श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 4
अध्याय एक: मनु की पुत्रियों की वंशावली तालिका
4.1मैत्रेय उवाचमनोस्तु शतरूपायां तिस्त्र: कन्याश्व जज्ञिरे।आकूतिर्देवहूतिश्व प्रसूतिरिति विश्रुता: ॥ १॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; मनो: तु--स्वायंभुव मनु का; शतरूपायाम्--उसकी पत्नी शतरूपा से; तिस्त्र:--तीन;कन्या: च--कन्याएँ भी; जज्ञिरि--जन्म लिया; आकूृतिः:--आकूति नामक; देवहूति:--देवहूति नामक; च--तथा:; प्रसूति:--प्रसूति नामक; इति--इस प्रकार; विश्रुता:--विख्यात |
श्रीमैत्रेय ने कहा : स्वायंभुव मनु की पत्नी शतरूपा से तीन कन्याएँ उत्पन्न हुईं जिनके नामआकृति, देवहूति तथा प्रसूति थे।"
आकृतिं रुचये प्रादादपि भ्रातृमतीं नृप: ।पुत्रिकाधर्ममाश्रित्य शतरूपानुमोदित: ॥
२॥
आकृतिम्--आकूति; रुचये--परम साधु रुचि को; प्रादात्--प्रदान किया; अपि--यद्यपि; भ्रातृ-मतीम्-- भाई वाली कन्या;नृप:--राजा; पुत्रिका--पुत्री से प्राप्त पुत्र को ग्रहण करना; धर्मम्--धार्मिक कृत्य; आश्रित्य--शरण में जाकर; शतरूपा--स्वायंभुव मनु की पत्नी के द्वारा; अनुमोदित:--स्वीकृत
आकृति के दो भाई थे तो भी राजा स्वायंभुव मनु ने इसे प्रजापति रुचि को इस शर्त परब्याहा था कि उससे, जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मनु को पुत्र रूप में लौटा दिया जाएगा। उसनेअपनी पत्नी शतरूपा के परामर्श से ऐसा किया था।"
प्रजापति: स भगवान्रुचिस्तस्यथामजीजनत् ।मिथुनं ब्रह्मवर्चस्वी परमेण समाधिना ॥
३॥
प्रजापति:--जिसे संतान उत्पन्न करने का भार सौंपा गया हो; सः--वह; भगवान्--परम ऐश्वर्यशाली; रुचि: --परम साधु रुचि;तस्याम्--उससे; अजीजनतू--उत्पन्न हुआ; मिथुनम्--जोड़ी, युग्म; ब्रह्म-वर्चस्वी --आध्यात्मिक रूप से अत्यन्त शक्तिमान;'परमेण--परम बलशाली; समाधिना--समाधि में
अपने ब्रह्मज्ञान में परम शक्तिशाली एवं जीवात्माओं के जनक के रूप में नियुक्त( प्रजापति ) रुचि को उनकी पत्नी आकूति के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुए।"
यस्तयो: पुरुष: साक्षाद्विष्णुर्यज्ञस्वरूपधृक् ।या स्त्री सा दक्षिणा भूतेरेश भूतानपायिनी ॥
४॥
यः--जो; तयो:--उन दोनों में से; पुरुष: --नर; साक्षात्- प्रत्यक्ष; विष्णु; --परमे श्वर; यज्ञ--यज्ञ; स्वरूप-धृक्ू -- स्वरूप धारणकिये हुए; या--दूसरी; स्त्री--स्त्री; सा--वह; दक्षिणा--दक्षिणा; भूतेः--सम्पत्ति की देवी का; अंश-भूता--भिन्नांश होने से;अनपायिनी--कभी न पृथक् होने वाली |
आकृति से उत्पन्न दोनों सन््तानों में से एक अर्थात् बालक तो प्रत्यक्ष पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्का अवतार था और उसका नाम था यज्ञ, जो भगवान् विष्णु का ही दूसरा नाम है। बालिकासम्पत्ति की देवी भगवान् विष्णु की प्रिया शाश्वत लक्ष्मी की अंश अवतार थी।"
आनिन्ये स्वगृहं पुत्र्या: पुत्रं विततरोचिषम् ।स्वायम्भुवो मुदा युक्तो रुचिर्जग्राह दक्षिणाम् ॥
५॥
आनिन्ये--ले आये; स्व-गृहम्-- अपने घर; पुत्रया:--पुत्री से उत्पन्न; पुत्रम्--पुत्र; वितत-रोचिषम्-- अत्यन्त शक्तिमान;स्वायम्भुव:--स्वायंभुव मनु; मुदा--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; युक्त:--साथ; रुचि:--परम साधु रुचि; जग्राह--रखा;दक्षिणाम्-दक्षिणा नामक पुत्री को |
स्वायंभुव मनु परम प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ नामक सुन्दर बालक को अपने घर ले आये औरउनके जामाता रुचि ने पुत्री दक्षिणा को अपने पास रखा।"
तां कामयानां भगवानुवाह यजुषां पति: ।तुष्टायां तोषमापन्नोजनयद्दवादशात्मजान् ॥
६॥
तामू--उसको; कामयानाम्-इच्छुक; भगवान्-- भगवान् ने; उबाह--विवाह कर लिया; यजुषाम्-- समस्त यज्ञों के; पति:--स्वामी; तुष्टायाम्-- अपनी पत्ली में अत्यन्त प्रसन्न; तोषम्--अत्यधिक प्रसन्नता; आपन्न: --प्राप्त करके; अजनयतू--जन्म दिया;द्वादश--बारह; आत्मजान्--पुत्रों को |
यज्ञों के स्वामी भगवान् ने बाद में दक्षिणा के साथ विवाह कर लिया, जो पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्, को अपने पति रूप में प्राप्त करने के लिए परम इच्छुक थी। उनकी इस पत्नी से उन्हेंबारह पुत्र प्राप्त हुए।"
तोष:ः प्रतोष: सन्तोषो भद्ग: शान्तिरिडस्पति: ।इध्मः कविर्विभु: स्वह्नः सुदेवो रोचनो द्विषट् ॥
७॥
तोष:--तोष; प्रतोष:--प्रतोष; सन््तोष:--संतोष; भद्ग:-- भद्ग; शान्तिः--शान्ति; इडस्पति:--इडस्पति; इध्म:--इध्म; कवि:--कवि; विभु:--विभु; स्वह्ृतः--स्वह्त; सुदेव:--सुदेव; रोचन: --रोचन; द्वि-घट्ू--बारह।यज्ञ तथा दक्षिणा के बारह पुत्रों के नाम थे--तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति,इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव तथा रोचन।"
तुषिता नाम ते देवा आसन्स्वायम्भुवान्तरे ।मरीचिमिश्रा ऋषयो यज्ञ: सुरगणे श्वर: ॥
८॥
तुषिता:--तुषितों की कोटि; नाम--नाम वाले; ते--सभी; देवा:--देवता; आसन्--हुए; स्वायम्भुव--मनु का नाम; अन्तरे--उस काल में; मरीचि-मिश्रा:--मरीचि इत्यादि; ऋषय:--ऋषिगण, साधुगण; यज्ञ:--भगवान् विष्णु का अवतार; सुर-गण-ईंश्वरः--देवताओं के राजा।
स्वायंभुव मनु के काल में ही ये सभी पुत्र देवता हो गये जिन्हें संयुक्त रूप में तुषित कहाजाता है।
मरीचि सप्तर्षियों के प्रधान बन गये और यज्ञ देवताओं के राजा इन्द्र बन गये।
"
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुपुत्रो महौजसौ ।
तत्पुत्रपौत्रनप्तृणामनुवृत्तं तदन्तरम् ॥
९॥
प्रियत्रत--प्रियव्रत; उत्तानपादौ--उत्तानपाद; मनु-पुत्रौ--मनु के दो पुत्र; महा-ओजसौ--महान् ओजस्वी, शक्तिशाली; ततू--उनके; पुत्र--पुत्र; पौत्र--पोता; नप्तृणाम्--नाती; अनुवृत्तम्ू-- अनुगमन करते हुए; तत्-अन्तरम्--उस मनु-काल ( मन्व॒तर )में
स्वायंभुव मनु के दोनों पुत्र, प्रियत्रत तथा उत्तानपाद अत्यन्त शक्तिशाली राजा हुए औरउनके पुत्र तथा पौत्र उस काल में तीनों लोकों में फैल गये।
"
देवहूतिमदात्तात कर्दमायात्मजां मनु: ।
तत्सम्बन्धि श्रुतप्रायं भवता गदतो मम ॥
१०॥
देवहूतिम्-देवहूति; अदात्--प्रदान की गई; तात-हे प्रिय पुत्र; कर्दमाय--कर्दम मुनि को; आत्मजाम्--कन्या; मनु:--स्वायंभुव मनु; तत्-सम्बन्धि--उस सम्बन्ध में; श्रुत-प्रायम्--प्रायः पूरी तरह सुना गया; भवता--तुम्हारे द्वारा; गदत:ः--कहागया; मम--मेरे द्वारा
हे पुत्र स्वायंभुव मनु ने अपनी परम प्रिय कन्या देवहूति को कर्दम मुनि को प्रदान किया।
मैंइनके सम्बन्ध में तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ और तुम उनके विषय में प्रायः पूरी तरह सुन चुकेहो।
"
दक्षाय ब्रह्मपुत्राय प्रसूति भगवान्मनु: ।
प्रायच्छद्यत्कृत: सर्गस्त्रिलोक्यां विततो महान् ॥
११॥
दक्षाय--प्रजापति दक्ष को; ब्रह्म-पुत्राय--ब्रह्मा के पुत्र; प्रसूतिम्ू--प्रसूति को; भगवान्--महापुरुष; मनु:--स्वायंभुव मनु;प्रायच्छत्-- प्रदान किया; यत्-कृत:ः--जिनके द्वारा रचित; सर्ग:--सृष्टि; त्रि-लोक्याम्--तीनो लोकों में; विततः--विस्तारकिया हुआ; महान्--अत्यधिक ।
स्वायंभुव मनु ने प्रसूति नामक अपनी कन्या ब्रह्मा के पुत्र दक्ष को दे दी, जो प्रजापतियों मेंसे एक थे।
दक्ष के वंशज तीनों लोकों में फैले हुए हैं।
"
या: कर्दमसुताः प्रोक्ता नव ब्रह्मर्षिपलय: ।
तासां प्रसूतिप्रसवं प्रोच्यमानं निबोध मे ॥
१२॥
या:--जो; कर्दम-सुता:--कर्दम की कन्याएँ; प्रोक्ताः:--उल्लेख किया गया; नव--नौ; ब्रह्मय-ऋषि-- आध्यात्मिक ज्ञान वालेऋषियों की; पत्तय:--पत्नियाँ; तासामू--उनकी; प्रसूति-प्रसवम्--पुत्रों तथा पौत्रों की पीढ़ियाँ; प्रोच्यमानम्--वर्णित होकर;निबोध--समझने का प्रयत्न करो; मे--मुझसे |
मैं तुम्हें कर्दम मुनि की नवों कन्याओं के विषय में पहले ही बतला चुका हूँ कि वे नौविभिन्न ऋषियों को सौंप दी गई थीं।
अब मैं इन नवों कन्याओं की सनन्तानों का वर्णन करूँगा।
तुम मुझसे उनके विषय में सुनो।
"
पत्नी मरीचेस्तु कला सुषुवे कर्दमात्मजा ।
कश्यपं पूर्णिमानं च ययोरापूरितं जगत् ॥
१३॥
पतली--पत्ली; मरीचे:--मरीचि नामक साधु से की; तु-- भी; कला--कला नाम की; सुषुबे--जन्म दिया; कर्दम-आत्मजा--कर्दम मुनि की कन्या; कश्यपम्--कश्यप नाम का; पूर्णिमानम् च--तथा पूर्णिमा नाम की; ययो:--जिनसे; आपूरितम्-- भरगये, सर्वत्र फैल गये; जगत्--संसार।
कर्दम मुनि की पुत्री कला का ब्याह मरीचि से हुआ जिससे दो सन््तानें हुईं जिनके नाम थेकश्यप तथा पूर्णिमा।
इनकी सनन््तानें सारे विश्व में फैल गईं।
"
पूर्णिमासूत विरजं विश्वगं च परन्तप ।
देवकुल्यां हरे: पादशौचाद्याभूत्सरिद्दिव: ॥
१४॥
पूर्णिमा--पूर्णिमा ने; असूत--उत्पन्न किया; विरजम्--विरज नामक पुत्र; विश्वगम् च--तथा विश्वग नामक; परम्-तप--शत्रुओंका संहार करने वाले; देवकुल्याम्ू-देवकुल्या नामक पुत्री; हरेः-- श्री भगवान् के; पाद-शौचात्--चरणकमल को धोने वालेजल से; या--वह; अभूत्--हुईं; सरित् दिव:ः--गंगा के तटों के अन्तर्गत दिव्य जल।
हे विदुर, कश्यप तथा पूर्णिमा नामक दो सन्तानों में से पूर्णिमा के तीन सन््तानें उत्पन्न हुईंजिनके नाम विरज, विश्वग तथा देवकुल्या थे।
इन तीनों में से देवकुल्या श्रीभगवान् केचरणकमल को धोने वाला जल थी, जो बाद में स्वर्गलोक की गंगा में बदल गई।
"
अत्रे: पत्यनसूया त्रीज्ञज्ञे सुयशसः सुतान् ।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मसम्भवान् ॥
१५॥
अत्रे:--अत्रि मुनि की; पत्ती--पत्ली; अनसूया--अनुसूया ने; त्रीन्ू-- तीन; जज्ञे--उत्पन्न किया; सु-यशसः--अत्यन्त प्रसिद्ध;सुतान्--पुत्रों को; दत्तम्-दत्तात्रेय; दुर्वाससम्-दुर्वासा; सोमम्--सोम ( चन्द्रदेव ); आत्म--परमात्मा; ईश--शिवजी;ब्रह्म--ब्रह्माजी; सम्भवान्ू--के अवतार।
अत्रि मुनि की पत्नी अनसूया ने तीन सुप्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न किये।
ये हैं--सोम, दत्तात्रेय तथादुर्वासा, जो भगवान् ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के अंशावतार थे।
सोम ब्रह्मा के, दत्तात्रेय भगवान्विष्णु के तथा दुर्वासा शिवजी के अंश प्रतिनिधिस्वरूप थे।
"
विदुर उवाचअत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठा: स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
किश्ञिच्चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि मे गुरो ॥
१६॥
विदुरः उवाच-- श्रीविदुर ने कहा; अत्रे: गृहे--अत्रि के घर में; सुर-श्रेष्ठा:--प्रमुख देवता; स्थिति--पालन; उत्पत्ति--सृष्टि;अन्त--संहार; हेतव:ः --कारण; किश्ञित्--कुछ; चिकीर्षव:--करने के इच्छुक; जाता:--प्रकट हुए; एतत्--यह; आख्याहि--कहो, बताओ; मे--मुझको; गुरो--मेरे गुरु !
यह सुनकर विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे गुरु, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जो सम्पूर्ण सृष्टि केस्त्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं, अत्रि मुनि की पत्नी से किस प्रकार उत्पन्न हुए ?"
मैत्रेय उवाचब्रह्मणा चोदित: सृष्टावत्रिब्रह्मविदां वर: ।
सह पत्या ययावृक्ष॑ं कुलादिं तपसि स्थित: ॥
१७॥
मैत्रेय:ः उवाच-- श्रीमैत्रेय ऋषि ने कहा; ब्रह्मणा-- भगवान् ब्रह्मा द्वारा; चोदित:--प्रेरित होकर; सृष्टौ--सृष्टि हेतु; अत्रिः:--अत्रि;ब्रह्म-विदाम्--आध्यात्मिक ज्ञान में पारंगत पुरुषों के; वर:-- श्रेष्ठ, मुख्य; सह--साथ; पत्या--पत्नी के; ययौ--गया;ऋक्षम्--ऋक्ष पर्वत; कुल-अद्विम्ू--विशाल पर्वत; तपसि--तपस्या हेतु; स्थित:--रहा
मैत्रेय ने कहा : अनसूया से विवाह कर लेने के बाद जब अत्रि मुनि को ब्रह्मा ने वंश चलानेके लिए आदेश दिया तो वे अपनी पत्नी के साथ कठोर तपस्या करने के लिए ऋक्ष नामक पर्वतकी घाटी में गये।
"
तस्मिन्प्रसूस्तबकपलाशाशोककानने ।
वार्भि: स्त्रवद्धिरुद्धुष्टे निर्विन्ध्याया: समन््ततः ॥
१८॥
तस्मिन्--उसमें; प्रसून-स्तबक --पुष्प गुच्छ; पलाश--पलाश के वृक्ष ( छिउल ); अशोक--अशोक के पेड़; कानने--वनोद्यानमें; वार्भि:--जल से; स्त्रवद्धि: --बहते हुए; उद्दूष्टे--ध्वनि में; निर्विन्ध्याया: --निर्विश्ध्या नदी की; समन्ततः --सर्वत्र |
उस पर्वत घाटी में निर्विन्ध्या नामक नदी बहती है।
इस नदी के तट पर अनेक अशोक केवृक्ष तथा पलाश पुष्पों से लदे अन्य पौधे हैं।
वहाँ झरने से बहते हुए जल की मधुर ध्वनि सुनाईपड़ती रहती है।
वे पति तथा पतली ऐसे सुरम्य स्थान में पहुँचे।
"
प्राणायामेन संयम्य मनो वर्षशतं मुनि: ।
अतिष्ठदेकपादेन निर्द्न्द्दोनिलभोजन: ॥
१९॥
प्राणायामेन-- प्राणायाम ( श्वास रोकने का अभ्यास ) के द्वारा; संयम्य--वश में करके; मन:ः--मन; वर्ष-शतम्--एक सौ वर्ष;मुनिः--मुनि; अतिष्ठत्-वहाँ रहते हुए; एक-पादेन--एक पाँव पर खड़े होकर; निरद्द्न्द्रः--बिना द्वैत के; अनिल--वायु;भोजन:--खाकर।
वहाँ पर मुनि ने योगिक प्राणायाम के द्वारा अपने मन को स्थिर किया और फिर समस्तआसक्ति पर संयम करते हुए बिना भोजन खाए केवल वायु का सेवन करते रहे और सौ वर्षोतक एक पाँव पर खड़े रहे।
"
शरणं तं प्रपद्येईहहँ य एव जगदीश्वरः ।
प्रजामात्मसमां मह्मं प्रयच्छत्विति चिन्तयन् ॥
२०॥
शरणम्--शरण ग्रहण करके ; तम्ू--उसकी; प्रपद्ये-- समर्पण करता हूँ; अहम्--मैं; यः--जो; एव--निश्चय ही; जगत्-ईश्वरः--ब्रह्माण्ड के स्वामी; प्रजाम्--पुत्र; आत्म-समाम्--अपनी तरह का; मह्म्--मुझको; प्रयच्छतु-- प्रदान करें; इति--इसप्रकार; चिन्तयन्--सोचते हुए
वे मन ही मन सोच रहे थे कि जो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं और मैं जिनकी शरण में आयाहूँ, वे प्रसन्न होकर मुझे अपने ही समान पुत्र प्रदान करें।
"
तप्यमानं त्रिभुवनं प्राणायामैधसाग्निना ।
निर्गतेन मुनेर्मूर्ध्न: समीक्ष्य प्रभवस्त्रय: ॥
२१॥
तप्यमानम्--तप करते हुए; त्रि-भुवनम्--तीनों लोक; प्राणायाम-- श्वास वायु रोकने का अभ्यास; एधसा--ईंधन; अग्निना--अग्नि से; निर्गतन--निकलता हुआ; मुने: --मुनि का; मूर्ध्न:--शिरो भाग; समीक्ष्य--देखकर; प्रभव: त्रय:--तीनों बड़े देव( ब्रह्मा, विष्णु तथा महे श्वर )।
जब अत्रि मुनि गहन तप-साधना कर रहे थे तो उनके प्राणायाम के कारण उनके शिर सेएक प्रज्वलित अग्नि उत्पन्न हुईं जिसे तीनों लोकों के तीन प्रमुख देवों ने देखा।
"
अप्सरोमुनिगन्धर्वसिद्धविद्याधरोरगैः ।
वितायमानयशसस्तदा श्रमपदं ययु; ॥
२२॥
अप्सर:--अप्सराएँ; मुनि--परम साधु; गन्धर्व--गंधर्व लोक के वासी; सिद्ध--सिद्धलोक के वासी; विद्याधर--अन्य देवता;उरगै:--नागलोक के वासी; वितायमान--फैला हुआ; यशस:--यश, ख्याति; तत्--उसके; आश्रम-पदम्-- आश्रम; ययु:--गये।
उस समय ये तीनों देव स्वर्गलोक के वासियों, यथा अप्सराओं, गन्धर्वों, सिद्धों, विद्याधरोंतथा नागों समेत अत्रि के आश्रम पहुँचे।
इस प्रकार वे उस मुनि के आश्रम में प्रविष्ट हुए, जोउनकी तपस्या के कारण विख्यात हो चुका था।
"
तत्पादुर्भावसंयोगविद्योतितमना मुनि: ।
उत्तिष्ठन्नेकपादेन ददर्श विबुधर्षभान् ॥
२३॥
तत्--उनका; प्रादुर्भाव--प्राकट्य; संयोग--एकसाथ; विद्योतित-- प्रकाशित; मना: --मन में; मुनि: --मुनि ने; उत्तिष्ठन्--जगाये जाने पर; एक-पादेन--एक ही पाँव से; ददर्श--देखा; विबुध--देवता; ऋषभान्--महापुरुष ।
मुनि एक पैर पर खड़े थे, किन्तु उन्होंने ज्योंही देखा कि तीनों देव उनके समक्ष प्रकट हुए हैं,तो वे उन्हें देखकर इतने हर्षित हुए कि अत्यन्त कष्ट होते हुए भी वे एक ही पाँव से उनके निकटपहुँचे।
"
प्रणम्य दण्डवद्धूमावुपतस्थेहणाझ्जलि: ।
वृषहंससुपर्णस्थान्स्वै: स्वैश्विद्नैश्न चिह्नितानू ॥
२४॥
प्रणम्य--नमस्कार करके; दण्ड-वत्--दण्ड के समान; भूमौ--पृथ्वी पर; उपतस्थे--गिर पड़े; अहण--पूजा की सारी सामग्री;अज्जलि:--हाथ जोड़ कर; वृष--बैल; हंस--हंस पक्षी; सुपर्ण--गरुड़ पक्षी; स्थानू--स्थित; स्वै:--अपने; स्वैः-- अपने;चिह्नेः--चिह्नों; च--तथा; चिह्नितानू--पहचाने जाकर।
तत्पश्चात् उन्होंने उन तीनों देवों की स्तुति की जो अपने-अपने वाहनों--बैल, हंस तथागरुड़--पर सवार थे, और अपने हाथों में डमरू, कुश तथा चक्र धारण किये थे।
मुनि ने भूमिपर गिरकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया।
"
कृपावलोकेन हसद्वदनेनोपलम्भितान् ।
तद्रोचिषा प्रतिहते निमील्य मुनिरक्षिणी ॥
२५॥
कृपा-अवलोकेन--कृपा से देखते हुए; हसत्--हँसते हुए; वबदनेन--मुखों वाले; उपलम्भितान्--अत्यन्त प्रसन्न दिखते हुए;तत्--उनके; रोचिषा--तेज से; प्रतिहते--चकाचौंध होकर; निमील्य--मूँदकर; मुनि:--मुनि; अक्षिणी-- अपने नेत्र |
अत्रि मुनि यह देखकर अत्यधिक प्रमुदित हुए कि तीनों देव उन पर कृपालु हैं।
उनके नेत्र उनदेवों के शरीर के तेज से चकाचौंध हो गये, अतः उन्होंने कुछ समय के लिए अपनी आँखें मूँदलीं।
"
चेतस्तत्प्रवर्णं युञ्जन्नस्तावीत्संहताञझजलिः इलक्ष्णया सूक्तया वाचा ।
सर्वलोकगरीयस:अत्रिरुवाचविश्वोद्धवस्थितिलयेषु विभज्यमानै-मायागुणैरनुयुगं विगृहीतदेहाः।
ते ब्रह्मविष्णुगिरिशा: प्रणतोस्म्यहं व-स्तेभ्यः क एवं भवतां म इहोपहूतः॥
२६-२७॥
चेत:--हृदय; तत्-प्रवणम्--उनपर टिका कर; युद्धनू--बनाकर; अस्तावीत्--स्तुति की; संहत-अज्धलि:--हाथ जोड़ कर;इएलक्षणया-- भावपूर्ण; सूक्तया-- प्रार्थनाएँ; वाचा--शब्द; सर्व-लोक--सारा संसार; गरीयस:--सम्माननीय; अत्रि: उवाच--अत्रि ने कहा; विश्व--ब्रह्माण्ड; उद्धव--सृष्टि; स्थिति--पालन; लयेषु--संहार में; विभज्यमानै:--विभक्त; माया-गुणै: --प्रकृति के बाह्य गुणों से; अनुयुगम्--विभिन्न कल्पों के अनुसार; विगृहीत--धारण करके; देहा: --शरीर; ते--वे; ब्रह्म--ब्रह्माजी; विष्णु-- भगवान् विष्णु; गिरिशा:--शिवजी; प्रणत:--झुका, नमित; अस्मि--हूँ; अहम्--मैं; व:--तुम सबको;तेभ्य:--उनसे; कः --कौन; एव--निश्चय ही; भवतामू--आपका; मे-- मुझसे; इह--यहाँ; उपहूत: -- बुलाया जाकर |
किन्तु पहले से उनका हृदय इन देवों के प्रति आकृष्ट था, अतः जिस-तिस प्रकार उन्होंने होशसँभाला और वे हाथ जोड़ कर ब्रह्माण्ड के प्रमुख अधिष्ठाता देवों की मधुर शब्दों से स्तुति करनेलगे।
अत्रि मुनि ने कहा : हे ब्रह्मा, हे विष्णु तथा हे शिव, आपने भौतिक प्रकृति के तीनों गुणोंको अंगीकार करके अपने को तीन शरीरों में विभक्त कर लिया है, जैसा कि आप प्रत्येक कल्पमें हृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए करते आये हैं।
मैं आप तीनों को सादरनमस्कार करता हूँ और मैं जानना चाहता हूँ कि मैने अपनी प्रार्थना में आपमें से किसको बुलायाथा?"
