;स्वीकरणम्‌--स्वीकार करते हुए; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; शय्याम्‌--यह शरीर; अहम्‌--मैं; द्वादशम्‌--बारहवाँ; एके --कुछ लोगों ने; आहु:--कहा है|शब्द, स्पर्श, रूप, स्वाद ( रस) तथा गन्ध--ये पांच ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार हैं।

    भाषण,स्पर्श, संचलन, मलत्याग तथा संभोग--ये कर्मेन्द्रियों के कार्य हैं।

    इसके अतिरिक्त एक अन्यधारणा है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य सोचता है कि, 'यह मेरा शरीर है, यह मेरा समाज है, यह मेरापरिवार हैं, यह मेरा राष्ट्र है।

    ' यह ग्यारहवाँ व्यापार मन का है और मिथ्या अहंकार कहलाता है।

    कुछ दार्शनिकों के अनुसार यह बारहवाँ व्यापार है और इसका कार्यक्षेत्र शरीर है।

    द्रव्यस्वभावाशयकर्मकालै-रेकादशामी मनसो विकाराः ।

    सहस्त्रशः शतशः कोटिशश्वक्षेत्रज्ता न मिथो न स्वतः स्यु: ॥

    ११॥

    द्रव्य--भौतिक पदार्थों ( विषयों ) से; स्‍्व-भाव--स्वभाव से; आशय--संस्कृति ( संस्कार ) से; कर्म--पूर्व निर्धारित कर्मफलसे; कालैः--समय से; एकादश --ग्यारह; अमी--ये सब; मनस:--मन के; विकारा:--रूपान्तर ( भेद ); सहस्त्रश:--हजारों में;शतशः--सैकड़ों में; कोटिश: च--तथा करोड़ों में; क्षेत्र-ह्ञत:--आदि भगवान्‌ से; न--नहीं; मिथ:-- परस्पर; न--न तो;स्वतः--अपने आप से; स्युः--हैं |

    भौतिक तत्त्व ( द्रव्य या विषय ), प्रकृति ( स्वभाव ), मूल कारण, संस्कार, भाग्य तथासमय (काल )--ये सब भौतिक कारण हैं।

    इन भौतिक कारणों से विश्लुब्ध होकर ग्यारहवृत्तियाँ पहले सैकड़ों, फिर हजारों और तब करोड़ों भेदों में रूपान्तरित हो जाती हैं।

    किन्तु येसभी भेद स्वत: परस्पर मिश्रण के द्वारा घटित नहीं होते वरन्‌ वे श्रीभगवान्‌ के आदेशानुसार होतेहैं।

    क्षेत्रज्ष एता मनसो विभूती-जीवस्य मायारचितस्य नित्या: ।

    आविर्तहिताः क्वापि तिरोहिताश्नशुद्धों विचष्टे ह्रविशुद्धकर्तु: ॥

    १२॥

    क्षेत्र-ज्ः--जीव; एता:--ये सब; मनस:--मन के; विभूती: --विभिन्न वृत्तियाँ; जीवस्थ--जीवात्मा की; माया-रचितस्य--माया द्वारा उत्पन्न; नित्या:--अनादि-काल से; आविर्हिता:--कभी-कभी प्रकट; क्वापि--कहीं; तिरोहिता: च--तथा अप्रकट;शुद्ध:--शुद्ध; विचष्टे--इसे देखता है; हि--निश्चय ही; अविशुद्ध--अशुद्ध; कर्तुः--कर्ता का।

    कृष्णचेतना से रहित जीव के मन में माया द्वारा उत्पन्न अनेक विचार तथा वृत्तियाँ होती हैं।

    वे अनन्त काल से विद्यमान रही हैं।

    कभी-कभी वे जाग्रत तथा स्वप्न अवस्था में प्रकट होती हैं,किन्तु सुषुप्तावस्था या समाधि में वे लुप्त हो जाती हैं।

    जो व्यक्ति इस जन्म में ही मुक्त हो चुकाहै, ( जीवन्मुक्त ) इन सब व्यापारों को स्पष्ट देख सकता है।

    क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुष: पुराण:साक्षात्स्वयं ज्योतिरज: परेश: ।

    नारायणो भगवान्वासुदेव:स्वमाययात्मन्यवधीयमान: ॥

    १३॥

    यथानिल: स्थावरजड्रमानाम्‌आत्मस्वरूपेण निविष्ट ईशेत्‌ ।

    एवं परो भगवान्वासुदेव:क्षेत्रज् आत्मेदमनुप्रविष्ट: ॥

    १४॥

    क्षेत्र-क्ञः -- श्रीभगवान्‌ ( एलोक १२ में सामान्य जीव ); आत्मा--सर्वव्यापी; पुरुष:--असीम शक्ति वाला नियन्ता; पुराण:--आदि; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष अनुभव तथा अधिकारियों से श्रवण करके; स्वयम्‌--व्यक्तिगत; ज्योति:ः--ब्रह्मतेज प्रकट करने वाला;अज:--अजन्मा; परेश:-- श्री भगवान्‌; नारायण: --समस्त जीवों का आश्रय; भगवान्‌--छः पूर्ण ऐश्वर्यों से युक्त श्रीभगवान्‌;वासुदेव:--प्रकट तथा अप्रकट, सबों का आश्रय; स्व-मायया--अपनी शक्ति से; आत्मनि--अपने आप में अथवा सामान्यजीवों में; अवधीयमान:--नियन्ता के रूप में रह कर; यथा--जिस प्रकार; अनिल:--वायु; स्थावर--जड़, न चलने वाले जीव;जड़मानाम्‌--तथा जंगमों ( सचल ) का; आत्म-स्वरूपेण--परमात्मा रूप के द्वारा; निविष्ट:--निहित; ईशेत्‌--नियंत्रण करताहै; एवम्‌--इस प्रकार; पर:--दिव्य; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; वासुदेव: -- प्रत्येक पदार्थ के आश्रय; क्षेत्र-ज्ञ:--श्षेत्रज्ञ नाम सेअभिहित; आत्मा--प्राण शक्ति; इदमू--यह जगत के; अनुप्रविष्ट: -- भीतर प्रविष्ट |

    क्षेत्रज्ष दो प्रकार के हैं--जीवात्मा तथा श्रीभगवान्‌।

    ( जीवात्मा का वर्णन पीछे किया जाचुका है, यहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की विवेचना की जा रही है) श्रीभगवान्‌ सृष्टि कासर्वव्यापक कारण है।

    वह अपने में पूर्ण है और अन्यों पर आश्नित नहीं है।

    वह सुनकर तथाप्रत्यक्ष अनुभव ( दर्शन ) से देखा जाता है।

    वह आत्मतेजस्वी है और उसे जन्म, मृत्यु, जरा अथवाव्याधि कुछ भी नहीं सताते।

    वह ब्रह्मादि समस्त देवताओं का नियन्ता है।

    उसका नाम नारायण हैऔर वह संसार के प्रलय के पश्चात्‌ समस्त जीवात्माओं का आश्रय है।

    वह परम ऐश्वर्यवान हैऔर समस्त भौतिक वस्तुओं का आश्रय है।

    अत: वह वासुदेव अर्थात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ केनाम से जाना जाता है।

    अपनी शक्ति से ही वह समस्त जीवात्माओं के हृदयों में स्थित है, जिसप्रकार समस्त चराचर प्राणियों में वायु या जीवनीशक्ति ( प्राण ) रहती है।

    इस प्रकार वह शरीरको वश में रखता है।

    अपने अंश रूप में श्रीभगवान्‌ समस्त देहों में प्रवेश करके उनको नियंत्रितकरता रहता है।

    न यावदेतां तनुभृन्नरेन्दरविधूय मायां वयुनोदयेन ।

    विमुक्तसज जितषट्सपत्नोवेदात्मतत्त्वं भ्रमतीह तावतू ॥

    १५॥

    न--नहीं; यावत्‌ू--जब तक; एताम्‌--यह; तनु-भृत्‌--जिसने शरीर अंगीकार किया है, मनुष्य; नरेन्‍्द्र--हे राजन; विधूयमायाम्‌--संसार से उत्पन्न कल्मष को धोते हुए; बयुना उदयेन--वैदिक साहित्य तथा सत्संगति से दिव्य ज्ञान जगने के कारण;विमुक्त-सड्भ:--समस्त संगति से मुक्त; जित-षट्‌ू-सपतल:--छ: शत्रुओं ( पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन ) को जीत कर; वेद--जानताहै; आत्म-तत्त्वम्‌-आत्मतत्त्व को; भ्रमति--घूमता है; इह--इस संसार में; तावत्‌--तब तक |

    हे राजा रहूणण, जब तक बद्ध-आत्मा भौतिक देह को स्वीकार करता है और भौतिक सुखके कल्मष से मुक्त नहीं हो जाता तथा जब तक अपने छः शत्रुओं को जीत कर आत्मज्ञान कोजागृत करके आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक उसे इस जगत मेंविभिन्न स्थानों तथा नाना योनियों में घूमना पड़ता है।

    न यावदेतन्मन आत्मलिड्ूंसंसारतापावपनं जनस्य ।

    यच्छोकमोहामयरागलो भ-वैरानुबन्धं ममतां विधत्ते ॥

    १६॥

    न--नहीं; यावत्‌--जब तक; एतत्‌--यह; मन:--मन; आत्म-लिड्रम्‌--आत्मा की झूठी उपाधि के रूप में; संसार-ताप--इसजगत के कष्टों का; आवपनम्‌--खेत; जनस्य--जीव का; यत्‌--जो; शोक--शोक का; मोह--मोह का; आमय--रोग का;राग--आसक्ति का; लोभ--लालच का; बैर--शत्रुता का; अनुबन्धम्‌--परिणाम; ममताम्‌--ममता; विधत्ते--देता है।

    इस संसार में आत्मा की उपाधि, यह मन, समस्त दुखों का मूल है।

    जब तक बद्ध जीवात्माइस तथ्य को नहीं जानता, तब तक उसे देह की दयनीय दशा को स्वीकार करके इस ब्रह्माण्ड मेंविभिन्न योनियों में घूमना पड़ता है।

    चूँकि यह मन रोग, शोक, मोह, राग, लोभ तथा वैर से ग्रस्तरहता है इस कारण से इस भौतिक संसार में बन्धन तथा झूठी ममता उत्पन्न होती है।

    भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्य-मुपेक्षयाध्येधितमप्रमत्त: ।

    गुरोहरेश्वरणोपासनास्त्रोजहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम्‌ ॥

    १७॥

    भ्रातृव्यमू--बलवान शत्रु को; एनम्‌--इस मन; तत्‌--वह; अदभ्न-वीर्यम्‌--अत्यधिक शक्तिमान; उपेक्षया--उपेक्षा से;अध्येधितम्‌-वृथा ही शक्ति में बढ़ा हुआ; अप्रमत्त:--मोहरहित; गुरोः --गुरु के; हरेः-- श्री भगवान्‌ के; चरण--चरण कमलोंका; उपासना-अस्त्र: --उपासना रूपी अस्त्र; जहि--जीत लो; व्यलीकम्‌--झूठा, मिथ्या; स्वयम्‌-- अपने आप; आत्म-मोषम्‌--जीवात्मा की स्वाभाविक स्थिति को प्रच्छन्न करने वाला?

    यह अनियंत्रित मन जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु है।

    यदि इसकी उपेक्षा की जाती है या इसेअवसर प्रदान किया जाता हैं, तो यह प्रबल से प्रबलतर होकर विजयी बन सकता है।

    यद्यपि यहयथार्थ नहीं है, किन्तु यह अत्यधिक प्रबल होता है।

    यह आत्मा की स्वाभाविक स्थिति कोआच्छादित कर देता है।

    हे राजनू, इस मन को गुरु के चरणारविन्द तथा भगवान्‌ की सेवा रूपीअस्त्र से जीतने का प्रयत्त कीजिये।

    इसे अत्यन्त सतर्कता से करें।

    TO

    अध्याय बारह: महाराज राहुगण और जड़ भरत के बीच बातचीत

    5.12रहूगण उबाचनमो नमः कारणविग्रहायस्वरूपतुच्छीकृतविग्रहाय ।

    नमोवधूतद्विजबन्धुलिड्र-निगूढनित्यानुभवाय तुभ्यम्‌ ॥

    १॥

    रहूगण: उवाच--राजा रहूगण ने कहा; नम:--मेरा नमस्कार है; नम:--नमस्कार; कारण-विग्रहाय--समस्त कारणों के कारण,परमात्मा से प्रकट होने वाले को; स्वरूप-तुच्छीकृत-विग्रहाय--अपने सत्य रूप को प्रकट करके शास्त्रों के विरोधों को दूरकरनेवाले; नम: --नमस्कार; अवधूत-हे योगेश्वर; द्विज-बन्धु-लिड्र--ब्राह्मण कुल में उत्पन्न पुरुष के लक्षणों के द्वारा ( भले हीब्राह्मण का कर्म न करता हो ); निगूढ-- प्रच्छन्न; नित्य-अनुभवाय--उसे जिसका शाश्वत आत्म-साक्षात्कार होता हो; तुभ्यम्‌--तुम्हें ?

    राजा रहूगण ने कहा--हे महात्मन्‌ू, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से अभिन्न हैं।

    आपकेप्रभाव से शास्त्रों के समस्त विरोधभास दूर हो गये हैं।

    आप ब्रह्म-बन्धु के वेश में अपने दिव्यआनन्दमय स्वरूप को छिपाए हुए हैं।

    मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    ज्वरामयार्तस्य यथागदं सत्‌निदाघदग्धस्य यथा हिमाम्भ: ।

    कुदेहमानाहिविदष्टशष्टेःब्रह्मन्वचस्तेडमृतमौषधं मे ॥

    २॥

    ज्वर--ज्वर, या ताप के; आमय--रोग से; आर्तस्य--पीड़ित पुरुष की; यथा--जिस प्रकार; अगदम्‌-- औषधि दवा; सत्‌--सही; निदाघ-दग्धस्य--लू लगने पर; यथा--जैसे; हिम-अम्भ:--अति शीतल जल; कु-देह--इस शरीर में, जो मल-मूत्र जैसागंदी वस्तुओं से पूरित है; मान--गर्व रूपी; अहि--सर्प से; विदृष्ट--दंशित, काटा गया; दृष्टे:--दृष्टि वाले का; ब्रह्मनू-हेब्राह्मणों में श्रेष्ठ; बच:--शब्द, वाणी; ते--तुम्हारी; अमृतम्‌--अमृत; औषधम्‌--दवा; मे--मेरे लिए?

    हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मेरा शरीर मल से पूर्ण और मेरी दृष्टि गर्व रूपी सर्प द्वारा दंशित है।

    अपनीभौतिक बुद्धि के कारण मैं रुग्ण हूँ।

    इस प्रकार के ज्वर से पीड़ित व्यक्ति के लिए आपकेअमृतमय उपदेश वैसे ही हैं जैसे कि धूप ( लू ) से झुलसे हुए व्यक्ति के लिए शीतल जल होताहै।

    तस्माद्धवन्तं मम संशयार्थप्रक्ष्यामि पश्चादधुना सुबोधम्‌ ।

    अध्यात्मयोगग्रथितं तवोक्त-माख्याहि कौतूहलचेतसो मे ॥

    ३॥

    तस्मातू--अतः; भवन्तम्‌-- आपको; मम--मुझको; संशय-अर्थम्‌--वे विषय जिसका अर्थ मुझे ज्ञात नहीं; प्रक्ष्यामि--कहूँगा;पश्चात्‌-बाद में; अधुना--इस समय; सु-बोधम्‌-- सरलता से समझ में आ जाने वाला, बोधगम्य; अध्यात्म-योग--आत्म-साक्षात्कार हेतु योग शिक्षा का; ग्रधितम्‌ू--रचित; तब--तुम्हारी; उक्तमू--वाणी, वचन; आख्याहि--पुनः विस्तार से समझाइये;'कौतूहल-चेतस:--ऐसे उत्कण्ठा से ?

    पूर्ण कथनों के मर्म को समझने के लिए जिसका मन अत्यन्त उत्सुक है; मे--मुझको |

    यदि किसी विशेष विषय पर मेरी शंकाएँ रह गई हैं, तो मैं उनके सम्बन्ध में आपसे बाद मेंपूछूँगा।

    किन्तु इस समय आपने आत्म-साक्षात्कार के लिए जो गूढ़ योग के उपदेश दिये हैं उनकोसमझ पाना कठिन है।

    कृपया उन्हें सरल रीति से पुनः कहें जिससे मैं उन्हे समझ सकूँ।

    मेरा मनअत्यन्त उत्सुक है और मैं इसे भलीभाँति समझ लेना चाहता हूँ।

    यदाह योगेश्वर दृश्यमानंक्रियाफलं सद्व्यवहारमूलम्‌ ।

    न हाझ्जसा तत्त्वविमर्शनायभवानमुष्मिन्भ्रमते मनो मे ॥

    ४॥

    यत्‌--जो; आह--आपने कहा है; योग-ईश्वर--हे योग शक्ति के स्वामी; हृश्यमानम्‌-- भली-भाँति दिखते हुए; क्रिया-फलम्‌--शरीर को इधर-उधर हिलाने डुलाने का फल यथा थकान; सत्‌ू--विद्यमान; व्यवहार-मूलम्‌--जिसका आधार केवल शिष्टता है;न--नहीं; हि--निश्चय ही; अज्धसा--वस्तुतः-वास्तव में; तत्त्व-विमर्शनाय--विमर्श द्वारा सत्य को समझने के लिए; भवान्‌--आप; अमुष्मिन्‌--उस कथन में; भ्रमते-- चक्कर काट रहा है; मनः--मन; मे--मेरा |

    हे योगेश्वर आपने कहा है कि शरीर को इधर-उधर हिलाने-डुलाने से उत्पन्न थकान प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है, किन्तु वास्तव में कोई थकान नहीं रहती।

    वह तो कहने के लिए होती है।

    ऐसेप्रश्नोत्तरों से परम सत्य के विषय में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

    आपके इस कथन सेमेरा मन कुछ-कुछ विचलित है।

    ब्राह्मण उवाचअयं जनो नाम चलन्पृथिव्यांयः पार्थिव: पार्थिव कस्य हेतोः ।

    तस्यापि चाड्ग्घ्रयोरधि गुल्फजड्डा-जानूरुमध्योरशिरोधरांसा: ॥

    ५॥

    अंसेधि दार्वी शिबिका च यस्यांसौवीरराजेत्यपदेश आस्ते ।

    यस्मिन्भवातब्रूढनिजाभिमानोराजास्मि सिन्धुष्विति दुर्मदान्ध: ॥

    ६॥

    ब्राह्मण: उवाच--ब्राह्मण ने कहा; अयम्‌--यह; जन:ः--पुरुष; नाम--पदवी; चलनू--चलते हुए; पृथिव्याम्‌--पृथ्वी पर; य:--जो; पार्थिव:--पृथ्वी का रूप; पार्थिव--हे राजा, जिसका शरीर पार्थिव है; कस्य--किस; हेतो: --कारण; तस्य अपि-- उसकाभी; च--तथा; अड्ग्घ्रयो: --पाँव; अधि--ऊपर; गुल्फ--टखने; जज्ञ--पिंडली; जानु--घुटने; उरू--जघन, जाँघ;मध्योर--कटि, कमर; शिर:-धर--गर्दन; अंसा:--कंधे; अंसे--कंधा; अधि--ऊपर; दार्बी--लकड़ी की बनी हुई;शिबिका--पालकी; च--तथा; यस्यामू--जिस पर; सौवीर-राजा--सौवीर का राजा; इति--इस प्रकार; अपदेश:--विख्यात;आस्ते-- है; यस्मिन्‌--जिसमें; भवान्‌ू-- आप; रूढ-- आसीन; निज-अभिमान:--मिथ्या प्रतिष्ठा का भाव; राजा अस्मि--राजाहूँ; सिन्धुषु--सिन्धु राज्य में; इति--इस प्रकार; दुर्मद-अन्ध:--अहंकार के वशीभूत, मद से अंधे।

    स्वरूपसिद्ध ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा--अनेक भौतिक संयोगों में विविध रूप तथा पार्थिवरूपान्तर विद्यमान हैं।

    कुछ कारणवश ये पृथ्वी पर हिलते-डुलते हैं और पालकीवाहक ( कहार )कहलाते हैं।

    इनमें से वे रूपान्तर जो गति नहीं करते वे पत्थर जैसे स्थूल पदार्थ हैं।

    प्रत्येक दशा मेंयह भौतिक देह पाँव, टखना, पिंडली, घुटना, जाँघ, कमर, गर्दन तथा सिर के रूप में मिट्टी तथापत्थर से बनी हैं।

    इसके कंधों के ऊपर काठ की पालकी रखी है और उसके भीतर सौवीर का राजा बैठा है।

    राजा का शरीर मिट्टी का अन्य रूपान्तर मात्र है, किन्तु उस शरीर के भीतर आपस्थिर हैं और अहंकारवश अपने को सौवीर राज्य का राजा मान रहे हैं।

    शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान्‌विष्टयया निगृह्नन्निरनुग्रहोडसि ।

    जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानोन शोभसे वृद्धसभासु धृष्ट: ॥

    ७॥

    शोच्यान्‌ू--शोचनीय है; इमान्‌--ये सब; त्वमू-- तुम; अधि-कष्ट-दीनान्‌ू-- अपनी दरिद्रता के कारण बेचारे लोग और अधिककष्ट उठा रहे हैं; विष्ठधया--बलपूर्वक; निगृह्न्‌-- पकड़े हुए; निरनुग्रहः असि--तुम अत्यन्त दया से हीन हो; जनस्थ--सामान्यलोगों का; गोप्ता अस्मि--मैं रक्षक ( राजा ) हूँ; विकत्थमान:--डींग मारते हुए; न शोभसे--तुम्हें शोभा नहीं देता; वृद्ध-सभासु--विद्वानों की सभा में; धृष्ट:--बढ़-चढ़कर बातें करने वाला, उद्धत |

    किन्तु यह सच है कि बेगारी में तुम्हारी पालकी ले जाने वाले ये निर्दोष व्यक्ति इस अन्यायके कारण कष्ट उठा रहे हैं।

    उनकी दशा अत्यन्त शोचनीय है, क्योंकि तुमने अपनी पालकी लेजाने के लिए जबरन उन्हें लगा रखा है।

    इससे सिद्ध होता है कि तुम क्रूर तथा निर्दय हो।

    तो भीअहंकारवश तुम यह सोच रहे थे कि तुम प्रजा के रक्षक हो।

    यह हास्यास्पद है।

    तुम जैसे मूर्ख कोज्ञानी पुरुषों की सभा में भला कौन महान्‌ पुरुष मान सकता है ?

    यदा क्षितावेव चराचरस्यविदाम निष्टां प्रभवं च नित्यम्‌ ।

    तन्नामतो न्यद्व्यवहारमूलंनिरूप्यतां सत्क्रिययानुमेयम्‌ ॥

    ८ ॥

    यदा--अतः ; क्षितौ--पृथ्वी पर; एव--निश्चय ही; चर-अचरस्य--चर तथा अचर का; विदाम--हम जानते हैं; निष्ठाम्‌ू--प्रलय,संहार; प्रभवम्‌--सृष्टि; च--तथा; नित्यम्‌ू--प्रकृति के नियमों से नियमित रूप से; तत्‌ू--वह; नामत:ः--केवल नाम से;अन्यत्‌--अन्य; व्यवहार-मूलम्‌-- भौतिक कार्यो का कारण; निरूप्यताम्‌--निश्चित किया गया; सतू-क्रियया--वास्तविक कार्यसे; अनुमेयम्‌--निष्कर्ष निकालना चाहिए ?

    हम इस पृथ्वी के ऊपर विभिन्न रूपों में जीवात्माएँ हैं।

    हममें से कुछ गतिशील हैं, तो कुछ गति नहीं करते।

    हम सभी उत्पन्न होते हैं, कुछ समय तक रहते हैं और नष्ट हो जाने पर पृथ्वी मेंपुनः मिल जाते हैं।

    हम सभी पृथ्वी के विभिन्न रूपान्तर ( पार्थिव ) हैं; विभिन्न शरीर तथाउपाधियाँ पृथ्वी के रूपान्तर मात्र हैं और नाम के लिए ही विद्यमान रहती हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तुपृथ्वी से निकलती है और जब सब कुछ विनष्ट हो जाता है, तो वह फिर पृथ्वी में मिल जाती है।

    दूसरे शब्दों में, हम केवल धूल हैं और धूल ही रहेंगे।

    सबों को इस पर विचार करना चाहिए।

    एवं निरुक्त क्षितिशब्दवृत्त-मसन्निधानात्परमाणवो ये ।

    अविद्यया मनसा कल्पितास्तेयेषां समूहेन कृतो विशेष: ॥

    ९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निरुक्तम्‌-मिथ्या वर्णन किया गया; क्षिति-शब्द--क्षिति अर्थात्‌ 'पृथ्वी ' शब्द; वृत्तम्‌--उपस्थिति;असत्‌ू--असत्य; निधानात्‌ू--विलीन होने से; परम-अणव: --अत्यन्त सूक्ष्म कण; ये--जो सब; अविद्यया--अविद्या अर्थात्‌अज्ञान से; मनसा--मन से; कल्पिता:--कल्पना किये हुए; ते--वे; येषामू--जिनका; समूहेन--समूह के द्वारा; कृत:--बनायाहुआ; विशेष:--विशेष |

    कोई यह कह सकता है कि विविधता तो स्वयं पृथ्वी से उत्पन्न होती है।

    तथापि यह ब्रह्माण्डभले ही थोड़े समय तक सत्य प्रतीत हो पर वास्तव में इसका कोई अस्तित्व नहीं है।

    यह पृथ्वीमूलतः सूक्ष्म कणों के संयोग से उत्पन्न हुई थी, किन्तु ये कण अस्थायी हैं।

    वास्तव में परमाणुब्रह्माण्ड का कारण नहीं, यद्यपि कुछ दार्शनिक ऐसा सोचते हैं।

    यह सत्य नहीं है कि इस संसारमें पाई जाने वाली विविधता ( किसमें ) परमाणुओं के उलट-पुलट या विविध संयोगों का प्रतिफल है।

    एवं कृशं स्थूलमणुरबृहद्यद्‌असच्च सज्जीवमजीवमन्यत्‌ ।

    द्रव्यस्वभावाशयकालकर्म -नाम्नाजयावेहि कृतं द्वितीयम्‌ ॥

    १०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कृशम्‌--दुर्बल या छोटा; स्थूलमू--मोटा; अणु:--लघु; बृहत्‌--बड़ा; यत्‌--जो; असत्‌--अस्थायी; च--तथा; सत्‌--अस्तित्वमान्‌; जीवम्‌--जीवात्मा; अजीवम्‌--जड़, जीवरहित पदार्थ; अन्यत्‌--अन्य कारण; द्रव्य--घटना; स्व-भाव--प्रकृति, आचरण; आशय--मन्तव्य; काल--समय; कर्म--कार्य, वृत्ति; नाम्ना--नामों से; अजया-- प्रकृति द्वारा;अवेहि--तुम्हें समझना चाहिए; कृतम्‌--किया गया; द्वितीयम्‌-द्वैत?

    चूँकि इस ब्रह्माण्ड का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, अतः इसके भीतर की वस्तुएँ--यथा लघुता, अन्तर, स्थूलता, कृशता, सूक्ष्मता, विशालता, परिणाम, कारण, कार्य, चेतना तथाद्रव्य--ये सब काल्पनिक हैं।

    ये एक ही वस्तु-मिट्टी के बने पात्र हैं, किन्तु इनके नाम भिन्न-भिन्नहैं।

    ये अन्तर पदार्थ, प्रकृति, आशय, काल तथा क्रिया ( कर्म ) द्वारा जाने जाते हैं।

    तुम्हें जाननाचाहिए कि ये प्रकृति द्वारा उत्पन्न यांत्रिक अभिव्यक्तियाँ हैं।

    ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेक-मनन्तरं त्वबहिर्त्रह्य सत्यम्‌ ।

    प्रत्यक्प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञंयद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ॥

    ११॥

    ज्ञाममू--परम ज्ञान; विशुद्धमू--कल्मषहीन, शुद्ध; परम-अर्थम्‌--जीवन का परम उद्देश्य प्रदान करने वाला; एकम्‌ू--एक;अनन्तरमू-- अन्तरविहीन; तु-- भी; अबहि:--बाह्य रहित; ब्रह्म--ब्रह्म, परम; सत्यमू--परम सत्य; प्रत्यक्‌ू--आन्तरिक,आशभ्यन्तर; प्रशान्तम्‌-शान्त परमेश्वर, जिसकी उपासना योगी करते हैं; भगवत्‌-शब्द-संज्ञम्‌-- भगवान्‌ शब्द से ज्ञात अथवासम्पूर्ण ऐश्वर्य से पूर्ण; यत्‌--उस; वासुदेवम्‌-- श्रीकृष्ण, वसुदेव के पुत्र को; कबयः--बुद्धिमान अथवा विद्वान; बदन्ति--कहतेहैं।

    तो फिर परम सत्य क्या है? उत्तर है अद्बैत ज्ञान जो भौतिक गुणों के कल्मष से रहित है।

    वहमुक्तिप्रदायक है।

    वह अद्वितीय, सर्वव्यापी तथा कल्पनातीत है।

    उस ज्ञान की प्रथम प्रतीति ब्रह्महै।

    फिर योगियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला परमात्मा है।

    जो बिना किसी कष्ट के उसे देखनेका प्रयास करते है यह प्रतीति की दूसरी अवस्था है।

    अन्त में परम पुरुष में ही उसी परम ज्ञान कीपूर्ण प्रतीति की जाती है।

    सभी विद्वान परम पुरुष को वासुदेव के रूप में वर्णन करते हैं, जोब्रह्म, परमात्मा आदि का कारण है।

    रहूगणैतत्तपसा न यातिन चेज्यया निर्वपणादगृहाद्वा ।

    न च्॒छन्दसा नेव जलाग्निसूर्य -विना महत्पादरजोउभिषेकम्‌ ॥

    १२॥

    रहूगण--हे राजा रहूगण; एतत्‌--यह ज्ञान; तपसा--कठिन तपस्या द्वारा; न याति--नहीं आता; न--नहीं; च-- भी; इज्यया --श्रीविग्रह की पूजा के लिए महत्‌ आयोजन से; निर्वपणात्‌--अथवा समस्त सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करने और संन्यास ग्रहणकरने से; गृहात्‌--आदर्श गृहस्थ जीवन से; वा--अथवा; न--न तो; छन्दसा--ब्रह्मचर्य धारण करने या वेदों के अध्ययन से; नएव--न तो; जल-अग्नि-सूर्य:-- जल, तपती धूप या जलती अग्नि में रह कर कठिन तपस्या करने से; विना--रहित; महत्‌--परम भक्तों की; पाद-रज:--चरण धूलि में; अभिषेकम्‌--शरीर मार्जन, स्नान?

