श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 4
अध्याय एक: मनु की पुत्रियों की वंशावली तालिका
4.1मैत्रेय उवाचमनोस्तु शतरूपायां तिस्त्र: कन्याश्व जज्ञिरे।आकूतिर्देवहूतिश्व प्रसूतिरिति विश्रुता: ॥ १॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; मनो: तु--स्वायंभुव मनु का; शतरूपायाम्--उसकी पत्नी शतरूपा से; तिस्त्र:--तीन;कन्या: च--कन्याएँ भी; जज्ञिरि--जन्म लिया; आकूृतिः:--आकूति नामक; देवहूति:--देवहूति नामक; च--तथा:; प्रसूति:--प्रसूति नामक; इति--इस प्रकार; विश्रुता:--विख्यात |
श्रीमैत्रेय ने कहा : स्वायंभुव मनु की पत्नी शतरूपा से तीन कन्याएँ उत्पन्न हुईं जिनके नामआकृति, देवहूति तथा प्रसूति थे।"
आकृतिं रुचये प्रादादपि भ्रातृमतीं नृप: ।पुत्रिकाधर्ममाश्रित्य शतरूपानुमोदित: ॥
२॥
आकृतिम्--आकूति; रुचये--परम साधु रुचि को; प्रादात्--प्रदान किया; अपि--यद्यपि; भ्रातृ-मतीम्-- भाई वाली कन्या;नृप:--राजा; पुत्रिका--पुत्री से प्राप्त पुत्र को ग्रहण करना; धर्मम्--धार्मिक कृत्य; आश्रित्य--शरण में जाकर; शतरूपा--स्वायंभुव मनु की पत्नी के द्वारा; अनुमोदित:--स्वीकृत
आकृति के दो भाई थे तो भी राजा स्वायंभुव मनु ने इसे प्रजापति रुचि को इस शर्त परब्याहा था कि उससे, जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मनु को पुत्र रूप में लौटा दिया जाएगा। उसनेअपनी पत्नी शतरूपा के परामर्श से ऐसा किया था।"
प्रजापति: स भगवान्रुचिस्तस्यथामजीजनत् ।मिथुनं ब्रह्मवर्चस्वी परमेण समाधिना ॥
३॥
प्रजापति:--जिसे संतान उत्पन्न करने का भार सौंपा गया हो; सः--वह; भगवान्--परम ऐश्वर्यशाली; रुचि: --परम साधु रुचि;तस्याम्--उससे; अजीजनतू--उत्पन्न हुआ; मिथुनम्--जोड़ी, युग्म; ब्रह्म-वर्चस्वी --आध्यात्मिक रूप से अत्यन्त शक्तिमान;'परमेण--परम बलशाली; समाधिना--समाधि में
अपने ब्रह्मज्ञान में परम शक्तिशाली एवं जीवात्माओं के जनक के रूप में नियुक्त( प्रजापति ) रुचि को उनकी पत्नी आकूति के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुए।"
यस्तयो: पुरुष: साक्षाद्विष्णुर्यज्ञस्वरूपधृक् ।या स्त्री सा दक्षिणा भूतेरेश भूतानपायिनी ॥
४॥
यः--जो; तयो:--उन दोनों में से; पुरुष: --नर; साक्षात्- प्रत्यक्ष; विष्णु; --परमे श्वर; यज्ञ--यज्ञ; स्वरूप-धृक्ू -- स्वरूप धारणकिये हुए; या--दूसरी; स्त्री--स्त्री; सा--वह; दक्षिणा--दक्षिणा; भूतेः--सम्पत्ति की देवी का; अंश-भूता--भिन्नांश होने से;अनपायिनी--कभी न पृथक् होने वाली |
आकृति से उत्पन्न दोनों सन््तानों में से एक अर्थात् बालक तो प्रत्यक्ष पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्का अवतार था और उसका नाम था यज्ञ, जो भगवान् विष्णु का ही दूसरा नाम है। बालिकासम्पत्ति की देवी भगवान् विष्णु की प्रिया शाश्वत लक्ष्मी की अंश अवतार थी।"
आनिन्ये स्वगृहं पुत्र्या: पुत्रं विततरोचिषम् ।स्वायम्भुवो मुदा युक्तो रुचिर्जग्राह दक्षिणाम् ॥
५॥
आनिन्ये--ले आये; स्व-गृहम्-- अपने घर; पुत्रया:--पुत्री से उत्पन्न; पुत्रम्--पुत्र; वितत-रोचिषम्-- अत्यन्त शक्तिमान;स्वायम्भुव:--स्वायंभुव मनु; मुदा--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; युक्त:--साथ; रुचि:--परम साधु रुचि; जग्राह--रखा;दक्षिणाम्-दक्षिणा नामक पुत्री को |
स्वायंभुव मनु परम प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ नामक सुन्दर बालक को अपने घर ले आये औरउनके जामाता रुचि ने पुत्री दक्षिणा को अपने पास रखा।"
तां कामयानां भगवानुवाह यजुषां पति: ।तुष्टायां तोषमापन्नोजनयद्दवादशात्मजान् ॥
६॥
तामू--उसको; कामयानाम्-इच्छुक; भगवान्-- भगवान् ने; उबाह--विवाह कर लिया; यजुषाम्-- समस्त यज्ञों के; पति:--स्वामी; तुष्टायाम्-- अपनी पत्ली में अत्यन्त प्रसन्न; तोषम्--अत्यधिक प्रसन्नता; आपन्न: --प्राप्त करके; अजनयतू--जन्म दिया;द्वादश--बारह; आत्मजान्--पुत्रों को |
यज्ञों के स्वामी भगवान् ने बाद में दक्षिणा के साथ विवाह कर लिया, जो पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्, को अपने पति रूप में प्राप्त करने के लिए परम इच्छुक थी। उनकी इस पत्नी से उन्हेंबारह पुत्र प्राप्त हुए।"
तोष:ः प्रतोष: सन्तोषो भद्ग: शान्तिरिडस्पति: ।इध्मः कविर्विभु: स्वह्नः सुदेवो रोचनो द्विषट् ॥
७॥
तोष:--तोष; प्रतोष:--प्रतोष; सन््तोष:--संतोष; भद्ग:-- भद्ग; शान्तिः--शान्ति; इडस्पति:--इडस्पति; इध्म:--इध्म; कवि:--कवि; विभु:--विभु; स्वह्ृतः--स्वह्त; सुदेव:--सुदेव; रोचन: --रोचन; द्वि-घट्ू--बारह।यज्ञ तथा दक्षिणा के बारह पुत्रों के नाम थे--तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति,इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव तथा रोचन।"
तुषिता नाम ते देवा आसन्स्वायम्भुवान्तरे ।मरीचिमिश्रा ऋषयो यज्ञ: सुरगणे श्वर: ॥
८॥
तुषिता:--तुषितों की कोटि; नाम--नाम वाले; ते--सभी; देवा:--देवता; आसन्--हुए; स्वायम्भुव--मनु का नाम; अन्तरे--उस काल में; मरीचि-मिश्रा:--मरीचि इत्यादि; ऋषय:--ऋषिगण, साधुगण; यज्ञ:--भगवान् विष्णु का अवतार; सुर-गण-ईंश्वरः--देवताओं के राजा।
स्वायंभुव मनु के काल में ही ये सभी पुत्र देवता हो गये जिन्हें संयुक्त रूप में तुषित कहाजाता है।
मरीचि सप्तर्षियों के प्रधान बन गये और यज्ञ देवताओं के राजा इन्द्र बन गये।
"
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुपुत्रो महौजसौ ।
तत्पुत्रपौत्रनप्तृणामनुवृत्तं तदन्तरम् ॥
९॥
प्रियत्रत--प्रियव्रत; उत्तानपादौ--उत्तानपाद; मनु-पुत्रौ--मनु के दो पुत्र; महा-ओजसौ--महान् ओजस्वी, शक्तिशाली; ततू--उनके; पुत्र--पुत्र; पौत्र--पोता; नप्तृणाम्--नाती; अनुवृत्तम्ू-- अनुगमन करते हुए; तत्-अन्तरम्--उस मनु-काल ( मन्व॒तर )में
स्वायंभुव मनु के दोनों पुत्र, प्रियत्रत तथा उत्तानपाद अत्यन्त शक्तिशाली राजा हुए औरउनके पुत्र तथा पौत्र उस काल में तीनों लोकों में फैल गये।
"
देवहूतिमदात्तात कर्दमायात्मजां मनु: ।
तत्सम्बन्धि श्रुतप्रायं भवता गदतो मम ॥
१०॥
देवहूतिम्-देवहूति; अदात्--प्रदान की गई; तात-हे प्रिय पुत्र; कर्दमाय--कर्दम मुनि को; आत्मजाम्--कन्या; मनु:--स्वायंभुव मनु; तत्-सम्बन्धि--उस सम्बन्ध में; श्रुत-प्रायम्--प्रायः पूरी तरह सुना गया; भवता--तुम्हारे द्वारा; गदत:ः--कहागया; मम--मेरे द्वारा
हे पुत्र स्वायंभुव मनु ने अपनी परम प्रिय कन्या देवहूति को कर्दम मुनि को प्रदान किया।
मैंइनके सम्बन्ध में तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ और तुम उनके विषय में प्रायः पूरी तरह सुन चुकेहो।
"
दक्षाय ब्रह्मपुत्राय प्रसूति भगवान्मनु: ।
प्रायच्छद्यत्कृत: सर्गस्त्रिलोक्यां विततो महान् ॥
११॥
दक्षाय--प्रजापति दक्ष को; ब्रह्म-पुत्राय--ब्रह्मा के पुत्र; प्रसूतिम्ू--प्रसूति को; भगवान्--महापुरुष; मनु:--स्वायंभुव मनु;प्रायच्छत्-- प्रदान किया; यत्-कृत:ः--जिनके द्वारा रचित; सर्ग:--सृष्टि; त्रि-लोक्याम्--तीनो लोकों में; विततः--विस्तारकिया हुआ; महान्--अत्यधिक ।
स्वायंभुव मनु ने प्रसूति नामक अपनी कन्या ब्रह्मा के पुत्र दक्ष को दे दी, जो प्रजापतियों मेंसे एक थे।
दक्ष के वंशज तीनों लोकों में फैले हुए हैं।
"
या: कर्दमसुताः प्रोक्ता नव ब्रह्मर्षिपलय: ।
तासां प्रसूतिप्रसवं प्रोच्यमानं निबोध मे ॥
१२॥
या:--जो; कर्दम-सुता:--कर्दम की कन्याएँ; प्रोक्ताः:--उल्लेख किया गया; नव--नौ; ब्रह्मय-ऋषि-- आध्यात्मिक ज्ञान वालेऋषियों की; पत्तय:--पत्नियाँ; तासामू--उनकी; प्रसूति-प्रसवम्--पुत्रों तथा पौत्रों की पीढ़ियाँ; प्रोच्यमानम्--वर्णित होकर;निबोध--समझने का प्रयत्न करो; मे--मुझसे |
मैं तुम्हें कर्दम मुनि की नवों कन्याओं के विषय में पहले ही बतला चुका हूँ कि वे नौविभिन्न ऋषियों को सौंप दी गई थीं।
अब मैं इन नवों कन्याओं की सनन्तानों का वर्णन करूँगा।
तुम मुझसे उनके विषय में सुनो।
"
पत्नी मरीचेस्तु कला सुषुवे कर्दमात्मजा ।
कश्यपं पूर्णिमानं च ययोरापूरितं जगत् ॥
१३॥
पतली--पत्ली; मरीचे:--मरीचि नामक साधु से की; तु-- भी; कला--कला नाम की; सुषुबे--जन्म दिया; कर्दम-आत्मजा--कर्दम मुनि की कन्या; कश्यपम्--कश्यप नाम का; पूर्णिमानम् च--तथा पूर्णिमा नाम की; ययो:--जिनसे; आपूरितम्-- भरगये, सर्वत्र फैल गये; जगत्--संसार।
कर्दम मुनि की पुत्री कला का ब्याह मरीचि से हुआ जिससे दो सन््तानें हुईं जिनके नाम थेकश्यप तथा पूर्णिमा।
इनकी सनन््तानें सारे विश्व में फैल गईं।
"
पूर्णिमासूत विरजं विश्वगं च परन्तप ।
देवकुल्यां हरे: पादशौचाद्याभूत्सरिद्दिव: ॥
१४॥
पूर्णिमा--पूर्णिमा ने; असूत--उत्पन्न किया; विरजम्--विरज नामक पुत्र; विश्वगम् च--तथा विश्वग नामक; परम्-तप--शत्रुओंका संहार करने वाले; देवकुल्याम्ू-देवकुल्या नामक पुत्री; हरेः-- श्री भगवान् के; पाद-शौचात्--चरणकमल को धोने वालेजल से; या--वह; अभूत्--हुईं; सरित् दिव:ः--गंगा के तटों के अन्तर्गत दिव्य जल।
हे विदुर, कश्यप तथा पूर्णिमा नामक दो सन्तानों में से पूर्णिमा के तीन सन््तानें उत्पन्न हुईंजिनके नाम विरज, विश्वग तथा देवकुल्या थे।
इन तीनों में से देवकुल्या श्रीभगवान् केचरणकमल को धोने वाला जल थी, जो बाद में स्वर्गलोक की गंगा में बदल गई।
"
अत्रे: पत्यनसूया त्रीज्ञज्ञे सुयशसः सुतान् ।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मसम्भवान् ॥
१५॥
अत्रे:--अत्रि मुनि की; पत्ती--पत्ली; अनसूया--अनुसूया ने; त्रीन्ू-- तीन; जज्ञे--उत्पन्न किया; सु-यशसः--अत्यन्त प्रसिद्ध;सुतान्--पुत्रों को; दत्तम्-दत्तात्रेय; दुर्वाससम्-दुर्वासा; सोमम्--सोम ( चन्द्रदेव ); आत्म--परमात्मा; ईश--शिवजी;ब्रह्म--ब्रह्माजी; सम्भवान्ू--के अवतार।
अत्रि मुनि की पत्नी अनसूया ने तीन सुप्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न किये।
ये हैं--सोम, दत्तात्रेय तथादुर्वासा, जो भगवान् ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के अंशावतार थे।
सोम ब्रह्मा के, दत्तात्रेय भगवान्विष्णु के तथा दुर्वासा शिवजी के अंश प्रतिनिधिस्वरूप थे।
"
विदुर उवाचअत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठा: स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
किश्ञिच्चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि मे गुरो ॥
१६॥
विदुरः उवाच-- श्रीविदुर ने कहा; अत्रे: गृहे--अत्रि के घर में; सुर-श्रेष्ठा:--प्रमुख देवता; स्थिति--पालन; उत्पत्ति--सृष्टि;अन्त--संहार; हेतव:ः --कारण; किश्ञित्--कुछ; चिकीर्षव:--करने के इच्छुक; जाता:--प्रकट हुए; एतत्--यह; आख्याहि--कहो, बताओ; मे--मुझको; गुरो--मेरे गुरु !
यह सुनकर विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे गुरु, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जो सम्पूर्ण सृष्टि केस्त्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं, अत्रि मुनि की पत्नी से किस प्रकार उत्पन्न हुए ?"
मैत्रेय उवाचब्रह्मणा चोदित: सृष्टावत्रिब्रह्मविदां वर: ।
सह पत्या ययावृक्ष॑ं कुलादिं तपसि स्थित: ॥
१७॥
मैत्रेय:ः उवाच-- श्रीमैत्रेय ऋषि ने कहा; ब्रह्मणा-- भगवान् ब्रह्मा द्वारा; चोदित:--प्रेरित होकर; सृष्टौ--सृष्टि हेतु; अत्रिः:--अत्रि;ब्रह्म-विदाम्--आध्यात्मिक ज्ञान में पारंगत पुरुषों के; वर:-- श्रेष्ठ, मुख्य; सह--साथ; पत्या--पत्नी के; ययौ--गया;ऋक्षम्--ऋक्ष पर्वत; कुल-अद्विम्ू--विशाल पर्वत; तपसि--तपस्या हेतु; स्थित:--रहा
मैत्रेय ने कहा : अनसूया से विवाह कर लेने के बाद जब अत्रि मुनि को ब्रह्मा ने वंश चलानेके लिए आदेश दिया तो वे अपनी पत्नी के साथ कठोर तपस्या करने के लिए ऋक्ष नामक पर्वतकी घाटी में गये।
"
तस्मिन्प्रसूस्तबकपलाशाशोककानने ।
वार्भि: स्त्रवद्धिरुद्धुष्टे निर्विन्ध्याया: समन््ततः ॥
१८॥
तस्मिन्--उसमें; प्रसून-स्तबक --पुष्प गुच्छ; पलाश--पलाश के वृक्ष ( छिउल ); अशोक--अशोक के पेड़; कानने--वनोद्यानमें; वार्भि:--जल से; स्त्रवद्धि: --बहते हुए; उद्दूष्टे--ध्वनि में; निर्विन्ध्याया: --निर्विश्ध्या नदी की; समन्ततः --सर्वत्र |
उस पर्वत घाटी में निर्विन्ध्या नामक नदी बहती है।
इस नदी के तट पर अनेक अशोक केवृक्ष तथा पलाश पुष्पों से लदे अन्य पौधे हैं।
वहाँ झरने से बहते हुए जल की मधुर ध्वनि सुनाईपड़ती रहती है।
वे पति तथा पतली ऐसे सुरम्य स्थान में पहुँचे।
"
प्राणायामेन संयम्य मनो वर्षशतं मुनि: ।
अतिष्ठदेकपादेन निर्द्न्द्दोनिलभोजन: ॥
१९॥
प्राणायामेन-- प्राणायाम ( श्वास रोकने का अभ्यास ) के द्वारा; संयम्य--वश में करके; मन:ः--मन; वर्ष-शतम्--एक सौ वर्ष;मुनिः--मुनि; अतिष्ठत्-वहाँ रहते हुए; एक-पादेन--एक पाँव पर खड़े होकर; निरद्द्न्द्रः--बिना द्वैत के; अनिल--वायु;भोजन:--खाकर।
वहाँ पर मुनि ने योगिक प्राणायाम के द्वारा अपने मन को स्थिर किया और फिर समस्तआसक्ति पर संयम करते हुए बिना भोजन खाए केवल वायु का सेवन करते रहे और सौ वर्षोतक एक पाँव पर खड़े रहे।
"
शरणं तं प्रपद्येईहहँ य एव जगदीश्वरः ।
प्रजामात्मसमां मह्मं प्रयच्छत्विति चिन्तयन् ॥
२०॥
शरणम्--शरण ग्रहण करके ; तम्ू--उसकी; प्रपद्ये-- समर्पण करता हूँ; अहम्--मैं; यः--जो; एव--निश्चय ही; जगत्-ईश्वरः--ब्रह्माण्ड के स्वामी; प्रजाम्--पुत्र; आत्म-समाम्--अपनी तरह का; मह्म्--मुझको; प्रयच्छतु-- प्रदान करें; इति--इसप्रकार; चिन्तयन्--सोचते हुए
वे मन ही मन सोच रहे थे कि जो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं और मैं जिनकी शरण में आयाहूँ, वे प्रसन्न होकर मुझे अपने ही समान पुत्र प्रदान करें।
"
तप्यमानं त्रिभुवनं प्राणायामैधसाग्निना ।
निर्गतेन मुनेर्मूर्ध्न: समीक्ष्य प्रभवस्त्रय: ॥
२१॥
तप्यमानम्--तप करते हुए; त्रि-भुवनम्--तीनों लोक; प्राणायाम-- श्वास वायु रोकने का अभ्यास; एधसा--ईंधन; अग्निना--अग्नि से; निर्गतन--निकलता हुआ; मुने: --मुनि का; मूर्ध्न:--शिरो भाग; समीक्ष्य--देखकर; प्रभव: त्रय:--तीनों बड़े देव( ब्रह्मा, विष्णु तथा महे श्वर )।
जब अत्रि मुनि गहन तप-साधना कर रहे थे तो उनके प्राणायाम के कारण उनके शिर सेएक प्रज्वलित अग्नि उत्पन्न हुईं जिसे तीनों लोकों के तीन प्रमुख देवों ने देखा।
"
अप्सरोमुनिगन्धर्वसिद्धविद्याधरोरगैः ।
वितायमानयशसस्तदा श्रमपदं ययु; ॥
२२॥
अप्सर:--अप्सराएँ; मुनि--परम साधु; गन्धर्व--गंधर्व लोक के वासी; सिद्ध--सिद्धलोक के वासी; विद्याधर--अन्य देवता;उरगै:--नागलोक के वासी; वितायमान--फैला हुआ; यशस:--यश, ख्याति; तत्--उसके; आश्रम-पदम्-- आश्रम; ययु:--गये।
उस समय ये तीनों देव स्वर्गलोक के वासियों, यथा अप्सराओं, गन्धर्वों, सिद्धों, विद्याधरोंतथा नागों समेत अत्रि के आश्रम पहुँचे।
इस प्रकार वे उस मुनि के आश्रम में प्रविष्ट हुए, जोउनकी तपस्या के कारण विख्यात हो चुका था।
"
तत्पादुर्भावसंयोगविद्योतितमना मुनि: ।
उत्तिष्ठन्नेकपादेन ददर्श विबुधर्षभान् ॥
२३॥
तत्--उनका; प्रादुर्भाव--प्राकट्य; संयोग--एकसाथ; विद्योतित-- प्रकाशित; मना: --मन में; मुनि: --मुनि ने; उत्तिष्ठन्--जगाये जाने पर; एक-पादेन--एक ही पाँव से; ददर्श--देखा; विबुध--देवता; ऋषभान्--महापुरुष ।
मुनि एक पैर पर खड़े थे, किन्तु उन्होंने ज्योंही देखा कि तीनों देव उनके समक्ष प्रकट हुए हैं,तो वे उन्हें देखकर इतने हर्षित हुए कि अत्यन्त कष्ट होते हुए भी वे एक ही पाँव से उनके निकटपहुँचे।
"
प्रणम्य दण्डवद्धूमावुपतस्थेहणाझ्जलि: ।
वृषहंससुपर्णस्थान्स्वै: स्वैश्विद्नैश्न चिह्नितानू ॥
२४॥
प्रणम्य--नमस्कार करके; दण्ड-वत्--दण्ड के समान; भूमौ--पृथ्वी पर; उपतस्थे--गिर पड़े; अहण--पूजा की सारी सामग्री;अज्जलि:--हाथ जोड़ कर; वृष--बैल; हंस--हंस पक्षी; सुपर्ण--गरुड़ पक्षी; स्थानू--स्थित; स्वै:--अपने; स्वैः-- अपने;चिह्नेः--चिह्नों; च--तथा; चिह्नितानू--पहचाने जाकर।
तत्पश्चात् उन्होंने उन तीनों देवों की स्तुति की जो अपने-अपने वाहनों--बैल, हंस तथागरुड़--पर सवार थे, और अपने हाथों में डमरू, कुश तथा चक्र धारण किये थे।
मुनि ने भूमिपर गिरकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया।
"
कृपावलोकेन हसद्वदनेनोपलम्भितान् ।
तद्रोचिषा प्रतिहते निमील्य मुनिरक्षिणी ॥
२५॥
कृपा-अवलोकेन--कृपा से देखते हुए; हसत्--हँसते हुए; वबदनेन--मुखों वाले; उपलम्भितान्--अत्यन्त प्रसन्न दिखते हुए;तत्--उनके; रोचिषा--तेज से; प्रतिहते--चकाचौंध होकर; निमील्य--मूँदकर; मुनि:--मुनि; अक्षिणी-- अपने नेत्र |
अत्रि मुनि यह देखकर अत्यधिक प्रमुदित हुए कि तीनों देव उन पर कृपालु हैं।
उनके नेत्र उनदेवों के शरीर के तेज से चकाचौंध हो गये, अतः उन्होंने कुछ समय के लिए अपनी आँखें मूँदलीं।
"
चेतस्तत्प्रवर्णं युञ्जन्नस्तावीत्संहताञझजलिः इलक्ष्णया सूक्तया वाचा ।
सर्वलोकगरीयस:अत्रिरुवाचविश्वोद्धवस्थितिलयेषु विभज्यमानै-मायागुणैरनुयुगं विगृहीतदेहाः।
ते ब्रह्मविष्णुगिरिशा: प्रणतोस्म्यहं व-स्तेभ्यः क एवं भवतां म इहोपहूतः॥
२६-२७॥
चेत:--हृदय; तत्-प्रवणम्--उनपर टिका कर; युद्धनू--बनाकर; अस्तावीत्--स्तुति की; संहत-अज्धलि:--हाथ जोड़ कर;इएलक्षणया-- भावपूर्ण; सूक्तया-- प्रार्थनाएँ; वाचा--शब्द; सर्व-लोक--सारा संसार; गरीयस:--सम्माननीय; अत्रि: उवाच--अत्रि ने कहा; विश्व--ब्रह्माण्ड; उद्धव--सृष्टि; स्थिति--पालन; लयेषु--संहार में; विभज्यमानै:--विभक्त; माया-गुणै: --प्रकृति के बाह्य गुणों से; अनुयुगम्--विभिन्न कल्पों के अनुसार; विगृहीत--धारण करके; देहा: --शरीर; ते--वे; ब्रह्म--ब्रह्माजी; विष्णु-- भगवान् विष्णु; गिरिशा:--शिवजी; प्रणत:--झुका, नमित; अस्मि--हूँ; अहम्--मैं; व:--तुम सबको;तेभ्य:--उनसे; कः --कौन; एव--निश्चय ही; भवतामू--आपका; मे-- मुझसे; इह--यहाँ; उपहूत: -- बुलाया जाकर |
किन्तु पहले से उनका हृदय इन देवों के प्रति आकृष्ट था, अतः जिस-तिस प्रकार उन्होंने होशसँभाला और वे हाथ जोड़ कर ब्रह्माण्ड के प्रमुख अधिष्ठाता देवों की मधुर शब्दों से स्तुति करनेलगे।
अत्रि मुनि ने कहा : हे ब्रह्मा, हे विष्णु तथा हे शिव, आपने भौतिक प्रकृति के तीनों गुणोंको अंगीकार करके अपने को तीन शरीरों में विभक्त कर लिया है, जैसा कि आप प्रत्येक कल्पमें हृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए करते आये हैं।
मैं आप तीनों को सादरनमस्कार करता हूँ और मैं जानना चाहता हूँ कि मैने अपनी प्रार्थना में आपमें से किसको बुलायाथा?"
एको मयेह भगवान्विविधप्रधानै-श्वित्तीकृतः प्रजननाय कथ॑ नु यूयम् ।
अत्रागतास्तनुभूतां मनसोपि दूराद्ब्रूत प्रसीदत महानिह विस्मयो मे ॥
२८॥
एकः--एक; मया--मेरे द्वारा; हह--यहाँ; भगवान्--परम पुरुष; विविध--अनेक; प्रधानै:--साज-सामग्री द्वारा; चित्ती-कृतः--मन में स्थिर किया हुआ; प्रजननाय--सन्तान उत्पत्ति के लिए; कथम्--क्यों; नु--किन्तु; यूयम्--तुम सभी; अत्र--यहाँ; आगता:--प्रकट हुए; तनु-भूताम्-देहधारियों का; मनस:--मन; अपि--यद्मपि; दूरातू--दूर से; ब्रूत--कृपा करकेबताएँ; प्रसीदत--मुझ पर कृपालु होकर; महान्--अत्यधिक; इह--यह; विस्मय:--सन्देह; मे--मेरा ।
मैंने तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के ही समान पुत्र की इच्छा से उन्हीं का आवाहन किया थाऔर मैंने उन्हीं का चिन्तन किया था।
यद्यपि वे मनुष्य की मानसिक कल्पना से परे हैं, किन्तुआप तीनों यहाँ पर उपस्थित हुए हैं।
कृपया मुझे बताएँ कि आप यहाँ कैसे आए हैं, क्योंकि मैंइसके विषय में अत्यधिक मोहग्रस्त हूँ।
"
मैत्रेय उवाचइति तस्य बच: श्रुत्वा त्रयस्ते विबुधर्षभा: ।
प्रत्याहु: एलक्ष्णया बाचा प्रहस्य तमृषिं प्रभो ॥
२९॥
मैत्रेय: उवाच--ऋषि मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; तस्य--उसके; वच:--शब्द; श्रुत्वा--सुनकर; त्रयः ते--वे तीनों;विबुध--देवता; ऋषभा:-- प्रमुख; प्रत्याहु:--उत्तर दिया; एलक्ष्णया--विनीत; वाचा--वाणी; प्रहस्य--मुस्कराकर; तम्--उसको; ऋषिम्ू--ऋषि; प्रभो--हे शक्तिमान |
मैत्रेय महा-मुनि ने कहा : अत्रि मुनि को इस प्रकार बोलते हुए सुनकर तीनों महान् देवमुस्कराए और उन्होंने मृदु वाणी में इस प्रकार उत्तर दिया।
"
देवा ऊचु:यथा कृतस्ते सड्डूल्पो भाव्यं तेनेव नान्यथा ।
सत्सड्डल्पस्य ते ब्रह्मन्यद्वै ध्यायति ते वयम् ॥
३०॥
देवा: ऊचु:--देवताओं ने उत्तर दिया; यथा--जैसा; कृत:--किया हुआ; ते--तुम्हारे द्वारा; सड्डूल्प:--निश्चय, संकल्प;भाव्यम्ू--होना चाहिए; तेन एब--उससे; न अन्यथा--और कुछ नहीं, विपरीत नहीं; सत्-सट्डूल्पस्थ--जिसका निश्चय डिगतानहीं; ते--तुम्हारा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; यत्--जो; बै--निश्चय ही; ध्यायति-- ध्यान धरते हुए; ते--वे सभी; वयम्--हम हैं ।
तीनों देवताओं ने अत्रि मुनि से कहा : हे ब्राह्मण, तुम अपने संकल्प में पूर्ण हो, अतः तुमनेजो कुछ निश्चित कर रखा है, वही होगा, उससे विपरीत नहीं होगा।
हम सब वे ही पुरूष हैंजिनका तुमने ध्यान किया है और इसीलिए हम सब तुम्हारे पास आये हैं।
"
अथास्मदंशभूतास्ते आत्मजा लोकविश्रुता: ।
भवितारोड़् भद्रं ते विस्त्रप्स्न्ति च ते यशः ॥
३१॥
अथ--अतः; अस्मत्--हमारे; अंश-भूता: --विभिन्नांश; ते--तुम्हारा; आत्मजा: --पुत्र; लोक-विश्रुता: --संसार प्रसिद्ध;भवितार:--भविष्य में उत्पन्न होंगे; अड्र--हे मुनि; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; विस््रप्स्यन्ति--फैलाएँगे; च-- भी; ते--तुम्हारी; यशः--यश।
हे मुनिवर, हमारी शक्ति के अंशस्वरूप तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होंगे और हम तुम्हारे कल्याण केकामी हैं, अतः बे पुत्र तुम्हारे यश का संसार-भर में विस्तार करेंगे।
एवं कामवरं दच्त्वा प्रतिजग्मु: सुरेश्वरा: ।
सभाजितास्तयो: सम्यग्दम्पत्योर्मिषतोस्तत: ॥
३२॥
एवम्--इस प्रकार; काम-वरम्--इच्छित वर; दत्त्वा--प्रदान करके ; प्रतिजग्मु;--वापस चले गये; सुर-ईश्वरा: -- प्रमुख देवता;सभाजिता: --पूजित होकर; तयो:--दोनों के; सम्यक् --पूरी तरह; दम्पत्यो:--पति तथा पत्नी; मिषतो: --देखते ही देखते;ततः--वहाँ से
इस प्रकार उस युगल के देखते ही देखते तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर अत्रि मुनिको वर देकर उस स्थान से ओझल हो गये।
"
सोमोभूद्॒ह्मणो $शेन दत्तो विष्णोस्तु योगवित् ।
दुर्वासा: शट्डूरस्यांशो निबोधाड़्रिरस: प्रजा: ॥
३३॥
सोम:--चन्द्रलोक का स्वामी; अभूत्--प्रकट हुआ; ब्रह्मण: --ब्राह्मण के; अंशेन--आंशिक विस्तार से; दत्त: --दत्तात्रेय;विष्णो: --विष्णु का; तु--लेकिन; योग-वित्--अत्यन्त शक्तिमान योगी; दुर्वासा:--दुर्वासा; शट्भरस्य अंश: --शिव काआंशिक विस्तार; निबोध--समझने का प्रयत्न करो; अड्विस्सः--अंगिरा ऋषि की; प्रजा: --सन्ततियों का।
तत्पश्चात् ब्रह्म के आंशिक विस्तार से सोमदेव उत्पन्न हुए, विष्णु से परम योगी दत्तात्रेय तथाशंकर ( शिवजी ) से दुर्वासा उत्पन्न हुए।
अब तुम मुझसे अंगिरा के अनेक पुत्रों के सम्बन्ध में" सुनो।
श्रद्धा त्वड्रिरिसः पत्नी चतस्त्रोउसूत कन्यका: ।
सिनीवाली कुहू राका चतुर्थ्यनुमतिस्तथा ॥
३४॥
श्रद्धा-- श्रद्धा; तु--लेकिन; अड्डभिरसः-- अंगिरा ऋषि की; पत्नी--पत्ली; चतस्त्र:--चार; असूत--जन्म दिया; कन्यका:--कन्याएँ; सिनीवाली--सिनीवाली; कुहू: --कुहू; राका--राका; चतुर्थी--चौथी; अनुमति:--अनुमति; तथा-- भी अंगिरा की पली श्रद्धा ने चार कनन््याओं को जन्म दिया जिनके नाम सिनीवाली, कुहू, राकातथा अनुमति थे।
"
तत्पुत्रावपरावास्तां ख्यातौ स्वारोचिषेउन्तरे ।
उतथ्यो भगवान्साक्षाद्रहिष्ठ श्च बृहस्पति: ॥
३५॥
तत्--उसके ; पुत्रौ--दो पुत्र; अपरौ--अन्य; आस्ताम्--उत्पन्न हुए; ख्यातौ--प्रसिद्ध; स्वारोचिषे--स्वारोचिष युग में; अन्तरे--मनु के; उतथ्य: --उतथ्य; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; साक्षात्- प्रत्यक्ष; ब्रहिष्ठ: च--आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत; बृहस्पति: --बृहस्पति।
इन चार पुत्रियों के अतिरिक्त उसके दो पुत्र भी थे।
उनमें से एक उतथ्य कहलाया और दूसरामहान् विद्वान बृहस्पति था।
"
पुलस्त्योडजनयत्पत्न्यामगस्त्यं च हविर्भुवि ।
सोन्यजन्मनि दह्वाग्निर्विश्रवाश्चन महातपा: ॥
३६॥
पुलस्त्य:--पुलस्त्य मुनि ने; अजनयत्--जन्म दिया; पल्याम्--अपनी पत्नी से; अगस्त्यम्--अगस्त्य मुनि को; च--भी;हविर्भुवि--हविर्भुवि से; सः--वह ( अगस्त्य ); अन्य-जन्मनि--अगले जन्म में; दह-अग्नि:--जठराग्नि; विश्रवा: --विश्रवा;च--तथा; महा-तपाः --तपस्या के कारण अत्यन्त बलशाली |
पुलस्त्य के उनकी पत्नी हविर्भू से अगस्त्य नाम का एक पुत्र हुआ, जो अपने अगले जन्म मेंदह्लाग्नि बना।
इसके अतिरिक्त पुलस्त्य के एक अन्य महान् तथा साधु पुत्र हुआ जिसका नामविश्रवा था।
"
तस्य यक्षपतिर्देव: कुबेरस्त्विडविडासुत: ।
रावण: कुम्भकर्णश्र तथान्यस्यां विभीषण: ॥
३७॥
तस्य--उसके; यक्ष-पति:--यक्षों का राजा; देव:--देवता; कुबेर: --कुबेर; तु--और; इडविडा--इडविडा का; सुतः --पुत्र;रावण:--रावण; कुम्भकर्ण:--कुम्भकर्ण; च-- भी; तथा--इस प्रकार; अन्यस्याम्ू-- अन्य से; विभीषण:--विभीषणविश्रवा के दो पत्लियाँ थीं।
प्रथम पत्नी इडविडा थी जिससे समस्त यक्षों का स्वामी कुबेरउत्पन्न हुआ।
दूसरी पत्ती का नाम केशिनी था जिससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए।
ये थे--रावण,कुम्भकर्ण तथा विभीषण।
"
पुलहस्य गतिर्भार्या त्रीनसूत सती सुतान् ।
कर्मश्रेष्ठं वरीयांसं सहिष्णुं च महामते ॥
३८ ॥
पुलहस्य--पुलह की; गति: --गति; भार्या--पती; त्रीन्ू--तीन; असूत--जन्म दिया; सती--साध्वी; सुतान्--पुत्रों को; कर्म-श्रेष्टमू--सकाम कर्म में अत्यन्त दक्ष; वरीयांसम्--अत्यन्त सम्माननीय; सहिष्णुम्-- अत्यन्त सहनशील; च-- भी; महा-मते--हेविदुर।
पुलह ऋषि की पत्नी गति ने तीन पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम थे--कर्म श्रेष्ठ, वरीयानतथा सहिष्णु।
ये सभी महान् साधु थे।
"
क्रतोरपि क्रिया भार्या वालखिल्यानसूयत ।
ऋषीन्षष्टिसहस्त्राणि ज्वलतो ब्रह्मतेजसा ॥
३९॥
क्रतो:--क्रतु मुनि का; अपि-- भी; क्रिया--क्रिया; भार्या--पत्नी; वालखिल्यान्ू--वालखिल्य के ही समान; असूयत--उत्पन्नकिया; ऋषीन्--साधु, ऋषि; षष्टि--साठ; सहस्त्रािणि--हजार; ज्वलत:ः--अत त्यन्त देदीप्यमान; ब्रह्म-तेजसा--ब्रह्मतेज के प्रभावसे
क्रतु की पत्नी क्रिया ने वालखिल्यादि नामक साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया।
ये ऋषिब्रह्म ( आध्यात्मिक ) ज्ञान में बढ़े-चढ़े थे और उनका शरीर ऐसे ज्ञान से देदीप्यमान था।
"
ऊर्जायां जज्षिरे पुत्रा वसिष्ठस्थ परन्तप ।
चित्रकेतुप्रधानास्ते सप्त ब्रह्मर्षयोमला: ॥
४०॥
ऊर्जायाम्--ऊर्जा से; जज्ञिरि--जन्म लिया; पुत्रा:--पुत्र; वसिष्ठस्थ--वसिष्ठ मुनि की; परन्तप--हे महान; चित्रकेतु--चित्रकेतु;प्रधाना:-- आदि; ते--सब पुत्र; सप्त--सात; ब्रह्य-ऋषय: --ब्रह्मज्ञानी ऋषि; अमला:--निर्मल |
वसिष्ठ मुनि की पत्नी ऊर्जा से, जिसे कभी-कभी अरुन्धती भी कहा जाता है, चित्रकेतुइत्यादि सात विशुद्ध ऋषि उत्पन्न हुए।
"
चित्रकेतु: सुरोचिश्च विरजा मित्र एव च ।
उल्बणो वसुभूृद्यानो द्युमान्शक्त्यादयोपरे ॥
४१॥
चित्रकेतु:--चित्रकेतु; सुरोचि: च--तथा सुरोचि; विरजा:--विरजा; मित्र: --मित्र; एव-- भी; च--तथा; उल्बण: --उल्बण;बसुभूद्यान: --वसुभृद्यान; द्युमान्--द्युमान; शक्ति-आदय: --शक्ति इत्यादि पुत्र; अपरे--उसकी अन्य पत्नी से।
इन सातों ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं--चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण,वसुभूद्यान तथा द्युमान।
वसिष्ठ की दूसरी पत्नी से कुछ अन्य अत्यन्त सुयोग्य पुत्र हुए।
"
चित्तिस्त्वथर्वण: पत्नी लेभे पुत्र धृतब्रतम् ।
दध्यञ्ञम श्रशिरसं भृगोर्वशं निबोध मे ॥
४२॥
चित्ति:--चित्ति; तु-- भी; अथर्वण: --अथर्वा की; पल्ली--पली; लेभे--प्राप्त हुआ; पुत्रमू--पुत्र; धृत-ब्रतम्--ब्रतधारी;दध्यक्षमू--दध्यज्ञ; अश्वशिरसम्--अश्वसिरा; भूगो: वंशम्-- भूगु का वंश; निबोध--समझने का प्रयत्न करो; मे--मुझसे ।
अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने अश्वशिरा नामक पुत्र को जन्म दिया, जो ब्रतधारी होने केकारण दध्यज्ञ कहलाया।
अब तुम मुझसे भृगुमुनि के वंश के विषय में सुनो ।
"
भृगु: ख्यात्यां महाभाग: पल्यां पुत्रानजीजनत् ।
धातारं च विधातारं अियं च भगवत्पराम् ॥
४३॥
भृगु:- भूगुः; ख्यात्यामू--अपनी ख्याति नामक पत्नी से; महा-भाग: --अत्यन्त भाग्यशाली; पत्यामू-पत्नी को; पुत्रान्-पुत्र;अजीजनतू--जन्म दिया; धातारम्ू--धाता; च--तथा; विधातारम्--विधाता; थ्रियम्ू-- श्री नामक एक कन्या; च भगवत्ू-'पराम्ू--तथा भगवान् की परम भक्त, भगवत्परायणा |
भूगु मुनि अत्यधिक भाग्यशाली थे।
उन्हें अपनी पत्नी ख्याति से दो पुत्र, धाता तथा विधाताऔर एक पुत्री, श्री, प्राप्त हुई; वह श्रीभगवान् के प्रति अत्यधिक परायण थी।
"
आयतिं नियतिं चैव सुते मेरुस्तयोरदात् ।
ताभ्यां तयोरभवतां मृकण्डः प्राण एवं च ॥
४४॥
आयतिम्--आयति; नियतिमू--नियति; च एव-- भी; सुते--कन्याएँ; मेरुः--मेरु मुनि; तयोः --उन दोनों को; अदात्ू--देदिया; ताभ्याम्--उनमें से; तयो:--दोनों; अभवताम्-- प्रकट हुए; मृकण्ड:--मृकण्ड; प्राण:--प्राण; एब--निश्चय ही; च--तथा
मेरु ऋषि के दो पुत्रियाँ थीं जिनके नाम आयति तथा नियति थे जिन्हें उन्होंने धाता तथाविधाता को दान दे दिया।
आयति तथा नियति से मृकण्ड तथा प्राण नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।
"
मार्कण्डेयो मृकण्डस्य प्राणाद्वेदशिरा मुनि: ।
कविश्च भार्गवो यस्य भगवानुशना सुतः ॥
४५॥
मार्कण्डेय:--मार्कण्डेय; मृकण्डस्थ--मृकण्ड का; प्राणात्--प्राण से; वेदशिरा:--वेदशिरा; मुनि:--परम साधु; कवि: च--कवि नाम का; भार्गव:--भार्गव नाम का; यस्य--जिसका; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; उशना--शुक्राचार्य ; सुत:--पुत्रम
ृकण्ड से मार्कण्डेय मुनि और प्राण से वेदशिरा ऋषि उत्पन्न हुए।
वेदशिरा का पुत्र उशना( शुक्राचार्य ) था, जो कवि भी कहलाता है।
इस प्रकार कवि भी भृगुवंशी था।
"
त एते मुनयः क्षत्तलेकान्सगैरभावयन् ।
एप कर्दमदौहित्रसन्तान: कथितस्तव ॥
४६॥
श्रुण्वतः श्रद्दधानस्य सद्यः: पापहर: पर: ।
प्रसूतिं मानवीं दक्ष उपयेमे ह्मजात्मज: ॥
४७॥
ते--वे; एते--समस्त; मुनय:--मुनिगण; क्षत्त:--हे विदुर; लोकान्ू--तीनों लोक; सर्गैं;--अपनी सनन््तानों सहित; अभावयन्ू--परिपूरित किया; एष:--यह; कर्दम--कर्दम मुनि का; दौहित्र--नाती; सन्तान:--सन्तान; कथित:--पहले कहा जा चुका;तब--तुमको; श्रृण्वतः--सुनते हुए; श्रद्धानस्य-- श्रद्धालु का; सद्यः--शीघ्र; पाप-हर:--समस्त पापकर्मो को कम करके;परः--महान; प्रसूतिमू--प्रसूति; मानवीम्--मनु की पुत्री ने; दक्ष:ः--राजा दक्ष से; उपयेमे--विवाह किया; हि--निश्चय ही;अज-आत्मज:--ब्रह्मा का पुत्रहे विदुर, इस प्रकार इन मुनियों तथा कर्दम की पुत्रियों की सन््तानों से विश्व की जनसंख्या बढ़ी।
जो कोई श्रद्धापूर्वक इस वंश के आख्यान को सुनता है, वह समस्त पाप-बन्धनों से छूटजाता है।
मनु की अन्य कन्याओं में से प्रसूति ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष से विवाह किया।
"
तस्यां ससर्ज दुहितृः षोडशामललोचना: ।
त्रयोदशादाद्धर्माय तथेकामग्नये विभु: ॥
४८ ॥
तस्यामू--उसको; ससर्ज--उत्पन्न किया; दुहितृः--कन्याएँ; षोडश--सोलह; अमल-लोचना:--कमल जैसे नेत्रों वाली;त्रयोदश--तेरह; अदात्-दिया; धर्माय--धर्म को; तथा--उसी तरह; एकाम्--एक पुत्री; अग्नये--अग्नि को; विभु:--दक्षनेदक्ष ने अपनी पत्नी प्रसूति से सोलह कमलनयनी सुन्दरी कन्याएँ उत्पन्न कीं।
इन सोलहकन्याओं में से तेरह धर्म को और एक अग्नि को पत्नी रूप में प्रदान की गईं।
"
पितृभ्य एकां युक्ते भ्यो भवायैकां भवच्छिदे ।
श्रद्धा मैत्री दया शान्तिस्तुष्टि: पुष्टि: क्रियोन्नति: ॥
४९॥
बुद्धिमेंधा तितिक्षा हीमूर्तिर्धर्मस्य पत्नय: ।
श्रद्धासूत शुभ मैत्री प्रसादमभयं दया ॥
५०॥
शान्ति: सुखं मुद तुष्टि: स्मयं पुष्टिरसूयत ।
योगं क्रियोन्नतिर्दर्पमर्थ बुद्धिरसूयत ॥
५१॥
मेधा स्मृति तितिक्षा तु क्षेमं ही: प्रश्रयं सुतम् ।
मूर्ति: सर्वगुणोत्पत्तिनरनारायणावृषी ॥
५२॥
पितृभ्यः:--पितृगण को; एकाम्--एक पुत्री; युक्ते भ्य: --समस्त, संयुक्त; भवाय--शिवजी को; एकाम्--एक पुत्री; भव-छिदे-- भौतिक बन्धन से छुड़ाने वाले; श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्तिः, तुष्टि:, पुष्टिः, क्रिया, उन्नति:, बुद्ध्धिः, मेधा, तितिक्षा, हीः,मूर्तिः:--ये दक्ष की तेरह कन्याओं के नाम हैं; धर्मस्थ-- धर्म की; पत्नयः--पत्लियाँ; श्रद्धा-- श्रद्धा ने; असूत--जन्म दिया;शुभम्--शुभ; मैत्री--मैत्री; प्रसादमू-- प्रसाद; अभयम्-- अभय; दया--दया; शान्तिः--शान्ति; सुखम्--सुख; मुदम्--मुद;तुष्टिः--तुष्टि; स्मथम्--स्मय; पुष्टि: --पुष्टि; असूयत--जन्म दिया; योगम्--योग; क्रिया--क्रिया; उन्नति: --उन्नति; दर्पम्--दर्प;अर्थम्--अर्थ; बुद्धिः:--बुद्धि; असूयत--उत्पन्न किया; मेधा--मेधा; स्मृतिम्ू--स्मृति; तितिक्षा--तितिक्षा; तु-- भी; क्षेमम्--क्षेम; ही:--ही; प्रश्रयम्-प्रश्रय; सुतम्--पुत्र; मूर्ति:--मूर्ति; सर्व-गुण --समस्त अच्छे गुणों का; उत्पत्ति:-- आगार; नर-नारायणौ--नर तथा नारायण; ऋषी--दो ऋषि।
शेष दो कन्याओं में से एक पितृलोक को दान दे दी गई, जहाँ वह प्रेमपूर्वक रह रही है औरदूसरी कन्या भवबंधन से समस्त पापियों के उद्धारक शिवजी को दी गई।
दक्ष ने धर्म को जिनतेरह कन्याओं को दिया उनके नाम थे : श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति,बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ही तथा मूर्ति।
इन तेरहों ने पुत्रों को जन्म दिया, जो इस प्रकार हैं-- श्रद्धाने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मुद, पुष्टि ने समय, क्रिया ने योग,उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम तथा ह्वी ने प्रश्रय को जन्म दिया।
समस्त गुणों की खान मूर्ति ने नर-नारायण को जन्म दिया, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
"
ययोर्जन्मन्यदो विश्वमभ्यनन्दत्सुनिर्वृतम् ।
मनांसि ककुभो वाताः प्रसेदु: सरितोद्रय: ॥
५३॥
ययो:--जिनमें से दोनों ( नर तथा नारायण ); जन्मनि--जन्म लेने पर; अदः--वह; विश्वम्ू--ब्रह्माण्ड; अभ्यनन्दत्--आनन्दितहुआ; सु-निर्वृतम्--खुशी से पूर्ण; मनांसि--प्रत्येक का मन; ककुभः--दिशाएँ; वाता:--वायु; प्रसेदु:--प्रसन्न हुए; सरित:--नदियाँ; अद्गयः--पर्वतनर-नारायण के जन्म के अवसर पर समस्त विश्व आनन्दित था।
प्रत्येक का मन शान्त थाऔर इस प्रकार समस्त दिशाओं में वायु, नदियाँ तथा पर्वत मनोहर लगने लगे।
"
दिव्यवाद्यन्त तूर्याणि पेतु: कुसुमवृष्टयः ।
मुनयस्तुष्ठवुस्तुष्टा जगुर्गन्धर्वकिन्नरा: ॥
५४॥
नृत्यन्ति सम स्त्रियो देव्य आसीत्परममड्लम् ।
देवा ब्रह्मादय: सर्वे उपतस्थुरभिष्टवै: ॥
५५॥
दिवि--स्वर्गलोक में; अवाद्यन्त--बज उठे; तूर्याणि--तुरही; पेतु:--वर्षा की; कुसुम--फूलों की; वृष्टय:--वर्षा; मुनयः --मुनिगण ने; तुष्ठब॒ु:--वैदिक स्तुतियाँ पढ़ीं; तुष्टा:--प्रसन्न; जगुः--गाने लगे; गन्धर्व--गन्धर्वगण; किन्नरा:--किन्नरगण; नृत्यन्तिस्म--नाचने लगे; स्त्रियः--अप्सराएँ; देव्य: --स्वर्गलोक की; आसीतू--दृष्टिगोचर हो रह थे; परम-मड्गलम्ू--परम मंगल;देवा:--देवतागण; ब्रह्म -आदय:--ब्रह्मा तथा अन्य; सर्वे--सबों ने; उपतस्थु:--पूजा की; अभिष्टवै:--प्रार्थनाओं से, स्तोत्रों से |
स्वर्गलोक में बाजे बजने लगे और आकाश से पुष्प बरसने लगे।
प्रसन्न मुनि वैदिक स्तुतियोंका उच्चारण करने लगे।
गंधर्व तथा किन्नर लोक के वासी गाने लगे और स्वर्ग की अप्सराएँनाचने लगीं।
इस प्रकार नर-नारायण के जन्म के समय सभी मंगलसूचक चिह्न दिखाई पड़नेलगे।
उसी समय ब्रह्मादि महान् देवों ने भी सादर स्तुतियाँ अर्पित कीं।
"
देवा ऊचु:यो मायया विरचितं निजयात्मनीदंखे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय ।
एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य प्रादुक्षकार पुरुषाय नमः 'परस्मै ॥
५६॥
देवा:--देवताओं ने; ऊचु:--कहा; यः--जो; मायया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; विरचचितम्--उत्पन्न; निजया--स्वत:; आत्मनि--भगवान् में स्थित; इदम्ू--यह; खे--आकाश में; रूप-भेदम्ू--बादल-समूह; इब--सहश, मानो; तत्--उसका;प्रतिचक्षणाय--प्रकट होने के लिए; एतेन--इसके साथ; धर्म-सदने-- धर्म के घर में; ऋषि-मूर्तिना--ऋषि के रूप द्वारा;अद्य--आज; प्रादुश्चकार-- प्रकट हुआ; पुरुषाय-- श्रीभगवान् को; नमः--नमस्कार है; परस्मै-- परम |
देवताओं ने कहा : हम उस दिव्य रूप भगवान् को नमस्कार करते हैं जिन्होंने इस हश्य जगतकी सृष्टि अपनी बहिरंगा शक्ति के रूप में की है, जो उनमें उसी प्रकार स्थित है, जिस प्रकार वायुतथा बादल आकाश्न में रहते हैं और जो अब धर्म के घर में नर-नारायण ऋषि के रूप में प्रकटहुए हैं।
"
सोयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान्सत्त्वेन न: सुरगणाननुमेयतत्त्व: ।
हृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन यच्छीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम् ॥
५७॥
सः--वह; अयम्--यह ( भगवान् ); स्थिति--उत्पन्न जगत का; व्यतिकर--आपत्तियाँ; उपशमाय--शमन हेतु; सृष्टान्ू--सर्जित;सत्त्वेन--सत्तोगुण से; न:--हम; सुर-गणान्--देवताओं को; अनुमेय-तत्त्व:--वेदों द्वारा ज्ञेय; दृश्यातू--दृष्टिपात से; अद्न-करुणेन--दयालु, करुणा से युक्त; विलोकनेन--चितवन से; यत्--जो; श्री-निकेतम्-- धन की देवी का घर; अमलम्--निर्मल; क्षिपत--से बढ़कर; अरविन्दम्--कमल।
वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, जो वास्तविक रूप से प्रामाणिक वैदिक साहित्य द्वारा जाने जातेहैं और जिन्होंने सृष्टठ जगत की समस्त विपत्तियों को विनष्ट करने के लिए शान्ति तथा समृद्धि कासृजन किया है, हम देवताओं पर कृपापूर्ण दृष्टिपात करें।
उनकी कृपापूर्ण चितवन लक्ष्मी केआसन निर्मल कमल की शोभा को मात करने वाली है।
"
एवं सुरगणैस्तात भगवन्तावभिष्ठृतौ ।
लब्धावलोकैर्ययतुरर्चितौ गन्धमादनम् ॥
५८ ॥
एवम्--इस प्रकार; सुर-गणै:--देवताओं द्वारा; तात--हे विदुर!; भगवन्तौ-- श्री भगवान्; अभिष्ठृतौ-- प्रशंसित होकर; लब्ध--प्राप्त कर; अवलोकै:--चितवन ( कृपा की ); ययतु:--चले गये; अर्चितौ--पूजित होकर; गन्ध-मादनम्--गन्धमादन पर्वतको[ मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, इस प्रकार देवताओं ने नर-नारायण मुनि के रूप में प्रकटश्रीभगवान् की पूजा की।
भगवान् ने उन पर कृपा-दृष्टि डाली और फिर गन्धमादन पर्वत की ओरचले गये।
"
ताविमौ वै भगवतो हरेरंशाविहागतौ ।
भारव्ययाय च भुव: कृष्णौ यदुकुरूद्वहौ ॥
५९॥
तौ--दोनों; इमौ--ये; वै--निश्चय ही; भगवत:-- श्रीभगवान् का; हरेः--हरि का; अंशौ--अंश रूप विस्तार; इह--यहाँ ( इसब्रह्माण्ड में )) आगतौ--प्रकट हुआ है; भार-व्ययाय--भार हल्का करने के लिए; च--तथा; भुव:ः--जगत का; कृष्णौ--दोकृष्ण ( कृष्ण तथा अर्जुन ); यदु-कुरु-उद्दहौ--जो क्रमशः यदु तथा कुरु वंशों में सर्वश्रेष्ठ हैं |
नर-नारायण ऋषि कृष्ण के अंश विस्तार हैं और अब जगत का भार उतारने के लिए यदुतथा कुरु वंशों में क्रमशः कृष्ण तथा अर्जुन के रूप में प्रकट हुए हैं।
"
स्वाहाभिमानिनश्चाग्नेरात्मजांस्त्रीनजीजनत् ।
पावकं पवमानं च शुचिं च हुत१भोजनम् ॥
६०॥
स्वाहा--अग्नि की पत्नी, स्वाहा; अभिमानिन: --अग्नि का मुख्य विग्रह; च--तथा; अग्ने: --अग्नि से; आत्मजानू---पुत्रों को;त्रीनू--तीन; अजीजनत्--उत्पन्न किया; पावकमू--पावक; पवमानम् च--तथा पवमान; शुचिम् च--तथा शुचि; हुत-भोजनम्--यज्ञ की आहुति खाकर।
अग्निदेव की पतली स्वाहा से तीन संताने उत्पन्न हुई जिनके नाम पावक, पवमान तथा शुचिहैं, जो यज्ञ की अग्नि में डाली गई आहुतियों को खाने वाले हैं।
"
तेभ्योग्नय: समभवन्चत्वारिंशच्च पञ्ञ च ।
त एवैकोनपशञ्ञाशत्साकं पितृपितामहै: ॥
६१॥
तेभ्य:--उनसे; अग्नय:--अग्निदेव; समभवनू--उत्पन्न हुए; चत्वारिंशत्--चालीस; च--तथा; पशञ्च--पाँच; च--तथा; ते--वे;एव--निश्चय ही; एकोन-पश्चञाशत्--उजच्चास; साकम्--साथ में; पितृ-पितामहैः--पिता तथा पितामह के साथ |
इन तीनों पुत्रों से अन्य पैंतालीस सन्तानें उत्पन्न हुई और वे भी अग्निदेव हैं।
अतः अग्निदेवोंकी कुल संख्या उनके पिताओं तथा पितामह को मिलाकर उज्ञास है।
"
बैतानिके कर्मणि यन्नामभिव्रहावादिभि: ।
आम्नेय्य इष्टयो यज्ञे निरूप्यन्तेग्नयस्तु ते ॥
६२॥
वैतानिके--आहुति डालना; कर्मणि--कर्म; यत्-- अग्निदेवों का; नामभि:--नामों से; ब्रह्म-वादिभि:--निर्विशेषवादी ब्राह्मणोंद्वारा; आग्नेय्य:--अग्नि के लिए; इष्टय:--यज्ञ; यज्ञे--यज्ञ में; निरूप्यन्ते--लक्ष्य हैं; अग्नयः--उज्जलास अग्निदेव; तु--लेकिन;ते--वेब्रह्मवादी ब्राह्मणों द्वारा वैदिक यज्ञों में दी गई आहुतियों के भोक्ता ये ही उज्ञास अग्निदेव हैं।
"
अग्निष्वात्ता बर्हिषद: सौम्या: पितर आज्यपा: ।
साग्नयोनग्नयस्तेषां पत्नी दाक्षायणी स्वधा ॥
६३॥
अग्निष्वात्ता:--अग्निष्वात्त; ब्हिषद:--बर्हिषद; सौम्या: --सौम्य; पितर:ः --पूर्वज, पितृगण; आज्यपा:--आज्यप; स-अग्नयः--जिनका साधन अग्नि सहित है; अनग्नयः--जिनका साधन अग्निरहित हैं; तेषामू--उनकी; पली--पत्नी;दाक्षायणी--दक्ष की कन्या; स्वधा--स्वधा।
अग्निष्वात्त, बर्हिषदू, सौम्य तथा आज्यप--ये पितर हैं।
वे या तो साग्निक हैं अथवानिरग्निक।
इन समस्त पितरों की पत्नी स्वधा है, जो राजा दक्ष की पुत्री है।
"
तेभ्यो दधार कन्ये द्वे बयुनां धारिणीं स्वधा ।
उभे ते ब्रह्मवादिन्यौ ज्ञानविज्ञानपारगे ॥
६४॥
तेभ्य:--उनसे; दधार--उत्पन्न; कन्ये--कन्याएँ; द्वे--दो; वयुनाम्ू--वयुना; धारिणीम्-- धारिणी; स्वधा--स्वधा; उभे--दोनोंही; ते--वे; ब्रह्म-वादिन्यौ -- ब्रह्मवादिनी अथवा निर्गुणवादिनी; ज्ञान-विज्ञान-पार-गे--दिव्य तथा वैदिक ज्ञान में पारंगत |
पितरों को प्रदत्त स्वधा ने बयुना तथा धारिणी नामक दो पुत्रियों को जन्म दिया।
वे दोनों हीब्रह्मवादिनी थीं तथा दिव्य एवं वैदिक ज्ञान में पारंगत थीं।
"
भवस्य पत्नी तु सती भवं देवमनुव्रता ।
आत्मन: सहझं पुत्र न लेभे गुणशीलतः ॥
६५॥
भवस्य--भव की ( शिव की ); पत्ती--पत्नी; तु--लेकिन; सती--सती नामक; भवम्-- भव को; देवम्--देवता; अनुव्रता--सेवा में श्रद्धापूर्वक संलग्न; आत्मन:--अपने ही; सहशम्--समान; पुत्रमू-पुत्र; न लेभे--प्राप्त नहीं हुआ; गुण-शीलत:--अच्छे गुणों तथा चरित्र से।
सती नामक सोलहवीं कन्या भगवान् शिव की पत्नी थीं, किन्तु उनके कोई सन््तान उत्पन्ननहीं हुई, यद्यपि वे सदैव अपने पति की अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा में संलग्न रहने वाली थीं।
"
पितर्यप्रतिरूपे स्वे भवायानागसे रुषा ।
अप्रौढेवात्मनात्मानमजहाद्योगसंयुता ॥
६६॥
पितरि--पिता के समान; अप्रतिरूपे--अनुपयुक्त; स्वे-- अपने; भवाय--शिव को; अनागसे--निर्दोष; रुषा--क्रो ध से;अप्रौढा--प्रौढ़ होने के पूर्व; एब--ही; आत्मना--अपने से; आत्मानमू--शरीर; अजहातू--त्याग दिया; योग-संयुता--योग से |
इसका कारण यह है कि सती के पिता दक्ष शिवजी के दोषरहित होने पर भी उनकी भर्त्सनाकरते रहते थे।
फलतः परिपक्व आयु के पूर्व ही सती ने अपने शरीर को योगशक्ति से त्याग दियाथा।
"
अध्याय दो: दक्ष ने भगवान शिव को श्राप दिया
4.2विदुर उबाचभवे शीलववतां श्रेष्ठे दक्षो दुहितृबत्सल:।
विद्वेषमकरोत्कस्मादनाहत्यात्मजां सतीम् ॥
१॥
विदुरः उबाच--विदुर ने कहा; भवे--शिव के प्रति; शीलवताम्--शीलवानों में; श्रेष्ठे-- सर्वोत्तम; दक्ष:--दक्ष ने; दुहितृ-बत्सल:--अपनी पुत्री के प्रति स्नेहिल; विद्वेषम्--शत्रुता; अकरोत्--प्रदर्शित किया; कस्मात्--किस हेतु; अनाहत्य--अनादरकरके; आत्मजाम्ू--अपनी पुत्री; सतीम्--सती को |
विदुर ने पूछा : जो दक्ष अपनी पुत्री के प्रति इतना स्नेहवान् था वह शीलवानों में श्रेष्ठतमभगवान् शिव के प्रति इतना ईर्ष्यालु क्यों था? उसने अपनी पुत्री सती का अनादर क्यों किया ?"
कस्तं चराचरगुरुं निर्वरं शान्तविग्रहम् ।
आत्मारामं कथं द्वेष्टि जगतो दैवतं महत् ॥
२॥
कः--कौन ( दक्ष ); तमू--उस ( शिव ) को; चर-अचर--जड़ जंगम ( सारा संसार ); गुरुम्-गुरु; निर्वरम्--शत्रुतारहित;शान्त-विग्रहम्--शान्त व्यक्तित्व वाला; आत्म-आरामम्--अपने आप में संतुष्ट रहने वाला; कथम्--कैसे; द्वेष्टि--घृणा करता है;जगतः--ब्रह्माण्ड का; दैवतम्--देवता; महत्--महान |
भगवान् शिव समग्र संसार के गुरु, शत्रुतारहित, शान्त और आत्पतुष्ट व्यक्ति हैं।
वे देवताओं में सबसे महान् हैं।
यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ऐसे मंगलमय व्यक्ति के प्रति दक्ष वैरभावरखता ?"
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन्जामातु: श्वशुरस्यथ च ।
विद्वेषस्तु यतः प्राणांस्तत्यजे दुस्त्यजान्सती ॥
३॥
एतत्--इस प्रकार; आख्याहि--कृपया कहो; मे--मुझसे; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; जामातु:--दामाद ( शिव ); श्वशुरस्थय--ससुर( दक्ष ) का; च--तथा; विद्वेष: --झगड़ा; तु--लेकिन; यत:--जिसके कारण; प्राणान्--अपना प्राण; तत्यजे--त्याग दिया;दुस्त्यजानू--जिसको त्यागना दुष्कर होता है; सती--सती ने
हे मैत्रेय, मनुष्य के लिए अपने प्राण त्याग पाना अत्यन्त कठिन है।
क्या आप मुझे बतासकेंगे कि ऐसे दामाद तथा श्वसुर में इतना कदटु विद्वेष क्यों हुआ जिससे महान् देवी सती कोअपने प्राण त्यागने पड़े ?"
मैत्रेय उवाचपुरा विश्वसूजां सत्रे समेता: परमर्षय: ।
तथामरगणा: सर्वे सानुगा मुनयोग्नयः ॥
४ ॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; पुरा--पहले ( स्वायंभुव मनु के काल में ); विश्व-सृजाम्--ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वालोंके; सत्रे--यज्ञ में; समेता:--एकत्र हुए; परम-ऋषय:--बड़े-बड़े ऋषि; तथा-- और भी; अमर-गणा:--देवता; सर्वे--सभी;स-अनुगाः:--अपने-अपने अनुयायियों सहित; मुनयः --विचारक, चिन्तक; अग्नय:--अग्निदेव |
मैत्रेय ने कहा : प्राचीन समय में एक बार ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वाले प्रमुख नायकों नेएक महान् यज्ञ सम्पन्न किया जिसमें सभी ऋषि, चिन्तक ( मुनि ), देवता तथा अग्निदेव अपने-अपने अनुयायियों सहित एकत्र हुए थे।
"
तत्र प्रविष्टमृषयो हृष्ठार्कमिव रोचिषा ।
भ्राजमानं वितिमिरं कुर्वन्तं तन्महत्सद: ॥
५॥
तत्र--वहाँ; प्रविष्टमू--प्रविष्ट हुआ; ऋषय:--ऋषिगण; हृष्टा--देखकर; अर्कम्--सूर्य; इब--सहृश्य; रोचिषा--कान्ति से;भ्राजमानम्--चमकते हुए, देदीप्यमान; वितिमिरम्--अंधकार से रहित; कुर्वन्तम्--करते हुए; तत्ू--वह; महत्--महान;सदः--सभा
जब प्रजापतियों के नायक दक्ष ने सभा में प्रवेश किया, तो सूर्य के तेज के समान चमकीलीकान्ति से युक्त उसके शरीर से सारी सभा प्रकाशित हो उठी और उसके समक्ष सभी समागतमहापुरुष तुच्छ लगने लगे।
"
उदतिष्ठन्सदस्यास्ते स्वधिष्ण्येभ्य: सहाग्नय: ।
ऋते विरिज्ञां शर्व च तद्धासाक्षिप्तचेतस: ॥
६॥
उदतिष्ठन्ू--खड़े हुए; सदस्या:--सभा के लोग; ते--वे; स्व-धिष्णयेभ्य: --अपने-अपने स्थानों पर; सह-अग्नय: --अग्नि देवोंसमेत; ऋते--के अतिरिक्त; विरिज्ञाम्ू-ब्रह्मा; शर्वमू--शिव; च--तथा; तत्--उसका ( दक्ष का ); भास--कान्ति से;आशक्षिप्त--प्रभावित; चेतस:ः--जिनके मनब
्रह्मा तथा शिवजी के अतिरिक्त, दक्ष की शारीरिक कान्ति ( तेज ) से प्रभावित होकर उससभा के सभी सदस्य तथा सभी अग्निदेव, उसके सम्मान में अपने आसनों से उठकर खड़े होगये।
"
सदसस्पतिभिर्दक्षो भगवान्साधु सत्कृतः ।
अजं लोकगुरुं नत्वा निषसाद तदाज्ञया ॥
७॥
सदसः--सभा के; पतिभि:--नायकों द्वारा; दक्ष:-- दक्ष; भगवान्--समस्त ऐ श्वर्यों के स्वामी; साधु--ढंग से; सत्-कृतः--सम्मानित हुआ; अजम्--अजन्मा ( ब्रह्मा ) को; लोक-गुरुमू--जगदगुरु; नत्वा-- प्रणाम करके; निषसाद--बैठ गया; तत्ू-आज्ञया--उनकी ( ब्रह्म की ) आज्ञा से
उस महती सभा के अध्यक्ष ब्रह्मा ने दक्ष का समुचित रीति से स्वागत किया।
ब्रह्माजी कोप्रणाम करने के पश्चात् उनकी आज्ञा पाकर दक्ष ने अपना आसन ग्रहण किया।
"
प्राइनिषण्णं मृड्ड इृष्टा नामृष्यत्तदनाहत: ।
उवबाच वाम॑ चश्नुर्भ्यामभिवीक्ष्य दहन्निव ॥
८ ॥
प्राकु--पहले से; निषण्णम्--बैठा; मृडम्ू--शिवजी को; हृष्टा--देखकर; न अमृष्यत्--सहन न कर सका; तत्--उनके( शिव ) द्वारा; अनाहतः--आदर न किया जाकर; उवाच--कहा; वामम्-- बेईमान; चश्चुर्भ्याम्--दोनों नेत्रों से; अभिवीक्ष्य--देखते हुए; दहन्-- ज्वलित; इब--मानो |
किन्तु आसन ग्रहण करने के पूर्व शिवजी को बैठा हुआ और उन्हें सम्मान न प्रदर्शित करतेहुए देखकर दक्ष ने इसे अपना अपमान समझा।
उस समय दक्ष अत्यन्त क्रुद्ध हुआ।
उसकी आँखेंतप रही थीं।
उसने शिव के विरुद्ध अत्यन्त कटु शब्द बोलना प्रारम्भ किया।
"
श्रूयतां ब्रह्मर्षयो मे सहदेवा: सहाग्नय: ।
साधूनां ब्रुवतो वृत्तं नाज्ञानान्न च मत्सरात्ू ॥
९॥
श्रूयताम्--सुनो; ब्रह्म-ऋषय: -हे ब्रह्मर्षियों; मे--मुझको; सह-देवा: --हे देवताओ; सह-अग्नय: --हे अग्नि देवो; साधूनाम्--सज्जनो के; ब्रुवतः--बोलते हुए; वृत्तम्ू--व्यवहार, आचार; न--नहीं; अज्ञानातू--अज्ञान से; न च--तथा नहीं; मत्सरात्-द्वेषसे
हे समस्त उपस्थित ऋषियो, ब्राह्मणो तथा अग्निदेवो, ध्यानपूर्वक सुनो क्योंकि मैं शिष्टाचारके विषय में बोल रहा हूँ।
मैं किसी अज्ञानता या ईर्ष्या से नहीं कह रहा।
"
अयं तु लोकपालानां यशोघ्नो निरपत्रप: ।
सद्धिराचरितः पन्था येन स्तब्धेन दूषित: ॥
१०॥
अयमू--यह ( शिव ); तु--लेकिन; लोक-पालानाम्--ब्रह्मण्ड के पालक; यशः-घ्न:--यश को नष्ट करने वाला; निरपत्रपः --निर्लज; सद्धिः--सदाचारी पुरुषों द्वारा; आचरित:--पालन किया गया; पन्था:--पथ; येन--जिसके ( शिव ) द्वारा; स्तब्धेन--आचरणविहीन द्वारा; दूषित: --लाडिछत |
शिव ने लोकपालकों के नाम तथा यश को धूल में मिला दिया है और सदाचार के पथ कोदूषित किया है।
निर्लज्ज होने के कारण उसे इसका पता नहीं है कि किस प्रकार से आचरणकरना चाहिए।
"
एष मे शिष्यतां प्राप्तो यन्मे दुहितुरग्रहीत् ।
पाणिं विप्राग्निमुखतः सावित्र्या इव साधुवत् ॥
११॥
एषः--यह ( शिव ); मे--मेरी; शिष्यताम्-- अधीनता; प्राप्त:--स्वीकार करके ; यत्-- क्योंकि; मे दुहितु:--मेरी पुत्री का;अग्रहीतू--ग्रहण किया; पाणिम्--हाथ; विप्र-अग्नि--ब्राह्मणों तथा अग्नि के; मुखतः--समक्ष; सावित्र्या: --गायत्री; इब--सहश; साधुवत्--साथु ( ईमानदार ) पुरुष के समान।
इसने अग्नि तथा ब्राह्मणों के समक्ष मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करके पहले ही मेरी अधीनतास्वीकार कर ली है।
इसने गायत्री के समान मेरी पुत्री के साथ विवाह किया है और अपने कोसत्यपुरुष बताया था।
"
गृहीत्वा मृगशावाक्ष्या: पाणिं मर्कटलोचन: ।
प्रत्युत्थानाभिवादाहँ वाचाप्यकृत नोचितम् ॥
१२॥
गृहीत्वा--ग्रहण करके; मृग-शाव--मृग के बच्चे के तुल्य; अक्ष्या:--नेत्र वाली; पाणिमू--हाथ; मर्कट--बन्दर के;लोचन:--नेत्रों वाला; प्रत्युत्थान--अपने आसन से उठने का; अभिवाद--सम्मान, अभिवादन; अहैँ --मुझ जैसे पात्र को;वाचा--मृदु वाणी से; अपि-- भी; अकृत न--नहीं किया; उचितम्--सम्मान |
इसके नेत्र बन्दर के समान हैं तो भी इसने मृगी जैसी नेत्रों वाली मेरी कन्या के साथ विवाहकिया है।
तो भी इसने उठकर न तो मेरा स्वागत किया और न मीठी वाणी से मेरा सत्कार करनाउचित समझा।
"
लुप्तक्रियायाशुचये मानिने भिन्नसेतवे ।
अनिच्छन्नप्यदां बालां शूद्रायेबोशती गिरम् ॥
१३॥
लुप्त-क्रियाय--शिष्टाचार का पालन न करते हुए; अशुचये--अपवित्र; मानिने--घमंडी; भिन्न-सेतवे--सभी मर्यादाओं को भंगकरके; अनिच्छन्--न चाहते हुए; अपि--यद्यपि; अदाम्-- प्रदान किया; बालाम्--अपनी पुत्री; शूद्राय--शूद्र को; इब--सहश; उशतीम् गिरमू--वेदों का सन्देश |
शिष्टाचार के सभी नियमों को भंग करने वाले इस व्यक्ति को अपनी कन्या प्रदान करने कीमेरी तनिक भी इच्छा नहीं थी।
वांछित विधि-विधानों का पालन न करने के कारण यह अपवित्रहै, किन्तु इसे अपनी कन्या प्रदान करने के लिए मैं उसी प्रकार बाध्य हो गया जिस प्रकार किसीशूद्र को वेदों का पाठ पढ़ाना पड़े।
"
प्रेतावासेषु घोरेषु प्रेते भूतगणैर्वृतःअटत्युन्मत्तवन्नग्नो व्युप्तकेशो हसन्रुदन् ।
चिताभस्मकृतस्नानः प्रेतस्त्रडन्नस्थिभूषण: ॥
१४॥
शिवापदेशो ह्शिवो मत्तो मत्तजनप्रियः ।
पतिः प्रमथनाथानां तमोमात्रात्मकात्मनाम् ॥
१५॥
प्रेत-आवासेषु--श्मशान में; घोरेषु-- भयंकर; प्रेतेः--प्रेतों द्वारा; भूत-गणै: -- भूतों द्वारा; वृतः:--घिरा हुआ, संग में; अटति--घूमता है; उन्मत्त-वत्--पागल के समान; नग्न:--नंगा; व्युप्त-केश:--बिखरे बालों वाला; हसन्--हँसता हुआ; रुदन्--चिल्लाता है; चिता--चिता की; भस्म--राख से; कृत-स्नान:--नहाकर ( लगाकर ); प्रेत--शवों के मुंडों की; सत्रकू--माला;नृ-अस्थि- भूषण:--मृत पुरुषों की अस्थियों को आभूषण बनाये हुए; शिव-अपदेश:--जो नाम का शिव ( शुभ ) है; हि--क्योंकि; अशिव:--अमंगल; मत्त:--विक्षिप्त; मत्त-जन-प्रिय: --विक्षिप्तों को प्रिय लगने वाला; पति:--नायक, स्वामी;प्रमथ-नाथानाम्--प्रमथों के स्वामियों का; तमः-मात्र-आत्मक-आत्मनाम्--तमोगुणी इन सबों का
वह श्मशान जैसे गंदे स्थानों में रहता है और उसके साथ भूत तथा प्रेत रहते हैं।
वह पागलोंके समान नंगा रहता है, कभी हँसता है, तो कभी चिल्लाता है और सारे शरीर में एमशान कीराख लपेटे रहता है।
वह ठीक से नहाता भी नहीं।
वह खोपड़ियों तथा अस्थियों की माला सेअपने शरीर को विभूषित करता है।
अतः वह केवल नाम से ही शिव है, अन्यथा वह अत्यन्तप्रमत्त तथा अशुभ प्राणी है।
वह केवल तामसी प्रमत्त लोगों का प्रिय है और उन्हीं का अगुवा है।
"
तस्मा उन्मादनाथाय नष्टशौचाय दुर्दे ।
दत्ता बत मया साध्वी चोदिते परमेष्ठलिना ॥
१६॥
तस्मै--उस; उन्माद-नाथाय-प्रेतों के स्वामी को; नष्टटशौचाय--समस्त स्वच्छता से रहित व्यक्ति को; दुईदे--विकारों से पूर्णहृदय; दत्ता-- प्रदान की गयी थी; बत--अहो; मया--मेरे द्वारा; साध्वी--सती; चोदिते--विनती किये जाने पर; परमेष्ठिना--परम गुरु ( ब्रह्मा ) द्वारा
ब्रह्माजी के अनुरोध पर मैंने अपनी साध्वी पुत्री उसे प्रदान की थी, यद्यपि वह समस्त प्रकारकी स्वच्छता से रहित है और उसका हृदय विकारों से पूरित है।
"
मैत्रेय उवाचविनिन्धैवं स गिरिशमप्रतीपमवस्थितम् ।
दक्षोथाप उपस्पृश्य क्रुद्धः शप्तुं प्रचक्रमे ॥
१७॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; विनिन्द्य--गाली देकर; एवम्--इस प्रकार; सः--वह ( दक्ष ); गिरिशम्--शिव; अप्रतीपम्--शत्रुतारहित; अवस्थितम्--स्थित रहकर; दक्ष:--दक्ष; अथ--अब; अप:--जल; उपस्पृश्य--हाथ तथा मुँह धोकर; क्रुद्धः--क्रुद्ध, नाराज; शप्तुम्-शाप देना; प्रचक्रमे--प्रारम्भ किया
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : इस प्रकार शिव को अपने विपक्ष में स्थित देखकर दक्ष ने जल सेआचमन किया और निम्नलिखित शब्दों से शाप देना प्रारम्भ किया।
"
अयं तु देवयजन इन्द्रोपेन्द्रादिभिर्भव: ।
सह भागं न लभतां देवैर्देवगणाधम: ॥
१८ ॥
अयमू--यह; तु--लेकिन; देव-यजने--देवताओं के यज्ञ में; इन्द्र-उपेन्द्र-आदिभि: --इन्द्र, उपेन्द्र तथा अन्यों सहित; भव:--शिव; सह--के साथ; भागम्--एक अंश; न--नहीं; लभताम्--प्राप्त करना चाहिए; देवै:--देवताओं से; देव-गण-अधम: --
समस्त देवताओं में सबसे निम्नदेवता तो यज्ञ की आहुति में भागीदार हो सकते हैं, किन्तु समस्त देवों में अधम शिव कोयज्ञ-भाग नहीं मिलना चाहिए।
"
निषिध्यमान: स सदस्यमुख्यै-दक्षो गिरित्राय विसृज्य शापम् ।
तस्माद्विनिष्क्रम्य विवृद्धमन्यु-ज॑गाम कौरव्य निजं निकेतनम् ॥
१९॥
निषिध्यमान:--मना किये जाने पर; सः--वह ( दक्ष ); सदस्य-मुख्यैः--यज्ञ के सदस्यों द्वारा; दक्ष:--दक्ष; गिरित्राय--शिवको; विसृज्य--त्याग कर; शापम्--शाप; तस्मात्--उस स्थान से; विनिष्क्रम्य--बाहर जाकर; विवृद्ध-मन्यु: --अत्यन्त क्रुद्धहोकर; जगाम--चला गया; कौरव्य--हे विदुर; निजमू--अपने; निकेतनम्--घर |
मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, उस यज्ञ के सभासदों द्वारा मना किये जाने पर भी दक्ष क्रोधमें आकर शिवजी को शाप देता रहा और फिर सभा त्याग कर अपने घर चला गया।
"
विज्ञाय शापं गिरिशानुगाग्रणी-न॑न्दी श्वरो रोषकषायदूषित: ।
दक्षाय शापं विससर्ज दारुणंये चान्वमोदंस्तदवाच्यतां द्विजा: ॥
२०॥
विज्ञाय--जानकर; शापम्--शाप; गिरिश--शिव का; अनुग-अग्रणी:-- प्रमुख पार्षदों में से एक; नन्दीश्वर:--नन्दी ध्वर; रोष--क्रोध; कषाय--लाल; दूषित:--अंध; दक्षाय--दक्ष को; शापम्--शाप; विससर्ज--दिया; दारुणम्--कठोर; ये--जिल्होंने;च--तथा; अन्वमोदन्--सहन किया; तत्-अवाच्यताम्--शिव को शाप देना; द्विजा:--ब्राह्मणजन
यह जानकर कि भगवान् शिव को शाप दिया गया है, शिव का प्रमुख पार्षद नन्दीश्वरअत्यधिक क्रुद्ध हुआ।
उसकी आँखें लाल हो गईं और उसने दक्ष तथा वहाँ उपस्थित सभीब्राह्मणों को, जिन्होंने दक्ष द्वारा कटु बचनों में शिवजी को शापित किए जाने को सहन कियाथा, शाप देने की तैयारी की।
"
य एतमन््मर्त्यमुद्दिश्य भगवत्यप्रतिद्रुहि ।
ब्रह्मत्यज्ञः पृथग्दृष्टिस्तत्तततो विमुखो भवेत् ॥
२१॥
यः--जो ( दक्ष ); एतत् मर्त्यमू--इस नश्वर शरीर के; उद्दिश्य-- प्रसंग में; भगवति--शिव को; अप्रतिद्गुहि--जो ईर्ष्यालु नहीं हैं;ब्ुह्मति--द्वेष करता है; अज्ञ:--कम बुद्ध्रिमान व्यक्ति; पृथक्-दृष्टि:--द्वैत भाव; तत्त्वतः--दिव्य ज्ञान से; विमुख: --रहित;भवेत्--हो जाए।
जिस किसी ने दक्ष को सर्वश्रेष्ठ पुरुष मान कर ईर्ष्यावश भगवान् शिव का निरादर किया है,वह अल्प बुद्धिवाला है और अपने द्वैतभाव के कारण वह दिव्यज्ञान से विहीन हो जाएगा।
"
गृहेषु कूटधर्मेषु सक्तो ग्राम्यसुखेच्छया ।
कर्मतन्त्रं वितनुते वेदबादविपन्नधी: ॥
२२॥
गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; कूट-धर्मेषु--कपट धार्मिकता में; सक्त:--आसक्त होने से; ग्राम्य-सुख-इच्छया-- भौतिक सुख कीकामना से; कर्म-तन्त्रमू--सकाम कर्म; वितनुते--करता है; वेद-वाद--वेद की व्याख्या से; विपन्न-धी:--नष्टबुद्धि |
जिस कपटपूर्ण धार्मिक गृहस्थ-जीवन में कोई मनुष्य भौतिक सुख के प्रति आसक्त रहता हैऔर साथ ही वेदों की व्यर्थ व्याख्या के प्रति आकृष्ट होता है, इसमें उसकी सारी बुद्धि हर लीजाती है और वह पूर्ण रूप से सकाम कर्म में लिप्त हो जाता है।
"
बुद्धया पराभिध्यायिन्या विस्मृतात्मगतिः पशु: ।
स्त्रीकामः सोस्त्वतितरां दक्षो बस्तमुखोचिरात् ॥
२३॥
बुद्धया--बुद्धि से; पर-अभिध्यायिन्या--शरीर को आत्म समझ कर; विस्मृत-आत्म-गति: --विष्णु ज्ञान को भूलकर; पशु: --पशु; स्त्री-काम:--विषयी जीवन में लिप्त रहकर; सः--वह; अस्तु--हो; अतितराम्ू--अतिशय; दक्ष: --दक्ष; बस्त-मुख: --बकरे का मुँह; अचिरातू-शीघ्र ही |
दक्ष ने देह को ही सब कुछ समझ रखा है।
इसने विष्णुपाद अथवा विष्णु-गति को भुलादिया है और केवल स्त्री-संभोग में ही लिप्त रहता है, अतः इसे शीघ्र ही बकरे का मुख प्राप्तहोगा।
"
विद्याबुद्धिरविद्यायां कर्ममय्यामसौ जड: ।
संसरन्त्विह ये चामुमनु शर्वावमानिनम् ॥
२४॥
विद्या-बुर्द्ध:--भौतिक शिक्षा तथा बुद्धि; अविद्यायाम्--अज्ञान में; कर्म-मय्याम्--सकाम कर्म से उत्पन्न; असौ--यह ( दक्ष );जडः--मन्द; संसरन्तु--बारम्बार जन्म धारण करे; इह--इस जगत में; ये--जो; च--तथा; अमुम्ू--दक्ष का; अनु--अनुसरणकरने वाले; शर्ब--शिव; अवमानिनम्-- अनादर करने से |
जो लोग भौतिक विद्या तथा युक्ति के अनुशीलन से पदार्थ की भाँति जड़ बन चुके हैं, वेअज्ञानवश सकाम कर्मों में लगे हुए हैं।
ऐसे मनुष्यों ने जानबूझकर भगवान् शिव का अनादरकिया है।
ऐसे लोग जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहें।
"
गिरः श्रुताया: पुष्पिण्या मधुगन्धेन भूरिणा ।
मथ्ना चोन्मधितात्मान: सम्मुहान्तु हरद्विष: ॥
२५॥
गिरः--शब्द; श्रुताया:--वेदों के; पुष्पिण्या:--पुष्पों से युक्त; मधु-गन्धेन--शहद की गन्ध से; भूरिणा--अत्यधिक; मथ्ना--मोहने वाली; च--तथा; उन्मधित-आत्मान:--जिनके मन जड़ बन चुके हैं; सम्मुहान्तु--वे आसक्त रहें; हर-द्विष:--शिव सेईर्ष्या करने वाले, शिवद्रोही |
मोहक वैदिक प्रतिज्ञाओं की पुष्पमयी ( अलंकृत ) भाषा से आकृष्ट होकर जो जड़ बन चुकेहैं और शिव-द्रोही हैं, वे सदैव सकाम कर्मों में निरत रहें।
"
सर्वभक्षा द्विजा वृत्त्ये धृतविद्यातपोब्रता: ।
वित्तदेहेन्द्रियारामा याचका विचरन्त्विह ॥
२६॥
सर्व-भक्षाः--सब कुछ खाने वाले; द्विजा:--ब्राह्मण लोग; वृत्त्य--शरीर पालने के लिए; ध्ृत-विद्या--शिक्षा का कार्य ग्रहणकरके; तपः--तपस्या; ब्रता:--तथा ब्रत; वित्त-- धन; देह--शरीर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आरामा: --तुष्टि; याचका:--भिक्षुकों केसमान; विचरन्तु--इधर-उधर घूमें; इह--यहाँ
ये ब्राह्मण केवल अपने शरीर-पालन के लिए विद्या, तप तथा ब्रतादि का आश्रय लें।
इन्हेंभक्ष्याभक्ष्य का विवेक न रह जाए।
ये द्वार-द्वार भिक्षा माँगकर अपने शरीर की तुष्टि के लिए धनकी प्राप्ति करें।
"
तस्यैवं बदतः शाप श्रुत्वा द्विजकुलाय वै ।
भृगुः प्रत्यसृजच्छापं ब्रह्मदण्डं दुरत्ययम् ॥
२७॥
तस्य--उसका ( नन्दीश्वर का ); एवम्ू--इस प्रकार; बदत:--शब्द; शापम्--शाप; श्रुत्वा--सुनकर; द्विज-कुलाय--ब्राह्मणोंको; बै--निस्सन्देह; भृगु:--भूगु ने; प्रत्यसूजत्--दिया; शापम्--शाप; ब्रह्म-दण्डम्--ब्राह्मण द्वारा दिया गया दण्ड;दुरत्ययम्--दुर्लघ्य, दुस्तर।
इस प्रकार जब नन्दीश्वर ने समस्त कुलीन ब्राह्मणों को शाप दे दिया तो प्रतिक्रियास्वरूपभूगमुनि ने शिव के अनुयायियों की भर्त्सना की और उन्हें घोर ब्रह्म-शाप दे दिया।
"
भवद्रतधरा ये च ये च तान्समनुव्रता: ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिन: ॥
२८॥
भव-ब्रत-धरा:--शिव के अनुयायी; ये--जो; च--तथा; ये--जो; च--तथा; तान्--ऐसे नियम; समनुव्रता:--पालन करतेहुए; पाषण्डिन:--नास्तिक; ते--वे; भवन्तु--हों; सत्-शास्त्र-परिपन्थिन:--दिव्य शास्त्रीय आदेशों से विपथ ।
जो शिव को प्रसन्न करने का ब्रत धारण करता है अथवा जो ऐसे नियमों का पालन करताहै, वह निश्चित रूप से नास्तिक होगा और दिव्य शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाला बनेगा।
"
नष्टशौचा मूढधियो जटाभस्मास्थिधारिण: ।
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ॥
२९॥
नष्ट-शौचा:--शुचिता ( पवित्रता ) का परित्याग करके; मूढ-धिय:--मूर्ख; जटा-भस्म-अस्थि-धारिण:--जटा, राख तथाहड्डियाँ धारण किये; विशन्तु--प्रवेश करें; शिव-दीक्षायाम्--शिव पूजा की दीक्षा में; यत्र--जहाँ; दैवम्--ई श्वरी हैं; सुर-आसवम्--मदिरा तथा आसव
जो शिव की पूजा का ब्रत लेते हैं, वे इतने मूर्ख होते हैं कि वे उनका अनुकरण करके अपनेशरीर पर लम्बी जटाएँ धारण करते हैं और शिव की उपासना की दीक्षा ले लेने के बाद वेमदिरा, मांस तथा अन्य ऐसी ही वस्तुएँ खाना-पीना पसंद करते हैं।
"
ब्रह्म च ब्राह्मणां श्षैव यद्यूयं परिनिन्दथ ।
सेतुं विधारणं पुंसामत: पाषण्डमाश्रिता: ॥
३०॥
ब्रह्म--वेद; च--तथा; ब्राह्मणान्ू--ब्राह्मणों को; च--तथा; एव--निश्चय ही; यत्-- क्योंकि; यूयम्--तुम सब; परिनिन्दथ--निन्दा करते हो; सेतुम्--वैदिक सिद्धान्त; विधारणम्-- धारण करते हुए; पुंसामू--मनुष्य जाति का; अत:--इसलिए;पाषण्डमू--नास्तिकता; आश्रिता:--शरण ले रखी है
भूगु मुनि ने आगे कहा : चूँकि तुम वैदिक नियमों के अनुयायी ब्राह्मणों तथा वेदों की निन््दाकरते हो इससे ज्ञात होता है कि तुमने नास्तिकता की नीति अपना रखी है।
"
एष एव हि लोकानां शिव: पन्था: सनातन: ।
यं पूर्वे चानुसन्तस्थुर्यत्प्रमाणं जनार्दन: ॥
३१॥
एषः--वेद; एव--निश्चय ही; हि-- क्योंकि; लोकानाम्--समस्त लोगों का; शिव:--कल्याणकारी; पन्था: --पथ; सनातन: --शाश्वत; यम्--जो ( वैदिक पथ ); पूर्वे-- भूतकाल में; च--तथा; अनुसन्तस्थु:--हढ़तापूर्वक पालित होता था; यत्--जिसमें;प्रमाणम्--साक्ष्य; जनार्दन: --जनार्दन |
वेद मानवीय सभ्यता के कल्याण की प्रगति हेतु शाश्वत विधान प्रदान करने वाले हैं जिसकाप्रीचीन काल में हढ़ता से पालन होता रहा है।
इसका सशक्त प्रमाण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्स्वयं हैं, जो जनार्दन अर्थात् समस्त जीवात्माओं के शुभेच्छु कहलाते हैं।
"
तद्गह्म परमं शुद्धं सतां वर्त्म सनातनम् ।
विगर्ह्य यात पाषण्डं दैवं वो यत्र भूतराटू ॥
३२॥
ततू--वह; ब्रह्म--वेद; परमम्--परम; शुद्धम्-शुद्ध; सताम्--साथु पुरुषों का; वर्त्म--पथ; सनातनम्--शाश्वत; विग्हा--निन््दा करके; यात--जाओ; पाषण्डम्--नास्तिकता को; दैवम्--देव; वः--तुम सबका; यत्र--जहाँ; भूत-राट्-- भूतों केस्वामी ।
ऐसे वेदों के नियमों की निन्दा करके, जो सत्पुरुषों के शुद्ध एवं परम पथ-रूप हैं, अरेभूतपति शिव के अनुयायियों तुम, निस्सन्देह नास्तिकता के स्तर तक जाओगे।
"
मैत्रेय उवाचतस्यैवं बदत: शापं भूगो: स भगवान्भव: ।
निश्चक्राम ततः किञ्ञिद्विमना इव सानुग: ॥
३३॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; तस्य--उसका; एवम्--इस प्रकार; वदतः--कहते हुए; शापम्--शाप; भूगो:-- भूगु का; सः --वह; भगवानू--सर्व ऐश्वर्यों का स्वामी; भव:--शिव; निश्चक्राम--चला गया; ततः--वहाँ से; किल्ञित्--कुछ-कुछ;विमना:--खिन्न; इब--सहश; स-अनुग: -- अपने शिष्यों सहित ।
मैत्रेय मुनि ने कहा : जब शिवजी के अनुयायियों तथा दक्ष एवं भूगु के पक्षधरों के बीचशाप-प्रतिशाप चल रहा था, तो शिवजी अत्यन्त खिन्न हो उठे और बिना कुछ कहे अपने शिष्योंसहित यज्ञस्थल छोड़कर चले गये।
"
चले जाँए।
तेउपि विश्वसृजः सत्र॑ सहस्त्रपरिवत्सरान् ।
संविधाय महेष्वास यत्रेज्य ऋषभो हरि: ॥
३४॥
ते--वे; अपि-- भी; विश्व-सृज:--ब्रह्मण्ड के जनक; सत्रम्ू--यज्ञ; सहस्त्र--एक हजार; परिवत्सरान्--वर्ष; संविधाय--सम्पन्नकरते हुए; महेष्वास--हे विदुर; यत्र--जिसमें; इज्य: --पूजनीय, उपास्य; ऋषभ:--समस्त देवताओं के प्रमुख देव; हरिः--हरि।
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : हे विदुर, इस प्रकार विश्व के सभी जनकों ( प्रजापतियों ) ने एकहजार वर्ष तक यज्ञ किया क्योंकि भगवान् हरि की पूजा की सर्वोत्तम विधि यज्ञ ही है।
"
आप्लुत्यावभूथ॑ यत्र गड़ा यमुनयान्विता ।
विरजेनात्मना सर्वे स्व स्व॑ं धाम ययुस्तत:ः ॥
३५॥
आप्लुत्य--स्नान करके; अवभूथम्--यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात् किया गया स्नान; यत्र--जहाँ; गड़ा--गंगा नदी; यमुनया--यमुना नदी से; अन्विता--मिली हुई; विरजेन--बिना किसी छूत से; आत्मना--मन से; सर्वे--सभी; स्वम् स्वम्-- अपने-अपने;धाम--निवास स्थान; ययु:--चले गये; तत:--वहाँ से |
हे धनुषबाणधारी विदुर, सभी यज्ञकर्ता देवताओं ने यज्ञ समाप्ति के पश्चात् गंगा तथा यमुनासंगम में स्नान किया।
ऐसा स्नान अवभूथ स्नान कहलाता है।
इस प्रकार से मन से शुद्ध होकर वेअपने-अपने धामों को चले गये।
"
अध्याय तीन: भगवान शिव और सती के बीच बातचीत
4.3मैत्रेय उवाचसदा विद्विषतोरेवं कालो वै प्रचियमाणयो: ।
जामातु: श्वशुरस्थापि सुमहानतिचक्रमे ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; सदा--निरन्तर; विद्विषतो:--तनाव; एवम्--इस प्रकार; काल:--समय; बै--निश्चय ही;प्रियमाणयो: --सहन करते हुए; जामातु:--दामाद का; श्वशुरस्थ--ससुर का; अपि-- भी; सु-महान्--अत्यधिक;अतिचक्रमे--बीत गया।
मैत्रेय ने आगे कहा : इस प्रकार से जामाता शिव तथा श्वसुर दक्ष के बीच दीर्घकाल तकतनाव बना रहा।
"
यदाभिषिक्तो दक्षस्तु ब्रह्मणा परमेषप्ठिना ।
प्रजापतीनां सर्वेषामाधिपत्ये स्मयोभवत् ॥
२॥
यदा--जब; अभिषिक्त:--नियुक्त; दक्ष:--दक्ष; तु--लेकिन; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; परमेष्ठिना--परम शिक्षक; प्रजापतीनाम्--प्रजापतियों का; सर्वेषाम्--समस्त; आधिपत्ये--प्रधान के रूप में; समय: --गर्वित; अभवत्--हो गया।
ब्रह्मा ने जब दक्ष को समस्त प्रजापतियों का मुखिया बना दिया तो दक्ष गर्व से फूल उठा।
"
इष्टा स वाजपेयेन ब्रह्नमिष्ठानभिभूय च ।
बृहस्पतिसवं नाम समारेभे क्रतूत्तमम् ॥
३॥
इष्ठा--सम्पन्न करके; सः--वह ( दक्ष ); वाजपेयेन--वाजपेय यज्ञ से; ब्रह्मिप्ठानू--शिव तथा उनके अनुयायियों को;अभिभूय--उपेक्षा करके; च--तथा; बृहस्पति-सवम्-- बृहस्पति-सव; नाम--नामक; समारेभे-- प्रारम्भ किया; क्रतु-उत्तमम्ू--यज्ञों में श्रेष्ठ |
दक्ष ने वाजपेय नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और उसे अत्यधिक विश्वास था कि ब्रह्माजी कासमर्थन तो प्राप्त होगा ही।
तब उसने एक अन्य महान् यज्ञ किया जिसे बृहस्पति-सव कहते हैं।
"
तस्मिन्ब्रह्मर्षय: सर्वे देवर्षिपितृदेवता: ।
आसन्कृतस्वस्त्ययनास्तत्पल्यश्च सभर्तृकाः ॥
४॥
तस्मिन्ू--उस ( यज्ञ ) में; ब्रहय-ऋषय: --ब्रह्मर्षि गण; सर्वे--समस्त; देवर्षि--देवर्षिगण; पितृ--पूर्वज, पितरगण; देवता: --देवता; आसनू-- थे; कृत-स्वस्ति-अयना: --आभूषणों से अच्छी प्रकार से अलंकृत किया गया; तत्ू-पत्य:--उनकी पत्नियाँ;च--तथा; स-भर्तृका:ः--अपने-अपने पतियों सहित ।
जब यज्ञ सम्पन्न हो रहा था ब्रह्माण्ड के विभिन्न भागों से अनेक ब्रह्मर्षि, मुनि, पितृकुल केदेवता तथा अन्य देवता, आभूषणों से अलंकृत अपनी-अपनी पत्नियों सहित उसमें सम्मिलितहुए।
"
तदुपश्रुत्य नभसि खेचराणां प्रजल्पताम् ।
सती दाक्षायणी देवी पितृयज्ञमहोत्सवम् ॥
५॥
ब्रजन्ती: सर्वतो दिग्भ्य उपदेववरस्त्रिय: ।
विमानयाना: सप्रेष्ठा निष्ककण्ठी: सुवासस: ॥
६॥
इष्ठा स्वनिलयाभ्याशे लोलाश्षीर्मुष्टकुण्डला: ।
पतिं भूतपतिं देवमौत्सुक्यादभ्यभाषत ॥
७॥
तत्--तब; उपश्रुत्य--सुनकर; नभसि--आकाश में; खे-चराणाम्--आकाश मार्ग से जाने वाले ( गन्धर्व ); प्रजल्पताम्--संलाप; सती--सती; दाक्षायणी--दक्ष की पुत्री; देवी--शिव की पत्नी; पितृ-यज्ञ-महा-उत्सवम्--अपने पिता द्वारा सम्पन्नकिया जाने वाला महान् यज्ञ; ब्रजन्ती: --जा रहे थे; सर्वतः--सभी; दिग्भ्य:--दिशाओं से; उपदेव-वर-स्त्रियः --देवताओं कीसुन्दर स्त्रियाँ; विमान-याना:--अपने-अपने विमानों में उड़ती हुई; स-प्रेष्ठाः--अपने-अपने पतियों के संग; निष्क-कण्ठी:--लाकेट से युक्त सुन्दर हार पहने; सु-वासस:--सुन्दर वस्त्रों से आभूषित; हृष्टा--देखकर; स्व-निलय-अभ्याशे -- अपने घर केनिकट; लोल-अक्षी: --चंचल नेत्रोंवाली; मृष्ट-कुण्डला: --सुन्दर कान के आभूषण; पतिम्--अपने पति; भूत-पतिम्-- भूतों केस्वामी; देवम्--देवता; औत्सुक्यात्--उत्सुकता से; अभ्यभाषत--वह बोली |
दक्ष कन्या साध्वी सती ने आकाश मार्ग से जाते हुए स्वर्ग के निवासियों को परस्पर बातें करते हुए सुना कि उसके पिताद्वारा महान् यज्ञ सम्पन्न कराया जा रहा हैं।
जब उसने देखा किसभी दिशाओं से स्वर्ग के निवासियों की सुन्दर पत्लियाँ, जिनके नेत्र अत्यन्त सुन्दरता से चमकरहे थे, उसके घर के समीप से होकर सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित होकर तथा कानों में कुण्डल एवंगले में लाकेट युक्त हार से अलंकृत होकर जा रही हैं, तो वह अपने पति भूतनाथ के पासअत्यन्त उद्िगता-पूर्वक गई और इस प्रकार बोली।
"
सत्युवाचप्रजापतेस्ते श्वशुरस्य साम्प्रतंनिर्यापितो यज्ञमहोत्सवः किल ।
बयं च तत्राभिसराम वाम तेयद्यर्थितामी विबुधा ब्रजन्ति हि ॥
८॥
सती उवाच--सती ने कहा; प्रजापतेः--दक्ष का; ते--तुम्हारे; श्रशुरस्थ--ससुर का; साम्प्रतम्ू--इस समय; निर्यापित:--प्रारम्भकिया गया है; यज्ञ-महा-उत्सव:--महान् यज्ञ; किल--निश्चय ही; वयम्--हम; च--तथा; तत्र--वहाँ; अभिसराम--जा सकें;वाम-हे प्राणप्रिय शिव; ते--तुम्हारा; यदि--यदि; अर्थिता--इच्छा; अमी--ये; विबुधा:--देवता; ब्रजन्ति-- जा रहे हैं; हि--क्योंकि
सती ने कहा : हे प्राणप्रिय शिव, इस समय आपके श्वसुर महान् यज्ञ कर रहे हैं और सभीदेवता आमंत्रित होकर वहीं जा रहे हैं।
यदि आप कहें तो हम भी चले चलें।
"
तस्मिन्भगिन्यो मम भर्तृभिः स्वकै-भ्रुव॑ं गमिष्यन्ति सुहृद्िहक्षव: ।
अहं च तस्मिन्भवताभिकामयेसहोपनीतं परिबर्हमर्हितुम् ॥
९॥
तस्मिन्ू--उस यज्ञ में; भगिन्य:--बहनें; मम--मेरी; भर्तृभि:-- अपने-अपने पतियों सहित; स्वकै:--अपनी ओर से; श्रुवम्--निश्चय ही; गमिष्यन्ति--जाएंगी; सुहत्-दिदृक्षव:ः --अपने परिजनों से भेंट करने की इच्छुक; अहम्--मैं; च--तथा; तस्मिन्--उस उत्सव में; भवता--आपके ( शिव के ) साथ; अभिकामये--इच्छा करती हूँ; सह--साथ; उपनीतमू्--प्रदत्त; परिबर्हम्--आभूषण; अर्हितुम्ू--स्वीकार करने।
मैं सोचती हूँ कि मेरी सभी बहनें अपने सम्बन्धियों से भेंट करने की इच्छा से अपने-अपनेपतियों सहित इस महान् यज्ञ में अवश्य आयी होंगी।
मैं भी अपने पिता द्वारा प्रदत्त आभूषणों सेअपने को अलंकृत करके आपके साथ उस उत्सव में भाग लेने की इच्छुक हूँ।
"
तत्र स्वसूर्मे ननु भर्तृसम्मितामातृष्वसू: क्लिन्नधियं च मातरम् ।
द्रक्ष्ये चिरोत्कण्ठमना महर्षिभिर्उन्नीयमानं च मृडाध्वरध्वजम् ॥
१०॥
तत्र--वहाँ; स्वसू:--अपनी बहनें; मे--मेरी; ननु--निश्चय ही; भर्तु-सम्मिता:--अपने-अपने पतियों के साथ; मातृ-स्वसृ:--मौसियाँ; क्लिन्न-धियम्--स्नेहिल; च--तथा; मातरम्ू--माता को; द्रक्ष्ये--देखूँगी; चिर-उत्कण्ठ-मना:--दीर्घकाल से उत्सुक;महा-ऋषिभि: --महान् ऋषियों द्वारा; उन्नीयमानमू--उठाये हुए; च--तथा; मूृड--हे शिव; अध्वर--यज्ञ; ध्वजम्ू--झंडे
वहाँ पर मेरी बहनें, मौसियाँ तथा मौसे एवं अन्य प्रिय परिजन एकत्र होंगे; अतः यदि मैं वहाँतक जाऊँ तो उन सबों से मेरी भेंट हो जाये और साथ ही मैं उड़ती हुई ध्वजाएँ तथा ऋषियों द्वारासम्पन्न होते यज्ञ को भी देख सकूँगी।
हे प्रिय, इसी कारण से मैं जाने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।
"
त्वय्येतदाश्चर्यमजात्ममाययाविनिर्मितं भाति गुणत्रयात्मकम् ।
तथाप्यहं योषिदतत्त्वविच्च तेदीना दिदक्षे भव मे भवक्षितिम् ॥
११॥
त्वयि--तुममें; एतत्--वह; आश्चर्यम्--विस्मथघजनक; अज--हे शिव; आत्म-मायया--परमे श्वर की बहिरंगा शक्ति से;विनिर्मितम्--विरचित; भाति--प्रतीत होती है; गुण-त्रय-आत्मकम्--प्रकृति के तीनों गुणों की अन्तःक्रिया होने से; तथाअपि--तो भी; अहम्--मैं; योषित्--स्त्री; अतत्त्व-वित्--सत्य से अनजान; च--तथा; ते--तुम्हारी; दीना--गरीब, दुखिया;दिदृदक्षे--देखना चाहती हूँ; भव--हे शिव; मे--मेरी ( अपनी ); भव-क्षितिम्--जन्म भूमि |
यह दृश्य जगत त्रिगुणों की अन्तःक्रिया अथवा परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति की अदभुत सृष्टिहै।
आप इस वास्तविकता से भलीभाँति परिचित हैं।
किन्तु मैं तो अबला स्त्री हूँ और जैसा आपजानते हैं मैं सत्य से अनजान हूँ।
अतः मैं एक बार फिर से अपनी जन्मभूमि देखना चाहती हूँ।
"
पश्य प्रयान्तीरभवान्ययोषितो'प्यलड्डू ताः कान्तसखा वरूथश: ।
यासां ब्रजद्धि: शितिकण्ठ मण्डितंनभो विमान: कलहंसपाण्डुभि: ॥
१२॥
पश्य--देखो तो; प्रयान्ती:--जाती हुई; अभव--हे अजन्मा; अन्य-योषित:--अन्य स्त्रियाँ; अपि--निश्चय ही; अलड्डू ता: --सजी-धजी; कान्त-सखा: --अपने पतियों तथा मित्रों सहित; वरूथश:--झुंड की झुंड; यासाम्--जिनके; ब्रजद्धि:--उड़ते हुए;शिति-कण्ठ--हे नीलकण्ठ; मण्डितम्--सुशोभित; नभ:--आकाश; विमानै:--विमानों से; कल-हंस--हंस; पाण्डुभि:--श्वेत
हे अजमा हे नीलकण्ठ न केवल मेरे सम्बन्धी वरन् अन्य स्त्रियाँ भी अच्छे अच्छे वस्त्र पहनेऔर आभूषणों से अलंकृत होकर अपने पतियों तथा मित्रों के साथ जा रही हैं।
जरा देखो तो कि उनके श्वेत विमानों के झुण्डों ने सारा आकाश को किस प्रकार सुशोभित कर रखा है!" कथ॑ं सुताया: पितृगेहकौतुकंनिशम्य देह: सुरवर्य नेड़ते ।
अनाहुता अप्यभियन्ति सौहदंभर्तुर्गुरोदेहकृतश्च केतनम् ॥
१३॥
'कथम्--कैसे; सुताया:--पुत्री को; पितृ-गेह-कौतुकम्--पिता के घर में उत्सव; निशम्य--सुनकर; देह:--शरीर; सुर-वर्य--हेदेवों में श्रेष्ठ; न--नहीं; इड़ते--विचलित; अनाहुता:--बिना बुलाये; अपि--ही; अभियन्ति--जाता है; सौहदम्--मित्र; भर्तु:--पति के; गुरोः--गुरु के; देह-कृतः--पिता के; च--तथा; केतनम्--घर |
हे देवश्रेष्ठ, भला एक पुत्री का शरीर यह सुनकर कि उसके पिता के घर में कोई उत्सव होरहा है, विचलित हुए बिना कैसे रह सकता है? यद्यपि आप यह सोच रहे होंगे कि मुझे आमंत्रितनहीं किया गया, किन्तु अपने मित्र, पति, गुरु या पिता के घर बिना बुलाये भी जाने में कोईहानि नहीं होती।
"
तन्मे प्रसीदेदममर्त्य वाउिछतंकर्तु भवान्कारुणिको बताईति ।
त्वयात्मनोर्थेउहमदभ्रचक्षुषानिरूपिता मानुगृहाण याचितः ॥
१४॥
तत्--अतः; मे--मुझ पर; प्रसीद--कृपालु हों; इदम्--यह; अमर्त्य--हे अमर; वाउ्छितम्--इच्छा; कर्तुमू--करने की;भवान्--आप; कारुणिक: --दयालु; बत--हे स्वामी; अर्हति--समर्थ; त्वया--आपके द्वारा; आत्मन:--आपके ही शरीर के;अर्धे--आधे भाग में; अहम्--मैं; अदभ्च-चक्षुषा--सभी ज्ञान से युक्त; निरूपिता--स्थित; मा--मुझको; अनुगृहाण -- अनुग्रहीतकरें; याचितः --प्रार्थित |
हे अमर शिव, कृपया मुझ पर दयालु हों और मेरी इच्छा पूरी करें।
आपने मुझे अद्धांगिनी केरूप में स्वीकार किया है, अतः मुझ पर दया करके मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।
"
ऋषिरुवाचएवं गिरित्र: प्रिययाभिभाषितःप्रत्यभ्यधत्त प्रहसन्सुहृत्प्रियः ।
संस्मारितो मर्मभिदः कुवागिषून्यानाह को विश्वसूजां समक्षत: ॥
१५॥
ऋषि: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; एवम्--इस प्रकार; गिरित्र:-- भगवान् शिव ने; प्रियया-- अपनी प्रिया द्वारा;अभिभाषितः--कहे जाने पर; प्रत्यभ्यधत्त--उत्तर दिया; प्रहसन्--हँसते हुए; सुहृत्-प्रियः--परिजनों के प्रिय; संस्मारित:--स्मरण करते हुए; मर्म-भिद:ः--मर्म भेदी, हृदय में चुभने वाले; कुवाक्-इषून्ू--द्वेषपूर्ण शब्द; यान्--जो ( शब्द )आह--कहा;कः--कौन ( दक्ष ); विश्व-सृजाम्--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टाओं की; समक्षतः--उपस्थिति में |
मैत्रेय महर्षि ने कहा : इस प्रकार अपनी प्रियतमा द्वारा सम्बोधित किये जाने पर कैलाशपर्वत के उद्धारक शिव ने हँसते हुए उत्तर दिया यद्यपि उसी समय उन्हें विश्व के समस्त प्रजापतियोंके समक्ष दक्ष द्वारा कहे गये द्वेषपूर्ण मर्मभेदी शब्द स्मरण हो आये।
"
श्रीभगवानुवाचत्वयोदितं शोभनमेव शोभनेअनाहुता अप्यभियन्ति बन्धुषु ।
ते यद्यनुत्पादितदोषदृष्टयोबलीयसानात्म्यमदेन मन्युना ॥
१६॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; त्वया--तुम्हारे द्वारा; उदितम्ू--कहा; शोभनम्--सही है; एव--निश्चय ही; शोभने--मेरी सुन्दर पतली; अनाहुता:--बिना बुलाये; अपि--ही; अभियन्ति--जाते हैं; बन्धुषु--मित्रों के बीच; ते--वे ( मित्र ); यदि--यदि; अनुत्पादित-दोष-दृष्टय:--दोष न निकालकर; बलीयसा--अधिक महत्त्वपूर्ण; अनात्म्य-मदेन--देह से उत्पन्न अभिमान से;मन्युना--क्रोध से।
प्रभु ने उत्तर दिया : हे सुन्दरी, तुमने कहा कि अपने मित्र के घर बिना बुलाये जाया जासकता है।
यह सच है, किन्तु तब जब वह देहात्मबोध के कारण अतिथि में दोष न निकाले और उस पर क्रुद्ध न हो।
"
विद्यातपोवित्तवपुर्वयःकुलैःसतां गुणै: षड्भरसत्तमेतरै: ।
स्मृतौ हतायां भृतमानदुर्दशःस्तब्धा न पश्यन्ति हि धाम भूयसाम् ॥
१७॥
विद्या--शिक्षा; तप:--तपस्या; वित्त--सम्पत्ति; वपु:--शरीर की सुन्दरता इत्यादि; वबः--यौवन; कुलैः--कुल से; सताम्ू--पवित्र लोगों का; गुणैः--ऐसे गुणों के कारण; षड्भिः--छह; असत्तम-इतरैः--जो महान्-आत्मा नहीं हैं उनके विपरीतआचरण वाले; स्मृतौ--अच्छा भाव; हतायाम्--खोया हुआ; भृत-मान-दुर्दश: --गर्व से अन्धा; स्तब्धा:--घमंडी होकर; न--नहीं; पश्यन्ति--देखते हैं; हि--क्योंकि; धाम--यश; भूयसाम्--महान् आत्माओं का।
यद्यपि शिक्षा, तप, धन, सौन्दर्य, यौवन और कुलीनता--ये छह गुण अत्यन्त उच्च होते हैं,किन्तु जो इनको प्राप्त करके मदान्ध हो जाता है और इस प्रकार वह सदज्ञान खो बैठता है, वहमहापुरुषों के महिमा को स्वीकार नहीं कर पाता।
"
नैताइशानां स्वजनव्यपेक्षयागृहान्प्रतीयादनवस्थितात्मनाम् ।
येभ्यागतान्वक्रधियाभिचक्षतेआरोपितशभ्रूभिरमर्षणाक्षिभि: ॥
१८॥
न--नहीं; एताहशानाम्--इस प्रकार; स्व-जन--सम्बन्धी के; व्यपेक्षया--उस पर निर्भर रह कर; गृहान्--घर में; प्रतीयात्--जाना चाहिए; अनवस्थित--विचलित; आत्मनाम्--मन; ये--जो; अभ्यागतान्ू--अतिथि; वक़-धिया--अनादर से;अभिचक्षते--देखते हुए; आरोपित-भ्रूभि:--उठी हुई भूकुटियों से; अमर्षण--क्रुद्ध; अक्षिभि:--आँखों से |
मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी स्थिति में किसी दूसरे व्यक्ति के घर न जाये, भले ही वहउसका सम्बन्धी या मित्र ही क्यों न हो, जब वह मन से श्लुब्ध हो और अतिथि को तनी हुईं भूकुटियों एवं क्रुद्ध नेत्रों से देख रहा हो।
"
तथारिभिर्न व्यथते शिलीमुखै:ःशेतेडर्दिताड़ो हृदयेन दूयता ।
स्वानां यथा वक्रधियां दुरुक्तिभिर्दिवानिशं तप्यति मर्मताडित: ॥
१९॥
तथा-- अतः; अरिभि:--शत्रु के द्वारा; न--नहीं; व्यथते--आहत; शिलीमुखै:--वाणों द्वारा; शेते--लेटता है; अर्दित--दुखित;अड्ड--अंग, कोई भाग; हृदयेन--हृदय से; दूयता--कष्ट पहुँचाता हुआ; स्वानाम्--स्वजनों का; यथा--जिस प्रकार; वक्र-धियाम्ू--कुटिल बुद्द्धि, छली; दुरुक्तिभिः--कटु वचनों से; दिवा-निशम्--अहर्निश, दिन-रात; तप्यति--बेचैन रहता है; मर्म-ताडित:--जिसकी भावनाओं को ठेस पहुँचती है मर्माहत
शिवजी ने कहा : यदि कोई शत्रु के बाणों से आहत हो तो उसे उतनी व्यथा नहीं होतीजितनी कि स्वजनों के कटु बचनों से होती है क्योंकि यह पीड़ा रात-दिन हृदय में चुभती रहतीहै।
"
व्यक्त त्वमुत्कृष्टगते: प्रजापतेःप्रियात्मजानामसि सुभ्रु मे मता ।
तथापि मान न पितु: प्रपत्स्यसेमदाश्रयात्क: परितप्यते यतः ॥
२०॥
व्यक्तम्ू-स्पष्ट है; त्वम्--तुम; उत्कृष्ट-गतेः--उत्तम आचरण वाली; प्रजापतेः--प्रजापति दक्ष की; प्रिया--अत्यन्त प्रिय;आत्मजानाम्--पुत्रियों में; असि--हो; सुभ्रु--हे सुन्दर भौंहों वाली; मे--मेरा; मता--विचार कर; तथा अपि--फिर भी;मानम्--सम्मान; न--नहीं; पितुः--अपने पिता से; प्रपत्स्यसे--प्राप्त करोगी; मत्-आश्रयात्-- मुझसे सम्बन्धित होने से; क:ः--दक्ष; परितप्यते--पीड़ा का अनुभव करता है; यतः--जिससे |
हे शुभ्रांगिनी प्रिये, यह स्पष्ट है कि तुम दक्ष को अपनी पुत्रियों में सबसे अधिक प्यारी हो, तोभी तुम उसके घर में सम्मानित नहीं होगी, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो।
उल्टे तुम्हें ही दुख होगा कितुम मुझसे सम्बन्धित हो।
"
पापच्यमानेन हृदातुरेन्द्रियःसमृद्ध्धिभिः पूरुषबुद्धिसाक्षिणाम् ।
अकल्प एषामधिरोढुमझसापरं पद द्वेष्टि यथासुरा हरिम्ू ॥
२१॥
पापच्यमानेन--जलते हुए; हृदा--हृदय में; आतुर-इन्द्रियः--संकट ग्रस्त; समृद्द्धिभि:--पतवित्र ख्याति इत्यादि से; पूरुष-बुद्धि-साक्षिणामू-परमे श्वर के ध्यान में सदैव लीन रहने वालों का; अकल्प: --असमर्थ होकर; एषाम्--उन पुरुषों का; अधिरोढुम्--उठने के लिए; अज्ञसा--शीघ्र; परमू--केवल; पदम्--स्तर तक; द्वेष्टि--द्वेष रखता है, कुढ़ता रहता है; यथा--जितना कि;असुरा:--असुरगण; हरिम्-- श्री भगवान् से |
जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित होकर सदैव मन से तथा इन्द्रियों से संतापित रहता है, वह स्वरूप-सिद्ध पुरुषों के ऐश्वर्य को सहन नहीं कर पाता।
आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने मेंअक्षम होने से वह ऐसे पुरुषों से उसी प्रकार से ईर्ष्या करता है, जिस प्रकार असुर श्रीभगवान् सेईर्ष्या करते हैं।
"
प्रत्युद्गमप्र भ्रयणाभिवादनंविधीयते साधु मिथ: सुमध्यमे ।
प्राज्रेः परस्मै पुरुषाय चेतसागुहाशयायैव न देहमानिने ॥
२२॥
प्रत्युदूगम-- अपने आसन पर खड़े होना; प्रश्रगण --स्वागत करना; अभिवादनम्--नमस्कार; विधीयते--किये जाते हैं; साधु --उचित; मिथ:--पारस्परिक ; सु-मध्यमे--हे मेरी प्रिये; प्राज्ैः--बुद्ध्धिमान द्वारा; परस्मै--परमे श्वर को; पुरुषाय--परमात्मा को;चेतसा--बुद्धि से; गुहा-शयाय--शरीर के भीतर बैठकर; एव--निश्चय ही; न--नहीं; देह-मानिने--देह रूप पुरुष को ।
हे तरुणी भार्ये, निस्सन्देह, मित्र तथा स्वजन खड़े होकर एक दूसरे का स्वागत औरनमस्कार करके परस्पर अभिवादन करते हैं।
किन्तु जो दिव्य पद पर ऊपर उठ चुके हैं, वे प्रबुद्धहोने के कारण ऐसा सम्मान प्रत्येक शरीर में वास करने वाले परमात्मा का ही करते हैं,देहाभिमानी पुरुष का नहीं।
"
सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितंयदीयते तत्र पुमानपावृतः ।
सत्त्वे च तस्मिन्भगवान्वासुदेवोह्ाधोक्षजो मे नमसा विधीयते ॥
२३॥
सत्त्वम्-चेतना; विशुद्धम््-शुद्ध; वसुदेव--वसुदेव; शब्दितम्--नाम से विख्यात; यत्--क्योंकि; ईयते--प्रकट होता है;तत्र--वहाँ; पुमानू--परम पुरुष; अपावृत:--किसी आवरण के बिना; सत्त्वे--चेतना में; च--तथा; तस्मिन्ू--उसमें;भगवान्-- भगवान्; वासुदेव:--वासुदेव; हि-- क्योंकि; अधोक्षज: --दिव्य; मे--मेरे द्वारा; नमसा--नमस्कार से; विधीयते--पूजित।
मैं शुद्ध कृष्णचेतना में भगवान् वासुदेव को सदैव नमस्कार करता रहता हूँ।
कृष्णभावनामृतही सदैव शुद्ध चेतना है, जिसमें वासुदेव नाम से अभिहित श्रीभगवान् का बिना किसी प्रकार कादुराव का अनुभव होता है।
"
तत्ते निरीक्ष्यो न पितापि देहकृद्दक्षो मम द्विट्तदनुव्रताश्व ये ।
यो विश्वसृग्यज्ञगतं वरोरु मा-मनागसं दुर्वचचसाकरोत्तिर: ॥
२४॥
तत्--अतः; ते--तुम्हारा; निरीक्ष्य:--देखने जाने के लिए; न--नहीं; पिता--तुम्हारा पिता; अपि--यद्यपि; देह-कृत्--तुम्हारेशरीर का दाता; दक्ष:--दक्ष; मम--मेरा; द्विट्ू--ईर्ष्यालु; तत्-अनुव्रता: --उसके ( दक्ष के ) अनुयायी; च-- भी; ये--जो;यः--जो ( दक्ष ); विश्व-सुक्ू--विश्वस्कों के; यज्ञ-गतम्--यज्ञ में उपस्थित होने से; वर-ऊरू--हे सती; माम्ू--मुझको;अनागसमू--निर्दोष होने से; दुर्वचसा--कटुवचनों से; अकरोत् तिर:-- अपमान किया है
अतः तुम्हें अपने पिता को, यद्यपि वह तुम्हारे शरीर का दाता है, मिलने नहीं जाना चाहिएक् योंकि वह और उसके अनुयायी मुझसे ईर्ष्या करते हैं।
हे परम पूज्या, इसी ईर्ष्या के कारण मेरेनिर्दोष होते हुए भी उसने अत्यन्त कटु शब्दों से मेरा अपमान किया है।
"
यदि ब्रजिष्यस्यतिहाय मद्बचोभद्रं भवत्या न ततो भविष्यति ।
सम्भावितस्य स्वजनात्पराभवोयदा स सद्यो मरणाय कल्पते ॥
२५॥
यदि--यदि; ब्रजिष्यसि--तुम जाओगी; अतिहाय--उपेक्षा करके; मत्-वच:--मेरे वचन; भद्रमू--कल्याण; भवत्या: --तुम्हारा; न--नहीं; ततः--तब; भविष्यति--होगा; सम्भावितस्य--अत्यन्त सम्माननीय; स्वजनात्-- अपने सम्बन्धियों द्वारा;पराभव:ः--अपमानित होते हैं; यदा--जब; सः--वह अपमान; सद्य:--तुरन््त; मरणाय-- मृत्यु के; कल्पते--तुल्य है
यदि इस शिक्षा के बावजूद मेरे बचनों की उपेक्षा करके तुम जाने का निश्चय करती हो तोतुम्हारे लिए भविष्य अच्छा नहीं होगा।
तुम अत्यन्त सम्माननीय हो और जब तुम स्वजन द्वाराअपमानित होगी तो यह अपमान तुरन्त ही मृत्यु के तुल्य हो जाएगा।
"
अध्याय चार: सती ने अपना शरीर त्याग दिया
4..4मैत्रेय उवाचएतावदुक्त्वा विरराम शट्डूरःपत्यडुनाशं ह्युभयत्र चिन्तयन्।
सुहहिहक्षु: परिशद्धिता भवा-न्रिष्क्रामती निर्विशती द्विधास सा ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; एतावत्--इतना; उक्त्वा--कह कर; विरराम--शान्त हो गये; शद्भूरः -- भगवान् शिव; पत्नी-अड्ड-नाशम्--अपनी पतली के शरीर का विनाश; हि--चूँकि; उभयत्र--दोनों प्रकार से; चिन्तयन्--सोचते हुए; सुहृत्-दिदक्षु:--अपने सम्बधियों को देखने के लिए इच्छुक; परिशड्भिता-- भयभीत; भवात्--शिव से; निष्क्रामती--बाहर आती;निर्विशती-- भीतर जाती; द्विधा--दुचित्ती; आस--थी; सा--वह ( सती )॥
मैत्रेय मुनि ने कहा : सती को असमंजस में पाकर शिवजी यह कह कर शान्त हो गये।
सतीअपने पिता के घर में अपने सम्बन्धियों को देखने के लिए अत्यधिक इच्छुक थी, किन्तु साथ हीवह शिवजी की चेतावनी से भयभीत थी।
मन अस्थिर होने से वह हिंडोले की भाँति कक्ष सेबाहर और भीतर आ-जा रही थी।
"
सुहद्दिहक्षाप्रतिघातदुर्म ना:स्नेहाद्ुद॒त्यश्रुकलातिविहला ।
भवं भवान्यप्रतिपूरुषं रुषाप्रधक्ष्यतीवैक्षत जातवेपथु: ॥
२॥
सुहृत्-दिहृक्षा-- अपने सम्बन्धियों को देखने की इच्छा की; प्रतिघात--बाधा; दुर्मना:--अनमनी होकर; स्नेहात्--स्नेहवशरुदती--रोती हुई; अश्रु-कला--आँसुओं की बूँदों से; अतिविहला--अत्यधिक व्याकुल; भवम्--शिव; भवानी--सती;अप्रति-पूरुषम्--अद्वितीय; रुषा--क्रो ध से; प्रधक्ष्यती-- भस्म करने; इब--मानो; ऐश्षत--देखा; जात-वेपथु: --हिलती हुई,थर-थर काँपती हुईं।
इस तरह अपने पिता के घर जाकर अपने सम्बन्धियों को देखने से मना किये जाने पर सतीअत्यन्त दुखी हुई।
उन सबके स्नेह के कारण उसकी आँखों से अश्रु गिरने लगे।
थरथराती एवं अत्यधिक व्याकुल होकर उसने अपने अद्वितीय पति भगवान् शंकर को इस प्रकार से देखा मानोवह अपनी दृष्टि से उन्हें भस्म करने जा रही हो।
"
ततो विनि:श्रस्यथ सती विहाय त॑शोकेन रोषेण च दूयता हृदा ।
पित्रोरगास्स्रैणविमूढधीर्गृहान्प्रेम्णात्मनो योर्धमदात्सतां प्रिय: ॥
३॥
ततः--तब; विनिः श्वस्थ-- जोर-जोर से साँस लेते हुए; सती--सती; विहाय--त्याग कर; तम्ू--उसको ( शिव को ); शोकेन--शोक से; रोषेण--क्रोध से; च--तथा; दूयता--विहल; हृदा--हृदय से; पित्रो:--अपने पिता के; अगात्--चली गई; स्त्रैण --अपनी स्त्री प्रकृति के कारण; बिमूढ--प्रवंचित; धी:--बुद्धि; गृहान्ू--घर को; प्रेम्णा--प्रेमवश; आत्मन:--अपने शरीर का;यः--जो; अर्धम्--आधा; अदात्--दे दिया; सताम्--साधु पुरुषों को; प्रिय:--प्रिय |
तत्पश्चात् सती अपने पति शिवजी को, जिन्होंने प्रेमवश उसे अपना अर्धाँग प्रदान किया था,छोड़कर क्रोध तथा शोक के कारण लम्बी-लम्बी साँसें भरती हुई अपने पिता के घर को चलीगईं।
उससे यह अल्प बुद्ध्धिमत्ता-पूर्ण कार्य उसका अबला नारी होने के फलस्वरूप हुआ।
"
तामन्वगच्छन्द्रुतविक्रमां सती-मेकां त्रिनेत्रानुचरा: सहस्त्रशः ।
सपार्षदयक्षा मणिमन्मदादयःपुरोवृषेन्द्रास्तरसा गतव्यथा: ॥
४॥
तामू--उसको ( सती को ); अन्वगच्छन्--पीछा करते; द्रुत-विक्रमाम्-तेजी से छोड़ते; सतीम्--सती को; एकाम्--अकेले;त्रि-नेत्र--शिव ( तीन नेत्रों वाले ) के; अनुचरा: --अनुयायी; सहस्त्रश:--हजारों; स-पार्षद-यक्षा:--उनके पार्षदों तथा यक्षों केसहित; मणिमत्-मद-आदय:--मणिमान्, मद आदि; पुरः-वृष-इन्द्रा:--नन्दी बैल को आगे करके; तरसा--तेजी से; गत-व्यथा:--निर्भीक |
जब उन्होंने सती को तेजी से अकेले जाते देखा तो शिवजी के हजारों अनुत्तर, जिनमेंमणिमान तथा मद प्रमुख थे, नन््दी बैल को आगे करके तथा यक्षों को साथ लेकर जल्दी से सतीके पीछे-पीछे हो लिए।
"
तां सारिकाकन्दुकदर्पणाम्बुज-श्वेतातपत्रव्यजनस्त्रगादिभि: ।
गीतायनैर्दुन्दुभिशद्डुवेणुभि-वृषिन्द्रमारोप्य विटड्डिता ययु; ॥
५॥
तामू--उसकी ( सती को ); सारिका--पालतू पक्षी मैना; कन्दुक--गेंद; दर्पण--शीशा; अम्बुज--कमल का फूल; श्वेत-आततपत्र--सफेद छाता; व्यजन--पंखा; सत्रकू--माला; आदिभि:--इत्यादि; गीत-अयनै:--संगीत के साथ; दुन्दुभि--डुग्गी,ढोल; शद्भु--शंख; वेणुभि:--मुरली से; वृष-इन्द्रमू--बैल पर; आरोप्य--चढ़ाकर; विटछ्लिता:--आभूषित; ययु:--वे गये।
शिव के अनुचरों ने सती को बैल पर चढ़ा लिया और उन्हें उनकी पालतू चिड़िया ( मैना ) देदी।
उन्होंने कमल का फूल, एक दर्पण तथा उनके आमोद-प्रमोद की सारी सामग्री ले ली औरउनके ऊपर एक विशाल छत्र तान दिया।
उनके पीछे ढोल, शंख तथा बिगुल बजाता हुआ दलराजसी शोभा यात्रा के समान भव्य लग रहा था।
"
आब्रह्मघोषोर्जितयज्ञवैशसंविप्रर्षिजुष्ट विबुधेश्व सर्वशः ।
मृद्दार्ववःकाझनदर्भचर्मभि-निसृष्टठभाण्डं यजनं समाविशत् ॥
६॥
आ--चारों ओर से; ब्रह्म-घोष--वैदिक मंत्रों की ध्वनियों से; ऊर्जित--सजाया; यज्ञ--यज्ञ; वैशसम्-- पशु बलि; विप्रर्षि-जुष्टम्ू--जुटे हुए ऋषि; विबुधे:--देवताओं से; च--तथा; सर्वशः--सभी दिशाओं में; मृत्ू--मिट्टी के; दारु--काठ के;अयः--लोह; काझ्जनन--सोने के ; दर्भ--कुश; चर्मभि: --खालों से; निसृष्ट--बने; भाण्डम्--बलि पशु तथा भांडे ( बर्तन );यजनमू--यज्ञ; समाविशत्-- प्रवेश किया
तब सती अपने पिता के घर पहुँची जहाँ यज्ञ हो रहा था और उसने यज्ञस्थल में प्रवेश कियाजहाँ वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण हो रहा था।
वहाँ सभी ऋषि, ब्राह्मण तथा देवता एकत्र थे।
वहाँपर अनेक बलि-पशु थे और साथ ही मिट्टी, पत्थर, सोने, कुश तथा चर्म के बने पात्र थे जिनकीयज्ञ में आवश्यकता पड़ती है।
"
तामागतां तत्र न कश्चनाद्वियद्विमानितां यज्ञकृतो भयाज्जनः ।
ऋते स्वसूर्वे जननीं च सादराः प्रेमा श्रुकण्ठ्य: परिषस्वजुर्मुदा ॥
७॥
तामू--उसके ( सती के ); आगताम्--आगमन से; तत्र--वहाँ; न--नहीं; कश्चन--किसी ने; आद्रवियत्--स्वागत किया;विमानिताम्ू--आदर न पाकर; यज्ञ-कृतः--यज्ञकर्ता ( दक्ष ); भयात्-- भय से; जन:--व्यक्ति; ऋते--के अतिरिक्त; स्वसृ:--उसकी बहनें; वै--निस्सन्देह; जननीम्--माता; च--तथा; स-आदराः:--आदर सहित; प्रेम-अश्रु-कण्ठ्य:--स्नेह-अश्रुओं सेभरे हुए कण्ठ; परिषस्वजु:--आलिंगन किया; मुदा--प्रसन्न मुख से |
जब सती अनुचरों सहित यज्ञस्थल में पहुँचीं, तो किसी ने उनका स्वागत नहीं किया, क्योंकिवहाँ पर एकत्रित सभी लोग दक्ष से भयभीत थे।
उनकी माता तथा बहनों ने अश्रुपूरित नेत्रों तथाप्रसन्न मुखों से उसका स्वागत किया और उससे बड़े ही प्रेम से बातें कीं।
"
सौदर्यसम्प्रश्नसमर्थवार्तयामात्रा च मातृष्वसृभिश्च सादरम् ।
दत्तां सपर्या वरमासनं च सानादत्त पित्राप्रतिनन्दिता सती ॥
८॥
सौदर्य--अपनी बहनों का; सम्प्रश्न--समादर; समर्थ--उचित; वार्तया--कुशल समाचार; मात्रा --अपनी माता द्वारा; च--तथा; मातृ-स्वसृभि:--मौसियों द्वारा; च--तथा; स-आदरम्--आदरपूर्वक; दत्तामू--दी गईं; सपर्याम्-पूजा; वरम्--भेंटें;आसनमू--आसन; च--तथा; सा--उस; न आदत्त--ग्रहण नहीं किया; पित्रा--अपने पिता द्वारा; अप्रतिनन्दिता--समादरित नहोने से; सती--सती ने
यद्यपि उनकी बहनों तथा माता ने उनका स्वागत-सत्कार किया, किन्तु उन्होंने उनकेस्वागत-बचनों का कोई उत्तर नहीं दिया।
यद्यपि उन्हें आसन तथा उपहार दिये गये, किन्तु उन्होंनेकुछ भी स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनके पिता न तो उनसे बोले और न उनका कुशल-दश्षेमपूछ कर उनका स्वत्कार किया।
"
अरुद्रभागं तमवेक्ष्य चाध्वरंपित्रा च देवे कृतहेलनं विभौ ।
अनाहता यज्ञसदस्यधी श्वरीचुकोप लोकानिव धक्ष्यती रूुषा ॥
९॥
अरुद्र-भागम्--शिव का यज्ञभाग न पाकर; तम्--उसे; अवेक्ष्य--देखकर; च--तथा; अध्वरमू--यज्ञस्थल; पित्रा--अपने पिताद्वारा; च--तथा; देवे--शिव की; कृत-हेलनम्--अवहेलना करके; विभौ--स्वामी के; अनाहता--अनादर की गई; यज्ञ-सदसि--यज्ञ की सभा में; अधी श्वरी --सती; चुकोप-- अत्यधिक क्रुद्ध हुई; लोकान्--चौदहों लोक; इब--मानो; धक्ष्यती --जलाती हुई; रुषा--क्रोध से |
यज्ञस्थल में जाकर सती ने देखा कि उनके पति शिवजी का कोई यज्ञ भाग नहीं रखे गये हैं।
तब उन्हें यह आभास हुआ कि उनके पिता ने शिव को आमंत्रित नहीं किया; उल्टे जब दक्ष नेशिव की पूज्य पत्नी को देखा तो उसने उसका भी आदर नहीं किया।
अतः इससे वे अत्यन्त क्रुद्धहुईं; यहां तक कि वह और अपने पिता को इस प्रकार देखने लगीं मानो उसे अपने नेत्रों से भस्मकर देंगी।
"
जग सामर्षविपन्नया गिराशिवद्दिषं धूमपथश्रमस्मयम् ।
स्वतेजसा भूतगणान्समुत्थितान्निगृह्ा देवी जगतोउभिश्रुण्वत: ॥
१०॥
जगर--निन््दा करने लगी; सा--वह; अमर्ष-विपन्नया--क्रोध के कारण अस्फुट; गिरा--वाणी से; शिव-द्विषम्--शिव काशत्रु; धूम-पथ--यज्ञों में; श्रम--कष्टों से; स्मयम्--अत्यन्त गर्वित; स्व-तेजसा--अपनी आज्ञा से; भूत-गणानू-- भूतों के;समुत्थितानू--सन्नद्ध, तत्पर ( दक्ष को मारने के लिए ); निगृह्य--रोका; देवी--सती ने; जगतः--सबों की उपस्थिति में;अभिश्रुण्वत:ः--सुना जाकर।
शिव के अनुचर, भूतगण दक्ष को क्षति पहुँचाने अथवा मारने के लिए तत्पर थे, किन्तु सतीने आदेश देकर उन्हें रोका।
वे अत्यन्त क्रुद्ध और दुखी थीं और उसी भाव में वे यज्ञ केसकामकर्मों की विधि की तथा उन व्यक्तियों की, जो इस प्रकार के अनावश्यक एवं कष्टकरयज्ञों के लिए गर्व करते हैं, भर्तस्सना करने लगीं।
उन्होंने सबों के समक्ष अपने पिता के विरुद्धबोलते हुए उसकी विशेष रूप से निन््दा की।
"
देव्युवाचन यस्य लोकेस्त्यतिशायन: प्रिय-स्तथाप्रियो देहभूतां प्रियात्मन: ।
तस्मिन्समस्तात्मनि मुक्तवैरकेऋते भवन्तं कतमः प्रतीपयेत् ॥
११॥
देवी उबाच--देवी ( सती ) ने कहा; न--नहीं; यस्य--जिसका; लोके-- इस जगत में; अस्ति-- है; अतिशायन: --प्रतिद्वन्द्दी नहोना; प्रिय: --प्रिय; तथा--उसी प्रकार; अप्रिय:--शत्रु; देह-भृताम्--देहधारी; प्रिय-आत्मन:--अत्यन्त प्रिय; तस्मिन्ू--शिवके प्रति; समस्त-आत्मनि--संसार भर के प्राणी; मुक्त-बैरके --जो समस्त शत्रुता से मुक्त है, शत्रुविहीन; ऋते--अतिरिक्त;भवन्तमू--आपके; कतम:--कौन; प्रतीपयेत्--ईर्ष्यालु होगा ।
देवी सती ने कहा : भगवान् शिव तो समस्त जीवात्माओं के लिए अत्यन्त प्रिय हैं।
उनकाकोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है।
न तो कोई उनका अत्यन्त प्रिय है और न कोई उनका शत्रु है।
आपकेसिवा और ऐसा कौन है, जो ऐसे विश्वात्मा से द्वेष करेगा, जो समस्त वैर से रहित हैं?"
दोषान्परेषां हि गुणेषु साधवोगृहनन्ति केचिन्न भवाहशो द्विज ।
गुणां श्र फल्गून्बहुली करिष्णवोमहत्तमास्तेष्वविदद्धवानघम् ॥
१२॥
दोषान्--दोष; परेषाम्--अन्यों के; हि--क्योंकि; गुणेषु--गुणों में; साधव:--साधुजन; गृहन्ति--पाते हैं; केचित्--कुछ;न--नहीं; भवाहशः--आपके समान; द्विज-हे द्विज; गुणान--गुण; च--तथा; फल्गूनू--छोटा; बहुली-करिष्णव:--अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा देता है; महत्-तमा:--महापुरुष; तेषु--उनमें से; अविदत्--ढूँढते हैं; भवान्ू--आप; अघम्--दोष, त्रुटि
हे द्विज दक्ष, आप जैसा व्यक्ति ही अन्यों के गुणों में दोष ढूँढ सकता है।
किन्तु शिव अन्योंके गुणों में कोई दोष नहीं निकालते, विपरीत इसके यदि किसी में थोड़ा भी गुण होता है, तो वेउसे और भी अधिक बढ़ा देते हैं।
दुर्भाग्यवश आपने ऐसे महापुरुष पर दोषारोपण किया है।
"
नाश्चर्यमेतद्यदसत्सु सर्वदामहद्विनिन्दा कुणपात्मवादिषु ।
सेष्य महापूरुषपादपांसुभि-निरस्ततेज:सु तदेव शोभनम् ॥
१३॥
न--नहीं; आश्चर्यमू--विस्मयपूर्ण; एतत्--यह; यत्--जो; असत्सु--बुराई; सर्वदा--सदैव; महत्-विनिन्दा--महात्माओं कीनिन््दा; कुणप-आत्म-वादिषु--शव को ही जिन्होंने आत्मरूप मान रखा है उनमें; स-ईर्ष्यम्--ईर्ष्या; महा-पूरुष--महापुरुषों की;पाद-पांसुभि:--चरण-रज से; निरस्त-तेज:सु--घटा हुआ तेज; तत्--वह; एव--निश्चय ही; शोभनमू्--अति उत्तम
जिन लोगों ने इस नश्वर भौतिक शरीर को ही आत्मरूप मान रखा है, उनके लिए महापुरुषोंकी निन्दा करना कोई आश्चर्य की बात नहीं।
भौतिकतावादी पुरुषों के लिए ऐसी ईर्ष्या ठीक हीहै, क्योंकि इसी प्रकार से उनका पतन होता है।
वे महापुरुषों की चरण-रज से लघुता प्राप्त करतेहैं।
"
यददव्यक्षरं नाम गिरेरितं नृणांसकृत्प्रसड्रादघधमाशु हन्ति तत् ।
पवित्रकीर्ति तमलड्घ्यशासनंभवानहों द्वेष्टि शिवं शिवेतरः ॥
१४॥
यतू--जो; द्वि-अक्षरम्--दो अक्षरों वाले; नाम--नाम; गिरा ईरितम्--जीभ से उच्चरित होकर; नृणाम्--मनुष्यों की; सकृत्ू--एक बार; प्रसड्भात्ू--हृदय से; अधम्--पापपूर्ण कृत्य; आशु--तुरन्त; हन्ति--नष्ट कर देता है; तत्--वह; पवित्र-कीर्तिम्--शुद्ध यश; तम्--उसको; अलड्घ्य-शासनम्--जिनके आदेश की उपेक्षा नहीं की जाती; भवान्--आप; अहो--ओह; द्वेष्टि--द्वेष करते हैं; शिवम्-- भगवान् शिव से; शिव-इतर:--अशुभ |
सती ने आगे कहा : हे पिता, आप शिव से द्वेष करके घोरतम अपराध कर रहे हैं क्योंकिउनका दो अक्षरों, शि तथा व, वाला नाम मनुष्य को समस्त पापों से पवित्र करने वाला है।
उनकेआदेश की कभी उपेक्षा नहीं होती।
शिवजी सदैव शुद्ध हैं और आपके अतिरिक्त अन्य कोई उनसेद्वेष नहीं करता।
"
यत्पादपद्ां महतां मनोइलिभि-निषिवितं ब्रह्सासवार्थिभि: ।
लोकस्य यद्वर्षति चाशिषोरथिन-स्तस्मै भवान्द्रुह्मति विश्वबन्धवे ॥
१५॥
यत्-पाद-पदाम्--जिनके चरणकमल; महताम्--महान् पुरुषों के; मनः-अलिभि:--मनरूपी भौरों से; निषेवितम्--संलग्नरहकर; ब्रह्म-गरस--दिव्य आनन्द ( ब्रह्मानन्द ) का; आसव-अर्थिभि:-- अमृत की खोज में; लोकस्य--सामान्य जन की; यत्--जो; वर्षति--पूरी करता है; च--तथा; आशिष: --इच्छाएँ; अर्थिन: --ढूँढते हुए; तस्मै--उस; भवानू--आप; ब्रुह्मति--द्रोहकरते हैं; विश्व-बन्धवे--तीनों लोक की समस्त जीवात्माओं के मित्र के प्रति
आप उन शिव से द्रोह करते हैं, जो तीनों लोकों के समस्त प्राणियों के मित्र हैं।
वे सामान्यपुरुषों की समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं और ब्रह्मानन्द ( दिव्य आनन्द ) की खोज करनेवाले उन महापुरुषों को भी आशीर्वाद देते हैं, जो उनके चरण-कमलों के ध्यान में लीन रहते हैं।
"
कि वा शिवाख्यमशिवं न विवुस्त्वदन्येब्रह्मादयस्तमवकीर्य जटा: एमशाने ।
तन्माल्यभस्मनृकपाल्यवसत्पिशाचै-ये मूर्थभिर्दधति तच्चरणावसूष्टम् ॥
१६॥
किम् वा--अथवा; शिव-आख्यम्--शिव कहलाने वाले; अशिवम्--अशुभ, अमंगल; न विदु:--नहीं जानते; त्वत् अन्ये--आपके अतिरिक्त, अन्य; ब्रहा-आदय:--ब्रह्मा इत्यादि; तम्--उनको ( शिव को ); अवकीर्य--बिखेरे हुए; जटा:--जटा बनाये;श्मशाने--श्मशान में; तत्-माल्य-भस्म-नू-कपाली --जो नर-मुंडों की माला पहने और राख लगाये हुए हैं; अवसत्--संग रहनेवाले; पिशाचै:--असुरों के साथ; ये--जो; मूर्धभि:ः--शिर से; दधति--धारण करते हैं; तत्-चरण-अवसृष्टम्--उनकेचरणकमल से गिरी हुईं
क्या आप यह सोचते हैं कि आपसे भी बढ़कर सम्माननीय व्यक्ति जैसे भगवान् ब्रह्मा, इसशिव नाम से विख्यात अमंगल व्यक्ति को नहीं जानते ? वे श्मशान में असुरों के साथ रहते हैं,उनकी जटाएँ शरीर के ऊपर बिखरी रहती हैं, वे नरमुंडों की माला धारण करते हैं और एमशानकी राख शरीर में लपेटे रहते हैं, किन्तु इन अशुभ गुणों के होते हुए भी ब्रह्मा जैसे महापुरुषउनके चरणों पर चढ़ाये गये फूलों को आदरपूर्वक अपने मस्तकों पर धारण करके उनका सम्मानकरते हैं।
"
'कर्णों पिधाय निरयाद्यदकल्प ईशेधर्मावितर्यसृणिभिनृभिरस्यमाने ।
छिन्द्यात्प्रसह्य रुशतीमसती प्रभुश्ने-जिह्वामसूनपि ततो विसूजेत्स धर्म: ॥
१७॥
कर्णो--दोनों कान; पिधाय--बन्द करके; निरयात्--चले जाना चाहिए; यत्--यदि; अकल्प:-- असमर्थ; ईशे -- स्वामी; धर्म-अवितरि--धर्म का नियंत्रक; असृणिभि: --निरंकुश; नृभि:--व्यक्ति; अस्यमाने--कलंकित होकर; छिन्द्यात्--काट देनाचाहिए; प्रसह्य --बलपूर्वक; रुशतीम्--निन््दा करने वाली; असतीम्--निन्दक की; प्रभुः--समर्थ; चेत्--यदि; जिह्मामू--जी भ;असून्ू--( अपना ) जीवन; अपि--निश्चय ही; तत:--तब; विसृजेत्--त्याग देना चाहिए; सः--वह; धर्म:--विधि है|
सती ने आगे कहा : यदि कोई किसी निरंकुश व्यक्ति को धर्म के स्वामी तथा नियंत्रक कीनिन््दा करते सुने और यदि वह उसे दण्ड देने में समर्थ नहीं है, तो उसे चाहिए कि कान मूँद करवहाँ से चला जाय।
किन्तु यदि वह मारने में सक्षम है, तो उसे चाहिए कि वह बलपूर्वक निन्दककी जीभ काट ले और अपराधी का वध कर दे।
तत्पश्चात् वह अपने भी प्राण त्याग दे।
"
अतस्तवोत्पन्नमिदं कलेवरंन धारयिष्ये शितिकण्ठगर्हिण: ।
जग्धस्य मोहादिद्वि विशुद्धिमन्धसोजुगुप्सितस्योद्धरणं प्रचक्षते ॥
१८॥
अतः--इसलिए; तब--तुम से; उत्पन्नम्--प्राप्त; इदम्--यह; कलेवरम्--शरीर; न धारयिष्ये-- धारण नहीं करूँगी; शिति-'कण्ठ-गर्हिण:--शिव को अपमानित करने वाला; जग्धस्य--खाया गया; मोहात्-- भूल से; हि-- क्योंकि; विशुद्धिम्-- शुद्धि;अन्धसः-- भोजन का; जुगुप्सितस्थ--विषैला; उद्धरणम्--वमन, कै; प्रचक्षते--घोषित किया जाता है।
अतः मैं इस अयोग्य शरीर को, जिसे मैंने आपसे प्राप्त किया है और अधिक काल तकधारण नहीं करूँगी, क्योंकि आपने शिवजी की निन्दा की है।
यदि कोई विषैला भोजन कर लेतो सर्वोत्तम उपचार यही है कि उसे वमन कर दिया जाय।
"
न वेदवादाननुवर्तते मतिः स्व एव लोके रमतो महामुने: ।
यथा गतिर्देवमनुष्ययो: पृथक्स्व एव धर्मे न परं क्षिपेत्स्थित: ॥
१९॥
न--नहीं; वेद-वादान्--वेदों के विधि-विधान; अनुवर्तते--पालन करते; मति:ः --मन; स्वे-- अपनी ओर से; एब--निश्चय ही;लोके--आत्म में; रमत:-- भोगता हुआ; महा-मुने: --दिव्य पुरुषों का; यथा--जिस प्रकार; गति:--मार्ग, ढंग; देव-मनुष्ययो: --मनुष्यों तथा देवताओं का; पृथक्ू--अलग-अलग; स्वे--अपने में; एब-- अकेले; धर्मे--कर्तव्य; न--नहीं;परम्--अन्य; क्षिपेतू--आलोचना करे; स्थित:--स्थित होकर ।
दूसरों की आलोचना करने से श्रेयस्कर है कि अपना कर्तव्य निभाया जाये।
बड़े-बड़े दिव्यपुरुष भी कभी-कभी वेदों के विधि-विधानों का उल्लंघन कर देते हैं, क्योंकि उन्हें अनुसरणकरने की आवश्यकता नहीं होती, ठीक उसी प्रकार जैसे कि देवता तो आकाश मार्ग में विचरतेहैं, किन्तु सामान्य जन धरती पर चलते हैं।
"
कर्म प्रवृत्तं च निवृत्तमप्यृतंवेदे विविच्योभयलिड्रमाथ्रितम् ।
विरोधि तद्यौगपदैककर्तारिद्ववयं तथा ब्रह्मणि कर्म नरच्छति ॥
२०॥
कर्म-कार्य; प्रवृत्तम्-- भौतिक सुख में आसक्त; च--तथा; निवृत्तम्--भौतिक दृष्टि से विरक्त; अपि--निश्चय ही; ऋतम्--सत्य; वेदे--वेदों में; विविच्य--अन्तर वाले; उभय-लिड्डम्ू-दोनों के लक्षण; आश्रितम्--निर्देशित; विरोधि--विरोधी; तत्--वह; यौगपद-एक-कर्तरि--एक ही व्यक्ति में दोनों कर्म; द्ययम्ू--दो; तथा--अतः ; ब्रह्मणि--दिव्य पुरुष में; कर्म--कार्य; नऋच्छति-- उपेक्षित होते हैं।
वेदों में दो प्रकार के कर्मों के निर्देश दिये गये हैं--एक उनके लिए जो भौतिक सुख मेंलिप्त हैं और दूसरा उनके लिए जो भौतिक रूप से विरक्त हैं।
इन दो प्रकार के कर्मों का विचारकरते हुए दो प्रकार के मनुष्य हैं जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं।
यदि कोई एक ही व्यक्ति में इनदोनों प्रकार के कर्मों को देखना चाहता है, तो यह विरोधाभास होगा।
किन्तु दिव्य पुरुष के द्वाराइन दोनों प्रकार के कर्मों की उपेक्षा की जा सकती है।
"
मा व: पदव्य: पितरस्मदास्थिताया यज्ञशालासु न धूमवर्त्मभि: ।
तदन्नतृप्तैरसु भूद्धिरीडिताअव्यक्तलिड्रा अवधूतसेविता: ॥
२१॥
मा--नहीं हैं; व:--तुम्हारे; पदव्य:ः--ऐश्वर्य; पित:--हे पिता; अस्मत्-आस्थिता:--हमारे द्वारा प्राप्त; या:--जो ( ऐश्वर्य ); यज्ञ-शालासु--यज्ञ की अग्नि में; न--नहीं; धूम-वर्त्मभि:--यज्ञों के पथ द्वारा; ततू-अन्न-तृप्तैः--यज्ञ के अन्न द्वारा तृप्त; असु-भूद्धिः--शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला; ईंडिता: -- प्रशंसित; अव्यक्त-लिड्रा:--जिसका कारण प्रकट नहीं है;अवधूत-सेविता: --स्वरूपसिद्ध व्यक्तियों द्वारा प्राप्त
हे पिता, हमारे पास जो ऐश्वर्य है उसकी कल्पना कर पाना न तो आपके लिए और न आपकेचाटुकारो के लिए सम्भव है, क्योंकि जो पुरुष महान् यज्ञों को सम्पन्न करके सकाम कर्म मेंप्रवृत्त होते हैं, वे तो अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को यज्ञ में अर्पित अन्न खाकर पूरा करनेकी चिन्ता में लगे रहते हैं।
हम वैसा सोचने मात्र से ही अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन कर सकते हैं।
ऐसा वे ही कर सकते हैं, जो विरक्त, स्वरूपसिद्ध महापुरुष हैं।
"
नैतेन देहेन हरे कृतागसोदेहोद्धवेनालमलं कुजन्मना ।
ब्रीडा ममाभूत्कुजनप्रसड़तस्तज्जन्म धिग्यो महतामवद्यकृत् ॥
२२॥
न--नहीं; एतेन--इस; देहेन--देह के द्वारा; हरे--शिव के प्रति; कृत-आगसः--अपराध करके ; देह-उद्धवेन--आपके शरीर सेउत्पन्न; अलम् अलम्--बहुत हुआ, बहुत हुआ, बस बस; कु-जन्मना--निन्दनीय जन्म से; ब्रीडा--लज्जा; मम--मेरा; अभूत्--था; कु-जन-प्रसड्त:--बुरे व्यक्ति के साथ से; तत् जन्म--वह जन्म; धिक्--धिक्कार है, लजाजनक; यः--जो; महताम्ू--महापुरुषों का; अवद्य-कृत्ू--अपराधी |
आप भगवान् शिव के चरणकमलों के प्रति अपराधी हैं और दुर्भाग्यवश मेरा शरीर आपसेउत्पन्न है।
मुझे अपने इस शारीरिक सम्बन्ध के लिए अत्यधिक लज्जा आ रही है और मैं अपनीस्वयं भर्त्सना करती हूँ कि मेरा शरीर ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध से दूषित है, जो महापुरुष केचरणकमलों के प्रति अपराधी है।
"
गोत्र त्वदीयं भगवान्वृषध्वजोदाक्षायणीत्याह यदा सुदुर्मना: ।
व्यपेतनर्मस्मितमाशु तदाहंव्युत्त्रक्ष्य एतत्कुणपं त्वदड़जम् ॥
२३॥
गोत्रमू--पारिवारिक सम्बन्ध; त्वदीयम्ू--आपका; भगवान्--समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; वृषध्वज:--शिव; दाक्षायणी--दक्ष कीकन्या, दाक्षायणी; इति--इस प्रकार; आह--कहती है; यदा--जब; सुदुर्मना:--अत्यन्त खिन्न; व्यपेत--अहृश्य होते हैं; नर्म-स्मितमू--मेरी प्रसन्नता तथा हँसी; आशु--तुरन््त; तदा--तब; अहमू--मैं; व्युत्सत्रक्ष्ये--त्याग दूँगी; एतत्--यह ( शरीर );कुणपम्--मृत शरीर; त्वत्-अड्भ-जम्--तुम्हारे शरीर से उत्पन्न ।
जब शिवजी मुझे दाक्षायणी कह कर पुकारते हैं, तो अपने पारिवारिक सम्बन्ध के कारण मैंतुरन्त खिन्न हो उठती हूँ और मेरी सारी प्रसन्नता तथा हँसी तुरन्त भाग जाती है।
मुझे अत्यन्त खेदहोता है कि मेरा यह थेले जैसा शरीर आपके द्वारा उत्पन्न है।
अतः मैं इसे त्याग दूँगी।
"
मैत्रेय उवाचइत्यध्वरे दक्षमनूद्य शत्रुहन्क्षितावुदीचीं निषसाद शान्तवाक् ।
स्पृष्ठा जल॑ पीतदुकूलसंबृतानिमील्य हृग्योगपर्थं समाविशत् ॥
२४॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; अध्वरे--यज्ञस्थल में; दक्षम्-दक्ष को; अनूद्य--बोल कर; शत्रु-हन्--शत्रुओं के विनाशकर्ता; क्षितौ--पृथ्वी पर; उदीचीम्--उत्तर की ओर; निषसाद--बैठ गई; शान्त-वाक्--चुप होकर; स्पृष्ठा --छूकर; जलमू--जल; पीत-दुकूल-संवृता--पीले वस्त्रों से आच्छादित; निमील्य--मूँद कर; हक्--दृष्टि; योग-पथम्--योगक्रिया; समाविशत्-- ध्यानमग्न हो गई।
मैत्रय ऋषि ने विदुर से कहा : हे शत्रुओं के संहारक, यज्ञस्थल में अपने पिता से ऐसा कहकर सती भूमि पर उत्तरमुख होकर बैठ गईं।
केसरिया वस्त्र धारण किये उन्होंने जल से अपने कोपवित्र किया और योगक्रिया में अपने को ध्यानमग्न करने के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।
"
कृत्वा समानावनिलौ जितासनासोदानमुत्थाप्य च नाभिचक्रतः ।
शनेईदि स्थाप्य धियोरसि स्थितंकण्ठादश्रुवोर्म ध्यमनिन्दितानयत् ॥
२५॥
कृत्वा--स्थापित करके; समानौ--साम्यावस्था में; अनिलौ--प्राण तथा अपान वायुओं को; जित-आसना--आसन को वक्ष मेंकरके; सा--वह ( सती ); उदानम्--प्राण वायु; उत्थाप्य--उठाकर; च--तथा; नाभि-चक्रत:--नाभिचक्र पर; शनै: -- धीरे-धीरे; हदि--हृदय में; स्थाप्य--स्थापित करके ; धिया--बुद्धि से; उरसि--फुफ्फुस मार्ग की ओर; स्थितम्--स्थापित कीजाकर; कण्ठातू--कंठ से होकर; भ्रुवो:--भौंहों के; मध्यम्--बीच में; अनिन्दिता--निष्कलंक ( सती ); आनयत्--ऊपर लेगई।
सबसे उन्होंने अपेक्षित रीति से आसन जमाया और फिर प्राणवायु को ऊपर खींचकर नाभिके निकट सन्तुलित अवस्था में स्थापित कर दिया।
तब प्राणवायु को उत्थापित करके,बुद्धिपूर्वक उसे वे हृदय में ले गई और फिर धीरे-धीरे श्वास मार्ग से होते हुए क्रमश: दोनों भौंहोंके बीच में ले आईं।
"
एवं स्वदेहं महतां महीयसामुहुः समारोपितमड्डमादरात् ।
जिहासती दक्षरुषा मनस्विनीदधार गात्रेष्वनिलाग्निधारणाम् ॥
२६॥
एवम्--इस प्रकार; स्व-देहम्--अपना शरीर; महताम्-महान् सन््तों का; महीयसा--अत्यन्त पूज्य; मुहुः--पुनः पुनः;समारोपितम्ू--आसीन; अड्डूम्ू--गोद में; आदरात्--आदरपूर्वक; जिहासती --त्यागने की इच्छा से पूर्ण; दक्ष-रुषा--दक्ष केप्रति रोष के कारण; मनस्विनी--स्वेच्छा से; दधार--स्थापित किया; गात्रेषु--शरीर के अंगों में; अनिल-अग्नि-धारणाम्--अग्नि तथा वायु का ध्यान
इस प्रकार महर्षियों तथा सन््तों द्वारा आराध्य शिव की गोद में जिस शरीर को अत्यन्त आदरतथा प्रेम से बैठाया गया था, अपने पिता के प्रति रोष के कारण सती ने अपने उस शरीर कापरित्याग करने के लिए अपने शरीर के भीतर अग्निमय वायु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया।
श" ततः स्वभर्तुश्वरणाम्बुजासवंजगदगुरोश्विन्तयती न चापरम् ।
ददर्श देहो हतकल्मष: सतीसद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना ॥
२७॥
ततः--वहाँ; स्व-भर्तु:--अपने पति का; चरण-अम्बुज-आसवम्--चरणकमलों के अमृत पर; जगत्-गुरो:--ब्रह्माण्ड के गुरुका; चिन्तवती--चिन्तन करती हुई; न--नहीं; च--तथा; अपरम्--दूसरा ( अपने पति के अतिरिक्त ); ददर्श--देखा; देह: --शरीर; हत-कल्मष:--पाप का विनाश होकर; सती--सती; सद्य: --तुरन्त; प्रजज्वाल--जल गई; समाधि-ज-अग्निना-- ध्यानसे उत्पन्न अग्नि द्वारा ॥
सती ने अपना सारा ध्यान अपने पति जगद्गुरु शिव के पवित्र चरणकमलों पर केन्द्रित करदिया।
इस प्रकार वे समस्त पापों से शुद्ध हो गईं।
उन्होंने अग्निमय तत्त्वों के ध्यान द्वारा प्रज्वलितअग्नि में अपने शरीर का परित्याग कर दिया।
"
तत्पश्यतां खे भुवि चाद्भधुतं महद्हा हेति वादः सुमहानजायत ।
हन्त प्रिया दैवतमस्य देवीजहावसून्केन सती प्रकोषिता ॥
२८॥
ततू--उस; पश्यताम्ू-देखने वालों का; खे--आकाश में; भुवि--पृथ्वी पर; च--तथा; अद्भुतम्-- अद्भुत; महत्--अत्यधिक; हा हा--हाहाकार; इति--इस प्रकार; वाद:--गर्जन; सु-महान्--अत्यन्त शोर युक्त; अजायत--हुआ; हन्त--हाय;प्रिया--प्राणप्रिय; दैव-तमस्य--सर्वाधिक पूज्य देवता ( शिव ) की; देवी--सती ने; जहौ--त्याग दिया; असून्--अपना प्राण;केन--दक्ष द्वारा; सती--सती; प्रकोषिता--क्रुद्ध हुई
जब सती ने कोपवश अपना शरीर भस्म कर दिया तो समूचे ब्रह्माण्ड में घोर कोलाहल मचगया कि सर्वाधिक पूज्य देवता शिव की पत्नी सती ने इस प्रकार अपना शरीर क्यों छोड़ा ? अहो अनात्म्यं महदस्य पश्यतप्रजापतेर्यस्य चराचरं प्रजा: ।
"
जहावसून्यद्विमतात्मजा सतीमनस्विनी मानमभीक्ष्णममहति ॥
२९॥
अहो--ओह; अनात्म्यम्--उपेक्षा; महत्-- भारी; अस्य--दक्ष की; पश्यत--जरा देखो तो; प्रजापते: -- प्रजापति; यस्य--जिसकी; चर-अचरम्--समस्त जीवात्माएँ; प्रजा:--सन्तान; जहौ--त्याग दिया; असूनू--अपना शरीर; यत्--जिससे;विमता--अनादरित; आत्म-जा--अपनी पुत्री; सती--सती; मनस्विनी--स्वेच्छा से; मानम्--आदर, सम्मान; अभीक्षणम्--बारम्बार; अर्हति--योग्यता रखती थी।
यह आश्चर्यजनक बात है कि प्रजापति दक्ष, जो समस्त जीवात्माओं का पालनहारा है, अपनीपुत्री सती के प्रति इतना निरादरपूर्ण था कि उस परम साध्वी एवं महान् आत्मा ने उसकी उपेक्षाके कारण अपना शरीर त्याग दिया।
"
सोथयं दुर्मर्षहदयो ब्रह्मध्रुक्कलोकेपकीर्ति महतीमवाप्स्यति ।
यदड़जां स्वां पुरुषद्विडुद्यतांन प्रत्यषेधन्मृतयेउपराधत: ॥
३०॥
सः--वह; अयम्--यह; दुर्मर्ष-हदय: -- कठोर हृदय; ब्रह्म-धुक्--ब्राह्मण होने के अयोग्य; च--तथा; लोके--संसार में;अपकीर्तिम्ू--अपयश; महतीम्-- अत्यधिक; अवाप्स्यति--प्राप्त करेगा; यत्-अड्भ-जाम्--जिसकी पुत्री; स्वाम्-- अपने; पुरुष-द्विटू--शिव का शत्रु; उद्यतामू--उद्यत, तैयार; न प्रत्यषेधत्--रोका नहीं; मृतये--मृत्यु से; अपराधत:--अपने अपराधों केकारण
ऐसा दक्ष जो इतना कठोर-हृदय है कि ब्राह्मण होने के अयोग्य है, वह अपनी पुत्री के प्रतिकिये गये अपराधों के कारण अतीव अपयश को प्राप्त होगा, क्योंकि उसने अपनी पुत्री को मरनेसे नहीं रोका और वह भगवान् के प्रति अत्यन्त द्वेष रखता था।
"
बदत्येवं जने सत्या इृष्ठासुत्यागमद्भुतम् ।
दक्ष तत्पार्षदा हन्तुमुदतिष्ठन्नुदायुधा: ॥
३१॥
वदति--बातें कर रहे थे; एवम्--इस प्रकार; जने--जबकि लोग; सत्या:--सती की; दृष्टा--देखकर; असु-त्यागम्--मृत्यु,देह-त्याग; अद्भुतम्-- आश्चर्यमय; दक्षम्--दक्ष; तत्-पार्षदा:--शिव के अनुचर; हन्तुमू--मारने के लिए; उदतिष्ठन्--उठकरखड़े हुए; उदायुधा:--अपने हथियार उठाये।
जिस समय सब लोग सती की आश्चर्यजनक स्वेच्छित मृत्यु के विषय में परस्पर बातें कर रहेथे, उसी समय शिव के पार्षद, जो सती के साथ आये थे, अपने-अपने हथियार लेकर दक्ष कोमारने के लिए उद्यत हो गये।
"
तेषामापततां वेग निशाम्य भगवान्भूगु: ।
यज्ञघ्नघ्नेन यजुषा दक्षिणाग्नौ जुहाव ह ॥
३२॥
तेषामू-- उनके; आपतताम्--निकट पहुँचे; वेगम्--वेग; निशाम्य--देखकर; भगवान्--समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; भूगुः--भृगुमुनि; यज्ञ-घ्त-घ्नेन--यज्ञ को विध्वंस करने वालों को मारने के लिए; यजुषा--यजुर्वेद के मंत्रों से; दक्षिण-अग्नौ--यज्ञ कीअग्नि की दक्षिण दिशा में; जुहाव--आहुति दी; ह--निश्चय ही |
वे बलपूर्वक आगे बढ़े, किन्तु भूगु मुनि ने संकट को ताड़ लिया और याज्ञिक अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुति डालते हुए उन्होंने तुरन्त यजुर्वेद से मंत्र पढ़े जिससे यज्ञ को विध्वंस करनेवाले तुरन्त मर जाएँ।
"
अध्वर्युणा हूयमाने देवा उत्पेतुरोजसा ।
ऋभवो नाम तपसा सोम॑ प्राप्ता: सहस्त्रश: ॥
३३॥
अध्वर्युणा--पुरोहित, भृगु द्वारा; हूयमाने--आहुति डाले जाने पर; देवा:--देवता; उत्पेतु: --प्रकट हुए; ओजसा--परमशक्तिपूर्वक; ऋभव:--ऋभुगण; नाम--नामक; तपसा--तपस्या द्वारा; सोमम्--सोम; प्राप्ता:--प्राप्त हुए; सहस््रश:--हजारों |
जब भूगु मुनि ने अग्नि में आहुति डाली तो तत्क्षण ऋभु नामक हजारों देवता प्रकट हो गये।
वे सभी शक्तिशाली थे और उन्होंने सोम अर्थात् चन्द्र से शक्ति प्राप्त की थी।
"
तैरलातायुथे: सर्वे प्रभथा: सहगुहाका: ।
हन्यमाना दिशो भेजुरुशद्धिर्ब्रह्मतजसा ॥
३४॥
तैः--उनके द्वारा; अलात-आयुधैः--अग्नि के हथियारों से; सर्वे--सभी; प्रमथा:-- भूतगण; सह-गुहाका:--गुह्यकों सहित;हन्यमाना:--आक्रमण किये गये; दिश:ः--विभिन्न दिशाओं में; भेजु:-- भग गये; उशद्धि:--जलते हुए; ब्रह्य-तेजसा--ब्रह्मशक्ति से।
जब ऋशभु देवताओं ने भूतों तथा गुह्कों पर यज्ञ की अधजली समिधाओं से आक्रमण करदिया तो सती के सारे अनुचर विभिन्न दिशाओं में भागकर अदृश्य हो गये।
यह ब्रह्मतेज अर्थात्ब्राह्मणशक्ति के कारण ही सम्भव हो सका।
"
अध्याय पाँच: दक्ष के बलिदान की निराशा
4.5मैत्रेय उवाचभवो भवान्या निधन प्रजापतेर्असत्कृताया अवगम्य नारदातू ।
स्वपार्षदसैन्यं च तदध्वरभुभि-विद्रावितं क्रोधमपारमादधे ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; भव:--शिव; भवान्या:--सती का; निधनम्--मृत्यु; प्रजापतेः--प्रजापति दक्ष के कारण;असतू-कृताया:--अपमानित होकर; अवगम्य--सुनकर; नारदात्--नारद से; स्व-पार्षद-सैन्यम्-- अपने पार्षदों के सैनिक;च--तथा; ततू-अध्वर--उस ( दक्ष ) के यज्ञ ( से उत्पन्न ); ऋभुभि:--ऋभुओं द्वारा; विद्रावितम्--खदेड़ दिए गये; क्रोधम्--क्रोध; अपारमू-- असीम; आदधे--प्रदर्शित किया |
मैत्रेय ने कहा; जब शिव ने नारद से सुना कि उनकी पत्नी सती प्रजापति दक्ष द्वारा किये गयेअपमान के कारण मर चुकी हैं और ऋभुओं द्वारा उनके सैनिक खदेड़ दिये गये हैं, तो वेअत्यधिक क्रोधित हुए।
"
क्रुद्ध: सुदष्टीष्ठपुट: स धूर्जटि-जटां तडिद्वह्निसटोग्ररोचिषम् ।
उत्कृत्य रुद्र:ः सहसोत्थितो हसन्गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि ॥
२॥
क्रुद्ध:--क्रुद्ध; सु-दष्ट-ओष्ठ-पुटः-- अपने होठों को दाँतों से काटते हुए; सः--वह ( शिव ); धू:-जटि:--शरीर पर जटा धारणकिये; जटाम्ू--एक लट; तडित्--बिजली की; वह्वि--अग्नि की; सटा--ज्वाला, लपट; उग्र--भीषण; रोचिषम्-- प्रज्वलित;उत्कृत्य--नोच कर; रुद्र:ः--शिव; सहसा--तुरनन््त; उत्थित:--खड़े हो गये; हसन्ू--हँसते हुए; गम्भीर--गहरा; नाद:ः--ध्वनि;विससर्ज--पटक दिया; ताम्--उस ( बाल ) को; भुवि--पृथ्वी पर
इस प्रकार अत्यधिक क्रुद्ध होने के कारण शिव ने अपने दाँतों से होठ चबाते हुए तुरन्तअपने सिर की जटाओं से एक लट नोच ली, जो बिजली अथवा अग्नि की भाँति जलने लगी।
वेपागल की भाँति हँसते हुए तुरन्त खड़े हो गये और उस लट को पृथ्वी पर पटक दिया।
"
ततोतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवंसहस्त्रबाहुर्घनरुक्त्रिसूर्यटक् ।
करालदंष्टी ज्वलदग्निमूर्धज:कपालमाली विविधोद्यतायुध: ॥
३॥
ततः--उस समय; अतिकाय: --विशाल शरीर वाला ( वीरभद्र ); तनुवा--अपने शरीर के साथ; स्पृशन्--स्पर्श करता;दिवम्ू--आकाश; सहस्त्र--एक हजार; बाहु:--हाथ; घन-रुक्--श्याम रंग का; त्रि-सूर्य-हक्--तीन सूर्यो के समानतेज वाला;कराल-दंष्ट:ः--अत्यन्त भयानक दाढ़ों वाला; ज्वलत्-अग्नि--जलती हुईं आग ( के समान ); मूर्धज:--शिर पर बाल धारणकिये; कपाल-माली--नरमुंडों की माला पहने; विविध--अनेक प्रकार से; उद्यत--उठाये हुए; आयुध:--हथियारों से लैस
उससे आकाश के समान ऊँचा तथा तीन सूर्यों के सम्मिलित तेज के समान एक भयानकश्याम वर्ण का असुर उत्पन्न हुआ, जिसके दाँत अत्यन्त भयानक थे और उसके सिर के केशप्रज्वलित अग्नि के समान लग रहे थे।
उसके हजारों भुजाएँ थीं, जो अस्त्र-शस्त्रों से लैस थीं औरउसने नरमुंडों की माला पहन रखी थी।
"
त॑ कि करोमीति गृणन्तमाहबद्धाडलिं भगवान्भूतनाथ: ।
दक्ष सयज्ञं जहि मद्धटानांत्वमग्रणी रुद्र भटांशको मे ॥
४॥
तम्--उसको ( वीरभद्र को ); किम्--क्या; करोमि--करूँ; इति--इस प्रकार; गृणन्तम्--पूछने पर; आह--आदेश दिया;बद्ध-अद्जलिम्--हाथ जोड़ कर; भगवान्--समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी ( शिव ); भूत-नाथ:--भूतों के नाथ; दक्षम्--दक्ष को;स-यज्ञम्--उसके यज्ञ सहित; जहि--मारो; मत्-भटानाम्--मेंरे सभी पार्षदों के; त्वम्--तुम; अग्रणी:--प्रमुख; रुद्र--हे रुद्र;भट-हे युद्ध में कुशल; अंशकः--शरीर से उत्पन्न; मे--मेरे |
उस महाकाय असुर ने जब हाथ जोड़ कर पूछा, 'हे नाथ।
मैं क्या करूँ ?' भूतनाथ रूपशिव ने प्रत्यक्षतः आदेश दिया, 'तुम मेरे शरीर से उत्पन्न होने के कारण मेरे समस्त पार्षदों केप्रमुख हुए, अत: यज्ञ ( स्थल ) पर जाकर दक्ष को उसके सैनिकों सहित मार डालो।
"
आज्ञप्त एवं कुपितेन मन्युनास देवदेवं परिचक्रमे विभुम् ।
मेनेतदात्मानमसडुरंहसा महीयसां तात सहः सहिष्णुम् ॥
५॥
आज्ञप्त:--आज्ञा दी; एवम्--इस प्रकार; कुपितेन--क्रुद्ध; मन्युना--शिव द्वारा ( जो साक्षात् क्रोध हैं ); सः--उसने ( वीरभद्र );देव-देवम्--जो देवताओं द्वारा पूजित है; परिचक्रमे--परिक्रमा की; विभुम्--शिव की; मेने--विचार किया; तदा--उस समय;आत्मानम्--स्वतः; असड्र-रंहसा--शिव की शक्ति से, जिसका विरोध नहीं किया जा सकता; महीयसाम्--अत्यन्त शक्तिशालीका; तात--हे विदुर; सहः--शक्ति; सहिष्णुम्--सहने में समर्थ |
मैत्रेय ने आगे बताया : हे विदुर, वह श्याम पुरुष भगवान् का साक्षात् क्रोध था और शिवजीके आदेशों का पालन करने के लिए उद्यत था।
इस प्रकार किसी भी विरोधी शक्ति का सामनाकरने में अपने को समर्थ समझ कर उसने भगवान् शिव की प्रदक्षिणा की।
"
अन्वीयमानः स तु रुद्रपार्षदै-भ्रूशं नद॒द्धिव्यनदत्सुभैरवम् ।
उद्यम्य शूलं जगदन्तकान्तकंसम्प्राद्रवद्धोषणभूषणाडूप्रि: ॥
६॥
अन्वीयमान:--पीछे चलते हुए; सः--वह ( वीरभद्र ); तु--लेकिन; रुद्र-पार्षदै:--शिव के सैनिकों द्वारा; भूशम्--शोर करतेहुए; नदद्धिः--गर्जते हुए; व्यनदत्-- ध्वनि की; सु-भैरवम्--अत्यन्त भयानक; उद्यम्य--लेकर; शूलम्--त्रिशूल; जगत्-अन्तक- मृत्यु; अन्तकम्-मारते हुए; सम्प्राद्रवत्-( दक्ष के यज्ञ ) की ओर लपके; घोषण--गर्जते हुए; भूषण-अद्डृप्रि: --अपने पैरों में कड़े पहने।
घोर गर्जना करते हुए शिव के अन्य अनेक सैनिक भी उस भयानक असुर के साथ हो लिए।
वह एक विशाल त्रिशूल लिए हुए था, जो इतना भयानक था कि मृत्यु का भी वध करने मेंसमर्थ था और उसके पाँवों में कड़े थे, जो गर्जना करते प्रतीत हो रहे थे।
"
अथर्तिवजो यजमानः सदस्या:ककुभ्युदीच्यां प्रसमीक्ष्य रेणुम् ।
तमः किमेतत्कुत एतद्रजो भू-दिति द्विजा ट्विजपल्यश्च दध्यु: ॥
७॥
अथ--उस समय; ऋत्विज:-- पुरोहित; यजमान:--यज्ञ सम्पन्न करने वाला प्रमुख व्यक्ति ( दक्ष ); सदस्या:--यज्ञस्थल में एकत्रसभी पुरुष; ककुभि उदीच्याम्--उत्तरी दिशा में; प्रसमीक्ष्य--देखकर; रेणुम्-- धूल; तम:--अधंकार; किम्--क्या; एतत्--यह; कुतः--वहाँ से; एतत्--यह; रज:-- धूल; अभूत्-- आई है; इति--इस प्रकार; द्विजा:--ब्राह्मण; द्विज-पत्य:--ब्राह्मणोंकी पत्नियाँ; च--तथा; दध्यु:--विचार करने लगींउस समय यज्ञस्थल में एकत्रित सभी लोग--पुरोहित, प्रमुख यजमान, ब्राह्मण तथा उनकीपत्नियाँ--आश्चर्य करने लगे कि यह अंधकार कहाँ से आ रहा है।
बाद में उनकी समझ में आया कि यह धूलभरी आँधी थी और वे सभी अत्यन्त व्याकुल हो गये थे।
"
वाता न वान्ति न हि सन्ति दस्यवःप्राचीनबर्हिर्जीवति होग्रदण्डः ।
गावो न काल्यन्त इदं कुतो रजोलोकोथधुना कि प्रलयाय कल्पते ॥
८॥
वाता:ः--हवाएँ; न वान्ति--नहीं बह रही हैं; न--न तो; हि-- क्योंकि; सन्ति--सम्भव है; दस्यव: --लुटेरे; प्राचीन-बर्हि: --प्राचीन राजा बहहि; जीवति--जीवित है; ह--अब भी; उग्र-दण्ड:--जो कठोर दण्ड देगा; गाव: --गाएँ; न काल्यन्ते--हाँकीनहीं जाती; इदम्--यह; कुतः--कहाँ से; रज:--धूलि; लोक:--लोक; अधुना-- अब; किम्-- क्या; प्रलयाय--प्रलय केलिए; कल्पते--आया समझा जाय ।
आँधी के स्त्रोत के सम्बन्ध में अनुमान लगाते हुए उन्होंने कहा : न तो तेज हवाएँ चल रही हैंऔर न गौएं ही जा रही हैं, न यह सम्भव है कि यह धूल भरी आँधी लुटेरों द्वारा उठी है, क्योंकिअभी भी बलशाली राजा बर्हि उन्हें दण्ड देने के लिए जीवित है।
तो फिर यह धूलभरी आँधीकहाँ से आ रही है ? क्या इस लोक का प्रलय होने वाला है ?"
प्रसूतिमि श्रा: स्त्रिय उद्विग्नचित्ताऊचुर्विपाको वृजिनस्यैव तस्य ।
यत्पश्यन्तीनां दुहितृणां प्रजेश:सुतां सतीमवदध्यावनागाम् ॥
९॥
प्रसूति-मिश्रा: -- प्रसूति इत्यादि; स्त्रियः--स्त्रियाँ; उद्विग्न-चित्ता:--अत्यन्त उद्विग्न; ऊचु:--बोली; विपाक:--दुर्देव;वृजिनस्थ--पापकर्म का; एब--निस्सन्देह; तस्थ--उसका ( दक्ष का ); यत्--क्योंकि; पश्यन्तीनाम्ू--देखने वाली;दुहितृणाम्--अपनी बहनों का; प्रजेश:--प्रजा के स्वामी ( दक्ष ); सुताम्--पुत्री; सतीम्--सती; अवदध्यौ-- अपमानित;अनागामू--पूर्णतया निर्दोष
दक्ष की पत्नी प्रसूति एवं वहाँ पर एकत्र अन्य स्त्रियों ने अत्यन्त आकुल होकर कहा : यहसंकट दक्ष के कारण सती की मृत्यु से उत्पन्न है, क्योंकि निर्दोष सती ने अपनी बहनों के देखते-देखते अपना शरीर त्याग दिया है।
"
यस्त्वन्तकाले व्युप्तजटाकलाप:स्वशूलसूच्यर्पितदिग्गजेन्द्र: ।
वितत्य नृत्यत्युदितास्त्रदोर्ध्वजा-नुच्चाइहासस्तनयित्नुभिन्नदिक् ॥
१०॥
यः--जो ( शिव ); तु--लेकिन; अन्त-काले--प्रलय से समय; व्युप्त--छिटका कर; जटा-कलाप:ः--अपने बालों का गुच्छा;स्व-शूल--अपना त्रिशूल; सूचि--नोकों पर; अर्पित--बिंधा हुआ; दिक्-गजेन्द्र:--विभिन्न दिशाओं के शासक; वितत्य--बिखेर कर; नृत्यति--नाचता है; उदित--ऊपर उठाये; अस्त्र--हथियार; दोः --हाथ; ध्वजान्--झंडे; उच्च--ऊँचे स्वर से; अट्ट-हास--जोर की हँसी; स्तनयित्नु--घोर गर्जना से; भिन्न--विभाजित; दिक्ू--दिशाएँ |
प्रलय के समय, शिव के बाल बिखर जाते हैं और वे अपने त्रिशूल से विभिन्न दिशाओं केशासकों ( दिक्पतियों ) को बेध लेते हैं।
वे गर्वपूर्वक अट्टहास करते हुए ताण्डव नृत्य करते हैंऔर दिकपतियों की भुजाओं को पताकाओं के समान बिखेर देते हैं, जिस प्रकार मेघों की गर्जनासे समस्त लोकों में बादल छितरा जाते हैं।
"
अमर्षयित्वा तमसह्मतेजसंमन्युप्लुतं दुर्निरीक्ष्यं ध्रुकुट्या ।
करालदंष्टराभिरुदस्तभागणंस्यात्स्वस्ति कि कोपयतो विधातु: ॥
११॥
अमर्षयित्वा--नाराज करके; तमू--उसको ( शिव को ); असहा-तेजसम्--असहनीय तेज वाले; मन्यु-प्लुतम्ू--क्रोध से पूरित;दुर्निरीक्ष्म्--देखने में असमर्थ; भ्रु-कुट्या-- भौंहों के हिलने से; कराल-दंष्टाभि: --डरावने दाँतों से; उदस्त-भागणम्--ज्योतिपुंजों ( तारों ) को अस्त-व्यस्त करके; स्थात्--हो; स्वस्ति--कल्याण; किमू--कैसे; कोपयत:--( शिव को ) क्ुद्ध करनेपर; विधातु:--ब्रह्मा का।
उस विराट श्याम पुरुष ने अपने डरावने दाँत निकाल लिए।
अपनी भौंहों के चालन से उसनेआकाश भर में तारों को तितर-बितर कर दिया और उन्हें अपने प्रबल भेदक तेज से आच्छादितकर लिया।
दक्ष के कुव्यवहार के कारण दक्ष के पिता ब्रह्म तक इस घोर कोप-प्रदर्शन से नहींबच सकते थे।
"
बह्वेवमुद्रिग्नहशोच्यमानेजनेन दक्षस्य मुहुर्महात्मनः ।
उत्पेतुरुत्पाततमा: सहस्त्रशोभयावहा दिवि भूमौ च पर्यक् ॥
१२॥
बहु--अनेक; एवम्--इस प्रकार; उद्विग्न-हशा--कातर दृष्टि से; उच्यमाने--जब ऐसा कहा जा रहा था; जनेन--( यज्ञ मेंएकत्र ) व्यक्तियों द्वारा; दक्षस्य--दक्ष के; मुहुः--पुनः-पुनः; महा-आत्मन:--पुष्ट हृदय वाले, निडर; उत्पेतु:--प्रकट हुआ;उत्पात-तमा:--अत्यन्त प्रबल लक्षण; सहस्त्रश:--हजारों; भय-आवहा:-- भय उत्पन्न करने वाले; दिवि--आकाश् में; भूमौ --भूमि पर; च--तथा; पर्यकु--सभी दिशाओं से।
जब सभी लोग परस्पर बातें कर रहे थे तो दक्ष को समस्त दिशाओं से, पृथ्वी से तथाआकाश से, अशुभ संकेत ( अपशकुन ) दिखाई पड़ने लगे।
"
तावत्स रुद्रानुचरैरमहामखोनानायुधेर्वामनकैरुदायुथैः ।
पिड़्ैः पिशड्रैर्मकरोदराननै:पर्याद्रवद्धिर्विदुरान््वरुध्यत ॥
१३॥
तावत्--शीघ्र ही; सः--वह; रुद्र-अनुचरैः--शिव के अनुयायियों द्वारा; महा-मख:--महान् यज्ञस्थल; नाना--विविध प्रकारके; आयुधे:--हथियारों सहित; वामनकै:--नाटे कदके; उदायुधै:--ऊपर उठे हुए; पिड्जैः--श्यामाभ भूरे; पिशड्रैः--पीले;मकर-उदर-आननै: --मगर के समान पेट तथा मुख वालों से; पर्याद्रवद्धि:--चारों ओर दौड़ते हुए; विदुर--हे विदुर;अन्वरुध्यत--घिरा हुआ था
हे विदुर, शिव के समस्त अनुचरों ने यज्ञस्थल को घेर लिया।
वे नाटे कद के थे और अनेकप्रकार के हथियार लिये हुए थे उनके शरीर मकर के समान कुछ-कुछ काले तथा पीले थे।
वेयज्ञस्थल के चारों ओर दौड़दौड़कर उत्पात मचाने लगे।
"
केचिद्नभज्ञुः प्राग्वंशं पत्नीशालां तथापरे ।
सद आग्नीश्वशालां च तद्विहारं महानसम् ॥
१४॥
केचित्--किन्हीं ने; बभज्जञु;--गिरा दिया; प्राकु-वंशम्--यज्ञ-मंडप के ख भों को; पली-शालाम्--स्त्रियों के कक्ष; तथा--भी; अपरे--अन्य; सदः --यज्ञशाला; आग्नी ध्र-शालाम्--पुरोहितों का आवास; च--तथा; तत्-विहारम्--यजमान का घर;महा-अनसम्--पाकशाला।
कुछ सैनिकों ने यज्ञ-पंडाल के आधार-स्तम्भों को नीचे गिरा दिया, कुछ स्त्रियों के कक्ष मेंघुस गये, कुछ ने यज्ञस्थान को विनष्ट करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ रसोई घर तथाआवासीय कक्षों में घुस गये।
"
रुसजुर्यज्ञपात्राणि तथेके ग्नीननाशयन् ।
कुण्डेष्वमूत्रयन्केचिद्विभिदुर्वेदिमिखला: ॥
१५॥
रुरुजु:--तोड़ डाला; यज्ञ-पात्राणि--यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले पात्रों को; तथा--इस प्रकार; एके --कुछ ने; अग्नीन्ू--यज्ञ कीअग्नियाँ; अनाशयन्--बुझा दीं; कुण्डेषु--यज्ञ स्थल में; अमूत्रयन्ू--पेशाब कर दिया; केचित्--किन््हीं ने; बिभिदु:--फाड़डाला; वेदि-मेखला:--यज्ञस्थल की सीमा रेखाएँ।
उन्होंने यज्ञ के सभी पात्र तोड़ दिये और उनमें से कुछ यज्ञ-अग्नि को बुझाने लगे।
कुछेक नेतो यज्ञस्थल की सीमांकन मेखलाएँ तोड़ दी और कुछ ने यज्ञस्थल में पेशाब कर दिया।
"
अबाधन्त मुनीनन्ये एके पत्नीरतर्जयन् ।
अपरे जगुहुर्देवान्प्रत्यासन्नान्पलायितान् ॥
१६॥
अबाधन्त--रास्ता रोक लिया; मुनीन्--मुनियों को; अन्ये--दूसरे; एके--कुछ ने; पतली: --स्त्रियों को; अतर्जयन्--डराया-धमकाया; अपरे-- अन्य; जगृहु: --बन्दी कर लिया; देवान्ू--देवताओं को; प्रत्यासन्नान्ू--निकट ही; पलायितानू-- भगने वालोंको
इनमें से कुछ ने भागते मुनियों का रास्ता रोक लिया, किन्हीं ने वहाँ पर एकत्र स्त्रियों कोडराया-धमकाया और कुछ ने पण्डाल से भागते हुए देवताओं को बन्दी बना लिया।
"
भूगुं बबन्ध मणिमान्वीरभद्र: प्रजापतिम् ।
चण्डेशः पूषणं देवं भगं नन््दी श्वरोग्रहीत् ॥
१७॥
भृगुम्-- भूगु मुनि को; बबन्ध--बन्दी कर लिया; मणिमान्--मणिमान ने; वीरभद्गर:--वीरभद्र ने; प्रजापतिम्--प्रजापति दक्षको; चण्डेश: -- चण्डेश ने; पूषणम्--पूषा को; देवम्--देवता; भगम्-- भग; नन््दी श्वर: --नन्दी श्वर ने; अग्रहीत्ू-- बन्दी करलिया
शिव के एक अनुचर मणिमान ने भृगु मुनि को बन्दी बना लिया तथा श्याम असुर वीरभद्र नेप्रजापति दक्ष को पकड़ लिया।
एक अन्य अनुचर चण्डेश ने पूषा को तथा नन्न्दीश्वर ने भग देवताको बन्दी बना लिया।
"
सर्व एवर्त्वजो इृष्टा सदस्या: सदिवौकस: ।
तैरच्माना: सुभूशं ग्रावभिनेकधाद्रवन् ॥
१८॥
सर्वे--सभी; एव--निश्चय ही; ऋत्विज: --पुरोहित; हृष्टा--देखकर; सदस्या: --यज्ञ में एकत्र सभी सदस्य; स-दिवौकसः--देवताओं सहित; तैः--उन ९ पत्थरों ); अर्द्यमाना:--विचलित होकर; सु-भूशम्--अत्यधिक; ग्रावभि: --पत्थरों से; न एकधा--विभिन्न दिशाओं में; अद्रबन्--तितर-बितर हो गये।
लगातार पत्थरों की वर्षा के कारण समस्त पुरोहित तथा यज्ञ में एकत्र अन्य सदस्य महान्संकट में पड़ गये।
अपने प्राणों के भय से वे चारों ओर तितर-बितर हो गये।
"
जुह्बतः स्त्रुवहस्तस्य एमश्रूणि भगवान्भव: ।
भगोर्लुलुल्ले सदसि योहसच्छ्म श्रु दर्शयन् ॥
१९॥
जुह्तः--हवन करते हुए; स्नरुब-हस्तस्य--हाथ में स्त्रुवा लिए; श्मश्रूणि --मूँछ; भगवान्ू--समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; भव:--वीरभद्र; भूगो: -- भूगुमुनि की; लुलुझ्षे--नोंच लीं; सदसि--भरी सभा में; य:--जो ( भृगुमुनि )) अहसत्--हँसा था; श्मश्रु--मूँछ; दर्शयन्ू--दिखाते हुएवीरभद्र ने अपने हाथों से अग्नि में आहुति डालते हुए भूगुमुनि की मूँछ नोच ली।
"
भगस्य नेत्रे भगवान्पातितस्य रुषा भुवि ।
उज्जहार सदस्थोक्ष्णा यः शपन्तमसूसुचत् ॥
२०॥
भगस्य-- भग की; नेत्रे--दोनों आँखें; भगवान्--वीरभद्र; पातितस्य--गिरा करके; रुषा--रोषपूर्वक; भुवि--पृथ्वी पर;उजहार--निकाल लीं; सद-स्थ:--विश्वसृक् की सभा में स्थित; अक्ष्णा--अपनी भृकुटियों के हिलने से; यः--जो ( भग );शपन्तमू--( शिव को ) शाप देता ( दक्ष ); असूसुचत्--उकसाया था।
वीरभद्र ने तुरन्त उस भग को पकड़ लिया, जो भूगु द्वारा शिव को शाप देते समय अपनीभौहे मटका रहा था।
उसने अत्यन्त क्रोध में आकर भग को पृथ्वी पर पटक दिया और बलपूर्वक उसकी आँखें निकाल लीं।
"
पृष्णो ह्पातयहन्तान्कालिड्रस्य यथा बल: ।
शप्यमाने गरिमणि योहसहर्शयन्दतः ॥
२१॥
पृष्ण:--पूषा का; हि--चूँकि; अपातयत्--निकाल लिया; दन्तान्ू--दाँत; कालिड्रस्थ--कलिंग के राजा के; यथा--जिसप्रकार; बल:--बलदेव ने; शप्यमाने--शाप दिये जाने पर; गरिमणि--शिव; य:--जो ( पूषा ); अहसतू-- हँसा था; दर्शयन्--दिखाते हुए; दतः--दाँत |
जिस प्रकार बलदेव ने अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में द्यूतक्रीड़ा के समय कलिंगराज दंतवक्रके दाँत निकाल लिये थे, उसी प्रकार से वीरभद्र ने दक्ष तथा पूषा दोनों के दाँत उखाड़ लिये,क्योंकि दक्ष ने शिव को शाप दिये जाते समय दाँत दिखाये थे और पूषा ने भी सहमति स्वरूपहँसते हुए दाँत दिखाए थे।
"
आक्रम्योरसि दक्षस्य शितधारेण हेतिना ।
छिन्दन्नपि तदुद्धर्तु नाशक्नोत्त्यम्बकस्तदा ॥
२२॥
आक्रम्य--बैठकर; उरसि--छाती पर; दक्षस्थ--दक्ष की; शित-धारेण--तीक्ष्ण धार वाले; हेतिना--हथियार से; छिन्दन्--काटते हुए; अपि-- भी; तत्--वह ( सिर ); उद्धर्तुमू-पृथक् करने में; न अशकनोत्--समर्थ न हुआ; त्रि-अम्बक:--वीरभद्र( तीन नेत्रों वाला ); तदा--तत्पश्चात्
तब वह दैत्य सहृश पुरुष वीरभद्र दक्ष की छाती पर चढ़ बैठा और तीक्ष्ण हथियार से उसकेशरीर से सिर काटकर अलग करने का प्रयत्न करने लगा, किन्तु सफल नहीं हुआ।
"
शस्त्रैरस्त्रान्वितिरेवमनिर्भिन्नत्वचं हर: ।
विस्मयं परमापन्नो दध्यौँ पशुपतिश्चिरम् ॥
२३॥
शस्त्र: --हथियार से; अस्त्र-अन्वितै:ः--मंत्रों से; एवम्--इस प्रकार; अनिर्भिन्न--न कटने से; त्वचम्--चमड़ा; हर: --वीरभद्र ने;विस्मयम्ू--विस्मित; परम्--अत्यधिक; आपतन्न:-- चकित; दध्यौ--सोचा; पशुपति:-- वीरभद्र; चिरमू--दीर्घ-काल तक
उसने मंत्रों तथा हथियारों के बल पर दक्ष का सिर काटना चाहा, किन्तु दक्ष के सिर कीचमड़ी तक को काट पाना दूभर हो रहा था।
इस प्रकार वीरभद्र अत्यधिक चकित हुआ।
"
इृष्टा संज्ञपनं योगं पशूनां स पतिर्मखे ।
यजमानपशोः कस्य कायात्तेनाहरच्छिर: ॥
२४॥
इृष्ठा--देखकर; संज्ञपनम्--यज्ञ में पशुओं के वध के लिए; योगम्--युक्ति; पशूनाम्--पशुओं की; सः--वह ( वीरभद्र );'पति:--स्वामी; मखे--यज्ञ में; यजमान-पशो:--यजमान रूपी पशु; कस्य--दक्ष का; कायात्--शरीर से; तेन--उस ( युक्ति )से; अहरतू--काट दिया; शिरः--उसका सिर
तब वीरभद्र ने यज्ञशाला में लकड़ी की बनी युक्ति ( करनी ) देखी जिससे पशुओं का वधकिया जाता था।
उसने दक्ष का सिर काटने में इसका लाभ उठाया।
"
साधुवादस्तदा तेषां कर्म तत्तस्य पश्यताम् ।
भूतप्रेतपिशाचानां अन्येषां तद्विपर्यय: ॥
२५॥
साधु-वाद:--वाहवाही; तदा--उस समय; तेषाम्ू--उनके ( शिव के अनुचरों के ); कर्म--क्रिया; तत्--वह; तस्य--उस( वीरभद्र ) का; पश्यताम्-देखते हुए; भूत-प्रेत-पिशाचानाम्-- भूतों, प्रेतों तथा पिशाचों का; अन्येषाम्--अन्यों ( दक्ष केदल ) का; ततू-विपर्यय:--इसके विपरीत ( शोकपूर्ण शब्द, हाहाकार )
वीरभद्र के कार्य से शिवजी के दल को प्रसन्नता हुई और वह वाह-वाह कर उठा तथा जितनेभी भूत, प्रेत तथा असुर वहाँ आये थे, उन सबों ने भयानक किलकारियाँ भरी।
दूसरी ओर, यज्ञका भार सँभालने वाले ब्राह्मण दक्ष की मृत्यु के कारण शोक से चीत्कार करने लगे।
जुहावैतच्छिरस्तस्मिन्दक्षिणाग्नावमर्षित: ।
तद्देवयजन दबग्ध्वा प्रातिष्ठद्गुह्यकालयम् ॥
२६॥
जुहाव--आहुति की; एतत्--वह; शिर: --सिर; तस्मिन्--उसमें; दक्षिण-अग्नौ--दक्षिण दिशा की यज्ञ-अग्नि में; अमर्षित: --अत्यन्त क्रुद्ध वीरभद्र; तत्ू--दक्ष का; देव-यजनम्--देवताओं के यज्ञ की व्यवस्था; दग्ध्वा--आग लगाकर; प्रातिष्ठत्--विदाहुआ; गुह्मक-आलयम्--गुह्मकों के धाम ( कैलास )
फिर वीरभद्र ने उस सिर को लेकर अत्यन्त क्रोध से यज्ञ अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुतिके रूप में डाल दिया।
इस प्रकार शिव के अनुचरों ने यज्ञ की सारी व्यवस्था तहस-नहस करडाली और समस्त यज्ञ क्षेत्र में आग लगाकर अपने स्वामी के धाम, कैलास के लिए प्रस्थानकिया।
"
अध्याय छह: ब्रह्मा भगवान शिव को संतुष्ट करते हैं
4.6मैत्रेय उवाचअथ देवगणा: सर्वे रुद्रानीकै: पराजिता: ।
शूलपट्टिशनिस्त्रिशगदापरिघमुद्गरः ॥
१॥
सज्छिन्नभिन्नसर्वाजझ्ञः सर्तिविक्सभ्या भयाकुलाः ।
स्वयम्भुवे नमस्कृत्य कार््स््येनेतज्यवेदयन् ॥
२॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; अथ--इसके पश्चात्; देव-गणा:--देवता; सर्वे--समस्त; रुद्र-अनीकैः --शिव के सैनिकों से;'पराजिता:--हार कर; शूल--त्रिशूल; पट्टिश--तेजधार का भाला; निर्त्रिश--तलवार; गदा--गदा; परिघ--लोहे की साँग,परिघ; मुद्गरः --मुद्गर से; सिछन्न-भिन्न-सर्व-अड्भा:--अंग-प्रत्यंग घायल; स-ऋत्विक् -सभ्या:-- समस्त पुरोहित तथा यज्ञ-सभा के सदस्यों सहित; भय-आकुला:--अत्यधिक भय से; स्वयम्भुवे-- भगवान् ब्रह्मा को; नमस्कृत्य--नमस्कार करके;कार्ल्स्येन--विस्तार में; एतत्--दक्ष के यज्ञ की घटना; न्यवेदयन्--विस्तार से निवेदन किया, सूचित किया।
जब समस्त पुरोहित तथा यज्ञ-सभा के सभी सदस्य और देवतागण शिवजी के सैनिकों द्वारापराजित कर दिये गये और त्रिशूल तथा तलवार जैसे हथियारों से घायल कर दिये गये, तब वेडरते हुए ब्रह्माजी के पास पहुँचे।
उनको नमस्कार करने के पश्चात्,जो हुआ था, उन्होंने विस्तारसे उसके विषय में बोलना प्रारम्भ किया।
"
उपलभ्य प्रैवैतद्भधगवानब्जसम्भव: ।
नारायणश्च विश्वात्मा न कस्याध्वरमीयतु: ॥
३॥
उपलभ्य--जानकर; पुरा-पहले से; एब--निश्चय ही; एतत्--दक्ष के यज्ञ की ये सभी घटनाएँ; भगवान्--समस्त ऐश्वर्यों केस्वामी; अब्ज-सम्भव:--कमल से उत्पन्न ( ब्रह्म ); नारायण:--नारायण; च--तथा; विश्व-आत्मा--सम्पूर्ण विश्व के परमात्मा;न--नहीं; कस्य--दक्ष के; अध्वरम्--यज्ञ में; ईयतु:--गये |
ब्रह्मा तथा विष्णु दोनों ही पहले से जान गये थे कि दक्ष के यज्ञ-स्थल में ऐसी घटनाएँ होंगी,अतः पहले से पूर्वानुमान हो जाने से वे उस यज्ञ में नहीं गये।
"
तदाकर्ण्य विभुः प्राह तेजीयसि कृतागसि ।
क्षेमाय तत्र सा भूयात्र प्रायेण बुभूषताम् ॥
४॥
तत्--देवों तथा अन्यों द्वारा वर्णित घटनाएँ; आकर्ण्य--सुनकर; विभु:--ब्रह्मा ने; प्राह--उत्तर दिया; तेजीयसि--महापुरुष;कृत-आगसि--अपराध किया गया; क्षेमाय--अपनी कुशलता के लिए; तत्र--उस प्रकार; सा--वह; भूयात् न--अच्छा नहींहै; प्रायेण--सामान्यत; बुभूषताम्--रहने की इच्छा |
जब ब्रह्मा ने देवताओं तथा यज्ञ में सम्मिलित होने वाले सदस्यों से सब कुछ सुन लिया तोउन्होंने उत्तर दिया; यदि तुम किसी महापुरुष की निन्दा करके उसके चरणकमलों की अवमाननाकरते हो तो यज्ञ करके तुम कभी सुखी नहीं रह सकते।
तुम्हें इस तरह से सुख की प्राप्ति नहीं होसकती।
"
अथापि यूयं कृतकिल्बिषा भवंये बर्हिषो भागभाजं परादु: ।
प्रसादयध्व॑ परिशुद्धचेतसाक्षिप्रप्रसादं प्रगृहीताड्पप्रिपद्ाम् ॥
५॥
अथ अपि--फिर भी; यूयम्ू--तुम सबों ने; कृत-किल्बिषा:--पाप करके; भवम्--शिव को; ये--तुम सभी; बर्हिष: --यज्ञका; भाग-भाजम्--प्राप्य भाग; परादु:--से अलग कर दिया है; प्रसादयध्वम्ू--तुम सभी प्रसन्न होओ; परिशुद्ध-चेतसा--बिनाकिसी हिचक के; क्षिप्र-प्रसादम्-तुरन्त दया; प्रगृहीत-अड्घ्रि-पद्यम्--चरणकमलों की शरण ग्रहण करके
तुम लोगों ने शिव को प्राप्य यज्ञ-भाग ग्रहण करने से वंचित किया है, अतः तुम सभी उनके चरणकमलों के प्रति अपराधी हो।
फिर भी, यदि तुम बिना किसी हिचक के उनके पास जाओऔर उनको आत्मसमर्पण करके उनके चरणकमलों में गिरो तो वे अत्यन्त प्रसन्न होंगे।
"
आशासाना जीवितमध्वरस्यलोकः सपालः कुपिते न यस्मिन् ।
तमाशु देवं प्रियया विहीनक्षमापयध्वं हृदि विद्धं दुरुक्तै: ॥
६॥
आशासाना: --पूछने के इच्छुक; जीवितमू--अवधि तक; अध्वरस्य--यज्ञ की; लोक:--समस्त लोक; स-पाल:--अपनेनियामकों सहित; कुपिते--क्रुद्ध होने पर; न--नहीं; यस्मिन्--जिसको; तम्ू--वह; आशु--तुरनन््त; देवम्--शिव से; प्रियया--अपनी प्रिया से; विहीनम्--रहित; क्षमापयध्वम्-- क्षमा माँगो; हृदि-- उसके हृदय में; विद्धम्--अत्यन्त दुखी; दुरुक्तै:--कटुबचनों से ब
्रह्मा ने उन्हें यह भी बतलाया कि शिवजी इतने शक्तिमान हैं कि उनके कोप से समस्त लोकतथा इनके प्रमुख लोकपाल तुरन्त ही विनष्ट हो सकते हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि विशेषकरहाल ही में अपनी प्रियतमा के निधन के कारण वे बहुत ही दुखी हैं और दक्ष के कटुवचनों सेअत्यन्त मर्माहत हैं।
ऐसी स्थिति में ब्रह्मा ने उन्हें सुझाया कि उनके लिए कल्याणप्रद यह होगा किवे तुरन्त उनके पास जाकर उनसे क्षमा माँगें।
"
नाहं न यज्ञो न च यूयमन्येये देहभाजो मुनयश्च तत्त्वम् ।
विदुः प्रमाणं बलवीर्ययोर्वायस्यात्मतन्त्रस्य क उपायं विधित्सेत् ॥
७॥
न--नहीं; अहमू--मैं; न--न तो; यज्ञ:--इन्द्र; न--न तो; च--तथा; यूयम्--तुम सभी; अन्ये--दूसरे; ये--जो; देह-भाज:--देहधारी; मुनवः--मुनि; च--तथा; तत्त्वम्--सच्चाई; विदुः--जानते हैं; प्रमाणम्--विस्तार; बल-वीर्ययो: --बल तथा वीर्य;वा--अथवा; यस्य--शिव का; आत्म-तन्त्रस्य--आत्मनिर्भर शिव का; कः--क्या; उपायम्--साधन; विधित्सेत--निकालनाचाहेगा।
ब्रह्म ने कहा कि न तो वे स्वयं, न इन्द्र, न यज्ञस्थल में समवेत समस्त सदस्य ही अथवासभी मुनिगण ही जान सकते हैं कि शिव कितने शक्तिमान हैं।
ऐसी अवस्था में ऐसा कौन होगाजो उनके चरणकमलों पर पाप करने का दुस्साहस करेगा ?"
