श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 5

  • अध्याय एक: महाराज प्रियव्रत की गतिविधियाँ

  • अध्याय दो: महाराज आग्नीध्र की गतिविधियाँ

  • अध्याय तीन: ऋषभदेव का राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से प्रकट होना

  • अध्याय चार: भगवान ऋषभदेव के लक्षण

  • अध्याय पाँच: भगवान ऋषभदेव की अपने पुत्रों को शिक्षाएँ

  • अध्याय छह: भगवान ऋषभदेव की गतिविधियाँ

  • अध्याय सात: राजा भरत की गतिविधियाँ

  • अध्याय आठ: भरत महाराज के चरित्र का वर्णन

  • अध्याय नौ: जड भरत का सर्वोच्च चरित्र

  • अध्याय दस: जड़ भरत और महाराज राहुगण के बीच चर्चा

  • अध्याय ग्यारह: जड़ भरत ने राजा रहूगण को निर्देश दिया

  • अध्याय बारह: महाराज राहुगण और जड़ भरत के बीच बातचीत

  • अध्याय तेरह: राजा राहुगण और जड़ भरत के बीच आगे की बातचीत

  • अध्याय चौदह: भौतिक संसार आनंद के महान वन के रूप में

  • अध्याय पन्द्रह: राजा प्रियव्रत के वंशजों की महिमा

  • अध्याय सोलह: जम्बूद्वीप का विवरण

  • अध्याय सत्रह: गंगा नदी का अवतरण

  • अध्याय अठारह: जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान को की गई प्रार्थनाएँ

  • अध्याय उन्नीस: जम्बूद्वीप का विवरण

  • अध्याय बीस: ब्रह्मांड की संरचना का अध्ययन

  • अध्याय इक्कीसवाँ: सूर्य की गति

  • अध्याय बाईसवां: ग्रहों की कक्षाएँ

  • अध्याय तेईसवाँ: शिशुमार ग्रह प्रणाली

  • अध्याय चौबीस: भूमिगत स्वर्गीय ग्रह

  • अध्याय पच्चीसवाँ: भगवान अनंत की महिमा

  • अध्याय छब्बीसवाँ: नारकीय ग्रहों का विवरण

    अध्याय एक: महाराज प्रियव्रत की गतिविधियाँ

    5.1राजोबाचप्रियत्रतो भागवत आत्माराम: कथं मुने ।गृहेरमत यन्मूल: कर्मबन्ध: पराभव: ॥ १॥

    राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; प्रिय-ब्रत:ः--राजा प्रियत्रत; भागवत:--परमभक्त; आत्म-आराम:--आत्म-साक्षात्कार मेंरुचि रखनेवाला; कथम्‌--क्यों; मुने--हे मुनि; गृहे--घर पर; अरमत-- भोग किया; यत्‌-मूल:--जिसे मूल कारण मानते हुए;कर्म-बन्ध:--सकाम कर्मों का बन्धन; पराभव: --उद्देश्य की पराजय ?

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे मुनिवरपरम आत्मदर्शी भगवद्भक्त राजाप्रियत्रत ने ऐसे गृहस्थ जीवन में रहना क्‍यों पसन्द किया, जो कर्म-बन्धन ( सकाम कर्म ) कामूल कारण तथा मानव जीवन के उद्देश्य को पराजित करने वाला है ?

    न नून॑ मुक्तसड़नां ताहशानां द्विजर्षभ ।ग्हेष्वभिनिवेशोयं पुंसां भवितुमहति ॥

    २॥

    न--नहीं; नूनम्‌--निश्चय ही; मुक्त-सड्जनाम्‌-विरक्त; ताहशानाम्‌--ऐसे; द्विज-ऋषभ-हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, विप्रवर; गृहेषु --गृहस्थ जीवन में; अभिनिवेश:--अत्यधिक अनुरक्ति; अयम्‌--यह; पुंसाम्‌ू--मनुष्यों का; भवितुम्‌--होना; अरहति--सम्भव है।

    भक्त-जन निश्चय ही मुक्त पुरुष होते हैं।

    अतः हे विप्रवर, वे सम्भवतः गृहकार्यों में दत्तचित्तनहीं रह सकते।

    महतां खलु विप्रर्षे उत्तमश्लोकपादयो: ।

    छायानिर्वृतचित्तानां न कुट॒ुम्बे स्पृहामति: ॥

    ३॥

    महताम्‌--परम भक्तों की; खलु--निश्चय ही; विप्र-ऋषे--हे विप्रों में ऋषि; उत्तम-शलोक-पादयो:-- भगवान्‌ के चरणकमलोंकी; छाया--छाया से; निर्वृत--तृप्त; चित्तानामू--जिनकी चेतना; न--नहीं; कुट॒म्बे--पारिवारिक सदस्यों पर; स्पृहा-मति: --आसक्ति सहित चेतना।

    जिन सिद्ध महात्माओं ने भगवान्‌ के चरणकमलों की शरण ली है वे उन चरणकमलों कीछाया से पूर्णतया तृप्त हैं।

    उनकी चेतना कभी भी कुट॒म्बीजनों में आसक्त नहीं हो सकती।

    संशयोउयं महान्ब्रह्मन्दारागारसुतादिषु ।

    सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ॥

    ४॥

    संशय: --सन्देह; अयम्‌--यह; महान्‌ू--महान्‌; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; दार--स्त्री; आगार--घर; सुत-- बच्चे; आदिषु--इत्यादि केप्रति; सक्तस्थ--अनुरक्त पुरुष का; यत्‌--क्योकिं; सिद्द्धि:--सिद्धि; अभूत्‌--हो गया; कृष्णे-- श्रीकृष्ण में; च-- भी; मति:--आसक्ति; अच्युता--अविचल।

    राजा ने आगे पूछा, हे विप्रवर, मेरा सबसे बड़ा सन्देह यही है कि राजा प्रियव्रत जैसे व्यक्तिके लिए, जो अपनी पत्नी, सन्‍्तान तथा घर के प्रति इतने आसक्त थे, कृष्ण-भक्ति में सर्वोच्चअविचल सिद्धि प्राप्त कर पाना कैसे सम्भव हो सका?

    श्रीशुक उवाचबाढमुक्त भगवत उत्तमश्लोकस्य श्रीमच्चरणारविन्दमकरन्दरस आवेशितचेतसो ।

    भागवतरमहंसदयितकथां किझ्ञिदन्तरायविहतां स्वां शिवतमां पदवीं न प्रायेण हिन्वन्ति ॥

    ५॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले; बाढ्म्‌--ठीक; उक्तम्‌--आपने जो कहा; भगवत:-- भगवान्‌ का; उत्तम-श्लोकस्य--जिनकी प्रशंसा उत्तम एलोकों से की जाती है; श्रीमत्‌-चरण-अरविन्द--अत्यन्त सुन्दर सुरभित कमल पुष्पों केसमान चरणों का; मकरन्द--मधु; रसे-- अमृत में; आवेशित--डुबोया हुआ, सराबोर; चेतस:--जिनके हृदय; भागवत--भक्तोंकी; परमहंस--मुक्त पुरुष; दयित--रुचिकर, मनोहारी; कथाम्‌--यशोगान; किश्जित्‌ू--क भी-क भी; अन्तराय--अवरोधों से;विहताम्‌-- अवरुद्ध; स्वाम्‌-- अपने; शिव-तमाम्‌--अत्यन्त शुभ; पदवीम्‌--पद को; न--नहीं; प्रायेण -- प्राय: ; हिन्वन्ति--त्यागते हैं।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--तुम्हारा कथन सही है।

    ब्रह्मा के समान सिद्ध पुरुषों के द्वारादिव्य एलोकों से प्रशंसित भगवान्‌ की कीर्ति परम भक्तों तथा मुक्त पुरुषों के लिए अत्यन्तमनोहारी है।

    जो भगवान्‌ के चरणकमलों के अमृततुल्य मधु में अनुरक्त है तथा जिसका मनसदैव उनकी कीर्ति में लीन रहता है, वह भले ही कभी कभी किसी बाधा से रुक जाये, किन्तुजिस परम पद को उसने प्राप्त किया है उसे वह कभी नहीं छोड़ता।

    यहिं वाव ह राजन्स राजपुत्र: प्रियत्रतः परमभागवतो नारदस्य चरणोपसेवयाझ्जसावगतपरमार्थसतत्त्वोब्रह्मसत्रेण ।

    दीक्षिष्यमाणोवनितलपरिपालनायाम्नातप्रवरगुणगणैकान्तभाजनतया स्वपित्रोपामन्द्रितोभगवति वासुदेव एवाव्यवधानसमाधियोगेन ।

    समावेशितसकलकारकक्रियाकलापो नैवाभ्यनन्दद्यद्यपि'तदप्रत्याम्नातव्यं तदधिकरण आत्मनो न्यस्मादसतोपि पराभवमन्वीक्षमाण: ॥

    ६॥

    यहि--चूँकि, क्योंकि; वाव ह--निस्संदेह; राजन्‌ू--हे राजन्‌; सः--वह; राज-पुत्र:--राजकुमार; प्रियव्रत:--प्रियत्रत; परम--महान; भागवतः -- भक्त; नारदस्य-- नारद के; चरण-- चरणकमल की; उपसेवया--सेवा से; अज्लसा--शीघ्र; अवगत--परिचित हो गया; परम-अर्थ--दिव्य विषय; स-तत्त्व:--समस्त ज्ञेय तथ्यों सहित; ब्रह्म-सत्रेण--ब्रह्म की निरन्तर चर्चा से;दीक्षिष्यमाण: --पूर्ण समर्पण की कामना से; अवनि-तल--भूतल पर; परिपालनाय--राज्य करने के लिए; आम्नात--शाम्त्तरों मेंनिर्दिष्ट; प्रवर--सर्वोच्च; गुण--गुणों के; गण--समूह से; एकान्त--विचलित हुए बिना, अविचल; भाजनतया--पात्रता केकारण; स्व-पित्रा--अपने पिता के द्वारा; उपामन्त्रित:--आज्ञा दिये जाने पर; भगवति-- भगवान्‌ में; वासुदेवे --सर्वव्यापी ईश्वरमें; एब--निश्चय ही; अव्यवधान--बिना विराम के; समाधि-योगेन--मग्न होकर योग साधने से; समावेशित-- अत्यन्त समर्पित;सकल--समस्त; कारक --इन्द्रियाँ; क्रिया-कलाप:--जिनके समस्त कार्य; न--नहीं; एव--इस प्रकार; अभ्यनन्दत्‌--अभिनन्दित; यद्यपि--यद्यपि; तत्‌--वह; अप्रत्याम्नातव्यमू--किसी प्रकार उल्लंघन न करने योग्य; तत्‌ू-अधिकरणे--उस पदको ग्रहण करने में; आत्मन:--अपने आपको; अन्यस्मात्‌--अन्य कार्यों से; असत:ः--भौतिक; अपि--निश्चय ही; पराभवम्‌--हास; अन्वीक्षमाण:--दूरदर्शिता से |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजन, राजकुमार प्रियत्रत महान्‌ भक्त थे क्‍योंकिउन्होंने अपने गुरु नारद के चरणकमलों को प्राप्त कर दिव्य ज्ञान में उच्चतम सिद्धि प्राप्त की।

    परम ज्ञान के कारण वे आत्म-विषयों की चर्चा में सदैव संलग्न रहे और उन्होंने अपना ध्यानकिसी ओर नहीं मोड़ा।

    इसके बाद राजकुमार के पिता ने आदेश दिया कि वह संसार पर राज्यकरने का भार ग्रहण करे।

    उन्होंने प्रियत्रत को आश्वस्त करना चाहा कि शास्त्रों के अनुसार यहउसका कर्तव्य है, किन्तु प्रियत्रत ने तो निरन्तर भक्तियोग की साधना में रत रह कर भगवान्‌ कास्मरण करते हुए समस्त इन्द्रियों को ईश्वर की सेवा में अर्पित कर रखा था।

    अतः पिता की आज्ञाअनुलंघ्य होने पर भी राजकुमार ने उसका स्वागत नहीं किया।

    इस प्रकार उन्होंने अपनेअन्तःकरण में यह प्रश्न किया कि संसार पर राज्य करने के उत्तरदायित्व को स्वीकार करकेकहीं वे अपनी भक्ति से पराड्मुख तो नहीं हो जायेंगे ?

    अथ ह भगवानादिदेव एतस्य गुणविसर्गस्य परिबृंहणानुध्यानव्यवसित।

    सकलजगदभिप्रायआत्मयोनिरखिलनिगमनिजगणपरिवेष्टित: स्वभवनादवततार ॥

    ७॥

    अथ--इस प्रकार; ह--निस्संदेह; भगवान्‌ू--सर्वशक्तिमान; आदि-देव:--प्रथम देवता; एतस्य--इस ब्रह्माण्ड के; गुण-विसर्गस्य--तीनों गुणों की उत्पत्ति; परिबृंहण--कल्याण; अनुध्यान--सदैव ध्यानमग्न; व्यवसित--ज्ञात; सकल--सप्पूर्ण;जगतू--ब्रह्मण्ड का; अभिप्राय: --परम उद्देश्य; आत्म--परम-आत्मा; योनि:--जिसके जन्म का स्त्रोत; अखिल--ससम्पूर्ण;निगम--वेदों के द्वारा; निज-गण--अपने गणों ( सहयोगियों ) से; परिवेष्टित: --घिरे हुए; स्व-भवनात्‌-- अपने धाम से;अवततार--नीचे आये |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोले: इस ब्रह्माण्ड के आदि जीव एवं सर्वशक्तिमान देवताब्रह्माजी हैं, जो इस सृष्टि की समस्त गतिविधियों के विकास के लिए उत्तरदायी हैं।

    भगवान्‌ सेप्रत्यक्ष जन्म लेकर वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के हित को ध्यान में रखते हुए कार्य करते हैं, क्योंकि वेसृष्टि का उद्देश्य जानते हैं।

    ऐसे परम शक्तिशाली देवता ब्रह्माजी अपने पार्षदों तथा मूर्तिमान वेदोंसहित अपने सर्वोच्च लोक से उस स्थान पर उतरे जहाँ राजकुमार प्रियव्रत ध्यान कर रहे थे।

    स तत्र तत्र गगनतल उडुपतिरिव विमानावलिभिरनुपथममरपरिवृढैरभिपूज्यमान: ।

    पथि पथि च वरूथशःसिद्धगन्धर्वसाध्यचारणमुनिगणैरुपगीयमानो गन्धमादनद्रोणीमवभासयन्नुपससर्प ॥

    ८ ॥

    सः--वह ( भगवान्‌ ब्रह्मा ); तत्र तत्र--यहाँ वहाँ; गगन-तले-- आकाश मंडप के नीचे; उडु-पतिः--चन्द्रमा; इब--सहश;विमान-आवलिभि:--अपने-अपने विमानों में; अनुपथम्‌--पथ में; अमर--देवताओं के ; परिवृढः:--नायकों द्वारा;अभिपूज्यमान: --पूजित होकर; पथ्िि पथि--एक के बाद एक पथ पर; च-- भी; वरूथश:ः --समूहों में; सिद्ध--सिद्धलोक केवासियों द्वारा; गन्धर्व--गन्धर्वलोक के वासियों द्वारा; साध्य--साध्यलोक के वासियों द्वारा; चारण--चारणलोक के वासियोंद्वारा; मुनि-गणैः--तथा मुनियों के द्वारा; उपगीयमान:--पूजित होकर; गन्ध-मादन--उस लोक का जहाँ गंधमादन पर्वत है;द्रोणीमू--घाटी या किनारे को; अवभासयन्‌-- प्रकाशित करते हुए; उपससर्प--पहुँचा |

    ज्योंही भगवान्‌ ब्रह्म अपने वाहन हंस पर आरूढ होकर नीचे उतरे, तो सिद्धलोक,गंधर्वलोक, साध्यलोक तथा चारणलोक के समस्त वासी तथा मुनि एवं अपने-अपने विमानों मेंउड़ते हुए देवताओं ने आकाशमण्डल के नीचे एकत्र होकर उनका स्वागत किया और पूजा की।

    विभिन्न लोकों के वासियों से आदर तथा स्तवन पाकर भगवान्‌ ब्रह्मा ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानोंप्रकाशमान नक्षत्रों से घिरा हुआ पूर्ण चन्द्रमा हो।

    तब ब्रह्माजी का विशाल हंस गंधमादन कीघाटी में प्रियत्रत के पास पहुँचा जहाँ वे बैठे हुए थे।

    तत्र ह वा एन॑ देवर्षिहेसयानेन पितरं भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपलभमान: ।

    सहसैवोत्थायाईहणेन सहपितापुत्राभ्यामवहिताझ्जलिरुपतस्थे ॥

    ९॥

    तत्र--वहाँ; ह वा--निश्चय ही; एनम्‌--उसको; देव-ऋषि:--देवर्षि नारद; हंस-यानेन-- अपने वाहन हंस द्वारा; पितरमू-- अपनेपिता; भगवन्तम्‌ू--सर्वशक्तिमान; हिरण्य-गर्भमू-- भगवान्‌ ब्रह्म को; उपलभमान:--समझकर; सहसा एव--तुरन्त; उत्थाय--उठ कर; अर्हणेन-- पूजन-सामग्री; सह--सहित; पिता-पुत्राभ्याम्‌-प्रियत्रत तथा उनके पिता स्वायंभुव मनु; अवहित-अज्जलि:ः--आदरपूर्वक हाथ जोड़कर; उपतस्थे-- अर्चना की |

    नारद मुनि के पिता भगवान्‌ ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं।

    नारद ने ज्योंही विशालहंस को देखा, वे तुरन्त समझ गये कि ब्रह्माजी आए हैं, अतः वे स्वायंभुव मनु तथा अपने द्वाराउपदेश दिये जाने वाले उनके पुत्र प्रियत्रत सहित अविलम्ब खड़े हो गये।

    तब उन्होंने हाथजोड़कर आदरपूर्वक भगवान्‌ की आराधना प्रारम्भ की।

    भगवानपि भारत तदुपनीताईएण: सूक्तवाकेनातितरामुदितगुणगणावतारसुजय: ।

    प्रियत्रतमादिपुरुषस्तंसदयहासावलोक इति होवाच ॥

    १०॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌ ब्रह्मा; अपि-- भी; भारत--हे राजा परीक्षित; तत्‌--उनके द्वारा; उपनीत--आगे लायी गयी; अर्हण: --पूजन-सामग्री; सूक्त--वैदिक शिष्टाचार के अनुसार; वाकेन--वाणी से; अतितराम्‌ू-- अत्यधिक; उदित-- प्रशंसित; गुण-गण--गुणसमूह; अवतार--नीचे उतरने के कारण; सु-जय:--जिसकी कीर्ति; प्रियत्रतम्‌--प्रियत्रत को; आदि-पुरुष: --आदिपुरुष; तम्‌--उनको; स-दय--दयापूर्वक; हास--हँसते हुए; अवलोक:--जिनकी दृष्टि; इति--इस प्रकार; ह--निश्चय ही;उवाच--कहा।

    हे राजा परीक्षित, चूँकि ब्रह्माजी सत्यलोक से भूलोक में उतर चुके थे, अतः नारद मुनि,राजकुमार प्रियत्रत तथा स्वायंभुव मनु ने आगे बढ़कर पूजन सामग्री अर्पित की और वैदिकविधि के अनुसार अत्यन्त शिष्ट वाणी से उनकी प्रशंसा की।

    तब इस ब्रह्माण्ड के प्रथम पुरुषब्रह्मा प्रियत्रत पर सदय मन्द मुस्कान-युक्त दृष्टि डालते हुए उनसे इस प्रकार बोले।

    श्रीभगवानुवाचनिबोध तातेदमृतं ब्रवीमिमासूयितु देवमर्हस्यप्रमेयम्‌ ।

    बयं भवस्ते तत एष महर्षि-वहाम सर्वे विवशा यस्य दिष्टम्‌ ॥

    ११॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच--परम पुरुष ब्रह्मा ने कहा; निबोध--ध्यानपूर्वक सुनो; तात--मेरे प्रिय पुत्र; इदम्‌--यह; ऋतम्‌--सत्य;ब्रवीमि--बोल रहा हूँ; मा--मत; असूचितुम्‌--ईर्ष्यालु; देवम्‌-- भगवान्‌; अहसि--तुम्हें चाहिए; अप्रमेयम्‌--जो हमारेप्रयोगात्मक ज्ञान से परे है; वयम्‌--हम; भव:--शिवजी; ते--तुम्हारा; ततः--पिता; एष:--यह; महा-ऋषि:--नारद;वहाम:ः--पालन करते हैं; सर्वे--सभी; विवशा:--विचलित होने में अशक्त; यस्य--जिसकी; दिष्टमू-- आज्ञा?

    इस ब्रह्माण्ड के परम पुरुष भगवान्‌ ब्रह्मा ने कहा--हे प्रियत्रतमैं जो कुछ कहूँ उसे ध्यान से सुनो।

    परमेश्वर से ईर्ष्या न करो क्योंकि वे हमारे प्रयोगात्मक परिमापों से परे हैं।

    हम सबों को,जिसमें शिवजी, तुम्हारे पिता तथा महर्षि नारद भी सम्मिलित हैं, परमेश्वर की आज्ञा का पालनकरना पड़ता है।

    हम उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते।

    न तस्य कश्_ित्तपसा विद्यया वान योगवीर्येण मनीषया वा ।

    नैवार्थधर्म: परत: स्वतो वाकृतं विहन्तुं तनुभृद्विभूयात्‌ ॥

    १२॥

    न--कभी नहीं; तस्थ--उसका; कश्चित्‌ू--कोई भी; तपसा--तप से; विद्यया--विद्या से; वा--अथवा; न--कभी नहीं;योग--योगबल से; वीर्येण--शारीरिक बल से; मनीषया--बुद्धि से; वा--अथवा; न--कभी नहीं; एब--निश्चय ही; अर्थ--भौतिक ऐश्वर्य से; धर्म: -- धर्म से; परतः--किसी बाह्य शक्ति से; स्वतः--अपने प्रयास से; वा-- अथवा; कृतम्‌--आज्ञा;विहन्तुमू--टालने में; तनु-भृत्‌-- भौतिक देह स्वीकार करने वाला जीवात्मा; विभूयात्‌--समर्थ है?

    भगवान्‌ की आज्ञा को कोई न तो तपोबल, वैदिक शिक्षा, योगबल, शारीरिक बल याबुद्धिबल से टाल सकता है, न ही कोई अपने धर्म की शक्ति या भौतिक ऐश्वर्य से अथवा किसीअन्य उपाय से, न स्वयं या न पराई सहायता से परमात्मा के आदेशों को चुनौती दे सकता है।

    ब्रह्मा से लेकर एक चींटी तक, किसी भी जीवात्मा के लिए ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है।

    भवाय नाशाय च कर्म कर्तुशोकाय मोहाय सदा भयाय ।

    सुखाय दुःखाय च देहयोग-मव्यक्तदिष्ट जनताड़ धत्ते ॥

    १३॥

    भवाय--जन्म के निमित्त; नाशाय--मृत्यु के लिए; च--भी; कर्म--कार्य ; कर्तुमू--करने के लिए; शोकाय--शोक के लिए;मोहाय--मोह के लिए; सदा--सदैव; भयाय--भय के लिए; सुखाय--सुख हेतु; दुःखाय--दुख हेतु; च-- भी; देह-योगम्‌--भौतिक देह से सम्बन्ध; अव्यक्त-- भगवान्‌ द्वारा; दिष्टम--निर्देशित; जनता--जीवात्माएँ; अड़--हे प्रियत्रत; धत्ते-- धारणकरती हैं।

    हे प्रियत्रत, भगवान्‌ की आज्ञा से ही सभी जीवात्माएँ जन्म, मृत्यु, कर्म, शोक, मोह, भविष्यके संकटों के प्रति भय, सुख तथा दुख के हेतु विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करती हैं।

    यद्वाचि तन्त्यां गुणकर्मदामभि:सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिता: ।

    सर्वे वहामो बलिमी श्वरायप्रोता नसीब द्विपदे चतुष्पद: ॥

    १४॥

    यत्‌--जिसका; वाचि--वैदिक आदेश के रूप में; तन्त्याम्‌--लम्बी रस्सी से; गुण--गुण; कर्म--( तथा ) कर्म की; दामभि:--रस्सियों से; सु-दुस्तरः--टाल पाना अत्यन्त कठिन है; वत्स--हे बालक; वयम्‌--हम; सु-योजिता:--लगे हुए हैं; सर्वे--सभी;वहामः--पालन करते हैं; बलिम्‌--ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए उनकी आज्ञाओं को; ईश्वराय-- भगवान्‌ को; प्रोता:--बद्धहोकर; नसि--नाक में; इब--सहश; द्वि-पदे--दो पैर वाले ( हाँकने वाले ) को; चतु:-पदः--चौपाया ( बैल )॥

    हे बालक, हम सभी अपने गुण तथा कर्म के अनुसार वैदिक आज्ञा द्वारा वर्णाअ्रम विभागोंमें बँधे हुए हैं।

    इन विभागों से बच पाना कठिन है, क्योंकि ये वैज्ञानिक विधि से व्यवस्थित हैं।

    अतः हमें वर्णा श्रम धर्म के कर्तव्यों का पालन उन बैलों के समान करना चाहिए जो नाक में बँधीनकेल खींचने वाले चालक के आदेश पर चलने के लिए बाध्य हैं।

    ईशाभिसूष्टं हावरुन्ध्महेउड़दुःखं सुखं वा गुणकर्मसझत्‌ ।

    आस्थाय तत्तद्यदयुड्र नाथश्‌चक्षुष्मतान्धा इब नीयमाना: ॥

    १५॥

    ईश-अभिसृष्टम्‌--ई श्वर द्वारा उत्पन्न या प्रदत्त; हि--निश्चय ही; अवरून्ध्महे --हमें स्वीकार करना होता है; अड्ग--हे प्रियब्रत;दुःखम्‌--दुख; सुखम्‌--सुख; बा--अथवा; गुण-कर्म--गुण तथा कार्य की; सड्भात्‌ू--संगति से; आस्थाय--स्थित होकर; तत्‌तत्‌--स्थिति; यत्‌--जो शरीर; अयुद्ध --उसने प्रदान किया; नाथ:--परमे श्वर; चक्षुष्मता--नेत्रयुक्त पुरुष के द्वारा; अन्धा: --अंधे पुरुष; इब--सहृश; नीयमाना:--ले जाया जाकर।

    हे प्रियत्रत, भगवान्‌ विभिन्न गुणों के साथ हमारे संसर्ग के अनुसार हमें विशिष्ट शरीर प्रदानकरते हैं और हम सुख तथा दुख प्राप्त करते हैं।

    अत: मनुष्य को चाहिए कि वह जिस रूप में हैवैसे ही रहे और भगवान्‌ द्वारा उसी प्रकार मार्गदर्शन प्राप्त करे जिस प्रकार एक अंधा व्यक्तिआँख वाले व्यक्ति से प्राप्त करता है।

    मुक्तोषपि तावद्विभूयात्स्वदेह-मारब्धमश्नन्नभिमानशून्य: ।

    यथानुभूतं प्रतियातनिद्र:कि त्वन्यदेहाय गुणान्न वृड्डे ॥

    १६॥

    मुक्त:--मुक्त पुरुष; अपि--ही; तावत्‌--तब तक; बिभूयात्‌-- धारण करना चाहिए; स्व-देहम्‌--अपना शरीर; आरब्धम्‌--पूर्वकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त; अश्नन्‌ू--स्वीकार करते हुए; अभिमान-शून्य:--अभिमान रहित; यथा--जिस प्रकार; अनुभूतम्‌--जैसा अनुभव किया गया हो; प्रतियात-निद्र:--निद्रा से जगा हुआ; किम्‌ तु--लेकिन; अन्य-देहाय--दूसरी देह के लिए;गुणान्‌--गुणों को; न--नहीं; वृड्ढे --भोगता है।

    मुक्त होते हुए भी मनुष्य पूर्व कर्मों के अनुसार प्राप्त देह को स्वीकार करता है।

    किन्तु वहभ्रान्तिरहित होकर कर्म-वश प्राप्त सुख तथा दुख को उसी प्रकार मानता है, जिस प्रकार जाग्रतमनुष्य सुप्तावस्था में देखे गये स्वप्णन को।

    इस तरह वह हृढ़प्रतिज्ञ रहता है और भौतिक प्रकृति केतीनों गुणों के वशीभूत होकर दूसरा शरीर पाने के लिए कभी कार्य नहीं करता।

    भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्थाद्‌यतः स आस्ते सहषदट्सपत्न: ।

    जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बु धस्यगृहा भ्रम: कि नु करोत्यवद्यम्‌ू ॥

    १७॥

    भयम्‌-- भय; प्रमत्तस्य--मोहग्रस्त का; वनेषु--वनों में; अपि-- भी; स्थात्‌ू--होना चाहिए; यतः--क्योंकि; सः--वह( जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं )।

    आस्ते--रहता है; सह--साथ; षट्‌-सपत्न:--छह सपत्नियाँ; जित-इन्द्रियस्थ--इन्द्रियों कोजीतने वाले का; आत्म-रते: --आत्मतुष्ट; बुधस्य--ऐसे विद्वान का; गृह-आश्रम:--गृहस्थ जीवन; किम्‌--क्या; नु--निस्सन्देह;'करोति--कर सकता है; अवद्यम्‌-- क्षति |

    जो मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत है, भले ही वह वन-वन विचरण करता रहे, तो भी उसेबन्धन का भय बना रहता है क्योंकि वह मन तथा ज्ञानेन्द्रियाँ--इन छः सपत्नियों के साथ रह रहाहोता है।

    किन्तु आत्मतुष्ट विद्वान जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो, उसे गृहस्थजीवन कोई क्षति नहीं पहुँचा पाता।

    यः षट्सपत्नान्विजिगीषमाणोगृहेषु निर्विश्य यतेत पूर्वम्‌ ।

    अत्येति दुर्गाअ्रित ऊर्जितारीन्‌श़ क्षीणेषु काम विचरेद्विपश्चित्‌ ॥

    १८॥

    यः--जो कोई; षघट्‌ू--छः:; सपत्नान्‌ू--प्रतिपक्षी ( शत्रु )) विजिगीषमाण:--जीतने की आकांक्षा रखने वाले; गृहेषु--गृहस्थजीवन में; निर्विश्य--प्रवेश करके; यतेत--प्रयत्त करना चाहिए; पूर्वम्‌--प्रथम; अत्येति--जीत लेता है; दुर्ग-आश्रित:--सुरक्षित स्थान ( दुर्ग ) में रहते हुए; ऊर्जित-अरीन्‌-- अत्यन्त प्रबल शत्रुओं को; क्षीणेषु-- क्षीण; कामम्‌--विषयवासना;विचरेत्‌--विचरण कर सकता है; विपश्चित्‌--अत्यन्त अनुभवीविद्वान?

    गृहस्थाश्रम में रह कर जो मनुष्य अपने मन तथा पाँचों इन्द्रियों को विधिपूर्वख जीत लेता है,वह उस राजा के समान है, जो अपने किले (दुर्ग ) में रहकर अपने बलशाली शत्रुओं कोपराजित करता है।

    गृहस्थाश्रम में प्रशिक्षित हो जाने पर तथा कामेच्छाओं को क्षीण करके मनुष्यबिना किसी भय के कहीं भी घूम सकता है।

    त्वं त्वब्जनाभाड्प्रिसरोजकोश-दुर्गाअतो निर्जितषट्सपत्न: ।

    भुड्झ्वेह भोगान्पुरुषातिदिष्टान्‌विमुक्तसड्ः प्रकृति भजस्व ॥

    १९॥

    त्वमू-तुम स्वयं; तु--तब; अब्ज-नाभ--जिनकी नाभि कमल-पुष्प के सहश है, ऐसे भगवान्‌; अड्प्रि--चरण; सरोज--कमल; कोश--मुँह, सम्पुट; दुर्ग--किला; आश्रित:--शरणागत; निर्जित--विजित; षट्‌-सपत्न: --छःशत्रु ( मन तथा अन्य पाँच इन्द्रियाँ ); भुड्क्ुव-- भोग करो; इह--जगत में; भोगान्‌ू-- भोग्य वस्तुएँ; पुरुष--परम पुरुष द्वारा; अतिदिष्टानू--विशेषतयाआदेशित; विमुक्त--मुक्त हुआ; सड़:-- भौतिक लगाव से; प्रकृतिमू--स्वाभाविक स्थिति; भजस्व-- भोग करो।

    ब्रह्माजी ने आगे कहा--हे प्रियत्रत, कमलनाभ ईश्वर के चरणकमल के कोश में शरणलेकर छहों ज्ञान इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो।

    तुम भौतिक सुख-भोग स्वीकार करो, क्योंकिभगवान्‌ ने तुम्हें विशेष रूप से ऐसा करने के लिए आज्ञा दी है।

    इस तरह तुम भौतिक संसर्ग सेमुक्त हो सकोगे और अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते हुए भगवान्‌ की आज्ञाएँ पूरी कर सकोगे।

    श्रीशुक उबाचइति समभिहितो महाभागवतो भगवतस्त्रिभुवनगुरोरनुशासनमात्मनो ।

    लघुतयावनतशिरोधरो बाढमितिसबहुमानमुवाह ॥

    २०॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; समभिहितः--पूर्णतया उपदिष्ट; महा-भागवत: --परमभक्त; भगवतः--अति शक्तिमान ब्रह्माजी का; त्रि-भुवन--तीनों लोकों के; गुरो:--गुरु की; अनुशासनम्‌--आज्ञा, आदेश;आत्मन:--स्वयं का; लघुतया--लघुता के कारण; अवनत--झुका हुआ; शिरोधर: --उसका शिर; बाढम्‌--जो आज्ञा; इति--इस प्रकार; स-बहु-मानम्‌-- अत्यन्त आदर समेत; उबाह--पालन किया।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--इस प्रकार तीनों लोकों के गुरू ब्रह्माजी द्वाराभलीभाँति उपदेश दिये जाने पर अपना पद छोटा होने के कारण प्रियत्रत ने नमस्कार करते हुएउनका आदेश शिरोधार्य किया और अत्यन्त आदरपूर्वक उसका पालन किया।

    भगवानपि मनुना यथावदुपकल्पितापचितिःप्रियत्रतनारदयोरविष ।

    ममभिसमीक्षमाणयोरात्मसमवस्थानमवाड्मनसं क्षयमव्यवहतं प्रवर्तयन्नगमत्‌, ॥

    २१॥

    भगवान्‌--परम शक्तिमान ब्रह्माजी; अपि-- भी; मनुना--मनु द्वारा; यथावत्‌ -- अभीष्ट रूप से; उपकल्पित-अपचिति: --आराधित होकर; प्रियब्रत-नारदयो:--प्रियत्रत तथा नारद की उपस्थिति में; अविषमम्‌--बिना द्वेष के; अभिसमीक्षमाणयो: --इष्टिपात करते हुए; आत्मसम्‌--अपने पद के अनुकूल; अवस्थानम्‌--अपने धाम को; अवाक्‌-मनसम्‌--मन तथा वाणी केवर्णन से परे; क्षयम्‌-ग्रह, लोक; अव्यवहृतम्‌--अपूर्व स्थित; प्रवर्तयन्‌--विदा लेते हुए; अगमत्‌--वापस चले गये ।

    इसके पश्चात्‌ मनु ने ब्रह्माजी को संतुष्ट करते हुए विधिवत्‌ पूजा की।

    प्रियत्रत तथा नारद नेभी किसी प्रकार का विरोध दिखाये बिना ब्रह्माजी की ओर देखा।

    प्रियत्रत से उसके पिता कीमनौती स्वीकार कराकर ब्रह्माजी अपने धाम सत्यलोक को चले गये, जिसका वर्णन भौतिक मनतथा वाणी के परे है।

    मनुरपि परेणैवं प्रतिसन्धितमनोरथ: सुर्षिवरानुमतेनात्म जमखिलधरामण्डलस्थितिगुप्तय ।

    आस्थाप्य स्वयमतिविषमविषयविषजलाशयाशाया उपरराम॥

    २२॥

    मण्डल--लोकों का; स्थिति--पालन; गुप्तये--रक्षा हेतु; आस्थाप्य--स्थापित करके; स्वयम्‌--स्वयं; अति-विषम--अत्यन्तभयावने; विषय--सांसारिक प्रपंच; विष--विष का; जल-आशय--समुद्र; आशाया: --कामनाओं से; उपरराम--निवृत्ति प्राप्तकी।

    इस प्रकार ब्रह्माजी की सहायता से स्वायंभुव मनु का मनोरथ पूर्ण हुआ।

    उन्होंने महर्षि नारदकी अनुमति से अपने पुत्र को समस्त भूमण्डल के पालन का भार सौंप दिया और इस तरह स्वयंभौतिक कामनाओं के अति दुस्तर तथा विषमय सागर से निवृत्ति प्राप्त कर ली।

    इति ह वाव स जगतीपतिरीश्वरेच्छयाधिनिवेशितकर्माधिकारो खिलजगद्ठन्धध्वंसनपरानुभावस्य ।

    भगवतआदिपुरुषस्याड्प्रियुगलानवरतध्यानानुभावेन परिरन्धितकषायाशयोवदातोपि ।

    मानवर्धनो महतांमहीतलमनुशशास ॥

    २३॥

    इति--इस प्रकार; ह वाव--निस्सन्देह; सः--वह; जगती-पति:--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का राजा; ई श्वर-इच्छया-- भगवान्‌ केआदेश से; अधिनिवेशित--पूर्णतया संलग्न; कर्म-अधिकार: -- भौतिक कार्यों में; अखिल-जगत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का;बन्ध--बन्धन; ध्वंसन--विनष्ट करते हुए; पर--दिव्य; अनुभावस्थ--जिसका प्रभाव; भगवतः--भगवान्‌ के; आदि-पुरुषस्थ--आदि पुरुष के; अड्ध्रि--चरणकमल में; युगल--दो; अनवरत--अहर्निश; ध्यान-अनुभावेन--ध ध्यान द्वारा;परिरन्धित--विनष्ट; कषाय--समस्त मल; आशय: --अपने हृदय में; अवदात:--नितान्त शुद्ध; अपि--यद्यपि; मान-वर्धन:--केवल सम्मान देने के लिए; महताम्‌--बड़ों को; महीतलम्‌-- भौतिक संसार पर; अनुशशास--राज्य किया।

    भगवान्‌ की आज्ञा का पालन करते हुए महाराज प्रियत्रत सांसारिक कार्यो में अनुरक्त रहनेलगे, किन्तु उन्हें सदैव भगवान्‌ के उन चरणकमलों का ध्यान बना रहा जो समस्त भौतिकआसक्ति से मुक्ति दिलाने वाले हैं।

    यद्यपि महाराज प्रियत्रत समस्त भौतिक कल्मषों से विमुक्त थे,किन्तु अपने बड़ों का मान रखने के लिए ही वे इस संसार पर शासन करने लगे।

    अथ च दुहितरं प्रजापतेर्वि श्रकर्मण उपयेमे बर्हिष्मतीं नाम तस्यामु ह ।

    वावआत्मजानात्मसमानशीलगुणकर्मरूपवीर्योदारान्द्श भावयाम्बभूव कन्यां च यवीयसीमूर्जस्वतीं नाम ॥

    २४॥

    अथ--त्पश्चात्‌; च-- भी; दुहितरम्‌--पुत्री को; प्रजापते: --प्रजापतियों में से एक की; विश्वकर्मण: --विश्वकर्मा नामक;उपयेमे--ब्याह लिया; बर्हिष्मतीम्‌--बर्हिष्मती को; नाम--नाम; तस्याम्‌ू--उसमें; उ ह--जैसाकि प्रसिद्ध है; वाव--आश्चर्यजनक; आत्म-जानू-- पुत्रों को; आत्म-समान--अपने ही सहृश्य; शील--चरित्र; गुण--गुण; कर्म--कार्य; रूप--सुन्दरता; वीर्य--बल; उदारान्‌ू--जिसकी उदारता; दश--दस; भावयाम्‌ बभूब--उसके उत्पन्न हुई; कन्याम्‌--कन्या; च-- भी;यवीयसीम्‌--सबसे छोटी; ऊर्जस्वतीम्‌--ऊर्जस्वती; नाम--नाम ?

    कीतदनन्तर महाराज प्रियब्रत ने प्रजापति विश्वकर्मा की कन्या बर्दिष्मती से विवाह किया।

    उससेउन्हें दस पुत्र प्राप्त हुए जो सुन्दरता, चरित्र, उदारता तथा अन्य गुणों में उन्हीं के समान थे।

    उनकेएक पुत्री भी हुई जो सबसे छोटी थी।

    उसका नाम ऊर्जस्वती था।

    आग्नीक्षेध्मजिहयज्ञबाहुमहावीरहिरण्यरेतोघृतपृष्ठसवनमे ।

    धातिधिवीतिहोत्रकवय इति सर्वएवाग्निनामान:, ॥

    २५॥

    आग्नीक्ष--आग्नी ध्र; इध्म-जिह्न--इध्मजिह्न; यज्ञ-बाहु--यज्ञबाहु; महा-वीर--महावीर; हिरण्य-रेत: --हिरण्यरेता; घृतपृष्ठ--घृतपृष्ठ; सवन--सवन; मेधा-तिथि--मेधातिथि; बीतिहोत्र--वीतिहोत्र ; कवयः--( तथा ) कवि; इति--इस प्रकार; सर्वे--येसभी; एव--निश्चय ही; अग्नि-- अग्नि देवता के; नामान:--नाम |

    महाराज प्रियत्रत के दस पुत्रों के नाम थे--आग्नीश्च, इध्मजिह्न, यज्ञबाहु, महावीर,हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सबन, मेधातिथि, वीतिहोत्र तथा कवि।

    ये अग्निदेव के भी नाम हैं।

    एतेषां कविर्महावीर: सवन इति त्रय आसन्चूध्वरेतसस्त ।

    आत्मविद्यायामर्भभावादारभ्य कृतपरिचया:पारमहंस्यमेवा भ्रममभजन्‌ ॥

    २६॥

    एतेषाम्‌--इनमें से; कवि:--कवि; महावीर:--महावीर; सवन:--सवन; इति--इस प्रकार; त्रय:ः--तीन; आसनू--थे; ऊर्ध्व-रेतस:ः--परम ( नैषप्ठिक ) ब्रह्मचारी; ते--वे; आत्म-विद्यायाम्‌--दिव्य ज्ञान में; अर्भ-भावात्‌--बचपन से; आरभ्य--प्रारम्भ करके; कृत-परिचया: -- अत्यधिक परिचित; पारमहंस्यम्‌--मानव जीवन की उच्चतम सिद्धि का; एब--निश्चय ही; आश्रमम्‌--आश्रम; अभजन्‌--पालन किया।

    इन दस पुत्रों में से तीन--कवि, महावीर तथा सवन--पूर्ण ब्रह्मचारी रहे।

    इस प्रकारबालपन से ब्रह्मचर्य जीवन की शिक्षा प्राप्त करने के कारण वे सर्वोच्च सिद्धि अर्थात्‌ परमहंसआश्रम से पूर्णतया परिचित थे।

    तस्मिन्नु ह वा उपशमशीला: परमर्षय: सकलजीवनिकायावासस्य भगवतो वासुदेवस्य भीतानांशरणभूतस्य श्रीमच्चरणारविन्दाविरतस्मरणाविगलितपरमभक्तियोगानु भावेन परिभावितान्तईदयाधिगतेभगवति सर्वेषां भूतानामात्मभूते प्रत्यगात्मन्येवात्मनस्तादात्म्यमविशेषेण समीयु: ॥

    २७॥

    तस्मिनू--उस परमहंस आश्रम में; उ--निश्चय ही; ह--इतना प्रसिद्ध; वा--निश्चय ही; उपशम-शीला:--संन्यास आश्रम में;'परम-ऋषय: --महान्‌ ऋषि; सकल--समस्त; जीव--जीवात्माओं का; निकाय--समूह; आवासस्य--निवास का; भगवतः --भगवान्‌; वासुदेवस्थ-- भगवान्‌ वासुदेव का; भीतानाम्‌--जो भौतिक अस्तित्व के कारण भयभीत हैं, उनका; शरण-भूतस्य--जो एकमात्र शरण है; श्रीमत्‌-- भगवान्‌ का; चरण-अरविन्द--चरणकमल; अविरत--निरन्तर; स्मरण--स्मरण; अविगलित--निष्कलुषित; परम--परम; भक्ति-योग--भक्ति का; अनुभावेन--बल से; परिभावित--शुद्धी कृत, विमल; अन्तः-- भीतरी;हृदय--हृदय; अधिगते--देखा हुआ; भगवति-- भगवान्‌; सर्वेषाम्‌--सब; भूतानाम्‌-- भूतात्माओं में से; आत्म-भूते--शरीर केभीतर स्थित; प्रत्यक्‌--प्रत्यक्ष; आत्मनि--परम-आत्मा में; एबव--निश्चय ही; आत्मन:--अपना; तादात्म्यमू--गुण में एक समान;अविशेषेण--बिना अन्तर के; समीयु:--साक्षात्कार किया।

    जीवन प्रारम्भ से ही संन्यास आश्रम में रहकर ये तीनों अपनी इन्द्रियों को पूर्णतया वश मेंकरते हुए महान सन्त हो गये।

    उन्होंने अपने मन को उन भगवान्‌ के चरणकमलों में सदैव केन्द्रितरखा, जो समस्त जीवात्माओं के विश्रामस्थल ( आश्रय ) हैं और वासुदेव नाम से विख्यात हैं।

    जोभव-स्थिति से भयभीत हैं उनके लिए भगवान्‌ वासुदेव ही एकमात्र शरण हैं।

    भगवान्‌ केचरणकमलों का निरन्तर ध्यान धारण करने के कारण महाराज प्रियत्रत के ये तीनों पुत्र शुद्धभक्ति से सिद्ध बन गये।

    वे अपनी भक्ति के बल से परमात्मा के रूप में प्रत्येक के हृदय मेंनिवास करने वाले भगवान्‌ का प्रत्यक्ष दर्शन कर सके और इसका अनुभव कर सके कि उनमेंतथा भगवान्‌ में, गुण के अनुसार, कोई अन्तर नहीं है।

    अन्यस्यामपि जायायां त्रयः पुत्रा आसच्रुत्तमस्तामसो रैवत इति मन्वन्तराधिपतय: ॥

    २८॥

    अन्यस्थाम्‌--अन्य; अपि-- भी; जायायाम्‌--स्त्री से; त्रय:ः--तीन; पुत्रा:--पुत्र; आसन -- थे; उत्तम: तामसः रैवत:--उत्तम,तामस तथा रैवत; इति--इस प्रकार; मनु-अन्तर--मन्वन्तर कल्प के; अधिपतय:--शासक ।

    महाराज प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से तीन पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम उत्तम, तामस तथा रैवतथे।

    बाद में इन्होंने मनवन्तर कल्पों का भार सँभाला।

    एवमुपशमायनेषु स्वतनयेष्वथ जगतीपतिज॑गतीमर्बुदान्येकादशपरिवत्सराणामव्याहताखिलपुरुषकारसारसम्भूतदोर्दण्डयुगलापीडितमौवीगुणस्तनितविरमितधर्म प्रतिपक्षोब्हिष्पत्याश्वानुदिनमेधमानप्रमोदप्रसरणयौषिण्यत्रीडाप्रमुषितहासावलोकरूचिरक्ष्वेल्यादिभि:'पराभूयमानविवेक इवानवबुध्यमान इव महामना बुभुजे ॥

    २९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; उपशम-अयनेषु--सभी सुयोग्य; स्व-तनयेषु-- अपने पुत्रों में से; अथ--तत्पश्चात्‌; जगती-पति:--ब्रह्माण्डके स्वामी; जगतीम्‌--ब्रह्माण्ड को; अर्बुदानि--अर्बुद ( १९०,००,००,००० की संख्या ); एकादश- ग्यारह; परिवत्सराणाम्‌--वर्षो का; अव्याहत--बिना रोकटोक के; अखिल--विश्वव्यापी; पुरुष-कार--शौर्य ; सार--शक्ति; सम्भृत--प्रदत्त; दोः-दण्ड:--बलिष्ठ भुजाओं वाले; युगल--दो; आपीडित--खींची गई; मौर्वी-गुण-- धनुष की डोरी; स्तनित--टंकार से;विरमित--पराजित; धर्म--धार्मिक नियम; प्रतिपक्ष:--विपक्षी; बर्हिष्मत्या:--अपनी पत्नी बर्हिष्मती का; च--तथा;अनुदिनम्‌-- प्रतिदिन; एधमान--वर्धमान; प्रमोद--मनोरंजन; प्रसरण--सुशीलता, सौजन्य; यौषिण्य--स्त्रियोचित व्यवहार;ब्रीडा--लज्जा से; प्रमुषित--संकुचित; हास--हँसी, हास्य; अवलोक--चितवन; रुचिर--मनोहर; क्वेलि-आदिभि: --विनोदइत्यादि; पराभूयमान--पराजित होकर; विवेक:-- अपने वास्तविक ज्ञान; इब--सहृश; अनवबुध्यमान: --विवेकहीन व्यक्ति;इब--सहश; महा-मना:--महान्‌ आत्मा; बुभुजे--राज्य किया, भोगा।

    इस प्रकार से कवि, महावीर तथा सवन के परमहंस अवस्था में भलीभाँति प्रशिक्षित हो जानेपर महाराज प्रियब्रत ने ग्यारह अर्बुद वर्षों तक ब्रह्माण्ड पर शासन किया।

    जिस समय वे अपनीबलशाली भुजाओं से धनुष की डोरी खींच कर तीर चढ़ा लेते थे उस समय धार्मिक जीवन केनियमों को न मानने वाले उनके विपक्षी विश्वपर शासन करने के उनके अद्वितीय शौर्य से डर करन जाने कहाँ भाग जाते थे।

    वे अपनी पतली बर्तहिष्मती को अगाध प्यार करते थे और समय बीतनेके साथ ही उनका प्रणय भी बढ़ता गया।

    अपनी स्त्रियोचित वेशभूषा, उठने-बैठने, हँसी तथा चितवन से महारानी बर्दिष्मती उन्हें शक्ति प्रदान करती थी।

    इस प्रकार महात्मा होते हुए भी वेअपनी पतली के स्त्री-उच्चित व्यवहार में खो गये।

    वे उसके साथ सामान्य पुरुष-सा आचरणकरते, किन्तु वे वास्तव में महान्‌ आत्मा थे।

    यावदवभासयति सुरगिरिमनुपरिक्रामन्भगवानादित्यो वसुधातलमर्धेनैव प्रतपत्यर्थेनावच्छादयति तदा हिभगवदुपासनोपचितातिपुरुषप्रभावस्तदनभिनन्दन्समजवेन रथेन ज्योतिर्मयेन रजनीमपि दिन करिष्यामीतिसप्तकृत्वस्तरणिमनुपर्यक्रामद्द्‌वतीय इब पतड़: ॥

    ३०॥

    यावत्‌--जब तक; अवभासयति--प्रकाश देता है; सुर-गिरिम्‌--सुमेरु पर्वत की; अनुपरिक्रामन्‌--परिक्रमा करते हुए;भगवान्‌--परम शक्तिमान; आदित्य: --सूर्यदेव; वसुधा-तलम्‌--अधोलोक पर; अर्धन--आधे से; एव--निश्चय ही; प्रतपति--तप्त करता है; अर्धेन--आधे से; अवच्छादयति-- अँधेरे से ढके रहता है, अँधेरा करता है; तदा--उस समय; हि--निश्चय ही;भगवत्ू-उपासना-- भगवान्‌ की उपासना द्वारा; उपचित--उन्‍्हें पूरी तरह प्रसन्न करके; अति-पुरुष-- परम पुरुष; प्रभाव:--प्रभाव; तत्‌ू--वह; अनभिनन्दन्‌--बिना प्रशंसा किये; समजवेन--समान बलशाली के द्वारा; रथेन--रथ पर; ज्योति: -मयेन--ज्योतिर्मय, प्रकाशवान्‌; रजनीम्‌--रात्रि को; अपि-- भी; दिनमू--दिन; करिष्यामि--बना दूँगा; इति--इस प्रकार; सप्त-कृत्‌--सात बार; वस्तरणिम्‌--सूर्य की कक्ष्या का अनुगमन करते हुए; अनुपर्यक्रामत्‌--परिक्रमा करते हुए; द्वितीय: --दूसरा; इब--सहश; पतड्र:--सूर्य |

    इस प्रकार सुचारु रूप से राज्य करते हुए राजा प्रियत्रत एक बार परम बलशाली सूर्यदेव कीपरिक्रमा से असन्तुष्ट हो गये।

    सूर्यदेव अपने रथ पर आरूढ़ होकर सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करतेहुए समस्त लोकों को प्रकाशित करते हैं, किन्तु जब सूर्य उत्तर दिशा में रहता है, तो दक्षिण भागको कम प्रकाश मिलता है और जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है, तो उत्तर भाग को कम प्रकाशमिलता है।

    राजा प्रियत्रत को यह स्थिति नहीं भायी इसलिए उन्होंने संकल्प किया कि ब्रह्माण्डके उस भाग में जहाँ रात्रि है, वहाँ वे दिन कर देंगे।

    उन्होंने एक प्रकाशमान रथ पर चढ़करसूर्यदेव की कक्ष्या का पीछा करके अपनी इच्छा पूर्ण की।

    वे ऐसे विस्मपजनक कार्यकलापइसीलिए कर पाये, क्योंकि उन्होंने भगवान्‌ की उपासना के द्वारा शौर्य अर्जित किया था।

    ये वा उ ह तद्रथचरणनेमिकृतपरिखातास्ते सप्त सिन्धव आसन्यत एव कृताः सप्त भुवो द्वीपा: ॥

    ३१॥

    ये--वे; वा उ ह--निश्चय ही; तत्‌-रथ--उस रथ के; चरण--पहियों की; नेमि--परिधि से; कृत--बने हुए; परिखाता: --खाइयाँ ( गड्ढे ); ते--वे; सप्त--सात; सिन्धव:--सागर; आसनू--हो गये; यत:--जिसके कारण; एब--निश्चय ही; कृता:--बने हुये; सप्त--सात; भुव:--भूमण्डल के ; द्वीपा:--ट्वीप |

    जब प्रियवत्रत ने अपना रथ सूर्य के पीछे हाँका, तो उनके रथ के पहियों की परिधि से जोचिह्न बन गये वे ही बाद में सात समुद्र हो गये और भूमण्डल सात द्वीपों में विभाजित हो गया।

    जम्बूप्लक्षशाल्मलिकुशक्रौज्ञशाक पुष्करसंज्ञास्तेषां परिमाणं पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो यथासड्ख्यंद्विगुणमानेन बहि: समन्तत उपक्रिप्ता: ॥

    ३२॥

    जम्बू--जम्बू; प्लक्ष-प्लक्ष; शाल्मलि--शाल्मलि; कुश--कुश; क्रौद्ध-क्रौंच; शाक--शाक; पुष्कर--पुष्कर; संज्ञा:--जाने जाते हैं; तेषाम्‌ू--उनमें से; परिमाणम्‌--परिमाप; पूर्वस्मात्‌ पूर्वस्मात्‌--अपने से पूर्व वाले से; उत्तर: उत्तर: --बाद वाले;यथा--क्रमानुसार; सड्ख्यम्‌--संख्या; द्वि-गुण--दो गुना; मानेन--माप से; बहि:--बाहर; समन्तत:--चारों ओर;उपक्रिप्ता:--उत्पन्न किया।

    (सात ) द्वीपों के नाम हैं--जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक तथा पुष्कर।

    प्रत्येकद्वीप अपने से पहले वाले द्वीप से आकार में दुगुना है और एक तरल पदार्थ से घिरा है, जिसकेआगे दूसरा द्वीप है।

    क्षारोदेक्षुससोदसुरोदघृतोदक्षीरोददधिमण्डोदशुद्धोदा: सप्त जलधय: सप्त द्वीपपरिखाइवाभ्यन्तरद्वीपसमाना एकैकश्येन यथानुपूर्व सप्तस्वपि बहिद्वपेषु पृथक्परित उपकल्पितास्तेषुजम्ब्वादिषु बर्हिष्मतीपतिरनुव्रतानात्मजानाग्नीश्नेध्मजिहयज्ञबाहुहिरण्यरेतोघृतपृष्ठमे धातिधिवीतिहोत्रसंज्ञान्यथास ड्ख्येनेकैकस्मिन्नेकमेवाधिपतिं विदधे ॥

    ३३॥

    क्षार--लवण, खारे; उद--जल; इक्षु-गरस--गन्ने का रस; उद--जल; सुरा--मदिरा; उद-- जल; घृत--घी; उद--जल; क्षीर--दुग्ध; उद--जल; दधि-मण्ड--मट्ठा; उद--जल; शुद्ध-उदा:--तथा पेय जल; सप्त--सात; जल-धय:--सागर; सप्त--सात;द्वीप--द्वीप; परिखा:ः--खाइयाँ; इब--सहृश्य; अभ्यन्तर-- भीतरी; द्वीप--द्वीप; समाना:--के तुल्य; एक-एकश्येन--एक केबाद दूसरा; यथा-अनुपूर्वम्‌-क्रमानुसार; सप्तसु--सात; अपि--यद्यपि; बहि:--बाह्द; द्वीपेषु--द्वीपों में; पृथक्‌ -- अलग;परितः--चारों ओर; उपकल्पिता: --स्थित; तेषु--उनमें से; जम्बू-आदिषु--जम्बूद्वीप तथा अन्य द्वीप; बर्हिष्मती--बर्हिष्मती का;'पति:ः--पति; अनुव्रतान्‌ू--जो पिता के नियमों का पालन करने वाले थे; आत्म-जानू--पुत्रों को; आग्नीक्च-इध्मजिह्न-यज्ञबाहु-हिरण्यरेत:-घृतपृष्ठ-मेधातिथि-बीतिहोत्र-संज्ञानू-- आग्नी क्र, इध्मजिह्न, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि, बीतिहोत्र नामवाले; यथा-सड्ख्येन--क्रमानुसार; एक-एकस्मिन्‌-- प्रत्येक द्वीप में; एकम्‌--एक; एब--निश्चय ही; अधि-पतिम्‌ू--राजा;विदधे--बना दिया।

    ये सातों समुद्र क्रमशः खारे जल, ईख के रस, सुरा, घृत, दुग्ध, मट्ठा तथा मीठे पेय जल सेपूर्ण हैं।

    सभी द्वीप इन सागरों से पूर्णतया घिरे हैं और प्रत्येक समुद्र घिरे हुए द्वीप के समान चौड़ाहै।

    रानी बर्हिष्मती के पति महाराज प्रियव्रत ने इन द्वीपों का एकक्षत्र राज्य अपने पुत्रों को दे दियाजिनके नाम क्रमश: आग्नीक्च, इध्मजिह्न, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि तथा बीतिहोत्रथे।

    इस प्रकार अपने पिता के आदेश से ये सभी राजा बन गये।

    दुहितरं चोर्जस्वतीं नामोशनसे प्रायच्छद्यस्थामासीद्देवयानी नाम काव्यसुता, ॥

    ३४॥

    दुहितरम्‌-पुत्री; च--भी; ऊर्जस्वतीम्‌--ऊर्जस्वती; नाम--नामक; उशनसे --महर्षि उशना ( शुक्राचार्य ) को; प्रायच्छत्‌ू--देदिया; यस्याम्‌--जिससे; आसीत्‌-- थी ( उत्पन्न हुई ); देवबानी--देवयानी; नाम--नामक; काव्य-सुता--शुक्राचार्य की पुत्री |

    उसके बाद राजा प्रियत्रत ने अपनी पुत्र ऊर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्य से कर दिया,जिसके गर्भ से देवयानी नामक पुत्री उत्पन्न हुई।

    नैवंविध: पुरुषकार उरूक्रमस्यपुंसां तदड्घ्रिरजसा जितषड्गुणानाम्‌ ।

    चित्र विदूरविगत: सकृदाददीतयन्नामधेयमधुना स जहाति बन्धम्‌ ॥

    ३५॥

    न--नहीं; एवम्‌-विध:--इस प्रकार; पुरुष-कार:--अपना प्रभाव; उरुू-क्रमस्थ-- भगवान्‌ का; पुंसाम्‌ू-- भक्तों का; ततू-अड्ध्रि--उनके चरणारविन्द की; रजसा-- धूलि से; जित-षट्‌-गुणानाम्‌-- जिन्होंने छः प्रकार के विकारों को जीत लिया है;चित्रमू--विस्मयजनक ; विदूर-विगत:--अस्पृश्य, पंचम वर्ण का व्यक्ति; सकृतू--एक बार; आददीत--यदि उच्चारण करे तो;यत्‌--जिसका; नामधेयम्‌--पवित्र नाम; अधुना--तुरन्त; सः--वह; जहाति--त्याग देता है; बन्धम्‌-- भौतिक बन्धन।

    हे राजन, जिस भक्त ने भगवान्‌ के चरणारविन्दों की धूलि में शरण ली है, वह षड््‌ विकारोंअर्थात्‌ भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु के प्रभाव तथा मन समेत छहों इन्द्रियों को जीतसकता है।

    किन्तु भगवान्‌ के शुद्ध भक्त के लिए यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं क्योंकि चारोंवर्णों से बाहर का व्यक्ति अर्थात्‌ अस्पृश्य व्यक्ति भी भगवान्‌ के नाम का एक बार उचार करलेने मात्र से भौतिक बन्धनों से तुरन्त छूट जाता है।

    स एवमपरिमितबलपराक्रम एकदा तु देवर्षिचरणानुशयनानुपतितगुणविसर्गसंसगेंणानिर्वृतमिवात्मानंमन्यमान आत्मनिर्वेद इदमाह ॥

    ३६॥

    सः--वह ( महाराज प्रियत्रत ); एवम्‌--इस प्रकार; अपरिमित--अद्वितीय; बल--शक्ति; पराक्रम:--जिसका प्रभाव; एकदा--एक बार; तु--तब; देव-ऋषि--महामुनि नारद के; चरण-अनुशयन---चरणकमलों में समर्पण; अनु--तत्पश्चात्‌; पतित--गिराहुआ; गुण-विसर्ग--विषयों के ( तीन गुणों से उत्पन्न ); संसर्गेण--सम्पर्क होने से; अनिर्वृतम्‌--असंतुष्ट; इब--सहश;आत्मानम्‌ू--अपने आपको; मन्यमान: --इस प्रकार सोचते हुए; आत्म--स्वयं; निर्वेद:--त्यागमय; इृदम्‌--यह; आह--कहा |

    इस प्रकार अपने पूर्ण पराक्रम तथा प्रभाव से भौतिक ऐश्वर्य का भोग करते हुए महाराजप्रियत्रत एक बार यह सोचने लगे कि यद्यपि मैं महामुनि नारद के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुकाथा और वास्तव में कृष्णभावनामृत के मार्ग पर था, किन्तु मैं अब न जाने क्‍यों फिर से भौतिककार्यो के बन्धन में फँस गया हूँ।

    इस प्रकार उनका मन अशान्त हो उठा।

    वे विरक्त होकर बोलने अहो असाध्वनुष्ठटितं यदभिनिवेशितोहमिन्द्रियरविद्यारचितविषमविषयान्धकूपे तदलमलममुष्या वनितायाविनोदमृगं मां धिग्धिगिति गहयां चकार ॥

    ३७॥

    अहो--ओह; असाधु--अच्छा नहीं; अनुष्ठितम्‌ू--हुआ; यत्‌--क्योंकि; अभिनिवेशित: --पूर्णतया निमग्न; अहम्‌--ैं;इन्द्रियैः--इन्द्रिय-भोग के लिए; अविद्या--अज्ञान से; रचित--बनाया हुआ; विषम--दुखदायी; विषय--इन्द्रियभोग; अन्ध-कूपे--अँधेरे कुएँ में; ततू--वह; अलम्‌--तुच्छ; अलम्‌--महत्त्वहीन या अधम का; अमुष्या:--उस; वनिताया:--पत्नी का;विनोद-मृगम्‌--नाचते हुए बन्दर की तरह; माम्‌--मुझको; धिक्‌-घधिक्कार है; धिक्‌-धिक्कार है; इति--इस प्रकार; गह॑याम्‌--आलोचना; चकार--की |

    राजा ने अपनी भर्त्सना इस प्रकार की--ओह! इन्द्रिय-भोग के कारण मैं कितना धिक्काराजाने योग्य हो गया हूँ।

    मैं अब भौतिक सुख के अंधकूप में गिर गया हूँ।

    बहुत हुआ! अब मुझेऔर भोग नहीं चाहिए।

    तनिक मेरी ओर देखो--मैं कैसे अपनी पतली के हाथों में नाचने वालाबन्दर बन गया हूँ।

    इसलिए मुझे धिक्कार है।

    परदेवताप्रसादाधिगतात्मप्रत्यवमरशें नानुप्रवृत्ते भ्य: पुत्रेभ्य इमां यथादायं विभज्य भुक्तभोगां च महिषींमृतकमिव सह महाविभूतिमपहाय स्वयं निहितनिर्वेदो हदि गृहीतहरिविहारानुभावो भगवतो नारदस्य'पदवीं पुनरेवानुससार ॥

    ३८॥

    पर-देवता-- भगवान्‌ के; प्रसाद--अनुग्रह से; अधिगत--प्राप्त किया; आत्म-प्रत्यवमर्शेन-- आत्म-साक्षात्कार से;अनुप्रवृत्ते भ्य:--जो उसके पथ का सही सही अनुसरण करता है; पुत्रेभ्य:--अपने पुत्रों को; इमाम्‌--यह पृथ्वी; यथा-दायम्‌--उत्तराधिकार के अनुसार; विभज्य--बाँटकर; भुक्त-भोगाम्‌--जिसका भोग अनेक प्रकार से किया; च-- भी; महिषीम्‌--रानी;मृतकम्‌ इब--मृत शरीर की भाँति; सह--सहित; महा-विभूतिम्‌--परम ऐ श्वर्य; अपहाय--त्याग कर; स्वयम्‌--स्वयं; निहित--पूर्णतया ग्रहण किया हुआ; निर्वेद:--त्याग; हृदि--हृदय में; गृहीत--स्वीकार किया; हरि-- भगवान्‌ की; विहार--लीलाएँ;अनुभाव: --ऐसे भाव में; भगवत:ः--परम साधु पुरुष का; नारदस्य--नारद मुनि का; पदवीम्‌--पद; पुन:ः--फिर; एब--निश्चयही; अनुससार-- अनुसरण करने लगा।

    भगवान्‌ के अनुग्रह से महाराज प्रियत्रत का विवेक पुनः जाग्रत हो उठा।

    उन्होंने अपनी सारीसम्पत्ति अपने आज्ञाकारी पुत्रों में बाँट दी।

    अपनी पत्ती को जिसके साथ उन्होंने इन्द्रियसुख भोगाथा और प्रभूत ऐश्वर्यशाली राज्य सहित सब कुछ त्याग कर वे सभी प्रकार की आसक्ति से रहितहो गये।

    विमल हो जाने से उनका हृदय भगवान्‌ की लीलाओं का स्थल बन गया।

    इस प्रकार वेकृष्णभावनामृत के पथ पर पुनः लौट आये और महामुनि नारद के अनुग्रह से जिस पद को प्राप्तकिया था उसको फिर से धारण किया।

    तस्य ह वा एते एलोकाः--प्रियव्रतकृतं कर्म को नु कुर्य द्विनेश्वरम्‌ ।

    यो नेमिनिम्नैरकरोच्छायां घ्नन्सप्त वारिधीन्‌ ॥

    ३९॥

    तस्य--उसका; ह वा--निश्चय ही; एते--ये सब; श्लोका:--श्लोक; प्रियत्रत--राजा प्रियत्रत द्वारा; कृतम्‌ू--किये हुए; कर्म --कर्म; कः--कौन; नु--तब; कुर्यात्‌ू--कर सकता है; विना--बिना; ई श्वरम्‌-- श्रीभगवान्‌; यः --जिसने; नेमि-- अपने रथ के'पहियों की परिधि के; निम्नैः--पहियों के दाब से; अकरोत्‌--कर दिया; छायाम्‌-- अंधकार; घ्नन्‌ू--दूर करते हुए; सप्त--सात; वारिधीन्‌--समुद्रों को?

    महाराज प्रियत्रत के कर्मों से सम्बन्धित अनेक श्लोक प्रसिद्ध हैं--'जो कुछ महाराजप्रियत्रत ने किया उसे भगवान्‌ के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता था।

    उन्होंने रात्रि केअंधकार को दूर किया और अपने रथ के पहियों की नेमी से सात समुद्र बना दिये।

    भूसंस्थानं कृतं येन सरिद््‌गरिवनादिभि: ।

    सीमा च भूतनिर्व॑त्यै द्वीपे द्वीपी विभागशः ॥

    ४०॥

    भू-संस्थानम्‌--पृथ्वी की स्थिति; कृतम्‌--बनी; येन--जिसके द्वारा; सरितू--नदियों से; गिरि--पर्वतों से; वन-आदिभि:--वनआदि से; सीमा--सीमा रेखाएँ; च-- भी; भूत--विभिन्न राष्ट्रों का; निर्व॒त्य--लड़ाई रोकने के लिए; द्वीपे द्वीपि--विभिन्न द्वीपोंमें; विभागशः--पृथक्‌-पृथक्‌ ।

    विभिन्न लोगों में पारस्परिक झगड़ों को रोकने के लिए महाराज प्रियब्रत ने नदियों, पर्वतोंके किनारों तथा वनों के द्वारा राज्यों की सीमाएँ निर्धारित कीं, जिससे कोई एक दूसरे कीसम्पत्ति में घुस न सके।

    भौम॑ दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम्‌ ।

    यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रिय: ॥

    ४१॥

    भौमम्‌--अधोलोक के; दिव्यम्‌--स्वर्ग के; मानुषम्‌--मनुष्यों के; च--भी; महित्वम्‌--समस्त ऐश्वर्य; कर्म--कर्म द्वारा;योग--योग द्वारा; जम्‌--उत्पन्न; य:--जिसने; चक्रे--किया; निरय--नरक से; औपम्यम्‌--उपमा अथवा समानता; पुरुष--भगवान्‌ के; अनुजन-- भक्त को; प्रिय:--अत्यन्त प्यारा |

    नारद मुनि के महान्‌ अनुयायी तथा भक्त महाराज प्रियत्रत ने अपने सकाम कर्मों तथा योगसे प्राप्त किये गये समस्त ऐश्वर्य को, चाहे वह स्वर्गलोग, अधोलोक अथवा मानव समाज काहो, नरक तुल्य समझा।

    TO

    अध्याय दो: महाराज आग्नीध्र की गतिविधियाँ

    5.2श्रीशुक उबाचएवं पितरि सम्प्रवृत्ते तदनुशासने वर्तमान आग्नीक्नो जम्बूद्वीपौकस:प्रजा औरसवद्धर्मावेक्षमाण:पर्यगोपायत्‌, ॥

    १॥

    श्री-शुक:-- श्रीशुकदेव गोस्वामी; उबाच--बोले; एवम्‌--इस प्रकार; पितरि--जब उसके पिता ने; सम्प्रवृत्ते--मुक्ति मार्गग्रहण किया; तत्‌-अनुशासने -- उसकी आज्ञानुसार; वर्तमान: --वर्तमान, उपस्थित; आग्नीक्च:--राजा आग्नी्ष; जम्बू-द्वीप-ओकसः:--जम्बूदीप के वासी; प्रजा:--नागरिक; औरस-वत्‌--अपने पुत्रों के समान; धर्म--धार्मिक नियम; अवेक्षमाण: --कठोरता से पालन करते हुए; पर्यगोपायत्‌--पूर्णतया सुरक्षित ?

    श्री शुकदेव गोस्वामी आगे बोले--अपने पिता महाराज प्रियत्रत के इस प्रकार आध्यात्मिकजीवन पथ अपनाने के लिए तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीक्ष ने उनकी आज्ञा का पूरीतरह पालन किया और धार्मिक नियमों के अनुसार उन्होंने जम्बूद्यीप के वासियों को अपने हीपुत्रों के समान सुरक्षा प्रदान की।

    स च कदाचित्पितृलोककामः सुरवरवनिताक्रीडाचलद्रोण्यां भगवन्तं विश्वसूजां'पतिमाभूतपरिचर्योपकरण आत्मैकाछयेण तपस्व्याराधयां बभूव ॥

    २॥

    सः--वह ( राजा आग्नीश्न ); च--भी; कदाचित्‌--एक बार; पितूुलोक--पितृलोक की; काम:ः--इच्छा करते हुए; सुर-वर--श्रेष्ठ देवताओं में से; बनिता--स्त्री जाति; आक्रीडा--विहार-स्थली; अचल-द्रोण्यामू--मन्दराचल की एक घाटी में;भगवन्तम्‌--सर्व शक्तिमान ( भगवान्‌ ब्रह्मा ) को; विश्व-सृजाम्‌--जिन विभूतियों ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की; पतिम्‌--स्वामीको; आभूत--संग्रह करके; परिचर्या-उपकरण:--पूजा की सामग्री; आत्म--मन का; एक-अछयेण--पूरे मनोयोग से;तपस्वी--तप करने वाला; आराधयाम्‌ बभूब--आराधना में लग गया।

    एक बार महाराज आग्नीक्ष ने सुयोग्य पुत्र प्राप्त करने तथा पितुलोक का वासी बनने कीकामना से भौतिक सृष्टि के स्वामी भगवान्‌ ब्रह्मा की आराधना की।

    वे मंदराचल की घाटी मेंगये जहाँ स्वर्गलोक की सुन्दरियाँ विहार करने आती हैं।

    वहाँ उन्होंने वाटिका से फूल तथा अन्यआवश्यक सामग्री एकत्र की और फिर कठिन तप तथा उपासना में लग गये।

    तदुपलभ्य भगवानादिपुरुष: सदसि गायन्तीं पूर्वचित्ति नामाप्सरसमभियापयामास ॥

    ३॥

    ततू--वह; उपलभ्य--समझकर; भगवान्‌--सर्वशक्तिमान; आदि-पुरुष: --इस ब्रह्माण्ड में उत्पन्न पहले जीव; सदसि--सभा में;गायन्तीम्‌--नर्तकी; पूर्वचित्तिम्‌-पूर्वचित्ति; नाम--नामक; अप्सरसम्‌--स्वर्ग की नर्तकी, अप्सरा को; अभियापयाम्‌ आस--नीचे भेजा।

    इस ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान तथा आदि पुरुष भगवान्‌ ब्रह्म ने राजा आग्नीक्ष कीअभिलाषा जानकर अपनी सभा की श्रेष्ठ अप्सरा को, जिसका नाम पूर्वचित्ति था, चुनकर राजाके पास भेजा।

    सा च तदाभ्रमोपवनमतिरमणीयंविविधनिबिडविटपिविटपनिकरसंश्लिष्टपुरटलतारूढस्थलविहडुममिथुनै: प्रोच्यमानश्रुतिभि:प्रतिबोध्यमानसलिलकुक्कुटकारण्डवकलहंसादिभिर्विचित्रमुपकूजितामलजलाशयकमलाकरमुपब भ्राम॥

    ४॥

    सा--वह ( पूर्वचित्ति ); च-- भी; तत्‌ू--महाराज आग्नीश्व को; आश्रम--ध ध्यान-स्थल के; उपवनम्‌--छोटा उद्यान, पार्क;अति--अ त्यन्त; रमणीयम्‌--सुन्दर; विविध--अनेक प्रकार के; निबिड--घना; विटपि--वृक्ष; विटप--डालों के; निकर--समूह; संश्लिप्ट--संलग्न; पुरट--स्वर्णिम; लता--लताओं सहित; आरूढ--ऊपर चढ़ी हुई; स्थल-विहड्रम--स्थल के पक्षियोंके; मिथुनै:--जोड़ों सहित; प्रोच्यमान--कूजन करते हुए; श्रुतिभि:--सुहावने शब्दों से; प्रतिबोध्यमान--प्रतिध्वनित; सलिल-कुकुट--जल-कुक्कुट; कारण्डब--बत्तख; कल-हंस--अनेक प्रकार के हंसों; आदिभि:--इत्यादि, सहित; विचित्रम्‌--नानाप्रकार के; उपकूजित--शब्द से प्रतिध्वनित; अमल--निर्मल; जल-आशय--सरोवर या झील में; कमल-आकरम्‌--कमलपुष्पों की खान; उपबध्राम--में चलने लगी।

    श्री ब्रह्मा द्वारा भेजी गई अप्सरा उस उपवन के निकट विचरने लगी जहाँ राजा ध्यान में'लगकर आराधना कर रहा था।

    वह उपवन सघन वृक्षों तथा स्वर्णिम लताओं के कारण अत्यन्तरमणीय था।

    वहाँ स्थल पर मयूर जैसे अनेक पक्षियों के जोड़े और सरोवर में बत्तख तथा हंससुमधुर कूजन कर रहे थे।

    इस प्रकार वह उपवन वृक्षों, निर्मल जल, कमल पुष्प तथा सुमधुरकूजन करते विविध पक्षियों के कारण अत्यन्त सुन्दर लग रहा था।

    तस्या: सुललितगमनपदविन्यासगतिविलासायाश्चानुपदं खणखणायमानरुचिरचरणाभरणस्वनमुपाकर्णय्यनरदेवकुमार: समाधियोगेनामीलितनयननलिनमुकुलयुगलमीषद्विकचय्य व्यचष्ट ॥

    ५॥

    तस्या:--उस ( पूर्वचित्ति ) के; सुललित--अत्यन्त सुन्दर; गमन--चाल; पद-विन्यास--चलने की शैली से; गति--आगे आगे;विलासाया:--जिनकी लीला; च--भी; अनुपदम्‌-- प्रत्येक पग से; खण-खणायमान--झंकार करते हुए; रुचिर--अत्यन्तमनोहर; चरण-आभरण--चरणों के आभूषण; स्वनम्‌ू--ध्वनि को; उपाकर्ण्य --सुनकर; नरदेव-कुमार:--राजकुमार ने;समाधि--समाधि दशा; योगेन--इन्द्रियों को नियंत्रित करके; आमीलित--अधखुले; नयन--नेत्र; नलिन--कमल की;मुकुल--कलियाँ; युगलम्‌--एक जोड़े के समान; ईषत्‌ू--कुछ-कुछ; विकचय्य--खोलकर; व्यचष्ट--देखा।

    ज्योंही अत्यन्त मनोहर गति तथा हावभाव से युक्त पूर्वचित्ति उस पथ से निकली त्योंहीप्रत्येक पग पर उसके चरण-नूपुरों की झंकार निकलने लगी।

    यद्यपि राजकुमार आग्नीक्षअथध्खुले नेत्रों से योग साध कर इन्द्रियों को वश में कर रहे थे, किन्तु अपने कमल सहश नेत्रों सेवे उसे देख सकते थे।

    तभी उन्हें उसके कंगनों की मधुर झंकार सुनाई दी।

    उन्होंने अपने नेत्रों कोकुछ और खोला, तो देखा कि वह उनके बिल्कुल निकट थी।

    तामेवाविदूरे मधुकरीमिव सुमनस उपजिद्रन्तींदिविजमनुजमनोनयनाहाददुधैर्गतिविहारतब्रीडाविनयावलोकसुस्वराक्षरावयवैर्मनसि नृणां कुसुमायुधस्यविदधतीं विवरं निजमुखविगलितामृतासवसहासभाषणामोदमदान्धमधुकरनिकरोपरोधेन द्रुतपदविन्यासेनवल्गुस्पन्दनस्तनकलशकबरभाररशनां देवीं तदवलोकनेन विवृतावसरस्य भगवतो मकरध्वजस्यवशमुपनीतो जडवदिति होवाच ॥

    ६॥

    तामू--उसको; एव--निस्संदेह; अविदूरे--निकट ही; मधुकरीम्‌ इव--मधुमक्खी के समान; सुमनस:--सुन्दर फूल;उपजिप्रन्तीमू--सूँघती हुई; दिवि-ज--स्वर्गलोक में उत्पन्न होने वालों का; मनु-ज--मर्त्यलोक में जन्म लेने वालों का; मनः--मन; नयन--नेत्रों के लिए; आह्ाद- प्रसन्नता; दुघैः--उत्पन्न करती हुई; गति--अपनी चाल से; विहार--आमोद-प्रमोद से;ब्रीडा--लज्जा से; विनय--विनयशीलता से; अवलोक--चितवन से; सु-स्वर-अक्षर-- अपनी मधुर वाणी से; अवयबै:--शरीरके अंगों से; मनसि--मन में; नृणाम्‌ू--मनुष्यों के; कुसुम-आयुधस्य--हाथ में पुष्प-धनुष धारण करने वाले कामदेव का;विदधतीम्‌--करती हुई; विवरम्‌--कर्णगत; निज-मुख--अपने मुँह से; विगलित--उड़ेलती हुईं; अमृत-आसब--मधु सहशअमृत; स-हास--अपने हँसी में; भाषण--तथा बोलने में; आमोद--प्रसन्नता से; मद-अन्ध--नशे में अन्धा हुआ; मधुकर--मधुमक्खियों का; निकर--समूह; उपरोधेन--उसके चारों ओर से घिरे होने से; द्रुत--शीघ्रगामी; पद--पाँव का; विन्यासेन--भावपूर्ण पद चाप से; वबल्गु--कुछ; स्पन्दन--गति; स्तन--उरोज; कलश--जल पात्र सहश; कबर--बालों की चोटी; भार--भार; रशनाम्‌ू--करधनी; देवीम्‌--देवी को; तत्‌ू-अवलोकनेन--उसकी दृष्टि मात्र से; विवृत-अवसरस्य--अवसर पाकर;भगवत:ः: --सर्वशक्तिमान का; मकर-ध्वजस्य--कामदेव का; वशम्‌--वश में; उपनीत:--लाया जाकर; जड-वत्‌--जड़ केसमान; इति--इस प्रकार; ह--निश्चय ही; उबाच--वह बोला।

    वह अप्सरा सुन्दर तथा आकर्षक फूलों को मधुमक्खी के समान सूँघ रही थी।

    वह अपनीचपल गति, लज्जा, विनय, चितवन तथा मुख से निकलने वाली मधुर ध्वनि और अपने अंगों कीगति से मनुष्यों तथा देवताओं के मन तथा ध्यान को आकर्षित करने वाली थी।

    इन सब गुणों केकारण उसने मनुष्यों के मनों में कुसुम धनुषधारी कामदेव के स्वागतार्थ कानों के मार्ग खोल दिये थे।

    जब वह बोलती, तो उसके मुख से अमृत झरता था।

    उसके श्वास लेने पर श्वास कास्वाद लेने के लिए भौरे मदान्ध होकर उसके कमलवत्‌ नेत्रों के चारों ओर मँडराने लगते।

    इनभौंरों से विचलित होकर वह जल्दी-जल्दी चलने का प्रयत्त करने लगी, किन्तु जल्दी चलने केलिए पैर उठाते ही उसके केश, उसकी करधनी तथा उसके जलकलश तुल्य स्तन इस प्रकार गतिकर रहे थे, जिससे वह अत्यन्त मनोहर एवं आकर्षक लग रही थी।

    दरअसल ऐसा प्रतीत होता थामानो वह अत्यन्त बलशाली कामदेव के लिए प्रवेश-मार्ग बना रही हो।

    अतः राजकुमार उसेदेखकर पूर्णतया वशी भूत हो गया और उससे इस प्रकार बोला।

    का त्वं चिकीर्षसि च किं मुनिवर्य शैलेमायासि कापि भगवत्परदेवताया: ।

    विज्ये बिभर्षि धनुषी सुहृदात्मनोर्थेकि वा मृगान्मृगयसे विपिने प्रमत्तानू ॥

    ७॥

    का--कौन; त्वम्--तुम हो; चिकीर्षसि--क्या करना चाहते हो; च-- भी; किम्‌--क्या; मुनि-वर्य--हे मुनिश्रेष्ठ; शैले--इसपर्वत पर; माया--माया; असि--हो; कापि-- कुछ; भगवत्‌-- भगवान्‌; पर-देवताया: --दिव्य ईश्वर का; विज्ये--बिना डोरीके; बिभर्षि-- धारण किये हुए; धनुषी--दो धनुष; सुहृत्‌--मित्र का; आत्मन:--अपने; अर्थ--हेतु; किम्‌ बा--अथवा;मृगान्‌ू--जंगली पशु; मृगयसे-- आखेट करने का प्रयत्न कर रहे हो; विपिने--इस बन में; प्रमत्तान्‌ू--धन से मतवालों का।

    राजकुमार ने भूल से अप्सरा को सम्बोधित किया--हे मुनिवर्य, तुम कौन हो ? इस पर्वत परक्यों आये हो और कया करना चाहते हो ? क्या तुम भगवान्‌ की कोई माया हो ? तुम बिना डोरीवाले इन दो धनुषों को क्‍यों धारण किये हो ? क्या इनसे कोई तुम्हारा प्रयोजन है या अपने मित्रके लिए इन्हें धारण किये हुए हो ? सम्भवत: तुम इन्हें इस वन के मतवाले ( पागल ) पशुओं कोमारने के लिए धारण किये हो।

    बाणाविमौ भगवतः शतपत्रपत्रौशान्तावपुद्भरुचिरावतितिग्मदन्तौ ।

    कस्मै युयुड्क्षसि बने विचरन्न विदा:क्षेमाय नो जडधियां तव विक्रमोउस्तु ॥

    ८॥

    बाणौ--दो बाण; इमौ--ये; भगवतः--आपके, सर्वशक्तिमान के; शत-पत्र-पत्रौ--कमल की पंखुडियों जैसे पंखों वाले;शान्तौ--शान्त; अपुद्ड--पंखरहित; रुचिरौ--अत्यन्त सुन्दर; अति-तिग्म-दन्तौ--अत्यन्त तीक्ष्ण नोक वाले; कस्मै--किसको;युयुद्क्षंसि--बेध देना चाहते हो; बने--वन में; विचरन्‌--इधर-उधर घूमते हुए; न विद्य:--हम समझ नहीं सकते; क्षेमाय--कल्याण के लिए; न:ः--हमारे; जड-धियाम्‌--जड़-बुद्धि वालों को; तब--तुम्हारा; विक्रम:--शौर्य; अस्तु--हो?

    तब आगम्नीक्ष ने पूर्वचित्ति के बाँके नेत्रों को देखा और कहा--हे मित्र, तुम्हारे बाँके नेत्र दोअत्यन्त शक्तिशाली बाण हैं।

    इन बाणों में कमल पुष्प की पंखुड़ियों जैसे पंख हैं।

    मूठरहित होनेपर भी वे अत्यन्त सुन्दर हैं और उनके सिरे नुकीले तथा भेदने वाले हैं।

    वे अत्यन्त शान्त लगते हैंजिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे किसी पर नहीं छोड़े जाएँगे।

    तुम इस वन में किसी न किसी कोइन बाणों से बेधने के लिए विचरण कर रहे होगे, किन्तु किसे ? यह मैं नहीं जानता।

    मेरी बुद्धिभी मन्द पड़ गई है और मैं तुम्हारा सामना नहीं कर सकता।

    दरअसल, पराक्रम में कोई भीतुम्हारी बराबरी नहीं कर सकता; इसीलिए, मेरी प्रार्थना है कि तुम्हारा पराक्रम मेरे लिएकल्याणकारी हो।

    शिष्या इमे भगवत: परित: पठन्तिगायन्ति साम सरहस्यमजस्त्रमीशम्‌ ।

    युष्मच्छिखाविलुलिता: सुमनोभिवृष्टी:सर्वे भजन्त्यूषिगणा इब वेदशाखा: ॥

    ९॥

    शिष्या:--शिष्य; इमे--ये; भगवतः -- पूज्य के; परित:--चारों ओर से घेरे हुए; पठन्ति--सुना रहे हैं; गायन्ति--गायन कर रहेहैं; साम--सामवेद; स-रहस्यम्‌--रहस्ययुक्त; अजस्त्रमू--निरन्तर; ईशम्‌--ई श्वर को; युष्मत्‌-- तुम्हारी; शिखा--चोटी से;विलुलिता:--गिरे हुए; सुमन: --पुष्पों की; अभिवृष्टी: --वृष्टि; सर्वे--समस्त; भजन्ति-- भोगते हैं; ऋषि-गणा:--ऋषि, मुनि;इब--सहश; वेद-शाखा:--वैदिक शास्त्रों की शाखाएँ।

    पूर्वच्ित्ति का अनुगमन करने वाले भौरों को देखकर महाराज आग्नीक्ष बोले--भगवन्‌,ऐसा प्रतीत होता है मानो तुम्हारे शरीर को घेरे हुए ये भौरे अपने पूज्य गुरु को घेरे हुए शिष्य हैं।

    वे सामवेद तथा उपनिषद्‌ के मंत्रों का निरन्तर गायन कर रहे हैं और इस प्रकार तुम्हारी स्तुति कररहे हैं।

    जैसे ऋषिगण वैदिक शास्त्रों की शाखाओं का अनुसरण करते हैं, ये भौरें तुम्हारी चोटीसे झड़ने वाले पुष्पों का आनन्द ले रहे हैं।

    वाचं परं चरणपद्रतित्तिरीणांब्रह्मन्नरूपमुखरां श्रुणवाम तुभ्यम्‌ ।

    लब्धा कदम्बरुचिरड्डृविटड्डूबिम्बेयस्यामलातपरिधि: क्व च वल्कलं ते ॥

    १०॥

    वाचम्‌--गुंजरित ध्वनि; परम्‌--एकमात्र; चरण-पञ्धर--नूपुरों की; तित्तिरीणाम्‌--तीतरों की; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; अरूप--बिना रूप के; मुखराम्‌--स्पष्ट सुनाई पड़ने वाला; श्रूणवाम--मैं सुनता हूँ; तुभ्यम्‌--तुम्हारा; लब्धा--प्राप्त; कदम्ब--कदम्बपुष्प सहश; रुचि: --मनोहर रंग; अड्जू-विटड्जू-बिम्बे--सुन्दर गोल नितम्बों पर; यस्याम्‌ू--जिस पर; अलात-परिधि:--ज्वलितअंगारों का घेरा; क्व--कहाँ; च-- भी; वल्कलम्‌--ढकने के लिए वस्त्र; ते--तुम्हारा |

    हे ब्राह्मण, मुझे तो तुम्हारे नूपुरों की झंकार ही सुनाई पड़ती है।

    ऐसा लगता है उनके भीतरतीतर पक्षी चहक रहे हैं।

    मैं उनके रूपों को नहीं देख रहा, किन्तु मैं सुन रहा हूँ कि वे किसप्रकार चहक रहे हैं।

    जब मैं तुम्हारे सुन्दर गोल नितम्बों को देखता हूँ, तो मुझे लगता है कि मानोवे कदम्ब के पुष्पों का सुन्दर रंग लिए हों।

    तुम्हारी कमर में जाज्वल्यमान अंगारों की मेखला पड़ीहुई है।

    दरअसल, ऐसा लगता है कि तुम वस्त्र धारण करना भूल गये हो।

    कि सम्भूतं रुचिरयोद्धिज श्रड़रयोस्तेमध्ये कृशो वहसि यत्र दशिः भ्रिता मे ।

    पड्लोरुण: सुरभीरात्मविषाण ईहग्‌येनाशअ्रमं सुभग मे सुरभीकरोषि ॥

    ११॥

    किम्‌--क्या; सम्भृतम्‌-- भरा हुआ; रुचिरयो: --अत्यन्त सुन्दर; द्विज--हे ब्राह्मण; श्रृड़यो:--दो सींगों के भीतर; ते--तुम्हारा;मध्ये--बीच में; कृशः--पतली; वहसि-- धारण करते हो; यत्र--जिसमें; इशि:--आँखें; भ्रिता--टिकी हुई; मे--मेरी;पड्डू:--चूर्ण; अरुण:--लाल; सुरभि:--सुगंधित; आत्म-विषाणे--दो सींगों पर; ईंहक्‌--ऐसा; येन--जिसके द्वारा;आश्रमम्‌ू--आश्रम; सु-भग--हे भाग्यवान्‌; मे--मेरा; सुरभी-करोषि--सुगन्धित बना रहे हो |

    तब आग्नीश्च ने पूर्वचित्ति के उभरे हुए उरोजों की प्रशंसा की।

    उन्होंने कहा--हे ब्राह्मण,तुम्हारी कमर अत्यन्त पतली है, किन्तु फिर भी तुम कष्ट सह कर इन दो सींगों को धारण कर रहेहो जिन पर मेरे नेत्र अटक गये हैं।

    इन दोनों सुन्दर सीगों के भीतर कया भरा है? तुमने इनकेऊपर सुगन्धित लाल-लाल चूर्ण छिड़क रखा है मानो अरुणोदय का सूर्य हो।

    हे भाग्यवान्‌, क्यामैं पूछ सकता हूँ कि तुम्हें ऐसा सुगन्धित चूर्ण कहाँ से मिला जो मेरे आश्रम को सुरभित कर रहाहै?

    लोकं प्रदर्शय सुहृत्तम तावकं मेयत्रत्य इत्थमुरसावयवावपूर्बों ।

    अस्मद्विधस्य मनउन्नयनौ बिभर्तिबहद्धुतं सरसराससुधादि वक्‍त ॥

    १२॥

    लोकम्‌--आवास स्थान, देश; प्रदर्शय--दिखा दो; सुहृत्‌-तम-हे श्रेष्ठ मित्र, मित्रवर; तावकम्‌--इस प्रकार; मे--मुझको;यत्रत्यः--जिसमें उत्पन्न पुरुष; इत्थम्‌--इस तरह; उरसा--वक्षस्थल से; अवयवौ--दो अंग ( उरोज ); अपूर्वो --अपूर्ब; अस्मत्‌-विधस्य--मुझ जैसे व्यक्ति को; मन:-उन्नयनौ--चित्त को क्षुब्ध करने वाला; बिभर्ति--बना हुआ है; बहु--अनेक; अद्भुतम्‌--अदभुत; सरस--मृदुबचन; रास--मुस्कान जैसा हावभाव; सुधा-आदि--अमृत के तुल्य; वक्‍्त्रे--मुख में ।

    मित्रवर, क्‍या तुम मुझे अपना निवास स्थान दिखा सकते हो? मैं कल्पना भी नहीं करसकता कि उस स्थान के वासियों को तुम्हारे उन्नत उरोजों के समान अद्भुत्‌ शारीरिक अंग किसतरह प्राप्त हुए हैं, जो मुझ जैसे देखने वाले के मन तथा नेत्रों को उद्देलित कर रहे हैं।

    उनकी मधुरवाणी तथा मृदु मुस्कान से इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि उनके मुख में अमृत बसता होगा।

    का वात्मवृत्तिरदनाद्धविरड़ वातिविष्णो: कलास्यनिमिषोन्मकरौ च कर्णों ।

    उद्विग्नमीनयुगलं द्विजपड़ि शोचि-रासबन्नभूड़निकरं सर इन्मुखं ते ॥

    १३॥

    का-क्या; वा--तथा; आत्म-वृत्तिः:--शरीर के पालन हेतु भोजन; अदनात्‌--पान के चबाने से; हविः--यज्ञ की हवन सामग्री;अड्ग-+मेरे प्रिय मित्र; वाति--फैल रही है; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु के; कला--शरीर का अंश; असि--हो; अनिमिष--अपलक; उन्मकरौ--दो उज्वल मगर; च--भी; कर्णौं--दो कान; उद्विग्ग--परेशान, अस्थिर; मीन-युगलम्‌--दो मछलियोंसहित; द्विज-पड्डि --दाँतों की पाँत; शोचि: --सुन्दरता; आसन्न--सन्निकट; भूड़-निकरम्‌--भौंरों का समूह; सर: इत्‌--सरोवरके सहृश; मुखम्‌--मुँह; ते--तुम्हारा |

    मित्रवर, शरीर पालने के लिए तुम कया खाते हो ? ताम्बूल चबाने से तुम्हारे मुख से सुगन्धफैल रही है।

    इससे यह सिद्ध होता है कि तुम सदैव विष्णु का प्रसाद खाते हो।

    निश्चय ही तुमभगवान्‌ विष्णु के अंश स्वरूप हो।

    तुम्हारा मुख मनोहर सरोवर के समान सुन्दर है।

    तुम्हारेरत्जटित कुंडल उन दो उज्वल मकरों के तुल्य हैं जिनके नेत्र विष्णु के समान अपलक रहनेवाले हैं।

    तुम्हारे दोनों नेत्र दो चंचल मछलियों के सद्ृश हैं।

    इस प्रकार तुम्हारे मुख-सरोवर में दोमकर तथा दो चंचल मछलियाँ एक साथ तैर रही हैं।

    इनके अतिरिक्त तुम्हारे दाँतों की धवलपंक्ति जल में श्वेत हंसों की पंक्ति के सहश प्रतीत होती है और तुम्हारे बिखरे बाल तुम्हारे मुख कीशोभा का पीछा करने वाले भौंरों के झुंड के समान हैं।

    योउसौ त्वया करसरोजहतः पतड़ेदिक्षु भ्रमन्भ्रमत एजयतेक्षिणी मे ।

    मुक्त न ते स्मरसि वक़््जटावरूथंकष्टोडनिलो हरति लम्पट एष नीवीम्‌ ॥

    १४॥

    यः--जो; असौ--वह; त्वया--तुम्हारे द्वारा; कर-सरोज--कमल के समान हथेली वाला; हत:--आहत; पतड्ु:--गेंद; दिक्षु--समस्त दिशाओं में; भ्रमन्‌ू--घूमते हुए; भ्रमतः--चल, अस्थिर; एजयते--विश्लुब्ध करता है; अक्षिणी--नेत्रों को; मे--मेरे;मुक्तम्‌--बिखरे हुए; न--नहीं; ते--तुम्हारा; स्मरसि-- क्या तुम्हें सुधि है; वक्र--घुँघराले; जटा--बालों का; वरूथम्‌--समूह,लटें; कष्ट:--कष्टदायी; अनिल: --वायु; हरति--बहा ले जाता है; लम्पट:-- धूर्त, परस्त्री पर आसक्त सहश; एष:--यह;नीवीम्‌-- अधोवस्त्र |

    मेरा मन पहले ही से चंचल है और तुम इस गेंद को अपनी कमल सहश हथेली से इधर-उधरफेंक कर मेरे नेत्रों को विश्षुब्ध कर रहे हो।

    तुम्हारे घुँधराले केश अब बिखरे हुए हैं, किन्तु तुम्हेंउनको सँभालने की सुधि नहीं है।

    तुम इन्हें सँभाल क्‍यों नहीं लेते? यह धूर्त वायु स्त्रियों मेंआसक्त लम्पट पुरुष के समान तुम्हारे अधोवस्त्र को उठाने का प्रयल कर रहा है।

    क्‍या तुम्हेंइसकी खबर नहीं है ?

    रूपं तपोधन तपश्चरतां तपोध्न॑ह्ोतत्तु केन तपसा भवतोपलब्धम्‌ ।

    चर्तु तपोहसि मया सह मित्र महांकि वा प्रसीदति स वै भवभावनो मे ॥

    १५॥

    रूपम्‌--सुन्दरता; तपः-धन-हे श्रेष्ठ तपस्वी; तप: चरताम्‌--तपस्या में संलग्न पुरुषों का; तपः-घ्नमू-तपों को विनष्ट करनेवाला; हि--निश्चय ही; एतत्‌--यह; तु--निस्सन्देह; केन--किस; तपसा--तपस्या के द्वारा; भवता--तुम्हारे द्वारा;उपलब्धम्‌--प्राप्त किया; चर्तुमू--करने के लिए; तप:--तप; अर्हसि--तुम्हें चाहिए; मया सह--मेरे साथ; मित्र--हे मित्र;महाम्‌--मुझको; किम्‌ वा--अथवा सम्भव है; प्रसीदति--प्रसन्न होता है; सः--वह; बै--निश्चय ही; भव-भावन:--इसब्रह्माण्ड का सृजनकर्ता; मे--मेरे साथ ।

    हे श्रेष्ठ तपस्वी, तुम्हें दूसरों की तपस्या को भंग करने वाला यह अदभुत्‌ रूप कहाँ से प्राप्तहुआ? तुमने यह कला कहाँ से सीखी ? हे मित्र, तुमने इस सुन्दरता को प्राप्त करने के लिए कौनसा तप किया है? मेरी इच्छा है कि तुम मेरे साथ तपस्या में सम्मिलित हो जाओ, क्योंकि होसकता है कि इस ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा भगवान्‌ ब्रह्मा ने मुझ पर प्रसन्न होकर तुम्हें मेरी पत्नी बननेके लिए भेजा हो।

    नत्वां त्यजामि दयितं द्विजदेवदत्तंयस्मिन्मनो हगपि नो न वियाति लग्नम्‌ ।

    मां चारुश्रृड्ग्यहसि नेतुमनुत्रतं तेचित्तं यतः प्रतिसरन्तु शिवा: सचिव्य: ॥

    १६॥

    न--नहीं; त्वाम्‌-तुमको; त्यजामि--छोड़ूँगा; दयितम्‌-- अत्यन्त प्रिय; द्विज-देव--ब्राह्मणों के उपास्य देवता, भगवान्‌ ब्रह्मा से;दत्तमू--दिया हुआ; यस्मिनू--जिसको; मन:--मन; हक्‌--आँखें; अपि-- भी; नः--मेरा; न वियाति--दूर नहीं जाता है;लग्नमू-हढ़तापूर्वक लगा हुआ; मामू--मुझको; चारु-श्रृद्धि--हे सुन्दर उन्नत उरोजों वाली स्त्री; अहंसि--तुम्हे चाहिए; नेतुम्‌--पथ प्रदर्शन करना; अनुव्रतम्‌-- अनुयायी; ते--तुम्हारा; चित्तमू--आकांक्षा; यतः--जहाँ कहीं भी; प्रतिसरन्तु--साथ चलें;शिवाः--अनुकूल; सचिव्य: --मित्रगण, सखियाँ |

    ब्राह्मणों के द्वारा पूजित भगवान्‌ ब्रह्मा ने मुझपर अत्यन्त अनुग्रह करके तुमको मुझे दिया है;इसलिए मैं तुमसे मिल पाया हूँ।

    मैं तुम्हारा साथ नहीं छोड़ना चाहता, क्योंकि मेरे मन तथा नेत्रतुम्हीं पर टिके हुए हैं और वे किसी तरह दूर नहीं किये जा सकते।

    हे सुन्दर उन्नत उरोजों वालीबाला, मैं तुम्हारा अनुचर हूँ।

    तुम मुझे जहाँ भी चाहे ले जा सकती हो और तुम्हारी सखियाँ भीमेरे साथ चल सकती हैं।

    श्रीशुक उबाचइति ललनानुनयातिविशारदो ग्राम्यवैदग्ध्यया परिभाषया तां विबुधवधूं विबुधमतिरधिसभाजयामास ॥

    १७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ललना--स्त्रियाँ; अनुनय--जीतने में; अति-विशारद: --अत्यन्त पटु; ग्राम्य-वैदग्ध्यया-- अपनी इच्छाओं को पूरा करने में पठु; परिभाषया--चुने शब्दों से; ताम्‌--उस;विबुध-वधूम्‌--देव-कन्या को; विबुध-मति:--देवताओं के तुल्य बुद्धि वाले आग्नीश्व ने; अधिसभाजयाम्‌ आस- प्रसन्न करलिया।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी आगे बोले--महाराज आग्नीक्ष देवताओं के समान बुद्धिमान औरस्त्रियों को रिझा करके अपने पक्ष में कर लेने की कला में अत्यन्त निपुण थे।

    अतः उन्होंने उसस्वर्गकन्या को अपनी कामपूर्ण वाणी से प्रसन्न करके उसको अपने पक्ष में कर लिया।

    सा च ततस्तस्य वीरयूथपतेर्बुद््विशीलरूपवय:श्रियौदार्येण पराक्षिप्तमनास्तेनसहायुतायुतपरिवत्सरोपलक्षणं कालं जम्बूद्वीपपतिना भौमस्वर्गभोगान्बुभुजे ॥

    १८॥

    सा--वह स्त्री; च-- भी; ततः--तत्पश्चात्‌; तस्य--उस; वीर-यूथ-पते: --वीरों के स्वामी की; बुद्धि--बुद्धि; शील--आचरण;रूप--सुन्दरता; वयः--अवस्था ( तरुण ); थ्रिया--ऐश्वर्य; औदार्येण--( तथा ) उदारता से; पराक्षिप्त--आकर्षित; मना:--मनवाली; तेन सह--उसके साथ; अयुत--दस हजार; अयुत--दस हजार; परिवत्सर--वर्ष ; उपलक्षणम्‌--विस्तृत; कालमू--काल, समय; जम्बूद्वीप-पतिना--जम्बूद्वीप के राजा के साथ; भौम--पृथ्वी का; स्वर्ग--स्वर्गिक; भोगान्‌ू--सुख, भोग;बुभुजे--भोग किया।

    आग्नीघ्र की बुद्धि, तरुणाई, सौन्दर्य, आचरण, ऐश्वर्य तथा उदारता से आकर्षित होकरपूर्वचित्ति जम्बूढ्लीप के राजा तथा समस्त वीरों के स्वामी आग्नीश्र के साथ कई हजार वर्षों तकरही और उसने भौतिक तथा स्वर्गिक दोनों प्रकार के सुखों का भरपूर भोग किया।

    तस्यामु ह वा आत्मजान्स राजवर आग्नीक्नोनाभिकिम्पुरुषहरिवर्षेलावृतरम्यकहिरण्मयकुरुभद्गाश्वकेतुमालसंज्ञान्रव पुत्रानजनयत्‌: ॥

    १९॥

    तस्याम्‌--उससे; उ ह वा--निश्चय ही; आत्म-जानू--पुत्र; सः--उसने; राज-वर:--राजाओं में श्रेष्ठ; आग्नीध्र: -- आग्नीष्ष ने;नाभि--नाभि; किंपुरुष--किम्पुरुष; हरि-वर्ष--हरिवर्ष, इलावृत--इलावृत; रम्थक--रम्यक; हिरण्मय--हिरण्यमय; कुरु--कुरु; भद्गाश्व-- भद्गा श्र; केतु-माल--केतुमाल; संज्ञानू--नामक; नव--नौ; पुत्रान्‌--पुत्रों को; अजनयत्‌--उत्पन्न किया |

    राजाओं में श्रेष्ठ महाराज आग्नीश्व को पूर्वचित्ति के गर्भ से नौ पुत्र प्राप्त हुए जिनके नामनाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्गाश्व तथा केतुमाल थे।

    सा सूत्वाथ सुतान्नवानुवत्सरं गृह एवापहाय पूर्वचित्तिर्भूय एवाज॑ देवमुपतस्थे ॥

    २०॥

    सा--वह; सूत्वा--जन्म देकर; अथ--तत्पश्चात्‌; सुतान्‌--पुत्रों को; नव--नौ; अनुवत्सरम्‌--प्रति वर्ष; गृहे--घर पर; एब--निश्चय ही; अपहाय--छोड़कर; पूर्वचित्ति: --पूर्वचित्ति; भूय:--पुन: ; एब--निश्चय ही; अजम्‌-- भगवान्‌ ब्रह्मा के; देवम्‌--देवता; उपतस्थे--पास गई, उपस्थित हुई ॥

    पूर्वचित्ति ने प्रति वर्ष एक-एक करके इन नौ पुत्रों को जन्म दिया, किन्तु जब वे बड़े हो गये, तो वह उन्हें घर पर छोड़कर ब्रह्मा की उपासना करने के लिए उनके पास उपस्थित हुई।

    आग्नीक्चसुतास्ते मातुरनुग्रहादौत्पत्तिकेनेव संहननबलोपेता: पित्रा विभक्ता आत्मतुल्यनामानि यथाभागंजम्बूद्वीपवर्षाणि बुभुजु: ॥

    २१॥

    आग्नीश्च-सुता:--महाराज आग्नीश्न के सब पुत्र; ते--वे; मातु:--माता के; अनुग्रहात्‌--अनुग्रह से अथवा माँ का दूध पीकर;औत्पत्तिकन--सहज; एव--ही; संहनन--सुगठित शरीर; बल--शक्ति; उपेता: --प्राप्त; पित्रा--पिता द्वारा; विभक्ता:--विभाजित; आत्म-तुल्य-- अपने ही समान; नामानि--नाम वाले; यथा-भागम्‌--ठीक से विभक्त; जम्बूद्वीप-वर्षाणि --जम्बूद्वीपके विभिन्न भागों ( सम्भवतः एशिया तथा यूरोप दोनों ); बुभुजु:--राज्य किया।

    अपनी माँ का दूध पीने के कारण आग्नीश्न के नवों पुत्र अत्यन्त बलिष्ठ एवं सुगठित शरीरवाले हुए।

    उनके पिता ने प्रत्येक को जम्बूद्यीप का एक-एक भाग दे दिया।

    इन राज्यों के नामपुत्रों के नामों के अनुसार पड़े।

    इस प्रकार आग्नीक्ष के सभी पुत्र पिता से प्राप्त राज्यों पर राज्यकरने लगे।

    आग्नीक्षो राजातृप्त: कामानामप्सरसमेवानुदिनमधिमन्यमानस्तस्या: सलोकतां श्रुतिभिरवारुन्ध यत्रपितरो मादयन्ते ॥

    २२॥

    आम्नीक्ष:--आग्नीक्ष; राजा--राजा; अतृप्त:--असम्तुष्ट; कामानाम्‌--इन्द्रियभोग से; अप्सरसम्‌--स्वर्ग सुन्दरी ( पूर्वचित्ति ) केविषय में; एव--निश्चय ही; अनुदिनम्‌--दिनोंदिन; अधि--अत्यधिक; मन्यमान: --सोचते हुए; तस्या: --उसका; स-लोकताम्‌--उसी लोक को; श्रुतिभिः--वेदों से; अवारुन्ध--प्राप्त किया; यत्र--जहाँ; पितर:--पूर्वज, पितृगण; मादयन्ते--आनन्द लेते हैं।

    पूर्वचचित्ति के चले जाने पर, अतृप्त वासना के कारण राजा आग्नीश्व उसी के विषय में सोचतेरहते।

    अतः वैदिक आज्ञाओं के अनुसार राजा मृत्यु के पश्चात्‌ उसी लोक में गये जहाँ उनकी पत्नीथी।

    यह लोक पितृलोक कहलाता है जहाँ कि पितरगण अत्यन्त आनन्द से रहते हैं।

    सम्परेते पितरि नव भ्रातरो मेरुदुहितृमेंरुदेवीं प्रतिरूपामुग्रदंष्टीं लतां रम्यां श्यामां नारीं भद्रां देववीतिमितिसंज्ञा नवोदवहन्‌, ॥

    २३॥

    सम्परेते पितरि--अपने पिता के प्रयाण के पश्चात्‌; नव--नौ; भ्रातरः-- भाई; मेरू-दुहितृ:--मेरु की पुत्रियाँ; मेरुदेवीम्‌--मेरुदेवी; प्रति-रूपाम्‌--प्रतिरूपा; उग्र-दंष्ठीम्‌--उग्रदंष्टी; लताम्‌-- लता; रम्याम्‌--रम्या; श्यामाम्‌ू--श्यामा; नारीम्‌--नारी;भद्राम्‌--भद्रा; देव-वीतिम्‌ू--देववीति को; इति--इस प्रकार; संज्ञा:--नाम; नव--नौ; उदवहन्‌--विवाह कर लिया।

    अपने पिता के प्रयाण के पश्चात्‌ नवों भाइयों ने मेरु की नौ पुत्रियों के साथ विवाह करलिया, जिनके नाम मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ठी, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा तथा देववीतिथे।

    TO

    अध्याय तीन: ऋषभदेव का राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से प्रकट होना

    5.3श्रीशुक उबाचनाभिरपत्यकामोप्रजया मेरुदेव्या भगवन्तं यज्ञपुरुषमवहितात्मायजत ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी बोले; नाभि:--महाराज आग्नीश्च के पुत्र ने; अपत्य-कामः --पुत्रेच्छा से; अप्रजया--जिसेकोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुईं थी; मेरुदेव्या--मेरुदेवी से; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌; यज्ञ-पुरुषम्‌--समस्त यज्ञों के भोक्ता तथा स्वामी,भगवान्‌ विष्णु को; अवहित-आत्मा--अत्यन्त ध्यानपूर्वक; अयजत--स्तुति और आराधना की |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--आग्नीक्ष के पुत्र महाराज नाभि ने सन्‍्तान की इच्छा की,इसलिए उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं स्वामी भगवान्‌ विष्णु की अत्यन्त मनोयोग से स्तुतिएवं आराधना प्रारम्भ की।

    उस समय तक महाराज नाभि की पतली मेरुदेवी ने किसी सन्‍्तान कोजन्म नहीं दिया था, अतः वह भी अपने पति के साथ भगवान्‌ विष्णु की आराधना करने लगी।

    तस्य ह वाव श्रद्धया विशुद्धभावेन यजतः प्रवर्ग्येषु प्रचरत्सुद्रव्यदेशकालमन्त्र्त्विग्दक्षिणाविधानयोगोपपत्त्या दुरधिगमो पि भगवान्भागवतवात्सल्यतया सुप्रतीकआत्मानमपराजितं निजजनाभिप्रेतार्थविधित्सया गृहीतहदयो हृदयड्मंमनोनयनानन्दनावयवाभिराममाविश्चवकार ॥

    २॥

    तस्य--जब वह ( नाभि ); ह वाव--निश्चय ही; श्रद्धया--अत्यन्त श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक; विशुद्ध-भावेन--शुद्ध, निष्कलुष मनसे; यजतः--आराधना कर रहा था; प्रवर्ग्येषु--जबकि प्रवर्ग्य नामक कर्म; प्रचरत्सु--पालन किये जा रहे थे; द्रव्य--सामग्री;देश--स्थान; काल--समय; मन्त्र--स्तुति, मंत्र; ऋत्विक्‌ु--पुरोहित; दक्षिणा--पुरोहितों को मिलने वाली भेंटें; विधान--विधि; योग--तथा साधनों का; उपपत्त्या--करने से; दुरधिगम:--अप्राप्य; अपि--यद्यपि; भगवान्‌-- भगवान्‌; भागवत-वात्सल्यतया-- भक्त पर वत्सलता के कारण; सु-प्रतीक:--अत्यन्त सुन्दर रूप धारण किये; आत्मानम्‌--अपने आपको;अपराजितम्‌--दुर्जेय; निज-जन--भक्त की; अभिप्रेत-अर्थ--कामना; विधित्सबा--पूर्ण करने; गृहीत-हृदय:ः--जिनका मनआकृष्ट हो गया हो; हृदयड्रमम्‌--मोहक; मन:-नयन-आनन्दन--मन तथा नेत्रों को आनन्द प्रदान करने वाले; अवयवब--अंगोंसे; अभिरामम्‌--सुन्दर; आविश्वकार--प्रकट किया |

    यज्ञ में भगवान्‌ का अनुग्रह प्राप्त करने के सात दिव्य साधन हैं--( १ ) बहुमूल्य सामग्रियोंया खाद्य पदार्थों का अर्पण ( द्रव्य ); (२) देश-अनुरूप कार्य करना, (३ ) काल-अनुरूपकार्य करना, (४) स्तुति अर्पण (मंत्र ) (५) पुरोहित लगाना ( ऋत्विक ), (६) पुरोहितों कोदान देना ( दक्षिणा ) तथा ( ७ ) विधि-नियमों का पालन करना।

    किन्तु सदैव ही इन सामग्रियोंसे भगवान्‌ को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

    तो भी ईश्वर अपने भक्त पर वत्सल रहते हैं।

    अतःजब भक्त महाराज नाभि ने शुद्ध मन से अत्यन्त श्रद्धा तथा भक्ति सहित प्रवर्ग्य यज्ञ करते हुएईश्वर की आराधना और प्रार्थना की तो अपने भक्तों पर वत्सलता के कारण परम कृपालु भगवान्‌राजा नाभि के समक्ष अपने दुर्जेय तथा चतुर्भुजी आकर्षक रूप में प्रकट हुए।

    इस प्रकार सेभगवान्‌ ने अपने भक्त की मनोकामना पूर्ण करने के लिए अपने भक्त के समक्ष अपना मनोहररूप प्रकट किया।

    यह रूप भक्तों के मन तथा नेत्रों को प्रमुदित करने वाला है।

    अथ ह तमाविष्कृतभुजयुगलद्ठयं हिरण्मयं पुरुषविशेषं कपिशकौशेयाम्बरधरमुरसिविलसच्छीवत्सललामं दरवरवनरूहवनमालाच्छूर्यमृतमणिगदादिभिरुपलक्षितंस्फुटकिरणप्रवरमुकुटकुण्डलकटककटिसूत्रहारकेयूरनूपुराद्यड्रभूषणविभूषितमृत्विक्सदस्यगृहपतयो धना इवोत्तमधनमुपलभ्य सबहुमानमर्हणेनावनतशीर्षाण उपतस्थु:, ॥

    ३॥

    अथ-तत्पश्चात्‌; ह--निश्चय ही; तम्‌--उसको; आविष्कृत-भुज-युगल-द्वयम्‌--जो चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए; हिरण्मयम्‌--अत्यन्त चमकीला; पुरुष-विशेषम्‌--समस्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ, पुरुषोत्तम; कपिश-कौशेय-अम्बर-धरम्‌--रेशमी पीताम्बर धारणकिये; उरसि--वक्षस्थल पर; विलसत्‌---सुन्दर; श्रीवत्स-- श्रीवत्स नामक; ललामम्‌--चिह्युक्त; दर-वर--शंख से; वन-रुह--कमल पुष्प; बन-माला--वन पुष्पों की माला; अच्छूरि--चक्र; अमृत-मणि--कौस्तुभ मणि; गदा-आदिभि:--गदा तथा अन्यचिह्नों से; उपलक्षितम्‌--लक्षणों से युक्त होकर; स्फुट-किरण--तेजस्वी, किरण-मण्डित; प्रवर-- श्रेष्ठ; मुकुट--मुकुट, किरीट;कुण्डल--कर्णाभूषण, बालियाँ; कटक--कंकण; कटि-सूत्र--करधनी; हार--हार; केयूर--बाजूबंद; नूपुर--पाँवों में पहनाजाने वाला आभूषण, पायल; आदि--इत्यादि; अड़--शरीर के; भूषण--आभूषणों से; विभूषितम्‌-- अलंकृत; ऋत्विक्‌ --पुरोहितगण; सदस्य--पार्षद; गृह-पतय: --( तथा ) राजा नाभि; अधना:--निर्धन व्यक्ति; इब--सहृश; उत्तम-धनमू-- प्रचुरधनराशि; उपलभ्य--पाकर; स-बहु-मानम्‌--अत्यन्त सत्कार सहित; अर्हणेन--पूजा सामग्री से; अवनत--झुका कर;शीर्षाण:--अपने शिर ( मस्तकों ); उपतस्थु:--स्तुति की ।

    भगवान्‌ विष्णु राजा नाभि के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए।

    वे अत्यन्त तेजोमय थे औरसमस्त महापुरुषों में सर्वोत्तम प्रतीत होते थे।

    वे अधोभाग में रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे;उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न था, जो सदैव शोभा देता है।

    उनके चारों हाथों में शंख, कमल,चक्र तथा गदा थे उनके गले में वनपुष्पों की माला तथा कौस्तुभमणि थी।

    वे मुकुट, कुण्डल,कंकण, करधनी, मुक्ताहार, बाजूबंद, नूपुर तथा अन्य रत्नजटित आभूषणों से शोभित थे।

    भगवान्‌ को अपने समक्ष देखकर राजा नाभि, उनके पुरोहित तथा पार्षद वैसा ही अनुभव कर रहेथे जिस प्रकार किसी निर्धन को सहसा अथाह धनराशि प्राप्त हुई हो जाए।

    उन्होंने भगवान्‌ कास्वागत किया, आदरपूर्वक प्रणाम किया तथा स्तुति करके वस्तुएँ भेंट कीं।

    ऋत्विज ऊचुःअर्हसि मुहुर्त्तमाईहणमस्माकमनुपथानां नमो नम इत्येतावत्सदुपशिक्षितं कोहईतिपुमान्प्रकृतिगुणव्यतिकरमतिरनीश ई श्वरस्य परस्य प्रकृतिपुरुषयोरगाक्तिनाभिर्नामरूपाकृतिभीरूपनिरूपणम्‌; सकलजननिकायवृजिननिरसनशिवतमप्रवरगुणगणैकदेशकथनाहते ॥

    ४-५॥

    ऋत्विज: ऊचु:--ऋत्विजों ने कहा; अहंसि--( स्वीकार ) करें; मुहुः--पुनः पुनः; अहत्‌-तम-हे श्रेष्ठ पूज्य पुरुष; अर्हणम्‌--पूजा; अस्माकम्‌ू--हम सब की; अनुपथानाम्‌--जो आपके दास हैं; नमः--नमस्कार है; नम:ः--नमस्कार; इति--इस प्रकार;एतावत्‌--यहाँ तक; सतू- श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा; उपशिक्षितम्‌--सिखाये गये; क:ः--कौन; अर्हति--समर्थ है; पुमान्‌ू-- मनुष्य;प्रकृति-- भौतिक प्रकृति के; गुण--गुणों के; व्यतिकर--रूपान्तरों में; मतिः--जिसका मन ( मग्न है ); अनीश:--असमर्थ;ईश्वरस्थ-- भगवान्‌ के ; परस्थ--परम; प्रकृति-पुरुषयो:--तीनों गुणों के अन्तर्गत; अर्वाक्तनाभि:--जो वहाँ तक नहीं पहुँचतेअथवा जो इसी संसार के हैं; नाम-रूप-आकृतिभि:--नामों, रूपों तथा गुणों से; रूप--आपकी प्रकृति या स्थिति का;निरूपणम्‌--निश्चय करना; सकल--समस्त; जन-निकाय--मानव जाति का; वृजिन--पाप कर्म; निरसन--मिटाने वाले;शिवतम--अत्यन्त मंगलमय; प्रवर-- श्रेष्ठठम; गुण-गण--दिव्य गुणों का; एक-देश--एक अंश; कथनात्‌--कथन से; ऋते--केवल।

    ऋत्विजगण इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगे--हे परम पूज्य, हम आपके दास मात्र हैं।

    यद्यपि आप पूर्ण हैं, किन्तु अहैतुकी कृपावश ही सही, हम दासों की यत्किचित सेवा स्वीकारकरें।

    हम आपके दिव्य रूप से परिचित नहीं हैं, किन्तु जैसा वेदों तथा प्रामाणिक आचार्यों ने हमेंशिक्षा दी है, उसके अनुसार हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं।

    जीवात्माएँ प्रकृति के गुणों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होती हैं, अत: वे कभी भी पूर्ण नहीं हैं, किन्तु आप समस्त भौतिकअवधारणाओं से परे हैं।

    आपके नाम, रूप तथा गुण सभी दिव्य हैं और व्यावहारिक बुद्धि कीकल्पना के परे हैं।

    भला आपकी कल्पना कौन कर सकता है ? इस भौतिक जगत में हम केवलनाम तथा गुण देख पाते हैं।

    हम आपको अपना नमस्कार तथा स्तुति अर्पित करने के अतिरिक्तऔर कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं।

    आपके शुभ दिव्य गुणों के कीर्तन से समस्त मानव जातिके पाप धुल जाते हैं।

    यही हमारा परम कर्तव्य है और इस प्रकार हम आपकी अलौकिक स्थितिको अंशमात्र ही जान सकते हैं।

    'परिजनानुरागविरचितशबलसंशब्दसलिलसितकिसलयतुलसिकादूर्वाद्लू रैरपि सम्भूतया सपर्यया किलपरम परितुष्यसि ॥

    ६॥

    परिजन--आपके सेवकों द्वारा; अनुराग--अत्यन्त आह्ाद से; विरचित--की गई; शबल--गदगद्‌ वाणी से; संशब्द--स्तुति से;सलिल--जल; सित-किसलय--नव कोपलों से युक्त वृंत्त ( पल्‍लव ); तुलसिका--तुलसीदल; दूर्वा-अड्डु रैः --( तथा ) नई उगीदूब से; अपि-- भी; सम्भूतया--किया गया; सपर्यया--पूजा द्वारा; किल--निस्सन्देह; परम--हे परमे श्वर; परितुष्यसि--संतुष्टहो जाते हो |

    हे परमेश्वर, आप सभी प्रकार से पूर्ण हैं।

    जब आपके भक्त गदगद्‌ वाणी से आपकी स्तुतिकरते हैं तथा आह्वादवश तुलसीदल, जल, पल्‍लव तथा दूब के अंकुर चढ़ाते हैं, तो आप निश्चयही परम सन्तुष्ट होते हैं।

    अथानयापि न भवत इज्ययोरु भारभरया समुचितमर्थमिहोपलभामहे ॥

    ७॥

    अथ--अन्यथा; अनया--यह; अपि-- भी; न--नहीं; भवत:-- आपका; इज्यया--यज्ञ द्वारा; उठ भार-भरया--तमाम सामग्री केभार से बोझिल; समुचितम्‌--वांछित, आवश्यक; अर्थम्‌--उपयोग; इह--यहाँ; उपलभामहे--हम देखते हैं|हमने आपकी पूजा में आपको अनेक वस्तुएँ अर्पित की हैं और आपके लिए अनेक यज्ञकिये हैं, किन्तु हम सोचते हैं कि आपको प्रसन्न करने के लिए इतने सारे आयोजनों की कोईआवश्यकता नहीं है।

    आत्मन एवानुसवनमञ्जसाव्यतिरिकेण बोभूयमानाशेषपुरुषार्थस्वरूपस्य किन्तु नाथाशिषआशासानानामेतदभिसंराधनमात्रं भवितुमहति ॥

    ८ ॥

    आत्मन:--अपने आप; एव--निश्चय ही; अनुसवनम्‌-- प्रत्येक क्षण; अज्जसा- प्रत्यक्ष; अव्यतिरिकेण--बिना व्यवधान के;बोभूयमान--वर्धमान; अशेष-- असीम; पुरुष-अर्थ --जीवन-लक्ष्य; स्व-रूपस्थ--आपका वास्तविक रूप; किन्तु--लेकिन;नाथ--हे ईश्व:; आशिष:--भौतिक सुख हेतु आशीर्वाद; आशासानानाम्‌--हम सबका जिन्हें सदैव कामना रहती है; एतत्‌--यह; अभिसंराधन-- आपका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए; मात्रमू--केवल; भवितुम्‌ अहंति--हो सकता है।

    आप में प्रतिक्षण प्रत्यक्षतया, स्वयमेव, निरन्तर एवं असीमतः जीवन के समस्त लक्ष्यों एवं ऐश्वर्यों की वृद्धि हो रही है।

    दरअसल, आप स्वयं ही असीम सुख तथा आनन्द से युक्त हैं।

    हेईश्वर, हम तो सदा ही भौतिक सुखों के फेर में रहते हैं।

    आपको इन समस्त याज्ञिक आयोजनोंकी आवश्यकता नहीं है।

    ये तो हमारे लिए हैं जिससे हम आपका आशीर्वाद पा सकें।

    ये सारेयज्ञ हमारे अपने कर्म-फल के लिए किये जाते हैं और वास्तव में आपको इनकी कोईअवश्यकता ही नहीं है।

    तद्यथा बालिशानां स्वयमात्मन: श्रेयः परमविदुषां परमपरमपुरुष प्रकर्षकरुणया स्वमहिमानंचापवर्गाख्यमुपकल्पयिष्यन्स्वयं नापचित एवेतरवदिहोपलक्षितः ॥

    ९॥

    तत्‌--वह; यथा--जिस प्रकार; बालिशानामू--मूर्खो का; स्वयम्‌--स्वयं; आत्मन:--अपना; श्रेय:--कल्याण; परम्‌--परम;अविदुषाम्‌--अज्ञानियों का; परम-परम-पुरुष--हे ईश्वरों के भी ईश, इशाधीश; प्रकर्ष-करुणया--प्रभूत अहैतुक करुणावश;स्व-महिमानम्‌--अपनी व्यक्तिगत महिमा; च--तथा; अपवर्ग-आख्यम्‌--- अपवर्ग ( मुक्ति ) कहलाने वाली; उपकल्पयिष्यन्‌ --देने की इच्छा से; स्वयम्‌--स्वयं; न अपचित:--समुचित रीति से पूजा न होने से; एब--यद्यपि; इतर-वत्‌--सामान्य पुरुष कीभाँति; हह--यहाँ; उपलक्षित:--( आप ) हैं और ( हमारे द्वारा ) देखे जा रहे हैं।

    हे ईशाधश, हम धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से पूर्णतया अनजान हैं क्योंकि हमें जीवन-लक्ष्य का ठीक से पता नहीं है।

    आप यहाँ हमारे समक्ष साक्षात्‌ इस प्रकार प्रकट हुए हैं जिसप्रकार कोई व्यक्ति जानबूझ कर अपनी पूजा कराने के लिए आया हो।

    किन्तु ऐसा नहीं है, आपतो इसलिए प्रकट हुए हैं जिससे हम आपके दर्शन कर सकें।

    आप अपनी अगाध तथा अहैतुकीकरुणावश हमारा उद्देश्य पूरा करने, हमारा हित करने तथा अपवर्ग का लाभ प्रदान करने हेतुप्रकट हुए हैं।

    हम अपनी अज्ञानता के कारण आपकी ठीक से उपासना भी नहीं कर पा रहे हैं, तोभी आप पधरे हैं।

    अथायमेव वरो ह्ईत्तम यर्हि बर्हिषि राजर्षेवरदर्षभो भवान्निजपुरुषेक्षणविषय आसीतू ॥

    १०॥

    अथ--तब; अयम्‌--यह; एब--निश्चय ही; वर:--आशीर्वाद; हि--निस्सन्देह; अर्हत्‌ू-तम--पूज्यतम; यहिं-- क्योंकि;बर्हिषि--यज्ञ में; राज-ऋषे: --राजा नाभि का; वरद-ऋषभ: --वरदायकों में श्रेष्ठ; भवान्‌--आप; निज-पुरुष--अपने भक्तोंके; ईक्षण-विषय:--देखने योग्य वस्तु; आसीत्‌--हो गई है?

    हे पूज्यतम, आप समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ हैं और राजर्षि नाभि की यज्ञशाला में आपकाप्राकट्य हमें आशीर्वाद देने के लिए हुआ है।

    चूँकि हम आपको देख पाये हैं इसलिए आपने हमेंसर्वाधिक मूल्यवान वर प्रदान किया है।

    असड्डनिशितज्ञानानलविधूताशेषमलानां भवत्स्वभावानामात्मारामाणां मुनीनामनवरतपरिगुणितगुणगण'परममडुलायनगुणगणकथनोसि ॥

    ११॥

    असड्ग--वैराग्य से; निशित--हढ़ किया है; ज्ञान--ज्ञान की; अनल--अग्नि से; विधूत--हटाया गया; अशेष--असीम;मलानाम्‌--जिनकी मलिन वस्तुएँ; भवत्‌-स्वभावानाम्‌ू--जिन्होंने आपके गुण प्राप्त कर लिए हैं; आत्म-आरामाणाम्‌--जोआत्म-तुष्ट है, आत्माराम; मुनीनाम्‌--मुनियों का; अनवरत--लगातार, निरन्तर; परिगुणित--स्मरण करते; गुण-गण--जिसकेसदगुण समूह; परम-मड्भगल--परम-आनन्द; आयन--उत्पन्न करता है; गुण-गण-कथन:--जिसके लक्षणों का जप; असि--तुमहो?

    हे ईश्वर, समस्त विचारवान मुनि तथा साधु पुरुष निरन्तर आपके दिव्य गुणों का गान करते रहते हैं।

    इन मुनियों ने अपनी ज्ञान-अग्नि से अपार मलराशि को पहले ही दग्ध कर दिया है औरइस संसार से अपने वैराग्य को सुदृढ़ किया है।

    इस प्रकार वे आपके गुणों को ग्रहण कर आत्म-तुष्ट हैं।

    तो भी जिन्हें आपके गुणों के गान में परम-आनन्द आता है उनके लिए भी आपका दर्शनदुर्लभ है।

    अथ कथशज्ञित्स्खलनक्षुत्पतनजुृम्भणदुरवस्थानादिषु विवशानां न: स्मरणाय ज्वरमरणद्शायामपिसकलकश्मलनिरसनानि तव गुणकृतनामधेयानि वचनगोचराणि भवन्तु ॥

    १२॥

    अथ--अब भी; कथश्ञित्‌--किसी प्रकार से; स्खलन--ठोकर खाने; क्षुत्‌ू-- भूख; पतन--गिरने; जुम्भण--जम्हाई लेने;दुरवस्थान--प्रतिकूल स्थिति में रहने के कारण; आदिषु--इत्यादि; विवशानाम्‌-- असमर्थ; न:--हम सबका; स्मरणाय--यादरखने; ज्वर-मरण-दशायाम्‌--मृत्यु के समय तेज ज्वर की दशा में; अपि-- भी; सकल--समस्त; कश्मल--पाप; निरसनानि--दूर करने वाले; तब--तुम्हारे; गुण--गुण; कृत--कर्म; नामधेयानि--नाम; वचन-गोचराणि---उच्चरित हो सकने वाले;भवन्तु--हो सकें?

    हे ईश्वर, सम्भव है कि हम कँपकँपाने, भूखे रहने, गिरने, जम्हाई लेने या ज्वर के कारणमृत्यु के समय शोचनीय रुग्ण अवस्था में रहने के कारण आपके नाम का स्मरण न कर पाएँ।

    अतः हे ईश्वर, हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आप भक्तों पर वत्सल रहते हैं।

    आप हमें अपनेपवित्र नाम, गुण तथा कर्म को स्मरण कराने में सहायक हों जिससे हमारे पापी जीवन के सभीपाप दूर हो जाँय।

    किश्ञायं राजर्षिरपत्यकाम: प्रजां भवाहशीमाशासान ई श्वरमाशिषां स्वर्गापवर्गयोरपि भवन्तमुपधावतिप्रजायामर्थप्रत्ययो धनदरमिवाधन: फलीकरणम्‌ ॥

    १३॥

    किज्ञ--इसके अतिरिक्त; अयम्‌--यह; राज-ऋषि:--पवित्र राजा ( नाभि ); अपत्य-काम:--सन्तान का इच्छुक; प्रजामू--एकपुत्र; भवाहशीम्‌-- आपके ही सहश; आशासान:--आश्ा युक्त; ईश्वरम्‌--परम नियन्ता; आशिषाम्‌--आशीर्वादों का; स्वर्ग-अपवर्गयो:--स्वर्ग लोक तथा मुक्ति का; अपि--यद्यपि; भवन्तम्‌-- आपको; उपधावति--उपासना करता है; प्रजायाम्‌--लड़के-बच्चे, सन्तान; अर्थ-प्रत्यय:--जीवन का परम लक्ष्य मानते हुए; धन-दम्‌--दानी को; इब--सदह्ृश; अधन:--निर्धनपुरुष; फलीकरणम्‌-- थोड़ी सी भूसी?

    हे ईश्वर, आपके समक्ष ये महाराज नाभि, हैं जिनके जीवन का परम लक्ष्य आपके ही समानपुत्र प्राप्त करना है।

    हे भगवन्‌, उसकी स्थिति उस व्यक्ति जैसी है, जो एक अत्यन्त धनवान पुरुषके पास थोड़ा सा अन्न माँगने के लिए जाता है।

    पुत्रेच्छा से ही वे आपकी उपासना कर रहे हैंयहायपि आप उन्हें कोई भी उच्चस्थ पद प्रदान कर सकने में समर्थ हैं--चाहे वह स्वर्ग हो याभगवद्धाम का मुक्ति-लाभ ॥

    को वा इह तेडपराजितोपराजितयामाययानवसितपदव्यानावृतमतिर्विषयविषरयानावृतप्रकृतिरनुपासितमहच्चरण: ॥

    १४॥

    'कः वा--ऐसा कौन पुरुष है; इह--संसार में; ते--तुम्हारा ( श्रीभगवान्‌ का ); अपराजित:--न पराजित हो सकने वाला;अपराजितया--अपराजित द्वारा; मायया--माया के द्वारा; अनवसित-पदव्य--जिसका पथ निर्दिष्ट न किया जा सके; अनावृत-मतिः--जिसकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है; विषय-विष--विष तुल्य भौतिक सुख का; रय--पथ से होकर; अनावृत--खुला हुआ;प्रकृतिः--जिसका स्वभाव; अनुपासित--विना उपासना किये; महत्‌-चरण:--परम भक्तों के चरणकमल।

    हे ईश्वर, जब तक मनुष्य परम भक्तों के चरणकमलों की उपासना नहीं करता, तब तक उसेमाया परास्त करती रहेगी और उसकी बुद्धि मोहग्रस्त बनी रहेगी।

    दरअसल, ऐसा कौन है जोविष तुल्य भौतिक सुख की तरंगों में न बहा हो! आपकी माया दुर्जेय है।

    न तो इस माया के पथको कोई देख सकता है, न इसकी कार्य-प्रणाली को ही कोई बता सकता है।

    यदु ह वाव तव पुनरदश्रकर्तरिह समाहूतस्तत्रार्थधियां मन्दानां नस्तद्यद्देवहेलनं देवदेवाहसि साम्येनसर्वान्प्रतिवोढुमविदुषाम्‌ ॥

    १५॥

    यत्‌--क्योंकि; उ ह वाव--निस्संदेह; तब--तुम्हारा; पुन:--फिर; अद्न-कर्त:--हे ईश्वर, जो अनेक कर्म करता है; इह--यहाँ,इस-स्थल में; समाहूत:--आमंत्रित; तत्र--अतः; अर्थ-धियाम्‌-- भौतिक कामनाओं को पूरा करने के लिए इच्छुक;मन्दानाम्‌ू--कम बुद्धि वाले, मूढ़; नः--हम सबका; तत्‌--वह; यत्‌--जो; देव-हेलनम्‌-- भगवान्‌ की अवहेलना; देव-देव--परम देव; अर्हसि--जो पसन्द आए; साम्येन--समभाव के कारण; सर्वान्‌ू--सब कुछ; प्रतिवोढुम्‌--सहने करते हैं;अविदुषाम्‌--हम अल्प ज्ञानियों का।

    हे ईश्वर, आप अनेक अद्भुत कार्य कर सकने में समर्थ हैं।

    इस यज्ञ के करने का हमाराएकमात्र लक्ष्य पुत्र प्राप्त करना था, अतः हमारी बुद्धि अधिक प्रखर नहीं है।

    हमें जीवन-लक्ष्यनिर्धारित करने का कोई अनुभव नहीं है।

    निसन्देह भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किये गये इसतुच्छ यज्ञ में आपको आमंत्रित करके हमने आपके चरण कमलों में महान्‌ पाप किया है।

    अतः हेसर्वेश, आप अपनी अहैतुकी कृपा तथा समद्ृष्टि के कारण हमें क्षमा करें।

    श्रीशुक उबाचइति निगदेनाभिष्टूयमानो भगवाननिमिषर्षभो वर्षधराभिवादिताभिवन्दितचरण: सदयमिदमाह ॥

    १६॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; निगदेन--गद्य स्तुति द्वारा; अभिष्टयमान: --आराधितहोकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; अनिमिष-ऋषभ: -- समस्त देवताओं में प्रमुख; वर्ष-धर-- भारतवर्ष के सम्राट्‌ राजा नाभिद्वारा;अभिवादित--पूजित होकर; अभिवन्दित--झुककर; चरण:--जिनके पाँव; सदयम्‌--कृपापूर्वक; इदम्‌--यह; आह--कहा।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--भारतवर्ष के सम्राट, राजा नाभि द्वारा पूजित ऋत्विजों ने गद्यमें ( सामान्यतः पद्य में ) ईश्वर की स्तुति की और वे सभी उनके चरणकमलों पर झुक गये।

    देवताओं के अधिपति, परमेश्वर उनसे अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे इस प्रकार बोले।

    श्रीभगवानुवाचअहो बताहमृषयो भवद्धिरवितथगीर्भिर्वरमसुलभमभियाचितो यदमुष्यात्मजो मया सहृशो भूयादितिममाहमेवाभिरूप: कैवल्यादथापि ब्रह्मवादो न मृषा भवितुमहति ममैव हि मुखं यद्द््‌वजदेवकुलम्‌, ॥

    १७॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; अहो--ओह; बत--सचमुच प्रसन्न हूँ; अहम्‌--मैं; ऋषय:--हे ऋषियो; भवद्धि:--आपलोगों के द्वारा; अवितथ-गीर्भि:--जिनके वचन सत्य हैं; वरम्‌ू--वर पाने के लिए; असुलभम्‌-प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है;अभियाचितः--याचना किया हुआ; यत्‌--वह; अमुष्य--राजा नाभि का; आत्म-जः--पुत्र; मया सहश:--मेरे समान;भूयात्‌--हो; इति--इस प्रकार; मम--मेरा; अहम्‌--मैं; एबव--केवल; अभिरूप:--समान; कैवल्यात्‌--अद्वितीय; अथापि--तो भी; ब्रह्म-वाद: --ब्राह्मणों के वचन; न--नहीं; मृषा--झूठे; भवितुम्‌--होना; अहति--चाहिए; मम--मेरा; एब--निश्चयही; हि--चूँकि; मुखम्‌--मुख; यत्‌--वह; द्विज-देव-कुलम्‌-शुद्ध ब्राह्मणों का कुल।

    भगवान्‌ बोले--हे ऋषियो, मैं आपकी स्तुतियों से परम प्रसन्न हुआ हूँ।

    आप सभी सत्यवादीहैं।

    आप लोगों ने राजा नाभि के लिए मेरे समान पुत्र की प्राप्ति के लिए स्तुति की है, किन्तु ऐसापाना अति दुर्लभ है।

    चूँकि मैं अद्वितीय परम पुरुष हूँ और मेरे समान अन्य कोई नहीं है, अतःमुझ जैसा पुरुष पाना सम्भव नहीं है।

    तो भी आप सभी सयोग्य ब्राह्मण हैं, आपका वचन मिथ्यासिद्ध नहीं होना चाहिए।

    मैं सुयोग्य ब्राह्मणों को अपने मुख के समान उत्तम मानता हूँ।

    तत आग्नीश्चीयेडंशकलयावतरिष्याम्यात्मतुल्यमनुपलभमानः ॥

    १८॥

    ततः--अतः; आग्नीक्षीये--आग्नीश्र के पुत्र नाभि की स्त्री में; अंश-कलया--अपने रूप के एक अंश द्वारा; अवतरिष्यामि--मैंस्वयं अवतार लूँगा; आत्म-तुल्यम्‌--अपने ही समान; अनुपलभमान:--न पाकर।

    चूँकि मुझे अपने तुल्य और कोई नहीं मिल पा रहा, इसलिए मैं स्वयं ही अंश रूप मेंआग्नीक्ष के पुत्र महाराज नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से अवतार लूँगा।

    श्रीशुक उबाचइति निशामयन्त्या मेरुदेव्या: पतिमभिधायान्तर्दधे भगवान्‌, ॥

    १९॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; निशामयन्त्या: --सुनते हुए; मेरुदेव्या:--मेरुदेवी के समक्ष;पतिम्‌--उसके पति को; अभिधाय--कहकर; अन्तर्दधे--अन्‍्तर्धान हो गये; भगवान्‌ू-- भगवान्‌ |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--ऐसा कहकर भगवान्‌ अदृश्य हो गये।

    राजा नाभि कीपली मेरुदेवी अपने पति के पास में ही बैठी थीं, फलस्वरूप परमेश्वर ने जो कुछ कहा था उसे वेसुन रही थीं।

    बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान्परमर्षिभि: प्रसादितो नाभे: प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यांधर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततार ॥

    २०॥

    बर्हिषि--यज्ञ स्थल में; तस्मिन्‌ू--उस; एव--इस प्रकार; विष्णु-दत्त--हे महाराज परीक्षित; भगवान्‌-- भगवान्‌; परम-ऋषिभि:--महर्षियों द्वारा; प्रसादित:--प्रसन्न किये जाने पर; नाभे: प्रिय-चिकीर्षया--राजा नाभि को प्रसन्न करने के लिए; ततू-अवरोधायने--अपनी पत्नी में; मेरुदेव्यामू--मेरुदेवी में; धर्मानू-- धार्मिक नियम; दर्शायितु-काम:--यह दिखाने के लिए किकिस प्रकार करना चाहिए; वात-रशनानामू--संन्यासियों का ( जो वस्त्र नहीं धारण करते ); श्रमणानाम्‌ू--वानपप्रस्थियों का;ऋषीणाम्‌--ऋषियों का; ऊर्ध्व-मन्थिनामू--ब्रह्मचचारियों का; शुक्लया तनुवा--उनके आद्य सत्‌ स्वरूप में, जो गुणों के परे है;अवततार--अवतार लिया?

    हे विष्णुदत्त परीक्षित महाराज, उस यज्ञ के ऋषियों से भगवान्‌ अत्यन्त प्रसन्न हुए।

    फलस्वरूप उन्होंने स्वयं धर्माचरण करके दिखलाने ( जैसा कि ब्रह्मचारी, संन्‍्यासी, वानप्रस्थ तथा गृहस्थ करते हैं) और महाराज नाभि की मनोकामना को पूरा करने का निश्चय किया।

    अतःवे अपने गुणातीत आद्य सत्व रूप में मेरुदेवी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए।

    TO

    अध्याय चार: भगवान ऋषभदेव के लक्षण

    5.4श्रीशुक उवाचअथ ह ततमुत्पत्त्यवाभिव्यज्यमानभगवल्लक्षणंसाम्योपशमवैराग्यै श्वरर्यमहाविभूतिभिरनुदिनमेधमानानु भावंप्रकृतयः प्रजा ब्राह्मणा देवताश्नावनितलसमवनायातितरां जगृधु: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ ह--इस प्रकार ( भगवान्‌ के प्रकट होने के अनन्तर ); तम्‌--उसको;उत्पत्त्या--आविर्भाव काल से; एव--ही; अभिव्यज्यमान-- प्रकट रूप में; भगवत्‌-लक्षणम्‌--भगवान्‌ जैसे लक्षणों से युक्त;साम्य--समभाव वाला; उपशम--इन्द्रियों तथा मन को वश में करते समय पूर्णतया शान्त; वैराग्य--गृहत्याग; ऐश्वर्य--ऐश्वर्य;महा-विभूतिभि:--महान्‌ गुणों के कारण; अनुदिनम्‌--दिन-प्रतिदिन; एधमान--बढ़ता हुआ; अनुभावम्‌--उसकी शक्ति;प्रकृतथः--मंत्रीगण; प्रजा:-- प्रजा, नागरिक; ब्राह्मणा:--ब्रह्म को जानने वाले विद्वान; देवता:--देवतागण; च--तथा;अवनि-तल--पृथ्वी पर; समवनाय--शासन करने के लिए; अतितराम्‌--उत्कट; जगृधु:--अभिलाषा होने लगी।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--जन्म से ही महाराज नाभि के पुत्र में भगवान्‌ के लक्षणप्रकट थे, यथा चरणतल के चिह्न ( ध्वज, वज्ञ इत्यादि )।

    यह पुत्र सबों के साथ समभावरखनेवाला और अत्यन्त शान्त स्वभाव का था।

    यह अपनी इन्द्रियों तथा मन को वश में करसकता था और परम ऐश्वर्यवान होने के कारण उसे भौतिक सुख की लिप्सा नहीं थी।

    इन समस्तगुणों से सम्पन्न होने के कारण महाराज नाभि का पुत्र दिनोंदिन शक्तिशाली बनता गया।

    फलतःसमस्त नागरिकों, दिद्वान ब्राह्मणों, देवताओं तथा मंत्रियों ने चाहा कि ऋषभदेव पृथ्वी के शासकबनें।

    तस्य ह वा इत्थं वर्ष्षणा वरीयसा बृहच्छूलोकेन चौजसा बलेन थ्रिया यशसा वीर्यशौर्या भ्यां च पिताऋषभ इतीदं नाम चकार ॥

    २॥

    तस्य--उसके ; ह वा--निश्चय ही; इत्थम्‌--इस प्रकार; वर्ष्षणा--रंग-रूप से; वरीयसा-- श्रेष्ठ; बृहत्‌ू-श्लोकेन--कवियों द्वारावर्णित समस्त उत्तम गुणों से अलंकृत; च-- भी; ओजसा--शौर्य से; बलेन--बल से; भ्रिया--सुन्दरता से; यशसा--यश से;वीर्य-शौर्याभ्याम्‌-- प्रभाव तथा वीरता से; च--तथा; पिता--महाराज नाभि ने; ऋषभ: -- श्रेष्ठ; इति--इस प्रकार; इदम्‌--यह;नाम--नाम; चकार--रखा।

    जब महाराज नाभि का पुत्र प्रकट हुआ, तो उसमें महाकवियों द्वारा वर्णित समस्त उत्तम गुणदिखाई पड़े यथा ईश्वर के लक्षणों से युक्त सुगठित शरीर, शौर्य, बल, सुन्दरता, नाम, यश,प्रभाव तथा उत्साह ।

    जब उसके पिता महाराज नाभि ने इन समस्त गुणों को देखा, तो उसे मनुष्योंमें श्रेष्ठठम अथवा सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति मान कर उसका नाम ऋषभ रख दिया।

    यस्य हीन्द्र: स्पर्धभानो भगवान्वर्षे न बवर्ष तदवधार्य भगवानृषभदेवो योगेश्वर: प्रहस्थात्मयोगमाययास्ववर्षमजनाभं नामाभ्यवर्षतू, ॥

    ३॥

    यस्य--जिसका; हि--निस्संदेह; इन्द्र: --स्वर्ग का राजा इन्द्र; स्पर्धभान: --ईर्ष्या के कारण; भगवान्‌--परम ऐश्वर्यवान; वर्षे--भारतवर्ष में; न बवर्ष--वर्षा नहीं की; तत्‌--वह; अवधार्य--जानते हुए; भगवान्‌-- भगवान; ऋषभदेव: --ऋषभदेव; योग-ईश्वरः--समस्त योग के स्वामी; प्रहस्थ--हँसते हुए; आत्म-योग-मायया--अपने आत्मबल से; स्व-वर्षम्‌--अपने देश पर;अजनाभम्‌--अजनाभ; नाम--नामक; अभ्यवर्षत्‌--जल की वर्षा की |

    भौतिक रूप से महान्‌ ऐश्वर्यशाली स्वर्ग का राजा इन्द्र राजा ऋषभदेव से ईर्ष्या करने लगा।

    अतः उसने भारतवर्ष नामक लोक पर जल बरसाना बन्द कर दिया।

    उस समय समस्त योगों केस्वामी भगवान्‌ ऋषभदेव इन्द्र का प्रयोजन समझ गये और थोड़ा मुस्काये।

    तब उन्होंने अपने शौर्य तथा योगमाया से अजनाभ नाम से विख्यात अपने देश में अत्यधिक वर्षा की।

    नाभिस्तु यथाभिलषितं सुप्रजस्त्वमवरु ध्यातिप्रमोदभरविह्नलो गद्गदाक्षरया गिरा स्वैरंगृहीतनरलोकसधर्म भगवन्तं पुराणपुरुषं मायाविलसितमतिर्वत्स तातेति सानुरागमुपलालयन्परांनिर्वृतिमुपगत: ॥

    ४॥

    नाभिः--राजा नाभि; तु--निश्चय ही; यथा-अभिलषितम्‌--इच्छानुसार; सु-प्रजस्त्वम्‌-- अत्यन्त सुन्दर पुत्र; अवरुध्य--पाकर;अति-प्रमोद--अत्यधिक प्रसन्नता; भर--की अति से; विह्लः--विभोर होकर; गद्गद-अक्षरया--आह्ाद में शब्द न निकलनेसे; गिरा--वाणी से; स्वैरम्‌--स्वेच्छा से; गृहीत--स्वीकार किया; नर-लोक-सधर्मम्‌--मनुष्य की भाँति आचरण करके;भगवन्तमू-- श्री भगवान्‌ को; पुराण-पुरुषम्‌--जीवों में सर्वाधिक वय वाले; माया--योगमाया से; विलसित--मोह ग्रस्त;मति:--उसकी मति; वत्स--प्रिय पुत्र; तात--मेरे प्रिय; इति--इस प्रकार; स-अनुरागम्‌--अत्यन्त प्यार सहित; उपलालयनू--लालन-पालन करते हुए; पराम्‌--दिव्य; निर्वृतिमू--आनन्द; उपगत:--प्राप्त किया |

    अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर राजा नाभि दिव्य आनन्द के कारण विहल और पुत्र केप्रति अत्यन्त वत्सल हो उठे।

    उन्होंने गद्गद्‌ वाणी से उसे 'मेरे प्रिय पुत्र! मेरे प्यारे!' शब्दों सेसम्बोधित किया।

    ऐसी बुद्धि योगमाया से उत्पन्न हुई जिसके कारण उन्होंने परम पिता भगवान्‌को अपने पुत्र रूप में स्वीकार किया।

    ईश्वर भी अपनी परमेच्छा के कारण उनके पुत्र बने औरसबों के साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे वे कोई सामान्य मनुष्य हो।

    इस प्रकार वे अपने दिव्य पुत्रका बड़े ही लाड़-प्यार से लालन-पालन करने लगे और वे दिव्य आनन्द, हर्ष तथा भक्ति सेभावविभोर हो गये।

    विदितानुरागमापौरप्रकृति जनपदो राजा नाभिरात्मजं समयसेतुरक्षायामभिषिच्य ब्राह्मणेषूपनिधाय सहमेरुदेव्या विशालायां प्रसन्ननिपुणेन तपसा समाधियोगेन नरनारायणाख्यं भगवन्तं वासुदेवमुपासीनःकालेन तन्महिमानमवाप ॥

    ५॥

    विदित--भलीभाँति ज्ञात; अनुरागमू--लोकप्रियता; आपौर-प्रकृति--समस्त नागरिकों तथा प्रशासकों के बीच; जन-पदः--सामान्य जनों की सेवा की इच्छा से; राजा--राजा; नाभि:--नाभि; आत्मजम्‌-- अपने पुत्र को; समय-सेतु-रक्षायाम्-- धार्मिकजीवन के वैदिक नियमों के अनुसार जनता की रक्षा करते हुए; अभिषिच्य--राज्याभिषेक करके; ब्राह्मणेषु--ब्राह्मणों को;उपनिधाय--सौंप कर; सह--साथ; मेरुदेव्या--अपनी पत्नी मेरुदेवी के साथ मेरुदेवी; विशालायाम्‌--बदरिका श्रम में; प्रसन्न-निपुणेन--अत्यन्त संतोष एवं निपुणता के साथ रहते हुए; तपसा--तपस्या से; समाधि-योगेन--पूर्ण समाधि से; नर-नारायण-आख्यम्‌--नर-नारायण नामक; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌; वासुदेवम्‌-- श्रीकृष्ण को; उपासीन: --उपासना करते हुए; कालेन--'कालक्रम से; तत्‌-महिमानम्‌--महिमामय धाम, वैकुण्ठ लोक को; अवाप--प्राप्त किया ?