    हे राजा रहूगण, महापुरुषों के चरणकमलों की धूलि से सम्पूर्ण शरीर को मलने के लिएबिना परम सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती।

    ब्रह्मचर्य धारण करने, गृहस्थ जीवन के विधि-विधानों के अनुपालन, वानप्रस्थ के रूप में गृहत्याग अथवा संन्यास ग्रहण करने या शीत ऋतु मेंजल में घुस कर घोर तपस्या करने, या ग्रीष्म में अग्नि से घिर रहने झुलसती धूप में पड़े रहनेजैसी कठिन तपस्याओं से परम सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती।

    परम सत्य को जानने के औरभी अनेक साधन हैं, किन्तु परम सत्य उसे ही प्राप्त होता है, जिसे किसी महान्‌ भक्त का अनुग्रहप्राप्त हो।

    यत्रोत्तमश्लोकगुणानुवाद:प्रस्तूयते ग्राम्यक थाविघात: ।

    निषेव्यमाणो<नुदिन मुमुक्षो-मतिं सतीं यच्छति वासुदेवे ॥

    १३॥

    यत्र--जिस स्थान में ( भक्तों के समक्ष ); उत्तम-शलोक-गुण-अनुवाद:-- श्रीभगवान्‌ की लीलाओं तथा गुणों की चर्चा;प्रस्तूयते--प्रस्तुत की जाती है; ग्राम्य-कथा-विघात:--जिसके कारण लौकिक विषयों की चर्चा के लिए अवसर नहीं मिलता;निषेव्यमाण: --अत्यन्त मनोयोग से सुनी जाकर; अनुदिनम्‌--नित्यप्रति; मुमुक्षो:-- भौतिक बंधन से निकलने के लिए इच्छुकव्यक्ति का; मतिम्‌-ध्यान; सतीम्‌--शुद्ध तथा सरल; यच्छति--लगा देती है; वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेव के चरमकमलों में |

    यहां वर्णित वे शुद्ध भक्त कौन हैं? शुद्ध भक्तों की सभा में राजनीति या समाजशामस्त्र जैसेसांसारिक विषयों पर चर्चा चलाने का प्रश्न ही नहीं उठता।

    वहाँ तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कीलीलाओं, स्वरूप एवं गुणों की ही चर्चा होती है।

    उनकी प्रशंसा तथा उपासना पूर्ण मनोयोग सेकी जाती है।

    यहाँ तक कि विशुद्ध भक्तों की संगति से, ऐसे विषयों को लगातार आदर पूर्वकसुनने से ऐसा पुरुष जो परम सत्य में तदाकार होना चाहता है, वह भी अपने इस विचार को त्यागकर क्रमश: वासुदेव की सेवा में आसक्त हो जाता है।

    अहं पुरा भरतो नाम राजाविमुक्तदृष्टश्रुतसड्रबन्ध: ।

    आराधनं भगवत ईहमानो मृगोभवं मृगसड्भाद्धतार्थ: ॥

    १४॥

    अहम्‌ू--ै; पुरा--पहले ( पूर्व जन्म में ); भरतः नाम राजा--भरत नाम का राजा; विमुक्त--मुक्त; दृष्ट-श्रुत--प्रत्यक्ष अनुभव सेअथवा वेदों से ज्ञान प्राप्त करके ; सड़-बन्ध: --संगति का बन्धन; आराधनम्‌--पूजा; भगवतः--भगवान्‌ की; ईहमान:--सदैवकरते हुए; मृग: अभवम्‌--मैं मृग बन गया; मृग-सड्भात्‌ू--मृग के साथ घनिष्ठ मैत्री से; हत-अर्थ: --भक्ति के विधि-विधानों कीउपेक्षा करके |

    मैं पूर्वजन्म में महाराज भरत के नाम से विख्यात था।

    मैंने प्रत्यक्ष अनुभव तथा वेद-ज्ञान सेप्राप्त अप्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सांसारिक कार्यों से पूर्णतया विरक्त होकर सिद्धि प्राप्त की।

    मैंपूर्णतया भगवान्‌ की सेवा में तत्पर रहता था, किन्तु दुर्भाग्यवश मैं एक छोटे से मृग के प्रतिइतना आसक्त हो उठा कि मैंने सारे आध्यात्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा कर दी।

    मृग के प्रति प्रगाढ़स्नेह के कारण अगले जन्म में मुझे मृग का शरीर अंगीकार करना पड़ा।

    सा मां स्मृतिर्मुगदेहे पि वीरकृष्णार्चनप्रभवा नो जहाति ।

    अथो अहं जनसड्रादसड़ोविशड्जभमानोविवृतश्चरामि ॥

    १५॥

    सा--वह; माम्‌--मुझको; स्मृति: --पूर्वजन्म के कर्मो की याद; मृग-देहे--मृग के शरीर में; अपि--यद्यपि; वीर--हे वीर;कृष्ण-अर्चन-प्रभवा-- श्रीकृष्ण की एकनिष्ठ सेवा के प्रभाव से प्रकट; नो जहाति--नहीं छोड़ पाई; अथो-- अतः; अहम्‌--मैं;जन-सझ्त्‌--सामान्य पुरुषों के संसर्ग से; असड्भ:--पूर्णतया विरक्त; विशद्जूमान:-- भयभीत होकर; अविवृतः --दूसरों सेअलक्षित, गुप्त; चरामि--इधर-उधर घूमता हूँ।

    हे वीर राजा, अपनी पूर्व अनन्य भगवत्‌ू-भक्ति के फलस्वरूप मृग शरीर में रहकर भी मुझे पूर्वजन्म की प्रत्येक वस्तु स्मरण रही।

    चूँकि मैं अपने पूर्वजन्म के पतन से परिचित हूँ, अतः मैंसामान्य व्यक्तियों के संसर्ग से अपने को दूर रखता हूँ।

    उनकी कुसंगति से डरकर मैं अलक्षित( गुप्त ) होकर अकेला घूमता फिरता हूँ।

    तस्मान्नरोसड्रसुसड्रजात-ज्ञानासिनेहेव विवृक्णमोहः ।

    हरिं तदीहाकथनश्रुता भ्यांलब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वन: ॥

    १६॥

    तस्मात्‌--इस कारण से; नरः--प्रत्येक व्यक्ति; असड्र--सांसारिक पुरुषों के संसर्ग से विरक्त होकर; सु-सड़--भक्तों की संगतिसे; जात--उत्पन्न; ज्ञान-असिना--ज्ञान रूपी तलवार से; इह--इस भौतिक जगत में; एब--यहाँ तक कि; विवृकण-मोहः --मोह छिन्न-छिन्न हो जाता है; हरिम्‌-- श्री भगवान्‌; तद्‌ू-ईहा--उनके कार्यों का; कथन-श्रुताभ्याम्‌ू-- श्रवण तथा कीर्तन इन दोविधियों से; लब्ध-स्मृति:ः--खोई चेतना प्राप्त हो जाती है; याति-- प्राप्त करता है; अतिपारमू--परम अन्त; अध्वन:--परम धामका ?

    उन्नत भक्तों की संगति मात्र से पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और फिर ज्ञान कीतलवार से सांसारिक मोहों को छिन्न-भिन्न किया जा सकता है।

    भक्तों की संगति से ही श्रवणतथा कीर्तन ( श्रवण कीर्तनम्‌ ) द्वारा भगवान्‌ की सेवा में अनुरक्त हुआ जा सकता है।

    इस प्रकारसे अपने सुप्त कृष्णभावनामृत को जागृत किया जा सकता है और कृष्णभावनामृत केअनुशीलन द्वारा इसी जीवन में परमधाम को वापस जाया जा सकता है।

    TO

    अध्याय तेरह: राजा राहुगण और जड़ भरत के बीच आगे की बातचीत

    5.13ब्राह्मण उवाचदुरत्यये ध्वन्यजया निवेशितोरजस्तमःसत्त्वविभक्तकर्महक्‌ ।

    स एघ सार्थोथपर: परिभ्रमन्‌भवाटवीं याति न शर्म विन्दति ॥

    १॥

    ब्राह्मण: उवाच--ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा; दुरत्यये--जिसको पार करना कठिन है, दुर्गम; अध्वनि--सकाम कर्मों के पथ पर( इस जन्म में कर्म करना, इन कर्मों के आधार पर अगले जन्म में शरीर ग्रहण करना और इस प्रकार जन्म-मरण के चक्र कोस्वीकार करना ); अजया--माया के द्वारा, श्रीभगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति; निवेशित:--सन्निविष्ट; रज:-तमः-सत्त्व-विभक्त-कर्म-हक्‌--बद्ध आत्मा जो लाभप्रद कर्मों तथा उनके फलों को तुरन्त देख लेता है जो सतो, रजो तथा तमो गुणों द्वारा तीनसमूहों में विभक्त है; सः--वह; एष:--यह; स-अर्थ:--सकाम; अर्थ-पर:--धन प्राप्ति में तुला हुआ; परिभ्रमन्‌--सर्वत्र घूमतेहुए; भव-अटवीम्‌-- भव नामक जंगल अर्थात्‌ जन्म-मरण का चक्र; याति-- प्रवेश करता है; न--नहीं; शर्म--सुख;विन्दति-प्राप्त करता है|?

    ब्रह्म-साक्षात्कार-प्राप्त जड़ भरत ने आगे कहा--हे राजा रहूगण, जीवात्मा इस संसार केदुर्लघ्य पथ पर घूमता रहता है और बारम्बार जन्म तथा मृत्यु स्वीकार करता है।

    प्रकृति के तीनगुणों ( सत्त्व, रज तथा तम ) के प्रभाव से इस संसार के प्रति आकृष्ट होकर जीवात्मा प्रकृति केजादू से केवल तीन प्रकार के फल जो शुभ, अशुभ तथा शुभाशुभ होते हैं देख पाता है।

    इसप्रकार वह धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मुक्ति की अद्बैत भावना ( परमात्मा में तादात्म्य ) के प्रति आसक्त हो जाता है।

    वह उस वणिक के समान अहर्निश कठोर श्रम करता हैजो कुछ सामग्री प्राप्त करने और उससे लाभ उठाने के उद्देश्य से जंगल में प्रवेश करता है।

    किन्तुउसे इस संसार में वास्तविक सुख उपलब्ध नहीं हो पाता।

    यस्यामिमे षण्नरदेव दस्यवःसार्थ बिलुम्पन्ति कुनायकं बलातू ।

    गोमायवो यत्र हरन्ति सार्थिकंप्रमत्तमाविश्य यथोरणं वृका: ॥

    २॥

    यस्यामू--जिसमें ( भवाटवी में ); इमे--ये; घट्‌ू--छ: ; नर-देव--हे राजा; दस्यव:--लुटेरे; स-अर्थम्‌--मिथ्या विचारों में ग्रस्तबद्धजीव; विलुम्पन्ति--लूटते हैं सर्वस्व हर लेते हैं; कु-नायकम्‌--जो नामधारी गुरुओं द्वारा सदैव ही कुमार्ग में ले जाये जाते हैं;बलातू--बलपूर्वक; गोमायव: --लोमड़ियों की तरह; यत्र--जिस जंगल में; हरन्ति--लूट लेते हैं; स-अर्थिकम्‌--जीव जो अपनेशरीर और आत्मा के पोषण के लिए धन की खोज करता रहता है; प्रमत्तमू--आत्महित न समझने वाला पागल व्यक्ति;आविश्य-- भीतर प्रवेश करके; यथा--जिस प्रकार; उरणम्‌--सुरक्षित मेमने को; वृका:--भेड़िये |

    हे राजा रहूगण, इस संसार रूपी जंगल ( भवाटवी ) में छह अत्यन्त प्रबल लुटेरे हैं।

    जबबद्धजीव कुछ भौतिक लाभ के हेतु इस जंगल में प्रवेश करता है, तो ये छहों लुटेरे उसे गुमराहकर देते हैं।

    इस प्रकार से बद्ध वणिक ( व्यापारी ) यह नहीं समझ पाता कि वह अपने धन कोकिस प्रकार खर्चे और यह धन इन लुतेरों द्वारा छीन लिया जाता है।

    जिस प्रकार चौकसी में पलेमेमने को उठा ले जाने के लिए जंगल में भेड़िए, सियार तथा अन्य हिंस््र पशु रहते हैं उसी प्रकार पत्नी तथा सन्तान उस वणिक के हृदय में प्रवेश करके अनेक प्रकार से लूटते रहते हैं।

    प्रभूतवीरुत्तणगुल्मगह्नरेकठोरदंशैर्मशकैरुपद्गुतः ।

    क्वचित्तु गन्धर्वपुरं प्रपश्यतिक्वचित्क्वचिच्चाशुरयोल्मुकग्रहम्‌ ॥

    ३॥

    प्रभूत-- प्रचुर; वीरुतू--लताओं; तृण--घास के तिनकों; गुल्म--घने जंगलों के ; गह्हे--कुंजों में; कठोर--क्रूर; दंशै: --काटने से; मशकै:--मच्छरों के द्वारा; उपद्रुत:--विश्लुब्ध; क्वचित्‌ू--कभी-कभी; तु--लेकिन; गन्धर्व-पुरम्‌--गन्धर्वों द्वाराबनाया गया मिथ्या स्थान, कल्पित गन्धर्वपुरी; प्रपश्यति--देखता है; क्वचित्‌--( तथा ) कभी-कभी; क्वचित्‌--कभी-कभी;च--तथा; आशु-रय--अ त्यन्त तेजी से; उल्मुक--उल्का के तुल्य; ग्रहम्‌-- भूतप्रेत, पिशाच।

    इस जंगल में झाड़ियों, घास तथा लताओं के झाड़-झंखाड़ से बने सघन कुंजों में बुरी तरहसे काटने वाले मच्छरों (ईर्ष्यालु पुरुषों ) के होने से बद्धजीव निरन्तर परेशान रहता है।

    कभीकभी उसे जंगल में काल्पनिक महल ( गन्धर्वपुर ) दिखता है, तो कभी कभी वह आसमान सेटूटते उल्का के समान प्रेत को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।

    निवासतोयद्रविणात्मबुद्धि-स्ततस्ततो धावति भो अटव्याम्‌ ।

    क्वचिच्च वात्योत्थितपांसुधूप्रादिशो न जानाति रजस्वलाक्ष: ॥

    ४॥

    निवास--आवास; तोय--जल; द्रविण--सम्पत्ति; आत्म-बुद्द्धिः--जो भौतिक वस्तुओं को आत्मा या स्वयं मानता है; ततःततः--इधर-उधर; धावति--दौड़ता है; भोः--हे राजा; अटव्याम्‌--इस संसार रूपी जंगल-मार्ग पर; क्वचित्‌ च--तथा कभी-कभी; वात्या--बवंडर से; उत्थित--ऊपर उठ कर; पांसु-- धूलि से; धूप्राः--धुंएँ के रंग का प्रतीत होता है; दिश:--दिशाएँ;न--नहीं; जानाति--जानता है; रज:-वल-अक्ष:--हवा की धूल से ढकी हुई आँखों वाला अथवा जो रजस्वला पतली के प्रतिआकृष्ट है।

    हे राजनू, इस संसार रूपी जंगल के मार्ग में घर, सम्पत्ति, कुटुम्बी इत्यादि से भ्रमित बुद्धिवाला वणिक सफलता की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को दौड़ता रहता है।

    कभी-कभीउसकी आँखें बवंडर की धूल से ढक जाती हैं, अर्थात्‌ कामवश वह अपनी स्त्री की सुन्दरता केप्रति, उसे विशेष रूप से रजोकाल में, मुग्ध हो जाता है।

    इस प्रकार अन्धा होने से उसे यह नहींदिखाई पड़ता कि उसे कहाँ जाना है, अथवा वह क्‍या कर रहा है।

    अदृश्यझिल्लीस्वनकर्णशूलउलूकवाग्भिव्यथिितान्तरात्मा ।

    अपुण्यवृक्षान्श्रयते श्षुधार्दितोमरीचितोयान्यभिधावति क्वचित्‌ ॥

    ५॥

    अदृश्य--न दिखने वाले; झिल्ली--झींगुरों अथवा मधुमक्खियों के प्रकार का एक कीट; स्वन--शब्द से; कर्ण-शूल--कानोंके लिए दुखदायी, कर्णकटु; उलूक--उल्लू की; वाग्भि: --बोली से; व्यधित--अत्यन्त विचलित; अन्त:-आत्मा--मन तथाहृदय; अपुण्य-वृक्षान्‌ू--अपवित्र वृक्ष, जिनमें फल-फूल नहीं लगते; श्रयते--शरण लेता है; क्षुध-- भूख से; अर्दित:--सतायाहुआ; मरीचि-तोयानि--मृगतृष्णा के लिए; अभिधावति--पीछे दौड़ता है; क्वचित्‌ू--कभी-कभी |

    संसार रूपी जंगल में घूमते हुए बद्धजीव को कभी-कभी अदृश्य झींगुरों की तीक्ष्ण ध्वनिसुनाई पड़ती है जो उसके कानों को अत्यन्त दुखदायी लगती है।

    कभी-कभी उसका हृदय अपनेशत्रुओं के कटु वचनों जैसी प्रतीत होने वाली उल्‍लुओं की ध्वनि से व्यधित ( विचलित ) होउठता है।

    कभी वह बिना फल फूल वाले वृक्षों का आश्रय ग्रहण करता है क्योंकि वह भूखाहोता है, किन्तु उसे कुछ न मिलने से कष्ट भोगना पड़ता है।

    उसे जल की इच्छा होती है किन्तु वह केवल मृगतृष्णा से मोहित हो जाने के कारण उसके पीछे दौड़ता है।

    क्वचिद्वितोया: सरितोभियातिपरस्परं चालषते निरन्ध: ।

    आसाद्य दावं क्वचिदग्नितप्तोनिर्विद्यते क्व च यक्षेहदतासु: ॥

    ६॥

    क्वचित्‌--कभी; वितोया:--जलहीन; सरित:--नदियाँ; अभियाति--नहाने जाता है अथवा भीतर कूदता है; परस्परम्‌ू--एकदूसरे से; च--तथा; आलषते--कामना करता है; निरन्ध:--अन्नहीन होने पर; आसाद्य--अनुभव करके; दावम्‌ू-- पारिवारिकजीवन में जंगल की आग, दावाग्नि; क्वचित्‌--कभी; अग्नि-तप्त:--आग से जलने के कारण; निर्विद्यते--निराश होता है;क्व--कहीं; च--तथा; यक्षेः--डाकुओं तथा उचक्कों जैसे राजाओं द्वारा; हत--ले लिया जाने पर, छीने जाने पर; असु:--सम्पत्ति, जो प्राणों के समान प्रिय है|?

    कभी-कभी बद्धजीव उथली नदी में कूद पड़ता है अथवा खाद्यान्न न होने पर ऐसे लोगों सेअन्न माँगता है जो दानी नहीं हैं ही नहीं।

    कभी कभी वह गृहस्थ जीवन की अग्नि से जलने लगताहै जो दावाग्नि जैसी होती है और कभी कभी वह उस सम्पत्ति के लिए दुखी हो उठता है जो उसेप्राणों से भी प्रिय है और जिसका अपहरण राजा लोग भारी आयकर के नाम पर करते हैं।

    श्रैईतस्वः क्व च निर्विण्णचेताःशोचन्विमुहान्रुपपाति कश्मलम्‌ ।

    क्वचिच्च गन्धर्वपुरं प्रविष्ट:प्रमोदते निर्वृतवन्मुहूर्तम्‌ ॥

    ७॥

    श्रैः--प्रबल शत्रुओं द्वारा; हृत-स्व:--जिसका समस्त धन चुराया जा चुका है; कब च--कभी-कभी; निर्विण्ण-चेता:--हृदयमें अन्यन्त खिन्न एवं व्यधित; शोचन्‌--अत्यधिक पकश्चात्ताप करते हुए; विमुहान्‌ू--किंकर्तव्यविमूढ़ होकर; उपयाति--हो जाताहै; कश्मलम्‌--संज्ञाशून्य, अचेत; क्वचित्‌ू--कभी-कभी; च-- भी ; गन्धर्व-पुरम्‌ू-- जंगल में स्थित कपोलकल्पित नगर में;प्रविष्ट: --प्रवेश हुआ; प्रमोदते--आनन्द भोगता है; निर्वृत-वत्‌--सिद्ध पुरुष के समान; मुहूर्तम्‌--केवल क्षण भर के लिए?

    कभी-कभी अपने से बड़े तथा बलवान व्यक्ति द्वारा पराजित होने अथवा लूटे जाने परजीवात्मा की सारी सम्पत्ति चली जाती है।

    इससे वह दुखी हो जाता है, क्षति पर पश्चात्ताप करताहै यहाँ तक कि कभी-कभी अचेत भी हो जाता है।

    कभी-कभी वह ऐसे विशाल प्रासाद कीकल्पना करने लगता है, जिसमें वह अपने परिवार तथा अपने धन समेत सुखपूर्वक रह सके।

    यदि ऐसा हो सके तो वह अपने को अत्यन्त सन्तुष्ट समझता है, किन्तु ऐसा तथाकथित सुखक्षणिक होता है।

    चलन्क्‍्वचित्कण्टकशर्कराड्प्रि-न॑गारुरुक्षुविमना इवास्ते ।

    पदे पदे भ्यन्तरवह्निनार्दितःकौटुम्बिक: क्रुध्यति वै जनाय ॥

    ८॥

    चलनू--चलते हुए; क्वचित्‌ू--कभी कभी; कण्टक-शर्कर--काँटे तथा कंकड़ों से छिद कर; अड्भप्रि:--जिनके पाँव; नग--पर्वत; आरुरुक्षु;--चढ़ने का इच्छुक; विमना:--उदास; इब--सहृश; आस्ते--हो जाता है; पदे पदे--प्रत्येक पग पर;अभ्यन्तर-- भीतरी, पेट के भीतर; वहिना--श्लुधा की प्रबल अग्नि से; अर्दित:--थक कर तथा दुखी होकर; कौटुम्बिक: --कुटुम्बियों के साथ रहने वाला व्यक्ति; क्रुध्यति--क्रोध करता है; बै--निश्चय ही; जनाय--अपने परिवार के सदस्यों पर।

    कभी-कभी जंगल का व्यापारी पर्वतों तथा पहाड़ियों के ऊपर चढ़ना चाहता है, किन्तुअपर्याप्त पदत्राण के कारण उसके पैरों में कंकड़ तथा काँटे गड़ जाते हैं जिससे वह अत्यन्तउदास हो जाता है।

    कोई व्यक्ति जो अपने परिवार के प्रति आसक्त होता है, वह कभी कभी जबअत्यधिक भूख के मारे त्रस्त हो जाता है, तो वह अपनी दयनीय स्थिति के कारण अपनेकुटुम्बियों पर विफर उठता है।

    क्वचित्निगीर्णोउजगराहिना जनोनावैति किद्ञिद्दिपिनेउपविद्धः ।

    दष्ट: सम शेते क्व च दन्दश्‌कैर्‌अन्धोन्धकूपे पतितस्तमिस्त्रे ॥

    ९॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; निगीर्ण:--निगले जाने पर; अजगर-अहिना--अजगर नामक बड़े सर्प द्वारा; जन:--बद्धजीव; न--नहीं; अवैति--समझता है; किज्जितू--कुछ भी; विपिने--जंगल में; अपविद्ध:--कष्ट के तीरों से बेधा हुआ; दष्ट:--दंश कियागया, काटे जाने पर; स्म--निस्संदेह; शेते--लेट जाता है; क्व च--कभी-क भी; दन्द-शूकैः -- अन्य सर्पों द्वारा; अन्ध:--अन्धा; अन्ध-कूपे--अंधे कुएँ में; पतित:--गिरा हुआ; तमिस्त्रे--नारकीय जीवन में?

    कभी-कभी इस भौतिक जंगल में बद्धजीव को अजगर निगल लेते हैं या मरोड़ डालते हैं।

    ऐसी अवस्था में वह चेतना तथा ज्ञान शून्य होकर मृत व्यक्ति तुल्य जंगल में पड़ा रहता है।

    कभी-कभी अन्य विषैले सर्प भी आकर काट लेते हैं।

    अचेतन होने के कारण वह नारकीय जीवन केअन्धे कूप में गिर जाता है जहाँ से बचकर निकल पाने की कोई आशा नहीं रहती।

    कर्हि सम चित्क्षुद्रससान्विचिन्व॑-स्तन्मक्षिकाभिव्यथितो विमान: ।

    तत्रातिकृच्छात्प्रतिलब्धमानोबलाद्विलुम्पन्त्यथ तं ततोउन्ये ॥

    १०॥

    कहि सम चितू--क भी-कभी; क्षुद्र-- अत्यन्त लघु; रसान्‌ू--रति सुख; विचिन्वन्‌--ढूँढने के लिए; तत्‌--उन स्त्रियों का;मक्षिकाभि:--मधुमक्खियों से अथवा पतियों या कुटुम्बियों से; व्यधित:ः--अत्यन्त दुखी; विमान: --अपमानित; तत्र--वहाँ पर;अति--अत्यन्त; कृच्छात्‌ू--धन के व्यय के कारण कठिनाई से; प्रतिलब्धमान: --रति सुख प्राप्त करके ; बलात्‌--बलपूर्वक;बिलुम्पन्ति--अपहरण की गईं; अथ--तत्पश्चात्‌; तम्‌--इन्द्रिय सुख की वस्तु ( स्त्री ); ततः--उससे; अन्ये--अन्य व्यभिचारी( कामी )?

    कभी-कभी थोड़े से रति-सुख के लिए मनुष्य चरित्रहीन स्त्री की खोज करता रहता है।

    इसप्रयास में उस स्त्री के सम्बन्धियों द्वारा उसका अपमान एवं प्रताड़न होता है।

    यह वैसा ही है जैसाकि मधुमक्खी के छत्ते से शहद ( मधु ) निकालते समय मक्खियाँ आक्रमण कर दें।

    कभी-कभीप्रचुर धन व्यय करने पर उसे कुछ अतिरिक्त इन्द्रिय भोग के लिए दूसरी स्त्री प्राप्त हो सकती है।

    किन्तु दुर्भाग्यवश इन्द्रिय सुख की सामग्री रूप वह स्त्री चली जाती है, अथवा किसी अन्य कामीद्वारा अपहरण कर ली जाती है।

    क्वचिच्च शीतातपवातवर्ष -प्रतिक्रियां कर्तुमनीश आस्ते ।

    क्वचिन्मिथो विपणन्यच्च किश्ञिद्‌विद्वेषमृच्छत्युत वित्तशाठ्यात्‌ ॥

    ११॥

    क्वचित्‌--क भी; च-- भी; शीत-आतप-वात-वर्ष--ठंड, कड़ी गर्मी, तेज हवा तथा अधिक वर्षा की; प्रतिक्रियाम्‌--प्रतिक्रिया, जवाबी क्रिया; कर्तुमू--करना; अनीश:--असमर्थ; आस्ते--कष्ट में रहता है; क्वचित्‌--कभी-कभी; मिथ: --परस्पर; विपणन्‌--बेच कर; यत्‌ च--जो कुछ; किझ्ञित्‌-- थोड़ा भी; विद्वेषम्‌--पारस्परिक द्वेष ( शत्रुता ); ऋच्छति--प्राप्तकरता है; उत--ऐसा कहते हैं; वित्त-शाठ््यात्‌-केवल धन के लिए एक दूसरे को ठगने के कारण।

    कभी-कभी जीवात्मा बर्फीली ठंड, कड़ी गर्मी, तेज हवा, अति-वृष्टि इत्यादि प्राकृतिकउत्पातों का सामना करने में लगा रहता है।

    किन्तु जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो अत्यन्त दुखीहो जाता है।

    कभी-कभी वह एक के बाद एक व्यावसायिक लेन-देन में ठगा जाता है।

    इसप्रकार ठगे जाने पर जीवात्माएँ एक दूसरे से शत्रुता ठान लेती हैं।

    क्वचित्क्वचित्क्षीणधनस्तु तस्मिन्‌शय्यासनस्थानविहारहीनः ।

    याचन्परादप्रतिलब्धकाम:पारक्यदृष्टिलभतेडवमानम्‌ ॥

    १२॥

    क्वचित्‌ क्वचित्‌--कभी-कभी; क्षीण-धन:--धनहीन होने पर; तु--लेकिन; तस्मिनू--उस जंगल में; शय्या--लेटने काबिस्तर; आसन--बैठने का स्थान; स्थान--आवास; विहार--परिवार सहित सुखोपभोग; हीन:--विहीन होकर; याचन्‌-- भीखमाँग कर; परात्‌--अन्‍्यों ( मित्रों तथा सम्बधियों ) से; अप्रतिलब्ध-काम:--कामना की पूर्ति न होने से; पारक्य-दृष्टि:--अन्योंकी सम्पत्ति का लालची; लभते--प्राप्त करता है; अवमानम्‌--अनादर।

    संसार के जंगली मार्ग में कभी-कभी व्यक्ति धनहीन हो जाता है, जिसके कारण उसके पासन समुचित घर न बिस्तर या बैठने का स्थान होता है, न ही समुचित पारिवारिक सुख ही उपलब्धहो पाता है।

    अतः वह अन्यों से धन माँगता है, किन्तु जब माँगने पर भी उसकी इच्छाएँ अपूर्णरहती हैं, तो वह या तो उधार लेना चाहता है या फिर अन्यों की सम्पत्ति चुराना चाहता है।

    इसतरह वह समाज में अपमानित होता है।

    अन्योन्यवित्तव्यतिषड्रवृद्ध-वैरानुबन्धो विवहन्मिथश्व ।

    अध्वन्यमुष्मिन्नुरुकृच्छुवित्त-बाधोपसगैर्विहरन्विपन्नः ॥

    १३॥

    अन्योन्य--एक दूसरे से; वित्त-व्यतिषड्र-- धन के लेन-देन द्वारा; वृद्ध--बढ़ा हुआ; बैर-अनुबन्ध: --वैर भाव; विवहन्‌--कभी-कभी ब्याह द्वारा; मिथ:-- परस्पर; च--तथा; अध्वनि--संसार-पथ पर; अमुष्मिन्‌-- वह; उरु-कृच्छु--कठिनाइयों से;वित्त-बाध-- धन की कमी से; उपसर्गैं:--रोगों से; विहरनू--घूमते हुए; विपन्न:ः--अत्यन्त चिन्तित हो जाता है।

    आर्थिक लेने-देन के कारण सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न होती है, जिसका अन्त शत्रुता में होताहै।

    कभी पति-पत्नी भौतिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होते हैं और अपने सम्बन्ध बनाये रखनेके लिए वे कठोर श्रम करते हैं, तो कभी धनाभाव अथवा रुग्ण दशा के कारण वे अत्यधिकचिन्तित रहकर मरणासतन्न हो जाते हैं।

    तांस्तान्विपन्नान्स हि तत्र तत्रविहाय जात॑ परिगृह् सार्थ: ।

    आवर्ततेउद्यापि न कश्िदत्रवीराध्वन: पारमुपैति योगम्‌ ॥

    १४॥

    तान्‌ तानू--उन सबों को; विपन्नान्‌ू--विभिन्न प्रकार से व्यधित; सः--जीव; हि--निश्चय ही; तत्र तत्र--यहाँ-वहाँ; विहाय--छोड़कर; जातमू--नवजातों को, नये पैदा हुओं को; परिगृह्य--लेकर; स-अर्थ:--अपने हित की खोज में जीव; आवर्तते--जंगल में घूमता रहता है; अद्य अपि--आज तक; न--नहीं; कश्चित्‌--कोई भी; अत्र--यहाँ इस जंगल में; वीर--हे वीर;अध्वन:--भौतिक जीवन का मार्ग; पारमू--अन्त; उपैति--पाता है; योगम्‌-- श्रीभगवान्‌ की भक्ति-साधना।

    हे राजनूु, भौतिक जीवन रूपी जंगल के मार्ग में मनुष्य पहले अपने पिता तथा माता कोखोता है और उनकी मृत्यु के बाद वह नवजात बच्चों से आसक्त हो जाता है।

    इस तरह वहभौतिक प्रगति के मार्ग में घूमता रहता है और अन्त में अत्यन्त व्यधित हो जाता है।

    किसी कोमृत्यु के क्षण तक यह पता नहीं चल पाता कि वह उससे किस प्रकार निकले।

    मनस्विनो निर्जितदिग्गजेन्द्राममेति सर्वे भुवि बद्धवैरा: ।

    मृधे शयीरतन्न तु तद्व्र॒जन्तियन्ञ्यस्तदण्डो गतवैरोडईभियाति ॥

    १५॥

    मनस्विन:--बड़े-बड़े वीर पुरुष ( विचारक ); निर्जित-दिक्‌-गजेन्द्रा:--जिन्होंने हाथियों के समान बलशाली वीरों को जीतलिया है; मम--मेरा ( मेरा देश, मेरी भूमि, मेरा परिवार, मेरा धर्म ); इति--इस प्रकार; सर्वे--समस्त ( महान्‌ राजनैतिक,सामाजिक तथा धार्मिक नेता ); भुवि--इस संसार में; बद्ध-वैरा:--परम्परा से वैरभाव उत्पन्न कर रखा है; मृधे--युद्ध में;शयीरन्‌-- भूमि में मृत होकर गिरे हुए; न--नहीं; तु--लेकिन; तत्‌-- श्रीभगवान्‌ का धाम; ब्रजन्ति--पहुँचते हैं; यत्‌--जो;न्यस्त-दण्ड:--संन्यासी; गत-बैर:--जिसका विश्व भर में किसी से वैर-भाव नहीं है; अभियाति--उस सिद्धिद्रि को प्राप्त करताहै?