स इत्थमादिश्य सुरानजस्तु तैःसमन्वितः पितृभि: सप्रजेशै: ।
ययौ स्वधिष्णयान्निलयं पुरद्दिषःकैलासमद्रिप्रवरं प्रियं प्रभोः ॥
८ ॥
सः--वह ( ब्रह्मा ); इत्थम्--इस प्रकार; आदिश्य--शिक्षा देकर; सुरान्ू--देवों को; अजः--ब्रह्मा; तु--तब; तैः--उनके;समन्वित:--सहित; पितृभि:--पितरों; स-प्रजेशै:ः--जीवात्माओं के स्वामियों सहित; ययौ--चले गये; स्व-धिष्ण्यात्-- अपनेस्थान से; निलयम्-- धाम; पुर-द्विष:--शिव का; कैलासम्ू--कैलास; अद्वि-प्रवरम्--पर्वतों में श्रेष्ठ; प्रियम्--प्रिय; प्रभो:--प्रभु (शिव ) का।
इस प्रकार समस्त देवताओं, पितरों तथा जीवात्माओं के अधिपतियों को उपदेश देकर ब्रह्माने उन सबों को अपने साथ ले लिया और शिव के धाम पर्वतों में श्रेष्ठ केलास पर्वत के लिए प्रस्थान किया।
"
जन्मौषधितपोमन्त्रयोगसिद्धैनरितरै: ।
जुष्टे किन्नरगन्धर्वैरप्सरोभिवृत सदा ॥
९॥
जन्म--जन्म; औषधि--जड़ी-बूटियाँ; तपः--तपस्या; मन्त्र--वैदिक मंत्र; योग--योग-अभ्यास; सिद्धै:--सिद्ध पुरुषों द्वारा;नर-इतरैः--देवताओं द्वारा; जुष्टम्-- भोगा गया; किन्नर-गन्धर्व: --किन्नरों तथा गन्धर्वों द्वारा; अप्सरोभि:--अप्सराओं द्वारा;बृतम्-पूर्ण; सदा--सदैव |
कैलास नामक धाम विभिन्न जड़ी-बूटियों तथा वनस्पतियों से भरा हुआ है और वैदिक मंत्रोंतथा योग-अभ्यास द्वारा पवित्र हो गया है।
इस प्रकार इस धाम के वासी जन्म से ही देवता हैंऔर समस्त योगशक्तियों से युक्त हैं।
इनके अतिरिक्त यहाँ पर अन्य मनुष्य हैं, जो किन्नर तथागन्धर्व कहलाते हैं और वे अपनी-अपनी सुन्दर स्त्रियों के संग रहते हैं, जो अप्सराएँ कहलाती हैं।
"
नानामणिमयै: श्रुड्ठै्ननाधातुविचित्रितैः ।
नानाहुमलतागुल्मैर्नानामृगगणावृतैः ॥
१०॥
नाना--विभिन्न प्रकार के; मणि--रल; मयै:--से निर्मित; श्रृद्ठौ:--चोटियों से; नाना-धातु-विचित्रितैः--अनेक धातुओं सेअलंकृत; नाना--विभिन्न; द्रुम--वृक्ष; लता--बेलें, लताएँ; गुल्मैः --वृक्ष; नाना--विविध; मृग-गण--हिरनों के समूहों द्वारा;आवृतैः--आबाद।
कैलास समस्त प्रकार की बहुमूल्य मणियों तथा खनिजों ( धातुओं ) से युक्त पर्वतों से भराहुआ है और सभी प्रकार के मूल्यवान वृक्षों तथा पौधों द्वारा घिरा हुआ है।
पर्वतों की चोटियाँतरह-तरह के हिरनों से शोभायमान हैं।
"
नानामलप्रस्त्रवणैर्नानाकन्दरसानुभि: ।
रमणं विहरन्तीनां रमणै: सिद्धयोषिताम् ॥
११॥
नाना--विविध; अमल--निर्मल, पारदर्शी ; प्रस्नवणै:--जल प्रपातों से; नाना--विविध; कन्दर--गुफाएँ; सानुभि:--चोटियोंसे; रमणम्--आनन्द प्रदान करती हुईं; विहरन्तीनाम्ू--विहार करती हुई; रमणैः--अपने-अपने प्रेमियों सहित; सिद्ध-योषिताम्ू--योगियों की प्रियतमाओं के |
वहाँ अनेक झरने हैं और पर्वतों में अनेक गुफाएँ हैं जिनमें योगियों की अत्यन्त सुन्दर पत्नियाँ रहती हैं।
"
मयूरकेकाभिरुतं मदान्धालिविमूच्छितम् ।
प्लावितै रक्तकण्ठानां कूजितैश्व पतत्त्रिणाम्ू ॥
१२॥
मयूर--मोरों की; केका--बोली ( शोर ); अभिरुतमू--गुंजायमान; मद--मादकता से; अन्ध--अंधे हुए; अलि-- भौरों से;विमूर्च्छितम्--गुंजायमान; प्लावितै:ः --गायन से; रक्त-कण्ठानाम्ू--कोयलों के; कूजितैः--कूजन ( कलरव ) से; च--तथा;'पतत्रिणाम्ू--अन्य
पक्षियों के कैलास पर्वत पर सदैव मोरों की मधुर ध्वनि तथा भौंरों के गुंजार की ध्वनि गूँजती रहती है।
कोयलें सदैव कूजती रहती हैं और अन्य पक्षी परस्पर कलरव करते रहते हैं।
"
आह्यन्तमिवोद्धस्तैद्वि जान्कामदुषैर्दधमै: ।
ब्रजन्तमिव मातड़ै्गृणन्तमिव निझरैः ॥
१३॥
आह्यन्तम्--बुलाते हुए; इव--मानो; उत्-हस्तैः --उठे हुए हाथों ( डालियों ) से; द्विजान्--पक्षियों को; काम-दुघै:--कामप्रद,मनोरथ पूरा करने वाले; द्रमै:--वृक्षों से; ब्रजन्तम्ू--चलते हुए; इब--मानों; मातड्लैः--हाथियों द्वारा; गृणन्तम्--चिग्घाड़ करते;इब--मानो; निझरै:--झरनों के द्वारा।
वहाँ पर सीधी शाखाओं वाले ऊँचे-ऊँचे वृक्ष हैं, जो मधुर पक्षियों को बुलाते प्रतीत होते हैंऔर जब हाथियों के झुंड पर्वतों के पास से गुजरते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो कैलास पर्वतउनके साथ-साथ चल रहा है।
जब झरनों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, तो ऐसा प्रतीत होता हैमानो कैलास पर्वत भी सुर में सुर मिला रहा हो।
"
मन्दारैः पारिजातैश्व सरलैश्लोपशोभितम् ।
तमालै: शालतालैश्व कोविदारासनार्जुनै: ॥
१४॥
चूते: कदम्बैर्नपैश्व नागपुन्नागचम्पकै: ।
पाटलाशोकबकुलै: कुन्दे: कुरबकैरपि ॥
१५॥
मन्दारैः--मन्दार से; पारिजातै:--पारिजात से; च--तथा; सरलैः--सरल से; च--तथा; उपशोभितम्--अलंकृत; तमालै:--तमाल वृक्षों से; शाल-तालैः:--शाल तथा ताड़ वृक्षों से; च--तथा; कोविदार-आसन-अर्जुनै:--कोविदार, आसन( विजयसार ) तथा अर्जुन वृक्षों से; चूतेः-- आम का एक प्रकार; कदम्बै:ः--कदम्ब वृक्षों से; नीपैः--नीपों से ( धूलि कदम्बोंसे ); च--तथा; नाग-पुन्नाग-चम्पकै:--नाग, पुन्नाग तथा चम्पक से; पाटल-अशोक-बकुलैः --पाटल, अशोक तथा बकुल से;कुन्दैः--कुन्द से; कुरबकै:--कुरबक से; अपि--भी
पूरा कैलास पर्वत अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है, जिनमें से उल्लेखनीय नाम हैं--मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, ताल, कोविदार, आसन, अर्जुन, आम्र-जाति, कदम्ब, धूलि-कदम्ब, नाग, पुन्नाग, चम्पक, पाटल, अशोक, बकुल, कुंद तथा कुरबक।
सारा पर्वत ऐसे वृक्षोंसे सुसज्जित है जिनमें सुगन्धित पुष्प निकलते हैं।
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स्वर्णार्णशतपत्रै श्व वररेणुकजातिभि: ।
कुब्जकैर्मल्लिकाभिश्व माधवीभिश्व मण्डितम् ॥
१६॥
स्वर्णार्ण--सुनहरे रंग का; शत-पत्रै:ः--कमलों से; च--तथा; वर-रेणुक-जातिभि:--वर, रेणुक तथा मालती से; कुब्जकै: --कुब्जकों से; मल्लिकाभि:--मल्लिकाओं से; च--तथा; माधवीभि: --माधवी से; च--तथा; मण्डितम्ू--सुशोभित, अलंकृत ;वहाँ अन्य वृक्ष भी हैं, जो पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं, यथा सुनहरा कमलपुष्प, दारचीनी,मालती, कुब्ज, मल्लिका तथा माधवी।
"
पनसोदुम्बराश्चत्थप्लक्षन्यग्रोधहिड्बुभि: ।
भूजैरोषधिभि: पूगै राजपूगैश्च जम्बुभि: ॥
१७॥
पनस-उदुम्बर-अश्वत्थ-प्लक्ष-न्यग्रो ध-हिड्डुभि: --पनस ( कटहल ), उदुम्बर, अश्रत्थ, प्लक्ष, न्यग्रोध तथा हींग उत्पन्न करने वालेवृक्ष; भूजैं: -- भोजपत्र से; ओषधिभि: --सुपारी वृक्षों से; पूगैः--पूण से; राजपूगैः --राजपूगों से; च--तथा; जम्बुभि:--जामुनसे
कैलास पर्वत जिन अन्य वृक्षों से सुशोभित है वे हैं कट अर्थात् कटहल, गूलर, बरगद,पाकड़, न्यग्रोध तथा हींग उत्पादक वृक्ष।
इसके अतिरिक्त सुपारी, भोजपत्र, राजपूग, जामुन तथाइसी प्रकार के अन्य वृक्ष हैं।
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खर्जूराग्रातकाम्राद्यै: प्रियालमथुकेड्डुदै: ।
द्रुमजातिभिरन्यैश्व राजितं वेणुकीचकै: ॥
१८ ॥
खर्जूर-आम्रातक-आम्र-आद्यै:--खजूर, आम्रातक, आम्र तथा अन्य वृक्षों से; प्रियाल-मधुक-इब्डुदैः--प्रियाल, मधुक तथा इंगुदसे; द्रुम-जातिभि:--वृक्षों की जातियों से; अन्यैः--अन्य; च--तथा; राजितम्--सुशोभित्; वेणु-कीचकै :--वेणु ( बाँस ) तथा'कीचक ( खोखले बाँस ) से |
वहाँ आम, प्रियाल, मधुक ( महुआ ) तथा इंगुद ( च्यूर ) के वृक्ष हैं।
इनके अतिरिक्त पतलेबाँस, कीचक तथा बाँसों की अन्य किस्में कैलास पर्वत को सुशोभित करने वाली हैं।
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कुमुदोत्पलकह्लारशतपत्रवनर्द्धिभि: ।
नलिनीषु कल॑ कूजत्खगवृन्दोपशोभितम् ॥
१९॥
मृगैः शाखामूृगैः क्रोडैमृगेन्द्रैसक्षशल्यकै: ।
गवयै: शरभेव्यप्रि रुरुभिर्महिषादिभि: ॥
२०॥
कुमुद--कुमुद; उत्पल--उत्पल; कह्लार--कल्हार; शतपत्र--कमल; वन--जंगल; ऋद्ध्धिभि:--से आच्छादित; नलिनीषु--झीलों में; कलम्-- अत्यन्त मधुर; कूजत्--चहकते हुए; खग--पक्षियों का; वृन्द--समूह; उपशोभितम्--से अलकूंत; मृगैः--हिरनों से; शाखा-मृगैः--बन्दरों से; क्रोडै:--सुअरों से; मृग-इन्द्रै:--सिंहों से; ऋक्ष-शल्यकै:ः--रीछों तथा साहियों से;गवयै:--नील गायों से; शरभे:--जंगली गधों से; व्याप्रै:--बाघों से; रुकूभिः--एक प्रकार के छोटे मृग से; महिष-आदिभि:--भैंसे आदि से |
वहाँ कई प्रकार के कमल पुष्प हैं यथा कुमुद, उत्पल, शतपत्र।
वहाँ का वन अलकूंत उद्यानसा प्रतीत होता है और छोटी-छोटी झीलें विभिन्न प्रकार के पक्षियों सें भरी पड़ी हैं, जो अत्यन्तमीठे स्वर से चहकती हैं।
साथ ही कई प्रकार के अन्य पशु भी पाये जाते हैं, यथा मृग, बन्दर,सुअर, सिंह, रीछ, साही, नील गाय, जंगली गधे, लघुमृग, भेंसे इत्यादि जो अपने जीवन का पूराआनन्द उठाते हैं।
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कर्णानत्रैकपदाश्रास्यर्निर्जुष्ट वृकनाभिभि: ।
कदलीखण्डसंरुद्धनलिनीपुलिनअियम् ॥
२१॥
कर्णानत्र--कर्णात्र से; एकपद--एकपद; अश्वास्यै:--अश्वास्य से; निर्जुष्टभ[-- पूर्णतः भोगा हुआ; वृक-नाभिभि:--वृक तथानाभि ( कस्तूरी मृग ) द्वारा; कदली--केला के; खण्ड--समूह से; संरुद्ध--आच्छादित; नलिनी--कमलों से भरा सरोवर;पुलिन--रेतीला किनारा; श्रियम्--अत्यन्त सुन्दर।
वहाँ पर तरह तरह के मृग पाये जाते हैं, यथा कर्णात्र, एकपद, अश्वास्य, वृक तथा कस्तूरीमृग।
इन मृगों के अतिरिक्त विविध केले के वृक्ष हैं, जो छोटी-छोटी झीलों के तटों को सुशोभितकरते हैं।
"
पर्यस्तं नन्दया सत्या: स्नानपुण्यतरोदया ।
विलोक्य भूतेशगिरिं विबुधा विस्मयं ययु: ॥
२२॥
पर्यस्तम्--घिरा हुआ; नन्दया--नन्दा नदी से; सत्या:--सती के; स्नान--स्नान से; पुण्य-तर--विशेष रूप से सुगन्धित;उदया--जल से; विलोक्य--देखकर; भूत-ईश-- भूतों के स्वामी ( शिव ) का; गिरिम्--पर्वत; विबुधा:--देवतागण;विस्मयम्--आश्चर्य; ययु:--हुआ |
वहाँ पर अलकनन्दा नामक एक छोटी सी झील है, जिसमें सती स्नान किया करती थीं।
यहझील विशेष रूप से शुभ है।
कैलास पर्वत की विशेष शोभा देखकर सभी देवता वहाँ के ऐश्वर्यसे अत्यधिक विशस्त्रित थे।
"
दहशुस्तत्र ते रम्यामलकां नाम बै पुरीम् ।
बन॑ सौगन्धिकं चापि यत्र तन्नाम पड्टडूजम् ॥
२३॥
दहृशुः--देखा; तत्र--वहाँ ( कैलास में ); ते--वे ( देवता ); रम्यामू--अत्यन्त आकर्षक; अलकाम्--अलका; नाम--नामक;वै--निस्सन्देह; पुरीमू-- धाम; वनम्ू-- जंगल; सौगन्धिकम्--सौगन्धिक; च--तथा; अपि-- भी ; यत्र--जिस स्थान में; तत्-नाम--उस नाम की; पड्डूजम्--कमल पुष्पों की जाति।
इस प्रकार देवताओं ने सौगन्धिक नामक वन में अलका नामक विचित्र सुन्दर भाग कोदेखा।
यह वन कमल पुष्पों की अधिकता के कारण सौगन्धिक कहलाता है।
सौगन्धिक काअर्थ है 'सुगन्धि से पूर्ण' ।
"
नन्दा चालकनन्दा च सरितौ बाह्मतः पुरः ।
तीर्थपादपदाम्भोजरजसातीव पावने ॥
२४॥
नन्दा--नन्दा; च--तथा; अलकनन्दा--अलकनन्दा; च--तथा; सरितौ--दो नदियाँ; बाह्मतः--बाहर की ओर; पुरः--नगरी से;तीर्थ-पाद-- भगवान् के; पद-अम्भोज--चरणकमल की; रजसा--धूलि से; अतीव--अत्यधिक; पावने--पवित्र हुईउन्होंने नन्दरा तथा अलकनन्दा नामक दो नदियाँ भी देखीं।
ये दोनों नदियाँ भगवान् गोविन्दके चरणकमलों की रज से पवित्र हो चुकी हैं।
"
ययो:ः सुरस्त्रिय: क्षत्तरवरुह्म स्वधिष्ण्यतः ।
क्रीडन्ति पुंसः सिद्ञन्त्यो विगाह् रतिकर्शिता: ॥
२५॥
ययो:--जिन दोनों ( नदियों ) में; सुर-स्त्रियः--स्वर्ग की सुन्दरियाँ अपने पतियों समेत; क्षत्त:--हे विदुर; अवरुह्म--उतर कर;स्व-धिष्णयत:ः--अपने-अपने विमानों से; क्रीडन्ति--क्री ड़ा करते हैं; पुंस:--उनके पति; सिद्ञन्त्य:--जल छिड़क कर;विगाह्म--( जल में ) प्रवेश करके; रति-कर्शिता: --जिनका रति-सुख घट चुका है।
हे क्षत्त, है विदुर, स्वर्ग की सुन्दरियाँ अपने-अपने पतियों सहित विमानों से इन नदियों मेंउतरती हैं और काम-क्रीड़ा के पश्चात् जल में प्रवेश करती हैं तथा अपने पतियों के ऊपर पानीउलीच कर आनन्द उठाती हैं।
"
ययोस्तत्स्नानविशभ्रष्टनवकुड्डू मपिञ्ञरम् ।
वितृषोपि पिबन्त्यम्भ: पाययन्तो गजा गजी: ॥
२६॥
ययो:--जिन दोनों नदियों में; तत्-स्नान--उनके स्नान से; विश्रष्ट-गिरे हुए; नव--ताजे; कुल्लू म--कुंकुम चूर्ण से; पिल्लमम्ू-पीला; वितृष:--प्यासे न होने पर; अपि-- भी; पिबन्ति--पीते हैं; अम्भ:--जल; पाययन्त:--पिलाते हैं; गजा: --हाथी;गजी:--हथिनियाँ।
स्वर्गलोक की सुन्दरियों द्वारा जल में स्नान करने के पश्चात् उनके शरीर के कुंकुम के कारण वह जल पीला तथा सुगंधित हो जाता है।
अतः वहाँ पर स्नान करने के लिए हाथीअपनी-अपनी पत्नी हथिनियों के साथ आते हैं और प्यासे न होने पर भी वे उस जल को पीते हैं।
"
तारहेममहारलविमानशतसड्डू लाम् ॥
जुष्टां पुण्यजनस्त्रीभिर्यथा खं सतडिद्धनम् ॥
२७॥
तार-हेम--मोती तथा सोने का; महा-रत्त--बहुमूल्य रत्न; विमान--विमानों का; शत--सैकड़ों; सह्लु लाम्--पुंजित; जुष्टाम्--व्यक्त, भोगा गया; पुण्यजन-स्त्रीभि: --यक्षों की पत्नियों द्वारा; यथा--जिस प्रकार; खम्--आकाश; स-तडित्-घनम्--बिजलीतथा बादलों से युक्त |
स्वर्ग के निवासियों के विमानों में मोती, सोना तथा अनेक बहुमूल्य रत्न जड़े रहते हैं।
स्वर्गके निवासियों की तुलना उन बादलों से की गई है, जो आकाश में रहकर बिजली की चमक सेसुशोभित रहते हैं।
"
हित्वा यक्षेश्वरपुरीं वन॑ सौगन्धिकं च तत् ।
ब्ुमै: कामदुघैईद्यं चित्रमाल्यफलच्छदै: ॥
२८॥
हित्वा--पीछे छोड़ कर; यक्ष-ई ध्वर--यक्षों के स्वामी ( कुबेर ) का; पुरीम्-- धाम, वासस्थान; वनम्--जंगल; सौगन्धिकम्--सौगन्धिक नामक; च--तथा; तत्--वह; ब्रुमैः --वृक्षों से; काम-दुघैः:--कामनाओं को पूरा करने वाले; हृद्यमू--आकर्षक;चित्र--चित्रित; माल्य--पुष्प; फल--फल; छदैः --पत्तियों से |
यात्रा करते हुए देवता सौगन्धिक वन से होकर निकले जो अनेक प्रकार के पुष्पों, फलोंतथा कल्पवृक्षों से पूर्ण था।
इस वन से जाते हुए उन्होंने यक्षेश्वर के प्रदेशों को भी देखा।
"
रक्तकण्ठखगानीकस्वरमण्डितषट्पदम् ।
कलहंसकुलप्रेष्ठं खरदण्डजलाशयम् ॥
२९॥
रक्त--लाल; कण्ठ-गर्दन; खग-अनीक-- अनेक पक्षियों का; स्वर--मीठी बोली से; मण्डित--सुशोभित; षट्-पदम्-- भौरे;कलहंस-कुल-हंसों के झुंडों का; प्रेष्ठमू-- अत्यन्त प्रिय; खर-दण्ड--कमल पुष्प; जल-आशयम्--झील, सरोवर।
उस नेसर्गिक वन में अनेक पक्षी थे जिनकी गर्दन लाल रंग की थीं और उनका कलरव भौंरोंके गुंजार से मिल रहा था।
वहाँ के सरोवर शब्द करते हंसों के समूहों तथा लम्बे नाल वालेकमल पुष्पों से सुशोभित थे।
"
वनकुञझ्जरसडडष्टहरिचन्दनवायुना ।
अधि पुण्यजनस्त्रीणां मुहुरुन्मथयन्मन: ॥
३०॥
वबन-कुझर--जंगली हाथी से; सट्डष्ट--रगड़ा गया; हरिचन्दन--चन्दन के वृक्ष; वायुना--मन्द वायु से; अधि--अधिक;पुण्यजन-स्त्रीणाम्-यक्षों की पत्नियों के; मुहुः--पुनः पुनः; उन््मथयत्--विचलित; मन:--मन |
ऐसा वातावरण जंगली हाथियों को विचलित कर रहा था, जो चन्दन वृक्ष के जंगल में झुंडोंमें एकत्र हुए थे।
बहती हुई वायु अप्सराओं के मनों को अधिकाधिक इन्द्रियभोग के लिएविचलित किए जा रही थी।
"
बैदूर्यकृतसोपाना वाप्य उत्पलमालिनी: ।
प्राप्तं किम्पुरुषैर्दट्ठा त आराहहशुर्वटम् ॥
३१॥
बैदूर्य-कृत--वैदूर्य की बनी; सोपाना:--सीढ़ियाँ; वाप्य:--झीलें; उत्पल--कमल पुष्पों की; मालिनी:--पंक्तियों से युक्त;प्राप्तम्--बसा हुआ; किम्पुरुषै:--किम्पुरुषों द्वारा; दृष्टा--देखकर; ते--उन देवताओं ने; आरात्ू--निकट ही; दहशु:--देखा;वटम्--बरगद का वृक्ष
उन्होंने यह भी देखा कि नहाने के घाट तथा उनकी सीढ़ियाँ बैदूर्यमणि की बनी थीं।
जल कमलपुष्पों से भरा था।
ऐसी झीलों के निकट से जाते हुए देवता उस स्थान पर पहुँचे जहाँ एक बट वृक्ष था।
"
स योजनशतोत्सेध: पादोनविटपायतः ।
पर्यकृताचलच्छायो निर्नीडस्तापवर्जित: ॥
३२॥
सः--वह वट वृक्ष; योजन-शत--एक सौ योजन ( आठ सौ मील ); उत्सेध:--उँचाई; पाद-ऊन--एक चौथाई कम ( छह सौमील ); विटप--शाखाओं से; आयतः--फैला हुआ; पर्यक्ू--चारों ओर; कृत--बना हुआ; अचल--स्थिर; छाय:--छाया;निर्नीड:--बिना घोंसले का; ताप-वर्जित:--तापरहित, गर्मी से रहित।
वह वट वृक्ष आठ सौ मील ऊँचा था और उसकी शाखाएँ चारों ओर छह सौ मील तक फैलीथीं।
उसकी मनोहर छाया से सतत शीतलता छाई थी, तो भी पक्षियों की गूँज सुनाई नहीं पड़ रहीथी।
"
तस्मिन्महायोगमये मुमुक्षुशरणे सुरा: ।
दहृशु: शिवमासीन त्यक्तामर्षमिवान्तकम् ॥
३३॥
तस्मिन्ू--उस वृक्ष के नीचे; महा-योग-मये--परमेश्वर के ध्यान में मगन अनेक साधुओं से युक्त; मुमुक्षु--मुक्ति की कामना करनेवाले; शरणे--आश्रय; सुरा:--देवताओं ने; दहशु:--देखा; शिवम्--शिव को; आसीनम्--आसन लगाये; त्यक्त-अमर्षम्--क्रोधरहित; इब--मानों; अन्तकम्--अनन्त काल।
देवताओं ने शिव को, जो योगियों को सिद्धि प्रदान करने एवं समस्त लोगों का उद्धार करनेमें सक्षम थे, उस वृक्ष के नीचे आसीन देखा।
अनन्त काल के समान गम्भीर, शिवजी ऐसे प्रतीतहो रहे थे मानो समस्त क्रोध का परित्याग कर चुके हों।
"
सनन्दनादैर्महासिद्धैः शान्तैः संशान्तविग्रहम् ।
उपास्यमानं सख्या च भर्त्रां गुह्करक्षसाम् ॥
३४॥
सनन्दन-आह्यैः --सनन्दन इत्यादि चारों कुमार; महा-सिद्धै:--मुक्त जीव; शान्तै:ः --साधु प्रकृति का; संशान्त-विग्रहम्ू--गम्भीरतथा साधु प्रकृति वाले शिव; उपास्थमानम्--प्रशंसित; सख्या--कुबेर द्वारा; च--तथा; भर्त्रा--स्वामी द्वारा; गुह्क-रक्षसाम्--गुह्कों तथा राक्षसों द्वारा
वहाँ पर शिवजी कुबेर, गुह्मकों के स्वामी तथा चारों कुमारों जैसी मुक्तात्माओं से घिरे हुएबैठे थे।
शिवजी अत्यन्त गम्भीर एवं शान्त थे।
"
विद्यातपोयोगपथमास्थितं तमधी श्वरम् ।
चरन्तं विश्वसुहृदं वात्सल्याल्लोकमड़लम् ॥
३५॥
विद्या--ज्ञान; तप:--तपस्या; योग-पथम्-- भक्ति मार्ग; आस्थितम्--स्थित; तम्--उसको ( शिव को ); अधी श्वरम्--इन्दियोंके स्वामी; चरन्तम्--( तप इत्यादि ) करते हुए ); विश्व-सुहृदम्--समस्त संसार के सखा; बात्सल्यात्ू-पूर्ण स्नेह से; लोक-मड्जलम्- प्रत्येक के लिए कल्याणकर।
देवताओं ने शिवजी को इन्द्रिय, ज्ञान, सकाम कर्मों तथा सिद्धि मार्ग के स्वामी के रूप मेंस्थित देखा।
वे समस्त जगत के भिन्न हैं और सबके लिए पूर्ण स्नेह रखने के कारण वे अत्यन्तकल्याणकारी हैं।
"
लिड् च तापसाभीष्टं भस्मदण्डजटाजिनम् ।
अड्लेन सब्ध्याभ्ररुचा चन्द्रलेखां च बिभ्रतम् ॥
३६॥
लिड्रमू--चिह्त; च--तथा; तापस-अभीष्टम्-शैव साधुओं द्वारा वांछित; भस्म--राख; दण्ड--डंडा; जटा--जटाजूट;अजिनमू--मृग चर्म; अड्रेन--अपने शरीर से; सन्ध्या-आभ्र--लाल लाल; रुचा--र₹ँगा हुआ; चन्द्र-लेखाम्--अर्द्धचन्द्र कला;च--तथा; बिभ्रतम्ू-- धारण किये |
वे मृगचर्म पर आसीन थे और सभी प्रकार की तपस्या कर रहे थे।
शरीर में राख लगाये रहनेसे वे संध्याकालीन बादल की भाँति दिखाई पड़ रहे थे।
उनकी जटाओं में अरद्धचन्द्र का चिह्नथा, जो सांकेतिक प्रदर्शन है।
"
उपविष्ट दर्भमय्यां बृस््यां ब्रह्मा सनातनम् ।
नारदाय प्रवोचन्तं पृच्छते श्रण्वतां सताम्ू ॥
३७॥
उपविष्टमू--बैठे हुए; दर्भ-मय्याम्--दर्भ से बने; बृस्थाम्--चटाई ( आसन ) पर; ब्रह्म--परम सत्य; सनातनमू--शाश्वत;नारदाय--नारद को; प्रवोचन्तम्--बोलते हुए; पृच्छते--पूछते हुए; श्रृण्वताम्ू--सुनते हुए; सताम्--साधु पुरुषों का |
वे तृण ( कुश ) के आसन पर बैठे थे और वहाँ पर उपस्थित सबों को, विशेषरूप से नारदमुनि, को परम सत्य के विषय में उपदेश दे रहे थे।
"
कृत्वोरौ दक्षिणे सव्यं पादपद्मं च जानुनि ।
बाहुं प्रकोष्टेक्षमालामासीन तर्कमुद्रया ॥
३८ ॥
कृत्वा--रखकर; ऊरौ--जाँघ पर; दक्षिणे--दाहिनी; सव्यम्--बाँये; पाद-पद्ममू--चरणकमल; च--तथा; जानुनि--घुटने पर;बाहुम्-हाथ; प्रकोष्टे--दाहिनी हाथ की कलाई में; अक्ष-मालाम्--रुद्राक्ष की माला; आसीनमू--बैठे हुए; तर्क-मुद्रया--तर्कमुद्रा से |
उनका बायाँ पैर उनकी दाहिनी जाँघ पर रखा था और उनका बायाँ हाथ बायीं जाँघ पर था।
दाहिने हाथ में उन्होंने रुद्राक्ष की माला पकड़ रखी थी।
यह आसन वीरासन कहलाता है।
इस प्रकार वे वीरासन में थे और उनकी अँगुली तर्क-मुद्रा में थी।
"
त॑ ब्रह्मनिर्वाणसमाधिमाश्रितंव्युपाथ्नितं गिरिशं योगकक्षाम् ।
सलोकपाला मुनयो मनूना-माद्य॑ मनुं प्रा्ललय: प्रणेमु: ॥
३९॥
तम्--उसको ( शिव को ); ब्रह्म-निर्वाण-- ब्रह्मानन्द में; समाधिम्-- समाधि में; आभ्रितम्-- लीन; व्युपाभ्रितम्-टेके हुए;गिरिशम्--शिव; योग-कक्षाम्ू--अपने बायें घुटने को गांठदार कपड़े से मजबूती से कसे; स-लोक-पाला:--देवताओं सहित( इन्द्र इत्यादि ); मुन॒यः--साधुगण; मनूनाम्--समस्त चिन्तकों का; आद्यमू-- प्रमुख; मनुम्--चिन्तक; प्राज्ललय:--हाथ जोड़े;प्रणेमुः--प्रणाम किया
समस्त मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओं ने हाथ जोड़कर शिवजी को सादर प्रणाम किया।
शिवजी ने केसरिया वस्त्र धारण कर रखा था और समाधि में लीन थे जिससे वे समस्त साधुओंमें अग्रणी प्रतीत हो रहे थे।
"
स तूपलभ्यागतमात्मयोनिंसुरासुरेशैरभिवन्दिताडुप्रि: ।
उत्थाय चक्रे शिरसाभिवन्दन-महत्तम: कस्य यथेव विष्णु; ॥
४०॥
सः--शिव; तु--लेकिन; उपलभ्य--देखकर; आगतम्--आया हुआ; आत्म-योनिम्--ब्रह्मा को; सुर-असुर-ईशै: --सर्व श्रेष्ठदेवताओं तथा असुरों द्वारा; अभिवन्दित-अड्ध्रि:--जिनके चरण पूजित हैं; उत्थाय--खड़े होकर; चक्रे--किया; शिरसा--शिरसे; अभिवन्दनम्--सादर नमस्कार; अर्हत्तम:--वामनदेव ने; कस्य--कश्यप का; यथा एब--जिस प्रकार; विष्णु: --विष्णु
शिवजी के चरणकमल देवताओं तथा असुरों द्वारा समान रूप से पूज्य थे, फिर भी अपनेउच्च पद की परवाह न करके उन्होंने ज्योंही देखा कि अन्य देवताओं में ब्रह्मा भी हैं, तो वे तुरन्तखड़े हो गये और झुक कर उनके चरणकमलों का स्पर्श करके उनका सत्कार किया, जिसप्रकार वामनदेव ने कश्यप मुनि को सादर नमस्कार किया था।
"
तथापरे सिद्धगणा महर्षिभि-यें वै समन््तादनु नीललोहितम् ।
नमस्कृतः प्राह शशाड्डुशेखरं'कृतप्रणामं प्रहसन्निवात्मभू: ॥
४१ ॥
तथा--उसी प्रकार; अपरे-- अन्य; सिद्ध-गणा:--सिद्ध जन; महा-ऋषिभि:--बड़े-बड़े ऋषियों सहित; ये--जो; वै--निस्सन्देह; समन्तात्ू--चारों ओर से; अनु--पीछे; नीललोहितम्--शिव; नमस्कृतः -- नमस्कार करते हुए; प्राह--कहा; शशाड्र-शेखरम्--शिव से; कृत-प्रणामम्--प्रणाम करके; प्रहसन्--हँसते हुए; इब--सहृश्य; आत्मभू: --ब्रह्मा ने।
शिवजी के साथ जितने भी ऋषि, यथा नारद आदि, बैठे हुए थे उन्होंने भी ब्रह्मा को सादरनमस्कार किया।
इस प्रकार पूजित होकर शिव से ब्रह्मा हँसते हुए कहने लगे।
"
ब्रह्मोवाचजाने त्वामीशं विश्वस्थ जगतो योनिबीजयो: ।
शक्ते: शिवस्य च परं यत्तद्ह्म निरन्तरम् ॥
४२॥
ब्रह्मा उबाच--ब्रह्मा ने कहा; जाने--जानता हूँ; त्वामू--तुमको ( शिव को ); ईशम्--नियन्ता; विश्वस्थ--सम्पूर्ण भौतिक जगतका; जगतः--हृश्य जगत का; योनि-बीजयो:--माता तथा पिता दोनों का; शक्तेः--शक्ति का; शिवस्थ--शिव का; च--तथा;परम्--परब्रह्म; यत्ू--जो; तत्--वह; ब्रह्म--बिना परिवर्तन के; निरन्तरमू--बिना किसी भौतिक गुण के |
ब्रह्मा ने कहा : हे शिव, मैं जानता हूँ कि आप सारे भौतिक जगत के नियन्ता, दृश्य जगत केमाता-पिता और दृश्य जगत से भी परे परब्रह्म हैं।
मैं आपको इसी रूप में जानता हूँ।
"
त्वमेव भगवन्नेतच्छिवशक्त्यो: स्वरूपयो: ।
विश्व सृजसि पास्यत्सि क्रीडब्नूर्णपपटो यथा ॥
४३॥
त्वमू--तुम; एव--ही; भगवन्--हे भगवान्; एतत्--यह; शिव-शक्त्यो:--अपनी शुभ शक्ति में स्थित होकर; स्वरूपयो: --अपने व्यक्तिगत विस्तार से; विश्वम्--यह ब्रह्माण्ड; सृजसि--उत्पन्न करते हो; पासि--पालन करते हो; अत्सि--संहार करते हो;क्रीडनू--खेलते हुए; ऊर्ण-पट:--मकड़ी का जाला; यथा--जिस प्रकार |
हे भगवान्, आप अपने व्यक्तिगत विस्तार से इस दृश्य जगत की सृष्टि, पालन तथा संहारउसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मकड़ी अपना जाला बनाती है, बनाये रखती हैं और फिर अन्तकर देती है।
"
त्वमेव धर्मार्थदुघाभिपत्तयेदक्षेण सूत्रेण ससर्जिथाध्वरम् ।
त्वयैव लोकेवसिताश्न सेतवोयान्ब्राह्मणा: श्रदधते धृतब्रता: ॥
४४॥
त्वमू--आपने; एव--निश्चय ही; धर्म-अर्थ-दुघ-- धर्म तथा आर्थिक विकास से प्राप्त लाभ; अभिपत्तये--उनकी रक्षा हेतु;दक्षेण--दक्ष द्वारा; सूत्रेण--निमित्त बनाते हुए; ससर्जिथ--उत्पन्न किया; अध्वरम्--यज्ञ; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; एब--निश्चय ही;लोके--इस संसार में; अवसिता:--संयमित; च--तथा; सेतव:--वर्णा श्रम संस्था की मर्यादाएँ; यान्--जो; ब्राह्मणा:-- ब्राह्मणवर्ग; श्रद्रधते-- अत्यधिक सम्मान करते हैं; धृत-ब्रता:--ब्रत लेकर
हे भगवान्, आपने दक्ष को माध्यम बनाकर यज्ञ-प्रथा चलाई है, जिससे मनुष्य धार्मिककृत्य तथा आर्थिक विकास का लाभ उठा सकता है।
आपके ही नियामक विधानों से चारों वर्णोंतथा आश्रमों को सम्मानित किया जाता है।
अतः ब्राह्मण इस प्रथा का दृढ़तापूर्वक पालन करनेका ब्रत लेते हैं।
"
त्वं कर्मणां मड्रल मड़लानांकर्तुः स्वलोकं तनुषे स्व: परं वा ।
अमडूूलानां च तमिस्त्रमुल्बणंविपर्यय: केन तदेव कस्यचित् ॥
४५॥
त्वमू--आप; कर्मणाम्-कर्तव्यों का; मडल--हे परम शुभ; मड्रलानाम्ू--शुभ करने वालों का; कर्तुः--कर्ता का; स्व-लोकम्--क्रम से उच्च लोक; तनुषे--विस्तार करते हैं; स्व:--स्वर्गलोक; परम्--दिव्य लोक; वा--अथवा; अमड्रलानाम्ू--अमंगल का; च--तथा; तमिस्त्रमू--तमिस्त्र नरक; उल्बणम्--घोर; विपर्यय: -- उल्टा; केन--क्यों; तत् एब--निश्चय ही वह;कस्यचित्--किसी के लिए।
हे परम मंगलमय भगवान्, आपने स्वर्गलोक, वैकुण्ठलोक तथा निर्गुण ब्रह्मलोक को शुभकर्म करने वालों का गन्तव्य निर्दिष्ट किया है।
इसी प्रकार जो दुराचारी हैं उनके लिए अत्यन्त घोरनरकों की सृष्टि की है।
तो भी कभी-कभी ये गन्तव्य उलट जाते हैं।
इसका कारण तय कर पानाअत्यन्त कठिन है।
"
न वे सतां त्वच्चरणार्पितात्मनांभूतेषु सर्वेष्वभिपश्यतां तव ।
भूतानि चात्मन्यपृथग्दिहक्षतांप्रायेण रोषोडभिभवेद्यथा पशुम् ॥
४६॥
न--नहीं; बै-- लेकिन; सताम्-भक्तों का; त्वत्-चरण-अर्पित-आत्मनाम्ू--आपके चरणकमलों पर पूर्णतया समर्पण करनेबालों का; भूतेषु--जीवात्माओं में; सर्वेषु--सभी प्रकार के; अभिपश्यताम्--ठीक से देखते हुए; तब--तुम्हारा; भूतानि--जीवात्माएँ; च--तथा; आत्मनि--परब्रह्म में; अपृथक्-- अभिन्न; दिदृक्षताम्--उस प्रकार देखने वाले; प्रायेण--प्राय:, सदैव;रोष:--क्रोध; अभिभवेत्--होता है; यथा--समान; पशुम्--पशुओं के
हे भगवान्, जिन भक्तों ने अपना जीवन आपके चरण-कमलों पर अर्पित कर दिया है, वेप्रत्येक प्राणी में परमात्मा के रूप में आपकी उपस्थिति पाते हैं; फलत:ः वे प्राणी-प्राणी में भेदनहीं करते।
ऐसे लोग सभी प्राणियों को समान रूप से देखते हैं।
वे पशुओं की तरह क्रोध केवशीभूत नहीं होते, क्योंकि पशु बिना भेदबुद्धि के कोई वस्तु नहीं देख सकते।
"
पृथग्धिय: कर्महशो दुराशया:परोदयेनार्पितहद्गुजोडनिशम् ।
परान्दुरुक्तैवितुद॒न्त्यरुन्तुदास्तान्मावधीद्दैववधान्भवद्विध: ॥
४७॥
पृथक्-भिन्न रूप से; धिय:--सोचने वाले; कर्म--सकाम कर्म; दहृश:ः --दर्शक; दुराशया:--तुच्छ बुद्धि; पर-उदयेन--अन्योंकी उन्नति से; अर्पित--त्यक्त; हृत्ू--हृदय; रुज:--क्रोध; अनिशम्--सदैव; परान्ू-- अन्य; दुरुक्त:--कदु वचन से;वितुदन्ति--पीड़ा पहुँचाता है; अरुन्तुदा:--मर्मभेदी बचनों से; तानू--उनको; मा--नहीं; अवधीतू--मारो; दैव--विधाता द्वारा;वधान्--पहले से मारे हुए; भवत्--आप; विध: --चाहते हैं |
जो लोग भेद-बुद्धि से प्रत्येक वस्तु को देखते हैं, जो केवल सकाम कर्मों में लिप्त रहते हैं,जो तुच्छबुद्धि हैं, जो अन्यों के उत्कर्ष को देखकर दुखी होते हैं और उन्हें कटु तथा मर्मभेदीबचनों से पीड़ा पहुँचाते रहते हैं, वे तो पहले से विधाता द्वारा मारे जा चुके हैं।
अतः आप जैसेमहान् पुरुष द्वारा उनको फिर से मारने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
"
यस्मिन्यदा पुष्करनाभमाययादुरन्तया स्पृष्टधिय: पृथग्हशः ।
कुर्वन्ति तत्र ह्मानुकम्पया कृपांन साधवो दैवबलात्कृते क्रमम् ॥
४८ ॥
यस्मिनू--किसी स्थान में; यदा--जब; पुष्कर-नाभ-मायया--पुष्करनाभ अर्थात् भगवान् की माया से; दुरन््तया--दुर्लघ्य;स्पृष्ट-धिय:ः--मोहित; पृथक्-हशः--भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने वाले पुरुष; कुर्वन्ति--करते हैं; तत्र--वहाँ; हि--निश्चय ही;अनुकम्पया--दयावश; कृपाम्--कृपा, अनुग्रह; न--कभी नहीं; साधव:ः--साधु पुरुष; दैव-बलात्--विधाता द्वारा; कृते--किया गया; क्रमम्--शौर्य
हे भगवान्, यदि कहीं भगवान् की दुर्लध्य माया से पहले से मोहग्रस्त भौतिकतावादी( संसारी ) कभी-कभी पाप करते हैं, तो साधु पुरुष दया करके इन पापों को गम्भीरता से नहींलेता।
यह जानते हुए कि वे माया के वशीभूत होकर पापकर्म करते हैं, वह उनका प्रतिघात करनेश़ में अपने शौर्य का प्रदर्शन नहीं करता।
"
भवांस्तु पुंसः परमस्य माययादुरन्तयास्पृष्टमति: समस्तह॒क् ।
तया हतात्मस्वनुकर्मचेतःस्व्अनुग्रहं कर्तुमिहाईसि प्रभो ॥
४९॥
भवान्--आप; तु-- लेकिन; पुंस:ः-- पुरुष की; परमस्य--परम; मायया-- भौतिक शक्ति द्वारा; दुरतया--अत्यधिक शक्ति का;अस्पृष्ट--अप्रभावित; मति: --बुद्धि; समस्त-हक्-प्रत्येक वस्तु को देखने या जानने वाला; तया--उसी माया द्वारा; हत-आत्मसु--हृदय में मोहित; अनुकर्म-चेतःसु--जिनके हृदय सकाम कर्मों द्वारा आकृष्ट हैं; अनुग्रहम्--कृपा; कर्तुमू--करने केलिए; इह--इस प्रसंग में; अहंसि--आकांक्षा करते हैं; प्रभो--हे भगवान्
हे भगवान्, आप परमात्मा की माया के मोहक प्रभाव से कभी मोहित नहीं होते।
अतः आपसर्वज्ञ हैं, और जो उसी माया के द्वारा मोहित एवं सकाम कर्मों में अत्यधिक लिप्त हैं, उन परकृपालु हों और अनुकम्पा करें।
"
कुर्वध्वरस्योद्धरणं हतस्य भो:त्वयासमाप्तस्य मनो प्रजापते: ।
न यत्र भागं तब भागिनो ददुःकुयाजिनो येन मखो निनीयते ॥
५०॥
कुरु--करो; अध्वरस्य--यज्ञ का; उद्धरणम्--उद्धार, पूरा किया जाना; हतस्य--मारे हुए का; भो:--हे; त्वया--तुम्हारे द्वारा;असमाप्तस्य--अपूर्ण यज्ञ का; मनो--हे शिव; प्रजापतेः--महाराज दक्ष का; न--नहीं; यत्र--जहाँ; भागम्-- भाग, हिस्सा;तब--तुम्हारा; भागिन: -- भाग के पात्र; ददुः--नहीं दिया; कु-याजिन:--दुष्ट पुरोहितों ने; येन--दाता से; मख:--यज्ञ;निनीयते--फल पाता है।
हे शिव, आप यज्ञ का भाग पाने वाले हैं तथा फल प्रदान करने वाले हैं।
दुष्ट पुरोहितों नेआपका भाग नहीं दिया, अतः आपने सर्वस्व ध्वंस कर दिया, जिससे यज्ञ अधूरा पड़ा है।
अबआप जो आवश्यक हो, करें और अपना उचित भाग प्राप्त करें।
"
जीवताद्यजमानो यं प्रपद्येताक्षिणी भगः ।
भूगो: एमश्रूणि रोहन्तु पूष्णो दन्ताश्व पूर्ववत् ॥
५१॥
जीवतातू्--जी उठे; यजमान:--यज्ञकर्ता ( दक्ष ); अयम्ू--यह; प्रपद्येत--उसे वापस मिल जाय; अक्षिणी--नेत्र; भग: --भगदेव; भूगो: -- भूगु मुनि की; शमश्रूणि--मूँछें; रोहन्तु-- पुनः उग आएं; पूृष्ण:--पूषादेव के; दन््ता:--दन्त पंक्ति; च--तथा;पूर्व-बत्--पहले की तरह
है भगवान्, आपकी कृपा से यज्ञ के कर्त्ता ( राजा दक्ष ) को पुनः जीवन दान मिले, भग कोउसके नेत्र मिल जाये, भूगु को उसकी मूँछें तथा पूषा को उसके दाँत मिल जाएँ।
"
देवानां भग्नगात्राणामृत्विजां चायुधाश्मभि: ।
भवतानुगृहीतानामाशु मन्योस्त्वनातुरम् ॥
५२॥
देवानाम्--देवताओं के; भग्न-गात्राणाम्-- क्षत-विक्षत अंग वाले; ऋत्विजाम्--पुरोहितों के; च--तथा; आयुध-अश्मभि: --हथियारों तथा पत्थरों से; भवता--आपके द्वारा; अनुगृहीतानाम्--कृपापात्र; आशु--शीघ्र; मन््यो--हे शिव ( क्रुद्ध रूप में );अस्तु--हो; अनातुरम्--घावों का भरना।
हे शिव, जिन देवताओं तथा पुरोहितों के अंग आपके सैनिकों द्वारा क्षत-विश्षत हो चुके हैं,वे आपकी कृपा से तुरन्त ठीक हो जाँय।
"
एष ते रुद्र भागोउस्तु यदुच्छिष्टो ध्वरस्य वे ।
यज्ञस्ते रुद्र भागेन कल्पतामद्य यज्ञहन् ॥
५३॥
एषः--यह; ते--तुम्हारा; रुद्र--हे शिव; भाग:-- भाग; अस्तु--हो; यत्--जो भी; उच्छिष्ट: --बचा हुआ, शेष; अध्वरस्य--यज्ञका; बै--निस्सन्देह; यज्ञ:--यज्ञ; ते--तुम्हारा; रुद्र--हे रुद्र; भागेन-- भाग से; कल्पताम्--पूर्ण हो; अद्य--आज; यज्ञ-हन्ू--यज्ञ के विध्वंसक!हे यज्ञविध्वंसक, आप अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करें और कृपापूर्वक यज्ञ को पूरा होने दें।
"
अध्याय सात: दक्ष द्वारा किया गया यज्ञ
4.7मैत्रेय उवाचइत्यजेनानुनीतेन भवेन परितुष्यता ।
अभ्यधायि महाबाहो प्रहस्य श्रूयतामिति ॥
१॥
मैत्रेय:--मैत्रेय ने; उवाच--कहा; इति--इस प्रकार; अजेन--ब्रह्मा द्वारा; अनुनीतेन--शान्त किया जाकर; भवेन--शिव द्वारा;परितुष्यता--पूर्णतया सन्तुष्ट होकर; अभ्यधायि--कहा; महा-बाहो--हे विदुर; प्रहस्थ--हँस कर; श्रूयताम्--सुनो; इति--इसप्रकार।
मैत्रेय मुनि ने कहा : हे महाबाहु विदुर, भगवान् ब्रह्मा के शब्दों से शान्त होकर शिव नेउनकी प्रार्थना का उत्तर इस प्रकार दिया।
"
महादेव उबवाचनाघं प्रजेश बालानां वर्णये नानुचिन्तये ।
देवमायाभिभूतानां दण्डस्तत्र धृतो मया ॥
२॥
महादेव: --शिव ने; उवाच--कहा; न--नहीं; अघम्--पाप; प्रजा-ईश--हे प्रजापति; बालानाम्ू--बच्चों का; वर्णये--सत्कारकरता हूँ; न--नहीं; अनुचिन्तये -- मानता हूँ; देव-माया-- भगवान् की बहिरंगा शक्ति के; अभिभूतानामू--द्वारा ठगे हुओं का;दण्ड:--डंडा; तत्र--वहाँ; धृत:--प्रयुक्त; मया--मेरे द्वारा |
शिवजी ने कहा : हे पूज्य पिता ब्रह्माजी, मैं देवताओं द्वारा किये गये अपराधों की परवाहनहीं करता।
चूँकि ये देवता बालकों के समान अल्पज्ञानी हैं, अतः मैं उनके अपराधों परगम्भीरतापूर्वक विचार नहीं कर रहा हूं।
मैंने तो उन्हें राह पर लाने के लिए ही दण्डित किया है।
"
प्रजापतेर्दग्धशीष्णों भवत्वजमुखं शिरः ।
मित्रस्य चश्नुषेक्षेत भागं स्व॑ बर्हिषो भग: ॥
३॥
प्रजापते:-- प्रजापति दक्ष का; दग्ध-शीर्ष्ण:--जिसका सिर जलकर राख हो गया है; भवतु--हो जाए; अज-मुखम्--बकरे केमुँह से युक्त; शिरः--सिर; मित्रस्थ--मित्र के; चक्षुषा--नेत्रों से; ईक्षेत--देखे; भागम्-- भाग; स्वमू-- अपना; बर्हिष:--यज्ञका; भगः-- भग।
शिव ने आगे कहा : चूँकि दक्ष का सिर पहले ही जल कर भस्म हो चुका है, अतः उसेबकरे का सिर प्राप्त होगा।
भग नामक देवता, मित्र के नेत्रों से यज्ञ का अपना भाग देख सकेगा।
"
पूषा तु यजमानस्य दद्धिर्जक्षतु पिष्टभुक् ।
देवा: प्रकृतसर्वाड्रा ये म उच्छेषणं ददु: ॥
४॥
पूषा--पूषा; तु--लेकिन; यजमानस्य--यज्ञकर्ता का; दद्धिः--दाँतों से; जक्षतु--चबाए; पिष्ट-भुक्ू--आटे का भोजन;देवा:--देवता; प्रकृत--निर्मित; सर्व-अड्भा:--पूर्ण; ये-- जो; मे--मुझको; उच्छेषणम्--यज्ञ भाग; ददु:--दिया |
पूषादेव अपने शिष्यों के दाँतों से चबायेंगे और यदि अकेले चाहें तो उन्हें सत्तू की बनी लोईखाकर सन्तुष्ट होना पड़ेगा।
किन्तु जिन देवताओं ने मेरा यज्ञ-भाग देना स्वीकार कर लिया है वेसभी प्रकार की चोटों से स्वस्थ हो जाएँगे।
"
बाहुभ्यामश्विनो: पूष्णो हस्ताभ्यां कृतबाहव: ।
भवन्त्वध्वर्यवश्वान्ये बस्तश्म श्रुभगुर्भवेत् ॥
५॥
बाहुभ्याम्ू-दो भुजाओं से; अश्विनो: --अश्विनी कुमारों की; पृष्ण:--पूषा के; हस्ताभ्याम्-दो हाथों से; कृत-बाहवः--बाहुओंकी इच्छा रखने वाले; भवन्तु--हों; अध्वर्यवः--पुरोहितगण; च--तथा; अन्ये--अन्य; बस्त-श्म श्रु; --बकरे की दाढ़ी; भूगुः--भूगु; भवेत्--उसके हों ।
जिन लोगों की भुजाएँ कट गई हैं, उन्हें अश्विनी कुमार की बाहों से काम करना होगा औरजिनके हाथ कट गये हैं उन्हें पूषा के हाथों से काम करना होगा।
पुरोहितों को भी तदनुसार कार्यकरना होगा।
जहाँ तक भृगु का प्रशन है, उन्हें बकरे की दाढ़ी प्राप्त होगी।
"
मैत्रेय उवाचतदा सर्वाणि भूतानि श्रुत्वा मीदुष्टमोदितम् ।
परितुष्टात्मभिस्तात साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥
६॥
मैत्रेय:--मैत्रेय सुनि ने; उवाच--कहा; तदा--उस समय; सर्वाणि--समस्त; भूतानि--मनुष्य; श्रुत्वा--सुनकर; मीढुः-तम--वरदेने वालों में श्रेष्ठ (शिव ); उदितम्--कहा गया; परितुष्ट--सन्तुष्ट होकर; आत्मभि:--हृदय तथा आत्मा से; तात--हे विदुर;साधु साधु-- धन्य-धन्य हुआ; इति--इस प्रकार; अथ अन्लुवन्--जैसा हम कह चुके हैं।
मैत्रेय मुनि ने कहा : हे विदुर, वहाँ पर उपस्थित सभी मनुष्य सर्वश्रेष्ठ वरदाता शिव के बचनोंको सुनने से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर गदगद हो गये।
"
ततो मीढ्वांसमामन्त्रय शुनासीरा: सहर्षिभि: ।
भूयस्तद्देवयजनं समीढ्वद्वेधसो ययु; ॥
७॥
ततः--तत्पश्चात्; मीढ्वांसमू--शिव; आमन््य--बुलाकर; शुनासीरा:--इन्द्र इत्यादि देवता; सह ऋषिभि: -- भृगु इत्यादि ऋषियोंसहित; भूय:--पुनः; तत्--उस; देव-यजनम्--वह स्थान जहाँ देवता पूजे जाते हैं; स-मीढ्वत्--शिव समेत; वेधस: --ब्रह्मासहित; ययुः--गये
तब मुनियों के प्रमुख भूगु ने शिवजी को यज्ञशाला में पधारने के लिए आमंत्रित किया।
इसतरह से ऋषिगण, शिवजी तथा ब्रह्मा समेत सभी देवता उस स्थान पर गये जहाँ वह महान् यज्ञसम्पन्न हो रहा था।
"
विधाय कार्त्स्येन च तद्यदाह भगवान्भव: ।
सन्दधु: कस्य कायेन सवनीयपशो: शिर: ॥
८॥
विधाय--सम्पन्न करके; कार्त्स्येन--सर्वेसर्वा; च-- भी; तत्ू--वह; यत्-- जो; आह--कहा गया; भगवान्-- भगवान्; भव: --शिव ने; सन्दधु: --सम्पन्न किया; कस्य--जीवित ( दक्ष ) का; कायेन--शरीर से; सवनीय--यज्ञ के निमित्त; पशो:--पशु का;शिरः--सिर।
जब शिवजी के निर्देशानुसार सब कुछ सम्पन्न हो गया तो यज्ञ में वध के निमित्त लाए पशुके सिर को दक्ष के शरीर से जोड़ दिया गया।
"
सन्धीयमाने शिरसि दक्षो रुद्राभिवीक्षितः ।
सद्यः सुप्त इवोत्तस्थौ ददशे चाग्रतो मृडम् ॥
९॥
सन्धीयमाने--सम्पन्न होने पर; शिरसि--सिर से; दक्ष:--राजा दक्ष; रुद्र-अभिवीक्षित:--रुद्र द्वारा देखे जाने पर; सद्यः --तुरन्त;सुप्ते--सोया हुआ; इब--समान; उत्तस्थौ--जगाया जाकर; ददशे--देखा; च-- भी; अग्रत:--समक्ष; मृडम्ू--शिव को |
जब दक्ष के शरीर पर पशु का सिर लगा दिया गया तो दक्ष को तुरन्त ही होश आ गया औरज्योंही वह निद्रा से जगा, तो उसने अपने समक्ष शिवजी को खड़े देखा।
"
तदा वृषध्वजद्वेषकलिलात्मा प्रजापति: ।
शिवावलोकादभवच्छरद्ध्रद इबामलः ॥
१०॥
तदा--उस समय; वृष-ध्वज--शिव, जो बैल पर सवार रहते हैं; द्वेष--ईर्ष्या; कलिल-आत्मा--दूषित हृदय; प्रजापति:--राजादक्ष; शिव--शिव को; अवलोकात्--देखने से; अभवत्--हो गया; शरत्--शरद ऋतु में; हृदः--झील; इब--सहश;अमलः--निर्मल, स्वच्छ।
उस समय जब दक्ष ने बैल पर सवारी करने वाले शिव को देखा तो उसका हृदय, जो शिवके प्रति द्वेष से कलुषित था, तुरन्त निर्मल हो गया, जिस प्रकार सरोवर का जल शरदकालीनवर्षा से स्वच्छ हो जाता है।
"
भवस्तवाय कृतधीर्नाशक्नोदनुरागत: ।
औत्कण्ठ्याद्वाष्पकलया सम्परेतां सुतां स्मरन् ॥
११॥
भव-स्तवाय--शिव की स्तुति के लिए; कृत-धी:--कृतसंकल्प; न--नहीं ही; अशक्नोत्--समर्थ था; अनुरागत:--विचार से;औत्कण्ठ्यात्--उत्कंठा से; बाष्प-कलया--आँखों में आँसू भर कर; सम्परेताम्--मृत; सुताम्--पुत्री; स्मरन्ू--स्मरण करतेहुए
राजा दक्ष ने शिव की स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी पुत्री सती की दुर्भाग्यपूर्ण-मृत्यू कास्मरण हो आने से उसके नेत्र आँसुओं से भर आये और शोक से उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई।
वह कुछ भी न कह सका।
"
कृच्छात्संस्तभ्य च मन: प्रेमविह्लित: सुधीः ।
शशंस निर्व्यलीकेन भावेनेशं प्रजापति: ॥
१२॥
कृच्छात्--बड़े यत्न से; संस्तभ्य--शान्त करके; च-- भी; मन: --मन; प्रेम-विह्ललित:--प्रेम से विभोर; सु-धी:--जिसे चेत होआया हो; शशंस-- प्रशंसा की; निर्व्यलीकेन--बिना द्वैत के, अथवा अत्यन्त प्यार से; भावेन--विचार में; ईशम्--शिव की;प्रजापति:--राजा दक्ष
उस समय प्रेम-विहल होने से राजा दक्ष अत्यधिक जागरूक हो उठा।
उसने बड़े ही यत्न सेअपने मन को शान्त किया, अपने भावावेग को रोका और शुद्ध चेतना से शिव की स्तुति करनीप्रारम्भ की।
"
दक्ष उवाचभूयाननुग्रह अहो भवता कृतो मेदण्डस्त्वया मयि भृतो यदपि प्रलब्ध: ।
न ब्रह्मबन्धुषु च वां भगवन्नवज्ञातुभ्यं हरेश्व कुत एवं धृतब्रतेषु ॥
१३॥
दक्ष: उबाच--दक्ष ने कहा; भूयान्-- अत्यधिक; अनुग्रह:--कृपा; अहो--ओह; भवता--आपके द्वारा; कृतः--की गई; मे--मुझपर; दण्ड:--दण्ड, सजा; त्ववा--आपके द्वारा; मयि--मुझको; भृत:ः--की गई; यत् अपि--यद्यपि; प्रलब्ध: --पराजित;न--न तो; ब्रह्म-बन्धुषु-- अयोग्य ब्रह्मण को; च--भी; वाम्--तुम दोनों; भगवन्--मेरे स्वामी; अवज्ञा--अनादर; तुभ्यम्--आपका; हरे: च--विष्णु का; कुत:ः--कहाँ; एव--निश्चय ही; धृत-ब्रतेषु--यज्ञ करने में दत्तचित्त |
राजा दक्ष ने कहा : हे शिव, मैने आपके प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है, किन्तु आप इतनेउदार हैं कि आपने अपने अनुग्रह से वंचित करने के बजाय, मुझे दण्ड देकर मेरे ऊपर कृपा कीहै।
आप तथा भगवान् विष्णु अयोग्य-निकम्मे ब्राह्मणों तक की उपेक्षा नहीं करते तो फिर भलाआप मेरी उपेक्षा क्यों करने लगे, मैं तो यज्ञ करने में लगा रहता हूँ?"
विद्यातपोब्रतधरान्मुखतः सम विप्रान्ब्रह्मात्मतत्त्वमवितु प्रथम त्वमस्त्राक् ।
तद्गाह्मणान्परम सर्वविपत्सु पासिपाल: पशूनिव विभो प्रगृहीतदण्ड: ॥
१४॥
विद्या--विद्या; तपः--तपस्या; ब्रत--ब्रत; धरान्--- अनुचर; मुखत:--मुख से $ स्म-- था; विप्रान्ू--ब्राह्मण: ब्रह्मा--ब्रह्मा;आत्म-तत्त्वम्ू-आत्म-साक्षात्कार; अवितुम्-फैलाने के लिए; प्रथमम्--पहले; त्वम्--तुम; अस्त्राकु--उत्पन्न किया; तत्--अतः; ब्राह्मणान्--ब्राह्मणों की; परम--हे महान; सर्व--सभी; विपत्सु--संकट में; पासि--रक्षा करते हो; पाल:--रक्षक कीतरह; पशून्ू-- पशु; इब--समान; विभो--हे महान; प्रगृहीत--हाथ में धारण किये; दण्ड:--डंडा |
हे महान् तथा शक्तिमान शिव, विद्या, तप, ब्रत तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए ब्राह्मणों कीरक्षा करने के हेतु ब्रह्म के मुख से सर्वप्रथम आपकी उत्पत्ति हुई थी।
आप ब्राह्मणों के पालकबनकर उनके द्वारा आचरित अनुष्ठानों की सदैव रक्षा करते हैं, जिस प्रकार ग्वाला गायों कीरखवाली के लिए अपने हाथ में दण्ड धारण किये रहता है।
"
योसौ मयाविदिततत्त्वदशा सभायांक्षिप्तो दुरुक्तिविशिखैर्विगणय्य तन्माम् ।
अर्वाक्पतन्तमर्हत्तमनिन्दयापाद्इृष्टचार्दया स भगवान्स्वकृतेन तुष्येत् ॥
१५॥
यः--जो; असौ--उस; मया--मेरे द्वारा; अविदित-तत्त्व--वास्तविकता को जाने बिना; हशा--अनुभव से; सभायाम्ू--सभामें; क्षिप्:--गाली दिया गया; दुरुक्ति--कटु वचन रूपी; विशिखै:ः--बाणों से; विगणय्य--परवाह न करके; तत्--वह;माम्--मुझको; अर्वाक्--नीचे की ओर; पतन्तम्--नरक में गिरते हुए; अईहत्-तम--सर्वाधिक पूज्य; निन्दया--निन्दा से;अपातू--बचा लिया; दृष्या--देख कर; आर्द्रया--दयावश; सः--वह; भगवान्-- भगवान्; स्व-कृतेन--अपनी कृपा से;तुष्येत्-प्रसन्न हो |
मैं आपकी समस्त कीर्ति से परिच्चित न था।
अतः मैंने खुली सभा में आपके ऊपर कटु शब्दरूपी बाणों की वर्षा की थी, तो भी आपने उनकी कोई परवाह नहीं की।
मैं आप जैसे परम पूज्यपुरुष के प्रति अवज्ञा के कारण नरक में गिरने जा रहा था, किन्तु आपने मुझ पर दया कर केऔर दण्डित करके मुझे उबार लिया है।
मेरी प्रार्थना है कि आप अपने ही अनुग्रह से प्रसन्न हों,क्योंकि मुझमें वह सामर्थ्य नहीं कि मैं अपने शब्दों से आपको तुष्ट कर सकूँ।
"
मैत्रेय उवाचक्षमाप्यैवं स मीढ्वांसं ब्रह्मणा चानुमन्त्रित: ।
कर्म सन््तानयामास सोपाध्यायर्त्विगादिभि: ॥
१६॥
मैत्रेय:--मैत्रेय मुनि ने; उवाच--कहा; क्षमा-- क्षमा; आप्य--प्राप्त करके; एवम्--इस प्रकार; सः--राजा दक्ष; मीढ्वांसम्--शिव को; ब्रह्मणा-- ब्रह्मा सहित; च-- भी; अनुमन्त्रितः --अनुमति पाकर; कर्म--यज्ञ; सन््तानयाम् आस-- पुनः प्रारम्भ किया;स--सहित; उपाध्याय--विद्वान साधु; ऋत्विक् --पुरोहित; आदिभि: --इत्यादि के द्वारा |
मैत्रेय मुनि ने कहा : इस प्रकार शिवजी द्वारा क्षमा कर दिये जाने पर राजा दक्ष ने ब्रह्मा कीअनुमति से विद्वान साधुओं, पुरोहितों तथा अन्यों के साथ पुनः यज्ञ करना प्रारम्भ कर दिया।
"
वैष्णवं यज्ञसन्तत्यै त्रिकपालं द्विजोत्तमा: ।
पुरोडाशं निरवपन्वीरसंसर्गशुद्धये ॥
१७॥
वैष्णवम्--विष्णु या उनके भक्तों के हेतु; यज्ञ-यज्ञ; सन्तत्यै--कृत्यों के लिए; त्रि-कपालम्--तीन प्रकार की भेंटें; द्विज-उत्तमा:--ब्राहमणों में श्रेष्ठ; पुरोडाशम्--पुरोडाश नामक आहुतिनि; निरवपन्-- भेंट की गईं; वीर--वीरभद्र तथा शिव के अन्यअनुचर; संसर्ग--स्पर्श के कारण दोष; शुद्धये--शुद्धि के लिए
तत्पश्चात ब्राह्मणों ने यज्ञ कार्य फिर से प्रारम्भ करने के लिए वीरभद्र तथा शिव के भूत-प्रेतसदृश अनुचरों के स्पर्श से प्रदूषित हो चुके यज्ञ स्थल को पवित्र करने की व्यवस्था की।
तबजाकर उन्होंने अग्नि में पुरोडाश नामक आहुतियाँ अर्पित की।
"
अध्वर्युणात्तरविषा यजमानो विशाम्पते ।
धिया विशुद्धया दध्यौ तथा प्रादुरभूद्धरिः ॥
१८॥
अध्वर्युणा--यजुर्वेद से; आत्त--लेकर; हविषा--घृत से; यजमान:--राजा दक्ष; विशाम्-पते--हे विदुर; धिया--चिन्तन में;विशुद्धबा-शुद्ध की गई; दध्यौ--डाला; तथा--तुरन्त; प्रादु:--प्रकट; अभूत्--हो गये; हरि:--हरि, भगवान्
महामुनि मैत्रेय ने विदुर से कहा : हे विदुर, जैसे ही राजा दक्ष ने शुद्धचित्त से यजुर्वेद केमंत्रो के साथ घी की आहुति डाली, वैसे ही भगवान् विष्णु अपने आदि नारायण रूप में वहाँप्रकट हो गये।
"
तदा स्वप्रभया तेषां द्योतयन्त्या दिशो दश ।
मुष्णंस्तेज उपानीतस्ताक्ष्येण स्तोत्रवाजिना ॥
१९॥
तदा--उस समय; स्व-प्रभया--अपने तेज से; तेषाम्--उन सबों के ; द्योतयन्त्या--कान्ति से; दिश:--दिशाएँ; दश--दस;मुष्णन्ू--कम करते हुए; तेज: --तेज; उपानीत:--लाया गया; ता्ष्येण --गरुड़ द्वारा; स्तोत्र-वाजिना--जिसके पंख बृहत् तथारथन्तर कहलाते हैं।
भगवान् नारायण स्तोत्र अर्थात् गरुड़ के कन्धे पर आरूढ़ थे, जिसके बड़े-बड़े पंख थे।
जैसे ही भगवान् प्रकट हुए, सभी दिशाएँ प्रकाशित हो उठीं जिससे ब्रह्मा तथा अन्य उपस्थितजनों की कान्ति घट गई।
"
इयामो हिरण्यरशनोर्ककिरीटजुष्टोनीलालकशभ्रमरमण्डितकुण्डलास्य: ।
शझ्जब्जचक्रशरचापगदासिचर्म -व्यग्रर्हिरण्मयभुजैरिव कर्णिकार: ॥
२०॥
श्याम:--श्याम वर्ण के; हिरण्य-रशनः --स्वर्ण के समान वस्त्र; अर्क-किरीट-जुष्ट:ः --सूर्य के समान देदीप्यमान मुकुट; नील-अलक--काले बाल; भ्रमर--भौरे; मण्डित-कुण्डल-आस्यः--कुण्डलों से सुशोभित मुख; शद्भु--शंख; अब्ज--कमल पुष्प;चक्र--चक्र; शर--बाण; चाप-- धनुष; गदा--गदा; असि--तलवार; चर्म--ढाल; व्यग्रै: --पूरित; हिरण्मय--सुनहले( बाजूबन्द तथा कंगन ); भुजैः--हाथों से; इब--सहृश; कर्णिकार: --पुष्प-वृक्ष, कनेर।
उनका वर्ण श्याम था, उनके वस्त्र स्वर्ण की तरह पीले तथा मुकुट सूर्य के समान देदीप्यमानथा।
उनके बाल भौंरों के समान काले और मुख कुण्डलों से आभूषित था।
उनकी आठ भुजाएँशंख, चक्र, गदा, कमल, बाण, धनुष, ढाल तथा तलवार धारण किये थीं ये कंगन तथाबिजावट जैसे स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत थीं।
उनका सारा शरीर कनेर के उस कुसुमित वृक्ष केसमान प्रतीत हो रहा था जिसमें विभिन्न प्रकार के फूल सुन्दर ढंग से सजे हों।
"
वक्षस्यधिश्रितवधूर्वनमाल्युदार-हासावलोककलया रमयंश्न विश्वम् ।
पार्श्भ्रमद्व्यजनचामरराजहंस:श्रेतातपत्रशशिनोपरि रज्यमान: ॥
२१॥
वक्षसि--छाती पर; अधिश्रित--स्थित; वधू: --स्त्री ( लक्ष्मी )वन-माली--वनपुष्पों की माला पहने; उदार--सुन्दर; हास--हँसती हुई; अवलोक--चितवन; कलया--किंचित्; रमयन्--मोहक; च--तथा; विश्वम्--पूरा संसार; पार्थ--बगल; भ्रमत्--आगे-पीछे हिलते हुए; व्यजन-चामर--झलने के लिए सफेद चबूँरी गाय की पूँछ; राज-हंसः--हंस; श्रेत-आतपत्र-शशिना--चन्द्र के समान श्वेत छत्र से; उपरि--ऊपर; रज्यमान:--सुन्दर दिखता हुआ।
भगवान् विष्णु असाधारण रूप से सुन्दर लग रहे थे, क्योंकि उनके वक्षस्थल पर ऐश्वर्य कीदेवी ( लक्ष्मी ) तथा एक हार विराजमान थे।
उनका मुख मन्द हास के कारण अत्यन्त सुशोभितथा, जो सारे जगत को और विशेष रूप से भक्तों के मन को मोहने वाला था।
भगवान् के दोनोंओर श्वेत चामर डुल रहे थे, मानो श्वेत हंस हों और उनके ऊपर तना हुआ श्वेत छत्र चन्द्रमा के" समान लग रहा था।
तमुपागतमालक्ष्य सर्वे सुरगणादय: ।
प्रणेमु: सहसोत्थाय ब्रहोन्द्रव्यक्षनायका: ॥
२२॥
तम्--उसको; उपागतम्--आया हुआ; आलक्ष्य--देखकर; सर्वे --सभी; सुर-गण-आदय:--देवता अथा अन्य लोग; प्रणेमु:--नमस्कार; सहसा--तुरन्त; उत्थाय--खड़े होकर; ब्रह्म--ब्रह्माजी; इन्द्र--इन्द्रदेव; त्रि-अक्ष--शिव ( जिनके तीन नेत्र हैं ) ;नायका:--के नायकत्व में |
जैसे ही भगवान् विष्णु दृष्टिगोचर हुए, वहाँ पर उपस्थित--ब्रह्मा, शिव, गंधर्व तथा वहाँउपस्थित सभी जनों ने उनके समक्ष सीधे गिरकर ( दण्डवत् ) सादर नमस्कार किया।
"
तत्तेजसा हतरुच: सन्नजिह् ससाध्वसा: ।
मूर्ध्ना धृताझ्ललिपुटा उपतस्थुरधोक्षजम् ॥
२३॥
ततू-तेजसा--उनके शरीर के चमचमाते तेज से; हत-रुच:--मलिन कान्ति वाला; सन्न-जिह्ना:ः--मौन जीभ से; स-साध्वसा:--उनके भय से भयभीत; मूर्ध्न--सर सहित; धृत-अद्जलि-पुटा:--सिर पर हाथ रखे; उपतस्थु: --प्रार्थना की; अधोक्षजम्--अधोक्षज भगवान् की |
नारायण की शारीरिक कान्ति के तेज से अन्य सबों की कान्ति मन्द पड़ गई और सबों काबोलना बन्द हो गया।
आश्चर्य तथा सम्मान से भयभीत, सबों ने अपने-अपने सिरों पर हाथ धरलिये और भगवान् अधोक्षज की स्तुति करने के लिए उद्यत हो गए।
"
अप्यर्वाग्वृत्तयो यस्य महि त्वात्मभुवादय:ः ।
यथामति गृणन्ति सम कृतानुग्रहविग्रहम् ॥
२४॥
अपि--अब भी; अर्वाक्-वृत्तय:--मानसिक क्रिया-कलापों से परे; यस्य--जिसकी; महि--यश; तु-- लेकिन; आत्मभू-आदय: --ब्रह्मा इत्यादि ने; यथा-मति--अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार; गृणन्ति स्म--स्तुति की; कृत-अनुग्रह--उनकेअनुग्रह से प्रकट; विग्रहम्--दिव्य रूप |
यद्यपि ब्रह्मा जैसे देवता भी परमेश्वर की अनन्त महिमा का अनुमान लगाने में असमर्थ थे,किन्तु वे सभी भगवान् की कृपा से उनके दिव्य रूप को देख सकते थे।
अतः वे अपने-अपनेसामर्थ्य के अनुसार उनकी सादर स्तुति कर सके।
"
दक्षो गृहीताईणसादनोत्तमंयज्जेश्वरं विश्वसूजां परं गुरुम् ।
सुनन्दनन्दाद्यनुगैर्वृत मुदागृणन्प्रपेदे प्रयतः कृताझ्ञललि: ॥
२५॥
दक्ष:--दक्ष ने; गृहीत--ग्रहण कर लिया; अर्हण --उचित; सादन-उत्तमम्--पूजा-पात्र; यज्ञ-ई श्वरम्--समस्त यज्ञों के स्वामीको; विश्व-सूजाम्--समस्त प्रजापतियों को; परम्--परम; गुरुम्--उपदेशक; सुनन्द-नन्द-आदि-अनुगै: --सुनन्द तथा नन््द जैसपार्षदों द्वारा; वृतम्ू-घिरा हुआ; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; गृणन्--स्तुति करते हुए; प्रपेदे--शरण ली; प्रयतः--विनीत भाव से;कृत-अज्जञलि:--हाथ जोड़ कर।
जब भगवान् विष्णु ने यज्ञ में डाली गई आहुतियों को स्वीकार कर लिया तो दक्ष प्रजापति नेअत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति करनी प्रारम्भ की।
वस्तुतः भगवान् समस्त यज्ञों के स्वामीऔर सभी प्रजापतियों के गुरु हैं और नन्द-सुनन्द जैसे पुरुष तक उनकी सेवा करते हैं।
"
दक्ष उबाचशुद्ध स्वधाम्न्युपरताखिलबुद्धयवस्थंचिन्मात्रमेकमभयं प्रतिषिध्य मायाम् ।
तिष्ठंस्तयैव पुरुषत्वमुपेत्य तस्याम्आस्ते भवानपरिशुद्ध इवात्मतन्त्र: ॥
२६॥
दक्ष:--दक्ष ने; उबाच--कहा; शुद्धम्-शुद्ध; स्व-धाम्नि-- अपने धाम में; उपरत-अखिल--पूर्णतया रहित; बुद्धि-अवस्थम्--मानसिक कल्पना की अवस्था; चित्-मात्रम्-पूर्णतया आध्यात्मिक; एकम्--अद्वितीय; अभयम्--निडर; प्रतिषिध्य--वश मेंकरके; मायाम्-- भौतिक शक्ति को; तिष्ठन्--स्थित होकर; तया--उस ( माया ) के द्वारा; एब--निश्चय ही; पुरुषत्वम्--पर्यवेक्षक; उपेत्य--प्रविष्ट होकर; तस्याम्--उसमें; आस्ते--उपस्थित है; भवान्--आप; अपरिशुद्ध:--अशुद्ध; इब--मानो;आत्म-तन्त्र:--आत्म-निर्भर, स्वतंत्रदक्ष ने भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा--हे प्रभु, आप समस्त कल्पना-अवस्थाओं सेपरे हैं।
आप परम चिन्मय, भय-रहित और भौतिक माया को वश में रखने वाले हैं।
यद्यपि आपमाया में स्थित प्रतीत होते हैं, किन्तु आप दिव्य हैं।
आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं, क्योंकि आपपरम स्वतंत्र हैं।
"
ऋत्विज ऊचुःतत्त्वं न ते वयमनझ्जन रुद्रशापात्कर्मण्यवग्रहधियो भगवन्विदाम: ।
धर्मोपलक्षणमिदं त्रिवृदध्वराख्य॑ज्ञातं यदर्थमधिदैवमदो व्यवस्था: ॥
२७॥
ऋत्विज: --पुरोहितों ने; ऊचु:--कहतना प्रारम्भ किया; तत्त्वम्--सत्य; न--नहीं; ते--आपका; वयम्--हम सब; अनझ्जन--किसी भौतिक कल्मष से रहित; रुद्र--शिव के; शापात्--शाप से; कर्मणि--सकाम कर्मों में; अवग्रह--अत्यधिक लिप्त रहनेसे; धियः--ऐसी बुद्धि का; भगवन्--हे भगवान्; विदाम:--जानते हैं; धर्म--धर्म; उपलक्षणम्--सांकेतिक; इृदम्--यह; त्रि-वबृत्-वेद ज्ञान के तीन विभाग, वेदत्रयी; अध्वर--यज्ञ; आख्यम्--नाम का; ज्ञातम्ू--ज्ञात; यत्--वह; अर्थम्--प्रयोजन केहेतु; अधिदैवम्--देवताओं की पूजा के लिए; अदः--यह; व्यवस्था: --प्रबन्ध, व्यवस्था |
पुरोहितों ने भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा--हे भगवन्, आप भौतिक कल्मष से परेहैं।
शिव के अनुचरों द्वारा दिये गये शाप के कारण हम सकाम कर्म में लिप्त हैं, अतः हम पतितहो चुके हैं और आपके विषय में कुछ भी नहीं जानते।
उल्टे, हम यज्ञ के नाम पर अनुष्ठानों कोसम्पन्न करने के लिए वेदत्रयी के आदेशों में आ फँसे हैं।
हमें ज्ञात है कि आपने देवताओं कोअपने-अपने उनके भाग दिये जाने की व्यवस्था कर रखी है।
"
सदस्या ऊचुःउत्पत्त्यध्वन्यशरण उरुक्लेशदुर्गेन्तको ग्र-व्यालान्विष्टे विषयमृगतृष्यात्मगेहोरु भार: ।
इन्द्रध्रश्न खलमृगभये शोकदावेऊज्ञसार्थ:पादौकस्ते शरणद कदा याति कामोपसूष्ट: ॥
२८॥
सदस्या:--सभा के सदस्य; ऊचु:--बोले; उत्पत्ति--जन्म-मृत्यु का चक्र; अध्वनि--के मार्ग पर; अशरणे--जिसका आश्रय नहो; उरु--महान; क्लेश--कष्टकारक; दुर्गे--किले में; अन्तक--अन्त; उग्र--डरावना; व्याल--सर्प; अन्विष्टे--परिपूर्ण ;विषय--भौतिक सुख; मृग-तृषि--मृग-तृष्णा; आत्म--शरीर; गेह--घर; उरू-- भारी; भार: -- भार, बोझ; द्वन्ध--द्वैत; श्रश्रे--छिद्र, सुख तथा दुख के खंदक; खल--दुष्ट; मृग--पशु; भये--डरा हुआ; शोक-दावे--शोक रूपी दावाग्नि; अज्ञ-स-अर्थ:--दुष्टों के हित के लिए; पाद-ओक:--चरणकमलों की शरण; ते--तुम्हारे; शरण-द--शरण देने वाला; कदा--जब;याति--गया; काम-उपसृष्ट:--सभी प्रकार की इच्छाओं से दुखित।
सभा के सदस्यों ने भगवान् को सम्बोधित किया--हे संतप्त जीवों के एकमात्र आश्रय, इसबद्ध संसार के दुर्ग में काल-रूपी सर्प प्रहार करने की ताक में रहता है।
यह संसार तथाकथितसुख तथा दुख की खंदकों से भरा पड़ा है और अनेक हिंस्त्र पशु आक्रमण करने को सन्नद्ध रहतेहैं।
शोक रूपी अग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है और मृषा सुख की मृगतृष्णा सदैव मोहती रहतीहै, किन्तु मनुष्य को इनसे छुटकारा नहीं मिलता।
इस प्रकार अज्ञानी पुरुष जन्म-मरण के चक्र मेंपड़े रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों के भार से सदा दबे रहते हैं।
हमें ज्ञात नहीं कि वेआपके चरणकमलों की शरण में कब जाएँगे।
"
रुद्र उबाचतव वरद वराड्घ्रावाशिषेहाखिलार्थहाषि मुनिभिरसक्तैरादरेणाहणीये ।
यदि रचितधियं माविद्यलोकोपविद्धंजपति न गणये तत्त्वत्परानुग्रहेण ॥
२९॥
रुद्र: उबाच--शिव ने कहा; तब--तुम्हारा; वर-द--हे परम दानी; वर-अड्घ्रौ -- अमूल्य चरणकमल; आशिषा--इच्छा से;इह--संसार में; अखिल-अर्थ--पूर्ति के लिए; हि अपि--निश्चय ही; मुनिभि:--मुनियों द्वारा; असक्तै:--मुक्त; आदरेण--आदरपूर्वक; अर्हणीये-- पूज्य; यदि--यदि; रचित-धियम्--स्थिर मन; मा--मुझको; अविद्य-लोक: --अज्ञानी पुरुष;अपविद्धमू--अशुद्ध कर्म; जपति--कहता है; न गणये--मूल्य नहीं जानते; तत्--वह; त्वत्-पर-अनुग्रहेण--आप की जैसीकृपा से।
शिवजी ने कहा : हे भगवान्, मेरा मन तथा मेरी चेतना निरन्तर आपके पूजनीय चरणकमलोंपर स्थिर रहती है, जो समस्त वरों तथा इच्छाओं की पूर्ति के स्त्रोत होने के कारण समस्त मुक्तमहामुनियों द्वारा पूजित हैं क्योंकि आपके चरण कमल ही पूजा के योग्य।
आपके चरणकमलोंमें मन को स्थिर रखकर मैं उन व्यक्तियों से विचलित नहीं होता जो यह कहकर मेरी निन््दा करतेहैं कि मेरे कर्म पवित्र नहीं हैं।
में उनके आरोपों की परवाह नहीं करता और मैं उसी प्रकारदयावश उन्हें क्षमा कर देता हूँ, जिस प्रकार आप समस्त जीवों के प्रति दया प्रदर्शित करते हैं।
"
भूगुरुवाचयन्मायया गहनयापहतात्मबोधाब्रह्मादयस्तनुभूतस्तमसि स्वपन्त: ।
नात्मन्श्रितं तव विदन्त्यधुनापि तत्त्वंसोथयं प्रसीदतु भवान्प्रणतात्मबन्धु; ॥
३०॥
भूगु: उवाच--उवाच श्रीभूगु ने कहा; यत्--जो; मायया--माया से; गहनया--दुर्लध्य; अपहृत--चुराया हुआ; आत्म-बोधा: --स्वाभाविक स्थिति का ज्ञान; ब्रहय-आदय: --ब्रह्मा इत्यादि ; तनु-भृतः--जीवात्माओं सहित; तमसि--मोहान्धकार में;स्वपन्तः--सोये हुए; न--नहीं; आत्मन्--जीवात्मा में; भ्रितम्--स्थित; तब--तुम्हारा; विदन्ति--जानते हैं; अधुना--अब;अपि--निश्चय ही; तत्त्वमू--परम पद; सः--वह ( आप ); अयम्--यह; प्रसीदतु--प्रसन्न हों; भवान्ू--आप; प्रणत-आत्म--शरणागत जीव के; बन्धु:--सखा
मित्रभूगु मुनि ने कहा : हे भगवन्, सर्वोच्च ब्रह्म से लेकर सामान्य चींटी तक सारे जीव आपकीमाया शक्ति के दुर्लघ्य जादू के वशीभूत हैं और इस प्रकार वे अपनी स्वाभाविक स्थिति सेअपरिचित हैं।
देहात्मबुद्धि में विश्वास करने के कारण सभी मोह के अंधकार में पड़े हुए हैं।
वेवास्तव में यह नहीं समझ पाते कि आप प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा के रूप में कैसे रहते हैं, नतो वे आपके परम पद को ही समझ सकते हैं।
किन्तु आप समस्त शरणागत जीवों के नित्यसखा एवं रक्षक हैं।
अतः आप हम पर कृपालु हों और हमारे समस्त पापों को क्षमा कर दें।
"
ब्रह्मोवाचनैतत्स्वरूपं भवतोसौ पदार्थ-भेदग्रहैः पुरुषो यावदीक्षेत् ।
ज्ञानस्थ चार्थस्य गुणस्य चाश्रयोमायामयादव्यतिरिक्तो मतस्त्वम् ॥
३१॥
ब्रह्मा उवाच--ब्रह्मा ने कहा; न--नहीं; एतत्--यह; स्वरूपम्--अनित्य रूप; भवत:--आपका; असौ--वह; पद-अर्थ--ज्ञान;भेद--भिन्न; ग्रहैः--प्राप्ति से; पुरुष:--पुरुष; यावत्--जब तक; ईक्षेत्--देखना चाहता है; ज्ञानस्य--ज्ञान का; च--भी;अर्थस्य--लक्ष्य का; गुणस्य--ज्ञान के साधनों का; च-- भी; आश्रय: --आधार; माया-मयात्--माया से निर्मित होने से;व्यतिरिक्त:--स्पष्ट; मतः--माना हुआ; त्वम्--तुम |
ब्रह्मजी ने कहा : हे भगवन्, यदि कोई पुरुष आपको ज्ञानअर्जित करने की विभिन्न विधियोंद्वारा जानने का प्रयास करे तो वह आपके व्यक्तित्व एवं शाश्वत रूप को नहीं समझ सकता।
आपकी स्थिति भौतिक सृष्टि की तुलना में सदैव दिव्य है, जबकि आपको समझने के प्रयास,लक्ष्य तथा साधन सभी भौतिक और काल्पनिक हैं।
"
इन्द्र उबाचइदमप्यच्युत विश्वभावनंवपुरानन्दकरं मनोहृशाम् ।
सुरविद्विट्क्षपणैरुदायुधै -भुजदण्डैरुपपन्नमष्टभि: ॥
३२॥
इन्द्र: उबाच--राजा इन्द्र ने कहा; इदम्--यह; अपि--निश्चय ही; अच्युत--हे अच्युत; विश्व-भावनम्--विश्व के कल्याण हेतु;वपु:--दिव्य रूप; आनन्द-करम्-- आनन्द के कारण; मनः-हशाम्--मन तथा नेत्रों को; सुर-विद्विटू--आपके भक्तों से ईर्ष्यालु;क्षपणै: --दण्ड द्वारा; उद्-आयुधे: -- हथियार उठाये; भुज-दण्डै:--बाहों से; उपपन्नम्--युक्त; अष्टभि:--आठ |
राजा इन्द्र ने कहा : हे भगवन्, प्रत्येक हाथ में आयुध धारण किये आपका यह अष्टभुजदिव्य रूप सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु प्रकट होता है और मन तथा नेत्रों को अत्यन्त आनन्दितकरने वाला है।
आप इस रूप में अपने भक्तों से ईर्ष्या करने वाले असुरों को दण्ड देने के लिएसदैव तत्पर रहते हैं।
"
पल्य ऊचु:यज्ञोयं तब यजनाय केन सूष्टोविध्वस्त: पशुपतिनाद्य दक्षकोपात् ।
त॑ नस्त्वं शवशयनाभशान्तमेधंयज्ञात्मन्नलिनरुचा हशा पुनीहि ॥
३३॥
पल्य: ऊचु:--यज्ञकर्ताओं की पत्नियों ने कहा; यज्ञ:--यज्ञ; अयम्--यह; तब--तुम्हारा; यजनाय--पूजा के हेतु; केन--ब्रह्माद्वारा; सृष्ट: --व्यवस्थित; विध्वस्त: --नष्ट- भ्रष्ट; पशुपतिना--शिव द्वारा; अद्य--आज; दक्ष-कोपात्--दक्ष पर क्रोध करने से;तमू--यह; नः--हमारा; त्वमू--तुम; शव-शयन--मृत शरीर; आभ--के समान; शान्त-मेधम्--शान्त बलि-पशु; यज्ञ-आत्मनू्--हे यज्ञ के स्वामी; नलिन--कमल; रुचा--सुन्दर; हशा--अपने नेत्रों की दृष्टि से; पुनीहि--पवित्र कीजिये
याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा : हे भगवान्, वह यज्ञ ब्रह्म के आदेशानुसार व्यवस्थित कियागया था, किन्तु दुर्भाग्यवश दक्ष से क्रुद्ध होकर शिव ने समस्त दृश्य को ध्वस्त कर दिया औरउनके रोष के कारण यज्ञ के निमित्त लाये गये पशु निर्जीव पड़े हैं।
अतः यज्ञ की सारी तैयारियाँबेकार हो चुकी हैं।
अब आपके कमल जैसे नेत्रों की चितवन से इस यज्ञस्थल की पवित्रता पुनःप्राप्त हो।
"
ऋषय ऊचु:अनन्वितं ते भगवन्विचेष्टितंयदात्मना चरसि हि कर्म नाज्यसे ।
विभूतये यत उपसेदुरी श्वरींन मन्यते स्वयमनुवर्ततीं भवान् ॥
३४॥
ऋषय:--ऋषियों ने; ऊचु:--प्रार्थना की; अनन्वितम्-- आश्चर्यजनक; ते--तुम्हारा; भगवन्--हे समस्त ऐ श्वर्यों के स्वामी;विचेष्टितम्ू--कार्यकलाप; यत्--जो; आत्मना--अपनी शक्तियों से; चरसि--करते हो; हि--निश्चय ही; कर्म--ऐसे कार्यों को;न अज्यसे--लिप्त नहीं होते; विभूतये--उसकी कृपा के हेतु; यतः--जिससे; उपसेदु:--पूज्य; ईश्वरीम्-ऐश्वर्य की देवी, लक्ष्मी;न मन्यते--लिप्त नहीं होती हैं; स्वयम्--स्वयं; अनुवर्ततीम्--अपनी आज्ञाकारी दासी ( लक्ष्मी ); भवान्ू--आप
ऋषियों ने प्रार्थना की: हे भगवान्, आपके कार्य अत्यन्त आश्चर्यमय हैं और यद्यपि आप सबकुछ अपनी विभिन्न शक्तियों से करते हैं, किन्तु आप उनसे लिप्त नहीं होते।
यहाँ तक कि आपसम्पत्ति की देवी लक्ष्मीजी से भी लिप्त नहीं हैं, जिनकी पूजा ब्रह्माजी जैसे बड़े-बड़े देवताओंद्वारा उनकी कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती है।
"
सिद्धा ऊचुःअयं त्वत्कथामृष्टपीयूषनद्यांमनोवारणः क्लेशदावाग्निदग्धः ॥
तृषार्तोड>वगाढो न सस्मार दावंन निष्क्रामति ब्रह्मसम्पन्नवन्न: ॥
३५॥
सिद्धाः:--सिद्धों ने; ऊचुः--प्रार्थना की; अयम्ू--वह; त्वत्ू-कथा--आपकी लीलाएँ; मृष्ट--शुद्ध; पीयूष-- अमृत की;नद्यामू--नदी में; मन: --मन का; वारण:--हाथी; क्लेश--कष्ट; दाव-अग्नि--जंगल की आग से; दग्ध: --जला हुआ; तृषा--प्यास; आर्त:--त्रस्त; अवगाढ:--निमज्जित; न सस्मार--स्मरण नहीं करते; दावम्--दावाग्नि या कष्टों को; न निष्क्रामति--बाहर नहीं आता; ब्रह्म--परम; सम्पन्न-वत्--मानो तदाकार हों; न:--हम |
सिद्धों ने स्तुति की : हे भगवन्, हमारे मन उस हाथी के समान हैं, जो जंगल की आग सेत्रस्त होने पर नदी में प्रविष्ट हो ते ही सभी कष्ट भूल सकता है।
उसी तरह ये हमारे मन भीआपकी दिव्य लीलाओं की अमृत-नदी में निमज्जित हैं और ऐसे दिव्य आनन्द में निरन्तर बनेरहना चाहते हैं, जो परब्रह्म में तदाकार होने के सुख के समान ही है।
"
यजमान्युवाचस्वागतं ते प्रसीदेश तुभ्यं नमःश्रीनिवास श्रिया कान्तया त्राहि नः ।
त्वामृतेधीश नाड्रैर्मखः शोभतेशीर्षहीन: कबन्धो यथा पुरुष: ॥
३६॥
यजमानी--दक्ष की पत्नी ने; उबाच--प्रार्थना की; सु-आगतम्--शुभ आगमन; ते--आपका; प्रसीद-प्रसन्न हों; ईश--मेरेभगवान्; तुभ्यम्ू--तुमको; नमः--नमस्कार है; श्रीनिवास--हे सम्पत्ति की देवी के धाम; अ्रिया--लक्ष्मी समेत; कान्तया--अपनी पतली; त्राहि--रक्षा करें; न:--हमारी; त्वामू--तुम्हारे; ऋते--बिना; अधीश--हे परम नियंता; न--नहीं; अच्डैः--शारिरिक अंगों से; मख:--यज्ञ स्थल; शोभते--शोभा पाता है; शीर्ष-हीन:--शिर रहित; क-बन्ध: -- धड़; यथा--जिस प्रकार;पुरुष:--पुरुषदक्ष की पत्नी ने इस प्रकार प्रार्थना की--हे भगवान्यह हमारा सौभाग्य है कि आपयज्ञस्थल में पधारे हैं।
मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ और आपसे प्रार्थना करती हूँ कि इसअवसर पर आप प्रसन्न हों।
यह यज्ञस्थल आपके बिना शोभा नहीं पा रहा था, जिस प्रकार किसिर के बिना धड़ शोभा नहीं पाता।
"
लोकपाला ऊचु:इृष्ट: कि नो हग्भिरसदग्रहैस्त्वंप्रत्यग्द्रष्टा इश्यते येन विश्वम् ।
माया होषा भवदीया हि भूमन्यस्त्वं षष्ठ: पञ्ञभिर्भास भूतेः ॥
३७॥
लोक-पाला:--विभिन्न लोकों के प्रशासकों ने; ऊचु:--कहा; दृष्ट:--देखा हुआ; किमू--क्या; न: --हमारे द्वारा; हग्भि: --इन्द्रियों सें; असत्-ग्रहैः--हश्य जगत को प्रकट करने वाले; त्वम्--तुम; प्रत्यक्-द्रष्टा-- आन्तरिक साक्षी; दृश्यते--देखा जाताहै; येन--जिससे; विश्वम्--ब्रह्मण्ड; माया-- भौतिक जगत; हि-- क्योंकि; एघा--यह; भवदीया--आपकी; हि--निश्चय ही;भूमन्--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; य:ः--क्योंकि; त्वम्--तुम; षष्ठ:--छठवाँ; पञ्ञभि:--पाँच; भासि--प्रकट होते हो; भूतैः --तत्त्वों से
विभिन्न लोकों के लोकपालों ने इस प्रकार कहा : हे भगवन्, हम अपनी प्रत्यक्ष प्रतीति परही विश्वास करते हैं, किन्तु इस परिस्थिति में हम नहीं जानते कि हमने आपका दर्शन वास्तव मेंअपनी भौतिक इन्द्रियों से किया है अथवा नहीं ।
इन इन्द्रियों से तो हम हृश्य जगत को ही देखपाते हैं, किन्तु आप तो पाँच तत्त्वों के परे हैं।
आप तो छठवें तत्त्व हैं।
अतः हम आपको भौतिकजगत की सृष्टि के रूप में देख रहे हैं।
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योगेश्वरा ऊचुःप्रेयान्न तेउन्यो स्त्यमुतस्त्वयि प्रभोविश्वात्मनीक्षेन्न पृथग्य आत्मन: ।
अथापि भक्त्येश तयोपधावता-मनन्यदृत्त्यानुगृहाण बत्सल ॥
३८॥
योग-ई श्वराः -- परम योगीजनों ने; ऊचु:--कहा; प्रेयान्-- अत्यन्त प्रिय; न--नहीं; ते--तुम्हारा; अन्य:--दूसरा; अस्ति-- है;अमुतः--उससे; त्वयि--तुम में; प्रभो--हे ईश्वर; विश्व-आत्मनि--समस्त जीवात्माओं के परमात्मा में; ईक्षेत्--देखते हैं; न--नहीं; पृथक्ू-भिन्न; यः--जो; आत्मन:--जीवात्माएँ; अथ अपि-- और अधिक; भक्त्या--भक्ति से; ईश--हे भगवान्; तया--उससे; उपधावताम्--पूजा करने वालों का; अनन्य-वृत्त्या--न चूकने वाला; अनुगृहाण--कृपा करें; वत्सल--हे हितकारी भगवान्महान्
योगियों ने कहा : हे भगवान्, जो लोग यह जानते हुए कि आप समस्त जीवात्माओंके परमात्मा हैं, आपको अपने से अभिन्न देखते हैं, वे निश्चय ही आपको परम प्रिय हैं।
जोआपको स्वामी तथा अपने आपको दास मानकर आपकी भक्ति में अनुरक्त रहते हैं, आप उन परपरम कृपालु रहते हैं।
आप कृपावश उन पर सदैव हितकारी रहते हैं।
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जगदुद्धवस्थितिलयेषु दैवतोबहुभिद्यमानगुणयात्ममायया ।
रचितात्मभेदमतये स्वसंस्थयाविनिवर्तितभ्रमगुणात्मने नम: ॥
३९॥
जगत्--भौतिक जगत; उद्धव--सृष्टि; स्थिति--पालन; लयेषु--संहार में; दैवत:-- भाग्य; बहु-- अनेक ; भिद्यमान--भिन्नता;गुणया--भौतिक गुणों के द्वारा; आत्म-मायया--अपनी भौतिक शक्ति से; रचित--उत्पन्न; आत्म--जीवात्माओं; भेद-मतये--भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न करने वाली भेदबुद्धि; स्व-संस्थया--अपनी अन्तरंगा शक्ति से; विनिवर्तित--रोका गया; भ्रम--बन्धन; गुण-- भौतिक गुणों का; आत्मने--उनके साक्षात् रूप को; नमः--नमस्कार।
हम उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने नाना प्रकार की वस्तुएँ उत्पन्न कींऔर उन्हें भौतिक जगत के त्रिगुणों के वशीभूत कर दिया जिससे उनकी उत्पत्ति, स्थिति तथासंहार हो सके।
वे स्वयं बहिरंगा शक्ति के अधीन नहीं हैं, वे साक्षात् रूप में भौतिक गुणों केविविध प्राकट्य से रहित हैं और मिथ्या मायामोह से दूर हैं।
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ब्रह्मोवाचनमस्ते थ्रितसत्त्वाय धर्मादीनां च सूतये ।
निर्गुणाय च यत्काष्ठटां नाहं वेदापरेडपि च ॥
४०॥
ब्रह्म--साक्षात् वेद ने; उबाच--कहा; नम: --सादर नमस्कार; ते--तुमको; श्रित-सत्त्वाय--सतोगुण के आश्रय; धर्म-आदीनाम्--समस्त धर्म तथा तपस्या; च--तथा; सूतये--स्त्रोत; निर्गुणाय--भौतिक गुणों से परे; च--तथा; यत्--जिसका( परमेश्वर का ); काष्ठाम्--स्थिति; न--नहीं; अहम्--मैं; बेद--जानता हूँ; अपरे-- अन्य; अपि--निश्चय ही; च--तथासाक्षात्
वेदों ने कहा : हे भगवान्, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपसतोगुण के आश्रय होने के कारण समस्त धर्म तथा तपस्या के स्त्रोत हैं; आप समस्त भौतिकगुणों से परे हैं और कोई भी न तो आपको और न आपकी वास्तविक स्थिति को जानने वालाहै।
"
अग्निरुवाचयत्तेजसाहं सुसमिद्धतेजाहव्यं वहे स्वध्वर आज्यसिक्तम् ।
त॑ यज्ञियं पञ्जञविधं च पञ्ञभिःस्विष्टे यजुर्मि: प्रणतोस्मि यज्ञम् ॥
४१॥
अग्नि:ः--अग्निदेव ने; उबाच--कहा; यत्-तेजसा--जिसके तेज से; अहम्--मैं; सु-समिद्ध-तेजा: -- प्रज्वलित अग्नि के समानतेजवान; हव्यम्--आहुतियाँ; वहे--स्वीकार करता हूँ; सु-अध्वरे--यज्ञ में; आज्य-सिक्तम्-घृतमिश्रित; तम्--वह;यज्ञियम्ू--यज्ञ का रक्षक; पञ्ञ-विधम्--पाँच; च--तथा; पञ्चभि:--पाँच द्वारा; सु-इष्टम्-- पूज्य; यजुर्भि:-- वैदिक मंत्र;प्रणतः--सादर नत; अस्मि--मैं हूँ; यज्ञम्--यज्ञ ( विष्णु ) को।
अग्निदेव ने कहा : हे भगवान्, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आपकी हीकृपा से मैं प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी हूँ और मैं यज्ञ में प्रदत्त घृतमिश्रित आहुतियाँस्वीकार करता हूँ।
यजुर्वेद में वर्णित पाँच प्रकार की हवियाँ आपकी ही विभिन्न शक्तियाँ हैं औरआपकी पूजा पाँच प्रकार के वैदिक मंत्रों से की जाती है।
यज्ञ का अर्थ ही आप अर्थात् परमभगवान् है।
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देवा ऊचुःपुरा कल्पापाये स्वकृतमुदरीकृत्य विकृतंत्वमेवाद्यस्तस्मिन्सलिल उरगेन्द्राधिशयने ।
पुमान्शेषे सिद्धैईदि विमृशिताध्यात्मपदवि:स एवाद्याक्ष्णोर्य: पथि चरसि भृत्यानवसि न: ॥
४२॥
देवा:--देवताओं ने; ऊचु:--कहा; पुरा--पहले, पूर्व; कल्प-अपाये--कल्पान्त में; स्व-कृतम्-- आत्म-प्रसूत; उदरी-कृत्य--उदरस्थ करके; विकृतम्--प्रभाव; त्वम्ू--तुम; एब--निश्चय ही; आद्य:--आदि; तस्मिन्ू--उसमें; सलिले--जल में; उरग-इन्द्र--शेष पर; अधिशयने--शय्या पर; पुमानू--पुरुष; शेषे--शयन करते हुए; सिद्धैः--मुक्तात्माओं ( यथा सनकादि ) द्वारा );हृदि--हृदय में; विमृशित-- ध्यान किया गया; अध्यात्म-पदविः--दार्शनिक चिन्तन का मार्ग; सः--वह; एव--निश्चय ही;अद्य--अब; अक्ष्णो:--दोनों नेत्रों का; यः--जो; पथि--पथ पर; चरसि--चलते हो; भृत्यानू--दास; अवसि--रक्षा करो;नः--हमारी।
देवताओं ने कहा : हे भगवान्, पहले जब प्रलय हुआ था, तो आपने भौतिक जगत कीविभिन्न शक्तियों को संरक्षित कर लिया था।
उस समय ऊर्ध्वलोकों के सभी वासी, जिनमें सनकजैसे मुक्त जीव भी थे, दार्शनिक चिन्तन द्वारा आपका ध्यान कर रहे थे।
अत: आप आदिपुरुषहैं।
आप प्रलयकालीन जल में शेषशय्या पर शयन करते हैं।
अब आज आप हमारे के समक्षदिख रहे हैं।
हम सभी आप के दास हैं।
कृपया हमें शरण दीजिये।
"
गन्धर्वा ऊचुःअंशांशास्ते देव मरीच्यादय एतेब्रह्मेन्द्राद्य देवगणा रुद्रपुरोगा: ।
क्रीडाभाण्डं विश्वमिदं यस्य विभूमन्तस्मै नित्यं नाथ नमस्ते करवाम ॥
४३॥
गन्धर्वा:--गंधर्वों ने; ऊचु:--कहा; अंश-अंशा:--आपके शरीर के विभिन्न अंश; ते--तुम्हारे; देब--हे भगवान्; मरीचि-आदय: --मरीचि तथा अन्य ऋषिगण; एते--ये; ब्रह्म-इन्द्र-आद्या: -- ब्रह्मा, इन्द्र इत्यादि; देव-गणा:--देवता; रुद्र-पुरोगा:--शिव ही जिनके प्रधान हैं; क्रीडा-भाण्डमू--खिलौना; विश्वम्--सारी सृष्टि; इदमू--यह; यस्य--जिसका; विभूमन्-- भगवन्;तस्मै--उसको; नित्यमू-सदैव; नाथ--हे भगवान्; नम:--सादर नमस्कार; ते--तुमको; करवाम--हम करते हैं।
गन्धर्वों ने कहा : हे भगवन्, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र तथा मरीचि समेत समस्त देवता तथाऋषिगण आपके ही शरीर के विभिन्न अंश हैं।
आप परम शक्तिमान हैं, यह सारी सृष्टि आपकेलिए खिलवाड़ मात्र है।
हम सदैव आपको पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् रूप में स्वीकार करते है औरआपको सादर नमस्कार करते हैं।
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विद्याधरा ऊचुःत्वन्माययार्थभभिपद्य कलेवरेस्मिन्कृत्वा ममाहमिति दुर्मतिरुत्पथे: स्वै: ।
क्षिप्तोप्यसद्विषषयलालस आत्ममोहंयुष्मत्कथामृतनिषेवक उद्व्युदस्येत् ॥
४४॥
विद्याधरा:--विद्याधरों ने; ऊचु:--कहा; त्वत्ू-मायया--आपकी बहिरंगा शक्ति से; अर्थम्--मानव शरीर; अभिपद्य-प्राप्तकरके; कलेवरे--शरीर में; अस्मिन्ू--इस; कृत्वा--ठीक से न पहचान करके; मम--मेरा; अहम्--मैं; इति--इस प्रकार;दुर्मतिः-- अज्ञानी पुरुष; उत्पथै:--गलत मार्ग से; स्वै:--स्वजनों के द्वारा; क्षिप्त:--विपथ; अपि-- भी; असत्-- क्षणिक;विषय-लालस: -- भोग की वस्तुओं में सुख मानकर; आत्म-मोहम्--देह को आत्मा मानने का मोह; युष्मत्--आपकी; कथा--कथा, वार्ता; अमृत--अमृत; निषेवक:--आस्वादन करता हुआ; उत्--दूर से; व्युदस्येत्--उद्द्धार हो सकता है|
विद्याधरों ने कहा : हे प्रभु, यह मानव देह सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के निमित्त है, किन्तुआपकी बहिरंगा शक्ति के वशीभूत होकर जीवात्मा अपने आपको भ्रमवश देह तथा भौतिकशक्ति मान बैठता है, अतः माया के वश में आकर वह सांसारिक भोग द्वारा सुखी बनना चाहताहै।
वह दिग्भ्रमित हो जाता है और क्षणिक माया-सुख के प्रति सदैव आकर्षित होता रहता है।
किन्तु आपके दिव्य कार्यकलाप इतने प्रबल हैं कि यदि कोई उनके श्रवण तथा कीर्तन में अपनेको लगाए तो मोह से उसका उद्धार हो सकता है।
"
ब्राह्मणा ऊचु:त्वं क्रतुस्त्वं हविस्त्वं हुताश: स्वयंत्वं हि मन्त्र: समिदहर्भपात्राणि च ।
त्वं सदस्यर्त्विजो दम्पती देवताअग्निहोत्रं स्वधा सोम आज्यं पशु: ॥
४५॥
ब्राह्मणा:--ब्राह्मणों ने; ऊचुः--कहा; त्वम्ू--तुम; क्रतु:--यज्ञ; त्वमू--तुम; हवि:ः--घी की आहुति; त्वम्--तुम; हुत-आशः--अग्नि; स्वयम्--साक्षात्; त्वमू--तुम; हि-- क्योंकि; मन्त्र:ः--वैदिक मंत्र; समित्-दर्भ-पात्राणि--ईंधन, कुश तथा यज्ञके पात्र; च--तथा; त्वम्ू--तुम; सदस्य--सभा के सदस्य; ऋत्विज: --पुरोहित; दम्पती--यजमान तथा उसकी पली; देवता--देवता; अग्नि-होत्रम्ू--पवित्र अग्नि-उत्सव; स्वधा--पितरों की हवि; सोम:--सोम पादप; आज्यम्--घृत; पशु:--यज्ञ कापशु।
ब्राह्मणों ने कहा : हे भगवान्, आप साक्षात् यज्ञ हैं।
आप ही घृत की आहुति हैं; आप अग्निहैं; आप वैदिक मंत्रों के उच्चारण हैं, जिनसे यज्ञ कराया जाता है; आप ईंधन हैं; आप ज्वाला हैं;आप कुश हैं और आप ही यज्ञ के पात्र हैं।
आप यज्ञकर्ता पुरोहित हैं, इन्द्र आदि देवतागण आपही हैं और आप यज्ञ-पशु हैं।
जो कुछ भी यज्ञ में अर्पित किया जाता है, वह आप या आपकीशक्ति है।
"
त्वं पुरा गां रसाया महासूकरोदंष्टया पद्धिनीं वारणेन्द्रो यथा ।
स्तूयमानो नदल्लीलया योगिभि-व्युजहर्थ त्रयीगात्र यज्ञक्रतु: ॥
४६॥
त्वमू--तुम; पुरा-- भूतकाल में; गाम्ू--पृथ्वी; रसाया:--जल के भीतर से; महा-सूकरः --महान् शूकर अवतार; दंष्टया --अपनी दाढ़ से; पद्चिनीमू--कमलिनी; वारण-इन्द्र:--हाथी; यथा--जिस प्रकार; स्तूयमान:--स्तुति किया गया; नदनू--गूँजताहुआ; लीलया--सरलता से; योगिभि:--सनक इत्यादि परम साधुओं द्वारा; व्युजहर्थ--ऊपर उठाया; त्रयी-गात्र--हे साक्षात्वैदिक ज्ञान; यज्ञ-क्रतु:--यज्ञ के रूप में |
हे भगवान्, हे साक्षात् वैदिक ज्ञान, अत्यन्त पुरातन काल पहले, पिछले युग में जब आपमहान् सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे तो आपने पृथ्वी को जल के भीतर से इस प्रकारऊपर उठा लिया था जिस प्रकार कोई हाथी सरोवर में से कमलिनी को उठा लाता है।
जब आपनेउस विराट सूकर रूप में दिव्य गर्जन किया, तो उस ध्वनि को यज्ञ मंत्र के रूप में स्वीकार करलिया गया और सनक जैसे महान् ऋषियों ने उसका ध्यान करते हुए आपकी स्तुति की।
"
स प्रसीद त्वमस्माकमाकादुक्षतां दर्शन ते परिभ्रष्टसत्कर्मणाम् ।
कीरत्यमाने नृभिर्नाम्नि यज्ञेश तेयज्ञविघ्ना: क्षयं यान्ति तसस््मै नमः: ॥
४७॥
सः--वही व्यक्ति; प्रसीद--प्रसन्न हों; त्वमू--आप; अस्माकम्--हम पर; आकाइुक्षताम्-- प्रतीक्षा करते हुए; दर्शनम्--दर्शन;ते--तुम्हारा; परिभ्रष्ट--पतित; सत्-कर्मणाम्--जिससे यज्ञ कार्य; कीर्त्यमाने--कीर्तन किया जाकर; नृभि:--पुरुषों द्वारा;नाम्नि--आपका पवित्र नाम; यज्ञ-ईश--हे यज्ञों के स्वामी; ते--तुम्हारा; यज्ञ-विष्ना:--बाधाएँ; क्षयम्--विनाश; यान्ति--प्राप्त करते हैं; तस्मै--तुमको; नमः--नमस्कार है।
हे भगवान्, हम आपके दर्शन के लिए प्रतीक्षारत थे क्योंकि हम वैदिक अनुष्ठानों के अनुसारयज्ञ करने में असमर्थ रहे हैं।
अत: हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों।
आपकेपवित्र नाम-कीर्तन मात्र से समस्त बाधाएँ दूर हो जाती हैं।
हम आपके समक्ष आपको सादरनमस्कार करते हैं।
"
मैत्रेय उवाचइति दक्ष: कविर्यज्ञं भद्र रुद्राभिमशितम् ।
कीर्त्यमाने हषीकेशे सन्निन्ये यज्ञभावने ॥
४८ ॥
मैत्रेय:--मैत्रेय ने; उदाच--कहा; इति--इस प्रकार; दक्ष:--दक्ष; कवि:--चेतना के परिशुद्ध हो जाने पर; यज्ञम्ू--यज्ञ; भद्र--हे विदुर; रुद्र-अभिमर्शितम्--वीरभद्र द्वारा विध्वंसित; कीर्त्य-माने--महिमा का वर्णन किये जाने पर; हषीकेशे -- भगवान्विष्णु; सन्निन्ये-- पुनः प्रारम्भ करने की व्यवस्था की; यज्ञ-भावने--यज्ञ का रक्षक |
श्रीमैत्रेय ने कहा : वहाँ पर उपस्थित सबों के द्वारा विष्णु की स्तुति किये जाने पर दक्ष नेअन्तःकरण शुद्ध हो जाने से पुनः यज्ञ प्रारम्भ किये जाने की व्यवस्था की, जिसे शिव केअनुचरों ने ध्वंस कर दिया था।
"
भगवान्स्वेन भागेन सर्वात्मा सर्वभागभुक् ।
दक्षं बभाष आभाष्य प्रीयमाण इवानघ ॥
४९॥
भगवानू्-- भगवान् विष्णु; स्वेन--अपने से; भागेन--अंश ( भाग ) से; सर्व-आत्मा--समस्त जीवात्माओं का परमात्मा; सर्व-भाग-भुक्--समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता; दक्षमू--दक्ष; बभाषे--कहा; आभाष्य--सम्बोधित करके; प्रीयमाण:--प्रसन्न;इब--सहश; अनघ--हे पापरहित विदुर।
मैत्रेय ने आगे कहा : हे पापमुक्त विदुर, भगवान् विष्णु ही वास्तव में समस्त यज्ञों के फल केभोक्ता हैं।
फिर भी समस्त जीवात्माओं के परमात्मा होने से वे अपना यज्ञ-भाग प्राप्त हो जाने सेप्रसन्न हो गये, अतः उन्होंने प्रमुदित भाव से दक्ष को सम्बोधित किया।
"
श्रीभगवानुवाचअहं ब्रह्मा च शर्वश्व॒ जगत: कारणं परम् ।
आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्ववन्हगविशेषण: ॥
५०॥
श्री-भगवान्-- भगवान् विष्णु ने; उवाच--कहा; अहमू--मैं; ब्रह्मा--ब्रह्मा; च--तथा; शर्व:--शिव; च--तथा; जगत: --दृश्यजगत का; कारणम्--कारण; परमू-- परम; आत्म-ई श्वरः -- परमात्मा; उपद्रष्टा-- साक्षी; स्वयम्-हक् -- आत्म-निर्भर;अविशेषण: -- भेदरहित |
भगवान् विष्णु ने उत्तर दिया ब्रह्मा, शिव तथा मैं इस दृश्य जगत के परम कारण हैं।
मैंपरमात्मा, स्वःनिर्भर साक्षी हूँ।
किन्तु निर्गुण-निराकार रूप में ब्रह्मा, शिव तथा मुझमें कोई अन्तरनहीं है।
"
आत्ममायां समाविश्य सोहं गुणमयीं द्विज ।
सृजन्रक्षन्हरन्विश्वैं दश्ने संज्ञां क्रियोचिताम् ॥
५१॥
आत्म-मायाम्--अपनी शक्ति में; समाविश्य--प्रवेश करके; सः--स्वयं ; अहम्--मैं; गुण-मयीम्-- प्राकृतिक गुणों से युक्त;द्वि-ज--हे द्विजन्मा दक्ष; सृजन्--सृष्टि करते हुए; रक्षनू--पालन करते हुए; हरन्ू--संहार करते हुए; विश्वम्--हृश्य जगत;दक्षे--मैं उत्पन्न होता हूँ; संज्ञामू--नाम; क्रिया-उचिताम्--क्रिया के अनुसार
भगवान् ने कहा : हे दक्ष द्विज, मैं आदि भगवान् हूँ, किन्तु इस हश्य जगत की सृष्टि, पालनतथा संहार के लिए मैं अपनी भौतिक शक्ति के माध्यम से कार्य करता हूँ और कार्य की भिन्नकोटियों के अनुसार मेरे भिन्न-भिन्न नाम हैं।
"
तस्मिन्ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि ।
ब्रह्मरुद्रो च भूतानि भेदेनाज्ञोडनुपश्यति ॥
५२॥
तस्मिन्ू--उसको; ब्रह्मणि--परब्रह्म; अद्वितीये--अद्वितीय; केवले-- अकेला; परम-आत्मनि--पर मात्मा; ब्रह्म-रुद्रौ--ब्रह्मा तथाशिव दोनों; च--तथा; भूतानि--जीवात्माएँ; भेदेन--विलगाव से; अज्ञ:--नादान, अज्ञानी; अनुपश्यति--सोचता है।
भगवान् ने आगे कहा : जिसे समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं है, वह ब्रह्म तथा शिव जैसे देवताओंको स्वतंत्र समझता है या वह यह भी सोचता है कि जीवात्माएँ भी स्वतंत्र हैं।
"
यथा पुमात्र स्वाड्रेषु शिरःपाण्यादिषु क्वचित् ।
पारक्यबुद्धि कुरुते एवं भूतेषु मत्पर: ॥
५३॥
यथा--जिस प्रकार; पुमान्ू--पुरुष; न--नहीं; स्व-अड्लेषु--अपने ही शरीर में; शिर:-पाणि-आदिषु--सिर, हाथ तथा शरीर केअन्य भागों में; क्वचित्--क भी -क भी ; पारक्य-बुद्धिम्-- अन्तर; कुरुते--करते हैं; एवम्--इस प्रकार; भूतेषु--जीवात्माओं में;मतू-परः--मेरा भक्त |
सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति सिर तथा शरीर के अन्य भागों को पृथक्-पृथक् नहीं मानता।
इसी प्रकार मेरे भक्त सर्वव्यापी भगवान् विष्णु तथा किसी वस्तु या किसी जीवात्मा में अन्तर नहींमानते।
"
त्रयाणामेक भावानां यो न पश्यति वै भिदाम् ।
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मनम्स शान्तिमधिगच्छति ॥
५४॥
त्रयाणाम्--तीनों का; एक-भावानाम्--एक ही स्वभाव वाले; य:ः--जो; न पश्यति--नहीं देखता; बै--निश्चय ही; भिदाम्ू--पृथक्ता; सर्व-भूत-आत्मनाम्--समस्त जीवात्माओं के परमात्मा का; ब्रह्मनू-हे दक्ष; सः--वह; शान्तिम्ू--शान्ति;अधिगच्छति--प्राप्त करता है
भगवान् ने आगे कहा : जो मनुष्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव या जीवात्माओं को परब्रह्म से पृथक्नहीं मानता और ब्रह्म को जानता है, वही वास्तव में शान्ति प्राप्त करता है, अन्य नहीं।
"
मैत्रेय उवाचएवं भगवतादिष्ट: प्रजापतिपतिहरिम् ।
अर्चित्वा क्रतुना स्वेन देवानुभयतोयजत् ॥
५५॥
मैत्रेय:--मैत्रेय; उवाच--कहा; एवम्--इस प्रकार; भगवता-- भगवान् द्वारा; आदिष्ट:--आदेश दिया जाकर; प्रजापति-'पति:ः--समस्त प्रजापतियों के प्रधान; हरिम्--हरि की; अर्चित्वा--पूजा करके; क्रतुना--यज्ञोत्सव से; स्वेन--अपना; देवानू--देवताओं की; उभयत:--पृथक्-पृथक्; अयजत्--पूजा की |
मैत्रेय मुनि ने कहा : इस प्रकार भगवान् से भलीभाँति आदेश पाकर समस्त प्रजापतियों केप्रधान दक्ष ने भगवान् विष्णु की पूजा की।
यज्ञोत्सव के लिए स्वीकृत विधि से उनकी पूजा करनेके अनन्तर उसने ब्रह्म तथा शिव की भी अलग-अलग पूजा की।
"
रुद्रं च स्वेन भागेन ह्युपाधावत्समाहितःकर्मणोदवसानेन सोमपानितरानपि ।
उदवस्य सहर्तिग्भि: सस्नाववभूथं ततः ॥
५६॥
रुद्रमू--शिव को; च--तथा; स्वेन-- अपने; भागेन-- भाग से; हि-- चूँकि; उपाधावत्--पूजा की; समाहित:ः--ध्यानस्थ होकर;कर्मणा--कर्म से; उदवसानेन--समाप्त करने के कार्य द्वारा; सोम-पान्ू--देवता; इतरान्ू--अन्य; अपि-- भी; उदवस्य--समाप्त करके; सह--साथ-साथ; ऋत्विग्भि: --पुरोहितों के साथ; सस्नौ--स्नान किया; अवभूथम्-- अवभूथ-स्नान; तत:--तब
दक्ष ने सभी प्रकार से सम्मान पूर्वक यज्ञ के शेष भाग के साथ शिव की पूजा की।
याज्ञिकअनुष्ठानों की समाप्ति के पश्चात् उसने अन्य समस्त देवों तथा वहाँ पर एकत्र अन्य जनों को संतुष्टकिया।
तब पुरोहितों के साथ-साथ इन सारे कर्तव्यों को सम्पन्न करके उसने स्नान किया औरबह पूर्णतया संतुष्ट हुआ।
"
तस्मा अप्यनुभावेन स्वेनैवावाप्तराधसे ।
धर्म एवं मतिं दत्त्वा त्रिदशास्ते दिवं ययु: ॥
५७॥
तस्मै--उस ( दक्ष ) को; अपि--ही; अनुभावेन-- परमेश्वर की पूजा द्वारा; स्वेन-- अपने से; एव--निश्चय ही; अवाप्त-राधसे--सिद्धि प्राप्त करके; धर्में-- धर्म में; एब--निश्चय ही; मतिम्--बुद्ध्धि; दत्त्वा--देकर; त्रिदशा:--देवता; ते--वे; दिवम्--स्वर्गलोक को; ययुः:--चले गये।
इस प्रकार यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा विष्णु की पूजा करके दक्ष पूर्ण रूप से धार्मिक पथ परस्थित हो गया।
इसके साथ ही, यज्ञ में समागत समस्त देवताओं ने उसे आशीर्वाद दिया कि*धर्मनिष्ठ हो' और तब वे चले गये।
"
एवं दाक्षायणी हित्वा सती पूर्वकलेवरम् ।
जज्ने हिमवतः क्षेत्रे मेनायामिति शुश्रुम ॥
५८॥
एवमू--इस प्रकार; दाक्षायणी--दक्ष की पुत्री; हित्वा--त्याग कर; सती--सती ; पूर्व-कलेवरम्-- अपना पहले का शरीर;जज्ञे--उत्पन्न हुई; हिमवतः--हिमालय के; क्षेत्रे--पत्ली ( के गर्भ ) में; मेनायाम्-- मेना में; इति--इस प्रकार; शु श्रुम--मैंने सुनाहै।
मैत्रेय ने कहा : मैंने सुना है कि दक्ष से प्राप्त शरीर को त्याग देने के पश्चात दाक्षायणी ( दक्षकी पुत्री ) ने हिमालय के राज्य में जन्म लिया।
वह मेना की पुत्री के रूप में जन्मी।
इसे मैंनेप्रामाणिक स्त्रोतों से सुना है।
"
तमेव दयितं भूय आवृड्धे पतिमम्बिका ।
अनन्यभावैकगतिं शक्ति: सुप्तेव पूरुषम् ॥
५९॥
तम्--उस ( शिव ) को; एव--निश्चय ही; दयितम्--प्रिया; भूय:ः --पुन:; आवृड्धे --स्वीकार किया; पतिम्--पति रूप में;अम्बिका--अम्बिका या सती; अनन्य-भावा--अन्यों से अलिप्त; एक-गतिमू--एक लक्ष्य; शक्ति:--( तटस्था तथा बाह्य ),स्त्री शक्तियाँ; सुप्ता--निष्क्रिय; इब--सहृश; पूरुषम्--पुरुष ( परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में शिव )।
अम्बिका ( देवी दुर्गा ) ने, जो दाक्षायणी ( सती ) कहलाती थीं, पुनः शिव को अपने पतिके रूप में स्वीकार किया, जिस प्रकार कि भगवान् की विभिन्न शक्तियाँ नवीन सृष्टि के समयकार्य करती हैं।
"
एतद्धगवतः शम्भो: कर्म दक्षाध्वरद्रुह: ।
श्रुतं भागवताच्छिष्यादुद्धवान्मे बृहस्पते: ॥
६०॥
एतत्--यह; भगवतः --समस्त ऐ श्वर्य के स्वामी; शम्भो:--शम्भु ( शिव ) का; कर्म--कथा; दक्ष-अध्वर-द्गुह: --जिसने दक्ष केयज्ञ का विध्वंस किया; श्रुतम्--सुना गया; भागवतात्--परम भक्त से; शिष्यात्--शिष्य से; उद्धवात्--उद्धव से; मे--मेरे द्वारा;बृहस्पते:-- बृहस्पति के
मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, मैंने परम भक्त एवं बृहस्पति के शिष्य उद्धव से शिव द्वारा ध्वंसकिये गये दक्ष-यज्ञ की यह कथा सुनी थी।
"
इदं पवित्र परमीशचेष्टितंयशस्यमायुष्यमघौधमर्षणम् ।
यो नित्यदाकर्णय्य नरोनुकीर्तयेद्धुनोत्यघं कौरव भक्तिभावत: ॥
६१॥
इदम्--यह; पवित्रम्-शुद्ध; परमू--परम; ईश-चेष्टितम्-परमे श्वर की लीलाएँ; यशस्यम्--यश; आयुष्यम्-दीर्घजीवनकाल; अघ-ओघ-मर्षणम्-- पापों का विनाश; य:--जो; नित्यदा--सदैव; आकर्ण्य--सुनकर; नर: --मनुष्य;अनुकीर्तयेत्--सुनावे; धुनोति-- धो देता है; अधम्-- भौतिक दूषण; कौरव--हे कुरुवंशी; भक्ति-भावतः-- श्रद्धा तथा भक्तिके साथ।
मैत्रेय मुनि ने अन्त में कहा : हे कुरुनन्दन, यदि कोई भगवान् विष्णु द्वारा संचालित दक्ष-यज्ञकी यह कथा श्रद्धा एवं भक्ति के साथ सुनता है और इसे फिर से सुनाता है, तो वह निश्चय हीइस संसार के समस्त कल्मष से विमल हो जाता है।
"
अध्याय आठ: ध्रुव महाराज जंगल के लिए घर छोड़ देते हैं
4.8मैत्रेय उवाचसनकाद्या नारदश्च ऋभुर्हसोरुणियति: ।
नैतेगृहान्ब्रहासुताह्यावसन्नूध्वरितस: ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; सनक-आद्या:--सनक इत्यादि; नारद:--नारद; च--तथा; ऋभुः--ऋशभु; हंस:--हंस;अरुणि:--अरुणि; यतिः--यति; न--नहीं; एते--ये सब; गृहान्ू--घर पर; ब्रह्म-सुता: --ब्रह्मा के पुत्र; हि--निश्चय ही;आवसनू--निवास किया; ऊर्ध्व-रेतस:--नैष्ठिक ब्रह्मचारी |
मैत्रेय ऋषि ने कहा : सनकादि चारों कुमार और नारद, ऋभु, हंस, अरुणि तथा यति--ब्रह्मा के ये सारे पुत्र घर पर न रहकर ( गृहस्थ नहीं बने ) नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए।
"
मृषाधर्मस्य भार्यासीहम्भं मायां च शत्रुहन् ।
असूत मिथुन तत्तु निरृतिर्जगूहेडप्रज: ॥
२॥
मृषा--मृषा; अधर्मस्य--अधर्म का; भार्या--स्त्री; आसीत्-- थी; दम्भम्--झूठा गर्व; मायाम--ठगना; च--तथा; शत्रु-हन्--हेशत्रुओं के संहारक; असूत--उत्पन्न किया; मिथुनम्--जुडवाँ; तत्ू--वह; तु-- लेकिन; निरृतिः:--निरऋति; जगूहे--ग्रहणकिया; अप्रज:--सन्तानहीन |
ब्रह्मा का अन्य पुत्र अधर्म था जिसकी पत्नी का नाम मृषा था।
उनके संयोग से दो असुर हुएजिनके नाम दम्भ अर्थात धोखेबाज तथा माया अर्थात ठगिनी थे।
इन दोनों को निरऋति नामकअसुर ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी।
"
तयो: समभवल्लोभो निकृतिश्च महामते ।
ताभ्यां क्रोधश्व हिंसा च यहुरुक्ति: स््वसा कलिः ॥
३॥
तयो:--वे दोनों; समभवत्--उत्पन्न हुए; लोभ:--लोभ, लालच; निकृतिः:--चालाकी; च--तथा; महा-मते--हे महापुरुष;ताभ्यामू--उन दोनों से; क्रोध:--क्रोध; च--तथा; हिंसा--हिंसा; च--तथा; यत्--जिन दोनों से; दुरुक्ति:--कटु वचन;स्वसा--बहन; कलि:--कलि |
मैत्रेय ने विदुर से कहा : हे महापुरुष, दम्भ तथा माया से लोभ और निकृति ( चालाकी )उत्पन्न हुए।
उनके संयोग से क्रोध और हिंसा और फिर इनकी युति से कलि तथा उसकी बहिनदुरुक्ति उत्पन्न हुए।
"
दुरुक्तौ कलिराधत्त भयं मृत्युं च सत्तम ।
तयोश्व मिथुनं जज्ञे यातना निरयस्तथा ॥
४॥
दुरुक्तौ--दुरुक्ति से; कलि:ः--कलि; आधचत्त--उत्पन्न किया; भयम्-- भय; मृत्युम्-मृत्यु; च--तथा; सत्-तम--हे उत्तमपुरुषों में श्रेष्ठ; तयो:--उन दोनों के; च--तथा; मिथुनम्--संयोग से; जज्ञे--उत्पन्न हुए; यातना--अत्यधिक पीड़ा; निरय:--नरक; तथा--और भी |
हे श्रेष्ठ पुरुषों में महान्, कलि तथा दुरुक्ति से मृत्यु तथा भीति नामक सन्तानें उत्पन्न हुईं।
फिरइनके संयोग से यातना और निरय ( नरक ) उत्पन्न हुए।
"
सड्ग्रहेण मयाख्यातः प्रतिसर्गस्तवानघ ।
त्रि: श्रुत्वैतत्पुमान्पुण्यं विधुनोत्यात्मनो मलम् ॥
५॥
सड़ग्रहेण--संक्षेप में; मया--मेरे द्वारा; आख्यात:--कहा गया है; प्रतिसर्ग:--प्रलय का कारण; तब--तुम्हारा; अनघ--हेशुद्ध; त्रिः--तीन बार; श्रुत्वा--सुनकर; एतत्--वर्णन; पुमान्--वह जो; पुण्यम्--पुण्य; विधुनोति-- धो देता है; आत्मन:--आत्मा का; मलमू--मल, कल्मष।
हे विदुर, मैंने संक्षेप में प्रलय के कारणों का वर्णन किया।
जो इस वर्णन को तीन बारसुनता है उसे पुण्य लाभ होता है और उसके आत्मा का पापमय कल्मष धुल जाता है।
"
अथात:ः कीर्ततये वंशं पुण्यकीतें: कुरूद्रह ।
स्वायम्भुवस्यापि मनोहरेरंशांशजन्मन: ॥
६॥
अथ--अब; अत:--इसके बाद; कीर्तये--वर्णन करूँगा; वंशम्--वंश; पुण्य-कीर्ते:--पुण्य गुणों के लिए विख्यात; कुरु-उद्दद-हे कुरु श्रेष्ठ; स्वायम्भुवस्य--स्वायं भुव का; अपि-- भी; मनो:--मनु का; हरे: -- श्रीभगवान् का; अंश--विस्तार;अंश--का भाग; जन्मन:--जन्मा हुआ
मैत्रेय ने आगे कहा : हे कुरु श्रेष्ठ अब मैं आपके समक्ष स्वायंभुव मनु के वंशजों का वर्णनकरता हूँ जो भगवान् के अंशांश के रूप में उत्पन्न हुए थे।
"
प्रियव्रतोत्तानपादौ शतरूपापते: सुतौ ।
वासुदेवस्य कलया रक्षायां जगत: स्थितौ ॥
७॥
प्रियत्रत--प्रियव्रत; उत्तानपादौ--उत्तानपाद; शतरूपा-पते:--रानी शतरूपा तथा उनके पति का; सुतौ--दो पुत्र; वासुदेवस्थ--भगवान् का; कलया--अंश से; रक्षायाम्--रक्षा के लिए; जगत:--संसार के; स्थितौ--पालन के लिए
स्वायंभुव मनु को अपनी पत्नी शतरूपा से दो पुत्र हुए जिनके नाम थे--उत्तानपाद तथाप्रियत्रत।
चूँकि ये दोनों श्रीभगवान् वासुदेव के अंश के वंशज थे, अतः वे ब्रह्माण्ड का शासनकरने और प्रजा का भलीभाँति पालन करने में सक्षम थे।
"
जाये उत्तानपादस्य सुनीति: सुरुचिस्तयो: ।
सुरुचि: प्रेयसी पत्युर्नेतरा यत्सुतो श्रुवः ॥
८॥
जाये--दोनों पत्नियों के; उत्तानपादस्य--उत्तानपाद की; सुनीति: --सुनीति; सुरुचि: --सुरुचि; तयो: --उन दोनों से; सुरुचि: --सुरुचि; प्रेयसी--अत्यन्त प्रिय; पत्यु:--पति की; न इतरा--दूसरी वाली नहीं; यत्--जिसका; सुत:--पुत्र; ध्रुव: -- ध्रुव |
उत्तानपाद के दो रानियाँ थीं--सुनीति तथा सुरुचि।
इनमें से सुरुचि राजा को अत्यन्त प्रियथी।
सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, राजा को इतनी प्रिय न थी।
"
एकदा सुरुचेः पुत्रमड्डमारोप्य लालयन् ।
उत्तमं नारुरुक्षन्तं श्रुवं राजाभ्यनन्दत ॥
९॥
एकदा--एक बार; सुरुचे:--सुरुचि के; पुत्रमू--पुत्र को; अड्डमू-गोद में; आरोप्य--बैठा कर; लालयनू--दुलारते हुए;उत्तममू--उत्तम; न--नहीं; आरुरुक्षन्तम्-चढ़ने का प्रयास करता; ध्रुवम्-ध्रुव का; राजा--राजा ने; अभ्यनन्दत--स्वागतकिया।
एक बार राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को अपनी गोद में लेकर सहला रहे थे।
ध्रुवमहाराज भी राजा की गोद में चढ़ने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु राजा ने उन्हें अधिक दुलार नहींदिया।
"
तथा चिकीर्षमाणं त॑ सपत्यास्तनयं श्रुवम् ।
सुरुचि: श्रृण्वतो राज्ञः सेर्ष्यमाहातिगर्विता ॥
१०॥
तथा--इस प्रकार; चिकीर्षमाणम्--चढ़ने के लिए प्रयलशील बालक श्लुव; तम्--उस; स-पत्या:--अपनी सौत ( सुनीति ) का;तनयम्--पुत्र; ध्रुवम्-- ध्रुव को; सुरुचि: --सुरुचि ने; श्रृण्वत:--सुनता हुआ; राज्ञ:--राजा का; स-ईर्ष्चम्--ईष्या से; आह--कहा; अतिगर्विता--अत्यन्त घमण्ड से भरी।
जब बालक श्रुव महाराज अपने पिता की गोद में जाने का प्रयत्न कर रहे थे तो उसकीविमाता सुरुचि को उस बालक से अत्यन्त ईर्ष्या हुई और वह अत्यन्त दम्भ के साथ इस प्रकारबोलने लगी जिससे कि राजा सुन सके।
"
न वत्स नृपतेर्थिष्ण्यं भवानारोढुमहति ।
न गृहीतो मया यत्त्वं कुक्षावषि नृपात्मज: ॥
११॥
न--नहीं; वत्स--मेरे लड़के; नृपतेः --राजा का; धिष्ण्यम्ू-- आसन; भवान्--अपने आप; आरोढुम्-चढ़ने के लिए; अर्हति--योग्य; न--नहीं; गृहीतः--लिया गया; मया--मेरे द्वारा; यत्--क्योंकि; त्वम्-तुम; कुक्षौ--गर्भ में; अपि--यद्यपि; नृप-आत्मज:--राजा का पुत्र |
सुरुचि ने ध्रुव महाराज से कहा : हे बालक, तुम राजा की गोद या सिंहासन पर बैठने केयोग्य नहीं हो।
निस्सन्देह, तुम भी राजा के पुत्र हो, किन्तु तुम मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हो, अतःतुम अपने पिता की गोद में बैठने के योग्य नहीं हो।
"
बालोसि बत नात्मानमन्यस्त्रीगर्भसम्भृतम् ।
नूनं वेद भवान्यस्य दुर्लभेर्थे मनोरथ: ॥
१२॥
बाल:--बालक; असि--हो; बत--फिर भी; न--नहीं; आत्मानम्--मेरे; अन्य--दूसरी; स्त्री--स्त्री; गर्भ--गर्भ; सम्भूृतम्-सेउत्पन्न; नूममू--फिर भी; वेद--जानने का प्रयत्त करो; भवान्--अपने आप; यस्य--जिसका; दुर्लभे--अप्राप्य; अर्थे--वस्तु;मनः-रथ:--इच्छुक
मेरे बालक, तुम्हें पता नहीं कि तुम मेरी कोख से नहीं, वरन् दूसरी स्त्री से उत्पन्न हुए हो।
अतः तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि तुम्हारा प्रयास व्यर्थ है।
तुम ऐसी इच्छा की पूर्ति चाह रहे होजिसका पूरा होना असम्भव है।
"
तपसाराध्य पुरुष तस्यैवानुग्रहेण मे ।
गर्भ त्वं साधयात्मानं यदीच्छसि नृपासनम् ॥
१३॥
तपसा--तपस्या से; आराध्य--सन्तुष्ट करके; पुरुषम्-- भगवान्; तस्थ--उसकी; एव--केवल; अनुग्रहेण --कृपा से; मे--मेरे;गर्भ--गर्भ में; त्वम्ू--तुम; साधय--प्रस्थापित करो; आत्मानम्ू-- अपने को; यदि--यदि; इच्छसि--चाहते हो; नृप-आसनमू--राजा के सिंहासन पर
यदि तुम राजसिंहासन पर बैठना चाहते हो तो तुम्हें कठिन तपस्या करनी होगी।
सर्वप्रथमतुम्हें भगवान् नारायण को प्रसन्न करना होगा और वे तुम्हारी पूजा से प्रसन्न हो लें तो तुम्हें अगलाजन्म मेरे गर्भ से लेना होगा।
"
मैत्रेय उवाचमातु: सपल्याः स दुरुक्तिविद्धःश्रसन्रुषा दण्डहतो यथाहिः ।
हित्वा मिषन्तं पितरं सन्नवा्च॑जगाम मातु: प्ररुदन््सकाशम् ॥
१४॥
मैत्रेय:ः उवाच--महामुनि मैत्रेय ने कहा; मातुः--अपनी माता की; स-पत्या:--सौत का; सः--वह; दुरुक्ति--कटु बचनों से;विद्धः--विंध कर; श्वसन्--तेजी से साँस लेता; रुषा--रोष से; दण्ड-हतः--डंडे से मारा गया; यथा--जिस प्रकार; अहिः--सर्प; हित्वा--त्याग कर; मिषन्तम्--केवल ऊपर देखता; पितरम्--अपना पिता; सन्न-वाचम्ू--मौन; जगाम--चला गया;मातु:--अपनी माता के; प्ररूदन्ू--रोते हुए; सकाशम्--पास |
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : हे विदुर, जिस प्रकार से लाठी से मारा गया सर्प फुफकारता है,उसी प्रकार श्रुव महाराज अपनी विमाता के कटु वचनों से आहत होकर क्रोध से तेजी से साँसलेने लगे।
जब उन्होंने देखा कि पिता मौन हैं और उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया, तो उन्होंने तुरन्तउस स्थान को छोड़ दिया और अपनी माता के पास गये।
"
त॑ निःश्वसन्तं स्फुरिताधरोष्टसुनीतिरुत्सड़ उदूह्य बालम् ।
निशम्य तत्पौरमुखान्नितान्तंसा विव्यथे यद्गदितं सपत्या ॥
१५॥
तम्--उसको; निः श्वसन्तम्--जोर से साँस लेते; स्फुरित--कम्पित; अधर-ओएष्ठम्--नीचे तथा ऊपर के होंठ; सुनीति:--सुनीति;उत्सड़े--अपनी गोद में; उदृह्य --उठाकर; बालम्--पुत्र को; निशम्य--सुनकर; ततू-पौर-मुखात्-- अन्य पुरजनों के मुख से;नितान्तमू--सारा हाल; सा--वह; विव्यथे--दुखी हुईं; यत्--जो; गदितम्ू--कहा गया; स-पल्या--सौत द्वारा |
जब श्रुव महाराज अपनी माता के पास आये तो उनके होंठ क्रोध से काँप रहे थे और वेसिसक-सिसक कर जोर से रो रहे थे।
रानी सुनीति ने अपने लाड़ले को तुरन्त गोद में उठा लियाऔर अन्तःपुर के वासियों ने सुरुचि के जो कटु वचन सुने थे उन सबको विस्तार से कह सुनाया।
इस तरह सुनीति अत्यधिक दुखी हुई।
"
सोत्सूज्य धैर्य विललाप शोकदावाग्निना दावलतेव बाला ।
वाक्य सपत्या: स्मरती सरोजश्रिया दशा बाष्पयकलामुवाह ॥
१६॥
सा--वह; उत्सृज्य--छोड़कर; धैर्यम्--धैर्य, ढाढस; विललाप--विलाप करने लगी; शोक-दाव-अग्निना--शोक की अग्नि से;दाव-लता इब--जली हुईं पत्तियों के समान; बाला--स्त्री; वाक्यम्ू--शब्द; स-पल्या:--अपनी सौत द्वारा कहे; स्मरती--स्मरण करती; सरोज-भ्रिया--कमल के समान सुन्दर मुख; हशा--देखते हुए; बाष्प-कलाम्--रोते हुए; उबाह--कहा |
यह घटना सुनीति के लिए असह्य थी।
वह मानो दावाग्नि में जल रही थी और शोक केकारण वह जली हुई पत्ती ( बेलि ) के समान हो गई और पश्चात्ताप करने लगी।
अपनी सौत केशब्द स्मरण होने से उसका कमल जैसा सुन्दर मुख आँसुओं से भर गया और वह इस प्रकारबोली।
"
दीर्घ श्रसन्ती वृजिनस्य पारम्अपश्यती बालकमाह बाला ।
मामड्नलं तात परेषु मंस्थाभुड़े जनो यत्परदुःखदस्तत् ॥
१७॥
दीर्घम्--अत्यधिक; श्वसन्ती--साँस लेती हुई; वृजिनस्थ--संकट की; पारम्--सीमा; अपश्यती--बिना पाये; बालकम्-- अपनेपुत्र से; आह--कहा; बाला--स्त्री ने; मा--मत; अमड्लम्--अशकुन; तात--मेरे पुत्र; परेषु--अन्यों को; मंस्था:-- कामना;भु्े --भोग करता है; जन:--व्यक्ति; यत्ू--जो; पर-दुःखद:--जो दूसरों को पीड़ा पहुँचाए; तत्--वह।
वह तेजी से साँस भी ले रही थी और वह इस दुखद स्थिति का कोई इलाज ठीक नहीं ढूँढपा रही थी।
अतः उसने अपने पुत्र से कहा : हे पुत्र, तुम अन्यों के अमंगल की कामना मत करो।
जो भी दूसरों को कष्ट पहुँचाता है, वह स्वयं दुख भोगता है।
"
सत्य सुरुच्याभिहितं भवान्मेयहुर्भगाया उदरे गृहीतः ।
स्तन्येन वृद्धश्न विलजते यांभार्येति वा वोढुमिडस्पतिर्माम् ॥
१८॥
सत्यम्--सत्य; सुरुच्या--सुरुचि द्वारा; अभिहितम्--कहा गया; भवान्--आपको; मे--मुझ; यत्-- क्योंकि; दुर्भगाया: --अभागी के; उदरे--गर्भ में; गृहीत:--जन्म लेकर; स्तन्येन--स्तन के दूध से; वृद्धः च--बड़ा हुआ; विलजते--लज्जा आती है;याम्ू--उसको; भार्या--पत्नी; इति--इस प्रकार; वा--अथवा; वोढुम्--स्वीकार करने के लिए; इडः-पति:--राजा; मामू--मुझको ।
सुनीति ने कहा : प्रिय पुत्र, सुरुचि ने जो कुछ भी कहा है, वह ठीक है, क्योंकि तुम्हारे पितामुझको अपनी पत्नी तो क्या अपनी दासी तक नहीं समझते, उन्हें मुझको स्वीकार करने में लज्जाआती है।
अतः यह सत्य है कि तुमने एक अभागी स्त्री की कोख से जन्म लिया है और तुम उसकेस्तनों का दूध पीकर बड़े हुए हो।
"
आतिष्ठ तत्तात विमत्सरस्त्व-मुक्त समात्रापि यदव्यलीकम् ।
आराधयाधोक्षजपादपद्ंयदीच्छसेध्यासनमुत्तमो यथा ॥
१९॥
आतिष्ठ--पालन करो; तत्--वही; तात--प्रिय पुत्र; विमत्सर: --बिना ईर्ष्या के; त्वम्--तुमको; उक्तम्--कहा गया; समात्राअपि--तुम्हारी विमाता द्वारा; यत्--जो कुछ; अव्यलीकम्--वे सत्य हैं; आराधय-- आराधना प्रारम्भ करो; अधोक्षज--सत्त्व,दिव्य पुरुष; पाद-पदम्ू--चरणकमल; यदि--यदि; इच्छसे--चाहते हो; अध्यासनम्--आसन ग्रहण करना; उत्तम:--अपनेसौतेले भाई उत्तम के साथ; यथा--जिस प्रकार |
प्रिय पुत्र, तुम्हारी विमाता सुरुचि ने जो कुछ कहा है, यद्यपि वह सुनने में कटु है, किन्तु हैसत्य।
अतः यदि तुम उसी सिंहासन पर बैठना चाहते हो जिसमें तुम्हारा सौतेला भाई उत्तम बैठेगातो तुम अपना ईर्ष्याभाव त्याग कर तुरन्त अपनी विमाता के आदेशों का पालन करो।
तुम्हें बिनाकिसी विलम्ब के पुरुषोत्तम भगवान् के चरण-कमलों की पूजा में लग जाना चाहिए।
"
यस्याड्प्रिपद्ं परिचर्य विश्व-विभावनायात्तगुणाभिपत्ते: ।
अजोडध्यतिष्ठ त्खलु पारमेष्ठयंपदं जितात्मश्वसनाभिवन्द्यम्ू ॥
२०॥
यस्य--जिसके; अड्प्रि--पाँव; पद्ममू--कमल; परिचर्य--पूजा करके; विश्व--ब्रह्माण्ड; विभावनाय--सृष्टि के लिए; आत्त--प्राप्त; गुण-अभिपत्ते:--वांछित योग्यता प्राप्त करने के लिए; अज:--अजन्मा ( ब्रह्मा ); अध्यतिष्ठत्--प्राप्त हुआ; खलु--निश्चित रूप से; पारमेष्ठय्मम्--इस ब्रह्माण्ड में सर्वोच्च पद; पदम्--पद; जित-आत्म--जिसने मन को जीत लिया है; श्वसन--श्वास को साध कर; अभिवन्द्यमू-पूज्य |
सुनीति ने कहा : भगवान् इतने महान् हैं कि तुम्हारे परदादा ब्रह्मा ने मात्र उनके चरणकमलोंकी पूजा द्वारा इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने की योग्यता अर्जित की।
यद्यपि वे अजन्मा हैं औरसब जीवात्माओं में प्रधान हैं, किन्तु वे इस उच्च पद पर भगवान् की ही कृपा से आसीन हैं,जिनकी आराधना बड़े-बड़े योगी तक अपने मन तथा प्राण-वायु को रोक कर करते हैं।
"
तथा मनुर्वो भगवान्पितामहोयमेकमत्या पुरुदक्षिणर्मखै: ।
इष्ठाभिपेदे दुरवापमन्यतोभौम॑ सुख दिव्यमथापवर्ग्यम् ॥
२१॥
तथा--उसी प्रकार; मनु:--स्वायंभुव मनु; वः--तुम्हारे; भगवान्--पूज्य; पितामह:--दादा ( बाबा ); यम्ू--जिनको; एक-मत्या--एकनिष्ठ सेवा से; पुरु--महान; दक्षिणै:--दान से; मखै:--यज्ञ करने से; इश्ला--पूजा करके; अभिपेदे--प्राप्त किया;दुरवापम्--दुष्प्राप्प; अन्यतः--किसी अन्य साधन से; भौमम्ू-- भौतिक; सुखम्--सुख; दिव्यम्ू--नैसर्गिक; अथ--तत्पश्चात्;आपवर्ग्यम्ू-मुक्ति |
सुनीति ने अपने पुत्र को बताया : तुम्हारे बाबा स्वायंभुव मनु ने दान-दक्षिणा के साथ बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न किये और एकनिष्ठ श्रद्धा तथा भक्ति से उन्होंने पूजा द्वारा भगवान् को प्रसन्नकिया।
इस प्रकार उन्होंने भौतिक सुख तथा बाद में मुक्ति प्राप्त करने में महान् सफलता पाईजिसे देवताओं को पूजकर प्राप्त कर पाना असंभव है।
"
तमेव वत्साश्रय भृत्यवत्सलंमुमुक्षुभिमृग्यपदाब्जपद्धतिम् ।
अनन्यभावे निजधर्मभावितेमनस्यवस्थाप्य भजस्व पूरुषम् ॥
२२॥
तम्--उसको; एबव--भी; वत्स--मेरे पुत्र; आश्रय--शरण ग्रहण करो; भृत्य-वत्सलम्-- भगवान् की, जो अपने भक्तों परअत्यन्त कृपालु हैं; मुमुक्षुभिः--जो मुक्ति की इच्छा रखने वाले हैं, वे भी; मृग्य--खोजे जाकर; पद-अब्ज--चरणकमल;पद्धतिम्--प्रणाली; अनन्य- भावे--एकान्त भाव में; निज-धर्म-भाविते--अपने मूल स्वाभाविक पद पर स्थित; मनसि--मनको; अवस्थाप्य--रखकर; भजस्व--भक्ति करते रहो; पूरुषम्--परम पुरुष |
मेरे पुत्र, तुम्हें भी भगवान् की शरण ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वे अपने भक्तों परअत्यन्त दयालु हैं।
जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति सदैव भक्ति सहित भगवान्के चरणकमलों की शरण में जाते हैं।
अपना निर्दिष्ट कार्य करके पवित्र होकर तुम अपने हृदय मेंभगवान् को स्थिर करो और एक पल भी विचलित हुए बिना उनकी सेवा में तन््मय रहो।
"
नान््यं ततः पद्यपलाशलोचनाद्दुःखच्छिदं ते मृगयामि कञ्ञन ।
यो मृग्यते हस्तगृहीतपदायाश्रियेतरैरड़ विमृग्यमाणया ॥
२३॥
न अन्यम्--दूसरे नहीं; ततः--अतः; पद्य-पलाश-लोचनात्--कमल नेत्र वाले भगवान् से; दुःख-छिदम्--अन्यों के कष्टों कोकम करने वाला; ते--तुम्हारा; मृगयामि--खोज में हूँ; कञ्लनन-- अन्य कोई; यः--जो; मृग्यते--ढूँढता है; हस्त-गृहीत-पदाया--हाथ में कमल पुष्प लेकर; थ्रिया--सम्पत्ति की देवी; इतरैः--अन्यों से; अड्भ--मेरे पुत्र; विमृग्यमाणया--पूजित |
हे प्रिय ध्रुव, कमल के दलों जैसे नेत्रों वाले भगवान् के अतिरिक्त मुझे कोई ऐसा नहींदिखता जो तुम्हारे दुखों को कम कर सके।
ब्रह्मा जैसे अनेक देवता लक्ष्मी देवी को प्रसन्न करनेके लिए लालायित रहते हैं, किन्तु लक्ष्मी जी स्वयं अपने हाथ में कमल पुष्प लेकर परमेश्वर कीसेवा करने के लिए सदेव तत्पर रहती हैं।
"
मैत्रेय उवाचएवं सञ्जल्पितं मातुराकर्ण्यार्थागमं बच: ।
सन्नियम्यात्मनात्मानं निश्चक्राम पितु: पुरातू ॥
२४॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; एवम्--इस प्रकार; सझल्पितम्--परस्पर बातें करते; मातु:--माता से; आकर्ण्य--सुनकर;अर्थ-आगमम्--सार्थक; वच:--शब्द; सन्नियम्य--संयमित करके; आत्मना--मन से; आत्मानम्--अपने को; निश्चक्राम--निकल पड़े; पितु:--पिता के; पुरात्-घर से |
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: श्रुव महाराज की माता सुनीति का उपदेश वस्तुतः उनकेमनोवांछित लक्ष्य को पूरा करने के निमित्त था, अतः बुद्धि तथा दृढ़ संकल्प द्वारा चित्त कासमाधान करके उन्होंने अपने पिता का घर त्याग दिया।
"
नारदस्तदुपाकर्णयय ज्ञात्वा तस्य चिकीर्षितम् ।
स्पृष्ठा मूर्धन्यघघ्नेन पाणिना प्राह विस्मित: ॥
२५॥
नारदः--नारद मुनि ने; तत्--वह; उपाकर्ण्य--सुनकर; ज्ञात्वा--तथा जानकर; तस्य--उसका ( श्रुव महाराज का );चिकीर्षितम्--कार्यकलाप; स्पृष्ठा--स्पर्श करके; मूर्धनि--सिर पर; अघ-घ्नेन--समस्त पापों को भगाने वाले; पाणिना--हाथसे; प्राह--कहा; विस्मित:--चकित होकर
नारद मुनि ने यह समाचार सुना और श्लुव महाराज के समस्त कार्यकलापों को जानकर वेचकित रह गये।
वे श्रुव के पास आये और उनके सिर को अपने पुण्यवर्धक हाथ से स्पर्श करतेहुए इस प्रकार बोले।
"
अहो तेज: क्षत्रियाणां मानभड़ममृष्यताम् ।
बालोप्ययं हृदा धत्ते यत्समातुरसद्बच: ॥
२६॥
अहो--कितना आश्चर्यमय है; तेज:--बल; क्षत्रियाणाम्--क्षत्रियों का; मान-भड्डम्--प्रतिष्ठा को धक्का; अमृष्यताम्ू--सहन करसकने में अक्षम; बाल:--मात्र बालक; अपि--यद्यपि; अयमू--यह; हृदा--हृदय में; धत्ते--घर कर लिया है; यत्--जो; स-मातु:--अपनी विमाता का; असत्--अरूचिकर, कटु; वचः--वचन |
अहो! शक्तिशाली क्षत्रिय कितने तेजमय होते हैं! वे थोड़ा भी मान-भंग सहन नहीं करसकते।
जरा सोचो तो, यह नन््हा सा बालक है, तो भी उसकी सौतेली माता के कटु वचन उसकेलिए असह्ा हो गये।
"
नारद उवाचनाधुनाप्यवमानं ते सम्मान वापि पुत्रक ।
लक्षयाम: कुमारस्य सक्तस्य क्रीडनादिषु ॥
२७॥
नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; न--नहीं; अधुना-- अभी; अपि--यद्यपि; अवमानम्-- अपमान; ते--तुमको; सम्मानम्--आदर; वा--अथवा; अपि--निश्चय ही; पुत्रक-हे पुत्र; लक्षयाम: --मुझे दिखाई पड़ रहा है; कुमारस्थ--तुम जैसे बालकों का;सक्तस्थ--आसक्त; क्रीडन-आदिषु--खेल इत्यादि में |
महर्षि नारद ने श्रुव से कहा : हे बालक, अभी तो तुम नन्हें बालक हो, जिसकी आसक्तिखेल इत्यादि में रहती है।
तो फिर तुम अपने सम्मान के विपरीत अपमानजनक शब्दों से इतनेप्रभावित क्यों हो ?"
विकल्पे विद्यमानेडपि न ह्ासन्तोषहेतव: ।
पुंसो मोहमृते भिन्ना यल्लोके निजकर्मभि: ॥
२८॥
विकल्पे-- अन्य उपाय; विद्यमाने अपि--रहने पर भी; न--नहीं; हि--निश्चय ही; असन्तोष--नाराजगी; हेतव:ः-- कारण;पुंसः--मनुष्यों का; मोहम् ऋते--मोह ग्रस्त हुए बिना; भिन्ना:--पृथक् हुआ; यत् लोके--इस लोक में; निज-कर्मभि:--अपनेकार्य से
हे ध्रुव, यदि तुम समझते हो कि तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची है, तो भी तुम्हें असंतुष्टहोने का कोई कारण नहीं है।
इस प्रकार का असन्तोष माया का ही अन्य लक्षण है; प्रत्येकजीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के अनुसार नियंत्रित होता है, अतः सुख तथा दुख भोगने के लिए नानाप्रकार के जीवन होते हैं।
"
परितुष्येत्ततस्तात तावन्मात्रेण पूरुष: ।
दैवोपसादितं यादद्वीक्ष्ये श्वरगतिं बुध: ॥
२९॥
परितुष्येत्--सन्तुष्ट रहना चाहिए; ततः--अतः ; तात--हे बालक; तावत्--तब तक; मात्रेण--गुण; पूरुष:-- पुरुष; दैव--भाग्य के; उपसादितम्-द्वारा प्रदत्त; यावत्--जब तक; वीक्ष्य--देखकर; ई श्वर-गतिमू-- भगवान् की विधि; बुध:--बुद्धिमानमनुष्य,भगवान् की गति बड़ी विचित्र है।
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह इस गति को स्वीकारकरे और अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी भगवान् की इच्छा से सम्मुख आए, उससे संतुष्ट रहे।
"
अथ मात्रोपदिष्टेन योगेनावरुरुत्ससि ।
यत्प्रसादं स वै पुंसां दुराराध्यो मतो मम ॥
३०॥
अथ--अतः; मात्रा--अपनी माता द्वारा; उपदिष्टेन--उपदेश दिया जाकर; योगेन--योग ध्यान से; अवरुरुत्ससि-- अपने कोऊपर उठाना चाहते हो; यत््-प्रसादम्ू--जिसकी कृपा; सः--वह; बै--निश्चय ही; पुंसामू--जीवात्माओं का; दुराराध्य:--करनेमें अत्यन्त कठिन; मत:--विचार; मम--मेरा |
अब तुमने अपनी माता के उपदेश से भगवान् की कृपा प्राप्त करने के लिए ध्यान की योग-विधि पालन करने का निश्चय किया है, किन्तु मेरे विचार से ऐसी तपस्या सामान्य व्यक्ति के लिएसम्भव नहीं है।
भगवान् को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है।
"
मुनयः पदवीं यस्य निःसड्लेनोरुजन्मभिः ।
न विदुर्मृगयन्तो पि तीत्रयोगसमाधिना ॥
३१॥
मुनयः--मुनिगण; पदवीम्--पथ; यस्य--जिसका; निःसड्बेन--विरक्ति से; उरु-जन्मभि:--अनेक जन्मों के पश्चात्; न--कभीनहीं; विदु:--समझ पाये; मृगयन्तः--खोज करते हुए; अपि--निश्चय ही; तीब्र-योग--कठिन तपस्या; समाधिना--समाधि से |
नारद मुनि ने आगे बताया : अनेकानेक जन्मों तक इस विधि का पालन करते हुए तथाभौतिक कल्मष से विरक्त रह कर, अपने को निरन्तर समाधि में रखकर और विविध प्रकार कीतपस्याएँ करके अनेक योगी ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग का पार नहीं पा सके।
अतो निवर्ततामेष निर्बन्धस्तव निष्फल: ।
यतिष्यति भवान्काले श्रेयसां समुपस्थिते ॥
३२॥
अतः--इसलिए; निवर्तताम्--अपने को रोको; एष:--यह; निर्बन्ध:--संकल्प; तब--तुम्हारा; निष्फल:--वृथा; यतिष्यति--भविष्य में प्रयल करना; भवान्--स्वयं; काले--काल-क्रम में; श्रेयसाम्--अवसर; समुपस्थिते-- आने पर।
इसलिए हे बालक, तुम्हें इसके लिए प्रयत्न नहीं करना चाहिए, इसमें सफलता नहीं मिलनेवाली।
अच्छा हो कि तुम घर वापस चले जाओ।
जब तुम बड़े हो जाओगे तो ईश्वर की कृपा सेतुम्हें इन योग-कर्मों के लिए अवसर मिलेगा।
उस समय तुम यह कार्य पूरा करना।
"
यस्य यदैवविहितं स तेन सुखदुःखयो: ।
आत्मानं तोषयन्देही तमस:ः पारमृच्छति ॥
३३॥
यस्य--कोई भी; यत्--जो; दैव-- भाग्य से; विहितम्--बदा; सः--वह व्यक्ति; तेन--उससे; सुख-दुःखयो:--सुख अथवादुख; आत्मानम्--अपने आपको; तोषयनू--संतुष्ट; देही-- आत्मा; तमसः ---अंधकार के; पारम्--दूसरी ओर; ऋच्छति--पार होजाता
मनुष्य को चाहिए कि जीवन की किसी भी अवस्था में, चाहे सुख हो या दुख, जो दैवीइच्छा ( भाग्य ) द्वारा प्रदत्त है, सन्तुष्ट रहे।
जो मनुष्य इस प्रकार टिका रहता है, वह अज्ञान केअंधकार को बहुत सरलता से पार कर लेता है।
"
गुणाधिकान्मुदं लिप्सेदनुक्रोशं गुणाधमात् ।
मैत्रीं समानादन्विच्छेन्न तापैरभिभूयते ॥
३४॥
गुण-अधिकात्--अधिक योग्य पुरुष से; मुदम्--प्रसन्नता; लिप्सेत--अनुभव करे; अनुक्रोशम्-- दया; गुण-अधमात्--कमयोग्य पुरुष से; मैत्रीमू--मित्रता; समानात्ू--समान ( गुण वाले ) से; अन्विच्छेत्--कामना करे; न--नहीं; तापैः--दुख से;अभिभूयते--प्रभावित होता हैप
्रत्येक मनुष्य को इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए : यदि वह अपने से अधिक योग्यव्यक्ति से मिले, तो उसे अत्यधिक हर्षित होना चाहिए, यदि अपने से कम योग्य व्यक्ति से मिलेतो उसके प्रति सदय होना चाहिए और यदि अपने समान योग्यता वालों से मिले तो उससे मित्रताकरनी चाहिए।
इस प्रकार मनुष्य को इस भौतिक संसार के त्रिविध ताप कभी भी प्रभावित नहींकर पाते।
"
ध्रुव उवाचसोयं शमो भगवता सुखदुःखहतात्मनाम् ।
दर्शितः कृपया पुसां दुर्दर्शो उस्मद्विधैस्तु य: ॥
३५॥
श्रुवः उबाच--श्रुव महाराज ने कहा; सः--वह; अयम्--यह; शम:--मन का संतुलन; भगवता--आपके द्वारा; सुख-दुःख--सुख तथा दुख; हत-आत्मनाम्--जो प्रभावित हैं; दर्शित:--दिखाया गया; कृपया--कृपा द्वारा; पुंसामू--लोगों का; दुर्दर्शः--देख पाना कठिन; अस्मतू-विधैः--हम जैसे व्यक्तियों द्वारा; तु--लेकिन; यः--जो भी आपने कहा।
ध्रुव महाराज ने कहा : हे नारद जी, आपने मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए कृपापूर्वक जोभी कहा है, वह ऐसे पुरुष के लिए निश्चय ही अत्यन्त शिक्षाप्रद है, जिसका हृदय सुख तथा दुखकी भौतिक परिस्थितियों से चलायमान है।
लेकिन जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है मैं तो अविद्या सेप्रच्छन्न हूँ और इस प्रकार का दर्शन मेरे हृदय को स्पर्श नहीं कर पाता।
"
अथापि मेविनीतस्य क्षार्त घोरमुपेयुष: ।
सुरुच्या दुर्वचोबाणैर्न भिन्ने भ्रयते हंदि ॥
३६॥
अथ अपि--अतः ; मे--मेरा; अविनीतस्य-- अविनीत का क्षात्रम्--क्षत्रियत्व; घोरम्-- असह्य; उपेयुष: --प्राप्त; सुरुच्या: --सुरुचि का; दुर्वच:--कटु वचन; बाणैः--बाणों से; न--नहीं; भिन्ने--बेधा जाकर; श्रयते--रह रहे हैं, पड़े हैं; हदि--हृदय मेंहे भगवन्, मैं आपके उपदेशों को न मानने की धुृष्टता कर रहा हूँ।
किन्तु यह मेरा दोष नहींहै।
यह तो क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के कारण है।
मेरी विमाता सुरुचि ने मेरे हृदय को अपने कटुवबचनों से क्षत-विक्षत कर दिया है।
अतः आपकी यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा मेरे हृदय में टिक नहीं पारही।
"
पदं त्रिभुवनोत्कृष्ट जिगीषो: साधु वर्त्म मे ।
ब्रूह्मस्मत्पितृभिर््रह्यन्नन्यैरप्पनधिष्ठितम् ॥
३७॥
पदम्--पद; त्रि-भुवन--तीनों लोक; उत्कृष्टम्--सर्व श्रेष्ठ; जिगीषो: --इच्छुक; साधु--ईमानदार; वर्त्म--राह; मे--मुझको;ब्रूहि--कहो; अस्मत्--हमारा; पितृभि:--पूर्वजों, पिता तथा पितामह द्वारा; ब्रह्मनू--हे महान् ब्राह्मण; अन्यैः --अन्यों द्वारा;अपि--भी; अनधिष्ठितम्-- प्राप्त नहीं हो सका।
हे दिद्वान् ब्राह्मण, मैं ऐसा पद ग्रहण करना चाहता हूँ जिसे अभी तक तीनों लोकों में किसीने भी, यहाँ तक कि मेरे पिता तथा पितामहों ने भी, ग्रहण न किया हो।
यदि आप अनुगृहीत करसकें तो कृपा करके मुझे ऐसे सत्य मार्ग की सलाह दें, जिसे अपना करके मैं अपने जीवन केलक्ष्य को प्राप्त कर सकूँ।
"
नूनं भवान्भगवतो योडउड्भज: परमेष्ठिन: ।
वितुदन्नटते वीणां हिताय जगतोर्कवत् ॥
३८॥
नूनम्--निश्चय ही; भवान्ू--आप; भगवतः -- भगवान् के; यः--जो; अड़-जः: --शरीर से उत्पन्न; परमेष्ठटिन: --ब्रह्मा; वितुदन् --बजाते हुए; अटते--सर्वत्र विचरण करते हो; वीणाम्ू--वीणा; हिताय--कल्याण के लिए; जगतः--संसार के; अर्क-वत्--सूर्य के समान |
हे भगवन्, आप ब्रह्मा के सुयोग्य पुत्र हैं और आप अपनी वीणा बजाते हुए समस्त विश्व केकल्याण हेतु विचरण करते रहते हैं।
आप सूर्य के समान हैं, जो समस्त जीवों के लाभ के लिएब्रह्माण्ड-भर में चक्कर काटता रहता है।
"
मैत्रेय उवाचइत्युदाहतमाकर्ण्य भगवान्नारदस्तदा ।
प्रीत: प्रत्याह तं बाल॑ सद्दाक्यमनुकम्पया ॥
३९॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; इति--इस प्रकार; उदाहतम्--कहा जाकर; आकर्णर्य--सुन कर; भगवान् नारद:--महापुरुष नारद; तदा--तब; प्रीतः-- प्रसन्न होकर; प्रत्याह--उत्तर दिया; तमू--उस; बालम्ू--बालक को; सतू-वाक्यम्--अच्छा उपदेश; अनुकम्पया--कृपावश
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : श्रुव महाराज के शब्दों को सुनकर महापुरुष नारद मुनि उन परअत्यधिक दयालु हो गये और अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के उद्देश्य से उन्होंने निम्नलिखितविशिष्ट उपदेश दिया।
"
नारद उवाचजनन्याभिहितः पन्था: स वै नि: श्रेयसस्य ते ।
भगवान्वासुदेवस्तं भज तं प्रवणात्मना ॥
४०॥
नारद: उवाच--नारद मुनि ने कहा; जनन्या--अपनी माता के द्वारा; अभिहित:--कहे गये; पन््था:--पथ; सः--उस; बै--निश्चयही; नि: श्रेयसस्थ-- जीवन का परम लक्ष्य; ते--तुम्हारे लिए; भगवानू-- भगवान्; वासुदेव:-- श्रीकृष्ण; तम्--उसकी; भज--सेवा करो; तम्ू--उसके द्वारा; प्रवण-आत्मना--अपने मन को एकाग्र करके |
नारद मुनि ने श्रुव महाराज से कहा : तुम्हारी माता सुनीति ने भगवान् की भक्ति के पथ काअनुसरण करने के लिए जो उपदेश दिया है, वह तुम्हारे लिए सर्वथा अनुकूल है।
अतः तुम्हेंभगवान् की भक्ति में पूर्ण रूप से निमग्न हो जाना चाहिए।
"
धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छेच्छेय आत्मन: ।
एकं हब हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम् ॥
४१॥
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष--धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रिय-तृप्ति तथा मुक्ति, ये चार पुरुषार्थ; आख्यम्--नाम से; यः--जो;इच्छेत्--इच्छा करता है; श्रेय:--जीवन का लक्ष्य; आत्मन:--स्वयं का; एकम् हि एव--केवल एक; हरेः-- भगवान् का;तत्र--उसमें; कारणम्--कारण; पाद-सेवनम्--चरणकमल की पूजा।
जो व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों की कामना करता है उसे चाहिएकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भक्ति में अपने आपको लगाए, क्योंकि उनके चरणकमलों कीपूजा से इन सबकी पूर्ति होती है।
"
तत्तात गच्छ भद्गं ते यमुनायास्तर्ट शुचि ।
पुण्य॑ मधुवन यत्र सान्रिध्यं नित्यदा हरे: ॥
४२॥
तत्--उस; तात-हे पुत्र; गच्छ--जाओ; भद्रम्--शुभ हो; ते--तुम्हारा; यमुनाया:-- यमुना का; तटमू--किनारा, तट; शुचि--शुद्ध; पुण्यम्--पवित्र; मधु-वनम्--मधुवन नामक; यत्र--जहाँ; सान्निध्यमू--निकट होते हुए; नित्यदा--सदैव; हरेः-- भगवान्के।
हे बालक, तुम्हारा कल्याण हो।
तुम यमुना के तट पर जाओ, जहाँ पर मधुवन नामक विख्यात जंगल है और वहीं पर पवित्र होओ।
वहाँ जाने से ही मनुष्य वृन्दावनवासी भगवान् केनिकट पहुँचता है।
"
स्नात्वानुसवनं तस्मिन्कालिन्द्या: सलिले शिवे ।
कृत्वोचितानि निवसन्नात्मन: कल्पितासन: ॥
४३॥
स्नात्वा--स्तान करके; अनुसवनम्--तीन बार; तस्मिन्ू--उस; कालिन्द्या:--कालिन्दी नदी ( यमुना ) में; सलिले--जल में;शिवे--शुभ; कृत्वा--करके ; उचितानि--उपयुक्त; निवसन्--बैठ कर; आत्मन:--स्वयं का; कल्पित-आसन:ः--आसनबनाकर
नारद मुनि ने उपदेश दिया : हे बालक, यमुना नदी अथवा कालिन्दी के जल में तुम नित्यतीन बार स्नान करना, क्योंकि यह जल शुभ, पवित्र एवं स्वच्छ है।
स्नान के पश्चात् अष्टांगयोगके आवश्यक अनुष्ठान करना और तब शान्त मुद्रा में अपने आसन पर बैठ जाना।
"
प्राणायामेन त्रिवृता प्राणेन्द्रियमनोमलम् ।
शनैर्व्युदस्याभिध्यायेन्मनसा गुरुणा गुरुम् ॥
४४॥
प्राणायामेन-- प्राणायाम ( श्वास की कसरत ) से; त्रि-वृता--तीन विधियों से; प्राण-इन्द्रिय--प्राणवायु तथा इन्द्रियाँ; मनः --मन; मलम्--अशुद्धि; शनैः -- धीरे-धीरे; व्युदस्य--छोड़कर; अभिध्यायेत्-- ध्यान धरो; मनसा--मन से; गुरुणा--अविचल;गुरुमू--परम गुरुश्रीकृष्ण को |
आसन ग्रहण करने के पश्चात् तुम तीन प्रकार के प्राणायाम करना और इस प्रकार धीरे-धीरेप्राणवायु, मन तथा इन्द्रियों को वश में करना।
अपने को समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त करकेतुम अत्यन्त धैर्यपूर्वक भगवान् का ध्यान प्रारम्भ करना।
"
प्रसादाभिमुखं शश्चत्प्रसन्नवदनेक्षणम् ।
सुनासं सुश्रुवं चारुकपोलं सुरसुन्दरम् ॥
४५॥
प्रसाद-अभिमुखम्--सदैव अहैतुकी कृपा करने के लिए तत्पर; शश्वत्--सदैव; प्रसन्न--हर्षित; वदन--मुख; ईक्षणम्--दृष्टि;सु-नासम्--सुन्दर नाक; सु-भ्रुवम्--सुसज्जित भौंहें; चारु--सुन्दर; कपोलम्--कपोल; सुर--देवता; सुन्दरम्--देखने मेंसुन्दर |
[ यहाँ पर भगवान् के रूप का वर्णन हुआ है।
भगवान् का मुख सदैव अत्यन्त सुन्दर औरप्रसन्न मुद्रा में रहता है।
देखने वाले भक्तों को वे कभी अप्रसन्न नहीं दिखते और वे सदैव उन्हेंवरदान देने के लिए उद्यत रहते हैं।
उनके नेत्र, सुसज्जित भौंहें, उन्नत नासिका तथा चौड़ामस्तक--ये सभी अत्यन्त सुन्दर हैं।
वे समस्त देवताओं से अधिक सुन्दर हैं।
"
तरुणं रमणीयाडमरुणोष्ठेक्षणाधरम् ।
प्रणताश्रयणं नृम्णं शरण्यं करुणार्णबम् ॥
४६॥
तरुणम्ू--जवान; रमणीय--आकर्षक; अड्डमू--शरीर के सभी अंग; अरुण-ओएष्ठ --उदीयमान सूर्य की तरह लाल-लाल होंठ;ईक्षण-अधरम्--उसी प्रकार की आँखें; प्रणत--शरणागत; आश्रयणम्--शरणागतों की शरण ( आश्रय ); नृम्णम्-दिव्य रूपसे मनोहर; शरण्यम्--जिसकी शरण में जाने योग्य हो; करुणा--मानो दया से पूर्ण; अर्गबम्--समुद्र |
नारद मुनि ने आगे कहा : भगवान् का रूप सदैव युवावस्था में रहता है।
उनके शरीर काअंग-प्रत्यंग सुगठित एवं दोषरहित है।
उनके नेत्र तथा होंठ उदीयमान सूर्य की भाँति गुलाबी सेहैं।
वे शरणागतों को सदैव शरण देने वाले हैं और जिसे उनके दर्शन का अवसर मिलता है, वहसभी प्रकार से संतुष्ट हो जाता है।
दया के सिन्धु होने के कारण भगवान् शरणागतों के स्वामीहोने के योग्य हैं।
"
श्रीवत्साडूं घनश्यामं पुरुष वनमालिनम् ।
शद्भुचक्रगदापदौरभिव्यक्तचतुर्भुजम् ॥
४७॥
श्रीवत्स-अड्भम्-- भगवान् के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न; घन-श्यामम्--गहरा नीला; पुरुषम्--परम पुरुष; बन-मालिनमू-- फूलों की माला से युक्त; शट्डु--शंख; चक्र -- चक्र; गदा--गदा; पदौ:--कमल पुष्प से; अभिव्यक्त--प्रकट;चतुः-भुजम्--चार हाथों वाले को |
भगवान् को श्रीवत्स चिह्न अथवा ऐश्वर्य की देवी का आसन धारण किये हुए बताया गयाहै।
उनके शरीर का रंग गहरा नीला ( श्याम ) है।
भगवान् पुरुष हैं, वे फूलों की माला पहनते हैंऔर वे चतुर्भुज रूप में ( नीचेवाले बाएँ हाथ से आरम्भ करते हुए ) शंख, चक्र, गदा तथाकमल पुष्प धारण किये हुए नित्य प्रकट होते हैं।
"
किरीटिनं कुण्डलिनं केयूरवलयान्वितम् ।
कौस्तुभाभरणग्रीवं पीतकौशेयवाससम् ॥
४८ ॥
किरीटिनम्ू--मुकुट धारण किये भगवान्; कुण्डलिनम्ू--कुण्डल सहित; केयूर--रलजटित हार; बलय-अन्वितम्--रत्तजटितबाजूबन्द सहित; कौस्तुभ-आभरण-ग्रीवम्--जिनकी ग्रीवा ( गर्दन ) कौस्तुभ मणि से अलंकृत है; पीत-कौशेय-वाससम्--जोपीले रेशम का वस्त्र धारण किये हैं।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव का सारा शरीर आभूषित है।
वे बहुमूल्य मणिमय मुकुट,हार तथा बाजूबन्द धारण किये हुए हैं।
उनकी गर्दन कौस्तुभ मणि से अलंकृत है और वे पीतरेशमी वस्त्र धारण किये हैं।
"
काञझ्जीकलापपर्यस्तं लसत्काझ्जननूपुरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयनवर्धनम् ॥
४९॥
काञ्ञी-कलाप--छोटे-छोटे घुंघुरू; पर्यस्तम्--कमर को घेरते हुए; लसत्-काझ्नन-नूपुरम्--सुनहले नूपुरों से अलंकृत पाँव;दर्शनीय-तमम्--अत्यन्त दर्शनीय; शान्तम्--शान्त, मौन; मन:-नयन-वर्धनम्--आँखों तथा मन को मोहने वाला।
भगवान् का कटि- प्रदेश सोने की छोटी-छोटी घंटियों से अलंकृत है और उनके चरणकमलसुनहले नूपुरों से सुशोभित हैं।
उनके सभी शारीरिक अंग अत्यन्त आकर्षक एवं नेत्रों को भानेवाले हैं।
वे सदैव शान्त तथा मौन रहते हैं और नेत्रों तथा मन को अत्यधिक मोहनेवाले हैं।
"
पद्भ्यां नखमणिश्रेण्या विलसद्भ्यां समर्चताम् ।
हत्पद्यकर्णिकाशिष्ण्यमाक्रम्यात्मन्यवस्थितम् ॥
५० ॥
पदभ्यामू--अपने चरणकमलों से; नख-मणि-श्रेण्या--पाँव के अँगूठे के मणि सहृश्य नाखूनों की ज्योति से; विलसद्भ्याम्ू--चमकते चरणकमल; समर्चताम्--उनकी पूजा में तत्पर पुरुष; हत्-पद्य-कर्णिका--हृदय के कमल पुष्प का पुंज; धिष्णयमू--स्थित; आक्रम्य--पकड़कर, कब्जा करके; आत्मनि--हृदय में; अवस्थितम्--स्थित |
वास्तविक योगी भगवान् के उस दिव्यरूप का ध्यान करते हैं जिसमें वे उनके हृदयरूपीकमल-पुंज में खड़े रहते हैं और उनके चरण-कमलों के मणितुल्य नाखून चमकते रहते हैं।
"
स्मयमानमभिध्यायेत्सानुरागावलोकनम् ।
नियतेनैक भूतेन मनसा वरदर्षभम् ॥
५१॥
स्मयमानम्-- भगवान् की हँसी; अभिध्यायेत्--उनका ध्यान करे; स-अनुराग-अवलोकनमू-- भक्तों की ओर अत्यन्त स्नेह सेदेखते हुए; नियतेन--इस प्रकार, नियमित रूप से; एक-भूतेन--अत्यन्त ध्यानपूर्वक; मनसा--मन-ही-मन; वर-द-ऋषभम् --श्रेष्ठ वरदायक का ध्यान करे।
भगवान् सदैव मुस्कराते रहते हैं और भक्त को चाहिए कि वह सदा इसी रूप में उनका दर्शनकरता रहे, क्योंकि वे भक्तों पर कृपा-पूर्वक दृष्टि डालते हैं।
इस प्रकार से ध्यानकर्ता को चाहिएकि वह समस्त वरों को देने वाले भगवान् की ओर निहारता रहे।
"
एवं भगवतो रूप॑ सुभद्वं ध्यायतो मन: ।
निर्व॒त्या परया तूर्ण सम्पन्न न निवर्तते ॥
५२॥
एवम्--इस प्रकार; भगवत:-- भगवान् का; रूपम्ू--रूप; सु-भद्रमू-- अत्यन्त कल्याणकारी; ध्यायत:--ध्यान करते हुए;मनः--मन; निर्व॒त्या--समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त होकर; परया--दिव्य; तूर्णम्--शीघ्र; सम्पन्नम्ू--समृद्ध होकर; न--कभी नहीं; निवर्तते--नीचे आता है
भगवान् के नित्य मंगलमय रूप में जो अपने मन को एकाग्र करते हुए इस प्रकार से ध्यानकरता है, वह अतिशीघ्र ही समस्त भौतिक कल्मष से छूट जाता है और भगवान् के ध्यान कीस्थिति से फिर लौटकर नीचे ( मर्त्य-लोक ) नहीं आता।
"
जपश्च परमो गुह्य: श्रूयतां मे नृपात्मज ।
यं सप्तरात्रं प्रपठन्पुमान्पश्यति खेचरान् ॥
५३॥
जपः च--इस सम्बन्ध में मंत्र का जाप; परम: --अत्यन्त; गुह्ा:--गोपनीय; श्रूयताम्--सुनो; मे--मुझसे; नृप-आत्मज--हेराजपुत्र; यमू--जो; सप्त-रात्रमू--सात रात्रियाँ; प्रपठन्--जपता हुआ; पुमान्-- पुरुष; पश्यति--देख सकता है; खे-चरान्ू--आकाश में चलने वाले प्राणियों को |
हे राजपुत्र, अब मैं तुम्हें वह मंत्र बताऊँगा जिसे इस ध्यान विधि के समय जपना चाहिए।
जोकोई इस मंत्र को सात रात सावधानी से जपता है, वह आकाश में उड़ने वाले सिद्ध मनुष्यों कोदेख सकता है।
"
नमो भगवते वासुदेवायमन्त्रेणानेन देवस्य कुर्याद्द्रव्यमयीं बुध: ।
सपर्या विविधेद्ध॑व्यैर्देशकालविभागवित् ॥
५४॥
३४--हे भगवान्; नमः--नमस्कार है; भगवते-- भगवान् को; वासुदेवाय--वासुदेव को; मन्त्रेण--मंत्र से; अनेन--इस;देवस्थ-- भगवान् का; कुर्यातू-करना चाहिए; द्रव्यमयीम्-- भौतिक; बुध:--विद्वान; सपर्याम्--वेदोक्त विधि से पूजा;विविधे:-- अनेक प्रकार की; द्रव्यै:--सामग्री से; देश--स्थान के अनुसार; काल--समय; विभाग-वित्--विभागों को जाननेवाला।
श्रीकृष्ण की पूजा का बारह अक्षर वाला मंत्र है--» नमो भगवते वासुदेवाय।
ईश्वर काविग्रह स्थापित करके उसके समक्ष मंत्रोच्चार करते हुए प्रामाणिक विधि-विधानों सहित मनुष्यको फूल, फल तथा अन्य खाद्य-सामग्रियाँ अर्पित करनी चाहिए।
किन्तु यह सब देश, कालतथा साथ ही सुविधाओं एवं असुविधाओं का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।
"
सलिलै: शुचिभिर्माल्यैर्वन्यर्मूलूफलादिभि: ।
शस्ताहु रांशुकैश्वार्चेत्तुलस्था प्रियया प्रभुम् ॥
५५॥
सलिलै:--जल के प्रयोग से; शुचिभि: --पवित्र किया गया; माल्यैः--माला से; वन्यैः--जंगली फूलों से; मूल--जड़ों; फल-आदिभि:--नाना प्रकार की वनस्पतियों तथा फलों से; शस्त--दूर्वा ( दूब ); अड्'ु र-कलियाँ; अंशुकैः--वृक्षों की छाल, यथाभोज-पत्र से; च--तथा; अर्चेत्--पूजा करें; तुलस्था--तुलसी दलों से; प्रियया--जो भगवान् को अत्यन्त प्रिय; प्रभुम्--भगवान् को
भगवान् की पूजा शुद्ध जल, शुद्ध पुष्प-माला, फल, फूल तथा जंगल में उपलब्धवनस्पतियों या ताजे उगे हुए दूर्वांदल एकत्र करके, फूलों की कलियों, अथवा वृक्षों की छालसे, या सम्भव हो तो भगवान् को अत्यन्त प्रिय तुलसीदल अर्पित करते हुए करनी चाहिए।
"
लब्ध्वा द्रव्यमयीमर्चा क्षित्यम्ब्वादिषु वार्चयेत् ।
आशभ्षृतात्मा मुनि: शान्तो यतवाड्मितवन्यभुक् ॥
५६॥
लब्ध्वा--पाकर; द्र॒व्य-मयीम्-- भौतिक तत्त्वों से बने; अर्चामू--पूज्य विग्रह; क्षिति--पृथ्वी; अम्बु--जल; आदिषु--इत्यादि;बा--अथवा; अर्चयेत्--पूजा करे; आभृत-आत्मा-- आत्मसंयमी; मुनि:ः--महापुरुष; शान्त: --शान्तिपूर्वक; यत-वाक्--वाग्शक्ति पर संयम रखते हुए; मित-- थोड़ा; वन्य-भुक्--जंगल में प्राप्य सामग्री को खाकर
यदि सम्भव हो तो मिट्टी, लुगदी, लकड़ी तथा धातु जैसे भौतिक तत्त्वों से बनी भगवान् कीमूर्ति को पूजा जा सकता है।
जंगल में मिट्टी तथा जल से मूर्ति बनाई जा सकती है और उपर्युक्तनियमों के अनुसार उसकी पूजा की जा सकती है।
जो भक्त अपने ऊपर पूर्ण संयम रखता है, उसेअत्यन्त नप्र तथा शान्त होना चाहिए और जंगल में जो भी फल तथा वनस्पतियाँ प्राप्त हों उन्हें हीखाकर संतुष्ट रहना चाहिए।
"
स्वेच्छावतारचरितैरचिन्त्यनिजमायया ।
करिष्यत्युत्तमएलोकस्तद्धयायेद्धूदयड्गरमम् ॥
५७॥
स्व-इच्छा--उनकी ( भगवान की ) परम इच्छा से; अवतार--अवतार; चरितैः --कार्यकलाप; अचिन्त्य-- अकल्पनीय; निज-मायया--अपनी ही शक्ति से; करिष्यति--करता है; उत्तम-श्लोक:-- भगवान्; तत्ू--वह; ध्यायेत्-- ध्यान करना चाहिए;हृदयम्-गमम्--अत्यन्त आकर्षक ।
हे श्रुव, प्रतिदिन तीन बार मंत्र जप करने और श्रीविग्रह की पूजा के अतिरिक्त तुम्हें भगवान्के विभिन्न अवतारों के दिव्य कार्यों के विषय में भी ध्यान करना चाहिए, जो उनकी परम इच्छातथा व्यक्तिगत शक्ति से प्रदर्शित होते हैं।
"
परिचर्या भगवतो यावत्य: पूर्वसेविता: ।
ता मन्त्रहदयेनैव प्रयुउ्ज्यान्मन्त्रमूर्तये ॥
५८ ॥
परिचर्या:--सेवा; भगवत:--भगवान् की; यावत्य:--जिस रूप में ( उपर्युक्त ) संस्तुत हैं; पूर्व-सेविता: --पूर्व आचार्यो द्वारा कृतअथवा संस्तुत; ताः--वह; मन्त्र--मंत्र; हृदयेन--हृदय के भीतर; एब--निश्चय ही; प्रयुड्यात्--पूजा करे; मन्त्र-मूर्तये--जो मंत्रसे अभिन्न है।
संस्तुत सामग्री द्वारा परमेश्वर की पूजा किस प्रकार की जाये, इसके लिए मनुष्य को चाहिएकि पूर्व-भक्तों के पद-चिह्नों का अनुसरण करे अथवा हृदय के भीतर ही मंत्रोच्चार करकेभगवान् की, पूजा करे जो मंत्र से भिन्न नहीं हैं।
"
एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् ।
परिचर्यमाणो भगवान्भक्तिमत्परिचर्यया ॥
५९॥
पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धन: ।
श्रेयो दिशत्यभिमतं यद्धर्मादिषु देहिनामू ॥
६०॥
एवम्--इस प्रकार; कायेन--शरीर से; मससा--मन से; वचसा--शब्दों से; च-- भी; मन:-गतम्-- भगवान् के चिन्तन मात्र से;परिचर्यमाण:--भक्ति में लगे हुए; भगवान्-- भगवान्; भक्ति-मत्-- भक्ति के नियमों के अनुसार; परिचर्यया-- भगवान् कीपूजा द्वारा; पुंसामू-- भक्त का; अमायिनाम्--जो एकनिष्ठ तथा गम्भीर है; सम्यक् --पूर्णरूप से; भजताम्--भक्ति में लगा हुआ;भाव-वर्धन:--जो भक्त के भाव को बढ़ाते हैं, भगवान्, श्रेय: ; श्रेयः--अन्तिम उद्देश्य; दिशति--प्रदान करता है; अभिमतम्--आकांक्षा; यतू--यावत्रूप; धर्म-आदिषु--आध्यात्मिक जीवन तथा आर्थिक विकार के विषय में; देहिनामू--बद्धजीवों का
इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन, वचन तथा शरीर से भगवान् कीभक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति-विधियों के कार्यों में मगन रहता है, उसे उसकीइच्छानुसार भगवान् वर देते हैं।
यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म, अर्थ, काम या भौतिक संसारसे मोक्ष चाहता है, तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं।
"
विरक्तश्नेन्द्रियरतौ भक्तियोगेन भूयसा ।
त॑ निरन्तरभावेन भजेताद्धा विमुक्तये ॥
६१॥
विरक्त: च--पूर्णतया विरक्त; इन्द्रिय-रतौ--इन्द्रिय-तृप्ति के विषय में; भक्ति-योगेन-- भक्ति की पद्धति से; भूयसा--अत्यन्तगम्भीरता से; तम्--उस ( परम ) को; निरन्तर--लगातार; भावेन--समाधि की सर्वोच्च अवस्था में; भजेत--पूजा करे; अद्धा--प्रत्यक्ष; विमुक्तये--मुक्ति के लिए।
यदि कोई मुक्ति के लिए अत्यन्त उत्सुक हो तो उसे दिव्य प्रेमाभक्ति की पद्धति का हढ़ता सेपालन करके चौबीसों घंटे समाधि की सर्वोच्च अवस्था में रहना चाहिए और उसे इन्द्रियतृप्ति केसमस्त कार्यो से अनिर्वायतः पृथक् रहना चाहिए।
"
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य प्रणम्य च नृपार्भक: ।
ययौ मधुवन पुण्यं हरेश्वरणचर्चितम् ॥
६२॥
इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; तम्--उसको ( नारद मुनि को ); परिक्रम्य--प्रदक्षिणा करके; प्रणम्य--नमस्कार करके;च--भी; नृप-अर्भक:--राजा का पुत्र; ययौ--पास गया; मधुवनम्--वृन्दावन का एक जंगल जो मधुवन कहलाता है;पुण्यमू--शुभ; हरेः-- भगवान् का; चरण-चर्चितम्--
श्रीकृष्ण के चरणकमल द्वारा अंकितजब राजपुत्र श्रुव महाराज को नारद मुनि इस प्रकार उपदेश दे रहे थे तो उन्होंने अपने गुरुनारद मुनि की प्रदक्षिणा की और उन्हें सादर नमस्कार किया।
तत्पश्चात् वे मधुवन के लिए चलपड़े, जहाँ श्रीकृष्ण के चरणकमल सदैव अंकित रहते हैं, अतः जो विशेष रूप से शुभ है।
"
तपोवनं गते तस्मिन्प्रविष्टो उन्तःपुरं मुनि: ।
अर्हिताईणको राज्ञा सुखासीन उबाच तम् ॥
६३॥
तपः-वनम्--वह वन मार्ग जहाँ ध्रुव महाराज ने तपस्या की; गते--इस प्रकार पास जाने पर; तस्मिन्--वहाँ; प्रविष्ट: -- प्रवेशकरके; अन्तः-पुरम्ू--व्यक्तिगत घर के भीतर; मुनि:--नारद मुनि; अर्हित--पूजित होकर; अर्हणक: --आदरपूर्ण आचरण केद्वारा; राज्ञा--राजा द्वारा; सुख-आसीन:--अपने आसन पर सुखपूर्वक बैठा; उबाच--कहा; तम्--उस ( राजा ) से |
जब श्रुव भक्ति करने के लिए मधुवन में प्रविष्ट हो गए तब महर्षि नारद ने राजा के पासजाकर यह देखना उचित समझा कि वे महल के भीतर कैसे रह रहे हैं।
जब नारद मुनि वहाँ पहुँचेतो राजा ने उन्हें प्रणाम करके उनका समुचित स्वागत किया।
आराम से बैठ जाने पर नारद कहनेलगे।
"
नारद उबाचराजन्कि ध्यायसे दीर्घ मुखेन परिशुष्यता ।
कि वा न रिष्यते कामो धर्मो वार्थेन संयुत: ॥
६४॥
नारद: उवाच--नारद मुनि ने कहा; राजन्--हे राजा; किम्ू--क्या; ध्यायसे--सोचते हुए; दीर्घम्--अत्यन्त गहनता से; मुखेन--अपने मुँह से; परिशुष्यता--सूखते हुए; किम् वा--अथवा; न--नहीं; रिष्यते--खो जाना; काम: --इन्द्रियतृप्ति; धर्म:--धार्मिकअनुष्ठान; वा--या; अर्थेन--आर्थिक विकास से; संयुत:--से युक्त
महर्षि नारद ने पूछा : हे राजन, तुम्हारा मुख सूख रहा दिखता है और ऐसा लगता है कि तुमदीर्घकाल से कुछ सोचते रहे हो।
ऐसा क्यों है? क्या तुम्हें धर्म, अर्थ तथा काम के मार्ग कापालन करने में कोई बाधा हुई है ?"