    राजा नाभि ने समझ लिया था कि उनका पुत्र ऋषभदेव नागरिकों, प्रशासकों तथा मंत्रियों मेंअत्यन्त लोकप्रिय है।

    अतः उन्होंने वैदिक धर्म-पद्धति अनुसार जनता की रक्षा के उद्देश्य से अपने पुत्र को संसार के सप्राट के रूप में अभिषिक्त कर दिया और उसे विद्वान ब्राह्मणों के हाथों मेंसौप दिया जो शासन चलाने में उसका मार्ग-दर्शन कर सकें।

    फिर महाराज नाभि अपनी पत्नीमेरुदेवी के साथ हिमालय पर्वत स्थित बदरिका श्रम में गये और वहाँ पर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वकएवं निपुणता के साथ तपस्या में लग गये।

    पूर्ण समाधि में उन्होंने कृष्ण के ही अंश रूप भगवान्‌नर-नारायण की उपासना की, अतः कालक्रम में महाराज नाभि को वबैकुण्ठ प्राप्त हुआ।

    यस्य ह पाण्डवेय श्लोकाबुदाहरन्ति--को नु तत्कर्म राजर्षेनाभिेरन्वाचरेत्पुमान्‌ ।

    अपत्यतामगाद्यस्य हरिः शुद्धेन कर्मणा ॥

    ६॥

    यस्य--जिसके; ह--निस्सन्देह; पाण्डवेय--वह महाराज परीक्षित; शलोकौ--दो श्लोक; उदाहरन्ति--सुनाते हैं; कः--कौन;नु--तब; तत्‌--वह; कर्म--कार्य; राज-ऋषे: --पवित्र राजा; नाभेः--नाभि का; अनु--अनुगमन करते हुए; आचरेत्‌--आचरण कर सकता था; पुमान्‌--मनुष्य; अपत्यताम्‌--पृत्रत्व, पुत्र बनना; अगात्‌--स्वीकार किया; यस्य--जिसका; हरि: --भगवान्‌ ने; शुद्धेन--पवित्र; कर्मणा--कर्म से?

    हे महाराज परीक्षित, महाराज नाभि के यशोगान में प्राचीन मुनियों ने दो एलोक रचे।

    उनमेंसे एक यह है, 'महाराज नाभि जैसी सिद्धि अन्य कौन प्राप्त कर सकता है? उनके कर्मों तककौन पहुँच सकता है ? उनकी भक्ति के कारण भगवान्‌ ने उनका पुत्र बनना स्वीकार किया।

    'ब्रह्मण्याउन्य: कुता नाभावप्रा मड्लपूजता: ।

    यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा ॥

    ७॥

    ब्रह्मण्य:--ब्राह्मण-भक्त; अन्य: --कोई दूसरा; कुत:ः--कहाँ है; नाभेः--महाराज नाभि के अतिरिक्त; विप्रा:--ब्राह्मण समुदाय;मड्डल-पूजिता:-- भली भाँति उपासित एवं तुष्ट; यस्थ--जिसका; बर्हिषि--यज्ञ-स्थल में; यज्ञ-ईशम्‌--समस्त यज्ञों के भोक्ता,श्रीभगवान्‌; दर्शयाम्‌ आसु:--दर्शन कराया; ओजसा--अपनी ब्राह्म शक्ति से |

    [दूसरी स्तुति इस प्रकार है 'महाराज नाभि से बढ़कर ब्राह्मणों का उपासक ( भक्त ) कौनहो सकता है? चूँकि राजा ने योग्य ब्राह्मणों को पूजा से पूर्णतया सन्तुष्ट कर दिया था, इसलिएअपने ब्राह्म-तेज से उन्होंने महाराज नाभि को भगवान्‌ नारायण का साक्षात्‌ दर्शन करा दिया।

    अथ ह भगवानृषभदेव: स्ववर्ष कर्मक्षेत्रमनुमन्यमान: प्रदर्शितगुरुकुलवासो लब्धवरैर्गुरुभिरनुज्ञातोगृहमेधिनां धर्माननुशिक्षमाणो जयन्त्यामिन्द्रदत्तायामुभयलक्षणं कर्मसमाम्नायाम्नातमभियुज्न्नात्मजानामात्मसमानानां शतं जनयामास ॥

    ८॥

    अथ--ततक्‍्पश्चात्‌ ( अपने पिता के प्रयाण के पश्चात्‌ ); ह--निस्संदेह; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; ऋषभ-देव: --ऋषभदेव; स्व--अपना; वर्षम्‌--राज्य; कर्म-द्षेत्रमू--कार्य-क्षेत्र; अनुमन्यमान:--के रूप में स्वीकार करते हुए; प्रदर्शित--उदाहरणस्वरूपदिखाया गया; गुरु-कुल-वास:--गुरुकुल में रहते हुए; लब्ध--प्राप्त करके; वरैः--वरदान; गुरुभि: --गुरुओं से; अनुज्ञात:--आदेशित होकर; गृह-मेधिनाम्‌--गृहस्थों के; धर्मान्‌--कर्तव्य; अनुशिक्षमाण:--उदाहरण द्वारा शिक्षा प्रदत्त; जयन्त्याम्‌ू--अपनीपती जयन्ती से; इन्द्र-दत्तायाम्‌-- भगवान्‌ इन्द्र द्वारा प्रदत्त; उभय-लक्षणम्‌--दोनों प्रकार के; कर्म--कर्म; समाम्नायाम्नातम्‌--शान्त्तरों में वर्णित; अभियुद्धन्‌ू--करते हुए; आत्मजानाम्‌--पुत्रों को; आत्म-समानानाम्‌--अपने ही समान; शतम्‌--एक सौ;जनयाम्‌ आस--उत्पन्न किया?

    महाराज नाभि के बदरिकाश्रम प्रस्थान के पश्चात्‌ परम ईश ऋषभदेव ने अपने राज्य को हीअपना कर्मक्षेत्र समझा।

    अतः उन्‍होंने सर्वप्रथम गुरुओं के निर्देश में ब्रह्मचर्य स्वीकार करकेअपना दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए गृहस्थ के कर्तव्यों की शिक्षा दी।

    वे गुरुकुल में वास करने भीगये।

    शिक्षा पूरी होने पर उन्होंने गुरु-दक्षिणा दी और तब गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुए।

    उन्होंनेजयन्ती नामक पतली ग्रहण की और उससे एक सौ पुत्र उत्पन्न किये जो उनके ही समान बलवानतथा योग्य थे।

    उनकी पत्नी जयन्ती स्वर्ग के राजा इन्द्र द्वारा उन्हें भेंट में दी गई थी।

    ऋषभदेव तथा जयन्ती ने श्रुति तथा स्मृति शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट अनुष्ठानों का पालन करते हुए गृहस्थ जीवनका आदर्श प्रस्तुत किया।

    येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ: श्रेष्टणगुण आसीद्येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ॥

    ९॥

    येषाम्‌--जिनमें से; खलु--निश्चय ही; महा-योगी--ईश्वर का महान्‌ भक्त; भरत:-- भरत; ज्येष्ठ:--सब से बड़ा; श्रेष्ठ-गुण:--उत्तम गुणों से सम्पन्न; आसीत्‌-- था; येन--जिसके द्वारा; इदम्‌--यह; वर्षम्‌--लोक, देश; भारतम्‌-- भारत; इति--इस प्रकार;व्यपदिशन्ति--लोग कहते हैं।

    ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र का नाम भरत था, जो श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न महान्‌भक्त था।

    उसी के सम्मान में इस लोक को भारतवर्ष कहते हैं।

    तमनु कुशावर्त इलावर्तो ब्रह्मावर्तो मलय: केतुर्भद्रसेन इन्द्रस्पृग्विदर्भ: कीकट इति नव नवतिप्रधाना: ॥

    १०॥

    तम्‌--उसको; अनु-- अनुसरण करते हुए; कुशावर्त--कुशावर्त; इलावर्त:--इलावर्त; ब्रह्मावर्त:--ब्रह्मावर्त; मलय:--मलय;केतु:ः--केतु; भद्ग-सेन: -- भद्ग सेन; इन्द्र-स्पूकू--इन्द्रस्पृक; विदर्भ:--विदर्भ; कीकट:--कीकट; इति--इस प्रकार; नव--नौ;नवति--नब्बे; प्रधाना:--से बड़े |

    भरत के अतिरिक्त उनके निन्यानवे पुत्र और भी थे।

    इनमें से नौ बड़े पुत्रों के नाम कुशावर्त,इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्गसेन, इन्द्रस्पूकू, विदर्भ तथा कीकट थे।

    कविर्दविरन्तरिक्ष: प्रबुद्ध: पिप्पलायन: ।

    आविदोंत्रोथ द्रुमिलश्षमस: करभाजन: ॥

    ११॥

    इति भागवतधर्मदर्शना नव महाभागवतास्तेषां सुचरितं भगवन्महिमोपबुंहितंवसुदेवनारदसंवादमुपशमायनमुपरिष्टाद्वर्णयिष्याम: ॥

    १२॥

    कवि:--कवि; हवि:--हवि; अन्तरिक्ष:--अन्तरिक्ष; प्रबुद्ध:--प्रबुद्ध पिप्पलायन:--पिप्पलायन; आविद्वोंत्र: --आविदोंत्र;अथ- भी; द्रुमिल: --द्रुमिल; चमस:--चमस; करभाजन:--करभाजन ; इति--इस प्रकार; भागवत- धर्म-दर्शना: --श्रीमद्भागवत के प्रामाणिक उपदेशक; नव--नौ; महा-भागवता:--परम भक्त; तेषाम्‌--उनमें से; सुचरितम्‌ू-- अच्छे लक्षण;भगवत्ू-महिमा-उपबुृंहितम्‌-- भगवान्‌ की महिमा से युक्त; वसुदेव-नारद-संवादम्‌-- वसुदेव तथा नारद की वार्ता के अन्तर्गत;उपशमायनम्‌--मन को परम सन्‍्तोष देने वाली; उपरिष्टात्‌--इसके बाद के, परवर्ती ( ग्यारहवें स्कंध में ); वर्णयिष्याम: --मैंविस्तार से व्याख्या करूँगा।

    इन पुत्रों के अतिरिक्त कवि, हवि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविदोंत्र, द्रमिल, चमसतथा करभाजन भी हुए।

    ये सभी परम भक्त एवं श्रीमद्भागवत के प्रामाणिक उपदेशक थे।

    येभक्त भगवान्‌ वासुदेव के प्रति अपनी उत्कट भक्ति के कारण महिमा-मण्डित थे।

    मन की पूर्णतुष्टि के लिए मैं ( शुकदेव गोस्वामी ) इन नौ भक्तों के चरित्रों का वर्णन आगे चलकर नारद-वसुदेव संवाद प्रसंग के अन्तर्गत करूँगा।

    यवीयांस एकाशीतिर्जायन्तेया: पितुरादेशकरा महाशालीना महाश्रोत्रिया यज्ञशीला: कर्मविशुद्धाब्राह्मणा बभूवु: ॥

    १३॥

    यवीयांस: --इनसे छोटे; एकाशीति:--इक्यासी; जायन्तेया: --ऋषभदेव की पत्नी जयन्ती के पुत्र; पितु:--अपने पिता के;आदेशकरा:--आदेशानुसार; महा-शालीना: -- परम विनीत; महा-श्रोत्रिया:--वैदिक ज्ञान में पारंगत; यज्ञ-शीला: --अनुष्ठानोंको करने में निपुण; कर्म-विशुद्धा: --अत्यन्त शुद्ध कर्मो वाले; ब्राह्मणा: --योग्य ब्राह्मण; बभूवु:--हुए?

    उपर्युक्त उन्नीस पुत्रों के अतिरिक्त ऋषभदेव तथा जयन्ती से इक्यासी पुत्र और थे।

    ये अपनेपिता की आज्ञानुसार अति सुसंस्कृत, शालीन, उज्वल कर्मों वाले तथा वैदिक ज्ञान तथाअनुष्ठानिक कार्यों में निपुण हुए।

    इस प्रकार ये सभी पूर्ण रूप से योग्य ब्राह्मण बन गये।

    भगवानृषभसंज्ञ आत्मतन्त्र: स्वयं नित्यनिवृत्तानर्थपरम्पर: केवलानन्दानुभव ईश्वर एवविपरीतवत्कर्माण्यारभमाण: कालेनानुगतं धर्ममाचरणेनोपशिक्षयन्नतद्विदां सम उपशान्तो मैत्र:कारुणिको धर्मार्थयश:प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु लोक॑ नियमयत्‌ ॥

    १४॥

    भगवानू-- भगवान्‌; ऋषभ--ऋषभ; संज्ञ:--नाम वाले; आत्म-तन्त्र:--पूर्णतया स्वतंत्र; स्ववम्‌--स्वयं; नित्य--शाश्वत;निवृत्त--विरक्त, मुक्त; अनर्थ--अनिच्छित वस्तुओं ( जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि ) की; परम्पर:--परम्परा; केवल--केवल;आनन्द-अनुभव:--दिव्य आनन्द से परिपूरित; ईश्वरः-- परमेश्वर, नियन्ता; एबव--निस्सन्देह; विपरीत-वत्‌--विरुद्ध जैसे;कर्माणि--कर्मों को; आरभमाण: --करते हुए; कालेन--कालक्रम से; अनुगतम्‌--उपेक्षित; धर्मम्‌--वर्णा श्रम धर्म;आचरणेन--करने से; उपशिक्षयन्‌--उपदेश देकर; अ-ततू-विदाम्‌--अज्ञानी पुरुष; सम:--समान; उपशान्तः --इन्द्रियों द्वाराअविचलित; मैत्र:--प्रत्येक व्यक्ति से मैत्री भाव; कारुणिक:--सबों पर सदय; धर्म--धार्मिक नियम; अर्थ--आर्थिक उन्नति;यशः--यश, कीर्ति; प्रजा--पुत्र तथा पुत्रियाँ; आनन्द-- भौतिक सुख; अमृत--अमर जीवन; अवरोधेन--प्राप्त करने के लिए;गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; लोकम्‌--सामान्य लोगों को; नियमयत्‌--नियमित किया।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के अवतार होने से भगवान्‌ ऋषभदेव पूर्ण स्वतंत्र थे क्योंकि उनकायह स्वरूप शाश्रत तथा दिव्य आनन्दमय था।

    उन्हें भौतिक तापों के चार नियमों ( जन्म, मृत्यु,जरा तथा व्याधि ) से कोई सरोकार न था, न ही वे भौतिक दृष्टि से आसक्त थे।

    वे समानदर्शी थे।

    अन्यों को दुखी देखकर दुखी होते थे।

    वे समस्त जीवात्माओं के शुभचिन्तक थे।

    यद्यपि वे महान्‌पुरुष, परमेश्वर तथा सर्व-नियन्ता थे, तो भी वे ऐसा आचरण कर रहे थे, मानो कोई सामान्यबद्धजीव हो।

    अतः उन्होंने हृढ़तापूर्वक वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए तदनुसार कर्म किया।

    कालान्तर में वर्णाश्रम धर्म के नियम उपेक्षित हो चुके थे, फलतः अपने निजी गुणों तथाआचरण से उन्होंने अज्ञानी जनता को वर्णाश्रम धर्म के अन्तर्गत कर्तव्य करना सिखाया।

    इसप्रकार उन्होंने सामान्य लोगों को गृहस्थाश्रम में प्रशिक्षित किया जिससे वे धार्मिक तथा आर्थिकउत्थान कर सकें और यश, सन्‍्तान, आनन्द तथा अन्त में शाश्वत जीवन प्राप्त कर सकें।

    अपनेउपदेशों से उन्होंने लोगों को गृहस्था श्रम में रहते हुए वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन करते हुएपरिपूर्ण बनने की शिक्षा दी।

    यदायच्छीर्षण्याचरितं तत्तदनुवर्तते लोक: ॥

    १५॥

    यत्‌ यत्‌--जो भी; शीर्षण्य--शीर्ष स्थ महापुरुषों द्वारा; आचरितम्‌--आचरण किया जाता है; तत्‌ तत्‌--वही; अनुवर्तते--अनुकरण करते हैं; लोक:--सामान्य जन।

    महापुरुष जैसा जैसा आचरण करते हैं, सामान्यजन उसी का अनुकरण करते हैं।

    यद्यपि स्वविदितं सकलधर्म ब्राह्मं गुह्मं ब्राह्मणैर्दशितमार्गेण सामादिभिरुपायैर्जनतामनुशशास ॥

    १६॥

    यद्यपि--यद्यपि; स्व-विदितम्‌--स्वतः ज्ञात; सकल-धर्मम्‌ू--विभिन्न प्रकार के कर्म; ब्राह्ममू--वैदिक उपदेश; गुह्मम्‌-- अत्यन्तगोपनीय; ब्राह्मणैः--ब्राह्मणों के द्वारा; दर्शित-मार्गुंण--दिखलाये गये मार्ग द्वारा; साम-आदिभि:--साम, दम, तितिक्षा इत्यादि;उपायैः--साधनों से; जनताम्‌ू--सामान्य जन पर; अनुशशास--राज्य किया |

    यद्यपि भगवान्‌ ऋषभदेव समस्त गुह्य वैदिक ज्ञान से परिचित थे, जिसमें सभी करणीयकर्मों से सम्बन्धित जानकारी सम्मिलित है, तो भी वे अपने को क्षत्रिय मान कर ब्राह्मणों के उनउपदेशों का अनुकरण करते थे, जिनका सम्बन्ध साम ( मन पर नियंत्रण ), दम ( इन्द्रियों परनियंत्रण ), तितिक्षा ( सहनशीलता ) इत्यादि से था।

    इस प्रकार उन्होंने वर्णाश्रम-धर्म पद्धति सेजनता पर शासन किया।

    इसके अनुसार ब्राह्मण क्षत्रियों को शिक्षा देता है और क्षत्रिय वैश्योंतथा शूद्रों के माध्यम से राज्य चलाता है।

    द्रव्यदेशकालवय: श्रद्धर्त्विग्विविधोद्देशोपचितै: सर्वरपि क्रतुभिर्यथोपदेशं शतकृत्व इयाज ॥

    १७॥

    द्रव्य--यज्ञ की साम्रगी; देश--विशिष्ट स्थान, तीर्थ या मन्दिर; काल--उपयुक्त समय, यथा वसन्‍्त; वय:--आयु, विशेषतयायुवावस्था; श्रद्धा--अच्छाई में विश्वास; ऋत्विक्‌--पुरोहितगण; विविध-उद्देश --विभिन्न प्रयोजनों से विभिन्न देवताओं की पूजाकरके; उपचितै:--समृद्ध होकर; सर्वै:--सभी प्रकार के; अपि--निश्चय ही; क्रतुभि:ः--याज्ञिक अनुष्ठानों द्वारा; यथा-उपदेशम्‌--उपदेश के अनुसार; शत-कृत्व:--एक सौ बार; इयाज--आराधना की |

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने शास्त्रों के अनुसार सभी यज्ञों को सौ सौ बार सम्पन्न किया और इसप्रकार से भगवान्‌ विष्णु को सभी प्रकार से तुष्ट किया।

    सभी अनुष्ठान उत्तम कोटि की सामग्री सेतथा उचित समय में और पवित्र स्थानों पर युवा तथा श्रद्धालु पुरोहितों द्वारा सम्पन्न हुए।

    इसप्रकार भगवान्‌ विष्णु की पूजा की गई और समस्त देवताओं को प्रसाद वितरित किया गया।

    सारे अनुष्ठान तथा उत्सव सफल हुए।

    कर हर हि नभगवतर्षभेण परिरक्ष्यमाण एतस्मिन्वर्षे न कश्चन पुरुषो वाउछत्यविद्यमानमिवात्मनोन्यस्मात्कथज्ञनकिमपि कर्हिचिदवेक्षते भर्तर्यनुसवनं विजृम्भितस्नेहातिशयमन्तरेण ॥

    १८ ॥

    भगवता-- भगवान्‌; ऋषभेण--ऋषभदेव द्वारा; परिरक्ष्यमाणे --परिरक्षित होकर; एतस्मिनू--इस; वर्षे -- भूखण्ड ( लोक ) में;न--नहीं; कश्चनन--कोई भी; पुरुष: --सामान्यजन; वाउछति-- आकांक्षा करता है; अविद्यमानम्‌--उपस्थित न रहकर; इब--केसमान; आत्मन:--अपने लिए; अन्यस्मात्‌--अन्य किसी से; कथञ्ञन--किसी प्रकार से; किमपि--कुछ भी; कर्हिंचित्‌ू--किसीसमय; अवेक्षते--देखने का साहस करता है; भर्तरि--स्वामी के प्रति; अनुसवनम्‌--सदैव; विजृम्भित--बढ़ने वाले; स्नेह-अतिशयम्‌--अत्यन्त स्नेह; अन्तरेण--अपनी आत्मा में |

    कोई भी व्यक्ति 'आकाश-कुसुम ' जैसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा नहीं करता क्योंकिउसे पता रहता है कि ऐसी वस्तुएँ विद्यमान नहीं हैं।

    जब भगवान्‌ ऋषभदेव इस भारतवर्ष-भूमि मेंराज्य कर रहे थे तो सामान्य जनता को भी किसी समय या किसी प्रकार से किसी वस्तु कीइच्छा नहीं रह गई थी।

    कोई भी 'आकाश कुसुम ' नहीं चाहता है।

    कहने का अभिप्राय यह है कि सभी लोग पूर्णतया सन्तुष्ट थे, अतः किसी को किसी भी प्रकार की वस्तु माँगने की आवश्यकतानहीं थी।

    सभी लोग राजा के अतीव स्नेह में मग्न थे।

    चूँकि यह स्नेह निरन्तर बढ़ता गया इसलिएवे किसी भी वस्तु की याचना करने के इच्छुक नहीं थे।

    हल चओऋचआ हब स कदाचिदटमानो भगवानृषभो ब्रह्मावर्तगतो ब्रह्मर्षिप्रवरसभायां प्रजानांनिशामयन्तीनामात्मजानवहितात्मन: प्रश्रयप्रणयभरसुयन्त्रितानप्युपशिक्षयन्रिति होवाच ॥

    १९॥

    सः--वह; कदाचित्‌--एक बार; अटमान:--घूमते-घूमते; भगवान्‌-- भगवान्‌; ऋषभ: -- ऋषभदेव; ब्रह्मावर्त-गत:--जब वेब्रह्मावर्त नामक देश में [ जिसे कुछ लोग बर्मा ( ब्रह्म ) देश और कुछ कानपुर के निकट ( बिदूर ) कहते हैं पहुँचे; ब्रह्म-ऋषि-प्रवर-सभायाम्‌--उच्चकोटि के ब्राह्मणों की सभा में; प्रजानामू--जबकि नागरिक; निशामयन्तीनामू--सुन रहे थे; आत्मजानू--अपने पुत्रों; अवहित-आत्मन:--सावधान; प्रश्रय--अच्छे आचरण वाले; प्रणय--भक्ति वाले; भर--अधिकता से; सु-यन्त्रितानू--सुनियंत्रित; अपि--यद्यपि; उपशिक्षयन्‌-- शिक्षा देकर; इति--इस प्रकार; ह--ही; उबाच--कहा |

    एक बार भगवान्‌ ऋषभदेव घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त नामक देश में पहुँचे।

    वहाँ पर विद्वानब्राह्मणों की एक बड़ी सभा हो रही थी और राजा के सभी पुत्र बड़े ही मनोयोग से ब्राह्मणों काउपेद्श सुन रहे थे।

    उस सभा में, समस्त नागरिकों के समक्ष ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को शिक्षादी, यद्यपि वे पहले से ही अच्छे आचरण वाले, भक्त और योग्य थे।

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    अध्याय पाँच: भगवान ऋषभदेव की अपने पुत्रों को शिक्षाएँ

    5.5ऋषभ उबाचनाय॑ देहो देहभाजां नूलोकेकष्टान्कामानईते विड्भुजां ये ।

    तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वंशुद्धबरेद्यस्माह्ह्मसौख्य॑ त्वनन्तम्‌ ॥

    १॥

    ऋषभ: उवाच-- भगवान्‌ ऋषभ ने कहा; न--नहीं; अयम्‌--यह; देह: --शरीर; देह-भाजाम्‌-- समस्त देहधारियों का; नू-लोके--इस संसार में; कष्टान्‌--कष्टकारक; कामान्‌--इन्द्रियतृप्ति, विषय; अरईते--चाहिए; विट्‌-भुजाम्‌--विष्ठा खाने वालोंका; ये--जो; तपः--तपस्या; दिव्यम्‌--दिव्य; पुत्रका: --हे पुत्रो; येन--जिसके द्वारा; सत्त्म्‌--हृदय; शुद्धग्रेत्‌--पवित्र होताहै; यस्मात्‌--जिससे; ब्रह्म-सौख्यम्‌ू-- आध्यात्मिक आनन्द; तु--निश्चय ही; अनन्तम्‌--अनन्त।

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा--हे पुत्रो, इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसेमनुष्य देह प्राप्त हुईं है उसे इन्द्रियतृप्ति के लिए ही दिन-रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिएक्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कूकर-सूकर भी कर लेते हैं।

    मनुष्य को चाहिए कि भक्ति कादिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने को तपस्या में लगाये।

    ऐसा करने से उसका हृदय शुद्धहो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है, तो उसे शाश्वत जीवन का आनन्द मिलताहै, जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत चलने वाला है।

    महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्ते-स्तमोद्वारं योषितां सड्भिसड्रम्‌ ।

    महान्तस्ते समचित्ता: प्रशान्ताविमन्यव: सुहृदः साधवो ये ॥

    २॥

    महत्‌-सेवाम्‌-- आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति जिन्हें महात्मा कहा जाता है, उन की सेवा; द्वारम्‌-मार्ग; आहुः--कहते हैं;विमुक्ते:--मुक्ति का; तमः-द्वारमू--नारकीय अंधकारमय जीवन का मार्ग; योषिताम्‌--स्त्रियों की; सड्धि--साथियों की;सड्डम्‌--संगति, साथ; महान्त:--महात्मा; ते--वे; सम-चित्ता:--सब प्राणियों को समभाव से देखने वाले; प्रशान्ता:--अत्यन्तशान्त, ब्रह्म या भगवान्‌ में लीन; विमन्‍्यव:--क्रोधहीन; सुहृदः --प्रत्येक प्राणी के शुभचिन्तक; साधव:--अनिंद्य आचरण वालेयोग्य भक्त; ये--जो?

    आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत महापुरुषों की सेवा करके ही मनुष्य भव-बन्धन से मुक्ति का मार्गप्राप्त कर सकता है।

    ये महापुरुष निर्विशेषवादी तथा भक्त होते हैं।

    ईश्वर से तदाकार होने अथवाभगवान्‌ का संग प्राप्त करने के इच्छुक प्रत्येक मनुष्य को महात्माओं की सेवा करनी चाहिए।

    ऐसे कर्मों में रुचि न रखने वाले लोग, जो स्त्री तथा मैथुन प्रेमी व्यक्तियों की संगति करते हैंउनके लिए नरक का द्वार खुला रहता है।

    महात्मा समभाव वाले होते हैं।

    वे एक जीवात्मा तथादूसरे में कोई अन्तर नहीं देखते।

    वे अत्यन्त शान्त होते हैं और भक्ति में पूर्णतया लीन रहते हैं।

    वेक्रोधरहित होते हैं और सभी के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।

    वे कोई निंद्य आचरण नहीं करते।

    ऐसे व्यक्ति महात्मा कहलाते हैं।

    ये वा मयीशे कृतसौहदार्थाजनेषु देहम्भरवार्तिकेषु ।

    गृहेषु जायात्मजरातिमत्सुन प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥

    ३॥

    ये--जो; वा--अथवा; मयि--मुझ; ईशे-- भगवान्‌ में; कृत-सौहद-अर्था: -- प्रेम बढ़ाने के लिए उत्सुक ( दास्य, सख्य,वात्सल्य या माधुर्य भाव में ); जनेषु--व्यक्तियों में; देहम्भर-वार्तिकेषु--जो शरीर का केवल निर्वाह करना चाहते हैं, जिन्हें मोक्षकी कामना नहीं है; गृहेषु--घर में; जाया-- पत्नी; आत्म-ज--बच्चे, सन्‍्तान; राति--धन या मित्र; मत्सु--से युक्त; न--नहीं;प्रीति-युक्ता:--अत्यन्त आसक्त; यावत्‌-अर्था:--जितना आवश्यक है उतना ही धन संग्रह करके रहने वाले; च--तथा; लोके--इस भौतिक जगत में।

    जो लोग कृष्णचेतना को पुनरुजीवित करने तथा अपना ईश्वर-प्रेम बढ़ाने के इच्छुक हैं, वेऐसा कुछ नहीं करना चाहते जो श्रीकृष्ण से सम्बन्धित न हो।

    वे उन लोगों से मेलजोल नहींबढ़ाते जो अपने शरीर-पालन, भोजन, शयन, मैथुन तथा स्वरक्षा में व्यस्त रहते हैं।

    वे गृहस्थ होतेहुए भी अपने घरबार के प्रति आसक्त नहीं होते।

    वे पत्नी, सन्तान, मित्र अथवा धन में भी आसक्तनहीं होते, किन्तु उसके साथ ही वे अपने कर्तव्यों के प्रति अन्यमनस्क नहीं रहते।

    ऐसे पुरुष अपनेजीवन-निर्वाह के लिए जितना धन चाहिए उतना ही संग्रह करते हैं।

    नूनं प्रमत्त: कुरुते विकर्मयदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति ।

    न साधु मन्‍्ये यत आत्मनोय-मसन्नपि क्लेशद आस देह: ॥

    ४॥

    नूनम्‌--निस्संदेह; प्रमत्त:--मदान्ध; कुरुते--करता है; विकर्म--शास्त्रों में वर्जित पापकर्म; यत्‌--जब; इन्द्रिय-प्रीतये--इन्द्रियतृष्ति के लिए; आपृणोति--प्रवृत्त होता है; न--नहीं; साधु--अच्छा, उपयुक्त; मन्‍्ये--मानता हूँ; यत:ः--जिससे;आत्मन:--आत्मा का; अयम्‌--यह; असनू-- क्षण-भंगुर; अपि--यद्यपि; क्लेश-दः--कष्टदायक; आस--सम्भव हो सका;देह:--शरीर।

    जब मनुष्य इन्द्रियतृप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मान बैठता है, तो वह भौतिक रहन-सहन केपीछे प्रमत्त होकर सभी प्रकार के पापकर्मों में प्रवृत्त होता है।

    वह नहीं जानता कि अपने विगतपापकर्मों के ही कारण उसे यह क्षणभंगुर शरीर प्राप्त हुआ है, जो दुखों की खान है।

    वास्तव मेंजीवात्मा को भौतिक देह नहीं मिलनी चाहिए थी, किन्तु इन्द्रियतृप्ति के लिए ऐसा हुआ है।

    अतःमैं मानता हूँ कि बुद्धिमान प्राणी के लिए यह शोभा नहीं देता कि वह पुनः इन्द्रियतृप्ति के कार्योंमें प्रवृत्त हो, जिससे एक के बाद दूसरा शरीर उसे प्राप्त होता रहता है।

    'पराभवस्तावदबोधजातोयावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम्‌ ।

    यावत्तक्रियास्तावदिदं मनो वैकर्मात्मकं येन शरीरबन्ध: ॥

    ५॥

    पराभव:--हार, कष्ट; तावत्‌--तब तक; अबोध-जात:--अज्ञान से उत्पन्न; यावत्‌--जब तक; न--नहीं; जिज्ञासते--जिज्ञासाकरता है; आत्म-तत्त्वम्‌--आत्मा विषयक सत्य; यावत्‌--जब तक; क्रिया:--कर्म; तावत्‌ू--तब तक; इृदम्‌--यह; मन:--मन;वै--निस्सन्देह; कर्म-आत्मकम्‌-- कर्मों में व्यस्त; येन--जिसके द्वारा; शरीर-बन्ध: -- भौतिक शरीर का बन्धन, देह बन्धन।

    जब तक जीव को आत्म-तत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती तब तक उसे अज्ञानजन्य कष्ट भोगनेपड़ते हैं और उसकी पराजय होती रहती है।

    कर्म का फल पाप अथवा पुण्य कुछ भी हो सकताहै।

    यदि मनुष्य किसी कर्म में व्यस्त रहता है, तो उसका मन सकाम कर्म में रँगा हुआ कहा जाताहै।

    जब तक मन अशुद्ध रहता है, चेतना अस्पष्ट रहती है और जब तक मनुष्य सकाम कर्मों मेंलगा रहता है, तब तक उसे देह धारण करनी पड़ती है।

    एवं मनः कर्मवशं प्रयुड्ठेअविद्ययात्मन्युपधीयमाने ।

    प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवेन मुच्यते देहयोगेन तावत्‌ ॥

    ६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मन:--मन; कर्म-वशम्‌--कर्म के वशीभूत; प्रयुड़े --कार्य करता है; अविद्यया--अविद्या अथवा अज्ञानसे; आत्मनि--जब जीवात्मा; उपधीयमाने--ढका रहता है; प्रीति:--प्रेम; न--नहीं; यावत्‌--जब तक; मयि--मुझ; वासुदेवे--वासुदेव अथवा कृष्ण में; न--नहीं; मुच्यते--छुटकारा पाता है; देह-योगेन--देह के सम्पर्क से; तावत्‌--तब तक |

    जब जीवात्मा तमोगुण से आच्छादित रहता है, तो वह न तो आत्मा को और न परम-आत्माको समझता है और उसका मन सकाम कर्म के वशीभूत रहता है।

    अतः जब तक उसकी मुझबासुदेव में प्रीति नहीं होती, तब तक उसे देह-बन्धन को स्वीकार करने से छुटकारा नहीं मिलपाता।

    यदा न पश्यत्ययथा गुणेहांस्वार्थे प्रमत्त: सहसा विपश्चित्‌ ।

    गतस्मृतिर्विन्दति तत्र तापान्‌आसाद्य मैथुन्यमगारमज्ञ: ॥

    ७॥

    यदा--जब; न--नहीं; पश्यति--देखता है; अथथा--- अनावश्यक; गुण-ईहाम्‌--इन्द्रियतुष्टि की चेष्टा; स्व-अर्थे--आत्म-हितमें; प्रमत्त:--पागल; सहसा--शीघ्र ही; विपश्चित्‌ू-- ज्ञानी भी; गत-स्मृति:--स्मृति खोकर; विन्दति--पाता है; तत्र--वहाँ;तापान्‌--क्लेश; आसाद्य--पाकर; मैथुन्यम्‌ू-- मैथुन आश्रित; अगारम्‌-घर; अज्ञ:--अज्ञानवश |

    भले कोई कितना ही विद्वान तथा चतुर क्‍यों न हो, यदि वह यह नहीं समझ पाता किइन्द्रियतृप्ति के लिए की जाने वाली चेष्टाएँ व्यर्थ ही समय की बरबादी है, तो वह पागल है।

    वहआत्म-हित को भूलकर इस संसार में विषयवासना-प्रधान तथा समस्त भौतिक क्लेशों के आगारअपने घर में आसक्त रहकर प्रसन्न रहना चाहता है।

    इस प्रकार मनुष्य मूर्ख पशु के ही तुल्य होताहै।

    पुंसः स्त्रिया मिथुनीभावमेतंतयोर्मिथो हृदयग्रन्थिमाहु: ।

    अतो गृहक्षेत्रसुताप्तवित्तैर्‌जनस्य मोहोयमहं ममेति ॥

    ८॥

    पुंस:--पुरुष ( नर ) का; स्त्रिया: --स्त्री का; मिथुनी-भावम्‌--कामभोग वासनापूर्ण-जीवन के लिए आकर्षण; एतम्‌--यह;तयो:--उन दोनों का; मिथ: --परस्पर; हृदय-ग्रन्थिमू--हृदयों की गाँठ; आहुः--कहते हैं; अतः--तत्पश्चात्‌; गृह--घर; क्षेत्र--खेत; सुत--पुत्र; आप्त--सम्बन्धी, स्वजन; वित्तै:--( तथा ) धन से; जनस्य--जीवात्मा का; मोह: --मोह; अयम्‌--यह;अहमू--ैं; मम--मेरा; इति--इस प्रकार?

    स्त्री तथा पुरुष के मध्य का आकर्षण भौतिक अस्तित्व का मूल नियम है।

    इस भ्रांत धारणाके कारण स्त्री तथा पुरुष के हृदय परस्पर जुड़े रहते हैं।

    इसी के फलस्वरूप मनुष्य अपने शरीर,घर, सनन्‍्तान, स्वजन तथा धन के प्रति आकृष्ट होता है।

    इस प्रकार वह जीवन के मोहों को बढ़ाताहै और 'मैं तथा मेरा ' के रूप में सोचता है।

    यदा मनोहृदयग्रन्थिरस्यकर्मानुबद्धो हह आश्लथेत ।

    तदा जन: सम्परिवर्ततेउस्माद्‌मुक्त: परं यात्यतिहाय हेतुम्‌ू ॥

    ९॥

    यदा--जब; मन:--मन; हृदय-ग्रन्थि:-- हृदय की गाँठ; अस्य--इस व्यक्ति का; कर्म-अनुबद्धः--पूर्व कर्मों के फलों सेआबद्ध; दृढः--अत्यन्त प्रबल; आश्लथेत--ढीली पड़ती है; तदा--उस समय; जन:--बद्धजीव; सम्परिवर्तते--विमुख हो जाताहै; अस्मात्‌--विषयी जीवन के प्रति आसक्ति से; मुक्त:--मुक्त; परम्‌--दिव्य लोक को; याति--जाता है; अतिहाय--त्यागकर; हेतुमू--मूल कारण |

    जब पूर्व कर्म-फलों के कारण भौतिक जीवन में फँसे हुए व्यक्ति के हृदय की मजबूत गाँठढीली पड़ जाती है, तो वह घर, स्त्री तथा सन्‍्तान के प्रति अपनी आसक्ति से विमुख होने लगताहै।

    इस तरह उसका मोह ( मैं तथा मेरा ) टूट जाता है, वह मुक्त हो जाता है और उसे दिव्य लोककी प्राप्ति होती है।

    हंसे गुरौ मयि भक्त्यानुवृत्यावितृष्णया द्वन्द्दतितिक्षया च ।

    सर्वत्र जन्तोर्व्यसनावगत्याजिज्ञासया तपसेहानिवृत्त्या ॥

    १०॥

    मत्कर्मभिर्मत्कथया च नित्यमद्देवसड्रादगुणकीर्तनान्मे ।

    निर्वेरसाम्योपशमेन पुत्राजिहासया देहगेहात्मबुद्धे: ॥

    ११॥

    अध्यात्मयोगेन विविक्तसेवयाप्राणेन्द्रियात्माभिजयेन सध्य्रक्‌ ।

    सच्छुद्धया ब्रह्मचर्येण शश्वद्‌असम्प्रमादेन यमेन वाचाम्‌ ॥

    १२॥

    सर्वत्र मद्भावविचक्षणेनज्ञानेन विज्ञानविराजितेन ।

    योगेन धृत्युद्यमसत्त्वयुक्तोलिड़ं व्यपोहेत्कुशलोहमाख्यम्‌ ॥

    १३॥

    हंसे--परमहंस अथवा अध्यात्म में उन्नत; गुरौ--गुरु में; मयि--मुझ भगवान्‌ में; भक्त्या--भक्ति के द्वारा; अनुवृत्या--पालनकरके; वितृष्णया--इन्द्रियतृप्ति से विरक्ति द्वारा; द्न्द्द--संसार की द्वैतता का; तितिक्षया--सहिष्णुता से; च-- भी ; सर्वत्र --सभी जगह; जन्तो: --जीवात्मा का; व्यसन--जीव्‌न की क्लेशमय दशा; अवगत्या--समझ कर; जिज्ञासया--सत्य के सम्बन्धमें पूछताछ द्वारा; तपसा--तपस्या से; ईहा-निवृत्त्या--इन्द्रियतृप्ति के प्रयास को त्यागने से; मत्‌-कर्मभि:--मेरे लिए कार्य करनेसे; मत्‌ू-कथया--मेरी कथा सुनकर; च-- भी; नित्यमू--सदैव; मत्‌-देव-सड्भात्‌--मेरे भक्तों की संगति से; गुण-कीर्तनात्‌ मे--मेरे दिव्य गुणों के कीर्तन तथा महिमागान से; निर्वर--शत्रुतारहित; साम्य--आत्मज्ञान के कारण सबों को समान देखते हुए;उपशमेन--क्रोध, शोक इत्यादि को जीत कर; पुत्रा:--हे पुत्रो; जिहासया--त्याग करने की इच्छा से; देह--देह से साथ; गेह--घर के साथ; आत्म-बुद्धेः--आत्मबो ध; अध्यात्म-योगेन--शास्त्रों के अध्ययन से; विविक्त-सेवया--एकान्त वास द्वारा; प्राण--श्वास; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्म--मन; अभिजयेन--नियंत्रण द्वारा; सध्य्रक्‌ -- पूर्णतया; सत््‌-श्रद्धया-- धार्मिक ग्रन्थों में श्रद्धाउत्पन्न करके; ब्रह्मचर्येण--ब्रह्मचर्य पालन द्वारा; शश्वत्‌ू--सदैव; असम्प्रमादेन--किंकर्तव्यमूढ़ न होकर; यमेन--संयम से;वाचाम्‌--शब्दों का; सर्वत्र--सभी जगह; मत्‌-भाव--मेरा है, यह भाव; विचक्षणेन-- अवलोकन द्वारा; ज्ञानेन--ज्ञान बढ़ाकर; विज्ञान--ज्ञान के सम्प्रयोग द्वारा; विराजितेन-- प्रकाशित; योगेन-- भक्तियोग के अभ्यास से; धृति--धैर्य; उद्यम --उत्साह;सत्त्व--विवेक; युक्त: --युक्त; लिड्रमू-- भौतिक बन्धन का कारण; व्यपोहेत्‌-त्यागा जा सकता है; कुशलः--पूर्ण कुशलतामें; अहम्‌-आख्यम्‌--झूठा अहंकार, भौतिक संसार के साथ झूठी पहचान ।

    हे पुत्रो, तुम्हें सिद्ध गुरु अर्थात्‌ परमहंस को ग्रहण करना चाहिए।

    इस प्रकार तुम मुझ पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ पर अपनी श्रद्धा तथा प्रेम रखो।

    तुम्हें इन्द्रियतृप्ति से घृणा करनी चाहिए तथाग्रीष्म एवं शीत ऋतु के समान आनन्द तथा पीड़ा की द्वैतता को सहना चाहिए।

    उन जीवात्माओंकी कष्टमय दशा को समझने का प्रयास करो, जो स्वर्ग में भी दुखी रहती हैं।

    सत्य का दार्शनिकतौर पर अन्वेषण करो।

    फिर भक्ति के निमित्त समस्त प्रकार की तपस्या करो।

    इन्द्रिय-सुख केलिए प्रयत्नों का परित्याग करके ईश्वर की सेवा में लगो।

    भगवान्‌ की कथा का श्रवण करो औरसदैव भक्तों की संगति करो।

    ईश्वर का कीर्तन और गुणगान करो और सबों को आध्यात्मिक स्तरपर समभाव से देखो।

    शत्रुता त्याग कर क्रोध तथा शोक का दमन करो।

    स्वयं को देह तथा घरके साथ न जोड़ते हुए शास्त्रों का अध्ययन करो।

    एकान्त वास करो और प्राणवायु ( श्वास ), मनतथा इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करने का अभ्यास करो।

    वैदिक साहित्य अर्थात्‌ शास्त्रों पर पूर्णश्रद्धा रखो और सदैव ब्रह्मचर्य ब्रत का पालन करो।

    अपने कर्तव्यों को करते हुए व्यर्थ की बातेंकरने से बचो।

    सदैव भगवान्‌ का चिन्तन करते हुए सही स्त्रोत से ज्ञान प्राप्त करो।

    इस प्रकारउत्साह एवं धैर्यपूर्वक भक्तियोग का अभ्यास करते रहने से तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा और अहंकारजाता रहेगा।

    कर्माशयं हृदयग्रन्थिबन्ध-मविद्ययासादितमप्रमत्त: ।

    अनेन योगेन यथोपदेशंसम्यग्व्यपोह्योपरमेत योगात्‌ ॥

    १४॥

    कर्म-आशयम्‌--कर्म की आकांक्षा; हृदय-ग्रन्थि--हृदय में स्थित गाँठ; बन्धम्‌--बन्धन; अविद्यया--अविद्या के कारण;आसादितमू्‌--लाई गई; अप्रमत्त:--अत्यन्त सावधान, जो मोहग्रस्त न हो; अनेन--इस; योगेन--योग-अभ्यास से; यथा-उपदेशम्‌--जैसा उपदेश दिया गया; सम्यक्‌--पूर्णतया; व्यपोह्म-- मुक्त होकर; उपरमेत--विरत होना चाहिए; योगात्‌--मुक्तिके साधन योगाभ्यास से |

    हे पुत्रो, तुम्हें मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करना चाहिए।

    अत्यन्त सावधान रहना।

    इनविधियों से तुम लोग सकर्म-अभिलाषा की अविद्या से छूट सकोगे और तुम्हारे हृदय में स्थितबन्धनरूपी ग्रंथि पूर्णतया कट जाएगी।

    तदनन्तर और अधिक उन्नति के लिए तुम्हें साधनों कापरित्याग कर देना चाहिए, अर्थात्‌ तुम्हें मुक्ति-क्रिया में ही आसक्त नहीं हो जाना चाहिए।

    पुत्रांश्व शिष्यांश्व नृपो गुरु्वामल्लोककामो मदनुग्रहार्थ: ।

    इत्थं विमन्युरनुशिष्यादतज्ज्ञान्‌न योजसयेत्कर्मसु कर्ममूढान्‌ ।

    कं योजयन्मनुजो<र्थ लभेतनिपातयन्रष्टदशं हि गर्ते ॥

    १५॥

    पुत्रानू--पुत्रों को; च--तथा; शिष्यान्‌--शिष्यों को; च--तथा; नृप:--राजा; गुरु:--गुरु; बा--अथवा; मत्‌-लोक-काम:--मेरे धाम के इच्छुक; मतू-अनुग्रह-अर्थ: --मेरे अनुग्रह को जीवन लक्ष्य मानने वाले; इत्थम्‌--इस प्रकार से; विमन्यु:--क्रोधरहित; अनुशिष्यात्‌--शिक्षा देनी चाहिए; अ-तत्‌-ज्ञानू--आत्मज्ञान से विहीन; न--नहीं; योजयेत्‌--लगाना चाहिए;कर्मसु--कर्म में; कर्म-मूढान्‌--केवल पुण्य या पाप कर्म में रत रहने वालों को; कम्‌--क्या; योजयनू-प्रवृत्त करते हुए; मनु-जः--मनुष्य; अर्थम्‌--लाभ; लभेत--प्राप्त कर सकता है; निपातयन्‌ू-- धकेल कर; नष्ट-हशम्‌--दिव्य ज्योति से विहीन; हि--निस्संदेह; गर्ते-गड़े में |

    यदि किसी मनुष्य को घर लौटने अर्थात्‌ ईश्वर के धाम वापस जाने की अभिलाषा हो, तोउसे चाहिए कि वह भगवान्‌ के अनुग्रह को जीवन का परम लक्ष्य माने।

    यदि वह पिता है, तोअपने पुत्रों को, यदि गुरु है, तो अपने शिष्यों को और यदि राजा है, तो अपनी प्रजा को, इसीप्रकार शिक्षा दे जैसा कि मैंने उपदेश दिया है।

    उसे चाहिए कि क्रोधरहित होकर इन्हें शिक्षा देतेरहें, भले ही शिष्य, पुत्र अथवा प्रजा उनकी आज्ञा का पालन करने में कभी-कभी असमर्थ क्‍योंन रहें।

    कर्म-मूढों को जो पाप एवं पुण्य कर्मो में लगे रहते हैं, चाहिए कि वे सभी प्रकार से भक्तिमें लगें।

    उन्हें सकाम कर्म से सदैव बचना चाहिए।

    यदि शिष्य, पुत्र या प्रजा, जो दिव्य दृष्टि सेरहित हो, उसे कर्म के बन्धन में डाला जाये तो भला वह कैसे लाभान्वित होगा? यह अंधे मनुष्यको अंधेरे कुएं तक ले जाने और उसे गिरने देने जैसा है।

    लोक: स्वयं श्रेयसि नष्टदृष्टि-योडर्थान्समीहेत निकामकामः ।

    अन्योन्यवैर: सुखलेशहेतो-रनन्तदु:खं च न वेद मूढ: ॥

    १६॥

    लोक:ः--लोग; स्वयम्‌--स्वयं; श्रेयसि--कल्याण-मार्ग का; नष्ट-दृष्टिः--जिनकी दृष्टि नष्ट हो चुकी है; यः--जो; अर्थानू--विषय-भोग की वस्तुएँ; समीहेत--आकांक्षा करते हैं; निकाम-काम:--इन्द्रियसुख के लिए अनेक कामेच्छाओं वाला, कामी;अन्योन्य-वैर:-- परस्पर ईर्ष्यालु होकर; सुख-लेश-हेतोः--केवल क्षणिक सुख के लिए; अनन्त-दुःखम्‌--अपार कष्ट; च-- भी;न--नहीं; वेद--जानते हैं; मूढः--मूढ़ लोग ?

    मूर्ख अज्ञानवश भौतिकतावादी व्यक्ति अपना सच्चा हित नहीं समझ पाता जो जीवन काकल्याणकारी मार्ग है।

    वह भौतिक सुख की कामेच्छाओं से बँधा रहता है और उसकी सारीयोजनाएँ इसी एक कार्य के लिए तैयार की जाती हैं।

    ऐसा व्यक्ति क्षणक सुख के लिए वैरपूर्णसमाज की सृष्टि करता है और अपनी मानसिकता के कारण वह दुख के सागर में कूद पड़ता है।

    ऐसे मूर्ख व्यक्ति को इसका ज्ञान भी नहीं होता।

    कस्तं स्वयं तदभिज्ञो विपश्चिद्‌अविद्यायामन्तरे वर्तमानम्‌ ।

    इष्ठा पुनस्तं सघृण: कुबुद्द्धिप्रयोजयेदुत्पथगं यथान्धम्‌ ॥

    १७॥

    कः--ऐसा कौन व्यक्ति है; तमू--उसको; स्वयम्‌--स्वयं; तत्‌-अभिज्ञ: --तत्त्व-ज्ञान जानते हुए; विपश्चित्‌--विद्वान;अविद्यायाम्‌ अन्तरे--अज्ञानवश; वर्तमानम्‌--वर्तमान रहते हुए; दृष्टा--देख कर; पुन:--फिर; तमू--उसको; स-घृण: --अत्यन्त दयालु; कु-बुद्धिम्‌--संसार मार्ग में लिप्त; प्रयोजयेत्‌--लगायेगा; उत्पथ-गम्‌--उल्टे मार्ग पर अग्रसर होने वाला;यथा--सहश; अन्धम्‌--अंधा पुरुष?

    यदि कोई अज्ञानी है और संसार-पथ में लिप्त है, तो भला उसे कोई विद्वान, दयालु तथाआत्मज्ञानी पुरुष सकाम कर्म करने तथा भौतिक संसार में और अधिक फँसने के लिए क्योंकरप्रवृत्त करेगा ? यदि कोई अन्धा व्यक्ति उल्टी राह पर जा रहा हो, तो ऐसा कौन-सा सज्जन पुरुषहोगा, जो उसे संकट के पथ पर और आगे जाने देगा ? वह इस विधि को क्‍यों सही मानने लगा ?कोई भी बुद्धिमान अथवा दयालु व्यक्ति ऐसा नहीं होने देगा।

    गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्‌पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्‌ ।

    दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्था-न्न मोचयेद्य: समुपेतमृत्युम्‌ ॥

    १८॥

    गुरुः--गुरु; न--नहीं; सः--वह; स्यात्‌--हो; स्व-जन: --कुट॒ुम्बी; न--नहीं; सः--ऐसा व्यक्ति; स्थात्‌ू--हो; पिता--पिता;न--नहीं; सः--वह; स्थात्‌ू--हो; जननी--माता; न--नहीं; सा--वह; स्थातू--होवे; दैवमू-- अर्चाविग्रह; न--नहीं; तत्‌ू--वह; स्थात्‌--हो; न--नहीं; पति:--पति; च-- भी; सः--वह; स्थात्‌ू--होय; न--नहीं; मोचयेत्‌--उबार सकता है; यः--जो;समुपेत-मृत्युम्‌ू--बारम्बार जन्म-मृत्यु के मार्ग पर अग्रसर होनेवाले को।

    जो अपने आश्रित को बारम्बार के जन्म-मृत्यु के पथ से न उबार सके उसे कभी भी गुरु,पिता, पति, माँ या आराध्य देव नहीं बनना चाहिए।

    इदं शरीरं मम दुर्विभाव्य॑सत्त्वं हि मे हृदयं यत्र धर्म: ।

    पृष्ठे कृतो मे यदधर्म आराद्‌अतो हि मामृषभ प्राहुराया: ॥

    १९॥

    इदम्‌--यह; शरीरम्‌--दिव्य देह अथवा सच्चिदानन्द विग्रह; मम--मेरा; दुर्विभाव्यम्‌ू-- अकल्पनीय; सत्त्वमू-- भौतिकगुणरहित; हि--निस्संदेह; मे--मेरा; हदयम्‌--हृदय; यत्र--जहाँ पर; धर्म:--धर्म का वास्तविक पद अथवा भक्तियोग; पृष्ठे--पीठ पर; कृत:--बनाया हुआ; मे--मेरे द्वारा; यत्‌ू--क्योंकि; अधर्म:--अधर्म; आरात्‌ू--अत्यन्त दूर; अत:--इसलिए; हि--निस्संदेह; माम्‌--मुझको; ऋषभम्‌--जीवों में श्रेष्ठ; प्राहु:--पुकारते हैं; आर्या:-- श्रेष्ठ जन, सत्पुरुष |

    मेरा दिव्य शरीर ( सच्चिदाननन्द विग्रह) मानव सहृश दिखता है, किन्तु यह भौतिक मनुष्य-शरीर नहीं है।

    यह अकल्पनीय है।

    मुझे प्रकृति द्वारा बाध्य होकर किसी विशेष प्रकार का शरीरनहीं धारण करना पड़ता, मैं अपनी इच्छानुकूल शरीर धारण करता हूँ।

    मेरा हृदय भी दिव्य हैऔर मैं सदैव अपने भक्तों का कल्याण चाहता रहता हूँ।

    इसलिए मेरे हृदय में भक्ति पूरित है, जोभक्तों के लिए है।

    मैंने अधर्म को हृदय से बहुत दूर भगा दिया है।

    मुझे अभक्ति के कार्य बिल्कुलअच्छे नहीं लगते।

    इन दिव्य गुणों के कारण सामान्य रूप से लोग मेरी उपासना भगवान्‌ऋषभदेव के रूप में करते हैं, जो भी जीवात्माओं में श्रेष्ठ है।

    तस्माद्धवन्तो हृदयेन जाता:सर्वे महीयांसममुं सनाभम्‌ ।

    अक्लष्टबुद्धया भरतं भजध्वंशुश्रूषणं तद्धरणं प्रजानाम्‌ू ॥

    २०॥

    तस्मात्‌ू--अतः ( क्योंकि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ ); भवन्त:ः--तुम लोग; हृदयेन--मेरे हृदय से; जाता:--उत्पन्न; सर्वे--सभी;महीयांसम्‌--सर्व श्रेष्ठ; अमुमू--वह; स-नाभम्‌- भ्राता; अक्लिष्ट-बुद्धया-- भौतिक कलुषहीन आपकी बुद्धि से; भरतम्‌ू-- भरतकी; भजध्वमू--सेवा करने का यत्न मात्र करो; शुश्रूषणम्‌--सेवा; तत्‌--वह; भरणम्‌ प्रजानाम्‌--नागरिकों ( प्रजा ) परशासन।

    मेरे प्रिय पुत्रो, तुम सभी मेरे हृदय से उत्पन्न हो जो समस्त दिव्य गुणों का केन्द्र है।

    अतः तुम्हेंसंसारी तथा ईर्ष्यालु मनुष्यों के समान नहीं होना है।

    तुम अपने सबसे बड़े भाई भरत को मानो,क्योंकि वह भक्ति में श्रेष्ठ है।

    यदि तुम लोग भरत की सेवा करोगे तो उसकी सेवा में मेरी सेवासम्मिलित होगी और तुम स्वयमेव प्रजा पर शासन करोगे।

    भूतेषु वीरुदभ्य उदुत्तमा येसरीसृपास्तेषु सबोधनिष्ठा: ।

    ततो मनुष्या: प्रमथास्ततोपिगन्धर्वसिद्धा विबुधानुगा ये ॥

    २१॥

    देवासुरे भ्यो मघवत्प्रधानादक्षादयो ब्रह्मसुतास्तु तेषाम्‌ ।

    भव: पर: सोथ विरिज्जवीर्य:स मत्परोहं द्विजदेवदेवः ॥

    २२॥

    भूतेषु--समस्त उत्पन्न जीवों में ( चाहे चर हों या अचर ); वीरुद्भ्य:--पौधों से; उदुत्तमा:--कहीं अधिक श्रेष्ठ; ये--जो;सरीसूपा:--रेंगने वाले प्राणी, यथा सर्प; तेषु--उनमें से; स-बोध-निष्ठा:--वे, जिन्होंने बुद्धि विकसित कर ली है; ततः--उनमेंसे; मनुष्या: --मनुष्य; प्रमथा: -- भूत; ततः अपि--उनसे भी श्रेष्ठ; गन्धर्व--गंधर्वलोक के वासी ( देव लोक में गायक के रूप मेंनियुक्त ); सिद्धा:--सिद्ध लोक के वासी, जिनमें योग शक्ति रहती है; विबुध-अनुगा:--किन्नरगण; ये--जो; देव--देवता;असुरेभ्य:--असुरों की अपेक्षा; मघवत्‌-प्रधाना: --इन्द्र आदि; दक्ष-आदय:--दक्ष आदि; ब्रह्म-सुता:--ब्रह्मा के पुत्र; तु--तब;तेषाम्‌--उनमें से; भव: -- भगवान्‌ शिव; परः-- श्रेष्ठ; सः--वह ( शिव ); अथ--आगे, और; विरिज्ञ-वीर्य: --भगवान्‌ ब्रह्मा सेउत्पन्न होने से; सः--वह ( ब्रह्मा ); मत्‌-परः--मेरा भक्त; अहमू--मैं; द्विज-देव-देव:--ब्राह्मणों का उपासक अथवा ब्राह्मणोंका भगवान्‌?

    दो प्रकार की प्रकट शक्तियों ( आत्मा तथा जड़ पदार्थ ) में से जीव-शक्ति ( वनस्पति, घास,वृक्ष तथा पौधे ) जड़ पदार्थ ( पत्थर, पृथ्वी इत्यादि ) से श्रेष्ठ है।

    इन अचर पौधों तथा वनस्पतियोंकी तुलना में रेंगने वाले कीट तथा सरीसूप श्रेष्ठ हैं।

    कीटों तथा सरीसूपों से पशु श्रेष्ठ हैं क्योंकिउनमें बुद्धि है।

    पशुओं से मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों से भूत-प्रेत क्योंकि उनके कोई भौतिकशरीर नहीं होता।

    भूत-प्रेतों से गंधर्व और गंधर्वों से सिद्ध श्रेष्ठ होते हैं।

    सिद्धों से किन्नर औरकिकन्नरों से असुर श्रेष्ठ हैं।

    असुरों से देवता और देवताओं में स्वर्ग का राजा इन्द्र श्रेष्ठ है।

    इन्द्र से भीश्रेष्ठ ब्रह्मा के पुत्र, जैसे कि राजा दक्ष और ब्रह्मा के इन पुत्रों में भगवान्‌ शिव सर्वश्रेष्ठ हैं।

    शिवब्रह्मा के पुत्र हैं इसलिए ब्रह्मा श्रेष्ठ माने जाते हैं किन्तु वे मुझ भगवान्‌ के अधीन हैं।

    चूँकि मैंब्राह्मणों को पूज्य मानता हूँ इसलिए ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं।

    न ब्राह्मणैस्तुलये भूतमन्यत्‌पश्यामि विप्रा: किमतः परं तु ।

    यस्मिन्रृभिः प्रहुतं श्रद्धयाह-मश्नामि काम न तथाग्निहोत्रे ॥

    २३॥

    न--नहीं; ब्राह्मणैः--ब्राह्मणों के; तुलये-- मैं समान मानता हूँ; भूतम्‌--जीव; अन्यत्‌-- अन्य; पश्यामि--मैं देखता हूँ; विप्रा: --हे समागत ब्राह्मणो; किमू--कुछ भी; अतः--ब्राह्मणों से; परम्‌-- श्रेष्ठ; तु--निश्चय ही; यस्मिन्‌--जिनमें से; नृभि: --मनुष्यों केद्वारा; प्रहुतम्‌--यज्ञों के विधिवत्‌ सम्पन्न होने पर दान किया गया भोजन; श्रद्धया--श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक; अहम्‌--मैं;अश्नामि--खाता हूँ; कामम्‌--परम प्रसन्नतापूर्वक; न--नहीं; तथा--उस प्रकार; अग्नि-होत्रे--अग्नियज्ञ में |

    हे पूज्य ब्राह्मणो, जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, इस संसार में ब्राह्मणों के तुल्य या उनसे श्रेष्ठअन्य कोई नहीं है।

    मैं उनके तुलना योग्य किसी को नहीं पाता।

    वैदिक नियमों के अनुसार यज्ञकरने के पीछे जो मेरा उद्देश्य है, उसे जब लोग समझ लेते हैं, तो वे मेरे निमित्त अर्पित भोगअत्यन्त श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक ब्राह्मण-मुख के द्वारा मुझे प्रदान करते हैं।

    इस प्रकार प्रदत्त भोजनको मैं अत्यन्त प्रसन्न होकर ग्रहण करता हूँ।

    निस्‍्संदेह इस प्रकार से प्रदत्त भोजन को मैं अग्निहोत्रमें होम किये भोजन की अपेक्षा अधिक प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करता हूँ।

    श़ धृता तनूरुशती मे पुराणीयेनेह सत्त्वं परमं पवित्रम्‌ ।

    शमो दमः सत्यमनुग्रहश्नतपस्तितिक्षानुभवश्च यत्र ॥

    २४॥

    धृता--दिव्य शिक्षा द्वारा धारण किया गया; तनू: --शरीर; उशती--भौतिक कलुष से मुक्त; मे--मेरा; पुराणी --शाश्वत; येन--जिससे; इह--इस संसार में; सत्त्वम्‌ू--सतोगुण; परमम्‌--परम, सर्वश्रेष्ठ; पवित्रमू--पवित्र; शम:--मन का नियंत्रण; दम:--इन्द्रियों का नियंत्रण; सत्यम्‌ू--सत्य; अनुग्रह:--अनुग्रह, कृपा; च--तथा; तप:--तपस्या; तितिक्षा--सहनशीलता; अनुभव:--ईश्वर तथा जीवात्मा का बोध; च--तथा; यत्र--जिसमें |

    वेद मेरे शाश्रत दिव्य शब्दावतार हैं, इसलिए वे शब्द-ब्रह्म हैं।

    इस जगत में ब्राह्मण समस्तवेदों का सम्यक्‌ अध्ययन करते हैं और उनको आत्मसात्‌ कर लेते हैं, इसलिए उन्हें साक्षात्‌मूर्तरूप वेद माना जाता है।

    ब्राह्मण सतोगुणी होते हैं फलस्वरूप उनमें शम, दम एवं सत्य के गुणपाये जाते हैं।

    वे वेदों का मूल अर्थ वर्णन करते हैं और अनुग्रहवश समस्त बद्धजीवों को वेदों केउद्देश्य का उपदेश देते हैं।

    वे तपस्या तथा तितिक्षा का अभ्यास करते हैं और जीवात्मा तथा परमईश्वर के पदों का अनुभव करते हैं।

    ये ही ब्राह्मणों के आठ गुण ( सत्त्व, शम, दम, सत्य,अनुग्रह, तपस्या, तितिक्षा यथा अनुभव ) हैं।

    अत: समस्त जीवों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं।

    मत्तोप्यनन्तात्परतः परस्मात्‌स्वर्गापवर्गाधिपतेर्न किल्जित्‌ ।

    येषां किमु स्थादितरेण तेषा-मकिदझ्ञनानां मयि भक्तिभाजाम्‌ ॥

    २५॥

    मत्त:--मुझसे; अपि-- भी; अनन्तात्‌ू--बल तथा ऐश्वर्य में असीम; परत: परस्मात्‌--सर्वोच्च से ऊँचा; स्वर्ग-अपवर्ग-अधिपतेः --स्वर्ग में प्राप्प सुख को मुक्ति द्वारा अथवा भौतिक सुखोपभोग द्वारा और फिर मुक्ति द्वारा प्रदान करने में समर्थ; न--नहीं; किल्लित्‌--कुछ भी; येषामू--जिसका; किम्‌--क्या प्रयोजन; उ-- ओह; स्थातू--क्या हो सकता है; इतरेण--जिन्हें किसीवस्तु की अन्य किसी से; तेषघामू--उनका; अकिश्जनानाम्‌ू--आवश्यकता नहीं है अथवा जिन्हें सम्पत्ति की इच्छा नहीं; मयि--मुझमें; भक्ति-भाजाम्‌-- भक्ति करने वाले |

    मैं ब्रह्मा तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र से भी अधिक ऐश्वर्यवान, सर्वशक्तिमान तथा श्रेष्ठ हूँ।

    मैंस्वर्गलोक में प्राप्त होने वाले समस्त सुखों को तथा मोक्ष को देने वाला हूँ।

    तो भी ब्राह्मण मुझसेभौतिक सुख की कामना नहीं करते।

    वे अत्यन्त पवित्र तथा निस्पृह हैं।

    वे एकमात्र मेरी भक्ति मेंलगे रहते हैं।

    भला उन्हें अन्य किसी से भौतिक लाभों के लिए याचना करने की क्‍याआवश्यकता है ?

    सर्वाणि मद्ध्विष्ण्यतया भवद्धि-श्वराणि भूतानि सुता श्रुवाणि ।

    सम्भावितव्यानि पदे पदे वोविविक्तरग्भिस्तदु हाईणं मे ॥

    २६॥

    सर्वाणि--समस्त; मत्‌-धिष्ण्यतया--मेरा आसन होने के कारण; भवद्धि:ः--तुम्हारे द्वारा; चराणि--चर; भूतानि--जीवात्माएँ;सुता:-हे पुत्रो; ध्ुवाणि--अचर; सम्भावितव्यानि--आदरणीय; पदे पदे--पग पग पर, प्रतिक्षण; वः--तुम लोगों के द्वारा;विविक्त-दग्भि: --स्पष्ट दृष्टि तथा ज्ञान से युक्त ( परमात्मा रूप में भगवान्‌ सर्वव्यापी हैं ); तत्‌ उ--अप्रत्यक्षतः जो; ह--निश्चयही; अर्हणम्‌--आदर देते हुए; मे--मुझे?

    हे पुत्रो, तुम्हें चराचर किसी जीवात्मा से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।

    यह जानते हुए कि मैंउनमें स्थित हूँ, प्रत्येक क्षण उनका समादर करना चाहिए इस प्रकार तुम मेरा आदर करो।

    मनोवचोहक्करणेहितस्यसाक्षात्कृतं मे परिबईणं हि ।

    विना पुमान्येन महाविमोहात्‌कृतान्तपाशान्न विमोक्तुमीशेत्‌ ॥

    २७॥

    मनः--मन; वचः --शब्द; हक्‌ू--दृष्टि; करण--इन्द्रियों का; ईहितस्थ--समस्त कर्मों ( शरीर, समाज, मैत्री इत्यादि बनाये रखनेके लिए ) का; साक्षात्‌-कृतम्‌-- प्रत्यक्षत: प्रदत्त; मे--मुझको; परिबर्हणम्‌--पूजा; हि-- क्योंकि; विना--बिना; पुमान्‌--कोईव्यक्ति; येन--जो; महा-विमोहात्‌--परम मोह से; कृतान्त-पाशात्‌--यमराज के पाश से; न--नहीं; विमोक्तुम--मुक्त होने केलिए; ईशेत्‌--समर्थ होता है।

    मन, दृष्टि, वचन तथा समस्त ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय इन्द्रियों का वास्तविक कार्य मेरी सेवामें लगे रहना है।

    जब तक जीवात्मा की इन्द्रियाँ इस प्रकार सेवारत नहीं रहतीं, तब तक जीवात्माको यमराज के पाश सदृश सांसारिक बन्धन से निकल पाना दुष्कर है।

    श्रीशुक उबाचएवमनुशास्यात्मजान्स्वयमनुशिष्टानपि लोकानुशासनार्थ महानुभाव: परमसुहद्धगवानूषभापदेशउपशमशीलानामुपरतकर्मणां महामुनीनां भक्तिज्ञानवैराग्यलक्षणं पारमहंस्यधर्ममुपशिक्षमाण:स्वतनयशतमज्येष्ठं परमभागवतं भगवज्जनपरायणं भरतं धरणिपालनायाभिषिच्य स्वयं भवनएवोर्वरितशरीरमात्रपरिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधान: प्रकीर्णकेश आत्मन्यारोपिताहवनीयोब्रह्मावर्तात्प्रवव्राज ॥

    २८॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; अनुशास्य--उपदेश दे चुकने पर; आत्म-जानू--अपनेपुत्रों को; स्वयम्‌--स्वयं; अनुशिष्टानू--सुशिक्षित; अपि--यद्यपि; लोक-अनुशासन-अर्थम्‌--लोगों को शिक्षा देने के लिए;महा-अनुभाव:--महान्‌ पुरुष; परम-सुहत्‌--हर एक का शुभ चिन्तक; भगवान्‌-- भगवान्‌; ऋषभ-अपदेश: -- जो ऋषभदेव के नाम से विख्यात हैं; उपशम-शीलानाम्‌--निस्पृह व्यक्तियों का; उपरत-कर्मणाम्‌--सकाम कर्मो से विरक्त; महा-मुनीनाम्‌--संन्यासी; भक्ति-- भक्ति; ज्ञान-- पूर्ण ज्ञान; वैराग्य--विरक्ति; लक्षणम्‌-- लक्षण; पारमहंस्य-- श्रेष्ठ मनुष्यों का; धर्मम्‌--कर्तव्य;उपशिक्षमाण: --उपदेश देते हुए; स्व-तनय--अपने पुत्रों का; शत--सौ; ज्येष्ठम्‌--जेष्ठ; परम-भागवतम्‌--ईश्वर का परम भक्त;भगवत्‌-जन-परायणम्‌--ई श्वर के भक्तों ( ब्राह्मणों तथा वैष्णवों ) का अनुगमन करने वाला; भरतम्‌-- भरत महाराज को;धरणि-पालनाय--संसार पर राज्य करने की दृष्टि से; अभिषिच्य-- अभिषेक करके, सिंहासन पर बैठाकर; स्वयमू--स्वयं;भवने--घर पर; एबव--यद्यपि; उर्वरित-- रहते हुए; शरीर-मात्र--केवल शरीर; परिग्रह:--स्वीकार करते हुए; उन्मत्त:--पागल;इब--सहश; गगन-परिधान: --आकाश को अपना वस्त्र बनाते हुए, दिगम्बर; प्रकीर्ण-केश:--बिखरे वालों वाला; आत्मनि--अपने में; आरोपित--आरोप करके; आहवनीय: --वैदिक अग्नि, अग्निहोत्र; ब्रह्मावर्तातू--ब्रह्मावर्त देश से; प्रवत्राज--सम्पूर्णसंसार में घूमने लगे।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--इस प्रकार सबके हितैषी परमेश्वर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों कोउपदेश दिया।

    यह आदर्श प्रस्तुत करने के लिए कि गृहस्थ जीवन से विरक्त होने के पूर्व पिताअपने पुत्रों को किस प्रकार शिक्षा दे, उन्होंने उन्हें शिक्षा दी, यद्यपि वे सभी पूर्णतया शिक्षिततथा शिष्ट थे।

    इन उपदेशों से सकाम कर्मों से न बँधने वाले तथा अपनी भौतिक कामनाओं कोनष्ट करने के बाद भक्ति में लीन रहने वाले संन्यासी भी लाभ उठाते हैं।

    ऋषभदेव ने अपने एकसौ पुत्रों को शिक्षा दी जिनमें से सबसे बड़ा भरत था, जो परम भक्त तथा वैष्णवों का अनुयायीथा।

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को सिंहासन पर इसलिए बिठाया कि वह सारे संसारपर शासन करे।

    इसके पश्चात्‌ घर में रहते हुए भी भगवान्‌ ऋषभदेव पागल के सहृश नंगे तथाबाल बिखेरे रहने लगे।

    तब यज्ञ-अग्नि को अपने में लीन करके विश्व का भ्रमण करने के लिएउन्होंने ब्रह्मावर्त को छोड़ दिया।

    जडान्धमूकबधिरपिशाचोन्मादकवदवधूतवेषो उभिभाष्यमाणोपि जनानां गृहीतमौनब्रतस्तूष्णीं बभूव ॥

    २९॥

    जड--अचर, स्थिर; अन्ध--अंधा; मूक--गूँगा; बधिर--बहरा; पिशाच-- भूत; उन्‍्मादक--पागल; वत्‌--सहृश; अवधूत-बेष: --अवधूत के समान रहते हुए ( संसार से विमुख ); अभिभाष्यमाण:--इस प्रकार ( बहरा, गूँगा तथा अंधा ) संबोधितहोकर; अपि--यद्यपि; जनानाम्‌--लोगों द्वारा; गृहीत--ग्रहण कर लिया; मौन--न बोलने का; ब्रत:--ब्रत, संकल्प; तृष्णीम्‌बभूव--चुप रहने लगा।

    अवधूत रूप धारण करके भगवान्‌ ऋषभदेव अंधे, बहरे तथा गूँगे, जड़, भूत अथवा पागलके समान मनुष्य-समाज में घूमने लगे।

    यद्यपि लोग उन्हें इन नामों से पुकारते, किन्तु वे मूक बनेरहते और किसी से कुछ नहीं बोलते थे।

    तत्र तत्र पुरग्रामाकरखेटवाटखर्वटशिबिरब्रजघोषसार्थगिरिवना श्रमादिष्वनुपथमवनिचरापसदै:'परिभूयमानो मक्षिकाभिरिववनगजस्तर्जनताडनावमेहनष्ठीवनग्रावशकृद्रज: प्रक्षेपपूतिवातदुरुक्तैस्तदविगणयज्नेवासत्संस्थानएतस्मिन्देहोपलक्षणे सदपदेश उभयानुभवस्वरूपेणस्वमहिमावस्थानेनासमारोपिताहंममाभिमानत्वादविखण्डितमना: पृथिवीमेकचर: परिबभ्राम ॥

    ३०॥

    तत्र तत्र--यहाँ वहाँ; पुर--नगरों; ग्राम--गाँवों; आकर--खानों; खेट--खेतों; वाट--बगीचों; खर्वट--घाटी में स्थित गाँवों( पहाड़ी गाँवों ); शिबिर--सेना की छावनियों; ब्रज--गोशालाओं ; घोष--अहीरों की बस्तियों; सार्थ--यात्रियों केविश्रामालयों; गिरि--पर्वतों; बन--जंगलों; आश्रम--मुनियों के वासस्थानों; आदिषु--इत्यादि में; अनुपथम्‌--मार्ग से जातेहुए; अवनिचर-अपसदैः--अवांछित तत्त्वों द्वारा, दुष्ट पुरुषों के द्वारा; परिभूयमान:--घिरकर; मक्षिकाभि:--मक्खियों से;इब--सहश्य; वन-गज:--जंगली हाथी; तर्जन--चिंग्घाड़ से; ताडन-- प्रताड़ित होकर; अवमेहन--शरीर पर पेशाब करते हुए;पष्टीवन--शरीर पर थूकते हुए; ग्राव-शकृत्‌--पत्थर और मल; रज:--धूलि; प्रक्षेप--फेंकते हुए; पूति-बात--शरीर पर अधोवायुछोड़ते हुए; दुरुक्तै:--( तथा ) गालियों से; तत्‌ू--वह; अविगणयनू--बिना परवाह किये; एव--इस प्रकार; असत्ू-संस्थाने--भद्र पुरुष के अयोग्य स्थान; एतस्मिन्‌ू--इसमें; देह-उपलक्षणे--देह के रूप में; सत्‌-अपदेशे--सत्य कहलाने वाला; उभय-अनुभव-स्वरूपेण--देह तथा आत्मा की वास्तविक स्थिति समझने से; स्व-महिम--अपनी महिमा में; अवस्थानेन--स्थिर होकरके; असमारोपित-अहमू-मम-अभिमानत्वात्‌---' मैं तथा मेरी ' ममता को अस्वीकार करने से; अविखण्डित-मना:--अविचलित मन से; पृथिवीम्‌--सारे संसार में; एक-चर:--अकेले; परिबध्राम--घूमता था |

    ऋषभदेव नगरों, गाँवों, खानों, किसानों की बस्तियों, घाटियों, बागों, सैनिक छावनियों,गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों, यात्रियों के विश्रामालयों, पर्वतों, जंगलों तथा आश्रमों केबीच घूमने लगे।

    जहाँ भी वे जाते, उन्हें दुष्ट जन उसी प्रकार घेर लेते जिस प्रकार जंगली हाथीको मक्खियाँ घेर लेती हैं।

    उन्हें डराया धमकाया और मारा जाता, उन पर पेशाब किया जाताऔर थूका जाता।

    यहाँ तक कि कभी-कभी उन पर पत्थर, विष्ठा और धूल फेंकी जाती और कभी-कभी तो लोग उनके समक्ष अपानवायु निकालते।

    इस प्रकार लोग उन्हें भला-बुरा कहतेऔर अत्यधिक यातना देते, किन्तु उन्होंने कभी भी इसकी परवाह नहीं की, क्‍योंकि वे यहसमझते थे कि इस शरीर का यही अन्त है।

    वे आत्म-पद पर स्थित थे और सिद्ध होने से ऐसेभौतिक तिरस्कारों की तनिक भी परवाह नहीं करते थे।

    अर्थात्‌ उन्हें इसका पूर्ण ज्ञान हो चुकाथा कि पदार्थ ( देह ) तथा आत्मा पृथक्‌-पृथक्‌ हैं।

    उनमें देहात्म-बुद्धि न थी।

    अत: वे किसी परक्रुद्ध हुए बिना सारे संसार में अकेले ही घूमने लगे।

    अतिसुकुमारकरचरणोर:स्थलविपुलबाह्डंसगलवदनाद्यवयवविन्यास: प्रकृतिसुन्दरस्वभावहाससुमुखोनवनलिनदलायमानशिशिरतारारुणायतनयनरुचिर: सहशसुभगकपोलकर्णकण्ठनासोविगूढस्मितवदनमहोत्सवेन पुरवनितानां मनसि कुसुमशरासनमुपदधान:'परागवलम्बमानकुटिलजटिलकपिशकेश भूरिभारोवधूतमलिननिजशरीरेण ग्रहगृहीत इवाहश्यत ॥

    ३१॥

    अति-सु-कुमार--अत्यन्त कोमल; कर--हाथ; चरण--पाँव; उर:-स्थल--वक्षस्थल, छाती; विपुल--दीर्घ, लम्बे; बाहु--भुजाएँ; अंस--कंधे; गल--गला; वदन--मुख; आदि--इत्यादि; अवयव--अंग; विन्यास:--सुगठित; प्रकृति--स्वभाव से;सुन्दर--आकर्षक; स्व-भाव--स्वाभाविक; हास--मन्द मुस्कान; सु-मुख:--सुन्दर मुख; नव-नलिन-दलायमान--नवविकसित कमल पुष्प की पंखड़ियों के समान दिखने वाला; शिशिर--सब दुखों को हरने वाले; तार--नेत्र गोलक; अरुण--लाली लिए हुए; आयत--फैले हुए, विशाल; नयन--नेत्रों से; रूचिर:ः --मोहक; सहश--समान; सुभग--सुन्दर; कपोल--गाल; कर्ण--कान; कण्ठ-गर्दन; नास:--नासिका, नाक; विगूढ-स्मित--अस्फुट हास; वदन--मुख से; महा-उत्सवेन--उत्सव सहश लगने वाला; पुर-वनितानाम्‌ू--पुर-नारियों के; मनसि--मन में ; कुसुम-शरासनम्‌--कामदेव; उपदधान: --जागरितकरते हुए; पराकु--चारों ओर; अवलम्बमान--खुली,फैली; कुटिल-- घुँघराले; जटिल--जटायुक्त; कपिश-- भूरे; केश--बालों की; भूरि-भार:-- अधिकता; अवधूत--उपेक्षित; मलिन--गंदा, धूल-धूसरित; निज-शरीरेण---अपने शरीर से; ग्रह-गृहीतः--भूतग्रस्त; इब--मानो; अहृश्यत--दिखाई पड़ता था।

    भगवान्‌ ऋषभदेव के हाथ, पाँव तथा वक्षस्थल अत्यन्त दीर्घ थे।

    उनके कंधे, मुख तथाअंग-प्रत्यंग अत्यन्त सुगठित तथा सुकोमल थे।

    उनका मुख उनकी सहज मुस्कान से मंडित थाऔर उनके खुले हुए लाल-लाल नेत्र ऐसे प्रतीत होते थे मानो प्रातःकालीन ओस कणों से युक्तनव विकसितकमल पुष्प की पंखड़ियाँ हों।

    इस कारण वे और भी अधिक सुन्दर दिखते थेउनकी पुतलियाँ इतनी मनोहर थीं कि देखने वालों का सारा सन्ताप हर लेती थीं।

    उनके कपोल,कान, गर्दन, नाक तथा अन्य अंग अतीव सुन्दर थे।

    उनके मन्द हास से उनका मुख इतनाआकर्षक प्रतीत होता था कि विवाहित नारियों का भी मन रिंबच जाता था।

    ऐसा प्रतीत होता थामानो कामदेव ने अपने बाणों से उन्हें बींध दिया हो।

    उनके सिर के चारों ओर घुँघराली भूरीजटाएँ थीं।

    उनके सिर के बाल छितरे थे क्योंकि उनका शरीर गंदा और उपेक्षित था।

    ऐसा प्रतीतहोता था मानो उन्हें किसी भूत ने सता रखा हो।

    यहिं वाव स भगवान्लोकमिमं योगस्याद्धा प्रतीपमिवाचक्षाणस्तत्प्रतिक्रियाकर्म बीभत्सितमितिब्रतमाजगरमास्थित: शयान एवाश्नाति पिबति खादत्यवमेहति हदति सम चेष्टमान उच्चरितआदिग्धोद्देश: ॥

    ३२॥

    यहिं वाव--जब; सः--उस; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; लोकम्‌--जनता को; इममू--इस; योगस्य--योग का; अद्धा- प्रत्यक्ष;प्रतीपम्‌--विरुद्ध; इब--सहृश्य; आचक्षाण: --देखते हुए; तत्‌--उसकी; प्रतिक्रिया--विरोध में; कर्म--क्रिया; बीभत्सितम्‌--बीभत्स, घृणित; इति--इस प्रकार; ब्रतमू--आचरण, वृत्ति; आजगरम्‌--अजगर का ( एक स्थान पर पड़े रहने का );आस्थित:--स्वीकार करके; शयान:ः --लेटे रहना; एव--निस्सन्देह; अश्नाति-- भोजन करता है; पिबति--पीता है; खादति--खाता ( चबाता ) है; अवमेहति--पेशाब करता है; हदति--मल-त्याग करता है; स्म--इस प्रकार; चेष्टमान:--लुढ़कते हुए;उच्चरिते--मल तथा मूत्र में; आदिग्ध-उद्देश: --इस प्रकार उसका शरीर लथपथ हो गया |

    जब भगवान्‌ ऋषभदेव ने देखा कि जनता उनकी योग-साथधना में विघ्न रूप है, तो उन्होंनेइसकी प्रतिक्रिया में अजगर का सा आचरण ( वृत्ति ) ग्रहण कर लिया।

    वे एक ही स्थान पर लेटेरहने लगे।

    वे लेटे ही लेटे खाते, पीते, पेशाब तथा मल त्याग करते और उसी पर लोट-पोटकरते।

    यहाँ तक कि वे अपने सारे शरीर को अपने ही मल-मूत्र से सान लेते जिससे उनकेविरोधी उन्हें विच्चत्नित न करें।

    तस्य ह यः पुरीषसुरभिसौगन्ध्यवायुस्तं देशं दशयोजनं समन्तात्सुरभि चकार ॥

    ३३॥

    तस्यथ--उसकी; ह--निस्संदेह; यः--जो; पुरीष--मल की; सुरभि--सुगन्धि से; सौगन्ध्य--सुरभित होकर; वायु:--वायु;तम्‌--उस; देशम्‌--देश को; दश योजनम्‌--दस योजन तक ( एक योजन आठ मील के तुल्य ); समन्तात्‌--चारों ओर;सुरभिम्‌--सुगन्धित; चकार--कर दिया।

    इस अवस्था में रहने के कारण जनता ने ऋषभदेव को परेशान नहीं किया।

    परंतु उनके मल-मूत्र से दुर्गन्धि नहीं निकली।

    उल्टे, उनका मल-मूत्र इतना सुगन्धित था कि अस्सी मील तक काप्रदेश इसकी सगन्ध से भर गया।

    एवं गोमृगकाकचर्यया ब्रजंस्तिष्ठन्नासीन: शयान: काकमृगगोचरितः पिबति खादत्यवमेहति सम ॥

    ३४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; गो--गायों; मृग--हिरन; काक--कौबवे की; चर्यया--चर्या ( क्रिया ) द्वारा; ब्रजन्‌--घूमते हुए; तिष्ठन्‌--खड़े-खड़े; आसीन:--बैठे हुए; शयान:--लेटे हुए; काक-मृग-गो-चरितः--कौबों, हिरणों तथा गायों की भाँति आचरणकरते हुए; पिबति--पीता है; खादति--खाता है; अवमेहति--पेशाब करता है; स्म--उसने ऐसा किया।

    इस प्रकार ऋषभदेव ने गायों, हिरणों तथा कौवों की वृत्ति का अनुगमन किया।

    कभी वेइधर-इधर चलते तो कभी एक स्थान पर बैठे रहते।

    कभी वे लेट जाते।

    इस प्रकार वे गाय,हिरण तथा कौवे के समान ही आचरण करते।

    उन्हीं के समान वे खाते-पीते तथा मल-मूत्र कात्याग करते।

    इस प्रकार वे लोगों को धोखे में रखे रहे।

    इति नानायोगचर्याचरणो भगवान्कैवल्यपतिरृषभो विरतपरममहानन्दानु भव आत्मनिसर्वेषांभूतानामात्मभूते भगवति वासुदेव आत्मनोव्यवधानानन्तरोदरभावेन सिद्धसमस्तार्थपरिपूर्णो योगै श्वर्याणिवैहायसमनोजवान्तर्धानपरकायप्रवेशदूरग्रहणादीनि यहच्छयोपगतानि नाञजसा नृप हृदयेना भ्यनन्दत्‌, ॥

    ३५॥

    इति--इस प्रकार; नाना--अनेक; योग--योग की; चर्या--क्रियाएँ; आचरण: --अभ्यास करते हुए; भगवान्‌-- भगवान्‌;कैवल्य-पति:--कैवल्य के स्वामी अथवा सायुज्य मुक्ति के दाता; ऋषभ:ः--ऋषभदेव; अविरत--निरन्तर; परम--परम; महा--अत्यधिक; आनन्द-अनुभव:-- आनन्द के अनुभव द्वारा; आत्मनि--परम-आत्मा में; सर्वेषाम्‌--सब; भूतानाम्‌--जीवात्माओंके; आत्म-भूते--हृदय में स्थित होकर; भगवति-- भगवान्‌; वासुदेवे --वसुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण में; आत्मन:--स्वयं का;अव्यवधान--विधान में अन्तर न आने से; अनन्त-- असीम; रोदर--यथा रोदन, हास तथा सिहरन; भावेन--प्रेम के लक्षणों से;सिद्ध--सिद्ध, पूर्ण; समस्त--सब; अर्थ--वांछित धन; परिपूर्ण: --पूरित; योग-ऐश्वर्याणि---योग-शक्तियाँ; वैहायस-- आकाशमें उड़ना; मनः-जब--मन की गति से दौड़ना; अन्तर्धान--अहृश्य होने की शक्ति; परकाय-प्रवेश --दूसरे के शरीर में प्रवेशकरने की क्षमता; दूर-ग्रहण--दूर की वस्तुओं को देखने की शक्ति, दूर-दृष्टि; आदीनि--इत्यादि; यहच्छया--स्वतः, बिनाकिसी बाधा के; उपगतानि-- प्राप्त किया; न--नहीं; अद्जसा- प्रत्यक्षत: ; नृप--हे राजा परीक्षित; हृदयेन--हृदय से;अभ्यनन्दत्‌ू--स्वीकार कर लिया।

    हे राजा परीक्षित, श्रीकृष्ण के अंश भगवान्‌ ऋषभदेव ने समस्त योगियों को योगसाधनाप्रदर्शित करने के उद्देश्य से अनेक विचित्र कार्य किये।

    वे मुक्ति के स्वामी थे और दिव्य आनन्दमें सतत लीन रहते थे।

    जो हजारों गुणा बढ़ गया था।

    वसुदेव के पुत्ररुप वासुदेव कृष्ण उनकेआदि कारण हैं।

    उनके स्वरूप में कोई अन्तर नहीं; फलतः भगवान्‌ ऋषभदेव रोने, हँसने तथाथरथराने के प्रिय लक्षण प्रकट करने लगे।

    वे दिव्य प्रेम में सदैव निमग्न रहते।

    फलस्वरूप सभीयोग शक्तियाँ अपने आप उनके पास पहुँचती--यथा मन की गति से आकाश-गमन, प्रकट औरअदृश्य होना, अन्यों के शरीर में प्रवेश कर जाना तथा दूरस्थ वस्तुओं को देख पाना।

    यद्यपि वेइन सबको कर सकने में समर्थ थे, किन्तु उन्होंने इन शक्तियों का प्रयोग नहीं किया।

    TO

    अध्याय छह: भगवान ऋषभदेव की गतिविधियाँ

    5.6राजोबाचन नूनं भगव आत्मारामाणां योगसमीरितज्ञानावभर्जितकर्मबीजानामैश्वर्याणि पुनः क्लेशदानिभवितुमईन्ति यहच्छयोपगतानि ॥

    १॥

    राजा उवाच--राजा परीक्षित ने पूछा; न--नहीं; नूनम्‌--निस्सन्देह; भगव:--हे सर्वशक्तिमान शुकदेव गोस्वामी;आत्मारामाणाम्‌--भक्ति में रत विशुद्ध भक्तों का; योग-समीरित--योग साधना से प्राप्त; ज्ञान--ज्ञान से; अवभर्जित--दग्ध;कर्म-बीजानाम्‌--कर्मरूपी बीजों का; ऐश्वर्याणि--योग शक्तियों से; पुन:--फिर; क्लेशदानि--क्लेश के कारण; भवितुम्‌ू--होने में; अर्हन्ति--समर्थ हैं; यहच्छया--स्वतः, स्वयं ही; उपगतानि--प्राप्त हो जाती हैं।

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे भगवन्‌, जो पूर्णरूपेण विमल हृदय हैं उन्हेंभक्तियोग से ज्ञान प्राप्त होता है और सकाम कर्म के प्रति आसक्ति जलकर राख हो जाती है।

    ऐसेव्यक्तियों में योग शक्तियाँ स्वतः उत्पन्न होती हैं।

    इनसे किसी प्रकार का क्लेश नहीं पहुँचता, तोफिर ऋषभदेव ने उनकी उपेक्षा क्यों की ?

    ऋषिरुवाचसत्यमुक्त किन्त्विह वा एके न मनसोउद्धा विश्रम्भभनवस्थानस्य शठकिरात इव सड्डभच्छन्ते ॥

    २॥

    ऋषि: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सत्यम्‌--सत्य वचन; उक्तम्‌--कहा गया; किन्तु--लेकिन; इह--इस संसार में;वा--अथवा; एके --कुछ; न--नहीं; मनस: --मन का; अद्धा- प्रत्यक्ष, साक्षात्‌; विश्रम्भम्‌-विश्वासपात्र; अनवस्थानस्य--अस्थिर होकर; शठ--अत्यन्त चालाक; किरात:--बहेलिया; इव--सहश; सड़च्छन्ते--हो जाते हैं।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया--हे राजन, तुमने बिल्कुल सत्य कहा है।

    किन्तु जिसप्रकार चालाक बहेलिया पशुओं को पकड़ने के बाद उन पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि वेभाग सकते हैं।

    उसी प्रकार महापुरुष अपने मन पर भरोसा नहीं करते।

    दरअसल, वे सदाजागरूक रहते हुए मन की गति पर नजर रखे रहते हैं।

    तथा चोक्तम्‌--न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्ानवस्थिते ।

    यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्ण चस्कन्द तप ऐश्वरम्‌ ॥

    ३॥

    तथा--इस प्रकार; च--और; उक्तम्‌--कहा गया है; न--कदापि नहीं; कुर्यात्‌--करना चाहिए; कर्हिचित्‌ू--किसी समय याकिसी से; सख्यम्‌--मित्रता; मनसि--मन से; हि--निश्चय ही; अनवस्थिते--चंचल; यत्‌--जिसमें; विश्रम्भात्‌-- अत्यधिकविश्वास करने से; चिरात्‌ू--दीर्घ काल तक; चीर्णम्‌--अभ्यास की गई; चस्कन्द--विचलित हो गयी; तपः--तपस्या; ऐ श्वरम्‌--शिव तथा सौभरि जैसे महापुरुषों की।

    सभी विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं।

    मन स्वभाव से अत्यन्त चंचल है।

    मनुष्यको चाहिए कि वे इससे मित्रता न करे।

    यदि हम मन पर पूर्ण विश्वास करते हैं, तो यह किसीक्षण धोखा दे सकता है।

    यहाँ तक कि शिवजी श्रीकृष्ण के मोहिनी रूप को देखकर उत्तेजित होउठे और सौभरि मुनि भी योग की सिद्धावस्था से च्युत हो गये।

    नित्यं ददाति कामस्य चिछिद्रं तमनु येडरयः ।

    योगिनः कृतमैत्रस्य पत्युर्जायेव पुंश्चली ॥

    ४॥

    नित्यमू--सदा; ददाति--देता है; कामस्थ--विषय की; छिद्रम्‌ू--सुविधा; तम्‌--वह ( विषय ); अनु--पीछा करता हुआ; ये--जो; अरयः--शत्रुजन; योगिन:--आध्यत्मिक जिवन में प्रगति की इच्छा करनेवाला अथवा योगियों का; कृत-मैत्रस्थ--मन मेंविश्वास करके; पत्यु:--पति का; जाया इब--पत्नी के समान; पुंश्वली--व्यभिचारिणीजार पुरुषों के बहकावे में आने वालीस्त्री ?

    व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों के बहकावे में आसानी से आकर कभी कभी अपने पति काउनसे बध करवा देती है।

    यदि योगी अपने मन के ऊपर संयम नहीं रखता और उसे अवसर(छूट ) प्रदान करता है, तो उसका मन एक प्रकार से काम, क्रोध तथा लोभ जैसे शत्रुओं कोप्रश्रय देगा है, जो निश्चय ही योगी को मार डालेंगे।

    कामो मन्युर्मदो लोभ: शोकमोहभयादय: ।

    कर्मबन्धश्न यन्मूल: स्वीकुर्यात्को नु तद्दुध: ॥

    ५॥

    'कामः--विषय ; मन्यु;--क्रो ध; मदः--घमंड; लोभ:--लालच; शोक --पश्चात्ताप; मोह--मोह; भय--_डर; आदय:--ये सभी;कर्म-बन्ध: --सकाम कर्म के लिए बन्धन स्वरूप; च--तथा; यत्‌-मूल:--जिसका कारण; स्वीकुर्यात्‌-- स्वीकार करेगा;कः--कौन; नु--निस्संदेह; तत्‌--वह मन; बुध:--यदि बुद्धिमान है।

    काम, क्रोध, मद, लोभ, पश्चाताप, मोह तथा भय का मूल कारण तो मन ही है।

    ये सारेमिल कर कर्म-बन्धन की रचना करते हैं।

    भला कौन बुद्धिमान मन पर विश्वास कर सकेगा ?

    अथेवमखिललोकपालललामोपि विलक्षणैर्जडवदवधूतवेषभाषाचरितैरविलक्षितभगवत्प्रभावो योगिनांसाम्परायविधिमनुशिक्षयन्स्वकलेवरं जिहासुरात्मन्यात्मानमसंव्यवहितमनर्थान्तरभावेनान्वी क्षमाणउपरतानुवृत्तिरुपरराम ॥

    ६॥

    अथ-तत्पश्चात्‌; एवम्‌--इस प्रकार से; अखिल-लोक-पाल-ललाम:--इस ब्रह्माण्ड के समस्त राजाओं के प्रमुख; अपि--यद्यपि; विलक्षणै:--विभिन्न; जड-वत्‌--जड़-सदृश ( मूढ़ के समान ); अवधूत-वेष- भाषा-चरितै:-- अवधूत के वेष, उसकीभाषा तथा आचरण से; अविलक्षित-भगवत्‌-प्रभाव:-- भगवान्‌ के ऐश्वर्य को छिपाते हुए ( अपने को सामान्य पुरुष की तरहरखते हुए ); योगिनामू--योगियों का; साम्पराय-विधिम्‌--इस देह के त्याग की विधि; अनुशिक्षयन्‌--सिखाते हुए; स्व-कलेवरम्‌--अपने शरीर को जो किंचित्मात्र भौतिक नहीं था; जिहासु:--सामान्य मनुष्य की भाँति त्यागने की इच्छा से;आत्मनि--आदिपुरुष वासुदेव में; आत्मानम्‌--अपने आप, भगवान्‌ विष्णु के ' आवेश-अवतार ' होने से ऋषभदेव स्वयं को;असंव्यवहितम्‌ू--माया के व्यवधान के बिना; अनर्थ-अन्तर-भावेन--विष्णुपद में स्वयं; अन्वीक्षमाण:-- सदैव देखते हुए;उपरत-अनुवृत्ति:--ऐसा दिखा रहे थे मानो अपना भौतिक शरीर त्याग रहे हों; उपरराम--राजा के रूप में इस लोक की लीलाएँछोड़ दीं?

    भगवान्‌ ऋषभदेव इस ब्रह्माण्ड के समस्त राजाओं में प्रमुख थे, किन्तु अवधूत का भेष तथाउसकी भाषा स्वीकार करके वे इस प्रकार आचरण कर रहे थे मानो जड़ तथा बद्ध जीव हों।

    'फलतः कोई उनके ईश्वरीय ऐश्वर्य को नहीं देख सका।

    उन्होंने योगियों को देह त्यागने की विधिसिखाने के लिए ही ऐसा आचरण किया; तो भी वे वासुदेव कृष्ण के अंश रूप बने रहे।

    इसदशा में रहते हुए उन्होंने इस संसार में भगवान्‌ ऋषभदेव के रूप में की गईं लीलाओं को त्यागदिया।

    यदि कोई ऋषभदेव के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए इस सूक्ष्म देह को त्याग सकताहै, तो उसे पुनः भौतिक देह नहीं धारण करनी पड़ती।

    तस्य ह वा एवं मुक्तलिड्रस्य भगवत ऋषभस्य योगमायावासनया देह इमां जगतीमभिमानाभासेनसड्क्रममाण: कोड्डवेड्डकुटकान्दक्षिणकर्णाटकान्देशान्यदच्छयोपगत: कुटकाचलोपवन आस्यकृताश्मकवल उन्माद इव मुक्तमूर्थजोसंवीत एवं विचचार, ॥

    ७॥

    तस्य--उस ( भगवान्‌ ऋषभदेव ) का; ह वा--मानो; एवम्‌--इस प्रकार; मुक्त-लिड्डस्य--जिसका स्थूल व सूक्ष्म शरीरों केसाथ तादात्म्य नहीं है; भगवत:-- भगवान का; ऋषभस्य--ऋषभदेव का; योग-माया-वासनया-- भगवान्‌ की लीलाओं हेतुयोगमाया की प्राप्ति से; देह:--देह; इमाम--यह; जगतीम्‌--पृथ्वी; अभिमान-आभासेन--यह देह भौतिक तत्त्वों से निर्मित है,इस प्रकार के आभास से; सड्क्रममाण:-- भ्रमण करते हुए; कोड्जू-वेड्ड-कुटकान्‌--कोंक, वेंक तथा कुटक; दक्षिण--दक्षिणभारत में; कर्णाटकानू--कर्नाट राज्य में; देशान्‌--समस्त देशों; यहच्छया-- अपनी इच्छा से; उपगतः--पहुँचे; कुटकाचल-उपवने--कुटकाचल के निकटस्थ जंगल में; आस्य--मुँह के भीतर; कृत-अश्म-कवल:--मुँह में पत्थर भर कर; उन्मादः इब--पागल के समान; मुक्त-मूर्थज: --मुक्त ( बिखरे ) केशों से युक्त; असंबीत:--नग्न; एब--ही; विचचार-- भ्रमण करने लगे?

    वास्तव में भगवान्‌ ऋषभदेव के कोई भौतिक शरीर न था, किन्तु योगमाया से वे अपनेशरीर को भौतिक मान रहे थे।

    अतः सामान्य मनुष्य की भाँति आचरण करके उन्होंने वैसीमानसिकता का त्याग किया।

    वे संसार भर में घूमने लगे।

    घूमते-घूमते वे दक्षिण भारत केकर्णाट प्रदेश में पहुँचे जहाँ के रास्ते में कोंक, वेंक तथा कुटक पड़े।

    इस दिशा में घूमने कीउनकी कोई योजना न थी, किन्तु कुटकाचल के निकट उन्होंने एक जंगल मे प्रवेश किया।

    उन्होंने अपने मुँह में पत्थर के टुकड़े भर लिए और जंगल में नग्न तथा बाल बिखेरे पागल कीभाँति घूमने लगे।

    अथ समीरवेगविधूतवेणुविकर्षणजातोग्रदावानलस्तद्वनमालेलिहान: सह तेन ददाह ॥

    ८॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; समीर-वेग--वायु के झोंके से; विधूत--झकझोरे हुए; वेणु--बाँसों की; विकर्षण--रगड़ से; जात--उत्पन्नहुईं; उग्र--प्रबल; दाव-अनलः: --दावाग्नि; तत्‌--उस; वनम्‌--कुटकाचल के निकट के जंगल को; आलेलिहान:--चारों ओरसे भक्षण करती; सह--संग; तेन--वह शरीर; ददाह--जल कर राख हो गया।

    जब वे भटक रहे थे तो प्रबल दावाग्नि लग गई।

    यह अग्नि वायु से झकझोरे गये बाँसों कीरगड़ से उत्पन्न हुई थी।

    इस अग्नि में कुटकाचल का पूरा जंगल तथा ऋषभदेव का शरीरभस्मसात्‌ हो गए।

    यस्य किलानुचरितमुपाकर्णय्य कोड्डूवेड्डकुटकानां राजाईन्नामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणेभवितव्येन विमोहितः स्वधर्मपथमकुतो भयमपहाय कुपथपाखण्डमसमझ्जसं निजमनीषया मन्दःसम्प्रवर्तयिष्यते ॥

    ९॥

    यस्य--जिस ( भगवान्‌ ऋषभदेव ) का; किल अनुचरितम्‌ू--परमहंस के रूप में लीलाएँ, वर्णाश्रम सिद्धान्त के नियमों से परे;उपाकर्ण्य--सुन कर; कोड्ड-वेड्ग-कुटकानाम्‌-कोंक, वेंक तथा कुटक का; राजा--राजा; अहत्‌-नाम--जिसका नाम अहत्‌( अब जैन कहलाता है ) था; उपशिक्ष्य--परमहंस रूप में भगवान्‌ ऋषभदेव के कार्यों का अनुकरण करके; कलौ--इसकलियुग में; अधर्मे उत्कृष्ममाणे--अधर्म की वृद्धि के कारण; भवितव्येन-- भावी द्वारा; विमोहित:--मोहित; स्व-धर्म-पथम्‌--धर्म-पथ; अकुतः-भयम्‌--समस्त प्रकार के भयों से मुक्त; अपहाय--त्याग कर ( यथा स्वच्छता, सत्यभाषण, इन्द्रियनिग्रह,सादगी, धर्माचरण, ज्ञान का सद्प्रयोग ); कु-पथ-पाखण्डम्‌--नास्तिकता का बुरा ( उल्टा ) मार्ग; असमझसम्‌ू--वेदविरुद्ध,अनुचित; निज-मनीषया--अपने मस्तिष्क से; मन्दः--मूढ़; सम्प्रवर्तयिष्यते-- प्रचार करेगा, चलायेगा।

    शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को आगे बताया कि हे राजन, कोंक, बेंक तथाकुटक के राजा ने, जिसका नाम अर्हत्‌ था, ऋषभदेव के कार्य-कलापों के विषय में सुना औरउसने ऋषभदेव के नियमों का अनुकरण करते हुए एक नवीन धर्म-पद्धति चला दी।

    पापमयकर्मो के इस युग, कलियुग, का लाभ उठाकर मोहवश राजा अर्हत ने बाधारहित वैदिक नियमोंको छोड़ दिया और वेदविरुद्ध एक नवीन धर्म-पद्धति गढ़ ली।

    यही जैन धर्म का शुभारम्भ था।

    अन्य अनेक तथाकथित धर्मों ने इस नास्तिकवाद को ग्रहण किया।

    येन ह वाव कलौ मनुजापसदा देवमायामोहिता: स्वविधिनियोगशौचचारित्रविहीना देवहेलनान्यपब्रतानिनिजनिजेच्छया गृह्ञाना अस्नानानाचमनाशौचकेशोल्लुञ्लननादीनि कलिनाधर्मबहुलेनोपहतधियोब्रह्मत्राह्णयज्ञपुरुषलोकविदूषका: प्रायेण भविष्यन्ति, ॥

    १०॥

    येन--जिस छढ्म धार्मिक प्रकृति से; ह वाव--निश्चय ही; कलौ--इस कलियुग में; मनुज-अपसदा: --अत्यन्त नीच व्यक्ति; देव-माया-मोहिता:-- भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहग्रस्त, शक्ति या माया से मोहित; स्व-विधि-नियोग-शौच-चारित्र-विहीना:--अपने कर्तव्यों के अनुसार निर्मित विधानों, स्वच्छता तथा चरित्र से विहीन ( शास्त्र विहित आचारों तथा शौच सेरहित ); देव-हेलनानि-- भगवान्‌ के प्रति तिरस्कार; अपब्रतानि--अपवित्र व्रत, पाखंड; निज-निज-इच्छया-- अपनी अपनीरुचि के अनुसार; गृह्नाना: --स्वीकार करते हुए; अस्नान-अनाचमन-अशौच-केश-उल्लुञ्लनन-आदीनि--गढ़े हुए धार्मिक नियमयथा अस्नान ( न नहाना ), मुख न धोना, अशुद्ध रहना तथा केश नुचवाना; कलिना--कलियुग के प्रभाव से; अधर्म-बहुलेन--अधर्म की बहुलता वाले; उपहत-धिय:ः--जिसका अन्तःकरण विनष्ट हो गया है, बुद्द्धिहीन; ब्रह्म-ब्राह्मण-यज्ञ-पुरुष-लोक-विदूषका:--वेद, ब्राह्मण, यज्ञ, भगवान्‌ तथा भक्तों की निन्‍्दा करने वाले; प्रायेण--प्राय:; भविष्यन्ति--हों गे?

    अधम तथा परमेश्वर की माया से मोहित व्यक्ति मूल वर्णाश्रम धर्म तथा उसके नियमों कापरित्याग कर देंगे।

    वे नित्य तीन बार स्नान करना और ईश्वर की आराधना करना छोड़ देंगे।

    वेशौच तथा परमेश्वर को त्याग कर अटपटे नियमों को ग्रहण करेंगे।

    नियमित स्नान न करनेअथवा अपना मुख न धोने से वे सदा गंदे रहेंगे और अपने केश नुचवाएँगे।

    ढोंग धर्म काअनुसरण करते हुए वे फूलेंगे, फलेंगे।

    इस कलिकाल में लोग अधार्मिक पद्धतियों की ओरअधिक उन्मुख होंगे।

    फलस्वरूप वे वेद, वेदों के अनुयायी ब्राह्मणों, भगवान्‌ तथा अनेक भक्तोंका उपहास करेंगे।

    ते च ह्ार्वाक्तनया निजलोकयात्रयान्धपरम्परया श्रस्तास्तमस्यन्धे स्वयमेव प्रपतिष्यन्ति, ॥

    ११॥

    ते--वे लोग जो वेदों का अनुसरण नहीं करते; च--तथा; हि--निश्चय ही; अर्वाक्तनया--वैदिक धर्म के शाश्वत नियमों सेविचलित होकर; निज-लोक-यात्रया--स्वेच्छाकृत प्रवृत्ति से; अन्ध-परम्परया--अन्धे अज्ञानी पुरुषों की परम्परा से;आश्वस्ता:--प्रोत्साहित होकर; तमसि--अज्ञान के अंधकार में; अन्धे--अंधापन; स्वयम्‌ एब-- अपने आप; प्रपतिष्यन्ति--गिरेंगे?

    अधम लोग अपने अज्ञानवश वैदिक नियमों से हटकर चलने वाली धार्मिक प्रणाली कासूत्रपात करते हैं।

    वे अपने मानसिक ढोंगों के कारण स्वयं ही घोर अंधकार में गिरते हैं।

    अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थ: ॥

    १२॥

    अयम्‌ अवतार:--यह अवतार ( भगवान्‌ ऋषभदेव ); रजसा--रजोगुण से; उपप्लुत-- भरा हुआ; कैवल्य-उपशिक्षण-अर्थ:--लोगों को मुक्ति मार्ग की शिक्षा देने के उद्देश्य से।

    इस कलियुग में लोग रजो तथा तमो गुणों से भरे हुए हैं।

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने इन लोगों कोमाया के चंगुल से छुड़ाने के लिए ही अवतार लिया था।

    तस्यानुगुणानएलोकान्गायन्ति--अहो भुव: सप्तसमुद्रवत्याद्वीपेषु वर्षेष्वधिपुण्यमेतत्‌ ।

    गायन्ति यत्रत्यजना मुरारेःकर्माणि भद्राण्यवतारवन्ति ॥

    १३॥

    तस्य--उसके ( ऋषभदेव के ); अनुगुणानू--मुक्ति के उपदेशों के अनुसार; श्लोकान्‌ू--श्लोक; गायन्ति--गाते हैं, जप करते हैं;अहो--ओह; भुव:--इस पृथ्वी लोक का; सप्त-समुद्र-वत्या:--सात समुद्रों वाले; द्वीपेषु--द्वीपों में से; वर्षषु -- भूभागों में से;अधिपुण्यम्‌ू--अन्य किसी द्वीप से अधिक पवित्र; एतत्‌--यह ( भारत-वर्ष ); गायन्ति--गायन करते हैं; यत्रत्य-जना:--इसभूभाग के लोग; मुरारे:-- भगवान्‌ मुरारी के; कर्माणि--कार्यो का; भद्गराणि--शुभ; अवतारवन्ति--अनेक अवतारों में?

    यथा ऋषभदेव विद्वानजन भगवान्‌ ऋषभदेव के दिव्य गुणों का जाप इस प्रकार करते हैं--' ओह! इसपृथ्वीलोक में सात समुद्र तथा अनेक द्वीप और वर्ष हैं जिनमें से भारतवर्ष सबसे अधिक पवित्रहै।

    भारतवर्ष के लोग भगवान्‌ के कार्यकलापों का, ऋषभदेव तथा अन्य अनेक अवतारों केरूप में, गुणगान करने के अभ्यस्त हैं।

    ये सारे कार्य मानवता के कल्याण हेतु अत्यन्त शुभ हैं।

    अहो नु वंशो यशसावदातःप्रैयव्नतो यत्र पुमान्पुराण: ।

    कृतावतारः पुरुष: स आद्य-श्वचार धर्म यदकर्महेतुम्‌ू ॥

    १४॥

    अहो--ओह; नु--निस्संदेह; वंश:--वंश; यशसा--चतुर्दिक ख्याति से; अवदात:--अत्यन्त विमल; प्रैयव्रतः--राजा प्रियत्रतका; यत्र--जिसमें; पुमानू-- परम पुरुष; पुराण:--आदि; कृत-अवतार:-- अवतार लेकर; पुरुष:-- भगवान्‌; सः --उसने;आद्यः--आदि-पुरुष; चचार--आचरण किया; धर्मम्‌-धार्मिक नियम; यत्‌--जिससे; अकर्म-हेतुमू-कर्मो के अन्त काकारण?

    ओह! भला मैं प्रियत्रत के वंश के सम्बन्ध में क्या कहूँ जो इतना विमल तथा अत्यन्तविख्यात है।

    इसी वंश में परम पुरुष भगवान्‌ ने अवतार लिया और कर्मफलों से मुक्त करने वालेधार्मिक नियमों का आचरण किया।

    को न्वस्य काष्ठामपरो नुगच्छे-न्मनोरथेनाप्यभवस्य योगी ।

    यो योगमाया:ः स्पृहयत्युदस्ताहासत्तया येन कृतप्रयत्ना: ॥

    १५॥

    कः--कौन; नु--निस्संदेह; अस्य-- भगवान्‌ ऋषभदेव का; काष्ठाम्‌--आदर्श; अपरः--अन्य; अनुगच्छेत्‌-- अनुगमन करसकता है; मनः-रथेन--मन से; अपि-- भी; अभवस्यथ-- अजन्मा का; योगी--योगी; य:--जो; योग-माया: --योग सिद्धि;स्पृहयति--स्पृहा करता है, कामना करता है; उदस्ता:--ऋषभदेव द्वारा परित्यक्त; हि--ही; असत्तया--अपूर्ण होने से, असत्‌ से;येन--जिसके द्वारा ( ऋषभदेव द्वारा ); कृत-प्रयत्ता:--यद्यपि सेवा करने के लिए इच्छुक |

    'भला ऐसा कौन योगी है जो अपने मन से भी भगवान्‌ ऋषभदेव के आदर्शों का पालन कर सके ? उन्होंने उन समस्त योग-सिद्ध्रियों का तिरस्कार कर दिया था जिसके लिए अन्य योगीलालायित रहते हैं।

    भला ऐसा कौन योगी है जो भगवान्‌ ऋषभदेव की समता कर सके ?

    इति ह सम सकलवेदलोकदेवब्राह्मणगवां परमगुरोर्भगवत ऋषभाख्यस्य विशुद्धाचरितमीरितं पुंसांसमस्तदुश्चरिताभिहरणं परममहामड्रलायनमिदमनुश्रद्धयोपचितयानु श्रुणोत्या श्राववति वावहितो भगवतितस्मिन्वासुदेव एकान्ततो भक्तिरनयोरपि समनुवर्तते ॥

    १६॥

    इति--इस प्रकार; ह स्म--निस्संदेह; सकल--सम्पूर्ण; वेद--ज्ञान का; लोक--जनता का; देव--देवताओं का; ब्राह्मण--समस्त ब्राह्मणों का; गवाम्‌ू--गायों का; परम--परम; गुरोः--गुरु, स्वामी; भगवत:--भगवान्‌ का; ऋषभ-आख्यस्य--जिसका नाम ऋषभ था; विशुद्ध-शुद्ध; आचरितम्‌ू--कार्यकलाप; ईरितम्‌--अब व्याख्या किया गया; पुंसाम्‌-प्रत्येकजीवात्मा का; समस्त--सम्पूर्ण ; दुश्चरित--पाप कर्म; अभिहरणम्‌--विनाश करते हुए; परम--अग्रणी; महा--महान्‌; मड़ल--कल्याण का; अयनम्‌--वास, शरण, घर; इदम्‌--यह; अनुश्रद्धया-- श्रद्धा से; उपचितया--बढ़ती हुई; अनुश्वूणोति--अधिकारी से सुनता है; आश्राववति--दूसरे से कहता है; वा--अथवा; अवहित:ः--सावधान होकर; भगवति-- भगवान्‌ में;तस्मिन्‌ू--उस; वासुदेवे--वासुदेव, श्रीकृष्ण में; एक-अन्ततः--एकान्त भाव से; भक्ति: -- भक्ति; अनयो:--श्रोता तथा वक्तादोनों समूहों का; अपि--निश्चय ही; समनुवर्तते--वास्तव में प्रारम्भ होती है।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, 'ऋषभदेव समस्त वैदिक ज्ञान, मनुष्यों, देवताओं, गायोंतथा ब्राह्मणों के स्वामी हैं।

    मैं पहले ही उनके विशुद्ध, दिव्य कार्य-कलापों का विस्तार से वर्णनकर चुका हूँ जिनसे समस्त जीवात्माओं के पापकर्म मिट जाएँगे।

    भगवान्‌ ऋषभदेव कीलीलाओं का यह वर्णन समस्त मंगल वस्तुओं का आगार है।

    जो भी आचार्यों का अनुसरणकरते हुए इन्हें ध्यान से सुनता या कहता है उसे निश्चय ही भगवान्‌ वासुदेव के चरणकमलों कीशुद्ध भक्ति प्राप्त होगी।

    ' यस्यामेव कवय आत्मानमविरतं विविधवृजिनसंसारपरितापोपतप्यमानमनुसवनं स्नापयन्तस्तयैव परयानिर्व॒त्या ह्यापवर्गमात्यन्तिकं परमपुरुषार्थमपि स्वयमासादितं नो एवाद्रियन्ते भगवदीयत्वेनैव'परिसमाप्तसर्वार्था: ॥

    १७॥

    यस्याम्‌ एब--जिसमें ( कृष्णभावनामृत अथवा भक्ति के अमृत में ); कवय:--पण्डित जन, आध्यात्मिक जीवन का दार्शनिक;आत्मानम्‌--आत्म, स्वयं; अविरतम्‌--निरन्तर; विविध-- अनेक; वृजिन--पापपूर्ण; संसार-- भौतिक संसार में; परिताप--दुखोंसे; उपतप्यमानम्‌--तपे हुए, दुखी; अनुसवनम्‌--निरन्तर; स्नापयन्त:ः --स्नान करते हुए; तया--उससे; एब--निश्चय ही;परया--महान्‌; निर्व॒त्या--प्रसन्नतापूर्वक; हि--ही; अपवर्गम्‌--मुक्ति; आत्यन्तिकम्‌--बिना अवरोध के, निरन्तर; परम-पुरुष-अर्थम्‌--मानवी सफलताओं में सर्वश्रेष्ठ; अपि--यद्यपि; स्वयम्‌--स्वयं; आसादितमू--प्राप्त; नो--नहीं; एव--निश्चय ही;आद्वियन्ते--प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं; भगवदीयत्वेन एव-- भगवान्‌ से सम्बन्ध होने के कारण; परिसमाप्त-सर्व-अर्था: --जिनकी समस्त भौतिक कामनाओं का अन्त हो चुका है।

    भक्त जन भौतिक संसार के विभिन्न संकटों से मुक्त होने के लिए निरन्तर भक्ति-सरिता मेंस्नान करते रहते हैं।

    इससे उन्हें परम आनन्द प्राप्त होता है और साक्षात्‌ मुक्ति उनकी सेवा करनेआती है।

    तो भी वे उस सेवा को स्वीकार नहीं करते, भले ही भगवान्‌ स्वयं क्‍यों न सेवा के लिएतत्पर हों।

    भक्तों के लिए मुक्ति महत्त्वहीन है, क्योंकि ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाने परउनकी प्रत्येक आकांक्षा पूरी हो गई होती है और वे समस्त भौतिक कामनाओं से ऊपर उठ चुकेहोते हैं।

    राजन्पतिर्गुरुरलं भवतां यदूनांदेव प्रियः कुलपति: क्व च किड्डरो व: ।

    अस्त्वेवमड़ भगवान्भजतां मुकुन्दोमुक्ति ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम्‌ ॥

    १८॥

    राजनू--हे राजन; पति:--पालक; गुरुः--गुरु; अलमू--निश्चय ही; भवताम्‌--आपका; यदूनाम्‌ू--यदुवंश का; दैवम्‌--आरशध्य श्रीविग्रह; प्रियः--अत्यन्त प्रिय मित्र; कुल-पति:--वंश का स्वामी; क्व च--यहाँ तक कि कभी-कभी; किड्डर: --सेवक; वः--तुम सबका ( पांडवों का ); अस्तु--हो; एवम्‌--इस प्रकार; अड्ग--हे राजा; भगवान्‌-- भगवान्‌; भजताम्‌--सेवामें रत भक्तों का; मुकुन्दः--भगवान्‌; मुक्तिम्‌--मुक्ति; ददाति--देता है; कर्हिचित्‌ू--किसी भी समय; स्म--निस्सन्देह; न--नहीं; भक्ति-योगम्‌-प्रेमा भक्ति |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजन, परम पुरुष मुकुन्द सभी पांडवों तथा यदुवंशियोंके वास्तविक पालक हैं।

    वे तुम्हारे गुरु, आराध्य अर्चाविग्रह, मित्र तथा तुम्हारे कर्मों के निदेशकहैं।

    यही नहीं, वे कभी-कभी दूत या सेवक के रूप में भी तुम्हारे परिवार की सेवा करते हैं।

    इसका अर्थ यह हुआ कि वे सामान्य सेवकों की तरह कार्य करते हैं।

    जो ईश्वर की सेवा में लगेरहकर प्रिय पात्र बनना चाहते हैं उन्हें मुक्ति सरलता से मिल जाती है, किन्तु वे अपनी प्रत्यक्ष सेवाकरने का अवसर बहुत उनसे कम ही प्रदान करते हैं।

    नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्ण:श्रेयस्थतद्गरचचनया चिरसुप्तबुद्धे: ।

    लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकम्‌आख्थान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥

    १९॥

    नित्य-अनुभूत--अपने वास्तविक रूप के प्रति सदैव जागरूक होने के कारण; निज-लाभ-निवृत्त-तृष्ण:--अपने में पूर्ण होनेके कारण, कामनारहित; श्रेयसि--जीवन के वास्तविक कल्याण में; अ-तत्‌-रचनया--देह को आत्मा मानकर भौतिक क्षेत्र में कर्मो का प्रसार करके; चिर--दीर्घकाल तक; सुप्त--सोया हुआ; बुद्धेः--जिसकी बुद्धि; लोकस्य--लोगों का; यः--जो( भगवान्‌ ऋषभदेव ); करुणया--अहैतुकी कृपा से; अभयम्‌--निर्भय; आत्म-लोकम्‌--आत्म-स्वरूप; आख्यात्‌--उपदेशदिया; नमः --नमस्कार है; भगवते-- भगवान्‌; ऋषभाय--ऋषभदेव को; तस्मै-- उस |

    भगवान्‌ ऋषभदेव को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध था, अतः वे आत्म-तुष्ट थे औरउन्हें किसी बाह्म तुष्टि की आकांक्षा नहीं रह गई थी।

    अपने में पूर्ण होने के कारण उन्हें किसीसफलता की स्पूहा नहीं थी।

    जो वृथा ही देहात्मबुद्धि में लगे रहते हैं और भौतिकता का परिवेशतैयार करते हैं, वे अपने वास्तविक हित को नहीं पहचानते।

    भगवान्‌ ऋषभदेव ने अहैतुकीकृपावश वास्तविक आत्मबुद्धि तथा जीवन लक्ष्य की शिक्षा दी।

    अतः हम उन भगवान्‌ ऋषभदेवको नमस्कार करते हैं।

    TO

    अध्याय सात: राजा भरत की गतिविधियाँ

    5.7श्रीशुक उबाचभरतस्तु महाभागवतो यदा भगवतावनितलपरिपालनाय सश्ञिन्तितस्तदनुशासनपरः पञ्ञजनींविश्वरूपदुहितरमुपयेमे ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; भरतः--महाराज भरत; तु--लेकिन; महा-भागवतः --ई श्वर का महान्‌ भक्त;यदा--जब; भगवता--अपने पिता भगवान्‌ ऋषभदेव की आज्ञा से; अवनि-तल--पृथ्वी पर; परिपालनाय--शासन करने केलिए; सश्जिन्तितः--हढ़-निश्चय; तत्‌-अनुशासन-परः -- पृथ्वी पर शासन करने में रत; पञ्ञजनीम्‌--पंचजनी; विश्वरूप-दुहितरम्‌--विश्वरूप की पुत्री को; उपयेमे--विवाह कर लिया।

    शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को और आगे बताया--हे राजन, भरत महाराजसर्वोच्च भक्त थे।

    अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए जिन्होंने उन्हें सिंहासन पर बैठानेका निर्णय पहले ही ले रखा था।

    वे तदनुसार पृथ्वी पर राज्य करने लगे।

    समस्त संसार पर राज्यकरते हुए वे अपने पिता के आदेशों का पालन करने लगे और उन्होंने विश्वरूप की कन्यापंचजनी से विवाह कर लिया।

    तस्यामु ह वा आत्मजान्कार्त्स्थेनानुरूपानात्मन: पञ्ञ जनयामास भूतादिरिव भूतसूक्ष्माणि सुमतिं राष्ट्रभूतसुदर्शनमावरणं धूप्रकेतुमिति ॥

    २॥

    तस्यथाम्‌--उसके गर्भ में; उह वा--निस्संदेह; आत्म-जानू--पुत्रों को; कार्त्स्येन--पूर्णत:; अनुरूपान्‌ू-- अनुरूप, समान;आत्मन:--अपने; पश्च-- पाँच; जनयाम्‌ आस--उत्पन्न किया; भूत-आदि: इब--अहंकार के सहश; भूत-सूक्ष्माणि--पाँच भूत,तन्मात्र; सु-मतिम्‌ू--सुमति; राष्ट्र-भृतम्‌--राष्ट्रभृत; सु-दर्शनम्‌--सुदर्शन; आवरणम्‌--आवरण; धूम्र-केतुम्‌-- धूमके तु; इति--इस प्रकार।

    जिस प्रकार मिथ्या अहंकार से भूत-तन्मात्र ( सूक्ष्म-इन्द्रिय विषय ) उत्पन्न होते हैं वैसे हीमहाराज भरत को अपनी पत्नी पंचजनी के गर्भ से पाँच पुत्र प्राप्त हुए।

    इन पुत्रों के नाम थे--सुमति, राष्ट्रभूत, सुदर्शन, आवरण तथा धूमप्रकेतु।

    अजनाभ॑ नामैतद्वर्ष भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति ॥

    ३॥

    अजनाभम्‌---अजनाभ; नाम--नाम से; एतत्‌--यह; वर्षम्‌-द्वीप; भारतम्‌-- भारत; इति--इस प्रकार; यत:ः--जिससे;आरभ्य--प्रारम्भ करके; व्यपदिशन्ति-- कहते हैं, पुकारते हैं।

    पहले इस देश का नाम अजनाभवर्ष था, किन्तु महाराज भरत के शासन काल से इसकानाम भारतवर्ष पड़ा।

    स बहुविन्महीपति: पितृपितामहवदुरूवत्सलतया स्वे स्वे कर्मणि वर्तमाना: प्रजा: स्वधर्ममनुवर्तमान:पर्यपालयतू, ॥

    ४॥

    सः--वह राजा ( महाराज भरत ); बहु-वित्‌--महान्‌ ज्ञानी; मही-पति:--पृथ्वी का शासक, राजा; पितृ--पिता; पितामह--बाबा; वत्‌--सहृश; उरु-वत्सलतया--नागरिकों ( प्रजा ) पर अत्यधिक वत्सल ( स्नेहिल ) होने के कारण; स्वे स्वे-- अपनेअपने; कर्मणि--कर्तव्य में; वर्तमाना: --रहकर; प्रजा: --प्रजा; स्व-धर्मम्‌ अनुवर्तमान: --अपने कर्तव्य में लगे रहकर;पर्यपालयत्‌ू--शासन किया।

    भरत महाराज इस पृथ्वी पर अत्यन्त ज्ञानी तथा अनुभवी राजा थे।

    वे स्वयं अपने कार्यों मेंसंलग्न रह कर प्रजा पर अच्छी प्रकार से राज्य करते थे।

    वे अपनी प्रजा के प्रति उतने ही वत्सलथे जितने उनके पिता तथा पितामह रह चुके थे।

    उन्होंने प्रजा को अपने अपने कर्तव्यों में व्यस्तरख कर इस पृथ्वी पर शासन किया।

    ईजे च भगवन्तं यज्ञक्रतुरूपं क्रतुभिरुच्चावचै: श्रद्धयाहताग्निहोत्रदर्शपूर्णमासचातुर्मास्यपशुसोमानांप्रकृतिविकृतिभिरनुसवनं चातुरहोंत्रविधिना ॥

    ५॥

    ईजे--आराधना की; च--भी; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ की; यज्ञ-क्रतु-रूपम्‌--पशु सहित तथा पशु रहित यज्ञों वाले; क्रतुभि:--ऐसे यज्ञों से; उच्चावचै:--अत्यन्त बड़े तथा अत्यन्त छोटे; श्रद्धया- श्रद्धा समेत; आहत--किया गया; अग्नि-होत्र-- अग्नि होत्रयज्ञ का; दर्श--दर्श यज्ञ का; पूर्णमास--पूर्णमास यज्ञ का; चातुर्मास्थ--चातुर्मास्य यज्ञ का; पशु-सोमानामू--पशु तथा सोमरस से सम्पन्न यज्ञों का; प्रकृति--पूर्ण अनुष्ठानों द्वारा; विकृतिभिः--तथा आंशिक अनुष्ठानों द्वारा; अनुसवनम्‌-प्राय:; चातु:-होबत्र-विधिना--चार प्रकार के पुरोहितों ( ऋत्विजों ) द्वारा निर्देशित यज्ञ विधि-विधानों के द्वारा |

    राजा भरत ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अनेक प्रकार के यज्ञ किये।

    इनके नाम हैं अग्निहोत्र, दर्श,पूर्णमास, चातुर्मास्थ, पशु-यज्ञ ( जिसमें अश्व की बलि दी जाती थी ) तथा सोम-यज्ञ ( जिसमेंसोमरस प्रयुक्त होता था ) भेंट किया जाता था ।

    कभी ये यज्ञ पूर्ण रूप से तो कभी आंशिक रूपमें सम्पन्न किये जाते थे।

    प्रत्येक दशा में समस्त यज्ञों में चातुहोंत्र नियमों का हढ़ता से पालनकिया जाता था।

    इस प्रकार भरत महाराज भगवान्‌ की उपासना करते थे।

    सम्प्रचरत्सु नानायागेषु विरचिताडुक्रियेष्वपूर्व यत्तत्क्रियाफलं धर्माख्यं परे ब्रह्मणि यज्ञपुरुषेसर्वदेवतालिझनां मन्त्राणामर्थनियामकतया साक्षात्कर्तरि परदेवतायां भगवति वासुदेव एवं भावयमान आत्मनैपुण्यमृदितकषायो हवि:घष्वध्वर्युभिर्गृह्मामाणेषु स यजमानो यज्ञभाजोदेवांस्तान्पुरुषावयवेष्व भ्यध्यायत्‌ ॥

    ६॥

    सम्प्रचरत्सु-- अनुष्ठान प्रारम्भ करते समय; नाना-यागेषु--अनेक प्रकार के यज्ञ; विरचित-अड्गभ-क्रियेषु--जिसमें गौण कृत्यकिये जाते थे; अपूर्वम्‌--सुदूर; यत्‌--जो भी; तत्‌ू--वह; क्रिया-फलम्‌--यज्ञ का फल; धर्म-आख्यमू-- धर्म के नाम से; परे--दिव्य; ब्रह्मणि--पर ब्रह्म में; यज्ञ-पुरुषे--समस्त यज्ञों का भोक्ता; सर्व-देवता-लिज्ञनाम्‌-- देवताओं को प्रकट करने वाले;मन्त्राणाम्‌--मंत्रों का, वैदिक स्तुतियों का; अर्थ-नियाम-कतया--पदार्थों का नियन्ता होने से; साक्षात्‌-कर्तरि--साक्षात्‌ करनेवाला; पर-देवतायाम्‌--समस्त देवाताओं के कारण; भगवति--भगवान्‌; वासुदेवे-- श्रीकृष्ण में; एब--निश्चय ही;भावयमान: --सदैव चिन्तन करते हुए; आत्म-नैपुण्य-मृदित-कषाय: --समस्त काम तथा क्रोध से रहित; हविःषु--यज्ञ में डालीजाने वाली सामग्री, हवि; अध्वर्युभिः--जब अथर्ववेद में वर्णित यज्ञों में दक्ष पुरोहित; गृह्ममाणेषु-- लेते हुए; सः--महाराज भरतने; यजमान:--यज्ञ करने वाला; यज्ञ-भाज:--यज्ञ-फल को पाने वाले; देवान्‌--समस्त देवताओं को; तान्‌ू--उन; पुरुष-अवयवेषु-- भगवान्‌ गोविन्द के शरीर के अंग प्रत्यंगों में; अभ्यध्यायत्‌--सोचा |

    विभिन्न यज्ञों के प्रारम्भिक कार्यों को कर लेने के बाद महाराज भरत यज्ञफलों को धर्म केनाम पर भगवान्‌ वासुदेव को अर्पण कर देते थे।

    अर्थात्‌, वे भगवान्‌ वासुदेव कृष्ण को प्रसन्नकरने के लिए समस्त यज्ञ करते थे।

    महाराज भरत सोचते थे कि सभी देवता भगवान्‌ वासुदेव केशरीर के अंगस्वरूप हैं और वैदिक मंत्रों में जो भी वर्णित है वे उसके नियन्ता हैं।

    इस प्रकार सेचिन्तन के फलस्वरूप महाराज भरत आसक्ति, काम तथा लोभ जैसे भौतिक कल्मष से मुक्त थे।

    जब पुरोहितगण अग्नि में हवि अर्पित करने वाले होते तो महाराज भरत को यह ज्ञात हो जाता थाकि विभिन्न देवताओं को दी जाने वाली यह हवि ईश्वर के विभिन्न अवयवों ( अंगों ) के निमित्तहै।

    उदाहरणार्थ, इन्द्र भगवान्‌ के बाहु स्वरूप और सूर्य उनके नेत्र हैं।

    इस प्रकार महाराज भरत नेविचार किया कि विभिन्न देवताओं को दी जाने वाली आहुतियाँ वास्तव में भगवान्‌ वासुदेव केअंग-प्रत्यंग के निमित्त हैं।

    एवं कर्मविशुद्धया विशुद्धसत्त्वस्यान्तईदयाकाशशरीरे ब्रह्मणि भगवति वासुदेवे महापुरुषरूपोपलक्षणेश्रीवत्सकौस्तुभवनमालारिदरगदादिभिरुपलक्षिते निजपुरुषहल्लिखितेनात्मनि पुरुषरूपेण विरोचमानउच्चैस्तरां भक्तिरनुदिनमेधमानरयाजायत ॥

    ७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कर्म-विशुद्धब्ा-- श्री भगवान्‌ को प्रत्येक वस्तु अर्पित करते हुए अपने पुण्यकर्मों के फल की अभिलाषा नकरते हुए, कर्म शुद्धि से; विशुद्ध-सच्त्वस्य-- भरत महाराज का, जिनका जीवन पूर्णतः शुद्ध था; अन्त:-हदय-आकाश-शरीरे--योगियों द्वारा ध्यान किये जाने वाले अन्‍्तर्यामी परमात्मा; ब्रह्मणि--निराकार ब्रह्म में, जिसकी आराधना निर्गुण ज्ञानी करते हैं;भगवति--श्रीभगवान्‌ में; वासुदेवे--वासुदेव श्रीकृष्ण में; महा-पुरुष--परम पुरुष का; रूप--स्वरूप, आकार; उपलक्षणे--लक्षणों वाला; श्रीवत्स-- भगवान्‌ के वक्षस्थल का चिह्न, श्रीवत्स; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि; वन-माला--पुष्पों का हार; अरि-दर--चक्र तथा शंख; गदा-आदिभि:--( तथा ) गदा इत्यादि अन्य लक्षणों से; उपलक्षिते--पहचाना जाकर; निज-पुरुष-हतू-लिखितेन--जो अपने भक्तों के हृदय में चित्र की भाँति स्थित हैं; आत्मनि--अपने मन में; पुरुष-रूपेण-- अपने स्वरूप से;विरोचमाने--चमकता; उच्चैस्तराम्‌--अति उच्च स्तर पर; भक्ति:--भक्ति; अनुदिनम्‌ू--दिन प्रति दिन; एधमान--बढ़ता हुआ;रया--बलशाली; अजायत--प्रकट हुआ।

    इस प्रकार यज्ञों से परिष्कृत महाराज भरत का हृदय सर्वथा कल्मषहीन हो गया।

    दिन प्रतिदिन वासुदेव श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति बढ़ती रही।

    वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण आदि भगवान्‌ हैं,जो परमात्मा रूप में तथा निर्गुण ब्रह्म के रूप में प्रकट होते हैं।

    योगी लोग अपने हृदय में स्थितपरमात्मा का ध्यान धरते हैं, ज्ञानी परम सत्य निर्गुण ब्रह्म के रूप में उपासना करते हैं और भक्तजन शाम्त्रों में वर्णित दिव्य देहधारी भगवान्‌ वासुदेव की आराधना करते हैं।

    उनका शरीरश्रीवत्स, कौस्तुभ मणि तथा पुष्पहार से सुशोभित है और वे हाथों में शंख, चक्र, गदा तथाकमल धारण किये हुए हैं।

    नारद जैसे भक्त अपने अन्तःकरण में उनका सदा ध्यान धरते हैं।

    एवं वर्षायुतसहस्त्रपर्यन्तावसितकर्मनिर्वाणावसरोधिभुज्यमानं स्वतनयेभ्यो रिक्थं पितृपैतामहं यथादायंविभज्य स्वयं सकलसम्पन्निकेतात्स्वनिकेतात्पुलहा श्रमं प्रवत्राज ॥

    ८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार सदैव कार्यरत रहकर; वर्ष-अयुत-सहस्त्र--दस हजार वर्षो के एक हजार गुने वर्ष अर्थात्‌ एक करोड़ वर्ष;पर्यन्त--बीतने तक; अवसित-कर्म-निर्वाण-अवसरः --राज्य-ऐश्वर्य का अन्त समझ कर महाराज भरत; अधिभुज्यमानम्‌--उसकाल तक इस प्रकार भोगी जाकर; स्व-तनयेभ्य:--अपने पुत्रों को; रिक्थम्‌--सम्पत्ति; पितृ-पैतामहम्‌-- अपने पिता तथापूर्वजों से प्राप्त: यथा-दायम्‌--मनु के दाय-भाक्‌ नियम के अनुसार ( यथायोग्य ); विभज्य--बाँट कर; स्वयम्‌--स्वयं, आप;सकल-सम्पत्‌--सभी प्रकार के ऐश्वर्यों का; निकेतातू-घर से; स्व-निकेतात्‌--अपने पैतृक घर से; पुलह-आश्रमम्‌ प्रवत्राज--हरद्वार में पुलह आश्रम चला गया ( जहाँ शालग्राम शिलाएँ प्राप्त होती हैं ) ?

    प्रारब्ध ने महाराज भरत के लिए भौतिक ऐश्वर्य-भोग की अवधि एक करोड़ वर्ष नियत करदी थी।

    जब यह अवधि समाप्त हुई तो उन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग दिया और अपने पूर्वजों सेप्राप्त सम्पत्ति को अपने पुत्रों में बाँट दिया, उन्होंने समस्त ऐश्वर्य के आगार अपने पैतृकगृह कोछोड़ दिया और वे पुलहाश्रम के लिए चल पड़े जो हरद्वार में स्थित है।

    वहाँ शालग्राम शिलाएँप्राप्त होती हैं।

    यत्र ह वाव भगवान्हरिरद्यापि तत्रत्यानां निजजनानां वात्सल्येन सन्निधाप्यत इच्छारूपेण ॥

    ९॥

    यत्र--जहाँ; ह वाव--निश्चय ही; भगवान्‌-- श्रीभगवान; हरि: --ईश्वर; अद्य-अपि-- आज भी; तत्रत्यानाम्‌--उस स्थान में रहतेहुए; निज-जनानाम्‌--अपने भक्तों के; वात्सल्येन-- अपने दिव्य स्नेह से; सन्निधाप्यते--हृश्य होता है; इच्छा-रूपेण-- भक्त कीइच्छानुसार।

    पुलह आश्रम में भगवान्‌ हरि अपने भक्तों के दिव्य वात्सल्य-वश होकर दृश्य होते रहते हैंऔर उन सबकी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं।

    यत्राभ्रमपदान्युभयतो नाभिभिर्द षच्चक्रै श्रक्रनदी नाम सरित्प्रवरा सर्वतः पवित्रीकरोति ॥

    १०॥

    यत्र--जहाँ; आश्रम-पदानि--सभी आश्रम; उभयत:--ऊपर तथा नीचे, दोनों ओर; नाभिभि:--नाभि चिह्न सदश; हृषत्‌ू--हृश्य;अक्रैः--चक्रों से; चक्र-नदी--चक्र नदी ( जिसे गंडकी कहते हैं ); नाम--नामक; सरित्‌-प्रवरा--नदियों में श्रेष्ठ; सर्वतः --सर्वत्र; पवित्री-करोति--पवित्र करती है |

    पुलह आश्रम में गण्डकी नदी है जो समस्त नदियों में श्रेष्ठ है।

    यहाँ इन समस्त स्थलों कोपवित्र करने वाली शालग्राम शिलाएँ ( संगमरमर की बटियाँ ) हैं।

    इनमें ऊपर तथा नीचे दोनोंओर नाभि जैसे चक्र दृष्टिगोचर होते हैं।

    तस्मिन्वाव किल स एकल: पुलहाश्रमोपवने विविधकुसुमकिसलयतुलसिकाम्बुभिःकन्दमूलफलोपहारैश्व समीहमानो भगवत आराधनं विविक्त उपरतविषयाभिलाष उपभृतोपशमः परांनिर्वृतिमवाप ॥

    ११॥

    तस्मिनू--उस आश्रम में; वाव किल--निस्सन्देह; सः--भरत महाराज; एकल: --अकेले, एकान्त; पुलह-आश्रम-उपवने--पुलह आश्रम के उद्यानों में; विविध-कुसुम-किसलय-तुलसिका-अम्बुभि: --अनेक पुष्प, किसलय तथा तुलसीदल के साथ-साथ जल से; कन्द-मूल-फल-उपहारैः--मूल, कन्द तथा फलों की भेंट से; च--तथा; समीहमान:--करते हुए; भगवतः --भगवान्‌ की; आराधनम्‌--आराधना, अर्चना; विविक्त: --विशुद्ध; उपरत--मुक्त होकर; विषय-अभिलाष: -- भौतिक इन्द्रिय-सुख की कामना; उपभृत--बढ़ी हुई; उपशमः--शान्ति; पराम्‌--दिव्य; निर्वुतिमू--सन्तोष, प्रसन्नता; अवाप--प्राप्त किया |

    पुलह आश्रम के उपबन में महाराज भरत अकेले रहकर अनेक प्रकार के फूल, किसलयतथा तुलसीदल एकत्र करने लगे।

    वे गंडकी नदी का जल तथा विभिन्न प्रकार के मूल, फल तथाकन्द भी एकत्र करते।

    वे इन सबसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव को भोजन अर्पित करतेऔर उनकी आराधना करते हुए सन्‍्तुष्ट रहने लगे।

    इस प्रकार उनका हृदय अत्यन्त निष्कलुष होगया और उन्हें भौतिक सुख के लिए लेशमात्र भी इच्छा न रही ।

    उनकी समस्त भौतिक कामनाएँदूर हो गईं।

    इस स्थिर दशा में उन्हें परम सन्‍्तोष हुआ और वे भक्ति में बने रहे।

    तयेत्थमविरतपुरुषपरिचर्यया भगवति प्रवर्धभानानुरागभरद्वरुतहदयशैधिल्य:प्रहर्षवेगेनात्मन्युद्धिद्यमानरोमपुलककुलक औत्कण्ठ्यप्रवृत्तप्रणयबाष्पनिरुद्धावलोकनयन एवंनिजरमणारुणचरणारविन्दानुध्यानपरिचितभक्तियोगेनपरिप्लुतपरमाह्ादगम्भीरहदयह्दावगाढधिषणस्तामपि क्रियमाणां भगवत्सपर्या न सस्मार ॥

    १२॥

    तया--उसके द्वारा; इत्थम्‌--इस प्रकार; अविरत--निरन्तर; पुरुष--परमे श्वर की; परिचर्यया--सेवा द्वारा; भगवति-- श्री भगवान्‌में; प्रवर्धभान--निरन्तर बढ़ती हुईं; अनुराग--आसक्ति का; भर--भार से; द्रुत--द्रवित; हृदय--हृदय; शैधिल्य:--शिथधिलता;प्रहर्ष-वेगेन--दिव्य हर्ष के वेग से; आत्मनि--अपने शरीर में; उद्धिद्यमान-रोम-पुलक-कुलक:--रोमांच, रोमों का खड़ा होना;औत्कण्ठ्य--उत्कंठा के कारण; प्रवृत्त--उत्पन्न; प्रणय-बाष्प-निरुद्ध-अवलोक-नयन: --प्रेमा श्रु प्रकट होने से दृष्टि में अबरो ध;एवम्‌--इस प्रकार; निज-रमण-अरुण-चरण-अरविन्द--ईश्वर के लाल लाल चरणकमलों पर; अनुध्यान-- ध्यान करने से;'परिचित--बढ़ा हुआ; भक्ति-योगेन-- भक्ति के कारण; परिप्लुत--सर्वत्र फैलकर; परम--सर्वोच्च; आह्ाद-- आनन्द का;गम्भीर--अत्यन्त गहरा; हृदय-हृद--हृदय रूपी सरोवर; अवगाढ--डूबा हुआ; धिषण:--जिसकी बुद्धि; तामू--वह; अपि--यद्यपि; क्रियमाणाम्‌--करते हुए; भगवत्‌-- श्रीभगवान्‌ का; सपर्यामू--आराधना; न--नहीं; सस्मार--स्मरण रहा |

    इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ भक्त महाराज भरत ईश्वर की भक्ति में निरन्तर लगे रहे।

    स्वाभाविक रूपसे वासुदेव श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम बढ़ता गया और अन्ततः उनका हृदय द्रवित हो उठा।

    'फलतः धीरे-धीरे समस्त विधि-विधानों के प्रति उनकी आसक्ति जाती रही।

    उन्हें रोमांच होने लगाऔर आह्ाद के सभी शारीरिक लक्षण ( भाव ) प्रकट होने लगे।

    उनके नेत्रों से अश्रुओं कीअविरल धारा बहने लगी जिससे वे कुछ भी देखने में असमर्थ हो गये।

    इस प्रकार वे निरन्तर ईश्वरके अरुण चरणारविन्द पर ध्यान लगाये रहते।

    उस समय उनका सरोवर के सदृश हृदय आनन्द-जल से पूरित हो गया।

    जब उनका मन इस सरोवर में निमग्न हो गया तो वे नियमपूर्वक सम्पन्नकी जाने वाली भगवद्‌ पूजा भी भूल गये।

    इत्थं धृतभगवद्व्रत ऐणेयाजिनवाससानुसवनाभिषेकार्द्कपिशकुटिलजटाकलापेन च विरोचमान:सूर्यर्चा भगवन्तं हिरण्मयं पुरुषमुज्जिहाने सूर्यमण्डलेभ्युपतिष्ठन्नेतदु होवाच ॥

    १३॥

    इत्थम्‌--इस प्रकार; धृत-भगवत्‌-ब्रत:-- भगवान्‌ की सेवा का व्रत स्वीकार करके; ऐणेय-अजिन-वासस--मृगचर्म वस्त्र धारणकिये; अनुसवन--प्रति दिन तीन बार; अभिषेक --स्तान द्वारा; अर्द्र--गीला; कपिश-- भूरा; कुटिल-जटा--घुँघराले केशों कीजटा; कलापेन--समूह से; च--तथा; विरोचमान:--अत्यन्त सुन्दर ढंग से सजाई गई; सूर्यर्चा--सूर्य में स्थित भगवान्‌ नारायणके अंश-विस्तार की वैदिक ऋचाओं द्वारा पूजा; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ को; हिरण्मयम्‌--स्वर्णकान्ति वाले भगवान्‌; पुरुषम्‌--भगवान्‌; उज्जिहाने--उदय होते हुए; सूर्य-मण्डले--सूर्यमंडल में; अभ्युपतिष्ठन्‌--पूजा करते हुए; एतत्‌--यह; उ ह--निश्चय ही;उवाच--कहा।

    महाराज भरत अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।

    उनके शीश पर घुँघराले बालों की राशि थी जो दिनमें तीन बार स्नान करने से गीली थी।

    वे मृगचर्म धारण करते और स्वर्णिम तेजोमय शरीर तथासूर्य के भीतर वास करने वाले श्रीनारायण की पूजा करते।

    वे ऋग्वेद की ऋचाओं का जप करतेहुए भगवान्‌ नारायण की उपासना करते और सूर्योदय होते ही निम्नलिखित एलोक का पाठकरते।

    'परोरजः सवितुर्जातवेदोदेवस्य भर्गो मनसेदं जजान ।

    सुरेतसाद: पुनराविश्य चष्टेहंसं गृक्माणं नृषद्रिड्रिरामिम: ॥

    १४॥

    'परः-रज:--रजोगुण से परे ( सतोगुण में स्थित ); सवितुः--सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड को आलोकित करने वाले का; जात-वेद:--जिससे भक्तों की कामनाएँ पूरी होती है; देवस्थ-- भगवान्‌ का; भर्ग:--आत्म-तेज; मनसा--मात्र चिन्तन से; इदम्‌--यह;जजान--उत्पन्न किया; सु-रेतसा--दिव्य-शक्ति से; अद:--यह सृष्टि; पुनः --फिर; आविश्य-- प्रवेश करके ; चष्टे--देखता यापालन करता है; हंसम्‌--जीव को; गृश्षाणम्‌-- भौतिक सुख की कामना करते हुए; नृषत्‌--बुद्धि के लिए; रिड्विरामू--गतिप्रदान करने वाले; इम:ः--नमस्कार है।

    'पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ शुद्ध सत्त्व में स्थित हैं।

    वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित करते हैंऔर अपने भक्तों को सभी वर देते हैं।

    ईश्वर ने अपने दिव्य तेज से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है।

    वे अपनी ही इच्छा से इस ब्रह्माण्ड में परमात्मा के रूप में प्रविष्ट हुए और अपनी विभिन्न शक्तियोंसे भौतिक सुख की इच्छा रखने वाले समस्त जीवों का पालन करते हैं।

    ऐसे बुच्धिदायकभगवान्‌ को मैं नमस्कार करता हूँ।

    TO

    अध्याय आठ: भरत महाराज के चरित्र का वर्णन

    5.8श्रीशुक उवाचएकदा तु महानद्यां कृताभिषेकनैयमिकावश्यको ब्रह्माक्षरमभिगृणानो मुहूर्तत्रयमुदकान्त उपविवेश ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक बार; तु--लेकिन; महा-नद्यामू--गण्डकी नामक महानदी में;कृत-अभिषेक-नैयमिक-अवश्यक :--नित्य नैमित्तिक तथा शौचादि कार्यों से निवृत्त होकर, स्नान करके ; ब्रह्म-अक्षरम्‌-- प्रणवमंत्र ( ३७ ) का; अभिगृणान:--जप करते हुए; मुहूर्त-त्रयम्‌--तीन मुहूर्त तक; उदक-अन्ते--नदी के तट पर; उपविवेश--बैठगये?