    ऐसे अनेक राजनैतिक तथा सामाजिक वीर पुरुष हैं और थे जिन्होंने सम-शक्ति वाले शत्रुओंपर विजय प्राप्त की है, तो भी वे अज्ञानवश यह विश्वास करके कि यह भूमि उनकी है परस्परलड़ते हैं और युद्धभूमि में अपने प्राण गँवाते हैं।

    वे सन्‍्यासियों के द्वारा स्वीकृत आध्यात्मिक पथको ग्रहण कर सकने में अक्षम रहते हैं।

    वीर पुरुष तथा राजनैतिक नेता होते हुए भी वे आत्म-साक्षात्कार का पथ नहीं अपना सकते हैं।

    प्रसजजति क्वापि लताभुजा श्रय-स्तदाश्रयाव्यक्तपदद्विजस्पृहः ॥

    क्वचित्कदाचिद्धरिचक्रतस्त्रसन्‌सख्यं विधत्ते बककड्डूगृश्चे: ॥

    १६॥

    प्रसजजति--अधिकाधिक आसक्त होता है; क्वापि--कभी-कभी; लता-भुज-आ श्रय:--जो पत्नी की लताओं जैसी कोमलबाहों में आश्रय लेते हैं; तत्‌ू-आश्रय--जो ऐसी लताओं द्वारा आश्रय प्रदान किये जाते हैं; अव्यक्त-पद--जो अस्पष्ट पद ( गीत )गाते हैं; द्विज-स्पृह:-- पक्षियों का गाना सुनने का इच्छुक; क्वचित्‌--कभी-कभी; कदाचित्‌--कहीं; हरि-चक्रतः त्रसन्‌--सिंहकी दहाड़ से भयभीत; सख्यम्‌--मित्रता; विधत्ते--करता है; बक-कड्डू-गृश्नै:--बगुलों, सारसों तथा गीधों के साथ।

    कभी-कभी जीवात्मा संसार रूपी जंगल में लताओं का आश्रय लेता है और उन लताओं मेंबैठें पक्षियों की चहचहाहट सुनना चाहता है।

    जंगल के सिंहों की दहाड़ से भयभीत होकर वहबगुलों, सारसों तथा गृद्धों से मैत्री स्थापित करता है।

    तैर्वश्वितो हंसकुलं समाविश-न्नरोचयन्शीलमुपैति वानरान्‌ ।

    तज्जातिरासेन सुनिर्व॒तेन्द्रियःपरस्परोद्वीक्षणविस्पृतावधि; ॥

    १७॥

    तैः--उनके द्वारा ( बंचकों, तथाकथित योगियों, स्वामियों, अवतारों तथा गुरुओं द्वारा ); वश्चित:--ठगा जाकर; हंस-कुलम्‌--परमहंसों या भक्तों की संगति; समाविशनू--सम्पर्क करके; अरोचयनू--संतुष्ट न रहकर; शीलम्‌--शील, आचार; उपैति--पासजाता है; वानरान्‌--बंदरों को, जो दुश्चरित्र कामी पुरुष तुल्य हैं; तत्‌-जाति-रासेन--ऐसे कामी पुरुषों के संग में विषय-तृप्तिद्वारा; सुनिर्वुत-इन्द्रियः--इन्द्रिय-सुख प्राप्त होने से अत्यधिक संतुष्ट; परस्पर उद्दी क्षण --एक दूसरे का मुख देख-देख कर;विस्मृत-- भूला हुआ; अवधि: -- जीवन का अन्त।

    संसार रूपी जंगल में तथाकथित योगियों, स्वामियों तथा अवतारों से ठगा जाकर जीवात्माउनकी संगति छोड़कर असली भक्तों की संगति में आने का प्रयत्त करता है, किन्तु दुर्भाग्यवशवह सदगुरु या परम भक्त के उपदेशों का पालन नहीं कर पाता, अतः वह उनकी संगति छोड़करपुनः बन्दरों की संगति में वापस आ जाता है जो मात्र इन्द्रिय-तृप्ति तथा स्त्रियों में रूचि रखते हैं।

    वह इन विषयीजनों की संगति में रहकर तथा काम और मद्यपान में लगा रहकर तुष्ट हो लेता है।

    इस तरह वह काम और मद्यसेवन से अपना जीवन नष्ट कर देता है।

    वह अन्य विषयीजनों केमुखों को देख-देख कर भूला रहता है और मृत्यु निकट आ जाती है।

    ब्रुमेषु रंस्यन्सुतदारवत्सलोव्यवायदीनो विवशः स्वबन्धने ।

    क्वचित्प्रमादादिगरिकन्दरे पतन्‌वललीं गृहीत्वा गजभीत आस्थित: ॥

    १८॥

    ब्रुमेषु--वृक्षों में ( अथवा वृक्षवत्‌ घरों में जिनमें बन्दर एक डाली से दूसरी डाली पर कूदते रहते हैं ); रंस्थन्‌ू-- भोगता हुआ; सुत-दार-वत्सल:--बच्चों तथा पत्नी के प्रति अनुरक्त; व्यवाय-दीन:--विषय भोग के कारण दुर्बल हृदय वाला; विवश: --त्यागने मेंअक्षम; स्व-बन्धने--कर्मफल के बन्धन में; क्वचित्‌--कभी-कभी; प्रमादात्‌--आसत्न मृत्यु के भय से; गिरि-कन्दरे--पर्वतकी गुफा में; पतन्‌ू--गिरकर; वलल्‍लीम्‌ू--लताओं की शाखाएँ; गृहीत्वा--पकड़कर; गज-भीतः--मृत्यु रूपी हाथी से भयभीत;आस्थितः--उस स्थिति में रहा जाता है।

    जब जीवात्मा एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूदने वाले बन्दर के सहश बन जाता है, तोगृहस्थ जीवन के वृक्ष में मात्र विषय सुख ( संभोग ) के लिए रहता है।

    इस प्रकार वह अपनीपत्नी से वैसे ही पाद-प्रहार पाता है जैसे कि गधा गधी से।

    मुक्ति का साधन न पाने के कारण वह असहाय बनकर उसी अवस्था में रहता है।

    कभी-कभी उसे असाध्य रोग हो जाता है जो पर्वत कीगुफा में गिरने जैसा है।

    वह इस गुफा के पीछे रहने वाले मृत्यु रूपी हाथी से भयभीत हो उठता हैऔर लताओं की टहनियाँ पकड़े रहकर लटका रहता है।

    अतः कथश्ञित्स विमुक्त आपदःपुनश्च सार्थ प्रविशत्यरिन्दम ।

    अध्वन्यमुष्मिन्नजया निवेशितोभ्रमझ्जनोद्यापि न वेद कश्चन ॥

    १९॥

    अतः--इससे; कथज्ञित्‌--कुछ भी; सः--वह; विमुक्त:--मुक्त; आपद:--विपत्ति से; पुनः: च--फिर से; स-अर्थम्‌--जीवन मेंरुचि लेता हुआ; प्रविशति--प्रवेश करता है, प्रारम्भ करता है; अरिमू-दम--शत्रुओं के हंता, हे राजन्‌; अध्वनि-- भोग-पथ पर;अमुष्मिन्‌ू--उस; अजया--माया के प्रभाव से; निवेशित:--डूबा हुआ; भ्रमन्‌--घूमते हुए; जन:ः--बद्धजीव; अद्य अपि--मृत्युतक; न वेद--नहीं जानता; कश्चन--कुछ भी |

    हे शत्रुओं के संहारक, महाराज रहूगण, यदि बद्धजीव किसी प्रकार से इस भयानक स्थितिसे उबर आता है, तो वह पुन: विषयी जीवन बिताने के लिए अपने घर को लौट जाता है, क्योंकिवही आसक्ति का मार्ग है।

    इस प्रकार ईश्वर की माया से वशीभूत वह संसार रूपी जंगल में घूमतारहता है।

    मृत्यु के निकट पहुँच कर भी उसे अपने वास्तविक हित का पता नहीं चल पाता।

    रहूगण त्वमपि ह्ाध्वनोस्यसन्न्यस्तदण्ड: कृतभूतमैत्र: ।

    असजितात्मा हरिसेवया शितंज्ञानासिमादाय तरातिपारम्‌ ॥

    २०॥

    रहूगण--हे राजा रहूगण; त्वम्‌ू--तुम; अपि-- भी; हि--निश्चय ही; अध्वन:--संसार पथ का; अस्य--इस; सन्न्यस्त-दण्ड:--अपराधियों को दण्ड देने वाले राज-दण्ड को त्याग कर; कृत-भूत-मैत्र:-- प्रत्येक प्राणी के मित्र बन कर; असत्‌-जित-आत्मा--जिसका मन जीवन के भौतिक सुख के प्रति आकृष्ट नहीं होता; हरि-सेवया--परमे श्वर की प्रेममय सेवा के द्वारा;शितम्‌--पैनी; ज्ञान-असिम्‌--ज्ञान की तलवार; आदाय--हाथ में लेकर; तर--पार करो; अति-पारमू--उस अन्तिम छोर को( दूसरे पार )?

    है राजा रहूगण, तुम भी भौतिक सुख के प्रति आकर्षण-मार्ग में स्थित होकर माया केशिकार हो।

    मैं तुम्हें राज पद तथा उस दण्ड का जिससे अपराधियों को दण्डित करते हो परित्यागकरने की सलाह देता हूँ जिससे तुम समस्त जीवात्माओं के सुहृद ( मित्र ) बन सको।

    विषयभोगोंको त्याग कर अपने हाथ में भक्ति के द्वारा धार लगायी गयी ज्ञान की तलवार को धारण करो।

    तब तुम माया की कठिन ग्रंथि को काट सकोगे और अज्ञानता के सागर को पार करके दूसरेछोर पर जा सकोगे।

    राजोबाचअहो नृजन्माखिलजन्मशोभनंकि जन्मभिस्त्वपरैरप्यमुष्मिन्‌ ।

    न यद्धृषीकेशयश:ःकृतात्मनांमहात्मनां वः प्रचुर: समागमः ॥

    २१॥

    राजा उबाच--राज रहूगण ने कहा; अहो--ओह; नृ-जन्म--मनुष्य का जन्म लेने वाले तुम; अखिल-जन्म-शोभनम्‌--सर्वयोनियों में श्रेष्ठ; किमू--क्या आवश्यकता; जन्मभि:ः--स्वर्ग लोकों के देवता जैसी उच्चयोनि में जन्म लेने से; तु--लेकिन;अपरैः--अन्यान्य, निकृष्ट; अपि--निस्संदेह; अमुष्मिन्‌-- अगले जन्म में; न--नहीं; यत्‌--जो; हषीकेश-यशः:-- समस्त इन्द्रियोंके स्वामी श्रीभगवान्‌ हषीकेश के पवित्र यश से; कृत-आत्मनाम्‌--जिनके हृदय विमल हैं, शुद्ध अन्तःकरण वाले; महा-आत्मनाम्‌--महात्माओं की; व:--हम सबकी; प्रचुर: --अत्यधिक; समागम:--संगति |

    राज रहूगण ने कहा--यह मनुष्य जन्म समस्त योनियों में श्रेष्ठ है।

    यहाँ तक कि स्वार्ग मेंदेवताओं के बीच जन्म लेना उतना यश्पूर्ण नहीं जितना कि इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्मलेना।

    तो फिर देवता जैसे उच्च पद का क्या लाभ ? स्वर्गलोक में अधाह भोग-सामग्री के कारणदेवताओं को भक्तों की संगति का अवसर ही नहीं मिलता।

    न ह्वद्भधुतं त्वच्चरणाब्जरेणुभि-ईतांहसो भक्तिरधो क्षजेउमला ।

    मौहूर्तिकाह्यस्थ समागमाच्च मेदुस्तर्कमूलोडपहतोविवेक: ॥

    २२॥

    न--नहीं; हि--निश्चय ही; अद्भुतम्‌--अद्भुत; त्वत्‌ू-चरण-अब्ज-रेणुभि:--आपके चरणकमलों की धूलि से; हत-अंहस:--पाप के फल से मुक्त मैं; भक्ति:--प्रेम तथा भक्ति; अधोक्षजे-- श्री भगवान्‌ में, जो व्यवहार-ज्ञान की पकड़ से परे है; अमला--सांसारिक कल्मषों से रहित, विमल; मौहूर्तिकात्‌-- क्षणिक; यस्य--जिसके ; समागमात्‌-- आगमन तथा संगति से; च--भी;मे--मेरा; दुस्तर्क--झूठ तर्को का, कुतरकों का; मूल:--मूल, मूलकारण; अपहत:--पूर्णतया विनष्ट हो गया; अविवेक:--अज्ञान।

    यह कोई विचित्र बात नहीं है कि केवल आपके चरण-कमलों की धूलि से धूसरित होने सेमनुष्य तुरन्त विशुद्ध भक्ति के अधोक्षज पद को प्राप्त होता है जो ब्रह्म जैसे महान्‌ देवताओं केलिए भी दुर्लभ है।

    आपके क्षणमात्र के समागम से अब मैं समस्त तर्को, अहंकार तथा अविवेकसे मुक्त हो गया हूँ जो इस भौतिक जगत में बंधन के मूल कारण हैं।

    मैं अब इन समस्त झंझटों सेमुक्त हूँ।

    नमो महदभ्योउस्तु नमः शिशुभ्योनमो युवभ्यो नम आवटुभ्य: ।

    ये ब्राह्मणा गामवधूतलिड्र-श्वरन्ति तेभ्य: शिवमस्तु राज्ञामू ॥

    २३॥

    नमः--नमस्कार है; महद्भ्य:--महापुरुषों को; अस्तु--हो; नमः--मेरा नमस्कार; शिशुभ्य:--जो महापुरुष शिशु रूप में हो,उनको; नमः --सादर नमस्कार; युवभ्य:--जो युवा ( तरुण ) हों, उन्हें; नम:--सादर नमस्कार; आ-वटुभ्य:--जो बालक केरूप में हों उन्हें; ये--जो सब; ब्राह्मणा:--दिव्य ज्ञान में सिद्ध; गाम्‌--पृथ्वी; अवधूत-लिज्लः--विभिन्न शारीरिक वेषों में छिपेरहने वाले; चरन्ति--घूमते रहते हैं; तेभ्य:--उनसे; शिवम्‌ अस्तु--कल्याण हो; राज्ञामू--राजाओं को ( जो सदैव गर्वित रहतेहैं)म?

    ैं उन महापुरुषों को नमस्कार करता हूँ जो इस धरातल पर शिशु, तरुण बालक, अवधूतया महान्‌ ब्राह्मण के रूप में विचरण करते हैं।

    यदि वे विभिन्न वेशों में छिपे हुए हैं, तो भी मैं उनसबको नमस्कार करता हूँ।

    उनके अनुग्रह से उनका अपमान करने वाले राजवंशों का कल्याणहो।

    श्रीशुक उबाचइत्येवमुत्तरामातः स बै ब्रह्मर्षिसुतः सिन्धुपतय आत्मसतत्त्वं विगणयतः परानुभावः'परमकारुणिकतयोपदिश्य रहूगणेन सकरुणमभिवन्दितचरण आपूर्णार्णव इव निभृतकरणोर्म्याशयोधरणिमिमां विचचार ॥

    २४॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति एवम्‌--इस प्रकार; उत्तरा-मात:--हे माता उत्तरा के पुत्र, महाराजपरीक्षित; सः--वह ब्राह्मण; वै--निस्संदेह; ब्रह्म -ऋषि-सुतः --अत्यन्त शिक्षित ब्राह्मण का पुत्र, जड़ भरत; सिन्धु-पतये--सिंधुराज्य के राजा को; आत्म-स-तत्त्वम्‌ू--आत्मा की वास्तविक स्वाभाविक स्थिति; विगणयत:--जड़ भरत का अपमान करने परभी; पर-अनुभाव:--परम आत्मज्ञानी; परम-कारुणिकतया--पतित-आत्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु होने के कारण;उपदिश्य--उपदेश देकर; रहूगणेन--राजा रहूगण के द्वारा; स-करुणम्‌--दीनभाव से; अभिवन्दित-चरण: --जिसकेचरणकमलों की बन्दना की गई; आपूर्ण-अर्णव: इब--परिपूर्ण सागर के समान; निभृत--पूर्णतया शान्त; करण--इन्द्रियों की;ऊर्मि--लहरें; आशय: --अन्तःकरण में; धरणिम्‌--पृथ्वी पर; इमामू--इस; विचचार--घूमने लगे ।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, हे राजन्‌, हे उत्तरा-पुत्र, राजा रहूगण द्वारा अपनीपालकी ढोये जाने के लिए बाध्य किये जाने से अपमानित होकर जड़ भरत के मन में असंतोषकी कुछकुछ लहरें थीं, किन्तु उन्होंने इनकी उपेक्षा की और उनका हृदय पुनः सागर के समानशान्त हो गया।

    यद्यपि राजा रहूगण ने उनका अपमान किया, किन्तु वे महान्‌ परमहंस थे।

    वैष्णवहोने के नाते वे परम दयालु थे, अतः उन्होंने राजा को आत्मा की वास्तविक स्वाभाविक स्थितिबतलाई।

    तब उन्हें अपमान भूल गया, क्योंकि राजा रहूगण ने विनीत भाव से उनके चरणकमलोंपर क्षमा माँग ली थी।

    इसके बाद वे पुनः पूर्ववत्‌ सारे विश्व का भ्रमण करने लगे।

    सौबीरपतिरपि सुजनसमवगतपरमात्मसतत्त्व आत्मन्यविद्याध्यारोपितां च देहात्ममतिं विससर्ज; एवं हिनृप भगवदाश्रिताअतानुभावः ॥

    २५॥

    सौवीर-पतिः--सौवीर राज्य का राजा; अपि--निश्चय ही; सु-जन--महापुरुष से; समवगत-- भली-भाँति अवगत होकर,जानकर; परमात्म-स-तत्त्व:--आत्मा तथा परमात्मा की स्वाभाविक स्थिति की सत्यता; आत्मनि--अपने आप में; अविद्या--अज्ञान से; अध्यारोपिताम्‌-- भूल से आरोपित; च--तथा; देह--शरीर में; आत्म-मतिम्‌--स्व-बोध; विससर्ज--पूर्णतया त्यागदिया; एवम्‌--इस प्रकार; हि--निश्चय ही; नृप--हे राजन; भगवत्‌-आश्रित-आश्रित-अनुभाव: -- परम्परानुसार सदगुरु कीशरण में आये हुए भक्त की शरण में ( जो निश्चित रूप से अविद्या रूपी देहात्म-बुद्धि को निकाल पाने में समर्थ है )?

    परम भक्त जड़ भरत से उपदेश ग्रहण करने के पश्चात्‌ सौवीर का राजा रहूगण आत्मा कीस्वाभाविक स्थिति से पूर्णतया परिचित हो गया।

    उसने देहात्मबुद्धि का सर्वश: परित्याग करदिया।

    हे राजन, जो भी ईश्वर के भक्त के दास की शरण ग्रहण करता है, वह धन्य है, क्योंकिवह बिना कठिनाई के देहात्मबुद्धि त्याग सकता है।

    यो ह वा इह बहुविदा महाभागवत त्वयाभिहितः परोक्षेण वचसा जीवलोकभवाध्वा स ह्ार्यमनीषया'कल्पितविषयो नाञझसाव्युत्पन्नलोकसमधिगम:; अथ तदेवैतहुरवगमं समवेतानुकल्पेन निर्दिश्यतामिति ॥

    २६॥

    राजा उबाच--राजा परीक्षित ने कहा; यः--जो; ह--निश्चय ही; वा--अथवा; इह--इस वर्णन में; बहु-विदा--दिव्य ज्ञान कीअनेक घटनाओं को जानने वाले; महा-भागवत--हे परम भक्त साधु; त्वया--आपके द्वारा; अभिहित: --वर्णित; परोक्षेण--अलंकारिक रीति से; वचसा--शब्दों से; जीव-लोक-भव-अध्वा--बद्धजीव का संसार रूप मार्ग; सः--वह; हि--निस्संदेह;आर्य-मनीषया--सिद्ध भक्तों की बुद्धि से; कल्पित-विषय:ः --कल्पना किया गया विषय; न--नहीं; अद्सा- प्रत्यक्ष;अव्युत्पन्न-लोक--अल्प बुद्धि वाले पुरुष; समधिगम:--पूर्ण ज्ञान; अथ--अत:; तत्‌ एब--उसके कारण; एतत्‌--यह विषय;दुरबगमम्‌-दुर्बोध, समझने में कठिन; समवेत-अनुकल्पेन--ऐसी घटनाओं ( रूपक ) का स्पष्टीकरण करने वाले;निर्दिश्यताम्‌--वर्णन करें; इति--इस प्रकार?

    तब राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से कहा--हे स्वामी, हे परम भक्त साधु, आपसर्वज्ञाता हैं।

    आपने जंगल के वणिक के रूप में बद्धजीव की स्थिति का अत्यन्त मनोहर वर्णनकिया है।

    इन उपदेशों से कोई भी बुद्धिमान मनुष्य समझ सकता है कि देहात्मबुद्धि वाले पुरुषकी इन्द्रियाँ उस जंगल में चोर-उचक्कों सी हैं और उसकी पत्नी तथा बच्चे सियार तथा अन्य हिंस्त्रपशुओं के तुल्य हैं।

    किन्तु अल्पज्ञानियों के लिए इस आख्यान को समझ पाना सरल नहीं हैक्योंकि इस रूपक का सही-सही अर्थ निकाल पाना कठिन है।

    अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँकि इसका अर्थ स्पष्ट करके बताएँ।

    TO

    अध्याय चौदह: भौतिक संसार आनंद के महान वन के रूप में

    5.14स होवाचस एषदेहात्ममानिनांसत्त्वादिगुणविशेषविकल्पितकुशलाकुशलसमवहारविनिर्मितविविधदेहावलिभिर्वियोगसंयोगाद्यनादिसंसगरानुभवस्य द्वारभूतेन षडिन्द्रियवर्गेण तस्मिन्दुर्गाध्ववदसुगमेध्वन्यापतित ईश्वरस्थ भगवतोविष्णोर्वशवर्तिन्या मायया जीवलोकोयं यथा वणिक्सार्थो<र्थपर: स्वदेहनिष्पादितकर्मानुभव:इमशानवदशिवतमायां संसाराटव्यां गतो नाद्यापि विफलबहुप्रतियोगेहस्तत्तापोपशमनींहरिगुरुचरणारविन्दमधुकरानुपदवीमवरुन्धे ॥

    १॥

    सः--स्वरूपसिद्ध भक्त ( श्रीशुकदेव गोस्वामी ) ने; ह--निस्संदेह; उवाच--कहा; सः--वह ( बद्ध-आत्मा ); एष: --यह; देह-आत्म-मानिनाम्‌--अज्ञानवश देह को अपना मानने वाले व्यक्तियों का; सत्त्त-आदि--सत्त्व, रज तथा तम के; गुण--गुणों केद्वारा; विशेष--विशेष; विकल्पित--अज्ञानवश कल्पित; कुशल--कभी-कभी अनुकूल कर्मो द्वारा; अकुशल--कभी-कभीप्रतिकूल कर्मो के द्वारा; समवहार--दोनों के मिश्रण द्वारा, समवहार से; विनिर्मित--प्राप्त; विविध--नाना प्रकार के; देह-आवलिभिः--देहों की श्रृंखला के द्वारा; वियोग-संयोग-आदि--एक प्रकार के देह का त्याग ( वियोग ) तथा अन्य की स्वीकृति( संयोग ) द्वारा; अनादि-संसार-अनुभवस्य--देहान्तर की अनादि प्रक्रिया की प्रतीति का; द्वार-भूतेन--द्वारों के रूप में विद्यमानहोकर; षट्-इन्द्रिय-वर्गंण--इन छः इन्द्रियों ( मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों आँख, कान, जीभ, नाक तथा त्वचा ) द्वारा; तस्मिन्‌ू--उस पर; दुर्ग-अध्व-वत्‌--दुल्ल॑घ्य पथ की भाँति; असुगमे--पार करने में सुगम न होने से; अध्वनि--वन के पथ पर;आपतितः--पड़ कर; ईश्वरस्थ--नियन्ता का; भगवतः -- श्रीभगवान्‌ ; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु के; वश-वर्तिन्या --वश मेंरहकर कर्म करते हुए; मायया--माया द्वारा; जीव-लोक:--बद्ध जीवात्मा; अयम्‌--यह; यथा--जैसे; वणिक्‌--व्यापारी,बनिया; स-अर्थ:--उद्देश्य सहित, सोह्देश्य; अर्थ-पर:--धन में आसक्त; स्व-देह-निष्पादित-- अपने देह से किया गया; कर्म--कार्यों का फल; अनुभव:--जो अनुभव करता है; श्मशान-वत्‌ अशिवतमायाम्‌-- अशुभ एमशान भूमि के सहृश; संसार-अटवब्याम्‌-- भौतिक जीवन के वन में; गतः--प्रवेश करने पर; न--नहीं; अद्य अपि--अब तक; विफल--असफल; बहु-प्रतियोग--अनेक विघ्नों तथा दुखों से पूर्ण; ईंह:--इस भौतिक जगत में जिनके कार्य; तत्‌ू-ताप-उपश-मनीम्‌-- भौतिक जीवनरूपी बन के दुखों को शान्त करने वाला; हरि-गुरु-चरण-अरविन्द-प्रभु तथा भक्तों के चरणारविन्द में; मधुकर-अनुपदवीम्‌-- भ्रमर सहश अनुरक्त भक्तों के अनुगमन का पथ; अवरुन्धे-्राप्त

    राजा परीक्षित्‌ ने जब श्रीशुकदेव गोस्वामी से भौतिक वन का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कहातो उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया--हे राजनू, वणिक की रुचि सदैव धन उपार्जन के प्रति रहतीहै।

    कभी-कभी वह लकड़ी तथा मिट्टी जैसी कुछ अल्पमूल्य की वस्तुएँ प्राप्त करने और उन्हें लेजाकर नगर में अच्छे मूल्य में विक्रय करने की आकांक्षा से वन में प्रवेश करता है।

    इसी प्रकार बद्धजीव लोभवश कुछ भौतिक सुख-लाभ करने की इच्छा से इस भौतिक जगत में प्रवेशकरता है।

    धीरे-धीरे वह वन के सघन भाग में प्रवेश करता है तथा वह यह नहीं जानता कि बाहरकैसे निकले।

    इस भौतिक जगत में प्रवेश करके शुद्ध जीव सांसारिकता में बँध जाता है, जोभगवान्‌ विष्णु के नियंत्रण में उनकी बहिरंगा शक्ति (माया ) उत्पन्न करती है।

    इस प्रकारजीवात्मा बहिरंगा शक्ति दैवी माया के वशीभूत हो जाता है।

    स्वतंत्र होने तथा वन में भटकने केकारण वह भगवान्‌ की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले भक्तों का संग प्राप्त नहीं कर पाता।

    एकबार देहात्मबुद्धि के कारण वह माया के वशीभूत होकर और भौतिक गुणों ( सत्त्व, रज्‌ तथातम्‌ ) के द्वारा प्रेरित होकर एक के पश्चात्‌ एक अनेक प्रकार के शरीर धारण करता है।

    इसप्रकार बद्धजीव कभी स्वर्गलोक तो कभी भूलोक और कभी पाताललोक तथा निम्न योनियों मेंप्रवेश करता है।

    इस प्रकार अनेक देहों के कारण वह निरन्तर कष्ट सहन करता है।

    ये कष्ट तथापीड़ाएँ कभी-कभी मिश्रित रहती हैं।

    कभी तो ये असहा होती हैं, तो कभी नहीं।

    ये शारीरिकदशाएँ बद्धजीव को मनोकल्पना के कारण प्राप्त होती हैं।

    वह अपने मन तथा पंचेन्द्रियों काउपयोग ज्ञान-प्राप्ति के लिए करता है और इन्हीं से विभिन्न देहें तथा विभिन्न दशाएँ प्राप्त होती हैं।

    बहिरंगा शक्ति माया के नियंत्रण में इन इन्द्रियों का उपभोग करके जीव को दुख उठाना पड़ताहै।