एको मयेह भगवान्विविधप्रधानै-श्वित्तीकृतः प्रजननाय कथ॑ नु यूयम् ।
अत्रागतास्तनुभूतां मनसोपि दूराद्ब्रूत प्रसीदत महानिह विस्मयो मे ॥
२८॥
एकः--एक; मया--मेरे द्वारा; हह--यहाँ; भगवान्--परम पुरुष; विविध--अनेक; प्रधानै:--साज-सामग्री द्वारा; चित्ती-कृतः--मन में स्थिर किया हुआ; प्रजननाय--सन्तान उत्पत्ति के लिए; कथम्--क्यों; नु--किन्तु; यूयम्--तुम सभी; अत्र--यहाँ; आगता:--प्रकट हुए; तनु-भूताम्-देहधारियों का; मनस:--मन; अपि--यद्मपि; दूरातू--दूर से; ब्रूत--कृपा करकेबताएँ; प्रसीदत--मुझ पर कृपालु होकर; महान्--अत्यधिक; इह--यह; विस्मय:--सन्देह; मे--मेरा ।
मैंने तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के ही समान पुत्र की इच्छा से उन्हीं का आवाहन किया थाऔर मैंने उन्हीं का चिन्तन किया था।
यद्यपि वे मनुष्य की मानसिक कल्पना से परे हैं, किन्तुआप तीनों यहाँ पर उपस्थित हुए हैं।
कृपया मुझे बताएँ कि आप यहाँ कैसे आए हैं, क्योंकि मैंइसके विषय में अत्यधिक मोहग्रस्त हूँ।
"
मैत्रेय उवाचइति तस्य बच: श्रुत्वा त्रयस्ते विबुधर्षभा: ।
प्रत्याहु: एलक्ष्णया बाचा प्रहस्य तमृषिं प्रभो ॥
२९॥
मैत्रेय: उवाच--ऋषि मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; तस्य--उसके; वच:--शब्द; श्रुत्वा--सुनकर; त्रयः ते--वे तीनों;विबुध--देवता; ऋषभा:-- प्रमुख; प्रत्याहु:--उत्तर दिया; एलक्ष्णया--विनीत; वाचा--वाणी; प्रहस्य--मुस्कराकर; तम्--उसको; ऋषिम्ू--ऋषि; प्रभो--हे शक्तिमान |
मैत्रेय महा-मुनि ने कहा : अत्रि मुनि को इस प्रकार बोलते हुए सुनकर तीनों महान् देवमुस्कराए और उन्होंने मृदु वाणी में इस प्रकार उत्तर दिया।
"
देवा ऊचु:यथा कृतस्ते सड्डूल्पो भाव्यं तेनेव नान्यथा ।
सत्सड्डल्पस्य ते ब्रह्मन्यद्वै ध्यायति ते वयम् ॥
३०॥
देवा: ऊचु:--देवताओं ने उत्तर दिया; यथा--जैसा; कृत:--किया हुआ; ते--तुम्हारे द्वारा; सड्डूल्प:--निश्चय, संकल्प;भाव्यम्ू--होना चाहिए; तेन एब--उससे; न अन्यथा--और कुछ नहीं, विपरीत नहीं; सत्-सट्डूल्पस्थ--जिसका निश्चय डिगतानहीं; ते--तुम्हारा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; यत्--जो; बै--निश्चय ही; ध्यायति-- ध्यान धरते हुए; ते--वे सभी; वयम्--हम हैं ।
तीनों देवताओं ने अत्रि मुनि से कहा : हे ब्राह्मण, तुम अपने संकल्प में पूर्ण हो, अतः तुमनेजो कुछ निश्चित कर रखा है, वही होगा, उससे विपरीत नहीं होगा।
हम सब वे ही पुरूष हैंजिनका तुमने ध्यान किया है और इसीलिए हम सब तुम्हारे पास आये हैं।
"
अथास्मदंशभूतास्ते आत्मजा लोकविश्रुता: ।
भवितारोड़् भद्रं ते विस्त्रप्स्न्ति च ते यशः ॥
३१॥
अथ--अतः; अस्मत्--हमारे; अंश-भूता: --विभिन्नांश; ते--तुम्हारा; आत्मजा: --पुत्र; लोक-विश्रुता: --संसार प्रसिद्ध;भवितार:--भविष्य में उत्पन्न होंगे; अड्र--हे मुनि; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; विस््रप्स्यन्ति--फैलाएँगे; च-- भी; ते--तुम्हारी; यशः--यश।
हे मुनिवर, हमारी शक्ति के अंशस्वरूप तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होंगे और हम तुम्हारे कल्याण केकामी हैं, अतः बे पुत्र तुम्हारे यश का संसार-भर में विस्तार करेंगे।
एवं कामवरं दच्त्वा प्रतिजग्मु: सुरेश्वरा: ।
सभाजितास्तयो: सम्यग्दम्पत्योर्मिषतोस्तत: ॥
३२॥
एवम्--इस प्रकार; काम-वरम्--इच्छित वर; दत्त्वा--प्रदान करके ; प्रतिजग्मु;--वापस चले गये; सुर-ईश्वरा: -- प्रमुख देवता;सभाजिता: --पूजित होकर; तयो:--दोनों के; सम्यक् --पूरी तरह; दम्पत्यो:--पति तथा पत्नी; मिषतो: --देखते ही देखते;ततः--वहाँ से
इस प्रकार उस युगल के देखते ही देखते तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर अत्रि मुनिको वर देकर उस स्थान से ओझल हो गये।
"
सोमोभूद्॒ह्मणो $शेन दत्तो विष्णोस्तु योगवित् ।
दुर्वासा: शट्डूरस्यांशो निबोधाड़्रिरस: प्रजा: ॥
३३॥
सोम:--चन्द्रलोक का स्वामी; अभूत्--प्रकट हुआ; ब्रह्मण: --ब्राह्मण के; अंशेन--आंशिक विस्तार से; दत्त: --दत्तात्रेय;विष्णो: --विष्णु का; तु--लेकिन; योग-वित्--अत्यन्त शक्तिमान योगी; दुर्वासा:--दुर्वासा; शट्भरस्य अंश: --शिव काआंशिक विस्तार; निबोध--समझने का प्रयत्न करो; अड्विस्सः--अंगिरा ऋषि की; प्रजा: --सन्ततियों का।
तत्पश्चात् ब्रह्म के आंशिक विस्तार से सोमदेव उत्पन्न हुए, विष्णु से परम योगी दत्तात्रेय तथाशंकर ( शिवजी ) से दुर्वासा उत्पन्न हुए।
अब तुम मुझसे अंगिरा के अनेक पुत्रों के सम्बन्ध में" सुनो।
श्रद्धा त्वड्रिरिसः पत्नी चतस्त्रोउसूत कन्यका: ।
सिनीवाली कुहू राका चतुर्थ्यनुमतिस्तथा ॥
३४॥
श्रद्धा-- श्रद्धा; तु--लेकिन; अड्डभिरसः-- अंगिरा ऋषि की; पत्नी--पत्ली; चतस्त्र:--चार; असूत--जन्म दिया; कन्यका:--कन्याएँ; सिनीवाली--सिनीवाली; कुहू: --कुहू; राका--राका; चतुर्थी--चौथी; अनुमति:--अनुमति; तथा-- भी अंगिरा की पली श्रद्धा ने चार कनन््याओं को जन्म दिया जिनके नाम सिनीवाली, कुहू, राकातथा अनुमति थे।
"
तत्पुत्रावपरावास्तां ख्यातौ स्वारोचिषेउन्तरे ।
उतथ्यो भगवान्साक्षाद्रहिष्ठ श्च बृहस्पति: ॥
३५॥
तत्--उसके ; पुत्रौ--दो पुत्र; अपरौ--अन्य; आस्ताम्--उत्पन्न हुए; ख्यातौ--प्रसिद्ध; स्वारोचिषे--स्वारोचिष युग में; अन्तरे--मनु के; उतथ्य: --उतथ्य; भगवान्--अत्यन्त शक्तिमान; साक्षात्- प्रत्यक्ष; ब्रहिष्ठ: च--आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत; बृहस्पति: --बृहस्पति।
इन चार पुत्रियों के अतिरिक्त उसके दो पुत्र भी थे।
उनमें से एक उतथ्य कहलाया और दूसरामहान् विद्वान बृहस्पति था।
"
पुलस्त्योडजनयत्पत्न्यामगस्त्यं च हविर्भुवि ।
सोन्यजन्मनि दह्वाग्निर्विश्रवाश्चन महातपा: ॥
३६॥
पुलस्त्य:--पुलस्त्य मुनि ने; अजनयत्--जन्म दिया; पल्याम्--अपनी पत्नी से; अगस्त्यम्--अगस्त्य मुनि को; च--भी;हविर्भुवि--हविर्भुवि से; सः--वह ( अगस्त्य ); अन्य-जन्मनि--अगले जन्म में; दह-अग्नि:--जठराग्नि; विश्रवा: --विश्रवा;च--तथा; महा-तपाः --तपस्या के कारण अत्यन्त बलशाली |
पुलस्त्य के उनकी पत्नी हविर्भू से अगस्त्य नाम का एक पुत्र हुआ, जो अपने अगले जन्म मेंदह्लाग्नि बना।
इसके अतिरिक्त पुलस्त्य के एक अन्य महान् तथा साधु पुत्र हुआ जिसका नामविश्रवा था।
"
तस्य यक्षपतिर्देव: कुबेरस्त्विडविडासुत: ।
रावण: कुम्भकर्णश्र तथान्यस्यां विभीषण: ॥
३७॥
तस्य--उसके; यक्ष-पति:--यक्षों का राजा; देव:--देवता; कुबेर: --कुबेर; तु--और; इडविडा--इडविडा का; सुतः --पुत्र;रावण:--रावण; कुम्भकर्ण:--कुम्भकर्ण; च-- भी; तथा--इस प्रकार; अन्यस्याम्ू-- अन्य से; विभीषण:--विभीषणविश्रवा के दो पत्लियाँ थीं।
प्रथम पत्नी इडविडा थी जिससे समस्त यक्षों का स्वामी कुबेरउत्पन्न हुआ।
दूसरी पत्ती का नाम केशिनी था जिससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए।
ये थे--रावण,कुम्भकर्ण तथा विभीषण।
"
पुलहस्य गतिर्भार्या त्रीनसूत सती सुतान् ।
कर्मश्रेष्ठं वरीयांसं सहिष्णुं च महामते ॥
३८ ॥
पुलहस्य--पुलह की; गति: --गति; भार्या--पती; त्रीन्ू--तीन; असूत--जन्म दिया; सती--साध्वी; सुतान्--पुत्रों को; कर्म-श्रेष्टमू--सकाम कर्म में अत्यन्त दक्ष; वरीयांसम्--अत्यन्त सम्माननीय; सहिष्णुम्-- अत्यन्त सहनशील; च-- भी; महा-मते--हेविदुर।
पुलह ऋषि की पत्नी गति ने तीन पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम थे--कर्म श्रेष्ठ, वरीयानतथा सहिष्णु।
ये सभी महान् साधु थे।
"
क्रतोरपि क्रिया भार्या वालखिल्यानसूयत ।
ऋषीन्षष्टिसहस्त्राणि ज्वलतो ब्रह्मतेजसा ॥
३९॥
क्रतो:--क्रतु मुनि का; अपि-- भी; क्रिया--क्रिया; भार्या--पत्नी; वालखिल्यान्ू--वालखिल्य के ही समान; असूयत--उत्पन्नकिया; ऋषीन्--साधु, ऋषि; षष्टि--साठ; सहस्त्रािणि--हजार; ज्वलत:ः--अत त्यन्त देदीप्यमान; ब्रह्म-तेजसा--ब्रह्मतेज के प्रभावसे
क्रतु की पत्नी क्रिया ने वालखिल्यादि नामक साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया।
ये ऋषिब्रह्म ( आध्यात्मिक ) ज्ञान में बढ़े-चढ़े थे और उनका शरीर ऐसे ज्ञान से देदीप्यमान था।
"
ऊर्जायां जज्षिरे पुत्रा वसिष्ठस्थ परन्तप ।
चित्रकेतुप्रधानास्ते सप्त ब्रह्मर्षयोमला: ॥
४०॥
ऊर्जायाम्--ऊर्जा से; जज्ञिरि--जन्म लिया; पुत्रा:--पुत्र; वसिष्ठस्थ--वसिष्ठ मुनि की; परन्तप--हे महान; चित्रकेतु--चित्रकेतु;प्रधाना:-- आदि; ते--सब पुत्र; सप्त--सात; ब्रह्य-ऋषय: --ब्रह्मज्ञानी ऋषि; अमला:--निर्मल |
वसिष्ठ मुनि की पत्नी ऊर्जा से, जिसे कभी-कभी अरुन्धती भी कहा जाता है, चित्रकेतुइत्यादि सात विशुद्ध ऋषि उत्पन्न हुए।
"
चित्रकेतु: सुरोचिश्च विरजा मित्र एव च ।
उल्बणो वसुभूृद्यानो द्युमान्शक्त्यादयोपरे ॥
४१॥
चित्रकेतु:--चित्रकेतु; सुरोचि: च--तथा सुरोचि; विरजा:--विरजा; मित्र: --मित्र; एव-- भी; च--तथा; उल्बण: --उल्बण;बसुभूद्यान: --वसुभृद्यान; द्युमान्--द्युमान; शक्ति-आदय: --शक्ति इत्यादि पुत्र; अपरे--उसकी अन्य पत्नी से।
इन सातों ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं--चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण,वसुभूद्यान तथा द्युमान।
वसिष्ठ की दूसरी पत्नी से कुछ अन्य अत्यन्त सुयोग्य पुत्र हुए।
"
चित्तिस्त्वथर्वण: पत्नी लेभे पुत्र धृतब्रतम् ।
दध्यञ्ञम श्रशिरसं भृगोर्वशं निबोध मे ॥
४२॥
चित्ति:--चित्ति; तु-- भी; अथर्वण: --अथर्वा की; पल्ली--पली; लेभे--प्राप्त हुआ; पुत्रमू--पुत्र; धृत-ब्रतम्--ब्रतधारी;दध्यक्षमू--दध्यज्ञ; अश्वशिरसम्--अश्वसिरा; भूगो: वंशम्-- भूगु का वंश; निबोध--समझने का प्रयत्न करो; मे--मुझसे ।
अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने अश्वशिरा नामक पुत्र को जन्म दिया, जो ब्रतधारी होने केकारण दध्यज्ञ कहलाया।
अब तुम मुझसे भृगुमुनि के वंश के विषय में सुनो ।
"
भृगु: ख्यात्यां महाभाग: पल्यां पुत्रानजीजनत् ।
धातारं च विधातारं अियं च भगवत्पराम् ॥
४३॥
भृगु:- भूगुः; ख्यात्यामू--अपनी ख्याति नामक पत्नी से; महा-भाग: --अत्यन्त भाग्यशाली; पत्यामू-पत्नी को; पुत्रान्-पुत्र;अजीजनतू--जन्म दिया; धातारम्ू--धाता; च--तथा; विधातारम्--विधाता; थ्रियम्ू-- श्री नामक एक कन्या; च भगवत्ू-'पराम्ू--तथा भगवान् की परम भक्त, भगवत्परायणा |
भूगु मुनि अत्यधिक भाग्यशाली थे।
उन्हें अपनी पत्नी ख्याति से दो पुत्र, धाता तथा विधाताऔर एक पुत्री, श्री, प्राप्त हुई; वह श्रीभगवान् के प्रति अत्यधिक परायण थी।
"
आयतिं नियतिं चैव सुते मेरुस्तयोरदात् ।
ताभ्यां तयोरभवतां मृकण्डः प्राण एवं च ॥
४४॥
आयतिम्--आयति; नियतिमू--नियति; च एव-- भी; सुते--कन्याएँ; मेरुः--मेरु मुनि; तयोः --उन दोनों को; अदात्ू--देदिया; ताभ्याम्--उनमें से; तयो:--दोनों; अभवताम्-- प्रकट हुए; मृकण्ड:--मृकण्ड; प्राण:--प्राण; एब--निश्चय ही; च--तथा
मेरु ऋषि के दो पुत्रियाँ थीं जिनके नाम आयति तथा नियति थे जिन्हें उन्होंने धाता तथाविधाता को दान दे दिया।
आयति तथा नियति से मृकण्ड तथा प्राण नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।
"
मार्कण्डेयो मृकण्डस्य प्राणाद्वेदशिरा मुनि: ।
कविश्च भार्गवो यस्य भगवानुशना सुतः ॥
४५॥
मार्कण्डेय:--मार्कण्डेय; मृकण्डस्थ--मृकण्ड का; प्राणात्--प्राण से; वेदशिरा:--वेदशिरा; मुनि:--परम साधु; कवि: च--कवि नाम का; भार्गव:--भार्गव नाम का; यस्य--जिसका; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; उशना--शुक्राचार्य ; सुत:--पुत्रम
ृकण्ड से मार्कण्डेय मुनि और प्राण से वेदशिरा ऋषि उत्पन्न हुए।
वेदशिरा का पुत्र उशना( शुक्राचार्य ) था, जो कवि भी कहलाता है।
इस प्रकार कवि भी भृगुवंशी था।
"
त एते मुनयः क्षत्तलेकान्सगैरभावयन् ।
एप कर्दमदौहित्रसन्तान: कथितस्तव ॥
४६॥
श्रुण्वतः श्रद्दधानस्य सद्यः: पापहर: पर: ।
प्रसूतिं मानवीं दक्ष उपयेमे ह्मजात्मज: ॥
४७॥
ते--वे; एते--समस्त; मुनय:--मुनिगण; क्षत्त:--हे विदुर; लोकान्ू--तीनों लोक; सर्गैं;--अपनी सनन््तानों सहित; अभावयन्ू--परिपूरित किया; एष:--यह; कर्दम--कर्दम मुनि का; दौहित्र--नाती; सन्तान:--सन्तान; कथित:--पहले कहा जा चुका;तब--तुमको; श्रृण्वतः--सुनते हुए; श्रद्धानस्य-- श्रद्धालु का; सद्यः--शीघ्र; पाप-हर:--समस्त पापकर्मो को कम करके;परः--महान; प्रसूतिमू--प्रसूति; मानवीम्--मनु की पुत्री ने; दक्ष:ः--राजा दक्ष से; उपयेमे--विवाह किया; हि--निश्चय ही;अज-आत्मज:--ब्रह्मा का पुत्रहे विदुर, इस प्रकार इन मुनियों तथा कर्दम की पुत्रियों की सन््तानों से विश्व की जनसंख्या बढ़ी।
जो कोई श्रद्धापूर्वक इस वंश के आख्यान को सुनता है, वह समस्त पाप-बन्धनों से छूटजाता है।
मनु की अन्य कन्याओं में से प्रसूति ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष से विवाह किया।
"
तस्यां ससर्ज दुहितृः षोडशामललोचना: ।