राजोबाचसुतो मे बालको ब्रह्मन्स्त्रणेनाकरुणात्मना ।
निर्वासितः पञ्जवर्ष: सह मात्रा महान्कवि: ॥
६५॥
राजा उवाच--राजा ने उत्तर दिया; सुतः--पुत्र; मे--मेरा; बालकः--अल्प वयस वाला; ब्रह्मन्ू--हे ब्राह्मण; स्त्रैणेन --स्त्री मेंलिप्त रहने वाला; अकरुणा-आत्मना--कठोर हृदय; निर्वासित:--घर से निकाला गया; पशञ्ञ-वर्ष:--पाँच वर्ष का बालक;सह--साथ; मात्रा--माता द्वारा; महान्ू--महापुरुष; कवि: --भक्त ।
राजा ने उत्तर दिया : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं अपनी पत्नी में अत्यधिक आसक्त हूँ और मैं इतनापतित हूँ कि मैंने अपने पाँच वर्ष के बालक के प्रति भी दया भाव के व्यवहार का त्याग करदिया।
मैने उसे महात्मा तथा महान् भक्त होते हुए भी माता सहित निर्वासित कर दिया है।
"
अप्यनाथं बने ब्रह्मन्मा स्मादन्त्यर्भक वृका: ।
श्रान्तं शयानं क्षुधितं परिम्लानमुखाम्बुजम् ॥
६६॥
अपि--निश्चय ही; अनाथम्--अरक्षित; बने--जंगल में; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; मा-- अथवा, नहीं; स्म--नहीं; अदन्ति-- भक्षणकिया; अर्भकम्--निरीह बालक; वृका: --भेड़िये; श्रान्तम्-- थका हुआ; शयानम्--लेटा हुआ; क्षुधितम्-- भूखा; परिम्लान--मुरझाया; मुख-अम्बुजम्ू--कमल के समान मुख ।
हे ब्राह्मण, मेरे पुत्र का मुख कमल के फूल के समान था।
मैं उसकी दयनीय दशा के विषयमें सोच रहा हूँ।
वह असुरक्षित और अत्यन्त भूखा होगा।
वह जंगल में कहीं लेटा होगा औरभेड़ियों ने झपट करके उसका शरीर काट खा लिया होगा।
अहो मे बत दौरात्म्यं स्रीजितस्योपधारय ।
योडड्डू प्रेम्णारुरुक्षन्तं नाभ्यनन्दमसत्तम: ॥
६७॥
अहो--ओह; मे--मेरा; बत--निश्चय ही; दौरात्म्यमू-क्रूरता; स्त्री-जितस्य--स्त्री का गुलाम; उपधारय--जरा सोचो तो; यः--जो; अड्भम्--गोद; प्रेम्णा--प्रेमवश; आरुरुक्षन्तम्-चढ़ने को इच्छुक; न--नहीं; अभ्यनन्दम्--उचित ढंग से आदर; असतू-तमः--अत्यन्त क्रूर
अहो! जरा देखिये तो मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ! जरा मेरी क्रूरता के विषय में तो सोचिये!वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मैंने न तो उसको आने दिया, न उसेएक क्षण भी दुलारा।
जरा सोचिये कि मैं कितना कठोर-हृदय हूँ!" नारद उबाचमा मा शुचः स्वतनयं देवगुप्तं विशाम्पते ।
तत्प्रभावमविज्ञाय प्रावृड्डे यद्यशों जगत् ॥
६८ ॥
नारद: उबवाच--नारद मुनि ने कहा; मा--मत; मा--मत; शुच्च: --दुखी होओ; स्व-तनयम्-- अपने पुत्र के लिए; देव-गुप्तम्ू--भगवान् द्वारा भली-भाँति रक्षित; विशाम्-पते--हे मानव समाज के स्वामी; तत्--उसका; प्रभावम्ू--प्रभाव; अविज्ञाय--बिनाजाने; प्रावृद्ें --चारों ओर फैला; यत्--जिसका; यश:--ख्याति; जगत्--संसार भर में |
महर्षि नारद ने उत्तर दिया: हे राजन, तुम अपने पुत्र के लिए शोक मत करो।
वह भगवान्द्वारा पूर्ण रूप से रक्षित है।
यद्यपि तुम्हें उसके प्रभाव के विषय में सही-सही जानकारी नहीं है,किन्तु उसकी ख्याति पहले ही संसार भर में फैल चुकी है।
"
सुदुष्करं कर्म कृत्वा लोकपालैरपि प्रभु: ।
ऐष्यत्यचिरतो राजन्यशो विपुलयंस्तव ॥
६९॥
सु-दुष्करम्ू--न कर सकने योग्य; कर्म--कार्य; कृत्वा--करके; लोक-पालै:ः --महापुरुषों द्वारा; अपि-- भी ; प्रभुः--अत्यन्तसमर्थ; ऐष्यति--लौटेगा; अचिरत:--शीघ्र ही; राजन्--हे राजा; यश:--कीर्ति; विपुलयन्--बढ़ाते हुए; तब--तुम्हारी |
हे राजन, तुम्हारा पुत्र अत्यन्त समर्थ है।
वह ऐसे कार्य करेगा जो बड़े-बड़े राजा तथा साधुभी नहीं कर पाते।
वह शीघ्र ही अपना कार्य पूरा करके घर वापस आएगा।
तुम यह भी जान लो कि वह तुम्हारी ख्याति को सारे संसार में फैलाएगा।
"
मैत्रेय उबाचइति देवर्षिणा प्रोक्त विश्रुत्य जगतीपति: ।
राजलक्ष्मीमनाहत्य पुत्रमेवान्बचिन्तयत् ॥
७०॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; देवर्षिणा--नारद मुनि द्वारा; प्रोक्तम्ू--कहा गया; विश्रुत्य--सुनकर; जगती-'पति:--राजा; राज-लक्ष्मीम्--राज्य का ऐश्वर्य; अनाहत्य--परवाह किये बिना; पुत्रमू--अपना पुत्र; एब--निश्चय ही;अन्वचिन्तयत्ू--सोचने लगा
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : नारद मुनि से उपदेश प्राप्त करने के बाद राजा उत्तानपाद ने अपनेअत्यन्त विशाल एवं ऐश्वर्यमय राज्य के सारे कार्य छोड़ कर दिये और केवल अपने पुत्र ध्रुव केविषय में ही सोचने लगा।
"
तत्राभिषिक्तः प्रयतस्तामुपोष्य विभावरीम् ।
समाहितः पर्यचरद्ृष्यादेशेन पूरुषम् ॥
७१॥
तत्र--तत्पश्चात्; अभिषिक्त: --स्नान करने के पश्चात्; प्रयतः--ध्यानपूर्वक; ताम्ू--उस; उपोष्य--उपवास करके; विभावरीम्--रात्रि; समाहितः--पूर्ण ध्यान से; पर्यचरत्--पूजा की; ऋषि--नारद ऋषि द्वारा; आदेशेन--आदेश के अनुसार; पूरुषम्--भगवान् की।
इधर, श्रुव महाराज ने मधुवन पहुँचकर यमुना नदी में स्नान किया और उस रात्रि को अत्यन्तमनोयोग से उपवास किया।
तत्पश्चात् वे नारद मुनि द्वारा बताई गई विधि से भगवान् की आराधनामें मग्न हो गये।
"
त्रिरात्रान्ते त्रिरात्रान्ते कपित्थबदराशन:ः ।
आत्पवृत्त्यनुसारेण मासं निन्येर्चयन्हरिम्ू ॥
७२॥
ब्रि--तीन; रात्र-अन्ते--रात बीतने पर; त्रि--तीन; रात्र-अन्ते--रात बीतने पर; कपित्थ-बदर--कैथा तथा बेर; अशनः--खातेहुए; आत्म-वृत्ति--शरीर पालने के लिए निर्वाह; अनुसारेण--आवश्यक या न्यूनतम; मासम्--एक माह; निन््ये--बीत गया;अर्चयन्-पूजा करते; हरिम्ू-- भगवान् की |
ध्रुव महाराज ने पहले महीने में अपने शरीर की रक्षा ( निर्वाह ) हेतु हर तीसरे दिन केवलकैथे तथा बेर का भोजन किया और इस प्रकार से वे भगवान् की पूजा को आगे बढ़ाते रहे।
"
द्वितीयं च तथा मासं षष्ठे षष्ठे र्भको दिने ।
तृणपर्णादिभि: शीर्णै: कृतान्नो भ्यर्चयन्विभुम् ॥
७३॥
द्वितीयमू--अगले मास; च--भी; तथा--उपयुक्त विधि से; मासम्--माह; षष्टे षष्टे-- प्रत्येक छह दिन पर; अर्भकः--अबोधबालक; दिने--दिने में; तृण-पर्ण-आदिभि:--घास-पात से; शीर्णै:--शुष्क; कृत-अन्न:--अन्न के रूप में; अभ्यर्चयन्ू--- औरइस प्रकार पूजा करता रहा; विभुम्-- भगवान् के लिए
दूसरे महीने में महाराज ध्रुव छह-छह दिन बाद खाने लगे।
शुष्क घास तथा पत्ते ही उनकेखाद्य पदार्थ थे।
इस प्रकार उन्होंने अपनी पूजा चालू रखी।
"
तृतीय चानयन्मासं नवमे नवमेहनि ।
अब्भक्ष उत्तमश्लोकमुपाधावत्समाधिना ॥
७४॥
तृतीयम्--तीसरे महीने; च-- भी; आनयनू--बीतने पर; मासम्ू--एक महीना; नवमे नवमे--प्रत्येक नवें; अहनि--दिन में;अपू-भक्ष:--केवल जल पीकर; उत्तम-शलोकम्-- भगवान्, जिनकी आराधना चुने हुए श्लोकों से की जाती है; उपाधावत्--पूजा की; समाधिना--समाधि में |
तीसरे महीने में वे प्रत्येक नवें दिन केवल जल ही पीते।
इस प्रकार वे पूर्ण रूप से समाधि मेंरहते हुए पुण्यश्लोक भगवान् की पूजा करते रहे।
"
चतुर्थमपि बे मासं द्वादशे द्वादशे हनि ।
वायुभक्षो जितश्चासो ध्यायन्देवमधारयत् ॥
७५॥
चतुर्थभमू--चौथे; अपि-- भी; बै--उस प्रकार; मासम्ू--माह; द्वादशे द्वादशे--प्रति बारहवें; अहनि--दिन में; वायु--हवा;भक्ष:--खाकर; जित-श्वास:-- श्वास क्रिया को वश में करके; ध्यायन्--ध्यान करते हुए; देवम्--परमे श्वर की; अधारयत्--
पूजा की चौथे महीने में श्रुव महाराज प्राणायाम में पटु हो गये और इस प्रकार प्रत्येक बारहवें दिनवायु को श्वास से भीतर ले जाते।
इस प्रकार अपने स्थान पर पूर्ण रूप से स्थिर होकर उन्होंनेभगवान् की पूजा की।
"
पञ्ञमे मास्यनुप्राप्ते जितश्रासो नृपात्मज: ।
ध्यायन्त्रह् पदैकेन तस्थौ स्थाणुरिवाचल: ॥
७६॥
पश्ञमे--पाँचवें; मासि--महीने में; अनुप्राप्त--स्थित होकर; जित-श्रास:--तब भी श्वास को नियंत्रित करके; नृप-आत्मज:--राजा का पुत्र; ध्यायन्ू-- ध्यान करता हुआ; ब्रह्म-- भगवान्; पदा एकेन--एक पाँव से; तस्थौ--खड़ा रहा; स्थाणु: --ढूँठ के;इब--समान; अचलः:--स्थिर, जड़ |
पाँचवें महीने में राजपुत्र महाराज श्लुव ने श्वास रोकने पर ऐसा नियत्रंण प्राप्त कर लिया किवे एक ही पाँव पर खड़े रहने में समर्थ हो गए, मानो कोई अचल दूँठ हो।
इस प्रकार उन्होंनेपरब्रह्म में अपने मन को केन्द्रित कर लिया।
"
सर्वतो मन आकृष्य हृदि भूतेन्द्रियाशयम् ।
ध्यायन्भगवतो रूप नाद्राक्षीत्किल्ननापरम् ॥
७७॥
सर्वतः--सभी प्रकार से; मनः--मन को; आकृष्य--केन्द्रित करके; हृदि--हृदय में; भूत-इन्द्रिय-आशयम्--इन्द्रियों के आश्रयतथा विषयों; ध्यायन्-- ध्यान करते हुए; भगवत:-- भगवान् का; रूपम्--रूप, आकार; न अद्वाक्षीत्--नहीं देखा; किज्ञन--कुछ भी; अपरम्--अन्य |
उन्होंने अपनी इन्द्रियों तथा उनके विषयों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया और इस तरहअपने मन को चारों ओर से खींच कर भगवान् के रूप पर स्थिर कर दिया।
आधारं महदादीनां प्रधानपुरुषे श्वरम् ।
ब्रह्म धारयमाणस्य त्रयो लोकाश्चकम्पिरि ॥
७८ ॥
आधारम्--आश्रय; महत्-आदीनामू--समस्त भौतिक सृष्टि आदि, महत्-तत्त्व; प्रधान--मुख्य; पुरुष-ईश्वरम्--सभीजीवात्माओं का स्वामी; ब्रह्म--परब्रह्म परमेश्वर; धारयमाणस्य-- हृदय में धारण करके; त्रय:--तीनों; लोका:--लोक;चकम्पिरि--हिलने लगे।
इस प्रकार जब श्लरुव महाराज ने समग्र भौतिक सृष्टि के आश्रय तथा समस्त जीवात्माओं केस्वामी भगवान् को अपने वश में कर लिया तो तीनों लोक हिलने लगे।
"
यदैकपादेन स पार्थिवार्भक-स्तस्थौ तदड्ुष्ठनिपीडिता मही ।
ननाम तत्रार्धमिभेन्द्रधिष्ठितातरीब सब्येतरतः पदे पदे ॥
७९॥
यदा--जब; एक--एक; पादेन-- पाँव से; सः-- ध्रुव महाराज; पार्थिव--राजा का; अर्भक:--बालक; तस्थौ--खड़ा रहा;तत्-अब्ुष्ठ --उनके अँगूठे से; निपीडिता--दब कर; मही--पृथ्वी; ननाम--नीचे झुकी; तत्र--तब; अर्धम्--आधा; इभ-इन्द्र--हाथियों का राजा; धिष्ठिता--स्थित; तरी इब--नाव के समान; सव्य-इतरत:--दाहिने तथा बाएँ; पदे पदे--पग-पग पर |
जब राजपुत्र ध्रुव महाराज अपने एक पाँव पर अविचलित भाव से खड़े रहे तो उनके पाँव केभार से आधी पृथ्वी उसी प्रकार नीचे चली गई जिस प्रकार कि हाथी के चढ़ने से ( पानी में ) उसके प्रत्येक कदम से नाव कभी दाएँ हिलती है, तो कभी बाएँ।
"
तस्मिन्नभिध्यायति विश्वमात्मनोद्वार निरुध्यासुमनन्यया धिया ।
लोका निरुच्छुसनिपीडिता भृशंसलोकपाला: शरणं ययुहरिम् ॥
८०॥
तस्मिन्ू-- ध्रुव महाराज; अभिध्यायति--पूर्ण मनोयोग से ध्यान करते हुए; विश्वम् आत्मन:--ब्रह्माण्ड का पूर्ण शरीर; द्वारम्--दरवाजे, छेद; निरुध्य--बन्द करके; असुम्--प्राण वायु; अनन्यया--अविचल भाव से; धिया--ध्यान; लोका:--सभी लोक;निरुच्छास-- श्वास लेना रोककर; निपीडिता: --दम घुटने से; भूशम्--शीघ्र; स-लोक-पाला:--विभिन्न लोकों के समस्त देवता;शरणम्--शरण; ययु:--ग्रहण की; हरिम्ू-- भगवान् की
जब श्रुव महाराज गुरुता में भगवान् विष्णु अर्थात् समग्र चेतना से एकाकार हो गये तो उनकेपूर्ण रूप से केन्द्रीभूत होने तथा शरीर के सभी छिद्रों के बन्द हो जाने से सारे विश्व की साँसघुटने लगी और सभी लोकों के समस्त बड़े-बड़े देवताओं का दम घुटने लगा।
अतः वे भगवान्की शरण में आये।
"
देवा ऊचु:नैवं विदामो भगवन्प्राणरोध॑चराचरस्याखिलसत्त्वधाम्न: ।
विधेहि तन्नो वृजिनाद्विमोश्षंप्राप्ता बय॑ त्वां शरणं शरण्यम् ॥
८१॥
देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; न--नहीं; एवम्--इस प्रकार; विदाम:--हम समझ पाते हैं; भगवन्--हे भगवान्; प्राण-रोधम्-रुद्ध हुआ श्वास; चर--चलता हुआ; अचरस्य--अचल का; अखिल--विश्वजनीन; सत्त्व--अस्तित्व; धाम्न:--आगार;विधेहि--कृपा करके जो आवश्यक हो करें; तत्ू--अतः; नः--हमारा; वृजिनात्ू--संकट से; विमोक्षम्--उद्धार; प्राप्ता:--निकट आता; वयम्--हम सभी; त्वाम्ू--तुमको; शरणम्--शरण; शरण्यम्ू--शरण ग्रहण की जाने योग्य |
देवताओं ने कहा : हे भगवान्, आप समस्त जड़ तथा चेतन जीवात्माओं के आश्रय हैं।
हमेंलग रहा है कि सभी जीवों का दम घुट रहा है और उनकी श्वास-क्रिया अवरुद्ध हो गई है।
हमेंऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ।
आप सभी शरणागतों के चरम आश्रय है, अतः हम आपके पासआये हैं।
कृपया हमें इस संकट से उबारिये।
"
श्रीभगवानुवाचमा भेष्ट बाल॑ तपसो दुरत्यया-न्रिवर्तयिष्ये प्रतियात स्वधाम ।
यतो हि वः प्राणनिरोध आसी-दौत्तानपादिर्मयि सड्भतात्मा ॥
८२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने उत्तर दिया; मा भैष्ट--मत डरो; बालमू--बालक श्रुव; तपसः--कठिन तपस्या से;दुरत्ययात्-इृढ़ निश्चय; निवर्तयिष्ये--रोकने के लिए कहूँगा; प्रतियात-- तुम जा सकते हो; स्व-धाम--अपने घर; यतः--जिससे; हि--निश्चय ही; वः--तुम्हारा; प्राण-निरोध:--प्राण वायु का अवरोध; आसीत्--हुआ; औत्तानपादि:--राजाउत्तानपाद के पुत्र के कारण; मयि--मुझको; सड्भत-आत्मा--मेरे विचार में पूरी तरह लीन।
श्रीभगवान् ने उत्तर दिया : हे देवो, तुम इससे विचलित न होओ।
यह राजा उत्तानपाद के पुत्रकी कठोर तपस्या तथा हृढ़निश्चय के कारण हुआ है, जो इस समय मेरे चिन्तन में पूर्णतया लीनहै।
उसी ने सारे ब्रह्माण्ड की श्वास क्रिया को रोक दिया है।
तुम लोग अपने-अपने घरसुरक्षापूर्वक जा सकते हो।
मैं उस बालक को कठिन तपस्या करने से रोक दूँगा तो तुम इसपरिस्थिति से उबर जाओगे।
"
अध्याय नौ: ध्रुव महाराज घर लौटे
4.9मैत्रेय उवाचत एवसमुत्सबन्नभया उरुक्रमेकृतावनामा: प्रययुस्त्रिविष्टपम् ।
सहस्त्रशीर्षापि ततो गरुत्मतामधोर्वन भृत्यदिदृक्षया गत: ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; ते--देवतागण; एवम्--इस प्रकार; उत्सन्न-भया:--समस्त प्रकार के डर से रहित;उरुक़मे-- भगवान् को, जिनके कार्य अलौलिक हैं; कृत-अवनामा:ः--नमस्कार किये गये; प्रययु:--वे लौट गये; त्रि-विष्टपम्--अपने अपने दैव लोकों को; सहस्त्र-शीर्षा अपि--सहस्त्रशीर्ष कहलानेवाले भगवान् भी; ततः--वहाँ से; गरुत्मता--गरुड़ पर आरुढ़ होकर; मधो: वनम्--मधुवन; भृत्य--दास; दिदक्षया--देखने की इच्छा से; गत:--गये |
महर्षि मैत्रेय ने विदुर से कहा : जब भगवान् ने देवताओं को इस प्रकार फिर से आश्वासनदिलाया तो वे समस्त प्रकार के भय से मुक्त हो गये और वे सब उन्हें नमस्कार करके अपने-अपने देवलोकों को चले गये।
तब भगवान्, जो साक्षात् सहस्त्रशीर्ष अवतार हैं, गरुड़ पर सवारहुए और अपने दास श्रुव को देखने के लिए मधुवन गये।
"
स वै धिया योगविपाकतीकब्रयाहत्पद्यकोशे स्फुरितं तडित्प्रभम् ।
तिरोहितं सहसैवोपलक्ष्यबहिःस्थितं तदवस्थं दरदर्श ॥
२॥
सः--श्लुव महाराज; बै-- भी; धिया-- ध्यान से; योग-विपाक-तीब्रया-- प्रखर योगाभ्यास के कारण; हत्--हृदय के; पद्म-कोशे--कमल पर; स्फुरितम्--प्रकट; तडित्-प्रभम्--बिजली के समान तेजमय; तिरोहितम्ू--विलीन हुईं; सहसा--अकस्मात्;एव--भी; उपलक्ष्य--देखकर; बहि:-स्थितम्--बाहर स्थित; तत्-अवस्थम्--उसी मुद्रा में; ददर्श--देख सकाध
्रुव महाराज अपने प्रखर योगाभ्यास के समय भगवान् के जिस बिजली सहृश तेजमान रूपके ध्यान में निमग्न थे, वह सहसा विलीन हो गया।
फलत:ः श्लुव अत्यन्त विचलित हो उठे औरउनका ध्यान टूट गया।
किन्तु ज्योंही उन्होंने अपने नेत्र खोले, वैसे ही उन्होंने अपने समक्ष पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् को उसी रूप में साक्षात् उपस्थित देखा, जिस रूप का दर्शन वे अपने हृदय मेंकर रहे थे।
"
तहर्शनेनागतसाध्वस: क्षिता-वबन्दताड़ूं विनमय्य दण्डवत् ।
हृ्भ्यां प्रपश्यन्प्रपिबन्निवार्भक-श्लुम्बन्निवास्येन भुजैरिवाश्लिषन् ॥
३॥
ततू-दर्शनेन-- भगवान् का दर्शन करके; आगत-साध्वस:-- अत्यधिक विह्ल श्लुव महाराज; क्षितौ--पृथ्वी पर; अवन्दत--नमस्कार किया; अड्भडमू--शरीर; विनमय्य--गिरकर; दण्डवत्--डंडे के समान; दृग्भ्यामू--अपनी आँखों से; प्रपश्यन्--देखतेहुए; प्रपिबन्ू--पान करते हुए; इब--सहश; अर्भक:--बालक; चुम्बन्--चुम्बन; इब--सहृश्य; आस्येन--मुख से; भुजैः--अपनी बाहों से; इब--सहृश; आश्लिषन्-- भरते हुए।
जब श्रुव महाराज ने अपने भगवान् को अपने सन्मुख देखा तो वे अत्यन्त विह्ल हो उठे औरउन्होंने उनका सादर अभिवादन किया।
वे उनके समक्ष दण्ड के समान गिर पड़े और भगवत्प्रेम में मग्न हो गये।
आनन्द में ध्रुव महाराज भगवान् को इस प्रकार देख रहे थे, मानो उन्हें आँखों से पीरहे हों, उनके चरण कमलों को अपने मुख से चूम रहे हों और उन्हें अपनी भुजाओं में भर रहे हों।
"
सतं विवक्षन्तमतद्विदं हरि-ज्ञात्वास्य सर्वस्य च हद्यवस्थितः ।
कृताझलिं ब्रह्ममयेन कम्बुनापस्पर्श बालं कृपया कपोले ॥
४॥
सः--भगवान्; तम्--श्वुव महाराज को; विवक्षन्तम्-गुणों का गान करने की अभिलाषा से; अ-तत्-विदम्--उसमें पदु न होनेसे; हरिः-- भगवान्; ज्ञात्वा--जानकर; अस्य-- श्रुव का; सर्वस्य--प्रत्येक का; च--तथा; हृदि--हृदय में; अवस्थित:--स्थितहोकर; कृत-अज्जञलिम्--हाथ जोड़ कर; ब्रह्म-मयेन--वैदिक मंत्रों के शब्दों से युक्त; कम्बुना--अपने शंख से; पस्पर्श--स्पर्शकिया; बालमू--बालक को; कृपया--अहैतुकी कृपा से; कपोले--मस्तक पर
यद्यपि ध्रुव महाराज छोटे से बालक थे, किन्तु वे उपयुक्त शब्दों से भगवान् की स्तुति करनाचाह रहे थे।
किन्तु अनुभवहीन होने के कारण वे तुरन्त अपने को सँभाल नहीं सके।
प्रत्येक हृदयमें वास करनेवाले भगवान् श्रुव महाराज की विषम स्थिति को समझ गये।
अत: अपनी अहैतुकीकृपा से उन्होंने अपने समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हुए ध्रुव महाराज के मस्तक पर अपना शंख छुआदिया।
"
स बै तदैव प्रतिपादितां गिरंदैवीं परिज्ञातपरात्मनिर्णय: ।
त॑ भक्तिभावो भ्यगृणा दस त्वरंपरिश्रुतोरु श्रवसं श्रुवक्षिति: ॥
५॥
सः--श्लुव महाराज; बै--निश्चय ही; तदा--उस समय; एव--ही; प्रतिपादिताम्--प्राप्त करके; गिरमू--वाणी; दैवीम्--दिव्य;परिज्ञात--जाना हुआ; पर-आत्म--परम-आत्मा का; निर्णय:--निष्कर्ष ; तमू-- भगवान् को; भक्ति-भावः--भक्ति में स्थित;अभ्यगृणात्--स्तुति की; असत्वरम्-बिना जल्दबाजी दिखाये; परिश्रुत--विख्यात; उरु- भ्रवसम्--जिसका यश; ध्रुव-क्षितिः--श्रुव जिसके लोक का नाश नहीं होगा
उस समय श्रुव महाराज को वैदिक निष्कर्ष का पूर्ण ज्ञान हो गया और वे परम सत्य तथासभी जीवात्माओं से उनके सम्बन्ध को जान गये।
भगवान् के सेवाभाव के अनुसार विश्वविख्यातध्रुव ने, जिन्हें शीघ्र ही ऐसे लोक की प्राप्ति होनेवाली थी, जो कभी भी यहाँ तक कि प्रलयकाल में विनष्ट न होने वाला है, सहज भाव से सोदेश्य व निर्णयात्मक स्तुति की।
"
ध्रुव उवाचयोउन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तांसञ्जीवयत्यखिलशक्तिधर: स्वधाम्ना ।
अन््यांश्व हस्तचरण भ्रवणत्वगादीन्प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥
६॥
श्रुव: उबाच-- ध्रुव महाराज ने कहा; यः--जो परमेश्वर; अन्त:--अन्तःकरण; प्रविश्य--प्रवेश करके ; मम--मेरे; वाचम्--शब्द; इमामू--ये सभी; प्रसुप्तामू-निश्चल या मृत; सञ्जीवबति--पुनः जीवित होता है; अखिल--विश्वव्यापी; शक्ति--शक्ति;धरः--धारण करनेवाला; स्व-धाम्ना--अपनी अन्तरंगा शक्ति से; अन्यान् च--अन्य अंग भी; हस्त--यथा हाथ; चरण--पाँव;श्रवण--कान; त्वक्--चर्म; आदीन्--इत्यादि; प्राणान्ू-- प्राण, जीवन-शक्ति; नमः--नमस्कार है; भगवते-- भगवान् को;पुरुषाय--परम पुरुष को; तुभ्यम्--तुमको |
ध्रुव महाराज ने कहा : हे भगवन्, आप सर्वशक्तिमान हैं।
मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट होकरआपने मेरी सभी सोई हुई इन्द्रियों को--हाथों, पाँवों, स्प्शेन्द्रिय, प्राण तथा मेरी वाणी को--जाग्रत कर दिया है।
मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
"
एकस्त्वमेव भगवन्निदमात्मशक्त्यामायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषम् ।
सृष्ठानुविश्य पुरुषस्तदसद्गुणेषुनानेव दारुषु विभावसुवद्दधिभासि ॥
७॥
एकः--एक; त्वमू--तुम; एव--निश्चय ही; भगवन्--हे भगवन्; इृदम्--यह भौतिक जगत; आत्म-शकत्या--अपनी शक्ति से;माया-आख्यया--माया नाम की; उरु--अत्यन्त शक्तिशाली; गुणया--प्रकृति के गुणों से युक्त; महत्ू-आदि--महत्-तत्त्वआदि; अशेषम्--- अनन्त; सृष्ठा--सृष्टि करके; अनुविश्य--फिर प्रवेश करके; पुरुष: --परमात्मा; ततू--माया का; असतू-गुणेषु-- क्षणिक प्रकट गुणों में; नाना--प्रत्येक प्रकार से; इब--मानो; दारुषु--काष्ठ खण्डों में; विभावसु-वत्-- अग्नि केसमान; विभासि--प्रकट होते हो
हे भगवन्, आप सर्वश्रेष्ठ हैं, किन्तु आप आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों में अपनी विभिन्नशक्तियों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट होते रहते हैं।
आप अपनी बहिरंगा शक्ति सेभौतिक जगत की समस्त शक्ति को उत्पन्न करके बाद में भौतिक जगत में परमात्मा के रूप मेंप्रविष्ट हो जाते हैं।
आप परम पुरुष हैं और क्षणिक गुणों से अनेक प्रकार की सृष्टि करते हैं, जिसप्रकार कि अग्नि विभिन्न आकार के काष्ट्खण्डों में प्रविष्ट होकर विविध रूपों में चमकती हुईजलती है।
"
त्वद्त्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वसुप्तप्रबुद्ध इब नाथ भवत्प्रपन्न: ।
तस्यापवर्ग्यशरणं तब पादमूलंविस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो ॥
८॥
त्वतू-दत्तया--तुम्हारे द्वारा प्रदत्त; वयुनया--ज्ञान से; इदम्--यह; अचष्ट--देख सकता है; विश्वम्--समग्र ब्रह्माण्ड; सुप्त-प्रबुद्ध;:--सोकर जगे हुए पुरुष; इब--के समान; नाथ-हे प्रभु; भवत्-प्रपन्न:-- भगवान् ब्रह्म, जो आपके शरणागत हैं;तस्य--उसका; आपवर्ग्य--मुक्ति के इच्छुक; शरणम्--शरण; तब--तुम्हारी; पाद-मूलम्--चरणकमल; विस्मर्यते-- भुलायाजा सकता है; कृत-विदा--विद्वान पुरुष; कथम्--किस प्रकार; आर्त-बन्धो--हे दुखियों के मित्र |
हे स्वामी, ब्रह्मा पूर्ण रूप से आपके शरणागत हैं।
आरम्भ में आपने उन्हें ज्ञान दिया तो वेसमस्त ब्रह्माण्ड को उसी तरह देख और समझ पाये जिस प्रकार कोई मनुष्य नींद से जगकरतुरन्त अपने कार्य समझने लगता है।
आप मुक्तिकामी समस्त पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं औरआप समस्त दीन-दुखियों के मित्र हैं।
अतः पूर्ण ज्ञान से युक्त विद्वान पुरुष आपको किस प्रकारभुला सकता है?"
नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया तेये त्वां भवाप्ययविमोक्षणमन्यहेतो: ।
अर्चन्ति कल्पकतरूं कुणपोपभोग्य-मिच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरयेडपि नृणाम् ॥
९॥
नूनमू--अवश्य ही; विमुष्ट-मतय:--जिन्होंने अपनी बुद्धि खो दी है; तब--तुम्हारी; मायया--माया के प्रभाव से; ते--वे; ये--जो; त्वाम्ू--तुम; भव--जन्म से; अप्यय--तथा मृत्यु; विमोक्षणम्--मुक्ति का कारण; अन्य-हेतो:--अन्य कार्यो के लिए;अर्चन्ति--पूजते हैं; कल्पक-तरुम्--जो कल्पतरु के समान हैं; कुणप--इस मृत शरीर का; उपभोग्यम्--इन्द्रियतृप्ति;इच्छन्ति--इच्छा करते हैं; यत्--जो; स्पर्श-जम्--स्पर्श से उत्पन्न; निरये--नरक में; अपि-- भी; नृणाम्ू--मनुष्यों के लिए।
जो व्यक्ति इस चमड़े के थेले ( शवतुल्य देह ) की इन्द्रियतृप्ति के लिए ही आपकी पूजाकरते हैं, वे निश्चय ही आपकी माया द्वारा प्रभावित हैं।
आप जैसे कल्पवृक्ष तथा जन्म-मृत्यु से मुक्ति के कारण को पार करके भी मेरे समान मूर्ख व्यक्ति आपसे इन्द्रियतृप्ति हेतु वरदान चाहतेहैं, जो नरक में रहनेवाले व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध हैं।
"
या निर्वृतिस्तनुभूृतां तव पादपद्ा-ध्यानाद्धवज्जनकथा श्रवणेन वा स्थात् ।
सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्कि त्वन्तकासिलुलितात्पततां विमानात् ॥
१०॥
या--वह जो; निर्व॒ृतिः--आनन्द; तनु-भृताम्--देह धारियों का; तब--तुम्हारे; पाद-पढ्य--चरणकमल का; ध्यानातू--ध्यानकरने से; भवत्-जन--आपके अन्तरंगी भक्तों से; कथा--कथा; श्रवणेन--सुनने से; वा-- अथवा; स्थात्ू--सम्भव; सा--वहआनन्द; ब्रह्मणि--निर्गुण ब्रह्म में; स्व-महिमनि---अपनी महिमा; अपि-- भी; नाथ--हे भगवन्; मा--कभी नहीं; भूत्--उपस्थित रहता है; किम्--क्या कहना; तु--तब; अन्तक-असि--मृत्यु की तलवार से; लुलितात्--विनष्ट होकर; पतताम्--गिरेहुओं का; विमानात्ू--विमान से |
हे भगवन्, आपके चरणकमलों के ध्यान से या शुद्ध भक्तों से आपकी महिमा का श्रवणकरने से जो दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, वह उस ब्रह्मानन्द अवस्था से कहीं बढ़कर है, जिसमेंमनुष्य अपने को निर्गुण ब्रह्म से तदाकार हुआ सोचता है।
चूँकि ब्रह्मानन्द भी भक्ति सेमिलनेवाले दिव्य आनन्द से परास्त हो जाता है, अतः उस क्षणिक आनन्दमयता का क्या कहना,जिसमें कोई स्वर्ग तक पहुँच जाये और जो कालरूपी तलवार के द्वारा विनष्ट हो जाता है? भलेही कोई स्वर्ग तक क्यों न उठ जाये, कालक्रम में वह नीचे गिर जाता है।
"
भक्ति मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसड़ोभूयादनन्त महताममलाशयानाम् ।
येनाझ्सोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धि नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्त: ॥
११॥
भक्तिम्ू--भक्ति; मुहुः --निरन्तर; प्रवहताम्--करनेवालों का; त्वयि--तुमको; मे--मेरा; प्रसड़र:--अन्तरंग संगति; भूयात्--सम्भव है कि; अनन्त--हे अनन्त; महताम्--महान् भक्तों का; अमल-आशयानाम्--जिनके हृदय भौतिक कल्मष से रहित हैं;येन--जिससे; अज्ञसा--सरलतापूर्वक; उल्बणम्-- भयंकर; उरुू--बड़ा; व्यसनम्--संकटों से पूर्ण; भव-अब्धिम्ू--संसार-सागर; नेष्ये-- पार करूँगा; भवत्--आपके; गुण--दिव्य गुण; कथा--लीलाएँ; अमृत--अमृत, शाश्वत; पान--पीकर;मत्त:--मस्त, पागल।
भ्रुव महाराज ने आगे कहा : हे अनन्त भगवान्, कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं उनमहान् भक्तों की संगति कर सकूँ जो आपकी दिव्य प्रेमा भक्ति में उसी प्रकार निरन्तर लगे रहते हैंजिस प्रकार नदी की तरंगें लगातार बहती रहती हैं।
ऐसे दिव्य भक्त नितान्त कल्मषरहित जीवनबिताते हैं।
मुझे विश्वास है कि भक्तियोग से मैं संसार रूपी अज्ञान के सागर को पार कर सकूँगाजिसमें अग्नि की लपटों के समान भयंकर संकटों की लहरें उठ रही हैं।
यह मेरे लिए सरलरहेगा, क्योंकि मैं आपके दिव्य गुणों तथा लीलाओं के सुनने के लिए पागल हो रहा हूँ, जिनकाअस्तित्व शाश्वत है।
"
ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्यये चान्वदः सुतसुहृदगृहवित्तदारा: ।
ये त्वव्जनाभ भवदीयपदारविन्द-सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसड़ाः ॥
१२॥
ते--वे; न--कभी नहीं; स्मरन्ति--स्मरण करते हैं; अतितराम्--अत्यधिक; प्रियम्--प्रिय; ईश--हे भगवान्; मर्त्यमू-- भौतिकदेह; ये--जो; च-- भी; अनु--के अनुसार; अदः--वह; सुत--पुत्र; सुहृत्--मित्र; गृह--घर; वित्त--सम्पत्ति; दारा:--पत्ली;ये--जो; तु--लेकिन; अब्ज-नाभ--हे कमलनाभि वाले भगवान्; भवदीय--आपका; पद-अरविन्द--चरणकमल;सौगन्ध्य--सुगन्धि; लुब्ध--आकृष्ट; हृदयेषु-- भक्तों सहित, जिनके हृदय; कृत-प्रसड्राः--संगति करते हैं।
हे कमलनाभ भगवान्, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे भक्त की संगति करता है, जिसका हृदयसदैव आपके चरणकमलों की सुगन्ध में लुब्ध रहता है, तो वह न तो कभी अपने भौतिक शरीरके प्रति आसक्त रहता है और न सन्तति, मित्र, घर, सम्पति तथा पत्नी के प्रति देहात्मबुद्धि रखताहै, जो भौतिकतावादी पुरुषों को अत्यन्त ही प्रिय हैं।
वस्तुतः वह उनकी तनिक भी परवाह नहींकरता।
"
तिर्यड्नगद्विजसरीसूपदेवदैत्य-मर्त्यादिभि: परिचितं सदसद्विशेषम् ।
रूप॑ स्थविष्ठमज ते महदाद्यनेकंनातः परं परम वेद्ि न यत्र वाद: ॥
१३॥
तिर्यक्ू--पशुओं; नग--वृक्ष; द्विज--पक्षी; सरीसृप--रेंगनेवाले जीव; देव--देवता; दैत्य--असुर; मर्त्य-आदिभि:--मनुष्योंइत्यादि के द्वारा; परिचितम्--परिव्याप्त; सत्-असतू-विशेषम्--प्रकट तथा अप्रकट योनियों द्वारा; रूपम्ू--रूप; स्थविष्ठम्--स्थूल विश्व का; अज--हे अजन्मा; ते--तुम्हारा; महत्ू-आदि--सम्पूर्ण भौतिक शक्ति से उत्पन्न; अनेकम्-- अनेक कारण; न--नहीं; अतः--इससे; परम्ू--दिव्य; परम--हे परम; वेद्धि--जानता हूँ; न--नहीं ; यत्र--जहाँ; वाद: --विभिन्न तर्क |
हे भगवन्, हे परम अजन्मा, मैं जानता हूँ कि जीवात्माओं की विभिन्न योनियाँ, यथा पशु,पक्षी, रेंगनेवाले जीव, देवता तथा मनुष्य सारे ब्रह्माण्ड में फैली हुई हैं, जो समग्र भौतिक शक्तिसे उत्पन्न हैं।
मैं यह भी जानता हूँ कि ये कभी प्रकट रूप में रहती हैं, तो कभी अप्रकट रूप में,किन्तु मैने ऐसा परम रूप कभी नहीं देखा जैसा कि अब आप का देख रहा हूँ।
अब किसी भीसिद्धान्त के बनाने की आवश्यकता नहीं रह गई है।
"
कल्पान्त एतदखिलं जठरेण गृहन्शेते पुमान्स्वटगनन्तसखस्तदड्ले ।
यन्नाभिसिन्धुरूहकाञ्ननलोकपदा-गर्भ द्युमान्भगवते प्रणतोस्मि तस्मै ॥
१४॥
कल्प-अन्ते--कल्प के अन्त में; एतत्--यह ब्रह्माण्ड; अखिलम्--समस्त; जठरेण--उदर के भीतर; गृहन्ू--ले करके; शेते--लेटा रहता है; पुमानू--परम पुरुष; स्व-हक्--अपने आपको देखता हुआ; अनन्त--अनन्त जीव शेष; सख:--के साथ; तत्ू-अद्डे--उसकी गोद में; यत्--जिसकी; नाभि--नाभि से; सिन्धु--सागर; रूह--उगा हुआ; काझ्नन--सुनहला; लोक--लोक;पद्म--कमल के; गर्भे--पुष्प पुंज में; द्युमान्ू-- भगवान् ब्रह्मा; भगवते-- भगवान् को; प्रणतः--नमस्कार करता; अस्मि--हूँ;तस्मै--उसको |
हे भगवन्, प्रत्येक कल्प के अन्त में भगवान् गर्भोदकशायी विष्णु ब्रह्माण्ड में दिखाईपड़नेवाली प्रत्येक वस्तु को अपने उदर में समाहित कर लेते हैं।
वे शेषनाग की गोद में लेट जातेहैं, उनकी नाभि से एक डंठल में से सुनहला कमल-पुष्प फूट निकलता है और इस कमल-पुष्पपर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं।
मैं समझ सकता हूँ कि आप वही परमेश्वर हैं।
अतः मैं आपको सादरनमस्कार करता हूँ।
"
त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्माकूटस्थ आदिपुरुषो भगवांस्त्रयधीश: ।
यहुद्धय॒वस्थितिमखण्डितया स्वदृष्टयाद्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से ॥
१५॥
त्वमू-तुम; नित्य--शाश्वत; मुक्त--मुक्त; परिशुद्ध--विशुद्ध; विबुद्ध:--ज्ञान से पूर्ण; आत्मा--परमात्मा; कूट-स्थ:--परिवर्तनरहित; आदि--मूल; पुरुष:--पुरुष; भगवान्--छह ऐश्वर्यों से पूर्ण, भगवान्; त्रि-अधीश: --तीनों गुणों के स्वामी;यत्--जहाँ से; बुद्धि-- बौद्धिक कार्यो का; अवस्थितिम्--समस्त अवस्थाएँ; अखण्डितया--अखंडित, पूर्ण; स्व-दृष्या--दिव्यइृष्टि द्वारा; द्रष्टा--साक्षी; स्थितौ--( ब्रह्माण्ड ) के पालनार्थ; अधिमखः --समस्त यज्ञों के भोक्ता; व्यतिरिक्त:--भिन्न-भिन्नप्रकार से; आस्से--स्थित हो |
है भगवन्, अपनी अखंड दिव्य चितवन से आप बौद्धिक कार्यों की समस्त अवस्थाओं केपरम साक्षी हैं।
आप शाश्वत-मुक्त हैं, आप शुद्ध सत्व में विद्यमान रहते हैं और अपरिवर्तित रूप मेंपरमात्मा में विद्यमान हैं।
आप छह ऐश्वर्यों से युक्त आदि भगवान् हैं और भौतिक प्रकृति के तीनोंगुणों के शाश्वत स्वामी हैं।
इस प्रकार आप सामान्य जीवात्माओं से सदैव भिन्न रहते हैं।
विष्णु रूप में आप सारे ब्रह्माण्ड के कार्यो का लेखा-जोखा रखते हैं, तो भी आप पृथक् रहते हैं औरसमस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।
"
यस्मिन्विरुद्धगतयो हानिशं पतन्तिविद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात् ।
तद्गह्म विश्वभववमेकमनन्तमाद्य-मानन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये ॥
१६॥
यस्मिनू--जिसमें; विरुद्ध-गतयः--विरोधी स्वभाव का; हि--निश्चय ही; अनिशम्--सदैव; पतन्ति-- प्रकट हैं; विद्या-आदयः--ज्ञान तथा अविद्या इत्यादि; विविध--विभिन्न; शक्तय: --शक्तियाँ; आनुपूर्व्यात्--सतत; तत्--उस; ब्रह्म--ब्रहा;विश्व-भवम्--भौतिक उत्पत्ति का कारण; एकम्--एक; अनन्तम्--अपार; आद्यम्--आदि; आनन्द-मात्रमू--केवलआनन्दमय; अविकारम्--अपरिवर्तित; अहम्--मैं; प्रपद्ये--नमस्कार करता हूँ।
हे भगवन्, ब्रह्म के आप के निर्गुण प्राकट्य में सदैव दो विरोधी तत्त्व रहते हैं--ज्ञान तथाअविद्या।
आपकी विविध शक्तियाँ निरन्तर प्रकट होती हैं, किन्तु निर्गुण ब्रह्म, जो अविभाज्य,आदि, अपरिवर्तित, असीम तथा आनन्दमय है, भौतिक जगत का कारण है।
चूँकि आप वहीनिर्गुण ब्रह्म हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
"
सत्याशिषो हि भगवंस्तव पादपदा-माशीस्तथानुभजत:ः पुरुषार्थमूत्ते: ।
अप्येवमर्य भगवान्परिपाति दीनान्वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोस्मान् ॥
१७॥
सत्य--वास्तविक; आशिष:--अन्य आशीर्वादों ( बरों ) की तुलना में; हि--निश्चय ही; भगवन्--हे भगवन्; तब--तुम्हारा;पाद-पदाम्--चरणकमल; आशी: --वर; तथा--उस प्रकार से; अनुभजत:ः--भक्तों के लिए; पुरुष-अर्थ--जीवन के वास्तविकलक्ष्य का; मूर्ति:--साक्षात्: अपि--यद्यपि; एवम्--इस प्रकार; अर्य-हे श्रेष्ठ; भगवान्-- श्री भगवान्; परिपाति--पालन करताहै; दीनान्ू--दीनों का; वाश्रा--गाय; इब--के समान; वत्सकम्--बछड़े को; अनुग्रह--कृपा करने के लिए; कातर:--उत्सुक;अस्मान्ू--मुझ पर
हे भगवन्, हे परमेश्वर, आप सभी वरों के परम साक्षात् रूप हैं, अतः जो बिना किसीकामना के आपकी भक्ति पर दृढ़ रहता है, उसके लिए राजा बनने तथा राज करने की अपेक्षाआपके चरण-कमलों की रज श्रेयस्कर है।
आपके चरणकमल की पूजा का यही वरदान है।
आप अपनी अहैतुकी कृपा से मुझ जैसे अज्ञानी भक्त के लिए पूर्ण परिपालक हैं, जिस प्रकारगाय अपने नवजात बछड़े को दूध पिलाती है और हमले से उसकी रक्षा करके उसकी देखभालकरती है।
"
मैत्रेय उवाचअथाभिष्ठृत एवं बै सत्सड्डूल्पेन धीमता ।
भृत्यानुरक्तो भगवान्प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥
१८॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; अथ--तब; अभिष्ठटृतः --पूजा किये जाने पर; एवम्--इस प्रकार; बै--निश्चय ही; सत्-सड्जूल्पेन--ध्रुव महाराज द्वारा, जिनके हृदय में उत्तम आकाक्षाएँ थीं; धी-मता--अत्यधिक बुद्धिमान होने से; भृत्य-अनुरक्त:--भक्त के प्रति अनुकूल; भगवान्-- भगवान् ने; प्रतिनन्द्य--उसको बधाई देकर; इृदम्--यह; अब्नवीत्--कहा |
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, जब सद्ठिचारों से पूर्ण अन्तःकरण वाले श्रुव महाराज नेअपनी प्रार्थना समाप्त की तो अपने भक्तों तथा दासों पर अत्यन्त दयालु भगवान् ने उन्हें बधाई दी और इस प्रकार कहा।
"
श्रीभगवानुवाचवेदाहं ते व्यवसितं हदि राजन्यबालक ।
तत्प्रयच्छामि भद्गं ते दुरापमपि सुत्रत ॥
१९॥
श्री-भगवान् उबाच-- श्रीभगवान् ने कहा; वेद-- जानता हूँ; अहम्--मैं; ते--तुम्हारा; व्यवसितम्--हृढ संकल्प; हदि--हृदय केभीतर; राजन्य-बालक-हे राजा के पुत्र; तत्--वह; प्रयच्छामि--तुम्हें दूँगा; भद्रमू--समस्त कल्याण; ते-- तुमको; दुरापमू--यद्यपि प्राप्त करना कठिन है, दुर्लभ; अपि--तो भी; सु-ब्रत--जिसने पवित्र व्रत धारण कर रखा है।
भगवान् ने कहा : हे राजपुत्र ध्रुव, तुमने पवित्र व्रतों का पालन किया है और मैं तुम्हारीआन्तरिक इच्छा भी जानता हूँ।
यद्यपि तुम अत्यन्त महत्वाकांक्षी हो और तुम्हारी इच्छा को पूराकर पाना कठिन है, तो भी मैं उसे पूरा करूँगा।
तुम्हारा कल्याण हो।
"
नान्यैरथिष्ठितं भद्र यद्भ्राजिष्णु ध्रुवक्षितियत्र ग्रहर्क्षताराणां ज्योतिषां चक्रमाहितम् ।
मेढ्यां गोचक्रवत्स्थास्नु परस्तात्कल्पवासिनाम् ॥
२०॥
धर्मोडग्नि: कश्यप: शुक्रो मुनयो ये वनौकस: ।
चरन्ति दक्षिणीकृत्य भ्रमन्तो यत्सतारका: ॥
२१॥
न--नहीं; अन्यैः --अन्यों के द्वारा; अधिष्ठितम्ू--शासित; भद्ग--मेंरे अच्छे बालक; यत्--जो; भ्राजिष्णु--देदीप्यमान; श्रुव-क्षिति-- शुवलोक नामक स्थान; यत्र--जहाँ; ग्रह--ग्रह; ऋक्ष--तारापुंज; ताराणाम्ू--तथा तारे; ज्योतिषाम्--नक्षत्रों से;चक्रमू--चक्कर; आहितम्--किया जाता है; मेढ्याम्--केन्द्रीय दण्ड के चारों ओर; गो--बैलों का; चक्र--झुंड; वत्--सदश;स्थास्नु--स्थिर; परस्तातू--परे; कल्प--ब्रह्म का एक दिन ( कल्प ); वासिनामू--रहेन वालों का; धर्म:--धर्म; अग्नि: --अग्नि; कश्यप:--कश्यप; शुक्र :--शुक्र; मुन॒य:ः -- मुनिगण; ये--जो सभी; वन-ओकस: --जंगल में रहकर; चरन्ति--चलतेहैं; दक्षिणी-कृत्य--अपनी दायीं ओर करके; भ्रमन्तः--प्रदक्षिणा लगाते हुए; यत्--जो ग्रह; सतारकाः:--समस्त तारों सहित |
भगवान् ने आगे कहा : हे श्वुव, मैं तुम्हें ध्रुव नामक देदीप्यमान ग्रह प्रदान करूँगा जोकल्पान्त में प्रलय के बाद भी अस्तित्व में रहेगा।
अभी तक उस ग्रह में किसी ने राज्य नहीं कियाहै; तथा वह समस्त सौर मण्डल, ग्रहों तथा नक्षत्रों से घिरा हुआ है।
आकाश में सभी ज्योतिष्कइसी ग्रह की प्रदक्षिणा करते हैं, जिस प्रकार कि अनाज को कूटने के लिए सारे बैल एककेन्द्रीय लट्टे के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।
धर्म, अग्नि, कश्यप तथा शुक्र जैसे ऋषियों द्वाराबसाये गये सभी तारे श्रुवतारे को अपनी दाईं ओर रखकर उसकी परिक्रमा करते हैं, जो अन्यों केविनष्ट हो जाने पर भी इसी प्रकार बना रहता है।
"
प्रस्थिते तु बन पित्रा दत्त्वा गां धर्मसंश्रयः ।
घदटिंत्रशद्वर्षसाहस्त्रं रक्षिताव्याहतेन्द्रिय:ः ॥
२२॥
प्रस्थिते--प्रस्थान के पश्चात्; तु--लेकिन; वनम्--जंगल को; पित्रा--तुम्हारे पिता द्वारा; दत्त्वा--देकर; गाम्--सम्पूर्ण जगत;धर्म-संभ्रयः--धर्मपूर्वक; षट्-त्रिंशत्--छत्तीस; वर्ष--वर्ष, साल; साहस्त्रमू--एक हजार; रक्षिता--राज्य करोगे; अव्याहत--बिना नाश के; इन्द्रियः--इन्द्रियों की शक्ति |
जब तुम्हारे पिता तुम्हें अपने राज्य का शासन देकर जंगल के लिए प्रस्थान करेंगे तो तुमलगातार छत्तीस हजार वर्षो तक सारे संसार पर राज्य करोगे और तुम्हारी सारी इन्द्रियाँ उतनी हीशक्तिशाली बनी रहेंगी जितनी कि वे आज हैं।
तुम कभी वृद्ध नहीं होगे।
"
त्वद्नातर्युत्तमे नष्टे मृगयायां तु तन््मना: ।
अन्वेषन्ती वनं माता दावागिनि सा प्रवेक्ष्यति ॥
२३॥
त्वत्-तुम्हारा; भ्रातरि-- भ्राता; उत्तमे--उत्तम; नष्टे--मारे जाने पर; मृगयायाम्--शिकार में; तु--तब; ततू-मना:--अत्यन्तशोकाकुल; अन्वेषन्ती--ढूँढते हुए; वनम्ू--जंगल में; माता--माता; दाव-अग्निमू--जंगल की अग्नि में; सा--वह;प्रवेक्ष्यति--प्रवेश करेगी
भगवान् ने आगे कहा : निकट भविष्य में तुम्हारा भाई उत्तम जंगल में शिकार करने जाएगाऔर जब वह शिकार में मग्न रहेगा तो मार डाला जाएगा।
तुम्हारी विमाता सुरुचि अपने पुत्र कीमृत्यु से पागल होकर उसकी खोज करने जंगल में जाएगी, किन्तु वहाँ वह दावाग्नि में मारीजाएगी।
"
इष्टा मां यज्ञहदयं यज्जैः पुष्कलद॒क्षिणै: ।
भुक्त्वा चेहाशिष: सत्या अन्ते मां संस्मरिष्यसि ॥
२४॥
इश्ला--पूजा करके; माम्--मुझको; यज्ञ-हदयम्--समस्त यज्ञों का हृदय; यज्जैः--महान् यज्ञों से; पुष्कल-दक्षिणै: -- प्रभूत दानवितरित करके; भुक्त्वा-- भोग करने के पश्चात्; च--भी; इह--इस संसार में; आशिष:--आशीर्वाद; सत्या:--सच, सही;अन्ते--अन्त में; माम्--मुझको; संस्मरिष्यसि--स्मरण करने में समर्थ होगे।
भगवान् ने आगे कहा : मैं समस्त यज्ञों का हृदय हूँ।
तुम अनेक बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न करोगेऔर प्रचुर दान भी दोगे।
इस प्रकार तुम इस जीवन में भौतिक सुख के वरदान को भोग सकोगेऔर अपनी मृत्यु के समय तुम मेरा स्मरण कर सकोगे।
"
ततो गन्तासि मत्स्थानं सर्वलोकनमस्कृतम् ।
उपरिष्टादषिभ्यस्त्वं यतो नावर्तते गत: ॥
२५॥
ततः--तत्पश्चात्; गन्ता असि--तुम जाओगे; मत्-स्थानम्--मेरे धाम को; सर्व-लोक--समस्त लोकों द्वारा; नम:-कृतम्ू--वन्दनीय होकर; उपरिष्टात्ू--ऊपर स्थित; ऋषिभ्य:--ऋषियों के लोकों की अपेक्षा; त्वम्--तुम; यतः--जहाँ से; न--कभीनहीं; आवर्तते--वापस आओगे; गत:--वहाँ जा करके |
भगवान् ने आगे कहा : हे ध्रुव, इस देह में अपने भौतिक जीवन के पश्चात् तुम मेरे लोक कोजाओगे जो अन्य समस्त लोकों के वासियों द्वारा सदैव वंदनीय है।
यह सप्त-ऋषि के लोकों केऊपर स्थित है और वहाँ जाने के बाद तुम को इस भौतिक जगत में फिर कभी नहीं लौटनापड़ेगा।
"
मैत्रेय उवाचइत्यचितः स भगवानतिदिश्यात्मनः पदम् ।
बालस्य पश्यतो धाम स्वमगादगरुडध्वज: ॥
२६॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा; इति--इस प्रकार; अर्चितः --सम्मानित एवं पूजित होकर; सः--परमे श्वर; भगवान् --भगवान्; अतिदिश्य-- प्रदान करके; आत्मन:--अपना; पदम्--वासस्थान; बालस्य--जबकि बालक; पश्यतः --देख रहा था;धाम--उनके धाम को; स्वमू--अपनी, निजी; अगात्--वे लौट गये; गरुड-ध्वज: -- भगवान् विष्णु जिनकी ध्वजा में गरुड़ काचिह्न है।
मैत्रेय मुनि ने कहा : बालक श्रुव महाराज द्वारा पूजित तथा सम्मानित होकर और उन्हें अपनाधाम देकर भगवान् विष्णु गरुड़ की पीठ पर चढ़ कर श्लुव के देखते-देखते अपने धाम को चलेगये।
"
सोपि सड्डूल्पजं विष्णो: पादसेवोपसादितम् ।
प्राप्य सड्डूल्पनिर्वाणं नातिप्रीतो भ्यगात्पुरम् ॥
२७॥
सः--वह ( ध्रुव ); अपि--यद्यपि; सट्लूल्प-जम्--वांछित फल; विष्णो:--विष्णु का; पाद-सेवा--चरणकमल की सेवा करके;उपसादितम्-प्राप्त किया; प्राप्य--प्राप्त करके ; सड्डूल्प--अपने हढ़ निश्चय का; निर्वाणम्--संतुष्टि; न--नहीं; अतिप्रीत:--अत्यधिक प्रसन्न; अभ्यगात्--वापस गया; पुरमू--अपने घर को
भगवान् के चरण-कमलों की उपासना द्वारा अपने संकल्प का मनवांछित फल प्राप्त करकेभी श्रुव महाराज अत्यधिक प्रसन्न नहीं हुए।
तब वे अपने घर चले गए।
"
विदुर उबाचसुदुर्लभं यत्परमं पदं हरे-मायाविनस्तच्चरणार्चनार्जितम् ।
लब्ध्वाप्यसिद्धार्थमिवैकजन्मना कथं स्वमात्मानममन्यतार्थवित् ॥
२८ ॥
विदुर: उबाच--विदुर ने पूछा; सुदुर्लभम्--अत्यन्त दुर्लभ; यत्--जो; परमम्--परम; पदम्--पद, स्थान; हरेः-- भगवान् का;माया-विन:--अत्यन्त वत्सल; तत्--उसके; चरण---चरणकमल; अर्चन--पूजन के द्वारा; अर्जितम्--उपलब्ध; लब्ध्वा--प्राप्तकरके; अपि--यद्यपि; असिद्ध-अर्थम्--अपूर्ण; इब--मानो; एक-जन्मना--एक जीवन काल में; कथम्--क््यों; स्वम्--अपना; आत्मानम्--हृदय; अमन्यत-- अनुभव किया; अर्थ-वित्--अत्यन्त चतुर होने से |
श्री विदुर ने पूछा : हे ब्राह्मण, भगवान् का धाम प्राप्त करना बहुत कठिन है।
इसे केवलशुद्ध भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि अत्यन्त वत्सल तथा कृपालु भगवान् केवलउसी से प्रसन्न होते हैं।
ध्रुव महाराज ने इस पद को एक ही जीवन में प्राप्त कर लिया और वे थेभी बहुत बुद्धिमान और विवेकी।
तो फिर वे प्रसन्न क्यों न थे ?"
मैत्रेय उवाचमातुः सपत्या वाग्बाणैईदि विद्धस्तु तान्स्मरन् ।
नैच्छन्मुक्तिपतेर्मुक्ति तस्मात्तापमुपेयिवान् ॥
२९॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने उत्तर दिया; मातु:--अपनी माता की; स-पत्या:--सौत के; वाक्-बाणै:--कटु वचनों के तीरोंसे; हृदि--हृदय में; विद्ध:ः--धँसा हुआ; तु--तब; तानू--उन सबको; स्मरन्ू--स्मरण करते हुए; न--नहीं; ऐच्छत्--इच्छा की;मुक्ति-पतेः-- भगवान् से, जिनके चरणकमल मुक्ति प्रदाता हैं; मुक्तिम्ू--मोक्ष; तस्मात्ू--अत:; तापम्--शोक; उपेयिवानू--प्राप्त हुआ।
मैत्रेय ने उत्तर दिया : ध्रुव महाराज का हृदय, जो अपनी विमाता के कटु वचनों के बाणों सेबिद्ध हो चुका था, अत्यधिक संतप्त था; अतः जब उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारितकिया, तो वे उसके दुर्व्यवहार को नहीं भूल पाये थे।
उन्होंने इस भौतिक जगत से वास्तविक मोक्ष की माँग नहीं की, वरन् अपनी भक्ति के अन्त में, जब भगवान् उनके समक्ष प्रकट हुए तोवे अपनी उन भौतिक याचनाओं (माँगों) के लिए लज्जित थे, जो उनके मन में थीं।
"
श्रुव उवाचसमाधिना नैकभवेन यत्पदंविदुः सनन्दादय ऊर्ध्वरितसः ।
मासैरहं षड़्भिरमुष्य पादयो-इछायामुपेत्यापगतः पृथड्मति: ॥
३०॥
श्रुव: उबाच-- ध्रुव महाराज ने कहा; समाधिना--समाधि में योग अभ्यास द्वारा; न--कभी नहीं; एक-भवेन--एक जन्म से;यतू्--जो; पदम्ू--पद, स्थिति; विदु:--समझ गया; सनन्द-आदय: --सनन्दन इत्यादि चारों ब्रह्मचारी; ऊर्ध्व-रेतस:--अच्युतब्रह्मचारी; मासैः--महीनों में; अहम्--मैं; षड़िभः --छह; अमुष्य--उनके ; पादयो:--चरणकमलों का; छायामू--आश्रय,शरण; उपेत्य-- प्राप्त करके; अपगत:--गिर पड़ा; पृथक्-मतिः -- भगवान् के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं पर स्थित मेरा मन।
ध्रुव महाराज ने मन ही मन सोचा--भगवान् के चरणकमलों की छाया में स्थित रहने काप्रयतल करना कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि सनन््दन इत्यादि जैसे महान् ब्रह्मचारियों ने भी,जिन्होंने समाधि में अष्टांग योग की साधना की, अनेक जन्मों के बाद ही भगवान् के चरणारविन्दकी शरण प्राप्त की है।
मैंने तो छह महीनों में ही वही फल प्राप्त कर लिया है, तो भी मैं भगवान्से भिन्न प्रकार से सोचने के कारण मैं अपने पद से नीचे गिर गया हूँ।
"
अहो बत ममानात्म्य॑ मन्दभाग्यस्य पश्यत ।
भवच्छिद: पादमूलं गत्वा याचे यदन्तवत् ॥
३१॥
अहो--अहो; बत--हाय; मम--मेरा; अनात्म्यम्ू--देहात्म बोध; मन्द-भाग्यस्य--अभागे का; पश्यत--जरा देखो तो; भव--भौतिक अस्तित्व; छिदः--छिन्न कर सकने वाले भगवान् के; पाद-मूलमू--चरणकमल के; गत्वा--पास जाकर; याचे-- मैंनेयाचना की; यत्--वह जो; अन्त-वत्--नाशवान
ओह! जरा देखो तो; मैं कितना अभागा हूँ! मैं उन भगवान् के चरणकमलों से पास पहुँचगया जो जन्म-मरण के चक्र की श्रृंखला को तुरन्त काट सकते हैं, किन्तु फिर भी अपनी मूर्खताके कारण, मैने ऐसी वस्तुओं की याचना की, जो नाशवान् हैं।
"
मतिर्विदूषिता देवै: पतद्धिरसहिष्णुभि: ।
यो नारदवच्स्तथ्यं नाग्राहिषमसत्तम: ॥
३२॥
मतिः--बुद्धि; विदूषिता--दूषित, कल्मष- ग्रस्त; देवै:--देवताओं द्वारा; पतद्धि:--गिरनेवाले के द्वारा; असहिष्णुभि: --असहनशील द्वारा; यः--मैं जो; नारद--नारद मुनि के; वच:ः--उपदेशों का; तथ्यम्--सत्य; न--नहीं; अग्राहिषम्--स्वीकारकिया; असतू-तमः--सर्वाधिक दुष्ट
चूँकि सभी देवताओं को, जो उच्च लोकों में स्थित हैं, फिर से नीचे आना होगा, अतः वेसभी भक्ति द्वारा मेरे विष्णुलोक को प्राप्त करने के प्रति ईर्ष्यालु हैं।
इन असहिष्णु देवताओं नेमेरी बुद्धि नष्ट कर दी है और यही एकमात्र कारण है, जिससे मैं नारदमुनि के उपदेशों केआशीर्वाद को स्वीकार नहीं कर सका!" दैवीं मायामुपाश्रित्य प्रसुप्त इव भिन्नहक् ।
तप्ये द्वितीयेउप्यसति भ्रातृभ्रातृव्यहद्रुजा ॥
३३॥
दैवीम्-- भगवान् की; मायाम्--माया; उपाश्रित्य--शरण ग्रहण करके; प्रसुप्तः:--निद्रा में स्वप्न देखता; इब--सहश्य; भिन्न-हक्--विलग दृष्टि वाला; तप्ये--मैंने पश्चात्ताप किया; द्वितीये--माया में; अपि---यद्यपि; असति--क्षणिक; भ्रातृ- भाई;भ्रातृव्य--शत्रु; हत्ू--हृदय के भीतर; रुजा--पक्षात्ताप से।
ध्रुव महाराज पश्चात्ताप करने लगे कि मैं माया के वश में था; वास्तविकता से अपरिचितहोने के कारण मैं उसकी गोद में सोया था।
द्वैत दृष्टि के कारण मैं अपने भाई को शत्रु समझतारहा और झूठे ही यह सोचकर मन ही मन पश्चात्ताप करता रहा कि वे मेरे शत्रु हैं।
"
मयैतत्ार्थितं व्यर्थ चिकित्सेव गतायुषिप्रसाद्य जगदात्मानं तपसा दुष्प्रसादनम् ।
भवच्छिदमयाचेहं भवं भाग्यविवर्जित: ॥
३४॥
मया--मेरे द्वारा; एतत्--यह; प्रार्थितम्--के लिए प्रार्थना किया गया; व्यर्थम्--वृथा ही; चिकित्सा--उपचार; इब--सहश;गत--समाप्त; आयुषि--उसके लिए जिसकी आयु; प्रसाद्य--तुष्ट करके ; जगत्-आत्मानम्--ब्रह्मण्ड की आत्मा; तपसा--तपस्या से; दुष्प्रसादनम्--जिसे प्रसन्न कर पाना कठिन है; भव-छिदम्-- भगवान् जो जन्म तथा मृत्यु की श्रृंखला को काटने मेंसमर्थ हैं; अयाचे--याचना की; अहम्--मैंने; भवम्--जन्म तथा मृत्यु की आवृत्ति; भाग्य--भाग्य; विवर्जित: --रहित, हीन
भगवान् को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु मैंने तो समस्त ब्रह्माण्ड के परमात्माको प्रसन्न करके भी अपने लिए व्यर्थ की वस्तुएँ माँगी हैं।
मेरे कार्य ठीक वैसे ही हैं जैसे पहले सेकिसी मृत व्यक्ति का उपचार करना।
जरा देखो तो मैं कितना अभागा हूँ कि जन्म तथा मृत्यु कीश्रृंखला को काटने में समर्थ परमेश्वर से साक्षात्कार कर लेने पर भी मैंने फिर उन्हीं दशाओं के लिए पुनः प्रार्थना की है!" स्वाराज्यं यच्छतो मौढ्यान्मानो मे भिक्षितो बत ।
ईश्वरात्क्षीणपुण्येन फलीकारानिवाधन: ॥
३५॥
स्वाराज्यम्--उनकी भक्ति; यच्छत:--भगवान् से, जो देने के लिए इच्छुक थे; मौढ्यात्--मूर्खता से; मान:--सम्पन्नता; मे--मेरेद्वारा; भिक्षित:--याचित; बत--ओह; ईश्वरात्-महान् सम्राट से; क्षीण--घटा हुआ; पुण्येन--जिसके पवित्र कर्म; फली-कारानू--चावल के टूटन, कना; इब--सहश; अधनः--निर्धन मनुष्य |
पूरी तरह अपनी मूर्खता और पुण्यकर्मो की न््यूनता के कारण ही मैंने भौतिक नाम, यशतथा सम्पन्नता चाही यद्यपि भगवान् ने मुझे अपनी निजी सेवा प्रदान की थी।
मेरी स्थिति तो उसनिर्धन व्यक्ति की-सी है, जिस बेचारे ने महान् सप्राट के प्रसन्न होने पर मुँहमाँगी वस्तु माँगने केलिए कहे जाने पर अज्ञानवश चावल के कुछ कने ही माँगे।
"
सतण उजायन वै मुकुन्दस्य पदारविन्दयोरजोजुषस्तात भवाहशा जना: ।
वाञ्छन्ति तद्दास्यमृतेर्थमात्मनोयहच्छया लब्धमन:समृचब्द्यः ॥
३६॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; न--कभी नहीं; बै--निश्चय ही; मुकुन्दस्य-- भगवान् का, जो मुक्ति देनेवाले हैं; पद-अरविन्दयो:--चरणकमलों का; रज:-जुष:--जो लोग धूल का स्वाद लेने के लिए इच्छुक हैं; तात--हे विदुर; भवाहशा: --आपके तुल्य; जना: --व्यक्ति; वाउ्छन्ति--कामना करते हैं; तत्--उसका; दास्यमू--दासता; ऋते--बिना; अर्थम्--स्वार्थ;आत्मन:--अपने लिए; यह्च्छया-- स्वतः; लब्ध--जितना प्राप्त हो उसी से; मनः-समृद्धयः--अपने आपको धनी समझते हुए
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, आप जैसे व्यक्ति, जो मुकुन्द ( मुक्तिप्रदाता भगवान् )के चरणकमलों के विशुद्ध भक्त हैं और उनके चरणकमलों में भौंरों के सहश्य आसक्त रहते हैं,सदैव भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने में ही प्रसन्न रहते हैं।
ऐसे पुरुष, जीवन की किसीभी परिस्थिति में संतुष्ट रहते हैं और भगवान् से कभी भी किसी भौतिक सम्पन्नता की याचनानहीं करते।
"
आकर्णयत्मजमायान्तं सम्परेत्य यथागतम् ।
राजा न श्रद्दधे भद्रमभद्ग॒स्य कुतो मम ॥
३७॥
आकर्णरय--सुनकर; आत्म-जम्--अपना पुत्र; आयान्तम्--आते हुए; सम्परेत्य--मरने के बाद; यथा--जिस प्रकार; आगतम्--वापस आया हुआ; राजा--राजा उत्तानपाद; न--नहीं; श्रदधधे--विश्वास हुआ; भद्गरमू--कल्याण; अभद्रस्थ--अशुभ का;कुतः--कहाँ से; मम--मेरा |
जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उसका पुत्र ध्रुव घर वापस आ रहा है, मानो मृत्यु के पश्चात्पुनर्जीवित हो रहा हो, तो उसे इस समाचार पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उसे सन्देह था कि यहहो कैसे सकता है।
उसने अपने को अत्यन्त अभागा समझ लिया था, अतः उसने सोचा कि ऐसासौभाग्य उसे कहाँ नसीब हो सकता है ?"
श्रद्धाय वाक्यं देवरषेईर्षवेगेन धर्षित: ।
वार्ताहर्तुरतिप्रीतो हारं प्रादान्महाधनम् ॥
३८ ॥
श्रद्धाय-- श्रद्धा रखकर; वाक्यम्--वचनों में; देवर्षे: --नारद मुनि के; हर्ष-वेगेन--परम संतोष से; धर्षित:--भावविभोरहोकर; वार्ता-हर्तु:--समाचार लानेवाले से; अतिप्रीत:-- अत्यन्त प्रसन्न होकर; हारमू--मोती की माला; प्रादात्ू--प्रदान किया;महा-धनम्-- अत्यन्त मूल्यवान।
यद्यपि उसे सन्देशवाहक की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, किन्तु महर्षि नारद के वचन परउसकी सम्पूर्ण श्रद्धा थी।
अत: वह इस समाचार से अत्यन्त भावविहलल हो उठा और हर्षातिरेक मेंझट उसने संदेशवाहक को एक बहुमूल्य हार भेंट कर दिया।
"
सदश्च॑ं रथमारुह्म कार्तस्वरपरिष्कृतम् ।
ब्राह्मणै: कुलवृद्धैश्व पर्यस्तोमात्यबन्धुभि: ॥
३९॥
शद्डुदुन्दुभिनादेन ब्रह्मघोषेण वेणुभि: ।
निश्चक्राम पुरात्तूर्णमात्मजाभीक्षणोत्सुक: ॥
४०॥
सत्-अश्वम्--सुन्दर घोड़ों द्वारा खींचा जानेवाला; रथम्--रथ पर; आरुह्म--चढ़ कर; कार्तस्वर-परिष्कृतम्--सुवर्णजटित;ब्राह्मणैः--ब्राह्मणों के साथ; कुल-वृद्धैः--परिवार के बूढ़े लोगों के साथ; च--भी; पर्यस्त:--घिरकर; अमात्य--अधिकारियोंतथा मंत्रियों द्वारा; बन्धुभि: --तथा मित्रों से; शद्भ--शंख; दुन्दुभि--तथा दुन्दुभी की; नादेन--ध्वनि से; ब्रहय-घोषेण--वैदिकमंत्रों के उच्चारण से; वेणुभि:--वंशी से; निश्चक्राम--बाहर आया; पुरातू--नगर से; तूर्णम्--शीघ्रता से; आत्म-ज--पुत्र को;अभीक्षण--देखने के लिए; उत्सुक: --अत्यन्त इच्छुक |
अपने खोये हुए पुत्र के मुख को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक राजा उत्तानपाद उत्तम घोड़ोंसे खींचे जानेवाले तथा स्वर्णजटित रथ पर आरूढ़ हुआ।
वह अपने साथ अनेक दिद्वान् ब्राह्मण,परिवार के गुरुजन, अपने अधिकारी तथा मंत्री और अपने सगे मित्रों को लेकर तुरन्त नगर सेबाहर चला गया।
जब वह इस दल के साथ आगे बढ़ रहा था, तो शंख, दुन्दुभी, वंशी तथा वेद-मंत्रों के उच्चारण की मंगलसूचक ध्वनि हो रही थी।
"
सुनीतिः सुरुचिश्वास्य महिष्यौ रुक्मभूषिते ।
आरुह्म शिबिकां सार्धमुत्तमेनाभिजग्मतु: ॥
४१॥
सुनीति:ः--सुनीति; सुरुचि: --सुरुचि; च-- भी; अस्य--राजा की; महिष्यौ--रानियाँ; रुक्म-भूषिते--स्वर्ण आभूषणों सेविभूषित; आरुह्म --चढ़कर; शिवबिकाम्--पालकी में; सार्धम्--के साथ साथ; उत्तमेन--राजा का अन्य पुत्र; अभिजम्मतु:--सभी साथ-साथ गये।
उस स्वागत-यत्रा में राजा उत्तानपाद की दोनों रानियाँ, सुनीति तथा सुरुचि और राजा कादूसरा पुत्र उत्तम दिख रहे थे।
रानियाँ पालकी में बैठी थीं।
"
त॑ दृष्टोपवनाभ्याश आयान्तं तरसा रथात् ।
अवसुद्य नृपस्तूर्णमासाद्य प्रेमविह्ल: ॥
४२॥
परिरेभेडड्गजं दोर्भ्या दीर्घोत्कण्ठमना: श्वसन् ।
विष्वक्सेनाड्प्रिसंस्पर्शहताशेषाघबन्धनम् ॥
४३ ॥
तम्--उसको ( ध्रुव महाराज को ); हृष्ला--देखकर; उपवन--छोटा जंगल; अभ्याशे--निकट; आयान्तम्--लौटते हुए; तरसा--तेजी से; रथात्--रथ से; अवरुह्म--उतर कर; नृप:--राजा; तूर्णम्--तुरन््त; आसाद्य--निकट आकर; प्रेम--प्रेम से; विहल: --विभोर; परिरेभे--आलिंगन किया; अड्ड-जम्--अपने पुत्र को; दोर्भ्याम्ू--अपनी बाँहों से; दीर्घ--दीर्घ समय तक; उत्कण्ठ--उत्सुक; मनाः:--जिसका मन, राजा; श्रसन्--तेजी से साँस लेता; विष्वक्सेन-- भगवान् के; अद्धप्रि--चरणकमल से; संस्पर्श--स्पर्श किया जाकर; हत--नष्ट; अशेष-- अनन्त; अघध-- भौतिक कल्मष; बन्धनम्--जिसका बन्धन।
ध्रुव महाराज को एक उपवन के निकट पहुँचा देखकर राजा उत्तानपाद तुरन्त अपने रथ सेनीचे उतर आये।
वे अपने पुत्र श्रुव को देखने के लिए दीर्घकाल से अत्यन्त उत्सुक थे, अतः वेअत्यन्त प्रेमवश दीर्घकाल से खोये अपने पुत्र का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़े।
लम्बी-लम्बी साँसें भरते हुए राजा ने उनको अपने दोनों बाहुओं में भर लिया।
किन्तु ध्रुव महाराज पहलेजैसे न थे; वे भगवान् के चरणकमलों के स्पर्श से आध्यात्मिक उन्नति मिलने से पूर्ण रूप सेपवित्र हो चुके थे।
"
अथाजिपष्रन्मुहर्मूर्थिन शीतैर्नयनवारिभि: ।
स्नापयामास तनयं जातोद्मममनोरथ: ॥
४४॥
अथ--त्पश्चात्; आजिप्रन्--सूँघते हुए; मुहुः--बारम्बार; मूर्धिन--सिर पर; शीतैः--ठंडे; नयन--नेत्रों के; वारिभि:--जल से;स्नापयाम् आस--नहला दिया; तनयम्--पुत्र को; जात--पूर्ण; उद्यम--बड़ी; मनः-रथ: --उसकी कामना
श्रुव महाराज के मिलन से राजा उत्तानपाद की चिर-अभिलषित साध पूरी हुई, अतः उन्होंनेबारम्बार ध्रुव का सिर सूँघा और अपने ठंडे अश्रुओं की धाराओं से उन्हें नहला दिया।
"
अभिवन्द्य पितु: पादावाशीर्भिश्चाभिमन्त्रित: ।
ननाम मातरौ शीर्ष्णा सत्कृतः सज्जनाग्रणी: ॥
४५॥
अभिवन्द्य-पूजा करके; पितु:--अपने पिता के; पादौ--चरणों को; आशीर्मि: --आशीर्वादों से; च--तथा; अभिमन्त्रित:--सम्बोधित; ननाम--झुकाया; मातरौ--दोनों माताओं को; शीर्ष्णा--अपने सिर से; सत्-कृतः--आदर किया गया; सत्-जन--सज्ननों के; अग्रणी: --सर्व श्रेष्ठ |
तब समस्त सजनों में सर्वश्रेष्ठ श्ुव महाराज ने सर्वप्रथम अपने पिता के चरणों में प्रणामकिया और उनके पिता ने अनेक प्रश्न पूछते हुए उनका सम्मान किया।
तब उन्होंने अपनी दोनोंमाताओं के चरणों पर अपना सिर झुकाया।
"
सुरुचिस्तं समुत्थाप्य पादावनतमर्भकम् ।
परिष्वज्याह जीवेति बाष्पगद्गदया गिरा ॥
४६॥
सुरुचि:--सुरुचि; तम्--उस; समुत्थाप्य--उठाकर; पाद-अवनतम्--अपने चरणों पर नत; अर्भकम्--नादान बालक को;परिष्वज्य--आलिंगन करके; आह--कहा; जीव--दीर्घायु हो; इति--इस प्रकार; बाष्प--आँसुओं से; गदगदया--रुद्ध;गिरा--वाणी से
ध्रुव महाराज की छोटी माता सुरुचि ने यह देखकर कि निर्दोष बालक उसके चरणों पर नतहै, उसे तुरन्त उठा लिया, अपनी बाँहों में भर लिया और अश्रुपूर्ण गदगद वाणी से आशीर्वाददिया कि मेरे बालक, चिरज्जीवी हो।
"
यस्य प्रसन्नो भगवान्गुणैमैत्रयादिभिहरि: ।
तस्मै नमन्ति भूतानि निम्नमाप इव स्वयम् ॥
४७॥
यस्य--जिस किसी से; प्रसन्न:--प्रसन्न होता है; भगवान्-- भगवान्; गुणैः--गुणों से; मैत्री-आदिभि: --मित्रता इत्यादि से;हरिः-- भगवान् हरि; तस्मै-- उसको; नमन्ति-- नमस्कार करते हैं; भूतानि--समस्त जीवात्माएँ; निम्ममू--नीचे की ओर;आपः--जल; इब--जिस प्रकार; स्वयम्ू--स्वतः
जिस प्रकार स्वभावगत रूप से जल स्वत: नीचे की ओर बहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान्के साथ मैत्रीपूर्ण आचरण के कारण दिव्य गुणों वाले व्यक्ति को सभी जीवात्माएँ मस्तकझुकाती हैं।
"
उत्तमश्न श्रुवश्चोभावन्योन्यं प्रेमविह्नलौ ।
अड्भसड्जादुत्पुलकावस््रौघं मुहुरूहतु: ॥
४८ ॥
उत्तम: च--उत्तम भी; ध्रुवः च--ध्रुव भी; उभौ--दोनों ; अन्योन्यम्--परस्पर; प्रेम-विह्लौ--प्रेम से अभिभूत होकर; अड्र-सझ़त्--अंग-स्पर्श के आलिंगन से; उत्पुलकौ--रोमांच हो आया; असख्त्र--अश्रुओं की; ओघम्-- धारा; मुहुः --बारम्बार;ऊहतु:--आदान-प्रदान किया।
उत्तम तथा श्रुव महाराज दोनों भाइयों ने परस्पर अश्रुओं का आदान-प्रदान किया।
वे स्नेहकी अनुभूति से विभोर हो उठे और जब उन्होंने एक दूसरे का आलिंगन किया, तो उन्हें रोमांच होआया।
"
सुनीतिरस्य जननी प्राणेभ्योपि प्रियं सुतम् ।
उपगुह्ा जहावाधि तदड़स्पर्शनिर्वृता ॥
४९॥
सुनीति:--सुनीति, श्रुव की असली माता; अस्य--उसकी; जननी--माता; प्राणेभ्य:--प्राणवायु से बढ़कर; अपि-- भी;प्रियम्-प्रिय; सुतम्-पुत्र को; उपगुह्म --गले लगा कर; जहौ--त्याग दिया; आधिम्--सारा शोक; ततू-अड्ग--उसका शरीर;स्पर्श--छूकर; निर्वृता--सन्तुष्ट |
ध्रुव महाराज की असली माता सुनीति ने अपने पुत्र के कोमल शरीर को गले लगा लिया,क्योंकि वह उसे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारा था।
इस प्रकार वह सारा भौतिक शोक भूलगई, क्योंकि वह परम प्रसन्न थी।
"
पयः स्तनाभ्यां सुस्त्राव नेत्रजे: सलिलै: शिवैः ।
तदाभिषिच्यमानाभ्यां वीर वीरसुवो मुहु: ॥
५०॥
'पयः--दूध; स्तनाभ्याम्--दोनों स्तनों से; सुस्राव--बहने लगा; नेत्र-जैः--नेत्रों से; सलिलैः--अश्रुओं के द्वारा; शिवैः:--शुभ;तदा--उस समय; अभिषिच्यमानाभ्याम्-- भीग कर; वीर--हे विदुर; वीर-सुब:ः--वीर को जन्म देनेवाली माता का; मुहुः--लगातारहे विदुर, सुनीति एक वीर की माता थी।
उसके अश्रुओं ने उसके स्तनों से बहनेवाले दूध कीधारा के साथ मिलकर श्लुव महाराज के सार शरीर को भिगो दिया।
यह परम मांगलिक लक्षणथा।
"
तां शशंसुर्जना राज्ञीं दिष्टद्या ते पुत्र आर्तिहा ।
प्रतिलब्धश्िरं नष्टो रक्षिता मण्डलं भुवः ॥
५१॥
तामू--सुनीति को; शशंसु:-- प्रशंसा की; जना:--सामान्य लोग; राज्ञीमू--रानी को; दिछ्ठदय्या-- भाग्य से; ते--तुम्हारा; पुत्र:--पुत्र; आर्ति-हा--तुम्हारे समस्त कष्टों को नष्ट कर देगा; प्रतिलब्ध:--अब लौटा हुआ; चिरम्--दीर्घकाल से; नष्ट:--नष्ट;रक्षिता--रक्षा करेगा; मण्डलम्--मंडल, भू-गोलक; भुवः-- भूमि को |
राज महल के निवासियों ने रानी की इस प्रकार से प्रशंसा की : हे रानी, दीर्घकाल सेआपका प्रिय पुत्र खोया हुआ था।
यह आपका परम सौभाग्य है कि वह अब वापस आ गया है।
अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वह दीर्घकाल तक आपकी रक्षा करेगा और आपके सारे सांसारिककष्टों को दूर कर देगा।
"
अभ्यर्चितस्त्वया नूनं भगवान्प्रणतार्तिहा ।
यदनुध्यायिनो धीरा मृत्युं जिग्यु: सुदुर्जयम् ॥
५२॥
अभ्यर्चित:--पूजित; त्वया--तुम्हारे द्वारा; नूममू--फिर भी; भगवान्-- भगवान्; प्रणत-आर्ति-हा--जो अपने भक्तों को संकटसे उबार सके; यत्--जिसको; अनुध्यायिन:--निरन्तर ध्यान धरते हुए; धीरा:--परम साधु पुरुष; मृत्युमू--मृत्यु को; जिग्यु:--जीत लिया; सुदुर्जयम्--जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है|
हे रानी, आपने अवश्य ही उन भगवान् की पूजा की होगी, जो भक्तों को बड़े संकट सेउबारनेवाले हैं।
जो मनुष्य निरन्तर उनका ध्यान करते हैं, वे जन्म तथा मृत्यु की प्रक्रिया से आगेनिकल जाते हैं।
यह सिद्धि प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है।
"
लाल्यमानं जनैरेवं ध्रुवं सभ्रातरं नृप: ।
आरोप्य करिणीं हृष्ट: स्तूयमानोविशत्पुरम् ॥
५३॥
लाल्यमानम्--प्रशंसित; जनैः --जनता द्वारा; एवम्--इस प्रकार; ध्रुवम्--महाराज श्रुव को; स-भ्रातरम्--अपने भाई के साथ;नृप:--राजा; आरोप्य--चढ़ाकर; करिणीम्--हथिनी की पीठ पर; हृष्ट: --प्रसन्न; स्तूयमान:--तथा प्रशंसित होकर; अविशतू --वापस आया; पुरम्--अपनी राजधानी को
मैत्रेय मुनि ने आगे बताया : हे विदुर, सभी लोग जब इस प्रकार से श्रुव महाराज की बड़ाईकर रहे थे तो राजा अत्यन्त प्रसन्न था।
उसने श्रुव तथा उनके भाई को एक हथिनी की पीठ परसवार कराया।
इस प्रकार वह अपनी राजधानी लौट आया, जहाँ सभी वर्ग के लोगों ने उसकीप्रशंसा की।
"
तत्र तत्रोपसड्डिप्तैलंसन्मकरतोरणै: ।
सवृन्दे: कदलीस्तम्भे: पूगपोतैश्व तद्विधिः ॥
५४॥
तत्र तत्र--जहाँ तहाँ; उपसड्डिप्तैः--बनाये गये; लसत्--चमकीले; मकर--मगर के आकार के; तोरणैः--मेहराबदार दरवाजोंसे; स-वृन्दै:--फूलों तथा फलों के गुच्छों से; कदली--केले के वृक्षों के; स्तम्भेः--ख भों से; पूग-पोतैः--सुपारी के नये पौधोंसे; च-- भी; तत्ू-विधै:--उस प्रकार का।
सारा नगर केले के स्तम्भों से सजाया गया था, जिनमें फूलों तथा फलों के गुच्छे लटक रहेथे और जहाँ-तहाँ पत्तियों तथा टहनियों से युक्त सुपारी के वृक्ष दिख रहे थे।
ऐसे अनेक तोरण भी बनाये गये थे, जो मगर के आकार के थे।
"
चूतपल्लववास:स्त्रड्मुक्तादामविलम्बिभि: ।
उपस्कृतं प्रतिद्वारमपां कुम्भेः सदीपकै: ॥
५५॥
चूत-पल्ललव--आम की पत्तियों से; वास:--वस्त्र; स्रक्ू--फूल की मालाएँ; मुक्ता-दाम--मोती की लड़ें; विलम्बिभि:--'लटकती हुई; उपस्कृतम्--सुसज्जित; प्रति-द्वारम्--प्रत्येक द्वार पर; अपाम्--जल से पूर्ण; कुम्भैः--जलपात्रों से; स-दीपकै: --जलते हुए दीपों से |
द्वार-द्वार पर जलते हुए दीपक और तरह-तरह के रंगीन वस्त्र, मोती की लड़ों, पुष्पहारों तथालटकती आम की पत्तियों से सज्जित बड़े-बड़े जल के कलश रखे हुए थे।
"
प्राकारैगोंपुरागारै: शातकुम्भपरिच्छदै: ।
सर्वतोलड्डू तं श्रीमद्विमानशिखरद्युभि: ॥
५६॥
प्राकारैः--परकोटों से; गोपुर--नगर-द्वारों; आगारैः--घरों से; शातकुम्भ--सुनहले; परिच्छदैः:--अलंकृत काम से, कारीगरीसे; सर्वतः--चारों ओर; अलड्डू तम्--सजाया हुआ; श्रीमत्--बहुमूल्य, सुन्दर; विमान--विमान; शिखर--चोटी, कँगूरे;झुभिः--चमकते हुए।
राजधानी में अनेक महल, नगर-द्वार तथा परकोटे थे, जो पहले से ही अत्यन्त सुन्दर थे,किन्तु इस अवसर पर उन्हें सुनहले आभूषणों से सजाया गया था।
नगर के महलों के कंँगूरे तोचमक ही रहे थे साथ ही नगर के ऊपर मँडराने वाले सुन्दर विमानों के शिखर भी।
"
मृष्टचत्वररथ्याइमार्ग चन्दनचर्चितम् ।
लाजाक्षतै: पुष्पफलैस्तण्डुलैबलिभियुतम् ॥
५७॥
मृष्ट--पूरी तरह स्वच्छ; चत्वर--चौक; रथ्या--मार्ग; अट्ट--चौपालें, अटारियाँ; मार्गमू--गलियाँ; चन्दन--चन्दन से;चर्चितम्-छिड़की हुई; लाज--लावा से; अक्षतैः--जौ से; पुष्प--फूलों से; फलैः:--तथा फलों से; तण्डुलैः-- धान से;बलिभि:--उपहार-सामग्रियों से; युतम्--युक्त नगर की
सभी चौकें, गलियाँ, मार्ग तथा चौराहों की अटारियाँ अच्छी तरह स्वच्छ करकेचन्दन जल से छिड़की गई थीं और सारे नगर में धान तथा जौ जैसे शुभ अन्न, फूल, फल तथाअन्य अनेक शुभ उपहार-सामग्रियाँ बिखेरी हुई थीं।
"
ध्रुवाय पथि दृष्टाय तत्र तत्र पुरस्त्रियः ।
सिद्धार्थक्षतद्यम्बुदूर्वापुष्पफलानि च ॥
५८ ॥
उपजहुः प्रयुज्ञाना वात्सल्यादाशिष: सतीः ।
श्रृण्वंस्तद्वल्गुगीतानि प्राविशद्धवनं पितु: ॥
५९॥
ध्रुवाय-- ध्रुव पर; पथि--मार्ग पर; दृष्टाय--देखी हुई; तत्र तत्र--जहाँ-तहाँ; पुर-स्त्रियः--घरों की महिलाएँ; सिद्धार्थ--सफेदसरसों; अक्षत--जौ; दधि--दही; अम्बु--जल; दूर्वा--दूब; पुष्प--फूल; फलानि--फल; च-- भी; उपजह्ु:--वर्षा की;प्रयुज्ञाना:--उच्चारण करते हुए; वात्सल्यात्ू--वासल्यभाव से; आशिष:--आशीर्वाद; सती:--भद्र महिलाएँ; श्रृण्वन्ू--सुनतेहुए; तत्ू--उनके; वल्गु--अत्यन्त मधुर; गीतानि--गीत; प्राविशत्--प्रविष्ट किया; भवनम्--महल; पितु:--पिता के |
इस प्रकार जब श्लुव महाराज मार्ग से जा रहे थे तो पास-पड़ोस की समस्त भद्र महिलाएँ उन्हेंदेखने के लिए एकत्र हो गईं, वे वात्सल्य-भाव से अपना-अपना आशीर्वाद देने लगीं और उन परसफेद सरसों, जौ, दही, जल, दूब, फल तथा फूल बरसाने लगीं।
इस प्रकार श्रुव महाराज स्त्रियोंद्वारा गाये गये मनोहर गीत सुनते हुए अपने पिता के महल में प्रविष्ट हुए।
"
महामणिव्रातमये स तस्मिन्भवनोत्तमे ।
लालितो नितरां पित्रा न्यवसद्दिवि देववत् ॥
६०॥
महा-मणि--मूल्यवान मणियों के; ब्रात--समूह; मये--से सज्जित; सः--वह ( ध्रुव ); तस्मिन्--उसमें; भवन-उत्तमे--चमकीलेभवन में; लालित:--लाड़-प्यार से; नितराम्ू--सदैव; पित्रा--पिता द्वारा; न््यवसत्--वहाँ निवास किया; दिवि--स्वर्ग में; देव-बत्--देवताओं के समान।
तत्पश्चात् श्रुव महाराज अपने पिता के महल में रहने लगे, जिसकी दीवालें अत्यन्त मूल्यवानमणियों से सज्जित थीं।
उनके वत्सल पिता ने उनकी विशेष देख-रेख की और वे उस महल मेंउसी तरह रहने लगे, जिस प्रकार देवतागण स्वर्गलोक में अपने प्रासादों में रहते हैं।
"
परयःफेननिभाः शब्या दान्ता रुक्मपरिच्छदा: ।
आसनानि महाहाणि यत्र रौक््मा उपस्करा: ॥
६१॥
'पयः--दूध; फेन-- फेना, झाग; निभा:--सहृश; शब्या:--बिस्तर; दान्ता:--हाथी-दाँत के बने; रुक्म--सुनहरे; परिच्छदा: --'कामदार; आसनानि---आसन; महा-अर्हाणि--अ त्यन्त मूल्यवान; यत्र--जहाँ; रौैक्मा: --सुनहले; उपस्करा:--सामान ।
महल में जो शयन-शय्या थी, वह दूध के फेन के समान श्वेत तथा अत्यन्त मुलायम थी।
उसके भीतर की पलंगें हाथी-दाँत की थीं, जिनमें सोने की कारीगरी थी और कुर्सियाँ, बेन्चेंतथा अन्य आसन एवं सामान सोने के बने हुए थे।
"
यत्र स्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
मणिप्रदीपा आभान्ति ललनारलसंयुता: ॥
६२॥
यत्र--जहाँ; स्फटिक--संगमरमर की; कुड्य्ेषु--दीवारों पर; महा-मारकतेषु--मरकतमणि जैसी बहुमूल्य मणियों से सज्जित;च--भी; मणि-प्रदीपा:--मणियों के दीपक; आभान्ति--प्रकाश कर रहे थे; ललना--स्त्री -मूर्ति; रतत--मणियों से निर्मित;संयुता:--पर रखी |
राजा का महल संगमरमर की दीवालों से घिरा था, जिन पर बहुमूल्य मरकत मणियों सेपच्चीकारी की गई थी और जिन पर हाथ में प्रदीप्त मणिदीपक लिए सुन्दर स्त्रियों जैसी मूर्तियाँलगी थीं।
"
उद्यानानि च रम्याणि विचित्रैरमरद्रुमै: ।
कूजद्विहड्रमिथुनेर्गायन्मत्तमधुव्रते: ॥
६३॥
उद्यानानि--बगीचे; च-- भी; रम्याणि-- अत्यन्त सुन्दर; विचित्रै:--विविध; अमर-द्रुमै:--स्वर्ग से लाये गये वृक्षों से; कूजत्--गाते हुए; विहड़--पक्षियों के; मिथुनैः--जोड़ों से; गायत्--गुंजार करते; मत्त--पागल, उन्मत्त; मधु-ब्रतैः--भौरों से ।
राजा के महल के चारों ओर बगीचे थे, जिनमें उच्चस्थ लोकों से लाये गये अनेक प्रकार केवृक्ष थे।
इन वृक्षों पर मधुर गीत गाते पक्षियों के जोड़े तथा गुंजार करते मदमत्त भौरे थे।
"
वाप्यो बैदूर्यसोपाना: पद्मोत्पलकुमुद्दती: ।
हंसकारण्डवकुलैर्जुष्टा श्रक्राहसारसे: ॥
६४॥
वाप्य:--बावड़ियाँ; वैदूर्य--वैदूर्य ( पुखराज ); सोपाना:--सीढ़ियों से; पद्य--कमल; उत्पल--नील कमल; कुमुत्-बती:--कुमुदिनियों से पूर्ण; हंस--हंस पक्षी; कारण्डब--तथा बत्तखें; कुलैः--के झुंडों से; जुष्टाः--निवसित; चक्राह्न-- चक्रवाक से;सारसैः--तथा सारसों से |
बावड़ियों में पुखराज की सीढ़ियाँ थीं।
इन बाबड़ियाँ में विविध रंग के कमल तथा कुमुदिनियाँ, हंस, कारण्डव, चक्रवाक, सारस तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पक्षी दिखाई पड़ रहे थे।
"
उत्तानपादो राजर्षि: प्रभावं तनयस्य तम् ।
श्रुत्वा इष्ठाद्भुततमं प्रपेदे विस्मयं परम् ॥
६५॥
उत्तानपाद:--राजा उत्तानपाद; राज-ऋषि:--साधु प्रकृति का महान् राजा; प्रभावम्--प्रभाव; तनयस्य--अपने पुत्र का; तम्--उसे; श्रुत्वा--सुनकर; हृष्टा--देखकर; अद्भुत--आश्चर्यमय; तमम्--अधिकतम; प्रपेदे--सुखपूर्वक अनुभव किया;विस्मयम्--विस्मय; परमू--परम |
राजर्षि उत्तानपाद ने ध्रुव महाराज के यशस्वी कार्यों के विषय में सुना और स्वयं भी देखाकि वे कितने प्रभावशाली और महान् थे, इससे वे अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि श्रुव महाराज केकार्य अत्यन्त विस्मयकारी थे।
"
वीक्ष्योढवयसं तं च प्रकृतीनां च सम्मतम् ।
अनुरक्तप्रजं राजा श्लुवं चक्रे भुवः पतिम् ॥
६६॥
वीक्ष्य--देखकर; ऊढ-वयसम्--प्रौढ़ अवस्था; तम्-- ध्रुव को; च--तथा; प्रकृतीनाम्--मंत्रियों द्वारा; च-- भी; सम्मतम्--अनुमोदित; अनुरक्त-प्रिय; प्रजमू-- अपनी प्रजा द्वारा; राजा--राजा; ध्रुवम्-- ध्रुव महाराज को; चक्रे--बना दिया; भुव:ः--पृथ्वी का; पतिम्ू--स्वामी ( राजा )
तत्पचश्चात् जब राजा उत्तानपाद ने विचार करके देखा कि श्रुव महाराज राज्य का भारसँभालने के लिए समुचित प्रौढ़ ( वयस्क ) हो चुके हैं और उनके मंत्री भी सहमत हैं तथा प्रजाको भी वे प्रिय हैं, तो उन्होंने शुव को इस लोक के सम्राट के रूप में सिंहासन पर बिठा दिया।
"
आत्मानं च प्रवयसमाकलय्य विशाम्पतिः ।
बन विरक्त: प्रातिष्ठद्विमृशन्नात्मनो गतिम् ॥
६७॥
आत्मानम्--स्वयं; च-- भी; प्रववसम्--वृद्धावस्था; आकलय्य--समझ कर; विशाम्पति: --राजा उत्तानपाद ने; वनमू--वनको; विरक्त:--विरक्त; प्रातिष्ठत्--प्रयाण किया; विमृशन्--चिन्तन करते; आत्मन: --अपनी, आत्म की; गतिम्--मुक्ति।
अपनी वृद्धावस्था और आत्म-कल्याण पर विचार करके, राजा उत्तानपाद ने अपने आपकोसांसारिक कार्यो से विरक्त कर लिया और जंगल में चले गये।
"
अध्याय दस: ध्रुव महाराज की यक्षों के साथ लड़ाई
4.10मैत्रेय उवाचप्रजापतेर्दुहितरं शिशुमारस्य वै ध्रुव: ।
उपयेमे भ्रमिं नामतत्सुतौ कल्पवत्सरी ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; प्रजापतेः -- प्रजापति की; दुहितरम्--पुत्री; शिशुमारस्थ--शिशुमार की; बै--निश्चय ही;श्रुव:-- ध्रुव महाराज; उपयेमे--ब्याह किया; भ्रमिम्ू-- भ्रमि; नाम--नामक; ततू-सुतौ--उसके दो पुत्र; कल्प--कल्प;वत्सरौ--तथा वत्सर |
मैत्रेय ऋषि ने कहा : हे विदुर, तत्पश्चात् ध्रुव महाराज ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री के साथविवाह कर लिया जिसका नाम भ्रमि था।
उसके कल्प तथा वत्सर नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।
"
इलायामपि भार्यायां वायो: पुत्रयां महाबलः ।
पुत्रमुत्कलनामानं योषिद्रत्ममजीजनत् ॥
२॥
इलायाम्--अपनी पली इला को; अपि--भी; भार्यायाम्--अपनी पत्नी को; वायो:--वायुदेव की; पुत्रयाम्--पुत्री को; महा-बलः:--शक्तिशाली श्लुव महाराज; पुत्रम्-पुत्र; उत्तल--उत्कल; नामानम्--नाम के; योषित्--स्त्री; रलम्--रल ( श्रेष्ठ );अजीजनतू--त्पन्न किया।
अत्यन्त शक्तिशाली श्रुव महाराज की एक दूसरी पत्नी थी, जिसका नाम इला था और वहवायुदेव की पुत्री थी।
उससे उन्हें एक अत्यन्त सुन्दर कन्या तथा उत्कल नाम का एक पुत्र उत्पन्नहुआ।
"
उत्तमस्त्वकृतोद्दाहो मृगयायां बलीयसा ।
हतः पुण्यजनेनाद्रौ तन्मातास्य गतिं गता ॥
३॥
उत्तम: --उत्तम; तु--लेकिन; अकृत--बिना; उद्बाह:--ब्याह; मृगयायाम्ू--आखेट करने में; बलीयसा--अत्यन्त बलशाली;हतः--मारा गया; पुण्य-जनेन--एक यक्ष द्वारा; अद्रौ--हिमालय पर्वत पर; तत्ू--उसकी; माता--माता ( सुरुचि ); अस्य--अपने पुत्र को; गतिमू--पथ; गता--अनुसरण किया।
श्रुव महाराज का छोटा भाई उत्तम, जो अभी तक अनब्याहा था, एक बार आखेट करनेगया और हिमालय पर्वत में एक शक्तिशाली यक्ष द्वारा मार डाला गया।
उसकी माता सुरुचि नेभी अपने पुत्र के पथ का अनुसरण किया ( अर्थात् मर गई )।
"
श्रुवो भ्रातृवर्ध॑ श्रुत्वा कोपामर्षशुचार्पित: ।
जैत्र स्वन्दनमास्थाय गत: पुण्यजनालयम् ॥
४॥
ध्रुव:--श्रुव महाराज; भ्रातृ-वधम्--अपने भाई की मृत्यु का; श्रुत्वा--समाचार सुनकर; कोप--क्रोध; अमर्ष--प्रतिशोध;शुचा--विलाप से; अर्पित:--पूरित होकर; जैत्रमू--विजयी; स्यन्दमम्--रथ पर; आस्थाय--चढ़ कर; गतः--गया; पुण्य-जन-आलयमू--यक्षों की पुरी में |
जब श्लुव महाराज ने यक्षों द्वारा हिमालय पर्वत में अपने भाई उत्तम के वध का समाचार सुनातो वे शोक तथा क्रोध से अभिभूत हो गये।
वे रथ पर सवार हुए और यक्षों की पुरी अलकापुरीपर विजय करने के लिए निकल पड़े।
"
गत्वोदीचीं दिशं राजा रुद्रानुचरसेविताम् ।
ददर्श हिमवददरोण्यां पुरीं गुह्ाकसड्डू लाम् ॥
५॥
गत्वा--जाकर; उदीचीम्--उत्तरी; दिशम्--दिशा; राजा--राजा श्लुव ने; रुद्र-अनुचर--रुद्र अर्थात् शिव के अनुयायियों द्वारा;सेविताम्--बसी हुई; ददर्श--देखा; हिमवत्--हिमालय की; द्रोण्यामू--घाटी में; पुरीम्--नगरी; गुह्मक--प्रेत लोगों से;सद्जु लामू-पूर्श्रुव महाराज हिमालय प्रखण्ड की उत्तरी दिशा की ओर गये।
उन्होंने एक घाटी में एक नगरीदेखी जो शिव के अनुचर भूत-प्रेतों से भरी पड़ी थी।
"
दध्मौ शट्डुं बृहद्वाहु: खं दिशश्चानुनादयन् ।
येनोद्विग्नहश: क्षत्तरुपदेव्योउत्रसन्भूशम् ॥
६॥
दध ्मौ--बजाया; शद्बुम्--शंख; बृहत्-बाहु:--शक्तिशाली भुजाओं वाला; खम्-- आकाश; दिश: च--तथा सभी दिशाएँ;अनुनादयन्--गूँजते हुए; येन--जिससे; उद्विग्ग-दहश:ः--अत्यन्त चिन्तित दिखों; क्षत्त:--हे विदुर; उपदेव्य:--यक्षों की पत्नियाँ;अत्रसन्-- भयभीत हो गईं; भूशम्--अत्यधिक |
मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, जैसे ही ध्रुव महाराज अलकापुरी पहुँचे, उन्होंने तुरन्त अपनाशंख बजाया जिसकी ध्वनि सम्पूर्ण आकाश तथा प्रत्येक दिशा में गूँजने लगी।
यक्षों की पत्नियाँअत्यन्त भयभीत हो उठीं।
उनके नेत्रों से प्रकट हो रहा था कि वे चिन्ता से परिपूर्ण थीं।
"
ततो निष्क्रम्य बलिन उपदेवमहाभटा: ।
असहन्तस्तन्निनादमभिपेतुरूदायुधा: ॥
७॥
ततः--तत्पश्चात्; निष्क्रम्य--बाहर आकर; बलिन:--अत्यन्त बलशाली; उपदेव--कुवेर के; महा-भटा:--बड़े बड़े सैनिक;असहन्तः--असहनीय; तत्--शंख की; निनादम्ू--ध्वनि; अभिपेतु: --आक्रमण किया; उदायुधा:--विभिन्न आयुधों सेसज्जित।
हे वीर विदुर, ध्रुव महाराज के शंख की गूँजती ध्वनि को सहन न कर सकने के कारण यक्षोंके महा-शक्तिशाली सैनिक अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर अपनी नगरी से बाहर निकल आये और उन्होंने ध्रुव पर धावा बोल दिया।
"
स तानापततो वीर उग्रधन्वा महारथः ।
एकैकं युगपत्सर्वानहन्बाणैस्त्रिभिस्त्रिभि: ॥
८॥
सः--वह ( श्रुव महाराज ); तानू--उन सबों को; आपततः--अपने ऊपर टूटते हुए; वीर: --वीर; उग्र-धन्वा--शक्तिशालीधनुर्धर; महा-रथ:--जो अनेक रथों से लड़ सके; एक-एकम्--एक-एक करके; युगपत्--एकसाथ, एक समय; सर्वानू--उनसबों को; अहनू--मार डाला; बाणैः--बाणों से; त्रिभि: त्रिभिः--तीन तीन करके ।
ध्रुव महाराज, जो महारथी तथा निश्चय ही महान् धनुर्धर भी थे, तुरन्त ही एकसाथ तीन-तीनबाण छोड़ करके उन्हें मारने लगे।
"
ते वै ललाटलग्नैस्तैरिषुभि: सर्व एव हि ।
मत्वा निरस्तमात्मानमाशंसन्कर्म तस्य तत् ॥
९॥
ते--वे; वै--निश्चय ही; ललाट-लग्नै:--उनके सिरों से सट कर; तैः--उनके द्वारा; इषुभि:ः--बाण; सर्वे--सभी; एव--निश्चयही; हि--निस्सन्देह; मत्वा--सोचकर; निरस्तमू--पराजित; आत्मानमू--अपने आप; आशंसन्--प्रशंसित; कर्म--कर्म; तस्य--उसका; तत्--वह |
जब यक्ष वीरों ने देखा कि उनके शिरों पर श्रुव महाराज द्वारा बाण-वर्षा की जा रही है, तोउन्हें अपनी विषम स्थिति का पता चला और उन्होंने यह समझ लिया कि उनकी हार निश्चित है।
किन्तु वीर होने के नाते उन्होंने ध्रुव के कार्य की सराहना की।
"
तेडपि चामुममृष्यन्त: पादस्पर्शमिवोरगा: ।
शरैरविध्यन्युगपद्द्वगुणं प्रचिकीर्षव: ॥
१०॥
ते--यक्षगण; अपि-- भी; च--तथा; अमुमू-- ध्रुव पर; अमृष्यन्त:--असह्य होने पर; पाद-स्पर्शम्--पाँव से छुये जाकर; इब--सहश; उरगा:--सर्प; शरैः--बाणों से; अविध्यन्-- प्रहार किया जाकर; युगपत्--उसी समय; द्वि-गुणम्--दो गुना;प्रचिकीर्षव:--प्रतिशोध की भावना से
जिस प्रकार सर्प किसी के पाँव द्वारा कुचले जाने को सहन नहीं कर पाते, उसी प्रकार यक्षभी श्रुव महाराज के आश्चर्यजनक पराक्रम को न सह सकने के कारण, उन पर एक साथ उनसेदुगुने बाण--अर्थात् प्रत्येक सैनिक छह-छह बाण--छोड़ने लगे और इस प्रकार उन्होंने अपनीशूरवीरता का बड़ी बहादुरी से प्रदर्शन किया।
"
ततः परिघनिस्त्रिशैः प्रासशूलपरश्चथै: ।
शत्त्यूष्टिभिर्भुशुण्डीभिश्चित्रवाजैः शरैरपि ॥
११॥
अभ्यवर्षन्प्रकुपिता: सरथं सहसारथिम् ।
इच्छन्तस्तत्प्रतीकर्तुमयुतानां त्रयोदश ॥
१२॥
ततः--तपश्चात्; परिघ--लोहे के गदे; निरित्रिशै:ः--तथा तलवारों से; प्रास-शूल--त्रिशूल से; परश्चधैः --तथा बरछों से;शक्ति--तथा शक्ति से; ऋष्टिभि:--तथा भालों से; भुशुण्डीभि:--भुशुण्डी आयुध से; चित्र-वाजै:--विविध प्रकार के पंखोंवाले; शरैः--वाणों से; अपि-- भी; अभ्यवर्षन्-- श्रुव पर वर्षा की; प्रकुपिता:--अत्यन्त क्रुद्ध; स-रथम्--उनके रथ समेत;सह-सारथिम्--उनके रथवान सहित; इच्छन्त:--चाहते हुए; ततू--श्लुव के कार्य; प्रतीकर्तुमु--बदला लेने के लिए;अयुतानाम्--दस हजारों का; त्रयोदश--तेरह
यक्ष सैनिकों की संख्या एक लाख तीस हजार थी वे सभी अत्यन्त क्रुद्ध थे और श्रुवमहाराज के आश्चर्यजनक कार्यो को विफल करने की इच्छा लिए थे।
उन्होंने पूरी शक्ति सेमहाराज श्रुव तथा उनके रथ तथा सारथी पर विभिन्न प्रकार के पंखदार बाणों, परिघों, निम्त्रिशों( तलवारों ), प्रासशूलों ( त्रिशूलों ), परश्चधों (बरछों ), शक्तियों, ऋष्टियों ( भालों ) तथाभूशुण्डियों से वर्षा की।
"
औत्तानपादि: स तदा शस्त्रवर्षण भूरिणा ।
न एवाहश्यताच्छन्न आसारेण यथा गिरिः ॥
१३॥
औत्तानपादि: -- ध्रुव महाराज; सः--वह; तदा--उस समय; शस्त्र-वर्षण --शस्त्रों की वर्षा से; भूरिणा--निरन्तर; न--नहीं;एव--निश्चय ही; अहृश्यत--दिखाई पड़ता था; आच्छन्न:--ढका हुआ; आसारेण--निरन्तर वर्षा से; यथा--जिस प्रकार;गिरिः--पर्वत
ध्रुव महाराज आयुधों की निरन्तर वर्षा से पूरी तरह ढक गये मानो निरन्तर जल-दवृष्टि से कोईपर्वत ढक गया हो।
"
हाहाकारस्तदैवासीत्सिद्धानां दिवि पश्यताम् ।
हतोयं मानवः सूर्यो मग्नः पुण्यजनार्णवे ॥
१४॥
हाहा-कार:--हाहाकार शब्द, निराशा की ध्वनि; तदा--उस समय; एव--निश्चय ही; आसीत्--प्रकट था; सिद्धानाम्ू--सिद्धलोक के समस्त वासियों का; दिवि--आकाश में; पश्यताम्--युद्ध को देखते हुए; हतः--मारा गया; अयम्--यह;मानव:--मनु के पौत्र का; सूर्य:--सूर्य; मग्न:--डूबा हुआ; पुण्य-जन--यक्षों के; अर्णवे --समुद्र में |
स्वर्गलोकवासी सभी सिद्धजन आकाश से युद्ध देख रहे थे और जब उन्होंने देखा कि श्लुवमहाराज शत्रु की निरन्तर बाण-वर्षा से ढक गये हैं, तो वे हाहाकार करने लगे, 'मनु के पौत्रध्रुव हार गये, हार गये।
वे चिल्ला रहे थे कि ध्रुव महाराज तो सूर्य के समान हैं और इस समयवे यक्षों के समुद्र में डूब गए हैं।
"
नदत्सु यातुधानेषु जयकाशिष्वथो मृधे ।
उदतिष्ठद्रथस्तस्य नीहारादिव भास्कर: ॥
१५॥
नदत्सु--निनाद करते अथवा गरजते हुए; यातुधानेषु--प्रेत रूप यक्ष; जय-काशिषु--विजय घोष करते हुए; अथो--तब;मृधे--युद्ध में; उदतिष्ठत्--प्रकट हुआ; रथ:--रथ; तस्य-- ध्रुव महाराज का; नीहारात्ू--कुहरे; इब--सहश; भास्कर: --सूर्य |
क्षणिक विजय जैसी स्थिति देखकर यक्षों ने घोषित कर दिया कि उन्होंने ध्रुव महाराज परविजय प्राप्त कर ली है।
किन्तु तभी श्रुव का रथ एकाएक प्रकट हुआ, जैसे कुहरे को भेदकरसूर्य सहसा प्रकट हो जाता है।
"
धनुर्विस्फूर्जयन्दिव्यं द्विषतां खेदमुद्दहन् ।
अस्त्रौघं व्यधमद्दाणैर्घधनानीकमिवानिल: ॥
१६॥
धनु:--उसका धनुष; विस्फूर्जयन्--टंकार, फूत्कार; दिव्यमू--आश्चर्यमय; द्विषताम्--शत्रुओं का; खेदम्--विषाद; उद्दहन् --उत्पन्न करते हुए; अस्त्र-ओघम्--विभिन्न प्रकार के हथियार; व्यधमत्--तितर-बितर कर दिया; बाणैः--बाणों से; घन--बादलों का; अनीकम्--दल; इब--सहृश; अनिल: --वायु
श्रुव महाराज के धनुष-बाण टंकार तथा फूत्कार करने लगे जिससे उनके शत्रुओं के हृदय मेंआ्रास उत्पन्न होने लगा।
वे निरन्तर बाण बरसाने लगे, जिससे सभी के विभिन्न हथियार वैसे हीतितर-बितर हो गये, जिस प्रकार प्रबल वायु से आकाश में एकत्र बादल बिखर जाते हैं।
"
तस्य ते चापनिर्मुक्ता भित्त्वा वर्माणि रक्षसाम् ।
कायानाविविशुस्तिग्मा गिरीनशनयो यथा ॥
१७॥
तस्य--श्रुव के; ते--वे बाण; चाप-- धनुष से; निर्मुक्ता:--छूटे हुए; भित्त्वा-- भेदकर; वर्माणि--कवचों को; रक्षसाम्--असुरों के; कायान्ू--शरीर में; आविविशु:--घुस गये; तिग्मा:-- प्रखर; गिरीन्-- पर्वत; अशनय:--वज्; यथा--जिस प्रकार |
श्रुव महाराज के धनुष से छूटे हुए प्रखर बाण शत्रुओं के कवचों तथा शरीरों में घुसने लगे,मानो स्वर्ग के राजा द्वारा छोड़ा गया वज्र हो, जो पर्वतों के शरीरों को छिन्न-भिन्न कर देता है।
"
भल्लै: सज्छिद्यमानानां शिरोभिश्चवारुकुण्डलै: ।
ऊरुभि्वेमतालाभेदोर्भिवलयवल्गुभि: ॥
१८॥
हारकेयूरमुकुटैरुष्णीषैश्व महाधनैः ।
आस्तृतास्ता रणभुवो रेजुर्वीरमनोहरा: ॥
१९॥
भल््लै:--बाणों से; सज्छिद्यमानानामू--खण्ड-खण्ड हुए यक्षों के; शिरोभि:--सिरों से; चारु--सुन्दर; कुण्डलैः--कान केकुण्डलों से; ऊरुभि:--जाँघों से; हेम-तालाभे:--सुनहले ताड़ वृक्षों के समान; दोर्भि:-- भुजाओं से; वलय-वल्गुभि:--सुन्दरकंकणों से; हार--हारों से; केयूर--बाजूबन्द; मुकुटैः--तथा मुकुटों; उष्णीषै:--पगड़ियों से; च-- भी; महा-धनैः--बहुमूल्य;आस्तृता:--आच्छादित; ता:--वे; रण-भुव:--रणभूमि; रेजु:--चमकने लगे; वीर--वीरों के; मनः-हरा:--मनों कोहरनेवाले।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, शुव महाराज के बाणों से जो सिर छिन्न-भिन्न हुए थे वेसुन्दर कुण्डलों तथा पागों से अच्छी तरह से अलंकृत थे।
उन शरीरों के पाँव सुनहरे ताड़ के वृक्षोंके समान सुन्दर थे; उनकी भुजाएं सुनहरे कंकणों तथा बाजूबन्दों से सुसज्जित थीं और उनकेसिरों पर बहुमूल्य सुनहरे मुकुट थे।
युद्ध भूमि में बिखरे हुए ये आभूषण अत्यन्त आकर्षक लगरहे थे और किसी भी वीर के मन को मोह सकते थे।
"
हतावशिष्टा इतरे रणाजिराद्रक्षोगणा: क्षत्रियवर्यसायकै: ।
प्रायो विवृक्णावयवा विदुद्गुव॒ु-मुंगेन्द्रविक्रोडितयूथपा इव ॥
२०॥
हत-अवशिष्टा:--मरने से बचे हुए; इतरे-- अन्य; रण-अजिरात्--युद्धभूमि से; रक्ष:-गणा:--यक्ष गण; क्षत्रिय-वर्य--द्षत्रियोंअथवा सैनिकों में श्रेष्ठ; सायकैः--बाणों से; प्रायः--प्राय:; विवृकण--खण्ड-खण्ड हुए; अवयवा:--शरीर के अंग;विदुद्गुवु:-- भग गये; मृगेन्द्र--सिंह द्वारा; विक्रीडित--हार कर; यूथपा: --हाथी; इब--सहृश |
जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बच गए, उनके अंग-प्रत्यंग परम वीर श्रुव महाराज के बाणोंसे कट कर खण्ड-खण्ड हो गये।
वे युद्ध-भूमि छोड़ कर उसी तरह भागने लगे जैसे कि सिंहद्वारा पराजित होने पर हाथी भागते हैं।
"
अपश्यमान: स तदाततायिनंमहामृथे कञ्जन मानवोत्तम: ।
पुरी दिदृक्षत्रपि नाविशद्द्वषांन मायिनां वेद चिकीर्षितं जन: ॥
२१॥
अपश्यमान:--न देखते हुए; सः-- ध्रुव; तदा--उस समय; आततायिनम्--सशस्त्र शत्रु सैनिक को; महा-मृथे--उस महायुद्ध में;कशञ्लनन--कोई; मानव-उत्तम:--नर- श्रेष्ठ; पुरीमू--पुरी, नगरी; दिहक्षन्ू--देखने की इच्छा से; अपि--यद्यपि; न आविशतू--प्रवेश नहीं किया; द्विषामू--शत्रुओं का; न--नहीं; मायिनाम्--मायावी का; वेद--जानता है; चिकीर्षितम्--योजनाएँ; जन:--कोई भी ।
मानवों में श्रेष्ठ श्रुव महाराज ने देखा कि उस विशाल युद्धभूमि में एक भी सशस्त्र शत्रुसैनिक शेष नहीं रहा।
तब उनकी इच्छा अलकापुरी देखने को हुई।
किन्तु उन्होंने मन में सोचा,'यक्षों की मायावी योजनाओं को कोई नहीं जानता।
"
'इति ब्रुवंश्चित्ररथ: स्वसारथियत्तः परेषां प्रतियोगशद्धितः ।
शुश्राव शब्दं जलधेरिवेरितंनभस्वतो दिक्षु रजोउन्वहृश्यत ॥
२२॥
इति--इस प्रकार; ब्रुवनू--बातें करते; चित्र-रथ:--थ्रुव महाराज, जिनका रथ अत्यन्त सुन्दर था; स्व-सारथिम्--अपने सारथीसे; यत्त:--सावधान; परेषाम्--अपने शत्रुओं से; प्रतियोग--जवाबी हमला; शद्धितः--सशंकित; शुभश्राव--सुना; शब्दम्--शब्द; जलधे: --समुद्र से; इब--मानो; ईरितम्--प्रतिध्वनित; नभस्वत:--वायु के कारण; दिश्षु--सभी दिशाओं में; रज:--धूल; अनु--तब; अदृश्यत--दिखाई पड़ी |
जब श्रुव महाराज अपने मायावी शत्रुओं से सशंकित होकर अपने सारथी से बातें कर रहे थे तो उन्हें प्रचण्ड ध्वनि सुनाई पड़ी, मानो सम्पूर्ण समुद्र उमड़ आया हो।
उन्होंने देखा कि आकाशसे उन पर चारों ओर से धूल भरी आँधी आ रही है।
"
क्षणेनाच्छादितं व्योम घनानीकेन सर्वतः ।
विस्फुरत्तडिता दिश्लु त्रासयत्स्तनयित्नुना ॥
२३॥
क्षणेन--एक क्षण में; आच्छादितम्--ढका हुआ; व्योम--आकाश; घन--घने बादलों का; अनीकेन--समूह से; सर्वतः--सभी दिशाओं में; विस्फुरत्--चमकती; तडिता--बिजली से; दिक्षु--सभी दिशाओं में; त्रासबत्-- भयभीत करता;स्तनयित्नुना-गर्जन से |
एक क्षण में सारा आकाश घने बादलों से छा गया और घोर गर्जन सुनाई पड़ने लगा।
बिजली चमकने लगी और भीषण वर्षा होने लगी।
"
ववृषू रुधिरौघासृक्पूयविण्मूत्रमेदस: ।
निपेतुर्गगनादस्य कबन्धान्यग्रतोइनघ ॥
२४॥
ववृषु:--वर्षा होने लगी; रुधिर--रक्त की; ओघ--बाढ़; असृक्--श्लेष्मा; पूय--पीब; विट्--विष्ठा; मूत्र--मूत्र; मेदस:--तथा मज्जा; निपेतु:--गिरने लगे; गगनात्ू--आकाश से; अस्य-- श्रुव के; कबन्धानि--धड़; अग्रत:--समक्ष; अनघ--हे निष्पापविदुर।
हे निष्पाप विदुर, उस वर्षा में श्रुव महाराज के समक्ष भारी मात्रा में रक्त, एलेष्मा (कफ ),पीब, मल, मूत्र तथा मजा और आकाश से शरीरों के धड़ ( रुंड ) गिर रहे थे।
"
ततः खेहृश्यत गिरिरनिपेतु: सर्वतोदिशम् ।
गदापरिघनिस्त्रिशमुसला: साश्मवर्षिण: ॥
२५॥
ततः--तत्पश्चात्: खे--आकाश में; अहश्यत--दिखाई पड़ा; गिरि:--पर्वत; निपेतु:--गिरा हुआ; सर्वतः-दिशम्--सभीदिशाओं से; गदा--गदा; परिघ--परिघ; निर्त्रिश--तलवारें; मुसला:--मूसल; स-अश्म--पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़ों की;वर्षिण:--वर्षा के साथ।
फिर आकाश में एक विशाल पर्वत दिखाई पड़ा और चारों ओर से बर्छे, गदा, तलवारें,परिघ तथा पत्थरों के विशाल खण्डों की वर्षा के साथ उपलवृष्टि होने लगी।
"
अहयोउडशनिनि: श्रासा वमन्तोउंगिंन रुषाक्षिभि: ।
अभ्यधावन्गजा मत्ताः सिंहव्याप्राश्न यूथश: ॥
२६॥
अहयः--साँप; अशनि--वज्; नि: श्रासा: -- साँस लेते हुए; वमनन््त:--वमन करते; अग्निमू--अग्नि; रुषा-अक्षिभि:--क्रोधितनेत्रों से; अभ्यधावन्--आगे आये; गजा:--हाथी; मत्ता: --उन्मत्त; सिंह--शेर; व्याप्रा:--बाघ; च-- भी; यूथश: -- समूह केसमूह
श्रुव महाराज ने देखा कि रोषपूर्ण आँखों वाले बहुत से सर्प अग्नि उगलते हुए उनको निगलनेके लिए आगे लपक रहे हैं।
साथ ही मत्त हाथियों, सिंहों तथा बाघों के समूह भी चले आ रहे हैं।
"
समुद्र ऊर्मिभिर्भीम: प्लावयन्सर्वतों भुवम् ।
आससाद महाह्वादः कल्पान्त इब भीषण: ॥
२७॥
समुद्र: --समुद्र; ऊर्मिभि: --लहरों से; भीम:--भयानक; प्लावयन्--डुबाता हुआ; सर्वतः--सभी दिशाओं से; भुवम्--पृथ्वीको; आससाद--आगे आ रहा था; महा-हादः--भीषण शोर करता; कल्प-अन्ते--कल्प के अन्त में ( प्रलय ); इब--सहश;भीषण: -- भयावना ।
फिर, समस्त जगत के लिए प्रलय-काल के समान भयानक समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों तथाभीषण गर्जना के साथ उनके समक्ष आ पहुँचा।
"
एवंविधान्यनेकानि त्रासनान्यमनस्विनाम् ।
ससृजुस्तिग्मगतय आसुर्या माययासुरा: ॥
२८॥
एवमू-विधानि--इस प्रकार के ( कौतुक ); अनेकानि--बहुत से; त्रासनानि-- डरावने; अमनस्विनाम्--अल्पज्ञों के लिए;ससूजु:--उत्पन्न किया; तिग्म-गतय: --क्रूर स्वभाव वाले; आसुर्या--आसुरी; मायया--माया से; असुरा:--असुर गण ।
असुर-यक्ष स्वभाव से अत्यन्त क्रूर होते हैं और अपनी आसुरी माया से वे अल्पज्ञानियों कोडराने वाले अनेक कौतुक कर सकते थे।
"
ध्रुवे प्रयुक्तामसुरैस्तां मायामतिदुस्तराम् ।
निशम्य तस्य मुनयः शमाशंसन्समागता: ॥
२९॥
ध्रुवे-- धुव के विरुद्ध; प्रयुक्ताम्--प्रयुक्त; असुरैः--असुरों द्वारा; तामू--उस; मायाम्--मायावी शक्ति; अति-दुस्तराम्-- अत्यन्तभयावनी; निशम्य--सुनकर; तस्य--उसका; मुनयः--बड़े-बड़े मुनि; शम्--कल्याण; आशंसन्ू--प्रोत्साहित करते हुए;समागता:--एकत्र हो गये।
जब मुनियों ने सुना कि ध्रुव महाराज असुरों के मायावी करतबों से पराजित हो गये हैं, तो वेउनकी मंगल-कामना के लिए तुरन्त वहाँ एकत्र हो गये।
"
मुनय ऊचुःऔत्तानपाद भगवांस्तव शार्ड्रधन्वादेव: क्षिणोत्ववनतार्तिहरो विपक्षान् ।
यन्नामधेयमभिधाय निशम्य चाद्धालोकोजझ्जञसा तरति दुस्तरमड़ मृत्युम् ॥
३०॥
मुनयः ऊचुः--मुनियों ने कहा; औत्तानपाद--हे उत्तानपाद के पुत्र; भगवान्-- भगवान्; तब--तुम्हारा; शार्ड-धन्वा --शार्डनामक धनुष को धारण करनेवाला; देव: --देव, भगवान; क्षिणोतु--वध कर दे; अवनत--शरणागतों के; आर्ति--क्लेश;हरः--हरनेवाला; विपक्षान्ू--विपक्षियों, शत्रुओं; यत्--जिसका; नामधेयम्--पवित्र नाम; अभिधाय-- लेकर; निशम्य--सुनकर; च--भी; अद्धघा--शीघ्र ही; लोक:--लोग; अज्ञसा-- पूर्णतः; तरति--पार करते हैं; दुस्तरम्--दुर्लध्य; अड्ड-हे ध्रुव;मृत्युमू--मृत्यु कोसभी
मुनियों ने कहा : हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव, अपने भक्तों के क्लेशों को हरनेवालेशार्ड्धन्वा भगवान् आपके भयानक शत्रुओं का संहार करें।
भगवान् का पवित्र नाम भगवान् केही समान शक्तिमान है, अतः भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन तथा श्रवण-मात्र से अनेक लोगभयानक मृत्यु से रक्षा पा सकते हैं।
इस प्रकार भक्त बच जाता है।
"
अध्याय ग्यारह: स्वायंभुव मनु ने ध्रुव महाराज को युद्ध बंद करने की सलाह दी
4.11मैत्रेय उबाचनिशम्य गदतामेवमृषीणां धनुषि श्रुवः ।
सन्दधेस्त्रमुपस्पृश्ययन्नारायणनिर्मितम् ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने आगे कहा; निशम्य--सुनकर; गदताम्--शब्द; एवम्--इस प्रकार; ऋषीणाम्--ऋषियों के;धनुषि--अपने धनुष पर; श्रुव:ः-- ध्रुव महाराज ने; सन्दधे--सन्धान किया; अस्त्रमू--बाण; उपस्पृश्य--जल छूकर; यत्--जो;नारायण--नारायण द्वारा; निर्मितम्ू--बनाया गया।
श्री मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, जब श्रुव महाराज ने ऋषियों के प्रेरक शब्द सुने तो उन्होंने जललेकर आचमन किया और भगवान् नारायण द्वारा निर्मित बाण लेकर उसे अपने धनुष परचढ़ाया।
"
सन्धीयमान एतस्मिन्माया गुह्मकनिर्मिता: ।
क्षिप्रं विनेशुर्विदुर क्लेशा ज्ञानोदये यथा ॥
२॥
सन्धीयमाने-- धनुष पर रखते हुए; एतस्मिन्--इस नारायणास्त्र को; माया: --माया, मोह; गुह्मक-निर्मिता: --यक्षों द्वारा निर्मित;क्षिप्रमू--शीघ्र; विनेशु:--नष्ट हो गये; विदुर--हे विदुर; क्लेशा:--मोहजनित कष्ट तथा आनन्द; ज्ञान-उदये--ज्ञान के उदय होनेपर; यथा--जिस प्रकार।
ज्योंही श्रुव महाराज ने अपने धनुष पर नारायणास्त्र को चढ़ाया, त्योंही यक्षों द्वारा रची गईसारी माया उसी प्रकार तुरन्त दूर हो गई जिस प्रकार कि आत्मज्ञान होने पर समस्त भौतिक क्लेशतथा सुख विनष्ट हो जाते हैं।
"
तस्यार्षास्त्रं धनुषि प्रयुद्धतःसुवर्णपुद्जः कलहंसवासस: ।
विनिःसृता आविविशुद्धिषद्वलंयथा वन॑ भीमरवा: शिखण्डिन: ॥
३॥
तस्य--जब श्वुव ने; आर्ष-अस्त्रमू--नारायण ऋषि द्वारा प्रदत्त हथियार; धनुषि--अपने धनुष पर; प्रयुज्धत:--चढ़ाया; सुवर्ण-पुद्ठाः--सुनहले फलों वाले ( तीर ); कलहंस-वासस:--हंस के पंखों के समान; विनि:सृता:--निकल पड़े; आविविशु:--प्रविष्ट; द्विषत्-बलम्--शत्रु के सैनिक; यथा--जिस प्रकार; वनम्--वन में; भीम-रवा:-- भीषण शब्द करते; शिखण्डिन:--मोर
ध्रुव महाराज ने ज्योंही अपने धनुष पर नारायण ऋषि द्वारा निर्मित अस्त्र को चढ़ाया, उससेसुनहरे फलों तथा पंखोंवाले बाण हंस के पंखों के समान बाहर निकलने लगे।
वे फूत्कार करतेहुए शत्रु सैनिकों में उसी प्रकार घुसने लगे जिस प्रकार मोर केका ध्वनि करते हुए जंगल में प्रवेशकरते हैं।
"
तैस्तिग्मधारैः प्रधने शिलीमुखैर्इतस्तत: पुण्यजना उपद्गुता: ।
तमभ्यधावन्कुपिता उदायुधा:सुपर्णमुन्नद्धफणा इबाहयः ॥
४॥
तैः--उनके द्वारा; तिग्म-धारैः--पैनी धार वाले; प्रधने--युद्धभूमि में; शिली-मुखैः--बाण; इतः तत:--इधर-उधर; पुण्य-जना:--यक्षगण; उपद्गुता:--अत्यन्त क्षुब्ध होकर; तम्-- ध्रुव महाराज की ओर; अभ्यधावन्--दौड़े; कुपिता: -क्रुद्ध;उदायुधा: --हथियार उठाये; सुपर्णम्ू--गरुड़ की ओर; उन्नद्ध-फणा:--फन उठाये; इब--सहृश; अहयः--सर्प |
उन तीखी धारवाले बाणों ने शत्रु-सैनिकों को विचलित कर दिया, और वे प्रायः मूर्च्छित हो गये।
किन्तु ध्रुव महाराज से क्रुद्ध होकर यक्षगण युद्धक्षेत्र में किसी न किसी प्रकार अपने-अपनेहथियार लेकर एकत्र हो गये और उन्होंने आक्रमण कर दिया।
जिस प्रकार गरुड़ के छेड़ने परसर्प अपना-अपना फन उठाकर गरुड़ की ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार समस्त यक्ष सैनिक अपने-अपने हथियार उठाये ध्रुव महाराज को जीतने की तैयारी करने लगे।
"
स तान्पृषत्कैरभिधावतो मृथेनिकृत्तबाहूर॒शिरोधरोदरान् ।
निनाय लोकं परमर्कमण्डलंब्रजन्ति निर्भिद्य यमूध्वरितस: ॥
५॥
सः--वह ( ध्रुव ); तानू--समस्त यक्षों को; पृषत्कैः--अपने बाण से; अभिधावत:--आगे आते हुए; मृधे--युद्ध भूमि में;निकृत्त--विलग, छिन्न; बाहु-- भुजाएँ; ऊरु--जंघाएँ; शिर:-धर--गर्दन; उदरान्--तथा पेट; निनाय-- प्रदान किया;लोकम्--लोक को; परम्--परम; अर्क-मण्डलम्--सूर्य -मण्डल; ब्रजन्ति--जाते हैं; निर्भिद्य-- भेदते हुए; यम्--जिसको;ऊर्ध्व-रेतस:ः-- ऊध्वरिता ब्रह्मचारी, जो वीर्य स्खलित नहीं करते ।
जब श्रुव महाराज ने यक्षों को आगे बढ़ते देखा तो उन्होंने तुरन्त बाणों को चढ़ा लिया औरशत्रुओं को खण्ड-खण्ड कर डाला।
शरीरों से बाहु, पाँव, सिर तथा उदर अलग-अलग करकेउन्होंने यक्षों को सूर्य-मण्डल के ऊपर स्थित लोकों में भेज दिया, जो केवल श्रेष्ठ ऊर्ध्वरिताब्रह्मचारियों को प्राप्त हो पाता है।
"
तान्हन्यमानानभिवीक्ष्य गुह्यका-ननागसश्रित्ररथेन भूरिशः ।
औत्तानपादिं कृपया पितामहोमनुर्जगादोपगतः सहर्षिभि: ॥
६॥
तान्ू--उन यक्षों को; हन्यमानानू--मरे हुए; अभिवीक्ष्य-- देखकर; गुह्मकान्--यक्षगण; अनागस:--पाप-रहित; चित्र-रथेन--ध्रुव महाराज द्वारा, जिनके पास सुन्दर रथ था; भूरिश:--अत्यधिक; औत्तानपादिम्--उत्तानपाद के पुत्र को; कृपया--कृपा से;पिता-मह:--बाबा; मनुः--स्वायंभुव मनु ने; जगाद--उपदेश दिया; उपगत:--पास जाकर; सह-ऋषिभि:--ऋषियों सहित।
जब स्वायंभुव मनु ने देखा कि उनका पौत्र ध्रुव ऐसे अनेक यक्षों का वध कर रहा है, जोवास्तव में अपराधी नहीं हैं, तो वे करूणावश ऋषियों को साथ लेकर श्रुव के पास उन्हें सदुपदेश" देने गये ।
मनुरुवाचअलं वत्सातिरोषेण तमोद्वारेण पाप्मना ।
येन पुण्यजनानेतानवधीस्त्वमनागस: ॥
७॥
मनु: उबाच--मनु ने कहा; अलम्--बहुत हुआ, बस; वत्स--मेरे बालक; अतिरोषेण --अत्यन्त क्रोधपूर्वक; तमः-द्वारेण --अज्ञान का मार्ग; पाप्मना--पापी; येन--जिससे; पुण्य-जनानू--यक्षगण; एतानू--ये सब; अवधी:--तुम्हारे द्वारा मारे गये;त्वमू--तुम; अनागस: --निरपराध ।
श्री मनु ने कहा : हे पुत्र, बस करो।
वृथा क्रोध करना अच्छा नहीं--यह तो नारकीय जीवनका मार्ग है।
अब तुम यक्षों को मार कर अपनी सीमा से परे जा रहे हो, क्योंकि ये वास्तव मेंअपराधी नहीं हैं।
"
नास्मत्कुलोचितं तात कर्मतत्सद्विगर्हितम् ।
वधो यदुपदेवानामारब्धस्तेकृतैनसाम् ॥
८॥
न--नहीं; अस्मत्-कुल--हमारे कुल के लिए; उचितम्--उचित, उपयुक्त; तात--मेरे पुत्र; कर्म--कर्म; एतत्--यह; सत् --साधु पुरुष; विगर्हितम्--वर्जित; वध:--ह त्या; यत्--जो; उपदेवानाम्--यक्षों का; आरब्ध:--किया गया; ते--तुम्हारे द्वारा;अकृत-एनसाम्--पाप-विहीनों अथवा निर्दोषों का।
हे पुत्र, तुम निर्दोष यक्षों का जो यह वध कर रहे हो वह न तो अधिकृत पुरुषों द्वारा स्वीकार्यहै और न यह हमारे कुल को शोभा देनेवाला है क्योंकि तुमसे आशा की जाती है कि तुम धर्मतथा अधर्म के विधानों को जानो।
"
नन्वेकस्यापराधेन प्रसड्राद्वववो हता: ।
भ्रातुर्वधाभितप्तेन त्वयाड्र भ्रातृवत्सल ॥
९॥
ननु--निश्चय ही; एकस्य--एक ( यक्ष ) के; अपराधेन--अपराध से; प्रसझझत्--संगति से; बहवः--अनेक; हता: --मारे गये;भ्रातु:--अपने भाई की; बध--मृत्यु से; अभितप्तेन--शोक से; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अड्र-हे पुत्र; भ्रातृ-वत्सल--अपने भाईके प्रिय
हे पुत्र, यह सिद्ध हो चुका है कि तुम अपने भाई के प्रति कितने वत्सल हो और यक्षों द्वाराउसके मारे जाने से तुम कितने सन्तप्त हो, किन्तु जगा सोचो तो कि केवल एक यक्ष के अपराधके कारण तुमने कितने अन्य निर्दोष यक्षों का वध कर दिया है।
"
नायं मार्गो हि साधूनां हषीकेशानुवर्तिनाम् ।
यदात्मानं पराग्गृह्य पशुवद्धृतवैशसम् ॥
१०॥
न--नहीं; अयम्--यह; मार्ग: --रास्ता; हि--निश्चय ही; साधूनाम्-- भले पुरुषों का; हषीकेश-- भगवान् के; अनुवर्तिनामू--पथ का अनुगमन करते; यत्--जो; आत्मानम्--स्वयं; पराक्--शरीर; गृह्य--मानकर; पशु-वत्--पशुओं के तुल्य; भूत--जीवात्माओं का; वैशसम्ू--वध |
मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर को आत्मा न माने और इस प्रकार पशुओं की भाँति अन्योंका वध न करे।
भगवान् की भक्ति के पथ का अनुसरण करनेवाले साधु पुरुषों ने इसे विशेषरूप से वर्जित किया है।
"
सर्वभूतात्मभावेन भूतावासं हरिं भवान् ।
आशाध्याप दुराराध्यं विष्णोस्तत्परमं पदम् ॥
११॥
सर्व-भूत--समस्त जीवात्माओं में; आत्म--परमात्मा के ऊपर; भावेन-- ध्यान से; भूत--समस्त संसार का; आवासम्--घर;हरिम्-- भगवान् हरि; भवान्ू--आप; आराध्य--पूजा करके; आप--प्राप्त कर लिया है; दुराराध्यम्ू--जिनकी आराधना करना'कठिन है; विष्णो:-- भगवान् विष्णु के; तत्--उस; परमम्--परम; पदम्--स्थान या, स्थिति को |
वैकुण्ठलोक में हरि के धाम को प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है; किन्तु तुम इतने भाग्यशालीहो कि समस्त जीवात्माओं के परमधाम भगवान् की पूजा द्वारा तुम्हारा उस धाम को जाना निश्चित हो चुका है।
"
स त्वं हरेरनुध्यातस्तत्पुंसामपि सम्मतः ।
कथं त्ववद्यं कृतवाननुशिक्षन्सतां ब्रतम् ॥
१२॥
सः--वह व्यक्ति; त्वमू--तुम; हरेः--परमे श्वर द्वारा; अनुध्यात:-- सदैव स्मरण किया जाकर; तत्--उसका; पुंसाम्ू-भक्तोंद्वारा; अपि-- भी; सम्मत:--पूज्य; कथम्--क्यों; तु--तब; अवद्यम्ू--निन्दनीय ( कार्य ); कृतवान्--किया गया;अनुशिक्षन्--दृष्टान्त उपस्थित करके; सताम्ू--साधु पुरुषों का; ब्रतम्--ब्रत |
भगवान् के शुद्ध भक्त होने के कारण भगवान् सदैव तुम्हारे बारे में सोचते रहते हैं और तुमभी उनके सभी परम विश्वस्त भक्तों द्वारा मान्य हो।
तुम्हारा जीवन आदर्श आचरण के निमित्त है।
अतः मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुमने ऐसा निन्दनीय कार्य कैसे किया।
"
तितिक्षया करुणया मैत्रया चाखिलजन्तुषु ।
समत्वेन च सर्वात्मा भगवान्सम्प्रसीदति ॥
१३॥
तितिक्षया--सहनशीलता से; करुणया--दया से; मैत्रया--मैत्री से; च-- भी; अखिल--समस्त; जन्तुषु--जीवात्माओं के;समत्वेन--समता से; च-- भी; सर्व-आत्मा--परमात्मा; भगवान्-- भगवान्; सम्प्रसीदति-- प्रसन्न हो जाता है।
भगवान् अपने भक्तों से तब अत्यधिक प्रसन्न होते हैं जब वे अन्य लोगों के साथ सहिष्णुता,दया, मैत्री तथा समता का बर्ताव करते हैं।
"
सम्प्रसन्ने भगवति पुरुष: प्राकृतैर्गुणै: ।
विमुक्तो जीवनिर्मुक्तो ब्रह्म निर्वाणमृच्छति ॥
१४॥
सम्प्रसन्ने--प्रसन्न होने पर; भगवति-- भगवान् के; पुरुष:--पुरुष; प्राकृते:--भौतिक; गुणैः -- प्रकृति के गुणों से; विमुक्त:--मुक्त हुए; जीव-निर्मुक्त:--सूक्ष्म शरीर से भी मुक्त; ब्रहा-- अनन्त; निर्वाणमू--आत्म-आनन्द; ऋच्छति--प्राप्त करता है
जो मनुष्य अपने जीवनकाल में भगवान् को सचमुच प्रसन्न कर लेता है, वह स्थूल तथासूक्ष्म भौतिक परिस्थितियों से मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार समस्त भौतिक गुणों से छूटकर वहअनन्त आत्म-आनच्द प्राप्त करता है।
"
भूतेः पञ्ञभिरारब्धेयोषित्पुरुष एव हि ।
तयोवव्यवायात्सम्भूतियोंषित्पुरुषयोरिह ॥
१५॥
भूतीः-- भौतिक तत्त्वों द्वारा; पञ्ञभि:--पाँच; आरब्धै:--प्रारम्भ की गई; योषित्--स्त्री; पुरुष:--पुरुष; एबव--की तरह; हि--निश्चय ही; तयो:--उनके; व्यवायात्--विषयी जीवन द्वारा; सम्भूति:--पुनः सृष्टि; योषित्--स्त्रियों की; पुरुषयो: --तथा पुरुषोंकी; इह--इस जगत में |
भौतिक जगत की सृष्टि पाँच तत्त्वों से प्रारम्भ होती है और इस तरह प्रत्येक वस्तु, जिसमेंपुरुष अथवा स्त्री का शरीर भी सम्मिलित है, इन तत्त्वों से उत्पन्न होती है।
पुरुष तथा स्त्री केविषयी जीवन ( समागम ) से इस जगत में पुरुषों तथा स्त्रियों की संख्या में और वृद्धि होती है।
"
एवं प्रवर्तते सर्ग: स्थिति: संयम एव च ।
गुणव्यतिकराद्राजन्मायया परमात्मन: ॥
१६॥
एवम्--इस प्रकार; प्रवर्तते--घटित होता है; सर्ग:--सृष्टि; स्थितिः--पालन; संयम:--प्रलय; एव--निश्चय ही; च--तथा;गुण--गुणों की; व्यतिकरात्--पारस्परिक क्रिया से; राजन्ू--हे राजा; मायया--माया द्वारा; परम-आत्मन:-- भगवान् की |
मनु ने आगे कहा : हे राजा श्रुव, भगवान् की मोहमयी भौतिक शक्ति के द्वारा तथा भौतिकप्रकृति के तीनों गुणों की पारस्परिक क्रिया से ही सृष्टि, पालन तथा संहार होता रहता है।
"
निमित्तमात्रं तत्रासीच्निर्गुण: पुरुषर्षभ: ।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्व॑ं यत्र भ्रमति लोहवतू ॥
१७॥
निमित्त-मात्रमू-दूरस्थ कारण; तत्र--तब; आसीतू-- था; निर्गुण:--कल्मषरहित; पुरुष-ऋषभ: -- परम पुरुष; व्यक्त--प्रकट;अव्यक्तमू--अप्रकट; इृदम्--यह; विश्वम्--जगत; यत्र--जहाँ; भ्रमति--घूमता है; लोह-वत्--लोहे के समान |
हे श्रुव, भगवान् प्रकृति के गुणों के द्वारा कलुषित नहीं होते।
वे इस भौतिक दृश्य जगत कीउत्पति के दूरस्थ कारण ( निमित्त ) हैं।
उनकी प्रेरणा से अन्य अनेक कारण तथा कार्य उत्पन्न होतेहैं और तब यह सारा ब्रह्माण्ड उसी प्रकार घूमता है जैसे कि लोहा चुम्बक की संचित शक्ति सेघूमता है।
"
स खल्विदं भगवान्कालशक्त्यागुणप्रवाहेण विभक्तवीर्य: ।
करोत्यकर्तेव निहन्त्यहन्ताचेष्टा विभूम्न: खलु दुर्विभाव्या ॥
१८॥
सः--वह; खलु--फिर भी; इृदम्--यह ( ब्रह्माण्ड ); भगवानू-- भगवान्; काल--समय की; शक्त्या--शक्ति से; गुण-प्रवाहेण--गुणों की अन्योन्य क्रिया से; विभक्त--विभाजित; बीर्य:--( जिसकी ) शक्तियाँ; करोति-- प्रभाव डालता है;अकर्ता--न करनेवाला; एव--यद्यपि; निहन्ति--मारता है; अहन्ता--न मारनेवाला; चेष्टा--शक्ति; विभूम्न:--भगवान् की;खलु--निश्चय ही; दुर्विभाव्या--अचिन्तनीय |
भगवान् अपनी अचिन्त्य काल-रूप परम शक्ति से प्रकृति के तीनों गुणों में अन्योन्य क्रियाउत्पन्न करते हैं जिससे नाना प्रकार की शक्तियाँ प्रकट होती हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि वेकार्यशील हैं, किन्तु वे कर्ता नहीं हैं।
वे संहार तो करते हैं, किन्तु संहारकर्ता नहीं हैं।
अत: यहमाना जाता है कि केवल उनकी अचिन्तनीय शक्ति से सब कुछ घट रहा है।
"
सोनन्तोन्तकर: कालोनादिरादिकृदव्यय: ।
जन॑ जनेन जनयन्मारयन्पृत्युनान्नतकम् ॥
१९॥
सः--वह; अनन्त:--अनन्त; अन्त-करः--संहारकर्ता; काल:--काल, समय; अनादि: --जिसका आदि नहीं है; आदि-कृत्--प्रत्येक वस्तु का आदि; अव्यय:--न चुकने वाले; जनम्--जीवात्माएँ; जनेन--जीवात्माओं के द्वारा; जनयन्--उत्पन्न कराकर;मारयन्--मारना; मृत्युना--के द्वारा; अन्तकम्--वधकर्ता |
हे ध्रुव, भगवान् नित्य हैं, किन्तु कालरूप में वे सबों को मारनेवाले हैं।
उनका आदि नहीं है,यद्यपि वे हर वस्तु के आदि कर्ता हैं।
वे अव्यय हैं, यद्यपि कालक्रम में हर वस्तु चुक जाती है।
जीवात्मा की उत्पत्ति पिता के माध्यम से होती है और मृत्यु द्वारा उसका विनाश होता है, किन्तुभगवान् जन्म तथा मृत्यु से सदा मुक्त हैं।
"
न वे स्वपक्षोस्य विपक्ष एव वापरस्य मृत्योर्विशतः सम॑ प्रजा: ।
त॑ धावमानमनुधावन्त्यनीशायथा रजांस्यनिलं भूतसड्जाः ॥
२०॥
न--नहीं; वै--फिर भी; स्व-पक्ष:--मित्र-पक्ष; अस्य-- भगवान् का; विपक्ष:--शत्रु; एव--निश्चय ही; वा--अथवा; परस्यथ--परमेश्वर का; मृत्यो:--काल रूप में; विशतः--प्रवेश करता; समम्--समान रूप से; प्रजा:--जीवात्माएँ; तम्--उसको;धावमानम्--चलायमान; अनुधावन्ति-- अनुसरण करते हैं; अनीशा:--पराश्रित जीवात्माएँ; यथा--जिस तरह; रजांसि-- धूलके कण; अनिलम्--वायु; भूत-सझ्ञ:--अन्य भौतिक तत्त्व
अपने शाश्वत काल रूप में श्रीभगवान् इस भौतिक जगत में विद्यमान हैं और सबों के प्रतिसमभाव रखनेवाले हैं।
न तो उनका कोई मित्र है, न शत्रु।
काल की परिधि में हर कोई अपनेकर्मों का फल भोगता है।
जिस प्रकार वायु के चलने पर श्षुद्र धूल के कण हवा में उड़ते हैं, उसीप्रकार अपने कर्म के अनुसार मनुष्य भौतिक जीवन का सुख भोगता या कष्ट उठाता है।
"
आयुषोपचयं जन्तोस्तथेवोपचयं विभु: ।
उभाभ्यां रहितः स्वस्थो दुःस्थस्य विदधात्यसौ ॥
२१॥
आयुष:--जीवन अवधि का; अपचयम्--हास; जन्तो:--जीवात्माओं का; तथा--उसी प्रकार; एब-- भी; उपचयम्--वृद्धि;विभुः--भगवान्; उभाभ्याम्--उन दोनों से; रहित:--रहित, मुक्त; स्व-स्थ:--अपनी दिव्य स्थिति में सदैव स्थित; दुःस्थस्य--कर्म के नियम के अन्तर्गत जीवात्मा का; विदधाति--देता है; असौ--वह ।
भगवान् विष्णु सर्वशक्तिमान हैं और वे प्रत्येक को सकाम कर्मों का फल देते हैं।
इस प्रकारजीवात्मा चाहे अल्पजीवी हो या दीर्घजीवी, भगवान् तो सदा ही दिव्य पद पर रहते हैं और उनकीजीवन-अवधि के घटने या बढ़ने का कोई प्रश्न नहीं उठता।
"
केचित्कर्म वदन्त्येनं स््वभावमपरे नृप ।
एके काल परे देव पुंसः काममुतापरे ॥
२२॥
केचित्--कुछ; कर्म--सकाम कर्म; वदन्ति--कहते हैं; एनमू--वह; स्वभावम्--स्वभाव; अपरे--अन्य; नृप--हे राजा श्रुव;एके--कुछ; कालम्--समय, काल; परे-- अन्य; दैवम्-- भाग्य; पुंसः--जीवात्मा की; कामम्--इच्छा; उत-- भी; अपरे--अन्य
कुछ लोग विभिन्न योनियों तथा उनके सुख-दुख में पाये जाने वाले अन्तर को कर्म-फलबताते हैं।
कुछ इसे प्रकृति के कारण, अन्य लोग काल तथा भाग्य के कारण और शेष इच्छाओंके कारण बताते हैं।
"
अव्यक्तस्थाप्रमेयस्य नानाशक्त्युदयस्य च ।
न वै चिकीर्षितं तात को वेदाथ स्वसम्भवम् ॥
२३॥
अव्यक्तस्थ--अप्रकट का; अप्रमेयस्थ--अप्रमेय का; नाना--अनेक; शक्ति--शक्तियाँ; उदयस्य-- प्रकट करनेवाले का; च--भी; न--कभी नहीं; वै--निश्चय ही; चिकीर्षितम्--योजना; तात--हे बालक; कः--कौन; वेद--जान सकता है; अथ--अतः; स्व--अपनी; सम्भवम्--उत्पत्ति |
परम सत्य अर्थात् सत्त्त कभी भी अपूर्ण ऐन्द्रिय प्रयास द्वारा जानने का विषय नहीं रहा है, नही उसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
वह पूर्ण भौतिक शक्ति सहश नाना प्रकार कीशक्तियों का स्वामी है और उसकी योजना या कार्यों को कोई भी नहीं समझ सकता।
अतःनिष्कर्ष यह निकलता है कि वे समस्त कारणों के आदि कारणस्वरूप हैं, अतः उन्हें कल्पना द्वारा नहीं जाना जा सकता।
"
न चैते पुत्रक भ्रातुर्हन्तारो धनदानुगा: ।
विसर्गादानयोस्तात पुंसो दैवं हि कारणम् ॥
२४॥
न--कभी नहीं; च-- भी; एते--ये सब; पुत्रक-हे पुत्र; भ्रातु:ः--तुम्हारे भाई के; हन्तार: --मारनेवाले; धनद--कुवेर के;अनुगा:--अनुचर; विसर्ग--जन्म; आदानयो:--मृत्यु का; तात--हे पुत्र; पुंसः--जीवात्मा का; दैवम्--ई श्वर; हि--निश्चय ही;कारणमू--कारण।
हे पुत्र, वे कुवेर के अनुचर यक्षगण तुम्हारे भाई के वास्तविक हत्यारे नहीं हैं; प्रत्येकजीवात्मा का जन्म तथा मृत्यु तो समस्त कारणों के कारण परमेश्वर द्वारा ही तय होती है।
स एव विश्व सृजति स एवावति हन्ति च ।
"
अथापि ह्ानहड्जारान्राज्यते गुणकर्मभि: ॥
२५॥
सः--वह; एव--निश्चय ही; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; सृजति--उत्पन्न करता है; सः--वह; एब--निश्चय ही; अवति--पालता है;हन्ति--संहार करता है; च-- भी; अथ अपि--और भी; हि--निश्चय ही; अनहड्जारात्ू--अहंकाररहित होने से; न--नहीं;अज्यते--फँसता है; गुण--गुणों से; कर्मभि:--कर्मों से
भगवान् ही इस भौतिक जगत की सृष्टि करते, पालते और यथासमय संहार करते हैं, किन्तुऐसे कार्यों से परे रहने के कारण वे इनमें न तो अहंकार से और न प्रकृति के गुणों द्वारा प्रभावितहोते हैं।
"
एष भूतानि भूतात्मा भूतेशों भूतभावन: ।
स्वशकत्या मायया युक्त: सृजत्यत्ति च पाति च ॥
२६॥
एक: --यह; भूतानि--समस्त प्राणी; भूत-आत्मा--समस्त जीवात्माओं का परमात्मा; भूत-ईश: --प्रत्येक का नियन्ता; भूत-भावन: --प्रत्येक का पालनकर्ता; स्व-शकत्या--अपनी शक्ति से; मायया--बहिरंगा शक्ति से; युक्त:--ऐसे साधन से; सृजति--उत्पन्न करता है; अत्ति--संहार करता है; च--तथा; पाति--पालन करता है; च--और।
भगवान् समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं।
वे हर एक के नियामक तथा पालक हैं; वेअपनी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से सभी जीवों का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं।
"
तमेव मृत्युममृतं तात दैव॑सर्वात्मनोपेहि जगत्परायणम् ।
यस्मै बलिं विश्वसृजो हरन्तिगावो यथा वै नसि दामयन्त्रिता: ॥
२७॥
तम्--उनको; एव--निश्चय ही; मृत्युम्-मृत्यु; अमृतम्-- अमरत्व; तात--हे पुत्र; दैवम्ू--ई श्वर; सर्व-आत्मना--सभी प्रकार से;उपेहि--शरण में जाओ; जगत्--जगत का; परायणम्--परिणति, चरम लक्ष्य; यस्मै--जिसको; बलिमू-- भेंट; विश्व-सृज:--ब्रह्मा जैसे समस्त देवता; हरन्ति--ले जाते हैं; गाव: --बैल; यथा--जिस प्रकार; बै--निश्चय ही; नसि--नाक में; दाम--रस्सीसे; यन्त्रिता:--वश में किये गये।
हे बालक श्रुव, तुम भगवान् की शरण में जाओ जो जगत की प्रगति के चरम लक्ष्य हैं।
ब्रह्मादि सहित सभी देवगण उनके नियंत्रण में कार्य कर रहे हैं, जिस प्रकार नाक में रस्सी पड़ाबैल अपने स्वामी द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
"
यः पञ्जञवर्षो जननीं त्वं विहायमातु: सपत्या वचसा भिन्नमर्मा ।
बन॑ गतस्तपसा प्रत्यगक्ष-माराध्य लेभे मूर्ध्नि पदं त्रिलोक्या: ॥
२८॥
यः--जो; पश्ञ-वर्ष:--पाँच साल के; जननीम्--माता को; त्वमू--तुम; विहाय--छोड़ कर; मातु:--माता का; स-पत्या: --सौतों के; वचसा--शब्दों से; भिन्न-मर्मा--हृदय में शोकाकुल; वनम्--जंगल को; गत:--गये हुए; तपसा--तपस्या द्वारा;प्रत्यक्-अक्षम्--परमे ध्वर को; आराध्य--पूज कर; लेभे--प्राप्त किया; मूर्ध्िनि--चोटी पर; पदम्--पद; त्रि-लोक्या:--तीनोंलोकों की।
हे श्रुव, तुम केवल पाँच वर्ष की आयु में ही अपनी माता कि सौत के बचनों से अत्यन्त दुखीहुए और बड़ी बहादुरी से अपनी माता का संरक्षण त्याग दिया तथा भगवान् का साक्षात्कार करनेके उद्देश्य से योगाभ्यास में संलग्न होने के लिए जंगल चले गये थे।
इस कारण तुमने पहले से हीतीनों लोकों में सर्वोच्च पद प्राप्त कर लिया है।
"
तमेनमझ्त्मनि मुक्तविग्रहेव्यपाश्नितं निर्गुणमेकमक्षरम् ।
आत्मानमन्विच्छ विमुक्तमात्महग्यस्मिन्रिदं भेदमसत्प्रतीयते ॥
२९॥
तम्--उसको; एनम्--वह; अड्र--हे ध्रुव; आत्मनि--मन में; मुक्त-विग्रहे--क्रो ध-रहित; व्यपाभ्रितम्--स्थित; निर्गुणम्--दिव्य; एकम्--एक; अक्षरम्--अच्युत ब्रह्म; आत्मानम्ू--स्व; अन्विच्छ--ढूँढने का यत्न करो; विमुक्तम्ू--अकलुषित; आत्म-हक्--परमात्मा की ओर मुख किये; यस्मिन्--जिसमें; इदम्--यह; भेदम््--अन्तर; असत्--असत्य; प्रतीयते--प्रतीत होता है |
अतः हे ध्रुव, अपना ध्यान परम पुरुष अच्युत ब्रह्म की ओर फेरो।
तुम अपनी मूल स्थिति में रह कर भगवान् का दर्शन करो।
इस तरह आत्म-साक्षात्कार द्वारा तुम इस भौतिक अन्तर कोक्षणिक पाओगे।
"
त्वं प्रत्यगात्मनि तदा भगवत्यनन्तआनन्दमात्र उपपन्नसमस्तशक्तौ ।
भक्ति विधाय परमां शनकैरविद्या-ग्रन्थि विभेत्स्यसि ममाहमिति प्ररूढम् ॥
३०॥
त्वमू--तुम; प्रत्यकू-आत्मनि--परमात्मा को; तदा--उस समय; भगवति-- भगवान् को; अनन्ते--असीम को; आनन्द-मात्रे--समस्त आनन्द का आगार; उपपन्न--से युक्त; समस्त--सर्व; शक्तौ--शक्तियाँ; भक्तिम्-- भक्ति; विधाय--करके; परमाम्--परम; शनकै: --तुरन्त; अविद्या--माया की; ग्रन्थिमू--गाँठ; विभेत्स्यसि--नष्ट कर दोगे, काट दोगे; मम--मेरा; अहमू--मैं;इति--इस प्रकार; प्ररूढम्--ह॒ढ़तापूर्वक स्थित, सुदृढ़
इस प्रकार अपनी सहज स्थिति प्राप्त करके तथा समस्त आनन्द के सर्व शक्तिसम्पन्न आगारतथा प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा में स्थित परमेश्वर की सेवा करके तुम तुरन्त ही 'मैं' तथा'मेरा' के मायाजनित बोध को भल जाओगे।
"
संयच्छ रोषं भद्वं ते प्रतीपं श्रेयसां परम् ।
श्रुतेन भूयसा राजन्नगदेन यथामयम् ॥
३१॥
संयच्छ--जरा रोको; रोषम्--क्रोध को; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; प्रतीपम्--शत्रु; श्रेयसाम्--समस्त अच्छाई का;परम्--अग्रणी; श्रुतेन--सुनकर; भूयसा--निरन्तर; राजन्--हे राजा; अगदेन--उपचार से; यथा--जिस प्रकार; आमयम्--रोग
हे राजन, मैंने तुम्हें जो कुछ कहा है, उस पर विचार करो।
यह राग पर ओषधि के समानकाम करेगा।
अपने क्रोध को रोको, क्योंकि आत्मबोध के मार्ग में क्रोध सबसे बड़ा शत्रु है।
मैंतुम्हारे मंगल की कामना करता हूँ।
तुम मेरे उपदेशों का पालन करो।
"
येनोपसूष्टात्ुरुषाललोक उद्विजते भूशम् ।
न बुधस्तद्वशं गच्छेदिच्छन्नभयमात्मन: ॥
३२॥
येन--जिससे; उपसृष्टात्--वशीभूत होकर; पुरुषात्--पुरुष द्वारा; लोक: -- प्रत्येक व्यक्ति; उद्धिजते-- भयभीत होता है;भूशम्--अत्यधिक; न--कभी नहीं; बुध: --बुद्धिमान पुरुष; ततू-क्रोध के; वशम्--वश में; गच्छेत्--जाए; इच्छन्--चाहतेहुए; अभयम्--निर्भीकता, मुक्ति; आत्मन:--स्व की |
जो व्यक्ति इस भौतिक जगत से मुक्ति चाहता है उसे चाहिए कि वह क्रोध के वशीभूत न हो,क्योंकि क्रोध से मोहग्रस्त होने पर वह अन्य सबों के लिए भय का कारण बन जाता है।
"
हेलनं गिरिश क्षातुर्धनदस्य त्वया कृतम् ।
यज्जघध्निवान्पुण्यजनान्भ्रातृष्नानित्यमर्षित: ॥
३३॥
हेलनम्--दुर्व्यवहार; गिरिश--शिवजी के; भ्रातु:-- भाई; धनदस्य--कुवेर का; त्वया--तुम्हारे द्वारा; कृतम्--किया गया;यत्--क्योंकि; जध्निवान्--तुम्हारे द्वारा मारे गये; पुण्य-जनान्ू--यक्षगण; भ्रातृ-तुम्हारे भाई के; घ्नान्ू--मारने वाले; इति--इस प्रकार ( सोचकर ); अमर्षित:--क्रुद्ध |
हे ध्रुव, तुमने सोचा कि यक्षों ने तुम्हारे भाई का वध किया है, अतः तुमने अनेक यक्षों कोमार डाला है।
किन्तु इस कृत्य से तुमने शिवजी के भ्राता एवं देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर केमन को क्षुब्ध कर दिया हैं।
ख्याल करो कि तुम्हारे ये कर्म कुबेर तथा शिव दोनों के प्रति अतीवअवज्ञापूर्ण हैं।
"
त॑ं प्रसादय वत्साशु सन्नत्या प्रश्रयोक्तिभि: ।
न यावन्महतां तेज: कुल नोउभिभविष्यति ॥
३४॥
तम्--उसको; प्रसादय--शान्त करो; वत्स--मेरे पुत्र; आशु--शीघ्र; सन्नत्या--नमस्कार द्वारा; प्रश्रया--सदाचरण से;उक्तिभि:--विनीत वचनों से; न यावत्--इसके पूर्व कि; महताम्-महान् पुरुषों का; तेज:--कोप; कुलम्ू--परिवार को;नः--हमारे; अभिभविष्यति-- प्रभावित कर दे।
इस कारण, हे पुत्र, तुम विनीत बचनों तथा प्रार्थना द्वारा कुबेर को शीघ्र शान्त कर लोजिससे कि उनका कोप हमारे परिवार को किसी तरह प्रभावित न कर सके।
"
एवं स्वायम्भुव: पौत्रमनुशास्य मनुर्ध्रुवम् ।
तेनाभिवन्दितः साकमृषिश्रिः स्वपुरं ययौ ॥
३५॥
एवम्--इस प्रकार; स्वायम्भुव: --स्वायंभुव; पौत्रम्-- अपने पौत्र को; अनुशास्य--शिक्षा देकर; मनुः--मनु; ध्रुवम्-- धुवमहाराज को; तेन--उसके द्वारा; अभिवन्दितः--नमस्कृत; साकम्--साथ-साथ; ऋषिभि:--ऋषियों के साथ; स्व-पुरम्ू-- अपनेधाम को; ययौ--चले गये।
इस प्रकार जब स्वायंभुव मनु अपने पौत्र ध्रुव महाराज को शिक्षा दे चुके तो श्वुव ने उन्हें सादर नमस्कार किया।
फिर ऋषियों समेत मनु अपने धाम को चले गये।
"
अध्याय बारह: ध्रुव महाराज भगवान के पास वापस चले गये
4.12मैत्रेय उवाचध्रुवं निवृत्तं प्रतिबुद्धय वैशसा-दपेतमन्युं भगवान्धनेश्वरः।
तत्रागतश्चारणयक्षकित्नरेःसंस्तूयमानो न््यवद॒त्कृताझ्ललिम् ॥
१॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; ध्रुवम्-- ध्रुव महाराज को; निवृत्तम्--विमुख; प्रतिबुद्धय--जानकर; बैशसात्--वध से;अपेत--शान्त; मन्युम्ू-- क्रोध; भगवान्--कुबेर; धन-ई श्वरः -- धन के स्वामी; तत्र--वहाँ; आगत:--प्रकट हुए; चारण--चारण; यक्ष--यक्षों; किन्नरैः--तथा किक्नरों द्वारा; संस्तूयमान:--पूजित होकर; न्यवदत्--बोला; कृत-अज्जञलिम्ू--हाथ जोड़ेहुए ध्रुव से |
महर्षि मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, ध्रुव महाराज का क्रोध शान्त हो गया और उन्होंने यक्षों कावध करना पूरी तरह बन्द कर दिया।
जब सर्वाधिक समृद्ध धनपति कुबेर को यह समाचार मिलातो बे श्रुव के समक्ष प्रकट हुए।
वे यक्षों, किन्नरों तथा चारणों द्वारा पूजित होकर अपने सामनेहाथ जोड़कर खड़े हुए ध्रुव महाराज से बोले।
"
धनद उबाचभो भो: क्षत्रियदायाद परितुष्टोस्मि तेडनघ ।
यत्त्वं पितामहादेशादवैरं दुस्त्यजमत्यज: ॥
२॥
धन-दः उबाच--धनपति ( कुबेर ) ने कहा; भो: भो:--ेरे; क्षत्रिय-दायाद-हे क्षत्रिय पुत्र; परितुष्ट: --अत्यन्त प्रसन्न; अस्मि--हूँ; ते--तुमसे; अनध--हे पापहीन; यत्--क्योंकि; त्वम्--तुम; पितामह--अपने पितामह के; आदेशात्-- आदेश से; बैरम्--शत्रुता, वैर; दुस्त्यजम्ू--न छोड़ी जा सकने योग्य; अत्यज:--त्याग किया है|
धनपति कुबेर ने कहा : हे निष्पाप क्षत्रियपुत्र, मुझ यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई किअपने पितामह के आदेश से तुमने वैरभाव को त्याग दिया यद्यपि इसे तज पाना बहुत कठिनहोता है।
मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ।
"
न भवानवधीद्यक्षान्न यक्षा भ्रातरं तव ।
काल एव हि भूतानां प्रभुरप्ययभावयो: ॥
३॥
न--नहीं; भवान्--तुमने; अवधीत्--मारा है; यक्षान्--यक्षों को; न--नहीं; यक्षा: --यक्षों ने; भ्रातरमू-- भाई को; तव--तुम्हारे; काल:--समय, काल; एव--निश्चय ही; हि--क्योंकि; भूतानाम्ू--जीवात्माओं के; प्रभु:ः--परमे श्वर; अप्यय-भावयो:--प्रलय तथा सृजन के |
वास्तव में न तो तुमने यक्षों को मारा है न उन्होंने तुम्हारे भाई को मारा है, क्योंकि सृजन तथाविनाश का अनन्तिम कारण परमेश्वर का नित्य स्वरूप काल ही है।
"
अहं त्वमित्यपार्था धीरज्ञानात्पुरुषस्य हि ।
स्वाणीवाभात्यतद्धयानाद्यया बन्धविपर्ययौं ॥
४॥
अहम्-ैं; त्वम्--तुम; इति--इस प्रकार; अपार्था--मिथ्या; धी: --बुद्द्धि; अज्ञानातू--अज्ञान से; पुरुषस्थ--पुरुष के; हि--निश्चय ही; स्वाप्नि--स्वज; इब--सहृश; आभाति--प्रकट होती है; अ-ततू-ध्यानात्--देहात्मबुद्धि से; यया--जिससे; बन्ध--बन्धन; विपर्ययौ--तथा दुख ।
देहात्मबुद्धि के आधार पर स्व तथा अन्यों का 'मैं' तथा 'तुम' के रूप में मिथ्याबोध अविद्याकी उपज है।
यही देहात्मबुद्धि जन्म-मृत्यु के चक्र का कारण है और इसीसे इस जगत में हमेंनिरन्तर बने रहना पड़ता है।
"
तद्गच्छ श्रुव भद्गं ते भगवन्तमधोक्षजम् ।
सर्वभूतात्मभावेन सर्वभूतात्मविग्रहम् ॥
५॥
तत्--अतः; गच्छ--आओ; ध्रुव-- ध्रुव; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; भगवन्तम्-- भगवान् को; अधोक्षजम्-- भौतिकइन्द्रियों की विचार शक्ति के परे; सर्व-भूत--समस्त जीवात्माएँ; आत्म-भावेन--उन्हें एक सोच करके; सर्व-भूत--समस्तजीवात्माओं में; आत्म--परमात्मा; विग्रहम्--मूर्ति, विग्रह रूप |
हे शरुव, आगे आओ।
ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें।
भगवान् ही जो हमारी इन्द्रियों की विचार-शक्ति से परे हैं, समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं।
इसलिए सभी जीवात्माएँ बिना किसी अन्तरके एक हैं।
अतः तुम भगवान् के दिव्य रूप की सेवा प्रारम्भ करो, क्योंकि वे ही समस्त जीवोंके अनन्तिम आश्रय हैं।
"
भजस्व भजनीयाड्ूप्रिमभवाय भवच्छिदम् ।
युक्त विरहितं शक्त्या गुणमय्यात्ममायया ॥
६॥
भजस्व--सेवा में लगो; भजनीय--पूजा के योग्य; अड्रघ्रिमू--उनको जिनके चरण कमल; अभवाय--संसार से उद्धार के लिए;भव-छिदम्--जो भौतिक बन्धन की ग्रंथि को काटता है; युक्तम्--संलग्न; विरहितम्--पृथक्, विलग; शक्त्या--उसकी शक्तिको; गुण-मय्या--त्रिगुणों से युक्त; आत्म-मायया--अपनी अकल्पनीय शक्ति से |
अतः तुम अपने आपको भगवान् की भक्ति में पूर्णरूपेण प्रवृत्त करो क्योंकि वे हीसांसारिक बन्धन से हमें छुटकारा दिला सकते हैं।
अपनी भौतिक शक्ति में आसक्त रहकर भी वेउसके क्रियाकलापों से विलग रहते हैं।
भगवान् की अकल्पनीय शक्ति से ही इस भौतिक जगतमें प्रत्येक घटना घटती है।
"
वृणीहि काम॑ नृप यन्मनोगतंमत्तस्त्वमौत्तानपदेविशद्धितः ।
वरं वराहों म्बुजना भपादयो -रनन्तरं त्वां वयमड़ शुश्रुम ॥
७॥
वृणीहि--माँगो; कामम्--इच्छा; नृप--हे राजा; यत्--जो कुछ; मनः-गतम्--तुम्हारे मन के भीतर है; मत्त: --मुझसे; त्वम्ू--तुम; औत्तानपदे--हे महाराज उत्तानपाद के पुत्र; अविशद्धित:ः--बिना हिचक के; वरम्--वरदान; वर-अर्हई:--वर प्राप्त करने केयोग्य; अम्बुज--कमल; नाभ--जिसकी नाभि; पादयो: --उनके चरमकमलों पर; अनन्तरम्--निरन्तर; त्वामू--तुमको;वयम्--हमने; अड्भ--हे श्रुव; शुश्रुम--सुना है
हे महाराज उत्तानपाद के पुत्र, ध्रुव महाराज, हमने सुना है कि तुम कमलनाभ भगवान् कीदिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लगे रहते हो।
अतः तुम हमसे समस्त आशीर्वाद लेने के पात्र हो।
अतःबिना हिचक के जो तुम वर माँगना चाहो माँग सकते हो।
"
मैत्रेय उवाचस राजराजेन वराय चोदितोभ्रुवोी महाभागवतो महामतिः ।
हरौ स वद्रेड्चलितां स्मृतिं ययातरत्ययत्नेन दुरत्ययं तमः ॥
८॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; सः--वह; राज-राजेन--राजाओं के राजा ( कुबेर ) द्वारा; वराय-- आशीर्वाद के लिए;चोदितः--माँगने पर; ध्रुवः--श्रुव महाराज; महा-भागवतः--प्रथम कोटि के भक्त; महा-मति:--सर्वाधिक बुद्द्धिमान याविचारवान; हरौ-- भगवान् के प्रति; सः--उसने; वब्रे--माँगा; अचलिताम्--स्थिर, अखण्ड; स्मृतिम्ू--स्मृति; यया--जिससे;तरति--पार करता है; अयलेन--बिना कठिनाई के; दुरत्ययम्--अलंघ्य, दुस्तर; तमः--अंधकार, अज्ञान।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, जब यक्षराज कुबेर ने ध्रुव महाराज से वर माँगने केलिए कहा तो उस परम दिद्वान् शुद्ध भक्त, बुद्धिमान तथा विचारवान् राजा श्रुव ने यही याचनाकी कि भगवान् में उनकी अखंड श्रद्धा और स्मृति बनी रहे, क्योंकि इस प्रकार से मनुष्य अज्ञानके सागर को सरलता से पार कर सकता है, यद्यपि उसे पार करना अन्यों के लिए अत्यन्त दुस्तरहै।
"
तस्य प्रीतेन मनसा तां दत्त्वैडविडस्ततः ।
पश्यतोःन्तर्दधे सोपि स्वपुरं प्रत्यपद्यत ॥
९॥
तस्य--श्रुव से; प्रीतेन--परम प्रसन्न होकर; मनसा--मन से; तामू--उस स्मृति को; दत्त्वा--देकर; ऐडविड:--इडविडा का पुत्र,कुबेर; ततः--तत्पश्चात्; पश्यत: --जब श्रुव देख रहे थे; अन्तर्दधे-- अन्तर्धान हो गया; सः--वह ( ध्रुव ); अपि-- भी; स्व-पुरम्ू--अपनी पुरी को; प्रत्यपद्यत--वापस चला गया।
इडविडा के पुत्र कुबेर अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रुव महाराज कोमनचाहा वरदान दिया।
तत्पश्चात् वे श्रुव को देखते-देखते से अन्तर्धान हो गये और ध्रुव महाराजअपनी राजधानी वापस चले गये।
"
अथायजत यज्ञेशं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।
द्रव्यक्रियादेवतानां कर्म कर्मफलप्रदम् ॥
१०॥
अथ--तत्पश्चात्; अयजत--पूजा की; यज्ञ-ईशम्--यज्ञों के स्वामी की; क्रतुभि:--यज्ञोत्सवों द्वारा; भूरि--बड़ी; दक्षिणै:--दक्षिणा द्वारा; द्रव्य-क्रिया-देवतानाम्--यज्ञों का ( जिसमें सामग्री, कार्य तथा देवता सम्मिलित हैं ); कर्म--कर्म; कर्म-फल--कर्मों का परिणाम; प्रदमू--देनेवाला |
जब तक श्रुव महाराज घर में रहे उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान् को प्रसन्न करने केलिए यज्ञोत्सव सम्पन्न किये।
जितने भी संस्कार सम्बन्धी निर्दिष्ट यज्ञ हैं, वे भगवान् विष्णु कोप्रसन्न करने के निमित्त हैं, क्योंकि वे ही ऐसे समस्त यज्ञों के लक्ष्य हैं और यज्ञ-जन्य आशीर्वादोंके प्रदाता हैं।
"
सर्वात्मन्यच्युतेसर्वे तीव्रौघां भक्तिमुद्रहन् ।
दर्दर्शात्मनि भूतेषु तमेवावस्थितं विभुम् ॥
११॥
सर्व-आत्मनि--परमात्मा में; अच्युते--अच्युत में; असर्वे--किसी सीमा के बिना, असीम; तीब्र-ओघाम्--प्रबल वेग युक्त;भक्तिम्ू--भक्ति; उद्धहनू-- करते हुए; ददर्श--देखा; आत्मनि--परम आत्मा में; भूतेषु--समस्त जीवात्माओं में; तम्--उसको;एव--केवल; अवस्थितम्--स्थित, विराजमान; विभुम्--सर्वशक्तिमान |
ध्रुव महाराज निर्बाध-बल के साथ हर वस्तु के आगार परमेश्वर की भक्ति करने लगे।
भक्तिकरते हुए उन्हें ऐसा दिखता मानो प्रत्येक वस्तु उन्हीं ( भगवान् ) में स्थित है और वे समस्तजीवात्माओं में स्थित हैं।
भगवान् अच्युत कहलाते हैं, क्योंकि वे कभी भी अपने भक्तों कोसुरक्षा प्रदान करने के मूल कर्तव्य से चूकते नहीं।
"
तमेवं शीलसम्पन्नं ब्रह्मण्यं दीनवत्सलम् ।
गोप्तारं धर्मसेतूनां मेनिरे पितरं प्रजा: ॥
१२॥
तम्--उसको; एवम्--इस प्रकार; शील--दैवी गुण से; सम्पन्नम्ू--युक्त; ब्रह्मण्यम्--ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धालु; दीन--निर्धनोंके प्रति; वत्सलम्--दयालु; गोप्तारम्--रक्षक; धर्म-सेतूनाम्-- धार्मिक नियमों का; मेनिरे--सोचा; पितरम्--पिता; प्रजा: --जनता।
ध्रुव महाराज सभी दैवी गुणों से सम्पन्न थे; वे भगवान् के भक्तों के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु,दीनों तथा निर्दोषों के प्रति दयालु एवं धर्म की रक्षा करनेवाले थे।
इन गुणों के कारण वे समस्तनागरिकों के पिता तुल्य समझे जाते थे।
"
घदिंत्रशद्वर्षसाहस्त्रं शशास क्षितिमण्डलम् ।
भोगै: पुण्यक्षयं कुर्वन्नभोगैरशुभक्षयम् ॥
१३॥
घट्-त्रिंशत्--छत्तीस; वर्ष--वर्ष; साहस्रमू--हजार; शशास--राज्य किया; क्षिति-मण्डलम्--पृथ्वी लोक में; भोगैः-- भोगद्वारा; पुण्य--पवित्र कार्यों के फल का; क्षयम्ू--हानि, हास; कुर्वन्ू--करते हुए; अभोगै:--तपस्या से; अशुभ--अशुभ फलोंका; क्षयमू--हास
ध्रुव महाराज ने इस लोक पर छत्तीस हजार वर्षो तक राज्य किया; उन्होंने पुण्यों को भोगद्वारा और अशुभ फलों को तपस्या द्वारा क्षीण बनाया।
"
एवं बहुसवं काल॑ महात्माविचलेन्द्रियः ।
त्रिवर्गोपयिकं नीत्वा पुत्रायादाब्रूपासनम् ॥
१४॥
एवम्--इस प्रकार; बहु--अनेक; सवम्--वर्ष; कालम्ू--समय; महा-आत्मा--महान् पुरुष; अविचल-इन्द्रियः--इन्द्रियों केचलायमान हुए बिना; त्रि-वर्ग--तीन प्रकार के सांसारिक कार्य; औपयिकम्--करने के अनुकूल; नीत्वा--बिता करके;पुत्राय--अपने पुत्र को; अदातू-- प्रदान कर दिया; नृप-आसनम्--राज-सिंहासन ।
इस प्रकार आत्मसंयमी महापुरुष श्रुव महाराज ने तीन प्रकार के सांसारिक कार्यो--धर्म,अर्थ, तथा काम--को ठीक तरह से अनेकानेक वर्षों तक सम्पन्न किया।
तत्पश्चात् उन्होंने अपनेपुत्र को राजसिंहासन सौंप दिया।
"
मन्यमान डदं विश्व मायारचितमात्मनि ।
अविद्यारचितस्वणगन्धर्वनगरोपमम् ॥
१५॥
मन्यमान:--मानते हुए; इृदम्-यह; विश्वम्-ब्रह्माण्ड; माया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; रचितम्-निर्मित; आत्मनि--जीवात्माको; अविद्या--मोह से; रचित--निर्मित; स्वण--स्वण; गन्धर्व-नगर--मायाजाल; उपमम्--सहश |
.श्रील ध्रुव महाराज को अनुभव हो गया कि यह दृश्य-जगत जीवात्माओं को स्वप्न अथवामायाजाल के समान मोहग्रस्त करता रहता है, क्योंकि यह परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति माया कीसृष्टि है।
"
आत्मस्त्रयपत्यसुहददो बलमृद्धकोश-मन्तःपुरं परिविहारभुवश्च रम्या: ।
भूमण्डलं 'जलधिमेखलमाकलय्यकालोपसृष्टमिति स प्रययौं विशालाम् ॥
१६॥
आत्म--शरीर; स्त्री--पत्नियाँ; अपत्य--सन्तानें; सुहृदः--मित्र; बलम्--प्रभाव, सेना; ऋद्ध-कोशम्--समृद्ध खजाना; अन्तः-पुरम्ू--रनिवास; परिविहार-भुव:ः--क्री ड़ा-स्थल; च--तथा; रम्या:--सुन्दर; भू-मण्डलम्--पूरी पृथ्वी; जल-धि--समुद्रोंद्वारा; मेखलम्ू--घिरा; आकलख्य--मान कर; काल--समय द्वारा; उपसृष्टम्--उत्पन्न; इति--इस प्रकार; सः--वह; प्रययौ--चला गया; विशालामू--बदरिकाश्रम को |
अन्त में ध्रुव महाराज ने सारी पृथ्वी पर फैले और महासागरों से घिरे अपने राज्य को त्यागदिया।
उन्होंने अपने शरीर, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों, सेना, समृद्ध कोश, सुखकर महलों तथाविनोद-स्थलों को माया की सृष्टियाँ मान लिया।
इस तरह वे कालक्रम में हिमालय पर्वत परस्थित बदरिकाश्रम के वन में चले गये।
"
तस्यां विशुद्धकरण: शिववार्विगाह्मबद्ध्वासनं जितमरुन्मनसाहताक्षः ।
स्थूले दधार भगवत्प्रतिरूप एतद्ध्यायंस्तदव्यवहितो व्यसृजत्समाधौ ॥
१७॥
तस्यामू-बदरिका श्रम में; विशुद्ध--शुद्ध करके; करण: -- अपनी इन्द्रियाँ; शिव--शुद्ध; वाः--जल में; विगाह्म--स्नानकरके; बद्ध्वा--स्थिर करके; आसनम्--आसन; जित--जीतकर; मरुतू-- श्रासक्रिया; मससा--मन से; आहत--हट गई;अक्ष:--इन्द्रियाँ; स्थूले-- भौतिक; दधार--केन्द्रित किया; भगवत्-प्रतिरूपे-- भगवान् के स्थूल रूप में; एतत्--मन;ध्यायन्ू-- ध्यान करते हुए; तत्--उस; अव्यवहित:--बिना रुके; व्यसृजत्-- प्रवेश किया; समाधौ--समाधि में |
बदरिकाश्रम में ध्रुव महाराज की इन्द्रियाँ पूर्णतः शुद्ध हो गईं क्योंकि वे स्वच्छ शुद्ध जल मेंनियमित रूप से स्नान करते थे।
वे आसन पर स्थित हो गये और फिर उन्होंने योगक्रिया से श्वासतथा प्राणवायु को वश में किया।
इस प्रकार उन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से समेट लिया।
तब उन्होंने अपने मन को भगवान् के अर्चाविग्रह रूप में केन्द्रित किया जो भगवान् का पूर्णप्रतिरूप है और इस प्रकार से उनका ध्यान करते हुए वे पूर्ण समाधि में प्रविष्ट हो गये।
"
भक्ति हरौ भगवति प्रवहन्नजस्त्र-मानन्दबाष्पकलया मुहुरर्धमान: ॥
विक्लिद्यमानहृदय: पुलकाचिताड़ेनात्मानमस्मरदसाविति मुक्तलिड्रः ॥
१८॥
भक्तिम्ू-- भक्ति; हरौ--हरि में; भगवति-- भगवान्; प्रवहन्--निरन्तर लगे रह कर; अजस्त्रमू--सदैव; आनन्द--आनन्दमय;बाष्प-कलया--आँसुओं की धारा से; मुहुः--बारम्बार; अर्द्मान:--अभिभूत होकर; विक्लिद्यमान-- द्रवित; हृदयः--उसकाहृदय; पुलक--रोमांच; आचित--ढका; अड्भ:--उसका शरीर; न--नहीं; आत्मानम्--शरीर; अस्मरत्--स्मरण किया; असौ--बह; इति--इस प्रकार; मुक्त-लिड्र:--सूक्ष्म शरीर से मुक्त |
दिव्य आनन्द के कारण उनके नेत्रों से सतत अश्रु बहने लगे, उनका हृदय द्रवित हो उठा औरपूरे शरीर में कम्पन तथा रोमांच हो आया।
भक्ति की समाधि में पहुँचने से ध्रुव महाराज अपनेशारीरिक अस्तित्व को पूर्णतः भूल गये और तुरन्त ही भौतिक बन्धन से मुक्त हो गये।
स्वतंत्र होना पड़ता है।
यह स्वतंत्रता मुक्त-लिड्ज कहलाती है।
"
स ददर्श विमानाछयं नभसोवतरद्ध्रूव: ।
विभ्राजयद्श दिशो राकापतिमिवोदितम् ॥
१९॥
सः--उसने; दरदर्श--देखा; विमान--विमान; अछयम्-- अत्यन्त सुन्दर; नभसः--आकाश से; अवतरत्--उतरते हुए; ध्रुव:--ध्रुव महाराज; विभ्राजयत्--आलोकित करते हुए; दश--दस; दिश:ः --दिशाएँ; राका-पतिम्--पूर्णचन्द्र; इब--सहश;डदितम्ू--उदित।
ज्योंही उनकी मुक्ति के लक्षण प्रकट हुए, उन्होंने एक अत्यन्त सुन्दर विमान को आकाश सेनीचे उतरते हुए देखा, मानो तेजस्वी पूर्ण चन्द्रमा दशों दिशाओं को आलोकित करते हुए नीचेआ रहा हो।
"
तत्रानु देवप्रवरौ चतुर्भुजाएयामौ किशोरावरुणाम्बुजेक्षणौ ।
स्थिताववष्ट भ्य गदां सुवाससौकिरीटहाराड्रदचारुकुण्डलौ ॥
२०॥
तत्र--वहाँ; अनु--तब; देव-प्रवरौ--दो अत्यन्त सुन्दर देवता; चतु:-भुजौ--चार भुजाओं वाले; श्यामौ--श्याम वर्ण के;किशोरौ--अत्यन्त तरुण; अरुण--लाल; अम्बुज--कमल; ईक्षणौ--आँखों वाले; स्थितौ--स्थित; अवष्टभ्य--लिये;गदाम्--गदा; सुवाससौ--सुन्दर वस्त्रों से युक्त; किरीट--मुकुट; हार--माला; अड्रद--बिजावट; चारु--सुन्दर; कुण्डलौ --कान के कुण्डल सहित
ध्रुव महाराज ने विमान में भगवान् विष्णु के दो अत्यन्त सुन्दर पार्षदों को देखा।
उनके चारभुजाएँ थीं और श्याम वर्ण की शारीरिक कान्ति थी, वे अत्यन्त तरुण थे और उनके नेत्र लाल कमल-पुष्पों के समान थे।
वे हाथों में गदा धारण किये थे और उनकी वेशभूषा अत्यन्तआकर्षक थी।
वे मुकुट धारण किये थे और हारों, बाजूबन्दों तथा कुण्डलों से सुशोभित थे।
"
विज्ञाय तावुत्तमगायकिड्जूरा-वशभ्युत्थित: साध्वसविस्मृतक्रम: ।
ननाम नामानि गृणन्मधुद्विष:पार्षत्प्रधानाविति संहताझ्ञलि: ॥
२१॥
विज्ञाय--जानकर; तौ--उन दोनों को; उत्तम-गाय--( उत्तम यशवाले ) विष्णु के; किड्डूरौ--दो दास; अभ्युत्थित:--खड़ा होगया; साध्वस--हड़बड़ा कर; विस्मृत-- भूल गया; क्रम: --उचित व्यवहार; ननाम--नमस्कार किया; नामानि--नामों को;गृणन्--उच्चारण करते, जपते; मधु-द्विष:--मधु के शत्रु, भगवान् के; पार्षत्-पार्षद; प्रधानौ-- प्रमुख; इति--इस प्रकार;संहत--बद्ध; अज्जञलिः--हाथ जोड़े |
यह देखकर कि ये असाधारण पुरुष भगवान् के प्रत्यक्ष दास हैं, ध्रुव महाराज तुरन्त उठ खड़ेहुए।
किन्तु हड़बड़ाहट में जल्दी के कारण वे उचित रीति से उनका स्वागत करना भूल गये।
अतः उन्होंने हाथ जोड़ कर केवल नमस्कार किया और वे भगवान् के पवित्र नामों की महिमाका जप करने लगे।
"
त॑ कृष्णपादाभिनिविष्टचेतसंबद्धाञलि प्रश्रयनप्रकन्धरम् ।
सुनन्दनन्दावुपसृत्य सस्मितंप्रत्यूचतु: पुष्करनाभसम्मतौ ॥
२२॥
तम्--उसको; कृष्ण -- भगवान् कृष्ण के; पाद--चरण कमलों का; अभिनिविष्ट--विचार में लीन; चेतसम्--जिसका हृदय;बद्ध-अद्जलिम्--हाथ जोड़े; प्रश्रय--विनीत भाव से; नम्न--झुका हुआ; कन्धरम्--जिसकी गर्दन; सुनन्द--सुनन्द; नन्दौ --तथा नन्द; उपसृत्य--पास आकर; स-स्मितम्--हँसते हुए; प्रत्यूचतु: --सम्बोधित किया; पुष्कर-नाभ--विष्णु का, जिनकेकमलनाभि है; सम्मतौ--निजी दास
भ्रुव महाराज भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के चिन्तन में सदैव लीन रहते थे।
उनकाहृदय कृष्ण से पूरित था।
जब परमेश्वर के दो निजी दास, जिनके नाम सुनन्द तथा नन्द थे,प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए उनके पास पहुँचे तो ध्रुव महाराज हाथ जोड़कर नग्नतापूर्वक सिर नीचाकिये खड़े हो गये।
तब उन्होंने धुत्र महाराज को इस प्रकार से सम्बोधित किया।
"
सुनन्दनन्दावूचतु:भो भो राजन्सुभद्वं ते वा नोउवहितः श्रृणु ।
यः पशञ्ञवर्षस्तपसा भवान्देवमतीतृपत् ॥
२३॥
सुनन्द-नन्दौ ऊचतु:--सुनन्द तथा नन्द ने कहा; भो: भो: राजन्--हे राजा; सु-भद्रम्ू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; वाचम्--शब्द; न:ः--हमारे; अवहितः-ध्यानपूर्वक; श्रुणु--सुनो; यः--जो; पश्च-वर्ष:--पाँच वर्ष के; तपसा--तपस्या द्वारा; भवान्--आप; देवम्-- भगवान्; अतीतृपत्-- अत्यधिक प्रसन्न |
विष्णु के दोनों विश्वस्त पार्षद सुनन्द तथा नन्द ने कहा : हे राजनू, आपका कल्याण हो।
हमजो कहें, कृपया उसे ध्यानपूर्वक सुनें।
जब आप पाँच वर्ष के थे तो आपने कठिन तपस्या की थीऔर उससे आपने पुरुषोत्तम भगवान् को अत्यधिक प्रसन्न कर लिया था।
"
तस्याखिलजगद्धातुरावां देवस्य शार्डलिण: ।
पार्षदाविह सम्प्राप्तौ नेतुं त्वां भगवत्पदम् ॥
२४॥
तस्य--उसके; अखिल--सम्पूर्ण; जगत्ू--ब्रह्माण्ड; धातु: --स्त्रष्टा; आवाम्--हम दोनों; देवस्थ-- भगवान् के; शार्किण: --शार्ड्र धनुष को धारण करने वाले; पार्षदौ--पार्षद; इह--अब; सम्प्राप्ती--पास आये हैं; नेतुम्--ले जाने के लिए; त्वामू--तुमको; भगवत्ू-पदम्-- भगवान् के स्थान तक |
हम उन भगवान् के प्रतिनिधि हैं, जो समग्र ब्रह्माण्ड का स्त्रष्टा हैं और हाथ में शार्ड़् नामकधनुष को धारण किये रहते हैं।
आपको वैकुण्ठलोक ले जाने के लिए हमें विशेष रूप से नियुक्तकिया गया है।
"
सुदुर्जयं विष्णुपदं जितं त्वयायत्सूरयोप्राप्य विचक्षते परम् ।
आतिष्ठ तच्चन्द्रदिवाकरादयोग्रहर्क्षतारा: परियन्ति दक्षिणम् ॥
२५॥
सुदुर्जयम्-प्राप्त करना कठिन; विष्णु-पदम्--विष्णुलोक ; जितम्--जीता गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; यत्--जो; सूरय:--बड़े-बड़े देवता; अप्राप्प--बिना प्राप्त किये; विचक्षते--केवल देखते हैं; परमू--परम; आतिष्ठ-- आइये; तत्--उस; चन्द्र--चन्द्रमा; दिव-आकर--सूर्य; आदय:--इत्यादि; ग्रह--नौ ग्रह ( बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल बृहस्पति, शनि, युरेनस, नेष्चून तथाप्लुटो ); ऋक्ष-तारा:--नक्षत्र; परियन्ति--परिक्रमा करते हैं; दक्षिणम्--दाईं ओर।
विष्णुलोक को प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु आपने अपनी तपस्या से उसे जीतलिया है।
बड़े-बड़े ऋषि तथा देवता भी इस पद को प्राप्त नहीं कर पाते।
परमधाम( विष्णुलोक ) के दर्शन करने के लिए ही सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह, तारे, चन्द्र-भुवन( नक्षत्र ) तथा सौर-मण्डल उसकी परिक्रमा करते हैं।
कृपया आइये, वहाँ जाने के लिए आपकास्वागत है।
"
अनास्थितं ते पितृभिरन्यैरप्यड़ कर्हिचित् ।
आतिष्ठ जगतां वन्द्यं तद्विष्णो: परमं पदम् ॥
२६॥
अनास्थितमू--कभी भी प्राप्त नहीं हुआ; ते--तुम्हारे; पितृभि:--पूर्वजों द्वारा; अन्यै:--अन्यों के द्वारा; अपि-- भी; अड्भ--हेध्रुव; कर्हिचित्ू--कभी भी; आतिष्ठ--आकर रहिये; जगताम्--ब्रह्माण्ड के वासियों द्वारा; वन्द्यम्ू--पूज्य; तत्ू--वह;विष्णो: --विष्णु का; परमम्-परम; पदम्--पद, स्थान।
हे राजा श्रुव, आज तक न तो आपके पूर्वजों ने, न अन्य किसी ने ऐसा दिव्य लोक प्राप्तकिया है।
यह विष्णुलोक, जहाँ विष्णु निवास करते हैं, सबों से ऊपर है।
यह अन्य सभी इसब्रह्माण्डों के निवासियों द्वारा पूजित है।
आप हमारे साथ आयें और वहाँ शाश्वत वास करें।
"
एतद्ठिमानप्रवरमुत्तमशलोकमौलिना ।
उपस्थापितमायुष्मन्नधिरोढुं त्वमहसि ॥
२७॥
एतत्--वह; विमान--विमान; प्रवरम्--अद्वितीय; उत्तमशलोक-- भगवान्; मौलिना--समस्त जीवात्माओं में शिरोमणि;उपस्थापितम्-- भेजा है; आयुष्मन्--हे दीर्घजीवी; अधिरोढुम्--चढ़ने के लिए; त्वमू--तुम; अहसि--योग्य हो |
हे दीर्घजीवी, इस अद्वितीय विमान को उन भगवान् ने भेजा है, जिनकी स्तुति उत्तम एलोकोंद्वारा की जाती है और जो समस्त जीवात्माओं के प्रमुख हैं।
आप इस विमान में चढ़ने के सर्वथायोग्य हैं।
"
मैत्रेय उवाचनिशम्य वैकुण्ठनियोज्यमुख्ययो-मैधुच्युतं वाचमुरुक्रमप्रिय: ।
कृताभिषेकः कृतनित्यमड्रलोमुनीन्प्रणम्याशिषमभ्यवादयत् ॥
२८ ॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; निशम्य--सुनकर; वैकुण्ठ-- भगवान् के; नियोज्य--पार्षद; मुख्ययो:--प्रधान के; मधु-च्युतम्ू--मधु ढालनेवाले, अमृतमय; वाचम्--वचन; उरुक्रम-प्रियः--भगवान् के प्रिय, ध्रुव महाराज; कृत-अभिषेक:--स्नानकरके; कृत--निवृत्त; नित्य-मड्गडलः --अपने नैत्यिक कर्म; मुनीन्--मुनियों को; प्रणम्य--नमस्कार करके; आशिषम्--आशीर्वाद; अभ्यवादयत्--स्वीकार किया।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: श्रुव महाराज भगवान् के अत्यन्त प्रिय थे।
जब उन्होंनेश़वैकुण्ठलोक वासी भगवान् के मुख्य पार्षदों की मधुरवाणी सुनी तो उन्होंने तुरन्त स्नान किया,अपने को उपयुक्त आभूषणों से अलंकृत किया और अपने नित्य आध्यात्मिक कर्म सम्पन्न किए।
तत्पश्चात् उन्होंने वहाँ पर उपस्थित ऋषियों को प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद ग्रहण किया।
"
परीत्याभ्यर्च्य धिष्णयाछयं पार्षदावभिवन्द्य च ।
इयेष तदधिष्टातुं बिश्रद्रूपं हिरण्मयम् ॥
२९॥
परीत्य--प्रदक्षिणा करके; अभ्यर्च्य--पूजा करके; धिष्णय-अछयम्--दिव्य विमान; पार्षदौ--दोनों पार्षदों को; अभिवन्द्य--नमस्कार करके; च--भी; इयेष--प्रयत्त करने लगे; तत्--उस यान; अधिष्ठातुम--चढ़ने के लिए; बिभ्रतू--देदीप्यमान;रूपम्ू--अपना स्वरूप; हिरण्मयम्--सुनहलाचढ़ने के पूर्व
ध्रुव महाराज ने विमान की पूजा की, उसकी प्रदक्षिणा की और विष्णु केपार्षदों को भी नमस्कार किया।
इसी दौरान वे पिघले सोने के समान तेजमय तथा देदीप्यमान होउठे।
इस प्रकार से वे उस दिव्ययान में चढ़ने के लिए पूर्णतः सन्नद्ध थे।
"
तदोत्तानपद: पुत्रो ददर्शान्तकमागतम् ।
मृत्योमूर्थिन पदं दत्त्ता आरुरोहाद्भुतं गृहम् ॥
३०॥
तदा--तब; उत्तानपदः--राजा उत्तानपाद के; पुत्र:--पुत्र ने; ददर्श--देखा; अन्तकम्--साक्षात् मृत्यु को; आगतम्ू--आयाहुआ; मृत्योः मूर्थ्नि-- मृत्यु के सिर पर; पदम्--पाँव; दत्त्ता--रखकर; आरुरोह--चढ़ गये; अद्भुतम्--आश्चर्यमय; गृहम्--विमान में जो भवन के तुल्य था।
जब श्लरुव महाराज उस दिव्य विमान में चढ़ने जा रहे थे तो उन्होंने साक्षात् काल ( मृत्यु ) कोअपने निकट आते देखा।
किन्तु उन्होंने मृत्यु की परवाह नहीं की; उन्होंने इस अवसर का लाभउठाकर काल के सिर पर अपने पाँव रख दिये और वे विमान में चढ़ गये जो इतना विशाल थाकि जैसे एक भवन हो।
"
तदा दुन्दुभयो नेदुर्मृदड्णणवादय: ।
गन्धर्वमुख्या: प्रजगुः पेतु: कुसुमवृष्टयः ॥
३१॥
तदा--उस समय; दुन्दुभय:--दुन्दु भी; नेदुः--बजने लगे; मृदड़--मृदंग; पणव--ढोल; आदय:--इत्यादि; गन्धर्व-मुख्या:--गन्धर्वलोक के मुख्य निवासी; प्रजगु:--गाने लगे; पेतु:--वर्षा की; कुसुम--फूल; वृष्टय:--वर्षा की तरह।
उस समय ढोल, मृदंग तथा दुन्दुभी के शब्द आकाश से गूँजने लगे, प्रमुख-प्रमुख गंधर्व जनगाने लगे और अन्य देवताओं ने ध्रुव महाराज पर फूलों की मूसलाधार वर्षा की।
"
सच स्वरलोकमारोक्ष्यन्सुनीतिं जननीं ध्रुव: ।
अन्वस्मरदगं हित्वा दीनां यास्ये त्रिविष्टपम् ॥
३२॥
सः--वह; च-- भी; स्वः-लोकम्--दैव लोक को; आरोक्ष्यनू--चढ़ते समय; सुनीतिम्--सुनीति को; जननीम्ू--माता; श्रुवः--ध्रुव महाराज ने; अन्वस्मरत्--स्मरण किया; अगम्--प्राप्त करना कठिन; हित्वा--पीछे छोड़ कर; दीनाम्--बेचारी; यास्ये--मैंजाऊँगा; त्रि-विष्टपम्--वैकुण्ठलोक को |
ध्रुव महाराज जब उस दिव्य विमान पर बैठे थे, जो चलनेवाला था, तो उन्हें अपनी बेचारीमाता सुनीति का स्मरण हो आया।
वे सोचने लगे, 'मैं अपनी बेचारी माता को छोड़ करवैकुण्ठलोक अकेले कैसे जा सकूँगा ?'" इति व्यवसितं तस्य व्यवसाय सुरोत्तमौ ।
दर्शयामासतुर्देवीं पुरो यानेन गच्छतीम् ॥
३३॥
इति--इस प्रकार; व्यवसितम्--चिन्तन; तस्य-- ध्रुव का; व्यवसाय--ज्ञान; सुर-उत्तमौ--दो प्रमुख पार्षद; दर्शयाम् आसतु:--( उसको ) दिखाया; देवीम्--पूज्या सुनीति; पुर: --समक्ष; यानेन--विमान से; गच्छतीम्--आगे जाती हुईं।
वैकुण्ठलोक के महान् पार्षद नन््द तथा सुनन्द ध्रुव महाराज के मन की बात जान गये, अतःउन्होंने उन्हें दिखाया कि उनकी माता सुनीति दूसरे यान में आगे-आगे जा रही हैं।
"
तत्र तत्र प्रशंसद्द्धिः पथि वैमानिकै: सुरैः ।
अवकीर्यमाणो दहशे कुसुमै: क्रमशो ग्रहान् ॥
३४॥
तत्र तत्र--जहाँ-तहाँ; प्रशंसद््धिः-- ध्रुव महाराज के प्रशंसकों द्वारा; पथि--रास्ते में; वैमानिकै :--विभिन्न प्रकार के यानों द्वारा लेजाये जानेवाले; सुरैः--देवताओं द्वारा; अवकीर्यमाण:--बिखेरा जाकर; ददृशे--देख सके; कुसुमैः-- फूलों से; क्रमशः--एकके पश्चात् एक; ग्रहान्ू--सौर मण्डल के समस्त ग्रह ।
आकाश-मार्ग से जाते हुए श्रुव महाराज ने क्रमश: सौर मण्डल के सभी ग्रहों को देखा औररास्ते में समस्त देवताओं को उनके विमानों में से अपने ऊपर फूलों की वर्षा करते देखा।
"
त्रिलोकीं देवयानेन सोतिब्रज्य मुनीनपि ।
परस्ताद्यद्ध्रुवगतिर्विष्णो: पदमथाभ्यगात् ॥
३५॥
त्रि-लोकीम्--तीनों लोक; देव-यानेन--दिव्य विमान से; सः--ध्रुव; अतितब्रज्य--पार करके; मुनीन्ू--मुनिगण; अपि-- भी;परस्तात्--परे; यत्ू--जो; ध्रुव-गति:ः--श्लुव जिन्होंने अविचल जीवन प्राप्त किया; विष्णो: -- भगवान् विष्णु का; पदम्--धाम;अथ--तब; अभ्यगात्--प्राप्त किया।
इस प्रकार श्रुव महाराज ने सप्तर्षि कहलानेवाले ऋषियों के सात लोकों को पार किया।
इसके परे उन्होंने उस लोक में अविचल दिव्य पद प्राप्त किया जहाँ भगवान् विष्णु वास करते हैं।
"
यदभ्राजमानं स्वरुचैव सर्वतोलोकामस्त्रयो ह्ानु विश्राजन्त एते ।
यन्नाव्रजञझ्ञन्तुषु येननुग्रहाब्रजन्ति भद्राणि चरन्ति येडनिशम् ॥
३६॥
यत्--जो लोक; भ्राजमानम्--आलोकित; स्व-रुचा--अपने तेज से; एब--केवल; सर्वतः--सब जगह; लोका:--लोक;त्रयः--तीन; हि--निश्चय ही; अनु--तत्पश्चात्; विश्राजन्ते-- प्रकाश करते हैं; एते--ये; यत्ू--जो लोक; न--नहीं; अब्रजनू--पहुँच गये हैं; जन्तुषु--जीवात्माओं को; ये--जो; अननुग्रहा: --रुष्ट; ब्रजन्ति--पहुँचते हैं; भद्राणि--शुभ कार्य; चरन्ति--प्रवृत्तहोते हैं; ये--जो; अनिशम्--निरन्तर।
जो लोग दूसरे जीवों पर दयालु नहीं होते, वे स्वतेजोमय इन बैकुण्ठलोकों में नहीं पहुँच पाते, जिनके प्रकाश से इस भौतिक ब्रह्माण्ड के सभी लोक प्रकाशित हैं।
जो व्यक्ति निरन्तरअन्य प्राणियों के कल्याणकारी कार्यों में लगे रहते हैं, केवल वे ही वैकुण्ठलोक पहुँच पाते हैं।
"
शान्ता: समहशः शुद्धा: सर्वभूतानुरझना: ।
यान्त्यञ्ञसाच्युतपदमच्युतप्रियबान्धवा: ॥
३७॥
शान्ताः--शान्त; सम-हृशः --समदर्शी ; शुद्धा:--पवित्र; सर्व--समस्त; भूत--जीवात्माएँ; अनुरज्जना: -- प्रसन्न करनेवाले;यान्ति--जाते हैं; अज्लसा--सरलतापूर्वक; अच्युत-- भगवान् के; पदम्--धाम को; अच्युत-प्रिय-- भगवान् के भक्त;बान्धवा:--मित्र |
जो शानन््त, समदर्शी तथा पवित्र हैं तथा जो अन्य सभी जीवात्माओं को प्रसन्न करने की कलाजानते हैं, वे भगवान् के भक्तों से ही मित्रता रखते हैं।
केवल वे ही वापस घर को अर्थात्भगवान् के धाम को सरलता से जाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
"
इत्युत्तानपदः पुत्रो श्रुवः कृष्णपरायण: ।
अभूत्रयाणां लोकानां चूडामणिरिवामलः ॥
३८॥
इति--इस प्रकार; उत्तानपद:ः--महाराज उत्तानपाद का; पुत्र: --पुत्र; ध्रुवः-- ध्रुव महाराज; कृष्ण-परायण: --पूर्णतयाकृष्णभावनाभावित; अभूत्--हुआ; त्रयाणाम्--तीनों; लोकानाम्-- लोकों का; चूडा-मणि:--शीशफूल, श्रेष्ठ; इब--समान;अमलः- शुद्ध, पवित्र |
इस प्रकार महाराज उत्तानपाद के अति सम्माननीय पुत्र, पूरी तरह से कृष्णभावनाभावितध्रुव महाराज ने तीनों लोकों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया।
"
गम्भीरवेगोनिमिषं ज्योतिषां चक्रमाहितम् ।
यस्मिन्श्रमति कौरव्य मेढ्यामिव गवां गण: ॥
३९॥
गम्भीर-वेग: -- अत्यधिक वेग से; अनिमिषम्--निरन्तर; ज्योतिषाम्--नक्षत्रों का; चक्रमू--गोलक; आहितम्--जड़ा हुआ;यस्मिनू--जिसके चारों ओर; भ्रमति--घूमता है, चक्कर लगाता है; कौरव्य--हे विदुर; मेढ्याम्--मध्यवर्ती स्तम्भ; इब--सहश;गवाम्--बैलों का; गण:--समूह |
सन्त मैत्रेय ने आगे कहा : हे कौरव वंशी विदुर, जिस प्रकार बैल अपनी दाईं ओर बाँधेमध्यवर्ती लट्ठे के चारों ओर चक्कर लगाते हैं, उसी प्रकार आकाश के सभी नक्षत्र अत्यन्त वेग सेश्रुव महाराज के धाम का निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं।
"
महिमानं विलोक्यास्य नारदो भगवानृषि: ।
आतोद्य॑ं वितुदज्श्लोकान्सत्रेडगायत्प्रचेतसाम् ॥
४० ॥
महिमानम्--यश; विलोक्य--देखकर; अस्य-- ध्रुव महाराज का; नारद:--नारद मुनि; भगवान्-- भगवान् के ही समान पूज्य;ऋषि:--सनन््त; आतोद्यम्--वीणा; वितुदन्--बजाते हुए; श्लोकानू--श्लोक; सत्रे--यज्ञस्थल में; अगायत्--उच्चारण किया;प्रचेतसाम्--प्रचेताओं के |
ध्रुव महाराज की महिमा को देख कर, नारद मुनि अपनी वीणा बजाते प्रचेताओं केयज्ञस्थल पर गये और प्रसन्नतापूर्वक निम्नलिखित तीन इलोकों का उच्चार किया।
"
नारद उवाचनूनं सुनीते: पतिदेवताया-स्तपःप्रभावस्य सुतस्य तां गतिम् ।
इृष्ठाभ्युपायानपि वेदवादिनोनैवाधिगन्तुं प्रभवन्ति कि नूपा: ॥
४१॥
नारदः उवाच--नारद ने कहा; नूनम्--निश्चय ही; सुनीते: --सुनीति का; पति-देवताया:--पति-परायणा, अत्यन्त पतिक्रता;तपः-प्रभावस्य--तप के प्रभाव से; सुतस्य--पुत्र का; तामू--उस; गतिम्--स्थिति को; इृष्ला--देखकर; अभ्युपायान्--साधन;अपि--यद्यपि; वेद-वादिनः--वैदिक नियमों के पालक या तथाकथित वेदान्ती; न--कभी नहीं; एव--निश्चय ही;अधिगन्तुम्ू--प्राप्त करने के लिए; प्रभवन्ति--पात्र हैं; किमू-- क्या कहा जाये; नृपा:--सामान्य राजाओं की।
महर्षि नारद ने आगे कहा : अपनी आत्मिक उन्नति तथा सशक्त तपस्या के प्रभाव से हीपतिपरायणा सुनीति के पुत्र श्रुव महाराज ने ऐसा उच्च पद प्राप्त किया है, जो तथाकथितवेदान्तियों के लिए भी प्राप्त करना सम्भव नहीं, सामान्य मनुष्यों की तो बात ही क्या कही जाये।
"
यः पञ्ञवर्षो गुरुदारवाक्शरै-भिन्नेन यातो हृदयेन दूयता ।
वन॑ मदादेशकरोऊजितं प्रभुंजिगाय तद्धक्तगुणै: पराजितम् ॥
४२॥
यः--जो; पश्ञ-वर्ष:--पाँच वर्ष की अवस्था में; गुरु-दार--अपने पिता की पत्नी के; वाक्ू-शरैः--कटु बचनों से; भिन्नेन--मर्माहत, अत्यधिक दुखित होकर; यात:-- चला गया; हृदयेन--क्योंकि उसका हृदय; दूयता--अत्यधिक पीड़ित; वनम्--जंगल; मत्-आदेश--मेरे आदेश के अनुसार; करः--कार्य करते हुए; अजितम्--न जीता जा सकने योग्य; प्रभुम्-- भगवान्को; जिगाय--परास्त कर दिया; तत्ू--उसके; भक्त--भक्तों के; गुणैः--गुणों से; पराजितम्--जीता हुआ
महर्षि नारद ने आगे कहा : देखो न, किस प्रकार श्रुव महाराज अपनी विमाता के कटुबचनों से मर्माहत होकर केवल पाँच वर्ष की अवस्था में जंगल चले गये और उन्होंने मेरे निर्देशनमें तपस्या की।
यद्यपि भगवान् अजेय हैं, किन्तु श्रुव महाराज ने भगवद्भक्तों के विशिष्ट गुणों सेसमन्वित होकर उन्हें परास्त कर दिया।
"
यः क्षत्रबन्धुर्भुवि तस्याधिरूढ-मन्वारुरुक्षेदपि वर्षपूगैः ।
घट्पञ्जवर्षो यदहोभिरल्पै:प्रसाद्य वैकुण्ठमवाप तत्पदम् ॥
४३॥
यः--जो; क्षत्र-बन्धु:--क्षत्रिय का पुत्र; भुवि--पृथ्वी पर; तस्य-- ध्रुव का; अधिरूढम्--उच्च पद; अनु--पीछे; आरुरुक्षेत् --प्राप्त करने की इच्छा कर सकता है; अपि-- भी; वर्ष-पूगैः--अनेक वर्षों के पश्चात्; षट्-पञ्ञ-वर्ष:--पाँच या छः वर्ष का;यत्--जो; अहोभि: अल्पै:--कुछ दिनों बाद; प्रसाद्य--प्रसन्न करके; वैकुण्ठम्-- भगवान्; अवाप--प्राप्त किया; तत्-पदम्--उस ( भगवान् ) का धाम।
श्रुव महाराज ने पाँच-छह वर्ष की अवस्था में ही छह मास तक तपस्या करके उच्च पद प्राप्तकर लिया।
ओह! कोई बड़े से बड़ा क्षत्रिय अनेक वर्षों की तपस्या के बाद भी ऐसा पद प्राप्तनहीं कर सकता।
"
मैत्रेय उवाचएतत्तेडभिहितं सर्व यत्पृष्टोडहमिह त्वया ।
ध्रुवस्योद्यामयशसश्चरितं सम्मतं सताम् ॥
४४॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; एतत्--यह; ते--तुमसे; अभिहितम्--वर्णित; सर्वम्--सब कुछ; यत्-- जो; पृष्ठ: अहम्--मुझसेपूछा गया; इह--यहाँ; त्वया--तुम्हारे द्वारा; श्रुवस्थ-- ध्रुव महाराज का; उद्दाम--उत्कर्षकारी; यशसः --जिसकी ख्याति;चरितम्--चरित्र; सम्मतम्-स्वीकृत; सताम्-भक्तों द्वारा
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, तुमने मुझसे श्रुव महाराज की परम ख्याति तथा चरित्रके विषय में जो कुछ पूछा था वह सब मैंने विस्तार से बता दिया है।
बड़े-बड़े साधु पुरुष तथाभक्त ध्रुव महाराज के विषय में सुनने की इच्छा रखते हैं।
"
धन्यं यशस्यमायुष्य॑ पुण्यं स्वस्त्ययनं महत् ।
स्वर्ग्य क्षौव्यं सौमनस्यं प्रशस्यमघमर्षणम् ॥
४५॥
धन्यम्ू--धन देनेवाला; यशस्यम्-- ख्याति देनेवाला; आयुष्यम्-- आयु बढ़ानेवाला; पुण्यम्--पवित्र; स्वस्ति-अयनम्--कल्याण उत्पन्न करने वाला; महत्--महान; स्वर्ग्यम्--स्वर्ग प्राप्त करानेवाला; श्रौव्यमू--या शुवलोक; सौमनस्यम्--मन कोभानेवाला; प्रशस्यम्--यशस्वी; अघ-मर्षणम्--समस्त पापों का नाश करनेवाला |
ध्रुव के आख्यान को सुनकर मनुष्य अपनी सम्पत्ति, यश तथा दीर्घायु की इच्छा को पूरा करसकता है।
यह इतना कल्याणकर है कि इसके श्रवणमात्र से मनुष्य स्वर्गलोक को जा सकता है,अथवा श्रुवलोक को प्राप्त कर सकता है।
देवता भी प्रसन्न होते हैं, क्योंकि यह आख्यान इतनायशस्वी है, इतना सशक्त है कि यह सारे पापकर्मों के फल का नाश करनेवाला है।
"
श्रुत्वैतच्छुद्धयाभी क्षणमच्युतप्रियचेष्टितम् ।
भवेद्धक्तिर्भगवति यया स्यात्कलेशसड्क्षय: ॥
४६॥
श्रुत्वा--सुन कर; एतत्--यह; श्रद्धया-- श्रद्धा से; अभीक्षणम्--बारम्बार; अच्युत-- भगवान् को; प्रिय-- प्रिय; चेष्टितम्--कार्यकलाप; भवेत्--उत्पन्न करता है; भक्ति:-- भक्ति; भगवति-- भगवान् में ; यया--जिससे; स्यात्--हो सके; क्लेश--कष्टोंका; सड्क्षय:--पूर्ण विनाश जो भी
श्रुव महाराज के आख्यान को सुनता है और श्रद्धा तथा भक्ति के साथ उनके शुद्धचरित्र को समझने का बारम्बार प्रयास करता है, वह शुद्ध भक्तिमय धरातल प्राप्त करता है औरेशुद्ध भक्ति करता है।
ऐसे कार्यों से मनुष्य भौतिक जीवन के तीनों तापों को नष्ट कर सकता हैं।
"
महत्त्वमिच्छतां तीर्थ श्रोतु: शीलादयो गुणा: ।
यत्र तेजस्तदिच्छूनां मानो यत्र मनस्विनाम् ॥
४७॥
महत्त्वम्--बड़प्पन; इच्छताम्--इच्छा करनेवालों को; तीर्थम्--विधि; श्रोतु:--सुननेवाले का; शील-आदय: --सच्चरित्रइत्यादि; गुणा: --गुण; यत्र--जिसमें; तेज:-- तेज; तत्--वह; इच्छूनामू--कामना करनेवालों को; मान: --सम्मान; यत्र--जिसमें; मनस्विनाम्--विचारवान पुरुषों कोजो कोई भी श्रुव महाराज के इस आख्यान को सुनता है, वह उन्हीं के समान उत्तम गुणों को प्राप्त करता है।
जो कोई महानता, तेज या बड़प्पन चाहता है उन्हें प्राप्त करने की विधि यही है।
जो विचारवान पुरुष सम्मान चाहते हैं, उनके लिए उचित साधन यही है।
"
प्रयतः कीर्तयेत्प्रातः: समवाये द्विजन्मनाम् ।
सायं च पुण्यश्लोकस्य ध्रुवस्य चरितं महत् ॥
४८॥
प्रयतः--सावधानी से; कीर्तयेत्ू-- कीर्तन करे; प्रातः--प्रातःकाल; समवाये--संगति में; द्वि-जन्मनामू--ट्विजों की; सायमू--संध्या समय; च-- भी; पुण्य-शलोकस्य--पवित्र ख्याति के; ध्रुवस्थ-- ध्रुव का; चरितम्--चरित्र; महत्--महान।
मैत्रेय मुनि ने संस्तुति की : मनुष्य को चाहिए कि प्रातः तथा सायंकाल अत्यन्त ध्यानपूर्वकब्राह्मणों अथवा अन्य की संगति में ध्रुव महाराज के चरित्र तथा कार्य-कलापों का संकीर्तन करे।
"
पौर्णमास्यां सिनीवाल्यां द्वादश्यां श्रवणेथवा ।
दिनक्षये व्यतीपाते सड्क्रमेउर्कदिनेडपि वा ॥
४९॥
श्रावयेच्छुद्दधानानां तीर्थपादपदा श्रय: ।
नेच्छस्तत्रात्मनात्मानं सन्तुष्ट इति सिध्यति ॥
५०॥
पौर्णमास्याम्--पूर्णमासी के दिन; सिनीवाल्यामू--अमावस्या के दिन; द्वादश्यामू--एकादशी के एक दिन बाद, द्वादशी को;श्रवणे-- श्रवण नक्षत्र के उदयकाल में; अथवा--या; दिन-क्षये--तिथि क्षय; व्यतीपाते--नाम का विशेष दिन; सड्क्रमे--मासके अन्त में; अर्कदिने--रविवार को; अपि-- भी; वा--अथवा; श्रावयेत्--सुनाना चाहिए; श्रद्धधानानाम्-- श्रद्धालु श्रोताओंको; तीर्थ-पाद-- भगवान् का; पद-आश्रय: --चरणकमल की शरण में आये; न इच्छन्--न चाहते हुए; तत्र--वहाँ;आत्मना--स्व के द्वारा; आत्मानम्ू--मन; सन्तुष्ट:--सन्तुष्ट; इति--इस प्रकार; सिध्यति--सिद्ध हो जाता है |
जिन व्यक्तियों ने भगवान् के चरण-कमलों की शरण ले रखी है उन्हें किसी प्रकार कापारिश्रमिक लिये बिना ही श्ुव महाराज के इस आख्यान को सुनाना चाहिए।
विशेष रूप सेपूर्णमासी, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र के प्रकट होने पर, तिथिक्षय पर या व्यतीपात केअवसर पर, मास के अन्त में या रविवार को यह आख्यान सुनाया जाए निस्सन्देह, इसे अनुकूलश्रोताओं के समक्ष सुनाएँ।
इस प्रकार बिना किसी व्यावसायिक उद्देश्य के सुनाने पर वाचक तथाश्रोता दोनों सिद्ध हो जाते हैं।
"
ज्ञानमज्ञाततत्त्वाय यो दद्यात्सत्पथेडमृतम् ।
कृपालोदीननाथस्य देवास्तस्यानुगृह्वते ॥
५१॥
ज्ञानमू--ज्ञान; अज्ञात-तत्त्वाय--सत्य से अपरिचितों को; यः--जो; दद्यातू-देता है; सत्ू-पथे--सत्य के मार्ग पर; अमृतम्ू--अमरत्व; कृपालो:--कृपालु; दीन-नाथस्य--दीनों के रक्षक; देवा:--देवतागण; तस्य--उसको; अनुगृह्वते--आशीर्वाद देते हैं।
भ्रुव महाराज का आख्यान अमरता प्राप्त करने के लिए परम ज्ञान है।
जो लोग परम सत्य सेअवगत नहीं हैं, उन्हें सत्य के मार्ग पर ले जाया जा सकता है।
जो लोग दिव्य कृपा के कारणदीन जीवात्माओं के रक्षक बनने का उत्तरदायित्व ग्रहण करते हैं, उन्हें स्वतः ही देवताओं कीकृपा तथा आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।
"
इदं मया तेभिहितं कुरूद्रहध्रुवस्य विख्यातविशुद्धकर्मण: ।
हित्वार्भकः क्रीडनकानि मातु-गृह च विष्णुं शरणं यो जगाम ॥
५२॥
इदम्--यह; मया--मेरे द्वारा; ते--तुमको; अभिहितम्--वर्णित; कुरु-उद्ठद--हे कुरुओं सर्वश्रेष्ठ; ध्रुवस्थ-- ध्रुव का;विख्यात--अत्यन्त प्रसिद्ध; विशुद्ध--अत्यन्त शुद्ध; कर्मण: --जिसके कर्म; हित्वा--त्यागकर; अर्भक:--बालक;क्रीडनकानि--खिलौने तथा खेलने की अन्य वस्तुएँ; मातु:--अपनी माता का; गृहम्--घर; च-- भी ; विष्णुम्--विष्णु की;शरणम्--शरण; य:--जो; जगाम--चला गया।
ध्रुव महाराज के दिव्य कार्य सारे संसार में विख्यात हैं और वे अत्यन्त शुद्ध हैं।
बचपन मेंध्रुव महाराज ने सभी खिलौने तथा खेल की वस्तुओं का तिरस्कार किया, अपनी माता कासंरक्षण त्यागा और भगवान् विष्णु की शरण ग्रहण की।
अत: हे विदुर, मैं इस आख्यान कोसमाप्त करता हूँ, क्योंकि तुमसे इसके बारे में विस्तार से कह चुका हूँ।
"
अध्याय तेरह: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन
4.13सूत उबाचनिशम्य कौषारविणोपवर्णितंध्रुवस्य वैकुण्ठपदाधिरोहणम् ।
प्ररूढठभावो भगवत्यधोक्षजेप्रष्ठ पुनस्तं विदुरः प्रचक्रमे ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; निशम्य--सुनकर; कौषारविणा--मैत्रेय से; उपवर्णितम्--वर्णित; श्रुवस्थ-- ध्रुव का;बैकुण्ठ-पद--विष्णु-धाम को; अधिरोहणम्--आरूढ़ होना; प्ररूढ--बढ़ा हुआ; भाव: -- भक्तिभाव; भगवति-- भगवान् केप्रति; अधोक्षजे--जो प्रत्यक्ष अनुभव से परे है; प्रष्टमू--पूछने के लिए; पुनः--फिर; तम्--मैत्रेय को; विदुर:--विदुर ने;प्रचक्रमे-- प्रयास किया
सूत गोस्वामी ने शौनक इत्यादि समस्त ऋषियों से आगे कहा : मैत्रेय ऋषि द्वारा श्रुव महाराजके विष्णुधाम में आरोहण का वर्णन किये जाने पर विदुर में भक्तिभाव का अत्यधिक संचार होउठा और उन्होंने मैत्रेय से इस प्रकार पूछा।
"
विदुर उवाचके ते प्रचेतसो नाम कस्यापत्यानि सुब्रत ।
कस्यान्ववाये प्रख्याता: कुत्र वा सत्रमासत ॥
२॥
विदुरः उवाच--विदुर ने पूछा; के --कौन थे; ते--वे; प्रचेतस:--प्रचेतागण; नाम--नाम के; कस्य--किसके; अपत्यानि--पुत्र; सु-ब्रत--हे शुभ ब्रतधारी मैत्रेय; कस्य--किसके ; अन्ववाये--कुल में; प्रख्याता:-- प्रसिद्ध; कुत्र--कहाँ; वा-- भी;सत्रम्ू-यज्ञ; आसत--सम्पन्न हुआ
विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे महान् भक्त, प्रचेतागण कौन थे? वे किस कुल के थे? वेकिसके पुत्र थे और उन्होंने कहाँ पर महान् यज्ञ सम्पन्न किये ?"