    वह वास्तव में छुटकारा पाने की खोज में रहता है, किन्तु सामान्य रूप से वह भटकता है,यद्यपि कभी-कभी अत्यन्त कठिनाई के पश्चात्‌ उसे छुटकारा मिल जाता है।

    इस प्रकार अस्तित्त्वके लिए संघर्षशील रहने के कारण उसे भगवान्‌ विष्णु के चरणारबिन्दों में भ्रमरों के समानअनुरक्त भक्तों की शरण नहीं मिल पाती है।

    यस्यामु ह वा एते षडिन्द्रियनामान: कर्मणा दस्यव एव ते; तद्यथा पुरुषस्य धनं यत्किद्धिद्धर्मोपयिकंबहुकृच्छाधिगतं साक्षात्परमपुरुषाराधनलक्षणो योसौ धर्मस्तं तु साम्पराय उदाहरन्ति; तद्धर्म्य धनदर्शनस्पर्शनश्रवणास्वादनावप्राणसड्डुल्पव्यवसायगृहग्राम्योपभोगेन कुनाथस्याजितात्मनो यथा सार्थस्यविलुम्पन्ति ॥

    २॥

    यस्याम्‌--जिसमें; उ ह--निश्चय ही; वा-- अथवा; एते--ये सब; षट्‌-इन्द्रिय-नामान:--जो छः इन्द्रियाँ ( मन तथा पाँचज्ञानेन्द्रियाँ ) कहलाती हैं; कर्मणा-- अपने कर्म के द्वारा; दस्थव:ः--दस्यु ( लुटेरे ); एब--निश्चय ही; ते--वे; तत्‌--वह; यथा--जिस प्रकार; पुरुषस्य--व्यक्ति का; धनम्‌-- धन; यत्‌--जो भी; किश्ञित्‌-- थोड़ा; धर्म-औपयिकम्‌--धार्मिक सिद्धान्तों कासाधन; बहु-कृच्छु-अधिगतम्‌-- अतीव श्रम से उपार्जित; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; परम-पुरुष-आराधन-लक्षण: --यज्ञ इत्यादि के द्वाराभगवान्‌ की पूजा करना जिनके लक्षण हैं; यः--जो; असौ--वह; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त ( मर्यादा ); तमू--उसको; तु--किन्तु; साम्पराये--मृत्यु के पश्चात्‌ जीवात्मा के लाभार्थ; उदाहरन्ति--बुद्धिमान घोषित करते हैं; ततू-धर्म्यम्‌-- धार्मिक( वर्णाश्रम धर्म के पालन से सम्बधित ); धनम्‌--धन; दर्शन--दर्शन द्वारा; स्पर्शन--स्पर्श द्वारा; श्रवण-- श्रवण द्वारा;आस्वादन--स्वाद के द्वारा; अवध्राण --सूँघकर; सड्डूल्प--निश्चय द्वारा; व्यवसाय--निष्कर्ष रूप में; गृह--घर में; ग्राम्य-उपभोगेन-- भौतिक उपभोग द्वारा; कुनाथस्य-- भ्रमित बद्ध जीवात्मा का; अजित-आत्मन: --जिसने अपने पर विजय प्राप्त नहींकी; यथा--जैसे; सार्थस्य--इन्द्रियों की तृप्ति में रुचि रखने वाले जीवात्मा का; विलुम्पन्ति--लूट लेते हैं|

    संसार रूपी वन में अनियंत्रित इन्द्रियाँ दस्युओं के समान हैं।

    बद्धजीव श्रीकृष्णभावनामृत केविकास के लिए कुछ धन अर्जित कर सकता है, किन्तु दुर्भाग्यवश अनियंत्रित इन्द्रियाँ अपनीतुष्टि द्वारा इस धन को लूट लेती हैं; इन्द्रियाँ दस्यु हैं, क्योंकि वे जीव को दर्शन, प्राण, आस्वाद,स्पर्श, श्रवण, संकल्प-विकल्प तथा कामना में अपना धन व्यर्थ व्यय करने के लिए बाध्यकरती हैं।

    इस प्रकार बद्धजीव अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए बाध्य हो जाता है, जिससेउसका सारा धन व्यय हो जाता है।

    यद्यपि यह धन यथार्थतः धार्मिक कृत्यों के सम्पादन हेतुअर्जित हुआ होता है, किन्तु दस्यु-इन्द्रियाँ इसका हरण कर लेती हैं।

    अथ च यत्र कौटुम्बिका दारापत्यादयो नाम्ना कर्मणा वृकसृगाला एवानिच्छतो5पि कदर्यस्य कुटुम्बिनउरणकवत्संरक्ष्यमाणं मिषतोपि हरन्ति. ॥

    ३॥

    अथ--इस प्रकार; च-- भी; यत्र--जिसमें; कौटुम्बिका:--कुटुम्बी जन; दार-अपत्य-आदय: --स्त्री तथा सन्तान इत्यादि;नाम्ना--केवल नाम के द्वारा; कर्मणा-- अपने आचरण के द्वारा; वृक-सूगाला:--भेड़िया तथा श्रूगाल; एब--निश्चित रूप से;अनिच्छत:--ऐसा मनुष्य जो अपने धन को व्यय करने का अनिच्छुक है; अपि--निश्चय ही; कदर्यस्थ--अत्यन्त कृपण प्राणी,कंजूस का; कुटुम्बिन:--परिवार के प्राणियों से घिरा हुआ; उरणक-वत्‌--मेमने की भाँति; संरक्ष्यमाणम्‌--यद्यपि सुरक्षित है;मिषतः--जो देख रहा है; अपि-- भी, ही; हरन्ति--बलपूर्वक छीन लेते हैं।

    हे राजनू, इस भौतिक जगत में स्त्री-पुत्रादि नाम से पुकारे जाने वाले कुटुम्बीजन वास्तव मेंभेड़ियों तथा श्रृूगालों की भाँति व्यवहार करते हैं।

    चरवाहा अपनी भेड़ों की रक्षा यथाशक्तिकरना चाहता है, किन्तु भेड़िये तथा लोमड़ियाँ उन्हें बलपूर्वक उठा ले जाते हैं।

    इसी प्रकार यद्यपिकंजूस पुरुष सतर्कतापूर्वक अपने धन की चौकसी रखना चाहता है, किन्तु उसके पारिवारिकप्राणी उसकी समस्त सम्पत्तियों को उसके जागरूक रहते हुए भी बलपूर्वक छीन लेते हैं।

    यथा ह्नुवत्सरं कृष्यमाणमप्यदग्धबीजं क्षेत्र पुन्रेवावपनकाले गुल्मतृणवीरुद्धिर्गह्दरमिव भवत्येवमेवगृहा श्रम: कर्मक्षेत्रं यस्मिन्न हि कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एब आवसथः ॥

    ४॥

    यथा--जिस प्रकार; हि--निश्चय ही; अनुवत्सरम्‌--प्रत्येक वर्ष; कृष्यमाणम्‌--जोती जाने पर; अपि--यद्यपि; अदग्ध-बीजम्‌--बिना जले हुए बीज; क्षेत्रमू--खेत; पुनः --फिर; एव--निश्चय ही; आवपन-काले--बीजों को बोते समय; गुल्म--झाड़ियों से; तृण--घास-फूस से; वीरुद्धिः--लताओं से; गह्वरम्‌ इब--कुंज तुल्य; भवति--हो जाता है; एवम्‌--इस प्रकार;एव--निश्चय ही; गृह-आश्रम:--पारिवारिक जीवन, गृहस्था श्रम; कर्म-क्षेत्रमू--कार्य रूप खेत, कर्मभूमि; यस्मिन्‌ू--जिसमें;न--नहीं; हि--निश्चय ही; कर्माणि उत्सीदन्ति--सकाम कर्म विलुप्त हो जाते हैं; यत्‌ू--अत:; अयम्‌--यह; काम-करण्ड:--'फलवती इच्छाएँ; एषघ:--यह; आवसथः --आवास, निकेतन।

    कृषक प्रतिवर्ष अपने अनाज के खेत को जोतकर सारा घास-फूस निकालता रहता है, तो भी उनके बीज उसमें पड़े रहते हैं और पूरी तरह न जल पाने के कारण खेत में बोये गये पौधों केसाथ पुनः उग आते हैं।

    घास-फूस को जोतकर पलट देने पर भी वे सघन रूप से उगयकर निकलआते हैं।

    इसी प्रकार गृहस्थाश्रम एक कर्मक्षेत्र हे।

    जब तक गृहस्थाश्रम भोगने की कामना पूरीतरह भस्म नहीं कर दी जाती, तब तक वह पुनः पुनः उदय होती रहती है।

    पात्र में बन्द कपूर कोहटा लेने पर भी पात्र से सुगन्ध नहीं जाती।

    उसी तरह जब तक कामनाओं के बीज विनष्ट नहींकर दिये जाते, तब तक सकाम कर्म का नाश नहीं होता।

    तत्र गतो दंशमशकसमापसदैर्मनुजैः शलभशकुन्ततस्करमूषकादिभिरुपरु ध्यमानबहि:प्राण:क्वचित्परिवर्तमानोस्मिन्नध्वन्यविद्याकामकर्मभिरुपरक्तमनसानुपपतन्नार्थ नरलोकं गन्धर्वनगरमुपपन्नमितिमिथ्यादृष्टिरनुपश्यति, ॥

    ५॥

    तत्र--उस गृहस्थ जीवन तक; गत:--जाकर; दंश--डाँस; मशक--मच्छर; सम--तुल्य; अपसदै:--निम्न वर्ग के; मनु-जै:--मनुष्यों द्वारा; शलभ--पतंगा, टिट्डी; शकुन्त--एक बड़ा शिकारी पक्षी; तस्कर--चोर; मूषक-आदिभि:--चूहों इत्यादि केद्वारा; उपरुध्यमान--सताया जाकर; बहिः-प्राण:--बाह्म प्राणवायु, जो धन आदि के रूप में होती है; क्वचित्‌--कभी;परिवर्तमान: -- भ्रमण करते हुए; अस्मिन्‌--इसमें; अध्वनि-- भौतिक जगत का मार्ग; अविद्या-काम--अज्ञान तथा लोभ से;कर्मभि: --एवं सकाम कर्मों के द्वारा; उपरक्त-मनसा--मन के प्रभावित हो जाने के कारण; अनुपपन्न-अर्थम्‌--जिसमें वांछित'फल कभी प्राप्त नहीं हो पाते; नर-लोकम्‌--यह भौतिक जगत; गन्धर्व-नगरम्‌--गंधर्वों की पुरी, हवाई महल; उपपन्नम्‌--विद्यमान; इति--ऐसा मानते हुए; मिथ्या-दृष्टि:--जिसको दृष्टि दोष हो; अनुपश्यति--देखता है

    सांसारिक सम्पत्ति एवं वैभव में आसक्त गृहस्थाश्रम में बद्धजीव को कभी डाँस तथा मच्छर,तो कभी टिड्डी, शिकारी पक्षी व चूहे सताते हैं।

    फिर भी वह भौतिक जगत के पथ पर चलतारहता है।

    अविद्या के कारण वह लोभी बन जाता है और सकाम कर्म में लग जाता है।

    चूँकिउसका मन इन कार्यकलापों में रमा रहता है इसलिए उसे यह भौतिक जगत नित्य लगता है,यदहापि यह गंधर्वनगर ( हवाई महल ) की भाँति अनित्य है।

    तत्र च क्वचिदातपोदकनिभान्विषयानुपधावति पानभोजनव्यवायादिव्यसनलोलुप: ॥

    ६॥

    तत्र--वहाँ ( इस गंधर्व नगर में ); च-- भी; क्वचित्‌--कभी-कभी; आतप-उदक-निभान्‌--मरुस्थल में मृगतृष्णा-जल केसमान; विषयान्‌--इन्द्रिय सुख की वस्तुओं के; उपधावति--पीछे दौड़ता है; पान--पीने के लिए; भोजन--खाने के लिए;व्यवाय--विषयी जीवन के लिए; आदि--इत्यादि; व्यसन--लत से; लोलुप:--विषयी |

    बद्धजीव कभी-कभी इस गंधर्वपुरी में खाता, पीता और स्त्री-प्रसंग करता है।

    अत्यधिकलगाव के कारण इन्द्रियसुखों के पीछे वह उसी प्रकार दौड़ता है जैसे मरुस्थल में मृगमरीचिकाके पीछे हिरण।

    क्वचिच्चाशेषदोषनिषदनं पुरीषविशेषं तद्वर्णगुणनिर्मितमति: सुवर्णमुपादित्सत्यग्निकामकातरइवोल्मुकपिशाचम्‌, ॥

    ७॥

    क्वचित्‌--कभी; च-- भी; अशेष--- अनन्त, सीमाहीन; दोष--दुर्गुणों का; निषदनम्‌--स््रोत; पुरीष--मल का; विशेषम्‌--विशिष्ट प्रकार के; तत्‌-वर्ण-गुण--रजोगुण के से रंगवाला ( अरुण ); निर्मित-मति:--जिसका मन उसी में रमा रहता है;सुवर्णम्‌--स्वर्ण; उपादित्सति--पाने की इच्छा करते हुए; अग्नि-काम--अग्नि की इच्छा से; कातर:--दुखी; इब--सहृश;उल्मुक-पिशाचम्‌--स्फुरदीप्ति ( कच्छ प्रकाश ) जिसे कभी भूत ( अगिया बेताल ) मान लिया जाता है।

    कभी-कभी जीवात्मा स्वर्ण के नाम से पहचाने जाने वाले पीले मल की वांछा करके उसकोपाने के लिए दौड़ता है।

    यह स्वर्ण भौतिक वैभव एवं ईर्ष्या का साधन है और इसके कारणजीवात्मा अवैध यौन-सम्बन्ध, द्यूत, मांसाहार तथा मादक द्रव्यों के सेवन में तत्पर होने में समर्थहोता है।

    रजोगुणी व्यक्ति स्वर्ण के रंग से उसी प्रकार आकृष्ट होते हैं जिस प्रकार वन में जाड़े सेठिठुरता मनुष्य दलदल में दिखने वाले प्रकाश को अग्नि समझ बैठता है।

    अथ कदाचितन्निवासपानीयद्रविणाद्यनेकात्मोपजीवनाभिनिवेश एतस्यां संसाराटव्यामितस्ततःपरिधावति ॥

    ८॥

    अथ--इस प्रकार; कदाचित्‌ू--क भी -क भी; निवास--वासस्थान; पानीय--जल; द्रविण-- धन; आदि--इत्यादि; अनेक --विविध प्रकार के; आत्म-उपजीवन--जो देह तथा आत्मा को एकसाथ रखने के लिए आवश्यक समझे जाते हैं; अभिनिवेश: --पूर्णतया लीन; एतस्याम्‌--इस; संसार-अटबव्याम्‌--विशाल वन के सदृश इस भौतिक जगत में; इतः ततः--इधर-उधर;'परिधावति--चारों ओर दौड़ धूप करता है।

    कभी-कभी यह बद्धजीव रहने के लिए वासस्थान खोजने एवं अपने शरीर की रक्षा के लिएजल तथा धन प्राप्त करने में लगा रहता है।

    इन नाना प्रकार की आवश्यकताओं को जुटाने मेंसंलग्न रहने के कारण वह सब कुछ भूल जाता है और भौतिक अस्तित्त्व के जंगल में निरन्तरइधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है।

    क्वचिच्च वात्यौपम्यया प्रमदयारोहमारोपितस्तत्कालरजसा रजनीभूत इवासाधुमर्यादो रजस्वलाक्षोडपिदिग्देवता अतिरजस्वलमतिर्न विजानाति ॥

    ९॥

    क्वचित्‌--क भी; च-- भी; वात्या औपम्यया--बवण्डर के सहृश; प्रमदया--सुन्दर स्त्री, रमणी; आरोहम्‌ आरोपित: --यौन सुखके लिए अंक में बिठाई गई; तत्‌ू-काल-रजसा--तत्क्षण भोगेच्छा से; रजनी-भूतः--रात्रि का अंधकार; इब--सहश; असाधु-मर्याद:--सत्पुरुषों के समुचित आदर से रहित; रज:-बल-अक्ष:--आँखों में रजोगुण की धूल पड़ने से अंधी; अपि-- भी; दिक्‌-देवता:--दिशाओं के देवता, यथा सूर्य तथा चन्द्र; अतिरज:-वल-मति:ः--आसक्ति से पराजित बुद्धि; न विजानाति--नहीं जानपाता ( कि चारों दिशाओं के देवता उसके अविवेकी यौनाचार को देखते हैं )॥

    कभी-कभी यह बद्ध आत्मा धूल के बवण्डर से अन्धे के समान स्त्री की सुन्दरता को देखताहै जिसे प्रमाद कहा जाता है।

    इस प्रकार से अन्धा होकर वह सुन्दर स्त्री की गोद में जा बैठता है।

    उस समय उसके विवेक पर भोगेच्छा विजय पाती है।

    इस प्रकार वह वासना से प्रायः अन्धा होजाता है और काम-जीवन के समस्त नियमों का उललघंन करने लगता है।

    उसे यह ज्ञान ही नहींरह जाता कि उसके इस उल्लंघन को अनेक देवता देख रहे हैं।

    इस प्रकार वह भवितव्य दण्ड कोदेखे बिना अर्धरात्रि में अवैध यौन सुख का आनन्द लेता है।

    क्वचित्सकृदवगतविषयवैतशथ्य: स्वयं पराभिध्यानेन विभ्रृंशितस्मृतिस्तयैवमरीचितोयप्रायांस्तानेवाभिधावति, ॥

    १०॥

    क्वचित्‌--कभी; सकृत्‌--एक बार; अवगत-विषय-वैतथ्य:--इन्द्रियतृप्ति पाने की निरर्थकता से सचेष्ट रहकर; स्वयम्‌--स्वतः; पर-अभिध्यानेन--स्वयं की देहात्म बुद्धि से; विभ्रेशित--विनष्ट; स्मृति:--जिसकी स्मृति; तया--उसके द्वारा; एब--निश्चय ही; मरीचि-तोय--मृगतृष्णा का जल; प्रायान्‌ू--के सहश; तान्‌--उन इन्द्रियों को; एब--निश्चय ही; अभिधावति--केपीछे दौड़ता है।

    बद्धजीव कभी स्वतः सांसारिक विषयों का निरर्थकता स्वीकार कर लेता है, तो कभी वहभौतिक सुखों को दुखपूर्ण मानता है।

    फिर भी अपनी उत्कट देहात्म-बुद्धि के कारण उसकीस्मृति विनष्ट हो जाती है और वह पुनः पुनः भौतिक सुखों के पीछे वैसे ही दौड़ता फिरता है जैसेमरुस्थल में मृगमरीत्विका के पीछे मृग।

    क्वचिदुलूकझिल्लीस्वनवदतिपरुषरभसाटो पं प्रत्यक्ष परोक्ष॑ं वारिपुराजकुलनिर्भ््सितेनातिव्यथितकर्णमूलहदय:, ॥

    ११॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; उलूक--उल्लू का; झिल्ली--झीं गुर; स्वन-वत्‌--अप्रिय ध्वनियों की तरह; अति-परुष--अत्यन्तकर्णपटु; रभस--थधैर्य से; आटोपम्‌--घर्षण; प्रत्यक्षम्‌-प्रत्यक्ष, प्रकटतः; परोक्षम्‌--अप्रत्यक्ष; वा--या; रिपु--शत्रुओं का;राज-कुल--शासक समुदाय का; निर्भरत्सितेन--ताड़ना या दण्डदान से; अति-व्यथित--अत्यन्त दुखी; कर्ण-मूल-हृदयः --जिसके कान तथा हृदय

    कभी-कभी बद्धजीव अपने शत्रुओं तथा शासन-कर्मियों की प्रताड़ना से अत्यन्त व्यथितरहता है, जो प्रत्यक्ष रूप से कटु वचन कहते रहते हैं।

    उस समय उसके हृदय ( मन ) तथा कानअतीव व्यथित एवं विषादपूर्ण हो जाते हैं।

    ऐसी प्रताड़ना की तुलना उलूकों तथा झींगुरों कीअप्रिय झंकार से की जा सकती है।

    स यदा दुग्धपूर्वसुकृतस्तदाकारस्करकाकतुण्डाद्यपुण्यद्रमलताविषोदपानवदुभयार्थशून्यद्रविणान्जी वन्मृतान्स्वयं जीवन्प्रियमाणउपधावति ॥

    १२॥

    सः--वह बद्ध आत्मा; यदा--जब; दुग्ध-- थकित, रिक्त; पूर्व--पहले का; सुकृत:--अच्छे कर्म; तदा--उस समय; कारस्कर-काकतुण्ड-आदि--कारस्कर, काकतुण्ड आदि नामधारी; अपुण्य-द्रुम-लता--अपवित्र वृक्ष तथा लताएँ; विष-उद-पान-वत्‌--विषैले जल से युक्त कुँए के समान; उभय-अर्थ-शून्य--जो न तो इस जन्म में न अगले जन्म में सुख दे सकता है;द्रविणान्‌ू--सम्पत्तिवान्‌; जीवतू-मृतान्‌ू--जीवित होकर भी जो मृतक तुल्य है; स्वयम्‌--वह स्वतः; जीवत्‌--सजीव;प्रियमाण: --मरा हुआ, मृत; उपधावति--सांसारिक लाभ के लिए निकट आता है।

    पूर्वजन्मों में पवित्र कर्मों के कारण बद्ध-आत्मा को इस जीवन में भौतिक सुविधाएँ प्राप्तहोती हैं, किन्तु इनके समाप्त हो जाने पर वह ऐसी सम्पदा तथा धन का सहारा लेता है, जो न तोइस जीवन में न ही अगले जीवन में उसके सहायक होते हैं।

    इसलिए वह जीवित मृत-तुल्यमनुष्यों का जिन के पास ये वस्तुएं होती है, सहारा लेना चाहता है।

    ऐसे लोग अपवित्र वृक्षों,लताओं और विषैले कुओं के सहश हैं।

    एकदासत्प्रसड़ान्निकृतमतिर्व्युदकस्त्रोत:स्खलनवदुभयतोपि दुःखदं पाखण्डमभियाति ॥

    १३॥

    एकदा--कभी-कभी; असत्‌-प्रसड्भात्‌--अभक्तों के संसर्ग से जो वैदिक नियमों के विरुद्ध हैं और अनेक धार्मिक सम्प्रदायों कोजन्म देते हैं; निकृत-मति:--जिनकी बुद्धि इस निम्न स्तर तक पहुँच चुकी होती है कि भगवान्‌ के अस्तित्त्व को नकारते हैं;व्युदक-स्त्रोत:-- प्रचुर जल से रहित नदियों में; स्खलन-वबत्‌--कूदने के समान; उभयत:--दोनों ओर से; अपि--यद्यपि; दुःख-दम्‌--दुखदायी; पाखण्डम्‌--निरीश्वरवादी मार्ग, पाखण्ड; अभियाति--अनुसरण करता है।

    कभी-कभी इस संसार अटवी में अपने कष्टों से मुक्ति पाने के लिए बद्धजीव पाखण्डियों केसस्ते आशीर्वाद प्राप्त करता है।

    तब उनके सम्पर्क से उसकी मति भ्रष्ट हो जाती है।

    यह उथलीनदी में कूदने के समान ही है।

    इसका परिणाम यही होता है कि उसका सिर फूटता है।

    इस प्रकारवह गर्मी से प्राप्त दुःखों को शान्त करने में समर्थ नहीं होता तथा दोनों ओर से उस की हानि होतीहै।

    यह दिग्भ्रमित बद्धजीव तथाकथित साधुओं एवं स्वामियों की भी शरण में जाता है जोवेदविरुद्ध उपदेश देते हैं।

    किन्तु इनसे उसे न तो वर्तमान में और न भविष्य में ही लाभ प्राप्त होताहै।

    यदा तु परबाधयान्ध आत्मने नोपनमति तदा हि पितृपुत्रबर्हिष्मतः पितृपुत्रान्वा स खलु भक्षयति, ॥

    १४॥

    यदा--जब; तु--किन्तु ( दुर्भाग्यवश ); पर-बाधया-- अन्य सबों का शोषण करते हुए भी; अन्ध:--अन्धा; आत्मने--अपनेस्वयं के लिए; न उपनमति--हिस्से में नहीं आता; तदा--तब; हि--निश्चय रूप से; पितृ-पुत्र--पिता या पुत्रों का; बर्हिष्मत:--तृणवत््‌ तुच्छ; पितृ-पुत्रानू--पिता अथवा पुत्रों को; बा--अथवा; सः--वह ( बद्धजीव ); खलु--निस्सन्देह; भक्षयति--कष्टपहुँचाता है।

    बद्धजीव जब अन्यों का शोषण करते रहने पर भी इस भौतिक संसार में अपना निर्वाह नहींकर पाता, तो वह अपने पिता या पुत्र का शोषण करने का प्रयास करता है और उसकी सम्पत्तिहर लेता है भले ही वे अति महत्वहीन ही क्‍यों न हों।

    यदि वह पिता, पुत्र या किसी अन्य सम्बन्धीकी सम्पत्ति प्राप्त नहीं कर पाता तो यह उन्हें सभी प्रकार के कष्ट देने के लिए उद्यत हो उठता है।

    क्वचिदासाद्य गृहं दाववत्प्रियार्थविधुरमसुखोदर्क शोकाग्निना दह्ममानो भृशं निर्वेदमुपगच्छति ॥

    १५॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; आसाद्य--अनुभव करके; गृहम्‌--गृहस्था श्रम को; दाव-बत्‌--दावाग्नि तुल्य; प्रिय-अर्थ-विधुरम्‌--किसी लाभप्रद प्रयोजन के बिना; असुख-उदर्कम्‌--अधिकाधिक दुख ही प्रतिफलित होता है; शोक-अग्निना--शोक की अग्निसे; दह्ममान:--सन्तप्त होकर; भूशम्‌--अत्यधिक; निर्वेदम्‌--निराशा; उपगच्छति--प्राप्त करता है।

    इस संसार में गृहस्था श्रम दावाग्नि के तुल्य है।

    इसमें तनिक भी सुख नहीं है और मनुष्यक्रमशः अधिकाधिक दुख में उलझता जाता है।

    पारिवारिक जीवन में चिरन्तन सुख के लिए कुछभी अनुकूल नहीं होता।

    गृहस्था श्रम में रहने के कारण बद्धजीबव पश्चात्ताप की अग्नि से संतप्तरहता है।

    कभी वह अपने को अभागा मानते हुए कोसता है, तो कभी वह कहता है कि पूर्वजीवन में शुभ कर्म न करने के कारण ही वह कष्ट का भागी बन रहा है।

    क्वचित्कालविषमितराजकुलरक्षसापहतप्रियतमधनासु: प्रमृतक इव विगतजीवलक्षण आस्ते ॥

    १६॥

    क्वचित्‌--कभी-क भी; काल-विष-मित--काल के द्वारा कुटिल बनाया गया; राज-कुल--शासक वर्ग; रक्षसा--राक्षसोंद्वारा; अपहत--हर लिये जाने पर; प्रिय-तम--सर्वाधिक प्रिय; धन--सम्पत्ति के रूप में; असु:--जिसकी प्राणवायु;प्रमृतक:--मृत; इब--सहृश, तुल्य; विगत-जीव-लक्षण:--जीवन के समस्त लक्षणों से शून्य; आस्ते--रह जाता है

    शासन-कर्मी सदैव नरभक्षी राक्षसों के सह होते हैं।

    ये शासन-कर्मी कभी-कभी बद्धजीवसे रुष्ट हो जाते हैं और उसकी सारी संचित सम्पत्ति उठा ले जाते हैं।

    इस प्रकार अपने जीवन भरकी संचित पूँजी को खोकर बद्धजीव हतोत्साहित हो जाता है।

    दरअसल, यह उसके लिएप्राणान्त के समान है।

    कदाचिन्मनोरथोपगतपितृपितामहाद्यसत्सदिति स्वपणनिर्व॒ृतिलक्षणमनुभवति ॥

    १७॥

    कदाचित्‌--कभी-क भी; मनोरथ-उपगत--मन में कल्पना द्वारा प्राप्त; पितृ--पिता; पिता-मह-आदि--अथवा बाबा तथा अन्य;असतू--बहुत पूर्व मृत होने पर भी ( और यह न जानते हुए कि जीव चला गया है ); सत्‌--पिता या पितामह पुनः पधारते हैं;इति--ऐसा सोचकर; स्वप्न-निर्वृति-लक्षणम्‌--स्वप्न-सुख के समान; अनुभवति--( जीव ) अनुभव करता है।

    कभी-कभी बद्धजीव यह कल्पना करने लगता है कि उसके पिता या बाबा अपने पुत्र यापौत्र के रूप में इस संसार में पुनः आ गए।

    इस प्रकार उन्हें स्वणण का सा सुख अनुभव होता हैऔर कभी-कभी बद्धजीव को ऐसी मानसिक कल्पनाओं में सुख मिलता है।

    क्वचिद्गृहा श्रमकर्मचोदनातिभरगिरिमारुरु क्षमाणो लोकव्यसनकर्षितमना: कण्टकशर्कराक्षेत्रंप्रविशन्निव सीदति ॥

    १८॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; गृह-आश्रम--गृहस्थ जीवन; कर्म-चोदन--सकाम कर्म का पालन; अति-भर-गिरिम्‌--ऊँची पहाड़ी;आरुरुक्षमाण: --चढ़ने की इच्छा लेकर; लोक-- भौतिक ( संसार ); व्यसन--लत; कर्षित-मना:ः--आकर्षित मन वाले;'कण्टक-शर्करा-द्षेत्रमू--काँटे तथा कंकड़ों से आच्छादित खेत में; प्रविशन्‌--घुसते हुए; इब--सद्ृश; सीदति--पश्चात्तापकरता है।

    गृहस्थाश्रम में नाना प्रकार के यज्ञ तथा कर्मकाण्ड ( विशेष रूप से पुत्र-पुत्रियों के लिएविवाह यज्ञ और यज्ञोपवीत संस्कार ) करने होते हैं।

    ये सभी गृहस्थ के कर्तव्य हैं।

    ये अत्यन्तव्यापक होते हैं और इनको सम्पन्न करना कष्टदायक होता है।

    इनकी उपमा एक बड़ी पहाड़ी सेदी जाती है, जिसे सांसारिक कर्मों में संलग्न होने पर लाँघना ही पड़ता है।

    जो व्यक्ति इनअनुष्ठानों पर विजय प्राप्त करना चाहता है उसे पहाड़ी में चढ़ते समय काँटों तथा कंकड़ों केचुभने से होने वाली पीड़ा का-सा अनुभव करना होता है।

    इस प्रकार बद्धजीव को अनन्तयातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