त्रयोदशादाद्धर्माय तथेकामग्नये विभु: ॥
४८ ॥
तस्यामू--उसको; ससर्ज--उत्पन्न किया; दुहितृः--कन्याएँ; षोडश--सोलह; अमल-लोचना:--कमल जैसे नेत्रों वाली;त्रयोदश--तेरह; अदात्-दिया; धर्माय--धर्म को; तथा--उसी तरह; एकाम्--एक पुत्री; अग्नये--अग्नि को; विभु:--दक्षनेदक्ष ने अपनी पत्नी प्रसूति से सोलह कमलनयनी सुन्दरी कन्याएँ उत्पन्न कीं।
इन सोलहकन्याओं में से तेरह धर्म को और एक अग्नि को पत्नी रूप में प्रदान की गईं।
"
पितृभ्य एकां युक्ते भ्यो भवायैकां भवच्छिदे ।
श्रद्धा मैत्री दया शान्तिस्तुष्टि: पुष्टि: क्रियोन्नति: ॥
४९॥
बुद्धिमेंधा तितिक्षा हीमूर्तिर्धर्मस्य पत्नय: ।
श्रद्धासूत शुभ मैत्री प्रसादमभयं दया ॥
५०॥
शान्ति: सुखं मुद तुष्टि: स्मयं पुष्टिरसूयत ।
योगं क्रियोन्नतिर्दर्पमर्थ बुद्धिरसूयत ॥
५१॥
मेधा स्मृति तितिक्षा तु क्षेमं ही: प्रश्रयं सुतम् ।
मूर्ति: सर्वगुणोत्पत्तिनरनारायणावृषी ॥
५२॥
पितृभ्यः:--पितृगण को; एकाम्--एक पुत्री; युक्ते भ्य: --समस्त, संयुक्त; भवाय--शिवजी को; एकाम्--एक पुत्री; भव-छिदे-- भौतिक बन्धन से छुड़ाने वाले; श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्तिः, तुष्टि:, पुष्टिः, क्रिया, उन्नति:, बुद्ध्धिः, मेधा, तितिक्षा, हीः,मूर्तिः:--ये दक्ष की तेरह कन्याओं के नाम हैं; धर्मस्थ-- धर्म की; पत्नयः--पत्लियाँ; श्रद्धा-- श्रद्धा ने; असूत--जन्म दिया;शुभम्--शुभ; मैत्री--मैत्री; प्रसादमू-- प्रसाद; अभयम्-- अभय; दया--दया; शान्तिः--शान्ति; सुखम्--सुख; मुदम्--मुद;तुष्टिः--तुष्टि; स्मथम्--स्मय; पुष्टि: --पुष्टि; असूयत--जन्म दिया; योगम्--योग; क्रिया--क्रिया; उन्नति: --उन्नति; दर्पम्--दर्प;अर्थम्--अर्थ; बुद्धिः:--बुद्धि; असूयत--उत्पन्न किया; मेधा--मेधा; स्मृतिम्ू--स्मृति; तितिक्षा--तितिक्षा; तु-- भी; क्षेमम्--क्षेम; ही:--ही; प्रश्रयम्-प्रश्रय; सुतम्--पुत्र; मूर्ति:--मूर्ति; सर्व-गुण --समस्त अच्छे गुणों का; उत्पत्ति:-- आगार; नर-नारायणौ--नर तथा नारायण; ऋषी--दो ऋषि।
शेष दो कन्याओं में से एक पितृलोक को दान दे दी गई, जहाँ वह प्रेमपूर्वक रह रही है औरदूसरी कन्या भवबंधन से समस्त पापियों के उद्धारक शिवजी को दी गई।
दक्ष ने धर्म को जिनतेरह कन्याओं को दिया उनके नाम थे : श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति,बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ही तथा मूर्ति।
इन तेरहों ने पुत्रों को जन्म दिया, जो इस प्रकार हैं-- श्रद्धाने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मुद, पुष्टि ने समय, क्रिया ने योग,उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम तथा ह्वी ने प्रश्रय को जन्म दिया।
समस्त गुणों की खान मूर्ति ने नर-नारायण को जन्म दिया, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
"
ययोर्जन्मन्यदो विश्वमभ्यनन्दत्सुनिर्वृतम् ।
मनांसि ककुभो वाताः प्रसेदु: सरितोद्रय: ॥
५३॥
ययो:--जिनमें से दोनों ( नर तथा नारायण ); जन्मनि--जन्म लेने पर; अदः--वह; विश्वम्ू--ब्रह्माण्ड; अभ्यनन्दत्--आनन्दितहुआ; सु-निर्वृतम्--खुशी से पूर्ण; मनांसि--प्रत्येक का मन; ककुभः--दिशाएँ; वाता:--वायु; प्रसेदु:--प्रसन्न हुए; सरित:--नदियाँ; अद्गयः--पर्वतनर-नारायण के जन्म के अवसर पर समस्त विश्व आनन्दित था।
प्रत्येक का मन शान्त थाऔर इस प्रकार समस्त दिशाओं में वायु, नदियाँ तथा पर्वत मनोहर लगने लगे।
"
दिव्यवाद्यन्त तूर्याणि पेतु: कुसुमवृष्टयः ।
मुनयस्तुष्ठवुस्तुष्टा जगुर्गन्धर्वकिन्नरा: ॥
५४॥
नृत्यन्ति सम स्त्रियो देव्य आसीत्परममड्लम् ।
देवा ब्रह्मादय: सर्वे उपतस्थुरभिष्टवै: ॥
५५॥
दिवि--स्वर्गलोक में; अवाद्यन्त--बज उठे; तूर्याणि--तुरही; पेतु:--वर्षा की; कुसुम--फूलों की; वृष्टय:--वर्षा; मुनयः --मुनिगण ने; तुष्ठब॒ु:--वैदिक स्तुतियाँ पढ़ीं; तुष्टा:--प्रसन्न; जगुः--गाने लगे; गन्धर्व--गन्धर्वगण; किन्नरा:--किन्नरगण; नृत्यन्तिस्म--नाचने लगे; स्त्रियः--अप्सराएँ; देव्य: --स्वर्गलोक की; आसीतू--दृष्टिगोचर हो रह थे; परम-मड्गलम्ू--परम मंगल;देवा:--देवतागण; ब्रह्म -आदय:--ब्रह्मा तथा अन्य; सर्वे--सबों ने; उपतस्थु:--पूजा की; अभिष्टवै:--प्रार्थनाओं से, स्तोत्रों से |
स्वर्गलोक में बाजे बजने लगे और आकाश से पुष्प बरसने लगे।
प्रसन्न मुनि वैदिक स्तुतियोंका उच्चारण करने लगे।
गंधर्व तथा किन्नर लोक के वासी गाने लगे और स्वर्ग की अप्सराएँनाचने लगीं।
इस प्रकार नर-नारायण के जन्म के समय सभी मंगलसूचक चिह्न दिखाई पड़नेलगे।
उसी समय ब्रह्मादि महान् देवों ने भी सादर स्तुतियाँ अर्पित कीं।
"
देवा ऊचु:यो मायया विरचितं निजयात्मनीदंखे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय ।
एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य प्रादुक्षकार पुरुषाय नमः 'परस्मै ॥
५६॥
देवा:--देवताओं ने; ऊचु:--कहा; यः--जो; मायया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; विरचचितम्--उत्पन्न; निजया--स्वत:; आत्मनि--भगवान् में स्थित; इदम्ू--यह; खे--आकाश में; रूप-भेदम्ू--बादल-समूह; इब--सहश, मानो; तत्--उसका;प्रतिचक्षणाय--प्रकट होने के लिए; एतेन--इसके साथ; धर्म-सदने-- धर्म के घर में; ऋषि-मूर्तिना--ऋषि के रूप द्वारा;अद्य--आज; प्रादुश्चकार-- प्रकट हुआ; पुरुषाय-- श्रीभगवान् को; नमः--नमस्कार है; परस्मै-- परम |
देवताओं ने कहा : हम उस दिव्य रूप भगवान् को नमस्कार करते हैं जिन्होंने इस हश्य जगतकी सृष्टि अपनी बहिरंगा शक्ति के रूप में की है, जो उनमें उसी प्रकार स्थित है, जिस प्रकार वायुतथा बादल आकाश्न में रहते हैं और जो अब धर्म के घर में नर-नारायण ऋषि के रूप में प्रकटहुए हैं।
"
सोयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान्सत्त्वेन न: सुरगणाननुमेयतत्त्व: ।
हृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन यच्छीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम् ॥
५७॥
सः--वह; अयम्--यह ( भगवान् ); स्थिति--उत्पन्न जगत का; व्यतिकर--आपत्तियाँ; उपशमाय--शमन हेतु; सृष्टान्ू--सर्जित;सत्त्वेन--सत्तोगुण से; न:--हम; सुर-गणान्--देवताओं को; अनुमेय-तत्त्व:--वेदों द्वारा ज्ञेय; दृश्यातू--दृष्टिपात से; अद्न-करुणेन--दयालु, करुणा से युक्त; विलोकनेन--चितवन से; यत्--जो; श्री-निकेतम्-- धन की देवी का घर; अमलम्--निर्मल; क्षिपत--से बढ़कर; अरविन्दम्--कमल।
वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, जो वास्तविक रूप से प्रामाणिक वैदिक साहित्य द्वारा जाने जातेहैं और जिन्होंने सृष्टठ जगत की समस्त विपत्तियों को विनष्ट करने के लिए शान्ति तथा समृद्धि कासृजन किया है, हम देवताओं पर कृपापूर्ण दृष्टिपात करें।
उनकी कृपापूर्ण चितवन लक्ष्मी केआसन निर्मल कमल की शोभा को मात करने वाली है।
"
एवं सुरगणैस्तात भगवन्तावभिष्ठृतौ ।
लब्धावलोकैर्ययतुरर्चितौ गन्धमादनम् ॥
५८ ॥
एवम्--इस प्रकार; सुर-गणै:--देवताओं द्वारा; तात--हे विदुर!; भगवन्तौ-- श्री भगवान्; अभिष्ठृतौ-- प्रशंसित होकर; लब्ध--प्राप्त कर; अवलोकै:--चितवन ( कृपा की ); ययतु:--चले गये; अर्चितौ--पूजित होकर; गन्ध-मादनम्--गन्धमादन पर्वतको[ मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, इस प्रकार देवताओं ने नर-नारायण मुनि के रूप में प्रकटश्रीभगवान् की पूजा की।
भगवान् ने उन पर कृपा-दृष्टि डाली और फिर गन्धमादन पर्वत की ओरचले गये।
"
ताविमौ वै भगवतो हरेरंशाविहागतौ ।
भारव्ययाय च भुव: कृष्णौ यदुकुरूद्वहौ ॥
५९॥
तौ--दोनों; इमौ--ये; वै--निश्चय ही; भगवत:-- श्रीभगवान् का; हरेः--हरि का; अंशौ--अंश रूप विस्तार; इह--यहाँ ( इसब्रह्माण्ड में )) आगतौ--प्रकट हुआ है; भार-व्ययाय--भार हल्का करने के लिए; च--तथा; भुव:ः--जगत का; कृष्णौ--दोकृष्ण ( कृष्ण तथा अर्जुन ); यदु-कुरु-उद्दहौ--जो क्रमशः यदु तथा कुरु वंशों में सर्वश्रेष्ठ हैं |
नर-नारायण ऋषि कृष्ण के अंश विस्तार हैं और अब जगत का भार उतारने के लिए यदुतथा कुरु वंशों में क्रमशः कृष्ण तथा अर्जुन के रूप में प्रकट हुए हैं।
"
स्वाहाभिमानिनश्चाग्नेरात्मजांस्त्रीनजीजनत् ।
पावकं पवमानं च शुचिं च हुत१भोजनम् ॥
६०॥
स्वाहा--अग्नि की पत्नी, स्वाहा; अभिमानिन: --अग्नि का मुख्य विग्रह; च--तथा; अग्ने: --अग्नि से; आत्मजानू---पुत्रों को;त्रीनू--तीन; अजीजनत्--उत्पन्न किया; पावकमू--पावक; पवमानम् च--तथा पवमान; शुचिम् च--तथा शुचि; हुत-भोजनम्--यज्ञ की आहुति खाकर।
अग्निदेव की पतली स्वाहा से तीन संताने उत्पन्न हुई जिनके नाम पावक, पवमान तथा शुचिहैं, जो यज्ञ की अग्नि में डाली गई आहुतियों को खाने वाले हैं।
"
तेभ्योग्नय: समभवन्चत्वारिंशच्च पञ्ञ च ।
त एवैकोनपशञ्ञाशत्साकं पितृपितामहै: ॥
६१॥
तेभ्य:--उनसे; अग्नय:--अग्निदेव; समभवनू--उत्पन्न हुए; चत्वारिंशत्--चालीस; च--तथा; पशञ्च--पाँच; च--तथा; ते--वे;एव--निश्चय ही; एकोन-पश्चञाशत्--उजच्चास; साकम्--साथ में; पितृ-पितामहैः--पिता तथा पितामह के साथ |
इन तीनों पुत्रों से अन्य पैंतालीस सन्तानें उत्पन्न हुई और वे भी अग्निदेव हैं।
अतः अग्निदेवोंकी कुल संख्या उनके पिताओं तथा पितामह को मिलाकर उज्ञास है।
"
बैतानिके कर्मणि यन्नामभिव्रहावादिभि: ।
आम्नेय्य इष्टयो यज्ञे निरूप्यन्तेग्नयस्तु ते ॥
६२॥
वैतानिके--आहुति डालना; कर्मणि--कर्म; यत्-- अग्निदेवों का; नामभि:--नामों से; ब्रह्म-वादिभि:--निर्विशेषवादी ब्राह्मणोंद्वारा; आग्नेय्य:--अग्नि के लिए; इष्टय:--यज्ञ; यज्ञे--यज्ञ में; निरूप्यन्ते--लक्ष्य हैं; अग्नयः--उज्जलास अग्निदेव; तु--लेकिन;ते--वेब्रह्मवादी ब्राह्मणों द्वारा वैदिक यज्ञों में दी गई आहुतियों के भोक्ता ये ही उज्ञास अग्निदेव हैं।
"
अग्निष्वात्ता बर्हिषद: सौम्या: पितर आज्यपा: ।
साग्नयोनग्नयस्तेषां पत्नी दाक्षायणी स्वधा ॥
६३॥
अग्निष्वात्ता:--अग्निष्वात्त; ब्हिषद:--बर्हिषद; सौम्या: --सौम्य; पितर:ः --पूर्वज, पितृगण; आज्यपा:--आज्यप; स-अग्नयः--जिनका साधन अग्नि सहित है; अनग्नयः--जिनका साधन अग्निरहित हैं; तेषामू--उनकी; पली--पत्नी;दाक्षायणी--दक्ष की कन्या; स्वधा--स्वधा।
अग्निष्वात्त, बर्हिषदू, सौम्य तथा आज्यप--ये पितर हैं।
वे या तो साग्निक हैं अथवानिरग्निक।
इन समस्त पितरों की पत्नी स्वधा है, जो राजा दक्ष की पुत्री है।
"
तेभ्यो दधार कन्ये द्वे बयुनां धारिणीं स्वधा ।
उभे ते ब्रह्मवादिन्यौ ज्ञानविज्ञानपारगे ॥
६४॥
तेभ्य:--उनसे; दधार--उत्पन्न; कन्ये--कन्याएँ; द्वे--दो; वयुनाम्ू--वयुना; धारिणीम्-- धारिणी; स्वधा--स्वधा; उभे--दोनोंही; ते--वे; ब्रह्म-वादिन्यौ -- ब्रह्मवादिनी अथवा निर्गुणवादिनी; ज्ञान-विज्ञान-पार-गे--दिव्य तथा वैदिक ज्ञान में पारंगत |
पितरों को प्रदत्त स्वधा ने बयुना तथा धारिणी नामक दो पुत्रियों को जन्म दिया।
वे दोनों हीब्रह्मवादिनी थीं तथा दिव्य एवं वैदिक ज्ञान में पारंगत थीं।
"
भवस्य पत्नी तु सती भवं देवमनुव्रता ।
आत्मन: सहझं पुत्र न लेभे गुणशीलतः ॥
६५॥
भवस्य--भव की ( शिव की ); पत्ती--पत्नी; तु--लेकिन; सती--सती नामक; भवम्-- भव को; देवम्--देवता; अनुव्रता--सेवा में श्रद्धापूर्वक संलग्न; आत्मन:--अपने ही; सहशम्--समान; पुत्रमू-पुत्र; न लेभे--प्राप्त नहीं हुआ; गुण-शीलत:--अच्छे गुणों तथा चरित्र से।
सती नामक सोलहवीं कन्या भगवान् शिव की पत्नी थीं, किन्तु उनके कोई सन््तान उत्पन्ननहीं हुई, यद्यपि वे सदैव अपने पति की अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा में संलग्न रहने वाली थीं।
"
पितर्यप्रतिरूपे स्वे भवायानागसे रुषा ।
अप्रौढेवात्मनात्मानमजहाद्योगसंयुता ॥
६६॥
पितरि--पिता के समान; अप्रतिरूपे--अनुपयुक्त; स्वे-- अपने; भवाय--शिव को; अनागसे--निर्दोष; रुषा--क्रो ध से;अप्रौढा--प्रौढ़ होने के पूर्व; एब--ही; आत्मना--अपने से; आत्मानमू--शरीर; अजहातू--त्याग दिया; योग-संयुता--योग से |
इसका कारण यह है कि सती के पिता दक्ष शिवजी के दोषरहित होने पर भी उनकी भर्त्सनाकरते रहते थे।
फलतः परिपक्व आयु के पूर्व ही सती ने अपने शरीर को योगशक्ति से त्याग दियाथा।
"
अध्याय दो: दक्ष ने भगवान शिव को श्राप दिया
4.2विदुर उबाचभवे शीलववतां श्रेष्ठे दक्षो दुहितृबत्सल:।
विद्वेषमकरोत्कस्मादनाहत्यात्मजां सतीम् ॥
१॥
विदुरः उबाच--विदुर ने कहा; भवे--शिव के प्रति; शीलवताम्--शीलवानों में; श्रेष्ठे-- सर्वोत्तम; दक्ष:--दक्ष ने; दुहितृ-बत्सल:--अपनी पुत्री के प्रति स्नेहिल; विद्वेषम्--शत्रुता; अकरोत्--प्रदर्शित किया; कस्मात्--किस हेतु; अनाहत्य--अनादरकरके; आत्मजाम्ू--अपनी पुत्री; सतीम्--सती को |
विदुर ने पूछा : जो दक्ष अपनी पुत्री के प्रति इतना स्नेहवान् था वह शीलवानों में श्रेष्ठतमभगवान् शिव के प्रति इतना ईर्ष्यालु क्यों था? उसने अपनी पुत्री सती का अनादर क्यों किया ?"