मन्ये महाभागवतं नारदं देवदर्शनम् ।
येन प्रोक्त: क्रियायोग: परिचर्याविधिहरे: ॥
३॥
मन्ये--सोचता हूँ; महा-भागवतम्--समस्त भक्तों में महान्; नारदम्--नारद मुनि को; देव--भगवान्; दर्शनम्--मिलने वाले;येन--जिसके द्वारा; प्रोक्त:--कहा गया; क्रिया-योग:-- भक्तियोग; परिचर्या--सेवा करने के लिए; विधि:--विधि; हरे:--भगवान् की।
विदुर ने कहा : मैं जानता हूँ कि नारद मुनि समस्त भक्तों के शिरोमणि हैं।
उन्होंने भक्ति कीपांचरात्रिक विधि का संकलन किया है और भगवान् से साक्षात् भेंट की है।
"
स्वधर्मशीलै: पुरुषैरभगवान्यज्ञपूरुष: ।
इज्यमानो भक्तिमता नारदेनेरित: किल ॥
४॥
स्व-धर्म-शीलै:--यज्ञ कर्म करते हुए; पुरुषै:--व्यक्तियों द्वारा; भगवान्ू-- भगवान्; यज्ञ-पूरुष:--समस्त यज्ञों के भोक्ता;इज्यमान: --पूजित होकर; भक्तिमता--भक्त द्वारा; नारदेन--नारद द्वारा; ईरित:--वर्णित; किल--निस्सन्देह
जब समस्त प्रचेता धार्मिक अनुष्ठान तथा यज्ञकर्म कर रहे थे और इस प्रकार भगवान् कोप्रसन्न करने के लिए पूजा कर रहे थे तो नारद मुनि ने ध्रुव महाराज के दिव्य गुणों का वर्णनकिया।
"
यास्ता देवर्षिणा तत्र वर्णिता भगवत्कथा: ।
महां शुश्रूषवे ब्रह्मन्कार््स्येनाचष्टमहसि ॥
५॥
या:--जो; ताः--वे सब; देवर्षिणा--नारद ऋषि द्वारा; तत्र--वहाँ; वर्णिता:--उल्लिखित; भगवत्-कथा:-- भगवान् केकार्यकलापों से सम्बन्धित उपदेश; महाम्--मुझको; शुश्रूषवे--सुनने के लिए इच्छुक; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; कार्त्स्येन -- पूर्णतः;आच्ष्टम् अर्हसि--कृपया बताइये ।
हे ब्राह्मण, नारद ने भगवान् का किस प्रकार गुणगान किया और उस सभा में किनलीलाओं का वर्णन हुआ? मैं उन्हें सुनने का इच्छुक हूँ।
कृपया विस्तार से भगवान् की उसमहिमा का वर्णन कीजिये।
"
मैत्रेय उवाचध्रुवस्यथ चोत्कल: पुत्र: पितरि प्रस्थिते वनम् ।
सार्वभौमश्रियं नैच्छद्धिराजासनं पितु: ॥
६॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; ध्रुवस्थ-- ध्रुव महाराज का; च-- भी; उत्कल:--उत्कल; पुत्र:--पुत्र; पितरि--पिता के पश्चात्;प्रस्थिते--चले जाने पर; वनम्--जंगल में; सार्ब-भौम--समस्त देशों सहित; भ्रियम्ू--सम्पदा; न ऐच्छत्ू--इच्छा नहीं की;अधिराज--राजसी; आसनमू--सिंहासन; पितु:ः--पिता के महामुनि
मैत्रेय ने उत्तर दिया : हे विदुर, जब श्रुव महाराज वन को चले गये तो उनके पुत्रउत्कल ने अपने पिता के वैभवपूर्ण राज सिंहासन की कोई कामना नहीं की, क्योंकि वह तो इसलोक के समस्त देशों के शासक के निमित्त था।
"
स जन्मनोपशान्तात्मा निःसड्र: समदर्शन: ।
ददर्श लोके विततमात्मानं लोकमात्मनि ॥
७॥
सः--वह, उत्कल; जन्मना--अपने जन्म से ही; उपशान्त--अत्यन्त संतुष्ट, संतोषी; आत्मा--जीव; निःसड्र:--आसक्ति-रहित;सम-दर्शन:--समदर्शी ; ददर्श--देखा; लोके --संसार में; विततमू--फैला; आत्मानम्--परमात्मा; लोकम्--सारा संसार;आत्मनि--परमात्मा मेंउत्कल जन्म से ही पूर्णतया सन्तुष्ट था तथा संसार से अनासक्त था।
वह समदर्शी था, क्योंकिवह प्रत्येक वस्तु को परमात्मा में और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा को स्थित देखता था।
"
आत्मानं ब्रह्म निर्वाणं प्रत्यस्तमितविग्रहम् ।
अवबोधरसैकात्म्यमानन्दमनुसन्ततम् ॥
८ ॥
अव्यवच्छिन्नयोगाग्निदग्धकर्ममलाशय: ।
स्वरूपमवरुन्धानो नात्मनोन्यं तदैक्षत ॥
९॥
आत्मानम्--स्व; ब्रह्म--आत्मा; निर्वाणम्--अस्तित्व का लोप; प्रत्यस्तमित--रूका हुआ; विग्रहम्--पार्थक्य, वियोग;अवबोध-रस--ज्ञान के रस से; एक-आत्म्यम्ू--एकाकार; आनन्दम्--आनन्द; अनुसन्ततम्--विस्तीर्ण; अव्यवच्छिन्न--सतत;योग--योगाभ्यास से; अग्नि-- अग्नि से; दग्ध--जला हुआ; कर्म--सकाम इच्छाएँ; मल--मलिन; आशय:--अपने मन में;स्वरूपम्--स्वाभाविक स्थिति; अवरुन्धान:--अनुभव करते हुए; न--नहीं; आत्मन:--परमात्मा की अपेक्षा; अन्यम्ू--कुछभी; तदा--तब; ऐक्षत--देखा
उसने परब्रह्म के विषय में अपने ज्ञान के प्रसार द्वारा पहले ही शरीर-बन्धन से मुक्ति प्राप्तकर ली थी।
यह मुक्ति निर्वाण कहलाती है।
वह दिव्य आनन्द की स्थिति को प्राप्त था और उसीआनन्दमय स्थिति में रहता रहा, जो अधिकाधिक बढ़ती जा रही थी।
यह सतत भक्तियोग केकारण ही सम्भव था जिसकी तुलना अग्नि से की गई है, जो समस्त मलिन भौतिक वस्तुओं कोभस्म कर देती है।
वह सदैव आत्म-साक्षात्कार की अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहता था औरभगवान् के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख सकता था और वह भक्तियोग में तल्लीन रहता था।
"
जडान्धबधिरोन्मत्तमूकाकृतिरतन्मति: ।
लक्षितः पथि बालानां प्रशान्तार्चिरिवानल: ॥
१०॥
जड--मूर्ख; अन्ध--अन्धा; बधिर--बहरा; उन्मत्त--पागल; मूक --गूँगा; आकृति: -- आकृति; अ-तत्--उस प्रकार का नहीं;मतिः--बुद्धि; लक्षित:--देखा जाता था; पथि--मार्ग पर; बालानाम्--अल्पज्ञों द्वारा; प्रशान्त--शान्त; अर्चि:--ज्वालाओं सेयुक्त; इब--सहश; अनल:--अग्नि
अल्पज्ञानी राह चलते लोगों को उत्कल मूर्ख, अन्धा, गूँगा, बहरा तथा पागल सा प्रतीत होता था, किन्तु वह वास्तव में ऐसा था नहीं।
वह उस अग्नि के समान बना रहा जो राख से ढकी होनेके कारण लपटों से रहित होती है।
"
मत्वा तं जडमुन्मत्तं कुलवृद्धा: समन्त्रिण: ।
वबत्सरं भूपतिं चक्रुर्यवीयांसं भ्रमेः सुतम् ॥
११॥
मत्वा--मान कर; तम्ू--उत्कल को; जडम्--बुद्धिहीन; उन्मत्तमू--पागल; कुल-वृद्धा:--कुल के गुरुजन; समन्त्रिण:--मंत्रियों समेत; वत्सरम्--वत्सर को; भू-पतिम्--संसार का शासक; चक्कु:--बनाया; यवीयांसम्--छोटा; भ्रमेः-- भ्रमि का;सुतम्-पुत्र |
फलत:ः मंत्रियों तथा कुल के समस्त गुरुजनों ने समझा कि उत्कल बुद्धिहीन और सचमुचही पागल है।
इस प्रकार उसका छोटा भाई, जिसका नाम वत्सर था और जो भ्रमि का पुत्र था,राजसिंहासन पर बिठा दिया गया और वह सारे संसार का राजा हो गया।
"
स्वर्वथिर्वत्सरस्येष्टा भार्यासूत षडात्मजान् ।
पुष्पार्ण तिग्मकेतुं च इषमूर्ज वसुं जयम् ॥
१२॥
स्वर्वीधि: --स्वर्वीथि; वत्सरस्य--राजा वत्सर की; इष्टा--अत्यन्त प्रिय; भार्या--पत्नी ने; असूत--जन्म दिया; षघट्ू--छह;आत्मजान्--पुत्रों को; पुष्पार्णम्--पुष्पार्ण; तिग्मकेतुम्--तिग्मकेतु; च-- भी; इषम्--इष; ऊर्जम्--ऊर्ज; वसुम्--वसु;जयम्--जय
राजा वत्सर की अत्यन्त प्रिय पत्नी स्वर्वीथि थी और उस ने छह पुत्रों को जन्म दिया जिनकेनाम थे पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु तथा जय।
"
पुष्पार्णस्य प्रभा भार्या दोषा च द्वे बभूवतु: ।
प्रार्मध्यन्दिनं सायमिति ह्यासन्प्रभासुता: ॥
१३॥
पुष्पार्णस्य--पुष्पार्ण की; प्रभा--प्रभा; भार्या--पत्नी; दोषा--दोषा; च-- भी ; द्वे-- दो; बभूवतु: --थीं; प्रातः--प्रातः ;मध्यन्दिनमू--मध्यन्दिनम्; सायम्--सायम्; इति--इस प्रकार; हि--निश्चय ही; आसन्-- थे; प्रभा-सुताः--प्रभा के पुत्र
पुष्पार्ण के दो पत्नियाँ थीं, जिनके नाम प्रभा तथा दोषा थे।
प्रभा के तीन पुत्र हुए जिनकेनाम प्रातः, मध्यन्दिनम् तथा सायम् थे।
"
प्रदोषो निशिथो व्युष्ट इति दोषासुतास्त्रय: ।
व्युष्ट: सुतं पुष्करिण्यां सर्ववेजसमादधे ॥
१४॥
प्रदोष: --प्रदोष; निशिथ:--निशिथ ; व्युष्ट: --व्युष्ट; इति--इस प्रकार; दोषा--दोषा के ; सुता:--पुत्र; त्रय:--तीन; व्युष्ट: --व्यूष्ट; सुतम्-पुत्र; पुष्करिण्याम्--पुष्करिणी में; सर्व-तेजसम्--सर्वतेजा ( सर्वशक्तिमान ) नामक; आदधे--उत्पन्न किया दोषा के तीन पुत्र थे--प्रदोष, निशिथ तथा व्युष्ट।
व्युप्ट की पत्ती का नाम पुष्करिणी था,जिसने सर्वतेजा नामक अत्यन्त बलशाली पुत्र को जन्म दिया।
"
स चनश्लु: सुतमाकूत्यां पत्यां मनुमवाप ह ।
मनोरसूत महिषी विरजान्नड्वला सुतान् ॥
१५॥
पुरुं कुत्सं त्रितं दुम्न॑ सत्यवन्तमृतं ब्रतम् ।
अग्निष्टोममतीरात्र प्रद्युम्नं शिबिमुल्मुकम् ॥
१६॥
सः--वह ( सर्वतेजा ); चक्षु;--चक्षु नामक; सुतम्--पुत्र; आकूत्याम्ू--आकृति में; पत्याम्-पत्नी में; मनुम्-चाक्षुष मनु;अवाप--प्राप्त किया; ह--निस्सन्देह; मनो: --मनु की; असूत--जन्म दिया; महिषी--रानी; विरजानू--निर्विकार; नड्वला--नड्वला ने; सुतान्--पुत्र; पुरुम्-पुरु; कुत्सम्-कुत्स; त्रितम्-त्रित; द्युम्मम्ू--झुम्न; सत्यवन्तम्--सत्यवान; ऋतम्--ऋत;ब्रतम्-ब्रत; अग्निष्टोमम्--अग्निष्टोम; अतीरात्रमू--अतितात्र; प्रद्मम्मम्--प्रद्यम्म; शिबिम्ू--शिबि; उल्मुकम्--उल्मुक कोस
र्वतेजा की पतली आकृति ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम चाक्षुष था, जो मनुकल्पान्त में छठा मनु बना।
चाक्षुष मनु की पत्नी नड्वला ने निम्नलिखित निर्दोष पुत्रों को जन्मदिया--पुरु, कुत्स, त्रित, झुम्न, सत्यवान्, ऋत, व्रत, अग्निष्टोमू, अतितरात्र, प्रद्यम्म, शित्रि तथाउल्मुक।
"
उल्मुकोजनयत्पत्रान्पुष्करिण्यां षद्त्तमान् ।
अड्डू सुमनसं ख्यातिं क्रतुमड्रिसं गयम् ॥
१७॥
उल्मुक:--उल्मुक ने; अजनयत्--उत्पन्न किया; पुत्रान्ू--पुत्रों को; पुष्करिण्याम्--अपनी पतली पुष्करिणी सें; घटू--छह;उत्तमान्ू--अत्यन्त उत्तम; अड्भमू-- अंग; सुमनसम्--सुमना; ख्यातिम्-ख्याति; क्रतुम्-क्रतु; अड्धिस्सम्-- अंगिरा; गयम्--गय।
उल्मुक के बारह पुत्रों में से छह पुत्र उनकी पत्नी पुष्करिणी से उत्पन्न हुए।
वे सभी अति उत्तमपुत्र थे।
उनके नाम थे अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा तथा गय।
"
सुनीथाडुस्य या पत्नी सुषुवे वेनमुल्बणम् ।
यहौःशील्यात्स राजर्षिनिर्विण्णो निरगात्पुरातू ॥
१८॥
सुनीथा--सुनीथा; अड्डस्थ--अंग की; या--जो; पत्ती-- पत्नी; सुषुबे--जन्म दिया; वेनमू--वेन; उल्बणम्--अत्यन्त कुटिल;यत्--जिसका; दौःशील्यात्--बुरा आचरण होने से; सः--वह; राज-ऋषि: --राजर्षि अंग; निर्विण्ण:--अत्यन्त निराश;निरगात्--बाहर चला गया; पुरात्ू--घर से |
अंग की पत्नी सुनीथा से वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो अत्यन्त कुटिल था।
साधु स्वभावका राजा अंग वेन के दुराचरण से अत्यन्त निराश था, फलत: उसने घर तथा राजपाट छोड़ दियाऔर जंगल चला गया।
"
यमड़ शेपु: कुपिता वाग्वज़्ा मुनय:ः किल ।
गतासोस्तस्य भूयस्ते ममन्थुर्दक्षिणं करम् ॥
१९॥
अराजके तदा लोके दस्युभिः पीडिताः प्रजा: ।
जातो नारायणांशेन पृथुराद्यः क्षितीश्वर: ॥
२०॥
यम्--जिसको ( वेन को ); अड़--हे विदुर; शेपु:--उन्होंने शाप दिया; कुपिता:--क्रुद्ध; वाक्-वज़ा:--जिनके शब्द बज्र केसमान कठोर हैं; मुनयः--बड़े-बड़े मुनि; किल--निस्सन्देह; गत-असो: --मरने के बाद; तस्य--उसका; भूय:--साथ ही; ते--वे; ममन्थु;--मथा; दक्षिणम्--दाहिना; करमू--हाथ; अराजके--बिना राजा के; तदा--तब; लोके--संसार में; दस्युभि: --बदमाशों तथा चोरों के द्वारा; पीडिता:--दुखी; प्रजा:--सभी नागरिक; जात:--उत्पन्न हुआ; नारायण-- भगवान् के; अंशेन--आंशिक प्रतिरूप द्वारा; पृथु:--पुथु; आद्य:--मूल; क्षिति-ई श्वरः--संसार का शासक |
हे विदुर, जब ऋषिगण शाप देते हैं, तो उनके शब्द वज्ञ के समान कठोर होते हैं।
अत: जबउन्होंने क्रोधवश वेन को शाप दे दिया तो वह मर गया।
उसकी मृत्यु के बाद कोई राजा न होने सेचोर-उचक्के पनपने लगे, राज्य में अनियमितता फैल गयी और समस्त नागरिकों को भारी कष्टझेलना पड़ा।
यह देखकर ऋषियों ने बेन की दाहिनी भुजा को दण्ड मथनी बना लिया औरउनके मथने के कारण भगवान् विष्णु अपने अंश रूप में संसार के आदि सप्राट राजा पृथु केरूप में अवतरित हुए।
"
तस्य शीलनिधे: साधोर्ब्रह्मण्यस्य महात्मन: ।
राज्ञ: कथमभूहुष्टा प्रजा यद्विमना ययौ ॥
२१॥
विदुर: उवाच--विदुर ने कहा; तस्य--उसका ( अंग का ); शील-निधे: --उत्तम गुणों का आगार; साधो:--सन्तु पुरुष;ब्रह्मण्यस्थ--ब्राह्मण सभ्यता का प्रेमी; महात्मत:--महापुरुष; राज्:--राजा का; कथम्--किस तरह; अभूत्-- था; दुष्टा--बुरा;प्रजा--पुत्र; यत्ू--जिससे; विमना: -- अन्यमनस्क; ययौ--छोड़ दिया।
विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे ब्राह्मण, राजा अंग तो अत्यन्त भद्र था।
वह अत्यन्त चरित्रवानतथा साधु पुरुष था और ब्राह्मण-संस्कृति का प्रेमी था।
तो फिर इतने महान् पुरुष के बेन जैसादुष्ट पुत्र कैसे उत्पन्न हुआ जिससे वह अपने राज्य के प्रति अन्यमनस्क हो उठा और उसे छोड़ दिया?"
कि वांहो वेन उद्दिश्य ब्रह्मदण्डमयूयुजन् ।
दण्डब्रतधरे राज्ञि मुनयो धर्मकोबिदा: ॥
२२॥
किम्--क्यों; वा-- भी; अंह:--पापकर्म; वेने--वेन को; उद्दिश्य--देखकर; ब्रह्म-दण्डम्--ब्राह्मण का शाप; अयूयुजन्--दण्डित करना चाहा; दण्ड-ब्रत-धरे--जो दण्ड के डण्डे को धारण करता है; राज्ञि--राजा को; मुनयः--मुनिगण; धर्म-कोविदा:--धर्म से पूरी तरह ज्ञात
विदुर ने आगे पूछा कि महान् धर्मात्मा ऋषियों ने राजा बेन को, जो स्वयं दण्ड देनेवालेदण्ड को धारण करनेवाला था, क्योंकर शाप देना चाहा और इस प्रकार उसे सबसे बड़ा दण्ड ( ब्रह्मशाप ) दे डाला ?"
नावध्येय: प्रजापाल: प्रजाभिरघवानपि ।
यदसौ लोकपालानां बिभर्त्योज: स्वतेजसा ॥
२३॥
न--कभी नहीं; अवध्येय:-- अपमानित होने के लिए; प्रजा-पाल: --राजा; प्रजाभि: --प्रजा द्वारा; अधवान्--पाप से पूर्ण;अपि--यद्यपि; यत्-- क्योंकि; असौ--वह; लोक-पालानाम्-- अनेक राजाओं का; बिभर्ति--पालन करता है; ओज:--ओज,तेज; स्व-तेजसा--व्यक्तिगत प्रभाव से |
प्रजा का कर्तव्य है कि वह राजा का अपमान न करे, चाहे यदाकदा वह अत्यन्त पापपूर्णकृत्य करता हुआ ही क्यों न प्रतीत हो।
अपने तेज के कारण राजा अन्य शासनकर्ता प्रमुखों सेसदैव अधिक प्रभावशाली होता है।
"
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन्सुनीथात्मजचेष्टितम् ।
अ्रहदधानाय भक्ताय त्वं परावरवित्तम: ॥
२४॥
एतत्--ये सब; आख्याहि--वर्णन करें; मे--मुझसे; ब्रह्मनू--हे परम ब्राह्मण; सुनीथधा-आत्मज--सुनीथा के पुत्र वेन का;चेष्टितमू--कार्यकलाप; श्रद्धानाय-- श्रद्धालु, आज्ञाकारी; भक्ताय--अपने भक्त को; त्वम्--तुम; पर-अवर-- भूत तथाभविष्य सहित; वितू्-तम:--सुपरिचित |
विदुर ने मैत्रेय से अनुरोध किया : हे ब्राह्मण, आप भूत तथा भविष्य के समस्त विषयों मेंपारंगत हैं।
अतः मैं आपसे राजा वेन के समस्त कार्यकलापों को सुनना चाहता हूँ।
मैं आपकाश्रद्धालु भक्त हूँ, अतः आप इसे विस्तार से कहें।
"
मैत्रेय उवाचअड्जो श्रमेधं॑ राजर्षिराजहार महाक्रतुम् ।
नाजम्मुर्देवतास्तस्मिन्नाहूता ब्रह्मगादिभि: ॥
२५॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने उत्तर दिया; अड्भ:--राजा अंग ने; अश्वमेधम्-- अश्वमेध यज्ञ; राज-ऋषि:--साधु राजा; आजहार--सम्पन्न किया; महा-क्रतुम्ू--महान् यज्ञ; न--नहीं; आजम्मु:--आये; देवता: --देवता; तस्मिन्--उस यज्ञ में; आहूता:--बुलायेगये; ब्रह्य-वादिभि: --यज्ञ करने में ब्राह्मणों द्वारा
श्री मैत्रेय ने उत्तर दिया : हे विदुर, एक बार राजा अंग ने अश्वमेध नामक महान् यज्ञ सम्पन्नकरने की योजना बनाई।
वहाँ पर उपस्थित समस्त सुयोग्य ब्राह्मण जानते थे कि देवताओं काआवाहन कैसे किया जाता है, किन्तु उनके प्रयास के बावजूद भी किसी देवता ने न तो भागलिया और न ही कोई उस यज्ञ में प्रकट हुआ।
"
तमूचुर्विस्मितास्तत्र यजमानमथर्त्विज: ।
हवींषि हूयमानानि न ते गृह्लन्ति देवता: ॥
२६॥
तम्ू--राजा अंग को; ऊचु:--कहा; विस्मिता:--आश्चर्यचकित; तत्र--वहाँ; यजमानम्--यज्ञ करानेवाले को; अथ--तब;ऋत्विज: --पुरोहित; हवींषि--शुद्ध घी की आहुतियाँ; हूयमानानि--डाले जाने पर; न--नहीं; ते--वे; गृह्वन्ति--स्वीकार करतेहैं; देवता:--देवतागण |
तब यज्ञ में लगे पुरोहितों ने राजा अंग को सूचित किया : हे राजन, हम यज्ञ में विधिपूर्वकशुद्ध घी की आहुति दे रहे हैं, किन्तु हमारे सारे यत्नों के बावजूद देवतागण उसे स्वीकार नहीं कररहे हैं।
"
राजन्हवींष्यदुष्टानि श्रद्धयासादितानि ते ।
छन्दांस्थयातयामानि योजितानि धृतक्रतैः ॥
२७॥
राजनू--हे राजा; हवींषि---यज्ञ की बलि, होमसामग्री; अदुष्टानि--दूषित नहीं; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा सावधानी सहित;आसादितानि--एकत्र की गई; ते--तुम्हारे; छन्दांसि--मंत्र; अयात-यामानि--न्यून नहीं; योजितानि--विधिपूर्वक सम्पन्न; धृत-ब्रतैः--सुपात्र ब्राह्मणों द्वारा |
हे राजन, हमें ज्ञात है कि आपने अत्यन्त श्रद्धा तथा सावधानी से यज्ञ की सारी सामग्रीएकत्रित की है और वह दूषित नहीं है।
हमारे द्वारा उच्चरित वैदिक मंत्रों में भी किसी प्रकार कीकमी नहीं है क्योंकि यहां उपस्थित सभी ब्राह्मण तथा पुरोहित योग्य है और समस्त कृत्यों कोठीक से कर भी रहे हैं।
"
न विदामेह देवानां हेलनं वयमण्वपि ।
यन्न गृहन्ति भागान्स्वान्ये देवा: कर्मसाक्षिण: ॥
२८ ॥
न--नहीं; विदाम--जान सकना; इह--इस प्रसंग में; देवानामू--देवताओं का; हेलनम्--तिरस्कार, उपेक्षा; वयम्--हम;अणु--सूक्ष्स; अपि-- भी; यत्--जिससे; न--नहीं; गृह्वन्ति--स्वीकार करते हैं; भागान्ू-- भाग, अंश; स्वान्ू--अपने-अपने;ये--जो; देवा:--देवतागण; कर्म-साक्षिण:--यज्ञ के साक्षी |
हे राजन, हमें ऐसा कोई कारण नहीं दिखता जिससे देवतागण अपने को किसी प्रकार सेअपमानित या उपेक्षित समझ सकें, तो भी यज्ञ के साक्षी देवता अपना भाग ग्रहण नहीं कर रहेहैं।
हमारी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है ?"
मैत्रेय उवाचअड़ोो द्विजवच: श्रुत्वा यजमानः सुदुर्मना: ।
तत्प्रष्टं व्यसृजद्वाचं सदस्यांस्तदनुज्ञया ॥
२९॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने उत्तर दिया; अड्ढ:--राजा अंग; द्विज-वच:--ब्राह्मणों के वचन; श्रुत्वा--सुनकर; यजमान: --यज्ञकर्ता;सुदुर्मना:--मन में अत्यन्त खिन्न; तत्ू--उसके सम्बध में; प्रष्टमू--पूछने के उद्देश्य से; व्यसृजत् वाचम्ू--वह बोला; सदस्यान्--पुरोहितों से; तत्--उनकी; अनुज्ञया--अनुमति से |
मैत्रेय ने बतलाया कि पुरोहितों के इस कथन को सुनकर राजा अंग अत्यधिक खिन्न होउठा।
तब उसने पुरोहितों से कुछ कहने की अनुमति माँगी और यज्ञस्थल में उपस्थित समस्तपुरोहितों से उसने पूछा।
"
नागच्छन्त्याहुता देवा न गृह्नन्ति ग्रहानिह ।
सदसस्पतयो ब्रूत किमवद्यं मया कृतम् ॥
३०॥
न--नहीं; आगच्छन्ति--आ रहे हैं; आहुता:--आमंत्रित किये जाने पर; देवा: --देवगण; न--नहीं; गृह्वन्ति--स्वीकार कर रहेहैं; ग्रहान्-- भाग; इह--इस यज्ञ में; सदसः-पतय:--हे पुरोहितो; ब्रूत--कृपया बताएँ; किमू-- क्या; अवद्यमू--अपराध;मया--मेरे द्वारा; कृतम्ू--किया गया।
राजा अंग ने पुरोहित वर्ग को सम्बोधित करते हुए पूछा : हे पुरोहितो, आप कृपा करकेबताएँ कि मुझसे कौन सा अपराध हुआ है।
आमंत्रित होने पर भी देवता न तो यज्ञ में सम्मिलितहो रहे हैं और न अपना भाग ग्रहण कर रहे हैं।
"
सदसस्पतय ऊचुःनरदेवेह भवतो नाघं तावन्मनाक्स्थितम् ।
अस्त्येकं प्राक्तनमघं यदिहेहक्त्वमप्रज: ॥
३१॥
सदसः-पतय: ऊचु:--प्रधान पुरोहित ने कहा; नर-देव--हे राजन; इह--इस जीवन में; भवत:--आपका; न--नहीं; अघम्--पापकर्म; तावत् मनाक्--रंचमात्र भी; स्थितम्--स्थित; अस्ति-- है; एकम्--एक; प्राक्तनम्--पूर्वजन्म में; अघम्--पापकर्म;यत्--जिससे; इह--जीवन में; ईहक्--इस प्रकार; त्वमू-तुम; अप्रज: --पुत्रहीन |
प्रधान पुरोहित ने कहा : हे राजन, हमें तो आपके इस जीवन में आप के मन से किया गयाभी कोई भी पापकर्म नहीं दिखता, अतः आप तनिक भी अपराधी नहीं हैं।
किन्तु हमें दिखता हैकि आपने पूर्वजन्म में पापकर्म किये हैं जिनके कारण समस्त गुणों के होते हुए भी आप पुत्रहीनहैं।
"
तथा साधय भद्वं ते आत्मानं सुप्रजं नूप ।
इष्टस्ते पुत्रकामस्य पुत्र दास्यति यज्ञभुक्ू ॥
३२॥
तथा--अतः; साधय--प्राप्त करने के लिए यज्ञ करें; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; आत्मानम्-- अपना; सु-प्रजम्--उत्तमपुत्र; नृप--हे राजा; इष्ट:--पूजित होकर; ते--तुम्हारे द्वारा; पुत्र-कामस्य--पुत्र की कामना से; पुत्रमू--पुत्र; दास्यति--प्रदानकरेगा; यज्ञ-भुक्ू--यज्ञ का भोक्ता श्रीभगवान् |
हे राजन, आपका कल्याण हो।
आपके कोई पुत्र नहीं हैं, अतः यदि आप तुरन्त भगवान् सेप्रार्थना करें और पुत्र माँगें तथा यदि इस कार्य के लिए यज्ञ करें तो यज्ञभोक्ता भगवान् आपकीकामना को पूर्ण करेंगे।
"
तथा स्वभागथधेयानि ग्रहीष्यन्ति दिवौकसः ।
यद्यज्ञपुरुष: साक्षादपत्याय हरिव्वृतः ॥
३३ ॥
तथा--तत्पश्चात्; स्व-भाग-धेयानि--यज्ञ में अपने-अपने भाग; ग्रहीष्यन्ति--ग्रहण करेंगे; दिब-ओकसः:--समस्त देवता;यत्--क्योंकि; यज्ञ-पुरुष:--समस्त यज्ञों का भोक्ता; साक्षात्- प्रत्यक्ष; अपत्याय--पुत्र के लिए; हरि: -- भगवान्; वृत:ः--आमंत्रित किया जाता है।
जब समस्त यज्ञों के भोक्ता हरि को पुत्र की कामना पूरी करने के लिए आमंत्रित कियाजाएगा, तो सभी देवता उनके साथ आएँगे और अपना-अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करेंगे।
"
तांस्तान्कामान्हरिदद्याद्यान्यान््कामयते जनः ।
आराधितो यथेवैष तथा पुंसां फलोदय: ॥
३४॥
तान् तानू--वही वही; कामान्--इच्छित वस्तुएँ; हरिः-- भगवान्; दद्यातू-देंगे; यान् यानू--जो जो; कामयते--इच्छा करता;जनः--व्यक्ति; आराधित:--पूजित होकर; यथा--जिस तरह; एव--निश्चय ही; एब: -- भगवान्; तथा--उसी प्रकार; पुंसाम्ू--मनुष्यों का; फल-उदयः--फल।
यज्ञों का कर्ता ( कर्मकाण्ड के अन्तर्गत ) जिस कामना से भगवान् की पूजा करता है, वहकामना पूरी होती है।
"
इति व्यवसिता विप्रास्तस्य राज्ञः प्रजातये ।
पुरोडाशं निरवपन्शिपिविष्टाय विष्णवे ॥
३५॥
इति--इस प्रकार; व्यवसिता:--निश्चय करके; विप्रा: --समस्त ब्राह्मण; तस्य--उसके; राज्:--राजा के; प्रजातये--पुत्र-प्राप्तिके उद्देश्य से; पुरोडाशम्--यज्ञ की सामग्री; निरवपन्--प्रदान की; शिपि-विष्टाय--यज्ञ की अग्नि में स्थित, भगवान् को;विष्णवे-- भगवान् विष्णु को |
इस प्रकार राजा अंग को पुत्र प्राप्ति कराने के लिए उन्होंने घट-घट वासी भगवान् विष्णु कोआहुतियाँ अर्पित करने का निश्चय किया।
"
तस्मात्पुरुष उत्तस्थौ हेममाल्यमलाम्बर: ।
हिरण्मयेन पात्रेण सिद्धमादाय पायसम् ॥
३६॥
तस्मात्--उस अग्नि से; पुरुष:--पुरुष; उत्तस्थौ--प्रकट हुआ; हेम-माली--सोने का हार पहने; अमल-अम्बर: -- श्वेत वन्त्नों में;हिरण्मयेन--सुनहले; पात्रेण--पात्र से; सिद्धमू--पकाया हुआ; आदाय--लाकर; पायसम्--खीर
अग्नि में आहुति डालते ही, अग्निकुण्ड से सोने का हार पहने तथा श्वेत वस्त्र धारण कियेएक पुरुष प्रकट हुआ।
वह एक स्वर्णपात्र में खीर लिये हुए था।
"
स विप्रानुमतो राजा गृहीत्वाज्ललिनौदनम् ।
अवष्नाय मुदा युक्तः प्रादात्पत्या उदारधीः ॥
३७॥
सः--वह; विप्र--ब्राह्मणों की; अनुमत:-- अनुमति से; राजा--राजा; गृहीत्वा--लेकर; अद्जलिना--अंजुली में; ओदनम्--खीर; अवध्राय--सूँघ कर; मुदा--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; युक्त:--सहित; प्रादात्--प्रदान किया; पत्यै--अपनी पत्नी को;उदार-धी:--उदार हृदय |
राजा अत्यन्त उदार था।
उसने पुरोहितों की अनुमति से उस खीर को अपनी अंजुली में लेलिया और फिर सूँघ कर उसका एक भाग अपनी पतली को दे दिया।
"
सा तत्पुंसवन राज्ञी प्राश्य वै पत्युरादथे ।
गर्भ काल उपावृत्ते कुमारं सुषुवेप्रजा ॥
३८ ॥
सा--वह; तत्--वह खीर; पुमू-सवनम्--जिससे पुत्र उत्पन्न होता है; राज्ञी--रानी; प्राशय--खाकर; बै--निस्सन्देह; पत्यु:--पति से; आदधे-- धारण किया; गर्भम्-गर्भ; काले--उचित समय पर; उपावृत्ते--प्रकट हुआ; कुमारम्--पुत्र; सुषुबे--जन्मदिया; अप्रजा--सन्तानहीन |
यद्यपि रानी को कोई पुत्र न था, किन्तु पुत्र उत्पन्न करने की शक्ति वाली उस खीर के खानेसे, वह अपने पति के सहवास से गर्भवती हो गई और यथासमय उसने एक पुत्र को जन्म दिया।
"
स बाल एव पुरुषो मातामहमनुव्रत: ।
अधर्माशोद्धवं मृत्युं तेनाभवदधार्मिक: ॥
३९॥
सः--वह; बाल:--बालक; एव--निश्चय ही; पुरुष: --नर; माता-महम्--नाना; अनुव्रत:--पालक, अनुगामी; अधर्म--अधर्मका; अंश--एक अंश से; उद्धवम्--प्रकट, अवतीर्ण; मृत्युम्ू--मृत्यु; तेन--इससे; अभवत्--हुआ; अधार्मिक:--धर्म को नमाननेवाला।
वह बालक अंशत: अधर्म के वंश में उत्पन्न था।
उसका नाना साक्षात् मृत्यु था और वहबालक उसका अनुगामी बना और अत्यन्त अधार्मिक व्यक्ति बन गया।
"
स शरासनमुद्यम्य मृगयुर्वनगोचर: ।
हन्त्यसाधुरमृगान्दीनान्वेनो सावित्यरौज्जन: ॥
४०॥
सः--वह, वेन नामक बालक; शरासनमू्-- अपना धनुष; उद्यम्य--लेकर; मृगयु:--शिकारी; वन-गोचर: --जंगल में जाकर;हन्ति--मारता था; असाधु:--अत्यन्त क्रूर होकर; मृगान्--मृगों को; दीनानू--दीन; वेन: --वेन; असौ--वह रहा, वह आया;इति--इस प्रकार; अरौत्--चिल्लाते; जन:--सभी लोग।
वह दुष्ट बालक धनुष-बाण चढ़ाकर जंगल में जाता और वृथा ही निर्दोष ( दीन ) हिरनों कोमार डालता।
ज्योंही वह आता कि सभी लोग चिल्ला उठते, 'वह आया क्रूर बेन! वह आया क्रूरबेन!'" आक्रीडे क्रीडतो बालान्ववस्थानतिदारुण: ।
प्रसह्य निरनुक्रोशः पशुमारममारयत् ॥
४१॥
आक्रीडे-- खेल के मैदान में; क्रीडत:ः--खेलता हुआ; बालान्ू--लड़के; वयस्यान्--अपनी उप्र के; अति-दारुण:--अत्यन्तक्रूर; प्रसह्ा--बल से; निरनुक्रोश: --निर्दयतापूर्वक; पशु-मारम्--मानो पशु की हत्या कर रहा हो; अमारयत्--मारता था।
वह बालक ऐसा क्रूर था कि समवयस्क बालकों के साथ खेलते हुए उन्हें इतनी निर्दयता केसाथ मारता मानो वे बध किये जाने वाले पशु हों।
"
तं विचक्ष्य खल॑ पुत्र शासनैर्विविधे्नूप: ।
यदा न शासितुं कल्पो भृशमासीत्सुदुर्मना: ॥
४२॥
तम्--उसे; विचक्ष्य--देख कर; खलम्--क्रूर; पुत्रम्-पुत्र को; शासनै:--दण्ड द्वारा; विविधै:--विविध प्रकार के; नृप:--राजा; यदा--जब; न--नहीं; शासितुम्--वश में करने के लिए; कल्प:--समर्थ; भूशम्--अत्यधिक; आसीत्--हो गया; सु-दुर्मना:--खित्न ।
अपने पुत्र बेन का क्रूर तथा निष्ठर आचरण देख कर, राजा अंग ने उसे सुधारने के लिएतरह-तरह के दण्ड दिये, किन्तु वह उसे सन्मार्ग में न ला सका।
वह इस प्रकार से अत्यधिकखिन्न रहने लगा।
"
प्रायेणाभ्यर्चितो देवो येप्रजा गृहमेधिन: ।
कदपत्यभृतं दुःखं ये न विन्दन्ति दुर्भरम् ॥
४३॥
प्रायेण--सम्भवत:; अभ्यर्चित:--पूजा किया गया; देव: -- भगवान्; ये-- जो; अप्रजा: --पुत्रहीन; गृह-मेधिन: --गृहस्थ लोग;कद््-अपत्य--बुरे पुत्र से; भृतम्-- उत्पन्न; दुःखम्--दुख; ये--जो; न--नहीं; विन्दन्ति--कष्ट भोगते हैं; दुर्भरम्--असहनीय ।
राजा ने मन में सोचा कि पुत्रहीन व्यक्ति निश्चय ही भाग्यशाली हैं।
उन्होंने अवश्य हीपूर्वजन्मों में भगवान् की पूजा की होगी जिससे उन्हें किसी कुपुत्र द्वारा दिया गया असह्य दुख नउठाना पड़े।
"
यतः पापीयसी कीर्तिरधर्मश्च महान्रणाम् ।
यतो विरोध: सर्वेषां यत आधिरनन्तक: ॥
४४॥
यतः--कुपुत्र के कारण; पापीयसी--पापमय; कीर्ति:--यश; अधर्म:--अधर्म; च-- भी; महान्--महान; नृणाम्-- मनुष्यों का;यतः--जिससे; विरोध: --झगड़ा; सर्वेषाम्--समस्त लोगों का; यत:ः--जिससे; आधि:--चिन्ता; अनन्तक:--अपार, असीम
पापी पुत्र के कारण मनुष्य का यश मिट्टी में मिल जाता है।
उसके अधार्मिक कृत्यों से घर मेंअधर्म और सबों में झगड़ा फैलता है।
इससे केवल अन्तहीन तनाव ही उत्पन्न होता है।
"
कस्तं प्रजापदेशं वै मोहबन्धनमात्मन: ।
पण्डितो बहु मन्येत यदर्था: क्लेशदा गृहा: ॥
४५॥
'कः--कौन; तम्--उसको ; प्रजा-अपदेशम्--केवल नाम का पुत्र; वै--निश्चय ही; मोह--मोह का; बन्धनम्--बन्धन;आत्मन:--आत्मा के लिए; पण्डित:--बुद्धिमान पुरुष; बहु मन्येत--सम्मान करेगा; यत्-अर्था: --जिसके कारण; क्लेश-दाः--कष्ट-कारक; गृहा:--घर
ऐसा कौन समझदार और बुद्धिमान है, जो इस तरह का निकम्मा पुत्र चाहेगा? ऐसा पुत्रजीवात्मा के लिए मोह का बन्धनमात्र होता है और वह मनुष्य के घर को दुखी बनाता है।
"
कदपत्यं वरं मनन््ये सदपत्याच्छुचां पदात् ।
निर्विद्येत गृहान्मत्यों यत्कलेशनिवहा गृहा: ॥
४६॥
कद््-अपत्यमू--कुपुत्र; वरम्-- श्रेष्ठ; मन्ये--मैं सोचता हूँ; सत्-अपत्यात्-- अच्छे पुत्र की अपेक्षा; शुचामू-शोक का;पदातू--साधन; निर्विद्येत--विरक्त हो जाता है; गृहात्-घर से; मर्त्य:--मरणशील मनुष्य; यत्--जिसके कारण; क्लेश-निवहा:--नारकीय; गृहा:--घर |
तब राजा ने सोचा : सुपुत्र की अपेक्षा कुपुत्र ही अच्छा है, क्योंकि सुपुत्र से घर के प्रतिआसक्ति उत्पन्न होती है, किन्तु कुपुत्र से नहीं।
कुपुत्र घर को नरक बना देता है, जिससे बुद्धिमान मनुष्य सरलता से अपने को अनासक्त कर लेता है।
"
एवं स निर्विण्णमना नृपो गृहा-न्रिशीथ उत्थाय महोदयोदयात् ।
अलब्धनिद्रोनुपलक्षितो नृभि-हित्वा गतो वेनसुव॒ं प्रसुप्ताम् ॥
४७॥
एवम्--इस प्रकार; सः--वह; निर्विणण-मना: --उदास मन; नृप:--राजा अंग; गृहात्--घर से; निशीथे--अर्द्ध॑रात्रि में;उत्थाय--उठकर; महा-उदय-उदयात्--महापुरुषों के आशीर्वाद से ऐश्वर्ययुक्त; अलब्ध-निद्र:--बिना नींद के; अनुपलक्षित: --बिना दिखे; नृभि:--मनुष्यों के द्वारा; हित्वा--त्याग कर; गत:--चला गया; वेन-सुवम्--वेन की माता को; प्रस॒ुप्तामू--गहरीनिद्रा में मग्न
इस प्रकार से सोचते हुए राजा अंग को रात भर नींद नहीं आई।
वह गृहस्थ जीवन से पूर्णतःउदास हो गया।
अतः एक दिन अर्धरात्रि में वह अपने बिस्तर से उठा और बेन की माता ( अपनीपत्नी ) को गहरी निद्रा में सोते हुए छोड़कर चला गया।
उसने अपने महान् ऐश्वर्यमय राज्य कामोह त्याग दिया और चुपके से अपना घर तथा ऐश्वर्य छोड़कर जंगल की ओर चला गया।
"
विज्ञाय निर्विद्य गतं पतिं प्रजा:पुरोहितामात्यसुहद्गणादय: ।
विचिक्युरुव्यामतिशोककातरायथा निगूढं पुरुष कुयोगिन: ॥
४८ ॥
विज्ञाय--जानकर; निर्विद्य--उदास; गतम्--चला गया; पतिम्--राजा; प्रजा:--समस्त नागरिक; पुरोहित--पुरोहित;आमात्य--मंत्री; सुहृत्ू-मित्र; गण-आदय: --तथा सामान्यजन; विचिक्यु:--खोजने लगे; उर्व्याम्--पृथ्वी पर; अति-शोक-कातरा:--अ त्यन्त दुखी होकर; यथा--जिस प्रकार; निगूढम्--छिपा हुआ; पुरुषम्--परमात्मा को; कु-योगिन:--अनुभवहीनयोगी
जब यह पता चला कि राजा ने उदास होकर गृहत्याग कर दिया है, तो समस्त नागरिक,पुरोहित, मंत्री, मित्र तथा सामान्यजन अत्यन्त दुखी हुए।
वे सर्वत्र उसकी खोज करने लगे जैसेकोई अनुभवहीन योगी अपने भीतर परमात्मा की खोज करता है।
"
अलक्षयन्तः पदवीं प्रजापते-ईतोद्यमा: प्रत्युपसृत्य ते पुरीम् ।
ऋषीन्समेतानभिवन्द्य साश्रवोन्यवेदयन्पौरव भर्तृविप्लवम् ॥
४९॥
अलक्षयन्त:--न पाकर; पदवीम्ू--कोई चिह्न, पता; प्रजापते:--राजा अंग का; हत-उद्यमा: --निराश होकर; प्रत्युपसृत्य--लौटकर; ते--वे नागरिक; पुरीमू--नगर को; ऋषीन्--ऋषि; समेतान्ू--एकत्रित; अभिवन्द्य--नमस्कार करके; स-अश्रव:--आँखों में आँसू भर कर; न्यवेदयन्--सूचित किया, निवेदन किया; पौरव--हे विदुर; भर्त्--राजा की; विप्लवम्--अनुपस्थिति।
जब सर्वत्र खोज करने पर नागरिकों को राजा का कोई पता न चला तो वे अत्यधिक निराशहुए और नगर को लौट आये, जहाँ पर राजा की अनुपस्थिति के कारण देश के समस्त बड़े-बड़ेऋषि एकत्र हुए थे।
अश्रुपूरित नागरिकों ने ऋषियों को नमस्कार किया और विस्तारपूर्वकबताया कि वे कहीं भी राजा को नहीं पा सके ।
"
अध्याय चौदह: राजा वेन की कहानी
4.14मैत्रेय उवाचभृग्वादयस्ते मुनयो लोकानां क्षेमदर्शिन: ।
गोप्तर्यसति वैनृणां पश्यन्त: पशुसाम्यताम् ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा; भूगु-आदयः:-- भृगु इत्यादि; ते--वे सब; मुनयः--मुनिगण; लोकानाम्--लोगों की;क्षेम-दर्शिन:--कुशल चाहनेवाले; गोप्तरि--राजा की; असति--अनुपस्थिति में; वै--निश्चय ही; नृणाम्--समस्त लोगों का;पश्यन्त:--जानते हुए; पशु-साम्यताम्--पशुतुल्य जीवन |
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे महावीर विदुर, भूगु इत्यादि ऋषि सदैव जनता के कल्याण केलिए चिन्तन करते थे।
जब उन्होंने देखा कि राजा अंग की अनुपस्थिति में जनता के हितों कीरक्षा करनेवाला कोई नहीं रह गया तो उनकी समझ में आया कि बिना राजा के लोग स्वतंत्र एवंअसंयमी हो जाएँगे।
"
वीरमातरमाहूय सुनीथां ब्रह्मगादिन: ।
प्रकृत्यसम्मतं वेनमभ्यषिञ्ञन्पतिं भुवः ॥
२॥
बीर--वेन की; मातरम्--माता को; आहूय--बुलाकर; सुनीथाम्--सुनी था नाम की; ब्रह्म-वादिन: --वेदों में पारंगत ऋषिगण;प्रकृति--मंत्रियों से; असम्मतम्--असहमत; वेनमू--वेन को; अभ्यषिज्ञनू--सिंहासन पर बैठा दिया; पतिमू--स्वामी; भुव:--विश्व का।
तब ऋषियों ने वेन की माता रानी सुनीथा को बुलाया और उनकी अनुमति से वेन को विश्वके स्वामी के रूप में सिंहासन पर बिठा दिया।
तथापि सभी मंत्री इससे असहमत थे।
"
श्रुत्वा नूपासनगतं वेनमत्युग्रशासनम् ।
निलिल्युर्दस्यव: सद्यः सर्पत्रस्ता इबाखव: ॥
३॥
श्रुत्वा--सुनकर; नृप--राजा का; आसन-गतम्--सिंहासन पर आरूढ़; वेनम्ू--वेन को; अति--अत्यन्त; उग्र--घोर;शासनमू--दंड देनेवाला; निलिल्यु:--अपने को छिपा लिया; दस्यवः--सभी चोर; सद्यः--तुरन्त; सर्प--साँपों से; त्रस्ता:--डरेहुए; इब--सहृश; आखव:--चूहे |
यह पहले से ज्ञात था कि वेन अत्यन्त कठोर तथा क्रूर था, अतः जैसे ही राज्य के चोरों तथाउचक्कों ने सुना कि वह राज-सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है, वे उससे बहुत भयभीत हुए और वेसब उसी तरह छिप गये जिस प्रकार चूहे अपने आपको सर्पों से छिपा लेते हैं।
"
स आरूढनृपस्थान उन्नद्धो हष्टविभूतिभि: ।
अवमेने महाभागान्स्तब्ध: सम्भावित: स्वतः ॥
४॥
सः--राजा वेन; आरूढ--स्थित; नृप-स्थान:--राजा के आसन पर; उन्नद्ध:--अत्यन्त घमंडी; अष्ट-- आठ; विभूतिभि:--ऐश्वर्यों से; अवमेने--अपमान करने लगा; महा-भागान्--महापुरुषों को; स्तब्ध:--अदूरदर्शी ; सम्भावित:--महान् समझते हुए;स्वतः--अपने आपको
जब राजा सिंहासन पर बैठा तो वह आठों ऐश्वर्यों से युक्त होकर सर्वशक्तिमान बन गया।
फलतः वह अत्यन्त घंमडी हो गया।
झूठी प्रतिष्ठा के कारण वह अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगा और इस प्रकार से वह महापुरुषों का अपमान करने लगा।
"
एवं मदान्ध उत्सिक्तो निरह्ुश इव द्विप: ।
पर्यटत्रथमास्थाय कम्पयन्निव रोदसी ॥
५॥
एवम्--इस प्रकार; मद-अन्ध:--अधिकार के कारण अन्धा हुआ; उत्सिक्त:--घमंडी; निरहु शः--उऊहंड; इव--सहश; द्विप:--हाथी; पर्यटन्ू--घूमता हुआ; रथम्--रथ पर; आस्थाय--चढ़कर; कम्पयन्--हिलाता हुआ; इब--निरसन्देह; रोदसी-- आकाशतथा पृथ्वी
राजा वेन अपने ऐश्वर्य के मद से अन्धा होकर रथ पर आसीन होकर निरंकुश हाथी के समानसारे राज्य में घूमने लगा।
जहाँ-जहाँ वह जाता, आकाश तथा पृथ्वी दोनों हिलने लगते।
"
न यटष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं द्विजा: क्वचित् ।
इति न्यवारयद्धर्म भेरीघोषेण सर्वशः ॥
६॥
न--नहीं; यष्टव्यमू--एक भी यज्ञ हो पाते; न--न तो; दातव्यम्--कोई दान दे सकता था; न--नहीं; होतव्यम्--आहुति दी जासकती थी; द्विजा:--हे द्विजन्मा; क्वचित्--किसी भी समय; इति--इस प्रकार; न््यवारयत्--रोक दिया; धर्मम्-- धार्मिकनियमों की विधियाँ; भेरी--ढिंढोरा ( बाजा ); घोषेण--शब्द से; सर्वशः--सर्वत्र |
राजा वेन ने अपने राज्य में यह ढिंढोरा पिटवा दिया कि सभी द्विजों ( ब्राह्मणों ) को अब सेकिसी भी तरह का यज्ञ करने, दान देने या घृत की आहुति देने की मनाही कर दी गईं।
दूसरे शब्दों में, उसने सभी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान बन्द करा दिये।
"
वेनस्यावेक्ष्य मुनयो दुर्वृत्तस्थ विचेष्टितम् ।
विमृश्य लोकव्यसनं कृपयोचु: सम सत्रिण: ॥
७॥
वेनस्थ--वेन का; आवेशक्ष्य--देखकर; मुनय:--सभी मुनिगण; दुर्वृत्तस्य--धूर्त के; विचेष्टितम्--कार्यकलाप; विमृश्य--विचारकरके; लोक-व्यसनम्--सामान्य लोगों के लिए संकट; कृपया--दयावश; ऊचु:--कहा; स्म--भूतकाल में; सत्रिण:--यज्ञोंके कर्ता
अतः सभी ऋषिगण एकत्र हुए और वेन के अत्याचारों को देखकर इस निष्कर्ष पर पहुँचेकि संसार के मनुष्यों पर महान् संकट तथा प्रलय आनेवाला है।
अतः वे दयावश परस्पर बातेंकरने लगे, क्योंकि वे स्वयं ही यज्ञों को सम्पन्न करनेवाले थे।
"
अहो उभयत: प्राप्त लोकस्य व्यसन महत् ।
दारुण्युभयतो दीप्ते इब तस्करपालयो: ॥
८॥
अहो--ओह; उभयतः--दोनों ओर से; प्राप्तम्--प्राप्त; लोकस्य--लोगों का; व्यसनम्--संकट; महत्-- भारी; दारुणि--लट्टा;उभयतः--दोनों ओर से; दीप्ते--जलता हुआ; इब--सहृश; तस्कर--चोरों तथा उचक्कों से; पालयो:--तथा राजा से |
ऋषियों ने परस्पर विमर्श करके देखा कि जनता दोनों ओर से विकट स्थिति में है।
जबकिसी लट्ठे के दोनों सिरों पर अग्नि प्रज्वलित रहती है, तो बीच में स्थित चीटियाँ अत्यन्त विकटस्थिति में रहती हैं।
इसी प्रकार उस समय एक ओर अनुत्तरदायी राजा तथा दूसरी ओर चोर-उचक्कों के कारण जनता अत्यन्त विकट स्थिति में फँसी हुई थी।
"
अराजकभयादेष कृतो राजातदर्हण: ।
ततोप्यासीद्धयं त्वद्य कथं स्यात्स्वस्ति देहिनामू ॥
९॥
अराजक--बिना राजा के होने से; भयात्-- भयवश; एष:--यह बेन; कृतः--बनाया था; राजा--राजा; अ-तत्-अर्हण: --अयोग्य होने पर भी; ततः--उससे; अपि-- भी; आसीतू-- था; भयम्--संकट; तु--तब; अद्य--अब; कथम्--कैसे; स्थात्ू--क्या हो सकता है; स्वस्ति--सुख; देहिनाम्--प्राणियों का।
राज्य को अराजकता से बचाने के लिए सोच-विचार कर ऋषियों ने राजनीतिक संकट केकारण बेन को, अयोग्य होते हुए भी राजा बनाया था।
किन्तु हाय! अब तो जनता राजा द्वारा हीअशान्त बनाई जा रही है।
ऐसी अवस्था में भला लोग किस प्रकार सुखी रह सकते हैं ?"
अहेरिव पयःपोषः पोषकस्याप्यनर्थभूत् ।
बेनः प्रकृत्येव खल: सुनीथागर्भसम्भव: ॥
१०॥
अहेः--सर्प के; इब--सहृश; पय:--दूध से; पोष:--पालन; पोषकस्य--पालक का; अपि-- भी; अनर्थ--हित विरुद्ध;भृत्--होता है; वेन:--राजा बेन; प्रकृत्या--प्रकृति से; एबव--निश्चय ही; खलः--दुष्ट; सुनीधा--सुनीथा के; गर्भ--गर्भ से;सम्भव:--उत्पन्न
ऋषिगण अपने आप में सोचने लगे कि सुनीथा के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण राजा वेनस्वभाव से अत्यन्त दुष्ट ( उत्पाती ) है।
इस दुष्ट राजा का समर्थन करना बैसा ही है जैसे सर्प कोदूध पिलाना।
अब यह समस्त संकटों का कारण बन गया है।
निरूपितः प्रजापाल: स जिघांसति बै प्रजा: ।
तथापि सान्त्वयेमामुं नास्मांस्तत्पातक॑ स्पृशेत् ॥
११॥
निरूपित:--नियुक्त; प्रजा-पाल:--राजा; सः--वह; जिघांसति-- क्षति पहुँचाना चाहता है; बै--निश्चय ही; प्रजा:--नागरिक;तथा अपि--तो भी; सान्त्वयेम--हमें समझाना चाहिए; अमुम्ू--उसको; न--नहीं; अस्मान्ू--हमको; तत्--उसका;पातकम्--पापमय फल; स्पृशेत्--छू सकेंगे।
हमने इस वेन को नागरिकों की सुरक्षा के हेतु नियुक्त किया था, किन्तु अब वह उनका शत्रुबन चुका है।
इन सब न्यूनताओं के होते हुए भी, हमें चाहिए कि उसे तुरन्त समझाने का प्रयत्नकरें।
ऐसा करने से हमें उसके पाप स्पर्श नहीं कर सकेंगे।
"
तद्विद्दद्धिरसद्वत्तो वेनोउस्माभि: कृतो नृप: ।
सान्त्वितो यदि नो वाचं न ग्रहीष्यत्यधर्मकृत् ।
लोकथिक्कारसन्दग्धं दहिष्याम: स्वतेजसा ॥
१२॥
तत्--उसकी उत्पाती प्रकृति; विद्वद्धिः--परिचित; असत्-वृत्त:--अपवित्र; वेन:--वेन; अस्माभि:--हमारे द्वारा; कृत:--बनायागया; नृप:--राजा; सान्त्वितः--शान्त किये जाने या समझाने पर; यदि--यदि; न:--हमारा; वाचम्--शब्द; न--नहीं;ग्रहीष्यति--वह स्वीकार करेगा; अधर्म-कृत्--सर्वाधिक दुष्ट; लोक-धिक्-कार--सार्वजनिक निन्दा; सन्दग्धम्-- भस्म कियाहुआ; दहिष्याम: --जला देंगे; स्व-तेजसा--अपने तेज से ।
संत सदृश मुनि लोगों ने आगे सोचा : निस्सन्देह हम उसके दुष्ट स्वभाव से भली भाँतिपरिचित हैं, तो भी हमीं ने वेन को राजसिंहासन पर बैठाया है।
यदि हम उसे अपनी सलाह माननेके लिए राजी नहीं कर लेते तो जनता उसको दुत्कारेगी और हम भी उनका साथ देंगे।
इस प्रकारहम अपने तेज से उसे भस्म कर डालेंगे।
"
एवमध्यवसायैनं मुनयो गूढमन्यव: ।
उपक्रज्याब्रुवन्वेनं सान्त्वयित्वा च सामभि: ॥
१३॥
एवम्--इस प्रकार; अध्यवसाय--निर्णय करके; एनम्--उसको; मुनय:--मुनियों ने; गूढ-मन्यव:ः--अपना क्रोध छिपाते हुए;उपकब्रज्य--पास जाकर; अब्लुवन्ू--बोले; वेनम्--राजा वेन से; सान्त्वयित्वा--समझा-बुझा कर; च-- भी; सामभि: --मीठेबचनों से।
ऐसा निश्चय करके ऋषिगण राजा वेन के पास गये और अपना वास्तविक क्रोध छिपाते हुएउन्होंने उसे मीठे वचनों से समझाया-बुझाया।
फिर उन्होंने इस प्रकार कहा।
"
मुनय ऊचुःनृपवर्य निबोधेतद्यत्ते विज्ञापपाम भो: ।
आयु: श्रीबलकीर्तीनां तब तात विवर्धनम् ॥
१४॥
मुनयः ऊचु:--मुनियों ने कहा; नृूप-वर्य--हे राजाओं में श्रेष्ठ; निबोध--समझने का यल करो; एतत्--यह; यत्--जो; ते--तुमको; विज्ञापयाम--हम उपदेश देंगे; भोः--हे राजा; आयु:--उम्र; श्री--ऐ श्वर्य; बल--शक्ति; कीर्तीनाम्ू--उत्तम ख्याति;तब--तुम्हारी; तात--हे पुत्र; विवर्धनम्--बढ़ानेवाली ।
मुनियों ने कहा: हे राजन, हम आपके पास सदुपदेश देने आये हैं।
कृपया ध्यानपूर्वक सुनें।
ऐसा करने से आपकी आयु, ऐश्वर्य, बल तथा कीर्ति बढ़ेगी।
"
धर्म आचरित: पुंसां वाइमन:कायबुद्धिभि: ।
लोकान्विशोकान्वितरत्यथानन्त्यमसड्रिनाम् ॥
१५॥
धर्म:--धार्मिक नियम; आचरित:ः--पालन करते हुए; पुंसाम्--व्यक्तियों को; वाक्ु--शब्दों से; मन:ः--मन; काय--शरीर;बुद्धिभिः--तथा बुद्धि से; लोकानू--लोक; विशोकान्--शोकरहित; वितरति-- प्रदान करते हैं; अथ--निश्चय ही;आनन््त्यमू--अपार सुख, मुक्ति; असड्रिनामू-- भौतिक प्रभावों से जो मुक्त है उन निष्काम मनुष्यों को।
जो लोग धार्मिक नियमों के अनुसार रहते हैं और जो मन, वचन, शरीर तथा बुद्धि से इनकापालन करते हैं, वे स्वर्गलोक को जाते हैं, जो समस्त शोकों ( दुखों ) से रहित है।
इस प्रकारभौतिक प्रभाव से छूट कर वे जीवन में असीम सुख प्राप्त करते हैं।
"
सते मा विनएेद्वीर प्रजानां क्षेमलक्षण: ।
यस्मिन्विनष्टे नृपत्रिश्वर्यादवरोहति ॥
१६॥
सः--आध्यात्मिक जीवन; ते--तुम्हारे द्वारा; मा--मत; विनशेत्--विनष्ट होने दें; वीर--हे वीर; प्रजानाम्ू--लोगों का; क्षेम-लक्षण:--सम्पन्नता का कारण; यस्मिन्--जो; विनष्टे--नष्ट होने पर; नृपति:--राजा; ऐश्वर्यात्--ऐश्वर्य से; अवरोहति--नीचेगिरता है
मुनियों ने आगे कहा : अतः हे महान् वीर, आपको सामान्य जनता के आध्यात्मिक जीवनको विनष्ट करने में निमित्त नहीं बनना चाहिए।
यदि आपके कार्यों से उनका आध्यात्मिक जीवनविनष्ट होता है, तो आप निश्चित रूप से अपने ऐश्वर्यपूर्ण तथा राजोचित पद से नीचे गिरेंगे।
"
राजन्नसाध्वमात्ये भ्यक्षोरादिभ्य: प्रजा नृप: ।
रक्षन्यथा बलि गृह्न्निह प्रेत्य च मोदते ॥
१७॥
राजन्--हे राजन; असाधु --दुष्ट; अमात्येभ्य: --मंत्रियों से; चोर-आदिभ्य:--चोरों तथा उचक्कों से; प्रजा:--नागरिक; नृप:--राजा; रक्षन्--रक्षा करते हुए; यथा--जिस प्रकार से; बलिमू--कर; गृहन्--स्वीकार करते हुए; इह--इस संसार में; प्रेत्य--मरकर; च--तथा; मोदते--सुख उठाता है।
मुनियों ने आगे कहा : जब राजा दुष्ट मंत्रियों के तथा चोर-उचक्कों के उत्पातों से नागरिकोंकी रक्षा करता है, तो अपने इन पवित्र कार्यों के कारण वह अपनी प्रजा से कर प्राप्त कर सकताहै।
इस प्रकार पवित्र राजा इस संसार में और मृत्यु के बाद भी सुख भोग सकता है।
"
यस्य राष्ट्र पुरे चैव भगवान्यज्ञपूरुष: ।
इज्यते स्वेन धर्मेण जनैर्वर्णा श्रमान्विति: ॥
१८ ॥
यस्य--जिसके ; राष्ट्रे--राज या राज्य में; पुरे--नगरों में; च-- भी; एबव--निश्चय ही; भगवान्-- भगवान्; यज्ञ-पूरुष: -- समस्तयज्ञों का भोक्ता; इज्यते--पूजा जाता है; स्वेन--स्वतः; धर्मेण--वृत्ति द्वारा; जनैः--मनुष्यों के द्वारा; वर्ण-आशश्रम--चार वर्णतथा चार आश्रम इन आठ सामाजिक व्यवस्थाओं की प्रणाली; अन्वितैः--पालन करनेवाले।
वह राजा पवित्र समझा जाता है, जिसके राज्य तथा नगरों में प्रजा वर्ण तथा आश्रम की आठसामाजिक व्यवस्थाओं का कठोरता से पालन करती है और जहाँ के नागरिक अपने विशिष्ट धर्म( वृत्ति ) द्वारा भगवान् की सेवा में संलग्न रहते हैं।
"
तस्य राज्ञो महाभाग भगवान्भूतभावन: ।
परितुष्यति विश्वात्मा तिष्ठतो निजशासने ॥
१९॥
तस्य--उससे; राज्ञ:--राजा; महा-भाग-हे श्रेष्ठ; भगवान्-- भगवान्; भूत- भावन: -- जो इस दृश्य जगत का मूल कारण है;परितुष्यति-- प्रसन्न हो जाता है; विश्व-आत्मा--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का परमात्मा; तिष्ठतः--स्थित होकर; निज-शासने-- अपनेशासन में
हे महाभाग, यदि राजा यह देखता है कि दृश्य जगत के मूल कारण भगवान् तथा हर एकके भीतर स्थित परमात्मा की पूजा होती है, तो भगवान् प्रसन्न होते हैं।
"
तस्मिस्तुष्टे किमप्राप्यं जगतामी श्वरेश्वरे ।
लोकाः सपाला ह्ोतस्मै हरन्ति बलिमाहता: ॥
२०॥
तस्मिनू--जब वह; तुष्टे--संतुष्ट या प्रसन्न है; किमू--क्या; अप्राप्यम्--प्राप्त करना असम्भव; जगताम्--विश्व के; ई श्वर-ईश्वेर--नियन्ता के भी नियन्ता; लोकाः--लोकों के वासी; सपाला:--पालकों सहित; हि--इस कारण से; एतस्मै--उसको;हरन्ति--प्रदान करते हैं; बलिम्--पूजा की सामग्री; आहता: --अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक |
भगवान् विश्व के नियन्ता बड़े-बड़े देवताओं द्वारा पूजित हैं।
जब वे प्रसन्न हो जाते हैं, तोकुछ भी प्राप्त करना दुर्लभ नहीं रह जाता।
इसीलिए सभी देवता, लोकपाल तथा उनके लोकोंके निवासी भगवान् को सभी प्रकार की पूजा-सामग्री अर्पित करने में अत्यधिक प्रसन्नता काअनुभव करते हैं।
"
त॑ सर्वलोकामरयज्ञसड्ग्रहंत्रयीमयं द्र॒व्यमयं तपोमयम् ।
यज्ञैर्विचित्रै्यजतो भवाय तेराजन्स्वदेशाननुरोद्धुमहसि ॥
२१॥
तम्--उसको; सर्व-लोक--समस्त लोकों में; अमर--प्रमुख देवों सहित; यज्ञ--यज्ञ; सड्ग्रहमू--जो स्वीकार करते हैं; त्रयी-मयम्--तीन वेदों का सार; द्रव्य-मयम्--समस्त सामग्री का स्वामी; तप:ः-मयम्--समस्त तपस्या का उद्देश; यज्जै:--यज्ञ केद्वारा; विचित्रै:--विभिन्न; यजत:--पूजा करते हुए; भवाय--उन्नति के लिए; ते--तुम्हारी; राजनू--हे राजा; स्व-देशान्-- अपनेदेशवासियों को; अनुरोद्धुमू--निर्देश देना; अहसि--तुम्हें चाहिए
हे राजन, भगवान् प्रमुख अधिष्ठाता देवों सहित समस्त लोकों में समस्त यज्ञों के फल केभोक्ता हैं।
परमेश्वर तीनों वेदों के सार रूप हैं, वे हर वस्तु के स्वामी हैं और सारी तपस्या के चरमलक्ष्य हैं।
अतः आपके देशवासियों को आपकी उन्नति के लिए विविध प्रकार के यज्ञ करनेचाहिए।
दर असल आपको चाहिए कि आप उन्हें यज्ञ करने के लिए निर्देशित करें।
"
यज्ञेन युष्मद्विषये द्विजातिभि-वितायमानेन सुरा: कला हरे: ।
स्विष्टा: सुतुष्टा: प्रदिशन्ति वाजिछतं तद्धेलनं नाहसि वीर चेष्टितुम् ॥
२२॥
यज्ञेन--यज्ञ से; युष्मत्--तुम्हारे; विषये--राज्य में; द्विजातिभि:--ब्राह्मणों द्वारा; वितायमानेन--किया जाकर; सुरा: --समस्तदेवता; कला:--विस्तार; हरेः -- भगवान् के; सु-इष्टाः-- भली-भाँति पूजित होकर; सु-तुष्टाः:--अत्यधिक समन्तुष्ट; प्रदिशन्ति--प्रदान करेंगे; वाड्छितम्--इच्छित फल; ततू-हेलनम्--उनके प्रति अनादर; न--नहीं; अ्हसि--चाहिए; वीर--हे वीर;चेष्टितुमू-- करना |
जब आपके राज्य के सारे ब्राह्मण यज्ञ में संलग्न होने लगेंगे तो भगवान् के स्वांश समस्तदेवता उनके कार्यों से प्रसन्न होकर आपको मनवांछित फल देंगे; अतः हे वीर, यज्ञों को बन्द नकरें।
यदि उन्हें बन्द कर ते हैं तो आप देवताओं का अनादर करेंगे।
"
बेन उबाचबालिशा बत यूय॑ वा अधर्मे धर्ममानिन: ।
ये वृत्तिदं पतिं हित्वा जार पतिमुपासते ॥
२३॥
वेन:--राजा बेन ने; उवाच--उत्तर दिया; बालिशा:--बच्चों जैसा; बत--ओह; यूयम्--तुम सब; वा--निस्सन्देह; अधर्मे--अधार्मिक नियमों में; धर्म-मानिन:--धर्म मानते हुए; ये--तुम सब जो; वृत्तिदमू--पालन करनेवाले; पतिम्--पति को;हित्वा--त्याग कर; जारम्--परपति को; पतिम्--पति को; उपासते--पूजा करते हैं।
राजा वेन ने उत्तर दिया : तुम तनिक भी अनुभवी नहीं हो।
यह अत्यन्त दुख की बात है कितुम लोग जो कुछ करते रहे हो वह धार्मिक नहीं है, किन्तु तुम लोग उसे धार्मिक मान रहे हो।
दरअसल, तुम लोग अपने पालनकर्ता वास्तविक पति को त्याग रहे हो और पूजा करने के लिएकिसी जार ( परपति ) की तलाश में हो।
"
अवजानन्त्यमी मूढा नृपरूपिणमी श्वरम् ।
नानुविन्दन्ति ते भद्रमिह लोके परत्र च ॥
२४॥
अवजानन्ति--अनादर करते हैं; अमी--जो; मूढा:--अज्ञानी होकर; नूप-रूपिणम्--राजा के रूप में; ईश्वरम्-- भगवान् को;न--नहीं; अनुविन्दन्ति--अनुभव करते हैं; ते--वे; भद्रमू-- सुख; इह--इस; लोके --संसार में; परत्र--मृत्यु के बाद; च--भी।
जो लोग अज्ञानतावश उस राजा की पूजा नहीं करते जो कि वास्तव में भगवान् है, तो वे नतो इस लोक में और न परलोक में सुख का अनुभव करते हैं।
"
को यज्ञपुरुषो नाम यत्र वो भक्तिरीहशी ।
भर्तृस्नेहविदूराणां यथा जारे कुयोषिताम् ॥
२५॥
'कः--कौन ( है ); यज्ञ-पुरुष:--समस्त यज्ञों का भोक्ता; नाम--नाम से; यत्र--जिसको; वः--तुम्हारी; भक्ति:-- भक्ति;ईहशी--इतनी महान; भर्तू--पति के लिए; स्नेह--प्यार; विदूराणाम्ू--रहित; यथा--जिस प्रकार; जारे--जारपति को; कु-योषिताम्ू--कुलटा स्त्री का।
तुम लोग देवताओं के इतने भक्त हो, किन्तु वे हैं कौन ? निस्सन्देह, इन देवताओं के प्रति तुमलोगों का स्नेह उस कुलटा स्त्री का सा है, जो अपने विवाहित जीवन की उपेक्षा करके अपनेजारपति पर सारा ध्यान केन्द्रित कर देती है।
"
विष्णुर्विरिज्ञो गिरिश इन्द्रो वायुर्यमो रवि: ।
पर्जन्यो धनदः सोम: क्षितिरग्निरपाम्पति: ॥
२६॥
एते चान्ये च विबुधा: प्रभवो वरशापयो: ।
देहे भवन्ति नृपते: सर्वदेवमयो नृप: ॥
२७॥
विष्णु;:-- भगवान् विष्णु; विरिज्ञ:-- श्री ब्रह्मा; गिरिश: -- शिवजी; इन्द्र: --इन्द्र; वायु;:--वायु; यम: --यम, मृत्यु का अधीक्षक;रवि:--सूर्यदेव; पर्जन्य:--वर्षा का निदेशक; धन-दः--कुबेर; सोम: --चन्द्रदेव; क्षिति:--पृथ्वी का अधिष्ठता देव; अग्नि: --अग्निदेव; अपामू-पति:--वरुण, जल का स्वामी; एते--ये सब; च--तथा; अन्ये-- अन्य; च--भी; विबुधा: --देवता;प्रभव:--समर्थ; वर-शापयो:--वरदान तथा शाप दोनों में; देहे--शरीर में; भवन्ति--रहते हैं; नृपतेः--राजा का; सर्व-देवमय:--सभी देवताओं से; नृप:--राजा
विष्णु, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्यदेव, पर्जन्य, कुबेर, चन्द्रदेव, क्षितिदेव, अग्नि देव,वरुण तथा अन्य बड़े-बड़े देवता जो आशीर्वाद या शाप दे सकने में समर्थ हैं, वे सब राजा केशरीर में वास करते हैं।
इसीलिए राजा सभी देवताओं का आगार माना जाता है।
देवता राजा केशरीर के भिन्नांश हैं।
"
तस्मान्मां कर्मभिर्विप्रा'यजध्वं गतमत्सरा: ।
बलिं च मह्यं हरतमत्तोन्य: कोग्रभुक्पुमान् ॥
२८॥
तस्मात्--इस कारण से; माम्--मुझको; कर्मभि: --अनुष्ठान कार्यों के द्वारा; विप्रा:--हे ब्राह्मणों; यजध्वम्--पूजा करो; गत--बिना; मत्सरा:--ईर्ष्या किये; बलिम्--पूजा की सामग्री; च-- भी; महाम्--मुझको; हरत--लाओ; मत्त:--मेरी अपेक्षा;अन्य:--दूसरा; कः--कौन ( है ); अग्र-भुक्ू--प्रथम आहुति का भोक्ता; पुमान्ू--पुरुष |
राजा वेन ने आगे कहा : इसलिए, हे ब्राह्मणो, तुम मेरे प्रति ईर्ष्या त्याग कर अपने अनुष्ठानकार्यों द्वारा मेरी पूजा करो और समस्त पूजा-सामग्री मुझ पर ही चढ़ाओ।
यदि तुम लोग भीबुद्धिमान होगे, तो समझ सकोगे कि मुझसे श्रेष्ठ ऐसा कोई पुरुष नहीं जो समस्त यज्ञों की प्रथमआहुतियों को ग्रहण कर सके " मैत्रेय उवाचइत्थं विपर्ययमति: पापीयानुत्पथ्थं गत: ।
अनुनीयमानस्तद्याच्ञां न चक्रे भ्रष्टटड्रल: ॥
२९॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इत्थम्--इस प्रकार; विपर्यय-मतिः--विपरीत बुद्ध्धि वाला; पापीयानू--अत्यन्त पापी; उत्पथम्--सही रास्ते से; गतः--चलकर; अनुनीयमान: --सभी प्रकार से सम्मानित; ततू-याच्ञाम्--मुनियों की याचना; न--नहीं ; चक्रे --स्वीकार किया; भ्रष्ट--रहित; मड़ल:--समस्त पुण्यमहर्षि
मैत्रेय ने आगे कहा : इस प्रकार अपने पापमय जीवन के कारण दुर्बोध होने तथा सहीराह से विचलित होने के कारण राजा समस्त पुण्य से क्षीण हो गया।
उसने ऋषियों की सादर प्रस्तुत प्रार्थनाएँ स्वीकार नहीं कीं, अतः उसकी भर्त्सना की गई।
"
इति तेसत्कृतास्तेन द्विजा: पण्डितमानिना ।
भग्नायां भव्ययाच्ञायां तस्मै विदुर चुक्रु धु; ॥
३०॥
इति--इस प्रकार; ते--समस्त ऋषि; असत्-कृता:--अपमानित होकर; तेन--राजा द्वारा; द्विजा:--ब्राह्मण; पण्डित-मानिना--अपने को अत्यन्त विद्वान मानते हुए; भग्नायामू--टूटकर; भव्य--शुभ; याच्ञायाम्-- प्रार्थना, याचना; तस्मै--उसको; विदुर--हे विदुर; चुक्रु धु:--अत्यन्त रुष्ट हुएहे विदुर, तुम्हारा कल्याण हो।
उस मूर्ख राजा ने अपने को अत्यन्त विद्वान् समझकर ऋषियोंतथा मुनियों का अपमान किया।
राजा के वचनों से ऋषियों दिल टूट गया और वे उस परअत्यन्त क्रुद्ध हुए।
"
हन्यतां हन्यतामेष पाप: प्रकृतिदारुण: ।
जीवज्भगदसावाशु कुरुते भस्मसादध्सूवम् ॥
३१॥
हन्यताम्ू--उसे मार डालो; हन्यताम्--मार डालो; एष:--यह राजा; पाप:--पाप रूप; प्रकृति--स्वभाव से; दारुण: --अत्यन्तदुष्ट; जीवन्--जीवित रहते हुए; जगत्--सारा संसार; असौ--वह; आशु--शीघ्र; कुरुते--करेगा; भस्मसात्-- भस्म, राख;भ्रुवमू--निश्चय ही |
सभी ऋषि तुरन्त हाहाकार करने लगे : इसे मारो! इसे मारो! यह अत्यन्त भयावह और पापीपुरुष है।
यदि यह जीवित रहा तो निश्चित रूप से सारे संसार को देखते-देखते भस्म कर देगा।
"
नायमर्ईत्यसद्वुत्तो नरदेववरासनम् ।
योधियज्ञपतिं विष्णुं विनिन्द॒त्यनपत्रप: ॥
३२॥
न--कभी नहीं; अयम्--यह व्यक्ति; अर्हति--पात्र है; असत्-वृत्त:--अपवित्र कार्यों से पूर्ण; नर-देव--सांसारिक राजा का यादेव का; वर-आसनम्ू- श्रेष्ठ सिंहासन; य: -- जो; अधियज्ञ-पतिम्--समस्त यज्ञों का स्वामी; विष्णुम्-- भगवान् विष्णु को;विनिन्दति--अपमान करता है; अनपत्रप: --निर्लज्ज |
ऋषियों ने आगे कहा : यह अपवित्र, दम्भी व्यक्ति सिंहासन पर बैठने के लिए सर्वथाअयोग्य है।
यह इतना निर्लज्ज है कि इसने भगवान् विष्णु का भी अपमान करने का दुस्साहसकिया है।
"
को बैन परिचक्षीत वेनमेकमृते शुभम् ।
प्राप्त ईहृशमैश्वर्य यदनुग्रहभाजन: ॥
३३॥
कः--कौन; वा--निस्सन्देह; एनम्ू-- भगवान्; परिचक्षीत-- निन््दा करेगा; वेनम्--राजा वेन को; एकम्--एकाकी; ऋते--सिवाय; अशुभम्--अभागा; प्राप्त:--प्राप्त करके; ईहशम्--ऐसा; ऐश्वर्यम्--ऐश्वर्य; यत्--जिसका; अनुग्रह--कृपा;भाजनः-पात्र
अभागे राजा बेन को छोड़कर भला ऐसा कौन होगा जो उन भगवान् की निन्दा करेगा,जिनकी कृपा से सभी प्रकार की सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता हो ?"
इत्थं व्यवसिता हन्तुमृषयो रूढमन्यव: ।
निजल्नुईड्ड तैवेनं हतमच्युतनिन्दया ॥
३४॥
इत्थम्--इस प्रकार; व्यवसिता:--निश्चित; हन्तुमू--मारने के लिए; ऋषय:--मुनिगण; रूढ-- प्रकट किया; मन्यव:-- अपनाक्रोध; निजघ्नु:--मार डाला; हुम्-कृतैः--हुंकार या क्रोधपूर्ण शब्दों से; वेनमू--राजा बेन को; हतम्ू--मृत; अच्युत-- भगवान्के विरुद्ध; निन्दया--निन्दा से
इस प्रकार अपने छिपे क्रोध को प्रकट करते हुए ऋषियों ने राजा को तुरन्त मार डालने कानिश्चय कर लिया।
राजा वेन भगवान् की निन्दा के कारण पहले से ही मृत तुल्य था।
अत: बिनाकिसी हथियार के ही मुनियों ने हुंकारों से वेन को मार डाला।
"
ऋषिधि: स्वाश्रमपदं गते पुत्रकलेवरम् ।
सुनीथा पालयामास विद्यायोगेन शोचती ॥
३५॥
ऋषिभि:--ऋषियों द्वारा; स्व-आ श्रम-पदम्-- अपने-अपने आश्रमों को; गते--लौटकर; पुत्र--उसके पुत्र का; कलेवरम्--शरीर; सुनीथा--सुनीथा, राजा वेन की माता ने; पालयाम् आस--सुरक्षित कर लिया; विद्या-योगेन--मंत्र तथा अवयवों से;शोचती--विलाप करती।
इस सब के बाद ऋषिगण अपने-अपने आश्रमों को चले गये तो राजा बेन की माता सुनीथाअपने पुत्र की मृत्यु से अत्यधिक शोकाकुल हो उठी।
उसने अपने पुत्र के शव को कुछ द्वव्यों केद्वारा तथा मंत्र के बल से सुरक्षित रखने का निश्चय किया।
"
एकदा मुनयस्ते तु सरस्वत्सलिलाप्लुता: ।
हु॒त्वाग्नीन्सत्कथाश्चक्रुरुपविष्टा: सरित्तटे ॥
३६॥
एकदा--एक बार; मुनयः--सभी साधु पुरुषों ने; ते--वे; तु--तब; सरस्वत्--सरस्वती नदी; सलिल--जल में; आप्लुता: --स्नान किया; ह॒त्वा--आहुति करके; अग्नीन्-- अग्नि में; सतू-कथा:--दिव्य विषयों पर वार्ताएँ; चक्रुः--करने लगे;उपविष्टा:--बैठकर; सरित्-तटे--नदी के किनारे
एक बार ये ही ऋषि सरस्वती नदी में स्नान करके यज्ञ-अग्नि में आहुति डालने का अपनानित्य कर्म कर रहे थे।
इसके पश्चात् नदी के तट पर बैठ कर वे दिव्य पुरुष तथा उनकी लीलाओंके विषय में चर्चा करने लगे।
"
वीक्ष्योत्थितांस्तदोत्पातानाहुलोंक भयड्डूरान् ।
अप्यभद्रमनाथाया दस्युभ्यो न भवेद्भुव:ः ॥
३७॥
वीक्ष्य--देखकर; उत्थितान्--उत्पन्न; तदा--तब; उत्पातानू--उपद्रव, अशान्ति; आहुः--कहने लगे; लोक--समाज में; भयम्-करान्--आतंक उत्पन्न करते हुए; अपि-- क्या; अभद्रम्ू-दुर्भाग्य; अनाथाया: --बिना शासक के; दस्युभ्य: --चोर-उचक्कों से;न--नहीं; भवेत्--होए; भुवः--विश्व का
उन दिनों देश में अनेक उपद्रव हो रहे थे जिनसे समाज में आतंक उत्पन्न हो रहा था।
अतःसभी मुनि परस्पर बातें करने लगे : चूँकि राजा मर चुका है और संसार का कोई रक्षक नहीं है,अतः चोर-उचक्ों के कारण प्रजा पर विपत्ति आ सकती है।
"
एवं मृशन्त ऋषयो धावतां सर्वतोदिशम् ।
पांसु: समुत्थितो भूरिश्नोराणामभिलुम्पताम् ॥
३८ ॥
एवम्--इस प्रकार; मृशन्त:--विचार करते हुए; ऋषय:--बड़े-बड़े साधु पुरुष; धावताम्--दौड़ते हुए; सर्वतः-दिशम्--सभीदिशाओं से; पांसु:-- धूल; समुत्थित:--उठी हुईं; भूरिः--अत्यधिक; चोराणाम्--चोर-उचक्कों से; अभिलुम्पताम्--लूट-पाट मेंव्यस्त।
जब ऋषिगण इस प्रकार विचार-विर्मश कर रहे थे तो उन्होंने चारों दिशाओं से धूल कीआँधी उठती देखी।
यह आँधी उन चोर-उचक्कों के दौड़ा-भागी से उत्पन्न हुई थी जो नागरिकों कोलूट रहे थे।
"
तदुपद्रवमाज्ञाय लोकस्य वसु लुम्पताम् ।
भर्तर्युपरते तस्मिन्नन्योन्यं च जिघांसताम् ॥
३९॥
चोरप्रायं जनपदं हीनसत्त्वमराजकम् ।
लोकान्नावारयज्छक्ता अपि तहोषदर्शिन: ॥
४०॥
तत्--उस समय; उपद्रवम्--उथल-पुथल; आज्ञाय--समझ कर; लोकस्य--जनता की; वसु-- धन-सम्पति; लुम्पताम्--लुटेरोंद्वारा; भर्तरि--रक्षक; उपरते--मृत होने से; तस्मिन्ू--राजा वेन; अन्योन्यम्ू--परस्पर; च-- भी; जिघां-सताम्--मारने की इच्छाकरते हुए; चोर-प्रायम्--चोरों से पूर्ण; जन-पदम्--राज्य; हीन--रहित; सत्त्वमू--विधान; अराजकम्--राज से रहित;लोकान्--चोर उचक्के; न--नहीं; अवारयन्--दमन करते हुए; शक्ता: --करने में समर्थ; अपि--यद्यपि; तत्-दोष--उसका दोष;दर्शिन:--मानते हुए।
उस अंधड़ को देखकर साधु पुरुषों ने समझ लिया कि राजा वेन की मृत्यु के कारणअत्यधिक अव्यवस्था फैल गई है।
बिना सरकार के राज्य कानून तथा व्यवस्था से विहीन होजाता है, फलतः उन घातक चोर-उचक्कों का प्राबल्य हो उठा जो प्रजा की सम्पत्ति को लूट रहेथे।
यद्यपि ऋषिगण इस उपद्रव को अपनी शक्ति से रोक सकते थे--जिस प्रकार उन्होंने राजा का वध किया था--किन्तु उन्होंने ऐसा करना अनुचित समझा।
अतः उन्होंने उपद्रव को रोकनेका कोई प्रयास नहीं किया।
"
ब्राह्मण: समहक्शान्तो दीनानां समुपेक्षक: ।
सत्रवते ब्रह्म तस्यापि भिन्नभाण्डात्पयो यथा ॥
४१॥
ब्राह्मण: --ब्राह्मण; सम-हक् --समदर्शी; शान्त:--शान्ति-प्रिय; दीनानाम्--निर्धनों का; समुपेक्षक:--सर्वथा उपेक्षा'करनेवाला; स्त्रवते--रिस जाता है; ब्रह्म-- आत्म-बल; तस्य--उसका; अपि--निश्चय ही; भिन्न-भाण्डात्--फूटे बर्तन से;'पय:--जल; यथा--जिस प्रकार |
ऋषिगण सोचने लगे कि यद्यपि ब्राह्मण शान्त और समदर्शी होने के कारण निष्पक्ष होता है,तो भी उसका कर्तव्य है कि वह दीनों की उपेक्षा न करे।
ऐसा करने से उसका आत्मबल उसीप्रकार घट जाता है, जिस प्रकार फूटे बर्तन से पानी रिस जाता है।
"
नाडुस्य वंशो राजर्षेरेष संस्थातुमहति ।
अमोघवीर्या हि नृपा वंशेउस्मिन्केशवाश्रया: ॥
४२॥
न--नहीं; अड्डस्थ--राजा अंग का; वंश: --कुल; राज-ऋषे:--राजर्षि का; एष:--यह; संस्थातुम्--नष्ट होने के लिए;अहति--चाहिए; अमोघ--पापरहित, शक्तिशाली; वीर्या:--उनका वीर्य; हि-- क्योंकि; नृपा:--राजा; वंशे--वंश में;अस्मिनू--इस; केशव--भगवान् की; आश्रया:--शरण में |
मुनियों ने निश्चय किया कि राजर्षि अंग के वंश को नष्ट नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि इसवंश का वीर्य अत्यन्त शक्तिशाली रहा है और उसकी सन््तानें भगवत्परायण होती रही हैं।
"
विनिश्चित्यैवमृषयो विपन्नस्य महीपते: ।
ममन्थुरूरुं तरसा तत्रासीद्वाहुको नर: ॥
४३॥
विनिश्चित्य--निश्चय करके; एवम्--इस प्रकार; ऋषय: --ऋषियों ने; विपन्नस्य--मृत; मही-पतेः--राजा का; ममन्थु:--मंथनकिया; ऊरुम्--जंघाएँ; तरसा--विशिष्ट शक्ति से; तत्र--तत्पश्चात्; आसीत्--उत्पन्न हुआ; बाहुक:--बाहुक ( बौना ) नामक;नरः-व्यक्ति।
इस निश्चय के बाद, साधु पुरुषों तथा मुनियों ने राजा वेन के मृत शरीर की जाँघों काअत्यन्त शक्तिपूर्वक तथा एक विशेष विधि से मंथन किया।
मंथन के फलस्वरूप राजा बेन केशरीर से एक बौने जैसा व्यक्ति उत्पन्न हुआ।
"
काककृष्णोतिहस्वाझ् हस्वबाहुर्महाहनु: ।
हस्वपान्निम्ननासाग्रो रक्ताक्षस्ताग्रमूर्धज: ॥
४४॥
काक-कृष्ण:--कौवे के समान काला; अति-हस्व--अत्यन्त लघु; अड्डअ:--उसके अंग; हस्व--छोटे; बाहु:--उसकी भुजाएं;महा--विशाल; हनु:--जबड़े; हस्व--छोटे; पात्--उसके पाँव; निम्न--चपटा; नास-अग्र:--नाक का अगला भाग; रक्त--लाल; अक्ष:--आँखें; ताम्र--ताँबे जैसा; मूर्थ-ज:--केश ।
राजा वेन की जंघाओं से उत्पन्न इस व्यक्ति का नाम बाहुक था।
उसकी सूरत कौवे जैसीकाली थी।
उसके शरीर के सभी अंग ठिगने थे, उसके हाथ तथा पाँव छोटे थे और जबड़े लम्बेथे।
उसकी नाक चपटी, आँखें लाल-लाल तथा केश ताँबे जैसे रंग के थे।
"
तं तु तेउबनतं दीनं कि करोमीति वादिनम् ।
निषीदेत्यब्रुवंस्तात स निषादस्ततो भवत् ॥
४५॥
तम्--उसको; तु--तब; ते--वे ऋषि; अवनतम्--झुक कर; दीनम्--विनप्र; किम्--क्या; करोमि--करूँ; इति--इस प्रकार;वादिनम्--पूछते हुए; निषीद--बैठ जाओ; इति--इस प्रकार; अन्लुवन्--उन्होंने उत्तर दिया; तात--हे विदुर; सः--वह;निषाद:--निषाद नाम का; ततः--तत्पश्चात्; अभवत्--हो गया।
वह अत्यन्त विनम्र था और अपना जन्म होते ही उसने विनत होकर पूछा, 'महाशय, मैं क्याकरूँ?' ऋषियों ने कहा, 'बैठ जाओ ' ( निषीद )।
इस प्रकार नैघाद जाति का जनक निषादउत्पन्न हुआ।
"
तस्य वंश्यास्तु नैघादा गिरिकाननगोचरा: ।
येनाहरज्जायमानो वेनकल्मषमुल्बणम् ॥
४६॥
तस्य--उसके ( निषाद के ); वंश्या:--वंशज; तु--तब; नैषादा:ः--नैषाद नामक; गिरि-कानन--पहाड़ियों तथा जंगलों;गोचरा: --निवासी; येन--क्योंकि; अहरत्-- स्वयं धारण किया; जायमान:--उत्पन्न होकर; वेन--राजा वेन का; कल्मषम्--समस्त प्रकार के पाप; उल्बणम्--अत्यन्त भयानक |
जन्म होते ही उसने ( निषाद ने ) राजा वेन के समस्त पापपूर्ण कृत्यों के फलों को स्वयंधारण कर लिया।
इसलिए यह निषाद जाति सदैव पापपूर्ण कृत्यों में--यथा चोरी, डाका तथाश़ शिकार में--लगी रहती है।
फलतः इन्हें पर्वतों तथा जंगलों में ही रहने दिया जाता है।
"
अध्याय पंद्रह: राजा पृथु का प्राकट्य और राज्याभिषेक
4.15मैत्रेय उवाचअथ तस्य पुनर्विप्रैरपुत्रस्य महीपते: ।
बाहुभ्यांमथ्यमानाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने आगे कहा; अथ--इस प्रकार; तस्थय--उसका; पुनः--फिर; विप्रैः--ब्राह्मणों द्वारा; अपुत्रस्थ--पुत्रहीन;महीपते:--राजा की; बाहुभ्याम्-बाँहों से; मधथ्यमानाभ्याम्--मंथन करने से; मिथुनम्--युग्म; समपद्यत--उत्पन्न हुआ |
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, इस प्रकार ब्राह्मण तथा ऋषियों ने राजा बेन के मृतशरीर की दोनों बाहुओं का भी मंथन किया।
फलस्वरूप उसकी बाँहों से एक स्त्री तथा एकपुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ।
"
तदूष्ठा मिथुनं जातमृषयो ब्रह्मवादिन: ।
ऊचुः परमसन्तुष्टा विदित्वा भगवत्कलाम् ॥
२॥
तत्--उस; दृष्ला--देखकर; मिथुनम्--युग्म को; जातम्--उत्पन्न; ऋषय:--ऋषियों ने; ब्रह्म-वादिन:--वैदिक ज्ञान में अत्यन्तपारंगत; ऊचु:--कहा; परम--अत्यधिक; सन्तुष्टाः--प्रसन्न; विदित्वा--जानकर; भगवत्-- भगवान् का; कलाम्--विस्तार।
ऋषिगण बैदिक ज्ञान में पारंगत थे।
जब उन्होंने वेन की बाहुओं से एक स्त्री तथा पुरुष कोउत्पन्न देखा, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए क्योंकि वे जान गये कि यह युगल ( दम्पति ) भगवान्विष्णु के पूर्णाश का विस्तार है।
"
ऋषय ऊचुःएष विष्णोर्भगवत: कला भुवनपालिनी ।
इयं च लक्ष्म्या: सम्भूतिः पुरुषस्थानपायिनी ॥
३॥
ऋषय: ऊचु:--ऋषियों ने कहा; एष:--यह नर; विष्णो:-- भगवान् विष्णु का; भगवतः -- भगवान् का; कला--विस्तार;भुवन-पालिनी--जगत का पालन करनेवाली; इयम्--यह स्त्री; च-- भी; लक्ष््या:--लक्ष्मी की; सम्भूतिः --विस्तार;पुरुषस्थ-- भगवान् की; अनपायिनी -- अभिन्न ।
ऋषियों ने कहा : यह पुरुष तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का पालन करनेवाले भगवान् विष्णु कीशक्ति का अंश है और यह स्त्री भगवान् विष्णु से कभी अलग न होनेवाली एवं सम्पत्ति की देवी,लक्ष्मी का अंश है।
"
अयं तु प्रथमो राज्ञां पुमान्प्रथयिता यश: ।
पृथुर्नाम महाराजो भविष्यति पृथु श्रवा: ॥
४॥
अयमू--यह; तु--तब; प्रथम: --प्रथम; राज्ञामू--राजाओं का; पुमानू--नर; प्रथयिता--विस्तार करेगा; यश:--ख्याति;पृथु:--महाराज पृथु; नाम--नामक; महा-राज:--महान् राजा; भविष्यति--होगा; पृथु-श्रवा:--व्यापक ख्याति का।
इन दोनों में से, जो नर है, वह अपने यश को विश्व भर में फैला सकेगा।
उसका नाम पृथुहोगा।
निस्सन्देह, वह राजाओं में सबसे पहला राजा होगा।
"
इयं च सुदती देवी गुणभूषणभूषणा ।
अर्चिर्नाम वरारोहा पृथुमेवावरुन्धती ॥
५॥
इयम्--यह स्त्री; च--तथा; सु-दती--सुन्दर दाँतों वाली; देवी--सम्पत्ति की देवी; गुण--उत्तम गुणों के कारण; भूषण --आभूषण; भूषणा--विभूषित करनेवाली; अर्चि: --अर्चि; नाम--नामक; वर-आरोहा--अत्यन्त सुन्दर; पृथुम्--राजा पृथु को;एव--निश्चय ही; अवरुन्धती--अत्यन्त आसक्त रहनेवाली।
सुन्दर दाँतों वाली स्त्री उत्तम गुणों से युक्त होने के कारण पहने गये आभूषणों को भीविभूषित करनेवाली होगी ।
उसका नाम अर्चि होगा और भविष्य में वह राजा पृथु को अपना पतिस्वीकार करेगी।
"
एष साक्षाद्धरेरंशो जातो लोकरिरक्षया ।
इयं च तत्परा हि श्रीरनुजज्ञेडनपायिनी ॥
६॥
एषः--यह नर; साक्षात्- प्रत्यक्ष; हरेः-- भगवान् का; अंश:--आंशिक प्रतिनिधि; जात:--उत्पन्न; लोक--सारा विश्व;रिरक्षया--रक्षा करने की इच्छा से; इयम्--यह स्त्री; च-- भी; तत्-परा--उससे अत्यधिक आसक्त; हि--निश्चय ही; श्री: --सम्पत्ति की देवी ने; अनुजज्ञे--जन्म लिया; अनपायिनी--अभिन्न |
राजा पृथु के रूप में, भगवान् अपनी शक्ति के एक अंश से संसार के लोगों की रक्षा केलिए प्रकट हुए हैं।
सम्पत्ति की देवी भगवान् की निरन्तर सहचरी हैं, अतः वे अंश रूप में राजापृथु की रानी बनने के लिए अर्चि रूप में अवतरित हुई हैं।
"
मैत्रेय उवाचप्रशंसन्ति सम त॑ विप्रा गन्धर्वप्रवरा जगुः ।
मुमुचु: सुमनोधारा: सिद्धा नृत्यन्ति स्वःस्त्रियः ॥
७॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; प्रशंसन्ति स्म--प्रशंसा करते थे; तम्--उसका ( पृथु ); विप्रा:--समस्त ब्राह्मण; गन्धर्व-प्रवरा:--गन्धर्वो में श्रेष्ठ; जगु:--जप किया; मुमुचु:--छोड़ी, फेंकी; सुमन:-धारा: --पुष्पों की वर्षा; सिद्धा:--सिद्धलोक केपुरुष; नृत्यन्ति--नाच रही थीं; स्व:--स्वर्गलोक की; स्त्रियः--स्त्रियाँ ( अप्सराएँ )॥
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर जी, उस समय समस्त ब्राह्मणों ने राजा पृथु की प्रशंसाऔर स्तुति की और गन्धर्वलोक के सर्वश्रेष्ठ गायकों ने उनकी महिमा का गायन किया।
सिद्धलोक के वासियों ने उन पर पुष्पवर्षा की और स्वर्ग की सुन्दरियाँ ( अप्सराएँ ) भाव विभोरहोकर नाचने लगीं।
"
शद्डुतूर्यमृदड्ाद्या नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ।
तत्र सर्व उपाजम्मुर्देवर्षिपितृणां गणा: ॥
८॥
शब्डभु--शंख; तूर्य--तुरही; मृदड़--- ढोल; आद्या:--इत्यादि; नेदु:--बजने लगे; दुन्दुभय:--दुन्दुभियाँ; दिवि--अन्तरिक्ष में;तत्र--वहाँ; सर्वे--सभी; उपाजग्मु:--आये; देव-ऋषि--देवता तथा मुनि; पितृणाम्ू--पितरों के; गणा:--समूह।
अन्तरिक्ष में शंख, दुंदुभि, तुरही तथा मृदड़ बजने लगे।
बड़े-बड़े मुनि, पितरगण तथा स्वर्गके पुरुष विभिन्न लोकों से पृथ्वी पर आ गये।
"
ब्रह्मा जगदगुरुदेवै: सहासृत्य सुरेश्वर: ।
वैन्यस्य दक्षिणे हस्ते दृष्ठा चिह्न गदाभृतः ॥
९॥
पादयोररविन्दं च तं वै मेने हरे: कलाम् ।
अस्याप्रतिहतं चक्रमंश: स परमेष्ठिन; ॥
१०॥
ब्रह्मा--ब्रह्माजी; जगत्-गुरु:--ब्रह्माण्ड के स्वामी; देवैः--देवताओं द्वारा; सह--साथ में; आसृत्य--आकर; सुर-ईश्वरै: --समस्त स्वर्गों के प्रमुखों सहित; वैन्यस्य--वेन के पुत्र महाराज पृथु के; दक्षिणे--दाहिने; हस्ते--हाथ में; दृष्टा--देखकर;चिहमम्ू--चिह्न; गदा-भृतः--गदाधारी भगवान् विष्णु के; पादयो:--दोनों पाँवों पर; अरविन्दमू--कमल; च-- भी; तम्--उसको; बै--निश्चय ही; मेने--वह समझ गया; हरेः-- भगवान् के; कलाम्ू-- अंश; यस्य--जिसका; अप्रतिहतम्--अपराजेय;चक्रम्--चक्र; अंश: --आंशिक स्वरूप; सः--वह; परमेष्ठिन:-- भगवान् का।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा, देवताओं तथा उनके प्रमुखों सहित, वहाँ पधारे।
राजा पृथु के दाहिने हाथ में विष्णु भगवान् की हथेली की रेखाएँ तथा चरण के तलवों पर कमल का चिह्नदेखकर ब्रह्मा समझ गये कि राजा पृथु भगवान् के अंश-स्वरूप थे।
जिसकी हथेली में चक्र तथाअन्य ऐसी रेखाएँ हों, उसे परमेश्वर का अंश या अवतार समझना चाहिए।
"
तस्याभिषेक आरब्धो ब्राह्मणै््नह्मवादिभि: ।
आभिषेचनिकान्यस्मै आजहु: सर्वतो जना: ॥
११॥
तस्य--उसका; अभिषेक: --राजतिलक; आरब्ध:-- आयोजन किया गया; ब्राह्मणै:--ब्राह्मणों द्वारा; ब्रह्य-वादिभि: --वैदिकअनुष्ठानों को माननेवाले; आभिषेचनिकानि--उत्सव के लिए आवश्यक विविध सामग्री; अस्मै--उसको; आजह्ु: --एकत्रकिया; सर्वतः--चारों ओर; जना: --मनुष्यों ने।
तब ब्रह्मवादी ब्राह्मणों ने राजा के अभिषेक का सारा आयोजन किया।
उत्सव में लगनेवालीविभिन्न सामग्रियों का संग्रह चारों दिशाओं के लोगों ने किया।
इस प्रकार सब कुछ पूरा हो गया।
"
सरित्समुद्रा गिरयो नागा गाव: खगा मृगा: ।
दो: क्षिति: सर्वभूतानि समाजहुरुपायनम् ॥
१२॥
सरित्--नदियाँ; समुद्रा: --समुद्र; गिरयः --पर्वत; नागा:--सर्प; गाव:--गाएँ; खगा:--पक्षी; मृगा:--पशु; द्यौ:-- आकाश;क्षिति:--पृथ्वी; सर्व-भूतानि--समस्त जीवात्माएँ; समाजह्ु:--एकत्र किया; उपायनम्--विभिन्न प्रकार के उपहार
अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार नदी, समुद्र, पर्वत, सर्प, गाय, पक्षी, पशु, स्वर्गलोक,पृथ्वीलोक तथा अन्य सभी लोकों की जीवात्माओं ने राजा को भेंट करने के लिए विविध उपहारएकत्रित किये।
"
सोभिषिक्तो महाराज: सुवासा: साध्वलड्डू तः ।
पत्यार्चिषालड्डू तया विरेजेडग्निरिवापर: ॥
१३॥
सः--राजा; अभिषिक्त:--अभिषेक हो जाने पर; महाराज: --महाराज पृथु; सु-वासा:--सुन्दर वस्त्रों से सज्जित; साधु-अलड्डू त:ः--आभूषणों से अत्यधिक विभूषित; पतल्या--अपनी पत्नी; अर्चिषा--अर्चि के साथ; अलड्डू तया--आभूषणों सेसजाकर; विरेजे--विराज रहे थे; अग्नि:--अग्नि; इब--सह्ृश; अपर:--दूसरा |
इस प्रकार वस्त्रों तथा आभूषणों से सुन्दर रूप से अलंकृत महाराज पृथु का अभिषेक कियागया और उन्हें सिंहासन पर बैठाया गया।
वे सुन्दर आभूषणों से सज्जित अपनी पतली अर्चि केसाथ, अग्नि के समान लग रहे थे।
"
तस्मै जहार धनदो हैमं वीर वरासनम् ।
वरुण: सलिलस्त्रावमातपत्र॑ शशिप्रभम् ॥
१४॥
तस्मै--उसको; जहार--भेंट दिया; धन-दः--देवताओं के कोषाध्यक्ष ( कुबेर ) ने; हैमम्--सोने का बना हुआ; वीर--हे विदुर;वर-आसनम्--राज-सिंहासन; वरूण: --वरुणदेव: ; सलिल-स्त्रावमू--जल की फुहारें बरसाते हुए; आतपत्रम्--छाता; शशि-प्रभमू--चन्द्रमा के समान प्रकाशयुक्त |
ऋषि ने आगे कहा, हे विदुर, कुबेर ने महान् राजा पृथु को सुनहरा सिंहासन भेंट किया;वरुणदेव ने एक छाता प्रदान किया जिससे निरन्तर जल की फुहारें निकल रही थीं और जोचन्द्रमा के समान प्रकाशमान था।
"
वायुश्च वालव्यजने धर्म: कीर्तिमयीं स्त्रजम् ।
इन्द्र: किरीटमुत्कृष्टे दण्डं संयमनं यम: ॥
१५॥
वायु:--वायुदेव ने; च-- भी; वाल-व्यजने--बालों के बने दो चँवर; धर्म:--धर्मराज ने; कीर्ति-मयीम्--नाम तथा यश कोबढ़ानेवाले; सत्रजमू--हार; इन्द्र:--स्वर्ग के राजा इन्द्र ने; किरीटमू--मुकुट; उत्कृष्टम्--अत्यन्त मूल्यवान; दण्डम्ू--राजदण्ड;संयमनम्--संसार पर शासन करने के लिए; यम: --मृत्यु के अधीक्षक ने
वायु ने बालों से बने दो चामर, धर्म ने यश को बढ़ानेवाला पुष्पहार, स्वर्ग के राजा इन्द्र नेमूल्यवान मुकुट तथा यमराज ने विश्व पर शासन करने के लिए एक राजदण्ड प्रदान किया।
"
ब्रह्मा ब्रह्ममयं वर्म भारती हारमुत्तमम् ।
हरिः सुदर्शन चक्र तत्पत्यव्याहतां भ्रियम् ॥
१६॥
ब्रह्मा--ब्रह्मा ने; ब्रह्य-मयम्-- आत्मज्ञान से निर्मित; वर्म--कवच; भारती--विद्या की देवी ने; हारम्--हार; उत्तमम्--दिव्य;हरिः--भगवान् ने; सुदर्शनम् चक्रम्--सुदर्शन चक्र; तत्-पत्नी--उनकी पत्ती ( लक्ष्मी ) ने; अव्याहताम्-- अविचल; थ्रियम्--सुन्दरता तथा ऐश्वर्य
ब्रह्मुजी ने राजा पृथु को आत्मज्ञान से निर्मित कवच भेंट किया।
ब्रह्म की पत्नी भारती( सरस्वती ) ने दिव्य हार दिया।
भगवान् विष्णु ने सुदर्शन-चक्र दिया और उनकी पली, ऐश्वर्यकी देवी लक्ष्मी जी, ने उन्हें अविचल ऐ श्वर्य प्रदान किया।
"
दशचन्द्रमसिं रुद्र: शतचन्द्रं तथाम्बिका ।
सोमोमृतमयानश्चांस्त्वष्टा रूपाश्रयं रथम् ॥
१७॥
दश-चन्द्रमू-दस चन्द्रमाओं से भूषित; असिम्ू--तलवार; रुद्र:--शिवजी ने; शत-चन्द्रमू--एक सौ चन्द्रमाओं से सुशोभित;तथा--उसी तरह से; अम्बिका--देवी दुर्गा ने; सोम:--चन्द्रदेव; अमृत-मयान्--अमृत से युक्त; अश्वान्--घोड़े; त्वष्टा--विश्वकर्मा ने; रूप-आश्रयम्--अत्यन्त सुन्दर; रथम्-रथ |
शिवजी ने दस चन्द्रमाओं से अंकित कोष ( म्यान ) वाली तलवार भेंट की और देवी दुर्गा नेएक सौ चन्द्रमाओं से अंकित एक ढाल भेंट की।
चन्द्रदेव ने उन्हें अमृतमय घोड़े तथा विश्वकर्माने एक अत्यन्त सुन्दर रथ प्रदान किया।
"
अग्निराजगवं चापं॑ सूर्यो रश्मिमयानिषून् ।
भू: पादुके योगमय्यौ झौ: पुष्पावलिमन्वहम् ॥
१८॥
अग्नि:ः--अग्निदेव ने; आज-गवम्--बकरे तथा गायों के सींगों से बने; चापम्-- धनुष; सूर्य: --सूर्यदेव ने; रश्मि-मयान्--सूर्यकी किरणों के समान चमकता; इषून्--तीर; भू:-- भूमि ने; पादुके-- खड़ाऊँ; योग-मय्यौ--योगशक्ति से युक्त; द्यौ:--आकाश के देवताओं ने; पुष्प--फूलों की; आवलिम्-- भेंट; अनु-अहम्--दिन-प्रति-दिन |
अग्निदेव ने बकरों तथा गौंओं के सीगों से निर्मित धनुष, सूर्यदेव ने सूर्यप्रकाश के समानतेजवान बाण, भूलोंक के प्रमुख देव ने योगशक्ति-सम्पन्न चरण-पादुकाएँ तथा आकाश के देवताओं ने पुनः पुनः पुष्पों की भेंटें प्रदान की।
"
नाट्य सुगीतं वादित्रमन्तर्धानं च खेचरा: ।
ऋषयश्चाशिषः सत्या: समुद्र: शद्भुमात्मजम् ॥
१९॥
नाट्यमू--नाटक की कला; सु-गीतम्ू--मधुर गायन की कला; वादित्रम्--वाद्ययंत्र बजाने की कला; अन्तर्धानम्--छिपने कीकला; च-- भी; खे-चरा:--आकाश--मार्ग में यात्रा करनेवाले देवताओं ने; ऋषय:--ऋषिगणों ने; च-- भी; आशिष:--आशीर्वाद; सत्या:--अमोघ; समुद्र:--समुद्र के देवता ने; शट्डमू--शंख; आत्म-जम्--अपने में से उत्पन्न
गगनचारी देवताओं ने राजा पृथु को नाटक, संगीत, वाद्ययंत्र तथा इच्छानुसार अन्तर्धान होनेकी कला प्रदान की।
ऋषियों ने भी उन्हें अमोघ आशीर्वाद दिये।
समुद्र ने स्वयं सागर से उत्पन्नशंख भेंट किया।
"
सिन्धव: पर्वता नद्यो रथवीथीर्महात्मन: ।
सूतोथ मागधो बन्दी तं स्तोतुमुपतस्थिरे ॥
२०॥
सिन्धवः--समुद्रों; पर्वता:--पर्वतों; नद्यः --नदियों ने; रथ-वीथी:--रथ जाने के लिए मार्ग; महा-आत्मन:--महापुरुष का;सूत:ः--स्तुति करनेबाला; अथ--तब; मागध: -- भाट; वन्दी--स्तुति करनेवाला; तमू--उसको; स्तोतुमू--बड़ाई करने के लिए;उपतस्थिरे--स्वयं उपस्थित हुए।
समुद्रों, पर्वतों, तथा नदियों ने उन्हें किसी अवरोध के बिना रथ हॉकने के लिए मार्ग प्रदानकिया।
सूत, मागध तथा वन्दीजनों ने प्रार्थनाएँ तथा स्तुतियाँ कीं।
वे सभी उनके समक्ष अपनीअपनी सेवाएँ करने के लिए उपस्थित हो गये।
"
स्तावकांस्तानभिप्रेत्य पृथुर्वैन्य: प्रतापवान् ।
मेघनिर्वदया वाचा प्रहसन्निदमत्रवीत् ॥
२१॥
स्तावकान्--स्तुति करने वाले; तानू--उन व्यक्तियों को; अभिप्रेत्य--देखकर, समझकर; पृथु:--राजा पृथु; बैन्य:--वेन कापुत्र; प्रताप-वान्--अत्यन्त शक्तिशाली; मेघ-निर्हादया -- मेघ-गर्जना के समान गम्भीर; वाचा--वाणी से; प्रहसन्--हँसते हुए;इदम्--यह; अब्नवीत्--बोला |
जब महान् शक्तिशाली वेन के पुत्र राजा पृथु ने अपने समक्ष इन सबों को देखा, तो वे उन्हेंबधाई देने के लिए हँसे और मेघ-गर्जना जैसी गम्भीर वाणी में इस प्रकार बोले।
"
पृथुरुवाचभो: सूत हे मागध सौम्य वन्दि-ल्लोके धुनास्पष्टगुणस्य मे स्थात् ।
किमाश्रयो मे स्तव एष योज्यतांमा मय्यभूवन्वितथा गिरो व: ॥
२२॥
पृथु: उबाच--राजा पृथु ने कहा; भो: सूत--हे सूत; हे मागध--हे मागध; सौम्य-- भद्ग; वन्दिन्--हे प्रार्थनारत भक्त; लोके--इस जगत में; अधुना--इस समय; अस्पष्ट--अप्रकट; गुणस्य--जिसके गुण; मे--मेरे; स्थात्ू--होवें; किम्--क्यों; आ श्रय:--शरण; मे--मेरा; स्तव:--प्रशंसा; एब:--यह; योज्यताम्--प्रयुक्त हो सके; मा--क भी नहीं; मयि--मुझमें; अभूवन्--थे;वितथा:--वृथा; गिर: --शब्द; व: --तुम्हारे
राजा पृथु ने कहा : हे भद्र सूत, मागध तथा अन्य प्रार्थनारत भक्तो, आपने मुझमें जिन गुणोंका बखान किया है, वे तो अभी मुझमें प्रकट नहीं हुए।
तो फिर आप मेरे इन गुणों की क्योंप्रशंसा कर रहे हैं? मैं नहीं चाहता कि मेरे विषय में कहे गये शब्द वृथा जाएँ।
अतः अच्छा हो,यदि इन्हें किसी दूसरे को अर्पित करें।
"
तस्माप्परोक्षे स्मदुपश्रुतान्यलं-करिष्यथ स्तोत्रमपीच्यवाच: ।
सत्युत्तमश्लोकगुणानुवादेजुगुप्सितं न स्तवयन्ति सभ्या: ॥
२३॥
तस्मात्ू--अतः ; परोक्षे--निकट भविष्य में; अस्मत्--मेरा; उपश्रुतानि--कहे गये गुणों के विषय में; अलमू्--पर्याप्त;'करिष्यथ--तुम कर सकोगे; स्तोत्रम्--स्तुतियाँ; अपीच्य-वाच:--हे भद्र गायक; सति--समुचित कार्य होने से; उत्तम-श्लोक--श्रीभगवान् का; गुण--गुणों की; अनुवादे--विवेचना; जुगुप्सितम्-घृणित व्यक्ति को; न--कभी नहीं; स्तवयन्ति--स्तुति प्रदान करें; सभ्या:-- भद्र लोग |
हे भद्र गायको, कालान्तर में वे गुण, जिनका तुम लोगों ने वर्णन किया है, जब वास्तव मेंप्रकट हो जाँय तब मेरी स्तुति करना।
जो भद्गलोग भगवान् की प्रार्थना करते हैं, वे ऐसे गुणों कोकिसी ऐसे मनुष्य में थोपा नहीं करते, जिनमें सचमुच वे न पाए जाते हों।
"
महदगुणानात्मनि कर्तुमीशः'कः स्तावकै: स्तावयतेसतोपि ।
तेस्थाभविष्यन्निति विप्रलब्धोजनावहासं कुमतिर्न वेद ॥
२४॥
महत्--महान; गुणान्--गुण; आत्मनि--अपने आप में; कर्तुमू-- प्रकट करने के लिए; ईश:--सक्षम; कः--कौन;स्तावकैः --अनुयायियों द्वारा; स्तावयते--स्तुति कराता है; असतः--न होनेवाले; अपि--यद्यपि; ते--वे; अस्य--उसका;अभविष्यन्--हो सकता है; इति--इस प्रकार; विप्रलब्ध:--ठगा गया; जन--लोगों का; अवहासम्--उपहास, अपमान;कुमति:--मूर्ख; न--नहीं; वेद--जानता है।
भला ऐसे महान् गुणों को धारण करने में सक्षम बुद्धिमान पुरुष किस तरह अपनेअनुयायियों को ऐसे गुणों की प्रशंसा करने देगा जो वास्तव में उसमें न हों ? किसी मनुष्य कीयह कह कर प्रशंसा करना कि यदि वह शिक्षित हो तो महान् विद्वान् या महापुरुष हो जाता है,ठगने के अतिरिक्त और क्या है? मूर्ख व्यक्ति जो ऐसी बड़ाई स्वीकार कर लेता है, वह यह नहींजानता कि ऐसे शब्द उसके अपमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।
प्रभवो ह्यात्मनः स्तोत्र जुगुप्सन्त्यपि विश्रुता: ।
ह्लीमन्तः परमोदारा: पौरुषं वा विगर्हितम् ॥
२५॥
प्रभव:--अत्यन्त पराक्रमी पुरुष; हि--निश्चय ही; आत्मन: --अपनी; स्तोत्रमू--प्रशंसा; जुगुप्सन्ति--नहीं चाहते; अपि--यद्यपि;विश्रुता:--अत्यन्त प्रसिद्ध; ही-मन्तः--सौम्य; परम-उदारा: --अत्यन्त उदार पुरुष; पौरुषम्--शक्तिशाली कार्य; वा-- भी;विगर्हितम्--निन्दनीय |
जिस प्रकार कोई सम्मानित तथा उदार व्यक्ति अपने निन्दनीय कार्यों के विषय में सुनना नहींचाहता, उसी प्रकार अत्यन्त प्रसिद्ध तथा पराक्रमी पुरुष अपनी प्रशंसा सुनना पसन्द नहीं करता।
"
वयं त्वविदिता लोके सूताद्यापि वरीमभि: ।
कर्मभि: कथमात्मानं गापयिष्याम बालवत् ॥
२६॥
वयम्--हम; तु--तब; अविदिता:--अप्रसिद्ध; लोके -- संसार में; सूत-आद्य--हे सूत इत्यादि जनो; अपि--इस समय तुरन्त;वरीमभि:ः--महान्, प्रशंसनीय; कर्मभिः--कर्मों से; कथम्ू--कैसे; आत्मानम्--अपने आप; गापयिष्याम--स्तुति करने के लिएलगा लूँ; बालवतू--बच्चों के समान
राजा पृथु ने आगे कहा : हे सूत आदि भक्तो, इस समय मैं अपने व्यक्तिगत गुणों के लिएअधिक प्रसिद्ध नहीं हूँ क्योंकि अभी तो मैंने ऐसा कुछ किया नहीं जिसकी तुम लोग प्रशंसा करसको।
अतः मैं बच्चों की तरह तुम लोगों से अपने कार्यो का गुणगान कैसे कराऊँ ?"
अध्याय सोलह: पेशेवर वाचकों द्वारा राजा पृथु की स्तुति
4.16मैत्रेय उवाचइति ब्रुवाणं नृपतिं गायका मुनिचोदिता: ।
तुष्ठवुस्तुष्टमनसस्तद्वागमृतसेवया ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; ब्रुवाणम्--कहते हुए; नृपतिम्--राजा को; गायका:--स्तुति करनेवाले;मुनि--मुनियों द्वारा; चोदिता:--आदेश पाकर; तुष्ठुवु:--प्रशंसित; तुष्ट--संतुष्ट, प्रसन्न; मनसः--उनके मन; तत्--उसके ;वाक्ू--शब्द; अमृत-- अमृत के समान; सेवया--सुनने से
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : जब राजा पृथु इस प्रकार विनम्रता से बोले, तो उनकी अमृत-तुल्य वाणी से गायक अत्यधिक प्रसन्न हुए।
तब वे पुनः ऋषियों द्वारा दिये गये आदेशों केअनुसार राजा की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
"
नालं वबयं ते महिमानुवर्णनेयो देववर्योडबततार मायया ।
वेनाड्रजातस्य च पौरुषाणि तेवाचस्पतीनामपि बश्रमुर्धिय: ॥
२॥
न अलमू्--समर्थ नहीं; वयम्--हम; ते--तुम्हारी; महिम--महिमा, यश; अनुवर्णने--वर्णन करने में; य:--जो; देव-- भगवान्;वर्य:--सर्वप्रथम; अवततार--अवतरित हुआ; मायया--अन्तरंगा शक्ति अथवा अहैतुकी कृपा से; वेन-अड़्र--राजा बेन केशरीर से; जातस्य--उत्पन्न होनेवाले की; च--तथा; पौरुषाणि--महिमामय कार्य; ते--तुम्हारा; वाच:-पतीनाम्--महान्वक्ताओं का; अपि--यद्यपि; बश्रमु:--चकरा जाते हैं; धियः--मन |
गायकों ने आगे कहा : हे राजनू, आप भगवान् विष्णु के साक्षात् अवतार हैं और उनकीअहैतुकी कृपा से आप पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं।
अतः हममें इतनी सामर्थ्य कहाँ कि आपकेमहान् कार्यों का सही-सही गुणगान कर सकें ? यद्यपि आप राजा बेन के शरीर से प्रकट हुए हैं,तो भी ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं के समान बड़े-बड़े वाचक और वक्ता भी आपके महिमामयकार्यों का सही-सही वर्णन नहीं कर सकते।
"
अथाप्युदारश्रवस: पृथोहरेःकलावतारस्य कथामृताहता: ।
यथोपदेशं मुनिभिः प्रचोदिताःएइलाधघ्यानि कर्माणि वबयं वितन्महि ॥
३॥
अथ अपि--तो भी; उदार--उदार; श्रवसः--जिसका यश; पृथो:--राजा पृथु का; हरेः-- भगवान् विष्णु का; कला--अंश;अवतारस्य--अवतार; कथा--शब्द; अमृत-- अमृतमय, मधुर; आहता: --के प्रति सावधान; यथा--के अनुसार; उपदेशम्--उपदेश; मुनिभि:--बड़े-बड़े साधुओं द्वारा; प्रचोदिता:--प्रोत्साहित; श्लाध्यानि-- प्रशंसनीय; कर्माणि--कार्य; वयम्--हम;वितन्महि--विस्तार करने का यत्न करेंगे।
यद्यपि हम आपका ठीक से गुणगान कर सकने में असमर्थ हैं, तो भी हमें आपके कार्यों की महिमा के गायन में दिव्य स्वाद प्राप्त हो रहा है।
हम प्राधिकार प्राप्त मुनियों तथा पंडितों से मिलेआदेशों के अनुसार ही आपकी महिमा का वर्णन करेंगे।
फिर भी हम जो कुछ कह रहे हैं, वहअपर्याप्त तथा नगण्य है।
हे राजनू, चूँकि आप भगवान् के साक्षात् अवतार हैं, अतः आपकेसमस्त कर्म उदार तथा सदैव प्रशंसनीय हैं।
"
एष धर्मभूतां श्रेष्ठो लोक॑ धर्मेंडनुवर्तयन् ।
गोप्ता च धर्मसेतूनां शास्ता तत्परिपन्थिनाम् ॥
४॥
एषः--यह राजा पृथु; धर्म-भूताम्--धार्मिक कर्म करनेवाले पुरुषों में; श्रेष्ठ: -- श्रेष्ठ लोकम्--सारा संसार; धर्मे-- धार्मिककार्यो के; अनुवर्तयन्--ठीक से लगाये रखते हुए; गोप्ता--रक्षक; च--भी; धर्म-सेतूनाम्-- धर्म के नियमों का; शास्ता--दण्डदेनेवाला; ततू-परिपन्थिनामू--उनके विरोधियों को
यह राजा, महाराज पृथु, धार्मिक नियमों के पालन करनेवालों में सर्वश्रेष्ठ है।
अत: वहप्रत्येक व्यक्ति को धर्म में प्रवृत्त करेगा और धर्म के उन सिद्धान्तों की रक्षा करेगा।
अधर्मियों तथानास्तिकों के लिए वह महान् दण्ड-दाता भी होगा।
"
एष वै लोकपालानां बिभर्त्येकस्तनौ तनू: ।
काले काले यथाभागं लोकयोरुभयोहितम् ॥
५॥
एष:--यह राजा; बै--निश्चय ही; लोक-पालानाम्ू-- समस्त देवताओं का; बिभर्ति-- धारण करता है; एक:--अकेले; तनौ--अपने शरीर में; तनू:--अनेक शरीर; काले काले--यथासमय; यथा--के अनुसार; भागम्--उचित भाग; लोकयो:--लोकोंका; उभयो:--दोनों; हितम्ू--कल्याण |
यह राजा अकेले, अपने ही शरीर में यथासमय समस्त जीवात्माओं का पालन करने तथाविभिन्न प्रकार के कार्यों को सम्पन्न करने के लिए विभिन्न देवताओं के रूप में प्रकट होकरउनको प्रसन्न रखने में समर्थ होगा।
इस प्रकार वह प्रजा को वैदिक यज्ञ करने के लिए प्रेरितकरके स्वर्गलोक का पालन करेगा।
यथासमय वह उचित वर्षा द्वारा इस पृथ्वीलोक का भीपालन करेगा।
"
वसु काल उपादत्ते काले चायं विमुज्जञति ।
सम: सर्वेषु भूतेषु प्रतपन्सूर्यवद्धिभु: ॥
६॥
वसु-- धन; काले--समय पाकर; उपादत्ते--वसूल करता या निकालता है; काले--यथासमय; च-- भी; अयम्ू--यह राजापृथु; विमुल्ञनति--वापस कर देता है; समः--उतना ही, बराबर; सर्वेषु--सब; भूतेषु--जीवात्माओं में; प्रतपन्ू--चमकते हुए;सूर्य-बत्--सूर्यदेव के समान; विभुः--शक्तिमान।
यह राजा पृथु सूर्यदेव के समान प्रतापी होगा और जिस प्रकार सूर्यदेव हर एक को समानरूप से अपना प्रकाश वितरित करता है, उसी तरह राजा पृथु अपनी कृपा सबों को संवितरितकरेगा।
जिस प्रकार सूर्यदेव आठ मास तक जल को वाष्पित करता है और वर्षा ऋतु में प्रचुरमात्रा में उसको लौटा देता है, उसी प्रकार यह राजा भी नागरिकों से कर वसूल करेगा औरआवश्यकता के समय इस धन को लौटा देगा।
"
तितिक्षत्यक्रमं वैन्य उपर्याक्रमतामपि ।
भूतानां करुण: शश्वदार्तानां क्षितिवृत्तिमान् ॥
७॥
तितिक्षति--सहन करता है; अक्रमम्-- अपराध; वैन्य:--राजा बेन का पुत्र; उपरि--सिर के ऊपर; आक्रमताम्--पद रखनेवालोंको; अपि-- भी; भूतानामू--समस्त जीवात्मा के; करुण:--अत्यन्त दयालु; शश्वत्--सदैव; आर्तानाम्--दुखियों का; क्षिति-वृत्ति-मानू--पृथ्वी की वृत्ति ग्रहण करनेवाले |
यह राजा पृथु समस्त नागरिकों पर अत्यधिक दयालु रहेगा।
यदि एक दीन पुरुष विधि-विधानों की अवहेलना करके राजा के सिर पर अपना पाँव रख दे, तो भी राजा अपनी अहैतुकी कृपा से उस पर ध्यान न देकर क्षमा कर देगा।
जगत के रक्षक के रूप में यह पृथ्वी की ही भाँतिसहिष्णु होगा।
"
देवेवर्षत्यसौ देवो नरदेववपुहरि: ।
कृच्छुप्राणा: प्रजा होष रक्षिष्यत्यञ्जसेद्धवत् ॥
८॥
देवे--तब देवता ( इन्द्र ); अवर्षति--वर्षा नहीं करता; असौ--वह; देव: --महाराज पृथु; नर-देव--राजा का; वपु:--शरीरयुत; हरिः-- भगवान्; कृच्छु-प्राणा: --दुखी जीवात्माएँ; प्रजा:--नागरिक; हि--निश्चय ही; एब:--यह; रक्षिष्यति--रक्षाकरेगा; अज्ञसा--सरलतापूर्वक ; इन्द्र-वत्--राजा इन्द्र के समान
जब वर्षा नहीं होगी और जल के अभाव से नागरिक महान् संकट में होंगे तो यहराजवेषधारी भगवान् स्वर्ग के राजा इन्द्र के समान जल की पूर्ति करेगा।
इस प्रकार अनावृष्टि( सूखे ) से वह नागरिकों की रक्षा कर सकेगा।
"
आप्याययत्यसौ लोकं वदनामृतमूर्तिना ।
सानुरागावलोकेन विशद॒स्मितचारुणा ॥
९॥
आप्याययति--बढ़ाता है; असौ--वह; लोकम्--सम्पूर्ण संसार; बदन-- अपने मुखमंडल से; अमृत-मूर्तिना-- चन्द्रमा सहश; स-अनुराग--वत्सल, प्यारी; अवलोकेन--चितवन से; विशद--चमकीली; स्मित--मन्द हास, मुसकान; चारुणा--मनोहर।
यह राजा, पृथु महाराज, अपनी प्यारी चितबन तथा अपने चन्द्रमा सहश मुखमंडल से, जोनागरिकों के लिए अत्यधिक प्यार से सदैव हँसता रहता है, सबों के शान्त जीवन में और वृद्धिकरेगा।
"
अव्यक्तवर्त्मैष निगूढकार्योंगम्भीरवेधा उपगुप्तवित्त: ।
अनन्तमाहात्म्यगुणैकधामापृथु: प्रचेता इव संवृतात्मा ॥
१०॥
अव्यक्त--अप्रकट; वर्त्मा--उसकी नीतियाँ; एष:--यह राजा; निगूढ--गुप्त; कार्य:--उसके कार्यकलाप; गम्भीर--गुप्त;वेधा:--सम्पन्न करने की विधि; उपगुप्त--गुप्त रखी जानेवाला; वित्त:--उसका कोष; अनन्त--अपार; माहात्म्य--महिमा का;गुण--उत्तम गुणों का; एक-धामा--एकमात्र आगार; पृथु:--राजा पृथु; प्रचेता:--समुद्रों का राजा, वरुण; इब--सहश;संवृत--आच्छादित; आत्मा--स्वयं, स्व |
गायकों ने आगे कहा : राजा द्वारा अपनाई गई नीतियों को कोई भी नहीं समझ सकेगा।
उसके कार्य भी गुप्त रहेंगे और कोई यह न जान सकेगा कि वह प्रत्येक कार्य को किस प्रकारसफल बनाएगा।
उसका कोष सदा ही लोगों से अज्ञात रहेगा।
वह अनन्त महिमा तथा उत्तम गुणों का आगार होगा।
उसका पद स्थायी तथा प्रच्छन्न बना रहेगा जिस प्रकार कि समुद्रों के देववरुण चारों ओर जल से ढके रहते हैं।
"
दुरासदो दुर्विषह आसन्नोपि विदूरवत् ।
नैवाभिभवितुं शकक््यो वेनारण्युत्थितोइनलः ॥
११॥
दुरासद:--पास तक न पहुँचा जाने योग्य; दुर्विषह: --दुःसह; आसन्न:ः --समीप होकर; अपि--यद्यपि; विदूर-बत्--मानोअत्यन्त दूर; न--कभी नहीं; एब--निश्चय ही; अभिभवितुम्--जीते जा सकने के लिए; शक््य:--समर्थ; वेन--राजा बेन;अरणि--अग्नि उत्पन्न करनेवाले काष्टर से; उत्थित:--उत्पन्न; अनल:--अग्नि |
राजा पृथु का जन्म राजा वेन के मृत शरीर से उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार अरणि से अग्निउत्पन्न होती है।
अतः राजा पृथु सदैव अग्नि के समान रहेंगे और उनके शत्रु उनके पास तक नहींपहुँच पाएँगे।
निस्सन्देह, वे अपने शत्रुओं के लिए दुःसह होंगे, वे उनके पास रह कर भी उनकेपास नहीं पहुँच पाएंगे, मानो वे दूर रहने के लिए बने हो।
कोई भी राजा पृथु को हरा नहींसकेगा।
"
अन्तर्बहिश्च भूतानां पश्यन्कर्माणि चारणै: ।
उदासीन इवाध्यक्षो वायुरात्मेव देहिनामू ॥
१२॥
अन्त:ः--आन्तरिक रूप से; बहिः--बाह्य रूप से; च--तथा; भूतानाम्--जीवात्माओं का; पश्यन्ू--देखते हुए; कर्माणि--कार्य; चारणै:--गुप्तचरों द्वारा; उदासीन:--निरपेक्ष; इब--सहश; अध्यक्ष:--साक्षी; वायु:--प्राणवायु; आत्मा--प्राणशक्ति;इब--सहश; देहिनामू--समस्त देहधारियों की
राजा पृथु अपने प्रत्येक नागरिक के आन्तरिक तथा बाह्य कार्यों को देख सकने में समर्थ होंगे।
फिर भी उनकी गुप्तचर व्यवस्था को कोई जान नहीं सकेगा और वे अपनी स्तुति अथवानिन्दा-सम्बन्धी मामलों में सदैव उदासीन रहेंगे।
वे शरीर के भीतर स्थित वायु, अर्थात् प्राण केसमान होंगे, जो बाह्य तथा आन्तरिक रूप से प्रकट होता है, किन्तु सभी व्यापारों से सदैवनिरपेक्ष रहता है।
"
नादण्ड्यं दण्डयत्येष सुतमात्मद्विषामपि ।
दण्डयत्यात्मजमपि दण्ड्यं धर्मपथे स्थित: ॥
१३॥
न--नहीं; अदण्ड्यम्--अदण्डनीय; दण्डयति--दण्ड देता है; एष:--यह राजा; सुतम्--पुत्र; आत्म-द्विषाम्-- अपने शत्रुओंको; अपि-- भी; दण्डयति--दण्ड देता है; आत्म-जम्--अपना पुत्र; अपि-- भी; दण्ड्यम्--दण्डनीय; धर्म-पथे-- धर्मनिष्ठा केमार्ग पर; स्थित:--स्थित होकर
चूँकि यह राजा सदैव धर्मनिष्ठा के मार्ग पर रहेगा, अतः वह अपने पुत्र तथा अपने शत्रु केपुत्र दोनों के प्रति समभाव रखेगा।
यदि उसके शत्रु का पुत्र दण्डनीय नहीं है, तो वह उसे दण्डनहीं देगा, किन्तु यदि स्वयं का पुत्र दण्डनीय है, तो उसे दंडित करेगा।
"
अस्याप्रतिहतं चक्रं पृथोरामानसाचलातू ।
वर्तते भगवानकों यावत्तपति गोगणै: ॥
१४॥
अस्य--इस राजा का; अप्रतिहतम्--न रुकनेवाला; चक्रम्--प्रभाव का वृत्त; पृथो:--राजा पृथु के; आ-मानस-अचलातू--मानस पर्वत तक; वर्तते--है; भगवान्--परम शक्तिमान; अर्क:--सूर्यदेव; यावत्--जिस प्रकार; तपति--चमकता है; गो-गणै:-- प्रकाश की किरणों से |
जिस प्रकार सूर्यदेव अपनी प्रकाशमान रश्मियों को आर्कटिक प्रदेश तक बिना किसीअवरोध के बिखेरते हैं, उसी प्रकार राजा पृथु का प्रभाव आर्कटिक क्षेत्र तक के समस्त भूभागोंपर होगा और वह आजीवन अविचल रहेगा।
"
रज्जयिष्यति यल्लोकमयमात्मविचेष्टितैः ।
अथामुमाहू राजानं मनोरञ्जनकै: प्रजा: ॥
१५॥
रज्जयिष्यति-- प्रसन्न करेगा; यत्ू--क्योंकि; लोकम्--समग्र संसार; अयम्--यह राजा; आत्म--निजी; विचेष्टितैः--कार्यों द्वारा;अथ--अतः; अमुम्--उसको; आहु:--कहते हैं; राजानम्--राजा; मनः-र्जनकै:--मन को अच्छा लगनेवाला; प्रजा:--नागरिक
यह राजा अपने व्यावहारिक कार्यो द्वारा सबों को प्रसन्न करेगा और उसके सारे नागरिकअत्यन्त प्रसन्न होंगे।
इस कारण नागरिकों को उसे अपना शासक राजा स्वीकार करने मेंअत्यधिक सन््तोष मिलेगा।
"
हृढब्रतः सत्यसन्धो ब्रह्मण्यो वृद्धसेवकः ।
शरण्यः सर्वभूतानां मानदो दीनवत्सल: ॥
१६॥
हढ-ब्रतः--हृढ़संकल्प वाला; सत्य-सन्ध: --सत्य-प्रतिज्ञ; ब्रह्मण्य:--ब्राह्मण संस्कृति का प्रेमी; वृद्ध-सेवक:--वृद्ध पुरुषों कादास; शरण्य: --शरणागत-वत्सल; सर्व-भूतानाम्--समस्त जीवात्माओं का; मान-दः --सबों का सम्मान करनेवाला; दीन-बत्सलः--दीनों तथा अनाथों पर अत्यधिक दयालु।
यह राजा दृढ़संकल्प वाला तथा सत्यव्रती होगा।
यह ब्राह्मण-संस्कृति का प्रेमी, वृद्धों कीसेवा करने वाला तथा शरणागतों को प्रश्नय देने वाला होगा।
यह सबों का सम्मान करेगा औरदीन-दुखियों तथा अबोधों पर सदैव कृपालु रहेगा।
"
मातृभक्ति: परस्त्रीषु पत्यामर्ध इवात्मन: ।
प्रजासु पितृवत्स्निग्ध: किड्डूरो ब्रह्मवगादिनाम् ॥
१७॥
मातृ-भक्ति:-- अपनी माता के समान आदर करने वाला; पर-स्त्रीषु--पराई स्त्री के प्रति; पल््याम्--अपनी पत्नी को; अर्ध:--आधा; इब--सहृश; आत्मन: -- अपने शरीर का; प्रजासु--नागरिकों के प्रति; पितृ-वत्--पिता के समान; स्निग्ध:--स्नेही;किड्जरः--दास; ब्रह्म-वादिनामू-- भगवान् की महिमा का उपदेश करने वाले भक्तों का।
यह राजा सभी स्त्रियों को अपनी माता के समान सम्मान देगा और अपनी पत्नी को अपनेशरीर का आधा अंग ( अर्द्धांड़िनी ) मानेगा।
यह अपनी प्रजा के प्रति पिता के समान स्नेही होगाऔर अपने आपको भगवान् की महिमा का उपदेश करने वाले भक्तों का परम आज्ञाकारी दाससमझेगा।
"
देहिनामात्मवत्प्रेष्ठ: सुहृदां नन्दिवर्धन: ।
मुक्तसड्डप्रसड्रोयं दण्डपाणिरसाधुषु ॥
१८॥
देहिनाम्ू--समस्त शरीरधारी जीवों को; आत्म-वत्--अपने समान; प्रेष्ट:--प्रिय मानते हुए; सुहृदाम्-मित्रों का; नन्दि-वर्धन:--आनन्द बढ़ाते हुए; मुक्त-सड़--समस्त भौतिक कल्मष से रहित पुरुषों के साथ; प्रसड्र:ः--घनिष्ठतःसम्बन्धित; अयम्--यह राजा;दण्ड-पाणि:--दण्ड देने वाला हाथ; असाधुषु-- अपराधियों को |
यह राजा समस्त जीवधारी प्राणियों को अपने ही समान प्रिय मानेगा और अपने मित्रों केआनन्द को सदैव बढ़ाने वाला होगा।
यह मुक्त पुरुषों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित रहेगा और समस्त अपवित्र व्यक्तियों को कठोर दण्ड देने वाला होगा।
"
अयं तु साक्षाद्धगवांस्त्यधीश:कूटस्थ आत्मा कलयावतीर्ण: ।
यस्मिन्नविद्यारचितं निरर्थक'पश्यन्ति नानात्वमपि प्रतीतम् ॥
१९॥
अयम्--यह राजा; तु--तब; साक्षात्--प्रत्यक्ष; भगवान्-- भगवान्; त्रि-अधीश:--तीनों लोकों का स्वामी; कूट-स्थ:--बिनाकिसी परिवर्तन के; आत्मा--परमात्मा; कलया--आंशिक विस्तार से; अवतीर्ण: --अवतरित; यस्मिनू--जिसमें; अविद्या-रचितम्--अज्ञान से उत्पन्न; निरर्थकम्--अर्थरहित; पश्यन्ति--देखते हैं; नानात्वमू--विविधता; अपि--निश्चय ही; प्रतीतम्--मिथ्या, अप्रकट |
यह राजा तीनों लोकों का स्वामी है और सीधे भगवान् ने इसे शक्ति प्रदान की है।
यहअपरिवर्तनीय है और परमेश्वर का शकत्यावेश अवतार है।
मुक्त आत्मा तथा परम दिद्वान् होने केकारण यह समस्त भौतिक विविधताओं को अर्थहीन मानता है, क्योंकि इनका मूलाधार अविद्याहै।
"
अयं भुवो मण्डलमोदयाद्रे-गेप्तिकवीरों नरदेवनाथः ।
आस्थाय जैत्रं रथमात्तचापःपर्यस्यते दक्षिणतो यथार्क: ॥
२०॥
अयमू--यह राजा; भुव:ः--जगत का; मण्डलम्ू--गोलक; आ-उदय-अद्रे:--उदयाचल से, जहाँ सबसे पहले सूर्य दिखता है;गोप्ता--रक्षा करेगा; एक--अद्वितीय; वीर:--शक्तिशाली; नर-देव--समस्त राजाओं का, मानव समाज में देवों का; नाथ:--स्वामी; आस्थाय--स्थित होकर; जैत्रमू--विजयी; रथम्--उसका रथ; आत्त-चाप: -- धनुष धारण करते हुए; पर्यस्यते--प्रदक्षिणा करेगा; दक्षिणत:ः--दक्षिण दिशा से; यथा--जिस प्रकार; अर्क:--सूर्य |
यह राजा अद्वितीय शक्तिशाली तथा वीर होगा, जिससे इसका कोई प्रतिद्वन्द्दी नहीं होगा।
यहअपने हाथ में धनुष धारण करके विजयी रथ पर चढ़कर सूर्य के समान दिखाई देता हुआभूमण्डल की प्रदक्षिणा करेगा, जो दक्षिण से अपनी कक्षा पर परिभ्रमण करता है।
"
अस्मै नृपाला: किल तत्र तत्रबलि हरिष्यन्ति सलोकपाला: ।
मंस्यन्त एषां स्त्रिय आदिराजं॑अक्रायुध॑ तद्य॒श उद्धरन्त्य: ॥
२१॥
अस्मै--उसको; नृू-पाला:--समस्त राजा; किल--निश्चय ही; तत्र तत्र--जहाँ जहाँ; बलिम्--उपहार, भेंट; हरिष्यन्ति--प्रदानकरेंगे; स--सहित; लोक-पाला:--देवता; मंस्यन्ते--मानेगा; एघाम्--इन राजाओं का; स्त्रियः--पत्लियाँ; आदि-राजम्ू--पहला राजा; चक्र-आयुधम्--चक्ररूपी हथियार को; तत्--उसका; यशः--ख्याति; उद्धरन्त्यः-- धारण किये।
जब यह राजा सारे संसार में भ्रमण करेगा तो अन्य राजा तथा अन्य देवतागण इसे सभीप्रकार के उपहार भेंट करेंगे।
उनकी रानियां भी उसे आदि राजा मानेंगी, जो अपने हाथों में चक्रतथा गदा चिह्नों को धारण करता है और उसी के गुणगान करेंगी, क्योंकि वह भगवान् के समानख्याति वाला होगा।
"
अयं महीं गां दुदुहेधिराज:प्रजापतिर्वृत्तिकर: प्रजानाम् ।
यो लीलयाद्रीनस्वशरासकोटयाभिन्दन्समां गामकरोद्यथेन्द्र: ॥
२२॥
अयम्--यह राजा; महीम्--पृथ्वी को; गामू-गाय के रूप में; दुदुहे--दुहेगा; अधिराज:--अद्वितीय राजा; प्रजा-पति:--मनुष्यका जनक; वृत्ति-करः--जीवन सुविधाएँ प्रदान करते हुए; प्रजानामू--नागरिकों की; यः--जो; लीलया--खेल-खेल में;अद्रीन्--पर्वत; स्व-शरास--अपने बाण की; कोट्या--नोक से; भिन्दन्--विदीर्ण करके; समाम्--समतल; गाम्--पृथ्वी को;अकरोत्--करेगा; यथा--जैसे; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा इन्द्र प्रजा का पालक
यह राजा अद्वितीय है और प्रजापति देवों के तुल्य है।
प्रजा के जीवन-निर्वाह के लिए यह गौ रूपी पृथ्वी का दोहन करेगा।
यही नहीं, यह अपने बाण की नोक से समस्त पर्वतों को विदीर्ण करके धरती को वैसे ही समतल करेगा, जिस प्रकार स्वर्ग का राजाइन्द्र अपने प्रबल वज्र से पर्वतों को तोड़ता है।
"
विस्फूर्जयन्नाजगवं धनु: स्वयंयदाचरत्क्ष्ममविषहामाजौ ।
तदा निलिल्युर्दिशि दिश्यसन्तोलाज्ूूलमुद्यम्य यथा मृगेन्द्र ४ ॥
२३॥
विस्फूर्जयन्--टंकार करते हुए; आज-गवम्--बकरों तथा बैलों के सींगों से बना हुआ; धनु:--अपना धनुष; स्वयम्--स्वयं;यदा--जब; अचरत्--विचरण करेगा; क्ष्मामू--पृथ्वी पर; अविषह्मम्-दुर्धर, बिना रोक के; आजौ--युद्ध में; तदा--उससमय; निलिल्यु:--छिप जाएँगे; दिशि दिशि--चारों दिशाओं में; असन्त:--आसुरी लोग; लाडूलम्--पूँछ को; उद्यम्य--ऊँचीकरके; यथा--जिस प्रकार; मृगेन्द्र:--सिंह |
जब सिंह अपनी पूँछ ऊपर उठाकर वन में विचरण करता है, उस समय छोटे-छोटे पशु छिपजाते हैं।
इसी प्रकार जब राजा पृथु अपने राज्य में भ्रमण करेंगे और बकरों तथा बैलों के सींगोंसे बने अपने धनुष की टंकार करेंगे जिसका युद्ध में कोई सामना नहीं कर सकता, तो सभीआसुरी धूर्त तथा चोर चारों दिशाओं में छिप जाएँगे।
"
एषो श्रमेधाब्शतमाजहारसरस्वती प्रादुरभावि यत्र ।
अहार्षीद्यस्य हयं पुरन्दरःशतक्रतुश्चरमे वर्तमाने ॥
२४॥
एषः--यह राजा; अश्वमेधान्--अश्वमेध यज्ञ; शतम्--एक सौ; आजहार--करेगा; सरस्वती --सरस्वती नदी; प्रादुरभावि--प्रकट होती है; यत्र--जहाँ; अहार्षीत्ू-- चुराएगा; यस्य--जिसका; हयम्--घोड़ा; पुरन्दरः --इन्द्र; शत-क्रतु:ः--जिसने सौ यज्ञकिये हैं; चरमे-- अन्तिम यज्ञ में; वर्तमाने--वर्तमान
यह राजा सरस्वती नदी के उद्गम स्थान पर सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा।
अन्तिम यज्ञ के समय,स्वर्ग का राजा इन्द्र यज्ञ के घोड़े को चुरा लेगा।
"
एष स्वसद्योपवने समेत्यसनत्कुमारं भगवन्तमेकम् ।
आराध्य भक््त्यालभतामलं तज्ज्ञानं यतो ब्रह्म परं विदन्ति ॥
२५॥
एषः--यह राजा; स्व-सद्य -- अपने महल में; उपवने--उद्यान में; समेत्य-- भेंट करके; सनत्-कुमारम्--सनत्कुमार;भगवन्तम्--पूज्य; एकम्--अकेले; आराध्य--पूजकर; भकत्या--भक्तिपूर्वक; अलभत--प्राप्त करेगा; अमलम्--कल्मषरहित,निर्मल; ततू--वह; ज्ञानमू-दिव्य ज्ञान; यतः--जिससे; ब्रह्म-- आत्मा; परमू--परम दिव्य; विदन्ति--जानते हैं, भोगते हैं।
यह राजा पृथु अपने प्रासाद के उद्यान में चार कुमारों में से एक, सनत्कुमार से भेंट करेगा।
राजा उनकी भक्तिपूर्वक पूजा करेगा और उनसे सौभाग्यवश उपदेश प्राप्त करेगा जिससे मनुष्यदिव्य आनन्द उठा सकता है।
"
तत्र तत्र गिरस्तास्ता इति विश्रुतविक्रम: ।
श्रोष्यत्यात्माश्रिता गाथा: पृथु: पृथुपराक्रम: ॥
२६॥
तत्र तत्र--जहाँ जहाँ; गिर:--शब्द; ता: ताः--अनेक, विविध; इति--इस प्रकार; विश्रुत-विक्रम:--जिसके वीरता के कार्यदूर-दूर तक विख्यात हों; श्रोष्यति--सुनेगा; आत्म-आश्रिता:--अपने विषय में; गाथा: --गीत, आख्यान; पृथु:--राजा पृथु;पृथु-पराक्रम:--स्पष्टतः शक्तिमान।
इस प्रकार जब इस राजा के वीरतापूर्ण कार्य जनता के समक्ष आ जाएँगे तो यह राजा अपनेविषय में तथा अपने अद्वितीय पराक्रमपूर्ण कार्यो के विषय में सदैव सुनेगा।
"
दिशो विजित्याप्रतिरुद्धचक्र:स्वतेजसोत्पाटितलोकशल्य: ।
सुरासुरेन्द्रैपगीयमान-महानुभावो भविता पतिर्भुव: ॥
२७॥
दिशः--सभी दिशाएँ; विजित्य--जीतकर; अप्रतिरुद्ध--बिना रोक के; चक्र:--प्रभाव या शक्ति; स्व-तेजसा-- अपने तेज से;उत्पाटित--उच्छेदित, निकाला हुआ; लोक-शल्य:--जनता के दुख; सुर--देवताओं का; असुर--असुरों का; इन्द्रै:--प्रमुखोंद्वारा; उपगीयमान--प्रशंसित होकर; महा-अनुभाव: --महा-पुरुष; भविता--होगा; पति:--स्वामी; भुव:ः--जगत का।
पृथु महाराज की आज्ञाओं का उल्लंघन कोई नहीं कर सकेगा।
सारे जगत को जीतकर वहनागरिकों के तीनों तापों को समूल नष्ट करेगा।
तब सारे जगत में उसको मान्यता प्राप्त होगी।
तबसुर तथा असुर दोनों उसके उदार कार्यों की निस्सन्देह प्रशंसा करेंगे।
"
अध्याय सत्रह: महाराज पृथु का पृथ्वी पर क्रोधित होना
4.17मैत्रेय उवाचएवं स भगवान्वैन्य: ख्यापितो गुणकर्मभि: ।
छन्दयामासतान्कामै: प्रतिपूज्याभिनन्द्य च ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रय ने कहा; एवम्--इस प्रकार; सः--वह; भगवान्-- भगवान्; वैन्य: --राजा बेन के पुत्र रूप में;ख्यापित:--प्रशंसित; गुण-कर्मभि:--गुणों एवं वास्तविक कार्यो द्वारा; छन्दयाम् आस--प्रसन्न किया हुआ; तानू--उन गायकोंको; कामै: --विभिभन्न भेंटों द्वारा; प्रतिपूज्य--सम्मान प्रदान करके; अभिनन्द्य--प्रार्थना करके; च-- भी ।
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : इस प्रकार उन गायकों ने जो महाराज पृथु की महिमा का गायनकर रहे थे, उनके गुणों तथा बीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन किया।
अन्त में महाराज पृथु नेसम्मानपूर्वक उन्हें अनेक भेंटें प्रदान कीं और उनकी यथेष्ट पूजा की।
"
ब्राह्मणप्रमुखान्वर्णान्भृत्यामात्यपुरोधस: ।
पौराज्जानपदान्श्रेणी: प्रकृती: समपूजयत् ॥
२॥
ब्राह्मण-प्रमुखान्ू--ब्राह्मण जाति के प्रधानों को; वर्णान्ू--अन्य जातियों को; भृत्य--नौकर; अमात्य--मंत्रीगण; पुरो धस: --पुरोहितों को; पौरानू--पुरवासियों को; जान-पदान्--देशवासियों को; श्रेणी:--विभिन्न जातियों को; प्रकृती:--प्रशंसकों को;समपूजयत्--उचित सत्कार किया।
इस प्रकार राजा पृथु ने ब्राह्मण तथा अन्य जातियों के समस्त नायकों, अपने नौकरों,मंत्रियों, पुरोहितों, नागरिकों, सामान्य देशवासियों, अन्य जाति के लोगों, प्रशंसकों तथा अन्योंको प्रसन्न किया और उनका सभी प्रकार से सम्मान किया।
इस प्रकार वे सभी अत्यन्त प्रसन्न होगये।
"
विदुर उवाचकस्माहधार गोरूपं धरित्री बहुरूपिणी ।
यां दुदोह पृथुस्तत्र को वत्सो दोहनं च किम् ॥
३॥
विदुरः उवाच--विदुर ने पूछा; कस्मात्-क्यों; दधार-- धारण किया; गो-रूपम्--गाय का स्वरूप; धरित्री--पृथ्वी ने; बहु-रूपिणी--अनेक रूपों वाली; याम्--जिसको; दुदोह--दुहा; पृथु:--राजा पृथु ने; तत्र--वहाँ; कः--कौन; वत्स:--बछड़ा;दोहनम्--दोहनी, दुहने का पात्र; च-- भी; किम्ू--क्या |
विदुर ने मैत्रेय ऋषि से पूछा : हे ब्राह्मण, जब धरती माता अनेक रूप धारण कर सकती है,तो फिर उसने गाय का ही रूप क्यों ग्रहण किया ? और जब राजा पृथु ने उसको दुहा तो कौनबछड़ा बना और दुहने का पात्र क्या था?"
प्रकृत्या विषमा देवी कृता तेन समा कथम् ।
तस्य मेध्यं हयं देव: कस्य हेतोरपाहरत् ॥
४॥
प्रकृत्या--स्वभाव से; विषमा--ऊँची-नीची; देवी-- पृथ्वी; कृता--किया गया; तेन--उसके द्वारा; समा--समतल; कथम्--कैसे; तस्य--उसका; मेध्यम्--यज्ञ में बलि के हेतु; हयम्--घोड़ा; देव:ः--इन्द्रदेव; कस्य--किस; हेतो:--लिए; अपाहरत्--चुरा लिया।
पृथ्वी की सतह स्वभावतः कहीं ऊँची है, तो कहीं नीची।
तो फिर राजा पृथु ने पृथ्वी कीसतह को कैसे समतल बनाया, और स्वर्ग के राजा इन्द्र ने यज्ञ के घोड़े को क्यों चुराया ?"
सनत्कुमाराद्धगवतो ब्रह्मन्ब्रह्मविदुत्तमात् ।
लब्ध्वा ज्ञानं सविज्ञानं राजर्षि: कां गतिं गतः ॥
५॥
सनतू-कुमारात्--सनत्कुमार से; भगवत:--परम शक्तिमान; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; ब्रह्म-वित्-उत्तमात्--वैदिक ज्ञान में दक्ष;लब्ध्वा-प्राप्त करके; ज्ञानम्--ज्ञान; स-विज्ञानमू--व्यावहारिक प्रयोग के लिए; राज-ऋषि:--परम साधु राजा ने; कामू--कौन सी; गतिमू--पद; गतः--प्राप्त किया |
महान् साधु राजा, महाराज पृथु, ने परम वैदिक विद्वान सनत्कुमार से ज्ञान प्राप्त किया।
अपने जीवन में इस ज्ञान को व्यवहत करने के लिए ज्ञान प्राप्त करके उस राजा ने इच्छित गंतव्यकिस प्रकार प्राप्त किया ?"
यच्चान्यद॒पि कृष्णस्थ भवान्भगवतः प्रभो: ।
श्रव: सुश्रवसः पुण्य पूर्वदेहकथा श्रयम् ॥
६॥
भक्ताय मेउनुरक्ताय तव चाधोक्षजस्य च ।
वक्तुमहसि योउदुह्ाद्वैन्यरूपेण गामिमाम् ॥
७॥
यत्--जो; च--तथा; अन्यत्ू--दूसरा; अपि--निश्चय ही; कृष्णस्य--कृष्ण का; भवान्ू--आप; भगवत:-- भगवान् का;प्रभो;--शक्तिशाली; श्रव:ः --महिमामय कार्य; सु-अ्रवस:--जो सुनने में अत्यन्त मधुर लगे; पुण्यम्--पतवित्र; पूर्व-देह-- अपनेपूर्व अवतार का; कथा-आश्रयम्--कथा से सम्बन्धित; भक्ताय--भक्त के लिए; मे--मुझको; अनुरक्ताय--अत्यन्त ध्यानमग्न;तव--तुम्हारा; च--तथा; अधोक्षजस्य-- भगवान् का जो अधोक्षज कहलाते हैं; च--और; वक्तुम् अहसि--सुनाएँ; यः--जिसने; अदुह्मत्--दुहा; वैन्य-रूपेण--राजा वेन के पुत्र रूप में; गामू--गाय रूपी पृथ्वी को; इमामू--इस
पृथु महाराज भगवान् कृष्ण की शक्तियों के शक्त्यावेश अवतार थे।
फलत: उनके कार्यों सेसम्बन्धित कोई भी कथा सुनने में ममभावन लगती है और कल्याणकर होती है।
मैं तो आपकातथा अधोक्षज भगवान् का भी भक्त हूँ।
अतः आप उन राजा पृथु की सभी कथाएँ सुनाएँजिन्होंने राजा बेन के पुत्र के रूप में गोरूप धरती का दोहन किया।
"
सूत उबाचचोदितो विदुरेणैवं वासुदेवकथां प्रति ।
प्रशस्य त॑ प्रीतमना मैत्रेय: प्रत्यभाषत ॥
८ ॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; चोदित:--प्रोत्साहित; विदुरेण --विदुर के द्वारा; एबम्ू--इस प्रकार; वासुदेव-- भगवान्कृष्ण की; कथाम्--कथा के; प्रति--विषय में; प्रशस्य-- प्रशंसा करके; तम्ू--उसको; प्रीत-मना:--अत्यधिक प्रसन्न होकर;मैत्रेय:--मैत्रेय ने; प्रत्मभाषत--उत्तर दिया।
सूत गोस्वामी ने आगे कहा : कि जब विदुर को भगवान् कृष्ण के विविध अवतारों केकार्यकलापों को सुनने की प्रेरणा प्राप्त हुईं तो मैत्रेय ने विदुर की प्रशंसा की क्योंकि वे स्वयंउनसे प्रोत्साहित और अत्यधिक प्रसन्न थे।
तब मैत्रेय ने इस प्रकार कहा।
"
मैत्रेय उवाचयदाभिषिक्त: पृथुरड् विप्रै-रामन्त्रितो जनतायाश्व पाल: ।
प्रजा निरत्ने क्षितिपृष्ठ एत्यक्षुक्षामदेहा: पतिमभ्यवोचन् ॥
९॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; यदा--जब; अभिषिक्त: --गद्दी पर बिठा दिये गये; पृथु;--राजा पृथु; अड्भ--हे विदुर;विप्रै:--ब्राह्मणों के द्वारा; आमन्त्रित:--घोषित; जनताया: -- प्रजा का; च-- भी; पाल:--रक्षक; प्रजा:--नागरिक; निरतन्ने--बिना अन्न के; क्षिति-पृष्ठे--पृथ्वी की सतह पर; एत्य--पास आकर; क्षुत्-- भूख से; क्षाम--दुर्बल; देहा:--उनके शरीर;पतिम्ू--रक्षक से; अभ्यवोचन्--कहा।
मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, जब ब्राह्मणों तथा ऋषियों ने राजा पृथु को राजसिंहासन परबिठाया दिया तथा उन्हें नागरिकों का रक्षक घोषित किया तो उस समय अन्न का अभाव था।
नागरिक भूख के मारे सूख कर काँटा हो गये थे, अतः वे राजा के समक्ष आये और उन्हें अपनीवास्तविक स्थिति कह सुनाई।
"
बयं राजज्जाठरेणाभितप्तायथाग्निना कोटरस्थेन वृक्षा: ।
त्वामद्य याता: शरणं शरण्यंयः साधितो वृत्तिकरः पतिर्न; ॥
१०॥
तन्नो भवानीहतु रातवेउन्नंक्षुधार्दितानां नरदेवदेव ।
यावन्न नद्क्ष्यामह उज्झितोर्जावार्तापतिस्त्वं किल लोकपाल: ॥
११॥
वयम्--हम; राजन्--हे राजा; जाठरेण-- भूख की ज्वाला से; अभितप्ता:--अत्यन्त त्रस्त; यथा--जिस प्रकार; अग्निना--आगसे; कोटर-स्थेन--पेड़ के कोटर में; वृक्षा:--वृक्ष; त्वामू--तुम तक; अद्य--आज; याताः:--हम आये हैं; शरणम्--शरण;शरण्यम्--शरण लेने के योग्य; य:--जो; साधित:ः--नियुक्त; वृत्ति-करः--रोजगार देने वाला; पति: --स्वामी; न:--हमारे;तत्--अतः; न:--हमको; भवान्ू--आप; ईहतु-- प्रयत्त करो; रातवे--देने के लिए; अन्नम्--अनाज; क्षुधा-- भूख से;अर्दितानाम्ू-कष्ट भोगते हुए; नर-देव-देव--हे समस्त राजाओं के परम स्वामी; यावत् न--जब तक नहीं; नड्छ्ष्यामहे --हम मरजाएंगे; उज्झित--विहीन; ऊर्जा: --अन्न; वार्ता--व्यवसाय का; पति:--देनेवाला; त्वम्ू--तुम; किल--निस्सन्देह; लोक-पाल:--जनता के रक्षक
हे राजन, जिस प्रकार वृक्ष के कोटर में लगी आग वृक्ष को धीरे-धीरे सुखा देती है, उसीप्रकार हम जठराग्नि ( भूख ) से सूख रहे हैं।
आप शरणागत जीवों के रक्षक हैं और आप हमेंवृत्ति ( जीविका ) देने के लिए नियुक्त हुए हैं।
अतः हम सभी आपके संरक्षण में आये हैं।
आपकेवल राजा ही नहीं हैं, आप भगवान् के अवतार भी हैं।
वास्तविक रूप में आप राजाओं केराजा हैं।
आप हमें सभी प्रकार की जीविकाएँ प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि आप हमारी जीविकाके स्वामी हैं।
अतः हे राजराजेश्वर, उचित अन्न वितरण के द्वारा हमारी भूख को शान्त करने कीव्यवस्था कीजिये।
आप हमारी रक्षा करें जिससे हम अन्न के अभाव से मरें नहीं।
तत्काल उपाय करे।
"
मैत्रेय उवाचपृथु: प्रजानां करुणं निशम्य परिदेवितम् ।
दीर्घ दध्यौ कुरु श्रेष्ठ निमित्तं सोउन्वपद्यत ॥
१२॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; पृथु:--राजा पृथु; प्रजानामू--नागरिकों की; करुणम्ू--दयनीय स्थिति; निशम्य--सुनकर;परिदेवितम्--विलाप; दीर्घम्--दीर्घकाल तक; दध्यौ--विचार किया; कुरु- श्रेष्ठ --हे विदुर; निमित्तमू--कारण; सः --उसने;अन्वपद्यत--ढूँढ लिया |
नागरिकों के इस शोकालाप को सुनकर तथा उनकी दयनीय स्थिति देखकर राजा नेदीर्घकाल तक इस विषय पर विचार किया कि क्या वह मूलभूत कारणों को खोज सकता है ?"