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजन्‌! एक दिन प्रातःकालीन नित्य-नैमित्तिकशौचादि कृत्यों से निवृत्त होकर महाराज भरत कुछ क्षणों के लिए गण्डकी नदी के तट पर बैठकर ओगकार से प्रारम्भ होनेवाले अपने मंत्र का जप करने लगे।

    तत्र तदा राजन्हरिणी पिपासया जलाशयाभ्याशमेकैवोपजगाम ॥

    २॥

    तत्र--नदी के तट पर; तदा--उस समय; राजन्‌--हे राजा; हरिणी--मृगी; पिपासया--प्यास के कारण; जलाशय-अभ्याशम्‌--नदी के निकट; एक--एक; एव--निश्चय ही; उपजगाम--आई ।

    हे राजनू, जब महाराज भरत उस नदी के तट पर बैठे हुए थे उसी समय एक प्यासी हिरनीपानी पीने आई।

    तया पेपीयमान उदके तावदेवाविदूरेण नदतो मृगपतेरुनत्नादो लोकभयड्भूर उदपतत्‌, ॥

    ३॥

    तया--उस मृगी द्वारा; पेपीयमाने--अत्यन्त तृप्ति के साथ पिया गया; उदके--जल; तावत्‌ एब--ठीक उसी समय; अविदूरेण--अत्यन्त निकट; नदत:--गरजता हुआ; मृग-पते: --सिंह की; उन्नाद: --दहाड़; लोक-भयम्‌-कर--समस्त जीवों के लिए अत्यन्तडरावनी; उदपतत्‌--उठी |

    जब वह हिरनी अगाध तृप्ति के साथ जल पी रही थी तो पास ही एक सिंह ने घोर गर्जनाकी।

    यह समस्त जीवों के लिए डरावनी थी और इसे उस मृगी ने भी सुना।

    तमुपश्रुत्य सा मृगवधू: प्रकृतिविक्लवा चकितनिरीक्षणा सुतरामपि हरिभयाभिनिवेशव्यग्रहदयापारिप्लवदृष्टिरगततृषा भयात्सहसैवोच्चक्राम ॥

    ४॥

    तम्‌ उपश्रुत्य--उस दहाड़ को सुनकर; सा--वह; मृग-वधू:--मृगी; प्रकृति-विक्लवा--स्वभाव से अन्यों द्वारा मारे जाने सेभयभीत; चकित-निरी क्षणा--चकित नेत्रों वाली; सुतराम्‌ अपि--तुरन्त ही; हरि--सिंह के; भय--डर; अभिनिवेश-- आने से;व्यग्र-हदया--व्यग्र-चित्त वाली; पारिप्लव-दृष्टि:--चौकज्ने नेत्रों वाली; अग॒त-तृषा--अपनी प्यास बुझाये बिना; भयात्‌--डरसे; सहसा--अचानक; एव--ही; उच्चक्राम--नदी पार करने लगी।

    मृगी स्वभाव से अन्यों द्वारा वध किये जाने से डर रही थी और लगातार शंकित दृष्टि से देखरही थी।

    जब उसने सिंह की दहाड़ सुनी तो वह अत्यन्त उद्विग्न हो उठी।

    चौकन्नी दृष्टि से इधर-उधर देख कर वह मृगी अभी जल पीकर पूर्णतया तृप्त भी नहीं हुई थी कि सहसा उसने नदी पारकरने के लिए छलाँग लगा दी।

    तस्या उत्पतन्त्या अन्तर्वत्न्या उरभयावगलितो योनिनिर्गतो गर्भ: स्त्रोतसि निपपषात ॥

    ५॥

    तस्या:--उसके; उत्पतन्त्या: --बलपूर्वक कूदने से; अन्तर्वल्या: --गर्भ होने से; उर-भय--अत्यन्त डर के कारण; अवगलित:--छिटक कर; योनि-निर्गतः--गर्भ से बाहर आकर; गर्भ:--गर्भस्थ शिशु; स्नोतसि--बहते जल में; निपषात--गिर गया।

    मृगी गर्भिणी थी, अतः जब डर के मारे वह कूद पड़ी तो शिशु मृग उसके गर्भ से निकलकर नदी के बहते जल में गिर गया।

    तत्प्रसवोत्सर्पणभयखेदातुरा स्वगणेन वियुज्यमाना कस्याश्ञिहर्या कृष्णसारसती निपपाताथ च ममार ॥

    ६॥

    तत्‌ू-प्रसब--उसके ( मृग शावक ) असामयिक गिर जाने से; उत्सर्पण--नदी में छलांग लगाने से; भय--( तथा ) भय से;खेद--निर्बलता से; आतुरा--पीड़ित; स्व-गणेन--मृग-झुंड से; वियुज्यमाना--विलग हुई; कस्याश्चित्‌ू--किसी; दर्याम्‌-पर्वतकी गुफा में; कृष्ण-सारसती--कृष्ण मृग की पत्नी ( मृगी ); निपषात--गिर गई; अथ--अतः:; च--तथा; ममार--मर गई |

    अपने झुंड से विलग होने तथा गर्भपात से त्रस्त्र हो जाने से वह कृष्णा-मृगी नदी को पारकरके अत्यन्त भयभीत हुई।

    अतः एक गुफा में गिर कर वह तुरन्त मर गई।

    त॑ त्वेणकुणकं कृपणं स्त्रोतसानूह्ममानमभिवीक्ष्यापविद्धं बन्धुरिवानुकम्पया राजर्षिभरत आदायमृतमातरमित्याश्रमपदमनयत्‌, ॥

    ७॥

    तम्‌--उस; तु--लेकिन; एण-कुणकम्‌--मृग शावक ( हरिणी का बच्चा ) को; कृपणम्‌--बेचारे; सत्रोतसा--लहरों के द्वारा;अनूह्ममानम्‌--तैरता हुआ; अभिवीक्ष्य--देख कर; अपविद्धम्‌--आत्म-जन से विलग ( वियुक्त ); बन्धु: इब--मित्र की भाँति;अनुकम्पया--दयावश; राज-ऋषि: भरत:--परम सन्त तुल्य राजा भरत; आदाय--लाकर; मृत-मातरम्‌--मातृविहीन; इति--ऐसा सोचते हुए; आश्रम-पदम्‌--आश्रम में; अनयत्‌--ले गया।

    नदी के तीर पर बैठे हुए महान्‌ राजा भरत ने अपनी माँ से बिछुड़े बच्चे को नदी में उतरातेदेखा।

    यह देख कर उन्हें बड़ी दया आई।

    उन्होंने विश्वासपात्र मित्र की भाँति उस नन्हेशावक कोलहरों से निकाल लिया और मातृहीन जान कर वे उसे अपने आश्रम में ले आये।

    तस्य ह वा एणकुणकउच्चैरेतस्मिन्कृतनिजाभिमानस्याहरहस्तत्पोषणपालनलालनप्रीणनानुध्यानेनात्मनियमा: सहयमा:पुरुषपरिचर्यादय एकैकश: कतिपयेनाहर्गणेन वियुज्यमाना: किल सर्व एवोदवसन्‌ ॥

    ८॥

    तस्य--राजा का; ह वा--निसन्देह; एण-कुणके --मृग शावक में; उच्चै;:--अत्यधिक; एतस्मिनू--इसमें; कृत-निज-अभिमानस्थ--जिसने मृगशावक को पुत्रवत्‌ स्वीकार किया; अह:-अहः-- प्रतिदिन; तत्‌-पोषण--उस छौने को पाल कर बड़ाकरना; पालन--संकटों से रक्षा; लालन--लाड़-प्यार; प्रीणन--पुचकारना; अनुध्यानेन--ऐसी आसक्ति से; आत्म-नियमा:--अपने शरीर की रक्षा हेतु किये गये कृत्य; सह-यमा:--यम अर्थात्‌ अहिंसा, सहनशीलता तथा सरलता से युक्त; पुरुष-परिचर्या-आदय:--भगवान्‌ की आराधना तथा अन्य कृत्य; एक-एकश:--एक-एक करके; कतिपयेन--कुछ ही; अह:-गणेन--दिनोंमें; वियुज्यमाना:--त्यागे जाकर; किल--निस्सन्देह; सर्वे--समस्त; एव--ही; उदवसनू--नष्ट हो गये |

    धीरे-धीरे महाराज भरत उस मृग के प्रति अत्यन्त वत्सल होते गये।

    वे घास खिला-खिलाकरउसका पालन करने लगे।

    वे बाघ तथा अन्य हिंस्त्र पशुओं के आक्रमण से उसकी सुरक्षा के प्रति सदैव सतर्क रहते थे।

    जब उसे खुजली होती तो वे सहलाते और उसे आरामदेह स्थिति में रखनेका प्रयल करते।

    कभी-कभी प्रेमवश उसे चूमते भी थे।

    इस प्रकार मृग के पालन पोषण मेंआसक्त हो जाने से महाराज भरत आध्यात्मिक जीवन के यम-नियम भूलते गये, यहाँ तक किधीरे-धीरे भगवान्‌ की आराधना भी भूल गये।

    कुछ दिनों के बाद वे अपनी आध्यात्मिक उन्नतिके विषय में सब कुछ भूल गये।

    अहो बतायं हरिणकुणक: कृपण ईंश्वररथचरणपरिभ्रमणरयेण स्वगणसुहद्वन्धु भ्य: परिवर्जित: शरणं चमोपसादितो मामेव मातापितरी भ्रातृज्ञातीन्यौथिकांश्रेवोपेयाय नान्‍्यं कञ्जन वेद मय्यतिविस्त्रब्धश्नात एवमया मत्परायणस्य पोषणपालनप्रीणनलालनमनसूयुनानुष्ठेयं शरण्योपेक्षादोषविदुषा ९॥

    अहो बत--ओह; अयम्‌--यह; हरिण-कुणकः--मृग शावक; कृपण: -- असहाय; ईश्वर-रथ-चरण-परिभ्रमण-रयेण--भगवान्‌ के काल-चक्र के वेग से; स्व-गण--अपने झुंड; सुहृत्‌--तथा मित्रों; बन्धुभ्य:--स्वजनों से; परिवर्जित:--वियुक्त;शरणम्‌--शरण; च--तथा; मा--मेरी; उपसादितः --प्राप्त करके; माम्‌--मुझको; एव--ही; माता-पितरौ --माता-पिता;भ्रातृ-ज्ञातीन्‌ू--बन्धुओं तथा सम्बंधियों; यौधिकान्‌--झुंड से सम्बद्ध; च-- भी; एब--निश्चय ही; उपेयाय-- भूलकर, बिछुड़कर; न--नहीं; अन्यमू--अन्य कोई; कञ्लनन--कोई व्यक्ति; वेद--यह जानता है; मयि--मुझमें; अति--अत्यधिक; विस्त्रब्ध:--श्रद्धा रखने वाला; च--तथा; अतः एव--इसलिए; मया--मेरे द्वारा; मत्‌-परायणस्यथ--इस प्रकार मेरे आश्रित का; पोषण-पालन-प्रीणन-लालनम्‌--पोषण, पालन, संतुष्ट करना तथा दुलारना; अनसूयुना--अनसूया ( द्वेष ) रहित मैं; अनुष्ठेयम्‌--कियाजाने वाला; शरण्य--शरणागत; उपेक्षा --उपेक्षा; दोष-विदुषा--जो दोष जानता है।

    महान्‌ राजा भरत सोचने लगे--अहो! बेचारा यह मृगशावक भगवान्‌ के प्रतिनिधि काल-चक्र के वेग से अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों से विलग हो गया है और मेरी शरण में आया है।

    यहअन्य किसी को न जानकर केवल मुझे अपना पिता, माता, भाई तथा स्वजन मानने लगा है।

    मेरेही ऊपर इसकी निष्ठा है।

    यह मेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता, अतः मुझे ईर्ष्यावश यहनहीं सोचना चाहिए कि इस मृग के कारण मेरा अकल्याण होगा।

    मेरा कर्तव्य है कि मैं इसकालालन, पालन, रक्षण करूँ तथा इसे दुलारूँ-पुचकारूँ।

    जब इसने मेरी शरण ग्रहण कर ली है,तो भला इसे मैं कैसे दुत्कारूँ ? यद्यपि इस मृग से मेरे आध्यात्मिक जीवन में व्यतिक्रम हो रहा है,किन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि इस प्रकार से कोई असहाय व्यक्ति यदि शरणागत हो तो उसकीउपेक्षा नहीं की जा सकती।

    तब तो यह बड़ा भारी दोष होगा।

    नूनं ह्र्या: साधव उपशमशीला: कृपणसुहृद एवंविधार्थे स्वार्थानपि गुरुतरानुपेक्षन्ते ॥

    १०॥

    नूनम्‌--निस्संदेह; हि--निश्चय ही; आर्या:--परम सभ्य; साधव:--साधुजन; उपशम-शीला: --संन्यास लेने पर भी; कृपण-सुहृदः--असहायों के मित्र; एवं-विध-अर्थे--ऐसे नियमों का पालन करने के लिए; स्व-अर्थान्‌ अपि-- अपने स्वार्थों तक का;गुरु-तरानू--अत्यन्त महत्त्वपूर्ण; उपेक्षन्ते--उपेक्षा करते हैं।

    भले ही कोई संन्यास ले चुका हो, किन्तु जो महान्‌ है, वह निश्चित रूप से दुखी जीवात्मा केप्रति दया का अनुभव करता है।

    मनुष्य को चाहिए कि शरणागत की रक्षा के हेतु अपने बड़े सेबड़े स्वार्थ की परवाह न करे।

    इति कृतानुषड़ आसनशयनाटनस्नानाशनादिषु सह मृगजहुना स्नेहानुबद्धहदय आसीतू ॥

    ११॥

    इति--इस प्रकार; कृत-अनुषड्रः--आसक्ति बढ़ने से; आसन--बैठना; शयन--सोना ( नींद ); अटन--टहलना; स्नान--नहाना; आशन-आदिषु--खाने आदि में; सह मृग-जहुना--मृगछौने के साथ-साथ; स्नेह-अनुबद्ध--स्नेह से बँधा हुआ;हृदयः--हृदय वाला; आसीत्‌--हो गया।

    मृग के प्रति आसक्ति बढ़ जाने से महाराज भरत उसी मृग के साथ लेटते, टहलते, स्नानकरते, यहाँ तक कि उसी के साथ खाना भी खाते।

    इस प्रकार उनका हृदय मृग के स्नेह में बँधगया।

    कुशकुसुमसमित्पलाशफलमूलोदकान्याहरिष्यमाणो वृकसालाबृकादिभ्यो भयमाशंसमानो यदा सहहरिणकुणकेन वन समाविशति ॥

    १२॥

    कुश--अनुष्ठानों में प्रयुक्त एक प्रकार की घास, कुश; कुसुम--फूल; समित्‌--समिधा, जलाने की लकड़ी; पलाश-पत्ते;'फल-मूल--फल तथा कन्द; उदकानि--( तथा ) जल; आहरिष्यमाण:--एकत्र करने की इच्छा होने पर; वृकसाला-बवृक--भेड़ियों तथा कुत्तों से; आदिभ्य:--तथा अन्य पशु यथा बाघ आदि से; भयम्‌-- भय, डर; आशंसमान:--आशंकित; यदा--जब; सह--साथ; हरिण-कुणकेन--मृग-छौना के; वनम्‌--जंगल में ; समाविशति--प्रवेश करता है?

    जब महाराज भरत को कुश, फूल, लकड़ी, पत्ते, फल, कन्द तथा जल लाने के लिए जंगलमें जाना होता तो उन्हें भय बना रहता कि कुत्ते, सियार, बाघ तथा अन्य हिंस्त्र पशु आकर मृग कोमार न डालें।

    अतः वे जंगल में जाते समय उसे अपने साथ-ले जाते।

    पश्चिषु च मुग्धभावेन तत्र तत्र विषक्तमतिप्रणयभरहदय: कार्पण्यात्स्कन्धेनोद्ठहति एवमुत्सड्र उरसिचाधायोपलालयन्मुदं परमामवाप ॥

    १३॥

    पथिषु--वन मार्ग में; च-- भी; मुग्ध-भावेन--मृग के बचकाने आचरण से; तत्र तत्र--वहाँ वहाँ; विषक्त-मति-- अत्यधिकआकृष्ट मन वाला; प्रणय--प्रेम से; भर--पूरित; हृदयः--जिसका हृदय; कार्पण्यात्‌ू--स्नेह तथा प्रेम के कारण; स्कन्धेन--कंधे से; उद्ददति--ले जाता है; एवम्‌--इस प्रकार; उत्सड्रे--क भी-कभी गोद में; उरसि--सोते समय वक्षस्थल के ऊपर; च--भी; आधाय--ले कर; उपलालयनू--दुलारते हुए; मुदम्‌ू--सुख; परमाम्‌-- अत्यधिक; अवाप--अनुभव किया।

    जंगल के मार्ग में वह मृग अपने चपल स्वभाव के कारण महाराज भरत को अत्यन्तआकर्षक लगता।

    महाराज भरत उसे अपने कंधों में भी चढ़ा कर स्नेहवश दूर तक ले जाते।

    उनका हृदय मृग-प्रेम से इतना पूरित था कि वे कभी उसे अपनी गोद में ले लेते, तो कभी सोतेसमय उसे अपनी छाती पर चढ़ाए रखते।

    इस प्रकार उस पशु को दुलारते हुए उन्हें अत्यधिक सुखका अनुभव होता था।

    क्रियायां निर्वर्यमानायामन्तरालेप्युत्थायोत्थाय यदैनमभिचक्षीत तहिं वाव स वर्षपतिः प्रकृतिस्थेनमनसा तस्मा आशिष आशास्ते स्वस्ति स्ताद्वत्स ते सर्वत इति ॥

    १४॥

    क्रियायाम्-ईश्वर की पूजा करने या नित्य-नैमित्तिक क्रियाएँ करने में; निर्वर्यमानायाम्‌--बिना समाप्त किये ही; अन्तराले--बीच-बीच में; अपि--यद्यपि; उत्थाय उत्थाय--उठ उठ कर; यदा--जब; एनम्‌--मृगछौना को; अभिचक्षीत--देख लियाकरते; तहिं वाव--उस समय; स:--वह; वर्ष-पति:--महाराज भरत; प्रकृति-स्थेन--प्रसन्न; मनसा-- अपने मन में; तस्मै--उसको; आशिष:ः आशास्ते--आशीर्वाद देते; स्वस्ति--कल्याण; स्तात्‌ू--हो; वत्स--हे मेरे मृग-शावक; ते--तुम्हारा; सर्वतः--सभी प्रकार से; इति--इस प्रकार?

    जब महाराज भरत ईश्वर की आराधना में या अन्य अनुष्ठान में व्यस्त रहते तो अनुष्ठानों कोसमाप्त किए बिना बीच-बीच में ही वे उठ उठ जाते और देखने लगते कि मृग कहाँ है।

    इसप्रकार जब वे यह देख लेते कि वह मृग सुखपूर्वक है, तब कहीं उनके मन तथा हृदय को सन्तोषहोता और तब वे उस मृग को यह कह कर आशीष देते, 'हे वत्स, तुम सभी प्रकार से सुखीरहो।

    अन्यदा भृशमुद्विग्नमना नष्टद्रविण इव कृपण: सकरुणमतितर्षेणहरिणकुणकविरहविहलहदयसन्तापस्तमेवानुशोचन्किल कश्मलं महदभिरम्भित इति होवाच ॥

    १५॥

    अन्यदा--कभी कभी ( मृग छौने को न देखकर ); भृूशम्‌--अत्यधिक; उद्ठिग्ग-मना:--चिन्ताओं से युक्त मन; नष्ट-द्रविण: --जिसका धन लुट गया हो; इब--सहृश; कृपण:--कंजूस व्यक्ति; स-करुणम्‌--करुणापूर्वक; अति-तर्षेण --अत्यन्त चिन्ता से;हरिण-कुणक--ूृग छौने के; विरह--वियोग से; विहल--व्याकुल; हृदय--मन या हृदय में; सन्‍्ताप: --शोक; तम्‌--उन छौनेको; एव--केवल; अनुशोचन्‌--निरन्तर ध्यान करते; किल--निश्चय ही; कश्मलमू--मोह; महत्‌-- अत्यधिक; अभिरम्भित: --प्राप्त किया; इति--इस प्रकार; ह--निश्चय ही; उवाच--कहा।

    कभी कभी भरत महाराज यदि उस मृग को न देखते तो उनका मन अत्यन्त व्याकुल होउठता।

    उनकी स्थिति उस कंजूस व्यक्ति के समान हो जाती जिसे कुछ धन प्राप्त हुआ हो, किन्तुउसके खो जाने से वह अत्यन्त दुखी हो गया हो।

    जब मृग चला जाता, तो उन्हें चिन्ता हो जातीऔर वियोग के कारण वे विलाप करने लगते।

    इस प्रकार मोहग्रस्त होने पर वे निम्नलिखितप्रकार से कहते।

    अपि बत स वै कृपण एणबालको मृतहरिणीसुतोहो ममानार्यस्य शठकिरातमतेरकृतसुकृतस्यकृतविस्त्रम्भ आत्पप्रत्ययेन तदविगणयन्सुजन इवागमिष्यति ॥

    १६॥

    अपि--निस्सन्देह; बत--अहो; सः--वह छौना; वै--निश्चय ही; कृपण:--दीन; एण-बालकः--मृगशावक; मृत-हरिणी-सुतः--मृत हरिणी का बच्चा; अहो--ओह; मम--मेरा; अनार्यस्य--अनार्य का, असभ्य आदिवासी; शठ--धोखेबाज का;किरात--अथवा असभ्य आदिवासी का; मते:ः --मन वाले; अकृत-सुकृतस्य--पुण्यहीन; कृत-विस्त्रम्भ:--विश्वास करते हुए;आत्म-प्रत्ययेन--मुझे अपने ही समान समझते हुए; तत्‌ अविगणयन्‌--इन सब बातों को सोचे बिना; सु-जन: इब--भद्गर पुरुषकी भाँति; अगमिष्यति--क्या वह फिर से लौटेगा ?

    भरत महाराज सोचते--ओह! यह मृग अब असहाय है।

    मैं अत्यन्त अभागा हूँ और मेरा मनचतुर शिकारी की भाँति है क्योंकि यह सदैव छल तथा निष्ठुरता से पूर्ण रहता है।

    इस मृग ने मुझपर उसी प्रकार विश्वास किया है, जिस प्रकार एक भद्र पुरुष धूर्त मित्र के दुराचार को भूलकरउस पर विश्वास प्रकट करता है।

    यद्यपि मैं अविश्वासी सिद्ध हो चुका हूँ, किन्तु क्या यह मृग मुझपर विश्वास करके पुनः लौट आएगा ?

    अपि क्षेमेणास्मिन्ना भ्रमोपवने शष्पाणि चरन्तं देवगुप्तं द्रक्ष्यामि ॥

    १७॥

    अपि--हो सकता है कि; क्षेमेण--हिंस्त्र पशुओं के अभाव के कारण निर्भय होने से; अस्मिन्‌ू--इस; आश्रम-उपवने-- आश्रमके उद्यान में; शष्पाणि चरन्तम्‌--मुलायम घास चरते हुए; देव-गुप्तम्‌--देवताओं द्वारा रक्षित; द्रक्ष्यामि--क्या मैं देखूँगा ?

    ओह! क्या ऐसा हो सकता है कि मैं इस पशु को देवताओं से रक्षित तथा हिंस्त्र पशुओं सेनिर्भय रूप में फिर देखूँ? क्या मैं उसे पुनः उद्यान में मुलायम घास चरते हुए देख सकूँगा ??

    अपि च न वृकः सालावृकोन्यतमो वा नैकचर एकचरो वा भक्षयति ॥

    १८॥

    अपि च--अथवा; न--नहीं; वृक:--भेड़िया; साला-वृक:--कुत्ता; अन्यतम: -- अनेक में से कोई एक; वा--अथवा; न-एक-चरः--झुंड के झुंड विचरने वाले शूकर; एक-चर:--अकेला घूमने वाला व्याप्र; वा--अथवा; भक्षयति--( बेचारे पशु को )खा रहा है।

    मुझे पता नहीं, किन्तु हो सकता है कि भेड़िये या कुत्ते अथवा झुंडों में रहने वाले सुअर याफिर अकेले घूमने वाले बाघ ने उस मृग को खा लिया हो।

    निम्लोचति ह भगवान्सकलजगरक्ष्षेमोदयस्त्रय्यात्माद्यापि मम न मृगवधून्यास आगच्छति ॥

    १९॥

    निम्लोचति--डूब रहा है; ह--ओह; भगवान्‌--सूर्य के रूप में भगवान्‌; सकल-जगत्‌--समस्त ब्रह्माण्ड का; क्षेम-उदय:--कल्याण करने वाला; त्रयी-आत्मा--तीन वेदों से युक्त; अद्य अपि--अब भी; मम--मेरा; न--नहीं; मृग-वधू-न्यास:--मृगीकी धरोहर; आगच्छति--वापस आया है।

    ओह! सूर्य के उदय होते ही सभी शुभ कार्य होने लगते हैं।

    दुर्भाग्यवश, मेरे लिए ऐसा नहीं हो रहा है।

    सूर्यदेव साक्षात्‌ वेद हैं, किन्तु मैं समस्त वैदिक नियमों से शून्य हूँ।

    वे सूर्यदेव अबअस्त हो रहे हैं, तो भी वह बेचारा पशु, जिसने अपनी माता की मृत्यु होने पर मुझपर विश्वासकिया था, अभी तक नहीं लौटा है।

    अपि स्विदकृतसुकृतमागत्य मां सुखयिष्यति हरिणराजकुमारोविविधरुचिरदर्शनीयनिजमृगदारकविनोदैरसन्तोष॑ स्वानामपनुदन्‌ ॥

    २०॥

    अपि स्वित्‌ू--क्या वह करेगा; अकृत-सुकृतम्‌-- जिसने कभी कोई पुण्य कार्य नहीं किया; आगत्य--वापस आकर; माम्‌--मुझको; सुखयिष्यति--आनन्दित करेगा; हरिण-राज-कुमार: --हिरण, जिसका पालन राजकुमार के समान हुआ; विविध--अनेक; रुचिर--मनोहर; दर्शनीय--देखने योग्य; निज--अपना; मृग-दारक--मृगशावक के उपयुक्त; विनोदैः--क्रीड़ाओं से;असन्तोषम्‌--असनन्‍्तोष; स्वानामू--स्वजनों का; अपनुदन्‌-दूर करते हुए।

    वह मृग राजकुमार के तुल्य है।

    वह कब लौटेगा? वह कब फिर अपनी मनोहर क्रीड़ाएँदिखायेगा ? वह कब मेरे आहत-हृदय को पुनः शान्त करेगा ? अवश्य ही मेरे पुण्य शेष नहीं हैं,अन्यथा अब तक वह मृग अवश्य लौट आया होता।

    क््वेलिकायां मां मृषासमाधिनामीलितह॒शं प्रेमसंरम्भेण चकितचकित आगत्य पृषदपरुषविषाणाग्रेणलुठति ॥

    २१॥

    क््वेलिकायाम्‌--खेल में; माम्‌-- मुझको; मृषा--झूठ मूठ; समाधिना--समाधि से; आमीलित-हशम्‌--बन्द आँखों से; प्रेम-संरम्भेण--प्रेम के कारण उत्पन्न क्रोध से; चकित-चकितः--डर से; आगत्य--आकर; पृषत्‌--जल बिन्दुओं के समान;अपरुष--अत्यन्त नप्र; विषाण--सींगों के; अग्रेण-- अग्रभाग से, नोक से; लुठति--मेरा शरीर छूता है?

    ओह! जब यह छोटा-सा हिरण, मेरे साथ खेलते हुए और मुझे आँखें बन्द करके झूठ-मूठध्यान करते देख कर, प्रेम से उत्पन्न क्रोध के कारण मेरे चारों ओर चक्कर लगाता और डरते हुएअपने मुलायम सींगों की नोकों से मुझे छूता, जो मुझे जल बिन्दुओं के समान प्रतीत होते।

    आसादितहविषि बर्हिषि दूषिते मयोपालब्धो भीतभीत:ः सपद्युपरतरास ऋषिकुमारवदवहितकरणकलापआस्ते ॥

    २२॥

    आसादित--रख देता; हविषि--यज्ञ की सामग्री, हवि; बर्हिषि--कुश के ऊपर; दूषिते--अपवित्र होने पर; मया उपालब्ध: --मेरेद्वारा डाँटे जाने पर; भीत-भीतः--अत्यन्त डर से; सपदि--शीघ्र, तुरन्त; उपरत-रास:--अपना खेल बन्द करता हुआ; ऋषि-कुमारवत्‌--ऋषि के पुत्र या शिष्य के समान; अवहित--पूर्णतया रोका जाकर; करण-कलापः--समस्त इन्द्रियाँ; आस्ते--बैठजाता।

    जब मैं यज्ञ की समस्त सामग्री को कुश पर रखता तो यह मृग खेल-खेल में कुश को अपनेदाँतों से छूकर अपवित्र कर देता।

    जब मैं मृग को दूर हटा कर डाँटता-डपटता तो वह तुरन्त डरजाता और बिना हिले डुले बैठ जाता मानो ऋषि का पुत्र हो।

    तब वह अपना खेल ( क्रीड़ा ) बन्दकर देता।

    किं वा अरे आचरितं तपस्तपस्विन्यानया यदियमवनि:सविनयकृष्णसारतनयतनुतरसु भगशिवतमाखरखुरपदपड्धिभिद्रविणविधुरातुरस्यथ कृपणस्य ममद्रविणपदवीं सूचयन्त्यात्मानं च सर्वतः कृतकौतुकं द्विजानां स्वर्गापवर्गकामानां देवयजनं करोति ॥

    २३॥

    किम्‌ वा--क्या; अरे--ओह; आचरितम्‌--साधते हुए; तप:--तपस्या; तपस्विन्या--अत्यन्त भाग्यशाली के द्वारा; अनया--इसभूलोक पर; यत्‌--चूँकि; इयम्‌--यह; अवनि:--पृथ्वी; स-विनय--विनयपूर्वक; कृष्ण-सार-तनय--कृष्ण-मृग के शावकका; तनुतर--छोटे-छोटे; सुभग--सुन्दर; शिव-तम--अन्यन्त मंगलकारी; अखर-- मुलायम; खुर--खुरों के; पद-पड़ि भि:--पदचिह्लों की पंक्तियों से; द्रविण-विधुर-आतुरस्य--धन की हानि से अत्यन्त दुखी व्यक्ति का; कृपणस्य--अत्यन्त दुखी प्राणीका; मम-मेरे लिए; द्रविण-पदवीम्‌--उस धन को प्राप्त करने का मार्ग; सूचयन्ति--सूचित करते हुए; आत्मानम्‌--अपनाशरीर; च--तथा; सर्वतः--चारों दिशाओं में; कृत-कौतुकम्‌-- अलंकृत; द्विजानाम्‌ू--ब्राह्मणों का; स्वर्ग-अपवर्ग-कामानामू--स्वर्ग या मुक्ति की आकांक्षा करने वाले; देव-यजनमू--देवताओं के लिए किया जाने वाला यज्ञ-स्थल; करोति--करता है।

    इस प्रकार एक पागल की भाँति बोलते हुए महाराज भरत उठे और बाहर निकल गए।

    धरतीपर मृग के पदचिह्नें को देखकर उनकी प्रशंसा में अत्यन्त प्रेम से कहा, ' अरे अभागे भरत! इसपृथ्वी के तप की तुलना में तुम्हारे तप तुच्छ हैं, क्योंकि पृथ्वी की कठोर तपस्या से ही उस पर इसमृग के छोटे-छोटे, सुन्दर अत्यन्त कल्याणकारी तथा मुलायम पदचिह्न बने हुए हैं।

    पदचिह्नों कीयह श्रेणी मृग-विछोह से दुखी मुझ जैसे व्यक्ति को दिखा रही है कि वह पशु इस जंगल सेहोकर किस प्रकार आगे गया है और मैं उस खोई हुई सम्पत्ति को किस तरह पुनः प्राप्त करसकता हूँ।

    इन पदचिह्नों के कारण यह भूमि स्वर्ग या मुक्ति की इच्छा से देवताओं के हेतु यज्ञकरने वाले ब्राह्मणों के लिए उत्तम स्थान बन गई है।

    अपि स्विदसौ भगवानुडुपतिरेनं मृगपतिभयान्मृतमातरं मृगबालकं स्वाश्रमपरिभ्रष्टमनुकम्पयाकृपणजनवत्सलः परिपाति ॥

    २४॥

    अपि स्वित्‌ू--कहीं ऐसा तो नहीं है; असौ--वह; भगवानू--सर्वशक्तिमान; उडु-पति:-- चन्द्रमा; एनमू--इस; मृग-पति-भयात्‌--सिंह के भय से; मृत-मातरम्‌--मातृविहीन; मृग-बालकम्‌--मृग शावक की; स्व-आश्रम-परिभ्रष्टमू--अपने आश्रम सेबिछुड़ कर; अनुकम्पया--दयावश; कृपण-जन-वत्सल:--( चन्द्रमा ) जो दुखी प्राणियों पर अत्यन्त सदय है; परिपाति--सुरक्षाकर रहा है।

    भरत महाराज उन्मत्त पुरुष की भाँति बोलते रहे।

    अपने सिर के ऊपर उदित चन्द्रमा में मृग केसहश काले धब्बों को देखकर उन्होंने कहा--कहीं दुखी मनुष्य पर दया करने वाले इस चन्द्रमाने यह जानते हुए कि मेरा मृग अपने घर से बिछुड़ गया है और मातृविहीन हो गया है, उस पर भीदया की हो? इस चन्द्रमा ने सिंह के अचानक आक्रमण से बचाने के लिए ही मृग को अपनेनिकट शरण दे दी हो।

    कि वात्मजविश्लेषज्वरदवदहनशिखाभिरुपतप्यमानहदयस्थलनलिनीकं मामुपसृतमृगीतनयंशिशिरशान्तानुरागगुणितनिजवदनसलिलामृतमयगभस्तिभि: स्वधयतीति च ॥

    २५॥

    किम्‌ वा--अथवा ऐसा हो कि; आत्म-ज--पुत्र से; विश्लेष--वियोग के कारण; ज्वर--ताप; दव-दहन--दावाग्नि की;शिखाभि:--लपटों से; उपतप्यमान--ज्वलित; हृदय--हृदय; स्थल-नलिनीकम्‌--लाल कमल पुष्प के सहश; माम्‌--मुझको;उपसृत-मृगी-तनयम्‌--जिससे मृगछौना अत्यन्त हिला-मिला हुआ था; शिशिर-शान्त--अत्यन्त शीतल एवं शान्त; अनुराग--प्रेमवश; गुणित--प्रवहमान; निज-वदन-सलिल--अपने मुख का जल; अमृत-मय--अमृत के सहश उत्तम; ग्भस्तिभि:--चन्द्रमा की किरणों से; स्वधयति--मुझे आनन्द दे रहा है; इति--इस प्रकार; च--तथा?

    चाँदनी को देखकर महाराज भरत उन्मत्त पुरुष की भाँति बोलते रहे।

    उन्होंने कहा--यहमृगछौना इतना विनम्र घुलमिल गया था और मुझे इतना प्रिय था कि इसके वियोग से मुझे अपनेपुत्र जैसा वियोग हो रहा है।

    इसके वियोग-ताप से मुझे दावाग्नि से जल जाने जैसा कष्ट हो रहाहै।

    मेरा हृदय-स्थल कुमुदिनी जैसा जल रहा है।

    मुझे इतना दुखी देखकर चन्द्रमा मेरे ऊपरचमकते हुए अमृत जैसी वर्षा कर रहा है मानो प्रखर ज्वर से पीड़ित व्यक्ति पर उसका मित्र जलछिड़क रहा हो।

    इस प्रकार यह चन्द्रमा मुझे सुख देने वाला है।

    एवमघटमानमनोरथाकुलहृदयो मृगदारकाभासेन स्वारब्धकर्मणा योगारम्भणतो विश्रेशितः सयोगतापसो भगवदाराधनलक्षणाच्च 'कथमितरथा जात्यन्तर एणकुणक आसड्रःसाक्षात्रिः श्रेयसप्रतिपक्षतया प्राक्परित्यक्तदुस्त्यजहदयाभिजातस्य तस्यैवमन्तरायविहतयोगारम्भणस्यराजर्षेर्भरतस्य तावन्मृगार्भकपोषणपालनप्रीणनलालनानुषड्रेणाविगणयत आत्मानमहिरिवाखुबिलंदुरतिक्रमः काल: करालरभस आपद्यत, ॥

    २६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; अघटमान--दुर्लभ; मन:-रथ--इच्छाओं से जो मन के रथ के तुल्य हैं; आकुल--दुखी; हृदयः--जिसकाहृदय; मृग-दारक-आभासेन--मृग छौने के समान; स्व-आरब्ध-कर्मणा--अपने प्रारब्ध के बुरे कर्म-फलों से; योग-आरम्भणतः--योगानुष्ठान से; विश्रंशित: --च्युत; सः--वह ( महाराज भरत ); योग-तापस:--योग तथा तपस्या करता हुआ;भगवत्‌-आराधन-लक्षणात्‌-- श्रीभगवान्‌ की भक्ति सम्बन्धी क्रियाओं से; च--तथा; कथम्‌--किस प्रकार; इतरथा-- अन्य;जाति-अन्तरे--अन्य जातियोनि वाले; एण-कुणके--मृग छौने के शरीर के प्रति; आसड्डर:--अत्यधिक आसक्ति; साक्षात्‌--प्रत्यक्ष; निः श्रेयस--चरम जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने के लिए; प्रतिपक्षतया--प्रतिरोध; प्राकु--पहले; परित्यक्त--छोड़ा हुआ;दुस्त्यज--यद्यपि त्याग करने में अत्यन्त कठिन; हृदय-अभिजातस्य--अपने हृदय से उत्पन्न अपने पुत्रों; तस्थ--उसका; एवम्‌--इस प्रकार; अन्तराय--उस प्रतिरोध ( विघ्न ) से; विहत--रोका जाकर; योग-आरम्भणस्य--जिसकी योग-साधना का पथ;राज-ऋषे:--राजर्षि; भरतस्य--महाराज भरत का; तावत्‌--तब तक; मृग-अर्भक--मृगछौना; पोषण-- भरण में ( दूध पिलानेमें )) पालन--सुरक्षा में; प्रीणन--प्रसन्न रखने में; लालन--दुलारने में; अनुषड्रेण --निरन्तर ध्यान करते रहने से;अविगणयत:--उपेक्षा करते हुए; आत्मानमू--अपनी आत्मा की; अहिः इब--सर्प के तुल्य; आखु-बिलम्‌--चूहे का बिल;दुरतिक्रम:--दुर्लध्य; काल:--मृत्यु; कराल-- भयानक; रभसः--गतिमान; आपद्यत--आ गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, हे राजन, इस प्रकार महाराज भरत दुर्दमनीय आकांक्षा सेअभिभूत हो गये जो मृग के रूप में प्रकट हुई।

    अपने पूर्वकर्मों के फल के कारण वे योग, तपतथा भगवान्‌ की आराधना से च्युत हो गये।

    यदि यह पूर्वकर्मों के कारण नहीं हुआ तो वेक्योंकर अपने पुत्र तथा परिवार को अपने आध्यात्मिक जीवन के पथ पर अवरोध समझ करत्याग देने के बाद भी मृग से इतना आकृष्ट होते ? वे मृग के लिए इतना दुर्दम्य स्नेह क्‍यों प्रकटकरते? यह निश्चय ही उनके पूर्वकर्म का फल था।

    राजा मृग को सहलाने तथा उसके लालन-पालन में इतने व्यस्त रहते कि वे अपने आध्यात्मिक वृत्तियों से नीचे गिर गये।

    कालान्तर में,दुल॑घ्य मृत्यु उनके समक्ष उपस्थित हो गई जिस प्रकार कोई विषधर सर्प चूहे के द्वारा निर्मित छिद्रमें चुपके से घुस जाता है।

    तदानीमपि पार्श्वर्तिममात्मजमिवानुशोचन्तमभिवी क्षमाणो मृग एवाभिनिवेशितमना विसृज्य लोकमिमंसह मृगेण कलेवरं मृतमनु न मृतजन्मानुस्मृतिरितरवन्मृगशरीरमवाप ॥

    २७॥

    तदानीम्‌--उस समय; अपि--निस्संदेह; पार्श्ू-वर्तिनम्‌-- अपनी मृत्युशय्या के निकट; आत्म-जम्‌--अपने पुत्र; इब--सहृश;अनुशोचन्तम्‌--शोकातुर; अभिवीक्षमाण:--देखते हुए; मृगे--मृग में; एब--निश्चय ही; अभिनिवेशित-मना: --उसका मन उसीमें लगा हुआ; विसृज्य--त्याग कर; लोकम्‌--संसार को; इममू--इस; सह--साथ; मृगेण--मृग के; कलेवरम्‌--उसका शरीर;मृतमू--मरा हुआ; अनु--तत्पश्चात्‌; न--नहीं; मृत--विनष्ट; जन्म-अनुस्मृतिः --मृत्यु के पूर्व की घटना की याद; इतर-वत्‌--अन्यों की तरह; मृग-शरीरम्‌--मृग का शरीर; अवाप--प्राप्त किया।

    राजा ने देखा कि उनकी मृत्यु के समय वह मृग उनके पास बैठा था मानो उनका पुत्र हो औरवह उनकी मृत्यु से शोकातुर था।

    वास्तव में राजा का चित्त मृग के शरीर में रमा हुआ था, फलतःकृष्णभावनामृत से रहित मनुष्यों की भाँति उन्होंने यह संसार, मृग तथा अपना भौतिक शरीरत्याग दिया और मृग का शरीर प्राप्त किया।

    किन्तु इससे एक लाभ हुआ।

    यद्यपि उन्होंने मानवशरीर त्याग कर मृग का शरीर प्राप्त किया था, किन्तु उन्हें अपने पूर्व जीवन की घटनाएँ भूल नहीं पाईं थीं।

    तत्रापि ह वा आत्मनो मृगत्वकारणं भगवदाराधनसमीहानुभावेनानुस्मृत्य भूशमनुतप्यमान आह ॥

    २८॥

    तत्र अपि--उस जम्म में; ह वा--निस्संदेह; आत्मन:--स्वयं का; मृगत्व-कारणम्‌--मृग शरीर स्वीकार करने का कारण;भगवत्‌-आराधन-समीहा-- भक्ति में पूर्व कर्मों के; अनुभावेन--परिणामस्वरूप; अनुस्मृत्य--स्मरण करके; भृशम्‌--सर्वदा;अनुतप्य-मान:--पश्चात्ताप करते हुए; आह--कहा।

    मृग शरीर प्राप्त करने पर भी भरत महाराज अपने पूर्वजन्म की दृढ़ भक्ति के कारण उसशरीर को धारण करने का कारण जान गये थे।

    अपने विगत तथा वर्तमान शरीर पर विचार करतेहुए वे अपने कृत्यों पर पश्चात्ताप करते हुए इस प्रकार बोले।

    अहो कष्ट भ्रष्टोउहमात्मवतामनुपथाद्द्विमुक्तसमस्तसड़ुस्य विविक्तपुण्यारण्यशरणस्यात्मवत आत्मनिसर्वेषामात्मनां भगवति वासुदेवे तदनुअरवणमननसड्डीर्तनाराधनानुस्मरणाभियोगेनाशून्यसकलयामेनकालेन समावेशितं समाहित कार्त्स्येन मनस्तत्तु पुनर्ममाबुधस्यारान्मृगसुतमनु परिसुसत्राव ॥

    २९॥

    अहो कष्टमू--ओह, कितना कष्टमय जीवन है; भ्रष्ट:--पतित; अहमू--मैं ( हूँ ); आत्म-बताम्‌--सिद्धिप्राप्त महान्‌ भक्तों की;अनुपथात्‌--जीवन शैली से; यत्‌--जिससे; विमुक्त-समस्त-सड्डस्य--यद्यपि अपने सगे पुत्रों तथा घर का साथ त्यागे हुए;विविक्त--एकान्त; पुण्य-अरण्य--पवित्र वन की; शरणस्य--शरण लिए हुए के; आत्म-वतः--दिव्य पद को प्राप्त;आत्मनि--परमात्मा में; सर्वेषामू--समस्त; आत्मनामू--जीवात्माओं के; भगवति-- श्रीभगवान्‌ में; वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेवमें; तत्‌ू--उसका; अनुश्रवण--निरन्तर सुनना; मनन--चिन्तन; सड्जीर्तन--जप; आराधन--पूजा, उपासना; अनुस्मरण--निरन्तरस्मरण करना; अभियोगेन--लीन रह कर; अशून्य--पूरित; सकल-यामेन--जिसमें सारे समय; कालेन--काल से;समावेशितम्‌--पूर्णतया प्रतिष्ठित; समाहितम्‌--स्थिर; कार्त्स्येन--पूर्णतया; मनः--चित्त; तत्‌ू--वह मन; तु--लेकिन; पुन:--फिर; मम--मुझ; अबुधस्य--अज्ञानी का; आरातू--दूरी से; मृग-सुतम्‌--मृगछौना; अनु--के पीछे, के वश में; परिसुस्नाव--च्युत हो गया।

    मृग के शरीर में भरत महाराज पश्चात्ताप करने लगे--कैसा दुर्भाग्य है कि मैं स्वरूपसिद्धोंके पथ से गिर गया हूँ! आध्यात्मिक जीवन बिताने के लिए मैंने अपने पुत्रों, पत्ती तथा घर कापरित्याग किया और वन के एकान्त पवित्र स्थान में आश्रय लिया।

    मैं आत्मसंयमी तथा स्वरूप-सिद्ध बना और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव की भक्ति, श्रवण, चिन्तन, कीर्तन, पूजन तथास्मरण में निरन्तर लगा रहा।

    मैं अपने प्रयत्न में सफल रहा, यहां तक कि मेरा मन सर्वदा भक्ति मेंडूबा रहता था।

    किन्तु, अपनी मूर्खता के कारण मेरा मन पुनः आसक्त हो गया--इस बार मृग में।

    अब मुझे मृग शरीर प्राप्त हुआ है और मैं अपनी भक्ति-साधना से बहुत नीचे गिर चुका हूँ।

    इत्येवं निगूढनिर्वेदो विसृज्य मृर्गीं मातरं पुनर्भगवद््षेत्रमुपशमशीलमुनिगणदयितं शालग्रामंपुलस्त्यपुलहा श्रमं कालझ्जरात्प्रत्याजगाम ॥

    ३०॥

    इति--इस प्रकार; एवम्‌--इस विधि से; निगूढ--छिपी; निर्वेद:--वैराग्य भावना; विसृज्य--त्याग कर; मृगीम्‌ू--मृगी को;मातरम्‌--अपनी माता; पुनः--फिर; भगवत्‌क्षेत्रम्‌ू--वह क्षेत्र जहाँ परमेश्वर पूजित हैं; उपशम-शील--सांसारिक आसक्तियों सेसर्वथा विरक्त; मुनि-गण-दबितम्‌--जो मुनियों को अत्यधिक प्रिय है; शालग्रामम्‌--शालग्राम नामक ग्राम; पुलस्त्य-पुलह-आश्रमम्‌--पुलस्त्य तथा पुलह जैसे ऋषियों के आश्रम को; कालझझरात्‌--कालंजर पर्वत से, जहाँ उसने मृगी के गर्भ से जन्मलिया था; प्रत्याजगाम--चला आया।

    यद्यपि भरत महाराज को मृग शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु निरन्तर पश्चात्ताप करते रहने से वेसांसारिक वस्तुओं से पूर्णतः विरक्त हो गये थे।

    उन्होंने ये बातें किसी को प्रकट नहीं होने दीं।

    उन्होंने अपनी मृगी माता को अपने जन्मस्थान कालंजर पर्वत पर ही छोड़ दिया और स्वयंशालग्राम के बन में पुलस्त्य तथा पुलह के आश्रम में पुनः: चले आये।

    तस्मिन्नपि काल प्रतीक्षमाण: सझ़च्च भृशमुद्विग्न आत्मसहचरः शुष्कपर्णतृणवीरु धा वर्तमानोमृगत्वनिमित्तावसानमेव गणयन्मृगशरीरं तीर्थोदकक्लिन्नमुत्ससर्ज ३१॥

    तस्मिन्‌ अपि--उस आश्रम ( पुलह आश्रम ) में; कालम्‌--मृग शरीर में जीवन का अन्त; प्रतीक्षमाण:--सदैव प्रतीक्षा में रत;सड्भात्‌ू--संगति से; च--तथा; भूशम्‌--लगातार; उद्विग्न:--चिन्तापूर्ण; आत्म-सहचरः --परमात्मा को ही एकमात्र संगी मानकर( किसी को अकेले नहीं समझना चाहिए ); शुष्क-पर्ण-तृण-वीरुधा--केवल सूखी पत्तियाँ तथा बूटियाँ खाकर; वर्तमान: --( जीवित ) रहते हुए; मृगत्व-निमित्त--मृग शरीर धारण करने के कारण; अवसानम्‌--अन्त; एव--केवल; गणयन्‌--विचारकरते हुए; मृग-शरीरम्‌--मृग के शरीर को; तीर्थ-उदक-क्ललिन्नम्‌ू--उस तीर्थ स्थान के जल में स्नान करते हुए; उत्ससर्ज--त्यागदिया?

    उस आश्रम में रहते हुए महाराज भरत अब कुसंगति का शिकार न होने के प्रति सतर्क रहनेलगे।

    किसी को भी अपना विगत जीवन बताये बिना वे उस आश्रम में मात्र सूखी पत्तियाँ खाकररहते थे।

    वास्तव में वे अकेले न थे क्योंकि उनके साथ परमात्मा जो थे।

    इस प्रकार वे इस मृगशरीर के अन्त की प्रतीक्षा करते रहे।

    अन्त में उस तीर्थस्थल में स्नान करते हुए उन्होंने वह शरीर छोड़ दिया।

    TO

    अध्याय नौ: जड भरत का सर्वोच्च चरित्र

    5.9श्रीशुक उबाचअथ कस्यचिदि्द््‌वजवरस्याड्िरःप्रवरस्यशमदमतप:ःस्वाध्यायाध्ययनत्यागसन्तोषतितिक्षाप्र श्रयविद्यानसूयात्मज्ञानानन्दयुक्तस्यात्मसद॒श श्रुत(शी लाचाररूपौदार्यगुणा नव सोदर्या अड्गजा बभूवुर्मिथुनं च यवीयस्यां भार्यायाम्यस्तु तत्र पुमांस्तं परमभागवतराजर्षिप्रवरं भरतमुत्सृष्टमृगशरीरं चरमशरीरेण विप्रत्वं गतमाहु: ॥

    १-२॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा; अथ--तत्पश्चात्‌: कस्यचित्‌--किसी; द्विज-वरस्य--ब्राह्मण के; अड्डिर:-प्रवरस्थ--आंगिरा गोत्र के; शम--मन का नियंत्रण; दम--इन्द्रियों का नियंत्रण ( दमन ); तप:--तपस्या; स्वाध्याय-- वैदिकसाहित्य का पठन; अध्ययन--- अध्ययन; त्याग--त्याग; सन्‍्तोष--सन्तोष; तितिक्षा--सहिष्णुता; प्रश्रय--विनय; विद्या--ज्ञान;अनसूय--ईष्यारहित; आत्म-ज्ञान-आनन्द--आत्म-साक्षात्कार में प्रसन्न; युक्तस्य--गुणसम्पन्न; आत्म-सहश--तथा अपने हीसमान; श्रुत--विद्या में; शील--चरित्र में; आचार--आचरण में; रूप--सुन्दरता में; औदार्य--उदारता में; गुणा:--समस्तगुणोंवाला; नव स-उदर्या:--एकही गर्भ से उत्पन्न नौ भ्राता, नौ सहोदर; अड़-जा:--पुत्र; बभूवु:--उत्पन्न हुए; मिथुनम्‌--जुड़वाँभाई तथा बहन; च--तथा; यवीयस्याम्‌--सबसे छोटी; भार्यायाम्‌--स्त्री से; यः--जो; तु--लेकिन; तत्र--वहाँ; पुमानू--पुरुष( लड़का ); तम्‌--उसको; परम-भागवतम्‌--परम भक्त; राज-ऋषि--राजर्षि; प्रवरम्‌-- अत्यन्त सम्मानित; भरतम्‌--महाराजभरत को; उत्सृष्ट--त्याग कर; मृग-शरीरम्‌--मृग का शरीर; चरम-शरीरेण --- अन्तिम शरीर से; विप्रत्वम्‌-ब्राह्मणत्व; गतमू--प्राप्त किया; आहुः--उनका कथन है।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, हे राजन, मृग शरीर त्याग कर भरत महाराज ने एकविशुद्ध ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया।

    वह ब्राह्मण अंगिरा गोत्र से सम्बन्धित था और ब्राह्मण केसमस्त गुणों से सम्पन्न था।

    वह अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करने वाला तथा वैदिक एवंअन्य पूरक साहित्यों का ज्ञाता था।

    वह दानी, संतुष्ट, सहनशील, विनम्र, पंडित तथा किसी से नईर्ष्या करने वाला था।

    वह स्वरूपसिद्ध एवं ईश्वर की सेवा में तत्पर रहने वाला था।

    वह सदैवसमाधि में रहता था।

    उसकी पहली पत्नी से उसी के समान योग्य नौ पुत्र हुए और दूसरी पत्नी सेजुड़वाँ भाई-बहन पैदा हुए जिनमें से लड़का सर्वोच्च भक्त तथा राजर्षियों में अग्रणी भरतमहाराज के नाम से विख्यात हुआ।

    तो यह कथा है उसके मृग शरीर को त्याग कर पुनः जन्म लेनेकी।

    तत्रापि स्वजनसझ्भच्च भृशमुद्दिजमानो भगवतःकर्मबन्धविध्वंसनश्रवणस्मरणगुणविवरणचरणारविन्दयुगलं मनसा विद्धदात्मन: प्रतिघातमाशड्डूमानोभगवदनुग्रहेणानुस्मृतस्वपूर्वजन्मावलिरात्मानमुन्मत्तजडान्धबधिरस्वरूपेण दर्शयामास लोकस्य ॥

    ३॥

    तत्र अपि--उस ब्राह्मण जन्म में भी; स्व-जन-सड्भात्‌ू--अपने मित्रों तथा परिजनों की संगति से; च--तथा; भृशम्‌--अत्यधिक;उद्विजमान:--सदैव भयभीत रहते हुए कि कहीं पुनः भ्रष्ट न हो जाये; भगवतः -- श्री भगवान्‌ का; कर्म-बन्ध--कर्म-फलों काबन्धन; विध्वंसन--विनष्ट करने वाले; श्रवण--सुनना; स्मरण--याद करना; गुण-विवरण-- भगवान्‌ के गुणों का वर्णनसुनना; चरण-अरविन्द--चरणकमल; युगलम्‌--दोनों; मनसा--मन से; विद्धत्‌--सदैव ध्यान धरते हुए; आत्मन:--अपनीआत्मा का; प्रतिघातम्‌--भक्ति मार्ग में बाधा; आशड्डूमान: --सदैव सशंकित; भगवत््‌-अनुग्रहेण-- श्रीभगवान्‌ के अनुग्रह से;अनुस्मृत--स्मरण करते हुए; स्व-पूर्व--अपने पहिले; जन्म-आवलि:--जन्मों की श्रृंखला; आत्मानम्‌--स्वयं; उन्मत्त--पागल;जड--कुन्द, पत्थर तुल्य; अन्ध-- अंधा; बधिर--बहरा; स्वरूपेण--स्वरूप के कारण; दर्शयाम्‌ आस--प्रदर्शित किया, प्रकटकिया; लोकस्य--सामान्य जनता को |

    भगवत्कृपा से भरत महाराज को अपने पूर्वजन्म की घटनाएँ स्मरण थीं।

    यद्यपि उन्हें ब्राह्मणका शरीर प्राप्त हुआ था, किन्तु वे अपने स्वजनों तथा मित्रों से, जो भक्त नहीं थे, अत्यन्तभयभीत थे।

    वे ऐसी संगति से सदैव सतर्क रहते, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं पुनः पथच्युत नहो जाँय।

    फलत:ः वे जनता के समक्ष उन्मत्त ( पागल ), जड़, अंधे तथा बहरे के रूप में प्रकटहोते रहे जिससे दूसरे लोग उनसे बात करने की चेष्टा न करें।

    इस प्रकार उन्होंने कुसंगति से अपनेको बचाए रखा।

    वे अपने अन्तःकरण में सदा भगवान्‌ के चरणकमल का ध्यान धरते और उनकेगुणों का जप करते रहते जो मनुष्य को कर्म-बन्धन से बचाने वाला है।

    इस प्रकार उन्होंने अपनेको अभक्त संगियों के आक्रमण से बचाए रखा।

    तस्यापि ह वा आत्मजस्य विप्र: पृत्रस्नेहानुबद्धमना आसमावर्तनात्संस्कारान्यथोपदेशं विदधान उपनीतस्यच पुनः शौचाचमनादीन्कर्मनियमाननभिप्रेतानपि समशिक्षयदनुशिष्टेन हि भाव्यं पितु: पुत्रेणेति, ॥

    ४॥

    तस्य--उस; अपि ह वा--निश्चय ही; आत्म-जस्य--अपने पुत्र का; विप्र:--जड़ भरत के ब्राह्मण पिता ( विक्षिप्त भरत ); पुत्र-स्नेह-अनुबद्ध-मना: --पुत्र प्रेम के कारण मन बँध जाने से; आ-सम-आवर्तनात्‌ू--ब्रह्मचर्य आश्रम के समाप्त होने तक;संस्कारान्‌ू--संस्कारों को; यथा-उपदेशम्‌--शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार; विदधान:--करते हुए; उपनीतस्थ--जिसकाउपनयन संस्कार हो, उसका; च--तथा; पुनः--फिर; शौच-आचमन-आदीनू--स्वच्छता-मुख, हाथ, पाँव धोने इत्यादि काअभ्यास; कर्म-नियमान्‌--कर्म के विधि-विधान; अनभिप्रेतानू अपि--जड़ भरत के न चाहने पर भी; समशिक्षयत्‌--शिक्षा दी;अनुशिष्टेन--विधि-विधानों का पालन करना सिखाया; हि--निश्चय ही; भाव्यम्‌--हो; पितु:ः--पिता से; पुत्रेण--पुत्र; इति--इस प्रकार?

    ब्राह्मण पिता का मन अपने पुत्र जड़ भरत ( भरत महाराज ) के प्रति सदैव स्नेह से पूरितरहता था।

    उससे सदा अनुरक्त रहते थे।

    क्योंकि जड़ भरत गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिएअयोग्य थे, अतः ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति तक ही उनके संस्कार पूरे हुए।

    यद्यपि जड़ भरतअपने पिता की शिक्षाओं को मानने में आनाकानी करते तो भी उस ब्राह्मण ने यह सोचकर किपिता का कर्तव्य है कि अपने पुत्र को शिक्षा दे, जड़ भरत को स्वच्छ रहने तथा प्रक्षालन करनेकी शिक्षा दी।

    स चापि तदु ह पितृसन्निधावेवासश्रीचीनमिव सम करोति छन्दांस्यध्यापयिष्यन्सह व्याहृतिभि:सप्रणवशिरस्त्रिपदीं सावित्री ग्रैष्पवासन्तिकान्मासानधीयानमप्यसमवेतरूपं ग्राहयामास ॥

    ५॥

    सः--वह ( जड़ भरत ); च--भी; अपि--निस्संदेह; तत्‌ उह--जो कुछ उसका पिता शिक्षा देता; पितृ-सन्निधौ--अपने पिताकी उपस्थिति में, पिता के सामने; एब--ही; असश्नीचीनम्‌ इब--मानो उसने कुछ नहीं समझा, असत्य; सम करोति--करता था;छन्दांसि अध्यापयिष्यन्‌ू--चातुर्मास में अथवा श्रावण मास से शुरू करके वेद मंत्रों की शिक्षा देने का इच्छुक; सह--साथ-साथ;व्याहतिभि:--स्वर्गलोक ( भू: भुव: स्व: ) के नामों का उच्चारण; स-प्रणव-शिर:--ओकार से प्रारम्भ करके; त्रि-पदीम्‌--तीन पदों वाले; सावित्रीम्‌--गायत्री मंत्र; ग्रैष्प-वासन्तिकान्‌ मासान्‌ू--चैत्र से ( १५ मई से ) प्रारम्भ होने वाले चार मास; अधीयानम्‌अपि--अध्ययन करते रहने पर भी; असमवेत-रूपम्‌--अपूर्ण रूप में; ग्राहयाम्‌ आस--जो सिखला दिया, अभ्यास करा दिया।

    अपने पिता द्वारा वैदिक ज्ञान की समुचित शिक्षा दिये जाने पर भी जड़ भरत उनके समक्षमूर्ख ( जड़ ) की भाँति आचरण करते।

    वे ऐसा आचरण इसलिए करते जिससे उनके पिता यहसमझें कि वे शिक्षा के अयोग्य हैं और इस प्रकार उसे आगे शिक्षा देना बन्द कर दें।

    वे सर्वथाविपरीत आचरण करते।

    यद्यपि शौच के बाद हाथ धोने को कहा जाता, किन्तु वे उन्हें उसकेपहले ही धो लेते।

    तो भी उनके पिता उन्हें बसनन्‍्त तथा ग्रीष्म काल में वैदिक शिक्षा देना चाहतेथे।

    उन्होंने उसे ओंकार तथा व्याहति के साथ-साथ गायत्री मंत्र सिखाने का यत्न किया, किन्तुचार मास बीत जाने पर भी वे उसे सिखाने में सफल न हो सके।

    एवं स्वतनुज आत्मन्यनुरागावेशितचित्तःशौचाध्ययनब्रतनियमगुर्वनलशुश्रूषणाद्यौपकुर्वाणककर्माण्यनभियुक्तान्यपि समनुशिष्टिनभाव्यमित्यसदाग्रह: पुत्रमनुशास्य स्वयं तावदनधिगतमनोरथ: कालेनाप्रमत्तेन स्वयं गृह एव प्रमत्तउपसंहतः ॥

    ६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; स्व--निज; तनु-जे--पुत्र जड़ भरत में; आत्मनि--जिसे वे आत्मवत्‌ मानते थे; अनुराग-आवेशित-चित्त: --अपने पुत्र के प्रेम में अनुरक्त ब्राह्मण; शौच--पतवित्रता, स्वच्छता; अध्ययन--वैदिक साहित्य का अध्ययन; ब्रत--समस्त ब्रतोंका पालन; नियम--विधि-विधान; गुरु--गुरु का; अनल--अग्नि का; शुश्रूषण-आदि--सेवा इत्यादि; औपकुर्वाणक --ब्रह्मचर्य आश्रम के; कर्माणि--समस्त कर्म; अनभियुक्तानि अपि--पुत्र के न चाहने पर भी; समनुशिष्टेन--पूर्णतया शिक्षितहोकर; भाव्यम्‌--हो; इति--इस प्रकार; असतू-आग्रह: --अग्राह्म मूर्खता वाले; पुत्रमू--पुत्र को; अनुशास्य--शिक्षा देकर;स्वयम्‌--स्वयं; तावत्‌--उस तरह; अनधिगत-मनोरथ:--अपनी आकांक्षाएँ पूरी न होने से; कालेन--काल के प्रभाव से;अप्रमत्तेन--जो भुलक्कड़ नहीं है; स्वयम्‌--साक्षात्‌; गृहे-- अपने घर में; एव--निश्चय ही; प्रमत्त:--बुरी तरह से आसक्त;उपसंहतः--मृत्यु हो गई, मर गया।

    जड़ भरत का ब्राह्मण पिता अपने पुत्र को अपनी आत्मा तथा हृदय के समान मानता, अतःवह उससे अत्यधिक अनुरक्त था।

    उसने अपने पुत्र को सुशिक्षित बनाना चाहा और अपने इसअसफल प्रयास में उसने अपने पुत्र को ब्रह्मचर्य के विधि-विधान सिखाने प्रारम्भ किये, जिनमेंवैदिक अनुष्ठान, शौच, वेदाध्ययन, कर्मकाण्ड, गुरु की सेवा, अग्नि यज्ञ करने की विधिसम्मिलित थे।

    उसने इस प्रकार से अपने पुत्र को शिक्षा देने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु वहअसफल रहा।

    उसने अपने अन्तःकरण में यह आशा बाँध रखी थी कि उसका पुत्र विद्वान होगा,किन्तु उसके सारे प्रयत्न निष्फल रहे।

    प्रत्येक प्राणी की भाँति यह ब्राह्मण भी अपने घर के प्रतिआसक्त था और वह यह भूल ही गया था कि एक दिन उसे मरना है।

    किन्तु मृत्यु कभी भूलती नहीं।

    वह उचित समय पर प्रकट हुई और उसे उठा ले गई।

    अथ यवीयसी द्विजसती स्वगर्भजातं मिथुनं सपत्न्या उपन्यस्य स्वयमनुसंस्थया पतिलोकमगातू ॥

    ७॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; यवीयसी--सबसे छोटी; द्विज-सती--ब्राह्मण की पत्नी; स्व-गर्भ-जातम्‌--अपने गर्भ से उत्पन्न; मिथुनम्‌--जुड़वाँ बच्चे; सपत्यै-- अपनी सौत को; उपन्यस्थ--सौंप कर; स्वयम्‌-- स्वयं; अनुसंस्थया--अपने पति का अनुगमन करतीहुई; पति-लोकम्‌--पतिलोक को; अगातू--चली गई।

    तत्पश्चात्‌ ब्राह्मण की छोटी पत्नी अपने जुड़वाँ बच्चों--एक लड़का तथा एक लड़की--कोअपनी बड़ी सौत को सौंप कर अपनी इच्छा से अपने पति के साथ मर कर पतिलोक चली गई।

    पितर्युपरते भ्रातर एनमतत्प्रभावविदस्त्रय्यां विद्यायामेव पर्यवसितमतयो न परविद्यायां जडमतिरितिभ्रातुरनुशासननिर्बन्धान्ष्यवृत्सन्त, ॥

    ८॥

    पितरि उपरते--पिता की मृत्यु के पश्चात्‌; भ्रातरः--सौतेले भाइयों ने; एनमू--इस जड़ भरत को; अ-तत्‌-प्रभाव-विदः --उसकीमहानता को समझे बिना; त्रय्याम्‌-तीनों वेदों के; विद्यायामू--कर्मकाण्ड सम्बन्धी ज्ञान में; एब--निस्सन्देह; पर्यवसित--स्थिर; मतयः--जिनके मन; न--नहीं; पर-विद्यायाम्‌--भक्ति के दिव्य ज्ञान में; जड-मति:--अत्यन्त मन्द बुद्धि; इति--इसप्रकार; भ्रातु:--अपने भाई ( जड़ भरत ) को; अनुशासन-निर्बन्धात्‌-पढ़ाने का प्रयत्ल; न्यवृत्सन्त--छोड़ दिया ?

    पिता की मृत्यु के बाद जड़ भरत के नौ सौतेले भाइयों ने उसे जड़ तथा बुद्धि-हीन समझकरउसको पूर्ण शिक्षा प्रदान करने के उनके पिता का प्रयत्न छोड़ दिया।

    जड़ भरत के ये भाई तीनोंवेदों--ऋग्‌, साम यथा यजुर्वेद में पारंगत थे, जो सकाम कर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन देते हैं।

    किन्तु वे नवों भाई ईश्वर की भक्तिमयसेवा से तनिक भी परिचित न थे।

    फलस्वरूप वे जड़ भरतकी सिद्ध अवस्था को नहीं समझ सके।

    सच प्राकृतैद्धिपदपशुभिरुन्मत्तजडबधिरमूकेत्यभिभाष्यमाणो यदा तदनुरूपाणि प्रभाषते कर्माणि चकार्यमाण: परेच्छया करोति विष्टितो वेतनतो वा याच्जया यहच्छया वोपसादितमल्पं बहु मृष्टे कदन्नंवाभ्यवहरति पर नेन्द्रियप्रीतिनिमित्तम्‌, नित्यनिवृत्तनिमित्तस्वसिद्धविशुद्धानुभवानन्दस्वात्मलाभाधिगम:सुखदुःखयोदईनद्वनिमित्तयोरसम्भावितदेहाभिमान: शीतोष्णवातवर्षेषु वृष इवानावृताड़ु: पीन: संहननाडुःस्थण्डिलसंवेशनानुन्मर्दनामज्जनरजसा महामणिरिवानभिव्यक्तब्रह्मवर्चस:कुपटावृतकटिरूपवीतेनोरुमषिणा द्विजातिरिति ब्रह्मबन्धुरिति संज्ञयातज्ज़्जनावमतो विचचार, ॥

    ९-१०॥

    सः च--वह भी; प्राकृतैः--सामान्य जनों द्वारा जिनकी पहुँच आत्मतत्त्व तक नहीं है; द्वि-पद-पशुभि:--जो दो पैरों वाले पशुओंसे कम नहीं है; उन्मत्त--पागल; जड--मन्द; बधिर--बहरा; मूक --गूँगा; इति--इस प्रकार; अभिभाष्यमाण: --सम्बोधितकिये जाने पर; यदा--जब; तत्‌-अनुरूपाणि -- उनका उत्तर देने के लिए उपयुक्त शब्द; प्रभाषते--बोलता था; कर्माणि--कर्म;च--भी; कार्यमाण: --कराते हुए; पर-इच्छया--अन्यों की आज्ञा से; करोति--किया करता था; विष्टित:--बल प्रयोग से,बेगार; वेतनतः--अथवा मजदूरी से; वा--अथवा; याच्जया-- भीख माँगने से; यहच्छया-- अपनी इच्छानुसार; वा--अथवा;उपसादितमू--प्राप्त; अल्पम्‌--अत्यल्प मात्रा; बहु--बहुत सा; मृष्टम्‌--सुस्वादु; कत्‌-अन्नम्‌ू--बासी, स्वादहीन भोजन; वा--अथवा; अभ्यवहरति--खा लेता था; परमू--केवल; न--नहीं ; इन्द्रिय-प्रीति-निमित्तम्‌--इन्द्रियों की तृप्ति हेतु; नित्य--शाश्वत;निवृत्त--त्याग दिया; निमित्त--सकाम कर्म; स्व-सिद्ध--स्वतः सिद्ध; विशुद्ध-दिव्य; अनुभव-आनन्द--आनन्दपूर्ण अनुभव;स्व-आत्म-लाभ-अधिगम: --जिसे आत्रजज्ञान प्राप्त हो गया हो; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख दोनों में; द्वन्द्न-निमित्तयो: --द्वैतके कारणों में; असम्भावित-देह-अभिमान:--देह से भिन्न; शीत--जाड़े में; उष्ण-- ग्रीष्म में; वात--हवा में; वर्षेषु--वर्षा में;वृष:--साँड़; इब--सहृश; अनावृत-अड्डभ४--नंगी देह; पीन: --हृष्ट-पुष्ट; संहनन-अड्भः--गठित अंग; स्थण्डिल-संवेशन-- पृथ्वीपर पड़े रहने से; अनुन्मर्दन--बिना मालिश के; अमजजन--बिना नहाये; रजसा-- धूलि से; महा-मणि:--बहुमूल्य मणि; इब--सहश; अनभिव्यक्त--अप्रकट; ब्रह्म-वर्चसः --ब्रह्म-तेज; कु-पट-आवृत--गन्दे वस्त्र से ढका; कटि:ः--जिसकी कमर;उपवीतेन--यज्ञोपवीत से; उरू-मषिणा--धूल के कारण अत्यन्त मलिन ( काला ); द्वि-जाति:--ब्राह्मण कुल में उत्पन्न; इति--इस प्रकार, ( घृणा के कारण कहते हुए ); ब्रह्म-बन्धु;--ब्रह्म बन्धु; इति--इस प्रकार; संज्ञया--ऐसे नामों से; अ-तत्‌ू-ज्ञ-जन--उन व्यक्तियों द्वारा जो उसकी स्थिति से अपरिचित थे; अवमतः--अनाहत होकर; विचचार--विचरण करता था।

    नीच पुरुष पशुओं के तुल्य होते हैं।

    अन्तर इतना ही है कि पशुओं के चार पैर होते हैं औरऐसे मनुष्यों के केवल दो।

    ऐसे दो पैर वाले पाशविक पुरुष जड़ भरत को पागल, मन्द बुद्धि,बहरा तथा गूँगा कहते थे।

    वे उसके साथ दुर्व्यवहार करते और जड़ भरत बहरे, अंधे या जड़पागल की भाँति आचरण करता।

    न तो वह कभी प्रतिवाद करता, न ही उन्हें आश्वस्त करने काप्रयलल करता कि वह ऐसा नहीं है।

    यदि कोई उससे कुछ कराना चाहता तो वह उनकी इच्छा केअनुसार कार्य करता।

    उसे भिक्षा या मजदूरी से अथवा अपने आप जो भी भोजन मिलता--चाहेवह थोड़ा हो, स्वादु, बासी या अस्वादु--उसे ग्रहण करता और खाता।

    वह इन्द्रिय-तृप्ति के लिएकभी कुछ नहीं खाता था, क्योंकि वह पहले से उस देहात्म-बुद्धि से मुक्त हो गया था, जिसकेवशीभूत होकर स्वादिष्ट या बेस्वाद भोजन किया जाता है।

    वह भक्ति की दिव्य भावना से पूर्णथा, फलत:ः देहात्म-बुद्धि से उठने वाले द्वन्द्ठों से सर्वथा अप्रभावित रहता था।

    वास्तव में उसकाशरीर साँड़ के समान बलिषप्ठ था और उसके अंग-प्रत्यंग हृष्ट-पुष्ट थे।

    उसे न तो सर्दी-गर्मी याबयार-वर्षा की परवाह थी और न ही कभी वह अपने शरीर को ढकता था।

    वह जमीन पर लेटारहता।

    वह अपने शरीर में न तो कभी तेल लगाता, न ही कभी स्नान करता था।

    शरीर मलिनहोने के कारण उसका ब्रह्मतेज तथा ज्ञान उसी प्रकार ढके हुए थे जिस प्रकार धूल जमने सेकिसी मूल्यवान मणि का तेज छिप जाता है।

    उसने केवल एक गन्दा कौपीन और एक यज्ञोपवीतपहन रखा था जो काला पड़ गया था।

    यह जानते हुए भी कि वह ब्राह्मण कुल में उत्पन्न है, लोगउसे ब्रह्मबन्धु तथा अन्य नामों से पुकारते थे।

    इस प्रकार भौतिकतावादी लोगों द्वारा अपमानितएवं उपेक्षित होकर वह इधर-उधर घूमता रहता था।

    तात्पर्य : श्रील नरोत्तरदास ठाकुर का गीत है-- देह-स्मृति नाहि यार, संसारबंधन काहाँ तार ।

    जिसेअपने शरीर-पालन की इच्छा न रहे, अथवा जो अपने शरीर को ढंग से रखने का इच्छुक न हो और जोकिसी भी परिस्थिति में संतुष्ट रहे वह या तो पागल होगा या फिर मुक्त।

    वास्तव में जड़भरत के रूप मेंजन्म लेकर भरत महाराज भौतिक हुंद्वों से सर्वथा मुक्त थे।

    वे परमहंस थे, अत: उन्हें शारीरिक सुख की चिन्ता न थी।

    यदा तु परत आहारं कर्मवेतनत ईहमान: स्वभ्रातृभिरपि केदारकर्मणि निरूपितस्तदपि करोति किन्तु नसमं विषम न्यूनमधिकमिति वेदकणपिण्याकफलीकरणकुल्माषस्थालीपुरीषादीन्यप्यमृतवदभ्यवहरति ॥

    ११॥

    यदा--जब; तु-- लेकिन; परत:--अन्यों से; आहारम्‌ू-- भोजन; कर्म-वेतनतः--काम करने के बदले मजदूरी; ईहमान:--पालते देखकर; स्व- भ्रातृभि: अपि--अपने सौतेले भाइयों तक से; केदार-कर्मणि--खेत में काम करने तथा कृषिकार्य देखनेमें; निरूपित:--लगा हुआ; तत्‌ अपि--उस समय भी; करोति--वह करता था; किन्तु--लेकिन; न--नहीं; समम्‌--समतल;विषमम्‌--विषम, ऊबड़-खाबड़; न्यूनम्‌ू--कम; अधिकम्‌---अधिक उठी हुई; इति--इस प्रकार; वेद--जानता था; कण--धान के टूटे दाने, कना; पिण्याक--खली; फली-करण--धान की भूसी; कुल्माष--घुन-लगा अन्न; स्थाली-पुरीष-आदीनि--बर्तन में लगा जला चावल आदि; अपि--भी; अमृत-वत्‌--अमृत के समान; अभ्यवहरति--खा लेता था।

    जड़ भरत केवल भोजन के लिए काम करता था।

    उसके सौतेले भाइयों ने इसका लाभउठाकर उसे कुछ भोजन के बदले खेत में काम करने में लगा दिया, किन्तु उसे खेत में ठीक सेकाम करने की विधि ज्ञात न थी।

    उसे यह ज्ञात न था कि कहाँ मिट्टी डाली जाये अथवा कहाँभूमि को समतल या ऊँचा-नीचा रखा जाये।

    उसके भाई उसे टूटे चावल ( कना ), खली, धानकी भूसी, घुना अनाज तथा रसोई के बर्तनों की जली हुई खुरचन दिया करते थे, किन्तु वह इनसबको प्रसन्नतापूर्वक अमृत के समान स्वीकार कर लेता था।

    उसे किसी प्रकार की शिकायत नरहती और वह इन सब चीजों को प्रसन्नतापूर्वक खा लेता था।

    अथ कदाचित्कश्चिद्दषलपतिर्भद्रकाल्यै पुरुषपशुमालभतापत्यकामः ॥

    १२॥

    अथ-त्पश्चात्‌: कदाचित्‌--किसी समय; कश्चित्‌--कोई; वृषल-पति:--अन्यों की सम्पत्ति लूटने वाले शूद्रों का सरदार;भद्ग-काल्यै-- भद्रकाली नामक देवी को; पुरुष-पशुम्‌--मनुष्य के रूप में पशु की; आलभत--बलि देने लगा; अपत्य-'कामः--पुत्र का इच्छुक?

    इसी समय, पुत्र की कामना से, डाकुओं का एक सरदार जो शूद्र कुल का था, किसी पशु-तुल्य जड़ मनुष्य की भद्गरकाली पर बलि चढ़ाकर उपासना करना चाहता था।

    तस्य ह दैवमुक्तस्य पशो: पदवीं तदनुचरा: परिधावन्तो निशि निशीथसमये तमसावृतायामनधिगतपशवआकस्मिकेन विधिना केदारान्वीरासनेन मृगवराहादिभ्य: संरक्षमाणमड्धिर:प्रवरसुतमपश्यन्‌, ॥

    १३॥

    तस्य--उस सरदार का; ह--निश्चय ही; दैव-मुक्तस्य--संयोग्यवश बच जाने से; पशो: --नर-पशु का; पदवीम्‌--मार्ग ; तत्‌-अनुचरा:--उसके अनुयायी; परिधावन्त:--इधर-उधर ढूँढने के लिए दौड़ते हुए; निशि--रात्रि में; निशीथ-समये-- अर्द्ध॑रात्रि में;तमसा आवृतायाम्‌--अंधेरे से ढका हुआ; अनधिगत-पशव:--नर-पशु न पकड़ सकने से; आकस्मिकेन विधिना--दैवयोग सेअकस्मात्‌; केदारान्‌ू--खेतों में; वीर-आसनेन--ऊँचे स्थान पर बने आसन से; मृग-वराह-आदिभ्य:--मृग, जंगली सुअर आदिसे; संरक्षमाणम्‌--रक्षा करता हुआ; अड्डिर:-प्रवर-सुतम्‌--अंगिरा गोत्र वाले ब्राह्मण पुत्र को; अपश्यन्‌ू-देखा |

    डाकुओं के सरदार ने बलि के लिए एक नर-पशु पकड़ा, किन्तु वह बचकर निकल भागाऔर सरदार ने अपने सेवकों को उसे ढूँढने के लिए आज्ञा दी।

    वे विभिन्न दिशाओं में दोड़ै किन्तुउसे ढूंढ न सके।

    अर्द्धरात्रि के गहन अंधकार में इधर-उधर घूमते हुए, वे एक धान के खेत मेंपहुँचे जहाँ उन्होंने अंगिरा वंश के एक ब्राह्मणकुमार ( जड़भरत ) को देखा जो एक ऊँचे स्थानपर बैठ कर मृग तथा जंगली सुअरों से खेत की रखवाली कर रहा था।

    अथ त एनमनवद्यलक्षणमवमृश्य भर्तृकर्मनिष्पत्ति मन्यमाना बद्ध्वा रशनया चण्डिकागृहमुपनिन्युर्मुदाविकसितवदनाः: ॥

    १४॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; ते--वे ( सरदार के सेवक ); एनम्--इस ( जड़ भरत ); अनवद्य-लक्षणम्‌--मन्द पशु के से लक्षणों वालाक्योंकि उसका शरीर साँड़ जैसा मोटा था और वह बहरा तथा गूँगा था; अवमृश्य--पहचान कर; भर्तु-कर्म-निष्पत्तिम्‌ू-- अपनेस्वामी के कार्य की सिद्धि; मन्यमाना:--मानते हुए, समझकर; बद्ध्वा--बाँधकर; रशनया--रस्सियों से; चण्डिका-गृहम्‌--देवी काली के मन्दिर में; उपनिन्यु:--ले आये; मुदा--परम प्रसन्नतापूर्वक; विकसित-वदना: --प्रसन्नमुख |

    डाकू सरदार के सेवकों तथा अनुचरों ने नर-पशु के लक्षणों सें युक्त जड़ भरत को अत्यन्तउपयुक्त समझ कर उसे बलि के लिए अत्युत्तम पाया।

    अतः प्रसन्नता के मारे उनके मुख चमकनेलगे, उन्होंने उसे रस्सियों से बाँध लिया और देवी काली के मन्दिर में ले आये।

    अथ पणयस्तं स्वविधिनाभिषिच्याहतेन वाससाच्छाद्य भूषणालेपस्त्क्तिलकादिभिरुपस्कृतं भुक्तवन्तंधूपदीपमाल्यलाजकिसलयाड्लू रफलोपहारोपेतया वैशससंस्थया महता गीतस्तुतिमृदड्पणवघोषेण चपुरुषपशुं भद्गकाल्या: पुरत उपवेशयामासु:, ॥

    १५॥

    अथ--तदनन्तर; पणय: --डाकू के समस्त अनुचरों ने; तमू--उसको ( जड़ भरत को ); स्व-विधिना--अपने विधि-विधानों केअनुसार; अभिषिच्य--नहलाकर; अहतेन--नये; वाससा--वस्त्र से; आच्छाद्य--ढक कर; भूषण--गहने; आलेप--चन्दन सेलेपकर; सत्रकू--पुष्प माला; तिलक-आदिभि:--तिलक आदि से; उपस्कृतम्‌-पूर्णतया सजाकर; भुक्तवन्तम्‌-- भोजन कराकर; धूप--सुंगधित द्रव्य; दीप--दीपक; माल्य--माला; लाज--लावा; किसलय-अह्डु र--नये पत्ते तथा अंकुर; फल--फल;उपहार--अन्य सामग्री; उपेतया--पूर्णतया सज्जित; वैशस-संस्थया--बलि के लिए पूरी तैयारी; महता--अत्यधिक; गीत-स्तुति--गाना तथा प्रार्थना का; मृदड़--मृदंग; पणव--तुरही की; घोषेण-- ध्वनि से; च-- भी; पुरुष-पशुम्‌--नर-पशु को;भद्ग-काल्या: --देवी काली के; पुरत:--ठीक सामने; उपवेशयाम्‌ आसु: --बैठा दिया।

    इसके पश्चात्‌ चोरों ने नर-पशु बलि की काल्पनिक पद्धति के अनुसार जड़ भरत कोनहलाया, नये वस्त्र पहनाए, पशु के अनुकूल आभूषणों से अलंकृत किया, उसके शरीर परसुगन्धित लेप किया तथा तिलक, चन्दन एवं हार से सुसज्जित किया।

    उसे अच्छी तरह भोजनकराने के बाद वे उसे देवी काली के समक्ष ले आये और देवी को धूप, दीप, माला, खील, पत्ते,अंकुर, फल तथा फूल की भेंट चढ़ाई।

    इस प्रकार उन्होंने नर-पशु का वध करने के पूर्व गीत,स्तुति द्वारा एवं मृदंग तथा तुरही आदि बजाकर देवी की पूजा की।

    इसके पश्चात्‌ जड़ भरत कोमूर्ति के समक्ष बैठा दिया।

    अथ वृषलराजपणि: पुरुषपशोरसृगासवेन देवीं भद्गकालींयक्ष्यमाणस्तदभिमन्त्रितमसिमतिकरालनिशितमुपाददे ॥

    १६॥

    अथ--तदनन्तर; वृषल-राज-पणि:--डाकुओं के सरदार का पुरोहित; पुरुष-पशो:--बलि के लिए लाये गये पशु तुल्य नर( जड़ भरत ) का; असृकू-आसवेन--रक्त के आसव से; देवीम्‌--अर्चाविग्रह को; भद्र-कालीम्‌--देवी काली; यक्ष्यमाण: --बलि देने का इच्छुक; तत्‌-अभिमन्त्रितम्‌-- भद्गकाली के मंत्र से पवित्र की गयी; असिमू--तलवार, खड़्ग; अति-कराल--अत्यन्त भयानक; निशितम्‌--अत्यन्त पैनी; उपाददे--हाथ में ली ।

    उस समय, पुरोहित के रूप में कार्य कर रहा एक चोर भद्गरकाली को पीने के लिए नर-पशुजड़-भरत का रक्त-आसव चढ़ाने के लिए तत्पर था।

    अतः उसने अत्यन्त भयावनी तथा पैनीतलवार निकाली और भद्गरकाली के मंत्र से अभि मंत्रित करके जड़ भरत को मारने के लिए उसेउठाया।

    इति तेषां वृषलानां रजस्तमःप्रकृतीनां धनमदरजउत्सिक्तमनसां भगवत्कलावीरकुलं कदर्थीकृत्योत्पथेनस्वैरं विहरतां हिंसाविहाराणां कर्मातिदारुणं यद्गह्मभूतस्य साक्षाद्रह्मर्षिसुतस्य निर्वरस्य सर्वभूतसुहृदःसूनायामप्यननुमतमालम्भनं तदुपलभ्य ब्रह्मतेजसातिदुर्विषहेण दन्दह्ममानेन वपुषा सहसोच्चचाट सैवदेवी भद्रकाली ॥

    १७॥

    इति--इस प्रकार; तेषाम्‌ू--उन; वृषलानाम्‌--शूद्रों का जिनसे समस्त धार्मिक नियम नष्ट होते हैं; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; प्रकृतीनाम्‌ू--गुणों वाले; धन-मद--सम्पत्ति के कारण उत्पन्न गर्व; रज:--काम द्वारा; उत्सिक्त--फूला हुआ, उन्मत्त;मनसाम्‌--जिनके मन; भगवत्‌-कला-- श्रीभगवान्‌ के अंश का विस्तार, अंशस्वरूप; वीर-कुलम्‌-महान्‌ पुरुषों ( ब्राह्मणों )का कुल ( समूह ); कत्‌-अर्थी-कृत्य--अनादर करके; उत्पथेन--कुमार्ग से; स्वैरम्‌--स्वेच्छा से; विहरताम्‌--आगे बढ़ रहे;हिंसा-विहाराणाम्‌--जिनका कार्य अन्यों पर हिंसा करना है; कर्म--कर्म, कार्य; अति-दारुणम्‌ू--अत्यन्त भयावह; यत्‌--जो;ब्रह्म-भूतस्य--ब्राह्मण कुल में उत्पन्न स्वरूपसिद्ध व्यक्ति; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; ब्रह-ऋषि-सुतस्य--ब्रह्म-ऋषि के पुत्र का;निर्वरस्थ--वैरविहीन का; सर्व-भूत-सुहृद:ः--सबों का शुभचिन्तक; सूनायाम्‌ू--अन्तिम क्षण में; अपि--यद्यपि; अननुमतम्‌--अविहित; आलम्भनम्‌--ई श्रर की इच्छा के विपरीत; तत्‌--वह; उपलभ्य--देखकर; ब्रह्म-तेजसा--दिव्य आनन्द के तेज से;अति-दुर्विषहेण-- अत्यन्त प्रखर अतः असहा; दन्दह्ममानेन--ज्वलित; वपुषा--शरीर से; सहसा--एकाएक; उच्चचाट--मूर्तिको विदीर्ण करके ; सा--वह ( देवी ); एब--निस्संदेह; देवी--देवी; भद्र-काली-- भद्रकाली ।

    जिन चोर-उचक्ों ने देवी काली के पूजन का प्रबन्ध कर रखा था वे अत्यन्त नीच थे औररजो तथा तमो गुणों से आबद्ध थे।

    वे धनवान बनने की कामना से ओतप्रोत थे, अतः उन्होंनेवेदों के आदेशों का तिरस्कार किया।

    यहाँ तक कि वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न स्वरूपसिद्धजीवात्मा जड़ भरत का वध करने के लिए उद्यत थे।

    द्वेषवश वे उन्हें देवी काली के समक्ष बलिचढ़ाने के लिए लाये थे।

    ऐसे व्यक्ति सदैव ईर्ष्यालु कार्यो में रत रहते हैं, इसीलिए वे जड़ भरत को मारने का दुस्साहस कर सके।

    जड़ भरत समस्त जीवों के परम मित्र थे।

    वे किसी के भी शत्रुन थे और सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के ध्यान में मग्न रहते थे।

    उनका जन्म उत्तम ब्राह्मणकुल में हुआ था, अतः यदि वे किसी के शत्रु होते अथवा आक्रामक होते तो भी उनका वधवर्जित था।

    किसी भी दशा में जड़ भरत को वध किये जाने का कोई औचित्य न था, अतः यहभद्रकाली से सहन नहीं हो सका।

    वे तुरन्त समझ गईं कि ये पापी डाकू ईश्वर के एक परम भक्तका वध करने वाले हैं।

    अतः सहसा मूर्ति का शरीर विदीर्ण हो गया और साक्षात्‌ देवी कालीप्रकट हुईं।

    उनका शरीर प्रखर एवं असह्य तेज से जल रहा था।

    भृशममर्षरोषावेशरभसविलसितश्रुकुटिविटपकुटिलदंष्टारुणेक्षणाटोपातिभयानकव दना हन्तुकामेवेदंमहाटहासमतिसंरम्भेण विमुझ्जन्ती तत उत्पत्य पापीयसां दुष्टानां तेनेवासिना विवृक्णशीर्ष्णागलात्सवन्तमसृगासवमत्युष्णं सह गणेन निपीयातिपानमदविहलोच्चैस्तरां स्वपार्षदै: सह जगौ ननर्त चविजहार च शिरःकन्दुकलीलया, ॥

    १८॥

    भूशम्‌--अत्यधिक; अमर्ष--पापों के कारण अत्यन्त असहनशीलता; रोष--क्रोध; आवेश--डूबे रहने से; रभस-विलसित--चढ़ी हुई; भ्रु-कुटि-- भौंहें; विटप--शाखाएँ; कुटिल--टेढ़ी; दंष्ट--बड़े दाँत ( दाढ़ें )) अरूण-ईक्षण--लाल लाल नेत्र;आटोप--विक्षोभ से; अति--अत्यधिक; भयानक--डरावना; वदना--मुख वाली; हन्तु-कामा--संहार करने की इच्छुक;इब--मानो; इृदम्‌--यह ब्रह्माण्ड; महा-अट्ट-हासम्‌ू--अत्यन्त डरावनी हँसी; अति--अत्यधिक; संरम्भेण--क्रो ध के कारण;विमुश्जन्ती --छोड़ती हुई; ततः--उस बलि बेदी से; उत्पत्य--उछल कर; पापीयसाम्‌ू--समस्त पापी; दुष्टानाम्‌--दुष्टों का; तेनएवं असिना--उसी तलवार से; विवृकण--छितन्न; शीर्ष्णामू--सिर; गलातू्‌-गर्दन से; स्त्रवन्तम्‌--बहते हुए; असृक्‌ू-आसवम्‌--रक्त रूपी मादक द्रव ( आसव ); अति-उष्णम्‌-- अत्यन्त गरम; सह--समेत; गणेन--अपने गणों के; निपीय--पीते हुए; अति-'पान--अत्यधिक पीने से; मद--नशे के; विहला--वश में आये हुए; उच्चैः-तराम्‌-- अत्यन्त उच्च स्वर से; स्व-पार्षदैः--अपनेगणों के; सह--साथ; जगौ--गाया; ननर्त--नाचा; च-- भी; विजहार--खेल किया; च--भी; शिर:-कन्दुक--सिरों को गेंदके समान प्रयुक्त करते हुए; लीलया--खेल में |

    किए गये अत्याचारों को न सहन कर सकने के कारण क्रुद्ध देवी काली ने अपनी आँखेंचमकायी और उनके कराल वक्र दाँत ( दाढ़ें ) दिखाए।

    उनकी लाल-लाल आँखें दहकने लगींऔर उनकी आकृति डरावनी हो गई।

    उन्होंने अत्यन्त भयावना रूप धारण कर लिया मानो समस्तसृष्टि का संहार करने को उद्यत हों।

    वे बलिवेदी से तेजी से कूदीं और तुरन्त ही उन चोर-उचक्ोंके सिर उसी तलवार से काट लिये जिससे वे जड़ भरत का वध करने जा रहे थे।

    फिर छिन्न सिरोंवाले उन उच्चकों-चोरों के गले से निकलने वाले तप्त रक्त को पीने लगीं मानो मदिरा ( आसव )पान कर रही हों।

    दरअसल उन्होंने अपने गणों के सहित, जिनमें डाइनें तथा चुड़ैलें थीं, उसआसव का पान किया और फिर प्रमत्त होकर वे सब उच्च स्वर से गाने तथा नाचने लगीं मानोसमस्त ब्रह्माण्ड का संहार कर डालेंगी।

    उसी समय वे उनके सिरों को गेंद के समान उछाल-उछाल कर खेलने लगीं।

    एवमेव खलु महदभिचारातिक्रमः कार्त्स्येनात्मने फलति ॥

    १९॥

    एवम्‌ एव--इस प्रकार; खलु--निस्संदेह; महत्‌--महापुरुषों के साथ; अभिचार--ईर्ष्या के रूप में; अति-क्रम:--अपराध कीसीमा; कार्त्स्येन--सदैव; आत्मने--अपने ही ऊपर; फलति--प्रतिफलित होता है, पड़ता है।

    जब कोई ईर्ष्यालु व्यक्ति किसी महापुरुष के समक्ष कोई अपराध करता है, तो उसे सदैवउपर्युक्त विधि से दंडित होना पड़ता है।

    न वा एतद्विष्णुदत्त महदद्भुतं यदसम्भ्रम: स्वशिरए्छेदन आपतितेडपिविमुक्तदेहाद्यात्मभावसुदृढहदय ग्रन्थीनां सर्वसत्त्वसुहृदात्मनां निर्वराणांसाक्षाद्धशवतानिमिषारिवरायुधेना प्रमत्तेन तैस्तैर्भावै: परिरक्ष्यमाणानां तत्पादमूलमकुतश्रिद्धयमुपसूतानांभागवतपरमहंसानाम्‌ ॥

    २०॥

    न--नहीं; वा--अथवा; एतत्‌--यह; विष्णु-दत्त--हे भगवान्‌ विष्णु द्वारा रक्षित, महाराज परीक्षित; महत्‌--महान; अद्भुतम्‌--आश्चर्य; यत्‌ू--जो; असम्भ्रम: --व्याकुलता का अभाव; स्व-शिरः-छेदने-- अपना सिर काटे जाते समय; आपतिते--आ पड़नेपर; अपि--यद्यपि; विमुक्त--पूर्णतया मुक्त; देह-आदि-आत्म-भाव--जीवन का मिथ्या देहात्म भाव; सु-हृढ--सुदृढ़; हृदय-ग्रन्थीनामू--हृदय-ग्रन्थि वालों का; सर्व-सत्त्व-सुहृत्‌-आत्मनाम्‌--अपने मन में सबों का कल्याण चाहने वाले व्यक्तियों का;निर्वरणाम्‌--जिनके एक भी शत्रु नहीं हैं, उनका; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; भगवता-- श्री भगवान्‌ द्वारा; अनिमिष--तत्काल; अरि-वर-शम्त्रों में श्रेष्ठ सुदर्शन चक्र; आयुधेन--आयुधधारी द्वारा; अप्रमत्तेन--कभी क्षुब्ध न होने वाला; तैः तैः--उन उन;भावै:-- श्री भगवान्‌ के रूपों से; परिरक्ष्यमाणानाम्‌--रक्षित पुरुषों का; तत्‌-पाद-मूलम्‌-- श्रीभगवान्‌ के चरणकमल में;अकुतश्चितू--कहीं से भी नहीं; भयम्‌--डर, भय; उपसृतानाम्‌--शरणागतों का; भागवत--ई श्वर के भक्तों का; परम-हंसानामू--परमहंसों का, मुक्त पुरुषों का।

    तब शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा--हे विष्णुदत्त, आत्मा को शरीर सेपृथक्‌ मानने वाले, अजेय हृदय-ग्रंथि से मुक्त, समस्त जीवों के कल्याण कार्य में निरन्तरअनुरक्त तथा दूसरों का अहित न सोचने वाले व्यक्ति चक्रधारी तथा असुरों के लिए परम कालएवं भक्तों के रक्षक श्रीभगवान्‌ द्वारा सदैव संरक्षित होते हैं।

    भक्त सदैव भगवान्‌ के चरणकमलकी शरण ग्रहण करते हैं।

    फलत: सिर कटने का अवसर आने पर भी वे सदैव अश्षुब्ध रहते हैं।

    यह उनके लिए तनिक भी विस्मयकारी नहीं होता है।

    TO

    अध्याय दस: जड़ भरत और महाराज राहुगण के बीच चर्चा

    5.10श्रीशुक उवाचअथ सिन्धुसौवीरपते रहूगणस्य ब्रजत इश्लुमत्यास्तटे तत्कुलपतिनाशिबिकावाहपुरुषान्वेषणसमयेदैवेनोपसादित: स द्विजवर उपलब्ध एष पीवा युवा संहननाड़ुं गोखरवद्भुरं वोढुमलमिति पूर्व॑विष्टिगृहीतैःसह गृहीतः प्रसभमतदर्ह उवाह शिबिकां स महानुभावः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी बोले; अथ--इस प्रकार; सिन्धु-सौबीर-पते: --सिंधु तथा सौवीर राज्यों के शासक के;रहू-गणस्य--रहूगण नामक राजा के; ब्रजतः--( कपिल के आश्रम ) जाते हुए; इक्षु-मत्या: तटे--इक्षुमती के तट पर; ततू-कुल-पतिना--पालकी ढोने वालों के सरदार द्वारा; शिबिका-वाह--पालकीवाहक बनने के लिए; पुरुष-अन्वेषण-समये--आदमी की खोज करते हुए; दैवेन-- भाग्य से; उपसादित:--पास गये हुए; सः--वह; द्विज-वरः--ब्राह्मण पुत्र, जड़ भरत;उपलब्ध: --प्राप्त; एष:--यह पुरुष; पीवा--अत्यधिक बलिष्ठ; युवा--तरूण; संहनन-अड्डभ --सुगठित अंगों वाला; गो-खर-बत्‌--बैल या गधे के समान; धुरम्‌-- भार, बोझा; वोढुम्--ले जाने के लिए; अलम्‌--समर्थ; इति--इस प्रकार सोचते हुए;पूर्व-विष्टि-गृहीतैः--बलपूर्वक काम कराये जाने वाले, बेगारी में पकड़े गये; सह--साथ; गृहीत:--पकड़ा जाकर; प्रसभम्‌--बलपूर्वक; अ-तत्‌-अर्ह:--पालकी ढोने के अयोग्य होते हुए भी; उबाह--ढोता था; शिबिकामू--पालकी; सः--वह; महा-अनुभाव:--महापुरुष |

    शुकदेव गोस्वामी आगे बोले, हे राजन, इसके बाद सिंधु तथा सौवीर प्रदेशों का शासकरहूगण कपिलाश्रम जा रहा था।

    जब राजा के मुख्य कहार ( पालकीवाहक ) इश्लुमती के तट परपहुँचे तो उन्हें एक और कहार की आवश्यकता हुईं।

    अतः वे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज करनेलगे और दैववश उन्हें जड़ भरत मिल गया।

    उन्होंने सोचा कि यह तरुण और बलिष्ठ है औरइसके अंग-प्रत्यंग सुदृढ़ हैं।

    यह बैलों तथा गधों के तुल्य बोझा ढोने के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।

    ऐसा सोचते हुए यद्यपि महात्मा जड़ भरत ऐसे कार्य के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थे तो भी कहारोंने बिना झिझक के पालकी ढोने के लिए उन्हें बाध्य कर दिया।

    यदा हि द्विजवरस्येषुमात्रावलोकानुगतेर्न समाहिता पुरुषगतिस्तदा विषमगतां स्वशिबिकां रहूगण उपधार्यपुरुषानधिवहत आह हे वोढारः साध्वतिक्रमत किमिति विषममुहाते यानमिति ॥

    २॥

    यदा--जब; हि--निश्चय ही; द्विज-वरस्थय--जड़ भरत का; इषु-मात्र--एक बाण आगे तक ( ३ फुट ); अवलोक-अनुगते: --देखकर ही चलने से; न समाहिता--मेल न खाता हुआ; पुरुष-गतिः --कहारों की चाल; तदा--उस समय; विषम-गताम्‌--असन्तुलित होने पर; स्व-शिबिकाम्‌--अपनी पालकी को; रहूगण: --राजा रहूगण ने; उपधार्य--समझ कर; पुरुषान्‌ू--पुरुषोंसे; अधिवहतः--पालकी ले जाने वाले; आह--कहा; हे --ेरे; वोढार: --कहारो; साधु अतिक्रमत--एक बराबर चलो जिससेउछाल न हो; किम्‌ इति--किस कारण; विषमम्‌--असंतुलित, ऊँची-नीची; उह्नते--ले जाई जा रही है; यानमू--पालकी;इति--इस प्रकार।

    किन्तु अपने अहिंसक भाव के कारण जड़ भरत पालकी को ठीक से नहीं ले जा रहे थे।

    जैसे ही वे आगे बढ़ते, हर तीन फुट पहले वे यह देखने के लिए रुक जाते कि कहीं कोई चींटीपर पांव तो नहीं पड़ रहा है।

    फलतः वे अन्य कहारों से ताल-मेल नहीं बैठा पा रहे थे।

    इसके कारण पालकी हिल रही थी।

    अतः राजा रहूगण ने तुरन्त कहारों से पूछा, 'तुम लोग इसपालकी को ऊँची-नीची करके क्‍यों लिए जा रहे हो ? अच्छा हो, यदि उसे ठीक से ले चलो।

    'अथ त ईश्वरवच: सोपालम्भमुपाकर्ण्योपायतुरीयाच्छड्लितमनसस्तं विज्ञापयां बभूवु:, ॥

    ३॥

    अथ--इस प्रकार; ते--वे ( कहार ); ईश्वर-वच:--अपने स्वामी राजा रहूगण के शब्द; स-उपालम्भम्‌--उलाहनापूर्वक;उपाकर्ण्य --सुनकर; उपाय--साधन; तुरीयात्‌--चौथे से; शद्धित-मनस:ः--सशंकित मन वाले; तम्‌ू--उसको (राजा को );विज्ञापयाम्‌ बभूवु:--सूचित किया।

    जब कहारों ने महाराजा रहूगण की धमकी सुनी तो वे उसके दण्ड से अत्यन्त भयभीत होगये और उनसे इस प्रकार कहने लगे।

    न वयं नरदेव प्रमत्ता भवन्नियमानुपथा: साध्वेव वहाम: अयमधुनैव नियुक्तोपि न द्वुतं त्रजति नानेन सहवोढुमु ह बयं पारयाम इति ॥

    ४॥

    न--नहीं; वयम्‌--हम सब; नर-देव--हे मनुष्यों में ईश्वर तुल्य ( राजा को देव अर्थात्‌ श्रीभगवान्‌ का प्रतिनिधि माना जाता है );प्रमत्ता:--कार्य के प्रति असावधान; भवत्‌-नियम-अनुपथा:--सदैव आपके आज्ञाकारी हैं; साधु--ठीक से; एव--निश्चय ही;वहामः--ले जा रहे हैं; अयम्‌--यह मनुष्य; अधुना--नया; एव--निस्संदेह; नियुक्त:--लगाया गया; अपि--यद्यपि; न--नहीं;ब्रुतम्‌ू-शीघ्रता से; ब्रजति--चलता है, काम करता है; न--नहीं; अनेन--इसके; सह--साथ; बोढुम्‌--ढोने में; उह-- ओह;वयम्‌--हम सभी; पारयाम:ः --समर्थ हैं; इति--इस प्रकारहे स्वामी, कृपया ध्यान दें कि हम अपना कार्य करने में तनिक भी असावधान नहीं हैं।

    हमइस पालकी को आपको इच्छानुसार निष्ठा से ले जा रहे हैं, किन्तु यह व्यक्ति, जिसे हाल ही मेंकाम में लगाया गया है, तेजी से नहीं चल पा रहा।

    अत: हम उसके साथ पालकी ले जाने मेंअसमर्थ हैं।

    सांसर्गिको दोष एव नूनमेकस्यापि सर्वेषां सांसर्गिकाणां भवितुमईतीति निश्चित्य निशम्य कृपणवचोराजा रहूगण उपासितवृद्धोपि निसर्गेण बलात्कृत ईंषदुत्थितमन्युरविस्पष्टब्रह्मतजसं जातवेदसमिवरजसावृतमतिराह ॥

    ५॥

    सांसर्गिक:--संसर्ग से उत्पन्न; दोष:--अवगुण, त्रुटि; एब--निस्संदेह; नूनम्‌--निश्चय ही; एकस्य--एक व्यक्ति का; अपि--यद्यपि; सर्वेषाम्‌-- अन्य सभी; सांसर्गिकाणाम्‌--उसके संसर्ग में आने वाले व्यक्तियों का; भवितुम्‌--होना; अर्हति--सम्भव है;इति--इस प्रकार; निश्चित्य--निश्चय करके ; निशम्य--सुनकर; कृपण-वच: --दण्ड-भय से भयभीत दीन सेवकों के वचन;राजा--राजा; रहूगण: --रहूगण ने; उपासित-वृद्ध:--अनेक महापुरुषों का उपेदश सुना तथा उनकी सेवा किया हुआ; अपि--तो भी; निसर्गेण--अपने स्वभाव से, जो क्षत्रिय का था; बलात्‌ू--बलपूर्वक; कृत:--किया हुआ; ईषत्‌--कुछ-कुछ;उत्थित--जागृत; मन्यु:--क्रोध; अविस्पष्ट--ठीक से दृष्टिगोचर न होने वाला, अस्पष्ट; ब्रह्य-तेजसम्‌--उस ( जड़ भरत ) का ब्रह्मतेज; जात-वेदसम्‌--वैदिक अनुष्ठानों में भस्म से ढकी हुई अग्नि; इब--के समान; रजसा आवृत--रजोगुण से ढकी हुई;मतिः--जिसकी बुद्धि; आह--कहा।

    राजा रहूगण दण्ड से भयभीत कहारों के वचन का अभिप्राय समझ रहा था।

    उसकी समझमें यह भी आ गया कि मात्र एक व्यक्ति के दोष के कारण पालकी ठीक से नहीं चल रही।

    यहसब अच्छी प्रकार जानते हुए तथा उनकी विनती सुनकर वह कुछ-कुछ क्रुद्ध हुआ, यद्यपि वहराजनीति में निपुण एवं अत्यन्त अनुभवी था।

    उसका यह क्रोध राजा के जन्मजात स्वभाव सेउत्पन्न हुआ था।

    वस्तुतः राजा रहूगण का मन रजोगुण से आवृत था, अतः वह जड़ भरत से,जिनका ब्रह्मतेज राख से ढकी अग्नि के समान सुस्पष्ट नहीं था, इस प्रकार बोला।

    अहो कष्ट भ्रातर्व्यक्तमुरुपरिश्रान्तो दीर्घमध्वानमेक एवं ऊहिवान्सुचिरं नातिपीवा न संहननाड़ों जरसाचोपद्गुतो भवान्सखे नो एवापर एते सट्डृट्टिन इति बहुविप्रलब्धोप्यविद्ययारचितद्र॒व्यगुणकर्माशयस्वचरमकलेवरेवस्तुनि संस्थानविशेषेहं ममेत्यनध्यारोपितमिथ्याप्रत्ययोब्रह्मभूतस्तूष्णीं शिबिकां पूर्ववदुवाह, ॥

    ६॥

    अहो--ओह; कष्टमू--कितना कष्टप्रद है यह; भ्रातः--मेरे भाई; व्यक्तम्‌ू--स्पष्ट; उरू--अत्यन्त; परिश्रान्तः--थके हुए;दीर्घमू--लम्बा; अध्वानम्‌-मार्ग; एक:--अकेले; एव--ही; ऊहिवान्‌--ढोते हुए; सु-चिरम्‌--दीर्घ काल तक; न--नहीं;अति-पीवा--अत्यन्त हट्टा कट्टा; न--नहीं; संहनन-अड्रः --सुगठित शरीर; जरसा--बुढ़ापे से; च--भी; उपद्गुत:--विचलित,दबाया हुया; भवान्‌--आप; सखे-मेरे मित्र; नो एब--निश्चय ही नहीं; अपरे--दूसरे; एते--ये सब; सट्डट्टिन:--सह-कर्मी ;इति--इस प्रकार; बहु--अत्यधिक; विप्रलब्ध:--ताना मारे जाने पर; अपि--यद्यपि; अविद्यया--अज्ञान से; रचित--रचा हुआ;द्र॒व्य-गुण-कर्म-आशय--भौतिक तत्त्वों, गुणों तथा कर्मफल एवं आकांक्षाओं के मिश्रण में; स्व-चरम-कलेवरे--शरीर में, जोसूक्ष्म तत्त्वों ( मन, बुद्धि तथा अहं ) से चालित है; अवस्तुनि--ऐसी भौतिक वस्तुओं में; संस्थान-विशेषे--विशेष मनोवृत्तिवाला; अहम्‌ मम--मैं तथा मेरा; इति--इस प्रकार; अनध्यारोपित--ऊपर से थोपा नहीं; मिथ्या--झूठा; प्रत्ययः--विश्वास;ब्रह्म-भूत:--स्वरूप-सिद्ध, ब्रह्म पद को प्राप्त; तृष्णीमू--चुप रहकर; शिविकाम्‌--पालकी; पूर्ब-बत्‌--पहले की तरह;उबाह--ले गया।

    राजा रहूगण ने जड़ भरत से कहा : मेरे भाई, यह कितना कष्टप्रद है! तुम निश्चित ही अत्यन्तथके लग रहे हो, क्योंकि तुम बहुत समय से और लम्बी दूरी से किसी की सहायता के बिनाअकेले ही पालकी ला रहे हो।

    इसके अतिरिक्त, बुढ़ापे के कारण तुम अत्यधिक परेशान हो।

    हेमित्र, मैं देख रहा हूँ कि तुम न तो मोटे-ताजे हो, न ही हट्टे-कट्टे हो।

    क्या तुम्हारे साथ के कहारतुम्हें सहयोग नहीं दे रहे ?इस प्रकार राजा ने जड़ भरत को ताना मारा, किन्तु इतने पर भी जड़ भरत को शरीर कीसुधि नहीं थी।

    उसे ज्ञान था कि वह शरीर नहीं है, क्योंकि वह स्वरूपसिद्ध हो चुका था।

    वह नतो मोटा था, न पतला, न ही उसे पंच स्थूल भूतों तथा तीन सूक्ष्म तत्त्वों के इस स्थूल पदार्थ सेकुछ लेना-देना था।

    उसे भौतिक शरीर तथा इसके दो हाथों तथा दो पैरों से कोई सरोकार न था।

    दूसरे शब्दों में, कहना चाहें तो कह सकते हैं कि वह ' अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात्‌ ब्रह्म रूप को प्राप्तहो चुका था।

    अतः राजा की व्यंग्य पूर्ण आलोचना का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

    वह बिनाकुछ कहे पूर्ववत्‌ पालकी को उठाये चलता रहा।

    अथ पुनः स्वशिबिकायां विषमगतायां प्रकुपित उबाच रहूगण: किमिदमरे त्वं जीवन्मृतो मां कदर्थीकृत्यभर्तुशासनमतिचरसि प्रमत्तस्य च ते करोमि चिकित्सां दण्डपाणिरिव जनताया यथा प्रकृति स्वांभजिष्यस इति ॥

    ७॥

    अथ--तदनन्तर; पुनः --फिर से; स्व-शिबिकायाम्‌--अपनी पालकी में; विषम-गतायाम्‌--जड़ भरत के ठीक से न चलने केकारण ऊँची-नीची होने से; प्रकुपित:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; उबाच--कहा; रहूगण: --राजा रहूगण ने; किम्‌ इदमू--यह क्याहो रहा है; ओरे--हे मूर्ख ; त्वम्‌--तुम ( तू ); जीवत्‌ू--जिन्दा; मृत:--मरा हुआ; मामू--मुझको; कत्‌-अर्थी-कृत्य-- उपेक्षाकरके; भर्तू-शासनम्‌--स्वामी का निरादर; अतिचरसि--उल्लंघन कर रहे हो; प्रमत्तस्य--पागल का; च-- भी; ते--तुम;'करोमि--करूँगा; चिकित्सामू--समुचित उपचार; दण्ड-पाणि: इब--यमराज के समान; जनताया: --सामान्य लोगों की;यथा--जिससे; प्रकृतिमू--स्वाभाविक स्थिति; स्वामू--स्वतः; भजिष्यसे--ग्रहण करोगे; इति--इस प्रकार।

    तत्पश्चात्‌, जब राजा ने देखा कि उसकी पालकी अब भी पूर्ववत्‌ हिल रही थी, तो वहअत्यन्त क्रुद्ध हुआ और कहने लगा--ेओरे दुष्ट ! तू क्या कर रहा है? क्‍या तू जीवित ही मर गयाहै? कया तू नहीं जानता कि मैं तेरा स्वामी हूँ? तू मेरा अनादर कर रहा है और मेरी आज्ञा काउल्लंघन भी।

    इस अवज्ञा के लिए मैं अब तुझे मृत्यु के अधीक्षक यमराज के ही समान दण्डदूँगा।

    मैं तेरा सही उपचार किये देता हूँ, जिससे तू होश में आ जाएगा और ठीक से काम करेगा।

    एवं बह्बद्धमपि भाषमाणं नरदेवाभिमानं रजसा तमसानुविद्धेन मदेन तिरस्कृताशेष भगवत्तप्रियनिकेत॑'पण्डितमानिनं स भगवान्ब्राह्मणो ब्रह्म भूतसर्वभूतसुहृदात्मा योगे श्वरचर्यायां नातिव्युत्पन्नमतिं स्मथमान इबविगतस्मय इृदमाह ॥

    ८॥

    एवम्‌--इस प्रकार; बहु--अधिक; अबद्धम्‌--अनाप-शनाप; अपि--यद्यपि; भाषमाणम्‌--बोलता हुआ; नर-देव-अभिमानम्‌--राजा रहूगण, जो अपने को शासक मानता था; रजसा--रजोगुण से; तमसा--तथा तमोगुण से; अनुविद्धेन--बढ़ते हुए; मदेन--दम्भ ( पागलपन ) से; तिरस्कृत-- डाँटा जाकर; अशेष--असंख्य; भगवत्-प्रिय-निकेतम्--ईश्वर के भक्त;'पण्डित-मानिनम्‌ू--अपने को अत्यन्त पंडित मानते हुए; सः--वह; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिमान ( जड़ भरत ); ब्राह्मण: --परमयोग्य ब्राह्मण; ब्रह्म-भूत--स्वरूपसिद्ध; सर्व-भूत-सुहृत्‌-आत्मा--जो समस्त प्राणियों का मित्र है; योग-ईश्वर--सिद्ध योगियोंके; चर्यायाम्‌ू--आचरण में; न अति-व्युत्पन्न-मतिम्‌--राजा रहूगण को, जो वस्तुतः अनुभवी न था; स्मयमान:--कुछ-कुछमुस्काते हुए; इब--सहृश; विगत-स्मय:--समस्त मिथ्या अभिमान से रहित; इृदमू--यह; आह--कहा ?

    राजा रहूगण अपने को राजा समझने के कारण देहात्मबुद्धि से ग्रस्त था और भौतिक प्रकृतिके रजो तथा तमो गुणों से प्रभावित था।

    दम्भ के कारण उसने जड़ भरत को अशोभनीय वचनोंसे दुत्कारा।

    जड़ भरत महान्‌ भक्त और श्रीभगवान्‌ के प्रिय धाम थे।

    यद्यपि राजा अपने आपको बड़ा विद्वान मानता था, किन्तु वह न तो महान्‌ भक्त की स्थिति से और न उसके गुणों से परिचितथा।

    जड़ भरत तो साक्षात्‌ भगवान्‌ के परम धाम थे और अपने हृदय में ईश्वर के स्वरूप कोधारण करते थे।

    वे समस्त प्राणियों के प्रिय मित्र थे और किसी प्रकार की देहात्म-बुद्धि को नहींमानते थे।

    अतः वे मुस्काये और इस प्रकार बोले।

    ब्राह्मण उवाचत्वयोदितं व्यक्तमविप्रलब्धंभर्तुः स मे स्याद्यदि वीर भार: ।

    गन्तुर्यदि स्थादधिगम्यमध्वापीवेति राशौ न विदां प्रवाद: ॥

    ९॥

    ब्राह्मण: उवाच--योग्य ब्राह्मण ( जड़ भरत ) बोला; त्वया--तुम्हारे द्वारा; उदितम्‌--कहा गया; व्यक्तम्‌--अत्यन्त स्पष्ट;अविप्रलब्धम्‌--विरोधाभास रहित; भर्तुः--ढोने वाले का, शरीर; सः--वह; मे--मेरा; स्थात्‌ू--ऐसा होता; यदि--यदि; वीर--हे वीर पुरुष ( महाराज रहूगण ); भार:-- भार, बोझा; गन्तुः--चलने वाले का, अथवा शरीर; यदि--अगर; स्यात्‌--होना था;अधिगम्यम्‌--लक्ष्य; अध्वा--पथ; पीवा--अत्यन्त हृष्ट-पुष्ठ; इति--इस प्रकार; राशौ--शरीर में; न--नहीं; विदाम्‌ू--स्वरूपसिद्ध पुरुषों का; प्रवाद:--वाद-विवाद का विषय |

    महान्‌ ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा--हे राजन्‌ तथा वीर, आपने जो कुछ व्यंग्य में कहा है, वहसचमुच ठीक है।

    ये मात्र उलाहनापूर्ण शब्द नहीं हैं, क्योंकि शरीर तो वाहक ( ढोने वाला ) है।

    शरीर द्वारा ढोया जाने वाला भार मेरा नहीं है, क्योंकि मैं तो आत्मा हूँ।

    आपके कथनों में तनिक भी विरोधाभास नहीं है, क्योंकि मैं शरीर से भिन्न हूँ।

    मैं पालकी का ढोने वाला नहीं हूँ, वह तोशरीर है।

    निस्सन्देह, जैसा आपने संकेत किया है, पालकी ढोने में मैंने कोई श्रम नहीं किया है,क्योंकि मैं तो शरीर से पृथक्‌ हूँ।

    आपने कहा कि मैं हष्ट-पुष्ट नहीं हूँ।

    ये शब्द उस व्यक्ति केसर्वथा अनुरूप हैं, जो शरीर तथा आत्मा का अन्तर नहीं जानता।

    शरीर मोटा या दुबला होसकता है, किन्तु कोई भी बुद्धिमान यह बात आत्मा के लिए नहीं कहेगा।

    जहाँ तक आत्मा काप्रश्न है मैं न तो मोटा हूँ न दुबला।

    अतः जब आप कहते हैं कि मैं हष्ट-पुष्ट नहीं हूँ तो आप सहीहैं और यदि इस यात्रा का बोझ तथा वहाँ तक जाने का मार्ग मेरे अपने होते तो मेरे लिए अनेककठिनाइयाँ होतीं, किन्तु इनका सम्बन्ध मुझसे नहीं मेरे शरीर से है, अतः मुझे कोई कष्ट नहीं है।

    स्थौल्यं कार्य व्याधय आधयश्चक्षुत्तृड्भयं कलिरिच्छा जरा च ।

    निद्रा रतिर्मन्युरहं मदः शुच्चोदेहेन जातस्य हि मे न सन्ति ॥

    १०॥

    स्थौल्यम्‌--स्थूलता, मोटापा; कार्श्यम्‌--कृशता, दुबलापन; व्याधय:--शरीर के कष्ट यथा रोग; आधय:--मानसिक कष्ट;च--तथा; क्षुत्‌ तूटू भयम्‌ू-- भूख, प्यास तथा भय; कलिः--कलह, दो व्यक्तियों के बीच झगड़ा; इच्छा--कामनाएँ; जरा--वृद्धावस्था; च--तथा; निद्रा--नींद; रति:--इन्द्रियतृप्ति के लिए आसक्ति; मन्यु:--क्रोध; अहम्‌--झूठी पहचान ( देहात्मबोध ); मदः --मोह; शुच्च: --शोक; देहेन--इस शरीर से; जातस्य--उत्पन्न हुए का; हि--निश्चय ही; मे--मुझमें; न--नहीं;सन्ति--हैं।

    मोटापा, दुबलापन शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, भूख, प्यास, भय, कलह, भौतिक सुखकी कामना, बुढ़ापा, निद्रा, भौतिक पदार्थों में आसक्ति, क्रोध, शोक, मोह तथा देहाभिमान--येसभी आत्मा के भौतिक आवरण के रूपान्तर हैं।

    जो व्यक्ति देहात्मबुद्धि में लीन रहता है, वही इनसे प्रभावित होता है, किन्तु मैं तो समस्त प्रकार की देहात्मबुद्धि से मुक्त हूँ।

    फलतः मैं न तोमोटा हूँ, न पतला, न ही वह सब जो आपने मेरे सम्बन्ध में कहा है।

    जीवन्यृतत्वं नियमेन राजन्‌आइ्वन्तवद्यद्विकृतस्य दृष्टम्‌ ।

    स्वस्वाम्यभावो श्लुव ईड्य यत्रतहा[॑च्यतेउसौ विधिकृत्ययोग: ॥

    ११॥

    जीवतू-मृतत्वम्‌--जीवित रहकर भी मृत होने का गुण; नियमेन--प्रकृति के नियमों द्वारा; राजनू--हे राजा; आदि-अन्त-वत्‌--प्रत्येक पदार्थ का आदि और अन्त होता है; यत्‌--क्योंकि; विकृतस्थ--विकारी वस्तु का, यथा शरीर का; दृष्टमू--देखी जातीहै; स्व-स्वाम्य-भाव:--सेवक तथा स्वामी का भाव; श्रुवः--अपरिवर्तनीय, स्थिर; ईंड्य--हे पूज्य; यत्र--जहाँ; तहिं--तभी;उच्यते--यह कहा जाता है; असौ--वह; विधि-कृत्य-योग:--आज्ञा तथा कर्तव्य का संयोग।

    हे राजनू, आपने वृथा ही मुझ पर जीवित होने पर भी मृततुल्य होने का आरोप लगाया है।

    इस भौतिक सम्बन्ध में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि ऐसा सर्वत्र है, क्योंकि प्रत्येक भौतिकवस्तु का अपना आदि तथा अन्त होता है।

    आपका यह सोचना कि, 'मैं राजा तथा स्वामी हूँ!और इस प्रकार आप द्वारा मुझे आज्ञा दिया जाना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि ये पद अस्थायी हैं।

    आज आप राजा हैं और मैं आपका दास हूँ, किन्तु कल स्थिति बदल सकती है और आप मेरेदास हो सकते हैं, मैं आपका स्वामी।

    ये नियति द्वारा उत्पन्न अस्थायी परिस्थितियाँ हैं।

    विशेषबुद्धेर्विवर मनाक्नपश्याम यन्न व्यवहारतोउन्यत्‌ ।

    'क ईश्वरस्तत्र किमीशितव्यंतथापि राजन्करवाम कि ते ॥

    १२॥

    विशेष-बुद्धेः --स्वामी तथा सेवक के भेद की बुद्धि का; विवरमू--क्षेत्र, प्रसार; मनाक्‌ू --किंचित; च-- भी; पश्याम:--मैंदेखता हूँ; यत्‌--जो; न--नहीं; व्यवहारत:--व्यवहार के सिवा; अन्यत्‌-- अन्य; कः--कौन; ईश्वर: -- स्वामी; तत्र--इसमें;किमू--कौन; ईशितव्यम्‌ू--वश में किया जाये; तथापि--तो भी; राजनू--हे राजा; करवाम--मैं करूँ; किमू-- क्या; ते--तुम्हारे लिए?

    हे राजन, यदि आप अब भी यह सोचते हैं कि आप राजा हैं और मैं आपका दास, तो आपआज्ञा दें और मुझे आपकी आज्ञा का पालन करना होगा।

    तो मैं यह कह सकता हूँ कि यह अन्तरक्षणिक है और व्यवहार या परम्परावश प्राप्त होता है।

    मुझे इसका अन्य कारण नहीं दिखाईपड़ता।

    उस दशा में कौन स्वामी है और कौन दास ? प्रत्येक प्राणी प्रकृति के नियमों द्वारा प्रेरितहोता है।

    अतः न तो कोई स्वामी है, न कोई दास।

    इतने पर भी यदि आप सोचते हैं कि मैंआपका दास हूँ और आप मेरे स्वामी हैं, तो मैं इसे स्वीकार कर लूँगा।

    कृपया आज्ञा दें।

    मैं आपकी कया सेवा करूँ ?

    उन्मत्तमत्तजडवत्स्वसंस्थांगतस्य मे वीर चिकित्सितेन ।

    अर्थ: कियान्भवता शिक्षितेनस्तब्धप्रमत्तस्य च पिष्टपेष: ॥

    १३॥

    उन्मत्त--पागलपन; मत्त--शराबी; जड-वत्‌--जड़ की भाँति; स्व-संस्थाम्‌--मेरी मूल स्वाभाविक स्थिति; गतस्य--प्राप्तकिया हुआ; मे-- मुझको; वीर--हे राजा; चिकित्सितेन--अपनी भर्त्सना से; अर्थ:--प्रयोजन; कियान्‌--कौन सा; भवता--आपके द्वारा; शिक्षितेन--शिक्षा दिये गए; स्तब्ध--जड़; प्रमत्तस्य--पागल मनुष्य का; च--भी; पिष्ट-पेष:-- आटा पीसनेजैसा?

    है राजन, आपने कहा 'रे दुष्ट, जड़ तथा पागल! मैं तुम्हारी चिकित्सा करने जा रहा हूँ औरतब तुम होश में आ जाओगे।

    इस सम्बन्ध में मुझे कहना है कि यद्यपि मैं जड़, गूँगे तथा बहरेमनुष्य की भाँति रहता हूँ, किन्तु मैं सचमुच एक स्वरूप-सिद्ध व्यक्ति हूँ।

    आप मुझे दण्डितकरके क्या पाएँगे ? यदि आपका अनुमान ठीक है और मैं पागल हूँ तो आपका यह दंड एक मरेहुए घोड़े को पीटने जैसा होगा।

    उससे कोई लाभ नहीं होगा।

    जब पागल को दंडित किया जाताहै, तो उसका पागलपन ठीक नहीं होता है।

    एतावदनुवादपरिभाषया प्रत्युदीर्य मुनिवर उपशमशील उपरतानात्म्यनिमित्त उपभोगेन कर्मारब्धंव्यपनयतन्राजयानमपि तथोवाह ॥

    १४॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी आगे बोले; एतावत्‌--इतना; अनुवाद-परिभाषया--राजा द्वारा कहे गये शब्दों के दोहरानेसे; प्रत्युदीर्य--एक के बाद एक उत्तर देते हुए; मुनि-वरः--मुनिश्रेष्ठ जड़ भरत; उपशम-शील:--परम शान्त; उपरत--चुप होगये; अनात्म्य-- आत्मा से सम्बन्ध न रखने वाली वस्तुएँ; निमित्त:--जिसका कारण ( अज्ञान ) जो आत्मा से सम्बन्धित नहीं हैउससे अपनी पहचान स्थापित करना; उपभोगेन--कर्मफल को अंगीकार करने से; कर्म-आरब्धम्‌--इस समय मिलने वालाकर्मफल; व्यपनयन्‌-- पूरा करते हुए; राज-यानम्‌--राजा की पालकी; अपि-- पुनः; तथा--पूर्ववत्‌; उबाह-- लेकर चलनेलगे।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे महाराज परीक्षित, जब राजा रहूगण ने परम भक्त जड़ भरतको अपने कटु बचनों से मर्माहत किया, तो उस शान्त मुनिवर ने सब कुछ सहन कर लिया औरसमुचित उत्तर दिया।

    अज्ञानता का कारण देहात्मबुद्धि है, किन्तु जड़ भरत उससे प्रभावित नहींथे।

    अपनी स्वाभाविक विनप्रता के कारण उन्होंने अपने को कभी भी महान्‌ भक्त नहीं माना औरअपने पूर्व कर्मफल को भोगना स्वीकार किया।

    सामान्य मनुष्य की भाँति उन्होंने सोचा कि वेपालकी ढोकर अपने पूर्व अपकृत्यों के फल को विनष्ट कर रहे हैं।

    ऐसा सोचकर वे पूर्ववत्‌पालकी लेकर चलने लगे।

    स चापि पाण्डवेय सिन्धुसौवीरपतिस्तत्त्वजिज्ञासायां सम्यक्श्रद्धयाधिकृताधिकारस्तद्धृदयग्रन्थिमोचनंद्विजवच आश्रुत्य बहुयोगग्रन्थसम्मतं त्वरयावरुह्म शिरसा पादमूलमुपसृतः क्षमापयन्विगतनूपदेवस्मयउबाच, ॥

    १५॥

    सः--वह ( महाराज रहूगण ); च--भी; अपि--निस्संदेह; पाण्डवेय--हे पांडुवंश के श्रेष्ठ ( महाराज परीक्षित ); सिन्धु-सौवीर-पतिः--सिंधु तथा सौवीर नामक राज्यों का राजा; तत्त्व-जिज्ञासायाम्‌--परम सत्य के सम्बन्ध में जानने की इच्छा के बारे में;सम्यक्‌-श्रद्धया--इन्द्रियों तथा मन पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाली श्रद्धा से; अधिकृत-अधिकार: --समुचित योग्यताप्राप्त;तत्‌--उस; हृदय-ग्रन्थि--हृदय के भीतर झूठे विचारों की गाँठ; मोचनम्‌--खोलने वाले; द्विज-बच:--ब्राह्मण ( जड़ भरत ) केशब्द; आश्रुत्य--सुनकर; बहु-योग-ग्रन्थ-सम्मतम्‌--समस्त योग तथा उनके ग्रन्थों द्वारा सम्मत ( समर्थित ); त्वरया--शीघ्रतापूर्वक; अवरुह्म--उतर कर ( पालकी से ); शिरसा--अपने सिर से; पाद-मूलम्‌--चरणकमल पर; उपसृत:--दण्डप्रणामकरके; क्षमापयन्‌--अपने अपराध के लिए क्षमा प्राप्त करके; विगत-नूप-देव-स्मय:--राजा होने का झूठा अभिमान तथापूज्यभाव त्याग कर; उबाच--कहा |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा-हे श्रेष्ठ पाण्डुबंशी ( महाराज परीक्षित ), सिंधु तथा सौवीरके राजा ( रहूगण ) की परम सत्य की चर्चाओं में श्रद्धा थी।

    इस प्रकार सुयोग्य होने के कारण,उसने जड़ भरत से वह दार्शनिक उपदेश सुना जिसकी संस्तुति सभी योग साधना के ग्रन्थ करतेहैं और जिससे हृदय में पड़ी गाँठ ढीली पड़ती है।

    इस प्रकार उसका राज-मद नष्ट हो गया।

    वहतुरन्त पालकी से नीचे उतर आया और जड़ भरत के चरण-कमलों में अपना सिर रखकर पृथ्वीपर दण्डवत्‌ गिर गया जिससे वह इस ब्राह्मण-श्रेष्ठ को कहे गये अपमानपूर्ण शब्दों के लिए क्षमाप्राप्त कर सके ।

    तब उसने इस प्रकार प्रार्थना की।

    कर्त्वं निगूढश्चरसि द्विजानांबिभर्षि सूत्र कतमोवधूत: ।

    कस्यासि कुत्रत्य इहापि कस्मात्‌क्षेमाय नश्लेदसि नोत शुक्ल: ॥

    १६॥

    'कः त्वमू--आप कौन हैं; निगूढ:--प्रच्छन्न; चरसि--इस संसार में विचरण कर रहे हैं; द्विजानामू--ब्राह्मणों अथवा साधु पुरुषोंमें; बिभर्षि-- आपने धारण कर रखा है; सूत्रमू--उपवीत, ब्राह्मणों द्वारा धारण किया जाने वाला जनेऊ; कतमः--कौन से;अवधूत:--अत्यन्त महान्‌ पुरुष; कस्य असि--आप किसके हैं ( किसके पुत्र या शिष्य हैं ); कुत्रत्यः--कहाँ से; इह अपि--यहाँइस स्थान पर; कस्मात्‌--किस लिए; क्षेमाय--लाभार्थ; न:--हम सबों के ; चेतू--यदि; असि--आप हैं; न उत--अथवा नहीं;शुक्ल:--विशुद्ध-सत्त्व-स्वरूप ( कपिल देव )?

    राजा रहूगण बोले, हे ब्राह्मण, आप इस जगत में अत्यन्त प्रच्छन्न भाव से तथा अज्ञात रूप सेविचरण करते प्रतीत हो रहे हैं।

    आप कौन हैं ? क्या आप विद्वान ब्राह्मण तथा साधु पुरुष हैं ?आपने जनेउ धारण कर रखा है।

    कहीं आप द्त्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई विद्वान तो नहींहैं? क्‍या मैं पूछ सकता हूँ कि आप किसके शिष्य हैं? आप कहाँ रहते हैं? आप इस स्थान परक्यों आये हैं? कहीं आप हमारे कल्याण के लिए तो यहां नहीं आये ? कृपया बतायें कि आपकौन हैं?

    नाहं विशड्ले सुरराजवज्ञा-न त्र्यक्षशूलात्र यमस्य दण्डातू ।

    नाग्न्यर्कसोमानिलवित्तपास्त्राच्‌छड्ले भूशं ब्रह्मकुलावमानात्‌ ॥

    १७॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; विशद्जे-- भयभीत हूँ; सुर-राज-वज़ात्‌--स्वर्ग के राजा इन्द्र के बज़ से; न--न तो; तयक्ष-शूलात्‌--भगवान्‌ शिव के त्रिशूल से; न--न तो; यमस्य--मृत्यु के अधीक्षक यमराज के; दण्डात्‌--दण्ड से; न--न तो; अग्नि-- अग्निके; अर्क--सूर्य के असह्य ताप के; सोम--चन्द्रमा के; अनिल--वायु के; वित्त-प-- धन के स्वामी कुबेर के; अस्त्रात्‌--अस्त्रोंसे; शद्भे-- भयभीत हूँ; भूशम्‌-- अत्यधिक; ब्रह्म गकुल--ब्राह्मण-वृन्द के; अवमानात्‌ू--अपमान से |

    महानुभाव, न तो मुझे इन्द्र के बज़ का भय है, न नागदंश का, न भगवान्‌ शिव के त्रिशूल का।

    मुझे न तो मृत्यु के अधीक्षक यमराज के दण्ड की परवाह है, न ही मैं अग्नि, तप्त सूर्य,चन्द्रमा, वायु अथवा कुबेर के अस्त्रों से भयभीत हूँ।

    परन्तु मैं ब्राह्मण के अपमान से डरता हूँ।

    मुझे इससे बहुत भय लगता है।

    तदूहासड़ो जडवन्निगूढ-विज्ञानवीर्यो विचरस्यपार: ।

    वचांसि योगग्रथितानि साधोन नः क्षमन्ते मनसापि भेत्तुम्‌ू ॥

    १८॥

    तत्‌--अतः; ब्रूहि--कृपया बतलाइये; असड्रः--संसार के साथ किसी प्रकार का सम्पर्क न रखने वाला; जड-वत्‌--मूक तथागूँगे मनुष्य की तरह लगने वाला; निगूढ--पूर्णतया प्रच्छन्न; विज्ञान-वीर्य:--आत्मतत्त्व के ज्ञान से पूर्ण तथा शक्तिशाली;विचरसि--घूम रहे हो; अपार: --अनन्त दिव्य महिमा वाला; वचांसि--उच्चरित शब्द; योग-ग्रथितानि--योग का समग्र अर्थवहन करने वाला; साधो--हे साधु; न--नहीं; न:--हम सब; क्षमन्ते--समर्थ हैं; ममनसा अपि--यहाँ तक कि मन से भी;भेत्तुम--विश्लेषणात्मक विधि से समझना ।

    महाशय, ऐसा प्रतीत होता है कि आपका महत्‌ आध्यात्मिक ज्ञान प्रच्छन्न है।

    आप समस्तभौतिक संसर्ग से रहित हैं और परमात्मा के विचार में पूर्णतया तल्‍लीन हैं।

    इसलिए आपकाआध्यात्मिक ज्ञान अनन्त है।

    कृपया बलताने का कष्ट करें कि आप जड़वतू्‌ सर्वत्र क्यों घूम रहेहैं ? हे साधु, आपने योगसम्मत शब्द कहे हैं, किन्तु हमारे लिए उनको समझ पाना सम्भव नहीं है।

    अतः कृपा करके विस्तार से कहें।

    अहं च योगे श्वरमात्मतत्त्व-विदां मुनीनां परम॑ गुरु वे ।

    प्रष्टे प्रवृत्तः किमिहारणं तत्‌साक्षाद्धरिं ज्ञानकलावतीर्णम्‌ ॥

    १९॥

    अहम्‌-मैं; च--तथा; योग-ईश्वरम्‌ू--योग के स्वामी; आत्म-तत्त्व-विदाम्‌--आत्मतत्त्वं के विज्ञान्‌ से परिचित विद्वान;मुनीनाम्‌--मुनियों का; परमम्‌-- श्रेष्ठ; गुरुम्‌--गुरु, उपदेशक; वै--निस्संदेह; प्रष्टमू--पूछने हेतु; प्रवृत्त:--कार्यलग्न; किमू--क्या; इह--इस संसार में; अरणम्‌--सुरक्षित शरण; तत्‌--वह जो; साक्षात्‌ हरिम्‌-प्रत्यक्ष ?

    श्रीभगवान्‌; ज्ञान-कला-अवतीर्णम्‌--जो सम्पूर्ण ज्ञान के अवतार के रूप में अंशधारी कपिल के रूप में अवतरित हुए हैं।

    मैं आपको योग शक्ति का प्रतिष्ठित स्वामी मानता हूँ।

    आप आत्मज्ञान से भली भाँति परिचितहैं।

    आप साधुओं में परम पूज्य हैं और आप समस्त मानव समाज के कल्याण के लिए अवतरितहुए हैं।

    आप आत्मज्ञान प्रदान करने आये हैं और ईश्वर के अवतार तथा ज्ञान के अंश कपिलदेव के साक्षात्‌ प्रतिनिधि हैं।

    अतः मैं आपसे पूछ रहा हूँ,'हे गुरु, इस संसार में सर्वाधिक सुरक्षितआश्रय कौन सा है?

    स वे भवॉल्लोकनिरीक्षणार्थ-मव्यक्तलिड्रो विचरत्यपि स्वित्‌ ।

    योगेश्वराणां गतिमन्धबुद्धिःकथं विचक्षीत गृहानुबन्ध: ॥

    २०॥

    सः--वह भगवान्‌ या उनका अवतार श्रीकपिल देव; बै--निस्संदेह; भवान्‌ू--आप; लोक-निरीक्षण-अर्थम्‌--इस संसार केलोगों के चरित्रों का अध्ययन करने के लिए ही; अव्यक्त-लिड्र:--अपनी वास्तविक पहचान प्रकट किए बिना; विचरति--इससंसार में भ्रमण कर रहे हैं; अपि स्वित्‌--क्या; योग-ईश्वराणाम्‌-- समस्त योगियों का; गतिम्‌--वास्तविक आचरण, चरित्र;अन्ध-बुद्धि:--मोहग्रस्त होने से आत्मज्ञान के प्रति अन्धे; कथम्‌--किस प्रकार; विचक्षीत--जान सकता है; गृह-अनुबन्ध:--गृहस्थ जीवन या सांसारिकता में आसक्त रहने वाला, मैं।

    कया यह सच नहीं कि आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के अवतार कपिल देव के साक्षात्‌प्रतिनिधि हैं ? मनुष्यों की परीक्षा लेने और यह देखने के लिए कि वास्तव में कौन मनुष्य है औरकौन नहीं, आपने अपने आपको गूँगे तथा बहरे मनुष्य की भाँति प्रस्तुत किया है।

    क्या आपसंसार भर में इसलिए नहीं इस रूप में घूम रहे? मैं तो गृहस्थ जीवन तथा सांसारिक कार्यों मेंअत्यधिक आसक्त हूँ और आत्मज्ञान से रहित हूँ।

    इतने पर भी अब मैं आपसे प्रकाश पाने केलिए आपके समक्ष उपस्थित हूँ।

    आप बताएँ कि मैं किस प्रकार आत्मजीवन में प्रगति कर सकताहूँ?

    हृष्ट: श्रम: कर्मत आत्मनो वैभर्तुर्गन्तुर्भवतश्चानुमन्ये ।

    यथासतोदानयनाद्यभावात्‌समूल दइष्टो व्यवहारमार्ग: ॥

    २१॥

    इृष्ट:--प्रत्येक प्राणी का अनुभव है; श्रमः-- श्रम, थकान; कर्मत:ः--कोई भी काम करने से; आत्मन:--आत्मा का; वै--निस्संदेह; भर्त::--पालकी वाहक या कहार का; गन्तु:--चलने वाले का; भवतः--आपका; च--तथा; अनुमन्ये--मेरा अनुमान है; यथा--जितना; असता--असत से, जो तथ्य नहीं हैं, उससे; उद--जल का; आनयन-आदि--लाने इत्यादि का कार्य;अभावात्‌-- अभाव से; स-मूल:--साध्य पर आधारित; इष्ट:--पूज्य; व्यवहार-मार्ग:--प्रत्यक्ष ज्ञान-विषयक |

    आपने कहा कि, 'मैं श्रम करने में थकता नहीं हूँ' यद्यपि आत्मा देह से पृथक्‌ है, किन्तुशारीरिक श्रम करने से थकान लगती है और ऐसा लगता है कि यह आत्मा की थकान है।

    जबआप पालकी ले जा रहे होते हैं, तो निश्चय ही आत्मा को भी कुछ श्रम करना पड़ता होगा।

    ऐसामेरा अनुमान है।

    आपने यह भी कहा है कि स्वामी तथा सेवक का बाह्य आचरण वास्तविक नहींहै, किन्तु प्रत्यक्ष जगत में यह वास्तविकता भले न हो तो भी प्रत्यक्ष जगत पदार्थों से वस्तुएँप्रभावित तो हो ही सकती हैं।

    ऐसा दृश्य तथा अनुभवगम्य है।

    अत: भले ही भौतिक कार्यकलापअस्थायी हों, किन्तु उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता।

    स्थाल्यग्नितापात्पयसो भिताप-स्तत्तापतस्तण्डुलगर्भरन्धि: ।

    देहेन्द्रियास्वाशयसन्निकर्षात्‌तत्संसृतिः पुरुषस्थानुरोधात्‌ ॥

    २२॥

    स्थालि--पकाने का पात्र; अग्नि-तापातू-- अग्नि के ताप से; पयसः--पात्र में भरा दूध; अभिताप:--तप्त हो जाता है; ततू-तापतः--उसके ताप से, दूध के गर्म होने से; तण्डुल-गर्भ-रन्धि: --दूध में रहने से चावल का भीतरी भाग पक जाता है; देह-इन्द्रिय-अस्वाशय--इन्द्रियाँ; सन्निकर्षात्‌--से सम्बन्ध होने से; तत्‌-संसृति:-- श्रम तथा अन्य कष्टों का अनुभव; पुरुषस्थ--आत्मा का; अनुरोधात्‌--शरीर, इन्द्रियाँ और मन से अत्यधिक आसक्ति के कारण अनुरोध से।

    राजा रहूगण आगे बोला--महाशय, आपने बताया कि शारीरिक स्थूलता तथा कृशता जैसीउपाधियाँ आत्मा के लक्षण नहीं हैं।

    यह सही नहीं है, क्योंकि सुख तथा दुख जैसी उपाधियों काअनुभव आत्मा को अवश्य होता है।

    आप दूध तथा चावल को एक पात्र में भर कर अग्नि केऊपर रखें तो दूध तथा चावल क्रम से स्वतः तप्त होते हैं।

    इसी प्रकार शारीरिक सुखों तथा दुखोंसे हमारी इन्द्रियाँ, मन तथा आत्मा प्रभावित होते हैं।

    आत्मा को इस परिवेश से सर्वथा बाहर नहींरखा जा सकता।

    शास्ताभिगोप्ता नृपतिः प्रजानांयः किड्डूरो वै न पिनष्टि पिष्टम्‌ ।

    स्वधर्ममाराधनमच्युतस्ययदीहमानो विजहात्यघौघम्‌ ॥

    २३॥

    शास्ता--शासक; अभिगोप्ता--नागरिकों का शुभचिन्तक; नृ-पति:--राजा; प्रजानाम्‌ू--नागरिकों का; य:--जो; किड्जरः --आज्ञा पालने वाला; बै--निस्सन्देह; न--नहीं; पिनष्टि पिष्टमू--पहले से पिसे हुए को पीसता है; स्व-धर्मम्‌--अपना कर्तव्य;आराधनम्‌--उपासना; अच्युतस्य-- श्रीभगवान्‌ की; यत्‌--जो; ईहमान: --करते हुए; विजहाति--मुक्त कर दिये जाते हैं; अघ-ओघम्‌--सभी प्रकार के पाप तथा दोषपूर्ण कर्म से |

    महाशय, आपने बताया कि राजा तथा प्रजा अथवा स्वामी और सेवक के सम्बन्ध शाश्रत नहीं होते।

    यद्यपि ऐसे सम्बन्ध अस्थायी हैं, तो भी जब कोई व्यक्ति राजा बनता है, तो उसकाकर्तव्य नागरिकों पर शासन करना और नियमों की अवज्ञा करने वालों को दण्डित करना है।

    उनको दण्डित करके वह नागरिकों को राज्य के नियमों का पालन करने की शिक्षा देता है।

    पुनःआपने कहा है कि मूक तथा बधिर को दण्ड देना चर्वित को चर्वण करना या पिसी लुगदी कोफिर से पीसना है, जिसका अभिप्राय यह हुआ कि इससे कोई लाभ नहीं होता।

    किन्तु यदि कोईपरमेश्वर द्वारा आदिष्ट अपने कर्तव्यों के पालन में लगा रहता है, तो उसके पापकर्म निश्चय ही घटजाते हैं।

    अतः यदि किसी को बलपूर्वक उसके कर्तव्यों में लगा दिया जाये तो उसे लाभ पहुँचताहै, क्योंकि इस प्रकार उसके समस्त पाप दूर हो सकते हैं।

    तन्मे भवान्नरदेवाभिमान-मदेन तुच्छीकृतसत्तमस्य ।

    कृषीष्ट मैत्रीहृशमार्तबन्धोयथा तरे सदवध्यानमंह: ॥

    २४॥

    तत्‌ू--अतः; मे--मुझ पर; भवान्‌--आप; नर-देव-अभिमान-मदेन--राजा की देह पाने के अभिमान से उन्मत्त; तुच्छीकृत--अवज्ञा करने वाले; सतू्‌-तमस्य--मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ आपका; कृषीष्ट--कृपया प्रदर्शित करें; मैत्री-दहशम्‌--मित्र के समान मुझ'पर अपनी अहैतुकी कृपा; आर्त-बन्धो--दीनों का साथी; यथा--जिस प्रकार; तरे--मुक्त हो सकूँ; सत्‌-अवध्यानम्‌--आप जैसेमहापुरुष की उपेक्षा करने के; अंह:--पाप से।

    आपने जो भी कहा है उसमें मुझे विरोधाभास लगता है।

    हे दीनबन्धु, मैंने आपको अपमानितकरके बहुत बड़ा अपराध किया है।

    राजा का शरीर धारण करने के कारण मैं झूठी प्रतिष्ठा से'फूला हुआ था, अतः इसके लिए मैं अवश्य ही अपराधी हूँ।

    अब मेरी प्रार्थना है कि मुझ परअहैतुक अनुग्रह की दृष्टि डालें।

    यदि आप ऐसा करें तो आपका अपमान करके मैंने जो पापकर्मकिया है उससे मुक्त हो सकूँगा।

    न विक्रिया विश्वसुहृत्सखस्यसाम्येन वीताभिमतेस्तवापि ।

    महद्विमानात्स्वकृतादरिद्वि माहडःनदुक्ष्यत्यद्रादपि शूलपाणि: ॥

    २५॥

    न--नहीं; विक्रिया-- भौतिक परिवर्तन; विश्व-सुहृत्‌-प्रत्येक प्राणी के मित्र, श्रीभगवान्‌ का; सखस्य--मित्र ( आप ) का;साम्येन--आपके मानसिक सन्तुलन के कारण; वीत-अभिमते:--जिसने जीवन के देहात्मबोध को सर्वथा त्याग दिया है; तब--तुम्हारा; अपि--निस्सन्देह; महत्‌-विमानात्‌ू--महान्‌ भक्त का अपराध करने से; स्व-कृतात्‌ू--मेरे अपने कार्य से; हि--निश्चितरूप से; माहक्‌-- मुझ जैसा व्यक्ति; नड्छ्ष्यति--विनष्ट हो जाएगा; अदूरात्‌-शीघ्र ही; अपि--निश्चय ही; शूल-पाणि:--भगवान्‌ शिव ( शूलपाणि ) के समान शक्तिशाली होकर भी |

    हे स्वामी, आप समस्त जीवात्माओं के मित्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के सखा हैं।

    अतः आपसबों के लिए समान हैं और देहात्म-बुद्धि से सर्वथा मुक्त हैं।

    यद्यपि मैंने आपकी अवमाननाकरके अपराध किया है, किन्तु मैं जानता हूँ कि मेरे इस तिरस्कार से आपको कोई हानि या लाभनहीं होने वाला है।

    आप हृढ़ संकल्प हैं जबकि मैं अपराधी हूँ।

    इसलिए भले ही मैं भगवान्‌ शिवके समान बलवान्‌ क्‍यों न होऊँ, किन्तु एक वैष्णव के चरणकमल पर अपराध करने के कारणमैं तुरन्त ही नष्ट हो जाऊँगा।

    TO

    अध्याय ग्यारह: जड़ भरत ने राजा रहूगण को निर्देश दिया

    5.11ब्राह्मण उवाचअकोविद: कोविदवादवादान्‌वदस्यथो नातिविदां वरिष्ठ: ।

    न सूरयो हि व्यवहारमेनंतत्त्वावमशेन सहामनन्ति ॥

    १॥

    ब्राह्मण: उबाच--ब्राह्मण ने कहा; अकोविद:-- अनु भवहीन; कोबिद-वाद-वादान्‌-- अनुभवी व्यक्तियों के द्वारा प्रयुक्त शब्द;वदसि--तुम बोल रहे हो; अथो--अत:; न--नहीं; अति-विदाम्‌--अत्यन्त अनुभवी व्यक्तियों का; वरिष्ठ: --अत्यन्त महत्त्वपूर्ण;न--नहीं; सूरय:--ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति; हि--निस्सन्देह; व्यवहारम्‌--सांसारिक तथा सामाजिक आचरण ( कर्म ); एनम्‌--यह; तत्त्व--सत्य का; अवमर्शेन--बुद्धि द्वारा उत्तम न्याय के; सह--साथ; आमनन्ति--विवेचना करते हैं।

    ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा--' हे राजन्‌, यद्यपि तुम थोड़ा भी अनुभवी नहीं हो तो भी तुमअत्यन्त अनुभवी व्यक्ति के समान बोलने का प्रयत्न कर रहे हो।

    अतः तुम्हें अनुभवी व्यक्ति नहीं माना जा सकता।

    अनुभवी व्यक्ति कभी भी तुम्हारे समान स्वामी तथा सेवक अथवा भौतिकसुखों और दुखों के सम्बन्ध में इस प्रकार से नहीं बोलता।

    ये तो मात्र बाह्य कार्य हैं।

    कोई भीमहान्‌ अनुभवी व्यक्ति परम सत्य को जानते हुए इस प्रकार बातें नहीं करता।

    'तथेव राजन्नुरुगाहमेध-वितानविद्योरुविजृम्भितेषु ।

    न वेदवादेषु हि तत्त्ववादःप्रायेण शुद्धो नु चकास्ति साधु; ॥

    २॥

    तथा--अतः; एव--निस्संदेह; राजन्‌--हे राजन; उरू-गाई-मेध--गृहस्थ जीवन से संबद्ध अनुष्ठान; वितान-विद्या--विस्तारशीलज्ञान; उरु--अत्यधिक; विजृम्भितेषु--रुचि रखने वालों में; न--नहीं; वेद-वादेषु--वेद वाक्य बोलने वाले; हि--निस्सन्देह;तत्त्व-वाद:--आत्म-तत्त्व; प्रायेण--प्राय:; शुद्ध:--समस्त कल्मषों से रहित, विशुद्ध; नु--निस्संदेह; चकास्ति--प्रतीत होते हैं;साथुः--भक्ति को प्राप्त पुरुष?

    हे राजन, स्वामी तथा सेवक, राजा तथा प्रजा इत्यादि के प्रसंग तो भौतिक विषय हैं।

    वेदों मेंप्रतिपादित भौतिक विषयों में रुचि रखने वाले व्यक्ति यज्ञों को करके तथा भौतिक विषयों केप्रति श्रद्धालु बने रहने पर तुले रहते हैं।

    ऐसे लोगों को कभी आत्म-तत्त्व प्रकट नहीं हो पाता।

    न तस्थ तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्‌वरीयसीरपि वाच: समासन्‌ ।

    स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यंन यस्य हेयानुमितं स्वयं स्थात्‌ ॥

    ३॥

    न--नहीं; तस्थ--उसका ( वेदपाठी का ); तत्त्व-ग्रहणाय--वैदिक ज्ञान के वास्तविक प्रयोजन को स्वीकारने के लिए;साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; वरीयसी:--परम आदरणीय; अपि--यद्यपि; वाच: --वेद वाक्य; समासन्‌--अत्यधिक हो गया; स्वप्ने--स्वण में; निरुक्त्या--उदाहरण से; गृह-मेधि-सौख्यम्‌--इस जगत के भीतर सुख; न--नहीं; यस्य--जिसका; हेय-अनुमितम्‌ --तुच्छ जान पड़ने से; स्वयम्‌--स्वतः; स्थात्‌--हो?