कस्तं चराचरगुरुं निर्वरं शान्तविग्रहम् ।
आत्मारामं कथं द्वेष्टि जगतो दैवतं महत् ॥
२॥
कः--कौन ( दक्ष ); तमू--उस ( शिव ) को; चर-अचर--जड़ जंगम ( सारा संसार ); गुरुम्-गुरु; निर्वरम्--शत्रुतारहित;शान्त-विग्रहम्--शान्त व्यक्तित्व वाला; आत्म-आरामम्--अपने आप में संतुष्ट रहने वाला; कथम्--कैसे; द्वेष्टि--घृणा करता है;जगतः--ब्रह्माण्ड का; दैवतम्--देवता; महत्--महान |
भगवान् शिव समग्र संसार के गुरु, शत्रुतारहित, शान्त और आत्पतुष्ट व्यक्ति हैं।
वे देवताओं में सबसे महान् हैं।
यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ऐसे मंगलमय व्यक्ति के प्रति दक्ष वैरभावरखता ?"
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन्जामातु: श्वशुरस्यथ च ।
विद्वेषस्तु यतः प्राणांस्तत्यजे दुस्त्यजान्सती ॥
३॥
एतत्--इस प्रकार; आख्याहि--कृपया कहो; मे--मुझसे; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; जामातु:--दामाद ( शिव ); श्वशुरस्थय--ससुर( दक्ष ) का; च--तथा; विद्वेष: --झगड़ा; तु--लेकिन; यत:--जिसके कारण; प्राणान्--अपना प्राण; तत्यजे--त्याग दिया;दुस्त्यजानू--जिसको त्यागना दुष्कर होता है; सती--सती ने
हे मैत्रेय, मनुष्य के लिए अपने प्राण त्याग पाना अत्यन्त कठिन है।
क्या आप मुझे बतासकेंगे कि ऐसे दामाद तथा श्वसुर में इतना कदटु विद्वेष क्यों हुआ जिससे महान् देवी सती कोअपने प्राण त्यागने पड़े ?"
मैत्रेय उवाचपुरा विश्वसूजां सत्रे समेता: परमर्षय: ।
तथामरगणा: सर्वे सानुगा मुनयोग्नयः ॥
४ ॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; पुरा--पहले ( स्वायंभुव मनु के काल में ); विश्व-सृजाम्--ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वालोंके; सत्रे--यज्ञ में; समेता:--एकत्र हुए; परम-ऋषय:--बड़े-बड़े ऋषि; तथा-- और भी; अमर-गणा:--देवता; सर्वे--सभी;स-अनुगाः:--अपने-अपने अनुयायियों सहित; मुनयः --विचारक, चिन्तक; अग्नय:--अग्निदेव |
मैत्रेय ने कहा : प्राचीन समय में एक बार ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वाले प्रमुख नायकों नेएक महान् यज्ञ सम्पन्न किया जिसमें सभी ऋषि, चिन्तक ( मुनि ), देवता तथा अग्निदेव अपने-अपने अनुयायियों सहित एकत्र हुए थे।
"
तत्र प्रविष्टमृषयो हृष्ठार्कमिव रोचिषा ।
भ्राजमानं वितिमिरं कुर्वन्तं तन्महत्सद: ॥
५॥
तत्र--वहाँ; प्रविष्टमू--प्रविष्ट हुआ; ऋषय:--ऋषिगण; हृष्टा--देखकर; अर्कम्--सूर्य; इब--सहृश्य; रोचिषा--कान्ति से;भ्राजमानम्--चमकते हुए, देदीप्यमान; वितिमिरम्--अंधकार से रहित; कुर्वन्तम्--करते हुए; तत्ू--वह; महत्--महान;सदः--सभा
जब प्रजापतियों के नायक दक्ष ने सभा में प्रवेश किया, तो सूर्य के तेज के समान चमकीलीकान्ति से युक्त उसके शरीर से सारी सभा प्रकाशित हो उठी और उसके समक्ष सभी समागतमहापुरुष तुच्छ लगने लगे।
"
उदतिष्ठन्सदस्यास्ते स्वधिष्ण्येभ्य: सहाग्नय: ।
ऋते विरिज्ञां शर्व च तद्धासाक्षिप्तचेतस: ॥
६॥
उदतिष्ठन्ू--खड़े हुए; सदस्या:--सभा के लोग; ते--वे; स्व-धिष्णयेभ्य: --अपने-अपने स्थानों पर; सह-अग्नय: --अग्नि देवोंसमेत; ऋते--के अतिरिक्त; विरिज्ञाम्ू-ब्रह्मा; शर्वमू--शिव; च--तथा; तत्--उसका ( दक्ष का ); भास--कान्ति से;आशक्षिप्त--प्रभावित; चेतस:ः--जिनके मनब
्रह्मा तथा शिवजी के अतिरिक्त, दक्ष की शारीरिक कान्ति ( तेज ) से प्रभावित होकर उससभा के सभी सदस्य तथा सभी अग्निदेव, उसके सम्मान में अपने आसनों से उठकर खड़े होगये।
"
सदसस्पतिभिर्दक्षो भगवान्साधु सत्कृतः ।
अजं लोकगुरुं नत्वा निषसाद तदाज्ञया ॥
७॥
सदसः--सभा के; पतिभि:--नायकों द्वारा; दक्ष:-- दक्ष; भगवान्--समस्त ऐ श्वर्यों के स्वामी; साधु--ढंग से; सत्-कृतः--सम्मानित हुआ; अजम्--अजन्मा ( ब्रह्मा ) को; लोक-गुरुमू--जगदगुरु; नत्वा-- प्रणाम करके; निषसाद--बैठ गया; तत्ू-आज्ञया--उनकी ( ब्रह्म की ) आज्ञा से
उस महती सभा के अध्यक्ष ब्रह्मा ने दक्ष का समुचित रीति से स्वागत किया।
ब्रह्माजी कोप्रणाम करने के पश्चात् उनकी आज्ञा पाकर दक्ष ने अपना आसन ग्रहण किया।
"
प्राइनिषण्णं मृड्ड इृष्टा नामृष्यत्तदनाहत: ।
उवबाच वाम॑ चश्नुर्भ्यामभिवीक्ष्य दहन्निव ॥
८ ॥
प्राकु--पहले से; निषण्णम्--बैठा; मृडम्ू--शिवजी को; हृष्टा--देखकर; न अमृष्यत्--सहन न कर सका; तत्--उनके( शिव ) द्वारा; अनाहतः--आदर न किया जाकर; उवाच--कहा; वामम्-- बेईमान; चश्चुर्भ्याम्--दोनों नेत्रों से; अभिवीक्ष्य--देखते हुए; दहन्-- ज्वलित; इब--मानो |
किन्तु आसन ग्रहण करने के पूर्व शिवजी को बैठा हुआ और उन्हें सम्मान न प्रदर्शित करतेहुए देखकर दक्ष ने इसे अपना अपमान समझा।
उस समय दक्ष अत्यन्त क्रुद्ध हुआ।
उसकी आँखेंतप रही थीं।
उसने शिव के विरुद्ध अत्यन्त कटु शब्द बोलना प्रारम्भ किया।
"
श्रूयतां ब्रह्मर्षयो मे सहदेवा: सहाग्नय: ।
साधूनां ब्रुवतो वृत्तं नाज्ञानान्न च मत्सरात्ू ॥
९॥
श्रूयताम्--सुनो; ब्रह्म-ऋषय: -हे ब्रह्मर्षियों; मे--मुझको; सह-देवा: --हे देवताओ; सह-अग्नय: --हे अग्नि देवो; साधूनाम्--सज्जनो के; ब्रुवतः--बोलते हुए; वृत्तम्ू--व्यवहार, आचार; न--नहीं; अज्ञानातू--अज्ञान से; न च--तथा नहीं; मत्सरात्-द्वेषसे
हे समस्त उपस्थित ऋषियो, ब्राह्मणो तथा अग्निदेवो, ध्यानपूर्वक सुनो क्योंकि मैं शिष्टाचारके विषय में बोल रहा हूँ।
मैं किसी अज्ञानता या ईर्ष्या से नहीं कह रहा।
"
अयं तु लोकपालानां यशोघ्नो निरपत्रप: ।
सद्धिराचरितः पन्था येन स्तब्धेन दूषित: ॥
१०॥
अयमू--यह ( शिव ); तु--लेकिन; लोक-पालानाम्--ब्रह्मण्ड के पालक; यशः-घ्न:--यश को नष्ट करने वाला; निरपत्रपः --निर्लज; सद्धिः--सदाचारी पुरुषों द्वारा; आचरित:--पालन किया गया; पन्था:--पथ; येन--जिसके ( शिव ) द्वारा; स्तब्धेन--आचरणविहीन द्वारा; दूषित: --लाडिछत |
शिव ने लोकपालकों के नाम तथा यश को धूल में मिला दिया है और सदाचार के पथ कोदूषित किया है।
निर्लज्ज होने के कारण उसे इसका पता नहीं है कि किस प्रकार से आचरणकरना चाहिए।
"
एष मे शिष्यतां प्राप्तो यन्मे दुहितुरग्रहीत् ।
पाणिं विप्राग्निमुखतः सावित्र्या इव साधुवत् ॥
११॥
एषः--यह ( शिव ); मे--मेरी; शिष्यताम्-- अधीनता; प्राप्त:--स्वीकार करके ; यत्-- क्योंकि; मे दुहितु:--मेरी पुत्री का;अग्रहीतू--ग्रहण किया; पाणिम्--हाथ; विप्र-अग्नि--ब्राह्मणों तथा अग्नि के; मुखतः--समक्ष; सावित्र्या: --गायत्री; इब--सहश; साधुवत्--साथु ( ईमानदार ) पुरुष के समान।
इसने अग्नि तथा ब्राह्मणों के समक्ष मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करके पहले ही मेरी अधीनतास्वीकार कर ली है।
इसने गायत्री के समान मेरी पुत्री के साथ विवाह किया है और अपने कोसत्यपुरुष बताया था।
"
गृहीत्वा मृगशावाक्ष्या: पाणिं मर्कटलोचन: ।
प्रत्युत्थानाभिवादाहँ वाचाप्यकृत नोचितम् ॥
१२॥
गृहीत्वा--ग्रहण करके; मृग-शाव--मृग के बच्चे के तुल्य; अक्ष्या:--नेत्र वाली; पाणिमू--हाथ; मर्कट--बन्दर के;लोचन:--नेत्रों वाला; प्रत्युत्थान--अपने आसन से उठने का; अभिवाद--सम्मान, अभिवादन; अहैँ --मुझ जैसे पात्र को;वाचा--मृदु वाणी से; अपि-- भी; अकृत न--नहीं किया; उचितम्--सम्मान |
इसके नेत्र बन्दर के समान हैं तो भी इसने मृगी जैसी नेत्रों वाली मेरी कन्या के साथ विवाहकिया है।
तो भी इसने उठकर न तो मेरा स्वागत किया और न मीठी वाणी से मेरा सत्कार करनाउचित समझा।
"
लुप्तक्रियायाशुचये मानिने भिन्नसेतवे ।
अनिच्छन्नप्यदां बालां शूद्रायेबोशती गिरम् ॥
१३॥
लुप्त-क्रियाय--शिष्टाचार का पालन न करते हुए; अशुचये--अपवित्र; मानिने--घमंडी; भिन्न-सेतवे--सभी मर्यादाओं को भंगकरके; अनिच्छन्--न चाहते हुए; अपि--यद्यपि; अदाम्-- प्रदान किया; बालाम्--अपनी पुत्री; शूद्राय--शूद्र को; इब--सहश; उशतीम् गिरमू--वेदों का सन्देश |
शिष्टाचार के सभी नियमों को भंग करने वाले इस व्यक्ति को अपनी कन्या प्रदान करने कीमेरी तनिक भी इच्छा नहीं थी।
वांछित विधि-विधानों का पालन न करने के कारण यह अपवित्रहै, किन्तु इसे अपनी कन्या प्रदान करने के लिए मैं उसी प्रकार बाध्य हो गया जिस प्रकार किसीशूद्र को वेदों का पाठ पढ़ाना पड़े।
"
प्रेतावासेषु घोरेषु प्रेते भूतगणैर्वृतःअटत्युन्मत्तवन्नग्नो व्युप्तकेशो हसन्रुदन् ।
चिताभस्मकृतस्नानः प्रेतस्त्रडन्नस्थिभूषण: ॥
१४॥
शिवापदेशो ह्शिवो मत्तो मत्तजनप्रियः ।
पतिः प्रमथनाथानां तमोमात्रात्मकात्मनाम् ॥
१५॥
प्रेत-आवासेषु--श्मशान में; घोरेषु-- भयंकर; प्रेतेः--प्रेतों द्वारा; भूत-गणै: -- भूतों द्वारा; वृतः:--घिरा हुआ, संग में; अटति--घूमता है; उन्मत्त-वत्--पागल के समान; नग्न:--नंगा; व्युप्त-केश:--बिखरे बालों वाला; हसन्--हँसता हुआ; रुदन्--चिल्लाता है; चिता--चिता की; भस्म--राख से; कृत-स्नान:--नहाकर ( लगाकर ); प्रेत--शवों के मुंडों की; सत्रकू--माला;नृ-अस्थि- भूषण:--मृत पुरुषों की अस्थियों को आभूषण बनाये हुए; शिव-अपदेश:--जो नाम का शिव ( शुभ ) है; हि--क्योंकि; अशिव:--अमंगल; मत्त:--विक्षिप्त; मत्त-जन-प्रिय: --विक्षिप्तों को प्रिय लगने वाला; पति:--नायक, स्वामी;प्रमथ-नाथानाम्--प्रमथों के स्वामियों का; तमः-मात्र-आत्मक-आत्मनाम्--तमोगुणी इन सबों का
वह श्मशान जैसे गंदे स्थानों में रहता है और उसके साथ भूत तथा प्रेत रहते हैं।
वह पागलोंके समान नंगा रहता है, कभी हँसता है, तो कभी चिल्लाता है और सारे शरीर में एमशान कीराख लपेटे रहता है।
वह ठीक से नहाता भी नहीं।
वह खोपड़ियों तथा अस्थियों की माला सेअपने शरीर को विभूषित करता है।
अतः वह केवल नाम से ही शिव है, अन्यथा वह अत्यन्तप्रमत्त तथा अशुभ प्राणी है।
वह केवल तामसी प्रमत्त लोगों का प्रिय है और उन्हीं का अगुवा है।
"
तस्मा उन्मादनाथाय नष्टशौचाय दुर्दे ।
दत्ता बत मया साध्वी चोदिते परमेष्ठलिना ॥
१६॥
तस्मै--उस; उन्माद-नाथाय-प्रेतों के स्वामी को; नष्टटशौचाय--समस्त स्वच्छता से रहित व्यक्ति को; दुईदे--विकारों से पूर्णहृदय; दत्ता-- प्रदान की गयी थी; बत--अहो; मया--मेरे द्वारा; साध्वी--सती; चोदिते--विनती किये जाने पर; परमेष्ठिना--परम गुरु ( ब्रह्मा ) द्वारा
ब्रह्माजी के अनुरोध पर मैंने अपनी साध्वी पुत्री उसे प्रदान की थी, यद्यपि वह समस्त प्रकारकी स्वच्छता से रहित है और उसका हृदय विकारों से पूरित है।
"
मैत्रेय उवाचविनिन्धैवं स गिरिशमप्रतीपमवस्थितम् ।
दक्षोथाप उपस्पृश्य क्रुद्धः शप्तुं प्रचक्रमे ॥
१७॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; विनिन्द्य--गाली देकर; एवम्--इस प्रकार; सः--वह ( दक्ष ); गिरिशम्--शिव; अप्रतीपम्--शत्रुतारहित; अवस्थितम्--स्थित रहकर; दक्ष:--दक्ष; अथ--अब; अप:--जल; उपस्पृश्य--हाथ तथा मुँह धोकर; क्रुद्धः--क्रुद्ध, नाराज; शप्तुम्-शाप देना; प्रचक्रमे--प्रारम्भ किया
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : इस प्रकार शिव को अपने विपक्ष में स्थित देखकर दक्ष ने जल सेआचमन किया और निम्नलिखित शब्दों से शाप देना प्रारम्भ किया।
"
अयं तु देवयजन इन्द्रोपेन्द्रादिभिर्भव: ।
सह भागं न लभतां देवैर्देवगणाधम: ॥
१८ ॥
अयमू--यह; तु--लेकिन; देव-यजने--देवताओं के यज्ञ में; इन्द्र-उपेन्द्र-आदिभि: --इन्द्र, उपेन्द्र तथा अन्यों सहित; भव:--शिव; सह--के साथ; भागम्--एक अंश; न--नहीं; लभताम्--प्राप्त करना चाहिए; देवै:--देवताओं से; देव-गण-अधम: --
समस्त देवताओं में सबसे निम्नदेवता तो यज्ञ की आहुति में भागीदार हो सकते हैं, किन्तु समस्त देवों में अधम शिव कोयज्ञ-भाग नहीं मिलना चाहिए।
"
निषिध्यमान: स सदस्यमुख्यै-दक्षो गिरित्राय विसृज्य शापम् ।
तस्माद्विनिष्क्रम्य विवृद्धमन्यु-ज॑गाम कौरव्य निजं निकेतनम् ॥
१९॥
निषिध्यमान:--मना किये जाने पर; सः--वह ( दक्ष ); सदस्य-मुख्यैः--यज्ञ के सदस्यों द्वारा; दक्ष:--दक्ष; गिरित्राय--शिवको; विसृज्य--त्याग कर; शापम्--शाप; तस्मात्--उस स्थान से; विनिष्क्रम्य--बाहर जाकर; विवृद्ध-मन्यु: --अत्यन्त क्रुद्धहोकर; जगाम--चला गया; कौरव्य--हे विदुर; निजमू--अपने; निकेतनम्--घर |
मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, उस यज्ञ के सभासदों द्वारा मना किये जाने पर भी दक्ष क्रोधमें आकर शिवजी को शाप देता रहा और फिर सभा त्याग कर अपने घर चला गया।
"
विज्ञाय शापं गिरिशानुगाग्रणी-न॑न्दी श्वरो रोषकषायदूषित: ।
दक्षाय शापं विससर्ज दारुणंये चान्वमोदंस्तदवाच्यतां द्विजा: ॥
२०॥
विज्ञाय--जानकर; शापम्--शाप; गिरिश--शिव का; अनुग-अग्रणी:-- प्रमुख पार्षदों में से एक; नन्दीश्वर:--नन्दी ध्वर; रोष--क्रोध; कषाय--लाल; दूषित:--अंध; दक्षाय--दक्ष को; शापम्--शाप; विससर्ज--दिया; दारुणम्--कठोर; ये--जिल्होंने;च--तथा; अन्वमोदन्--सहन किया; तत्-अवाच्यताम्--शिव को शाप देना; द्विजा:--ब्राह्मणजन
यह जानकर कि भगवान् शिव को शाप दिया गया है, शिव का प्रमुख पार्षद नन्दीश्वरअत्यधिक क्रुद्ध हुआ।
उसकी आँखें लाल हो गईं और उसने दक्ष तथा वहाँ उपस्थित सभीब्राह्मणों को, जिन्होंने दक्ष द्वारा कटु बचनों में शिवजी को शापित किए जाने को सहन कियाथा, शाप देने की तैयारी की।
"
य एतमन््मर्त्यमुद्दिश्य भगवत्यप्रतिद्रुहि ।
ब्रह्मत्यज्ञः पृथग्दृष्टिस्तत्तततो विमुखो भवेत् ॥
२१॥