इति व्यवसितो बुद्धय्या प्रगृहीतशरासन: ।
सन्दधे विशिखं भूमे: क्रुद्धस्त्रिपुह्ह यथा ॥
१३॥
इति--इस प्रकार; व्यवसितः--निष्कर्ष पर पहुँच कर; बुद्धया--बुद्धि से; प्रगृहीत-- धारण किये हुए; शरासन:-- धनुष;सन्दधे--चढ़ाया; विशिखम्--बाण; भूमेः--पृथ्वी पर; क्रुद्ध:--क्रोध से पूर्ण; त्रि-पुर-हा--शिवजी; यथा--मानो |
ऐसा निश्चय करके, राजा ने अपना धनुष-बाण उठाया और उन्हें पृथ्वी की ओर उसी प्रकारलक्षित किया जिस प्रकार शिवजी क्रोध से सारे जगत का विनाश कर देते हैं।
"
प्रवेषमाना धरणी निशाम्योदायुधं च तम् ।
गौः सत्यपाद्रवद्धीता मृगीव मृगयुद्रुता ॥
१४॥
प्रवेषमाना--काँपते हुए; धरणी--पृथ्वी; निशाम्य--देखकर; उदायुधम्-- धनुष-बाण लेकर; च-- भी; तम्ू--राजा को; गौ: --गाय; सती--बन कर; अपाद्रवत्-- भागने लगी; भीता--अत्यधिक डरी हुईं; मृगी इब--हिरनी के समान; मृगयु--शिकारीद्वारा; द्रता--पीछा की गई |
जब पृथ्वी ने देखा कि राजा पृथु उसे मारने के लिए धनुष-बाण धारण कर रहे हैं, तो वहभय के मारे काँपने लगी।
उसके बाद वह उसी प्रकार भागी जिस प्रकार शिकारी द्वारा पीछाकिये जाने पर हिरनी तेजी से भागती है।
राजा के भय से पृथ्वी ने गाय का रूप धारण कर लियाऔर भागने लगी।
"
तामन्वधावत्तद्वैन्य: कुपितोत्यरुणेक्षण: ।
शरं धनुषि सन्धाय यत्र यत्र पलायते ॥
१५॥
तामू--गोरूप पृथ्वी का; अन्वधावत्--पीछा किया; तत्--तब; वैन्य:--राजा बेन के पुत्र ने; कुपित:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर;अति-अरुण--अत्यन्त लाल-लाल; ईक्षण:--आँखें ; शरम्--तीर; धनुषि-- धनुष पर; सन्धाय--रखकर; यत्र यत्र--जहाँ-जहाँ;पलायते--वह भागती |
यह देखकर महाराज पृथु अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उनकी आँखें प्रातःकालीन सूर्य की भाँतिलाल-लाल हो गईं।
अपने धनुष पर बाण चढ़ाये वे जहाँ-जहाँ गोरूप पृथ्वी दौड़कर जाती,वहीं-वहीं उसका पीछा करते रहे।
"
सा दिशो विदिशो देवी रोदसी चान्तरं तयो: ।
धावन्ती तत्र तत्रैनं ददर्शानूद्यतायुधम् ॥
१६॥
सा--वह गोरूप पृथ्वी; दिश:--चारों दिशाओं में; विदिश:--इधर-उधर; देवी--देवी; रोदसी-- आकाश तथा पृथ्वी की ओर;च--भी; अन्तरम्ू--मध्य में; तयो:--उनके; धावन्ती--दौड़ती हुई; तत्र तत्र--जहाँ-जहाँ; एनम्ू--राजा को; ददर्श--देखा;अनु--पीछे; उद्यत--ग्रहण किये; आयुधम्-- अपने हथियार।
गोरूप पृथ्वी स्वर्ग तथा पृथ्वी के बीच अन्तरिक्ष में इधर-उधर दौड़ने लगी और जहाँ भी वहजाती, राजा अपना धनुष-बाण लिए उसका पीछा करते रहे।
"
लोके नाविन्दत त्राणं वैन्यान्मृत्योरिव प्रजा: ।
त्रस्ता तदा निववृते हृदयेन विदूयता ॥
१७॥
लोके--तीनों लोकों में; न--नहीं; अविन्दत--प्राप्त करा सका; त्राणम्ू-- मुक्ति; वैन्यात्-राजा वेन के पुत्र के हाथों से;मृत्यो: --मृत्यु से; इब--सद्श; प्रजा: --लोग; त्रस्ता--अत्यन्त भयभीत; तदा--उस काल; निववृते--पीछे मुड़ी; हृदयेन--अपने हृदय में; विदूयता--अत्यन्त दुखित |
जिस प्रकार मनुष्य मृत्यु के क्रूर हाथों से नहीं बच सकता, उसी प्रकार गोरूप पृथ्वी वेन केपुत्र से नहीं बच सकी।
अन्त में पृथ्वी भयभीत होकर और दुखित हृदय से असहायावस्था में पीछेकी ओर मुड़ी।
"
उबाच च महाभागं धर्मज्ञापन्नवत्सल ॥
त्राहि मामपि भूतानां पालनेवस्थितो भवान् ॥
१८॥
उबाच--उसने कहा; च--तथा; महा-भागम्--महान् भाग्यशाली राजा के प्रति; धर्म-ज्ञ-हे धर्म के नियमों के ज्ञाता; आपन्न-बत्सल--हे शरणागत के शरण; त्राहि--बचाओ; माम्--मुझको; अपि--निस्सन्देह; भूतानामू--जीवात्माओं के; पालने--संरक्षण में; अवस्थित:--स्थित; भवान्ू--आप।
परम ऐश्वर्यवान् राजा पृथु को धर्म के ज्ञाता तथा शरणागतों के आश्रय के रूप में सम्बोधितकरते हुए उसने कहा--कृपया मुझे बचाइये।
आप समस्त जीवात्माओं के रक्षक हैं।
अब आपइस लोक के राजा के रूप में पदस्थ हैं।
"
स त्वं जिघांससे कस्माद्दीनगामकृतकिल्बिषाम् ।
अहनिष्यत्कथं योषां धर्मज्ञ इति यो मतः ॥
१९॥
सः--वही व्यक्ति; त्वमू--तुम; जिघांससे--मारना चाहते हो; कस्मात्--क्यों; दीनामू--दीना को; अकृत--निरपराध, बिनाकुछ किये; किल्बिषाम्ू--कोई पापमय कर्म; अहनिष्यत्--मारोगे; कथम्--कैसे; योषाम्--स्त्री को; धर्म-ज्ञ:--धर्म कोजाननेवाला; इति--इस प्रकार; यः--जो; मतः--माना जाता है।
गोरूप पृथ्वी राजा से अनुनय-विनय करती रही--मैं अत्यन्त दीन हूँ और मैंने कोई पापकर्मनहीं किया।
तो फिर आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं ? आप धर्म के नियमों को जाननेवाले हैं, तोफिर आप क्यों मुझसे द्वेष रख रहे हैं और क्यों एक स्त्री को मारने के लिए इस प्रकार उद्यत हैं?"
प्रहरन्ति न बै स्त्रीषु कृताग:स्वषि जन्तव: ।
किमुत त्वद्विधा राजन्करुणा दीनवत्सला: ॥
२०॥
प्रहरन्ति--मारते हैं; न--नहीं; बै--निश्चय ही; स्त्रीषु--स्त्रियों को; कृत-आगःसु--पापकर्म करने पर; अपि--यद्यपि;जन्तव:--मानव प्राणी; किम् उत--फिर क्या कहा जाये; त्वत्-विधा:--तुम्हारे समान महापुरुष; राजन्ू--हे राजा; करुणा: --दयालु; दीन-वत्सला:--दीनों के प्रति स्नेहिल |
यदि स्त्री कोई पापकर्म भी करे तो मनुष्य को उस पर हाथ नहीं उठाना चाहिए।
हे राजन,आप तो इतने दयालु हैं कि आपके विषय में क्या कहा जाये ? आप रक्षक हैं और दीनवत्सल हैं।
"
मां विपाट्याजरां नावं यत्र विश्व॑ं प्रतिष्ठितम् ।
आत्मानं च प्रजाश्रेमा: कथमम्भसि धास्यसि ॥
२१॥
माम्-- मुझको; विपाट्य--खण्ड-खण्ड करके; अजराम्--अत्यन्त बढ़; नावम्--नाव; यत्र--जहाँ; विश्वम्--समस्त संसार कीसामग्री; प्रतिष्ठितम्--खड़ी हुई; आत्मानमू--अपने आपको; च--तथा; प्रजा:--अपनी प्रजा; च--भी; इमा:--ये सारे;कथम्--कैसे; अम्भसि--जल में; धास्यसि-- धारण करोगेगोरूप
पृथ्वी ने आगे कहा : हे राजन, मैं एक सुदृढ़ नाव के तुल्य हूँ और समस्त संसार कीसारी सामग्री मुझी पर टिकी है।
यदि आप मुझे छिन्न कर देंगे तो फिर आप अपने को तथा अपनीप्रजा को डूबने से किस प्रकार बचा पायेंगे ?पृथुरुवाचवसुधे त्वां वधिष्यामि मच्छासनपराड्मुखीम् ।
"
भागं बर्हिषि या वृड्डे न तनोति च नो वसु ॥
२२॥
पृथु: उबाच--पृथु ने उत्तर दिया; वसु-धे--हे पृथ्वी; त्वामू--तुमको; वधिष्यामि--मार डालूँगा; मत्--मेरा; शासन-- आदेश;पराक्-मुखीम्--अवज्ञा करके; भागम्--अपना अंश; बर्हिषि--यज्ञ में; या--जो; वृड्डे --स्वीकार करती है; न--नहीं;तनोति--देती है; च--तथा; नः--हमको; वसु--उपज |
राजा पृथु ने पृथ्वी को उत्तर दिया: हे पृथ्वी, तुमने मेरी आज्ञा तथा नियमों का उल्लंघनकिया है।
तुमने हमारे द्वारा सम्पन्न यज्ञों में देवता के रूप में अपना अंश ग्रहण किया है, किन्तुबदले में पर्याप्त अन्न नहीं उत्पन्न किया।
इस कारण मैं तुम्हारा वध कर दूँगा।
"
यवसं जग्ध्यनुदिनं नैव दोग्ध्यौधसं पय: ।
तस्यामेवं हि दुष्टायां दण्डो नात्र न शस्यते ॥
२३॥
यवसम्--हरी घास; जग्धि--चरती हो; अनुदिनम्-- प्रतिदिन; न--कभी नहीं; एव--निश्चय ही; दोग्धि--देती हो; औधसम्--थन में; पय:--दूध; तस्यामू--जब एक गाय; एवम्--इस प्रकार; हि--निश्चय ही; दुष्टायामू--अपराधी होकर; दण्ड:--दण्ड,सजा; न--नहीं; अन्र--यहाँ; न--नहीं; शस्यते--उचित |
यद्यपि तुम नित्य ही हरी घास चरती हो, किन्तु तुम हमारे उपयोग के लिए अपने थन को दूधसे भरती नहीं हो।
चूँकि तुम जान-बूझ कर अपराध कर रही हो, अतः तुम्हारे द्वारा गाय का रूपधारण करने के कारण तुम्हें दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता।
"
त्वं खल्वोषधिबीजानि प्राक्सृष्टानि स्वयम्भुवा ।
न मुझस्यात्मरुद्धानि मामवज्ञाय मन्दधी: ॥
२४॥
त्वमू--तुम; खलु--निश्चय ही; ओषधि--जड़ी-बूटियों तथा अन्नों के; बीजानि--बीज; प्राक् --पूर्वकाल में; सृष्टानि--उत्पन्न;स्वयम्भुवा--ब्रह्मा द्वारा; न--नहीं; मुझ्लसि--देती हो; आत्म-रुद्धानि-- अपने भीतर छिपाये हुए; माम्--मुझको; अवज्ञाय--आज्ञा का पालन न करके; मन्द-धी:--अल्प बुद्धि वाली |
तुमने इस तरह अपनी बुद्धि गँवा दी है कि मेरी आज्ञा के होते हुए भी तुम जड़ी-बूटियों तथाअन्नों के बीज नहीं दे रही हो, जिन्हें पूर्वकाल में ब्रह्मा ने उत्पन्न किया था और जो तुम्हारे भीतरछिपे हुए हैं।
"
अमूषा क्षुत्परीतानामार्तानां परिदेवितम् ।
शमयिष्यामि मद्ठाणैर्भिन्नायास्तव मेदसा ॥
२५॥
अमूषाम्--उन सबों का; क्षुत्ू-परीतानाम्-- भूख से पीड़ितों का; आर्तानाम्-दुखियों का; परिदेवितम्--क्रन्दन, विलाप;शमयिष्यामि--शमन करूँगा; मत्-बाणै:--मेरे बाणों से; भिन्नाया:--खण्ड-खण्ड करके ; तब--तुम्हारे; मेदसा--मांस से ॥
अब मैं अपने बाणों से तुम्हारा खण्ड-खण्ड कर दूँगा और तुम्हारे मांस से श्लुधार्त नागरिकोंको, जो अन्न के अभाव में त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, सन्तुष्ट करूँगा।
इस प्रकार मैं अपने राज्य कीप्रजा का बिलखना दूर करूँगा।
"
पुमान्योषिदुत क्लीब आत्मसम्भावनोधम: ।
भूतेषु निरनुक्रोशो नृपाणां तद्धधोडबध: ॥
२६॥
पुमान्ू--पुरुष; योषित्--स्त्री; उत-- भी; क्लीब: --नपुंसक; आत्म-सम्भावन: -- अपने ही पोषण ही रुचि रखनेवाला;अधम:--नीच; भूतेषु--अन्य जीवात्माओं को; निरनुक्रोश:--बिना दया के, निर्दय; नृपाणाम्ू--राजाओं के लिए; तत्--उसका; वध:--वध करना, मारना; अवध:--न मारने के समान।
ऐसा कोई भी क्रूर व्यक्ति--चाहे वह पुरुष, स्त्री या नपुंसक हो--जो अपनी निजी भरण-पोषण में ही रूचि रखता है और दूसरे जीवों पर दया नहीं दिखाता, राजा द्वारा वध्य है।
ऐसा वधकभी भी वास्तविक वध नहीं माना जाता।
"
त्वां स्तब्धां दुर्मदां नीत्वा मायागां तिलशः शरैः ।
आत्मयोगबलेनेमा धारयिष्याम्यहं प्रजा: ॥
२७॥
त्वामू--तुम; स्तब्धाम्--अत्यन्त गर्वीली; दुर्मदाम्--उन्मत्त; नीत्वा--ऐसी दशा में ले जाकर; माया-गाम्--छद्म गाय;तिलश:--खण्ड-खण्ड; शरैः--अपने बाणों से; आत्म-- अपने; योग-बलेन--योगशक्ति से; इमाः--ये सब; धारयिष्यामि--धारण करूँगा; अहम्--मैं; प्रजाः:--सभी नागरिक या जीवात्माएँ।
तुम गर्व से अत्यन्त फूली हुई हो और प्रायः उन््मत सी हो गई हो।
इस समय तुमने अपनीयोगशक्ति से गाय का रूप धारण कर रखा है, तो भी मैं तुम्हें अनाज की दानों की भाँन्तिखण्ड-खण्ड कर दूँगा और अपने योग-बल से सारी जनता को धारण करूँगा।
"
एवं मन्युमयीं मूर्ति कृतान्तमिव बिश्रतम् ।
प्रणता प्राज्जलि: प्राह मही सञ्जातवेपथु; ॥
२८ ॥
एवम्--इस प्रकार; मन्यु-मयीम्--अत्यधिक क्रुद्ध; मूर्तिमू--रूप; कृत-अन्तम्--साक्षात् काल ( मृत्यु ), यमराज; इब--सहश;बिभ्रतम्--से युक्त; प्रणता--शरणागत; प्राज्ललि:--हाथ जोड़े; प्राह--कहा; मही--पृथ्वी ने; सज्ञात--उत्पन्न; वेपथु:--कम्पन।
इस समय पृथु महाराज ठीक यमराज जैसे बन गये और उनका सारा शरीर अत्यन्त क्रोधितप्रतीत होने लगा।
दूसरे शब्दों में, वे साक्षात् क्रोध लग रहे थे।
उनके शब्द सुनकर पृथ्वी काँपनेलगी।
उसने आत्म-समर्पण कर दिया और हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगी।
"
धरोवाचनमः परस्मै पुरुषाय माययाविन्यस्तनानातनवे गुणात्मने ।
नमः स्वरूपानुभवेन निर्धुत-द्रव्यक्रियाकारकविश्रमोर्मये ॥
२९॥
धरा--पृथ्वी; उवाच--बोली; नम:--मैं नमस्कार करती हूँ; परस्मै--सत्त्व को; पुरुषाय--पुरुष को; मायया--माया से;विन्यस्त--विस्तारित; नाना-- अनेक; तनवे--जिसके रूप; गुण-आत्मने--तीनों गुणों के स्त्रोत को; नम:--नमस्कार करती हूँ;स्वरूप--वास्तविक रूप का; अनुभवेन--समझ कर; निर्धुत-- अप्रभावित; द्र॒व्य--पदार्थ; क्रिया--कर्म; कारक--कर्ता;विभ्रम--मोह; ऊर्मये-- भवसागर की तरंगें।
पृथ्वी ने कहा : हे भगवन्, आपकी स्थिति दिव्य है और आपने अपनी माया के द्वारा तीनोंगुणों की अन्योन्य क्रिया से स्वयं को नाना रूपों तथा योनियों में विस्तारित कर रखा है।
अन्यकुछ स्वामियों से भिन्न आप सदैव दिव्य स्थिति में रहते हैं और भौतिक सृष्टि द्वारा प्रभावित नहींहोते जो विभिन्न भौतिक अन्योन्य क्रियाओं से प्रभावित है।
फलतः आप भौतिक कर्मों सेमोहग्रस्त नहीं होते।
"
येनाहमात्मायतनं विनिर्मिताधात्रा यतोयं गुणसर्गसड्ग्रह: ।
स एव मां हन्तुमुदायुधः स्वरा-डुपस्थितोन्यं शरणं कमाश्रये ॥
३०॥
येन--जिसके द्वारा; अहम्--मैं; आत्म-आयतनम्--समस्त जीवात्माओं का आश्रय; विनिर्मिता--बनाया गया; धात्रा--परमे श्वरद्वारा; यतः--कारण; अयम्--यह; गुण-सर्ग-सड्ग्रह:--विभिन्न भौतिक तत्त्वों का मेल; सः--वह; एव--निश्चय ही; माम्--मुझको; हन्तुमू--मारने के लिए; उदायुध:--हथियार सहित उद्यत; स्वराट्--पूर्णतया स्वतंत्र; उपस्थित:--मेरे समक्ष उपस्थित;अन्यमू-- अन्य; शरणम्--शरण; कम्--किसकी; आश्रये--शरण में जाऊँपृथ्वी ने आगे कहा : हे भगवन्ू, आप भौतिक सृष्टि के पूर्ण संचालक हैं।
आपने इस दृश्यजगत की तथा तीन गुणों की उत्पत्ति की है, अत: आपने मुझ पृथ्वी को बनाया है, जो समस्तजीवात्माओं की आश्रय है।
फिर भी हे भगवन्, आप परम स्वतंत्र हैं।
अब जबकि चूँकि आप मेरेसमक्ष उपस्थित होकर मुझे अपने हथियारों से मारने के लिए उद्यत हैं, आप मुझे बताएँ कि मैंकिसकी शरण गहूँ और मुझे शरण दे भी कौन सकता है?"
य एतदादावसूजच्चराचरंस्वमाययात्माश्रययावितर्क्यया ।
तयैव सोयं किल गोप्तुमुद्यतःकथ॑ नु मां धर्मपरो जिघांसति ॥
३१॥
यः--जो; एतत्--ये; आदौ--सृष्टि के आरम्भ में; असृजत्--उत्पन्न किया; चर-अचरम्--जड़ तथा जंगम जीव; स्व-मायया--अपनी शक्ति से; आत्म-आश्रयया--अपने ही आश्रय में शरण प्राप्त; अवितर्क्यया--अकल्पनीय; तया--उसी माया से; एव--निश्चय ही; सः--वह; अयम्--यह राजा; किल--निश्चय ही; गोप्तुम् उद्यतः--शरण देने के लिए तैयार; कथम्--कैसे; नु--तब; मामू-- मुझको; धर्म-परः--धर्मपालक; जिघांसति--मारने की इच्छा करता है |
आपने सृष्टि के प्रारम्भ में अपनी अकल्पनीय शक्ति से इन समस्त जड़ तथा चेतन जीवों कोउत्पन्न किया है।
अब आप उसी शक्ति से जीवात्माओं की रक्षा करने के लिए उद्यत हैं।
आप धर्मके नियमों के परम रक्षक हैं।
आप मुझ गोरूप को मारने के लिए इतने उत्सुक क्यों हैं?"
नूनं बतेशस्य समीहितं जनै-स्तन्मायया दुर्जययाकृतात्मभि: ।
न लक्ष्यते यस्त्वकरोदकारयदू-योउनेक एक: परतश्च ईश्वर: ॥
३२॥
नूनमू--अवश्य ही; बत--निश्चय ही; ईशस्य-- भगवान् का; समीहितम्--कार्य, योजना; जनैः--मनुष्यों द्वारा; तत्ू-मायया--उनकी शक्ति से; दुर्जयया--जो दुर्जय है; अकृत-आत्मभि: --जो अधिक अनुभवी नहीं हैं; न--कभी नहीं; लक्ष्यते--देखे जातेहैं; यः--जो; तु--तब; अकरोत्-- उत्पन्न किया; अकारयत्--उत्पन्न कराया; यः--जो; अनेक:--कई; एकः--एक; परत:--अकल्पनीय शक्ति से; च--तथा; ईंश्वरः --नियन्ता |
हे भगवन्, यद्यपि आप एक हैं, तो भी अपनी अकल्पनीय शक्तियों से आपने अपने कोअनेक रूपों में विस्तारित कर रखा है।
आपने इस ब्रह्माण्ड की रचना ब्रह्मा के माध्यम से की है।
अतः आप प्रत्यक्षतः पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
जो लोग अधिक अनुभवी नहीं हैं, वे आपकेदिव्य कार्यो को नहीं समझ सकते क्योंकि वे व्यक्ति आपकी माया से आवृत हैं।
"
सर्गादि यो<स्यानुरुणद्ध्धि शक्तिभि-दरव्यक्रियाकारकचेतनात्मभि: ।
तस्मै समुन्नद्धनिरुद्धशक्तयेनमः परस्मै पुरुषाय वेधसे ॥
३३॥
सर्ग-आदि--उत्पत्ति, पालन तथा संहार; यः--जो; अस्य--इस भौतिक जगत का; अनुरुणर्द्धि--उत्पन्न करता है; शक्तिभि:--अपनी ही शक्ति से; द्रव्य-- भौतिक तत्त्व; क्रिया--इन्द्रियाँ; कारक--नियामक देवता; चेतना--बुद्धधि; आत्मभि:--अहंकार से;तस्मै--उसको; समुन्नद्ध--प्रकट; निरुद्ध-- अवरुद्ध, छिपी; शक्तये--इन शक्तियों का स्वामी; नमः--नमस्कार; परस्मै--दिव्य; पुरुषाय-- भगवान् को; वेधसे--समस्त कारणों के कारण।
हे भगवन्, आप अपनी शक्तियों द्वारा भौतिक तत्त्वों, इन्द्रियों, इनके नियामक देवों, बुद्धि,अहंकार तथा प्रत्येक वस्तु के आदि कारण हैं।
अपनी शक्ति से आप इस सम्पूर्ण हश्य जगत कीसृष्टि, पालन और संहार करते हैं।
आपकी ही शक्ति से प्रत्येक वस्तु कभी प्रकट होती है औरकभी प्रकट नहीं होती है।
अतः आप समस्त कारणों के कारण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
मैं आपकोसादर नमस्कार करती हूँ।
"
सब भवानात्मविनिर्मितं जगद्भूतेन्द्रियान््तःकरणात्मक॑ विभो ।
संस्थापयिष्यन्नज मां रसातला-दश्युजहाराम्भस आदिसूकरः ॥
३४॥
सः--वह; बै--निश्चय ही; भवान्--स्वयं; आत्म--अपने से; विनिर्मितम्ू--निर्मित; जगत्--जगत; भूत-- भौतिक तत्त्व;इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अन्तः-करण--मन, हृदय; आत्मकम्--से बना; विभो--हे स्वामी; संस्थापयिष्यन्ू--पालन करते हुए;अज--हे अजन्मा; माम्--मुझको; रसातलात्ू--रसातल नामक अधो लोक से; अभ्युजहार--बाहर निकाला; अम्भस:--जलसे; आदि--प्रारम्भिक; सूकर:--वराह |
हे भगवन्, आप अजन्मा हैं।
एक बार आपने आदि सूकर ( वराह ) रूप में मुझे ब्रह्माण्ड केनीचे के जल से बाहर निकाला था।
आपने संसार के पालन हेतु अपनी शक्ति से सभी भौतिकतत्त्वों, इन्द्रियों तथा मन की उत्पत्ति की है।
"
अपामुपस्थे मयि नाव्यवस्थिता:प्रजा भवानद्य रिरक्षिषु;: किल ।
स वीरमूर्ति: समभूद्धराधरोयो मां पयस्युग्रशरो जिघांससि ॥
३५॥
अपाम्--जल की; उपस्थे--सतह पर स्थित; मयि--मुझमें; नावि--नाव में; अवस्थिता:--खड़े हुए; प्रजा:--जीवात्माएँ;भवान्--आप; अद्य--जब; रिरक्षिषु:--रक्षा करने के इच्छुक; किल--निस्सन्देह; सः--वह; वीर-मूर्ति:--परम वीर के रूप में;समभूत्--हो गया; धरा-धर:--पृथ्वीलोक का रक्षक; यः--जो; मामू--मुझको; पयसि--दूध के लिए; उग्र-शरः--तीखेबाणों से; जिघांससि--मारना चाहते हो।
हे भगवन्, इस प्रकार आपने एक बार जल-राशि से मेरा उद्धार किया, जिससे आपका नामधराधर, अर्थात् पृथ्वी को धारण करनेवाला पड़ा।
तो भी आप इस समय, महान् वीर के रूप मेंअपने तीखे बाणों से मुझे मारने के लिए उद्यत हैं।
किन्तु मैं तो जल की नाव के सहृश हूँ जोप्रत्येक वस्तु को तैराये रखती है।
"
नूनं जनैरीहितमी श्वराणा-अस्मद्विथेस्तद्गुणसर्गमायया ।
न ज्ञायते मोहितचित्तवर्त्मभि-स्तेभ्यो नमो वीरयशस्करेभ्य: ॥
३६॥
नूनम्--निस्सन्देह; जनैः--जनता द्वारा; ईहितमू--कार्यकलाप, गतिविधियाँ; ईश्वराणाम्--नियन्ताओं के; अस्मत्-विधैः --मेरेसहश; तत्-- भगवान् के; गुण-- भौतिक प्रकृति के गुणों का; सर्ग--सृष्टि करनेवाली; मायया--अपनी शक्ति से; न--कभीनहीं; ज्ञायते--समझे जाते हैं; मोहित--मोहग्रस्त; चित्त--जिनके मन; वर्त्मभि:--रास्ता; तेभ्य:--उनको; नम:--नमस्कार;वीर-यशः-करेभ्य:--जो वीरों को भी ख्याति प्रदान करता है।
हे भगवन्, मैं भी आपकी त्रिगुणात्मक शक्ति से उत्पन्न हूँ, फलतः मैं आपकी गतिविधियों सेभ्रमित हूँ।
जब आपके भक्तों के कार्यकलाप समझ के परे हैं, तो फिर आपकी लीलाओं केविषय में क्या कहा जाये ? इस प्रकार प्रत्येक वस्तु हमें विरोधाभासी और आश्चर्यजनक लगती है।
"
अध्याय अठारह: पृथु महाराज पृथ्वी ग्रह का दोहन करते हैं
4.18मैत्रेय उवाचइत्थं पृथुमभिष्टूय रुषा प्रस्फुरिताधरम्।
पुनराहावनिर्भीता संस्तभ्यात्मानमात्मना ॥
१॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने आगे कहा; इत्थम्--इस प्रकार; पृथुम्--राजा पृथु को; अभिष्टूय--स्तुति करने के बाद; रुषा--क्रो धसे; प्रस्फुरित--काँपते हुए; अधरम्--उसके होंठ; पुनः--फिर; आह--उसने कहा; अवनि:ः --पृथ्वीलोक; भीता--डरी हुई;संस्तभ्य--स्थिर होकर; आत्मानम्--मन को; आत्मना--बुद्धि से
मैत्रय ने विदुर को सम्बोधित करते हुए आगे कहा : हे विदुर, जब पृथ्वी ने स्तुति पूरी करतीतब भी राजा पृथु शान्त नहीं हुए थे, उनके होंठ क्रोध से काँप रहे थे।
यद्यपि पृथ्वी डरी हुई थी,किन्तु उसने धैर्य धारण करके राजा को आश्वस्त करने के लिए इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया।
"
सन्नियच्छाभिभो मन्युं निबोध श्रावितं च मे ।
सर्वतः सारमादत्ते यथा मधुकरो बुध: ॥
२॥
सन्नियच्छ--कृपया शान्त करें; अभिभो--हे राजा; मन्युम्ू--क्रोध; निबोध--समझने का प्रयास करें; श्रावितम्ू--जो कुछ कहागया है; च--भी; मे--मेरे; सर्वतः--सभी जगह से; सारम्--सार; आदत्ते--ग्रहण करता है; यथा--जिस प्रकार; मधु-कर:--भौंरा; बुध:--बुद्धिमान पुरुष |
हे भगवन्, आप अपने क्रोध को पूर्णतः शान्त करें और जो कुछ मैं निवेदन कर रही हूँ, उसेधैर्यपूर्वक सुनें।
कृपया इस ओर ध्यान दें।
मैं भले ही दीन हूँ, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति सभी स्थानोंसे ज्ञान के सार को ग्रहण करता है, जिस प्रकार भौंरा प्रत्येक फूल से मधु संचित करता है।
"
अस्मिल्लोकेथवामुष्मिन्मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभि: ।
इृष्टा योगाः प्रयुक्ताश्न पुंसां श्रेयःप्रसिद्धये ॥
३॥
अस्मिनू--इस; लोके--जीवनकाल में; अथ वा--या; अमुष्मिन्ू--अगले जन्म में; मुनिभि:--मुनियों द्वारा; तत्त्त--सत्य;दर्शिभि:ः--दर्शन कर चुकने वालों के द्वारा; दृष्टा:--संस्तुत; योगा:--विधियाँ; प्रयुक्ताः--काम में लाई गईं; च-- भी; पुंसाम्ू--मनुष्यों के; श्रेय:--लाभ; प्रसिद्धये--प्राप्त करने में |
मानव समाज को इस जीवन में ही नहीं वरन् अगले जन्म में भी लाभ पहुँचाने के लिए बड़े-बड़े ऋषियों तथा मुनियों ने जनता की सम्पन्नता के अनुकूल विभिन्न विधियों की संस्तुति की है।
"
तानातिष्ठति यः सम्यगुपायान्पूर्वदर्शितान् ।
अवर: श्रद्धयोपेत उपेयान्विन्दतेडज्खसा ॥
४॥
तानू--उन; आतिष्ठति--पालन करता है; यः--जो कोई; सम्यक् --पूर्णत:; उपायान्--नियम ; पूर्व--प्राचीनकाल में;दर्शितानू--आदेशित; अवर: --अनुभव-हीन; श्रद्धया-- श्रद्धया से; उपेत: --स्थित; उपेयान्ू--कर्मफल; विन्दते--सुख भोगताहै; अज्ञसा--सरलता से |
जो कोई प्राचीन ऋषियों द्वारा बताये गये नियमों तथा आदेशों का पालन करता है, वहव्यावहारिक कार्यों में उनका उपयोग कर सकता है।
ऐसा व्यक्ति सरलता से जीवन तथा सुखोंका भोग कर सकता है।
"
ताननाहत्य योउविद्वानर्थानारभते स्वयम् ।
तस्य व्यभिच्रन्त्यर्धा आरब्धाश्न पुन: पुनः: ॥
५॥
तान्ू--उनकी; अनाहत्य--उपेक्षा करके; यः--जो कोई; अविद्वानू-- धूर्त; अर्थानू--योजनाएँ; आरभते--प्रारम्भ करता है;स्वयम्--स्वयं; तस्य--उसके ; व्यभिचरन्ति--सफल नहीं होते; अर्था:--कार्य; आरब्धा:--प्रयत्त किये गये; च--तथा; पुनःपुनः--बार-बार।
ऐसा मूर्ख पुरुष जो कोई मनोकल्पना द्वारा अपने निजी साधन तथा माध्यम तैयार करता हैऔर साधुओं द्वारा स्थापित दोषहीन आदेशों को मान्यता नहीं प्रदान करता, वह अपने प्रयासों मेंबार-बार असफल होता है।
"
पुरा सृष्टा ह्ञोषधयो ब्रह्मणा या विशाम्पते ।
भुज्यमाना मया दृष्टा असद्धिरधृतब्रते ४ ॥
६॥
पुरा--प्राचीनकाल में; सृष्टाः:--उत्पन्न; हि--निश्चय ही; ओषधय:--जड़ी-बूटियाँ तथा अन्न; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; या:--वे जो;विशाम्-पते--हे राजा; भुज्यमाना: -- भोग किया गया; मया-- मेरे द्वारा; दृष्टा:--देखा गया; असदर्द्धिः--अभक्तों द्वारा; अधृत-ब्रतैः:--समस्त आध्यात्मिक कृत्यों से शून्य |
हे राजन्, प्राचीनकाल में ब्रह्मा ने जिन बीजों, मूलों, जड़ी-बूटियों तथा अन्नों की सृष्टि कीथी वे अब उन अभक्तों द्वारा उपभोग किये जा रहे हैं, जो समस्त आत्म-ज्ञान से शून््य हैं।
"
अपालितानाहता च भवद्धिलोकपालकै: ।
चोरीभूतेथ लोकेहं यज्ञार्थेग्रसमोषधी: ॥
७॥
अपालिता--किसी रक्षा के बिना; अनाहता--उपेक्षित; च-- भी; भवद्धिः--आपके समान; लोक-पालकै: --अध्यक्षों याराजाओं द्वारा; चोरी-भूते--चोरों से आक्रान्त होकर; अथ--अतः ; लोके--इस संसार में; अहम्--मैंने; यज्ञ-अर्थै--यज्ञ सम्पन्नकरने के हेतु; अग्रसम्--छिपा ली हैं; ओषधी:--सभी जड़ी-बूटियाँ तथा अनाज
हे राजन, अभक्तों द्वारा अन्न तथा जड़ी-बूटियों का उपयोग तो किया ही जा रहा है, मेरी भीठीक से देखभाल नहीं की जा रही।
मेरी उन राजाओं द्वारा उपेक्षा हो रही है, जो उन चोरों कोदण्ड नहीं दे रहे जो अन्न का उपयोग इन्द्रियतुष्टि के लिए कर रहे हैं।
फलस्वरूप मैंने उन समस्तबीजों को छिपा लिया है, जो यज्ञ सम्पन्न करने के निमित्त हैं।
"
नूनं ता वीरुध: क्षीणा मयि कालेन भूयसा ।
तत्र योगेन दृष्टेन भवानादातुमहति ॥
८॥
नूनमू--अतः; ताः--वे; वीरुध:--ओषधियाँ, जड़ी-बूटियाँ तथा अन्न; क्षीणा:--जीर्ण-शीर्ण; मयि--मुझमें ; कालेन--समयके साथ; भूयसा--अत्यधिक; तत्र--अतः ; योगेन-- समुचित साधनों से; दृष्टेन--पूर्व आचार्यों द्वारा संस्तुत; भवानू--आप;आदातुम्--लेने के लिए; अहति--चाहिए।
मेरे भीतर दीर्घ काल से भीगे रहने के कारण सारे धान्य-बीज निश्चित रूप से जीर्ण हो चुकेहैं।
अत: आप तुरन्त आचार्यो अथवा शास्त्रों द्वारा बताई गई मानक विधि से उन्हें निकालने कीव्यवस्था करें।
"
वत्सं कल्पय मे वीर येनाहं वत्सला तव ।
धोक्ष्ये क्षरमयान्कामाननुरूपं च दोहनम् ॥
९॥
दोग्धारं च महाबाहो भूतानां भूतभावन ।
अन्नमीप्सितमूर्जस्वद्धगवान्वाउ्छते यदि ॥
१०॥
वत्सम्--बछड़ा; कल्पय--व्यवस्था करो; मे--मेरे लिए; वीर--हे वीर; येन--जिससे; अहम्--मैं; वत्सला--स्नेहपूर्ण; तव--तुम्हारा; धोक्ष्ये--पूरी करूँगी; क्षीर-मयान्ू--दूध के रूप में; कामान्--इच्छित वस्तुएँ; अनुरूपम्--विभिन्न जीवात्माओं के अनुसार; च--भी; दोहनम्ू--दोहनी, पात्र; दोग्धारम्ू--दुहनेवाला; च-- भी; महा-बाहो--हे सशक्त भुजाओंवाले; भूतानाम्ू--समस्त जीवात्माओं के; भूत-भावन--जीवात्माओं के रक्षक; अन्नम्--अन्न; ईप्सितम्--वांछित; ऊर्ज:-वत्--पोषणयुक्त;भगवानू्--पूज्य आप; वाउ्छते--इच्छा करते हैं; यदि--यदि।
हे परम वीर, जीवात्माओं के रक्षक, यदि आप जनता को प्रचुर अन्न देकर उनके कष्टों कानिवारण करना चाहते हैं और यदि आप मुझे दुह कर उनका पोषण करना चाहते हैं, तो इसकेलिए आपको उपयुक्त बछड़ा तथा दूध रखने के लिए दोहनी की व्यवस्था करनी होगी।
साथ हीदुहनेवाले का भी प्रबन्ध करना होगा।
चूँकि मैं अपने बछड़े के प्रति अत्यन्त वत्सला हूँगी, अतःमुझसे दुग्ध प्राप्त करने की आपकी मनोकामना पूरी हो जाएगी।
"
समां च कुरु मां राजन्देववृष्टे यथा पयः ।
अपर्तावषि भद्ठं ते उपावर्तेत मे विभो ॥
११॥
समाम्ू--समतल; च-- भी; कुरू-- करो; माम्-- मुझको; राजन्--हे राजा; देव-वृष्टम्--इन्द्र की कृपा से होनेवाली वर्षा;यथा--जिससे; पयः--जल; अप-ऋतौ--वर्षा ऋतु के न रहने पर; अपि-- भी; भद्रमू--कल्याण; ते--तुम तक; उपावर्तेत--यह रुक सकता है; मे--मुझ पर; विभो--हे भगवान् |
हे राजनू, मैं आपको बता रही हूँ कि आपको समस्त भूमण्डल की सतह समतल बनानीहोगी।
वर्षा ऋतु न रहने पर भी इससे मुझे सहायता मिलेगी।
राजा इन्द्र की कृपा से वर्षा होती है।
इससे वर्षा का जल भूमण्डल पर टिका रहेगा जिससे पृथ्वी सदैव आर्द्र (नम ) रहेगी और इसप्रकार से यह सभी तरह के उत्पादन के लिए शुभ होगा।
"
इति प्रियं हितं वाक्यं भुव आदाय भूपतिः ।
वत्सं कृत्वा मनुं पाणावदुहत्सकलौषधी: ॥
१२॥
इति--इस प्रकार; प्रियमू--अच्छे लगनेवाले; हितम्--उपयोगी, लाभप्रद; वाक्यम्--शब्द; भुवः--पृथ्वी के; आदाय--विचारकरके; भू-पतिः--राजा; वत्समू--बछड़ा; कृत्वा--बनाकर; मनुम्--स्वायंभुव मनु को; पाणौ--हाथों में; अदुहत्--दुहा;सकल--समस्त; ओषधी:--जड़ी-बूटियाँ तथा अन्नप
ृथ्वी के कल्याणकारी तथा प्रिय बचनों को राजा ने अंगीकार कर लिया।
तब उन्होंनेस्वायंभुव मनु को बछड़ा बनाया और गोरूप पृथ्वी से समस्त ओषधियों और अन्न का दोहन करके उन्हें अपनी अंजुली में भर लिया।
"
तथापरे च सर्वत्र सारमाददते बुधा: ।
ततोडन्ये च यथाकामं दुदुहुः पृुथुभाविताम् ॥
१३॥
तथा--उसी तरह; अपरे--अन्य; च--भी; सर्वत्र--सभी जगह; सारम्--रस, निचोड़; आददते--ग्रहण कर लिया; बुधा:--बुद्धिमान पुरुष; तत:ः--तत्पश्चात्; अन्ये-- अन्य लोग; च-- भी; यथा-कामम्--इच्छानुसार; दुदुहु:--दुह लिया; पृथु-भाविताम्--महाराज पृथु के वश में हुई पृथ्वी को |
अन्य लोगों ने, जो महाराज पृथु के ही समान बुद्धिमान थे, पृथ्वी में से सार निकाल लिया।
निस्सन्देह, प्रत्येक व्यक्ति ने राजा पृथु के पद-चिह्नों का अनुसरण करते हुए इस अवसर का लाभ उठाया और पृथ्वी से अपनी मनोवाउिछत वस्तुएँ प्राप्त कीं।
"
ऋषयो दुदुहुर्देवीमिन्द्रियेष्वथ सत्तम ।
वत्सं बृहस्पतिं कृत्वा पयएछन्दोमयं शुच्चि ॥
१४॥
ऋषय:--ऋषियों ने; दुदुहुः--दुहा; देवीम्--पृथ्वी को; इन्द्रियेषु--इन्द्रियों में; अथ--तब; सत्तम--हे विदुर; वत्सम्--बछड़ा;बृहस्पतिम्--बृहस्पति मुनि को; कृत्वा--करके; पयः--दूध; छन्दः-मयम्--वैदिक स्तोत्रों के रूप में; शुचि--शुद्ध |
समस्त ऋषियों ने बृहस्पति को बछड़ा बनाया और इन्द्रियों को दोहनी।
उन्होंने शब्द, मनतथा श्रवण को पवित्र करनेवाले समस्त प्रकार के वैदिक ज्ञान को दुह लिया।
"
कृत्वा वत्सं सुरगणा इन्द्रं सोममदूदुहन् ।
हिरण्मयेन पात्रेण वीर्यमोजो बल॑ पयः: ॥
१५॥
कृत्वा--बनाकर; वत्समू--बछड़ा; सुर-गणा: --देवताओं ने; इन्द्रमू-स्वर्ग के राजा इन्द्र को; सोमम्--अमृत; अदूदुहन्--दुहलिया; हिरण्मयेन--सोने के; पात्रेण--पात्र से; वीर्यमू--मानसिक शक्ति; ओज:--इन्द्रियों की शक्ति; बलम्--शारीरिक शक्ति;पय:-दूध |
समस्त देवताओं ने स्वर्ग के राजा इन्द्र को बछड़ा बनाया और उन्होंने पृथ्वी में से सोम रसअर्थात् अमृत दुह लिया।
इस प्रकार वे मानसिक, शारीरिक तथा ऐन्द्रिय शक्ति में अत्यन्तबलशाली हो गये।
"
दैतेया दानवा वत्सं प्रह्मदमसुरर्षभम् ।
विधायादूदुहन्क्षीरमय:पात्रे सुरासवम् ॥
१६॥
दैतेया:--दिति के पुत्र; दानवा:--असुरों ने; वत्सम्--बछड़ा; प्रह्मदम्-- प्रहाद महाराज को; असुर--दानव; ऋषभम्-- प्रधान;विधाय--बनाकर; अदूदुहन्--दुह लिया; क्षीरम्--दूध; अयः--लोह; पात्रे--पात्र में; सुरा--शराब; आसवम्--खमीर सेबनाया गया द्रव यथा यवसुरा |
दिति के पुत्रों तथा असुरों ने असुर-कुल में उत्पन्न प्रहाद महाराज को बछड़ा बनाया औरउन्होंने अनेक प्रकार की सुरा तथा आसव निकाल कर उसे लोहे के पात्र में रख दिया।
"
गन्धर्वाप्सरसो<थुक्षन्पात्रे पद्मामये पय: ।
वल्सं विश्वावसुं कृत्वा गान्धर्व मधु सौभगम् ॥
१७॥
गन्धर्व--गन्धर्व लोक के वासी; अप्सरस:--अप्सरा लोक के वासी; अधुक्षन्--दुह लिया; पात्रे--पात्र में; पद्य-मये--कमलके; पयः--दूध; वत्सम्ू--बछड़ा; विश्वावसुम्--विश्वावसु को; कृत्वा--बना कर; गान्धर्वमू--गीत; मधु--मीठा, मधुर;सौभगम्--सुन्दरता।
गन्धर्व लोक तथा अप्सरालोक के निवासियों ने विश्वावसु को बछड़ा बनाया और कमलपुष्प के पात्र में दूध दुह्ा ।
इस दूध ने मधुर संगीत-कला तथा सुन्दरता का रूप धारण किया।
"
वत्सेन पितरोर्यम्णा कव्यं क्षीरमधुक्षत ।
आमपात्रे महाभागा: श्रद्धया श्राद्धदेवता: ॥
१८॥
वत्सेन--बछड़े से; पितर:--पितृलोक के वासी; अर्यम्णा--पितृलोक के देव अर्यमा से; कव्यम्--पितरों को दी जानेवालीबलि; क्षीरम्--दूध; अधुक्षत--निकाला; आम-पात्रे--मिट्टी के कच्चे पात्र में; महा-भागा:--अत्यन्त भाग्यशाली; श्रद्धया--अत्यन्त श्रद्धा समेत; श्राद्ध-देवता:--मृत परिजनों के सम्मान में किये जानेवाले श्राद्ध कर्म के मुख्य देवता
श्राद्ध कर्म के मुख्य देवता एवं पितुलोक के भाग्यशाली निवासियों ने अर्यमा को बछड़ाबनाया।
उन्होंने अत्यन्त श्रद्धा सहित मिट्टी के कच्चे पात्र में कव्य ( पितरों को दी जानेवालीबलि ) दुह लिया।
"
प्रकल्प्य वत्सं कपिल सिद्धाः सट्डल्पनामयीम् ।
सिद्धि नभसि विद्यां च ये च विद्याधरादय: ॥
१९॥
प्रकल्प्य--नियुक्त करके ; वत्सम्ू--बछड़ा; कपिलम्--कपिल मुनि को; सिद्धाः:--सिद्धलोक के वासी; सट्जलूल्पना-मयीम्--इच्छा से आगे बढ़नेवाली; सिद्द्धिमू--योगशक्तियाँ; नभसि--आकाश में; विद्यामू--ज्ञान; च-- भी; ये-- जो; च-- भी;विद्याधर-आदय:--विद्याधर लोक के वासी तथा अन्य |
तत्पश्चात् सिद्धलोक तथा विद्याधरलोक के वासियों ने कपिल मुनि को बछड़ा बनाया औरसम्पूर्ण आकाश को पात्र बना कर अणिमादि सारी योगशक्तियाँ दुह लीं।
निस्सन्देह, विद्याधरलोक के वासियों ने आकाश में उड़ने की कला प्राप्त की।
"
अन्ये च मायिनो मायामन्तर्धानाद्भुतात्मनाम् ।
मयं प्रकल्प्य वत्सं ते दुदुहुर्धारणामयीम् ॥
२०॥
अन्ये-- अन्य; च-- भी; मायिन:--मायावी जादूगर; मायाम्--मायावी शक्तियाँ; अन्तर्धान-- अहृश्य होने; अद्भुत--आश्चर्यजनक; आत्मनाम्--शरीर का; मयम्--मय नामक असुर को; प्रकल्प्य--बनाकर; वत्सम्--बछड़ा; ते-- उन्होंने;दुदुहः--दुहा; धारणामयीम्--इच्छा से उत्पन्न होनेवाली किम्प
ुरुष-लोक के वासियों ने भी मय दानव को बछड़ा बनाया और उन्होंने योगशक्तियाँदुह लीं जिनसे मनुष्य किसी दूसरे की दृष्टि से तुर्तत ओझल हो सकता है और अन्य किसी रूप मेंपुनः प्रकट हो सकता है।
"
यक्षरक्षांसि भूतानि पिशाचा: पिशिताशना: ।
भूतेशवत्सा दुदुहुः कपाले क्षतजासवम् ॥
२१॥
यक्ष--यक्षगण ( कुबेर के वंशज ); रक्षांसि--राक्षसगण ( मांसभक्षी ); भूतानि-- भूतों; पिशाचा: --पिशाचों ने; पिशित-अशना:--मांस खाने के अभ्यस्त; भूतेश--रूद्र रूपी शिव-अवतार; वत्सा:--बछड़ा; दुदुहुः --दुह लिया; कपाले--कपाल केपात्र में; क्षत-ज--रक्त; आसवम्--खमीर उठा पेय |
" तब मांसाहार के आदी यश्षों, राक्षसों, भूतों तथा पिशाचों ने श्री शिव के अवतार रुद्र( भूतनाथ ) को बछड़ा बनाया और रक्त से निर्मित पेय पदार्थों को दुहकर उन्हें कपालों से बनेपात्रों में रखा।
तथाहयो दन्दशूकाः सर्पा नागाश्न तक्षकम् ।
विधाय वत्सं दुदुहुर्बिलपात्रे विषं पय: ॥
२२॥
तथा--उसी प्रकार; अहयः--बिना फनवाले साँप; दन्दशूका:--बिच्छू; सर्पाः--फनवाले साँप; नागा:--बड़े सर्प; च--तथा;तक्षकम्--सर्पो के प्रमुख, तक्षक को; विधाय--बनाकर; वत्सम्--बछड़ा; दुदुहुः--दुह लिया; बिल-पात्रे--साँप के बिल रूपीपात्र में; विषम्--विष; पय: --दूध के रूप में ॥
तत्पश्चात् फनवाले तथा बिना फनवाले साँपों, नागों, बिच्छुओं तथा अन्य विषैले पशुओं नेपृथ्वी के दूध के रूप में अपना-अपना विष दुह लिया और इस विष को साँप के बिलों में रखदिया।
उन्होंने तक्षक को बछड़ा बनाया था।
"
'पशवो यव्सं क्षीरं वत्सं कृत्वा च गोवृषम् ।
अर्ण्यपात्रे चाधुक्षन्मृगेन्द्रेण च दंष्टिण: ॥
२३॥
क्रव्यादा: प्राणिनः क्रव्यं दुदुहुः स्वे कलेवरे ।
सुपर्णवत्सा विहगाश्चरं चाचरमेव च ॥
२४॥
'पशव:--पशु; यवसम्--हरी घास को; क्षीरमू--दूध; वत्सम्--बछड़ा; कृत्वा--बनाकर; च-- भी; गो-वृषम्--शिवजी कावाहन, बैल; अरण्य-पात्रे--जंगल रूपी पात्र में; च-- भी; अधुक्षन्--दुहा; मृग-इन्द्रेण --सिंह के द्वारा; च--तथा; दंष्टिण: --तेज दाँतोंवाले पशु; क्रव्य-अदा: --कच्चा मांस खानेवाले पशु; प्राणिन:--जीवात्माएँ; क्रव्यम्--मांस; दुदुहः--दुह लिया;स्वे--अपने; कलेवरे-- अपने शरीर रूपी पात्र में; सुपर्ण--गरुड़ रूपी; वत्सा:--बछड़ा; विहगा: --पक्षी; चरम्ू--चरजीवात्माएँ; च-- भी; अचरम्--अचर ( जड़ ) जीवात्माएँ; एब--निश्चय ही; च-- भी |
गायों जैसे चौपाये पशुओं ने शिव के वाहन बैल को बछड़ा और जंगल को दुहने का पात्रबनाया।
इस प्रकार उन्हें खाने के लिए ताजी हरी घास मिल गई।
बाघों जैसे हिंस्त्र पशुओं ने सिंहको बछड़ा बनाया और इस प्रकार वे दूध के रूप में मांस प्राप्त कर सके ।
पक्षियों ने गरुड़ कोवत्स बनाया और पृथ्वी से चर कीटों तथा अचर घासों तथा पौधों के रूप में दूध प्राप्त किया।
"
वटवत्सा वनस्पतय: पृथग्रसमयं पयः ।
गिरयो हिमवद्वत्सा नानाधातून्स्वसानुषु ॥
२५॥
वट-वत्सा:--बरगद के वृक्ष को बछड़ा बनाकर, बट रूपी बछड़ा; वन:-पतय:--वृक्षों ने; पृथक्--विभिन्न; रस-मयम्--रसोंके रूप में; पयः--दूध; गिरय:--पर्वत; हिमवतू-वत्सा:--हिमालय रूपी बछड़ा; नाना--विविध; धातून्ू-- धातुएँ; स्व--अपनी; सानुषु--चोटियों पर।
वृक्षों ने बरगद के पेड़ को बछड़ा बनाकर अनेक सुस्वादु रसों को दूध के रूप में दुह लिया।
पर्वतों ने हिमालय को बछड़ा तथा पर्वत श्रृंगों को पात्र बनाकर नाना प्रकार की धातुएँ दुहीं।
"
सर्वे स्वमुख्यवत्सेन स्वे स्वे पात्रे पृथक्पय: ।
सर्वकामदुघां पृथ्वीं दुदुहुः पृथुभाविताम् ॥
२६॥
सर्वे--सभी ने; स्व-मुख्य--अपने-अपने प्रधानों द्वारा; वत्सेन--बछड़े के रूप में; स्वे स्वे-- अपने-अपने; पात्रे--पात्रों में;पृथक्-भिन्न -भिन्न; पयः--दूध; सर्व-काम--सभी वांछित वस्तु; दुघाम्ू-दूध के रूप में; पृथ्वीम्--पृथ्वीलोक को;दुदुहः--दुहा; पृथु-भाविताम्--राजा पृथु द्वारा शासित |
पृथ्वीलोक ने सबों को अपना-अपना भोजन प्रदान किया है।
राजा पृथु के काल में, पृथ्वीपूर्ण रूप से राजा के अधीन थी।
अतः पृथ्वी के सभी वासी अपना-अपना बछड़ा उत्पन्न करकेतथा विभिन्न प्रकार के पात्रों में अपने विशिष्ट प्रकार के दूध को रख कर अपना भोजन प्राप्त करसके।
"
एवं पृथ्वादय: पृथ्वीमन्नादा: स्वन्नमात्मनः ।
दोहवत्सादिभेदेन क्षीरभेदं कुरूद्रह ॥
२७॥
एवम्--इस प्रकार; पृुथु-आदय:--राजा पृथु तथा अन्यों ने; पृथ्वीम्--पृथ्वी को; अन्न-अदा:--अन्न के इच्छुक समस्त जीव;सु-अन्नम्ू--अपना वांछित खाद्य पदार्थ; आत्मन:-- अपने निर्वाह हेतु; दोह--दुहने के लिए; वत्स-आदि--बछड़े, पात्र तथादुहनेवाले के द्वारा; भेदेन--विभिन्न; क्षीर--दूध; भेदम्--विभिन्न; कुरु-उद्दद--हे कुरुओं में प्रधान
हे कुरुश्रेष्ठ विदुर जी, इस प्रकार राजा पृथु तथा अन्नभोजियों ने विभिन्न प्रकार के बछड़ेउत्पन्न किये और अपने-अपने खाद्य-पदार्थों को दुह लिया।
इस तरह उन्होंने विभिन्न प्रकार केखाद्य-पदार्थ प्राप्त किये जो दूध का प्रतीक हैं।
"
ततो महीपतिः प्रीतः सर्वकामदुघां पृथु: ।
दुहितृत्वे चकारेमां प्रेम्णा दुहितृबत्सलः ॥
२८ ॥
ततः--तत्पश्चात्; मही-पति:--राजा; प्रीत:--प्रसन्न होकर; सर्व-काम--समस्त इच्छाएँ; दुघाम्ू--दूध के रूप में उत्पन्न'करनेवाला; पृथु:--राज पृथु; दुहितृत्वे--अपनी पुत्री मानकर; चकार--किया; इमाम्--पृथ्वी को; प्रेम्णा--प्रेम के कारण;दुहितृ-वत्सलः --अपनी पुत्री के प्रति स्नेहमय ।
तत्पश्चात् राजा पृथु पृथ्वी से अत्यन्त प्रसन्न हो गये क्योंकि उसने विभिन्न जीवात्माओं के लिएप्रचुर मात्रा में भोजन की पूर्ति की।
इस प्रकार पृथ्वी के प्रति राजा स्नेहिल हो उठा, मानो बहउसकी पुत्री हो।
"
चूर्णयन्स्वधनुष्कोट्या गिरिकूटानि राजराट् ।
भूमण्डलमिदं वैन्य: प्रायश्चक्रे समं विभु: ॥
२९॥
चूर्णयन्ू--खण्ड-खण्ड करते हुए; स्व--अपने; धनु:-कोट्या--धनुष के बल से; गिरि--पर्वतों के; कूटानि--शिखरों को;राज-राट्ू--सम्राट; भू-मण्डलम्--समस्त पृथ्वी; इदम्--यह; वैन्य:--वेन के पुत्र ने; प्रायः--प्राय: ; चक्रे --कर दिया;समम्--समतल; विभु:--शक्तिमान |
फिर राजधिराज महाराज पृथु ने अपने बाण की शक्ति से पर्वतों को तोड़ कर भूमण्डल केसमस्त ऊबड़-खाबड़ स्थानों को समतल कर दिया।
उनकी कृपा से भूमण्डल की पूरी सतहप्रायः सपाट हो गई।
"
अथास्मिन्भगवान्वैन्य: प्रजानां वृत्तिद: पिता ।
निवासान्कल्पयां चक्रे तत्र तत्र यथाहत: ॥
३०॥
अथ--इस प्रकार; अस्मिन्--इस पृथ्वी पर; भगवानू-- श्रीभगवान्; वैन्य:--वेन का पुत्र; प्रजानाम्--प्रजा का; वृत्तिदः --जीविका देनेवाला; पिता--पिता; निवासानू--आवास, वास-स्थान; कल्पयाम्--उपयुक्त; चक्रे --बनाया; तत्र तत्र--जहाँ-तहाँ;यथा--जिस प्रकार; अर्हतः--वांछित, उपयुक्त |
राजा पृथु अपनी सारी प्रजा के लिए पिता तुल्य था।
वह उन्हें उचित जीविका देने में प्रत्यक्ष रूप से व्यस्त था।
उसने भूमण्डल की सतह को समतल करके जितने भी निवास-स्थानों कीआवश्यकता थी उनके लिए विभिन्न स्थल नियत कर दिये।
"
ग्रामान्पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च ।
घोषान्व्रजान्सशिबिरानाकरान्खेटखर्वटान् ॥
३१॥
ग्रामानू--गाँव; पुरः--नगर; पत्तनानि--बस्तियाँ; दुर्गाणि--किले; विविधानि--नाना प्रकार के; च-- भी; घोषान्ू--ग्वालों कीबस्तियाँ; ब्रजानू--गोशालाएँ; स-शिबिरान्--छावनियाँ; आकरान्--खानें; खेट--खेतिहरों की बस्तियाँ; खर्वटान्ू--पहाड़ीगाँव
इस प्रकार राजा ने अनेक प्रकार के गाँवों, बस्तियों, नगरों की स्थापना की और अनेककिले, ग्वालों की बस्तियाँ, पशुशालाएँ, छावनियाँ, खानें, खेतिहर बस्तियाँ तथा पहाड़ी गाँवबनवाये।
"
प्राक्पूथोरिह् नैवैषा पुरग्रामादिकल्पना ।
यथासुखं वसन्ति सम तत्र तत्राकुतोभया: ॥
३२॥
प्राकु-पूर्व; पृथो:--राजा पृथु के; इह--इस पृथ्वी पर; न--कभी नहीं; एब--निश्चय ही; एघा--यह; पुर--नगरों की; ग्राम-आदि--गाँवों आदि की; कल्पना--नियोजित व्यवस्था; यथा--जिस प्रकार; सुखम्--सुविधाजनक; वसन्ति स्म--रहते थे;तत्र तत्र--जहाँ तहाँ; अकुत:-भयाः--बिना हिचक के, बेखटके ।
राजा पृथु के शासन के पूर्व विभिन्न नगरों, ग्रामों, गोचरों इत्यादि की सुनियोजित व्यवस्था नथी।
सब कुछ तितर-बितर था और हर व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार अपना वास-स्थानबनाता था।
किन्तु राजा पृथु के काल से नगरों तथा ग्रामों की योजनाएँ बनने लगीं।
"
अध्याय उन्नीस: राजा पृथु का एक सौ घोड़ों का बलिदान
4.19मेत्रेय उवाचअथादीक्षत राजा तु हयमेधशतेन सः ।
ब्रह्मावर्ते मनोः क्षेत्रे यत्र प्राची सरस्वती ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; अथ--तत्पश्चात्; अदीक्षत--शुरू किया; राजा--राजा ने; तु--तब; हय--घोड़ा, अश्व; मेध--यज्ञ; शतेन--एक सौ सम्पन्न करने के लिए; सः--वह; ब्रह्मावर्ते--ब्रह्मावर्त नाम से विख्यात; मनो:--स्वायंभुव मनु के; क्षेत्रे--भूभाग में; यत्र--जहाँ; प्राची --पूर्व की ओर; सरस्वती--सरस्वती नदी |
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, राजा पृथु ने उस स्थान पर जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखीहोकर बहती है, एक सौ अश्वमेध यज्ञ आरम्भ किए।
यह भूखण्ड ब्रह्मावर्त कहलाता है, जोस्वायंभुव मनु द्वारा शासित था।
"
'तदभिप्रेत्य भगवान्कर्मातिशयमात्मनः ॥
शतक्रतुर्न ममृषे पृथोर्यज्ञमहोत्सवम् ॥
२॥
तत् अभिप्रेत्य--यह विचार कर; भगवान्--परमशक्तिशाली; कर्म-अतिशयम्--सकाम कर्मो में बाजी मारनेवाला; आत्मन:--स्व; शत-क्रतु:--इन्द्र, जिसने एक सौ यज्ञ किये थे; न--नहीं; ममृषे--सहन कर सका; पृथो:--राजा पृथु का; यज्ञ-यज्ञ का;महा-उत्सवम्--महोत्सव |
जब स्वर्ग के राजा सर्वाधिक शक्तिशाली इन्द्र ने यह देखा तो उसने विचार किया कि सकामकर्मो में राजा पृथु उससे बाजी मारने जा रहा है।
अतः वह राजा पृथु द्वारा किये जा रहे यज्ञ-महोत्सव को सहन न कर सका।
"
यत्र यज्ञपतिः साक्षाद्धगवान्हरिरी श्वर: ।
अन्वभूयत सर्वात्मा सर्वलोकगुरु: प्रभु: ॥
३॥
यत्र-- जहाँ; यज्ञ-पति:--समस्त यज्ञों का भोक्ता; साक्षात्- प्रत्यक्ष; भगवान्-- भगवान्; हरिः--विष्णु ने; ईश्वर: --परमनियन्ता; अन्वभूयत--दर्शन दिया; सर्व-आत्मा-- प्रत्येक का परमात्मा; सर्व-लोक-गुरु:--समस्त लोकों का स्वामी अथवा हरएक का शिक्षक; प्रभुः--स्वामी |
भगवान् विष्णु हर प्राणी के हृदय में परमात्मा-रूप में स्थित हैं।
वे समस्त लोकों के स्वामीतथा समस्त यज्ञ-फलों के भोक्ता हैं।
वे राजा पृथु द्वारा किये गये यज्ञों में साक्षात् उपस्थित थे।
"
अन्वितो ब्रह्मशर्वाभ्यां लोकपालै: सहानुगैः ।
उपगीयमानो गयन्धर्वर्मुनिभिश्चाप्सरोगणै: ॥
४॥
अन्वित:--साथ में; ब्रह्म--ब्रह्मा द्वारा; शर्वाभ्यामू-- तथा शिव द्वारा; लोक-पालै:--विभिन्न लोकों के प्रधानों द्वारा; सहअनुगैः-- अपने-अपने अनुचरों के साथ; उपगीयमान:--प्रशंसित होकर; गन्धर्वैं:--गन्धर्वलोक के वासियों द्वारा; मुनिभि: --मुनियों द्वारा; च-- भी; अप्सर:ः-गणै:--अप्सरालोक के वासियों द्वारा
जब भगवान् विष्णु यज्ञस्थल में प्रकट हुए तो उनके साथ ब्रह्माजी, शिवजी तथा सभीलोकपाल एवं उनके अनुचर भी थे।
जब वे वहाँ प्रकट हुए तो गन्धर्वलोक-निवासियों, ऋषियोंतथा अप्सरा लोक के निवासियों सभी ने मिलकर प्रशंसा की।
"
सिद्धा विद्याधरा दैत्या दानवा गुह्मकादयः ।
सुनन्दनन्दप्रमुखा: पार्षदप्रवरा हरे: ॥
५॥
सिद्धा:--सिद्ध लोक के वासी; विद्याधरा:--विद्याधर लोक के वासी; दैत्या:--दिति के वंशज, दैत्य; दानवा:--असुर; गुह्क-आदय:ः --यक्ष इत्यादि; सुनन्द-नन्द-प्रमुखा: --सुनन्द तथा नन्द इत्यादि भगवान् के मुख्य पार्षद; पार्षद--पार्षद, सहयोगी;प्रवरा:--प्रतिष्ठित; हरेः -- भगवान् के
भगवान् के साथ में सिद्धलोक तथा विद्याधर लोक के वासी, दिति की समस्त सन्तानें,असुर तथा यक्षगण थे।
उनके साथ सुनन्द तथा नन्द इत्यादि उनके प्रमुख पार्षद भी थे।
"
कपिलो नारदो दत्तो योगेशा: सनकादय: ।
तमन्वीयुर्भागवता ये च तत्सेवनोत्सुका: ॥
६॥
कपिल:--कपिल मुनि; नारद: --नारद ऋषि; दत्त:--दत्तात्रेय; योग-ईशा:--योगशक्ति के स्वामी; सनक-आदय: --सनकइत्यादि; तम्-- भगवान् विष्णु; अन्बीयु:--पीछे-पीछे; भागवता:--परम भक्तजन; ये--सभी जो; च-- भी; ततू-सेवन-उत्सुका:--भगवान् की सेवा के लिए सदैव उत्सुक रहने वाले।
भगवान् विष्णु के साथ भगवान् की सेवा में सदैव लगे रहनेवाले परम भक्तगण अर्थात्कपिल, नारद तथा द्त्तात्रेय नामक ऋषि और साथ ही साथ सनत्कुमार इत्यादि योगेश्वर उस यज्ञमें सम्मिलित हुए।
"
यत्र धर्मदुघा भूमि: सर्वकामदुघा सती ।
दोग्धि स्माभीप्सितानर्थान््यजमानस्यथ भारत ॥
७॥
यत्र--जहाँ; धर्म-दुघा--धर्म हेतु प्रचुर दूध को उत्पन्न करनेवाली; भूमि: --पृथ्वी; सर्व-काम--समस्त इच्छाएँ; दुघा--दूध रूपमें प्रदान करनेवाली; सती--गाय; दोग्धि स्म-- पूर्ण किया; अभीप्सितान्ू--इच्छाओं को; अर्थान्--वस्तुएँ; यजमानस्थ--यज्ञकर्ता के; भारत--हे विदुर
हे बिदुर, उस महान् यज्ञ में सारी भूमि दूध देनेवाली कामधेनु बन गई और इस प्रकार यज्ञसम्पन्न करने से जीवन की समस्त आवश्यकताएँ पूरी होने लगीं।
"
ऊहुः सर्वरसान्नद्यः क्षीरदध्यन्नगोरसान् ।
तरवो भूरिवर्ष्पाण: प्रासूयन्त मधुच्युत: ॥
८॥
ऊहुः--लाती थी; सर्व-रसान्ू--सभी प्रकार के स्वाद; नद्यः--नदियाँ; क्षीर--दूध; दधि--दही; अन्न--तरह-तरह के अनाज;गो-रसान्--अन्य दूध की वस्तुएँ; तरव: --वृक्ष; भूरि--अधिक; वर्ष्षाण:--देहधारी; प्रासूयन्त--फल देने लगे; मधु-च्युत:--मधु चुवाते हुए
बहती हुई नदियाँ समस्त प्रकार के स्वाद--मीठा, खट्टा, चटपटे इत्यादि--प्रदान करने लगींतथा बड़े-बड़े वृक्ष प्रचुर मात्रा में फल तथा मधु देने लगे।
गायें पर्याप्त हती घास खाकर प्रभूतमात्रा में दूध, दही, घी तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ देने लगीं।
"
सिन्धवो रत्ननिकरानिगरयोन्न॑ चतुर्विधम् ।
उपायनमुपाजहु: सर्वे लोका: सपालकाः ॥
९॥
सिन्धव: --समुद्र; रल-निकरान्--रत्नों के समूह; गिरय:--पर्वत; अन्नम्--खाद्य वस्तुएँ; चतु:-विधम्--चारों प्रकार की;उपायनम्--उपहार; उपाजहु: --ले आय; सर्वे--समस्त; लोका:--सभी लोकों के मनुष्य; स-पालका:--अपने-अपने लोक-पालों सहित।
सामान्य जनों तथा समस्त लोकों के प्रमुख देवों ने राजा पृथु को तरह-तरह के उपहारलाकर प्रदान किये।
समुद्र अमूल्य रत्नों से तथा पर्वत रसायनों एवं उर्वरकों से पूर्ण थे।
चारोंप्रकार के खाद्य पदार्थ प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होते थे।
"
इति चाधोक्षजेशस्य पृथोस्तु परमोदयम् ।
असूयन्भगवानिन्द्र: प्रतिघितमचीकरत् ॥
१०॥
इति--इस प्रकार; च-- भी; अधोक्षज-ईशस्य--अधोक्षज को पूज्य भगवान् माननेवाले; पृथो:--राजा पृथु का; तु--तब;परम--सर्वोच्च; उदयम्--ऐश्वर्य; असूयन्--ईर्ष्यावश; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; इन्द्र: --स्वर्ग के राजा ने; प्रतिघातम्--विघ्न; अचीकरत्--चेष्टा की
राजा पृथु पुरुषोत्तम भगवान् पर आश्ित थे जिन्हें अधोक्षज कहा जाता है।
राजा पृथु ने इतनेयज्ञ सम्पन्न किये थे कि ईश्वर की कृपा से उनका अत्यधिक उत्कर्ष हुआ था।
किन्तु उनका यहऐश्वर्य स्वर्ग के राजा इन्द्र से न सहा गया और उसने इसमें विघ्न डालने की चेष्टा की।
"
चरमेणाश्वमेधेन यजमाने यजुष्पतिम् ।
वैन्ये यज्ञपशुं स्पर्धन्नपोवाह तिरोहित: ॥
११॥
चरमेण--अन्तिम; अश्व-मेधेन--अश्वमेध यज्ञ द्वारा; यजमाने--यज्ञ करते समय; यजु:-पतिम्--यज्ञ के स्वामी, विष्णु को प्रसन्नकरने के लिए; वैन्ये--राजा बेन के पुत्र; यज्ञ-पशुम्--यज्ञ में बलि होनेवाला पशु; स्पर्धन्--ईर्ष्यावश; अपोवाह--चुरा लिया;तिरोहित:--अहृश्य |
जिस समय महाराज पृथु अन्तिम अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे, तो इन्द्र ने अहश्य होकर यज्ञ काघोड़ा चुरा लिया।
उसने राजा पृथु के प्रति ईर्ष्या भाव से ही ऐसा किया।
"
तमत्रिर्भगवानै क्षत्त्वरमाणं विहायसा ।
आमुक्तमिव पाखण्डं योधर्मे धर्मविभ्रम: ॥
१२॥
तम्--राजा इन्द्र को; अत्रि:--अत्रि मुनि; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; ऐश्षत्--देख सका; त्वरमाणम्--तेजी से बढ़ते हुए;विहायसा--आकाश् में; आमुक्तम् इब--मुक्त पुरुष की भाँति; पाखण्डम्--पाखण्डी, धूर्त; यः--जो; अधर्मे --अधर्म में;धर्म--धर्म ; विभ्रम:--धोखे से, भ्रमवश।
घोड़े को ले जाते समय राजा इन्द्र ने ऐसा वेष धारण कर रखा था जिससे वह मुक्त पुरुषजान पड़े।
वास्तव में उसका यह वेष ठगी के रूप में था, क्योंकि इससे झूठे ही धर्म का बोध होरहा था।
इस प्रकार जब इन्द्र आकाश मार्ग में पहुँचा तो अत्रि मुनि ने उसे देख लिया और समझगये कि स्थिति क्या है।
"
अत्रिणा चोदितो हन्तुं पृथुपुत्रो महारथः ।
अन्वधावत सड्क्ुद्धस्तिष्ठ तिष्ठेति चात्रवीत् ॥
१३॥
अतन्रिणा--अत्रि मुनि के द्वारा; चोदित:ः--कहतने से, प्रेरणा से; हन्तुमू--मारने के लिए; पृथु-पुत्र:--राजा पृथु के पुत्र ने; महा-रथ:--परमवीर; अन्वधावत--पीछा किया; सड्क्रुद्ध:--अत्यन्त क्रुद्ध; तिष्ठ तिष्ठ--ठहरो ठहरो; इति--इस प्रकार; च-- भी;अब्नवीत्ू--कहा |
जब अत्रि मुनि ने राजा पृथु के पुत्र को राजा इन्द्र की चाल बतायी तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआऔर 'ठहरो! ठहरो!! ' कहते हुए इन्द्र को मारने के लिए उसका पीछा करने लगा।
"
त॑ं ताहशाकृतिं वीक्ष्य मेने धर्म शरीरिणम् ।
जटिलं भस्मनाच्छन्न॑ तस्मै बाणं न मुझ्ञति ॥
१४॥
तम्--उसको; ताहश-आकृतिम्--वैसे वेश में; वीक्ष्य--देख कर; मेने--समझा; धर्मम्--पतवित्र या धार्मिक; शरीरिणम्--देहधारी; जटिलम्--जटाजूट; भस्मना--राख से; आच्छन्नम्--सारे शरीर को पोते; तस्मै--उस पर; बाणम्--बाण; न--नहीं;मुझ्नति-छोड़ा
राजा इन्द्र ने संन्यासी का कपट-वेष धारण कर रखा था, उसके सिर पर जटा-जूट था औरसारा शरीर राख से पुता था।
ऐसे वेश में देखकर राजा पृथु के पुत्र ने इन्द्र को धर्मात्मा तथापवित्र संन््यासी समझा, अतः उसने उस पर अपने बाण नहीं छोड़े ।
"
वधान्निवृत्तं तं भूयो हन्तवेउत्रिरचोदयत् ।
जहि यज्ञहनं तात महेन्द्र विबुधाधमम् ॥
१५॥
वधात्--मारने से; निवृत्तम्--रुके; तम्-पृथु के पुत्र को; भूय:--पुनः; हन्तवे--मारने के लिए; अत्रि:--अत्रि मुनि ने;अचोदयत्--प्रेरित किया; जहि--मारो; यज्ञ-हनम्--यज्ञ में बाधक; तात-हे पुत्र; महा-इन्द्रमू--स्वर्ग के महान् राजा इन्द्र को;विबुध-अधमम्--समस्त देवताओं में निम्नतम |
जब अत्रि मुनि ने देखा कि राजा पृथु के पुत्र ने इन्द्र को नहीं मारा वरन् उससे धोखा खाकरवह लौट आया है, तो मुनि ने पुनः उसे स्वर्ग के राजा को मारने का आदेश दिया, क्योंकि उनकेविचार से इन्द्र राजा पृथु के यज्ञ में विघ्म डाल कर समस्त देवताओं में सबसे अधम बन चुकाथा।
"
एवं वैन्यसुतः प्रोक्तस्त्वरमाणं विहायसा ।
अन्वद्रबदभिक्रुद्धो रावणं गृश्रराडिव ॥
१६॥
एवम्--इस प्रकार; वैन्य-सुतः--राजा पृथु का पुत्र; प्रोक्त:--आज्ञा किये जाने पर; त्वरमाणम्--तेजी से आगे बढ़ रहा, इन्द्र;विहायसा--आकाश्ण में; अन्वद्रब॒त्--पीछा करने लगा; अभिक्रुद्ध:--अत्यन्त क्ुद्ध होकर; रावणम्--रावण को; गृश्च-राट्--गृद्धराज, जटायु; इब--सहश |
इस प्रकार सूचित किये जाने पर राजा वेन के पौजत्र ने तुरन्त इन्द्र का पीछा करना प्रारम्भकिया, जो तेजी से आकाश से होकर भाग रहा था।
वह उस पर अत्यन्त कुपित हुआ और उसकापीछा करने लगा मानो गृद्धराज रावण का पीछा कर रहा हो।
"
सोडश्वं रूपं च तद्द्वित्वा तस्मा अन्तर्हितः स्वराट् ।
वीर: स्वपशुमादाय पितुर्यज्ञमुपेयिवान् ॥
१७॥
सः--राजा इन्द्र; अश्वम्-घोड़ा; रूपमू--साधु पुरुष का छद्मा वेश; च-- भी; तत्--वह; हित्वा--त्याग कर; तस्मै--उसकेलिए; अन्तर्हित:--अप्रकट, लुप्त; स्व-राट्--इन्द्र; वीर: --परम वीर; स्व-पशुम्--अपना पशु; आदाय--लाकर; पितु:--अपनेपिता के; यज्ञम्--यज्ञ में; उपेयिवानू--लौट आया।
जब इन्द्र ने देखा कि पृथु का पुत्र उसका पीछा कर रहा है, तो उसने तुरन्त ही अपना कपट-वेष त्याग दिया और घोड़े को छोड़ कर वह उस स्थान से अन्तर्धान हो गया।
महाराज पृथु कामहान् वीर पुत्र घोड़े को लेकर अपने पिता के यज्ञस्थल में लौट आया।
"
तत्तस्य चाद्भुतं कर्म विचक्ष्य परमर्षय: ।
नामधेयं ददुस्तस्मै विजिताश्व इति प्रभो ॥
१८॥
तत्--उस; तस्य--उसके; च--भी; अद्भुतम्--विस्मयकारी; कर्म--पराक्रम; विचक्ष्य--देख कर; परम-ऋषय: --बड़े-बड़ेमुनियों ने; नामधेयम्--नाम; ददुः--प्रदान किया; तस्मै-- उसको; विजित-अश्व:ः--विजिताश्व ( जिसने घोड़े को जीत लिया );इति--इस प्रकार; प्रभो--हे विदुर महाशय |
हे विदुर महाशय, जब ऋषियों ने राजा पृथु के पुत्र का आश्चर्यजनक पराक्रम देखा तो सबोंने उसका नाम विजिताश्व रखना स्वीकार किया।
"
उपसृज्य तमस्तीत्रं जहाराश्व॑ पुनहरिः ।
चषालयूपतएछन्नो हिरण्यरशनं विभु: ॥
१९॥
उपसृज्य--उत्पन्न करके; तमः--अंधकार; तीब्रमू--घना; जहार--ले गया; अश्वम्--घोड़ा; पुनः: --फिर से; हरिः--राजा इन्द्र ने;चषाल-यूपत:--पशु की बलि दिये जानेवाले काठ के यंत्र से; छन्न:--घिर कर; हिरण्य-रशनम्--सोने की जंजीर से बँधा;विभुः--अत्यन्त शक्तिमान।
हे विदुर, स्वर्ग का राजा तथा अत्यन्त शक्तिशाली होने के कारण इन्द्र ने तुरन्त यज्ञस्थल परघोर अंधकार फैला दिया।
इस प्रकार पूरे स्थल को प्रच्छन्न करके उसने पुन: वह घोड़ा हर लियाजो बलि-स्थल पर काष्ठ-यंत्र के समीप सोने की जंजीर से बँधा था।
"
अत्रि: सन्दर्शयामास त्वरमाणं विहायसा ।
कपालखट्वाडुधरं वीरो नेैनमबाधत ॥
२०॥
अत्रि:--अत्रि मुनि ने; सन्दर्शयाम् आस--दिखलाया; त्वरमाणम्--तेजी से जाते हुए; विहायसा--आकाश में; कपाल-खट्वाड़ु--लाठी के ऊपर खोपड़ी टाँगे; धरम्--धारण किये; वीर: --वीर ( राजा पृथु का पुत्र ); न--नहीं; एनम्--स्वर्ग काराजा, इन्द्र; अबाधत--मारा
अत्रि मुनि ने राजा पृथु के पुत्र को पुनः: दिखलाया कि इन्द्र आकाश से होकर भागा जा रहाहै।
परम वीर पृथु-पुत्र ने पुन: उसका पीछा किया।
किन्तु जब उसने देखा कि उसने हाथ में जोदण्ड धारण कर रखा है उस पर खोपड़ी लटक रही है और वह पुनः संन्यासी वेश में है, तो उसनेउसे मारना उचित नहीं समझा।
"
अत्रिणा चोदितस्तस्मै सन्दधे विशिखं रुषा ।
सोडश्व॑ं रूपं च तद्द्वित्वा तस्थावन्तर्हित: स्वराट् ॥
२१॥
अत्रिणा--अत्रि मुनि द्वारा; चोदित:--प्रेरित; तस्मै--इन्द्र के लिए; सन्दधे--स्थापित किया; विशिखम्-- अपना तीर; रुषा--क्रोध से; सः--राजा इन्द्र; अश्वम्--घोड़े को; रूपम्--संन्यासी वेश को; च-- भी; तत्--उस; हित्वा--त्याग कर; तस्थौ--वहाँरहता रहा; अन्तर्हित:-- अदृश्य; स्व-राट्--स्वाधीन इन्द्र |
जब अत्रि मुनि ने पुन: आदेश दिया तो राजा पृथु का पुत्र अत्यन्त कुपित हुआ और उसनेअपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया।
यह देख कर राजा इन्द्र ने तुरन्त संन््यासी का वह कपट वेषत्याग दिया और घोड़े को छोड़ कर वह स्वयं अदृश्य हो गया।
"
वीरश्वाश्वमुपादाय पितृयज्ञमथात्रजत् ।
तदवद्यं हरे रूपं जगृहुज्ञानदुर्बला: ॥
२२॥
वीर:--राजा पृथु का पुत्र; च-- भी; अश्वम्-घोड़े को; उपादाय--लेकर; पितृ-यज्ञम्ू--अपने पिता के यज्ञस्थल पर; अथ--तत्पश्चात्; अब्रजत्--गया; तत्--वह; अवद्यम्--निन््दनीय; हरे:--इन्द्र का; रूपम्--वेश; जगृहुः--ग्रहण कर लिया; ज्ञान-दुर्बला:--जिनमें ज्ञान की कमी है।
तब परम वीर पृथु-पुत्र विजिताश्व पुनः: वह घोड़ा लेकर अपने पिता के यज्ञ स्थल पर लौटआया।
उसी काल से, कुछ अल्पज्ञानी पुरुष छद्मा संन्यासी का वेष धारण करने लगे हैं।
राजा इन्द्रने ही इसका सूत्रपात किया था।
"
यानि रूपाणि जगूहे इन्द्रो हयजिहीर्षया ।
तानि पापस्य खण्डानि लिड्डंं खण्डमिहोच्यते ॥
२३॥
यानि--ये सब; रूपाणि--रूप; जगृहे--स्वीकार किया; इन्द्र:--स्वर्ग के राजा इन्द्र ने; हय--घोड़ा; जिहीर्षया--चुराने कीइच्छा से; तानि--उन सब; पापस्थ--पापकर्मो का; खण्डानि--चिह्न; लिड्रमू--प्रतीक; खण्डम्ू--खण्ड शब्द; इह--यहाँ;उच्यते--कहा जाता है।
इन्द्र ने घोड़े को चुरा ले जाने की इच्छा से संन्यासी के जो जो रूप धारण किये, वेनास्तिकवाद दर्शन के प्रतीक हैं।
"
एवमिद्दे हरत्यश्व॑ वैन्ययज्ञजिघांसया ।
तद्गृहीतविसूष्टेपु पाखण्डेषु मति्नृणाम् ॥
२४॥
धर्म इत्युपधर्मेषु नग्नरक्तपटादिषु ।
प्रायेण सजते भ्रान्त्या पेशलेषु च वाग्मिषु ॥
२५॥
एवम्--इस प्रकार; इन्द्रे--जब स्वर्ग के राजा इन्द्र ने; हरति--चुरा लिया; अश्वम्--धघोड़ा; वैन्य--राजा बेन के पुत्र का; यज्ञ--यज्ञ; जिघांसया--बन्द करने की इच्छा से; तत्--उसके द्वारा; गृहीत--स्वीकृत; विसूष्टेपु--त्यक्त; पाखण्डेषु--छदा वेष केप्रति; मतिः--आकर्षण; नृणाम्--सामान्य लोगों का; धर्म:--धर्म-पद्धति; इति--इस प्रकार; उपधर्मेषु--झूठे धर्मों के प्रति;नग्न--नंगा; रक्त-पट--लाल-वेश वाला; आदिषु--इत्यादि; प्रायेण--सामान्यतः; सज्जते--आकर्षित होता है; भ्रान्या--मूर्खतावश; पेशलेषु--पटु; च--तथा; वाग्मिषु--वाक्पटु, विदग्ध |
इस प्रकार पृथु महाराज के यज्ञ से घोड़े को चुराने के लिए राजा इन्द्र ने कई प्रकार केसंन्यास धारण किये।
कुछ संन्यासी नंगे रहते हैं और कभी-कभी लाल वस्त्र धारण करते हैं--वेकापालिक कहलाते हैं।
ये इनके पापकर्मो के प्रतीक मात्र हैं।
ऐसे तथाकथित संन्यासी पापियों द्वारा अत्यन्त समाहत होते हैं, क्योंकि वे नास्तिक होते हैं और अपने को सही ठहराने के लिएतर्क प्रस्तुत करने में अत्यन्त पटु होते हैं।
किन्तु हमें ज्ञान होना चाहिए कि ऐसे लोग ऊपर से धर्मके समर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में होते नहीं।
दुर्भाग्यवश मोहग्रस्त व्यक्ति इन्हें धार्मिकमानकर इनकी ओर आकृष्ट होकर अपना जीवन विनष्ट कर लेते हैं।
"
तदभिज्ञाय भगवान्पूथु: पृथुपराक्रम: ।
इन्द्राय कुपितो बाणमादत्तोद्यतकार्मुक: ॥
२६॥
तत्--वह; अभिज्ञाय--जान कर; भगवान्--ईश्वर के अवतार; पृथु:--राजा पृथु ने; पृथु-पराक्रम: --अत्यन्त पराक्रमी;इन्द्राय--इन्द्र पर; कुपित:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; बाणम्--बाण; आदत्त--लिया; उद्यत--तैयार; कार्मुक:--तीर।
अत्यन्त पराक्रमी महाराज पृथु ने तुरन्त अपना धनुष-बाण ले लिया और वे इन्द्र को मारने केलिए सन्नद्ध हो गये, क्योंकि इन्द्र ने इस प्रकार के अनियमित संन्यास का सूत्रपात्र किया था।
"
तमृत्विज: शक्रवधाभिसन्धितंविच॒क्ष्य दुष्प्रेक्षष्मसहारंहसम् ।
निवारयामासुरहो महामतेन युज्यतेउत्रान्यवध: प्रचोदितात् ॥
२७॥
तम्--राजा पृथु को; ऋत्विज:--पुरोहितगण; शक्र-वध--इन्द्र का वध; अभिसन्धितम्ू-- अपने को तैयार करते हुए; विचक्ष्य--देखकर; दुष्प्रेक्ष्मम्--देखने में भयंकर; असहा-- असहनीय; रंहसम्--जिसका वेग; निवारयाम् आसु:--उन्होंने मना किया;अहो--ओह; महा-मते--हे महापुरुष; न--नहीं; युज्यते--आपको शोभनीय; अत्र--इस यज्ञ-स्थल में; अन्य--दूसरे; वध: --वध; प्रचोदितात्--शास्त्र-विहित |
जब पुरोहितों तथा अन्य सबों ने महाराज पृथु को अत्यन्त कुपित तथा इन्द्र वध के लिएउद्यत देखा तो उन्होंने प्रार्थना की : हे महात्मा, उसे मत मारें, क्योंकि यज्ञ में केवल यज्ञ-पशु काही वध किया जा सकता है।
शास्त्रों में ऐसे ही आदेश दिये गये हैं।
"
वयं मरुत्वन्तमिहार्थनाशनंह्ृयामहे त्वच्छुवसा हतत्विषम् ।
अयातयामोपहवैरनन्तरंप्रसह्ा राजन्जुहवाम तेडहितम् ॥
२८ ॥
वयम्--हम; मरुत्-वन्तम्--राजा इन्द्र को; हह--यहाँ; अर्थ--आपके हेतु; नाशनम्--विध्वंसक ; हृयामहे --बुला लेंगे; त्वतू-अश्रवसा--आपके सुयश से; हत-त्विषम्--पहले से अपनी शक्ति से रहित, निस्तेज; अयातयाम--इसके पूर्व कभी भी न प्रयुक्त;उपहवैः--आवाहन-मंत्रों के द्वारा; अनन्तरम्-शीघ्र ही; प्रसह्या--बलपूर्वक; राजन्ू--हे राजा; जुहवाम--अग्नि में बलि करदेंगे; ते--तुम्हारे; अहितम्-शत्रु
हे राजनू, आपके यज्ञ में विघ्न डालने के कारण इन्द्र का तेज वैसे ही घट चुका है।
हमअभूतपूर्व वैदिक मंत्रों के द्वारा उसका आवाहन करेंगे।
वह अवश्य आएगा।
इस प्रकार हम अपने मंत्र-बल से उसे अग्नि में गिरा कर देंगे, क्योंकि वह आपका शत्रु है।
"
इत्यामन्त्य क्रतुपतिं विदुरास्यर्त्विजो रुषा ।
स््रुग्घस्ताञ्ुह्नतो भ्येत्य स्वयम्भू: प्रत्यषेधत ॥
२९॥
इति--इस प्रकार; आमन्य--सूचित करके; क्रतु-पतिम्--यज्ञों के स्वामी, राजा पृथु को; विदुर--हे विदुर; अस्य--पृथु के;ऋत्विज: -- पुरोहित; रुषा--क्रोध में; स्रुक्ु-हस्तान्--हाथ में स्त्रुवा लेकर; जुह्वतः--आहुति डालते हुए; अभ्येत्य-- प्रारम्भ करतेही; स्वयम्भू: --ब्रह्माजी ने; प्रत्यषेधत--रोक दिया।
हे बिदुर, राजा को यह सलाह दे चुकने पर, यज्ञ करने में जुटे हुए पुरोहितों ने क्रोध मेंआकर स्वर्ग के राजा इन्द्र का आवाहन किया।
वे अग्नि में आहुति डालने ही वाले थे कि वहाँपर ब्रह्माजी प्रकट हुए और उन्होंने यज्ञ आरम्भ करने से रोक दिया।
"
न वध्यो भवतामिन्द्रो यद्यज्ञो भगवत्तनु: ।
यं जिघांसथ यज्ञेन यस्येष्टास्तनव: सुरा: ॥
३०॥
न--नहीं; वध्य:--वध के योग्य; भवताम्--आप सबों के द्वारा; इन्द्र: --स्वर्ग का राजा इन्द्र; यत्--क्योंकि; यज्ञ:--इन्द्र कानाम; भगवतू-तनु:-- भगवान् के शरीर का अंश; यम्--जिसको; जिघांसथ--मारना चाह रहे हो; यज्ञेन--यज्ञ के द्वारा; यस्थ--इन्द्र का; इष्टा:--पूज्य होकर; तनव:--शरीर के अंग; सुरा:--देवता |
ब्रह्माजी ने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया : हे याजको, आप स्वर्ग के राजा इन्द्र को नहींमार सकते, यह कार्य आपका नहीं है।
आपको जान लेना चाहिए कि इन्द्र भगवान् के ही समानहैं।
वस्तुतः वे भगवान् के सबसे अधिक शक्तिशाली सहायक हैं।
आप इस यज्ञ द्वारा समस्तदेवताओं को प्रसन्न करना चाह रहे हैं, किन्तु आपको ज्ञात होना चाहिए कि ये समस्त देवता स्वर्गके राजा इन्द्र के ही अंश हैं।
तो फिर आप इस महान् यज्ञ में उनका वध कैसे कर सकते हैं ?"
तदिदं पश्यत महद्धर्मव्यतिकरं द्विजा: ।
इन्द्रेणानुष्ठितं राज्ञ: कर्मतद्विजिघांसता ॥
३१॥
ततू्--तब; इदम्--यह; पश्यत--जरा देखो; महत्--महान; धर्म--धार्मिक जीवन का; व्यतिकरम्--विघ्त; द्विजा:--हेब्राह्मणों; इन्द्रेण--इन्द्र द्वारा; अनुष्ठितमू--किया गया; राज्:--राजा का; कर्म--कार्य; एतत्--यह यज्ञ; विजिघांसता--विघ्नडालने का इच्छुक |
राजा पृथु के महान् यज्ञ में विघध्न डालने तथा आपत्ति उठाने के उद्देश्य से राजा इन्द्र ने ऐसेसाधन अपनाये हैं, जो भविष्य में धार्मिक जीवन के सुपथ को नष्ट कर सकते हैं।
मैं इस ओरआप लोगों का ध्यान आकृष्ट कर रहा हूँ।
यदि आप और अधिक विरोध करेंगे तो वह अपनीशक्ति का दुरुपयोग करके अनेक अधार्मिक पद्धतियों को फैलाएगा।
"
पृथुकीतते: पृथोर्भूयात्तहेंकोनशतक्रतु: ।
अलं ते क्रतुभिः स्विष्टेयद्धवान्मोक्षधर्मवित् ॥
३२॥
पृथु-कीर्ते: --व्यापक कीर्तिवाले; पृथो: --राज पृथु का; भूयात्--हो; तह्ि--अत:; एक-ऊन-शत-क्रतुः--निन्यानब्वे यज्ञ'करनेवाला; अलमू--कोई लाभ नहीं, बस; ते--तुम्हारे; क्रतुभिः--यज्ञ करने से; सु-इष्टे:--सुसम्पन्न; यत्--क्योंकि; भवान्--आप; मोक्ष-धर्म-वित्--मोक्ष के मार्ग को जाननेवाले।
ब्रह्माजी ने अन्त में कहा : 'बस, महाराज पृथु के निन्यानब्वे यज्ञ ही रहने दो।
' फिर वेमहाराज पृथु की ओर मुड़े और उनसे कहा 'आप मोक्ष मार्ग से भलीभाँति परिचित हैं, अतःआपको और अधिक यज्ञ करने से क्या मिलेगा ? '!" नैवात्मने महेन्द्राय रोषमाहर्तुमहसि ।
उभावपि हि भद्रं ते उत्तमशलोकविग्रहौ ॥
३३॥
न--नहीं; एब--निश्चय ही; आत्मने--तुमसे अभिन्न; महा-इन्द्राय--स्वर्ग के राजा इन्द्र पर; रोषम्-क्रोध; आहर्तुमू--करने केलिए; अर्हसि--तुम्हें चाहिए; उभौ--तुम दोनों; अपि--निश्चय ही; हि-- भी; भद्रमू--कल्याण; ते--तुम्हारा; उत्तम-शलोक-विग्रहौ-- भगवान् के अवतार।
ब्रह्माजी ने कहा : आप दोनों का कल्याण हो क्योंकि आप तथा इन्द्र दोनों ही भगवान् केअंश हैं।
अत: आपको इन्द्र पर क्रुद्ध नहीं होना चाहिए; वह आपसे अभिन्न है।
"
मास्मिन्महाराज कृथाः सम चिन्तांनिशामयास्मद्बच आहतात्मा ।
यद्धयायतो दैवहतं नु कर्तुमनोतिरुष्टं विशते तमोउन्धम् ॥
३४॥
मा--मत; अस्मिन्--इसमें; महा-राज--हे राजा; कृथा:--करें; स्म--पूर्ववत्; चिन्तामू--मन का विक्षोभ; निशामय--कृपयाविचार करें; अस्मत्--मेरे; बच: --वचन; आहत-आत्मा--अत्यन्त पूज्य; यत्-- क्योंकि; ध्यायत:--ध्यानमग्न का; दैव-हतम्--विधाता द्वारा बिगाड़ा गया; नु--निश्चय ही; कर्तुमू--करने के लिए; मन:--मन; अति-रुष्टम्--अत्यन्त क्रुद्ध; विशते--प्रवेश करता है; तम:ः--अंधकार; अन्धम्--घना
हे राजन, दैवी व्यवधानों के कारण उचित रीति से आप के यज्ञ सम्पन्न न होने पर आपतनिक भी क्षुब्ध तथा चिन्तित न हों।
कृपया मेरे बचनों को अति आदर भाव से ग्रहण करें।
सदैवस्मरण रखें कि प्रारब्ध से जो कुछ घटित होता है उसके लिए हमें अधिक दुखी नहीं होनाचाहिए।
ऐसी पराजयों को सुधारने का जितना ही प्रयत्न किया जाता है, उतना ही हमभौतिकतावादी विचार के घने अंधकार में प्रवेश करते हैं।
"
क्रतुर्विर्मतामेष देवेषु दुरवग्रह: ।
धर्मव्यतिकरो यत्र पाखण्डैरिन्द्रनिर्मित: ॥
३५॥
क्रतुः--यज्ञ; विरमताम्--बन्द हो; एष:--यह; देवेषु--देवताओं में; दुरवग्रह:-- अवांछित कामनाएँ; धर्म-व्यतिकरः--नियमोंका अतिक्रमण; यत्र--जहाँ; पाखण्डै: -- पापकर्मो के द्वारा; इन्द्र--स्वर्ग के राजा द्वारा; निर्मित:--बनाये गये।
ब्रह्माजी ने आगे कहा : इन यज्ञों को बन्द कीजिये क्योंकि इनके कारण इन्द्र अनेक अधर्मकर रहा है।
आपको भली भाँति ज्ञात होना चाहिए कि देवताओं में भी अनेक अवांछित कामनाएँहोती हैं।
"
एभिरिन्रोपसंसूष्टे: पाखण्डै्हारिभिर्जनम् ।
हियमाणं विचश्ष्वैनं यस्ते यज्ञ श्रुगश्चमुट् ॥
३६॥
एमि:ः--इन; इन्द्र-उपसंसृष्टे:--इन्द्र द्वारा विरचित; पाखण्डै: --पापपूर्ण कार्य द्वारा; हारिभिः--मनोहर; जनम्--सामान्य लोग;हियमाणम्--चुराये गये; विचक्ष्व--देखो तो; एनम्ू--ये; य:--जो; ते--तुम्हारा; यज्ञ-श्रुक् --यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करके; अश्व-मुटू-धोड़े को चुरानेवाला।
जरा देखिये कि राजा इन्द्र यज्ञ के घोड़े को चुरा कर किस प्रकार यज्ञ में विघ्न डाल रहा था!उसके द्वारा प्रचारित मनोहर पापमय कार्य सामान्य जनों द्वारा आगे बढ़ाये जाते रहेंगे।
"
भवान्परित्रातुमिहावतीर्णोधर्म जनानां समयानुरूपम् ।
वेनापचारादवलुप्तमद्यतदेहतो विष्णुकलासि वैन्य ॥
३७॥
भवान्--आप; परित्रातुमू--उद्धार के लिए; इह--इस संसार में; अवतीर्ण:--अवतार लेकर; धर्मम्--धर्म; जनानामू--सामान्यलोगों का; समय-अनुरूपम्--समय तथा परिस्थिति के अनुसार; बेन-अपचारात्--राजा वेन के दुष्कर्मो से; अवलुप्तम्--लुप्तप्राय; अद्य--इस समय; तत्--उसकी; देहतः --देह से; विष्णु--विष्णु का; कला-- अंश; असि--तुम हो; वैन्य--हे राजाबेन के पुत्र |
हे बेन-पुत्र राजा पृथु, आप भगवान् विष्णु के अंश हैं।
राजा वेन के उत्पाती कार्यो केकारण धर्म प्रायः लुप्त हो चुका था।
आपने उचित समय पर भगवान् विष्णु के रूप में अवतारलिया।
निस्सन्देह, आप धर्म की रक्षा के लिए ही राजा वेन के शरीर से प्रकट हुए हैं।
"
स त्वं विमृश्यास्य भवं प्रजापतेसड्डल्पनं विश्वसृजां पिपीपृहि ।
ऐन्द्रीं च मायामुपधर्ममातरंप्रचण्डपाखण्डपथं प्रभो 'जहि ॥
३८ ॥
सः--उपर्युक्त; त्वम्ू--तुम; विमृश्य--विचार करके; अस्य--इस जगत का; भवम्--अस्तित्व, संसार; प्रजा-पते--हे मनुष्यों केत्राता; सद्डूल्पनम्-हढ़ निश्चय; विश्व-सृजाम्-विश्व के जनकों का; पिपीपृहि--पूरा करो; ऐन्द्रीमू-- इन्द्र के द्वारा उत्पन्न; च--भी; मायाम्--माया; उपधर्म--तथाकथित संन्यास के अधर्म का; मातरम्--माता; प्रचण्ड--घातक; पाखण्ड-पथम्--पापपूर्णकर्मो का मार्ग; प्रभो--हे भगवान्; जहि--जीत लीजिए
हे प्रजा-पालक, विष्णु द्वारा प्रदत्त अपने इस अवतार के उद्देश्य पर विचार कीजिये।
इन्द्रद्वारा सर्जित अधर्म अनेक अवांछित धर्मों की जननी है।
अतः आप तुरन्त ही इन पाखण्डों काअन्त कर दीजिये।
"
मैत्रेय उवाचइत्थं स लोकगुरुणा समादिष्टो विशाम्पति: ।
तथा च कृत्वा वात्सल्यं मघोनापि च सन्दधे ॥
३९॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; इत्थम्--इस प्रकार; सः--राजा पृथु; लोक-गुरुणा--समस्त मनुष्यों के आदि गुरु ब्रह्मा द्वारा;समादिष्ट: --आदेशित; विशाम्-पतिः --लोगों का स्वामी, राजा; तथा--उस प्रकार; च-- भी; कृत्वा--करके; वात्सल्यम्--स्नेह; मघोना--इन्द्र से; अपि--तक; च-- भी; सन्दधे--सन्धि कर ली।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : जब परम गुरु ब्रह्माजी ने राजा पृथु को इस प्रकार उपदेश दियातो उन्होंने यज्ञ करने की अपनी उत्सुकता त्याग दी और अत्यन्त स्नेहपूर्वक राजा इन्द्र से सन्धि करली।
"
कृतावभूथस्नानाय पृथवे भूरिकर्मणे ।
वरान्ददुस्ते वरदा ये तद्गर्हिषि तर्पिता: ॥
४०॥
कृत--सम्पन्न करके; अवभूथ-स्नानाय--यज्ञ के पश्चात् स्नान करके; पृथवे--राजा पृथु को; भूरि-कर्मणे--अनेक शौर्यवालेकार्य के लिए विख्यात; वरान्ू--वर, आशीर्वाद; ददुः--दिया; ते--वे सब; वर-दाः--वर देनेवाले, देवतागण; ये--जो; ततू-बर्हिषि--ऐसे यज्ञ करने में ; तर्पिता:-- प्रसन्न हो गये |
इसके पश्चात् पृथु महाराज ने स्नान किया, जो प्रथानुसार यज्ञ के अन्त में किया जाता है,और महिमायुक्त कार्यों से अत्यन्त प्रसन्न देवताओं से आशीष तथा वर प्राप्त किये।
विप्रा: सत्याशिषस्तुष्टा: श्रद्धया लब्धदक्षिणा: ।
आशिषो युयुजु: क्षत्तरादिराजाय सत्कृता: ॥
४१॥
विप्रा:--सभी ब्राह्मण; सत्य--सही; आशिष: --जिसके आशीर्वाद; तुष्टा:--अत्यन्त सन्तुष्ट होकर; श्रद्धया--अत्यन्तसम्मानपूर्वक; लब्ध-दक्षिणा:--दक्षिणा प्राप्त किये हुए; आशिष:-- आशीर्वाद; युयुजु:--प्रदान किया; क्षत्त:--हे विदुर;आदि-राजाय--आदि राजा को; सत्ू-कृता:--सम्मानित होकर।
आदिराज पृथु ने उस यज्ञ में उपस्थित समस्त ब्राह्मणों को अत्यन्त सम्मानपूर्वक सभी प्रकारकी भेंटें प्रदान कीं।
इन ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर राजा को अपनी ओर से हार्दिक शुभाशीष दिये।
"
त्वयाहूता महाबाहो सर्व एवं समागता: ।
पूजिता दानमानाभ्यां पितृदेवर्षिमानवा: ॥
४२॥
त्वया--तुम्हारे द्वारा; आहूता:--आमंत्रित; महा-बाहो--हे परम शक्तिशाली; सर्वे--सभी; एव--निश्चय ही; समागता: --एकत्र;पूजिता:--सम्मानित हुए; दान--दान से; मानाभ्याम्--सम्मान से; पितृ--पितृलोक के वासी; देव--देवता; ऋषि--ऋषिगण;मानवा:--तथा सामान्य
जनसमस्त ऋषियों तथा ब्राह्मणों ने कहा : हे शक्तिशाली राजा, आपके आमंत्रण पर सभी वर्गके जीवों ने इस सभा में भाग लिया है।
वे पितृलोक तथा स्वर्गलोकों से आये हैं, साथ हीसामान्यजन एवं ऋषिगण भी इस सभा में उपस्थित हुए हैं।
अब वे सभी आपके व्यवहार तथाआपके दान से अत्यन्त सन्तुष्ठ हैं।
"
अध्याय बीस: महाराज पृथु के यज्ञ क्षेत्र में भगवान विष्णु का प्रकट होना
4.20मैत्रेय उवाचभगवानपि वैकुण्ठ: साक॑ मघवता विभु:।
यज्जैर्यज्ञपतिस्तुष्टो यज्ञभुक्तमभाषत ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा; भगवानू-- भगवान् विष्णु; अपि-- भी; वैकुण्ठ:--वैकुण्ठवासी; साकम्--के साथ;मघवता--राजा इन्द्र; विभु:-- भगवान्; यज्जैः --यज्ञों के द्वारा; यज्-पतिः--समस्त यज्ञों का स्वामी; तुष्ट:--प्रसन्न; यज्ञ-भुक् --यज्ञों का भोक्ता; तमू--राजा पृथु से; अभाषत--कहा |
मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, महाराज पृथु द्वारा निन््यानवे अश्वमेध यज्ञों के सम्पन्न कियेजाने से भगवान् विष्णु अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे यज्ञस्थल में प्रकट हुए।
उनके साथ राजा इन्द्रभी था।
तब भगवान् विष्णु ने कहना प्रारम्भ किया।
"
श्रीभगवानुवाचएष तेकार्षीद्धड़ं हयमेधशतस्य ह ।
क्षमापयत आत्मानममुष्य क्षन्तुमहसि ॥
२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् विष्णु ने कहा; एषः--यह राजा इन्द्र; ते--तुम्हारा; अकार्षीत्ू--किया; भड़म्--उत्पात; हय--अश्व; मेध--यज्ञ; शतस्य--एक सौवें का; ह--निश्चय ही; क्षमापयतः--क्षमाप्रार्थी; आत्मानम्--तुम से; अमुष्य--उसको;क्षन्तुमू-- क्षमा करने के लिए; अर्हसि--तुम्हें चाहिए
भगवान् विष्णु ने कहा : हे राजा पृथु, स्वर्ग के राजा इन्द्र ने तुम्हारे सौवें यज्ञ में विघ्म डालाहै।
अब वह मेरे साथ तुमसे क्षमा माँगने के लिए आया है, अतः उसे क्षमा कर दो।
"
सुधिय: साधवो लोके नरदेव नरोत्तमा: ।
नाभिद्दुह्मान्ति भूते भ्यो यहिं नात्मा कलेवरम् ॥
३॥
सु-धियः--परम बुद्धिमान व्यक्ति; साधव:--शुभ करने के लिए उद्यत; लोके--इस जगत में; नर-देव--हे राजा; नर-उत्तमा:--मनुष्यों में श्रेष्ठ; न अभिद्गुद्मन्ति--द्रोह नहीं करते; भूतेभ्य:--अन्य जीवों से; यहिं-- क्योंकि; न--कभी नहीं; आत्मा--स्व याआत्मा; कलेवरम्--यह शरीर।
हे राजन, जो व्यक्ति परम बुद्धिमान तथा दूसरों का शुभचिन्तक होता है, वह मनुष्यों में श्रेष्ठसमझा जाता है।
सिद्ध पुरुष कभी दूसरों से बैर नहीं करता।
जो अग्रगण्य बुद्धिमान हैं, वे यहभली-भाँति जानते हैं कि यह भौतिक शरीर आत्मा से भिन्न है।
"
पुरुषा यदि मुहान्ति त्वाइशा देवमायया ।
श्रम एव परं जातो दीर्घया वृद्धसेवया ॥
४॥
पुरुषा:--लोग; यदि--यदि; मुहान्ति--मोह ग्रस्त होते हैं; त्वाहशा:--तुम्हारी तरह; देव--परमेश्वर की; मायया--माया से;श्रम:--परिश्रम; एव--निश्चय ही; परम्--एकमात्र; जात:--उत्पन्न; दीर्घया--दीर्घकाल तक; वृद्ध-सेवया--गुरुजनों की सेवासेयदि
तुम जैसे पुरुष, जो पूर्व आचार्यों के आदेशों के अनुसार कार्य करने के कारण इतनेउन्नत हैं, मेरी माया से मोहग्रस्त हो जाँय तो तुम्हारी समस्त सिद्धि को समय का अपव्यय मात्र हीसमझा जाएगा।
"
अतः कायमिमं विद्वानविद्याकामकर्मभि: ।
आरब्ध इति नैवास्मिन्प्रतिबुद्धो उनुषज्जते ॥
५॥
अतः--अतएव; कायम्--शरीर; इमम्--यह; विद्वानू--ज्ञानी; अविद्या--अज्ञान से; काम--इच्छाएँ; कर्मभि:--कर्म से;आरब्ध: --उत्पन्न; इति--इस प्रकार; न--कभी नहीं; एब--निश्चय ही; अस्मिन्--इस शरीर के प्रति; प्रतिबुद्ध:--ज्ञानी;अनुषजते--आसक्त होता है
जो लोग जीवन की देहात्मबुद्धि की अवधारणा से भली-भाँति परिचित हैं, जो यह जानते हैंकि यह शरीर मोह से उत्पन्न अज्ञान, आकांक्षाओं तथा कर्मों से रचित है, वे इस शरीर के प्रतिकभी भी आसक्त नहीं होते।
"
असंसक्त: शरीरेउस्मिन्नमुनोत्पादिते गृहे ।
अपत्ये द्रविणे वापि कः कुर्यान्ममतां बुध: ॥
६॥
असंसक्त: --अनासक्त; शरीरे--शरीर में; अस्मिनू--इस; अमुना--ऐसी देहात्मबुद्धि से; उत्पादिते--उत्पन्न; गृहे--घर में;अपत्ये--सन्तान में; द्रविणे--सम्पत्ति में; वा--अथवा; अपि-- भी; क:ः --कौन; कुर्यात्ू--करना चाहिए; ममताम्--आकर्षण;बुध:--विद्वान पुरुष |
जो देहात्मबुद्धि के प्रति रंचमात्र भी आसक्त नहीं है, भला ऐसा अत्यन्त बुद्धिमान पुरुषकिस प्रकार घर, सनन््तान, सम्पत्ति तथा ऐसी ही अन्य शारीरिक बातों में देहात्मबुद्धि के द्वाराप्रभावित हो सकता है?"
एकः शुद्धः स्वयंज्योतिर्निर्गुणोडइसौ गुणाश्रयः ।
सर्वगोनावृतः साक्षी निरात्मात्मात्मन: पर ॥
७॥
एक:ः--एक; शुद्धः--शुद्ध; स्वयम्--स्वयं; ज्योति:--तेजोमय; निर्गुण:-- भौतिक उपाधियों से रहित; असौ--वह; गुण-आश्रय:--उत्तम गुणों का आगार; सर्व-ग:--सर्वत्र जाने में समर्थ; अनावृत:--अनाच्छादित; साक्षी --गवाह; निरात्मा--किसीअन्य आत्मा के; आत्म-आत्मन:--शरीर तथा मन को; पर:--दिव्य ।
आत्मा एक, शुद्ध, अभौतिक तथा स्वयं-तेजमय है।
वह समस्त उत्तम गुणों का आगार एवंसर्व-व्यापक है।
वह किसी भौतिक आवरण से रहित और समस्त कार्यो का साक्षी है।
वह अन्यजीवात्माओं से सर्वथा भिन्न तथा समस्त देहधारियों से परे है।
"
य एवं सन्तमात्मानमात्मस्थं वेद पूरुष: ।
नाज्यते प्रकृतिस्थोपि तद्गुणै: स मयि स्थित: ॥
८॥
यः--जो कोई; एवम्--इस प्रकार; सन्तम्--विद्यमान; आत्मानम्--आत्मा तथा परमात्मा; आत्म-स्थम्--अपने शरीर के भीतरस्थित; बेद--जानता है; पूरुष:--पुरुष; न--कभी नहीं; अज्यते--प्रभावित होता है; प्रकृति-- भौतिक प्रकृति में; स्थ:--स्थित;अपि--यद्यपि; ततू-गुणैः-- प्रकृति के गुणों से; सः--ऐसा व्यक्ति; मयि--मुझमें; स्थित:--स्थित ।
ऐसा व्यक्ति जो परमात्मा तथा आत्मा के पूर्णज्ञान को प्राप्त होता है, भौतिक प्रकृति में रहतेहुए भी उसके गुणों से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि वह सदैव मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति में स्थित रहताहै।
"
यः स्वधर्मेण मां नित्यं निराशीः श्रद्धयान्वित: ।
भजते शनकैस्तस्य मनो राजन्प्रसीदति ॥
९॥
यः--जो भी; स्व-धर्मेण-- अपने वृत्तिपरक कार्यो के द्वारा; मामू--मुझको; नित्यम्ू--नियमित रूप से; निराशी: --बिना किसीउद्देश्य के; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा भक्ति से; अन्वित:--युक्त; भजते--पूजता है; शनकै: -- धीरे-धीरे; तस्थय--उसका; मन: --मन;राजनू--हे राजा पृथु; प्रसीदति--पूर्णतया तुष्ट हो जाता है |
भगवान् विष्णु ने आगे कहा : हे राजा पृथु, जब कोई अपना वृत्तिपरक कर्म करता हुआ,किसी भौतिक लाभ के उद्देश्य के बिना मेरी सेवा में लगा रहता है, तो वह अपने अन्तःकरण मेंउत्तरोत्तर संतुष्टि प्राप्त करता है।
"
परित्यक्तगुण: सम्यग्दर्शनो विशदाशय: ।
शान्ति मे समवस्थानं ब्रह्म कैवल्यमएनुते ॥
१०॥
परित्यक्त-गुण:--जो गुणों से विरक्त है; सम्यक्--सम; दर्शन:--जिसकी दृष्टि; विशद--अकलुषित; आशय:ः--जिसका मनया हृदय; शान्तिम्--शान्ति; मे-- मेरा; समवस्थानम्--समान पद; ब्रह्म--आत्मा; कैवल्यम्ू-- भौतिक कल्मष से मुक्ति;अश्नुते--प्राप्त करता है।
जब हृदय समस्त भौतिक कल्मषों से शुद्ध हो जाता है, तो भक्त का मन विशद तथापारदर्शी हो जाता है और वह वस्तुओं को समान रूप में देख सकता है।
जीवन की इस अवस्थामें शान्ति मिलती है और मनुष्य मेरे समान पद के सच्चिदानन्द-विग्रह रूप में स्थित हो जाता है।
"
उदासीनमिवाध्यक्षं द्रव्यज्ञानक्रियात्मनाम् ।
कूटस्थमिममात्मानं यो वेदाप्नोति शो भनम् ॥
११॥
उदासीनम्ू--उदासीन; इब--केवल; अध्यक्षम्--अधीक्षक; द्रव्य-- भौतिक तत्त्वों; ज्ञान--ज्ञानेन्द्रियाँ; क्रिया--कर्मेन्द्रियाँ;आत्मनाम्ू--तथा मन का; कूट-स्थम्--स्थिर; इममू--यह; आत्मानम्--आत्मा; यः--जो कोई; वेद--जानता है; आप्नोति--प्राप्त करता है; शोभनम्--कल्याण ।
जो कोई भी यह जानता है कि पाँच तत्त्वों, कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों तथा मन से निर्मित यहशरीर केवल स्थिर आत्मा द्वारा संचालित होता है, वह भौतिक बन्धन से मुक्त होने योग्य है।
"
भिन्नस्य लिड्डस्य गुणप्रवाहोद्रव्यक्रियाकारकचेतनात्मन: ।
इृष्टासु सम्पत्सु विपत्सु सूरयोन विक्रियन्ते मयि बद्धसौहदा: ॥
१२॥
भिन्नस्य-भिन्न; लिड्डस्य--शरीर का; गुण--तीनों गुणों का; प्रवाह:--निरन्तर परिवर्तन; द्रव्य-- भौतिक तत्त्व; क्रिया--कर्म;कारक-देवता; चेतना--तथा मन; आत्मन:--से युक्त; दृष्टासु-- अनुभव होने पर; सम्पत्सु--सुख; विपत्सु--दुख; सूरय: --ज्ञानी लोग; न--कभी नहीं; विक्रियन्ते--विचलित होते हैं; मयि-- मुझ में; बद्ध-सौहदा:--मित्रता में बँध कर।
भगवान् विष्णु ने राजा पृथु से कहा : हे राजन, तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया से ही यहभौतिक जगत निरन्तर परिवर्तनशील है।
यह शरीर पाँच तत्त्वों, इन्द्रियों, इन्द्रियों के नियामकदेवताओं तथा आत्मा द्वारा विश्लुब्ध किये जाने वाले मन से मिल कर बना है।
चूँकि आत्मा इन स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वों के इस मेल से सर्वथा भिन्न है, अतः मेरा भक्त जो मित्रता तथा प्रेम केद्वारा मुझसे हढ़तापूर्वक बँधा है, यह भली भाँति जानते हुए, कभी भी भौतिक सुख तथा दुख सेविचलित नहीं होता।
"
समः समानोत्तममध्यमाधम:सुखे च दुःखे च जितेन्द्रियाशय: ।
मयोपक्रिप्ताखिललोकसंयुतोविधत्स्व वीराखिललोकरक्षणम् ॥
१३॥
समः--समभाव; समान--सभी समान; उत्तम-- श्रेष्ठ; मध्यम--बीच की स्थिति वाला; अधमः--निम्नस्तरीय; सुखे--सुख में;च--तथा; दुःखे--दुख में; च-- भी; जित-इन्द्रिय--जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है; आशय:--तथा मन; मया--मेंरेद्वारा; उपक्रिप्त--व्यवस्थित; अखिल--सम्पूर्ण;, लोक--लोगों द्वारा; संयुतः:--साथ-साथ; विधत्स्व-- प्रदान करो; वीर--हेवीर; अखिल--समस्त; लोक--नागरिकों को; रक्षणम्--सुरक्षा, आश्रय |
हे बीर राजा, स्वयं समभाव रखते हुए अपने से उत्तम, मध्यम तथा निम्न स्तर के लोगों परसमानता का व्यवहार करो, क्षणिक सुख या दुख से विचलित न हो।
अपने मन तथा इन्द्रियों परपूर्ण संयम रखो।
मेरी व्यवस्था से तुम जिस किसी भी परिस्थिति में रखे जाओ, उस दिव्य स्थितिमें रह कर राजा का कर्तव्य निबाहो, किन्तु तुम्हारा एकमात्र कर्तव्य अपने राज्य के नागरिकों कोसंरक्षण प्रदान करना है।
"
श्रेय: प्रजापालनमेव राज्ञोयत्साम्पराये सुकृतात्षष्ठटमंशम् ।
हर्तान्यथा हृतपुण्य: प्रजाना-मरक्षिता करहारोउघमत्ति ॥
१४॥
श्रेय:--शुभ; प्रजा-पालनम्--जनता पर शासन; एब--निश्चय ही; राज्ञ:--राजा के लिए; यत्--क्योंकि; साम्पराये--अगलेजन्म में; सु-कृतात्-पुण्यों से; षष्ठम् अंशम्--छठा भाग; हर्ता--संग्रह करने वाला; अन्यथा--नहीं तो; हृत-पुण्य:--पुण्य सेवश्चित; प्रजानामू-- प्रजा का; अरक्षिता--रक्षा न करने वाला; कर-हार:ः--कर वसूल करने वाला; अघम्--पाप; अत्ति--प्राप्तकरता है या भोगता है।
राजा का निर्दिष्ट धर्म है कि वह राज्य के सारे के सारे नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करे।
ऐसा करने से राजा को अगले जन्म में प्रजा के पुण्यों का छठा भाग प्राप्त होता है।
किन्तु जो राजाअथवा प्रशासक प्रजा से केवल कर वसूल करता है और नागरिकों को समुचित सुरक्षा प्रदाननहीं करता तो उसके पुण्य प्रजा छीन लेती है और सुरक्षा न प्रदान करने के बदले में उसे प्रजा केपापकर्मों का भागी होना पड़ता है।
"
एवं द्विजाछयानुमतानुवृत्त-धर्मप्रधानोउन्यतमोवितास्या: ।
हस्वेन कालेन गृहोपयातान्द्रष्टासि सिद्धाननुरक्तलोकः ॥
१५॥
एवम्--इस प्रकार; द्विज--ब्राह्मणों का; अछब--अग्रणी द्वारा; अनुमत--स्वीकृत; अनुवृत्त--गुरु परम्परा से प्राप्त; धर्म--धार्मिक सिद्धान्त; प्रधान:-- प्रमुख; अन्यतम: --अनासक्त; अविता--रक्षक; अस्या: --पृथ्वी का; हस्वेन--लघु; कालेन--समय से; गृह--अपने घर; उपयातान्--स्वतः आया हुआ; द्रष्टास--तुम देखोगे; सिद्धान्ू--सिद्ध पुरुष; अनुरक्त-लोक:--प्रजाका
प्रियभगवान् विष्णु ने आगे कहा : हे राजा पृथु, यदि तुम विद्वान् ब्राह्मणों से शिष्य परम्परा द्वाराप्राप्त आदेशों के अनुसार प्रजा का संरक्षण करते रहोगे और यदि तुम उनके द्वारा निर्दिष्ट धार्मिकनियमों का अनुसरण मनोरथों से अनासक्त रहकर करते रहोगे तो तुम्हारी सारी प्रजा सुखी रहेगीऔर तुमसे स्नेह रखेगी और तब तुम्हें शीघ्र ही सनकादि ( सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार )चारों कुमारों जैसे मुक्त पुरुषों के दर्शन हो सकेंगे।
"
वरं च मत्कदझ्जन मानवेन्द्रवृणीष्व तेहं गुणशीलयन्द्रित: ।
नाहं मखैर्वें सुलभस्तपोभि-योगेन वा यत्समचित्तवर्ती ॥
१६॥
वरम्--आशीर्वाद; च-- भी; मत्-- मुझसे; कज्लन--जो भी चाहो; मानव-इन्द्र--हे मनुष्यों के प्रमुख; वृणीष्व--माँगो; ते--तुम्हारा; अहम्-मैं; गुण-शील--उच्चगुणों तथा श्रेष्ठ आचरणों द्वारा; यन्त्रितः--मुग्ध होकर; न--नहीं; अहम्--मैं; मखै:--यज्ञों से; बै--निश्चय ही; सु-लभ:ः --सरलता से प्राप्त; तपोभि:--तपस्या द्वारा; योगेन--योगाभ्यास के द्वारा; वा--अथवा;यत्--जिससे; सम-चित्त--समभाव वालों में; वर्ती--स्थित |
हे राजन्, मैं तुम्हारे उच्च गुणों तथा उत्तम आचरण से मुग्ध और प्रभावित हूँ; अतः तुम मुझसेमनचाहा वर माँग सकते हो।
जो उत्तम गुणों तथा शील से युक्त नहीं है, वह मात्र यज्ञ, कठिनतपस्या अथवा योग के द्वारा मेरी कृपा प्राप्त नहीं कर सकता।
किन्तु जो समस्त परिस्थितियों मेंसमभाव बनाए रखता है, मैं उसके अन्तःकरण में सदैव सन्तुलित रहता हूं।
"
मैत्रेय उवाचस इत्थं लोकगुरुणा विष्वक्सेनेन विश्वजित् ।
अनुशासित आदेशं शिरसा जगूहे हरे: ॥
१७॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; सः--उसने; इत्थम्--इस प्रकार; लोक-गुरुणा--समस्त लोकों के परम स्वामी द्वारा;विष्वक्सेनेन-- भगवान् द्वारा; विश्व-जित्--विश्व पर विजय करने वाला ( महाराज पृथु ); अनुशासित:--आदेश दिया गया;आदेशम्--आदेश, आज्ञा; शिरसा--सिर से; जगृहे-- स्वीकार किया; हरेः-- भगवान् का।
महानू संत मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, इस प्रकार समस्त विश्व के जीतने वाले महाराजपृथु ने भगवान् के आदेशों को शिरोधार्य किया।
"
स्पृशन्तं पादयो: प्रेम्णा त्रीडितं स्वेन कर्मणा ।
शतक्रतुं परिष्वज्य विद्वेषं विससर्ज ह ॥
१८॥
स्पृशन्तम्-स्पर्श करते हुए; पादयो:--पाँवों का; प्रेम्णा--हर्षातिरिकवश; ब्रीडितम्--लज्जित; स्वेन-- अपने ही; कर्मणा--कार्यों से; शत-क्रतुम्--राजा इन्द्र को; परिष्वज्य--हृदय से लगाकर; विद्वेषम्--ईर्ष्या; विससर्ज--त्याग दिया; ह--निस्सन्देह |
राजा इन्द्र जो सामने खड़ा था, अपने कार्यो से अत्यन्त लज्जित हुआ और राजा पृथु केचरणकमलों का स्पर्श पाने के लिए उनके समक्ष गिर पड़ा।
किन्तु पृथु महाराज ने अत्यन्तहर्षातिरिक में उसे तुरन्त हृदय से लगा लिया और यज्ञ के अश्व को चुराने के कारण उत्पन्न समस्तईर्ष्या त्याग दी।
"
भगवानथ विश्वात्मा पृथुनोपहताईण: ।
समुज्जिहानया भक्त्या गृहीतचरणाम्बुज: ॥
१९॥
भगवान्-- भगवान्; अथ--तदनन्तर; विश्व-आत्मा--परमात्मा; पृथुना--राजा पृथु द्वारा; उपहत-प्रदत्त; अर्हण:--पूजा कीसारी सामग्री; समुज्जिहानया--क्रमशः वर्द्धित; भक्त्या--जिसकी भक्ति; गृहीत--पकड़ा हुआ; चरण-अम्बुज:--चरणकमल।
राजा पृथु ने अपने ऊपर कृपालु भगवान् के चरण-कमलों की प्रभूत पूजा की।
इस प्रकारभगवान् के चरणकमलों की आराधना करते हुए भक्ति में महाराज पृथु का आनन्द क्रमशःबढ़ता गया।
"
नप्रस्थानाभिमुखोप्येनमनुग्रहविलम्बित: ।
पश्यन्पदापलाशाक्षो न प्रतस्थे सुहृत्सताम् ॥
२०॥
प्रस्थान--जाने के लिए; अभिमुख: --उद्यत; अपि--यद्यपि; एनम्--उसको ( पृथु को ); अनुग्रह--दया से; विलम्बित:--रोकलिया गया; पश्यन्--देखते हुए; पद्म-पलाश-अक्ष:--जिसके नेत्र कमल की पंखुड़ियों के समान हैं; न--नहीं; प्रतस्थे--प्रस्थान किया; सुहत्-शुभेच्छु; सतामू-भक्तों का
भगवान् प्रस्थान करने ही वाले थे, किन्तु वे राजा पृथु के व्यवहार के प्रति इतने वत्सल होचले थे कि वे गये नहीं।
अपने कमलनेत्रों से महाराज पृथु के आचरण को देखकर वे रुक गये,क्योंकि वे सदा ही अपने भक्तों के हितैषी हैं।
"
स आदिराजो रचिताझ्लिहीरिंविलोकितुं नाशकदश्रुलोचन: ।
न किश्जनोवाच स बाष्पविक्लवोहृदोपगुह्यामुमधादवस्थित: ॥
२१॥
सः--वह; आदि-राज:--आदि राजा; रचित-अज्जलि:--हाथ जोड़े हुए; हरिम्ू-- भगवान् को; विलोकितुम्--देखने के लिए;न--नहीं; अशकत्--समर्थ था; अश्रु-लोचन:--अश्रुपूरित नेत्र; न--नहीं; किज्ञन--कुछ भी; उवाच--कहा; सः --उसने;बाष्प-विक्लव: --वाणी रुद्ध होने से, गद्गद् कण्ठ से; हदा--अपने हृदय से; उपगुहा--आलिंगन करके; अमुम्-- भगवान् को;अधात्--रहता रहा; अवस्थित: --खड़ा ।
नेत्रों में अश्रु भर आने तथा वाणी रुद्ध हो जाने आदि से राजा महाराज पृथु न तो ठीक सेभगवान् को देख सके और न भगवान् को सम्बोधित करके कुछ बोल सके।
उन्होंने केवलअपने हृदय के भीतर भगवान् का आलिंगन किया और हाथ जोड़े हुए उसी तरह खड़े रहे।
"
अथावमृज्याश्रुकला विलोकयनू-नतृप्तहग्गोचरमाह पूरुषम् ।
पदा स्पृशन्तं क्षितिमंस उन्नतेविन्यस्तहस्ताग्रमुरड्भविद्विष: ॥
२२॥
अथ--त्पश्चात्; अवमृज्य--पोंछ कर; अश्रु-कला:--अपने नेत्रों के अश्रु; विलोकयन्--देखते हुए; अतृप्त--असंतुष्ट; हक्-गोचरम्--आँखों को दिखाई पड़ने वाला; आह--कहा; पूरुषम्-- भगवान् को; पदा--अपने चरणकमलों से; स्पृशन्तम्--स्पर्शकरते हुए; क्षितिम्-पृथ्वी; अंसे--कंधे पर; उन्नते--उठा हुआ; विन्यस्त--बिखरा; हस्त--हाथ का; अग्रमू--अगला भाग;उरड्ु-विद्विष:--सर्पो के शत्रु, गरुड़ का।
भगवान् अपने चरण-कमलों से पृथ्वी को स्पर्श करते हुए खड़े थे और उनके हाथ काअगला भाग सर्पो के शत्रु गरुड़ के उन्नत कंधे पर था।
महाराज पृथु नेत्रों से अश्रु पोंछते हुएभगवान् को देखने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो राजा उन्हें देखकरअघा नहीं रहा था।
इस प्रकार राजा ने निम्नलिखित स्तुतियाँ अर्पिथ कीं।
"
पृथुरुवाचवरान्विभो त्वद्ठरदे श्वराद्दुध:कथं वृणीते गुणविक्रियात्मनाम् ।
ये नारकाणामपि सन्ति देहिनांतानीश कैवल्यपते वृणे नच ॥
२३॥
पृथु: उबाच--पृथु महाराज ने कहा; वरान्ू--आशीर्वाद, वर; विभो--हे परमेश्वर; त्वत्--तुमसे; बर-द-ईश्वरात्-- भगवान् से,जो वर देने वालों में अग्रणी हैं; बुध:--बुद्धिमान पुरुष; कथम्--कैसे; वृणीते--याचना कर सकता है; गुण-विक्रिया--प्रकृतिके गुणों से मोहग्रस्त; आत्मनाम्--जीवात्माओं का; ये--जो; नारकाणाम्--नरकवासी जीवात्माओं का; अपि-- भी; सन्ति-- हैं;देहिनाम्ू--देहधारियों का; तानू--वे सब; ईश--हे ईश्वर; कैवल्य-पते--तादात्म्य के दाता; वृणे--याचना करता हूँ; न--नहीं;च--भी |
हे प्रभो, आप वर देने वाले देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं।
अत: कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति आपसे ऐसेवर क्यों माँगेगा जो प्रकृति के गुणों से मोहग्रस्त जीवात्माओं के निमित्त हैं? ऐसे वरदान तो नरकमें वास करने वाली जीवात्माओं को भी अपने जीवन-काल में स्वतः प्राप्त होते रहते हैं।
हेभगवन्, आप निश्चित ही अपने साथ तादात्म्य प्रदान कर सकते हैं, किन्तु मैं ऐसा वर नहींचाहता।
"
न कामये नाथ तदप्यहं क्वचिन्-न यत्र युष्मच्चरणाम्बुजासव: ।
महत्तमान्तईदयान्मुखच्युतोविधत्स्व कर्णायुतमेष मे वर; ॥
२४॥
न--नहीं; कामये--इच्छा करता हूँ; नाथ--हे स्वामी; तत्ू--वह; अपि-- भी; अहम्--मैं; क्वचित्--किसी भी समय; न--नहीं; यत्र--जहाँ; युष्मत्--तुम्हारे; चरण-अम्बुज--चरणकमलों का; आसव:-- अमृत; महत्-तम--सबसे बड़े भक्तों के;अन्तः-हृदयात्--अन्तस्तल से; मुख--मुखों से; च्युतः--निकली; विधत्स्व-- प्रदान कीजिये; कर्ण--कान; अयुतम्ू--दसलाख; एष:--यह; मे--मेरा; वर:--वर |
हे भगवान्, मैं आपसे तादात्म्य के वर की इच्छा नहीं करता, क्योंकि इसमें आपके चरण-कमलों का अमृत रस नहीं है।
मैं तो दस लाख कान प्राप्त करने का वर माँगता हूँ जिससे मैंआपके शुद्ध भक्तों के मुखारविन्दों से आपके चरण-कमलों की महिमा का गान सुन सकूँ।
"
स उत्तमश्लोक महन्मुखच्युतोभवत्पदाम्भोजसुधा कणानिल: ।
स्मृति पुनर्विस्मृततत्त्ववर्त्मनांकुयोगिनां नो वितरत्यलं वरैः ॥
२५॥
सः--वह; उत्तम-श्लोक--चुने हुए श्लोकों से प्रशंसित, हे भगवान्; महत्--महान् भक्तों के; मुख-च्युतः--मुख से निकली;भवत्--आपके; पद-अम्भोज--चरणकमलों से; सुधा--अमृत के; कण--छोट-छोटे खण्ड; अनिल:--सुखकर वायु;स्मृतिमू--स्मरण शक्ति; पुनः--फिर; विस्मृत-- भूली हुईं; तत्त्त--सत्य के प्रति; वर्त्मनामू--ऐसे पुरुषों का जिनका पथ; कु-योगिनाम्ू--जो भक्ति में नहीं लगे, ऐसे पुरुषों का; नः--हम सबों का; वितरति--पुनः देता है; अलमू--वृथा; वरैः--अन्य वर।
हे भगवान्, महान् पुरुष आपका महिमा-गान उत्तम एलोकों द्वारा करते हैं।
आपके चरण-कमलों की प्रशंसा केसर कणों के समान है।
जब महापुरुषों के मुखों से निकली दिव्य वाणीआपके चरण-कमलों की केसर-धूलि की सुगन्ध का वहन करती है, तो विस्मृत जीवात्माआपसे अपने सम्बन्ध को स्मरण करता है।
इस प्रकार भक्त-गण क्रमशः जीवन के वास्तविकमूल्य को समझ पाते हैं।
अतः हे भगवान्, मैं आपके शुद्ध भक्त के मुख से आपके विषय मेंसुनने का अवसर प्राप्त करने के अतिरिक्त किसी अन्य वर की कामना नहीं करता।
"
यश: शिवं सुश्रव आर्यसड़्मेयहच्छया चोपश्रुणोति ते सकृत् ।
कथं गुणज्ञो विरमेद्विना पशुंश्रीर्यत्प्रवत्रे गुणसड्ग्रहेच्छया ॥
२६॥
यशः-कीर्ति; शिवम्--कल्याणकारी, मंगलमय; सु-भ्रव:--हे सुकीर्ति वाले भगवान्; आर्य-सड्डमे--उच्च भक्तों की संगतिमें; यहच्छया--जिस-तिस प्रकार, जैसे-तैसे; च--भी; उपश्रुणोति--सुनता है; ते--तुम्हारा; सकृतू--एक बार भी; कथम्--कैसे; गुण-ज्ञ:--उत्तम गुणों की प्रशंसा करने वाला; विरमेत्ू--रुक सकता है; विना--जब तक; पशुम्--पशु; श्री: --सम्पत्तिकी देवी, लक्ष्मीजी; यत्--जो; प्रवत्रे--स्वीकृत; गुण--आपके गुण; सड्ग्रह--प्राप्त करने की; इच्छया--इच्छा से |
हे अत्यन्त कीर्तिमय भगवान्, यदि कोई शुद्ध भक्तों की संगति में रहकर आपकेकार्यकलापों की कीर्ति का एक बार भी श्रवण करता है, तो जब तक कि वह पशु तुल्य न हो,वह भक्तों की संगति नहीं छोड़ता, क्योंकि कोई भी बुद्धिमान पुरुष ऐसा करने की लापरवाहीनहीं करेगा।
आपकी महिमा के कीर्तन और श्रवण की पूर्णता तो धन की देवी लक्ष्मी जी द्वारातक स्वीकार की गई थीं जो आपके अनन्त कार्यकलापों तथा दिव्य महिमा को सुनने की इच्छुकरहती थीं।
श" अथाभजे त्वाखिलपूरुषोत्तमं गुणालयं पद्यकरेव लालस: ।
अप्यावयोरेकपतिस्पृधो: कलि-न॑ स्यात्कृतत्वच्चरणैकतानयो: ॥
२७॥
अथ--अतः; आभजे--मैं भक्ति करूँगा; त्वा--तुम्हारे प्रति; अखिल--समस्त; पूरुष-उत्तमम्--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्; गुण-आलयमू--समस्त दिव्य गुणों के आगार; पदा-करा--कमल धारण करने वाली लक्ष्मीजी; इब--सहृश; लालस:--इच्छुक;अपि--निस्सन्देह; आवयो: --लक्ष्मी का तथा मेरा; एक-पति--एक स्वामी, पतिक्रता; स्पृधो: --स्पर्धा करते हुए; कलि:--झगड़ा; न--नहीं; स्थात्ू--हो सकता है; कृत--किया हुआ; त्वत्-चरण--आपके चरणकमलों के प्रति; एक-तानयो: --एकाग्रता
अब मैं भगवान् के चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहना और कमलधारिणी लक्ष्मीजी केसमान सेवा करना चाहता हूँ, क्योंकि भगवान् समस्त दिव्य गुणों के आगार हैं।
मुझे भय है किलक्ष्मीजी तथा मेरे बीच झगड़ा छिड़ जाएगा, क्योंकि हम दोनों एक ही सेवा में एकाग्र भाव सेलगे होंगे।
"
जगज्जनन्यां जगदीश वैशसंस्यादेव यत्कर्मणि न: समीहितम् ।
करोषि फल्ग्वप्युरु दीनवत्सलःस्व एव धिष्ण्येईभिरतस्य कि तया ॥
२८॥
जगतू-जनन्याम्-विश्व की माता ( लक्ष्मी ) में; जगत्-ईश--हे विश्व के स्वामी; वैशसम्--क्रो ध; स्थातू-- हो सकता है; एव--निश्चय ही; यत्-कर्मण--जिसके कार्य में; न:ः--मेरा; समीहितम्--आकांक्षा; करोषि--विचार करते हो; फल्गु--तुच्छ सेवा;अपि--यद्यपि; उरु-- अत्यधिक; दीन-वत्सल: --दीनों के प्रति स्नेह करने वाले; स्वे--अपने; एव--निश्चय ही; धिष्ण्ये--तुम्हारेऐश्वर्य में; अभिरतस्यथ--परम सन्तुष्ट का; किमू--क्या आवश्यकता; तया--उसके साथ ।
हे जगदीश्वर, लक्ष्मीजी विश्व की माता हैं, तो भी मैं सोचता हूँ कि उनकी सेवा में हस्तक्षेपकरने तथा उसी पद पर जिसके प्रति वे इतनी आसक्त हैं कार्य करने से, वे मुझसे क्रुद्ध हो सकतीहैं।
फिर भी मुझे आशा है कि इस भ्रम के होते हुए भी आप मेरा पक्ष लेंगे, क्योंकि आपदीनवत्सल हैं और भक्त की तुच्छ सेवाओं को भी बहुत करके मानते हैं।
अतः यदि वे रुष्ट भी होजाँय तो आपको कोई हानि नहीं होगी, क्योंकि आप आत्मनिर्भर हैं, अतः उनके बिना भीआपका काम चल सकता है।
"
भजन्त्यथ त्वामत एव साधवोव्युदस्तमायागुणविभ्रमोदयम् ।
भवत्पदानुस्मरणाहते सतांनिमित्तमन्यद्धगवन्न विद्दाहे ॥
२९॥
भजन्ति--पूजते हैं; अथ--अतः; त्वामू-तुमको; अतः एब--अतः; साधव: --सभी साधु पुरुष; व्युदस्त--जो दूर करते हैं;माया-गुण--प्रकृति के गुण; विभ्रम-- भ्रान्त विचार; उदयम्--उत्पन्न; भवत्-- आपके; पद--चरणकमल; अनुस्मरणात्--निरन्तर स्मरण करने से; ऋते--सिवाय; सताम्--महान् पुरुषों का; निमित्तमू--कारण; अन्यत्--अन्य; भगवन्--हे भगवान्;न--नहीं; विद्यहे-- समझता हूँ
बड़े-बड़े साधु पुरुष जो सदा ही मुक्त रहते हैं, आपकी भक्ति करते हैं, क्योंकि भक्ति केद्वारा ही इस संसार के मोहों से छुटकारा पाया जा सकता है।
हे भगवन्, मुक्त जीवों द्वारा आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने का एकमात्र कारण यही हो सकता है कि ऐसे जीव आपकेचरणकमलों का निरन्तर ध्यान धरते हैं।
"
मन्ये गिरं ते जगतां विमोहिनींवरं वृणीष्वेति भजन्तमात्थ यत् ।
वाचा नु तन्त्या यदि ते जनोसितः कथं पुनः कर्म करोति मोहित: ॥
३०॥
मन्ये--मानता हूँ; गिरमू--वाणी; ते--तुम्हारी; जगताम्-- भौतिक जगत के प्रति; विमोहिनीम्--मोहने वाली; वरम्--वर;वृणीष्व--स्वीकार करो ( माँगो ); इति--इस प्रकार; भजन्तम्ू--आपके भक्तों को; आत्थ--आपने कहा; यत्-- क्योंकि;वाचा--वेदों के कथन से; नु--निश्चय ही; तन्त्या--रस्सियों से; यदि--यदि; ते--तुम्हारे; जन: --सामान्य लोग; असितः --बँथेहुए नहीं; कथम्--कैसे; पुनः --फिर-फिर; कर्म--सकाम कर्म; करोति--करते हैं; मोहित:--मोहित होकर ।
हे भगवन्, आपने अपने विशुद्ध भक्त से जो कुछ कहा है, वह निश्चय ही अत्यन्त मोह मेंडालने वाला है।
आपने वेदों में जो लालच दिये हैं, वे शुद्ध भक्तों के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
सामान्य लोग वेदों की अमृतवाणी से बँधकर कर्मफल से मोहित होकर पुनः पुनः सकाम कर्मोंमें लगे रहते हैं।
"
त्वन्माययाद्धा जन ईश खण्डितोयदन्यदाशास्त ऋतात्मनोबुध: ।
यथा चरेद्वालहितं पिता स्वयंतथा त्वमेवाहसि न: समीहितुम् ॥
३१॥
त्वत्ू--तुम्हारी; मायया--माया द्वारा; अद्धा--निश्चय ही; जन:--सामान्यजन; ईश--हे भगवान्; खण्डित:--विभक्त; यत्--क्योंकि; अन्यत्--अन्य; आशास्ते--कामना करते हैं; ऋत--वास्तविक; आत्मन:--अपने से; अबुध:--बिना जाने; यथा--जिस प्रकार; चरेत्--प्रवृत्त होता है; बाल-हितम्--अपने बालक का कल्याण; पिता--पिता; स्वयम्--स्वतः; तथा--उसीप्रकार; त्वमू--आप; एव--निश्चय ही; अर्हसि न: समीहितुम्--मेरे हित में करें।
है भगवन्, आपकी माया के कारण इस भौतिक जगत के सभी प्राणी अपनी वास्तविकस्वाभाविक स्थिति भूल गये हैं और वे अज्ञानवश समाज, मित्रता तथा प्रेम के रूप में निरन्तरभौतिक सुख की कामना करते हैं।
अतः आप मुझे किसी प्रकार का भौतिक लाभ माँगने केलिए न कहें, बल्कि जिस प्रकार पिता अपने पुत्र द्वारा माँगने की प्रतीक्षा किये बिना उसकेकल्याण के लिए सब कुछ करता है, उसी प्रकार से आप भी जो मेरे हित में हो मुझे प्रदान करें।
"
मैत्रेय उवाचइत्यादिराजेन नुतः स विश्वद॒क्तमाह राजन्मयि भक्तिरस्तु ते ।
दिष्टय्रेदशी धीर्मयि ते कृता ययामायां मदीयां तरति सम दुस्त्यजाम् ॥
३२॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; आदि-राजेन--आदि राजा ( पृथु ) द्वारा; नुतः--पूजित होकर; सः--वह( भगवान् ); विश्व-हक्--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखने वाला; तम्--उससे; आह--कहा; राजन्--हे राजा; मयि--मुझमें;भक्ति:--भक्ति; अस्तु--ऐसा ही हो; ते--तुम्हारा; दिछ्य्या--सौभाग्य से; ईहशी--इस प्रकार की; धी:--बुद्धि; मयि--मुझमें;ते--तुम्हारे द्वारा; कृता--किया जाकर; यया--जिससे; मायाम्--माया को; मदीयाम्--मेरा; तरति--पार करता है; स्म--निश्चय ही; दुस्त्यजाम्-त्यागने में कठिन |
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा कि पृथु महाराज की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माण्ड के साक्षी भगवान् नेराजा को इस प्रकार सम्बोधित किया: हे राजन्, तुम्हारी मुझमें निरन्तर भक्ति बनी रहे।
ऐसे शुद्ध उद्देश्य से, जिसे तुमने बुद्धिमत्तापूर्वक व्यक्त किया है, दुर्लघ्य माया को पार किया जा सकता है।
"
तत्त्व कुरु मयादिष्टमप्रमत्त: प्रजापते ।
मदादेशकरो लोक: सर्वत्राप्णोति शोभनम् ॥
३३॥
तत्--अतः ; त्वम्--तुम; कुरू-- करो; मया--मेरे द्वारा; आदिष्टम्-- आज्ञा; अप्रमत्त:--दिग्भ्रमित हुए बिना; प्रजा-पते--हे प्रजाके स्वामी; मत्--मेरा; आदेश-करः--आज्ञा पालन करने वाला; लोक:--कोई व्यक्ति; सर्वत्र--सभी जगह; आणष्नोति--प्राप्तकरता है; शोभनमू-मड़ल।
हे प्रजा के पालक राजा, अब से मेरी आज्ञा का पालन करने में सावधानी बरतना और किसीभी प्रकार दिग्भ्रमित मत होना।
जो भी श्रद्धापूर्वक इस प्रकार मेरी आज्ञा का पालन करता हैउसका सर्वत्र मंगल होता है।
"
मैत्रेय उवाचइति वैन्यस्य राजर्षे: प्रतिनन्द्यार्थवद्धच: ।
पूजितो<नुगृहीत्वैनं गन्तुं चक्रे च्युतो मतिम् ॥
३४॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; वैन्यस्थ--राजा बेन के पुत्र ( पृथु महाराज ) का; राज-ऋषे:--राजर्षि का;प्रतिनन्य--आदर करके; अर्थ-बत् वच:--सारगर्भित प्रार्थना; पूजित:--पूजित होकर; अनुगृहीत्वा--अनुग्रह जता कर; एनम्--राजा पृथु; गन्तुम्--उस स्थान से जाने के लिए; चक्रे --निश्चय किया; अच्युत:--भूल न करने वाले, अर्थात् अचूक भगवान्;मतिम्--मन।
मैत्रेय वे विदुर से कहा कि भगवान् ने महाराज पृथु द्वारा की गई सारगर्भित प्रार्थना कीभूरि-भूरि प्रशंसा की।
इस प्रकार राजा द्वारा समुचित रूप से पूजित होकर भगवान् ने उन्हेंआशीर्वाद दिया और प्रस्थान का निश्चय किया।
"
देवर्षिपितृगन्धर्वसिद्धचारणपन्नगा: ।
किन्नराप्सरसो मर्त्या: खगा भूतान्यनेकशः ॥
३५॥
यज्ञेश्वरधिया राज्ञा वाग्वित्ताज्ललिभक्तित: ।
सभाजिता ययु: सर्वे वैकुण्ठानुगतास्ततः ॥
३६॥
देव--देवता; ऋषि--ऋषिगण; पितृ--पितृलोक के वासी; गन्धर्व--गन्धर्व लोक के वासी; सिद्ध--सिद्धलोक के वासी;चारण--चारणलोक के वासी; पन्नगाः--सर्पलोक के वासी; किन्नर--किन्नरलोक के वासी; अप्सरसः--अप्सरा लोक केवासी; मर्त्या:--पृथ्वी के वासी; खगा:--पक्षी; भूतानि--अन्य जीवात्माएँ; अनेकश:--अनेक; यज्ञ-ई ध्वर-धिया-- अपने कोपरमेश्वर का अंश मानने वाली बुद्धि से; राज्ञा--राजा द्वारा; वाक्ु--मधुर शब्दों से; वित्त--सम्पत्ति; अज्ललि--करबद्ध;भक्तित:--भक्तिभाव से; सभाजिता: -- भली भाँति पूजित; ययु:--चले गये; सर्वे--सभी; वैकुण्ठ-- भगवान् विष्णु के;अनुगता:--अनुचर; ततः--वहाँ से
राजा पृथु ने देवताओं, ऋषियों, पितृलोक, गंधर्वलोक, सिद्धलोक, चारणलोक,पन्नगलोक, किन्नरलोक, अप्सरो लोक तथा पृथ्वीलोक और पक्षियों के लोक के वासियों कीपूजा की।
उन्होंने यज्ञस्थल पर उपस्थित अन्य अनेक जीवों की पूजा की।
उन्होंने इन सबकी तथाभगवान् के पार्षदों की मधुर वचन तथा यथासम्भव धन के द्वारा, हाथ जोड़कर पूजा की।
इसउत्सव के बाद भगवान् विष्णु के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए वे सभी अपने-अपने लोकोंको चले गये।
"
भगवानपि राजर्षे: सोपाध्यायस्य चाच्युतः ।
हरन्निव मनोअमुष्य स्वधाम प्रत्यपद्मयत ॥
३७॥
भगवान्-- भगवान्; अपि-- भी; राज-ऋषे: --राजर्षि का; स-उपाध्यायस्य-- अन्य समस्त पुरोहितों सहित; च--भी; अच्युत:--अचूक भगवान्; हरन्ू--मोहते हुए; इव--निस्सन्देह; मन: --मन; अमुष्य--उसका; स्व-धाम-- अपने धाम को; प्रत्यपद्मयत--लौट गये।
राजा तथा वहाँ पर उपस्थित पुरोहितों के मनों को मोहित करने के बाद अच्युत भगवान्परव्योम में अपने धाम वापस चले गये।
"
अदृष्टाय नमस्कृत्य नृपः सन्दर्शितात्मने ।
अव्यक्ताय च देवानां देवाय स्वपुरं ययौ ॥
३८॥
अदृष्टाय--जो दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है उसको; नमः-कृत्य--नमस्कार करके; नृप:ः--राजा; सन्दर्शित-- अभिव्यक्त,प्रकट; आत्मने--परमात्मा को; अव्यक्ताय--जो भौतिक जगत में प्रकट न हो सके; च-- भी; देवानाम्--देवताओं के;देवाय--पर मे श्वर को; स्व-पुरम्ू-- अपने घर को; ययौ--लौट गये |
तत्पश्चात् राजा पृथु ने समस्त देवों के परम स्वामी भगवान् को सादर नमस्कार किया।
यद्यपिवे भौतिक दृष्टि से देखे जाने की वस्तु नहीं हैं, फिर भी भगवान् ने महाराज पृथु के नेत्रों के समक्षअपने को प्रकट किया।
भगवान् को नमस्कार करके राजा अपने घर चले आये।
"
अध्याय इक्कीसवाँ: महाराज पृथु द्वारा निर्देश
4.21मैत्रेय उवाचमौक्तिकै: कुसुमस्नग्भिर्दुकूलैः स्वर्णतोरणै: ।
महासुरभिभिर्धूपैमण्डितं तत्र तत्र वै ॥
१॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; मौक्तिके:--मोतियों से; कुसुम--फूलों की; स्त्रग्भिः--मालाओं से; दुकूलैः--वस्त्र से; स्वर्ण--सुनहले; तोरणै: --द्वारों से; महा-सुरभिभि:-- अत्यधिक सुगन्धित; धूपैः--धूप ( सुगन्धित द्रव्य ) से; मण्डितम्ू--अलंकृत; तत्रतत्र--वहाँ-वहाँ; वै--निश्चय ही।
महर्षि मैत्रेय ने विदुर से कहा : जब राजा ने अपनी नगरी में प्रवेश किया, तो उसके स्वागतके लिए नगरी को मोतियों, पुष्पहारों, सुन्दर वस्त्रों तथा सुनहरे द्वारों से सुन्दर ढंग से सजाया गयाथा और सारी नगरी अत्यन्त सुगन्धित धूप से सुवासित थी।
"
अन्दनागुरुतोयाद्ररथ्याचत्वरमार्गवत् ।
पुष्पाक्षतफलैस्तोक्मैलजिरचिंभिरचिंतम् ॥
२॥
'चन्दन--चन्दन; अगुरु--एक सुगन्धित बूटी, अरगजा; तोय--जल से; आई--छिड़का हुआ; रथ्या--रथमार्ग; चत्वर--छोटाउद्यान; मार्गवत्--गलियाँ; पुष्प--फूल; अक्षत-- अखंड, समूचे; फलैः--फलों के द्वारा; तोक्मै:--खनिज; लाजैः--गीले अन्न;अर्चिर्भि:--दीपकों से; अर्चितम्--सजाया गया।
नगर भर की गलियाँ, सड़कें तथा छोटे पार्क चन्दन तथा अरगजा के सुगन्धित जल से सींचदिये गये थे और सर्वत्र समूचे फलों, फूलों, भीगोए हुए अन्नों, विविध खनिजों तथा दीपों केअलंकरणों से सजे थे।
सभी मांगलिक वस्तुओं के दृश्य उपस्थित कर रहे थे।
"
सवृन्दे: कदलीस्तम्भे: पूणपोतैः परिष्कृतम् ।
तरुपल्लवमालाभिः सर्वतः समलड्डू तम् ॥
३॥
स-वृन्दै:--फूलों तथा फलों के सहित; कदली-स्तम्भेः--केले के ख भों से; पूग-पोतैः --सुपारी की टहनियों से; परिष्कृतम्--सुन्दर ढंग से स्वच्छ किये गये; तरू--नये पौधे; पललब-- आम की नवीन कोंपलें; मालाभि: --मालाओं से; सर्वतः--सर्वत्र;समलहड्डू तम्--अच्छी तरह सजाया हुआ।
चौराहों पर फलों तथा फूलों के गुच्छे एवं केले के ख भे तथा सुपारी की टहनियाँ लगाईगईं थी।
यह सारी सजावट मिलकर अत्यन्त आकर्षक लग रही थी।
"
प्रजास्तं दीपबलिभि: सम्भूताशेषमड़लैः ।
अभीयुर्मुष्ट कन्याश्व मृष्टकुण्डलमण्डिता: ॥
४॥
प्रजा:--नागरिक; तम्--उसको; दीप-बलिभि:--दीपों से; सम्भूत--सज्जित; अशेष--अपार; मड्लै: --मांगलिक सामग्री से;अभीयु:--स्वागत के लिए आगे आये; मृष्ट--सुन्दर कान्ति वाली; कन्या: च--तथा अविवाहित लड़कियाँ; मृष्ट--टकराते हुए;कुण्डल--कान का आभूषण; मण्डिता:--अलंकृत |
जब राजा ने नगर में प्रवेश किया, तो समस्त नागरिकों ने दीप, पुष्प तथा दधि जैसे अनेकमांगलिक द्रव्यों से उनका स्वागत किया।
राजा की अगवानी अनेक सुन्दर कन््याओं ने भी कीजिनके शरीर विविध आभूषणों से सुशोभित थे और जिनके कुण्डल परस्पर टकरा रहे थे।
"
शद्डुदुन्दुभिघोषेण ब्रह्मघोषेण चर्तिजाम् ।
विवेश भवन वीर: स्तूयमानो गतस्मय: ॥
५॥
शट्डभु--शंख; दुन्दुभि--दुन्दुभियों के; घोषेण--शब्द से; ब्रह्य--वैदिक; घोषेण--उच्चारण से; च-- भी; ऋत्विजाम्--पुरोहितोंके; विवेश-- प्रवेश किया; भवनम्--महल में; वीर: --राजा; स्तूयमान:--पूजित होकर; गत-स्मय:--अहंकार-रहित |
जब राजा ने महल में प्रवेश किया, तो शंख तथा दुन्दुभियाँ बजने लगीं, पुरोहित-गणवैदिक मंत्रों का उच्चारण करने लगे और बन्दीजन विभिन्न प्रकार से स्तुतिगान करने लगे।
किन्तुइतने स्वागत-समारोह के बावजूद राजा पर रज्जमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा।
"
पूजितः पूजयामास तत्र तत्र महायशा: ।
पौराज्जानपदांस्तांस्तान्प्रीतः प्रियवरप्रद: ॥
६॥
'पूजित:--पूजा जाकर; पूजयाम् आस--पूजा की; तत्र तत्र--जहाँ-तहाँ, सर्वत्र; महा-यशा:--महान् कार्य करने वाले; पौरान्--नगर के भद्र जन; जान-पदान्--सामान्य नागरिक; तान् तान्ू--उसी प्रकार से; प्रीतः--प्रसन्न किया; प्रिय-वर-प्रद:ः --समस्त वरदेने के लिए प्रस्तुत।
नगर के भद्र तथा सामान्य जनों ने राजा का हार्दिक स्वागत किया और राजा ने भी उन्हेंमनवांछित आशीर्वाद दिया।
"
स एवमादीन्यनवद्यचेष्टित:कर्माणि भूयांसि महान्महत्तम: ।
कुर्वन्शशासावनिमण्डलं यश:स्फीतं॑ निधायारुरुहे परं पदम् ॥
७॥
सः--राजा पृथु; एवम्--इस प्रकार; आदीनि-- प्रारम्भ से ही; अनवद्य--उदार; चेष्टित:--विभिन्न कार्य करते हुए; कर्माणि--कार्य; भूयांसि--बारम्बार; महान्ू--महान्; महत्-तम: --सबसे महान्; कुर्वन्ू--करते हुए; शशास--राज्य किया; अवनि-मण्डलम्--पृथ्वी पर; यश:--ख्याति; स्फीतम्--व्यापक; निधाय--प्राप्त करके; आरुरुहे -- प्राप्त किया; परम् पदम्-- परमे श्वरके चरणकमलों को ।
राजा पृथु महानतम से भी महान् महापुरुष थे, अतः वे सबों के पूज्य थे।
उन्होंने पृथ्वी परशासन करते हुए अनेक प्रशंसनीय कार्य किये और अत्यन्त उदार बने रहे।
ऐसी महान् सफलताप्राप्त कर तथा सारे विश्व में अपनी कीर्ति फैलाकर अन्त में वे भगवान् के चरणकमलों को प्राप्तहुए।
"
सूत उबाचतदादिराजस्य यशो विजृम्भितंगुणैरशेषैर्गुणवत्सभाजितम् ।
क्षत्ता महाभागवतः सदस्पतेकौषारविं प्राह गृणन्तमर्चयन् ॥
८॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; तत्--वह; आदि-राजस्य--आदि राजा की; यश: --ख्याति; विजृम्भितम्-- अत्यन्त योग्य;गुणैः--गुणों से; अशेषै: -- असीम; गुण-वत्--उपयुक्त; सभाजितम्-- प्रशंसित होकर; क्षत्ता--विदुर; महा-भागवत:--परम-भक्त; सदः-पते--ऋषियों के नायक; कौषारविमू--मैत्रेय से; प्राह-- कहा; गृणन्तम्--बातें करते; अर्चयन्--सादर नमस्कारकरते
सूत गोस्वामी ने आगे कहा : हे ऋषियों के नायक शौनक जी, संसार भर में अत्यन्त योग्य,महिमामंडित तथा जगत भर में प्रशंसित आदि राजा पृथु के विविध कार्यों के विषय में मैत्रेयऋषि को इस प्रकार कहते हुए सुनकर महान् भक्त विदुर ने अत्यन्त विनीत भाव से उनकी पूजाकी और उनसे निम्नानूसार प्रश्न किया।
"
विदुर उवाचसोभिषिक्तः पृथुर्विप्रैलब्धाशेषसुराहण: ।
बिश्रत्स वैष्णवं तेजो बाह्नोर्याभ्यां दुदोह गाम् ॥
९॥
विदुरः उबाच--विदुर ने कहा; सः--वह ( राजा पृथु ); अभिषिक्त:--राज्याभिषेक होने पर; पृथु:--राजा पृथु; विप्रै:--ऋषियोंतथा ब्राह्मणों द्वारा; लब्ध--प्राप्त: अशेष--असंख्य; सुर-अर्हण:--देवताओं द्वारा दिये गये उपहार; बिभ्रत्ू--विस्तार किया;सः--उसने; वैष्णवम्-- भगवान् विष्णु से प्राप्त; तेज:--शक्ति; बाह्नेः-- भुजाएँ; याभ्याम्--जिनसे; दुदोह--दुहा; गामू--पृथ्वीको
विदुर ने कहा: हे ब्राह्मण मैत्रेय, यह जानकर अत्यंत हर्ष हो रहा है कि ऋषियों तथाब्राह्मणों ने राजा पृथु का राज्याभिषेक किया।
सभी देवताओं ने उन्हें अनेक उपहार दिये और उन्होंने स्वयं भगवान् विष्णु से शक्ति प्राप्त करके अपने प्रभाव का विस्तार किया।
इस प्रकारउन्होंने पृथ्वी का अत्यधिक विकास किया।
"
को न्वस्य कीर्ति न श्रुणोत्यभिज्ञोयद्विक्रमोच्छिष्टमशेषभूपा: ।
लोकाः सपाला उपजीवन्ति काम-मद्यापि तन्मे वद कर्म शुद्धम् ॥
१०॥
कः--कौन; नु--लेकिन; अस्य--इस राजा पृथु की; कीर्तिम्ू--ख्याति; न श्रूणोति--नहीं सुनता; अभिज्ञ:--बुद्धिमान; यत्--उसका; विक्रम--वीरता; उच्छिष्टमू--जूठन; अशेष-- असंख्य; भूषा:--राजा; लोका:--लोक; स-पाला: --अपने देवताओंसहित; उपजीवन्ति--जीवन यापन करते हैं; कामम्--वांछित वस्तुएँ; अद्य अपि--आज भी; तत्--वह; मे--मुझसे; वद--कृपया कहो; कर्म--कार्य ; शुद्धमू--शुभ
पृथु महाराज के कर्म इतने महान् थे और उनकी शासन-प्रणाली इतनी उदार थी कि आजभी सभी राजा तथा विभिन्न लोकों के देवता उनके चरण-चिह्नों पर चलते हैं।
भला ऐसा कौनहोगा जो उनकी कीर्तिमय कार्यों को सुनना नहीं चाहेगा ? उनके कर्म इतने पवित्र तथा शुभ हैं किमैं उनके सम्बन्ध में पुनः पुनः सुनना चाहता हूँ।
"
मैत्रेय उवाचगड्जयमुनयोर्नद्योरन्तरा क्षेत्रमावसन् ।
आरब्धानेव बुभुजे भोगान्पुण्यजिहासया ॥
११॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; गड्भा--गंगा नदी; यमुनयो:--यमुना नदी के; नद्यो:--दो नदियों के; अन्तरा--मध्यवर्ती ;क्षेत्रमू-- भूमि में; आवसन्--रहते हुए; आरब्धान्-- प्रारब्धवश; एव--सहृश; बुभुजे-- भोग किया; भोगान्--सम्पत्ति; पुण्य--पवित्र कार्य; जिहासया--कम करने के लिए।
मैत्रेय ऋषि ने विदुर से कहा : हे विदुर, राजा पृथु गंगा तथा यमुना इन दो महान् नदियों केमध्यवर्ती भूभाग में रहते थे।
वे अत्यन्त ऐश्वर्यवान थे, अतः ऐसा प्रतीत होता था मानो अपने पूर्वपुण्यों के फल को कम करने के लिए ही प्रारब्ध से प्राप्त सम्पत्ति का भोग कर रहे थे।
"
सर्वत्रास्खलितादेश: सप्तद्वीपैकदण्डधृक् ।
अनन्यत्र ब्राह्मणकुलाद-न्यत्राच्युतगोत्रतः ॥
१२॥
सर्वत्र--सभी स्थानों पर; अस्खलित--अखण्ड, अटल; आदेश:--आज्ञा; सप्त-द्वीप--सात द्वीप; एक--एक; दण्ड- धूक्ू --राजदण्ड धारण करने वाला; अन्यत्र--के अतिरिक्त; ब्राह्मण-कुलात्--ब्राह्मण तथा साधु पुरुष; अन्यत्र--के अतिरिक्त;अच्युत-गोत्रतः-- भगवान् के वंशज ( वैष्णव )
महाराज पृथु चक्रवर्ती राजा थे और इस भूमण्डल के सातों द्वीपों पर शासन करने के लिएराजदण्ड धारण करने वाले थे।
उनके अटल आदेश का उल्लंघन साधु-जनों, ब्राह्मणों औरवैष्णवों के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता था।
"
एकदासीन्महासत्रदीक्षा तत्र दिवौकसाम् ।
समाजो ब्रह्मर्षणां च राजर्षीणां च सत्तम ॥
१३॥
एकदा--एक बार; आसीतू--ब्रत लिया; महा-सत्र--महान् यज्ञ; दीक्षा--दी क्षा; तत्र--उस उत्सव में; दिव-ओकसामू--देवताओं का; समाज:--सभा; ब्रह्म-ऋषीणाम्--परम साधु ब्राह्मणों का; च-- भी; राज-ऋषीणाम्--परम साधु राजाओं का;च--भी; सत्-तम--सबसे महान् भक्त
एक बार राजा पृथु ने एक महान् यज्ञ सम्पन्न करने का ब्रत लिया जिसमें ऋषि, ब्राह्मण,स्वर्गलोक के देवता तथा बड़े-बड़े राजर्षि एकत्र हुए।
"
तस्मिन्नईत्सु सर्वेषु स्वर्चितेषु यथाईतः ।
उत्थितः सदसो मध्ये ताराणामुडुराडिव ॥
१४॥
तस्मिन्--उस सभा में; अ्हत्सु--पूज्यों का; सर्वेषु--सभी; सु-अर्चितेषु-- भली-भाँति पूजित; यथा-अर्हत:--योग्यता केअनुसार; उत्थितः:--उठकर खड़े हो गये; सदस:--सभासदों के; मध्ये--बीच; ताराणाम्--तारों के; उडु-राट्--चन्द्रमा; इब--सहश।
उस महान् सभा में महाराज पृथु ने सर्वप्रथम समस्त सम्मानीय अतिथियों की उनके पदों केअनुसार यथा-योग्य पूजा की।
फिर वे उस सभा के मध्य में खड़े हो गये।
ऐसा प्रतीत हुआ मानोतारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा का उदय हुआ हो।
"
प्रांश: पीनायतभुजो गौर: कजञ्जारुणेक्षण: ।
सुनासः सुमुखः सौम्य:ः पीनांस: सुद्विजस्मित: ॥
१५॥
प्रांश:--अत्यन्त ऊँचा; पीन-आयत--पूर्ण तथा चौड़ी; भुज:--बाँहें; गौर: --गोरे रंग का; कञ्ल--कमल के समान; अरुण-ईक्षण:--चमकीले नेत्र, जो सूर्योदय के समान हैं; सु-नास:--सीधी नाक; सु-मुख: --सुन्दर मुँह; सौम्य: --सौम्य; पीन-अंस:ः--उठे हुए कंधे; सु--सुन्दर; द्विज--दाँत; स्मित:--हँसते हुए।
राजा पृथु का शरीर अत्यन्त ऊँचा और पुष्ठ था और उनका रंग गोरा था।
उनकी बाहें पूर्णतथा चौड़ी और नेत्र उदीयमान सूर्य के समान चमकीले थे।
उनकी नाक सीधी, मुख अत्यन्तसुन्दर तथा व्यक्तित्व सौम्य था।
मुस्कान से युक्त उनके मुख में दाँत सुन्दर ढंग से लगे थे।
"
व्यूढवक्षा बृहच्छोणिवलिवल्गुदलोदर: ।
आवर्तनाभिरोजस्वी काझ्जनोरुरुदग्रपात् ॥
१६॥
व्यूढड--चौड़ी; वक्षा:--छाती; बृहत्-श्रोणि:-- चौड़ी कमर; वलि--झुर्रियाँ, सिलवट; वल्गु--अत्यन्त सुन्दर; दल--वटवृक्ष कीपत्ती के समान; उदरः--पेट; आवर्त--कुण्डलीदार; नाभि:--नाभि; ओजस्वी--प्रकाशयुक्त; काञ्नन--सुनहली; उरु:--जाँँें;उदग्र-पात्-- उभरे हुए पंजे।
महाराज पृथु की छाती चौड़ी थी, उनकी कमर अत्यन्त स्थूल तथा उनका उदर बल पड़े हुएहोने के कारण वट वृक्ष की पत्तियों की रचना के समान लग रहा था।
उनकी नाभि भौँवर जैसीतथा गहरी, उनकी जाँघें सुनहरे रंग की तथा उनके पंजे उभरे हुए थे।
"
सूक्ष्मवक्रासितस्निग्धमूर्धज: कम्बुकन्धरः ।
महाधने दुकूलाछये परिधायोपवीय च ॥
१७॥
सूक्ष्म--अत्यन्त महीन; वक्र--घुँघराले; असित--काले; स्निग्ध--चिकने; मूर्थज:--सिर के बाल; कम्बु--शंख सहश;कन्धरः --गला; महा-धने--अत्यन्त मूल्यवान; दुकूल-अछये -- धोती पहने; परिधाय--शरीर के ऊपरी भाग में; उपबीय--जनेऊके समान रखा हुआ; च--भी |
उनके सिर के काले तथा चिकने बाल अत्यन्त सुन्दर तथा घुँघराले थे और शंख जैसी गरदनशुभ रेखाओं से अलंकृत थी।
बे अत्यन्त मूल्यवान धोती पहने थे और शरीर के ऊपरी भाग मेंसुन्दर सी चादर ओडढ़े थे।
"
व्यज्ञलिताशेषगात्रश्रीनियमे न््यस्तभूषण: ।
कृष्णाजिनधर: श्रीमान्कुशपाणि: कृतोचित: ॥
१८ ॥
व्यद्ञित--सूचित; अशेष--असंख्य; गात्र--शारीरिक; श्री:--शोभा; नियमे--नियमित; न्यस्त--त्यक्त; भूषण: --वस्त्र;कृष्ण--काला; अजिन-- चमड़ी; धर:-- धारण किये; श्रीमान्--सुन्दर; कुश-पाणि:--उँगलियों में कुश धारण किये; कृत--सम्पन्न किया; उचितः--वाउिछत |
चूँकि महाराज को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दीक्षित किया जा रहा था, अतः उन्हें अपनेबहुमूल्य वस्त्र उतारने पड़े थे, जिससे उनका प्राकृतिक शारीरिक सौन्दर्य दृष्टिगोचर हो रहा था।
उन्हें काला मृग चर्म पहने तथा उँगली में कुश-वलय ( पैती ) पहने देखकर अच्छा लग रहा था,क्योंकि इससे उनकी शारीरिक कान्ति बढ़ गई थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि यज्ञ के पूर्व महाराजपृथु समस्त विधि-सम्मत कृत्य सम्पन्न कर चुके थे।
"
शिशिरस्निग्धताराक्ष: समैक्षत समन्ततः ।
ऊचिवानिदमुर्वीश: सद:ः संहर्षयन्निव ॥
१९॥
शिशिर--ओस; स्निग्ध--गीला; तारा--नक्षत्र; अक्ष:--आँखें ; समैक्षत--देखा; समन्तत:--चारों ओर; ऊचिवान्--बोलनेलगा; इृदम्--यह; उर्वीश:--अत्यन्त सम्मान्य; सदः--सदस्यों के मध्य; संहर्षबन्--उनकी प्रसन्नता को बढ़ाते हुए; इब--मानो |
सभा के सदस्यों को प्रोत्साहित करने तथा उनकी प्रसन्नता को बढ़ाने के लिए राजा पृथु ने,ओस से नम आकाश में तारों के समान नेत्रों से, उन पर दृष्टि फेरी और फिर गम्भीर वाणी मेंउनसे कहा।
"
चारु चित्रपदं एलक्ष्णं मृष्ट गूहमविक्लवम् ।
सर्वेषामुपकारार्थ तदा अनुवदन्निव ॥
२०॥
चारु--सुन्दर; चित्र-पदम्--अलंकारिक; श्लक्ष्णम्--अत्यन्त स्पष्ट; मृष्टमू--महान्; गूढम््--सार्थक; अविक्लवम्--निःशंक;सर्वेषामू--सबों को; उपकार-अर्थम्--लाभ पहुँचाने के लिए; तदा--उस समय; अनुवदन्--दुहराने लगा; इब--समान।
महाराज पृथु की वाणी अत्यन्त सुन्दर आलंकारिक भाषा से युक्त, सुस्पष्ट तथा श्रुतिमधुरथी।
उनके शब्द अत्यन्त गभ्भीर तथा अर्थवान् थे।
ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे बोलते समयपरम सत्य सम्बन्धी अपनी निजी अनुभूति व्यक्त कर रहे थे जिससे वहाँ पर उपस्थित सभी लोगलाभ उठा सकें।
"
राजोबाचसभ्या: श्रणुत भद्वं वः साधवो य इहागता: ।
सत्सु जिज्ञासुभिर्धर्ममावेद्यं स््वमनीषितम् ॥
२१॥
राजा उबाच--राजा ने कहा; सभ्या:--हे देवियों और सज्जनों; श्रुणुत--कृपा करके सुनिये; भद्रमू--कल्याण; व: --तुम्हारा;साधव: --समस्त महापुरुष; ये--जो; इह--यहाँ; आगता: --उपस्थित; सत्सु-- भद्ग पुरुषों के प्रति; जिज्ञासुभि:--जानने केइच्छुक; धर्मम्-धार्मिक नियम; आवेद्यमू--निवेदन करे; स्व-मनीषितम्--अपना-अपना निश्चय
राजा पृथु ने कहा : हे सभासदो, आप सब का कल्याण हो।
जितने भी महापुरुष इस सभामें उपस्थित हुए हैं, बे मेरी प्रार्थना को ध्यानपूर्वक सुनें।
जो भी व्यक्ति वास्तव में कुछ जानने काइच्छुक हो वह भद्ग-जनों की इस सभा के समक्ष अपना निश्चय प्रस्तुत करे।
"
अहं दण्डधरो राजा प्रजानामिह योजितः ।
रक्षिता वृत्तिदः स्वेषु सेतुषु स्थापिता पृथक् ॥
२२॥
अहम्--ैं; दण्ड-धर:--राजदण्ड धारण करने वाला; राजा--राजा; प्रजानाम्-- प्रजा का; इह--इस संसार में; योजित:--तत्पर; रक्षिता--रक्षक; वृत्ति-द:--आजीविका देने वाला; स्वेषु--अपने आप में; सेतुषु--अपनी-अपनी सामाजिक व्यवस्थाओं( मर्यादा ) में; स्थापिता--स्थापित; पृथक्ू--अलग-अलग
राजा पृथु ने आगे कहा : भगवत्कृपा से मैं इस लोक का राजा नियुक्त हुआ हूँ और मैं प्रजाके ऊपर शासन करने, उसे विपत्ति से बचाने तथा वैदिक आदेश से स्थापित सामाजिक व्यवस्थामें प्रत्येक की स्थिति के अनुसार उसे आजीविका प्रदान करने के लिए यह राजदण्ड धारण कररहा हूँ।
"
तस्य मे तदनुष्ठानाद्यानाहुर्ब्रह्यवादिन: ।
लोकाः स्यु: कामसन्दोहा यस्य तुष्यति दिष्टटक् ॥
२३॥
तस्य--उसका; मे--मेरा; ततू--उस; अनुष्ठानातू--सम्पन्न करने से; यान्ू--वह जो; आहुः--कहा जाता है; ब्रह्म-वादिन: --वैदिक ज्ञान के वेत्ता; लोका:-- भूखंड; स्यु:--होए; काम-सन्दोहा:--इच्छित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए; यस्थ--जिसका;तुष्यति--संतुष्ट होता है; दिष्ट-हक्--नियति का द्रष्टा।
महाराज पृथु ने कहा : मेरा विचार है कि राजा के कर्तव्य-पालन करने से मैं बैदिक ज्ञान केवेत्ताओं द्वारा वर्णित अभीष्ट उद्देश्य प्राप्त कर सकूंगा।
यह गन्तव्य निश्चय ही भगवान् की प्रसन्नतासे प्राप्त होता है, जो समस्त नियति का द्रष्टा है।
"
य उच्रेत्करं राजा प्रजा धर्मेष्वशिक्षयन् ।
प्रजानां शमलं भुड्ढे भगं च स्वं जहाति सः ॥
२४॥
यः--जो कोई ( राजा या शासक ); उद्धरेत्--वसूल करते हैं; करम्--कर, टैक्स; राजा--राजा; प्रजा:--नागरिक; धर्मेषु--अपने-अपने कर्तव्यों में; अशिक्षयन्--उन्हें उनके कर्तव्यों की शिक्षा दिये बिना; प्रजानामू--नागरिकों का; शमलम्--अपवित्र;भुड़े -- भोगता है; भगम्--धन; च--भी; स्वम्--अपना; जहाति--त्यागता है; सः--वह राजा |
कोई राजा जो अपनी प्रजा को वर्ण तथा आश्रम के अनुसार अपने-अपने कर्तव्यों को करनेकी शिक्षा न देकर उनसे केवल कर और उपकर वसूल करता है, उसे प्रजा द्वारा किये गयेअपवित्र कार्यों के लिए दण्ड भोगना होता है।
ऐसी अवनति के साथ ही राजा की अपनी सम्पदाभी जाती रहती है।
"
तत्प्रजा भर्तृपिण्डार्थ स्वार्थमेवानसूयव: ।
कुरुताधोक्षजधियस्तर्हि मेउनुग्रह: कृतः ॥
२५॥
तत्--अतः; प्रजा:--हे प्रजागण; भर्तू--स्वामी के; पिण्ड-अर्थम्--मृत्यु के पश्चात् कल्याण; स्व-अर्थम्--अपना हित; एब--निश्चय ही; अनसूयव:--बिना ईर्ष्या के; कुरुत--करो; अधोक्षज-- भगवान्; धिय:--उनका चिन्तन; तहिं--अतः; मे--मुझपर; अनुग्रह:--कृपा; कृत:ः--की गई।
पृथु महाराज ने आगे कहा : अतः प्रिय प्रजाजनों, तुम्हें अपने राजा की मृत्यु के बाद उसकेकल्याण के लिए वर्ण तथा आश्रम की अपनी-अपनी स्थितियों के अनुसार अपने-अपने कर्तव्योंका उचित ढंग से पालन करना चाहिए और उस के साथ ही अपने हृदयों में भगवान् का निरन्तरचिन्तन करना चाहिए।
ऐसा करने से तुम अपने हितों की रक्षा कर सकोगे और अपने राजा कीमृत्यु के उपरान्त उसके कल्याण के लिए अनुग्रह प्रदान कर सकोगे।
"
यूयं तदनुमोदध्व॑ पितृदेवर्षयोमला: ।
कर्तुः शास्तुरनुज्ञातुस्तुल्य॑ यत्प्रेत्य तत्फलम् ॥
२६॥
यूयम्--यहाँ पर उपस्थित तुम सभी; तत्--उस; अनुमोदध्वम्--मेरे प्रस्ताव का अनुमोदन करें; पितृ--पितृलोक से आने वालेलोग; देव--स्वर्ग से आने वाले लोग; ऋषय:--बड़े-बड़े मुनि तथा साधुपुरुष; अमला:--पापकर्मो से निर्मल; कर्तु:--कर्ता;शास्तु:--आज्ञा देने वाला; अनुज्ञातु:--समर्थक का; तुल्यम्--समान; यत्--जो; प्रेत्य--मरकर; तत्ू--वह; फलमू--फल।
मैं समस्त शुद्ध अन्तःकरण वाले देवताओं, पितरों तथा साथधुपुरुषों से प्रार्थना करता हूँ कि वेमेरे प्रस्ताव का समर्थन करें, क्योंकि मृत्यु के पश्चात् किसी भी कर्म का फल इसके कर्ता,आदेशकर्ता तथा समर्थक के द्वारा समान रूप से भोग्य होता है।
"
अस्ति यज्ञपतिर्नाम केषाञ्ञिदर्हसत्तमा: ।
इहामुत्र च लक्ष्यन्ते ज्योत्स्नावत्य: क्वचिद्धुव:ः ॥
२७॥
अस्ति--है; यज्ञ-पति:--समस्त यज्ञों का भोक्ता; नाम--नामक; केषाझ्लित्ू--कुछ के मत से; अह-सत्तमा:--हे माननीय;इह--इस लोक में; अमुत्र--मृत्यु के बाद; च--भी; लक्ष्यन्ते--दृष्टिगोचर हैं; ज्योत्स्ना-वत्य:--शक्तिमान, सुन्दर; क्वचित्--कहीं कहीं; भुवः--शरीर
माननीय देवियो तथा सज्जनो, शास्त्रों के प्रामाणिक कथनों के अनुसार कोई ऐसा परमअधिकारी होना चाहिए जो हमें अपने-अपने वर्तमान कार्यों के अनुसार पुरस्कृत कर सके।
अन्यथा इस जीवन में तथा मृत्यु के बाद के जीवन में कुछ लोग असामान्य सुन्दर तथा शक्तिमानक्योंकर हो सकते हैं ?"