    क्वचिच्च दुःसहेन कायाभ्यन्तरवह्निना गृहीतसारः स्वकुटुम्बाय क्रुध्यति ॥

    १९॥

    क्वचित्‌ च--और कभी-कभी; दुःसहेन-- असहा; काय-अभ्यन्तर-वह्निना--शरीर के अन्तर्गत क्षुधा तथा पिपासा की अग्नि केकारण; गृहीत-सार: -- धैर्य चुकने पर; स्व-कुटुम्बाय--अपने ही कुट॒म्बी जनों पर; क्रुध्यति--क्रुद्ध होता है, नाराज होता है।

    कभी-कभी शारीरिक भूख और प्यास से त्रस्त बद्धजीव इतना विचलित हो जाता है किउसका थैर्य टूट जाता है और वह अपने ही प्रिय पुत्रों, पुत्रियों तथा पत्नी पर रूष्ट हो जाता है।

    इसप्रकार निष्ठर होने पर उसकी यातना और भी बढ़ जाती है।

    स एव पुनर्निद्राजगरगृहीतो उन्‍्थे तमसि मग्न: शून्यारण्य इव शेते नान्यत्किज्ञन वेद शव इवापविद्धः ॥

    २०॥

    सः--वह बद्धजीव; एव--निश्चय ही; पुन:--फिर से; निद्रा-अजगर--गहरी नींद रूपी अजगर द्वारा; गृहीत:--भक्षण कियेजाने पर; अन्धे--घनान्धकार में; तमसि--अज्ञान में; मग्न: --लिप्त; शून्य-अरण्ये--वीरान वन में; इब--के समान; शेते--लेटजाता है; न--नहीं; अन्यत्‌-- अन्य; किज्लन-- कुछ भी; वेद--जानता है; शवः--मृत शरीर; इब--सहश; अपविद्ध:--फेंकाहुआ।

    शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित्‌ से आगे कहते हैं--प्रिय राजन्‌, निद्रा अजगर के समानहै।

    जो मनुष्य भौतिक जीवनरूप वन में विचरण करते रहते हैं उन्हें निद्रा-अजगर अवश्य हीनिगल जाता है।

    इस अजगर द्वारा डसे जाने के कारण वे अज्ञान-अंधकार में खोये रहते हैं।

    वेसुदूर वन में मृत शरीर की भाँति फेंक दिये जाते हैं।

    इस प्रकार बद्धजीव समझ नहीं पाता किजीवन में क्या हो रहा है।

    कदाचिद्धग्नमानदंष्टी दुर्जनदन्दशूकैरलब्धनिद्राक्षणोव्यधितहृदयेनानुक्षीयमाणविज्ञानो उन्‍्धकूपेउन्धवत्पतति, ॥

    २१॥

    कदाचित्‌--कभी-कभी; भग्न-मान-दंष्ट: --गर्व रूपी दाँत टूटे हैं जिसके; दुर्जन-दन्द-शूकै:--सर्प तुल्य दुष्ट पुरुषों की ईर्ष्याके कारण; अलब्ध-निद्रा-क्षण:--जिसे सोने का सुअवसर प्राप्त नहीं हो पाता; व्यधित-हदयेन--विश्लुब्ध मन से;अनुक्षीयमाण--क्रमशः ह्ास होते हुए; विज्ञान:--जिसका अन्‍्तर्बोध; अन्ध-कूपे--अंध कुएँ में; अन्ध-वत्‌--छलावे की तरह;'पतति--गिर पड़ता है।

    कभी-कभी भौतिक जगत रूपी वन में बद्धजीव सर्पो तथा अन्य जन्तुओं जैसे ईर्ष्यालुशत्रुओं के द्वारा दंशित होता रहता है।

    शत्रु के छलावे से बद्धजीव अपने प्रतिष्ठित पद से च्युत होजाता है।

    चिन्ताकुल होने से उसे ठीक से नींद तक नहीं आती।

    इस प्रकार वह अधिकाधिक दुखीहोता जाता है और क्रमशः अपना ज्ञान तथा चेतना खो बैठता है।

    उसकी दशा उस स्थायी अन्धपुरुष के समान हो जाती है जो अज्ञान के अन्धकूप में गिर गया हो।

    कहिं सम चित्काममधुलवान्विचिन्वन्यदा परदारपरद्॒व्याण्यवरुन्धानो राज्ञा स्वामिभिर्वा निहतः पतत्यपारेनिरये ॥

    २२॥

    कहिं सम चितू--कभी-कभी; काम-मधु-लवान्‌--इन्द्रियसुख ( विषय ) के लघु मधुकणों के सहश; विचिन्वन्‌ू--ढूँढते हुए;यदा--जब; पर-दार--परायी स्त्री; पर-द्रव्याणि-- परायी सम्पत्ति; अवरुन्धान:-- अपनी सम्पत्ति मानकर; राज्ञा--राजा के द्वारा;स्वामिभि: वा--अथवा स्त्री के पति वा सम्बन्धियों द्वारा; निहतः--बुरी तरह पिट कर; पतति--गिर पड़ता है; अपारे-- अपार,अछोर; निरये--नारकीय जीवन ( बलात्कार, अपहरण अथवा पराया धन चुराने जैसे कार्यों के लिए राजा द्वारा प्रदत्त कैद ) |

    कभी-कभी बद्धजीव इन्द्रिय-तृप्ति से प्राप्त होने वाले क्षिणक सुख की ओर आकर्षित होताहै।

    फलस्वरूप वह अवैध यौन-सम्पर्क में रत होता है अथवा पराये धन को चुराता है।

    ऐसीअवस्था में वह राजा द्वारा बन्दी बना लिया जाता है।

    या फिर उस स्त्री का पति या उसका संरक्षकउसे दण्डित करता है।

    इस प्रकार किंचित्‌ सांसारिक तुष्टि हेतु वह नारकीय स्थिति में जा पड़ता हैऔर बलात्कार, अपहरण, चोरी तथा इसी प्रकार के कृत्यों के लिए कारागार में डाल दिया जाताहै।

    अथ च तस्मादुभयथापि हि कर्मास्मिन्नात्मन: संसारावपनमुदाहरन्ति ॥

    २३॥

    अथ--अब; च--और; तस्मात्‌--इस कारण; उभयथा अपि--इस जन्म में तथा अगले जन्म में; हि--निस्सन्देह; कर्म--सकामकर्म; अस्मिन्‌--इन्द्रिय सुख के इस मार्ग पर; आत्मन:--जीवात्मा का; संसार--भौतिक जीवन का; आवपनम्‌--खेत अथवास्रोत; उदाहरन्ति--वेदों का वचन है।

    इसीलिए विद्वतूजन तथा अध्यात्मवादीगण कर्म के भौतिक मार्ग ( प्रवृत्ति ) की भर्त्सना करतेहैं, क्योंकि इस जन्म में तथा अगले जन्म में सांसारिक दुखों का आदि स्त्रोत तथा उसको'पल्‍लवित करने की आधार भूमि वही है।

    मुक्तस्ततो यदि बन्धाद्देवदत्त उपाच्छिनत्ति तस्मादपि विष्णुमित्र इत्यनवस्थिति: ॥

    २४॥

    मुक्त:--मुक्तिप्राप्त; ततः--उससे; यदि--यदि; बन्धात्‌--राज्य कारावास से या स्त्री-रक्षक द्वारा प्रताड़ित होने पर; देव-दत्त:--देवदत्त नामक व्यक्ति; उपाच्छिनत्ति--उसका धन छीन लेता है; तस्मात्‌--देवदत्त से; अपि--पुनः ; विष्णु-मित्र:--विष्णुमित्रनामक व्यक्ति; इति--इस प्रकार; अनवस्थिति:-- धन एक स्थान पर न रहकर एक हाथ से दूसरे हाथ में चला जाता है|

    यह बद्धजीव पराये धन को चुराकर या ठगकर किसी तरह से उसे अपने पास रखता है औरदण्ड से बच जाता है।

    तब देवदत्त नामक एक अन्य व्यक्ति इस धन को उससे ठग लेता है।

    इसीप्रकार विष्णुमित्र नामक एक तीसरा व्यक्ति यह धन देवदत्त से छीन लेता है।

    यह धन किसी भीदशा में एक स्थान पर टिकता नहीं है।

    यह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता है।

    अन्त मेंइसका कोई उपभोग नहीं कर पाता और यह श्रीभगवान्‌ की सम्पत्ति बन जाता है।

    क्वचिच्च शीतवाताद्यनेकाधिदैविक भौतिकात्मीयानां दशानां प्रतिनिवारणे कल्पो दुरन्तचिन्तया विषण्णआस्ते ॥

    २५॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; च-- भी; शीत-वात-आदि--ठंड तथा झंझा इत्यादि; अनेक--कई; अधिदैविक--देवों द्वारा उत्पन्न,दैविक; भौतिक--अधिभौतिक, अन्य जीवों द्वारा उत्पन्न; आत्मीयानामू--अध्यात्मिक, देह तथा मन द्वारा उत्पन्न; दशानाम्‌--कष्टपूर्ण दशाओं के; प्रतिनिवारणे--निवारण करने में; अकल्प:--अशक्य; दुरन्‍्त--अत्यन्त कठोर; चिन्तया--चिन्ता केकारण; विषणण:--दुखी; आस्ते--रहता है ।

    भौतिक जगत के तापत्रय से अपनी रक्षा न कर सकने के कारण बद्धजीव अत्यन्त दुखीरहता है और शोकपूर्ण जीवन बिताता है।

    ये तीन प्रकार के संताप हैं--देवताओं द्वारा दियेजानेवाला मानसिक ताप, ( यथा हिमानी हवा तथा चिलचिलाती धूप ), अन्य जीवात्माओं द्वाराप्रदत्त ताप तथा मन एवं देह से उत्पन्न होने वाले ताप।

    क्वचिन्मिथो व्यवहरन्यत्किश्निद्धनमन्ये भ्यो वा काकिणिकामात्रमप्यपहरन्यत्किद्धिद्दा विद्वेषमेतिवित्तशाठ्यात्‌, ॥

    २६॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; मिथ: -- परस्पर; व्यवहरन्‌--व्यवहार करते हुए; यत्‌ किल्ञित्‌ू--जो कुछ भी थोड़ा सा; धनम्‌--धन;अन्येभ्य: --अन्यों से; बा--या; काकिणिका-मात्रम्‌--अत्यल्प धन ( बीस कौड़ी ); अपि--निश्चय ही; अपहरन्‌--ठग कर लेलेने पर; यत्‌ कि्जित्‌--जो कुछ भी अल्प मात्रा; वा--या; विद्वेषम्‌ एति--वैर उत्पन्न करता है; वित्त-शाठ्य्यात्‌ू--ठगने के'फलस्वरूप।

    जहाँ तक धन के लेन-देन का सम्बन्ध है, यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे की एक कौड़ी याइससे भी कम धन ठग लेता है, तो वे परस्पर शत्रु बन जाते हैं।

    अध्वन्यमुष्मिन्नरिम उपसर्गास्तथासुखदुःखरागद्वेषभयाभिमानप्रमादोनन्‍्मादशोकमोहलोभमात्सर्येर्यावमानश्षुत्पिपासाधिव्याधिजन्मजरामरणादयः ॥

    २७॥

    अध्वनि-- भौतिक जीवन के पथ पर; अमुष्मिनू--उस; इमे--ये सब; उपसर्गा:--शाश्वत कठिनाइयाँ; तथा--और; सुख--तथाकथित सुख; दुःख--कष्ट; राग--आसक्ति; द्वेष--घृणा; भय--डर; अभिमान--झूठा गर्व; प्रमाद-- भ्रम; उन्माद--पागलपन; शोक--शोक; मोह--मोह; लोभ--लालच; मात्सर्य--विद्वेष; ईर्ष्च--दुश्मनी, वैर; अवमान--अनादर; क्षुत्‌--क्षुधा;पिपासा-- प्यास; आधि--आपदाएँ; व्याधि--रोग; जन्म--जीव धारण करना; जरा--बुढ़ापा; मरण--मृत्यु; आदय:--इत्यादि।

    इस भौतिक जगत में अनेकानेक कठिनाइयाँ आती हैं और ये सभी दुर्लघ्य हैं।

    इनकेअतिरिक्त तथाकथित सुख, दुख, राग, द्वेष, भय, अभिमान, प्रमाद, उन्‍्माद, शोक, मोह, लोभ,मत्सर, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा, पिपासा, आधि, व्याधि तथा जन्म, जरा, मरण से उत्पन्न होने वालीबाधाएँ आती हैं।

    ये सभी मिलकर संसारी बद्धजीव को दुख के अतिरिक्त और कुछ नहीं देपातीं।

    क्वापि देवमायया स्त्रिया भुजलतोपगूढ: प्रस्कन्नविवेकविज्ञानोयद्विहारगृहारम्भाकुलहदयस्तदा भ्रयावसक्तसुतदुहितृकलत्रभाषितावलोक विचेष्टितापह तह दयआत्मानमजितात्मापारेन्धे तमसि प्रहिणोति, ॥

    २८ ॥

    क्वापि--कहीं भी; देव-मायया--देवमाया के वश में होकर; स्त्रिया--सखी या पत्नी के रूप में; भुज-लता--वन की कोमललताओं के सदश सुन्दर बाहुओं के द्वारा; उपगूढ़:ः --अत्यधिक व्याकुल होकर; प्रस्कन्न--खोया हुआ; विवेक--सत्‌ असत्‌ काज्ञान; विज्ञान:--विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान; यत्‌ू-विहार--पत्नी सुख के लिए; गृह-आरम्भ--घर की तलाश करने में; आकुल-हृदयः--व्याकुल चित्त होकर; तत्‌--उस घर की; आश्रय-अवसक्त--जो शरण में आये हुए हैं; सुत--पुत्रों का; दुहितृ--पुत्रियोंका; कलत्र--पत्ली का; भाषित-अवलोक --उनके सम्भाषणों तथा बाँकी चितवनों से; विचेष्टित--कार्यो से, चेष्टाओं से;अपहत-हृदयः--जिसका हृदय हर लिया गया है, संज्ञाशून्य; आत्मानम्‌ू--स्वयं; अजित--अवश; आत्मा--जिसका आत्मा;अपारे--अनन्त; अन्धे--घनान्धकार में; तमसि--नारकीय जीवन में; प्रहिणोति--गिरा देता है।

    कभी-कभी बद्धजीव प्रमादवश मूर्तिमान माया ( अपनी पत्नी या प्रेयसी ) से आकर्षितहोकर स्त्री द्वारा आलिंगन किये जाने के लिए व्याकुल हो उठता है।

    इस प्रकार वह अपनी बुद्धितथा जीवन-उद्देश्य के ज्ञान को खो देता है।

    उस समय वह आध्यात्मिक अनुशीलन का प्रयास नकरके अपनी पत्नी या प्रेयसी में अत्यधिक अनुरक्त हो जाता है और उसके लिए उपयुक्त गृहआदि उपलब्ध कराने का प्रयत्त करता है, फिर वह इस घरबार में अत्यधिक व्यस्त हो जाता हैऔर अपनी पत्नी तथा बच्चों की बातों, चितवनों तथा कार्यकलापों में फँस जाता है।

    इस प्रकारवह कृष्णभावनामृत से वंचित होकर लौकिक अस्तित्व के गहन अंधकार में गिर जाता है।

    कदाचिदी श्वरस्य भगवतो विष्णोश्नक्रात्परमाण्वादिद्विपरार्धापवर्गकालोपलक्षणात्परिवर्तितेन वयसा रंहसाहरत आन्रह्मतृणस्तम्बादीनां भूतानामनिमिषतो मिषतां वित्रस्तहदयस्तमेवे श्रर कालचक्रनिजायुध॑साक्षाद्धगवन्तं यज्ञपुरुषमनाहत्य पाखण्डदेवता: कड्जुगृक्षबकवटप्राया आर्यसमयपरिहता:सड्डेत्येनाभिधत्ते ॥

    २९॥

    कदाचित्‌--कभी-कभी; ईश्वरस्थ--ई श्वर का; भगवतः -- श्री भगवान्‌ के; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु का; चक्रात्‌ू-चक्र से;'परमाणु-आदि--सूक्ष्म परमाणुओं के काल से प्रारम्भ करके; द्वि-परार्ध--ब्रह्म के जीवन की अवधि; अपवर्ग--अन्त; काल--समय का; उपलक्षणात्‌--लक्षणों से; परिवर्तितेन--चक्कर लगाता हुआ; वयसा--आयुओं के क्रमानुसार; रंहसा--तेजी से;हरत:--हरण करके; आ-ब्रह्म --ब्रह्माजी से लेकर; तृण-स्तम्ब-आदीनाम्‌--श्षुद्रातिक्षुद्र तृण पर्यन्त; भूतानामू--समस्तजीवात्माओं का; अनिमिषत:ः--अपलक, निरन्तर; मिषताम्‌--जीवात्माओं की आँखों के सामने ( फिर भी वे रोक नहीं सकते );वित्रस्त-हदय:--मन में डर कर; तम्‌--उस ( ईश्वर ); एब--निश्चय ही; ईश्वरम्‌-- श्री भगवान्‌ को; काल-चक्र-निज-आयुधम्‌--काल चक्र ही जिसका साक्षात्‌ आयुध है; साक्षात्‌-प्रत्यक्षतः; भगवन्तम्‌ू-- श्रीभगवान्‌; यज्ञ-पुरुषम्‌--जो सभी प्रकार के यज्ञोंको स्वीकार करता है, यज्ञ पुरुष को; अनाहत्य--अनादर करके, परवाहकिये बिना; पाखण्ड-देवता:--ईश्वर के पाखण्डीअवतार ( मानवकल्पित भगवान्‌ या देवता ); कड्ढू--बाज; गृक्ष--गीध; बक--बगुला; वट-प्राया:--कौंवों के सहश; आर्य-समय-परिहता: --आर्यो के द्वारा स्वीकृत प्रामाणिक वैदिक शास्त्रों से तिरस्कृत होकर; साद्जेत्येन--कपोलकल्पित अप्रामाणिकशास्त्रों द्वारा; अभिधत्ते--पूजा योग्य स्वीकार कर लेता है

    श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त निजी आयुध हरिचक्र कहलाता है।

    यह चक्र कालचक्र है।

    यहपरमाणुओं से लेकर ब्रह्मा की मृत्युपर्यन्त फैला हुआ है और यह समस्त कर्मों को नियंत्रित करनेवाला है।

    यह निरन्तर घूमता रहता है और ब्रह्माजी से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृण तक सभीजीवात्माओं का संहार करता है।

    इस प्रकार प्राणी बाल्यपन से यौवन तथा प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त करते हुए जीवन के अन्त तक पहुँच जाता है।

    काल के इस चक्र को रोक पाना असम्भव है।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का निजी आयुध होने के कारण यह अत्यन्त कठोर है।

    कभी-कभीबद्धजीव मृत्यु को निकट आया जानकर ऐसे व्यक्ति की पूजा करने लगता है जो उसे आसतन्नसंकट से उबार सके।

    वह ऐसे श्रीभगवान्‌ की परवाह नहीं करता जिनका आयुध अथक कालहै।

    उल्टे वह अप्रामाणिक शास्त्रों में वर्णित मानवनिर्मित देवताओं की शरण में जाता है।

    ऐसेदेवता बाज, गीध, बगुले तथा कौवे के तुल्य हैं।

    वैदिक शास्त्रों में इनका वर्णन नहीं मिलता।

    पास खड़ी मृत्यु शेर के आक्रमण की तरह है, जिससे न तो गीध, बाज, कौवे और न ही बगुलेबच सकते हैं।

    जो पुरुष ऐसे अप्रामाणिक मानवनिर्मित देवताओं की शरण में जाता है उसे मृत्युके चंगुल से नहीं छुड़ाया जा सकता।

    यदा पाखण्डिभिरात्मवज्धितैस्तैरुरु वद्धितो ब्रह्मकुलं समावसंस्तेषांशीलमुपनयनादिश्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानेन भगवतो यज्ञपुरुषस्याराधनमेव तदरोचयन्शूद्रकुलं भजतेनिगमाचारेशुद्धितो यस्य मिथुनीभाव: कुटुम्बभरणं यथा वानरजाते: ॥

    ३०॥

    यदा--जब; पाखण्डिभि:--पाखण्डियों ( नास्तिकों ) द्वारा; आत्म-वज्चितैः-- स्वयं को ठगने वाले; तैः--उनके द्वारा; उरू--अधिकाधिक; वज्धित:--ठगे जाकर; ब्रह्म-कुलम्‌--वैदिक संस्कृति के पालक एकमात्र ब्राह्मणजन; समावसन्‌--आत्मिकउन्नति के लिए उनके बीच निवास करते हुए; तेषामू--उनके ( ब्राह्मणों के )) शीलमू--शील, अच्छा आचरण; उपनयन-आदि--उपनयन संस्कार इत्यादि, अर्थात्‌ बद्धजीव को ब्राह्मण बनने की शिक्षा देते हुए; श्रौत--वैदिक नियमों के अनुसार, वेद विधि से;स्मार्त--वेदों से प्राप्त प्रामाणिक उपदेशों के अनुसार; कर्म-अनुष्ठानेन--कर्मो के पालन द्वारा; भगवतः-- श्रीभगवान्‌ की; यज्ञ-पुरुषस्य--जो वैदिक यज्ञों द्वारा पूजित है; आराधनम्‌ू--उस ईश्वर की पूजा; एव--निश्चयपूर्वक; तत्‌ अरोचयन्‌--चरित्रहीनव्यक्तियों द्वारा कठिनाई से सम्पन्न होने के कारण उसमें आनन्द प्राप्त न कर सकने से, अरुचिकर लगने के कारण; शूद्र-कुलम्‌--शूद्रों के कुल ( समाज ) की ओर; भजते--उन्मुख होता है; निगम-आचारे-- वैदिक रीतियों के अनुसार आचरण करनेमें; अशुद्धित: --अशुद्ध; यस्थ--जिसका; मिथुनी-भाव: --मैथुन सुख अथवा सांसारिक जीवन; कुटुम्ब-भरणम्‌--परिवार कापालन-पोषण; यथा--सहश; वानर-जाते:ः --वानर कुल के, वानर की सन्तानों के |

    ऐसे छद्य-स्वामी, योगी तथा अवतारी जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ में विश्वास नहीं करते,पाषण्डी कहलाते हैं।

    वे स्वयं पतित होते हैं और ठगे जाते हैं, क्योंकि वे आध्यात्मिक उन्नति कावास्तविक मार्ग नहीं जानते, अतः उनके पास जो भी जाता है, वही ठगा जाता है।

    इस प्रकार सेठगे जाने पर वह कभी-कभी वैदिक नियमों के असली उपासकों ( ब्राह्मणों अथवाकृष्णभावनामृत वालों ) की शरण में जाता है, जो सबों को वेदोक्त आचार से श्रीभगवान्‌ कीउपासना करना सिखाते हैं।

    किन्तु इन रीतियों का पालन न कर सकने के कारण ये धूर्त पुनःपतित होते हैं और शूद्रों की शरण लेते हैं, जो विषयभोग में मग्न रहने में पटु हैं।

    वानर जैसेपशुओं में मैथुन अत्यन्त प्रकट रहता है और ऐसे मैथुन-प्रेमी व्यक्तियों को वानर की सन्‍्तान कहाजा सकता है।

    तत्रापि निरवरोध: स्वैरेण विहरन्नतिकृपणबुद्धिरन्योन्यमुखनिरी क्षणादिना ग्राम्यकर्मणैवविस्मृतकालावधि: ॥

    ३१॥

    तत्र अपि--उस अवस्था में ( वानरों की संतति मनुष्यों के समाज में ); निरवरोध: --बिना रोकटोक के; स्वैरैण--स्वच्छन्दतापूर्वक, जीवन के लक्ष्य को ध्यान में न रखकर; विहरन्‌ू--वानरों की भाँति भोग करते हुए; अति-कृपण-बुद्धधि: --ठीक से प्रयोग न करने के कारण मन्द-बुर्द्धि; अन्योन्य--परस्पर, एक दूसरे का; मुख-निरीक्षण-आदिना--मुखों को देखकर(जब पुरुष किसी स्त्री के सुन्दर मुख को देखता है अथवा कोई स्त्री किसी पुरुष के सुगढ़ शरीर को देखती है, तो वे एक दूसरेकी लालसा करते हैं ); ग्राम्य-कर्मणा--इन्द्रियतृष्टि के लिए कर्म करके; एब--एकमात्र; विस्मृत-- भूला हुआ; काल-अवधि:--सीमित जीवन-काल ( जिसके बाद उसका आवागमन, पतन या उत्कर्ष हो सकता है।

    )इस प्रकार वानरों की सन्‍्तानें एक दूसरे से घुलती-मिलती हैं और सामान्य रूप से शूद्र कहलाती हैं।

    मुक्त भाव से वे जीवन का उद्देश्य समझे बिना स्वच्छन्द विहार करती हैं।

    वे एकदूसरे के मुख को देखकर ही मुग्ध होती रहती हैं, क्योंकि इससे इन्द्रिय-तुष्टि की स्मृति बनी रहतीहै।

    वे निरन्तर सांसारिक कर्म में लगी रहती हैं, जिसे ' ग्राम्य-कर्म ' कहते हैं और भौतिक लाभके लिए कठिन श्रम करती हैं।

    इस प्रकार वे भूल जाती हैं कि एक दिन उनकी लघु जीवन-अवधि समाप्त हो जाएगी और वे आवागमन के चक्र में नीचे गिर जाएँगी।

    क्वचिद्द्रुमवदैहिकार्थिेषु गृहेषु रंस्यन्यथा वानरः सुतदारवत्सलो व्यवायक्षण: ॥

    ३२॥

    क्वचित्‌--यदा-कदा; द्रम-वत्‌--वृक्ष के सदश ( जिस प्रकार वानर एक वृक्ष से दूसरे में कूदकर जाता है वैसे ही बद्धजीव एकसे दूसरी देह में देहान्तर करता रहता है ); ऐहिक-अर्थषु--मात्र उत्तम सांसारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए; गृहेषु--घरों( देहों ) में; रंस्पन्‌ू--सुख अनुभव करते हुए ( एक देह से दूसरे में, या तो पशु, मानव या दैव जीवन में ); यथा--सहश;वानरः--बन्दर के ; सुत-दार-वत्सल:--सन्तान तथा पत्नी के लिए अत्यन्त प्रिय; व्यवाय-क्षण:--जिसका समय विषयसुख मेंबीतता है।

    जिस प्रकार वानर एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर कूदता रहता हैं, उसी प्रकार बद्धजीव एक देह से दूसरी में जाता रहता है।

    जब कोई शिकारी अन्ततोगत्वा वानर को बन्दी बना लेता है, तो वहछूटकर निकल नहीं पाता।

    उसी प्रकार यह बद्धजीव क्षणिक इन्द्रिय तृप्ति में फंसकर भिन्न-भिन्नप्रकार की देहों से आसक्त होकर गृहस्थ जीवन में बद्ध जाता है।

    गृहस्थ जीवन में बद्धजीव कोक्षणिक इन्द्रियसुख का आनंद प्राप्त होता है और इस प्रकार वह सांसारिक चंगुल से निकलने मेंसर्वथा असमर्थ हो जाता है।

    एवमध्वन्यवरुन्धानो मृत्युगजभयात्तमसि गिरिकन्दरप्राये ॥

    ३३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; अध्वनि--इन्द्रियतुष्टि के पथ पर; अवरुन्धान:--अवरुद्ध होने पर ( फँस जाने पर ) वह जीवन के वास्तविकलक्ष्य को भूल जाता है; मृत्यु-गज-भयात्‌--मृत्यु रूपी हाथी के डर से; तमसि--अंधकार में; गिरि-कन्दर-प्राये-- पर्वत कीगहन गुफाओं के सहृश |

    बद्धजीव इस भौतिक जगत में भगवान्‌ के साथ अपने सम्बन्ध को भूलकर तथाश्रीकृष्णभावनामृत की परवाह किये बिना अनेकानेक दुष्कर्मों एवं पापों में प्रवृत्त होने लगता है।

    तब उसे ताप-त्रय से पीड़ित होना पड़ता है और वह मृत्यु रूपी हाथी के भय से पर्वत की गुफाके घनान्धकार में जा गिरता है।

    क्वचिच्छीतवाताद्यनेकदैविकभौतिकात्मीयानां दुःखानां प्रतिनिवारणेकल्पो दुरन्‍्तविषयविषण्णआस्ते ॥

    ३४॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; शीत-वात-आदि--ठंड अथवा तेज हवा इत्यादि; अनेक--कई, अनेक प्रकार के; दैविक--देवताओंद्वारा अथवा हमारे वश से परे शक्तियों द्वारा दिए जाने वाले; भौतिक--अन्य जीवात्माओं द्वारा दिए जाने वाले; आत्मीयानाम्‌--बद्धजीव तथा मन द्वारा दिए जाने वाले; दुःखानाम्‌--अनेकानेक दुखों; प्रतिनिवारणे--निवृत्त करने में; अकल्प:--अशक्त;दुरन्‍्त--दुर्लध्य; विषय--इन्द्रियतुष्टि, वासना; विषणण:--दुखी, खिन्न; आस्ते--रहता है।

    बद्धजीव को अनेक दैहिक कष्ट सहन करने पड़ते हैं यथा अत्यधिक ठंड तथा तेज हवा।

    वहअन्य जीवात्माओं के कार्यकलापों तथा प्राकृतिक प्रकोपों के कारण भी कष्ट उठाता है।

    जब वहउनका सामना करने में अक्षम होकर दयनीय अवस्था में रहता है, तो स्वभावत: वह अत्यन्त खिन्नहो उठता है, क्योंकि वह सांसारिक सुविधाओं का भोग करना चाहता है।

    क्वचिन्मिथो व्यवहरन्यत्किश्चिद्धनमुपयाति वित्तशाठ्यून ॥

    ३५॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी या कहीं भी; मिथ: व्यवहरन्‌--परस्पर क्रय-विक्रय आदि व्यापार करने पर; यत्‌ू--जो भी; किश्जित्‌--रंच भर; धनम्‌--सम्पत्ति; उपयाति--प्राप्त करता है; वित्त-शाठ्येन--किसी की सम्पत्ति को ठग करके |

    कभी-कभी बद्धजीव परस्पर आदान-प्रदान करते हैं, किन्तु कालान्तर में ठगी के कारणउनमें शत्रुता उत्पन्न हो जाती है।

    भले ही रंचमात्र लाभ हो, बद्धजीव परस्पर मित्र न रहकर एकदूसरे के शत्रु बन जाते हैं।

    क्वचित्क्षीणधन: शय्यासनाशनादयुपभोगविहीनोयावदप्रतिलब्धमनोरथोपगतादाने वसितमतिस्ततस्ततो वमानादीनि जनादभिलभते ॥

    ३६॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; क्षीण-धन:--पर्याप्त धन न होने पर; शय्या-आसन-अशन-आदि--सोने, बैठने अथवा भोजन के लिएस्थान; उपभोग--सांसारिक सुख का; विहीन:--वंचित होकर; यावत्‌--जब तक; अप्रतिलब्ध--उपलब्ध न होने पर;मनोरथ--अभिलाषा से; उपगत--प्राप्त।