यः--जो ( दक्ष ); एतत् मर्त्यमू--इस नश्वर शरीर के; उद्दिश्य-- प्रसंग में; भगवति--शिव को; अप्रतिद्गुहि--जो ईर्ष्यालु नहीं हैं;ब्ुह्मति--द्वेष करता है; अज्ञ:--कम बुद्ध्रिमान व्यक्ति; पृथक्-दृष्टि:--द्वैत भाव; तत्त्वतः--दिव्य ज्ञान से; विमुख: --रहित;भवेत्--हो जाए।
जिस किसी ने दक्ष को सर्वश्रेष्ठ पुरुष मान कर ईर्ष्यावश भगवान् शिव का निरादर किया है,वह अल्प बुद्धिवाला है और अपने द्वैतभाव के कारण वह दिव्यज्ञान से विहीन हो जाएगा।
"
गृहेषु कूटधर्मेषु सक्तो ग्राम्यसुखेच्छया ।
कर्मतन्त्रं वितनुते वेदबादविपन्नधी: ॥
२२॥
गृहेषु--गृहस्थ जीवन में; कूट-धर्मेषु--कपट धार्मिकता में; सक्त:--आसक्त होने से; ग्राम्य-सुख-इच्छया-- भौतिक सुख कीकामना से; कर्म-तन्त्रमू--सकाम कर्म; वितनुते--करता है; वेद-वाद--वेद की व्याख्या से; विपन्न-धी:--नष्टबुद्धि |
जिस कपटपूर्ण धार्मिक गृहस्थ-जीवन में कोई मनुष्य भौतिक सुख के प्रति आसक्त रहता हैऔर साथ ही वेदों की व्यर्थ व्याख्या के प्रति आकृष्ट होता है, इसमें उसकी सारी बुद्धि हर लीजाती है और वह पूर्ण रूप से सकाम कर्म में लिप्त हो जाता है।
"
बुद्धया पराभिध्यायिन्या विस्मृतात्मगतिः पशु: ।
स्त्रीकामः सोस्त्वतितरां दक्षो बस्तमुखोचिरात् ॥
२३॥
बुद्धया--बुद्धि से; पर-अभिध्यायिन्या--शरीर को आत्म समझ कर; विस्मृत-आत्म-गति: --विष्णु ज्ञान को भूलकर; पशु: --पशु; स्त्री-काम:--विषयी जीवन में लिप्त रहकर; सः--वह; अस्तु--हो; अतितराम्ू--अतिशय; दक्ष: --दक्ष; बस्त-मुख: --बकरे का मुँह; अचिरातू-शीघ्र ही |
दक्ष ने देह को ही सब कुछ समझ रखा है।
इसने विष्णुपाद अथवा विष्णु-गति को भुलादिया है और केवल स्त्री-संभोग में ही लिप्त रहता है, अतः इसे शीघ्र ही बकरे का मुख प्राप्तहोगा।
"
विद्याबुद्धिरविद्यायां कर्ममय्यामसौ जड: ।
संसरन्त्विह ये चामुमनु शर्वावमानिनम् ॥
२४॥
विद्या-बुर्द्ध:--भौतिक शिक्षा तथा बुद्धि; अविद्यायाम्--अज्ञान में; कर्म-मय्याम्--सकाम कर्म से उत्पन्न; असौ--यह ( दक्ष );जडः--मन्द; संसरन्तु--बारम्बार जन्म धारण करे; इह--इस जगत में; ये--जो; च--तथा; अमुम्ू--दक्ष का; अनु--अनुसरणकरने वाले; शर्ब--शिव; अवमानिनम्-- अनादर करने से |
जो लोग भौतिक विद्या तथा युक्ति के अनुशीलन से पदार्थ की भाँति जड़ बन चुके हैं, वेअज्ञानवश सकाम कर्मों में लगे हुए हैं।
ऐसे मनुष्यों ने जानबूझकर भगवान् शिव का अनादरकिया है।
ऐसे लोग जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहें।
"
गिरः श्रुताया: पुष्पिण्या मधुगन्धेन भूरिणा ।
मथ्ना चोन्मधितात्मान: सम्मुहान्तु हरद्विष: ॥
२५॥
गिरः--शब्द; श्रुताया:--वेदों के; पुष्पिण्या:--पुष्पों से युक्त; मधु-गन्धेन--शहद की गन्ध से; भूरिणा--अत्यधिक; मथ्ना--मोहने वाली; च--तथा; उन्मधित-आत्मान:--जिनके मन जड़ बन चुके हैं; सम्मुहान्तु--वे आसक्त रहें; हर-द्विष:--शिव सेईर्ष्या करने वाले, शिवद्रोही |
मोहक वैदिक प्रतिज्ञाओं की पुष्पमयी ( अलंकृत ) भाषा से आकृष्ट होकर जो जड़ बन चुकेहैं और शिव-द्रोही हैं, वे सदैव सकाम कर्मों में निरत रहें।
"
सर्वभक्षा द्विजा वृत्त्ये धृतविद्यातपोब्रता: ।
वित्तदेहेन्द्रियारामा याचका विचरन्त्विह ॥
२६॥
सर्व-भक्षाः--सब कुछ खाने वाले; द्विजा:--ब्राह्मण लोग; वृत्त्य--शरीर पालने के लिए; ध्ृत-विद्या--शिक्षा का कार्य ग्रहणकरके; तपः--तपस्या; ब्रता:--तथा ब्रत; वित्त-- धन; देह--शरीर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आरामा: --तुष्टि; याचका:--भिक्षुकों केसमान; विचरन्तु--इधर-उधर घूमें; इह--यहाँ
ये ब्राह्मण केवल अपने शरीर-पालन के लिए विद्या, तप तथा ब्रतादि का आश्रय लें।
इन्हेंभक्ष्याभक्ष्य का विवेक न रह जाए।
ये द्वार-द्वार भिक्षा माँगकर अपने शरीर की तुष्टि के लिए धनकी प्राप्ति करें।
"
तस्यैवं बदतः शाप श्रुत्वा द्विजकुलाय वै ।
भृगुः प्रत्यसृजच्छापं ब्रह्मदण्डं दुरत्ययम् ॥
२७॥
तस्य--उसका ( नन्दीश्वर का ); एवम्ू--इस प्रकार; बदत:--शब्द; शापम्--शाप; श्रुत्वा--सुनकर; द्विज-कुलाय--ब्राह्मणोंको; बै--निस्सन्देह; भृगु:--भूगु ने; प्रत्यसूजत्--दिया; शापम्--शाप; ब्रह्म-दण्डम्--ब्राह्मण द्वारा दिया गया दण्ड;दुरत्ययम्--दुर्लघ्य, दुस्तर।
इस प्रकार जब नन्दीश्वर ने समस्त कुलीन ब्राह्मणों को शाप दे दिया तो प्रतिक्रियास्वरूपभूगमुनि ने शिव के अनुयायियों की भर्त्सना की और उन्हें घोर ब्रह्म-शाप दे दिया।
"
भवद्रतधरा ये च ये च तान्समनुव्रता: ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिन: ॥
२८॥
भव-ब्रत-धरा:--शिव के अनुयायी; ये--जो; च--तथा; ये--जो; च--तथा; तान्--ऐसे नियम; समनुव्रता:--पालन करतेहुए; पाषण्डिन:--नास्तिक; ते--वे; भवन्तु--हों; सत्-शास्त्र-परिपन्थिन:--दिव्य शास्त्रीय आदेशों से विपथ ।
जो शिव को प्रसन्न करने का ब्रत धारण करता है अथवा जो ऐसे नियमों का पालन करताहै, वह निश्चित रूप से नास्तिक होगा और दिव्य शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाला बनेगा।
"
नष्टशौचा मूढधियो जटाभस्मास्थिधारिण: ।
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ॥
२९॥
नष्ट-शौचा:--शुचिता ( पवित्रता ) का परित्याग करके; मूढ-धिय:--मूर्ख; जटा-भस्म-अस्थि-धारिण:--जटा, राख तथाहड्डियाँ धारण किये; विशन्तु--प्रवेश करें; शिव-दीक्षायाम्--शिव पूजा की दीक्षा में; यत्र--जहाँ; दैवम्--ई श्वरी हैं; सुर-आसवम्--मदिरा तथा आसव
जो शिव की पूजा का ब्रत लेते हैं, वे इतने मूर्ख होते हैं कि वे उनका अनुकरण करके अपनेशरीर पर लम्बी जटाएँ धारण करते हैं और शिव की उपासना की दीक्षा ले लेने के बाद वेमदिरा, मांस तथा अन्य ऐसी ही वस्तुएँ खाना-पीना पसंद करते हैं।
"
ब्रह्म च ब्राह्मणां श्षैव यद्यूयं परिनिन्दथ ।
सेतुं विधारणं पुंसामत: पाषण्डमाश्रिता: ॥
३०॥
ब्रह्म--वेद; च--तथा; ब्राह्मणान्ू--ब्राह्मणों को; च--तथा; एव--निश्चय ही; यत्-- क्योंकि; यूयम्--तुम सब; परिनिन्दथ--निन्दा करते हो; सेतुम्--वैदिक सिद्धान्त; विधारणम्-- धारण करते हुए; पुंसामू--मनुष्य जाति का; अत:--इसलिए;पाषण्डमू--नास्तिकता; आश्रिता:--शरण ले रखी है
भूगु मुनि ने आगे कहा : चूँकि तुम वैदिक नियमों के अनुयायी ब्राह्मणों तथा वेदों की निन््दाकरते हो इससे ज्ञात होता है कि तुमने नास्तिकता की नीति अपना रखी है।
"
एष एव हि लोकानां शिव: पन्था: सनातन: ।
यं पूर्वे चानुसन्तस्थुर्यत्प्रमाणं जनार्दन: ॥
३१॥
एषः--वेद; एव--निश्चय ही; हि-- क्योंकि; लोकानाम्--समस्त लोगों का; शिव:--कल्याणकारी; पन्था: --पथ; सनातन: --शाश्वत; यम्--जो ( वैदिक पथ ); पूर्वे-- भूतकाल में; च--तथा; अनुसन्तस्थु:--हढ़तापूर्वक पालित होता था; यत्--जिसमें;प्रमाणम्--साक्ष्य; जनार्दन: --जनार्दन |
वेद मानवीय सभ्यता के कल्याण की प्रगति हेतु शाश्वत विधान प्रदान करने वाले हैं जिसकाप्रीचीन काल में हढ़ता से पालन होता रहा है।
इसका सशक्त प्रमाण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्स्वयं हैं, जो जनार्दन अर्थात् समस्त जीवात्माओं के शुभेच्छु कहलाते हैं।
"
तद्गह्म परमं शुद्धं सतां वर्त्म सनातनम् ।
विगर्ह्य यात पाषण्डं दैवं वो यत्र भूतराटू ॥
३२॥
ततू--वह; ब्रह्म--वेद; परमम्--परम; शुद्धम्-शुद्ध; सताम्--साथु पुरुषों का; वर्त्म--पथ; सनातनम्--शाश्वत; विग्हा--निन््दा करके; यात--जाओ; पाषण्डम्--नास्तिकता को; दैवम्--देव; वः--तुम सबका; यत्र--जहाँ; भूत-राट्-- भूतों केस्वामी ।
ऐसे वेदों के नियमों की निन्दा करके, जो सत्पुरुषों के शुद्ध एवं परम पथ-रूप हैं, अरेभूतपति शिव के अनुयायियों तुम, निस्सन्देह नास्तिकता के स्तर तक जाओगे।
"
मैत्रेय उवाचतस्यैवं बदत: शापं भूगो: स भगवान्भव: ।
निश्चक्राम ततः किञ्ञिद्विमना इव सानुग: ॥
३३॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; तस्य--उसका; एवम्--इस प्रकार; वदतः--कहते हुए; शापम्--शाप; भूगो:-- भूगु का; सः --वह; भगवानू--सर्व ऐश्वर्यों का स्वामी; भव:--शिव; निश्चक्राम--चला गया; ततः--वहाँ से; किल्ञित्--कुछ-कुछ;विमना:--खिन्न; इब--सहश; स-अनुग: -- अपने शिष्यों सहित ।
मैत्रेय मुनि ने कहा : जब शिवजी के अनुयायियों तथा दक्ष एवं भूगु के पक्षधरों के बीचशाप-प्रतिशाप चल रहा था, तो शिवजी अत्यन्त खिन्न हो उठे और बिना कुछ कहे अपने शिष्योंसहित यज्ञस्थल छोड़कर चले गये।
"
चले जाँए।
तेउपि विश्वसृजः सत्र॑ सहस्त्रपरिवत्सरान् ।
संविधाय महेष्वास यत्रेज्य ऋषभो हरि: ॥
३४॥
ते--वे; अपि-- भी; विश्व-सृज:--ब्रह्मण्ड के जनक; सत्रम्ू--यज्ञ; सहस्त्र--एक हजार; परिवत्सरान्--वर्ष; संविधाय--सम्पन्नकरते हुए; महेष्वास--हे विदुर; यत्र--जिसमें; इज्य: --पूजनीय, उपास्य; ऋषभ:--समस्त देवताओं के प्रमुख देव; हरिः--हरि।
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : हे विदुर, इस प्रकार विश्व के सभी जनकों ( प्रजापतियों ) ने एकहजार वर्ष तक यज्ञ किया क्योंकि भगवान् हरि की पूजा की सर्वोत्तम विधि यज्ञ ही है।
"
आप्लुत्यावभूथ॑ यत्र गड़ा यमुनयान्विता ।
विरजेनात्मना सर्वे स्व स्व॑ं धाम ययुस्तत:ः ॥
३५॥
आप्लुत्य--स्नान करके; अवभूथम्--यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात् किया गया स्नान; यत्र--जहाँ; गड़ा--गंगा नदी; यमुनया--यमुना नदी से; अन्विता--मिली हुई; विरजेन--बिना किसी छूत से; आत्मना--मन से; सर्वे--सभी; स्वम् स्वम्-- अपने-अपने;धाम--निवास स्थान; ययु:--चले गये; तत:--वहाँ से |
हे धनुषबाणधारी विदुर, सभी यज्ञकर्ता देवताओं ने यज्ञ समाप्ति के पश्चात् गंगा तथा यमुनासंगम में स्नान किया।
ऐसा स्नान अवभूथ स्नान कहलाता है।
इस प्रकार से मन से शुद्ध होकर वेअपने-अपने धामों को चले गये।
"
अध्याय तीन: भगवान शिव और सती के बीच बातचीत
4.3मैत्रेय उवाचसदा विद्विषतोरेवं कालो वै प्रचियमाणयो: ।
जामातु: श्वशुरस्थापि सुमहानतिचक्रमे ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; सदा--निरन्तर; विद्विषतो:--तनाव; एवम्--इस प्रकार; काल:--समय; बै--निश्चय ही;प्रियमाणयो: --सहन करते हुए; जामातु:--दामाद का; श्वशुरस्थ--ससुर का; अपि-- भी; सु-महान्--अत्यधिक;अतिचक्रमे--बीत गया।
मैत्रेय ने आगे कहा : इस प्रकार से जामाता शिव तथा श्वसुर दक्ष के बीच दीर्घकाल तकतनाव बना रहा।
"
यदाभिषिक्तो दक्षस्तु ब्रह्मणा परमेषप्ठिना ।
प्रजापतीनां सर्वेषामाधिपत्ये स्मयोभवत् ॥
२॥
यदा--जब; अभिषिक्त:--नियुक्त; दक्ष:--दक्ष; तु--लेकिन; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; परमेष्ठिना--परम शिक्षक; प्रजापतीनाम्--प्रजापतियों का; सर्वेषाम्--समस्त; आधिपत्ये--प्रधान के रूप में; समय: --गर्वित; अभवत्--हो गया।
ब्रह्मा ने जब दक्ष को समस्त प्रजापतियों का मुखिया बना दिया तो दक्ष गर्व से फूल उठा।
"
इष्टा स वाजपेयेन ब्रह्नमिष्ठानभिभूय च ।
बृहस्पतिसवं नाम समारेभे क्रतूत्तमम् ॥
३॥
इष्ठा--सम्पन्न करके; सः--वह ( दक्ष ); वाजपेयेन--वाजपेय यज्ञ से; ब्रह्मिप्ठानू--शिव तथा उनके अनुयायियों को;अभिभूय--उपेक्षा करके; च--तथा; बृहस्पति-सवम्-- बृहस्पति-सव; नाम--नामक; समारेभे-- प्रारम्भ किया; क्रतु-उत्तमम्ू--यज्ञों में श्रेष्ठ |
दक्ष ने वाजपेय नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और उसे अत्यधिक विश्वास था कि ब्रह्माजी कासमर्थन तो प्राप्त होगा ही।
तब उसने एक अन्य महान् यज्ञ किया जिसे बृहस्पति-सव कहते हैं।
"
तस्मिन्ब्रह्मर्षय: सर्वे देवर्षिपितृदेवता: ।
आसन्कृतस्वस्त्ययनास्तत्पल्यश्च सभर्तृकाः ॥
४॥
तस्मिन्ू--उस ( यज्ञ ) में; ब्रहय-ऋषय: --ब्रह्मर्षि गण; सर्वे--समस्त; देवर्षि--देवर्षिगण; पितृ--पूर्वज, पितरगण; देवता: --देवता; आसनू-- थे; कृत-स्वस्ति-अयना: --आभूषणों से अच्छी प्रकार से अलंकृत किया गया; तत्ू-पत्य:--उनकी पत्नियाँ;च--तथा; स-भर्तृका:ः--अपने-अपने पतियों सहित ।
जब यज्ञ सम्पन्न हो रहा था ब्रह्माण्ड के विभिन्न भागों से अनेक ब्रह्मर्षि, मुनि, पितृकुल केदेवता तथा अन्य देवता, आभूषणों से अलंकृत अपनी-अपनी पत्नियों सहित उसमें सम्मिलितहुए।
"
तदुपश्रुत्य नभसि खेचराणां प्रजल्पताम् ।
सती दाक्षायणी देवी पितृयज्ञमहोत्सवम् ॥
५॥
ब्रजन्ती: सर्वतो दिग्भ्य उपदेववरस्त्रिय: ।
विमानयाना: सप्रेष्ठा निष्ककण्ठी: सुवासस: ॥
६॥
इष्ठा स्वनिलयाभ्याशे लोलाश्षीर्मुष्टकुण्डला: ।
पतिं भूतपतिं देवमौत्सुक्यादभ्यभाषत ॥
७॥
तत्--तब; उपश्रुत्य--सुनकर; नभसि--आकाश में; खे-चराणाम्--आकाश मार्ग से जाने वाले ( गन्धर्व ); प्रजल्पताम्--संलाप; सती--सती; दाक्षायणी--दक्ष की पुत्री; देवी--शिव की पत्नी; पितृ-यज्ञ-महा-उत्सवम्--अपने पिता द्वारा सम्पन्नकिया जाने वाला महान् यज्ञ; ब्रजन्ती: --जा रहे थे; सर्वतः--सभी; दिग्भ्य:--दिशाओं से; उपदेव-वर-स्त्रियः --देवताओं कीसुन्दर स्त्रियाँ; विमान-याना:--अपने-अपने विमानों में उड़ती हुई; स-प्रेष्ठाः--अपने-अपने पतियों के संग; निष्क-कण्ठी:--लाकेट से युक्त सुन्दर हार पहने; सु-वासस:--सुन्दर वस्त्रों से आभूषित; हृष्टा--देखकर; स्व-निलय-अभ्याशे -- अपने घर केनिकट; लोल-अक्षी: --चंचल नेत्रोंवाली; मृष्ट-कुण्डला: --सुन्दर कान के आभूषण; पतिम्--अपने पति; भूत-पतिम्-- भूतों केस्वामी; देवम्--देवता; औत्सुक्यात्--उत्सुकता से; अभ्यभाषत--वह बोली |
दक्ष कन्या साध्वी सती ने आकाश मार्ग से जाते हुए स्वर्ग के निवासियों को परस्पर बातें करते हुए सुना कि उसके पिताद्वारा महान् यज्ञ सम्पन्न कराया जा रहा हैं।