मनोरुत्तानपादस्य श्रुवस्थापि महीपते: ।
प्रियब्रतस्य राजर्षेरड्रस्यास्मत्पितु: पितु: ॥
२८॥
ईहृशानामथान्येषामजस्य च भवस्य च ।
प्रह्मदस्य बलेश्रापि कृत्यमस्ति गदाभूृता ॥
२९॥
मनो:--मनु ( स्वायंभुव मनु ) के; उत्तानपादस्य-- श्रुव महाराज के पिता उत्तानपाद के; ध्रुवस्थ-- ध्रुव महाराज के; अपि--निश्चयही; मही-पतेः--राजा के; प्रियत्रतस्थ-- श्वुव महाराज के परिवार में प्रियत्रत के ; राजर्षे: --राजर्षि का; अड्डस्य--अड़ के;अस्मत्-मेरे; पितु:--पिता के; पितु:--पिता के; ईहशानाम्--ऐसे महापुरुषों के; अथ-- भी; अन्येषाम्--अन्यों के; अजस्थ--परम अमर के; च-- भी; भवस्य--जीवात्माओं के ; च-- भी; प्रह्मदस्य--महाराज प्रह्माद के; बलेः--महाराज बलि के; च--भी; अपि--निश्चय ही; कृत्यम्--उनके द्वारा स्वीकार किया हुआ; अस्ति-- है; गदा-भूता--गदा धारण करने वाले भगवान् |
इसकी पुष्टि न केवल वेदों के साक्ष्य से होती है, अपितु मनु, उत्तानपाद, श्रुव, प्रियत्रत तथामेरे पितामह अंग एवं महाराज प्रह्मद तथा बलि जैसे अन्य महापुरुषों तथा सामान्य व्यक्तियों केव्यक्तिगत आचरण द्वारा होती है।
ये सभी आस्तिक थे और गदाधारी भगवान् के अस्तित्व मेंविश्वास करने वाले थे।
"
दौहित्रादीनृते मृत्यो: शोच्यान्धर्मविमोहितान् ।
वर्गस्वर्गापवर्गाणां प्रायेणैकात्म्यहेतुना ॥
३०॥
दौहित्र-आदीनू--मेरे पिता बेन जैसे दौहित्र; ऋते--के अतिरिक्त; मृत्यो:--मृत्यु के; शोच्यान्ू--शोचनीय; धर्म-विमोहितानू--धर्म के पथ पर मोहग्रस्त हुए; वर्ग--धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष; स्वर्ग--स्वर्गलोक तक ऊपर उठना; अपवर्गाणामू-- भौतिककल्मष से मुक्त; प्रायेण--प्रायः; एक--एक; आत्म्य-- श्री भगवान्; हेतुना--के कारण |
यद्यपि धर्म के पथ पर साक्षात् मृत्यु के दौहित्र तथा मेरे पिता वेन जैसे शोचनीय पुरुषमोहग्रस्त हो जाते हैं, किन्तु ऊपर जिन समस्त महापुरुषों का उल्लेख हुआ है, वे यह स्वीकारकरते हैं कि चतुर्वर्गो--धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--का अथवा स्वर्ग के एकमात्र दाता पूर्णपुरुषोत्तम परमेश्वर हैं।
"
यत्पादसेवाभिरुचिस्तपस्विना-मशेषजन्मोपचितं मल॑ धियः ।
सद्यः क्षिणोत्यन्वहमेधती सतीयथा पदाडुष्ठविनि:सृता सरित् ॥
३१॥
यत्-पाद--जिनके चरणकमल की; सेवा--सेवा; अभिरुचि: --रुचि; तपस्विनामू--कठिन तपस्या करने वाले व्यक्ति;अशेष--असंख्य; जन्म--जन्म; उपचितम्--ग्रहण करते हैं; मलम्--गन्दगी; धिय:--मन; सद्यः--शीघ्र; क्षिणोति--नष्ट करताहै; अन्वहम्-- प्रतिदिन; एधती--बढ़ने वाली; सती--होते हुए; यथा--जिस प्रकार; पद-अड्डुष्ट--चरणकमलों के अँगूठे से;विनिःसृता--निकला; सरित्--जल।
भगवान् के चरणकमलों की सेवा के लिए अभिरुचि होने से सन्तप्त मनुष्य अपने मन मेंअसंख्य जन्मों से संचित मल को शीघ्र ही धो सकते हैं।
जिस तरह भगवान् के चरणकमलों केश़ अँगूठों से निकलने वाला गंगा जल सब मलों को धो देता है, उसी प्रकार इस विधि से मन तुरन्तही स्वच्छ हो जाता है और धीरे-धीरे आध्यात्मिकता अथवा कृष्णचेतना का विकास होता है।
"
विनिर्धुताशेषमनोमल: पुमा-नसड्डविज्ञानविशेषवीर्यवान् ।
यदड्प्रिमूले कृतकेतनः पुनर्न संसृतिं क्लेशवहां प्रपद्यते ॥
३२॥
विनिर्धुत--विशेष रूप से धुला हुआ; अशेष--अनन्त; मन:-मलः--मानसिक चिन्तन अथवा मन का संचित मल; पुमान्--पुरुष; असड्र--ऊब कर; विज्ञान--वैज्ञानिक ढंग से; विशेष--विशेष रूप से; वीर्य-वान्--भक्तियोग से पुष्ट; यत्ू--जिसके;अड्प्रि--चरणकमल की; मूले--जड़ में; कृत-केतन:--शरण में जाकर; पुनः--फिर; न--कभी नहीं; संसूतिमू--संसार को;क्लेश-वहाम्-कष्टों से पूर्ण; प्रपद्यते--ग्रहण करता है |
जब भक्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरणकमलों की शरण में आ जाता है, तो उसका साराअज्ञान या कपोल कल्पनाएं धुल जाते हैं और उसमें वैराग्य प्रकट होने लगता है।
यह तभीसम्भव है, जब वह भक्तियोग के अभ्यास से परिपुष्ट हो ले।
एक बार भगवान् के चरणकमलोंकी शरण ग्रहण कर लेने पर भक्त कभी भी इस संसार में लौटना नहीं चाहता, जो तीन प्रकार केतापों ( क््लेशों ) से भरा हुआ है।
"
मनोवच:कायगुणै: स्वकर्मभि: ।
अमायिनः कामदुघाडूप्रिपड्डजंयथाधिकारावसितार्थसिद्धयः ॥
३३॥
तम्--उसको; एव--निश्चय ही; यूयम्ू--तुम समस्त नागरिक; भजत--पूजा करो; आत्म--अपना; वृत्तिभि:--वृत्तिपरक कार्यद्वारा; मनः--मन; बच: --वाणी; काय--शरीर; गुणैः--विशिष्ट गुणों द्वारा; स्व-कर्मभि: -- अपने-अपने कर्मों से; अमायिन:--बिना हिचक; काम-दुघ--समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाले; अड्प्रि-पड्डूजम्ू--चरणकमल की; यथा--जिस प्रकार;अधिकार--सामर्थ्य; अवसित-अर्थ--अपने हित के विषय में पूरी तरह आश्वस्त; सिद्धयः--तुष्टि |
पृथु महाराज ने अपने प्रजाजनों को उपदेश दिया : तुम सबों को अपने मन, वचन, देह तथाकर्मो के फल सहित सदैव खुले मन से भगवान् की भक्ति करनी चाहिए।
तुम सब अपनीसामर्थ्य तथा वृत्तिपरक कार्यों के अनुसार पूरे विश्वास तथा बिना हिचक के भगवान् केचरणकमलों की सेवा में संलग्न रहो।
तब निश्चय ही तुम्हें अपने-अपने जीवन-उद्देश्य प्राप्त करनेमें सफलता प्राप्त होगी।
"
असाविहानेकगुणोगुणो ध्वरःपृथग्विधद्रव्यगुणक्रियोक्तिभि: ।
सम्पद्यतेर्थाशयलिड्रनामभि-विशुद्धविज्ञानघन: स्वरूपत: ॥
३४॥
असौ-- भगवान्; इह--इस संसार; अनेक--विभिन्न; गुण: --गुण; अगुण: --दिव्य; अध्वर: --यज्ञ; पृथक्-विध--किस्में;द्रव्य-- भौतिक तत्त्व; गुण--अवयव; क्रिया--कार्य; उक्तिभि: --विभिन्न मंत्रों के उच्चारण से; सम्पद्यते--पूजा जाता है;अर्थ--हित; आशय--प्रयोजन; लिड्ड--रूप; नामभि:--नाम से; विशुद्ध--कल्मषरहित; विज्ञान--विज्ञान; घन: --घनी भूत;स्व-रूपत:--अपने निजी रूप में |
भगवान् दिव्य हैं।
वे इस भौतिक जगत द्वारा कलुषित नहीं होते।
यद्यपि वे घनीभूत आत्मा हैंजिसमें कोई भौतिक विविधता नहीं है, किन्तु फिर भी बद्धजीव के लाभ हेतु वे विभिन्न भौतिकतत्त्वों, अनुष्ठानों तथा मंत्रों द्वारा यज्ञकर्ता के मनोरथों एवं उद्देश्यों के अनुसार विविध नामों सेदेवताओं को समर्पित होने वाले यज्ञों को स्वीकार करते हैं।
"
प्रधानकालाशयधर्मसड्ग्रहेशरीर एष प्रतिपद्य चेतनाम् ।
क्रियाफलत्वेन विभुर्विभाव्यतेयथानलो दारुषु तद्गुणात्मकः ॥
३५॥
प्रधान-- प्रकृति; काल--समय; आशय--अभिलाषा; धर्म--वृत्तिपरक कर्म; सड़्ग्रहे--समुच्चय में; शरीरे--शरीर में ; एब: --यह; प्रतिपद्य--स्वीकार करके; चेतनाम्--चेतना को; क्रिया--कार्य के; फलत्वेन--फल से; विभुः--भगवान्; विभाव्यते--प्रकट होती है; यथा--जिस प्रकार; अनलः--अग्नि; दारुषु--काष्ट में; तत्ू-गुण-आत्मक:--आकार तथा गुण के अनुसार
भगवान् सर्वव्यापी हैं, किन्तु वे प्रकृति, काल, अभिलाषा तथा वृत्तिपरक कर्मो के संयोग सेउत्पन्न विभिन्न प्रकार के शरीरों में भी प्रकट होते हैं।
इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की चेतनाएँ विकसित होती हैं, जिस प्रकार विभिन्न आकार-प्रकार वाले काष्ठ खण्डों में एक सी ही अग्निविभिन्न रूपों में प्रकट होती है।
"
अहो ममामी वितरन्त्यनुग्रहंहरिं गुरुं यज्ञभुजामधी श्वरम् ।
स्वधर्मयोगेन यजन्ति मामकानिरन्तर क्षोणितले दृढब्रता: ॥
३६॥
अहो--हे तुम सब; मम--मेरे; अमी--वे सब; वितरन्ति--बाँटते हुए; अनुग्रहम्--कृपा; हरिम्-- भगवान्; गुरुम्--परम गुरु;यज्ञ-भुजाम्--यज्ञ की बलि ग्रहण करने के पात्र सभी देवता; अधी श्वरम्--परम स्वामी; स्व-धर्म--वृत्तिपरक कर्म के; योगेन--बल पर; यजन्ति--पूजा करते हैं; मामका:--मेंरे सम्बन्धी; निरन््तरम्--लगातार; क्षोणि-तले--पृथ्वी तल पर; हृढ-ब्रता:--हृढ़संकल्प के साथ
भगवान् समस्त यज्ञों के फल के स्वामी तथा भोक्ता हैं।
साथ ही वे परम गुरु भी हैं।
इसभूतल के आप सभी नागरिक, जिनका मुझसे सम्बन्ध है और जो अपने कर्मो द्वारा भगवान् की पूजा कर रहे हैं, मुझ पर परम अनुग्रह कर रहे हैं।
अत: हे नागरिको, मैं तुम सबको धन्यवाद देताहूँ।
"
मा जातु तेज: प्रभवेन्महर्द्धेभि-स्तितिक्षया तपसा विद्यया च ।
देदीप्यमानेडजितदेवतानांकुले स्वयं राजकुलादिद्वजानाम् ॥
३७॥
मा--कभी मत करो; जातु--किसी भी समय; तेज:--परम शक्ति; प्रभवेत्--प्रकट करते हैं; महा--बड़ी; ऋद्धिभि:--ऐश्वर्यसे; तितिक्षया--सहिष्णुता से; तपसा--तप से; विद्यया--शिक्षा द्वारा; च--भी; देदीप्यमाने--पहले से महिमामंडितों पर;अजित-देवतानाम्--वैष्णव अथवा भगवान् के भक्त के; कुले--समाज में; स्वयम्--व्यक्तिगत रूप से; राज-कुलात्ू--राजपरिवार से बड़ा; द्विजानामू--ब्राह्मणों का।
ब्राह्मण तथा वैष्णव अपनी सहिष्णुता, तपस्या, ज्ञान तथा शिक्षा जैसे गुणों के द्वारा स्वयं हीमहिमामंडित होते हैं।
इन दिव्य ऋद्धियों के कारण वैष्णव राजकुल से अधिक शक्तिशाली होतेहैं।
अतः यह सलाह दी जाती है कि राजकुल इन दोनों कुलों पर अपना शौर्य ( विक्रम ) प्रदर्शितन करें और उनको अपमानित करने से बचें।
"
ब्रह्मण्यदेव: पुरुष: पुरातनोनित्य॑ हरिर्यच्चरणाभिवन्दनातू ।
अवाप लक्ष्मीमनपायिनीं यशोजगत्पवित्रं च महत्तमाग्रणीः ॥
३८॥
ब्रह्मण्य-देव: --ब्राह्मण संस्कृति का स्वामी; पुरुष:--परम पुरुष; पुरातन:--सबसे प्राचीन; नित्यम्--शा श्वत; हरि:-- भगवान्;यत्--जिसका; चरण---चरणकमल; अभिवन्दनात्--पूजा के द्वारा; अवाप--प्राप्त किया; लक्ष्मीम्--ऐश्वर्य; अनपायिनीम्ू--निरन्तर; यशः--ख्याति; जगत्--विश्व का; पवित्रम्--पवित्र करने वाली; च-- भी; महत्--महान्; तम--सर्वाधिक परम;अग्रणी:--सर्वोपरि प्रथम |
पुरातन, शाश्वत तथा समस्त महापुरुषों में अग्रणी भगवान् ने अपनी स्थिर ख्याति के ऐश्वर्यको ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के चरणकमलों की उपासना के द्वारा प्राप्त किया जो समग्र ब्रह्माण्डको पवित्र करने वाला है।
"
यत्सेवयाशेषगुहाशय: स्वराड्विप्रप्रियस्तुष्यति काममी श्वर: ।
तदेव तद्धर्मपरैर्विनीतैःसर्वात्मना ब्रह्मकुलं निषेव्यताम् ॥
३९॥
यत्--जिसकी; सेवया--सेवा से; अशेष--- अपार; गुहा-आशय: -- प्रत्येक के हृदय में वास; स्व-राट्--लेकिन फिर भी पूर्णतःस्वतंत्र; विप्र-प्रियः--ब्राह्मणों तथा वैष्णवों को प्यारे; तुष्यति--सन्तुष्ट होता है; कामम्--इच्छाओं का; ई श्वरः -- भगवान्;तत्--उस; एब--निश्चय ही; तत्-धर्म-परः-- भगवान् के चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए; विनीतैः--विनप्रता से; सर्व-आत्मना--सभी प्रकार से; ब्रह्य-कुलम्--ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के वंशज; निषेव्यताम्ू--उनकी सेवा में निरन्तर लगे रहकर।
अनन्त काल तक स्वतंत्र रहने वाले तथा प्रत्येक हृदय में वास करने वाले भगवान् उन लोगोंसे अत्यधिक प्रसन्न रहते हैं, जो उनके चरणचिह्लों का अनुसरण करते हैं और बिना किसी हिचकके ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के वंशजों की सेवा करते हैं, क्योंकि वे सदैव ब्राह्मणों तथा वैष्णवोंको परम प्रिय हैं और ये सदा ही उनको प्रिय हैं।
"
पुमॉल्लभेतानतिवेलमात्मनःप्रसीदतोत्यन्तशमं स्वत: स्वयम् ।
यन्नित्यसम्बन्धनिषेवया ततःपरं किमत्रास्ति मुखं हविर्भुजाम् ॥
४०॥
पुमान्ू--पुरुष; लभेत--प्राप्त कर सकता है; अनति-वेलम्ू--अविलम्ब; आत्मन:--अपनी आत्मा के; प्रसीदत:--प्रसन्न होनेपर; अत्यन्त--अत्यधिक; शमम्--शान्ति; स्वतः-- अपने आप; स्वयम्--स्वयं; यत्--जिसका; नित्य--नियमित; सम्बन्ध--सम्बन्ध; निषेवया--सेवा के बल पर; ततः--तत्पश्चात्; परम्-- श्रेष्ठ; किम्ू--क्या; अत्र--यहाँ; अस्ति-- है; मुखम्--मुख;हवि:--घी; भुजाम्-पीने वाले
ब्राह्मणों तथा वैष्णवों की नियमित सेवा करते रहने से मनुष्य के हृदय का मैल दूर होता हैऔर इस प्रकार परम शान्ति तथा भौतिक आसक्ति से मुक्ति मिलती है और वह समन्तुष्ट हो जाताहै।
इस संसार में ब्राह्मणों की सेवा से बढ़कर कोई सकाम कर्म नहीं, क्योंकि इससे देवता प्रसन्नहोते हैं जिनके लिए अनेक यज्ञों की संस्तुति की जाती है।
"
आअश्नात्यनन्तः खलु तत्त्वकोविदैःश्रद्धाहुतं यन्मुख इज्यनामभि: ॥
नवै तथा चेतनया बहिष्कृतेहुताशने पारमहंस्यपर्यगु; ॥
४१॥
अश्नाति--खाता है; अनन्तः--भगवान्; खलु--तो भी; तत्त्व-कोविदैः --परम सत्य को जानने वाले व्यक्ति; श्रद्धा--विश्वास;हुतम्--अग्नि में आहुतियाँ देना; यत्-मुखे--जिसका मुख; इज्य-नामभि:--विभिन्न देवताओं के नाम से; न--कभी नहीं; बै--निश्चय ही; तथा--उसी तरह; चेतनया--जीवनी शक्ति से; बहि:-कृते--विलग किया जाकर; हुत-अशने--यज्ञ-अग्नि में;पारमहंस्य--भक्तों का; पर्यगुः--कभी भी बाहर नहीं जाता है।
यद्यपि भगवान् अनन्त विभिन्न देवताओं के नामों से अग्नि में अर्पित हवियों को खाते हैं,किन्तु वे अग्नि के माध्यम से खाने में उतनी रुचि नहीं दिखाते जितनी कि विद्वान साधुओं तथा भक्तों के मुख से भेंट को स्वीकार करने में, क्योंकि तब उन्हें भक्तों की संगति त्यागनी नहींहोती।
"
यह्ह्य नित्यं विरजं सनातनश्रद्धातपोमड्रलमौनसंयमै: ।
समाधिना बिश्रति हार्थदृष्टयेयत्रेदमादर्श इवावभासते ॥
४२॥
यत्--जो; ब्रह्म--ब्राह्मण-संस्कृति; नित्यम्ू--शाश्वत रूप से; विरजम्--निष्कलंक ; सनातनम्--अनादि; श्रद्धा-- श्रद्धा;तपः--तपस्या; मड्गल--शुभ; मौन--मूक रहना; संयमैः--मन तथा इन्द्रियों को वश में करते हुए; समाधिना--पूर्ण मनोयोग से;बिभ्रति-- प्रकाशित करता है; ह--जैसे उसने किया; अर्थ--वेदों का असली प्रयोजन; दृष्टये--प्राप्त करने के उद्देश्य से; यत्र--जिसमें; इदम्--यह सब; आदर्शे --दर्पण में; इब--सहृश; अवभासते-- प्रकट होता है।
ब्राह्मण-संस्कृति में ब्राह्मणों का दिव्य स्थान शाश्रत रूप से बनाए रखा जाता है, क्योंकिवेदों के आदेशों को श्रद्धा, तप, शास्त्रीय निर्णय, मन तथा इन्द्रिय-निग्रह एवं ध्यान के साथस्वीकार किया जाता है।
इस प्रकार जीवन का वास्तविक लक्ष्य ठीक उसी तरह से प्रकाशमान होउठता है, जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में किसी का मुँह भली-भाँति प्रतिबिम्बित होता है।
"
तेषामहं पादसरोजरेणु-मार्या वहेयाधिकिरीटमायु: ।
यं नित्यदा बिभ्रत आशु पापंनश्यत्यमुं सर्वगुणा भजन्ति ॥
४३॥
तेषामू--उन सबके; अहम्--मैं; पाद-- पाँव; सरोज--कमल ; रेणुमू-- धूलि; आर्या: -हहे श्रेष्ठ व्यक्तियो; वबहेय-- धारणकरूँगा; अधि--तक; किरीटमू--मुकुट; आयुः:--जीवन भर; यम्--जिसको; नित्यदा--सदैव; बिभ्रत:--लेते हुए; आशु--शीघ्र ही; पापमू--पापकर्म; नश्यति--नष्ट हो जाते हैं; अमुम्--वे सब; सर्व-गुणा:--अत्यन्त योग्य; भजन्ति--पूजा करते हैं।
यहाँ पर समुपस्थित हे आर्यगण, मैं आपका आशीर्वाद चाहता हूँ कि मैं आजीवन अपनेमुकुट में ऐसे ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के चरणकमलों की धूलि धारण करता रहूँ।
जो ऐसी चरण-धूलि धारण करता है, वह शीघ्र ही पापमय जीवन से उत्पन्न समस्त कर्मफलों से मुक्त हो जाता हैऔर अंततः समस्त उत्तम तथा वांछित गुणों से परिपूर्ण हो जाता है।
"
गुणायनं शीलधनं कृतज्ञंवृद्धाश्रयं संवृणतेडनु सम्पदः ।
प्रसीदतां ब्रह्मकुलं गवां चजनार्दनः सानुचरश्च महाम् ॥
४४॥
गुण-अयनम्--जिसने समस्त सद्गुण प्राप्त किये हैं; शील-धनम्--उत्तम आचरण ही जिसकी सम्पत्ति है; कृत-ज्ञममू--आभारी;वृद्ध-आश्रयम्--विद्वानों की शरण ग्रहण करने वाला; संवृणते--प्राप्त करता है; अनु--निश्चय ही; सम्पदः--समस्त ऐ श्वर्य;प्रसीदताम्--प्रसन्न हों; ब्रह्य-कुलम्--ब्राह्मण वर्ग; गवाम्--गौएं; च--तथा; जनार्दन:-- भगवान्; स--सहित; अनुचरः --अपने भक्त; च--तथा; महाम्--मुझको |
जो कोई भी ब्राह्मणत्व के गुणों को अर्थात् सदाचार, कृतज्ञता तथा अनुभवी लोगों काआश्रय प्राप्त कर लेता है, उसे संसार का सारा ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है।
अतः मेरी यही चाह हैकि श्रीभगवान् अपने पार्षदों सहित ब्राह्मण कुल, गौओं तथा मुझ पर प्रसन्न रहें।
"
मैत्रेय उवाचइति ब्रुवाणं नृपतिं पितृदेवद्विजातय: ।
तुष्ठवुईष्टमनस: साधुवादेन साधव: ॥
४५॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा; इति--इस प्रकार; ब्रुवाणम्--बोलते हुए; नृू-पतिम्--राजा को; पितृ--पितृलोक केवबासी; देव--देवता; द्वि-जातय: --तथा द्विजों ( ब्राह्मणों एवं वैष्णवों ) ने; तुष्ठवु:--सन्तुष्ट; हृष्ट-मनस:ः--मन में अत्यन्त प्रसन्न;साधु-वादेन--बधाई देते हुए; साधव:--उपस्थित समस्त साधु पुरुष |
मैत्रेय ऋषि ने कहा : राजा पृथु को इस प्रकार सम्भाषण करते सुनकर सभी देवताओं,पितृलोक के वासियों, ब्राह्मणों तथा उस सभा में उपस्थित साधु पुरुषों ने अपनी शुभकामनाएँव्यक्त करते हुए साधुवाद दिया।
"
पुत्रेण जयते लोकानिति सत्यवती श्रुति: ।
ब्रह्मदण्डहतः पापो यद्वेनोउत्यतरत्तम: ॥
४६॥
पुत्रेण--पुत्र के द्वारा; जयते--विजय प्राप्त करता है; लोकान्--समस्त स्वर्ग लोकों की; इति--इस प्रकार; सत्य-वती--सत्यहोता है; श्रुतिः--वेद; ब्रह्म-दण्ड--ब्राह्मणों के शाप से; हतः--मारा गया; पाप:--परम पापी; यत्-- क्योंकि; वेन:--महाराजपृथु का पिता; अति--अत्यधिक; अतरत्--उद्धार हो गया; तमः--नारकीय जीवन के अंधकार से |
उन सबों ने घोषित किया कि वेदों का यह निर्णय पूरा हुआ कि पुत्र के कर्म से मनुष्यस्वर्गलोकों को जीत सकता है, क्योंकि ब्राह्मणों के शाप से मारा गया अत्यन्त पापी वेन अबअपने पुत्र महाराज पृथु के द्वारा नारक्मीय जीवन के गहन अंधकार से उबारा गया था।
"
हिरण्यकशिपुश्चापि भगवन्निन्दया तमः ।
विविश्षुरत्यगात्सूनो: प्रह्मदस्यानुभावत: ॥
४७॥
हिरण्यकशिपु:--प्रह्नद महाराज का पिता; च-- भी; अपि-- पुनः; भगवत्-- भगवान् की; निन्दया--निन्दा से; तम:--नारकीयजीवन के गहनतम क्षेत्र में; विविक्षु:--प्रविष्ट किया; अत्यगात्--उबार लिया गया; सूनो:--अपने पुत्र; प्रहादस्य--महाराजप्रह्ाद के; अनुभावत:--प्रभाव से।
इसी प्रकार हिरण्यकशिपु अपने पापकर्मों से भगवान् की सत्ता ( श्रेष्ठठा ) का उल्लंघनकरता हुए नारकीय जीवन के गहनतम क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ, किन्तु अपने महान पुत्र प्रह्मदमहाराज की कृपा से उसका भी उद्धार हो सका और वह भगवान् के धाम वापस चला गया।
"
वीरवर्य पितः पृथ्व्या: समा: सञ्जीव शाश्वतीः ।
यस्येदृरश्यच्युते भक्ति: सर्वलोकैक भर्तरि ॥
४८॥
वीर-वर्य--वीरों में सर्वश्रेष्ठ; पित:--पिता; पृथ्व्या:--पृथ्वी का; समाः--वर्ष में बराबर; सझ्जीव-- जीवित रहते; शा श्वती: --सदा के लिए; यस्य--जिसका; ईहशी--इस तरह; अच्युते--परमेश्वर को; भक्ति: --भक्ति में बराबर; सर्व--सभी; लोक--लोक, ग्रह; एक--एक; भर्तरि--पालक |
सभी साधु ब्राह्मणों ने पृथु महाराज को इस प्रकार सम्बोधित किया--हे वीरश्रेष्ठ, हे पृथ्वीके पिता, आप दीर्घजीवी हों, क्योंकि आपमें समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी अच्युत भगवान् के प्रतिअत्यधिक श्रद्धा है।
"
अहो वयं ह्द्य पवित्रकीर्तेत्वयैव नाथेन मुकुन्दनाथा: ।
य उत्तमएलोकतमस्य विष्णो-ब्रह्मण्यदेवस्थ कथां व्यनक्ति ॥
४९॥
अहो--ओह, ओरे; वयम्--हम; हि--निश्चय ही; अद्य--आज; पवित्र-कीर्ते--हे परम शुद्ध; त्वया--तुम्हारे द्वारा; एव--निश्चयही; नाथेन-- भगवान् द्वारा; मुकुन्द-- श्रीभगवान्; नाथा: -- परमेश्वर की प्रजा होकर; ये--जो; उत्तम-श्लोक-तमस्य-- भगवान्का, जिनकी प्रशंसा उत्तम इलोकों द्वारा की जाती है; विष्णो: --विष्णु का; ब्रह्मण्य-देवस्थ--ब्राह्मणों के पूज्य भगवान् का;कथाम्--शब्द; व्यनक्ति--व्यक्त किये गये।
श्रोताओं ने आगे कहा : हे राजा पृथु, आपकी कीर्ति परम शुद्ध है, क्योंकि आप ब्राह्मणों केस्वामी भगवान् की महिमाओं का उपदेश दे रहे हैं।
हमारे बड़े भाग हैं कि हमने आपको स्वामीरूप में प्राप्त किया जिससे हम अपने आपको भगवान् के प्रत्यक्ष आश्रय में समझ रहे हैं।
"
नात्यद्भुतमिदं नाथ तवाजीव्यानुशासनम् ।
प्रजानुरागो महतां प्रकृति: करुणात्मनाम् ॥
५०॥
न--नहीं; अति--अत्यधिक; अद्भुतम्ू--आश्चर्यजनक; इृदम्ू--यह; नाथ--हे स्वामी; तब--तुम्हारा; आजीव्य--आय कास्त्रोत; अनुशासनम्--प्रजा के ऊपर शासन; प्रजा--नागरिक; अनुराग: --प्रेम; महताम्--बड़े का; प्रकृतिः--प्रकृति; करूण--दयावान; आत्मनाम्--जीवात्माओं का।
हे नाथ! अपनी प्रजा पर शासन करना तो आपका तवृत्तिपरक धर्म है।
यह आप-जैसेमहापुरुष के लिए कोई आश्चर्यजनक कार्य नहीं है, क्योंकि आप अत्यन्त दयालु हैं और अपनीप्रजा के हितों के प्रति अत्यन्त प्रेम रखते हैं।
यही आपके चरित्र की महानता है।
"
अद्य नस्तमस: पारस्त्वयोपासादितः प्रभो ।
भ्राम्यतां नष्टदृष्टीनां कर्मभिर्देवसंज्ञिति: ॥
५१॥
अद्य--आज; नः--हम सबों का; तमस:--संसार के अंधकार का; पार: --दूसरी ओर; त्वया--तुम्हारे द्वारा; उपासादित:--बढ़ाहुआ; प्रभो--हे स्वामी; भ्राम्यतामू-- भटकने वालों को; नष्ट-दृष्टीनामू--जिनका जीवन-लक्ष्य खो चुका है; कर्मभि:--गत कर्मोंके कारण; दैव-संज्ञितैः-- श्रेष्ठ अधिकारी द्वारा व्यवस्थित |
नागरिकों ने आगे कहा : आज आपने हमारी आँखें खोल दी हैं और हमें बताया है कि इसअंधकार के सागर को किस प्रकार पार किया जाये।
अपने पूर्वकर्मों तथा दैवी व्यवस्था केकारण हम सकाम कर्मों के जाल में फँसे हुए हैं और हमारा जीवन-लक्ष्य ओझल हो चुका है,जिसके कारण हम इस ब्रह्माण्ड में भटक रहे हैं।
नमो विवृद्धसत्त्वाय पुरुषाय महीयसे ।
यो ब्रह्म क्षत्रमाविश्य बिभर्तीदं स्वतेजसा ॥
५२॥
नमः--नमस्कार है; विवृद्ध--अत्यन्त सम्मानित; सत्त्वाय--सत्त्व को; पुरुषाय--पुरुष को; महीयसे--इस प्रकार सेमहिमामंडित पुरुष को; य: --जो; ब्रह्म --ब्राह्मण संस्कृति; क्षत्रमू--प्रशासनिक कार्य; आविश्य--प्रविष्ट होकर; बिभर्ति--पालन करते हुए; इृदम्--यह; स्व-तेजसा--अपने तेज से
हे स्वामी! आप विशुद्ध सत्त्व-स्थिति को प्राप्त हैं, अत: आप परमेश्वर के सक्षम प्रतिनिधि हैं।
आप अपने तेज से ही महिमावान हैं और इस तरह ब्राह्मण-संस्कृति को पुनर्स्थापित करते हुएसारे संसार का पालन करते हैं तथा अपने क्षात्र धर्म का निर्वाह करते हुए प्रत्येक व्यक्ति की रक्षाकरते हैं।
"
अध्याय बाईसवाँ: पृथु महाराज की चार कुमारों से मुलाकात
4.22मैत्रेय उवाचजनेषु प्रगुणत्स्वेवं पृथुं पुथुलविक्रमम्।
तत्रोपजम्मुर्मुनयश्चत्वारः सूर्यवर्चस: ॥
१॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; जनेषु--नागरिक; प्रगृणत्सु--प्रार्थनारत; एवम्--इस प्रकार; पृथुम्--महाराज पृथु को; पुथुल--अत्यधिक; विक्रमम्--शक्तिशाली; तत्र--वहाँ; उपजग्मु:--आये; मुनयः--कुमार; चत्वार:--चारों; सूर्य--सूर्य के समान;वर्चसः--तेजस्वी |
महामुनि मैत्रेय ने कहा : जिस समय सारे नागरिक परम शक्तिमान महाराज पृथु की इसप्रकार स्तुति कर रहे थे उसी समय वहाँ पर सूर्य के समान तेजस्वी चारों कुमार आये।
"
तांस्तु सिद्धेश्वरात्राजा व्योम्नोउवतरतोर्चिषा ।
लोकानपापान्कुर्वाणान्सानुगोचष्ट लक्षितान् ॥
२॥
तानू--उन; तु--लेकिन; सिद्ध-ईश्वरान्ू-- समस्त योग शक्तियों के स्वामी को; राजा--राजा ने; व्योम्न:--आकाश से;अवतरतः --उतरते हुए; अर्चिषा--अपने दिव्य तेज से; लोकान्ू--लोकों को; अपापान्--पापरहित; कुर्वाणान्ू--करते हुए; स-अनुग:--अपने पार्षदों सहित; अचष्ट--पहचान लिया; लक्षितान्---उन्हें देखकर ।
समस्त योग शक्तियों के स्वामी चारों कुमारों के देदीप्यमान् तेज को देखकर राजा तथाउनके पार्षदों ने उन्हें आकाश से उतरते ही पहचान लिया।
"
तदर्शनोदगतान्प्राणान्प्रत्यादित्सुरिवोत्थित: ।
ससदस्यानुगो वैन्य इन्द्रियेशों गुणानिव ॥
३॥
तत्--उसको; दर्शन--देखकर; उद्गतान्--अत्यधिक इच्छा प्रकट किये जाने पर; प्राणान्-- प्राण; प्रत्यादित्सु:--शान्तिपूर्वकजाते हुए; इब--सहश; उत्थित:--उठा; स--सहित; सदस्य-- पार्षद या अनुयायी; अनुग:--अधिकारी; वैन्य:--राजा पृथु;इन्द्रिय-ईशः--जीवात्मा; गुणान् इब--प्रकृति के गुणों से मानो प्रभावित ।
चारों कुमारों को देखकर पृथु महाराज उनके स्वागत के लिए आतुर हो उठे।
अतः अपनेपार्षदों सहित वे तुरन्त इस तरह तेज़ी से उठ कर खड़े हो गये मानो कोई बद्धजीबव प्रकृति केगुणों द्वारा तुरन्त आकृष्ट हो उठा हो ।
"
गौरवाद्यन्त्रितः सभ्य: प्रश्रयानतकन्धरः ।
विधिवत्पूजयां चक्रे गृहीताध्य्हणासनान् ॥
४॥
गौरवात्--गौरव से; यन्त्रितः--पूर्णत:; सभ्य: --अत्यन्त सभ्य; प्रश्रय--विनीत भाव से; आनत-कन्धर:--अपने कन्धे ( गरदन )झुकाए; विधि-वत्--शास्त्रोक्त विधियों से; पूजयाम्--पूजा; चक्रे-- सम्पन्न की; गृहीत--स्वीकार करते हुए; अधि--के सहित;अर्हण--स्वागत की सामग्री; आसनान्--आसन पर।
जब वे महान् ऋषिगण शास्त्रविहित ढंग से उनके द्वारा किये गये स्वागत को स्वीकार करराजा द्वारा प्रदत्त आसनों पर बैठ गये तो राजा उनके गौरव के वशीभूत होकर तुरन्त नतमस्तकहुआ।
इस प्रकार उसने चारों कुमारों की पूजा की।
विनयवश वे कुमारों के समक्ष झुक गये।
"
तत्पादशौचसलिलैर्मार्जितालकबन्धन: ।
तत्र शीलवतां वृत्तमाचरन्मानयन्निव ॥
५॥
तत्-पाद--उनके चरणकमल; शौच--धुला; सलिलै:--जल से; मार्जित--छिड़का गया; अलक--बाल; बन्धन:--जूड़ा,राशि; तत्र--वहाँ; शीलवताम्--सम्मानित पुरुषों के; वृत्तमू-- आचरण; आचरनू्--आचरण करते हुए; मानयन्-- अभ्यासकरते हुए; इब--सदृश |
तत्पश्चात् राजा ने कुमारों के चरणकमलों के धोये हुए जल को लेकर अपने बालों परछिड़का।
ऐसे शिष्ट आचरण से राजा ने आदर्श पुरुष की तरह यह प्रदर्शित किया किआध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत व्यक्ति का किस प्रकार सम्मान करना चाहिए।
"
हाटकासन आसीनान्स्वधिष्ण्येष्विव पावकान् ।
श्रद्धासंयमसंयुक्तः प्रीतः प्राह भवाग्रजान् ॥
६॥
हाटक-आसने--सोने के बने सिंहासन पर; आसीनान्--बैठे हुए; स्व-भिष्ण्येषु--बलिवेदी पर; इब--मानो; पावकान्-- अग्नि;श्रद्धा--सम्मान; संयम--संयम; संयुक्त:--से विभूषित; प्रीत:-- प्रसन्न; प्राह--कहा; भव--शिवजी; अग्र-जानू--से बड़े |
चारों मुनि शिवजी से भी ज्येष्ठ थे और जब वे सोने के बने हुए सिंहासन पर बैठा दिये गयेतो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वेदी पर अग्नि प्रज्वलित हो रही हो।
महाराज पृथु ने उनसे अत्यन्त शिष्टता तथा सम्मानपूर्वक बड़े ही संयमित स्वर में कहा।
"
पृथुरुवाचअहो आचरितं कि मे मड़लं मड़लायना: ।
यस्य वो दर्शन ह्यासीहुर्दर्शानां च योगिभि: ॥
७॥
पृथु: उबाच--राजा पृथु ने कहा; अहो--हे भगवान्; आचरितम्-- अभ्यास; किम्-क्या; मे--मेरे द्वारा; मड्डलम्--कल्याण;मड्ल-आयना: -हे साक्षात् कल्याण; यस्य--जिससे; वः--तुम्हारा; दर्शनम्-दर्शन; हि--निश्चय ही; आसीत्--सम्भव होसका; दुर्दर्शानामू--कठिनाई से दृश्य, दुर्लभ; च--भी; योगिभि:--योगियों द्वारा |
राजा पृथु ने कहा : हे साक्षात् कल्याणमूर्ति महामुनियो, आपका दर्शन तो योगियों के लिएभी दुर्लभ है।
निस्सन्देह आपका दर्शन दुर्लभ है।
मैं नहीं जानता कि मुझसे ऐसा कौन-सा पुण्यबन पड़ा है, जिससे आप मेरे समक्ष इतनी सहजता से प्रकट हुए हैं।
"
कि तस्य दुर्लभतरमिह लोके परत्र च ।
यस्य विप्रा: प्रसीदन्ति शिवो विष्णुश्न सानुग: ॥
८॥
किम्--क्या; तस्थ--उसका; दुर्लभ-तरम्-- अत्यन्त कठिनाई से प्राप्प; हह--इस; लोके--संसार में; परत्र--मृत्यु के पश्चात्;च--अथवा; यस्य--जिसका; विप्रा:--ब्राह्मण या वैष्णव; प्रसीदन्ति--प्रसन्न हो जाते हैं; शिव:ः--सर्व-कल्याणमय; विष्णु: --भगवान् विष्णु; च-- भी; स-अनुग: --साथ-साथ चलने वाले |
जिस पर ब्राह्मण तथा वैष्णव प्रसन्न हो जाते हैं, वह व्यक्ति इस संसार में तथा साथ ही मृत्युके बाद भी दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर सकता है।
यही नहीं, ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के साथ-साथ रहने वाले कल्याणकारी शिव तथा भगवान् विष्णु का भी उस व्यक्ति को अनुग्रह प्राप्त होजाता है।
"
नेव लक्षयते लोको लोकान्पर्यटतोपि यान् ।
यथा सर्वदृशं सर्व आत्मानं येउस्य हेतवः ॥
९॥
न--नहीं; एव--इस प्रकार; लक्षयते--देख सकते हैं; लोक:--लोग; लोकान्--समस्त लोकों में; पर्यटतः--विचरण करते;अपि--यद्यपि; यानू--जिसको; यथा--जिस तरह; सर्व-हशम्--परमात्मा; सर्वे--सबों में; आत्मानम्--प्रत्येक प्राणी के भीतर;ये--जो; अस्य--इस जगत के; हेतवः--कारण।
पृथु महाराज ने आगे कहा : यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरण करते रहते हैं, किन्तु लोगआपको नहीं जान पाते, जिस प्रकार वे प्रत्येक हृदय में वास करने वाले और प्रत्येक वस्तु केसाक्षी परमात्मा को नहीं जान पाते।
यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव भी परमात्मा को नहीं जानपाते।
"
अधना अपि ते धन्या: साधवो गृहमेधिन: ।
यदगृहा ह्ईवर्याम्बुतृणभूमी श्ररावरा: ॥
१०॥
अधना:--निर्धन; अपि--यद्यपि; ते--वे; धन्या:-- धन्य हैं; साधव:--साधु पुरुष; गृह-मेधिन:--गृहस्थ लोग; यत्-गृहा:--जिनके घर; हि--निश्चय ही; अर्ह-वर्य--अत्यन्त पूज्य; अम्बु--जल; तृण--घास; भूमि--स्थल; ईश्वर--स्वामी; अवरा:--दास
कोई भी व्यक्ति जो धनवान हो तथा गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहा हो, वह भी अतीव धन्यहो जाता है, जब उसके घर में साधु पुरुष उपस्थित होते हैं।
गृह स्वामी तथा सेवक, जो सम्मान्यअतिथियों को जल, आसन तथा स्वागत सामग्री प्रदान करने में लगे रहते हैं, वे धन्य हो जाते हैंऔर वह घर भी धन्य हो जाता है।
"
व्यालालयद्ुमा बै तेष्वरिक्ताखिलसम्पदः ।
यदगृहास्तीर्थपादीयपादतीर्थविवर्जिता: ॥
११॥
व्याल--विषैले सर्प; आलय--घर; ब्रुमा:--वृक्ष; बै--निश्चय ही; तेषु--उन घरों में; अरिक्त-- अत्यधिक; अखिल--समस्त;सम्पदः--ऐश्वर्य, वैभव; यत्--जो; गृहा:--घर; तीर्थ-पादीय--साधु पुरुषों के चरणों का; पाद-तीर्थ--चरणों के प्रक्षालन सेप्राप्त जल; विवर्जिता:--रहित |
इसके विपरीत जिस गृहस्थ के घर में भगवान् के भक्तों के चरण नहीं पड़ते और जहाँ उनचरणों के प्रक्षालन के लिए जल नहीं रहता, वह घर समस्त ऐश्वर्य तथा धन-सम्पन्न होते हुए भीऐसे वृक्ष के तुल्य माना जाता है, जिसमें केवल विषैले सर्प रहते हैं।
"
स्वागतं वो द्विजश्रेष्ठा यद्व्रतानि मुमुक्षवः ।
चरन्ति श्रद्धया धीरा बाला एव बृहन्ति च ॥
१२॥
सु-आगतम्--स्वागत; वः--तुमको; द्विज-श्रेष्ठा:--ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ; यत्--जिसके; ब्रतानि--ब्रत, संकल्प; मुमुक्षवः --मुक्ति की इच्छा रखने वाले पुरुषों के; चरन्ति--आचरण करते हैं; श्रद्धघा-- श्रद्धापूर्वक; धीरा:--संयमी; बाला:--बालक;एव--सहश; बृहन्ति--देते हैं; च-- भी |
महाराज पृथु ने चारों कुमारों को ब्राह्मणश्रेष्ठ सम्बोधित करके स्वागत किया और उन्हें कहाकि आपने जन्म से ही ब्रह्मचर्य व्रत का हढ़ता से पालन किया है और यद्यपि आप मुक्ति केअनुभवी नहीं हैं, तो भी आप अपने को छोटे-छोटे बालकों के समान रखते हैं।
"
कच्चिन्न: कुशल नाथा इन्द्रियार्थार्थवेदिनाम् ।
व्यसनावाप एतस्मिन्पतितानां स्वकर्मभि; ॥
१३॥
'कच्चित्ू--क्या; नः--हमारी; कुशलमू-- कुशलता; नाथा:--हे स्वामियो; इन्द्रिय-अर्थ--इन्द्रियतृप्ति ही जीवन लक्ष्य है; अर्थ-वेदिनाम्--जो व्यक्ति केवल इन्द्रियतृप्ति को ही जान पाते हैं; व्यसन--दुर्गुण, बीमारी; आवापे-- प्राप्त किया; एतस्मिन्--इससंसार में; पतितानाम्--पतित जनों का; स्व-कर्मभि:--अपनी-अपनी सामर्थ्य से |
पृथु महाराज ने मुनियों से ऐसे व्यक्तियों के विषय में पूछा जो अपने पूर्व कर्मों के कारण इसविपत्तिमय संसार में फँसे हुए हैं।
क्या ऐसे व्यक्तियों को, जिनका एकमात्र लक्ष्य इन्द्रियतृप्ति है,सौभाग्य प्राप्त हो सकता है ?"
भवत्सु कुशलप्रश्न आत्मारामेषु नेष्यते ।
कुशलाकुशला यत्र न सन्ति मतिवृत्तय: ॥
१४॥
भवत्सु--आप से; कुशल--सौभाग्य; प्रश्न:--सवाल; आत्म-आरामेषु-- सदैव आत्मिक आनन्द में मग्न; न इष्यते--कोईआवश्यकता नहीं होती; कुशल--सौभाग्य; अकुशला: --अकुशलता; यत्र--जहाँ; न--कभी नहीं; सन्ति--रहते हैं; मति-वृत्तयः--कोरी कल्पना
पृथु महाराज ने आगे कहा : हे महाशयो, आपसे आपकी कुशल तथा अकुशल पूछने कीआवश्यकता नहीं है, क्योंकि आप नित्य आध्यात्मिक आनन्द में लीन रहते हैं।
आप में कुशलतथा अकुशल की मानसिक वृत्तियाँ पाई ही नहीं जाती हैं।
"
तदहं कृतविश्रम्भ: सुहृदो वस्तपस्विनाम् ।
सम्पूच्छे भव एतस्मिन्क्षेम: केनाञ्सा भवेत् ॥
१५॥
तत्--अतः; अहम्--मैं; कृत-विश्रम्भ: --पूरी तरह आश्वस्त होकर; सु-हृदः--मित्र; व:ः--हमारा; तपस्विनामू-- भौतिक कष्टसहने वाले; सम्पृच्छे--पूछना चाहता हूँ; भवे--इस संसार में; एतस्मिन्ू--यह; क्षेम:--अन्तिम वास्तविकता, कल्याण; केन--किस विधि से; अज्ञसा--अविलम्ब; भवेत्-- प्राप्त किया जा सकता है।
मैं पूर्ण रूप से आश्वस्त हूँ कि आप जैसे महापुरुष इस संसार की अग्नि में सन्तप्त होने वालेव्यक्तियों के एकमात्र मित्र हैं।
अत: मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में हम किस प्रकारजल्दी से जल्दी जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त कर सकते हैं।
"
व्यक्तमात्मवतामात्मा भगवानात्मभावन: ।
स्वानामनुग्रहायेमां सिद्धरूपी चरत्यज: ॥
१६॥
व्यक्तम्-स्पष्ट; आत्म-वताम्-- अध्यात्मवादियों का; आत्मा--जीवन लक्ष्य; भगवान्-- भगवान्; आत्म-भावन:--जीवों कोऊपर उठाने की कामना करने वाले; स्वानामू--जिनके अपने भक्तगण; अनुग्रहाय--केवल कृपा दिखाने के लिए; इमामू--इसप्रकार; सिद्ध-रूपी--पूर्णतया स्वरूपसिद्ध; चरति-- भ्रमण करते हैं; अज:--नारायण |
भगवान् अपने अंश-रूप जीवों को ऊपर उठाने के लिए सतत इच्छुक रहते हैं और उन्हीं केविषेश लाभ हेतु सारे संसार में आप-जैसे स्वरूपसिद्ध पुरुषों के रूप में भ्रमण करते रहते हैं।
"
मैत्रेय उवाचपृथोस्तत्सूक्तमाकर्णय सारं सुष्ठु मितं मधु ।
स्मयमान इब प्रीत्या कुमार: प्रत्युवाच ह ॥
१७॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा; पृथो:--राजा पृथु का; तत्--वह; सूक्तम्--वैदिक निष्कर्ष; आकर्ण्य--सुनकर;सारम्--अत्यन्त सारगर्भित; सुष्ठु--युक्तियुक्त, उपयुक्त; मितम्--परिमित, न्यूनतम; मधु --सुनने में मधुर; स्मयमान:--हँसते हुए;इब--सहश; प्रीत्या--परम प्रसन्नतापूर्वक; कुमार:--ब्रह्मचारी ने; प्रत्युवाच--उत्तर दिया; ह--इस प्रकार
महर्षि मैत्रेय ने कहा : इस प्रकार ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ सनत्कुमार पृथु महाराज की अत्यन्तसारगर्भित, युक्तियुक्त तथा श्रुतिमधुर वाणी सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसे और कहने लगे।
"
सनत्कुमार उबवाचसाधु पृष्ठ महाराज सर्वभूतहितात्मना ।
भवता विदुषा चापि साधूनां मतिरीहशी ॥
१८॥
सनत्-कुमार: उबाच--सन त्कुमार ने कहा; साधु--साधु प्रकृति का; पृष्टम्-- प्रश्न; महाराज--हे राजा; सर्व-भूत--सभीजीवात्माएँ; हित-आत्मना--सबों का हित चाहने वाले के द्वारा; भवता--आपके द्वारा; विदुषा--अत्यन्त विद्वान; च--तथा;अपि--यद्यपि; साधूनाम्--साधु पुरुषों की; मतिः --बुद्धि; ईहशी--ऐसी ।
सनत्कुमार ने कहा : हे राजा पृथु, आपने मुझसे बहुत ही अच्छा प्रश्न पूछा है।
ऐसे प्रश्न,विशेष रूप से आप-जैसे पर-हितकारी द्वारा उठाये जाने के कारण समस्त जीवात्माओं के लिएअत्यन्त लाभप्रद हैं।
यद्यपि आप सब कुछ जानते हैं, किन्तु आप ऐसे प्रश्नों को इसीलिए पूछ रहेहैं, क्योंकि यह साधु पुरुषों का आचरण है।
ऐसी बुद्धि आपके सर्वथा अनुरूप है।
"
सड्भमः खलु साधूनामुभयेषां च सम्मतः ।
यत्सम्भाषणसपम्प्रश्न: सर्वेषां वितनोति शम् ॥
१९॥
सड्भम:--संगति; खलु--निश्चय ही; साधूनाम्ू-- भक्तों की; उभयेषाम्-दोनों के लिए; च--भी; सम्मत:--अभिमत्,निर्णायक; यत्--जो; सम्भाषण--विवेचना; सम्प्रश्न: -- प्रश्न तथा उत्तर; सर्वेषामू--सबों का; वितनोति--फैलाता है; शम्--वास्तविक सुख।
जब भक्तों का समागम होता है, तो उनकी विवेचनाएँ, प्रश्न तथा उत्तर वक्ता तथा श्रोतादोनों ही के लिए निर्णायक होते हैं।
इस प्रकार ऐसा समागम प्रत्येक व्यक्ति के वास्तविक सुखके हेतु लाभप्रद है।
"
अस्त्येव राजन्भवतो मधुद्विषःपादारविन्दस्य गुणानुवादने ।
रतिर्दुरापा विधुनोति नैष्ठिकीकाम कषायं मलमन्तरात्मन: ॥
२०॥
अस्ति--है; एव--निश्चय ही; राजन्ू--हे राजा; भवत:--आपका; मधु-द्विष: -- भगवान् का; पाद-अरविन्दस्य-- चरणकमलोंका; गुण-अनुवादने-- महिमा-गायन में; रतिः --आसक्ति; दुरापा--अत्यन्त कठिन; विधुनोति-- धो देती है; नैष्ठिकी -- अत्यन्तनिष्ठावान; कामम्ू--वासनामय; कषायम्-- अतिरंजित काम-वासनाएँ; मलम्--गंदा; अन्त:ः-आत्मन:--अन्तस्तल से |
सनत्कुमार ने आगे कहा : हे राजन, भगवान् के चरणकमलों के गुणानुवाद के प्रति आपकापहले से ही झुकाव है।
ऐसी आसक्ति दुर्लभ होती है, किन्तु एक बार भगवान् में अविचल श्रद्धाहो जाने पर यह अन्तस्तल की समस्त कामवासनाओं को स्वतः ही धो डालती है।
"
शास्क्रेष्वियानेव सुनिश्चितो नृणांक्षेमस्थ सूयग्विमृशेषु हेतु: ।
असडू आत्मव्यतिरिक्त आत्मनिहढा रतिर्ब्रह्मणि निर्गुणे च या ॥
२१॥
शास्त्रेषु--शास्त्रों में; इयान् एब--केवल यह; सु-निश्चित:--ठीक से निर्धारित; नृणामू--मानव समाज के; क्षेमस्थ--कल्याणका; सयक्--पूर्णतया; विमृशेषु--पूर्ण विचार-विमर्श से; हेतु:--कारण; असड्ु:--विरक्ति; आत्म-व्यतिरिक्ते --देहात्मबुर्द्धि;आत्मनि--परमात्मा के प्रति; हढा--सशक्त; रति:ः--आसक्ति; ब्रह्मणि-- अध्यात्म; निर्गुणे--गुणों से परे परमेश्वर में; च--तथा;या--जो।
भलीभाँति विचार करने के बाद शास्त्रों में यह निश्चित किया गया है कि मानव समाज केकल्याण का चरम लक्ष्य देहात्मबुद्धि से विरक्ति एवं प्रकृति के गुणों से परे दिव्य परमेश्वर के प्रतिसुदृढ़ आसक्ति है।
"
सा श्रद्धवा भगवद्धर्मचर्ययाजिज्ञासयाध्यात्मिकयोगनिष्ठया ।
योगेश्वरोपासनया च नित्यपुण्यश्रवःकथया पुण्यया च ॥
२२॥
सा--वह भक्ति; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा संकल्प से; भगवत्-धर्म--भक्ति; चर्यया--विवेचना से; जिज्ञासया-- जिज्ञासा से;अध्यात्मिक--अध्यात्म सम्बन्धी; योग-निष्ठया--आत्मज्ञान में दृढ़ निश्चय से; योग-ईश्वर-- भगवान् की; उपासनया-- पूजा से;च--तथा; नित्यमू--नियमित रूप से; पुण्य-श्रव:--जिसके सुनने से; कथया--विवेचना से; पुण्यया--पुण्य से; च--भी |
भक्ति करने, भगवान् के प्रति जिज्ञासा करने, जीवन में भक्तियोग का व्यवहार करने, पूर्णपुरुषोत्तम योगेश्वर भगवान् की पूजा करने तथा भगवान् की महिमा का श्रवण एवं कीर्तन करनेसे परमेश्वर के प्रति आसक्ति बढ़ाई जा सकती है।
ये सारे कार्य अपने आप में परम पवित्र हैं।
"
अर्थेन्द्रियारामसगोष्ठ्यतृष्णयातत्सम्मतानामपरिग्रहेण च्च।
विविक्तरुच्या परितोष आत्मनिविना हरेर्गुणपीयूषपानात् ॥
२३॥
अर्थ--धन; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आराम--तृप्ति; स-गोष्ठी-- अपने संगी सहित; अतृष्णया--वितृष्णा से; तत्--उस;सम्मतानाम्ू--उनके द्वारा अनुमोदित; अपरिग्रहेण--अस्वीकृति द्वारा; च-- भी; विविक्त-रुच्या-- अरुचि; परितोषे-- प्रसन्नता;आत्मनि--स्व; विना--रहित; हरेः-- भगवान् के; गुण-- गुण; पीयूष-- अमृत; पानात्ू--पीने से |
ऐसे लोगों की संगति न करके, जो केवल इन्द्रियतृष्ति एवं धनोपार्जन के फेर में रहते हैं,मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करनी चाहिए।
उसे न केवल ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए, वरन् जो उनका संग करते हैं उनसे भी बचना चाहिए।
मनुष्य को अपना जीवन इसप्रकार ढालना चाहिए कि जिसमें उसे भगवान् हरि की महिमा का अमृत पान किये बिना चैन नमिले।
इस प्रकार इन्द्रियभोग से विरक्ति उत्पन्न होने पर मनुष्य उन्नति कर सकता है।
"
अहिंसया पारमहंस्यचर्ययास्मृत्या मुकुन्दाचरिताछयसीधुना ।
यमैरकामैर्नियमै श्राप्पनिन्दयानिरीहया द्वन्द्वतितिक्षया च ॥
२४॥
अहिंसया--अहिंसा द्वारा; पारमहंस्थ-चर्यया--महान् आचार्यों के चरणचिह्नों का अनुसरण करने से; स्मृत्या--स्मरण करने से;मुकुन्द-- भगवान्; आचरित-अछय--उनकी लीलाओं का केवल प्रचार करने से; सीधुना--अमृत से; यमै: --नियामकसिद्धान्तों के पालन से; अकामैः--भौतिक आकांक्षाओं से विहीन; नियमै:--विधि-विधानों का हढ़ता से पालन करने से; च--भी; अपि--निश्चय ही; अनिन्दया--निन््दा किये बिना; निरीहया--सादा जीवन व्यतीत करते हुए; दन्द्र--द्वैत भाव; तितिक्षया--सहिष्णुता से; च--तथा |
आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह अहिंसक हो, महान् आचार्यों केपदचिह्नों का अनुगमन करे, भगवान् की लीलाओं के अमृत का सदैव स्मरण करे, बिना किसीभौतिक कामना के यम-नियमों का पालन करे और ऐसा करते हुए दूसरों की निन््दा न करे।
भक्त को अत्यन्त सादा जीवन बिताना चाहिए और विरोधी तत्त्वों की द्वैतता से विचलित नहींहोना चाहिए।
उसे चाहिए कि वह उन्हें सहन करना सीखे।
"
हरेर्मुहुस्तत्परकर्णपूर-गुणाभिधानेन विजृम्भभाणया ।
भकक्त्या हासड्रः सदसत्यनात्मनिस्यान्निर्गुणे ब्रह्मणि चाझ्सा रति: ॥
२५॥
हरेः-- भगवान् के; मुहुः--निरन्तर; तत्-पर-- भगवान् के सन्दर्भ में; कर्ण-पूर--कान का आभूषण; गुण-अभिधानेन --दिव्यगुणों की विवेचना से; विजृम्भभाणया--कृष्ण-चेतना ( भक्ति ) को बढ़ाने से; भक्त्या--भक्ति से; हि--निश्चय ही; असड्भ:--अदूषित; सत्-असति-- भौतिक जगत; अनात्मनि--आत्मनि ( आध्यात्मिक ज्ञान ) का उल्टा; स्थात्ू--होना चाहिए; निर्गुणे--अध्यात्म में; ब्रह्मणि--परमेश्वर में; च--तथा; अज्ञसा--सरलतापूर्वक; रति:ः--आकर्षण ।
भक्त को चाहिए कि भगवान् के दिव्य गुणों के निरन्तर श्रवण द्वारा भक्ति-अनुशीलन मेंउत्तरोत्तर वृद्धि करे।
ये लीलाएँ भक्तों के कानों के आभूषण सहश हैं।
भक्ति करने तथा भौतिकगुणों को पार करने से मनुष्य सहज ही अध्यात्म में भगवान् में स्थिर हो सकता है।
"
यदा रतिर््रह्मणि नैष्ठिकी पुमा-नाचार्यवान्ज्ञानविरागरंहसा ॥
दहत्यवीर्य हृदयं जीवकोशंपश्ात्मकं योनिमिवोत्थितोग्नि: ॥
२६॥
यदा--जब; रति:ः--आसक्ति; ब्रहणि-- भगवान् में; नैष्ठिकी --स्थिर; पुमान्ू--मनुष्य; आचार्यवान्--गुरु के प्रति पूर्णतःसमर्पित; ज्ञान--ज्ञान; विराग--विरक्ति; रहसा--के बल से; दहति--जलाता है; अवीर्यम्--नपुंसक; हृदयम्--हृदय के भीतर;जीव-कोशम्--आत्मा का आवरण; पञ्ञ-आत्मकम्--पाँचों तत्त्व; योनिमू--जन्म का स्त्रोत; इब--सहश; उत्थित:--उद्भूत;अग्निः--आग।
गुरु की कृपा से तथा ज्ञान एवं विराग के जागरित होने से भगवान् के प्रति आसक्ति में स्थिरहो जाने पर जीवात्मा जो शरीर के अन्तस्तल में स्थित तथा पाँच तत्त्वों से आच्छादित है अपनेभौतिक परिवेश को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार काष्ठ से उत्पन्न अग्नि काष्ठ को हीभस्मसात् कर देती है।
"
दग्धाशयो मुक्तसमस्ततद्गुणोनैवात्मनो बहिरन्तर्विचष्टे ।
परात्मनोर्यद्व्यवधानं पुरस्तात्स्वप्ने यथा पुरुषस्तद्विनाशे ॥
२७॥
दग्ध-आशय:--समस्त इच्छाओं का जल जाना; मुक्त--मुक्त; समस्त--सभी; तत्-गुण: --द्रव्य के सम्बन्ध में गुण; न--नहीं;एव--निश्चय ही; आत्मन:--आत्मा या परमात्मा; बहिः--बाहा; अन्तः--आन्तरिक; विचष्टे-- कार्यशील; पर-आत्मनो: --परमात्मा का; यत्--जो; व्यवधानम्-- अन्तर; पुरस्तात्--मानो प्रारम्भ में हो; स्वप्ने--स्वप्न में; यथा--जिस प्रकार; पुरुष: --व्यक्ति; तत्--वह; विनाशे--समाप्त होते हुए
जब मनुष्य भौतिक समस्त इच्छाओं से रहित और भौतिक गुणों से मुक्त हो जाता है, तो वहअन्त: तथा बाह्य रूप से किये गये कार्यों में अन्तर नहीं देखता है।
उस समय आत्म-साक्षात्कारके पूर्व विद्यमान आत्मा तथा परमात्मा का अन्तर विनष्ट हो जाता है।
स्वप्न टूटने पर स्वप्न तथास्वप्न देखने वाले के बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता।
"
आत्मानमिन्द्रियार्थ च परं यदुभयोरपि ।
सत्याशय उपाधौ बै पुमान्पश्यति नान्यदा ॥
२८॥
आत्मानम्--आत्मा; इन्द्रिय-अर्थम्--इन्द्रियतृप्ति हेतु; च--तथा; परम्--दिव्य; यत्--जो; उभयो:--दोनों; अपि--निश्चय ही;सति--स्थित होकर; आशये-- भौतिक इच्छाएँ; उपाधौ--उपाधि या नाम; बै--निश्चय ही; पुमान्--मनुष्य; पश्यति-- देखता है;न अन्यदा--अन्यथा नहीं
जब आत्मा इन्द्रियतृष्ति के हेतु रहता है, तो वह नाना प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न करता है,जिसके कारण उसको उपाधियाँ दी जाती हैं।
किन्तु जब मनुष्य दिव्य स्थिति में रहता है, तो वहभगवान् की इच्छाओं को पूरा करने के अतिरिक्त और किसी कार्य में रुचि नहीं दिखाता।
"
निमित्ते सति सर्वत्र जलादावपि पूरुष: ।
आत्मनश्च परस्यापि भिदां पश्यति नान्यदा ॥
२९॥
निमित्ते--कारणों के फलस्वरूप; सति--होते हुए; सर्वत्र--सभी जगह; जल-आदौ अपि--जल तथा अन्य प्रतिबिम्बित करनेवाले माध्यम; पूरुष: --पुरुष; आत्मन:--अपने; च--तथा; परस्य अपि--दूसरे का भी; भिदाम्--अन्तर; पश्यति--देखता है;न अन्यदा--अन्य कोई कारण नहीं।
विभिन्न निमित्तों ( कारणों ) के फलस्वरूप ही मनुष्य अपने तथा दूसरों में अन्तर देखता है,जिस प्रकार के जल, तेल या दर्पण में एक ही पदार्थ के प्रतिबिम्ब भिन्न-भिन्न प्रकार से दिखतेहैं।
"
इन्द्रियर्विषयाकृष्ट्रराक्षिप्तं ध्यायतां मन: ।
चेतनां हरते बुद्धेः स्तम्बस्तोयमिव हृदातू ॥
३०॥
इन्द्रिये:--इन्द्रियों के द्वारा; विषय--विषय वस्तु; आकृष्टे:--आकृष्ट होकर; आश्षिप्तमू--विचलित; ध्यायताम्--सदैव सोचतेहुए; मन:ः--मन; चेतनामू-- चेतना; हरते--खो जाती है; बुद्धेः--बुद्धि की; स्तम्ब:ः--बड़े-बड़े तिनके, कुशादि; तोयम्--जल;इब--सहश; हृदात्ू--झील ( जलाशय ) से |
जब मनुष्य का मन तथा इन्द्रियाँ सुख-भोग के हेतु विषय-वस्तुओं के प्रति आकर्षित होतेहैं, तो मन विचलित हो जाता है।
परिणाम स्वरूप लगातार विषय-वस्तुओं का चिन्तन करने सेमनुष्य की असली कृष्णचेतना वैसे ही खो जाती है, जैसे कि जलाशय के किनारे उगे हुए बड़ीबड़ी कुश जैसी घास के द्वारा चूसे जाने के कारण जलाशय का जल।
"
भ्रश्यत्यनुस्मृतिश्ित्तं ज्ञानभ्रंंशः स्मृतिक्षये ।
तद्रोध॑ कवय: प्राहुरात्मापह्तबमात्मन: ॥
३१॥
भ्रश्यति--विनष्ट हो जाती है; अनुस्मृति:--निरन्तर चिन्तन; चित्तम्ू--चेतना; ज्ञान-भ्रंश:--वास्तविक ज्ञान से विरहित; स्मृति-क्षये--स्मृति के विनाश से; ततू-रोधम्--उस विधि का अवरुद्ध होना; कवयः--बड़े-बड़े पंडितों ने; प्राहु:--विचार व्यक्तकिया है; आत्म--आत्मा का; अपहृवम्--विनाश; आत्मन:--आत्मा का।
जब मनुष्य अपनी मूल चेतना से इधर-उधर हटता है, तो वह न तो अपनी पूर्वस्थिति कोस्मरण रख पाता है और न वर्तमान स्थिति को पहचान पाता है।
स्मरण-शक्ति के नष्ट हो जाने परजितना भी ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह एक झूठी आधार-शिला पर टिका रहता है।
जबऐसी घटना घटती है, तो पंडित जन कहते हैं कि आत्मा का विनाश हो गया।
"
नातः परतरो लोके पुंसः स्वार्थव्यतिक्रम: ।
यदध्यन्यस्य प्रेयस्त्वमात्मन: स्वव्यतिक्रमात् ॥
३२॥
न--नहीं; अत:--इसके बाद; परतरः --बढ़कर; लोके --इस संसार में; पुंसः --जीवात्माओं का; स्व-अर्थ--लाभ;व्यतिक्रम:--रुकावट; यत्ू-अधि--इसके आगे; अन्यस्य--दूसरों का; प्रेयस्त्वम्-- अधिक रुचिकर; आत्मन:--अपने लिए;स्व--अपना; व्यतिक्रमात्--रूकावट से |
आत्म-साक्षात्कार की अपेक्षा अन्य विषयों को अधिक रुचिकर सोचना--मनुष्य के अपनेहित के लिए इससे बड़ी बाधा कोई नहीं होती है।
"
अर्थेन्द्रियार्थाभिध्यानं सर्वार्थापह्ववो नृणाम् ।
भ्रंशितो ज्ञानविज्ञानाद्येनाविशति मुख्यताम् ॥
३३॥
अर्थ--धन; इन्द्रिय-अर्थ--इन्द्रियों की तुष्टि के लिए; अभिध्यानम्--निरन्तर ध्यान करने से; सर्व-अर्थ--चार प्रकार कीउपलब्धियाँ, पुरुषार्थ; अपह्ृव:--विनाशकारी; नृणाम्--मानव समाज की; भ्रंशित:--से रहित; ज्ञान--ज्ञान; विज्ञानातू-- भक्तिसे; येन--इससे; आविशति--प्रवेश करता है; मुख्यताम्ू--जड़ जीवन |
धन कमाने तथा इन्द्रितृप्ति के लिए उसके उपयोग के विषय में निरन्तर सोचते रहने सेमानव-समाज के प्रत्येक व्यक्ति का पुरुषार्थ विनष्ट होता है।
जब कोई ज्ञान तथा भक्ति से शून्यहो जाता है, वह वृक्षों तथा पत्थरों की सी जड़ योनियों में प्रवेश करता है।
"
न कुर्यात्कर्हिचित्सड़ तमस्तीत्रं तितीरिषु: ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यद॒त्यन्तविघातकम् ॥
३४॥
न--मत; कुर्यातू-करे; कर्हिचितू--क भी भी; सड्रमू--संगति, साथ; तम:--अज्ञान; तीब्रमू--तेज गति से; तितीरिषु:--वेपुरुष जो अज्ञान को पार करने के इच्छुक है; धर्म--धर्म; अर्थ--आर्थिक विकास; काम--इन्द्रियतृष्ति; मोक्षाणाम्--मोक्ष का;यत्--जो; अत्यन्त--अत्यधिक; विघातकम्--बाधक या रुकावट
जो अज्ञान के सागर को पार करने की प्रबल इच्छा रखते हैं, उन्हें कभी भी तमोगुण के साथसाथ नहीं जुड़ना चाहिए, क्योंकि सुखवादी कार्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के मार्ग में अत्यन्तबाधक हैं।
"
तत्रापि मोक्ष एवार्थ आत्यन्तिकतयेष्यते ।
त्रैवर्ग्योथो यतो नित्यं कृतान्तभयसंयुतः ॥
३५॥
तत्र--वहाँ; अपि-- भी; मोक्ष: --मो क्ष; एव--निश्चय ही; अर्थे--के हेतु; आत्यन्तिकतया--सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण; इष्यते--ग्रहण करे; त्रै-वर्ग्य:--अन्य तीन, अर्थात् धर्म, अर्थ तथा काम; अर्थ:--हित, पुरुषार्थ; यतः--जिससे; नित्यमू--नियमित रूपसे; कृत-अन्त-- मृत्यु; भय--डर; संयुत:--संलग्न |
चारों पुरुषार्थ अर्थात्--धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--में से मोक्ष को अत्यन्त गम्भीरतापूर्वकग्रहण करना चाहिए।
अन्य तीन तो प्रकृति के कठोर नियम अर्थात् काल ( मृत्यु ) द्वारा नाशवान् हैं।
"
परेवरे च ये भावा गुणव्यतिकरादनु ।
न तेषां विद्यते क्षेममीशविध्वंसिताशिषाम् ॥
३६॥
परे--जीवन की उच्चतर स्थिति में; अवरे--जीवन की निम्नतर अवस्था में; च--तथा; ये--ये सब; भावा:--विचार; गुण--भौतिक गुण; व्यतिकरात्--अन्योन्य क्रिया से; अनु--पीछे-पीछे चलना; न--कभी नहीं; तेषाम्ू--उनका; विद्यते--विद्यमानहै; क्षेमम्ू--कुशल; ईश--पर मे श्वर; विध्वंसित--विनष्ट; आशिषाम्--आशीर्वादों का
हम उच्चतर जीवन की विभिन्न अवस्थाओं को जीवन की निम्नतर अवस्थाओं से अलगकरते हुए वरदानस्वरूप ग्रहण करते हैं, किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रकार केभेदभाव भौतिक प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया के प्रसंग में ही विद्यमान रहते हैं।
वस्तुतःजीवन की इन अवस्थाओं का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि ये परम नियन्ता द्वाराविनष्ट कर दी जाएंगी।
"
तत्त्वं नरेन्द्र जगतामथ तस्थूषां चदेहेन्द्रयासुधिषणात्मभिरावृतानाम् ।
यः क्षेत्रवित्तपतया हृदि विश्वगाविःप्रत्यक्ञकास्ति भगवांस्तमवेहि सोउस्मि ॥
३७॥
तत्--अतः; त्वमू-तुम; नर-इन्द्र-हे श्रेष्ठ राजन; जगताम्--चरों का; अथ--इसलिए; तस्थूषाम्--अचर; च-- भी; देह--शरीर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; असु-- प्राण; धिषणा--विचार से; आत्मभि:--आत्म-साक्षात्कारसे; आवृतानाम्--इस प्रकार सेआच्छादित लोगों का; यः--जो; क्षेत्र-वित्-- क्षेत्र का ज्ञाता; तपतया--वश में करके; हृदि--हृदय में; विश्वक्ू--हर जगह;आवि:--अभिव्यक्त; प्रत्यक्--प्रत्येक रोमकूप में; चकास्ति--चमकता हुआ; भगवान्-- श्री भगवान्; तम्--उसको; अवेहि--जानने का प्रयास करो; सः अस्मि--मैं वह हूँ।
सनत्कुमार ने राजा को उपदेश दिया--अतः हे राजा पृथु, उन भगवान् को समझने का प्रयासकरो जो प्रत्येक हृदय में प्रत्येक जीव के साथ निवास कर रह रहे हैं, चाहे वह चर हो या अचर।
प्रत्येक जीव स्थूल भौतिक शरीर से तथा प्राण एवं बुद्धि से निर्मित सूक्ष्म शरीर से पूर्णतयाआवृत है।
"
यस्मिन्निदं सदसदात्मतया विभातिमाया विवेकविधुति स्त्रजि वाहिबुद्धि: ।
त॑ नित्यमुक्तपरिशुद्धविशुद्धतत्त्वप्रत्यूढकर्मकलिलप्रकृतिं प्रपये ॥
३८ ॥
यस्मिन्ू--जिसमें; इदम्ू--यह; सत्-असत्--परमे श्वर तथा उनकी शक्तियाँ; आत्मतया--समस्त कार्य तथा कारण के मूल रूप;विभाति--प्रकट करता है; माया--माया, मोह; विवेक-विधुति--जानबूझ कर मुक्त किये गये; स्त्रजि--रस्सी में; वा--अथवा;अहि--सर्प; बुद्धिः--बुद्धि; तम्ू--उसको; नित्य--शाश्वत रूप से; मुक्त--मुक्त; परिशुद्ध--कल्मषहीन; विशुद्ध-शुद्ध;तत्त्वमू--सत्य; प्रत्यूड--दिव्य; कर्म--सकाम कर्म; कलिल--अपवित्रताएँ; प्रकृतिमू-- आध्यात्मिक शक्ति में स्थित; प्रपद्ये--आत्मसमर्पण करो।
भगवान् इस शरीर के भीतर कारण तथा कार्य के एकाकार रूप में अपने को प्रकट करतेहैं, किन्तु जो विवेक रस्सी में सर्प के भ्रम को दूर करने वाला है, यदि उससे किसी ने माया कोपार कर लिया है, तो वही यह समझ सकता है कि परमात्मा भौतिक सृष्टि से परे हैं और शुद्धअन्तरंगा शक्ति में स्थित हैं।
भगवान् समस्त भौतिक कल्मष से परे हैं और एकमात्र उन्हीं कीशरण में जाना चाहिए।
"
यत्पादपट्डूजपलाशविलासभकक्त्याकर्माशियं ग्रथितमुद्ग्रथयन्ति सन््तः ।
तद्बन्न रिक्तमतयो यतयोपि रुद्ध-स्त्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ॥
३९॥
यत्--जिसके; पाद--चरण; पड्डूज--कमल; पलाश--पंखुड़ियाँ या अंगूठे; विलास-- भोग; भक्त्या--भक्ति से; कर्म--सकाम कर्म; आशयमू--इच्छा; ग्रधितम्--कठोर ग्रंथि; उद्ग्रथयन्ति--समूल नष्ट कर देते हैं; सन््त:ः-- भक्तजन; तत्--उसके;बत्--सहृश; न--कभी नहीं; रिक्त-मतय:-- भक्ति से रहित मनुष्य; यतय:--अधिकाधिक प्रयत्त करके; अपि--यद्यपि;रुद्ध--बन्द; सत्रोत:-गणा:--इन्द्रियसुख की लहरें; तम्--उसको; अरणम्--शरण ग्रहण करने योग्य; भज--भक्ति में लगो;वासुदेवम्--वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण की ।
जो भक्तजन नित्य ही भगवान् के चरणकमलों के अँगुष्ठों की सेवा में रत रहते हैं, वे सकामकर्म की जोर से बँधी गाँठ जैसी इच्छाओं को सरलता से लाँघ जाते हैं।
चूँकि ऐसा कर पानादुःसाध्य है, अतः अभक्तजन--ज्ञानी तथा योगी--इन्द्रियतृप्ति की तरंगों को रोकने का प्रयासकरके भी ऐसा नहीं कर पाते।
अतः तुम्हें आदेश है कि तुम वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण की भक्ति मेंलग जाओ।
"
कृच्छो महानिह भवार्णवमप्लवेशांषड्वर्गनक्रमसुखेन तितीर्षन्ति ।
तत्त्व हरेभगवतो भजनीयमद्िंश्रकृत्वोडुपं व्यसनमुत्तर दुस्तरार्णम् ॥
४०॥
कृच्छः--कष्टकारक; महान्-- अत्यधिक; इह--यहाँ ( इस जीवन में ); भव-अर्णवम्--संसार रूपी समुद्र; अप्लब-ईशाम्--अभक्तों का जिन्होंने भगवान् के चरणकमलों की शरण नहीं ग्रहण की; षट्-वर्ग--छहों इन्द्रियाँ; नक्रमू--मगर; असुखेन--अत्यन्त कठिनाई से; तितीर्षन्ति--पार करते हैं; तत्--अतः ; त्वम्--तुम; हरेः-- भगवान् के; भगवतः--पर मे श्वर के;भजनीयम्--आराधनीय; अड्प्रिमू--चरणकमल को; कृत्वा--करके ; उडुपमू--नाव; व्यसनम्--सभी प्रकार के संकट;उत्तर--पार करो; दुस्तर--अत्यन्त कठिन; अर्गमू--सागर को |
अज्ञान के सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि उसमें अनेक भयानक मगरमच्छभरे पड़े हैं।
जो भक्त नहीं हैं, वे इस समुद्र को पार करने के लिए कठिन तपस्या करते हैं, किन्तुहम तुम्हारे लिए बता रहे हैं कि तुम एकमात्र भगवान् के चरणकमलों का आश्रय लो, बे समुद्रको पार करने के लिए नाव के समान हैं।
यद्यपि सागर को लाँघना कठिन है, किन्तु भगवान् केचरणकमलों की शरण ग्रहण करके तुम सभी संकटों को पार कर जाओगे।
"
मैत्रेय उवाचस एवं ब्रह्मपुत्रेण कुमारेणात्ममेधसा ।
दर्शितात्मगति: सम्यक्प्रशस्योवाच त॑ नूप: ॥
४१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; सः--राजा; एवम्--इस प्रकार; ब्रह्म-पुत्रेण-- ब्रह्मा के पुत्र द्वारा; कुमारेण --कुमारों में सेएक के द्वारा; आत्म-मेधसा--आत्मज्ञान में पारंगत; दर्शित--दिखाया जाकर; आत्म-गति:--आध्यात्मिक प्रगति; सम्यक्--पूर्णतया; प्रशस्य--पूजा करके; उबाच--कहा; तम्--उससे; नृप:--राजा ने |
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र कुमारों में से एक के द्वारा जो पूर्णआत्रज्ञानी था, पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करके राजा ने उनकी निम्नलिखित शब्दों से आराधना की।
"
राजोबाचकृतो मेअनुग्रहः पूर्व हरिणार्तानुकम्पिना ।
'तमापादयितुं ब्रह्मन्भगवन्यूयमागता: ॥
४२॥
राजा उवाच--राजा ने कहा; कृत:--किया हुआ; मे--मेरे प्रति; अनुग्रह:ः--अहैतुकी कृपा; पूर्वमू--पहले; हरिणा-- भगवान्विष्णु द्वारा; आर्त-अनुकम्पिना--दुखी पुरुषों पर दयालु; तम्--उस; आपादयितुम्--पुष्टि के लिए; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण;भगवनू--हे शक्तिमान; यूयमू--तुम सब; आगता:--यहाँ आये हो।
राजा ने कहा : हे ब्राह्मण, हे शक्तिमान, पहले भगवान् विष्णु ने मुझ पर अहैतुकी कृपाप्रदर्शित की थी और यह संकेत किया था कि आप मेरे घर पधारेंगे।
आप लोग उसी आशीर्वादकी पुष्टि करने के लिए यहाँ पर आये हैं।
"
निष्पादितश्च कार्त्स्येन भगवद्धिर्घणालुभि: ।
साधूच्छिष्ट हि मे सर्वमात्मना सह कि ददे ॥
४३॥
निष्पादितः च--तथा आज्ञा का समुचित पालन हो गया; कार्त्स्येन--पूर्णत:; भगवद्धि:--भगवान् के प्रतिनिधियों द्वारा;घृणालुभि:--अत्यन्त दयालु द्वारा; साधु-उच्छिष्टम्-साधु पुरुषों का जूठन; हि--निश्चय ही; मे--मेरा; सर्वमू--हर चीज;आत्मना--हृदय तथा आत्मा; सह--साथ; किम्--क्या; ददे--दूँ।
हे ब्राह्ण, आपने तो भगवान् के आदेश का सम्यक् पालन किया है, क्योंकि आप उन्हीं केसमान उदार भी हैं।
अतः यह मेरा कर्तव्य है कि आपको कुछ अर्पित करूँ, किन्तु मेरे पास जोकुछ भी है, वह साधु पुरुषों के भोजन में से बचा-खुचा प्रसाद ही है।
"
मैं आपको क्या दूँ?प्राणा दाराः सुता ब्रह्मन्गृहाश्न सपरिच्छदा: ।
राज्यं बल॑ मही कोश इति सर्व निवेदितम् ॥
४४॥
प्राणा:--प्राण, जीवन; दारा:--स्त्री; सुता:--सन्तानें; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; गृहा:--घर; च-- भी; स--सहित; परिच्छदा: --समस्त सामग्री; राज्यमू--राज्य; बलमू--शक्ति, सेना; मही-- धरती; कोश:--खजाना; इति--इस प्रकार; सर्वम्--सब कुछ;निवेदितम्--अर्पित |
राजा ने आगे कहा : अतः हे ब्राह्मणो, मेरा प्राण, पत्नी, बच्चे, घर, घर का साज-सामान,मेरा राज्य, सेना, पृथ्वी तथा विशेष रूप से मेरा राजकोष--ये सब आपको अर्पित हैं।
"
सैनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च ।
सर्व लोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥
४५॥
सैना-पत्यमू--सेनापति का पद; च--तथा; राज्यमू--शासक का पद; च--तथा; दण्ड-- अनुशासन; नेतृत्वम्--नेतृत्व; एव--निश्चय ही; च--तथा; सर्व--समस्त; लोक-अधिपत्यम्ू--लोकों का स्वामित्व; च--तथा; बेद-शास्त्र-वित्-- वैदिक साहित्यका ज्ञाता; अरहति--पात्र होता है
चूँकि केवल ऐसा व्यक्ति, जो वैदिक ज्ञान के अनुसार पूर्ण रूप से शिक्षित हो, सेनापति,राज्य का शासक, दण्डदाता तथा सारे लोक का स्वामी होने का पात्र होता है, अतः पृथु महाराजने कुमारों को सर्वस्व अर्पित कर दिया।
"
स्वमेव ब्राह्मणो भुड्डे स्व वस्ते स्व॑ं ददाति च ।
तस्यैवानुग्रहेणान्र॑ भुझते क्षत्रियादय: ॥
४६॥
स्वम्--अपना; एव--ही; ब्राह्मण: --ब्राह्मण; भु्ढे -- भोगता है; स्वम्ू-- अपना; वस्ते--पहनता है; स्वम्--अपना; ददाति--दान देता है; च--तथा; तस्य--उसकी; एव--ही; अनुग्रहेण--कृपा से; अन्नम्--अन्न; भुञ्ञते--खाता है; क्षत्रिय-आदय:--क्षत्रिय आदि समाज के अन्य वर्ण
क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र केवल ब्राह्मणों की कृपा से अपना भोजन प्राप्त करते हैं।
केवलब्राह्मण ही ऐसे हैं, जो अपनी ही सम्पत्ति का भोग करते हैं, अपने कपड़े पहनते हैं और अपना हीधन दान में देते हैं।
"
यैरीहशी भगवतो गतिरात्मवादएकान्ततो निगमिभ्रि: प्रतिपादिता नः ।
तुष्यन्त्वद्भ्रकरुणा: स्वकृतेन नित्यको नाम तत्प्रतिकरोति विनोदपात्रम् ॥
४७॥
यैः--उनके द्वारा; ईहशी--इस प्रकार की; भगवत:-- भगवान् की; गति:--गति; आत्म-वादे--आध्यात्मिक विचार;एकान्ततः --पूर्ण जानकारी में; निगमिभि:--वैदिक साक्ष्यों से; प्रतिपादिता--निश्चित रूप से स्थापित; नः--हमको ; तुष्यन्तु--तुष्ट हों; अद्चअ-- अनन्त; करुणा: --कृपा; स्व-कृतेन--अपने कार्य से; नित्यम्ू--शा श्रत; क: --कौन; नाम--कोई नहीं;तत्--वह; प्रतिकरोति--प्रतिकार या बदला ले सकता है; विना--रहित; उद-पात्रमू--अंजली में पानी देना।
पृथु महाराज ने आगे कहा : जिन व्यक्तियों ने भगवान् के सम्बन्ध में आत्म-साक्षात्कार केपथ को बता कर अपार सेवा की हो और जिनकी व्याख्याएँ पूर्ण विश्वास एवं वैदिक साक्ष्य द्वाराहमारे उत्थान के लिए की जाती हों, भला उनसे उऋण होने के लिए अंजुली-भर जल केअतिरिक्त और क्या अर्पित किया जा सकता है? ऐसे महापुरुषों को उनके ही कार्यों के द्वारासन्तुष्ट किया जा सकता है, जो उनकी अपार कृपावश मानव समाज के बीच में संवितरित हुएहैं।
"
मैत्रेय उवाचत आत्मयोगपतय आदिराजेन पूजिता: ।
शीलं तदीयं शंसन्त: खेभवन्मिषतां नृणाम् ॥
४८ ॥
मैत्रेय: उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; ते--वे; आत्म-योग-पतय:--भक्ति द्वारा आत्म-साक्षात्कार के स्वामी; आदि-राजेन--मूलराजा ( पृथु ) द्वारा; पूजिता:--पूजित; शीलम्ू-- आचरण; तदीयम्--राजा का; शंसन्त:--प्रशंसति होकर; खे--आकाश में;अभवनू--प्रकट हुआ; मिषताम्--देखते हुए; नृणाम्--मनुष्यों के |
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : महाराज पृथु द्वारा इस प्रकार पूजित होकर भक्ति में प्रवीण येचारों कुमार अत्यन्त गद्गद हुए।
दरअसल वे आकाश में दिखाई पड़े और उन्होंने राजा के शीलकी प्रशंसा की और सभी लोगों ने उनके दर्शन किये।
"
वैन्यस्तु धुर्यो महतां संस्थित्याध्यात्मशिक्षया ।
आप्तकाममिवात्मानं मेन आत्मन्यवस्थित: ॥
४९॥
वैन्य:--वेन महाराज के पुत्र ( पृथु ); तु--निस्सन्देह; धुर्य:--प्रमुख; महताम्--महापुरुषों के; संस्थित्या--पूर्णतया स्थिर होकर;आध्यात्म-शिक्षया--आत्म-साक्षात्कार के विषय में; आप्त--लब्ध; कामम्--इच्छाएँ; इब--सहृश; आत्मानम्-- आत्मतोष में;मेने--विचार किया; आत्मनि-- अपने में; अवस्थित:--स्थित |
महाराज पृथु अपने तत्त्वज्ञान में पूर्ण रूप से स्थित होने के कारण महापुरुषों में प्रमुख थे।
वेआध्यात्मिक ज्ञान में सफलता प्राप्त व्यक्ति की भाँति परम संतुष्ट थे।
"
कर्माणि च यथाकालं यथादेशं यथाबलम् ।
यथोचितं यथावित्तमकरोद्गह्मसात्कृतम् ॥
५०॥
कर्माणि--कार्य-कलाप; च-- भी; यथा-कालमू्--समय तथा परिस्थिति के अनुकूल; यथा-देशम्--स्थान तथा स्थिति केउपयुक्त; यथा-बलम्--अपनी शक्ति के अनुरूप; यथा-उचितम्--जहाँ तक सम्भव हो, यथासम्भव; यथा-वित्तम्--इस सम्बन्धमें जो जितना धन व्यय कर सके; अकरोत्--सम्पन्न किया; ब्रह्म-सात्ू--परम सत्य में; कृतम्--किया
आत्मतुष्ट होने के कारण महाराज पृथु समय, स्थान, शक्ति तथा आर्थिक स्थिति के अनुसारजितनी पूर्णता से सम्भव हो सकता था अपने कर्तव्यों को पूरा करते थे।
इन सारे कार्यों के द्वाराउनका एकमात्र उद्देश्य परम सत्य को प्रसन्न करना था।
इस प्रकार उन्होंने अपने कर्मों का भली-भाँति निर्वाह किया।
"
फलं ब्रह्मणि सन्न्यस्य निर्विषड्र: समाहित: ।
कर्माध्यक्षं च मन्वान आत्मानं प्रकृते: परम् ॥
५१॥
'फलम्--परिणाम, फल; ब्रह्मणि--परम सत्य में; सन्न्यस्थ--त्याग कर, अर्पित करके; निर्विषड्र:--दूषित हुए बिना;समाहितः--पूर्णतया समर्पित; कर्म--कर्म; अध्यक्षम्ू-- अधीक्षक; च--तथा; मन्वान: --सदैव चिन्तन करते हुए; आत्मानम्--परमात्मा के विषय में; प्रकृते:--भौतिक प्रकृति का; परम्--अतीत, परे ।
महाराज पृथु ने अपने आपको प्रकृति से परे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के शाश्वत दास के रूपमें समर्पित कर दिया था।
फलस्वरूप उनके कर्मों के सारे फल भगवान् को समर्पित थे।
वे अपनेआपको सदैव सर्वेश्वर भगवान् के दास के रूप में समझते रहे।
"
गृहेषु वर्तमानोपि स साम्राज्यश्रियान्वितः ।
नासजतेन्द्रियार्थेषु निरहम्मतिरकवत् ॥
५२॥
गृहेषु--घर में; वर्तमान: -- उपस्थित; अपि--यद्यपि; सः--राजा पृथु; साम्राज्य--पूरा राज्य; थ्रिया--ऐश्वर्य; अन्बित:--लीन;न--कभी नहीं; असजत--आकर्षित हुआ; इन्द्रिय-अर्थेषु--इन्द्रियतृप्ति हेतु; निः--न तो; अहम्--मैं हूँ; मतिः--विचार;अर्क--सूर्य; बत्ू--सहृश |
महाराज पृथु, जो अपने सारे साम्राज्य की सम्पत्ति के कारण अत्यन्त ऐश्वर्यवान् थे, घर मेंएक गृहस्थ की भाँति रहते थे।
चूँकि वे अपने ऐश्वर्य का उपयोग अपनी इन्द्रियतृप्ति के हेतु कभीनहीं करना चाहते थे, अतः वे विरक्त बने रहे, जिस प्रकार कि सूर्य सभी परिस्थितियों मेंअप्रभावित रहता है।
"
एवमध्यात्मयोगेन कर्माण्यनुसमाचरन् ।
पुत्रानुत्पादयामास पश्चार्चिष्यात्मसम्मतान् ॥
५३ ॥
एवम्--इस प्रकार; अध्यात्म-योगेन-- भक्तियोग के द्वारा; कर्माणि-- कर्म; अनु--सदैव; समाचरन्--करते हुए; पुत्रान्--पुत्रोंको; उत्पादयाम् आस--उत्पन्न किया; पञ्ञ--पाँच; अर्चिषि-- अपनी पत्नी अर्चि से; आत्म--निजी; सम्मतान्ू--इच्छा केअनुसार।
भक्ति की मुक्त अवस्था में स्थित होकर पृथु महाराज ने न केवल समस्त सकाम कर्मों कोसम्पन्न किया, अपितु अपनी पत्नी अर्चि से पाँच पुत्र भी उत्पन्न किये।
निस्सन्देह, उनके सारे पुत्र उनकी निजी इच्छानुसार उत्पन्न हुए थे।
"
विजिताश्च॑ं धूप्रकेशं हर्यक्ष॑ं द्रविणं वृकम् ।
सर्वेषां लोकपालानां दधारैकः पृथुर्गुणान्ू ॥
५४॥
विजिताश्रम्-विजिताश्व नामक; धूम्रकेशम्--धूप्रकेश नामक; हर्यक्षम्-हर्यक्ष नामक; द्रविणम्--द्रविण नामक; वृकम्--बृक नामक; सर्वेषाम्ू--सभी; लोक-पालानाम्--लोकों के लोकपालों का; दधार--स्वीकार किया; एक:--एक; पृथु:--पृथुमहाराज; गुणान्--समस्त गुणों को
विजिताश्व, धूप्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण तथा वृक नामक पाँच पुत्र उत्पन्न करने के बाद भी पृथुमहाराज इस लोक पर राज्य करते रहे।
उन्होंने अन्य समस्त लोकों पर शासन करने वाले देवों के समस्त गुणों को आत्मसात् किया।
"
गोपीथाय जगत्सूष्टे: काले स्वे स्वेच्युतात्मक: ।
मनोवाग्वृत्तिभि: सौम्यैर्गुणै: संरज्यन्प्रजा: ॥
५५॥
गोपीथाय--सुरक्षा के लिए; जगत्ू-सूष्टे:--परम स्त्रष्टा का; काले--यथा-समय; स्वे स्वे-- अपने-अपने; अच्युत-आत्मक:--कृष्णभक्त होने से; मन:--मन; वाक्ू--शब्द; वृत्तिभि:--व्यवसाय से; सौम्यै:--अत्यन्त सौम्य, भद्ग; गुणैः--गुण से;संरक्षयन्--प्रसन्न रखते हुए; प्रजा:--नागरिक जन।
चूँकि महाराज पृथु भगवान् के पूर्ण भक्त थे, अतः वे सारे नागरिकों को उनकी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार प्रसन्न रखते हुए भगवान् की सृष्टि की रक्षा करना चाहते थे।
अतः पृथुमहाराज उन्हें अपनी वाणी, मन, कर्म तथा सौम्य आचरण से सभी प्रकार प्रसन्न रखते थे।
"
राजेत्यधान्नामधेयं सोमराज इवापरः ।
सूर्यवद्धिसृजन्गृहन्प्रतपं श्र भुवो बसु ॥
५६॥
राजा--राजा; इति--इस प्रकार; अधात्--ले लिया; नामधेयम्--नामधारी; सोम-राज:--चन्द्रलोक का राजा; इब--सहश;अपरः--दूसरी ओर; सूर्य-वत्--सूर्यदेव के समान; विसृजन्ू--वितरित करते हुए; गृह्न्--खींचते हुए; प्रतपन्--कठोरअनुशासन से; च-- भी; भुव:ः--संसार का; वसु--कर या लगान।
महाराज पृथु चन्द्र के राजा सोमराज के समान विख्यात हो गये।
वे सूर्यदेव के समानशक्तिशाली तथा कर-संग्रहणकर्ता भी थे।
सूर्य ताप तथा प्रकाश बाँटता है, किन्तु साथ हीसमस्त लोकों के जल को खींच लेता है।
"
दुर्धर्षस्तेजसेवाग्निर्महेन्द्र इव दुर्जय: ।
तितिक्षया धरित्रीव द्यौरिवाभीष्टदो नृणाम् ॥
५७॥
दुर्धर्ष: --अजेय; तेजसा--तेज से; इब--सद्ृश; अग्नि: --अग्नि; महा-इन्द्र:--स्वर्ग के राजा; इब--के समान; दुर्जय:--अजेय;तितिक्षया--सहिष्णुता द्वारा; धरित्री--पृथ्वी; इब--के सहृश; दयौ:--स्वर्ग लोक के; इब--के सदृश; अभीष्ट-दः--इच्छाओं कोपूरा करने वाले; नृणामू--मानव समाज का ।
महाराज पृथु इतने प्रबल तथा शक्तिमान थे कि उनके आदेशों का उल्लंघन करना मानोअग्नि को जीतना था।
वे इतने बलशाली थे कि उनकी उपमा स्वर्ग के राजा इन्द्र से दी जाती थीजिसकी शक्ति अजेय है।
दूसरी ओर महाराज पृथु पृथ्वी के समान सहिष्णु भी थे और मानवसमाज की विभिन्न इच्छाएँ पूरी करने में वे स्वयं स्वर्ग के समान थे।
"
वर्षति सम यथाकामं पर्जन्य इब तर्पयन् ।
समुद्र इव दुर्बोध: सत्त्तेनाचलराडिव ॥
५८॥
वर्षति--बरसते; स्म-- थे; यथा-कामम्--इच्छानुसार; पर्जन्य:--जल; इब--के सहश; तर्पयन्-- प्रसन्न करते हुए; समुद्र: --समुद्र; इब--के सहश; दुर्बोध:--न समझ में आने वाला; सत्त्वेन--सत्तात्मक स्थिति से; अचल--पर्वत; राट् इब--राजा केसमान
जिस प्रकार वर्षा से हर एक की इच्छाएँ पूरी होती हैं उसी तरह महाराज पृथु सबों को तुष्टरखते थे।
वे समुद्र के समान थे, क्योंकि कोई उनकी गहराई ( गम्भीरता ) को नहीं समझ सकताथा और उद्देश्य की हृढ़ता में वे पर्वतराज मेरु के समान थे।
"
धर्मराडिव शिक्षायामाश्चर्य हिमवानिव ।
कुवेर इब कोशाढ्य़ो गुप्तार्थो वरुणो यथा ॥
५९॥
धर्म-राट् इब--यमराज ( मृत्यु के अधीक्षक ) के समान; शिक्षायाम्-शिक्षा में; आश्चर्य--ऐश्वर्य में; हिमवान् इब--हिमालयपर्वत के समान; कुवेर:--स्वर्गलोक के कोशपति; इब--सहृश; कोश-आढ्य:--सम्पत्ति के स्वामी होने के मामले में; गुप्त-अर्थ:--छिपाना; वरुण:--वरुण नामक देवता; यथा--जिस प्रकार।
महाराज पृथु की बुद्धि तथा शिक्षा मृत्यु के अधीक्षक यमराज के बिलकुल समान थी।
उनका ऐश्वर्य हिमालय पर्वत से तुलनीय था, जहाँ सभी बहुमूल्य हीरे, जवाहरात तथा धातुएँसंचित हैं।
उनके पास स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कुवेर के समान विपुल सम्पत्ति थी।
वरुण देवता केही समान उनके रहस्यों का किसी को पता न था।
"
मातरिश्वेव सर्वात्मा बलेन महसौजसा ।
अविषह्मतया देवो भगवान्भूतराडिव ॥
६०॥
मातरिश्वा--वायु; इब--सहश; सर्व-आत्मा--सर्वव्यापी; बलेन--शारीरिक बल से; महसा ओजसा--थैर्य तथा शक्ति से;अविषह्ामतया--असहिष्णुता से; देव:ः--देवता; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; भूत-राट् इब--रुद्र या सदाशिव की तरह |
महाराज पृथु अपनी शारीरिक बल तथा ऐन्द्रिय शक्ति में वायु के समान बलशाली थे, जोकहीं भी तथा सर्वत्र आ जा सकता है।
अपनी असहाता में वे शिवजी या सदाशिव के अंशसर्वशक्तिमान रुद्र के समान थे।
"
कन्दर्प इव सौन्दर्य मनस्वी मृगराडिव ।
वात्सल्ये मनुवन्नृणां प्रभुत्वे भगवानज: ॥
६१॥
कन्दर्प:--कामदेव; इब--सहश; सौन्दर्ये --सुन्दरता में; मनस्वी--विचारशीलता में; मृग-राट् इब--पशुओं के राजा सिंह केसमान; वात्सल्ये--स्नेह में; मनु-वत्--स्वायम्भुव मनु के समान; नृणाम्--मानव समाज का; प्रभुत्वे--आधिपत्य, शासन करनेके मामले में; भगवान्--स्वामी; अज:ः--ब्रह्मा |
वे शारीरिक सुन्दरता में कामदेव के समान तथा विचारशीलता में सिंह के समान थे।
वात्सल्य में वे स्वायंभुव मनु के समान थे और अपनी नियंत्रण-क्षमता में ब्रह्माजी के समान थे।
"
बृहस्पति्रहावादे आत्मवत्त्वे स्वयं हरिःभक्त्या गोगुरुविप्रेषु विष्वक्सेनानुवर्तिषु ।
हिया प्रश्रयशीलाभ्यामात्मतुल्य: परोद्ममे ॥
६२॥
बृहस्पति:--स्वर्गलोक के पुरोहित; ब्रह्म-वादे--आध्यात्मिक ज्ञान में; आत्म-वचत्त्वे--आत्म-नियंत्रण के मामले में; स्वयम्--साक्षात्; हरिः--श्रीभगवान्; भक्त्या--भक्ति में; गो--गाय; गुरु--गुरु; विप्रेषु--ब्राह्मणों में; विष्वक्सेन-- भगवान्;अनुवर्तिषु-- अनुयायी; हिया--लज्जा से; प्रश्रय-शीला भ्याम्--अत्यन्त भद्र आचरण से; आत्म-तुल्य:--अपने ही समान आप;'पर-उद्यमे--परोपकारी कार्यों में |
पृथु महाराज के निजी आचरण में समस्त उत्तम गुण प्रकट होते थे।
अपने आत्म-न्ञान में वेठीक बृहस्पति के समान थे।
आत्म-नियंत्रण ( इन्द्रियजय ) में वे साक्षात् भगवान् के समान थे।
जहाँ तक भक्ति का प्रश्न था, वे भक्तों के परम अनुयायी थे।
जो गो-रक्षा के प्रति आसक्त औरगुरु तथा ब्राह्मणों की सारी सेवा करते थे।
वे परम सलज्ज थे और उनका आचरण अत्यन्त भद्रथा।
जब वे किसी परोपकार में लग जाते तो इस प्रकार कार्य करते थे मानो अपने लिए ही कार्यकर रहे हों।
"
कीरत्योर्ध्वगीतया पुम्भिस्त्रैलोक्ये तत्र तत्र ह ।
प्रविष्ट: कर्णरन्श्रेषु सत्रीणां राम: सतामिव ॥
६३॥
कीर्त्या--कीर्ति से; ऊर्ध्व-गीतया--उच्च घोषणा द्वारा; पुम्भि:--सामान्य जनता द्वारा; त्रै-लोक्ये--ब्रह्माण्ड भर में; तत्र तत्र--सर्वत्र; ह--निश्चय ही; प्रविष्ट:--प्रवेश करते हुए; कर्ण-रन्श्रेषु--कान के छेदों में; सत्रीणाम्--स्त्रियों के; राम:-- भगवान्रामचन्द्र; सतामू--भक्तों के; इब--सहृश
सारे ब्रह्माण्ड भर में--उच्चतर, निम्नतर तथा मध्य लोकों में--पृथु महाराज की कीर्ति उच्चस्वर से घोषित की जा रही थी।
सभी महिलाओं तथा साधु पुरुषों ने उनकी महिमा को सुना जो भगवान् रामचन्द्र की महिमा के समान मधुर थी।
"
अध्याय तेईसवाँ: महाराज पृथु का घर वापस जाना
4.23मैत्रेय उवाचइष्टात्मानं प्रवयसमेकदा वैन्य आत्मवान् ।
आत्मनावर्धिताशेषस्वानुसर्ग: प्रजापति: ॥
१॥
जगतस्तस्थुषश्चापि वृत्तिदो धर्मभूृत्सताम् ।
निष्पादिते श्वरादेशो यदर्थमिह जज्ञिवान् ॥
२॥
आत्मजेष्वात्मजां न्यस्य विरहाद्ुदुतीमिव ।
प्रजासु विमनःस्वेक: सदारोगात्तपोवनम् ॥
३॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; दृष्टा--देखकर; आत्मानम्--शरीर की; प्रवयसम्--वृद्धावस्था; एकदा--एक बार;वैन्य:--राजा पृथु ने; आत्म-वान्ू--आध्यात्मिक शिक्षा से पूर्ण रूप से ज्ञात; आत्मना--अपने द्वारा; वर्धित--बढ़ा हुआ;अशेष--अपार; स्व-अनुसर्ग: -- भौतिक एऐश्वर्य की उत्पत्ति; प्रजा-पति:--प्रजा का रक्षक; जगत:--चल; तस्थुष:-- अचल;च--भी; अपि--निश्चय ही; वृत्ति-दः--आजीविका देने वाला; धर्म-भृत्--धर्म मानने वाला; सताम्--भक्तों का; निष्पादित--पूर्णतया सम्पन्न किया गया; ई श्वर-- भगवान् की; आदेश: --आज्ञा; यत्-अर्थम्--उनकी सहमति से; इह--इस संसार में;जज्ञिवानू-किया; आत्म-जेषु--अपने पुत्रों को; आत्म-जाम्--पृथ्वी को; न्यस्य--सूचित करते हुए; विरहात्--वियोग से;रुदतीम् इब--मानो विलाप करती हुईं; प्रजासु--प्रजा को; विमन:सु--दुखियारों को; एक:--अकेले; स-दार:--अपनी पत्नीसहित; अगातू--चला गया; तपः-वनम्--वन में जहाँ तप किया जा सके |
अपने जीवन की अन्तिम अवस्था में, जब महाराज पृथु ने देखा कि मैं वृद्ध हो चला हूँ तोउस महापुरुष ने, जो संसार का राजा था, अपने द्वारा संचित सारे ऐश्वर्य को जड़ तथा जंगमजीवों में बाँट दिया।
उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के लिए धार्मिक नियमों के अनुसार आजीविका( पेंशन ) की व्यवस्था कर दी और भगवान् के आदेशों का पालन करके, उनकी पूर्ण सहमति सेउन्होंने अपने पुत्रों को अपनी पुत्रीस्वरूपा पृथ्वी को सौंप दिया।
तब महाराज पृथु अपनी प्रजाको, जो राजा के वियोग के कारण विलख रही थी, त्याग कर तपस्या करने के लिए पत्नीसहितवन को अकेले चले गये।
"
तत्राप्यदा भ्यनियमो वैखानससुसम्मते ।
आरब्ध उग्रतपसि यथा स्वविजये पुरा ॥
४॥
तत्र--वहाँ; अपि-- भी; अदाभ्य--कठोर; नियम:--तपस्या; वैखानस--विरक्त जीवन ( वानप्रस्थ ) के नियम; सु-सम्मते--पूर्णतया मान्य; आरब्ध: --प्रारम्भ करते हुए; उग्र--कठोर; तपसि--तपस्या; यथा--जिस प्रकार; स्व-विजये--संसार कोजीतने में; पुरा--पहले |
पारिवारिक जीवन से निवृत्त होकर महाराज पृथु ने वानप्रस्थ जीवन के नियमों का कड़ाई सेपालन किया और वन में कठिन तपस्या की।
वे इन कार्यो में उसी गम्भीरता से जुट गये जिसतरह पहले वे शासन चलाने तथा हर एक पर विजय पाने के लिए जुट जाते थे।
"
कन्दमूलफलाहारः शुष्कपर्णाशनः क्वचित् ।
अब्भक्ष: कतिचित्पक्षान्वायुभक्षस्तत: परम् ॥
५॥
कन्द--तना; मूल--जड़ें; फल--फल; आहार: -- खाकर; शुष्क --सूखी ; पर्ण--पत्तियाँ; अशन:-- खाकर; क्वचित्--कभी-कभी; अपू-भक्ष:-- जल पीकर; कतिचित्--कई; पक्षान्ू--पखवारों तक; वायु--हवा; भक्ष:--साँस लेकर; ततः परमू--
तत्पश्चात्तपोवन में महाराज पृथु कभी वृक्षों के तने तथा जड़ें खाते रहे तो कभी फल तथा सूखीपत्तियाँ।
कुछ हफ्तों तक उन्होंने केवल जल पिया।
अन्त में वे केवल वायु ग्रहण करके उसी सेनिर्वाह करने लगे।
"
ग्रीष्मे पञ्जञतपा वीरो वर्षास्वासारषाण्मुनि: ।
आकण्ठमग्न: शिशिरे उदके स्थण्डिलेशय: ॥
६॥
ग्रीष्मे--गर्मी की ऋतु में; पञ्ञ-तपाः--पाँच प्रकार के ताप; वीर:--वीर; वर्षासु--वर्षा ऋतु में; आसारषाट्--वर्षा की झड़ीकी पहुँच में रहकर; मुनि:ः--मुनियों की तरह; आकण्ठ--गले तक; मग्न:--डूबे हुए; शिशिरे--जाड़े में; उदके --जल केभीतर; स्थण्डिले-शय:ः--फर्श पर लेटे हुए।
वानप्रस्थ के नियमों तथा ऋषियों-मुनियों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए पृथु महाराजने ग्रीष्म ऋतु में पञ्ञाग्नियों का सेवन किया, वर्षा ऋतु में वे वर्षा की झड़ी में बाहर ही रहे औरजाड़े की ऋतु में गले तक जल के भीतर खड़े रहे।
वे भूमि पर बिना बिस्तर के सोते रहे।
"
तितिक्षुर्यतवाग्दान्त ऊर्ध्वरता जितानिल: ।
आरिराधयिषु: कृष्णमचरत्तप उत्तमम् ॥
७॥
तितिक्षु;:--सहन करते हुए; यत--वश में करते हुए; वाक्ु--शब्द; दान्तः--इन्द्रियों को वश में करते हुए; ऊर्ध्ब-रेता:--वीर्यस्खलन के बिना; जित-अनिल:--प्राण वायु को जीतते हुए; आरिराधयिषु: --केवल इच्छा करते हुए; कृष्णम्--कृष्ण को;अचरत्--अभ्यास किया; तपः--तपस्या; उत्तमम्- श्रेष्ठ |
अपनी वाणी तथा इन्द्रियों को वश में करने, वीर्य स्खलित न होने देने तथा अपने शरीर केभीतर प्राण-वायु को वश में करने के लिए महाराज पृथु ने ये सारी कठिन तपस्याएँ साधीं।
यहसब उन्होंने श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए किया।
इसके अतिरिक्त उनका कोई अन्य प्रयोजननथा।
"
तेन क्रमानुसिद्धेन ध्वस्तकर्ममलाशयः ।
प्राणायामै: सन्निरुद्धषड्वर्गए्छन्नबन्धन: ॥
८ ॥
तेन--इस तरह तपस्या करने से; क्रम--क्रमश:; अनु--निरन्तर; सिद्धेन--सिद्धि से; ध्वस्त--विनष्ट; कर्म--सकाम कर्म;मल--गंदी वस्तुएँ; आशयः:--इच्छा; प्राण-आयामै: -- प्राणायाम योग के अभ्यास से; सन्--होकर; निरुद्ध--रुका हुआ; षटू-वर्ग:--मन तथा इन्द्रियाँ; छिन्न-बन्धन:--समस्त बन्धनों से मुक्त |
इस प्रकार कठिन तपस्या करने से महाराज पृथु क्रमशः आध्यात्मिक जीवन में स्थिर औरसकाम कर्म की समस्त इच्छाओं से पूर्ण रूप से मुक्त हो गये।
उन्होंने मन तथा इन्द्रियों को वश मेंकरने के लिए प्राणायाम योग का भी अभ्यास किया जिससे वे सकाम कर्म की समस्त इच्छाओंसे पूर्ण रूप से मुक्ति पा गये।
"
सनत्कुमारो भगवान्यदाहाध्यात्मिकं परम् ।
योगं तेनैव पुरुषमभजत्पुरुषर्षभ: ॥
९॥
सनतू-कुमार:--सनत्कुमार ने; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; यत्ू--जो; आह--कहा; आध्यात्मिकम्--जीवन कीआध्यात्मिक उन्नति; परमू--चरम; योगम्ू--योग; तेन--उससे; एव--निश्चय ही; पुरुषम्--परम पुरुष; अभजत्--पूजा की;पुरुष -ऋषभः--मनुष्यों में श्रेष्ठ |
इस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ महाराज पृथु ने आध्यात्मिक उन्नति के उस पथ का अनुसरणकिया जिसका उपदेश सनत्कुमार ने किया था; अर्थात् उन्होंने भगवान् कृष्ण की पूजा की।
"
भगवद्धर्मिण: साधो: श्रद्धया यततः सदा ।
भक्तिर्भगवति ब्रह्मण्यनन्यविषयाभवत् ॥
१०॥
भगवत्ू-धर्मिण: -- भगवान् की भक्ति करने वाला; साधो:--भक्त का; श्रद्धया-- श्रद्धा से; यतत:--प्रयास करते हुए; सदा--सदैव; भक्ति:-- भक्ति; भगवति-- भगवान् की; ब्रह्मणि--निर्गुण ब्रह्म की उत्पत्ति; अनन्य-विषया--बिना किसी विचलन के,हढ़; अभवत्--हो गया।
इस प्रकार महाराज पृथु चौबीसों घंटे कठोरता से विधि-विधानों का पालन करते हुए पूर्णरूप से भक्ति में लग गये।
इससे भगवान् कृष्ण के प्रति इनमें प्रेम तथा भक्ति का उदय हुआ औरवे स्थिर हो गये।
"
तस्यानया भगवत:ः परिकर्मशुद्ध-सत्त्वात्मनस्तदनुसंस्मरणानुपूर्त्या ।
ज्ञानं विरक्तिमदभून्रिशितेन येनचिच्छेद संशयपदं निजजीवकोशम् ॥
११॥
तस्य--उसका; अनया--इससे; भगवतः-- भगवान् का; परिकर्म--भक्ति के कार्य; शुद्ध-शुद्ध, दिव्य; सत्त्व-- अस्तित्व;आत्मन:--मन का; तत्--पर मे श्वर का; अनुसंस्मरण--निरन्तर स्मरण; अनुपूर्त्या--ठीक से किये जाने पर; ज्ञानम्ू--ज्ञान;विरक्ति--अनासक्ति; मत्--रखते हुए; अभूत्--प्रकट हुआ; निशितेन--उत्कट कार्यों से; येन--जिससे; चिच्छेद--पृथक् होतेहैं; संशय-पदम्--संदेह की स्थिति; निज--अपनी; जीव-कोशम्--जीवात्मा का आवरण ( कोश )।
निरन्तर भक्ति करते रहने से पृथु महाराज का मन शुद्ध हो गया, अतः वे भगवान् केचरणारविन्द का निरन्तर चिन्तन करने लगे।
इससे वे पूरी तरह से विरक्त हो गये और पूर्णज्ञानप्राप्त करके समस्त संशयों से परे हो गये।
इस तरह वे मिथ्या अहंकार तथा जीवन के भौतिकबोध से मुक्त हो गये।
"
छिन्नान्यधीरधिगतात्मगतिर्निरीह-स्तत्तत्यजेच्छिनदिदं वयुनेन येन ।
तावन्न योगगतिभियतिरप्रमत्तोयावद्गदाग्रजकथासु रतिं न कुर्यातू ॥
१२॥
छिन्न--पृथक् होकर; अन्य-धी:--जीवन के अन्य बोध ( देहात्म बुद्धि )) अधिगत--पूर्ण आश्वस्त होकर; आत्म-गति:--आध्यात्मिक जीवन का चरम लक्ष्य; निरीह:--इच्छारहित; तत्--उसे; तत्यजे--त्याग दिया; अच्छिनत्--काट दिया था;इदम्--यह; वयुनेन--ज्ञान से; येन--जिससे; तावत्--तब तक; न--कभी नहीं; योग-गतिभि:--योग पद्धति का अभ्यास;यति:ः--अभ्यास करने वाला; अप्रमत्त:--बिना किसी भ्रम के; यावत्--जब तक; गदाग्रज--कृष्ण का; कथासु--शब्द;रतिमू--आकर्षण; न--कभी नहीं; कुर्यात्ू--इसे करो
जब महाराज पृथु देहात्मबुद्धि से पूर्ण रूप से मुक्त हो गये तो उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण कोपरमात्मा रूप में प्रत्येक के हृदय में स्थित देखा।
इस प्रकार उनसे सारे आदेश पाने में समर्थ होनेपर उन्होंने योग तथा ज्ञान की अन्य सारी विधियाँ त्याग दीं।
ज्ञान तथा योग की सिद्ध्ियों में भीउनकी रुचि नहीं रह गई, क्योंकि उन्होंने पूरी तरह यह अनुभव किया कि जीवन का चरम लक्ष्यतो श्रीकृष्ण की भक्ति है और जब तक योगी तथा ज्ञानी कृष्णकथा के प्रति आकृष्ट नहीं होते,संसार सम्बन्धी उनके सारे भ्रम ( मोह ) कभी भी दूर नहीं हो सकते।
"
एवं स वीरप्रवर: संयोज्यात्मानमात्मनि ।
ब्रह्मभूतो द॒ढं काले तत्याज स्वं कलेवरम् ॥
१३॥
एवम्--इस प्रकार; सः--उसने; वीर-प्रवर: --वीरों में श्रेष्ठ; संयोज्य--प्रयुक्त करके; आत्मानमू--मन को; आत्मनि--परमात्मामें; ब्रह्म-भूतः--मुक्त होकर; हृढम्--ह॒ढ़तापूर्वक; काले--समय आने पर; तत्याज--त्याग दिया; स्वमू--अपना; कलेवरम्--शरीर
समय आने पर जब पृथु महाराज को अपना शरीर त्याग करना था उन्होंने अपने मन कोहढ़तापूर्वक श्रीकृष्ण के चरणकमलों में स्थिर कर लिया और इस प्रकार से ब्रह्मभूत अवस्था मेंस्थित होकर उन्होंने भौतिक शरीर त्याग दिया।
"
सम्पीड् पायुं पार्णि भ्यां वायुमुत्सारयज्छनै: ।
नाभ्यां कोष्ठेष्ववस्थाप्य हृदुरःकण्ठशीर्षणि ॥
१४॥
सम्पीड्य--रोककर; पायुम्--गुदाद्वार; पार्णिणभ्यामू--एड़ी से; वायुमू--ऊपर जाने वाली वायु को; उत्सारयन्--ऊपरधकेलकर; शनै:--धीरे-धीरे; नाभ्यामू--नाभि से; कोष्ठेषु--हृदय तथा कण्ठ में; अवस्थाप्य--स्थिर करके ; हत्--हृदय में;उरः--ऊपर की ओर; कण्ठ--गला, कंठ; शीर्षण--दोनों भौहों के मध्य ( मस्तक ) में ।
जब महाराज पृथु ने विशेष यौगिक आसन साधा तो उन्होंने अपनी एड़ियों से अपना गुदाद्वारबन्द कर लिया और दोनों एड़ियों को दबाया, फिर धीरे-धीरे प्राणवायु को नाभिचक्र से होते हुएवे हृदय तथा कण्ठ तक ऊपर की ओर ले गये और अन्त में उसे दोनों भौहों के मध्य पहुँचादिया।
"
उत्स्पयंस्तु त॑ मूर्थ्नि क्रमेणावेश्य निःस्पृहः ।
वायुं वायौ क्षितौ कायं तेजस्तेजस्ययूयुजत् ॥
१५॥
उत्सर्पयन्--इस प्रकार स्थापित करते हुए; तु--लेकिन; तम्--वायु को; मूर्ध्नि--सिर में; क्रमेण-- धीरे-धीरे; आवेश्य--रखतेहुए; निःस्पृहः--समस्त इच्छाओं से मुक्त होकर; वायुमू--शरीर के वायु भाग को; वायौ--ब्रह्मण्डकोश की समग्र वायु में;क्षितौ--सम्पूर्ण पृथ्वीकोश में; कायम्-- भौतिक शरीर को; तेज:--शरीर की अग्नि; तेजसि-- भौतिक कोश की सम्पूर्ण अग्निमें; अयूयुजत्--मिला दिया ।
इस प्रकार पृथु महाराज अपने प्राणवायु को धीरे धीरे ब्रह्मरन्थ्न तक ऊपर ले गये जिससेउनकी समस्त सांसारिक आकांक्षाएँ समाप्त हो गईं।
उन्होंने धीरे-धीरे अपने प्राण वायु को समष्टिवायु में, अपने शरीर को समष्टि पृथ्वी में और अपने शरीर की अग्नि ( तेज ) को समष्टि अग्नि मेंलीन कर दिया।
"
खान्याकाशे द्रवं तोये यथास्थानं विभागश: ।
क्षितिमम्भसि तत्तेजस्थदो वायौ नभस्यमुम् ॥
१६॥
खानि--शरीर में विभिन्न इन्द्रियों के द्वार ( छिद्र )।
आकाशे--आकाश में; द्रवम्--तरल पदार्थ; तोये--जल में; यथा-स्थानम्--उपयुक्त स्थान पर; विभागशः--जिस प्रकार बे विभाजित हैं; क्षितिम्--पृथ्वी; अम्भसि--जल में; तत्ू--वह; तेजसि-- अग्नि में;अदः--अग्नि; वायौ--वायु में; नभसि-- आकाश में; अमुम्--उस |
इस प्रकार पृथु महाराज ने अपनी इन्द्रियों के छिद्रों को आकाश में और अपने शरीर के द्रवों,यथा रक्त तथा विभिन्न स्त्रावों को, समष्टि जल में, पृथ्वी को जल में, फिर जल को अग्नि में,अग्नि को वायु में और वायु को आकाश में मिला दिया ( लीन कर दिया )।
"
इन्द्रियेषु मनस्तानि तन्मात्रेषु यथोद्धवम् ।
भूतादिनामून्युत्कृष्य महत्यात्मनि सन्दधे ॥
१७॥
इन्द्रियेषु--इन्द्रियों में; मनः--मन; तानि--इन्द्रियों को; तत्ू-मात्रेषु--इन्द्रियों के पदार्थों में; यथा-उद्धवम्--जहाँ से उनकीउत्पत्ति हुई; भूत-आदिना--पाँचों तत्त्वों द्वारा; अमूनि--वे सारे इन्द्रिय पदार्थ ( तन्मात्राएँ ); उत्कृष्प--बाहर निकाल कर;महति--महत्तत्व में; आत्मनि-- अहंकार को; सन्दधे--लीन कर दिया।
उन्होंने स्थितियों के अनुसार मन को इन्द्रियों में और इन्द्रियों को इन्द्रियपदार्थों ( तन्मात्राओं )में और अहंकार को समष्टि भौतिक शक्ति, महत् तत्त्व, में लीन कर दिया।
"
त॑ सर्वगुणविन्यासं जीवे मायामये न्यधात्त॑ चानुशयमात्मस्थमसावनुशयी पुमान् ।
ज्ञानवैराग्यवीर्येण स्वरूपस्थोजहात्प्रभु; ॥
१८॥
तम्--उसको; सर्व-गुण-विन्यासम्ू--समस्त गुणों के अगार; जीवे--उपाधियों को; माया-मये--समस्त शक्तियों का आगार;न्यधात्ू--स्थित किया; तम्--उस; च--भी; अनुशयम्--उपाधि; आत्म-स्थम्--आत्म-साक्षात्कार में स्थित; असौ--वह अनुशयी--जीवात्मा; पुमान्-- भोक्ता; ज्ञान--ज्ञान; वैराग्य--विरक्ति; वीर्येण--वीर्य से; स्वरूप-स्थ:--अपनी स्वाभाविकस्थिति में स्थित; अजहात्-- धाम को वापस गया; प्रभु:--नियन्ता के |
तब पृथु महाराज ने जीवात्मा की सम्पूर्ण उपाधि माया के परम प्रभु ( नियन्ता ) को सौंप दी।
ज्ञान तथा वैराग्य एवं भक्ति की आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा वे जीवात्मा की उन समस्त उपाधियोंसे मुक्त हो गये, जिनसे वे घिरे थे।
इस प्रकार कृष्णभावना की अपनी मूल स्वाभाविक स्थिति( स्वरूप-स्थिति ) में रहकर उन्होंने प्रभु ( इन्द्रियों के नियन््ता ) के रूप में अपने शरीर को त्यागदिया।
"
अर्चिर्नाम महाराज्ञी तत्पत्यनुगता वनम् ।
सुकुमार्यतदर्हा च यत्पद्भ्यां स्पर्शनं भुवः ॥
१९॥
अर्चि: नाम--अर्चि नामक; महा-राज्ञी--महारानी; तत्-पत्नी--महाराज पृथु की पत्नी; अनुगता--अपने पति के साथ जानेवाली; वनम्--वन को; सु-कुमारी --अत्यन्त कोमल शरीर वाली; अ-तत्-अर्हा--योग्य न होना; च-- भी; यत्-पद्भ्याम्--जिसके चरण से; स्पर्शनम्--स्पर्श; भुवः--पृथ्वी पर |
पृथु महाराज की पत्नी महारानी अर्चि अपने पति के साथ वन को गई थीं।
महारानी होने केकारण उनका शरीर अत्यन्त कोमल था।
यद्यपि वे वन में रहने के योग्य न थीं, किन्तु उन्होंनेस्वेच्छा से अपने चरणकमलों से पृथ्वी का स्पर्श किया।
"
अतीव भर्तुब्रतधर्मनिष्ठयाशुश्रूषया चार्षदेहयात्रया ।
नाविन्दतारति परिकर्शितापि साप्रेयस्करस्पर्शनमाननिर्वृति: ॥
२०॥
अतीव--अत्यधिक; भर्तु:--पति का; ब्रत-धर्म--सेवा का ब्रत; निष्ठया--संकल्प से; शुश्रूषया--सेवा से; च-- भी; आर्ष--ऋषि के समान; देह--शरीर; यात्रया--रहन-सहन; न--नहीं; अविन्दत--देखा; आर्तिम्-कोई कष्ट; परिकर्शिता अपि--दुर्बलहोने पर भी; सा--वह; प्रेयः-कर--अत्यन्त सुखद; स्पर्शन--स्पर्श; मान--लगा हुआ; निर्वृतिः--आनन्द
यद्यपि महारानी अर्चि ऐसे कष्टों को सहने की अभ्यस्त न थीं, तो भी वन में रहने केअनुष्ठानादि में उन्होंने ऋषियों की तरह अपने पति का साथ दिया।
वे भूमि पर शयन करतीं औरकेवल फल, फूल और पत्तियाँ खातीं।
चूँकि वे इन कार्यों के लिए उपयुक्त न थीं, अतः वेअत्यन्त दुर्बल हो गईं।
फिर भी अपने पति की सेवा करने से उन्हें जो आनन्द प्राप्त होता था उसकेकारण उन्हें किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता था।
"
देहं विपन्नाखिलचेतनादिकंपत्यु: पृथिव्या दयितस्य चात्मन: ।
आलक्ष्य किश्धिच्च विलप्य सा सतीचितामथारोपयदद्विसानुनि ॥
२१॥
देहम्--शरीर; विपन्न--पूर्णतया रहित; अखिल--समस्त; चेतन--जीवन से; आदिकम्--लक्षणों; पत्यु:-- अपने पति के;पृथिव्या:--संसार; दयितस्य--दयालु का; च आत्मन:--तथा अपना; आलक्ष्य--देखकर; किश्ञित्--अत्यल्प; च--तथा;विलप्य--विलाप करके; सा--वह; सती--पतिक्रता; चितामू--चिता पर; अथ--अब; आरोपयत्--रखा; अद्वि--पर्वत;सानुनि--चोटी पर।
जब महारानी अर्चि ने अपने पति को, जो उनके प्रति तथा पृथ्वी के प्रति अत्यन्त दयालु थे,जीवन के लक्षणों से रहित देखा तो उन्होंने थोड़ा विलाप किया और फिर पर्वत की चोटी परचिता बनाकर अपने पति के शरीर को उस पर रख दिया।
"
विधाय कृत्यं ह्दिनीजलाप्लुतादत्त्वोदकं भर्तुरुदारकर्मण: ।
नत्वा दिविस्थांस्त्रिदरशांस्त्रि: परीत्यविवेश वह्ििं ध्यायती भर्तृपादी ॥
२२॥
विधाय--सम्पन्न करके; कृत्यम्ू--अनुष्ठान; हृदिनी--छोटी नदी के जल में; जल-आप्लुता--अच्छी तरह स्नान करके; दर्त्वाउदकम्--जलाझलि देकर; भर्तुः--अपने पति की; उदार-कर्मण:--जो अत्यन्त उदार था; नत्वा--नमस्कार करके; दिवि-स्थानू--आकाश में स्थित; त्रि-दशान्--तीन करोड़ देवता; त्रि:--तीन बार; परीत्य--परिक्रमा करके; विवेश--प्रवेश किया;वहिम्--अग्नि में; ध्यायती--ध्यान करती हुई; भर्त्--अपने पति के; पादौ--दोनों चरणकमल।
इसके पश्चात् महारानी ने आवश्यक दाह-कृत्य किये और जलाझलि दी।
फिर नदी में स्नानकरके उन्होंने आकाश स्थित विभिन्न लोकों के विभिन्न देवताओं को नमस्कार किया।
तब अग्निकी प्रदक्षिणा की और अपने पति के चरणकमलों का ध्यान करते हुए उन्होंने अग्नि की लपटोंमें प्रवेश किया।
"
विलोक्यानुगतां साध्वीं पृथुं वीरवरं पतिम् ।
तुष्ठवुर्वरदा देवैद्देवपल्य: सहस्त्रश: ॥
२३॥
विलोक्य--देखकर; अनुगताम्ू--पति के बाद मरते; साध्वीम्--पतिक्रता स्त्री को; पृथुम्--राजा पृथु की; वीर-वरम्ू--परमयोद्धा; पतिम्--पति; तुष्ठवु:--स्तुति की; वर-दाः--वर देने में समर्थ, वरदायिनी; देवै:--देवताओं के साथ; देव-पत्य: --देवताओं की पत्नियों ने; सहस्नरश:--हजारों |
महान् राजा पृथु की पतिब्रता पत्नी अर्चि के इस वीरतापूर्ण कार्य को देखकर हजारोंदेवपत्रियों ने प्रसन्न होकर अपने पतियों सहित रानी की स्तुति की।
"
कुर्वत्य: कुसुमासारं तस्मिन्मन्दरसानुनि ।
नदत्स्वमर्तूर्येषु गृणन्ति सम परस्परम् ॥
२४॥
कुर्वत्यः:--करते हुए; कुसुम-आसारम्--फूलों की वर्षा; तस्मिन्--उसमें; मन्दर--मन्दर पर्वत की; सानुनि--चोटी पर;नदत्सु--बजते हुए; अमर-तूर्येषु--देवताओं के नगाड़े की ध्वनि; गृणन्ति स्म--बातें कर रही थीं; परस्परम्ू--एक दूसरे से |
उस समय देवता मन्दर पर्वत की चोटी पर आसीन थे।
उनकी पत्नियाँ चिता की अग्नि पर फूलों की वर्षा करने लगीं और एक दूसरे से ( इस प्रकार ) बातें करने लगीं।
"
देव्य ऊचुःअहो इयं वधूर्धन्या या चैव॑ भूभुजां पतिम् ।
सर्वात्मना पतिं भेजे यज्ञेशं श्रीर्वंधूरिव ॥
२५॥
देव्य: ऊचु:--देवों की पत्नियों ( देवियों ) ने कहा; अहो--ओह; इयम्-- यह; वधू: --पली; धन्या-- धन्य है; या--जो; च--भी; एवम्--जिस तरह; भू--संसार का; भुजाम्--सारे राजाओं का; पतिमू--राजा को; सर्व-आत्मना--सब प्रकार से;पतिम्--पति को; भेजे--पूजा की; यज्ञ-ईशम्-- भगवान् विष्णु को; श्री:--लक्ष्मी; वधू: --पत्नी; इब--समान ।
देवताओं की पत्नियों ने कहा : महारानी अर्चि धन्य हैं! हम देख रही हैं कि राज राजेश्वर पृथुकी इस महारानी ने अपने पति की अपने मन, वाणी तथा शरीर से उसी प्रकार सेवा की है, जिसप्रकार ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी भगवान् यज्ञेश अथवा विष्णु की करती हैं।
"
सैषा नून॑ ब्रजत्यूथ्वमनु वैन्यं पतिं सती ।
पश्यतास्मानतीत्यार्चिददुर्विभाव्येन कर्मणा ॥
२६॥
सा--वह; एषा--यह; नूनम्ू-- अवश्य ही; ब्रजति--जा रही है; ऊर्ध्वमू--ऊपर की ओर; अनु--पीछे-पीछे ; वैन्यम्--वेन केपुत्र, पृथु; पतिमू--पति; सती--सती; पश्यत--जरा देखो तो; अस्मान्--हमको; अतीत्य--ऊपर से पार करके, लाँघकर;अर्चि:--अर्चि; दुर्विभाव्येन-- अकल्पनीय ; कर्मणा--कार्यों से |
देवों की पत्नियों ने आगे कहा : जरा देखो तो कि वह सती नारी अर्चि किस प्रकार अपनेअच्न्त्य पुण्य कर्मों के प्रभाव से अब भी अपने पति का अनुगमन करती हुई ऊपर की ओर,जहाँ तक हम देख सकती हैं, चली जा रही है।
"
तेषां दुरापं कि त्वन्यन्मर्त्यानां भगवत्पदम् ।
भुवि लोलायुषो ये वै नैष्कर्म्य साधयन्त्युत ॥
२७॥
तेषाम्ू--उनके लिए; दुरापम्ू--प्राप्त करना कठिन, दुर्लभ; किम्ू--क्या; तु--लेकिन; अन्यत्--और कुछ; मर्त्यानामू--मनुष्योंका; भगवत्ू-पदम्-- भगवान् का राज्य; भुवि--संसार में; लोल--क्षणिक; आयुष:--जीवन अवधि; ये--वे; वै--निश्चय ही;नैष्कर्म्यम्-मोक्ष का मार्ग; साधयन्ति--पालन करते हैं; उत--सही सही |
इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का जीवन-काल लघु है, किन्तु जो भक्ति में अनुरक्त हैं, वेभगवान् के धाम वापस जाते हैं, क्योंकि वे सचमुच मोक्ष के मार्ग पर होते हैं।
ऐसे लोगों के लिएकुछ भी दुर्लभ नहीं है।
"
स वश्ञितो बतात्मध्रुक्ृच्छेण महता भुवि ।
लब्ध्वापवर्ग्य मानुष्यं विषयेषु विषज्जते ॥
२८॥
सः--वह; वज्चित:--ठगा गया; बत--निश्चय ही; आत्म-श्रुक्--अपने से ईर्ष्या करने वाला; कृच्छेण -- कठिनाई से; महता--महान् कार्यो से; भुवि--इस संसार में; लब्ध्वा--पाकर; आपवर्ग्यम्-मोक्ष का मार्ग; मानुष्यमू--मनुष्य के शरीर में; विषयेषु --इन्द्रियतृप्ति के कार्य में, वासनाओं में; विषज्जते--लगा रहता है।
जो मनुष्य इस संसार में अत्यन्त संघर्षमय कार्यों को सम्पन्न करने में लगा रहता है, और जो मनुष्य का शरीर पाकर-जो कि दुखों से मोक्ष प्राप्त करने का एक अवसर होता है--कठिनसकाम कार्यो को करता रहता है, तो उसे ठगा गया तथा अपने ही प्रति ईर्ष्यालु समझना चाहिए।
"
मैत्रेय उवाचस्तुवतीष्वमरस्त्रीषु पतिलोक॑ गता वधू: ।
यं वा आत्मविदां धुर्यो वैन्य: प्रापाच्युताअ्रयः: ॥
२९॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; स्तुवतीषु--स्तुति कर रही; अमर-स्त्रीपु--देवताओं की पत्नियों द्वारा; पति-लोकम्--जिसलोक में पति गया था; गता--पहुँचकर; वधू: --पत्नी; यम्--जहाँ; वा--अथवा; आत्म-विदाम्--स्वरूपसिद्ध पुरुषों का;धुर्य; --सर्वोच्च; वैन्य: --वेन का पुत्र ( पृथु महाराज ); प्राप--प्राप्त किया; अच्युत-आ श्रय:-- भगवान् का आश्रय |
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, जब देवताओं की पत्नियाँ इस प्रकार परस्पर बातें कररही थीं तो अर्चि ने उस लोक को प्राप्त कर लिया था जहाँ उनके पति सर्वोत्कृष्ट स्वरूपसिद्धमहाराज पृथु पहुँच चुके थे।
"
इत्थम्भूतानुभावोसौ पृथु: स भगवत्तम: ।
कीर्तितं तस्य चरितमुद्दामचरितस्य ते ॥
३०॥
इत्थम्-भूत--इस प्रकार; अनुभाव: --अत्यन्त महान्, शक्तिमान; असौ--उस; पृथु:--राजा पृथु; सः--वह; भगवत्-तम:--स्वामियों में श्रेष्ठ; कीर्तितमू--वर्णित; तस्थ--उसका; चरितम्-- चरित्र; उद्याम--अत्यन्त महान; चरितस्य--ऐसे गुणों से युक्त;ते--तुमसे |
मैत्रेय ने आगे कहा : भक्तों में महान् महाराज पृथु अत्यन्त शक्तिशाली थे और उनका चरित्रअत्यन्त उदार तथा उद्दाम था।
मैंने यथासम्भव तुमसे उसका वर्णन किया है।
"
य इदं सुमहत्पुण्यं श्रद्धयावहितः पठेत् ।
श्रावयेच्छुणुयाद्वापि स पृथो: पदवीमियात् ॥
३१॥
यः--जो; इृदम्--इस; सु-महत्--अत्यन्त महान्; पुण्यम्--पवित्र; श्रद्धया-- श्रद्धा-समेत; अवहितः--ध्यानपूर्वक; पठेत्ू--पढ़ता है; श्रावयेत्--व्याख्या करता है; श्रुणुयात्--सुनता है; वा--अथवा; अपि--निश्चय ही; सः--वह व्यक्ति; पृथो:--राजापृथु के; पदवीम्ू--पद को; इयात्-- प्राप्त करता है
जो व्यक्ति श्रद्धा तथा ध्यानपूर्वक राजा पृथु के महान् गुणों को पढ़ता है, या स्वयं सुनता हैअथवा अन्यों को सुनाता है, वह अवश्य ही महाराज पृथु के लोक को प्राप्त होता है।
दूसरे शब्दोंमें, ऐसा व्यक्ति भी वैकुण्ठलोक अर्थात् भगवान् के धाम को वापस जाता है।
"
ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चस्वी राजन्यो जगतीपतिः ।
वैश्य: पठन्विट्पतिः स्याच्छूद्र: सत्तमतामियात् ॥
३२॥
ब्राह्मण:--ब्राह्मण; ब्रह्म-वर्चस्वी --आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त हुआ; राजन्य:--राजसी; जगती-पति:--संसार का राजा;वैश्य:--वैश्य वर्ण; पठन्--पढ़ने से; विट्ू-पति:--पशुओं का स्वामी; स्यात्--हो जाता है; शूद्र:-- श्रमिक वर्ग; सत्तम-ताम्--महाभक्त का पद; इयात्--प्राप्त करता है।
यदि कोई पृथु महाराज के गुणों को सुनता है और यदि वह ब्राह्मण है, तो वह ब्रह्मशक्ति मेंनिपुण हो जाता है; यदि वह क्षत्रिय है, तो संसार का राजा बन जाता है; यदि वह वैश्य है, तोअन्य वैश्यों तथा अनेक पशुओं का स्वामी हो जाता है और यदि शूद्र हुआ तो वह उच्चकोटि काभक्त बन जाता है।
"
त्रिः कृत्व इदमाकर्ण्य नरो नार्यथवाहता ।
अप्रज: सुप्रजतमो निर्धनो धनवत्तम: ॥
३३॥
त्रिः--तीन बार; कृत्व:--उच्चारण करके; इृदम्--यह; आकर्णर्य--सुनकर; नरः--मनुष्य; नारी--स्त्री; अथवा--या;आहता--समादरित; अप्रज:--सन्तान-हीन; सु-प्रज-तम: --अनेक सन््तानों वाला; निर्धन:--गरीब; धन-वत्-- धनी; तम:--सर्वाधिक
चाहे नर हो या नारी, जो कोई भी महाराज पृथु के इस वृत्तान्त को अत्यन्त आदरपूर्वकसुनता है, वह यदि निःसन्तान है, तो सन्तान युक्त और यदि निर्धन है, तो वह धनवान बन जाताहै।
"
अस्पष्टकीर्ति: सुयशा मूर्खो भवति पण्डित: ।
इदं स्वस्त्ययनं पुंसाममड्गल्यनिवारणम् ॥
३४॥
अस्पष्ट-कीर्ति:--जिसका यश प्रकट न हो; सु-यशा:--अत्यन्त प्रसिद्ध; मूर्खः--निरक्षर; भवति--हो जाता है; पण्डित:--विद्वान; इदम्--यह; स्वस्ति-अयनम्--कल्याण; पुंसाम्-मनुष्यों का; अमड्ूल्य-- अशुभ; निवारणम्--दूर करने वाला
जो इस वृत्तान्त को तीन बार सुनता है, वह यदि विख्यात हो जाएगा और यदि निरक्षर है, तो परम विद्वान् बन जाएगा।
दूसरे शब्दों में, पृथुमहाराज का वृत्तान्त सुनने में इतना शुभ है कि वह समस्त दुर्भाग्य को दूर भगाता है।
"
धन्यं यशस्यमायुष्य॑ स्वर्य कलिमलापहम्धर्मार्थकाममोक्षाणां सम्यक्सिद्धिमभीप्सुभि: ।
श्रद्धयैतदनुश्राव्यं चतुर्णा कारण परम् ॥
३५॥
धन्यम्ू--धन का साधन; यशस्यम्--यश का स्त्रोत; आयुष्यम्-दीर्घ जीवन का स्त्रोत; स्वग्यम्--स्वर्ग जाने का साधन;कलि--कलियुग में; मल-अपहम्--कल्मष को घटाने वाला; धर्म--धर्म; अर्थ--आर्थिक विकास; काम--इन्द्रियतृप्ति;मोक्षाणाम्--मोक्ष का; सम्यक्--पूर्णतया; सिद्धिम्--सिद्धि; अभीप्सुभि:--इच्छुकों के द्वारा; श्रद्धबा--अत्यन्त श्रद्धा से;एतत्--यह चरित्र; अनुश्राव्यम्ू--सुना जाना चाहिए; चतुर्णाम्--चारों; कारणम्--कारणों का; परमू--चरम
पृथु महाराज के चरित्र को सुनकर मनुष्य महान् बन सकता है, अपनी जीवन-अवधि( आयु ) बढ़ा सकता है, स्वर्ग को जा सकता है और इस कलिकाल के कल्मषों का नाश करसकता है।
साथ ही वह धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के हितों में उन्नति ला सकता है।
अतः सभीप्रकार से यही अच्छा है कि जो लोग ऐसी वस्तुओं में रुचि रखते हैं, वे पृथु महाराज के जीवनतथा चरित्र के विषय में पढ़ें तथा सुनें।
"
विजयाभिमुखो राजा श्रुत्वैतदभियाति यान् ।
बलिं तस्मै हरन्त्यग्रे राजान: पृथवे यथा ॥
३६॥
विजय-अभिमुख: --जो विजय के लिए प्रस्थान करने वाला होता है; राजा--राजा; श्रुत्वा--सुनकर; एतत्--यह; अभियाति--प्रस्थान करता है; यानू--रथ पर; बलिम्--कर या भेंट; तस्मै--उसको; हरन्ति-- भेंट करते हैं; अग्रे--समक्ष; राजान:--अन्यराजा; पृथवे--राजा पृथु को; यथा--जिस तरह करते थे।
यदि विजय तथा शासन-शक्ति का इच्छुक कोई राजा अपने रथ पर चढ़कर प्रस्थान करनेके पूर्व पृथु महाराज के चरित्र का तीन बार जप करता है, तो उसके अधीन सारे राजा उसकेआदेश से ही सारा कर उसी प्रकार लाकर रखते हैं जिस प्रकार महाराज पृथु के अधीन राजाउनको दिया करते थे।
"
मुक्तान्यसड्ो भगवत्यमलां भक्तिमुद्रहन् ।
वैन्यस्य चरितं पुण्यं श्रुणुयाच्छावयेत्पठेत् ॥
३७॥
मुक्त-अन्य-सड्ृ:--समस्त भौतिक कल्मष से रहित होकर; भगवति-- भगवान् के प्रति; अमलाम्-विशुद्ध; भक्तिम्-- भक्ति;उद्ददनू--करते हुए; वैन्यस्थ--महाराज वेन के पुत्र का; चरितम्--चरित्र; पुण्यमू--पवित्र; श्रुणुयात्--सुने; श्रावयेत्--सुनाए;पठेत्ू--तथा पढ़े ।
शुद्ध भक्त भक्तियोग की विविध विधियों का पालन करते हुए कृष्ण-चेतना में पूर्णतयालीन होने के कारण दिव्य पद पर स्थित हो सकता है, किन्तु तो भी भक्ति करते समय उसे पृथुमहाराज के जीवन तथा चरित्र के विषय में सुनना, दूसरों को सुनने की प्रेरणा देना तथा पढ़नाचाहिए।
"
वैचित्रवीर्याभिहितं महन्माहात्म्यसूचकम् ।
अस्मिन्कृतमतिमर्त्य पार्थवीं गतिमाप्नुयात्ू ॥
३८ ॥
वैचित्रवीर्य--हे विचित्रवीर्य के पुत्र ( विदुर )अभिहितम्--कहा गया; महत्--महान्; माहात्म्य--महानता; सूचकम्--उद्दुद्धकरने वाला; अस्मिन्--इसमें; कृतम्--किया हुआ; अति-मर्त्यम्--असामान्य; पार्थवीम्--पृथु महाराज के सम्बन्ध में; गतिम्--उन्नति, लक्ष्य; आणुयात्--प्राप्त करना चाहिए।
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : हे विदुर, मैंने यथासम्भव पृथु महाराज के चरित्र के विषय में बतलाया है, जो मनुष्य के भक्तिभाव को बढ़ाने वाला है।
जो कोई भी इसका लाभ उठाता है,वह भी महाराज पृथु की तरह ही भगवान् के धाम को वापस जाता है।
"
अनुदिनमिदमादरेण श्रृण्वन्पृथुचरितं प्रथयन्विमुक्तसड्र: ।
भगवति भवसिन्धुपोतपादेसच निपुणां लभते रतिं मनुष्य: ॥
३९॥
अनु-दिनम्-- प्रतिदिन; इदम्ू--यह; आदरेण--आदरपूर्वक; श्रण्वन्ू--सुनते हुए; पृथु-चरितम्-पृथु महाराज के वृत्तान्त को;प्रथयन्--कीर्तन करते हुए; विमुक्त--मुक्त; सड़:--साथ; भगवति-- भगवान् के प्रति; भव-सिन्धु-- अज्ञानरूपी सागर; पोत--नाव; पादे--जिनके चरणकमल; सः--वह; च--भी; निपुणाम्--पूर्ण; लभते--प्राप्त करता है; रतिमू--आसक्ति, अनुराग;मनुष्य:--मनुष्य |
जो भी महाराज पृथु के कार्यकलापों के वृत्तान्त को नियमित रूप से अत्यन्त श्रद्धापूर्वकपढ़ता, कीर्तन करता तथा वर्णन करता है, उसका अविचल विश्वास तथा अनुराग निश्चय हीभगवान् के चरणकमलों के प्रति नित्यप्रति बढ़ता जाता है।
भगवान् के चरणकमल वह नौकाहै, जिसके द्वारा मनुष्य अज्ञान के सागर को पार करता है।
"
अध्याय चौबीस: भगवान शिव द्वारा गाए गए गीत का जाप
4.24मैत्रेय उवाचविजिताश्रोधिराजासीत्पृथुपुत्र: पृथुअ्रवा:।
यवीयोभ्योददात्काष्टा भ्रातृभ्यो भ्रातृवत्सल: ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; विजिताश्चव:--विजिताश्व नाम का; अधिराजा--सम्राट; आसीत्--हुआ; पृथु-पुत्र:--महाराज पृथुका पुत्र; पृथु- भ्रवा:--महान् कार्यों का; यवीयोभ्य:--छोटे भाइयों को; अददात्--दे दिया; काष्ठा:--विभिन्न दिशाएँ;भ्रातृभ्य:-- भाइयों को; भ्रातृ-वत्सल:ः-- भाइयों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल।
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : महाराज पृथु का सबसे बड़ा पुत्र विजिताश्च, जिसकी ख्यातिअपने पिता की ही तरह थी, राजा बना और उसने अपने छोटे भाइयों को पृथ्वी की विभिन्नदिशाओं पर राज्य करने का अधिकार सौंप दिया, क्योंकि वह अपने भाइयों को अत्यधिकचाहता था।
"
हर्यक्षायादिशत्प्राचीं धूप्रकेशाय दक्षिणाम् ।
प्रतीचीं वृकसंज्ञाय तुर्या द्रविणसे विभु; ॥
२॥
हर्यक्षाय--हर्यक्ष को; अदिशत्-- प्रदान किया; प्राचीम्--पूर्व दिशा; धूप्रकेशाय--धूप्रकेश को; दक्षिणाम्--दक्षिण दिशा;प्रतीचीम्--पश्चिम दिशा; वृक-संज्ञाय--वृक नामक भाई को; तुर्याम्--उत्तर दिशा; द्रविणसे--द्रविण को; विभुः--स्वामी |
महाराज विजिताश्व ने संसार का पूर्वी भाग अपने भाई हर्यक्ष को, दक्षिणी भाग धूप्रकेशको, पश्चिमी भाग वृक को तथा उत्तरी भाग द्रविण को प्रदान किया।
"
अन्तर्धानगतिं शक्राल्लब्ध्वान्तर्धानसंज्ञित: ।
अपत्यत्रयमाधत्त शिखण्डिन्यां सुसम्मतम् ॥
३॥
अन्तर्धान--विलुप्त होने की; गतिम्--शक्ति; शक्रात्--इन्द्र से; लब्ध्वा--पाकर; अन्तर्धान--अन्तर्धान; संज्ञित:--नाम पड़ा;अपत्य--संतानें; त्रयमू--तीन; आधत्त--उत्पन्न कीं; शिखण्डिन्याम्ू--अपनी पत्नी शिखण्डिनी से; सु-सम्मतम्--सबों द्वाराअनुमत।
पूर्वकाल में महाराज विजिताश्व ने स्वर्ग के राजा इन्द्र को प्रसन्न करके उनसे अन्तर्धान कीपदवी प्राप्त की थी।
उनकी पत्ती का नाम शिखण्डिनी था जिससे उन्हें तीन उत्तम पुत्र हुए।
"
'पावक: पवमानश्च शुचिरित्यग्नय: पुरा ।
वसिष्ठशापादुत्पन्ना: पुनर्योगगतिं गता: ॥
४॥
पावक:--पावक नामक; पवमान: --पवमान नामक; च--भी; शुच्रिः --शुचि नामक ; इति--इस प्रकार; अग्नय:--अग्निदेव;पुरा--प्राचीन काल में; वसिष्ठ--वसिष्ठ मुनि; शापात्--शाप से; उत्पन्ना:--अब उत्पन्न; पुन:--फिर से; योग-गतिम्--योगाभ्यास का पद; गता:--प्राप्त किया |
महाराज अन्तर्धान के तीनों पुत्रों के नाम थे पावक, पवमान तथा शुचि।
पूर्वकाल में ये तीनोंव्यक्ति अग्निदेव थे, परन्तु वसिष्ठ ऋषि के शाप से वे महाराज अन्तर्धान के पुत्रों के रूप में उत्पन्नहुए; फलतः वे अग्निदेवों के ही समान शक्तिमान थे और फिर से अग्निदेवों के रूप में स्थित होनेके कारण उन्होंने योगशक्ति का पद प्राप्त किया।
"
अन्तर्धानो नभस्वत्यां हविर्धानमविन्दत ।
य इन्द्रमश्वहर्तारं विद्वानपि न जध्निवान् ॥
५॥
अन्तर्धान: --अन्तर्धान राजा; नभस्वत्याम्-- अपनी पत्नी नभस्वती से; हविर्धानम्--हविर्धान नामक; अविन्दत--प्राप्त किया;यः--जो; इन्द्रमू--राजा इन्द्र को; अश्व-हर्तारम्--जो उसके पिता का घोड़ा चुरा रहा था; विद्वान अपि--जानते हुए भी; नजध्निवान्--नहीं मारा।
महाराज अन्तर्धान के नभस्वती नामक एक दूसरी पत्नी थी जिससे उन्हें हविर्धान नामक एकअन्य पुत्र की प्राप्ति हुईं।
चूँकि महाराज अन्तर्धान अत्यन्त उदार थे, अतः उन्होंने यज्ञ से अपनेपिता के घोड़े को चुराते हुए इन्द्रदेव को मारा नहीं।
"
राज्ञां वृत्ति करादानदण्डशुल्कादिदारुणाम् ।
मन्यमानो दीर्घसत्नरव्याजेन विससर्ज ह ॥
६॥
राज्ञामू--राजाओं की; वृत्तिमू--जीविका का साधन; कर--लगान, टैक्स; आदान--वसूली; दण्ड--दण्ड; शुल्क --अर्थ-दण्ड; आदि--इत्यादि; दारुणाम्--अत्यन्त कष्टप्रद; मन्यमान: --मानते हुए; दीर्घ--लम्बा; सत्त्र--यज्ञ; व्याजेन--बहाने से;विससर्ज--त्याग दिया; ह-- प्राचीन काल में।
जब भी परम शक्तिशाली अतन्तर्धान को प्रजा से कर लेना, प्रजा को दण्ड देना या उस परकठोर जुर्माना लगाना होता तो ऐसा करने को उनका जी नहीं चाहता था।
फलतः उन्होंने ऐसेकार्यो से मुख मोड़ लिया और वे विभिन्न प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करने में व्यस्त रहने लगे।
"
तत्रापि हंसं पुरुषं परमात्मानमात्महक् ।
यजंस्तल्लोकतामाप कुशलेन समाधिना ॥
७॥
तत्र अपि--अपनी व्यस्तता के बावजूद; हंसम्ू--जो अपने सम्बन्धियों के कष्ट को दूर करता है; पुरुषम्--परम पुरुष को; परम-आत्मानम्--परम प्रिय परमात्मा; आत्म-हक्--जिसने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर लिया है; यजन्--पूजा द्वारा; ततू-लोकताम्--उसी लोक को; आप--प्राप्त किया; कुशलेन--सरलतापूर्वक; समाधिना--समाधि में लीन रह कर।
यद्यपि महाराज अत्तर्धान यज्ञ करने में व्यस्त रहते थे, किन्तु स्वरूपसिद्ध व्यक्ति होने के नातेवे भक्तों के समस्त भय को दूर करने वाले भगवान् की भक्ति भी करते रहे।
इस प्रकार भगवान्की पूजा करते हुए महाराज अन्तर्धान समाधि में लीन रह कर सरलतापूर्वक भगवान् के ही लोकको प्राप्त हुए।
"
हविर्धानाद्धविर्धानी विदुरासूत घट्सुतान् ।
बर्दिषदं गयं शुक्ल कृष्णं सत्यं जितब्रतम् ॥
८ ॥
हविर्धानातू--हविर्धान से; हविर्धानी--हविर्धान की पत्नी ने; विदुर--हे विदुर; असूत--जन्म दिया; षट्ू--छह; सुतान्--पुत्रोंको; बर्हिषदम्--बर्हिंषत् नामक; गयम्--गय नामक; शुक्लम्--शुक्ल नामक; कृष्णम्--कृष्ण नामक; सत्यमू--सत्य नामक;जितकब्रतमू--जितब्रत को |
महाराज अत्तर्धान के पुत्र हविर्धान की पत्नी का नाम हविर्धानी था जिसने छह पुत्रों को जन्मदिया, जिनके नाम थे बर्हिषत्, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य तथा जितत्रत।
"
बर्हिषत्सुमहा भागो हाविर्धानि: प्रजापति: ।
क्रियाकाण्डेषु निष्णातो योगेषु च कुरूद्बह ॥
९॥
बर्हिषत्ू--बर्हिषत्; सु-महा-भाग: --अत्यन्त भाग्यशाली; हाविर्धानि:--हाविर्धानि नामक; प्रजा-पति:--प्रजापति का पद;क्रिया-काण्डेषु--सकाम कर्म करने में; निष्णात:--लीन रहने वाला; योगेषु--योगाभ्यास में; च-- भी; कुरु-उद्दद--हे कुरुओंमें श्रेष्ठ ( विदुर )!
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, हविर्धान का अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र बर्हिषत् विभिन्नप्रकार के यज्ञादि, कर्मकाण्ड तथा योगाभ्यास में अत्यन्त कुशल था।
अपने महान् गुणों केकारण वह प्रजापति कहलाया।
"
यस्येदं देवयजनमनुयज्ञं वितन्वतः ।
प्राचीनाग्रै: कुशैरासीदास्तृतं वसुधातलम् ॥
१०॥
यस्य--जिसका; इृदम्ू--यह; देव-यजनम्--यज्ञों द्वारा देवों को तुष्ट करना; अनुयज्ञम्--निरन्तर यज्ञ करते रहना; वितन्वतः--करते हुए; प्राचीन-अग्रै:--पूर्व दिशा की ओर रखते हुए; कुशैः--कुशों से; आसीत्--हो गई; आस्तृतम्--बिखरे हुए; बसुधा-तलमू--पृथ्वी के ऊपरमहाराज बर्दिषत् ने संसार भर में अनेक यज्ञ किये।
उन्होंने कुश घासों को बिखेर कर उनकेअग्रभागों को पूर्व की ओर रखा।
"
सामुद्रीं देवदेवोक्तामुपयेमे शतद्गुतिम्यां वीक्ष्य चारुसर्वाड़ीं किशोरी सुष्ठवलड्डू ताम् ।
परिक्रमन्तीमुद्राहे चकमेग्नि: शुकीमिव ॥
११॥
सामुद्रीमू--समुद्र की कन्या को; देव-देव-उक्ताम्--परम देवता ब्रह्मा के कहने से; उपयेमे--विवाह किया; शतद्गुतिम्--शतद्गुतिनामक; यामू--जिसको ; वीक्ष्य--देखकर; चारु--अत्यन्त आकर्षक; सर्व-अड्जीम्--शरीर के सभी अंग; किशोरीम्--युवती;सुष्ठ--अत्यधिक; अलछ्डू तामू-- आभूषणों से सजी; परिक्रमन्तीम्-परिक्रमा करती, घूमती; उद्बाहे--विवाह में; चकमे--आकर्षित होकर; अग्नि: --अग्निदेव ने; शुकीम्--शुकी को; इब--सहश |
महाराज बर्दिषत् ( आगे प्राचीनबर्हि नाम से विख्यात ) को परम देवता ब्रह्माजी ने समुद्र कीकन्या शतद्गुति के साथ विवाह करने का आदेश दिया था।
उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग अत्यन्तसुन्दर थे और वह अत्यन्त युवा थी।
वह समुचित परिधानों से अलंकृत थी।
जब वह विवाह-मण्डप में आकर प्रदक्षिणा करने लगी तो अग्निदेव उस पर इतने मोहित हो गये कि उन्होंने उसेसंगी बना कर उसके साथ भोग करना चाहा जिस तरह पहले भी उन्होंने शुकी के साथ करनाचाहा था।
"
विबुधासुरगन्धर्वमुनिसिद्धनरोरगा: ।
विजिता: सूर्यया दिक्षु क्वणयन्त्यैव नूपुरै: ॥
१२॥
विबुध--विद्वान; असुर-- असुर; गन्धर्व--गन्धर्व लोक के वासी; मुनि--बड़े-बड़े साधु; सिद्ध--सिद्ध लोक के वासी; नर--पृथ्वी लोक के वासी; उरगा:--नाग लोक के वासी; विजिता:--मोहित; सूर्यया--नवेली द्वारा; दिक्षु--समस्त दिशाओं में;क्वणयन्त्या--झंकार करती हुई; एब--केवल; नूपुरैः--अपने नुपूरों से
जब शतद्गुति का इस तरह विवाह हो रहा था, तो असुर, गन्धर्वलोक के वासी, बड़े-बड़ेसाधु एवं सिद्धलोक, पृथ्वीलोक तथा नागलोक के वासी, सभी परम विद्वान् होते हुए भी उसकेनुपूरों की झनकार से मोहित हो रहे थे।
"
प्राचीनबर्हिष: पुत्रा: शतद्व॒ुत्यां दशाभवन् ।
तुल्यनामत्रता: सर्वे धर्मस्नाता: प्रचेतस: ॥
१३॥
प्राचीनबर्हिष: --राजा प्राचीनबर्हि के; पुत्रा: --पुत्र; शतद्॒ुत्यामू--शतद्गुति के गर्भ से; दश--दस; अभवन्--उत्पन्न हुए; तुल्य--समान; नाम--नाम; ब्रता:--ब्रत; सर्वे--सभी; धर्म--धार्मिकता में; स्नाता:--पूर्णतया मग्न; प्रचेतस:--सबों का प्रचेता नामपड़ा
राजा प्राचीनबर्हि ने शतद्गुति के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किये।
वे सभी समान रूप से धर्मात्माथे और प्रचेता नाम से विख्यात हुए।
"
पित्रादिष्टा: प्रजासगें तपसेर्णबमाविशन् ।
दशवर्षसहस्त्राणि तपसार्चस्तपस्पतिम् ॥
१४॥
पित्रा--पिता द्वारा; आदिष्टाः--आदेश पाकर; प्रजा-सर्गे--सन्तान उत्पन्न करने के विषय में; तपसे--तपस्या करने में;अर्णवम्--समुद्र में; आविशन्--प्रविष्ट होकर; दश-वर्ष--दस साल; सहस्त्राणि--हजारों; तपसा-- अपनी तपस्या से;आर्चनू--पूजा की; तपः--तपस्या के; पतिमू--स्वामी की।
जब इन सभी प्रचेताओं को उनके पिता ने विवाह करके सन््तान उत्पन्न करने का आदेशदिया तो सबों ने समुद्र में प्रवेश किया और दस हजार वर्षों तक तपस्या की।
इस प्रकार उन्होंनेसमस्त तपस्या के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की उपासना की।
"
यदुक्तं पथि दृष्टेन गिरिशेन प्रसीदता ।
तद्धयायन्तो जपन्तश्च पूजयन्तश्च संयता: ॥
१५॥
यत्--जो; उक्तम्--कहा गया; पथि--रास्ते में; दृष्टेन-- भेंट करके; गिरिशेन-- भगवान् शिव द्वारा; प्रसीदता--अत्यन्त प्रसन्नहोकर; तत्--वही; ध्यायन्त:--ध्यान करते हुए; जपन्तः च-- और जप करते हुए; पूजयन्त: च--और पूजते हुए; संयता:--अत्यन्त संयमपूर्वक |
जब प्राचीनबर्हि के सभी पुत्रों ने तपस्या करने के उद्देश्य से घर छोड़ दिया तो उन्हें शिवजीमिले, जिन्होंने अत्यन्त कृपा करके उन्हें परम सत्य के विषय में उपदेश दिया।
प्राचीनबर्हि केसभी पुत्रों ने उनके उपदेशों को अत्यन्त सावधानी तथा मनोयोग से जपते तथा पूजा करते हुएउनके विषय में ध्यान किया।
"
विदुर उवाचप्रचेतसां गिरित्रेण यथासीत्पथि सड्रमः ।
यदुताह हरः प्रीतस्तन्नो ब्रह्मन्वदार्थवत् ॥
१६॥
विदुरः उबाच--विदुर ने पूछा; प्रचेतसाम्--समस्त प्रचेताओं की; गिरित्रेण--शिवजी द्वारा; यथा--जिस प्रकार; आसीतू-- था;पथ्चि--रास्ते में; सड्रम:--भेंट; यत्ू--जो; उत आह--कहा; हरः--शिवजी ने; प्रीत:--प्रसन्न होकर; तत्--वह; न:--हमको;ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; बद--कहो; अर्थ-वत्--अर्थ समझा कर।
विदुर ने मैत्रेय से पूछा: हे ब्राह्मण, प्रचेतागण रास्ते में शिवजी से क्यों मिले? कृपया मुझेबताएँ कि उनसे किस प्रकार भेंट हुई, भगवान् शिव उनसे किस प्रकार इतने प्रसन्न हो गये औरउन्होंने क्या उपदेश दिया? निस्सन्देह, ऐसी बातें महत्वपूर्ण हैं और मैं चाहता हूँ कि आप कृपाकरके मुझसे इनका वर्णन करें।
"
सड्भमः खलूु विप्रर्षे शिवेनेह शरीरिणाम् ।
दुर्लभो मुनयो दध्युरसड्राद्यमम भीप्सितम् ॥
१७॥
सड्भडम:--संग, समागम; खलु--निश्चय ही; विप्र-ऋषे--हे ब्राह्मण श्रेष्ठ; शिवेन--शिव के साथ; इह--इस संसार में;शरीरिणाम्--भौतिक देहों में बँधे हुओं का; दुर्लभ:--कठिन; मुनयः--मुनिगण; दध्यु:--ध्यान में लगे हुए; असड्रात्- प्रत्येकवस्तु से विरक्त; यमू--जिसको; अभीप्सितम्--इच्छा करते हुए
विदुर ने आगे कहा : हे ब्राह्मणश्रेष्ट, देहधारियों के लिए शिवजी के साथ साक्षात् सम्पर्ककर पाना अत्यन्त कठिन है।
बड़े-बड़े ऋषि भी जिन्हें भौतिक आसक्ति से कोई लेनदेन नहींहोता, उनका समागम पाने के लिए ही, ध्यान में लीन रहने के बावजूद भी उनका संसर्ग प्राप्तनहीं कर पाते।
"
आत्मारामोपि यस्त्वस्थ लोककल्पस्य राधसे ।
शक्त्या युक्तो विचरति घोरया भगवान्भव: ॥
१८॥
आत्म-आराम:--आत्मतुष्ट; अपि--यद्यपि वह है; यः--जो है; तु--लेकिन; अस्य--इस; लोक-- भौतिक जगत; कल्पस्थ--प्रकट होने पर; राधसे--इस संसार की सहायता के लिए; शक्त्या--शक्ति से; युक्त:--साथ; विचरति--कार्य करता है;घोरया--अत्यन्त भयानक; भगवानू्-- भगवान्; भव:--शिव |
शिवजी जो अत्यन्त शक्तिशाली देवता हैं और वे आत्माराम हैं, जिनका नाम भगवान् विष्णुके ही बाद आता है।
यद्यपि उन्हें इस भौतिक जगत में किसी वस्तु की कोई आकांक्षा नहीं है,किन्तु वे संसारी लोगों के कल्याण कार्य में सदैव व्यस्त रहते हैं और अपनी घोर शक्तियों--यथादेवी काली तथा देवी दुर्गा--के साथ रहते हैं।
"
मैत्रेय उवाचप्रचेतस: पितुर्वाक्यं शिरसादाय साधव: ।
दिएं प्रतीचीं प्रययुस्तपस्याहतचेतस: ॥
१९॥
मैत्रेय: उवाच--ऋषि मैत्रेय ने कहा; प्रचेतस:ः--राजा प्राचीबर्हि के सारे पुत्र; पितु:--पिता के; वाक्यम्--शब्द को; शिरसा--मस्तक पर; आदाय-- धारण करके; साधव:ः--सभी पवित्र; दिशम्--दिशा की ओर; प्रतीचीम्--पश्चिमी; प्रययु:--चले गये;तपसि--तपस्या में; आहत--गम्भीरतापूर्वक स्वीकार करके ; चेतस:--हृदय में
ऋषि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, अपनी साधु प्रकृति के कारण प्राचीनबर्हि के सभी पुत्रोंने अपने पिता के वचनों को शिरोधार्य किया और पिता की आज्ञा पूरी करने के उद्देश्य से वेपश्चिम दिशा की ओर चले गये।
"
ससमुद्रमुप विस्तीर्णमपश्यन्सुमहत्सर: ।
महन्मन इव स्वच्छ प्रसन्ननलिलाशयम् ॥
२०॥
स-समुद्रमू--समुद्र के निकट ही; उप--कुछ-कुछ; विस्तीर्णम्--अत्यन्त लम्बा चौड़ा; अपश्यन्--उन्होंने देखा; सु-महत्--अत्यन्त विशाल; सर: -- जलाशय; महत्--महापुरुष; मन: --मन; इब--सहश; सु-अच्छम्--स्वच्छ, निर्मल; प्रसन्न --प्रसन्न;सलिल--जल; आशयमू--शरण में आये हुए
चलते-चलते प्रचेताओं ने एक विशाल जलाशय देखा जो समुद्र के समान ही विशालदिखता था।
इसका जल इतना शान्त था मानो किसी महापुरुष का मन हो और इसके जलचरइतने बड़े जलाशय की संरक्षण में होकर अत्यन्त शान्त तथा प्रसन्न प्रतीत हो रहे थे।
"
नीलरक्तोत्पलाम्भोजकह्ारेन्दीवराकरम् ।
हंससारसचक्राह्कारण्डवनिकूजितम् ॥
२१॥
नील--नील; रक्त--लाल; उत्पल--कमल; अम्भ:-ज--जल से उत्पन्न; कह्लार--कमल की एक किस्म; इन्दीवर--कमल कीएक किस्म; आकरम्--खान; हंस--हंस पक्षी; सारस--एक पक्षी; चक्राह्--चकवा नाम का पक्षी; कारण्डब--पक्षी विशेष;निकूजितमू--चहक रहे थे ।
उस विशाल सरोवर में विभिन्न प्रकार के कमल पुष्प थे।
कुछ नीले थे तो कुछ लाल, कुछरात्रि में खिलने वाले थे, तो कुछ दिन में और इन्दीवर जैसे कुछ कमल शाम को खिलने वालेथे।
इन सब फूलों से सारा सरोवर पुष्पों की खान सा प्रतीत हो रहा था।
फलस्वरूप सरोवर केतटों पर हंस, सारस, चक्रवाक, कारण्डव तथा अन्य सुन्दर जलपक्षी खड़े हुए थे।
"
मत्तभ्रमरसौस्वर्यहष्टरोमलताडूप्रिपम् ।
पद्मकोशरजो दिद्षु विक्षिपत्पवनोत्सवम् ॥
२२॥
मत्त--पागल; भ्रमर--भौरे; सौ-स्वर्य--भिनभिनाहट के साथ; हष्ट--प्रसन्नतापूर्वक; रोम--शरीर के बाल; लता--बेलें;अड्प्रिपम्--वृक्ष; पदा--कमल; कोश--कोश, दलपुझ्ज; रज:--केशर; दिक्षु--सभी दिशाओं में; विक्षिपत्--बिखेरते हुए;'पवन--वायु; उत्सवम्--उत्सव, पर्व |
उस सरोवर के चारों ओर तरह-तरह के वृक्ष तथा लताएँ थीं और उन पर मतवाले भौरे गूँजरहे थे।
भौंरों की मधुर गूँज से वृक्ष अत्यन्त उललसित लग रहे थे और कमल पुष्पों का केसर वायुमें बिखर रहा था।
इन सबसे ऐसा वातावरण उत्पन्न हो रहा था मानो कोई उत्सव हो रहा हो।
"
तत्र गान्धर्वमाकर्ण्य दिव्यमार्गमननोहरम् ।
विसिस्म्यू राजपुत्रास्ते मृदड़पणवाद्यनु ॥
२३॥
तत्र--वहाँ; गान्धर्वम्--मधुर ध्वनि; आकर्णर्य--सुनकर; दिव्य--स्वर्गिक; मार्ग--समान रूप से; मनः-हरम्--सुन्दर;विसिस्म्यु:--वे चकित हो गये; राज-पुत्रा:--राजा बर्हिषत के पुत्र; ते--वे सब; मृदड्र--मृदंग, ढोल; पणव--ताशा, धौंसा;आदि--सब मिलकर; अनु--सदैव ।
जब राजा के पुत्रों ने मृदंग तथा पणव के साथ-साथ अन्य राग-रागिनियों की कर्णप्रियध्वनि सुनी तो वे अत्यन्त विस्मित हुए।
"
तहोंव सरसस्तस्मान्निष्क्रामन्तं सहानुगम् ।
उपगीयमानममरप्रवरं विबुधानुगै: ॥
२४॥
तप्तहेमनिकायाभं शितिकणठं त्रिलोचनम् ।
प्रसादसुमुखं वीक्ष्य प्रणेमुर्जातकौतुका: ॥
२५॥
तहिं--इतने में; एब--निश्चय ही; सरस:--जल से; तस्मात्--उसमें से; निष्क्रामन्तम्--निकलते हुए; सह-अनुगम्--महापुरुषोंके साथ; उपगीयमानम्--अनुयायियों द्वारा वन्दित; अमर-प्रवरम्--देवताओं में प्रधान; विबुध-अनुगैः -- अपने संगियों के साथ;तप्त-हेम--पिघला सोना; निकाय-आभमू--शारीरिक अंग; शिति-कण्ठम्--नीला कंठ; त्रि-लोचनमू्--तीन नेत्र वाले;प्रसाद--दयालु; सु-मुखम्--सुन्दर चेहरा; वीक्ष्य--देखकर; प्रणेमु:ः--प्रणाम किया; जात--उत्पन्न हुआ; कौतुका: --कुतूहल
प्रचेतागण भाग्यवान थे कि उन्होंने प्रमुख देव शिवजी को उनके पार्षदों सहित जल से बाहरआते देखा।
उनकी शारीरिक कान्ति तपे हुए सोने के समान थी, उनका कंठ नीला था और उनकेतीन नेत्र थे जिनसे वे भक्तों पर कृपादृष्टि डाल रहे थे।
उनके साथ अनेक गन्धर्व गायक थे, जोउनका गुणगान कर रहे थे।
ज्यों ही प्रेचरताओं ने शिवजी को देखा उन्होंने तुरन्त ही कुतूहलवशउन्हें नमस्कार किया और वे उनके चरणों पर गिर पड़े।
"
स ताय्प्रपन्नार्तिहरो भगवान्धर्मवत्सलः ।
धर्मज्ञान्शीलसम्पन्नान्प्रीत: प्रीतानुवाच ह ॥
२६॥
सः--शिवजी; तान्--उनको; प्रपन्न-आर्ति-हर:--सभी प्रकार के भयों को दूर करने वाला; भगवान्--ई श्वर; धर्म-वत्सल:--अत्यन्त धार्मिक; धर्म-ज्ञानू-- धर्म से अवगत पुरुष; शील-सम्पन्नान्ू-- अत्यन्त सदाचारी; प्रीत:ः--प्रसन्न होकर; प्रीतान्ू-- अत्यन्तभद्र आचरण वाला; उवाच---उनसे बातें की; ह-- भूतकाल में
शिवजी प्रचेताओं से अत्यन्त प्रसन्न हुए, क्योंकि सामान्यतः शिवजी पवित्र तथा सदाचारीपुरुषों के रक्षक हैं।
राजकुमारों से अत्यन्त प्रसन्न होकर वे इस प्रकार बोले।
"
श्रीरुद्र उबाचयूयं वेदिषदः पुत्रा विदितं वश्चिकीर्षितम् ।
अनुग्रहाय भद्गं व एवं मे दर्शनं कृतम् ॥
२७॥
श्री-रुद्र: उबाच--शिवजी बोले; यूयम्--तुम सब; वेदिषद:--राजा प्राचीनबर्हि के; पुत्रा:--पुत्र; विदितम्--जानते हुए; व:--तुम्हारी; चिकीर्षितम्--इच्छाएँ; अनुग्रहाय--तुम पर अनुग्रह के लिए; भद्रम्--तुम्हारा कल्याण हो; व:--तुम सभी; एवम्--इसप्रकार; मे--मेरा; दर्शनम्--दर्शन; कृतम्--प्राप्त किया
शिवजी ने कहा : तुम सभी प्राचीनबर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो।
मैं जानता हूँ कितुम क्या करने जा रहे हो, अतः मैंने तुम पर कृपा करने के लिए ही अपना दर्शन दिया है।
"
यः परं रंहसः साक्षात्त्रिगुणाज्जीवसंज्ञितातू ।
भगवतन्तं वासुदेवं प्रपन्नः स प्रियो हि मे ॥
२८ ॥
यः--जो कोई; परम्--दिव्य; रंहसः--नियामक का; साक्षात्-प्रत्यक्षतः ; त्रि-गुणात्--प्रकृति के तीनों गुणों से; जीव-संज्ञितातू-जीव कही जाने वाली जीवात्माओं से; भगवन्तम्-- श्रीभगवान्; वासुदेवम्-- श्रीकृष्ण का; प्रपन्न:--शरणागत;सः--वह; प्रियः--अत्यन्त प्यारा; हि--निस्सन्देह; मे--मुझे |
शिवजी ने आगे कहा : जो व्यक्ति प्रकृति तथा जीवात्मा में से प्रत्येक के अधिष्ठाता भगवान्कृष्ण के शरणागत है, वह वास्तव में मुझे अत्यधिक प्रिय है।
"
स्वधर्मनिष्ठ: शतजन्मभि:ः पुमान्विरिश्ञतामेति ततः पर हि माम् ।
अव्याकृतं भागवतोथ वैष्णवंपदं यथाहं विबुधा: कलात्यये ॥
२९॥
स्व-धर्म-निष्ठः--जो अपने धर्म या वृत्ति पर स्थित रहता है; शत-जन्मभि:--एक सौ जन्मों तक; पुमानू--जीवात्मा;विरिज्ञताम्-ब्रह्म का पद; एति--प्राप्त करता है; ततः--पश्चात्; परमू-- ऊपर; हि--निश्चय ही; मामू--मुझको प्राप्त करता है;अव्याकृतमू--बिना विचलित हुए; भागवत:-- भगवान् को; अथ--अत: ; वैष्णवम्-- भगवान् का शुद्ध भक्त; पदम्--पद;यथा--जिस तरह; अहम्--मैं; विबुधा:--देवतागण; कला-अत्यये--संसार के संहार के बाद।
जो व्यक्ति अपने वर्णाश्रम धर्म को समुचित रीति से एक सौ जन्मों तक निबाहता है, वहब्रह्मा के पद को प्राप्त करने के योग्य हो जाता है और इससे अधिक योग्य होने पर वह शिवजीके पास पहुँच सकता है।
किन्तु जो व्यक्ति अनन्य भक्तिवश सीधे भगवान् कृष्ण या विष्णु कीशरण में जाता है, वह तुरन्त वैकुण्ठलोक में पहुँच जाता है।
शिवजी तथा अन्य देवता इस संसारके संहार के बाद ही इन लोक को प्राप्त कर पाते हैं।
"
अथ भागवता यूय॑ प्रिया: स्थ भगवान्यथा ।
न मद्धागवतानां च प्रेयानन्योस्ति कर्हिचित् ॥
३०॥
अथ--अतः; भागवता:--भक्त; यूयम्--तुम सब; प्रिया:--प्रिय; स्थ--तुम हो; भगवान्-- भगवान्; यथा--जिस तरह; न--नतो; मत्-मेरी अपेक्षा; भागवतानाम्-- भक्तों का; च-- भी; प्रेयान्-- अत्यन्त प्रिय; अन्य:--दूसरा; अस्ति--है; कहिंचित्--किसी समय, कभी।
तुम सभी भगवान् के भक्त हो, अतः तुम मेरे लिए भगवान् के समान पूज्य हो।
इस प्रकार सेमैं यह जानता हूँ कि भक्त भी मेरा आदर करते हैं और मैं उन्हें प्यारा हूँ।
इस प्रकार भक्तों को मेरेसमान अन्य कोई प्रिय नहीं हो सकता है।
"
इदं विविक्त जप्तव्यं पवित्र मड़लं परम् ।
निःश्रेयसकरं चापि श्रूयतां तद्ददामि व: ॥
३१॥
इदम्--यह; विविक्तमू-विशेष; जप्तव्यम्ू--सदैव जप करने के लिए; पवित्रमू--अत्यन्त शुद्ध; मड्रलम्ू--कल्याणकर;परम्--दिव्य; नि: श्रेयस-करम्--अत्यन्त उपयोगी; च-- भी; अपि--निश्चय ही; श्रूयताम्ू--कृपा करके सुनें; तत्ू--वह;वदामि--मैं कह रहा हूँ; व: --तुमसे |
अब मैं एक मंत्र का उच्चारण करूँगा जो न केवल दिव्य, पवित्र तथा शुभ है वरन् जीवन-उद्देश्य को प्राप्त करने के इच्छुक हर एक के लिए यही श्रेष्ठ स्तुति भी है।
जब मैं इस मंत्र काउच्चारण करूँ तो तुम सब सावधानी से ध्यानपूर्वक सुनना।
"
मैत्रेय उवाचइत्यनुक्रोशहदयो भगवानाह ताड्िछव: ।
बद्धाझ्जलीन्राजपुत्रानज्नारायणपरो बच: ॥
३२॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; अनुक्रोश-हृदयः -- अत्यन्त दयालु, करुणाई; भगवान्-- भगवान् ने; आह--कहा; तानू--प्रचेताओं से; शिव:ः--शिवजी; बद्ध-अद्जलीन्ू--हाथ जोड़े खड़े हुए; राज-पुत्रानू--राजा के पुत्रों को; नारायण-'परः--नारायण के भक्त, शिवजी; वच:--शब्द।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : भगवान् नारायण के परम भक्त महापुरुष शिवजी अहैतुकीकृपावश हाथ जोड़ कर खड़े हुए राजा के पुत्रों से कहते रहे।
"
श्रीरुद्र उबाचजित॑ त आत्मदिद्वर्यस्वस्तये स्वस्तिरस्तु मे ।
भवताराधसा राद्धं सर्वस्मा आत्मने नम: ॥
३३॥
श्री-रुद्र:ः उबाच--शिवजी ने कहा; जितम्ू--समस्त महिमाएँ, उत्कर्ष; ते--तुम्हारे; आत्म-वित्--स्वरूपसिद्ध; वर्य- श्रेष्ठ;स्वस्तये--कल्याण के लिए; स्वस्ति:--कल्याण; अस्तु--हो; मे--मेरा; भवता--आपसे; आराधसा--सब विधि से पूर्ण( सर्वात्मक ) द्वारा; राद्धम्--पूज्य; सर्वस्मै--परमात्मा; आत्मने--परमात्मा को; नमः--नमस्कार है।
शिवजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की इस प्रकार स्तुति की: हे भगवान्, आप धन्य हैं।
आपसभी स्वरूपसिद्धों में महान् हैं चूंकि आप उनका सदैव कल्याण करने वाले हैं, अतः आप मेराभी कल्याण करें।
आप अपने सर्वात्मक उपदेशों के कारण पूज्य हैं।
आप परमात्मा हैं, अतःपुरुषोत्तम स्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
"
नमः पड्डूजनाभाय भूतसूक्ष्मेन्द्रियात्मने ।
वासुदेवाय शान्ताय कूटस्थाय स्वरोचिषे ॥
३४॥
नमः--नमस्कार है; पड्डूज-नाभाय--उन भगवान् को जिनकी नाभि से कमल प्रकट होता है; भूत-सूक्ष्म--इन्द्रिय वस्तुएँ( तन्मात्रा ); इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्मने--उत्पत्ति; वासुदेवाय-- भगवान् वासुदेव को; शान्ताय--सदैव शान्त रहने वाले को;कूट-स्थाय--अपरिवर्तित रहने वाले को; स्व-रोचिषे--स्वयं प्रकाश को |
हे भगवान्, आपकी नाभि से कमल पुष्प निकलता है, इस प्रकार से आप सृष्टि के उद्गमहैं।
आप इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं के नियामक हैं।
आप सर्वव्यापी वासुदेव भी हैं।
आप परमशान्त हैं और स्वयंप्रकाशित होने के कारण आप छह प्रकार के विकारों से विचलित नहीं होते।
"
सट्डूर्षणाय सूक्ष्माय दुरन््तायान््तकाय च ।
नमो विश्वप्रबोधाय प्रद्युम्नायान्तरात्मने ॥
३५॥
सड्डर्षणाय--निर्माण ( समन्वय ) के स्वामी को; सूक्ष्माय--सूक्ष्म रूप या अव्यक्त को; दुरन््ताय--दुर्लध्य को; अन्तकाय--संहार के स्वामी को; च-- भी; नम:--नमस्कार; विश्व-प्रबोधाय--ब्रह्माण्ड का विकास करने वाले को; प्रद्युम्नाय--प्रद्युम्न को; अन्त:-आत्मने--घट-घट वासी परमात्मा को।
हे भगवान्, आप सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों के उदगम, समस्त संघटन और संहार के स्वामी, संकर्षण नामक अधिष्ठाता तथा समस्त बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं।
अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
"
नमो नमोनिरुद्धाय हषीकेशेन्द्रियात्मने ।
नमः परमहंसाय पूर्णाय निभूतात्मने ॥
३६॥
नमः--आपको नमस्कार है; नम:ः--नमस्कार है; अनिरुद्धाय--अनिरुद्ध को; हषीकेश --इन्द्रियों के स्वामी; इन्द्रिय-आत्मने--इन्द्रियों के नियामक को; नमः--नमस्कार है; परम-हंसाय--परमहंस को; पूर्णाय--परम पूर्ण को; निभृत-आत्मने--उसे जोइस जगत से अलग स्थित है।
हे परम अधिष्ठाता अनिरुद्ध रूप भगवान्, आप इन्द्रियों तथा मन के स्वामी हैं।
अतः मैंआपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
आप अनन्त तथा साथ ही साथ संकर्षण कहलाते हैं,क्योंकि अपने मुख से निकलने वाली धधकती हुई अग्नि से आप सारी सृष्टि का संहार करने मेंसमर्थ हैं।
"
स्वर्गापवर्गद्वाराय नित्यं शुचिषदे नमः ।
नमो हिरण्यवीर्याय चातुर्होत्राय तन््तवे ॥
३७॥
स्वर्ग--स्वर्गलोक; अपवर्ग--मोक्ष का मार्ग; द्वाराय--द्वार को; नित्यम्--शा श्वत; शुचि-षदे--परम पवित्र को; नम:ः--नमस्कारहै; नमः--नमस्कार है; हिरण्य--स्वर्ण; वीर्याय--वीर्य को; चातु:-होत्राय--चातुर्होत्र नामक वैदिक यज्ञ को; तन्तवे--विस्तारकरने वाले को |
हे भगवान् अनिरुद्ध, आपके आदेश से स्वर्ग तथा मोक्ष के द्वार खुलते हैं।
आप निरन्तरजीवों के शुद्ध हृदय में निवास करते हैं, अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
आप स्वर्ण सहशवीर्य के स्वामी हैं और इस प्रकार आप अग्नि रूप में चातुहोंत्र इत्यादि वैदिक यज्ञों में सहायताकरते हैं।
अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
"
नम ऊर्ज इषे त्रय्या: पतये यज्ञरेतसे ।
तृप्तिदाय च जीवानां नमः सर्वरसात्मने ॥
३८॥
नमः--नमस्कार है; ऊर्जे--पितृलोक के पोषक को; इषे-- समस्त देवताओं का भरण करने वाला; त्रय्या:--तीनों वेदों के;पतये--स्वामी को; यज्ञ--यज्ञ; रेतसे--चन्द्रलोक के प्रमुख श्रीविग्रह को; तृप्ति-दाय--उनको जो सबों को तृप्त करते हैं; च--भी; जीवानामू--जीवात्माओं का; नमः--नमस्कार है; सर्व-रस-आत्मने--सर्वव्यापी परमात्मा को |
हे भगवन्, आप पितृलोक तथा सभी देवताओं के भी पोषक हैं।
आप चन्द्रमा के प्रमुखश्रीविग्रह और तीनों वेदों के स्वामी हैं।
मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आप समस्तजीवात्माओं की तृप्ति के मूल स्त्रोत हैं।
"
सर्वसत्त्वात्मदेहाय विशेषाय स्थवीयसे ।
नमस्त्रेलोक्यपालाय सह ओजोबलाय च ॥
३९॥
सर्व--समस्त; सत्त्व--अस्तित्व; आत्म--जीव; देहाय--शरीर को; विशेषाय--विभिन्नता को; स्थवीयसे-- भौतिक संसार को;नमः--नमस्कार; त्रै-लोक्य--तीनों लोकों के; पालाय--पालक; सह--के साथ; ओज:--ओज; बलाय--बल ( शक्ति ) को;च--भी |
हे भगवान्, आप विराटस्वरूप हैं जिसमें समस्त जीवात्माओं के शरीर समाहित हैं।
आप तीनों लोकों के पालक हैं, फलत: आप मन, इन्द्रियों, शरीर तथा प्राण का पालन करने वाले हैं।
अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
"
अर्थलिड्राय नभसे नमोःच्तर्बहिरात्मने ।
नमः पुण्याय लोकाय अमुष्मै भूरिवर्चसे ॥
४०॥
अर्थ-तात्पर्य; लिड्राय--प्रकट करने हेतु; नभसे--आकाश को; नम:--नमस्कार; अन्तः--भीतर; बहि:--तथा बाहर;आत्मने--अपने आपको; नम:--नमस्कार; पुण्याय--पुण्य कर्मों को; लोकाय--सृष्टि के लिए; अमुष्मै--मृत्यु के परे; भूरि-वर्चसे--परम तेज
हे भगवान्, आप अपनी दिव्य वाणी (शब्दों ) को प्रसारित करके प्रत्येक वस्तु कावास्तविक अर्थ प्रकट करने वाले हैं।
आप भीतर-बाहर सर्वव्याप्त आकाश हैं और इस लोक मेंतथा इससे परे किये जाने वाले समस्त पुण्यकर्मों के परम लक्ष्य हैं।
अतः मैं आपको पुनः पुनः सादर नमस्कार करता हूँ ।
"
प्रवृत्ताय निवृत्ताय पितृदेवाय कर्मणे ।
नमो<धर्मविपाकाय मृत्यवे दुःखदाय च ॥
४१॥
प्रवृत्ताय--प्रवृत्ति; निवृत्ताय--निवृत्ताय; पितृ-देवाय--पितृलोक के स्वामी को; कर्मणे--सकाम कर्मों के फल को; नम:--नमस्कार; अधर्म--अधर्म; विपाकाय--फल को; मृत्यवे--मृत्यु को; दुःख-दाय--समस्त प्रकार के दुखों का कारण; च--भी।
हे भगवान्, आप पुण्यकर्मों के फलों के दृष्टा हैं।
आप प्रवृत्ति, निवृत्ति तथा उनके कर्म-रूपीपरिणाम ( फल ) हैं।
आप अधर्म से जनित जीवन के दुखों के कारणस्वरूप हैं, अत: आप मृत्यु हैं।
मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
"
नमस्त आशिषामीश मनवे कारणात्मनेनमो धर्माय बृहते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
पुरुषाय पुराणाय साड्ख्ययोगेश्वराय च ॥
४२॥
नमः--नमस्कार; ते--तुमको; आशिषाम् ईश--हे समस्त आशीर्वादों को प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ; मनवे--परम मन या परममनु को; कारण-आत्मने--समस्त कारणों के कारण; नम:ः--नमस्कार; धर्माय--समस्त धर्मों के ज्ञाता को; बृहते--सर्व श्रेष्ठ;कृष्णाय--कृष्ण को; अकुण्ठ-मेधसे--जिनकी चेतना कभी कुण्ठित नहीं होती उन्हें; पुरुषाय--परम पुरुष को; पुराणाय--सबसे प्राचीन; साड्ख्य-योग-ई श्रराय--सांख्य योग के नियमों के अधीश्वर को; च--तथा |
है भगवान्, आप आशीर्वादों के समस्त प्रदायकों में सर्वश्रेष्ठ, सबसे प्राचीन तथा समस्तभोक्ताओं में परम भोक्ता हैं।
आप समस्त सांख्य योग-दर्शन के अधिष्ठाता हैं।
आप समस्तकारणों के कारण भगवान् कृष्ण हैं।
आप सभी धर्मों में श्रेष्ठ है, आप परम मन हैं और आपकामस्तिष्क ( बुद्धि ) ऐसा है, जो कभी कुण्ठित नहीं होता।
अत: मैं आपको बारम्बार नमस्कारकरता हूँ।
"
शक्तित्रयसमेताय मीदुषेहड्डू तात्मने ।
चेतआकूतिरूपाय नमो वाचो विभूतये ॥
४३॥
शक्ति-त्रय--तीन प्रकार की शक्तियाँ; समेताय--आगार को; मीढुषे--रुद्र को; अहड्डू त-आत्मने--अहंकार के स्त्रोत; चेत: --ज्ञान; आकृति--कार्य करने की उत्सुकता; रूपाय--रूप को; नमः--मेरा नमस्कार है; वाच:--वाणी को; विभूतये --विभिन्नप्रकार के ऐश्वर्यों कोहे भगवान्, आप कर्ता, करण और कर्म--इन तीनों शक्तियों के नियामक हैं।
अतः आपशरीर, मन तथा इन्द्रियों के परम नियन्ता हैं।
आप अहंकार के परम नियन्ता रुद्र भी हैं।
आपवैदिक आदेशों के ज्ञान तथा उनके अनुसार किए जाने वाले कर्मो के स्त्रोत हैं।
"
दर्शन नो दिहृक्षूणां देहि भागवतार्चितम् ।
रूप॑ प्रियतमं स्वानां सर्वेन्द्रिगगुणाजझ्ननम् ॥
४४॥
दर्शनम्--दर्शन; नः--हमारी; दिदृदक्षूणाम्--देखने की इच्छा; देहि--कृपा करके दिखाएं; भागवत--भक्तों का; अर्चितम्--उनके द्वारा पूजित; रूपमू-- स्वरूप; प्रिय-तमम्--सर्वाधिक प्रिय; स्वानाम्ू--अपने भक्तों का; सर्व-इन्द्रिय--सभी इन्द्रियाँ;गुण--गुण; अज्जनम्--अत्यन्त मनोहर
हे भगवान्, मैं आपको उस रूप में देखने का इच्छुक हूँ, जिस रूप में आपके अत्यन्त प्रियभक्त आपकी पूजा करते हैं।
आपके अन्य अनेक रूप हैं, किन्तु मैं तो उस रूप का दर्शन करनाचाहता हूँ जो भक्तों को विशेष रूप से प्रिय है।
आप मुझ पर अनुग्रह करें और मुझे वह स्वरूपदिखलाएं, क्योंकि जिस रूप की भक्त पूजा करते हैं वही इन्द्रियों की इच्छाओं को पूरा करसकता है।
"
स्निग्धप्रावृड्घनश्यामं सर्वसौन्दर्यसड्ग्रहम् ।
चार्वायतचतुर्बाहु सुजातरुचिराननम् ॥
४५॥
'पद्यकोशपलाशाक्ष सुन्दरभ्रु सुनासिकम् ।
सुद्विजं सुकपोलास्यं समकर्णविभूषणम् ॥
४६॥
स्निग्ध--चिकना; प्रावृटू--वर्षाकाल के; घन-श्यामम्--घने बादलों सा; सर्व--समस्त; सौन्दर्य--सुन्दरता; सड्ग्रहम्ू--राशि;चारू--सुन्द; आयत--शारीरिक अंग; चतु:-बाहु--चार भुजाओं वाले को; सु-जात--अत्यन्त सुन्दर; रुचिर--अत्यन्तमनोहर; आननमू्--मुख; पढ्य-कोश--कमल पुष्पों का गुच्छा; पलाश--पंखड़ियाँ, दल; अक्षम्--नेत्र; सुन्दर--सुन्दर; भ्रु--भौहें; सु-नासिकम्--उन्नत नाक; सु-द्विजम्ू--सुन्दर दाँत; सु-कपोल--सुन्दर मस्तक; आस्यम्--मुख; सम-कर्ण--एकसमानसुन्दर कान; विभूषणम्--पूर्णतः सज्जित ॥
भगवान् की सुन्दरता वर्षाकालीन श्याम मेघों के समान है।
उनके शारीरिक अंग वर्षा जलके समान चमकौीले हैं।
दरअसल, वे समस्त सौंदर्य के समष्टि ( सारसर्वस्व ) हैं।
भगवान् की चारभुजाएं हैं, सुन्दर मुख है और उनके नेत्र कमलदलों के तुल्य हैं।
उनकी नाक उन्नत, उनकी हँसीमोहने वाली, उनका मस्तक सुन्दर तथा उनके कान सुन्दर और आभूषणों से सज्जित हैं।
"
प्रीतिप्रहसितापाड्रमलकै रूपशोभितम् ।
लसत्पड्डजकिञ्ञल्कदुकूलं मृष्टकुण्डलम् ॥
४७॥
स्फुरत्किरीटवलयहारनूपुरमेखलम् ।
शद्डभुचक्रगदापद्ममालामण्युत्तमर्द्धमत् ॥
४८॥
प्रीति--अनुग्रहपूर्ण; प्रहसित--हास्य; अपाड्ुमू--तिरछी चितवन; अलकै:--घुँघराले वालों से; रूप--सौंदर्य; शोभितम्--सुशोभित; लसत्--चमकता हुआ; पड्डूज--कमल का; किल्ञल्क--केशर; दुकूलम्-- वस्त्र; मृष्ट--झलमलाते; कुण्डलम्--कान के आभूषण; स्फुरत्--चमचमाता; किरीट--मुकुट; वलय--कंकण; हार--गले की माला; नूपुर--पाँव का घुँघुरूदारआभूषण; मेखलम्--करधनी; शद्भु--शंख; चक्र--चक्र; गदा--गदा; पढ्य--कमल का फूल; माला--फूल की माला;मणि--मोती; उत्तम- श्रेष्ठ; ऋद्धि-मत्--इस कारण और भी सुन्दर।
भगवान् अपने मुक्त तथा दयापूर्ण हास्य तथा भक्तों पर तिरछी चितवन के कारण अनुपमसुन्दर लगते हैं।
उनके बाल काले तथा घुँघराले हैं।
हवा में उड़ता उनका वस्त्र कमल के फूलों मेंसे उड़ते हुए केशर-रज के समान प्रतीत होता है।
उनके झलमलाते कुण्डल, चमचमाता मुकुट,कंकण, बनमाला, नूपुर, करधनी तथा शरीर के अन्य आभूषण शंख, चक्र, गदा तथा कमलपुष्प से मिलकर उनके वक्षस्थल पर पड़ी कौस्तुभमणि की प्राकृतिक शोभा को बढ़ाते हैं।
"
सिंहस्कन्धत्विषो बिभ्रत्सौभगग्रीवकौस्तुभम् ।
भ्रियानपायिन्या क्षिप्तनिकषाश्मोरसोल्लसत् ॥
४९॥
सिंह--शेर; स्कन्ध--कंधे; त्विष:--बालों की लटें; बिभ्रत्-- धारण किये हुए; सौभग-- भाग्यवाली; ग्रीव--गर्दन;कौस्तुभम्--कौस्तुभ मणि; थ्रिया--सुन्दरता; अनपायिन्या--कभी न घटने वाली; क्षिप्त--मात करने वाली; निकष--कसौटी;अश्म--पत्थर; उरसा--वक्षस्थल के साथ; उल्लसतू--झिलमिलाती है।
भगवान् के कन्धे सिंह के समान हैं।
इन पर मालाएँ, हार एवं घुँघराले बाल पड़े हैं, जो सदैवझिलमिलाते रहते हैं।
इनके साथ ही साथ कौस्तुभमणि की सुन्दरता है और भगवान् के श्यामवक्षस्थल पर श्रीवत्स की रेखाएँ हैं, जो लक्ष्मी के प्रतीक हैं।
इन सुवर्ण रेखाओं की चमाहटसुवर्ण कसौटी पर बनी सुवर्ण लकीरों से कहीं अधिक सुन्दर है।
दरअसल ऐसा सौन्दर्य सुवर्णकसौटी को मात करने वाला है।
"
पूरेचकसंविग्नवलिवल्गुदलोदरम् ।
प्रतिसड्क्रामयद्विश्व॑ नाभ्यावर्तनभीरया ॥
५०॥
पूर-- श्रास; रेचक--निः ध्रास; संविग्न--चलायमान; वलि--उदर में पड़ने वाली सिलवटें; वल्गु--सुन्दर; दल--बरगद के पत्तेके समान; उदरम्-पेट; प्रतिसड्क्रामयत्--नीचे की ओर भँवरदार; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; नाभ्या--नाभि; आवर्त--कुण्डली;गभीरया--गहराई में |
भगवान् का उदर ( पेट ) त्रिवली के कारण सुन्दर लगता है।
गोल होने के कारण उनका उदर वटवृक्ष के पत्ते के समान जान पड़ता है और जब वे श्वास-प्रश्चास लेते हैं, तो इन सलबटोंका हिलना-जुलना अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता हैं।
भगवान् की नाभि के भीतर की कुण्डली इतनीगहरी है मानो सारा ब्रह्माण्ड उसी में से उत्पन्न हुआ हो और पुन: उसी में समा जाना चाहता हो।
"
श्यामश्रोण्यधिरोचिष्णुदुकूलस्वर्णमेखलम् ।
समचार्वड्प्रिजड्जीरूनिम्नजानुसुदर्शनम् ॥
५१॥
श्याम--श्याम वर्ण का; श्रोणि--कमर के निचे वाला भाग; अधि--अतिरिक्त; रोचिष्णु --सुहावना; दुकूल--वस्त्र; स्वर्ण --सुनहली; मेखलम्--करधनी; सम--समान; चारु --सुन्दर; अड्घ्रि--चरणकमल; जड्ढ--पिंडली; ऊरु -- जाँघें; निम्न--निचली; जानु--घुटने; सु-दर्शनम्--सुघड़, दर्शनीय |
भगवान् की कटि का अधोभाग श्यामल रंग का है और पीताम्बर से ढका है।
उसमेंसुनहली, जरीदार करधनी है।
उनके एक समान चरणकमल, पिंडलियाँ, जाँघें तथा घुटने अनुपमसुन्दर हैं।
निस्सन्देह, भगवान् का सम्पूर्ण शरीर अत्यन्त सुडौल प्रतीत होता है।
"
'पदा शरत्पद्मपलाशरोचिषानखघद्युभिनोंउन्तरघं विधुन्वता ।
प्रदर्शय स्वीयमपास्तसा ध्वसंपदं गुरो मार्गगुरुस्तमोजुषाम् ॥
५२॥
'पदा--चरणकमल द्वारा; शरत्--शरद ऋतु; पद्य--कमल पुष्प; पलाश--दल; रोचिषा--अत्यन्त मनोहर; नख--नाखून;झुभिः--तेज से; नः--हमारा; अन्तः-अघम्--मल; विधुन्वता--धो सकने वाला; प्रदर्शय--दिखलाइये; स्वीयम्-- अपना;अपास्त--घटता हुआ; साध्वसम्--जगत का कष्ट; पदम्ू--चरणकमल; गुरो--हे गुरु; मार्ग--पथ; गुरु:--गुरु; तमः-जुषाम्ू--अज्ञान के कारण कष्ट उठाने वाले व्यक्ति |
हे भगवन्, आपके दोनों चरणकमल इतने सुन्दर हैं मानो शरत् ऋतु में उगने वाले कमल पुष्पके खिलते हुए दो दल हों।
दरअसल आपके चरणकमलों के नाखूनों से इतना तेज निकलता हैकि वह बद्धजीव के हृदय के सारे अंधकार को तुरन्त छिन्न कर देता है।
हे स्वामी, मुझे आपअपना वह स्वरूप दिखलायें जो किसी भक्त के हृदय के अन्धकार को नष्ट कर देता है।
मेरेभगवन्, आप सबों के परम गुरु हैं, अतः आप जैसे गुरु के द्वारा अज्ञान के अंधकार से आवृतसारे बद्धजीव प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं।
"
एतद्रूपमनुध्येयमात्मशुद्ध्धिमभीप्सताम् ।
यद्धभक्तियोगो भयदः स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ॥
५३॥
एतत्--यह; रूपम्--रूप; अनुध्येयम्- ध्यान करना चाहिए; आत्म--स्व; शुद्धिमू--शुद्धि; अभीप्सताम्--इच्छा रखने वालोंका; यत्--जो; भक्ति-योग: -- भक्ति; अभय-दः --निर्भय कराने वाली; स्व-धर्मम्--अपने वृत्तिपरक कार्यों को;अनुतिष्ठताम्-करने में |
हे भगवन्, जो लोग अपने जीवन को परिशुद्ध बनाना चाहते हैं, उन्हें उपर्युक्त विधि सेआपके चरणकमलों का ध्यान करना चाहिए।
जो अपने वर्ण के अनुरूप कार्य को पूरा करनेकी धुन में हैं और जो भय से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें भक्तियोग की इस विधि का अनुसरणकरना चाहिए।
"
भवान्भक्तिमता लक्यो दुर्लभ: सर्वदेहिनाम् ।
स्वाराज्यस्याप्यभिमत एकान्तेनात्मविद्गति: ॥
५४॥
भवान्ू--आप; भक्ति-मता--भक्त द्वारा; लभ्य:--प्राप्य; दुर्लभ:--प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन; सर्व-देहिनामू-- अन्य समस्तदेहधारियों ( जीवात्माओं ) का; स्वाराज्यस्य--स्वर्ग के राजा का; अपि-- भी; अभिमतः -- अन्तिम लक्ष्य; एकान्तेन--तादात्म्यके द्वारा; आत्म-वित्--स्वरूपसिद्ध का; गति:--गन्तव्य |
हे भगवन्, स्वर्ग का राजा इन्द्र भी जीवन के परम लक्ष्य--भक्ति--को प्राप्त करने काइच्छुक रहता है।
इसी प्रकार जो अपने को आपसे अभिन्न मानते हैं ( अहं ब्रह्मास्मि), उनके भीएकमात्र लक्ष्य आप ही हैं।
किन्तु आपको प्राप्त कर पाना उनके लिए अत्यन्त कठिन है जब किभक्त सरलता से आपको पा सकता है।
"
त॑ दुराराध्यमाराध्य सतामपि दुरापया ।
एकान्तभकत्या को वाउछेत्पादमूलं विना बहि: ॥
५५॥
तम्--उसको ( तुमको ); दुराराध्यम्--पूजा करना अत्यन्त कठिन; आराध्य--पूजा करके; सताम् अपि--सत्पुरुषों के लिए भी;दुरापया--प्राप्त कर पाना दुष्कर; एकान्त--शुद्ध; भक्त्या-- भक्ति से; क:ः--ऐसा कौन है; वाउ्छेत्--चाहेगा; पाद-मूलम्--चरणकमल; विना--रहित; बहि:--बाहरी लोग
हे भगवन्, शुद्ध भक्ति कर पाना तो मुक्त पुरुषों के लिए भी कठिन है, किन्तु आप हैं किएकमात्र भक्ति से ही प्रसन्न हो जाते हैं।
अत: जीवन-सिद्ध्धि का इच्छुक ऐसा कौन पुरुष होगा जोआत्म-साक्षात्कार की अन्य विधियों को अपनाएगा ?"
दुष्कर है।
यत्र निर्विष्टमरणं कृतान्तो नाभिमन्यते ।
विश्व विध्वंसयन्वीर्यशौर्यविस्फूर्जितश्रुवा ॥
५६॥
यत्र--जहाँ; निर्विष्टम् अरणम्--शरणागत प्राणी; कृत-अन्तः--दुर्दम्य काल; न अभिमन्यते-- आक्रमण नहीं करता; विश्वम्--समूचा ब्रह्माण्ड; विध्वंसयन्--संहार द्वारा; वीर्य--पराक्रम; शौर्य--प्रभाव; विस्फूर्जित--मात्र विस्तार से; भ्रुवा--भौंहों के |
उनके भृकुटि-विस्तार-मात्र से जो दुर्जेय काल तद्क्षण सारे ब्रह्माण्ड का संहार कर सकताहै, वही दुर्जेज काल आपको चरणकमलों की शरण में गये भक्त के निकट तक नहीं पहुँचपाता।
"
क्षणार्धेनापि तुलये न स्वर्ग नापुनर्भवम् ।
भगवत्सड्विसड्रस्य मर्त्यानां किमुताशिष: ॥
५७॥
क्षण-अर्धन--आधा क्षण; अपि--भी; तुलये--तुलना कर सकता; न--कभी नहीं; स्वर्गम्--स्वर्गलोक; न--न तो; अपुनः-भवम्--ब्रह्म से तादात्म्य; भगवत्-- भगवान् के; सड़ि--संगी; सड़स्य--संग का लाभ उठाने वाला; मर्त्यानामू--बद्धजीव का;किम् उत--वहाँ क्या है; आशिष: -- आशीर्वाद |
संयोग से भी यदि कोई क्षण भर के लिए भक्त की संगति पा जाता है, तो उसे कर्म औरज्ञान के फलों का तनिक भी आकर्षण नहीं रह जाता।
तब उन देवताओं के वरदानों में उसकेलिए रखा ही क्या है, जो जीवन और मृत्यु के नियमों के अधीन हैं ?"