    वे स्वप्न मनुष्य को स्वतः झूठा और व्यर्थ लगने लगता है।

    इसी प्रकार उसे इस लोक में अथवास्वर्ग में, इसी जीवन में अथवा अगले जन्म में, भौतिक सुख की कामना तुच्छ प्रतीत होने लगतीहै।

    जब उसे इसका बोध हो जाता है, तो श्रेष्ठ साधन होने पर भी वेद सत्य का प्रत्यक्ष ज्ञान करानेमें अपर्याप्त लगने लगते हैं।

    यावन्मनो रजसा पूरुषस्यसत्त्वेन वा तमसा वानुरुद्धम्‌ ।

    चेतोभिराकूतिभिरातनोतिनिरह्ठु शं कुशलं चेतरं वा ॥

    ४॥

    यावत्‌--जब तक; मन: --मन; रजसा--रजोगुण से; पूरुषस्थ--जीवात्मा का; सत्त्वेन--सतोगुण से; वा--अथवा; तमसा--तमोगुण से; वा--अथवा; अनुरुद्धम्‌--नियंत्रित; चेतोभि:--ज्ञानेन्द्रियों से; आकूतिभि:--कर्मेन्द्रियों से; आतनोति--फैलाता है;निरड्भु शम्‌-हाथी के समान स्वच्छन्द ( जिसको अंकुश से वश में लिया जाता है ); कुशलम्‌--कुशलता, कल्याण; च--भी;इतरम्‌--कुशलता के अतिरिक्त अर्थात्‌ पापकर्म; वा--अथवा।

    जब तक जीवात्मा का मन तीन गुणों ( सतो, रजो तथा तमोगुणों ) से दूषित रहता है, तबतक वह स्वच्छन्द, अनियंत्रित हाथी के समान रहता है।

    वह इन्द्रियों का उपयोग करके शुभ तथा अशुभ कर्मो के क्षेत्र को केवल बृहत्तर बनाता है।

    परिणाम यह निकलता है कि जीवात्मा इससंसार में भौतिक कर्मों के कारण मात्र सुख तथा दुख का अनुभव करता है।

    स वासनात्मा विषयोपरक्तोगुणप्रवाहो विकृत: षोडशात्मा ।

    बिश्षत्पृथड्नामभि रूपभेद-मन्तर्बहिष्ठ॑ च पुरैस्तनोति ॥

    ५॥

    सः--वह; वासना--अनेक कामनाओं से युक्त; आत्मा--मन; विषय-उपरक्त:-- भौतिक सुख में आसक्त इन्द्रियतृप्ति; गुण-प्रवाह:--सत्व, रजो अथवा तमोगुण की शक्ति से प्रेरित; विकृत:--काम आदि से विरूपित; षोडश-आत्मा-- प्रमुख सोलहतत्त्वों ( पाँच स्थूल तत्त्व तथा दस ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन ) का प्रधान तत्त्व; बिभ्रतू-घूमते हुए; पृथक्‌-नामभि: --विभिन्न नामों से;रूप-भेदम्‌--विभिन्न रूप धारण करते हुए; अन्तः-बहिष्ठम्‌--प्रथम कोटि या निम्न कोटि का गुण, उत्तमता या अधमता; च--तथा; पुरैः--विभिन्न शारीरिक रूपों से; तनोति--प्रकट करता है।

    शुभ तथा अशुभ कर्मों की आकांक्षाओं में लीन रहने के कारण मन स्वभावत: काम तथाक्रोध के विकारों से ग्रस्त होता रहता है।

    इस प्रकार वह भौतिक इन्द्रिय-सुख के प्रति आकृष्टहोता है।

    कहने का तात्पर्य यह है कि मन सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण से संचालित होता है।

    ग्यारह इन्द्रियों तथा पाँच तत्त्वों--इन सब सोलह कलाओं में से मन प्रधान है।

    अतः मन के हीकारण विभिन्न देवताओं, मनुष्यों, पशुओं तथा पक्षियों के शरीरों में जन्म लेना पड़ता है।

    उच्च यानिम्न पद पर स्थित होने के अनुसार ही मन उच्च या निम्न भौतिक देह अंगीकार करता है।

    दुःखं सुखं व्यतिरिक्त च तीव्रकालोपपन्नं फलमाव्यनक्ति ।

    आलिड्ग्य मायारचितान्तरात्मास्वदेहिनं संसृतिचक्रकूट: ॥

    ६॥

    दुःखम्‌--अशुभ कर्मो के कारण दुख; सुखम्‌-शुभ कर्म से उत्पन्न सुख; व्यतिरिक्तम्‌ू--मोह; च--तथा; तीब्रम्‌ू--अत्यन्तकठिन; काल-उपपन्नम्‌ू--काल-क्रम में प्राप्त; फलमू--फल; आव्यनक्ति--उत्पन्न करता है; आलिड्ग्य--आलिंगन करते हुए;माया-रचित-- प्रकृति द्वारा उत्पन्न; अन्तः-आत्मा--मन; स्व-देहिनम्‌--स्वयं जीव; संसृति--संसार की प्रतिक्रियाओं का; चक्र-'कूट:--जो जीव को चक्कर में डाल देता है।

    सांसारिक मन जीव की आत्मा को आच्छादित करके उसे विभिन्न योनियों में ले जाता है।

    इसे संसृति कहते हैं।

    मन के ही कारण जीवात्मा को भौतिक दुख तथा सुख का बोध होता है।

    इस प्रकार से मोहग्रस्त यह शुभ तथा अशुभ विषयों तथा उनके कर्म को उत्पन्न करता है।

    इसप्रकार आत्मा बद्ध हो जाता है।

    तावानयं व्यवहारः सदाविःक्षेत्रज्ञसाक्ष्यो भवति स्थूलसूक्ष्म: ।

    तस्मान्मनो लिड्रमदो वदन्तिगुणागुणत्वस्यथ परावरस्यथ ॥

    ७॥

    तावान्‌ू--उस समय तक; अयमू्‌--यह; व्यवहार: --कृत्रिम उपाधियाँ ( मोटा, दुबला दैव या मानवीय ); सदा--सदैव; आवि:--प्रकट करते हुए; क्षेत्र-ज्ञ--जीवात्मा का; साक्ष्य:--प्रमाण; भवति-- है; स्थूल-सूक्ष्म:--मोटा तथा दुबला; तस्मात्‌--अतः;मनः--मन; लिड्रमू--कारण; अदः--यह; वदन्ति--कहते हैं; गुण-अगुणत्वस्य--गुणों अथवा अगुणों का; पर-अवरस्य--तथा जीवन की उच्च और निम्न दशाएँ।

    मन जीवात्मा को इस संसार में विभिन्न योनियों में फिरता रहता है, जिससे जीवात्मा कोमनुष्यों, देवताओं, स्थूल-कृश मनुष्यों इत्यादि विविध रूपों का लौकिक अनुभव होता है।

    विद्वानों का कथन है कि देह का रूपायन बन्धन तथा मुक्ति का कारण मन ही है।

    गुणानुरक्त व्यसनाय जन्तोःक्षेमाय नेर्गुण्यमथो मनः स्यात्‌ ।

    यथा प्रदीपो घृतवर्तिमश्नन्‌शिखा: सधूमा भजति ह्ान्यदा स्वम्‌ ।

    पदं तथा गुणकर्मानुबद्धवृत्तीर्मन: श्रयतेउन्यत्र तत्त्वम्‌ू ॥

    ८॥

    गुण-अनुरक्तम्‌-गुणों के प्रति आसक्त होकर; व्यसनाय--संसार में बद्ध होने के लिए; जन्तो: --जीवात्मा के; क्षेमाय--परमकल्याण के लिए; नैर्गुण्यम्‌ू--गुणों से अप्रभावित रहकर; अथो--इस प्रकार; मनः--मन; स्थात्‌--हो जाता है; यथा--जिसप्रकार ( जितना कि ); प्रदीप: --दीपक; घृत-वर्तिम्‌--घी के भीतर रखी बत्ती; अश्नन्‌ू--जलकर; शिखा: --ज्वाला, लौ;सधूमा:--धुँआ से युक्त; भजति-- भोगती है; हि--निश्चय ही; अन्यदा--अन्यथा; स्वमू--अपने आप; पदम्‌--पद; तथा--उसीतरह; गुण-कर्म-अनुबद्धम्‌-गुणों तथा कर्मो से बद्ध; वृत्तीः--नाना प्रकार के कार्य; मनः--मन; श्रयते--शरण लेता है;अन्यत्र--अन्यथा; तत्त्वम्‌-- अपनी मूल स्थिति की |

    जब जीवात्मा का मन सांसारिक इन्द्रिय-तृप्ति में लीन हो जाता है, तो जीवन-बंधन तथासांसारिक कष्ट प्राप्त होते हैं।

    किन्तु जब वह उनसे अनासक्त हो जाता है, तो वही मुक्ति काकारण बनता है।

    जब दीपक की बत्ती से ठीक-ठीक लौ नहीं उठती तो दीपक पर कालिख लगजाती है।

    किन्तु घी से भरा होने पर यह ठीक से जलता है और तीक्र प्रकाश निकलता है।

    इसी प्रकार जब मन इन्द्रिय-तृप्ति में संलग्न रहता है, तो इससे कष्ट प्राप्त होते हैं और जब यह उनसेविरक्त हो जाता है, तो कृष्णभावनामृत का आदि प्रकाश निकलने लगता है।

    एकादशासन्मनसो हि वृत्तयआकूतय: पञ्ञ धियोडभिमान: ।

    मात्राणि कर्माणि पुरं च तासांवबदन्ति हैकादश वीर भूमी: ॥

    ९॥

    एकादश- ग्यारह; आसनू-- हैं; मनसः--मन की; हि--निश्चय ही; वृत्तय:--वृत्तियाँ; आकूतय: --कर्मेन्द्रियाँ; पञ्ञ-पाँच;धियः-ज्ञानेन्द्रियाँ; अभिमान:--अहंकार; मात्राणि--विभिन्न विषय; कर्माणि--विभिन्न कर्म; पुरम्‌ च--तथा शरीर, समाज,राष्ट्र, परिवार या जन्मभूमि; तासाम्‌--इन कार्यों का; वदन्ति--कहते हैं; ह--ओह; एकादश--ग्यारह; वीर--हे वीर पुरुष;भूमी:--कार्य-द्षेत्र, कर्मक्षेत्र ?

    पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ।

    इनके साथ ही अहंकार भी है।

    इस प्रकार मन कीग्यारह प्रकार की वृत्तियाँ हैं।

    हे वीर, इन्द्रियों के विषय ( यथा शब्द और स्पर्श ), कायिक कर्म(यथा मलत्याग ) तथा विभिन्न प्रकार के देह, समाज, मैत्री तथा व्यक्तित्व--इन सबको पण्डितलोग मन के कार्य के अन्तर्गत मानते हैं।

    गन्धाकृतिस्पर्शरस श्रवांसिविसर्गरत्यरत्यभिजल्पशिल्पा: ।

    एकादशं स्वीकरणं ममेतिशय्यामहं द्वादशमेक आहु: ॥

    १०॥

    गन्ध--गन्ध, महक; आकृति--रूप; स्पर्श--छूने का बोध; रस--स्वाद; श्रवांसि--तथा शब्द; विसर्ग--मलत्याग; रति--संभोग; अर्ति--गति, संचलन; अभिजल्प-- भाषण; शिल्पा:--पकड़ना या छोड़ना, लेना-देना; एकादशम्‌--ग्यारह;स्वीकरणम्‌--स्वीकार करते हुए; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; शय्याम्‌--यह शरीर; अहम्‌--मैं; द्वादशम्‌--बारहवाँ; एके --कुछ लोगों ने; आहु:--कहा है|शब्द, स्पर्श, रूप, स्वाद ( रस) तथा गन्ध--ये पांच ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार हैं।

    भाषण,स्पर्श, संचलन, मलत्याग तथा संभोग--ये कर्मेन्द्रियों के कार्य हैं।

    इसके अतिरिक्त एक अन्यधारणा है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य सोचता है कि, 'यह मेरा शरीर है, यह मेरा समाज है, यह मेरापरिवार हैं, यह मेरा राष्ट्र है।

    ' यह ग्यारहवाँ व्यापार मन का है और मिथ्या अहंकार कहलाता है।

    कुछ दार्शनिकों के अनुसार यह बारहवाँ व्यापार है और इसका कार्यक्षेत्र शरीर है।

    द्रव्यस्वभावाशयकर्मकालै-रेकादशामी मनसो विकाराः ।

    सहस्त्रशः शतशः कोटिशश्वक्षेत्रज्ता न मिथो न स्वतः स्यु: ॥

    ११॥

    द्रव्य--भौतिक पदार्थों ( विषयों ) से; स्‍्व-भाव--स्वभाव से; आशय--संस्कृति ( संस्कार ) से; कर्म--पूर्व निर्धारित कर्मफलसे; कालैः--समय से; एकादश --ग्यारह; अमी--ये सब; मनस:--मन के; विकारा:--रूपान्तर ( भेद ); सहस्त्रश:--हजारों में;शतशः--सैकड़ों में; कोटिश: च--तथा करोड़ों में; क्षेत्र-ह्ञत:--आदि भगवान्‌ से; न--नहीं; मिथ:-- परस्पर; न--न तो;स्वतः--अपने आप से; स्युः--हैं |

    भौतिक तत्त्व ( द्रव्य या विषय ), प्रकृति ( स्वभाव ), मूल कारण, संस्कार, भाग्य तथासमय (काल )--ये सब भौतिक कारण हैं।

    इन भौतिक कारणों से विश्लुब्ध होकर ग्यारहवृत्तियाँ पहले सैकड़ों, फिर हजारों और तब करोड़ों भेदों में रूपान्तरित हो जाती हैं।

    किन्तु येसभी भेद स्वत: परस्पर मिश्रण के द्वारा घटित नहीं होते वरन्‌ वे श्रीभगवान्‌ के आदेशानुसार होतेहैं।

    क्षेत्रज्ष एता मनसो विभूती-जीवस्य मायारचितस्य नित्या: ।

    आविर्तहिताः क्वापि तिरोहिताश्नशुद्धों विचष्टे ह्रविशुद्धकर्तु: ॥

    १२॥

    क्षेत्र-ज्ः--जीव; एता:--ये सब; मनस:--मन के; विभूती: --विभिन्न वृत्तियाँ; जीवस्थ--जीवात्मा की; माया-रचितस्य--माया द्वारा उत्पन्न; नित्या:--अनादि-काल से; आविर्हिता:--कभी-कभी प्रकट; क्वापि--कहीं; तिरोहिता: च--तथा अप्रकट;शुद्ध:--शुद्ध; विचष्टे--इसे देखता है; हि--निश्चय ही; अविशुद्ध--अशुद्ध; कर्तुः--कर्ता का।

    कृष्णचेतना से रहित जीव के मन में माया द्वारा उत्पन्न अनेक विचार तथा वृत्तियाँ होती हैं।

    वे अनन्त काल से विद्यमान रही हैं।

    कभी-कभी वे जाग्रत तथा स्वप्न अवस्था में प्रकट होती हैं,किन्तु सुषुप्तावस्था या समाधि में वे लुप्त हो जाती हैं।

    जो व्यक्ति इस जन्म में ही मुक्त हो चुकाहै, ( जीवन्मुक्त ) इन सब व्यापारों को स्पष्ट देख सकता है।

    क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुष: पुराण:साक्षात्स्वयं ज्योतिरज: परेश: ।

    नारायणो भगवान्वासुदेव:स्वमाययात्मन्यवधीयमान: ॥

    १३॥

    यथानिल: स्थावरजड्रमानाम्‌आत्मस्वरूपेण निविष्ट ईशेत्‌ ।

    एवं परो भगवान्वासुदेव:क्षेत्रज् आत्मेदमनुप्रविष्ट: ॥

    १४॥

    क्षेत्र-क्ञः -- श्रीभगवान्‌ ( एलोक १२ में सामान्य जीव ); आत्मा--सर्वव्यापी; पुरुष:--असीम शक्ति वाला नियन्ता; पुराण:--आदि; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष अनुभव तथा अधिकारियों से श्रवण करके; स्वयम्‌--व्यक्तिगत; ज्योति:ः--ब्रह्मतेज प्रकट करने वाला;अज:--अजन्मा; परेश:-- श्री भगवान्‌; नारायण: --समस्त जीवों का आश्रय; भगवान्‌--छः पूर्ण ऐश्वर्यों से युक्त श्रीभगवान्‌;वासुदेव:--प्रकट तथा अप्रकट, सबों का आश्रय; स्व-मायया--अपनी शक्ति से; आत्मनि--अपने आप में अथवा सामान्यजीवों में; अवधीयमान:--नियन्ता के रूप में रह कर; यथा--जिस प्रकार; अनिल:--वायु; स्थावर--जड़, न चलने वाले जीव;जड़मानाम्‌--तथा जंगमों ( सचल ) का; आत्म-स्वरूपेण--परमात्मा रूप के द्वारा; निविष्ट:--निहित; ईशेत्‌--नियंत्रण करताहै; एवम्‌--इस प्रकार; पर:--दिव्य; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; वासुदेव: -- प्रत्येक पदार्थ के आश्रय; क्षेत्र-ज्ञ:--श्षेत्रज्ञ नाम सेअभिहित; आत्मा--प्राण शक्ति; इदमू--यह जगत के; अनुप्रविष्ट: -- भीतर प्रविष्ट |

    क्षेत्रज्ष दो प्रकार के हैं--जीवात्मा तथा श्रीभगवान्‌।

    ( जीवात्मा का वर्णन पीछे किया जाचुका है, यहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की विवेचना की जा रही है) श्रीभगवान्‌ सृष्टि कासर्वव्यापक कारण है।

    वह अपने में पूर्ण है और अन्यों पर आश्नित नहीं है।

    वह सुनकर तथाप्रत्यक्ष अनुभव ( दर्शन ) से देखा जाता है।

    वह आत्मतेजस्वी है और उसे जन्म, मृत्यु, जरा अथवाव्याधि कुछ भी नहीं सताते।

    वह ब्रह्मादि समस्त देवताओं का नियन्ता है।

    उसका नाम नारायण हैऔर वह संसार के प्रलय के पश्चात्‌ समस्त जीवात्माओं का आश्रय है।

    वह परम ऐश्वर्यवान हैऔर समस्त भौतिक वस्तुओं का आश्रय है।

    अत: वह वासुदेव अर्थात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ केनाम से जाना जाता है।

    अपनी शक्ति से ही वह समस्त जीवात्माओं के हृदयों में स्थित है, जिसप्रकार समस्त चराचर प्राणियों में वायु या जीवनीशक्ति ( प्राण ) रहती है।

    इस प्रकार वह शरीरको वश में रखता है।

    अपने अंश रूप में श्रीभगवान्‌ समस्त देहों में प्रवेश करके उनको नियंत्रितकरता रहता है।

    न यावदेतां तनुभृन्नरेन्दरविधूय मायां वयुनोदयेन ।

    विमुक्तसज जितषट्सपत्नोवेदात्मतत्त्वं भ्रमतीह तावतू ॥

    १५॥

    न--नहीं; यावत्‌ू--जब तक; एताम्‌--यह; तनु-भृत्‌--जिसने शरीर अंगीकार किया है, मनुष्य; नरेन्‍्द्र--हे राजन; विधूयमायाम्‌--संसार से उत्पन्न कल्मष को धोते हुए; बयुना उदयेन--वैदिक साहित्य तथा सत्संगति से दिव्य ज्ञान जगने के कारण;विमुक्त-सड्भ:--समस्त संगति से मुक्त; जित-षट्‌ू-सपतल:--छ: शत्रुओं ( पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन ) को जीत कर; वेद--जानताहै; आत्म-तत्त्वम्‌-आत्मतत्त्व को; भ्रमति--घूमता है; इह--इस संसार में; तावत्‌--तब तक |

    हे राजा रहूणण, जब तक बद्ध-आत्मा भौतिक देह को स्वीकार करता है और भौतिक सुखके कल्मष से मुक्त नहीं हो जाता तथा जब तक अपने छः शत्रुओं को जीत कर आत्मज्ञान कोजागृत करके आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक उसे इस जगत मेंविभिन्न स्थानों तथा नाना योनियों में घूमना पड़ता है।

    न यावदेतन्मन आत्मलिड्ूंसंसारतापावपनं जनस्य ।

    यच्छोकमोहामयरागलो भ-वैरानुबन्धं ममतां विधत्ते ॥

    १६॥

    न--नहीं; यावत्‌--जब तक; एतत्‌--यह; मन:--मन; आत्म-लिड्रम्‌--आत्मा की झूठी उपाधि के रूप में; संसार-ताप--इसजगत के कष्टों का; आवपनम्‌--खेत; जनस्य--जीव का; यत्‌--जो; शोक--शोक का; मोह--मोह का; आमय--रोग का;राग--आसक्ति का; लोभ--लालच का; बैर--शत्रुता का; अनुबन्धम्‌--परिणाम; ममताम्‌--ममता; विधत्ते--देता है।

    इस संसार में आत्मा की उपाधि, यह मन, समस्त दुखों का मूल है।

    जब तक बद्ध जीवात्माइस तथ्य को नहीं जानता, तब तक उसे देह की दयनीय दशा को स्वीकार करके इस ब्रह्माण्ड मेंविभिन्न योनियों में घूमना पड़ता है।

    चूँकि यह मन रोग, शोक, मोह, राग, लोभ तथा वैर से ग्रस्तरहता है इस कारण से इस भौतिक संसार में बन्धन तथा झूठी ममता उत्पन्न होती है।

    भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्य-मुपेक्षयाध्येधितमप्रमत्त: ।

    गुरोहरेश्वरणोपासनास्त्रोजहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम्‌ ॥

    १७॥

    भ्रातृव्यमू--बलवान शत्रु को; एनम्‌--इस मन; तत्‌--वह; अदभ्न-वीर्यम्‌--अत्यधिक शक्तिमान; उपेक्षया--उपेक्षा से;अध्येधितम्‌-वृथा ही शक्ति में बढ़ा हुआ; अप्रमत्त:--मोहरहित; गुरोः --गुरु के; हरेः-- श्री भगवान्‌ के; चरण--चरण कमलोंका; उपासना-अस्त्र: --उपासना रूपी अस्त्र; जहि--जीत लो; व्यलीकम्‌--झूठा, मिथ्या; स्वयम्‌-- अपने आप; आत्म-मोषम्‌--जीवात्मा की स्वाभाविक स्थिति को प्रच्छन्न करने वाला?

    यह अनियंत्रित मन जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु है।

    यदि इसकी उपेक्षा की जाती है या इसेअवसर प्रदान किया जाता हैं, तो यह प्रबल से प्रबलतर होकर विजयी बन सकता है।

    यद्यपि यहयथार्थ नहीं है, किन्तु यह अत्यधिक प्रबल होता है।

    यह आत्मा की स्वाभाविक स्थिति कोआच्छादित कर देता है।

    हे राजनू, इस मन को गुरु के चरणारविन्द तथा भगवान्‌ की सेवा रूपीअस्त्र से जीतने का प्रयत्त कीजिये।

    इसे अत्यन्त सतर्कता से करें।

    TO

    अध्याय बारह: महाराज राहुगण और जड़ भरत के बीच बातचीत

    5.12रहूगण उबाचनमो नमः कारणविग्रहायस्वरूपतुच्छीकृतविग्रहाय ।

    नमोवधूतद्विजबन्धुलिड्र-निगूढनित्यानुभवाय तुभ्यम्‌ ॥

    १॥

    रहूगण: उवाच--राजा रहूगण ने कहा; नम:--मेरा नमस्कार है; नम:--नमस्कार; कारण-विग्रहाय--समस्त कारणों के कारण,परमात्मा से प्रकट होने वाले को; स्वरूप-तुच्छीकृत-विग्रहाय--अपने सत्य रूप को प्रकट करके शास्त्रों के विरोधों को दूरकरनेवाले; नम: --नमस्कार; अवधूत-हे योगेश्वर; द्विज-बन्धु-लिड्र--ब्राह्मण कुल में उत्पन्न पुरुष के लक्षणों के द्वारा ( भले हीब्राह्मण का कर्म न करता हो ); निगूढ-- प्रच्छन्न; नित्य-अनुभवाय--उसे जिसका शाश्वत आत्म-साक्षात्कार होता हो; तुभ्यम्‌--तुम्हें ?

    राजा रहूगण ने कहा--हे महात्मन्‌ू, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से अभिन्न हैं।

    आपकेप्रभाव से शास्त्रों के समस्त विरोधभास दूर हो गये हैं।

    आप ब्रह्म-बन्धु के वेश में अपने दिव्यआनन्दमय स्वरूप को छिपाए हुए हैं।

    मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    ज्वरामयार्तस्य यथागदं सत्‌निदाघदग्धस्य यथा हिमाम्भ: ।

    कुदेहमानाहिविदष्टशष्टेःब्रह्मन्वचस्तेडमृतमौषधं मे ॥

    २॥

    ज्वर--ज्वर, या ताप के; आमय--रोग से; आर्तस्य--पीड़ित पुरुष की; यथा--जिस प्रकार; अगदम्‌-- औषधि दवा; सत्‌--सही; निदाघ-दग्धस्य--लू लगने पर; यथा--जैसे; हिम-अम्भ:--अति शीतल जल; कु-देह--इस शरीर में, जो मल-मूत्र जैसागंदी वस्तुओं से पूरित है; मान--गर्व रूपी; अहि--सर्प से; विदृष्ट--दंशित, काटा गया; दृष्टे:--दृष्टि वाले का; ब्रह्मनू-हेब्राह्मणों में श्रेष्ठ; बच:--शब्द, वाणी; ते--तुम्हारी; अमृतम्‌--अमृत; औषधम्‌--दवा; मे--मेरे लिए?

    हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मेरा शरीर मल से पूर्ण और मेरी दृष्टि गर्व रूपी सर्प द्वारा दंशित है।

    अपनीभौतिक बुद्धि के कारण मैं रुग्ण हूँ।

    इस प्रकार के ज्वर से पीड़ित व्यक्ति के लिए आपकेअमृतमय उपदेश वैसे ही हैं जैसे कि धूप ( लू ) से झुलसे हुए व्यक्ति के लिए शीतल जल होताहै।

    तस्माद्धवन्तं मम संशयार्थप्रक्ष्यामि पश्चादधुना सुबोधम्‌ ।

    अध्यात्मयोगग्रथितं तवोक्त-माख्याहि कौतूहलचेतसो मे ॥

    ३॥

    तस्मातू--अतः; भवन्तम्‌-- आपको; मम--मुझको; संशय-अर्थम्‌--वे विषय जिसका अर्थ मुझे ज्ञात नहीं; प्रक्ष्यामि--कहूँगा;पश्चात्‌-बाद में; अधुना--इस समय; सु-बोधम्‌-- सरलता से समझ में आ जाने वाला, बोधगम्य; अध्यात्म-योग--आत्म-साक्षात्कार हेतु योग शिक्षा का; ग्रधितम्‌ू--रचित; तब--तुम्हारी; उक्तमू--वाणी, वचन; आख्याहि--पुनः विस्तार से समझाइये;'कौतूहल-चेतस:--ऐसे उत्कण्ठा से ?

    पूर्ण कथनों के मर्म को समझने के लिए जिसका मन अत्यन्त उत्सुक है; मे--मुझको |

    यदि किसी विशेष विषय पर मेरी शंकाएँ रह गई हैं, तो मैं उनके सम्बन्ध में आपसे बाद मेंपूछूँगा।

    किन्तु इस समय आपने आत्म-साक्षात्कार के लिए जो गूढ़ योग के उपदेश दिये हैं उनकोसमझ पाना कठिन है।

    कृपया उन्हें सरल रीति से पुनः कहें जिससे मैं उन्हे समझ सकूँ।

    मेरा मनअत्यन्त उत्सुक है और मैं इसे भलीभाँति समझ लेना चाहता हूँ।

    यदाह योगेश्वर दृश्यमानंक्रियाफलं सद्व्यवहारमूलम्‌ ।

    न हाझ्जसा तत्त्वविमर्शनायभवानमुष्मिन्भ्रमते मनो मे ॥

    ४॥

    यत्‌--जो; आह--आपने कहा है; योग-ईश्वर--हे योग शक्ति के स्वामी; हृश्यमानम्‌-- भली-भाँति दिखते हुए; क्रिया-फलम्‌--शरीर को इधर-उधर हिलाने डुलाने का फल यथा थकान; सत्‌ू--विद्यमान; व्यवहार-मूलम्‌--जिसका आधार केवल शिष्टता है;न--नहीं; हि--निश्चय ही; अज्धसा--वस्तुतः-वास्तव में; तत्त्व-विमर्शनाय--विमर्श द्वारा सत्य को समझने के लिए; भवान्‌--आप; अमुष्मिन्‌--उस कथन में; भ्रमते-- चक्कर काट रहा है; मनः--मन; मे--मेरा |

    हे योगेश्वर आपने कहा है कि शरीर को इधर-उधर हिलाने-डुलाने से उत्पन्न थकान प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है, किन्तु वास्तव में कोई थकान नहीं रहती।

    वह तो कहने के लिए होती है।

    ऐसेप्रश्नोत्तरों से परम सत्य के विषय में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

    आपके इस कथन सेमेरा मन कुछ-कुछ विचलित है।

    ब्राह्मण उवाचअयं जनो नाम चलन्पृथिव्यांयः पार्थिव: पार्थिव कस्य हेतोः ।

    तस्यापि चाड्ग्घ्रयोरधि गुल्फजड्डा-जानूरुमध्योरशिरोधरांसा: ॥

    ५॥

    अंसेधि दार्वी शिबिका च यस्यांसौवीरराजेत्यपदेश आस्ते ।

    यस्मिन्भवातब्रूढनिजाभिमानोराजास्मि सिन्धुष्विति दुर्मदान्ध: ॥

    ६॥

    ब्राह्मण: उवाच--ब्राह्मण ने कहा; अयम्‌--यह; जन:ः--पुरुष; नाम--पदवी; चलनू--चलते हुए; पृथिव्याम्‌--पृथ्वी पर; य:--जो; पार्थिव:--पृथ्वी का रूप; पार्थिव--हे राजा, जिसका शरीर पार्थिव है; कस्य--किस; हेतो: --कारण; तस्य अपि-- उसकाभी; च--तथा; अड्ग्घ्रयो: --पाँव; अधि--ऊपर; गुल्फ--टखने; जज्ञ--पिंडली; जानु--घुटने; उरू--जघन, जाँघ;मध्योर--कटि, कमर; शिर:-धर--गर्दन; अंसा:--कंधे; अंसे--कंधा; अधि--ऊपर; दार्बी--लकड़ी की बनी हुई;शिबिका--पालकी; च--तथा; यस्यामू--जिस पर; सौवीर-राजा--सौवीर का राजा; इति--इस प्रकार; अपदेश:--विख्यात;आस्ते-- है; यस्मिन्‌--जिसमें; भवान्‌ू-- आप; रूढ-- आसीन; निज-अभिमान:--मिथ्या प्रतिष्ठा का भाव; राजा अस्मि--राजाहूँ; सिन्धुषु--सिन्धु राज्य में; इति--इस प्रकार; दुर्मद-अन्ध:--अहंकार के वशीभूत, मद से अंधे।

    स्वरूपसिद्ध ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा--अनेक भौतिक संयोगों में विविध रूप तथा पार्थिवरूपान्तर विद्यमान हैं।

    कुछ कारणवश ये पृथ्वी पर हिलते-डुलते हैं और पालकीवाहक ( कहार )कहलाते हैं।

    इनमें से वे रूपान्तर जो गति नहीं करते वे पत्थर जैसे स्थूल पदार्थ हैं।

    प्रत्येक दशा मेंयह भौतिक देह पाँव, टखना, पिंडली, घुटना, जाँघ, कमर, गर्दन तथा सिर के रूप में मिट्टी तथापत्थर से बनी हैं।

    इसके कंधों के ऊपर काठ की पालकी रखी है और उसके भीतर सौवीर का राजा बैठा है।

    राजा का शरीर मिट्टी का अन्य रूपान्तर मात्र है, किन्तु उस शरीर के भीतर आपस्थिर हैं और अहंकारवश अपने को सौवीर राज्य का राजा मान रहे हैं।

    शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान्‌विष्टयया निगृह्नन्निरनुग्रहोडसि ।

    जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानोन शोभसे वृद्धसभासु धृष्ट: ॥

    ७॥

    शोच्यान्‌ू--शोचनीय है; इमान्‌--ये सब; त्वमू-- तुम; अधि-कष्ट-दीनान्‌ू-- अपनी दरिद्रता के कारण बेचारे लोग और अधिककष्ट उठा रहे हैं; विष्ठधया--बलपूर्वक; निगृह्न्‌-- पकड़े हुए; निरनुग्रहः असि--तुम अत्यन्त दया से हीन हो; जनस्थ--सामान्यलोगों का; गोप्ता अस्मि--मैं रक्षक ( राजा ) हूँ; विकत्थमान:--डींग मारते हुए; न शोभसे--तुम्हें शोभा नहीं देता; वृद्ध-सभासु--विद्वानों की सभा में; धृष्ट:--बढ़-चढ़कर बातें करने वाला, उद्धत |

    किन्तु यह सच है कि बेगारी में तुम्हारी पालकी ले जाने वाले ये निर्दोष व्यक्ति इस अन्यायके कारण कष्ट उठा रहे हैं।

    उनकी दशा अत्यन्त शोचनीय है, क्योंकि तुमने अपनी पालकी लेजाने के लिए जबरन उन्हें लगा रखा है।

    इससे सिद्ध होता है कि तुम क्रूर तथा निर्दय हो।

    तो भीअहंकारवश तुम यह सोच रहे थे कि तुम प्रजा के रक्षक हो।

    यह हास्यास्पद है।

    तुम जैसे मूर्ख कोज्ञानी पुरुषों की सभा में भला कौन महान्‌ पुरुष मान सकता है ?

    यदा क्षितावेव चराचरस्यविदाम निष्टां प्रभवं च नित्यम्‌ ।

    तन्नामतो न्यद्व्यवहारमूलंनिरूप्यतां सत्क्रिययानुमेयम्‌ ॥

    ८ ॥

    यदा--अतः ; क्षितौ--पृथ्वी पर; एव--निश्चय ही; चर-अचरस्य--चर तथा अचर का; विदाम--हम जानते हैं; निष्ठाम्‌ू--प्रलय,संहार; प्रभवम्‌--सृष्टि; च--तथा; नित्यम्‌ू--प्रकृति के नियमों से नियमित रूप से; तत्‌ू--वह; नामत:ः--केवल नाम से;अन्यत्‌--अन्य; व्यवहार-मूलम्‌-- भौतिक कार्यो का कारण; निरूप्यताम्‌--निश्चित किया गया; सतू-क्रियया--वास्तविक कार्यसे; अनुमेयम्‌--निष्कर्ष निकालना चाहिए ?

    हम इस पृथ्वी के ऊपर विभिन्न रूपों में जीवात्माएँ हैं।

    हममें से कुछ गतिशील हैं, तो कुछ गति नहीं करते।

    हम सभी उत्पन्न होते हैं, कुछ समय तक रहते हैं और नष्ट हो जाने पर पृथ्वी मेंपुनः मिल जाते हैं।

    हम सभी पृथ्वी के विभिन्न रूपान्तर ( पार्थिव ) हैं; विभिन्न शरीर तथाउपाधियाँ पृथ्वी के रूपान्तर मात्र हैं और नाम के लिए ही विद्यमान रहती हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तुपृथ्वी से निकलती है और जब सब कुछ विनष्ट हो जाता है, तो वह फिर पृथ्वी में मिल जाती है।

    दूसरे शब्दों में, हम केवल धूल हैं और धूल ही रहेंगे।

    सबों को इस पर विचार करना चाहिए।

    एवं निरुक्त क्षितिशब्दवृत्त-मसन्निधानात्परमाणवो ये ।

    अविद्यया मनसा कल्पितास्तेयेषां समूहेन कृतो विशेष: ॥

    ९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; निरुक्तम्‌-मिथ्या वर्णन किया गया; क्षिति-शब्द--क्षिति अर्थात्‌ 'पृथ्वी ' शब्द; वृत्तम्‌--उपस्थिति;असत्‌ू--असत्य; निधानात्‌ू--विलीन होने से; परम-अणव: --अत्यन्त सूक्ष्म कण; ये--जो सब; अविद्यया--अविद्या अर्थात्‌अज्ञान से; मनसा--मन से; कल्पिता:--कल्पना किये हुए; ते--वे; येषामू--जिनका; समूहेन--समूह के द्वारा; कृत:--बनायाहुआ; विशेष:--विशेष |

    कोई यह कह सकता है कि विविधता तो स्वयं पृथ्वी से उत्पन्न होती है।

    तथापि यह ब्रह्माण्डभले ही थोड़े समय तक सत्य प्रतीत हो पर वास्तव में इसका कोई अस्तित्व नहीं है।

    यह पृथ्वीमूलतः सूक्ष्म कणों के संयोग से उत्पन्न हुई थी, किन्तु ये कण अस्थायी हैं।

    वास्तव में परमाणुब्रह्माण्ड का कारण नहीं, यद्यपि कुछ दार्शनिक ऐसा सोचते हैं।

    यह सत्य नहीं है कि इस संसारमें पाई जाने वाली विविधता ( किसमें ) परमाणुओं के उलट-पुलट या विविध संयोगों का प्रतिफल है।

    एवं कृशं स्थूलमणुरबृहद्यद्‌असच्च सज्जीवमजीवमन्यत्‌ ।

    द्रव्यस्वभावाशयकालकर्म -नाम्नाजयावेहि कृतं द्वितीयम्‌ ॥

    १०॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कृशम्‌--दुर्बल या छोटा; स्थूलमू--मोटा; अणु:--लघु; बृहत्‌--बड़ा; यत्‌--जो; असत्‌--अस्थायी; च--तथा; सत्‌--अस्तित्वमान्‌; जीवम्‌--जीवात्मा; अजीवम्‌--जड़, जीवरहित पदार्थ; अन्यत्‌--अन्य कारण; द्रव्य--घटना; स्व-भाव--प्रकृति, आचरण; आशय--मन्तव्य; काल--समय; कर्म--कार्य, वृत्ति; नाम्ना--नामों से; अजया-- प्रकृति द्वारा;अवेहि--तुम्हें समझना चाहिए; कृतम्‌--किया गया; द्वितीयम्‌-द्वैत?

    चूँकि इस ब्रह्माण्ड का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, अतः इसके भीतर की वस्तुएँ--यथा लघुता, अन्तर, स्थूलता, कृशता, सूक्ष्मता, विशालता, परिणाम, कारण, कार्य, चेतना तथाद्रव्य--ये सब काल्पनिक हैं।

    ये एक ही वस्तु-मिट्टी के बने पात्र हैं, किन्तु इनके नाम भिन्न-भिन्नहैं।

    ये अन्तर पदार्थ, प्रकृति, आशय, काल तथा क्रिया ( कर्म ) द्वारा जाने जाते हैं।

    तुम्हें जाननाचाहिए कि ये प्रकृति द्वारा उत्पन्न यांत्रिक अभिव्यक्तियाँ हैं।

    ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेक-मनन्तरं त्वबहिर्त्रह्य सत्यम्‌ ।

    प्रत्यक्प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञंयद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ॥

    ११॥

    ज्ञाममू--परम ज्ञान; विशुद्धमू--कल्मषहीन, शुद्ध; परम-अर्थम्‌--जीवन का परम उद्देश्य प्रदान करने वाला; एकम्‌ू--एक;अनन्तरमू-- अन्तरविहीन; तु-- भी; अबहि:--बाह्य रहित; ब्रह्म--ब्रह्म, परम; सत्यमू--परम सत्य; प्रत्यक्‌ू--आन्तरिक,आशभ्यन्तर; प्रशान्तम्‌-शान्त परमेश्वर, जिसकी उपासना योगी करते हैं; भगवत्‌-शब्द-संज्ञम्‌-- भगवान्‌ शब्द से ज्ञात अथवासम्पूर्ण ऐश्वर्य से पूर्ण; यत्‌--उस; वासुदेवम्‌-- श्रीकृष्ण, वसुदेव के पुत्र को; कबयः--बुद्धिमान अथवा विद्वान; बदन्ति--कहतेहैं।

    तो फिर परम सत्य क्या है? उत्तर है अद्बैत ज्ञान जो भौतिक गुणों के कल्मष से रहित है।

    वहमुक्तिप्रदायक है।

    वह अद्वितीय, सर्वव्यापी तथा कल्पनातीत है।

    उस ज्ञान की प्रथम प्रतीति ब्रह्महै।

    फिर योगियों द्वारा अनुभव किया जाने वाला परमात्मा है।

    जो बिना किसी कष्ट के उसे देखनेका प्रयास करते है यह प्रतीति की दूसरी अवस्था है।

    अन्त में परम पुरुष में ही उसी परम ज्ञान कीपूर्ण प्रतीति की जाती है।

    सभी विद्वान परम पुरुष को वासुदेव के रूप में वर्णन करते हैं, जोब्रह्म, परमात्मा आदि का कारण है।

    रहूगणैतत्तपसा न यातिन चेज्यया निर्वपणादगृहाद्वा ।

    न च्॒छन्दसा नेव जलाग्निसूर्य -विना महत्पादरजोउभिषेकम्‌ ॥

    १२॥

    रहूगण--हे राजा रहूगण; एतत्‌--यह ज्ञान; तपसा--कठिन तपस्या द्वारा; न याति--नहीं आता; न--नहीं; च-- भी; इज्यया --श्रीविग्रह की पूजा के लिए महत्‌ आयोजन से; निर्वपणात्‌--अथवा समस्त सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करने और संन्यास ग्रहणकरने से; गृहात्‌--आदर्श गृहस्थ जीवन से; वा--अथवा; न--न तो; छन्दसा--ब्रह्मचर्य धारण करने या वेदों के अध्ययन से; नएव--न तो; जल-अग्नि-सूर्य:-- जल, तपती धूप या जलती अग्नि में रह कर कठिन तपस्या करने से; विना--रहित; महत्‌--परम भक्तों की; पाद-रज:--चरण धूलि में; अभिषेकम्‌--शरीर मार्जन, स्नान?

    हे राजा रहूगण, महापुरुषों के चरणकमलों की धूलि से सम्पूर्ण शरीर को मलने के लिएबिना परम सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती।

    ब्रह्मचर्य धारण करने, गृहस्थ जीवन के विधि-विधानों के अनुपालन, वानप्रस्थ के रूप में गृहत्याग अथवा संन्यास ग्रहण करने या शीत ऋतु मेंजल में घुस कर घोर तपस्या करने, या ग्रीष्म में अग्नि से घिर रहने झुलसती धूप में पड़े रहनेजैसी कठिन तपस्याओं से परम सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती।

    परम सत्य को जानने के औरभी अनेक साधन हैं, किन्तु परम सत्य उसे ही प्राप्त होता है, जिसे किसी महान्‌ भक्त का अनुग्रहप्राप्त हो।

    यत्रोत्तमश्लोकगुणानुवाद:प्रस्तूयते ग्राम्यक थाविघात: ।

    निषेव्यमाणो<नुदिन मुमुक्षो-मतिं सतीं यच्छति वासुदेवे ॥

    १३॥

    यत्र--जिस स्थान में ( भक्तों के समक्ष ); उत्तम-शलोक-गुण-अनुवाद:-- श्रीभगवान्‌ की लीलाओं तथा गुणों की चर्चा;प्रस्तूयते--प्रस्तुत की जाती है; ग्राम्य-कथा-विघात:--जिसके कारण लौकिक विषयों की चर्चा के लिए अवसर नहीं मिलता;निषेव्यमाण: --अत्यन्त मनोयोग से सुनी जाकर; अनुदिनम्‌--नित्यप्रति; मुमुक्षो:-- भौतिक बंधन से निकलने के लिए इच्छुकव्यक्ति का; मतिम्‌-ध्यान; सतीम्‌--शुद्ध तथा सरल; यच्छति--लगा देती है; वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेव के चरमकमलों में |

    यहां वर्णित वे शुद्ध भक्त कौन हैं? शुद्ध भक्तों की सभा में राजनीति या समाजशामस्त्र जैसेसांसारिक विषयों पर चर्चा चलाने का प्रश्न ही नहीं उठता।

    वहाँ तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कीलीलाओं, स्वरूप एवं गुणों की ही चर्चा होती है।

    उनकी प्रशंसा तथा उपासना पूर्ण मनोयोग सेकी जाती है।

    यहाँ तक कि विशुद्ध भक्तों की संगति से, ऐसे विषयों को लगातार आदर पूर्वकसुनने से ऐसा पुरुष जो परम सत्य में तदाकार होना चाहता है, वह भी अपने इस विचार को त्यागकर क्रमश: वासुदेव की सेवा में आसक्त हो जाता है।

    अहं पुरा भरतो नाम राजाविमुक्तदृष्टश्रुतसड्रबन्ध: ।

    आराधनं भगवत ईहमानो मृगोभवं मृगसड्भाद्धतार्थ: ॥

    १४॥

    अहम्‌ू--ै; पुरा--पहले ( पूर्व जन्म में ); भरतः नाम राजा--भरत नाम का राजा; विमुक्त--मुक्त; दृष्ट-श्रुत--प्रत्यक्ष अनुभव सेअथवा वेदों से ज्ञान प्राप्त करके ; सड़-बन्ध: --संगति का बन्धन; आराधनम्‌--पूजा; भगवतः--भगवान्‌ की; ईहमान:--सदैवकरते हुए; मृग: अभवम्‌--मैं मृग बन गया; मृग-सड्भात्‌ू--मृग के साथ घनिष्ठ मैत्री से; हत-अर्थ: --भक्ति के विधि-विधानों कीउपेक्षा करके |

    मैं पूर्वजन्म में महाराज भरत के नाम से विख्यात था।

    मैंने प्रत्यक्ष अनुभव तथा वेद-ज्ञान सेप्राप्त अप्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सांसारिक कार्यों से पूर्णतया विरक्त होकर सिद्धि प्राप्त की।

    मैंपूर्णतया भगवान्‌ की सेवा में तत्पर रहता था, किन्तु दुर्भाग्यवश मैं एक छोटे से मृग के प्रतिइतना आसक्त हो उठा कि मैंने सारे आध्यात्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा कर दी।

    मृग के प्रति प्रगाढ़स्नेह के कारण अगले जन्म में मुझे मृग का शरीर अंगीकार करना पड़ा।

    सा मां स्मृतिर्मुगदेहे पि वीरकृष्णार्चनप्रभवा नो जहाति ।

    अथो अहं जनसड्रादसड़ोविशड्जभमानोविवृतश्चरामि ॥

    १५॥

    सा--वह; माम्‌--मुझको; स्मृति: --पूर्वजन्म के कर्मो की याद; मृग-देहे--मृग के शरीर में; अपि--यद्यपि; वीर--हे वीर;कृष्ण-अर्चन-प्रभवा-- श्रीकृष्ण की एकनिष्ठ सेवा के प्रभाव से प्रकट; नो जहाति--नहीं छोड़ पाई; अथो-- अतः; अहम्‌--मैं;जन-सझ्त्‌--सामान्य पुरुषों के संसर्ग से; असड्भ:--पूर्णतया विरक्त; विशद्जूमान:-- भयभीत होकर; अविवृतः --दूसरों सेअलक्षित, गुप्त; चरामि--इधर-उधर घूमता हूँ।

    हे वीर राजा, अपनी पूर्व अनन्य भगवत्‌ू-भक्ति के फलस्वरूप मृग शरीर में रहकर भी मुझे पूर्वजन्म की प्रत्येक वस्तु स्मरण रही।

    चूँकि मैं अपने पूर्वजन्म के पतन से परिचित हूँ, अतः मैंसामान्य व्यक्तियों के संसर्ग से अपने को दूर रखता हूँ।

    उनकी कुसंगति से डरकर मैं अलक्षित( गुप्त ) होकर अकेला घूमता फिरता हूँ।

    तस्मान्नरोसड्रसुसड्रजात-ज्ञानासिनेहेव विवृक्णमोहः ।

    हरिं तदीहाकथनश्रुता भ्यांलब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वन: ॥

    १६॥

    तस्मात्‌--इस कारण से; नरः--प्रत्येक व्यक्ति; असड्र--सांसारिक पुरुषों के संसर्ग से विरक्त होकर; सु-सड़--भक्तों की संगतिसे; जात--उत्पन्न; ज्ञान-असिना--ज्ञान रूपी तलवार से; इह--इस भौतिक जगत में; एब--यहाँ तक कि; विवृकण-मोहः --मोह छिन्न-छिन्न हो जाता है; हरिम्‌-- श्री भगवान्‌; तद्‌ू-ईहा--उनके कार्यों का; कथन-श्रुताभ्याम्‌ू-- श्रवण तथा कीर्तन इन दोविधियों से; लब्ध-स्मृति:ः--खोई चेतना प्राप्त हो जाती है; याति-- प्राप्त करता है; अतिपारमू--परम अन्त; अध्वन:--परम धामका ?

    उन्नत भक्तों की संगति मात्र से पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और फिर ज्ञान कीतलवार से सांसारिक मोहों को छिन्न-भिन्न किया जा सकता है।

    भक्तों की संगति से ही श्रवणतथा कीर्तन ( श्रवण कीर्तनम्‌ ) द्वारा भगवान्‌ की सेवा में अनुरक्त हुआ जा सकता है।

    इस प्रकारसे अपने सुप्त कृष्णभावनामृत को जागृत किया जा सकता है और कृष्णभावनामृत केअनुशीलन द्वारा इसी जीवन में परमधाम को वापस जाया जा सकता है।

    TO

    अध्याय तेरह: राजा राहुगण और जड़ भरत के बीच आगे की बातचीत

    5.13ब्राह्मण उवाचदुरत्यये ध्वन्यजया निवेशितोरजस्तमःसत्त्वविभक्तकर्महक्‌ ।

    स एघ सार्थोथपर: परिभ्रमन्‌भवाटवीं याति न शर्म विन्दति ॥

    १॥

    ब्राह्मण: उवाच--ब्राह्मण जड़ भरत ने कहा; दुरत्यये--जिसको पार करना कठिन है, दुर्गम; अध्वनि--सकाम कर्मों के पथ पर( इस जन्म में कर्म करना, इन कर्मों के आधार पर अगले जन्म में शरीर ग्रहण करना और इस प्रकार जन्म-मरण के चक्र कोस्वीकार करना ); अजया--माया के द्वारा, श्रीभगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति; निवेशित:--सन्निविष्ट; रज:-तमः-सत्त्व-विभक्त-कर्म-हक्‌--बद्ध आत्मा जो लाभप्रद कर्मों तथा उनके फलों को तुरन्त देख लेता है जो सतो, रजो तथा तमो गुणों द्वारा तीनसमूहों में विभक्त है; सः--वह; एष:--यह; स-अर्थ:--सकाम; अर्थ-पर:--धन प्राप्ति में तुला हुआ; परिभ्रमन्‌--सर्वत्र घूमतेहुए; भव-अटवीम्‌-- भव नामक जंगल अर्थात्‌ जन्म-मरण का चक्र; याति-- प्रवेश करता है; न--नहीं; शर्म--सुख;विन्दति-प्राप्त करता है|?

    ब्रह्म-साक्षात्कार-प्राप्त जड़ भरत ने आगे कहा--हे राजा रहूगण, जीवात्मा इस संसार केदुर्लघ्य पथ पर घूमता रहता है और बारम्बार जन्म तथा मृत्यु स्वीकार करता है।

    प्रकृति के तीनगुणों ( सत्त्व, रज तथा तम ) के प्रभाव से इस संसार के प्रति आकृष्ट होकर जीवात्मा प्रकृति केजादू से केवल तीन प्रकार के फल जो शुभ, अशुभ तथा शुभाशुभ होते हैं देख पाता है।

    इसप्रकार वह धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति तथा मुक्ति की अद्बैत भावना ( परमात्मा में तादात्म्य ) के प्रति आसक्त हो जाता है।

    वह उस वणिक के समान अहर्निश कठोर श्रम करता हैजो कुछ सामग्री प्राप्त करने और उससे लाभ उठाने के उद्देश्य से जंगल में प्रवेश करता है।

    किन्तुउसे इस संसार में वास्तविक सुख उपलब्ध नहीं हो पाता।

    यस्यामिमे षण्नरदेव दस्यवःसार्थ बिलुम्पन्ति कुनायकं बलातू ।

    गोमायवो यत्र हरन्ति सार्थिकंप्रमत्तमाविश्य यथोरणं वृका: ॥

    २॥

    यस्यामू--जिसमें ( भवाटवी में ); इमे--ये; घट्‌ू--छ: ; नर-देव--हे राजा; दस्यव:--लुटेरे; स-अर्थम्‌--मिथ्या विचारों में ग्रस्तबद्धजीव; विलुम्पन्ति--लूटते हैं सर्वस्व हर लेते हैं; कु-नायकम्‌--जो नामधारी गुरुओं द्वारा सदैव ही कुमार्ग में ले जाये जाते हैं;बलातू--बलपूर्वक; गोमायव: --लोमड़ियों की तरह; यत्र--जिस जंगल में; हरन्ति--लूट लेते हैं; स-अर्थिकम्‌--जीव जो अपनेशरीर और आत्मा के पोषण के लिए धन की खोज करता रहता है; प्रमत्तमू--आत्महित न समझने वाला पागल व्यक्ति;आविश्य-- भीतर प्रवेश करके; यथा--जिस प्रकार; उरणम्‌--सुरक्षित मेमने को; वृका:--भेड़िये |

    हे राजा रहूगण, इस संसार रूपी जंगल ( भवाटवी ) में छह अत्यन्त प्रबल लुटेरे हैं।

    जबबद्धजीव कुछ भौतिक लाभ के हेतु इस जंगल में प्रवेश करता है, तो ये छहों लुटेरे उसे गुमराहकर देते हैं।

    इस प्रकार से बद्ध वणिक ( व्यापारी ) यह नहीं समझ पाता कि वह अपने धन कोकिस प्रकार खर्चे और यह धन इन लुतेरों द्वारा छीन लिया जाता है।

    जिस प्रकार चौकसी में पलेमेमने को उठा ले जाने के लिए जंगल में भेड़िए, सियार तथा अन्य हिंस््र पशु रहते हैं उसी प्रकार पत्नी तथा सन्तान उस वणिक के हृदय में प्रवेश करके अनेक प्रकार से लूटते रहते हैं।

    प्रभूतवीरुत्तणगुल्मगह्नरेकठोरदंशैर्मशकैरुपद्गुतः ।

    क्वचित्तु गन्धर्वपुरं प्रपश्यतिक्वचित्क्वचिच्चाशुरयोल्मुकग्रहम्‌ ॥

    ३॥

    प्रभूत-- प्रचुर; वीरुतू--लताओं; तृण--घास के तिनकों; गुल्म--घने जंगलों के ; गह्हे--कुंजों में; कठोर--क्रूर; दंशै: --काटने से; मशकै:--मच्छरों के द्वारा; उपद्रुत:--विश्लुब्ध; क्वचित्‌ू--कभी-कभी; तु--लेकिन; गन्धर्व-पुरम्‌--गन्धर्वों द्वाराबनाया गया मिथ्या स्थान, कल्पित गन्धर्वपुरी; प्रपश्यति--देखता है; क्वचित्‌--( तथा ) कभी-कभी; क्वचित्‌--कभी-कभी;च--तथा; आशु-रय--अ त्यन्त तेजी से; उल्मुक--उल्का के तुल्य; ग्रहम्‌-- भूतप्रेत, पिशाच।

    इस जंगल में झाड़ियों, घास तथा लताओं के झाड़-झंखाड़ से बने सघन कुंजों में बुरी तरहसे काटने वाले मच्छरों (ईर्ष्यालु पुरुषों ) के होने से बद्धजीव निरन्तर परेशान रहता है।

    कभीकभी उसे जंगल में काल्पनिक महल ( गन्धर्वपुर ) दिखता है, तो कभी कभी वह आसमान सेटूटते उल्का के समान प्रेत को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।

    निवासतोयद्रविणात्मबुद्धि-स्ततस्ततो धावति भो अटव्याम्‌ ।

    क्वचिच्च वात्योत्थितपांसुधूप्रादिशो न जानाति रजस्वलाक्ष: ॥

    ४॥

    निवास--आवास; तोय--जल; द्रविण--सम्पत्ति; आत्म-बुद्द्धिः--जो भौतिक वस्तुओं को आत्मा या स्वयं मानता है; ततःततः--इधर-उधर; धावति--दौड़ता है; भोः--हे राजा; अटव्याम्‌--इस संसार रूपी जंगल-मार्ग पर; क्वचित्‌ च--तथा कभी-कभी; वात्या--बवंडर से; उत्थित--ऊपर उठ कर; पांसु-- धूलि से; धूप्राः--धुंएँ के रंग का प्रतीत होता है; दिश:--दिशाएँ;न--नहीं; जानाति--जानता है; रज:-वल-अक्ष:--हवा की धूल से ढकी हुई आँखों वाला अथवा जो रजस्वला पतली के प्रतिआकृष्ट है।

    हे राजनू, इस संसार रूपी जंगल के मार्ग में घर, सम्पत्ति, कुटुम्बी इत्यादि से भ्रमित बुद्धिवाला वणिक सफलता की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को दौड़ता रहता है।

    कभी-कभीउसकी आँखें बवंडर की धूल से ढक जाती हैं, अर्थात्‌ कामवश वह अपनी स्त्री की सुन्दरता केप्रति, उसे विशेष रूप से रजोकाल में, मुग्ध हो जाता है।

    इस प्रकार अन्धा होने से उसे यह नहींदिखाई पड़ता कि उसे कहाँ जाना है, अथवा वह क्‍या कर रहा है।

    अदृश्यझिल्लीस्वनकर्णशूलउलूकवाग्भिव्यथिितान्तरात्मा ।

    अपुण्यवृक्षान्श्रयते श्षुधार्दितोमरीचितोयान्यभिधावति क्वचित्‌ ॥

    ५॥

    अदृश्य--न दिखने वाले; झिल्ली--झींगुरों अथवा मधुमक्खियों के प्रकार का एक कीट; स्वन--शब्द से; कर्ण-शूल--कानोंके लिए दुखदायी, कर्णकटु; उलूक--उल्लू की; वाग्भि: --बोली से; व्यधित--अत्यन्त विचलित; अन्त:-आत्मा--मन तथाहृदय; अपुण्य-वृक्षान्‌ू--अपवित्र वृक्ष, जिनमें फल-फूल नहीं लगते; श्रयते--शरण लेता है; क्षुध-- भूख से; अर्दित:--सतायाहुआ; मरीचि-तोयानि--मृगतृष्णा के लिए; अभिधावति--पीछे दौड़ता है; क्वचित्‌ू--कभी-कभी |

    संसार रूपी जंगल में घूमते हुए बद्धजीव को कभी-कभी अदृश्य झींगुरों की तीक्ष्ण ध्वनिसुनाई पड़ती है जो उसके कानों को अत्यन्त दुखदायी लगती है।

    कभी-कभी उसका हृदय अपनेशत्रुओं के कटु वचनों जैसी प्रतीत होने वाली उल्‍लुओं की ध्वनि से व्यधित ( विचलित ) होउठता है।

    कभी वह बिना फल फूल वाले वृक्षों का आश्रय ग्रहण करता है क्योंकि वह भूखाहोता है, किन्तु उसे कुछ न मिलने से कष्ट भोगना पड़ता है।

    उसे जल की इच्छा होती है किन्तु वह केवल मृगतृष्णा से मोहित हो जाने के कारण उसके पीछे दौड़ता है।

    क्वचिद्वितोया: सरितोभियातिपरस्परं चालषते निरन्ध: ।

    आसाद्य दावं क्वचिदग्नितप्तोनिर्विद्यते क्व च यक्षेहदतासु: ॥

    ६॥

    क्वचित्‌--कभी; वितोया:--जलहीन; सरित:--नदियाँ; अभियाति--नहाने जाता है अथवा भीतर कूदता है; परस्परम्‌ू--एकदूसरे से; च--तथा; आलषते--कामना करता है; निरन्ध:--अन्नहीन होने पर; आसाद्य--अनुभव करके; दावम्‌ू-- पारिवारिकजीवन में जंगल की आग, दावाग्नि; क्वचित्‌--कभी; अग्नि-तप्त:--आग से जलने के कारण; निर्विद्यते--निराश होता है;क्व--कहीं; च--तथा; यक्षेः--डाकुओं तथा उचक्कों जैसे राजाओं द्वारा; हत--ले लिया जाने पर, छीने जाने पर; असु:--सम्पत्ति, जो प्राणों के समान प्रिय है|?

    कभी-कभी बद्धजीव उथली नदी में कूद पड़ता है अथवा खाद्यान्न न होने पर ऐसे लोगों सेअन्न माँगता है जो दानी नहीं हैं ही नहीं।

    कभी कभी वह गृहस्थ जीवन की अग्नि से जलने लगताहै जो दावाग्नि जैसी होती है और कभी कभी वह उस सम्पत्ति के लिए दुखी हो उठता है जो उसेप्राणों से भी प्रिय है और जिसका अपहरण राजा लोग भारी आयकर के नाम पर करते हैं।

    श्रैईतस्वः क्व च निर्विण्णचेताःशोचन्विमुहान्रुपपाति कश्मलम्‌ ।

    क्वचिच्च गन्धर्वपुरं प्रविष्ट:प्रमोदते निर्वृतवन्मुहूर्तम्‌ ॥

    ७॥

    श्रैः--प्रबल शत्रुओं द्वारा; हृत-स्व:--जिसका समस्त धन चुराया जा चुका है; कब च--कभी-कभी; निर्विण्ण-चेता:--हृदयमें अन्यन्त खिन्न एवं व्यधित; शोचन्‌--अत्यधिक पकश्चात्ताप करते हुए; विमुहान्‌ू--किंकर्तव्यविमूढ़ होकर; उपयाति--हो जाताहै; कश्मलम्‌--संज्ञाशून्य, अचेत; क्वचित्‌ू--कभी-कभी; च-- भी ; गन्धर्व-पुरम्‌ू-- जंगल में स्थित कपोलकल्पित नगर में;प्रविष्ट: --प्रवेश हुआ; प्रमोदते--आनन्द भोगता है; निर्वृत-वत्‌--सिद्ध पुरुष के समान; मुहूर्तम्‌--केवल क्षण भर के लिए?

    कभी-कभी अपने से बड़े तथा बलवान व्यक्ति द्वारा पराजित होने अथवा लूटे जाने परजीवात्मा की सारी सम्पत्ति चली जाती है।

    इससे वह दुखी हो जाता है, क्षति पर पश्चात्ताप करताहै यहाँ तक कि कभी-कभी अचेत भी हो जाता है।

    कभी-कभी वह ऐसे विशाल प्रासाद कीकल्पना करने लगता है, जिसमें वह अपने परिवार तथा अपने धन समेत सुखपूर्वक रह सके।

    यदि ऐसा हो सके तो वह अपने को अत्यन्त सन्तुष्ट समझता है, किन्तु ऐसा तथाकथित सुखक्षणिक होता है।

    चलन्क्‍्वचित्कण्टकशर्कराड्प्रि-न॑गारुरुक्षुविमना इवास्ते ।

    पदे पदे भ्यन्तरवह्निनार्दितःकौटुम्बिक: क्रुध्यति वै जनाय ॥

    ८॥

    चलनू--चलते हुए; क्वचित्‌ू--कभी कभी; कण्टक-शर्कर--काँटे तथा कंकड़ों से छिद कर; अड्भप्रि:--जिनके पाँव; नग--पर्वत; आरुरुक्षु;--चढ़ने का इच्छुक; विमना:--उदास; इब--सहृश; आस्ते--हो जाता है; पदे पदे--प्रत्येक पग पर;अभ्यन्तर-- भीतरी, पेट के भीतर; वहिना--श्लुधा की प्रबल अग्नि से; अर्दित:--थक कर तथा दुखी होकर; कौटुम्बिक: --कुटुम्बियों के साथ रहने वाला व्यक्ति; क्रुध्यति--क्रोध करता है; बै--निश्चय ही; जनाय--अपने परिवार के सदस्यों पर।

    कभी-कभी जंगल का व्यापारी पर्वतों तथा पहाड़ियों के ऊपर चढ़ना चाहता है, किन्तुअपर्याप्त पदत्राण के कारण उसके पैरों में कंकड़ तथा काँटे गड़ जाते हैं जिससे वह अत्यन्तउदास हो जाता है।

    कोई व्यक्ति जो अपने परिवार के प्रति आसक्त होता है, वह कभी कभी जबअत्यधिक भूख के मारे त्रस्त हो जाता है, तो वह अपनी दयनीय स्थिति के कारण अपनेकुटुम्बियों पर विफर उठता है।

    क्वचित्निगीर्णोउजगराहिना जनोनावैति किद्ञिद्दिपिनेउपविद्धः ।

    दष्ट: सम शेते क्व च दन्दश्‌कैर्‌अन्धोन्धकूपे पतितस्तमिस्त्रे ॥

    ९॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; निगीर्ण:--निगले जाने पर; अजगर-अहिना--अजगर नामक बड़े सर्प द्वारा; जन:--बद्धजीव; न--नहीं; अवैति--समझता है; किज्जितू--कुछ भी; विपिने--जंगल में; अपविद्ध:--कष्ट के तीरों से बेधा हुआ; दष्ट:--दंश कियागया, काटे जाने पर; स्म--निस्संदेह; शेते--लेट जाता है; क्व च--कभी-क भी; दन्द-शूकैः -- अन्य सर्पों द्वारा; अन्ध:--अन्धा; अन्ध-कूपे--अंधे कुएँ में; पतित:--गिरा हुआ; तमिस्त्रे--नारकीय जीवन में?

    कभी-कभी इस भौतिक जंगल में बद्धजीव को अजगर निगल लेते हैं या मरोड़ डालते हैं।

    ऐसी अवस्था में वह चेतना तथा ज्ञान शून्य होकर मृत व्यक्ति तुल्य जंगल में पड़ा रहता है।

    कभी-कभी अन्य विषैले सर्प भी आकर काट लेते हैं।

    अचेतन होने के कारण वह नारकीय जीवन केअन्धे कूप में गिर जाता है जहाँ से बचकर निकल पाने की कोई आशा नहीं रहती।

    कर्हि सम चित्क्षुद्रससान्विचिन्व॑-स्तन्मक्षिकाभिव्यथितो विमान: ।

    तत्रातिकृच्छात्प्रतिलब्धमानोबलाद्विलुम्पन्त्यथ तं ततोउन्ये ॥

    १०॥

    कहि सम चितू--क भी-कभी; क्षुद्र-- अत्यन्त लघु; रसान्‌ू--रति सुख; विचिन्वन्‌--ढूँढने के लिए; तत्‌--उन स्त्रियों का;मक्षिकाभि:--मधुमक्खियों से अथवा पतियों या कुटुम्बियों से; व्यधित:ः--अत्यन्त दुखी; विमान: --अपमानित; तत्र--वहाँ पर;अति--अत्यन्त; कृच्छात्‌ू--धन के व्यय के कारण कठिनाई से; प्रतिलब्धमान: --रति सुख प्राप्त करके ; बलात्‌--बलपूर्वक;बिलुम्पन्ति--अपहरण की गईं; अथ--तत्पश्चात्‌; तम्‌--इन्द्रिय सुख की वस्तु ( स्त्री ); ततः--उससे; अन्ये--अन्य व्यभिचारी( कामी )?

    कभी-कभी थोड़े से रति-सुख के लिए मनुष्य चरित्रहीन स्त्री की खोज करता रहता है।

    इसप्रयास में उस स्त्री के सम्बन्धियों द्वारा उसका अपमान एवं प्रताड़न होता है।

    यह वैसा ही है जैसाकि मधुमक्खी के छत्ते से शहद ( मधु ) निकालते समय मक्खियाँ आक्रमण कर दें।

    कभी-कभीप्रचुर धन व्यय करने पर उसे कुछ अतिरिक्त इन्द्रिय भोग के लिए दूसरी स्त्री प्राप्त हो सकती है।

    किन्तु दुर्भाग्यवश इन्द्रिय सुख की सामग्री रूप वह स्त्री चली जाती है, अथवा किसी अन्य कामीद्वारा अपहरण कर ली जाती है।

    क्वचिच्च शीतातपवातवर्ष -प्रतिक्रियां कर्तुमनीश आस्ते ।

    क्वचिन्मिथो विपणन्यच्च किश्ञिद्‌विद्वेषमृच्छत्युत वित्तशाठ्यात्‌ ॥

    ११॥

    क्वचित्‌--क भी; च-- भी; शीत-आतप-वात-वर्ष--ठंड, कड़ी गर्मी, तेज हवा तथा अधिक वर्षा की; प्रतिक्रियाम्‌--प्रतिक्रिया, जवाबी क्रिया; कर्तुमू--करना; अनीश:--असमर्थ; आस्ते--कष्ट में रहता है; क्वचित्‌--कभी-कभी; मिथ: --परस्पर; विपणन्‌--बेच कर; यत्‌ च--जो कुछ; किझ्ञित्‌-- थोड़ा भी; विद्वेषम्‌--पारस्परिक द्वेष ( शत्रुता ); ऋच्छति--प्राप्तकरता है; उत--ऐसा कहते हैं; वित्त-शाठ््यात्‌-केवल धन के लिए एक दूसरे को ठगने के कारण।

    कभी-कभी जीवात्मा बर्फीली ठंड, कड़ी गर्मी, तेज हवा, अति-वृष्टि इत्यादि प्राकृतिकउत्पातों का सामना करने में लगा रहता है।

    किन्तु जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो अत्यन्त दुखीहो जाता है।

    कभी-कभी वह एक के बाद एक व्यावसायिक लेन-देन में ठगा जाता है।

    इसप्रकार ठगे जाने पर जीवात्माएँ एक दूसरे से शत्रुता ठान लेती हैं।

    क्वचित्क्वचित्क्षीणधनस्तु तस्मिन्‌शय्यासनस्थानविहारहीनः ।

    याचन्परादप्रतिलब्धकाम:पारक्यदृष्टिलभतेडवमानम्‌ ॥

    १२॥

    क्वचित्‌ क्वचित्‌--कभी-कभी; क्षीण-धन:--धनहीन होने पर; तु--लेकिन; तस्मिनू--उस जंगल में; शय्या--लेटने काबिस्तर; आसन--बैठने का स्थान; स्थान--आवास; विहार--परिवार सहित सुखोपभोग; हीन:--विहीन होकर; याचन्‌-- भीखमाँग कर; परात्‌--अन्‍्यों ( मित्रों तथा सम्बधियों ) से; अप्रतिलब्ध-काम:--कामना की पूर्ति न होने से; पारक्य-दृष्टि:--अन्योंकी सम्पत्ति का लालची; लभते--प्राप्त करता है; अवमानम्‌--अनादर।

    संसार के जंगली मार्ग में कभी-कभी व्यक्ति धनहीन हो जाता है, जिसके कारण उसके पासन समुचित घर न बिस्तर या बैठने का स्थान होता है, न ही समुचित पारिवारिक सुख ही उपलब्धहो पाता है।

    अतः वह अन्यों से धन माँगता है, किन्तु जब माँगने पर भी उसकी इच्छाएँ अपूर्णरहती हैं, तो वह या तो उधार लेना चाहता है या फिर अन्यों की सम्पत्ति चुराना चाहता है।

    इसतरह वह समाज में अपमानित होता है।

    अन्योन्यवित्तव्यतिषड्रवृद्ध-वैरानुबन्धो विवहन्मिथश्व ।

    अध्वन्यमुष्मिन्नुरुकृच्छुवित्त-बाधोपसगैर्विहरन्विपन्नः ॥

    १३॥

    अन्योन्य--एक दूसरे से; वित्त-व्यतिषड्र-- धन के लेन-देन द्वारा; वृद्ध--बढ़ा हुआ; बैर-अनुबन्ध: --वैर भाव; विवहन्‌--कभी-कभी ब्याह द्वारा; मिथ:-- परस्पर; च--तथा; अध्वनि--संसार-पथ पर; अमुष्मिन्‌-- वह; उरु-कृच्छु--कठिनाइयों से;वित्त-बाध-- धन की कमी से; उपसर्गैं:--रोगों से; विहरनू--घूमते हुए; विपन्न:ः--अत्यन्त चिन्तित हो जाता है।

    आर्थिक लेने-देन के कारण सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न होती है, जिसका अन्त शत्रुता में होताहै।

    कभी पति-पत्नी भौतिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होते हैं और अपने सम्बन्ध बनाये रखनेके लिए वे कठोर श्रम करते हैं, तो कभी धनाभाव अथवा रुग्ण दशा के कारण वे अत्यधिकचिन्तित रहकर मरणासतन्न हो जाते हैं।

    तांस्तान्विपन्नान्स हि तत्र तत्रविहाय जात॑ परिगृह् सार्थ: ।

    आवर्ततेउद्यापि न कश्िदत्रवीराध्वन: पारमुपैति योगम्‌ ॥

    १४॥

    तान्‌ तानू--उन सबों को; विपन्नान्‌ू--विभिन्न प्रकार से व्यधित; सः--जीव; हि--निश्चय ही; तत्र तत्र--यहाँ-वहाँ; विहाय--छोड़कर; जातमू--नवजातों को, नये पैदा हुओं को; परिगृह्य--लेकर; स-अर्थ:--अपने हित की खोज में जीव; आवर्तते--जंगल में घूमता रहता है; अद्य अपि--आज तक; न--नहीं; कश्चित्‌--कोई भी; अत्र--यहाँ इस जंगल में; वीर--हे वीर;अध्वन:--भौतिक जीवन का मार्ग; पारमू--अन्त; उपैति--पाता है; योगम्‌-- श्रीभगवान्‌ की भक्ति-साधना।

    हे राजनूु, भौतिक जीवन रूपी जंगल के मार्ग में मनुष्य पहले अपने पिता तथा माता कोखोता है और उनकी मृत्यु के बाद वह नवजात बच्चों से आसक्त हो जाता है।

    इस तरह वहभौतिक प्रगति के मार्ग में घूमता रहता है और अन्त में अत्यन्त व्यधित हो जाता है।

    किसी कोमृत्यु के क्षण तक यह पता नहीं चल पाता कि वह उससे किस प्रकार निकले।

    मनस्विनो निर्जितदिग्गजेन्द्राममेति सर्वे भुवि बद्धवैरा: ।

    मृधे शयीरतन्न तु तद्व्र॒जन्तियन्ञ्यस्तदण्डो गतवैरोडईभियाति ॥

    १५॥

    मनस्विन:--बड़े-बड़े वीर पुरुष ( विचारक ); निर्जित-दिक्‌-गजेन्द्रा:--जिन्होंने हाथियों के समान बलशाली वीरों को जीतलिया है; मम--मेरा ( मेरा देश, मेरी भूमि, मेरा परिवार, मेरा धर्म ); इति--इस प्रकार; सर्वे--समस्त ( महान्‌ राजनैतिक,सामाजिक तथा धार्मिक नेता ); भुवि--इस संसार में; बद्ध-वैरा:--परम्परा से वैरभाव उत्पन्न कर रखा है; मृधे--युद्ध में;शयीरन्‌-- भूमि में मृत होकर गिरे हुए; न--नहीं; तु--लेकिन; तत्‌-- श्रीभगवान्‌ का धाम; ब्रजन्ति--पहुँचते हैं; यत्‌--जो;न्यस्त-दण्ड:--संन्यासी; गत-बैर:--जिसका विश्व भर में किसी से वैर-भाव नहीं है; अभियाति--उस सिद्धिद्रि को प्राप्त करताहै?

    ऐसे अनेक राजनैतिक तथा सामाजिक वीर पुरुष हैं और थे जिन्होंने सम-शक्ति वाले शत्रुओंपर विजय प्राप्त की है, तो भी वे अज्ञानवश यह विश्वास करके कि यह भूमि उनकी है परस्परलड़ते हैं और युद्धभूमि में अपने प्राण गँवाते हैं।

    वे सन्‍्यासियों के द्वारा स्वीकृत आध्यात्मिक पथको ग्रहण कर सकने में अक्षम रहते हैं।

    वीर पुरुष तथा राजनैतिक नेता होते हुए भी वे आत्म-साक्षात्कार का पथ नहीं अपना सकते हैं।

    प्रसजजति क्वापि लताभुजा श्रय-स्तदाश्रयाव्यक्तपदद्विजस्पृहः ॥

    क्वचित्कदाचिद्धरिचक्रतस्त्रसन्‌सख्यं विधत्ते बककड्डूगृश्चे: ॥

    १६॥

    प्रसजजति--अधिकाधिक आसक्त होता है; क्वापि--कभी-कभी; लता-भुज-आ श्रय:--जो पत्नी की लताओं जैसी कोमलबाहों में आश्रय लेते हैं; तत्‌ू-आश्रय--जो ऐसी लताओं द्वारा आश्रय प्रदान किये जाते हैं; अव्यक्त-पद--जो अस्पष्ट पद ( गीत )गाते हैं; द्विज-स्पृह:-- पक्षियों का गाना सुनने का इच्छुक; क्वचित्‌--कभी-कभी; कदाचित्‌--कहीं; हरि-चक्रतः त्रसन्‌--सिंहकी दहाड़ से भयभीत; सख्यम्‌--मित्रता; विधत्ते--करता है; बक-कड्डू-गृश्नै:--बगुलों, सारसों तथा गीधों के साथ।

    कभी-कभी जीवात्मा संसार रूपी जंगल में लताओं का आश्रय लेता है और उन लताओं मेंबैठें पक्षियों की चहचहाहट सुनना चाहता है।

    जंगल के सिंहों की दहाड़ से भयभीत होकर वहबगुलों, सारसों तथा गृद्धों से मैत्री स्थापित करता है।

    तैर्वश्वितो हंसकुलं समाविश-न्नरोचयन्शीलमुपैति वानरान्‌ ।

    तज्जातिरासेन सुनिर्व॒तेन्द्रियःपरस्परोद्वीक्षणविस्पृतावधि; ॥

    १७॥

    तैः--उनके द्वारा ( बंचकों, तथाकथित योगियों, स्वामियों, अवतारों तथा गुरुओं द्वारा ); वश्चित:--ठगा जाकर; हंस-कुलम्‌--परमहंसों या भक्तों की संगति; समाविशनू--सम्पर्क करके; अरोचयनू--संतुष्ट न रहकर; शीलम्‌--शील, आचार; उपैति--पासजाता है; वानरान्‌--बंदरों को, जो दुश्चरित्र कामी पुरुष तुल्य हैं; तत्‌-जाति-रासेन--ऐसे कामी पुरुषों के संग में विषय-तृप्तिद्वारा; सुनिर्वुत-इन्द्रियः--इन्द्रिय-सुख प्राप्त होने से अत्यधिक संतुष्ट; परस्पर उद्दी क्षण --एक दूसरे का मुख देख-देख कर;विस्मृत-- भूला हुआ; अवधि: -- जीवन का अन्त।

    संसार रूपी जंगल में तथाकथित योगियों, स्वामियों तथा अवतारों से ठगा जाकर जीवात्माउनकी संगति छोड़कर असली भक्तों की संगति में आने का प्रयत्त करता है, किन्तु दुर्भाग्यवशवह सदगुरु या परम भक्त के उपदेशों का पालन नहीं कर पाता, अतः वह उनकी संगति छोड़करपुनः बन्दरों की संगति में वापस आ जाता है जो मात्र इन्द्रिय-तृप्ति तथा स्त्रियों में रूचि रखते हैं।

    वह इन विषयीजनों की संगति में रहकर तथा काम और मद्यपान में लगा रहकर तुष्ट हो लेता है।

    इस तरह वह काम और मद्यसेवन से अपना जीवन नष्ट कर देता है।

    वह अन्य विषयीजनों केमुखों को देख-देख कर भूला रहता है और मृत्यु निकट आ जाती है।

    ब्रुमेषु रंस्यन्सुतदारवत्सलोव्यवायदीनो विवशः स्वबन्धने ।

    क्वचित्प्रमादादिगरिकन्दरे पतन्‌वललीं गृहीत्वा गजभीत आस्थित: ॥

    १८॥

    ब्रुमेषु--वृक्षों में ( अथवा वृक्षवत्‌ घरों में जिनमें बन्दर एक डाली से दूसरी डाली पर कूदते रहते हैं ); रंस्थन्‌ू-- भोगता हुआ; सुत-दार-वत्सल:--बच्चों तथा पत्नी के प्रति अनुरक्त; व्यवाय-दीन:--विषय भोग के कारण दुर्बल हृदय वाला; विवश: --त्यागने मेंअक्षम; स्व-बन्धने--कर्मफल के बन्धन में; क्वचित्‌--कभी-कभी; प्रमादात्‌--आसत्न मृत्यु के भय से; गिरि-कन्दरे--पर्वतकी गुफा में; पतन्‌ू--गिरकर; वलल्‍लीम्‌ू--लताओं की शाखाएँ; गृहीत्वा--पकड़कर; गज-भीतः--मृत्यु रूपी हाथी से भयभीत;आस्थितः--उस स्थिति में रहा जाता है।

    जब जीवात्मा एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूदने वाले बन्दर के सहश बन जाता है, तोगृहस्थ जीवन के वृक्ष में मात्र विषय सुख ( संभोग ) के लिए रहता है।

    इस प्रकार वह अपनीपत्नी से वैसे ही पाद-प्रहार पाता है जैसे कि गधा गधी से।

    मुक्ति का साधन न पाने के कारण वह असहाय बनकर उसी अवस्था में रहता है।

    कभी-कभी उसे असाध्य रोग हो जाता है जो पर्वत कीगुफा में गिरने जैसा है।

    वह इस गुफा के पीछे रहने वाले मृत्यु रूपी हाथी से भयभीत हो उठता हैऔर लताओं की टहनियाँ पकड़े रहकर लटका रहता है।

    अतः कथश्ञित्स विमुक्त आपदःपुनश्च सार्थ प्रविशत्यरिन्दम ।

    अध्वन्यमुष्मिन्नजया निवेशितोभ्रमझ्जनोद्यापि न वेद कश्चन ॥

    १९॥

    अतः--इससे; कथज्ञित्‌--कुछ भी; सः--वह; विमुक्त:--मुक्त; आपद:--विपत्ति से; पुनः: च--फिर से; स-अर्थम्‌--जीवन मेंरुचि लेता हुआ; प्रविशति--प्रवेश करता है, प्रारम्भ करता है; अरिमू-दम--शत्रुओं के हंता, हे राजन्‌; अध्वनि-- भोग-पथ पर;अमुष्मिन्‌ू--उस; अजया--माया के प्रभाव से; निवेशित:--डूबा हुआ; भ्रमन्‌--घूमते हुए; जन:ः--बद्धजीव; अद्य अपि--मृत्युतक; न वेद--नहीं जानता; कश्चन--कुछ भी |

    हे शत्रुओं के संहारक, महाराज रहूगण, यदि बद्धजीव किसी प्रकार से इस भयानक स्थितिसे उबर आता है, तो वह पुन: विषयी जीवन बिताने के लिए अपने घर को लौट जाता है, क्योंकिवही आसक्ति का मार्ग है।

    इस प्रकार ईश्वर की माया से वशीभूत वह संसार रूपी जंगल में घूमतारहता है।

    मृत्यु के निकट पहुँच कर भी उसे अपने वास्तविक हित का पता नहीं चल पाता।

    रहूगण त्वमपि ह्ाध्वनोस्यसन्न्यस्तदण्ड: कृतभूतमैत्र: ।

    असजितात्मा हरिसेवया शितंज्ञानासिमादाय तरातिपारम्‌ ॥

    २०॥

    रहूगण--हे राजा रहूगण; त्वम्‌ू--तुम; अपि-- भी; हि--निश्चय ही; अध्वन:--संसार पथ का; अस्य--इस; सन्न्यस्त-दण्ड:--अपराधियों को दण्ड देने वाले राज-दण्ड को त्याग कर; कृत-भूत-मैत्र:-- प्रत्येक प्राणी के मित्र बन कर; असत्‌-जित-आत्मा--जिसका मन जीवन के भौतिक सुख के प्रति आकृष्ट नहीं होता; हरि-सेवया--परमे श्वर की प्रेममय सेवा के द्वारा;शितम्‌--पैनी; ज्ञान-असिम्‌--ज्ञान की तलवार; आदाय--हाथ में लेकर; तर--पार करो; अति-पारमू--उस अन्तिम छोर को( दूसरे पार )?

    है राजा रहूगण, तुम भी भौतिक सुख के प्रति आकर्षण-मार्ग में स्थित होकर माया केशिकार हो।

    मैं तुम्हें राज पद तथा उस दण्ड का जिससे अपराधियों को दण्डित करते हो परित्यागकरने की सलाह देता हूँ जिससे तुम समस्त जीवात्माओं के सुहृद ( मित्र ) बन सको।

    विषयभोगोंको त्याग कर अपने हाथ में भक्ति के द्वारा धार लगायी गयी ज्ञान की तलवार को धारण करो।

    तब तुम माया की कठिन ग्रंथि को काट सकोगे और अज्ञानता के सागर को पार करके दूसरेछोर पर जा सकोगे।

    राजोबाचअहो नृजन्माखिलजन्मशोभनंकि जन्मभिस्त्वपरैरप्यमुष्मिन्‌ ।

    न यद्धृषीकेशयश:ःकृतात्मनांमहात्मनां वः प्रचुर: समागमः ॥

    २१॥

    राजा उबाच--राज रहूगण ने कहा; अहो--ओह; नृ-जन्म--मनुष्य का जन्म लेने वाले तुम; अखिल-जन्म-शोभनम्‌--सर्वयोनियों में श्रेष्ठ; किमू--क्या आवश्यकता; जन्मभि:ः--स्वर्ग लोकों के देवता जैसी उच्चयोनि में जन्म लेने से; तु--लेकिन;अपरैः--अन्यान्य, निकृष्ट; अपि--निस्संदेह; अमुष्मिन्‌-- अगले जन्म में; न--नहीं; यत्‌--जो; हषीकेश-यशः:-- समस्त इन्द्रियोंके स्वामी श्रीभगवान्‌ हषीकेश के पवित्र यश से; कृत-आत्मनाम्‌--जिनके हृदय विमल हैं, शुद्ध अन्तःकरण वाले; महा-आत्मनाम्‌--महात्माओं की; व:--हम सबकी; प्रचुर: --अत्यधिक; समागम:--संगति |

    राज रहूगण ने कहा--यह मनुष्य जन्म समस्त योनियों में श्रेष्ठ है।

    यहाँ तक कि स्वार्ग मेंदेवताओं के बीच जन्म लेना उतना यश्पूर्ण नहीं जितना कि इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्मलेना।

    तो फिर देवता जैसे उच्च पद का क्या लाभ ? स्वर्गलोक में अधाह भोग-सामग्री के कारणदेवताओं को भक्तों की संगति का अवसर ही नहीं मिलता।

    न ह्वद्भधुतं त्वच्चरणाब्जरेणुभि-ईतांहसो भक्तिरधो क्षजेउमला ।

    मौहूर्तिकाह्यस्थ समागमाच्च मेदुस्तर्कमूलोडपहतोविवेक: ॥

    २२॥

    न--नहीं; हि--निश्चय ही; अद्भुतम्‌--अद्भुत; त्वत्‌ू-चरण-अब्ज-रेणुभि:--आपके चरणकमलों की धूलि से; हत-अंहस:--पाप के फल से मुक्त मैं; भक्ति:--प्रेम तथा भक्ति; अधोक्षजे-- श्री भगवान्‌ में, जो व्यवहार-ज्ञान की पकड़ से परे है; अमला--सांसारिक कल्मषों से रहित, विमल; मौहूर्तिकात्‌-- क्षणिक; यस्य--जिसके ; समागमात्‌-- आगमन तथा संगति से; च--भी;मे--मेरा; दुस्तर्क--झूठ तर्को का, कुतरकों का; मूल:--मूल, मूलकारण; अपहत:--पूर्णतया विनष्ट हो गया; अविवेक:--अज्ञान।

    यह कोई विचित्र बात नहीं है कि केवल आपके चरण-कमलों की धूलि से धूसरित होने सेमनुष्य तुरन्त विशुद्ध भक्ति के अधोक्षज पद को प्राप्त होता है जो ब्रह्म जैसे महान्‌ देवताओं केलिए भी दुर्लभ है।

    आपके क्षणमात्र के समागम से अब मैं समस्त तर्को, अहंकार तथा अविवेकसे मुक्त हो गया हूँ जो इस भौतिक जगत में बंधन के मूल कारण हैं।

    मैं अब इन समस्त झंझटों सेमुक्त हूँ।

    नमो महदभ्योउस्तु नमः शिशुभ्योनमो युवभ्यो नम आवटुभ्य: ।

    ये ब्राह्मणा गामवधूतलिड्र-श्वरन्ति तेभ्य: शिवमस्तु राज्ञामू ॥

    २३॥

    नमः--नमस्कार है; महद्भ्य:--महापुरुषों को; अस्तु--हो; नमः--मेरा नमस्कार; शिशुभ्य:--जो महापुरुष शिशु रूप में हो,उनको; नमः --सादर नमस्कार; युवभ्य:--जो युवा ( तरुण ) हों, उन्हें; नम:--सादर नमस्कार; आ-वटुभ्य:--जो बालक केरूप में हों उन्हें; ये--जो सब; ब्राह्मणा:--दिव्य ज्ञान में सिद्ध; गाम्‌--पृथ्वी; अवधूत-लिज्लः--विभिन्न शारीरिक वेषों में छिपेरहने वाले; चरन्ति--घूमते रहते हैं; तेभ्य:--उनसे; शिवम्‌ अस्तु--कल्याण हो; राज्ञामू--राजाओं को ( जो सदैव गर्वित रहतेहैं)म?

    ैं उन महापुरुषों को नमस्कार करता हूँ जो इस धरातल पर शिशु, तरुण बालक, अवधूतया महान्‌ ब्राह्मण के रूप में विचरण करते हैं।

    यदि वे विभिन्न वेशों में छिपे हुए हैं, तो भी मैं उनसबको नमस्कार करता हूँ।

    उनके अनुग्रह से उनका अपमान करने वाले राजवंशों का कल्याणहो।

    श्रीशुक उबाचइत्येवमुत्तरामातः स बै ब्रह्मर्षिसुतः सिन्धुपतय आत्मसतत्त्वं विगणयतः परानुभावः'परमकारुणिकतयोपदिश्य रहूगणेन सकरुणमभिवन्दितचरण आपूर्णार्णव इव निभृतकरणोर्म्याशयोधरणिमिमां विचचार ॥

    २४॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति एवम्‌--इस प्रकार; उत्तरा-मात:--हे माता उत्तरा के पुत्र, महाराजपरीक्षित; सः--वह ब्राह्मण; वै--निस्संदेह; ब्रह्म -ऋषि-सुतः --अत्यन्त शिक्षित ब्राह्मण का पुत्र, जड़ भरत; सिन्धु-पतये--सिंधुराज्य के राजा को; आत्म-स-तत्त्वम्‌ू--आत्मा की वास्तविक स्वाभाविक स्थिति; विगणयत:--जड़ भरत का अपमान करने परभी; पर-अनुभाव:--परम आत्मज्ञानी; परम-कारुणिकतया--पतित-आत्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु होने के कारण;उपदिश्य--उपदेश देकर; रहूगणेन--राजा रहूगण के द्वारा; स-करुणम्‌--दीनभाव से; अभिवन्दित-चरण: --जिसकेचरणकमलों की बन्दना की गई; आपूर्ण-अर्णव: इब--परिपूर्ण सागर के समान; निभृत--पूर्णतया शान्त; करण--इन्द्रियों की;ऊर्मि--लहरें; आशय: --अन्तःकरण में; धरणिम्‌--पृथ्वी पर; इमामू--इस; विचचार--घूमने लगे ।

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा, हे राजन्‌, हे उत्तरा-पुत्र, राजा रहूगण द्वारा अपनीपालकी ढोये जाने के लिए बाध्य किये जाने से अपमानित होकर जड़ भरत के मन में असंतोषकी कुछकुछ लहरें थीं, किन्तु उन्होंने इनकी उपेक्षा की और उनका हृदय पुनः सागर के समानशान्त हो गया।

    यद्यपि राजा रहूगण ने उनका अपमान किया, किन्तु वे महान्‌ परमहंस थे।

    वैष्णवहोने के नाते वे परम दयालु थे, अतः उन्होंने राजा को आत्मा की वास्तविक स्वाभाविक स्थितिबतलाई।

    तब उन्हें अपमान भूल गया, क्योंकि राजा रहूगण ने विनीत भाव से उनके चरणकमलोंपर क्षमा माँग ली थी।

    इसके बाद वे पुनः पूर्ववत्‌ सारे विश्व का भ्रमण करने लगे।

    सौबीरपतिरपि सुजनसमवगतपरमात्मसतत्त्व आत्मन्यविद्याध्यारोपितां च देहात्ममतिं विससर्ज; एवं हिनृप भगवदाश्रिताअतानुभावः ॥

    २५॥

    सौवीर-पतिः--सौवीर राज्य का राजा; अपि--निश्चय ही; सु-जन--महापुरुष से; समवगत-- भली-भाँति अवगत होकर,जानकर; परमात्म-स-तत्त्व:--आत्मा तथा परमात्मा की स्वाभाविक स्थिति की सत्यता; आत्मनि--अपने आप में; अविद्या--अज्ञान से; अध्यारोपिताम्‌-- भूल से आरोपित; च--तथा; देह--शरीर में; आत्म-मतिम्‌--स्व-बोध; विससर्ज--पूर्णतया त्यागदिया; एवम्‌--इस प्रकार; हि--निश्चय ही; नृप--हे राजन; भगवत्‌-आश्रित-आश्रित-अनुभाव: -- परम्परानुसार सदगुरु कीशरण में आये हुए भक्त की शरण में ( जो निश्चित रूप से अविद्या रूपी देहात्म-बुद्धि को निकाल पाने में समर्थ है )?

    परम भक्त जड़ भरत से उपदेश ग्रहण करने के पश्चात्‌ सौवीर का राजा रहूगण आत्मा कीस्वाभाविक स्थिति से पूर्णतया परिचित हो गया।

    उसने देहात्मबुद्धि का सर्वश: परित्याग करदिया।

    हे राजन, जो भी ईश्वर के भक्त के दास की शरण ग्रहण करता है, वह धन्य है, क्योंकिवह बिना कठिनाई के देहात्मबुद्धि त्याग सकता है।

    यो ह वा इह बहुविदा महाभागवत त्वयाभिहितः परोक्षेण वचसा जीवलोकभवाध्वा स ह्ार्यमनीषया'कल्पितविषयो नाञझसाव्युत्पन्नलोकसमधिगम:; अथ तदेवैतहुरवगमं समवेतानुकल्पेन निर्दिश्यतामिति ॥

    २६॥

    राजा उबाच--राजा परीक्षित ने कहा; यः--जो; ह--निश्चय ही; वा--अथवा; इह--इस वर्णन में; बहु-विदा--दिव्य ज्ञान कीअनेक घटनाओं को जानने वाले; महा-भागवत--हे परम भक्त साधु; त्वया--आपके द्वारा; अभिहित: --वर्णित; परोक्षेण--अलंकारिक रीति से; वचसा--शब्दों से; जीव-लोक-भव-अध्वा--बद्धजीव का संसार रूप मार्ग; सः--वह; हि--निस्संदेह;आर्य-मनीषया--सिद्ध भक्तों की बुद्धि से; कल्पित-विषय:ः --कल्पना किया गया विषय; न--नहीं; अद्सा- प्रत्यक्ष;अव्युत्पन्न-लोक--अल्प बुद्धि वाले पुरुष; समधिगम:--पूर्ण ज्ञान; अथ--अत:; तत्‌ एब--उसके कारण; एतत्‌--यह विषय;दुरबगमम्‌-दुर्बोध, समझने में कठिन; समवेत-अनुकल्पेन--ऐसी घटनाओं ( रूपक ) का स्पष्टीकरण करने वाले;निर्दिश्यताम्‌--वर्णन करें; इति--इस प्रकार?

    तब राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से कहा--हे स्वामी, हे परम भक्त साधु, आपसर्वज्ञाता हैं।

    आपने जंगल के वणिक के रूप में बद्धजीव की स्थिति का अत्यन्त मनोहर वर्णनकिया है।

    इन उपदेशों से कोई भी बुद्धिमान मनुष्य समझ सकता है कि देहात्मबुद्धि वाले पुरुषकी इन्द्रियाँ उस जंगल में चोर-उचक्कों सी हैं और उसकी पत्नी तथा बच्चे सियार तथा अन्य हिंस्त्रपशुओं के तुल्य हैं।

    किन्तु अल्पज्ञानियों के लिए इस आख्यान को समझ पाना सरल नहीं हैक्योंकि इस रूपक का सही-सही अर्थ निकाल पाना कठिन है।

    अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँकि इसका अर्थ स्पष्ट करके बताएँ।

    TO

    अध्याय चौदह: भौतिक संसार आनंद के महान वन के रूप में

    5.14स होवाचस एषदेहात्ममानिनांसत्त्वादिगुणविशेषविकल्पितकुशलाकुशलसमवहारविनिर्मितविविधदेहावलिभिर्वियोगसंयोगाद्यनादिसंसगरानुभवस्य द्वारभूतेन षडिन्द्रियवर्गेण तस्मिन्दुर्गाध्ववदसुगमेध्वन्यापतित ईश्वरस्थ भगवतोविष्णोर्वशवर्तिन्या मायया जीवलोकोयं यथा वणिक्सार्थो<र्थपर: स्वदेहनिष्पादितकर्मानुभव:इमशानवदशिवतमायां संसाराटव्यां गतो नाद्यापि विफलबहुप्रतियोगेहस्तत्तापोपशमनींहरिगुरुचरणारविन्दमधुकरानुपदवीमवरुन्धे ॥

    १॥

    सः--स्वरूपसिद्ध भक्त ( श्रीशुकदेव गोस्वामी ) ने; ह--निस्संदेह; उवाच--कहा; सः--वह ( बद्ध-आत्मा ); एष: --यह; देह-आत्म-मानिनाम्‌--अज्ञानवश देह को अपना मानने वाले व्यक्तियों का; सत्त्त-आदि--सत्त्व, रज तथा तम के; गुण--गुणों केद्वारा; विशेष--विशेष; विकल्पित--अज्ञानवश कल्पित; कुशल--कभी-कभी अनुकूल कर्मो द्वारा; अकुशल--कभी-कभीप्रतिकूल कर्मो के द्वारा; समवहार--दोनों के मिश्रण द्वारा, समवहार से; विनिर्मित--प्राप्त; विविध--नाना प्रकार के; देह-आवलिभिः--देहों की श्रृंखला के द्वारा; वियोग-संयोग-आदि--एक प्रकार के देह का त्याग ( वियोग ) तथा अन्य की स्वीकृति( संयोग ) द्वारा; अनादि-संसार-अनुभवस्य--देहान्तर की अनादि प्रक्रिया की प्रतीति का; द्वार-भूतेन--द्वारों के रूप में विद्यमानहोकर; षट्-इन्द्रिय-वर्गंण--इन छः इन्द्रियों ( मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों आँख, कान, जीभ, नाक तथा त्वचा ) द्वारा; तस्मिन्‌ू--उस पर; दुर्ग-अध्व-वत्‌--दुल्ल॑घ्य पथ की भाँति; असुगमे--पार करने में सुगम न होने से; अध्वनि--वन के पथ पर;आपतितः--पड़ कर; ईश्वरस्थ--नियन्ता का; भगवतः -- श्रीभगवान्‌ ; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु के; वश-वर्तिन्या --वश मेंरहकर कर्म करते हुए; मायया--माया द्वारा; जीव-लोक:--बद्ध जीवात्मा; अयम्‌--यह; यथा--जैसे; वणिक्‌--व्यापारी,बनिया; स-अर्थ:--उद्देश्य सहित, सोह्देश्य; अर्थ-पर:--धन में आसक्त; स्व-देह-निष्पादित-- अपने देह से किया गया; कर्म--कार्यों का फल; अनुभव:--जो अनुभव करता है; श्मशान-वत्‌ अशिवतमायाम्‌-- अशुभ एमशान भूमि के सहृश; संसार-अटवब्याम्‌-- भौतिक जीवन के वन में; गतः--प्रवेश करने पर; न--नहीं; अद्य अपि--अब तक; विफल--असफल; बहु-प्रतियोग--अनेक विघ्नों तथा दुखों से पूर्ण; ईंह:--इस भौतिक जगत में जिनके कार्य; तत्‌ू-ताप-उपश-मनीम्‌-- भौतिक जीवनरूपी बन के दुखों को शान्त करने वाला; हरि-गुरु-चरण-अरविन्द-प्रभु तथा भक्तों के चरणारविन्द में; मधुकर-अनुपदवीम्‌-- भ्रमर सहश अनुरक्त भक्तों के अनुगमन का पथ; अवरुन्धे-्राप्त

    राजा परीक्षित्‌ ने जब श्रीशुकदेव गोस्वामी से भौतिक वन का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कहातो उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया--हे राजनू, वणिक की रुचि सदैव धन उपार्जन के प्रति रहतीहै।

    कभी-कभी वह लकड़ी तथा मिट्टी जैसी कुछ अल्पमूल्य की वस्तुएँ प्राप्त करने और उन्हें लेजाकर नगर में अच्छे मूल्य में विक्रय करने की आकांक्षा से वन में प्रवेश करता है।

    इसी प्रकार बद्धजीव लोभवश कुछ भौतिक सुख-लाभ करने की इच्छा से इस भौतिक जगत में प्रवेशकरता है।

    धीरे-धीरे वह वन के सघन भाग में प्रवेश करता है तथा वह यह नहीं जानता कि बाहरकैसे निकले।

    इस भौतिक जगत में प्रवेश करके शुद्ध जीव सांसारिकता में बँध जाता है, जोभगवान्‌ विष्णु के नियंत्रण में उनकी बहिरंगा शक्ति (माया ) उत्पन्न करती है।

    इस प्रकारजीवात्मा बहिरंगा शक्ति दैवी माया के वशीभूत हो जाता है।

    स्वतंत्र होने तथा वन में भटकने केकारण वह भगवान्‌ की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले भक्तों का संग प्राप्त नहीं कर पाता।

    एकबार देहात्मबुद्धि के कारण वह माया के वशीभूत होकर और भौतिक गुणों ( सत्त्व, रज्‌ तथातम्‌ ) के द्वारा प्रेरित होकर एक के पश्चात्‌ एक अनेक प्रकार के शरीर धारण करता है।

    इसप्रकार बद्धजीव कभी स्वर्गलोक तो कभी भूलोक और कभी पाताललोक तथा निम्न योनियों मेंप्रवेश करता है।

    इस प्रकार अनेक देहों के कारण वह निरन्तर कष्ट सहन करता है।

    ये कष्ट तथापीड़ाएँ कभी-कभी मिश्रित रहती हैं।

    कभी तो ये असहा होती हैं, तो कभी नहीं।

    ये शारीरिकदशाएँ बद्धजीव को मनोकल्पना के कारण प्राप्त होती हैं।

    वह अपने मन तथा पंचेन्द्रियों काउपयोग ज्ञान-प्राप्ति के लिए करता है और इन्हीं से विभिन्न देहें तथा विभिन्न दशाएँ प्राप्त होती हैं।

    बहिरंगा शक्ति माया के नियंत्रण में इन इन्द्रियों का उपभोग करके जीव को दुख उठाना पड़ताहै।

    वह वास्तव में छुटकारा पाने की खोज में रहता है, किन्तु सामान्य रूप से वह भटकता है,यद्यपि कभी-कभी अत्यन्त कठिनाई के पश्चात्‌ उसे छुटकारा मिल जाता है।

    इस प्रकार अस्तित्त्वके लिए संघर्षशील रहने के कारण उसे भगवान्‌ विष्णु के चरणारबिन्दों में भ्रमरों के समानअनुरक्त भक्तों की शरण नहीं मिल पाती है।

    यस्यामु ह वा एते षडिन्द्रियनामान: कर्मणा दस्यव एव ते; तद्यथा पुरुषस्य धनं यत्किद्धिद्धर्मोपयिकंबहुकृच्छाधिगतं साक्षात्परमपुरुषाराधनलक्षणो योसौ धर्मस्तं तु साम्पराय उदाहरन्ति; तद्धर्म्य धनदर्शनस्पर्शनश्रवणास्वादनावप्राणसड्डुल्पव्यवसायगृहग्राम्योपभोगेन कुनाथस्याजितात्मनो यथा सार्थस्यविलुम्पन्ति ॥

    २॥

    यस्याम्‌--जिसमें; उ ह--निश्चय ही; वा-- अथवा; एते--ये सब; षट्‌-इन्द्रिय-नामान:--जो छः इन्द्रियाँ ( मन तथा पाँचज्ञानेन्द्रियाँ ) कहलाती हैं; कर्मणा-- अपने कर्म के द्वारा; दस्थव:ः--दस्यु ( लुटेरे ); एब--निश्चय ही; ते--वे; तत्‌--वह; यथा--जिस प्रकार; पुरुषस्य--व्यक्ति का; धनम्‌-- धन; यत्‌--जो भी; किश्ञित्‌-- थोड़ा; धर्म-औपयिकम्‌--धार्मिक सिद्धान्तों कासाधन; बहु-कृच्छु-अधिगतम्‌-- अतीव श्रम से उपार्जित; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; परम-पुरुष-आराधन-लक्षण: --यज्ञ इत्यादि के द्वाराभगवान्‌ की पूजा करना जिनके लक्षण हैं; यः--जो; असौ--वह; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त ( मर्यादा ); तमू--उसको; तु--किन्तु; साम्पराये--मृत्यु के पश्चात्‌ जीवात्मा के लाभार्थ; उदाहरन्ति--बुद्धिमान घोषित करते हैं; ततू-धर्म्यम्‌-- धार्मिक( वर्णाश्रम धर्म के पालन से सम्बधित ); धनम्‌--धन; दर्शन--दर्शन द्वारा; स्पर्शन--स्पर्श द्वारा; श्रवण-- श्रवण द्वारा;आस्वादन--स्वाद के द्वारा; अवध्राण --सूँघकर; सड्डूल्प--निश्चय द्वारा; व्यवसाय--निष्कर्ष रूप में; गृह--घर में; ग्राम्य-उपभोगेन-- भौतिक उपभोग द्वारा; कुनाथस्य-- भ्रमित बद्ध जीवात्मा का; अजित-आत्मन: --जिसने अपने पर विजय प्राप्त नहींकी; यथा--जैसे; सार्थस्य--इन्द्रियों की तृप्ति में रुचि रखने वाले जीवात्मा का; विलुम्पन्ति--लूट लेते हैं|

    संसार रूपी वन में अनियंत्रित इन्द्रियाँ दस्युओं के समान हैं।

    बद्धजीव श्रीकृष्णभावनामृत केविकास के लिए कुछ धन अर्जित कर सकता है, किन्तु दुर्भाग्यवश अनियंत्रित इन्द्रियाँ अपनीतुष्टि द्वारा इस धन को लूट लेती हैं; इन्द्रियाँ दस्यु हैं, क्योंकि वे जीव को दर्शन, प्राण, आस्वाद,स्पर्श, श्रवण, संकल्प-विकल्प तथा कामना में अपना धन व्यर्थ व्यय करने के लिए बाध्यकरती हैं।

    इस प्रकार बद्धजीव अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए बाध्य हो जाता है, जिससेउसका सारा धन व्यय हो जाता है।

    यद्यपि यह धन यथार्थतः धार्मिक कृत्यों के सम्पादन हेतुअर्जित हुआ होता है, किन्तु दस्यु-इन्द्रियाँ इसका हरण कर लेती हैं।

    अथ च यत्र कौटुम्बिका दारापत्यादयो नाम्ना कर्मणा वृकसृगाला एवानिच्छतो5पि कदर्यस्य कुटुम्बिनउरणकवत्संरक्ष्यमाणं मिषतोपि हरन्ति. ॥

    ३॥

    अथ--इस प्रकार; च-- भी; यत्र--जिसमें; कौटुम्बिका:--कुटुम्बी जन; दार-अपत्य-आदय: --स्त्री तथा सन्तान इत्यादि;नाम्ना--केवल नाम के द्वारा; कर्मणा-- अपने आचरण के द्वारा; वृक-सूगाला:--भेड़िया तथा श्रूगाल; एब--निश्चित रूप से;अनिच्छत:--ऐसा मनुष्य जो अपने धन को व्यय करने का अनिच्छुक है; अपि--निश्चय ही; कदर्यस्थ--अत्यन्त कृपण प्राणी,कंजूस का; कुटुम्बिन:--परिवार के प्राणियों से घिरा हुआ; उरणक-वत्‌--मेमने की भाँति; संरक्ष्यमाणम्‌--यद्यपि सुरक्षित है;मिषतः--जो देख रहा है; अपि-- भी, ही; हरन्ति--बलपूर्वक छीन लेते हैं।

    हे राजनू, इस भौतिक जगत में स्त्री-पुत्रादि नाम से पुकारे जाने वाले कुटुम्बीजन वास्तव मेंभेड़ियों तथा श्रृूगालों की भाँति व्यवहार करते हैं।

    चरवाहा अपनी भेड़ों की रक्षा यथाशक्तिकरना चाहता है, किन्तु भेड़िये तथा लोमड़ियाँ उन्हें बलपूर्वक उठा ले जाते हैं।

    इसी प्रकार यद्यपिकंजूस पुरुष सतर्कतापूर्वक अपने धन की चौकसी रखना चाहता है, किन्तु उसके पारिवारिकप्राणी उसकी समस्त सम्पत्तियों को उसके जागरूक रहते हुए भी बलपूर्वक छीन लेते हैं।

    यथा ह्नुवत्सरं कृष्यमाणमप्यदग्धबीजं क्षेत्र पुन्रेवावपनकाले गुल्मतृणवीरुद्धिर्गह्दरमिव भवत्येवमेवगृहा श्रम: कर्मक्षेत्रं यस्मिन्न हि कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एब आवसथः ॥

    ४॥

    यथा--जिस प्रकार; हि--निश्चय ही; अनुवत्सरम्‌--प्रत्येक वर्ष; कृष्यमाणम्‌--जोती जाने पर; अपि--यद्यपि; अदग्ध-बीजम्‌--बिना जले हुए बीज; क्षेत्रमू--खेत; पुनः --फिर; एव--निश्चय ही; आवपन-काले--बीजों को बोते समय; गुल्म--झाड़ियों से; तृण--घास-फूस से; वीरुद्धिः--लताओं से; गह्वरम्‌ इब--कुंज तुल्य; भवति--हो जाता है; एवम्‌--इस प्रकार;एव--निश्चय ही; गृह-आश्रम:--पारिवारिक जीवन, गृहस्था श्रम; कर्म-क्षेत्रमू--कार्य रूप खेत, कर्मभूमि; यस्मिन्‌ू--जिसमें;न--नहीं; हि--निश्चय ही; कर्माणि उत्सीदन्ति--सकाम कर्म विलुप्त हो जाते हैं; यत्‌ू--अत:; अयम्‌--यह; काम-करण्ड:--'फलवती इच्छाएँ; एषघ:--यह; आवसथः --आवास, निकेतन।

    कृषक प्रतिवर्ष अपने अनाज के खेत को जोतकर सारा घास-फूस निकालता रहता है, तो भी उनके बीज उसमें पड़े रहते हैं और पूरी तरह न जल पाने के कारण खेत में बोये गये पौधों केसाथ पुनः उग आते हैं।

    घास-फूस को जोतकर पलट देने पर भी वे सघन रूप से उगयकर निकलआते हैं।

    इसी प्रकार गृहस्थाश्रम एक कर्मक्षेत्र हे।

    जब तक गृहस्थाश्रम भोगने की कामना पूरीतरह भस्म नहीं कर दी जाती, तब तक वह पुनः पुनः उदय होती रहती है।

    पात्र में बन्द कपूर कोहटा लेने पर भी पात्र से सुगन्ध नहीं जाती।

    उसी तरह जब तक कामनाओं के बीज विनष्ट नहींकर दिये जाते, तब तक सकाम कर्म का नाश नहीं होता।

    तत्र गतो दंशमशकसमापसदैर्मनुजैः शलभशकुन्ततस्करमूषकादिभिरुपरु ध्यमानबहि:प्राण:क्वचित्परिवर्तमानोस्मिन्नध्वन्यविद्याकामकर्मभिरुपरक्तमनसानुपपतन्नार्थ नरलोकं गन्धर्वनगरमुपपन्नमितिमिथ्यादृष्टिरनुपश्यति, ॥

    ५॥

    तत्र--उस गृहस्थ जीवन तक; गत:--जाकर; दंश--डाँस; मशक--मच्छर; सम--तुल्य; अपसदै:--निम्न वर्ग के; मनु-जै:--मनुष्यों द्वारा; शलभ--पतंगा, टिट्डी; शकुन्त--एक बड़ा शिकारी पक्षी; तस्कर--चोर; मूषक-आदिभि:--चूहों इत्यादि केद्वारा; उपरुध्यमान--सताया जाकर; बहिः-प्राण:--बाह्म प्राणवायु, जो धन आदि के रूप में होती है; क्वचित्‌--कभी;परिवर्तमान: -- भ्रमण करते हुए; अस्मिन्‌--इसमें; अध्वनि-- भौतिक जगत का मार्ग; अविद्या-काम--अज्ञान तथा लोभ से;कर्मभि: --एवं सकाम कर्मों के द्वारा; उपरक्त-मनसा--मन के प्रभावित हो जाने के कारण; अनुपपन्न-अर्थम्‌--जिसमें वांछित'फल कभी प्राप्त नहीं हो पाते; नर-लोकम्‌--यह भौतिक जगत; गन्धर्व-नगरम्‌--गंधर्वों की पुरी, हवाई महल; उपपन्नम्‌--विद्यमान; इति--ऐसा मानते हुए; मिथ्या-दृष्टि:--जिसको दृष्टि दोष हो; अनुपश्यति--देखता है

    सांसारिक सम्पत्ति एवं वैभव में आसक्त गृहस्थाश्रम में बद्धजीव को कभी डाँस तथा मच्छर,तो कभी टिड्डी, शिकारी पक्षी व चूहे सताते हैं।

    फिर भी वह भौतिक जगत के पथ पर चलतारहता है।

    अविद्या के कारण वह लोभी बन जाता है और सकाम कर्म में लग जाता है।

    चूँकिउसका मन इन कार्यकलापों में रमा रहता है इसलिए उसे यह भौतिक जगत नित्य लगता है,यदहापि यह गंधर्वनगर ( हवाई महल ) की भाँति अनित्य है।

    तत्र च क्वचिदातपोदकनिभान्विषयानुपधावति पानभोजनव्यवायादिव्यसनलोलुप: ॥

    ६॥

    तत्र--वहाँ ( इस गंधर्व नगर में ); च-- भी; क्वचित्‌--कभी-कभी; आतप-उदक-निभान्‌--मरुस्थल में मृगतृष्णा-जल केसमान; विषयान्‌--इन्द्रिय सुख की वस्तुओं के; उपधावति--पीछे दौड़ता है; पान--पीने के लिए; भोजन--खाने के लिए;व्यवाय--विषयी जीवन के लिए; आदि--इत्यादि; व्यसन--लत से; लोलुप:--विषयी |

    बद्धजीव कभी-कभी इस गंधर्वपुरी में खाता, पीता और स्त्री-प्रसंग करता है।

    अत्यधिकलगाव के कारण इन्द्रियसुखों के पीछे वह उसी प्रकार दौड़ता है जैसे मरुस्थल में मृगमरीचिकाके पीछे हिरण।

    क्वचिच्चाशेषदोषनिषदनं पुरीषविशेषं तद्वर्णगुणनिर्मितमति: सुवर्णमुपादित्सत्यग्निकामकातरइवोल्मुकपिशाचम्‌, ॥

    ७॥

    क्वचित्‌--कभी; च-- भी; अशेष--- अनन्त, सीमाहीन; दोष--दुर्गुणों का; निषदनम्‌--स््रोत; पुरीष--मल का; विशेषम्‌--विशिष्ट प्रकार के; तत्‌-वर्ण-गुण--रजोगुण के से रंगवाला ( अरुण ); निर्मित-मति:--जिसका मन उसी में रमा रहता है;सुवर्णम्‌--स्वर्ण; उपादित्सति--पाने की इच्छा करते हुए; अग्नि-काम--अग्नि की इच्छा से; कातर:--दुखी; इब--सहृश;उल्मुक-पिशाचम्‌--स्फुरदीप्ति ( कच्छ प्रकाश ) जिसे कभी भूत ( अगिया बेताल ) मान लिया जाता है।

    कभी-कभी जीवात्मा स्वर्ण के नाम से पहचाने जाने वाले पीले मल की वांछा करके उसकोपाने के लिए दौड़ता है।

    यह स्वर्ण भौतिक वैभव एवं ईर्ष्या का साधन है और इसके कारणजीवात्मा अवैध यौन-सम्बन्ध, द्यूत, मांसाहार तथा मादक द्रव्यों के सेवन में तत्पर होने में समर्थहोता है।

    रजोगुणी व्यक्ति स्वर्ण के रंग से उसी प्रकार आकृष्ट होते हैं जिस प्रकार वन में जाड़े सेठिठुरता मनुष्य दलदल में दिखने वाले प्रकाश को अग्नि समझ बैठता है।

    अथ कदाचितन्निवासपानीयद्रविणाद्यनेकात्मोपजीवनाभिनिवेश एतस्यां संसाराटव्यामितस्ततःपरिधावति ॥

    ८॥

    अथ--इस प्रकार; कदाचित्‌ू--क भी -क भी; निवास--वासस्थान; पानीय--जल; द्रविण-- धन; आदि--इत्यादि; अनेक --विविध प्रकार के; आत्म-उपजीवन--जो देह तथा आत्मा को एकसाथ रखने के लिए आवश्यक समझे जाते हैं; अभिनिवेश: --पूर्णतया लीन; एतस्याम्‌--इस; संसार-अटबव्याम्‌--विशाल वन के सदृश इस भौतिक जगत में; इतः ततः--इधर-उधर;'परिधावति--चारों ओर दौड़ धूप करता है।

    कभी-कभी यह बद्धजीव रहने के लिए वासस्थान खोजने एवं अपने शरीर की रक्षा के लिएजल तथा धन प्राप्त करने में लगा रहता है।

    इन नाना प्रकार की आवश्यकताओं को जुटाने मेंसंलग्न रहने के कारण वह सब कुछ भूल जाता है और भौतिक अस्तित्त्व के जंगल में निरन्तरइधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है।

    क्वचिच्च वात्यौपम्यया प्रमदयारोहमारोपितस्तत्कालरजसा रजनीभूत इवासाधुमर्यादो रजस्वलाक्षोडपिदिग्देवता अतिरजस्वलमतिर्न विजानाति ॥

    ९॥

    क्वचित्‌--क भी; च-- भी; वात्या औपम्यया--बवण्डर के सहृश; प्रमदया--सुन्दर स्त्री, रमणी; आरोहम्‌ आरोपित: --यौन सुखके लिए अंक में बिठाई गई; तत्‌ू-काल-रजसा--तत्क्षण भोगेच्छा से; रजनी-भूतः--रात्रि का अंधकार; इब--सहश; असाधु-मर्याद:--सत्पुरुषों के समुचित आदर से रहित; रज:-बल-अक्ष:--आँखों में रजोगुण की धूल पड़ने से अंधी; अपि-- भी; दिक्‌-देवता:--दिशाओं के देवता, यथा सूर्य तथा चन्द्र; अतिरज:-वल-मति:ः--आसक्ति से पराजित बुद्धि; न विजानाति--नहीं जानपाता ( कि चारों दिशाओं के देवता उसके अविवेकी यौनाचार को देखते हैं )॥

    कभी-कभी यह बद्ध आत्मा धूल के बवण्डर से अन्धे के समान स्त्री की सुन्दरता को देखताहै जिसे प्रमाद कहा जाता है।

    इस प्रकार से अन्धा होकर वह सुन्दर स्त्री की गोद में जा बैठता है।

    उस समय उसके विवेक पर भोगेच्छा विजय पाती है।

    इस प्रकार वह वासना से प्रायः अन्धा होजाता है और काम-जीवन के समस्त नियमों का उललघंन करने लगता है।

    उसे यह ज्ञान ही नहींरह जाता कि उसके इस उल्लंघन को अनेक देवता देख रहे हैं।

    इस प्रकार वह भवितव्य दण्ड कोदेखे बिना अर्धरात्रि में अवैध यौन सुख का आनन्द लेता है।

    क्वचित्सकृदवगतविषयवैतशथ्य: स्वयं पराभिध्यानेन विभ्रृंशितस्मृतिस्तयैवमरीचितोयप्रायांस्तानेवाभिधावति, ॥

    १०॥

    क्वचित्‌--कभी; सकृत्‌--एक बार; अवगत-विषय-वैतथ्य:--इन्द्रियतृप्ति पाने की निरर्थकता से सचेष्ट रहकर; स्वयम्‌--स्वतः; पर-अभिध्यानेन--स्वयं की देहात्म बुद्धि से; विभ्रेशित--विनष्ट; स्मृति:--जिसकी स्मृति; तया--उसके द्वारा; एब--निश्चय ही; मरीचि-तोय--मृगतृष्णा का जल; प्रायान्‌ू--के सहश; तान्‌--उन इन्द्रियों को; एब--निश्चय ही; अभिधावति--केपीछे दौड़ता है।

    बद्धजीव कभी स्वतः सांसारिक विषयों का निरर्थकता स्वीकार कर लेता है, तो कभी वहभौतिक सुखों को दुखपूर्ण मानता है।

    फिर भी अपनी उत्कट देहात्म-बुद्धि के कारण उसकीस्मृति विनष्ट हो जाती है और वह पुनः पुनः भौतिक सुखों के पीछे वैसे ही दौड़ता फिरता है जैसेमरुस्थल में मृगमरीत्विका के पीछे मृग।

    क्वचिदुलूकझिल्लीस्वनवदतिपरुषरभसाटो पं प्रत्यक्ष परोक्ष॑ं वारिपुराजकुलनिर्भ््सितेनातिव्यथितकर्णमूलहदय:, ॥

    ११॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; उलूक--उल्लू का; झिल्ली--झीं गुर; स्वन-वत्‌--अप्रिय ध्वनियों की तरह; अति-परुष--अत्यन्तकर्णपटु; रभस--थधैर्य से; आटोपम्‌--घर्षण; प्रत्यक्षम्‌-प्रत्यक्ष, प्रकटतः; परोक्षम्‌--अप्रत्यक्ष; वा--या; रिपु--शत्रुओं का;राज-कुल--शासक समुदाय का; निर्भरत्सितेन--ताड़ना या दण्डदान से; अति-व्यथित--अत्यन्त दुखी; कर्ण-मूल-हृदयः --जिसके कान तथा हृदय

    कभी-कभी बद्धजीव अपने शत्रुओं तथा शासन-कर्मियों की प्रताड़ना से अत्यन्त व्यथितरहता है, जो प्रत्यक्ष रूप से कटु वचन कहते रहते हैं।

    उस समय उसके हृदय ( मन ) तथा कानअतीव व्यथित एवं विषादपूर्ण हो जाते हैं।

    ऐसी प्रताड़ना की तुलना उलूकों तथा झींगुरों कीअप्रिय झंकार से की जा सकती है।

    स यदा दुग्धपूर्वसुकृतस्तदाकारस्करकाकतुण्डाद्यपुण्यद्रमलताविषोदपानवदुभयार्थशून्यद्रविणान्जी वन्मृतान्स्वयं जीवन्प्रियमाणउपधावति ॥

    १२॥

    सः--वह बद्ध आत्मा; यदा--जब; दुग्ध-- थकित, रिक्त; पूर्व--पहले का; सुकृत:--अच्छे कर्म; तदा--उस समय; कारस्कर-काकतुण्ड-आदि--कारस्कर, काकतुण्ड आदि नामधारी; अपुण्य-द्रुम-लता--अपवित्र वृक्ष तथा लताएँ; विष-उद-पान-वत्‌--विषैले जल से युक्त कुँए के समान; उभय-अर्थ-शून्य--जो न तो इस जन्म में न अगले जन्म में सुख दे सकता है;द्रविणान्‌ू--सम्पत्तिवान्‌; जीवतू-मृतान्‌ू--जीवित होकर भी जो मृतक तुल्य है; स्वयम्‌--वह स्वतः; जीवत्‌--सजीव;प्रियमाण: --मरा हुआ, मृत; उपधावति--सांसारिक लाभ के लिए निकट आता है।

    पूर्वजन्मों में पवित्र कर्मों के कारण बद्ध-आत्मा को इस जीवन में भौतिक सुविधाएँ प्राप्तहोती हैं, किन्तु इनके समाप्त हो जाने पर वह ऐसी सम्पदा तथा धन का सहारा लेता है, जो न तोइस जीवन में न ही अगले जीवन में उसके सहायक होते हैं।

    इसलिए वह जीवित मृत-तुल्यमनुष्यों का जिन के पास ये वस्तुएं होती है, सहारा लेना चाहता है।

    ऐसे लोग अपवित्र वृक्षों,लताओं और विषैले कुओं के सहश हैं।

    एकदासत्प्रसड़ान्निकृतमतिर्व्युदकस्त्रोत:स्खलनवदुभयतोपि दुःखदं पाखण्डमभियाति ॥

    १३॥

    एकदा--कभी-कभी; असत्‌-प्रसड्भात्‌--अभक्तों के संसर्ग से जो वैदिक नियमों के विरुद्ध हैं और अनेक धार्मिक सम्प्रदायों कोजन्म देते हैं; निकृत-मति:--जिनकी बुद्धि इस निम्न स्तर तक पहुँच चुकी होती है कि भगवान्‌ के अस्तित्त्व को नकारते हैं;व्युदक-स्त्रोत:-- प्रचुर जल से रहित नदियों में; स्खलन-वबत्‌--कूदने के समान; उभयत:--दोनों ओर से; अपि--यद्यपि; दुःख-दम्‌--दुखदायी; पाखण्डम्‌--निरीश्वरवादी मार्ग, पाखण्ड; अभियाति--अनुसरण करता है।

    कभी-कभी इस संसार अटवी में अपने कष्टों से मुक्ति पाने के लिए बद्धजीव पाखण्डियों केसस्ते आशीर्वाद प्राप्त करता है।

    तब उनके सम्पर्क से उसकी मति भ्रष्ट हो जाती है।

    यह उथलीनदी में कूदने के समान ही है।

    इसका परिणाम यही होता है कि उसका सिर फूटता है।

    इस प्रकारवह गर्मी से प्राप्त दुःखों को शान्त करने में समर्थ नहीं होता तथा दोनों ओर से उस की हानि होतीहै।

    यह दिग्भ्रमित बद्धजीव तथाकथित साधुओं एवं स्वामियों की भी शरण में जाता है जोवेदविरुद्ध उपदेश देते हैं।

    किन्तु इनसे उसे न तो वर्तमान में और न भविष्य में ही लाभ प्राप्त होताहै।

    यदा तु परबाधयान्ध आत्मने नोपनमति तदा हि पितृपुत्रबर्हिष्मतः पितृपुत्रान्वा स खलु भक्षयति, ॥

    १४॥

    यदा--जब; तु--किन्तु ( दुर्भाग्यवश ); पर-बाधया-- अन्य सबों का शोषण करते हुए भी; अन्ध:--अन्धा; आत्मने--अपनेस्वयं के लिए; न उपनमति--हिस्से में नहीं आता; तदा--तब; हि--निश्चय रूप से; पितृ-पुत्र--पिता या पुत्रों का; बर्हिष्मत:--तृणवत््‌ तुच्छ; पितृ-पुत्रानू--पिता अथवा पुत्रों को; बा--अथवा; सः--वह ( बद्धजीव ); खलु--निस्सन्देह; भक्षयति--कष्टपहुँचाता है।

    बद्धजीव जब अन्यों का शोषण करते रहने पर भी इस भौतिक संसार में अपना निर्वाह नहींकर पाता, तो वह अपने पिता या पुत्र का शोषण करने का प्रयास करता है और उसकी सम्पत्तिहर लेता है भले ही वे अति महत्वहीन ही क्‍यों न हों।

    यदि वह पिता, पुत्र या किसी अन्य सम्बन्धीकी सम्पत्ति प्राप्त नहीं कर पाता तो यह उन्हें सभी प्रकार के कष्ट देने के लिए उद्यत हो उठता है।

    क्वचिदासाद्य गृहं दाववत्प्रियार्थविधुरमसुखोदर्क शोकाग्निना दह्ममानो भृशं निर्वेदमुपगच्छति ॥

    १५॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; आसाद्य--अनुभव करके; गृहम्‌--गृहस्था श्रम को; दाव-बत्‌--दावाग्नि तुल्य; प्रिय-अर्थ-विधुरम्‌--किसी लाभप्रद प्रयोजन के बिना; असुख-उदर्कम्‌--अधिकाधिक दुख ही प्रतिफलित होता है; शोक-अग्निना--शोक की अग्निसे; दह्ममान:--सन्तप्त होकर; भूशम्‌--अत्यधिक; निर्वेदम्‌--निराशा; उपगच्छति--प्राप्त करता है।

    इस संसार में गृहस्था श्रम दावाग्नि के तुल्य है।

    इसमें तनिक भी सुख नहीं है और मनुष्यक्रमशः अधिकाधिक दुख में उलझता जाता है।

    पारिवारिक जीवन में चिरन्तन सुख के लिए कुछभी अनुकूल नहीं होता।

    गृहस्था श्रम में रहने के कारण बद्धजीबव पश्चात्ताप की अग्नि से संतप्तरहता है।

    कभी वह अपने को अभागा मानते हुए कोसता है, तो कभी वह कहता है कि पूर्वजीवन में शुभ कर्म न करने के कारण ही वह कष्ट का भागी बन रहा है।

    क्वचित्कालविषमितराजकुलरक्षसापहतप्रियतमधनासु: प्रमृतक इव विगतजीवलक्षण आस्ते ॥

    १६॥

    क्वचित्‌--कभी-क भी; काल-विष-मित--काल के द्वारा कुटिल बनाया गया; राज-कुल--शासक वर्ग; रक्षसा--राक्षसोंद्वारा; अपहत--हर लिये जाने पर; प्रिय-तम--सर्वाधिक प्रिय; धन--सम्पत्ति के रूप में; असु:--जिसकी प्राणवायु;प्रमृतक:--मृत; इब--सहृश, तुल्य; विगत-जीव-लक्षण:--जीवन के समस्त लक्षणों से शून्य; आस्ते--रह जाता है

    शासन-कर्मी सदैव नरभक्षी राक्षसों के सह होते हैं।

    ये शासन-कर्मी कभी-कभी बद्धजीवसे रुष्ट हो जाते हैं और उसकी सारी संचित सम्पत्ति उठा ले जाते हैं।

    इस प्रकार अपने जीवन भरकी संचित पूँजी को खोकर बद्धजीव हतोत्साहित हो जाता है।

    दरअसल, यह उसके लिएप्राणान्त के समान है।

    कदाचिन्मनोरथोपगतपितृपितामहाद्यसत्सदिति स्वपणनिर्व॒ृतिलक्षणमनुभवति ॥

    १७॥

    कदाचित्‌--कभी-क भी; मनोरथ-उपगत--मन में कल्पना द्वारा प्राप्त; पितृ--पिता; पिता-मह-आदि--अथवा बाबा तथा अन्य;असतू--बहुत पूर्व मृत होने पर भी ( और यह न जानते हुए कि जीव चला गया है ); सत्‌--पिता या पितामह पुनः पधारते हैं;इति--ऐसा सोचकर; स्वप्न-निर्वृति-लक्षणम्‌--स्वप्न-सुख के समान; अनुभवति--( जीव ) अनुभव करता है।

    कभी-कभी बद्धजीव यह कल्पना करने लगता है कि उसके पिता या बाबा अपने पुत्र यापौत्र के रूप में इस संसार में पुनः आ गए।

    इस प्रकार उन्हें स्वणण का सा सुख अनुभव होता हैऔर कभी-कभी बद्धजीव को ऐसी मानसिक कल्पनाओं में सुख मिलता है।

    क्वचिद्गृहा श्रमकर्मचोदनातिभरगिरिमारुरु क्षमाणो लोकव्यसनकर्षितमना: कण्टकशर्कराक्षेत्रंप्रविशन्निव सीदति ॥

    १८॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; गृह-आश्रम--गृहस्थ जीवन; कर्म-चोदन--सकाम कर्म का पालन; अति-भर-गिरिम्‌--ऊँची पहाड़ी;आरुरुक्षमाण: --चढ़ने की इच्छा लेकर; लोक-- भौतिक ( संसार ); व्यसन--लत; कर्षित-मना:ः--आकर्षित मन वाले;'कण्टक-शर्करा-द्षेत्रमू--काँटे तथा कंकड़ों से आच्छादित खेत में; प्रविशन्‌--घुसते हुए; इब--सद्ृश; सीदति--पश्चात्तापकरता है।

    गृहस्थाश्रम में नाना प्रकार के यज्ञ तथा कर्मकाण्ड ( विशेष रूप से पुत्र-पुत्रियों के लिएविवाह यज्ञ और यज्ञोपवीत संस्कार ) करने होते हैं।

    ये सभी गृहस्थ के कर्तव्य हैं।

    ये अत्यन्तव्यापक होते हैं और इनको सम्पन्न करना कष्टदायक होता है।

    इनकी उपमा एक बड़ी पहाड़ी सेदी जाती है, जिसे सांसारिक कर्मों में संलग्न होने पर लाँघना ही पड़ता है।

    जो व्यक्ति इनअनुष्ठानों पर विजय प्राप्त करना चाहता है उसे पहाड़ी में चढ़ते समय काँटों तथा कंकड़ों केचुभने से होने वाली पीड़ा का-सा अनुभव करना होता है।

    इस प्रकार बद्धजीव को अनन्तयातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

    क्वचिच्च दुःसहेन कायाभ्यन्तरवह्निना गृहीतसारः स्वकुटुम्बाय क्रुध्यति ॥

    १९॥

    क्वचित्‌ च--और कभी-कभी; दुःसहेन-- असहा; काय-अभ्यन्तर-वह्निना--शरीर के अन्तर्गत क्षुधा तथा पिपासा की अग्नि केकारण; गृहीत-सार: -- धैर्य चुकने पर; स्व-कुटुम्बाय--अपने ही कुट॒म्बी जनों पर; क्रुध्यति--क्रुद्ध होता है, नाराज होता है।

    कभी-कभी शारीरिक भूख और प्यास से त्रस्त बद्धजीव इतना विचलित हो जाता है किउसका थैर्य टूट जाता है और वह अपने ही प्रिय पुत्रों, पुत्रियों तथा पत्नी पर रूष्ट हो जाता है।

    इसप्रकार निष्ठर होने पर उसकी यातना और भी बढ़ जाती है।

    स एव पुनर्निद्राजगरगृहीतो उन्‍्थे तमसि मग्न: शून्यारण्य इव शेते नान्यत्किज्ञन वेद शव इवापविद्धः ॥

    २०॥

    सः--वह बद्धजीव; एव--निश्चय ही; पुन:--फिर से; निद्रा-अजगर--गहरी नींद रूपी अजगर द्वारा; गृहीत:--भक्षण कियेजाने पर; अन्धे--घनान्धकार में; तमसि--अज्ञान में; मग्न: --लिप्त; शून्य-अरण्ये--वीरान वन में; इब--के समान; शेते--लेटजाता है; न--नहीं; अन्यत्‌-- अन्य; किज्लन-- कुछ भी; वेद--जानता है; शवः--मृत शरीर; इब--सहश; अपविद्ध:--फेंकाहुआ।

    शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित्‌ से आगे कहते हैं--प्रिय राजन्‌, निद्रा अजगर के समानहै।

    जो मनुष्य भौतिक जीवनरूप वन में विचरण करते रहते हैं उन्हें निद्रा-अजगर अवश्य हीनिगल जाता है।

    इस अजगर द्वारा डसे जाने के कारण वे अज्ञान-अंधकार में खोये रहते हैं।

    वेसुदूर वन में मृत शरीर की भाँति फेंक दिये जाते हैं।

    इस प्रकार बद्धजीव समझ नहीं पाता किजीवन में क्या हो रहा है।

    कदाचिद्धग्नमानदंष्टी दुर्जनदन्दशूकैरलब्धनिद्राक्षणोव्यधितहृदयेनानुक्षीयमाणविज्ञानो उन्‍्धकूपेउन्धवत्पतति, ॥

    २१॥

    कदाचित्‌--कभी-कभी; भग्न-मान-दंष्ट: --गर्व रूपी दाँत टूटे हैं जिसके; दुर्जन-दन्द-शूकै:--सर्प तुल्य दुष्ट पुरुषों की ईर्ष्याके कारण; अलब्ध-निद्रा-क्षण:--जिसे सोने का सुअवसर प्राप्त नहीं हो पाता; व्यधित-हदयेन--विश्लुब्ध मन से;अनुक्षीयमाण--क्रमशः ह्ास होते हुए; विज्ञान:--जिसका अन्‍्तर्बोध; अन्ध-कूपे--अंध कुएँ में; अन्ध-वत्‌--छलावे की तरह;'पतति--गिर पड़ता है।

    कभी-कभी भौतिक जगत रूपी वन में बद्धजीव सर्पो तथा अन्य जन्तुओं जैसे ईर्ष्यालुशत्रुओं के द्वारा दंशित होता रहता है।

    शत्रु के छलावे से बद्धजीव अपने प्रतिष्ठित पद से च्युत होजाता है।

    चिन्ताकुल होने से उसे ठीक से नींद तक नहीं आती।

    इस प्रकार वह अधिकाधिक दुखीहोता जाता है और क्रमशः अपना ज्ञान तथा चेतना खो बैठता है।

    उसकी दशा उस स्थायी अन्धपुरुष के समान हो जाती है जो अज्ञान के अन्धकूप में गिर गया हो।

    कहिं सम चित्काममधुलवान्विचिन्वन्यदा परदारपरद्॒व्याण्यवरुन्धानो राज्ञा स्वामिभिर्वा निहतः पतत्यपारेनिरये ॥

    २२॥

    कहिं सम चितू--कभी-कभी; काम-मधु-लवान्‌--इन्द्रियसुख ( विषय ) के लघु मधुकणों के सहश; विचिन्वन्‌ू--ढूँढते हुए;यदा--जब; पर-दार--परायी स्त्री; पर-द्रव्याणि-- परायी सम्पत्ति; अवरुन्धान:-- अपनी सम्पत्ति मानकर; राज्ञा--राजा के द्वारा;स्वामिभि: वा--अथवा स्त्री के पति वा सम्बन्धियों द्वारा; निहतः--बुरी तरह पिट कर; पतति--गिर पड़ता है; अपारे-- अपार,अछोर; निरये--नारकीय जीवन ( बलात्कार, अपहरण अथवा पराया धन चुराने जैसे कार्यों के लिए राजा द्वारा प्रदत्त कैद ) |

    कभी-कभी बद्धजीव इन्द्रिय-तृप्ति से प्राप्त होने वाले क्षिणक सुख की ओर आकर्षित होताहै।

    फलस्वरूप वह अवैध यौन-सम्पर्क में रत होता है अथवा पराये धन को चुराता है।

    ऐसीअवस्था में वह राजा द्वारा बन्दी बना लिया जाता है।

    या फिर उस स्त्री का पति या उसका संरक्षकउसे दण्डित करता है।

    इस प्रकार किंचित्‌ सांसारिक तुष्टि हेतु वह नारकीय स्थिति में जा पड़ता हैऔर बलात्कार, अपहरण, चोरी तथा इसी प्रकार के कृत्यों के लिए कारागार में डाल दिया जाताहै।

    अथ च तस्मादुभयथापि हि कर्मास्मिन्नात्मन: संसारावपनमुदाहरन्ति ॥

    २३॥

    अथ--अब; च--और; तस्मात्‌--इस कारण; उभयथा अपि--इस जन्म में तथा अगले जन्म में; हि--निस्सन्देह; कर्म--सकामकर्म; अस्मिन्‌--इन्द्रिय सुख के इस मार्ग पर; आत्मन:--जीवात्मा का; संसार--भौतिक जीवन का; आवपनम्‌--खेत अथवास्रोत; उदाहरन्ति--वेदों का वचन है।

    इसीलिए विद्वतूजन तथा अध्यात्मवादीगण कर्म के भौतिक मार्ग ( प्रवृत्ति ) की भर्त्सना करतेहैं, क्योंकि इस जन्म में तथा अगले जन्म में सांसारिक दुखों का आदि स्त्रोत तथा उसको'पल्‍लवित करने की आधार भूमि वही है।

    मुक्तस्ततो यदि बन्धाद्देवदत्त उपाच्छिनत्ति तस्मादपि विष्णुमित्र इत्यनवस्थिति: ॥

    २४॥

    मुक्त:--मुक्तिप्राप्त; ततः--उससे; यदि--यदि; बन्धात्‌--राज्य कारावास से या स्त्री-रक्षक द्वारा प्रताड़ित होने पर; देव-दत्त:--देवदत्त नामक व्यक्ति; उपाच्छिनत्ति--उसका धन छीन लेता है; तस्मात्‌--देवदत्त से; अपि--पुनः ; विष्णु-मित्र:--विष्णुमित्रनामक व्यक्ति; इति--इस प्रकार; अनवस्थिति:-- धन एक स्थान पर न रहकर एक हाथ से दूसरे हाथ में चला जाता है|

    यह बद्धजीव पराये धन को चुराकर या ठगकर किसी तरह से उसे अपने पास रखता है औरदण्ड से बच जाता है।

    तब देवदत्त नामक एक अन्य व्यक्ति इस धन को उससे ठग लेता है।

    इसीप्रकार विष्णुमित्र नामक एक तीसरा व्यक्ति यह धन देवदत्त से छीन लेता है।

    यह धन किसी भीदशा में एक स्थान पर टिकता नहीं है।

    यह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता है।

    अन्त मेंइसका कोई उपभोग नहीं कर पाता और यह श्रीभगवान्‌ की सम्पत्ति बन जाता है।

    क्वचिच्च शीतवाताद्यनेकाधिदैविक भौतिकात्मीयानां दशानां प्रतिनिवारणे कल्पो दुरन्तचिन्तया विषण्णआस्ते ॥

    २५॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; च-- भी; शीत-वात-आदि--ठंड तथा झंझा इत्यादि; अनेक--कई; अधिदैविक--देवों द्वारा उत्पन्न,दैविक; भौतिक--अधिभौतिक, अन्य जीवों द्वारा उत्पन्न; आत्मीयानामू--अध्यात्मिक, देह तथा मन द्वारा उत्पन्न; दशानाम्‌--कष्टपूर्ण दशाओं के; प्रतिनिवारणे--निवारण करने में; अकल्प:--अशक्य; दुरन्‍्त--अत्यन्त कठोर; चिन्तया--चिन्ता केकारण; विषणण:--दुखी; आस्ते--रहता है ।

    भौतिक जगत के तापत्रय से अपनी रक्षा न कर सकने के कारण बद्धजीव अत्यन्त दुखीरहता है और शोकपूर्ण जीवन बिताता है।

    ये तीन प्रकार के संताप हैं--देवताओं द्वारा दियेजानेवाला मानसिक ताप, ( यथा हिमानी हवा तथा चिलचिलाती धूप ), अन्य जीवात्माओं द्वाराप्रदत्त ताप तथा मन एवं देह से उत्पन्न होने वाले ताप।

    क्वचिन्मिथो व्यवहरन्यत्किश्निद्धनमन्ये भ्यो वा काकिणिकामात्रमप्यपहरन्यत्किद्धिद्दा विद्वेषमेतिवित्तशाठ्यात्‌, ॥

    २६॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; मिथ: -- परस्पर; व्यवहरन्‌--व्यवहार करते हुए; यत्‌ किल्ञित्‌ू--जो कुछ भी थोड़ा सा; धनम्‌--धन;अन्येभ्य: --अन्यों से; बा--या; काकिणिका-मात्रम्‌--अत्यल्प धन ( बीस कौड़ी ); अपि--निश्चय ही; अपहरन्‌--ठग कर लेलेने पर; यत्‌ कि्जित्‌--जो कुछ भी अल्प मात्रा; वा--या; विद्वेषम्‌ एति--वैर उत्पन्न करता है; वित्त-शाठ्य्यात्‌ू--ठगने के'फलस्वरूप।

    जहाँ तक धन के लेन-देन का सम्बन्ध है, यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे की एक कौड़ी याइससे भी कम धन ठग लेता है, तो वे परस्पर शत्रु बन जाते हैं।

    अध्वन्यमुष्मिन्नरिम उपसर्गास्तथासुखदुःखरागद्वेषभयाभिमानप्रमादोनन्‍्मादशोकमोहलोभमात्सर्येर्यावमानश्षुत्पिपासाधिव्याधिजन्मजरामरणादयः ॥

    २७॥

    अध्वनि-- भौतिक जीवन के पथ पर; अमुष्मिनू--उस; इमे--ये सब; उपसर्गा:--शाश्वत कठिनाइयाँ; तथा--और; सुख--तथाकथित सुख; दुःख--कष्ट; राग--आसक्ति; द्वेष--घृणा; भय--डर; अभिमान--झूठा गर्व; प्रमाद-- भ्रम; उन्माद--पागलपन; शोक--शोक; मोह--मोह; लोभ--लालच; मात्सर्य--विद्वेष; ईर्ष्च--दुश्मनी, वैर; अवमान--अनादर; क्षुत्‌--क्षुधा;पिपासा-- प्यास; आधि--आपदाएँ; व्याधि--रोग; जन्म--जीव धारण करना; जरा--बुढ़ापा; मरण--मृत्यु; आदय:--इत्यादि।

    इस भौतिक जगत में अनेकानेक कठिनाइयाँ आती हैं और ये सभी दुर्लघ्य हैं।

    इनकेअतिरिक्त तथाकथित सुख, दुख, राग, द्वेष, भय, अभिमान, प्रमाद, उन्‍्माद, शोक, मोह, लोभ,मत्सर, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा, पिपासा, आधि, व्याधि तथा जन्म, जरा, मरण से उत्पन्न होने वालीबाधाएँ आती हैं।

    ये सभी मिलकर संसारी बद्धजीव को दुख के अतिरिक्त और कुछ नहीं देपातीं।

    क्वापि देवमायया स्त्रिया भुजलतोपगूढ: प्रस्कन्नविवेकविज्ञानोयद्विहारगृहारम्भाकुलहदयस्तदा भ्रयावसक्तसुतदुहितृकलत्रभाषितावलोक विचेष्टितापह तह दयआत्मानमजितात्मापारेन्धे तमसि प्रहिणोति, ॥

    २८ ॥

    क्वापि--कहीं भी; देव-मायया--देवमाया के वश में होकर; स्त्रिया--सखी या पत्नी के रूप में; भुज-लता--वन की कोमललताओं के सदश सुन्दर बाहुओं के द्वारा; उपगूढ़:ः --अत्यधिक व्याकुल होकर; प्रस्कन्न--खोया हुआ; विवेक--सत्‌ असत्‌ काज्ञान; विज्ञान:--विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान; यत्‌ू-विहार--पत्नी सुख के लिए; गृह-आरम्भ--घर की तलाश करने में; आकुल-हृदयः--व्याकुल चित्त होकर; तत्‌--उस घर की; आश्रय-अवसक्त--जो शरण में आये हुए हैं; सुत--पुत्रों का; दुहितृ--पुत्रियोंका; कलत्र--पत्ली का; भाषित-अवलोक --उनके सम्भाषणों तथा बाँकी चितवनों से; विचेष्टित--कार्यो से, चेष्टाओं से;अपहत-हृदयः--जिसका हृदय हर लिया गया है, संज्ञाशून्य; आत्मानम्‌ू--स्वयं; अजित--अवश; आत्मा--जिसका आत्मा;अपारे--अनन्त; अन्धे--घनान्धकार में; तमसि--नारकीय जीवन में; प्रहिणोति--गिरा देता है।

    कभी-कभी बद्धजीव प्रमादवश मूर्तिमान माया ( अपनी पत्नी या प्रेयसी ) से आकर्षितहोकर स्त्री द्वारा आलिंगन किये जाने के लिए व्याकुल हो उठता है।

    इस प्रकार वह अपनी बुद्धितथा जीवन-उद्देश्य के ज्ञान को खो देता है।

    उस समय वह आध्यात्मिक अनुशीलन का प्रयास नकरके अपनी पत्नी या प्रेयसी में अत्यधिक अनुरक्त हो जाता है और उसके लिए उपयुक्त गृहआदि उपलब्ध कराने का प्रयत्त करता है, फिर वह इस घरबार में अत्यधिक व्यस्त हो जाता हैऔर अपनी पत्नी तथा बच्चों की बातों, चितवनों तथा कार्यकलापों में फँस जाता है।

    इस प्रकारवह कृष्णभावनामृत से वंचित होकर लौकिक अस्तित्व के गहन अंधकार में गिर जाता है।

    कदाचिदी श्वरस्य भगवतो विष्णोश्नक्रात्परमाण्वादिद्विपरार्धापवर्गकालोपलक्षणात्परिवर्तितेन वयसा रंहसाहरत आन्रह्मतृणस्तम्बादीनां भूतानामनिमिषतो मिषतां वित्रस्तहदयस्तमेवे श्रर कालचक्रनिजायुध॑साक्षाद्धगवन्तं यज्ञपुरुषमनाहत्य पाखण्डदेवता: कड्जुगृक्षबकवटप्राया आर्यसमयपरिहता:सड्डेत्येनाभिधत्ते ॥

    २९॥

    कदाचित्‌--कभी-कभी; ईश्वरस्थ--ई श्वर का; भगवतः -- श्री भगवान्‌ के; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु का; चक्रात्‌ू-चक्र से;'परमाणु-आदि--सूक्ष्म परमाणुओं के काल से प्रारम्भ करके; द्वि-परार्ध--ब्रह्म के जीवन की अवधि; अपवर्ग--अन्त; काल--समय का; उपलक्षणात्‌--लक्षणों से; परिवर्तितेन--चक्कर लगाता हुआ; वयसा--आयुओं के क्रमानुसार; रंहसा--तेजी से;हरत:--हरण करके; आ-ब्रह्म --ब्रह्माजी से लेकर; तृण-स्तम्ब-आदीनाम्‌--श्षुद्रातिक्षुद्र तृण पर्यन्त; भूतानामू--समस्तजीवात्माओं का; अनिमिषत:ः--अपलक, निरन्तर; मिषताम्‌--जीवात्माओं की आँखों के सामने ( फिर भी वे रोक नहीं सकते );वित्रस्त-हदय:--मन में डर कर; तम्‌--उस ( ईश्वर ); एब--निश्चय ही; ईश्वरम्‌-- श्री भगवान्‌ को; काल-चक्र-निज-आयुधम्‌--काल चक्र ही जिसका साक्षात्‌ आयुध है; साक्षात्‌-प्रत्यक्षतः; भगवन्तम्‌ू-- श्रीभगवान्‌; यज्ञ-पुरुषम्‌--जो सभी प्रकार के यज्ञोंको स्वीकार करता है, यज्ञ पुरुष को; अनाहत्य--अनादर करके, परवाहकिये बिना; पाखण्ड-देवता:--ईश्वर के पाखण्डीअवतार ( मानवकल्पित भगवान्‌ या देवता ); कड्ढू--बाज; गृक्ष--गीध; बक--बगुला; वट-प्राया:--कौंवों के सहश; आर्य-समय-परिहता: --आर्यो के द्वारा स्वीकृत प्रामाणिक वैदिक शास्त्रों से तिरस्कृत होकर; साद्जेत्येन--कपोलकल्पित अप्रामाणिकशास्त्रों द्वारा; अभिधत्ते--पूजा योग्य स्वीकार कर लेता है

    श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त निजी आयुध हरिचक्र कहलाता है।

    यह चक्र कालचक्र है।

    यहपरमाणुओं से लेकर ब्रह्मा की मृत्युपर्यन्त फैला हुआ है और यह समस्त कर्मों को नियंत्रित करनेवाला है।

    यह निरन्तर घूमता रहता है और ब्रह्माजी से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृण तक सभीजीवात्माओं का संहार करता है।

    इस प्रकार प्राणी बाल्यपन से यौवन तथा प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त करते हुए जीवन के अन्त तक पहुँच जाता है।

    काल के इस चक्र को रोक पाना असम्भव है।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का निजी आयुध होने के कारण यह अत्यन्त कठोर है।

    कभी-कभीबद्धजीव मृत्यु को निकट आया जानकर ऐसे व्यक्ति की पूजा करने लगता है जो उसे आसतन्नसंकट से उबार सके।

    वह ऐसे श्रीभगवान्‌ की परवाह नहीं करता जिनका आयुध अथक कालहै।

    उल्टे वह अप्रामाणिक शास्त्रों में वर्णित मानवनिर्मित देवताओं की शरण में जाता है।

    ऐसेदेवता बाज, गीध, बगुले तथा कौवे के तुल्य हैं।

    वैदिक शास्त्रों में इनका वर्णन नहीं मिलता।

    पास खड़ी मृत्यु शेर के आक्रमण की तरह है, जिससे न तो गीध, बाज, कौवे और न ही बगुलेबच सकते हैं।

    जो पुरुष ऐसे अप्रामाणिक मानवनिर्मित देवताओं की शरण में जाता है उसे मृत्युके चंगुल से नहीं छुड़ाया जा सकता।

    यदा पाखण्डिभिरात्मवज्धितैस्तैरुरु वद्धितो ब्रह्मकुलं समावसंस्तेषांशीलमुपनयनादिश्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानेन भगवतो यज्ञपुरुषस्याराधनमेव तदरोचयन्शूद्रकुलं भजतेनिगमाचारेशुद्धितो यस्य मिथुनीभाव: कुटुम्बभरणं यथा वानरजाते: ॥

    ३०॥

    यदा--जब; पाखण्डिभि:--पाखण्डियों ( नास्तिकों ) द्वारा; आत्म-वज्चितैः-- स्वयं को ठगने वाले; तैः--उनके द्वारा; उरू--अधिकाधिक; वज्धित:--ठगे जाकर; ब्रह्म-कुलम्‌--वैदिक संस्कृति के पालक एकमात्र ब्राह्मणजन; समावसन्‌--आत्मिकउन्नति के लिए उनके बीच निवास करते हुए; तेषामू--उनके ( ब्राह्मणों के )) शीलमू--शील, अच्छा आचरण; उपनयन-आदि--उपनयन संस्कार इत्यादि, अर्थात्‌ बद्धजीव को ब्राह्मण बनने की शिक्षा देते हुए; श्रौत--वैदिक नियमों के अनुसार, वेद विधि से;स्मार्त--वेदों से प्राप्त प्रामाणिक उपदेशों के अनुसार; कर्म-अनुष्ठानेन--कर्मो के पालन द्वारा; भगवतः-- श्रीभगवान्‌ की; यज्ञ-पुरुषस्य--जो वैदिक यज्ञों द्वारा पूजित है; आराधनम्‌ू--उस ईश्वर की पूजा; एव--निश्चयपूर्वक; तत्‌ अरोचयन्‌--चरित्रहीनव्यक्तियों द्वारा कठिनाई से सम्पन्न होने के कारण उसमें आनन्द प्राप्त न कर सकने से, अरुचिकर लगने के कारण; शूद्र-कुलम्‌--शूद्रों के कुल ( समाज ) की ओर; भजते--उन्मुख होता है; निगम-आचारे-- वैदिक रीतियों के अनुसार आचरण करनेमें; अशुद्धित: --अशुद्ध; यस्थ--जिसका; मिथुनी-भाव: --मैथुन सुख अथवा सांसारिक जीवन; कुटुम्ब-भरणम्‌--परिवार कापालन-पोषण; यथा--सहश; वानर-जाते:ः --वानर कुल के, वानर की सन्तानों के |

    ऐसे छद्य-स्वामी, योगी तथा अवतारी जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ में विश्वास नहीं करते,पाषण्डी कहलाते हैं।

    वे स्वयं पतित होते हैं और ठगे जाते हैं, क्योंकि वे आध्यात्मिक उन्नति कावास्तविक मार्ग नहीं जानते, अतः उनके पास जो भी जाता है, वही ठगा जाता है।

    इस प्रकार सेठगे जाने पर वह कभी-कभी वैदिक नियमों के असली उपासकों ( ब्राह्मणों अथवाकृष्णभावनामृत वालों ) की शरण में जाता है, जो सबों को वेदोक्त आचार से श्रीभगवान्‌ कीउपासना करना सिखाते हैं।

    किन्तु इन रीतियों का पालन न कर सकने के कारण ये धूर्त पुनःपतित होते हैं और शूद्रों की शरण लेते हैं, जो विषयभोग में मग्न रहने में पटु हैं।

    वानर जैसेपशुओं में मैथुन अत्यन्त प्रकट रहता है और ऐसे मैथुन-प्रेमी व्यक्तियों को वानर की सन्‍्तान कहाजा सकता है।

    तत्रापि निरवरोध: स्वैरेण विहरन्नतिकृपणबुद्धिरन्योन्यमुखनिरी क्षणादिना ग्राम्यकर्मणैवविस्मृतकालावधि: ॥

    ३१॥

    तत्र अपि--उस अवस्था में ( वानरों की संतति मनुष्यों के समाज में ); निरवरोध: --बिना रोकटोक के; स्वैरैण--स्वच्छन्दतापूर्वक, जीवन के लक्ष्य को ध्यान में न रखकर; विहरन्‌ू--वानरों की भाँति भोग करते हुए; अति-कृपण-बुद्धधि: --ठीक से प्रयोग न करने के कारण मन्द-बुर्द्धि; अन्योन्य--परस्पर, एक दूसरे का; मुख-निरीक्षण-आदिना--मुखों को देखकर(जब पुरुष किसी स्त्री के सुन्दर मुख को देखता है अथवा कोई स्त्री किसी पुरुष के सुगढ़ शरीर को देखती है, तो वे एक दूसरेकी लालसा करते हैं ); ग्राम्य-कर्मणा--इन्द्रियतृष्टि के लिए कर्म करके; एब--एकमात्र; विस्मृत-- भूला हुआ; काल-अवधि:--सीमित जीवन-काल ( जिसके बाद उसका आवागमन, पतन या उत्कर्ष हो सकता है।

    )इस प्रकार वानरों की सन्‍्तानें एक दूसरे से घुलती-मिलती हैं और सामान्य रूप से शूद्र कहलाती हैं।

    मुक्त भाव से वे जीवन का उद्देश्य समझे बिना स्वच्छन्द विहार करती हैं।

    वे एकदूसरे के मुख को देखकर ही मुग्ध होती रहती हैं, क्योंकि इससे इन्द्रिय-तुष्टि की स्मृति बनी रहतीहै।

    वे निरन्तर सांसारिक कर्म में लगी रहती हैं, जिसे ' ग्राम्य-कर्म ' कहते हैं और भौतिक लाभके लिए कठिन श्रम करती हैं।

    इस प्रकार वे भूल जाती हैं कि एक दिन उनकी लघु जीवन-अवधि समाप्त हो जाएगी और वे आवागमन के चक्र में नीचे गिर जाएँगी।