    आदाने--अनैतिक साधनों से हड़पने में; अवसित-मति:--संकल्प; तत:ः--उसकेकारण; ततः--उससे; अवमान-आदीनि--अपमान तथा दंड; जनात्‌--सामान्यजन से; अभिलभते--प्राप्त करता है।

    कभी-कभी धनाभाव के कारण बद्धजीव को पर्याप्त स्थान प्राप्त करने में कठिनाई होतीहै।

    कभी तो उसे बैठने तक के लिए स्थान नहीं मिल पाता, न ही उसे अन्य आवश्यक वस्तुएँ हीप्राप्त होती हैं।

    दूसरे शब्दों में, वह अभाव का अनुभव करता है और नैतिक साधनों से इनआवश्यकताओं को न प्राप्त कर पाने के कारण वह अनैतिक ढंग से दूसरों की सम्पत्ति काअपहरण करता है।

    जब उसे वांछित वस्तुएँ प्राप्त नहीं हो पातीं वह दूसरों से अपमान ही प्राप्तकरता है, जिससे वह अत्यन्त खिन्न हो उठता है।

    एवं वित्तव्यतिषड्भविवृद्धवैरानुबन्धोपि पूर्ववासनया मिथ उद्दह॒त्यथापवहति ॥

    ३७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; वित्त-व्यतिषड़-- आर्थिक लेन-देन के कारण; विवृद्ध--बढ़ा हुआ; बैर-अनुबन्ध:--वैर भाव; अपि--यद्यपि; पूर्व-वासनया--पूर्व अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप; मिथ:--परस्पर; उद्ददति--पुत्रों तथा पुत्रियों के विवाह के कारणबँध जाते हैं; अथ--तत्पश्चात्‌; अपवहति--सम्बन्ध-विच्छेद कर देते हैंअथवा तलाक दे देते हैंअपनी इच्छाओं की बारम्बार पूर्ति के लिए मनुष्य परस्पर शत्रु होने पर भी कभी-कभीविवाह सम्बध स्थापित कर लेते हैं।

    दुर्भाग्यवश ये विवाह दीर्घकाल तक नहीं चल पाते और ऐसेलोग तलाक या अन्य कारणों से पुनः विलग हो जाते हैं।

    एतस्मिन्संसाराध्वनि नानाक्लेशोपसर्गबाधित आपन्नविपन्नो यत्र यस्तमु ह वावेतरस्तत्र विसृज्य जात॑जातमुपादाय शोचन्मुहान्बिभ्यद्विवदन्क्रन्दन्संहृष्यन्गायन्नह्ममान: साधुवर्जितो नैवावर्ततेडद्यापि यत आरब्धएष नरलोकसार्थो यमध्वन: पारमुपदिशन्ति, ॥

    ३८ ॥

    एतस्मिन्‌ू--इस; संसार--दुखमय ( संसार ); अध्वनि--पथ पर; नाना--अनेक; क्लेश--कष्ट; उपसर्ग-- भौतिक अस्तित्त्व कीआपत्तियों द्वारा; बाधित:--श्लुब्ध; आपन्न--कभी-कभी प्राप्त करके; विपन्न:--क भी खोकर; यत्र--जिसमें; य: --कौन;तम्‌--उसको; उ ह वाव--अथवा; इतरः--अन्य कोई; तत्र--वहाँ; विसृज्य-- छोड़ कर; जातम्‌ जातमू--नवजात; उपादाय--स्वीकार करके; शोचन्‌--शोक करते हुए; मुहान्‌--मोह ग्रस्त होकर; बिभ्यत्‌--डरते हुए; विवदन्‌--कभी-कभी तेज चीखतेहुए; क्रन्दन्‌ू--कभी-कभी रोते हुए; संहृष्यनू--क भी-कभी प्रसन्न होते हुए; गायन्‌--गाते हुए; नह्ममान: --बाँधे जाकर; साधु-वर्जितः--सन्त पुरुषों से दूर रहकर; न--नहीं; एब--निश्चय ही; आवर्तते--प्राप्त करता है; अद्य अपि---अब भी; यत:ः--जिससे; आरब्ध:-- आरम्भ किया हुआ; एष:--इस; नर-लोक-- भौतिक जगत का; स-अर्थ:--आत्मकेन्द्रित ( स्वार्थी )जीवात्माएँ; यम्‌--जिनको ( श्रीभगवान्‌ ); अध्वन:--भौतिक अस्तित्त्व के पथ के; पारम्‌--उस पार; उपदिशन्ति--ज्ञानीजनइंगित करते हैं।

    इस भौतिक जगत का मार्ग क्लेशमय है और बद्धजीव को अनेक कष्ट विचलित करते रहतेहैं।

    कभी वह हारता है, तो कभी जीतता है।

    प्रत्येक दशा में यह मार्ग विघ्नों से परिपूर्ण है।

    कभीबद्धजीव अपने पिता से मृत्यु होने या अन्य कारणों से विलग हो जाता है।

    वह उसे छोड़करक्रमशः अन्यों से, यथा अपनी सन्‍्तान से आसक्त हो जाता है।

    इस प्रकार बद्धजीव कभी-कभीभ्रमित और कभी भयके मारे जोर जोर से चीत्कार करता है।

    कभी वह अपने परिवार का भरणकरते हुए प्रसन्न होता है, तो कभी अत्यधिक प्रसन्न हो जाता है और सुरीले गीत गाता है।

    इस तरहवह अनन्त काल से श्रीभगवान्‌ के विछोह को भूलकर अपने में बँधता जाता है।

    उसे भौतिकजगत के भयानक पथ पर चलना तो पड़ता है, किन्तु वह इस पथ पर तनिक भी सुखी नहींहोता।

    स्वरूप-सिद्ध मनुष्य इस भयानक पथ से छूटने के निमित्त श्रीभगवान्‌ की शरण ग्रहणकरते हैं।

    भक्तिमार्ग को स्वीकार किये बिना भौतिक जगत के चंगुल से कोई नहीं निकल पाता।

    तात्पर्य यह है कि इस भौतिक जीवन में कोई भी प्रसन्न नहीं हो सकता है।

    उसे कृष्णाभावनामृतका आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए ॥

    यदिदं योगानुशासनं न वा एतदवरुन्धते यन्न्यस्तदण्डा मुनय उपशमशीला उपरतात्मान: समवगच्छन्ति ॥

    ३९॥

    यत्‌--जो; इृदम्‌-- भगवान्‌ का यह परम धाम; योग-अनुशासनमू--केवल भक्ति के द्वारा प्राप्तव्य; न--नहीं; बा--अथवा;एतत्‌--मुक्ति का यह पथ; अवरुन्धते--प्राप्त करते हैं; यत्‌--अतः; न्‍्यस्त-दण्डा:--ऐसे पुरुष जिन्होंने दूसरों से ईर्ष्या करनाछोड़ दिया है; मुनयः--मुनि अथवा सन्त जन; उपशम-शीला:--जो इस समय अत्यन्त शान्तिमय अस्तित्व को प्राप्त हैं; उपरत-आत्मान:--जिन्होंने मन तथा इन्द्रियों को वश में कर लिया है; समवगच्छन्ति--सरलता से प्राप्त करते हैं।

    समस्त जीवात्माओं के मित्र मुनिजन संयतात्मा होते हैं।

    वे अपनी इन्द्रियों एवं मन को वश मेंकर चुके होते हैं और उन्हें मुक्तिपथ, जो श्रीभगवान्‌ तक पहुँचने का मार्ग है, सरलतापूर्वक प्राप्तहोता है।

    क्लेशमय भौतिक परिस्थितियों में संलग्न रहने तथा हतभाग्य होने के कारणभौतिकतावादी व्यक्ति मुनिजनों की संगति नहीं कर पाता।

    यदपि दिगिभजयिनो यज्विनो ये वै राजर्षय: किं तु परं मृथे शयीरत्नस्यामेब ममेयमिति कृतवैरानुबन्धायांविसृज्य स्वयमुपसंहता: ॥

    ४०॥

    यत्‌ अपि--यद्यपि; दिकू-इभ-जयिन:ः --जो सभी दिशाओं में विजयी होते हैं, चक्रवर्ती, दिग्विजयी; यज्विन:--बड़े-बड़े यज्ञोंके करने में पटु; ये--जो सभी; वै--निस्सन्देह; राज-ऋषय:--अत्यन्त महान्‌ सन्त राजा, राजर्षि; किम्‌ तु--किन्तु; परमू--केवल यह पृथ्वी; मृधे--युद्ध में; शयीरन्‌ू--लेटे हुए; अस्यामू--इस ( पृथ्वी ) पर; एब--निश्चय ही; मम--मेरा; इयम्‌--यह;इति--उस प्रकार से विचार करने पर; कृत--जिस पर सृष्टि की जाती है; वैर-अनु-बन्धायाम्‌-- अन्यों से शत्रुता का भाव;विसृज्य--त्याग कर; स्वयम्‌--अपना जीवन; उपसंहता: --मारे हुए

    साधु प्रकृति वाले ऐसे अनेक महान्‌ राजर्षि हो चुके हैं, जो यज्ञ अनुष्ठान में अत्यन्त प्रवीणतथा अन्य राज्यों को जीतने में परम कुशल थे, किन्तु इतनी शक्ति होने पर भी भगवान्‌ कीप्रेमाभक्ति नहीं कर पाये, क्योंकि वे महान्‌ राजा, 'मैं देह-स्वरूप हूँ और यह मेरी सम्पत्ति है'इस मिथ्या बोध को भी नहीं जीत पाये थे।

    इस प्रकार उन्होंने प्रतिद्वन्द्नी राजाओं से केवल शत्रुतामोल ली, उनसे युद्ध किया और वे जीवन के वास्तविक लक्ष्य को पूरा किये बिना दिवंगत होगए।

    कर्मवल्‍लीमवलम्ब्य तत आपद: कथश्ञिन्नरकाद्विमुक्त: पुनरप्येवं संसाराध्वनि वर्तमानोनरलोकसार्थमुपयाति एवमुपरि गतोपि, ॥

    ४१॥

    कर्म-वल्लीम्‌--सकाम कर्मों की लता को; अवलम्ब्य--सहारा बनाकर; ततः--उससे; आपद:--घातक या क्लेशपूर्ण स्थिति;कथश्ित्‌--किसी न किसी प्रकार से; नरकात्‌--जीवन की नारकीय दशा से; विमुक्त:--मुक्त होकर; पुनः अपि--फिर से;एवम्‌--इस प्रकार; संसार-अध्वनि-- भौतिक जगत के मार्ग पर; वर्तमान:--वर्तमान, समुपस्थित; नर-लोक-स-अर्थम्‌--स्वार्थमय कर्मों का क्षेत्र; उपयाति-- प्रवेश करता है; एवम्‌--इस प्रकार; उपरि--ऊपर ( उच्चलोकों में ); गतः अपि--( ऊपर )उठाये जाने पर भी।

    सकाम कर्म रूपी लता की शरण स्वीकार कर लेने पर बद्धजीव अपने पवित्र कार्यों के'फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त हो सकता है और इस तरह नारकीय स्थिति से तो उसे मुक्ति मिलसकती है, किन्तु वह दुर्भाग्यवश वहाँ रह नहीं पाता।

    अपने पवित्र कार्यों का फल भोगने के बादउसे निम्न लोकों में लौटना पड़ता है।

    इस प्रकार वह निरन्तर ऊपर और नीचे आता-जाता रहताहै।

    तस्थेदमुपगायन्ति--आर्षभस्येह राजर्षेमनसापि महात्मन: ।

    नानुवर्त्महति नृपो मक्षिकेव गरुत्मतः ॥

    ४२॥

    तस्य--जड़भरत का; इृदम्‌ू-- यह यश-गान; उपगायन्ति-गाते हैं; आर्षभस्य--ऋषभदेव के पुत्र का; इहह--यहाँ; राज-ऋषे: --महान्‌ ऋषितुल्य राजा का; मनसा अपि--मन से भी; महा-आत्मन: --महात्मा जड़भरत का; न--नहीं; अनुवर्त्म अहति--पथका अनुसरण करने में समर्थ; नृप: --राजा; मक्षिका--मक्खी; इब--सहश; गरुत्मतः-- श्री भगवान्‌ के वाहन, गरुड़ का।

    जड़भरत के उपदेशों का सार सुना चुकने के पश्चात्‌ श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--प्रियराजा परीक्षित्‌, जड़भरत द्वारा निर्दिष्ट पथ श्रीभगवान्‌ के वाहन गरुड़ द्वारा अनुगमन किये गयेपथ के तुल्य है और सामान्य राजागण मक्खियों के समान हैं।

    मक्खियाँ गरुड़ के पथ पर नहींजा सकतीं।

    आज तक बड़े-बड़े राजाओं तथा विजयी नेताओं में से किसी ने भी भक्ति-पथ काअनुसरण नहीं किया मानसिक रूप से भी नहीं।

    यो दुस्त्यजान्दारसुतान्सुहद्राज्यं हृदिस्पृशः ।

    जहौ युवैव मलवदुत्तमश्लोकलालस: ॥

    ४३॥

    यः--वही जड़भरत जो पहले महाराज ऋषभदेव के पुत्र महाराज भरत थे; दुस्त्यजानू--त्याग पाना अत्यन्त कठिन होता है; दार-सुतानू--पत्नी तथा सन्‍्तान अथवा अत्यन्त वैभवपूर्ण गृहस्थ जीवन को; सुहत्‌ू--मित्र तथा शुभ चिन्तक; राज्यमू--विश्वव्यापीसाम्राज्य; हृदि-स्पृश:--अन्तरतम में स्थित; जहौ--परित्याग कर दिया; युवा एब--तरुण होते हुए; मल-वत्‌--विष्ठा के सहश;उत्तम-श्लोक-लालस:--उत्तमश्लोक श्रीभगवान्‌ की सेवा करने के लिए लालायित।

    महाराज भरत ने अपनी युवावस्था में ही सब कुछ परित्याग कर दिया, क्योंकि वेउत्तमएलोक श्रीभगवान्‌ की सेवा करना चाहते थे।

    उन्होंने अपनी सुन्दर पत्नी, उत्तम सन्‍्तान, प्रियमित्र तथा अपने विशाल साम्राज्य का परित्याग कर दिया।

    यद्यपि इन वस्तुओं का त्याग कर पानाअत्यन्त कठिन होता है, किन्तु जड़भरत इतने उच्चस्थ थे कि उन्होंने इनको उस तरह से त्यागदिया जैसे मल त्याग के पश्चात्‌ विष्टा को त्याग दिया जाता है।

    यो दुस्त्यजान्क्षितिसुतस्वजनार्थदारान्‌प्रार्थ्या अ्रियं सुरवरै: सदयावलोकाम्‌ ।

    नैच्छन्नृपस्तदुचितं महतां मधुद्विट-सेवानुरक्तमनसामभवोपि फल्गु: ॥

    ४४॥

    यः--जो; दुस्त्यजान्‌ू--जिनका परित्याग कर पाना अत्यन्त कठिन है, दुस्त्यज; क्षिति--पृथ्वी; सुत--सन्तति, पुत्रादि; स्व-जन-अर्थ-दारान्‌ू--कुट॒म्बी, धन तथा सुन्दर पत्नी को; प्रार्थ्याम्‌--लालायित; थ्रियम्‌ू--लक्ष्मी को; सुर-बरैः-- श्रेष्ठ देवताओं द्वारा;स-दय-अवलोकाम्‌--जिसकी दयादृष्टि; न--नहीं; ऐच्छत्‌--इच्छा की; नृप:ः--राजा ने; तत्‌-उचितमू--यह उनके लिए उचित है( था ); महताम्‌--महात्माओं या महानुभावों का; मधु-द्विट्‌ू--मधु नामक असुर को मारने वाले, श्रीकृष्ण, मधुसूदन; सेवा-अनुरक्त--सेवा में अनुरक्त; मनसाम्‌ू--जिन मनस्वियों का; अभव: अपि--मोक्ष पद भी; फल्गु:--तुच्छ |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं--हे राजनू, भरत महाराज के कार्य आश्चर्यजनक हैं।

    उन्होंने अपनी प्रत्येक वस्तु का परित्याग कर दिया जो अन्यों के लिए दुष्कर है।

    उन्होंने अपनासाम्राज्य, पत्नी तथा परिवार त्याग दिया।

    उनका वैभव इतना प्रभूत था कि देवताओं को भी ईर्ष्याहोती थी, किन्तु उसका भी उन्होंने परित्याग कर दिया।

    उनके समान महान्‌ पुरुष के लिए महान्‌भक्त होना सर्वथा उपयुक्त था।

    वे प्रत्येक वस्तु का इसलिए परित्याग कर सके, क्योंकि वेभगवान्‌ श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, ऐश्वर्य, यश, ज्ञान, शक्ति तथा त्याग के प्रति अत्यन्त अनुरक्त थे।

    कृष्ण इतने आकर्षक हैं कि उनके लिए समस्त इष्ट वस्तुओं का परित्याग किया जा सकता है।

    जिनके चित्त भगवान्‌ की सेवा के प्रति आकृष्ट हैं, वे मुक्ति को भी तुच्छ मानते हैं।

    यज्ञाय धर्मपतये विधिनैपुणाययोगाय साड्ख्यशिरसे प्रकृती ध्वराय ।

    नारायणाय हरये नम इत्युदारंहास्यन्मृगत्वमपि यः समुदाजहार ॥

    ४५॥

    यज्ञाय--समस्त यज्ञों का फल भोगने वाले श्रीभगवान्‌ को; धर्म-पतये-- धार्मिक विधानों के स्वामी को; विधि-नैपुणाय--उसेजो निपुणता से विधि-विधान पालन करने के लिए भक्तों को ज्ञान प्रदान करता है; योगाय--साक्षात्‌ योग को; साड्ख्य-शिरसे--सांख्य दर्शन का उपदेश देने वाले; प्रकृति-ईश्वराय--ब्रह्माण्डके परम नियन्ता को; नारायणाय--असंख्य जीवात्माओंके आश्रय ( नर, जीवात्माएँ तथा अयन, आश्रय, शरण ) को; हरये--हरि स्वरूप श्रीभगवान्‌ को; नम:ः--सादर नमस्कार;इति--इस प्रकार; उदारम्‌--उच्च स्वर से; हास्यन्‌--हँसते हुए; मृगत्वम्‌ अपि--मृग की देह धारण किये रहने पर भी; यः--जो;समुदाजहार--जप करता रहा।

    मृग देह धारण करने पर भी महाराज भरत ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ को विस्मृत नहीं किया; अतः जब वे मृग देह छोड़ने लगे तो उच्च स्वर से इस प्रकार प्रार्थना की, पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ साक्षात्‌ यज्ञ पुरुष हैं।

    वे अनुष्ठानों का फल देने वाले हैं।

    वे धर्म रक्षक, योगस्वरूप,सर्वज्ञानस्त्रोत ( सांख्य के प्रतिपाद्य ), सम्पूर्ण सृष्टि के नियामक तथा प्रत्येक जीवात्मा में स्थितपरमात्मा हैं।

    वे सुन्दर तथा आकर्षक हैं।

    मैं उनको नमस्कार करके यह देह त्याग रहा हूँ औरआशा करता हूँ कि उनकी दिव्य सेवा में अहर्निश संलग्न रहूँगा।

    यह कह कर महाराज भरत नेअपना शरीर त्याग दिया।

    य इदं भागवतसभाजितावदातगुणकर्मणो राजर्षेर्भरतस्यानुचरितं स्वस्त्ययनमायुष्यं धन्यं यशस्यंस्वर्ग्यापवर्ग्य वानुश्रुणोत्याख्यास्यत्यभिनन्दति च सर्वा एवाशिष आत्मन आशास्ते न काञ्जन परतइति ॥

    ४६॥

    यः--जो कोई; इृदम्‌--इस; भागवत--सामान्य भक्तों के द्वारा; सभाजित--अत्यधिक पूजित; अवदात--शुद्ध; गुण--जिसकेगुण; कर्मण:--तथा कर्म; राज-ऋषे: --राजर्षि; भरतस्य-- भरत महाराज का; अनुचरितम्‌--चरित्र, कथा को; स्वस्ति-अयनम्‌--कल्याण का धाम; आयुष्यम्‌ू--जीवन-अवधि ( आयु ) को बढ़ाने वाला; धन्यम्‌--धन को बढ़ाने वाला; यशस्यम्‌--यश प्रदान करने वाला; स्वर्ग्य--स्वर्ग लोक की प्राप्ति कराने वाला ( जो कर्मियों का लक्ष्य है ); अपवर्ग्यमू--इस भौतिक जगतसे मुक्ति प्रदान करके ईश्वर में तदाकार होने में सहायक ( जो ज्ञानियों का लक्ष्य है ); वा--अथवा; अनुश्रणोति--भक्तिमार्ग काअनुसरण करते हुए सदैव सुनता है; आख्यास्यति--परोपकारार्थ वर्णन करता है; अभिनन्दति--भक्तों तथा भगवान्‌ के गुणों कागान करता है; च--तथा; सर्वा:--समस्त; एव--निश्चय ही; आशिष: --आशीर्वाद; आत्मन:--स्वयं के लिए; आशास्ते--प्राप्तकरता है; न--नहीं; काज्नन--कुछ भी; परत:-- अन्य किसी से; इति--इस प्रकार

    श्रवण तथा कीर्तन के अनुरागी भक्त नियमित रूप से भरत महाराज के गुणों की विवेचनातथा उनके कर्मों की प्रशंसा करते हैं।

    यदि कोई विनीत भाव से सर्व कल्याणमय महाराज भरतके विषय में श्रवण तथा कीर्तन करता है, तो उसकी आयु तथा सांसारिक वैभव में वृद्धि होतीहै।

    वह अत्यन्त प्रसिद्ध हो सकता है और सरलता से स्वर्ग अथवा श्रीभगवान्‌ में एकाकार होकरमुक्ति प्राप्त कर सकता है।

    महाराज भरत के कर्मों के श्रवण, कीर्तन तथा स्तवन मात्र सेमनोवांछित फल मिलता है।

    इस प्रकार मनुष्य की समस्त भौतिक तथा आध्यात्मिक आकांक्षाओंकी पूर्ति होती है।

    इन वस्तुओं के लिए और किसी से माँगने की आवश्यकता नहीं रह जाती,क्योंकि महाराज भरत के जीवन के अध्ययन मात्र से सभी वांछित वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं।

    TO

    अध्याय पन्द्रह: राजा प्रियव्रत के वंशजों की महिमा

    5.15श्रीशुक उबाचभरतस्यात्मज: सुमतिर्नामाभिहितो यमु ह वाव केचित्पाखण्डिनऋषभपदवीमनुवर्तमानं चानार्याअवेदसमाम्नातां देवतां स्वमनीषया पापीयस्या कलौ कल्पयिष्यन्ति ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा; भरतस्य-- भरत महाराज का; आत्म-ज:--पुत्र; सुमतिः नाम-अभिहितः--जिसका नाम सुमति था; यम्‌ू--जिसको; उ ह वाव--निस्सन्देह; केचित्‌ू--कोई; पाखण्डिन:--वैदिक ज्ञान-विहीन, पाखंडी जन; ऋषभ-पदवीम्‌--राजा ऋषभदेव के मार्ग का; अनुवर्तमानम्‌--अनुसरण करते हुए; च--तथा;अनार्या:--वैदिक नियमों का कठोरता से पालन न करने वाले अनार्य; अवेद-समाम्नाताम्‌--जिनका वेदों में उल्लेख नहीं है;देवताम्‌ू-- भगवान्‌बुद्ध या बौद्ध विग्रह के समान; स्व-मनीषया--अपनी बौद्धिक कल्पना से; पापीयस्या-- अत्यन्त पापमय;कलौ--इस कलियुग में; कल्पयिष्यन्ति--कल्पना करेंगे |

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--महाराज भरत के पुत्र सुमति ने ऋषभदेव के मार्गका अनुसरण किया, किन्तु कुछ पाखंडी लोग उन्हें साक्षात्‌ भगवान्‌ बुद्ध मानने लगे।

    वस्तुत: इनपाखंडी नास्तिक और दुश्चरित्र लोगों ने वैदिक नियमों का पालन काल्पनिक तथा अप्रसिद्ध ढंगसे अपने कर्मों की पुष्टि के लिए किया।

    इस प्रकार इन पापात्माओं ने सुमति को भगवान्‌ बुद्धदेवके रूप में स्वीकार किया और इस मत का प्रवर्तन किया कि प्रत्येक व्यक्ति को सुमति के नियमोंका पालन करना चाहिए।

    इस प्रकार अपनी कोरी कल्पना के कारण वे रास्ते से भटक गये।

    तस्माद्वुद्धसेनायां देवताजिन्नाम पुत्रो भवत्‌ ॥

    २॥

    तस्मात्‌ू--सुमति से; वृद्ध-सेनायाम्‌--उसकी पतली वृद्धसेना के गर्भ से; देवताजित्‌ू-नाम--देवताजित्‌ नामक; पुत्र:--पुत्र;अभवत्‌--उत्पन्न हुआ सुमति की पतली वृद्धसेना के गर्भ से देवताजित्‌ नामक पुत्र का जन्म हुआ।

    अथासुर्या तत्तनयो देवद्युम्नस्ततो धेनुमत्यां सुतः परमेष्ठी तस्य सुवर्चलायां प्रतीह उपजात: ॥

    ३॥

    अथ--त्पश्चात्‌; आसुर्याम्‌ू--उसकी पत्नी आसुरी के गर्भ से; तत्‌ू-तनय:--देवताजित्‌ का एक पुत्र; देव-द्युम्न:--देवद्युम्न नामका; ततः--देवद्युम्न से; धेनु-मत्याम्‌--देवद्युम्न की पत्नी धेनुमती के गर्भ से; सुतः--एक पुत्र; परमेष्ठी--परमेष्ठी नामक;तस्य--परमेष्ठी की; सुवर्चलायाम्‌-पत्नी सुवर्चला के गर्भ से; प्रतीह:--प्रतीह नाम का पुत्र; उपजात:--उत्पन्न हुआ।

    तत्पश्चात्‌ देवताजित्‌ की पत्नी आसुरी के गर्भ से देवद्युम्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    देवद्युम्नकी पत्नी धेनुमती के गर्भ से परमेष्ठी नामक पुत्र का और परमेष्ठी की पत्नी सुवर्चला के गर्भ सेप्रतीह नाम के पुत्र का जन्म हुआ।

    य आत्मविद्यामाख्याय स्वयं संशुद्धो महापुरुषमनुसस्मार ॥

    ४॥

    यः--जिसने ( राजा प्रतीह ने ); आत्म-विद्याम्‌ आख्याय--आत्म-साक्षात्कार के सम्बन्ध में अनेक लोगों को शिक्षा देने केपश्चात्‌; स्वयम्‌ू--स्वतः; संशुद्ध:--आत्म-साक्षात्कार में अतीव समुन्नत एवं परिशुद्ध; महा-पुरुषम्‌-- भगवान्‌ को; अनुसस्मार--भलीभाँति समझा और निरन्तर स्मरण किया।

    राजा प्रतीह ने स्वयं आत्म-साक्षात्कार के सिद्धान्तों का प्रसार किया।

    इस प्रकार शुद्ध होकरवे परम पुरुष भगवान्‌ विष्णु के महान्‌ भक्त बन गये और प्रत्यक्षतः उनका साक्षात्कार किया।

    प्रतीहात्सुवर्चलायां प्रतिहरत्रांदयस्त्रय आसन्निज्याकोविदा: सूनव: प्रतिहर्तु:स्तुत्यामजभूमानावजनिषाताम्‌, ॥

    ५॥

    प्रतीहात्‌ू--राजा प्रतीह से; सुवर्चलायाम्‌--उसकी पतली सुवर्चला के गर्भ से; प्रतिहर्त-आदय: त्रयः--प्रतिहर्ता, प्रस्तोता तथाउदगाता नाम के तीन पुत्र; आसन्‌ --उत्पन्न हुए; इज्या-कोविदा:--वेदों के अनुष्ठानों में अत्यन्त दक्ष; सूनबः--तीनों पुत्र;प्रतिहर्तु: --प्रतिहर्ता से; स्तुत्यामू--उसकी पत्नी स्तुती के गर्भ से; अज-भूमानौ--अज तथा भूमा नाम के दो पुत्र;अजनिषाताम्‌--आविर्भूत हुएप्रतीह की पत्नी सुवर्चला के गर्भ से प्रतिहर्ता, प्रस्तोता तथा उद्गाता नाम के तीन पुत्र उत्पन्नहुए।

    ये तीनों पुत्र वैदिक अनुष्ठानों में अत्यन्त दक्ष थे।

    प्रतिहर्ता की भार्या स्तुती के गर्भ से अजतथा भूमा नामक दो पुत्रों का जन्म हुआ।

    भूम्न ऋषिकुल्यायामुद्गीथस्ततः प्रस्तावो देवकुल्यायां प्रस्तावान्नियुत्सायां हृदयज आसीद्िभुर्विभो रत्यांच पृथुषेणस्तस्मान्नक्त आकृत्यां जज्ने नक्ताद्द्रुतिपुत्रो गयो राजर्षिप्रवर उदारश्रवा अजायतसाक्षाद्धगवतो विष्णोरज॑गद्विरक्षिषया गृहीतसत्त्वस्थ कलात्मवत्त्वादिलक्षणेन महापुरुषतां प्राप्त: ॥

    ६॥

    भूम्न: --राजा भूमा से; ऋषि-कुल्यायाम्‌-- उसकी पत्नी ऋषिकुल्या के गर्भ से; उद्गीथ:--उद्‌गी थ नामक पुत्र; ततः--फिरराजा उद्गीथ से; प्रस्ताव:--प्रस्ताव नामक पुत्र; देव-कुल्यायाम्‌-- उसकी पत्नी देवकुल्या से; प्रस्तावात्‌--राजा प्रस्ताव से;नियुत्सायाम्‌--नियुत्सा नाम वाली उसकी पत्नी से; हदय-ज:--पुत्र; आसीतू--उत्पन्न हुआ; विभु:--विभु नामक; विभो:--राजा विभु से; रत्यामू--उसकी पत्नी रती से; च-- भी; पृथु-षेण:-- पृथुषेण नाम का; तस्मात्‌--उससे ( पृथुषेण से ); नक्त:--नक्त नामक पुत्र; आकृत्याम्‌ू--उसकी पत्नी आकूती से; जज्ञे--जन्म लिया; नक्तात्‌ू--नक्त राजा से; द्वुति-पुत्र:--द्रुति का पुत्र;गयः--गय नामक राजा; राज-ऋषि-प्रवर: --राजर्षियों में अत्यन्त सम्मान्य; उदार- श्रवा: --अत्यन्त पवित्र राजा के रूप मेंविख्यात; अजायत--उत्पन्न हुआ; साक्षात्‌ भगवतः --साक्षात्‌ भगवान्‌; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु का; जगत्‌-रिरक्‌-षिषया--समस्त संसार की रक्षा के हेतु; गृहीत--गर्भ में वास किया; सत्त्वस्थ--शुद्ध सत्त्वत गुण का; कला-आत्म-वत्त्व-आदि-- भगवान्‌के साक्षात्‌ अवतार के रूप में; लक्षणेन--लक्षणों से; महा-पुरुषताम्‌--मानव समाज के नायक होने का मुख्य गुण ( सम्पूर्णजीवित प्राणियों के नायक भगवान्‌ विष्णु के सहश ); प्राप्त:--प्राप्त किया