अथानघाडुश्नेस्तव कीर्तितीर्थयो-रन्तर्बहिःस्नानविधूतपाप्मनाम् ।
भूतेष्वनुक्रोशसुसत्त्वशीलिनांस्यात्सड्रमोउनुग्रह एब नस्तव ॥
५८॥
अथ--अतः; अनघ-अड््रे:-- भगवान् के, जिनके चरण समस्त पापों को नष्ट करने वाले हैं; तब--तुम्हारी ( आपकी );कीर्ति--कीर्ति महिमा; तीर्थयो: --पवित्र गंगा जल; अन्तः--भीतर; बहिः --बाहर; स्नान--स्नान करना; विधूत--धोया हुआ;पाप्मनामू--मन की दूषित अवस्था; भूतेषु--सामान्य जीवों को; अनुक्रोश--कृपा या वर; सु-सत्त्व--पूर्णतया सतोगुण में;शीलिनाम्--ऐसे गुणों वालों का; स्थात्ू--हो; सड्रम:--साथ, समागम; अनुग्रह:--कृपा; एष:--यह; न:--हमको; तब--तुम्हारी ( आपकी )
हे भगवन्, आपके चरणकमल समस्त कल्याण के कारण हैं और समस्त पापों के कल्मषको विनष्ट करने वाले हैं।
अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे अपने भक्तों की संगति काआशीर्वाद दें, क्योंकि आपके चरणकमलों की पूजा करने से वे पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं औरबद्धजीवों पर अत्यन्त कृपालु हैं।
मेरी समझ में तो आपका असली आशीर्वाद यही होगा कि आपमुझे ऐसे भक्तों की संगति करने की अनुमति दें।
"
न यस्य चित्त बहिरर्थविभ्रमंतमोगुहायां च विशुद्धमाविशत् ।
यद्भक्तियोगानुगृहीतमझझजसामुनिर्विचष्टे ननु तत्र ते गतिम् ॥
५९॥
न--कभी नहीं; यस्य--जिसका; चित्तम्--हृदय; बहिः--बाहरी; अर्थ--रुचि; विश्रमम्--मोहित; तम: -- अंधकार;गुहायाम्-कूप ( गुफा ) में; च--भी; विशुद्धम्ू-शुद्ध; आविशत्-- प्रवेश किया; यत्--जो; भक्ति-योग-- भक्ति;अनुगृहीतम्--कृपा प्राप्त; अज्खसा--प्रसन्नतापूर्वक; मुनिः--विचारवान; विच्ष्टे--देखता है; ननु--फिर भी; तत्र--वहाँ; ते--तुम्हारे; गतिमू--कार्यकलाप |
जिसका हृदय भक्तियोग से पूर्ण रूप से पवित्र हो चुका हो तथा जिस पर भक्ति देवी कीकृपा हो, ऐसा भक्त कभी भी अंधकूप सहश माया द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता।
इस प्रकार समस्तभौतिक कल्मष से रहित होकर ऐसा भक्त आपके नाम, यश, स्वरूप, कार्य इत्यादि को अत्यन्तप्रसन्नतापूर्वक समझ सकता है।
"
यत्रेदं व्यज्यते विश्व विश्वस्मिन्ननभाति यत् ।
तत्त्वं ब्रह्म परं ज्योतिराकाशमिव विस्तृतम् ॥
६०॥
यत्र--जहाँ; इदम्--यह; व्यज्यते--प्रकट है; विश्वम्ू--ब्रह्माण्ड; विश्वस्मिन्ू--हृश्य जगत में; अवभाति-- प्रकट होता है; यत्--जो; तत्ू--वह; त्वमू--तुम ( आप ); ब्रह्म--निर्गुण ब्रह्म; परम्-दिव्य; ज्योति:--तेज; आकाशम्--अकाश; इब--सहश;विस्तृतमू-फैला हुआ
हे भगवन्, निर्गुण ब्रह्म सूर्य के प्रकाश अथवा आकाश की भाँति सर्वत्र फैला हुआ है।
औरजो सारे ब्रह्माण्ड भर में फैला है तथा जिसमें सारा ब्रह्माण्ड दिखाई देता है, वह निर्गुण ब्रह्म आपही हैं।
"
यो माययेदं पुरुरूपयासृजद् बिभर्ति भूयः क्षपयत्यविक्रियः ।
यद्धेदबुद्धिः सदिवात्मदुःस्थयात्वमात्मतन्त्रं भगवन्प्रतीमहि ॥
६१॥
यः--जो; मायया--माया से; इदम्--यह; पुरु--अनेक; रूपया--रूपों के द्वारा; असृजत्--उत्पन्न किया; बिभर्ति--पालनकरता है; भूयः--पुनः; क्षपयति--संहार करता है; अविक्रिय:--बिना किसी परिवर्तन के; यत्--जो; भेद-बुद्धधि:--अन्तरकरने की बुद्धि; सतू-शाश्वत; इब--सहश; आत्म-दुःस्थया--अपने आपको कष्ट देते हुए; त्वम्ू--तुमको; आत्म-तन्त्रम्ू--पूर्णतया स्वतंत्र; भगवन्--हे भगवन्; प्रतीमहि--मैं समझता हूँ।
हे भगवन्, आपकी शक्तियाँ अनेक हैं और वे नाना रूपों में प्रकट होती हैं।
आपने ऐसी हीशक्तियों से इस दृश्य जगत की उत्पत्ति की है और यद्यपि आप इसका पालन इस प्रकार करते हैंमानो यह चिरस्थायी हो, किन्तु अन्त में आप इसका संहार कर देते हैं।
यद्यपि आप कभी-भीऐसे परिवर्तनों द्वारा विचलित नहीं होते, किन्तु जीवात्माएँ इनसे विचलित होती रहती हैं, इसलिएवे इस हश्य जगत को आपसे भिन्न अथवा पृथक् मानती हैं।
हे भगवन्, आप सर्वदा स्वतंत्र हैंऔर मैं तो इसे प्रत्यक्ष देख रहा हूँ।
"
क्रियाकलापैरिदमेव योगिनःश्रद्धान्विता: साधु यजन्ति सिद्धये ।
भूतेन्द्रियान्तःकरणोपलक्षितंबेदे च तन्त्रे च त एव कोविदा: ॥
६२॥
क्रिया--कार्य; कलापै:ः--विधियों से; इदम्--यह; एव--निश्चय ही; योगिन:--योगीजन; श्रद्धा-अन्विता:-- श्रद्धा तथा दृढ़निश्चय से; साधु--उचित रीति से; यजन्ति--पूजा करते हैं; सिद्धये--सिद्धि के लिए; भूत-- भौतिक शक्ति; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ;अन्तः-करण--हृदय; उपलक्षितम्--के द्वारा लक्षित; वेदे--वेदों में; च-- भी; तन्त्रे--शास्त्रों में; च-- भी; ते--आप; एव--निश्चय ही; कोविदा:--पदु, मर्मज्ञ
है भगवन्, आपका विराट रूप, इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अहंकार (जो भौतिक हैं ) तथा आपके अंश रूप सर्व नियामक परमात्मा इन सभी पाँच तत्त्वों से बना है।
भक्तों के अतिरिक्तअन्य योगी--यथा कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी--अपने-अपने पदों में अपने-अपने कार्यो द्वाराआपकी पूजा करते हैं।
वेदों में तथा शास्त्रों में जो वेदों के निष्कर्ष हैं, कहा गया है कि केवलआप ही पूज्य हैं।
सभी वेदों का यही अभिमत है।
"
त्वमेक आद्य:ः पुरुष: सुप्तशक्ति-स्तया रजःसत्त्वतमो विभिद्यते ।
महानहं ख॑ मरुदग्निवार्धरा:सुरर्षयो भूतगणा इदं यतः ॥
६३॥
त्वमू--तुम; एक:--अकेले; आद्य:--आदि; पुरुष: --पुरुष; सुप्त--सोई हुई; शक्ति:--शक्ति; तया--उससे; रज:--रजोगुण;सत्त्व--सतोगुण; तम:ः--अज्ञान, तमोगुण; विभिद्यते-- अनेक भेद हो जाते हैं; महान्ू--समष्टि शक्ति; अहम्--अहंकार; खम्--आकाश; मरुतू--वायु; अग्नि-- अग्नि; वा:-- जल; धरा:--पृथ्वी; सुर-ऋषय: --देवता तथा ऋषिगण; भूत-गणा:--जीव;इदम्--यह सब; यतः--जिससे
हे भगवन्, आप समस्त कारणों के कारण एकमात्र परम पुरुष हैं।
इस भौतिक जगत कीसृष्टि के पूर्व आपकी भौतिक शक्ति सुप्त रहती है, किन्तु जब आपकी शक्ति गतिमान होती है, तोआपके तीनों गुण--सत्त्व, रज तथा तमो गुण--क्रिया करते हैं।
फलस्वरूप समष्टि भौतिकशक्ति अर्थात् अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा विभिन्न देवता एवं ऋषिगणप्रकट होते हैं।
इस प्रकार भौतिक जगत की उत्पत्ति होती है।
"
सृष्टे स्वशक्त्येदमनुप्रविष्ट-श्वतुर्विध॑ पुरमात्मांशकेन ।
अथो विदुस्तं पुरुष सन्तमन्तर्भुड़े हषीकैर्मधु सारघं यः ॥
६४॥
सृष्टम्--सृष्टि में; स्व-शक्त्या--अपनी ही शक्ति से; इदम्--इस दृश्य जगत में; अनुप्रविष्ट: -- प्रवेश करते हुए; चतु:-विधम्--चार प्रकार के; पुरमू--शरीर; आत्म-अंशकेन--अपने ही अंश रूप; अथो--अतः ; विदु:--जानो; तम्--उस; पुरुषम्-- भोक्ताको; सन्तम्--स्थित; अन्त:-- भीतर; भुड़े --भोग करता है; हषीकै: --इन्द्रियों द्वारा; मधु--मिठास; सार-घम्--मधु, शहद;यः--जो।
है भगवन्, आप अपनी शक्तियों के द्वारा सृष्टि कर लेने के बाद, सृष्टि में चार रूपों में प्रवेशकरते हैं।
आप जीवों के अन्तःकरण में स्थित होने के कारण उन्हें जानते हैं और यह भी जानते हैंकि वे किस प्रकार इन्द्रिय-भोग कर रहे हैं।
इस भौतिक जगत का तथाकथित सुख ठीक वैसाही है जैसा कि शहद के छत्ते में मधु एकत्र होने के बाद मधुमक्खी द्वारा उसका आस्वाद।
"
स एष लोकानतिचण्डवेगोविकर्षसि त्वं खलु कालयान: ।
भूतानि भूतैरनुमेयतत्त्वोघनावलीर्वायुरिवाविषह्य: ॥
६५॥
सः--वह; एष:--यह; लोकानू्--सारे लोकों को; अति-- अत्यधिक; चण्ड-वेग:--प्रचण्ड वेग; विकर्षसि--नष्ट करता है;त्वमू--तुम; खलु--फिर भी; काल-यान:--समय आने पर; भूतानि--सभी जीव; भूतैः--अन्य जीवों से; अनुमेय-तत्त्व: --परम सत्य का अनुमान लगाया जा सकता है घन-आवली:--बादल वायु:--वायु; इब--सहश; अविषह्ाय:--असहा।
हे भगवन्, आपकी परम सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु संसार कीगतिविधियों को देखकर कि समय आने पर सब कुछ विनष्ट हो जाता है, इसका अनुमान लगायाजा सकता है।
काल का वेग अत्यन्त प्रचण्ड है और प्रत्येक वस्तु किसी अन्य वस्तु के द्वाराविनष्ट होती जा रही है--जैसे एक पशु दूसरे पशु द्वारा निगल लिया जाता है।
काल प्रत्येक वस्तुको उसी प्रकार तितर-बितर कर देता है, जिस प्रकार आकाश में बादलों को वायु छिन्न-भिन्नकर देती है।
"
प्रमत्तमुच्चैरिति कृत्यचिन्तयाप्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम् ।
त्वमप्रमत्त: सहसाभिपद्यसेक्षुल्लेलिहानोउहिरिवाखुमन्तकः ॥
६६॥
प्रमत्तमू--पागल पुरुष; उच्चै:--जोर से; इति--इस प्रकार; कृत्य--किये जाने वाले; चिन्तया--ऐसी इच्छा से; प्रवृद्ध--अत्यधिक अग्रसर; लोभम्ू--लालच; विषयेषु-- भौतिक सुख में; लालसम्--ऐसा चाहते हुए; त्वमू--तुम; अप्रमत्त: --पूर्णतयासमाधि में; सहसा--एकाएक; अभिपद्यसे--उन्हें पकड़ लेता है; क्षुत्-- भूखा; लेलिहान:--लालची जीभ से; अहि:ः--साँप;इब--सहृश; आखुम्--चूहे को; अन्तकः--विनष्ट करने वाला, काल।
हे भगवन्, इस संसार के सारे प्राणी कुछ-न-कुछ योजना बनाने में पागल हैं तथा यह यावह करते रहने की इच्छा से काम में जुटे रहते हैं।
अनियंत्रित लालच के कारण यह सब होता है।
जीवात्मा में भौतिक सुख की लालसा सदैव बनी रहती है, किन्तु आप नित्य सतर्क रहते हैं औरसमय आने पर आप उस पर उसी प्रकार टूट पड़ते हैं जिस प्रकार सर्प चूहे पर झपटता है औरआसानी से निगल जाता है।
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कस्त्वत्पदाब्ज॑ विजहाति पण्डितोयस्तेउवमानव्ययमानकेतन: ।
विशड्ज॒यास्मद्गुरुरर्चति सम यद्विनोपपत्ति मनवश्चतुर्दश ॥
६७॥
कः--कौन; त्वत्--तुम्हारे; पद-अब्जमू--चरणकमल; विजहाति---अवहेलना करेगा; पण्डित:--विद्वान; यः --जो; ते--तुमको; अवमान--उपेक्षा करते हुए; व्ययमान--घटाते हुए; केतन:--यह शरीर; विशड्जूया--बिना किसी सन्देह के; अस्मत्--हमारे; गुरु:ः--गुरु, पिता; अर्चति स्म--पूजा करता था; यत्--जो; विना--बिना; उपपत्तिमू--विक्षोभ; मनव:--मनुगण;चतु:-दश--चौदह।
हे भगवन्, कोई भी विद्वान् पुरुष जानता है कि आपकी पूजा के बिना सारा जीवन व्यर्थ है।
भला यह जानते हुए वह आपके चरणकमलों की उपासना क्यों त्यागेगा? यहाँ तक कि हमारेगुरु तथा पिता ब्रह्मा ने बिना किसी भेदभाव के आपकी आराधना की और चौदहों मनुओं नेउनका अनुसरण किया।
"
अथ त्वमसि नो ब्रह्मन्परमात्मन्विपश्चिताम् ।
विश्व रुद्रभयध्वस्तमकुतश्चिद्धया गति: ॥
६८॥
अथ--अत:ः; त्वम्--तुम, हे स्वामी; असि--हो; न:--हमारे; ब्रह्मनू--हे परब्रह्म; परम-आत्मन्--हे परमात्मा; विपश्चिताम्--विद्वान मनुष्यों के लिए; विश्वम्--सारा ब्रह्माण्ड; रुद्र-भय--रुद्र से भयभीत; ध्वस्तम्--संहार किया हुआ; अकुतश्चित्-भया--निश्चित रूप से निर्भर, भयशून्य; गति:--गन्तव्य, आश्रय |
हे भगवन्, जो वास्तव में दिद्वान् मनुष्य हैं, वे सभी आपको परब्रह्म एवं परमात्मा के रूप मेंजानते हैं।
यद्यपि सारा ब्रह्माण्ड भगवान् रुद्र से भयभीत रहता है, क्योंकि वे अन्ततः प्रत्येक वस्तुको नष्ट करने वाले हैं, किन्तु विद्वान् भक्तों के लिए आप निर्भय आश्रय हैं।
"
इदं जपत भद्गं वो विशुद्धा नृपनन्दना: ।
स्वधर्ममनुतिष्ठन्तो भगवत्यर्पिताशया: ॥
६९॥
इदम्--यह; जपत--जपते हुए; भद्रमू--समस्त कल्याण; व:--तुम सभी; विशुद्धा: --शुद्ध; नृप-नन्दना: --राजा के पुत्र; स्व-धर्मम्--अपने-अपने कार्य; अनुतिष्ठन्त:--करते हुए; भगवति-- भगवान् को; अर्पित-- अर्पित कर; आशया: --समस्तआज्ञाकारिता से युक्त
हे राजपुत्रो, तुम लोग विशुद्ध हृदय से राजाओं की भाँति अपने-अपने नियत कर्म करते रहो।
भगवान् के चरणकमलों पर अपने मन को स्थिर करते हुए इस स्तुति (स्तोत्र ) का जप करो।
इससे तुम्हारा कल्याण होगा, क्योंकि इससे भगवान् तुम पर अत्यधिक प्रसन्न होंगे।
"
तमेवात्मानमात्मस्थ॑ सर्वभूतेष्ववस्थितम् ।
'पूजयध्वं गृणन्तश्न ध्यायन्तश्चासकृद्धरिम् ॥
७०॥
तम्--उस; एव--निश्चय ही; आत्मानम्--परमात्मा को; आत्म-स्थम्--अपने हृदय में; सर्व--समस्त; भूतेषु--प्रत्येक जीव मेंस्थित; अवस्थितम्--स्थित; पूजयध्वम्--उनकी पूजा करो; गृणन्तः च--सदैव कीर्तन करते हुए; ध्यायन्त: च--ध्यान करतेहुए; असकृत्ू--निरन्तर; हरिम्ू-- श्रीभगवान् का |
अतः हे राजकुमारो, भगवान् सबके हृदयों में स्थित हैं।
वे तुम लोगों के भी हृदयों में हैं,अतः भगवान् की महिमा का जप करो और निरन्तर उसी का ध्यान करो।
"
योगादेशमुपासाद्य धारयन्तो मुनिव्रता: ।
समाहितधियः सर्व एतदभ्यसताहता: ॥
७१॥
योग-आदेशम्-- भक्तियोग का यह आदेश; उपासाद्य--निरन्तर पढ़ते हुए; धारयन्तः--तथा आत्मसात करते हुए; मुनि-ब्रता:--मुनियों का व्रत, मौन ब्रत लो; समाहित--मन में सदैव स्थिर, एकाग्रभाव से; धियः--बुद्धि से; सर्वे--तुम सब; एतत्--यह;अभ्यसत--अभ्यास करो; आहता:--अत्यन्त आदरपूर्वक |
हे राजपुत्रो, मैंने स्तुति के रूप में तुम्हें पवित्र नाम-जप की योगपद्धति बतला दी है।
तुम सबइस स्तोत्र को अपने मनों में धारण करते हुए इस पर हढ़ रहने का व्रत लो जिससे तुम महान् मुनिबन सको |
तुम्हें चाहिए कि मुनि की भाँति मौन धारण करके तथा ध्यानपूर्वक एवं आदर सहितइसका पालन करो।
"
इदमाह पुरास्माकं भगवान्विश्वसृक्पति: ।
भृग्वादीनामात्मजानां सिसृक्षु: संसिसृक्षताम् ॥
७२॥
इदम्--यह; आह--कहा; पुरा--पहले; अस्माकम्--हमसे; भगवान्--स्वामी; विश्व-सृक्--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा; पति: --स्वामी;भूगु-आदीनाम्-- भूगु इत्यादि ऋषियों का; आत्मजानाम्ू--उनके पुत्रों का; सिसृक्षु;:--उत्पत्तिके इच्छुक; संसिसृक्षताम्--सृष्टि केलिए उत्तरदायी |
सर्वप्रथम समस्त प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा ने हमें यह स्तुति सुनायी थी।
भूगु आदिप्रजापतियों को भी इसी स्तोत्र की शिक्षा दी गई थी, क्योंकि वे सन््तानोत्पत्ति करना चाह रहे थे।
"
ते बयं नोदिताः सर्वे प्रजासर्ग प्रजेश्वरा: ।
अनेन ध्वस्ततमस: सिसृक्ष्मो विविधा: प्रजा: ॥
७३॥
ते--उसके द्वारा; बयम्--हम सब; नोदिताः --आज्ञापित; सर्वे--सभी; प्रजा-सर्गे --प्रजा उत्पन्न करते समय; प्रजा-ई श्वरा: --समस्त जीवों के नियन्ता; अनेन--इसके द्वारा; ध्वस्त-तमसः --सभी प्रकार के अज्ञान से मुक्त होकर; सिसृक्ष्म: --हमने उत्पन्नकिया; विविधा:--अनेक प्रकार के; प्रजा:--जीव
जब ब्रह्मा द्वारा हम सब प्रजापतियों को प्रजा उत्पन्न करने का आदेश हुआ तो हमने भगवान्की प्रशंसा में इस स्तोत्र का जप किया जिससे हम समस्त अविद्या से पूरी तरह से मुक्त हो गये।
इस तरह हम विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति कर पाये।
"
अथेदं नित्यदा युक्तो जपन्नवहितः पुमान् ।
अचिराच्छेय आणोति वासुदेवपरायण: ॥
७४॥
अथ--इस प्रकार; इृदम्--यह; नित्यदा--नियमित रूप से; युक्त:--मनोयोग से; जपन्--मन के भीतर जपने से; अवहित:--पूर्ण रूप से सतर्क; पुमान्ू--मनुष्य; अचिरात्--अविलम्ब; श्रेय: --कल्याण; आष्नोति--प्राप्त करता है; वासुदेव-परायण:--भगवान् कृष्ण का भक्त
भगवान् कृष्ण के भक्त जिसका मन सदैव उन्हीं में लीन रहता है और जो अत्यन्त ध्यान तथाआदरपूर्वक इस स्तोत्र का जप करता है शीघ्र ही जीवन की परम सिद्धि प्राप्त होगी।
"
श्रेयसामिह सर्वेषां ज्ञानं नि: श्रेयसं परम् ।
सुखं तरति दुष्पारं ज्ञाननौर्व्यसनार्णवम् ॥
७५॥
श्रेयसाम्--समस्त उपलब्धियों का; इह--इस संसार में; सर्वेषाम्--प्रत्येक पुरुष का; ज्ञानम्ू--ज्ञान; निःश्रेयसम्--परम लाभ;परमू--दिव्य; सुखम्--सुख; तरति--लाँघ जाता है; दुष्पारम्--दुस्तर; ज्ञान--ज्ञान रूपी; नौ:--नाव; व्यसन--खतरा;अर्णवम्--समुद्र |
इस संसार में उपलब्धि के अनेक प्रकार हैं, किन्तु इन सबों में ज्ञान की उपलब्धि सर्वोपरिमानी जाती है, क्योंकि ज्ञान की नौका में आरूढ़ होकर ही अज्ञान के सागर को पार किया जासकता है।
अन्यथा यह सागर दुस्तर है।
"
य इमं॑ श्रद्धया युक्तो मद्गीत॑ भगवत्स्तवम् ।
अधीयानो दुराराध्यं हरिमाराधयत्यसौ ॥
७६॥
यः--जो कोई; इमम्--यह; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; युक्त:--अनुरक्तिपूर्वक; मत्-गीतम्--मेरे द्वारा रचित गीत या मेरे द्वारा गायागीत; भगवत््-स्तवम्-- भगवान् की प्रार्थना; अधीयान:--नियमित पाठ द्वारा; दुराराध्यम्--पूजा करना अत्यन्त कठिन; हरिम्--भगवान् को; आराधयति--किन्तु पूजा कर सकता है; असौ--ऐसा मनुष्य |
यद्यपि भगवान् की भक्ति करना एवं उनकी पूजा करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु यदि कोईमेरे द्वारा रचित एवं गाये गये इस स्तोत्र का केवल पाठ करता है, तो वह सरलतापूर्वक भगवान्की कृपा प्राप्त कर सकता है।
"
विन्दते पुरुषो मुष्माद्यद्यदिच्छत्यसत्वरम् ।
मदगीतगीतात्सुप्रीताच्छेयसामेकवल्लभात् ॥
७७॥
विन्दते--प्राप्त करता है; पुरुष:-- भक्त; अमुष्मात्-- भगवान् से; यत् यत्--जो जो; इच्छति--कामना करता है; असत्वरम्--स्थिर होकर; मत्-गीत--मेरे द्वारा गाया हुआ; गीतात्--गीत से; सु-प्रीतात्-- भगवान् से, जो अत्यन्त प्रसन्न होते हैं; श्रेयसाम्--समस्त आशीर्वादों ( वर ) में से; एक--एक; वल्लभातू--प्रियतम से
समस्त शुभ आशीर्वादों में से सर्वप्रिय वस्तु भगवान् हैं।
जो मनुष्य मेरे द्वारा गाये गये इसगीत को गाता है, वह भगवान् को प्रसन्न कर सकता है।
ऐसा भक्त भगवान् की भक्ति में स्थिरहोकर परमेश्वर से मनवाउिछत फल प्राप्त कर सकता है।
"
इृदं यः कल्य उत्थाय प्राज्जलि: श्रद्धयान्वितः ।
श्रुणुयाच्छावयेन्मरत्यों मुच्यते कर्मबन्धने: ॥
७८ ॥
इदम्--यह स्तुति; यः--जो भक्त; कल्ये--प्रातःकाल; उत्थाय--उठकर; प्राज्ललि:ः--हाथ जोड़ कर; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक;अन्वित:--लीन रहकर; श्रूणुयात्--स्वयं जपता तथा सुनता है; श्रावयेत्--तथा सुनाता है; मर्त्य:--ऐसा मनुष्य; मुच्यते--मुक्तहो जाता है; कर्म-बन्धनै:--सकाम कर्मों से उत्पन्न सभी प्रकार के कर्म बन्धनों से |
जो भक्त प्रातःकाल उठकर हाथ जोड़कर शिवजी के द्वारा गाई गई इस स्तुति का जप करता है और अन्यों को सुनाता है, वह निश्चय ही समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है।
"
गीत॑ मयेदं नरदेवनन्दनाःपरस्य पुंसः परमात्मनः स्तवम् ।
जपन्त एकाग्रधियस्तपो महत्चरध्वमन्ते तत आप्स्यथेप्सितम् ॥
७९॥
गीतम्--गाया गया; मया--मेरे द्वारा; इदम्--यह; नरदेव-नन्दना: --हे राजपुत्रो; परस्य-- परमे श्वर का; पुंसः-- भगवान्; परम-आत्मन: -- प्रत्येक का परमात्मा; स्तवम्--प्रार्थना, स्तोत्र; जपन्त:ः--जप करते हुए; एक-अग्र--पूर्ण मनोयोग से; धिय: --बुद्धि;तपः--तपस्या; महत्--महान; चरध्वम्--तुम अभ्यास करो; अन्ते--अन्त में; तत:--तत्पश्चात्: आप्स्यथ--प्राप्त करोगे;ईप्सितम्--अभीष्ट, वांछित फल |
हे राजकुमारो, मैंने तुम्हें जो स्तुति गाकर सुनाई वह परमात्मा स्वरूप भगवान् को प्रसन्न करनेके निमित्त थी।
मैं तुम्हें इस स्तुति को गाने की सलाह देता हूँ, क्योंकि यह बड़ी-से-बड़ी तपस्याके समान प्रभावशाली है।
इस प्रकार जब तुम सब परिपक्व हो जाओगे तो तुम्हारा जीवन सफलहोगा और तुम्हें सारे अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त हो सकेंगे।
"
अध्याय पच्चीसवाँ: राजा पुरंजन के लक्षणों का वर्णन
4.25मैत्रेय उवाचइति सन्दिश्य भगवान्बारहिषदेरभिपूजित: ।
पश्यतां राजपुत्राणां तत्रैवान्तर्दधे हर: ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; सन्दिश्य--उपदेश देकर; भगवान्--सर्वशक्तिमान; बार्हिषदै:--राजाबर्दिषत् के पुत्रों द्वारा; अभिपूजित:--पूजा किया जाकर; पश्यताम्--उनके देखते-देखते; राज-पुत्राणाम्--राजा के पुत्रों का;तत्र--वहाँ; एव--निश्चय ही; अन्तर्दधे--अर्न्तधान हो गये; हरः--शिवजी |
महर्षि मैत्रैय ने विदुर से आगे कहा : हे विदुर, शिवजी ने इस प्रकार से राजा बर्हिषत् के पुत्रोंको उपदेश दिया।
राजकुमारों ने भी शिवजी की अगाध भक्ति के साथ तथा श्रद्धापूर्वक पूजाकी।
अन्त में वे राजकुमारों की दृष्टि से ओझल हो गये।
"
रुद्रगीत॑ भगवतः स्तोत्र सर्वे प्रचेतस: ।
जपन्तस्ते तपस्तेपुर्वर्षाणामयुतं जले ॥
२॥
रुद्र-गीतम्--शिवजी द्वारा गाया गया गीत; भगवतः -- भगवान् का; स्तोत्रमू--स्तुति; सर्वे--सभी; प्रचेतस: --प्रचेता नामकराजकुमार; जपन्त:--उच्चारण करते हुए; ते--उन सबों ने; तप:--तपस्या; तेपु:--साधना की; वर्षाणाम्--वर्षो की;अयुतम्--दस हजार; जले--जल के भीतर
सभी प्रचेतागण दस हजार वर्षों तक जल के भीतर खड़े रहकर शिवजी द्वारा दिये गये स्तोत्रका जप करते रहे।
"
प्राचीनबर्दिषं क्षत्त: कर्मस्वासक्तमानसम् ।
नारदोध्यात्मतत्त्वज्ञः कृपालु: प्रत्यवोधयत् ॥
३॥
प्राचीनबर्हिषम्--राजा प्राचीनबर्हिषत् को; क्षत्त:--हे विदुर; कर्मसु--सकाम कर्मों में; आसक्त--रत; मानसमू--चित्त;नारदः--नारदमुनि ने; अध्यात्म--अध्यात्मविद्या; तत्त्व-ज्ञः--विशारद, सत्य का ज्ञाता; कृपालु:--कृपा करके; प्रत्यबोधयत्--उपदेश दिया।
जब राजकुमार जल के भीतर कठिन तपस्या कर रहे थे तो उनके पिता विभिन्न प्रकार केसकाम कर्म सम्पन्न करने में रत थे।
उसी समय समस्त आध्यात्मिक जीवन के ज्ञाता तथा शिक्षकपरम सन्त नारद ने राजा पर अत्यन्त कृपालु होकर उन्हें आध्यात्मिक जीवन के विषय में उपदेशदेने का निश्चय किया।
"
श्रेयस्त्वं कतमद्राजन्कर्मणात्मन ईहसे ।
दुःखहानि: सुखावाप्ति: श्रेयस्तन्नेह चेष्यते ॥
४॥
श्रेय:--चरम अशीर्वाद, वर; त्वमू--तुम; कतमत्--वह क्या है ?; राजन्-हे राजा; कर्मणा--सकाम कार्म द्वारा; आत्मन:--आत्मा का; ईहसे--चाहते हो; दुःख-हानि:--समस्त कष्टों का लोष; सुख-अवाप्ति:--समस्त सुखों की प्राप्ति; श्रेयः--आशीर्वाद; तत्ू--वह; न--कभी नहीं; इह--इस प्रसंग में; च--तथा; इष्यते--प्राप्य है |
नारद मुनि ने राजा प्राचीनबर्हिषत् से पूछा: हे राजनू, तुम इन सकाम कर्मो के द्वारा कौन सीइच्छा पूरी करना चाहते हो ? जीवन का मुख्य उद्देश्य तो समस्त कष्टों से छुटकारा पाना तथा सुखभोगना है, किन्तु इन दोनों को सकाम कर्म द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।
"
राजोबाचन जानामि महाभाग परं कर्मापविद्धधी: ।
ब्रृहि मे विमल॑ ज्ञानं येन मुच्येय कर्मभि; ॥
५॥
राजा उवाच--राजा ने उत्तर दिया; न--नहीं; जानामि--जानता हूँ; महा-भाग--हे महापुरुष; परम्--दिव्य; कर्म--कर्मों केद्वारा; अपविद्ध--बींधी जाकर; धीः--मेरी बुद्धि; बरूहि--कृपया बताइये; मे--मुझको; विमलम्--विशुद्ध; ज्ञाममू--ज्ञान;येन--जिससे; मुच्येय--मैं छुटकारा पा सकूँ; कर्मभि: --कर्मो से
राजा ने उत्तर दिया: हे महात्मन् नारद, मेरी बुद्धि सकाम कर्मो में उलझी हुई है, अतः मुझेअपने जीवन के चरम लक्ष्य का ज्ञान नहीं रह गया है।
कृपा करके मुझे विशुद्ध ज्ञान प्रदानकीजिये जिससे मैं सकाम कर्मो के बन्धन से छुटकारा पा सकूँ।
"
गृहेषु कूटधर्मेषु पुत्रदारधनार्थधी: ।
न परं विन्दते मूढो भ्राम्यन्संसारवर्त्मसु ॥
६॥
गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; कूट-धर्मेषु--छद्गा धर्म में; पुत्र--पुत्र; दार--स्त्री; धन--सम्पत्ति; अर्थ--जीवन लक्ष्य पुरुषार्थ;धी:--मानने वाला; न--नहीं; परमू--परम; विन्दते--प्राप्त करता है; मूढः--दुष्ट; भ्राम्यन्ू--घूमता हुआ; संसार--संसार के;वर्त्मसु--रास्तों पर।
जो तथाकथित सुन्दर जीवन अर्थात् सन्तान तथा स्त्री में फंस कर गृहस्थ के रूप में रहने तथासम्पत्ति के पीछे लगे रहने में ही रुचि रखते हैं, वे इन्हीं वस्तुओं को जीवन का चरम लक्ष्य मानबैठते हैं।
ऐसे लोग जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त किये बिना इस संसार में ही विभिन्न देहों में घूमतेरहते हैं।
"
नारद उवाचभो भो: प्रजापते राजन्पशून्पश्य त्वयाध्वरे ।
संज्ञापिताझ्जीवसज्जञन्निर्धणेन सहस्त्रश: ॥
७॥
नारद: उबाच--नारद मुनि ने उत्तर दिया; भो: भोः--हे, अरे; प्रजा-पते--हे प्रजा के शासक; राजन्--हे राजा; पशून्--पशुओंको; पश्य--देखो; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अध्वरे--यज्ञ में; संज्ञापितान्ू--मारे गये; जीव-सझ्ञन्ू--पशु समूह; निर्घुणेन--निर्दयतापूर्वक; सहस्त्रश:--हजारों |
नारद मुनि ने कहा : हे प्रजापति, हे राजन, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वकवध किया है, उन्हें आकाश में देखो।
"
एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन््तो वैशरस तव ।
सम्परेतमयःकूटैए्हिन्दन्त्युत्थितमन्यव: ॥
८ ॥
एते--ये सब; त्वाम्--तुम्हारी; सम्प्रतीक्षन्ते--प्रती क्षा कर रहे हैं; स्मरन््तः--स्मरण करते हुए; वैशसम्--पीड़ा; तब--तुम्हारी;सम्परेतम््--मृत्यु के पश्चात्; अयः--लोहे के; कूटैः--सींगों से; छिन्दन्ति--छेदेंगे; उत्थित--जागृत; मन्यवः--क्रोध ।
ये सारे पशु तुम्हारे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिससे वे उन पर किये गये आघातों काबदला ले सकें तुम्हारी मृत्यु के बाद वे अत्यन्त क्रोधपूर्वक तुम्हारे शरीर को लोहे के अपने सींगोंसे बेध डालेंगे।
"
अत्र ते कथयिष्येमुमितिहासं पुरातनम् ।
पुरझ्ञषनस्यथ चरितं निबोध गदतो मम ॥
९॥
अतन्न--यहाँ पर; ते--तुमसे; कथयिष्ये--कहूँगा; अमुम्--इस प्रसंग में; इतिहासम्--इतिहास; पुरातनम्ू--अत्यन्त प्राचीन;पुरझनस्य--पुरझ्न के विषय में; चरितमू--उसका चरित्र, आख्यान; निबोध--समझने का यत्न करो; गदतः मम--मैं सुना रहाहूँ
इस सम्बन्ध में मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाना चाहता हूँ जो पुरञ्नन नामक राजा के चरित सेसम्बन्धित है।
इसे ध्यानपूर्वक सुनो।
"
आसीत्पुरञ्जनो नाम राजा राजन्बृहच्छुवा: ।
तस्थाविज्ञातनामासीत्सखाविज्ञातचेष्टित: ॥
१०॥
आसीतू-- था; पुरञ्न:--पुरञझ्ञन; नाम--नामक; राजा--राजा; राजन्--हे राजा; बृहत्- श्रवा:--यशस्वी, जिसके कार्य महान्थे; तस्य--उसका; अविज्ञात--अविज्ञात, ज्ञात न होना; नामा--नामक; आसीतू-- था; सखा--मित्र; अविज्ञात--अज्ञात;चेष्टित:--जिसके कर्म |
हे राजन, प्राचीन काल में पुरुज्ञन नामक एक राजा था, जो अपने महान् कार्यों के लिएविख्यात था।
उसके एक मित्र था जिसका नाम अविज्ञात ( अज्ञात ) था।
अविज्ञात के कार्यों कोकोई भी नहीं समझ सकता था।
"
सो<न्वेषमाण: शरणं बश्चाम पृथिवीं प्रभु: ।
नानुरूप॑ यदाविन्ददभूत्स विमना इब ॥
११॥
सः--वह राजा पुरज्जन; अन्वेषमाण: --खोजता हुआ; शरणम्--आश्रय; बश्राम--घूमा; पृथिवीम्--सम्पूर्ण पृथ्वीलोक पर;प्रभुः--स्वतंत्र स्वामी बनने के लिए; न--कभी नहीं; अनुरूपम्--इच्छानुकूल, उपयुक्त; यदा--जब; अविन्दत्--पा सका;अभूत्--हुआ; सः--वह; विमना:--खितन्न; इब--सहृश
राजा पुरक्षन अपने रहने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने लगा और इस तरह वह सारा संसारघूम आया।
फिर भी कड़ी दौड़-धूप के बाद भी उसे अपनी इच्छा के अनुकूल कोई स्थान नहींमिला।
अन्त में वह अत्यन्त खितन्न और निराश हो उठा।
"
न साधु मेने ता: सर्वा भूतले यावतीः पुरः ।
कामान्कामयमानोसौ तस्य तस्योपपत्तये ॥
१२॥
न--कभी नहीं; साधु--अच्छा; मेने--सोचा था; ता:--उनको; सर्वा:--सब; भू-तले--इस पृथ्वी पर; यावती:ः --सभी प्रकारके; पुरः--आवास स्थान; कामान्--इन्द्रियभोग के साधन; कामयमान:--इच्छा करते हुए; असौ--वह राजा; तस्य--उसका;तस्य--उसका; उपपत्तये--प्राप्त करने के लिए
राजा पुरञ्जन की इन्द्रियभोग की लालसाएँ असीम थीं, अतः वह सारे संसार में ऐसा स्थान खोजने के लिए भ्रमण करता रहा जहाँ उसकी इच्छाएँ पूरी हो सकें।
किन्तु हाय! उसे सर्वत्रअभाव की अनुभूति ही प्रतीत हुई।
"
स एकदा हिमवतो दक्षिणेष्वथ सानुषु ।
ददर्श नवभिर्द्वार्भि: पुरं लक्षितलक्षणाम् ॥
१३॥
सः--उस राजा पुरज्ञन ने; एकदा--एक बार; हिमबतः--हिमालय पर्वत के; दक्षिणेषु--दक्षिणी; अथ--तत्पश्चात्; सानुषु--शिखरों पर; दरदर्श--देखा; नवभि:--नौ; द्वार्भि:--द्वारों से युक्त; पुरमू--नगर; लक्षित--हृश्य; लक्षणाम्--सुलक्षणों वाला।
एक बार, इस प्रकार से विचरण करते हुए, उसने हिमालय पर्वत के दक्षिण में, भारतवर्षनामक देश में एक नगर देखा जिसमें चारों ओर नौ दरवाजे थे और जो समस्त सुलक्षणों से युक्तथा।
"
प्राकारोपवनाटालपरिखैरक्षतोरणै: ।
स्वर्णरैष्यायसै: श्रृद्वैः स्डु लां सर्वतो गृहै: ॥
१४॥
प्राकार--दीवालें; उपवन--उद्यान; अट्टाल--अटारियाँ, मीनारें; परिखै:--खाइयों से; अक्ष--खिड़कियों; तोरणै:--द्वारों से;स्वर्ण--सोना; रौप्य--चाँदी; अयसै:--लोहे से निर्मित; श्रृज्ैः--कंगूरों या शिखरों से; सड्डु लाम्--खचाखच भरा हुआ;सर्वतः--चारों ओर; गृहैः--घरों से |
वह नगर चारों ओर दीवालों तथा उद्यानों से घिरा था और उसके भीतर मीनारें, नहरें,खिड़कियाँ तथा झरोखे थे।
वहाँ के घर सोने, चाँदी तथा लोहे के बने गुम्बदों से अलंकृत थे।
"
नीलस्फटिकवैदूर्यमुक्तामरकतारुणै: ।
क्रिप्तहर्म्यस्थलीं दीप्तां अया भोगवतीमिव ॥
१५॥
नील--नीलम; स्फटिक--स्फटिक; बैदूर्य--हीरे; मुक्ता--मोती; मरकत--पन्ना; अरुणैः--लालों से; क्रिप्त--सजा हुआ;हर्म्य-स्थलीम्--राजमहल की फर्शें; दीप्ताम्-दीप्ति युक्त; अ्रिया--सौंदर्य से; भोगवतीम्-- भोगवती नामक स्वर्ग की नगरी;इब--सहश।
उस नगर के घरों की फर्श नीलम, स्फटिक, हीरे, मोती, पन्ना तथा लाल से निर्मित थीं।
घरोंकी कान्ति के कारण यह नगर भोगवती नामक स्वर्गीय नगरी के समान लग रहा था।
"
सभाचत्वररथ्याभिराक्रीडायतनापणै: ।
चैत्यध्वजपताकाभिरयुक्तां विद्ुमवेदिभि: ॥
१६॥
सभा--सभा भवन; चत्वर--चौराहे; रथ्याभि:--सड़कों से; आक्रीड-आयतन---द्यूतक्री ड़ा स्थल; आपणै:--दूकानों से;चैत्य--विहार स्थल; ध्वज-पताकाभि:--ध्वज तथा पताकाओं से; युक्ताम्--सुसज्जित; विद्रुम--वृक्षरहित; वेदिभि:--चबूतरोंसे
उस नगर में अनेक सभाभवन, चौराहे, सड़कें, खान-पान-गृह, द्यूतक्रीड़ा-स्थल, बाजार,विश्रामालय, झंडियाँ, पताकाएँ तथा सुन्दर उद्यान थे।
वह नगर इन सबसे घिरा था।
"
पुर्यास्तु बाह्योपवने दिव्यद्रुमलताकुले ।
नदद्विहड्रालिकुलकोलाहलजलाशये ॥
१७॥
पुर्या:--नगर के; तु--तब; बाह्य-उपवने--बाहरी उद्यान में; दिव्य--अत्यन्त सुन्दर; द्रम--वृक्ष; लता--बेलों; आकुले--सेपूरित; नदत्ू-शब्द करते हुए; विहड्ग-- पक्षी; अलि-- भौंरा; कुल--समूह; कोलाहल--गुंजार; जल-आशये--सरोवर में |
उस नगर के बाहर एक सुन्दर सरोवर के चारों ओर अनेक सुन्दर वृक्ष तथा लताएँ थीं।
उससरोवर में पक्षियों तथा भौंरों के झुंड के झुंड थे, जो सदैव कूजते तथा गुंजार करते थे।
"
हिमनिर्झरविप्रुष्मत्कुसुमाकरवायुना ।
अलत्प्रवालविटपनलिनीतटसम्पदि ॥
१८॥
हिम-निर्झर--हिमाच्छादित पर्वत प्रपातों से; विप्रुटू-मत्--जलकणों को ले जाकर; कुसुम-आकर--वासन्ती; वायुना--वायुसे; चलत्--हिलते हुए; प्रवाल--शाखाएँ; विटप--वृक्ष; नलिनी-तट--कमलिनी से भरे सरोवर के तट पर; सम्पदि--ऐश्वर्यवान
सरोवर के तट पर खड़े हुए वृक्षों की शाखाएँ उन जलकणों को ग्रहण कर रही थीं जोहिमाच्छादित पर्वत से गिरने वाले झरनों से वासन्ती वाय द्वारा ले जाये जा रहे थे।
"
नानारण्यमृगब्रातैरनाबाधे मुनित्रतैः ।
आहूतं मन्यते पान्थो यत्र कोकिलकूजितैः ॥
१९॥
नाना--विभिन्न; अरण्य--वन; मृग--पशु; ब्रातैः--समूहों से; अनाबाधे-- अहिंसा के मामले में; मुनि-ब्रतैः--मुनियों के तुल्य;आहूतम्--मानो बुलाये जा रहे हों; मन्यते--सोचता है; पान्थ:--यात्री, पथिक; यत्र--जहाँ; कोकिल--कोयल के; कूजितै: --कू-कू करने से
ऐसे वातावरण में वन के पशु भी मुनियों के समान ही अहिंसक एवं ईर्ष्याहीन हो गये थे,अतः वे किसी पर आक्रमण नहीं करते थे।
यही नहीं, सर्वत्र कोयलें कूज रही थीं।
उस रास्ते सेनिकलने वाले किसी भी पथधिक को मानो उस सुन्दर उद्यान में विश्राम करने का निमंत्रण दियाजा रहा हो।
"
यहच्छयागतां तत्र ददर्श प्रमदोत्तमाम् ।
भृत्यर्दशभिरायान्तीमेकेकशतनायकै : ॥
२०॥
यहच्छया-- अचानक, बिना किसी प्रयोजन के; आगताम्--आयी हुई; तत्र--वहाँ; ददर्श--देखा; प्रमदा--एक स्त्री;उत्तमाम्--अत्यन्त सुन्दरी; भृत्यैः--सेवकों से घिरी; दशभि:--दस; आयान्तीम्--आगे आती हुई; एक-एक-- प्रत्येक; शत--सौ; नायकै:--मुखिया, पति के साथ।
उस अद्भुत उद्यान में विचरण करते हुए राजा पुरञझ्नन ने अचानक एक सुन्दर स्त्री देखी जोअनायास ही चली आ रही थी।
उसके साथ दस नौकर थे और प्रत्येक नौकर के साथ सैकड़ोंपत्लियाँ थीं।
"
पञ्जञशीर्षाहिना गुप्तां प्रतीहारेण सर्वतः ।
अन्वेषमाणामृषभमप्रौढां कामरूपिणीम् ॥
२१॥
पश्च--पाँच; शीर्ष--सिर; अहिना---सर्प द्वारा; गुप्तामू--रक्षित; प्रतीहोरेण--अंगरक्षक द्वारा; सर्वतः--चारों ओर;अन्वेषमाणाम्--खोज करती हुईं; ऋषभम्--पति; अप्रौढाम्-- भोली-भाली, किशोरी; काम-रूपिणीम्-- अत्यन्त आकर्षक |
वह स्त्री पाँच फनों वाले एक सर्प द्वारा चारों ओर से रक्षित थी।
वह अत्यन्त सुन्दरी तथातरुणी थी और उपयुक्त पति खोजने के लिए अत्यधिक उत्सुक प्रतीत हो रही थी।
"
सुनासां सुदतीं बालां सुकपोलां वराननाम् ।
समविन्यस्तकर्णाभ्यां बिश्रतीं कुण्डलश्रियम् ॥
२२॥
सु-नासाम्--अत्यन्त सुन्दर नाक; सु-दतीम्--अत्यन्त सुन्दर दाँत; बालामू--तरुणी; सु-कपोलाम्--सुन्दर मस्तक; बर-आननाम्--सुन्दर मुख; सम--समान रूप से; विन्यस्त--व्यवस्थित; कर्णाभ्याम्-दोनों कान; बिभ्रतीम्--चमचमाते हुए;कुण्डल-भ्रियम्--सुन्दर कुण्डलों ( बालियों ) वाली |
उस स्त्री के नाक, दाँत तथा मस्तक सभी अतीव सुन्दर थे।
उसके कान भी समान रूप सेसुन्दर थे और चमचमाते कुण्डलों से सुशोभित थे।
"
पिशड्रनीवीं सुश्रोणी शयामां कनकमेखलाम् ।
पदभ्यां क्वणद्भ्यां चलन्तीं नूप्रैर्देवतामिव ॥
२३॥
पिशड़र--पीला; नीवीम्--वस्त्र; सु-ओणीम्--सुन्दर कमर; श्यामाम्-श्याम रंग की; कनक--सुनहली; मेखलाम्--करधनी;पद्भ्याम्-पाँवों से; क्वणद्भ्यामू-शब्द करती हुए; चलन्तीम्--चलते हुए; नूपुरैः--नूपुरों से; देवताम्--स्वर्ग का वासी;इब--सहश।
उस स्त्री की कमर तथा नितम्ब अत्यन्त सुन्दर थे।
वह पीली साड़ी और सुनहरी करधनी पहनेथी।
चलते समय उसके नूपुर खनक रहे थे।
वह ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो स्वर्ग की निवासिनीहो।
"
स्तनौ व्यज्चितकैशोरी समवृत्तौ निरन्तरौ ।
वस्त्रान्तेन निगूहन्ती त्रीडया गजगामिनीम् ॥
२४॥
स्तनौ--दो उरोजों; व्यज्ञित--सूचित करने वाले; कैशोरौ--किशोरावस्था; सम-वृत्तौ--समान गोलाकार; निरन्तरौ--सटे हुए,अत्यन्त निकट स्थित; वस्त्र-अन्तेन--साड़ी के आँचल से; निगूहन्तीमू--ढकने का प्रयास करती हुई; ब्रीडया--लज्जावश; गज-गामिनीमू--हाथी के समान चलने वाली
स्त्री अपनी साड़ी के अज्जल से अपने समवर्तुल एवं सटे हुए स्तनों को ढकने का प्रयास कररही थी।
वह हाथी के समान चलती हुई लज्जावश अपने स्तनों को बारम्बार ढकने का प्रयासकर रही थी।
"
तामाह ललितं वीर: सत्रीडस्मितशो भनाम् ।
स्निग्धेनापाडुपुड्डेन स्पृष्ट: प्रेमोद्भ्रमद्भ्रुवा ॥
२५॥
तामू--उसको; आह--सम्बोधित किया; ललितम्--अत्यन्त धीमे से; वीर:--वीर ने; स-ब्रीड--लज्जा से युक्त; स्मित-- हँसतेहुए; शोभनाम्-- अत्यन्त सुन्दर; स्निग्धेन--काम वासना से; अपाड़-पुद्डेन--चितवन के तीर से; स्पृष्ट:--इस प्रकार बिंधा हुआ;प्रेम-उद्भ्रमत्ू-प्रेम उत्पन्न करने वाली; भ्रुवा--भौंहों से ।
वीर पुरझ्षन उस सुन्दर रमणी की भौंहो तथा मुख की मुसकान से अत्यधिक आकृष्ट हुआऔर उसके कामवासना रूपी तीरों से तुरन्त बिंध गया।
जब वह लजाती हुई हँसी तो पुरझन कोऔर भी सुन्दर लगी, अतः वीर होते हुए भी वह उसको सम्बोधित करने से अपने को रोक नसका।
"
का त्वं कञ्लअपलाशाक्षि कस्यासीह कुतः सति ।
इमामुप पुरी भीरु कि चिकीर्षसि शंस मे ॥
२६॥
का--कौन; त्वमू--तुम; कल्अ-पलाश--कमल की पंखड़ियों के समान; अक्षि-- आँखें; कस्य--किसकी; असि--हो; इह--यहाँ; कुतः--कहाँ से; सति--हे साध्वी; इमामू--यह; उप--निकट; पुरीमू--नगर; भीरू--हे डरपोक; किम्-- क्या;चिकीर्षसि--करना चाहती हो; शंस--कृपा करके बताओ; मे--मुझे |
है कमलनयनी, कृपा करके मुझे बताओ कि तुम कहाँ से आ रही हो, तुम कौन हो और तुमकिसकी पुत्री हो? तुम अत्यन्त साध्वी लगती हो।
यहाँ आने का तुम्हारा क्या प्रजोजन है? तुमक्या करना चाह रही हो ? कृपया ये सारी बातें मुझसे कहो।
"
क एतेनुपथा ये त एकादश महाभटा: ।
एता वा ललना:ः सुथ्रु कोयं तेडहिः पुरः:सर: ॥
२७॥
के--कौन; एते--ये सब; अनुपथा: -- अनुचर; ये-- जो; ते--तुम्हारे; एकादश--ग्यारह; महा- भटा: --अ त्यन्त शूरवीर अंगरक्षक; एता:--ये सब; वा-- भी; ललना: --स्त्रियाँ; सु-भ्रु--हे सुलोचनी; कः--कौन; अयम्--यह; ते--तुम्हारा; अहिः--सर्प; पुरः--सामने; सर:--चलने वाला
हे कमलनयनी, तुम्हारे साथ के ग्यारह बलिष्ट अंगरक्षक और ये दस विशिष्ट सेवक कौन हैं ?इन दस सेवकों के पीछे-पीछे ये स्त्रियाँ कौन हैं तथा तुम्हिरे आगे-आगे चलने वाला यह सर्प कौन है?"
त्वं हीर्भवान्यस्यथ वाग्रमा पतिंविचिन्वती किं मुनिवद्रहो वने ।
त्वदड्पप्रिकामाप्तसमस्तकामंक्व पद्यकोश: पतितः कराग्रातू ॥
२८॥
त्वमू--तुम; ही:--लज्जा; भवानी--शिव की पत्नी; असि--हो; अथ--कि; वाक्--सरस्वती, विद्या की देवी; रमा--लक्ष्मी;पतिम्ू--पति के; विचिन्वती--विचार में मग्न, खोज में रत; किम्--क्या तुम हो; मुनि-वत्--मुनि के समान; रह: --एकान्तस्थान में; वने--वन में; त्वत्ू-अड्प्रि--तुम्हारे पाँव; काम--इच्छुक; आप्त--प्राप्त; समस्त--सभी; कामम्--इच्छित वस्तुएँ;क्व--कहाँ हैं; पद्मय-कोश:--कमल पुष्प; पतित:--गिरा हुआ; कर--हाथ के; अग्रातू--अग्रभाग या हथेली से।
हे सुन्दर बाला, तुम साक्षात् लक्ष्मी या भगवान् शिव की पत्नी भवानी अथवा ब्रह्मा की पत्नीअर्थात् विद्या की देवी सरस्वती के समान हो।
यद्यपि तुम अवश्यमेव इनमें से एक हो, किन्तु मैंतुम्हें इस वन में अकेले विचरण करती देख रहा हूँ।
निस्सन्देह, तुम मुनियों की भाँति मौन हो।
ऐसा तो नहीं है कि तुम अपने पति को खोज रही हो ? चाहे तुम्हारा पति जो कोई भी हो, किन्तुजिस तन्मयता से तुम उसे खोज रही हो यह देखकर उसे सारे ऐश्वर्य प्राप्त हो जाएँगे।
मैं सोचता हूँ कि तुम लक्ष्मी हो, किन्तु तुम्हारे हाथ में कमल पुष्प नहीं है, अतः मैं पूछ रहा हूँ कि तुमने उसेकहाँ फेंक दिया ?"
नासां वरोर्वन्यतमा भुविस्पृक्पुरीमिमां वीरवरेण साकम् ।
अ्हस्यलड्ड्तुमदभ्रकर्मणालोकं परं श्रीरिव यज्ञपुंसा ॥
२९॥
न--नहीं; आसाम्--इनके ; वरोरु --हे सुभगे; अन्य-तमा--कोई भी; भुवि-स्पृक्--प्ृथ्वी को छूते हुए; पुरीम्ू--नगरी;इमाम्--यह; वीर-वरेण--महान् वीर; साकम्--सहित; अर्हसि--पात्र हो; अलड्डर्तुमू--अलंकृत करने के लिए; अदभ्न--यशस्वी; कर्मणा--कार्यो से; लोकम्--संसार; परमू--दिव्य; श्री:--लक्ष्मी; इब--सहश; यज्ञ-पुंसा--समस्त यज्ञों के भोक्तासहित
हे परम सौभाग्यशालिनी, ऐसा लगता है कि मैंने जिन स्त्रियों के नाम गिनाये हैं उनमें से तुमकोई नहीं हो, क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारे पाँव पृथ्वी का स्पर्श कर रहे हैं।
किन्तु यदि तुमइस लोक की कोई सुन्दरी हो, तो जिस प्रकार लक्ष्मी जी विष्णु के साथ वैकुण्ठहलोक कीश्रीवृद्धि करती हैं, उसी प्रकार तुम भी मेरे साथ संगति करके इस नगरी की सुन्दरता बढ़ाओ।
तुम्हें ज्ञात हो कि मैं महान् वीर हूँ और इस लोक का अत्यन्त पराक्रमी राजा हूँ।
"
यदेष मापाड्भविखण्डितेन्द्रियंसब्रीडभावस्मितविभ्रमद्भ्रुवा ।
त्वयोपसूष्ठटो भगवान्मनोभव:प्रबाधतेथानुगृहाण शोभने ॥
३०॥
यत्--क्योंकि; एषघ:--यह; मा--मुझको; अपाड्ु--तुम्हारी चितवन ने; विखण्डित--विचलित; इन्द्रियमू--जिसकी इन्द्रियाँअथवा मन; स-ब्रीड--लज्जायुत; भाव--प्यार; स्मित--हँसती हुईं; विभ्रमत्ू--मोहने वाली; भ्रुवा--भौंहों वाली; त्वया--तुम्हारेद्वारा; उपसूष्ट:--प्रभावित होकर; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; मन:-भव:--कामदेव; प्रबाधते--पीड़ित कर रहा है; अथ--अतः; अनुगृहाण--कृपा करो; शोभने--हे सुन्दरी |
सचमुच तुम्हारी चितवन ने आज मेरे मन को अत्यन्त विचलित कर दिया है।
तुम्हारी मुस्कानलज्ायुक्त होकर भी अत्यन्त कामयुक्त होने के कारण मेरे अन्तर में परम शक्तिशाली कामदेवको जाग्रत कर रही है।
अतः हे सुन्दरी, मैं तुमसे कृपा की याचना करता हूँ।
"
त्वदाननं सुभ्रु सुतारलोचनंव्यालम्बिनीलालकवृन्दसंवृतम् ।
उन्नीय मे दर्शय वल्गुवाचर्कयद्त्रीडया नाभिमुखं शुच्चिस्मिते ॥
३१॥
त्वत्--तुम्हारा; आननम्ू--मुख; सु-भ्रु--सुन्दर भौंहों वाली; सु-तार--सुन्दर पुतलियों वाली; लोचनम्--आँखें; व्यालम्बि--छितरे हुए; नील--नीले रंग के; अलक-वृन्द--केश राशि; संवृतम्--घिरे हुए; उन्नीय--ऊपर उठाकर; मे--मुझको; दर्शय--दिखाओ; वल्गु-वाचकम्--सुनने में मधुर शब्दों वाली; यत्--जो; ब्रीडया--लज्जा से; न--नहीं; अभिमुखम्--समक्ष, आमने-सामने; शुचि-स्मिते--हे सुन्दर हँसी वाली स्त्री, सुहासिनी।
हे सुन्दरी, सुन्दर भौंहों तथा आँखों से युक्त तुम्हारा मुख अत्यन्त सुन्दर है, जिस पर नीलेकेश बिखरे हुए हैं।
साथ ही तुम्हारे मुख से मधुर ध्वनि निकल रही है।
फिर भी तुम लज्जा सेइतनी आवृत हो कि मेरी ओर देख नहीं पा रही।
अतः हे सुन्दरी, मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कितुम हँसो और अपना सिर उठाकर मुझे देखो तो।
"
नारद उबाचइत्थं पुरझ्ननं नारी याचमानमधीरवत् ।
अभ्यनन्दत तं वीरं हसन्ती वीर मोहिता ॥
३२॥
नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; इत्थम्--इसके पश्चात्; पुरक्षमम्-पुरक्षन को; नारी--स्त्री; याचमानम्--याचना करते हुए;अधीर-वत्--अत्यन्त अधीर होकर; अभ्यनन्दत--उसने सम्बोधित किया; तम्--उस; वीरम्--वीर को; हसन्ती--हँसते हुए;वीर--हे वीर; मोहिता--उससे आकृष्ट होकर।
नारद ने आगे कहा : हे राजन, जब राजा उस सुन्दरी का स्पर्श करने तथा उसका भोग करनेके लिए अत्यधिक मोहित एवं अधीर हो उठा तो वह बाला भी उसके शब्दों से आकृष्ट हुई औरउसने हँसते हुए उसकी याचना स्वीकार कर ली।
इस समय तक वह राजा के प्रति निश्चय हीआकृष्ट हो चुकी थी।
न विदाम वयं सम्यक्र्तारें पुरुषर्षभ ।
"
आत्मनश्च परस्यापि गोत्र नाम च यत्कृतम् ॥
३३॥
न--नहीं; विदाम--जानती हूँ; वयम्--मैं ( हम ); सम्यक्--भली-भाँति; कर्तारम्--पैदा करने वाले को; पुरुष-ऋषभ--हेमनुष्यों में श्रेष्ठ; आत्मन:ः--अपना; च--तथा; परस्य--औरों का; अपि--भी; गोत्रम्--गोत्र, वंश का इतिहास; नाम--नाम;च--तथा; यत्-कृतम्--कौन किसके द्वारा बनाया गया है।
उस युवती ने कहा : हे मनुष्यश्रेष्ठ, मैं नहीं जानती कि मुझे किसने उत्पन्न किया है? मैं तुम्हेंयह ठीक-ठीक नहीं बता सकती।
न ही मैं अपने या दूसरों के गोत्र के नामों को जानती हूँ।
"
इहाद्य सन््तमात्मानं विदाम न ततः परम् ।
येनेयं निर्मिता वीर पुरी शरणमात्मन: ॥
३४॥
इह--यहाँ; अद्य--आज; सन्तम्ू--विद्यमान; आत्मानम्--जीवात्माएँ; विदाम--इतना ही जानते हैं; न--नहीं; ततः परम्--इसके आगे; येन--जिससे; इयम्ू--यह; निर्मिता--उत्पन्न की गईं; वीर--हे वीर; पुरी--नगरी; शरणम्--विश्रामस्थल;आत्मन:--समस्त जीवों का।
है वीर, हम इतना ही जानते हैं कि हम इस स्थान में हैं।
हम यह नहीं जानते कि आगे कयाहोगा।
दरअसल, हम इतने मूर्ख हैं कि यह भी जानने का प्रयत्न नहीं करते कि हमारे रहने केलिए किसने इतना सुन्दर स्थान बनाया है?"
एते सखायः सख्यो मे नरा नार्यश्व मानद ।
सुप्तायां मयि जागर्ति नागोयं पालयन्पुरीम् ॥
३५॥
एते--ये सब; सखाय:--पुरुष मित्र; सख्य:--स्त्री संगीजन; मे--मेरे; नरा:--मनुष्य; नार्य:--स्त्रियाँ; च--तथा; मान-द--हेअत्यन्त सम्माननीय; सुप्तायाम्--सोते हुए; मयि--मैं हूँ; जागर्ति--जगता रहता है; नाग: --सर्प; अयम्--यह; पालयन्--रक्षाकरते हुए; पुरीम--इस नगरी की।
हे भद्र पुरुष, ये सारे पुरुष तथा स्त्रियाँ जो मेरे साथ हैं, मेरे मित्र हैं और यह साँप सदैवजागता रहता है तथा मेरे सोते समय भी इस पुरी की रक्षा करता है।
मैं इतना ही जानती हूँ, इसकेआगे कुछ भी नहीं जानती।
"
दिष्ट्यागतोउसि भद्र ते ग्राम्यान्कामानभीप्ससे ।
उद्दहिष्यामि तांस्तेहं स्वबन्धुभिररिन्दम ॥
३६॥
दिष्टयया--मेरे सौभाग्य से; आगतः असि--यहाँ आये हो; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; ग्राम्घान्--विषय भोग की;कामान्--इच्छित वस्तुएँ; अभीप्ससे-- भोग करना चाहते हो; उद्दहिष्यामि-- पूरा करूँगी; तानू--उन सबको; ते--तुमको;अहमू--ैं; स्व-बन्धुभि:--अपने समस्त मित्रों सहित; अरिम्-दम--हे शत्रु संहारक ।
हे शत्रुसंहारक, तुम किसी न किसी तरह यहाँ पर आये, यह मेरे लिए अत्यन्त सौभाग्य कीबात है।
तुम्हारा कल्याण हो।
तुम्हें अपनी इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने की उत्कष्ठा है, अतः मैं तथामेरे सभी मित्र तुम्हारी इच्छाओं को पूरा करने का भरसक प्रयास करेंगे।
"
इमां त्वमधितिष्ठस्व पुरीं नवमुखीं विभो ।
मयोपनीतान्गृह्ानः कामभोगान्शतं समा: ॥
३७॥
इमाम्--इस; त्वम्-तुम; अधितिष्ठस्व--जरा ठहरो; पुरीम्--नगरी में; नव-मुखीम्--नौ द्वारों वाली; विभो--मेरे स्वामी;मया--मेरे द्वारा; उपनीतान्ू--व्यवस्थित; गृह्ान:--ग्रहण करते हुए; काम-भोगान्--इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुएँ; शतम्--सौ;समा:--वर्ष |
हे स्वामी, मैंने तुम्हारे लिए ही इस नौ द्वारों वाली नगरी की व्यवस्था की है, जिससे सभीप्रकार से तुम्हारी इन्द्रिय-तुष्टि हो सके।
तुम यहाँ सौ वर्षो तक रह सकते हो और तुम्हें भोग कीसारी सामग्री प्रदान की जायेगी।
"
क॑ नु त्वदन्यं रमये हारतिज्ञमकोविदम् ।
असम्परायाभिमुखम श्रस्तनविदं पशुम् ॥
३८ ॥
कं--किससे; नु--तब; त्वत्--तुम्हारी अपेक्षा; अन्यं--अन्य; रमये--मैं भोग करूँगी; हि--निश्चय ही; अरति-ज्ञमू--कामसुखन जानने वाला; अकोविदम्--अत:, मूर्ख; असम्पराय--अगले जीवन के ज्ञान से रहित; अभिमुखम्--आगे देखते हुए;अश्वस्तन-विदम्ू--जो यह नहीं जानता कि आगे क्या हो रहा है; पशुम्--पशु तुल्य |
भला मैं अन्यों के साथ कैसे रमण करने की अपेक्षा कर सकती हूँ, क्योंकि न तो उन्हें रतिका ज्ञान है, न वे जीवित अवस्था में अथवा मरने के बाद इस जीवन का भोग करना जानते हैं ?ऐसे मूर्ख व्यक्ति पशुतुल्य हैं क्योंकि वे इन्द्रिय-भोग की क्रिया को न इस जीवन में और न हीमृत्यु के उपरान्त जानते हैं।
"
धर्मो ह्त्रार्थकामौ च प्रजानन्दोमृतं यशः ।
लोका विशोका विरजा यात्र केवलिनो विदुः ॥
३९॥
धर्म:--धार्मिक अनुष्ठान; हि--निश्चय ही; अत्र--यहाँ ( गृहस्थाश्रम में ); अर्थ-- आर्थिक विकास; कामौ--इन्द्रियतृप्ति; च--तथा; प्रजा-आनन्द: --सन्तति का सुख; अमृतम्--त्याग का फल; यश: --यश, प्रतिष्ठा; लोकाः--लोक; विशोका: --शोकरहित; विरजा:--रोगरहित; यान्ू-- जो; न--कभी नहीं; केवलिन:--योगी; विदुः--जानते हैं |
सुन्दरी ने आगे कहा : इस संसार में गृहस्थ जीवन में ही धर्म, अर्थ, काम तथा पुत्र-पौत्रइत्यादि सन्ततियाँ उत्पन्न करने का सारा सुख है।
इसके पश्चात् चाहे तो मोक्ष तथा भौतिक यशभी प्राप्त किया जा सकता है।
गृहस्थ ही यज्ञ के फल का रस ग्रहण कर सकता है, जिससे उसेश्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है।
योगियों ( यतियों ) के लिए यह भौतिक सुख अज्ञात जैसा है।
वेऐसे सुख की कल्पना भी नहीं कर सकते।
"
पितृदेवर्षिमर्त्यानां भूतानामात्मनश्व ह ।
क्षेम्यं वदन्ति शरणं भवेस्मिन्यदगृहा श्रम: ॥
४०॥
पितृ--पूर्वज, पितरगण; देव--देवता; ऋषि--ऋषिगण; मर्त्यानाम्ू--सामान्य मनुष्यों का; भूतानाम्ू--जीवों का; आत्मन:--अपना; च--भी; ह--निश्चय ही; क्षेम्यम्--लाभप्रद; वदन्ति--कहते हैं; शरणम्--शरण; भवे-- भौतिक जगत में; अस्मिन्ू --इस; यत्--जो; गृह-आश्रम: --गृहस्थ जीवन |
उस स्त्री ने आगे कहा : अधिकारियों के अनुसार गृहस्थ जीवन न केवल अपने को वरन्समस्त पितरों, देवताओं, ऋषियों, साधु पुरुषों तथा अन्य सबों को अच्छा लगने वाला है।
इसप्रकार गृहस्थ जीवन अत्यन्त उपयोगी है।
"
का नाम वीर विख्यातं वदान्यं प्रियदर्शनम् ।
न वृणीत प्रियं प्राप्त माहशी त्वाह॒शं पतिम् ॥
४१॥
का--कौन; नाम--निस्सन्देह; वीर--हे वीर पुरुष; विख्यातम्--सुप्रसिद्ध; वदान्यम्--उदार; प्रिय-दर्शनम्--सुन्दर; न--नहीं;वृणीत--स्वीकार करेगा; प्रियम्--सरलता से; प्राप्तम्-प्राप्त हुआ; माहशी--मुझ जैसी; त्वाहशम्--तुम्हारे समान; पतिम्ू--पति
हे वीर पुरुष, इस संसार में ऐसी कौन ( स्त्री) होगी जो तुम जैसे पति को स्वीकार नहींकरेगी ? तुम इतने प्रसिद्ध, उदार, इतने सुन्दर तथा सुलभ हो।
"
कस्या मनस्ते भुवि भोगिभोगयोःस्त्रिया न सज्जेद्भधुजयोर्महा भुज ।
योउनाथवर्गाधिमलं घृणोद्धतस्मितावलोकेन चरत्यपोहितुम् ॥
४२॥
कस्या:--किसका; मनः--मन; ते--तुम्हारा; भुवि-- इस संसार में; भोगि-भोगयो: --सर्प के समान शरीर वाला; स्थ्रिया: --स्त्रीका; न--नहीं; सज्जेत्ू--आकर्षित हो जाता है; भुजयो:-- भुजाओं द्वारा; महा-भुज--हे बलिष्ठ भुजाओं वाले, महाबाहु; यः--जो; अनाथ-वर्गा--हम जैसी अनाथ स्त्रियों का; अधिमू--मन का सन्ताप; अलमू--सक्षम; घृणा-उद्धत-- छेड़छाड़ से; स्मित-अवलोकेन--आकर्षक हँसी से; चरति--विचरण करता है; अपोहितुम्ू--कम ( शान्त ) करने के लिए
हे महाबाहु, इस संसार में ऐसा कौन है, जो सर्प के शरीर जैसी तुम्हारी भुजाओं से आकृष्ट नहो जाये? वास्तव में तुम अपनी मोहक मुस्कान तथा अपनी छेड़छाड़ युक्त दया से हम जैसीपतिविहीन स्त्रियों के सन््ताप को दूर करते हो।
हम सोचती हैं कि तुम केवल हमारे हित के लिएही पृथ्वी पर विचरण कर रहे हो।
"
नारद उवाचइति तौ दम्पती तत्र समुद्य समयं मिथ: ।
तां प्रविश्य पुरी राजन्मुमुदाते शर्तं समा: ॥
४३॥
नारदः उवाच--नारद ने कहा; इति--इस प्रकार; तौ--वे दोनों; दम्-पती--पति तथा पतली; तत्र--वहाँ; समुद्य--समान रूप सेउत्साही; समयम्--स्वीकार करते हुए; मिथ: --परस्पर; ताम्ू--उस स्थान में; प्रविश्य--प्रवेश करके ; पुरीम्--नगरी में;राजनू--हे राजा; मुमुदाते--जीवन का भोग किया; शतम्--एक सौ; समा:--वर्ष |
नारद मुनि ने आगे कहा : हे राजन, वे दोनों--स्त्री तथा पुरुष--एक दूसरे का पारस्परिकसौहार्द द्वारा समर्थन करते हुए उस नगरी में प्रविष्ट हुए और उन्होंने एक सौ वर्षो तक जीवन का सुख भोगा।
"
उपगीयमानो ललित तत्र तत्र च गायकै: ।
क्रीडन्परिवृतः स्त्रीभिईदिनीमाविशच्छुचौ ॥
४४॥
उपगीयमान:--गाया जाकर; ललितम्--अत्यन्त सुन्दर ढंग से; तत्र तत्र--जहाँ तहाँ; च-- भी; गायकै: --चारणों द्वारा;क्रीडन्--खेलते हुए; परिवृत:--घिरा हुआ; स्त्रीभि:--स्त्रियों से; हदिनीमू--नदी के जल में; आविशत्--घुसा; शुचौ--जबवह बहुत गर्म होता तो |
राजा पुरञ्जन की महिमा तथा महिमामय कार्यों का गान अनेक चारण किया करते थे।
ग्रीष्मऋतु में जब बहुत गर्मी पड़ती तो वह जलाशय में प्रवेश करता था।
उसके चारों ओर अनेकस्त्रियाँ होती थीं और वह उनके संग आनन्द उठाता।
"
सप्तोपरि कृता द्वारः पुरस्तस्यास्तु द्वे अधः ।
पृथग्विषयगत्यर्थ तस्यां यः कश्चनेश्वर: ॥
४५॥
सप्त--सात; उपरि--ऊपर; कृता:--निर्मित; द्वार:--द्वार; पुर: --नगरी के; तस्या:--उस; तु--तब; द्वे--दो; अध: --नीचे;पृथक्-भिन्न-भिन्न; विषय--स्थानों तक; गति-अर्थम्--जाने के लिए; तस्याम्--उस नगरी में; यः--जो; कश्चन--कोई भी;ईंश्वरः --स्वामी, अधीक्षक |
उस नगरी के नौ द्वारों में से सात तो भूतल पर थे और दो पृथ्वी के नीचे थे।
कुल नौ द्वारबनाए गए थे और ये नवों द्वार भिन्न-भिन्न स्थानों को जाते थे।
इन सारे द्वारों का उपयोग उसनगरी का अधीक्षक करता था।
"
पञ्न द्वारस्तु पौरस्त्या दक्षिणैका तथोत्तरा ।
पश्चिमे द्वे अमूषां ते नामानि नृप वर्णये ॥
४६॥
पश्ञ--पाँच; द्वारः--द्वार; तु--तब; पौरस्त्या:--पूर्व दिशा की ओर; दक्षिणा--दक्षिणी; एका--एक; तथा-- भी; उत्तरा--उत्तरकी ओर एक; पश्चिमे--इसी प्रकार पश्चिमी दिशा में; द्वे--दो; अमूषाम्--उनमें से; ते--तुमसे; नामानि--नाम; नृप--हे राजा;वर्णये--मैं वर्णन करूँगा।
हे राजन, नौ द्वारों में से पाँच पूर्व की ओर, एक उत्तर तथा एक दक्षिण दिशा को और दोपश्चिम की ओर जाते थे।
अब मैं इन विभिन्न द्वारों के नाम बताने का प्रयास करूँगा।
"
खटद्योताविर्मुखी च प्राग्द्वारावेकत्र निर्मिते ।
विभ्राजितं जनपदं याति ताभ्यां द्युमत्सख: ॥
४७॥
खटद्योता--खद्योता नामक; आविर्मुखी--आविर्मुखी नामक; च--भी; प्राक् --पूर्व दिशा की ओर; द्वारौ--दो द्वार; एकत्र--एकस्थान पर; निर्मिते--बनाये गये थे; विश्राजितम्ू--विभ्राजित नामक; जन-पदम्--नगरी; याति--जाता था; ताभ्याम्--उनसे;झुमत्--दछ्युमान नामक; सखः--अपने मित्र के साथ
खटद्योता तथा आविर्मुखी नाम के दो द्वार पूर्व की ओर स्थित थे, किन्तु वे दोनों एक स्थानपर ही बनाये गये थे।
राजा इन दोनों द्वारों से होकर विभ्राजित नामक नगरी को अपने मित्र झ्युमानके साथ जाया करता था।
"
नलिनी नालिनी च प्राग्द्वारावेकत्र निर्मिते ।
अवधूतसखस्ताभ्यां विषयं याति सौरभम् ॥
४८॥
नलिनी--नलिनी नामक; नालिनी--नालिनी नामक; च-- भी; प्राक्--पूर्वी; द्वारा --दो द्वार; एकत्र--एक स्थान पर; निर्मिते--निर्मित; अवधूत--अवधूत नामक; सखः--अपने मित्र के साथ; ताभ्याम्--उन दोनों द्वारों से; विषयम्--स्थान; याति--जाताथा; सौरभमू--सौरभ नामक |
इसी प्रकार पूर्व में नलिनी तथा नालिनी नामक ( अन्य ) दो द्वार थे और ये भी एक स्थान परबनाये गये थे।
इन द्वारों से राजा अपने मित्र अवधूत के साथ सौरभ नगर को जाया करता था।
"
मुख्या नाम पुरस्ताददवास्तयापणबहूदनौ ।
विषयौ याति पुरराड्सज्ञविपणान्वित: ॥
४९॥
मुख्या--मुख्यता या मुख्य; नाम--नामक; पुरस्तात्--पूर्व दिशा में; द्वा:--द्वार; तया--उससे; आपण--आपण नामक;बहूदनौ--बहूदन नामक; विषयौ--दो स्थान; याति--जाता था; पुर-राट्--नगर का राजा ( पुरञ्ञन ); रस-ज्ञ--रसज्ञ नामक;विपण--विपण नामक; अन्वित:--के साथ।
पूर्व दिशा में स्थित पाँचवें द्वार का नाम मुख्या अर्थात् मुख्य था।
इस द्वार से वह रसज्ञ तथाविपण नामक दो मित्रों के साथ बहूदन तथा आपण नामक दो स्थानों को जाता था।
"
पितृहूर्नूप पुर्या द्वार्दक्षिणेन पुरझ्नन: ।
राष्ट्र दक्षिणपञ्ञालं याति श्रुतधरान्वित: ॥
५०॥
पितृहू:--पितृहू नामक; नृप--हे राजा; पुर्या:--पुरी को; द्वा:--द्वार; दक्षिणेन--दक्षिण का; पुरञ्न:--राजा पुरझ्ञन; राष्ट्रमू--राष्ट्र; दक्षिण--दक्षिणी; पञ्ञालमू-पञ्ञाल नामक; याति--जाता था; श्रुत-धर-अन्वितः--अपने मित्र श्रुतधर के साथ
नगर के दक्षिणी द्वार का नाम पितृहू था, जिससे होकर राजा पुरक्षन अपने मित्र श्रुतधर केसाथ दक्षिण-पञ्ञाल नामक नगर देखने जाया करता था।
"
देवहूर्नाम पुर्या द्वा उत्तेण पुरझ्जनः ।
राष्ट्रमुत्तरपञ्ञालं याति श्रुतधरान्वित: ॥
५१॥
देवहू: --देवहू; नाम--नाम से विख्यात; पुर्या:--पुरी का; द्वा:--द्वार; उत्तेण--उत्तरी दिशा में; पुरक्षन:--राजा पुरज्जन;राष्ट्रमू--देश; उत्तर--उत्तरी; पञ्चालम्--पंचाल; याति--जाता था; श्रुत-धर-अन्वित:--अपने मित्र श्रुतधर के साथ।
उत्तर दिशा में देवहू नामक द्वार था जिससे होकर राजा पुरज्जन अपने मित्र श्रुतधर के साथउत्तर-पञ्ञाल नामक स्थान को जाया करता था।
"
आसुरी नाम पश्चाददवास्तया याति पुरझ्जन: ।
ग्रामक॑ नाम विषयं दुर्मदेन समन्वित: ॥
५२॥
आसुरी-- आसुरी; नाम--नामक; पश्चात्-पश्चिम दिशा में; द्वा:--टद्वार; तया--उससे; याति--जाया करता था; पुरक्षन:--राजापुरक्षन; ग्रामकम्--ग्रामक; नाम--नामक; विषयम्--विषय भोग की नगरी; दुर्मदेन--दुर्मद से; समन्वित:--के साथ-साथ
पश्चिम दिशा में आसुरी नामक एक द्वार था, जिससे होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र दुर्मद केसाथ ग्रामक नाम की नगरी को जाया करता था।
"
निर्क्रतिर्नाम पश्चाद् द्वास्तया याति पुरझ्नन: ।
वैशसं नाम विषयं लुब्धकेन समन्वित: ॥
५३॥
निर्क्रतिः--निर्क्रति; नाम--नामक; पश्चात्-पश्चिमी; द्वा:--द्वार; तया--जिससे; याति--जाया करता था; पुरक्षन:--राजापुरझ्नन; वैशसम्--वैशस; नाम--नामक; विषयम्-- स्थान को; लुब्धकेन--अपने मित्र लुब्धक; समन्वित:--के साथ-साथ।
पश्चिम दिशा का दूसरा द्वार निर्रति कहलाता था।
पुरक्षन इस द्वार से होकर अपने मित्रलुब्धक के साथ वैशस नामक स्थान को जाया करता था।
"
अन्धावमीषां पौराणां निर्वाक्पेशस्कृतावुभौ ।
अक्षण्वतामधिपतिस्ता भ्यां याति करोति च ॥
५४॥
अन्धौ--अन्धा; अमीषाम्--उनमें से; पौराणाम्--निवासियों से; निर्वाकु--निर्वाक् नामक; पेशस्कृतौ--पेशस्कृत नाम का;उभौ--दोनों; अक्षण्-वताम्--आँख वाले व्यक्तियों को; अधिपति:--शासक; ताभ्याम्--उन दोनों के साथ; याति--जायाकरता था; करोति--कार्य करता था; च--तथा |
इस नगरी के अनेक निवासियों में निर्वाक् तथा पेशस्कृत नामक दो व्यक्ति थे।
यद्यपि राजापुरञ्नन आँख वाले व्यक्तियों ( दिठियारों ) का शासक था, किन्तु वह इन दोनों अंधों के साथरहता था।
वह उनके साथ जहाँ-तहाँ जाता था और नानाविध कार्य किया करता था।
"
स यहान्तःपुरगतो विषूचीनसमन्वित: ।
मोहं प्रसादं हर्ष वा याति जायात्मजोद्धवम् ॥
५५॥
सः--वह; यहिं-- जब; अन्तः-पुर--अपने रनिवास में; गत: --जाता था; विषूचीन--मन के ; समन्वित:--सहित; मोहम्--मोह;प्रसादम्--संतोष; हर्षम्--हर्ष; वा--अथवा; याति--अनुभव करता था; जाया--पती; आत्म-ज--पुत्र; उद्धवम्--से उत्पन्न |
कभी-कभी वह अपने एक मुख्य दास (मन ) विषूचीन के साथ अपने अन्तःपुर जायाकरता था।
उस समय उसकी पत्नी तथा पुत्रों से मोह, संतोष तथा हर्ष उत्पन्न होते थे।
"
एवं कर्मसु संसक्त: कामात्मा वज्ञितोबुध: ।
महिषी यद्यदीहेत तत्तदेवान्ववर्तत ॥
५६॥
एवम्--इस प्रकार; कर्मसु--कर्मो में; संसक्त:--अत्यन्त आसक्त; काम-आत्मा--कामी; वजद्धित:ः--ठगा गया; अबुध: --अल्पज्ञानी; महिषी--पटरानी; यत् यत्ू--जो जो; ईहेत--चाहती थी; तत् तत्--वही वही; एब--निश्चय ही; अन्ववर्तत--पालनकरता था।
इस प्रकार विभिन्न प्रकार के मानसिक उहापोह तथा सकाम कर्मों में फँसा रह कर राजापुरक्षन पूर्ण रूप से भौतिक बुद्धि के वश में हो गया और ठगा गया।
वह दरअसल ही अपनीरानी की समस्त इच्छाओं को पूरा किया करता था।
"
क्वचित्पिबन्त्यां पिबति मदिरां मदविह्लः ।
अश्नन्त्यां क्वचिदृश्नाति जक्षत्यां सह जक्षिति ॥
५७॥
क्वचिद्गायति गायन्त्यां रुदत्यां रूदति क्वचित् ।
क्वचिद्धसन्त्यां हसति जल्पन्त्यामनु जल्पति ॥
५८॥
क्वचिद्धावति धावन्त्यां तिष्ठन्त्यामनु तिष्ठति ।
अनु शेते शयानायामन्वास्ते क्वचिदासतीम् ॥
५९॥
क्वचिच्छुणोति श्रृण्वन्त्यां पश्यन्त्यामनु पश्यति ।
क्वचिजिनप्नति जिप्रन्त्यां स्पृशन्त्यां स्पृशति क्वचित् ॥
६०॥
क्वचिच्च शोचतीं जायामनु शोचति दीनवत् ।
अनु हृष्यति हृष्यन्त्यां मुदितामनु मोदते ॥
६१॥
क्वचित्--कभी कभी; पिबन्त्यामू--पीते हुए; पिबति--वह पीता था; मदिराम्--शराब; मद-विहलः --उन्मत्त; अश्नन्त्याम्ू--जब वह खाती; क्वचित्ू--क भी; अश्नाति--खाता था; जक्षत्यामू--जब चबाती; सह--उसके साथ; जक्षिति--वह चबाताथा; क्वचित्--कभी; गायति--गाता था; गायन्त्यामू--अपनी पली के गाने पर; रुदत्यामू--जब वह रोती; रुदति--वह भीरोता; क्वचित्ू--क भी; क्वचित्--कभी; हसन्त्यामू--जब वह हँसती; हसति--हँसता था; जल्पन्त्यामू--जब वह अनाप-शनापबोलती; अनु--साथ-साथ; जल्पति--वह बकता; क्वचित्--कभी; धावति--वह दौड़ता था; धावन्त्यामू--जब वह दौड़ती;तिष्ठन््यामू--उसके शान्त खड़े रहने पर; अनु--साथ-साथ; तिष्ठति--खड़ा रहता था; अनु--उसके साथ; शेते--सोता था;शयानायाम्--जब वह सोती थी; अनु--उसके साथ; आस्ते--वह भी बैठता था; क्वचित्--कभी; आसतीम्--जब वह बैठतीथी; क्वचित्--कभी; श्रूणोति--सुनता था; श्रृण्वन्त्यामू--जब वह सुनने में व्यस्त होती; पश्यन्त्यामू--जब वह कुछ देखतीहोती; अनु--उसके साथ; पश्यति--वह भी देखता था; क्वचित्--कभी; जिप्नति--सूँघता था; जिप्रन्त्यामू--जब उसकी पतलीसूँघती होती; स्पृशन्त्यामू--जब वह कुछ स्पर्श करती; स्पृशति--वह भी छूता था; क्वचित्--उस समय; क्वचित् च--कभीकभी; शोचतीम्--जब विलाप करती; जायाम्--उसकी पत्नी; अनु--उसके साथ; शोचति--वह भी विलाप करता; दीन-बत्--दीन व्यक्ति के समान; अनु--उसके साथ; हृष्यति-प्रसन्न होता था; हृष्यन्त्यामू--जब वह प्रसन्न होती; मुदितामू--जबवह सन्तुष्ट होती; अनु--उसके साथ; मोदते--उसे भी संतोष होता |
जब रानी मद्यपान करती तो राजा पुरञ्जन भी मदिरा पीने में व्यस्त रहता।
जब रानी भोजनकरती तो वह भी उसके साथ-साथ खाता; जब वह चबाती तो वह भी साथ-साथ चबाता।
जबरानी गाती तो राजा भी गाता।
इसी प्रकार जब रानी रोती तो वह रोता और जब-जब रानी हँसतीतो वह भी हँसता।
जब रानी अनाप-शनाप बोलती तो वह भी उसी तरह बोलता करता और जब रानी चलती तो वह उसके पीछे हो लेता।
जब रानी शान्त भाव से खड़ी होती तो वह भी खड़ारहता और जब रानी बिस्तर में लेट जाती तो वह भी लेट जाता।
जब रानी बैठती तो वह भी बैठजाता और जब रानी कुछ सुनती तो वह भी वही सुनता।
जब रानी कोई वस्तु देखती तो वह भीउसी को देखता और जब रानी कुछ सूँघती तो राजा भी उसी को सूँघने लगता।
जब रानी कुछछूती तो राजा भी उसे छूता था और जब उसकी प्रिया रानी शोकमग्न होती तो बेचारा राजा भीशोक में उसका साथ देता।
इसी तरह रानी को जब सुख मिलता उसका भोग राजा भी करताऔर जब रानी सन्तुष्ट हो जाती तो राजा भी तुष्टि का अनुभव करता।
"
विप्रलब्धो महिष्यैवं सर्वप्रकृतिवश्चितः ।
नेच्छन्ननुकरोत्यज्ञः क्लैब्यात्क्रीडामृगो यथा ॥
६२॥
विप्रलब्ध: --बन्दी; महिष्या--महिषी ( पटरानी ) द्वारा; एवम्--इस प्रकार; सर्व--समस्त; प्रकृति-- अस्तित्व; वच्चित:--ठगाजाकर; न इच्छन्--न चाहते हुए; अनुकरोति--अनुकरण करता था; अज्ञ:--मूर्ख राजा; क्लैब्यात्--बलपूर्वक; क्रीडा-मृग: --पालतू जानवर; यथा--के समान।
इस प्रकार राजा पुरक्षन अपनी सुन्दर पतली के द्वारा बन्दी बना हुआ था और ठगा जा रहाथा।
वास्तव में वह संसार में अपने सम्पूर्ण अस्तित्व में ठगा जा रहा था।
बेचारा वह मूर्ख राजाअपनी इच्छा के विरुद्ध अपनी पत्नी के वश में उसी प्रकार रहता जिस प्रकार कोई पालतूजानवर अपने स्वामी की इच्छानुसार नाचता रहता है।
"
अध्याय छब्बीसवाँ: राजा पुरंजन शिकार के लिए जंगल में जाते हैं, और उनकी रानी क्रोधित हो जाती है
4.26नारद उवाचस एकदा महेष्वासो रथ पश्ञाश्रमाशुगम् ।
द्वीषंद्विचक्रमेकाक्षं त्रिवेणुं पञ्नबन्धुरम् ॥
१॥
एकरश्म्येकदमनमेकनीडं द्विकूबरम् ।
पञ्ञप्रहरणं सप्तवरूथं पदञ्ञविक्रमम् ॥
२॥
हैमोपस्करमारुह्य स्वर्णवर्माक्षयेषुधि: ।
एकादशचमूनाथ: पद्चप्रस्थमगाठ्दनम् ॥
३॥
नारदः उवाच--नारद ने कहा; सः--राजा पुरझञ्ञन; एकदा--एक बार; महा-इष्वास:--विशाल धनुष बाण लेकर; रथम्--रथ;पश्चञ-अश्वम्-पाँच घोड़े; आशु-गम्--तेजी से चलने वाले; द्वि-ईषम्--दो तीर; द्वि-चक्रम्ू--दो पहिए; एक--एक; अक्षम्--धुरी; त्रि--तीन; वेणुम्-- ध्वजाएँ; पञ्ञ-- पाँच; बन्धुरमू-- अवरोध, डोरियाँ; एक--एक; रश्मि--लगाम; एक--एक;दमनम्--सारथी; एक--एक; नीडम्--बैठने का स्थान; द्वि--दो; कूबरम्--जुए; पश्च-- पाँच; प्रहरणम्-- आयुध; सप्त--सात; वरूथम्ू--आवरण अथवा शरीर के अवयव; पश्च--पाँच; विक्रमम्--चालें; हैम--सुनहला; उपस्करम्-- आभूषण;आरुह्म--चढ़ कर, सवार होकर; स्वर्ण--सोने का; वर्मा--कवच; अक्षय--न समाप्त होने वाला; इषु-धि:--तरकस;एकादश- ग्यारह; चमू-नाथ: --सेनापतियों; पञ्ञ--पाँच; प्रस्थम्--गन्तव्य; अगात्--गया; वनम्--वन में |
नारद मुनि ने आगे कहा : हे राजनू, एक बार राजा पुरझ्षन ने अपना विशाल धनुष लियाऔर सोने का कवच धारण करके तरकस में असंख्य तीर भर कर वह अपने ग्यारह सेनापतियोंके साथ अपने रथ पर बैठ गया, जिसे पाँच तेज घोड़े खींच रह थे और पशञ्ञप्रस्थ नामक वन मेंगया।
उसने अपने साथ उस रथ में दो विस्फोटक तीर ले लिये।
यह रथ दो पहियों तथा एकघूमते हुए धुरे पर स्थित था।
रथ पर तीन ध्वजाएँ, एक लगाम, एक सारथी, एक बैठने कास्थान, दो काठी ( जुए ), पाँच आयुध तथा सात आवरण थे।
यह रथ पाँच भिन्न-भिन्न शैलियोंसे गति कर रहा था और उसके सामने पाँच अवरोध थे।
रथ की सारी साज-सज्जा सोने की बनीथी।
"
अचार मृगयां तत्र हप्त आत्तेषुकार्मुक: ।
विहाय जायामतदर्हा मृगव्यसनलालसः ॥
४॥
चचार--किया ( खेला ); मृगयाम्--आखेट, शिकार; तत्र--वहाँ; हप्तः--गर्वपूर्वक; आत्त--लेकर; इषु--तीर; कार्मुक:--धनुष; विहाय--त्याग कर; जायाम्--अपनी पतली को; अ-तत््-अर्हाम्--यद्यपि असम्भव; मृग--आखेट, मृगया; व्यसन--बुरीलत; लालसः--से प्रोत्साहित होकर।
यद्यपि राजा पुरजझ्ञन के लिए अपनी रानी को एक पल भर भी छोड़ना कठिन था।
तो भी उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि अपनी पत्नी की परवाह किये बिना वह बड़े गर्व सेधनुष-बाण लेकर जंगल चला गया।
"
आसूुरी वृत्तिमाश्रित्य घोरात्मा निरनुग्रह: ।
न्यहनन्निशितैर्बाणैर्वनेषु वनगोचरान् ॥
५॥
आसुरीम्--आसुरी; वृत्तिमू--व्यापार; आश्रित्य--ग्रहण करने से; घोर--कठोर; आत्मा--चेतना, हृदय; निरनुग्रह:--दयाहीन;न्यहनतू--वध किया; निशितैः--तीखे; बाणैः--बाणों से; वनेषु--वन में; वन-गोचरान्ू--जंगली पशुओं को |
उस समय राजा पुरञ्जन आसुरी वृत्तियों के प्रभाव में आ गया था, जिसके कारण उसकाहृदय कठोर तथा दयाशून्य हो गया था, अतः उसने अपने तीखे बाणों से बिना सोचे-विचारेअनेक निर्दोष जंगली पशुओं का वध कर दिया।
"
तीर्थेषु प्रतिदृष्टेचु राजा मेध्यान्पशून्वने ।
यावदर्थमलं लुब्धो हन्यादिति नियम्यते ॥
६॥
तीर्थषु--पवित्र स्थानों में; प्रतिहृष्टचु--वेदों के आदेशानुसार; राजा--राजा; मेध्यान्ू--वध के योग्य; पशूनू--पशुओं को;बने--वन में; यावत्--जब तक; अर्थम्--आवश्यकतानुसार; अलम्--इससे अधिक नहीं; लुब्ध:--लालची बनकर; हन्यात्--वध करे; इति--इस प्रकार; नियम्यते--नियमित करता है।
यदि राजा मांस खाने का अत्यधिक इच्छुक हो तो वह यज्ञ के लिए शास्त्रों में दिये गयेआदेशों के अनुसार बन जाकर कुछ केवल वध्य पशुओं का वध करे।
किसी को वृथा ही याबिना रोकटोक पशुओं के वध की अनुमति नहीं है।
वेद उन मूर्ख पुरुषों के द्वारा अंधाधुंधपशुवध को नियमित करते हैं, जो तमोगुण तथा अविद्या द्वारा प्रभावित रहते हैं।
"
य एवं कर्म नियतं दिद्वान्कुर्वीत मानव: ।
कर्मणा तेन राजेन्द्र ज्ञानेन नस लिप्यते ॥
७॥
यः--जो; एवम्--इस प्रकार; कर्म--कार्य; नियतम्--नियमित; विद्वानू--विद्वान्; कुर्वीत--करना चाहिए; मानव: --मनुष्य;कर्मणा--ऐसे कार्यो से; तेन--इससे; राज-इन्द्र--हे राजा; ज्ञानेन--ज्ञान से; न--कभी नहीं; सः--वह; लिप्यते--लिप्त होता
हैनारद मुनि ने राजा प्राचीनबर्हिषत् से आगे कहा : हे राजा, जो व्यक्ति शास्त्रानुमोदित कर्मोंका आचरण करता है, वह सकाम कर्मों में लिप्त नहीं होता।
"
अन्यथा कर्म कुर्वाणो मानारूढो निबध्यते ।
गुणप्रवाहपतितो नष्टप्रज्ञो त्रजत्यध: ॥
८॥
अन्यथा--नहीं तो; कर्म--सकाम कर्म; कुर्वाण:--करते हुए; मान-आरूढ:--अभिमान के वशीभूत होकर; निबध्यते--फँसजाता है; गुण-प्रवाह--गुणों के प्रभाव से; पतितः--गिरा हुआ, पतित; नष्ट-प्रज्ञ:--बुद्धि भ्रष्ट; त्रजति--जाता है; अधः--गर्तमें, नीचे।
अन्यथा जो मनुष्य मनमाना कर्म करता है, वह मिथ्या अभिमान के कारण नीचे गिर जाता हैऔर इस तरह प्रकृति के तीनों गुणों में फँस जाता है।
इस प्रकार से जीव अपनी वास्तविक बुद्ध्धिसे रहित हो जाता है और जन्म-मृत्यु के चक्र में सदा-सदा के लिए खो जाता है।
"
तत्र निर्भिन्नगात्राणां चित्रवाजैः शिलीमुखेः ।
विप्लवो भूहु:खितानां दु:सह: करुणात्मनाम् ॥
९॥
तत्र--वहाँ; निर्भिन्न--भिदकर; गात्राणामू--शरीरों वाले; चित्र-वाजैः--तरह तरह के पंखों वाले; शिली-मुखै:--तीरों द्वारा;विप्लव:--विनाश, संहार; अभूत्ू--हुआ; दुःखितानाम्--अत्यन्त दुखितों का; दुःसह:--असहा; करुण-आत्मनाम्--अत्यन्तदयालु पुरुषों का
जब राजा पुरज्न इस प्रकार आखेट करने लगा तो तीक्ष्ण बाणों से भिदकर जंगल में अनेकपशु अत्यधिक पीड़ा से अपना प्राण त्यागने लगे।
राजा के इन विनाशकारी निर्दयतापूर्ण कार्योको देखकर दयालु पुरुष अत्यन्त खिन्न हो गए।
इस प्रकार के दयालु पुरूष यह सारा वध देखकर सहन नहीं कर सके।
"
शशान्वराहान्महिषान्गवयात्रुरुशल्यकान् ।
मेध्यानन्यां श्र विविधान्विनिष्नन्श्रममध्यगात् ॥
१०॥
शशान्--खरगोशों; वराहान्ू--सुअरों; महिषान्ू-- भेसों; गवयान्--नीलगायों; रुरू-- कृष्ण मृग; शल्यकान्--साहियों;मेध्यानू--शिकारी जानवरों; अन्यान्ू--अन्यों को; च--तथा; विविधानू--विभिन्न; विनिष्ननू-- मार करके ; श्रमम् अध्यगात्--अत्यधिक थक गया।
इस प्रकार राजा पुरझ्षन ने अनेक पशुओं का वध किया जिसमें खरगोश, सुआर, भेंसे,नीलगाय, श्याम हिरण, साही तथा अन्य शिकारी जानवर शामिल थे।
लगातार शिकार करतेरहने से राजा अत्यधिक थक गया।
"
ततः क्षुत्तूट्परिश्रान्तो निवृत्तो गृहमेयिवान् ।
कृतस्नानोचिताहार: संविवेश गतक्लम: ॥
११॥
ततः-पत्पश्चात; क्षुत्- भूख से; तृटू--प्यास से; परिश्रान्त:--अत्यधिक थक कर; निवृत्त:--विराम या विरक्ति लेकर; गृहम्एयिवान्ू-- अपने घर वापस आया; कृत--करके; स्नान--स्नान; उचित-आहार: -- समुचित भोजन; संविवेश--विश्राम किया;गत-क्लमः-- थकान से रहित होकर।
इसके बाद अत्यन्त थका-माँदा, भूखा एवं प्यासा राजा अपने राजमहल लौट आया।
लौटनेके बाद उसने स्नान किया और यथोचित भोजन किया।
तब उसने विश्राम किया और इस तरहसारी थकान से मुक्त हो गया।
"
आत्मानमर्ईयां चक्रे धूपालेपस्त्रगादिभि: ।
साध्वलड्डू तसर्वाझे महिष्यामादधे मनः ॥
१२॥
आत्मानम्--अपने आप; अर्हयाम्--मानो किया जाना हो; चक्रे--किया; धूप--सुगंधित पदार्थ; आलेप--चन्दन से शरीर कोपोतना; स्रकू--माला; आदिभि:--इत्यादि से; साधु--अच्छे स्वभाव का, सुन्दर ढंग से; अलड्डू त--सजा हुआ; सर्व-अड्ड--सारे शरीर पर; महिष्याम्--रानी को; आदधे --दिया, किया; मन:--ध्यान |
तत्पश्चात् राजा पुरञ्जन ने अपने शरीर में उपयुक्त आभूषण धारण किये।
उसने अपने शरीर केऊपर चन्दन का लेप किया और फूलों की माला पहनी।
इस प्रकार वह पूर्णतः तरोताजा( विश्रान्त ) हो गया।
इसके बाद वह अपनी रानी की खोज करने लगा।
"
तृप्तो हष्ठ: सुहृप्तश्च॒ कन्दर्पाकृष्टमानस: ।
न व्यचष्ट वरारोहां गृहिणीं गृहमेधिनीम् ॥
१३ ॥
तृप्त:--तुष्ट; हष्ट:--प्रसन्न; सु-हृप्त:--अत्यन्त गर्वित; च-- भी; कन्दर्प--कामदेव से; आकृष्ट-- आकर्षित; मानस: --उसकामन; न--नहीं; व्यचष्ट-- प्रयल किया; वर-आरोहाम्---उच्चतर चेतना; गृहिणीम्--पत्नी को; गृह-मेधिनीम्--जो अपने पति कोभौतिक जीवन में रखती है।
भोजन कर लेने तथा अपनी भूख और प्यास बुझा लेने के बाद पुरझ्षन को मन में कुछप्रफुल्लता हुई।
वह उच्चतर चेतना तक न पहुँच कर कामदेव द्वारा मोहित हो गया और उसेअपनी पत्नी को ढूँढने की इच्छा हुई जिसने उसे गृहस्थ जीवन में प्रसन्न कर रखा था।
"
अन्तःपुरस्त्रियोपृच्छद्विमना इब वेदिषत् ।
अपि व: कुशल रामा: से श्वरीणां यथा पुरा ॥
१४॥
अन्तः-पुर--रनिवास की; स्थत्रियः--स्त्रियों से; अपूच्छत्--पूछा; विमना: --अत्यन्त उत्सुक होकर; इब--मानो; वेदिषत्--हेराजा प्राचीनबर्हि; अपि--क्या; व:--तुम्हारी; कुशलम्--कुशल मंगल; रामा: --हे सुन्दरियो; स-ईश्वरीणाम्ू-- अपनी मालकिनया स्वामिनी सहित; यथा--जिस तरह; पुरा--पहले।
उस समय राजा पुरञझ्न कुछ-कुछ उत्सुक हुआ और उसने रनिवास की स्त्रियों से पूछा: हेसुन्दरियो, तुम सब अपनी स्वामिनी सहित पहले के समान प्रसन्न तो हो ?"
न तथैतर्हि रोचन्ते गृहेषु गृहसम्पदःयदि न स्यादगृहे माता पत्नी वा पतिदेवता ।
व्यड्जे रथ इव प्राज्ञ: को नामासीत दीनवत् ॥
१५॥
न--नहीं; तथा--पूर्ववत्; एतह्ि--इस क्षण; रोचन्ते-- अच्छे लगते हैं; गृहेषु--घर में; गृह-सम्पदः--घरेलू साज-सामान;यदि--अगर; न--नहीं; स्थात्--हो; गृहे--घर में; माता--माँ; पत्ती -- भार्या; वा-- अथवा; पति-देवता-- पति-परायण;व्यड्रे--पहियों से रहित; रथे--रथ में; इब--सहश; प्राज्:--विद्वान मनुष्य; कः--ऐसा कौन है; नाम--निस्सन्देह; आसीत--बैठेगा; दीन-वत्--दीन के समान।
राजा पुरक्षन ने कहा : मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मेरे घर का सारा साज-सामान पहलेकी भाँति मुझे अच्छा क्यों नहीं लग रहा? मैं सोचता हूँ कि यदि घर में माता अथवा पति-परायणपत्नी न हो तो घर पहियों से विहीन रथ की तरह प्रतीत होता है।
ऐसा कौन मूर्ख है, जो ऐसे व्यर्थके रथ पर बैठेगा ?"
क्व वर्तते सा ललना मज्नन्तं व्यसनार्णवे ।
या मामुद्धरते प्रज्ञां दीपयन्ती पदे पदे ॥
१६॥
क्व--कहाँ; वर्तते--इस समय है; सा--वह; ललना--स्त्री; मजनन्तम्--डूबते हुए; व्यसन-अर्णवे--संकट के सागर में; या--जो; माम्--मुझको ; उद्धरते--उबारती है; प्रज्ञामू--सह्दुब्द्धि; दीपयन्ती--जागृत करके; पदे पदे-- प्रत्येक पग पर।
कृपया मुझे उस सुन्दरी का पता बताओ जो मुझे सदैव संकट के समुद्र में डूबने से उबारतीहै।
वह मुझे पग-पग पर सहुद्धि प्रदान करके बचाती है।
"
रामा ऊचु:नरनाथ न जानीमस्त्वत्प्रिया यद्व्यवस्यति ।
भूतले निरवस्तारे शयानां पश्य शत्रुहन् ॥
१७॥
रामाः ऊचु:--स्त्रियों ने कहा; नर-नाथ--हे राजा; न जानीम:--हम नहीं जानतीं; त्वत्-प्रिया--तुम्हारी प्रिया ने; यत्व्यवस्यति--क्यों इस प्रकार का जीवन धारण कर रखा है; भू-तले--पृथ्वी पर; निरवस्तारे--बिना बिस्तर के; शयानाम्ू--लेटीहुई; पश्य--देखो; शत्रु-हन्ू--हे शत्रुओं का वध करने वाले।
सभी स्त्रियों ने राजा को सम्बोधित किया: हे प्रजा के स्वामी, हम यह नहीं जानतीं किआपकी प्रिया ने क्यों ऐसी स्थिति बना रखी है।
हे शत्रुओं के संहारक ! कृपया देखें।
वे बिनाबिस्तर के जमीन पर लेटी हुई हैं।
हम नहीं समझ पा रहीं कि वे ऐसा क्यों कर रही हैं।
"
नारद उबाच पुरञ्ञनः स्वमहिषीं निरीक्ष्यावधुतां भुवि ।
तत्सड्लोन्मथितज्ञानो वैक्लव्यं परमं ययौ ॥
१८॥
नारद: उवाच--नारद मुनि ने कहा; पुरञ्जन:--राजा पुरझ्ञन; स्व-महिषीम्-- अपनी रानी को; निरीक्ष्य--देखकर; अवधुताम्--साधु की तरह; भुवि--पृथ्वी पर; तत्--उसके; सड्ड--साथ से; उनन््मधित--प्रोत्साहित; ज्ञान: --जिसका ज्ञान; वैक्लव्यम्ू--मोहग्रस्त; परममू-- परम; ययौ--हो गया |
महर्षि नारद ने कहा : हे राजा प्राचीनबर्हि, जैसे ही राजा पुरझ्ञन ने अपनी रानी को अवधूत की भाँति पृथ्वी पर लेटे देखा, वह तुरन्त मोहग्रस्त हो गया।
"
सान्त्वयन्श्लक्ष्णया वाचा हृदयेन विदूयता ।
प्रेयस्या: स्नेहसंरम्भलिड्रमात्मनि नाभ्यगात् ॥
१९॥
सान्त्वयन्--समझाते हुए; श्लक्ष्णया--मीठे; वाचा--वचनों से; हृदयेन--हृदय से; विदूयता--अत्यधिक पछताते हुए;प्रेयस्था:-- अपनी प्रेयसी के; स्नेह--प्यार से; संरम्भ--क्रोध का; लिड्रमू--लक्षण; आत्मनि--हृदय में; न--नहीं; अभ्यगात् --उठा।
दुखित हृदय से राजा अपनी पत्नी से अत्यन्त मीठे शब्द कहने लगा।
यद्यपि वह दुखी थाऔर ससे प्रसन्न करने का प्रयास कर रहा था, किन्तु उसने अपनी प्राणप्रिया पत्नी के हृदय मेंक्रोध का एक भी लक्षण नहीं देखा।
"
अनुनिन्येथ शनकैर्वीरोनुनयकोविदः ।
पस्पर्श पादयुगलमाह चोत्सड्रलालिताम् ॥
२०॥
अनुनिन्ये--मनाना आरम्भ किया; अथ--इस प्रकार; शनकै:--धीरे-धीरे; वीर:--वीर; अनुनय-कोविदः --मनाने में निपुण;पस्पर्श--स्पर्श किया; पाद-युगलम्--दोनों पाँव; आह--कहा; च--भी; उत्सड्ू--गोद में; लालिताम्ू--इस प्रकार आलिंगनकरते हुए।
चूँकि राजा मनाने में अत्यन्त निपुण था, अतः उसने रानी को धीरे-धीरे मनाना प्रारम्भकिया।
पहले उसने उसके दोनों पाँव छुये, फिर उसका आलिंगन किया और अपनी गोद मेंबैठाकर इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया।
"
पुरझ्ञन उबाचनूनं त्वकृतपुण्यास्ते भृत्या येष्वी श्वरा: शुभे ।
कृतागःस्वात्मसात्कृत्वा शिक्षादण्डं न युज्ञते ॥
२१॥
पुरझनः उवाच--पुरञ्ञन ने कहा; नूनम्--निश्चय ही; तु--तब; अकृत-पुण्या:--जो पुण्यात्मा नहीं है, अभागा; ते--वे;भृत्या:--दास; येषु--जिनको; ईश्वरा:--स्वामी; शुभे--हे शुभ लक्षणों वाली; कृत-आग:सु--पाप करके; आत्मसात्-- अपनाकर; कृत्वा--करके; शिक्षा--उपदेश के रूप में; दण्डमू--दण्ड; न युद्धते--नहीं देते |
राजा पुरञ्जन ने कहा : हे सुन्दरी, जब स्वामी किसी मनुष्य को दास रूप में स्वीकार तो करलेता है, किन्तु उसके अपराधों के लिए उसे दण्ड नहीं देता तो उस दास को समझना चाहिए किवह अभागा है।
"
परमोनुग्रहो दण्डो भृत्येषु प्रभुणार्पित: ।
बालो न वेद तत्तन्वि बन्धुकृत्यममर्षण: ॥
२२॥
'परम:--परम; अनुग्रहः--कृपा; दण्ड:--दण्ड; भृत्येषु--दासों पर; प्रभुणा--स्वामी द्वारा; अर्पित:--दिया गया; बाल:--मूर्ख;न--नहीं; वेद--जानता है; तत्--उस; तन्वि--हे तन्वंगी; बन्धु-कृत्यम्--मित्र का कर्तव्य; अमर्षण:--क्रुद्ध |
हे तन्वंगी, जब कोई स्वामी अपने सेवक को दण्ड देता है, तो उसे परम अनुग्रह समझ कर स्वीकार कर लेना चाहिए।
जो क्ुद्ध होता है, वह अत्यन्त मूर्ख है और वह यह नहीं जानता किऐसा करना तो उसके मित्र का कर्तव्य होता है।
"
सा त्वं मुखं सुदति सुप्वनुराग भार-ब्रीडाविलम्बविलसद्धसितावलोकम् ।
नीलालकालिभिरुपस्कृतमुन्नसं नःस्वानां प्रदर्शय मनस्विनि वल्गुवाक्यम् ॥
२३॥
सा--वह ( तुम, मेरी पत्नी ); त्वम्ू--तुम; मुखम्--अपना मुँह; सु-दति--सुन्दर दाँतों वाली; सु-भ्रु--सुन्दर भौंहों वाली;अनुराग--प्यार, आसक्ति से; भार--बोझिल; ब्रीडा--लज्जा; विलम्ब--नीचे झुके; विलसत्--चमकते हुए; हसित--हँसतेहुए; अवलोकम्--चितवन से; नील--नीले; अलक--बाल से युक्त; अलिभि: -- भौंरों के समान; उपस्कृतम्--इस प्रकार सुन्दरबनकर; उन्नसम्--उठी हुई ( उन्नत ) नाक से युक्त; न:--मुझको; स्वानाम्--तुम्हारा अपना हूँ; प्रदर्शम--दिखलाओ;मनस्विनि--हे विचारमग्न सुन्दरी; बल्गु-वाक्यम्--मीठे बचनों से |
हे प्रिये, तुम अत्यन्त सुन्दर दाँतों वाली हो।
तुम अपने आकर्षक अंगों के कारण अत्यन्तमनस्वी लगती हो।
तुम अपना क्रोध त्याग कर मुझ पर कृपा करो और अत्यन्त प्यार से तनिक मुस्कराओ।
जब मैं तुम्हारे सुन्दर मुखमण्डल की मुसकान, तुम्हारे नीले रंग वाले बाल एवंतुम्हारी उन्नत नासिका को देखूँगा तथा तुम्हारे मीठे वचनों को सुनूंगा तो तुम मुझे और भी सुन्दरलगोगी और अपनी ओर आकृष्ट करती प्रतीत हो ओगी।
तुम मेरी अत्यन्त आदरणीया स्वामिनीहो।
"
तस्मिन्दधे दममहं तव वीरपत्नियोउन्यत्र भूसुरकुलात्कृतकिल्बिषस्तम् ।
पश्ये न वीतभयमुन्मुदितं त्रिलोक्या-मन्यत्र वै मुररिपोरितरत्र दासात्ू ॥
२४॥
तस्मिन्ू--उसको; दधे--दूँगा; दमम्--दण्ड; अहम्--मैं; तब--तुमको; वीर-पत्नि--हे वीर की पत्नी; यः--जो; अन्यत्र--इसके अतिरिक्त; भू-सुर-कुलात्--इस पृथ्वी पर देवताओं के कुल से ( ब्राह्मणों से ); कृत--किया हुआ; किल्बिष: --अपराध;तम्--उसको; पश्ये--मैं देखता हूँ; न--नहीं; बीत--रहित; भयम्--डर; उन्मुदितम्--चिन्तारहित; त्रि-लोक्याम्--तीनों लोकोंमें; अन्यत्र--और कहीं; बै--निश्चय ही; मुर-रिपो:--मुर के शत्रु ( कृष्ण ) का; इतरत्र--दूसरी ओर; दासात्ू--दास कीअपेक्षा
हे बवीरपत्नी, मुझे बताओ कि क्या किसी ने तुम्हें अपमानित किया है? मैं ऐसे व्यक्ति को यदि वह ब्राह्मण कुल का नहीं है, दण्ड देने के लिए तैयार हूँ, मैं मुररिपु ( श्रीकृष्ण ) के दास केअतिरिक्त तीनों लोकों में किसी को भी क्षमा नहीं करूँगा।
तुम्हें अपमानित करके कोईस्वच्छन्दतापूर्वक विचरण नहीं कर सकता, क्योंकि मैं उसे दण्ड देने के लिए तैयार हूँ।
"
वक्त्रं न ते वितिलकं मलिनं विहर्षसंरम्भभीममविमृष्ठटमपेतरागम् ।
पश्ये स्तनावषि शुच्चोपहतौ सुजातौबिम्बाधरं विगतकुद्डू मपड्डरागम् ॥
२५॥
वक्त्रमू--मुख; न--कभी नहीं; ते--तुम्हारा; वितिलकम्--निरलंकृत; मलिनम्--मलिन; विहर्षम्--खिन्न; संरम्भ--क्रो ध से;भीमम्-- भयानक; अविमृष्टम्ू--कान्तिहीन; अपेत-रागम्--स्नेहशून्य; पश्ये -- मैने देखा है; स्तनौ--तुम्हारे स्तन; अपि-- भी;शुचा-उपहतौ--तुम्हारे आँसुओं से सिक्त; सु-जातौ--इतने सुन्दर; बिम्ब-अधरम्--बिम्बा के समान लाल होंठ; विगत--रहित;कुट्डु म-पड्ढूं--केशर के; रागमू--रंग।
प्रिये, आज तक मैंने कभी भी तुम्हारे मुख को तिलक से रहित नहीं देखा, न ही मैंने तुम्हेंकभी खिन्न तथा कान्ति या स्नेह से रहित देखा है।
न ही मैंने तुम्हारे दोनों स्तनों को नेत्र अश्रुओंसे सिक्त देखा है।
न ही मैंने तुम्हारे बिम्बा फलों के समान लाल-लाल होठों को कभी लालिमासे रहित देखा है।
"
तन्मे प्रसीद सुहद: कृतकिल्बिषस्यस्वैरं गतस्य मृगयां व्यसनातुरस्य ।
का देवरं वशगतं कुसुमास्त्रवेग-विस्त्रस्तपौंस्नमुशती न भजेत कृत्ये ॥
२६॥
तत्ू--अतः; मे--मुझसे; प्रसीद--प्रसन्न हो जाओ; सु-हृदः--अभिन्न मित्र; कृत-किल्बिषस्थ--पापकर्म किये जाने पर;स्वैरम्--स्वतंत्र रूप से; गतस्य--गये हुए का; मृगयाम्--आखेट के लिए; व्यसन-आतुरस्य--पापपूर्ण इच्छा से प्रभावितहोकर; का--कौन स्त्री; देवरम्--पति को; वश-गतम्--अपने वश में; कुसुम-अस्त्र-वेग--कामदेव के तीर से बिंधा;विस्रस्त--छिन्न; पौंस्नमू--थैर्य ; उशती-- अत्यन्त सुन्दर; न--कभी नहीं; भजेत--प्यार करते; कृत्ये--कर्तव्य में |
हे रानी, मैं अपनी पापपूर्ण इच्छाओं के कारण तुमसे बिना पूछे शिकार करने जंगल चलागया।
अतः मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझसे अपराध हुआ।
फिर भी मुझे अपना अन्तरंग समझ कर तुम्हें अत्यन्त प्रसन्न होना चाहिए।
मैं वास्तव में अत्यधिक दुखी हूँ, किन्तु कामदेव के बाणोंसे बिद्ध होने के कारण मैं कामुक हो रहा हूँ।
भला ऐसी कौन सुन्दरी होगी जो अपने कामुकपति को त्याग देगी और उससे मिलना अस्वीकार कर देगी ?"
अध्याय सत्ताईस: राजा पुरंजन के शहर पर कैंडवेगा द्वारा हमला; कालकन्या का चरित्र
4.27श़नारद उबाचइत्थं पुरझ्ननं सयग्वशमानीय विश्रमै: ।
पुरञ्ञनी महाराज रेमे रमयती पतिम् ॥
१॥
नारदः उवाच--नारद ने कहा; इत्थम्--इस प्रकार; पुरञ्ञनम्--राजा पुरज्ञन को; सयक्--पूर्णतया; वशमानीय--अपने वश मेंकरके; विश्रमैः--अपने आकर्षण से; पुरझनी--राजा पुरञ्जन की पत्नी ने; महा-राज--हे राजा; रेमे-- भोग किया; रमयती--समस्त तुष्टि प्रदान करती; पतिम्--अपने पति को
महर्षि नारद ने आगे कहा : हे राजन, अनेक प्रकार से अपने पति को मोहित करके अपनेवश में करती हुईं राजा पुरञ्नन की पत्नी उसे सारा आनन्द प्रदान करने लगी और उसके साथविषयी जीवन व्यतीत करने लगी।
"
श़स राजा महिषीं राजन्सुस्नातां रचिराननाम् ।
कृतस्वस्त्ययनां तृप्ताम भ्यनन्ददुपागताम् ॥
२॥
सः--उस; राजा--राजा ने; महिषीम्--रानी को; राजनू--हे राजा; सु-स्नातामू-- अच्छी तरह नहाई हुई; रुचिर-आननाम्--आकर्षक मुख वाली; कृत-स्वस्ति-अयनाम्ू--शुभ वस्त्रों तथा आभूषणों से सुसज्जित; तृप्तामू--तृप्त; अभ्यनन्दत्--स्वागतकिया; उपागतामू--पास जाकर।
रानी ने स्नान किया और शुभ वबन्त्रों तथा आभूषणों से अपने को सुसज्जित किया।
भोजनकरने तथा परम संतुष्ट होने के बाद वह राजा के पास आई।
उस अत्यन्त सुसज्जित तथा आकर्षकमुख वाली को देखकर राजा ने उसका तन्मयता अभिनन्दन किया।
"
'तयोपगूढः परिरब्धकन्धरोरहोउनुमन्त्रैरपकृष्टचेतन: ।
न कालरंहो बुबुधे दुरत्ययंदिवा निशेति प्रमदापरिग्रह: ॥
३॥
तया--रानी के द्वारा; उपगूढः-- आलिंगन किया; परिरब्ध--आलिंगित; कन्धर:--कं थे; रह: --एकान्त में; अनुमन्त्रै:--विनोदपूर्वक; अपकृष्ट-चेतन: -- चेतना को नीचे गिराकर; न--नहीं; काल-रंह:ः--समय बीतने के साथ; बुबुधे--ज्ञान था;दुरत्ययम्--जीतना असम्भव; दिवा--दिन; निशा--रात्रि; इति--इस प्रकार; प्रमदा--स्त्री द्वारा; परिग्रह:--मोहित |
रानी पुरझ्ननी ने राजा का आलिंगन किया और राजा ने भी उसे बाहों में भर लिया।
इस शप्रकार एकान्त में वे विनोद करते रहे और राजा पुरञ्जन अपनी सुन्दर स्त्री पर इतना मोहित रहनेलगा कि उसे अच्छे-बुरे का विचार न रहा।
वह भूल गया कि रात तथा दिन बीतने का अर्थ हैव्यर्थ ही आयु का घटते जाना।
"
श़शयान उन्नद्धमदो महामनामहाईतल्पे महिषीभुजोपधि: ।
तामेव वीरो मनुते परं यत-स्तमोभिभूतो न निजं परं च यत् ॥
४॥
शयानः:--लेटा हुआ; उन्नद्ध-मदः --अत्यधिक मोहग्रस्त; महा-मना:--मनस्वी; महा-अर्ह-तल्पे--बहुमूल्य शय्या पर; महिषी--रानी की; भुज--बाँहें; उपधि:--तकिया; तामू--उसको; एव--निश्चय ही; वीर:--वीर; मनुते--उसने मान लिया था; परम्ू--जीवन लक्ष्य; यत:ः--जिससे; तम:--अज्ञान से; अभिभूत:--आवृत; न--नहीं; निजम्-- अपना; परम्--पर मे श्वर; च--तथा;यत्--जो
इस प्रकार अत्यधिक मोहग्रस्त होने से मनस्वी होते हुए भी राजा पुरज्लन अपनी पत्नी कीभुजाओं के तकिये पर अपना सिर रखे सदैव लेटा रहता था।
इस प्रकार वह उस रमणी को हीअपने जीवन का सर्वस्व मानने लगा।
अज्ञान के आवरण से ढका होने के कारण उसे आत्म-साक्षात्कार का स्वयं का अथवा भगवान् का कोई ज्ञान न रहा।
"
श़तयैवं रममाणस्य कामकश्मलचेतस: ॥
क्षणार्धमिव राजेन्द्र व्यतिक्रान्तं नवं वयः ॥
५॥
तया--उसके साथ; एवम्--इस प्रकार; रममाणस्य--रमण करते हुए; काम--काम से पूर्ण; कश्मल--पापपूर्ण; चेतस: --उसका हृदय; क्षण-अर्धम्-- आधे क्षण में; इब--सहृश; राज-इन्द्र--हे राजा; व्यतिक्रान्तम्ू--बीत गया; नवम्--नया; वय:--वायु, जीवन
हे राजा प्राचीनबर्हिषत्, इस प्रकार राजा पुरञ्नन काम तथा पापमय कर्मफलों से पूरित हृदयसे अपनी पत्नी के साथ भोग-विलास करने लगा और इस तरह आधे ही क्षण में उनका नवजीवन तथा युवावस्था बीत गयी।
"
श़तस्यामजनयत्पुत्रान्पुरञ्जन्यां पुरख्ननः ।
शतान्येकादश विराडायुषो<र्धमथात्यगात् ॥
६॥
तस्याम्--उस; अजनयतू-उत्पन्न किये; पुत्रानू-पुत्र; पुरञ्चन्याम्-पुरञ्ञनी से; पुरकझ्नन:--राजा पुरज्ञन ने; शतानि--सौ;एकादश --ग्यारह; विराट्--हे राजा; आयुष: --जीवन का; अर्धम्--आधा; अथ--इस तरह; अत्यगात्--उसने व्यतीत किया।
तब नारद मुनि ने राजा प्राचीनबर्हिषत् को सम्बोधित करते हुए कहा : हे विराट, इस प्रकारराजा पुरक्षन के अपनी पतली पुरञ्जनी के गर्भ से १,९०० पुत्र उत्पन्न हुए।
किन्तु इस कार्य मेंउसका आधा जीवन व्यतीत हो गया।
"
श़दुहितृर्दशोत्तरशतं पितृमातृयशस्करीः ।
शीलौदार्यगुणोपेता: पौरज्जन्य: प्रजापते ॥
७॥
श़दुहितृः--कन्याएँ; दश-उत्तर--दस अधिक; शतम्--एक सौ; पितृ--पिता; मातृ--तथा माता के समान; यशस्करी:--यशस्वी;शील--उत्तम आचरण; औदार्य--उदारता; गुण--गुण; उपेता:ः--से युक्त; पौरञ्न्य:--पुरञ्ञन की कन्याएँ; प्रजा-पते--हेप्रजापति!
हे प्रजापति राजा प्राचीनबर्हिषत्ू, इस तरह राजा पुरक्षन के ११० कन्याएँ भी उत्पन्न हुईं।
येसब-की-सब अपने पिता तथा माता के समान यशस्विनी थी; उनका आचरण भद्र था, ये उदारथीं और अन्य उत्तम गुणों से युक्त थीं।
"
स पशञ्ञालपतिः पुत्रान्पितृवंशविवर्धनान् ।
दारैः संयोजयामास दुहितृः सहशैवरै: ॥
८॥
श़सः--वह; पश्ञाल-पतिः--पश्ञाल का राजा; पुत्रानू--पुत्र; पितृ-वंश--पिता का वंश; विवर्धनान्--बढ़ाते हुए; दारैः--पत्लियोंसहित; संयोजयाम् आस--विवाह किया; दुहितृ:--कन्याएँ; सहशैः --योग्य; वरैः--पतियों के साथ
तत्पश्चात् पञ्ञाल देश के राजा पुरञ्जन ने अपने पैतृक कुल की वृद्धि के लिए अपने पुत्रों काविवाह योग्य वधुओं के साथ और अपनी कन्याओं का विवाह योग्य वरों के साथ कर दिया।
"
पुत्राणां चाभवन्पुत्रा एकेकस्य शतं शतम् ।
यैर्वें पौरझनो वंश: पञ्ञालेषु समेधित: ॥
९॥
पुत्राणामू--पुत्रों के; च-- भी; अभवन् --उत्पन्न हुए; पुत्रा:--पुत्र; एक-एकस्य- प्रत्येक के; शतम्ू--एक सौ; शतम्--सौ;यैः--जिनसे; वै--निश्चय ही; पौरञ्नन:--राजा पुरझ्ञन का; वंश:--वंश; पञ्चालेषु--पंचाल देश में; समेधित:--फैल गया।
इन अनेक पुत्रों में से प्रत्येक के कई सौ पुत्र उत्पन्न हुए।
इस प्रकार राजा पुरज्ञन के पुत्रों तथा पौत्रों से सारा पंचाल देश भर गया।
"
श़तेषु तद्रिक्थहारेषु गृहकोशानुजीविषु ।
निरूढेन ममत्वेन विषयेष्वन्वबध्यत ॥
१०॥
तेषु--उनमें; तत्-रिक्थ-हारेषु--इस धन के लुटेरे; गृह--घर; कोश--खजाना; अनुजीविषु--सेवकों के लिए; निरूढेन--गहरी; ममत्वेन--आसक्ति से; विषयेषु--विषयों में; अन्वबध्यत--बद्ध हो गया।
ये पुत्र तथा पौत्र एक प्रकार से पुरञ्न के घर, खजाना, नौकर, सचिव एवं दूसरे सारे साज-सामान समेत सारी धन-सम्पदा को लूटने वाले थे तथा अन्य साज-सामान सारी धन सम्पदा कोलूटने वाले थे।
राजा पुरञ्जन का इन वस्तुओं से प्रगाढ़ सम्बन्ध था।
"
श़ईजे च क्रतुभिर्षोरर्दीक्षित: पशुमारकै: ।
देवान्पितृन्भूतपतीन्नानाकामो यथा भवान् ॥
११॥
ईजे--पूजा की; च--भी ; क्रतुभिः--यज्ञों से; घोरैः--नृशंस; दीक्षितः--प्रोत्साहित होकर; पशु-मारकै:--जिसमें पशुओं कावध किया जाता है; देवानू--देवतागण; पितृन्--पूर्वज, पुरखे; भूत-पतीन्--मानव समाज के बड़े-बड़े नेता; नाना--विविध;काम:--इच्छाओं से युक्त; यथा--जिस प्रकार; भवान्--तुम |
नारद मुनि ने आगे कहा : हे राजा प्राचीनबर्हिषत्, तुम्हारी ही तरह राजा पुरक्ञषन भी अनेकइच्छाओं में उलझा हुआ।
इसलिए उसने देवताओं, पितरों तथा सामाजिक नेताओं की पूजाविविध यज्ञों द्वारा की, किन्तु ये सारे यज्ञ नृशंस थे, क्योंकि उनके पीछे पशुओं के वध कीभावना काम कर रही थी।
"
श़युक्तेष्वेवं प्रमत्तस्य कुटुम्बासक्तचेतस: ।
आससाद स वै कालो योउप्रिय: प्रिययोषिताम् ॥
१२॥
युक्तेषु--उपयोगी कर्मों में; एवम्--इस प्रकार; प्रमत्तस्य--असावधान रहकर; कुटुम्ब--परिवार के प्रति; आसक्त--अनुरक्त;चेतस:--चेतना; आससाद--आ गया; सः--वह; वै--निश्चय ही; काल: --मृत्यु, समय; यः--जो; अप्रिय:--अच्छा न लगनेवाला; प्रिय-योषिताम्--जो पुरुष स्त्रियों में अनुरक्त रहते हैंउनके लिए
इस प्रकार राजा पुरज्जन कर्मकाण्ड में तथा अपने परिवार के प्रति अनुरक्त रहकर और दूषितचेतना होने से अन्ततः ऐसे बिन्दु पर पहुँच गया जिसे भौतिक वस्तुओं में बुरी तरह अनुरक्त लोगबिल्कुल नहीं चाहते।
"
श़चण्डवेग इति ख्यातो गन्धर्वाधिपतिनूप ।
गन्धर्वास्तस्थ बलिन: पषष्टयुत्तरशतत्रयम् ॥
१३॥
चण्डवेग:--चण्डवेग; इति--इस प्रकार; ख्यात:ः--विख्यात; गन्धर्व--गन्धर्वलोक का वासी; अधिपतिः--राजा; नृप--हेराजा; गन्धर्वा:--अन्य गन्धर्व; तस्थ--उसके; बलिन:--अत्यन्त बलशाली सैनिक; षष्टि--साठ; उत्तर--अधिक; शत--सौ;त्रयमू--तीन |
हे राजन, गन्धर्वलोक में चण्डवेग नाम का एक राजा है।
उसके अधीन ३६० अत्यन्तशक्तिशाली गन्धर्व सैनिक हैं।
"
श़गन्धर्व्यस्ताइशीरस्य मैथुन्यश्व सितासिता: ।
परिवृत्त्या विलुम्पन्ति सर्वकामविनिर्मिताम् ॥
१४॥
गन्धर्व्य:--गन्धर्विनियाँ; ताहशी:--उसी प्रकार; अस्य--चण्डवेग की; मैथुन्य:--मिथुन की संगिनी; च-- भी; सित-- श्वेत;असिता:--श्याम; परिवृत्त्या--घेरे हुए; विलुम्पन्ति--लूटती हैं; सर्व-काम--सभी प्रकार की इच्छित वस्तुएँ; विनिर्मितामू--बनीहुईचण्ड
वेग के साथ-साथ गंधर्विनियों की संख्या सैनिकों के ही समान थी और वे बारम्बारइन्द्रियसुख की सारी सामग्री लूट रही थीं।
"
श़ते चण्डवेगानुचरा: पुरझ्जनपुरं यदा ।
हर्तुमारेभिरे तत्र प्रत्यषेधत्प्रजागर: ॥
१५॥
ते--वे सब; चण्डवेग--चण्डवेग के; अनुचरा:--सेवक; पुरझ्ञन--राजा पुरज्जन की; पुरम्--पुरी, शहर को; यदा--जब;हर्तुमू--लूटना; आरेभिरे-- प्रारम्भ किया; तत्र--वहाँ; प्रत्यषेधत्--रक्षा किया; प्रजागर: --बड़े सर्प ने।
जब राजा गन्धर्वराज ( चण्डवेग ) तथा उसके सेवक पुरञ्नन की नगरी को लूटने लगे तोपाँच फनों वाले एक सर्प ने नगरी की रखवाली करनी शुरू कर दी।
"
श़स सप्तभि: शतैरेको विंशत्या च शतं समा: ।
पुरञ्ञनपुराध्यक्षो गन्धरवैर्युयुधे बली ॥
१६॥
सः--वह; सप्तभि:--सात; शतैः --सौ से; एक:ः--अकेले; विंशत्या--बीस सहित; च-- भी; शतम्--सौ; समा:--वर्ष;पुरझ्षन--राजा पुरज्न का; पुर-अध्यक्ष:--नगर की रखवाली करने वाला; गन्धर्वै: --गन्धर्वों से; युयुधे--युद्ध किया; बली--अत्यन्त वीर।
वह पाँच फनों वाला सर्प, जो राजा पुरझन की पुरी का रक्षक था, गन्धर्वों से एक सौ वर्षोतक लड़ता रहा।
वह उनसे अकेला ही लड़ा यद्यपि उनकी संख्या ७२० थी।
"
क्षीयमाणे स्वसम्बन्धे एकस्मिन्बहुभिर्युधा ।
श़चिन्तां परां जगामार्तः सराष्ट्रपुरबान्धव: ॥
१७॥
क्षीयमाणे--कमजोर पड़ने पर; स्व-सम्बन्धे--उसके अभिन्न मित्र; एकस्मिन्ू--अकेला; बहुभि: --अनेक वीरों के साथ;युधा--युद्ध द्वारा; चिन्तामू--चिन्ता; पराम्ू--अत्यधिक, परम; जगाम--प्राप्त किया; आर्त:--दुखी होकर; स--सहित; राष्ट्र--राज्य के; पुर--नगरी के; बान्धवः--मित्र तथा सम्बन्धी |
चूँकि उसे अकेले इतने सैनिकों से लड़ना था, जो सारे के सारे महावीर थे, अतः पाँच फनोंवाला सर्प क्षीण पड़ने लगा।
यह देखकर कि उसका अभिन्न मित्र क्षीण पड़ रहा है, राजा पुरञ्ननतथा उस नगरी में रहने वाले उसके सारे मित्र तथा नागरिक अत्यन्त चिन्तित हो उठे।
"
स एव पुर्या मधुभुक््पञ्ञालेषु स्वपार्षदैः ।
उपनीतं बलि गृहन्सत्रीजितो नाविदद्धयम् ॥
१८ ॥
श़सः--वह; एव--निश्चय ही; पुर्यामू--नगरी के भीतर; मधु-भुक्ू--विषयी जीवन भोगते हुए; पञ्ञालेषु-- अपने राज्य पद्ञाल में( पाँच विषय ); स्व-पार्षदैः --अपने पार्षदों सहित; उपनीतमू--लाया जाकर; बलिम्ू--कर; गृहन्--स्वीकार करके; स्त्री-जितः-स्त्रियों के वश में हुआ; न--नहीं; अविदत्--समझ सका; भयम्--मृत्यु भय को |
राजा पुरक्षन पञ्ञाल नामक नगरी से कर एकत्र करता और विषय-भोग में लगा रहता।
स्त्रियों के पूरी तरह वश में होने से वह समझ ही नहीं पाया कि उसका जीवन बीता जा रहा हैऔर वह मृत्यु के निकट पहुँच रहा है।
"
किकालस्य दुहिता काचित्व्रिलोकीं वरमिच्छती ।
पर्यटन्ती न बर्दिष्मन्प्रत्यनन्दर कश्चन ॥
१९॥
कालस्य--काल की; दुहिता--कन्या, पुत्री; काचित्ू--कोई ; त्रि-लोकीम्--तीनों लोकों में; वरम्--पति; इच्छती --कीआंकाक्षा से; पर्यटन्ती--सारे संसार में घूमती हुई; न--कभी नहीं; बर्हिष्मन्--हे राजा प्राचीनबर्हिषत्; प्रत्यनन्दत--प्रस्तावस्वीकार कर लिया; कश्चन--कोई |
हे राजा प्राचीनबर्हिषतू, इसी समय काल की कन्या तीनों लोकों में पति की खोज कर रही थी।
यद्यपि उसे ग्रहण करने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ, किन्तु वह घूमती रही।
"
दौर्भाग्येनात्मनो लोके विश्रुता दुर्भगेति सा ।
या तुष्टा राजर्षये तु वृतादात्पूरवे वरम् ॥
२०॥
दौर्भाग्येन--दुर्भाग्य से; आत्मन:--अपने आप; लोके--संसार में; विश्रुता--विख्यात; दुर्भगा--अत्यन्त भाग्यहीन; इति--इसप्रकार; सा--वह; या--जो; तुष्टा--संन्तुष्ट होकर; राज-ऋषये --महान् राजा को; तु--लेकिन; वृता--स्वीकार होकर;अदातू--दे दिया; पूरवे--राजा पूरु को; वरमू--वर।
काल की कन्या ( जरा ) बड़ी अभागिन थी।
फलतः लोग उसे दुर्भगा कहते थे।
किन्तु एकबार वह एक महानू् राजा पर प्रसन्न हो गई और चूँकि राजा ने उसे स्वीकार कर लिया था,इसलिए उसने उसे वरदान दिया।
"
श़कदाचिदटमाना सा ब्रह्मलोकान्महीं गतम् ।
वद्रे बृहदव्तं मां तु जानती काममोहिता ॥
२१॥
कदाचित्--एक बार; अटमाना--घूमती हुई; सा--वह; ब्रह्मगलोकात्ू--ब्रह्मलोक से; महीम्--पृथ्वी पर; गतम्--आ कर;बब्रे-- प्रस्ताव रखा; बृहत्-ब्रतम्--नैष्ठिक ब्रह्मचारी; माम्--मुझको; तु--तब; जानती--जानते हुए; काम-मोहिता--कामासक्त
एक बार जब मैं सर्वोच्च लोक, ब्रहलोक से इस पृथ्वी पर आ रहा था, तो संसार भर काभ्रमण करते हुए काल की कन्या से मेरी भेंट हुई।
वह मुझे नैप्ठिक ब्रह्माचारी जान कर मुझपरअत्यन्त कामातुर हो गई और उसने प्रस्ताव रखा कि मैं उसे अपना लूँ।
"
मयि संरभ्य विपुलमदाच्छापं सुदु:सहम् ।
श़स्थातुमहसि नैकत्र मद्याच्ञाविमुखो मुने ॥
२२॥
मयि--मुझको; संरभ्य--कुद्ध होकर; विपुल--अपार; मदातू--मोहवश; शापम्--शाप; सु-दुःसहम्--असहनीय; स्थातुम्अहसि--रुकना चाहोगे; न--कभी नहीं; एकत्र--एक स्थान में; मत्--मेरी; याच्ञा--याचना; विमुख:--नकार कर; मुने--हेमुनि
महर्षि नारद ने आगे कहा : जब मैंने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी तो वह मुझपर अत्यन्तक्रुद्ध हुई और मुझे घोर शाप देने लगी।
चूँकि मैंने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी थी, अतःउसने कहा कि तुम किसी एक स्थान पर अधिक काल तक टिक नहीं सकोगे।
"
ततो विहतसड्डूल्पा कन्यका यवनेश्वरम् ।
मयोपदिष्टमासाद्य वब्रे नाम्ना भयं पतिम् ॥
२३॥
ततः--तत्पश्चात्; विहत-सड्जडल्पा--निराश होकर; कन्यका--काल की कन्या; यवन-ईश्वरम्-- अछूतों के राजा को; मयाउपदिष्टम्-मेरे द्वारा सूचित; आसाद्य--पास आकर; वद्रे--स्वीकार कर लिया; नाम्ना--नामक; भयम्-- भय; पतिम्--पतिरूप में
इस प्रकार जब वह मेरी ओर से निराश हो गई तो मेरी अनुमति से वह यवनों के राजा केपास गई जिसका नाम भय था और उसे ही अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया।
"
श़ऋषभं यवनानां त्वां वृणे वीरेप्सितं पतिम् ।
सड्डूल्पस्त्वयि भूतानां कृत: किल न रिष्यति ॥
२४॥
ऋषभम्-- श्रेष्ठ; यवनानाम्--अछूतों में; त्वाम्ू--तुमको; वृणे--मैं स्वीकार करती हूँ; बीर--हे वीर; ईप्सितम्ू--वांछित;पतिम्ू--पति; सट्डूल्प:--हृढ़ निश्चय; त्वयि--तुमको; भूतानाम्ू--समस्त जीवों का; कृत:--यदि किया गया; किल--निश्चयही; न--कभी नहीं; रिष्यति--विफल नहीं होता ।
यवनों के राजा के पास पहुँचकर काल-कन्या ने उसे वीर रूप में सम्बोधित करते हुएकहा : महाशय, आप अछूतों में श्रेष्ठ हैं।
मैं आपको प्रेम करती हूँ और आपको पति रूप में ग्रहणकरना चाहती हूँ।
मैं जानती हूँ कि यदि कोई आपसे दोस्ती करता है, तो वह निराश नहीं होता।
"
श़द्वाविमावनुशोचन्ति बालावसदवग्रहौ ।
यल्लोकशास्त्रोपनतं न राति न तदिच्छति ॥
२५॥
द्वौ--दो प्रकार के; इमौ--ये; अनुशोचन्ति--पश्चात्ताप करते हैं; बालौ--अज्ञानी; असत्--मूर्ख; अवग्रहौ--पथ का अनुसरणकरते हुए; यत्ू--जो; लोक--प्रथानुसार; शास्त्र--शास्त्रों के अनुसार; उपनतम्--प्रस्तुत; न--कभी नहीं; राति--पालन करताहै; न--कभी नहीं; तत्--वह; इच्छति--इच्छा करता है।
जो लोकरीति के अनुसार अथवा शास्त्रों के आदेशानुसार दान नहीं देता और जो इस प्रकारके दान का ग्रहण नहीं करता, उन दोनों को ही तमोगुणी समझना चाहिए।
ऐसे लोग मूर्खो केपथ का अनुसरण करते हैं।
निश्चित ही उन्हें अन्त में पछताना पड़ता है।
"
श़अथो भजस्व मां भद्र भजन्तीं मे दयां कुरु ।
एतावान्पौरुषो धर्मो यदार्ताननुकम्पते ॥
२६॥
अथो--अतः:; भजस्व--स्वीकार करो; माम्--मुझको; भद्ग--हे महाशय; भजन्तीम्--सेवा करने के लिए इच्छुक; मे--मुझको; दयाम्--दया; कुरू--करो; एतावान्--इस तरह के; पौरुष:--किसी पुरुष के लिए; धर्म:--धर्म; यत्--वह;आर्तानू--आर्त को; अनुकम्पते--दयालु है।
काल कन्या ने आगे कहा: हे भद्ग, मैं आपकी सेवा के लिए उपस्थित हूँ।
कृपया मुझेस्वीकार करके मेरे ऊपर दया करें।
पुरुष का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि दुखी व्यक्ति परअनुकम्पा करे।
"
कालकन्योदितवचो निशम्य यवनेश्वर: ।
चिकीर्षुदेवगुह्मं स सस्मितं तामभाषत ॥
२७॥
काल-कन्या--काल की पुत्री द्वारा; उदित--कहे गये; वच:--शब्द; निशम्य--सुनकर; यवन-ईश्वर: --यवनों का राजा;चिकीर्षु;:--पालन करने की इच्छा से; देव--विधाता का; गुहाम्--गुप्त कार्य; सः--उसने; स-स्मितम्--हँसते हुए; तामू--उसको; अभाषत--सम्बोधित किया
श़कालकन्या का कथन सुनकर यवनराज हँसने लगा और विधाता का गुप्त कार्य पूरा करनेकी युक्ति खोजने लगा।
तब उसने काल-कन्या को इस प्रकार सम्बोधित किया।
"
मया निरूपितस्तुभ्यं पतिरात्मसमाधिना ।
नाभिनन्दति लोकोयं त्वामभद्रामसम्मताम् ॥
२८ ॥
श़मया--मेरे द्वारा; निरूपित:--निश्चित किया गया; तुभ्यम्ू--तुम्हारे लिए; पति: --पति; आत्म--मन के; समाधिना-- ध्यान से;न--कभी नहीं; अभिनन्दति--स्वागत है; लोक:--लोग; अयम्--ये; त्वामू--तुमको; अभद्रामू-- अशुभ; असम्मताम्--अस्वीकार्य |
यवनराज ने उत्तर दिया: मैंने बहुत सोच-विचार के बाद तुम्हारे लिए एक पति निश्चित कियाहै।
वास्तव में सबों की दृष्टि में तुम अशुभ तथा उत्पाती हो।
चूँकि तुम्हें कोई भी पसन्द नहींकरता, अतः तुम्हें कोई पत्नी रूप में कैसे स्वीकार कर सकता है ?"
त्वमव्यक्तगतिर्भुड्क्ष्व लोक॑ कर्मविनिर्मितम् ।
या हि मे पृतनायुक्ता प्रजानाशं प्रणेष्यसि ॥
२९॥
त्वमू--तुम; अव्यक्त-गति:--जिसकी गति अलक्षित हो; भुड्क्व-- भोग करो; लोकम्--यह संसार; कर्म-विनिर्मितम्-- सकामकर्मों द्वारा निर्मित; या--जो; हि--निश्चय ही; मे--मेरा; पृतना--सैनिक की; युक्ता--सहायता से ; प्रजा-नाशम्--जीवों कासंहार; प्रणेष्यसि--बिना बाधा के कर सकोगी।
यह संसार सकाम कर्मों का प्रतिफल है।
अतः तुम सभी लोगों पर अलक्षित रह करआक्रमण कर सकती हो।
मेरे सैनिकों के बल की सहायता से तुम बिना किसी विरोध के उनकासंहार कर सकती हो।
"
श़प्रज्वारोयं मम भ्राता त्वं च मे भगिनी भव ।
चराम्युभाभ्यां लोकेउस्मिन्नव्यक्तो भीमसैनिक: ॥
३०॥
प्रज्वार: -- प्रज्यार नामक; अयम्--यह; मम--मेरा; भ्राता-- भाई; त्वम्ू--तुम; च-- भी; मे--मेरी; भगिनी-- बहिन; भव--बनजाओ; चरामि--मैं विचरण करूँगा; उभाभ्याम्--तुम दोनों के द्वारा; लोके--संसार में; अस्मिन्ू--इस; अव्यक्त:--अप्रकट;भीम--भयंकर; सैनिक:--सैनिकों सहित।
यवनराज ने कहा : यह मेरा भाई प्रज्वार है।
तुम्हें में अपनी बहिन के रूप में स्वीकार करताहूँ।
मैं तुम दोनों का तथा अपने भयंकर सैनिकों का उपयोग इस संसार के भीतर अदृश्य रूप सेकरूँगा।
"
अध्याय अट्ठाईसवां: पुरंजना अगले जन्म में एक महिला बनती है
4.28नारद उबवा सैनिका भयनाम्नो ये बर्दिष्मन्दिष्टकारिण: ।
प्रज्वारकालकन्या भ्यां विचेरुरवनीमिमाम् ॥
१॥
नारद: उवाच--नारद मुनि ने कहा; सैनिका:--सैनिक; भय-नाम्त:-- भय के; ये--जो; बर्हिष्पन्ू-- हे राजा प्राचीनबर्हिषत्;दिष्ट-कारिण: --काल की आज्ञा के पालक; प्रज्वार--प्रज्वार; काल-कन्याभ्यामू-- तथा कालकन्या सहित; विचेरु: --घूमनेलगे; अवनीम्-पृथ्वी पर; इमामू-इस |
नारद मुनि ने आगे कहा : हे राजा प्राचीनबर्हिषत्, तत्पश्चात् यवनराज साक्षात् भय, प्रज्वार, काल-कन्या तथा अपने सैनिकों सहित सारे संसार में विचरने लगा।
"
त एकदा तु रभसा पुरझ्जनपुरी नूप ।
रुरुधुरभौमभोगाढ्य़ां जरत्पन्नगपालिताम् ॥
२॥
ते--वे; एकदा--एक बार; तु--तब; रभसा--अ त्यन्त वेग से; पुरक्षन-पुरीम्--पुरझ्न की नगरी को; नृप--हे राजा; रुरुधु: --घेर लिया; भौम-भोग-आढ्य्ाम्--इन्द्रियभोग से परिपूर्ण; जरत्--बूढ़ा; पन्नग--सर्प द्वारा; पालिताम्--सुरक्षित |
एक बार इन भयानक सैनिकों ने पुरझन-नगरी पर बड़े वेग से आक्रमण किया।
यद्यपि यहनगरी भोग की सारी सामग्री से परिपूर्ण थी, किन्तु इसकी रखवाली एक बूढ़ा सर्प कर रहा था।
"
कालकन्यापि बुभुजे पुरझ्ञनपुरं बलातू ।
ययाभिभूतः पुरुष: सद्यो निःसारतामियात् ॥
३॥
काल-कन्या--काल की पुत्री ने; अपि--भी; बुभुजे--अधिकार कर लिया; पुरझ्ञन-पुरम्--पुरञझ्षन की नगरी पर; बलातू--बलपूर्वक; यया--जिसके द्वारा; अभिभूत:--चंगुल में फँसकर; पुरुष: --मनुष्य; सद्यः--तुरन्त; निःसारतामू--निकम्मापन;इयात्--प्राप्त करता है
धीरे-धीरे कालकन्या ने घातक सैनिकों की सहायता से पुरञझ्नन की नगरी के समस्त वासियोंपर आक्रमण कर दिया और उन्हें सभी प्रकार से निकम्मा बना दिया।
"
तयोपभुज्यमानां वै यवना: सर्वतोदिशम् ।
द्वार्भि: प्रविश्य सुभूशं प्रार्दयन्सकलां पुरीम् ॥
४॥
तया--कालक-न्या द्वारा; उपभुज्यमानाम्-- अधिकृत; बै--निश्चय ही; यवना:--यवनगण; सर्वतः-दिशम्--सभी दिशाओं से;द्वार्भि:--द्वारों से; प्रविश्य--घुस कर; सु-भूशम्-- अत्यधिक; प्रार्दयन्--कष्ट देते हुए; सकलामू--सर्वत्र; पुरीम्--नगरी में |
जब कालकन्या ने शरीर पर आक्रमण किया, तो यवनराज के घातक सैनिक विभिन्न द्वारोंसे नगरी में घुस आये।
फिर वे सभी नागरिकों को अत्यधिक कष्ट देने लगे।
"
तस्यां प्रपीड्यमानायामभिमानी पुरझ्जनः ।
अवापोरुविधांस्तापान्कुटुम्बी ममताकुल: ॥
५॥
तस्याम्ू--उस नगरी के; प्रपीड्यमानायाम्--विभिन्न कष्टों में पड़ कर; अभिमानी--अत्यधिक लिप्त; पुरञ्नन:--राजा पुरझ्ञन ने;अवाप- प्राप्त किया; उरु--अनेक; विधानू--प्रकार के; तापानू--क्लेश; कुटुम्बी--परिवार वाले; ममता-आकुल: --परिवारसे लगाव के कारण अत्यधिक व्यग्र।
जब इस प्रकार वह नगरी सैनिकों तथा कालकन्या के द्वारा विपदाग्रस्त हो गई तो अपनेपरिवार की ममता में लिप्त राजा पुरकझ्षन यवनराज तथा काल-कन्या के आक्रमण से संकट मेंपड़ गया।
"
कन्योपगूढो नष्टश्री: कृपणो विषयात्मक: ।
नष्टप्रज्ञो हतैश्वर्यों गन्धर्वयवनेर्बलातू ॥
६॥
कन्या--कालक-्या के द्वारा; उपगूढः--आलिंगित होकर; नष्ट- श्री:--समस्त सौंदर्य से रहित; कृपण: --कंजूस; विषय-आत्मकः--इन्द्रियतृप्ति में लिप्त; नष्ट-प्रज्ञः--बुद्धि से विहीन; हृत-ऐश्वर्य:--ऐश्वर्य से वंचित; गन्धर्व--गन्धर्वों; यवनैः--तथायवनों द्वारा; बलातू--बलपूर्वक
कालकया द्वारा आलिंगन किए जाने से धीरे-धीरे राजा पुरज्नन का सारा शारीरिक सौंदर्य जाता रहा।
अत्यधिक विषयासक्त होने से उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई और उसका सारा ऐश्वर्य नष्ट होगया।
सभी कुछ खो जाने पर गन्धर्वों तथा यवनों ने उसे बलपूर्वक जीत लिया।
"
विशीर्णा स्वपुरीं वीक्ष्य प्रतिकूलाननाहतान् ।
पुत्रान्पौत्रानुगामात्याज्ञायां च गतसौहदाम् ॥
७॥
विशीर्णाम्-छिन्न-भिन्न; स्व-पुरीम्-- अपनी नगरी को; वीक्ष्य--देखकर; प्रतिकूलान्--प्रतिकूल बातें; अनाहतान्ू-- अनाहतहोकर; पुत्रान्--पुत्रों को; पौत्र--नाती; अनुग--नौकर; अमात्यान्--मंत्रीगण को; जायाम्--स्त्री को; च--यथा; गत-सौहदाम्-प्रतिकूल
तब राजा पुरञ्ञन ने देखा कि उसकी नगरी अस्त-व्यस्त हो गई है और उसके पुत्र, पौत्र,नौकर तथा मंत्री सभी क्रमशः उसके विरोधी बनते जा रहे हैं।
उसने यह भी देखा कि उसकीपतली स्नेहशून्य एवं अन्यमनस्क हो रही है।
"
आत्मानं कन्यया ग्रस्तं पञ्नालानरिदूषितान् ।
दुरनन््तचिन्तामापन्नो न लेभे तत्प्रतिक्रियाम् ॥
८॥
आत्मानम्--अपने आपको; कन्यया--कालक-्य द्वारा; ग्रस्तम्ू--आलिंगित; पञ्ञालानू--पञ्ञाल; अरि-दूषितान्ू--शत्रुओं सेदूषित; दुरन््त--अलंघ्य; चिन्तामू--चिन्ता; आपन्न:--प्राप्त करके; न--नहीं; लेभे--प्राप्त किया; तत्--उसका; प्रतिक्रियाम्--उपाय।
जब राजा पुरञ्जन ने देखा कि उसके परिवार के समस्त प्राणी, उसके सम्बन्धी, अनुचर,दास, मंत्री तथा अन्य सभी उसके विरुद्ध हो गये हैं, तो वह अत्यन्त चिन्तित हुआ।
किन्तु उसे इसस्थिति से छूटने का कोई उपाय न दिखाई दिया, क्योंकि वह कालक-्या द्वारा बुरी तरह परास्तकर दिया गया था।
"
कामानभिलषन्दीनो यातयामांश्व कन्यया ।
विगतात्मगतिस्नेहः पुत्रदारांश्व लालयन् ॥
९॥
कामान्--सुख के साधन; अभिलषन्--अभिलाषा करते हुए; दीन:--बेचारा; यात-यामान्--बासी; च-- भी; कन्यया--'कालकन्या के प्रभाव से; विगत--खोया हुआ; आत्म-गति--जीवन का असली लक्ष्य; स्नेहः:--आसक्ति; पुत्र--पुत्रों; दारान्ू--पतली; च--तथा; लालयन्--दुलारते हुए।
कालकन्या के प्रभाव से विषयभोग की सारी वस्तुएँ बासी पड़ गई थीं।
अपनी कामेच्छाओंके बने रहने के कारण राजा पुरज्जन अत्यन्त दीन बन चुका था।
उसे अपने जीवन-लक्ष्य का भीपता न था।
वह अब भी अपनी पत्नी तथा बच्चों के प्रति अत्यन्त आसक्त था और उनके पालन के सम्बन्ध में चिन्तित था।
"
गन्धर्वयवनाक्रान्तां कालकन्योपमर्दिताम् ।
हातुं प्रचक्रमे राजा तां पुरीमनिकामतः ॥
१०॥
गन्धर्व--गन्धर्व सैनिकों; यवन--तथा यवन सैनिकों द्वारा; आक्रान्तामू--हराया हुआ; काल-कन्या--कालक-्या द्वारा;उपमर्दितामू--कुचला हुआ; हातुम्-त्यागने के लिए; प्रचक्रमे--बाध्य हुआ; राजा--राजा पुरज्ञन; ताम्--उस; पुरीम्--पुरीको; अनिकामत:-- अनिच्छित |
राजा पुरञ्नन की नगरी गन्धर्व तथा यवन सैनिकों द्वारा जीत ली गई और यद्यपि राजा इसनगरी को त्यागना नहीं चाहता था, किन्तु परिस्थितिवश उसे ऐसा करना पड़ा, क्योंकिकालकन्या ने उसे कुचल दिया था।
"
भयनाम्नोग्रजो क्राता प्रज्वारः प्रत्युपस्थितः ।
ददाह तां पुरी कृत्स्नां भ्रातु: प्रियचिकीर्षया ॥
११॥
भय-नाम्न:--भय नामक; अग्र-ज:--बड़ा; भ्राता-- भाई; प्रज्वार: --प्रज्वार ने; प्रत्युपस्थित:--वहाँ उपस्थित होकर; ददाह--आग लगा दी; ताम्--उस; पुरीम्-पुरी में; कृत्स्नामू-पूरी तरह से; भ्रातु:--अपने भाई को; प्रिय-चिकीर्षया--प्रसन्न करने केलिए
ऐसी दशा में यवनराज के बड़े भाई प्रज्वार ने अपने छोटे भाई भय को प्रसन्न करने के लिएनगरी में आग लगा दी।
"
तस्यां सन्दह्ममानायां सपौर: सपरिच्छद: ।
कौटुम्बिक: कुटुम्बिन्या उपातप्यत सान्वय: ॥
१२॥
तस्याम्ू--उस पुरी के; सन्दह्ममानायाम्-- अग्नि में प्रज्वति होने पर; स-पौर:--समस्त पुरवासियों सहित; स-परिच्छद: --समस्तनौकरों तथा भृत्यों सहित; कौटुम्बिक:-- अनेक सम्बन्धियों वाला राजा; कुटुम्बिन्या--अपनी पत्नी सहित; उपातप्यत--उसअग्नि का ताप सहने लगा; स-अन्वयः--अपने अनुचरों सहित |
जब सारी नगरी जलने लगी तो सारे नागरिक तथा राजा के नौकर, उसके परिवार केसदस्य, पुत्र, पौत्र, पत्तनियाँ तथा अन्य सम्बन्धी अग्नि की चपेट में आ गये।
इस प्रकार राजापुरझ्न अत्यन्त दुखी हो गया।
"
यवनोपरूद्धायतनो ग्रस्तायां कालकन्यया ।
पुर्या प्रज्वारसंसृष्ट: पुरपालोउन्वतप्यत ॥
१३॥
यवन--यवतनों द्वारा; उपरुद्ध--आक्रमण किया गया; आयतन:--अपना घर; ग्रस्तायाम्-- अधिकार में किया गया; काल-कन्यया--कालकन-्य द्वारा; पुर्यामू--नगरी; प्रज्वार-संसृष्ट:--प्रज्वार द्वारा निकट पहुँचा जाकर; पुर-पाल:--नगरी का पालक;अन्वतप्यत-- अत्यन्त दुखी हुआ
जब नगरी की रखवाली करने वाले सर्प ने देखा कि नागरिकों पर काल-कन्या काआक्रमण हो रहा है, तो वह यह देखकर अत्यन्त सन्तप्त हुआ कि यवनों ने आक्रमण करकेउसके घर में आग लगा दी है।
"
न शेके सोवितुं तत्र पुरुकृच्छोरुवेषथु: ।
गन्तुमैच्छत्ततो वृक्षकोटरादिव सानलातू ॥
१४॥
न--नहीं; शेके --समर्थ; सः--वह; अवितुम्--रक्षा करने में; तत्र--वहाँ; पुरु-- अत्यधिक; कृच्छू--कठिनाई; उरू--बड़ी;वेपथु:--पीड़ा; गन्तुमू--बाहर जाने के लिए; ऐच्छत्--इच्छा की; ततः--वहाँ से; वृक्ष--वृक्ष के; कोटरातू--कोटर से; इब--सहश; स-अनलातू--अग्नि लगे हुए
जिस प्रकार जंगल में आग लगने पर वृक्ष के कोटर में रहने वाला सर्प उस वृक्ष को छोड़नाचाहता है, उसी प्रकार वह नगर अधीक्षक सर्प भी अग्नि के प्रचण्ड ताप के कारण नगरी छोड़नेके लिए इच्छुक हो उठा।
"
शिथिलावयवो यर्हि गन्धर्वेद्तपौरुष: ।
यवनैररिभी राजन्नुपरुद्धो रुरोद ह ॥
१५॥
शिधिल--ढीले; अवयव:--अंग-प्रत्यंग; यहिं-- जब; गन्धर्वै: --गन्धर्वों के द्वारा; हत--पराजित; पौरुष: --शारीरिक शक्ति;यवनैः--यवतनों के द्वारा; अरिभि: --शत्रुओं द्वारा; राजन्--हे राजा प्राचीनबर्हिषत्; उपरुद्धः--रोके जाने पर; रुरोद--जोर सेचिल्लाया; ह--वस्तुत: |
गन्धर्वों तथा यवन सैनिकों द्वारा उस सर्प के शरीर के अंग जर्जर कर दिए गए, क्योंकिउन्होंने उसकी शारीरिक शक्ति को परास्त कर दिया था।
जब उसने शरीर त्यागना चाहा तो उसकेशत्रुओं ने रोक लिया।
अपने प्रयास में विफल होने के कारण वह जोर से चीत्कार करने लगा।
"
दुहितृः पुत्रपौत्रां श्र जामिजामातृपार्षदान् ।
स्वत्वावशिष्ट यत्किल्चिद्गृहकोशपरिच्छदम् ॥
१६॥
दुहितृः--पुत्रियों; पुत्र--पुत्रों; पौत्रानू--नातियों के विषय में; च--तथा; जामि--बहुओं; जामातृ--दामादों; पार्षदान्-पार्ष दों;स्वत्व--सम्पत्ति; अवशिष्टम्-शेष; यत् किल्ञित्--जो कुछ भी; गृह--घर; कोश--खजाना; परिच्छदम्-घरेलू साज-सामान
तब राजा पुरज्न अपनी पुत्रियों, पुत्रों, पौत्रों, पुत्रवधुओं, जामाता, नौकरों तथा अन्य पार्षदोंके साथ-साथ अपने घर, घर के सारे साज-सामान तथा जो कुछ भी सश्नित धन था, उन सबकेविषय में सोचने लगा।
"
अहं ममेति स्वीकृत्य गृहेषु कुमतिर्गृही ।
दध्यौ प्रमदया दीनो विप्रयोग उपस्थिते ॥
१७॥
अहमू-मैं; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; स्वी-कृत्य--स्वीकार करके ; गृहेषु--घर में; कु-मतिः--दुर्बुर्द्धि; गृही--गृहस्थ;दध्यौ-- ध्यान दिया; प्रमदया-- अपनी पत्नी सहित; दीन:--अत्यन्त निर्धन; विप्रयोगे--जब वियोग; उपस्थिते-- आ उपस्थितहुआ
राजा पुरझ्षन अपने परिवार के प्रति तथा 'मैं' और 'मेरे' विचार में अत्यधिक आसक्तथा।
चूँकि वह अपनी पत्नी के प्रति अत्यधिक मोहित था, इसलिए वह पहले से दीन बन चुकाथा।
वियोग के समय वह अत्यन्त दुखी हो गया।
"
लोकान्तरं गतवति मय्यनाथा कुटुम्बिनी ।
वर्तिष्यते कथं त्वेषा बालकाननुशोचती ॥
१८॥
लोक-अन्तरम्--अन्य जीवन में; गतवति मयि--मेरे चले जाने पर; अनाथा--पतिविहीन; कुटुम्बिनी--अपने परिवार से घिरी;वर्तिष्यते--रहेगी; कथम्--कैसे; तु--तब; एषा--यह स्त्री; बालकान्--बच्चों को; अनुशोचती--विलाप करती हुई |
राजा पुरक्ञन अत्यन्त चिन्तित होकर सोचने लगा, 'हाय! मेरी पत्नी इतने सारे बच्चों सेपरेशान होगी।
जब मैं यह शरीर छोड़ दूँगा तो यह किस प्रकार परिवार के इन सभी सदस्यों कापालन करेगी ? हाय! वह परिवार पालन के विचार से अत्यधिक कष्ट पाएगी।
"
'न मय्यनाशिते भुड्ढे नास्नाते स्नाति मत्परा ।
मयि रुष्टे सुसन्त्रस्ता भर्तिसिते यतवाग्भयात् ॥
१९॥
न--कभी नहीं; मयि--जब तक मैं; अनाशिते--खा नहीं लेता था; भुड्ढे --वह खाती थी; न--नहीं; अस्नाते--स्नान नहीं करलेता था; स्नाति--नहाती थी; मत्-परा--मेरे प्रति अनुरक्त; मयि--जब मैं; रुष्टे--नाराज होता था; सु-सन्त्रस्ता--अत्यन्त डरीरहती थी; भर्तिसिति--जब मैं डाँटता फटकारता था; यत-वाक्ू--संयमित वाणी; भयात्--डर से |
राजा पुरझ्ञषन अपनी पत्नी के साथ अपने पुराने व्यवहारों को सोचने लगा।
उसे याद आयाकि उसकी पत्नी तब तक भोजन नहीं करती थी, जब तक वह स्वयं खा नहीं चुकता था; वहतब तक नहीं नहाती थी जब तक वह नहीं नहा लेता था और वह उस पर सदा इतनी अधिकअनुरक्त थी कि यदि वह कभी झिड़क देता था और उस पर नाराज हो जाता था, तो वह मौनरहकर उसके दुर्व्यवहार को सह लेती थी।
"
प्रबोधयति माविज्ञं व्युषिते शोककर्शिता ।
वर्त्मतद्गृहमेधीयं वीरसूरपि नेष्यति ॥
२०॥
प्रबोधयति--अच्छी सलाह देती है; मा--मुझको; अविज्ञम्ू-- मूर्ख; व्युषिते-- मेरे बाहर जाने पर; शोक--शोक से; करशिता--दुख से सूखी हुई; बर्त्म--रास्ता; एतत्--यह; गृह-मेधीयम्--गृहस्थी के कार्यो का; वीर-सू:--वीरों की जननी; अपि--यद्यपि;नेष्यति--क्या कर सकेगी।
राजा पुरञ्जन सोचता रहा कि उसके मोहग्रस्त होने पर किस तरह उसकी पत्नी उसे अच्छीसलाह देती थी और उसके घर से बाहर चले जाने पर वह कितनी दुखी हो जाती थी।
यद्यपि वहअनेक पुत्रों एवं वीरों की माता थी तो भी राजा को डर था कि वह गृहस्थी का भार नहीं ढोसकेगी।
"
कथं नु दारका दीना दारकीर्वापरायणा: ।
वर्तिष्यन्ते मयि गते भिन्ननाव इवोदधौ ॥
२१॥
कथम्--कैसे; नु--वस्तुतः ; दारका:--पुत्र; दीना:--बेचारे, अनाथ; दारकीः --पुत्रियों; वा-- अथवा; अपरायणा:--जिनकाकोई आश्रय नहीं है; वर्तिष्यन्ते-- रहेंगे; मयि--जब मैं; गते--इस संसार से चला जाऊँगा; भिन्न--विदीर्ण, टूटी हुई; नाव:--नाव; इब--सहश; उदधौ--सागर में |
राजा पुरझ्ञन आगे भी चिन्तित रहने लगा: 'जब मैं इस संसार से चला जाऊँगा तो मेरे ऊपरपूर्णतः आश्ित पुत्र तथा पुत्रियाँ किस प्रकार अपना जीवन निर्वाह करेंगी ? उनकी स्थिति जहाजमें चढ़े हुए उन यात्रियों के समान है जिनका जहाज सागर के बीच में ही टूट जाता है।
'" एवं कृपणया बुद्धया शोचन्तमतदर्हणम् ।
ग्रहीतुं कृतधीरेनं भयनामा भ्यपद्यत ॥
२२॥
एवम्--इस प्रकार; कृपणया--दीन; बुद्धयरा--बुद्धि से; शोचन्तम्--पछताते हुए; अ-तत्-अर्हणम्--जिस पर उसे नहीं पछतानाचाहिए था; ग्रहीतुमू--बन्दी बनाने के लिए; कृत-धी:--हढ़संकल्प यवनराज; एनम्--उसको; भय-नामा-- भय नामक;अभ्यपद्यत--तुरन्त आ गया।
यद्यपि राजा पुरकझ्षन को अपनी पतली तथा बच्चों के भाग्य के विषय में पश्चात्ताप नहीं करनाचाहिए था फिर भी उसने अपनी दीन बुद्धि के कारण ऐसा किया।
उसी समय, भय नामकयवनराज उसे बन्दी करने के लिए तुरन्त निकट आ धमका।
राजा के अनुचर अत्यन्त शोकाकुल हो उठे।
उन्हें भी विलाप करते हुए राजा के साथ-साथ जानापड़ा।
"
पशुवद्यवनैरेष नीयमान: स्वकं क्षयम् ।
अन्वद्रवन्ननुपथा: शोचन्तो भृशमातुरा: ॥
२३॥
पशु-वत्--पशु के समान; यवनै:--यवतनों के द्वारा; एष:--यह, पुरज्ञन; नीयमान:--बन्दी बनाकर ले जाया गया; स्वकम्--अपने; क्षयम्-घर; अन्वद्रवन्--पीछे-पीछे; अनुपथा: --उसके सेवक; शोचन्त:--विलाप करते; भृशम्-- अत्यधिक;आतुरा:--अत्यन्त दुखी ।
जब यवनगण राजा पुरज्ञन को पशु की भाँति बाँधकर उसे अपने स्थान को ले जाने लगे तो राजा के अनुचर अत्यन्त शोकाकुल हो उठे।
उन्हें भी विलाप करते हुए राजा के साथ-साथ जाना पड़ा।
"
पुरीं विहायोपगत उपरुद्धो भुजड़मः ।
यदा तमेवानु पुरी विशीर्णा प्रकृतिं गता ॥
२४॥
पुरीमू--नगरी को; विहाय--छोड़कर; उपगत:--चला गया; उपरुद्ध: --बन्दी; भुजड़म:--सर्प; यदा--जब; तम्--उसको;एव--निश्चय ही; अनु--पीछे-पीछे; पुरी--नगरी; विशीर्णा--ध्वस्त, तहस-नहस; प्रकृतिम्--पदार्थ में; गता--परिणत होगयी।
वह सर्प भी, जिसे यवनराज के सैनिकों ने बन्दी बनाकर पहले ही नगरी के बाहर कर दियाथा, अन्यों के साथ अपने स्वामी के पीछे-पीछे चलपड़ा।
ज्योंही इन सबों ने नगरी को छोड़ दियात्योंही वह नगरी तहस-नहस (९ ध्वस्त ) होकर धूल में मिल गई।
"
विकृष्यमाण: प्रसभं यवनेन बलीयसा ।
नाविन्दत्तमसाविष्ट: सखायं सुहृदं पुर: ॥
२५॥
विकृष्यमाण:--खींचे जाने पर; प्रसभम्--बलपूर्वक; यवनेन--यवन के द्वारा; बलीयसा--अत्यन्त शक्तिशाली; न अविन्दत्--स्मरण नहीं कर सकता; तमसा--तमोगुण से; आविष्ट: --आच्छादित होने से; सखायम्--अपने मित्र को; सुहृदम्--शुभेषी;पुरः-प्रारम्भ से |
जब राजा पुरज्ञन शक्तिशाली यवन द्वारा बलपूर्वक घसीटा जा रहा था, तब भी अपनी निरीमूर्खता के कारण वह अपने मित्र तथा हितैषी परमात्मा का स्मरण नहीं कर सका।
"
त॑ यज्ञपशवोडनेन संज्ञप्ता येडददयालुना ।
कुठारैश्विच्छिदु: क्रुद्धा: स्मरन्तोडमीवमस्य तत् ॥
२६॥
तम्--उसको; यज्ञ-पशव: --यज्ञ में बलि दिये गये पशु; अनेन--उसके द्वारा; संज्ञप्ता:--मारे गये; ये--जो; अदयालुना--अत्यन्त निर्दय द्वारा; कुठार:ः--फरसे से; चिच्छिदु:--खण्ड खण्ड; क्रुद्धा:--अत्यन्त क्रुद्ध होकर; स्मरन््तः--याद करते हुए;अमीवम्--पापकर्म; अस्य--उसके; तत्--वह।
उस घोर निर्दयी राजा पुरज्न ने विविध यज्ञों में अनेक पशुओं का वध किया था।
अब वेसारे पशु इस अवसर का लाभ उठाकर उसे अपने सींगों से बेधने लगे।
ऐसा प्रतीत हो रहा थामानो उसे फरसों से टुकड़े-टुकड़े करके काटा जा रहा है।
"
अनन्तपारे तमसि मग्नो नष्टस्मृति: समा: ।
शाश्वतीरनुभूयार्ति प्रमदासड्रदूषित: ॥
२७॥
अनन्त-पोरे--अपार; तमसि--संसार के अंधकार में; मग्न:--डूबा हुआ; नष्ट-स्मृतिः--समस्त बुद्धि से रहित; समा:ः--अनेकवर्षो तक; शाश्वती: --निरन्तर; अनुभूय-- अनुभव करके; आर्तिमू--तीनों ताप; प्रमदा--स्त्री के; सड़--संगति से; दूषित:--मलिन।
स्त्रियों की दूषित संगति के कारण जीवरूप राजा पुरझ्ञन निरन्तर संसार के समस्त कष्टों कोसहता है और अनेकानेक वर्षो तक समस्त प्रकार की स्मृति से शून्य होकर भौतिक जीवन केअंधकार क्षेत्र में पड़ा रहता है।
"
तामेव मनसा गृह्नन्बभूव प्रमदोत्तमा ।
अनन्तरं विदर्भस्य राजसिंहस्य वेश्मनि ॥
२८॥
तामू--उसके; एब--निश्चय ही; मनसा--मन से; गृहन्ू--स्वीकार करते हुए; बभूव--हो गया; प्रमदा--स्त्री; उत्तमा--कुलीन;अनन्तरम्-मृत्यु के पश्चात्; विदर्भस्य--विदर्भ के; राज-सिंहस्थ--अत्यन्त शक्तिशाली राजा के; वेश्मनि--घर में |
चूँकि राजा पुरञझ्ञन ने अपनी पत्नी का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग किया था,अतः वह अगले जन्म में अच्छे कुल की एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री बनी।
उसने राजा विदर्भ के घर मेंराजा की कन्या रूप में अगला जन्म लिया।
"
उपयेमे वीर्यपणां वैदर्भी मलयध्वज: ।
युधि निर्जित्य राजन्यान्पाण्ड्य: परपुरञ्ञय: ॥
२९॥
उपयेमे--विवाह किया; वीर्य--शौर्य का; पणाम्-- पुरस्कार; वैदर्भीम्--विदर्भ की कन्या; मलय-ध्वज:--मलयध्वज; युधि--युद्ध में; निर्जित्य--विजयी होकर; राजन्यान्--अन्य राजकुमार; पाण्ड्य:--पाएडु देश में उत्पन्न अथवा सर्वश्रेष्ठ विद्वान; पर--दिव्य; पुरमू--नगरी; जय:--विजेता |
यह निश्चय हुआ था कि राजा विदर्भ की कन्या वैदर्भी का विवाह अत्यन्त शक्तिशाली पुरुषमलयध्वज के साथ किया जाये जो पाण्डुदेश का रहने वाला था।
उसने अन्य राजकुमारों कोपराजित करके राजा विदर्भ की कन्या के साथ विवाह कर लिया।
"
तस्यां स जनयां चक्र आत्मजामसितेक्षणाम् ।
यवीयस: सप्त सुतान्सप्त द्रविडभूभूतः ॥
३०॥
तस्याम्ू--उससे; सः--राजा ने; जनयाम् चक्रे--उत्पन्न किया; आत्मजामू्--पुत्री; असित--श्याम; ईक्षणाम्-- आँखों वाली;यवीयस:--छोटा, अत्यन्त शक्तिमान; सप्त--सात; सुतान्--पुत्र; सप्त--सात; द्रविड--द्रविड़ देश ( दक्षिण भारत ); भू--भूभाग के; भूत:ः--राजा |
राजा मलयध्वज के एक पुत्री हुई जिसकी आँखें श्यामल थीं।
उसके सात पुत्र भी हुए जोआगे चलकर द्रविड़ नामक देश के शासक बने।
इस प्रकार उस देश में सात राजा हुए।
"
एकैकस्याभवत्तेषां राजन्नर्बुदमर्बुदम् ।
भोक्ष्यते यद्वंशधरैर्मही मन्वन्तरं परम् ॥
३१॥
एक-एकस्थ--हर एक के; अभवत्--हुए; तेषाम्--उनके; राजन्--हे राजा; अर्बुदम्--एक करोड़; अर्बुदम्ू--एक करोड़;भोक्ष्यते-- भोगेंगे; यत्--जिसका; बंश-धरैः--वंशजों द्वारा; मही--सारा संसार; मनु-अन्तरम्--एक मनु के अन्त तक; परमू--तथा उसके पश्चात्)
हे राजा प्राचीनबर्हिषतू, मलयध्वज राजा के पुत्रों ने लाखों पुत्रों को जन्म दिया और ये सबएक मनु की अवधि के अन्त तक तथा उसके बाद भी सारे संसार का पालन करते रहे।
"
अग्स्त्यः प्राग्दुहितरमुपयेमे धृतद्नरताम् ।
यस्यां हृढच्युतो जात इध्मवाहात्मजो मुनि: ॥
३२॥
अगस्त्य:--अग्स्त्य मुनि ने; प्राकु--पहली; दुहितरम्--कन्या को; उपयेमे--विवाह दिया; धृत-ब्रताम्ू--ब्रत धारण किये;यस्याम्--जिससे; हृढच्युतः --हृढच्युत नामक; जात:--उत्पन्न हुआ; इध्मवाह--इध्मवाह नामक; आत्म-जः --पुत्र; मुनि: --मुनि
भगवान् कृष्ण के परम भक्त मलयध्वज की पहली कन्या का विवाह अगस्त्य मुनि के साथहुआ।
उससे एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम हढच्युत था जिससे इध्मवाह नामक एक पुत्रउत्पन्न हुआ।
जो भक्ति में दीक्षित होते हैं, वे वैदिक शास्त्रीय आदेशों के दृढ़पालक होते हैं।
"
विभज्य तनयेभ्य: क्ष्मां राजर्षिमलयध्वज: ।
आरिराधयिषु: कृष्णं स जगाम कुलाचलम् ॥
३३॥
विभज्य--बाँटकर; तनयेभ्य:--अपने पुत्रों में; क्ष्मम्--सम्पूर्ण पृथ्वी को; राज-ऋषि:--परम साधु राजा; मलयध्वज: --मलयध्वज; आरिराधयिषु:--आराधना करने की इच्छा से; कृष्णम्-- भगवान् कृष्ण की; सः--वह; जगाम--चला गया;कुलाचलम्--कुलाचल नामक स्थान में
इसके पश्चात् राजर्षि मलयध्वज ने अपना सारा राज्य अपने पुत्रों में बाँठ दिया।
तब वे पूरेमनोयोग से भगवान् कृष्ण की पूजा करने के लिए कुलाचल नामक एकान्त स्थान में चले गये।
"
हित्वा गृहान्सुतान्भोगान्वैदर्भी मदिरिक्षणा ।
अन्वधावत पाण्ड्येशं ज्योत्स्नेव रजनीकरम् ॥
३४॥
हित्वा--त्याग कर; गृहान्--घर को; सुतान्ू--बच्चों को; भोगान्ू-- भौतिक सुखों को; बैदर्भी--राजा विदर्भ की पुत्री; मदिर-ईक्षणा--मादक लोचनों वाली; अन्वधावत--अनुगमन किया; पाण्ड्य-ईशम्--राजा मलयध्वज का; ज्योत्स्ना इब--चन्द्रिकाके समान; रजनी-करम्--चन्द्रमा
जिस प्रकार रात्रि में चाँदनी चन्द्रमा का अनुसरण करती है, उसी तरह राजा मलयध्वज केकुलाचल जाते ही मादक नेत्रों वाली उसकी अनुरक्त पत्नी अपने घर, पुत्र के होते हुए भी समस्तभोगों को तिलांजलि देकर उसके साथ हो ली।
"
तत्र चन्द्रवसा नाम ताम्रपर्णी वटोदका ।
तत्पुण्यसलिलैर्नित्यमुभयत्रात्मनो मृजन् ॥
३५॥
कन्दाष्ट्रिभिर्मूलफलै: पुष्पपर्णैस्तूणोदकै: ।
वर्तमान: शनैर्गात्रकर्शनं तप आस्थितः ॥
३६॥
तत्र--वहाँ; चन्द्रबसा--चन्द्रवसा नदी; नाम--नामक; ताम्रपर्णी --ताप्रपर्णी नदी; बटोदका--वटोदका नदी; तत्ू--उन नदियोंके; पुण्य--पवित्र; सलिलैः --जल से; नित्यम्ू--नित्य प्रति; उभयत्र--दोनों प्रकार से; आत्मन:--अपने आपको; मृजनू--नहाकर; कन्द--मूल; अष्टिभिः--तथा बीजों से; मूल--जड़ें; फलैः--तथा फलों से; पुष्प--फूल; पर्ण:--तथा पत्तों से;तृणा--घास; उदकैः--तथा जल से; वर्तमान:--निर्वाह करते हुए; शनैः-- धीरे-धीरे; गात्र-- अपना शरीर; कर्शनम्ू--दुबलाकरके; तपः--तपस्या; आस्थित:--किया |
कुलाचल प्रान्त में चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी तथा बटोदका नाम की तीन नदियाँ थीं।
राजामलयध्वज नित्य ही इन पवित्र नदियों में जाकर स्नान करता था।
इस प्रकार उसने बाहर तथाअन्दर से अपने को पवित्र कर लिया था।
वह स्नान करता और कन्द, बीज, पत्तियाँ, फूल, जड़ें,'फल तथा घास खाता तथा जल पीता था।
इस प्रकार वह कठिन तपस्या करने लगा।
अन्त में वहअत्यन्त कृश कार्य हो गया।
"
शीतोष्णवातवर्षाणि क्षुत्पिपासे प्रियाप्रिये ।
सुखदु:खे इति द्वन्द्वान्यजयत्समदर्शन: ॥
३७॥
शीत--जाड़ा; उष्ण--गर्मी; वात--हवा; वर्षाणि--तथा वर्षा ऋतुएँ; क्षुत्-- भूख; पिपासे--तथा प्यास; प्रिय--सुहावना;अप्रिये--तथा न अच्छा लगने वाला; सुख--सुख; दुःखे--तथा कष्ट; इति--इस प्रकार; द्वन्द्दानि--द्वै( भाव को; अजयतू--जीत लिया; सम-दर्शन:--समदर्शी, समदृष्टि रखने वाला।
तपस्या के द्वारा राजा मलयध्वज धीरे-धीरे शरीर तथा मन से जाड़ा तथा गर्मी, सुख तथादुख, वायु तथा वर्षा, भूख तथा प्यास, अच्छा तथा बुरा इन द्वैतभावों के प्रति समान दृष्टि वालाहो गया।
इस प्रकार उसने सभी द्वन्द्दों पर विजय प्राप्त कर ली।
"
तपसा विद्यया पक््वकषायो नियमैर्यमै: ।
युयुजे ब्रह्मण्यात्मानं विजिताक्षानिलाशयः ॥
३८ ॥
तपसा--तपस्या से; विद्यया--शिक्षा से; पकक््व--जलाकर; कषाय:--समस्त मल; नियमै:--विधानों से; यमै:-- आत्मसंयम से;युयुजे--उसने स्थिर किया; ब्रह्मणि--ब्रह्म में, आत्म-साक्षात्कार में; आत्मानम्--अपने आपको; विजित--पूर्णतया वश में;अक्ष--इन्द्रियाँ; अनिल-- प्राण; आशय:--चेतना |
पूजा से, तप साधना से तथा नियमों के पालन से राजा मलयध्वज ने अपनी इन्द्रियों, प्राणतथा चेतना को जीत लिया।
इस प्रकार उसने हर वस्तु को परब्रह्म ( कृष्ण ) रूपी केन्द्रबिन्दु परस्थिर कर लिया।
"
आस्ते स्थाणुरिवैकत्र दिव्यं वर्षशतं स्थिर: ।
वबासुदेवे भगवति नान्यद्वेदोद्ठहत्नतिम् ॥
३९॥
आस्ते--रहे आये; स्थाणु:--अचल; इब--सहश; एकत्र--एक स्थान पर; दिव्यम्--देवताओं के; वर्ष--वर्ष; शतम्--एकसौ; स्थिर:--स्थिर; वासुदेवे-- भगवान् कृष्ण पर; भगवति-- भगवान्; न--नहीं; अन्यत्-- अन्य कुछ; बेद--जान पाये;उद्ददन्-- रखते हुए; रतिम्ू--आसक्ति |
इस प्रकार देवों की गणना के एक सौ वर्षों तक वे एक ही स्थान पर अचल बने रहे।
इसकेबाद उन्हें भगवान् कृष्ण के प्रति भक्तिमयी आसक्ति उत्पन्न हुई और वे उसी स्थिति में स्थिर रहे।
"
स व्यापकतयात्मानं व्यतिरिक्ततयात्मनि ।
विद्वान्स्वप्न इवामर्शसाक्षिणं विरराम ह ॥
४०॥
सः--राजा मलयध्वज; व्यापकतया--सर्वव्यापी होने से; आत्मानम्--परमात्मा को; व्यतिरिक्ततया--विभेद से; आत्मनि--अपने आप में; विद्वानू--सुशिक्षित; स्वप्ने--स्वण में; इब--सहृश; अमर्श--ज्ञान; साक्षिणम्--साक्षी; विरराम--उदासीन होगया; ह--निश्चय ही।
आत्मा और परमात्मा में अन्तर कर सकने के कारण राजा मलयध्वज ने पूर्ण ज्ञान प्राप्त करलिया।
आत्मा एक-स्थानिक है, जबकि परमात्मा सर्वव्यापी है।
यह भौतिक देह आत्मा नहीं है,अपितु आत्मा इस भौतिक देह का साक्षी है--उन्हें इसका पूरा-पूरा ज्ञान हो गया।
"
साक्षाद्धगवतोक्तेन गुरुणा हरिणा नूप ।
विशुद्धज्ञानदीपेन स्फुरता विश्वतोमुखम् ॥
४१॥
साक्षात्-प्रत्यक्ष; भगवता--भगवान् द्वारा; उक्तेन--आदेशित; गुरुणा--गुरु द्वारा; हरिणा-- भगवान् हरि द्वारा; नृप--हे राजा;विशुद्ध- शुद्ध; ज्ञान--ज्ञान के; दीपेन--प्रकाश से; स्फुरता--प्रकाशित; विश्वत: -मुखम्--चारों ओर।
इस प्रकार राजा मलयध्वज को पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई, क्योंकि शुद्ध अवस्था में उसेसाक्षात् भगवान् ने उपदेश दिया था।
ऐसे दिव्य ज्ञान के द्वारा वह प्रत्येक वस्तु को समस्तदृष्टिकोणों से समझ सकता था।
"
परे ब्रह्मणि चात्मानं परं ब्रह्म तथात्मनि ।
वीक्षमाणो विहायेक्षामस्मादुपरराम ह ॥
४२॥
परे--दिव्य; ब्रह्मणि--ब्रह्म में; च--तथा; आत्मानम्--आत्मा को; परम्--परम; ब्रह्म --ब्रह्म; तथा-- भी; आत्मनि--अपने में;वीक्षमाण: --देखते हुए; विहाय--त्याग कर; ईक्षाम्-- अन्तर; अस्मात्--इस विधि से; उपरराम--शान्त हो गया; ह--निश्चयही
इस प्रकार राजा मलयध्वज परमात्मा को अपने पास बैठा हुआ और स्वयं आत्मा रूप कोपरमात्मा के निकट बैठा हुआ देख सकता था।
चूँकि वे दोनों साथ-साथ थे, अतः उनके स्वार्थोंका भिन्न होना आवश्यक न था।
इस प्रकार उसने ऐसे कार्य करने बन्द कर दिये।
"
पतिं परमधर्मज्ञं वैदर्भी मलयध्वजम् ।
प्रेम्णा पर्यचरद्द्धित्वा भोगान्सा पतिदेवता ॥
४३॥
'पतिम्--अपने पति; परम--परम; धर्म-ज्ञम-- धर्म का ज्ञाता; वैदर्भी--राजा विदर्भ की पुत्री ने; मलय-ध्वजमू--मलयध्वज को;प्रेम्णा--प्रेम से; पर्यचरत्-- भक्ति-पूर्वक सेवा की; हित्वा--त्याग कर; भोगान्--इन्द्रियसुख; सा--उसने; पति-देवता--पतिको परमेश्वर मानकर।
राजा विदर्भ की कन्या अपने पति को परमेश्वर रूप में सर्वेसर्वा मानती थी।
उसने सारे इन्द्रिय-सुख त्याग दिये और पूर्णतः विरक्त होकर वह अपने परम ज्ञानी पति के सिद्धान्तों कापालन करने लगी।
इस प्रकार वह उसकी सेवा में लगी रही।
"
चीरवासा ब्रतक्षामा वेणीभूतशिरोरुहा ।
बभावुप पतिं शान्ता शिखा शान्तमिवानलम् ॥
४४॥
चीर-वासा--पुराने वस्त्र पहने; ब्रत-क्षामा--तपस्या के कारण अत्यन्त दुर्बल; वेणी-भूत--उलझे हुए, लटें पड़ीं; शिरोरूहा--उसके बाल; बभौ--चमकती थी; उप पतिम्ू--अपने पति के निकट; शान्ता--अत्यन्त शान्त; शिखा--लपढटें ; शान्तम्--बुझीहुईं; इब--सहृश; अनलमू--अग्नि के
राजा विदर्भ की पुत्री पुराने वस्त्र पहनती थी।
वह तपस्या के कारण अत्यन्त दुर्बल हो गईथी।
वह अपने बाल नहीं सँवारती थी जिससे उसमें लटें पड़ गईं थीं।
यद्यपि वह सदैव अपने पतिके निकट रहती थी, किन्तु वह अत्यन्त मौन थी तथा अविचलित अग्नि की लपट के समानअश्षुब्ध ( शान्त ) थी।
"
अजानती प्रियतमं यदोपरतमड़ना ।
सुस्थिरासनमासाद्य यथापूर्वमुपाचरत् ॥
४५॥
अजानती--न जानने से; प्रिय-तमम्--प्राणप्रिय पति को; यदा--जब; उपरतम्ू--मर गया; अड्डना--स्त्री; सुस्थिर--अविचल;आसनम्--आसन में; आसाद्य--निकट जाकर; यथा--जिस तरह; पूर्वमू--पहले; उपाचरत्--सेवा करती रही |
राजा विदर्भ की पुत्री सुस्थिर मुद्रा में आसन लगाये अपने पति की तब तक पूर्ववत् सेवाकरती रही, जब तक उसे यह पता नहीं लग गया कि उसने इस शरीर से कूच कर दिया है।
"
यदा नोपलभेताडश्रावृष्माणं पत्युर्चती ।
आसीत्संविग्नहदया यूथशभ्रष्टा मृगी यथा ॥
४६॥
यदा--जब; न--नहीं; उपलभेत-- अनुभव किया; अड्घ्नौ--पावों में; ऊष्माणम्--गर्मी; पत्यु:--अपने पति के; अर्चती--सेवाकरते समय; आसीत्--हुई; संविग्न--चिन्तित; हृदया--हृदय में; यूथ- भ्रष्टा--अपने पति से बिछुड़ी; मृगी--हिरनी; यथा--जिस प्रकार।
जब वह अपने पति के चरण दबा रही थी तो उसे अनुभव हुआ कि उसके पाँव अब गरमनहीं हैं, अतः वह समझ गई कि उसने पहले ही इस शरीर को त्याग दिया है।
अकेली छूट जानेपर उसे अत्यधिक चिन्ता हुईं।
अपने पति के साथ से विरहित वह अपने को उस मृगी के समानअनुभव करने लगी जो अपने पति से बिछुड़ गई हो।
"
आत्मानं शोचती दीनमबन्धुं विक्लवाश्रुभि: ।
स्तनावासिच्य विपिने सुस्वरं प्रसरोद सा ॥
४७॥
आत्मानम्--अपने विषय में; शोचती--विलाप करती; दीनमू--दुखियारी; अबन्धुम्--बिना मित्र के; विक्लब-- भग्नहदया;अश्रुभि:--आँसुओं से; स्तनौ--उसके स्तन; आसिच्य--भिगोती; विपिने--जंगल में; सुस्वरम्--जोर से; प्रररोद--रोने लगी;सा--वह।
जंगल में अकेली तथा विधवा जाने पर विदर्भ की पुत्री विलाप करने लगी; उसके आँसूनिरन्तर झड़ रहे थे जिससे उसके स्तन भीग गये थे और वह जोर-जोर से रो रही थी।
"
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ राजर्षे इमामुदधिमेखलाम् ।
दस्युभ्य: क्षत्रबन्धु भ्यो बिभ्यतीं पातुमहसि ॥
४८ ॥
उत्तिष्ठ--उठिये; उत्तिष्ठ--उठिये; राज-ऋषे--हे राजर्षि; इमाम्--यह पृथ्वी; उदधि--समुद्र से; मेखलाम्--घिरी हुईं; दस्युभ्य:--चोरों से; क्षत्र-बन्धुभ्य:--दुष्ट राजाओं से; बिभ्यतीमू-- अत्यधिक डरी; पातुम्--रक्षा करना; अ्हसि--तुम्हें चाहिए।
हे राजर्षि, उठिये, उठिये, देखिये, 'जल से घिरी हुईं यह पृथ्वी चोरों एवं तथाकथितराजाओं से भरी पड़ी है।
यह संसार अत्यधिक भयभीत है।
आपका कर्तव्य है कि आप उसकीरक्षा करें।
"
एवं विलपन्ती बाला विपिनेनुगता पतिम् ।
पतिता पादयोर्भ्॑तू रूदत्यश्रूण्यवर्तयत् ॥
४९॥
एवम्--इस प्रकार; विलपन्ती--विलाप करती; बाला--अबोध स्त्री, अबला; विपिने--निर्जन बन में; अनुगता--साथ गई हुईं;'पतिम्--पति को; पतिता--गिरी हुई; पादयो: --पैरों पर; भर्तु:--पति के; रुदती--रोती हुई; अश्रूणि-- आँसू; अवर्तयत्--गिरारही थी
इस प्रकार वह परम आज्ञाकारिणी पत्नी अपने मृत पति के चरणों पर गिर पड़ी और उसएकान्त वन में करुण क्रन्दन करने लगी।
उसकी आँखों से आँसू झर रहे थे।
"
चितिं दारुमयीं चित्वा तस्यां पत्यु: कलेवरम् ।
आदीप्य चानुमरणे विलपन्ती मनो दधे ॥
५०॥
चितिम्ू--चिता; दारु-मयीम्--लकड़ी से बनी; चित्वा--चुनकर; तस्याम्--उस पर; पत्यु:--पति का; कलेवरम्--शरीर;आदीप्य--जलाकर; च-- भी; अनुमरणे--उसके साथ मरने के लिए; विलपन्ती--विलाप करती; मन:--अपना मन; दधे--स्थिर किया।
तब उसने लकड़ियो से चिता बनाकर और अग्नि लगाकर उसमें अपने पति के शव को रखदिया।
इस सबके बाद वह दारूण विलाप करने लगी और अपने पति के साथ अग्नि में भस्महोने के लिए स्वयं भी तैयार हो गयी।
"
तत्र पूर्वतर: कश्चित्सखा ब्राह्मण आत्मवान् ।
सान्त्वयन्वल्गुना साम्ना तामाह रुदतीं प्रभो ॥
५१॥
तत्र--वहाँ; पूर्वतर:ः--पहले का पुराना; कश्चित्--कोई; सखा--मित्र; ब्राह्मण: --ब्राह्मण ने; आत्मवान्-- अत्यन्त विद्वान;सान्त्वयन्--सान्त्वना देते हुए; वल्गुना--अत्यन्त मधुर; साम्ना--शमन करने वाली वाणी से; तामू--उसको; आह--कहा;रुदतीम्--रोदन करती हुई; प्रभो--हे राजा!