    क्वचिद्द्रुमवदैहिकार्थिेषु गृहेषु रंस्यन्यथा वानरः सुतदारवत्सलो व्यवायक्षण: ॥

    ३२॥

    क्वचित्‌--यदा-कदा; द्रम-वत्‌--वृक्ष के सदश ( जिस प्रकार वानर एक वृक्ष से दूसरे में कूदकर जाता है वैसे ही बद्धजीव एकसे दूसरी देह में देहान्तर करता रहता है ); ऐहिक-अर्थषु--मात्र उत्तम सांसारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए; गृहेषु--घरों( देहों ) में; रंस्पन्‌ू--सुख अनुभव करते हुए ( एक देह से दूसरे में, या तो पशु, मानव या दैव जीवन में ); यथा--सहश;वानरः--बन्दर के ; सुत-दार-वत्सल:--सन्तान तथा पत्नी के लिए अत्यन्त प्रिय; व्यवाय-क्षण:--जिसका समय विषयसुख मेंबीतता है।

    जिस प्रकार वानर एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर कूदता रहता हैं, उसी प्रकार बद्धजीव एक देह से दूसरी में जाता रहता है।

    जब कोई शिकारी अन्ततोगत्वा वानर को बन्दी बना लेता है, तो वहछूटकर निकल नहीं पाता।

    उसी प्रकार यह बद्धजीव क्षणिक इन्द्रिय तृप्ति में फंसकर भिन्न-भिन्नप्रकार की देहों से आसक्त होकर गृहस्थ जीवन में बद्ध जाता है।

    गृहस्थ जीवन में बद्धजीव कोक्षणिक इन्द्रियसुख का आनंद प्राप्त होता है और इस प्रकार वह सांसारिक चंगुल से निकलने मेंसर्वथा असमर्थ हो जाता है।

    एवमध्वन्यवरुन्धानो मृत्युगजभयात्तमसि गिरिकन्दरप्राये ॥

    ३३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; अध्वनि--इन्द्रियतुष्टि के पथ पर; अवरुन्धान:--अवरुद्ध होने पर ( फँस जाने पर ) वह जीवन के वास्तविकलक्ष्य को भूल जाता है; मृत्यु-गज-भयात्‌--मृत्यु रूपी हाथी के डर से; तमसि--अंधकार में; गिरि-कन्दर-प्राये-- पर्वत कीगहन गुफाओं के सहृश |

    बद्धजीव इस भौतिक जगत में भगवान्‌ के साथ अपने सम्बन्ध को भूलकर तथाश्रीकृष्णभावनामृत की परवाह किये बिना अनेकानेक दुष्कर्मों एवं पापों में प्रवृत्त होने लगता है।

    तब उसे ताप-त्रय से पीड़ित होना पड़ता है और वह मृत्यु रूपी हाथी के भय से पर्वत की गुफाके घनान्धकार में जा गिरता है।

    क्वचिच्छीतवाताद्यनेकदैविकभौतिकात्मीयानां दुःखानां प्रतिनिवारणेकल्पो दुरन्‍्तविषयविषण्णआस्ते ॥

    ३४॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; शीत-वात-आदि--ठंड अथवा तेज हवा इत्यादि; अनेक--कई, अनेक प्रकार के; दैविक--देवताओंद्वारा अथवा हमारे वश से परे शक्तियों द्वारा दिए जाने वाले; भौतिक--अन्य जीवात्माओं द्वारा दिए जाने वाले; आत्मीयानाम्‌--बद्धजीव तथा मन द्वारा दिए जाने वाले; दुःखानाम्‌--अनेकानेक दुखों; प्रतिनिवारणे--निवृत्त करने में; अकल्प:--अशक्त;दुरन्‍्त--दुर्लध्य; विषय--इन्द्रियतुष्टि, वासना; विषणण:--दुखी, खिन्न; आस्ते--रहता है।

    बद्धजीव को अनेक दैहिक कष्ट सहन करने पड़ते हैं यथा अत्यधिक ठंड तथा तेज हवा।

    वहअन्य जीवात्माओं के कार्यकलापों तथा प्राकृतिक प्रकोपों के कारण भी कष्ट उठाता है।

    जब वहउनका सामना करने में अक्षम होकर दयनीय अवस्था में रहता है, तो स्वभावत: वह अत्यन्त खिन्नहो उठता है, क्योंकि वह सांसारिक सुविधाओं का भोग करना चाहता है।

    क्वचिन्मिथो व्यवहरन्यत्किश्चिद्धनमुपयाति वित्तशाठ्यून ॥

    ३५॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी या कहीं भी; मिथ: व्यवहरन्‌--परस्पर क्रय-विक्रय आदि व्यापार करने पर; यत्‌ू--जो भी; किश्जित्‌--रंच भर; धनम्‌--सम्पत्ति; उपयाति--प्राप्त करता है; वित्त-शाठ्येन--किसी की सम्पत्ति को ठग करके |

    कभी-कभी बद्धजीव परस्पर आदान-प्रदान करते हैं, किन्तु कालान्तर में ठगी के कारणउनमें शत्रुता उत्पन्न हो जाती है।

    भले ही रंचमात्र लाभ हो, बद्धजीव परस्पर मित्र न रहकर एकदूसरे के शत्रु बन जाते हैं।

    क्वचित्क्षीणधन: शय्यासनाशनादयुपभोगविहीनोयावदप्रतिलब्धमनोरथोपगतादाने वसितमतिस्ततस्ततो वमानादीनि जनादभिलभते ॥

    ३६॥

    क्वचित्‌--कभी-कभी; क्षीण-धन:--पर्याप्त धन न होने पर; शय्या-आसन-अशन-आदि--सोने, बैठने अथवा भोजन के लिएस्थान; उपभोग--सांसारिक सुख का; विहीन:--वंचित होकर; यावत्‌--जब तक; अप्रतिलब्ध--उपलब्ध न होने पर;मनोरथ--अभिलाषा से; उपगत--प्राप्त।

    आदाने--अनैतिक साधनों से हड़पने में; अवसित-मति:--संकल्प; तत:ः--उसकेकारण; ततः--उससे; अवमान-आदीनि--अपमान तथा दंड; जनात्‌--सामान्यजन से; अभिलभते--प्राप्त करता है।

    कभी-कभी धनाभाव के कारण बद्धजीव को पर्याप्त स्थान प्राप्त करने में कठिनाई होतीहै।

    कभी तो उसे बैठने तक के लिए स्थान नहीं मिल पाता, न ही उसे अन्य आवश्यक वस्तुएँ हीप्राप्त होती हैं।

    दूसरे शब्दों में, वह अभाव का अनुभव करता है और नैतिक साधनों से इनआवश्यकताओं को न प्राप्त कर पाने के कारण वह अनैतिक ढंग से दूसरों की सम्पत्ति काअपहरण करता है।

    जब उसे वांछित वस्तुएँ प्राप्त नहीं हो पातीं वह दूसरों से अपमान ही प्राप्तकरता है, जिससे वह अत्यन्त खिन्न हो उठता है।

    एवं वित्तव्यतिषड्भविवृद्धवैरानुबन्धोपि पूर्ववासनया मिथ उद्दह॒त्यथापवहति ॥

    ३७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; वित्त-व्यतिषड़-- आर्थिक लेन-देन के कारण; विवृद्ध--बढ़ा हुआ; बैर-अनुबन्ध:--वैर भाव; अपि--यद्यपि; पूर्व-वासनया--पूर्व अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप; मिथ:--परस्पर; उद्ददति--पुत्रों तथा पुत्रियों के विवाह के कारणबँध जाते हैं; अथ--तत्पश्चात्‌; अपवहति--सम्बन्ध-विच्छेद कर देते हैंअथवा तलाक दे देते हैंअपनी इच्छाओं की बारम्बार पूर्ति के लिए मनुष्य परस्पर शत्रु होने पर भी कभी-कभीविवाह सम्बध स्थापित कर लेते हैं।

    दुर्भाग्यवश ये विवाह दीर्घकाल तक नहीं चल पाते और ऐसेलोग तलाक या अन्य कारणों से पुनः विलग हो जाते हैं।

    एतस्मिन्संसाराध्वनि नानाक्लेशोपसर्गबाधित आपन्नविपन्नो यत्र यस्तमु ह वावेतरस्तत्र विसृज्य जात॑जातमुपादाय शोचन्मुहान्बिभ्यद्विवदन्क्रन्दन्संहृष्यन्गायन्नह्ममान: साधुवर्जितो नैवावर्ततेडद्यापि यत आरब्धएष नरलोकसार्थो यमध्वन: पारमुपदिशन्ति, ॥

    ३८ ॥

    एतस्मिन्‌ू--इस; संसार--दुखमय ( संसार ); अध्वनि--पथ पर; नाना--अनेक; क्लेश--कष्ट; उपसर्ग-- भौतिक अस्तित्त्व कीआपत्तियों द्वारा; बाधित:--श्लुब्ध; आपन्न--कभी-कभी प्राप्त करके; विपन्न:--क भी खोकर; यत्र--जिसमें; य: --कौन;तम्‌--उसको; उ ह वाव--अथवा; इतरः--अन्य कोई; तत्र--वहाँ; विसृज्य-- छोड़ कर; जातम्‌ जातमू--नवजात; उपादाय--स्वीकार करके; शोचन्‌--शोक करते हुए; मुहान्‌--मोह ग्रस्त होकर; बिभ्यत्‌--डरते हुए; विवदन्‌--कभी-कभी तेज चीखतेहुए; क्रन्दन्‌ू--कभी-कभी रोते हुए; संहृष्यनू--क भी-कभी प्रसन्न होते हुए; गायन्‌--गाते हुए; नह्ममान: --बाँधे जाकर; साधु-वर्जितः--सन्त पुरुषों से दूर रहकर; न--नहीं; एब--निश्चय ही; आवर्तते--प्राप्त करता है; अद्य अपि---अब भी; यत:ः--जिससे; आरब्ध:-- आरम्भ किया हुआ; एष:--इस; नर-लोक-- भौतिक जगत का; स-अर्थ:--आत्मकेन्द्रित ( स्वार्थी )जीवात्माएँ; यम्‌--जिनको ( श्रीभगवान्‌ ); अध्वन:--भौतिक अस्तित्त्व के पथ के; पारम्‌--उस पार; उपदिशन्ति--ज्ञानीजनइंगित करते हैं।

    इस भौतिक जगत का मार्ग क्लेशमय है और बद्धजीव को अनेक कष्ट विचलित करते रहतेहैं।

    कभी वह हारता है, तो कभी जीतता है।

    प्रत्येक दशा में यह मार्ग विघ्नों से परिपूर्ण है।

    कभीबद्धजीव अपने पिता से मृत्यु होने या अन्य कारणों से विलग हो जाता है।

    वह उसे छोड़करक्रमशः अन्यों से, यथा अपनी सन्‍्तान से आसक्त हो जाता है।

    इस प्रकार बद्धजीव कभी-कभीभ्रमित और कभी भयके मारे जोर जोर से चीत्कार करता है।

    कभी वह अपने परिवार का भरणकरते हुए प्रसन्न होता है, तो कभी अत्यधिक प्रसन्न हो जाता है और सुरीले गीत गाता है।

    इस तरहवह अनन्त काल से श्रीभगवान्‌ के विछोह को भूलकर अपने में बँधता जाता है।

    उसे भौतिकजगत के भयानक पथ पर चलना तो पड़ता है, किन्तु वह इस पथ पर तनिक भी सुखी नहींहोता।

    स्वरूप-सिद्ध मनुष्य इस भयानक पथ से छूटने के निमित्त श्रीभगवान्‌ की शरण ग्रहणकरते हैं।

    भक्तिमार्ग को स्वीकार किये बिना भौतिक जगत के चंगुल से कोई नहीं निकल पाता।

    तात्पर्य यह है कि इस भौतिक जीवन में कोई भी प्रसन्न नहीं हो सकता है।

    उसे कृष्णाभावनामृतका आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए ॥

    यदिदं योगानुशासनं न वा एतदवरुन्धते यन्न्यस्तदण्डा मुनय उपशमशीला उपरतात्मान: समवगच्छन्ति ॥

    ३९॥

    यत्‌--जो; इृदम्‌-- भगवान्‌ का यह परम धाम; योग-अनुशासनमू--केवल भक्ति के द्वारा प्राप्तव्य; न--नहीं; बा--अथवा;एतत्‌--मुक्ति का यह पथ; अवरुन्धते--प्राप्त करते हैं; यत्‌--अतः; न्‍्यस्त-दण्डा:--ऐसे पुरुष जिन्होंने दूसरों से ईर्ष्या करनाछोड़ दिया है; मुनयः--मुनि अथवा सन्त जन; उपशम-शीला:--जो इस समय अत्यन्त शान्तिमय अस्तित्व को प्राप्त हैं; उपरत-आत्मान:--जिन्होंने मन तथा इन्द्रियों को वश में कर लिया है; समवगच्छन्ति--सरलता से प्राप्त करते हैं।

    समस्त जीवात्माओं के मित्र मुनिजन संयतात्मा होते हैं।

    वे अपनी इन्द्रियों एवं मन को वश मेंकर चुके होते हैं और उन्हें मुक्तिपथ, जो श्रीभगवान्‌ तक पहुँचने का मार्ग है, सरलतापूर्वक प्राप्तहोता है।

    क्लेशमय भौतिक परिस्थितियों में संलग्न रहने तथा हतभाग्य होने के कारणभौतिकतावादी व्यक्ति मुनिजनों की संगति नहीं कर पाता।

    यदपि दिगिभजयिनो यज्विनो ये वै राजर्षय: किं तु परं मृथे शयीरत्नस्यामेब ममेयमिति कृतवैरानुबन्धायांविसृज्य स्वयमुपसंहता: ॥

    ४०॥

    यत्‌ अपि--यद्यपि; दिकू-इभ-जयिन:ः --जो सभी दिशाओं में विजयी होते हैं, चक्रवर्ती, दिग्विजयी; यज्विन:--बड़े-बड़े यज्ञोंके करने में पटु; ये--जो सभी; वै--निस्सन्देह; राज-ऋषय:--अत्यन्त महान्‌ सन्त राजा, राजर्षि; किम्‌ तु--किन्तु; परमू--केवल यह पृथ्वी; मृधे--युद्ध में; शयीरन्‌ू--लेटे हुए; अस्यामू--इस ( पृथ्वी ) पर; एब--निश्चय ही; मम--मेरा; इयम्‌--यह;इति--उस प्रकार से विचार करने पर; कृत--जिस पर सृष्टि की जाती है; वैर-अनु-बन्धायाम्‌-- अन्यों से शत्रुता का भाव;विसृज्य--त्याग कर; स्वयम्‌--अपना जीवन; उपसंहता: --मारे हुए

    साधु प्रकृति वाले ऐसे अनेक महान्‌ राजर्षि हो चुके हैं, जो यज्ञ अनुष्ठान में अत्यन्त प्रवीणतथा अन्य राज्यों को जीतने में परम कुशल थे, किन्तु इतनी शक्ति होने पर भी भगवान्‌ कीप्रेमाभक्ति नहीं कर पाये, क्योंकि वे महान्‌ राजा, 'मैं देह-स्वरूप हूँ और यह मेरी सम्पत्ति है'इस मिथ्या बोध को भी नहीं जीत पाये थे।

    इस प्रकार उन्होंने प्रतिद्वन्द्नी राजाओं से केवल शत्रुतामोल ली, उनसे युद्ध किया और वे जीवन के वास्तविक लक्ष्य को पूरा किये बिना दिवंगत होगए।

    कर्मवल्‍लीमवलम्ब्य तत आपद: कथश्ञिन्नरकाद्विमुक्त: पुनरप्येवं संसाराध्वनि वर्तमानोनरलोकसार्थमुपयाति एवमुपरि गतोपि, ॥

    ४१॥

    कर्म-वल्लीम्‌--सकाम कर्मों की लता को; अवलम्ब्य--सहारा बनाकर; ततः--उससे; आपद:--घातक या क्लेशपूर्ण स्थिति;कथश्ित्‌--किसी न किसी प्रकार से; नरकात्‌--जीवन की नारकीय दशा से; विमुक्त:--मुक्त होकर; पुनः अपि--फिर से;एवम्‌--इस प्रकार; संसार-अध्वनि-- भौतिक जगत के मार्ग पर; वर्तमान:--वर्तमान, समुपस्थित; नर-लोक-स-अर्थम्‌--स्वार्थमय कर्मों का क्षेत्र; उपयाति-- प्रवेश करता है; एवम्‌--इस प्रकार; उपरि--ऊपर ( उच्चलोकों में ); गतः अपि--( ऊपर )उठाये जाने पर भी।

    सकाम कर्म रूपी लता की शरण स्वीकार कर लेने पर बद्धजीव अपने पवित्र कार्यों के'फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त हो सकता है और इस तरह नारकीय स्थिति से तो उसे मुक्ति मिलसकती है, किन्तु वह दुर्भाग्यवश वहाँ रह नहीं पाता।

    अपने पवित्र कार्यों का फल भोगने के बादउसे निम्न लोकों में लौटना पड़ता है।

    इस प्रकार वह निरन्तर ऊपर और नीचे आता-जाता रहताहै।

    तस्थेदमुपगायन्ति--आर्षभस्येह राजर्षेमनसापि महात्मन: ।

    नानुवर्त्महति नृपो मक्षिकेव गरुत्मतः ॥

    ४२॥

    तस्य--जड़भरत का; इृदम्‌ू-- यह यश-गान; उपगायन्ति-गाते हैं; आर्षभस्य--ऋषभदेव के पुत्र का; इहह--यहाँ; राज-ऋषे: --महान्‌ ऋषितुल्य राजा का; मनसा अपि--मन से भी; महा-आत्मन: --महात्मा जड़भरत का; न--नहीं; अनुवर्त्म अहति--पथका अनुसरण करने में समर्थ; नृप: --राजा; मक्षिका--मक्खी; इब--सहश; गरुत्मतः-- श्री भगवान्‌ के वाहन, गरुड़ का।

    जड़भरत के उपदेशों का सार सुना चुकने के पश्चात्‌ श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--प्रियराजा परीक्षित्‌, जड़भरत द्वारा निर्दिष्ट पथ श्रीभगवान्‌ के वाहन गरुड़ द्वारा अनुगमन किये गयेपथ के तुल्य है और सामान्य राजागण मक्खियों के समान हैं।

    मक्खियाँ गरुड़ के पथ पर नहींजा सकतीं।

    आज तक बड़े-बड़े राजाओं तथा विजयी नेताओं में से किसी ने भी भक्ति-पथ काअनुसरण नहीं किया मानसिक रूप से भी नहीं।

    यो दुस्त्यजान्दारसुतान्सुहद्राज्यं हृदिस्पृशः ।

    जहौ युवैव मलवदुत्तमश्लोकलालस: ॥

    ४३॥

    यः--वही जड़भरत जो पहले महाराज ऋषभदेव के पुत्र महाराज भरत थे; दुस्त्यजानू--त्याग पाना अत्यन्त कठिन होता है; दार-सुतानू--पत्नी तथा सन्‍्तान अथवा अत्यन्त वैभवपूर्ण गृहस्थ जीवन को; सुहत्‌ू--मित्र तथा शुभ चिन्तक; राज्यमू--विश्वव्यापीसाम्राज्य; हृदि-स्पृश:--अन्तरतम में स्थित; जहौ--परित्याग कर दिया; युवा एब--तरुण होते हुए; मल-वत्‌--विष्ठा के सहश;उत्तम-श्लोक-लालस:--उत्तमश्लोक श्रीभगवान्‌ की सेवा करने के लिए लालायित।

    महाराज भरत ने अपनी युवावस्था में ही सब कुछ परित्याग कर दिया, क्योंकि वेउत्तमएलोक श्रीभगवान्‌ की सेवा करना चाहते थे।

    उन्होंने अपनी सुन्दर पत्नी, उत्तम सन्‍्तान, प्रियमित्र तथा अपने विशाल साम्राज्य का परित्याग कर दिया।

    यद्यपि इन वस्तुओं का त्याग कर पानाअत्यन्त कठिन होता है, किन्तु जड़भरत इतने उच्चस्थ थे कि उन्होंने इनको उस तरह से त्यागदिया जैसे मल त्याग के पश्चात्‌ विष्टा को त्याग दिया जाता है।

    यो दुस्त्यजान्क्षितिसुतस्वजनार्थदारान्‌प्रार्थ्या अ्रियं सुरवरै: सदयावलोकाम्‌ ।

    नैच्छन्नृपस्तदुचितं महतां मधुद्विट-सेवानुरक्तमनसामभवोपि फल्गु: ॥

    ४४॥

    यः--जो; दुस्त्यजान्‌ू--जिनका परित्याग कर पाना अत्यन्त कठिन है, दुस्त्यज; क्षिति--पृथ्वी; सुत--सन्तति, पुत्रादि; स्व-जन-अर्थ-दारान्‌ू--कुट॒म्बी, धन तथा सुन्दर पत्नी को; प्रार्थ्याम्‌--लालायित; थ्रियम्‌ू--लक्ष्मी को; सुर-बरैः-- श्रेष्ठ देवताओं द्वारा;स-दय-अवलोकाम्‌--जिसकी दयादृष्टि; न--नहीं; ऐच्छत्‌--इच्छा की; नृप:ः--राजा ने; तत्‌-उचितमू--यह उनके लिए उचित है( था ); महताम्‌--महात्माओं या महानुभावों का; मधु-द्विट्‌ू--मधु नामक असुर को मारने वाले, श्रीकृष्ण, मधुसूदन; सेवा-अनुरक्त--सेवा में अनुरक्त; मनसाम्‌ू--जिन मनस्वियों का; अभव: अपि--मोक्ष पद भी; फल्गु:--तुच्छ |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं--हे राजनू, भरत महाराज के कार्य आश्चर्यजनक हैं।

    उन्होंने अपनी प्रत्येक वस्तु का परित्याग कर दिया जो अन्यों के लिए दुष्कर है।

    उन्होंने अपनासाम्राज्य, पत्नी तथा परिवार त्याग दिया।

    उनका वैभव इतना प्रभूत था कि देवताओं को भी ईर्ष्याहोती थी, किन्तु उसका भी उन्होंने परित्याग कर दिया।

    उनके समान महान्‌ पुरुष के लिए महान्‌भक्त होना सर्वथा उपयुक्त था।

    वे प्रत्येक वस्तु का इसलिए परित्याग कर सके, क्योंकि वेभगवान्‌ श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, ऐश्वर्य, यश, ज्ञान, शक्ति तथा त्याग के प्रति अत्यन्त अनुरक्त थे।

    कृष्ण इतने आकर्षक हैं कि उनके लिए समस्त इष्ट वस्तुओं का परित्याग किया जा सकता है।

    जिनके चित्त भगवान्‌ की सेवा के प्रति आकृष्ट हैं, वे मुक्ति को भी तुच्छ मानते हैं।

    यज्ञाय धर्मपतये विधिनैपुणाययोगाय साड्ख्यशिरसे प्रकृती ध्वराय ।

    नारायणाय हरये नम इत्युदारंहास्यन्मृगत्वमपि यः समुदाजहार ॥

    ४५॥

    यज्ञाय--समस्त यज्ञों का फल भोगने वाले श्रीभगवान्‌ को; धर्म-पतये-- धार्मिक विधानों के स्वामी को; विधि-नैपुणाय--उसेजो निपुणता से विधि-विधान पालन करने के लिए भक्तों को ज्ञान प्रदान करता है; योगाय--साक्षात्‌ योग को; साड्ख्य-शिरसे--सांख्य दर्शन का उपदेश देने वाले; प्रकृति-ईश्वराय--ब्रह्माण्डके परम नियन्ता को; नारायणाय--असंख्य जीवात्माओंके आश्रय ( नर, जीवात्माएँ तथा अयन, आश्रय, शरण ) को; हरये--हरि स्वरूप श्रीभगवान्‌ को; नम:ः--सादर नमस्कार;इति--इस प्रकार; उदारम्‌--उच्च स्वर से; हास्यन्‌--हँसते हुए; मृगत्वम्‌ अपि--मृग की देह धारण किये रहने पर भी; यः--जो;समुदाजहार--जप करता रहा।

    मृग देह धारण करने पर भी महाराज भरत ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ को विस्मृत नहीं किया; अतः जब वे मृग देह छोड़ने लगे तो उच्च स्वर से इस प्रकार प्रार्थना की, पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ साक्षात्‌ यज्ञ पुरुष हैं।

    वे अनुष्ठानों का फल देने वाले हैं।

    वे धर्म रक्षक, योगस्वरूप,सर्वज्ञानस्त्रोत ( सांख्य के प्रतिपाद्य ), सम्पूर्ण सृष्टि के नियामक तथा प्रत्येक जीवात्मा में स्थितपरमात्मा हैं।

    वे सुन्दर तथा आकर्षक हैं।

    मैं उनको नमस्कार करके यह देह त्याग रहा हूँ औरआशा करता हूँ कि उनकी दिव्य सेवा में अहर्निश संलग्न रहूँगा।

    यह कह कर महाराज भरत नेअपना शरीर त्याग दिया।

    य इदं भागवतसभाजितावदातगुणकर्मणो राजर्षेर्भरतस्यानुचरितं स्वस्त्ययनमायुष्यं धन्यं यशस्यंस्वर्ग्यापवर्ग्य वानुश्रुणोत्याख्यास्यत्यभिनन्दति च सर्वा एवाशिष आत्मन आशास्ते न काञ्जन परतइति ॥

    ४६॥

    यः--जो कोई; इृदम्‌--इस; भागवत--सामान्य भक्तों के द्वारा; सभाजित--अत्यधिक पूजित; अवदात--शुद्ध; गुण--जिसकेगुण; कर्मण:--तथा कर्म; राज-ऋषे: --राजर्षि; भरतस्य-- भरत महाराज का; अनुचरितम्‌--चरित्र, कथा को; स्वस्ति-अयनम्‌--कल्याण का धाम; आयुष्यम्‌ू--जीवन-अवधि ( आयु ) को बढ़ाने वाला; धन्यम्‌--धन को बढ़ाने वाला; यशस्यम्‌--यश प्रदान करने वाला; स्वर्ग्य--स्वर्ग लोक की प्राप्ति कराने वाला ( जो कर्मियों का लक्ष्य है ); अपवर्ग्यमू--इस भौतिक जगतसे मुक्ति प्रदान करके ईश्वर में तदाकार होने में सहायक ( जो ज्ञानियों का लक्ष्य है ); वा--अथवा; अनुश्रणोति--भक्तिमार्ग काअनुसरण करते हुए सदैव सुनता है; आख्यास्यति--परोपकारार्थ वर्णन करता है; अभिनन्दति--भक्तों तथा भगवान्‌ के गुणों कागान करता है; च--तथा; सर्वा:--समस्त; एव--निश्चय ही; आशिष: --आशीर्वाद; आत्मन:--स्वयं के लिए; आशास्ते--प्राप्तकरता है; न--नहीं; काज्नन--कुछ भी; परत:-- अन्य किसी से; इति--इस प्रकार

    श्रवण तथा कीर्तन के अनुरागी भक्त नियमित रूप से भरत महाराज के गुणों की विवेचनातथा उनके कर्मों की प्रशंसा करते हैं।

    यदि कोई विनीत भाव से सर्व कल्याणमय महाराज भरतके विषय में श्रवण तथा कीर्तन करता है, तो उसकी आयु तथा सांसारिक वैभव में वृद्धि होतीहै।

    वह अत्यन्त प्रसिद्ध हो सकता है और सरलता से स्वर्ग अथवा श्रीभगवान्‌ में एकाकार होकरमुक्ति प्राप्त कर सकता है।

    महाराज भरत के कर्मों के श्रवण, कीर्तन तथा स्तवन मात्र सेमनोवांछित फल मिलता है।

    इस प्रकार मनुष्य की समस्त भौतिक तथा आध्यात्मिक आकांक्षाओंकी पूर्ति होती है।

    इन वस्तुओं के लिए और किसी से माँगने की आवश्यकता नहीं रह जाती,क्योंकि महाराज भरत के जीवन के अध्ययन मात्र से सभी वांछित वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं।

    TO

    अध्याय पन्द्रह: राजा प्रियव्रत के वंशजों की महिमा

    5.15श्रीशुक उबाचभरतस्यात्मज: सुमतिर्नामाभिहितो यमु ह वाव केचित्पाखण्डिनऋषभपदवीमनुवर्तमानं चानार्याअवेदसमाम्नातां देवतां स्वमनीषया पापीयस्या कलौ कल्पयिष्यन्ति ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा; भरतस्य-- भरत महाराज का; आत्म-ज:--पुत्र; सुमतिः नाम-अभिहितः--जिसका नाम सुमति था; यम्‌ू--जिसको; उ ह वाव--निस्सन्देह; केचित्‌ू--कोई; पाखण्डिन:--वैदिक ज्ञान-विहीन, पाखंडी जन; ऋषभ-पदवीम्‌--राजा ऋषभदेव के मार्ग का; अनुवर्तमानम्‌--अनुसरण करते हुए; च--तथा;अनार्या:--वैदिक नियमों का कठोरता से पालन न करने वाले अनार्य; अवेद-समाम्नाताम्‌--जिनका वेदों में उल्लेख नहीं है;देवताम्‌ू-- भगवान्‌बुद्ध या बौद्ध विग्रह के समान; स्व-मनीषया--अपनी बौद्धिक कल्पना से; पापीयस्या-- अत्यन्त पापमय;कलौ--इस कलियुग में; कल्पयिष्यन्ति--कल्पना करेंगे |

    श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--महाराज भरत के पुत्र सुमति ने ऋषभदेव के मार्गका अनुसरण किया, किन्तु कुछ पाखंडी लोग उन्हें साक्षात्‌ भगवान्‌ बुद्ध मानने लगे।

    वस्तुत: इनपाखंडी नास्तिक और दुश्चरित्र लोगों ने वैदिक नियमों का पालन काल्पनिक तथा अप्रसिद्ध ढंगसे अपने कर्मों की पुष्टि के लिए किया।

    इस प्रकार इन पापात्माओं ने सुमति को भगवान्‌ बुद्धदेवके रूप में स्वीकार किया और इस मत का प्रवर्तन किया कि प्रत्येक व्यक्ति को सुमति के नियमोंका पालन करना चाहिए।

    इस प्रकार अपनी कोरी कल्पना के कारण वे रास्ते से भटक गये।

    तस्माद्वुद्धसेनायां देवताजिन्नाम पुत्रो भवत्‌ ॥

    २॥

    तस्मात्‌ू--सुमति से; वृद्ध-सेनायाम्‌--उसकी पतली वृद्धसेना के गर्भ से; देवताजित्‌ू-नाम--देवताजित्‌ नामक; पुत्र:--पुत्र;अभवत्‌--उत्पन्न हुआ सुमति की पतली वृद्धसेना के गर्भ से देवताजित्‌ नामक पुत्र का जन्म हुआ।

    अथासुर्या तत्तनयो देवद्युम्नस्ततो धेनुमत्यां सुतः परमेष्ठी तस्य सुवर्चलायां प्रतीह उपजात: ॥

    ३॥

    अथ--त्पश्चात्‌; आसुर्याम्‌ू--उसकी पत्नी आसुरी के गर्भ से; तत्‌ू-तनय:--देवताजित्‌ का एक पुत्र; देव-द्युम्न:--देवद्युम्न नामका; ततः--देवद्युम्न से; धेनु-मत्याम्‌--देवद्युम्न की पत्नी धेनुमती के गर्भ से; सुतः--एक पुत्र; परमेष्ठी--परमेष्ठी नामक;तस्य--परमेष्ठी की; सुवर्चलायाम्‌-पत्नी सुवर्चला के गर्भ से; प्रतीह:--प्रतीह नाम का पुत्र; उपजात:--उत्पन्न हुआ।

    तत्पश्चात्‌ देवताजित्‌ की पत्नी आसुरी के गर्भ से देवद्युम्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    देवद्युम्नकी पत्नी धेनुमती के गर्भ से परमेष्ठी नामक पुत्र का और परमेष्ठी की पत्नी सुवर्चला के गर्भ सेप्रतीह नाम के पुत्र का जन्म हुआ।

    य आत्मविद्यामाख्याय स्वयं संशुद्धो महापुरुषमनुसस्मार ॥

    ४॥

    यः--जिसने ( राजा प्रतीह ने ); आत्म-विद्याम्‌ आख्याय--आत्म-साक्षात्कार के सम्बन्ध में अनेक लोगों को शिक्षा देने केपश्चात्‌; स्वयम्‌ू--स्वतः; संशुद्ध:--आत्म-साक्षात्कार में अतीव समुन्नत एवं परिशुद्ध; महा-पुरुषम्‌-- भगवान्‌ को; अनुसस्मार--भलीभाँति समझा और निरन्तर स्मरण किया।

    राजा प्रतीह ने स्वयं आत्म-साक्षात्कार के सिद्धान्तों का प्रसार किया।

    इस प्रकार शुद्ध होकरवे परम पुरुष भगवान्‌ विष्णु के महान्‌ भक्त बन गये और प्रत्यक्षतः उनका साक्षात्कार किया।

    प्रतीहात्सुवर्चलायां प्रतिहरत्रांदयस्त्रय आसन्निज्याकोविदा: सूनव: प्रतिहर्तु:स्तुत्यामजभूमानावजनिषाताम्‌, ॥

    ५॥

    प्रतीहात्‌ू--राजा प्रतीह से; सुवर्चलायाम्‌--उसकी पतली सुवर्चला के गर्भ से; प्रतिहर्त-आदय: त्रयः--प्रतिहर्ता, प्रस्तोता तथाउदगाता नाम के तीन पुत्र; आसन्‌ --उत्पन्न हुए; इज्या-कोविदा:--वेदों के अनुष्ठानों में अत्यन्त दक्ष; सूनबः--तीनों पुत्र;प्रतिहर्तु: --प्रतिहर्ता से; स्तुत्यामू--उसकी पत्नी स्तुती के गर्भ से; अज-भूमानौ--अज तथा भूमा नाम के दो पुत्र;अजनिषाताम्‌--आविर्भूत हुएप्रतीह की पत्नी सुवर्चला के गर्भ से प्रतिहर्ता, प्रस्तोता तथा उद्गाता नाम के तीन पुत्र उत्पन्नहुए।

    ये तीनों पुत्र वैदिक अनुष्ठानों में अत्यन्त दक्ष थे।

    प्रतिहर्ता की भार्या स्तुती के गर्भ से अजतथा भूमा नामक दो पुत्रों का जन्म हुआ।

    भूम्न ऋषिकुल्यायामुद्गीथस्ततः प्रस्तावो देवकुल्यायां प्रस्तावान्नियुत्सायां हृदयज आसीद्िभुर्विभो रत्यांच पृथुषेणस्तस्मान्नक्त आकृत्यां जज्ने नक्ताद्द्रुतिपुत्रो गयो राजर्षिप्रवर उदारश्रवा अजायतसाक्षाद्धगवतो विष्णोरज॑गद्विरक्षिषया गृहीतसत्त्वस्थ कलात्मवत्त्वादिलक्षणेन महापुरुषतां प्राप्त: ॥

    ६॥

    भूम्न: --राजा भूमा से; ऋषि-कुल्यायाम्‌-- उसकी पत्नी ऋषिकुल्या के गर्भ से; उद्गीथ:--उद्‌गी थ नामक पुत्र; ततः--फिरराजा उद्गीथ से; प्रस्ताव:--प्रस्ताव नामक पुत्र; देव-कुल्यायाम्‌-- उसकी पत्नी देवकुल्या से; प्रस्तावात्‌--राजा प्रस्ताव से;नियुत्सायाम्‌--नियुत्सा नाम वाली उसकी पत्नी से; हदय-ज:--पुत्र; आसीतू--उत्पन्न हुआ; विभु:--विभु नामक; विभो:--राजा विभु से; रत्यामू--उसकी पत्नी रती से; च-- भी; पृथु-षेण:-- पृथुषेण नाम का; तस्मात्‌--उससे ( पृथुषेण से ); नक्त:--नक्त नामक पुत्र; आकृत्याम्‌ू--उसकी पत्नी आकूती से; जज्ञे--जन्म लिया; नक्तात्‌ू--नक्त राजा से; द्वुति-पुत्र:--द्रुति का पुत्र;गयः--गय नामक राजा; राज-ऋषि-प्रवर: --राजर्षियों में अत्यन्त सम्मान्य; उदार- श्रवा: --अत्यन्त पवित्र राजा के रूप मेंविख्यात; अजायत--उत्पन्न हुआ; साक्षात्‌ भगवतः --साक्षात्‌ भगवान्‌; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु का; जगत्‌-रिरक्‌-षिषया--समस्त संसार की रक्षा के हेतु; गृहीत--गर्भ में वास किया; सत्त्वस्थ--शुद्ध सत्त्वत गुण का; कला-आत्म-वत्त्व-आदि-- भगवान्‌के साक्षात्‌ अवतार के रूप में; लक्षणेन--लक्षणों से; महा-पुरुषताम्‌--मानव समाज के नायक होने का मुख्य गुण ( सम्पूर्णजीवित प्राणियों के नायक भगवान्‌ विष्णु के सहश ); प्राप्त:--प्राप्त किया

    राजा भूमा की पतली ऋषिकुलया के गर्भ से उदगीथ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    उदगीथ कीपत्नी देवकुल्या से प्रस्ताव नामक पुत्र ने जन्म लिया और प्रस्ताव को अपनी पत्नी नियुत्सा सेविभु नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।

    विभु की पत्नी रती के गर्भ से पृथुषेण और पृथुषेण की पत्नीआकूती के गर्भ से नक्त नामक पुत्र ने जन्म लिया।

    नक्त की पतली द्वुति हुई, जिसके गर्भ से गयनामक महान्‌ राजा उत्पन्न हुआ।

    गय अत्यन्त विख्यात एवं पवित्र था, वह राजर्षियों में सर्व श्रेष्ठथा।

    भगवान्‌ विष्णु तथा उनके सभी अंश विश्व की रक्षा के लिए हैं और वे सदैव दिव्य सत्त्वगुणमें, जिसे विशुद्ध सत्त्व कहते हैं, विद्यमान रहते हैं।

    भगवान्‌ विष्णु के साक्षात्‌ अंश होने केकारण राजा गय भी विशुद्ध-सत्त्व में आसीन थे।

    इस कारण महाराज गय दिव्य ज्ञान से युक्त थेऔर इसलिए वे महापुरुष कहलाए।

    स बै स्वधर्मेण प्रजापालनपोषणप्रीणनोपलालनानुशासनलक्षणेनेज्यादिना च भगवति महापुरुषे परावरेब्रह्मणि सर्वात्मनार्पितपरमार्थलक्षणेन ब्रह्मविच्चरणानुसेवयापादितभगवद्धक्तियोगेन चा भीक्ष्णश:परिभावितातिशुद्धमतिरुपरतानात्म्य आत्मनि स्वयमुपलभ्यमानब्रह्मात्मानुभवो पि निरभिमानएवावनिमजूगुपत्‌, ॥

    ७॥

    सः--वह राजा गय; बै--निश्चय ही; स्व-धर्मेण-- अपने कर्तव्य के द्वारा; प्रजा-पालन-- प्रजा का पालन करने; पोषण--प्रजाका भरण करने; प्रीणन--सभी तरह से उसे सुखी बनाने; उपलालन--उसे पुत्र की भाँति रखने; अनुशासन--कभी-कभीत्रुटियों के लिए दण्डित करने; लक्षणेन--राजा के लक्षणों से; इज्या-आदिना--वेदोक्त विधि से यज्ञ सम्पन्न करके; च--भी;भगवति-- श्री भगवान्‌, विष्णु; महा-पुरुषे--समस्त जीवात्माओं में प्रमुख; पर-अबरे-- भगवान्‌ ब्रह्म से लेकर अकिंचन चींटीतक समस्त जीवात्माओं का स्त्रोत; ब्रह्मणि--परब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव में; सर्व-आत्मना--सभी प्रकार से;अर्पित--समर्पित, शरणागत; परम-अर्थ-लक्षणेन--चिन्मय लक्षणों से; ब्रह्य-वित्‌ू--स्वरूप-सिद्ध सन्त भक्तों के; चरण-अनुसेवया--चरणारविन्दों की सेवा करके; आपादित--प्राप्त किया; भगवत्‌-भक्ति-योगेन-- भगवान्‌ की भक्ति के अभ्यास से;च--भी; अभीक्षणश: --अनवरत, सतत्‌; परिभावित--संतृप्त; अति-शुद्ध-मतिः--जिसकी विशुद्ध चेतना ( ऐसी पूर्ण चेतनाकि शरीर तथा मन आत्मा से पृथक्‌ है ); उपरत-अनात्म्ये--जिसमें भौतिक वस्तुओं की पहचान रुक जाती है; आत्मनि--अपनेमें; स्ववम्‌--स्वयं; उपलभ्यमान--साक्षात्कार होते हुए; ब्रह्य-आत्म-अनुभव: -- अपनी स्थिति का परब्रह्म के रूप में दर्शन;अपि--यद्यपि; निरभिमान: --अभिमानरहित, झूठी बड़ाई के बिना; एब--इस प्रकार; अवनिम्‌--सम्पूर्ण संसार पर;अजूगुपत्‌--वैदिक विधियों के अनुसार दृढ़ता से शासन किया।

    राजा गय ने अपनी प्रजा को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जिससे अवांछित तत्त्वों के द्वारा उनकीनिजी सम्पत्ति को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचे।

    उन्होंने इसका भी ध्यान रखा कि प्रजा कोपर्याप्त भोजन प्राप्त हो ( यही 'पोषण ' है )।

    कभी-कभी प्रजा को प्रसन्न रखने के लिए वे दानदेते थे ( यह 'प्रीणन' कहलाता है )।

    कभी-कभी वे प्रजा की सभाएं बुलाते और मृदु बचनों सेउन्हें तुष्टि प्रदान करते ( यह 'उपलालन ' कहलाता है )।

    वे उन्हें उच्चकोटि के नागरिक बनने कीशिक्षा देते ( यह ' अनुशासन ' कहलाता है )।

    राजा गय में इस प्रकार की विलक्षणताएँ थीं।

    इनसबके साथ ही साथ राजा गय गृहस्थ थे और वे गृहस्थ जीवन के सभी नियमों का कड़ाई सेपालन करते थे।

    वे यज्ञ करते थे तथा श्रीभगवान्‌ के एकनिष्ठ भक्त थे।

    वे महापुरुष कहे जाते थे,क्योंकि राजा के रूप में उन्होंने नागरिकों को सभी सुविधाएं प्रदान कीं गृहस्थ के रूप में वे सभीकर्तव्यों का पालन करने वाले थे।

    फलस्वरूप वे अन्ततः भगवान्‌ के परम भक्त हुए।

    भक्त केरूप में वे सभी भक्तों का आदर करने और भगवान्‌ की सेवा करने को उद्यत रहते थे।

    यहभक्तियोग की प्रक्रिया है।

    इन दिव्य कर्मो के कारण राजा गय देहात्मबोध से सदैव मुक्त रहे।

    वेब्रह्मसाक्षात्कार में लीन रहने के कारण सदैव प्रमुदित रहते थे।

    उन्हें भौतिक पश्चात्ताप काअनुभव नहीं करना पड़ा।

    सभी प्रकार से पूर्ण होने पर भी वे न तो गर्व करते थे, न ही राज्य करनेलिए लालायित थे।

    तस्थेमां गाथां पाण्डवेय पुराविद उपगायन्ति ॥

    ८॥

    तस्य--राजा गय के; इमाम्‌ू--ये; गाथाम्‌--स्तुतिपरक पद्य; पाण्डबवेय--हे महाराज परीक्षित; पुरा-विदः--पुराणों कीऐतिहासिक घटनाओं के ज्ञाता, उपगायन्ति; उपगायन्ति--तस्य--राजा गय के; इमाम्‌ू--ये; गाथाम्‌--स्तुतिपरक पद्य; पाण्डबवेय--हे महाराज परीक्षित; पुरा-विदः--पुराणों कीऐतिहासिक घटनाओं के ज्ञाता, उपगायन्ति- गाते हैं।

    हे राजा परीक्षित्‌, पुराणों को जानने वाले विद्वान राजा गय की स्तुति और महिमागाननिम्नलिखित एलोकों से करते हैं।

    गयं॑ नृपः कः प्रतियाति कर्मभि-्ज्वाभिमानी बहुविद्धर्मगोप्ता ।

    समागतश्री: सदसस्पतिः सतांसत्सेवकोन्यो भगवत्कलामृते ॥

    ९॥

    गयम्‌--गय; नृप:-- राजा; कः--कौन ; प्रतियाति--तुलनीय है; कर्मभि:ः--कर्मों के कारण; यज्वा--जिसने समस्त यज्ञ किये;अभिमानी--सरे विश्व में अत्यधिक सम्मानित; बहु-वित्‌--वैदिक शास्त्रों से भली-भाँति ज्ञात; धर्म-गोप्ता--प्रत्येक व्यक्ति केकार्यों का संरक्षक; समागत- श्री:--सभी प्रकार के वैभव से युक्त; सदसः-पति:ः सताम्‌ू--महान्‌ व्यक्तियों की सभा का अध्यक्ष;सतू-सेवक:ः--भक्तों का सेवक; अन्य: --अन्य कोई; भगवत्‌-कलाम्‌-- श्रीभगवान्‌ की कला ( अवतार ); ऋते--केअतिरिक्त

    महान्‌ राजा गय सभी प्रकार के वैदिक अनुष्ठान किया करते थे।

    वे अत्यन्त बुद्धिमान औरसभी वैदिक शास्त्रों के अध्ययन में दक्ष थे।

    उन्होंने धार्मिक नियमों की रक्षा की और वे समस्तवैभव से युक्त थे।

    वे सज्जनों के नायक और भक्तों के सेवक थे।

    वे श्रीभगवान्‌ के सच्चे अर्थों मेंसर्वथा समर्थ अंश ( कला ) थे।

    अतः महान्‌ अनुष्ठानों ( यज्ञ ) को सम्पन्न करने में उनकी तुलनाकौन कर सकता है ?यमभ्यषिज्ञन्परया मुदा सतीःसत्याशिषो दक्षकन्या: सरिद्धि: यस्य प्रजानां दुदुहे धराशिषोनिराशिषो गुणवत्सस्नुतोधा: ॥

    १०॥

    यम्‌--जिसको; अभ्यषिश्नन्‌ू--- अभिषेक करती थीं; परया--अत्यन्त ( परम ); मुदा--सन्तोष से; सती: --अपने पतियों के प्रतिभक्तिभाव रखने वाली तथा पतिक्रता स्त्रियाँ; सत्य--सच्चे; आशिष:--आशीर्वाद; दक्ष-कन्या:--राजा दक्ष की पुत्रियाँ;सरिद्धिः--पवित्र जल के द्वारा; यस्थ--जिसकी; प्रजानाम्‌--प्रजा की; दुदुहै--पूरा किया; धरा--पृथ्वी ने; आशिष:--समस्त'कामनाओं का; निराशिष:--यद्यपि स्वयं कामनारहित होकर; गुण-वत्स-स्नुत-उधा: -- प्रजा पर राज्य करने वाले

    गय के गुणोंको देखकर गो रूप पृथ्वी के थन से दुग्ध की धारा निकल आईं।

    महाराज दक्ष की श्रद्धा, मैत्री तथा दया जैसी पतिब्रता तथा सत्यनिष्ठ कन्याएँ जिनकेआशीर्वाद सदा फलित होते थे, पवित्र जल से महाराज गय का अभिषेक करती थीं।

    असल में वेसभी महाराज गय से अत्यधिक सन्तुष्ट थीं।

    पृथ्वी स्वयं गौ रूप में प्रकट हुई और महाराज गय केउत्तम गुणों को देखकर दुग्ध सत्रवण करने लगी, मानो गाय ने अपने वत्स को देखा हो।

    छन्दांस्यकामस्य च यस्य कामान्‌दुदृहुराजहरथो बलि नृपा: ।

    प्रत्यश्लिता युधि धर्मेण विप्रायदाशिषां षष्ठमंशं परेत्य ॥

    ११॥

    छन्दांसि--वेदों के समस्त अंग; अकामस्य--निष्काम; च-- भी; यस्य--जिसकी ; कामान्‌--समस्त इच्छाएँ; दुदृहुः--प्रदानकिया; आजहु:-- अर्पित किया; अथो--इस प्रकार; बलिमू-- भेंट, बलि; नूपा:--सभी राजा; प्रत्यश्चिता:--उसके विपक्ष मेंयुद्ध करने से सन्तुष्ट होकर; युधि--युद्ध में; धर्मेण-- धार्मिक नियमों से; विप्रा: --समस्त ब्राह्मण; यदा--जब; आशिषाम्‌--आशीर्वादों का; षष्ठम्‌ अंशम्‌--छठा अंश; परेत्य--अगले जन्म में |

    यद्यपि महाराज गय में इन्द्रियतृप्ति के लिए किसी प्रकार की व्यक्तिगत इच्छा नहीं थी, किन्तुवैदिक अनुष्ठानों को पूरा करने के कारण उनकी सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति होती रहती थी।

    जिनराजाओं से महाराज गय को युद्ध करना पड़ता, वे धर्मयुद्ध करने के लिए विवश हो जाते।

    वेमहाराज गय के युद्ध से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उन्हें सभी प्रकार की भेंटें प्रदान करते थे।

    इसीप्रकार से उनके राज्य के समस्त ब्राह्मण उनके मुक्त दान से अत्यन्त सन्तुष्ट रहते थे।

    फलस्वरूपब्राह्मणों ने राजा गय को अगले जन्म में प्राप्त होने के लिए अपने पुण्यकर्मों का छठा अंश सहर्षप्रदान किया था।

    यस्याध्वरे भगवानध्वरात्मामधघोनि माद्यत्युरुसोमपीथे ।

    श्रद्धाविशुद्धाचलभक्तियोगसमर्पितेज्याफलमाजहार ॥

    १२॥

    यस्य--जिसका ( राजा गय का ); अध्वरे--विभिन्न यज्ञों में; भगवान्‌-- भगवान्‌; अध्वर-आत्मा--समस्त यज्ञों के परम भोक्ता,यज्ञ पुरुष; मघोनि--जब राजा इन्द्र; माद्यति--मदान्ध हो जाता है; उरुू--अत्यधिक; सोम-पीथे--मादक सोमरस का पान करतेहुए; श्रद्धा-- भक्ति से; विशुद्ध--शुद्ध।

    अचल--तथा स्थिर; भक्ति-योग--भक्ति के द्वारा; समर्पित--चढ़ाया गया, अर्पित;इज्या--पूजन का; फलम्‌--फल, परिणाम्‌; आजहार--स्वयं स्वीकार किया।

    महाराज गय के यज्ञों में सोम नामक मादक द्रव्य का अत्यधिक प्रयोग होता था।

    इनमें राजाइन्द्र आया करते थे और प्रचुर मात्रा में सोमरस पीकर मदान्ध हो जाते थे।

    भगवान्‌ श्रीविष्णु(यज्ञ पुरुष ) भी आया करते थे और यज्ञ क्षेत्र में विशुद्ध भक्तिपूर्वक उनको समर्पित किये गयेयज्ञफल को स्वयं स्वीकार करते थे।

    यत्प्रीणनाद्वर्हिषि देवतिर्यड्-मनुष्यवीरुत्तृणमाविरिश्ञात्‌ ।

    प्रीयेत सद्यः स ह विश्वजीव:प्रीतः स्वयं प्रीतिमगाद्गयस्य ॥

    १३॥

    यत्‌-प्रीणनात्‌-- श्रीभगवान्‌ के प्रसन्न होने से; बहिंषि--यज्ञ क्षेत्र में; देव-तिर्यक्‌--देवता तथा निम्न पशु; मनुष्य--मानवसमाज; वीरुतू--पादप तथा वृक्ष; तृणम्‌--घास; आ-विरिज्ञात्‌-- भगवान्‌ ब्रह्मा तक; प्रीयेत--सन्तुष्ट हो जाता है; सद्यः--तुरन्त; सः--श्रीभगवान्‌; ह--निश्चय ही; विश्व-जीव:--समस्त संसार के जीवात्माओं का पालन करने वाला; प्रीत:--यद्यपिसहज तुष्ट हैं; स्वयम्‌--साक्षात; प्रीतिमू--सन्तोष के; अगात्‌--प्राप्त हुआ; गयस्य--महाराज गय के

    जब परमेश्वर किसी व्यक्ति के कर्मो से प्रसन्न होते हैं, तो ब्रह्मा से लेकर समस्त देवता,मनुष्य, पशु, पक्षी, लताएँ, तृण तथा अन्य समस्त जीवात्माएँ स्वतः प्रसन्न हो जाती हैं।

    पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ सबों के परमात्मा हैं और वे स्वभाव से परम प्रसन्न रहते हैं।

    तो भी वे महाराजगय के यज्ञ क्षेत्र में आये और उन्होंने कहा, 'मैं पूर्णतया प्रसन्न हूँ।

    गयादूगयन्त्यां चित्ररथ: सुगतिरवरोधन इति त्रयः पुत्रा बभूवुश्चित्ररथादूर्णायां सम्राडजनिष्ट; ततउत्कलायां मरीचिरमरीचेर्जिन्दुमत्यां बिन्दुमानुदपद्यत तस्मात्सरघायां मधुर्नामाभवन्मधो: सुमनसिवबीरब्रतस्ततो भोजायां मन्धुप्रमन्थू जज्ञाते मन्‍्थो: सत्यायां भौवनस्ततो दूषणायां त्वष्टाजनिष्टत्वष्टुविरोचनायां विरजो विरजस्य शतजित्प्रवरं पुत्रशतं कन्या च विषूच्यां किल जातम्‌ ॥

    १४-१५॥

    गयातू--महाराज गय से; गयन्त्यामू--उनकी पतली गयन्ती के; चित्र-रथ: --चित्ररथ नामक; सुगति:--सुगति नामक;अवरोधन:--अवरोधन नामक; इति--इस प्रकार; त्रय:--तीन; पुत्रा:--पुत्र; बभूवु:--उत्पन्न हुए; चित्ररथात्‌--चित्ररथ से;ऊर्णायाम्‌ू--ऊर्णा के गर्भ से; सम्राट्‌--सप्राट नामक पुत्र; अजनिष्ट -- उत्पन्न हुआ; तत:--उससे; उत्कलायाम्‌--उत्कला नामकपली से; मरीचि:--मरीचि; मरीचे: --मरीचि से; बिन्दु-मत्याम्‌ू--उसकी पतली बिन्दुमती के गर्भ से; बिन्दुम्‌-बिन्दु नाम का पुत्र;आनुदपद्यत--उत्पन्न हुआ; तस्मात्‌--उससे; सरघायाम्‌--सरघा नाम की पतली के गर्भ से; मधु:--मधु; नाम--नामक;अभवत्‌--जन्म लिया; मधो: --मधु से; सुमनसि--उसकी पत्नी सुमना के गर्भ से; बीर-ब्रत:ः--वीरकब्रत नामक पुत्र; ततः--बीरब्रत से; भोजायामू--उसकी पली भोजा से; मन्थु-प्रमन्‍्थू--मन्थु तथा प्रमन्थु नाम के दो पुत्र; जज्ञाते--उत्पन्न हुए; मन्धो: --मन्थु से; सत्यायाम्‌--उसकी पत्नी सत्या से; भौवन:--भौवन नामक पुत्र; ततः--उससे; दूषणायाम्‌--उसकी पत्नी दूषणा केगर्भ से; त्वष्टा--त्वष्टा नाम का एक पुत्र; अजनिष्ट --उत्पन्न हुआ; त्वष्ट:--त्वष्टा से; विरोचनायामू--उसकी पत्नी विरोचना के;विरज:--विरज नाम का एक पुत्र; विरजस्य--राजा विरज का; शतजित्‌-प्रवरम्‌--( जिनमें ) शतजित सर्वोपरि था; पुत्र-शतम्‌--एक सौ पुत्र; कन्या--एक पुत्री; च-- भी; विषूच्याम्‌-- उसकी पत्नी विषूची के; किल--निश्चय ही; जातम्‌-जन्मण् गयन्ती के गर्भ से महाराज गय के तीन पुत्र हुए जिनके नाम थे--चित्ररथ, सुगति तथाअवरोधन।

    चित्ररथ की पत्नी ऊर्णा से सम्राट नाम का पुत्र प्राप्त हुआ।

    सप्राट्‌ की पत्नी का नामउत्कला था जिसके गर्भ से सम्राट को मरीचि नामक पुत्र का लाभ हुआ।

    मरीचि की पत्नीबिन्दुमति से बिन्दु नामक पुत्र हुआ।

    बिन्दु की पत्नी सरघा के गर्भ से मधु नामक एक पुत्र ने जन्मलिया।

    मधु की पत्नी सुमना से वीरब्रत और वीरब्रत की पत्नी भोजा से मन्थु तथा प्रमन्थु नाम केदो पुत्र उत्पन्न हुए।

    मन्थु की पत्नी सत्या से भौवन नाम का पुत्र और भौवन की पत्नी दूषणा सेत्वष्टा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

    त्वष्टा की पत्नी विरोचना से विरज नाम का पुत्र हुआ और उसकीपत्नी विषूची के गर्भ से एक सौ पुत्र तथा एक पुत्री उत्पन्न हुई।

    इन सभी पुत्रों में शतजित्‌ नाम कापुत्र सर्वोपरि था।

    तत्रायं श्लोक:--प्रैयत्रतं वंशमिमं विरजश्चरमोद्धव: ।

    अकरोदत्यलं कीरत्या विष्णु: सुरगणं यथा ॥

    १६॥

    तत्र--उस प्रसंग में; अथम्‌ एलोक:ः--यह प्रसिद्ध श्लोक है; प्रैयव्रतम्‌--राजा प्रियत्रत से चलने वाला; वंशम्‌--वंश; इमम्‌--यह; विरज:--राजा विरज; चरम-उद्धव:--एक सौ पुत्रों ( जिनमें शतजित्‌ सर्वोपरि था ) का स्रोत; अकरोत्‌--अलंकृत किया;अति-अलम्‌--अत्यधिक; कीरत्या--अपनी कीर्ति से; विष्णु:--भगवान्‌ विष्णु, श्रीभगवान्‌; सुर-गणम्‌--देवता गण; यथा--जिस प्रकार।

    राजा विरज के सम्बन्ध में यह श्लोक प्रसिद्ध है (जिसका अर्थ है )--' अपने उच्च गुणोंतथा व्यापक कीर्ति के कारण राजा विरज उसी प्रकार से प्रियत्रत राजा के वंश के मणि हो गएजिस प्रकार भगवान्‌ विष्णु अपनी दिव्य शक्ति द्वारा देवताओं को विभूषित करते और उन्हेंआशीष देते हैं।

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    अध्याय सोलह: जम्बूद्वीप का विवरण

    5.16राजोबाचउक्तस्त्वया भूमण्डलायामविशेषो यावदादित्यस्तपति यत्र चासौ ज्योतिषां गणैश्चन्द्रमा वा सह दृश्यते ॥

    १॥

    राजा उवाच--महाराज पररीक्षित्‌ बोले; उक्त:--पहले ही कहा जा चुका है; त्वया--आपके द्वारा; भू-मण्डल-- भूमण्डल नामकलोक; आयाम-विशेष:--त्रिज्या की विशेष लम्बाई; यावत्‌--जब तक; आदित्य: --सूर्य; तपति--तपता है, दीप्तिमान है;यत्र--वहाँ भी; च-- भी; असौ--वह; ज्योतिषाम्‌--ज्योतिपिंडों का; गणैः--समूह के साथ; चन्द्रमा--चन्द्रमा; वा--या;सह--साथ; दृश्यते--देखा जाता है।

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से कहा--हे ब्राह्मण, आपने मुझे पहले ही बता दिया हैकि भूमण्डल की त्रिज्या वहाँ तक विस्तृत है जहाँ तक सूर्य का प्रकाश और उष्मा पहुँचती हैतथा चन्द्रमा और अन्य नक्षत्र दृष्टिगोचर होते हैं।

    तत्रापि प्रियव्रतरथचरणपरिखातैः सप्तभिः सप्त सिन्धव उपक्रिप्ता यत एतस्या:सप्तद्वीपविशेषविकल्पस्त्वया भगवन्खलु सूचित एतदेवाखिलमहं मानतो लक्षणतश्च सर्वविजिज्ञासामि ॥

    २॥

    तत्र अपि--उस भू-मण्डल में; प्रियव्रत-रथ-चरण-परिखातै: --सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते समय प्रियत्रत महाराज के रथ केपहियों से निर्मित गड्ढों के द्वारा; सप्तभि:ः--सात; सप्त सिन्धव:--सात समुद्र; उपक्लृप्ता:--प्रभूत; यत:ः--जिसके कारण;एतस्या:--इस भूमण्डल का; सप्त-द्वीप--सातों द्वीपों का; विशेष-विकल्प:--सरंचना शैली; त्वया-- आपके द्वारा; भगवन्‌--है महामुनि; खलु--निश्चय ही; सूचित:--वर्णित; एतत्‌--यह; एव--निस्सन्देह; अखिलमू--सम्पूर्ण प्रजा; अहम्‌--मैं;मानत:ः--माप की दृष्टि से; लक्षणत:ः--( तथा ) लक्षणों से; च-- भी; सर्वम्‌--प्रत्येक वस्तु; विजिज्ञासामि--जानने की इच्छाकरता हूँ।

    हे भगवन्‌, महाराज प्रियत्रत के रथ के चक्रायमाण पहियों से सात गड्ढे बने, जिससे सातसमुद्रों की उत्पत्ति हुई।

    इन सात समुद्रों के ही कारण भूमण्डल सात द्वीपों में विभक्त है।

    आपनेइनकी माप, नाम तथा विशिष्टताओं का अत्यन्त सामान्य वर्णन मात्र किया है।

    मुझे विस्तार सेइनके सम्बध में जानने की इच्छा है।

    कृपया मेरी कामना पूर्ण करें।

    भगवतो गुणमये स्थूलरूप आवेशितं मनो ह्ागुणेपि सूक्ष्मतम आत्मज्योतिषि परे ब्रह्मणि भगवतिवासुदेवाख्ये क्षममावेशितुं तदु हैतदगुरोहस्यनुवर्णयितुमिति ॥

    ३॥

    भगवतः -- श्री भगवान्‌ का; गुण-मये-- भौतिक प्रकृति के त्रिगुण युक्त बाह्मस्वरूपों में; स्थूल-रूपे--स्थूल रूप; आवेशितम्‌--प्रविष्ट; मनः--मन; हि--निश्चित रूप से; अगुणे--दिव्य इन्द्रियातीत; अपि--यद्यपि; सूक्ष्मतमे--हृद्देश से अपने लघुतर रूप मेंपरमात्मा; आत्म-ज्योतिषि--जो ब्रह्म तेज से पूर्ण है; परे--परम; ब्रह्मणि-- आत्मस्वरूप; भगवति-- श्रीभगवान्‌ में; वासुदेव-आख्ये--भगवान्‌ वासुदेव के नाम से विख्यात; क्षमम्‌--उपयुक्त; आवेशितुम्‌--आत्मसात्‌; तत्‌--वह; उ ह--निस्सन्देह;एतत्‌--यह; गुरो--हे गुरुदेव; अर्हसि अनुवर्णयितुम्‌--कृपया विस्तारपूर्वक कहें; इति--इस प्रकारजब मन प्रकृति के गुणों से निर्मित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के बाह्मरूप--स्थूल विश्वरूप--पर स्थिर हो जाता है, तो उसे शुद्ध सत्त्व की स्थिति प्राप्त होती है।

    उस दिव्य स्थिति में हीभगवान्‌ वासुदेव को जाना जा सकता है जो अपने सूक्ष्मरूप में स्वतः प्रकाशित और गुणातीतहैं।

    हे प्रभो, विस्तार से वर्णन करें कि वह रूप जो सारे विश्व में व्याप्त है किस प्रकार देखा जाताहै।

    ऋषिरुवाचन वै महाराज भगवतो मायागुणविभूते: काष्ठां ममसा वचसा वाधिगन्तुमलं विबुधायुषापिपुरुषस्तस्मात्प्राधान्येनेव भूगोलकविशेषं नामरूपमानलक्षणतो व्याख्यास्याम: ॥

    ४॥

    ऋषि: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; न--नहीं; वै--निस्सन्देह; महा-राज--हे महान्‌ राजा; भगवतः -- श्रीभगवान्‌ का;माया-गुण-विभूते: --माया के गुणों का रूपान्तर; काष्ठाम्‌-- अन्त, इति; मनसा--मनसे; वचसा--वचन से; वा--अथवा;अधिगन्तुमू-- भलीभाँति समझने के लिए; अलम्‌--समर्थ; विबुध-आयुषा--ब्रह्मा के समान आयु वाला; अपि--भी; पुरुष: --व्यक्ति; तस्मात्‌ू--अतः ; प्राधान्येन--प्रमुख स्थानों के सामान्य विवरण से; एब--निश्चित रूप से; भू-गोलक-विशेषम्‌-- भूलोकका विशिष्ट वर्णन; नाम-रूप--नाम तथा स्वरूप; मान--परिमाण, माप; लक्षणत:--लक्षणों के अनुसार; व्याख्यास्याम:--व्याख्या करने का प्रयत्न करूँगा।

    ऋषिश्रेष्ठ शुकदेव गोस्वामी बोले, हे राजनू, श्रीभगवान्‌ की माया के विस्तार की कोई सीमानहीं है।

    यह भौतिक जगत सत्त्व, रज तथा तम्‌ इन तीन गुणों का रूपान्तर है; फिर भी ब्रह्मा केसमान दीर्घ आयु पाकर भी इसकी व्याख्या कर पाना सम्भव नहीं है।

    इस भौतिक जगत में कोईभी पूर्ण नहीं और अपूर्ण मनुष्य सतत चिन्तन के बाद भी इस भौतिक ब्रह्माण्ड का सही वर्णननहीं कर सका।

    तो भी, हे राजन्‌, मैं भूगोलक ( भूलोक ) जैसे प्रमुख भूखण्डों की उनके नामों,रूपों, प्रमापों तथा विविध लक्षणों सहित व्याख्या करने का प्रयत्न करूँगा।

    यो बायं द्वीप: कुवलयकमलकोशाभ्यन्तरकोशो नियुतयोजनविशाल: समवर्तुलो यथा पुष्करपत्रम्‌, ॥

    ५॥

    यः--जो; वा--अथवा; अयम्‌--यह; द्वीप:--द्वीप; कुवबलय-- भूलोक; कमल-कोश--कमल गुच्छ; अभ्यन्तर-- भीतरी ;कोश:--कोश; नियुत-योजन-विशाल:--दस लाख योजन ( अस्सी लाख मील ) चौड़ा; समवर्तुल:--समान रूप से गोलअथवा समान लम्बाई तथा चौड़ाई वाला; यथा--सहश; पुष्कर-पत्रमू--कमल का पत्ता।

    भूमण्डल नाम से विख्यात ग्रह कमल पुष्प के अनुरूप है और इसके सातों द्वीप पुष्प-कोशके सहृश हैं।

    इस कोश के मध्य में स्थित जम्बूद्वीप की लम्बाई तथा चौड़ाई दस लाख योजन( अस्सी लाख मील ) है।

    जम्बूढ्वीप कमल-पत्र के समान गोल है।

    यस्मिन्नव वर्षाणि नवयोजनसहस्त्रायामान्यटष्टभिर्मर्यादागिरिभि: सुविभक्तानि भवन्ति ॥

    ६॥

    यस्मिन्‌--उस जम्बूद्वीप में; नव--नौ ( संख्या ); वर्षाणि -- भूखण्ड अथवा वर्ष; नव-योजन-सहस्त्र--नौ हजार योजन अर्थात्‌७२,००० मील लम्बा; आयामानि--माप वाला, आयाम का; अष्टभि: --आठ; मर्यादा--सीमा सूचक; गिरिभि: --पर्वतों केद्वारा; सुविभक्तानि-- भली-भाँति विभाजित; भवन्ति--हैं |

    जम्बूद्वीप में नौ वर्ष ( खण्ड ) हैं जिनमें से प्रत्येक की लम्बाई ९,००० योजन ( ७२,०००मील ) है।

    इन खण्डों की सीमा अंकित करने वाले आठ पर्वत हैं, जो उन्हें भली भाँति विलगकरते हैं।

    एषां मध्ये इलावृतं नामाभ्यन्तरवर्ष यस्य नाभ्यामवस्थित: सर्वतः सौवर्ण: कुलगिरिराजोमेरुद्वीपायामसमुन्नाह: कर्णिका भूत: कुवलयकमलस्य मूर्थनि द्वात्रिंशत्सहस्त्रयोजनविततो मूलेषोडशसहस्त्रं तावतान्तर्भूम्यां प्रविष्ट: ॥

    ७॥

    एषाम्‌--जम्बूद्वीप के इन समस्त खंड़ों के; मध्ये--मध्य में; इलावृतम्‌ नाम--इलावृत वर्ष नामक; अभ्यन्तर-वर्षम्‌--आन्तरिकखण्ड; यस्य--जिसके; नाभ्याम्‌--नाभि में; अवस्थित: --स्थित; सर्वतः--पूरी तरह, पूर्णरूपेण; सौवर्ण:--स्वर्ण का बनाहुआ; कुल-गिरि-राज:-- प्रसिद्ध पर्वतों में सर्वश्रेष्ठ; मेर:--मेरु पर्वत; द्वीप-आयाम-समुन्नाह:--जिसकी ऊँचाई जम्बूद्वीप कीचौड़ाई के समान है; कर्णिका-भूतः--आवरण के रूप में विद्यमान; कुवबलय--इस लोक के; कमलस्य--कमल पुष्प के सहश;मूर्धनि--शीर्ष पर; द्वा-त्रिंशत्‌--बत्तीस; सहस्त्र--हजार; योजन--योजन ( प्रत्येक ८ मील का ); विततः--विस्तृत; मूले--आधार पर मूल भाग में; षोडश-सहस्त्रमू--सोलह हजार योजन; तावत्‌--तक; आन्तः-भूम्याम्‌--पृथ्वी के भीतर; प्रविष्ट: --धँसा हुआ।

    इन खण्डों ( वर्षो ) में से इलावृत नाम का एक वर्ष है जो कमल-कोश के मध्य में स्थित है।

    इलावृत्त वर्ष में ही सुवर्ण का बना हुआ सुमेरु पर्वत है।

    यह कमल जैसे भूमण्डल के बाह्य-आवरण की तरह है।

    इस पर्वत की चौड़ाई जम्बूद्वीप की चौड़ाई के तुल्य, अर्थात्‌ एक लाखयोजन या आठ लाख मील है, जिसमें से १६,००० योजन ( १,२८,००० मील ) पृथ्वी के भीतरहै, जिससे पृथ्वी के ऊपर पर्वत की ऊँचाई केवल ८४,००० योजन ( ६,७२,००० मील ) ही है।

    शीर्ष पर इस पर्वत की चौड़ाई ३२,००० योजन ( २,५६,००० मील ) और पाद भाग पर १६,००० योजन है।

    उत्तरोत्तेणेलावृतं नील: श्वेतः श्रुड्गरवानिति त्रयो रम्यकहिरण्मयकुरूणां वर्षाणां मर्यादागिरय: प्रागायताउभयत: क्षारोदावधयो द्विसहस्त्रपूथव एकैकशः पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो दशांशाधिकांशेन दैर्घ्य एवहसन्ति ॥

    ८॥

    उत्तर-उत्तरण इलाबृतम्‌--इलावृत वर्ष के सुदूर उत्तर में; नील:--नील; श्वेत:-- श्वेत; श्रृड़वान्‌-- श्रृंगवान्‌; इति--इस प्रकार;त्रयः--तीन पर्वत; रम्यक--रम्यक; हिरण्मय--हिरण्मय; कुरूणाम्‌--कुरु खण्ड के; वर्षाणाम्‌--वर्षो में; मर्यादा-गिरय: --सीमा बताने वाले पर्वत; प्राकु-आयता:--पूर्व दिशा में फैले; उभयतः--पूर्व तथा पश्चिम की ओर; क्षारोद--लवण सागर;अवधय: --तक फैले हुए; द्वि-सहस्त्र-पृथवः--जो दो हजार योजन चौड़ा हैं; एक-एकश:--एक के बाद एक, क्रमशः;पूर्वस्मात्‌-प्रथम की अपेक्षा; पूर्वस्मात्‌ू-प्रथम की अपेक्षा; उत्तर:--और भी उत्तर; उत्तर:--और भी उत्तर; दश-अंश-अधिक-अंशेन--पहले वाले का दशमांश; दैर्घ्य:--लम्बाई में; एब--निस्सन्देह; हसन्ति--घटते ( छोटे होते ) जाते हैं।

    इलाबृत-वर्ष के सुदूर उत्तर में क्रमश: नील, श्वेत तथा श्रृंगवान्‌ नामक तीन पर्वत हैं।

    ये तीनोंरम्यक, हिरण्मय तथा कुरु इन तीन वर्षों की सीमा-रेखा बनाने वाले हैं और इनको एक दूसरे सेविभक्त करते वाले हैं।

    इन पर्वतों की चौड़ाई २,००० योजन ( १६,००० मील ) है।

    लम्बाई में येपूर्व से पश्चिम की ओर लवण सागर के तट तक विस्तृत हैं।

    दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ने परप्रत्येक पर्वत की लम्बाई अपने पूर्ववर्ती पर्वत की दशमांश होती जाती है, किन्तु इन सबकीऊँचाई एक सी रहती है।

    एवं दक्षिणेनेलावृतं निषधो हेमकूटो हिमालय इति प्रागायता यथा नीलादयोयुतयोजनोत्से धाहरिवर्षकिम्पुरुषभारतानां यथासड्ख्यम्‌ ॥

    ९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; दक्षिणेन--दक्षिण दिशा में; इलावृतम्‌--इलाबृत वर्ष के; निषध: हेम-कूटः हिमालय:--निषध, हेमकूटतथा हिमालय ये तीन पर्वत; इति--इस प्रकार; प्राकु-आयता: --पूर्व दिशा तक विस्तारित; यथा--जिस प्रकार; नील-आदयः--नील इत्यादि पर्वत; अयुत-योजन-उत्सेधा:--दस हजार योजन ऊँचा; हरि-वर्ष--हरिवर्ष नामक खण्ड; किम्पुरुष--किंपुरुष नामक खण्ड; भारतानाम्‌-- भारतवर्ष नामक खण्ड; यथा-सड्ख्यम्‌--संख्यानुसार, क्रमश: |

    इसी प्रकार, इलावृत-वर्ष के दक्षिण में तथा पूर्व से पश्चिम को फैले हुए तीन विशाल पर्वतहैं (उत्तर से दक्षिण को ) जिनके नाम हैं--निषध, हेमकूट तथा हिमालय।

    इनमें से प्रत्येक१०,००० योजन (८०,००० मील ) ऊँचा है।

    ये हरिवर्ष, किम्पुरुष-वर्ष तथा भारतवर्ष नामकतीन वर्षो की सीमाओं के सूचक हैं।

    तथेवेलावृतमपरेण पूर्वेण च माल्यवद्गन्थमादनावानीलनिषधायतौ द्विसहस्त्रं पप्रथतु: केतुमालभद्रा श्रयो:सीमानं विदधाते ॥

    १०॥

    तथा एव--उसके ही समान; इलावृतम्‌ अपरेण --इलावृत वर्ष के पश्चिम में; पूर्वेण च--और पूर्व दिशा में भी; माल्यवद्‌-गन्ध-मादनौ--पश्चिम में माल्यवान्‌ तथा पूर्व में गन्धमादन सीमा बनाने वाले पर्वत; आ-नील-निषध-आयतौ--उत्तर दिशा मेंनीलपर्वत तक और दक्षिण दिशा में निषध पर्वत तक; द्वि-सहस्त्रमू--दो हजार योजन; पप्रथतु:--फैले हुए हैं; केतुमाल-भद्राश्रयो:--केतुमाल तथ भद्राश्व इन दो वर्षों की; सीमानम्‌--सीमा; विद्धाते--स्थापना करते हैं।

    इसी प्रकार से इलाबृत-वर्ष के पूर्व तथा पश्चिम क्रमश माल्यवान्‌ और गन्धमादन नामक दोविशाल पर्वत हैं।

    ये दोनों २,००० योजन ( १६,००० मील ) ऊँचे हैं और उत्तर में नीलपर्वत तकतथा दक्षिण में निषध तक फैले हैं।

    ये इलावृत-वर्ष की और केतुमाल तथा भद्राश्व नामक वर्षोकी भी सीमाओं के सूचक हैं।

    मन्दरो मेरुमन्दरः सुपार्श्व: कुमुद इत्ययुतयोजनविस्तारोन्नाहा मेरो श्चतुर्दिशमवष्टम्भगिरय उपक्रिप्ता: ॥

    ११॥

    मन्दरः--मन्दर नामक पर्वत; मेरू-मन्दर:--मेरू-मन्दर पर्वत; सुपार्श्र:--सुपार्श्व पर्वत; कुमुदः --कुमुद पर्वत; इति--इस प्रकार;अयुत-योजन-विस्तार-उन्नाहा:--जिनकी ऊँचाई तथा चौड़ाई दस हजार योजन है; मेरो:--सुमेरु की; चतुः-दिशम्‌--चारोंदिशाएँ; अवष्टम्भ-गिरय:--पर्वत जो सुमेर॒ की मेखलाओं के सहश हैं; उपक्रिप्ता:--स्थित हैं

    सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्थ तथा कुमुद नामक चार पर्वत हैं,जो इसकी मेखलाओं के सहृश हैं।

    ये पर्वत १०,००० योजन ( ८०,००० मील ) ऊँचे तथा इतनेही चौड़े हैं।

    चतुर्ष्वेतेषु चूतजम्बूकदम्बन्यग्रोधा श्वत्वार: पादपप्रवरा: पर्वतकेतवइवाधिसहस्त्रयोजनोन्नाहास्तावद्विटपविततय: शतयोजनपरिणाहा: ॥

    १२॥

    चतुर्षु--चारों पर; एतेषु--मन्दर इत्यादि इन चारों पर; चूत-जम्बू-कदम्ब--आम, जामुन तथा कदम्ब जैसे वृक्ष; न्यग्रोधा:--(तथा ) बट वृक्ष; चत्वार:--चार प्रकार के; पादप-प्रवरा:--वृक्षों में श्रेष्ठ; पर्वत-केतव: --पर्वतों पर ध्वजाएँ; इब--सहृश;अधि--ऊपर; सहस्त्र-योजन-उन्नाहा:--एक हजार योजन ऊँचा; तावत्‌--इतना भी; विटप-विततयः--शाखाओं की लम्बाई;शत-योजन--एक सौ योजन; परिणाहा:--चौड़ी

    इन चारों पर्वतों की चोटियों पर ध्वजाओं के रूप में एक एक आगम्र, जामुन, कदम्ब तथावट वृक्ष हैं।

    इन वृक्षों का घेरा १०० योजन ( ८०० मील ) तथा ऊँचाई १९,९०० योजन ( ८,८००मील ) है।

    इनकी शाखाएँ १,१०० योजन की त्रिज्या में फैली हैं।

    हृदाश्चवत्वार: पयोमध्विश्लुरसमृष्ठटजला यदुपस्पर्शिन उपदेवगणा योगैश्वर्याणि स्वाभाविकानि भरतर्षभधारयन्ति; देवोद्यानानि च भवन्ति चत्वारि नन्दनं चेत्ररथं वैभ्राजकं सर्वतोभद्रमिति ॥

    १३-१४॥

    हृदाः--सरोवर; चत्वार: --चार; पय: --दुग्ध; मधु--शहद; इश्लु-रस--गन्ने का रस; मृष्ट-जला:--विशुद्ध जल से पूरित;यत्‌--जिसका; उपस्पशिन:--तरल पदार्थों का प्रयोग करनेवाले; उपदेव-गणा:--देवतागण; योग-ऐश्वर्याणि--योग की समस्तसिद्धियाँ; स्वाभाविकानि--सरलता से; भरत-ऋषभ--हे भरतवंश में श्रेष्ठ; धारयन्ति-- धारण करते हैं; देव-उद्यानानि--स्वर्गिकउद्यान; च-- भी; भवन्ति-- हैं; चत्वारि--चार; नन्दनम्‌--नन्दनवन; चैत्र-रथम्‌--चैत्ररथ उद्यान; वैश्राजकम्‌--वैशभ्राजक उद्यान;सर्वतः-भद्गम्‌--सर्वतोभद्ग उद्यान; इति--इस प्रकार

    भरतवंश में श्रेष्ठ, हे महाराज परीक्षित, इन चारों पर्वतों के मध्य में चार विशाल सरोवर हैं।

    इनमें से पहले का जल दुग्ध की तरह, दूसरे का मधु के सहश और तीसरे का इश्लुरस की भाँतिस्वादिष्ट है।

    चौथा सरोवर विशुद्ध जल से परिपूर्ण है।

    इन चारों सरोवरों की सुविधा का उपभोगसिद्ध, चारण तथा गन्धर्व जैसे अपार्थिव प्राणी, जिन्हें देवता भी कहा जाता है, करते हैं।

    'फलस्वरूप उन्हें योग की सहज सिद्द्धियाँ--यथा, सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतर और से रूप धारण करनेकी शक्तियाँ--प्राप्त हैं।

    इसके अतिरिक्त चार देव-उद्यान भी हैं, जिनके नाम हैं--नन्दन,चैत्ररथ, वैभ्राजक तथा सर्वतोभद्र |

    दीर्घतरयेष्वमरपरिवृढा: सह सुरललनाललामयूथपतय उपदेवगणैरुपगीयमानमहिमान: किल विहरन्ति ॥

    १५॥

    येषु--जिनमें; अमर-परिवृढा: --सर्व श्रेष्ठ देवगण; सह--सहित; सुर-ललना--समस्त देवताओं तथा उपदेवताओं की पत्नियोंके; ललाम--आभूषण सहश उन स्त्रियों के; यूथ-पतय:--पतिगण; उपदेव-गणै: --उपदेवों ( गन्धर्वों ) के द्वारा; उपगीयमान--जिनकी स्तुति हो रही है; महिमान:--जिनका यश; किल--निश्चय ही; विहरन्ति--विहार करते हैं, क्रीड़ा करते हैं|

    इन उद्ानों में श्रेष्ठटम देवगण अपनी-अपनी सुन्दर पत्नियों के सहित जो स्वर्गिक सौन्दर्य केआशभृषणों जैसी हैं, एकत्र होकर आनन्द लेते हैं और गन्धर्व-जन उनके यश-गान करते हैं।

    मन्दरोत्सड़ एकादशशतयोजनोत्तुड्देवचूतशिरसो गिरिशिखरस्थूलानि फलान्यमृतकल्पानि पतन्ति ॥

    १६॥

    मन्दर-उत्सड़े--मन्दर पर्वत की निचली ढाल पर; एकादश-शत-योजन-उत्तुड्र-- १,१०० योजन ऊँचा; देवचूत-शिरस:--देवचूतनामक आप्रवृक्ष की चोटी से; गिरि-शिखर-स्थूलानि--जो पर्वताश्रृंगों के समान स्थूल हैं; फलानि--फल; अमृत-कल्पानि--अमृत की भाँति मधुर; पतन्ति--गिरते हैं।

    मन्दर पर्वत की निचली ढलान पर देवचूत नामक एक आ्रवृक्ष है, जिसकी ऊँचाई १,१०० योजन है।

    इस वृक्ष की चोटी से पर्वतश्ृंग जितने बड़े तथा अमृत तुल्य मधुर फल गिरते रहते हैंजिनका उपभोग दिव्य लोक के निवासी करते हैं।

    तेषां विशीर्यमाणानामतिमधुरसुरभिसुगन्धिबहुलारुणरसोदेनारुणोदा नाम नदीमन्दरगिरिशिखरान्निपतन्ती पूर्वेणेलावृतमुपप्लावयति ॥

    १७॥

    तेषामू--सभी आम्रफलों के ; विशीर्यमाणानाम्‌ू--चोटी से गिरकर फट जाने के कारण; अति-मधुर--अत्यन्त मीठी; सुरभि--महकने वाली; सुगन्धि--सुगन्धयुक्त; बहुल--प्रभूत मात्रा; अरूुण-रस-उदेन--लाल-लाल रस के द्वारा; अरुणोदा--अरुणोदा;नाम--नामक; नदी--सरिता; मन्दर-गिरि-शिखरात्‌--मन्दर पर्वत के शिखर से; निपतन्ती--गिरती हुई; पूर्वण--पूर्व दिशा में;इलावृतम्‌--इलावृत-वर्ष से होकर; उपप्लाववति--बहती है

    इतनी ऊँचाई से गिरने के कारण वे सभी आम्रफल फट जाते हैं और उनका मधुर, सुगन्धितरस बाहर निकल आता है।

    यह रस अन्य सुगन्धियों से मिलकर अत्यधिक सुरभित हो जाता है।

    यही रस पर्वत से झरनों में जाता है और अरुणोदा नामक नदी का रूप धारण कर लेता है जोइलावृत की पूर्व दिशा से होकर बहती है।

    यदुपजोषणाद्धवान्या अनुचरीणां पुण्यजनवधूनामवयवस्पर्शसुगन्धवातो दशयोजनंसमन्तादनुवासयति ॥

    १८॥

    यत्‌--जिसका; उपजोषणात्‌--सुगन्धित जल का प्रयोग करने से; भवान्या:-- भगवान्‌ शिव की पत्नी भवानी की;अनुचरीणाम्‌--अनुचरियों का; पुण्य-जन-वधूनामू--जो परम पवित्र यक्षों की पत्नियाँ हैं; अवयव--शरीर के अंगों के;स्पर्श--स्पर्श से; सुगन्‍्ध-बात:--सुरभित वायु; दश-योजनम्‌--दस योजन ( अस्सी मील ) तक; समन्तात्‌--चारों ओर;अनुवासयति--सुवासित करती है।

    यक्षों की पवित्र पत्तियाँ भगवान्‌ शंकर की अद्धांगिनी भवानी की अनुचरी हैं।

    अरुणोदानदी के जल का पान करने के कारण उनके शरीर सुगन्धित हो जाते हैं।

    वायु उनके शरीर कास्पर्श करके उस सुगन्धि से अस्सी मील तक चारों ओर के समस्त वायुमण्डल को सुरभित करदेती है।

    एवं जम्बूफलानामत्युच्यनिपातविशीर्णानामनस्थिप्रायाणामिभकायनिभानां रसेन जम्बू नाम नदीमेरुमन्दशिखरादयुतयोजनादवनितले निपतन्ती दक्षिणेनात्मानं यावदिलावृतमुपस्यन्दयति ॥

    १९॥

    एवम्‌--इसी प्रकार; जम्बू-फलानाम्‌--जामुन के फलों का; अति-उच्च-निपात--अत्यधिक ऊँचाई से गिरने के कारण;विशीर्णानाम्‌ू--खण्ड-खण्ड हो जाने से; अनस्थि-प्रायाणाम्‌--अत्यन्त लघु बीज होने के कारण; इभ-काय-निभानाम्‌--औरजो हाथी के शरीर के सहृश विशाल हैं; रसेन--रस के द्वारा; जम्बू नाम नदी--जम्बू नामक नदी; मेरू-मन्दर-शिखरात्‌-- मेरुमन्दर पर्वत के शिखर से; अयुत-योजनात्‌--दस हजार योजन ऊँची; अवनि-तले--पृथ्वी तल पर; निपतन्ती--गिरती हुई;दक्षिणेन--दक्षिण दिशा में; आत्मानम्‌--स्वयमेव; यावत्‌--सम्पूर्ण; इलावृतम्‌--इलावृतवर्ष से; उपस्यन्दयति--होकर बहतीहै

    इसी प्रकार रस से भरे और अत्यन्त छोटी गुठली वाले जामुन के फल अत्यधिक ऊँचाई सेगिरकर खण्ड-खण्ड हो जाते हैं।

    ये फल हाथी जैसे आकार वाले होते हैं और इनका रस बहकरजम्बूनदी का रूप धारण कर लेता है।

    यह नदी इलावृत के दक्षिण में मेरुूमन्दर की चोटी से दसहजार योजन नीचे गिरकर समस्त इलावृत भूखण्ड को रस से आप्लावित करती है।

    तावदुभयोरपि रोधसोर्या मृत्तिका तद्रसेनानुविध्यमाना वाय्वर्कसंयोगविपाकेन सदामरलोकाभरणंजाम्बूनदं नाम सुवर्ण भवति; यदु ह वाव विबुधादयः सह युवतिभिर्मुकुटकटककटिसूत्राद्याभरणरूपेणखलु धारयन्ति ॥

    २०-२१॥

    तावत्‌--सर्वथा; उभयो: अपि--दोनों का; रोधसो: --तटों का; या--जो; मृत्तिका--कीचड़; तत्‌-रसेन--नदी में बहने वालेजम्बू फलों के रस से; अनुविध्यमाना--संपृक्त होकर; वायु-अर्क-संयोग-विपाकेन-- वायु तथा धूप की रासायनिक क्रिया के'फलस्वरूप; सदा--सदैव; अमर-लोक-आभरणम्‌--जो स्वर्गलोक में निवास करने वाले देवताओं के आभूषणों के लिए प्रयुक्तहोता है; जाम्बू-नदम्‌ नाम--जाम्बूनद नामक; सुवर्णम्‌--स्वर्ण; भवति--बन जाता है; यत्‌--जो; उ ह वाव--निस्सन्देह;विबुध-आदय:--देवता आदि; सह--साथ; युवतिभि:--अपनी युवा पत्नियों के; मुकुट--मुकुट; कटक--चूड़ियाँ; कटि-सूत्र--करधनी; आदि--इत्यादि; आभरण--सभी प्रकार के आभूषणों के; रूपेण--रूप में; खलु--निश्चय ही; धारयन्ति--धारण करती हैं।

    जम्बू नदी के दोनों तटों का कीचड़ जामुनफल के बहते हुए रस से सिक्त होकर और फिरवायु तथा सूर्य प्रकाश के कारण सूख कर जाम्बू-नद नामक स्वर्ण की प्रचुर मात्रा उत्पन्न करताहै।

    स्वर्ग के निवासी इस स्वर्ण का उपयोग विविध आभूषणों के लिए करते हैं।

    फलतःस्वर्गलोक के सभी निवासी एवं उनकी तरुण पत्रियाँ स्वर्ण के मुकुटों, चूड़ियों तथा करधनियोंसे आभूषित रहती हैं।

    इस प्रकार वे सब जीवन का आनन्द लेते हैं।

    यस्तु महाकदम्ब: सुपार्शवनिरूढो यास्तस्य कोटरेभ्यो विनिःसृता: पदञ्णञायामपरिणाहा: पञ्ञ मधुधारा:सुपार्श्शिखरात्पतन्त्योपरेणात्मानमिलावृतमनुमोदयन्ति ॥

    २२॥

    यः--जो; तु--किन्तु; महा-कदम्ब:--महाकदम्ब नामक वृक्ष; सुपार्थ-निरूढ:--जो सुपार्श्व पर्वत की बगल में खड़ा हुआ है;या:--जो; तस्य--उसका; कोटरेभ्य:--कोटर से; विनिःसृता:--प्रवाहित; पशञ्ञ-पाँच; आयाम--व्याम, आठ फुट की माप;'परिणाहा:--जिसकी माप; पशञ्च--पाँच; मधु-धारा:--मधु की धाराएँ; सुपार्थ-शिखरात्‌--सुपार्श्व पर्वत की चोटी से;पतन्त्य:--गिर रही हैं; अपरेण--सुमेरु पर्वत की पश्चिम दिशा में; आत्मानमू--समग्र; इलावृतम्‌--इलावृत वर्ष को;अनुमोदयन्ति--सुरभित करती हैं|

    सुपार्थ पर्वत की बगल में महाकदम्ब नामक अत्यन्त प्रसिद्ध विशाल वृक्ष खड़ा है।

    इस वृक्षके कोटर से मधु की पाँच नदियाँ निकलती हैं जिनमें से प्रत्येक लगभग पाँच 'व्याम ' चौड़ी है।

    यह प्रवहमान मधु सुपार्श पर्वत की चोटी से सतत नीचे गिरता रहता है और इलावृत-वर्ष की पश्चिम दिशा से प्रारम्भ होकर उसके चारों ओर बहता रहता है।

    इस प्रकार सम्पूर्ण स्थल सुहावनीगंध से पूरित है।

    या ह्पयुझ्जानानां मुखनिर्वासितो वायु: समन्ताच्छतयोजनमनुवासयति ॥

    २३॥

    या:--जो ( वे मधु धाराएँ ); हि--निस्सन्देह; उपयुज्ञानानामू--पान करने वालों के; मुख-निर्वासितः वायु:--मुखों सेनिष्कासित वायु; समन्तात्‌--चतुर्दिक्‌; शत-योजनम्‌--एक सौ योजन तक ( आठ सौ मील ); अनुवासयति--सुगन्धित बनादेती है

    इस मधु को पीने वालों के मुख से निकली वायु चारों ओर सौ योजन तक के भूभाग कोसुगन्धित बना देती है।

    एवं कुमुदनिरूढो य: शतवल्शो नाम वटस्तस्य स्कन्धेभ्यो नीचीना:'पयोदधिमधुघृतगुडान्नाद्यम्बरशय्यासनाभरणादय: सर्व एवं कामदुघा नदाःकुमुदाग्रात्पतन्तस्तमुत्तेणेलावृतमुपयोजयन्ति, ॥

    २४॥

    एवम्‌--इस प्रकार; कुमुद-निरूढ:--कुमुद पर्वत पर उगा हुआ; य:--वह; शत-वल्शः नाम--शतवल्श नामक वृक्ष ( एक सौतने होने के कारण ); वट:--वट-वृशक्ष; तस्य--उसके ; स्कन्धे भ्य:--मोटी-मोटी शाखाओं से; नीचीना:--नीचे गिरकर; पय:--दुग्ध; दधि--दही; मधु--शहद; घृत--घी; गुड--गुड़; अन्न--अनाज; आदि--हत्यादि; अम्बर--वस्त्र; शय्या--बिस्तर;आसन--बैठने का स्थान; आभरण-आदय:-- आभूषणों आदि से युक्त; सर्वे--सब कुछ, प्रत्येक वस्तु; एब--निश्चय ही; काम-दुघा:--समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली; नदा:--बड़ी नदियाँ; कुमुद-अग्रात्‌--कुमुद पर्वत की चोटी से; पतन्तः--गिरकर, बहकर; तम्‌ू--उस तक; उत्तरेण--उत्तर दिशा में; इलावृतम्‌--इलावृत वर्ष में; उपयोजयन्ति--सुखी बनाती हैं।

    इसी प्रकार कुमुद पर्वत के ऊपर एक विशाल वट वृक्ष है, जो एक सौ प्रमुख शाखाओं केकारण शतवल्श कहलाता है।

    इन शाखाओं से अनेक जड़ें निकली हुई हैं, जिनमें से अनेकनदियाँ बहती हैं।

    ये नदियाँ इलावृत-वर्ष की उत्तर दिशा में स्थित पर्वत की चोटी से नीचे बहकरवहाँ के निवासियों को लाभ पहुँचाती हैं।

    इन नदियों के फलस्वरूप लोगों के पास दूध, दही,शहद, घी, राब, अन्न, वस्त्र, बिस्तर, आसन तथा आभूषण हैं।

    उनकी समृद्धि के लिए उन्हें जोभी पदार्थ चाहिए वे सब उपलब्ध हैं, जिससे वे सभी अत्यन्त सुखी हैं।

    यानुपजुषाणानां न कदाचिदपि प्रजानांवलीपलितक्लमस्वेददौर्गन्ध्यजरामयपृत्युशीतोष्णवैवण्योपसर्गादयस्तापविशेषा भवन्ति यावज्जीवं सुखंनिरतिशयमेव ॥

    २५॥

    यान्‌--जो ( उपर्युक्त नदियों से उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थ ); उपजुषाणानाम्‌-पूर्णरूप से उपभोग करने वाले पुरुषों का;न--नहीं; कदाचित्‌--किसी भी समय; अपि--निश्चय ही; प्रजानाम्‌ू--प्रजा की; वली--झुर्रियाँ; पलित--पके केश; क्लम--थकान; स्वेद--पसीना; दौर्गन्ध्य--पसीने के कारण दुर्गध; जरा--बुढ़ापा; आमय--रोग; मृत्यु--असामयिक मृत्यु; शीत--कड़ाके की सर्दी; उष्ण--दाहक, गर्मी; वैवर्ण्य--शरीर की कान्ति का धूमिल पड़ना, विवर्णता; उपसर्ग--क्लेश; आदय:--इत्यादि; ताप--दुखों का; विशेषा: --किस्में, प्रकार; भवन्ति-- हैं; यावत्‌--जब तक; जीवम्‌-- जीवन; सुखम्‌--सुख;निरतिशयम्‌--अपार, सीमाहीन; एव--केवल

    इस भौतिक जगत के वासी जो इन बहती नदियों से प्राप्त पदार्थों का सेवन करते हैं, उनकेशरीर में न तो झुर्रियाँ पड़ती हैं और न उनके केश सफेद होते हैं।

    न तो उन्हें थकान का अनुभवहोता है और न उसके पसीने से उनके शरीर से दुर्गन्‍्ध ही आती है।

    उन्हें बुढ़ापा, रोग याआसामयिक मृत्यु नहीं सताती है न ही वे कड़ाके की सर्दी अथवा झुलसती गर्मी से दुखी होते हैंऔर न ही उनके शरीर की कान्ति लुप्त होती है।

    वे सभी मृत्युपर्यन्त चिन्ताओं से मुक्त सुखपूर्वकजीवन व्यतीत करते हैं।

    कुरड्ढकुररकुसुम्भवैकड्डत्रिकूटशिशिरपतड्ररूुचकनिषधशिनीवासकपिलशड्डुवैदूर्यजारुधिहंसऋषभनागकलञ्जरनारदादयो विंशतिगिरयो मेरो: कर्णिकाया इव केसरभूता मूलदेशे परित उपक्रिप्ता: ॥

    २६॥

    कुरड्ू--कुरंग; कुरर--कुरर; कुसुम्भ-वैकड्भू-त्रिकूट-शिशिर-पतड्र-रुचक-निषध-शिनीवास-कपिल-शछड्डु-वैदूर्य-जारुधि-हंस-ऋषभ-नाग-कालजझ्ञर-नारद--ये सभी पर्वतों के नाम हैं; आदय: --इत्यादि; विंशति-गिरय:--बीस पर्वत; मेरो: --सुमेरुपर्वत के; कर्णिकाया:--कमलकोश के; इब--सहृश; केसर-भूता:--केसर के समान; मूल-देशे--पाद पृष्ठ पर; परित:--चारोंओर; उपक्लृप्ता:-- श्रीभगवान्‌ के द्वारा आयोजित |

    मेरु पर्वत के तलहटी के चारों ओर अन्य पर्वत इस सुन्दर ढंग से व्यवस्थित हैं मानों कमलपुष्प की कर्णिका के चारों ओर केसर हों।

    इन पर्वतों के नाम हैं--कुरंग, कुरर, कुसुम्भ,वैकंक, त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शंख, बैदूर्य, जारुधि, हंस,ऋषभ, नाग, कालझर तथा नारद।

    जठरदेवकूटौ मेरूं पूर्वेणाष्टादशयोजनसहस्त्रमुदगायतौ द्विसहस्त्रं पृथुतुड्रों भवत:; एवमपरेण'पवनपारियात्रौ दक्षिणेन कैलासकरवीरीौ प्रागायतावेवमुत्तरतस्त्रिश्रुड्रमकरावष्टभिरेतै: परिसृतो ग्निरिवपरितश्चकास्ति काझ्लननगिरि: ॥

    २७॥

    जठर-देवकूटौ--जठर तथा देवकूट नामक दो पर्वत; मेरुम्‌--सुमेरु पर्वत; पूर्वण--पूर्व दिशा में; अष्टादश-योजन-सहस्त्रमू--अठारह हजार योजन; उदगायतौ --उत्तर से दक्षिण को फैला हुआ; द्वि-सहस्त्रमू--दो हजार योजन; पृथु-तुड्रौ --चौड़ाई तथाऊँचाई में; भवतः--हैं; एवम्‌--इसी तरह; अपरेण--पश्चिम दिशा में; पवन-पारियात्रौ--पवन तथा पारियात्र नामक दो पर्वत;दक्षिणेन--दक्षिण दिशा में; कैलास-करवीरौ--कैलास तथा करवीर नामक दो पर्वत; प्राकु-आयतौ--पूर्व तथा पश्चिम दिशा मेंविस्तृत; एवम्‌--इसी तरह; उत्तरत:--उत्तर दिशा में; त्रिश्ुद्र-मकरौ--त्रिश्रृंग तथा मकर ये दो पर्वत; अष्टभि: एतै:--इन आठपर्वतों के द्वारा; परिसृत:--घिरा हुआ; अग्नि: इब--अग्नि के सहश; परितः--सर्वत्र; चकास्ति--तेजी से चमकता है; काञझ्जन-गिरि:ः--सुमेरु या मेरु नामक सोने का पर्वत

    सुमेरु पर्वत के पूर्व में जठर तथा देवकूट नामक दो पर्वत हैं, जो उत्तर तथा दक्षिण की ओर१८,००० योजन ( १,४४,००० मील ) तक फैले हुए हैं।

    इसी प्रकार सुमेरु पर्वत की पश्चिमदिशा में पवन तथा पारियात्र नामक दो पर्वत हैं, जो उतनी ही दूरी तक उत्तर तथा दक्षिण में भीफैले हैं।

    सुमेरु के दक्षिण में कैलास तथा करवीर पर्वत हैं, जो पूर्व और पश्चिम में १८,०००योजन तक फैले हुए हैं और सुमेरु की उत्तरी दिशा में त्रिश्रृंग तथा मकर नामक दो पर्वत पूर्वऔर पश्चिम में इतनी ही दूरी में विस्तृत हैं।

    इन समस्त पर्वतों की चौड़ाई २,००० योजन(१६,००० मील ) है।

    इन आठों पर्वतों से घिरा हुआ स्वर्णनिर्मित सुमेरु पर्वत अग्नि की तरहजाज्वल्यमान है।

    मेरोर्मूर्थनि भगवत आत्मयोनेर्मध्यत उपक्रिप्तां पुरीमयुतयोजनसाहस्त्रीं समचतुरस्त्रां शातकौम्भी वदन्ति ॥

    २८॥

    मेरोः--सुमेरु पर्वत की; मूर्धथनि--चोटी पर; भगवतः--सर्वशक्तिमान प्राणी; आत्म-योने:-- भगवान्‌ ब्रह्मा की; मध्यत:--मध्यमें; उपक्रिप्तामू--स्थित; पुरीम्‌--पुरी, विशाल नगरी; अयुत-योजन--दस हजार योजन; साहस्त्रीमू--एक हजार; सम-चतुरस्त्रामू--चारों ओर समान लम्बाई का; शात-कौम्भीम्‌-- पूर्णतः सोने की बनी हुई; वदन्ति--मुनियों का कथन है।

    मेरु की चोटी के मध्य भाग में ब्रह्माजी की पुरी स्थित है।

    इसके चारों कोने समान रूप सेएक करोड़ योजन ( आठ करोड़ मील ) तक विस्तृत हैं।

    यह पूरे का पूरा स्वर्ण से निर्मित है,इसीलिए विद्वतजन तथा ऋषि-मुनि इसे शातकौम्भी नाम से पुकारते हैं।

    तामनुपरितो लोकपालानामष्टानां यथादिशं यथारूपं तुरीयमानेन पुरोष्टावुपक्रिप्ता: ॥

    २९॥

    ताम्‌ू--ब्रह्मपुरी नामक इस पुरी को; अनुपरितः--घेरे हुए; लोक-पालानाम्‌--लोकों के शासक; अष्टानाम्‌--आठ; यथा-दिशम्‌--दिशाओं के अनुसार; यथा-रूपम्‌--ब्रह्मपुरी के ही समान; तुरीय-मानेन--माप में केवल एक चतुर्थाश; पुर: --पुरी;अष्टौ--आठ; उपक्रिप्ता:--स्थित हैं।

    ब्रह्मपुरी के चारों और सभी दिशाओं में लोकों के आठ प्रमुख लोकपालों के निवास-स्थलहैं, जिनमें से पहला राजा इन्द्र का है।

    ये निवासस्थल ब्रह्मपुरी के ही समान हैं, किन्तु वे आकारमें एक चौथाई हैं।

    TO

    अध्याय सत्रह: गंगा नदी का अवतरण

    5.17श्रीशुक उबाचतत्र भगवतः साक्षाद्यज्जलिड्रस्य विष्णोर्विक्रमतोवामपादाडुष्टनखनिर्मिन्नोर्ध्वाण्डकटाहविवरेणान्तःप्रविष्टाया बाह्य जलधारा तच्चरणपड्डजावनेजनारुणकिड्जल्कोपरज्जिताखिलजगदघमलापहोपस्पर्शनामलासाक्षाद्धगवत्पदीत्यनुपलक्षितवचो उभिधीयमानातिमहता कालेन युगसहस्रोपलक्षणेन दिवो मूर्थन्यवततारयतक्तिद्विष्णुपदमाहु: ॥

    १॥

    श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले; तत्र--उस काल; भगवतः-- श्रीभगवान्‌ के अवतार का; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; यज्ञ-लिड्डस्थ--समस्त यज्ञों के फल का भोक्ता; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु का; विक्रमत:--दूसरा पग भरते हुए; वाम-पाद--बाएँपैर के; अद्डुष्ठ--अँगूठे के; नख--नाखून द्वारा; निर्भिन्न-- भेद कर; ऊर्ध्व--ऊपरी; अण्ड-कटाह--ब्रह्माण्ड का ऊपरी आवरण( इसमें पृथ्वी, जल, अग्नि इत्यादि सात आवरण हैं ) ); विवरेण--छिद्र से होकर; अन्तः-प्रविष्टा--ब्रह्माण्ड को भेद कर; या--जो; बाह्म-जल-धारा--ब्रह्मण्ड से बाहर कारण-समुद्र जल की धारा; तत्‌--उसका; चरण-पड्डज--चरणकमल का;अवनेजन--धोकर; अरुण-किज्लल्क--लाल चूर्ण के द्वारा; उपरस्चिता--रंजित होकर; अखिल-जगत्‌--सम्पूर्ण संसार के;अघ-मल--पापकर्म; अपहा--विनष्ट करती है; उपस्पर्शन--जिसके स्पर्श से; अमला--नितान्त शुद्ध; साक्षात्‌-प्रत्यक्षतः;भगवत््‌-पदी -- श्रीभगवान्‌ के चरणकमल से निकलने वाली; इति--इस प्रकार; अनुपलक्षित--वर्णित; बच: --नाम से;अभिधीयमाना--पुकारी जाकर; अति-महता कालेन--दीर्घकाल के पश्चात्‌; युग-सहस्त्र-उपलक्षणेन--एक हजार युग; दिव:--आकाश के; मूर्थनि--शीश पर ( ध्रुव लोक ); अवततार--नीचे उतरी; यत्‌--जो; तत्‌--वह; विष्णु-पदम्‌-- भगवान्‌ विष्णु केचरणकमल; आहु:--पुका रते हैं |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजन, सभी यज्ञों के भोक्ता भगवान्‌ विष्णु महाराज बलिकी यज्ञशाला में वामनदेव का रूप धारण करके प्रकट हुए।

    तब उन्होंने अपने वाम पाद कोब्रह्माण्ड के छोर तक फैला दिया और अपने पैर के अँगूठे से उसके आवरण में एक छिद्र बनादिया।

    इस छिद्र से निकले कारण-समुद्र के विशुद्ध जल ने गंगा नदी के रूप में इस ब्रह्माण्ड मेंप्रवेश किया।

    विष्णु के चरणकमलों को, जो केशर से लेपित थे, धोने से गंगा का जल अत्यन्तमनोहर गुलाबी रंग का हो गया।

    गंगा के दिव्य जल के स्पर्श से क्षण भर में प्राणियों के मन केभौतिक विकार शुद्ध हो जाते हैं, किन्तु इसका जल सदैव शुद्ध रहता है।

    चूँकि इस ब्रह्माण्ड मेंप्रविष्ट होने के पूर्व गंगा प्रत्यक्ष रूप से विष्णुजी के चरणकमलों का स्पर्श करती है, इसलिए वहविष्णुपदी कहलाती है।

    बाद में उसके अन्य नाम पड़े यथा जाह्वी तथा भागीरथी।

    एक हजारयुगों के बाद गंगा का जल श्रुवलोक में उतरा जो इस ब्रह्माण्ड का सर्वोपरि लोक है।

    इसीलिए सभी सन्त तथा दिद्वान श्रुवलोक को विष्णुपद ( अर्थात्‌ भगवान्‌ विष्णु चरणकमलों में स्थित )कहते हैं।

    यत्र ह वाव वीरब्रत औत्तानपादि: परमभागवतोस्मत्कुलदेवताचरणारविन्दोदकमितियामनुसवनमुत्कृष्यमाणभगवद्धक्तियोगेन ह॒ढं क्लिद्यमानान्तईदयऔत्कण्ठ्यविवशामीलितलोचनयुगलकुड्मलविगलितामलबाष्पकलयाभिव्यज्यमानरोमपुलककुलकोधुनापि परमादरेण शिरसा बिभर्ति ॥

    २॥

    यत्र ह वाव--श्रुवलोक में; वीर-ब्रतः --दृढ़प्रतिज्ञ; औत्तानपादि: --महाराज उत्तानपाद का विख्यात पुत्र; परम-भागवत:ः--परमभक्त; अस्मत्‌--हमारा; कुल-देवता--पारिवारिक देवता का; चरण-अरविन्द--चरणकमल; उदकम्‌---जल में; इति--इसप्रकार; याम्‌ू--जो; अनुसवनम्‌--सतत; उत्कृष्यमाण--वर्धमान; भगवत्‌-भक्ति-योगेन-- भगवान्‌ के प्रति भक्ति के द्वारा;हढम्‌--अत्यन्त; क्लिद्यमान-अन्त:-हृदय:ः--अपने हृदय के अन्तः में मृदु होकर; औत्कण्ठ्य--अत्यन्त उत्कंठा ( चिन्ता ) से;विवश--तत्क्षण; अमीलित--कुछ कुछ खुले; लोचन--नेत्रों का; युगल--जोड़ा; कुड्मल--कली से; विगलित--विकीर्णहोकर; अमल--मलरहित; बाष्प-कलया--अश्रु-पूर्ण; अभिव्यज्यमान-- प्रकट रूप में; रोम-पुलक-कुलक: --शरीर में प्रसन्नताके द्योतक लक्षण; अधुना अपि--आज भी; परम-आदरेण--अत्यन्त आदरपूर्वक; शिरसा--शिर पर; बिभर्ति-- धारण करताहै।

    महाराज उत्तानपाद के ख्याति प्राप्त पुत्र धुव महाराज परम-ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ भक्त कहलाते हैं, क्योंकि उनकी भक्ति-निष्ठा हढ़ थी।

    यह जानते हुए कि गंगाजल भगवान्‌ विष्णु के चरणकमलको पखारता है, वे उस जल को अपने लोक में ही रहते हुए आज तक अपने शिर पर भक्तिपूर्वकधारण करते हैं।

    चूँकि वे अपने अन्तस्थल ( हृदय ) में श्रीकृष्ण का निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं,'फलत:ः वे अत्यन्त उत्कंठित रहते हैं, उनके अर्ध-निमीलित नेत्रों से अश्रु की धारा बहती है औरउनका शरीर पुलकायमान रहता है।

    ततः सप्त ऋषयस्तत्प्रभावाभिज्ञा यां ननु तपस आत्यन्तिकी सिद्धिरितावती भगवति सर्वात्मनिवासुदेवेनुपरतभक्तियोगलाभेनैवोपेक्षितान्यार्थात्मगतयो मुक्तिमिवागतां मुमुक्षय इव सबहुमानमद्यापिजटाजूटैरुद्वहन्ति ॥

    ३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; सप्त ऋषय: --( मरीचि से लेकर ); तत्‌ प्रभाव-अभिज्ञा:--जो गंगा के प्रभाव से भलीभाँति परिचित थे;याम्‌ू--यह गंगा जल; ननु--निश्चय ही; तपस:--हमारे तपों का; आत्यन्तिकी--परम; सिद्ध्धि:--सिद्धि; एतावती--इतनी;भगवति--श्रीभगवान्‌; सर्व-आत्मनि--सर्वव्यापी; वासुदेवे-- श्रीकृष्ण में; अनुपरत--अविरत; भक्ति-योग-- भक्ति योग का;लाभेन--इस पद को प्राप्त करके; एब--निश्चय ही; उपेक्षित--तिरस्कृत; अन्य--दूसरा; अर्थ-आत्म-गतय: --सिद्धि के अन्यसभी साधन ( यथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ); मुक्तिमू--सांसारिक बन्धनों से छुटकारा; इब--सहृश; आगताम्‌-- प्राप्त किया;मुमुक्षव: --मुक्ति की इच्छा करने वाला व्यक्ति; इब--सहृश; स-बहु-मानम्‌--अत्यन्त मानपूर्वक; अद्य अपि--आज भी; जटा-जूटैः--जूड़े के रूप में बँधी जटाओं से युक्त; उद्दहन्ति-- धारण करते हैं।

    ध्रुवलोक के नीचे वाले लोकों में सप्तर्षियों ( मरीचि, वसिष्ठ, अत्रि इत्यादि ) का वास है।

    गंगा जल के प्रभाव से परिचित होने के कारण वे आज भी अपने शिर की जटाओं पर उसेधारण करते हैं।

    अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यही परम धन, समस्त तपस्याओं कीसिद्धि तथा दिव्य जीवन बिताने का सर्वश्रेष्ठ साधन है।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की सतत भक्तिप्राप्त होने के कारण उन्होंने धर्म, अर्थ, काम, तथा परब्रह्म से तदाकार होने ( अर्थात्‌ ) मोक्ष जैसेसमस्त साधनों का परित्याग कर दिया है।

    जिस प्रकार ज्ञानीजन यह सोचते हैं कि भगवान्‌ में तदाकार होना ही परम सत्य है उसी प्रकार सप्तर्षि भी भक्ति को जीवन की परम सिद्धि मानते हैं।

    ततोनेकसहस्त्रकोटिविमानानीकसड्जू लदेवयानेनावतरन्तीन्दु मण्डलमावार्य ब्रहासदने निपतति ॥

    ४॥

    ततः--सप्तर्षियों के सात लोकों को पवित्र करने पश्चात्‌; अनेक--कई; सहस्त्र--हजार; कोटि--करोड़ों; विमान-अनीक --विमान सेना सहित; सह्ढु 'ल--समूहित; देव-यानेन--देवताओं के अन्तरिक्ष से होकर; अवतरन्ती--उतरते हुए; इन्दु-मण्डलम्‌--चन्द्र लोक को; आवार्य--आप्लावित करके; ब्रह्म-सदने--सुमेरु पर्वत के ऊपर ब्रह्मा के आवास तक; निपतति--गिरता है।

    ध्रुवलोक के पड़ोसी सात लोकों को पावन करने के पश्चात्‌ गंगा का जल करोड़ों देवताओंके विमानों द्वारा अन्तरिक्ष को ले जाया जाता है।

    तब यह चन्द्रलोक को आप्लावित करता हुआअन्ततः मेरु पर्वत पर स्थित ब्रह्म के आवास तक पहुँच जाता है।

    तत्र चतुर्धा भिद्यमाना चतुर्भिर्नामभिश्चतुर्दिशमभिस्पन्दन्ती नदनदीपतिमेवाभिनिविशति सीतालकनन्दाचक्षुर्भद्रेति, ॥

    ५॥

    तत्र--वहाँ ( मेरु पर्वत पर ); चतुर्धा--चार धाराओं में; भिद्यमाना--विभाजित होकर; चतुर्भि: --चार; नामभि:--नामों से;चतु:-दिशम्‌--चारों दिशाओं में ( पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण ); अभिस्पन्दन्ती--वेग से प्रवाहित होकर; नद-नदी-पतिम्‌--समस्त बृहद्‌ नदियों का आगार ( सागर ); एव--निश्चय ही; अभिनिविशति-- प्रविष्ट करती है; सीता-अलकनन्दा--सीता तथाअलकनन्दा; चक्षु:--चक्षु; भद्रा--भद्गा; इति--इन नामों से विख्यात |

    मेरु पर्वत की चोटी पर गंगा नदी चार धाराओं में विभक्त हो जाती है और प्रत्येक धाराअलग-अलग दिशाओं की ओर ( पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण ) वेग से प्रवाहित होती है।

    येधाराएँ सीता, अलकनन्दा, चश्षु तथा भद्गरा नाम से विख्यात हैं और ये सब सागर की ओर बहतीहैं।

    सीता तु ब्रह्मसदनात्केसराचलादिगिरिशिखरे भ्यो धो ध: प्रस्त्रवन्ती गन्धमादनमूर्धसु पतित्वान्तरेणभद्राश्ववर्ष प्राच्यां दिशि क्षारसमुद्रमभिप्रविशति ॥

    ६॥

    सीता--सीता नामक धारा; तु--निश्चय ही; ब्रह्म-सदनात्‌--ब्रह्मपुरी से; केसराचल-आदि--केसराचल तथा अन्य महान पर्वतोंके; गिरि--पवर्तो की; शिखरेभ्य:--चोटियों से; अध: अध:--नीचे की ओर; प्रस्त्रवन्ती --प्रवाहित; गन्धमादन--गंध-मादनपर्वत की; मूर्थसु--चोटी पर; पतित्वा--गिर कर; अन्तरेण--के अन्तर्गत; भद्राश्व-वर्षम्‌--भव्रा श्व प्रदेश; प्राच्याम्‌--पूर्व;दिशि--दिशा में; क्षार-समुद्रमू--लवण सागर में; अभिप्रविशति-- प्रवेश करती है।

    गंगा नदी की सीता नामक धारा मेरु पर्वत की चोटी पर स्थित ब्रह्मपुरी से होकर बहती हुईपार्श्ववर्ती केसराचल पर्वतों के श्रृंगों पर पहुँचती है।

    जो मेरु पर्वत जितने ही ऊंचे है।

    ये पर्वत मेरुपर्वत के चारों ओर तन्तुगुच्छ जैसे हैं।

    केसराचल पर्वतों से चलकर गंगा नदी गंधमादन पर्वत कीचोटी पर गिरती है और वहाँ से भद्राश्च-वर्ष की भूमि में बहती है।

    अन्त में यह पश्चिम में लवणसागर में पहुँच जाती है।

    एवं माल्यवच्छिखरान्निष्पतन्ती ततोनुपरतवेगा केतुमालमभि चक्षु: प्रतीच्यां दिशि सरित्पतिं प्रविशति ॥

    ७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; माल्यवत्‌ -शिखरात्‌--माल्यवान्‌ पर्वत की चोटी से; निष्पतन्ती--नीचे गिरकर; ततः--तत्पश्चात्‌: अनुपरत-बेगा--अप्रतिहत वेग से; केतुमालम्‌ अभि--केतुमाल वर्ष में; चक्षु:ः--चक्षु नामक धारा; प्रतीच्याम्‌ू--पश्चिम; दिशि--दिशा में;सरित्‌-पतिम्‌--सागर में; प्रविशति--प्रवेश करती है।

    गंगा नदी की चश्लु नामक धारा माल्यवान्‌ पर्वत की चोटी पर गिरती है और वहाँ से प्रपातके रूप में गिरकर केतुमाल वर्ष में प्रवेश करती है।

    अविच्छिन्न रूप से केतुमाल वर्ष से बहकरगंगा नदी पश्चिम की ओर लवण सागर तक पहुँच जाती है।

    भद्रा चोत्तरतो मेरशिरसो निपतिता गिरिशिखरादिगरिशिखरमतिहाय श्रुड्भव॒तः श्रुड्भादवस्यन्दमानाउत्तरांस्तु कुरूनभित उदीच्यां दिशि जलधिमभिप्रविशति ॥

    ८ ॥

    भद्रगा-- भद्रा नामक धारा; च-- भी; उत्तरत: --उत्तर दिशा को; मेरु-शिरस:--मेरु पर्वत की चोटी से; निपतिता--गिर कर;गिरि-शिखरात्‌--कुमुद पर्वत की चोटी से; गिरि-शिखरम्‌--नील पर्वत की चोटी तक; अतिहाय--बिना स्पर्श किये पारकरके; श्रूड़ब॒त:--श्रृंगवान्‌ पर्वत की; श्रूझ़्त्‌ू--चोटी से; अवस्यन्दमाना--प्रवाहित होकर; उत्तरान्‌ू--उत्तरी; तु--किन्तु;कुरून्‌ू-कुरु प्रदेश की; अभितः--चारों दिशाओं में; उदीच्याम्‌--उत्तरी; दिशि--दिशा में; जलधिम्‌--लवण सागर में;अभिप्रविशति--प्रवेश करती है।

    गंगा की भद्गा नामक धारा मेरु पर्वत की उत्तरी दिशा से होकर बहती है।

    इसका जलक्रमशः कुमुद, नील, श्वेत तथा श्रृंगवान्‌ पर्वतों की चोटियों पर गिरता है।

    फिर वह कुरु प्रदेश मेंसे बहती हुईं उत्तर में लवण सागर से मिल जाती है।

    तथेवालकनन्दा दक्षिणेन ब्रह्मसदनाद्वहूनि गिरिकूटान्यतिक्रम्य हेमकूटाद्वैमकूटान्यतिरभसतररंहसालुठयन्ती भारतमभिवर्ष दक्षिणस्यां दिशि जलधिमभिप्रविशति यस्यां स्नानार्थ चागच्छत: पुंसः पदेपदे श्रमेधराजसूयादीनां फल न दुर्लभमिति ॥

    ९॥

    तथा एव--इसी प्रकार; अलकनन्दा--अलकनन्दा नामक धारा; दक्षिणेन--दक्षिण दिशा से; ब्रह्म-गसदनात्‌--ब्रह्मपुरी से;बहूनि--बहुत सी; गिरि-कूटानि--पर्वत चोटियों को; अतिक्रम्य--पार करके; हेमकूटात्‌--हेमकूट पर्वत से; हैमकूटानि--तथा हिमकूट; अति-रभसतर--अधिक भयावनी; रंहसा--अधिक वेग से; लुठयन्ती--अपहरण करती हुई; भारतम्‌अभिवर्षम्‌-- भारतवर्ष के चारों ओर; दक्षिणस्थाम्‌-दक्षिण; दिशि--दिशा में; जलधिम्‌--लवण सागर में; अभिप्रविशति--प्रवेश करती है; यस्याम्‌--जिसमें; स्नान-अर्थम्‌--स्नान हेतु; च--और; आगच्छत: -- आये हुए; पुंसः--पुरुष; पदे पदे--प्रत्येक पग पर; अश्वमेध-राजसूय-आदीनाम्‌--अश्वमेध तथा राजसूय जैसे महान्‌ यज्ञों का; फलम्‌ू--फल; न--नहीं; दुर्लभम्‌--प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है; इति--ऐसा

    इसी प्रकार अलकनन्दा ब्रह्मपुरी की दक्षिण दिशा से होकर बहती है।

    विभिन्न प्रदेशों मेंपर्वतों की चोटियों को पार करती हुई यह अत्यन्त वेग से हेमकूट तथा हिमकूट पर्वतों कीचोटियों पर गिरती है।

    इन पर्वतों की चोटियों को आप्लावित करती हुई गंगा भारतवर्ष नामकभूभाग में गिरती है और उसे अपने जल से आपूरित करती चलती है।

    तत्पश्चात्‌ यह दक्षिण दिशा में लवण सागर में मिल जाती है।

    जो व्यक्ति इस नदी में स्नान करने आते हैं, वे भाग्यशाली हैं।

    उन्हें पग-पग पर राजसूय तथा अश्वमेध जैसे महान्‌ यज्ञों के करने का फल प्राप्त करना दुष्करनहीं है।

    अन्ये च नदा नद्यश्न वर्ष वर्षे सन्ति बहुशो मेवादिगिरिदुहितर: शतशः: ॥

    १०॥

    अन्ये--अन्य अनेक; च-- भी; नदाः--नदियाँ; नद्य:--छोटी नदियाँ; च--तथा; वर्षे वर्ष --प्रत्येक प्रदेश में; सन्ति-- हैं;बहुश:ः--अनेक प्रकार की; मेरु-आदि-गिरि-दुहितरः --मेरु आदि पर्वतों की पुत्रियाँ; शतश:--सैकड़ों |

    मेरु पर्वत की चोटी से अन्य अनेक छोटी तथा बड़ी नदियाँ निकलती हैं।

    ये नदियाँ पर्वतकी पुत्रियों के तुल्य हैं और वे सैकड़ों धाराओं में विभिन्न भूप्रदेशों में बहती हैं।

    तत्रापि भारतमेव वर्ष कर्मक्षेत्रमन्यान्यष्ट वर्षाणि स्वर्गिणां पुण्यशेषोषभोगस्थानानि भौमानि स्वर्गपदानिव्यपदिशन्ति, ॥

    ११॥

    तत्र अपि--इन सबों में से; भारतम्‌ू-- भारतवर्ष नाम से विख्यात; एब--निश्चय ही; वर्षम्‌-- भूखण्ड, प्रान्त; कर्म-द्षेत्रमू--कर्मक्षेत्र; अन्यानि--अन्य सभी; अष्ट वर्षाणि--आठ वर्ष ( भूखण्ड ); स्वर्गिणाम्‌--पवित्र कर्मों के फलस्वरूप स्वर्गलोक कोप्राप्त जीवात्माओं के; पुण्य--पवित्र कर्मों के फल; शेष--बचे हुए; उपभोग-स्थानानि-- भौतिक सुख के स्थान; भौमानि स्वर्ग-'पदानि-- पृथ्वी पर स्वर्गिक स्थानों के रूप में; व्यपदिशन्ति--कहलाते हैं।

    नवों वर्षो में से भारतवर्ष नामक भूभाग कर्मक्षेत्र माना जाता है।

    विद्वान तथा सन्तजनों काकथन है कि अन्य आठ वर्ष अत्यन्त पुण्यात्माओं के निमित्त हैं।

    वे स्वर्गलोक से लौटकर इन आठ भूप्रदेशों में अपने शेष पुण्यकर्मों का फल भोगते हैं।

    एषु पुरुषाणामयुतपुरुषायुर्वर्षाणां देवकल्पानां नागायुतप्राणानांवज़संहननबलवयोमोदप्रमुदितमहासौरतमिथुनव्यवायापवर्गवर्षधृतैकगर्भकलत्राणां तत्र तु त्रेतायुगसम:कालो वर्तते ॥

    १२॥

    एषु--इन आठ वर्षो में; पुरुषाणाम्‌--समस्त पुरुषों में; अयुत--दस हजार; पुरुष--व्यक्ति, पुरुष; आयु: -वर्षाणाम्‌-वेजिनकी आयु; देव-कल्पानाम्‌--जो देवताओं के सहृश हैं; नाग-अयुत-प्राणानामू--दस हजार हाथियों के बल वाले; वज्ज-संहनन--वज्ज के समान ठोस शरीर के द्वारा; बल--शारीरिक शक्ति; वयः--यौवन से; मोद-- प्रचुर इन्द्रियभोग द्वारा;प्रमुदित--उत्तेजित होकर; महा-सौरत-- अत्यधिक विषयभोग सम्बन्धी; मिथुन--पुरुष-स्त्री समागम, प्रसंग; व्यवाय-अपवर्ग --रतिजन्य सुख की अवधि के अन्त में; वर्ष--अन्तिम वर्ष में; धृत-एक-गर्भ--एक गर्भ धारण करने वाली; कलत्राणाम्‌--पत्नियों के; तत्र-- वहाँ; तु--लेकिन; त्रेता-युग-सम: --त्रेता युग ( जिसमें कोई ताप नहीं रहता ) के ही समान; काल:--समय;वर्तते--रहता है

    गणना के अनुसार इन आठ भूभागों में मानव प्राणी पृथ्वी लोक की गणना के अनुसार दसहजार वर्षो तक जीवित रहते हैं।

    इनके सभी निवासी प्रायः देवताओं के तुल्य हैं।

    उनमें दस हजारहाथियों का बल होता है।

    दरअसल, उनके शरीर वज्र की भाँति कठोर होते हैं।

    उनके जीवन कायौवनकाल अत्यन्त आनन्ददायक होता है और स्त्री तथा पुरुष दीर्घकाल तक आनन्‍्द-पूर्वकयौन-समागम करते हैं।

    वर्षो तक इन्द्रियसुख भोगने के पश्चात्‌ जब जीवन का एक वर्ष शेष रहजाता है, तो स्त्री गर्भवती होती है।

    इस प्रकार इन स्वर्गलोकों के वासी वैसा ही आनन्द उठाते हैंजैसा कि त्रेता युग के मानव प्राणी।

    यत्र ह देवपतयः स्वैः स्वैर्गणनायकैर्विहितमहाईणा:सर्वर्तुकुसुमस्तबकफलकिसलयश्रियानम्यमानविटपलताविटपिभिरुपशुम्भमानरुचिरकानना श्रमायतनव्गिरिद्रोणीषु तथा चामलजलाशयेषुविकचविविधनववनरूहामोदमुदितराजहंसजलकुक्कुटकारण्डवसारसचक्रवाकादिभिर्म धुकरनिकरा कृतिभरुपकूजितेषु जलक्रीडादिभिर्विचित्रविनोदै: सुललितसुरसुन्दरीणांकामकलिलविलासहासलीलावलोकाकृष्टमनोदृष्टय: स्वैर विहरन्ति ॥

    १३॥

    यत्र ह--उन आठों भूखण्डों में; देव-पतय:--देवताओं के स्वामी, यथा इन्द्र; स्वै: स्वैः-- अपने अपने; गण-नायकैः--सेवकोंके नेताओं द्वारा; विहित--अलंकृत; महा-अर्हणा: --मूल्यवान भेंटें यथा चन्दन तथा मालाएँ; सर्व-ऋतु--समस्त ऋतुओं में;कुसुम-स्तबक--पुष्प गुच्छ, फूलों का गुच्छा; फल--फल का; किसलय-श्रिया--कोपलों की श्री ( वैभव ); आनम्यमान--नमित; विटप--जिसकी शाखाएँ; लता--तथा बेलें; विटपिभि: --अनेक वृक्षों से; उपशुम्भभान--पूर्णतया अलंकृत; रुचिर--सुन्दर; कानन--उद्यान; आश्रम-आयतन--और अनेक आश्रमों; वर्ष-गिरि-द्रोणीषु-- भूखण्ड की सीमा के सूचक पर्वतों केबीच की घाटियाँ; तथा--और; च-- भी; अमल-जल-आशयेषु--विमल जल वाले सरोवरों में; विकच--सद्यः विकसित;विविध--अनेक प्रकार के ; नव-वनरूह-आमोद--कमल पुष्पों की सुरभि से; मुदित--प्रसन्न; राज-हंस--बड़े-बड़े हंस; जल-कुक्कुट--जल मुर्गी; कारण्डब--कारण्डव नामक जल पक्षी; सारस--सारस पक्षी; चक्रवाक-आदिभि:--चक्रवाक तथा अन्यपक्षी; मधुकर-निकर-आकृतिभि:-- भौंरों के समूह द्वारा; उपकूजितेषु--प्रतिध्वनित; जल-क्रीडा-आदिभि:--जलक़ीड़ा आदिके द्वारा; विचित्र--विविध; विनोदै:--आमोद-प्रमोद से; सु-ललित--आकर्षक; सुर-सुन्दरीणाम्‌--देवताओं की पत्नियों की;'काम--भोगेच्छा; कलिल--उत्पन्न; विलास--आमोद-प्रमोद; हास-- मुस्कान; लीला-अवलोक--बाँकी चितवन द्वारा;आकृष्ट-मन:ः--जिनके मन आदृष्ट होते रहते हैं; दृष्टय:--तथा जिनकी दृष्टि आकृष्ट हो जाती है; स्वैरम्‌--स्वेच्छापूर्वक;विहरन्ति--विहार करते हैं।

    इन भूखण्डों में से प्रत्येक में ऋतुओं के अनुसार फूलों तथा फलों से पूरित अनेक उद्यान एवंमनोहर ढंग से अलंकृत आश्रम हैं।

    इन भूखण्डों की सीमा बताने वाले विशाल पर्वतों के बीचनिर्मल जल से पूरित विशाल सरोवर हैं जिनमें कमल के नए पुष्प खिले हुए हैं।

    इन कमल पुष्पोंकी सुगन्धि से हंस, बत्तख, जलमुर्गियाँ तथा सारस जैसे जल-पक्षी अत्यन्त उत्तेजित होते हैं औरभौरों के मोहक गुंजन से वायु पूरित रहती है।

    इन भूखण्डों के निवासी देवताओं के प्रमुखनायक हैं।

    अपने सेवकों से सेवित ये लोग सरोवरों के तटवर्ती उद्यानों में जीवन का आनन्दउठाते हैं।

    ऐसे मोहक वातावरण में देवताओं की पत्लियाँ अपने पतियों से हास-परिहास करती हैंऔर उन्हें कामेच्छा से पूर्ण बाँकी चितवन से देखती हैं।

    सभी देवताओं एवं उनकी पत्नियों परउनके सेवक सदैव चन्दन तथा पुष्पमालाएँ चढ़ाते रहते हैं।

    इस प्रकार आठों स्वर्गिक वर्षों केरहने वाले लोग स्त्रियों की क्रियाओं से आकृष्ट होकर जीवन का आनन्द भोगते रहते हैं।

    नवस्वपि वर्षेषु भगवान्नारायणो महापुरुष: पुरुषाणां तदनुग्रहायात्मतत्त्वव्यूहेनात्मनाद्यापि सन्निधीयते ॥

    १४॥

    नवसु--नवों; अपि--निश्चय ही; वर्षेषु--वर्षो में; भगवान्‌-- श्री भगवान्‌; नारायण: --विष्णु; महा-पुरुष:--परम पुरुष;पुरुषाणाम्‌--विभिन्न भक्तों में; तत्‌-अनुग्रहाय-- कृपा प्रदर्शित करने के लिए; आत्म-तत्त्व-व्यूहेन--अपने चतुर्गुण रूपोंवासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्म तथा अनिरुद्ध में विस्तार करके; आत्मना--स्वयं; अद्य अपि--आज तक; सन्निधीयते--उनकी सेवास्वीकार करने के लिए भक्तों के निकट हैं।

    इन सभी नौ वर्षो में अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌, जिन्हेंनारायण कहा जाता है, अपने चतुर्व्यूह रूपों--वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्म तथा अनिरुद्ध-मेंविस्तार करते हैं।

    इस प्रकार अपने भक्तों की सेवा स्वीकार करने के लिए वे उनके निकट रहतेहैं।

    इलावूते तु भगवान्भव एक एव पुमान्न हान्यस्तत्रापरो निर्विशति भवान्या: शापनिमित्तज्ञो यत्प्रवेक्ष्यतःस्त्रीभावस्तत्पश्चाद्॒क्ष्यामि ॥

    १५॥

    इलावृते--इलावृत-वर्ष में; तु--लेकिन; भगवान्‌--सर्वशक्तिमान; भव:--भगवान्‌ शिव; एक--एकमात्र; एव--निश्चय ही;पुमानू--पुरुष; न--नहीं; हि-- अवश्य ही; अन्य: --दूसरा कोई; तत्र--वहाँ; अपर: --के अतिरिक्त; निर्विशति--प्रवेश करताहै; भवान्या: शाप-निमित्त-ज्ञ:--शिव की पत्नी भवानी के शाप का कारण जानने वाला; यत्-प्रवेक्ष्यत:--बलपूर्वक उस प्रदेशमें प्रवेश करने वाले का; स्त्री-भाव:--स्त्री में परिवर्तन; तत्‌ू--वह; पश्चात्‌--बाद में; वक्ष्यामि--मैं व्याख्या करूँगा।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--इलाबृत वर्ष नामक भूखण्ड में भगवान्‌ शिव ही एकमात्रपुरुष हैं जो देवताओं में सर्वाधिक शक्तिमान है।

    भगवान्‌ शिव की पत्नी देवी दुर्गा नहीं चाहतींकि उस प्रदेश में कोई भी पुरुष प्रवेश करे।

    यदि कोई मूर्ख पुरुष प्रवेश करने का दुस्साहसकरता है, तो वे उसे तत्क्षण स्त्री में परिणत कर देती हैं।

    इसकी व्याख्या मै बाद में ( नवम स्कन्धमें ) करूँगा।

    भवानीनाथे: स्त्रीगणार्बुदसहस्त्रैरवरु ध्यमानो भगवतश्चतुर्मूर्तमहापुरुषस्य तुरीयां तामसीं मूर्तिप्रकृतिमात्मनः सड्डूर्षणसंज्ञामात्मसमाधिरूपेण सन्निधाप्यैतदभिगृणन्भव उपधावति ॥

    १६॥

    भवानी-नाथै: -- भवानी के संग से; स्त्री-गण--स्त्रियों का; अर्बुद-सहस्त्र:--सौ अरब; अवरुध्यमान:--सदैव सेवित होकर;भगवतः चतुः-मूर्ते: --चतुर्गुण रूप में विस्तारित श्रीभगवान्‌; महा-पुरुषस्थ--परम पुरुष का; तुरीयाम्‌--चतुर्थ विस्तार;तामसीम्‌--तमोगुण से सम्बद्ध; मूर्तिमू--रूप; प्रकृतिम्‌ू--स्त्रोत स्वरूपा; आत्मन:--स्वयं ( भगवान्‌ शिव ) का; सड्डूर्षण-संज्ञामू--संकर्षण नाम से विख्यात; आत्म-समाधि-रूपेण--समाधि में स्वयं के ध्यान के द्वारा; सन्निधाप्य--निकट लाकर;एतत्‌--यह; अभिगृणन्‌--स्पष्ट रूप से कीर्तन करके; भवः--भगवान्‌ शिव; उपधावति--पूजा करता है।

    इलावृत्त वर्ष में भगवान्‌ शंकर सदैव दुर्गा की सौ अरब दासियों से घिरे रहते है जो उनकीसेवा करती हैं।

    परमात्मा का चतुर्गुण विस्तार वासुदेव, प्रद्युम्म, अनिरुद्ध तथा संकर्षण में हुआहै।

    इनमें चतुर्थ विस्तार संकर्षण है जो निश्चित रूप से दिव्य है, किन्तु भौतिक जगत में उनकासंहार-कार्य तमोगुणमय है, अतः वे तामसी अर्थात्‌ तमोगुणी-ईश्वर कहलाते हैं।

    भगवान्‌ शिवको ज्ञात है कि संकर्षण उनके अपने अस्तित्व के मूल कारण हैं, अतः वे समाधि में निम्नलिखित मंत्र का जप करते हुए उनका ध्यान करते हैं।

    श्रीभगवानुवाच» नमो भगवते महापुरुषाय सर्वगुणसड्ख्यानायानन्तायाव्यक्ताय नम इति, ॥

    १७॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ शंकर कहते हैं; ७ नमो भगवते-- भगवान्‌ को मैं आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ; महा-पुरुषाय--आप महापुरुष है; सर्व-गुण-सड्ख्यानाय--समस्त दिव्य गुणों के आगार; अनन्ताय--अपरिमित; अव्यक्ताय--भौतिक जगत मेंन प्रगट होने वाले; नमः-- प्रणाम करता हूँ; इति--इस प्रकार

    परम शक्तिमान भगवान्‌ शिव कहते हैं--हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌, मैं संकर्षण के रूप मेंआपको प्रणाम करता हूँ।

    आप समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं।

    अनन्त होकर भी आप अभक्तोंके लिए अप्रकट रहते हैं।

    भजे भजन्यारणपादपड्डूजंभगस्य कृत्स्नस्य परं परायणम्‌ ।

    भक्तेष्वलं भावितभूतभावनंभवापहं त्वा भवभावमीश्चरम्‌ ॥

    १८ ॥

    भजे--मैं पूजा करता हूँ; भजन्य--हे आराध्य स्वामी; अरण-पाद-पड्डजम्‌--जिसके चरणकमल भक्तों के सभी प्रकार के भयोंसे रक्षा करते हैं; भगस्य--ऐश्यर्व का; कृत्स्तस्य--विभिन्न प्रकार के ( धन, यश, बल, ज्ञान, रूप तथा त्याग ); परम्‌- श्रेष्ठ;परायणम्‌--परम शरण; भक्तेषु-- भक्तों के लिए; अलम्‌--अनुमान से परे; भावित- भूत-भावनम्‌--भक्तों के परितोष के लिएअपने विभिन्न रूपों को प्रकट करने वाला; भव-अपहम्‌-- भक्त के जन्म-मरण चक्र को रोकने वाले; त्वा-- आपको; भव-भावम्‌-- भौतिक सृष्टि का मूल; ईंश्वरम्‌-- भगवान्‌ को |

    हे प्रभो, आप ही एकमात्र आराध्य हैं, क्योंकि आप ही समस्त ऐश्वर्यों के आगार पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं।

    आपके चरण-कमल भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं।

    आप भक्तों को अपने नाना रूपों द्वारा सन्तुष्ट करने वाले हैं।

    हे प्रभो, आप अपने भक्तों को भौतिक संसार के चंगुल सेछुड़ाने वाले हैं।

    आपकी इच्छा से ही अभक्त लोग इस भौतिक संसार में उलझे रहते हैं।

    कृपयामुझे अपने नित्य दास के रूप में स्वीकार करें।

    न यस्य मायागुणचित्तवृत्तिभि-निरीक्षतो हाण्वपि दृष्टिरज्यते ।

    ईशे यथा नोजितमन्युरंहसांकस्तं न मन्येत जिगीषुरात्मतः ॥

    १९॥

    न--कभी नहीं; यस्य--जिसकी; माया--माया शक्ति, माया; गुण--गुणों में; चित्त--हृदय की; वृत्तिभि:ः--क्रियाओं के द्वारा( चिन्तन, अनुभव तथा इच्छा ); निरीक्षतः--निरीक्षण करने वाले का; हि--निश्चय ही; अणु--कुछ-कुछ; अपि--भी; दृष्टि:--दृष्टि; अज्यते-- प्रभावित होती है; ईशे--नियमन हेतु; यथा--जिस प्रकार; न:--हम लोगों का; अजित--जो जीता न जा सके;मन्यु--क्रोध के; रंहसाम्‌ू--वेग को; क:ः--कौन; तम्‌--उस ( ईश्वर ) को; न--नहीं; मन्येत-- पूजा करेगा; जिगीषु:--जीतनेकी कामना करने वाला; आत्मन:--इन्द्रियों को

    असहूशो यः प्रतिभाति माययाक्षीबेव मध्वासवताप्रलोचन: ।

    न नागवध्वोहण ईशिरे हिया यत्पादयो: स्पर्शनधर्पितेन्द्रिया: ॥

    २०॥

    असतू-हृशः--कुत्सित दृष्टि वाले व्यक्ति के हेतु; यः--जो; प्रतिभाति--प्रतीत होता है; मायया--माया के वश में; क्षीब:--क्रुद्ध; इब--सहश; मधु--शहद; आसव--तथा सुरा द्वारा; ताम्र-लोचन:--ताँबे के समान रक्तनेत्र वाला; न--नहीं; नाग-वध्व:--नागों की स्त्रियाँ; अहणे--पूजन; ईशिरे--करने में अशक्त; हिया--लज्जावश; यत्‌-पादयो:--जिसके चरणकमल के;स्पर्शन--स्पर्श से; धर्षित--उत्तेजित; इन्द्रिया:--जिसकी इन्द्रियाँ ॥

    कुत्सित दृष्लिल्लाले व्यक्तियों के लिए भगवान्‌ के नेत्र मदिरा पीये हुए उन्मत्त पुरुष जैसे हैं।

    ऐसे अविवेकी पुरुष भगवान्‌ पर रुष्ट होते हैं और अपने रोषवश उन्हें श्रीभगवान्‌ अत्यन्त रुष्ट एवंभयावह लगते हैं।

    किन्तु यह माया है।

    जब भगवान्‌ के चरणकमलों के स्पर्श से नाग-वधुएँउत्तेजित हुईं तो वे लजावश उनकी और अधिक आराधनहिनफिर भी भगवान्‌ उनकेस्पर्श से उत्तेजित नहीं हुए, क्योंकि समस्त परिस्थितियों में वे धीर बने रहते हैं।

    अतः ऐसा कौनहोगा जो भगवान्‌ की आराधना करना नहीं चाहेगा ?

    यमाहुरस्य स्थितिजन्मसंयमंत्रिभिविहीनं यमनन्तमृषय: ।

    न वेद सिद्धार्थमिव क्वचित्स्थितंभूमण्डलं मूर्थसहस्त्रधामसु ॥

    २१॥

    यम्‌--जिसको; आहुः--उन्होंने कहा; अस्य--इस भौतिक जगत की; स्थिति--पोषण; जन्म--सृष्टि; संयमम्‌--संहार;त्रिभि:--इन तीनों; विहीनम्‌--से रहित; यम्‌--जो; अनन्तमू-- अनन्त, असीम्‌; ऋषय: --समस्त महान्‌ ऋषि; न--नहीं; वेद--अनुभव करते हैं; सिद्ध-अर्थम्‌--सरसों का बीज; इब--के समान; क्वचित्‌--जहाँ; स्थितम्‌--स्थित; भू-मण्डलम्‌--यहब्रह्माण्ड; मूर्थ-सहस्त्र-धामसु-- भगवान्‌ के सैकड़ों हजारों फणों पर।

    शिवजी कहते हैं--सभी महान्‌ ऋषि भगवान्‌ को सृजक, पालक और संहारक के रूप मेंस्वीकार करते हैं, यद्यपि वास्तव में उनका इन कार्यों से कोई सरोकार नहीं है।

    इसीलिएश्रीभगवान्‌ को अनन्त कहा गया है।

    यद्यपि शेष अवतार के रूप में वे अपने फणों पर समस्तब्रह्माण्डों को धारण करते हैं, किन्तु प्रत्येक ब्रह्माण्ड उन्हें सरसों के बीज से अधिक भारी नहींलगता।

    अतः सिद्धि का इच्छुक ऐसा कौन पुरुष होगा जो ईश्वर की आराधना नहीं करेगा ?