जब उसने देखा किसभी दिशाओं से स्वर्ग के निवासियों की सुन्दर पत्लियाँ, जिनके नेत्र अत्यन्त सुन्दरता से चमकरहे थे, उसके घर के समीप से होकर सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित होकर तथा कानों में कुण्डल एवंगले में लाकेट युक्त हार से अलंकृत होकर जा रही हैं, तो वह अपने पति भूतनाथ के पासअत्यन्त उद्िगता-पूर्वक गई और इस प्रकार बोली।
"
सत्युवाचप्रजापतेस्ते श्वशुरस्य साम्प्रतंनिर्यापितो यज्ञमहोत्सवः किल ।
बयं च तत्राभिसराम वाम तेयद्यर्थितामी विबुधा ब्रजन्ति हि ॥
८॥
सती उवाच--सती ने कहा; प्रजापतेः--दक्ष का; ते--तुम्हारे; श्रशुरस्थ--ससुर का; साम्प्रतम्ू--इस समय; निर्यापित:--प्रारम्भकिया गया है; यज्ञ-महा-उत्सव:--महान् यज्ञ; किल--निश्चय ही; वयम्--हम; च--तथा; तत्र--वहाँ; अभिसराम--जा सकें;वाम-हे प्राणप्रिय शिव; ते--तुम्हारा; यदि--यदि; अर्थिता--इच्छा; अमी--ये; विबुधा:--देवता; ब्रजन्ति-- जा रहे हैं; हि--क्योंकि
सती ने कहा : हे प्राणप्रिय शिव, इस समय आपके श्वसुर महान् यज्ञ कर रहे हैं और सभीदेवता आमंत्रित होकर वहीं जा रहे हैं।
यदि आप कहें तो हम भी चले चलें।
"
तस्मिन्भगिन्यो मम भर्तृभिः स्वकै-भ्रुव॑ं गमिष्यन्ति सुहृद्िहक्षव: ।
अहं च तस्मिन्भवताभिकामयेसहोपनीतं परिबर्हमर्हितुम् ॥
९॥
तस्मिन्ू--उस यज्ञ में; भगिन्य:--बहनें; मम--मेरी; भर्तृभि:-- अपने-अपने पतियों सहित; स्वकै:--अपनी ओर से; श्रुवम्--निश्चय ही; गमिष्यन्ति--जाएंगी; सुहत्-दिदृक्षव:ः --अपने परिजनों से भेंट करने की इच्छुक; अहम्--मैं; च--तथा; तस्मिन्--उस उत्सव में; भवता--आपके ( शिव के ) साथ; अभिकामये--इच्छा करती हूँ; सह--साथ; उपनीतमू्--प्रदत्त; परिबर्हम्--आभूषण; अर्हितुम्ू--स्वीकार करने।
मैं सोचती हूँ कि मेरी सभी बहनें अपने सम्बन्धियों से भेंट करने की इच्छा से अपने-अपनेपतियों सहित इस महान् यज्ञ में अवश्य आयी होंगी।
मैं भी अपने पिता द्वारा प्रदत्त आभूषणों सेअपने को अलंकृत करके आपके साथ उस उत्सव में भाग लेने की इच्छुक हूँ।
"
तत्र स्वसूर्मे ननु भर्तृसम्मितामातृष्वसू: क्लिन्नधियं च मातरम् ।
द्रक्ष्ये चिरोत्कण्ठमना महर्षिभिर्उन्नीयमानं च मृडाध्वरध्वजम् ॥
१०॥
तत्र--वहाँ; स्वसू:--अपनी बहनें; मे--मेरी; ननु--निश्चय ही; भर्तु-सम्मिता:--अपने-अपने पतियों के साथ; मातृ-स्वसृ:--मौसियाँ; क्लिन्न-धियम्--स्नेहिल; च--तथा; मातरम्ू--माता को; द्रक्ष्ये--देखूँगी; चिर-उत्कण्ठ-मना:--दीर्घकाल से उत्सुक;महा-ऋषिभि: --महान् ऋषियों द्वारा; उन्नीयमानमू--उठाये हुए; च--तथा; मूृड--हे शिव; अध्वर--यज्ञ; ध्वजम्ू--झंडे
वहाँ पर मेरी बहनें, मौसियाँ तथा मौसे एवं अन्य प्रिय परिजन एकत्र होंगे; अतः यदि मैं वहाँतक जाऊँ तो उन सबों से मेरी भेंट हो जाये और साथ ही मैं उड़ती हुई ध्वजाएँ तथा ऋषियों द्वारासम्पन्न होते यज्ञ को भी देख सकूँगी।
हे प्रिय, इसी कारण से मैं जाने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।
"
त्वय्येतदाश्चर्यमजात्ममाययाविनिर्मितं भाति गुणत्रयात्मकम् ।
तथाप्यहं योषिदतत्त्वविच्च तेदीना दिदक्षे भव मे भवक्षितिम् ॥
११॥
त्वयि--तुममें; एतत्--वह; आश्चर्यम्--विस्मथघजनक; अज--हे शिव; आत्म-मायया--परमे श्वर की बहिरंगा शक्ति से;विनिर्मितम्--विरचित; भाति--प्रतीत होती है; गुण-त्रय-आत्मकम्--प्रकृति के तीनों गुणों की अन्तःक्रिया होने से; तथाअपि--तो भी; अहम्--मैं; योषित्--स्त्री; अतत्त्व-वित्--सत्य से अनजान; च--तथा; ते--तुम्हारी; दीना--गरीब, दुखिया;दिदृदक्षे--देखना चाहती हूँ; भव--हे शिव; मे--मेरी ( अपनी ); भव-क्षितिम्--जन्म भूमि |
यह दृश्य जगत त्रिगुणों की अन्तःक्रिया अथवा परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति की अदभुत सृष्टिहै।
आप इस वास्तविकता से भलीभाँति परिचित हैं।
किन्तु मैं तो अबला स्त्री हूँ और जैसा आपजानते हैं मैं सत्य से अनजान हूँ।
अतः मैं एक बार फिर से अपनी जन्मभूमि देखना चाहती हूँ।
"
पश्य प्रयान्तीरभवान्ययोषितो'प्यलड्डू ताः कान्तसखा वरूथश: ।
यासां ब्रजद्धि: शितिकण्ठ मण्डितंनभो विमान: कलहंसपाण्डुभि: ॥
१२॥
पश्य--देखो तो; प्रयान्ती:--जाती हुई; अभव--हे अजन्मा; अन्य-योषित:--अन्य स्त्रियाँ; अपि--निश्चय ही; अलड्डू ता: --सजी-धजी; कान्त-सखा: --अपने पतियों तथा मित्रों सहित; वरूथश:--झुंड की झुंड; यासाम्--जिनके; ब्रजद्धि:--उड़ते हुए;शिति-कण्ठ--हे नीलकण्ठ; मण्डितम्--सुशोभित; नभ:--आकाश; विमानै:--विमानों से; कल-हंस--हंस; पाण्डुभि:--श्वेत
हे अजमा हे नीलकण्ठ न केवल मेरे सम्बन्धी वरन् अन्य स्त्रियाँ भी अच्छे अच्छे वस्त्र पहनेऔर आभूषणों से अलंकृत होकर अपने पतियों तथा मित्रों के साथ जा रही हैं।
जरा देखो तो कि उनके श्वेत विमानों के झुण्डों ने सारा आकाश को किस प्रकार सुशोभित कर रखा है!" कथ॑ं सुताया: पितृगेहकौतुकंनिशम्य देह: सुरवर्य नेड़ते ।
अनाहुता अप्यभियन्ति सौहदंभर्तुर्गुरोदेहकृतश्च केतनम् ॥
१३॥
'कथम्--कैसे; सुताया:--पुत्री को; पितृ-गेह-कौतुकम्--पिता के घर में उत्सव; निशम्य--सुनकर; देह:--शरीर; सुर-वर्य--हेदेवों में श्रेष्ठ; न--नहीं; इड़ते--विचलित; अनाहुता:--बिना बुलाये; अपि--ही; अभियन्ति--जाता है; सौहदम्--मित्र; भर्तु:--पति के; गुरोः--गुरु के; देह-कृतः--पिता के; च--तथा; केतनम्--घर |
हे देवश्रेष्ठ, भला एक पुत्री का शरीर यह सुनकर कि उसके पिता के घर में कोई उत्सव होरहा है, विचलित हुए बिना कैसे रह सकता है? यद्यपि आप यह सोच रहे होंगे कि मुझे आमंत्रितनहीं किया गया, किन्तु अपने मित्र, पति, गुरु या पिता के घर बिना बुलाये भी जाने में कोईहानि नहीं होती।
"
तन्मे प्रसीदेदममर्त्य वाउिछतंकर्तु भवान्कारुणिको बताईति ।
त्वयात्मनोर्थेउहमदभ्रचक्षुषानिरूपिता मानुगृहाण याचितः ॥
१४॥
तत्--अतः; मे--मुझ पर; प्रसीद--कृपालु हों; इदम्--यह; अमर्त्य--हे अमर; वाउ्छितम्--इच्छा; कर्तुमू--करने की;भवान्--आप; कारुणिक: --दयालु; बत--हे स्वामी; अर्हति--समर्थ; त्वया--आपके द्वारा; आत्मन:--आपके ही शरीर के;अर्धे--आधे भाग में; अहम्--मैं; अदभ्च-चक्षुषा--सभी ज्ञान से युक्त; निरूपिता--स्थित; मा--मुझको; अनुगृहाण -- अनुग्रहीतकरें; याचितः --प्रार्थित |
हे अमर शिव, कृपया मुझ पर दयालु हों और मेरी इच्छा पूरी करें।
आपने मुझे अद्धांगिनी केरूप में स्वीकार किया है, अतः मुझ पर दया करके मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।
"
ऋषिरुवाचएवं गिरित्र: प्रिययाभिभाषितःप्रत्यभ्यधत्त प्रहसन्सुहृत्प्रियः ।
संस्मारितो मर्मभिदः कुवागिषून्यानाह को विश्वसूजां समक्षत: ॥
१५॥
ऋषि: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; एवम्--इस प्रकार; गिरित्र:-- भगवान् शिव ने; प्रियया-- अपनी प्रिया द्वारा;अभिभाषितः--कहे जाने पर; प्रत्यभ्यधत्त--उत्तर दिया; प्रहसन्--हँसते हुए; सुहृत्-प्रियः--परिजनों के प्रिय; संस्मारित:--स्मरण करते हुए; मर्म-भिद:ः--मर्म भेदी, हृदय में चुभने वाले; कुवाक्-इषून्ू--द्वेषपूर्ण शब्द; यान्--जो ( शब्द )आह--कहा;कः--कौन ( दक्ष ); विश्व-सृजाम्--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टाओं की; समक्षतः--उपस्थिति में |
मैत्रेय महर्षि ने कहा : इस प्रकार अपनी प्रियतमा द्वारा सम्बोधित किये जाने पर कैलाशपर्वत के उद्धारक शिव ने हँसते हुए उत्तर दिया यद्यपि उसी समय उन्हें विश्व के समस्त प्रजापतियोंके समक्ष दक्ष द्वारा कहे गये द्वेषपूर्ण मर्मभेदी शब्द स्मरण हो आये।
"
श्रीभगवानुवाचत्वयोदितं शोभनमेव शोभनेअनाहुता अप्यभियन्ति बन्धुषु ।
ते यद्यनुत्पादितदोषदृष्टयोबलीयसानात्म्यमदेन मन्युना ॥
१६॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; त्वया--तुम्हारे द्वारा; उदितम्ू--कहा; शोभनम्--सही है; एव--निश्चय ही; शोभने--मेरी सुन्दर पतली; अनाहुता:--बिना बुलाये; अपि--ही; अभियन्ति--जाते हैं; बन्धुषु--मित्रों के बीच; ते--वे ( मित्र ); यदि--यदि; अनुत्पादित-दोष-दृष्टय:--दोष न निकालकर; बलीयसा--अधिक महत्त्वपूर्ण; अनात्म्य-मदेन--देह से उत्पन्न अभिमान से;मन्युना--क्रोध से।
प्रभु ने उत्तर दिया : हे सुन्दरी, तुमने कहा कि अपने मित्र के घर बिना बुलाये जाया जासकता है।
यह सच है, किन्तु तब जब वह देहात्मबोध के कारण अतिथि में दोष न निकाले और उस पर क्रुद्ध न हो।
"
विद्यातपोवित्तवपुर्वयःकुलैःसतां गुणै: षड्भरसत्तमेतरै: ।
स्मृतौ हतायां भृतमानदुर्दशःस्तब्धा न पश्यन्ति हि धाम भूयसाम् ॥
१७॥
विद्या--शिक्षा; तप:--तपस्या; वित्त--सम्पत्ति; वपु:--शरीर की सुन्दरता इत्यादि; वबः--यौवन; कुलैः--कुल से; सताम्ू--पवित्र लोगों का; गुणैः--ऐसे गुणों के कारण; षड्भिः--छह; असत्तम-इतरैः--जो महान्-आत्मा नहीं हैं उनके विपरीतआचरण वाले; स्मृतौ--अच्छा भाव; हतायाम्--खोया हुआ; भृत-मान-दुर्दश: --गर्व से अन्धा; स्तब्धा:--घमंडी होकर; न--नहीं; पश्यन्ति--देखते हैं; हि--क्योंकि; धाम--यश; भूयसाम्--महान् आत्माओं का।
यद्यपि शिक्षा, तप, धन, सौन्दर्य, यौवन और कुलीनता--ये छह गुण अत्यन्त उच्च होते हैं,किन्तु जो इनको प्राप्त करके मदान्ध हो जाता है और इस प्रकार वह सदज्ञान खो बैठता है, वहमहापुरुषों के महिमा को स्वीकार नहीं कर पाता।
"
नैताइशानां स्वजनव्यपेक्षयागृहान्प्रतीयादनवस्थितात्मनाम् ।
येभ्यागतान्वक्रधियाभिचक्षतेआरोपितशभ्रूभिरमर्षणाक्षिभि: ॥
१८॥
न--नहीं; एताहशानाम्--इस प्रकार; स्व-जन--सम्बन्धी के; व्यपेक्षया--उस पर निर्भर रह कर; गृहान्--घर में; प्रतीयात्--जाना चाहिए; अनवस्थित--विचलित; आत्मनाम्--मन; ये--जो; अभ्यागतान्ू--अतिथि; वक़-धिया--अनादर से;अभिचक्षते--देखते हुए; आरोपित-भ्रूभि:--उठी हुई भूकुटियों से; अमर्षण--क्रुद्ध; अक्षिभि:--आँखों से |
मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी स्थिति में किसी दूसरे व्यक्ति के घर न जाये, भले ही वहउसका सम्बन्धी या मित्र ही क्यों न हो, जब वह मन से श्लुब्ध हो और अतिथि को तनी हुईं भूकुटियों एवं क्रुद्ध नेत्रों से देख रहा हो।
"
तथारिभिर्न व्यथते शिलीमुखै:ःशेतेडर्दिताड़ो हृदयेन दूयता ।
स्वानां यथा वक्रधियां दुरुक्तिभिर्दिवानिशं तप्यति मर्मताडित: ॥
१९॥
तथा-- अतः; अरिभि:--शत्रु के द्वारा; न--नहीं; व्यथते--आहत; शिलीमुखै:--वाणों द्वारा; शेते--लेटता है; अर्दित--दुखित;अड्ड--अंग, कोई भाग; हृदयेन--हृदय से; दूयता--कष्ट पहुँचाता हुआ; स्वानाम्--स्वजनों का; यथा--जिस प्रकार; वक्र-धियाम्ू--कुटिल बुद्द्धि, छली; दुरुक्तिभिः--कटु वचनों से; दिवा-निशम्--अहर्निश, दिन-रात; तप्यति--बेचैन रहता है; मर्म-ताडित:--जिसकी भावनाओं को ठेस पहुँचती है मर्माहत
शिवजी ने कहा : यदि कोई शत्रु के बाणों से आहत हो तो उसे उतनी व्यथा नहीं होतीजितनी कि स्वजनों के कटु बचनों से होती है क्योंकि यह पीड़ा रात-दिन हृदय में चुभती रहतीहै।
"
व्यक्त त्वमुत्कृष्टगते: प्रजापतेःप्रियात्मजानामसि सुभ्रु मे मता ।
तथापि मान न पितु: प्रपत्स्यसेमदाश्रयात्क: परितप्यते यतः ॥
२०॥
व्यक्तम्ू-स्पष्ट है; त्वम्--तुम; उत्कृष्ट-गतेः--उत्तम आचरण वाली; प्रजापतेः--प्रजापति दक्ष की; प्रिया--अत्यन्त प्रिय;आत्मजानाम्--पुत्रियों में; असि--हो; सुभ्रु--हे सुन्दर भौंहों वाली; मे--मेरा; मता--विचार कर; तथा अपि--फिर भी;मानम्--सम्मान; न--नहीं; पितुः--अपने पिता से; प्रपत्स्यसे--प्राप्त करोगी; मत्-आश्रयात्-- मुझसे सम्बन्धित होने से; क:ः--दक्ष; परितप्यते--पीड़ा का अनुभव करता है; यतः--जिससे |
हे शुभ्रांगिनी प्रिये, यह स्पष्ट है कि तुम दक्ष को अपनी पुत्रियों में सबसे अधिक प्यारी हो, तोभी तुम उसके घर में सम्मानित नहीं होगी, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो।
उल्टे तुम्हें ही दुख होगा कितुम मुझसे सम्बन्धित हो।
"
पापच्यमानेन हृदातुरेन्द्रियःसमृद्ध्धिभिः पूरुषबुद्धिसाक्षिणाम् ।
अकल्प एषामधिरोढुमझसापरं पद द्वेष्टि यथासुरा हरिम्ू ॥
२१॥
पापच्यमानेन--जलते हुए; हृदा--हृदय में; आतुर-इन्द्रियः--संकट ग्रस्त; समृद्द्धिभि:--पतवित्र ख्याति इत्यादि से; पूरुष-बुद्धि-साक्षिणामू-परमे श्वर के ध्यान में सदैव लीन रहने वालों का; अकल्प: --असमर्थ होकर; एषाम्--उन पुरुषों का; अधिरोढुम्--उठने के लिए; अज्ञसा--शीघ्र; परमू--केवल; पदम्--स्तर तक; द्वेष्टि--द्वेष रखता है, कुढ़ता रहता है; यथा--जितना कि;असुरा:--असुरगण; हरिम्-- श्री भगवान् से |
जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित होकर सदैव मन से तथा इन्द्रियों से संतापित रहता है, वह स्वरूप-सिद्ध पुरुषों के ऐश्वर्य को सहन नहीं कर पाता।
आत्म-साक्षात्कार के पद तक उठने मेंअक्षम होने से वह ऐसे पुरुषों से उसी प्रकार से ईर्ष्या करता है, जिस प्रकार असुर श्रीभगवान् सेईर्ष्या करते हैं।
"
प्रत्युद्गमप्र भ्रयणाभिवादनंविधीयते साधु मिथ: सुमध्यमे ।
प्राज्रेः परस्मै पुरुषाय चेतसागुहाशयायैव न देहमानिने ॥
२२॥
प्रत्युदूगम-- अपने आसन पर खड़े होना; प्रश्रगण --स्वागत करना; अभिवादनम्--नमस्कार; विधीयते--किये जाते हैं; साधु --उचित; मिथ:--पारस्परिक ; सु-मध्यमे--हे मेरी प्रिये; प्राज्ैः--बुद्ध्धिमान द्वारा; परस्मै--परमे श्वर को; पुरुषाय--परमात्मा को;चेतसा--बुद्धि से; गुहा-शयाय--शरीर के भीतर बैठकर; एव--निश्चय ही; न--नहीं; देह-मानिने--देह रूप पुरुष को ।