    राजा भूमा की पतली ऋषिकुलया के गर्भ से उदगीथ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    उदगीथ कीपत्नी देवकुल्या से प्रस्ताव नामक पुत्र ने जन्म लिया और प्रस्ताव को अपनी पत्नी नियुत्सा सेविभु नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।

    विभु की पत्नी रती के गर्भ से पृथुषेण और पृथुषेण की पत्नीआकूती के गर्भ से नक्त नामक पुत्र ने जन्म लिया।

    नक्त की पतली द्वुति हुई, जिसके गर्भ से गयनामक महान्‌ राजा उत्पन्न हुआ।

    गय अत्यन्त विख्यात एवं पवित्र था, वह राजर्षियों में सर्व श्रेष्ठथा।

    भगवान्‌ विष्णु तथा उनके सभी अंश विश्व की रक्षा के लिए हैं और वे सदैव दिव्य सत्त्वगुणमें, जिसे विशुद्ध सत्त्व कहते हैं, विद्यमान रहते हैं।

    भगवान्‌ विष्णु के साक्षात्‌ अंश होने केकारण राजा गय भी विशुद्ध-सत्त्व में आसीन थे।

    इस कारण महाराज गय दिव्य ज्ञान से युक्त थेऔर इसलिए वे महापुरुष कहलाए।

    स बै स्वधर्मेण प्रजापालनपोषणप्रीणनोपलालनानुशासनलक्षणेनेज्यादिना च भगवति महापुरुषे परावरेब्रह्मणि सर्वात्मनार्पितपरमार्थलक्षणेन ब्रह्मविच्चरणानुसेवयापादितभगवद्धक्तियोगेन चा भीक्ष्णश:परिभावितातिशुद्धमतिरुपरतानात्म्य आत्मनि स्वयमुपलभ्यमानब्रह्मात्मानुभवो पि निरभिमानएवावनिमजूगुपत्‌, ॥

    ७॥

    सः--वह राजा गय; बै--निश्चय ही; स्व-धर्मेण-- अपने कर्तव्य के द्वारा; प्रजा-पालन-- प्रजा का पालन करने; पोषण--प्रजाका भरण करने; प्रीणन--सभी तरह से उसे सुखी बनाने; उपलालन--उसे पुत्र की भाँति रखने; अनुशासन--कभी-कभीत्रुटियों के लिए दण्डित करने; लक्षणेन--राजा के लक्षणों से; इज्या-आदिना--वेदोक्त विधि से यज्ञ सम्पन्न करके; च--भी;भगवति-- श्री भगवान्‌, विष्णु; महा-पुरुषे--समस्त जीवात्माओं में प्रमुख; पर-अबरे-- भगवान्‌ ब्रह्म से लेकर अकिंचन चींटीतक समस्त जीवात्माओं का स्त्रोत; ब्रह्मणि--परब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव में; सर्व-आत्मना--सभी प्रकार से;अर्पित--समर्पित, शरणागत; परम-अर्थ-लक्षणेन--चिन्मय लक्षणों से; ब्रह्य-वित्‌ू--स्वरूप-सिद्ध सन्त भक्तों के; चरण-अनुसेवया--चरणारविन्दों की सेवा करके; आपादित--प्राप्त किया; भगवत्‌-भक्ति-योगेन-- भगवान्‌ की भक्ति के अभ्यास से;च--भी; अभीक्षणश: --अनवरत, सतत्‌; परिभावित--संतृप्त; अति-शुद्ध-मतिः--जिसकी विशुद्ध चेतना ( ऐसी पूर्ण चेतनाकि शरीर तथा मन आत्मा से पृथक्‌ है ); उपरत-अनात्म्ये--जिसमें भौतिक वस्तुओं की पहचान रुक जाती है; आत्मनि--अपनेमें; स्ववम्‌--स्वयं; उपलभ्यमान--साक्षात्कार होते हुए; ब्रह्य-आत्म-अनुभव: -- अपनी स्थिति का परब्रह्म के रूप में दर्शन;अपि--यद्यपि; निरभिमान: --अभिमानरहित, झूठी बड़ाई के बिना; एब--इस प्रकार; अवनिम्‌--सम्पूर्ण संसार पर;अजूगुपत्‌--वैदिक विधियों के अनुसार दृढ़ता से शासन किया।

    राजा गय ने अपनी प्रजा को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जिससे अवांछित तत्त्वों के द्वारा उनकीनिजी सम्पत्ति को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचे।

    उन्होंने इसका भी ध्यान रखा कि प्रजा कोपर्याप्त भोजन प्राप्त हो ( यही 'पोषण ' है )।

    कभी-कभी प्रजा को प्रसन्न रखने के लिए वे दानदेते थे ( यह 'प्रीणन' कहलाता है )।

    कभी-कभी वे प्रजा की सभाएं बुलाते और मृदु बचनों सेउन्हें तुष्टि प्रदान करते ( यह 'उपलालन ' कहलाता है )।

    वे उन्हें उच्चकोटि के नागरिक बनने कीशिक्षा देते ( यह ' अनुशासन ' कहलाता है )।

    राजा गय में इस प्रकार की विलक्षणताएँ थीं।

    इनसबके साथ ही साथ राजा गय गृहस्थ थे और वे गृहस्थ जीवन के सभी नियमों का कड़ाई सेपालन करते थे।

    वे यज्ञ करते थे तथा श्रीभगवान्‌ के एकनिष्ठ भक्त थे।

    वे महापुरुष कहे जाते थे,क्योंकि राजा के रूप में उन्होंने नागरिकों को सभी सुविधाएं प्रदान कीं गृहस्थ के रूप में वे सभीकर्तव्यों का पालन करने वाले थे।

    फलस्वरूप वे अन्ततः भगवान्‌ के परम भक्त हुए।

    भक्त केरूप में वे सभी भक्तों का आदर करने और भगवान्‌ की सेवा करने को उद्यत रहते थे।

    यहभक्तियोग की प्रक्रिया है।

    इन दिव्य कर्मो के कारण राजा गय देहात्मबोध से सदैव मुक्त रहे।

    वेब्रह्मसाक्षात्कार में लीन रहने के कारण सदैव प्रमुदित रहते थे।

    उन्हें भौतिक पश्चात्ताप काअनुभव नहीं करना पड़ा।

    सभी प्रकार से पूर्ण होने पर भी वे न तो गर्व करते थे, न ही राज्य करनेलिए लालायित थे।

    तस्थेमां गाथां पाण्डवेय पुराविद उपगायन्ति ॥

    ८॥

    तस्य--राजा गय के; इमाम्‌ू--ये; गाथाम्‌--स्तुतिपरक पद्य; पाण्डबवेय--हे महाराज परीक्षित; पुरा-विदः--पुराणों कीऐतिहासिक घटनाओं के ज्ञाता, उपगायन्ति; उपगायन्ति--तस्य--राजा गय के; इमाम्‌ू--ये; गाथाम्‌--स्तुतिपरक पद्य; पाण्डबवेय--हे महाराज परीक्षित; पुरा-विदः--पुराणों कीऐतिहासिक घटनाओं के ज्ञाता, उपगायन्ति- गाते हैं।

    हे राजा परीक्षित्‌, पुराणों को जानने वाले विद्वान राजा गय की स्तुति और महिमागाननिम्नलिखित एलोकों से करते हैं।

    गयं॑ नृपः कः प्रतियाति कर्मभि-्ज्वाभिमानी बहुविद्धर्मगोप्ता ।

    समागतश्री: सदसस्पतिः सतांसत्सेवकोन्यो भगवत्कलामृते ॥

    ९॥

    गयम्‌--गय; नृप:-- राजा; कः--कौन ; प्रतियाति--तुलनीय है; कर्मभि:ः--कर्मों के कारण; यज्वा--जिसने समस्त यज्ञ किये;अभिमानी--सरे विश्व में अत्यधिक सम्मानित; बहु-वित्‌--वैदिक शास्त्रों से भली-भाँति ज्ञात; धर्म-गोप्ता--प्रत्येक व्यक्ति केकार्यों का संरक्षक; समागत- श्री:--सभी प्रकार के वैभव से युक्त; सदसः-पति:ः सताम्‌ू--महान्‌ व्यक्तियों की सभा का अध्यक्ष;सतू-सेवक:ः--भक्तों का सेवक; अन्य: --अन्य कोई; भगवत्‌-कलाम्‌-- श्रीभगवान्‌ की कला ( अवतार ); ऋते--केअतिरिक्त

    महान्‌ राजा गय सभी प्रकार के वैदिक अनुष्ठान किया करते थे।

    वे अत्यन्त बुद्धिमान औरसभी वैदिक शास्त्रों के अध्ययन में दक्ष थे।

    उन्होंने धार्मिक नियमों की रक्षा की और वे समस्तवैभव से युक्त थे।

    वे सज्जनों के नायक और भक्तों के सेवक थे।

    वे श्रीभगवान्‌ के सच्चे अर्थों मेंसर्वथा समर्थ अंश ( कला ) थे।

    अतः महान्‌ अनुष्ठानों ( यज्ञ ) को सम्पन्न करने में उनकी तुलनाकौन कर सकता है ?यमभ्यषिज्ञन्परया मुदा सतीःसत्याशिषो दक्षकन्या: सरिद्धि: यस्य प्रजानां दुदुहे धराशिषोनिराशिषो गुणवत्सस्नुतोधा: ॥

    १०॥

    यम्‌--जिसको; अभ्यषिश्नन्‌ू--- अभिषेक करती थीं; परया--अत्यन्त ( परम ); मुदा--सन्तोष से; सती: --अपने पतियों के प्रतिभक्तिभाव रखने वाली तथा पतिक्रता स्त्रियाँ; सत्य--सच्चे; आशिष:--आशीर्वाद; दक्ष-कन्या:--राजा दक्ष की पुत्रियाँ;सरिद्धिः--पवित्र जल के द्वारा; यस्थ--जिसकी; प्रजानाम्‌--प्रजा की; दुदुहै--पूरा किया; धरा--पृथ्वी ने; आशिष:--समस्त'कामनाओं का; निराशिष:--यद्यपि स्वयं कामनारहित होकर; गुण-वत्स-स्नुत-उधा: -- प्रजा पर राज्य करने वाले

    गय के गुणोंको देखकर गो रूप पृथ्वी के थन से दुग्ध की धारा निकल आईं।

    महाराज दक्ष की श्रद्धा, मैत्री तथा दया जैसी पतिब्रता तथा सत्यनिष्ठ कन्याएँ जिनकेआशीर्वाद सदा फलित होते थे, पवित्र जल से महाराज गय का अभिषेक करती थीं।

    असल में वेसभी महाराज गय से अत्यधिक सन्तुष्ट थीं।

    पृथ्वी स्वयं गौ रूप में प्रकट हुई और महाराज गय केउत्तम गुणों को देखकर दुग्ध सत्रवण करने लगी, मानो गाय ने अपने वत्स को देखा हो।

    छन्दांस्यकामस्य च यस्य कामान्‌दुदृहुराजहरथो बलि नृपा: ।

    प्रत्यश्लिता युधि धर्मेण विप्रायदाशिषां षष्ठमंशं परेत्य ॥

    ११॥

    छन्दांसि--वेदों के समस्त अंग; अकामस्य--निष्काम; च-- भी; यस्य--जिसकी ; कामान्‌--समस्त इच्छाएँ; दुदृहुः--प्रदानकिया; आजहु:-- अर्पित किया; अथो--इस प्रकार; बलिमू-- भेंट, बलि; नूपा:--सभी राजा; प्रत्यश्चिता:--उसके विपक्ष मेंयुद्ध करने से सन्तुष्ट होकर; युधि--युद्ध में; धर्मेण-- धार्मिक नियमों से; विप्रा: --समस्त ब्राह्मण; यदा--जब; आशिषाम्‌--आशीर्वादों का; षष्ठम्‌ अंशम्‌--छठा अंश; परेत्य--अगले जन्म में |

    यद्यपि महाराज गय में इन्द्रियतृप्ति के लिए किसी प्रकार की व्यक्तिगत इच्छा नहीं थी, किन्तुवैदिक अनुष्ठानों को पूरा करने के कारण उनकी सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति होती रहती थी।

    जिनराजाओं से महाराज गय को युद्ध करना पड़ता, वे धर्मयुद्ध करने के लिए विवश हो जाते।

    वेमहाराज गय के युद्ध से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उन्हें सभी प्रकार की भेंटें प्रदान करते थे।

    इसीप्रकार से उनके राज्य के समस्त ब्राह्मण उनके मुक्त दान से अत्यन्त सन्तुष्ट रहते थे।

    फलस्वरूपब्राह्मणों ने राजा गय को अगले जन्म में प्राप्त होने के लिए अपने पुण्यकर्मों का छठा अंश सहर्षप्रदान किया था।

    यस्याध्वरे भगवानध्वरात्मामधघोनि माद्यत्युरुसोमपीथे ।

    श्रद्धाविशुद्धाचलभक्तियोगसमर्पितेज्याफलमाजहार ॥

    १२॥

    यस्य--जिसका ( राजा गय का ); अध्वरे--विभिन्न यज्ञों में; भगवान्‌-- भगवान्‌; अध्वर-आत्मा--समस्त यज्ञों के परम भोक्ता,यज्ञ पुरुष; मघोनि--जब राजा इन्द्र; माद्यति--मदान्ध हो जाता है; उरुू--अत्यधिक; सोम-पीथे--मादक सोमरस का पान करतेहुए; श्रद्धा-- भक्ति से; विशुद्ध--शुद्ध।

    अचल--तथा स्थिर; भक्ति-योग--भक्ति के द्वारा; समर्पित--चढ़ाया गया, अर्पित;इज्या--पूजन का; फलम्‌--फल, परिणाम्‌; आजहार--स्वयं स्वीकार किया।

    महाराज गय के यज्ञों में सोम नामक मादक द्रव्य का अत्यधिक प्रयोग होता था।

    इनमें राजाइन्द्र आया करते थे और प्रचुर मात्रा में सोमरस पीकर मदान्ध हो जाते थे।

    भगवान्‌ श्रीविष्णु(यज्ञ पुरुष ) भी आया करते थे और यज्ञ क्षेत्र में विशुद्ध भक्तिपूर्वक उनको समर्पित किये गयेयज्ञफल को स्वयं स्वीकार करते थे।

    यत्प्रीणनाद्वर्हिषि देवतिर्यड्-मनुष्यवीरुत्तृणमाविरिश्ञात्‌ ।

    प्रीयेत सद्यः स ह विश्वजीव:प्रीतः स्वयं प्रीतिमगाद्गयस्य ॥

    १३॥

    यत्‌-प्रीणनात्‌-- श्रीभगवान्‌ के प्रसन्न होने से; बहिंषि--यज्ञ क्षेत्र में; देव-तिर्यक्‌--देवता तथा निम्न पशु; मनुष्य--मानवसमाज; वीरुतू--पादप तथा वृक्ष; तृणम्‌--घास; आ-विरिज्ञात्‌-- भगवान्‌ ब्रह्मा तक; प्रीयेत--सन्तुष्ट हो जाता है; सद्यः--तुरन्त; सः--श्रीभगवान्‌; ह--निश्चय ही; विश्व-जीव:--समस्त संसार के जीवात्माओं का पालन करने वाला; प्रीत:--यद्यपिसहज तुष्ट हैं; स्वयम्‌--साक्षात; प्रीतिमू--सन्तोष के; अगात्‌--प्राप्त हुआ; गयस्य--महाराज गय के

    जब परमेश्वर किसी व्यक्ति के कर्मो से प्रसन्न होते हैं, तो ब्रह्मा से लेकर समस्त देवता,मनुष्य, पशु, पक्षी, लताएँ, तृण तथा अन्य समस्त जीवात्माएँ स्वतः प्रसन्न हो जाती हैं।

    पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ सबों के परमात्मा हैं और वे स्वभाव से परम प्रसन्न रहते हैं।

    तो भी वे महाराजगय के यज्ञ क्षेत्र में आये और उन्होंने कहा, 'मैं पूर्णतया प्रसन्न हूँ।

    गयादूगयन्त्यां चित्ररथ: सुगतिरवरोधन इति त्रयः पुत्रा बभूवुश्चित्ररथादूर्णायां सम्राडजनिष्ट; ततउत्कलायां मरीचिरमरीचेर्जिन्दुमत्यां बिन्दुमानुदपद्यत तस्मात्सरघायां मधुर्नामाभवन्मधो: सुमनसिवबीरब्रतस्ततो भोजायां मन्धुप्रमन्थू जज्ञाते मन्‍्थो: सत्यायां भौवनस्ततो दूषणायां त्वष्टाजनिष्टत्वष्टुविरोचनायां विरजो विरजस्य शतजित्प्रवरं पुत्रशतं कन्या च विषूच्यां किल जातम्‌ ॥

    १४-१५॥

    गयातू--महाराज गय से; गयन्त्यामू--उनकी पतली गयन्ती के; चित्र-रथ: --चित्ररथ नामक; सुगति:--सुगति नामक;अवरोधन:--अवरोधन नामक; इति--इस प्रकार; त्रय:--तीन; पुत्रा:--पुत्र; बभूवु:--उत्पन्न हुए; चित्ररथात्‌--चित्ररथ से;ऊर्णायाम्‌ू--ऊर्णा के गर्भ से; सम्राट्‌--सप्राट नामक पुत्र; अजनिष्ट -- उत्पन्न हुआ; तत:--उससे; उत्कलायाम्‌--उत्कला नामकपली से; मरीचि:--मरीचि; मरीचे: --मरीचि से; बिन्दु-मत्याम्‌ू--उसकी पतली बिन्दुमती के गर्भ से; बिन्दुम्‌-बिन्दु नाम का पुत्र;आनुदपद्यत--उत्पन्न हुआ; तस्मात्‌--उससे; सरघायाम्‌--सरघा नाम की पतली के गर्भ से; मधु:--मधु; नाम--नामक;अभवत्‌--जन्म लिया; मधो: --मधु से; सुमनसि--उसकी पत्नी सुमना के गर्भ से; बीर-ब्रत:ः--वीरकब्रत नामक पुत्र; ततः--बीरब्रत से; भोजायामू--उसकी पली भोजा से; मन्थु-प्रमन्‍्थू--मन्थु तथा प्रमन्थु नाम के दो पुत्र; जज्ञाते--उत्पन्न हुए; मन्धो: --मन्थु से; सत्यायाम्‌--उसकी पत्नी सत्या से; भौवन:--भौवन नामक पुत्र; ततः--उससे; दूषणायाम्‌--उसकी पत्नी दूषणा केगर्भ से; त्वष्टा--त्वष्टा नाम का एक पुत्र; अजनिष्ट --उत्पन्न हुआ; त्वष्ट:--त्वष्टा से; विरोचनायामू--उसकी पत्नी विरोचना के;विरज:--विरज नाम का एक पुत्र; विरजस्य--राजा विरज का; शतजित्‌-प्रवरम्‌--( जिनमें ) शतजित सर्वोपरि था; पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; कन्या--एक पुत्री; च-- भी; विषूच्याम्‌-- उसकी पत्नी विषूची के; किल--निश्चय ही; जातम्‌-जन्मण् गयन्ती के गर्भ से महाराज गय के तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे--चित्ररथ, सुगति तथाअवरोधन।

    चित्ररथ की पत्नी ऊर्णा से सम्राट नाम का पुत्र प्राप्त हुआ।

    सप्राट्‌ की पत्नी का नामउत्कला था जिसके गर्भ से सम्राट को मरीचि नामक पुत्र का लाभ हुआ।

    मरीचि की पत्नीबिन्दुमति से बिन्दु नामक पुत्र हुआ।

    बिन्दु की पत्नी सरघा के गर्भ से मधु नामक एक पुत्र ने जन्मलिया।

    मधु की पत्नी सुमना से वीरब्रत और वीरब्रत की पत्नी भोजा से मन्थु तथा प्रमन्थु नाम केदो पुत्र उत्पन्न हुए।

    मन्थु की पत्नी सत्या से भौवन नाम का पुत्र और भौवन की पत्नी दूषणा सेत्वष्टा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    त्वष्टा की पत्नी विरोचना से विरज नाम का पुत्र हुआ और उसकीपत्नी विषूची के गर्भ से एक सौ पुत्र तथा एक पुत्री उत्पन्न हुई।

    इन सभी पुत्रों में शतजित्‌ नाम कापुत्र सर्वोपरि था।

    तत्रायं श्लोक:--प्रैयत्रतं वंशमिमं विरजश्चरमोद्धव: ।

    अकरोदत्यलं कीरत्या विष्णु: सुरगणं यथा ॥

    १६॥

    तत्र--उस प्रसंग में; अथम्‌ एलोक:ः--यह प्रसिद्ध श्लोक है; प्रैयव्रतम्‌--राजा प्रियत्रत से चलने वाला; वंशम्‌--वंश; इमम्‌--यह; विरज:--राजा विरज; चरम-उद्धव:--एक सौ पुत्रों ( जिनमें शतजित्‌ सर्वोपरि था ) का स्रोत; अकरोत्‌--अलंकृत किया;अति-अलम्‌--अत्यधिक; कीरत्या--अपनी कीर्ति से; विष्णु:--भगवान्‌ विष्णु, श्रीभगवान्‌; सुर-गणम्‌--देवता गण; यथा--जिस प्रकार।

    राजा विरज के सम्बन्ध में यह श्लोक प्रसिद्ध है (जिसका अर्थ है )--' अपने उच्च गुणोंतथा व्यापक कीर्ति के कारण राजा विरज उसी प्रकार से प्रियत्रत राजा के वंश के मणि हो गएजिस प्रकार भगवान्‌ विष्णु अपनी दिव्य शक्ति द्वारा देवताओं को विभूषित करते और उन्हेंआशीष देते हैं।

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    अध्याय सोलह: जम्बूद्वीप का विवरण

    5.16राजोबाचउक्तस्त्वया भूमण्डलायामविशेषो यावदादित्यस्तपति यत्र चासौ ज्योतिषां गणैश्चन्द्रमा वा सह दृश्यते ॥

    १॥

    राजा उवाच--महाराज पररीक्षित्‌ बोले; उक्त:--पहले ही कहा जा चुका है; त्वया--आपके द्वारा; भू-मण्डल-- भूमण्डल नामकलोक; आयाम-विशेष:--त्रिज्या की विशेष लम्बाई; यावत्‌--जब तक; आदित्य: --सूर्य; तपति--तपता है, दीप्तिमान है;यत्र--वहाँ भी; च-- भी; असौ--वह; ज्योतिषाम्‌--ज्योतिपिंडों का; गणैः--समूह के साथ; चन्द्रमा--चन्द्रमा; वा--या;सह--साथ; दृश्यते--देखा जाता है।

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से कहा--हे ब्राह्मण, आपने मुझे पहले ही बता दिया हैकि भूमण्डल की त्रिज्या वहाँ तक विस्तृत है जहाँ तक सूर्य का प्रकाश और उष्मा पहुँचती हैतथा चन्द्रमा और अन्य नक्षत्र दृष्टिगोचर होते हैं।

    तत्रापि प्रियव्रतरथचरणपरिखातैः सप्तभिः सप्त सिन्धव उपक्रिप्ता यत एतस्या:सप्तद्वीपविशेषविकल्पस्त्वया भगवन्खलु सूचित एतदेवाखिलमहं मानतो लक्षणतश्च सर्वविजिज्ञासामि ॥

    २॥

    तत्र अपि--उस भू-मण्डल में; प्रियव्रत-रथ-चरण-परिखातै: --सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते समय प्रियत्रत महाराज के रथ केपहियों से निर्मित गड्ढों के द्वारा; सप्तभि:ः--सात; सप्त सिन्धव:--सात समुद्र; उपक्लृप्ता:--प्रभूत; यत:ः--जिसके कारण;एतस्या:--इस भूमण्डल का; सप्त-द्वीप--सातों द्वीपों का; विशेष-विकल्प:--सरंचना शैली; त्वया-- आपके द्वारा; भगवन्‌--है महामुनि; खलु--निश्चय ही; सूचित:--वर्णित; एतत्‌--यह; एव--निस्सन्देह; अखिलमू--सम्पूर्ण प्रजा; अहम्‌--मैं;मानत:ः--माप की दृष्टि से; लक्षणत:ः--( तथा ) लक्षणों से; च-- भी; सर्वम्‌--प्रत्येक वस्तु; विजिज्ञासामि--जानने की इच्छाकरता हूँ।

    हे भगवन्‌, महाराज प्रियत्रत के रथ के चक्रायमाण पहियों से सात गड्ढे बने, जिससे सातसमुद्रों की उत्पत्ति हुई।

    इन सात समुद्रों के ही कारण भूमण्डल सात द्वीपों में विभक्त है।

    आपनेइनकी माप, नाम तथा विशिष्टताओं का अत्यन्त सामान्य वर्णन मात्र किया है।

    मुझे विस्तार सेइनके सम्बध में जानने की इच्छा है।

    कृपया मेरी कामना पूर्ण करें।

    भगवतो गुणमये स्थूलरूप आवेशितं मनो ह्ागुणेपि सूक्ष्मतम आत्मज्योतिषि परे ब्रह्मणि भगवतिवासुदेवाख्ये क्षममावेशितुं तदु हैतदगुरोहस्यनुवर्णयितुमिति ॥

    ३॥

    भगवतः -- श्री भगवान्‌ का; गुण-मये-- भौतिक प्रकृति के त्रिगुण युक्त बाह्मस्वरूपों में; स्थूल-रूपे--स्थूल रूप; आवेशितम्‌--प्रविष्ट; मनः--मन; हि--निश्चित रूप से; अगुणे--दिव्य इन्द्रियातीत; अपि--यद्यपि; सूक्ष्मतमे--हृद्देश से अपने लघुतर रूप मेंपरमात्मा; आत्म-ज्योतिषि--जो ब्रह्म तेज से पूर्ण है; परे--परम; ब्रह्मणि-- आत्मस्वरूप; भगवति-- श्रीभगवान्‌ में; वासुदेव-आख्ये--भगवान्‌ वासुदेव के नाम से विख्यात; क्षमम्‌--उपयुक्त; आवेशितुम्‌--आत्मसात्‌; तत्‌--वह; उ ह--निस्सन्देह;एतत्‌--यह; गुरो--हे गुरुदेव; अर्हसि अनुवर्णयितुम्‌--कृपया विस्तारपूर्वक कहें; इति--इस प्रकारजब मन प्रकृति के गुणों से निर्मित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के बाह्मरूप--स्थूल विश्वरूप--पर स्थिर हो जाता है, तो उसे शुद्ध सत्त्व की स्थिति प्राप्त होती है।

    उस दिव्य स्थिति में हीभगवान्‌ वासुदेव को जाना जा सकता है जो अपने सूक्ष्मरूप में स्वतः प्रकाशित और गुणातीतहैं।

    हे प्रभो, विस्तार से वर्णन करें कि वह रूप जो सारे विश्व में व्याप्त है किस प्रकार देखा जाताहै।

    ऋषिरुवाचन वै महाराज भगवतो मायागुणविभूते: काष्ठां ममसा वचसा वाधिगन्तुमलं विबुधायुषापिपुरुषस्तस्मात्प्राधान्येनेव भूगोलकविशेषं नामरूपमानलक्षणतो व्याख्यास्याम: ॥

    ४॥

    ऋषि: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; न--नहीं; वै--निस्सन्देह; महा-राज--हे महान्‌ राजा; भगवतः -- श्रीभगवान्‌ का;माया-गुण-विभूते: --माया के गुणों का रूपान्तर; काष्ठाम्‌-- अन्त, इति; मनसा--मनसे; वचसा--वचन से; वा--अथवा;अधिगन्तुमू-- भलीभाँति समझने के लिए; अलम्‌--समर्थ; विबुध-आयुषा--ब्रह्मा के समान आयु वाला; अपि--भी; पुरुष: --व्यक्ति; तस्मात्‌ू--अतः ; प्राधान्येन--प्रमुख स्थानों के सामान्य विवरण से; एब--निश्चित रूप से; भू-गोलक-विशेषम्‌-- भूलोकका विशिष्ट वर्णन; नाम-रूप--नाम तथा स्वरूप; मान--परिमाण, माप; लक्षणत:--लक्षणों के अनुसार; व्याख्यास्याम:--व्याख्या करने का प्रयत्न करूँगा।

    ऋषिश्रेष्ठ शुकदेव गोस्वामी बोले, हे राजनू, श्रीभगवान्‌ की माया के विस्तार की कोई सीमानहीं है।

    यह भौतिक जगत सत्त्व, रज तथा तम्‌ इन तीन गुणों का रूपान्तर है; फिर भी ब्रह्मा केसमान दीर्घ आयु पाकर भी इसकी व्याख्या कर पाना सम्भव नहीं है।

    इस भौतिक जगत में कोईभी पूर्ण नहीं और अपूर्ण मनुष्य सतत चिन्तन के बाद भी इस भौतिक ब्रह्माण्ड का सही वर्णननहीं कर सका।

    तो भी, हे राजन्‌, मैं भूगोलक ( भूलोक ) जैसे प्रमुख भूखण्डों की उनके नामों,रूपों, प्रमापों तथा विविध लक्षणों सहित व्याख्या करने का प्रयत्न करूँगा।

    यो बायं द्वीप: कुवलयकमलकोशाभ्यन्तरकोशो नियुतयोजनविशाल: समवर्तुलो यथा पुष्करपत्रम्‌, ॥

    ५॥

    यः--जो; वा--अथवा; अयम्‌--यह; द्वीप:--द्वीप; कुवबलय-- भूलोक; कमल-कोश--कमल गुच्छ; अभ्यन्तर-- भीतरी ;कोश:--कोश; नियुत-योजन-विशाल:--दस लाख योजन ( अस्सी लाख मील ) चौड़ा; समवर्तुल:--समान रूप से गोलअथवा समान लम्बाई तथा चौड़ाई वाला; यथा--सहश; पुष्कर-पत्रमू--कमल का पत्ता।

    भूमण्डल नाम से विख्यात ग्रह कमल पुष्प के अनुरूप है और इसके सातों द्वीप पुष्प-कोशके सहृश हैं।

    इस कोश के मध्य में स्थित जम्बूद्वीप की लम्बाई तथा चौड़ाई दस लाख योजन( अस्सी लाख मील ) है।