    यस्याद्य आसीदगुणविग्रहो महान्‌विज्ञानधिष्ण्यो भगवानज: किल यत्सम्भवोउहं त्रिवृता स्वतेजसावैकारिकं तामसमैन्द्रियं सूजे ॥

    २२॥

    एते बय॑ यस्य वशे महात्मन:स्थिता: शकुन्ता इव सूत्रयन्त्रिता: ।

    महानहं वैकृततामसेन्द्रिया:सृजाम सर्वे यदनुग्रहादिदम्‌ ॥

    २३॥

    यस्य--जिससे; आद्य:--आरम्भ; आसीतू-- था; गुण-विग्रह: --गुणों का अवतार; महान्‌--सम्पूर्ण माया; विज्ञान--सम्पूर्णज्ञान का; धिष्ण्य:--आगार; भगवान्‌--सर्व-शक्तिमान; अज: -- भगवान्‌ ब्रह्मा; किल--निश्चय ही; यत्‌--जिससे; सम्भव: --उत्पन्न, सम्भूत; अहम्‌--मैं; त्रि-वृता--तीन गुणों के अनुसार तीन प्रकार का; स्व-तेजसा--अपनी शक्ति से; वैकारिकम्‌--सभीदेवता; तामसम्‌-- भौतिक तत्त्व; ऐन्द्रियम्‌--इन्द्रियाँ; सृजे--उत्पन्न करता हूँ; एते--इन सबों को; वयम्‌--हम; यस्य--जिसके;वशे--वश में; महा-आत्मन:--महान्‌ पुरुष; स्थिता:--स्थित; शकुन्ता: --गृद्ध; इब--सहृश; सूत्र-यन्त्रिता:--सूत्र ( डोरी ) के द्वारा बद्ध; महान्‌ू--महत्तत्व; अहम्‌-मैं; वैकृत--देवतागण; तामस--पाँच तत्त्व; इन्द्रिया:--इन्द्रियाँ; सृजाम: --हम सृष्टि करतेहैं; सर्वे--हम सभी; यत्‌--जिसकी; अनुग्रहात्‌--कृपा से; इदम्‌--यह भौतिक जगत।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से ही ब्रह्माजी प्रकट होते हैं, जिनका शरीर महत्‌ तत्त्व से निर्मित हैऔर वह भौतिक प्रकृति के रजोगुण द्वारा प्रभावित बुद्धि का आगार है।

    ब्रह्माजी से मैं स्वयंमिथ्या अहंकार रूप में, जिसे रुद्र कहते हैं, उत्पन्न होता हूँ।

    मैं अपनी शक्ति से अन्य समस्तदेवताओं, पंच तत्त्वों तथा इन्द्रियों को जन्म देता हूँ।

    अतः मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कीआराधना करता हूँ।

    वे हम सबों से श्रेष्ठ हैं और सभी देवता, महत्‌ तत्त्व तथा इन्द्रियाँ, यहाँ तककि ब्रह्माजी और स्वयं मैं उनके वश में वैसे ही हैं जिस प्रकार कि डोरी से बँधे पक्षी ।

    केवल उन्हींके अनुग्रह से हम इस जगत का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं।

    अतः मैं परमब्रह्म को सादरप्रणाम करता हूँ।

    यन्निर्मितां कह्ापि कर्मपर्वणींमायां जनोयं गुणसर्गमोहितः ।

    न वेद निस्तारणयोगमञ्जसातस्मै नमस्ते विलयोदयात्मने ॥

    २४॥

    यत्‌--जिससे; निर्मितामू--निर्मित; कि अपि--किसी भी समय; कर्म-पर्वणीम्‌--कर्मों की गाँठ को बाँधने वाली; मायाम्‌--माया को; जनः--व्यक्ति; अयम्‌--यह; गुण-सर्ग-मोहितः--तीन प्रकार के गुणों से मोहित; न--नहीं; वेद--जानता है; निस्तारण-योगम्‌--सांसारिक बन्धन से छूटने की विधि; अज्ञसा--शीघ्र; तस्मै-- उसको; नमः--नमस्कार है; ते--तुम्हें;विलय-उदय-आत्मने--जिसमें प्रत्येक वस्तु विलय होकर पुनः उसी से उत्पन्न होती है।

    श्रीभगवान्‌ की माया हम समस्त बद्ध जीवात्माओं को इस भौतिक जगत से बाँधती है, अतःउनकी कृपा के बिना हम जैसे तुच्छ प्राणी माया से छूटने की विधि नहीं समझ पाते।

    मैं उनश्रीभगवान्‌ को सादर नमस्कार करता हूँ, जो इस जगत की उत्पत्ति और लय के कारणस्वरूप हैं।

    TO

    अध्याय अठारह: जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान को की गई प्रार्थनाएँ

    5.18श्रीशुक उवाचतथा च भद्गभ्रवा नाम धर्मसुतस्तत्कुलपतय: पुरुषा भद्राश्ववर्षे साक्षाद्धगवतो वासुदेवस्य प्रियां तनुंधर्ममयीं हयशीर्षाभिधानां परमेण समाधिना सन्निधाप्येदमभिगृणन्त उपधावन्ति ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी बोले; तथा च--इसी प्रकार ( जिस प्रकार इलाबृत-बर्ष में शिवजी संकर्षण की पूजा करतेहैं ); भद्र-श्रवा-- भद्र भ्रवा; नाम-- नामक ; धर्म-सुत:--धर्मराज के पुत्र; ततू--उससे; कुल-पतय: -- कुल के मुखिया;पुरुषा:--समस्त वासी; भद्गाश्व-वर्षे -- भद्रा श्रवर्ष नामक भूखण्ड में; साक्षात्‌--प्रकट रूप में, स्वयं; भगवतः -- श्रीभगवान्‌;वासुदेवस्य--वासुदेव का; प्रियाम्‌ तनुम्‌--अत्यन्त प्रिय रूप; धर्म-मयीम्‌--समस्त धार्मिक नियमों का निदेशक; हयशीर्ष-अभिधानाम्‌--हयशीर्ष ( हयग्रीव भी कहा जाता है ) नामक भगवान्‌ के अवतार; परमेण समाधिना--परम समाधि द्वारा;सन्निधाप्य--समीप आकर; इृदम्‌--यह; अभिगृणन्त:--कीर्तन करते हुए; उपधावन्ति--पूजा करते हैं।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले--धर्मराज के पुत्र भद्रश्रवा भद्राश्चवर्ष नामक भूखण्ड में राज्यकरते हैं।

    जिस प्रकार इलावृतवर्ष में भगवान्‌ शिव संकर्षण की पूजा करते हैं उसी प्रकारभद्रश्रवा अपने सेवकों तथा राज्य के समस्त वासियों समेत वासुदेव के स्वांश हयशीर्ष की पूजाकरते हैं।

    हयशीर्ष भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं और वे समस्त धार्मिक विधानों के निदेशक हैं।

    गहनसमाधि में स्थित भद्र॒श्रवा तथा उनके सेवक भगवान्‌ को सादर नमस्कार करते हैं और सावधानीपूर्वक उच्चारण करते हुए निम्नलिखित स्तुतियों का कीर्तन करते हैं।

    भद्रभ्रवस ऊचुः नमो भगवते धर्मायात्मविशोधनाय नम इति ॥

    २॥

    भद्र॒भ्रवसः ऊचु:--शासक भद्ग॒श्रवा तथा उसके पार्षद बोले; ओम्‌--हे ईश्वर; नम:--सादर नमस्कार है; भगवते-- श्रीभगवान्‌को; धर्माय--समस्त धार्मिक विधानों के स्त्रोत; आत्म-विशोधनाय-- भौतिक दूषण से शुद्ध करने वाले को; नम:--नमस्कारकरते हैं; इति--इस प्रकार

    राजा भद्रश्रवा तथा उसके घनिष्ठ सेवक इस प्रकार स्तुति करते हैं--इस भौतिक जगत मेंबद्धजीव के चित्त को शुद्ध करने वाले, समस्त धार्मिक विधानों के आगार भगवान्‌ को हमारानमस्कार है।

    हम उन्हें बारम्बार सादर नमस्कार करते हैं।

    अहो विचित्र भगवद्विचेष्टितंघ्नन्तं जनोयं हि मिषन्न पश्यति ।

    ध्यायन्नसद्य्हिं विकर्म सेवितुंनित्य पुत्रं पितरं जिजीविषति ॥

    ३॥

    अहो--ेरे; विचित्रम्‌ू--आश्चर्यजनक; भगवत्ू-विचेष्टितम्‌-- भगवान्‌ की लीला; घ्लन्तम्‌--मृत्यु; जन:--व्यक्ति; अयम्‌ू--यह;हि--निश्चय ही; मिषन्‌--देखकर भी; न पश्यति--नहीं देखता; ध्यायन्‌--ध्यान करते हुए; असत्‌-- भौतिक सुख; यहिं--क्योंकि; विकर्म--वर्जित कार्य; सेवितुमू--उपभोग करते हुए; निईत्य--जलाकर; पुत्रमू-पुत्रों का; पितरम्‌-पिता को;जिजीविषति--दीर्घायु की इच्छा करता है।

    अहो! कितने आश्चर्य की बात है कि मूर्ख संसारी अपने सिर पर नाचती मृत्यु की ओर भीध्यान नहीं देता।

    यह जानते हुए भी कि मृत्यु अटल है, वह उसके प्रति उदासीन एवं लापरवाहरहता है।

    चाहे उसके पिता की मृत्यु हो, अथवा पुत्र की मृत्यु क्यों न हो, वह उसकी सम्पत्ति काउपभोग करना चाहता है।

    प्रत्येक दशा में वह अर्जित धन से किसी की परवाह किये बिनासांसारिक सुख का उपभोग करने का प्रयत्त करता है।

    वदन्ति विश्व कवयः सम नश्वरं'पश्यन्ति चाध्यात्मविदो विपश्चितः ।

    तथापि मुहान्ति तवाज माययासुविस्मितं कृत्यमजं नतोस्मि तम्‌ ॥

    ४॥

    वदन्ति--वे साधिकार कहते हैं; विश्वम्‌ू--समस्त भौतिक सृष्टि को; कवय:--विद्वान सन्त; स्म--निश्चय ही; नश्वरम्‌--नश्वर,विनाशशील; पश्यन्ति-- समाधि में देखते हैं; च-- भी; अध्यात्म-विदः--आत्मज्ञानी; विपश्चित:--अत्यन्त ज्ञानीजन; तथा अपि--तिस पर भी; मुहान्ति--मोहित हो जाते हैं; तब--आपके; अज--हे अजन्मा; मायया--माया के द्वारा; सु-विस्मितमू--अत्यन्त विचित्र; कृत्यमू--कार्य; अजमू--परम अजन्मा को; नतः अस्मि--मैं नमस्कार करता हूँ; तम्‌ू--उसको है अजन्मा

    आत्मज्ञान में समुन्नत वेदविद्‌ अन्य तार्किकों तथा दार्शनिकों की तरह यहभलीभाँति जानते हैं कि यह भौतिक जगत नश्वर है।

    वे समाधि की दशा में इस जगत कीवास्तविक स्थिति का अनुभव करते हैं।

    वे सत्य का भी उपदेश देते हैं।

    किन्तु कभी-कभी वे भीआपकी माया से मोहित हो जाते हैं।

    यह आपकी अपनी ही विचित्र लीला है, अतः मैं समझसकता हूँ कि आपकी माया अत्यन्त विचित्र है।

    मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    विश्वोद्धवस्थाननिरोधकर्म तेहाकर्तुरड़्ीकृतमप्यपावृतः ।

    युक्त न चित्र॑ त्वयि कार्यकारणेसर्वात्मनि व्यतिरिक्ते च वस्तुतः ॥

    ५॥

    विश्व--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की; उद्धव--उत्पत्ति का; स्थान--स्थिति या पालन का; निरोध--लय का; कर्म--ये कर्म; ते--आपके ( हे ईश्वर ); हि--ही; अकर्तु:--पृथक्‌, विलग; अड्रीकृतम्‌--वैदिक शास्त्रों द्वारा अब भी मान्य; अपि--यद्यपि;अपाबृतः--इन समस्त कर्मों से अछूता; युक्तम्‌ू--अनुकूल, योग्य; न--नहीं; चित्रमू--विचित्र; त्वयि--आप में; कार्य-कारणे--समस्त कार्यों का मूल कारण; सर्व-आत्मनि--सभी प्रकार से; व्यतिरिक्ते--विलग; च--भी; वस्तुतः--मूल वस्तु ।

    हे भगवन्‌, यद्यपि आप इस भौतिक जगत की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय से सर्वथा विरत हैंऔर इन कार्यों से आप प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं होते, तो भी वे आपके द्वारा किये गये मानेजाते हैं।

    हमें इस पर विस्मय नहीं होता, क्योंकि सर्वात्मरूप होने से आप समस्त कारणों केकारण हैं।

    आप प्रत्येक वस्तु से विलग रहते हुए भी प्रत्येक वस्तु के सक्रिय तत्त्व हैं।

    इस प्रकारहम अनुभव करते हैं कि आपकी अचिन्त्य शक्ति के कारण ही प्रत्येक घटना घटती है।

    वेदान्युगान्ते तमसा तिरस्कृतान्‌रसातलाद्यो नृतुरड्रविग्रह: ।

    प्रत्याददे वै कवयेभियाचतेतस्मै नमस्तेडवितथेहिताय इति ॥

    ६॥

    वेदान्‌ू--चारों वेदों को; युग-अन्ते--कल्प के अन्त में; तमसा--साक्षात्‌ अज्ञानरूपी दैत्यों द्वारा; तिरस्कृतान्‌ू--चुराये जाकर;रसातलातू--रसातल ( निम्नतम लोक ) से; यः--जो ( श्रीभगवान्‌ ); नू-तुरड्ग-विग्रह:--आधा घोड़ा तथा आधा मनुष्य का रूपधारण कर; प्रत्याददे--लौटा दिया; बै--निश्चय ही; कवये--परम कवि ( भगवान्‌ ब्रह्मा ) को; अभिया-चते--उनके माँगने पर;तस्मै--उनको ( हयग्रीव रूप ); नम:--मेरा नमस्कार है; ते--आपको; अवितथ-ईहिताय--जिसका संकल्प विफल नहीं होता;इति--इस प्रकार।

    कल्प के अन्त में साक्षात्‌ अज्ञान एक दैत्य का रूप धारण कर सभी वेदों को चुरा कर उन्हेंरसातल ले गया।

    किन्तु श्रीभगवान्‌ ने हयग्रीव का रूप धारण करके वेदों को पुनः प्राप्त कियाऔर ब्रह्माजी के विनय करने पर उन्हें लाकर दे दिया।

    हे सत्यसंकल्प पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    हरिवर्षे चापि भगवान्नरहरिरूपेणास्ते; तद्गूपग्रहणनिमित्तमुत्तरत्राभिधास्ये; तदयितं रूप॑महापुरुषगुणभाजनो महाभागवतो दैत्यदानवकुलतीर्थीकरणशीलाचरितःप्रह्मदोव्यवधानानन्यभक्तियोगेन सह तह्टर्षपुरुषैरुपास्ते इदं चोदाहरति ॥

    ७॥

    हरि-वर्षे--हरिवर्ष नामक भूभाग में; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; नर-हरि-रूपेण--नृसिंह देव के रूपमें; आस्ते--अवस्थित है; तत्‌-रूप-ग्रहण-निमित्तम्‌-- श्रीकृष्ण ( केशव ) ने नूसिंह रूप जिस कारण धारण किया; उत्तरत्र--अगले अध्यायों में; अभिधास्ये--मैं वर्णन करूँगा; तत्‌--वह; दबितम्‌--अत्यन्त प्रिय; रूपमू--रूप; महा-पुरुष-गुण-भाजनः--प्रह्मद महाराज, जो महापुरुषोचित गुणों के आगार हैं; महा-भागवतः --सर्व श्रेष्ठ भक्त; दैत्य-दानव-कुल-तीर्थी -करण-शीला-चरित:ः--उनके कर्म तथा चरित्र इतने पवित्र थे कि अपने कुल में उत्पन्न समस्त दैत्यों का मोक्ष करा दिया;प्रह्मादः--महाराज प्रह्माद; अव्यवधान-अनन्य-भक्ति-योगेन--अविच्छिन्न एवं अनन्य भक्ति के द्वारा; सह--सहित; तत्‌-वर्ष-पुरुषैः--हरिवर्ष के निवासियों के ; उपास्ते--नमस्कार एवं पूजन करता है; इृदम्‌--यह; च--और; उदाहरति--जप करता है।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं--हे राजन्‌ू, भगवान्‌ नृसिंह हरिवर्ष नामक भूभाग मेंवास करते हैं।

    मैं श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कंध में आपको बताऊँगा कि प्रह्माद महाराज ने किसप्रकार श्रीभगवान्‌ को नृसिंह देव रूप धारण करने के लिए बाध्य किया।

    प्रह्नाद महाराजभगवदू-भक्तों में शिरोमणि हैं और महापुरुषों के अनुरुप समस्त उत्तम गुणों के आगार हैं।

    उनकेचरित्र और कर्म से उनके दैत्य वंश के समस्त पतित जनों का उद्धार हुआ है।

    उन्हें भगवान्‌ नूसिंहदेव परम प्रिय हैं।

    इस प्रकार प्रहाद महाराज अपने समस्त सेवकों तथा हरिवर्ष के समस्त वासियोंसहित भगवान्‌ नृसिंह देव की पूजा निम्नलिखित मंत्रोच्चार द्वारा करते हैं।

    नमो भगवते नरसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे आविराविर्भव वज्नख वच्धदंष्ट कर्माशयात्रन्धय रन्धय तमोग्रस ग्रस ३७ स्वाहा; अभयमभयमात्मनि भूयिष्ठा ३» करौम्‌, ॥

    ८॥

    &--हे ईश्वर; नम: --सादर नमस्कार; भगवते-- भगवान्‌ को; नर-सिंहाय--नृसिंह नाम से विख्यात; नम:ः--नमस्कार है; तेज:-तेजसे--समस्त तेजों के तेज; आवि:-आविर्भव--कृपया पूर्णरूप से प्रकट करें; वज़ञ-नख--वज्ज के समान नखों वाले; वज्ञ-दंध्र--वज़ के समान दाँतों वाले; कर्म-आशयान्‌-- भौतिक कर्म के द्वारा सुखी रहने की आसुरी इच्छाएँ; रन्धय रन्धय--कृपयापरास्त करें; तम:ः--अज्ञान; ग्रस--दूर करें; ग्रस--दूर करें; ०--हे ईश्वर; स्वाहा--सादर आहुति; अभयमू--निर्भीकता;अभय निरभीकता आत्मनि--मेरे मन में; भूयिष्ठा:--आप प्रकट हों; ३०--हे ईश; क्षमू-- भगवान्‌ नृसिंह की स्तुतियों का

    हु समस्त तेज के स्त्रोत भगवान्‌ नृसिंहदेव, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    हे वज़ के समाननख तथा दांतों वाले प्रभु! आप इस भौतिक जगत में हमारी आसुरी सकाम कर्म-वासनाओं कोमिटा दें।

    हमारे हृदय में प्रकट होकर हमारे अज्ञान को भगा दें, जिससे इस भौतिक जगत में हमनिडर होकर जीवन के लिए संघर्ष कर सकें।

    स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खल: प्रसीदतांध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया ।

    मनश्च भद्गं भजतादधो क्षजेआवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी ॥

    ९॥

    स्वस्ति--कल्याण, मंगल; अस्तु--हो; विश्वस्थ--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का; खलः--ईर्ष्यालु ( लगभग सभी ); प्रसीदताम्‌--प्रसन्नहों; ध्यायन्तु--विचार करें; भूतानि-- सभी जीवात्माएँ; शिवम्‌--मंगल; मिथ: -- परस्पर; धिया-- अपनी बुद्धि से; मन:--मन;च--और; भद्रमू--शान्ति; भजतात्‌--अनुभव होने दें; अधोक्षजे--मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा अगम्य भगवान्‌ में;आवेश्यताम्‌--ध्यानमग्न हों; न:ः--हमारी; मतिः--बुद्धि; अपि--निस्सन्देह; अहैतुकी --बिना किसी हेतु के

    इस सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो और सभी इर्ष्यालु व्यक्ति शान्त हों, सभी जीवात्माएँभक्तियोग का अभ्यास करके प्रशान्त हों, क्योंकि भक्ति करने पर वे एक दूसरे का कल्याण-चिन्तन कर सकेंगे।

    अतः हम सभी भगवान्‌ श्रीकृष्ण की परम भक्ति में लगकर उन्हीं के विचारमें मग्न रहें।

    मागारदारात्मजवित्तबन्धुषुसड् यदि स्याद्धगवत्प्रियेषु न: ।

    यः प्राणवृत्त्या परितुष्ट आत्मवान्‌सिद्धबत्यदूरात्र तथेन्द्रियप्रियः ॥

    १० ॥

    मा--नहीं; अगार--घर; दार--पतली; आत्म-ज--सन्तान; वित्त--धन; बन्धुषु--मित्रों एवं सम्बंधियों के मध्य; सड्र:--साथ,लगाव; यदि--यदि; स्थात्‌ू--होना चाहिए; भगवत्-प्रियेषु-- श्रीभगवान्‌ के अत्यन्त प्रिय व्यक्तियों में; नः--हम लोगों में से;यः--जो कोई; प्राण-वृत््या--जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं से; परितुष्ट:--सन्तुष्ट; आत्म-वान्‌--जिसने अपने मन को वशमें कर लिया है और अपने आपको जान लिया ( आतज्ञान ) है; सिद्धयति--सफल होता है; अदूरात्‌ू--शीघ्र ही; न--नहीं;तथा--तथा; इन्द्रिय-प्रिय:--इन्द्रियतुष्टि में लीन व्यक्ति

    हे भगवन्‌, हमारी प्रार्थना है कि हम पारिवारिक जीवन के बन्धन जिसमें घर, स्त्री, सन्‍्तान,मित्र, धन तथा सम्बन्धीजन इत्यादि सम्मिलित हैं, इसके प्रति कभी भी आकृष्ट न हों।

    यदि हम मेंकिसी से किंचित आसक्ति हो भी तो वह भक्तों से हो जिनके लिए श्रीकृष्ण ही परम प्रिय हैं।

    जिस व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार हो चुका है और जिसने अपने मन को वश में कर लिया है,वह जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं से तुष्ट रहता है।

    वह अपनी इन्द्रियतुष्टि का प्रयास नहींकरता।

    ऐसा व्यक्ति जल्दी ही कृष्णभावनामृत की ओर अग्रसर होता है, किन्तु जो भौतिकवस्तुओं में अत्यधिक लिप्त रहते हैं, उनके लिए ऐसा कर पाना कठिन है।

    यत्सड्ुलब्धं निजवीर्यवैभवंतीर्थ मुहुः संस्पृश॒तां हि मानसम्‌ ।

    हरत्यजो उन्‍्तः श्रुतिभिर्गतोड्रजंको बैन सेवेत मुकुन्दविक्रमम्‌ ॥

    ११॥

    यत्‌--जिनके ( भक्तों के ); सड्र-लब्धमू--संग से उपलब्ध; निज-वीर्य-वैभवम्‌--जिसका प्रभाव असामान्य है; तीर्थम्‌--तीर्थस्थल, यथा गंगा नदी; मुहुः--बारम्बार; संस्पृशताम्‌--उन स्परशों का; हि--निश्चयपूर्वक; मानसम्‌--मन के मल; हरति--हर लेती है; अज: --अजन्मा; अन्त: --अन्तःकरण में; श्रुतिभि:--कानों से; गत:--प्रविष्ट; अड़-जम्‌--शरीर के मल यासंदूषण; कः--कौन; बै--निस्सन्देह; न--नहीं; सेवेत--सेवा करेगा; मुकुन्द-विक्रमम्‌-- भगवान्‌ मुकुन्द के यशस्वी कार्योंकी

    ऐसे व्यक्तियों की संगति करने से, जिनके लिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ मुकुन्द ही सब कुछहैं, भगवान्‌ के यशस्वी कार्यों को सुनकर शीघ्र ही समझ सकता है।

    मुकुन्द के यशस्वी कार्यइतने सक्षम हैं कि इनको सुनकर ही भगवान्‌ की संगति प्राप्त की जा सकती है।

    निरन्तरउत्सुकतापूर्वक भगवान्‌ के यशस्वी कार्यो का वर्णन सुनते रहने से परम सत्य श्रीभगवान्‌ ध्वनितरंगों के रूप में हृदय में प्रवेश करते हैं और समस्त कल्मष को दूर कर देते हैं।

    दूसरी ओर यद्यपिगंगास्नान से मल तथा संदूषण घटते हैं, किन्तु स्नान तथा पवित्र स्थानों के दर्शन से दीर्घकाल केअनन्तर ही हृदय स्वच्छ हो पाता है।

    अतः कौन ऐसा विज्ञपुरुष होगा जो जीवन की सिद्धि केलिए भक्तों की संगति नहीं करना चाहेगा ?

    यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्ञनासर्वर्गुणैस्तत्र समासते सुरा: ।

    हरावभक्तस्य कुतो महदगुणामनोरथेनासति धावतो बहिः ॥

    १२॥

    यस्य--जिसकी; अस्ति--है; भक्ति: -- भक्ति; भगवति-- श्रीभगवान्‌ के प्रति; अकिज्ञना--निष्काम; सर्वे: --समस्त; गुणैः --उत्तम गुणों के द्वारा; तत्र--वहाँ ( उस व्यक्ति में )) समासते--निवास करते हैं; सुराः:--समस्त देवता; हरौ-- भगवान्‌ में;अभक्तस्य--अभक्त का; कुतः--कहाँ; महत्‌-गुणा: --उत्तम गुण; मनोरथेन--मानसिक चिन्तन द्वारा; असति--नश्वर भौतिकजगत में; धावतः--दौड़ता हुआ; बहि:--बाहर।

    जो व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव के प्रति शुद्ध भक्ति उत्पन्न कर लेता है उसकेशरीर में सभी देवता तथा उनके महान्‌ गुण यथा धर्म, ज्ञान तथा त्याग प्रकट होते हैं।

    इसकेविपरीत जो व्यक्ति भक्ति से रहित है और भौतिक कर्मों में व्यस्त रहता है उसमें कोई सद्‌गुण नहींआते।

    भले ही कोई व्यक्ति योगाभ्यास में दक्ष क्यों न हो और अपने परिवार और सम्बन्धियों काभलीभाँति भरण-पोषण करता हो वह अपनी मनोकल्पना द्वारा भगवान्‌ की बहिरंगा-शक्ति कीसेवा में तत्पर होता है।

    भला ऐसे पुरुष में सदुगुण कैसे आ सकते हैं ?

    हरिर्ि साक्षाद्धगवान्शरीरिणाम्‌आत्मा झषाणामिव तोयमीप्सितम्‌ ।

    हित्वा महांस्तं यदि सज्जते गृहेतदा महत्त्वं वयसा दम्पतीनाम्‌ ॥

    १३॥

    हरिः--भगवान्‌; हि--निश्चय ही; साक्षात्‌-प्रत्यक्ष रूप में; भगवान्‌-- भगवान्‌; शरीरिणाम्‌--समस्त देहधारियों की; आत्मा--आत्मा; झषाणामू--जलचरों के; इब--सहृश; तोयमू--जल; ईप्सितम्‌--कामना की जाती है; हित्वा--त्यागकर; महानू--महान्‌ व्यक्ति; तमू-- उसको; यदि--यदि; सज्जते--लिप्त हो जाता है; गृहे--गृहस्थ जीवन में; तदा--उस समय; महत्त्वम्‌--बड़प्पन; वयसा--आयु से; दम्‌-पतीनाम्‌--पति-पत्नी का।

    जिस प्रकार जलचर प्राणी सदैव विशाल जलराशि में रहना चाहते हैं उसी प्रकार समस्तबद्धात्माएँ श्रीभगवान्‌ के अपार अस्तित्त्व में रहने की कामना करती हैं।

    अतः यदि भौतिकगणना के आधार पर माना गया कोई श्रेष्ठ पुरुष किन्हीं कारणों से परमात्मा की शरण न ग्रहणकर गृहस्थ जीवन में लिप्त हो जाता है, तो उसकी श्रेष्ठता निम्न श्रेणी के तरुण दम्पत्ति जैसीहोती है।

    भौतिक जीवन के प्रति अत्यधिक आसक्ति से समस्त आध्यात्मिक गुणों का लोप होजाता है।

    तस्माद्रजोरागविषादमन्युमानस्पृहाभयदैन्याधिमूलम्‌ ।

    हित्वा गृहं संसृतिचक्रवालंनृसिंहपादं भजताकुतो भयमिति ॥

    १४॥

    तस्मात्‌ू--अतः:; रज:--रजोगुण का; राग-- भौतिक वस्तुओं के प्रति लगाव; विषाद--तब निराशा; मन्यु--क्रो ध; मान-स्पृहा--समाज में सम्मानित बनने की कामना; भय--भय; दैन्य--दीनता का; अधिमूलम्‌ू--मूल कारण; हित्वा--परित्यागकरके; गृहम्‌--गृहस्थ जीवन; संसृति-चक्रवालम्‌--जन्म-मरण का चक्र; नूसिंह-पादम्‌--भगवान्‌ नृसिंह देव के चरणारविन्द;भजत--पूजा करते हुए; अकुतः-भयम्‌--निर्भीकता की शरण; इति--इस प्रकार |

    अतः, हे असुरगण, गृहस्थ जीवन के तथाकथित सुख का परित्याग करके भगवान्‌ नृसिंहदेव के चरणारविन्दों की शरण ग्रहण करो।

    वे ही निर्भीकता की वास्तविक शरण-स्थली हैं।

    सांसारिक अनुरक्ति, दुर्दमनीय कामनाएँ, विषाद, क्रोध, निराशा, भय, झूठी प्रतिष्ठा की भूख इनसबका मूल कारण गृहस्थ जीवन में आसक्ति है, जिसके कारण जीवन-मरण का चक्र चलतारहता है।

    केतुमालेपि भगवान्कामदेवस्वरूपेण लक्ष्म्या: प्रियच्चिकीर्षया प्रजापतेर्दुहितृण्ाां पुत्राणां तद्वर्षपतीनांपुरुषायुषाहोरात्रपरिसड्ख्यानानां यासां गर्भा महापुरुषमहास्त्रतेजसोद्देजितमनसां विध्वस्ता व्यसव:ःसंवत्सरान्ते विनिपतन्ति, ॥

    १५॥

    केतुमाले--केतुमालवर्ष में; अपि-- भी; भगवानू-- श्री भगवान्‌, विष्णु; कामदेव-स्वरूपेण--कामदेव के रूप में ( प्रद्युम्न );लक्ष्म्या:--लक्ष्मी देवी की; प्रिय-चिकीर्षया--तुष्ट करने की कामना; प्रजापते:--प्रजापति की; दुहितृणाम्‌--पुत्रियों के;पुत्राणाम्‌ू--पुत्रों का; तत्‌-वर्ष-पतीनाम्‌--उस भूभाग ( वर्ष ) के राजा; पुरुष-आयुषा--मनुष्य के जीवनकाल में ( लगभग१०० वर्ष ); अहः-रात्र--दिन तथा रातें; परिसड्ख्यानानाम्‌--समान संख्या वाले; यासाम्‌--जिनका ( पुत्रियों के ); गर्भा:--गर्भ; महा-पुरुष-- श्री भगवान्‌ का; महा-अस्त्र-महास्त्र ( चक्र ); तेजसा--तेज या प्रभा के द्वारा; उद्देजित-मनसाम्‌--उत्तेजितचित्त से; विध्वस्ता:--विध्व॑ंस; व्यसव: --मृत; संवत्सर-अन्ते--वर्ष के अन्त में; विनिपतन्ति--गिर जाते हैं।

    शुकदेव गोस्वामी आगे बोले--केतुमालवर्ष नामक भूभाग में भगवान्‌ विष्णु अपने भक्तोंके संतोष के लिए ही कामदेव के रूप में रहते हैं।

    इन भक्तों में लक्ष्मीजी, प्रजापति संवत्सर तथा संवत्सर के समस्त पुत्र तथा पुत्रियाँ सम्मिलित हैं।

    प्रजापति की पुत्रियाँ रात के तथा उनके पुत्रदिन के नियामक देवता माने जाते हैं।

    प्रजापति की सन्‍्तानों की संख्या ३६,००० है जो मनुष्य केजीवन काल के प्रत्येक दिन तथा रात की संख्या के तुल्य है।

    प्रत्येक वर्ष के अन्त में प्रजापतिकी पुत्रियाँ श्रीभगवान्‌ के चक्र को देखकर अत्यन्त उद्देलित हो उठती हैं जिससे उन सबों कागर्भपात हो जाता है।

    अतीव सुललितगतिविलासविलसितरुचिरहासलेशावलोकलीलयाकिश्ञिदुत्तम्भितसुन्दरभ्रूमण्डलसुभगवदनारविन्दश्निया रमां रमयन्निन्द्रियाणि रमयते ॥

    १६॥

    अतीव--अत्यन्त; सु-ललित--सुन्दर; गति--चाल से; विलास--लीलाओं से; विलसित--प्रकट रूप; रुचिर--मनोहर; हास-लेश--मन्द मुसकान; अवलोक-लीलया--लीलापूर्ण चितवन से; किझ्ञित्‌-उत्तम्भित--कुछ-कुछ ऊपर उठा; सुन्दर--सुन्दर;भ्रू-मण्डल--भौंहों से; सुभग--शुभ; वदन-अरविन्द-अरिया--अपने कमल तुल्य मुख से; रमाम्‌--रमा अथवा लक्ष्मी देवी को;रमयन्‌--आनन्दित करते हुए; इन्द्रियाणि--समस्त इन्द्रियों को; रमयते--आनन्दित करते हैं।

    केतुमालवर्ष में भगवान्‌ कामदेव ( प्रद्युम्न ) अत्यन्त लालित्य पूर्ण चाल से चलते हैं।

    उनकीमन्द मुसकान मनोहर है और जब वे अपनी भृकुटियों को किंचित ऊपर उठा कर लीलापूर्वकदेखते हैं, तो उनके मुख की सुन्दरता बढ़ जाती हैं और वे लक्ष्मीजी को आनन्दित करते हैं।

    इसप्रकार वे अपनी दिव्य इन्द्रियों का आनन्द लेते हैं।

    तद्धगवतो मायामयं रूपं परमसमाधियोगेन रमा देवी संवत्सरस्य रात्रिषु प्रजापतेर्दुहितृभिरुपेताह:सु चतद्धर्तृभिरुपास्ते इदं चोदाहरति ॥

    १७॥

    तत्‌--वह; भगवतः -- श्रीभगवान्‌ का; माया-मयम्‌-- भक्तों के लिए स्नेह से पूरित; रूपम्‌--रूप; परम--सर्वोच्च; समाधि-योगेन--प्रभु की सेवा में मन तल्‍लीन होने से; रमा--लक्ष्मी; देवी--दिव्य नारी; संवत्सरस्य--संवत्सर नामक; रात्रिषु--रात्रि में;प्रजापते:--प्रजापति की; दुहितृभि:--पुत्रियों के साथ; उपेत--मिलकर; अहःसु--दिन में; च-- भी; ततू-भर्तृभि: -- पतियों केसाथ; उपास्ते--पूजा करती हैं; इदम्‌--यह; च-- भी; उदाहरति--जप करती हैं।

    लक्ष्मीजी संवत्सर की अवधि में दिन के समय प्रजापति के पुत्रों के साथ और रात्रि में उनकीपुत्रियों के साथ मिलकर परम दयालु कामदेव रूप में भगवान्‌ की पूजा करती हैं।

    भक्ति मेंतल्लीन रहकर लक्ष्मीजी निम्नलिखित मंत्रों का जप करती हैं।

    हां हीं हूं नमो भगवते हषीकेशाय सर्वगुणविशेषैर्विलक्षितात्मने आकूतीनां चित्तीनां चेतसांविशेषाणां चाधिपतये घोडशकलाय च्छन्दोमयायान्नमयायामृतमयाय सर्वमयाय सहसे ओजसे बलायकान्ताय कामाय नमस्ते उभयत्र भूयात्‌ ॥

    १८॥

    ओम्‌- हे ईश्वर; हाम्‌ हीम्‌ हम--सिद्धि के लिए जप करने जाने वाला बीज मंत्र; ओम्‌--हे ईश्वर; नम: --नमस्कार है;भगवते-- श्री भगवान्‌ के चरणकमलों में; हषीकेशाय--इन्द्रियों के स्वामी हषीकेश को; सर्व-गुण--समस्त दिव्य गुणों सहित;विशेषै:--समस्त प्रकारों सहित; विलक्षित--विशेष रूप से दृष्टव्य; आत्मने--समस्त जीवात्माओं में; आकूतीनाम्‌--समस्तप्रकार के कार्यों का; चित्तीनाम्‌ू--समस्त प्रकार के ज्ञानों का; चेतसाम्‌--मन के कार्यो, यथा संकल्प तथा मानसिक प्रयत्नों का; विशेषाणाम्‌-- अपने-अपने लक्ष्यों का; च--तथा; अधिपतये---अधिपति तक; षोडश-कलाय--उत्पत्ति की सोलह कलाएँजिनके अंगस्वरूप ( यथा पाँच इन्दियों के विषय तथा मन सहित ग्यारह इन्दियाँ ); छन्दः-मयाय--समस्त अनुष्ठानों को; अन्न-मयाय--जो समस्त जीवात्माओं का भरण करता है; अमृत-मयाय--जो अमर रहता है; सर्व-मयाय--जो सर्वव्यापी है; सहसे--शक्तिमान; ओजसे--इन्द्रियों को बल प्रदान करने वाला; बलाय--शरीर को शक्ति प्रदान करने वाला; कान्ताय--समस्तजीवात्माओं के परम भर्ता या स्वामी; कामाय--भक्तों की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले को; नम:--विनीतनमस्कार; ते--आपको; उभयत्र--सदैव ( दिन तथा रात्रि अथवा इस तथा अगले जीवन में ); भूयात्‌--शुभ हो |

    मेरी समस्त इन्द्रियों के नियन्‍्ता तथा समस्त वस्तुओं की उत्पत्ति के स्तोत्र भगवान्‌ हषीकेशको मेरा नमस्कार है।

    वे समस्त दैहिक, मानसिक तथा बौद्धिक कर्मों के अधीश्वर और उनकेफलों के एकमात्र भोक्ता हैं।

    पाँचों इन्द्रियों के विषय तथा मन समेत ग्यारह इन्द्रियाँ उनकीआंशिक अभिव्यक्तियाँ हैं।

    वे समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले हैं, जो उनकीशक्तिस्वरूपा होने के कारण उनसे अभिन्न हैं; वे प्रत्येक व्यक्ति की दैहिक और मानसिक शक्तिके कारण रूप हैं, जो उनसे अभिन्न हैं।

    दरअसल, वे समस्त जीवात्माओं की आवश्यकताओं कीपूर्ति करने वाले तथा उनके भर्ता हैं।

    समस्त वेदों का ध्येय उनकी उपासना है।

    अतः हम सभी उन्हेंसविनय नमस्कार करते हैं।

    वे इस जन्म में तथा अगले जन्म में सदा हमारे अनुकूल रहें।

    स्त्रियो ब्रतैस्त्वा हृषीके श्वर स्वतोझाराध्य लोके पतिमाशासतेन्यम्‌ ।

    तासां न ते वै परिपान्त्यपत्यंप्रियं धनायूंषि यतोस्वतन्त्रा: ॥

    १९॥

    स्त्रियः--सभी स््रियाँ; ब्रते:--त्रत उपवास रखकर; त्वा--आप; हषीके श्वरम्‌--इन्द्रियों के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ को;स्वत:--स्वयमेव; हि--निश्चयपूर्वक; आराध्य--आराधना करके; लोके--इस जगत में; पतिम्‌--पति, स्वामी; आशासते--याचना करते हैं; अन्यम्‌ू--दूसरा; तासामू--उन सभी स्त्रियों का; न--नहीं; ते--वे पति; वै--निस्सन्देह; परिपान्ति--रक्षा करनेमें समर्थ; अपत्यम्‌--सन्तानें; प्रियम्‌--अत्यन्त प्रिय; धन--सम्पत्ति; आयूंषि--अथवा जीवनकाल; यत:-- क्योंकि; अस्ब-तन्त्रा:--आश्रित |

    हे प्रभो, आप निश्चित रूप से समस्त इन्द्रियों के पूर्ण रूप से स्वतंत्र स्वामी हैं।

    अतः समस्तस्त्रियाँ जो अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए पति को पाने की कामना से संकल्पों का दृढ़पालन करकेआपकी उपासना करती हैं, वे अवश्य ही मोहग्रस्त हैं।

    वे यह नहीं जानती कि ऐसा पति न तोउनकी और न ही उनकी सन्‍्तानों की रक्षा कर सकता है।

    वह स्वयं ही काल, कर्मफल तथाप्रकृति-गुणों के अधीन है जो सब आपके अधीनस्थ हैं, अत: वह न तो सम्पत्ति की रक्षा करसकता है और न अपने सन्‍्तानों की।

    स बे पतिः स्थादकुतोभयः स्वयंसमन्ततः पाति भयातुरं जनम्‌ ।

    स एक एवेतरथा मिथो भयंनैवात्मलाभादधि मन्यते परम्‌ ॥

    २०॥

    सः--वह; बवै--निस्संदेह; पति: --पति; स्थात्‌--हो; अकुतः-भयः--जो किसी से भयभीत नहीं है, निर्भय; स्वयम्‌--आत्मनिर्भर; समन्तत:--पूर्णतया; पाति-- भरण करता है; भय-आतुरम्‌--अत्यन्त भयभीत; जनम्‌--व्यक्ति को; सः--अतःवह; एक:--एक; एव--केवल; इतरथा-- अन्यथा; मिथ: --एक दूसरे से; भयम्‌-- भय, डर; न--नहीं; एब--निस्सन्देह;आत्म-लाभात्‌--आपकी प्राप्ति की अपेक्षा; अधि--महत्तर; मन्यते--मानी जाती है; परम्‌--अन्य वस्तु

    जो स्वयं निर्भय है तथा जो सभी भयभीत व्यक्तियों को शरण प्रदान करता है, केवल वहीवास्तव में पति तथा रक्षक हो सकता है।

    अतः, हे प्रभो, आप ही एकमात्र पति हैं, कोई अन्य इसपद का भागी नहीं हो सकता।

    यदि आप एकमात्र पति न होते तो आप भी अन्यों से डरते।

    अतःवेदों के पारंगत व्यक्ति आपको ही प्रत्येक का स्वामी स्वीकार करते हैं और यह मानते हैं किआपसे बढ़कर कोई अन्य पति एवं रक्षक नहीं है।

    या तस्य ते पादसरोरुहाईणंनिकामयेत्साखिलकामलम्पटा ।

    तदेव रासीप्सितमीप्सितोर्चितोयद्भग्नयाच्चञा भगवन्प्रतप्यते ॥

    २१॥

    या--जो स्त्री; तस्थ--उसका; ते--आपका; पाद-सरोरुह--चरणकमलों का; अर्हणम्‌--पूजा; निकामयेत्‌-- पूर्णतया कामनाकरती है; सा--ऐसी स्त्री; अखिल-काम-लम्पटा--समस्त प्रकार की लौकिक कामनाएँ करते हुए भी; तत्‌ू--वह; एव--केवल; रासि--आप प्रदान करते हैं; ईप्सितम्‌--कुछ अन्य वाउछा; ईप्सित:--वाजिछत; अर्चित:--पूजित; यत्‌--जिससे; भग्न-याच्ञा--जो आपके चरणकमलों को छोड़कर अन्य वस्तुओं की कामना करती है और इस प्रकार भग्नचित्त हो जाती है;भगवनू--हे ईश्वर; प्रतप्यते--पीड़ा को प्राप्त होती है |

    हे भगवन्‌, जो स्त्री आपके चरणकमल की आराधना विशुद्ध प्रेमवश करती है, आप उसकीसमस्त कामनाओं को स्वतः ही पूरा करते हैं।

    यदि कोई स्त्री आपके चरणकमलों की पूजाकिसी विशेष प्रयोजन के लिए करती है, तो भी आप उसकी कामनाओं को शीघ्र पूरा करते हैं,किन्तु अन्ततः वह टूटे हुए मन से पश्चात्ताप करती है।

    अत: किसी भौतिक लाभ के लिए आपकेचरणकमलों की आराधना नहीं की जानी चाहिए।

    मत्प्राप्तये जेशसुरासुरादय -स्तप्यन्त उग्र॑ तप ऐन्द्रिये धियः ।

    ऋते भवत्पादपरायणान्न मांविन्दन्त्यहं त्वद्धृदया यतोडजित ॥

    २२॥

    मत्‌-प्राप्तये--मेरी दया प्राप्त करने के लिए; अज--ब्रह्माजी; ईश--शिवजी; सुर--अन्य देवता जिनके स्वामी इन्द्र, चन्द्र तथावरुण हैं; असुर-आदय:-- असुर भी; तप्थन्ते--तप करते हैं; उग्रमू--कठिन; तपः--तपस्या; ऐन्द्रिये धिय:ः --जिनके मस्तिष्कमहत्‌ इन्द्रियतृप्ति में लीन रहते हैं; ऋते--जब तक; भवत्‌-पाद-परायणात्‌--जो श्रीभगवान्‌ के चरणारविन्द की सेवा में एकान्तभाव से तल्लीन रहते हैं; न--नहीं; माम्‌--मुझको; विन्दन्ति--प्राप्त करते हैं; अहम्‌--मैं; त्वत्‌--आप में; हृदया:--जिनकेहृदय; यत:--अतः; अजित-हे दुर्जेय |

    है अजेय परमेश्वर, मेरा आशीर्वाद पाने के लिए इन्द्रियसुख के अभिलाषी ब्रह्माजी तथाशिवजी आदि समस्त सुर-असुरगण घोर तपस्या करते हैं, किन्तु आपके चरणारविन्द की सेवा मेंसंलग्न भक्त के अतिरिक्त अन्य पर मैं अनुग्रह नहीं करती, चाहे वह कितना भी महान्‌ क्‍यों न हो।

    चूँकि मैं निरन्तर आपको अपने हृदय में बसाये रहती हूँ इसलिए मैं भक्त के अतिरिक्त अन्य किसीपर अनुग्रह नहीं करती।

    स त्वं ममाप्यच्युत शीर्णिण वन्दितंकराम्बुजं यत्त्वदधायि सात्वताम्‌ ।

    बिभर्षि मां लक्ष्म वरेण्य माययाक ईश्वरस्थेहितमूहितुं विभुरिति ॥

    २३॥

    सः--वह; त्वमू--आप; मम--मेरे; अपि-- भी; अच्युत--च्युत न होने वाले; शीर्ण्णि--शिर पर; वन्दितम्‌--पूजित; कर-अम्बुजम्‌ू--आपके कर-कमल; यत्‌--जो; त्वत्‌ू--आपके द्वारा; अधायि--रखे गये; सात्वताम्‌--भक्तों के ऊपर; बिभर्षि--आप पालन करते हैं; मामू--मुझको; लक्ष्म--आपके वक्षस्थल पर चिह्न; वरेण्य--हे पूज्य; मायया--माया से, भ्रम से; कः--कौन; ईश्वरस्थ--ई श्वर का; ईहितमू--इच्छाएं; ऊहितुम्‌--तर्क द्वारा समझना; विभु:--समर्थ है; इति--इस प्रकार,हे अच्युत, आपका कर-कमल सभी वरदानों का स्त्रोत है।

    अतः आपके शुद्ध भक्त उसकीपूजा करते हैं और आप अत्यन्त दयापूर्वक उनके शिरों पर अपना हाथ रखते हैं।

    मेरी भी यहीकामना है कि आप मेरे मस्तक पर अपना हाथ रखें, यद्यपि आप पहले से ही अपने वक्षस्थल परश्रीलक्ष्म रूप में मुझे धारण करते हैं, किन्तु इस सम्मान को मैं मिथ्या प्रतिष्ठा की तरह मानती हूँ।

    आप अपनी वास्तविक दया भक्तों पर ही दिखाते हैं, मुझ पर नहीं।

    निस्सन्देह, आप सर्वसमर्थनियंता हैं, आपके प्रयोजन को भला कौन समझ सकता है ?

    रम्यके च भगवत: प्रियतमं मात्स्यमवताररूपं तद्वर्षपुरुषस्य मनोः प्राक्प्रदर्शितं स इदानीमपि महताभक्तियोगेनाराधयतीदं चोदाहरति ॥

    २४॥

    रम्यके च--रम्यकवर्ष में भी; भगवत:-- श्री भगवान्‌ का; प्रिय-तमम्‌--अत्यन्त प्रिय; मात्स्यमू--मछली; अवतार-रूपम्‌--अवतार स्वरूप; ततू-वर्ष-पुरुषस्य--उस भूभाग के शासक; मनो:--मनु के; प्राकू--इसके पूर्व ( चाक्षुष-मन्वन्तर के अन्त में );प्रदर्शितम्‌-- प्रदर्शित; सः--वह मनु; इृदानीम्‌ अपि--यहाँ तक कि आज भी; महता भक्ति-योगेन--महती भक्ति के द्वारा;आराधयति-- श्रीभगवान्‌ की आराधना करता है; इृदम्‌ू--यह; च--तथा; उदाहरति--जप करता है।

    शुकदेव गोस्वामी आगे कहते हैं--रम्यकवर्ष में पिछले मन्वन्तर (चाश्लुष ) के अन्त मेंश्रीभगवान्‌ मत्स्य रूप में प्रकट हुए, जहाँ के अधिपति वैवस्वत मनु हैं।

    वे आज भी मत्स्यभगवान्‌ की शुद्ध भक्ति करते हैं और निम्नलिखित मंत्र का जप करते हैं।

    नमो भगवते मुख्यतमाय नम: सत्त्वाय प्राणायौजसे सहसे बलाय महामत्स्याय नम इति ॥

    २५॥

    ओमू-हे ईश्वर; नम: --नमस्कार है; भगवते-- श्रीभगवान्‌ को; मुख्य-तमाय--प्रथम अवतार को; नम:--मेरा नमस्कार है;सत्त्वाय--सत्त्व रूप को; प्राणाय--जीवन के मूलाधार को; ओजसे--इन्द्रियों के ओजस्वरूप; सहसे--समस्त बुद्धि बल केस्त्रोत; बलाय--शारीरिक शक्ति के उद्गम; महा-मत्स्याय--महा मत्स्यावतार को; नम:ः--नमस्कार है; इति--इस प्रकारमैं सत्त्व स्वरूप श्रीभगवान्‌ को नमस्कार करता हूँ।

    वे प्राण, शारीरिक शक्ति, बौद्धिकशक्ति तथा ज्ञानेन्द्रिय शक्ति के मूल स्त्रोत हैं।

    समस्त अवतारों में प्रकट होने वाले वेमहामत्स्यावतार हैं।

    मैं पुन: उनको नमस्कार करता हूँ।

    अन्तर्बहिश्वाख्खिलिलोकपालकै -रहृष्टरूपो विचरस्युरुस्वनः ।

    स ईश्वरस्त्वं य इृदं वशे नय-न्ञाम्ता यथा दारुमयीं नरः स्त्रियम्‌ू ॥

    २६॥

    अन्तः-- भीतर; बहि:--बाहर; च-- भी; अखिल-लोक-पालकै :--विभिन्न लोकों, समाजों, राज्यों आदि के नायकों द्वारा;अदृष्ट-रूप:--अहृश्य; विचरसि--विचरण करते हो; उरु--अत्यन्त महान्‌; स्वन:--जिसकी ध्वनि ( वैदिक मंत्र ); सः--वह;ईश्वर: --परम नियन्ता; त्वमू--आपको; य:--जो; इृदम्‌--वह; वशे--वश में; अनयत्‌--ले आया; नाम्ना--विभिन्न नामों से,जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र; यथा--ठीक वैसा ही; दारुमयीम्‌--काष्ठ की बनी; नरः--मनुष्य; स्त्रियमू--पुतली को

    हे ईश्वर, जिस प्रकार एक नटकठ पुतलियों को तथा पति अपनी पत्नी को वश में रखता है,उसी प्रकार आप इस ब्रह्माण्ड की समस्त जीवात्माओं को, चाहे वे ब्राह्मण हों या क्षत्रिय, वैश्यअथवा शूद्र, अपने वश में रखने वाले हैं।

    यद्यपि आप जन-जन के हृदयों के भीतर परम साक्षीके रूप में और उनके बाहर भी निवास करते हैं, किन्तु समाज, जाति तथा देश के तथाकथितनेता आपको समझ नहीं पाते।

    केवल वैदिक मंत्रों की स्वरलहरियों को सुनने वाले आपको जानपाते हैं।

    यं लोकपालाः किल मत्सरज्वराहित्वा यतन्तोपि पृथक्समेत्य च ।

    पातुं न शेकुद्विपदश्चतुष्पदःसरीसूप॑ स्थाणु यदत्र हृश्यते ॥

    २७॥

    यम्‌--जिसको ( आपको ); लोक-पाला:--इस ब्रह्माण्ड के महान्‌ नेता, जिनमें ब्रह्मा प्रथम हैं; किल--अन्‍्यों की क्या कहें;मत्सर-ज्वरा:--जिन्हें ईर्ष्या का ज्वर चढ़ा हुआ है; हित्वा--परित्याग करके; यतन्त:ः--यत्न करते हुए; अपि--यद्यपि; पृथक्‌--अलग से; समेत्य--सम्मिलित; च-- भी; पातुम्‌--रक्षा करने में; न--नहीं; शेकु:--समर्थ ; द्वि-पदः--दो पैर वाले; चतुः-'पदः--चार पाँव वाले; सरीसृूपम्‌-रेंगने वाले; स्थाणु--जड़; यत्‌--जो भी; अत्र--इस भौतिक जगत के भीतर; दृश्यते--दीखपड़ता है।

    हे ईश्वर, इस ब्रह्माण्ड के बड़े से बड़े नेता, यथा ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं से लेकर इससंसार के राजनीतिक नेताओं तक, सभी आपकी सत्ता के प्रति ईष्यालु हैं।

    किन्तु आपकीसहायता के बिना वे न तो पृथक्‌-पृथक्‌, न ही सम्मिलित रूप से इस ब्रह्माण्ड के असंख्य जीवोंका पालन कर सकते हैं।

    आप समस्त मनुष्यों, पशुओं ( यथा गाय, गधा ) तथा समस्त वनस्पतियों, रेंगने वाले जीवों, पक्षियों, पर्वतों तथा इस संसार में जो भी दिखाई पड़ता है उसकेएकमात्र वास्तविक पालक हैं।

    भवान्युगान्तार्णव ऊर्मिमालिनिक्षोणीमिमामोषधिवीरुधां निधिम्‌ ।

    मया सहोरु क्रमतेडज ओजसातस्मै जगत्प्राणगणात्मने नम इति ॥

    २८॥

    भवान्‌--आप; युग-अन्त-अर्णवे-- प्रलयकालीन सागर में; ऊर्मि-मालिनि--उत्ताल तरंगों के स्वामी; क्षोणीम्‌--पृथ्वी को;इमामू--इस; ओषधि-वबीरुधाम्‌-- समस्त प्रकार की औषधियों एवं लताओं को; निधिम्‌--आगार, संग्रह; मया--मेरे; सह--साथ; उरुू--महान्‌; क्रमते--आप भ्रमण करते रहे; अज--हे अजन्मा; ओजसा-गतिपूर्वक; तस्मै--उसको; जगत्‌--सम्पूर्णब्रह्माण्ड का; प्राण-गण-आत्मने--जीवन का परम स्त्रोत; नम:--नमस्कार है; इति--इस प्रकार।

    हे सर्वशक्तिमान ईश्वर, कल्पान्त में यह पृथ्वी, जो सभी प्रकार की जड़ी बूटियों तथा वृक्षोंकी आगार है, जल की बाढ़ से प्रलयकारी तरंगों के नीचे डूब गईं।

    उस समय आपने पृथ्वी सहितमेरी रक्षा की और अत्यन्त वेग से आप समुद्र में भ्रमण करते रहे।

    हे अजन्मा, आप इस समग्र सृष्टिके वास्तविक पालनकर्ता हैं, इसलिए आप ही सभी जीवात्माओं के कारणस्वरूप हैं।

    मैं आपकोसादर नमस्कार करता हूँ ।

    हिरण्मयेपि भगवान्निवसति कूर्मतनुं बिभ्राणस्तस्य तत्प्रियतमां तनुमर्यमा सह वर्षपुरुषै:पितृगणाधिपतिरुपधावति मन्त्रमिमं चानुजपति ॥

    २९॥

    हिरण्मये--हिरण्मयवर्ष में; अपि--निस्सन्देह; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; निवसति--निवास करते हैं; कूर्म-तनुम्‌--कछुए काशरीर; बिभ्राण: -- प्रकट करते हुए; तस्य-- श्रीभगवान्‌ का; तत्‌--वह; प्रिय-तमाम्‌--सर्वाधिक प्रिय; तनुम्‌--शरीर; अर्यमा--हिरण्मय वर्ष का प्रमुख वासी अर्यमा के; सह--साथ; वर्ष-पुरुषै:--उस भूभाग के व्यक्ति; पितृ-गण-अधिपति:--जो पितरोंका प्रतिनिधि है; उपधावति--भक्तिपूर्वक पूजा करता है; मन्त्रमू--मंत्र को; इममू--इस; च-- भी; अनुजपति-- जपता है।

    शुकदेव गोस्वामी आगे बोले--हिरण्मयवर्ष में भगवान्‌ विष्णु कच्छप रूप में निवास करतेहैं।

    इस परम प्रिय एवं सुन्दर रूप की आराधना हिरण्मयवर्ष के प्रमुख निवासी अर्यमा तथा उसवर्ष के अन्य वासियों द्वारा सदैव की जाती है।

    वे निम्नलिखित स्तुति करते हैं।

    नमो भगवते अकूपाराय सर्वसत्त्वगुणविशेषणायानुपलक्षितस्थानाय नमो वर्ष्मणे नमो भूम्ने नमोनमोवस्थानाय नमस्ते ॥

    ३०॥

    ओम्‌-हे ईश्वर; नम: -- नमस्कार है; भगवते-- श्रीभगवान्‌ को; अकूपाराय--कूर्म के रूप में; सर्व-सत्त्व-गुण-विशेषणाय--जिसका रूप शुद्ध सत्त्वमय है; अनुपलक्षित-स्थानाय-- आपको, जिनका स्थान अनिश्चित है; नमः--नमस्कार है; वर्ष्षणे--काल की मर्यादा के बाहर आपको; नम:ः--आद पूर्वक नमस्कार; भूम्ने--उस महान्‌ को जो सर्वत्र जा सकता हैं; नमः नम:--बारम्बार नमस्कार है; अवस्थानाय--सर्वाधार; नम:--नमस्कार है; ते--आपको।

    हे प्रभो, कच्छप स्वरूप आपको मेरा सादर नमस्कार है।

    आप समस्त दिव्य गुणों के आगारहैं।

    आप भौतिकता से पूर्णतः रहित तथा परम सत्त्व में स्थित हैं।

    आप जल में विचरण करते रहतेहैं, किन्तु कोई आपका पता नहीं लगा पाता, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    अपनी दिव्य स्थिति के कारण आप भूत, वर्तमान तथा भविष्य से बँधे नहीं रहते।

    आप सर्वत्र सर्वाधाररूप में उपस्थित रहते हैं, अत: मैं बारम्बार आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    यद्ूपमेतन्निजमाययार्पित-मर्थस्वरूपं बहुरूपरूपितम्‌ ।

    सड़्ख्या न यस्यास्त्ययथोपलम्भनातू-तस्मै नमस्तेव्यपदेशरूपिणे ॥

    ३१॥

    यत्‌--जिसका; रूपम्‌--रूप; एतत्‌--यह; निज-मायया अर्पितम्‌--आपकी माया से प्रकट; अर्थ-स्वरूपम्‌--यह समस्त दृश्यसार्वभौम अभिव्यक्ति ( प्रकाश ); बहु-रूप-रूपितम्‌--अनेक रूपों में प्रकट; सड्ख्या--गणना; न--नहीं; यस्य--जिसकी;अस्ति--है; अयथा--झूठे ही; उपलम्भनात्‌-- देखने से; तस्मै--उसे ( भगवान्‌ को ); नमः--मेरा नमस्कार; ते--आपको;अव्यपदेश--मानसिक चिन्ता द्वारा निश्चित न हो सकने वाला, अनिवर्चनीय; रूपिणे--जिसका सत्य रूप।

    हे भगवन्‌, यह विराट दृश्य अभिव्यक्ति आपकी अपनी सृजनात्मक शक्ति का प्रदर्शन है।

    इसके अन्तर्गत अनन्त रूप आपकी बहिरंगा शक्ति ( माया ) का प्रदर्शन मात्र है, अतः यह विराटरूप आपका वास्तविक रूप नहीं है।

    आपके वास्तविक रूप का दर्शन तो केवल दिव्य भावनाभावित भावित भक्तजन कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं।

    इसलिए मैं आपको सादर नमस्कारकरता हूँ।

    जरायुजं स्वेदजमण्डजोद्धधिदंचराचरं देवर्षिपितृभूतमैन्द्रियम्‌ ।

    हो: खं क्षिति: शैलसरित्समुद्र -द्वीपग्रहर्क्षत्यभिधेय एक: ॥

    ३२॥

    जरायु-जम्‌--गर्भ से उत्पन्न; स्वेद-जम्‌-पसीने से उत्पन्न; अण्ड-ज--अंडे से उत्पन्न; उद्धिदम्‌-पृथ्वी से उत्पन्न; चर-अचरम्‌--चर तथा अचर ( स्थावर तथा जंगम ); देव--देवता; ऋषि--ऋषि; पितृ--पितृलोक के वासी; भूतम्‌--वायु, अग्नि जल तथाक्षिति नामक तत्त्व; ऐन्द्रियमू--सभी इन्द्रियाँ; द्यौ:--उच्चतर लोक; खम्‌--आकाश ; क्षितिः--पृथ्वी; शैल--पर्वत; सरित्‌--नदियाँ; समुद्र--सागर; द्वीप--द्वीप; ग्रह-ऋक्ष --नक्षत्र तथा ग्रह; इति--इस प्रकार; अभिधेय:--विभिन्न नामों से अभिहित;एकः--एक |

    हे प्रिय प्रभु, आप अपनी विविध शक्तियाँ अनगिनत खूपों में प्रदर्शित करते हैं--जैसे कि गर्भ सेअंडे से तथा स्वेद से उत्पन्न होने वाले जीव; धरती से पौधों एवं वृक्षों के रूप में विकसित होने वालेजीव; देवता , विद्वान, ऋषि-मुनि तथा पितृओं सहित चर तथा अचर सारे जीव; बाह्यावकाश,स्वर्गलोक सहित उच्चतर ग्रहमंडल एवं पर्वत, नदियाँ, महासागरों तथा द्वीपों सहित पथ्वी ग्रह इत्यादि।

    यस्मिन्नसड्ख्येयविशेषनाम-रूपाकृतौ कविभिः कल्पितेयम्‌ ।

    सड़्ख्या यया तत्त्वदशापनीयतेतस्मै नमः साड्ख्यनिदर्शनाय ते इति ॥

    ३३॥

    यस्मिनू--जिसमें ( श्रीभगवान्‌ में )असड्ख्येय--अगणित; विशेष--विशेष; नाम--नाम; रूप--रूप; आकृतौ--शारीरिकस्वरूप से युक्त; कविभि:--दविद्वान व्यक्तियों के द्वारा; कल्पिता--कल्पित की गई; इयम्‌--यह; सड्ख्या--गिनती; यया--जिसके द्वारा; तत्त्व--सत्य का; दहशा--ज्ञान से; अपनीयते--निकाल लेते हैं; तस्मै-- उसे; नम:ः-- नमस्कार; साड्ख्य-निरदर्शनाय--जो सांख्य दर्शन के उद्धाटक हैं; ते--आपको; इति--इस प्रकार।

    हे प्रभो, आपका नाम, रूप तथा आकृति असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होते हैं।

    निश्चित रूप सेयह नहीं कहा जा सकता है कि आप कितने रूपों में विद्यमान हैं, फिर भी आपके स्वयं केअवतार कपिलदेव जैसे मुनियों ने इस विराट जगत में चौबीस तत्त्व निश्चित किये हैं।

    अत: यदिकोई सांख्य दर्शन में रुचि रखता है, तो उसे चाहिए कि विभिन्न सत्यों को वह आपसे सुने।

    दुर्भाग्यवश जो आपके भक्त नहीं हैं, वे केवल तत्त्वों की गणना कर पाते हैं, किन्तु आपकेवास्तविक रूप से अनजान रहते हैं।

    मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    उत्तरेषु च कुरुषु भगवान्यज्ञपुरुष: कृतवराहरूप आस्ते तं तु देवी हैषा भू: सहकुरुभिरस्खलितभक्तियोगेनोपधावति इमां च परमामुपनिषदमावर्तयति, ॥

    ३४॥

    उत्तरेषु--उत्तर दिशा में; च--भी; कुरुषु-- कुरुवर्ष में; भगवान्‌-- श्री भगवान्‌; यज्ञ-पुरुष:--समस्त यज्ञों के फल को स्वीकारकरने वाला; कृत-वराह-रूप:--शूकर ( वराह ) रूप को धारण करके; आस्ते--शाश्वत विद्यमान रहता है; तम्‌--उसको; तु--निश्चयपूर्वक; देवी--देवी; ह--निश्चय ही; एघा--यह; भू:--पृथ्वी लोक; सह--के साथ; कुरुभिः--कुरु-देश के वासी;अस्खलित--स्खलित न होने वाली; भक्ति-योगेन--भक्ति के द्वारा; उपधावति--पूजा करता है; इमाम्‌--इस; च-- भी; परमाम्‌उपनिषदम्‌--श्रेष्ठठटम उपनिषद्‌ ( भगवान्‌ तक पहुँचने की विधि ) को; आवर्तयति--अभ्यास हेतु बारम्बार जप करता है।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा, हे राजन, सभी यज्ञाहुतियों को स्वीकार करने वाले श्रीभगवान्‌वराह रूप में जम्बूद्वीप के उत्तरी भाग में निवास करते हैं।

    वहाँ उत्तर-कुरुवर्ष में पृथ्वी माता तथा अन्य सभी वासी निम्नलिखित उपनिषद्‌ मंत्र का बारम्बार जप करते हुए उनकी आराधना करतेहैं।

    नमो भगवते मन्त्रतत्त्वलिड्राय यज्ञक्रतवे महाध्वरावयवाय महापुरुषाय नमः कर्मशुक्लाय त्रियुगायनमस्ते ॥

    ३५॥

    ओम्‌-हे प्रभो; नम:--नमस्कार; भगवते-- श्री भगवान्‌ को; मन्त्र-तत्त्व-लिड्राय--जो विभिन्न मंत्रों द्वारा समझे जाते हैं; यज्ञ--'पशु-बलि के रूप में; क्रतवे--तथा पशुबलि; महा-ध्वर--बड़ी-बड़ी बलियाँ; अवयवाय--जिनके शरीर के अंग; महा-पुरुषाय--परमात्मा को; नमः--नमस्कार; कर्म-शुक्लाय--जो जीवात्माओं के कर्मों को पवित्र करने वाला है; त्रि-युगाय--तीन युगों में

    छः ऐश्वर्यों के साथ प्रकट होने वाले श्रीभगवान्‌ ( चतुर्थ युग में प्रच्छन्न रहने वाले ) को; नमः--नमस्कार; ते--आपको ।

    हे प्रभो, हम विराट पुरुष के रूप में आपको सादर नमस्कार करते हैं।

    केवल मंत्रोच्चार सेहम आपको पूर्णतः समझ सकते हैं।

    आप यज्ञरूप हैं, आप क्रतु हैं।

    अतः यज्ञ के सभी अनुष्ठानआपके दिव्य शरीर के अंशरूप हैं और केवल आप ही समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।

    आपकास्वरूप दिव्य गुणों से युक्त है।

    आप 'त्रियुग ' कहलाते हैं, क्योंकि कलियुग में आपने प्रच्छन्नअवतार लिया है और आप छहों ऋद्धियों के स्वामी हैं।

    यस्य स्वरूपं कवयो विपश्चितोगुणेषु दारुष्विव जातवेदसम्‌ ।

    मथ्नन्ति मथ्ना मनसा दिदक्षवोगूढं क्रियार्थरनम ईरितात्मने ॥

    ३६॥

    यस्य--जिसका; स्व-रूपम्‌--स्वरूप; कवय:--महान्‌ सन्त; विपश्चित:--परम सत्य को सुनिश्चित करने में पटु; गुणेषु--तीनगुणों से युक्त भौतिक जगत में; दारुषु--काष्ठ में; इब--सहृश; जात--प्रकट; वेदसम्‌-- अग्नि; मथ्नन्ति--मथते हैं; मथ्ना--अरणी या मथानी से उत्पन्न अग्नि; मनसा--मन के द्वारा; दिदृक्षव: --उत्सुकजन; गूढम्‌--छिपे; क्रिया-अर्थे;--कर्मों तथा उनकेफलों के द्वारा; नम:ः--नमस्कार है; ईरित-आत्मने-- प्रकट होने वाले प्रभु को |

    ऋषि तथा मुनि काठ में छिपी अग्नि को अरणी के द्वारा उत्पन्न कर सकने में समर्थ हैं।

    हेप्रभो, परम सत्य को समझने में दक्ष ऐसे व्यक्ति आपको प्रत्येक वस्तु में, यहाँ तक कि अपनेशरीर में भी देखने का प्रयास करते हैं किन्तु आप फिर भी अप्रकट रहते हैं।

    मानसिक याभौतिक क्रियाओं जैसी अप्रत्यक्ष विधियों से आपको नहीं समझा जा सकता।

    आप स्वतः प्रकटहोने वाले हैं, अतः जब आप देख लेते हैं कि कोई व्यक्ति सर्वभावेन आपकी खोज में संलग्न हैतभी आप अपने को प्रकट करते हैं।

    अतः मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

    द्रव्यक्रियाहेत्वयनेशकर्तृभि-मायागुणैर्वस्तुनिरीक्षितात्मने ।

    अन्वीक्षयाड्रातिशयात्मबुद्द्धेभि-निरस्तमायाकृतये नमो नमः: ॥

    ३७॥

    द्रव्य--इन्द्रियसुख के पदार्थों द्वारा; क्रिया--इन्द्रियों का व्यापार; हेतु--इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता; अयन--शरीर; ईश--प्रबल काल; कर्तृभिः--झूठे अहंकार से; माया-गुणैः--भौतिक प्रकृति के गुणों द्वारा; वस्तु--तथ्य स्वरूप; निरीक्षित--निरीक्षण किया जाकर; आत्मने--परमात्मा को; अन्वीक्षया-- अत्यन्त विचार करके; अड़--योगसाधना के अंगों द्वारा;अतिशय-आत्म-बुद्धिभि:--जिनकी बुद्धि स्थिर हो चुकी है उनके द्वारा; निरस्त--पूर्णतया मुक्त; माया--माया; आकृतये --जिनकी आकृति ( रूप ); नम:--नमस्कार; नमः--नमस्कार है।

    भौतिक सुख के साधन ( शब्द, गन्ध, रूप, स्पर्श, स्वाद ), ऐन्द्रिय कर्म, इन्द्रियों केअधिष्ठाता देवता, शरीर, अनन्त काल तथा अहंकार--ये सभी आपकी माया से उत्पन्न हैं।

    जिन्होंने योग के द्वारा अपनी बुद्धि को स्थिर कर लिया है वे यह देख सकते हैं कि ये सभी तत्त्वआपकी माया के ही परिणाम हैं।

    वे आपके दिव्य रूप को भी प्रत्येक वस्तु की पृष्ठ भूमि में परमआत्मा के रूप में देख सकते हैं।

    अतः मैं पुनः पुन: आपको नमस्कार करता हूँ।

    करोति विश्वस्थितिसंयमोदयंअस्येप्सितं नेप्सितमीक्षितुर्गुणै: ।

    माया यथायो भ्रमते तदा श्रयंग्राव्णो नमस्ते गुणकर्मसाक्षिणे ॥

    ३८॥

    करोति--करता है; विश्व--ब्रह्मांड की; स्थिति-- भरण; संयम--विलोप; उदयम्‌--सृष्टि; यस्थ--जिसका; ईप्सितमू--वांछित;न--नहीं; ईप्सितम्‌--वांछित; ईक्षितु:--ऊपर से देखने वाले का; गुणैः --गुणों के द्वारा; माया--माया; यथा--जितना;अयः--लोहा; भ्रमते-- भ्रमण करता है; तत्‌-आ श्रयमू--उसके निकट स्थित; ग्राव्ण:--चुम्बक पत्थर; नम:--नमस्कार; ते--आपको; गुण-कर्म-साक्षिणे-- भौतिक प्रकृति की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के साक्षी |

    हे प्रभो, आप इस भौतिक जगत की सृष्टि, पालन या संहार के इच्छुक नहीं हैं, किन्तुबद्धजीवों के लिए अपनी सृजनात्मक शक्ति के द्वारा इन क्रियाओं को निष्पादित करते हैं।

    जिसप्रकार चुम्बक-पत्थर के प्रभाव से लोहे का टुकड़ा घूमता है ठीक उसी प्रकार जब आप समस्तमाया पर दृष्टि फेरते हैं, तो सारे जड़ पदार्थ गति करने लगते हैं।

    प्रमथ्य दैत्यं प्रतिवारणं मृधेयो मां रसाया जगदादिसूकरः ।

    कृत्वाग्रदंष्टे निरगादुदन्वतःक्रीडब्निवेभः प्रणतास्मि तं विभुमिति ॥

    ३९॥

    प्रमथ्य--वध करके; दैत्यम्‌--असुर को; प्रतिवारणम्‌ू--अत्यन्त शक्तिशाली प्रतियोगी; मृधे--युद्ध में; य:ः--वह जो; माम्‌--मुझको ( पृथ्वी ); रसाया:--रसातल में पड़ी हुईं; जगत्‌ू--इस भौतिक जगत में; आदि-सूकरः --आदिसूकर रूप; कृत्वा--धारण करके; अग्र-दंष्टे--दाँतों के अग्रभाग में; निरगात्‌ू--जल के बाहर लाया; उदन्वतः--गर्भोदक सागर से; क्रीडन्‌--खेलतेहुए; इब--समान्‌, सहश; इभः--हाथी; प्रणता अस्मि--मैं आपके समक्ष नतमस्तक हूँ; तम्‌--उसको; विभुम्‌-- भगवान्‌ को;इति--इस प्रकार।

    हे प्रभो, इस ब्रह्माण्ड में आदि शूकर रूप में आपने हिरण्याक्ष दैत्य के साथ युद्ध करकेउसका संहार किया।

    फिर आपने अपने दाढ़ो के अग्र भाग से मुझ पृथ्वी को गर्भोदक सागर सेउसी प्रकार ऊपर उठा लिया जैसे क्रौड़ारत गज जल में से कमल-पुष्प तोड़ लेता है।

    मैं आपके समक्ष नतमस्तक हूँ।

    TO

    अध्याय उन्नीस: जम्बूद्वीप का विवरण

    5.19श्रीशुक उबाचकिम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं तच्चरणसन्निकर्षाभिरत: परमभागवतोहनुमान्सह किम्पुरुषरविरतभक्तिरुपास्ते ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले; किम्पुरुषे वर्ष--किम्पुरुष नामक भूखण्ड में; भगवन्तम्‌-- श्रीभगवान्‌; आदि-पुरुषम्‌--समस्त कारणों के मूल कारण; लक्ष्मण-अग्र-जम्‌--लक्ष्मण के अग्रज ( बड़े भ्राता ); सीता-अभिरामम्‌--सीता माताको अत्यन्त प्रिय अथवा सीतादेवी के पति; रामम्‌-- भगवान्‌ रामचन्द्र को; तत्‌ू-चरण-सत्निकर्ष-अभिरत:-- भगवान्‌ राम केचरणकमलों की सेवा में सदैव तत्पर; परम-भागवतः--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विख्यात महान्‌ भक्त; हनुमान्‌ू-- श्री हनुमानजी;सह--सहित; किम्पुरुषैः --किम्पुरुषवर्ष के निवासियों द्वारा; अविरत--निरन्तर; भक्ति:-- भक्ति करने वाला; उपास्ते--पूजाकरता है।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले--हे राजन, किम्पुरुषवर्ष में महान्‌ भक्त हनुमान वहाँ केनिवासियों सहित लक्ष्मण के अग्रज तथा सीतादेवी के पति भगवान्‌ रामचन्द्र की सेवा में सदेवतत्पर रहते हैं।

    आए्टिषेणेन सह गन्धर्वैरनुगीयमानां परमकल्याणीं भर्तृभगवत्कथां समुपश्रृणोति स्वयं चेदं गायति ॥

    २॥

    आए्टि-षेणेन--किम्पुरुष वर्ष का प्रधान पुरुष आए्टिषिण; सह--साथ; गन्धर्वै: --गन्धर्वों के द्वारा; अनुगीयमानाम्‌ू--जपे जाकर;परम-कल्याणीम्‌--परम कल्याण प्रदान करने वाली; भर्तु-भगवत्‌-कथाम्‌--अपने पति ( श्रीभगवान्‌ ) का यशोगान;समुपश्रणोति--अत्यन्त मनोयोग से श्रवण करता है; स्वयम्‌ च--स्वयं भी; इदम्‌--यह; गायति--गायन करता है।

    गन्धर्वों का समूह सदा ही भगवान्‌ रामचन्द्र के यशों का गान करता है।

    ऐसा गायन अत्यन्तमंगलकारी होता है।

    हनुमानजी तथा किम्पुरुषवर्ष के प्रधान पुरुष आ्टिषिण अत्यन्त मनोयोग सेइस यशोगान का निरन्तर श्रवण करते हैं।

    हनुमानजी निम्न मंत्रों का जप करते हैं।

    नमो भगवते उत्तमशएलोकाय नम आर्यलक्षणशीलब्रताय नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकाय नम:साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति ॥

    ३॥

    ओम्‌--हे भगवान्‌; नमः--नमस्कार है; भगवते-- श्रीभगवान्‌ को; उत्तम-शलोकाय--जिनकी अर्चना सदैव उत्तम एलोकों से कीजाती है; नम:--मेरा नमस्कार; आर्य-लक्षण-शील-ब्रताय--जिसमें उत्तम पुरुषों के समस्त गुण विद्यमान हैं; नम:--मेरानमस्कार; उपशिक्षित-आत्मने-- आपको जिनकी इन्द्रियाँ वश में हैं; उपासित-लोकाय--जो समस्त श्रेणियों के लोगों द्वारा सदैवपूजित हैं; नम:--मेरा नमस्कार; साधु-वाद-निकषणाय-- श्रीभगवान्‌ को जो गुणों के परखने की कसौटी तुल्य हैं; नम:--मेरानमस्कार; ब्रह्मण्य-देवाय--जो सुयोग्य ब्राह्मणों द्वारा पूजित हैं; महा-पुरुषाय-- श्रीभगवान्‌ को जो इस भौतिक सृष्टि का कारणहोने की वज़ह से पुरुष-सूक्त द्वारा पूजित हैं; महा-राजाय--सभी राजाओं में श्रेष्ठ महाराज को; नमः --मेरा नमस्कार; इति--इसप्रकार |

    हे प्रभो, मैं ओम्‌कार बीजमंत्र के जप से आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ।

    मैं उन श्रीभगवान्‌को सादर नमस्कार करता हूँ जो उत्तम पुरुषों में सर्वाधिक हैं।

    आप आर्यजनों के समस्त उत्तमगुणों के भंडार हैं।

    आपके गुण तथा आचरण सदैव एकसमान रहने वाला है और आप अपनीइन्द्रियों तथा मन को सदैव अपने वश में रखने वाले हैं।

    सामान्य व्यक्ति की भाँति आप आदर्शचरित्र प्रस्तुत करके अन्यों को आचरण करना सिखाते हैं।

    कसौटी केवल स्वर्ण के गुण कीपरीक्षा करने में समर्थ है, किन्तु आप ऐसे स्पर्श-मणि हैं, जिससे समस्त उत्तम गुणों की परीक्षा हो जाती है।

    आप भक्तों में अग्रणी ब्राह्मणों के द्वारा उपासित हैं।

    हे परम पुरुष, आप महाराजा हैं,अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    यत्तद्विशुद्धानुभवमात्रमेककंस्वतेजसा ध्वस्तगुणव्यवस्थम्‌ ।

    प्रत्यक्प्रशान्तं सुधियोपलम्भनंहानामरूपं निरहं प्रपद्ये ॥

    ४॥

    यत्‌--जो; तत्‌--उस परम सत्य को; विशुद्ध-विशुद्ध, भौतिक प्रकृति के स्पर्श से दूर; अनुभव--अनुभव; मात्रम्‌--सच्चिदानन्द दिव्य देह; एकम्‌--एकमात्र; स्व-तेजसा--अपने तेज से; ध्वस्त-- ध्वस्त; गुण-व्यवस्थम्‌--गुणों का प्रभाव;प्रत्यक्‌--दिव्य, भौतिक नेत्रों से अदृष्ट; प्रशान्तम्‌--धीर, विक्षोभरहित; सुधिया--कृष्णभावना से, जो भौतिक कामनाओं, कर्मोंतथा कल्पनाओं से अप्रभावित है; उपलम्भनम्‌--उपलब्ध किया जा सकने वाला; हि--निस्सन्देह; अनाम-रूपम्‌ू--नाम तथारूप रहित; निरहम्‌ू-- अहंकाररहित; प्रपद्ये--मुझे नमस्कार करने दें।

    भगवान्‌ को, जिनका विशुद्ध रूप ( सच्चिदानन्दविग्रह ) भौतिक गुणों के द्वारा दूषित नहींहै, विशुद्ध चेतना के द्वारा ही देखा जा सकता है।

    वेदान्त में उसे अद्वितीय कहा गया है।

    अपनेतेजवश वह भौतिक प्रकृति के कल्मष से अछूता है और भौतिक दृष्टि से पर है।

    अप्रभावित है,अतः वह दिव्य है।

    न तो वह कोई कर्म करता है, न उसका कोई भौतिक रूप अथवा नाम है।

    केवल श्रीकृष्णभावना में ही भगवान के दिव्य रूप के दर्शन किये जा सकते हैं।

    हमें चाहिए किहम भगवान्‌ रामचन्द के चरणकमलों में हृढ़तापूर्वक स्थित होकर उनको सादर नमन करें।

    मर्त्यावतारस्त्विह मर्त्यशिक्षणंरक्षोवधायैव न केवलं विभो: ।

    कुतोन्यथा स्यथाद्रमतः स्व॒ आत्मन:सीताकृतानि व्यसनानी श्वरस्य ॥

    ५॥

    मर्त्व--मनुष्य; अवतार: --जिसका अवतार; तु--तो भी; इह--इस लोक में; मर्त्य-शिक्षणम्‌--समस्त जीवों को, विशेष रूप सेमनुष्य को शिक्षा देने के लिए; रक्ष:-वधाय--रावण असुर को मारने के लिए; एव--निश्चय ही; न--नहीं; केवलम्‌--केवल,मात्र; विभोः -- श्रीभगवान्‌ का; कुतः--कहाँ से; अन्यथा-- अन्यथा; स्यातू--होगा; रमत:--रमण करने वाले का; स्वे-- अपनेआप में; आत्मन:--ब्रह्माण्ड का आत्म-स्वरूप; सीता-- भगवान्‌ रामचन्द्र की पत्ती सीता का; कृतानि--वियोग के कारणउत्पन्न; व्यसनानि--समस्त दुख; ईश्वरस्थ-- श्रीभगवान्‌ के |

    राक्षमों के नायक रावण को यह वर प्राप्त था कि उसका वध मनुष्य ही कर सकता है,इसलिए पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ रामचन्द्र को मनुष्य रूप धारण करना पड़ा, किन्तु भगवान्‌रामचन्द्र का उद्देश्य मात्र रावण का वध करना ही नहीं था।

    वे तो मर्त्य-प्राणियों को यह शिक्षादेना चाहते थे कि भोग विलास अथवा पली के चारों ओर केन्द्रित भौतिक सुख समस्त दुखों काकारण है।

    वे स्वयं में पूर्ण हैं और उन्हें किसी भी प्रकार का पश्चात्ताप नहीं है।

    अतः भला वे माता सीता के अपहरण से क्या कष्ट भोगते ?

    नवैस आत्मात्मवतां सुहत्तमःसक्तर्त्रिलोक्यां भगवान्वासुदेव: ।

    न स्त्रीकृतं कश्मलमश्नुवीतन लक्ष्मणं चापि विहातुमहति ॥

    ६॥

    न--नहीं; बै--निस्सन्देह; सः--वह; आत्मा--परम-आत्मा; आत्मवताम्‌--स्वरूपसिद्धों का; सुहत्‌-तम:--सर्वश्रेष्ठ मित्र;सक्त:--आसक्त; त्रि-लोक्याम्‌--तीनों लोकों के भीतर कोई भी; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; वासुदेव: --सर्वव्यापी भगवान्‌; न--नहीं; स्त्री-कृतम्‌ू--अपनी पत्नी के कारण प्राप्त; कश्मलमू--वियोग-दुख; अश्नुवीत--प्राप्त करेगा; न--नहीं; लक्ष्मणम्‌--रामचन्द्र के लघु भ्राता लक्ष्मण; च-- भी; अपि--निश्चय ही; विहातुम्‌--परित्याग करना; अर्हति--समर्थ होता है

    चूँकि भगवान्‌ रामचन्द्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव हैं अतः वे इस भौतिक जगत सेकिसी प्रकार लिप्त नहीं हैं।

    वे सभी स्वरूपसिद्ध आत्माओं के परम प्रिय परमात्मा और उनकेघनिष्ठ मित्र हैं।

    वे परम ऐश्वर्यवान्‌ हैं।

    अत: पत्नी-विछोह के कारण उन्होंने न तो अधिक कष्ट उठाये होंगे, न ही उन्होंने अपनी पत्ली तथा अपने लघु भ्राता लक्ष्मण का परित्याग किया।

    उनकेलिए इन दोनों में किसी एक का भी परित्याग सर्वथा असम्भव था।

    न जन्म नूनं महतो न सौभगंन वाड्न बुद्धिर्नाकृतिस्तोषहेतु: ।

    तैर्यद्विसृष्ठानपि नो वनौकस-श्वकार सख्ये बत लक्ष्मणाग्रज: ॥

    ७॥

    न--न; जन्म--उच्च कुल में जन्म; नूनम्‌--निस्सन्देह; महतः-- श्री भगवान्‌ का; न--न तो; सौभगम्‌--सौभाग्य; न--न तो;वाक्‌--शिष्टाचारपूर्वक बात करना; न--न तो; बुद्धिः:--तीक्ष्ण बुद्धि; न--नहीं; आकृति: --शरीर के अंग-प्रत्यंग; तोष-हेतु:--भगवान्‌ के आनन्द का कारण; तैः--उक्त समस्त गुणों के द्वारा; यत्‌--क्योंकि; विसृष्टान्‌ू-- अस्वीकृत; अपि--यद्यपि; नः--हमको; वन-ओकसः--वनवासी; चकार-- स्वीकार किया; सख्ये--मित्रता से; बत--हाय; लक्ष्मण-अग्र-ज:--लक्ष्मणके बड़े भाई

    भगवान्‌ श्रीरामचन्द्र नेउच्चकुल में जन्म धारण करने, शारीरिक सौन्दर्य, वाक्नातुरी, तीक्षण बुद्धि या श्रेष्ठ जातिअथवा राष्ट्र जैसे भौतिक गुणों के कारण कोई चाह कर भी भगवान्‌ रामचन्द्र से मैत्री स्थापितनहीं कर सकता।

    उनसे मित्रता स्थापित करने के लिए इन गुणों की आवश्यकता नहीं है, अन्यथाभला हम असभ्य वनवासियों को, बिना उच्च कुल में जन्म लिये तथा रूप-रंग न होते हुए औरभद्र पुरुषों की भाँति बात कर सकने में सक्षम न होने पर भी अपने मित्रों के रूप में क्‍योंस्वीकार करते ?

    सुरोसुरो वाप्यथ वानरो नरःसर्वात्मना यः सुकृतज्ञमुत्तमम्‌ ।

    भजेत राम॑ मनुजाकृतिं हरिंय उत्तराननयत्कोसलान्दिवमिति ॥

    ८॥

    सुरः--देवता; असुर:-- असुर; वा अपि--अथवा; अथ--अतः; वा--अथवा; अनरः --मनुष्य के अतिरिक्त ( पशु-पक्षीइत्यादि ); नर:--मनुष्य; सर्व-आत्मना--सब प्रकार से, हृदय से; यः--जो; सु-कृतज्ञम्‌--सरलता से आज्ञाकारी बनाया गया;उत्तमम्‌--सर्वोत्कृष्ट; भजेत--पूजा करनी चाहिए; रामम्‌-- श्रीरामचन्द्र को; मनुज-आकृतिम्‌--मनुष्य रूप में प्रकट होकर;हरिम्‌-- श्रीभगवान्‌ को; य:--जो; उत्तरान्‌--उत्तरी भारत के; अनयत्‌--वापस ले गये; कोसलान्‌ू--कोशल देश,अयोध्यावासियों को; दिवम्‌--आध्यात्मिक जगत या वैकुण्ठ लोक में; इति--इस प्रकार।

    अतः चाहे सुर हो या असुर, मनुष्य हो या मनुष्येतर प्राणी जैसे पशु या पक्षी, प्रत्येक को उनपूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ रामचन्द्र की पूजा करनी चाहिए जो इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप मेंप्रकट होते हैं।

    भगवान्‌ की पूजा के लिए किसी कठोर तप या साधना की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अपने भक्त की तुच्छ सेवा को भी स्वीकार करने वाले हैं।

    इस प्रकार से वे तुष्ट होजाते हैं और उनके तुष्ट होते ही भक्त सफल हो जाता है।

    निस्सन्देह, श्रीरामचन्द्र अयोध्या केसमस्त भक्तों को वैकुण्ठ धाम वापस ले गये।

    भारतेडपि वर्ष भगवान्नरनारायणाख्यआकल्पान्तमुपचितधर्मज्ञानवैराग्यै श्र्योपशमोपरमात्मोपलम्भनमनुग्रहायात्मवतामनुक म्पयातपोडव्यक्तगतिश्चवरति ॥

    ९॥

    भारते-- भारत; अपि-- भी; वर्षे-- भूभाग में; भगवान्‌ -- श्रीभगवान्‌; नर-नारायण-आख्य: -- नर-नारायण के नाम से विख्यात;आ-कल्प-अन्तम्‌--कल्पान्त तक; उपचित--वर्धमान; धर्म-- धर्म; ज्ञान--ज्ञान; वैराग्य--वैराग्य; ऐश्वर्य--सम्पदा; उपशम--इन्द्रिय-निग्रह; उपरम-- अहंकार से मुक्ति; आत्म-उपलम्भनम्‌--आत्म-साक्षात्कार; अनुग्रहाय--अनुग्रह हेतु; आत्म-वताम्‌--आत्म-साक्षात्कार में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को; अनुकम्पया--अहैतुकी दया से; तपः--तप; अव्यक्त-गति:--अकथनीयमहिमामय; चरति--करता है।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोले--श्रीभगवान्‌ की महिमा अकल्पनीय है।

    उन्होंने अपनेभक्तों पर अनुग्रहवश उन्हें धर्म, ज्ञान, त्याग, अध्यात्म, इन्द्रिय-निग्रह तथा अहंकार से मुक्ति कीशिक्षा प्रदान करने के लिए भारतवर्ष की भूमि में बदरिकाश्रम नामक स्थान पर अपने को नर-नारायण रूप में प्रकट किया है।

    वे आत्मज्ञान की सम्पदा से परिपूर्ण हैं और कल्पान्त तक तप मेंरत रहने वाले हैं।

    यही आत्म-साक्षात्कार की क्रिया है।

    त॑ भगवान्नारदो वर्णा भ्रमवतीभिर्भारतीभिः प्रजाभिर्भगवत््रोक्ता भ्यां साइख्ययोगाभ्यांभगवदनुभावोपवर्णनं सावर्णेरुपदेक्ष्य्माण: परमभक्तिभावेनोपसरति इदं चाभिगृणाति, ॥

    १०॥

    तम्‌--उसको ( नर-नारायण ); भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली सन्त पुरुष; नारद:--नारद ऋषि; वर्ण-आश्रम-वतीभि: --चारोंवर्णों तथा चारों आश्रमों के अनुयायियों द्वारा; भारतीभि: -- भारतवर्ष नामक देश के; प्रजाभि:--वासियों द्वारा; भगवत्‌-प्रोक्ताभ्याम्‌-- श्री भगवान्‌ द्वारा कथित; साड्ख्य--सांख्य-योग द्वारा ( भौतिक गुणों का विश्लेष्णात्मक अध्ययन );योगाभ्याम्--योग के अभ्यास द्वारा; भगवत्‌-अनुभाव-उपवर्णनम्‌--जो भगवत्‌-प्राप्ति की क्रिया को बताता है; साव्ें:--सावर्णि मनु को; उपदेक्ष्यमाण: --उपदेश करते हुए; परम-भक्ति-भावेन--अत्यन्त भक्तिभाव से; उपसरति-- भगवान्‌ की सेवाकरता है; इृदम्‌--इसे; च--तथा; अभिगृणाति--जप करता है।

    नारद पंचरात्र नामक अपने ग्रंथ में भगवान्‌ नारद ने अत्यन्त विस्तारपूर्वक बताया है किकिस प्रकार ज्ञान तथा योगक्रिया के द्वारा जीवन के परम लक्ष्य--भक्ति--को प्राप्त करने केलिए कार्य करना चाहिए उन्होंने श्रीभगवान्‌ की महिमा का भी वर्णन किया है।

    महर्षि नारद नेइस दिव्य साहित्य का उपदेश सावर्णि मनु को दिया, जिससे वह भारतवर्ष के उन वासियों कोभगवान्‌ की भक्ति प्राप्त करने की शिक्षा दे सकें, जो हृढ़तापूर्वक वर्णाश्रम धर्म के नियमों कापालन करते हैं।

    इस प्रकार नारद मुनि भारतवर्ष के अन्य निवासियों सहित नर-नारायण की सदा सेवा करते हुए निम्नलिखित मंत्र का जप करते रहते हैं।

    नमो भगवते उपशमशीलायोपरतानात्म्याय नमोकिज्ञनवित्ताय ऋषिऋषभाय नरनारायणाय'परमहंसपरमगुरवे आत्मारामाधिपतये नमो नम इति ॥

    ११॥

    ओमू--हे परमेश्वर; नम:--मेरा सादर नमस्कार; भगवते-- श्रीभगवान्‌ को; उपशम-शीलाय--जिन्होंने इन्द्रियों को वश में करलिया है; उपरत-अनात्म्याय-- भौतिक जगत से विरक्त; नमः--नमस्कार; अकिञ्जन-वित्ताय-- धनहीन व्यक्तियों के सम्पत्तिस्वरूप श्रीभगवान्‌ को; ऋषि-ऋषभाय--ऋषियों में श्रेष्ठ को; नर-नारायणाय--नर नारायण को; परमहंस-परम-गुरवे--परमहंसों अर्थात्‌ मुक्त पुरुषों के परम आदरणीय गुरु; आत्माराम-अधिपतये--आत्मारामों में श्रेष्ठ; नमः नमः --बारम्बार नमस्कारहै; इति--इस प्रकार।

    मैं समस्त सन्त पुरुषों में श्रेष्ठ श्रीभगवान्‌ नर-नारायण को सादर नमस्कार करता हूँ।

    वे अत्यन्त आत्मसंयमित तथा आत्माराम हैं, वे झूठी प्रतिष्ठा से परे हैं और निर्धनों की एकमात्रसम्पदा हैं।

    वे मनुष्यों में परम सम्माननीय समस्त परमहंसों के गुरु हैं और आत्मसिद्धों के स्वामीहैं।

    मैं उनके चरणकमलों को पुनः पुनः नमस्कार करता हूँ।

    गायति चेदम्‌--कर्तास्य सर्गादिषु यो न बध्यतेन हन्यते देहगतोपि दैहिकै: ।

    द्रष्टन दृग्यस्य गुणैर्विदूष्यतेतस्मै नमोसक्तविविक्तसाक्षिणे ॥

    १२॥

    गायति--गाता है; च--तथा; इृदम्‌ू--यह; कर्ता--करने वाला; अस्य--इस जगत का; सर्ग-आदिषु--सृष्टि, पालन तथा संहारका; यः--जो; न बध्यते--सृष्टिकर्ता या स्वामी के रूप में लिप्त नहीं है; न--नहीं; हन्यते--पीड़ित किया जाता है; देह-गतःअपि--मनुष्य के रूप में प्रकट होकर भी; दैहिकै:-- भूख, प्यास, थकान जैसी शारीरिक यातनाओं के द्वारा; द्रष्ट:--सर्व द्रष्टाको; न--नहीं; हक्‌--दृष्टि-शक्ति; यस्य--जिसकी; गुणैः-- भौतिक गुणों के द्वारा; विदृष्यते--कलुषित हो जाता है; तस्मै--उसको; नमः--नमस्कार है; असक्त--अनासक्त श्रीभगवान्‌ को; विविक्त--बिना प्यार के; साक्षिणे--सब का साक्षी

    परम शक्तिमान ऋषि नारद नर-नारायण की आराधना निम्नलिखित मंत्र का जप करकेकरते हैं--' पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ इस हृश्य जगत के सृष्टिकर्ता, पालक और संहारक हैं, तोभी वे मिथ्या अभिमान से पूर्णतया मुक्त हैं।

    यद्यपि मूढ़ों के लिए उन्होंने हमारे समान शरीर धारणकरना स्वीकार किया प्रतीत होता है, किन्तु उन्हें भूख, प्यास तथा थकान जैसे शारीरिक कष्टनहीं सताते।

    यद्यपि वे सर्वद्रष्टा हैं, किन्तु जिन वस्तुओं को वे देखते हैं उनसे उनकी इन्द्रियाँ दूषितनहीं होती।

    मैं ऐसे अनासक्त, जगत के साक्षी, परमात्मास्वरूप श्रीभगवान्‌ को बारम्बार नमस्कारकरता हैँ।

    इदं हि योगेश्वर योगनैपुणंहिरण्यगर्भो भगवाझ्जगाद यत्‌ ।

    यदन्तकाले त्वयि निर्गुणे मनोभकत्या दधीतोज्झितदुष्कलेवर: ॥

    १३॥

    इदम्‌--यह; हि--निश्चयपूर्वक; योग-ई श्वर--हे समस्त योगशक्ति के स्वामी; योग-नैपुणम्‌--योगिक नियमों की साधना में दक्ष;हिरण्य-गर्भ: --भगवान्‌ ब्रह्म; भगवान्‌--सर्वशक्तिमान; जगाद--कहा; यत्‌--जो; यत्‌--जो; अन्त-काले--मृत्यु के समय;त्वयि--तुममें ( आप में ); निर्गुणे--सत्त्व; मन:ः--मन ( मस्तिष्क ); भक्त्या--भक्तिपूर्वक; दधीत--रखना चाहिए; उज्झित-दुष्कलेवर:--भौतिक शरीर के साथ ही अपना स्वरूप त्याग करके |

    हे योगेश्वर, आत्माराम भगवान्‌ ब्रह्मा ( हिरण्यगर्भ ) ने योगक्रिया के विषय में जो कुछ कहाहै यह उसकी व्याख्या है।

    मृत्यु के समय सभी योगी आपके चरण-कमलों में अपना मन स्थापितकरके अपने भौतिक शरीर को त्यागते हैं।

    यह योग सिद्धि है।

    यथेहिकामुष्मिककामलम्पट:सुतेषु दारेषु धनेषु चिन्तयन्‌ ।

    शड्जेत विद्वान्कुकलेवरात्ययाद्‌यस्तस्य यल: श्रम एव केवलम्‌ ॥

    १४॥

    यथा--जिस प्रकार; ऐहिक--इस जीवन में; अमुष्मिक-- भावी जीवन में; काम-लम्पट:--कामवासनाओं में लिप्त रहने वालापुरुष; सुतेषु--सन्तान; दारेषु--पत्ली; धनेषु --सम्पत्ति में; चिन्तयन्‌ू--सोचते हुए; शद्लेत-- भयभीत रहता है; विद्वानू--आतमज्ञानी पुरुष; कु-कलेबर--इस मलमूत्र से पूरित शरीर का; अत्ययात्‌--क्षति के कारण; यः--जो कोई; तस्थ--उसका;यलः--प्रयास; श्रम:--समय एवं शक्ति का अपव्यय; एब--निश्चय ही; केवलम्‌--मात्र, केवल |

    सामान्य रूप से भौतिकतावादी जन अपने वर्तमान तथा भावी शारीरिक सुखों में अत्यन्तलिप्त रहते हैं।

    अतः वे अपनी पत्नी, सन्‍्तान तथा सम्पत्ति के विचारों में सदैव मग्न रहते हैं औरइस मलमूत्र से भरे हुए शरीर को त्यागने से भयभीत रहते हैं।

    यदि कृष्णभक्ति में संलग्न व्यक्तिभी अपने शरीर-त्याग से भयभीत हों तो फिर शास्त्रों के अध्ययन में किये श्रम का क्या लाभ?यह केवल समय की बरबादी है।

    तन्नः प्रभो त्वं कुकलेवरार्पितांत्वन्माययाहंममतामधोक्षज ।

    भिन्द्याम येनाशु वयं सुदुर्भिदांविधेहि योगं त्वयि न: स्वभावमिति ॥

    १५॥

    तत्‌--अतः; नः--हमारी; प्रभो--हे प्रभो; त्वमू--आप ( तुम ); कु-कलेवर-अर्पिताम्‌--मलमूत्र से पूरित इस बुरे शरीर में लगेहुए; त्वत्‌ू-मायया-- आपकी माया से; अहमू्‌-ममताम्‌---' मैं और मेरा ' का विचार; अधोक्षज-हे सत्त्व; भिन्‍्द्याम--त्यागसकता है; येन--जिससे; आशु--शीघ्र ही; वयम्‌--हम; सुदुर्भिदाम्‌--जिसको त्याग पाना दुष्कर है; विधेहि--कृपया प्रदानकरें; योगम्‌-क्रिया; त्ववि-- आपको; नः--हमारा; स्वभावम्‌--जो स्थिर मन के द्वारा जाना जाता है; इति--इस प्रकार

    अतः हे प्रभो, हे अधोक्षजकृपा करके हमें भक्तियोग साधने की शक्ति प्रदान करें जिससेहम अपने अस्थिर मन को वश में करके आप में लगा सकें।

    हम सभी आपकी माया से प्रभावितहैं, अतः हम मलमूत्र से पूरित शरीर तथा इससे सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु के प्रति अत्यधिक समर्पितहैं।

    इस आसक्ति को त्यागने का एकमात्र उपाय भक्ति है, अतः आप हमें यह वर दें।

    भारतेप्यस्मिन्वर्षे सरिच्छैला: सन्ति बहवो मलयो मड़लप्रस्थो मैनाकस्त्रिकूट ऋषभ: कूटकः कोललक:सह्यो देवगिरिरृष्यमूक: श्रीशैलो वेड्डूटो महेन्द्रो वारिधारो विन्ध्यः शुक्तिमानृक्षगिरि: पारियात्रोद्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवतकः ककुभो नीलो गोकामुख इन्द्रकील: कामगिरिरिति चान्ये चशतसहस्त्रशः शैलास्तेषां नितम्बप्रभवा नदा नद्यश्च सन्त्यसड्ख्याता: ॥

    १६॥

    भारते-- भारतवर्ष में; अपि-- भी; अस्मिन्‌ू--इस; वर्षे-- भूभाग में ; सरित्‌--नदियाँ; शैला: -- पर्वत; सन्ति-- हैं; बहव: --अनेक; मलय:--मलय; मड्ल-प्रस्थ:--मंगलप्रस्थ; मैनाक:--मैनाक पर्वत; त्रि-कूट:--त्रिकूट पर्वत; ऋषभ:--ऋषभ;कूटकः--कूटक; कोललक:--कोल्लक; सहा: --सह्ाय; देवगिरि: --देवगिरि; ऋष्य-मूक: --ऋष्यमूक; श्री-शैल:-- श्रीशैल;वेड्डूट:--वेंकट; महेन्द्र: --महेन्द्र; वारि-धार: --वारिधार; विन्ध्य: --विन्ध्याचल; शुक्तिमान्‌ू--शुक्तिमान्‌; ऋक्ष-गिरि: --ऋक्षगिरि; पारियात्र:--पारियात्र; द्रोण:--द्रोण; चित्र-कूट:--चित्रकूट; गोवर्धन: --गोवर्धन; रैवतक:--रैवतक ; ककुभ:--ककुभ; नील:--नील; गोकामुख: --गोकामुख; इन्द्रकील: --इन्द्रकील; काम-गिरि:--कामगिरि; इति--इस प्रकार; च--तथा; अन्ये-- अन्य; च-- भी; शत-सहस्त्रशः--सैकड़ों तथा हजारों; शैला:--पर्वत; तेषाम्‌--उनके; नितम्ब-प्रभवा:--ढालों सेउत्पन्न; नदाः:--बड़ी-बड़ी नदियाँ; नद्यः--छोटी नदियाँ; च--और; सन्ति--हैं; असड्ख्याता: --असंख्य |

    इलावृत-वर्ष की भाँति ऋक्ष गिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकुट, गोवर्धन, ऐवतक, भारतवर्ष मेंभी अनेक पर्वत और नदियाँ हैं।

    कुछ पर्वत इस प्रकार हैं--मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट,ऋषभ, कूटक, कोललक, सहा, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेंकट, महेन्द्र, वारिधारा, विन्ध्य,शुक्तिमान्‌ू, ऋक्ष गिरि, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, ऐवतक, ककुभ, नील, गोकामुख,इन्द्रकील तथा कामगिरि।

    इनके अतिरिक्त अनेक पहाड़ियाँ हैं जिनकी ढालों से अनेक बड़ी तथाछोटी नदियाँ निकलती हैं।

    एतासामपो भारत्यः प्रजा नामभिरेव पुनन्तीनामात्मना चोपस्पृशन्ति; चन्द्रवसा ताम्रपर्णी अवटोदाकृतमाला वैहायसी कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता तुड्रभद्रा कृष्णावेण्या भीमरथी गोदावरीनिर्विन्ध्या पयोष्णी तापी रेवा सुरसा नर्मदा चर्मण्वती सिन्धुरन्ध: शोणश्व नदौ महानदीवेदस्मृतिरृषिकुल्या त्रिसामा कौशिकी मन्दाकिनी यमुना सरस्वती दृषद्गवती गोमती सरयू रोधस्वतीसप्तवती सुषोमा शतद्गृश्चन्द्रभागा मरुद्दुधा वितस्ता असिकनी विश्वेति महानद्य: ॥

    १७-१८॥

    एतासाम्‌--इन सबों का; अप:--जल; भारत्य:--भारतवर्ष के; प्रजा:--वासी; नामभि:--नामों से; एब--केवल;पुनन्तीनाम्‌--पवित्र बनाती हैं; आत्मना--मन; च--भी ; उपस्पृशन्ति--स्पर्श करती हैं; चन्द्र-वसा--चन्द्रवसा; ताम्र-पर्णी --ताप्र-पर्णी; अवटोदा--अवटोदा; कृत-माला--कृतमाला; वैहायसी--वैहायसी; कावेरी --कावेरी; वेणी-- वेणी; पयस्विनी--पयस्विनी; शर्करावर्ता--शर्करावर्ता ; तुड़-भद्रा--तुंगभद्रा; कृष्णा-वेण्या--कृष्णावेण्या; भीम-रथी -- भीमरथी ; गोदावरी --गोदावरी; निर्विन्ध्या--निर्विन्ध्या; पयोष्णी--पयोष्णी; तापी--तापी; रेवा--रेवा; सुरसा--सुरसा; नर्मदा--नर्मदा; चर्मण्वती --चर्मण्वती; सिन्धु:--सिन्धु; अन्ध:--अन्ध; शोण:--शोण; च--तथा; नदौ--दो नदियाँ; महा-नदी--महानदी; बेद-स्मृतिः --वेदस्मृति; ऋषि-कुल्या--ऋषिकुल्‍या; त्रि-सामा--त्रिसामा; कौशिकी -- कौशिकी ; मन्दाकिनी -- मन्दाकिनी; यमुना--यमुना;सरस्वती--सरस्वती; दृषद्वती --हृषद्गवती; गोमती-- गोमती; सरयू--सरयू; रोधस्वती--रो धस्वती; सप्तवती --सप्तवती; सुषोमा--सुषोमा; शत-द्र:--शतद्रु; चन्द्रभागा--चन्द्रभागा; मरुद्दुधा--मरूद्वृधा; वितस्ता--वितस्ता; असिक्नी-- असिक्‍नी; विश्वा--विश्वा; इति--इस प्रकार; महा-नद्य:ः--बड़ी नदियाँ |

    नदियों में से दो नदियाँ--ब्रह्मपुत्र तथा शोण--नद अथवा महा नदियाँ कहलाती हैं।

    अन्य प्रमुख बड़ी नदियाँ इस प्रकार हैं--चन्द्रवसा, ताप्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी,वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुंगभद्रा, कृष्णावेण्या, भीमरथी, गोदावरी, ऋषिकुलया, त्रिसामा,कौशिकी, मन्दाकिनी, यमुना, सरस्वती, हृषद्गवती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा,शतद्गू, चन्द्रभागा, मरुद्रुधा, वितस्ता, असिक्नी तथा विश्वा।

    भारतवर्ष के वासी इन नदियों कास्मरण करने से पवित्र रहते हैं।

    कभी-कभी वे इन नदियों के नामों का मंत्रवत्‌ जाप करते हैं औरकभी-कभी जाकर इनका स्पर्श और इनमें स्नान भी करते हैं।

    इस तरह भारतवर्ष के निवासीपवित्र होते रहते हैं।

    असिमन्नेव वर्ष पुरुषैलब्धजन्मभि: शुक्ललोहितकृष्णवर्णन स्वारब्धेन कर्मणा दिव्यमानुषनारकगतयोबह्व्य आत्मन आनुपूर्व्येण सर्वा होव सर्वेषां विधीयन्ते यथावर्णविधानमपवर्गश्रापि भवति ॥

    १९॥

    अस्मिन्‌ एव वर्षे--इसी भूभाग ( भारतवर्ष ) में; पुरुषै: --पुरुषों के द्वारा; लब्ध-जन्मभि:--जन्म देने वालों के द्वारा; शुक्ल--सत्त्वगुण का; लोहित--रजोगुण का; कृष्ण--तमोगुण का; वर्णेन--वर्ण ( विभाग ) के अनुसार; स्व--स्वयं; आरब्धेन--प्रारम्भ किया हुआ; कर्मणा--कर्म के द्वारा; दिव्य--दिव्य, दैवी; मानुष--मानवीय; नारक--नारकीय; गतयः--गन्तव्य;बह्व्यः--अनेक; आत्मन:--स्वयं का; आनुपूर्व्येण--पूर्वजन्म के कर्मो के अनुसार; सर्वा:--समस्त; हि--निश्चय-पूर्वक;एव--निस्सन्देह; सर्वेषामू--सबों का; विधीयन्ते-- भाग्य में लिखा है; यथा-वर्ण-विधानम्‌--विभिन्न वर्णों के अनुसार;अपवर्ग:--मुक्ति का मार्ग; च--और; अपि-- भी; भवति--सम्भव है।

    इस भूभाग में जन्म लेने वाले व्यक्ति गुणों--सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण--के अनुसारविभाजित हैं।

    इनमें से कुछ अत्यन्त महान्‌ व्यक्तियों के रूप में, कुछ सामान्य व्यक्तियों के रूप मेंऔर कुछ अत्यन्त निम्न व्यक्तियों के रूप में जन्म लेते हैं, क्योंकि भारतवर्ष में मनुष्य का विगतकर्म के अनुसार जन्म होता है।

    यदि प्रामाणिक गुरु के द्वारा किसी भी मनुष्य की स्थिति निश्चितकी जाये और यदि उसे चार वर्णो ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ) तथा चार आश्रमों( ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास ) के अनुसार भगवान्‌ विष्णु की सेवा में रत होने कासही-सही प्रशिक्षण दिया जाये तो उसका जीवन सफल हो सकता है।

    योउसौ भगवति सर्वभूतात्मन्यनात्म्येडनिरुक्तेडनिलयने परमात्मनि वासुदेवेनन्यनिमित्तभक्तियोगलक्षणोनानागतिनिमित्ताविद्याग्रन्थिरन्धनद्वारेण यदा हि महापुरुषपुरुषप्रसड़: ॥

    २०॥

    यः--जो कोई; असौ--उस; भगवति-- श्री भगवान्‌ में; सर्व-भूत-आत्मनि--समस्त जीवात्माओं के परम आत्मा; अनात्मे--लगाव रहित; अनिरुक्ते--मन तथा वाणी से परे; अनिलयने-- अन्य किसी पर आश्ित नहीं; परम-आत्मनि--परमात्मा में; वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेव, वसुदेव के पुत्र; अनन्य--अद्बय; निमित्त--कारण; भक्ति-योग-लक्षण:--शुद्ध भक्ति के लक्षणोंसे युक्त; नाना-गति--विभिन्न गन्तव्यों का; निमित्त--कारण; अविद्या-ग्रन्थि--अज्ञानरूपी बन्धन; रन्धन--काटने का;द्वारेण--साधन द्वारा; यदा--जब; हि--निस्सन्देह; महा-पुरुष-- श्री भगवान्‌ का; पुरुष-- भक्त के साथ; प्रसड़:--घनिष्ठसम्बन्ध

    अनेकानेक जन्मों के पश्चात्‌, मनुष्य को अपने पुण्यकर्मों के फलित होने पर शुद्ध भक्तों कीसंगति का अवसर प्राप्त होता है।

    तभी उसके अज्ञानरूपी बन्धन की ग्रंथि, जो उसके नाना प्रकारके सकाम कर्मों के कारण जकडे रहती है, कट पाती है।

    भक्तों की संगति करने से धीरे-धीरेऐसे भगवान्‌ वासुदेव की सेवा में मन लगने लगता है, जो दिव्य हैं, भौतिक बन्धनों से मुक्त हैं,मन एवं वाणी से परे हैं तथा परम स्वतंत्र हैं।

    यही भक्तियोग अर्थात्‌ भगवान्‌ वासुदेव की भक्तिही मुक्ति का वास्तविक मार्ग है।

    एतदेव हि देवा गायन्ति--अहो अमीषां किमकारि शोभनंप्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः ।

    चर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरेमुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि न: ॥

    २१॥

    एतत्‌--यह; एव--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; देवा:--सभी देवता; गायन्ति--कीर्तन करते हैं; अहो-- अरे; अमीषाम्‌--भारतवर्ष के इन वासियों का; किम्‌--क्या; अकारि--किया गया; शोभनमू--पवित्र सुन्दर कार्य; प्रसन्न: --प्रसन्न; एघामू--उनपर; स्वितू--अथवा; उत--कहा गया; स्वयम्‌--स्वयं; हरिः-- श्रीभगवान्‌; यैः--जिसके द्वारा; जन्म--जन्म; लब्धम्‌-- प्राप्तकिया; नृषु--मानव समाज में; भारत-अजिरे-- भारतवर्ष के प्रांगण में; मुकुन्द--मुक्तिदाता श्रीभगवान्‌; सेवा-औपयिकम्‌--सेवा करने का माध्यम, स्वरूप; स्पृहा--इच्छा; हि--निस्सन्देह; न:ः--हमारी |

    चूँकि आत्मसाक्षात्कार के लिए मनुष्य-जीवन ही परम पद है, अतः स्वर्ग के सभी देवता इसप्रकार कहते हैं--इन मनुष्यों के लिए भारतवर्ष में जन्म लेना कितना आश्चर्यजनक है।

    इन्होंने भूतकाल में अवश्य ही कोई तप किया होगा अथवा श्रीभगवान्‌ स्वयं इन पर प्रसन्न हुए होंगे।

    अन्यथा वे इस प्रकार से भक्ति में संलग्न क्योंकर होते ? हम देवतागण भक्ति करने के लिएभारतवर्ष में मनुष्य जन्म धारण करने की मात्र लालसा कर सकते हैं, किन्तु ये मनुष्य पहले सेभक्ति में लगे हुए हैं।

    कि दुष्करैर्न: क्रतुभिस्तपोत्रतै-दनादिभिर्वा द्युजयेन फल्गुना ।

    न यत्र नारायणपादपड्डूज-स्मृति: प्रमुष्टातिशयेन्द्रियोत्सवात्‌ ॥

    २२॥

    किम्‌--क्या लाभ है; दुष्करैः--अत्यन्त कठिन; न:ः--हमारा; क्रतुभि:ः --यज्ञों के करने से; तपः--तप से; ब्रतैः--ब्रत से; दान-आदिभि:--दान देने आदि से; वा--अथवा; द्युजयेन--स्वर्गलोक की प्राप्ति से; फल्गुना--तुच्छ; न--नहीं; यत्र--जहाँ;नारायण-पाद-पड्डज-- भगवान्‌ नारायण के चरणकमल; स्मृति:--स्मरण; प्रमुष्ट--खोया हुआ; अतिशय--अत्यधिक; इन्द्रिय-उत्सवात्‌-भौतिक इन्द्रियतृप्ति के कारण।

    देवता आगे कहते हैं--वैदिक यज्ञों के करने, तप करने, व्रत रखने तथा दान देने जैसेदुष्कर कार्यों के करने के पश्चात्‌ ही हमें स्वर्ग में निवास करने का यह पद प्राप्त हुआ है।

    किन्तुहमारी इस सफलता का क्या महत्त्व है? यहाँ हम निश्चय ही भौतिक इन्द्रियतृप्ति में व्यस्त रहकरभगवान्‌ नारायण के चरणकमलों का स्मरण तक नहीं कर पाते।

    अत्यधिक इन्द्रिय तृप्ति केकारण हम उनके चरणकमलों को लगभग विस्मृत ही कर चुके हैं।

    कल्पायुषां स्थानजयात्पुनर्भवात्‌क्षणायुषां भारतभूजयो वरम्‌ ।

    क्षणेन मर्त्येन कृतं मनस्विनःसन्न्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरे: ॥

    २३॥

    कल्प-आयुषाम्‌-- जो ब्रह्म के समान कई कल्पों तक जीवित रहते हैं; स्थान-जयात्‌--स्थान अथवा लोकप्राप्ति की अपेक्षा;पुनः-भवात्‌--जन्म, मृत्यु और जरा की सम्भावना से; क्षण-आयुषाम्‌--ऐसे पुरुषों का जिनकी आयु केवल एक सौ वर्ष है;भारत-भू-जय:ः-- भारतवर्ष में जन्म; वरम्‌-- श्रेष्ठ है; क्षणेन-- क्षणिक जीवन के लिए; मर्त्येन--शरीर के द्वारा; कृतम्‌--कियाहुआ कार्य; मनस्विन:--जीवन के सार को ठीक से समझने वाले; सन्न्यस्य-- श्रीकृष्ण के चरणकमलों में आत्म-समर्पण करतेहुए; संयान्ति--प्राप्त करते हैं; अभयम्‌--चिन्तारहित; पदम्‌--धाम; हरे:ः-- श्रीभगवान्‌ का

    ब्रह्मलोक में करोड़ों-अरबों वर्ष की आयु प्राप्त करने की अपेक्षा भारतवर्ष में अल्पायु प्राप्तकरना श्रेयस्कर है, क्योंकि ब्रह्मलोक को प्राप्त कर लेने के बाद भी बारम्बार जन्म तथा मरण केचक्र में पड़ना होता है।

    यद्यपि मर्त्पलोक के अन्तर्गत भारतवर्ष में जीवन अत्यन्त अल्प है, किन्तुयहाँ का वासी पूर्ण कृष्णभक्ति तक पहुँच सकता है और भगवान्‌ के चरणकमलों में अर्पितहोकर इस लघु जीवन में भी परम सिद्धद्रि प्राप्त कर सकता है।

    इस प्रकार उसे वैकुण्ठलोक प्राप्तहोता है जहाँ न तो चिन्ता है, न भौतिक शरीर युक्त पुनर्जन्म।

    न यत्र वैकुण्ठकथासुधापगान साधवो भागवतास्तदा श्रया: ।

    न यत्र यज्ञेशमखा महोत्सवाःसुरेशलोकोपि न वै स सेव्यताम्‌ ॥

    २४॥

    न--नहीं; यत्र--जहां; वैकुण्ठ-कथा-सुधा-आपगा: -- समस्त चिन्ताओं को दूर करने वाले श्रीवैकुण्ठ अर्थात्‌ श्रीभगवान्‌ कीअमृतमयी धारा के समान कथा; न--न तो; साधव:--भक्तजन; भागवता: -- श्रीभगवान्‌ की सेवा में निरन्तर तत्पर; ततू-आश्रया:-- श्रीभगवान्‌ की शरण में गये; न--नहीं; यत्र--जहाँ; यज्ञ-ईश-मखा:--यज्ञों के स्वामी के प्रति की गईं भक्ति; महा-उत्सवा:--जो वास्तविक उत्सव हैं; सुरेश-लोक:--स्वर्गवासियों का स्थान; अपि--यद्यपि; न--नहीं; बै--निश्चय ही; सः--उस; सेव्यताम्‌--सेवनीय |

    जहाँ श्रीभगवान्‌ की कथा रूपी विशुद्ध गंगा प्रवाहित नहीं होती और जहाँ पवित्रता की ऐसीनदी के तट पर सेवा में तल्‍लीन भक्तजन नहीं रहते, अथवा श्रीभगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिएजहाँ संकीर्तन-यज्ञ के उत्सव नहीं मनाये जाते, ऐसे स्थान में बुद्धिमान पुरुष के लिए रूचि नहींहोती।

    क्योंकि ( इस युग में विशेषकर संकीर्तन-यज्ञ की संस्तुति की गई है )।

    प्राप्ता नृजातिं त्विह ये च जन्तवोज्ञानक्रियाद्रव्यकलापसम्भूताम्‌ ।

    नववै यतेरत्नपुनर्भवाय तेभूयो वनौका इव यान्ति बन्धनम्‌ ॥

    २५॥

    प्राप्ता:--जिन्होंने प्राप्त कर लिया है; नू-जातिम्‌--मनुष्य समाज में जन्म; तु--निश्चय ही; इह--इस भारत देश में; ये--वे जो;च--भी; जन्तवः--जीव; ज्ञान--ज्ञान से; क्रिया--कर्म से; द्रव्य--पदार्थों के; कलाप--समूह से; सम्भूताम्‌--पूर्ण; न--नहीं;वै--निश्चित रूप से; यतेरनू--प्रयत्त; अपुन:-भवाय-- अमर-पद के लिए; ते--ऐसे व्यक्ति; भूय:--पुनः; वनौका:--पक्षियों;इब--जैसा; यान्ति--जाते हैं; बन्धनमू--बन्धन को ।

    भक्ति के लिए भारतवर्ष में उपयुक्त क्षेत्र तथा परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं, जिस भक्ति से ज्ञानतथा कर्म के फलों से मुक्त हुआ जा सकता है।

    यदि कोई भारतवर्ष में मनुष्य देह धारण करकेसंकीर्तन-यज्ञ नहीं करता तो वह उन जंगली पशुओं तथा पक्षियों की भाँति है जो मुक्त किये जानेपर भी असावधान रहते हैं और शिकारी द्वारा पुनः बन्दी बना लिए जाते हैं।

    थैः श्रद्धा बर्हिषि भागशो हवि-निरुप्तमिष्टे विधिमन्त्रवस्तुत: ।

    एक: पृथड्नामभिराहुतो मुदागृह्नाति पूर्ण: स्वयमाशिषां प्रभु: ॥

    २६॥

    यैः--जिनके द्वारा ( भारतवासी ); श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; ब्हिंषि-- वैदिक यज्ञों के करने में; भागश:--विभाजन द्वारा; हवि:--आहुति; निरुप्तम्‌--डाली गई; इष्टमू--इच्छित श्रीविग्रह को; विधि--विधिपूर्वक; मन्त्र--मंत्रोच्चार द्वारा; बस्तुतः--समुचितवस्तुओं सहित; एक:--एक श्रीभगवान्‌; पृथक्‌-भिन्न; नामभि:--नामों से; आहुत: --पुकारा हुआ; मुदा--अत्यधिकसुखपूर्वक; गृह्वाति--स्वीकार करता है; पूर्ण:--परमेश्वर, जो स्वयं में पूर्ण है; स्वयमू--अपने आप में साक्षात्‌; आशिषाम्‌--समस्त आशीर्वादों का; प्रभुः--दाता |

    भारतवर्ष में परमेश्वर द्वारा नियुक्त विभिन्न अधिकारी स्वरूप देवताओं--यथा इन्द्र, चन्द्र तथासूर्य--के अनेक उपासक हैं, जिन सभी की पृथक्‌-पृथक्‌ विधियों से पूजा की जाती हैं।

    उपासक इन देवताओं को पूर्ण ब्रह्म का अंश मानते हुए अपनी आहुतियाँ अर्पण करते हैं, फलतःश्रीभगवान्‌ इन भेंटों को स्वीकार करते हैं और क्रमशः इन उपासकों की कामनाओं तथाआकांक्षाओं को पूरा करके उन्हें शुद्ध भक्ति पद तक ऊपर उठा देते हैं।

    चूँकि श्रीभगवान्‌ पूर्णहैं, अतः वे उनको मनवांछित वर देते हैं, चाहे उपासक उनके दिव्य शरीर के किसी एक अंश कीपूजा क्‍यों न करते हों।

    सत्यं दिशत्यर्थितमर्थितो नृणांनैवार्थदो यत्पुनरर्थिता यतः ।

    स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छता-मिच्छापिधानं निजपादपल्लवम्‌ ॥

    २७॥

    सत्यमू--सचमुच; दिशति--देता है; अर्थितम्‌--अभीष्ट पदार्थ; अर्थित: --माँगने पर; नृणाम्‌--मनुष्यों के द्वारा; न--नहीं;एव--निस्सन्देह; अर्थ-दः--वर देनेवाला; यत्‌--जो; पुन:ः--फिर; अर्थिता--वर की कामनाएँ; यतः--जिससे; स्वयम्‌--साक्षात्‌; विधत्ते-- प्रदान करता है; भजताम्‌-- भगवान्‌ की सेवा में निरत लोगों को; अनिच्छताम्‌ू--निष्काम भाव से; इच्छा-पिधानम्‌--समस्त वांछित वस्तुएँ; निज-पाद-पललवम्‌--अपने चरणकमलों पर।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ उस भक्त की भौतिक कामनाओं की पूर्ति करते हैं, जो सकाम भावसे उनके पास जाता है, किन्तु वे भक्त को ऐसा वर नहीं देते जिससे वह अधिकाधिक वर माँगतारहे।

    फिर भी, भगवान्‌ प्रसन्नतापूर्वक ऐसे भक्त को अपने चरणकमलों में शरण देते हैं, भले हीवह इसकी आकांक्षा न करे और शरणागत होने पर उसकी समस्त इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं।

    यहश् रीभगवान्‌ की विशेष अनुकम्पा है।

    यद्यत्र न: स्वर्गसुखावशेषितंस्विष्टस्य सूक्तस्य कृतस्य शोभनम्‌ ।

    तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म नः स्याद्‌वर्षे हरिर्यद्धजतां शं तनोति ॥

    २८॥

    यदि--यदि; अत्र--इस स्वर्गलोक में; न:ः--हमारा; स्वर्ग-सुख-अवशेषितम्‌--स्वर्गिक सुख भोगने के बाद जो कुछ भी शेषरहता है; सु-इष्टस्थ--पूर्ण यज्ञ का; सु-उक्तस्य--वैदिक साहित्य के पठन का; कृतस्य--सुकर्म का; शोभनम्‌--शेष कार्य;तेन--ऐसे कार्य से; अजनाभे--भारतवर्ष में; स्मृति-मत्‌ जन्म-- भगवान्‌ के चरणों को स्मरण करने वाला जन्म; न:--हमारा;स्थात्‌--हो; वर्षे--देश में; हरिः-- श्री भगवान्‌; यत्‌ू--जिसमें; भजताम्‌-- भक्तों का; शम्‌ तनोति--कल्याण का प्रसार करताहै।

    यज्ञ, पुण्य कर्म, अनुष्ठान तथा वेदाध्ययन करते रहने के कारणस्वरूप हम स्वर्ग-लोक मेंवास कर रहे हैं, किन्तु एक दिन ऐसा आएगा जब हमारा भी अन्त हो जाएगा।

    हमारी प्रार्थना हैकि उस समय तक यदि हमारे एक भी पुण्य शेष रहें तो हम मनुष्य रूप में भगवान्‌ केचरणकमलों का स्मरण करने के लिए भारतवर्ष में जन्म लें।

    श्रीभगवान्‌ इतने दयालु हैं कि वे स्वयं भारतवर्ष में आते हैं और यहाँ के वासियों को सौभाग्य प्रदान करते हैं।

    श्रीशुक उबाचजम्बूद्वीपस्थ च राजन्नुपद्वीपानष्टी हैक उपदिशन्ति सगरात्मजैरश्वान्वेषण इमां महीं परितोनिखनद्धिरुपकल्पितान्‌ ॥

    २९ ॥

    तद्यथा स्वर्णप्रस्थश्चन्द्रशुक्ल आवर्तनो रमणको मन्दरहरिण: पाञ्जजन्य:सिंहलो लड्ढलेति ॥

    ३०॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले; जम्बूद्वीपस्थ--जम्बूद्वीप का; च--भी; राजन्‌--हे राजा; उपद्वीपान्‌ अष्टौ -- आठउपद्वीप; ह--निश्चय ही; एके--कुछेक; उपदिशन्ति--विद्वान बताते हैं; सगर-आत्म-जैः--महाराज सगर के पुत्रों द्वारा; अश्व-अन्वेषणे--खोये हुए घोड़े को ढूँढते समय; इमामू--इस; महीम्‌-- भूभाग को; परित:--चारों ओर; निखनद्धि:--खोदते हुए;उपकल्पितानू--सृष्टि की; तत्‌--उस; यथा--निम्नलिखित प्रकार से; स्वर्ण-प्रस्थ: --स्वर्ण-प्रस्थ; चन्द्र-शुक्ल:--चन्द्रशुक्ल;आवर्तन:--आवर्तन; रमणक:--रमणक; मन्दर-हरिण: --मन्दरहरिण; पा्जनजन्य: --पांचजन्य; सिंहल:--सिंहल; लड्ढा --लंका; इति--इस प्रकार।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले--हे राजन, कुछ ज्ञानी पुरुषों के मत के अनुसार जम्बूढ्वीप केचारों ओर आठ छोटे-छोटे द्वीप हैं।

    जब महाराज सगर के पुत्र अपने खोये हुए घोड़े की खोजसारे संसार में कर रहे थे, तो उन्होंने पृथ्वी को खोद डाला।

    इस प्रकार से निकटस्थ आठ द्वीपअस्तित्व में आए।

    इन द्वीपों के नाम हैं--स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण,पांचजन्य, सिंहल तथा लंका।

    एवं तब भारतोत्तम जम्बूद्वीपव्षविभागो यथोपदेशमुपवर्णित इति ॥

    ३१॥

    एवम्‌--इस प्रकार; तब--तुमसे; भारत-उत्तम--भरत के वंशजों में श्रेष्ठ; जम्बूद्वीप-वर्ष-विभाग:--इस जम्बूद्वीप का प्रखण्ड;यथा-उपदेशम्‌-- अधिकारियों से मुझे जितना ज्ञान प्राप्त है; उपवर्णित:--मैंने व्याख्या की; इति--इस प्रकारभरत महाराज के वंशजों में श्रेष्ठ, हे राजा परीक्षित्‌, मैंने जितना ज्ञान प्राप्त किया है, उसी के अनुसार मैंने भारतवर्ष तथा उसके निकटवर्ती द्वीपों का वर्णन किया है।

    ये ही जम्बूद्वीप के उपद्वीप हैं।

    TO

    अध्याय बीस: ब्रह्मांड की संरचना का अध्ययन

    5.20श्रीशुक उबाचअतः परं प्लक्षादीनां प्रमाणलक्षणसंस्थानतो वर्षविभाग उपवर्ण्यते ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले; अतः परम्‌--इसके पश्चात्‌; प्लक्ष-आदीनाम्‌-प्लक्षद्वीप तथा अन्य द्वीप; प्रमाण-लक्षण-संस्थानतः -- आकार-प्रकार, लक्षण तथा स्थिति की दृष्टि से; वर्ष-विभाग:--ट्वीप का विभाजन; उपवर्ण्यते--वर्णनकिया जा रहा है।

    महर्षि शुकदेव गोस्वामी बोले--इसके पश्चात्‌ मैं प्लक्षादि अन्य छः द्वीपों के आकार प्रकार,लक्षण तथा स्थिति का वर्णन करूँगा।

    जम्बूद्वीपोयं यावत्प्रमाणविस्तारस्तावता क्षारोदधिना परिवेष्टितो यथा मेरुर्ज॑म्ब्बाख्येन लवणोदधिरपिततो द्विगुणविशालेन प्लक्षाख्येन परिक्षिप्तो यथा परिखा बाह्योपवनेन; प्लक्षो जम्बूप्रमाणो द्वीपाख्याकरोहिरण्मय उत्थितो यत्राग्निरुपास्ते सप्तजिहस्तस्याधिपति: प्रियव्रतात्मज इध्मजिह्नः स्वं द्वीपं सप्तवर्षाणिविभज्य सप्तवर्षनामभ्य आत्मजे भ्य आकलय्य स्वयमात्मयोगेनोपरराम ॥

    २॥

    जम्बू-द्वीप:--जम्बू नामक द्वीप, जम्बूद्यीप; अयम्‌--यह; यावत््‌-प्रमाण-विस्तार: --इसके विस्तार के तुल्य परिमाप अर्थात्‌१,००,००० योजन ( एक योजन आठ मील के तुल्य है ); तावता--इतना; क्षार-उदधिना--खारे सागर द्वारा; परिवेष्टित:--घिराहुआ; यथा--जिस प्रकार; मेरु:--सुमेरु पर्वत; जम्बू-आख्येन--जम्बू नामक द्वीप से; लवण-उदधि:--लवण-सागर; अपि--निश्चय ही; ततः--तत्पश्चात्‌; द्वि-गुण-विशालेन--दुगुना विस्तृत; प्लक्ष-आख्येन--प्लक्ष नामक द्वीप से; परिक्षिप्त:--घिराहुआ; यथा--सहृश; परिखा--खाईं; बाह्य --बाहरी; उपवनेन--उद्यानवत्‌ वन के द्वारा; प्लक्ष:--प्लक्ष ( पाकड़ ) वृक्ष; जम्बू-प्रमाण:--जम्बू वृक्ष जितना ऊँचा; द्वीप-आख्या-करः--द्वीप का नाम पड़ा; हिरण्मय:--अत्यन्त तेजमय; उत्थित:--ऊपर उठाहुआ; यत्र--जहाँ; अग्नि:ः--अग्नि; उपास्ते--स्थित है; सप्त-जिह्ः--सात ज्वालाओं वाली; तस्य--उस द्वीप का; अधिपति:--राजा अथवा स्वामी; प्रियत्रत-आत्मज:--राजा प्रियव्रत का पुत्र; इध्म-जिह्न:--इध्मजिह्न नामक; स्वम्‌--निजी; द्वीपम्‌-द्वी प;सप्त--सात; वर्षाणि-- भूभागों में; विभज्य--विभाजित होकर; सप्त-वर्ष-नामभ्य: --जिन पर सातों भूभागों के नाम रखे गये;आत्मजेभ्य:--अपने पुत्रों को; आकलय्य--भेंट, अर्पण; स्वयम्‌--स्वतः; आत्म-योगेन-- भगवान्‌ की भक्ति द्वारा; उपरराम--समस्त भौतिक कार्यो से अवकाश ग्रहण कर लिया।

    जिस प्रकार सुमेरु पर्वत चारों ओर से जम्बूद्वीप द्वारा घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप भीलवण के सागर से घिरा है।

    जम्बूद्वीप की चौड़ाई १,००,००० योजन ( ८,००,००० मील ) हैऔर लवण का सागर भी इतना ही चौड़ा है।

    जिस तरह कभी-कभी दुर्ग की खाई उपवन से घिरीरहती है उसी प्रकार जम्बूढ्वीप को घेरने वाला लवण-सागर भी प्लक्षद्वीप से घिरा हुआ है।

    प्लक्षद्वीप की चौड़ाई लवण के सागर से दुगुनी अर्थात्‌ २,००,००० योजन (१६,००,०००मील ) है।

    प्लक्षद्वीप में स्वर्ण के समान चमकीला एक वृक्ष है जो जम्बूद्वीप स्थित जम्बूवृक्ष केबराबर ऊँचा है।

    इसके मूल भाग में सात ज्वालाओं वाली अग्नि है।

    यह वृक्ष प्लक्ष का है, अतःइस द्वीप का नाम प्लक्षद्वीप पड़ा।

    यह द्वीप महाराज प्रियत्रत के एक पुत्र इध्मजिह्न द्वारा शासितथा।

    उन्होंने सातों द्वीपों के नाम अपने सात पुत्रों के नामों पर रखे और उन्हें अपने पुत्रों को देकर,सक्रिय जीवन से अवकाश प्राप्त कर वे स्वयं श्रीभगवान्‌ की सेवा में लीन रहने लगे।

    शिवं यवसं सुभद्रं शान्तं क्षेमममृतमभयमिति वर्षाणि तेषु गिरयो नद्यश्च सप्तैवाभिज्ञाता:; मणिकूटोवज्कूट इन्द्रसेनो ज्योतिष्मान्सुपर्णो हिरण्यष्टीवो मेघमाल इति सेतुशैला: अरुणा नृम्णाड्रिरसी सावित्रीसुप्तभाता ऋतम्भरा सत्यम्भरा इति महानद्य:; यासां जलोपस्पर्शनविधूतरजस्तमसोहंसपतक्ेर्ध्वायनसत्याडूसंज्ञाश्चत्वारो वर्णा: सहस्त्रायुषो विबुधोपमसन्दर्शनप्रजनना: स्वर्गद्वारं त्रय्याविद्यया भगवन्तं त्रयीमयं सूर्यमात्मानं यजन्ते ॥

    ३-४ ॥

    शिवम्‌--शिव; यवसम्‌--यवस; सुभद्रम्‌--सुभद्र; शान्तम्‌--शान्त; क्षेमम्‌-- क्षेम; अमृतम्‌-- अमृत; अभयम्‌-- अभय; इति--इस प्रकार; वर्षाणि--सातों पुत्रों के नामों के अनुसार सात वर्ष; तेषु--उनमें; गिरय: --पर्वत; नद्यः च--और नदियाँ; सप्त--सात; एव--निस्संदेह; अभिज्ञाता: --जाने जाते हैं; मणि-कूट:--मणिकूट; वज़-कूट:--वज़कूट; इन्द्र-सेन:--इन्द्सेन;ज्योतिष्मान्‌--ज्योतिष्मान्‌; सुपर्ण:--सुपर्ण ; हिरण्य-ष्ठीव: --हिरण्यष्ठीव; मेघ-माल:--मेघ-माल; इति--इस प्रकार; सेतु-शैला:--वर्षों की सीमा बनाने वाली पर्वत श्रेणियाँ; अरूणा-- अरुणा; नृम्णा--नृम्णा; आड्विरसी --आंगिरसी; सावित्री--सावित्री; सुप्त-भाता--सुप्तभाता; ऋतम्भरा--ऋतम्भरा; सत्यम्भरा--सत्यंभरा; इति--इस प्रकार; महा-नद्य:--बड़ी बड़ीनदियाँ; यासामू--जिनकी; जल-उपस्पर्शन--जल स्पर्श मात्र से; विधूत-- धुल जाते हैं; रज:-तमस:--जिनके रजो तथा तमोगुण; हंस--हंस; पतड्ग--पतंग; ऊर्ध्वायन--ऊर्ध्वायन; सत्याड्गर--सत्यांग; संज्ञा:--नाम वाले; चत्वार:--चारों; वर्णा: --जातियाँ; सहस्त्र-आयुष:--एक हजार वर्षों तक जीवित रहकर; विबुध-उपम--देवताओं के समान; सन्दर्शन--अत्यन्त सुन्दररूप होने में; प्रजनना:--तथा संतति उत्पन्न करने में; स्वर्ग-द्वारम्‌--स्वर्गलोक जाने का द्वार; त्रय्या विद्यया--वैदिक नियमों केअनुसार अनुष्ठान करके; भगवन्तम्‌-- श्री भगवान्‌; त्रयी-मयम्‌--वेदों में स्थापित; सूर्यम्‌ आत्मानम्‌--सूर्यदेव रूपी परमात्मा को;यजन्ते--पूजा करते हैं।

    इन सात वर्षो के नाम उन सातों पुत्रों के अनुसार क्रमशः शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम,अमृत तथा अभय पड़े।

    इन सात वर्षो में सात पर्वत तथा सात नदियाँ हैं।

    पर्वतों के नाम हैं--मणिकूट, वज्जकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्‌ू, सुपर्ण, हिरण्यष्ठटीव तथा मेघमाल और नदियों के नामहैं--अरूणा, नृम्णा, आंगिरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा तथा सत्यम्भरा।

    इन नदियों केस्पर्श करने या स्नान करने से भौतिक मल तुरन्त दूर हो जाते और प्लक्षद्वीप में रहने वाली हंस,पतंग, ऊर्ध्वायन तथा सत्यांग नामक चार जातियाँ अपने को इसी प्रकार पवित्र करती हैं।

    इसद्वीप के वासी एक हजार वर्ष तक जीवित रहते हैं।

    वे देवताओं के समान सुन्दर हैं और उनकीसनन्‍्तानें भी उन्हीं के अनुरूप हैं।

    वे वेदों में वर्णित अनुष्ठानों को पूरा करके तथा श्रीभगवान्‌ केप्रतिनिधि स्वरूप सूर्यदेव की उपासना करके सूर्यलोक को प्राप्त होते हैं, जो स्वर्गलोक ही है।

    प्रत्नस्य विष्णो रूपं यत्सत्यस्यर्तस्य ब्रह्मण: ।

    अमृतस्य च मृत्यो श्व सूर्यमात्मानमीमहीति ॥

    ५॥

    प्रलतस्य-- प्राचीनतम पुरुष का; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु का; रूपम्‌--रूप; यत्‌--जो; सत्यस्य--परम सत्य का; ऋतस्य-- धर्मका; ब्रह्मण:--परब्रह्म का; अमृतस्य--शुभ फल का; च--तथा; मृत्यो:--मृत्यु ( अशुभ फल ) का; च--तथा; सूर्यम्‌--सूर्यदेवता; आत्मानमू--सभी आत्माओं के मूल परमात्मा की; ईमहि--शरण की याचना करते हैं; इति--इस प्रकार।

    [ इस मंत्र के द्वारा प्लक्षद्वीप के वासी परब्रह्न की उपासना करते हैं।

    हम सूर्य देवता कीशरण ग्रहण करें जो परम प्रकाशित, पुराणपुरुष श्रीभगवान्‌ के प्रतिबिम्ब हैं।

    विष्णु ही एकमात्रआशध्य हैं।

    वही वेद हैं, वही धर्म हैं और वही शुभाशुभ फलों के स्त्रोत हैं।

    प्लक्षादिषु पञ्ञसु पुरुषाणामायुरिन्द्रियमोज: सहो बल बुद्धिर्विक्रम इति च सर्वेषामौत्पत्तिकीसिद्धिरविशेषेण वर्तते ॥

    ६॥

    प्लक्ष-आदिषु--प्लक्ष आदि द्वीपों में; पक्लसु-- पाँच; पुरुषाणाम्‌--निवासियों का; आयु:--दीर्घ जीवनकाल; इन्द्रियम्‌ू--इन्द्रियोंकी पुष्ठता; ओज:--शारीरिक बल; सह:--मनोबल; बलम्‌--शारीरिक शक्ति; बुद्धि:--बुद्धि; विक्रम:--शौर्य; इति--इसप्रकार; च-- भी; सर्वेषामू--सबों का; औत्पत्तिकी-- अंतः भूत; सिद्द्धि:ः--सिद्धि; अविशेषेण--बिना किसी भेदभाव के;वर्तते--विद्यमान है।

    हे राजन, प्लक्ष आदि पाँच द्वीपों में सभी वासियों में जन्म से ही आयु, मनोबल, इन्द्रिय बल,शारीरिक बल, बुद्धि और शौर्य ( पराक्रम ) समान रूप में प्रकट रहते हैं।

    प्लक्ष: स्वसमानेनेक्षुरसोदेनावृतो यथा तथा द्वीपोपि शाल्मलो द्विगुणविशाल: समानेन सुरोदेनावृतःपरिवृड्डे ॥

    ७॥

    प्लक्ष:-प्लक्षद्वीप; स्व-समानेन--विस्तार में समान; इश्लु-रस--गन्ने के रस के; उदेन--समुद्र से; आवृत:--घिरा हुआ; यथा--जिस प्रकार; तथा--उसी प्रकार; द्वीप:-- अन्य द्वीप; अपि-- भी; शाल्मल:--शाल्मल नामक; द्वि-गुण-विशाल: --दुगुनेविस्तार का; समानेन--विस्तार में समान; सुरा-उदेन--मदिरा के सागर से; आवृत:--घिरा हुआ; परिवृड्ढे --विद्यमान है।

    प्लक्षद्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले इश्षुरस के समुद्र से घिरा हुआ है।

    इसी प्रकार उसकेआगे उससे दुगुने परिमाण वाला शाल्मलीद्वीप है (४,००,००० योजन अथवा ३२,००,०००मील चौड़ा ) जो उतने ही चौड़ाईवाले जल समूह अर्थात्‌ सुरासागर से घिरा हुआ है।

    यत्र ह वै शाल्मली प्लक्षायामा यस्यां वाव किल निलयमाहुर्भगवतए्छन्दःस्तुतः पतत्त्रिरजस्य साद्वीपहूतये उपलक्ष्यते ॥

    ८॥

    यत्र--जहाँ; ह वै--निश्चय ही; शाल्मली--शाल्मली वृक्ष; प्लक्ष-आयामा--प्लक्ष वृक्ष जितना बड़ा ( १९०० योजन चौड़ा तथा११०० योजन ऊँचा ); यस्याम्‌--जिसमें; वाव किल--निस्सन्देह; निलयम्‌--निवासस्थान; आहुः--ऐसा कहते हैं; भगवत: --सर्वशक्तिमान का; छन्दः-स्तुत:--जो वैदिक स्तुतियों द्वारा ईश्वर की उपासना करता है; पतत्त्रि-राजस्य-- भगवान्‌ विष्णु कावाहन पक्षिराज गरुड़; सा--वह वृक्ष; द्वीप-हूतये--द्वीप के नाम हेतु; उपलक्ष्यते--प्रसिद्ध है ५शाल्मलीद्वीप में शाल्मली का एक वृक्ष है, जिससे इस द्वीप का यह नाम पड़ा।

    यह प्लक्षवृक्ष के बराबर चौड़ा और ऊँचा है, अर्थात्‌ १०० योजन ८०० मील चौड़ा तथा ११०० योजन८८०० मील ऊँचा है।

    विद्वानों का कथन है कि यह विशाल वृक्ष पक्षियों के राजा तथा विष्णु के वाहन गरुड़ का निवासस्थान है।

    यहाँ गरुड़ भगवान्‌ विष्णु की वैदिक स्तुति करता है।

    तद्दूवीपाधिपति:ः प्रियव्नतात्मजो यज्ञबाहु: स्वसुते भ्य: सप्तभ्यस्तन्नामानि सप्तवर्षाणि व्यभजत्सुरोचनंसौमनस्यं रमणकं देववर्ष पारिभद्रमाप्यायनमविज्ञातमिति ॥

    ९॥

    तत्‌-द्वीप-अधिपति:--उस द्वीप का स्वामी; प्रियत्रत-आत्मज:--महाराज प्रियव्रत का पुत्र; यज्ञ-बाहु:--यज्ञबाहु है; स्व-सुतेभ्य:--अपने पुत्रों के; सप्तभ्य:--सातों; तत्‌-नामानि--जिनके नाम उनके नामों के अनुसार; सप्त-वर्षाणि--सातों वर्षो( भूखण्डों ) को; व्यभजतू--विभाजित; सुरोचनम्‌--सुरोचन; सौमनस्यम्‌--सौमनस्य; रमणकम्‌--रमणक; देव-वर्षम्‌--देववर्ष; पारिभद्रमू--पारिभद्र; आप्यायनम्‌-- आप्यायन; अविज्ञातम्‌-- अविज्ञात; इति--इस प्रकार |

    शाल्मलीद्वीप के स्वामी महाराज प्रियत्रत के पुत्र यज्ञबाहु ने इस द्वीप को सात भागों मेंविभाजित करके उन्हें अपने पुत्रों को दे दिया।

    इन विभागों के नाम उनके पुत्रों के नामों पर हैं--सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन तथा अविज्ञात।

    तेषु वर्षाद्रयो नद्यश्च॒ सप्तैवाभिज्ञाता: स्वरसः शतश्रुड़्ो वामदेवः कुन्दो मुकुन्दः पुष्पवर्ष: सहस्त्रश्नुतिरिति;अनुमति: सिनीवाली सरस्वती कुहू रजनी नन्दा राकेति ॥

    १०॥

    तेषु--इन भागों में; वर्ष-अद्गय: --पर्वत; नद्य:ः च--नदियाँ भी; सप्त एब--सात; अभिज्ञाता:--जाना गया; स्वरसः--स्वरस;शत-श्रृड्र:ः--शतश्रृंग; वाम-देव:--वामदेव; कुन्दः--कुन्द; मुकुन्दः--मुकुन्द; पुष्प-वर्ष: --पुष्पवर्ष ; सहस्त्र- श्रुति: --सहस्त्रश्रुति; इति--इस प्रकार; अनुमति:--अनुमति; सिनीवाली--सिनीवाली; सरस्वती--सरस्वती; कुहू--कुहू; रजनी --रजनी; नन्दा--नन्दा; राका--राका; इति--इस प्रकारइन सातों विभागों में सात पर्वत हैं, जिनके नाम स्वरस, शतश्रृंग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द,पुष्पवर्ष तथा सहस्त्रश्नुति हैं।

    उनमें सात नदियाँ भी हैं जिनके नाम अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती,कुहू, रजनी, नन्दा तथा राका हैं।

    ये आज भी विद्यमान हैं।

    तद्र्षपुरुषा: श्रुतधरवीर्यधरवसुन्धरेषन्धरसंज्ञा भगवन्तं वेदमयं सोममात्मानं वेदेन यजन्ते ॥

    ११॥

    ततू-वर्ष-पुरुषा:--उन वर्षों के निवासी; श्रुतधर-- श्रुतधर; वीर्यधर--वीर्यधर; वसुन्धर--वसुन्धर; इषन्धर--इषन्धर; संज्ञा: --के नाम से विख्यात; भगवन्तम्‌-- श्रीभगवान्‌; वेद-मयम्‌--वैदिक ज्ञान से सुपरिचित; सोमम्‌ आत्मानम्‌--सोम नामक जीवात्माद्वारा प्रदर्शित; वेदेन--वैदिक नियमों के पालन से; यजन्ते--उपासना करते हैं।

    इन द्वीपों के वासी श्रुतिधर, वीर्यधर, वसुन्धर तथा इषन्धर नामों से विख्यात हैं और वेवर्णाश्रम धर्म का कठोरता से पालन करते हुए श्रीभगवान्‌ के सोम नामक अंश की, जो साक्षात्‌अन्द्रदेव हैं, उपासना करते हैं।

    स्वगोभि: पितृदेवे भ्यो विभजन्कृष्णशुक्लयो: ।

    प्रजानां सर्वासां राजान्ध: सोमो न आस्त्विति ॥

    १२॥

    स्व-गोभि:--अपनी प्रकाशमय किरणों के विस्तार से; पितृ-देवेभ्य:-- अपने पितरों तथा देवता-गणों को; विभजन्‌--विभाजितकरके; कृष्ण-शुक्लयो: --कृष्ण तथा शुक्ल पक्षों में; प्रजानामू--निवासियों का; सर्वासाम्‌ू--सभी; राजा--राजा; अन्ध: --अन्न; सोम: --चन्द्रदेव; नः--हम पर; आस्तु--अनुकूल रहे; इति--इस प्रकार |

    [ शाल्मलीद्वीप के वासी चन्द्रदेवता की आराधना निम्नलिखित शब्दों से करते हैं।

    पितरोंतथा देवताओं को अन्न देने के उद्देश्य से चन्द्रदेव ने अपने ही किरणों से मास को शुक्ल तथाकृष्ण नामक दो पक्षों में विभाजित किया है।

    चन्द्र देवता काल का विभाजन करने वाला औरब्रह्माण्ड के वासियों का अधिपति है।

    अत: हम यह प्रार्थना करते हैं कि वह हमारा अधिपति तथापथप्रदर्शक बना रहे।

    हम उसे सादर नमस्कार करते हैं।

    एवं सुरोदाद्वहिस्तद्द्‌वगुण: समानेनावृतो घृतोदेन यथापूर्व: कुशद्वीपो यस्मिन्कुशस्तम्बोदेवकृतस्तद्द्वीपाख्याकरो ज्वलन इवापर: स्वशष्परोचिषा दिशो विराजयति ॥

    १३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सुरोदात्‌ू--सुरासागर से; बहिः--बाहर; तत्‌ू-द्वि-गुण:--उसका दुगुना; समानेन--चौड़ाई में समान;आवृतः--घिरा हुआ; घृत-उदेन--घृत सागर के द्वारा; यथा-पूर्व:--शाल्मलीद्वीप के ही समान; कुश-द्वीप--कुशद्वी प;यस्मिन्‌--जिसमें; कुश-स्तम्बः--कुश नामक घास; देव-कृत:-- श्रीभगवान्‌ की परमेच्छा से उत्पन्न; तत्‌-द्वीप-आख्या-करः --द्वीप का नामकरण करके; ज्वलन:ः--अग्नि; इब--सहृश; अपर: -- अन्य; स्व-शष्प-रोचिषा-- अंकुरित दूब के ऐश्वर्य से;दिशः--समस्त दिशाएँ; विराजयति-- प्रकाशित करता है।

    सुरासागर के बाहर कुशद्वीप नामक एक अन्य द्वीप है जो सुरासागर से दूना अर्थात्‌८,००,००० योजन ( ६४,००,००० मील ) चौड़ा है।

    जिस प्रकार शाल्मली द्वीप सुरासागर सेघिरा है उसी प्रकार कुशद्वीप अपने तुल्य विस्तार वाले घृतसागर से घिरा है।

    इस द्वीप में कुशघासके पौधे पाये जाते हैं, इसीलिए द्वीप का यह नाम पड़ा है।

    यह कुशघास परमेश्वर की इच्छा केअनुसार देवताओं द्वारा उत्पन्न की गई थी और द्वितीय अग्नि जैसी दृष्टिगोचर होती है, किन्तुइसकी ज्वालाएँ अत्यन्त मृदु तथा मनोहर हैं।

    इसके नव-अंकुर ( शिखर ) समस्त दिशाओं कोप्रकाशित करते हैं।

    तद्दवीपपति: प्रैयत्रतो राजन्हिरण्यरेता नाम स्वं द्वीपं सप्तभ्यः स्वपुत्रेभ्यो यथाभागं विभज्य स्वयं तपआतिष्ठत वसुवसुदानह॒ढरुचिनाभिगुप्तस्तुत्यत्रतविविक्तवामदेवनाम भ्य: ॥

    १४॥

    तत्-द्वीप-पति:--उस द्वीप का स्वामी; प्रैयत्रत:ः--महाराज प्रियव्रत का पुत्र; राजन्‌ू--हे राजा; हिरण्यरेता--हिरण्यरेता; नाम--नामक; स्वम्‌--उसका अपना; द्वीपम्‌-द्वीप; सप्तभ्य: --सातों; स्व-पुत्रे भ्यः --अपने पुत्रों को; यथा-भागम्‌--हिस्से केअनुसार; विभज्य--विभाजित करके; स्वयम्‌--स्वयं; तप: आतिष्ठत--तप में लग गया; वसु--वसु को; वसुदान--वसुदान;हृढरुचि--हृढ़रूचि; नाभि-गुप्त--नाभिगुप्त; स्तुत्य-ब्रत--स्तुत्यत्रत; विविक्त--विविक्त; वाम-देव--वामदेव; नामभ्य: --नामक

    हे राजन, महाराज प्रियत्रत के दूसरे पुत्र हिरण्यरेता इस द्वीप के राजा थे।

    उन्होंने इसके सातविभाग किये और उसके एक-एक विभाग को उत्तराधिकारी के अनुसार अपने सातों पुत्रों बसु,वसुदान, हढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यत्रत, विविक्त और वामदेव को दे दिये।

    राजा स्वयं गृहस्थजीवन से विरक्त होकर तप करने लगे।

    तेषां वर्षेषु सीमागिरयो नद्यश्चाभिज्ञाता: सप्त सप्तैव चक्रश्चतुः श्रृड़अः कपिलश्ित्रकूटो देवानीक ऊर्ध्वरोमाद्रविण इति रसकुल्या मधुकुल्या मित्रविन्दा श्रुतविन्दा देवगर्भा घृतच्युता मन्त्रमालेति, ॥

    १५॥

    तेषाम्‌ू--उन पुत्रों के; वर्षेषु-- भूभागों ( वर्षों ) में; सीमा-गिरय:ः --सीमान्त पर्वत; नद्यः च-- और नदियाँ भी; अभिन्ञाता:--ज्ञात; सप्त--सात; सप्त--सात; एव--निश्चय ही; चक्र:--चक्र; चतुः-श्रूड़:ः --चतु: श्रृंग; कपिल:--कपिल ; चित्र-कूट:--चित्रकूट; देवानीक: --देवानीक; ऊर्ध्व-रोमा--ऊर्ध्वरोमा; द्रविण: --द्रविण; इति--इस प्रकार; रस-कुल्या--रमकुल्या; मधु-कुल्या--मधुकुल्या; मित्र-विन्दा--मित्रविन्दा; श्रुत-विन्दा-- श्रुतविन्दा; देव-गर्भा--देवगर्भा; घृत-च्युता--घृतच्युता; मन्त्र-माला--मंत्रमाला; इति--इस प्रकार।

    इन सातों द्वीपों में सात सीमान्त पर्वत हैं, जिनके नाम चक्र, चतु:श्रृंग, कपिल, चित्रकूट,देवानीक, ऊर्ध्वरोमा तथा द्रविण हैं।

    इसी प्रकार सात नदियाँ हैं जिनके नाम रमकुल्या,मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता तथा मंत्रमाला हैं।

    यासां पयोभि: कुशद्वीपौकसः कुशलकोविदाभियुक्तकुलकसंज्ञा भगवन्तं जातवेदसरूपिणंकर्मकौशलेन यजन्ते ॥

    १६॥

    यासाम्‌--जिनके; पयोभि:--जल से; कुश-द्वीप-ओकसः--कुशद्वीप के वासी; कुशल--कुशल; कोविद--कोविद;अभियुक्त--अभियुक्त; कुलक--कुलक; संज्ञा:--नामक; भगवन्तम्‌-- श्रीभगवान्‌ को; जातवेद--अग्नि देवता; स-रूपिणम्‌--स्वरूप को प्रकट करके; कर्म-कौशलेन--अनुष्ठानों में कुशलता के कारण; यजन्ते--आराधना करते हैं।

    कुशद्वीप के वासी कुशल, कोविद, अभियुक्त तथा कुलक नामों से विख्यात हैं।

    वे क्रमशःब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के सहश हैं।

    उक्त नदियों के जल में स्नान करके ये सभी वासीपवित्र होते हैं।

    वे वैदिक शास्त्रों के अनुसार अनुष्ठानों को सम्पन्न करने में कुशल हैं।

    इस प्रकारवे अग्नि देवता के रूप में भगवान्‌ की उपासना करते हैं।

    परस्य ब्रह्मण: साक्षाज्ञातवेदोसि हव्यवाट्‌ ।

    देवानां पुरुषाड़ानां यज्ञेन पुरुष यजेति ॥

    १७॥

    'परस्य--परमेश्वर की; ब्रह्मण:--ब्रह्म का; साक्षात्‌--प्रकट रूप में, साक्षात्‌: जात-वेदः --हे अग्निदेव; असि-- आप हैं;हव्यवाट्‌--अन्न तथा घृत की आहुति के वाहक; देवानाम्‌--समस्त देवताओं के; पुरुष-अड्जानामू--जो परम पुरुष के अंग हैं;यज्ञेन--यज्ञों के द्वारा; पुरुषम्‌--परम्‌ पुरुष को; यज--यज्ञ करो; इति--इस प्रकार।

    [ यह वह मंत्र है, जिसके द्वारा कुशट्वीप के वासी अग्निदेव की पूजा करते हैं।

    हे अग्निदेव,आप श्रीभगवान्‌ हरि के अंश रूप हैं और उन तक समस्त हवियों को पहुँचाते हैं।

    अतः हमआपसे प्रार्थना करते कि हम देवताओं को जो भी यज्ञ-सामग्री अर्पण कर रहे हैं, उसे आप पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ को अर्पित करें, क्योंकि परमेश्वर ही असली भोक्ता हैं।

    तथा घृतोदाद्वहिः क्रौ्जद्वीपो द्विगुणः स्वमानेन क्षीरोदेन परित उपक्रिप्तो वृतो यथा कुशद्वीपो घृतोदेनयस्मिन्क्रौद्चो नाम पर्वतराजो द्वीपनामनिर्वर्तक आस्ते ॥

    १८ ॥

    तथा--और उसी प्रकार; घृत-उदात्‌--घृत सागर से; बहि:--बाहर, परे; क्रौद्ञ-द्वीप:--क्रौंच द्वीप नामक अन्य द्वीप; द्वि-गुण:--दुगुना बड़ा; स्व-मानेन--समान विस्तार का; क्षीर-उदेन--दुग्ध सगार से; परित:--चारों ओर; उपक्लुप्त:--घिरा हुआ;बृतः--घिरा; यथा--सदृश; कुश-द्वीप:--कुशद्वीप; घृत-उदेन--घृत सागर से; यस्मिन्‌--जिसमें; क्रौज्ञ: नाम--क्रौंच नामक;पर्वत-राज:--पर्वतों का राजा; द्वीप-नाम--द्वीप का नाम; निर्वर्तक:--लिया जाता है; आस्ते--विद्यमान है।

    घृतसागर के बाहर क्रौंचद्वीप नाम का एक अन्य द्वीप है, जिसकी चौड़ाई घृतसागर से दुगुनीअर्थात्‌ १६,००, ००० योजन ( १२९,८००,००० मील ) है।

    जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसागर से घिराहुआ है उसी प्रकार क्रौंचद्वीप अपने ही समान चौड़ाई वाले दुग्ध-सागर ( क्षीरसागर ) से घिराहुआ है।

    क्रौंचद्वीप में क्रॉंच नामक एक विशाल पर्वत है, जिसके कारण इस द्वीप का यह नामपड़ा।

    योउसौ गुहप्रहरणोन्मधितनितम्बकुझ्जोपि क्षीरोदेनासिच्यमानो भगवता वरुणेनाभिगुप्तो विभयोबभूव ॥

    १९॥

    यः--जो; असौ--वह ( पर्वत ); गुह-प्रहरण-- भगवान्‌ शिव के पुत्र कार्तिकेय के प्रहार द्वारा; उन्मधित--मथा हुआ; नितम्ब-कुझ्ः--ढालों पर के वृक्ष तथा वनस्पतियाँ; अपि--यद्यपि; क्षीर-उदेन-- क्षीर सागर से; आसिच्यमान:--सदैव सिंचित होकर;भगवता--सर्वशक्तिमान द्वारा; वरुणेन--वरुण नाम देवता के द्वारा; अभिगुप्त:--सुरक्षित; विभय: बभूव--निर्भय हो गया है।

    यद्यपि कार्त्तिक्ये के शस्त्र प्रहार से क्रौंच पर्वत के ढालों की वनस्पतियाँ विनष्ट हो गई थीं,किन्तु चारों ओर से क्षीरसागर द्वारा सदा सिंचित होने एवं वरुण देव के द्वारा संरक्षित होने से यहपर्वत पुनः निर्भीक हो गया है।

    तस्मिन्नपि प्रैयत्नतो घृतपृष्ठो नामाधिपति:ः स्वे द्वीपे वर्षाणि सप्त विभज्य तेषु पुत्रनामसु सप्तरिक्थादान्वर्षपान्निवेश्य स्वयं भगवान्भगवत: परमकल्याणयशस आत्मभूतस्यहरेश्वरणारविन्दमुपजगाम ॥