हे तरुणी भार्ये, निस्सन्देह, मित्र तथा स्वजन खड़े होकर एक दूसरे का स्वागत औरनमस्कार करके परस्पर अभिवादन करते हैं।
किन्तु जो दिव्य पद पर ऊपर उठ चुके हैं, वे प्रबुद्धहोने के कारण ऐसा सम्मान प्रत्येक शरीर में वास करने वाले परमात्मा का ही करते हैं,देहाभिमानी पुरुष का नहीं।
"
सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितंयदीयते तत्र पुमानपावृतः ।
सत्त्वे च तस्मिन्भगवान्वासुदेवोह्ाधोक्षजो मे नमसा विधीयते ॥
२३॥
सत्त्वम्-चेतना; विशुद्धम््-शुद्ध; वसुदेव--वसुदेव; शब्दितम्--नाम से विख्यात; यत्--क्योंकि; ईयते--प्रकट होता है;तत्र--वहाँ; पुमानू--परम पुरुष; अपावृत:--किसी आवरण के बिना; सत्त्वे--चेतना में; च--तथा; तस्मिन्ू--उसमें;भगवान्-- भगवान्; वासुदेव:--वासुदेव; हि-- क्योंकि; अधोक्षज: --दिव्य; मे--मेरे द्वारा; नमसा--नमस्कार से; विधीयते--पूजित।
मैं शुद्ध कृष्णचेतना में भगवान् वासुदेव को सदैव नमस्कार करता रहता हूँ।
कृष्णभावनामृतही सदैव शुद्ध चेतना है, जिसमें वासुदेव नाम से अभिहित श्रीभगवान् का बिना किसी प्रकार कादुराव का अनुभव होता है।
"
तत्ते निरीक्ष्यो न पितापि देहकृद्दक्षो मम द्विट्तदनुव्रताश्व ये ।
यो विश्वसृग्यज्ञगतं वरोरु मा-मनागसं दुर्वचचसाकरोत्तिर: ॥
२४॥
तत्--अतः; ते--तुम्हारा; निरीक्ष्य:--देखने जाने के लिए; न--नहीं; पिता--तुम्हारा पिता; अपि--यद्यपि; देह-कृत्--तुम्हारेशरीर का दाता; दक्ष:--दक्ष; मम--मेरा; द्विट्ू--ईर्ष्यालु; तत्-अनुव्रता: --उसके ( दक्ष के ) अनुयायी; च-- भी; ये--जो;यः--जो ( दक्ष ); विश्व-सुक्ू--विश्वस्कों के; यज्ञ-गतम्--यज्ञ में उपस्थित होने से; वर-ऊरू--हे सती; माम्ू--मुझको;अनागसमू--निर्दोष होने से; दुर्वचसा--कटुवचनों से; अकरोत् तिर:-- अपमान किया है
अतः तुम्हें अपने पिता को, यद्यपि वह तुम्हारे शरीर का दाता है, मिलने नहीं जाना चाहिएक् योंकि वह और उसके अनुयायी मुझसे ईर्ष्या करते हैं।
हे परम पूज्या, इसी ईर्ष्या के कारण मेरेनिर्दोष होते हुए भी उसने अत्यन्त कटु शब्दों से मेरा अपमान किया है।
"
यदि ब्रजिष्यस्यतिहाय मद्बचोभद्रं भवत्या न ततो भविष्यति ।
सम्भावितस्य स्वजनात्पराभवोयदा स सद्यो मरणाय कल्पते ॥
२५॥
यदि--यदि; ब्रजिष्यसि--तुम जाओगी; अतिहाय--उपेक्षा करके; मत्-वच:--मेरे वचन; भद्रमू--कल्याण; भवत्या: --तुम्हारा; न--नहीं; ततः--तब; भविष्यति--होगा; सम्भावितस्य--अत्यन्त सम्माननीय; स्वजनात्-- अपने सम्बन्धियों द्वारा;पराभव:ः--अपमानित होते हैं; यदा--जब; सः--वह अपमान; सद्य:--तुरन््त; मरणाय-- मृत्यु के; कल्पते--तुल्य है
यदि इस शिक्षा के बावजूद मेरे बचनों की उपेक्षा करके तुम जाने का निश्चय करती हो तोतुम्हारे लिए भविष्य अच्छा नहीं होगा।
तुम अत्यन्त सम्माननीय हो और जब तुम स्वजन द्वाराअपमानित होगी तो यह अपमान तुरन्त ही मृत्यु के तुल्य हो जाएगा।
"
अध्याय चार: सती ने अपना शरीर त्याग दिया
4..4मैत्रेय उवाचएतावदुक्त्वा विरराम शट्डूरःपत्यडुनाशं ह्युभयत्र चिन्तयन्।
सुहहिहक्षु: परिशद्धिता भवा-न्रिष्क्रामती निर्विशती द्विधास सा ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; एतावत्--इतना; उक्त्वा--कह कर; विरराम--शान्त हो गये; शद्भूरः -- भगवान् शिव; पत्नी-अड्ड-नाशम्--अपनी पतली के शरीर का विनाश; हि--चूँकि; उभयत्र--दोनों प्रकार से; चिन्तयन्--सोचते हुए; सुहृत्-दिदक्षु:--अपने सम्बधियों को देखने के लिए इच्छुक; परिशड्भिता-- भयभीत; भवात्--शिव से; निष्क्रामती--बाहर आती;निर्विशती-- भीतर जाती; द्विधा--दुचित्ती; आस--थी; सा--वह ( सती )॥
मैत्रेय मुनि ने कहा : सती को असमंजस में पाकर शिवजी यह कह कर शान्त हो गये।
सतीअपने पिता के घर में अपने सम्बन्धियों को देखने के लिए अत्यधिक इच्छुक थी, किन्तु साथ हीवह शिवजी की चेतावनी से भयभीत थी।
मन अस्थिर होने से वह हिंडोले की भाँति कक्ष सेबाहर और भीतर आ-जा रही थी।
"
सुहद्दिहक्षाप्रतिघातदुर्म ना:स्नेहाद्ुद॒त्यश्रुकलातिविहला ।
भवं भवान्यप्रतिपूरुषं रुषाप्रधक्ष्यतीवैक्षत जातवेपथु: ॥
२॥
सुहृत्-दिहृक्षा-- अपने सम्बन्धियों को देखने की इच्छा की; प्रतिघात--बाधा; दुर्मना:--अनमनी होकर; स्नेहात्--स्नेहवशरुदती--रोती हुई; अश्रु-कला--आँसुओं की बूँदों से; अतिविहला--अत्यधिक व्याकुल; भवम्--शिव; भवानी--सती;अप्रति-पूरुषम्--अद्वितीय; रुषा--क्रो ध से; प्रधक्ष्यती-- भस्म करने; इब--मानो; ऐश्षत--देखा; जात-वेपथु: --हिलती हुई,थर-थर काँपती हुईं।
इस तरह अपने पिता के घर जाकर अपने सम्बन्धियों को देखने से मना किये जाने पर सतीअत्यन्त दुखी हुई।
उन सबके स्नेह के कारण उसकी आँखों से अश्रु गिरने लगे।
थरथराती एवं अत्यधिक व्याकुल होकर उसने अपने अद्वितीय पति भगवान् शंकर को इस प्रकार से देखा मानोवह अपनी दृष्टि से उन्हें भस्म करने जा रही हो।
"
ततो विनि:श्रस्यथ सती विहाय त॑शोकेन रोषेण च दूयता हृदा ।
पित्रोरगास्स्रैणविमूढधीर्गृहान्प्रेम्णात्मनो योर्धमदात्सतां प्रिय: ॥
३॥
ततः--तब; विनिः श्वस्थ-- जोर-जोर से साँस लेते हुए; सती--सती; विहाय--त्याग कर; तम्ू--उसको ( शिव को ); शोकेन--शोक से; रोषेण--क्रोध से; च--तथा; दूयता--विहल; हृदा--हृदय से; पित्रो:--अपने पिता के; अगात्--चली गई; स्त्रैण --अपनी स्त्री प्रकृति के कारण; बिमूढ--प्रवंचित; धी:--बुद्धि; गृहान्ू--घर को; प्रेम्णा--प्रेमवश; आत्मन:--अपने शरीर का;यः--जो; अर्धम्--आधा; अदात्--दे दिया; सताम्--साधु पुरुषों को; प्रिय:--प्रिय |
तत्पश्चात् सती अपने पति शिवजी को, जिन्होंने प्रेमवश उसे अपना अर्धाँग प्रदान किया था,छोड़कर क्रोध तथा शोक के कारण लम्बी-लम्बी साँसें भरती हुई अपने पिता के घर को चलीगईं।
उससे यह अल्प बुद्ध्धिमत्ता-पूर्ण कार्य उसका अबला नारी होने के फलस्वरूप हुआ।
"
तामन्वगच्छन्द्रुतविक्रमां सती-मेकां त्रिनेत्रानुचरा: सहस्त्रशः ।
सपार्षदयक्षा मणिमन्मदादयःपुरोवृषेन्द्रास्तरसा गतव्यथा: ॥
४॥
तामू--उसको ( सती को ); अन्वगच्छन्--पीछा करते; द्रुत-विक्रमाम्-तेजी से छोड़ते; सतीम्--सती को; एकाम्--अकेले;त्रि-नेत्र--शिव ( तीन नेत्रों वाले ) के; अनुचरा: --अनुयायी; सहस्त्रश:--हजारों; स-पार्षद-यक्षा:--उनके पार्षदों तथा यक्षों केसहित; मणिमत्-मद-आदय:--मणिमान्, मद आदि; पुरः-वृष-इन्द्रा:--नन्दी बैल को आगे करके; तरसा--तेजी से; गत-व्यथा:--निर्भीक |
जब उन्होंने सती को तेजी से अकेले जाते देखा तो शिवजी के हजारों अनुत्तर, जिनमेंमणिमान तथा मद प्रमुख थे, नन््दी बैल को आगे करके तथा यक्षों को साथ लेकर जल्दी से सतीके पीछे-पीछे हो लिए।
"
तां सारिकाकन्दुकदर्पणाम्बुज-श्वेतातपत्रव्यजनस्त्रगादिभि: ।
गीतायनैर्दुन्दुभिशद्डुवेणुभि-वृषिन्द्रमारोप्य विटड्डिता ययु; ॥
५॥
तामू--उसकी ( सती को ); सारिका--पालतू पक्षी मैना; कन्दुक--गेंद; दर्पण--शीशा; अम्बुज--कमल का फूल; श्वेत-आततपत्र--सफेद छाता; व्यजन--पंखा; सत्रकू--माला; आदिभि:--इत्यादि; गीत-अयनै:--संगीत के साथ; दुन्दुभि--डुग्गी,ढोल; शद्भु--शंख; वेणुभि:--मुरली से; वृष-इन्द्रमू--बैल पर; आरोप्य--चढ़ाकर; विटछ्लिता:--आभूषित; ययु:--वे गये।
शिव के अनुचरों ने सती को बैल पर चढ़ा लिया और उन्हें उनकी पालतू चिड़िया ( मैना ) देदी।
उन्होंने कमल का फूल, एक दर्पण तथा उनके आमोद-प्रमोद की सारी सामग्री ले ली औरउनके ऊपर एक विशाल छत्र तान दिया।
उनके पीछे ढोल, शंख तथा बिगुल बजाता हुआ दलराजसी शोभा यात्रा के समान भव्य लग रहा था।
"
आब्रह्मघोषोर्जितयज्ञवैशसंविप्रर्षिजुष्ट विबुधेश्व सर्वशः ।
मृद्दार्ववःकाझनदर्भचर्मभि-निसृष्टठभाण्डं यजनं समाविशत् ॥
६॥
आ--चारों ओर से; ब्रह्म-घोष--वैदिक मंत्रों की ध्वनियों से; ऊर्जित--सजाया; यज्ञ--यज्ञ; वैशसम्-- पशु बलि; विप्रर्षि-जुष्टम्ू--जुटे हुए ऋषि; विबुधे:--देवताओं से; च--तथा; सर्वशः--सभी दिशाओं में; मृत्ू--मिट्टी के; दारु--काठ के;अयः--लोह; काझ्जनन--सोने के ; दर्भ--कुश; चर्मभि: --खालों से; निसृष्ट--बने; भाण्डम्--बलि पशु तथा भांडे ( बर्तन );यजनमू--यज्ञ; समाविशत्-- प्रवेश किया
तब सती अपने पिता के घर पहुँची जहाँ यज्ञ हो रहा था और उसने यज्ञस्थल में प्रवेश कियाजहाँ वैदिक स्तोत्रों का उच्चारण हो रहा था।
वहाँ सभी ऋषि, ब्राह्मण तथा देवता एकत्र थे।
वहाँपर अनेक बलि-पशु थे और साथ ही मिट्टी, पत्थर, सोने, कुश तथा चर्म के बने पात्र थे जिनकीयज्ञ में आवश्यकता पड़ती है।
"
तामागतां तत्र न कश्चनाद्वियद्विमानितां यज्ञकृतो भयाज्जनः ।
ऋते स्वसूर्वे जननीं च सादराः प्रेमा श्रुकण्ठ्य: परिषस्वजुर्मुदा ॥
७॥
तामू--उसके ( सती के ); आगताम्--आगमन से; तत्र--वहाँ; न--नहीं; कश्चन--किसी ने; आद्रवियत्--स्वागत किया;विमानिताम्ू--आदर न पाकर; यज्ञ-कृतः--यज्ञकर्ता ( दक्ष ); भयात्-- भय से; जन:--व्यक्ति; ऋते--के अतिरिक्त; स्वसृ:--उसकी बहनें; वै--निस्सन्देह; जननीम्--माता; च--तथा; स-आदराः:--आदर सहित; प्रेम-अश्रु-कण्ठ्य:--स्नेह-अश्रुओं सेभरे हुए कण्ठ; परिषस्वजु:--आलिंगन किया; मुदा--प्रसन्न मुख से |
जब सती अनुचरों सहित यज्ञस्थल में पहुँचीं, तो किसी ने उनका स्वागत नहीं किया, क्योंकिवहाँ पर एकत्रित सभी लोग दक्ष से भयभीत थे।
उनकी माता तथा बहनों ने अश्रुपूरित नेत्रों तथाप्रसन्न मुखों से उसका स्वागत किया और उससे बड़े ही प्रेम से बातें कीं।
"
सौदर्यसम्प्रश्नसमर्थवार्तयामात्रा च मातृष्वसृभिश्च सादरम् ।
दत्तां सपर्या वरमासनं च सानादत्त पित्राप्रतिनन्दिता सती ॥
८॥
सौदर्य--अपनी बहनों का; सम्प्रश्न--समादर; समर्थ--उचित; वार्तया--कुशल समाचार; मात्रा --अपनी माता द्वारा; च--तथा; मातृ-स्वसृभि:--मौसियों द्वारा; च--तथा; स-आदरम्--आदरपूर्वक; दत्तामू--दी गईं; सपर्याम्-पूजा; वरम्--भेंटें;आसनमू--आसन; च--तथा; सा--उस; न आदत्त--ग्रहण नहीं किया; पित्रा--अपने पिता द्वारा; अप्रतिनन्दिता--समादरित नहोने से; सती--सती ने
यद्यपि उनकी बहनों तथा माता ने उनका स्वागत-सत्कार किया, किन्तु उन्होंने उनकेस्वागत-बचनों का कोई उत्तर नहीं दिया।
यद्यपि उन्हें आसन तथा उपहार दिये गये, किन्तु उन्होंनेकुछ भी स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनके पिता न तो उनसे बोले और न उनका कुशल-दश्षेमपूछ कर उनका स्वत्कार किया।
"
अरुद्रभागं तमवेक्ष्य चाध्वरंपित्रा च देवे कृतहेलनं विभौ ।
अनाहता यज्ञसदस्यधी श्वरीचुकोप लोकानिव धक्ष्यती रूुषा ॥
९॥
अरुद्र-भागम्--शिव का यज्ञभाग न पाकर; तम्--उसे; अवेक्ष्य--देखकर; च--तथा; अध्वरमू--यज्ञस्थल; पित्रा--अपने पिताद्वारा; च--तथा; देवे--शिव की; कृत-हेलनम्--अवहेलना करके; विभौ--स्वामी के; अनाहता--अनादर की गई; यज्ञ-सदसि--यज्ञ की सभा में; अधी श्वरी --सती; चुकोप-- अत्यधिक क्रुद्ध हुई; लोकान्--चौदहों लोक; इब--मानो; धक्ष्यती --जलाती हुई; रुषा--क्रोध से |
यज्ञस्थल में जाकर सती ने देखा कि उनके पति शिवजी का कोई यज्ञ भाग नहीं रखे गये हैं।
तब उन्हें यह आभास हुआ कि उनके पिता ने शिव को आमंत्रित नहीं किया; उल्टे जब दक्ष नेशिव की पूज्य पत्नी को देखा तो उसने उसका भी आदर नहीं किया।
अतः इससे वे अत्यन्त क्रुद्धहुईं; यहां तक कि वह और अपने पिता को इस प्रकार देखने लगीं मानो उसे अपने नेत्रों से भस्मकर देंगी।
"
जग सामर्षविपन्नया गिराशिवद्दिषं धूमपथश्रमस्मयम् ।
स्वतेजसा भूतगणान्समुत्थितान्निगृह्ा देवी जगतोउभिश्रुण्वत: ॥
१०॥
जगर--निन््दा करने लगी; सा--वह; अमर्ष-विपन्नया--क्रोध के कारण अस्फुट; गिरा--वाणी से; शिव-द्विषम्--शिव काशत्रु; धूम-पथ--यज्ञों में; श्रम--कष्टों से; स्मयम्--अत्यन्त गर्वित; स्व-तेजसा--अपनी आज्ञा से; भूत-गणानू-- भूतों के;समुत्थितानू--सन्नद्ध, तत्पर ( दक्ष को मारने के लिए ); निगृह्य--रोका; देवी--सती ने; जगतः--सबों की उपस्थिति में;अभिश्रुण्वत:ः--सुना जाकर।
शिव के अनुचर, भूतगण दक्ष को क्षति पहुँचाने अथवा मारने के लिए तत्पर थे, किन्तु सतीने आदेश देकर उन्हें रोका।
वे अत्यन्त क्रुद्ध और दुखी थीं और उसी भाव में वे यज्ञ केसकामकर्मों की विधि की तथा उन व्यक्तियों की, जो इस प्रकार के अनावश्यक एवं कष्टकरयज्ञों के लिए गर्व करते हैं, भर्तस्सना करने लगीं।
उन्होंने सबों के समक्ष अपने पिता के विरुद्धबोलते हुए उसकी विशेष रूप से निन््दा की।
"
देव्युवाचन यस्य लोकेस्त्यतिशायन: प्रिय-स्तथाप्रियो देहभूतां प्रियात्मन: ।
तस्मिन्समस्तात्मनि मुक्तवैरकेऋते भवन्तं कतमः प्रतीपयेत् ॥
११॥
देवी उबाच--देवी ( सती ) ने कहा; न--नहीं; यस्य--जिसका; लोके-- इस जगत में; अस्ति-- है; अतिशायन: --प्रतिद्वन्द्दी नहोना; प्रिय: --प्रिय; तथा--उसी प्रकार; अप्रिय:--शत्रु; देह-भृताम्--देहधारी; प्रिय-आत्मन:--अत्यन्त प्रिय; तस्मिन्ू--शिवके प्रति; समस्त-आत्मनि--संसार भर के प्राणी; मुक्त-बैरके --जो समस्त शत्रुता से मुक्त है, शत्रुविहीन; ऋते--अतिरिक्त;भवन्तमू--आपके; कतम:--कौन; प्रतीपयेत्--ईर्ष्यालु होगा ।
देवी सती ने कहा : भगवान् शिव तो समस्त जीवात्माओं के लिए अत्यन्त प्रिय हैं।
उनकाकोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है।
न तो कोई उनका अत्यन्त प्रिय है और न कोई उनका शत्रु है।
आपकेसिवा और ऐसा कौन है, जो ऐसे विश्वात्मा से द्वेष करेगा, जो समस्त वैर से रहित हैं?"