हे राजनू, एक ब्राह्मण, जो राजा पुरझ्जन का पुराना मित्र था उस स्थान पर आया और रानीको मृदुल वाणी से सान्त्वना देने लगा।
"
ब्राह्मण उवाचका त्वं कस्यासि को वायं शयानो यस्य शोचसि ।
जानासि किं सखाय॑ मां येनाग्रे विचचर्थ ह ॥
५२॥
ब्राह्मण: उवाच--विद्वान् ब्राह्मण ने कहा; का--कौन; त्वम्--तुम; कस्य--किसकी; असि--हो; कः--कौन; वा-- अथवा;अयम्--यह पुरुष; शयान:--लेटा हुआ; यस्य--जिसके लिए; शोचसि--तुम विलाप कर रही हो; जानासि किम्-क्या तुमजानती हो; सखायम्--मित्र को; मामू--मुझको; येन--जिसके साथ; अग्रे--पहले; विचचर्थ--तुम विचार-विमर्श करती थी;ह--निश्चय ही
ब्राह्मण ने इस प्रकार पूछा: तुम कौन हो ? तुम किसकी पत्नी या पुत्री हो ? यहाँ लेटा हुआपुरुष कौन है? ऐसा प्रतीत होता है कि तुम इस मृत शरीर के लिए विलाप कर रही हो।
क्या तुममुझे नहीं पहचानती हो ? मैं तुम्हारा शाश्वत सखा हूँ।
तुम्हें स्मरण होगा कि पहले तुमने मुझसे कईबार परामर्श किया है।
"
अपि स्मरसि चात्मानमविज्ञातसखं सखे ।
हित्वा मां पदमन्विच्छन््भौमभोगरतो गत: ॥
५३॥
अपि स्मरसि--क्या तुम्हें स्मरण है; च-- भी; आत्मानम्--परमात्मा को; अविज्ञात--अज्ञात; सखमू्--मित्र को; सखे--हे मित्र;हित्वा--छोड़कर; माम्--मुझको; पदम्--पद, स्थिति; अन्विच्छन्ू--चाहते हुए; भौम-- भौतिक; भोग --सुख; रतः--अनुरक्त;गतः--हो गये |
ब्राह्मण ने आगे कहा : हे मित्र, यद्यपि इस समय तुम मुझे तुरन्त नहीं पहचान सकते हो,किन्तु क्या तुम्हें स्मरण नहीं है कि भूतकाल में तुम मेरे अन्तरंग मित्र थे? दुर्भाग्यवश तुमने मेरासाथ छोड़ कर इस भौतिक जगत के भोक्ता का पद स्वीकार किया था।
"
हंसावहं च त्वं चार्य सखायौ मानसायनौ ।
अभूतामन्तरा वौकः सहस्त्रपरिवत्सरान् ॥
५४॥
हंसौ--दो हंस; अहम्ू--मैं; च--यथा; त्वमू--तुम; च-- भी; आर्य--हे महापुरुष; सखायौ--दो मित्र; मानस-अयनौ--मानससरोवर में एकसाथ; अभूताम्--हो गये; अन्तरा--पृथक् ; वा--निस्सन्देह; ओक:--अपने असली घर से; सहस्त्र--हजारों;परि--लगातार; वत्सरान्ू--वर्षो |
हे मित्र, मैं और तुम दोनों हंसों के तुल्य हैं।
हम एक ही मानसरोवर रूपी हृदय में साथ-साथरहते हैं, यद्यपि हम हजारों वर्षों से साथ साथ रह रहे हैं।
किन्तु फिर भी हम अपने मूल निवास सेबहुत दूर हैं।
"
स त्वं विहाय मां बन्धो गतो ग्राम्यमतिर्महीम् ।
विचरन्पदमद्राक्षी: कयाचिच्निर्मितं स्त्रिया ॥
५५॥
सः--वह हंस; त्वम्-तुम्हीं; विहाय--छोड़कर; मामू--मुझको; बन्धो--हे मित्र; गत:--चला गया; ग्राम्य-- भौतिक; मतिः --चेतना; महीम्--पृथ्वी पर; विचरन्ू--घूमते हुए; पदम्--पद; अद्राक्षी:--तुमने देखा; कयाचित्--किसी के द्वारा; निर्मितम्--निर्मित; स्त्रिया--स्त्री द्वारा |
हे मित्र, तुम मेरे वही मित्र हो।
जबसे तुमने मुझे छोड़ा है, तुम अधिकाधिक भौतिकतावादीहो गये हो और मेरी ओर न देख कर तुम इस संसार में, जिसे किसी स्त्री ने निर्मित किया है,विभिन्न रूपों में घूमते रहे हो।
"
पश्मारामं नवद्वारमेकपालं त्रिकोष्ठकम् ।
षट्कुलं पञ्जञविपणं पञ्ञप्रकृति स्त्रीधवम् ॥
५६॥
पश्च-आरामम्--पाँच उद्यान; नव-द्वारम्--नौ द्वार; एक--एक; पालमू--पालक; त्रि--तीन; कोष्ठकम्ू-- कमरे; घट्ू--छह;'कुलम्ू-परिवार; पञ्ञ-- पाँच; विपणम्--बाजार; पशञ्न--पाँच; प्रकृति-- भौतिक तत्त्व; स्त्री--स्त्री; धवम्--स्वामी |
उस नगर ( शरीर ) में पाँच उद्यान, नौ द्वार, एक पालक ( रक्षक ), तीन कमरे, छह परिवार,पाँच बाजार, पाँच तत्त्व तथा एक स्त्री है, जो घर की स्वामिनी है।
"
पश्न्द्रियार्था आरामा द्वार: प्राणा नव प्रभो ।
तेजोबन्नानि कोष्ठानि कुलमिन्द्रियसड्ग्रह: ॥
५७॥
पञ्ञ--पाँच; इन्द्रिय-अर्था:--इन्द्रियविषय; आरामा:--उद्यानों; द्वारः--दरवाजे; प्राणा:--इन्द्रियों के छिद्र; नव--नौ; प्रभो--हेराजा; तेज:-अपू--अग्नि तथा जल; अन्नानि--अन्न या पृथ्वी; कोष्ठानि--कोठे, कमरे; कुलम्--कुल, परिवार; इन्द्रिय-सड़्ग्रह:--पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन |
हे मित्र, पाँच उद्यान पाँच प्रकार के इन्द्रियसुख के विषय हैं और इसका रखवाला प्राण है,जो नौ द्वारों से आता जाता है।
तीन प्रकोष्ठ तीन प्रमुख अवयव--अग्नि, जल तथा पृथ्वी--हैं।
"
मन समेत पाँचों इन्द्रियों का समुच्चय इसके छह परिवार हैं।
विपणस्तु क्रियाशक्तिर्भूतप्रकृतिरव्यया ।
शक्त्यधीश: पुमांस्त्वत्र प्रविष्टो नावबुध्यते ॥
५८ ॥
विपण:--बाजार; तु--तब; क्रिया-शक्ति: --कर्मेन्द्रियाँ; भूत-- पाँच स्थूल तत्त्व; प्रकृतिः--भौतिक तत्त्व; अव्यया--शाश्वत;शक्ति--शक्ति; अधीश:ः--नियामक; पुमान्--मनुष्य; तु--तब; अत्र--यहाँ; प्रविष्ट:--घुसा हुआ; न--नहीं; अवबुध्यते--समझ में आता है।
पाँच बाजार पाँचों कर्मेन्द्रियाँ हैं।
वे पाँच शाश्वत तत्त्वों की संयुक्त शक्ति से अपना व्यापारकरती हैं।
इस सारी कर्मठता के पीछे आत्मा काम करता है।
आत्मा पुरुष है और वही वास्तविकभोक्ता है।
किन्तु इस समय शरीर रूपी नगर के भीतर छिपा होने के कारण वह ज्ञानशून्य है।
"
तस्मिस्त्वं रामया स्पृष्टो रममाणो श्रुतस्मृति: ।
तत्सड्भादीहशी प्राप्तो दशां पापीयर्ी प्रभो ॥
५९॥
तस्मिन्ू--उस स्थिति में; त्वम्--तुम; रामया--स्त्री के साथ; स्पृष्ट:ः --सम्पर्क में होने से; रममाण:--रमण करते हुए; अश्रुत-स्मृतिः--आध्यात्मिक अस्तित्व की याद किये बिना; तत्--उसके; सड्भात्--संगति से; ईहशीम्-- इस तरह की; प्राप्त: --प्राप्तहुईं; दशाम्--दशा, अवस्था; पापीयसीम्--पापकर्मों से पूर्ण; प्रभो--मेरे मित्र ।
हे मित्र, जब तुम भौतिक इच्छा रूपी स्त्री के साथ ऐसे शरीर में प्रवेश करते हो तो तुमइन्द्रियसुख में अत्यधिक लिप्त हो जाते हो।
इसीलिए तुम्हें अपना आध्यात्मिक जीवन भूल गयाहै।
अपनी भौतिक अवधारणाओं के कारण तुम्हें नाना कष्ट उठाने पड़ रहे हैं।
"
न त्वं विदर्भदुहिता नायं वीर: सुहृत्तव ।
न पतिस्त्वं पुरञ्जन्या रुद्धो नवमुखे यया ॥
६०॥
न--न तो; त्वमू-तुम; विदर्भ-दुहिता--विदर्भ की पुत्री; न--नहीं; अयम्--यह; वीर:--वीर; सु-हत्--हितैषी पति; तव--तुम्हारा; न--नहीं; पति:--पति; त्वम्--तुम; पुरक्षन्या:--पुरञ्ञनी की; रुद्ध:--बन्दी; नव-मुखे--नव द्वार वाले शरीर में;यया--माया सेवास्तव में न तो तुम विदर्भ की पुत्री हो और न यह पुरुष ( मलयध्वज ) तुम्हारा हितेच्छु पतिहै।
न ही तुम पुरझनी के वास्तविक पति थे।
तुम तो इस नव द्वार वाले शरीर में केवल बन्दी थे।
"
माया होषा मया सूष्टा यत्पुमांसं स्त्रियं सतीम् ।
मन्यसे नोभयं यद्दै हंसी पश्यावयोगतिम् ॥
६१॥
माया--माया; हि--निश्चय ही; एघा--यह; मया--मेरे द्वारा; सृष्ठा--रचित; यत्--जिससे; पुमांसम्--नर को; स्त्रियमू--नारीको; सतीम्ू--साध्वी; मन्यसे--तुम मानते हो; न--नहीं; उभयम्--दोनों; यत्--क्योंकि; वै--निश्चय ही; हंसौ-- भौतिक'कल्मष से रहित; पश्य--देखो; आवयो: -- हमारी; गतिम्-- अन्तिम स्थिति |
तुम कभी अपने को पुरुष, कभी सती स्त्री और कभी नपुंसक मानते हो।
यह सब शरीर केकारण है, जो माया द्वारा उत्पन्न है।
यह माया मेरी शक्ति है और वास्तव में हम दोनों--तुम औरमैं--विशुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप हैं।
तुम इसे समझने का प्रयास करो।
मैं वास्तविक स्थितिबताने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
"
अहं भवान्न चान्यस्त्वं त्वमेवाहं विचक्ष्व भो: ।
न नौ पश्यन्ति कवयश्छिद्रं जातु मनागपि ॥
६२॥
अहम्ू-ैं; भवानू--तुम; न--नहीं; च-- भी; अन्य: --भिन्न; त्वमू--तुम; त्वमू--तुम; एव--निश्चय ही; अहमू--मैं हूँ;विचक्ष्व--देखो; भो:--हे मित्र; न--नहीं; नौ--हमारा; पश्यन्ति--देखते हैं; कवयः--विद्वान पुरुष; छिद्रमू--दोष; जातु--किसी समय; मनाक्--किश्ञलित; अपि-- भी
हे मित्र, मैं परमात्मा और तुम आत्मा होकर भी हम गुणों में भिन्न नहीं हैं, क्योंकि हम दोनोंआध्यात्मिक हैं।
वास्तव में, हे मित्र, तुम मुझसे अपनी स्वाभाविक स्थिति में भी गुणात्मक रूपसे भिन्न नहीं हो।
तुम इस विषय पर तनिक विचार करो।
जो वास्तव में महान् विद्वान् हैं औरजिल्हें ज्ञान है वे तुममें तथा मुझमें कोई गुणात्मक अन्तर नहीं पाते।
"
यथा पुरुष आत्मानमेकमादर्शचश्षुषो: ।
द्विधाभूतमवेक्षेत तथेवान्तरमावयो: ॥
६३ ॥
यथा--जिस तरह; पुरुष: --जीवात्मा; आत्मानम्--अपने शरीर को; एकम्--एक; आदर्श--दर्पण में; चक्षुषो: --आँखों से;द्विधा-आभूतम्--दो के रूप में उपस्थित; अवेक्षेत--देखता है; तथा--उसी तरह; एव--निश्चय ही; अन्तरम्--अन्तर;आवयो:--हम दोनों में |
जिस प्रकार मनुष्य अपने शरीर के प्रतिबिम्ब को दर्पण में अपने से अभिन्न देखता है जब किदूसरे लोग वास्तव में दो शरीर देखते हैं, उसी प्रकार अपनी इस भौतिक अवस्था में जिसमें जीवप्रभावित होकर भी प्रभावित नहीं होता, ईश्वर तथा जीव में अन्तर होता है।
"
एवं स मानसो हंसो हंसेन प्रतिबोधित: ।
स्वस्थस्तद्व्यभिचारेण नष्टामाप पुनः स्मृतिम् ॥
६४॥
एवम्--इस प्रकार; सः--वह ( जीवात्मा ); मानस:--मन में एकसाथ रहने वाला; हंस:--हंस के समान; हंसेन--दूसरे हंस के द्वारा; प्रतिबोधित:--उपदेशित होकर; स्व-स्थ:--आत्म-साक्षात्कार में स्थित; तत्-व्यभिचारेण-- परमात्मा से बिछुड़ने के कारण; नष्टामू--नष्ट हुआ; आप-प्राप्त; पुन:--फिर से; स्मृतिमू--वास्तविक स्मरण शक्ति
इस प्रकार दोनों हंस हृदय में एकसाथ रहते हैं।
जब एक हंस दूसरे को उपदेश देता है, तो वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहता है।
इसका अर्थ है कि वह अपनी मूल कृष्णचेतना को प्राप्त कर लेता है, जिसे उसने भौतिक आसक्ति के कारण खो दिया था।
"
बह्दिष्मन्नेतदध्यात्मं पारोक्ष्येण प्रदर्शितम् ।
यत्परोक्षप्रियो देवो भगवान्विश्वभावन: ॥
६५॥
बर्हिष्मन्--हे राजा प्राचीनबर्हिं; एतत्--यह; अध्यात्मम्--आत्म-साक्षात्कार का वर्णन; पारोक्ष्येण--परोक्ष रूप से;प्रदर्शितम्ू--उपदेश किया; यत्--क्योंकि ; परोक्ष-प्रिय:--अ प्रत्यक्ष वर्णन से रोचक; देव:--परमे ध्वर; भगवान्-- भगवान्;विश्व-भावन:--समस्त कारणों के कारण।
हे राजा प्राचीनबर्हि, समस्त कारणों के कारण भगवान् परोक्ष रूप से समझे जाने के लिएसुविख्यात हैं।
इस प्रकार मैने तुमसे पुरश्नन की कथा कही।
वास्तव में यह आत्म-साक्षात्कार केलिए उपदेश है।
"
अध्याय उनतीसवां: नारद और राजा प्राचीनबरही के बीच बातचीत
4.29प्राच्चीनबर्हिरुवाचभगवंस्ते वचोस्माभिर्न सम्यगवगम्यते ।
कवयस्तद्विजानन्ति न बयं॑ कर्ममोहिता: ॥
१॥
प्राचीनबर्हि: उवाच--राजा प्राचीनबर्हि ने कहा; भगवन्--हे स्वामी; ते--तुम्हारे; वच:--शब्द; अस्माभि:--हमारे द्वारा; न--कभी नहीं; सम्यक्--पूर्णतया; अवगम्यते--समझे जाते हैं; कवयः--पटु लोग; तत्--वह; विजानन्ति--समझ सकते हैं; न--कभी नहीं; वयम्--हम; कर्म--कर्मो द्वारा; मोहिता:--मोहित |
राजा प्राचीनबर्हि ने उत्तर दिया : हे प्रभु, हम आपके कहे गये राजा पुरक्षन के रूपकआख्वयान ( अन्योक्ति ) का सारांश पूर्ण रूप से नहीं समझ सके।
वास्तव में जो आध्यात्मिक ज्ञानमें निपुण हैं, वे तो समझ सकते हैं, किन्तु हम जैसे सकाम कर्मो में अत्यधिक लिप्त पुरुषों केलिए आपके आख्यान का तात्पर्य समझ पाना अत्यन्त कठिन है।
"
नारद उबाचपुरुष पुरञ्जनं विद्याद्यद्व्यनक्त्यात्मनः पुरम् ।
एकद्रित्रिचतुष्पादं बहुपादमपादकम् ॥
२॥
नारद: उवाच--नारद ने कहा; पुरुषम्ू--जीव, भोक्ता को; पुरक्षनमम्-राजा पुरञ्ञन; विद्यात्--जानना चाहिए; यत्--जिससे;व्यनक्ति--उत्पन्न करता है; आत्मन:--स्वयं का; पुरमू--वासस्थान; एक--एक; द्वि--दो; त्रि-- तीन; चतुः-पादम्--चार पैरोंवाला, चौपाया; बहु-पादम्-- अनेक पैरों वाला; अपादकम्--पाँवहीन ।
नारद मुनि ने कहा : तुम जानो कि पुरञ्जन रूपी जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न रूपों मेंदेहान्तर करता रहता है, जो एक, दो, तीन, चार या अनेक पाँव वाले या पाँवविहीन हो सकते हैं।
इन विभिन्न प्रकार के रूपों में देहान्तर करने वाला जीव तथाकथित भोक्ता के रूप में पुरक्षनकहा जाता है।
"
योउविज्ञाताहतस्तस्य पुरुषस्य सखेश्वर: ।
यन्न विज्ञायते पुम्भि्नामभिर्वा क्रियागुणै: ॥
३॥
यः--जो; अविज्ञात--अज्ञात; आहत: --वर्णित; तस्थ--उस; पुरुषस्य--जीव का; सखा--चिर मित्र; ईश्वर: -- स्वामी; यत्--क्योंकि; न--कभी नहीं; विज्ञायते--जाना जाता है; पुम्भि:--जीवों द्वारा; नामभि:--नामों से; वा-- अथवा; क्रिया-गुणैः--कर्मो या गुणों द्वारा |
जिस पुरुष को मैंने अविज्ञात कहा है, वह जीव का स्वामी तथा शाश्वत मित्र परमेश्वर है।
चूँकि जीव भगवान् को भौतिक नामों, गुणों या कर्मों द्वारा नहीं जान सकते, फलतः वहबद्धजीव के लिए सदैव अज्ञात रहता है।
"
यदा जिघृश्षन्पुरुष: कार्स्न्येन प्रकृतेर्गुणान् ।
नदद्वारं द्विहस्ताडुप्रि तत्रामनुत साध्विति ॥
४॥
यदा--जब; जिधृक्षन्-- भोगने की इच्छा से; पुरुष: --जीव; कार्त्स्येन--समग्र रूप में; प्रकृतेः--प्रकृति का; गुणान्ू--गुण;नव-द्वारम्--नौ द्वारों वाला; द्वि--दो; हस्त--हाथ; अद्भध्रि-- पाँव; तत्र--वहाँ; अमनुत--उसने सोचा; साधु--उत्तम; इति--इस प्रकार।
जब जीव समग्ररूप से प्रकृति के गुणों का भोग करने की इच्छा करता है, तो वह अनेकशारीरिक रूपों में से उस शरीर को चुनता है, जिसमें नौ द्वार, दो हाथ तथा दो पाँव होते हैं।
इसप्रकार वह मनुष्य या देवता बनना श्रेयस्कर मानता है।
"
बुद्धि तु प्रमदां विद्यान्ममाहमिति यत्कृतम् ।
यामधिष्ठाय देहेउस्मिन्पुमान्भुड़े क्षभिर्गुणान् ॥
५॥
बुद्धिम्-बुद्धि; तु--तब; प्रमदाम्--तरुणी स्त्री ( पुरझ्ननी ) को; विद्यात्--जानना चाहिए; मम--मेरा; अहम्--मैं; इति--इसप्रकार; यत्-कृतम्--बुद्धि द्वारा सम्पन्न; याम्--जो बुद्धि; अधिष्ठाय--शरण ग्रहण करके; देहे--शरीर में; अस्मिन्--इस;पुमान्ू--जीव; भुड्ढे --भोगता है ( कष्ट उठाता तथा सुख पाता है ); अक्षभि:--इन्द्रियों से; गुणान्ू--प्रकृति के तीन गुण।
नारद मुनि ने आगे कहा : इस प्रसंग में उल्लिखित प्रमदा शब्द भौतिक बुद्धि या अविद्या केलिए प्रयुक्त है।
इसे इसी रूप में समझो।
जब मनुष्य ऐसी बुद्धि का आश्रय ग्रहण करता है, तोवह अपने को शरीर समझ बैठता है।
'मैं' तथा 'मेरी ' की भौतिक बुद्धि से प्रभावित होकर वह अपनी इन्द्रियों से दुख तथा सुख का अनुभव करने लगता है।
इस प्रकार जीव बन्धन में पड़जाता है।
"
सखाय इन्द्रियगणा ज्ञानं कर्म च यत्कृतम् ।
सख्यस्तद्ुत्तय: प्राण: पञ्जञवृत्तियथोरग: ॥
६॥
सखाय:--मित्र; इन्द्रिय-गणा:--सारी इन्द्रियाँ; ज्ञानम्ू--ज्ञान; कर्म--कार्य; च-- भी; यत्-कृतम्--इन्द्रियों द्वारा किया हुआ;सख्य:--सखियाँ; तत्--इन्द्रियों की; वृत्तय:--व्यापार; प्राण:--प्राणवायु; पदञ्ञ-वृत्तिः--पाँच प्रकार की वृत्तियों वाला;यथा--जिस प्रकार; उरग:--सर्प |
पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँचों कर्मेन्द्रियाँ पुरश्ननी के नर मित्र हैं।
जीव को इन इन्द्रियों द्वाराज्ञान प्राप्त करने तथा कार्य में प्रवृत्त होने में सहायता मिलती है।
इन्द्रियों के व्यापार उसकीसखियाँ हैं और वह सर्प जिसे पाँच फनों वाला बताया गया है, पाँच प्रकार की क्रियाओं केभीतर कार्यशील प्राणवायु है।
"
बृहद्वलं मनो विद्यादुभयेन्द्रियनायकम् ।
पशञ्ञाला: पञ्ञ विषया यन्मध्ये नवर्ख पुरम् ॥
७॥
बृहत्-बलम्--अत्यन्त शक्तिशाली; मन:--मन; विद्यात्--जानना चाहिए; उभय-इन्द्रिय--ज्ञान तथा कर्म दोनों प्रकार कीइन्द्रियाँ; नायकम्--नेता; पञ्ञाला:--पञ्ञाल नामक राज्य; पञ्ञन--पाँच; विषया: --इन्द्रिय पदार्थ; यत्--जिसके ; मध्ये--बीचमें; नव-खम्--नव छिद्रों वाली; पुरम्--नगरीग्यारहवाँ सेवक, जो अन्यों का नायक है, मन कहलाता है।
वह कर्मेन्द्रियों तथाज्ञानेन्द्रियों--इन दोनों का नायक है।
पञ्ञाल राज्य वह वातावरण है, जिसमें पाँच इन्द्रिय-पदार्थों( विषयों ) का भोग किया जाता है।
इस पञ्ञाल राज्य के भीतर शरीर रूपी नगरी है, जिसमें नौद्वार ( छिद्र ) हैं।
"
अक्षिणी नासिके कर्णों मुखं शिश्नगुदाविति ।
द्वे द्वे द्वारा बहिरयाति यस्तदिन्द्रियसंयुत: ॥
८ ॥
अक्षिणी--दो आँखें; नासिके--दो नथुने; कर्णौ--दो कान; मुखम्--मुँह; शिश्न--लिंग; गुदौ--तथा मलद्वार; इति--इसप्रकार; द्वे--दो; द्वे-- दो; द्वारौ--द्वार; बहिः--बाहर; याति--जाता है; यः--जो; तत्--द्वारों से होकर; इन्द्रिय--इन्द्रियों केद्वारा; संयुत:--साथ-साथ |
आँखें, नथुने तथा कान--इन द्वारों की जोड़ियाँ एक स्थान पर स्थित हैं।
मुँह, शिश्न तथागुदा भी अन्य द्वार हैं।
इन नौ द्वारों वाले शरीर में स्थित होकर जीव बाह्य तटः भौतिक जगत मेंकार्य करता है और रूप तथा स्वाद जैसे इन्द्रियविषयों का भोग करता है।
"
अक्षिणी नासिके आस्यमिति पदञ्ञ पुरः कृताःदक्षिणा दक्षिण: कर्ण उत्तरा चोत्तर: स्मृत: ।
पश्चिमे इत्यधो द्वारौ गुदं शिश्नमिहोच्यते ॥
९॥
अक्षिणी--दो नेत्र; नासिके --दो नथुने; आस्यम्--मुँह; इति--इस प्रकार; पञ्ञ--पाँच; पुरः:--सामने; कृता:--निर्मित;दक्षिणा--दक्षिणी द्वार; दक्षिण: --दाहिना; कर्ण: --कान; उत्तरा--उत्तरी द्वार; च-- भी; उत्तरः--बायाँ कान; स्मृत:--जानाहुआ; पश्चिमे--पश्चिम दिशा में; इति--इस प्रकार; अध:--नीचे; द्वारौ--दो द्वार; गुदम्--मलद्वार; शिश्नमू--लिंग ( पुरुष कीइन्द्रिय ); इह--यहाँ; उच्यते--कहा जाता है।
दो आँखें, दो नथुने तथा मुँह ये पाँचों सामने स्थित हैं।
दाहिना कान दक्षिणी द्वार है औरबायाँ कान उत्तरी द्वार।
पश्चिम की ओर स्थित दो छिद्र या द्वार गुदा तथा शिश्न कहलाते हैं।
"
खटद्योताविर्मुखी चात्र नेत्रे एकत्र निर्मिते ।
रूप॑ विध्राजितं ताभ्यां विचष्टे चक्षुषेश्वरः ॥
१०॥
खटद्योता--खद्योत नामक; आविर्मुखी--आविर्मुखी नामक; च-- भी; अत्र--यहाँ; नेत्रे--दो आँखें; एकत्र--एक स्थान पर;निर्मिते--निर्मित; रूपमू--रूप; विभ्राजितम्-विश्राजित ( चमकीला ) नामक; ताभ्याम्--आखों से होकर; विचष्टे -- देखते हैं;चश्लुषा--नेत्रों से; ईश्वर: --स्वामी |
खटद्योत तथा आविर्मुखी नाम से जिन दो द्वारों का वर्णन किया गया है वे एक ही स्थान परअगल-बगल स्थित दो नेत्र हैं।
विध्राजित नामक नगरी को रूप समझना चाहिए।
इस प्रकारदोनों नेत्र सदैव विभिन्न प्रकार के रूपों को देखने में व्यस्त रहते हैं।
"
नलिनी नालिनी नासे गन्ध: सौरभ उच्यते ।
घ्राणोवधूतो मुख्यास्यं विषणो वाग्रसविद्रसः ॥
११॥
नलिनी--नलिनी नामक; नालिनी--नालिनी नामक; नासे--दोनों नथुने; गन्ध: --सुगन्धित; सौरभ:--सौरभ ( सुगन्ध );उच्यते--कहलाता है; प्राण: --गंध की इन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय; अवधूत:--अवधूत नामक; मुख्या--मुख्या नामक( प्रमुख );आस्यम्-- मुँह; विषण:--विपण नामक; वाक्--वाणी; रस-वित्--रसज्ञ, स्वाद लेने में पटु; रसः--स्वाद की इन्द्रिय(जीभ )
नलिनी तथा नालिनी नामक दोनों द्वार दो नासाछिद्र ( नथुने ) हैं और सुगन््ध को सौरभनामक नगरी ही कहा गया है।
अवधूत नामक मित्र प्राणेन्द्रिय है।
मुख्या नामक द्वार मुख है औरविपण वावशक्ति है।
रसज्ञ ही स्वाद की इन्द्रिय ( जीभ ) है।
"
आपणो व्यवहारोत्र चित्रमन्धो बहूदनम् ।
पितृहूर्दक्षिण: कर्ण उत्तरो देवहू: स्मृत: ॥
१२॥
आपणः:--आपण नामक; व्यवहार:--जीभ का कार्य; अत्र--यहाँ; चित्रमू--सभी प्रकार के; अन्ध:--खाद्य; बहूदनम्--बहूदन नामक; पितृ-हू: --पितृहू नामक; दक्षिण:--दाहिना; कर्ण: --कान; उत्तर: --बायाँ; देव-हू:--देवहू; स्मृतः--कहलाताहै
आपण नामक नगरी जीभ के बोलने के कार्य की सूचक है और बहूदन तरह-तरह केव्यंजनों का सूचक है।
दायाँ कान पितृहू द्वार कहलाता है और बायाँ कान देवहू द्वार।
"
प्रवृत्तं च निवृत्तं च शास्त्र पञ्ञालसंज्ञितम् ।
पितृयानं देवयान श्रोत्राच्छुतधरादव्जेत् ॥
१३॥
प्रवृत्तमू--इन्द्रिय भोग की विधि; च--भी; निवृत्तम्--विरक्ति की विधि; च-- भी; शास्त्रमू-शास्त्र; पञ्ञाल--पंचाल;संज्ञितमू--के नाम से अभिहित, नामक; पितृ-यानम्--पितृलोक को जाते हुए; देव-यानम्--देवलोक को जाते हुए; श्रोत्रात्--सुनकर; श्रुत-धरात्--श्रुतधर नामक संगी से; ब्रजेत्ू--ऊपर उठाया जा सकता है।
नारद मुनि ने आगे कहा : दक्षिण पञ्ञनाल कही जाने वाली नगरी सकाम कर्म में भोग कीविधि अर्थात् प्रवृत्ति-मार्ग को बताने वाले शास्त्रों की सूचक है।
उत्तर पञ्ञाल नामक अन्य नगरीनिवृत्ति मार्ग--सकाम कर्म को घटाने तथा ज्ञान को बढ़ाने वाला मार्ग--बताने वाले शास्त्रों केलिए प्रयुक्त है।
जीव को ज्ञान की प्राप्ति दो कानों द्वारा होती है और कुछ लोग पितृलोक तथाकुछ देवलोक को जाते हैं।
यह सब दोनों कानों द्वारा सम्भव होता है।
"
आसूुरी मेढ़मर्वाद्धार्व्यवायो ग्रामिणां रति: ।
उपस्थो दुर्मदः प्रोक्तो निरतिर्गुद उच्यते ॥
१४॥
आसुरी--आसुरी नामक; मेढ़म्--शिश्न ( लिंग ); अर्वाकु-मूर्खो तथा उचक्कों का; द्वा:--द्वार; व्यवाय:--स्त्री-प्रसंग करने केलिए; ग्रामिणाम्--सामान्य पुरुषों की; रतिः--आसक्ति; उपस्थ:--प्रजननेन्द्रिय; दुर्मद:--दुर्मद ; प्रोक्त:--कहलाती है;निरृतिः--निरऋति; गुदः--गुदा; उच्चते--कहलाती है।
ग्रामक नामक पुरी, जहाँ निचले आसुरी द्वार ( शिश्न ) से पहुँचा जाता है, स्त्री-संभोग केलिए है जो उन सामान्य पुरुषों के लिए अत्यन्त मोहक है जो निरे मूर्ख एवं धूर्त हैं।
जननेन्द्रियदुर्मद कहलाती है और गुदा निर्क्रति कहलाती है।
"
वैशसं नरकं पायुर्लुब्धकोन्धौ तु मे श्रुणु ।
हस्तपादौ पुमांस्ताभ्यां युक्तो याति करोति च ॥
१५॥
वैशसम्--वैशस नामक; नरकम्--नरक; पायु:--गुदा नामक कर्मेन्द्रिय; लुब्धकः:--लुब्धक ( अत्यन्त लालची ) नामक;अन्धौ--अन्धा; तु--तब; मे--मुझसे; श्रुणु--सुनो; हस्त-पादौ--हाथ तथा पाँव; पुमान्ू--जीव; ताभ्याम्ू--उनके साथ;युक्त:--लगा हुआ; याति--जाता है; करोति--करता है; च--तथा |
जब यह कहा जाता है कि पुरञ्नन वैशस जाता है, तो उसका अर्थ है कि वह नरक जाता है।
उसके साथ लुब्धक रहता है, जो गुदा नामक कर्मेन्द्रिय है।
इसके पूर्व मैंने दो अंधे साथियों काभी उल्लेख किया था।
इन्हें हाथ तथा पाँव समझना चाहिए।
जीव हाथ तथा पाँव की सहायता सेसभी प्रकार के कार्य करता और इधर-उधर जाता है।
"
अन्तःपुरं च हृदयं विषूचिर्मन उच्यते ।
तत्र मोहं प्रसादं वा हर्ष प्राप्योति तदगुणैः ॥
१६॥
अन्तः-पुरमू--रनिवास; च--तथा; हृदयम्--हृदय; विषूचि:--विषूचिन् नामक दास; मन:ः--मन; उच्यते--कहलाता है; तत्र--वहाँ; मोहम्--मोह; प्रसादम्--सन्तोष; वा--अथवा; हर्षम्--हर्ष; प्राप्योति-- प्राप्त करता है; तत्ू--मन का; गुणैः-- प्रकृति केगुणों द्वारा)अन्तःपुर हृदय का सूचक है।
विषूचिन् ( सर्वत्र जाते हुए ) मन को बताने वाला है।
जीव मनके भीतर प्रकृति के गुणों का भोग करता है।
ये सारे प्रभाव कभी मोह उत्पन्न करते हैं, तो कभीसन््तोष तथा उललास।
"
यथा यथा विक्रियते गुणाक्तो विकरोति वा ।
तथा तथोपद्रष्टात्मा तद्ुत्तीरनुकार्यते ॥
१७॥
यथा यथा--जिस जिस प्रकार; विक्रियते--विश्षुब्ध होती है; गुण-अक्त:--गुणों से लिप्त; विकरोति--जैसा करती है; वा--अथवा; तथा तथा--उसी उसी प्रकार; उपद्रष्टा--दर्शक; आत्मा--आत्मा; तत्--बुद्ध्धि का; वृत्ती:--व्यापार; अनुकार्यते--अनुकरण करता है।
पहले यह बताया जा चुका है कि रानी मनुष्य की बुद्धि है।
सोते समय या जागते हुए बुद्धिविभिन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है।
दूषित बुद्धि के कारण जीव कुछ सोचता है और अपनीबुद्धि के कार्य-कारणों का केवल अनुकरण करता है।
"
देहो रथस्त्विन्द्रियाश्चव: संवत्सररयोगति: ।
द्विकर्मचक्रस्त्रिगुणध्वज: पञ्ञासुबन्धुर: ॥
१८॥
मनोरश्मिर्बुद्धिसूतो हन्नीडो द्न्द्रकूबरः ।
पश्लेन्द्रियार्थप्रक्षेप: सप्तधातुवरूथकः ॥
१९॥
आकूतिर्विक्रमो बाह्मो मृगतृष्णां प्रधावति ।
एकादरशेन्द्रियचमू: पञ्ञलसूनाविनोदकृत् ॥
२०॥
देह:--शरीर; रथ:--रथ; तु--लेकिन; इन्द्रिय--ज्ञानेन्द्रियाँ; अश्व:--घोड़े; संवत्सर--समग्र वर्ष; रयध:--जीवन अवधि, आयु;अगतिः--गतिहीन; द्वि--दो; कर्म--कर्म; चक्र:--पहिए; त्रि--तीन; गुण-- प्रकृति के गुण; ध्वज:--पताकाएँ; पञ्ञ-पाँच;असु--प्राण; बन्धुर:ः--बन्धन; मनः--मन; रश्मि: --र ज्जु; बुस्दवि-- बुद्धि; सूत:--रथ चलाने वाला, सारथी; हत्--हृदय;नीड:--बैठने का स्थान; इन्द्र--द्वैत भाव; कूबर:--जुए; पञ्ञ--पाँच; इन्द्रिय-अर्थ--इन्द्रिय विषय; प्रक्षेप:--आयुध; सप्त--सात; धातु--तत्त्व; वरूथक:--आवरण; आकूति:--कर्मेन्द्रियों के प्रयास; विक्रम:--शौर्य; बाह्य: --बाहरी; मृग-तृष्णाम्--झूठी महत्त्वाकांक्षा; प्रधावति--पीछे-पीछे दौड़ता है; एकादश--ग्यारह; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; चमूः--सैनिक; पञ्ञ--पाँच;सूना--ईर्ष्या; विनोद--हर्ष, विलास; कृतू-कार्य |
नारद मुनि ने आगे कहा : जिसे मैने रथ कहा था, वह वास्तव में शरीर है।
इन्द्रियाँ ही वे घोड़ेहैं, जो रथ को खींचते हैं।
ज्यों-ज्यों वर्षानुवर्ष समय बीतता जाता है, ये घोड़े बिना किसीअवरशोेध के दौते हैं, किन्तु वास्तव में वे कोई प्रगति नहीं कर पाते।
पाप तथा पुण्य इस रथ के दोपहिए हैं।
प्रकृति के तीनों गुण इस रथ की ध्वजाएँ हैं।
पाँच प्रकार के प्राण जीव के बन्धन बनते हैं और मन को रस्सी ( रज्जु ) माना जाता है।
बुद्धि इस रथ का सारथी है।
हृदय रथ में बैठने कास्थान है और हर्ष तथा पीड़ा जैसे द्वन्द्द जुए हैं।
सातों तत्त्व ( धातुएँ) इस रथ के ओहार( आवरण ) हैं, पाँचों कर्मेन्द्रयाँ उसकी पाँच प्रकार की बाह्य गतियाँ हैं और ग्यारहों इन्द्रियाँसैनिक हैं।
इन्द्रिय-सुख में मग्न रहने के कारण रथ पर आसीन जीव झूठी अभिलाषाओं को पूराकरने के लिए इतराता है और जन्म-जन्मांतर तक इन्द्रियसुख के पीछे दौड़ता रहता है।
"
संवत्सरश्रण्डवेग: कालो येनोपलक्षित:तस्याहानीह गन्धर्वा गन्धर्व्यों रात्रय: स्पृता: ।
हरन्त्यायु: परिक्रान्त्या पषष्ट्युत्तरशतत्रयम् ॥
२१॥
संवत्सर:--वर्ष; चण्ड-वेग: --चण्डवेग नामक; काल:--समय; येन--जिससे; उपलक्षित:--सांकेतिक; तस्य--आयु का;अहानि--दिन; इह--इस जीवन में; गन्धर्वा:--गन्धर्वगण; गन्धर्व्य:--गन्धर्वियाँ; रात्रय:--रात्रियाँ; स्मृता: --जानी जाती हैं;हरन्ति--ले लेते हैं; आयु:--आयु, उप्र; परिक्रान्त्या-- भ्रमण करके; षष्टि--साठ; उत्तर--अधिक; शत--सौ; त्रयमू--तीन
जिसे पहले चण्डवेग अर्थात् शक्तिशाली काल कहा गया था वह दिन तथा रात से बना हैजिनके नाम गन्धर्व और गन्धर्वी हैं।
शरीर की आयु दिन तथा रात के बीतने से क्रमशः घटतीजाती है जिनकी संख्या ३६० है।
"
कालकन्या जरा साक्षाललोकस्तां नाभिनन्दति ।
स्वसारं जगूहे मृत्यु: क्षयाय यवने श्वर: ॥
२२॥
काल-कन्या--काल की पुत्री; जरा--वृद्धावस्था; साक्षात्-प्रत्यक्ष; लोक:--समस्त जीव; तामू--उसको; न--नहीं;अभिनन्दति--स्वागत करते हैं; स्वसारम्ू--अपनी बहन के रूप में; जगृहे--स्वीकार किया; मृत्यु:--मृत्यु; क्षयाय--नाश केलिए; यवन-ईश्वरः--यवनों के राजा ने |
जिसे कालकन्या कहा गया है, उसे वृद्धावस्था (जरा ) समझना चाहिए।
कोई भीवृद्धावस्था नहीं स्वीकार करना चाहता, किन्तु यवनराज, जो साक्षात् मृत्यु है, जरा ( वृद्धावस्था )को अपनी बहन के रूप में स्वीकार करता है।
"
आधयो व्याधयस्तस्य सैनिका यवनाश्चरा: ।
भूतोपसर्गाशुरयः प्रज्वारो द्विविधो ज्वरः ॥
२३॥
एवं बहुविधेर्दु:खैदेवभूतात्मसम्भवै: ।
क्लिश्यमान: शतं वर्ष देहे देही तमोवृतः ॥
२४॥
प्राणेन्द्रियमनोधर्मानात्मन्यध्यस्य निर्गुण: ।
शेते कामलवान्ध्यायन्ममाहमिति कर्मकृत् ॥
२५॥
आधय:--मानसिक क्लेश; व्याधय:--शारीरिक क्लेश या रोग; तस्य--यवतने श्वर के; सैनिका:--सिपाही; यवना:--यवनगण;चरा:--अनुचर; भूत--जीवों के; उपसर्ग--विपत्ति के समय; आशु--तुरन््त; रयः--अत्यन्त शक्तिशाली; प्रज्वार:--प्रज्वारनामक; द्वि-विध:--दो प्रकार का; ज्वरः--ज्वर; एवम्--इस प्रकार; बहु-विधै:--विभिन्न प्रकारों के; दुःखै:--कष्टों के द्वारा;दैव--भाग्यवश; भूत--अन्य जीवों द्वारा; आत्म--शरीर तथा मन द्वारा; सम्भवैः--उत्पन्न; क्लिएयमान:--कष्ट पाकर; शतम्--सौ; वर्षम्--वर्ष; देहे--शरीर में; देही --जीव; तम:-वृत:-- भौतिक अंधकार से आच्छादित; प्राण--जीवन का; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; मनः--मन का; धर्मानू--गुण; आत्मनि--आत्मा को; अध्यस्य-- भ्रमवश मानते हुए; निर्गुण:--यद्यपि दिव्य;शेते--लेट जाता है; काम--इन्द्रियसुख का; लवानू--खंडों पर; ध्यायन्-- ध्यान करते हुए; मम--मेरा; अहम्--मैं; इति--इसप्रकार; कर्म-कृत्ू-कर्ता ॥
यवनेश्वर ( यमराज ) के अनुचर मृत्यु के सैनिक कहलाते हैं, जो शरीर तथा मन सम्बन्धीविविध क्लेश माने जाते हैं।
प्रज्वार दो प्रकार के ज्वरों का सूचक है--अत्यधिक ताप तथाअत्यधिक शीत--जैसे टाइफाइड तथा निमोनिया।
शरीर के भीतर लेटा हुआ जीव विविधक्लेशों द्वारा, जो दैविक, भौतिक तथा अपने ही शरीर तथा मन से सम्बन्धित हैं, विचलित होतारहता है।
समस्त प्रकार के क्लेशों के होते हुए भी जीव इस संसार को भोगने की इच्छा सेअनेकानेक योजनाओं में बह जाता है।
निर्गुण ( दिव्य ) होकर भी जीव अपने अज्ञान के कारणअहंकारवश ( मैं तथा मेरा ) इन भौतिक कष्टों को स्वीकार करता है।
इस प्रकार वह इस शरीरके भीतर सौ वर्षो तक रहता है।
"
पुरुषस्तु विषज्नेत गुणेषु प्रकृतेः स्वहक् ॥
२६॥
गुणाभिमानी स तदा कर्माणि कुरुतेडवशः ।
शुक्ल कृष्णं लोहितं वा यथाकर्माभिजायते ॥
२७॥
यदा--जब; आत्मानम्--परमात्मा को; अविज्ञाय-- भूलकर; भगवन्तम्-- भगवान्; परम्--परम; गुरुम्--उपदेशक को;पुरुष:--जीव; तु--तब; विषज्जेत--अपने को हवाले करता है; गुणेषु--गुणों के प्रति; प्रकृते:--प्रकृति के; स्व-हक्--अपनाकल्याण देखने वाला; गुण-अभिमानी -- प्रकृति के गुणों से अपनी पहचान करने वाला; सः--वह; तदा--उस समय;कर्माणि--कर्म; कुरुते--करता है; अवशः --तुरन््त; शुक्लम्-- श्वेत; कृष्णम्--काला, श्याम; लोहितमू--लाल; वा--अथवा;यथा--के अनुसार; कर्म--कर्म; अभिजायते--जन्म लेता है
जीव की यह प्रकृति है कि उसे अपना अच्छा या बुरा भाग्य चुनने की कुछ-कुछ छूट है,किन्तु जब वह अपने परम स्वामी भगवान् को भुला देता है, तो वह अपने को प्रकृति के गुणों केहवाले कर देता है।
इस तरह प्रकृति के गुणों के वशीभूत होकर वह अपने को शरीर मान बैठताहै।
कभी वह तमोगुण, तो कभी रजोगुण और कभी सतोगुण के अधीन होता है।
इस प्रकारजीव प्रकृति के गुणों के अधीन रह कर विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त करता है।
"
शुक्लात्प्रकाशभूयिष्टॉललोकानाप्नोति कर्हिचित् ।
दुःखोदर्कान्क्रियायासांस्तम:शोकोत्कटान्क्वचित् ॥
२८ ॥
शुक्लात्--सतोगुण से; प्रकाश--प्रकाश से; भूयिष्ठान्--गुणसम्पन्न; लोकान्ू--लोक; आप्नोति--प्राप्त करता है; क्हिंचित्--कभी-कभी; दुःख--कष्ट; उदर्कान्--परिणाम; क्रिया-आयासान्--कठिन कार्यो से पूर्ण; तम:--अंधकार; शोक--शोक में;उत्कटानू--परिपूर्ण, बहुल; क्वचित्--कभी-कभी ।
जो सतोगुणी हैं, वे वैदिक आदेशों के अनुसार पुण्यकर्म करते हैं और इस तरह वेउच्चलोकों को जाते हैं जहाँ देवों का निवास है।
जो रजोगुणी हैं, वे मनुष्य लोक में विभिन्नप्रकार के उत्पादक काम करते हैं।
इसी प्रकार तमोगुणी पुरुष विभिन्न प्रकार के कष्ट उठाते हैंऔर पशु जगत में वास करते हैं।
"
क्वचित्पुमान्क्वचिच्च स्त्री क्वचिन्नो भयमन्धधी: ।
देवो मनुष्यस्तिर्यग्वा यथाकर्मगुणं भव: ॥
२९॥
क्वचित्--कभी; पुमान्--नर; क्वचित्--क भी; च-- भी; स्त्री--नारी; क्वचित्--कभी; न--नहीं; उभयम्--दोनों; अन्ध--अन्धा; धी:--जिसकी बुद्धि; देव:--देवता; मनुष्य: --मनुष्य; तिर्यक्ू--पशु, पक्षी आदि; बा--अथवा; यथा-- अनुसार;कर्म--कर्म के; गुणम्--गुण; भव:--जन्म |
भौतिक प्रकृति के तमोगुण से आच्छादित होकर जीवात्मा कभी नर, कभी नारी, कभीनपुंसक, कभी मनुष्य, कभी देवता, कभी पक्षी, पशु इत्यादि बनता है।
इस प्रकार वह इसभौतिक जगत में घूमता रहता है।
वह प्रकृति के गुणों के अधीन अपने कर्मों के कारण विभिन्नप्रकार के शरीर स्वीकार करता रहता है।
"
क्षुत्परीतो यथा दीन: सारमेयो गृहं गृहम् ।
चरन्विन्दति यहिष्टं दण्डमोदनमेव वा ॥
३०॥
तथा कामाशयो जीव उच्चावचपथा भ्रमन् ।
उपर्यधो वा मध्ये वा याति दि्टं प्रियाप्रियम् ॥
३१॥
क्षुत्ू-परीत:-- भूख से पीड़ित; यथा--जिस प्रकार; दीन:--दरिद्र; सारमेय: -- कुत्ता; गृहम्--एक घर से; गृहम्--दूसरे घर को;चरनू--घूमते हुए; विन्दति--प्राप्त करता है; यत्--जिसका; दिष्टम्--प्रारब्ध के अनुसार; दण्डम्--दण्ड; ओदनम्-- भोजन;एव--निश्चय ही; वा--अथवा; तथा--उसी तरह; काम-आशय:--विभिन्न इच्छाओं का अनुसरण करता; जीव:--जीव;उच्च--उँचा; अवच--नीचा; पथा--रास्ते पर; भ्रमनू--घूमते हुए; उपरि--ऊपर; अध:--नीचे; वा-- अथवा; मध्ये--बीच में;वा--अथवा; याति--जाता है; दिष्टमू-- भाग्य के अनुसार; प्रिय--सुखकर; अप्रियम्-- अच्छा न लगने वाला
यह जीव ठीक उस कुत्ते के तुल्य है, जो भूख से परेशान भोजन पाने के लिए द्वार-द्वार जाताहै।
अपने प्रारब्ध के अनुसार वह कभी दण्ड पाता है और खदेड़ दिया जाता है, अथवा कभी-कभी खाने को थोड़ा भोजन भी पा जाता है।
इसी प्रकार, जीव भी अनेकानेक इच्छाओं केवशीभूत होकर अपने भाग्य के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकता रहता है।
कभी वह उच्चस्थान प्राप्त करता है, तो कभी निम्न स्थान।
कभी वह स्वर्ग को जाता है, कभी नरक को, तोकभी मध्य लोकों को और ऐसा चलता रहता है।
"
दुःखेष्वेकतरेणापि दैवभूतात्महेतुषु ।
जीवस्य न व्यवच्छेद: स्याच्चेत्तत्तत्प्रतिक्रिया ॥
३२॥
दुःखेषु--दुखों में; एकतरेण--एक से; अपि-- भी; दैव-- भाग्य; भूत-- अन्य जीव; आत्म--मन तथा शरीर; हेतुषु--केकारण; जीवस्य--जीव का; न--कभी नहीं; व्यवच्छेद:--छुटकारा; स्थात्--सम्भव है; चेतू--यद्यपि; तत्-तत्--उन-उन दुखोंकी; प्रतिक्रिया--विरोधी क्रिया।
सारे जीव भाग्य, अन्य जीवों अथवा मन तथा शरीर सम्बन्धी दुखों से छुटकारा पाने काप्रयास करते हैं।
तो भी इन नियमों का प्रतिकार करने के प्रयासों के बावजूद वे प्रकृति के" यथा हि पुरुषो भारं शिरसा गुरुमुद्ठहन् ।
तं स्कन्धेन स आधत्ते तथा सर्वाः प्रतिक्रिया: ॥
३३॥
यथा--जिस प्रकार; हि--निश्चय ही; पुरुष:--मनुष्य; भारम्ू-- भार; शिरसा--सिर पर; गुरुम्-- भारी; उद्ददन्--छोते हुए;तम्--वह; स्कन्धेन--कन्धे पर; सः--वह; आधत्ते--रखता है; तथा--उसी तरह; सर्वा:--सभी; प्रतिक्रिया:--विरोधीक्रियाएँ।
मनुष्य बोझ को सिर पर लेकर ढो सकता है और जब यह उसे भारी लगने लगे तो कभी-कभी वह बोझ को कन्धे पर रख कर अपने सिर को विश्राम देता है।
इस तरह वह बोझ सेछुटकारा पाने के लिए प्रयास करता है।
फिर भी, वह इस बोझ से मुक्त होने के लिए चाहे जोभी विधि निकाले, वह उस बोझ को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने से अधिक और कुछनहीं कर सकता।
"
नैकान्ततः प्रतीकार: कर्मणां कर्म केवलम् ।
द्वयं ह्विद्योपसूतं स्वप्ने स्वप्न इवानघ ॥
३४॥
न--नहीं; एकान्ततः--अन्ततः; प्रतीकार: --निवारण; कर्मणाम्--विभिन्न कर्मो का; कर्म--अन्य कर्म; केवलम्--एकमात्र;द्वयम्--दोनों; हि-- क्योंकि; अविद्या--मोह के कारण; उपसृतम्--स्वीकृत; स्वप्ने--स्वप्न में; स्वज:--सपना; इब--सहश;अनघ--हे पापकर्मो से मुक्त, शुद्ध हृदय
नारद ने आगे कहा : हे शुद्धहदय पुरुष, कोई भी व्यक्ति कर्मों के फल का निराकरणकृष्णभक्ति से रहित अन्य कर्म करके नहीं कर सकता।
ऐसे सारे कर्म हमारे अज्ञान के कारण हैं।
जब हम कोई कष्ठप्रद स्वप्न देखते हैं, तो हम किसी कष्टप्रद व्यामोह के द्वारा छुटकारा नहीं पासकते।
स्वप्न का निवारण तो जग कर ही किया जा सकता है।
इसी प्रकार हमारा भौतिकअस्तित्व हमारे अज्ञान तथा मोह के कारण है।
जब तक हममें कृष्णभक्ति नहीं जग जाती, ऐसेस्वप्नों से छुटकारा नहीं मिल सकता।
समस्त समस्याओं को हल कर लेने के लिए हमेंकृष्णचेतना को जागृत करना होगा।
"
अर्थ हाविद्यमानेपि संसृतिर्न निवर्तते ।
मनसा लिड्डरूपेण स्वप्ने विचरतो यथा ॥
३५॥
अर्थ--वास्तविक कारण; हि--निश्चय ही; अविद्यमाने--न रहने पर; अपि--यद्यपि; संसृतिः--संसार; न--नहीं; निवर्तते--छुटकारा पाता है; मनसा--मन से; लिड्र-रूपेण --सूक्ष्म शरीर से; स्वप्ने--स्वप्न में; विचरत:--कार्य करते हुए; यथा--जिसप्रकार
कभी-कभी हमें इसलिए कष्ट होता है, क्योंकि हमें स्वप्न में शेर या सर्प दिख जाता है,किन्तु वास्तव में वहाँ न तो शेर होता है, न सर्प।
इस प्रकार हम अपनी सूक्ष्म अवस्था में कोईपरिस्थिति उत्पन्न कर लेते हैं और उसके परिणामों को भोगते हैं।
इन कष्टों का निवारण तब तकनहीं हो सकता जब तक कि हम अपने स्वप्न से जग नहीं जाते।
"
अधात्मनोथभूतस्य यतो नर्थपरम्परा ।
संसृतिस्तद्व्यवच्छेदो भक्त्या परमया गुरौ ॥
३६॥
वबासुदेवे भगवति भक्तियोग: समाहित: ।
सक्रीचीनेन वैराग्यं ज्ञानं च जनयिष्यति ॥
३७॥
अथ--अतः; आत्मन:--जीव का; अर्थ-भूतस्य--वास्तविक रुचि वाले का; यत:--जिससे; अनर्थ-- अवांछित वस्तुओं का;परम्-परा-- श्रृंखला; संसृति: --संसार; तत्--उसका; व्यवच्छेद: --विच्छेद, रुकना; भक्त्या--भक्ति से; परमया--शुद्ध;गुरौ--परमेश्वर या उसके प्रतिनिधि को; वासुदेवे--वासुदेव में; भगवति-- भगवान्; भक्ति-योग: -- भक्ति; समाहित:--एकाग्रचित्त; सश्नीचीनेन--पूर्ण रूप से; वैराग्यम्--विरक्ति; ज्ञानमू--पूर्णज्ञान; च--तथा; जनयिष्यति-- प्रकट करता है।
अतः;आत्मन:--जीव का; अर्थ-भूतस्य--वास्तविक रुचि वाले का; यत:--जिससे; अनर्थ--अवांछित वस्तुओं का; परमू-परा--श्रृंखला; संसृतिः--संसार; तत्--उसका; व्यवच्छेद: --विच्छेद, रूकना; भक्त्या--भक्ति से; परमया--शुद्ध; गुरौ--परमेश्वर याउसके प्रतिनिधि को; वासुदेवे--वासुदेव में; भगवति-- भगवान्; भक्तियोग:-- भक्ति; समाहित:--एकाग्रचित्त; सश्चीचीनेन--पूर्ण रूप से; वैराग्यम्--विरक्ति; ज्ञानमू--पूर्णज्ञान; च--तथा; जनयिष्यति--प्रकट करता है।
जीव का वास्तविक हित इसमें है कि वह अविद्या से निकले जिसके कारण उसे बारम्बारजन्म तथा मृत्यु सहनी पड़ती है।
इसका एकमात्र निवारण है भगवान् के प्रतिनिधि के माध्यम सेउनकी ही शरण ग्रहण करना।
जब तक मनुष्य भगवान् वासुदेव की भक्ति नहीं करता, तब तकवह न तो इस भौतिक जगत से पूर्णतः विरक्त हो सकता है और न अपने असली ज्ञान को हीप्रकट कर सकता है।
"
सोचिरादेव राजर्षे स्थादच्युतकथाश्रय: ।
श्रृण्वत: श्रद्धानस्थ नित्यदा स्थादधीयतः ॥
३८ ॥
सः--वह; अचिरात्ू--शीघ्र; एव--ही; राज-ऋषे--हे राजाओं में श्रेष्ठ; स्थात्--हो जाता है; अच्युत-- भगवान् की; कथा--आख्यानों पर; आश्रय:--आश्रित; श्रृण्वतः--सुनने वाले; श्रद्धानस्य-- श्रद्धावान; नित्यदा--सदैव; स्यात्--हो जाता है;अधीयत:--अनुशीलन द्वारा
हे राजर्षि, जो श्रद्धावान् है, जो भगवान् की महिमा का निरन्तर श्रवण करता रहता है, जोसदैव कृष्णचेतना के अनुशीलन तथा भगवान् के कार्यकलापों को सुनने में लगा रहता है, वहशीघ्र ही भगवान् का साक्षात्कार करने के योग्य हो जाता है।
"
यत्र भागवता राजन्साधवो विशदाशया: ।
भगवदगुणानुकथनश्रवणव्यग्रचेतस: ॥
३९॥
तस्मिन्महन्मुखरिता मधुभिच्चरित्र-'पीयूषशेषसरितः परितः स्त्रवन्ति ।
ता ये पिबन्त्यवितृषो नृप गाढकर्णै-स्तान्न स्पृशन्त्यशनतृड्भयशोकमोहा: ॥
४०॥
यत्र--जहाँ; भागवता:--परमभक्तगण ; राजन्--हे राजा; साधवः --साधु पुरुष; विशद-आशया:--विशाल हृदय वाले;भगवत्-- भगवान् के; गुण--गुण; अनुकथन--नियमित रूप से पाठ करना; श्रवण--सुनना; व्यग्र--उत्सुक; चेतसः --जिसकी चेतना; तस्मिन्ू--वहाँ; महत्--महापुरुषों का; मुखरिता:--मुखों से निकला; मधु-भित्--मधु नामक असुर के मारनेवाले का; चरित्र--कार्यकलाप या चरित्र; पीयूष--अमृत का; शेष-- अधिक; सरितः--नदियाँ; परित:--चारों ओर;स्त्रवन्ति--बहती हैं; ताः--वे सब; ये--जो; पिबन्ति--पीते हैं; अवितृष:--सन्तुष्ट हुए बिना; नृप--हे राजा; गाढ--सावधान;कर्णै:--कानों से; तानू--उनको; न--कभी नहीं; स्पृशन्ति--स्पर्श करते हैं; अशन-- भूख; तृट्ू--प्यास; भय--डर; शोक --दुख; मोहा:--मोह |
हे राजन, जिस स्थान में शुद्ध भक्त विधि-विधानों का पालन करते हुए तथा इस प्रकार सेनितान्त सचेष्ट रहते हुए एवं उत्सुकतापूर्वक भगवान् के गुणों का श्रवण एवं कीर्तन करते रहते हैंउस स्थान में यदि किसी को अमृत के निरन्तर प्रवाह को सुनने का अवसर प्राप्त हो तो वहजीवन की आवश्यकताएँ-- भूख तथा प्यास--भूल जायेगा और समस्त प्रकार के भय, शोकतथा मोह के प्रति निश्चेष्ठ हो जायेगा।
"
एतैरुपद्गुतो नित्यं जीवलोक: स्वभावजै: ।
न करोति हरे्नूनं कथामृतनिधौ रतिम् ॥
४१॥
एतै:--इनसे; उपद्गुतः--विचलित; नित्यम्ू--सदैव; जीव-लोक:--भौतिक संसार में बद्धजीव; स्व-भाव-जैः--प्राकृतिक; नकरोति--नहीं करता; हरेः -- भगवान् का; नूनमू--निश्चय ही; कथा--शब्दों के; अमृत--अमृत के; निधौ--समुद्र में; रतिमू--आसक्ति।
चूँकि बद्धजीव सदैव भूख तथा प्यास जैसी शारीरिक आवश्यकताओं से विचलित होतारहता है, अतः उसे भगवान् की अमृतवाणी सुनने का अनुराग उत्पन्न करने के लिए बहुत कमसमय मिल पाता है।
"
प्रजापतिपति: साक्षाद्धगवान्गिरिशो मनु: ।
दक्षादय: प्रजाध्यक्षा नेष्ठिकाः सनकादय: ॥
४२॥
मरीच्रित्रयद्धिरसौ पुलस्त्य: पुलहः क्रतु: ।
भृगुर्वसिष्ठ इत्येते मदन्ता ब्रह्मगादिन: ॥
४३॥
अद्यापि वाचस्पतयस्तपोविद्यासमाधिभि: ।
पश्यन्तोपि न पश्यन्ति पश्यन्तं परमेश्वरम् ॥
४४॥
प्रजापति-पति:--समस्त प्रजापतियों के पिता, ब्रह्माजी; साक्षात्-प्रत्यक्ष; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; गिरिश: --शिवजी;मनुः--मनु; दक्ष-आदयः: --राजा दक्ष इत्यादि; प्रजा-अध्यक्षा: --मनुष्यों के शासक; नैष्ठिका:--प्रबल ब्रह्मचारी; सनक-आदय:--सनक इत्यादि; मरीचि:--मरीचि; अतन्रि-अड्विससौ --अत्रि तथा अंगिरा; पुलस्त्य:--पुलस्त्य; पुलह:--पुलह; क्रतुः--क्रतु; भूगुः-- भूगु; वसिष्ठ:--वसिष्ठ; इति--इस प्रकार; एते--ये सब; मत्-अन्ता:--मुझसे अन्त होने वाले; ब्रह्म-वादिन:--ब्राह्मण, वैदिक साहित्य के वक्ता; अद्य अपि--आज तक; वाच:-पतय: --वाणी के स्वामी; तपः--तपस्या; विद्या--ज्ञान;समाधिभि: --तथा ध्यान से; पश्यन्तः --देखते हुए; अपि--यद्यपि; न पश्यन्ति--नहीं देखते; पश्यन्तम्--देखने वाला; परम-ईश्वरम्-- भगवान् को |
समस्त प्रजापतियों के पिता परम शक्तिशाली ब्रह्माजी; शिव; मनु, दक्ष तथा मानवजाति केअन्य शासक; प्रथम कोटि के ब्रह्मचारी सनक, सनातन इत्यादि चारों परम साधु; मरीचि, अत्रि,अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भूगु तथा वसिष्ठ जैसे महर्षि; तथा स्वयं मैं ( नारद )--ये सभीमहान् ब्राह्मण हैं, जो वैदिक साहित्य पर अधिकारपूर्वक बोल सकते हैं।
हम सब तप, ध्यान तथाज्ञान के कारण अत्यन्त शक्तिशाली हैं।
तो भी भगवान् को साक्षात् देखते हुए और अन्वेषणकरने पर भी हम उनके विषय में पूर्णतः नहीं जानते।
"
शब्दब्रह्मणि दुष्पारे चरन्त उरुविस्तरे ।
मन्त्रलिड्रैव्यवच्छिन्नं भजन्तो न विदु: परम् ॥
४५॥
शब्द-ब्रह्मणि--वैदिक साहित्य में; दुष्पारे-- अनन्त; चरन्तः--लगे हुए; उरु--अत्यधिक ; विस्तरे-- व्यापक; मन्त्र--वैदिक मंत्रोंका; लिड्वैः--लक्षणों से; व्यवच्छिन्नम्-- आंशिक शक्तिशाली ( देवता ); भजन्तः--पूजा करते हुए; न विदुः--नहीं जानते;परम्--परमे श्वर |
अनन्त वैदिक ज्ञान के अनुशीलन तथा वैदिक मंत्रों के लक्षणों से विभिन्न देवताओं की पूजाके बावजूद देव-पूजा से परम शक्तिशाली भगवान् को समझने में कोई सहायता नहीं मिलती।
"
यदा यस्यानुगृह्वाति भगवानात्मभावितः ।
स जहाति मतिं लोके वेदे च परिनिष्ठिताम् ॥
४६॥
यदा--जब; यस्य--जिसका; अनुगृह्वाति-- अहैतुकी कृपा करता है; भगवानू-- भगवान्; आत्म-भावित:--भक्त द्वारा अनुभूत;सः--ऐसा भक्त; जहाति-त्यागता है; मतिम्--चेतना; लोके-- भौतिक जगत में; वेदे--वैदिक कार्यों में; च-- भी;परिनिष्ठिताम्--स्थिर।
जब मनुष्य पूर्णतः भक्ति में लगा रहता है, तो अहैतुकी कृपा प्रदर्शित करने वाले भगवान्उस पर कृपा करते हैं।
ऐसे अवसर पर जाग्रत भक्त सारे भौतिक कार्यों तथा वेदों में वर्णित अनुष्ठानों को त्याग देता है।
"
तस्मात्कर्मसु बर्हिष्मन्नज्ञानादर्थकाशिषु ।
मार्थदृष्टिं कृथा: श्रोत्रस्पर्शिष्वस्पृष्टवस्तुषु ॥
४७॥
तस्मात्ू--अतः; कर्मसु--कर्म में; ब्हिष्मन्--हे राजा प्राचीनबर्हिषत्; अज्ञानातू--अज्ञान से; अर्थ-काशिषु-- भड़कीले कर्मफलमें; मा--कभी नहीं; अर्थ-दृष्टिमू--जीवन लक्ष्य मानकर; कृथा:--कररते हैं; श्रोत्र-स्पर्शिषु--कर्णप्रिय, मधुर; अस्पृष्ट--बिनास्पर्श किये; वस्तुषु--वास्तविक हित, स्वार्थ |
हे राजा बर्दिष्मानू, तुम्हें अज्ञानवश कभी भी वैदिक अनुष्ठानों या सकाम कर्मों को अपनानानहीं चाहिए, भले ही वे कर्णप्रिय क्यों न हों, अथवा आत्म सिद्धि के लक्ष्य प्रतीत होते हों।
तुम्हेंचाहिए कि इन्हें कभी भी जीवन का चरम लक्ष्य न समझो।
"
स्वं लोक॑ न विदुस्ते वै यत्र देवो जनार्दनः ।
आहुर्धूप्रधियो वेदं सकर्मकमतद्विदः ॥
४८ ॥
स्वमू--अपना, निजी; लोकम्--घर को; न--कभी नहीं; विदुः--जानते हैं; ते--ऐसे व्यक्ति; वै--निश्चय ही; यत्र--जहाँ;देव:--भगवान्; जनार्दन: --कृष्ण या विष्णु; आहुः--कहते हैं; धूम्र-धिय:--अल्पज्ञानी व्यक्ति; वेदम्--चारों बेद; स-कर्मकम्--अनुष्ठानों से पूर्ण; अ-तत्-विदः--ऐसे व्यक्ति जिल्हें ज्ञान नहीं है।
अल्पज्ञानी मनुष्य वैदिक अनुष्ठानों को ही सब कुछ मान बैठते हैं।
उन्हें यह ज्ञान नहीं है किवेदों का प्रयोजन अपने निजी धाम (घर ) को जानना है जहाँ भगवान् निवास करते हैं।
अपनेअसली धाम में रुचि न रखकर वे मोहग्रस्त होकर, अन्य धामों की खोज करते रहते हैं।
"
आस्तीर्य दर्भ: प्रागग्रै: कार्त्स्येन क्षितिमण्डलम्स्तब्धो बृहद्वधान्मानी कर्म नावैधि यत्परम् ।
तत्कर्म हरितोषं यत्सा विद्या तन्मतिर्यया ॥
४९॥
आस्तीर्य--आच्छादित करके; दर्भ:--कुशा से; प्राक्-अग्रै:-- पूर्व की ओर मुख किये; कार्त्स्येन--सम्पूर्ण; क्षिति-मण्डलम्ू--संसार भर में; स्तब्ध: --गर्वीली शुरुआत; बृहत्--अत्यधिक, महान्; वधात्--बध के द्वारा; मानी--अपने को अत्यन्तमहत्त्वपूर्ण समझने वाला, अभिमानी; कर्म--कर्म; न अवैषि--नहीं जानते हो; यत्--जो; परम्--परम; तत्--उस; कर्म--कर्म;हरि-तोषम्-- भगवान् को प्रसन्न करना; यत्--जो; सा--वह; विद्या--शिक्षा; तत्-- भगवान् को; मतिः--चेतना; यया--जिससे।
हे राजन, सारा संसार कुशों के तीखे अग्र भाग से ढका है और इस कारण तुम्हें अभिमान होगया है क्योंकि तुमने यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं का वध किया है।
अपनी मूर्खतावश तुम्हेंयह ज्ञात नहीं है कि भगवान् को प्रसन्न करने का एकमात्र उपाय भक्ति है।
तुम इस तथ्य को नहींसमझ सकते।
तुम्हें वे ही कार्य करने चाहिए जिनसे भगवान् प्रसन्न हों।
हमारी शिक्षा ऐसी होनीचाहिए कि हम कृष्णचेतना के स्तर तक ऊपर उठ सकें।
"
हरिदेहभूतामात्मा स्वयं प्रकृतिरी श्वरः ।
तत्पादमूलं शरणं यतः क्षेमो नृणामिह ॥
५०॥
हरिः-- श्रीहरि; देह-भृताम्--देहधारी जीवों का; आत्मा--परमात्मा; स्वयम्--स्वयं; प्रकृतिः-- भौतिक प्रकृति; ईश्वर: --नियामक; तत्ू--उसका; पाद-मूलम्ू-- पाँव; शरणम्--शरण; यतः--जिससे; क्षेम: --सौभाग्य; नृणाम्--मनुष्यों का; इह--इस संसार में ॥
भगवान् श्रीहरि इस संसार के समस्त देहधारी जीवों के परमात्मा तथा प्रदर्शक हैं।
वे प्रकृतिके समस्त भौतिक कार्यों के परम नियामक हैं।
वे हमारे श्रेष्ठ सखा भी हैं, अतः प्रत्येक व्यक्तिको उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
ऐसा करने से जीवन कल्याणमय होजाएगा।
"
स वै प्रियतमश्चात्मा यतोी न भयमण्वपि ।
इति बेद स बै विद्वान्यो विद्वान्स गुरुहरि: ॥
५१॥
सः--वह; बै--निश्चय ही; प्रिय-तम:--अत्यन्त प्रिय; च-- भी; आत्मा--परमात्मा; यत:--जिससे; न--कभी नहीं; भयम्--डर; अणु--सूक्ष्; अपि-- भी; इति--इस प्रकार; वेद--( जो ) जानता है; सः--वह; बै--निश्चय ही; विद्वानू--शिक्षित; यः--जो; विद्वानू--शिक्षित; स:ः--वह; गुरु:--गुरु; हरिः-- भगवान् से अभिन्
नजो भक्ति में लगा हुआ है, वह इस संसार से रंचमात्र भी नहीं डरता।
इसका कारण यह हैकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् परम आत्मा हैं और सबके मित्र हैं।
जो इस रहस्य को जानता है, वहीवास्तव में शिक्षित है और ऐसा शिक्षित व्यक्ति ही संसार का गुरु हो सकता है।
जो वस्तुतःप्रामाणिक गुरु अर्थात् कृष्ण का प्रतिनिधि है, वह कृष्ण से अभिन्न होता है।
"
नारद उवाचप्रश्न एवं हि सठिछन्नो भवतः पुरुषर्षभ ।
अत्र मे बदतो गुह्य॑ं निशामय सुनिश्चितम् ॥
५२॥
नारदः उवाच--नारद ने कहा; प्रश्न: --प्रश्न; एवम्--इस प्रकार; हि--निश्चय ही; सउिछलन्न: --उत्तरित; भवतः--तुम्हारा; पुरुष-ऋषभ-हे श्रेष्ठ पुरुष; अत्र--यहाँ; मे वदत:--मैं जिस तरह कह रहा हूँ; गुह्ाम्--रहस्यपूर्ण, गुप्त; निशामय--सुनो; सु-निश्चितम्ू-- भली-भाँति निश्चित किया।
महर्षि नारद ऋषि ने आगे कहा : हे महापुरुष, तुमने जो कुछ मुझसे पूछा है मैंने उसकासमुचित उत्तर दे दिया है।
अब एक अन्य आख्यान सुनो जो साधु पुरुषों द्वारा स्वीकृत है औरअत्यन्त गुह्य है।
"
क्षुद्रं चरं सुमनसां शरणे मिथित्वारक्त षडड्धप्रिगणसामसु लुब्धकर्णम् ।
अग्रे वृकानसुतृपो विगणय्य यान्तंपृष्ठे मृगं मृगय लुब्धकबाणभिन्नम् ॥
५३॥
क्षुद्रमू--घास; चरम्--चरते हुए; सुमनसाम्--सुन्दर फूलों के उद्यान की; शरणे--रक्षा में; मिथित्वा--मैथुन करते हुए; रक्तम्--अनुरक्त; षट्ू-अड्ध्रि--घट्पद या भौंरों का; गण--समूह; सामसु--गाने के प्रति; लुब्ध-कर्णम्--जिसके कान आकृष्ट हैं;अग्रे--सामने; वृकान्-- भेड़िये; असु-तृप:--दूसरों को खाकर जीने वाले; अविगणय्य--अपेक्षा करके; यान्तमू--जाते हुए;पृष्ठ--पीछे; मृगम्--हिरन को; मृगय--ढूँढो; लुब्धक--शिकारी के; बाण--बाणों से; भिन्नम्--बेधे जाने वाला
हे राजा, उस हिरन की खोज करो जो एक सुन्दर उद्यान में अपनी हिरनी के साथ घास चरनेमें मस्त है।
वह हिरन अपने कार्य ( चरने ) में अत्यधिक अनुरक्त है और उस उद्यान के भौरों केमधुर गुंजार का आनन्द ले रहा है।
उसकी स्थिति को समझने का प्रयास करो।
उसे इसका पताही नहीं कि उसके सामने भेड़िया है, जो अन्यों के मांस को खाकर अपना पेट पालन करने काआदी है।
हिरन के पीछे शिकारी है, जो उसे तीक्ष्ण बाणों से बेधने के लिए तैयार है।
इस प्रकारहिरन की मृत्यु निश्चित है।
"
सुमनःसमधर्मणां स्त्रीणां शरण आश्रमे पुष्पमधुगन्धवत्क्षुद्रममं काम्यकर्मविपाकजं कामसुखलवंजैह्व्यौपस्थ्यादि विचिन्वन्तं मिथुनीभूय तदभिनिवेशितमनसंषडड़्प्रिगणसामगीतवदतिमनोहरवनितादिजनालापेष्वतितरामतिप्रलोभितकर्णमग्रे ।
वृकयूथवदात्मन'आयुर्हईरतोहोरात्रान्तानकाललवविशेषानविगण य्य गृहेषु विहरन्तं पृष्ठत एव परोक्षमनुप्रवृत्तो लुब्धकःकृतान्तोन्तः शरेण यमिह पराविध्यति तमिममात्मानमहो राजन्भिन्नहृदयं द्रष्टमहसीति ॥
५४॥
सुमनः--फूल; सम-धर्मणाम्--समानधर्मा , हूबहू; स्त्रीणाम्--स्त्रियों की; शरणे--शरण में; आश्रमे--गृहस्थ जीवन; पुष्प--फूलों में; मधु--शहद की; गन्ध--सुगन्ध; वत्--सहृश; क्षुद्र-तमम्-- अत्यन्त क्षुद्र, नगण्य; काम्य--इच्छित; कर्म--कर्मों का;विपाक-जम्--के फलस्वरूप प्राप्त; काम-सुख--इन्द्रियतृप्ति का; लवम्--एक खंड; जैह्व्य--जिह्ना सुख; औपस्थ्य--संभोगसुख; आदि--इत्यादि; विचिन्वन्तम्--सदैव चिन्तन करते हुए; मिथुनी-भूय--संभोगरत; तत्--अपनी पत्नी के साथ;अभिनिवेशित--सदैव मग्न; मनसमू--जिसका मन; षट्-अडद्धप्रि-- भौरों का; गण--समूह; साम--मधुर; गीत--गुंजार; बत्--सहश; अति--अत्यन्त; मनोहर--आकर्षक; वनिता-आदि-- पत्नी इत्यादि; जन--लोगों का; आलापेषु--बातों में;अतितराम्--अत्यधिक; अति--अधिक; प्रलोभित--आसक्त; कर्णम्--जिसके कान; अग्रे--आगे; वृक-यूथ-- भेड़ियों काझुंड; बत्--सहृ॒श; आत्मन:--अपने आप का; आयु: --उ्र; हरत:--हरण करते हुए; अहः-रात्रानू--दिन तथा रातें; तानू--वेसब; काल-लव-विशेषान्ू--समय के क्षण; अविगणय्य--बिना विचारे; गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; विहरन्तम्-- भोगते या विहारकरते; पृष्ठतः--पीछे से; एब--निश्चय ही; परोक्षम्-- अदृश्य रूप से; अनुप्रवृत्त:--पीछा करते हुए; लुब्धक:--शिकारी; कृत-अन्त:--यमराज; अन्तः--हृदय में; शरेण--बाण से; यम्ू-- जिसको; इह--इस संसार में; पराविध्यति--बेधता है; तमू--उस;इमम्--यह; आत्मानम्--अपने आप, स्वतः; अहो राजन्--हे राजा; भिन्न-हृदयम्--बिंधे हुए हृदय वाला; द्रष्टम्--देखने केलिए; अर्ईसि--तुम्हें चाहिए; इति--इस प्रकार |
हे राजन्, स्त्री उस पुष्प के समान है, जो प्रारम्भ में अत्यन्त आकर्षक एवं अन्त में अत्यन्त घृणा योग्य हो जाता है।
जीव कामेच्छाओं के कारण स्त्री के साथ फँसता है और वह उसी प्रकारसंभोग-सुख प्राप्त करता है, जिस प्रकार फूलों की सुगन्ध का भोग किया जाता है।
इस प्रकारवह जिह्ना से लेकर शिश्न तक इन्द्रियतृप्ति का जीवन बिताता है और इस प्रकार जीव अपने कोगृहस्थ जीवन में अत्यन्त सुखी मानता है।
अपनी स्त्री के साथ रहते हुए वह सदैव ऐसे विचारों मेंमग्न रहता है।
वह अपनी पतली तथा बच्चों की बातें सुनने में आनन्द का अनुभव करता है।
ये उनभौंरों की मधुर गुंजार के तुल्य होती हैं, जो प्रत्येक फूल से मधु एकत्र करते रहते हैं।
वह भूलजाता है कि उसके समक्ष काल खड़ा है, जो दिन-रात के बीतने के साथ ही उसकी आयु काहरण करता जा रहा है।
उसे न तो धीरे-धीरे हो रही अपनी आयु-क्षय दिखती है और न उसेयमराज की ही परवाह रहती है, जो पीछे से उसे मारने का प्रयत्न करते रहते हैं।
तुम इसे समझनेका प्रयास करो।
तुम अत्यन्त शोचनीय स्थिति में हो और चारों ओर से संकट से घिरे हो।
"
स त्वं विचक्ष्य मृगचेष्टितमात्मनो न््त-श्वित्तं नियच्छ हृदि कर्णधुनीं च चित्ते ।
जहाडुनाश्रममसत्तमयूथगार्थप्रीणीहि हंसशरणं विरम क्रमेण ॥
५५॥
सः--वही पुरुष; त्वमू--तुम; विचक्ष्य--विचार करके; मृग-चेष्टितम्--हिरन के कार्य; आत्मन:--स्वयं के; अन्तः--भीतरी;चित्तम्--चेतना; नियच्छ--स्थिर करो; हृदि--हृदय में; कर्ण-धुनीम्--कर्णेन्द्रिय; च--तथा; चित्ते--चेतना को; जहि--छोड़दो; अड्न्डना-आश्रमम्--गृहस्थ जीवन; असत्-तम--अत्यन्त घृणित; यूथ-गाथम्--नर तथा नारी की गाथाओं से पूर्ण;प्रीणीहि--स्वीकार करो; हंस-शरणम्--मुक्त जीवों की शरण; विरम--विरक्त बनो; क्रमेण--क्रमशः ।
हे राजन, तुम हिरन की अन्योक्ति की स्थिति को समझने का प्रयास करो।
तुम अपने प्रतिपूर्ण सचेत रहो और कर्म के द्वारा स्वर्गलोक जाने के श्रवण-सुख को त्याग दो।
गृहस्थ जीवन त्याग दो, क्योंकि वह विषयभोगों से तथा ऐसी वस्तुओं की कथाओं से पूर्ण है।
तुम मुक्त पुरुषोंकी कृपा से भगवान् की शरण ग्रहण करो।
इस प्रकार से इस संसार के प्रति अपनी आसक्ति कात्याग करो।
"
राजोबाचश्रुतमन्वीक्षितं ब्रह्मम्भगवान्यदभाषत ।
नैतज्जानन्त्युपाध्याया: किं न ब्रूयुर्विदुर्यदि ॥
५६॥
राजा उबाच--राजा ने कहा; श्रुतम्--सुना गया; अन्वीक्षितम्--विचार किया गया; ब्रह्मन्ू--हे ब्राह्मण; भगवान्--अत्यन्तशक्तिमान; यत्--जो; अभाषत--तुमने कहा है; न--नहीं; एतत्--यह; जानन्ति--जानते हैं; उपाध्याया:--कर्मकाण्ड केशिक्षक; किम्-क्यों; न ब्रूयु:--उन्होंने शिक्षा नहीं दी; विदु:--वे जानते थे; यदि--अगर
राजा ने कहा : हे ब्राह्मण, आपने जो कुछ कहा है उसे मैंने अत्यन्त मनोयोग से सुना है औरसम्यक् विचार के पश्चात् मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जिन आचार्यों ( शिक्षकों ) ने मुझेकर्मकाण्ड में प्रवृत्त किया, वे इस गुह्य ज्ञान को नहीं जानते थे।
और यदि वे इससे अवगत थे तोफिर उन्होंने मुझे क्यों नहीं बताया ?"
संशयोऊत्र तु मे विप्र सड्छन्नस्तत्कृतो महान् ।
ऋषयोपि हि मुहान्ति यत्र नेन्द्रियवृत्तय: ॥
५७॥
संशयः--सन्देह; अत्र--यहाँ; तु--लेकिन; मे--मेरा; विप्र--हे ब्राह्मण; स्छिन्न:--काट दिया, दूर कर दिया; तत्-कृत:--उससे किया गया; महान्--महान; ऋषय:--ऋषिगण; अपि-- भी; हि--निश्चय ही; मुहान्ति--मोहग्रस्त हो जाते हैं; यत्र--जहाँ;न--नहीं; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; वृत्तय:--कार्यकलाप।
हे ब्राह्मण, आपके आदेशों तथा मुझे कर्मकाण्ड में प्रवृत्त करने वाले मेरे गुरुओं के उपदेशोंमें विरोधाभास जान पड़ता है।
मैं अब भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य के अन्तर को समझ सकता हूँ।
मुझे पहले इनके विषय में कुछ संशय थे, किन्तु आपने कृपा करके इन संशयों को मिटा दियाहै।
अब मैं समझ सकता हूँ कि बड़े बड़े ऋषि भी जीवन के वास्तविक उद्देश्य के विषय में कैसेमोहग्रस्त होते हैं।
निस्सन्देह, इन्द्रियतृप्ति का कोई सवाल ही नहीं उठता।
"
कर्माण्यारभते येन पुमानिह विहाय तम् ।
अमुत्रान्येन देहेन जुष्टानि स यदश्नुते ॥
५८ ॥
कर्माणि--सकाम कर्म; आरभते--करना प्रारम्भ करता है; येन--जिससे; पुमान्ू-- जीव; इह--इस जीवन में; विहाय--त्यागकर; तमू--उस; अमुत्र--अगले जीवन में; अन्येन--दूसरे; देहेन--शरीर के द्वारा; जुष्टानि--परिणाम; सः--वह; यत्--जो;अश्नुते-- भोगता है|
इस जीवन में जीव जो कुछ भी करता है, उसका फल वह अगले जीवन में भोगता है।
"
इति बेदविदां वादः श्रूयते तत्र तत्र ह ।
कर्म यत्क्रियते प्रोक्त परोक्षं न प्रकाशते ॥
५९॥
इति--इस प्रकार; वेद-विदाम्--वेदों के ज्ञाता; वादः--कथन; श्रूयते--सुना जाता है; तत्र तत्र--जगह जगह, जहाँ तहाँ; ह--निश्चय ही; कर्म--कर्म; यत्ू-- जो; क्रियते--किया जाता है; प्रोक्तमू--जैसा कहा जा चुका है; परोक्षम्--अज्ञात; नप्रकाशते--प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हो पाता |
वेदवादियों का कथन है कि मनुष्य अपने पूर्व कर्मों के फल का भोग करता है।
किन्तुव्यावहारिक रूप में यह देखा जाता है कि पिछले जन्म में जिस शरीर ने कर्म किया था वह तोनष्ट हो चुका होता है।
अतः उस कर्म का भोग एक भिन्न शरीर द्वारा किस प्रकार सम्भव है ?"
नारद उवाचयेनैवारभते कर्म तेनैवामुत्र तत्पुमान् ।
भुड़े हाव्यवधानेन लिड़ेन मनसा स्वयम् ॥
६०॥
नारद: उवाच--नारद ने कहा; येन--जिसके द्वारा; एबव--निश्चय ही; आरभते--प्रारम्भ करता है; कर्म--सकाम कर्म; तेन--उसी शरीर से; एव--निश्चय ही; अमुत्र--अगले जीवन में; तत्--वह; पुमानू--जीव; भुड्ढे -- भोग करता है; हि-- क्योंकि;अव्यवधानेन--किसी परिवर्तन के बिना; लिड्रेन--सूक्ष्म शरीर से; मनसा--मन से; स्वयम्--स्वयं, खुद ।
नारद मुनि ने आगे कहा : इस जीवन में जीव स्थूल शरीर में कर्म करता है।
यह शरीर मन,बुद्धि तथा अहंकार से निर्मित सूक्ष्म शरीर द्वारा कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है।
इसस्थूल शरीर के विनष्ट होने पर भी सूक्ष्म शरीर फल भोगने या कष्ट उठाने के लिए बना रहता है।
अतः इससे कोई परिवर्तन नहीं होता।
"
शयानमिममुत्सूज्य श्वसन्तं पुरुषो यथा ।
कर्मात्मन्याहितं भुड्डे ताहशेनेतरेण वा ॥
६१॥
शयानमू--ब्स्तर में लेटे हुए; इमम्ू--यह शरीर; उत्सूज्य-त्याग कर; श्रसन्तम्-- श्वास लेता हुआ; पुरुष: --जीव; यथा--जिसप्रकार; कर्म--कार्य; आत्मनि--मन में; आहितम्--सम्पन्न हुआ; भुड्ढे --भोगता है; ताइशेन--वैसे ही शरीर से; इतरेण--भिन्नशरीर से; वा--अथवा।
स्वप्न देखते समय जीव अपने वास्तविक शरीर को त्याग देता है और अपने मन तथा बुद्धिके कार्यों से वह दूसरे शरीर में, यथा देवता या कुत्ते के शरीर में, प्रवेश करता है।
इस स्थूलशरीर को त्याग कर जीव इस लोक में अथवा अन्य लोक में किसी पशु या देवता के शरीर मेंप्रवेश करता है।
इस प्रकार वह अपने पिछले जीवन के कर्मफलों को भोगता है।
"
ममैते मनसा यद्यद्सावहमिति ब्रुवन् ।
गृह्नीयात्तत्पुमात्राद्धं कर्म येन पुनर्भव: ॥
६२॥
मम--मेरा; एते--ये सब; मनसा--मन से; यत् यत्ू--जो जो; असौ--वह; अहम्--मैं ( हूँ ); इति--इस प्रकार; ब्रुवन्--स्वीकार करते हुए; गृह्लीयात्--अपने ऊपर ले लेता है; तत्--वह; पुमान्ू--जीव; राद्धम्--पूर्ण; कर्म--कर्म; येन--जिससे;पुनः--फिर; भव:--संसार |
जीव इस देहात्मबुद्धि के अन्तर्गत कार्य करता है कि, 'मैं यह हूँ, मैं वह हूँ, यह मेरा कर्तव्यहै, अतः मैं इसे करूँगा।
ये सब मानसिक संस्कार है और ये सारे कर्म अस्थायी हैं; फिर भीभगवान् के अनुग्रह से जीव को अपने समस्त मनोरथ पूरे करने का अवसर प्राप्त होता है।
इसलिए उसे दूसरा शरीर प्राप्त होता है।
"
यथानुमीयते चित्तमुभयैरिन्द्रियेहितैः ।
एवं प्राग्देहजं कर्म लक्ष्यते चित्तवृत्तिभि: ॥
६३॥
यथा--जिस प्रकार; अनुमीयते-- अनुमान लगाया जा सकता है; चित्तम्ू--चेतना या मानसिक स्थिति; उभयै: --दोनों; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; ईहितैः --क्रियाओं के द्वारा; एवम्--उसी तरह; प्राक्--पूर्व; देहजम्--शरीर द्वारा सम्पन्न; कर्म--कर्म; लक्ष्यते--देखा जा सकता है; चित्त--चेतना के; वृत्तिभिः--व्यापारों से |
जीव की मानसिक स्थिति को दो प्रकार की इन्द्रियों--कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों--द्वारासमझा जा सकता है।
इसी प्रकार किसी मनुष्य की मानसिक स्थिति से उसके पूर्वजन्म कीस्थिति को समझा जा सकता है।
"
नानुभूतं क्व चानेन देहेनादृष्टमश्रुतम् ।
कदाचिदुपलभ्येत यद्वूपं याहगात्मनि ॥
६४॥
न--कभी नहीं; अनुभूतम्-- अनुभव किया गया; क्व--किसी समय; च-- भी; अनेन देहेन--इस शरीर से; अदृष्टमू--कभी नदेखा गया; अश्रुतम्--कभी न सुना हुआ; कदाचित्--क भी कभी; उपलभ्येत-- अनुभव किया जा सकता है; यत्--जो;रूपमू--रूप; याहक्ू--जैसा भी; आत्मनि--मन में |
कभी-कभी हमें ऐसी वस्तु का अचानक अनुभव होता है, जिसे हमने इस शरीर में देख यासुनकर कभी अनुभव नहीं किया।
कभी-कभी हमें ऐसी वस्तुएँ अचानक स्वप्न में दिख जाती हैं।
"
तेनास्य ताहशं राजल्लिड्डिनो देहसम्भवम् ।
श्रद्धत्स्वाननुभूतो थीं न मनः स्प्रष्टमहति ॥
६५॥
तेन--अतः; अस्य--जीव का; ताह॒शम्--उसके समान; राजनू--हे राजन; लिड्डिन:--सूक्ष्म मानसिक आवरण वाला; देह-सम्भवम्--पूर्वशरीर में उत्पन्न; श्रद्धत्स्व--इसे तथ्य मानो; अननुभूतः-- अनदेखा; अर्थ: --वस्तु; न--कभी नहीं; मन:--मन में;स्प्रष्टमू--प्रकट करने के लिए; अर्हति--समर्थ है।
अतः हे राजन, सूक्ष्म मानसिक आवरण वाला यह जीव अपने पूर्व शरीर के कारण सभीप्रकार के विचार तथा प्रतिबिम्ब विकसित करता रहता है।
मेरी बात को तुम निश्चय समझो।
जबतक पूर्व शरीर में कोई वस्तु देखी हुई नहीं रहती, तब तक मन के द्वारा उसकी कल्पना करने कीसम्भावना नहीं उठती।
"
मन एव मनुष्यस्य पूर्वरूपाणि शंसति ।
भविष्यतश्च भद्रं ते तथेव न भविष्यत: ॥
६६॥
मनः--मन; एव--निश्चय ही; मनुष्यस्थ--मनुष्य के; पूर्व--विगत; रूपाणि---अनेक रूप; शंसति--सूचित करता है;भविष्यत:--आगे जन्म लेने वाले का; च-- भी; भद्रमू--कल्याण; ते--तुम्हारा; तथा--उसी तरह; एब--निश्चय ही; न--नहीं;भविष्यत:--भावी जन्म लेने वाले का
हे राजन, तुम्हारा कल्याण हो।
यह मन प्रकृति के साहचर्य के अनुसार जीव द्वारा विशेषप्रकार का शरीर धारण करने का कारण है।
मनुष्य अपने मानसिक संघटन के अनुसार यह जानसकता है कि पूर्वजन्म में वह कैसा था और भविष्य में वह कैसा शरीर धारण करेगा।
इस प्रकारमन भूत ( गत ) तथा भावी शरीरों की सूचना देता है।
"
अद्दष्टमश्रुतं चात्र क्वचिन्मनसि हृश्यते ।
यथा तथानुमन्तव्यं देशकालक्रिया श्रयम् ॥
६७॥
अदृष्टमू--न देखी गई; अश्रुतम्--न सुनी गई; च--तथा; अतन्र--इस जीवन में; क्वचित्--कभी; मनसि--मन में; दृश्यते--देखेजाते हैं; यथा--जिस प्रकार; तथा--उसी प्रकार; अनुमन्तव्यम्ू--समझा जाना चाहिए; देश--स्थान; काल--समय; क्रिया--कर्म; आश्रयम्--आश्रित |
कभी-कभी स्वण में हम ऐसी वस्तु देखते हैं, जिसको हम इस जीवन में कभी न तो अनुभवकिये होते और न सुने होते हैं, किन्तु ये सभी घटनाएँ विभिन्न कालों, स्थानों तथा परिस्थितियों मेंअनुभव की गई होती हैं।
"
सर्वे क्रमानुरोधेन मनसीन्द्रियगोचरा: ।
आयान्ति बहुशो यान्ति सर्वे समनसो जना: ॥
६८ ॥
सर्वे-- सभी; क्रम-अनुरोधेन-- क्रमानुसार; मनसि-- मन में; इन्द्रिय--इन्द्रियों द्वारा; गोचरा:--अनुभूत; आयान्ति--आते हैं;बहुश:--अनेक प्रकार से; यान्ति--चले जाते हैं; सर्वे--सभी; समनस:--मन से; जना:--जीव ।
जीव का मन विभिन्न स्थूल शरीरों में रहा करता है और इन्द्रियतृप्ति के लिए व्यक्ति कीइच्छाओं के अनुसार मन विविध विचारों को अंकित करता रहता है।
ये मन में विभिन्न मिश्रणों( मेलों ) के रूप में प्रकट होते हैं।
अतः कभी-कभी ये प्रतिबिम्ब ऐसी वस्तुओं के रूप में प्रकटहोते हैं, जो पहले न तो कभी सुनी गई और न देखी गई होती हैं।
"
सत्त्वैकनिष्ठे मनसि भगवत्पार्श्ववर्तिनि ।
तमश्चन्द्रससीवेदमुपरज्यावभासते ॥
६९॥
सत्त्व-एक-निष्टे -- पूर्ण कृष्णचेतना में; मनसि--मन में; भगवत्-- भगवान् के साथ; पार्श्व-वर्तिनि--लगातार साथ रहने से;तमः--अंध ग्रह; चन्द्रमसि--चन्द्रमा में; इब--सहृश; इृदम्--यह हृश्य जगत; उपरज्य--सम्बन्धित होकर; अवभासते--प्रकटहोता
हैकृष्ण-चेतना का अर्थ है ऐसी मानसिक दशा में भगवान् के साथ निरन्तर साहचर्य जिससेकि भक्त इस दृश्य जगत् को वैसा ही देख सके जैसा कि भगवान् देख सकते हैं।
ऐसा देख पानासदैव सम्भव नहीं होता, लेकिन यह राहु नामक अंधग्रह के समान प्रकट होता है, जो पूर्ण चन्द्रहोने पर ही देखा जाता है।
"
नाह ममेति भावोयं पुरुषे व्यवधीयते ।
यावद्दुद्धिमनो क्षार्थगुणव्यूहो हाानादिमान् ॥
७०॥
न--नहीं; अहम्--मैं; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; भाव:--चेतना; अयम्--यह; पुरुषे--जीव में; व्यवधीयते--विलग रहताहै; यावत्ू--जब तक; बुद्धि--बुद्धि; मनः--मन; अक्ष--इन्द्रियाँ; अर्थ--इन्द्रिय विषय; गुण--गुणों का; व्यूह:--प्राकट्य;हि--निश्चय ही; अनादि-मान्--सूक्ष्म शरीर ( अनादि काल से विद्यमान )
जब तक बुद्धि, मन, इन्द्रियों, विषयों तथा भौतिक गुणों के प्रतिफलों से बना हुआ सूक्ष्मभौतिक शरीर रहता है तब तक मिथ्या अहंकार और स्थूल शरीर भी रह जाते हैं।
"
सुप्तिमूच्छोपतापेषु प्राणायनविघाततः ।
नेहतेहमिति ज्ञान मृत्युप्रज्यारयोरपि ॥
७१॥
सुप्ति--प्रगाढ़ निद्रा में; मूर्छ--बेहोशी; उपतापेषु--या आघात पहुँचने पर; प्राण-अयन--प्राण वायु के संचरण का;विघाततः--रुकावट से; न--नहीं; ईहते--सोचता है; अहम्--मैं; इति--इस प्रकार; ज्ञानमू--ज्ञान; मृत्यु--मरते हुए;प्रज्वारयो: --या प्रखर ज्वर होने पर; अपि-- भी |
जब जीव गाढ़ निद्रा, मूर्च्छा, किसी गंभीर क्षति से उत्पन्न गहन आघात, मृत्यु के समय याप्रखर ज्वर की अवस्था में रहता है, तो प्राण-वायु का संचरण रुक जाता है।
उस समय जीवआत्मा से शरीर की पहचान करने का ज्ञान खो देता है।
"
गर्भ बाल्येप्यपौष्कल्यादेकादशविधं तदा ।
लिड़ं न दृश्यते यूनः कुह्नां चन्द्रमसो यथा ॥
७२॥
गर्भे--गर्भ में; बाल्ये--बाल्यकाल में; अपि-- भी; अपौष्कल्यात्-- अविकसित होने के कारण; एकादश--दस इन्द्रियाँ तथामन; विधम्--के रूप में; तदा--उस समय; लिड्रम्--सूक्ष्म शरीर अथवा मिथ्या अहंकार; न--नहीं; दृश्यते--दिखाई पड़ता है;यून:--तरुण का; कुह्माम्--अमावस्या में; चन्द्रमस:ः --चन्द्रमा; यथा--जिस तरह
जब मनुष्य तरुण होता है, तो दसों इन्द्रियाँ तथा मन पूरी तरह दिखाई पड़ते हैं, किन्तु माताके गर्भ या बाल्यकाल में इन्द्रियाँ तथा मन उसी तरह ढके रहते हैं जिस तरह अमावस्या की रात्रिके अंधकार से पूर्ण-चन्द्रमा ढका रहता है।
"
अर्थ हाविद्यमानेपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेडनर्थागमो यथा ॥
७३॥
अर्थ--इन्द्रिय विषय; हि--निश्चय ही; अविद्यमाने-- अनुपस्थिति में; अपि--यद्यपि; संसृतिः:-- भौतिक संसार; न--कभी नहीं;निवर्तते--रूक जाता है; ध्यायत:--ध्यान करते हुए; विषयान्--इन्द्रिय विषयों के बारे में; अस्य--जीव का; स्वप्ने--स्वप्न में;अनर्थ--अवांछित वस्तुओं का; आगम:--प्राकट्य; यथा--जिस प्रकार।
जब जीव स्वण देखता है, तो वास्तव में इन्द्रियविषय उपस्थित नहीं रहते।
किन्तुइन्द्रियविषयों के साथ मनुष्य का सम्पर्क होने से वे प्रकट हो जाते हैं।
इसी प्रकार अविकसितइन्द्रियों वाले जीव का भौतिक रूप से अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता, भले ही वह इन्द्रियविषयोंके सम्पर्क में न हो।
"
एवं पञ्जविधं लिड़ुं त्रिवृत्बोडश विस्तृतम् ।
एष चेतनया युक्तो जीव इत्यभिधीयते ॥
७४॥
एवम्--इस प्रकार; पञ्ञ-विधम्--पाँच इन्द्रियविषयों; लिड्डमू--सूक्ष्म शरीर; त्रि-वृत्--तीनों गुणों से प्रभावित; घोडश--सोलह; विस्तृतम्ू--फैला हुआ; एष: --यह; चेतनया--जीव के साथ; युक्त:--जुड़ा हुआ; जीव:--बद्धजीव; इति--इसप्रकार; अभिधीयते--माना जाता है|
पाँच इन्द्रिय विषय, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन--ये सोलह भौतिक विस्तारहैं।
ये सब जीव के साथ संयोजित रहते हैं और प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा प्रभावित होते हैं।
इसप्रकार बद्धजीव के अस्तित्व को समझा जाता है।
"
अनेन पुरुषो देहानुपादत्ते विमुझ्ञति ।
हर्ष शोकं भयं दुःखं सुखं चानेन विन्दति ॥
७५॥
अनेन--इस विधि से; पुरुष:--जीव; देहान्--स्थूल शरीरों को; उपादत्ते--प्राप्त करता है; विमुल्ञति--त्यागता है; हर्षम्--प्रसन्नता; शोकम्--शोक; भयम्-- भय, डर; दुःखम्--दुख; सुखम्--सुख; च-- भी; अनेन--स्थूल शरीर से; विन्दति--भोगता है।
सूक्ष्म शरीर की क्रियाओं से जीव स्थूल शरीरों को विकसित करता और त्यागता रहता है।
यह आत्मा का देहान्तरण कहलाता है।
इस प्रकार आत्मा विभिन्न प्रकार के हर्ष, शोक, भय,सुख तथा दुख का अनुभव करता है।
"
यथा तृणजलूकेयं नापयात्यपयाति च ।
न त्यजेन्प्रियमाणोपि प्राग्देहाभिमतिं जन: ॥
७६॥
यावदन्यं न विन्देत व्यवधानेन कर्मणाम् ।
मन एव मनुष्येन्द्र भूतानां भवभावनम् ॥
७७॥
यथा--जिस प्रकार; तृण-जलूका--एक प्रकार का कीट; इयम्--यह; न अपयाति--जाती नहीं है; अपयाति--जाती है; च--भी; न--नहीं; त्यजेत्--त्याग देता है; प्रियमाण:--मरणप्राय; अपि-- भी; प्राक्--पूर्व; देह--शरीर के साथ; अभिमतिम्--पहचान; जनः--व्यक्ति; यावत्ू--जब तक; अन्यम्--दूसरा; न--नहीं; विन्देत-- प्राप्त करता है; व्यवधानेन--रूकने से;कर्मणाम्--कर्मो का; मन:--मन; एव--निश्चय ही; मनुष्य-इन्द्र--हे पुरुषों के शासक; भूतानाम्ू--समस्त जीवों का; भव--ससार का; भावनम््-- कारण ।
इल्ली ( कीट विशेष ) एक पत्ती को छोड़ने के पहले दूसरी पत्ती को पकड़ कर एक से दूसरी पत्ती में जाती है।
इसी प्रकार जीव को अपना शरीर त्यागने के पूर्व अपने पूर्व कर्म के अनुसारअन्य शरीर को ग्रहण करना होता है।
इसका कारण यह है कि मन सभी प्रकार की इच्छाओं काआगार ( भण्डार ) है।
"
यदाक्षैश्वरितान्ध्यायन्कर्माण्याचिनुतेउसकृत् ।
सति कर्मण्यविद्यायां बन्ध: कर्मण्यनात्मन: ॥
७८॥
यदा--जब; अक्षै:ः--इन्द्रियों द्वारा; चरितान्ू-- भोगे गये सुख; ध्यायन्--चिन्तन करते हुए; कर्माणि--कर्म; आचिनुते--करताहै; असकृत्ू--सदैव; सति कर्मणि--जब भौतिक व्यापार होते रहते हैं; अविद्यायामू--मोहवश; बन्ध:--बन्धन; कर्मणि--कर्ममें; अनात्मनः-- भौतिक शरीर का।
जब तक हम इन्द्रियसुखों का भोग करना चाहते हैं तब तक हम भौतिक कार्यों की सृष्टिकरते रहते हैं।
जब जीव भौतिक क्षेत्र में कर्म करता है, तो वह इन्द्रियों को भोगता है और ऐसाकरने से वह भौतिक कर्मों की एक और श्रृंखला को जन्म देता है।
इस प्रकार जीवात्मा बद्धआत्मा के रूप में जकड़ जाता है।
"
अतस्तदपवादार्थ भज सर्वात्मना हरिम् ।
पश्यंस्तदात्मकं विश्व स्थित्युत्पत्त्यप्यया यतः ॥
७९॥
अतः--अतएव; तत्--उस; अपवाद-अर्थमू--छुटकारा पाने के लिए; भज--भक्ति में लगो; सर्व-आत्मना--अपनी सारीइन्द्रियों सहित; हरिम्-- भगवान् को; पश्यन्--देखते हुए; तत्ू-- भगवान् का; आत्मकम्--वश में ; विश्वम्--हृश्य जगत;स्थिति--पालन; उत्पत्ति--सृष्टि; अप्यया:--तथा संहार; यत:--जिससे |
तुम्हें यह सदैव जानना चाहिए कि भगवान् की इच्छा से ही इस दृश्य जगत की उत्पत्ति,पालन तथा संहार होता है।
फलतः इस दृश्य जगत के अन्तर्गत सारी वस्तुएँ भगवान् के अधीनहैं।
इस पूर्ण ज्ञान से प्रकाश प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सदैव भगवद्भक्ति में लगे रहनाचाहिए।
"
मैत्रेय उवाचभागवतमुख्यो भगवान्नारदो हंसयोगगतिम् ।
प्रदर्श्य ह्ामुमामनत्रय सिद्धलोक॑ ततोडगमत् ॥
८०॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; भागवत--भक्तों का; मुख्य:--प्रमुख; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; नारद:--नारद मुनि;हंसयो:--जीव तथा भगवान् की; गतिम्ू--स्वाभाविक स्थिति; प्रदर्श--दिखला कर; हि--निश्चय ही; अमुम्--उस ( राजा )को; आमन््य--बुलाकर; सिद्ध-लोकम्--सिद्ध लोक को; ततः--तत्पश्चात्; अगमत्--चला गया।
मैत्रेय ऋषि ने कहा : महान् सन्त तथा परम भक्त नारद ने इस प्रकार राजा प्राचीनबर्हि केसमक्ष भगवान् तथा जीव की स्वाभाविक स्थिति की व्याख्या प्रस्तुत की।
राजा को आमंत्रितकरते हुए नारद मुनि सिद्धलोक को वापस चले गये।
"
प्राचीनब्ीं राजर्षि: प्रजासर्गाभिरक्षणे ।
आदिश्य पुत्रानगमत्तपसे कपिलाश्रमम् ॥
८१॥
प्राचीनबर्हि:--राजा प्राचीनबर्हि; राज-ऋषि:--साधु राजा; प्रजा-सर्ग--नागरिकों का समूह; अभिरक्षणे--रक्षा करने के लिए;आदिश्य--आदेश देकर; पुत्रानू--अपने पुत्रों को; अगमत्-- प्रस्थान किया; तपसे--तपस्या करने के लिए; कपिल-आश्रमम्-कपिलाश्रम नामक तीर्थ स्थल को |
अपने मंत्रियों की उपस्थिति में राजर्षि प्राच्चीनबर्हि ने अपने पुत्रों को नागरिकों की रक्षा करनेके लिए आदेश छोड़ा।
तब उन्होंने घर छोड़ दिया और तपस्या हेतु कपिलाश्रम नामक तीर्थस्थानके लिए प्रस्थान किया।
"
तत्रैकाग्रमना धीरो गोविन्दचरणाम्बुजम् ।
विमुक्तसड्रोनुभजन्भक्त्या तत्साम्यतामगात् ॥
८२॥
तत्र--वहाँ; एक-अग्र-मना:--पूर्ण मनोयोग से; धीर:--गम्भीर; गोविन्द--कृष्ण के; चरण-अम्बुजम्--चरणकमलों की;विमुक्त--मुक्त होकर; सड्भ:-- भौतिक संगति; अनुभजन्--लगातार भक्ति में लगकर; भक्त्या--शुद्ध भक्ति से; ततू-- भगवान्के साथ; साम्यताम्--समता; अगातू--प्राप्त किया |
कपिलाश्रम में तपस्या करके राजा प्राचीनबर्हि ने समस्त भौतिक उपाधियों से पूर्ण मुक्तिप्राप्त कर ली।
वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लगा रहा और गुणात्मक दृष्टि सेभगवान् के ही समान आध्यात्मिक पद पर पहुँच गया।
"
एतदथध्यात्मपारोक्ष्यं गीत॑ देवर्षिणानघ ।
यः श्रावयेद्य: श्रृणुयात्स लिड्रेन विमुच्यते ॥
८३॥
एतत्--यह; अध्यात्म--आध्यात्मिक; पारोक्ष्यमू-- प्रामाणिक विवरण; गीतम्--वर्णन किये गये; देव-ऋषिणा--देवर्षि नारदके द्वारा; अनघ--हे निष्पाप विदुर; यः--जो; श्रावयेतू--वर्णन कर सकता है; यः--जो; श्रूणुयात्--सुन सकता है; सः--वह;लिड्रेन--देहात्मबुद्धि से; विमुच्यते--छूट जाता है।
हे बिदुर, जो कोई जीव के आध्यात्मिक अस्तित्व को समझने से सम्बद्ध, नारद द्वारा कहेगये इस आख्यान को सुनता है या ऐसे अन्यों को सुनाता है, वह देहात्मबुद्धि की अवधारणा सेमुक्त हो जाएगा मुक्त हो जाएगा।
"
एतन्मुकुन्दयशसा भुवन पुनानंदेवर्षिवर्यमुखनि:सृतमात्मशौचम् ।
यः कीरत्यमानमधिगच्छति पारमेष्ठयंनास्मिन्भवे भ्रमति मुक्तसमस्तबन्ध: ॥
८४॥
एतत्--यह आख्यान; मुकुन्द-यशसा-- भगवान् कृष्ण की ख्याति से; भुवनम्--यह भौतिक जगत; पुनानम्-पतवित्र करनेवाला; देव-ऋषि--ऋषियों के; वर्य--प्रमुख; मुख--मुख से; निःसृतम्ू--निकला हुआ; आत्म-शौचम्--हृदय को पवित्र करनेवाला; यः--जो कोई; कीर्त्यमानम्--कीर्तन किया गया; अधिगच्छति--वापस जाता है; पारमेष्ठयमम्-- आध्यात्मिक जगत को;न--कभी नहीं; अस्मिन्ू--इसमें; भवे-- भौतिक जगत में; भ्रमति--घूमता है; मुक्त--मुक्त होकर; समस्त--सभी; बन्ध:--बन्धनों से |
नारद मुनि द्वारा उदबोधित यह आख्यान ( कथा ) भगवान् की दिव्य ख्याति से पूर्ण है।
अतःजब इस आख्यान का वर्णन किया जाता है, तो वह इस भौतिक जगत को पवित्र कर देता है।
वह जीव के हृदय को पवित्र करता है और उसे आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त करने में सहायक होताहै।
जो कोई इस दिव्य आख्यान को सुनाता है, वह समस्त भौतिक बन्धनों से मुक्त हो जाएगाऔर उसे इस भौतिक जगत में भटकना नहीं पड़ेगा।
"
अध्यात्मपारोक्ष्यमिदं मयाधिगतमद्भुतम् ।
एवं स्त्रियाश्रम: पुंसश्छन्नोमुत्र च संशय: ॥
८५॥
अध्यात्म--आध्यात्मिक; पारोक्ष्यमू-- अधिकारी द्वारा वर्णित; इृदम्--यह; मया--मेरे द्वारा; अधिगतम्--सुना हुआ; अद्भुतम्--आश्चर्यजनक; एवम्--इस प्रकार; स्त्रिया--स्त्री के साथ; आश्रम:--शरण; पुंसः--जीव का; छिन्न:--मिट जाता है; अमुत्र--अगले जन्म के विषय में; च-- भी; संशय: --सन्देह |
यहाँ पर अधिकार पूर्वक वर्णित राजा पुरझ्न का रूपक मैंने अपने गुरु से सुना था।
यहअध्यात्मिक ज्ञान से पूर्ण है।
यदि कोई इस रूपक के उद्देश्य को समझ ले तो वह निश्चय हीदेहात्मबुद्धि से छुटकारा पा जाएगा और मृत्यु के पश्चात् जीवन को ठीक से समझ सकेगा।
यदिवह आत्मा के देहान्तर को ठीक से न समझ पाये तो वह इस आख्यान को पढ़कर उसे अच्छीतरह समझ सकता है।
"
अध्याय तीस: प्रचेता की गतिविधियाँ
4.30तय हिला पा,ये ब्रह्मन्सुता: प्राचीनबर्हिष: ।
ते रुद्रगीतेन हरिं सिद्धिमापु: प्रतोष्य काम् ॥
१॥
विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; ये--जो; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अभिहिता:--कहे गये थे; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; सुता:--सभी पुत्र;प्राचीनबर्हिष:--राजा प्राचीनबर्हि के; ते--वे सब; रुद्र-गीतेन-- भगवान् शिव द्वारा रचे गये गीत से; हरिम्-- भगवान् को;सिद्धिमू--सफलता; आपु:--प्राप्त किया; प्रतोष्य--प्रसन्न करके; कामू--क्या |
विदुर ने मैत्रेय से जानना चाहा: हे ब्राह्मण, आपने पहले मुझसे प्राचीनबर्हि के पुत्रों के विषयमें बतलाया था कि उन्होंने शिव द्वारा रचे हुए गीत के जप से भगवान् को प्रसन्न किया।
तो उन्हेंइस प्रकार क्या प्राप्त हुआ ?"
किं बाहस्पत्येह परत्र वाथकैवल्यनाथप्रियपार्श्ववर्तिन: ।
आसाद्य देवं गिरिशं यहच्छयाप्रापु: परं नूनमथ प्रचेतस: ॥
२॥
किमू--क्या; बाईस्पत्य--हे बृहस्पति के शिष्य; इह--यहाँ; परत्र--विभिन्न लोकों में; वा--अथवा; अथ--इस तरह; कैवल्य-नाथ--मोक्ष के प्रदाता को; प्रिय--प्यारा; पार्श्-वर्तिन:--से सम्बद्ध होने से; आसाद्य--मिलकर; देवम्--देवता; गिरि-शम्--कैलाश पर्वत के स्वामी को; यहच्छया-- भाग्य से; प्रापु:--प्राप्त किया; परमू--परमे श्वर; नूनम्ू--निश्चय ही; अथ-- अतएव;प्रचेतस:--बर्हिषत् के पुत्र |
हे बार्हस्पत्य, राजा बर्दिषत् के पुत्रों ने, जिन्हें प्रचेता कहते हैं, उन्होंने भगवान् शिवजी सेभेंट करने के बाद क्या प्राप्त किया, जो मोक्षदाता भगवान् को अत्यन्त प्रिय हैं? वे वैकुण्ठलोकतो गये ही, किन्तु इसके अतिरिक्त उन्होंने इस जीवन में, अथवा अन्य जीबनों में इस संसार मेंक्या प्राप्त किया ?"
मैत्रेय उवाचप्रचेतसोन्तरुदधौ पितुरादेशकारिण: ।
जपयज्ञेन तपसा पुरश्ननममतोषयन् ॥
३॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; प्रचेतस:--प्रचेताओं ने; अन्त:-- भीतर; उदधौ--समुद्र में; पितु:--अपने पिता के; आदेश-कारिण:--आज्ञाकारी; जप-यज्ञेन--मंत्रों के जप से; तपसा--कठिन तपस्या से; पुरमू-जनम्-- भगवान् को; अतोषयन्- प्रसन्नकिया।
मैत्रेय ऋषि ने कहा : राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र प्रचेताओं ने अपने पिता की आज्ञा का पालनकरने के लिए समुद्र जल के भीतर कठिन तपस्या की।
भगवान् शिव द्वारा प्रदत्त मंत्र काबारम्बार उच्चारण करके वे भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने में समर्थ हुए।
"
दश्वर्षसहस्त्रान्ते पुरुषस्तु सनातनः ।
तेषामाविरभूत्कृच्छुं शान्तेन शमयन्नुच्चा ॥
४॥
दश-वर्ष--दस साल; सहस्त्र-अन्ते--एक हजार के अन्त में; पुरुष: --परम पुरुष; तु--तब; सनातन: --शा श्वत; तेषाम्--प्रचेताओं का; आविरभूत्--प्रकट हुआ; कृच्छुमू--कठिन तपस्या; शान्तेन--तुष्ट करते हुए; शमयन्--शान्त करते हुए; रुचा--अपने सौन्दर्य से।
प्रचेताओं द्वारा दस हजार वर्षो तक कठिन तपस्या किये जाने के बाद भगवान् तपस्या का'फल देने के लिए उनके समक्ष अत्यन्त मनोहर रूप में प्रकट हुए।
इससे प्रचेताओं को अपना श्रमसार्थक प्रतीत हुआ।
"
सुपर्णस्कन्धमारूढो मेरु श्रूड़॒मिवाम्बुद: ।
'पीतवासा मणिग्रीव: कुर्वन्वितिमिरा दिश: ॥
५॥
सुपर्ण--भगवान् विष्णु के वाहन गरुड़ के; स्कन्धम्--कन्धों पर; आरूढ: --आसीन; मेरु--मेरु नामक पर्वत की; श्रृड़म्--चोटी पर; इब--सहश; अम्बुद:ः--बादल; पीत-वासा:--पीला वस्त्र पहने; मणि-ग्रीव: --कौस्तुभ मणि से सुशोभित गर्दन;कुर्वन्ू--करते हुए; वितिमिरा:--अंधकार से मुक्त; दिश:--सारी दिशाएँ।
गरुड़ के कन्धे पर आसीन भगवान् मेरु पर्वत की चोटी पर छाये बादल के समान प्रतीत होरहे थे।
भगवान् का दिव्य शरीर आकर्षक पीताम्बर से ढका था और उनकी गर्दन कौस्तुभ मणिसे सुशोभित थी।
भगवान् के शारीरिक तेज से ब्रह्माण्ड का सारा अंधकार दूर हो रहा था।
"
काशिष्णुना कनकवर्णविभूषणेनभ्राजत्कपोलवदनो विलसत्किरीट: ।
अष्टायुधैरनुचरैर्मुनिभि: सुरेन्द्ररासेवितो गरुडकिन्नरगीतकीर्ति: ॥
६॥
काशिष्णुना--चमकीले; कनक--सोना; वर्ण--रंग के; विभूषणेन-- आभूषणों से; भ्राजत्--चमकते हुए; कपोल--मस्तक;वदन:--मुख; विलसत्---झिलमिलाता हुआ; किरीट:--मुकुट; अष्ट--आठ; आयुधेः:--आयुधों से; अनुचरैः --सेवा करनेवालों से; मुनिभि:--मुनियों से; सुर-इन्द्रै:--देवताओं से; आसेवितः--सेवित; गरुड--गरुड़ द्वारा; किन्नर--किन्नर लोक केवासी; गीत--गाया हुआ; कीर्ति:--कीर्ति, महिमा |
भगवान् का मुख अत्यन्त सुन्दर था और उनका सिर चमकीले मुकुट तथा सुनहरे आभूषणोंसे सुशोभित था।
यह मुकुट झिलमिला रहा था और सिर पर अत्यन्त सुन्दर ढंग से लगा था।
भगवान् के आठ भुजाएँ थीं और प्रत्येक भुजा में एक विशेष आयुध था।
वे देवताओं, ऋषियोंतथा अन्य पार्षदों से घिरे हुए थे।
ये सब उनकी सेवा कर रहे थे।
भगवान् का वाहन गरुड़ अपनेपंखों को फड़फड़ा कर वैदिक स्तोत्रों से भगवान् की महिमा का इस प्रकार गान कर रहा थामानो वह किन्नर लोक का वासी हो।
"
पीनायताष्टभुजमण्डलमध्यलक्ष्म्यास्पर्धच्छया परिवृतो वनमालयाद्य: ।
बर्हिष्मतः पुरुष आह सुतान्प्रपन्नान्पर्जन्यनादरुतया सघूणावलोकः ॥
७॥
पीन--बलिषप्ठ; आयत--लम्बी; अष्ट--आठ; भुज--भुजाएँ; मण्डल--घेरा के; मध्य--बीच में; लक्ष्म्या--लक्ष्मी से; स्पर्धत्--स्पर्धा करते हुए; भ्रिया--जिसकी सुन्दरता; परिवृत:--पड़ी हुई; बन-मालया--फूलों की माला से; आद्य:--आदि भगवान्;बर्हिष्मत:--राजा प्राचीनबर्हि के; पुरुष:-- भगवान्; आह--सम्बोधित किया; सुतान्--पुत्रों को; प्रपन्नान्ू--शरणागत;पर्जन्य--बादल के समान; नाद--जिसकी ध्वनि; रुतया--वाणी से; स-घृण--दयापूर्वक ; अवलोक: --अपनी दृष्टि, चितवन।
भगवान् के गले के चारों ओर घुटनों तक पहुँचने वाली फूलों की माला लटक रही थी।
उनकी आठ बलिष्ट तथा लम्बी भुजाएँ उस माला से विभूषित थीं, जो लक्ष्मी जी की सुन्दरता कोचुनौती दे रही थीं।
दयापूर्ण चितबन तथा मेघ-गर्जना के समान वाणी से भगवान् ने राजाप्राचीनबर्हिषत् के पुत्रों को सम्बोधित किया जो उनकी शरण में आ चुके थे।
"
श्रीभगवानुवाचवरं वृणीध्वं भद्गं वो यूयं मे नृपनन्दना: ।
सौहार्देनापृथग्धर्मास्तुष्टो हं सौहदेन वः ॥
८ ॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; वरमू--वर, आशीर्वाद; वृणीध्वम्--माँगो; भद्रमू-- कल्याण; व:--तुम सबका;यूयम्--तुम सब; मे--मुझसे; नृप-नन्दना: --हे राजपुत्रो; सौहार्देन--मित्रता से; अपृथक् -- अभिन्न; धर्मा:--कार्य ; तुष्ट: --प्रसन्न; अहम्--मैं; सौहदेन--मित्रता से; वः--तुम सबका
भगवान् ने कहा : हे राजपुत्रो, मैं तुम लोगों के परस्पर मित्रतापूर्ण सम्बन्धों से अत्यधिकप्रसन्न हूँ।
तुम सभी एक ही कार्य--भक्ति--में लगे हो।
मैं तुम लोगों की मित्रता से इतनाअधिक प्रसन्न हूँ कि मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ।
अब तुम जो वर चाहो माँग सकते हो।
"
योअनुस्मरति सन्ध्यायां युष्माननुदिनं नरः ।
तस्य क्रातृष्वात्मसाम्यं तथा भूतेषु सौहदम् ॥
९॥
यः--जो; अनुस्मरति--सदैव स्मरण करता है; सन्ध्यायाम्ू--शाम के समय; युष्मान्--तुमको; अनुदिनम्-- प्रतिदिन; नर:--मनुष्य; तस्य भ्रातृषु--अपने भाइयों के प्रति; आत्म-साम्यम्-व्यक्तिगत समानता; तथा--और; भूतेषु--समस्त जीवों के प्रति;सौहदम्--मित्रता |
भगवान् ने आगे कहा : जो प्रतिदिन संध्या समय तुम्हारा स्मरण करेंगे वे अपने भाइयों केप्रति तथा अन्य समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखेंगे।
"
येतु मां रुद्रगीतेन सायं प्रातः समाहिता: ।
स्तुवन्त्यह॑ं कामवरान्दास्ये प्रज्ञां च शोभनाम् ॥
१०॥
ये--जो लोग; तु--लेकिन; मामू--मुझको ; रुद्र-गीतेन--रुद्र गीत द्वारा; सायम्--संध्या समय; प्रात:--प्रातःकाल;समाहिता: --सावधान रहकर; स्तुवन्ति--प्रार्थना करते हैं; अहम्--मैं; काम-वरान्--इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए समस्तवर, अभीष्ट वरदान; दास्ये--प्रदान करूँगा; प्रज्ञाम--बुद्धि; च-- भी; शोभनाम्--दिव्य |
जो लोग शिवजी द्वारा प्रणीत स्तुति से प्रातः तथा सायंकाल मेरी प्रार्थना करेंगे, उन्हें में वरप्रदान करूँगा।
इस तरह वे अपनी इच्छाओं को पूरा करने के साथ-साथ सह्ुद्धि भी प्राप्त करसकेंगे।
"
यद्यूयं पितुरादेशमग्रहीष्ट मुदान्विता: ।
अथो व उशती कीर्तिलोकाननु भविष्यति ॥
११॥
यत्--चूँकि; यूयम्--तुम लोगों ने; पितु:--पिता की; आदेशम्-- आज्ञा; अग्रहीष्ट--शिरोधार्य की है; मुदा-अन्विता:--अत्यन्तप्रसन्नतापूर्वक; अथो--अतः ; व:--तुम्हारी; उशती --आकर्षण, कमनीय; कीर्ति: --महिमा; लोकान् अनु--सारे ब्रह्माण्ड भरमें; भविष्यति--सम्भव हो सकेगी, फैल जाएगी।
चूँकि तुम लोगों ने अपने अन्तःकरण से प्रसन्नतापूर्वकक अपने पिता की आज्ञा अत्यन्तश्रद्धापूर्वक शिरोधार्य की है और उसका पालन किया है, अतः तुम्हारे आकर्षक गुण संसार-भरमें सराहे जाएँगे।
"
भविता विश्रुतः पुत्रोउनवमो ब्रह्मणो गुणै: ।
य एतामात्मवीर्येण त्रिलोकीं पूरयिष्यति ॥
१२॥
भविता--होगा; विश्रुतः --अत्यन्त प्रसिद्ध; पुत्र:--पुत्र; अनवमः--न्यून नहीं; ब्रह्मण: --ब्रह्मा से; गुणैः -गुणों में; यः--जो;एताम्ू--यह सब; आत्म-वीर्येण-- अपनी संतति से; त्रि-लोकीम्--तीनों संसार को; पूरयिष्यति--पूर्ण कर देगा।
तुम सब को एक उत्तम पुत्र प्राप्त होगा जो भगवान् ब्रह्माजी से किसी भी प्रकार न्यून नहींहोगा।
फलस्वरूप वह सरे ब्रह्माण्ड में अत्यन्त प्रसिद्ध होगा और उससे उत्पन्न पुत्र तथा पौत्र तीनोंलोकों को भर देंगे।
"
'कण्डोः प्रम्लोचया लब्धा कन्या कमललोचना ।
तां चापविद्धां जगृहुर्भूरहा नृपनन्दना: ॥
१३॥
कण्डो:--कण्डु मुनि की; प्रम्लोचया--प्रम्लोचा नाम की अप्सरा से; लब्धा--प्राप्त किया; कन्या--पुत्री; कमल-लोचना--कमल जैसे नेत्रों वाली; तामू--उसको; च-- भी; अपविद्धाम्--छोड़ी हुई; जगृहुः:--स्वीकार किया; भूरूहाः --वृक्ष; नूप-नन्दनाः--हे राजा प्राचीनबर्हिषत् के पुत्रो!
हे राजा प्राचीनबर्हिषत् के पुत्रो, प्रम्लोचा नामक अप्सरा ने कण्डु की कमलनयनी कन्या को जंगली वृक्षों की रखवाली में छोड़ दिया और फिर वह स्वर्गलोक को चली गई।
यह कन्याकण्डु ऋषि तथा प्रम्लोचा नामक अप्सरा के संयोग से उत्पन्न हुई थी।
"
क्षुक्षामाया मुखे राजा सोम: पीयूषवर्षिणीम् ।
देशिनीं रोदमानाया निदधे स दयान्वित: ॥
१४॥
क्षुतू-- भूख से; क्षामाया:--व्याकुल होने पर; मुखे--मुँह में; राजा--राजा; सोम: --चन्द्रमा; पीयूष-- अमृत; वर्षिणीम्--डालतेहुए; देशिनीम्--तर्जनी अंगुली; रोदमानाया: --रोने पर; निदधे--डाला; सः--वह; दया-अन्वित:--दयालु होते हुए |
ततपश्चात् वृक्षों के संरक्षण में रखा गया वह शिशु भूख से रोने लगा।
उस समय वन के राजा अर्थात् चन्द्रलोक के राजा ने दयावश अपनी अंगुली ( तर्जनी ) शिशु के मुख में रखी जिससेअमृत निकलता था।
इस प्रकार उस शिशु का पालनपोषण चन्द्र राजा की कृपा से हुआ।
"
प्रजाविसर्ग आदिष्टा: पित्रा मामनुवर्तता ।
तत्र कन्यां वरारोहां तामुद्र॒हत मा चिरम् ॥
१५॥
प्रजा-विसगें--सन्तान उत्पन्न करने के लिए; आदिष्टा:--आदेश पाकर; पित्रा--पिता द्वारा; मामू--मेरा आदेश; अनुवर्तता--पालन करती हुई; तत्र--वहाँ; कन्याम्--कन्या को; वर-आरोहाम्-- अत्यन्त योग्य तथा अत्यन्त सुन्दरी; तामू--उसको;उद्ददत--ब्याह लिया; मा--बिना; चिरम्ू--समय गँवाये |
चूँकि तुम सभी मेरी आज्ञा का पालन करने वाले हो, अतः मैं तुम्हें उस कन्या के साथ तुरन्तविवाह करने के लिए कहता हूँ क्योंकि वह अत्यन्त योग्य है, सुन्दरी है और उत्तम गुणों वाली है।
अपने पिता की आज्ञा के अनुसार तुम उससे संतति उत्पन्न करो।
"
अपृथग्धर्मशीलानां सर्वेषां व: सुमध्यमा ।
अपृथग्धर्मशीलेयं भूयात्पत्यर्पिताशया ॥
१६॥
अपृथक्--किसी अन्तर के बिना; धर्म--व्यापार; शीलानाम्--जिसका चरित्र; सर्वेषाम् व:--तुम सबों का; सु-मध्यमा--पतलीकमर वाली लड़की; अपूथक् --समान; धर्म--व्यापार; शीला--अच्छे आचरण वाली; इयम्--यह; भूयात्--हो; पत्ती--पली;अर्पित-आशया--पूर्णतया समर्पित
तुम सभी भाई भक्त तथा अपने पिता के आज्ञाकारी पुत्र होने के कारण समान स्वभाव वालेहो।
यह लड़की भी उसी तरह की है और तुम सबके प्रति समर्पित है।
अत: यह लड़की तथा तुमप्राचीनबर्हिषत् के सारे पुत्र एक ही नियम से बँधे होकर समान पद पर स्थित हो।
"
दिव्यवर्षसहस्त्राणां सहस्त्रमहतौजस: ।
भौमान्भोक्ष्यथ भोगान्वै दिव्यां श्वानुग्रहान्मम ॥
१७॥
दिव्य--स्वर्गिक; वर्ष--वर्ष; सहस्त्राणामू--हजारों का; सहस्त्रमू--एक हजार; अहत--अपराजित रहकर; ओजस: --तुम्हाराबल; भौमान्--इस संसार का; भोक्ष्यथ-- भोगोगे; भोगानू--सुख; बै--निश्चय ही; दिव्यान्ू--स्वर्गलोक का; च--भी;अनुग्रहात्--कृपा से; मम--मेरी |
तब भगवान् ने सभी प्रचेताओं को आशीर्वाद दिया: हे राजकुमारो, मेरे अनुग्रह से तुम इससंसार की तथा स्वर्ग की सभी सुविधाओं को भोग सकते हो।
तुम उन्हें बिना किसी बाधा केपूर्ण समर्थ रहते हुए दस लाख दिव्य वर्षो तक भोग सकते हो।
"
अथ मय्यनपायिन्या भक््त्या पक््वगुणाशया: ।
उपयास्यथ मद्धाम निर्विद्या निर्यादत: ॥
१८ ॥
अथ--अत:; मयि--मुझमें; अनपायिन्या--अविचल; भकत्या-- भक्ति से; पक््व-गुण-- भौतिक कल्मष से रहित; आशया: --मन; उपयास्यथ-प्राप्त करोगे; मत्-धाम--मेरा धाम; निर्विद्य--विरक्त होकर; निरयात्--संसार से; अत:--इस प्रकार
तत्पश्चात् तुम मेरे प्रति शुद्ध भक्ति विकसित करोगे और समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त होजाओगे।
उस समय तथाकथित स्वर्गलोक तथा नरकलोक में भौतिक भोगों से विरक्त होकर तुममेरे धाम को लौटोगे।
"
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मणाम् ।
मद्वार्तायातयामानां न बन्धाय गृहा मता: ॥
१९॥
गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; आविशताम्--प्रविष्ट हुए; च--तथा; अपि-- भी; पुंसामू--मनुष्यों का; कुशल-कर्मणाम्--शुभ कर्मोंमें लगे हुए; मत्-वार्ता--मेरी कथाओं में; यात--बीतता है; यामानाम्--जिसका प्रत्येक क्षण; न--नहीं; बन्धाय--बन्धन हेतु;गृहा:--गृहस्थ जीवन; मता:--विचार किया गया।
जो लोग भक्ति के शुभ कार्यों में लगे होते हैं, वे यह भलीभाँति समझते हैं कि पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् ही समस्त कर्मो के परम भोक्ता हैं।
अतः जब भी ऐसा व्यक्ति कोई कार्यकरता है, तो कर्मफल भगवान् को अर्पित कर देता है और भगवान् की कथाओं में व्यस्त रहतेहुए ही सारा जीवन बिताता है।
ऐसा व्यक्ति गृहस्था भ्रम में रह कर भी कर्मफलों से प्रभावित नहींहोता।
"
नव्यवद्धृदये यज्जञो ब्रहौतद्रह्मवादिभि: ।
न मुहान्ति न शोचन्ति न हृष्यन्ति यतो गता: ॥
२०॥
नव्य-वत्--सदैव नवीन; हृदये--हृदय में; यत्--क्योंकि; ज्ञ:--परमात्मा, परम ज्ञाता; ब्रह्म--ब्रह; एतत्--यह; ब्रह्म-वादिभिः--परम सत्य के पक्षधरों द्वारा; न--कभी नहीं; मुहान्ति--मोहग्रस्त होते हैं; न--कभी नहीं; शोचन्ति--पश्चात्ताप करतेहैं; न--कभी नहीं; हष्यन्ति--हर्षित होते हैं; यत:--जब; गता:--प्राप्त किये हुए।
सदैव भक्ति कार्यों में संलग्न रह कर भक्तजन अपने आपको ताजा तथा अपने कार्यों मेंसदैव नवीन ( नया नया ) अनुभव करते हैं।
भक्त के हृदय के भीतर सर्वज्ञाता परमात्मा प्रत्येकवस्तु को अधिकाधिक नया बनाता रहता है।
परम सत्य के पश्षधर ( ब्रह्मवादी ) इसे ब्रह्मभूतकहते हैं।
ऐसी ब्रह्मभूत अर्थात् मुक्त अवस्था में मनुष्य कभी मोहग्रस्त नहीं होता।
न ही वहपश्चात्ताप करता है, न वृथा ही हर्षित होता है।
यह ब्रह्मभूत अवस्था के कारण होता है।
"
मैत्रेय उवाचएवं ब्रुवाणं पुरुषार्थभाजनंजनार्दन॑ प्राज्ललय: प्रचेतसः ।
तदर्शनध्वस्ततमोरजोमलागिरागृणन्गद्गदया सुहत्तमम् ॥
२१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; एवम्--इस प्रकार; ब्रुवाणम्--बोलते हुए; पुरुष-अर्थ--जीवन के परम लक्ष्य का; भाजनम्--दाता; जन-अर्दनम्ू--भक्त के समस्त अवगुणों को दूर करने वाला; प्राज्ललय:--हाथ जोड़ कर; प्रचेतस:--प्रचेतागण ; तत्--उसको; दर्शन--देखकर; ध्वस्त--नष्ट; तम: --तमोगुण का; रज:--रजोगुण का; मला:--मल, कल्मष; गिरा--वाणी से;अगृणन्-प्रार्थना की; गदगदया--गद्गद होकर; सुहत्-तमम्--समस्त मित्रों में श्रेष्ठ को |
मैत्रेय ऋषि ने कहा : भगवान् के इस प्रकार कहने पर प्रचेताओं ने उनकी प्रार्थना की।
भगवान् जीवन की समस्त सिद्ध््रियों को देने वाले और परम कल्याणकर्ता हैं।
वे परम मित्र भीहैं, क्योंकि वे भक्तों के समस्त कष्टों को हरते हैं।
प्रचेताओं ने आनन्दातिरिक से गद्गद वाणी मेंप्रार्थना करनी प्रारम्भ की।
वे भगवान् का साक्षात् दर्शन करने से शुद्ध हो गये।
"
प्रचेतस ऊचु:नमो नमः क्लेशविनाशनायनिरूपितोदारगुणाहयाय ।
मनोवचोवेगपुरोजवायसर्वाक्षमार्गरगताध्वने नम: ॥
२२॥
प्रचेतस: ऊचुः--प्रचेताओं ने कहा; नम:ः--नमस्कार है; नमः--नमस्कार है; क्लेश-- भौतिक दुख; विनाशनाय--दूर करनेवाले को; निरूपित--निर्णीत; उदार--उदार; गुण--गुण; आह्ृयाय--नाम वाले को; मन:--मन का; वच: --वाणी का;वेग--चाल; पुर:--सामने; जवाय--गति वाले को; सर्व-अक्ष--सभी इन्द्रियों के; मार्ग:--रास्तों से; अगत-- अदृश्य;अध्वने--जिसका मार्ग; नम:--हम नमस्कार करते हैं।
प्रचेताओं ने कहा : हे भगवन्, आप समस्त प्रकार के क्लेशों को हरने वाले हैं।
आपके उदारदिव्य गुण तथा पवित्र नाम कल्याणप्रद हैं।
इसका निर्णय पहले ही हो चुका है।
आप मन तथावाणी से भी अधिक वेग से जा सकते हैं।
आप भौतिक इन्द्रियों द्वारा नहीं देखे जा सकत।
अतःहम आपको बारम्बार सादर नमस्कार करते हैं।
"
शुद्धाय शान्ताय नमः स्वनिष्ठयामनस्यपार्थ विलसद्द्वयाय ।
नमो जगत्स्थानलयोदयेषुगृहीतमायागुणविग्रहाय ॥
२३॥
शुद्धाय--शुद्ध रूप को; शान्ताय--अत्यन्त शान्त रूप को; नम:ः--नमस्कार है; स्व-निष्ठया-- अपने पद पर स्थित रह कर;मनसि--मन में; अपार्थम्--अर्थहीन, निरर्थ; विलसत्--प्रकट होते हुए; द्वयाय--द्वैत जगत वाले को; नम: --नमस्कार;जगत्--हृश्य जगत का; स्थान--पालन ( स्थिति ); लय--संहार; उदयेषु--तथा उत्पत्ति के लिए; गृहीत--स्वीकृत; माया--भौतिक; गुण--प्रकृति के गुणों के; विग्रहाय--रूपों को |
हे भगवन्, हम आपको प्रणाम करने की याचना करते हैं।
जब मन आप में स्थिर होते हैं, तोयह द्वैतपूर्ण संसार भौतिक सुख का स्थान होते हुए भी व्यर्थ प्रतीत होता है।
आपका दिव्य रूपदिव्य आनन्द से पूर्ण है।
अतः हम आपका अभिवादन करते हैं।
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के रूपमें आपका प्राकट्य इस दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के उद्देश्य से होता है।
"
नमो विशुद्धसत्त्वाय हरये हरिमेधसे ।
वासुदेवाय कृष्णाय प्रभवे सर्वसात्वताम् ॥
२४॥
नमः--नमस्कार; विशुद्ध-सत्त्वाय-- आपको जिसका अस्तित्व समस्त भौतिक प्रभाव से मुक्त है; हरये--भक्तों के कष्टों को हरनेवाला; हरि-मेधसे--जिसका मस्तिष्क बद्धजीव के उद्धार हेतु कार्य करता है; वासुदेवाय--सर्वव्यापी भगवान् को; कृष्णाय--कृष्ण को; प्रभवे--प्रभाव को बढ़ाने वाला; सर्व-सात्वताम्--सभी प्रकार के भक्तों का |
हे भगवन्, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपका अस्तित्व समस्त भौतिकप्रभावों से पूर्णतया स्वतंत्र है।
आप सदैव अपने भक्तों के क्लेशों को हर लेते हैं, क्योंकि आपकामस्तिष्क जानता है कि ऐसा किस प्रकार करना चाहिए।
आप परमात्मा रूप में सर्वत्र रहते हैं,अतः आप वासुदेव कहलाते हैं।
आप वसुदेव को अपना पिता मानते हैं और आप कृष्ण नाम सेविख्यात हैं।
आप इतने दयालु हैं कि अपने समस्त प्रकार के भक्तों के प्रभाव को बढ़ाते हैं।
"
नमः कमलनाभाय नमः कमलमालिने ।
नमः कमलपादाय नमस्ते कमलेक्षण ॥
२५॥
" नमः--सादर नमस्कार है; कमल-नाभाय-- भगवान् को जिनकी नाभि से आदि कमल पुष्प प्रकट हुआ; नम:--नमस्कार;कमल-मालिने--कमल पुष्प की माला धारण करने वाला; नम:--नमस्कार; कमल-पादाय--जिसके चरणकमल पुष्प केसमान सुन्दर तथा सुगन्धित हैं; नमः ते--आपको नमस्कार है; कमल-ईक्षण--जिनके नेत्र कमल की पंखड़ियों के सहश हैं|
हे भगवन्, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपकी ही नाभि से कमल पुष्पनिकलता है, जो समस्त जीवों का उद्गम है।
आप सदैव कमल की माला से सुशोभित रहते हैंऔर आपके चरण सुगंधित कमल पुष्प के समान हैं।
आपके नेत्र भी कमल पुष्प की पंखड़ियोंके सहृश हैं, अतः हम आपको सदा ही सादर नमस्कार करते हैं।
"
नमः कमलकिड्धल्कपिशड्जमलवाससे ।
सर्वभूतनिवासाय नमोयुद्छ्ष्महि साक्षिणे ॥
२६॥
नमः--नमस्कार; कमल-किज्लल्क--कमल पुष्प के केसर के समान; पिशड्र---पीला; अमल--स्वच्छ; वाससे --उसकोजिसका वस्त्र; सर्व-भूत--समस्त जीवों के; निवासाय--आश्रय को; नम:ः--नमस्कार; अयुद्छमहि --करने दो; साक्षिणे--परमसाक्षी को।
हे भगवन्, आपके द्वारा धारण किया गया वस्त्र कमल पुष्प के केसर के समान पीले रंग काहै, किन्तु यह किसी भौतिक पदार्थ का बना हुआ नहीं है।
प्रत्येक हृदय में निवास करने केश़ कारण आप समस्त जीवों के समस्त कार्यो के प्रत्यक्ष साक्षी हैं।
हम आपको पुनःपुनः सादरनमस्कार करते हैं।
"
रूपं भगवता त्वेतदशेषक्लेशसड्क्षयम् ।
आविष्कृतं नः क्लिष्टानां किमन्यदनुकम्पितम् ॥
२७॥
रूपम्--स्वरूप; भगवता--आप भगवान् द्वारा; तु--लेकिन; एतत्--यह; अशेष--अनन्त; क्लेश--कष्ट; सड्क्षयम्-- भगानेके लिए; आविष्कृतम्--प्रकट; न:--हम सबका; क्लिष्टानामू-- भौतिक दशाओं से कष्ट पाने वालों का; किम् अन्यत्--क्याकहें; अनुकम्पितम्ू--जिन पर आपकी कृपा रहती है।
हे भगवन्, हम बद्धजीव देहात्मबुद्धि के कारण सदैव अज्ञान से घिरे रहते हैं, अतः हमेंभौतिक जगत के क्लेश ही सदैव प्रिय लगते हैं।
इन क्लेशों से हमारा उद्धार करने के लिए हीआपने इस दिव्य रूप में अवतार लिया है।
यह हम-जैसे कष्ट भोगने वालों पर आपकी अनन्तअहैतुकी कृपा का प्रमाण है।
तो फिर उन भक्तों के विषय में कया कहें जिनके प्रति आप सदैव" कृपालु रहते हैं ?एतावत्त्वं हि विभुभिर्भाव्यं दीनेषु वत्सलै: ।
यदनुस्मर्यते काले स्वबुद्धयाभद्ररन्धन ॥
२८॥
एतावत्--इस प्रकार; त्वमू--तुम; हि--निश्चय ही; विभुभि:--अंशों के द्वारा; भाव्यम्ू--समझाने के लिए; दीनेषु--दीन भक्तोंके; वत्सलैः--दयालु; यत्--जो; अनुस्मर्यते--स्मरण किया जाता है; काले--समय के आने पर; स्व-बुद्धया-- अपनी भक्तिसे; अभद्र-रन्धन--हे समस्त अमंगल के विनाशकर्ता, अमंगलहारी।
हे भगवन्, आप समस्त अमंगल के विनाशकर्ता हैं।
आप अपने अर्चा-विग्रह विस्तार केद्वारा अपने दीन भक्तों पर दया करने वाले हैं।
आप हम सबों को अपना शाश्वत दास समझें।
"
येनोपशान्तिर्भूतानां क्षुल्लकानामपीहताम् ।
अन्तर्हितोन्तहंदये कस्मान्नो वेद नाशिष: ॥
२९॥
येन--जिस विधि से; उपशान्ति:--समस्त इच्छाओं की संतुष्टि; भूतानामू--जीवों की; क्षुल्लकानाम्--अत्यन्त पतितों की;अपि--यद्यपि; ईहताम्--अनेक वस्तुओं की कामना करते हुए; अन्तर्हित:--छिपे हुए; अन्त:-हृदये--हृदय के भीतर;कस्मात्--क्यों; नः--हमारे; वेद-- जानता है; न--नहीं; आशिष:--इच्छाएँ |
जब भगवान् अपनी सहज दया से अपने भक्त के विषय में सोचते हैं, तो उस विधि से हीनवदीक्षित भक्तों की सारी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
जीव के अत्यन्त तुच्छ होने पर भी भगवान्प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं।
भगवान् जीव के सम्बन्ध में प्रत्येक बात, यहाँ तक कि उसकीसमस्त इच्छाओं, को भी जानते रहते हैं।
यद्यपि हम अत्यन्त तुच्छ जीव हैं फिर भी भगवान् हमारीइच्छाओं को क्यों नहीं जानेंगे ?"
असावेव वरोउस्माकमीप्सितो जगत: पते ।
प्रसन्नो भगवान्येषामपवर्गगुरुर्गति: ॥
३०॥
असौ--उस; एव--निश्चय ही; बर:--वर; अस्माकम्--हमारा; ईप्सित:--इच्छित; जगत: --ब्रह्माण्ड के ; पते--हे स्वामी;प्रसन्न:--प्रसन्न, तुष्ट; भगवान्-- भगवान्; येषाम्--जिसके साथ; अपवर्ग--दिव्य प्रेमा भक्ति का; गुरुः--शिक्षक; गति:--जीवन का चरम लक्ष्य।
हे जगत् के स्वामी, आप भक्तियोग के वास्तविक शिक्षक हैं।
हमें सन््तोष है कि हमारे जीवनके परमलक्ष्य आप हैं और हम प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों।
यही हमारा अभीष्ट वरहै।
हम आपकी पूर्ण प्रसन्नता के अतिरिक्त और कुछ भी कामना नहीं करते।
"
किवरं वृणीमहेथापि नाथ त्वत्परत: परात् ।
न हान्तस्त्वद्विभूतीनां सोइनन्त इति गीयसे ॥
३१॥
वरम्--वर; वृणीमहे--माँगेंगे; अथ अपि--अतः ; नाथ--हे स्वामी; त्वत्ू--तुमसे ( आपसे ); परतः परात्--प्रकृति आदि से परे;न--नहीं; हि--निश्चय ही; अन्त: --अन्त; त्वत्--तुम्हारे; विभूतीनाम्--ऐ श्वर्य का; सः--वह ( तुम ); अनन्त:-- अनन्त; इति--इस प्रकार; गीयसे--विख्यात हो |
अतः हे स्वामी, हम आपसे वर देने के लिए प्रार्थना करेंगे, क्योंकि आप समस्त दिव्य प्रकृतिसे परे हैं और आपके ऐश्वर्यों का कोई अन्त नहीं है।
अतः आप अनन्त नाम से विख्यात हैं।
"
पारिजातेझ्जसा लब्धे सारड्लेउन्यन्न सेवते ।
त्वदड्घ्रिमूलमासाद्य साक्षात्कि कि वृणीमहि ॥
३२॥
पारिजाते--पारिजात नामक नैसर्गिक वृक्ष; अज्ञसा--पूर्णतया; लब्धे--प्राप्त करके; सारड्र:--भौंरा; अन्यत्ू--अन्यत्र; नसेवते--सेवन नहीं करता; त्वत्-अड्प्रि--तुम्हिरे चरणकमल; मूलम्-- प्रत्येक वस्तु के मूलाधार तक; आसाद्य--पहुँच कर;साक्षात्- प्रत्यक्ष; किमू--क्या; किम्--क्या; वृणीमहि--माँगें |
हे स्वामी, जब भौंरा दिव्य पारिजात वृक्ष के निकट पहुँच जाता है, तो वह उसे कभी नहींछोड़ता क्योंकि उसे ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
इसी प्रकार जब हमनेआपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है, तो हमें और कया वर माँगने की आवश्यकता है?"
यावत्ते मायया स्पृष्टा भ्रमाम इह कर्मभि: ।
तावद्धवद्प्रसड़ानां सड्ढः स्थान्नो भवे भवे ॥
३३॥
यावत्--जब तक; ते--तुम्हारी ( आपकी ); मायया--माया से; स्पृष्टा:--दूषित; भ्रमाम: --हम घूमते हैं; इह--इस संसार में;कर्मभि:--कर्मो के कारण; तावतू--तब तक; भवत्-प्रसड्रानामू--आपके प्रेमी भक्तों की; सड्भ:--संगति; स्यातू--हो; नः--हमारी; भवे भवे-- प्रत्येक योनि में ॥
हे स्वामी, हमारी प्रार्थना है कि जब तक हम अपने सांसारिक कल्मष के कारण इस संसारमें रहें और एक शरीर से दूसरे में तथा एक लोक से दूसरे लोक में घूमते रहें, तब्र तक हम उनकीसंगति में रहें जो आपकी लीलाओं की चर्चा करने में लगे रहते हैं।
हम जन्म-जन्मांतर विभिन्नशारीरिक रूपों में और विभिन्न लोको में इसी वर के लिए प्रार्थना करते हैं।
"
तुलयाम लवेनापि न स्वर्ग नापुनर्भवम् ।
भगवत्सड्विसड्रस्य मर्त्यानां किमुताशिष: ॥
३४॥
तुलयाम--तुलना करते हैं; लवेन-- क्षण ( लव ) से; अपि-- भी; न--नहीं; स्वर्गम्--स्वर्ग लोक की प्राप्ति; न--नहीं; अपुनः-भवम्--ब्रह्मतेज में मिलने के लिए; भगवत्-- भगवान् का; सड्डि--पार्षदों से; सड्रस्थ--संगति का; मर्त्यानाम्ू--मनुष्यों का,जो मरणशील हैं; किम् उत--क्या कम है; आशिष:--आशीर्वाद, वर।
एक क्षण की भी शुद्ध भक्त की संगति के सामने स्वर्गलोक जाने अथवा पूर्ण मोक्ष पा करब्रह्मतेज में मिलने ( कैवल्य ) की कोई तुलना नहीं की जा सकती है।
शरीर को त्याग कर मरनेवाले जीवों के लिए सर्वश्रेष्ठ वर तो शुद्ध भक्तों की संगति है।
"
यत्रेड्यन्ते कथा मृष्टास्तृष्णाया: प्रशमो यतः ।
निर्वैरं यत्र भूतेषु नोद्वेगो यत्र कश्चन ॥
३५॥
यत्र नारायण: साक्षाद्धगवाज्ञ्यासिनां गति: ।
संस्तूयते सत्कथासु मुक्तसड्लैः पुनः पुनः ॥
३६॥
यत्र--जहाँ; नारायण: -- भगवान् नारायण; साक्षात्- प्रत्यक्ष; भगवान्-- भगवान्; न््यासिनामू-- संन्यासियों का; गतिः--परमलक्ष्य; संस्तूयते--पूजा की जाती है; सत्ू-कथासु--अच्छे अच्छे कथा प्रसंगों द्वारा; मुक्त-सद्डैः-- भव कल्मष से मुक्त व्यक्तियोंद्वारा; पुनः पुन:--बारम्बार |
जहाँ भक्तों के बीच भगवान् के पवित्र नाम का श्रवण तथा कीर्तन चलता रहता है, वहाँभगवान् नारायण उपस्थित रहते हैं।
संन्यासियों के चरम लक्ष्य भगवान् नारायण ही हैं औरनारायण की पूजा उन व्यक्तियों द्वारा इस संकीर्तन आन्दोलन के माध्यम से की जाती है, जोभौतिक कल्मष से मुक्त हो चुके हैं।
वे बारम्बार भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं।
"
तेषां विचरतां पद्भ्यां तीर्थानां पावनेच्छया ।
भीतस्य कि न रोचेत तावकानां समागम: ॥
३७॥
तेषाम्--उनका; विचरताम्--विचरण करने वालों का; पद्भ्याम्-अपने पाँवों से; तीर्थानाम्--पवित्र स्थानों का; पावन-इच्छया--पवित्र करने की इच्छा से; भीतस्य--डरे हुए संसारी पुरुष का; किम्ू--क्यों; न--नहीं; रोचेत-- अच्छा लगता है;तावकानाम्--आपके भक्तों की; समागम:ः--भेंट |
हे भगवन्, आपके पार्षद तथा भक्त संसार-भर में तीर्थस्थानों तक को पवित्र करने के लिए भ्रमण करते रहते हैं।
जो इस संसार से भयभीत हैं, क्या ऐसा कार्य इन सबके लिए रुचिकर नहींहोता?"
बयं तु साक्षाद्धगवन्भवस्यप्रियस्य सख्यु: क्षणसड्रमेन ।
सुदुश्चिकित्स्यस्थ भवस्य मृत्योर्भिषक्तमं त्वाद्य गतिं गता: सम ॥
३८॥
वयम्--हम; तु--तब; साक्षात्- प्रत्यक्ष; भगवन्--हे स्वामी; भवस्य--शिवजी की; प्रियस्य--अत्यन्त प्रिय; सख्यु:--आपकेमित्र; क्षण-- क्षण भर के; सड्भमेन--संगति से; सुदुश्चिकित्स्यस्थ--जिसका उपचार कर पाना अत्यन्त दुष्कर है; भवस्य--भौतिक अस्तित्व का; मृत्यो:--मृत्यु का; भिषक्ू-तमम्--सर्व श्रेष्ठ वैद्य; त्वा--तुम; अद्य--आज; गतिम्-- लक्ष्य; गता: -- प्राप्तकर लिया; स्म--निश्चय ही
हे भगवन्हम भाग्यशाली हैं कि आपके अत्यन्त प्रिय तथा अभिन्न मित्र शिवजी कीक्षणमात्र की संगति से हम आपको प्राप्त कर सके हैं।
आप इस संसार के असाध्य रोग काउपचार करने में समर्थ सर्वश्रेष्ठ वैद्य हैं।
हमारा सौभाग्य था कि हमें आपके चरणकमलों काआश्रय प्राप्त हो सका।
"
यन्नः स्वधीतं गुरव: प्रसादिताविप्राश्च वृद्धाश्व सदानुवृत्त्या ।
आर्या नताः सुहदो भ्रातरश्नसर्वाणि भूतान्यनसूययैव ॥
३९॥
यन्नः सुतप्तं तप एतदीशनिरन्धसां कालमदशभ्रमप्सु ।
सर्व तदेतत्पुरुषस्य भूम्नोवृणीमहे ते परितोषणाय ॥
४०॥
यत्--जो; नः--हमारे द्वारा; स्वधीतम्-- अध्ययन किया गया; गुरवः-- श्रेष्ठ व्यक्ति, गुरुजन; प्रसादिता: --प्रसन्न होने पर;विप्रा:--ब्राह्मण; च--तथा; वृद्धा:--वृद्धजन; च--तथा; सत्-आनुवृत्त्या--अपने सदाचरण से; आर्या:--श्रेष्ठजन; नता: --नमस्कार करने से; सु-हृदः --मित्रगण; भ्रातर:-- भाई; च--तथा; सर्वाणि--समस्त; भूतानि-- जीव; अनसूयया--द्वेषरहित;एव--निश्चय ही; यत्--जो; न:--हमारा; सु-तप्तम्--कठिन; तपः--तपस्या; एतत्--यह; ईश--हे भगवान्; निरन्धसाम्--निराहार; कालमू--समय तक; अदशभ्रम्-दीर्घ; अप्सु--जल के भीतर; सर्वम्--सभी; तत्--उस; एतत्-- इस; पुरुषस्थ--भगवान् का; भूम्न:--महान; वृणीमहे--वर मार्गते हैं; ते--आपका; परितोषणाय--सन्तोष के लिए
हे भगवन्, हमने वेदों का अध्ययन किया है, गुरु बनाया है और ब्राह्मणों, भक्तों तथाआध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक उन्नत वरिष्ट पुरुषों को सम्मान प्रदान किया है।
हमने अपने किसीभी भाई, मित्र या अन्य किसी से ईर्ष्या नहीं की।
हमने जल के भीतर रहकर कठिन तपस्या भीकी है और दीर्घकाल तक भोजन नहीं ग्रहण किया।
हमारी ये सारी आध्यात्मिक सम्पदाएँ आपको प्रसन्न करने के लिए सादर समर्पित हैं।
हम आपसे केवल यही वर माँगते हैं, अन्य कुछभी नहीं।
"
मनुः स्वयम्भूभगवान्भवश्चयेडन्ये तपोज्ञानविशुद्धसत्त्वा: ।
अहदृष्टपारा अपि यन्महिम्नःस्तुवन्त्यथो त्वात्मसमं गृणीम: ॥
४१॥
मनुः--स्वायंभुव मनु; स्वयम्भू: --ब्रह्मा; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; भव:--शिवजी; च-- भी; ये-- जो; अन्ये--अन्य;तपः--तपस्या; ज्ञान--ज्ञान द्वारा; विशुद्ध-शुद्ध; सत्त्वाः--जिसका अस्तित्व; अदृष्ट-पारा:--जो अन्त को नहीं देख सकते;अपि--यद्यपि; यत्--तुम्हारी; महिम्न:--महिमा की; स्तुवन्ति--प्रार्थना करते हैं; अथो --अतः ; त्वा--तुमको; आत्म-समम्--यथाशक्ति; गृणीमः --हमने प्रार्थना की |
हे भगवन्, तप तथा ज्ञान के कारण सिद्ध्रिप्राप्त बड़े-बड़े योगी तथा शुद्ध सत्व में स्थितलोगों के साथ-साथ मनु, ब्रह्म तथा शिव जैसे महापुरुष भी आपकी महिमा तथा शक्तियों कोपूरी तरह नहीं समझ पाते।
फिर भी वे यथाशक्ति आपकी प्रार्थना करते हैं।
उसी प्रकार हम इनमहापुरुषों से काफी क्षुद्र होते हुए भी अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रार्थना कर रहे हैं।
"
नमः समाय शुद्धाय पुरुषाय पराय च ।
वासुदेवाय सत्त्वाय तुभ्यं भगवते नमः: ॥
४२॥
नमः--नमस्कार; समाय--सर्वसम को; शुद्धाय--जो कभी पाप कर्मों द्वारा दूषित नहीं होता; पुरुषाय--परम पुरुष को;'पराय--दिव्य; च-- भी; वासुदेवाय--सर्वत्र रहने वाले को; सत्त्वाय--उसे जो दिव्य पद को प्राप्त है; तुभ्यम्--तुमको;भगवते-- भगवान् को; नम: --नमस्कार।
हे भगवन्, आपके न तो शत्रु हैं न मित्र।
अतः आप सबों के लिए समान हैं।
आप पापकर्मोके द्वारा कलुषित नहीं होते और आपका दिव्य रूप सदैव भौतिक सृष्टि से परे है।
आप पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् हैं, क्योंकि आप सर्वव्यापी हैं, अतः आप वासुदेव कहलाते हैं।
हम आपकोसादर नमस्कार करते हैं।
"
इति प्रचेतोभिरभिष्ठृतो हरिःप्रीतस्तथेत्याह शरण्यवत्सल: ।
अनिच्छतां यानमतृप्तचक्षुषांययौ स्वधामानपवर्गवीर्य: ॥
४३ ॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; प्रचेतोभि:--प्रचेताओं द्वारा; अभिष्ठत:--प्रशंसित, स्तुति करने पर; हरि: --भगवान्; प्रीत:--प्रसन्न होकर; तथा--उसी तरह; इति--इस प्रकार; आह--कहा; शरण्य--शरणागतों के लिए; वत्सल:--स्नेहभाजन; अनिच्छताम्--इच्छा न होते हुए; यानम्--विदा; अतृप्त--तृप्त नहीं हुए; चश्षुषाम्--नेत्र; ययौ--चला गया; स्व-धाम--अपने धाम को; अनपवर्ग-वीर्य:--जिनका वीर्य कभी पराजित नहीं होता, अप्रतिहत।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, इस प्रकार प्रचेताओं द्वारा सम्बोधित तथा पूजित होकरशरणागतों के रक्षक भगवान् ने कहा, 'तुमने जो कुछ माँगा है, वह पूरा हो।
तत्पश्चात् कभी नपराजित होनेवाले भगवान् ने विदा ली।
प्रचेतागण उनसे विलग नहीं होना चाह रहे थे, क्योंकिउन्होंने जी-भर कर उन्हें नहीं देखा था।
"
अथ निर्याय सलिलात्प्रचेतस उदन्वतः ।
वीक्ष्याकुप्यन्द्रमैरछन्नां गां गां रोद्गभुमिवोच्छिते: ॥
४४॥
अथ--त्पश्चात्; निर्याय--बाहर निकल कर; सलिलातू--जल से; प्रचेतस:--सभी प्रचेता; उदन््वत:--समुद्र के; वीक्ष्य--देखकर; अकुप्यनू--अत्यन्त क्ुद्ध हुए; ह्रमै:--वृक्षों से; छन्नामू--ढकी हुई; गाम्--पृथ्वी को; गाम्--स्वर्ग को; रोद्ुम्--रोकने के लिए; इब--मानो; उच्छितैः--अत्यन्त ऊँचे-ऊँचे |
तत्पश्चात् सभी प्रचेता समुद्र के जल से बाहर निकल आये।
तब उन्होंने देखा कि पृथ्वी (स्थल ) पर सारे वृक्ष बढ़कर काफी ऊँचे हो चुके हैं मानो वे स्वर्ग के मार्ग को रोकना चाहतेहों।
इन वृक्षों ने सारे पृथ्वीतल को आच्छादित कर रखा था।
उस समय प्रचेता अत्यन्त कुपितहुए।
"
ततोग्निमारुतौ राजन्नमुझन्मुखतो रुषा ।
महीं निर्वीरुधं कर्तु संवर्तक इवात्यये ॥
४५॥
ततः--तत्पश्चात्; अग्नि--आग; मारुतौ--तथा वायु; राजन्--हे राजन; अमुञ्जन्--निकालते हुए; मुखतः--अपने मुखों से;रुषा--क्रोध से; महीम्-पृथ्वी को; निर्वीरुधथम्--वृक्षरहित; कर्तुमू--करने के लिए; संवर्तक:--प्रलयाग्नि; इब--सहश;अत्यये--प्रलय के समय |
हे राजन, प्रलय के समय शिवजी क्रोध में आकर अपने मुख से अग्नि तथा वायु छोड़ते हैं।
प्रचेताओं ने भी पृथ्वीतल को पूर्णतः वृक्षरहित करने के लिए अपने मुखों से अग्नि तथा वायुनिकाली।
"
भस्मसात्तक्रियमाणांस्तान्द्रुमान्वीक्ष्य पितामह: ।
आगतः शमयामास पुत्रान्बर्हिष्मतो नयै: ॥
४६॥
भस्मसात्--जलकर राख होना; क्रियमाणान्ू--किया जाता हुआ; तान्ू--उन सब; द्रुमान्--वृक्षों को; वीक्ष्य--देखकर;पितामहः--ब्रह्मा; आगत:--वहाँ आया; शमयाम् आस--शान्त किया; पुत्रान्--पुत्रों को; बर्हिष्मत:--राजा बर्दिष्मान् के;नयै:--तर्क द्वारा
यह देखकर कि पृथ्वी के सारे वृक्ष जलकर राख हो रहे हैं, ब्रह्माजी तुरन्त राजा बर्हिष्मान् केपुत्रों के पास आये और उन्होंने तर्कपूर्ण शब्दों से उन्हें शान्तर किया।
"
तत्रावशिष्टा ये वृक्षा भीता दुहितरं तदा ।
उज्जहस्ते प्रचेतो भ्य उपदिष्टा: स्वयम्भुवा ॥
४७॥
तत्र--वहाँ; अवशिष्टा:--शेष, बचे हुए; ये--जो; वृक्षा:--वृक्ष; भीता:-- भयभीत; दुहितरम्-- अपनी कन्या को; तदा--उससमय; उजहु:--ला कर दे दिया; ते--उन्होंने; प्रचेतो भ्य:--प्रचेताओं को; उपदिष्टा:--उपदेश पाकर; स्वयम्भुवा--ब्रह्मा द्वारा |
बचे हुए वृक्षों ने प्रचेताओं से डर कर ब्रह्मा की राय से अपनी कन्या को लाकर तुरन्त उन्हें देदिया।
"
ते च ब्रह्मण आदेशान्मारिषामुपयेमिरे ।
यस्यां महदवज्ञानादजन्यजनयोनिजः ॥
४८ ॥
ते--वे समस्त प्रचेता; च-- भी; ब्रह्मण:--ब्रह्मा के; आदेशात्-- आदेश से; मारिषाम्-मारिषा के साथ; उपयेमिरे--ब्याह करलिया; यस्याम्ू-- जिसमें; महत्--महापुरुष को; अवज्ञानात्ू--अवज्ञा के कारण; अजनि--जन्म लिया; अजन-योनि-ज:--ब्रह्मा का पुत्र दक्ष
ब्रह्मा के आदेश से समस्त प्रचेताओं ने उस कन्या को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया।
इस कन्या के गर्भ से ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने जन्म लिया।
दक्ष को मारिष के गर्भ से इसलिएजन्म लेना पड़ा, क्योंकि उसने महादेवजी ( शिवजी ) की आज्ञा का उल्लंघन तथा अनादर कियाथा।
फलतः उसे दो बार शरीर त्याग करना पड़ा।
"
चाक्षुषे त्वन्तरे प्राप्ते प्राक्स्गें कालविद्गुते ।
यः ससर्ज प्रजा इष्टाः स दक्षो दैवचोदित: ॥
४९॥
चाक्षुषे--चाक्षुष नामक; तु--लेकिन; अन्तरे--मन्वन्तर; प्राप्त--आने पर; प्राक्ू--पूर्व; सर्गे--सृष्टि; काल-विद्युते--कालक्रमसे विनष्ट; यः:--जो; ससर्ज--उत्पन्न किया; प्रजा:--जीव; इष्टा:--इच्छित; सः--वह; दक्ष:--दक्ष; दैव-- भगवान् द्वारा;चोदित:-- प्रेरणा पाकर।
उसका पूर्व शरीर विनष्ट हो चुका था, किन्तु उसी दक्ष ने परमेश्वर की प्रेरणा से चाश्षुषमन्वन्तर में समस्त मनोवांछित जीवों की सृष्टि की।
"
यो जायमानः सर्वेषां तेजस्तेजस्विनां रुचा ।
स्वयोपादत्त दाक्ष्याच्च कर्मणां दक्षमब्रुवन् ॥
५०॥
तं प्रजासर्गरक्षायामनादिरभिषिच्य च ।
युयोज युयुजेउन्यां श्व स वै सर्वप्रजापतीन् ॥
५१॥
यः--जो; जायमान:--अपने जन्म के तुरन्त बाद; सर्वेषाम्--सबों का; तेज:--कान्ति; तेजस्विनामू--चमकीला; रुचा--तेजसे; स्वया--उसका; उपादत्त--ढका; दाक्ष्यात्-दक्ष होने से; च--तथा; कर्मणाम्--सकाम कर्मों में; दक्षम्--दक्ष; अब्रुवन्--'कहलाया; तम्--उसको; प्रजा--सभी जीव; सर्ग--उत्पन्न करते हुए; रक्षायामू--पालन कार्य के लिए; अनादि:--प्रथम जन्मा,ब्रह्मा; अभिषिच्य--नियुक्त करके; च-- भी; युयोज--लगाया; युयुजे--लगाया; अन्यान्--दूसरों को; च--तथा; सः--वह;वै--निश्चय ही; सर्व--सभी; प्रजा-पतीन्--
जीवों के जनकों कोजन्म लेने के बाद अपनी अद्वितीय शारीरिक कान्ति के कारण दक्ष ने अन्य सबों कीशारीरिक कान्ति को ढाँप दिया।
चूँकि वह सकाम कार्य करने में अत्यन्त पटु (दक्ष ) था,इसलिए उसका नाम दक्ष पड़ा।
इसलिए ब्रह्मा ने उसे जीवों को उत्पन्न करने तथा उनके पालन केकार्य में लगा दिया।
समय आने पर दक्ष ने अन्य प्रजापतियों को भी उत्पत्ति तथा पालन के कार्यमें नियुक्त कर दिया।
"
अध्याय इकतीसवाँ: नारद प्रचेताओं को निर्देश देते हैं
4.31मैत्रेय उवाचतत उत्पन्नविज्ञाना आश्वधोक्षजभाषितम् ।
स्मरन्त आत्मजे भार्या विसृज्य प्राव्रजन्गृूहात् ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; ततः--पत्पश्चात्; उत्पन्न--विकसित; विज्ञाना: --पूर्ण ज्ञान से युक्त; आशु--अत्यन्त शीघ्र;अधोक्षज--भगवान् द्वारा; भाषितम्ू--कहे गये; स्मरन्त:--याद करते हुए; आत्म-जे--अपने पुत्र के पास; भार्यामू--पली को;विसृज्य--छोड़ कर; प्रात्रजन्--चले गये; गृहात्--घर से |
महान् सन्त मैत्रेय ने आगे कहा: तत्पश्चात् प्रचेता हजारों वर्षो तक घर में रहे औरआध्यात्मिक चेतना में पूर्ण ज्ञान विकसित किया।
अन्त में उन्हें भगवान् के आशीर्वादों की याद आई और वे अपनी पत्नी को अपने सुयोग्य पुत्र के जिम्मे छोड़कर घर से निकल पड़े।
"
दीक्षिता ब्रह्मसत्रेण सर्वभूतात्ममेधसा ।
प्रतीच्यां दिशि वेलायां सिद्धो भूद्यत्र जाजलि: ॥
२॥
दीक्षिता:--संकल्प करके; ब्रह्म-सत्रेण--परमात्मा के ज्ञान द्वारा; सर्व--समस्त; भूत--जीव; आत्म-मेधसा--आत्म ( अपने )स्वरूप को मानते हुए; प्रतीच्यामू--पश्चिमी; दिशि--दिशा में; वेलायाम्--समुद्र तट पर; सिद्धः--पूर्ण; अभूत्--हो गया;यत्र--जहाँ; जाजलि:--ऋषि जाजलिप
्रचेतागण पश्चिम दिशा में समुद्रतट की ओर गये जहाँ जाजलि ऋषि निवास कर रहे थे।
उन्होंने वह आध्यात्मिक ज्ञान पुष्ट कर लिया जिससे मनुष्य समस्त जीवों के प्रति समभाव रखनेलगता है।
इस तरह वे कृष्णभक्ति में पटु हो गये।
"
ताब्निर्जितप्राणमनोवचोहशोजितासनान्शान्तसमानविग्रहान् ।
परेमले ब्रह्मणि योजितात्मन:सुरासुरेड्यो ददशे सम नारद: ॥
३॥
तान्ू--उन सबों को; निर्जित--पूर्णतया संयमित; प्राण--प्राणवायु ( प्राणायाम विधि से ); मन: --मन; वच:ः--वाणी; दृशः --तथा दृष्टि; जित-आसनान्--योगिक आसन को जीतने वाला; शान्त--शान्त; समान--सीधा; विग्रहान्ू--जिनके शरीर; परे--दिव्य; अमले--समस्त भौतिक कल्मष से रहित; ब्रह्मणि--ब्रह्म में; योजित--संलग्न; आत्मन:--जिनके मन; सुर-असुर-ईड्य:--देवों तथा असुरों द्वारा पूजित; ददशे--देखा; स्म-- था; नारद:--नारद मुनि ने |
योगासन का अभ्यास कर लेने पर प्रचेताओं ने प्राणवायु, मन, वाणी तथा बाह्य दृष्टि कोवश में करना सीख लिया।
इस तरह प्राणायाम विधि से वे भौतिक आसक्ति से पूर्ण रूप से मुक्तहो गये।
सीधे बैठकर वे परब्रह्म में अपने मन को केन्द्रित कर सके।
जब वे यह प्राणायाम कररहे थे तो देवताओं तथा असुरों दोनों द्वारा पूजित वन्दित नारद मुनि उन्हें देखने आये।
"
तमागतं त उत्थाय प्रणिपत्याभिनन्द्य च ।
पूजयित्वा यथादेशं सुखासीनमथाब्रुवन् ॥
४॥
तम्--उसको; आगतम्--आया हुआ; ते--सभी प्रचेता; उत्थाय--उठकर; प्रणिपत्य--नमस्कार करके; अभिनन्द्य--स्वागतकरके; च-- भी; पूजयित्वा--पूजा करके; यथा आदेशम्--विधिपूर्वक; सुख-आसीनम्--सुखपूर्वक आसीन होकर; अथ--इस प्रकार; अब्लुवन्--उन्होंने कहा।
प्रचेताओं ने ज्योंही देखा कि नारद मुनि आये हुए हैं, वे नियमानुसार तुरन्त अपने आसनों सेखड़े हो गये।
यथा अपेक्षित तुरन्त उन्हें नमस्कार किया तथा उनकी पूजा करने लगे और जबउन्होंने देखा कि वे ठीक से आसन ग्रहण कर चुके हैं, तो उन्होंने उनसे प्रश्न पूछना प्रारम्भकिया।
"
प्रचेतस ऊचु:स्वागतं ते सुरषें उद्य दिष्ठय्या नो दर्शन गतः ।
तब अड्क्रमणं ब्रह्मन्नभयाय यथा रबे; ॥
५॥
प्रचेतस: ऊचु:--प्रचेताओं ने कहा; सु-आगतम्--स्वागत; ते--तुम्हारा ( तुमको ); सुर-ऋषे--हे देवर्षि; अद्य--आज;दिष्टाया--सौभाग्य से; न:--हम सबके ; दर्शनम्--दर्शन; गत:--आया हुआ; तव--तुम्हारा; चड्क्रमणम्--घूमना-फिरना,गतिविधियाँ; ब्रह्मनू--हे ब्राह्ण; अभयाय--अभय के लिए; यथा--जिस तरह; रवेः--सूर्य की |
सभी प्रचेता नारद मुनि को सम्बोधित करने लगे: हे ऋषि, हे ब्राह्मण, आशा है कि आपकोयहाँ आने में किसी प्रकार की बाधा नहीं हुई होगी।
यह हमारा परम सौभाग्य है कि हमें आपकेदर्शन हो रहे हैं।
सूर्य के चलने से लोग रात के अंधकार के भय से मुक्ति पाते हैं--यह भय चोरोंतथा उचक्कों से उत्पन्न होता है।
उसी प्रकार आपका भ्रमण सूर्य के ही समान है, क्योंकि आपसमस्त प्रकार के भय को भगाने वाले हैं।
"
यदादिष्ठं भगवता शिवेनाधोक्षजेन च ।
तदग्हेषु प्रसक्तानां प्रायशः क्षपितं प्रभो ॥
६॥
यत्--जो; आदिष्टम्ू--आदेश ( उपदेश ) दिया गया था; भगवता--महापुरुष; शिवेन--शिवजी द्वारा; अधोक्षजेन-- भगवान्विष्णु द्वारा; च-- भी; तत्--वह; गृहेषु--गृहस्थी में; प्रसक्तानामू--हम आससक्तों द्वारा; प्रायशः--लगभग, प्राय: ; क्षपितम्--विस्मृत; प्रभो--हे स्वामी |
हे स्वामी, हम आपको बता दें कि गृहस्थी में अत्यधिक आसक्त रहने के कारण हम शिवजीतथा भगवान् विष्णु से प्राप्त उपदेशों को प्राय: भूल चुके हैं।
"
तन्नः प्रद्योतयाध्यात्मज्ञानं तत्त्वार्थदर्शनम् ।
येनाञझ्जसा तरिष्यामो दुस्तरं भवसागरम् ॥
७॥
तत्--अतः; न:--हमारे लिए; प्रद्योतय--कृपया जगाइये; अध्यात्म--दिव्य ; ज्ञानम्ू--ज्ञान; तत्त्व--परम सत्य; अर्थ--के हेतु;दर्शनम्-दर्शन शास्त्र; येन--जिससे; अद्धसा--सरलता से; तरिष्याम:--तर सकें; दुस्तरम्--पार करने में कठिन; भव-सागरमू--अविद्या के समुद्र को
है स्वामी, हमें दिव्य ज्ञान से प्रकाशित कीजिये जो उस प्रकाश स्तम्भ की तरह कार्य करसके जिससे हम अविद्या रूपी संसार-सागर को पार कर सकें।
"
मैत्रेय उवाचइति प्रचेतसां पृष्टो भगवान्नारदो मुनि: ।
भगवत्युत्तमश्लोक आविष्टात्माब्रवीन्रूपान् ॥
८॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; प्रचेतसाम्--प्रचेताओं द्वारा; पृष्ट:--पूछे जाने पर; भगवानू-- भगवान् केमहान् भक्त; नारद:--नारद ने; मुनि:ः--अत्यन्त विचारवान; भगवति-- भगवान में; उत्तम-श्लोके -- अत्यन्त ख्याति वाले;आविष्ट--मग्न; आत्मा--जिसका मन; अब्रवीत्--उत्तर दिया; नृपान्ू--राजाओं को
ऋषि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, प्रचेताओं द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर भगवान् केविचारों में निरन्तर लीन रहने वाले परम भक्त नारद ने उत्तर दिया।
"
नारद उवाचतज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मनो वच: ।
नृणां येन हि विश्वात्मा सेव्यते हरिरीश्वर: ॥
९॥
नारद: उवाच--नारद ने कहा; तत् जन्म--वही जन्म; तानि--वे; कर्माणि--कर्म; तत्--वही; आयु: --उम्र; तत्-- वही;मनः--मन; वच:--वाणी; नृणाम्--मनुष्यों की; येन--जिससे; हि--निश्चय ही; विश्व-आत्मा--परमात्मा; सेव्यते--सेवितहोता है; हरिः-- भगवान्; ईश्वर: -- परम नियन्ता
महर्षि नारद ने कहा : जब कोई जीवात्मा परम नियन्ता भगवान् की भक्ति करने के लिएजन्म लेता है, तो उसका जन्म, उसके सारे सकाम कर्म, उसकी आयु, उसका मन तथा उसकीवाणी सभी यथार्थ में सिद्ध हो जाते हैं।
"
कि जन्मभिस्त्रिभि्वेह शौक्रसावित्रयाज्ञिकै: ।
कर्मभिर्वा त्रयीप्रोक्तै: पुंसोडपि विबुधायुषा ॥
१०॥
किमू्--क्या लाभ; जन्मभि:--जन्मों से; त्रिभिः--तीन; वा--अथवा; इह--इस संसार में; शौक्र--वीर्य से; सावित्र--दीक्षा से;याज्ञिकैः--पूर्ण ब्राह्मण बनने से; कर्मभि:--कर्म से; वा--अथवा; त्रयी--वेदों में; प्रोक्तै:--उपदिष्ट; पुंस:--मनुष्य को;अपि--भी; विबुध--देवताओं की; आयुषा--आयु सेसुसंस्कारी मनुष्य के तीन प्रकार के जन्म होते हैं।
पहला जन्म शुद्ध माता-पिता से होता है,जिसे वीर्य द्वारा जन्म ( शौक्र ) कहते हैं।
दूसरा जन्म गुरु से दीक्षा लेते समय होता है और यह'सावित्र' कहलाता है।
तीसरा जन्म 'याज्ञिक' कहलाता है और यह भगवान् विष्णु की पूजा काअवसर मिलने पर होता है।
ऐसे जन्म लेने के अवसर प्राप्त होने पर भी यदि किसी को किसीदेवता की भी आयु मिल जाये और वह वस्तुतः भगवान् की सेवा में रत न हो तो सब कुछ व्यर्थहो जाता है।
इसी प्रकार कर्म चाहे सांसारिक हों या आध्यात्मिक, यदि वे भगवान् को प्रसन्नकरने हेतु न हों तो वे व्यर्थ हैं।
"
श्रुतेन तपसा वा कि वचोभिभश्ित्तवृत्तिभि: ।
बुद्धया वा कि निपुणया बलेनेन्द्रियगाधसा ॥
११॥
श्रुतेन--वैदिक शिक्षा से; तपसा--तपस्या से; वा--अथवा; किम्--क्या अर्थ; वचोभि:--वाणी से; चित्त--चेतना का;वृत्तिभि:--व्यापार से; बुद्धय्ा--बुद्धि से; वा--अथवा; किम्--क्या लाभ; निपुणया--निपुण, पटु; बलेन--बल से; इन्द्रिय-राधसा--इन्द्रियों की शक्ति से।
भक्ति के बिना कठिन तपस्या, सुनने, बोलने की शक्ति, चिन्तन शक्ति, उच्च ज्ञान, बल तथाइन्द्रियों की शक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
"
कि वा योगेन साड्ख्येन न््यासस्वाध्याययोरपि ।
कि वा श्रेयोभिरन्यैश्व न यत्रात्मप्रदो हरि: ॥
१२॥
किमू्--क्या लाभ; वा--अथवा; योगेन--योगाभ्यास द्वारा; साड्ख्येन--सांख्य दर्शन के अध्ययन से; न्यास--संन्यास ग्रहणकरने से; स्वाध्याययो:--तथा वैदिक साहित्य के अध्ययन से; अपि-- भी; किमू-- क्या लाभ; वा--अथवा; श्रेयोभि:--शुभकर्मों द्वारा; अन्यै:-- अन्य; च--तथा; न--कभी नहीं; यत्र--जहाँ; आत्म-प्रदः --आत्मा की तुष्टि; हरिः-- भगवान्
जो दिव्य विधिविधान पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का साक्षात्कार कराने में सहायक नहीं होते,वे व्यर्थ हैं, चाहे वह योगाभ्यास हो या पदार्थ का वैश्लेषिक अध्ययन, कठिन तपस्या, संन्यासग्रहण करना या कि वैदिक साहित्य का अध्ययन हो।
भले ही ये आध्यात्मिक प्रगति के महत्त्वपूर्ण पक्ष क्यों न हों, किन्तु जब तक कोई भगवान् हरि को नहीं जान लेता ये सारी विधियाँव्यर्थ हैं।
"
श्रेयसामपि सर्वेषामात्मा हावधिरर्थतः ।
सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्मात्मद: प्रियः ॥
१३॥
श्रेयसाम्ू-शुभ कार्यों का; अपि--निश्चय ही; सर्वेषाम्--समस्त; आत्मा--आत्मा; हि--निश्चय ही; अवधि:--लक्ष्य;अर्थतः--वास्तव में; सर्वेषामू--सभी; अपि--निश्चय ही; भूतानाम्--जीवों का; हरिः:-- भगवान्; आत्मा--परमात्मा; आत्म-दः--मूल पहचान प्रदान करने वाला; प्रिय:--प्रिय |
यथार्थ रूप में भगवान् ही समस्त आत्म-साक्षात्कार के मूल स्त्रोत हैं।
फलतः समस्त शुभकार्यो--कर्म, ज्ञान, योग तथा भक्ति--का लक्ष्य भगवान् हैं।
"
तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखा: ।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणांतथेव सर्वा्हणमच्युतेज्या ॥
१४॥
यथा--जिस प्रकार; तरोः--वृक्ष की; मूल--जड़; निषेचनेन--सींचने से; तृप्यन्ति--संतुष्ट हो जाते हैं; तत्--इसके; स्कन्ध--तना; भुज--शाखाएँ; उपशाखा:--टहनियाँ; प्राण--प्राण वायु; उपहारात्-- भोजन करने से; च--तथा; यथा--जिस तरह;इन्द्रियाणाम्--इन्द्रियों का; तथा एब--उसी तरह; सर्व--सभी देवताओं की; अर्हणम्--पूजा; अच्युत-- भगवान् की; इज्या--पूजा।
जिस तरह वृक्ष की जड़ को सींचने से तना, शाखाएँ तथा टहनियाँ पुष्ट होती हैं और जिसतरह पेट को भोजन देने से शरीर की इन्द्रियाँ तथा अंग प्राणवान् बनते हैं उसी प्रकार भक्ति द्वाराभगवान् की पूजा करने से भगवान् के ही अंग रूप सभी देवता स्वतः तुष्ट हो जाते हैं।
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यथैव सूर्यात्प्रभवन्ति वार:पुनश्च तस्मिन्प्रविशन्ति काले ।
भूतानि भूमौ स्थिरजड्रमानितथा हरावेव गुणप्रवाह: ॥
१५॥
यथा--जिस तरह; एव--निश्चय ही; सूर्यात्--सूर्य से; प्रभवन्ति--उत्पन्न होता है; वार:--जल; पुनः--फिर से; च--तथा;तस्मिन्--उसमें; प्रविशन्ति--प्रवेश कर जाता है; काले--कालक्रम से; भूतानि--समस्त जीव; भूमौ--पृथ्वी पर; स्थिर--अचर; जड़मानि--तथा चर; तथा--उसी प्रकार; हरौ--भगवान् में; एब--निश्चय ही; गुण-प्रवाह:--भौतिक प्रकृति काउद्भव
वर्षा काल में सूर्य से जल उत्पन्न होता है और कालक्रम में अर्थात् ग्रीष्मकाल में वही जलसूर्य द्वारा पुन सोख लिया जाता है।
इसी प्रकार समस्त चर तथा अचर जीव इस पृथ्वी से उत्पन्नहोते हैं और कुछ काल के पश्चात् वे पुनः पृथ्वी में धूल के रूप में मिल जाते हैं।
इसी प्रकार सेप्रत्येक वस्तु श्रीभगवान् से उदभूत होती है और कालक्रम से पुनः उन्हीं में लीन हो जाती है।
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एतत्पदं तज्जगदात्मनः परसकृद्धिभातं सवितुर्यथा प्रभा ।
यथासवो जाग्रति सुप्तशक्तयोद्रव्यक्रियाज्ञानभिदाभ्रमात्यय: ॥
१६॥
एतत्--यह दृश्य जगत; पदम्--निवास स्थान; तत्--वह; जगत्-आत्मन:-- भगवान् का; परम्--दिव्य; सकृत्ू--क भी-कभी;विभातमू-- प्रकट होने वाला; सवितु:--सूर्य का; यथा--जिस प्रकार; प्रभा--सूर्य प्रकाश; यथा--जिस प्रकार; असब:--इन्द्रियाँ; जाग्रति--प्रकट होती हैं; सुप्त--निष्क्रिय; शक्तय: --शक्तियाँ; द्रव्य-- भौतिक तत्त्व; क्रिया--कर्म; ज्ञान--ज्ञान;भिदा-भ्रम-- भ्रम से उत्पन्न अन्तर; अत्यय: --लुप्त हो जाते हैं।
जिस प्रकार सूर्य-प्रकाश सूर्य से अभिन्न है, उसी प्रकार यह दृश्य जगत भी भगवान् सेअभिन्न है।
अतः भगवान् इस भौतिक सृष्टि के भीतर सर्वत्र व्याप्त हैं।
जब इन्द्रियाँ चेतन रहती हैं,तो वे शरीर के अंगस्वरूप प्रतीत होती हैं, किन्तु जब शरीर सोया रहता है, तो सारी क्रियाएँ अव्यक्त होती हैं।
इसी प्रकार सारा दृश्य जगत भिन्न प्रतीत होने पर भी परम पुरुष से अभिन्न है।
"
यथा नभस्यभ्रतम:प्रकाशाभवन्ति भूपा न भवन्त्यनुक्रमात् ।
एवं परे ब्रह्मणि शक्तयस्त्वमूरजस्तम: सत्त्वमिति प्रवाह: ॥
१७॥
यथा--जिस तरह; नभसि--आकाश में; अभ्र--बादल; तम:--अंधकार; प्रकाशा:--तथा प्रकाश; भवन्ति--विद्यमान रहते हैं;भू-पा:ः--हे राजाओं; न भवन्ति--प्रकट नहीं होते; अनुक्रमात्--क्रम से; एबम्--इस प्रकार; परे--परम; ब्रह्मणि--ब्रह्म में;शक्तय:--शक्तियाँ; तु--तब; अमू:--वे; रज:--रजोगुण; तम:ः--तमोगुण; सत्त्वम्ू--सतोगुण; इति--इस प्रकार; प्रवाह: --प्राकट्य, प्रवाह
है राजाओ, आकाश में कभी बादल, कभी अंधकार और कभी प्रकाश रहता है।
इनकाप्राकट्य एक क्रम से होता रहता है।
इसी तरह सतो, रजो तथा तमोगुण परब्रह्म में क्रमश: शक्तिरूप में प्रकट होते हैं।
कभी वे प्रकट होते हैं, तो कभी लुप्त होते हैं।
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तेनैकमात्मानमशेषदेहिनांकाल प्रधानं पुरुष परेशम् ।
स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहम्आत्मैकभावेन भजध्वमद्धा ॥
१८॥
तेन--अतः; एकम्--एक; आत्मानम्--परमात्मा को; अशेष-- अनन्त; देहिनामू--जीवों का; कालम्--काल, समय;प्रधानम्-- भौतिक कारण; पुरुषम्--परम पुरुष; पर-ईशम्--दिव्य नियन्ता; स्व-तेजसा--अपनी आध्यात्मिक शक्ति से;ध्वस्त--विलग; गुण-प्रवाहम्-- भौतिक प्रवाह से; आत्म--आत्मा; एक-भावेन--एक के रूप में स्वीकार करने से;भजध्वम्-भक्ति में लगो; अद्धा-प्रत्यक्ष ।
चूँकि परमेश्वर समस्त कारणों के कारण हैं, अतः वे समस्त जीवों के परमात्मा हैं और वेनिकटवर्ती तथा सुदूर कारण हैं।
चूँकि वे भौतिक प्रसर्जनों से विलग हैं, अतः वे उनकी अन्योन्यक्रियाओं से मुक्त हैं और प्रकृति के स्वामी हैं।
अतः तुम्हें उनसे गुणात्मक रूप से अपने आपकोअभिन्न मानते हुए उनकी सेवा करनी चाहिए।
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दयया सर्वभूतेषु सन्तुष्टठया येन केन वा ।
सर्वेन्द्रियोपशान्त्या च तुष्यत्याशु जनार्दन: ॥
१९॥
दयया--दया दिखाने से; सर्व-भूतेषु--समस्त जीवों पर; सन्तुष्टठया--सन्तुष्ट होने से; येन केन वा--किसी न किसी तरह; सर्व-इन्द्रिय--समस्त इन्द्रियाँ; उपशान्त्या--वश में करके; च-- भी; तुष्यति--सन्तुष्ट होता है; आशु--तुरनन््त; जनार्दन:--समस्तजीवों का स्वामी
समस्त जीवों पर दया करने से, येन-केन प्रकार से सन्तुष्ट रहने से तथा इन्द्रियों को वश मेंकरने से मनुष्य भगवान् जनार्दन को बहुत शीघ्र संतुष्ट कर सकता है।
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अपहतसकलैषणामलात्म-न्यविरतमेधितभावनोपहूतः ।
निजजनवशगत्वमात्मनोय-न्न सरति छिद्रवरदक्षर: सतां हि ॥
२०॥
अपहत-परास्त हुईं; सकल--सभी; एषण--इच्छाएँ; अमल--निष्कलंक; आत्मनि--मन को; अविरतम्--निरन्तर; एधित--बढ़ते हुए; भावना-- भव से; उपहूतः --बुलाया जाकर; निज-जन--अपने भक्तों के; वश--नियंत्रण में; गत्वम्--जाते हुए;आत्मन:--अपने; अयनू--जानते हुए; न--कभी नहीं; सरति--दूर चला जाता है; छिद्गर-वत्-- आकाश की तरह; अक्षर:--भगवान्; सताम्ू-भक्तों को; हि--निश्चय ही |
समस्त इच्छाओं के दूर हो जाने से भक्तगण समस्त मानसिक विकारों ( कल्मष ) से मुक्त होजाते हैं।
इस तरह वे भगवान् का निरन्तर चिन्तन कर सकते हैं और उनको भावपूर्वक सम्बोधनकर सकते हैं।
भगवान् अपने को अपने भक्तों के वश में जानते हुए उन्हें क्षण भर के लिए भीनहीं छोड़ते, जिस प्रकार सिर के ऊपर का आकाश कभी अदृश्य नहीं होता।
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न भजति कुमनीषिणां स इज्यांहरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञ: ।
श्रुतधनकुलकर्मणां मद्दैर्ये विदधति पापमकिञझ्जनेषु सत्सु ॥
२१॥
न--कभी नहीं; भजति--स्वीकार करता है; कु-मनीषिणाम्ू--मलिन हृदय वाले पुरुषों का; सः--वह; इज्याम्ू--अर्पित;हरिः-- भगवान्; अधन--निर्धन; आत्म-धन--केवल भगवान् पर आश्रित रहने वाले; प्रिय: --प्रिय; रस-ज्ञ:--जीवन के रसको स्वीकार करने वाला, रसिक; श्रुत--शिक्षा; धन--सम्पत्ति; कुल--वंश; कर्मणाम्--तथा कर्मो का; मदैः--गर्व से; ये--जो; विद्धति--सम्पन्न करता है; पापमू--तिरस्कार; अकिड्जनेषु--निर्धन; सत्सु-- भक्तों का।
भगवान् उन भक्तों को अत्यन्य प्रिय होते हैं जिनके पास कोई भौतिक सम्पत्ति नहीं है, किन्तुजो भगवद्भक्ति को ही अपना धन मानकर प्रसन्न रहते हैं।
दरअसल, भगवान् ऐसे भक्तों केभक्ति-कार्यों का आनन्द लेते हैं।
जो लोग अपनी शिक्षा, सम्पत्ति, कुलीनता और सकाम कर्मइत्यादि भौतिक वस्तुओं के मद से फूले रहते हैं, वे कभी-कभी भक्तों का उपहास करते हैं।
ऐसेलोग यदि भगवान् की पूजा करते भी हैं, तो वे उसे कभी स्वीकार नहीं करते।
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भ्रियमनुचरतीं तदर्थिनश्नद्विपदपतीन्विबुधांश्व यत्स्वपूर्ण: ।
न भजति निजभूृत्यवर्गतन्त्रःकथममुमुद्विसूजेत्पुमान्कृतज्ञ: ॥
२२॥
भ्रियम्--लक्ष्मी जी को; अनुचरतीम्--अनुसरण करने वाली; तत्--उसका; अर्थिन:--कृपाकांक्षी; च--तथा; द्विपद-पतीनू--मनुष्यों के स्वामी को; विबुधान्ू--देवताओं को; च-- भी; यत्--क्योंकि; स्व-पूर्ण:-- आत्मनिर्भर; न--कभी नहीं; भजति--परवाह करता है; निज--अपना; भृत्य-वर्ग--भक्तों पर; तन्त्रः--आश्रित; कथम्--कैसे; अमुम्--उसको; उद्विसृजेतू--छोड़सकता है; पुमान्ू--व्यक्ति; कृत-ज्ञ:--आभारी, कृतज्ञ )यद्यपि श्रीभगवान् आत्मनिर्भर हैं, किन्तु वे भक्तों पर आश्वित हो जाते हैं।
वे न तो लक्ष्मी जीकी परवाह करते हैं और न उन राजाओं तथा देवताओं की जो लक्ष्मी जी के कृपाभाजन बननाचाहते हैं।
ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो वास्तव में कृतज्ञ होते हुए भगवान् की पूजा न करे ?"
मैत्रेय उवाचइति प्रचेतसो राजन्नन्याश्व भगवत्कथा: ।
श्रावयित्वा ब्रह्मलोक॑ ययौ स्वायम्भुवो मुनि: ॥
२३॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; प्रचेतस:--प्रचेतागण; राजन्--हे राजन; अन्या:--अन्य लोग; च-- भी;भगवतू-कथा: -- भगवान् विषयक कथाएँ; श्रावयित्वा--निर्देश देकर; ब्रह्म -लोकम्--ब्रह्मलोक को; ययौ--चला गया;स्वायम्भुव:ः--ब्रह्मा का पुत्र; मुनिः--परम साधु।
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र नारद मुनि ने प्रचेताओं सेभगवान् के साथ इन सम्बन्धों का वर्णन किया।
तत्पश्चात् वे ब्रह्यलोक को चले गये।
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तेडपि तन्मुखनिर्यातं यशो लोकमलापहम् ।
हरेर्निशम्य तत्पादं ध्यायन्तस्तद्गतिं ययु: ॥
२४॥
ते--प्रचेतागण; अपि-- भी; तत्--नारद के; मुख--मुख से; निर्यातमू--निकला; यश:--महिमागान; लोक--संसार का;मल--पाप; अपहम्--नष्ट करते हुए; हरेः--हरि का; निशम्य--सुनकर; तत्-- भगवान् के; पादम्--पाँव; ध्यायन्त:-- ध्यानकरते हुए; तत्-गतिम्--उनके धाम को; ययु:--चले गये ।
नारद के मुख से संसार के समस्त दुर्भाग्य को दूर करने वाली भगवान् की महिमा को सुनकर प्रचेता गण भी भगवान् के प्रति आसक्त हो उठे।
वे भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करतेहुए चरम गन्तव्य को चले गये।
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एतत्तेभिहितं क्षत्तर्यन्मां त्वं परिपृष्टवान् ।
प्रचेतसां नारदस्य संवादं हरिकीर्तनम् ॥
२५॥
एतत्--यह; ते--तुमसे; अभिहितम्--कहा गया क्षत्त:--हे विदुर; यत्--जो भी; माम्--मुझसे; त्वम्--तुमने; परिपृष्टवान् --पूछा; प्रचेतसाम्ू--प्रचेताओं की; नारदस्य--नारद की; संवादम्--वार्ता; हरि-कीर्तनम्-- भगवान् की महिमा का वर्णन करतेहुए
हे विदुर, मैंने तुम्हें वह सब कुछ सुना दिया है, जो तुम नारद तथा प्रचेताओं के भगवत्कथासम्बन्धी वार्तालाप के विषय में जानना चाह रहे थे।
जहाँ तक सम्भव था मैंने तुम्हें बता दिया है।
"
श्रीशुक उबाचय एष उत्तानपदो मानवस्यानुवर्णित: ।
वंशः प्रियव्रतस्थापि निबोध नृपसत्तम ॥
२६॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; य:ः--जो; एष:--इस वंश; उत्तानपदः--राजा उत्तानपाद का; मानवस्य--स्वयंभुव मनु का पुत्र; अनुवर्णित: --पूर्व आचार्यो के पदचिह्नों पर चलते हुए वर्णित; बंश:--वंश, कुल; प्रियब्रतस्थ--राजाप्रियत्रत का; अपि-- भी; निबोध-- समझने का प्रयास करो; नृप-सत्तम--हे राजाओं में श्रेष्ठ |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे श्रेष्ठ राजन् ( राजा परीक्षित ), यहाँ तक मैंने स्वायम्भुवमनु के प्रथम पुत्र उत्तानपाद के वंश का वर्णन किया है।
अब मैं स्वायंभुव मनु के द्वितीय पुत्रप्रियव्रत के वंशजों के कार्यकलापों का वर्णन करने का प्रयास करूँगा।
कृपया ध्यान पूर्वक सुनें।
"
यो नारदादात्मविद्यामधिगम्य पुनर्महीम् ।
भुक्त्वा विभज्य पुत्रेभ्य ऐश्वर समगात्पदम् ॥
२७॥
यः--जो; नारदातू--नारद मुनि से; आत्म-विद्याम्-- आध्यात्मिक ज्ञान को; अधिगम्य--सीख कर; पुनः--फिर; महीम्--पृथ्वीको; भुक्त्वा-- भोग कर; विभज्य--बाँट कर; पुत्रेभ्य:--पुत्रों को; ऐश्वरम्--दिव्य; समगात्--प्राप्त किया; पदम्--पद को |
यद्यपि महाराज प्रियत्रत ने नारद मुनि से उपदेश प्राप्त किया था, तो भी वे पृथ्वी पर राज्यकरने में संलग्न हुए।
भौतिक सम्पत्ति का पूर्ण भोग कर चुकने के बाद उन्होंने उसे अपने पुत्रों मेंबाँट दिया।
तब उन्हें वह पद प्राप्त हुआ जिससे वे भगवद्धाम को लौट सके।
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इमां तु कौषारविणोपवर्णितांक्षत्ता निशम्याजितवादसत्कथाम् ।
प्रवृद्धभावो श्रुकलाकुलो मुने-्दधार मूर्ध्ना चरणं हृदा हरे: ॥
२८॥
इमामू--यह सब; तु--तब; कौषारविणा--मैत्रेय द्वारा; उपवर्णिताम्ू--वर्णित; क्षत्ता--विदुर; निशम्य--सुनकर; अजित-वबाद--भगवान् की महिमा का वर्णन; सत्-कथाम्--दिव्य कथा; प्रवृद्ध--बढ़ी हुईं; भाव:--हर्षातिरिक; अश्रु--आँसुओं के;कला--बिन्दुओं से; आकुल:--विभोर; मुनेः--मुनि का; दधार--पकड़ लिया; मूर्ध्ना--सिर से; चरणम्--चरणकमल;हृदा--हृदय से; हरेः-- भगवान् के |
हे राजन, इस प्रकार मैत्रेय मुनि से भगवान् तथा उनके भक्तों की दिव्य कथाएँ सुनकर विदुरभावविभोर हो उठे।
आँखों में आँसू भर कर वे तुरन्त अपने गुरु के चरणकमलों पर गिर पड़े।
तब उन्होंने अपने अन्तःकरण में भगवान् को स्थिर कर लिया।
"
विदुर उवाचसोयमद्य महायोगिन्भवता करुणात्मना ।
दर्शितस्तमसः पारो यत्राकिञ्लनगो हरि; ॥
२९॥
विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; सः--वह; अयम्--यह; अद्य--आज; महा-योगिन्--हे महान् योगी; भवता--आपके द्वारा;'करुण-आत्मना--अत्यन्त करुणामय; दर्शित:-- मुझे दिखाया गया है; तमस:--अधंकार का; पार: --दूसरा छोर; यत्र--जहाँ;अकिद्धन-ग:--भौतिक रूप से मुक्त व्यक्ति के द्वारा पहुँचने योग्य; हरिः-- भगवान् |
श्रीविदुर ने कहा : हे परम योगी, हे भक्तों में महान्, आपने अहैतुकी कृपा से मुझे इसअंधकार रूपी संसार से मोक्ष का पथ प्रदर्शित किया है।
इस भौतिक संसार से मुक्त पुरुष इसपथ पर चल कर इस संसार से भगवान् के धाम को वापस जा सकता है।
"
श्रीशुक उबाचइत्यानम्य तमामन्त्रय विदुरो गजसाह्यम् ।
स्वानां दिहश्षु: प्रययौ ज्ञातीनां निर्वुताशयः ॥
३०॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आनम्य--नमस्कार करके ; तम्ू--मैत्रेय को; आमन््रय--अनुमति लेकर; विदुर:ः --विदुर; गज-साह्यम्--हस्तिनापुर नगरी को; स्वानाम्--अपनी; दिदृक्षु;--देखने के लिए इच्छुक;प्रययौ--वहाँ से चला गया; ज्ञातीनामू--अपने परिजनों का; निर्वृत-आशय:-- भौतिक इच्छाओं से मुक्त |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार मैत्रेय मुनि को नमस्कार करके और उनसे अनुमतिलेकर भौतिक इच्छाओं से रहित विदुर ने अपने परिजनों से मिलने के लिए हस्तिनापुर के लिएप्रस्थान किया।
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एतद्य: श्रृणुयाद्राजन्नाज्ञां हर्यर्पितात्मनाम् ।
आयुर्धनं यशः स्वस्ति गतिमैश्वर्यमाप्नुयात् ॥
३१॥
एतत्--यह; यः--जो; श्रूणुयात्--सुनता है; राजनू--हे राजा परीक्षित; राज्ञामू--राजाओं का; हरि-- श्री भगवान् को; अर्पित-आत्मनामू--जीवन तथा आत्मा को अर्पित करने वाले; आयु:--उम्र; धनम्--धन; यश:--ख्याति; स्वस्ति--क्षेम; गतिम्--जीवन का चरम लक्ष्य, सदगति; ऐश्वर्यमू-- भौतिक ऐश्वर्य; आप्नुयात्--प्राप्त करता है।
हे राजन, जो लोग श्रीभगवान् के प्रति पूर्णतः समर्पित राजाओं से सम्बन्धित इन कथाओंको सुनते हैं, वे बिना कठिनाई के दीर्घायु, सम्पत्ति, ख्याति, सौभाग्य ( क्षेम ) तथा अन्त मेंभगवद्धाम जाने का अवसर प्राप्त करते हैं।
"