    २०॥

    तस्मिनू--उस द्वीप में; अपि-- भी; प्रैयत्रतः--महाराज प्रियब्रत का पुत्र; घृत-पृष्ठः --घृतपृष्ठ; नाम--नामक; अधिपति:--स्वामी,राजा; स्वे-- अपने; द्वीपे--द्वीप में; वर्षाणि-- भूभाग; सप्त--सात; विभज्य--विभाजित करके; तेषु--उनमें से प्रत्येक में; पुत्र-नामसु--अपने पुत्रों के नाम वाले; सप्त--सात; रिक्था-दान्‌--पुत्र; वर्ष-पान्‌--वर्षो के स्वामी; निवेश्य--नियुक्त करके;स्वयम्‌--स्वयं; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिमान; भगवतः-- श्री भगवान्‌ का; परम-कल्याण-यशसः -- जिसका यश परमकल्याणकारी है; आत्म-भूतस्य-- समस्त आत्माओं की आत्मा; हरे: चरण-अरविन्दम्‌--हरि के चरणकमल में; उपजगाम--शरण ली

    इस द्वीप के अधिपति महाराज प्रियत्रत के अन्य पुत्र थे जिनका नाम घृतपृष्ठ था और जोअत्यन्त विद्वान थे।

    उन्होंने भी अपने देश को सात भागों में विभाजित करके उनके नाम अपनेसातों पुत्रों के नामों के अनुसार रखे और स्वयं गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर परमकल्याणकारी, समस्त आत्माओं की आत्मा श्रीभगवान्‌ के पदारविन्दों में शरण ली।

    इस प्रकारवे सिद्धि को प्राप्त हुए।

    आमो मधुरुहो मेघपृष्ठ: सुधामा भ्राजिष्ठो लोहितार्णों वनस्पतिरिति घृतपृष्ठसुतास्तेषां वर्षगिरय: सप्तसप्तैव नद्यश्चाभिख्याता: शुक्लो वर्धभानो भोजन उपबर्हिणो नन्दो नन्दन: सर्वतोभद्र इति अभयाअमृतौघा आर्यका तीर्थवती रूपवती पवित्रवती शुक्लेति ॥

    २१॥

    आमः--आम; मधु-रूहः --मधुरुह; मेघ-पृष्ठ:--मेघपृष्ठ; सुधामा--सुधामा; भ्राजिष्ठ:-- भ्राजिष्ठ; लोहितार्ण:--लोहितार्ण ;वनस्पति: --वनस्पति; इति--इस प्रकार; घृतपृष्ठ-सुता:--घृतपृष्ठ के पुत्र; तेषाम्‌--इन पुत्रों के; वर्ष-गिरयः--देश की सीमाविभाजन करने वाले पर्वत; सप्त--सात; सप्त--सात; एव-- भी; नद्य:ः--नदियाँ; च--तथा; अभिख्याता: --सुप्रसिद्ध; शुक्ल:वर्धमान:--शुक्ल तथा वर्धमान; भोजन: -- भोजन; उपबर्हिण: --उपबर्हिण; नन्द: --नन्द; नन्दन: --नदंन; सर्वतः -भद्ग:--सर्वतोभद्र; इति--इस प्रकार; अभया--अभया; अमृतौघा-- अमृतौघा; आर्यका--आर्यका; तीर्थवती--तीर्थवती ; रूपवती --रूपवती; पवित्रवती--पवित्र-वती; शुक्ला--शुक्ला; इति--इस प्रकार

    महाराज घृतपृष्ठ के पुत्रों के नाम आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण तथावनस्पति थे।

    उनके द्वीप में सात पर्वत थे, जो सात देशों की सीमाओं को सूचित करने वाले थेऔर सात नदियाँ भी थीं।

    पर्वतों के नाम हैं-शुक्ल, वर्धभान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन तथासर्वतोभद्र।

    नदियों के नाम अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, रूपवती, पवित्रवती तथाशुक्ला हैं।

    यासामम्भ: पवित्रममलमुपयुज्जाना: पुरुषऋषभद्रविणदेवकसंज्ञा वर्षपुरुषा आपोमयं देवमपांपूर्णेनाज्ललिना यजन्ते ॥

    २२॥

    यासाम्‌--सभी नदियों का; अम्भ:--जल; पवित्रमू--अत्यन्त पावन; अमलम्‌--अत्यन्त निर्मल; उपयुज्ञाना:--उपयोग करतेहुए; पुरुष-- पुरुष; ऋषभ--ऋषभ; द्रविण--द्रविण; देवक--देवक; संज्ञा:--नामों वाले; वर्ष-पुरुषा:--उन वर्षों के निवासी;आपः-मयम्‌--जल के स्वामी वरुण को; देवम्‌--उपास्य श्रीविग्रह के रूप में; अपाम्‌--जल को; पूर्णेन--पूर्ण; अज्ञलिना--अंजुली से; यजन्ते--आराधना करते हैं।

    क्रौंच द्वीप के निवासी चार वर्णों में विभाजित हैं--पुरुष, ऋषभ, द्रविण तथा देवक।

    वेजल के स्वामी वरुण जिन का रूप जल के समान है के चरणारविन्दों पर इन पवित्र नदियों कीजलांजलि अर्पित करके श्रीभगवान्‌ की पूजा करते हैं।

    आप: पुरुषवीर्या: स्थ पुनन्‍्तीर्भू्भुवःसुवः ।

    ता नः पुनीतामीवध्नी: स्पृशतामात्मना भुव इति ॥

    २३॥

    आप: --हे जल; पुरुष-वीर्या:-- श्री भगवान्‌ की शक्ति से युक्त; स्थ--आप हैं; पुनन्ती:--पवित्र करने वाले; भू: -- भूव: नामकलोक; भुवः-- भूव: नामक लोक; सुवः--स्वःलोक; ताः--वह जल; नः--हम सबको; पुनीत--पवित्र करता है; अमीव-घ्नी:--पापों का नाश करने वाला; स्पृशताम्‌--स्पर्श करने वालों के; आत्मना--अपने स्वाभाविक पद के कारण; भुवः--देह;इति--इस प्रकार।

    [ क्रौंच द्वीप के निवासी इस मंत्र से उपासना करते हैं हे नदियों के जल, आपकोश्रीभगवान्‌ से शक्ति प्राप्त है।

    अत: आप भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वलोक को पवित्र करते हैं।

    अपने स्वाभाविक पद के कारण आप पापों को ग्रहण करते हैं, इसलिए हम आपका स्पर्श करतेहैं।

    आप हमें पवित्र करते रहें।

    एवं पुरस्तात्क्षीरोदात्परित उपवेशित: शाकद्दीपो द्वात्रिंशल्लक्षयोजनायाम: समानेन च दधिमण्डोदेनपरीतो यस्मिन्शाको नाम महीरुहः स्वक्षेत्रव्ययदेशको यस्य ह महासुरभिगन्धस्तं द्वीपमनुवासयति ॥

    २४॥

    एवम्‌---इस प्रकार; पुरस्तात्‌ू--परे; क्षीर-उदात्‌-- क्षीर सागर से; परित:--चारों ओर; उपवेशित:--स्थित; शाक-द्वीप: --शाकद्ठवीप नामक अन्य द्वीप; द्वा-त्रिंशत्‌--बत्तीस; लक्ष--लाख; योजन--योजन; आयाम: --जिसकी माप; समानेन--समानलम्बाई वाला; च--और; दधि-मण्ड-उदेन--मट्टे के समान जल वाले समुद्र द्वारा; परीत:--आवबृत; यस्मिन्‌--जिसमें; शाक: --शाक; नाम--नामक; महीरुह:--अंजीर का वृशक्ष; स्व-क्षेत्र-व्यपदेशक: --जिससे द्वीप का यह नाम पड़ा; यस्य--जिसका;ह--निस्सन्देह; महा-सुरभि-- अत्यधिक भीनी; गन्ध: --सुगन्ध; तम्‌ द्वीपम्‌--उस द्वीप को; अनुवासयति--महकाती रहती है।

    क्षीर समुद्र से बाहर शाकद्ठवीप है, जिसकी चौड़ाई ३२,००,००० योजन ( २,५६,००,०००मील ) है।

    जिस प्रकार क्रौंचद्वीप अपने ही क्षीरसागर से घिरा है उसी प्रकार शाकद्ठीप अपने हीसमान चौड़ाई वाले मट्टठे के समुद्र से घिरा है।

    शाकद्ठीप में एक विशाल शाक वृक्ष है, जिससे इसद्वीप का यह नाम पड़ा।

    यह वृक्ष अत्यन्त सुगन्धित है।

    इससे सारा द्वीप महकता रहता है।

    तस्यापि प्रैयत्रत एवाधिपतिर्नाम्ना मेधातिथि: सोपि विभज्य सप्त वर्षाणि पुत्रनामानि तेषुस्वात्मजान्पुरोजवमनोजवपवमानधूप्रानीकचित्ररेफबहुरूपविश्वधारसंज्ञान्निधाप्याधिपतीन्स्वयं भगवत्यनन्तआवेशितमतिस्तपोवनं प्रविवेश ॥

    २५॥

    तस्य अपि--इस द्वीप का भी; प्रैयत्रतः--महाराज प्रियत्रत का पुत्र; एबव--निश्चय ही; अधिपति:--राजा; नाम्ता--नामक; मेधा-तिथि: --मेधातिधि; सः अपि--वह भी; विभज्य--विभाजित करके; सप्त वर्षाणि--द्वीप के सात विभाग; पुत्र-नामानि--पुत्रोंके नाम; तेषु-- उनमें; स्व-आत्मजान्‌--अपने पुत्रों; पुरोजव--पुरोजव; मनोजव--मनोजव; पवमान--पवमान; धूप्रानीक--धूप्रानीक; चित्र-रेफ--चित्ररेफ; बहु-रूप--बहुरूप; विश्वधार--विश्वधार; संज्ञान्‌ू--नाम वाले; निधाप्य--प्रतिष्ठित करके;अधिपतीन्‌--शासक, राजा; स्वयम्‌--स्वयं; भगवति-- श्री भगवान्‌ में; अनन्ते--अनन्त रूप में; आवेशित-मति:-- ध्यानमग्न;तपः-वनमू्‌--तपोवन में; प्रविवेश--प्रवेश किया।

    इस द्वीप के स्वामी प्रियत्रत के ही पुत्र मेधातिथि थे।

    उन्होंने भी अपने द्वीप को सात भागों मेंविभाजित करके उनका नाम अपने पुत्रों के नाम पर रखा और उन्हें उन द्वीपों का राजा बनादिया।

    उनके इन पुत्रों के नाम हैं--पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप तथाविश्वधार।

    इस द्वीप को विभाजित करके अपने पुत्रों को उनका राजा बनाकर मेधापति स्वयंविरक्त हो गये और उन्होंने अपने मन को श्रीभगवान्‌ के चरणारविन्दों में लगाने के उद्देश्य सेध्यान-योग्य एक तपोवन में प्रवेश किया।

    एतेषां वर्षमर्यादागिरयो नद्यश्न सप्त सप्तैव ईशान उरुश्रुड्'ो बलभद्र: शतकेसरः सहस्त्रसत्रोतो देवपालोमहानस इति अनघायुर्दा उभयस्पृष्टिरपराजिता पञ्ञपदी सहस्त्रस्त्रुतिर्निजधृतिरिति ॥

    २६॥

    एतेषाम्‌--इन समस्त विभागों की; वर्ष-मर्यादा--सीमा रेखा के रूप में; गिरयः--बड़ी बड़ी पहाड़ियाँ; नद्यः च--तथा नदियाँभी; सप्त--सात; एव--निस्सन्देह; ईशान: --ईशान; उरु श्रृड्र:--उरुश्वृंग; बल-भद्ग: --बलभद्र; शत-केसर: --शतकेसर;सहस्त्र-सत्रोत:--सहस्त्रस्नोत; देव-पाल:--देवपाल; महानस: --महानस; इति--इस प्रकार; अनघा--अनघा; आयुर्दा--आयुर्दा;उभयस्पृष्टि:--उभयस्पृष्टि; अपराजिता--अपराजिता; पञ्ञपदी--पंचपदी; सहस्त्र-स्त्रुतिः--सहस्त्र-स्त्रुति; निज-धृति:--निजधूति;इति--इस प्रकार।

    इन द्वीपों में भी सात मर्यादा पर्वत तथा सात ही नदियाँ हैं।

    पर्वतों के नाम ईशान, उरुश्रृंग,बलभद्र, शतकेशर, सहस्त्र-स्त्रोन, देवपाल तथा महानस हैं तथा नदियाँ अनघा, आयुर्दा,उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पंचपदी, सहस्त्रस्त्रुति तथा निजधृति हैं।

    तद्वर्षपुरुषा ऋतत्रतसत्यब्रतदानक्रतानुत्रतनामानो भगवतन्तं वाय्वात्मकं प्राणायामविधूतरजस्तमसः'परमसमाधिना यजन्ते ॥

    २७॥

    ततू-वर्ष-पुरुषा:--उस वर्ष के निवासी; ऋत-ब्रत--ऋतत्रत; सत्य-ब्रत--सत्यब्रत; दान-ब्रत--दानब्रत; अनुब्रत-- अनुब्रत;नामान:--इन ( चार ) नाम वाले; भगवन्तम्‌-- श्रीभगवान्‌; वायु-आत्मकम्‌--वायु देवता के रूप में ; प्राणायाम --प्राणायामद्वारा; विधूत--निर्मल बनाया; रज:-तमसः --रजोगुण तथा तमोगुण; परम समाधिना-- परम समाधि द्वारा; यजन्ते--उपासनाकरते हैं।

    उन द्वीपों के वासी भी ऋतत्रत, सत्यव्रत, दानब्रत तथा अनुव्रत--इन चार वर्णों में विभक्तहैं, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के समान हैं।

    वे प्राणायाम तथा योग साधते हैं औरसमाधि द्वारा वायु रूप में परमेश्वर भगवान्‌ की उपासना करते हैं।

    अन्तःप्रविश्य भूतानि यो बिभर्त्यात्मकेतुभि: ।

    अन्तर्यामी श्वरः साक्षात्पातु नो यद्वशे स्फुटम्‌ ॥

    २८ ॥

    अन्तः-प्रविश्य--अन्तःकरण में प्रवेश करके; भूतानि--समस्त प्राणियों का; यः--जो; बिभर्ति-- पालन करता है; आत्म-केतुभि:--अन्तः वायु की क्रियाओं ( प्राण, अपान इत्यदि ) द्वारा ); अन्तर्यामी--अन्तस्थ परमात्मा; ई श्वरः -- परमेश्वर;साक्षात्‌--साक्षात्‌; पातु--पालन करे; न:ः--हमारा; यत्‌-वशे--जिसके वश में; स्फुटमू--विराट जगत[

    शाकद्वीप के निवासी वायु रूप में श्रीभगवान्‌ की उपासना निम्नलिखित शब्दों से करतेहैं हे परम पुरुष, देह के भीतर परमात्मा रूप में स्थित आप विभिन्न वायुओं यथा प्राण कीविभिन्न क्रियाओं का संचालन करने वाले तथा समस्त जीवात्माओं का पालन करने वाले हैं।

    हे ईश्वर, हे परमात्मा, हे विराट जगत के नियामक, आप सभी प्रकार के संकटों से हमारी रक्षा करें।

    एवमेव दधिमण्डोदात्परत: पुष्करद्वीपस्ततो द्विगुणायाम: समन्तत उपकल्पितः समानेन स्वादूदकेनसमुद्रेण बहिरावृतो यस्मिन्बृहत्पुष्करं ज्जलनशिखामलकनकपपत्रायुतायुतं भगवतः कमलासनस्याध्यासनंपरिकल्पितम्‌, ॥

    २९॥

    एवम्‌ एव--इस प्रकार; दधि-मण्ड-उदातू--मट्टे के सागर से; परत:--परे; पुष्कर-द्वीप: --पुष्कर द्वीप नामक अन्य द्वीप;ततः--उस ( शाकद्दवीप ) की अपेक्षा; द्वि-गुण-आयाम:--जिसका विस्तार दुगुना है; समन्ततः--चारों दिशाओं में;उपकल्पित:--घिरा हुआ; समानेन--समान विस्तार वाला; स्वादु-उदकेन--मधुर जल वाले; समुद्रेण--समुद्र से; बहि:--बाहरसे; आवृतः--घिरा हुआ; यस्मिन्‌ू--जिसमें; बृहत्‌--विशाल; पुष्करम्‌--कमल पुष्प; ज्वलन-शिखा--प्रज्वलित अग्नि कीज्वालाओं सहश; अमल--निर्मल; कनक--स्वर्ण; पत्र--पत्तियाँ; अयुत-अयुतम्‌--लाखों अथवा दस करोड़; भगवत:--अत्यन्त शक्तिमान; कमल आसनस्य--ब्रह्म का, जिनका आसन कमल है; अध्यासनम्‌-- आसन; परिकल्पितम्‌--माना जाताहैदथधि के समुद्र से बाहर पुष्कर नाम का एक अन्य द्वीप है जो इस समुद्र से दुगनी चौड़ाईवाला अर्थात्‌ ६४,००,००० योजन (५,२२,००,००० मील ) है।

    यह द्वीप अपने ही समानचौड़ाई वाले मधुर जल के सागर से घिरा हुआ है।

    पुष्कर द्वीप में अग्नि की ज्वालाओं के समानदेदीप्यमान दस करोड़ स्वर्णिम पंखुड़ियों वाला विशाल कमल का पुष्प है, जो सर्वशक्तिमानतथा इसी कारण कभी कभी भगवान्‌ कहलाने वाले ब्रह्म का आसन माना जाता है।

    तद्दवीपमध्ये मानसोत्तरनामैक एवार्वाचीनपराचीनवर्षयोर्मर्यादाचलोयुतयोजनोच्छायायामो यत्र तुचतसूषु दिक्षु चत्वारि पुराणि लोकपालानामिन्द्रादीनां यदुपरिष्टात्सूर्यरथस्य मेरुं परिभ्रमतः संवत्सरात्मक॑चक्र देवानामहोरात्रा भ्यां परिभ्रमति ॥

    ३०॥

    ततू-द्वीप-मध्ये--उस द्वीप के मध्य में; मानसोत्तर--मानसोत्तर; नाम--नामक; एक:--एक; एव--निस्सन्देह; अर्वाचीन--इसओर; पराचीन--उस ओर; वर्षयो: --वर्षो ( भूभागों ) के; मर्यादा--सीमा सूचक; अचल: --पर्वत; अयुत--दस हजार;योजन--आठ मील तुल्य दूरी; उच्छाय-आयाम:--जिसकी ऊँचाई तथा चौड़ाई; यत्र--जहाँ; तु--लेकिन; चतसूषु--चारों;दिक्षु--दिशाओं में; चत्वारि--चार; पुराणि--नगर; लोक-पालानाम्‌--लोकों के पालकों का; इन्द्र-आदीनाम्‌--इंद्र आदि;यत्‌--जिसका; उपरिष्टात्‌--ऊपर; सूर्य-रथस्य--सूर्य देव के रथ का; मेरुम्‌--मेरु पर्वत; परिभ्रमत:ः--परिक्रमा करते हुए;संवत्सर-आत्मकम्‌--एक संवत्सर वाला; चक्रम्‌-चक्र ; देवानाम्‌ू--देवताओं का; अहः-रात्राभ्यामू-दिन तथा रात्रि से;परिभ्रमति--चक्कर लगाता है।

    उस द्वीप के बीचोंबीच, भीतरी तथा बाहरी ओर की सीमा बनाने वाला मानसोत्तर नाम काएक पर्वत है।

    यह दस हजार योजन ( ८०,००० मील ) ऊँचा और इतना ही चौड़ा है इसके ऊपरचारों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की पुरियाँ हैं।

    सूर्यदेव अपने रथ में आरूढ़ होकर इस पर्वतके ऊपर संवस्तर नामक परिधि में, जो मेरु पर्वत का चक्कर लगाती है, यात्रा करते हैं।

    उत्तर दिशामें सूर्य का पथ उत्तरायण और दक्षिण दिशा में दक्षिणायन कहलाता है।

    देवताओं के लिए एकदिशा में दिन होता है, तो दूसरी में रात्रि।

    तद्दवीपस्याप्यधिपति:ः प्रैयत्रतो वीतिहोत्रो नामैतस्थात्मजौ रमणकधातकिनामानौ वर्षपती नियुज्य सस्वयं पूर्वजवद्धगवत्कर्मशील एवास्ते ॥

    ३१॥

    तत्-द्वीपस्थ--उस द्वीप का; अपि-- भी; अधिपति: --राजा; प्रैयत्रतः--महाराज प्रियत्रत का पुत्र; बीतिहोत्र: नाम--वीतिहोत्रनामक; एतस्य--उसके; आत्म-जौ--अपने दो पुत्रों को; रमणक--रमणक; धातकि--तथा धातकि; नामानौ--नाम वाले;वर्ष-पती--दोनों वर्षो के स्वामी; नियुज्य--नियुक्त करके; सः स्वयम्‌--वह स्वयं; पूर्वज-वत्‌-- अपने अन्य भाइयों के समान;भगवत््‌-कर्म-शील:-- श्री भगवान्‌ को प्रसन्न करने में लीन; एब--निस्सन्देह; आस्ते--लगा रहता है।

    इस द्वीप का अधिपति महाराज प्रियत्रत का पुत्र बीतिहोत्र था जिसके रमणक तथा धातकीनामक दो पुत्र हुए।

    उसने इन दोनों पुत्रों को इस द्वीप के दोनों छोर दे दिये और स्वयं अपने अग्रजमेधातिथि के समान श्रीभगवान्‌ की सेवा में तत्पर रहने लगा।

    तद्वर्षपुरुषा भगवन्तं ब्रह्मरूपिणं सकर्मकेण कर्मणाराधयन्तीदं चोदाहरन्ति ॥

    ३२॥

    ततू-वर्ष-पुरुषा:--उस द्वीप के वासी; भगवन्तम्‌-- श्रीभगवान्‌; ब्रह्म-रूपिणम्‌--कमलासीन भगवान्‌ ब्रह्मा के रूप में; स-कर्मकेण-- भौतिक कामनाओं की पूर्ति हेतु; कर्मणा--वेदविहित अनुष्ठान करके; आराधयन्ति--आराधना करते हैं; इदम्‌--यह; च--तथा; उदाहरन्ति--जप करते हैं।

    इस द्वीप के वासी अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए ब्रह्मा के रूप में श्रीभगवान्‌की आराधना करते हैं।

    वे इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं।

    यत्तत्कर्ममयं लिड़ं ब्रह्मलिड्रंं जनोर्चयेत्‌ ।

    एकान्तमद्दयं शान्तं तस्मै भगवते नम इति ॥

    ३३॥

    यत्‌--जो; तत्‌--वह; कर्म-मयम्‌--वैदिक कृत्यों के द्वारा प्राप्प; लिड्रमू-- स्वरूप को; ब्रह्म-लिड्रमू--जिससे परब्रह्म जाने जातेहैं; जन:ः--व्यक्ति; अर्चयेत्‌ू-- अर्चना करनी चाहिए; एकान्तमू--एक परम ब्रह्म में पूर्ण आस्था रखने वाला; अद्दयम्‌ू-- अभिन्न;शान्तम्‌--शान्त; तस्मै--उन; भगवते--सर्वशक्तिमान को; नम:ः--नमस्कार है; इति--इस प्रकार

    भगवान्‌ ब्रह्म कर्ममय कहलाते हैं, क्योंकि अनुष्ठानों को करके कोई भी उनका पद प्राप्तकर सकता है और उन्हीं से वैदिक अनुष्ठान-स्तुतियाँ प्रकट होती हैं।

    वे अविचल भाव सेश्रीभगवान्‌ की भक्ति करते हैं, अतः एक प्रकार से वे भगवान्‌ से अभिन्न हैं।

    फिर भी उनकीउपासना एकान्तिक भाव से न करके द्वैत भाव से करनी चाहिए।

    मनुष्य को चाहिए कि अपनेको दास मानते हुए पर-ब्रह्म को ही परम आराध्य माने।

    अतः हम भगवान्‌ ब्रह्मा को साक्षात्‌वेदज्ञान के रूप में नमस्कार करते हैं।

    ऋषिरुवाचततः परस्ताल्लोकालोकनामाचलो लोकालोकयोरन्तराले परित उपक्षिप्त: ॥

    ३४॥

    ततः--मधुर जल के सागर से; परस्तात्‌ू--परे, आगे; लोकालोक-नाम--लोकालोक नामक; अचल: --पर्वत; लोक-अलोकयो: अन्तराले-- प्रकाश तथा अंधकार से पूर्ण देशों के मध्य में; परित:--चारों ओर; उपक्षिप्त:--विद्यमान है।

    इसके पश्चात्‌ मुदुल जल वाले सागर के आगे तथा इसको पूरी तरह घेरने वाला लोकालोकनामक पर्वत है जो देशों को सूर्य से प्रकाशित तथा अप्रकाशित इन दो भागों में विभाजित करदेता है।

    यावन्मानसोत्तरमेर्वो रन्तरं तावती भूमि: काञ्जन्यन्यादर्शतलोपमा यस्यां प्रहितः पदार्थों न कथज्ित्पुनःप्रत्युपलभ्यते तस्मात्सर्वसत्त्वपरिहतासीतू ॥

    ३५॥

    यावत्‌--जहाँ तक; मानसोत्तर-मेवों: अन्तरम्‌--मानसोत्तर तथा मेरु के बीच की भूमि ( सुमेरु पर्वत के मध्य से प्रारम्भ );तावती--वहाँ तक; भूमि:-- भूमि; काझ्ननी--स्वर्णनिर्मित; अन्या-- अन्य; आदर्श-तल-उपमा--जिसका तल दर्पण की तरह है;यस्यामू--जिस पर; प्रहित:--गिराई हुई; पदार्थ:--वस्तु; न--नहीं; कथज्ञित्‌--किसी प्रकार से; पुन:--फिर; प्रत्युपलभ्यते--पाई जाती है; तस्मात्‌ू--अतः; सर्व-सत्त्व--सारे जीवों द्वारा; परिहता--परित्यक्त; आसीतू-- थी |

    मृदुल जल के सागर से आगे सुमेरु पर्वत के मध्य से लेकर मानसोत्तर पर्वत की सीमा तकजितना अन्तर है उतनी भूमि है।

    उस भूभाग में अनेक प्राणी रहते हैं।

    उसके आगे लोकालोकपर्वत तक फैली हुई दूसरी भूमि है जो स्वर्णमय है।

    स्वर्णमय सतह के कारण यह दर्पण की तरहसूर्य प्रकाश को परावर्तित कर देती है, अतः इसमें गिरी हुई वस्तु पुनः नहीं दिखाई पड़ती।

    'फलत:ः सभी प्राणियों ने इस स्वर्णमयी भूमि का परित्याग कर दिया है।

    लोकालोक इति समाख्या यदनेनाचलेन लोकालोक स्यान्तर्वर्तिनावस्थाप्यते ॥

    ३६॥

    लोक--प्रकाश( अथवा वासियों ) से; अलोक:--प्रकाशरहित ( अथवा वासियों से विहीन ); इति--इस प्रकार से; समाख्या--पद; यत्‌--जो; अनेन--इस; अचलेन--पर्वत से; लोक--जीवात्माओं के देश; अलोकस्य--बिना प्राणियों वाले देश का;अन्तर्वर्तिना--मध्य में स्थित; अवस्थाप्यते--स्थित है |

    जीवात्माओं से युक्त तथा बिना प्राणियों वाले देशों के मध्य में एक विशाल पर्वत है जो इनदोनों को पृथक्‌ करता हैं, अतः लोकालोक नाम से विख्यात है।

    स लोकत्रयान्ते परित ईश्वेरण विहितो यस्मात्सूर्यादीनां श्रुवापवर्गाणां ज्योतिर्गणानांगभस्तयो४र्वाचीनांस्त्रील्लोकानावितन्वाना न कदाचित्पराचीना भवितुमुत्सहन्ते तावदुन्नहनायाम: ॥

    ३७॥

    सः--वह पर्वत; लोक-त्रय-अन्ते--तीनों लोकों ( भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वलोक ) के अन्त में; परित:--चारों ओर;ईश्वरण-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारा; विहित:--सृष्टि की; यस्मात्‌--जिससे; सूर्य-आदीनाम्‌--सूर्यलोक का; श्रुव-अपवर्गाणाम्‌--श्रुव तथा अन्य निम्नतर नक्षत्रों तक; ज्योति:-गणानाम्‌--समस्त नक्षत्रों का; गभस्तय:--किरणें; अर्वाचीनान्‌ू--इस दिशा में;आ्रीनू--तीन; लोकानू--लोक; आवितन्वाना: --विस्तीर्ण; न--नहीं; कदाचित्‌--किसी समय; पराचीना:--उस पर्वत की सीमाके परे; भवितुम्-होने के लिए; उत्सहन्ते--समर्थ हैं; तावत्‌--उतना; उन्नहन-आयाम: --पर्वत की ऊँचाई की माप।

    श्रीकृष्ण की परमेच्छा से लोकालोक नामक पर्वत तीनों लोकों-- भूलोक, भूवर्लोक तथास्वर्लोक--की बाहरी सीमा के रूप में स्थापित किया गया है, जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सूर्यकी किरणों का नियंत्रण किया जा सके।

    सूर्य से लेकर श्रुवलोक एवं सारे नक्षत्र इन तीनों लोकोंमें इस पर्वत के द्वारा निर्मित सीमा के अन्तर्गत अपनी किरणें बिखेरते हैं।

    चूँकि यह पर्वतश्रुवलोक से भी ऊँचा है, अतः यह नक्षत्रों की किरणों को अवरुद्ध कर लेता है, जिससे वे कभीभी इसके बाहर प्रसारित नहीं हो पातीं।

    एतावॉल्लोकविन्यासो मानलक्षणसंस्थाभिर्विचिन्तितः: कविभि: स तु पशञ्चाशत्कोटिगणितस्य भूगोलस्यतुरीयभागोयं लोकालोकाचलः ॥

    ३८ ॥

    एतावान्‌--इतना; लोक-विन्यास: --विभिन्न लोकों का वितरण; मान--परिमाप; लक्षण--लक्षण, चिह्न; संस्थाभि:--तथाउनकी विभिन्न स्थितियाँ; विचिन्तित:--वैज्ञानिक गणनाओं द्वारा निश्चित की गई; कविभि:--दिद्वानों के द्वारा; सः--वह; तु--लेकिन; पञ्ञाशत्‌-कोटि--पचास करोड़ योजन; गणितस्थ--गणना करने पर; भू-गोलस्य-- भूगोलक नामक लोक का;तुरीय-भाग:--चतुर्थाश; अयमू--यह; लोकालोक-अचल:--लोकालोक नामक पर्वत।

    त्रुटि, भ्रम तथा वंचना से मुक्त दिद्वानों ने प्रमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार लोकों काइतना ही विस्तार बतलाया है।

    उन्होंने विचार-विमर्श के बाद यह स्थापना की है कि सुमेरु तथालोकालोक पर्वत की दूरी ब्रह्माण्ड के व्यास की चतुर्थाश अर्थात्‌ १२,५०,००० ( साढ़े बारहकरोड़ ) योजन ( एक अरब मील ) है।

    तदुपरिष्टाच्यतसृष्वाशास्वात्मयोनिनाखिलजगद्गुरुणाधिनिवेशिता ये द्विरदपतय ऋषभ: पुष्करचूडोवामनोपराजित इति सकललोकस्थितिहेतवः ॥

    ३९॥

    ततू-उपरिष्टात्‌--लोकालोक पर्वत की चोटी पर; चतसूषु आशासु--चारों दिशाओं में; आत्म-योनिना-- भगवान्‌ ब्रह्मा द्वारा;अखिल-जगतू-गुरुणा--समस्त ब्रह्माण्ड के गुरु; अधिनिवेशिता:--स्थापित; ये--वे सब; द्विरद-पतयः--हाथियों में श्रेष्ठ;ऋषभ:--ऋषभ; पुष्कर-चूड:--पुष्करचूड; वामन: --वामन; अपराजित:--अपराजित; इति--इस प्रकार; सकल-लोक-स्थिति-हेतवः--विश्व के अन्तर्गत विभिन्न लोकों के पालन के कारण।

    लोकालोक पर्वत के ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड के परम-गुरु भगवान्‌ ब्रह्मा के द्वारा स्थापितगजों में श्रेष्ठ चार गज-पति हैं।

    इन गजों के नाम हैं-ऋषभ, पुष्करचूड़, वामन तथा अपराजित।

    येब्रह्माण्ड के लोकों को धारण करते हैं।

    तेषां स्वविभूतीनां लोकपालानां च विविधवीर्योपबूृंहणाय भगवान्परममहापुरुषोमहाविभूतिपतिरन्तर्याम्यात्मनो विशुद्धसत्त्वं धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्याद्यष्टमहासिद्धद्ुपलक्षणं विष्वक्सेनादिभि:स्वपार्षदप्रवर: परिवारितो निजवरायुधोपशोभितैर्निजभुजदण्डै: सन्धारयमाणस्तस्मिन्गिरिवरेसमन्तात्सकललोकस्वस्तय आस्ते ॥

    ४०॥

    तेषाम्‌--उनमें से; स्व-विभूतीनाम्‌--जो उनके व्यक्तिगत अंश-विस्तार तथा सेवक हैं; लोक-पालानाम्‌--जिन पर विश्व के कार्यव्यापारों की देख-रेख का भार है; च--तथा; विविध--नाना प्रकार; वीर्य-उपबृंहणाय--शक्तियों के प्रसार हेतु; भगवानू--श्रीभगवान्‌; परम-महा-पुरुष:--सभी प्रकार के ऐश्वर्य के आद्य स्वामी, श्रीभगवान्‌; महा-विभूति-पति:--समस्त अकल्पनीयशक्तियों के स्वामी; अन्तर्यामी--परमात्मा; आत्मन: --अपना; विशुद्ध-सच्त्वम्‌-प्रकृति के गुणों से निष्कलुष अस्तित्त्व वाला;धर्म-ज्ञान-वैराग्य-- धर्म, ज्ञान तथा वैराग्य का; ऐश्वर्य-आदि--समस्त प्रकार के ऐश्वर्य का; अष्ट--आठ; महा-सिद्द्धि--तथामहान्‌ सिद्धियाँ; उपलक्षणम्‌--गुणमय; विष्वक्सेन-आदिभि:--विष्वक्सेन आदि अपने अंश-विस्तार द्वारा; स्व-पार्षद-प्रवरै: --अपने श्रेष्ठ सहायकों से; परिवारित:--घिरे हुए; निज--अपना; वर-आयुध--विभिन्न प्रकार के शस्त्र-अस्त्रों द्वारा;उपशोभितै:--सुशोभित; निज--निजी; भुज-दण्डै: --भुजदण्ड द्वारा; सन्धारयमाण:--इस रूप को प्रकट करके; तस्मिनू--उससमस्त लोकों के कल्याण हेतु; गिरि-वरे--महान्‌ पर्वत; समन्तात्‌ू--चारों ओर; सकल-लोक-स्वस्तये--सारे लोकों के लाभहेतु; आस्ते--है

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ समस्त दिव्य ऐश्वर्य तथा चिदाकाश के स्वामी हैं।

    वे परम पुरूष हैंअर्थात्‌ भगवान्‌ हैं, वे प्रत्येक प्राणी के परमात्मा हैं।

    स्वर्ग लोक के राजा इन्द्र के अधीनदेवतागण इस भौतिक जगत के कार्यों का निरीक्षण करते हैं।

    विभिन्न लोकों के प्राणियों केलाभ हेतु तथा उन हाथियों तथा देवताओं की शक्ति को बढ़ाने के लिए भगवान्‌ स्वयं उस पर्वत की चोटी पर प्रकृति के गुणों से अदूषित दिव्य शरीर धारण करके प्रकट होते हैं।

    अपने निजीप्रकाश तथा विष्वक्सेन जैसे सहायकों से घिरे रह कर वे अपने पूर्ण ऐश्वर्य ( यथा ज्ञान तथा धर्म )एवं अपनी शक्तियों ( यथा अणिमा, लघिमा तथा महिमा ) को प्रदर्शित करते हैं।

    वे सुअलंकृत हैंऔर अपनी चारों भुजाओं में विविध आयुध धारण किये हुए हैं।

    आकल्पमेवं वेषं गत एब भगवानात्मयोगमायया विरचितविविधलोकयात्रागोपीयायेत्यर्थ: ॥

    ४१॥

    आ-कल्पम्‌--कल्प के अन्त तक; एवम्‌--इस प्रकार; वेषम्‌ू--वेश; गतः--स्वीकार किया; एब: --यह; भगवान्‌--श्रीभगवान्‌; आत्म-योग-मायया--अपनी योगमाया से; विरचित--सम्पन्न; विविध-लोक-यात्रा--विभिन्न लोकों काजीवनयापन; गोपीयाय--पालन करने भर को; इति--इस प्रकार; अर्थ:--प्रयोजन

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के विविध रूप, यथा नारायण तथा विष्णु, विभिन्न आयुधों सेअलंकृत हैं।

    श्रीभगवान्‌ अपनी योगमाया से उत्पन्न समस्त लोकों का पालन करने के लिए इनरूपों को प्रकट करते हैं।

    योअन्तर्विस्तार एतेन हालोकपरिमाणं च व्याख्यातं यद्वहिलोकालोकाचलातू; ततः परस्ताद्योगे श्वरगतिंविशुद्धामुदाहरन्ति ॥

    ४२॥

    यः--वह जो; अन्तः-विस्तार:--लोकालोक पर्वत की आन्तरिक दूरी; एतेन--इससे; हि--ही; अलोक-परिमाणम्‌--अलोकवर्ष का विस्तार; च--तथा; व्याख्यातम्‌--वर्णित; यत्‌--जो; बहिः--बाहर की ओर; लोकालोक-अचलात्‌--लोकालोक पर्वतसे आगे; ततः--वह; परस्तात्‌--परे, आगे; योगेश्वर-गतिम्‌--ब्रह्माण्ड के आवरणों को भेदने के लिए योगेश्वर ( कृष्ण ) कामार्ग; विशुद्धामू-- भौतिक कलुष से रहित; उदाहरन्ति--वे कहते हैं

    हे राजन, लोकालोक पर्वत के बाहर अलोकवर्ष है जो पर्वत के भीतरी चौड़ाई के विस्तारके बराबर अर्थात्‌ १२,५०,००,००० (साढ़े बारह करोड़ ) योजन (एक अरब मील) तकविस्तीर्ण है।

    अलोक वर्ष के परे भौतिक जगत से मुक्ति के इच्छुक व्यक्तियों का गन्तव्य है।

    इसको प्रकृति के भौतिक गुण कलुषित नहीं कर पाते, अतः यह पूर्णतया विशुद्ध है।

    ब्राह्मण केपुत्रों को वापस लाते समय श्रीकृष्ण अर्जुन को इसी स्थान से होकर ले गये थे।

    अण्डमध्यगत:ः सूर्यो द्यावाभूम्योर्यदन्तरम्‌ ।

    सूर्याण्डगोलयोर्मध्ये कोट्य: स्युः पञ्ञविंशति: ॥

    ४३॥

    अण्ड-मध्य-गत:--ब्रह्माण्ड के मध्य में स्थित; सूर्य:--सूर्य गोलक ; द्याव्‌ू-आभूम्यो: -- भूलोंक तथा भुवर्लोक नामक दो लोक;यतू्‌--जो; अन्तरम्‌-के मध्य; सूर्य--सूर्य का; अण्ड-गोलयो:--तथा ब्रह्माण्ड के; मध्ये--बीच में; कोट्य:--एक करोड़ केसमूह; स्यु:--हैं; पदञ्ञ-विंशति:--पच्चीस |

    सूर्य इस ब्रह्माण्ड के मध्य में, भूलोॉक तथा भुवर्लोक के मध्यवर्ती भाग में स्थित है, जिसेअन्तरिक्ष कहते हैं।

    सूर्य तथा ब्रह्माण्ड की परिधि के बीच की दूरी पच्चीस कोटि योजन ( ३अरब मील ) है।

    मृतेण्ड एव एतस्मिन्यदभूत्ततो मार्तण्ड इति व्यपदेश: ।

    हिरण्यगर्भ इति यद्धिरण्याण्डसमुद्धवः ॥

    ४४॥

    मृते--मृत; अण्डे--गोलक में; एष:--यह; एतस्मिन्‌--इसमें; यत्‌-- जो; अभूत्‌--सृष्टि के समय स्वयं प्रविष्ट हुआ; ततः--उससे; मार्तण्ड--मार्तण्ड; इति--इस प्रकार; व्यपदेश: --नाम; हिरण्य-गर्भ: --हिरण्यगर्भ नाम से विख्यात; इति--इस प्रकार;यत्‌-क्योंकि; हिरण्य-अण्ड-समुद्धव:--उनकी देह हिरण्यगर्भ से उत्पन्न हुई।

    सूर्यदेव वैराज अर्थात्‌ समस्त जीवात्माओं के लिए सम्पूर्ण भौतिक शरीर भी कहलाते हैं।

    ब्रह्माण्ड की सृष्टि के समय ब्रह्माण्ड के अण्डे के भीतर प्रवेश करने के कारण वे मार्तण्ड भीकहलाते हैं।

    हिरण्यगर्भ ( ब्रह्मा ) से भौतिक शरीर प्राप्त करने के कारण वे हिरण्यगर्भ भीकहलाते हैं।

    सूर्येण हि विभज्यन्ते दिश: खं द्यौर्मही भिदा ।

    स्वर्गापवर्गों नरका रसौकांसि च सर्वशः ॥

    ४५॥

    सूर्यगण--सूर्यदेव द्वारा; हि--ही; विभज्यन्ते--विभाजित हैं; दिश:--दिशाएँ; खम्‌-- आकाश; दयौ: --स्वर्गलोक; मही--पृथ्वीलोक; भिदा--अन्य वर्गीकरण; स्वर्ग--स्वर्गलोक ; अपवर्गौं-- मुक्ति के लिए स्थान; नरकाः--नरकलोक; रसौकांसि--यथा अतल; च- भी; सर्वश:--सभी |

    हे राजन, सूर्यदेव तथा सूर्यलोक ब्रह्माण्ड की समस्त दिशाओं को विभाजित करते हैं।

    सूर्यकी उपस्थिति के ही कारण हम समझ पाते हैं कि आकाश, स्वर्गलोक, यह संसार तथापाताललोक क्या हैं।

    सूर्य के ही कारण हम जान पाते हैं कि भोग या मोक्ष के स्थान कौन-कौनसे हैं और कौन से नरक तथा अतल आदि लोक हैं।

    देवतिर्यड्मनुष्याणां सरीसूपसवीरु धाम्‌ ।

    सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा हगी श्वर: ॥

    ४६॥

    देव--देवताओं; तिर्यक्‌ --निम्न पशुओं; मनुष्याणाम्‌--तथा मनुष्यों का; सरीसूप--कीट तथा सर्प; स-बीरुधाम्‌--तथा पेड़-पौधे; सर्व-जीव-निकायानाम्‌--समस्त जीव समूहों का; सूर्य:--सूर्यदेव; आत्मा--प्राण तथा आत्मा; हक्‌--नेत्र के; ईश्वर: --भगवान्‌

    सूर्यलोक से सूर्यदेव द्वारा प्रदान की जा रही उष्मा तथा प्रकाश पर ही समस्त जीवात्माएँ,जिनमें देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, रेंगनेवाले जीव, लताएँ तथा वृक्ष सम्मिलित हैं, निर्भरहैं।

    सूर्य की ही उपस्थिति में सभी प्राणी देख सकते हैं, इसीलिए वह हृग्‌-ईश्वर अर्थात्‌ दृष्टि केईश्वर कहलाते हैं।

    TO

    अध्याय इक्कीसवाँ: सूर्य की गति

    5.21एतावानेव भूवलयस्य सन्निवेश: प्रमाणलक्षणतो व्याख्यातः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एतावान्‌--इतना; एव--ही; भू-वलयस्य सन्निवेश:--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कीयोजना; प्रमाण-लक्षणत:--लक्षणों तथा माप के अनुसार ( पचास करोड़ योजन या ४ अरब लम्बाई तथा चौड़ाई );व्याख्यात:--अनुमान किया गया।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजन, मैंने यहाँ तक आपसे विद्वानों के अनुमानों केआधार पर ब्रह्माण्ड के व्यास ( पचास करोड़ योजन या ४ अरबमील ) तथा इसके सामान्यलक्षणों का वर्णन किया है।

    एतेन हि दिवो मण्डलमानं तद्ठविद उपदिशन्ति यथा द्विदलयोर्निष्पावादीनां ते अन्तरेणान्तरिक्षंतदुभयसन्धितम्‌ ॥

    २॥

    एतेन--इस अनुमान के आधार पर; हि--निस्सन्देह; दिवः--स्वर्गलोक का; मण्डल-मानम्‌--गोलक का परिमाण( माप ); ततू-विदः--इसको जानने वाले विद्वज्जन; उपदिशन्ति-- उपदेश देते हैं; यथा--जिस प्रकार; द्वि-दलयो:--दो अर्द्ध॑भागों में; निष्पाव-आदीनाम्‌--अन्न के दाने यथा गेहूँ के; ते--दो विभागों का; अन्तरेण--बीच के स्थान में; अन्तरिक्षम्‌-- आकाश या बाह्य-आकाश; तत्‌--दोनों के द्वारा; उभय--दोनों ओर; सन्धितम्‌--जहाँ दोनों भाग जुड़े हैं

    जिस प्रकार गेहूँ के दाने को भागों में विभाजित कर देने पर निचले भाग के परिमाण ( आकार ) का ज्ञान होने पर ऊपरी भाग का पता लगाया जाता है उसी प्रकार भूगोलवेत्ताओं काकहना है कि इस ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग की माप को तभी समझा जा सकता है, जब निचलेभाग की माप ज्ञात हो।

    भूलोक तथा झुलोक के बीच का आकाश अन्तरिक्ष अथवा बाह्य-आकाश कहलाता है।

    यह भूलोक की चोटी तथा झ्युलोक के निचले भाग को जोड़ता है।

    यन्मध्यगतो भगवांस्तपतां पतिस्तपन आतपेन त्रिलोकीं प्रतपत्यवभासयत्यात्मभासा स एउदगयनदक्षिणायनवैषुवतसंज्ञाभिर्मान्दशैरयसमानाभिर्गतिभिरारोहणावरोहणसमानस्थानेषुयथासवनमभिपद्यमानो मकरादिषु राशिष्वहोरात्राणि दीर्घहस्वसमानानि विधत्ते ॥

    ३ ॥

    यत्‌--जिस ( मध्यावकाश ) का; मध्य-गत: --मध्य में स्थित होने से; भगवान्‌--सर्वशक्तिमान; तपताम्‌ पति: --सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको तपाने वालों का स्वामी; तपन:--सूर्य:; आतपेन--ताप से; त्रि-लोकीम्‌--तीनों लोकों को; प्रतपति--तप्त करता है;अवभासयति--प्रकाशित करता है; आत्म-भासा--अपनी भास्कर किरणों से; सः--वह; एष: --सूर्यगोलक ; उदगयन--विषुव॒त रेखा के उत्तर की ओर गमन का; दक्षिण-अयन--विषुवत रेखा के दक्षिण गमन का; वैषुव॒त-- अथवा विषुव॒त रेखापार करने का; संज्ञाभिः--विभिन्न नामों से; मान्दय--मन्दता से; शैश्य--शीघ्रता से; समानाभि:--तथा समानता से; गतिभि: --गति से; आरोहण--ऊपर जाने; अवरोहण--नीचे जाने की; समान--मध्य में स्थित रहने की; स्थानेषु--स्थितियों में; यथा-सबनम्‌-- श्रीभगवान्‌ की आज्ञानुसार; अभिपद्यमान:--गति करते हुए; मकर-आदिषु--मकर आदि; राशिषु--विभिन्न राशियोंमें; अहः-रात्राणि--दिन तथा रात्रियाँ; दीर्घ--लम्बे; हस्व--छोटे; समानानि--समान; विधत्ते--करता है |

    उस अन्तरिक्ष के मध्य में ताप उत्पन्न करने वाले समस्त ग्रहों का राजा परम तेजवान सूर्य हैजो अपने प्रकाश से समस्त ब्रह्माण्ड को तप्त करता है और उसको वास्तविक स्वरूप प्रदानकरता है।

    यह समस्त जीवात्माओं को प्रकाश प्रदान करता है, जिससे वे देख पाते हैं।

    श्रीभगवान्‌की आज्ञानुसार वह उत्तरायण, दक्षिणायन होकर या विषुव॒त रेखा को पार करते हुए मन्द, शीघ्रऔर मध्यम गतियों से घूमता हुआ समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानोंमें जाकर दिन तथा रात को बड़ा, छोटा या समान बनाता है।

    यदा मेषतुलयोर्वर्तते तदाहोरात्राणि समानानि भवन्ति यदा वृषभादिषु पञ्ञसु च राशिषु चरति तदाहान्येववर्धन्ते हसति च मासि मास्येकैका घटिका रात्रिषु, ॥

    ४॥

    यदा--जब; मेष-तुलयो:--मेष तथा तुला राशियों में; वर्तते--सूर्य रहता है; तदा--उस समय; अहः-रात्राणि--दिन तथा रातें;समानानि--समान अवधि की; भवन्ति--होती हैं; यदा--जब; वृषभ-आदिषु--वृषभ, मिथुन आदि; पञ्ञसु-- पाँच; च-- भी;राशिषु--राशियों में; चरति--घूमता है; तदा--उस समय; अहानि--दिन; एव--निश्चय ही; वर्धन्ते--बढ़ते हैं; हसति--घटतेहैं; च-- भी; मासि मासि-- प्रत्येक मास में; एक-एका--एक; घटिका--आधा घंटा; रात्रिषु--रातों में |

    जब सूर्य मेष या तुला राशि पर आता है, तो दिन और रात की अवधि समान हो जाती है।

    जब यह वृषभ इत्यादि पाँचों राशियों पर से गुजरता है, तो दिन ( कर्क तक ) बढ़ता जाता है औरतब प्रति मास आधा घंटा घटता रहता है, जब तक दिन तथा रात्रि पुनः ( तुला में ) समान नहीं होजाते।

    यदा वृश्चिकादिषु पञ्ञसु वर्तते तदाहोरात्राणि विपर्ययाणि भवन्ति ॥

    ५॥

    यदा--जब; वृश्चिक-आदिषु--वृश्चिक इत्यादि; पञ्ञसु--पाँच; वर्तते--रहता है; तदा--उस काल; अहः-रात्राणि--दिन तथारात; विपर्ययाणि-- इसके विपरीत ( दिन घटता और रात बढ़ती है ); भवन्ति--होते हैं।

    जब सूर्य वृश्चिक इत्यादि पाँच राशियों से होकर गुजरता है, तो दिन घटता है ( जब तक यहमकर राशि पर नहीं आ जाता ) और फिर क्रमशः मास प्रति मास बढ़ता जाता है जब तक दिनऔर रात समान ( मेष पर ) नहीं हो जाते।

    यावद्दक्षिणायनमहानि वर्धन्ते यावदुदगयनं रात्रय: ॥

    ६॥

    यावत्‌--जब तक; दक्षिण-अयनम्‌--सूर्य दक्षिण को चला जाता है; अहानि--दिन; वर्धन्ते--बढ़ते हैं; यावत्‌--जब तक;उदगयनम्‌--सूर्य उत्तर को जाता है ( उत्तरायण ); रात्रय:--रातें |

    सूर्य के दक्षिणायन होने तक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण होने तक रातें लम्बी होतीजाती हैं।

    एवं नव कोटय एकपश्ञाशल्लक्षाणि योजनानां मानसोत्तरगिरिपरिवर्तनस्योपदिशन्ति तस्मिन्नैन्द्रीं पुरीपूर्वस्मान्मेरोदेबधानीं नाम दक्षिणतो याम्यां संयमनीं नाम पश्चाद्वारुणीं निम्लोचनीं नाम उत्तरतः सौम्यांविभावरीं नाम तासूदयमध्याह्रास्तमयनिशीथानीति भूतानां प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तानि समयविशेषेणमेरोश्वतुर्दिशमू, ॥

    ७॥

    एवम्‌--इस प्रकार; नव--नौ; कोटय:--करोड़; एक-पञ्ञाशत्‌ू--इक्यावन; लक्षाणि--लाख; योजनानाम्‌--योजनों का;मानसोत्तर-गिरि--मानसोत्तर पर्वत की; परिवर्तनस्थ--परिक्रमा का; उपदिशन्ति--वे ( विद्वान ) उपदेश देते हैं; तस्मिनू--उसपर्वत पर; ऐन्द्रीमू--इन्द्र की; पुरीम्‌ू-- पुरी, नगर; पूर्वस्मात्‌--पूर्व दिशा में; मेरो:--सुमेरु पर्वत की; देवधानीम्‌--देवधानी;नाम--नामक; दक्षिणत: --दक्षिण दिशा में; याम्याम्‌ू--यमराज का; संयमनीम्‌--संयमनी; नाम--नामक; पश्चात्‌-पश्चिमदिशा में; वारुणीम्‌ू--वरुण का; निम्लोचनीम्‌--निम्लोचनी; नाम--नामक ; उत्तरत:--उत्तर दिशा में; सौम्याम्‌--चन्द्रमा का;विभावरीम्‌--विभावरी; नाम--नामक; तासु--इन सबों में; उदय--सूर्योदय; मध्याह्--दोपहर; अस्तमय--सूर्यास्त;निशीथानि--अर्धरात्रि; इति--इस प्रकार; भूतानाम्‌--जीवात्माओं की; प्रवृत्ति--क्रियाशीलता; निवृत्ति--क्रियाशीलता काअन्त; निमित्तानि--कारण; समय-विशेषेण--विशेष समय द्वारा; मेरो:--सुमेरु पर्वत की; चतु:-दिशम्‌--चारों दिशाएँ।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोले--हे राजन, जैसा पहले कह चुका हूँ पण्डितों का कहना हैकि मानसोत्तर पर्वत के चारों ओर सूर्य का परिक्रमा-पथ ९,५१,००,००० ( नौ करोड़ इक्यावनलाख ) योजन ( ७६ करोड़ आठ लाख मील ) है।

    मानसोत्तर पर्वत पर मेरु के पूर्व की ओर इन्द्रकी देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरूण की निम्लोचनी तथा उत्तर मेंचन्द्रमा की विभावरी नामक पुरियाँ स्थित हैं।

    इन सभी पुरियों में मेरू के चारों ओर विशिष्टकालों के अनुसार सूर्योदय, मध्याह्न, सूर्यास्त तथा अर्धरात्रि होती रहती है और तदनुसार समस्तजीवात्माएँ अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त अथवा निवृत्त होती रहती हैं।

    तत्रत्यानां दिवसमध्यड्रत एव सदादित्यस्तपति सव्येनाचलं दक्षिणेन करोति; यत्रोदेति तस्य हसमानसूत्रनिपाते निम्लोचति यत्र क्वचन स्यन्देनाभितपति तस्य हैष समानसूत्रनिपाते प्रस्वापयति तत्र गतंन पश्यन्ति ये तं समनुपश्येरनू, ॥

    ८॥

    तत्रत्यानामू--मेरु पर्वत पर रहने वाली जीवात्माओं के लिए; दिवस-मध्यड्रत:--मध्याह्कालीन; एब--ही; सदा--सदैव;आदित्य:--सूर्य; तपति--तपता है; सव्येन--वाम दिशा को; अचलमू--सुमेरु पर्वत; दक्षिणेन--दक्षिण को ( दक्षिण को बहतेपवन से प्रेरित होकर सूर्य दक्षिण को जाता है ); करोति--चलता है; यत्र--जहाँ; उदेति--उदय होता है; तस्य--उस स्थान का;वापाए ह--निश्चय ही; समान-सूत्र-निपाते--सर्वथा विपरीत दिशा वाले बिन्दु पर ठीक दूसरी ओर; निम्लोचति--सूर्यास्त होता है;यत्र--जहाँ; क्वचन--कहीं; स्वन्देन-- पसीने से; अभितपति--तपता है ( मध्याह्न में ); तस्थ-- उसका; ह--ही; एष:--यह( सूर्य ); समान-सूत्र-निपाते--एकदम विपरीत बिन्दु पर ठीक दूसरी ओर; प्रस्वापयति--सूर्य सुलाता है ( अर्द्ध॑रात्रि में ); तत्र--वहाँ; गतमू--गया हुआ; न पश्यन्ति--नहीं देखते; ये--जो; तम्‌--सूर्यास्त; समनुपश्येरनू-- देखते हुए

    सुमेरु पर्वत पर रहने वाले प्राणी मध्याह्न के समय सदा ही अत्यन्त तप्त होते हैं, क्योंकिसूर्यदेव सदैव उनके सिर के ऊपर रहता है।

    यद्यपि सूर्य घड़ी की विपरीत दिशा में सुमेरु पर्वत कोअपने बाईं ओर छोड़ता हुआ जाता है, किन्तु यह घड़ी की दिशा में भी घूमता है, जिससे पर्वतउसके दाईं ओर रहता दिखता है, क्योंकि उस पर दक्षिणावर्त पवन का प्रभाव पड़ता है।

    जहाँ सर्वप्रथम उदय होता सूर्य दिखता है, उसके ठीक दूसरी ओर वह अस्त होता दिखता है।

    उससे होकर एक सीधी रेखा खींची जाये तो इस रेखा के दूसरे सिरे के प्राणी मध्यरात्रि का अनुभवकर रहे होंगे।

    इसी प्रकार यदि अस्ताचल के प्राणी अपनी ठीक दूसरी ओर स्थित देशों में जायेंतो उन्हें सूर्य उसी स्थिति में नहीं मिलेगा।

    तत्रत्यानां दिवसमध्यड्गत एवं सदादित्यस्तपति सव्येनाचलं दक्षिणेन करोति; यत्रोदेति तस्य हसमानसूत्रनिपाते निम्लोचति यत्र क्वचन स्यन्देनाभितपति तस्य हैष समानसूत्रनिपाते प्रस्वापयति तत्र गतंन पश्यन्ति ये तं समनुपश्येरनू. ॥

    ९॥

    तत्रत्यानामू--मेरु पर्वत पर रहने वाली जीवात्माओं के लिए; दिवस-मध्यड्रत:--मध्याह्कालीन; एब--ही; सदा--सदैव; आदित्य:--सूर्य; तपति--तपता है; सव्येन--वाम दिशा को; अचलम्‌--सुमेरु पर्वत; दक्षिणेन--दक्षिण को ( दक्षिण को बहते पवन से प्रेरित होकर सूर्य दक्षिण को जाता है ); करोति--चलता है; यत्र-- जहाँ; उदेति--उदय होता है; तस्थ--उस स्थान का; ह--निश्चय ही; समान-सूत्र-निपाते--सर्वथा विपरीत दिशा वाले बिन्दु पर ठीक दूसरी ओर; निम्लोचति--सूर्यास्त होता है;अत्र--जहाँ; क्वचन--कहीं ; स्यन्देन-- पसीने से; अभितपति--तपता है ( मध्याह्न में ); तस्य--उसका; ह--ही; एब:--यह ( सूर्य ); समान-सूत्र-निषपाते--एकदम विपरीत बिन्दु पर ठीक दूसरी ओर; प्रस्वापयति--सूर्य सुलाता है ( अर्द्ध॑रात्रि में ); तत्र--वहाँ; गतमू--गया हुआ; न पश्यन्ति-- नहीं देखते; ये--जो; तम्‌--सूर्यास्त; समनुपश्येरन्‌ू--देखते हुए।

    सुमेरु पर्वत पर रहने वाले प्राणी मध्याह्न के समय सदा ही अत्यन्त तप्त होते हैं, क्योंकिसूर्यदेव सदैव उनके सिर के ऊपर रहता है।

    यद्यपि सूर्य घड़ी की विपरीत दिशा में सुमेरु पर्वत कोअपने बाईं ओर छोड़ता हुआ जाता है, किन्तु यह घड़ी की दिशा में भी घूमता है, जिससे पर्वतउसके दाईं ओर रहता दिखता है, क्योंकि उस पर दक्षिणावर्त पवन का प्रभाव पड़ता है।

    जहाँ सर्वप्रथम उदय होता सूर्य दिखता है, उसके ठीक दूसरी ओर वह अस्त होता दिखता है।

    उससे होकर एक सीधी रेखा खींची जाये तो इस रेखा के दूसरे सिरे के प्राणी मध्यरात्रि का अनुभवकर रहे होंगे।

    इसी प्रकार यदि अस्ताचल के प्राणी अपनी ठीक दूसरी ओर स्थित देशों में जायेंतो उन्हें सूर्य उसी स्थिति में नहीं मिलेगा।

    यदा चैन्द्र्‌याः पुर्या: प्रचलते पञ्लद्शघटिकाभिर्याम्यां सपादकोटिद्दयं योजनानां सार्थद्वादशलक्षाणिसाधिकानि चोपयाति ॥

    १०॥

    यदा--जब; च--तथा; ऐन्द्र॒या: --इन्द्र की; पुर्या:--पुरी से; प्रचलते--चलता है, गति करता है; पञ्ञदश--पन्द्रह;घटिकाभि:--आधे घंटे की अवधि ( वस्तुतः चौबीस मिनट ); याम्यामू--यमराज के आवास तक; सपाद-कोटि-द्बयम्‌--सवादो करोड़ ( २,२५,००, ००० ); योजनानाम्‌--योजनों का; सार्थ--तथा आधा; द्वादश-लक्षाणि--बारह लाख; साधिकानि--पचास हजार अधिक; च--तथा; उपयाति--ऊपर से जाता है।

    सूर्य इन्द्र की पुरी देवधानी से यमराज की पुरी संयमनी तक पन्द्रह घड़ियों ( छः घंटे ) मेंकुल मिलाकर २,३७, ७५, ० ०० योजन ( १९,०२,००,००० ) की यात्रा करता है।

    एवं ततो वारुणीं सौम्यामैन्द्री च पुनस्तथान्ये च ग्रहा: सोमादयो नक्षत्रै: सह ज्योतिश्चक्रे समभ्युद्यन्ति सहवा निम्लोचन्ति ॥

    ११॥

    एवम्‌--इस प्रकार; ततः--वहाँ से; वारुणीम्‌--वरुण की पुरी तक; सौम्याम्‌--पुरी जहाँ चन्द्रमा निवास करता है; ऐन्द्रीं च--और वह पुरी जहाँ इन्द्र निवास करता है; पुनः--फिर; तथा--इस तरह; अन्ये-- अन्य; च-- भी; ग्रहा:--ग्रह; सोम-आदय: --चन्द्रमा इत्यादि; नक्षत्रै:--सभी नक्षत्रों के; सह--साथ; ज्योति:-चक्रे --स्वर्गीय गोलक में; समभ्युद्यन्ति--उदय होते हैं; सह--के साथ; वा--अथवा; निम्लोचन्ति--अस्त होते हैं |

    सूर्य यमराज की पुरी से वरुण की पुरी निम्लोचनी पहुँचता है और फिर वहाँ से चन्द्रदेव कीपुरी विभावरी से होते हुए पुनः इन्द्रपुरी पहुँच जाता है।

    इसी प्रकार चन्द्रमा अन्यत्र नक्षत्रों तथाग्रहों सहित ज्योतिश्चक्र में उदित और अस्त होता रहता है।

    एवं मुहूर्तेन चतुस्त्रिशल्लक्षयोजनान्यप्टशताधिकानि सौरो रथस्त्रयीमयोसौ चतसूषु परिवर्तते पुरीषु, ॥

    १२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; मुहूर्तेन--एक मुहूर्त( ४८ मिनट ) में ; चतु:-त्रिंशत्‌--चौंतीस; लक्ष--लाख; योजनानि--योजन; अष्ट-शताधिकानि--आठ सौ और; सौर: रथ:--सूर्यदेव का रथ; त्रयी-मय:--जो गायत्री मंत्र द्वारा पूजित है ); असौ--वह;चतसृषु--चारों से होकर; परिवर्तते--घूमता है; पुरीषु--पुरियों से होकर।

    इस प्रकार त्रयीमय अर्थात्‌ भूर्भुवः स्व: शब्दों द्वारा पूजित सूर्यदेव का रथ ऊपर वर्णितचारों पुरियों से होकर एक मुहूर्त में ३४, ००,८०० योजन ( २,७२, ०६,४०० मील ) की गति सेघूमता रहता है।

    अस्यैकं चक्र द्वादशारं षण्नेमि त्रिणाभि संवत्सरात्मक॑ समामनन्ति तस्याक्षो मेरोर्मूर्धनि कृतो मानसोत्तरेकृतेतरभागो यत्र प्रोतं रविरथचक्रं तैलयन्त्रचक्रवद्‌भ्रमन्मानसोत्तरगिरौ परिभ्रमति ॥

    १३॥

    यस्य--जिसका; एकम्‌--एक; चक्रम्‌--चक्र; द्वादश--बारह; अरम्‌ू--ेरे, तीलियाँ; घट्‌ू--छ:; नेमि--नेमि ( रिम ); त्रि-णाभि--नाभि ( हब ) के तीन खंड ( आँवन ); संवत्सर-आत्मकम्‌--संवत्सर स्वरूप; समामनन्ति-- पूर्णतया वर्णन करते हैं;तस्य--सूर्यदेव का रथ; अक्ष:--धुरी ( एक्सल ); मेरो: --सुमेरु पर्वत की; मूर्धनि--चोटी पर; कृत:--स्थिर; मानसोत्तरे--मानसोत्तर पर्वत पर; कृत--जड़ा हुआ, लगा; इतर-भाग:--दूसरा सिरा; यत्र--जहाँ; प्रोतम्‌--लगा हुआ; रवि-रथ-चक्रम्‌--सूर्यदेव के रथ का चक्र; तैल-यन्त्र-चक्र-वत्‌--कोल्हू के समान; भ्रमत्‌-घूमते हुए; मानसोत्तर-गिरौ --मानसोत्तर पर्वत पर;परिभ्रमति--घूमता है

    सूर्यदेव के रथ में एक ही चक्र है, जिसे संवत्सर कहते हैं।

    बारहों महीने इसके बारह आरे,छह ऋतु, छः नेमियाँ ( हाल ) तथा तीन चार्तुमास इसके तीन भागों में विभाजित आँवने ( नाभि )हैं।

    चक्र को धारण करने वाले धुरे का एक सिरा सुमेरु पर्वत की चोटी पर और दूसरा सिरामानसोत्तर पर्वत पर टिका है।

    धुरे के बाहरी सिरे पर लगा यह पहिया कोल्हू के चक्र की भाँतिनिरन्तर मानसोत्तर पर्वत के चक्कर लगाता है।

    तस्मिन्नक्षे कृतमूलो द्वितीयो क्षस्तुर्यमानेन सम्मितस्तैलयन्त्राक्षवद्ध्छवे कृतोपरिभाग: ॥

    १४॥

    तस्मिन्‌ अक्षे--उस धुरे में; कृत-मूलः--जिसका मूल भाग लगा है; द्वितीयः--दूसरा; अक्ष:--धुरा; तुर्यमानेन--चौथाई;सम्मित:--मापा गया; तैल-यन्त्र-अक्ष-वत्‌--कोल्हू के धुरे के समान; ध्रुवे-- धुव लोक तक; कृत--लगा हुआ; उपरि-भाग: --ऊपरी भाग।

    कोल्हू के समान यह पहली धुरी एक दूसरी धुरी में लगी है जो इसकी चौथाई के बराबरलम्बी ( ३९,३७,५०० योजन अथवा ३, १५, ००,००० मील ) है।

    इस द्वितीय धुरी का ऊपरी भागवायु की रस्सी द्वारा ध्रुवलोक से जुड़ा है।

    रथनीडस्तु षदटिंत्रशल्लक्षयोजनायतस्तत्तुरीयभागविशालस्तावान्रविरथयुगो यत्र हयाशछन्दोनामानःसप्तारुणयोजिता वहन्ति देवमादित्यम्‌ ॥

    १५॥

    रथ-नीड:--रथ का भीतरी भाग; तु--लेकिन; षट्‌-त्रिंशत्‌ू-लक्ष-योजन-आयत: -- ३६, ००, ००० योजन लम्बा; ततू-तुरीय-भाग--इसका चौथाई भाग ( ९,००,००० योजन ); विशाल:--चौड़ाई वाला; तावान्‌--तथा इतना ही; रवि-रथ-युग: --घोड़ेके लिए जुआँ; यत्र--जहाँ; हया:--घोड़े; छन्दः-नामान:--वैदिक छन्‍्दों के विभिन्न नाम वाले; सप्त--सात; अरुण-योजिता:--अरुणदेव द्वारा नाधे गये; वहन्ति--ले जाते हैं; देवम्‌--देवता; आदित्यम्‌--सूर्यदेव को |

    है राजनू, रथ का भीतरी भाग ३६,००,००० योजन ( २,८८, ००,००० मील ) लम्बा तथाइसका एक चौथाई चौड़ा ९,००,००० योजन तथा ७२,००,००० ) है।

    रथ के घोड़ों के नामगायत्री आदि वैदिक छन्दों पर रखे गये हैं और उन्हें अरुणदेव ऐसे जुएँ में जोतता है जो९,००,००० योजन चौड़ा है।

    यह रथ लगातार सूर्यदेव को लिये रहता है।

    पुरस्तात्सवितुररुण: पश्चाच्च नियुक्त: सौत्ये कर्मण किलास्ते ॥

    १६॥

    पुरस्तात्‌ू--सम्मुख; सवितु:--सूर्यदेव के; अरूण:--अरूण नामक देवता; पश्चात्‌--पीछे देखता हुआ; च--तथा; नियुक्त:--संलग्न; सौत्ये--रथ के; कर्मणि--कार्य में; किल--निश्चय ही; आस्ते--रहता है।

    यद्यपि अरुणदेव सूर्यदेव के सम्मुख बैठ कर रथ को हाँकते हैं तथा घोड़ों को वश में रखतेहैं, तो भी वे पीछे की ओर सूर्यदेव को देखते रहते हैं।

    तथा वालिखिल्या ऋषयोडुष्ठ पर्वमात्रा: षष्टिसहस्त्राणि पुरत: सूर्य सूक्तवाकाय नियुक्ता: संस्तुवन्ति ॥

    १७॥

    तथा--वहाँ; वालिखिल्या: --वालखिल्य नामक; ऋषय: --ऋषिगण; अद्'ुष्ठ-पर्व-मात्राः --अंगूठे के आकार वाले; षष्टि-सहस्त्राणि--साठ हजार; पुरत:--सामने; सूर्यम्‌--सूर्य देव; सु-उक्त-वाकाय--सुस्पष्ट बोलने के लिए; नियुक्ता:--नियुक्त कियेगये; संस्तुवन्ति--स्तुति करते हैं।

    अँगूठे के आकार वाले वालखिल्य नामक साठ हजार ऋषिगण सूर्य के आगे रहकर उनकास्वस्तिवाचन करते हैं।

    तथान्ये च ऋषयो गन्धर्वाप्सरसो नागा ग्रामण्यो यातुधाना देवा इत्येकेकशो गणा: सप्त चतुर्दश मासिमासि भगवत्तं सूर्यमात्मानं नानानामानं पृथड्नानानामान: पृथक्कर्मभिद्ठन्द्रश उपासते ॥

    १८॥

    तथा--इसी प्रकार; अन्ये-- अन्य; च-- भी ; ऋषय:--ऋषिगण; गन्धर्व-अप्सरस:--गन्धर्व तथा अप्सराएँ; नागा:--नाग( सर्प );ग्रामण्य:--यक्ष; यातुधाना:--राक्षसगण; देवा:--देवता; इति--इस प्रकार; एक-एकश: --एक एक करके; गणा: --समूह;सप्त--सात; चतुर्दश--चौदह; मासि मासि--प्रत्येक महीने; भगवन्तम्‌--सर्वशक्तिमान देवता; सूर्यम्‌--सूर्य को; आत्मानम्‌--ब्रह्माण्ड का प्राण; नाना--अनेक; नामानम्‌--नाम वाला; पृथक्‌-भिन्न; नाना-नामान:--विभिन्न नाम वाला; पृथक्‌-भिन्न;कर्मभि:--अनुष्ठानों द्वारा; द्न्द्रशः--दो के समूहों में, जोड़ों में; उपासते--उपासना करते हैं

    इसी प्रकार अन्य मुनि, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, यक्ष, राक्षस तथा देवतागण जो संख्या मेंचौदह हैं, किन्तु दो-दो के जोड़े में विभाजित हैं, प्रतिमस नया नाम धारण करके अनेकनामधारी, सर्वाधिक शक्तिमान देवता सूर्य के रूप में श्रीभगवान्‌ की आराधना करने के लिएनिरन्तर विभिन्न कर्मकाण्डों से उपासना करते रहते हैं।

    लक्षोत्तरं सार्धनवकोटियोजनपरिमण्डलं भूवलयस्य क्षणेन सगव्यूत्युत्तरं द्विसहस्त्रयोजनानि स भुड्डे ॥

    १९॥

    लक्ष-उत्तरमू-- १,००,००० अधिक; सार्ध--५०, ००,००० सहित; नव-कोटि-योजन--९, ००, ००,००० योजन की;परिमण्डलम्‌--परिधि; भू-वलयस्य--पृथ्वी गोलक का भूमण्डल; क्षणेन--एक क्षण में; सगव्यूति-उत्तरम्‌--दो कोस ( चारमील ) अधिक; द्वि-सहस्त्र-योजनानि-- २,००० योजन; सः--सूर्यदेव; भुड्डे --तै करता है |

    हे राजनू, भूमण्डल की परिक्रमा करते हुए सूर्यदेव एक क्षण में दो हजार योजन तथा दोकोस ( १६,००४ मील ) की गति से ९,५१,००,००० योजन ( ७६, ०८८०,००० मील ) की दूरीतय करता है।

    TO

    अध्याय बाईसवां: ग्रहों की कक्षाएँ

    5.22राजोबाचयदेतद्धगवत आदित्यस्य मेरं श्रुवं च प्रदक्षिणेन परिक्रामतो राशीनामभिमुखं प्रचलित चाप्रदक्षिणंभगवतोपवर्णितममुष्य वयं कथमनुमिमीमहीति ॥

    १॥

    राजा उवाच--राजा ( महाराज परीक्षित ) ने पूछा; यत्‌--जो; एतत्‌--इस; भगवतः --सर्वशक्तिमान; आदित्यस्य--सूर्य( सूर्यनारायण ) का; मेरुम्‌--सुमेरु पर्वत; ध्रुवम्‌ च--तथा थ्रुवलोक; प्रदक्षिणेन--दाहिने रखकर; परिक्रामतः--परिक्रमा करतेहुए; राशीनाम्‌--राशियों की; अभिमुखम्‌--ओर मुख करके; प्रचलितम्‌ू--गति करते हुए; च--तथा; अप्रदक्षिणम्‌--बाँये रखकर; भगवता--आपके द्वारा; उपवर्णितम्‌--वर्णित; अमुष्य--उसका; वयम्‌--हम ( श्रोता ); कथम्‌--किस प्रकार;अनुमिमीमहि--तर्क तथा निर्णय द्वारा स्वीकार करें; इति--इस प्रकार।

    राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे भगवान्‌, आपने पहले ही इस सत्य कीपुष्टि की है कि परम शक्तिमान सूर्यदेव श्ुवलोक तथा सुमेरु पर्वत को अपने दाएँ रखकरध्रुवलोक की परिक्रमा करते हैं, तो भी वे राशियों की ओर मुख किये रहते हैं और सुमेरु तथाध्रुवलोक को अपने बाएँ भी रखते हैं, अतः हम तर्क तथा निर्णय द्वारा किस प्रकार स्वीकार करेंकि हर समय सूर्यदेव सुमेरु तथा ध्रुवलोक को दाएँ तथा बाएँ दोनों ओर रखते हुए चलते हैं ?

    स होवाचयथा कुलालचक्रेण भ्रमता सह भ्रमतां तदाश्रयाणां पिपीलिकादीनां गतिरन्यैवप्रदेशान्तरेष्वप्युपल भ्यमानत्वादेवं नक्षत्ररशाशिभिरुपलक्षितेन कालचक्रेण श्रुवं मेरुं च प्रदक्षिणेन'परिधावता सह परिधावमानानां तदाश्रयाणां सूर्यादीनां ग्रहाणां गतिरन्यैव नक्षत्रान्तरे राश्यन्तरेचोपलभ्यमानत्वातू, ॥

    २॥

    सः--शुकदेव गोस्वामी ने; ह--अत्यन्त स्पष्ट; उवाच--उत्तर दिया; यथा--जिस प्रकार; कुलाल-चक्रेण --कुम्हार के चाक के;भ्रमता--घूमते हुए; सह--साथ; भ्रमताम्‌--जो चारों ओर घूमते हुए, घूमने वाले; तत्‌ू-आश्रयाणाम्‌--उस ( चक्र ) में स्थितहोकर; पिपीलिक-आदीनाम्‌--छोटी -छोटी चींटियों की; गतिः--गति; अन्या--दूसरी; एब--ही; प्रदेश-अन्तरेषु--विभिन्नस्थानों में; अपि-- भी; उपलभ्यमानत्वात्‌--अनुभवगम्य होने के कारण; एवम्‌--इसी प्रकार; नक्षत्र-राशिभि: --नक्षत्रों तथाराशियों द्वारा; उपलक्षितेन--देखा जाकर; काल-चक्रेण --कालचक़ के साथ; ध्रुवम्‌-- ध्रुवलोक नामक नक्षत्र; मेरुम्‌--सुमेरुपर्वत को; च--तथा; प्रदक्षिणेन--दाईं ओर; परिधावता--चारों ओर घूमते हुए; सह--साथ; परिधावमानानाम्‌--परिक्रमा करनेबालों का; तत्‌-आश्रयाणाम्‌ू--जिनका आश्रय कालचक् हैं; सूर्य-आदीनाम्‌ू--सूर्य आदि; ग्रहाणाम्‌--ग्रहों की; गति:--गति;अन्या--अन्य; एव--निश्चय ही; नक्षत्र-अन्तरे--विभिन्न नक्षत्रों में; राशि-अन्तरे--विभिन्न राशियों में; च--तथा;उपलभ्यमानत्वात्‌--देखे जाने के कारण।

    श्रीशुकदेव ने उत्तर दिया--जब कुम्हार के घूमते हुए चाक पर छोटी छोटी चींटियाँ बैठीरहती हैं, तो वे उसके साथ-साथ घूमती हैं, किन्तु उनकी गति चाक की गति से भिन्न होती हैं,क्योंकि कभी वे चाक के एक भाग में दिखती हैं, तो कभी दूसरे भाग पर।

    इसी प्रकार राशियाँतथा नक्षत्र सुमेरु तथा ध्रुवलोक को अपने दाईं ओर रखकर कालचक्र के साथ घूमते हैं औरसूर्य तथा अन्य ग्रह चींटी के तुल्य उनके साथ-साथ घूमते हैं।

    तो भी वे विभिन्न कालों में विभिन्नराशियों तथा नक्षत्रों में देखे जाते हैं।

    इससे सूचित होता है कि उनकी गति राशियों तथाकालचक्र से सर्वथा भिन्न है।

    स एष भगवानादिपुरुष एव साक्षात्रारायणो लोकानां स्वस्तय आत्मानं त्रयीमयं कर्मविशुद्धिनिमित्तंकविभिरपि च वेदेन विजिज्ञास्यमानो द्वादशधा विभज्य षट्सु वसन्तादिष्वृतुषुयथोपजोषमृतुगुणान्विदधाति ॥

    ३॥

    सः--वह; एष:--यह; भगवान्‌--परम शक्तिमान; आदि-पुरुष: --आदि पुरुष; एव--ही; साक्षात्‌- प्रत्यक्षत:; नारायण:--श्रीभगवान्‌ नारायण; लोकानाम्‌--अन्य लोकों के; स्वस्तये--लाभ हेतु; आत्मानमू--स्वयं; त्रयी-मयम्‌--तीन वेदों ( साम,यजुर्‌ तथा ऋग्‌ ) से युक्त; कर्म-विशुद्धि--कर्मो की शुद्धि; निमित्तमू--कारणरूप; कविभि:--महान्‌ सन्तों द्वारा; अपि--भी;च--तथा; वेदेन--वैदिक ज्ञान से; विजिज्ञास्यमान:--पूछे जाने पर; द्वादश-धा--बारह विभागों में; विभज्य--विभाजित होकर;घट्सु--छः में; बसन्‍्त-आदिषु--वसनन्‍्त आदि; ऋतुषु--ऋतुओं में; यथा-उपजोषम्‌-- अपने पूर्व कर्मों के भोग के अनुसार;ऋतु-गुणान्‌ू--विभिन्न ऋतुओं के गुण; विदधाति--विधान करता है।

    विराट जगत के आदि कारण भगवान्‌ नारायण हैं।

    जब वैदिक ज्ञान से भली भाँति परिचितमहान्‌ साधुजनों ने परम पुरुष की स्तुति की तो वे समस्त लोकों का हित करने तथा कर्मो की शुद्धि के लिए सूर्य के रूप में इस भौतिक जगत में अवतरित हुए।

    उन्होंने स्वयं को बारह भागोंमें विभाजित करके वसनन्‍्तादि ऋतुओं की सृष्टि की।

    इस प्रकार उन्होंने ताप, शीत इत्यादि ऋतुसम्बन्धी गुणों की सृष्टि की।

    तमेतमिह पुरुषास्त्रय्या विद्यया वर्णाअ्रमाचारानुपथा उच्चावचै: कर्मभिराम्नातैयोंगवितानैश्व श्रद्धयायजन्तो ज्जसा श्रेय: समधिगच्छन्ति ॥

    ४॥

    तम्‌--उस ( श्रीभगवान्‌ ) को; एतम्‌--यह; इह--इस मर्त्यलोक में; पुरुषा:--सभी मनुष्य; त्रय्या--तीन विभागों वाले;विद्यया--वैदिक ज्ञान से; वर्ण-आश्रम-आचार--वर्णा श्रम धर्म; अनुपथा: -- अनुसरण करते हुए; उच्च-अबचै: --वर्णा श्रम धर्म( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ) में पद के अनुसार उच्च या निम्न; कर्मभिः--अपने कर्मों द्वारा; आम्नातैः -- प्रदत्त; योग-वितानैः-- ध्यान तथा अन्य योग-क्रियाओं से; च--तथा; श्रद्धबा--अत्यन्त श्रद्धा सहित; यजन्तः--आराधना करते हुए;अज्जसा--बिना कठिनाई के; श्रेयः:--जीवन का परम लाभ; समधिगच्छन्ति-- प्राप्त करते हैं।

    चारों वर्णों तथा चारों आश्रमों के लोग सामान्य रूप से सूर्यदेव के रूप में पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ नारायण की उपासना करते हैं।

    वे अत्यन्त श्रद्धा के साथ वेदत्रयी द्वारा प्रतिपादितअग्निहोत्र जैसे छोटे-बड़े सकाम कर्मों के अनुसार तथा योग क्रिया द्वारा परमात्मास्वरूपश्रीभगवान्‌ की आराधना करते हैं।

    इस प्रकार वे सुगमतापूर्वक जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्तकरते हैं।

    अथ स एष आत्मा लोकानां द्यावापृथिव्योरन्तरेण नभोवलयस्य कालचक्रगतो द्वादश मासान्भुड्ेराशिसंज्ञान्संवत्सरावयवान्मास: पक्षद्वयं दिवा नक्तं चेति सपादर्क्ृद्वयमुपदिशन्ति यावता षष्ठमंशं भुद्जीतस वै ऋतुरित्युपदिश्यते संवत्सरावयव: ॥

    ५॥

    अथ--अतः; सः--वह; एष:--यह; आत्मा--प्राणशक्ति; लोकानाम्‌--तीनों लोकों का; द्यावू-आ-पृथिव्यो: अन्तरेण--ब्रह्माण्ड के ऊपरी तथा निचले भागों के मध्य; नभः-वलयस्य-- अन्तरिक्ष का; काल-चक्र-गत:--काल के चक्र में आसीन;द्वादश मासान्‌--बारह महीने; भुड़े --तय करता है; राशि-संज्ञान्‌--राशियों के नाम पर; संवत्सर-अवयवानू--पूरे वर्ष के अंग;मास:--एक मास; पक्ष-द्यम्‌ू--दो पखवाड़े; दिवा--दिन; नक्तम्‌ च--तथा रात्रि; इति--इस प्रकार; सपाद-ऋक्ष-द्वयम्‌--ज्योतिष गणना के अनुसार दो तथा चौथाई ( सवा दो ) नक्षत्र; उपदिशन्ति--उपदेश देते हैं; यावता--जितने समय से; षष्ठम्‌अंशम्‌--अपनी कक्ष्या का छठवाँ भाग; भुञ्जीत--तय करता है; सः--वह भाग; बै--निस्संदेह; ऋतु:-- ऋतु; इति--इसप्रकार; उपदिश्यते--उपदेशित होता है; संवत्सर-अवयवः--वर्ष का भाग।

    सूर्यदेव जो नारायण अथवा विष्णु हैं और समस्त लोकों के आत्मा हैं, वे इस ब्रह्माण्ड केऊपरी तथा निचले भागों (पृथ्वी तथा द्युलोक ) के मध्य अन्तरिक्ष में स्थित हैं।

    कालचक़ मेंस्थित होकर बारह मासों को तय करते हुए सूर्य बारह राशियों के सम्पर्क में आकर उनके अनुसार बारह भिन्न-भिन्न नाम धारण करते हैं।

    इन बारह मासों का योगफल संवत्सर अथवा एकपूर्ण वर्ष कहलाता है।

    चन्द्र गणना के अनुसार चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के दो पक्ष मिल कर एकमास बनाते हैं।

    पितृलोक ग्रह पर यही काल एक दिन तथा रात के तुल्य है।

    ज्योतिष गणना केअनुसार एक मास सवा दो नक्षत्रों के बराबर होता है।

    जब सूर्य दो मास यात्रा कर लेता है, तोएक ऋतु बीतती है; इसलिए ऋतु के अनुसार होने वाले परिवर्तनों को वर्ष-देह का अंग मानाजाता है।

    अथ च यावतार्धन नभोवीथ्यां प्रचरति तं कालमयनमाचक्षते ॥

    ६॥

    अथ--अब; च-- भी; यावता--जितने समय से; अर्धेन--आधा; नभः-वीथ्याम्‌-- अन्तरिक्ष में; प्रचरति--सूर्य चलता है;तम्‌--उस; कालम्‌ू--समय को; अयनम्‌--अयन; आचक्षते--कहते हैं।

    इस प्रकार आधे अन्तरिक्ष को पार करने में सूर्य को जितना समय लगता है, वह अयनकहलाता है [ उत्तर या दक्षिण दिशा में |

    अथ च यावतन्नभोमण्डलं सह द्यावापृथिव्योर्मण्डलाभ्यां कार्त्स्येन स ह भुद्जीत तं काल संवत्सरं'परिवत्सरमिडावत्सरमनुवत्सरं वत्सरमिति भानोर्मान्द्यशैर्यसमगतिभि: समामनन्ति ॥

    ७॥

    अथ--अब; च-- भी; यावत्‌-- जब तक; नभः-मण्डलम्‌--उच्च तथा निम्न लोक के मध्य का अन्तरिक्ष; सह--के साथ;झहौ--ऊपरी जगत का; आपृथिव्यो:--निम्न जगत का; मण्डलाभ्याम्‌--गोलक; कार्त्स्येन--पूर्णत:; सः--वह; ह--निस्संदेह;भुल्जीत--तय करता है; तमू--उस; कालम्‌ू--काल, समय को; संवत्सरम्‌--संवत्सर; परिवत्सरमू--परिवत्सर; इडावत्सरम्‌--इडावत्सर; अनुवत्सरम्‌-- अनुवत्सर; वत्सरम्‌-- वत्सर; इति--इस प्रकार; भानो:--सूर्य की; मान्द्य-- धीमी, मन्द; शैश्य--तीक्र;सम--समान; गतिभि:--गतियों के द्वारा; समामनन्ति--अनुभवी विद्वान वर्णन करते हैं।

    सूर्यदेव की तीन प्रकार की गतियाँ हैं--मन्द, तीव्र और मध्यम।

    इन तीनों गतियों से स्वर्ग,पृथ्वी तथा अन्तरिक्ष प्रक्षेत्रों के चारों ओर पूरी यात्रा करने में जितना समय लगता है उसेविद्वद्जन संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर तथा वत्सर--इन पाँच नामों से वर्णन करतेहैं।

    सौर पद्धति ज्योतिष गणनाओं के अनुसार प्रत्येक वर्ष कलैण्डर वर्ष से छ: दिन आगे तकजाता है और चन्द्र पक्षीय वर्षों में बारह दिन का अन्तर होता है, जैसे-जैसे सम्वत्सर, परिवत्सर,इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर बीतते हैं, प्रत्येक पाँच वर्षों में दो अतिरिक्त मास जुड़ जाते हैं।

    इससे छठा सम्बत्सर बन जाता है, किन्तु अतिरिक्त सम्वत्सर होने के कारण सौर-पद्धति में सम्वत्सरों की उपयुक्त पाँच नामों के अनुसार गणना की जाती है।

    एवं चन्द्रमा अर्कगभस्तिभ्य उपरिष्टाल्लक्षयोजनत उपलभ्यमानो र्कस्य संवत्सरभुक्ति पश्षा भ्यां मासभुक्तिसपादर्श्नाभ्यां दिनेनैव पक्षभुक्तिमग्रचारी द्रततरगमनो भुड्डे ॥

    ८ ॥

    एवम्‌--इस प्रकार; चन्द्रमा--चाँद; अर्क-गभस्तिभ्य:--सूर्य प्रकाश की किरणों से; उपरिष्टात्‌--ऊपर; लक्ष-योजनत:--१,००,००० योजन से; उपलभ्यमान: --स्थित रह कर; अर्कस्य--सूर्य का; संवत्सर-भुक्तिमू-- भोग का व्यतीत हुआ एक वर्ष;पक्षाभ्याम्‌-दो पक्षों के द्वारा; मास-भुक्तिमू--व्यतीत एक मास; सपाद-ऋश्षाभ्याम्‌--सवा दो दिन से; दिनेन--एक दिन से;एव--केवल; पक्ष-भुक्तिमू--पक्ष की अवधि; अग्रचारी-- आगे चलने वाला; द्रुत-तर-गमन: --अधिक तेजी से चलते हुए; भुड्ड तय करता है।

    सूर्य-प्रकाश की किरणों से १,००,००० योजन (८,००,००० मील ) ऊपर चन्द्रमा है जोसूर्य से अधिक तीब्र गति से यात्रा करता है।

    वह दो चन्द्र पक्षों में एक सौर संवत्सर के समान दूरीतय कर लेता है।

    अर्थात्‌ सवा दो दिन में सूर्य के एक मास के तुल्य और एक दिन में सूर्य केएक पक्ष के बराबर दूरी तय कर लेता है।

    अथ चापूर्यमाणाभिश्व कलाभिरमराणां क्षीयमाणाभिश्च कलाभि: पितृणामहोरात्राणिपूर्वपक्षापरपक्षाभ्यां वितन्वान: सर्वजीवनिवहप्राणो जीवश्वैकमेकं नक्षत्र त्रिंशता मुहूर्तैर्भुड़े ॥

    ९॥

    अथ--इस प्रकार; च--भी; आपूर्यमाणाभि:--क्रमशः बढ़ते हुए; च--तथा; कलाभि:--चन्द्रमा की कलाओं; अमराणाम्‌--देवताओं का; क्षीयमाणाभि: --क्रमश: घटते रहने से; च--तथा; कलाभि:--चन्द्र कलाओं से; पितृणाम्‌--पितृलोक-वासियोंका; अहः-रात्राणि--दिन तथा रात; पूर्व-पक्ष-अपर-पक्षाभ्याम्‌ू--कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष से; वितन्‍न्वान:--वितरित करते हुए;सर्व-जीव-निवह--समस्त जीवात्माओं का; प्राण:--जीवन, प्राण; जीव:ः--जीव; च-- भी; एकम्‌ एकम्‌--एक के बाद एक;नक्षत्रमू--तारा-समूह; त्रिंशता--तीस; मुहूर्तैं:--मुहूर्तों से; भुड़े --तय करता है।

    जब चन्द्रमा बढ़ता है ( शुक्ल पक्ष में ) तो इसका प्रकाशमय अंश प्रतिदिन बढ़ता जाता है,जिससे देवताओं के लिए दिन और पितरों के लिए रात्रि उत्पन्न होती है।

    किन्तु जब चन्द्रमा घटतारहता है ( कृष्ण पक्ष में ) तो देवताओं के लिए रात्रि और पितरों के लिए दिन उत्पन्न होते हैं।

    इसप्रकार तीस मुहूर्तों में ( पूरे एक दिन में ) चन्द्रमा प्रत्येक नक्षत्र से होकर गुजरता है।

    चन्द्रमाअमृतमयी शीतलता प्रदान करके अन्नों की वृद्धि को प्रभावित करता है, इसलिए चन्द्रदेव कोसमस्त जीवात्माओं का प्राण माना जाता है।

    फलस्वरूप उसे इस ब्रह्माण्ड में वास करने वालामुख्य प्राणी, जीव, कहा गया है।

    य एष षोडशकलः पुरुषो भगवान्मनोमयोचन्नमयोमृतमयो देवपितृमनुष्यभूतपशुपक्षिसरीसूपवीरु धांप्राणाप्यायनशीलत्वात्सर्वमय इति वर्णयन्ति ॥

    १०॥

    यः--जो; एष:--यह; षोडश-कलः--सोलह कलाओं वाला ( पूर्ण चन्द्रमा ); पुरुष:--पुरुष; भगवान्‌-- श्रीभगवानू से प्राप्तमहान्‌ शक्ति वाला; मन:-मय:--मन का प्रधान श्रीविग्रह; अन्न-मयः--अन्नों का शक्ति स्त्रोत; अमृत-मयः--अमृतमय; देव--समस्त देवताओं का; पितृ--समस्त पितृलोकवासियों का; मनुष्य--समस्त मानवगण; भूत--समस्त जीवात्माएँ; पशु--समस्तजानवर; पक्षि--पक्षियों का; सरीसृप--रेंगने वाले जन्तुओं का; वीरुधाम्‌--समस्त लताओं तथा वृक्षों का; प्राण--प्राणवायु;अपि--निश्चय ही; आयन-शीलत्वात्‌--पोषण करने से; सर्व-मयः--सर्वव्यापी; इति--इस प्रकार; वर्णयन्ति--विद्वान लोगवर्णन करते हैं।

    समस्त शक्तियों से पूर्ण होने के कारण चन्द्रमा श्रीभगवान्‌ के प्रभाव का सूचक है।

    प्रत्येकव्यक्ति के मन का प्रमुख श्रीविग्रह होने के कारण चन्द्रमा मनोमय कहलाता है।

    वह अन्नमय भीकहलाता है क्योंकि वह समस्त वनस्पतियों तथा पौधों को शक्ति प्रदान करता है।

    समस्तजीवात्माओं का प्राणाधार होने से वह अमृतमय भी कहा जाता है।

    चन्द्रमा समस्त देवताओं,पितरों, मनुष्यों, पशुओं, पश्षियों, सरीसूपों, वृक्षों, पौधों तथा अन्य सभी जीवात्माओं को प्रसन्नकरने वाला हैं।

    सभी प्राणी चन्द्रमा की उपस्थिति से संतुष्ट रहते हैं; फलतः वह 'सर्वमय' भीकहलाता है।

    तत उपरिष्टादिद्वलक्षयोजनतो नक्षत्राणि मेरुं दक्षिणेनेव कालायन ई श्वरयोजितानिसहाभिजिताष्टाविंशति: ॥

    ११॥

    ततः--चन्द्रमा के उस भाग से; उपरिष्टात्‌--ऊपर; द्वि-लक्ष-योजनत:--२, ००,००० योजन; नक्षत्राणि--अनेक नक्षत्र; मेरुम्‌--सुमेरु पर्वत; दक्षिणेन एब--दाईं दिशा में; काल-अयने--कालचक्र में; ईश्वर-योजितानि-- श्रीभगवान्‌ द्वारा जोड़ा गया; सह--साथ; अभिजिता--अभिजित्‌ नामक नक्षत्र; अष्टा-विंशति: --अट्टाइस |

    चन्द्रमा से २,००,००० योजन ( १६,००,००० ) ऊपर कई नक्षत्र स्थित हैं।

    श्रीभगवान्‌ नेउन्हें कालचक़ में संयुक्त कर रखा है, अतः ये सुमेरु पर्वत को दाई ओर रखते हुए घूमते रहते हैंऔर इनकी गति सूर्य की गति से सर्वथा भिन्न होती है।

    अभिजित्‌ सहित कुल अट्टाइस नक्षत्र हैं।

    तात्पर्य : यहाँ जिन नक्षत्रों का उल्लेख हुआ है वे सूर्य से १६,००,००० मील (२,००,०००योजन) ऊपर हैं।

    इस प्रकार वे पृथ्वी से ४०,००,००० मील ऊपर हुए।

    तत उपरिष्टादुशना द्विलक्षयोजनत उपलभ्यते पुरतः पश्चात्सहैव वार्कस्यशैद्रयमान्धसाम्याभिर्गतिभिरकवच्चरति लोकानां नित्यदानुकूल एव प्रायेण वर्षयंश्रारेणानुमीयते सवृष्टिविष्टम्भग्रहोपशमन: ॥

    १२॥

    ततः--इन नक्षत्र पुझों से; उपरिष्ठात्‌--ऊपर; उशना--शुक्र; द्वि-लक्ष-योजनत:--२, ००,००० योजन; उपलभ्यते--अनु भवकिया जाता है; पुरतः--सामने; पश्चात्‌--पीछे; सह--साथ-साथ; एव--निस्सन्देह; वा--तथा; अर्कस्य--सूर्य का; शैदय--तीव्र; मान्द--मन्द; साम्याभि:-- समान; गतिभि:ः--गतियों से; अर्कवत्‌--सूर्य के ही समान; चरति--घूमता है; लोकानाम्‌ू--इस ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों का; नित्यदा--अनवरत; अनुकूल:--अनुकूल; एब--निस्सन्देह; प्रायेण--प्राय:; वर्षयन्‌--वर्षाकरके; चारेण--बादल उठाकर; अनुमीयते--देखा जाता है; सः--वह ( शुक्र ); वृष्टि-विष्टम्भ--वर्षा के लिए बाधास्वरूप;ग्रह-उपशमन:--उपशमनकारी ग्रह |

    इन नक्षत्रों से लगभग २,००,००० योजन ( १६,००,००० मील ) ऊपर शुक्र ग्रह है जोलगभग सूर्य की ही गति अर्थात्‌ तीव्र, मन्द तथा मध्यम गतियों से घूमता है।

    वह कभी सूर्य केपीछे, कभी सामने और कभी उसी के साथ-साथ रहता है।

    वह वर्षा में विघ्न डालने वाले ग्रहोंको शानन्‍्त करने वाला है, अतः इसकी उपस्थिति में वर्षा होती है और इसलिए यह इस ब्रह्माण्डके समस्त जीवों के अनुकूल माना जाता है।

    इसे विद्वानों ने स्वीकार किया है।

    उशनसा बुधो व्याख्यातस्तत उपरिष्टाद्दूवलक्षयोजनतो बुध: सोमसुत उपलभ्यमान: प्रायेणशुभकृद्यदार्काद्व्यतिरिच्येत तदातिवाताभ्रप्रायानावृष्ठयादिभयमाशंसते ॥

    १३॥

    उशनसा--शुक्र से; बुध:--बुध; व्याख्यातः--जिसकी व्याख्या हो गई हो; तत:--उस ( शुक्र ) से; उपरिष्टात्‌--ऊपर; द्वि-लक्ष-योजनत:--२,००,००० योजन अर्थात्‌ १६,००,००० मील; बुध:--बुध ग्रह; सोम-सुत:--चन्द्रमा का पुत्र; उपलभ्यमान:--अवस्थित है; प्रायेण--प्राय:; शुभ-कृत्‌--ब्रह्माण्ड के वासियों के लिए शुभ; यदा--जब; अर्कात्‌--सूर्य से; व्यतिरिच्येत--पृथक्‌ किया जाता है; तदा--उस समय; अतिवात--चक्रवात तथा अन्य विघ्न; अभ्र--बादल; प्राय--प्राय:; अनावृष्टि-आदि--अनावृष्टि इत्यादि; भयमू-- भय; आशंसते--बढ़ाता है

    बुध को शुक्र के ही समान बताया है, क्योंकि यह कभी सूर्य के पीछे, कभी सामने औरकभी-कभी इसके साथ-साथ घूमता है।

    यह शुक्र से १६,००,००० मील अथवा पृथ्वी से७२,००,००० मील ऊपर स्थित है।

    यह चन्द्रमा का पुत्र होने से विश्व के वासियों का मंगल करनेवाला है, किन्तु जब यह सूर्य के साथ नहीं घूमता होता तो यह चक्रवात, अंधड़, अनियमित वर्षातथा जलरहित बादलों की जानकारी देता है।

    इस प्रकार अवर्षा या अतिवर्षा के कारण यहभयावह परिस्थिति उत्पन्न करता है।

    अत ऊर्ध्वमड्रकोपि योजनलक्षद्वितय उपलभ्यमानस्त्रिभिस्त्रिभि: पक्षेरकेकशो राशीन्द्वादशानुभुड़ेयदि न वक्रेणाभिवर्तते प्रायेणाशुभग्रहोघशंस: ॥

    १४॥

    अतः--इससे; ऊर्ध्वम्‌--ऊपर; अड्जारकः--मंगल; अपि-- भी; योजन-लक्ष-द्वितये-- २,००,००० योजन अर्थात्‌ १६,००,०००मील की दूरी पर; उपलभ्यमान:--स्थित है; त्रिभि: त्रिभिः--तीन-तीन करके; पक्षैः--पक्ष; एक-एकशः--एक के पश्चात्‌ एक;राशीनू--राशियाँ; द्वादश--बारह; अनुभुड़े --से पार करता है; यदि--यदि; न--नहीं; वक्रेण--वक्र सहित; अभिवर्तते--निकट पहुँचता है; प्रायेण--प्राय:; अशुभ-ग्रह:ः-- प्रतिकूल, अमंगलकारी ग्रह; अघ-शंस:ः--कष्ट उत्पन्न करने वाला |

    बुध से १६,००,००० मील ऊपर अथवा पृथ्वी से ८८,००,००० मील ऊपर मंगल ग्रह है।

    यदि यह वक्रगति से न चले तो एक-एक राशि को तीन-तीन पक्षों में पार करता हुआ क्रमशःबारहों राशियों में से यात्रा करता है।

    यह प्राय: सदैव वर्षा तथा अन्य प्रभावों के रूप में प्रतिकूलअवस्थाएँ उत्पन्न करता है।

    तत उपरिष्टादिद्वलक्षयोजनान्तरगता भगवान्बृहस्पतिरेकैकस्मिन्राशौ परिवत्सरं परिवत्सरं चरति यदि नवक्रः स्यात्प्रायेणानुकूलो ब्राह्मणकुलस्य ॥

    १५॥

    ततः--वह ( मंगल ); उपरिष्टात्‌--ऊपर; द्वि-लक्ष-योजन-अन्तर-गता:-- २, ००,००० योजन अर्थात्‌ १६,००,००० मील की दूरीपर स्थित; भगवान्‌--सर्वाधिक शक्तिमान ग्रह; बृहस्पति: --बृहस्पति; एक-एकस्मिन्‌ू--एक के पश्चात्‌ एक; राशौ--राशि में;परिवत्सरम्‌ परिवत्सरम्‌--प्रति परिवत्सर तक; चरति--चलता है; यदि--यदि; न--नहीं; वक़:--वक्र; स्थातू--हो जाता है;प्रायेण--प्राय:; अनुकूल: --शुभ; ब्राह्मण-कुलस्य--इस ब्रह्माण्ड के ब्राह्मणों के लिए।

    मंगल से १,६००,००० योजन अथवा पृथ्वी से १०,४००,००० मील ऊपर बृहस्पति नामकग्रह स्थित है जो एक परिवत्सर में एक राशि की यात्रा करता है।

    यदि यह वक्रगति से न चले तोयह ब्राह्मणों के लिए अत्यन्त अनुकूल रहता है।

    तत उपरिष्टाद्योजनलक्षद्वयात्प्रतीयमान: शनैश्चवर एकैकस्मिन्राशौ त्रिंशन्‍्मासान्विलम्बमान: सवनिवानुपर्येतितावद्ध्िरनुवत्सरैः प्रायेण हि सर्वेषामशान्तिकर: ॥

    १६॥

    ततः--वह ( बृहस्पति ); उपरिष्टात्‌--ऊपर; योजन-लक्ष-द्वयातू-- २, ००,००० योजन ( १६, ००,००० मील ) की दूरी से;प्रतीयमान:--अवस्थित है; शनैश्वर:--शनिश्चर ग्रह; एक-एकस्मिन्‌ू--एक के पश्चात्‌ एक; राशौ--राशि में; त्रिंशत्‌ मासानू--तीस मास तक; विलम्‌-बमान: --विलम्ब करते हुए, रुकते हुए; सर्वानू--सभी बारह राशियाँ; एब--ही; अनुपर्येति--को पारकरता है; तावद्धिः--उतने; अनुवत्सरैः -- अनुवत्सरों से; प्रायेण-- प्रायः; हि--निस्सन्देह; सर्वेषाम्‌--समस्त वासियों के लिए;अशान्तिकर:-- अत्यधिक कष्टकारक |

    बृहस्पति से २,००,००० योजन अर्थात्‌ १२१६,००,००० मील और पृथ्वी से १२,२०,००,०००मील ऊपर शनिग्रह स्थित है जो तीस-तीस मास में प्रत्येक राशि से होकर जाता है और तीसअनुव्त्सरों में सम्पूर्ण राशिवृत्त पूरा करता है।

    यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए अत्यन्त अशुभ है।

    तत उत्तरस्माहृषय एकादशलक्षयोजनान्तर उपलभ्यन्ते य एव लोकानां शमनुभावयन्तो भगवतोविष्णोर्यत्परमं पद प्रदक्षिणं प्रक्रमन्ति, ॥

    १७॥

    ततः--शनि ग्रह; उत्तरस्मात्‌--ऊपर; ऋषय: --ऋषिगण; एकादश-लक्ष-योजन-अन्तरे-- ११,० ०,००० योजन की दूरी पर;उपलभ्यन्ते-- अवस्थित है; ये--सभी; एब--ही; लोकानाम्‌--ब्रह्माण्ड के समस्त निवासियों के लिए; शम्‌--शुभ;अनुभावयन्तः --सदैव सोचते हैं; भगवत:-- श्रीभगवान्‌; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु का; यत्‌--जो; परमम्‌ पदम्‌--परम धाम;प्रदक्षिणम्‌--दायें रख कर; प्रक्रमन्ति--परिक्रमा करते हैं

    शनिग्रह से ११,००,००० योजन अर्थात्‌ ८८,००,००० मील (अथवा पृथ्वी से२,०८,००,००० मील ) ऊपर सप्तर्षि अवस्थित हैं, जो सदैव ब्रह्माण्ड के समस्त प्राणियों कीमंगल-कामना करते रहते हैं।

    वे भगवान्‌ विष्णु के परम धाम श्रुवलोक की प्रदक्षिणा करते हैं।

    TO

    अध्याय तेईसवाँ: शिशुमार ग्रह प्रणाली

    5.23अथ तस्मात्परतस्त्रयोदशलक्षयोजनान्तरतो यत्तद्विष्णो: परम पदमभिवदन्ति यत्र ह महाभागवतो श्लुवऔत्तानपादिरग्निनेन्द्रेण प्रजापतिना कश्यपेन धर्मेण च समकालयुग्भि: सबहुमानं दक्षिणत: क्रियमाणइदानीमपि कल्पजीविनामाजीव्य उपास्ते तस्येहानुभाव उपवर्णित: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुक देव गोस्वामी ने कहा; अथ--तदनन्तर; तस्मात्‌--सप्त नक्षत्रों के गोलक से; परत: --उससे परे;त्रयोदश-लक्ष-योजन-अन्तरत:-- और १३,००,००० योजन; यत्‌--जो; तत्‌--वह; विष्णो: परमम्‌ पदम्‌-- भगवान्‌ विष्णु कापरम धाम, अथवा भगवान्‌ विष्णु के चरणकमल; अभिवदन्ति--ऋग्वेद के मंत्र स्तुति करते हैं; यत्र--जिस पर; ह--निस्सन्देह;महा-भागवतः --परमभक्त; श्रुवः--महाराज श्रुव; औत्तानपादिः--महाराज उत्तानपाद के पुत्र; अग्निना--अग्निदेव द्वारा;इन्द्रेण--स्वर्गलोक के राजा इन्द्र द्वारा; प्रजापतिना--प्रजापति द्वारा; कश्यपेन--कश्यप द्वारा; धर्मेण-- धर्मराज द्वारा; च-- भी;समकाल-युग्भिः--एक ही समय संलग्न; स-बहु-मानम्‌--सदैव आदरपूर्वक; दक्षिणतः--दाहिनी ओर; क्रियमाण: -- चक्करलगाया जाकर; इदानीम्‌--इस समय; अपि-- भी; कल्प-जीविनाम्‌--कल्पान्त तक विद्यमान जीवात्माओं का; आजीव्य: --आजीविका, प्राणाधार; उपास्ते--बना रहता है; तस्य--उसका; इह--यहाँ; अनुभाव:--सेवा कार्य की महानता; उपवर्णित:--पहले ही वर्णित ( श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में )॥

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा--हे राजन, सप्तर्षि-मण्डल से १३,००,००० योजन( १०,०४,००,००० ) ऊपर भगवान्‌ विष्णु का धाम कहा जाता है।

    वहाँ पर अब भी महाराजउत्तानपाद के पुत्र, परम भक्त महाराज श्रुव वास करते हैं, जो इस सृष्टि के अन्त तक रहने वालेसमस्त जीवात्माओं के प्राणाधार हैं।

    वहाँ पर इन्द्र, अग्नि, प्रजापति, कश्यप तथा धर्म सभीसमवेत होकर उनका आदर करते हैं और नमस्कार करते हैं।

    वे उनके दाईं ओर रह कर उनकीप्रदक्षिणा करते हैं।

    मैं पहले ही महाराज श्रुव के यशस्वी कार्यों का वर्णन ( श्रीमद्भागवत केचतुर्थ स्कन्ध में ) कर चूका हूँ।

    स हि सर्वेषां ज्योतिर्गणानां ग्रहनक्षत्रादीनामनिमिषेणाव्यक्तरंहसा भगवता कालेन भ्राम्यमाणानांस्थाणुरिवावष्टम्भ ईश्वेरेण विहितः शश्वदवभासते ॥

    २॥

    सः--श्रुव महाराज का वह लोक; हि--निस्सन्देह; सर्वेषाम्‌--सभी; ज्योति:-गणानाम्‌--ज्योतिर्गण; ग्रह-नक्षत्र-आदीनाम्‌--ग्रहनक्षत्र इत्यादि का; अनिमिषेण--न विश्राम लेने वाला; अव्यक्त--अवर्णनीय; रंहसा--जिसका बल; भगवता--सर्व शक्तिमान;कालेन--काल द्वारा; भ्राम्यमाणानाम्‌ू--घुमाया जाकर; स्थाणु: इब--ढूँठ की भाँति; अवष्टम्भ:--आधार-स्तम्भ; ईश्वेरण--श्रीभगवान्‌ की इच्छा से; विहित:--स्थापित; शश्वत्‌-- अनवरत; अवभासते-- प्रकाशित होता रहता है।

    श्रीभगवान्‌ की परम इच्छा से स्थापित

    धुत्र महाराज का लोक श्रुवलोक समस्त नक्षत्रों तथाग्रहों के मध्यवर्ती-स्तम्भ के रूप में निरन्तर प्रकाशमान रहता है।

    सदा जागते रहने वाला अदृश्यसर्वशक्तिमान काल इन ज्योतिर्गणों को अहर्निश श्लुवतारे के चारों ओर घुमाता रहता है।

    यथा मेढीस्तम्भ आक्रमणपशव: संयोजितास्त्रिभिस्त्रिभि: सवनैर्यथास्थानं मण्डलानि चरन्त्येवं भगणाग्रहादय एतस्मिन्नन्तर्बहियोंगेन कालचक्र आयोजिता श्रुवमेवावलम्ब्य वायुनोदीर्यमाणा आकल्पान्तंपरिचड्क्रमन्ति नभसि यथा मेघा: एयेनादयो वायुवशा: कर्मसारथय: परिवर्तन्ते एवं ज्योतिर्गणाःप्रकृतिपुरुषसंयोगानुगृही ता: कर्मनिर्मितगतयो भुवि न पतन्ति ॥

    ३॥

    यथा--जिस प्रकार; मेढीस्तम्भे--मध्यवर्ती-स्तम्भ में; आक्रमण-पशव:--कोल्हू चलाने वाले बैल; संयोजिता:--जोते जाकर;त्रिभिः त्रिभिः--तीन तीन करके; सवनै:--गतियों के द्वारा; यथा-स्थानम्‌-- अपने-अपने स्थानों पर; मण्डलानि-- मंडल, चक्कर;चरन्ति--पार करते हैं; एवम्‌--उसी प्रकार; भ-गणा:--सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति इत्यादि ज्योतिर्गण; ग्रह-आदय: --विभिन्न ग्रह; एतस्मिनू--इसमें; अन्त:-बहि:-योगेन-- भीतरी अथवा बाहरी चक्कर के साथ सम्बन्ध होने से; काल-चक्रे -- अनन्त'कालचक् में; आयोजिता:--बँधा हुआ; ध्रुवम्‌-- ध्ुवलोक; एबव--निश्चय ही; अवलम्ब्य--आधार बनाकर; वायुना--वायु द्वारा;उदीर्यमाणा: --चक्राकार घुमाये जाकर; आ-कल्प-अन्तमू--कल्प के अन्त तक; परिचड्क्रमन्ति--चारों ओर चक्कर लगाता है;नभसि--आकाश में; यथा--सहश; मेघा:--घने बादल; श्येन-आदयः --बाज जैसे पक्षी; वायु-वशा:--वायु के द्वारा चालित;कर्म-सारथय:--अपने पूर्व कर्म रूपी सारथी; परिवर्तन्ते--चारों ओर घूमते हैं; एवम्‌--इस प्रकार; ज्योति:-गणा:-- आकाश केग्रह, नक्षत्र ज्योति-पिण्ड; प्रकृति-- प्राकृतिक; पुरुष--तथा परम-पुरुष, कृष्ण का; संयोग-अनुगृहीता:--संयुक्त प्रयत्नों केद्वारा ग्रहण किया हुआ; कर्म-निर्मित--कर्मों के द्वारा उत्पन्न; गतयः--जिसकी गतियाँ; भुवि-- भूमि पर; न--नहीं; पतन्ति--गिरते हैं।

    यदि बैलों को एकसाथ नाधकर उन्हें एक मध्यवर्ती आधार-स्तम्भ से बाँधकर भूसे परघुमाया जाता है, तो वे अपनी स्थिति से हटे बिना चक्कर लगाते रहते हैं--पहला बैल स्तम्भ केनिकट रहता है, दूसरा बीच में और तीसरा बाहर की ओर।

    इसी प्रकार सभी ग्रह तथा सैकड़ोंहजारों नक्षत्र भी श्रुवतारे के चारों ओर ऊपर तथा नीचे स्थित अपनी-अपनी कक्ष्याओं में घूमतेरहते हैं।

    वे अपने पूर्वकर्मों के अनुसार श्रीभगवान्‌ द्वारा प्रकृति-यंत्र में बाँधे जाकर वायु द्वाराध्रुवलोक के चारों ओर घुमाये जाते हैं और इस प्रकार कल्पान्त तक घूमते रहेंगे।

    ये ग्रह विशालआकाश के भीतर वायु में वैसे ही तैरते रहते हैं, जिस प्रकार हजारों टन जल से लदे बादल वायुमें तैरते रहते हैं, अथवा अपने पूर्वकर्मों के कारण बड़े-बड़े बाज आकाश में ऊँचाई तक उड़तेरहते हैं और भूमि पर कभी नहीं गिरते।

    केचनैतज्योतिरनीकं शिशुमारसंस्थानेन भगवतो वासुदेवस्य योगधारणायामनुवर्णयन्ति ॥

    ४॥

    केचन--कुछ योगी अथवा ज्योतिर्विद; एतत्‌--यह; ज्योतिः-अनीकम्‌--नक्षत्रों तथा ग्रहों का विशाल चक्र; शिशुमार-संस्थानेन--यह चक्र मानो शिशुमार ( सूँस ) हो; भगवतः-- श्रीभगवान्‌; वासुदेवस्य-- भगवान्‌ वासुदेव, श्रीकृष्ण का; योग-धारणायामू्‌-- ध्यानमग्न; अनुवर्णयन्ति--बताते हैंक्षत्रों तथा ग्रहों से युक्त यह विराट यंत्र जल में शिशुमार ( सूँस मछली ) के स्वरूप सेसमानता रखने वाला है।

    कभी-कभी इसे वासुदेव श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है।

    वास्तवमें हश्य होने के कारण बड़े-बड़े योगी वासुदेव के इस रूप का ध्यान करते हैं।

    यस्य पुच्छाग्रेडवाक्शिरस: कुण्डलीभूतदेहस्य ध्रुव उपकल्पितस्तस्य लाडूले प्रजापतिरग्निरिद्धो धर्म इतिपुच्छमूले धाता विधाता च कट्यां सप्तर्षय:; तस्य दक्षिणावर्तकुण्डली भूतशरीरस्य यान्युदगयनानिदक्षिणपार्श्वे तु नक्षत्राण्युपकल्पयन्ति दक्षिणायनानि तु सव्ये; यथा शिशुमारस्य कुण्डलाभोगसतन्निवेशस्यपार्श्रयोरुभयोरप्यवयवा: समसड्ख्या भवन्ति; पृष्ठे त्वजवीथी आकाशगड़ा चोदरत: ॥

    ५॥

    यस्य--जिसके ; पुच्छ-अग्रे--पूँछ के सिरे पर; अवाक्शिरसः--जिसका सिर नीचे की ओर है; कुण्डली-भूत-देहस्य--जिसकाशरीर कुण्डलीबद्ध है; ध्रुवः-- ध्रुव लोक के श्रुव महाराज; उपकल्पित:--स्थित है; तस्य--उसकी; लाडूले --पूँछ पर;प्रजापति:-- प्रजापति; अग्नि:-- अग्नि; इन्द्र:--इन्द्र; धर्म:-- धर्म; इति--इस प्रकार; पुच्छ-मूले--पूँछ के मूल भाग पर; धाताविधाता--धाता तथा विधाता नामक देवतागण; च-- भी; कट्यामू--कटि भाग पर; सप्त-ऋषय: --सप्तर्षिगण; तस्य--उसके;दक्षिण-आवर्त-कुण्डली- भूत-शरीरस्य--जिसका शरीर दक्षिण की ओर घूमती हुई कुण्डली के समान है; यानि--जो;उदगयनानि--उत्तरी पथ को बताने वाले; दक्षिण-पाश्वे--दाहिनी ओर; तु--लेकिन; नक्षत्राणि--नक्षत्रगण; उपकल्पयन्ति--स्थित हैं; दक्षिण-आयनानि--पुष्या से लेकर उत्तराषाढ़ा तक के १४ नक्षत्र जो उत्तरापथ को बताते हैं; तु--लेकिन; सव्ये--बाईंओर; यथा-- जिस प्रकार; शिशुमारस्य--सूँस का; कुण्डला-भोग-सन्निवेशस्य--जिसका शरीर कुण्डली सहश प्रतीत होता है;पार्श्रयो: --पाश्रों में; उभयो:--दोनों; अपि--ही; अवयवा: --शरीर के अंग; समसड्ख्या:--समान संख्या के ( १४ ); भवन्ति--हैं; पृष्ठ--पीठ पर; तु--निस्सन्देह; अजवीथी--दक्षिण पथ को बताने वाले प्रथम तीन नक्षत्र ( मूला, पूर्वाषाढ़ा तथाउत्तराषाढ़ा )) आकाश-गज्ञ-- आकाश गंगा; च-- भी; उदरत:--पेट पर।

    यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए है और इसका सिर नीचे की ओर है।

    इसकी पूँछ के सिरे परश्रुव नामक लोक स्थित है।

    इसकी पूँछ के मध्य भाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र तथा धर्म नामकदेवताओं के लोक स्थित हैं और पूँछ के मूल भाग में धाता और विधाता नामक देवताओं केलोक हैं।

    उसके कटिप्रदेश में वसिष्ठ, अंगिरा इत्यादि सातों ऋषि हैं।

    कुण्डलीबद्ध शिशुमार काशरीर दाहिनी ओर मुड़ता है, जिसमें अभिजित्‌ से लेकर पुनर्वसु पर्यन्त चौदह नक्षत्र स्थित हैं।

    इसकी बाईं ओर पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ा पर्यन्त चौदह नक्षत्र हैं।

    इस प्रकार दोनों ओर समानसंख्या में नक्षत्र होने से इसका शरीर सन्तुलित है।

    शिशुमार के पृष्ठ भाग में अजवीथी नामकनक्षत्रों का समूह है और उदर में आकाश-गंगा है।

    पुनर्वसुपुष्यौ दक्षिणवामयो: श्रोण्योराद्राश्लिषे च दक्षिणवामयो: पश्चिमयो: पादयोरभिजिदुत्तराषाढेदक्षिणवामयोर्नासिकयोर्यथासड्ख्यं श्रवणपूर्वाषाढे दक्षिणवामयोलोंचनयोर्धनिष्ठा मूलं चदक्षिणवामयो: कर्णयोर्मघादीन्यष्ट नक्षत्राणि दक्षिणायनानि वामपार्श्ववड्क्रिषु युज्लीत तथेवमृगशीर्षादीन्युदगयनानि दक्षिणपार्श्ववर्ड्धक्रिषु प्रातिलोम्येन प्रयुज्जीत शतभिषाज्येष्टठेस्कन्धयोर्दक्षिणवामयोर्न्यसेत्‌: ॥

    ६॥

    पुनर्वसु--पुनर्वसु नामक नक्षत्र; पुष्यौ--तथा पुष्य नक्षत्र; दक्षिण-वामयो:--दाहिने तथा बाएँ; श्रोण्यो:--कटि तट; आर्द्रा--आर्द्रो नामक नक्षत्र; अश्लेषे-- अश्लेषा नक्षत्र; च-- भी; दक्षिण-वामयो:--दाएँ तथा बाएँ; पश्चिमयो: --पीछे; पादयो:-- पैर;अभिजितू-उत्तराषाढे-- अभिजित्‌ तथा उत्तराषाढ़ा नक्षत्र; दक्षिण-वामयो: --दाएँ तथा बाएँ; नासिकयो:--नथुने; यथा-सड्ख्यम्‌--क्रमानुसार; श्रवण-पूर्वाषाढे-- श्रवणा तथा पूर्वाषाढ़ा नामक नक्षत्र; दक्षिण-वामयो:--दाईं तथा बाई ओर;लोचनयो:--आँखें; धनिष्ठा मूलम्‌ च--तथा धनिष्ठा एवं मूला नक्षत्र; दक्षिण-वामयो:--दाएँ बाएँ; कर्णयो: --कान; मघा-आदीनि--मघा आदि नक्षत्र; अष्ट नक्षत्राणि-- आठ नक्षत्र; दक्षिण-आयनानि-- दक्षिण पथ को बताने वाले; वाम-पार्श्च--बाईंओर; वडक्रिषु--पसलियों पर; युज्जीत--रख सकते हैं; तथा एब--इसी प्रकार; मृग-शीर्षा-आदीनि--मृगशीर्ष आदि;उदगयनानि--उत्तरी पथ को बताते हुए; दक्षिण-पार्श्व-वड्क्रिषु--दाहिनी ओर; प्रातिलोम्येन--विपरीत क्रम में; प्रयुज्भीत--रखसकते हैं; शतभिषा--शतभिषा; ज्येष्टे --ज्येष्ठा; स्कन्धयो:--दोनों कन्धों पर; दक्षिण-वामयो:--दाएँ तथा बाएँ; न्यसेत्‌--रखनाचाहिए।

    शिशुमार चक्र के दाहिने तथा बाएँ कटि तटों पर पुनर्वसु तथा पुष्य नक्षत्र हैं।

    इसके दाएँतथा बाएँ पैरों पर आर्द्रा एवं अश्लेषा; इसके दाएँ तथा बाएँ नथुनों पर क्रमशः अभिजित्‌ तथा उत्तराषाढ़ा; इसके दाएँ तथा बाएँ नेत्रों पर श्रवणा तथा पूर्वषाढ़ा और इसके दाएँ तथा बाएँ कानोंपर धनिष्ठा तथा मूला स्थित हैं।

    मघा से अनुराधा तक दक्षिणायन्‌ के आठ नक्षत्र बाईं पसलियोंपर और उत्तरायण के मृगशीर्ष से पूर्वभाद्र पर्यन्त आठ नक्षत्र दाईं ओर की पसलियों पर स्थित हैं।

    शतभिषा तथा ज्येष्ठा ये दो नक्षत्र क्रमशः दाहिने और बाएँ कन्धों पर स्थित हैं।

    उत्तराहनावगस्तिरधराहनौ यमो मुखेषु चाड़ारकः शनैश्वर उपस्थे बृहस्पति: ककुदि वक्षस्यादित्यो हृदयेनारायणो मनसि चन्द्रो नाभ्यामुशना स्तनयोरश्विनौ बुध: प्राणापानयो राहुर्गले केतव: सर्वाड्जिषु रोमसु सर्वेतारागणा: ॥

    ७॥

    उत्तरा-हनौ--ऊपरी जबड़े पर; अगस्ति:--अगस्ति नामक नक्षत्र; अधरा-हनौ--निचले जबड़े पर; यम:--यमराज; मुखेषु--मुख पर; च--भी; अड्जारक:--मंगल; शनैश्वर: --शनि; उपस्थे--लिंगप्रदेश में; बृहस्पति:-- बृहस्पति; ककुदि--गर्दन केपीछले भाग पर; वक्षसि--वक्ष ( छाती ) पर; आदित्य: --सूर्य; हृदये--हृदय में; नारायण: -- भगवान्‌ नारायण; मनसि--मन में;अन्द्र: --चन्द्रमा; नाभ्यामू--नाभि में; उशना--शुक्र ; स्तनयो:--दोनों स्तनों पर; अश्विनौ--अश्विनद्वय ( अश्विनी कुमार );बुध:--बुध; प्राणापानयो:-- प्राण तथा अपान नामक क्षासों में; राहु:--राहु ग्रह; गले--गर्दन पर; केतव:--केतुगण; सर्व-अड्जेषु--सम्पूर्ण शरीर पर; रोमसु--रोओं में; सर्वे--सभी; तारा-गणा: --असंख्य तारे।

    शिशुमार की ऊपरी ठोड़ी पर अगस्ति, निचली ठोड़ी पर यमराज, मुँह में मंगल, उपस्थ मेंशनि, गर्दन ( ककुद ) पर बृहस्पति, छाती पर सूर्य, हृदय के छोर में नारायण, मन में चन्द्रमा,नाभि में शुक्र तथा स्तनों में अश्विनी कुमार स्थित हैं।

    प्राण और अपान नामक प्राण वायु में बुध,गले में राहु तथा समस्त शरीर पर केतु और रोमों में समस्त तारागण स्थित हैं।

    एतदु हैव भगवतो विष्णो: सर्वदेवतामयं रूपमहरहः सन्ध्यायां प्रयतो वाग्यतो निरीक्षमाण उपतिष्ठेत नमोज्योति्लोकाय कालायनायानिमिषां पतये महापुरुषायाभिधीमहीति ॥

    ८ ॥

    एतत्‌--यह; उ ह--निस्सन्देह; एब--ही; भगवतः-- श्रीभगवान्‌; विष्णो: --विष्णु का; सर्व-देवता-मयम्‌--समस्त देवताओं सेयुक्त; रूपमू-- स्वरूप; अह:-अहः--सदैव; सन्ध्यायाम्‌--प्रातः, दोपहर तथा शाम को; प्रयतः--ध्यान धरते हुए; वाग्यतः --शब्दों ( वाणी ) पर नियंत्रण करते हुए; निरीक्षमाण: --निरीक्षण करते हुए; उपतिष्ठेत--उपासना करनी चाहिए; नमः --नमस्कार;ज्योति:-लोकाय--समस्त ग्रहों के आधारस्वरूप को; कालायनाय--परम काल के रूप में; अनिमिषाम्‌--देवताओं के;'पतये--स्वामी को; महा-पुरुषाय--परम-पुरुष को; अभिधीमहि--चिन्तन करें; इति--इस प्रकार |

    है राजन, इस प्रकार से वर्णित शिशुमार के शरीर को भगवान्‌ श्रीविष्णु का बाह्य रूपमानना चाहिए।

    प्रत्येक प्रातः दोपहर तथा सायंकाल शिशुमार चक्र के रूप में भगवान्‌ कादर्शन मौन होकर करना चाहिए और इस मंत्र से उपासना करनी चाहिए---'हे काल रूप धारणकरने वाले भगवान्‌, हे विभिन्न कक्ष्याओं में घूमने वाले ग्रहों के आश्रय, हे समस्त देवों केस्वामी, हे परम पुरुष, मैं आपको नमस्कार करता हूँ और आपका ध्यान धरता हूँ।

    ग्रहकक्षतारामयमाधिदैविक॑पापापहं मन्त्रकृतां त्रिकालम्‌ ।

    नमस्यतः स्मरतो वा त्रिकालंनश्येत तत्कालजमाशु पापम्‌ ॥

    ९॥

    ग्रह-ऋक्ष-तारा-मयम्‌--समस्त नक्षत्रों तथा ग्रहों से युक्त; आधिदैविकम्‌--समस्त देवताओं के अधिपति; पाप-अपहम्‌--पापोंका नाश करने वाले; मन्त्र-कृताम्‌--जो उपर्युक्त मंत्र का जप करते हैं; त्रि-कालम्‌--तीनों काल को; नमस्यत:--नमस्कार;स्मरतः--ध्यान करते हैं; वा--अथवा; त्रि-कालम्‌--तीन बार; नश्येत--नाश करता है; तत्‌-काल-जम्‌--उस समय उत्पन्न;आशु--शीघ्रता से; पापम्‌ू--समस्त पापों को |

    शिशुमार चक्र रूपी परमेश्वर विष्णु का शरीर समस्त देवताओं, नक्षत्रों तथा ग्रहों का आश्रयहै।

    जो व्यक्ति परम पुरुष की आराधना करने हेतु नित्य तीन बार प्रातः, दोपहर तथा सायंकालइस मन्त्र का जप करता है, वह समस्त पापों के फल से अवश्य ही मुक्त हो जाता है।

    यदि कोईइस रूप में उनको केवल नमस्कार करे या इसे दिन में तीन बार स्मरण करे तो उसके हाल मेंकिए हुए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

    TO

    अध्याय चौबीस: भूमिगत स्वर्गीय ग्रह

    5.24श्रीशुक उबाच अधस्तात्सवितुर्योजनायुते स्वर्भानुर्नक्षत्रवच्चरतीत्येकेयोउसावमरत्वं ग्रहत्वं चालभत भगवदनुकम्पयास्वयमसुरापसद: सैंहिकेयो ह्तदर्हस्तस्य तात जन्म कर्माणि चोपरिष्टाद्ृक्ष्याम:. ॥

    १॥

    श्री-शुक: उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले; अधस्तात्‌--नीचे; सवितु:--सूर्य गोलक; योजन--आठ मील के बराबर कीदूरी; अयुते--दस हजार; स्वर्भानु:--राहु नामक ग्रह; नक्षत्र-वत्‌--नक्षत्र के समान; चरति--घूमता है; इति--इस प्रकार;एके--कुछ पुराणवेत्ता; य:--जो; असौ--वह; अमरत्वम्‌--देवताओं के सहश जीवन; ग्रहत्वम्‌--किसी प्रमुख ग्रह की सीस्थिति; च--और; अलभत-प्राप्त की गई; भगवत्‌-अनुकम्पया-- श्रीभगवान्‌ की दया से; स्वयम्‌--स्वयं, साक्षात्‌; असुर-अपसद: --असुरों में निम्नतम; सैंहिकेय:--सिंहिका का पुत्र होने से; हि--निस्सन्देह; अ-तत्‌-अर्ह:--उस पद के लिए सुयोग्य;'तस्य--उसका; तात--हे राजन्‌; जन्म--जन्म; कर्माणि--क्रियाएँ; च-- भी ; उपरिष्टात्‌-बाद में ; वक्ष्याम:-- मैं कहूँगा |

    \fश्रीशुकदेव गोस्वामी बोले--हे राजन, कुछ पुराण-वाचकों का कथन है कि सूर्य से१०,००० (८०,००० मील ) योजन नीचे राहु नामक ग्रह है जो नक्षत्रों की भाँति घूमता है।

    इसग्रह का अधिष्ठाता देवता, जो सिंहिका का पुत्र है समस्त असुरों में घृणास्पद है और इस पद केलिए सर्वथा अयोग्य होने पर भी श्रीभगवान्‌ की कृपा से उसे प्राप्त कर सका है।

    मैं उसके विषयमें आगे कहूँगा।

    यददस्तरणेममण्डलं प्रतपतस्तद्विस्तरतो योजनायुतमाचक्षते द्वादशसहस्त्रं सोमस्य त्रयोदशसहस्त्रं राहोर्य:'पर्वणि तद्व्यवधानकृद्वैरानुबन्ध: सूर्याचन्द्रमसमावभिधावति ॥

    २॥

    यत्‌--जो; अदः--वह; तरणे:--सूर्य का; मण्डलम्‌ू--गोलक; प्रतपत:ः--जो सदैव उष्मा प्रदान करता है; तत्‌--वह;विस्तरत:--विस्तार में; योजन--आठ मील की दूरी; अयुतम्‌--दस हजार; आचक्षते--उनका अनुमान है; द्वादश-सहस्त्रमू--बीस हजार योजन; सोमस्थ--चन्द्रमा का; त्रयोदश--तीस; सहस्त्रमू--हजार; राहो: --राहु नामक ग्रह का; यः--जो; पर्वणि--अवसर पर; ततू-व्यवधान-कृत्‌ू--जिसने अमृत वितरण के समय सूर्य तथा चन्द्रमा के लिए अवरोध उत्पन्न किया; बैर-अनुबन्ध: --वैर भाव; सूर्या--सूर्य; चन्द्रमसौ--तथा चन्द्रमा; अभिधावति--पूर्णिमा तथा अमावस्या के समय उनका पीछाकरता हैऊष्पा के स्त्रोत सूर्य गोलक का विस्तार १०,००० योजन ( ८०,००० मील ) है।

    चन्द्रमा का २०,००० योजन ( १६०,००० मील ) और राहु का ३०,००० योजन ( २४०,००० मील ) तकफैला हुआ है।

    अमृत वितरण के समय राहु ने सूर्य तथा चन्द्रमा के मध्य आसीन होकर उनकेबीच विद्वेष उत्पन्न करना चाहा।

    राहु, सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों के प्रति शत्रुभाव रखता है।

    इसलिए वह सदा अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन उनको ढकने का प्रयल करता रहता है।

    तन्निशम्योभयत्रापि भगवता रक्षणाय प्रयुक्त सुदर्शन नाम भागवतं दयितमस्त्रं तत्तेजसा दुर्विषहं मुहुःपरिवर्तमानमभ्यवस्थितो मुहूर्तमुद्बिजमानश्वकितहृदय आरादेव निवर्तते तदुपरागमिति वदन्ति लोकाः ॥

    ३॥

    तत्‌--वह स्थिति; निशम्य--सुनकर; उभयत्र--सूर्य तथा चन्द्र दोनों के चारों ओर; अपि--निस्सन्देह; भगवता-- श्री भगवान्‌द्वारा; रक्षणाय--उनकी रक्षा हेतु; प्रयुक्तमू--संलग्न; सुदर्शनम्‌ू-- श्रीकृष्ण का चक्र; नाम--नामक; भागवतम्‌-- अत्यन्तविश्वासपात्र भक्त; दयितम्‌--अत्यन्त प्रिय; अस्त्रमू--आयुध; तत्‌--वह; तेजसा-- अपने तेज से; दुर्विषहम्‌--असह् गर्मी;मुहुः--बारम्बार; परिवर्तमानम्‌--सूर्य तथा चन्द्र की परिक्रमा करता हुआ; अभ्यवस्थित:--स्थित; मुहूर्तम्‌--एक मुहूर्त( ४८मिनट ) के लिए; उद्विजमान:--जिसका मन चिन्ताओं से पूर्ण है; चकित--चकित, डरा हुआ; हृदय:--हृदय; आरातू--सुदूर स्थान तक; एब--ही; निवर्तते-- भागता है; तत्‌ू--वह स्थिति; उपरागम्‌--ग्रहण; इति--इस प्रकार; वदन्ति--कहते हैं;लोकाः--लोग।

    सूर्य तथा चन्द्र देवताओं से राहु के आक्रमण को सुन कर उनकी रक्षा हेतु भगवान्‌ विष्णुअपना सुदर्शन चक्र चलाते हैं।

    यह चक्र भगवान्‌ का अत्यन्त प्रिय भक्त और प्रिय पात्र है।

    अवैष्णवों के वध हेतु इसका प्रचण्ड तेज राहु के लिए असह्ाय है, अतः वह डर कर भाग जाताहै।

    जब राहु चन्द्र या सूर्य को सताता है, तो ग्रहण लगता है।

    ततोथधस्तात्सिद्धचारणविद्याधराणां सदनानि तावन्मात्र एव ॥

    ४॥

    ततः--राहु ग्रह से; अधस्तात्‌--नीचे; सिद्ध-चारण--सिद्धलोक तथा चारण लोक का; विद्याधराणाम्‌--तथा विद्याधरों के ग्रहोंके; सदनानि-- आवास; तावत्‌ मात्र--केवल उतनी ही दूरी ८०,००० मील; एब--निस्सन्देह |

    राहु से १०,००० योजन (८०,००० मील) नीचे सिद्धलोक, चारणलोक तथा विद्याधरलोक हैं।

    ततोथस्ताद्यक्षरक्ष:पिशाचप्रेतभूतगणानां विहाराजिरमन्तरिक्षं यावद्वायु: प्रवाति यावन्मेघा उपलभ्यन्ते ॥

    ५॥

    ततः अधस्तात्‌ू--सिद्ध, चारण तथा विद्याधर लोकों से नीचे; यक्ष-रक्ष:-पिशाच-प्रेत-भूत-गणानाम्‌--यक्ष, राक्षस, पिशाच भूतइत्यादि के; विहार-अजिरम्‌-- भोग-विलास का स्थान; अन्तरिक्षम्‌--अन्तरिक्ष या आकाश में; यावत्‌--जहाँ तक; वायु: --वायु; प्रवाति-- बहती है; यावत्‌--जहाँ तक; मेघा: --मेघ; उपलभ्यन्ते--देखे जाते हैं ।

    अन्तरिक्ष में विद्याधणलोक, चारणलोक तथा सिद्धलोक के नीचे यक्षों, राक्षसों, पिशाचों,भूतों इत्यादि के भोगविलास के स्थान हैं।

    जहाँ तक वायु प्रवाहित होती है और आकाश मेंबादल तैरते हैं, वहाँ तक अन्तरिक्ष का विस्तार है।

    इसके ऊपर वायु नहीं है।

    ततोधस्ताच्छतयोजनान्तर इयं पृथिवी यावद्धंसभासएयेनसुपर्णादय: पतलत्रिप्रवरा उत्पतन्तीति ॥

    ६॥

    ततः अधस्तात्‌--इससे भी नीचे; शत-योजन--एक सौ योजन; अन्तरे--दूरी पर; इयम्‌--यह; पृथिवी--पृथ्वी; यावत्‌--जितनाऊँचा; हंस--हंस पक्षी; भास--गिद्ध; श्येन--बाज; सुपर्ण-आदय: --तथा अन्य पक्षीगण; पतत्त्रि-प्रवरा: पक्षियों में श्रेष्ठ;उत्पतन्ति--उड़ सकते हैं; इति--इस प्रकार

    यक्षों तथा राक्षसों के आवासों के नीचे १०० ( ८०० मील ) योजन की दूरी पर पृथ्वी ग्रह है।

    इसकी ऊपरी सीमा उतनी ऊँचाई तक है जहाँ तक हंस, गिद्ध, बाज तथा अन्य बड़े पक्षी उड़सकते हैं।

    उपवर्णितं भूमेर्यथासन्निवेशावस्थानमवनेरप्यधस्तात्सप्त भूविवरा एकैकशोयोजनायुतान्तरेणायामविस्तारेणोपक्रिप्ता अतलं वितलं सुतलं तलातलं महातलं रसातलं पातालमिति ॥

    ७॥

    उपवर्णितम्‌--पूर्वकधित; भूमेः--पृथ्वी का; यथा-सन्निवेश-अवस्थानम्‌--विभिन्न स्थानों की योजना के अनुसार; अबने:--पृथ्वी के; अपि--निश्चय ही; अधस्तात्‌--नीचे; सप्त--सात; भू-विवरा:--अन्य लोक; एक-एकश: --क्रम से, ब्रह्माण्ड कीऊपरी सीमा तक; योजन-अयुत-अन्तरेण--दस हजार योजन के अन्तर पर; आयाम-विस्तारेण--चौड़ाई तथा लम्बाई में;उपक्रिप्ता:--स्थित; अतलम्‌ू--अतल; वितलम्‌--वितल; सुतलम्‌--सुतल; तलातलम्‌--तलातल; महातलम्‌--महातल;रसातलम्‌--रसातल; पातालम्‌--पाताल; इति--इस प्रकार।

    हे राजन, इस पृथ्वी के नीचे सात अन्य लोक हैं, जो अतल, वितल, सुतल, तलातल,महातल, रसातल तथा पाताल कहलाते हैं।

    मैं पृथ्वीलोक की स्थिति पहले ही बता चुका हूँ।

    इनसात निम्नलोकों की चौड़ाई तथा लम्बाई पृथ्वी के बराबर ही परिगणित की गई है।

    एतेषु हि बिलस्वर्गेषु स्वर्गादप्यधिककामभोगै श्चर्यानन्दभूतिविभूतिभि: सुसमृद्धभवनोद्यानाक्रीडविहारेषुदैत्यदानवकाद्रवेया नित्यप्रमुदितानुरक्तकलत्रापत्यबन्धुसुहदनुचरा गृहपतय ई श्वरादप्यप्रतिहतकामामायाविनोदा निवसन्ति ॥

    ८॥

    एतेषु--इसमें से; हि--निश्चय ही; बिल-स्वर्गेषु--अध:-स्वर्ग लोकों में; स्वर्गात्‌--स्वर्गलोकों की अपेक्षा; अपि-- भी;अधिक--बढ़कर; काम-भोग--इन्द्रियभोग का सुख; ऐश्वर्य-आनन्द--ऐश्वर्यजन्य आनन्द; भूति--प्रभाव; विभूतिभि: --वस्तुओं तथा सम्पत्ति से; सु-समृद्ध--उन्नत; भवन--घर; उद्यान--उपवन, बगीचे; आक्रीड-विहारेषु--इन्द्रियतृप्ति के लिए नानाप्रकार के क्रीड़ा स्थलों में; दैत्य--दैत्य, असुर; दानव-- भूत-प्रेत; काद्रवेया:--सर्प; नित्य--शाश्वत; प्रमुदित-- अत्यधिकप्रसन्न; अनुरक्त--लगाव के कारण; कलत्र--पत्नी को; अपत्य--बच्चे; बन्धु--सगे सम्बन्धी; सुहत्‌--मित्र; अनुचरा: --अनुचर; गृह-पतय:--गृहस्वामी, घर का मुखिया; ईश्वरातू--देवताओं के तुल्य अधिक सक्षम जनों की अपेक्षा; अपि--भी;अप्रतिहत-कामा:--जिनकी कामेच्छा रोके नहीं रूकती; माया--मायामय; विनोदा:--जो सुख का अनुभव करते हैं;निवसन्ति--निवास करते हैं ।

    बिल स्वर्ग ( नीचे के स्वर्ग ) कहलाने वाले इन सातों लोकों में अत्यन्त सुन्दर घर, उद्यानतथा क्रीड़ास्थलियाँ हैं, जो स्वर्गलोक से भी अधिक ऐश्वर्यशाली हैं, क्योंकि असुरों के विषय-भोग, सम्पत्ति तथा प्रभाव के मानक बहुत ऊँचे हैं।

    इन लोकों के वासी दैत्य, दानव तथा नागकहलाते हैं और उनमें से बहुत से गृहस्थों की भाँति रहते हैं।

    उनकी पत्लियाँ, सन्‍तानें, मित्र तथाउनका समाज मायामय भौतिक सुख में पूरी तरह मग्न रहता है।

    भले ही देवताओं के ऐन्द्रिय-सुख में कभी-कभी बाधा आए, किन्तु इन लोकों के वासी अबाध जीवन व्यतीत करते हैं।

    इसप्रकार उन्हें मायामय सुख में अत्यधिक लिप्त माना जाता है।

    येषु महाराज मयेन मायाविना विनिर्मिता: पुरोनानामणिप्रवरप्रवेकविरचितविचित्रभवनप्राकारगोपुरसभाचैत्यचत्वरायतनादिभिर्नागासुरमिथुनपारावतशुकसारिकाकीर्णकृत्रिमभूमिभिर्विवरेश्वरगृहोत्तमै: समलड्डू ताश्चकासति ॥

    ९॥

    येषु--उन अधोलोकों में ; महा-राज--हे राजन्‌; मयेन--मय दानव के द्वारा; माया-विना--वास्तुकला में दक्ष; विनिर्मिता: --निर्मित किया हुआ; पुरः--पुरियाँ; नाना-मणि-प्रवर--बहुमूल्य मणियों का; प्रवेक-- श्रेष्ठठटम; विरचित--निर्मित; विचित्र--आश्चर्यजनक; भवन--घर; प्राकार--भित्तियाँ; गोपुर--द्वार; सभा--सभागार; चैत्य--मन्दिर; चत्वर--पाठशालाएँ; आयतन-आदिभि:--होटलों या मनोरंजन-शालाओं आदि से युक्त; नाग--सर्प के सहश शरीर वाले जीवों का; असुर--असुरों याअनीश्चरवादी व्यक्तियों का; मिथुन--युग्मों द्वारा; पारावत--कबूतर; शुक--तोता; सारिका--मैना; आकीर्ण--समूहित;कृत्रिम--बनावटी; भूमिभि:-- भूमि से; विवर-ईश्वर--लोकों के अधिपतियों के; गृह-उत्तमैः--उत्तम घरों से; समलड्डू ता: --अलंकृत; चकासति--चमचमाते रहते हैं।

    हे राजन, कृत्रिम स्वर्ग में, जिन्हें बिल-स्वर्ग कहते हैं, मय नामक एक महादानव है जोअत्यन्त कुशल वास्तुशिल्पी है।

    उसने अनेक अलंकृत पुरियों का निर्माण किया है जहाँ अनेकविचित्र भवन, प्राचीर, द्वार, सभाभवन, मन्दिर, आँगन तथा मन्दिर-प्राचार एवं विदेशियों केरहने के होटल तथा आवास हैं।

    इन ग्रहों के अधिपतियों के भवनों को अत्यन्त मूल्यवान रत्नों सेनिर्मित किया गया है।

    ये भवन नागों तथा असुरों के अतिरिक्त अनेक कबूतरों, तोतों तथा अन्यपक्षियों से परिपूर्ण हैं।

    कुल मिलाकर ये कृत्रिम स्वर्गिक पुरियाँ अत्यन्त आकर्षक ढंग सेअलंकृत की गई हैं।

    उद्यानानि चातितरां मनइन्द्रियानन्दिभि: कुसुमफलस्तबकसुभगकिसलयावनतरूचिरविटपविटपिनांलताझलिड्डितानां श्रीभिः समिथुनविविधविहड़्मजलाशयानाममलजलपूर्णानांझषकुलोल्लड्डनक्षुभितनीरनीरजकुमुदकुवलयकह्ाारनीलोत्पललोहितशतपत्रादिवनेषुकृतनिकेतनानामेकविहाराकुलमधुरविविधस्वनादिभिरिन्द्रियोत्सवैरमरलोकश्रियमतिशयितानि ॥

    १०॥

    उद्यानानि--बाग तथा पार्क; च-- भी; अतितराम्‌--अत्यधिक; मन: --मन को; इन्द्रिय--तथा इन्द्रियों को; आनन्दिभि:--आनन्द प्रदान करने वाले; कुसुम--फूलों से; फल--फलों के; स्तबक-गुच्छे; सुभग --अत्यन्त सुन्दर; किसलय--नईटहनियाँ; अवनत--नीचे झुकी; रुचिर--आकर्षक; विटप--शाखाओं वाले; विटपिनामू--वृज्षों के; लता-अड्ड-आलिड्रितानामू-लताओं के अंगों द्वारा आलिंगित; श्रीभि: --सुन्दरता से; स-मिथुन--जोड़ों में; विविध--अनेक प्रकार के;विहड्डम-पक्षियों द्वारा; जल-आशयानाम्‌--जलागारों के; अमल-जल-पूर्णानाम्‌--निर्मल जल से पूर्ण; झष-कुल-उल्लड्डन--विविध प्रकार की मछलियों के कूदने से; क्षुभित--विश्लुब्ध; नीर--जल में; नीरज--कमलपुष्पों के; कुमुद--कुमुदिनी;कुवलय--कुबलय नामक पुष्प; कहार--कह्ार नामक पुष्प; नील-उत्पल--नीले कमल; लोहित--लाल; शत-पत्र-आदि--सौ पंखुड़ियों वाले कमलपुष्प इत्यादि; वनेषु--वनों में; कृत-निकेतनानाम्‌--उन पक्षियों का जिन्होंने अपने घोंसले बना लिए हैं;एक-विहार-आकुल--बेरोक सुख से पूर्ण; मधुर--अत्यधिक मीठा; विविध--नाना प्रकार के; स्वन-आदिभि:--क म्पनों से;इन्द्रिय-उत्सवै: --इन्द्रिय सुख मनाने वाले; अमर-लोक-श्रियम्‌ू--देवताओं के लोकों की सुन्दरता; अतिशयितानि--मात करनेवाले

    कृत्रिम स्वर्गों के बाग-बगीचे स्वर्गलोक के उद्यानों की शोभा को मात करने वाले हैं।

    उन उद्यानों के वृक्ष लताओं से लिपटे जाकर फलों तथा फूलों से लदी शाखाओं के भार से झुकेरहते हैं, जिसके कारण वे अतीव सुन्दर लगते हैं।

    यह सुन्दरता किसी को भी आकृष्ट करनेवालीऔर मन को भोगेच्छा से प्रफुल्लित कर देने वाली है।

    वहाँ अनेक जलाशय एवं झीलें हैं जिनकाजल निर्मल, पारदर्शी है तथा मछलियों के कूदने से उद्देलित होता रहता है और कुमुदिनी,कुवलय, कह्ार तथा नील एवं लाल कमल के पुष्पों से सुसज्जित रहता है।

    झीलों में चक्रवाकके जोड़े तथा अन्य अनेक जलपक्षी विहार करते हैं और प्रसन्न होकर कलरव करते हैं जिसेसुनकर मन और इन्द्रियों को अत्यन्त आह्वाद होता है।

    यत्र ह वाव न भयमहोरात्रादिभि: कालविभागैरुपलक्ष्यते ॥

    ११॥

    यत्र--जहाँ; ह वाव--निश्चय ही; न--नहीं; भयम्‌-- भय, डर; अहः-रात्र-आदिभि:--दिन और रात के कारण; काल-विभागै:ः--काल के विभाग; उपलक्ष्यते--अनुभव किया जाता है।

    चूँकि उन अध:लोकों में सूर्य का प्रकाश नहीं जाता, अतः काल दिन तथा रात में विभाजितनहीं है, जिसके फलस्वरूप काल से उत्पन्न भय नहीं रहता।

    यत्र हि महाहिप्रवरशिरोमणय: सर्व तमः प्रबाधन्ते ॥

    १२॥

    यत्र--जहाँ; हि--निस्सन्देह; महा-अहि--बड़े-बड़े सर्पो के; प्रवर--सर्व श्रेष्ठ; शिर:-मणय:--फनों पर स्थित मणियाँ; सर्वम्‌--सभी; तम:ः--अंधकार; प्रबाधन्ते--दूर भगाती हैं|

    वहाँ अनेक बड़े-बड़े सर्प वास करते हैं जिनके फनों की मणियों के प्रकाश से अंधकार दूरभाग जाता है।

    न वा एतेषु वसतां दिव्यौषधिरसरसायनातन्नपानस्नानादिभिराधयो व्याधयो वलीपलितजरादयश्चदेहवैवर्ण्यदौर्गन्ध्यस्वेदक्लमग्लानिरिति वयोवस्थाश्व भवन्ति ॥

    १३॥

    न--नहीं; वा--या; एतेषु--इन लोकों में; वबसताम्‌--बसने वालों का; दिव्य--विस्मयकारी; औषधि--जड़ी बूटियों का;रस--रस; रसायन--तथा अमृत; अन्न--खाने से; पान--पीने से; स्नान-आदिभि: --स्नान आदि करने से; आधय:--मानसिकक्लेश; व्याधय: --रोग, व्याधियाँ; वली--झुर्रियाँ; पलित--पके केश; जरा--वृद्धावस्था; आदय:-- आदि; च--तथा; देह-वैवर्ण्य--शारीरिक कान्ति का म्लान पड़ना; दौर्गन्ध्य--दुर्गन्‍्ध; स्वेद--पसीना; क्लम-- थकान; ग्लानि: --शक्ति-क्षय; इति--इस प्रकार; वयः अवस्था:-- आयु के बढ़ने के कारण उत्पन्न शोचनीय दशाएँ; च-- भी; भवन्ति--हैं |

    चूँकि इन लोकों के निवासी जड़ी-बूटियों से बने रस तथा रसायन का पान करते हैं औरउनमें स्नान करते हैं, अतः वे सभी प्रकार की चिन्ताओं और व्याधियों से मुक्त रहते हैं।

    न तोउनके केश सफेद होते हैं, न झुर्रियाँ पड़ती हैं, न वे अशक्य होते हैं।

    उनकी शारीरिक कान्तिकभी मलिन नहीं पड़ती, उनके पसीने से दुर्गन्‍्ध नहीं आती और न तो उन्हें थकान, न ही शक्तिका अथवा वृद्धावस्थाजन्य उत्साह का अभाव सताता है।

    न हि तेषां कल्याणानां प्रभवति कुतश्चन मृत्युर्विना भगवत्तेजसश्नक्रापदेशात्‌ ॥

    १४॥

    न हि--नहीं; तेषामू--उनका; कल्याणानाम्‌--जो स्वभाव से शुभ होते हैं; प्रभवति--प्रभाव डालने में सक्षम; कुतश्चन--कहींसे भी; मृत्यु:--मृत्यु; विना--के सिवा; भगवतू-तेजसः --श्रीभगवान्‌ की शक्ति का; चक्र-अपदेशात्‌--सुदर्शन चक्र से |