    जम्बूढ्वीप कमल-पत्र के समान गोल है।

    यस्मिन्नव वर्षाणि नवयोजनसहस्त्रायामान्यटष्टभिर्मर्यादागिरिभि: सुविभक्तानि भवन्ति ॥

    ६॥

    यस्मिन्‌--उस जम्बूद्वीप में; नव--नौ ( संख्या ); वर्षाणि -- भूखण्ड अथवा वर्ष; नव-योजन-सहस्त्र--नौ हजार योजन अर्थात्‌७२,००० मील लम्बा; आयामानि--माप वाला, आयाम का; अष्टभि: --आठ; मर्यादा--सीमा सूचक; गिरिभि: --पर्वतों केद्वारा; सुविभक्तानि-- भली-भाँति विभाजित; भवन्ति--हैं |

    जम्बूद्वीप में नौ वर्ष ( खण्ड ) हैं जिनमें से प्रत्येक की लम्बाई ९,००० योजन ( ७२,०००मील ) है।

    इन खण्डों की सीमा अंकित करने वाले आठ पर्वत हैं, जो उन्हें भली भाँति विलगकरते हैं।

    एषां मध्ये इलावृतं नामाभ्यन्तरवर्ष यस्य नाभ्यामवस्थित: सर्वतः सौवर्ण: कुलगिरिराजोमेरुद्वीपायामसमुन्नाह: कर्णिका भूत: कुवलयकमलस्य मूर्थनि द्वात्रिंशत्सहस्त्रयोजनविततो मूलेषोडशसहस्त्रं तावतान्तर्भूम्यां प्रविष्ट: ॥

    ७॥

    एषाम्‌--जम्बूद्वीप के इन समस्त खंड़ों के; मध्ये--मध्य में; इलावृतम्‌ नाम--इलावृत वर्ष नामक; अभ्यन्तर-वर्षम्‌--आन्तरिकखण्ड; यस्य--जिसके; नाभ्याम्‌--नाभि में; अवस्थित: --स्थित; सर्वतः--पूरी तरह, पूर्णरूपेण; सौवर्ण:--स्वर्ण का बनाहुआ; कुल-गिरि-राज:-- प्रसिद्ध पर्वतों में सर्वश्रेष्ठ; मेर:--मेरु पर्वत; द्वीप-आयाम-समुन्नाह:--जिसकी ऊँचाई जम्बूद्वीप कीचौड़ाई के समान है; कर्णिका-भूतः--आवरण के रूप में विद्यमान; कुवबलय--इस लोक के; कमलस्य--कमल पुष्प के सहश;मूर्धनि--शीर्ष पर; द्वा-त्रिंशत्‌--बत्तीस; सहस्त्र--हजार; योजन--योजन ( प्रत्येक ८ मील का ); विततः--विस्तृत; मूले--आधार पर मूल भाग में; षोडश-सहस्त्रमू--सोलह हजार योजन; तावत्‌--तक; आन्तः-भूम्याम्‌--पृथ्वी के भीतर; प्रविष्ट: --धँसा हुआ।

    इन खण्डों ( वर्षो ) में से इलावृत नाम का एक वर्ष है जो कमल-कोश के मध्य में स्थित है।

    इलावृत्त वर्ष में ही सुवर्ण का बना हुआ सुमेरु पर्वत है।

    यह कमल जैसे भूमण्डल के बाह्य-आवरण की तरह है।

    इस पर्वत की चौड़ाई जम्बूद्वीप की चौड़ाई के तुल्य, अर्थात्‌ एक लाखयोजन या आठ लाख मील है, जिसमें से १६,००० योजन ( १,२८,००० मील ) पृथ्वी के भीतरहै, जिससे पृथ्वी के ऊपर पर्वत की ऊँचाई केवल ८४,००० योजन ( ६,७२,००० मील ) ही है।

    शीर्ष पर इस पर्वत की चौड़ाई ३२,००० योजन ( २,५६,००० मील ) और पाद भाग पर १६,००० योजन है।

    उत्तरोत्तेणेलावृतं नील: श्वेतः श्रुड्गरवानिति त्रयो रम्यकहिरण्मयकुरूणां वर्षाणां मर्यादागिरय: प्रागायताउभयत: क्षारोदावधयो द्विसहस्त्रपूथव एकैकशः पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो दशांशाधिकांशेन दैर्घ्य एवहसन्ति ॥

    ८॥

    उत्तर-उत्तरण इलाबृतम्‌--इलावृत वर्ष के सुदूर उत्तर में; नील:--नील; श्वेत:-- श्वेत; श्रृड़वान्‌-- श्रृंगवान्‌; इति--इस प्रकार;त्रयः--तीन पर्वत; रम्यक--रम्यक; हिरण्मय--हिरण्मय; कुरूणाम्‌--कुरु खण्ड के; वर्षाणाम्‌--वर्षो में; मर्यादा-गिरय: --सीमा बताने वाले पर्वत; प्राकु-आयता:--पूर्व दिशा में फैले; उभयतः--पूर्व तथा पश्चिम की ओर; क्षारोद--लवण सागर;अवधय: --तक फैले हुए; द्वि-सहस्त्र-पृथवः--जो दो हजार योजन चौड़ा हैं; एक-एकश:--एक के बाद एक, क्रमशः;पूर्वस्मात्‌-प्रथम की अपेक्षा; पूर्वस्मात्‌ू-प्रथम की अपेक्षा; उत्तर:--और भी उत्तर; उत्तर:--और भी उत्तर; दश-अंश-अधिक-अंशेन--पहले वाले का दशमांश; दैर्घ्य:--लम्बाई में; एब--निस्सन्देह; हसन्ति--घटते ( छोटे होते ) जाते हैं।

    इलाबृत-वर्ष के सुदूर उत्तर में क्रमश: नील, श्वेत तथा श्रृंगवान्‌ नामक तीन पर्वत हैं।

    ये तीनोंरम्यक, हिरण्मय तथा कुरु इन तीन वर्षों की सीमा-रेखा बनाने वाले हैं और इनको एक दूसरे सेविभक्त करते वाले हैं।

    इन पर्वतों की चौड़ाई २,००० योजन ( १६,००० मील ) है।

    लम्बाई में येपूर्व से पश्चिम की ओर लवण सागर के तट तक विस्तृत हैं।

    दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ने परप्रत्येक पर्वत की लम्बाई अपने पूर्ववर्ती पर्वत की दशमांश होती जाती है, किन्तु इन सबकीऊँचाई एक सी रहती है।

    एवं दक्षिणेनेलावृतं निषधो हेमकूटो हिमालय इति प्रागायता यथा नीलादयोयुतयोजनोत्से धाहरिवर्षकिम्पुरुषभारतानां यथासड्ख्यम्‌ ॥

    ९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; दक्षिणेन--दक्षिण दिशा में; इलावृतम्‌--इलाबृत वर्ष के; निषध: हेम-कूटः हिमालय:--निषध, हेमकूटतथा हिमालय ये तीन पर्वत; इति--इस प्रकार; प्राकु-आयता: --पूर्व दिशा तक विस्तारित; यथा--जिस प्रकार; नील-आदयः--नील इत्यादि पर्वत; अयुत-योजन-उत्सेधा:--दस हजार योजन ऊँचा; हरि-वर्ष--हरिवर्ष नामक खण्ड; किम्पुरुष--किंपुरुष नामक खण्ड; भारतानाम्‌-- भारतवर्ष नामक खण्ड; यथा-सड्ख्यम्‌--संख्यानुसार, क्रमश: |

    इसी प्रकार, इलावृत-वर्ष के दक्षिण में तथा पूर्व से पश्चिम को फैले हुए तीन विशाल पर्वतहैं (उत्तर से दक्षिण को ) जिनके नाम हैं--निषध, हेमकूट तथा हिमालय।

    इनमें से प्रत्येक१०,००० योजन (८०,००० मील ) ऊँचा है।

    ये हरिवर्ष, किम्पुरुष-वर्ष तथा भारतवर्ष नामकतीन वर्षो की सीमाओं के सूचक हैं।

    तथेवेलावृतमपरेण पूर्वेण च माल्यवद्गन्थमादनावानीलनिषधायतौ द्विसहस्त्रं पप्रथतु: केतुमालभद्रा श्रयो:सीमानं विदधाते ॥

    १०॥

    तथा एव--उसके ही समान; इलावृतम्‌ अपरेण --इलावृत वर्ष के पश्चिम में; पूर्वेण च--और पूर्व दिशा में भी; माल्यवद्‌-गन्ध-मादनौ--पश्चिम में माल्यवान्‌ तथा पूर्व में गन्धमादन सीमा बनाने वाले पर्वत; आ-नील-निषध-आयतौ--उत्तर दिशा मेंनीलपर्वत तक और दक्षिण दिशा में निषध पर्वत तक; द्वि-सहस्त्रमू--दो हजार योजन; पप्रथतु:--फैले हुए हैं; केतुमाल-भद्राश्रयो:--केतुमाल तथ भद्राश्व इन दो वर्षों की; सीमानम्‌--सीमा; विद्धाते--स्थापना करते हैं।

    इसी प्रकार से इलाबृत-वर्ष के पूर्व तथा पश्चिम क्रमश माल्यवान्‌ और गन्धमादन नामक दोविशाल पर्वत हैं।

    ये दोनों २,००० योजन ( १६,००० मील ) ऊँचे हैं और उत्तर में नीलपर्वत तकतथा दक्षिण में निषध तक फैले हैं।

    ये इलावृत-वर्ष की और केतुमाल तथा भद्राश्व नामक वर्षोकी भी सीमाओं के सूचक हैं।

    मन्दरो मेरुमन्दरः सुपार्श्व: कुमुद इत्ययुतयोजनविस्तारोन्नाहा मेरो श्चतुर्दिशमवष्टम्भगिरय उपक्रिप्ता: ॥

    ११॥

    मन्दरः--मन्दर नामक पर्वत; मेरू-मन्दर:--मेरू-मन्दर पर्वत; सुपार्श्र:--सुपार्श्व पर्वत; कुमुदः --कुमुद पर्वत; इति--इस प्रकार;अयुत-योजन-विस्तार-उन्नाहा:--जिनकी ऊँचाई तथा चौड़ाई दस हजार योजन है; मेरो:--सुमेरु की; चतुः-दिशम्‌--चारोंदिशाएँ; अवष्टम्भ-गिरय:--पर्वत जो सुमेर॒ की मेखलाओं के सहश हैं; उपक्रिप्ता:--स्थित हैं

    सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्थ तथा कुमुद नामक चार पर्वत हैं,जो इसकी मेखलाओं के सहृश हैं।

    ये पर्वत १०,००० योजन ( ८०,००० मील ) ऊँचे तथा इतनेही चौड़े हैं।

    चतुर्ष्वेतेषु चूतजम्बूकदम्बन्यग्रोधा श्वत्वार: पादपप्रवरा: पर्वतकेतवइवाधिसहस्त्रयोजनोन्नाहास्तावद्विटपविततय: शतयोजनपरिणाहा: ॥

    १२॥

    चतुर्षु--चारों पर; एतेषु--मन्दर इत्यादि इन चारों पर; चूत-जम्बू-कदम्ब--आम, जामुन तथा कदम्ब जैसे वृक्ष; न्यग्रोधा:--(तथा ) बट वृक्ष; चत्वार:--चार प्रकार के; पादप-प्रवरा:--वृक्षों में श्रेष्ठ; पर्वत-केतव: --पर्वतों पर ध्वजाएँ; इब--सहृश;अधि--ऊपर; सहस्त्र-योजन-उन्नाहा:--एक हजार योजन ऊँचा; तावत्‌--इतना भी; विटप-विततयः--शाखाओं की लम्बाई;शत-योजन--एक सौ योजन; परिणाहा:--चौड़ी

    इन चारों पर्वतों की चोटियों पर ध्वजाओं के रूप में एक एक आगम्र, जामुन, कदम्ब तथावट वृक्ष हैं।

    इन वृक्षों का घेरा १०० योजन ( ८०० मील ) तथा ऊँचाई १९,९०० योजन ( ८,८००मील ) है।

    इनकी शाखाएँ १,१०० योजन की त्रिज्या में फैली हैं।

    हृदाश्चवत्वार: पयोमध्विश्लुरसमृष्ठटजला यदुपस्पर्शिन उपदेवगणा योगैश्वर्याणि स्वाभाविकानि भरतर्षभधारयन्ति; देवोद्यानानि च भवन्ति चत्वारि नन्दनं चेत्ररथं वैभ्राजकं सर्वतोभद्रमिति ॥

    १३-१४॥

    हृदाः--सरोवर; चत्वार: --चार; पय: --दुग्ध; मधु--शहद; इश्लु-रस--गन्ने का रस; मृष्ट-जला:--विशुद्ध जल से पूरित;यत्‌--जिसका; उपस्पशिन:--तरल पदार्थों का प्रयोग करनेवाले; उपदेव-गणा:--देवतागण; योग-ऐश्वर्याणि--योग की समस्तसिद्धियाँ; स्वाभाविकानि--सरलता से; भरत-ऋषभ--हे भरतवंश में श्रेष्ठ; धारयन्ति-- धारण करते हैं; देव-उद्यानानि--स्वर्गिकउद्यान; च-- भी; भवन्ति-- हैं; चत्वारि--चार; नन्दनम्‌--नन्दनवन; चैत्र-रथम्‌--चैत्ररथ उद्यान; वैश्राजकम्‌--वैशभ्राजक उद्यान;सर्वतः-भद्गम्‌--सर्वतोभद्ग उद्यान; इति--इस प्रकार

    भरतवंश में श्रेष्ठ, हे महाराज परीक्षित, इन चारों पर्वतों के मध्य में चार विशाल सरोवर हैं।

    इनमें से पहले का जल दुग्ध की तरह, दूसरे का मधु के सहश और तीसरे का इश्लुरस की भाँतिस्वादिष्ट है।

    चौथा सरोवर विशुद्ध जल से परिपूर्ण है।

    इन चारों सरोवरों की सुविधा का उपभोगसिद्ध, चारण तथा गन्धर्व जैसे अपार्थिव प्राणी, जिन्हें देवता भी कहा जाता है, करते हैं।

    'फलस्वरूप उन्हें योग की सहज सिद्द्धियाँ--यथा, सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर और से रूप धारण करनेकी शक्तियाँ--प्राप्त हैं।

    इसके अतिरिक्त चार देव-उद्यान भी हैं, जिनके नाम हैं--नन्दन,चैत्ररथ, वैभ्राजक तथा सर्वतोभद्र |

    दीर्घतरयेष्वमरपरिवृढा: सह सुरललनाललामयूथपतय उपदेवगणैरुपगीयमानमहिमान: किल विहरन्ति ॥

    १५॥

    येषु--जिनमें; अमर-परिवृढा: --सर्व श्रेष्ठ देवगण; सह--सहित; सुर-ललना--समस्त देवताओं तथा उपदेवताओं की पत्नियोंके; ललाम--आभूषण सहश उन स्त्रियों के; यूथ-पतय:--पतिगण; उपदेव-गणै: --उपदेवों ( गन्धर्वों ) के द्वारा; उपगीयमान--जिनकी स्तुति हो रही है; महिमान:--जिनका यश; किल--निश्चय ही; विहरन्ति--विहार करते हैं, क्रीड़ा करते हैं|

    इन उद्ानों में श्रेष्ठटम देवगण अपनी-अपनी सुन्दर पत्नियों के सहित जो स्वर्गिक सौन्दर्य केआशभृषणों जैसी हैं, एकत्र होकर आनन्द लेते हैं और गन्धर्व-जन उनके यश-गान करते हैं।

    मन्दरोत्सड़ एकादशशतयोजनोत्तुड्देवचूतशिरसो गिरिशिखरस्थूलानि फलान्यमृतकल्पानि पतन्ति ॥

    १६॥

    मन्दर-उत्सड़े--मन्दर पर्वत की निचली ढाल पर; एकादश-शत-योजन-उत्तुड्र-- १,१०० योजन ऊँचा; देवचूत-शिरस:--देवचूतनामक आप्रवृक्ष की चोटी से; गिरि-शिखर-स्थूलानि--जो पर्वताश्रृंगों के समान स्थूल हैं; फलानि--फल; अमृत-कल्पानि--अमृत की भाँति मधुर; पतन्ति--गिरते हैं।

    मन्दर पर्वत की निचली ढलान पर देवचूत नामक एक आ्रवृक्ष है, जिसकी ऊँचाई १,१०० योजन है।

    इस वृक्ष की चोटी से पर्वतश्ृंग जितने बड़े तथा अमृत तुल्य मधुर फल गिरते रहते हैंजिनका उपभोग दिव्य लोक के निवासी करते हैं।

    तेषां विशीर्यमाणानामतिमधुरसुरभिसुगन्धिबहुलारुणरसोदेनारुणोदा नाम नदीमन्दरगिरिशिखरान्निपतन्ती पूर्वेणेलावृतमुपप्लावयति ॥

    १७॥

    तेषामू--सभी आम्रफलों के ; विशीर्यमाणानाम्‌ू--चोटी से गिरकर फट जाने के कारण; अति-मधुर--अत्यन्त मीठी; सुरभि--महकने वाली; सुगन्धि--सुगन्धयुक्त; बहुल--प्रभूत मात्रा; अरूुण-रस-उदेन--लाल-लाल रस के द्वारा; अरुणोदा--अरुणोदा;नाम--नामक; नदी--सरिता; मन्दर-गिरि-शिखरात्‌--मन्दर पर्वत के शिखर से; निपतन्ती--गिरती हुई; पूर्वण--पूर्व दिशा में;इलावृतम्‌--इलावृत-वर्ष से होकर; उपप्लाववति--बहती है

    इतनी ऊँचाई से गिरने के कारण वे सभी आम्रफल फट जाते हैं और उनका मधुर, सुगन्धितरस बाहर निकल आता है।

    यह रस अन्य सुगन्धियों से मिलकर अत्यधिक सुरभित हो जाता है।

    यही रस पर्वत से झरनों में जाता है और अरुणोदा नामक नदी का रूप धारण कर लेता है जोइलावृत की पूर्व दिशा से होकर बहती है।

    यदुपजोषणाद्धवान्या अनुचरीणां पुण्यजनवधूनामवयवस्पर्शसुगन्धवातो दशयोजनंसमन्तादनुवासयति ॥

    १८॥

    यत्‌--जिसका; उपजोषणात्‌--सुगन्धित जल का प्रयोग करने से; भवान्या:-- भगवान्‌ शिव की पत्नी भवानी की;अनुचरीणाम्‌--अनुचरियों का; पुण्य-जन-वधूनामू--जो परम पवित्र यक्षों की पत्नियाँ हैं; अवयव--शरीर के अंगों के;स्पर्श--स्पर्श से; सुगन्‍्ध-बात:--सुरभित वायु; दश-योजनम्‌--दस योजन ( अस्सी मील ) तक; समन्तात्‌--चारों ओर;अनुवासयति--सुवासित करती है।

    यक्षों की पवित्र पत्तियाँ भगवान्‌ शंकर की अद्धांगिनी भवानी की अनुचरी हैं।

    अरुणोदानदी के जल का पान करने के कारण उनके शरीर सुगन्धित हो जाते हैं।

    वायु उनके शरीर कास्पर्श करके उस सुगन्धि से अस्सी मील तक चारों ओर के समस्त वायुमण्डल को सुरभित करदेती है।

    एवं जम्बूफलानामत्युच्यनिपातविशीर्णानामनस्थिप्रायाणामिभकायनिभानां रसेन जम्बू नाम नदीमेरुमन्दशिखरादयुतयोजनादवनितले निपतन्ती दक्षिणेनात्मानं यावदिलावृतमुपस्यन्दयति ॥

    १९॥

    एवम्‌--इसी प्रकार; जम्बू-फलानाम्‌--जामुन के फलों का; अति-उच्च-निपात--अत्यधिक ऊँचाई से गिरने के कारण;विशीर्णानाम्‌ू--खण्ड-खण्ड हो जाने से; अनस्थि-प्रायाणाम्‌--अत्यन्त लघु बीज होने के कारण; इभ-काय-निभानाम्‌--औरजो हाथी के शरीर के सहृश विशाल हैं; रसेन--रस के द्वारा; जम्बू नाम नदी--जम्बू नामक नदी; मेरू-मन्दर-शिखरात्‌-- मेरुमन्दर पर्वत के शिखर से; अयुत-योजनात्‌--दस हजार योजन ऊँची; अवनि-तले--पृथ्वी तल पर; निपतन्ती--गिरती हुई;दक्षिणेन--दक्षिण दिशा में; आत्मानम्‌--स्वयमेव; यावत्‌--सम्पूर्ण; इलावृतम्‌--इलावृतवर्ष से; उपस्यन्दयति--होकर बहतीहै

    इसी प्रकार रस से भरे और अत्यन्त छोटी गुठली वाले जामुन के फल अत्यधिक ऊँचाई सेगिरकर खण्ड-खण्ड हो जाते हैं।

    ये फल हाथी जैसे आकार वाले होते हैं और इनका रस बहकरजम्बूनदी का रूप धारण कर लेता है।

    यह नदी इलावृत के दक्षिण में मेरुूमन्दर की चोटी से दसहजार योजन नीचे गिरकर समस्त इलावृत भूखण्ड को रस से आप्लावित करती है।

    तावदुभयोरपि रोधसोर्या मृत्तिका तद्रसेनानुविध्यमाना वाय्वर्कसंयोगविपाकेन सदामरलोकाभरणंजाम्बूनदं नाम सुवर्ण भवति; यदु ह वाव विबुधादयः सह युवतिभिर्मुकुटकटककटिसूत्राद्याभरणरूपेणखलु धारयन्ति ॥

    २०-२१॥

    तावत्‌--सर्वथा; उभयो: अपि--दोनों का; रोधसो: --तटों का; या--जो; मृत्तिका--कीचड़; तत्‌-रसेन--नदी में बहने वालेजम्बू फलों के रस से; अनुविध्यमाना--संपृक्त होकर; वायु-अर्क-संयोग-विपाकेन-- वायु तथा धूप की रासायनिक क्रिया के'फलस्वरूप; सदा--सदैव; अमर-लोक-आभरणम्‌--जो स्वर्गलोक में निवास करने वाले देवताओं के आभूषणों के लिए प्रयुक्तहोता है; जाम्बू-नदम्‌ नाम--जाम्बूनद नामक; सुवर्णम्‌--स्वर्ण; भवति--बन जाता है; यत्‌--जो; उ ह वाव--निस्सन्देह;विबुध-आदय:--देवता आदि; सह--साथ; युवतिभि:--अपनी युवा पत्नियों के; मुकुट--मुकुट; कटक--चूड़ियाँ; कटि-सूत्र--करधनी; आदि--इत्यादि; आभरण--सभी प्रकार के आभूषणों के; रूपेण--रूप में; खलु--निश्चय ही; धारयन्ति--धारण करती हैं।

    जम्बू नदी के दोनों तटों का कीचड़ जामुनफल के बहते हुए रस से सिक्त होकर और फिरवायु तथा सूर्य प्रकाश के कारण सूख कर जाम्बू-नद नामक स्वर्ण की प्रचुर मात्रा उत्पन्न करताहै।

    स्वर्ग के निवासी इस स्वर्ण का उपयोग विविध आभूषणों के लिए करते हैं।

    फलतःस्वर्गलोक के सभी निवासी एवं उनकी तरुण पत्रियाँ स्वर्ण के मुकुटों, चूड़ियों तथा करधनियोंसे आभूषित रहती हैं।

    इस प्रकार वे सब जीवन का आनन्द लेते हैं।

    यस्तु महाकदम्ब: सुपार्शवनिरूढो यास्तस्य कोटरेभ्यो विनिःसृता: पदञ्णञायामपरिणाहा: पञ्ञ मधुधारा:सुपार्श्शिखरात्पतन्त्योपरेणात्मानमिलावृतमनुमोदयन्ति ॥

    २२॥

    यः--जो; तु--किन्तु; महा-कदम्ब:--महाकदम्ब नामक वृक्ष; सुपार्थ-निरूढ:--जो सुपार्श्व पर्वत की बगल में खड़ा हुआ है;या:--जो; तस्य--उसका; कोटरेभ्य:--कोटर से; विनिःसृता:--प्रवाहित; पशञ्ञ-पाँच; आयाम--व्याम, आठ फुट की माप;'परिणाहा:--जिसकी माप; पशञ्च--पाँच; मधु-धारा:--मधु की धाराएँ; सुपार्थ-शिखरात्‌--सुपार्श्व पर्वत की चोटी से;पतन्त्य:--गिर रही हैं; अपरेण--सुमेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में; आत्मानमू--समग्र; इलावृतम्‌--इलावृत वर्ष को;अनुमोदयन्ति--सुरभित करती हैं|

    सुपार्थ पर्वत की बगल में महाकदम्ब नामक अत्यन्त प्रसिद्ध विशाल वृक्ष खड़ा है।

    इस वृक्षके कोटर से मधु की पाँच नदियाँ निकलती हैं जिनमें से प्रत्येक लगभग पाँच 'व्याम ' चौड़ी है।

    यह प्रवहमान मधु सुपार्श पर्वत की चोटी से सतत नीचे गिरता रहता है और इलावृत-वर्ष की पश्चिम दिशा से प्रारम्भ होकर उसके चारों ओर बहता रहता है।

    इस प्रकार सम्पूर्ण स्थल सुहावनीगंध से पूरित है।

    या ह्पयुझ्जानानां मुखनिर्वासितो वायु: समन्ताच्छतयोजनमनुवासयति ॥

    २३॥

    या:--जो ( वे मधु धाराएँ ); हि--निस्सन्देह; उपयुज्ञानानामू--पान करने वालों के; मुख-निर्वासितः वायु:--मुखों सेनिष्कासित वायु; समन्तात्‌--चतुर्दिक्‌; शत-योजनम्‌--एक सौ योजन तक ( आठ सौ मील ); अनुवासयति--सुगन्धित बनादेती है

    इस मधु को पीने वालों के मुख से निकली वायु चारों ओर सौ योजन तक के भूभाग कोसुगन्धित बना देती है।

    एवं कुमुदनिरूढो य: शतवल्शो नाम वटस्तस्य स्कन्धेभ्यो नीचीना:'पयोदधिमधुघृतगुडान्नाद्यम्बरशय्यासनाभरणादय: सर्व एवं कामदुघा नदाःकुमुदाग्रात्पतन्तस्तमुत्तेणेलावृतमुपयोजयन्ति, ॥

    २४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कुमुद-निरूढ:--कुमुद पर्वत पर उगा हुआ; य:--वह; शत-वल्शः नाम--शतवल्श नामक वृक्ष ( एक सौतने होने के कारण ); वट:--वट-वृशक्ष; तस्य--उसके ; स्कन्धे भ्य:--मोटी-मोटी शाखाओं से; नीचीना:--नीचे गिरकर; पय:--दुग्ध; दधि--दही; मधु--शहद; घृत--घी; गुड--गुड़; अन्न--अनाज; आदि--हत्यादि; अम्बर--वस्त्र; शय्या--बिस्तर;आसन--बैठने का स्थान; आभरण-आदय:-- आभूषणों आदि से युक्त; सर्वे--सब कुछ, प्रत्येक वस्तु; एब--निश्चय ही; काम-दुघा:--समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली; नदा:--बड़ी नदियाँ; कुमुद-अग्रात्‌--कुमुद पर्वत की चोटी से; पतन्तः--गिरकर, बहकर; तम्‌ू--उस तक; उत्तरेण--उत्तर दिशा में; इलावृतम्‌--इलावृत वर्ष में; उपयोजयन्ति--सुखी बनाती हैं।

    इसी प्रकार कुमुद पर्वत के ऊपर एक विशाल वट वृक्ष है, जो एक सौ प्रमुख शाखाओं केकारण शतवल्श कहलाता है।

    इन शाखाओं से अनेक जड़ें निकली हुई हैं, जिनमें से अनेकनदियाँ बहती हैं।

    ये नदियाँ इलावृत-वर्ष की उत्तर दिशा में स्थित पर्वत की चोटी से नीचे बहकरवहाँ के निवासियों को लाभ पहुँचाती हैं।

    इन नदियों के फलस्वरूप लोगों के पास दूध, दही,शहद, घी, राब, अन्न, वस्त्र, बिस्तर, आसन तथा आभूषण हैं।

    उनकी समृद्धि के लिए उन्हें जोभी पदार्थ चाहिए वे सब उपलब्ध हैं, जिससे वे सभी अत्यन्त सुखी हैं।

    यानुपजुषाणानां न कदाचिदपि प्रजानांवलीपलितक्लमस्वेददौर्गन्ध्यजरामयपृत्युशीतोष्णवैवण्योपसर्गादयस्तापविशेषा भवन्ति यावज्जीवं सुखंनिरतिशयमेव ॥

    २५॥

    यान्‌--जो ( उपर्युक्त नदियों से उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थ ); उपजुषाणानाम्‌-पूर्णरूप से उपभोग करने वाले पुरुषों का;न--नहीं; कदाचित्‌--किसी भी समय; अपि--निश्चय ही; प्रजानाम्‌ू--प्रजा की; वली--झुर्रियाँ; पलित--पके केश; क्लम--थकान; स्वेद--पसीना; दौर्गन्ध्य--पसीने के कारण दुर्गध; जरा--बुढ़ापा; आमय--रोग; मृत्यु--असामयिक मृत्यु; शीत--कड़ाके की सर्दी; उष्ण--दाहक, गर्मी; वैवर्ण्य--शरीर की कान्ति का धूमिल पड़ना, विवर्णता; उपसर्ग--क्लेश; आदय:--इत्यादि; ताप--दुखों का; विशेषा: --किस्में, प्रकार; भवन्ति-- हैं; यावत्‌--जब तक; जीवम्‌-- जीवन; सुखम्‌--सुख;निरतिशयम्‌--अपार, सीमाहीन; एव--केवल

    इस भौतिक जगत के वासी जो इन बहती नदियों से प्राप्त पदार्थों का सेवन करते हैं, उनकेशरीर में न तो झुर्रियाँ पड़ती हैं और न उनके केश सफेद होते हैं।

    न तो उन्हें थकान का अनुभवहोता है और न उसके पसीने से उनके शरीर से दुर्गन्‍्ध ही आती है।

    उन्हें बुढ़ापा, रोग याआसामयिक मृत्यु नहीं सताती है न ही वे कड़ाके की सर्दी अथवा झुलसती गर्मी से दुखी होते हैंऔर न ही उनके शरीर की कान्ति लुप्त होती है।

    वे सभी मृत्युपर्यन्त चिन्ताओं से मुक्त सुखपूर्वकजीवन व्यतीत करते हैं।

    कुरड्ढकुररकुसुम्भवैकड्डत्रिकूटशिशिरपतड्ररूुचकनिषधशिनीवासकपिलशड्डुवैदूर्यजारुधिहंसऋषभनागकलञ्जरनारदादयो विंशतिगिरयो मेरो