    वे अत्यन्त कुशलपूर्वक रहते हैं और काल रूप श्रीभगवान्‌ के सुदर्शन चक्र के अतिरिक्तअन्य किसी साधन द्वारा मृत्यु से भयभीत नहीं हैं।

    ह हल ७ जे ऋे ने कि कल न डेयस्मिन्प्रविष्टेसुरवधूनां प्रायः पुंसवनानि भयादेव स्त्रवन्ति पतन्ति च ॥

    १५॥

    यस्मिन्‌ू--जहाँ; प्रविष्ट--प्रवेश करने पर; असुर-वधूनाम्‌--उन असुर वधुओं का; प्राय:--प्राय:; पुंसवनानि--गर्भ; भयात्‌--भयवश; एव--ही; स्त्रवन्ति--बाहर सरकते हैं; पतन्ति--गिर पड़ते हैं; च--तथा |

    जब सुदर्शन चक्र उन प्रदेशों में पहुँचता है, तो उसके तेज के भय से असुरों की गर्भिणीस्त्रियों का गर्भपात हो जाता है।

    अथातले मयपुत्रो सुरो बलो निवसति येन ह वा इह सूष्टा: षणणवतिर्माया: काश्चनाद्यापि मायाविनोधारयन्ति यस्य च जृम्भमाणस्य मुखतस्त्रयः स्त्रीगणा उदपद्यन्त स्वैरिण्य: कामिन्यः पुंश्रल्य इति या वैबिलाय-नं प्रविष्टं पुरुष रसेन हाटकाख्येन साधयित्वास्वविलासावलोकनानुरागस्मितसंलापोपगूहनादिभि: स्वैरं किल रमयन्ति यस्मित्रुपयुक्ते पुरुष ई श्वरो हंसिद्धोहमित्ययुतमहागजबलमात्मानमभिमन्यमानः कत्थते मदान्ध इव ॥

    १६॥

    अथ--अब; अतले--अतल नामक लोक पर; मय-पुत्र: असुरः--मय का असुर पुत्र; बल:ः--बल; निवसति--वास करता है;येन--जिसके द्वारा; ह वा--निस्सन्देह; इह--इसमें; सृष्टाः--रचना की; षट्‌-णवति:--छियानबे; माया: --माया के प्रकार;काश्चन--कोई; अद्य अपि--आज भी; माया-विन:--मायावी लोग ( यथा सोना बनाने वाले ); धारयन्ति--उपयोग करते हैं;यस्य--जिसका; च-- भी ; जृम्भभाणस्य--उवासी लेते हुए; मुखतः --मुख मार्ग से; त्रयः--तीन; स्त्री-गणा: --स्त्रियों केप्रकार; उदपद्यन्त--उत्पन्न हुए; स्वैरिण्य:--स्वैरिणी ( जो अपनी ही जाति में ब्याह करती है ); कामिन्य:--कामिनी ( जोकामवश किसी भी जाति के पुरुष से ब्याह कर लेती है ); पुंश्र॒ल्य:--पुंश्वली ( जो एक पति को छोड़कर दूसरा पति बनानाचाहती है ); इति--इस प्रकार; याः:--जो; वै--निश्चय ही; बिल-अयनम्‌--अधोलोक, बिल-स्वर्ग में; प्रविष्टम्‌-- प्रवेश करके;पुरुषम्‌--नर; रसेन--रस द्वारा; हाटक-आख्येन--हाटक नामक मादक जड़ी से बना हुआ; साधयित्वा--विषयभोग के लिएसक्षम बनाकर; स्व-विलास--अपने इन्द्रियभोग के लिए; अवलोकन--चितवन से; अनुराग--कामी; स्मित--मन्द हास से;संलाप--बातचीत से; उपगूहन-आदिभि:--आलिंगन आदि से; स्वैरम्‌--अपनी इच्छानुसार; किल--निस्सन्देह; रमबन्ति--रमणकरते हैं; यस्मिन्‌--जो; उपयुक्ते--उपभोग करने पर; पुरुष: --पुरुष; ईश्वर: अहम्‌--मैं सर्वशक्तिमान पुरुष हूँ; सिद्ध: अहम्‌-मैंसिद्ध पुरुष हूँ; इति--इस प्रकार; अयुत--दस हजार; महा-गज--बड़े-बड़े हाथियों की; बलम्‌--शक्ति; आत्मानम्‌--अपनेआप; अभिमन्यमान:--गर्व से पूर्ण होकर; कत्थते--कहते हैं; मद-अन्ध:--मिथ्या अहंकार से अन्धा; इब--सहश |

    हे राजन, अब मैं तुमसे अतललोक से प्रारम्भ करके एक एक करके समस्त अधोलोकों कावर्णन करूँगा।

    अतललोक में मय-दानव का पुत्र बल नामक असुर है, जिसने छियानबे प्रकारकी माया रच रखी है।

    कुछ तथाकथित योगी तथा स्वामी आज भी लोगों को ठगने के लिए इसमाया का प्रयोग करते हैं।

    बल असुर ने उवासी लेने से स्वैरिणी, कामिनी तथा पुंश्चली के नाम सेतीन प्रकार की स्त्रियाँ उत्पन्न हुई हैं।

    स्वैरिणियाँ अपने ही समूह के पुरुष से ब्याह करना पसन्दकरती हैं, कामिनियाँ किसी भी वर्ग के पुरुष से ब्याह कर लेती हैं और पुंश्चलियाँ अपना पतिबदलती रहती हैं।

    यदि कोई पुरुष अतललोक में प्रवेश करता है, तो ये स्त्रियाँ तुरन्त ही उसे बन्दीबना कर हाटक नामक जड़ी से बनाये गये मादक पेय को पीने के लिए बाध्य कर देती हैं।

    इसपेय से मनुष्य में प्रचुर काम-शक्ति जाग्रत होती है, जिसका उपयोग वे स्त्रियाँ अपने सम्भोग हेतुकरती हैं।

    स्त्रियाँ उसे अपनी मोहक चितवन, प्रेमालाप, मन्द मुस्कान तथा आलिंगन इत्यादि के द्वारा मोह लेती हैं।

    इस प्रकार वे उन्हें अपने साथ संभोग के लिए फुसलाकर जी भर करकामतृप्ति करती हैं।

    कामशक्ति बढ़ने के कारण मनुष्य अपने को दस हजार हाथियों से भीअधिक बलवान और सक्षम न मानने लगता है।

    दरअसल मदहोशी के कारण मोहग्रस्त होकरवह सर पर खड़ी मृत्यु की अनदेखी करके अपने आपको ईश्वर समझने लगता है।

    ततोथस्ताद्वितले हरो भगवान्हाटके श्वरः स्वपार्षदभूतगणावृत: प्रजापतिसर्गोपबृंहणाय भवो भवान्या सहमिथुनीभूत आस्ते यतः प्रवृत्ता सरित्प्रवरा हाटकी नाम भवयोर्वीर्येण यत्र चित्रभानुर्मातरिश्वनासमिध्यमान ओजसा पिबति ततन्निष्ठयूतं हाटकाख्यं सुवर्ण भूषणेनासुरेन्द्रावरोधेषु पुरुषा: सहपुरुषीभिर्धारयन्ति ॥

    १७॥

    ततः--अतललोक के; अधस्तात्‌--नीचे; वितले--वितललोक में; हर:-- भगवान्‌ शिव; भगवान्‌--सर्वशक्तिमान;हाटकेश्वरः--स्वर्ण का स्वामी; स्व-पार्षद-- अपने पार्षदों से; भूत-गण--जो भूत जैसे प्राणी हैं; आवृत:--घिर कर; प्रजापति-सर्ग--भगवान्‌ ब्रह्म की सृष्टि; उपबृंहणाय--जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य से; भवः--भगवान्‌ शिव; भवान्या सह--अपनी पलीभवानी सहित; मिथुनी-भूतः--कामक्रीड़ा में रत; आस्ते--रहते हैं; यतः--उस लोक ( वितल ) से; प्रवृत्ता--निकल कर;सरित्‌-प्रवरा--बड़ी नदी; हाटकी--हाटकी; नाम--नाम की; भवयो: वीर्येणग-- भगवान्‌ शिव तथा भवानी के वीर्य एवं रज से;यत्र--जहाँ; चित्र-भानु:--अग्निदेवता; मातरिश्रना--वायु द्वारा; समिध्यमान:--तेजी से प्रज्वलित किये जाने पर; ओजसा--अत्यधिक शक्ति के साथ; पिबति--पीता है; तत्‌--वह; निष्ठयूतम्‌--फूत्कार करते हुए थूकना; हाटक-आख्यम्‌--हाटक नामका; सुवर्णम्‌--सोना; भूषणेन-- अनेक प्रकार के आभूषणों द्वारा; असुर-इन्द्र--महान्‌ असुरों के; अवरोधेषु --घरों में;पुरुषा:--नर; सह--के साथ; पुरुषीभि:--अपनी पत्नियों तथा स्त्रियों के; धारयन्ति-- धारण करते हैं।

    अतललोक के नीचे अगला ग्रह वितल है जहाँ स्वर्ण खानों के स्वामी भगवान्‌ शिव अपनेगणों, भूतों तथा ऐसे ही अन्य जीवों के साथ रहते हैं।

    पिता-रूप शिव माता-रूप भवानी केसाथ विहार करते हैं और इनके वीर्य-रज के मिश्रण से हाटकी नामक नदी निकलती है।

    जबवायु द्वारा अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, तो वह नदी को पी जाती है और बाहर थूक देने परहाटक नामक स्वर्ण उत्पन्न होता है।

    इस लोक के वासी असुर अपनी पत्नियों सहित उस स्वर्ण केबने आभूषणों से अपने को अलंकृत करते हैं और इस प्रकार से वे अत्यन्त सुखपूर्वक रहते हैं।

    ततो थस्तात्सुतले उदारश्रवा: पुण्यश्लोको विरोचनात्मजो बलिभर्भगवता महेन्द्रस्य प्रियंचिकीर्षमाणेनादितेरल॑ब्धकायो भूत्वा वटुवामनरूपेण पराक्षिप्तलोकत्रयो भगवदनुकम्पयैव पुनः प्रवेशितइन्द्रादिष्वविद्यमानया सुसमृद्धया थरियाभिजुष्ट: स्वधमेंणाराधयंस्तमेव भगवन्तमाराधनीयमपगतसाध्वसआस्तेधुनापि ॥

    १८॥

    ततः अधस्तात्‌ू--वितल लोक के नीचे; सुतले--सुतल लोक में; उदार-श्रवा: --अत्यन्त प्रसिद्ध; पुण्य-शलोक:--अत्यन्त पवित्रएवं चिन्मय भावना में अग्रसर; विरोचन-आत्मज: --विरोचन का पुत्र; बलि:--बलि महाराज; भगवता-- श्रीभगवान्‌ के द्वारा;महा-इन्द्रस्य--स्वर्ग के राजा इन्द्र का; प्रियमू--कुशलता; चिकीर्षमाणेन--करने की कामना रखने वाला; आदिते:--अदितिसे; लब्ध-काय:--अपना शरीर प्राप्त करके; भूत्वा--प्रकट होकर; वटु--ब्रह्मचारी; वामन-रूपेण--वामन के रूप में;पराक्षिप्त--ऐंठ लिया; लोक-त्रयः--तीनों लोक; भगवत्‌-अनुकम्पया-- श्रीभगवान्‌ की कृपा से; एब--ही; पुनः --फिर;प्रवेशित:--प्रवेश करने के लिए बाध्य किया; इन्द्र-आदिषु--स्वर्ग के राजा जैसे देवताओं के मध्य में; अविद्यमानया--अनुपस्थित रहकर; सुसमृद्धया--ऐसे ऐश्वर्य से अत्यन्त धनी बनकर; थ्रिया--सौभाग्य से; अभिजुष्ट: --आशीष प्राप्त करके;स्व-धर्मेण-- भक्ति करके; आराधयन्‌-- आराधना करके ; तम्‌--उसे; एव--निश्चय ही; भगवन्तम्‌-- श्रीभगवान्‌ को;आराधनीयम्‌-- अत्यन्त आराध्य; अपगत-साध्वस:-- भयरहित; आस्ते--रहता है; अधुना अपि--आज भी।

    वितल के नीचे सुतल नामक एक अन्य लोक है जहाँ महाराज विरोचन के पुत्र बलि महाराजरहते हैं, जो अत्यन्त पवित्र राजा के रूप में विख्यात हैं और वहाँ आज भी निवास करते हैं।

    स्वर्ग के राजा इन्द्र के कल्याण हेतु भगवान्‌ विष्णु अदिति के पुत्र वामन ब्रह्मचारी के रूप मेंप्रकट हुएऔर केवल तीन पग पृथ्वी माँग कर महाराज बलि को छल कर तीनों लोक प्राप्त कर लिए।

    सर्वस्व दान ले लेने पर बलि से प्रसन्न होकर भगवान्‌ ने उन्हें उनका राज्य लौटा दिया और इन्द्र सेभी ऐश्वर्यवान्‌ बना दिया।

    आज भी सुतललोक में श्रीभगवान्‌ की आराधना करते हुए बलिमहाराज भक्ति करते हैं।

    नो एवैतत्साक्षात्कारो भूमिदानस्य यत्तद्धगवत्यशेषजीवनिकायानां जीवभूतात्मभूते परमात्मनि वासुदेवेतीर्थतमे पात्र उपपन्ने परया श्रद्धया परमादरसमाहितमनसा सम्प्रतिपादितस्य साक्षादपवर्गद्वारस्ययद्विलनिलयैश्वर्यम, ॥

    १९॥

    नो--न; एव--निश्चित ही; एतत्‌--यह; साक्षात्कार:--प्रत्यक्ष फल; भूमि-दानस्य-- भूमि दान का; यत्‌--जो; तत्‌--वह;भगवति--श्रीभगवान्‌ के प्रति; अशेष-जीव-निकायानाम्‌--असंख्य जीवात्माओं का; जीव-भूत-आत्म-भूते--जो जीवन एवं'परम-आत्मा है; परम-आत्मनि--परम नियन्ता; वासुदेवे-- भगवान्‌ वासुदेव ( श्रीकृष्ण ) में; तीर्थ-तमे--ती थों में श्रेष्ठ; पात्रे--सबसे योग्य ग्राहक; उपपन्ने-- पहुँचने के बाद; परया--परमश्रेष्ठ के द्वारा; श्रद्धया-- श्रद्धा द्वारा; परम-आदर--अतीव सम्मानसहित; समाहित-मनसा--अत्यन्त मनोयोग से; सम्प्रतिपादितस्य--प्रदान किया गया; साक्षात्‌-- प्रत्यक्षत:; अपवर्ग-द्वारस्थ--मुक्ति का द्वार; यतू--जो; बिल-निलय--बिल स्वर्ग का, कृत्रिम स्वर्गलोकों का; ऐश्वर्यम्‌--ऐश्वर्य |

    है राजनू, बलि महाराज ने श्रीभगवान्‌ वामनदेव को अपना सर्वस्व दान कर दिया, किन्तुइसका यह अर्थ नहीं है कि अपने दान के कारण उन्हें बिल-स्वर्ग में इतना भौतिक ऐश्वर्य प्राप्तहुआ।

    समस्त जीवात्माओं के जीवनमूल श्रीभगवानू्‌ प्रत्येक व्यक्ति के अन्तस्थल में मित्र परमात्माके रूप में निवास करते हैं और उन्हीं के आदेश से इस भौतिक संसार में आनंद उठाते हैं या कष्टभोगते हैं।

    भगवान्‌ के दिव्य गुणों पर रीझ कर बलि महाराज ने अपना सर्वस्व उनकेचरणकमलों में अर्पित कर दिया।

    किन्तु उनका लक्ष्य भौतिक लाभ प्राप्त करना नहीं था, वे तोशुद्ध भक्त बनना चाहते थे।

    शुद्ध भक्त के लिए मुक्ति के द्वार स्वतः खुले जाते हैं।

    किसी को यहनहीं सोचना चाहिए कि केवल अपने दान के कारण बलि महाराज को इतना ऐश्वर्य प्राप्त होसका।

    जब कोई प्रेमवश शुद्ध भक्त बन जाता है, तो उसे भी भगवदिच्छा से अच्छा भौतिकस्थान प्राप्त होता है।

    किन्तु कभी गलती से यह नहीं समझना चाहिए कि भक्ति केपरिणामस्वरूप किसी भक्त को सांसारिक ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

    भक्ति का असली फल तोश्रीभगवान्‌ के प्रति शुद्ध प्रेम जागृत होना है जो समस्त परिस्थितियों में बना रहता है।

    यस्य ह वाव क्षुतपतनप्रस्खलनादिषु विवश: सकृन्नामाभिगृणन्पुरुष: कर्मबन्धनमझ्जसा विधुनोति यस्यहैव प्रतिबाधन मुमुक्षवोउनन्‍्यथैवोपलभन्ते ॥

    २०॥

    यस्य--जिसका; ह वाव--निस्सन्देह; क्षुत-- भूखे होने पर; पतन--गिरना; प्रस्खलन-आदिषु--लड़खड़ाना आदि; विवश: --असहाय होकर; सकृत्‌--एक बार; नाम अभिगृणन्‌-- भगवान्‌ के पवित्र नाम का जप करते हुए; पुरुष:--व्यक्ति; कर्म-बन्धनम्‌ू--कर्मो का बन्धन; अज्ञसा-- पूर्णतया; विधुनोति-- धो देते हैं; यस्थ--जिसका; ह--निश्चय ही; एब--इस प्रकार;प्रतिबाधनम्‌--विकर्षण; मुमुक्षव:--मुक्ति के इच्छुक प्राणी; अन्यथा--अन्यथा; एब--निश्चय ही; उपलभन्ते--अनुभव करनेका प्रयत्न करते हैं।

    यदि भूख से व्याकुल होने, गिरने अथवा ठोकर खाने पर कोई इच्छा अथवा अनिच्छा सेएक बार भी भगवान्‌ का पवित्र नाम लेता है, तो वह सहसा अपने पूर्वकर्मो के प्रभावों से मुक्तहो जाता है।

    कर्मी लोग भौतिक कार्यों में फँस कर योग-साधना में अनेक कष्ट उठाते हैं औरअन्य लोग भी वैसी ही स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।

    तद्धक्तानामात्मवतां सर्वेषामात्मन्यात्मद आत्मतयैव ॥

    २१॥

    तत्‌--वह; भक्तानामू-- भक्तों का; आत्म-वताम्‌--सनक तथा सनातन जैसे आत्मज्ञानी पुरुषों का; सर्वेषामू--सबों का;आत्मनि--आत्मा रूप श्रीभगवान्‌ तक; आत्म-दे--जो बिना हिचक के अपने आप को दे देता है; आत्मतया--जो परम आत्माहै, परमात्मा; एव--निस्सन्देह +प्रत्येक प्राणी के हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित श्रीभगवान्‌ नारदमुनि जैसे भक्तों केहाथों बिक जाते हैं।

    दूसरे शब्दों में, परमेश्वर ऐसे ही भक्तों को प्यार करते हैं और जो उन्हें शुद्धभाव से प्यार करते हैं।

    वे उनके हाथों अपने आप को सौंप देते हैं।

    यहाँ तक कि महान्‌ आत्म-साक्षात्कार करने वाले योगी, यथा चारों कुमार भी अपने अन्तर में परमात्मा का साक्षात्कारकरके दिव्य आनन्द प्राप्त करते हैं।

    न वै भगवान्नूनममुष्यानुजग्राह यदुत पुनरात्मानुस्मृतिमोषणं मायामयभोगैश्वर्यमेवातनुतेति ॥

    २२॥

    न--नहीं; बै--निस्सन्देह; भगवान्‌-- श्री भगवान्‌ ने; नूनम्‌--निश्चय ही; अमुष्य--बलि महाराज को; अनुजग्राह--अपना अनुग्रहदिखाया; यत्‌-- क्योंकि; उत--निश्चय ही; पुनः: --फिर; आत्म-अनुस्मृति-- श्रीभगवान्‌ के स्मरण का; मोषणम्‌--लूटने वाला;माया-मय--माया का एक गुण; भोग-ऐश्वर्यम्‌ू-- भौतिक ऐश्वर्य; एब--निश्चय ही; आतनुत--विस्मृत; इति--इस प्रकार।

    श्रीभगवान्‌ ने बलि महाराज को भौतिक सुख तथा ऐश्वर्य प्रदान करके अपना अनुग्रहप्रदर्शित नहीं किया क्योंकि इनसे ईश्वर की प्रेमाभक्ति भूल जाती है।

    भौतिक ऐश्वर्य का परिणामयह होता है कि फिर भगवान्‌ में मन नहीं लगता।

    यत्तद्धगवतानधिगतान्योपायेन याच्ञाच्छलेनापहतस्वशरीरावशेषितलोकत्रयो वरुणपश्गै श्व सम्प्रतिमुक्तोगिरिदर्या चापविद्ध इति होवाच ॥

    २३॥

    यत्‌--जो; तत्‌--वह; भगवता-- श्री भगवान्‌ द्वारा; अनधिगत-अन्य-उपायेन--जिसे अन्य साधनों से नहीं देखा जा सकता;याच्जा-छलेन--याचना ( भिक्षा ) के बहाने; अपहत--ठगा गया; स्व-शरीर-अवशेषित--केवल अपना शरीर शेष रह जाने पर;लोक-त्रयः--तीनों लोक; वरुण-पाशै:--वरुण के पाश द्वारा; च--तथा; सम्प्रतिमुक्त:--पूर्णतया बँधा हुआ; गिरि-दर्यामू--पर्वत की गुफा में; च--तथा; अपविद्ध:--रोका जाकर; इति--इस प्रकार; ह--निस्सन्देह; उबाच--कहा |

    जब श्रीभगवान्‌ को बलि महाराज का सर्वस्व ले लेने की कोई युक्ति न सूझी तो उन्होंनेभिक्षा माँगने के बहाने तीनों लोक माँग लिए।

    इस प्रकार उनका शरीरमात्र शेष बच रहा, किन्तुतो भी भगवान्‌ सन्तुष्ट नहीं हुए।

    उन्होंने बलि महाराज को वरुण पाश से बन्दी बना लिया औरएक पर्वत की गुफा में ले जाकर फेंक दिया।

    यद्यपि बलि महाराज का सर्वस्व ले लिया गया थाऔर उन्हें बन्दी बना कर गुफा में डाल दिया गया था, तो भी महान्‌ भक्त होने के कारण वे इसप्रकार बोले।

    नूनं बताय॑ भगवानर्थेषु न निष्णातो योसाविन्द्रो यस्य सचिवो मन्त्राय वृत एकान्ततो बृहस्पतिस्तमतिहायस्वयमुपेन्द्रेणात्मानमयाचतात्मनश्राशिषो नो एवं तद्दास्यमतिगम्भीरवयस: कालस्य मन्वन्तरपरिवृत्तंकियल्लोकत्रयमिदम्‌, ॥

    २४॥

    नूनम्‌--निश्चय ही; बत--धिक्‌; अयम्‌--यह; भगवान्‌--अत्यन्त विद्वान; अर्थेषु-- आत्महित के लिए; न--नहीं; निष्णात: --परम अनुभवी; यः--जो; असौ--स्वर्ग का राजा; इन्द्र: --इन्द्र; यस्थ--जिसका; सचिव:--प्रधान मंत्री; मन्त्राय--मंत्रणा के लिए, सलाह के लिए; वृतः--चुना हुआ; एकान्तत:--अकेला; बृहस्पति:--बृहस्पति; तम्‌--उसको; अतिहाय--उपेक्षा करके;स्वयम्‌--स्वयं; उपेन्द्रेण--उपेन्द्र ( भगवान्‌ वामनदेव ) की सहायता से; आत्मानम्‌--मुझसे; अयाचत--प्रार्थना की; आत्मन:--स्वयं; च--तथा; आशिष: -- आशीर्वाद ( तीनों लोक ); नो--नहीं; एव--ही; तत्‌-दास्यम्‌-- भगवान्‌ की सप्रेम सेवा; अति--अत्यधिक; गम्भीर-वयसः--अपार अवधि वाला; कालस्य--काल का; मन्वन्तर-परिवृत्तमू--मनु के जीवन के अन्त होने परपरिवर्तित; कियत्‌ू--क्या लाभ; लोक-त्रयम्‌--तीनों लोक; इृदम्‌--इन |

    धिक्‌! स्वर्ग का राजा इन्द्र कितना दयनीय है कि अत्यन्त विद्वान और शक्तिमान होकर तथाबृहस्पति को परामर्श हेतु अपना प्रधान बना लेने पर भी आध्यात्मिक उन्नति के विषय में सर्वथाअज्ञानी है।

    बृहस्पति भी बुद्धिमान नहीं है, क्योंकि उसने अपने शिष्य इन्द्र को उचित शिक्षा नहींदी।

    भगवान्‌ वामनदेव इन्द्र के द्वार पर खड़े हुए थे, किन्तु उनसे इन्द्र ने दिव्य सेवा के लिएअवसर का वरदान न माँग कर उन्हें मेरे द्वार पर अपने इन्द्रिय-भोग के लिए तीन लोकों कीप्राप्ति के लिए भिक्षा हेतु भेज दिया।

    तीनों लोकों की प्रभुता अत्यन्त महत्त्वहीन है, क्योंकिमनुष्य के पास चाहे कितना भी ऐश्वर्य क्यों न रहे वह एक मन्वन्तर तक ही चलता है, जो अनन्तकाल का एक क्षुद्रांश मात्र है।

    यस्यानुदास्यमेवास्मत्पितामह: किल वत्रे न तु स्वपित्र्यं यदुताकुतोभयं पदं दीयमानं भगवतः परमितिभगवतोपरते खलु स्वपितरि, ॥

    २५॥

    यस्य--जिसका ( श्रीभगवान्‌ का ); अनुदास्यम्‌--सेवा; एव--निश्चय ही; अस्मत्‌--हमारा; पिता-मह:--पितामह, बाबा;किल--निस्सन्देह; वद्रे--स्वीकृत; न--नहीं; तु--लेकिन; स्व--अपना; पित्रयम्‌--पैतृकसम्पत्ति; यत्‌ू--जो; उत--निश्चय ही;अकुतः-भयम्‌--निर्भीकता; पदम्‌--पद, स्थान; दीयमानम्‌-- प्रदान किये जाने पर; भगवतः-- भगवान्‌ की अपेक्षा; परमू--अन्य; इति--इस प्रकार; भगवता-- श्रीभगवान्‌ द्वारा; उपरते--बध किये जाने पर; खलु--निस्संदेह; स्व-पितरि--अपना पिता

    बलि महाराज ने कहा--मेरे पितामह प्रह्मद महाराज ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आत्महित पहचाना।

    उनके पिता हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात्‌ भगवान्‌ नृसिंहदेव ने प्रह्मदको उनके पिता का साम्राज्य प्रदान करने के साथ ही भौतिक बन्धनों से मुक्ति प्रदान करनीचाही, किन्तु प्रहाद ने इनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं किया।

    उन्होंने सोचा कि मुक्ति तथाभौतिक ऐश्वर्य भक्ति में बाधक हैं, अतः श्रीभगवान्‌ से ऐसे वरदान प्राप्त कर लेना भगवान्‌ कावास्तविक अनुग्रह नहीं है।

    फलस्वरूप कर्म तथा ज्ञान के फलों को न स्वीकार करते हुए प्रह्मदमहाराज ने भगवान्‌ से केवल उनके दास की भक्ति में अनुरक्त रहने का वर माँगा।

    तस्य महानुभावस्यानुपथममृजितकषाय: को वास्मद्विध: परिहीणभगवदनुग्रह उपजिगमिषतीति ॥

    २६॥

    तस्य-प्रह्नाद महाराज का; महा-अनुभावस्य--जो सिद्ध भक्त थे; अनुपथम्‌--पथ; अमृजित-कषाय:--भौतिकता से दूषितपुरुष; क:ः--क्या; वा--अथवा; अस्मत्‌-विध: --हमारे तुल्य; परिहीण-भगवत्‌-अनुग्रह:-- श्रीभगवान्‌ के अनुग्रह बिना;उपजिगमिषति--अनुसरण करना चाहता है; इति--इस प्रकार

    बलि महाराज ने कहा--हमारे जैसे पुरुष जो अब भी भौतिक सुखों में लिप्त हैं, जोभौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से दूषित हैं और जिन पर श्रीभगवान्‌ के अनुग्रह का अभाव है, वेभला ईश्वर के सिद्ध भक्त प्रह्नद महाराज के सर्वोत्कृष्ट मार्ग का अनुसरण कैसे कर सकते हैं ?

    तस्यानुचरितमुपरिष्ठाद्विस्तरिष्यते यस्थ भगवान्स्वयमखिलजगदगुरु्नारायणो द्वारि गदापाणिरवतिष्ठतेनिजजनानुकम्पितहदयो येनाडुप्ठेन पदा दशकन्धरो योजनायुतायुतं दिग्विजय उच्चाटित: ॥

    २७॥

    तस्य--बलि महाराज का; अनुचरितम्‌--चरित्र, वर्णन; उपरिष्टात्‌--बाद के, परवर्ती ( आठवें स्कंध में ); विस्तरिष्यते--विस्तारसे वर्णन किया जायेगा; यस्य--जिसका; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; स्वयम्‌--स्वयं; अखिल-जगतू-गुरु:--तीनों लोकों के गुरु;नारायण:--साक्षात्‌ नारायण; द्वारि--द्वार पर; गदा-पाणि:--हाथ में गदा लिये हुए; अवतिष्ठते--खड़े रहते हैं; निज-जन-अनुकम्पित-हदयः--जिनका हृदय अपने भक्तों के लिए सदैव दया से पूरित रहता है; येन--जिसके द्वारा; अ्डृष्ठेन-बड़े अँगूठेसे; पदा--अपने पाँव का; दश-कन्धरः --दश सिरों वाला, रावण; योजन-अयुत-अयुतम्‌-- अस्सी हजार मील की दूरी; दिक्‌-विजये--बलि महाराज पर विजय प्राप्त करने हेतु; उच्चाटित:--फेंक दिया।

    शुकदेव गोस्वामी बोले--हे राजन्‌, भला मैं बलि महाराज के चरित्र का कैसे गुणगान करसकता हूँ? तीनों लोकों के स्वामी श्रीभगवान्‌, जो अपने भक्त पर अत्यन्त दयालु हैं, महाराजबलि के द्वार पर गदा धारण किये खड़े रहते हैं।

    जब पराक्रमी असुर रावण बलि महाराज परविजय पाने के लिए आया तो वामनदेव ने उसे अपने पैर के अँगूठे से अस्सी हजार मील दूरी परफेंक दिया।

    मैं बलि महाराज के चरित्र तथा कार्यकलापों का विस्तृत वर्णन आगे ( आठवें स्कंधमें ) करूँगा।

    ततोथस्तात्तलातले मयो नाम दानवेन्द्रस्त्रिपुरधिपतिर्भगवता पुरारिणा त्रिलोकीशं चिकीर्षुणानिर्दग्धस्वपुरत्रयस्तत्प्रसादाललब्धपदो मायाविनामाचार्यो महादेवेन परिरक्षितो विगतसुदर्शनभयोमहीयते ॥

    २८॥

    ततः--सुतल नामक लोक के; अधस्तात्‌--नीचे; तलातले--तलातल नामक लोक में; मय:--मय; नाम--नाम का; दानव-इन्द्र:--दानव, दानवों का राजा; त्रि-पुर-अधिपति:ः --तीनों पुरियों का ईश्वर; भगवता--सर्वशक्तिमान द्वारा; पुरारिणा-- भगवान्‌शिव द्वारा, जिन्हें त्रिपुरारी कहा जाता है; त्रि-लोकी--तीनों लोकों का; शम्‌--सौभाग्य; चिकीर्षुणा--कामना करने वाला;निर्दग्ध--जला दिया; स्व-पुर-त्रय:ः--जिसकी तीनों पुरियाँ; तत्‌-प्रसादातू-- भगवान्‌ शिव के अनुग्रह से; लब्ध--प्राप्त कियागया; पदः--राज्य; माया-विनाम्‌ आचार्य: --समस्त मायावियों के स्वामी; महा-देवेन-- भगवान्‌ शिव के द्वारा; परिरक्षित:--सुरक्षित; विगत-सुदर्शन-भय:ः--जो श्रीभगवान्‌ तथा उनके सुदर्शन चक्र से भयभीत नहीं है; महीयते--आराधित है।

    सुतल लोक के नीचे तलातल नामक एक और लोक है जो मय दानव द्वारा शासित है।

    मयइन्द्रजाल की शक्तियों से पूर्ण, समस्त मायावियों के आचार्य ( स्वामी ) रूप में विख्यात है।

    एकबार भगवान्‌ शिव ने, जिन्हें त्रिपुरारी कहा जाता है, तीनों लोकों के लाभ के लिए मय के तीनोंराज्यों को जला दिया, किन्तु बाद में उससे प्रसन्न होकर उसका राज्य लौटा दिया।

    तब से शिवजीमय दानव की रक्षा करते हैं, इसलिए वह गलती से सोचता है कि उसे श्रीभगवान्‌ के सुदर्शनचक्र का भय नहीं करना चाहिए।

    ततोथस्तान्महातले काद्रवेयाणां सर्पाणां नैकशिरसां क्रोधवशो नाम गण:कुहकतक्षककालियसुषेणादिप्रधाना महाभोगवन्तः पतत्त्रिराजाधिपते: पुरुषवाहादनवरतमुद्दिजमाना:स्वकलत्रापत्यसुहत्कुटुम्बसड़ेन क्वचित्प्रमत्ता विहरन्ति ॥

    २९॥

    ततः--तलातल लोक से; अधस्तात्‌--नीचे; महातले--महातल नामक लोक में; काद्रवेयाणाम्‌--कद्ू की सन्‍्तानों का;सर्पाणाम्‌--जो सर्प है; न एक-शिरसाम्‌ू--जो अनेक फनों वाले हैं; क्रोध-वशः--सदैव क्रोध के वशीभूत; नाम--नामक;गण: --गण, समूह; कुहक--कुहक; तक्षक--तक्षक; कालिय--कालिय; सुषेण--सुषेण; आदि--इ त्यादि; प्रधाना: --प्रमुख; महा-भोगवन्त:--समस्त प्रकार के भोगों में लिप्त; पतत्तनरि-राज-अधिपते: --समस्त पक्षियों के अधिपति, गरुड़ से;पुरुष-वाहात्‌-- श्री भगवान्‌ को ले जाने वाला; अनवरतम्‌--निरन्तर; उद्विजमाना: -- भयभीत; स्व--अपने आप; कलत्र-अपत्य--स्त्रियों तथा सन्तानों; सुहृत्‌-मित्र; कुटुम्ब--कुटुम्बीजन; सड्रेन--साथ में; क्वचित्‌--कभी-कभी; प्रमत्ता:--क्रुद्ध;विहरन्ति--विहार करते हैं, खेलते हैं।

    तलातल के नीचे का लोक महातल कहलाता है।

    यह सदैव क्रुद्ध रहने वाले अनेक फनोंवाले कद्ू की सर्प-सन्तानों का आवास है।

    इन सर्पो में कुहक, तक्षक, कालिय तथा सुषेणप्रमुख हैं।

    महातल के सारे सर्प भगवान्‌ विष्णु के वाहन गरुड़ के भय से सदैव आतंकित रहतेहैं, किन्तु चिन्तातुर होते हुए भी उनमें से कुछ अपनी पत्नियों, सन्‍्तानों, मित्रों तथा कुटुम्बियों केसाथ-साथ क्रीड़ाएँ करते रहते हैं।

    ततोथस्ताद्रसातले दैतेया दानवा: पणयो नाम निवातकवचा: कालेया हिरण्यपुरवासिन इतिविबुधप्रत्यनीका उत्पत्त्या महौजसो महासाहसिनो भगवत: सकललोकानुभावस्य हरेरेव तेजसाप्रतिहतबलावलेपा बिलेशया इव वसन्ति ये वै सरमयेन्द्रदूत्या वाग्भिमन्त्रवर्णाभिरिन्द्राद्वि भ्यति ॥

    ३०॥

    ततः अधस्तात्‌ू--महातल के भी नीचे; रसातले--रसातल में; दैतेया:--दिति के पुत्र; दानवा:--दनु के पुत्र; पणयः नाम--पणिनामक; निवात-कवचा:--निवात कवच; कालेया: --कालेय; हिरण्य-पुरवासिन:--हिरण्य-पुरवासी; इति--इस प्रकार;विबुध-प्रत्यनीका: --देवताओं के शत्रु; उत्पत्त्या:--जन्म के; महा-ओजस: --अत्यन्त ओजस्वी; महा-साहसिन: --अत्यन्त क्रूर;भगवतः--भगवान्‌ का; सकल-लोक-अनुभावस्य--जो समस्त लोकों के लिए मंगलकारी है; हरेः -- श्रीभगवान्‌ का; एव--निश्चय ही; तेजसा--सुदर्शन चक्र से; प्रतिहत-- पराजित; बल--शक्ति; अवलेपा:--तथा गर्व ( शारीरिक बल के कारण );बिल-ईशया:--सर्प; इब--सहृश; वसन्ति--रहते हैं; ये--जो; बै--निस्सन्देह; सरमया--सरमा द्वारा; इन्द्र-दूत्या--इन्द्र कीदूती; वाग्भि:ः--शब्दों से; मन्त्र-वर्णाभि:--मंत्रों के रूप में; इन्द्रात्‌--राजा इन्द्र से; बिभ्यति-- डरते हैं|

    महातल के नीचे रसातल नामक लोक है जो दिति तथा दनु के आसुरी पुत्रों का निवास है।

    ये पणि, निवात-कवच, कालेय तथा हिरण्य-पुरवासी कहलाते हैं।

    ये देवताओं के शत्रु हैं औरसर्पों की भाँति बिलों में रहते हैं।

    ये जन्म से ही अत्यन्त शक्तिशाली एवं क्रूर हैं और अपनी शक्तिका गर्व होने पर भी वे समस्त लोकों के अधिपति श्रीभगवान्‌ के सुदर्शन चक्र द्वारा सदैवपराजित होते हैं।

    जब इन्द्र की नारी रूप दूत सरमा विशेष एक विशिष्ट शाप देती है, तो महातलके असुर सर्प इन्द्र से अत्यन्त भयभीत हो उठते हैं।

    ततोथस्तात्पाताले नागलोकपतयो वासुकिप्रमुखा:शद्भुकुलिकमहाशड्डुश्वेतधनञ्ञयधृतराष्ट्रशड्डुचूडकम्बला श्वतरदेवदत्तादयो महाभोगिनो महामर्षा निवसन्तियेषामु ह वै पञ्ञसप्तदशशतसहस्त्रशीर्षाणां फणासु विरचिता महामणयो रोचिष्णव:'पातालविवरतिमिरनिकरं स्वरोचिषा विधमन्ति ॥

    ३१॥

    ततः अधस्तात्‌ू--रसातल के नीचे; पाताले--पाताल लोक में; नाग-लोक-पतय: --नागलोकों के स्वामी; वासुकि--वासुकि;प्रमुखा:--प्रमुख; शद्ड--शंख; कुलिक--कुलिक; महा-शद्गु--महाशंख; श्वेत-- श्वेत; धनज्ञय-- धनज्ञय; धृतराष्ट्र-- धृतराष्ट्र;शट्भु-चूड--शंखचूड़; कम्बल--कम्बल; अश्वतर--अश्वतर; देव-दत्त--देवदत्त; आदय:--इत्यादि; महा-भोगिन: --अत्यन्तभोगी; महा-अमर्षा: -- प्रकृति से अत्यन्त ईर्षालु; निवसन्ति--रहते हैं; येषामू--जिनका; उ ह--निश्चय ही; बै--निस्सन्देह;पश्ञ-पाँच; सप्त--सात; दश--दस; शत--एक सौ; सहस्त्र--एक हजार; शीर्षाणाम्‌--फणों वालों का; फणासु--उन फणोंपर; विरचिता:-- जड़ित; महा-मणय:--अत्यन्त मूल्यवान मणि; रोचिष्णव: --तेज से पूर्ण; पाताल-विवर--पाताल लोक कीगुफाएँ; तिमिर-निकरम्‌-- अंधकार-राशि; स्व-रोचिषा--उनके फणों के तेज से; विधमन्ति-- भागते हैं।

    रसातल के नीचे पाताल अथवा नागलोक नामक एक अन्य लोक है जहाँ अनेक आसुरी सर्पतथा नागलोक के स्वामी रहते हैं, यथा शंख, कुलिक, महाशंख, श्वेत, धनञ्जय, धृतराष्ट्र,शंखचूड़, कम्बल, अश्वतर तथा देवदत्त।

    इसमें से वासुकि प्रमुख है।

    वे अत्यन्त क्रुद्ध रहते हैं औरउनमें से कुछ के पाँच, कुछ के सात, कुछ के दस, कुछ के सौ और अन्यों के हजार फण होतेहैं।

    इन फणों में बहुमूल्य मणियां सुशोभित हैं और इन मणियों से निकला प्रकाश बिल-स्वर्ग केसम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है।

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    अध्याय पच्चीसवाँ: भगवान अनंत की महिमा

    5.25श्रीशुक उबाचतस्य मूलदेशे त्रिंशद्योजनसहस्त्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसीसमाख्यातानन्त इति सात्वतीयाद्रष्टटश्ययो: सड्डर्षणमहमित्यभिमानलक्षणं य॑ सड्डूर्षणमित्याचक्षते, ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी बोले; तस्थ--पाताललोक के; मूल-देशे --मूलभाग में; त्रिंशत्‌--तीस; योजन--आठमील की दूरी की इकाई; सहस्त्र-अन्तरे--एक हजार ( योजन ) की दूरी पर; आस्ते--स्थित है; या--जो; वै--निश्चय ही;कला--अंश का अंश; भगवत: -- श्री भगवान्‌ का; तामसी--अंधकार से सम्बन्धित; समाख्याता--कहलाने वाला; अनन्त:--अनन्त; इति--इस प्रकार; सात्वतीया:--भक्तगण; द्रष्ट-दहश्ययो:--पदार्थ तथा आत्मा का; सड्डूर्षणम्‌--परस्पर आकर्षित करनेवाला; अहम्‌--मैं; इति--इस प्रकार; अभिमान--आत्म-सम्मान; लक्षणम्‌--लक्षण; यम्‌--जिसको; सड्डूर्षणम्‌--संकर्षण;इति--इस प्रकार; आचक्षते--विद्वान कहते हैं।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा--हे राजन्‌ू, पाताल लोक से २,४०,०००मील नीचे श्रीभगवान्‌ के एक अन्य अवतार निवास करते हैं।

    वे भगवान्‌ अनन्त अथवा भगवान्‌संकर्षण कहलाते हैं और भगवान्‌ विष्णु के अंश हैं।

    वे सदैव दिव्य पद पर आसीन हैं, किन्तुतमोगुणी देवता भगवान्‌ शिव के आराध्य होने के कारण कभी-कभी तामसी कहलाते हैं।

    भगवान्‌ अनन्त सभी बद्धजीवों के अहं तथा तमोगुण के प्रमुख देवता हैं।

    जब बद्धजीव यहसोचता है कि यह संसार भोग्य है और मैं उसका भोक्ता हूँ तो यह जीवन-दृष्टि संकर्षण द्वाराप्रेरित होती है।

    इस प्रकार संसारी बद्धजीव स्वयं को ही परमेश्वर मानने लगता है।

    यस्येदं क्षितिमण्डलं भगवतोनन्तमूर्तें: सहस््रशिरस एकस्मिन्नेव शीर्षणि प्नियमाणं सिद्धार्थ इबलक्ष्यते ॥

    २॥

    यस्य--जिसका; इदम्‌--यह; क्षिति-मण्डलम्‌--ब्रह्माण्ड; भगवत:-- श्रीभगवान्‌ का; अनन्त-मूर्ते: --अनन्त देव के रूप में;सहस्त्र-शिरसः--एक हजार फणों वाले; एकस्मिनू--एक; एव--केवल; शीर्षणि --फण में; प्रवियमाणम्‌--रखा हुआ;सिद्धार्थ: इब--( तथा ) श्वेत सरसों के दाने के तुल्य; लक्ष्यते--दिखाई पड़ता है |

    शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा-- भगवान्‌ अनन्त के सहस्त्र फणों में से एक फण के ऊपररखा हुआ यह विशाल ब्रह्माण्ड श्रेत सरसों के दाने के समान प्रतीत होता है।

    भगवान्‌ अनन्त के फण की तुलना में यह नगण्य है।

    यस्य ह वा इदं कालेनोपसझ्िहीर्षतो मर्षविरचितरुचिर भ्रमद्भ्रुवोरन्तरेण साड्डूर्षणो नाम रुद्रएकादश्व्यूहस्त्र्यक्षस्त्रशिखं शूलमुत्तम्भयन्नुदतिष्ठत्‌: ॥

    ३॥

    यस्य--जिसका; ह वा--निस्सन्देह; इदम्‌ू--यह ( जगत ); कालेन--कालक्रम से; उपसझ्िहीर्षत:--संहार करने की कामनाकरते हुए; अमर्ष--क्रोध से; विरचित--निर्मित; रुचिर-- अत्यन्त सुन्दर; भ्रमत्‌-घूमते हुए; भ्रुवो:--भूकुटियाँ के; अन्तरेण--भीतर से; साड्डूर्षण: नाम--सांकर्षण नामक; रुद्र:ः--भगवान्‌ शिव के अवतार, रुद्र; एकादश-दव्यूह:--ग्यारह विस्तारों वाला;ब्रि-अक्ष: --तीन नेत्र; त्रि-शिखम्‌--तीन नोकों वाले; शूलम्‌--त्रिशूल; उत्तम्भवन्‌--उठाते हुए; उदतिष्ठत्‌--उठा |

    प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब भगवान्‌ अनन्तदेव सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करना चाहते हैं,तो वे कुछ क्रुद्ध हो जाते हैं।

    तब उनकी दोनों भूकुटियों के बीच से त्रिशूल धारण किये हुएत्रिनेत्र रुद्र प्रकट होते हैं।

    यह रुद्र, जो संकर्षण कहलाते हैं, ग्यारह रुद्रों, अर्थात्‌ भगवान्‌ शिवके अवतारों का व्यूह होता है।

    वे सम्पूर्ण सृष्टि के संहार हेतु प्रकट होते हैं।

    यस्याड्प्रिकमलयुगलारुणविशदनखमणिषण्डमण्डलेष्वहिपतय: सहसात्वतर्षभेरेकान्तभक्तियोगेनावनमन्तः स्ववदनानिपरिस्फुरत्कुण्डलप्रभामण्डितगण्डस्थलान्यतिमनोहराणि प्रमुदितमनस: खलु विलोकयन्ति ॥

    ४॥

    यस्य--जिसके; अड्प्रि-कमल--चरणकमल; युगल--दोनों; अरुण-विशद--चटक गुलाबी; नख--नाखूनों का; मणि-घण्ड--मणियों के समान; मण्डलेषु--गोलाकार पूृष्ठों पर; अहि-पतय:--सर्पों के स्वामी; सह--साथ; सात्वत-ऋषभे: -- श्रेष्ठभक्तों के; एकान्त-भक्ति-योगेन--शुद्ध भक्ति के साथ; अवनमन्तः--नमस्कार करते हुए; स्व-वदनानि--अपने-अपने मुखों;परिस्फुरत्‌ू--चमकते हुए; कुण्डल--कान की बालियों की; प्रभा--ज्योति से; मण्डित--अलंकृत; गण्ड-स्थलानि--जिनकेगाल; अति-मनोहराणि-- अत्यन्त मनोहर; प्रमुदित-मनसः--प्रसन्न मन से; खलु--निस्संन्देह; विलोकयन्ति--देखते हैं।

    भगवान्‌ संकर्षण के चरणकमलों के गुलाबी तथा पारदर्शी नाखून मानो दर्पण जैसेचमकाये गये बहुमूल्य मणि हैं।

    जब शुद्ध भक्त तथा नागों के अधिपति अत्यन्त भक्तिभाव से उन्हेंनमस्कार करते हैं, तो उनके चरण-नखों में अपने सुन्दर मुखों की छाया देखकर अत्यन्त प्रमुदितहो उठते हैं।

    उनके गालों पर कान की देदीप्यमान्‌ बालियाँ दमकती हैं और उनकी मुख-कान्तिअत्यन्त मोहक होती है।

    यस्यैव हि नागराजकुमार्य आशिषआशासानाश्चार्वड्बलयविलसितविशद्‌विपुलधवलसुभगरुचिरभुजरजतस्तम्भेष्वगुरुचन्दन कुड्डू मपड्ढानुलेपेनावलिम्पमानास्तदभिमर्शनोन्मथितहदयमकरध्वजावेशरूचिरललितस्मितास्तदनुरागमदमुदितमदविधूर्'णतारुणकरुणावलोकनयनवदनारविन्दं सब्रीडं किल विलोकयन्ति ॥

    ५॥

    यस्य--जिसकी; एव--ही; हि--निस्सन्देह; नाग-राज-कुमार्य:--नागराज की कुमारियाँ; आशिष:--आशीर्वाद;आशासाना:--आशावान होकर; चारु--सुन्दर; अड्र-बलय--शरीर मंडल पर; विलसित--शोभित; विशद्‌--निष्कलंक;विपुल--दीर्घ; धवल-- श्वेत; सुभपग--सौभाग्यसूचक; रुचिर--सुन्दर; भुज-- भुजाओं पर; रजत-स्तम्भेषु--चाँदी के ख भों केसमान; अगुरु--सुगन्धित पदार्थ का; चन्दन--चन्दन का; कुड्डू म--केशर का; प्छू--चंदन से; अनुलेपेन--लेप से;अवलिम्पमाना: --लेपन करके; तत्‌-अभिमर्शन--अपने अंगों में स्पर्श द्वारा; उन्मधित--मथा हुआ; हृदय--हृदयों में; मकर-ध्वज--कामदेव का; आवेश--प्रवेश के कारण; रुचिर--अत्यन्त सुन्दर; ललित--नम्न; स्मिता:--मन्द-हास्य करती हुई;तत्‌--उसका; अनुराग--अनुराग; मद--गर्व से; मुदित--प्रसन्न; मद--दया के गर्व से; विघूर्णित--घूमती हुईं; अरूण--गुलाबी; करूण-अवलोक--करुणा की दृष्टि से; नयन--नेत्र; वदन--( तथा ) मुख; अरविन्दम्‌--कमलपुष्प के सहश; स-ब्रीडमू--सलज; किल--निस्सन्देह; विलोकयन्ति--देखते हैं|

    भगवान्‌ अनन्त की आकर्षक दीर्घ भुजाएँ कंगनों से आकर्षक ढंग से अलंकृत हैं औरपूर्णतया आध्यात्मिक हैं।

    श्वेत होने के कारण वे चाँदी के ख भों सी प्रतीत होती हैं।

    जब भगवान्‌के शुभाशीर्वाद की इच्छुक नागराजों की कुमारियाँ उनकी बाहों में अगुरु, चन्दन तथा कुमकुमका लेप लगाती हैं, तो उनके स्पर्श से उनके भीतर कामेच्छा जाग्रत हो उठती है।

    उनके मनोभावोंको समझ कर भगवान्‌ जब इन राजकुमारियों को कृपापूर्ण मुस्कान से देखते हैं, तो वे यहसोचकर लजा जाती हैं कि वे उनके मनोभावों को जानते हैं।

    तब वे मनोहर मुसकान सहित भगवान्‌ के मुखकमल को देखतीं हैं, जो उनके भक्तों के प्यार से प्रमुदित तथा मद-विह्लल घूमतीहुई लाल-लाल आँखों से सुशोभित रहता है।

    स एवं भगवाननन्तोनन्तगुणार्णव आदिदेव उपसंहतामर्षरोषवेगो लोकानां स्वस्तय आस्ते ॥

    ६॥

    सः--वह; एव--निश्चय ही; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; अनन्त:--अनन्तदेव; अनन्त-गुण-अर्णव:--असीम दिव्य गुणों के सागर;आदि-देवः--आदि ईश्वर अथवा आधद्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से अभिन्न रूप; उपसंहत--जिसने इन्द्रियनिग्रह किया है;अमर्ष--उसकी असहनशीलता का; रोष--( तथा ) क्रोध; वेग: --वेग, शक्ति; लोकानामू--सभी लोकों के मनुष्यों के;स्वस्तये--कल्याण हेतु; आस्ते--रहते हैं |

    भगवान्‌ संकर्षण अनन्त दिव्य गुणों के सागर हैं जिससे वे अनन्तदेव कहलाते हैं।

    बे पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ से अभिन्न हैं।

    इस जगत के समस्त जीवों के कल्याण हेतु वे अपने क्रोध तथा अपनी असहनशीलता को रोके हुए अपने धाम में निवास करते हैं।

    ध्यायमान: सुरासुरोरगसिद्धगन्धर्वविद्याधरमुनिगणैरनवरतमदमुदितिविकृतविह्ललोचन:सुललितमुखरिकामृतेनाप्यायमान: स्वपार्षदविबुधयूथपतीनपरिम्लानरागनवतुलसिकामोदमध्वासवेनमाह्न्मधुकरब्रातमधुरगीतभ्रियं वैजयन्तीं स्वां वममालां नीलवासा एककुण्डलो हलककुदिकृतसुभगसुन्दरभुजो भगवान्महेन्द्रो वारणेन्द्र इव काञ्जनीं कक्षामुदारलीलो बिभर्ति ॥

    ७॥

    ध्यायमान:--ध्यान किये जाते हुए; सुर--देवताओं को; असुर--असुर; उरग--सर्प; सिद्ध--सिद्धलोक के वासी; गन्धर्व--गंधर्वलोक के वासी; विद्याधर--विद्याधर; मुनि--मुनि; गणैः--समूहों द्वारा; अनवरत--लगातार; मद-मुदित--मद से प्रसन्न;विकृत--चञ्जल; विहल--इधर-उधर घूमते हुए; लोचन:--जिनके नेत्र; सु-ललित--सुललित; मुखरिक--वाणी के;अमृतेन--अमृत से; आप्यायमान:--अच्छे लगने वाले; स्व-पार्षद--अपने सहयोगी; विबुध-यूथ-पतीन्‌--देवताओं के विभिन्नसमूहों के प्रमुख; अपरिम्लान--कभी न म्लान होने वाले; राग--जिसकी कांति; नव--नवीन; तुलसिका--तुलसी की मंजरियोंकी; आमोद--सुगंधि से; मधु-आसवेन--तथा मधु ( शहद ) से; माद्यनू--मद से युक्त होकर; मधुकर-ब्रात--मधुमक्खियों का;मधुर-गीत--मीठे गानों से; श्रीयम्‌--अधिक सुन्दर बनकर; बैजयन्तीम्‌--वैजयन्ती नामक माला; स्वाम्‌--अपना; वनमालाम्‌--माला; नील-बासा:--नीले अम्बर से आवृत; एक-कुण्डल:--केवल एक कुण्डल धारण किये हुए; हल-ककुदि--हल की मुठिया पर; कृत--रखा हुआ; सुभग--शुभ; सुन्दर--सुन्दर; भुज:--हाथ; भगवानू-- श्री भगवान्‌; महा-इन्द्र:--स्वर्ग के राजा;वारण-इन्द्र:--हाथी; इब--सहश; काझ्जनीम्‌ू--स्वर्णिम; कक्षाम्‌--मेखला; उदार-लील:--दिव्य लीलाओं में संलग्न;बिभर्ति--पहनते हैं |

    शुकदेव गोस्वामी आगे बोले--देवता, असुर, उरग ( सर्पदेव ), सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर तथाअनेक सिद्ध सन्‍्तजन भगवान्‌ की निरन्तर प्रार्थना करते रहते हैं।

    मद के कारण भगवान्‌ विहलप्रतीत होते हैं और उनके नेत्रपूर्ण पुष्पित फूलों की भाँति इधर-उधर गति करते हैं।

    वे अपने मुखसे निकली मधुर वाणी से अपने पार्षदों, देवताओं के प्रमुखों को प्रसन्न करते हैं।

    नीलाम्बर औरकान में एक कुण्डल धारण किये हुए वे अपनी पीठ पर हल को अपने दो सुघड़ हाथों से पकड़ेहुए हैं।

    वे इन्द्र के समान श्वेत लगते हैं, वे अपनी कटि में स्वर्णिम मेखला और गले में चिर नवीनतुलसी दलों की वैजयन्तीमाला धारण किये हैं।

    तुलसी दलों की मधु जैसी गन्ध से आकर्षितहोकर मधुमक्खियाँ माला के चारों ओर मँडराती रहती हैं, जिससे माला और भी सुन्दर लगनेलगती है।

    इस प्रकार भगवान्‌ दिव्य लीलाओं में संलग्न रहते हैं।

    य एष एवमनुश्रुतो ध्यायमानो मुमुक्षूणामनादिकालकर्मवासनाग्रथितमविद्यामयं हृदयग्रन्थिसत्त्वरजस्तमोमयमन्तईदयं गत आशु निर्भिनत्ति तस्यानुभावान्भगवान्स्वायम्भुवो नारदः सह तुम्बुरुणासभायां ब्रह्मण: संश्लोकयामास ॥

    ८॥

    यः--जो; एष: --यही; एवम्‌--इस प्रकार; अनुश्रुत:-- प्रामाणिक गुरु से सुना जाकर; ध्यायमान:--ध्यान किया गया;मुमुक्षूणाम्‌ू-बद्ध जीवन से मुक्ति के आकांक्षी मनुष्यों का; अनादि--अनन्त; काल--काल; कर्म-बासना--कर्मो की कामनाद्वारा; ग्रधितम्‌--हढ़ता से बँधा हुआ; अविद्या-मयम्‌--माया शक्ति से युक्त; हृदय-ग्रन्थिमू--हृदय के भीतर की गाँठ; सत्त्व-रज:-तमः-मयम्‌--प्रकृति के तीनों गुणों से युक्त; अन्त:-हदयम्‌--हृदय के भीतर; गत:--स्थित; आशु--शीघ्र ही;निर्भिनत्ति--काटता है; तस्थ--संकर्षण का; अनुभावान्‌--यश; भगवान्‌-- अत्यन्त शक्तिमान; स्वायम्भुव: --ब्रह्मा के पुत्र;नारद:--नारद मुनि; सह--साथ ; तुम्बुरुणा --तारयुक्त वाद्य यंत्र, तँबूरा के; सभायाम्‌--सभा में; ब्रह्मण:-- भगवान्‌ ब्रह्मा का;संश्लोकयाम्‌ आस--श्लोकों में वर्णित

    यदि भौतिक जीवन से मुक्ति पाने के इच्छुक पुरुष शिष्य परम्परा से प्राप्त गुरु के मुख सेअनन्तदेव के यश को सुनते हैं और यदि वे संकर्षण का निरन्तर ध्यान धरते हैं, तो भगवान्‌ उनकेअन्तःकरण में प्रवेश करते हुए प्रकृति के तीनों गुणों के सारे कल्मष को दूर कर देते हैं औरहृदय की उस कठोर ग्रंथि को काट देते हैं, जो सकाम कर्मों के द्वारा प्रकृति पर प्रभुत्व पाने कीअभिलाषा के कारण अनन्त काल से हढ़ता से बँधी हुई है।

    भगवान्‌ ब्रह्मा के पुत्र नारद मुनिअपने पिता की सभा में अनन्तदेव के यश का सदैव गान करते हैं।

    वहाँ वे अपने द्वारा रचित शुभ अलोकों का गान अपने तम्बूरे के साथ करते हैं।

    उत्पत्तिस्थितिलयहेतवोस्य कल्पाःसत्त्वाद्या: प्रकृतिगुणा यदीक्षयासन्‌ ।

    यद्वूपं श्रुवमकृतं यदेकमात्मन्‌नानाधात्कथमु ह वेद तस्य वर्त्म ॥

    ९॥

    उत्पत्ति--सृजन का; स्थिति-- धारण या पालन; लय--( तथा ) संहार या प्रलय; हेतवः --मूल कारण; अस्य--इस जगत के;'कल्पाः --समर्थ होते हैं; सत्त्त-आद्या:--सत्त्वगुण इत्यादि; प्रकृति-गुणा:--भौतिक प्रकृति के गुण; यत्‌--जिसकी; ईक्षया--इृष्टि मात्र से; आसन्‌--हो गया; यत्‌-रूपम्‌--जिसका स्वरूप; श्रुवम्‌ू--अपरिमित; अकृतम्‌--बिना उत्पत्ति हुए; यत्‌--जो;एकम्‌--एक; आत्मन्‌--स्वयं में; नाना-- अनेक; अधात्‌-- प्रकट हुआ; कथम्‌--कैसे; उ ह--निश्चय ही; वेद--जान सकता है;तस्य--उसका; वर्त्म--पथ, मार्गपूर्ण

    पुरुषोत्तम भगवान्‌ की दृष्टि फेरने से ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय केकारणस्वरूप भौतिक प्रकृति के गुणों को अपने-अपने कार्य में समर्थ कर देते हैं।

    परमात्मा अनन्त तथा अनादि हैं और एक होते हुए भी अपने को नाना रूपों में प्रकट करते हैं।

    भला ऐसेपरमेश्वर के कार्यों को मानव समाज कैसे जान सकता है ?

    मूर्ति न: पुरुकृपया बभार सत्त्वंसंशुद्धं सदसदिदं विभाति तत्र ।

    यल्लीलां मृगपतिराददेडनवद्या-मादातुं स्वजनमनांस्युदारवीर्य: ॥

    १०॥

    मूर्तिमू-- श्रीभगवान्‌ के विविध रूपों को; न:--हमको; पुरु-कृपया--अत्यन्त कृपाकरके; बभार-- प्रदर्शित किया; सच्त्वम्‌--अस्तित्त्व; संशुद्धमू--नितान्त दिव्य; सत्‌-असत्‌ इदम्‌--कार्य-कारण स्वरूप यह भौतिक जगत; विभाति--प्रकाशित होता है;तत्र--जिसमें; यत्‌-लीलामू--जिनकी लीलाएँ; मृग-पतिः--सिंह के समान समस्त जीवों का स्वामी; आददे--शिक्षा दी;अनवद्यामू--कल्मषहीन; आदातुम्‌--जीतने के लिए; स्व-जन-मनांसि--अपने भक्तों के मन में; उदार-वीर्य: --जो अत्यन्त उदार

    एवं शक्तिमान हैपूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के भीतर स्थूल व सूक्ष्म जगत का अस्तित्व विद्यमान है।

    अपने भक्तोंपर अहैतुकी कृपावश बे विभिन्न दिव्य रूपों को प्रदर्शित करते हैं।

    परमेश्वर अत्यन्त उदार हैं एवंउनमें समस्त योग शक्तियाँ हैं।

    अपने भक्तों के मन को जीतने तथा उनके हृदय को आनन्दितकरने के लिए वे नानाविध अवतारों में प्रकट होते हैं और अनेक लीलाएँ करते हैं।

    यन्नाम श्रुतमनुकीर्तयेदकस्मा-दार्तो वा यदि पतितः प्रलम्भनाद्वा ।

    हन्त्यंहः सपदि नृणामशेषमन्यंक॑ शेषाद्धगवत आश्रयेन्मुमुक्षु; ॥

    ११॥

    यत्‌--जिनका; नाम--पवित्र नाम; श्रुतम्‌--सुना हुआ; अनुकीर्तयेतू--जप सकता है; अकस्मात्‌--दैवयोग से; आर्त:--विपदाग्रस्त व्यक्ति; वा--अथवा; यदि--यदि; पतित:--पतित व्यक्ति; प्रलम्भनात्‌ू--हँसी से; वा--अथवा; हन्ति--नष्ट करताहै; अंहः--पापी; सपदि--उस क्षण; नृणाम्‌ू--मानव समाज का; अशेषम्‌-- अपरिमित; अन्यम्‌--दूसरे को; कम्‌--क्या;शेषात्‌-- भगवान्‌ शेष की अपेक्षा; भगवत:--श्रीभगवान्‌ की; आश्रयेत्‌--शरण में जावे; मुमुक्षु:--मुक्तिकामी व्यक्ति |

    यदि कोई आर्त अथवा पतित व्यक्ति भी प्रामाणिक गुरु से भगवान्‌ का पवित्र नाम सुनकरउसका जप करता है, तो वह तुरन्त पवित्र हो जाता है।

    यदि वह हँसी में, अथवा अकस्मात्‌ भीभगवन्नाम का जप करता है, तो वह तथा जो उसे सुनता है समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं।

    अतःभौतिक बन्धनों से छुटकारा चाहने वाला व्यक्ति भगवान्‌ शेष के नाम-जप से कैसे कतरा सकताहै? भला वह और किसकी शरण ग्रहण करे ?

    मूर्धन्यर्पितमणुवत्सहस्त्रमूथ्नोभूगोल सगिरिसरित्समुद्रसत्त्वम्‌ ।

    आननन्‍्त्यादनिमितविक्रमस्य भूम्नःको वीर्याण्यधि गणयेत्सहस्त्रजिहः ॥

    १२॥

    मूर्थनि--शिर अथवा फण पर; अर्पितम्‌--स्थिर; अणु-बत्‌--अणु के समान; सहस्त्र-मूर्ध्न: --सहस्त्र फणों वाले अनन्त का; भू-गोलम्‌--यह ब्रह्माण्ड; स-गिरि-सरित्‌-समुद्र-सत्त्वम्‌-- अनेक पर्वतों, वृक्षों, समुद्रों तथा जीवात्माओं सहित; आनन्त्यात्‌ू--अनन्तहोने से; अनिमित-विक्रमस्थ-- अपरिमेय शक्ति; भूम्न:--परमे श्वर; क:ः--कौन; वीर्याणि--शक्तियाँ; अधि--निस्सन्देह;गणयेत्‌--गिन सकता है; सहस्त्र-जिहः-- भले ही सहस्त्र जीभें क्‍यों न हों |

    अपरिमित होने के कारण ईश्वर की शक्ति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

    अनेकविशाल पर्वतों, नदियों, सागरों, वृक्षों तथा जीवात्माओं से पूर्ण यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनके सहस्त्रों'फणों में से एक के ऊपर अणु के समान टिका हुआ है।

    भला, सहस्त्र जिह्वाओं से भी क्या कोई उनकी महिमा का वर्णन कर सकता है?

    एवम्प्रभावो भगवाननन्तोदुरन्तवीर्योरुगुणानु भाव: ।

    मूले रसाया: स्थित आत्मतन्त्रोयो लीलया क्ष्मां स्थितये बिभर्ति ॥

    १३॥

    एवमू-प्रभाव: --इतना शक्तिशाली; भगवान्‌ -- श्रीभगवान्‌; अनन्त:---अनन्त; दुरन्त-वीर्य --अपार शौर्य; उरू--महान्‌; गुण-अनुभाव:--दिव्य गुणों तथा यशों से युक्त; मूले--पादभाग में; रसाया:--निम्नतर लोकों के; स्थित:--स्थित; आत्म-तन्त्र: --पूर्णतया आत्मनिर्भर; यः--जो; लीलया--सरलतापूर्वक; क्ष्मामू--ब्रह्माण्ड को; स्थितये--पालन हेतु; बिभर्ति-- धारण करताहै

    उन शक्तिमान भगवान्‌ अनन्तदेव के महान्‌ एवं यशस्वी गुणों का कोई पारावार नहीं है।

    वास्तव में उनका शौर्य अनन्त है।

    स्वयं आत्मनिर्भर होते हुए भी बे प्रत्येक वस्तु के आधार हैं।

    वेपाताललोक में वास करते हैं और इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण किये रहते हैं।

    एता होवेह नृभिरुपगन्तव्या गतयो यथाकर्मविनिर्मिता यथोपदेशमनुवर्णिता: कामान्कामयमानै: ॥

    १४॥

    एता:--ये सब; हि--निस्सन्देह; एव--ही; इह--इस ब्रह्माण्ड में; नृभिः--समस्त जीवों द्वारा; उपगन्तव्या:-- उपलब्ध करनेयोग्य; गतयः--गन्तव्य; यथा-कर्म--अपने-अपने पूर्व कर्मों के अनुसार; विनिर्मिता:--उत्पन्न किये गये; यथा-उपदेशम्‌--जैसाउपदेश दिया गया; अनुवर्णिता:--तदनुसार वर्णित; कामान्‌-- भौतिक सुख; कामयमानैः--कामना करने वालों के द्वारा

    हे राजनमैंने अपने गुरु से जैसा सुना था, उसी रूप में मैंने बद्धजीवों के सकाम कर्मों एवंकामनाओं के अनुसार इस जगत की सृष्टि का पूर्ण वर्णन आपसे किया है।

    भौतिक कामनाओं सेपूर्ण बद्धजीवों को विभिन्न लोकों में अनेक स्थान प्राप्त होते रहते हैं और इस प्रकार वे इसीभौतिक सृष्टि के भीतर रहते चले आते हैं।

    एतावतीर्हि राजन्पुंस: प्रवृत्तिलक्षणस्य धर्मस्य विपाकगतय उच्चावचा विसद्ृशा यथाप्रश्नं व्याचख्येकिमन्यत्कथयाम इति ॥

    १५॥

    एतावती:--इतने प्रकार की; हि--ही; राजन्‌--हे राजन; पुंसः:--मानव प्राणियों की; प्रवृत्ति-लक्षणस्य-- प्रवृत्तियों द्वारालक्षणी भूत; धर्मस्य--कार्य सम्पादन का; विपाक-गतय:--परिणामी गन्तव्य; उच्च-अवचा: --उच्च तथा निम्न; विसहृशा: --विभिन्न; यथा-प्रश्नम्‌-- आपके प्रश्न के अनुसार; व्याचख्ये--मैंने वर्णन किया है; किम्‌ अन्यत्‌--और क्या; कथयाम--कहूँ;इति--इस प्रकार।

    हे राजन, इस प्रकार मैंने आपको बताया है कि प्रायः मनुष्य किस प्रकार अपनी-अपनीइच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं और उसी के अनुसार उच्च या निम्न लोकों में भिन्न-भिन्नशरीर धारण करते हैं।

    आपने ये बातें मुझसे पूछीं थी और मैंने जो अधिकारियों से सुना है उसेआपसे बता दिया।

    अब आगे क्या सुनाऊँ ?

    TO

    अध्याय छब्बीसवाँ: नारकीय ग्रहों का विवरण

    5.26राजोबाचमहर्ष एतद्वैच्चित्यं लोकस्य कथमिति ॥

    १॥

    राजाउवाच--राजा बोला; महर्षे --हे महर्षि ( शुकदेव गोस्वामी ); एतत्‌--यह; वैचित्रयम्‌--विचित्रता; लोकस्य--जीवात्माओंकी; कथम्‌--किस प्रकार; इति--इस प्रकार।

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--हे महाशय, जीवात्माओं को विभिन्न भौतिकगतियाँ क्यों प्राप्त होती हैं? कृपा करके मुझसे कहें।

    ऋषिरुवाचत्रिगुणत्वात्कर्तु: श्रद्धया कर्मगतयः पृथग्विधा: सर्वा एव सर्वस्य तारतम्येन भवन्ति ॥

    २॥

    ऋषि: उबाच--महामुनि ( शुकदेव गोस्वामी ) बोले; त्रि-गुणत्वात्‌--तीन गुणों के कारण; कर्तु:ः--कर्ता का; श्रद्धया-- श्रद्धाके कारण; कर्म-गतय:--कार्यो के कारण स्थितियाँ; पृथक्‌-भिन्न; विधा:--प्रकार; सर्वा:--सभी; एव--इस प्रकार;सर्वस्थ--उन सबों का; तारतम्येन--विभिन्न मात्राओं में; भवन्ति--सम्भव होते हैं।

    महामुनि शुकदेव बोले--हे राजन्‌, इस जगत में सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में स्थिततीन प्रकार के कर्म होते हैं।

    चूँकि सभी मनुष्य इन तीन गुणों से प्रभावित होते हैं, अतः कर्मों के'फल भी तीन प्रकार के होते हैं।

    जो सतोगुण के अनुसार कर्म करता है, वह धार्मिक एवं सुखीहोता है, जो रजोगुण में कर्म करता है उसे कष्ट तथा सुख के मिश्रित रूप में प्राप्त होते हैं और जोतमोगुण के वश में कर्म करता है, वह सदैव दुखी रहता है और पशुतुल्य जीवन-बिताता है।

    विभिन्न गुणों से भिन्न-भिन्न मात्रा में प्रभावित होने के कारण जीवात्माओं को विभिन्न गतियाँप्राप्त होती हैं।

    अथेदानीं प्रतिषिद्धलक्षणस्याधर्मस्य तथेव कर्तु: श्रद्धाया वैसाहश्यात्कर्मफलं विसदृ॒शं भवति याहानाद्यविद्यया कृतकामानां तत्परिणामलक्षणा: सृतयः सहस्त्रशः प्रवृत्तास्तासांप्राचुर्येणानुवर्णयिष्याम: ॥

    ३॥

    अथ--इस प्रकार; इदानीमू--अब ; प्रतिषिद्ध--निषिद्ध; लक्षणस्य--लक्षणों वाला; अधर्मस्य--अपवित्र कार्यो का; तथा--उसी तरह का; एव--निश्चय ही; कर्तुः--कर्ता का; श्रद्धाया:-- श्रद्धा का; वैसाइश्यात्‌ू-- अन्तर के कारण; कर्म-फलमू--कर्मोका फल; विसदृशम्‌--भिन्न; भवति--होता है; या--जो; हि--निस्संदेह; अनादि--अनन्त काल से; अविद्यया--अज्ञानता केकारण; कृत--किया हुआ; कामानाम्‌ू--कामी जनों का; तत्‌-परिणाम-लक्षणा:--ऐसी अपवित्र कामनाओं के फलों केलक्षण; सृतब:ः--जीवन की नारकीय दशाएँ; सहस्त्रश:--हजार प्रकार से; प्रवृत्ताः--फलित; तासामू--उनका; प्राचुर्येण --विस्तार से; अनुवर्णयिष्याम:--वर्णन करूँगा।

    जिस प्रकार पवित्र कर्म करने से स्वर्गिक जीवन में विभिन्न गतियाँ प्राप्त होती हैं उसी प्रकारदुष्कर्म करने से नारकीय जीवन में विभिन्न गतियाँ प्राप्त होती हैं।

    जो तमोगुण से प्रेरित होने वालेदुष्कर्मो में प्रवृत्त होते हैं अपनी अज्ञानता की कोटि के अनुसार नारकीय जीवन में विभिन्नकोटियों में रखे जाते हैं।

    यदि कोई पागलपन के कारण तमोगुण में कार्य करता है, तो उसे सबसेकम कष्ट भोगना पड़ता है।

    जो दुष्कर्म करता है, किन्तु पवित्र और अपवित्र कर्मों का अन्तरसमझता है, उसे मध्यम कष्टकारक नरक में स्थान मिलता है।

    किन्तु जो नास्तिकतावश बिनासमझे-बूझे दुष्कर्म करता है उसे निकृष्ट नारकीय जीवन बिताना पड़ता है।

    अनादिकाल सेअज्ञानतावश प्रत्येक जीव अनेकानेक कामनाओं के कारण हजारों प्रकार के नरक लोकों में लेजाया जाता रहा है।

    मैं यथासम्भव उनका वर्णन करने का यत्न करूँगा।

    राजोबाचनरका नाम भगवन्कि देशविशेषा अथवा बहिस्त्रिलोक्या आहोस्विदन्तराल इति ॥

    ४॥

    राजा उबाच--राजा ने कहा; नरका:--नारकीय प्रदेश; नाम--नामक; भगवनू--हे भगवान्‌; किम्‌--क्या; देश-विशेषा: --कोई विशेष देश; अथवा--या; बहि:--बाह्य; त्रि-लोक्या:--तीनों लोकों ( ब्रह्माण्ड ) के; आहोस्वित्‌ू--अथवा; अन्तराले--ब्रह्माण्ड के भीतर मध्यवर्ती स्थानों में; इति--इस प्रकार।

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा--भगवान्‌, क्‍या ये नरक ब्रह्माण्ड के बाहर,इसके भीतर या इसी लोक में भिन्न-भिन्न स्थानों पर हैं?

    ऋषिरुवाचअन्तराल एव त्रिजगत्यास्तु दिशि दक्षिणस्यामथस्ताद्धूमेरुपरिष्टाच्य जलाद्यस्यामग्निष्वात्तादयः पितृगणादिशि स्वानां गोत्राणां परमेण समाधिना सत्या एवाशिष आशासाना निवसन्ति ॥

    ५॥

    ऋषि: उवाच--ऋषि ने उत्तर दिया; अन्तराले--मध्यवर्ती स्थान में; एब--निश्चय ही; त्रि-जगत्या:--तीनों लोकों के; तु--लेकिन; दिशि--दिशा; दक्षिणस्थाम्‌--दक्षिणी; अधस्तात्‌--नीचे; भूमेः --पृथ्वी पर; उपरिष्टात्‌-- थोड़ा ऊपर; च--तथा;जलात्‌--गर्भोदक सागर से; यस्याम्‌--जिसमें; अग्निष्वात्ता-आदय:-- अग्निष्वात्ता इत्यादि; पितृ-गणा: --पितर-गण; दिशि--दिशा में; स्वानामू--उनके अपने; गोत्राणाम्‌--परिवार के; परमेण--अत्यधिक; समाधिना-- भगवान्‌ के ध्यान में मग्न होकर;सत्याः--सत्य में; एब--निश्चय ही; आशिष:--आशीर्वाद; आशासानाः--कामना करने वाले; निवसन्ति--रहते हैं |

    महर्षि शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया--सभी नरकलोक तीनों लोकों तथा गर्भोदक सागरके मध्य में स्थित हैं।

    वे ब्रह्माण्ड के दक्षिण की ओर भूमण्डल के नीचे तथा गर्भोदक सागर केजल से थोड़ा ऊपर स्थित हैं।

    पितूलोक भी इसी गर्भोदक सागर तथा अध:ः:लोकों के मध्य केप्रदेश में स्थित है, जिसमें अग्निष्वात्ता आदि समस्त पितृलोक के वासी परम समाधि में लीनहोकर भगवान्‌ का ध्यान करते हैं और सदैव अपने गोत्र ( परिवारों ) की मंगल-कामना करते हैं।

    यत्र ह वाव भगवान्पितृराजो बैवस्वत: स्वविषयं प्रापितेषु स्वपुरुषैर्जन्तुषु सम्परेतेषु यथाकर्मावच्यंदोषमेवानुल्लड्डितभगवच्छासन: सगणो दमं धारयति ॥

    ६॥

    यत्र--जहाँ; ह वाव--निस्संदेह; भगवान्‌--सर्वशक्तिमान; पितृ-राज:--यमराज, पितरों के राजा; वैवस्वतः--सूर्यदेव के पुत्र;स्व-विषयम्‌--अपना राज्य; प्रापितेषु--पहुँच जाने पर; स्व-पुरुषै:--अपने दूतों द्वारा; जन्तुषु--मानव प्राणी; सम्परेतेषु--मृत;यथा-कर्म-अवद्यम्‌ू-बद्ध जीवन के नियमों तथा विधानों के उल्लंघन की मात्रा के अनुसार; दोषम्‌--दोष, त्रुटि; एब--निश्चयही; अनुल्लड्वित- भगवत्‌-शासन:--जो श्रीभगवान्‌ के आदेश का कभी भी उल्लंघन नहीं करता; सगण: --अपने अनुचरोंसहित; दमम्‌--दण्ड; धारयति--देता है।

    पितरों के राजा यमराज हैं जो सूर्यदेव के अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र हैं।

    बह अपने गणों सहितपितृलोक में रहते हैं और भगवान्‌ द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करते हुए यमदूत समस्तपापियों को मृत्यु के पश्चात्‌ उनके पास ले आते हैं।

    अपने कार्यक्षेत्र में लाए जाने के पश्चात्‌ उनकेविशेष पापकर्मों के अनुसार यमराज अपना निर्णय देकर उनको समुचित दंड हेतु अनेक नरकोंमें से किसी एक में भेज देते हैं।

    तत्र हैके नरकानेकविंशतिं गणयन्ति अथ तांस्ते राजन्नामरूपलक्षणतो<नुक्रमिष्यामस्तामिस्त्रो उन्धतामिस्त्रोरौरवो महारौरव: कुम्भीपाक: कालसूत्रमसिपत्रवनं सूकरमुखमन्धकूप: कृमिभोजनःसन्दंशस्तप्तसूर्मिवज़ञकण्टकशाल्मली बैतरणी पूयोदः प्राणरोधो विशसनं लालाभक्षःसारमेयादनमवीचिरय:पानमिति; किज्ज क्षारकर्दमो रक्षोगणभोजन: शूलप्रोतो दन्दशूको वटनिरोधनःपर्यावर्तन: सूचीमुखमित्यष्टाविंशतिर्नरका विविधयातनाभूमय: ॥

    ७॥

    तत्र--वहाँ; ह--निश्चय ही; एके --कोई कोई; नरकान्‌--नरकों को; एक-विंशतिम्‌--इक्कीस; गणयन्ति--गिनते हैं; अथ--अतः; तानू--उनको; ते--तुमको; राजन्‌--हे राजन; नाम-रूप-लक्षणत:--नामों, रूपों तथा लक्षणों के अनुसार;अनुक्रमिष्याम: --मैं क्रम से वर्णन करूँगा; तामिस्त्र:ः--तामिस्त्र; अन्ध-तामिस्त्र:--अन्धतामिस्त्र; रौरव: --रौरव; महा-रौरव:--महारौरव; कुम्भी-पाक:--कुम्भीपाक; काल-सूत्रमू--कालसूत्र; असि-पत्रवनम्‌--असिपत्रवन; सूकर-मुखम्‌--सूकरमुख;अन्ध-कूप:--अन्धकूप; कृमि-भोजन:--कृमिभोजन; सन्दंश: --सन्दंश; तप्त-सूर्मि:--तप्तसूर्मि; वज्न-कण्टक-शाल्मली --वज़कंटक-शाल्मली; बैतरणी--वैतरणी; पूयोद:--पूयोद; प्राण-रोध:-- प्राणरोध; विशसनम्‌--विशसन; लाला-भक्ष:--लालाभक्ष; सारमेयादनम्‌--सारेमेयादन; अवीचि:--अवीचि; अयः-पानम्‌--अयःपान; इति--इस प्रकार; किज्ञ--कुछ और;क्षार-कर्दम:--क्षारकर्दम; रक्ष:-गण-भोजन:--रक्षोगणभोजन; शूल-प्रोत:--शूलप्रोत; दन्‍्द-शूकः --न्दशूक; अवट-निरोधन:--अवटनिरोधन; पर्यावर्तन:--पर्यावर्तन; सूची-मुखम्‌--सूचीमुख; इति--इस तरह; अष्टा-विंशति:--अट्ठाईस;नरका:--नरकलोक; विविध--विभिन्न; यातना-भूमय:--नारकीय यातना वाले स्थलकुछ विद्वान नरक लोकों की कुल संख्या इक्कीस बताते हैं, तो कुछ अट्टाईस।

    हे राजन्‌, मैं क्रमश: उनके नाम, रूप तथा लक्षणों का वर्णन करूँगा।

    विभिन्न नरकों के नाम ये हैं--तामिस्त्र,अन्धतामिस्त्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप,कृमिभोजन, सन्‍्दंश, तप्तसूर्मि, वज़कंटक-शाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन,लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अयःपान, क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक,अवटनिरोधन, पर्यावर्तन तथा सूचीमुख।

    ये सभी लोक जीवात्माओं को दण्डित करने के लिएहैं।

    तत्र यस्तु परवित्तापत्यकलत्राण्यपहरति स हि कालपाशबद्धो यमपुरुषैरतिभयानकैस्तामिस्त्रे नरकेबलान्निपात्यते अनशनानुदपानदण्डताडनसन्तर्जनादिभिर्यातनाभिर्यात्यमानो जन्तुर्यत्र कश्मलमासादित'एकदैव मूर्च्छामुपयाति तामिस्त्रप्राये ॥

    ८ ॥

    तत्र--नरक लोकों में; यः--जो व्यक्ति; तु--लेकिन; पर-वित्त-अपत्य-कलत्राणि--पराया धन, पत्नी तथा सन्‍्तान; अपहरति--अपहरण करता है; सः--वह व्यक्ति; हि--निश्चय ही; काल-पाश-बद्ध:--काल अथवा यमराज के रस्सों द्वारा बाँधा जाकर;यम-पुरुषै:--यमराज के दूतों द्वारा; अति-भयानकै:--अत्यन्त भयानक; तामिस्त्रे नरके--तामिस्त्र नामक नरक में; बलातू--बलपूर्वक; निपात्यते--फेंक दिया जाता है; अनशन-- भूखों मारना; अनुदपान--बिना जल के; दण्ड-ताडन--डंडे से प्रताड़ित;सन्‍्तर्जन-आदिभि:--डाँट-फटकार इत्यादि; यातनाभि:--कठोर दण्ड द्वारा; यात्यमान:--दण्डित होकर; जन्तु:--जीवात्मा;यत्र--जहाँ; कश्मलमू--दैन्य; आसादित:--प्राप्त करके; एकदा--क भी -क भी; एव-- ही; मूर्च्छाम्‌--मूर्च्छा; उपयाति--प्राप्तकरता है; तामिस्त्र-प्राये--नितान्त अंधकार की स्थिति में |

    हे राजन, जो पुरुष दूसरों की वैध पत्नी, सन्‍्तान या धन का अपहरण करता है, उसे मृत्यु केसमय क्रूर यमदूत काल के रस्सों में बाँधकर बलपूर्वक तामिस्त्र नामक नरक में डाल देते हैं।

    इसअंधकारपूर्ण लोक में यमदूत पापी पुरुषों को डाँटते, मारते पीटते और प्रताड़ित करते हैं।

    उसेभूखा रखा जाता है और पीने को पानी भी नहीं दिया जाता है।

    इस प्रकार यमराज के क्रुद्ध दूतउसे कठोर यातना देते हैं और वह इस यातना से कभी-कभी मूर्च्छित हो जाता है।

    एवमेवान्धतामिस्त्रे यस्तु वज्ञयित्वा पुरुषं दारादीनुपयुड्रे यत्र शरीरी निपात्यमानो यातनास्थो वेदनयानष्टमतिर्नष्टटदृष्टिश्व भवति यथा वनस्पतिर्वृश्च्यमानमूलस्तस्मादन्धतामिस्त्रं तमुपदिशन्ति ॥

    ९॥

    एवम्‌--इस प्रकार; एब--ही; अन्धतामिस्त्रे--अन्धतामिस्त्र नरक में; यः--जो व्यक्ति; तु--लेकिन; वज्ञयित्वा--ठग कर;पुरुषम्‌--दूसरे व्यक्ति को; दार-आदीन्‌--पली तथा सन्‍्तान; उपयुड्डे -- भोग करता है; यत्र--जहाँ; शरीरी --शरीरधारी व्यक्ति;निपात्यमान:--बलपूर्वक फेंका जाकर; यातना-स्थ: --अत्यन्त दयनीय स्थिति में रहकर; वेदनया--ऐसी बेदना से; नष्ट मति:--जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है; नष्ट दृष्टि:--जिनकी दृष्टि क्षीण हो चुकी है; च-- भी; भवति--हो जाता है; यथा--जितना कि;वनस्पति:--वृक्ष; वृश्च्यमान--काटे जाने पर; मूल: --जिनकी जड़; तस्मात्‌ू--इस कारण; अन्धतामिस्त्रमू--अन्धतामिस्त्र;तमू--उसको; उपदिशन्ति-- कहते हैं

    जो व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को धोखा देकर उसकी पत्नी तथा सन्‍्तान को भोगता है वह अन्धतामिस्त्र नामक नरक में स्थान पाता है।

    वहाँ पर उसकी स्थिति जड़ से काटे गए वृक्ष जैसीहोती है।

    अंधतामिस्र में पहुँचने के पूर्व ही पापी जीव को अनेक कठिन यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

    ये यातनाएँ इतनी कठोर होती हैं कि वह बुद्धि तथा दृष्टि दोनों को खो बैठता है।

    इसी कारण सेबुद्धिमान जन इस नरक को अन्धतामिस््र कहते हैं।

    यस्त्विह वा एतदहमिति ममेदमिति भूतद्रोहेण केवल स्वकुटुम्बमेवानुदिनं प्रपुष्णाति स तदिह विहायस्वयमेव तदशुभेन रौरवे निपतति ॥

    १०॥

    यः--जो; तु-- लेकिन; इह--इस जीवन में; वा--अथवा; एतत्‌--यह देह; अहम्‌--मैं; इति--इस प्रकार; मम--मेरा; इृदम्‌--यह; इति--इस प्रकार; भूत-द्रेहेण--अन्य जीवात्माओं की ईर्ष्या से; केवलम्‌-- अकेले; स्व-कुटुम्बम्‌--अपने कुट॒ुम्बी जनोंको; एव--केवल; अनुदिनम्‌--नित्य-प्रति; प्रपुष्णाति--निर्वाह करता है; सः--ऐसा व्यक्ति; तत्‌ू--वह; इह--यहाँ; विहाय--छोड़कर; स्वयम्‌--स्वयं; एबव--ही; तत्‌ू--उसका; अशुभेन--पाप द्वारा; रौरवे--रौरव में; निपतति--गिर जाता है|

    ऐसा व्यक्ति जो अपने शरीर को 'स्व' मान लेता है अपने शरीर तथा अपनी पत्नी और पुत्रोंके पालन के लिए धन कमाने के लिए अहर्निश कठोर श्रम करता है।

    ऐसा करने में वह अन्यजीवात्माओं के प्रति हिंसा कर सकता है।

    ऐसे पुरुष को मृत्यु के समय अपनी तथा अपने परिवारकी देहों को त्यागना पड़ता है और अन्य प्राणियों के प्रति की गई ईर्ष्या का कर्मफल यह मिलताहै कि उसे रौरव नामक नरक में फेंक दिया जाता है।

    ये त्विह यथेैवामुना विहिंसिता जन्तव: परत्र यमयातनामुपगतं त एव रुरवो भूत्वा तथा तमेव विहिंसन्तितस्माद्रौरवमित्याहू रुरुरिति सर्पादतिक्रूरसत्त्वस्थापदेश: ॥

    ११॥

    ये--वे जो; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; यथा--जितना कि; एब--ही; अमुना--उसके द्वारा; विहिंसिता:--पीड़ित कियेगये; जन्तव:--जीवात्माएँ; परत्र--अगले जन्म में; यम-यातनाम्‌ उपगतम्‌-- यमराज द्वारा यातना पहुँचाये जाने पर; ते--वेजीवात्माएँ; एव--निस्संदेह; रुरव:--रुरु ( एक ईर्ष्यालु पशु ); भूत्वा--बनकर; तथा--उतना; तमू--उसको; एव--ही;विहिंसन्ति--पीड़ा पहुँचाते हैं; तस्मात्‌--इस कारण; रौरवम्‌ू--रौरव; इति--इस प्रकार; आहु: --विद्वानों का कथन है; रुरु:--रुरु नामक पशु; इति--इस प्रकार; सर्पात्‌--सर्प की अपेक्षा; अति-क्रूर--अत्यधिक निर्दय तथा ईर्ष्यालु; सत्त्वस्थ--जीव का;अपदेश:--नाम |

    इस जीवन में ईर्ष्यालु व्यक्ति अनेक जीवात्माओं के प्रति हिसंक कृत्य करता है।

    अतः मृत्युके पश्चात्‌ यमराज द्वारा नरक ले जाये जाने पर जो जीवात्माएँ उसके द्वारा पीड़ित की गई थीं वेरुरु नामक जानवर के रूप में प्रकट होकर उसे असहा पीड़ा पहुँचाते हैं।

    विद्वान लोग इसे हीरौरव नरक कहते हैं।

    रुरु सर्प से भी अधिक ईर्ष्यालु होता है और प्रायः इस संसार में दिखाई नहींपड़ता है।

    एवमेव महारौरवो यत्र निपतितं पुरुष क्रव्यादा नाम रुरवस्तं क्रव्येण घातयन्ति यः केवल देहम्भर: ॥

    १२॥

    एवम्‌--इस तरह; एव--ही; महा-रौरव:ः--महारौरव; यत्र--जहाँ; निपतितम्‌--फेंका जाकर; पुरुषम्‌--व्यक्ति को; क्रव्यादा:नाम--क्रव्याद नामक; रुरब:--रुरु पशु; तम्‌--उसको ( दोषी पुरुष ); क्रव्येण--उसके मांस-भक्षण हेतु; घातयन्ति--मारतेहैं; यः--जो; केवलम्‌ू--केवल; देहम्भर:--अपने शरीर का पालन करने पर तुले रहते हैं।

    जो व्यक्ति अन्यों को पीड़ा पहुँचाकर अपने ही शरीर का पालन करता है उसे दण्डस्वरूपमहारौरव नामक नरक दिये जाने को अनिवार्य कहा गया है।

    इस नरक में क्रव्याद नामक रुरूपशु उसको सताते और उसका मांस खाते हैं।

    तात्पर्य : ऐसे पशुतुल्य व्यक्ति को जो केवल देहात्मबुद्धि में रहता है क्षमा नहीं किया जाता।

    उसेमहारौरव नामक नरक में रखा जाता है जहाँ उस पर क्रव्याद नामक रुरु पशु आक्रमण करते हैं।

    यस्त्विह वा उग्र: पशून्पक्षचिणो वा प्राणत उपरन्धयति तमपकरुणं पुरुषादैरपि विगर्हितममुत्र यमानुचरा:कुम्भीपाके तप्ततैले उपरन्धयन्ति ॥

    १३॥

    यः--वह व्यक्ति जो; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; बा--अथवा; उग्र; --अत्यन्त क्रूर; पशून्‌--पशु को; पक्षिण:--पक्षियोंको; वा--अथवा; प्राणत:ः--जीवित अवस्था में; उपरन्धयति--पकाता है; तम्‌--उसको; अपकरुणम्‌--अत्यन्त निष्ठुर; पुरुष-आदैः--जो पुरुष के मांस का भक्षण करते हैं, उनके द्वारा; अपि--यहाँ तक कि; विगर्हितम्‌-- भर्त्सना की जाती है ; अमुत्र--अगले जन्म में; यम-अनुचरा:--यमराज के दूत; कुम्भीपाके-- कुम्भीपाक नरक में; तप्त-तैले--उबलते तेल में; उपरन्धयन्ति--पकाते हैं।

    क्रूर व्यक्ति अपने शरीर के पालन तथा अपनी जीभ की स्वाद पूर्ति के लिए निरीह जीवितपशुओं तथा पक्षियों को पका खाते हैं।

    ऐसे व्यक्तियों की मनुजाद ( मनुष्य-भक्षक ) भी भर्त्सनाकरते हैं।

    अगले जन्मों में वे यमदूतों के द्वारा कुम्भीपाक नरक में ले जाये जाते हैं, जहाँ उन्हेंउ बलते तेल में भून डाला जाता हैं।

    यस्त्विह ब्रह्मश्र॒ुक्स कालसूत्रसंज्ञके नरके अयुतयोजनपरिमण्डले ताम्रमये तप्तखलेउपर्यधस्तादग्न्यर्का भ्यामतितप्यमाने भिनिवेशित: क्षुत्पिपासाभ्यां च दह्ममानान्तर्बहिःशरीर आस्ते शेतेचेष्टतेउवतिष्ठति परिधावति च यावन्ति पशुरोमाणि तावद्वर्षमहस्त्राणि ॥

    १४॥

    यः--जो कोई; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; ब्रह्म-धुुक्‌ --ब्राह्मण की हत्या करने वाला; सः--ऐसा व्यक्ति; कालसूत्र-संज्ञ़के--कालसूत्र नामक; नरके --नरक में; अयुत-योजन-परिमण्डले--अस्सी हजार मील की परिधि वाले; ताम्र-मये--ताम्रसे बने; तप्त--गरम किये हुए; खले--समतल स्थल में; उपरि-अधस्तात्‌ू--ऊपर तथा नीचे; अग्नि--अग्नि द्वारा; अर्कभ्याम्‌--( तथा ) सूर्य द्वारा; अति-तप्यमाने--अत्यधिक गरम किये जाने पर; अभिनिवेशित: --प्रविष्ट कराये जाने पर; श्षुत्‌-पिपासाभ्याम्‌-- भूख तथा प्यास से; च--तथा; दह्ममान--जलाया जाकर; अन्त:-- भीतर से; बहि:--बाहर से; शरीर: --जिसका शरीर; आस्ते--रहता है; शेते--कभी लेटता है; चेष्टते--कभी अपने अंगों को हिलाता-डुलाता है; अवतिष्ठति--कभीखड़ा होता है; परिधावति--कभी इधर-उधर दौड़ता है; च-- भी; यावन्ति--जितने; पशु-रोमाणि--पशु के शरीर के रोम;तावत्‌--उतने; वर्ष-सहस्त्राणि--हजारों वर्ष

    ब्राह्मण-हन्ता को कालसूत्र नामक नरक में रखा जाता है, जिसकी परिधि अस्सी हजार मीलकी है और जो पूरे का पूरा ताम्बे से बना है।

    इस लोक की ताम्र-सतह ऊपर से तपते सूर्य द्वाराऔर नीचे से अग्नि द्वारा तप्त होने से अत्यधिक गरम रहती है।

    इस प्रकार ब्राह्मण का वध करनेवाला भीतर और बाहर से जलाया जाता है।

    भीतर-भीतर वह भूख-प्यास से और बाहर सेझुलसा देने वाले सूर्य तथा ताम्र की सतह के नीचे की अग्नि से झुलसता रहता है।

    अत: वहकभी लेटता है, कभी बैठता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर-उधर दौड़ता है।

    इस प्रकारवह उतने हजार वर्षों तक यातना सहता रहता है जितने कि पशु-शरीर में रोमों की संख्या होती है।

    यस्त्विह वै निजवेदपथादनापद्यपगतः पाखण्डं चोपगतस्तमसिपत्रवनं प्रवेश्य कशया प्रहरन्ति तत्रहासावितस्ततो धावमान उभयतो धारैस्तालवनासिपत्रैश्छिद्यमानसर्वाड्ो हा हतोस्मीति परमया वेदनयामूर्च्छितः पदे पदे निपतति स्वधर्महा पाखण्डानुगतं फल भुड़े ॥

    १५॥

    यः--जो कोई; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्संदेह; निज-वेद-पथात्‌--वेदों द्वारा बताये गये अपने पथ से;अनापदि--बिना आपात काल के; अपगतः--दूर हटा हुआ; पाखण्डम्‌--पाखण्डवाद; च--तथा; उपगत:--पास पहुँचा हुआ;तम्‌--उसको; असि-पत्रवनम्‌-- असिपत्रवन नामक नरक में; प्रवेश्य--प्रविष्ट कराकर; कशया--चाबुक से; प्रहरन्ति--पीटतेहैं; तत्र--वहाँ; ह--ही; असौ--वह; इतः ततः--इधर-उधर; धावमान:--दौड़ते हुए; उभयतः--दोनों ओर; धारैः--तीक्ष्णनौकों से; ताल-वन-असि-पत्रै:--ताड़ वृक्षों की तलवार जैसी पत्तियों से; छिद्यमान--छिदकर; सर्व-अड्डः--जिसका सम्पूर्णशरीर; हा-- हाय; हतः--मर गया; अस्मि--हूँ; इति--इस प्रकार; परमया--असहा; वेदनया--पीड़ा से; मूर्च्छित:--मूर्च्छित,संज्ञाशून्य; पदे पदे--प्रति पग पर; निपतति--गिर पड़ता है; स्व-धर्म-हा--अपने धर्म के नियमों का हन्ता; पाखण्ड-अनुगतम्‌'फलम्‌--नास्तिक पथग्रहण करने का फल; भुड्ढे --भोगता है, सहता है।

    यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विपत्ति न होने पर भी वैदिक पथ से हटता है, तो यमराजके दूत उसे असिपत्रवन नामक नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं।

    जब वह अत्यधिक पीड़ाके कारण इधर-उधर दौड़ता है, तो उसे अपने चारों ओर तलवार के समान तीकण ताड़ वृक्षों कीपत्तियों के बीच छटपटाता है।

    इस प्रकार पूरा शरीर क्षत-विक्षत होने से वह प्रति पग-पग पर मूर्च्छित होता रहता है और चीत्कार करता है, 'हाय! अब मैं क्‍या करूँ? मैं किस प्रकार सेबचूँ!' मान्य धार्मिक नियमों से विषथ होने का ऐसा ही दण्ड मिलता है।

    ञयस्त्विह वै राजा राजपुरुषो वा अदण्ड्ये दण्डं प्रणयति ब्राह्मणे वा शरीरदण्डं स पापीयान्नरके मुत्रसूकरमुखे निपतति तत्रातिबलैर्विनिष्पिष्यमाणावयवो यथैवेहेक्षुखण्ड आर्तस्वरेण स्वनयन्क्वचिन्मूर्च्छित:कश्मलमुपगतो यथेवेहाहष्टदोषा उपरुद्धा: ॥

    १६॥

    यः--जो कोई; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्सन्देह; राजा--राजा; राज-पुरुष:--राजा का आदमी; वा--अथवा;अदण्ड्ये--अदण्डनीय को; दण्डम्‌--दण्ड; प्रणयति--देता है; ब्राह्णे--ब्राह्मण को; वा--अथवा; शरीर-दण्डमू--शारीरिकदण्ड; सः--वह व्यक्ति, राजा अथवा राज्याधिकारी; पापीयान्‌ू--पापी मनुष्यों को; नरके--नरक में; अमुत्र--अगले जन्म में;सूकरमुखे--सूकरमुख नरक में; निपतति--गिरता है; तत्र--वहाँ; अति-बलै:ः--अत्यन्त बलशाली यमदूतों द्वारा;विनिष्पिष्यमाण--कुचला जाकर; अवयव:--शरीर के विभिन्न अंग; यथा--सहृश; एव--ही; इह--यहाँ; इक्षु-खण्ड:--गन्नोंके टुकड़े; आर्त-स्वरेण--करूण स्वर से; स्वनयन्‌ू--चिल्लाते हुए; क्वचित्‌--कभी-कभी; मूच्छित:--मूर्च्छित होकर;'कश्मलम्‌ उपगतः --मोह ग्रस्त होकर; यथा--सहृश; एबव--निस्सन्देह; इह--यहाँ; अद्ृष्ट-दोषा:--जो दोषी नहीं है; उपरुद्धा: --दण्ड हेतु बन्दी बनाया गया।

    अगले जन्म में यमदूत निर्दोष पुरुष या ब्राह्मण को शारीरिक दण्ड देने वाले पापी राजाअथवा राज्याधिकारी को सूकरमुख नामक नरक में ले जाते हैं जहाँ उसे यमराज के दूत उसीप्रकार कुचलते हैं जिस प्रकार गन्ने को पेर कर रस निकाला जाता है।

    जिस प्रकार से निर्दोषव्यक्ति दण्डित होते समय अत्यन्त दण्डनीय ढंग से चिललाता है और मूर्च्छित होता है ठीक उसीतरह पापी जीवात्मा भी आर्तनाद करता एवं मूर्च्छित होता है।

    निर्दोष व्यक्ति को दण्ड देकरपीड़ित करने का यही फल है।

    यस्त्विह वै भूतानामी श्ररोपकल्पितवृत्तीनामविविक्तपरव्यथानां स्वयं पुरुषोपकल्पितवृत्तिर्विविक्तपरव्यथोव्यथामाचरति स परत्रान्थकूपे तदभिद्रोहेण निपतति तत्र हासौ तैर्जन्तुभिःपशुमृगपश्षिसरीसूपर्मशकयूकामत्कुणमक्षिकादिभियें के चाभिद्वुग्धास्तैः सर्वतोभिद्गुह्ममाणस्तमसिविहतनिद्रानिर्वृतिरलब्धावस्थान: परिक्रामति यथा कुशरीरे जीव: ॥

    १७॥

    यः--जो कोई; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्सन्देह; भूतानामू--कुछ जीवात्माओं को; ईश्वर--परम नियन्ता द्वारा;उपकल्पित--बनाया गया; वृत्तीनामू--जिनकी जीविका; अविविक्त--न जानते हुए; पर-व्यथानाम्‌--पर-पीड़ा; स्वयम्‌-- अपनेआप; पुरुष-उपकल्पित-- श्रीभगवान्‌ द्वारा निर्मित; वृत्तिः--जिनकी जीविका; विविक्त--जानते हुए; पर-व्यथ: --पर पीड़ा;व्यथाम्‌ आचरति--तो भी पीड़ा पहुँचाता है; सः--ऐसा व्यक्ति; परत्र--अगले जन्म में; अन्धकूपे--अन्धकूप नरक में; तत्‌--उनको; अभिद्रोहेण --द्रोह करने से; निपतति--गिरता है; तत्र--वहाँ; ह--निस्सन्देह; असौ--वह व्यक्ति; तैः जन्तुभि:--उन-उनजीवों द्वारा; पशु--पशु; मृग--जंगली जानवर; पक्षि--पक्षी; सरीसूपै: --सर्प; मशक--मच्छर; यूका--जूँ; मत्कुण-- कीड़े;मक्षिक-आदिभि:--मक्खी आदि; ये के--अन्य जितने; च--और; अभिद्गुग्धा:--दण्डित; तैः--उनके द्वारा; सर्वतः--सर्वत्र;अभिव्गुद्यमाण:--पीड़ा पहुँचाये हुए; तमसि--अंधकार में; विहत--विदश्लुब्ध; निद्रा-निर्वृति:--जिनके वासस्थान; अलब्ध--प्राप्त न होने वाले; अवस्थान:--आवास; परिक्रामति--घूमता है; यथा--जिस प्रकार; कु-शरीरे--निम्न योनि के देह में;जीव:--जीव

    परमेश्वर की व्यवस्था से खटमल तथा मच्छर जैसे निम्न श्रेणी के जीव मनुष्यों तथा अन्यपशुओं का रक्त चूसते हैं।

    इन तुच्छ प्राणियों को इसका ज्ञान नहीं होता है कि उनके काटने सेमनुष्यों को पीड़ा होती होगी।

    किन्तु उच्च श्रेणी के मुनष्यों--यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य--में चेतना विकसित रूप में होती है, अतः वे जानते हैं कि किसी का प्राणघात करना कितनाकष्टदायक है।

    यदि ज्ञानवान होते हुए भी मनुष्य विवेकहीन तुच्छ प्राणियों को मारता है यासताता है, तो वह निश्चय ही पाप करता है।

    श्रीभगवान्‌ ऐसे मनुष्य को अन्धकूप में रखकरदण्डित करते हैं जहाँ उसे वे समस्त पक्षी तथा पशु, सर्प, मच्छर, जूँ, कीड़े, मक्खियाँ तथा अन्यप्राणी, जिनको उसने अपने जीवनकाल में सताया था, उस पर चारों ओर से आक्रमण करते हैं और उसकी नींद हराम कर देते हैं।

    आराम न कर सकने के कारण वह अंधकार में घूमता रहताहै।

    इस प्रकार अन्धकूप में उसे वैसी ही यातना मिलती है जैसी कि निम्न योनि के प्राणी को।

    तेयस्त्विह वा असंविभज्याश्नाति यत्किज्लननोपनतमनिर्मितपञ्ञयज्ञो वायससंस्तुतः स परत्र कृमिभोजनेनरकाधमे निपतति तत्र शतसहस्त्रयोजने कृमिकुण्डे कृमिभूतः स्वयं कृमिभिरेव भक्ष्यमाण: कृमिभोजनोयावत्तदप्रत्ताप्रहूतादो उनिर्वेशमात्मानं यातयते ॥

    १८ ॥

    यः--कोई व्यक्ति जो; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वा-- अथवा; असं-विभज्य--बिना बाँटे; अश्नाति--खाता है; यत्‌किज्लन--जो भी; उपनतम्‌-- श्रीकृष्ण की कृपा से प्राप्त; अनिर्मित--बिना किये हुए; पश्ञ-यज्ञ:--पाँच प्रकार के यज्ञ;वायस--कौवे; संस्तुत:ः--सम रूप में वर्णित; सः--ऐसा पुरुष; परत्र--अगले जन्म में; कृमिभोजने--कृमिभोजन लोक में;नरक-अधमे--अत्यन्त निकृष्ट नरक में; निपतति--गिरता है; तत्र--वहाँ; शत-सहस्त्र-योजने-- १, ००,००० योजन वाले(८,००,००० मील वाले ); कृमि-कुण्डे--कीड़ों के कुंड में; कृमि-भूतः--कीड़ों में से एक बनना; स्वयमू--स्वयं;कृमिभि:--अन्य कीड़ों के द्वारा; एव--निश्चय ही; भक्ष्यमाण: -- भक्षित होकर; कृमि-भोजन: -- खाद्य कीड़े; यावत्‌--जहाँतक; तत्‌--वह कुंड चौड़ा है; अप्रत्त-अप्रहूत--बिना बाँटा और बिना दिया हुआ भोजन; अदः--जो खाता है; अनिर्वेशम्‌--जिसने परिशोध नहीं किया; आत्मानम्‌--अपने आपको; यातयते--पीड़ा पहुँचाता है।

    जो मनुष्य कुछ भोजन प्राप्त होने पर उसे अतिथियों, वृद्ध पुरुषों तथा बच्चों को न बाँट करस्वयं खा जाता है अथवा बिना पंचयज्ञ किये खाता है, उसे कौवे के समान मानना चाहिए मृत्यु के बाद वह सबसे निकृष्ट नरक कृमिभोजन में रखा जाता है।

    इस नरक में एक लाख योजन(८,००,००० मील वाले ) विस्तृत वाला कीड़ों से परिपूर्ण एक कुंड है।

    वह इस कुंड में कीड़ाबनकर रहता है और दूसरों कीड़ों को खाता है और ये कीड़े उसे खाते हैं।

    जब तक वह पापीअपने पापों का प्रायश्चित नहीं कर लेता, तब तक वह कृमिभोजन के नारकीय कुंड में उतने वर्षोंतक पड़ा रहता है, जितने योजन इस कुंड की चौड़ाई है।

    यस्त्विह वै स्तेयेन बलाद्वा हिरण्यरत्लादीनि ब्राह्मणस्य वापहरत्यन्यस्य वानापदि पुरुषस्तममुत्रराजन्यमपुरुषा अयस्मयैरग्निपिण्डै: सन्दंशैस्त्वचि निष्कुषन्ति ॥

    १९॥

    यः--कोई व्यक्ति जो; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै-- निस्सन्देह; स्तेयेन--चोरी से; बलात्‌ू--बलपूर्वक; वा--अथवा;हिरण्य--सोना; रत्त--रल; आदीनि--३इ त्यादि; ब्राह्मणस्य--ब्राह्मण का; वा--अथवा; अपहरति--चुराता है; अन्यस्य--अन्योंका; वा--या; अनापदि--आपत्ति के समय नहीं; पुरुष: --व्यक्ति; तमू--उसको; अमुत्र--अगले जीवन में; राजन्‌ू--हे राजा;यम-पुरुषा:--यमराज के दूत; अयः-मयै:--लोहे से निर्मित; अग्नि-पिण्डै:-- अग्नि में तप्त किये गये गोलों से; सन्दंशै:--संडसी से; त्वचि--चमड़ी पर; निष्कृुषन्ति--टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं।

    हे राजन, जो पुरुष आपत्तिकाल न होने पर भी ब्राह्मण अथवा अन्य किसी के रत्न तथासोना लूट लेता है, वह सन्दंश नामक नरक में रखा जाता है।

    वहाँ पर उसकी चमड़ी संडसी औरलोहे के गरम पिंडों से उतारी जाती है।

    इस प्रकार उसका पूरा शरीर खण्ड-खण्ड कर दिया जाताहै।

    यस्त्विह वा अगम्यां स्त्रियमगम्यं वा पुरुष योषिदभिगच्छति तावमुत्र कशया ताडयन्तस्तिग्मया सूर्म्यालोहमय्या पुरुषमालिड्डयन्ति स्त्रियं च पुरुषरूपया सूर्म्या ॥

    २०॥

    यः--जो कोई; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; बा--अथवा; अगम्याम्‌--अनुपयुक्त; स्त्रियम्‌--स्त्री को; अगम्यम्‌-- अगम्य;वा--अथवा; पुरुषम्‌-पुरुष को; योषित्‌--स्त्री; अभिगच्छति--संभोग के लिए पास जाते हैं; तौ--वे दोनों; अमुत्र--अगलेजीवन में; कशया--कोड़ों से; ताडयन्त:--पीटते हुए; तिग्मया--अत्यन्त तप्त; सूर्म्या--मूर्ति द्वारा; लोह-मय्या--लोह सेनिर्मित; पुरुषम्‌-पुरुष; आलिड्डयन्ति--आलिंगन करते हैं; स्त्रियम्‌--स्त्री को; च-- भी; पुरुष-रूपया--पुरुष के रूप में;सूर्म्या--मूर्ति द्वारा

    यदि कोई पुरुष या स्त्री विपरीत लिंग वाले अगम्य सदस्य के साथ संभोग करते हैं, तो मृत्युके बाद यमराज के दूत उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में दण्ड देते हैं।

    वहाँ पर ऐसे पुरुष तथा स्त्रियाँकोड़े से पीटे जाते हैं।

    पुरुष को तप्तलोह की बनी स्त्री से और स्त्री को ऐसी ही पुरुष-प्रतिमा सेआलिंगित कराया जाता है।

    व्यभिचार के लिए ऐसा ही दण्ड है।

    यस्त्विह वै सर्वाभिगमस्तममुत्र निरये वर्तमानं वज़कण्टकशाल्मलीमारोप्य निष्कर्षन्ति ॥

    २१॥

    यः--जो कोई; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्सन्देह; सर्व-अभिगम:--विवेकहीन होकर पशुओं तथा मनुष्यों केसाथ मैथुन करता है; तम्‌--उसको; अमुत्र--अगले जन्म में; निरये--नरक में; वर्तमानम्‌--विद्यमान; वज़्कण्टक-शाल्मलीम्‌--वज़ के समान काँटों वाला सेमल वृक्ष पर; आरोप्य--चढ़ाकर; निष्कर्षन्ति--नीचे की ओर खींचते हैं |

    जो व्यक्ति विवेकहीन होकर--यहाँ तक कि पशुओं के साथ भी--व्यभिचार करता है उसेमृत्यु के बाद वज़्कंटकशाल्मली नामक नरक में ले जाया जाता है।

    इस नरक में वज्ञ के समानकठोर काँटों वाला सेमल का वृक्ष है।

    यमराज के दूत पापी पुरुष को इस वृक्ष से लटका देते हैंऔर घसीटकर नीचे की ओर खींचते हैं जिससे काँटों के द्वारा उसका शरीर बुरी तरह चिथड़जाता है।

    ये त्विह वै राजन्या राजपुरुषा वा अपाखण्डा धर्मसेतून्भिन्दन्ति ते सम्परेत्य बैतरण्यां निपतन्तिभिन्नमर्यादास्तस्यां निरयपरिखाभूतायां नद्यां यादोगणैरितस्ततो भक्ष्यमाणा आत्मना नवियुज्यमानाश्चासुभिरुह्ममाना: स्वाघेन कर्मपाकमनुस्मरन्तोविष्मूत्रपूपषशोणितकेशनखास्थिमेदोमांसवसावाहिन्यामुपतप्यन्ते ॥

    २२॥

    ये--जो पुरुष; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्सन्देह; राजन्या:--राज परिवार के सदस्य अथवा क्षत्रिय; राज-पुरुषा:--राज्याधिकारी; वा--अथवा; अपाखण्डा: --यद्यपि श्रेष्ठ कुलों में जन्म लेता है; धर्म-सेतून्‌ू--निर्दिष्ट धार्मिक नियमोंकी मर्यादाएँ; भिन्दन्ति--उल्लंघन करते हैं; ते--वे; सम्परेत्य--मरने के पश्चात्‌; बैतरण्याम्‌--वैतरणी में; निपतन्ति--गिर पड़तेहैं; भिन्न-मर्यादाः--जिन्होंने विधि विधानों को तोड़ दिया है; तस्याम्‌--उसमें; निरय-परिखा-भूतायाम्‌--नरक को घेरने वालीखाई; नद्यामू--नदी में; याद:-गणै:--हिंस्त्र जल-जीवों द्वारा; इतः ततः--इधर-उधर; भक्ष्यमाणा:--खाया जाकर; आत्मना--शरीर से; न--नहीं; वियुज्यमाना:--विलग किया जाकर; च--तथा; असुभि:--प्राणवायु द्वारा; उह्ममाना: --ले जाया जाकर;स्व-अधेन--अपने ही पाप कर्मो के द्वारा; कर्म-पाकम्‌--कुकर्मों का फल; अनुस्मरन्त:--स्मरण करते हुए; विट्‌ू--मल; मूत्र--मूत्र; पूथ--पीब; शोणित--रक्त; केश--बाल; नख--नाखून; अस्थि--हड्डियाँ; मेद: --मज्जा; मांस--मांस; बसा--चर्बी ;वाहिन्यामू--नदी में; उपतप्यन्ते-- सन्तप्त होते रहते हैं

    जो मनुष्य श्रेष्ठ कुल--यथा क्षत्रिय, राज परिवार या अधिकारी वर्ग--में जन्म ले करकेनियत नियमों के पालन की अवहेलना करता है और इस प्रकार से अधम बन जाता है, वह मृत्युके समय वैतरणी नामक नरक की नदी में जा गिरता है।

    यह नदी नरक को घेरने वाली खाईं केसमान है और अत्यन्त हिंस्त्र जलजीवों से पूर्ण है।

    जब पापी मनुष्य को वैतरणी नदी में फेंकाजाता है, तो जल के जीव उसे तुरन्त खाने लगते हैं और पापमय शरीर होने के कारण वह अपनेशरीर को त्याग नहीं पाता।

    वह निरन्तर अपने पापमय कर्मों को स्मरण करता है और मल, मूत्र,पीब, रक्त, केश, नख, हड्डी, मज्जा, मांस तथा चर्बी से भरी हुई उस नदी में अत्यधिक यातनाएँपाता है।

    ये त्विह वै वृषलीपतयो नष्टशौचाचारनियमास्त्यक्तलज्ञा: पशुचर्या चरन्ति ते चापि प्रेत्य'पूयविप्मूत्रएलेष्ममलापूर्णार्णवे निपतन्ति तदेवातिबीभत्सितमएनन्ति ॥

    २३॥

    ये--जो पुरुष; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; बै--निस्सन्देह; वृषली-पतयः--शूद्रों के पति; नष्ट--नष्ट; शौच-आचार-नियमा:--सफाई, अच्छा आचरण और नियमित जीवन; त्यक्त-लज्जा:--लज्जारहित; पशु-चर्यामू--पशुओं का आचरण;चरन्ति--पालन करते हैं; ते--वे; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; प्रेत्य--मरकर; पूय--पीब; विट्‌ू--मल; मूत्र--मूत्र; एलेष्प--इलेष्मा; मला--लार; पूर्ण--भरा हुआ; अर्णवे--समुद्र में; निपतन्ति--गिरते हैं; तत्‌--वह; एव--एकमात्र; अतिबीभत्सितम्‌--अत्यन्त बीभत्स ( घृणित ); अश्नन्ति-- भोजन करते हैं।

    निम्नकुल में जन्मी शूद्र स्त्रियों के निर्लज् पति पशुओं की भाँति रहते हैं, अतः उनमेंआचरण, शुचिता या नियमित जीवन का अभाव रहता है।

    ऐसे व्यक्ति मृत्यु के पश्चात्‌ पूयोदनामक नरक में फेंक दिये जाते हैं जहाँ वे मल, पीब, एलेष्मा, लार तथा ऐसी ही अन्य वस्तुओं सेपूर्ण समुद्र में रखे जाते हैं।

    जो शूद्र अपने को नहीं सुधार पाते वे इस सागर में गिरकर इन घृणितवस्तुओं को खाने के लिए बाध्य किये जाते हैं।

    ये त्विह वै श्वगर्दभपतयो ब्राह्मणादयो मृगया विहारा अतीर्थे च मृगान्निध्नन्ति तानपिसम्परेतॉल्लक्ष्यभूतान्यमपुरुषा इषुभिर्विध्यन्ति ॥

    २४॥

    ये--वे जो; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; बै--या; श्व--कुत्तों; गर्दभ--तथा गधे के; पतय: --स्वामी; ब्राह्मण-आदय: --ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य; मृगया विहाराः:--वन में आखेट करने में रुचि दिखाने वाले; अतीर्थे--बताये हुए से इतर; च-- भी;मृगान्‌ू--पशुओं को; निष्तन्ति--मारते हैं; तान्‌ू--उनको; अपि--निस्सन्देह; सम्परेतान्‌ू--मर कर; लक्ष्य-भूतान्‌ू-- लक्ष्यबनाकर; यम-पुरुषा: --यमराज के दूत; इषुभि:--तीरों द्वारा; विध्यन्ति--बीं धते हैं|

    यदि इस जीवन में उच्च वर्ग का मनुष्य ( ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ) कुत्ते, गधे तथा खच्चरपालता है और उन्हें जंगल में आखेट करने तथा वृथा ही पशुओं को मारने में अत्यधिक रुचिलेता है, तो मृत्यु के पश्चात्‌ वह प्राणरोध नामक नरक में डाला जाता है।

    वहाँ पर यमराज के दूतउसे लक्ष्य बनाकर अपने तीरों से बेध डालते हैं।

    ये त्विह वै दाम्भिका दम्भयज्ञेषु पशून्विशसन्ति तानमुष्मिललोके बैशसे नरके पतितान्निरयपतयोयातयित्वा विशसन्ति ॥

    २५॥

    ये--जो पुरुष; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; बै--निस्सन्देह; दाम्भिका: --सम्पत्ति तथा प्रतिष्ठा से गर्वित; दम्भ-यज्ञेषु--प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए किये गये यज्ञ में; पशूनू--पशुओं को; विशसन्ति--मारते हैं; तान्‌--उनको; अमुष्मिन्‌ लोके--अगलेजगत में; वैशसे--वैशस या विशसन; नरके--नरक में; पतितानू--गिरे हुए; निरय-पतय: --यमराज के दूत; यातयित्वा-- प्रचुरपीड़ा प्रदान करके; विशसन्ति--मार डालते हैं।

    जो व्यक्ति इस जन्म में अपने ऊँचे पद पर गर्व करता है और केवल भौतिक प्रतिष्ठा के लिएपशुओं की बलि चढ़ाता है, उसे मृत्यु के पश्चात्‌ वैशसन नामक नरक में रखा जाता है।

    वहाँ यमके दूत उसे अपार कष्ट देकर अन्त में उसका वध कर देते हैं।

    यस्त्विह वै सवर्णा भार्या द्विजो रेत: पाययति काममोहितस्तं पापकृतममूुत्र रेतःकुल्यायां पातयित्वा रेतःसम्पाययन्ति ॥

    २६॥

    यः--जो कोई; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्सन्देह; सवर्णाम्‌--उसी जाति की; भार्याम्‌--अपनी पत्नी को;द्विज:--उच्च जाति का व्यक्ति ( यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ); रेतः--वीर्य; पाययति--पीने को बाध्य करता है; काम-मोहित:--काम से मोहित; तम्‌--उसको; पाप-कृतम्‌--पाप करते हुए; अमुत्र--अगले जन्म में ; रेत:-कुल्यायाम्‌--वीर्य कीनदी में; पातयित्वा--फेंककर; रेत:--वीर्य ; सम्पाययन्ति--पीने को बाध्य करते हैं।

    यदि कोई मूर्ख द्विज ( ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ) भोगेच्छा से अपनी पत्ती को अपने वशमें रखने के लिए उसे अपना वीर्य पीने को बाध्य करता है, तो मृत्यु के पश्चात्‌ उसे लालाभक्षनरक में रखा जाता है।

    वहाँ उसे वीर्य की नदी में डाल कर वीर्य पीने को विवश किया जाता है।

    ये त्विह वै दस्यवोग्निदा गरदा ग्रामान्सार्थान्वा विलुम्पन्ति राजानो राजभटा वा तांश्वापि हि परेत्ययमदूता वच्जदंष्टा: ध्वान: सप्तशतानि विंशतिश्व सरभसं खादन्ति ॥

    २७॥

    ये--जो व्यक्ति; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्सन्देह; दस्यवः:--चोर तथा डाकू; अग्नि-दाः:--आग लगाने वाले;गरदाः--विष पिलाने वाले; ग्रामान्‌ू--गाँवों को; सार्थान्‌ू--वणिक वर्ग को; वा--अथवा; विलुम्पन्ति--लूटते हैं; राजान:--राजा; राज-भटा:-- अधिकारी जन; वा--अथवा; तान्‌--उनको; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; हि--निश्चय ही; परेत्य--मरनेपर; यमदूता:--यमराज के दूतगण; वज्ज-दंष्टाः--कठोर दाँतों वाले; श्रान:--कुत्ते; सप्त-शतानि--सात सौ; विंशति:ः--बीस;च--और; सरभसम्‌-- भूक्खड़तापूर्वक ; खादन्ति--निगल जाते हैं।

    इस जगत में कुछ लोगों का व्यवसाय ही लूटपाट करना है जो दूसरों के घरों में आग लगातेहैं अथवा उन्हें विष देते हैं।

    यही नहीं, राज्य-अधिकारी कभी-कभी वणिक जनों को आयकरअदा करने पर विवश करके तथा अन्य विधियों से लूटते हैं।

    मृत्यु के पश्चात्‌ ऐसे असुरों कोसारमेयादन नामक नरक में रखा जाता है।

    उस नरक में सात सौ बीस कुत्ते हैं जिनके दाँत वज्के समान कठोर हैं।

    ये कुत्ते यमराज के दूतों के आदेश पर ऐसे पापीजनों को भूके भेड़ियों कीभाँति निगल जाते हैं।

    यस्त्विह वा अनृतं वदति साक्ष्ये द्रव्यविनिमये दाने वा कथज्ञित्स वै प्रेत्य नरके वीचिमत्यध:शिरानिरवकाशे योजनशतोच्छायादिगरिमूर्ध्न: सम्पात्यते यत्र जलमिव स्थलमएमपृष्ठमवभासतेतदवीचिमत्तिलशो विशीर्यमाणशरीरो न प्नियमाण: पुनरारोपितो निपतति, ॥

    २८॥

    यः--जो; तु-- लेकिन; इह--इस जीवन में; वा--अथवा; अनृतम्‌--असत्य, झूठ; वदति--बोलता है; साक्ष्ये--साक्षी देने में;द्र॒व्य-विनिमये--वस्तुओं के आदान-प्रदान में; दाने--दान देने में; वा--अथवा; कथज्ित्‌--किसी प्रकार; सः--वह व्यक्ति;वै--निस्संदेह; प्रेत्मय--मरकर; नरके--नरक में; अवीचिमति--अवीचिमत्‌ नामक ( जिसमें जल नहीं है ); अध:-शिरा: --अधोमुख; निरवकाशे--आधारहीन; योजन-शत--आठ सौ मील की; उच्छायात्‌--ऊँचाई वाला; गिरि--पर्वत की; मूर्ध्न:--चोटी से; सम्पात्यते--फेंक दिया जाता है; यत्र--जहाँ; जलम्‌ इब--जल सहश; स्थलम्‌--स्थल, भूमि; अश्म-पृष्ठम्‌--पथरीलीसतह वाले; अवभासते--प्रतीत होता है; तत्‌ू--वह; अवीचिमत्‌--बिना जल या लहरों वाला; तिलशः--तिल के बीजों सहृशसूक्ष्म खंडों में; विशीर्यमाण--फाड़ा जा करके; शरीर: --देह; न प्रियमाण:--न मरने वाले; पुन:--फिर; आरोपित:--चोटीतक उठा हुआ; निपतति--नीचे गिरती है।

    इस जीवन में जो व्यक्ति किसी की झूठी गवाही देने, व्यापार करते अथवा दान देते समयकिसी भी तरह का झूठ बोलता है, वह मरने पर यमराज के दूतों द्वारा बुरी तरह से प्रताड़ितकिया जाता है।

    ऐसा पापी व्यक्ति आठ सौ मील ऊँचे पर्वत की चोटी से मुँह के बल अवीचिमत्‌नामक नरक में नीचे फेंक दिया जाता है।

    इस नरक का कोई आधार नहीं होता और उस कीपथरीली भूमि जल की लहरों के समान प्रतीत होती है, किन्तु इसमें जल नहीं है; इसलिए इसेअवीचिमत्‌ ( जलरहित ) कहा गया है।

    वहाँ से बारम्बार गिराये जाने से उस पापी व्यक्ति के शरीरके छोटे छोटे टुकड़े हो जाने पर भी प्राण नहीं निकलते और उसे बारम्बार दण्ड सहना पड़ता है।

    यस्त्विह वै विप्रो राजन्यो वैश्यो वा सोमपीथस्तत्कलत्रं वा सुरां ब्रतस्थोपि वा पिबति प्रमादतस्तेषांनिरयं नीतानामुरसि पदाक्रम्यास्थे वह्ििना द्रवमाणं कार्ष्णायसं निषिज्ञन्ति ॥

    २९॥

    यः--जो; तु-- लेकिन; इह--इस जीवन में; बै--निस्सन्देह; विप्र:--विद्वान ब्राह्मण; राजन्य: --क्षत्रिय; वैश्य: -- वैश्य; वा--अथवा; सोम-पीथ:--सोमरस पान करते हैं; तत्‌--उसकी; कलत्रम्‌--स्त्री; वा-- अथवा; सुराम्‌ू--मदिरा; ब्रत-स्थ:--ब्रतरखने वाला; अपि--निश्चय ही; वा--अथवा; पिबति--पीता है; प्रमादतः--मोहवश; तेषाम्‌--उन सबों को; निरयम्‌--नरकतक; नीतानामू--लाया जाकर; उरसि--वक्षस्थल पर; पदा--पैर से; आक्रम्य--प्रहार कर; अस्ये--मुँह में; वह्निना-- अग्नि से;द्रवमाणम्‌--पिघलाया; कार्ष्णायसम्‌ू--लोह; निषिश्जन्ति--उड़ेलते हैं |

    जो ब्राह्मणी या ब्राह्मण मद्यपान करता है उसे यमराज के दूत अयःपान नामक नरक में लेजाते हैं।

    यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य अथवा व्रत धारण करने वाला मोहवश सोमपान करता है, तोवह भी इस नरक में स्थान पाता है।

    अयःपान नरक में यम के दूत उनकी छाती पर चढ़ कर उनकेमुँह के भीतर तप्त पिघला लोहा उड़ेलते हैं।

    अथ च यस्त्विह वा आत्मसम्भावनेन स्वयमधमो जन्मतपोविद्याचारवर्णा श्रमवतो वरीयसो न बहु मन्येतस मृतक एव मृत्वा क्षारकर्दमे निरयेउवाक्शिरा निपातितो दुरन्ता यातना हाशनुते ॥

    ३०॥

    अथ--आगे; च-- भी; यः--जो; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वा--या; आत्म-सम्भावनेन--झूठी प्रतिष्ठा से; स्वयम्‌--स्वयं; अधम:--अत्यन्त नीच; जन्म--जन्म; तप:--तप; विद्या--ज्ञान; आचार--सद-आचरण ; वर्ण-आश्रम-वत:--वर्णा श्रमके नियमों का कठोरता से पालन करते हुए; वरीयस:--अधिक आदरणीय का; न--नहीं; बहु--अधिक; मन्येत--आदर करताहै; सः--वह; मृतक:--मृत शरीर; एव--मात्र; मृत्वा--मरने के बाद; क्षारकर्दमे--क्षारकर्दम नामक; निरये--नरक में;अवाक्‌-शिरा--अधोमुख; निपातित: --गिराया जाकर; दुरन्ता: यातना: --अत्यन्त वेदनामयी स्थिति; हि--निस्सन्देह; अश्नुते--भोगता है।

    जो निम्न जाति में उत्पन्न होकर घृणित होते हुए भी इस जीवन में यह सोच कर झूठा गर्वकरता है कि 'मैं महान्‌ हूँ' और उच्च जन्म, तप, शिक्षा, आचार, जाति अथवा आश्रम में अपनेसे बड़ों का उचित आदर नहीं करता वह इसी जीवन में मृत-तुल्य है और मृत्यु के पश्चात्‌क्षारकर्दम नरक में सिर के बल नीचे गिराया जाता है।

    वहाँ उसे यमदूतों के हाथों से अत्यन्तकठिन यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

    ये त्विह वै पुरुषा: पुरुषमेधेन यजन्ते याश्व स्त्रियो नृपशून्खादन्ति तांश्व ते पशव इव निहता यमसदनेयातयन्तो रक्षोगणा: सौनिका इव स्वधितिनावदायासूक्पिबन्ति नृत्यन्ति च गायन्ति च हृष्यमाणा यथेहपुरुषादा: ॥

    ३१॥

    ये--जो व्यक्ति; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्सन्देह; पुरुषा: --व्यक्ति; पुरुष-मेधेन--नरबलि द्वारा; यजन्ते--आराधना ( देवी काली या भद्गरकाली की ) करते हैं; या:--जो; च--तथा; स्त्रियः--स्त्रियाँ; नू-पशून्‌--बलि चढ़ाये जाने वालेमनुष्य; खादन्ति--खाते हैं; तानू--उनको; च--तथा; ते--वे; पशव: इब--पशुओं के सहृश; निहताः--मारे जाकर; यम-सदने--यमराज के धाम में; यातयन्त:ः--दण्ड देते हुए; रक्ष:-गणा:--राक्षस होकर; सौनिका:--मानने वाले; इब--इहश;स्वधितिना--तलवार से; अवदाय--खण्ड-खण्ड करके; असृक्‌ू--रक्त; पिबन्ति-- पीते हैं; नृत्यन्ति--नाचते हैं; च--तथा;गायन्ति- गाते हैं; च-- भी; हष्यमाणा: -- प्रसन्न होकर; यथा--जिस प्रकार; इह--इस लोक में; पुरुष-अदा: --मनुष्य-भक्षी |

    इस संसार में ऐसे भी पुरुष तथा स्त्रियाँ हैं, जो भेरव या भद्रकाली को नर-बलि चढ़ाकरअपने द्वारा बलि किए गये शिकार का मांस खाते हैं।

    ऐसे यज्ञ करने वालों को मृत्यु के पश्चात्‌यमलोक में ले जाया जाता है जहाँ उनके शिकार ( मारे गये व्यक्ति ) राक्षत का रूप धारणकरके अपनी तेज तलवारों से उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं।

    जिस प्रकार इस लोक में नर-भक्षकों ने नाचते गाते हुए अपने शिकार का रक्तपान किया था उसी तरह उनके शिकार अबअपने वध करने वालों का रक्तपान करके आनन्दित होते हैं।

    ये त्विह वा अनागसोरण्ये ग्रामे वा वैश्रम्भकैरुपसूतानुपवि श्रम्भय्यजिजीविषून्शूलसूत्रादिषूपप्रोतानक्री डनकतया यातयन्ति तेपि च प्रेत्य यमयातनासु शूलादिषु प्रोतात्मानःक्षुत्तृड्भ्यां चाभिहता: कड्डृवटादिभिश्वेतस्ततस्तिग्मतुण्डैराहन्यमाना आत्मशमलं स्मरन्ति ॥

    ३२॥

    ये--जो; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वा--अथवा; अनागसः--निर्दोष; अरण्ये--वन में; ग्रामे--गाँव में; वा-- अथवा;वैश्रम्भकै:-- श्रद्धा के द्वारा; उपसृतान्‌ू--पास लाये जाकर; उपविश्रम्भय्य--विश्वास के साथ प्रेरणा देकर; जिजीविषूनू--जोरक्षित होना चाहते हैं; शूल-सूत्र-आदिषु--बर्छा, धागा आदि पर; उपप्रोतान्‌--लगा हुआ; क्रीडनकतया--गेंद के सहश;यातयन्ति--पीड़ा पहुँचाते हैं; ते--वे पुरुष; अपि--निश्चय ही; च--तथा; प्रेत्य--मरने के पश्चात्‌; यम-यातनासु--यमराज कीयातनाएँ; शूल-आदिषु--बर्छ आदि पर; प्रोत-आत्मान:--जिनके शरीर जड़ दिये गये हैं; क्षुत्‌-तृड्भ्याम्‌-- भूख तथा प्यास से;च--भी; अभिहता:--अभिभूत; कड्ढू-बट-आदिभि:--बगुला तथा गीध जैसे पक्षियों द्वारा; च--तथा; इतः ततः--इधर-उधर;तिग्म-तुण्डै:--तीखी चोंचों वाले; आहन्यमाना: --मारे जाकर; आत्म-शमलम्‌--अपने पापकर्मों को; स्मरन्ति--स्मरण करतेहैं।

    इस जीवन में कुछ व्यक्ति गाँव या वन में रक्षा के लिए आये हुए पशुओं तथा पक्षियों कोशरण देते हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा का विश्वास हो जाने के बाद उन्हें बर्छ या डोरे में फाँस करघोर पीड़ा पहुँचाकर उनसे खिलौने जैसा खेलते हैं।

    ऐसे व्यक्ति मृत्यु के पश्चात्‌ यमराज के दूतोंद्वारा शूलप्रोत नामक नरक में ले जाये जाते हैं जहाँ उनके शरीरों को तीक्ष्ण नुकीले भालों सेछेदा जाता है।

    वे भूख तथा प्यास से तड़पते रहते हैं और उनके शरीरों को गीध तथा बगुले जैसेतीक्ष्ण चोंच वाले पक्षी चारों ओर से नोंचते हैं।

    इस प्रकार से यातना पाकर उन्हें पूर्वजन्म में कियेगये पाप-कर्मों का स्मरण होता है।

    ये त्विह वै भूतान्युद्रेजयन्ति नरा उल्बणस्वभावा यथा दन्दशूकास्तेपि प्रेत्य नरके दन्दशूकाख्ये निपतन्तियत्र नूप दन्‍्दशूकाः पञ्ञमुखा: सप्तमुखा उपसूत्य ग्रसन्‍्ति यथा बिलेशयान्‌, ॥

    ३३॥

    ये--जो; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वै--निस्सन्देह; भूतानि--जीवात्माओं को; उद्देजयन्ति--वृथा ही पीड़ा पहुँचाते हैं;नराः--मनुष्य; उल्बण-स्वभावा: -- स्वभाव से क्रोधी; यथा--जिस प्रकार; दन्दशूका: --सर्प; ते--वे; अपि-- भी; प्रेत्य-- मरनेके बाद; नरके--नरक में; दन्‍्दशूक-आख्ये--दन्दशूक नामक; निपतन्ति--गिरते हैं; यत्र--जहाँ; नृप--हे राजन; दन्दशूका:--सर्प; पश्च-मुखा:--पाँच फणों वाले; सप्त-मुखा:--सात फण वाले; उपसृत्य--ऊपर पहुँच कर; ग्रसन्ति--खा जाते हैं; यथा--जिस तरह; बिलेशयान्‌--चूहों को

    जो व्यक्ति इस जीवन में ईर्ष्यालु सर्पों के समान क्रोधी स्वभाव वाले अन्य जीवों को पीड़ापहुँचाते हैं, वे मृत्यु के पश्चात्‌ दन्दशूक नामक नरक में गिरते हैं।

    हे राजन, इस नरक में पाँच यासात फण वाले सर्प हैं, जो इन पापात्माओं को उसी प्रकार खा जाते हैं जिस प्रकार चूहों को सर्पखाते हैं।

    ये त्विह वा अन्धावटकुसूलगुहादिषु भूतानि निरुन्धन्ति तथामुत्र तेष्वेबोपवेश्य सगरेण वह्विना धूमेननिरुन्धन्ति ॥

    ३४॥

    ये--जो पुरुष; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वा--अथवा; अन्ध-अवट--अंधकूप; कुसूल--अन्न भण्डार, खत्ती; गुह-आदिषु--तथा गुफाओं आदि में; भूतानि--जीवात्माओं को; निरुन्‍्धन्ति--रोके रखते हैं, बन्दी बनाए रखते हैं; तथा--उसीप्रकार; अमुत्र--अगले जीवन में; तेषु--उन-उन स्थानों में; एब--निश्चय ही; उपवेश्य--घुसाकर; सगरेण--विषाक्त धुएँ से;वहिना--अग्नि से; धूमेन-- धुआँ से; निरुन्धन्ति-- बन्दी बनाए रखते हैं।

    जो व्यक्ति इस जीवन में अन्य जीवों को अन्धे कुएँ, खत्ती या पर्वत की गुफाओं में बन्दीबनाकर रखते हैं, वे मृत्यु के पश्चात्‌ अवट-निरोधन नामक नरक में रखे जाते हैं।

    वहाँ वे स्वयंअंधे कुओं में धकेल दिये जाते हैं, जहाँ विषैले धुएँ से उनका दम घुटता है और वे घोर यातनाएँउठाते हैं।

    यस्त्विह वा अतिथीनभ्यागतान्वा गृहपतिरसकृदुपगतमन्युर्दिधक्षुरिव पापेन चश्लुषा निरीक्षते तस्य चापिनिरये पापदृष्टेक्षिणी वज्तुण्डा गृश्रा: कड्डकाकवटादय: प्रसहोरुबलादुत्पाटयन्ति ॥

    ३५॥

    यः--जो व्यक्ति; तु--लेकिन; इह--इस जीवन में; वा--अथवा; अतिथीन्‌--अतिथियों को; अभ्यागतान्‌ू--अभ्यागतों ( आनेवालों ) को; वा--अथवा; गृह-पति: --गृहस्थ; असकृत्‌--अनेक बार; उपगत--प्राप्त करके; मन्यु:--क्रोध; दिधश्षु:--जलानेका इच्छुक; इब--सहश; पापेन--पापपूर्ण ; चक्षुषा--नेत्रों द्वारा; निरीक्षते--दृष्टि डालता है; तस्य--उसका; च--तथा; अपि--निश्चय ही; निरये-- नरक में; पाप-दृष्टे:--पापपूर्ण दृष्टि वाले की; अक्षिणी--आँखें, नेत्र; वज़-तुण्डा:--वज़ के समान बलिष्ठचोंच वाले; गृश्षा:--गीध; कड्ढ--कंक ( बगुले )।

    काक--कौवे; बट-आदय:--तथा अन्य पक्षी; प्रसह्या--आक्रामक रूप से;उरू-बलातू--अत्यन्त बलपूर्वक; उत्पाटयन्ति--बाहर निकाल लेते हैं जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथियों अथवा अभ्यागतों को क्रोध भरी कुटिल दृष्टि से देखताहै मानो उन्हें भस्म कर देगा, उसे पर्यावर्तन नामक नरक में ले जाकर रखा जाता है जहाँ उसे वज्जश़ जैसी चोंच वाले गीध, बगुले, कौवे तथा इसी प्रकार के अन्य पक्षी घूरते हैं और सहसा झपट करतेजी से उनकी आँखें निकाल लेते हैं।

    यस्त्विह वा आढ्याभिमतिरहड्डू तिस्तिर्यक्प्रेक्षण: सर्वतोभिविशट्ढ़ी अर्थव्ययनाशचिन्तयापरिशुष्यमाणहदयवदनो निर्वृतिमनवगतो ग्रह इवार्थमभिरक्षति स चापि प्रेत्यतदुत्पादनोत्कर्षणसंरक्षणशमलग्रह: सूचीमुखे नरके निपतति यत्र ह वित्तग्रह॑ पापपुरुषं धर्मराजपुरुषावायका इव सर्वतो उड्लेषु सूत्रै: परिवयन्ति, ॥

    ३६॥

    यः--जो व्यक्ति; तु--लेकिन; इह--इस लोक में; वा--अथवा; आढ्य-अभिमतिः --सम्पत्ति के कारण गर्वीला; अहड्डू तिः --अभिमानी; तिर्यक्‌-प्रेक्षण:--कुटिल दृष्टि वाला; सर्वतः अभिविशड्डी--सदैव अन्यों के द्वारा, यहाँ तक कि अपने से श्रेष्ठ जनोंद्वारा भी, ठगे जाने से सशंकित; अर्थ-व्यय-नाश-चिन्तया--व्यय तथा क्षति के विचार के कारण; परिशुष्यमाण --सूख गया हैजो; हृदय-वदन:--जिसका हृदय तथा मुख; निर्वृतिम्‌--प्रसन्नता; अनवगत: --न प्राप्त करके; ग्रह:-- भूत; इब--सहश;अर्थम्‌--सम्पत्ति; अभिरक्षति-- रखवाली करता है; सः--वह; च-- भी; अपि--निस्सन्देह; प्रेत्य--मरने के बाद; तत्‌ू--उस धनका; उत्पादन--आय का; उत्कर्षण--वृद्धि; संरक्षण--सुरक्षा; शमल-ग्रह:--पाप-कर्मों को स्वीकार करता हुआ; सूचीमुखे --सूचीमुख नामक; नरके--नरक में; निपतति--गिर जाता है; यत्र--जहाँ; ह--निस्संदेह; वित्त-ग्रहम्‌ू-- धन हरने वाले भूत कीतरह; पाप-पुरुषम्‌--अत्यन्त पापी मनुष्य को; धर्मराज-पुरुषा:--धर्मराज के दूत; वायका: इब--चतुर दर्जियों की भाँति;सर्वतः--सर्वत्र; अड्जेषु--शरीर के अंगों पर; सूत्रैः -- धागे के द्वारा; परिवयन्ति--सिलते हैं ।

    जो व्यक्ति इस लोक में अथवा इस जीवन में अपनी सम्पत्ति पर अभिमान करता है, वहसदैव सोचता रहता है कि वह कितना धनी है और कोई उसकी बराबरी कर सकता है क्‍या?उसकी नजर टेढ़ी हो जाती है और वह सदैव भयभीत रहता है कि कोई उसकी सम्पत्ति ले न ले।

    वह अपने से बड़े लोगों पर आशंका करता है।

    अपनी सम्पत्ति की हानि के विचार मात्र से उसकामुख तथा हृदय सूखने लगते हैं, अत: वह सदैव अति अभागे दुष्ट मनुष्य की तरह लगता है।

    उसेवास्तविक सुख-लाभ नहीं हो पाता और वह यह नहीं जानता कि चिन्तामुक्त जीवन कैसा होताहै।

    धन अर्जित करने, उसको बढ़ाने तथा उसकी रक्षा के लिए वह जो पापकर्म करता है उसकेकारण उसे सूचीमुख नामक नरक में रखा जाता है जहाँ यमराज के दूत उसके सारे शरीर को दर्जियों की तरह धागे से सिल देते हैं।

    एवंविधा नरका यमालये सन्ति शतशः सहस्त्रशस्तेषु सर्वेषु च सर्व एवाधर्मवर्तिनो ये केचिदिहोदिताअनुदिताश्चावनिपते पर्यायेण विशन्ति तथैव धर्मानुवर्तिन इतरत्र इह तु पुनर्भवे त उभयशेषाभ्यांनिविशन्ति ॥

    ३७॥

    एवमू-विधा: --इस प्रकार के; नरका:--अनेक नरक; यम-आलये---यमराज के लोक में; सन्ति--हैं; शतशः--सैकड़ों;सहस्त्रश:--हजारों; तेषु--उन लोकों में; सर्वेषु--सबों में; च-- भी; सर्वे--सभी; एव--निस्संदेह; अधर्म-वर्तिन:--पुरुष जोवैदिक नियमों या विधि-विधानों का पालन नहीं करते; ये केचित्‌ू--जो भी; इह--यहाँ; उदिता:--वर्णित; अनुदिता:--जिनकावर्णन नहीं हुआ है; च--तथा; अवनि-पते--हे राजन्‌; पर्यायेण--विभिन्न प्रकार पापकर्मों के अनुसार; विशन्ति-- प्रवेश करतेहैं; तथा एव--उसी प्रकार; धर्म-अनुवर्तिन:--जो पवित्र हैं और वैदिक आदेशों के अनुसार कार्य करते हैं; इतरत्र--अन्यत्र;इह--इस लोक में; तु--लेकिन; पुनः-भवे--दूसरे जन्म में; ते--वे सब; उभय-शेषाभ्याम्‌-पुण्यों अथवा पापों के फल केशेष भाग से; निविशन्ति-- प्रवेश करते हैं|

    हे राजनू, यमलोक में इसी प्रकार के सैकड़ों-हजारों नरक हैं।

    मैने जिन पापी मनुष्यों कावर्णन किया है--और जिनका वहाँपर उल्लेख नहीं हुआ--वे सब अपने पापों की कोटि केअनुसार इन विभिन्न नरकों में प्रवेश करेंगे।

    किन्तु जो पुण्यात्मा हैं, वे अन्य लोकों में, अर्थात्‌देवताओं के लोकों में जाते हैं।

    तो भी, अपने पुण्य-पाप के फलों के क्षय होने पर पुण्यात्मा तथापापी दोनों ही पुनः पृथ्वी पर लौट आते हैं।

    निवृत्तिलक्षणमार्ग आदावेव व्याख्यात:; एतावानेवाण्डकोशो यश्चतुर्दशधा पुराणेषु विकल्पित उपगीयतेयत्तद्धगवतो नारायणस्य साक्षान्महापुरुषस्य स्थविष्ठ रूपमात्ममायागुणमयमनुवर्णितमाहतः पठतिश्रुणोति श्राववति स उपगेयं भगवत: परमात्मनोग्राह्ममपि श्रद्धाभक्तिविशुद्धबुद्धिवेद ॥

    ३८॥

    निवृत्ति-लक्षण-मार्ग:--त्याग अथवा मुक्ति का मार्ग; आदौ-प्रारम्भ में ( द्वितीय तथा तृतीय स्कन्धों में )।

    एब--निस्संदेह;व्याख्यात:--कहा जा चुका है; एतावान्‌ू--यह सब; एव--निश्चय ही; अण्ड-कोश:--यह ब्रह्माण्ड जो एक बृहद्‌ अंडे के सहशहै; यः--जो; चतुर्दश-धा--चौदह खण्डों में; पुराणेषु--पुराणों में; विकल्पित:--विभक्त; उपगीयते--वर्णित; यत्‌--जो;तत्‌--वह; भगवतः-- श्रीभगवान्‌ का; नारायणस्थ--नारायण का; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; महा-पुरुषस्थ--परम पुरुष का;स्थविष्ठम्‌--स्थूल; रूपम्‌--रूप; आत्म-माया--अपनी शक्ति का; गुण--गुणों का; मयम्‌--युक्त; अनुवर्णितम्‌-- वर्णित;आहतः--आदरपूर्वक; पठति--पढ़ता है; श्रेणोति--अथवा सुनता है; श्राववति--अथवा व्याख्या करता है; सः--वह पुरुष;उपगेयम्‌--गीत; भगवतः -- श्री भगवान्‌ का; परमात्मन:--परमात्मा का; अग्राह्ममू--जिसका समझ पाना कठिन है; अपि--यद्यपि; श्रद्धा-- श्रद्धा; भक्ति--तथा भक्ति से; विशुद्ध-शुद्ध; बुद्धिः--जिसकी बुद्धि; वेद--जानती है

    प्रारम्भ में ( द्वितीय तथा तृतीय स्कंन्ध में ) मैं यह बता चुका हूँ कि मुक्तिमार्ग पर किस प्रकारअग्रसर हुआ जा सकता है।

    पुराणों में चौदह खण्डों में विभक्त अंड सहश विशाल ब्रह्माण्ड कीस्थिति का वर्णन किया गया है।

    यह विराट रूप भगवान्‌ का बाह्य शरीर माना जाता है, जिसकीउत्पत्ति उनकी शक्ति और गुणों से हुई है।

    इसे ही सामान्यतः विराट रूप कहते हैं।

    यदि कोईश्रद्धा सहित भगवान्‌ के इस बाह्य रूप का वर्णन पढ़ता है, अथवा इसके विषय में सुनता याफिर अन्यों को भागवत धर्म अथवा कृष्णभावनामृत समझाता है, तो आत्म-चेतना अथवाकृष्णभावनामृत में उनकी श्रद्धा तथा भक्ति क्रमशः बढ़ती जाती है।

    यद्यपि इस भावना कोविकसित कर पाना कठिन है, किन्तु इस विधि से मनुष्य अपने को शुद्ध कर सकता है और धीरे-धीरे परम सत्य को जान सकता है।

    रुत्वा स्थूलं तथा सूक्ष्मं रूप॑ भगवतो यतिः ।

    स्थूले निर्जितमात्मानं शनैः सूक्ष्मं धिया नयेदिति ॥

    ३९॥

    श्रुत्वा--सुनकरए गुरु-परम्परा से ); स्थूलम्‌--स्थूल; तथा-- और ; सूक्ष्मम्‌--सूक्ष्म; रूपम्‌ू--रूप; भगवत:-- श्रीभगवान्‌ का;यतिः--संन्यासी या भक्त; स्थूले--स्थूल रूप; निर्जितम्‌ू--विजित; आत्मानम्‌--मन को; शनै: --धीरे-धीरे; सूक्ष्ममू-- भगवान्‌के सूक्ष्म रूप में; धिया--बुद्धि से; नयेत्‌--ले जाना चाहिए; इति--इस प्रकार।

    जो मुक्ति का इच्छुक है, मुक्ति के पथ को ग्रहण करता है तथा बद्ध जीवन के प्रति आकृष्टनहीं होता, वह यती या भक्त कहलाता है।

    ऐसे पुरुष को पहले भगवान्‌ के स्थूल विराट रूप काचिन्तन करते हुए मन को वश में करना चाहिए और तब धीरे-धीरे श्रीकृष्ण के दिव्य रूप ( सत्‌-चित्‌-आनन्द-विग्रह ) का चिन्तन करना चाहिए।

    इस प्रकार उसका मन समाधि में स्थिर हो जाताहै।

    भक्ति के द्वारा भगवान्‌ के सूक्ष्म रूप का साक्षात्कार किया जा सकता है और यही भक्तों कागन्तव्य है।

    इस प्रकार उसका जीवन सफल बन जाता है।

    भूद्वीपवर्षसरिदद्विनभःसमुद्र -पातालदिड्नरकभागणलोकसंस्था ।

    गीता मया तव नृपाद्भुतमी श्वरस्यस्थूलं वपु: सकलजीवनिकायधाम ॥

    ४०॥

    भू--पृथ्वीलोक ; द्वीप--तथा अन्य लोक; वर्ष--भूभाग; सरित्‌--नदियाँ; अद्वि--पर्वत; नभ:--आकाश; समुद्र--सागर;पाताल--नीचे के लोक; दिक्‌ू--दिशाएँ; नरक--समस्त नरक लोक; भागण-लोक--नक्षत्र तथा उच्चतर लोक; संस्था--स्थिति; गीता--वर्णित; मया--मेरे द्वारा; तब--तुम्हारे लिए; नृप--हे राजन्‌; अद्भुतम्‌--विचित्र; ईश्वरस्थ-- श्रीभगवान्‌ का;स्थूलम्‌--स्थूल; वपु:--शरीर; सकल-जीव-निकाय--समस्त जीव समुदायों का; धाम--आवास |

    हे राजन, अभी मैंने तुमसे इस पृथ्वीलोक, अन्य लोक, उनके वर्ष, नदी एवं पर्वत का वर्णनकिया है।

    मैंने आकाश, समुद्र, अधोलोक, दिशाएँ, नरक, ग्रह तथा नक्षत्रों का भी वर्णन कियाहै।

    ये भगवान्‌ के विराट रूप के अवयव हैं, जिन पर समस्त जीवात्माएँ आश्रित हैं।

    इस प्रकार मैंने भगवान्‌ के बाह्य शरीर के अद्भुत विस्तार की व्याख्या की है।

    TO