दोषान्परेषां हि गुणेषु साधवोगृहनन्ति केचिन्न भवाहशो द्विज ।
गुणां श्र फल्गून्बहुली करिष्णवोमहत्तमास्तेष्वविदद्धवानघम् ॥
१२॥
दोषान्--दोष; परेषाम्--अन्यों के; हि--क्योंकि; गुणेषु--गुणों में; साधव:--साधुजन; गृहन्ति--पाते हैं; केचित्--कुछ;न--नहीं; भवाहशः--आपके समान; द्विज-हे द्विज; गुणान--गुण; च--तथा; फल्गूनू--छोटा; बहुली-करिष्णव:--अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा देता है; महत्-तमा:--महापुरुष; तेषु--उनमें से; अविदत्--ढूँढते हैं; भवान्ू--आप; अघम्--दोष, त्रुटि
हे द्विज दक्ष, आप जैसा व्यक्ति ही अन्यों के गुणों में दोष ढूँढ सकता है।
किन्तु शिव अन्योंके गुणों में कोई दोष नहीं निकालते, विपरीत इसके यदि किसी में थोड़ा भी गुण होता है, तो वेउसे और भी अधिक बढ़ा देते हैं।
दुर्भाग्यवश आपने ऐसे महापुरुष पर दोषारोपण किया है।
"
नाश्चर्यमेतद्यदसत्सु सर्वदामहद्विनिन्दा कुणपात्मवादिषु ।
सेष्य महापूरुषपादपांसुभि-निरस्ततेज:सु तदेव शोभनम् ॥
१३॥
न--नहीं; आश्चर्यमू--विस्मयपूर्ण; एतत्--यह; यत्--जो; असत्सु--बुराई; सर्वदा--सदैव; महत्-विनिन्दा--महात्माओं कीनिन््दा; कुणप-आत्म-वादिषु--शव को ही जिन्होंने आत्मरूप मान रखा है उनमें; स-ईर्ष्यम्--ईर्ष्या; महा-पूरुष--महापुरुषों की;पाद-पांसुभि:--चरण-रज से; निरस्त-तेज:सु--घटा हुआ तेज; तत्--वह; एव--निश्चय ही; शोभनमू्--अति उत्तम
जिन लोगों ने इस नश्वर भौतिक शरीर को ही आत्मरूप मान रखा है, उनके लिए महापुरुषोंकी निन्दा करना कोई आश्चर्य की बात नहीं।
भौतिकतावादी पुरुषों के लिए ऐसी ईर्ष्या ठीक हीहै, क्योंकि इसी प्रकार से उनका पतन होता है।
वे महापुरुषों की चरण-रज से लघुता प्राप्त करतेहैं।
"
यददव्यक्षरं नाम गिरेरितं नृणांसकृत्प्रसड्रादघधमाशु हन्ति तत् ।
पवित्रकीर्ति तमलड्घ्यशासनंभवानहों द्वेष्टि शिवं शिवेतरः ॥
१४॥
यतू--जो; द्वि-अक्षरम्--दो अक्षरों वाले; नाम--नाम; गिरा ईरितम्--जीभ से उच्चरित होकर; नृणाम्--मनुष्यों की; सकृत्ू--एक बार; प्रसड्भात्ू--हृदय से; अधम्--पापपूर्ण कृत्य; आशु--तुरन्त; हन्ति--नष्ट कर देता है; तत्--वह; पवित्र-कीर्तिम्--शुद्ध यश; तम्--उसको; अलड्घ्य-शासनम्--जिनके आदेश की उपेक्षा नहीं की जाती; भवान्--आप; अहो--ओह; द्वेष्टि--द्वेष करते हैं; शिवम्-- भगवान् शिव से; शिव-इतर:--अशुभ |
सती ने आगे कहा : हे पिता, आप शिव से द्वेष करके घोरतम अपराध कर रहे हैं क्योंकिउनका दो अक्षरों, शि तथा व, वाला नाम मनुष्य को समस्त पापों से पवित्र करने वाला है।
उनकेआदेश की कभी उपेक्षा नहीं होती।
शिवजी सदैव शुद्ध हैं और आपके अतिरिक्त अन्य कोई उनसेद्वेष नहीं करता।
"
यत्पादपद्ां महतां मनोइलिभि-निषिवितं ब्रह्सासवार्थिभि: ।
लोकस्य यद्वर्षति चाशिषोरथिन-स्तस्मै भवान्द्रुह्मति विश्वबन्धवे ॥
१५॥
यत्-पाद-पदाम्--जिनके चरणकमल; महताम्--महान् पुरुषों के; मनः-अलिभि:--मनरूपी भौरों से; निषेवितम्--संलग्नरहकर; ब्रह्म-गरस--दिव्य आनन्द ( ब्रह्मानन्द ) का; आसव-अर्थिभि:-- अमृत की खोज में; लोकस्य--सामान्य जन की; यत्--जो; वर्षति--पूरी करता है; च--तथा; आशिष: --इच्छाएँ; अर्थिन: --ढूँढते हुए; तस्मै--उस; भवानू--आप; ब्रुह्मति--द्रोहकरते हैं; विश्व-बन्धवे--तीनों लोक की समस्त जीवात्माओं के मित्र के प्रति
आप उन शिव से द्रोह करते हैं, जो तीनों लोकों के समस्त प्राणियों के मित्र हैं।
वे सामान्यपुरुषों की समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं और ब्रह्मानन्द ( दिव्य आनन्द ) की खोज करनेवाले उन महापुरुषों को भी आशीर्वाद देते हैं, जो उनके चरण-कमलों के ध्यान में लीन रहते हैं।
"
कि वा शिवाख्यमशिवं न विवुस्त्वदन्येब्रह्मादयस्तमवकीर्य जटा: एमशाने ।
तन्माल्यभस्मनृकपाल्यवसत्पिशाचै-ये मूर्थभिर्दधति तच्चरणावसूष्टम् ॥
१६॥
किम् वा--अथवा; शिव-आख्यम्--शिव कहलाने वाले; अशिवम्--अशुभ, अमंगल; न विदु:--नहीं जानते; त्वत् अन्ये--आपके अतिरिक्त, अन्य; ब्रहा-आदय:--ब्रह्मा इत्यादि; तम्--उनको ( शिव को ); अवकीर्य--बिखेरे हुए; जटा:--जटा बनाये;श्मशाने--श्मशान में; तत्-माल्य-भस्म-नू-कपाली --जो नर-मुंडों की माला पहने और राख लगाये हुए हैं; अवसत्--संग रहनेवाले; पिशाचै:--असुरों के साथ; ये--जो; मूर्धभि:ः--शिर से; दधति--धारण करते हैं; तत्-चरण-अवसृष्टम्--उनकेचरणकमल से गिरी हुईं
क्या आप यह सोचते हैं कि आपसे भी बढ़कर सम्माननीय व्यक्ति जैसे भगवान् ब्रह्मा, इसशिव नाम से विख्यात अमंगल व्यक्ति को नहीं जानते ? वे श्मशान में असुरों के साथ रहते हैं,उनकी जटाएँ शरीर के ऊपर बिखरी रहती हैं, वे नरमुंडों की माला धारण करते हैं और एमशानकी राख शरीर में लपेटे रहते हैं, किन्तु इन अशुभ गुणों के होते हुए भी ब्रह्मा जैसे महापुरुषउनके चरणों पर चढ़ाये गये फूलों को आदरपूर्वक अपने मस्तकों पर धारण करके उनका सम्मानकरते हैं।
"
'कर्णों पिधाय निरयाद्यदकल्प ईशेधर्मावितर्यसृणिभिनृभिरस्यमाने ।
छिन्द्यात्प्रसह्य रुशतीमसती प्रभुश्ने-जिह्वामसूनपि ततो विसूजेत्स धर्म: ॥
१७॥
कर्णो--दोनों कान; पिधाय--बन्द करके; निरयात्--चले जाना चाहिए; यत्--यदि; अकल्प:-- असमर्थ; ईशे -- स्वामी; धर्म-अवितरि--धर्म का नियंत्रक; असृणिभि: --निरंकुश; नृभि:--व्यक्ति; अस्यमाने--कलंकित होकर; छिन्द्यात्--काट देनाचाहिए; प्रसह्य --बलपूर्वक; रुशतीम्--निन््दा करने वाली; असतीम्--निन्दक की; प्रभुः--समर्थ; चेत्--यदि; जिह्मामू--जी भ;असून्ू--( अपना ) जीवन; अपि--निश्चय ही; तत:--तब; विसृजेत्--त्याग देना चाहिए; सः--वह; धर्म:--विधि है|
सती ने आगे कहा : यदि कोई किसी निरंकुश व्यक्ति को धर्म के स्वामी तथा नियंत्रक कीनिन््दा करते सुने और यदि वह उसे दण्ड देने में समर्थ नहीं है, तो उसे चाहिए कि कान मूँद करवहाँ से चला जाय।
किन्तु यदि वह मारने में सक्षम है, तो उसे चाहिए कि वह बलपूर्वक निन्दककी जीभ काट ले और अपराधी का वध कर दे।
तत्पश्चात् वह अपने भी प्राण त्याग दे।
"
अतस्तवोत्पन्नमिदं कलेवरंन धारयिष्ये शितिकण्ठगर्हिण: ।
जग्धस्य मोहादिद्वि विशुद्धिमन्धसोजुगुप्सितस्योद्धरणं प्रचक्षते ॥
१८॥
अतः--इसलिए; तब--तुम से; उत्पन्नम्--प्राप्त; इदम्--यह; कलेवरम्--शरीर; न धारयिष्ये-- धारण नहीं करूँगी; शिति-'कण्ठ-गर्हिण:--शिव को अपमानित करने वाला; जग्धस्य--खाया गया; मोहात्-- भूल से; हि-- क्योंकि; विशुद्धिम्-- शुद्धि;अन्धसः-- भोजन का; जुगुप्सितस्थ--विषैला; उद्धरणम्--वमन, कै; प्रचक्षते--घोषित किया जाता है।
अतः मैं इस अयोग्य शरीर को, जिसे मैंने आपसे प्राप्त किया है और अधिक काल तकधारण नहीं करूँगी, क्योंकि आपने शिवजी की निन्दा की है।
यदि कोई विषैला भोजन कर लेतो सर्वोत्तम उपचार यही है कि उसे वमन कर दिया जाय।
"
न वेदवादाननुवर्तते मतिः स्व एव लोके रमतो महामुने: ।
यथा गतिर्देवमनुष्ययो: पृथक्स्व एव धर्मे न परं क्षिपेत्स्थित: ॥
१९॥
न--नहीं; वेद-वादान्--वेदों के विधि-विधान; अनुवर्तते--पालन करते; मति:ः --मन; स्वे-- अपनी ओर से; एब--निश्चय ही;लोके--आत्म में; रमत:-- भोगता हुआ; महा-मुने: --दिव्य पुरुषों का; यथा--जिस प्रकार; गति:--मार्ग, ढंग; देव-मनुष्ययो: --मनुष्यों तथा देवताओं का; पृथक्ू--अलग-अलग; स्वे--अपने में; एब-- अकेले; धर्मे--कर्तव्य; न--नहीं;परम्--अन्य; क्षिपेतू--आलोचना करे; स्थित:--स्थित होकर ।
दूसरों की आलोचना करने से श्रेयस्कर है कि अपना कर्तव्य निभाया जाये।
बड़े-बड़े दिव्यपुरुष भी कभी-कभी वेदों के विधि-विधानों का उल्लंघन कर देते हैं, क्योंकि उन्हें अनुसरणकरने की आवश्यकता नहीं होती, ठीक उसी प्रकार जैसे कि देवता तो आकाश मार्ग में विचरतेहैं, किन्तु सामान्य जन धरती पर चलते हैं।
"
कर्म प्रवृत्तं च निवृत्तमप्यृतंवेदे विविच्योभयलिड्रमाथ्रितम् ।
विरोधि तद्यौगपदैककर्तारिद्ववयं तथा ब्रह्मणि कर्म नरच्छति ॥
२०॥
कर्म-कार्य; प्रवृत्तम्-- भौतिक सुख में आसक्त; च--तथा; निवृत्तम्--भौतिक दृष्टि से विरक्त; अपि--निश्चय ही; ऋतम्--सत्य; वेदे--वेदों में; विविच्य--अन्तर वाले; उभय-लिड्डम्ू-दोनों के लक्षण; आश्रितम्--निर्देशित; विरोधि--विरोधी; तत्--वह; यौगपद-एक-कर्तरि--एक ही व्यक्ति में दोनों कर्म; द्ययम्ू--दो; तथा--अतः ; ब्रह्मणि--दिव्य पुरुष में; कर्म--कार्य; नऋच्छति-- उपेक्षित होते हैं।
वेदों में दो प्रकार के कर्मों के निर्देश दिये गये हैं--एक उनके लिए जो भौतिक सुख मेंलिप्त हैं और दूसरा उनके लिए जो भौतिक रूप से विरक्त हैं।
इन दो प्रकार के कर्मों का विचारकरते हुए दो प्रकार के मनुष्य हैं जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं।
यदि कोई एक ही व्यक्ति में इनदोनों प्रकार के कर्मों को देखना चाहता है, तो यह विरोधाभास होगा।
किन्तु दिव्य पुरुष के द्वाराइन दोनों प्रकार के कर्मों की उपेक्षा की जा सकती है।
"
मा व: पदव्य: पितरस्मदास्थिताया यज्ञशालासु न धूमवर्त्मभि: ।
तदन्नतृप्तैरसु भूद्धिरीडिताअव्यक्तलिड्रा अवधूतसेविता: ॥
२१॥
मा--नहीं हैं; व:--तुम्हारे; पदव्य:ः--ऐश्वर्य; पित:--हे पिता; अस्मत्-आस्थिता:--हमारे द्वारा प्राप्त; या:--जो ( ऐश्वर्य ); यज्ञ-शालासु--यज्ञ की अग्नि में; न--नहीं; धूम-वर्त्मभि:--यज्ञों के पथ द्वारा; ततू-अन्न-तृप्तैः--यज्ञ के अन्न द्वारा तृप्त; असु-भूद्धिः--शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला; ईंडिता: -- प्रशंसित; अव्यक्त-लिड्रा:--जिसका कारण प्रकट नहीं है;अवधूत-सेविता: --स्वरूपसिद्ध व्यक्तियों द्वारा प्राप्त
हे पिता, हमारे पास जो ऐश्वर्य है उसकी कल्पना कर पाना न तो आपके लिए और न आपकेचाटुकारो के लिए सम्भव है, क्योंकि जो पुरुष महान् यज्ञों को सम्पन्न करके सकाम कर्म मेंप्रवृत्त होते हैं, वे तो अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को यज्ञ में अर्पित अन्न खाकर पूरा करनेकी चिन्ता में लगे रहते हैं।
हम वैसा सोचने मात्र से ही अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन कर सकते हैं।
ऐसा वे ही कर सकते हैं, जो विरक्त, स्वरूपसिद्ध महापुरुष हैं।
"
नैतेन देहेन हरे कृतागसोदेहोद्धवेनालमलं कुजन्मना ।
ब्रीडा ममाभूत्कुजनप्रसड़तस्तज्जन्म धिग्यो महतामवद्यकृत् ॥
२२॥
न--नहीं; एतेन--इस; देहेन--देह के द्वारा; हरे--शिव के प्रति; कृत-आगसः--अपराध करके ; देह-उद्धवेन--आपके शरीर सेउत्पन्न; अलम् अलम्--बहुत हुआ, बहुत हुआ, बस बस; कु-जन्मना--निन्दनीय जन्म से; ब्रीडा--लज्जा; मम--मेरा; अभूत्--था; कु-जन-प्रसड्त:--बुरे व्यक्ति के साथ से; तत् जन्म--वह जन्म; धिक्--धिक्कार है, लजाजनक; यः--जो; महताम्ू--महापुरुषों का; अवद्य-कृत्ू--अपराधी |
आप भगवान् शिव के चरणकमलों के प्रति अपराधी हैं और दुर्भाग्यवश मेरा शरीर आपसेउत्पन्न है।
मुझे अपने इस शारीरिक सम्बन्ध के लिए अत्यधिक लज्जा आ रही है और मैं अपनीस्वयं भर्त्सना करती हूँ कि मेरा शरीर ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध से दूषित है, जो महापुरुष केचरणकमलों के प्रति अपराधी है।
"
गोत्र त्वदीयं भगवान्वृषध्वजोदाक्षायणीत्याह यदा सुदुर्मना: ।
व्यपेतनर्मस्मितमाशु तदाहंव्युत्त्रक्ष्य एतत्कुणपं त्वदड़जम् ॥
२३॥
गोत्रमू--पारिवारिक सम्बन्ध; त्वदीयम्ू--आपका; भगवान्--समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; वृषध्वज:--शिव; दाक्षायणी--दक्ष कीकन्या, दाक्षायणी; इति--इस प्रकार; आह--कहती है; यदा--जब; सुदुर्मना:--अत्यन्त खिन्न; व्यपेत--अहृश्य होते हैं; नर्म-स्मितमू--मेरी प्रसन्नता तथा हँसी; आशु--तुरन््त; तदा--तब; अहमू--मैं; व्युत्सत्रक्ष्ये--त्याग दूँगी; एतत्--यह ( शरीर );कुणपम्--मृत शरीर; त्वत्-अड्भ-जम्--तुम्हारे शरीर से उत्पन्न ।
जब शिवजी मुझे दाक्षायणी कह कर पुकारते हैं, तो अपने पारिवारिक सम्बन्ध के कारण मैंतुरन्त खिन्न हो उठती हूँ और मेरी सारी प्रसन्नता तथा हँसी तुरन्त भाग जाती है।
मुझे अत्यन्त खेदहोता है कि मेरा यह थेले जैसा शरीर आपके द्वारा उत्पन्न है।
अतः मैं इसे त्याग दूँगी।
"
मैत्रेय उवाचइत्यध्वरे दक्षमनूद्य शत्रुहन्क्षितावुदीचीं निषसाद शान्तवाक् ।
स्पृष्ठा जल॑ पीतदुकूलसंबृतानिमील्य हृग्योगपर्थं समाविशत् ॥
२४॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; अध्वरे--यज्ञस्थल में; दक्षम्-दक्ष को; अनूद्य--बोल कर; शत्रु-हन्--शत्रुओं के विनाशकर्ता; क्षितौ--पृथ्वी पर; उदीचीम्--उत्तर की ओर; निषसाद--बैठ गई; शान्त-वाक्--चुप होकर; स्पृष्ठा --छूकर; जलमू--जल; पीत-दुकूल-संवृता--पीले वस्त्रों से आच्छादित; निमील्य--मूँद कर; हक्--दृष्टि; योग-पथम्--योगक्रिया; समाविशत्-- ध्यानमग्न हो गई।
मैत्रय ऋषि ने विदुर से कहा : हे शत्रुओं के संहारक, यज्ञस्थल में अपने पिता से ऐसा कहकर सती भूमि पर उत्तरमुख होकर बैठ गईं।
केसरिया वस्त्र धारण किये उन्होंने जल से अपने कोपवित्र किया और योगक्रिया में अपने को ध्यानमग्न करने के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।
"
कृत्वा समानावनिलौ जितासनासोदानमुत्थाप्य च नाभिचक्रतः ।
शनेईदि स्थाप्य धियोरसि स्थितंकण्ठादश्रुवोर्म ध्यमनिन्दितानयत् ॥
२५॥
कृत्वा--स्थापित करके; समानौ--साम्यावस्था में; अनिलौ--प्राण तथा अपान वायुओं को; जित-आसना--आसन को वक्ष मेंकरके; सा--वह ( सती ); उदानम्--प्राण वायु; उत्थाप्य--उठाकर; च--तथा; नाभि-चक्रत:--नाभिचक्र पर; शनै: -- धीरे-धीरे; हदि--हृदय में; स्थाप्य--स्थापित करके ; धिया--बुद्धि से; उरसि--फुफ्फुस मार्ग की ओर; स्थितम्--स्थापित कीजाकर; कण्ठातू--कंठ से होकर; भ्रुवो:--भौंहों के; मध्यम्--बीच में; अनिन्दिता--निष्कलंक ( सती ); आनयत्--ऊपर लेगई।
सबसे उन्होंने अपेक्षित रीति से आसन जमाया और फिर प्राणवायु को ऊपर खींचकर नाभिके निकट सन्तुलित अवस्था में स्थापित कर दिया।
तब प्राणवायु को उत्थापित करके,बुद्धिपूर्वक उसे वे हृदय में ले गई और फिर धीरे-धीरे श्वास मार्ग से होते हुए क्रमश: दोनों भौंहोंके बीच में ले आईं।
"
एवं स्वदेहं महतां महीयसामुहुः समारोपितमड्डमादरात् ।
जिहासती दक्षरुषा मनस्विनीदधार गात्रेष्वनिलाग्निधारणाम् ॥
२६॥
एवम्--इस प्रकार; स्व-देहम्--अपना शरीर; महताम्-महान् सन््तों का; महीयसा--अत्यन्त पूज्य; मुहुः--पुनः पुनः;समारोपितम्ू--आसीन; अड्डूम्ू--गोद में; आदरात्--आदरपूर्वक; जिहासती --त्यागने की इच्छा से पूर्ण; दक्ष-रुषा--दक्ष केप्रति रोष के कारण; मनस्विनी--स्वेच्छा से; दधार--स्थापित किया; गात्रेषु--शरीर के अंगों में; अनिल-अग्नि-धारणाम्--अग्नि तथा वायु का ध्यान
इस प्रकार महर्षियों तथा सन््तों द्वारा आराध्य शिव की गोद में जिस शरीर को अत्यन्त आदरतथा प्रेम से बैठाया गया था, अपने पिता के प्रति रोष के कारण सती ने अपने उस शरीर कापरित्याग करने के लिए अपने शरीर के भीतर अग्निमय वायु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया।
श" ततः स्वभर्तुश्वरणाम्बुजासवंजगदगुरोश्विन्तयती न चापरम् ।
ददर्श देहो हतकल्मष: सतीसद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना ॥
२७॥
ततः--वहाँ; स्व-भर्तु:--अपने पति का; चरण-अम्बुज-आसवम्--चरणकमलों के अमृत पर; जगत्-गुरो:--ब्रह्माण्ड के गुरुका; चिन्तवती--चिन्तन करती हुई; न--नहीं; च--तथा; अपरम्--दूसरा ( अपने पति के अतिरिक्त ); ददर्श--देखा; देह: --शरीर; हत-कल्मष:--पाप का विनाश होकर; सती--सती; सद्य: --तुरन्त; प्रजज्वाल--जल गई; समाधि-ज-अग्निना-- ध्यानसे उत्पन्न अग्नि द्वारा ॥
सती ने अपना सारा ध्यान अपने पति जगद्गुरु शिव के पवित्र चरणकमलों पर केन्द्रित करदिया।
इस प्रकार वे समस्त पापों से शुद्ध हो गईं।
उन्होंने अग्निमय तत्त्वों के ध्यान द्वारा प्रज्वलितअग्नि में अपने शरीर का परित्याग कर दिया।
"
तत्पश्यतां खे भुवि चाद्भधुतं महद्हा हेति वादः सुमहानजायत ।
हन्त प्रिया दैवतमस्य देवीजहावसून्केन सती प्रकोषिता ॥
२८॥
ततू--उस; पश्यताम्ू-देखने वालों का; खे--आकाश में; भुवि--पृथ्वी पर; च--तथा; अद्भुतम्-- अद्भुत; महत्--अत्यधिक; हा हा--हाहाकार; इति--इस प्रकार; वाद:--गर्जन; सु-महान्--अत्यन्त शोर युक्त; अजायत--हुआ; हन्त--हाय;प्रिया--प्राणप्रिय; दैव-तमस्य--सर्वाधिक पूज्य देवता ( शिव ) की; देवी--सती ने; जहौ--त्याग दिया; असून्--अपना प्राण;केन--दक्ष द्वारा; सती--सती; प्रकोषिता--क्रुद्ध हुई
जब सती ने कोपवश अपना शरीर भस्म कर दिया तो समूचे ब्रह्माण्ड में घोर कोलाहल मचगया कि सर्वाधिक पूज्य देवता शिव की पत्नी सती ने इस प्रकार अपना शरीर क्यों छोड़ा ? अहो अनात्म्यं महदस्य पश्यतप्रजापतेर्यस्य चराचरं प्रजा: ।
"
जहावसून्यद्विमतात्मजा सतीमनस्विनी मानमभीक्ष्णममहति ॥
२९॥
अहो--ओह; अनात्म्यम्--उपेक्षा; महत्-- भारी; अस्य--दक्ष की; पश्यत--जरा देखो तो; प्रजापते: -- प्रजापति; यस्य--जिसकी; चर-अचरम्--समस्त जीवात्माएँ; प्रजा:--सन्तान; जहौ--त्याग दिया; असूनू--अपना शरीर; यत्--जिससे;विमता--अनादरित; आत्म-जा--अपनी पुत्री; सती--सती; मनस्विनी--स्वेच्छा से; मानम्--आदर, सम्मान; अभीक्षणम्--बारम्बार; अर्हति--योग्यता रखती थी।
यह आश्चर्यजनक बात है कि प्रजापति दक्ष, जो समस्त जीवात्माओं का पालनहारा है, अपनीपुत्री सती के प्रति इतना निरादरपूर्ण था कि उस परम साध्वी एवं महान् आत्मा ने उसकी उपेक्षाके कारण अपना शरीर त्याग दिया।
"
सोथयं दुर्मर्षहदयो ब्रह्मध्रुक्कलोकेपकीर्ति महतीमवाप्स्यति ।
यदड़जां स्वां पुरुषद्विडुद्यतांन प्रत्यषेधन्मृतयेउपराधत: ॥
३०॥
सः--वह; अयम्--यह; दुर्मर्ष-हदय: -- कठोर हृदय; ब्रह्म-धुक्--ब्राह्मण होने के अयोग्य; च--तथा; लोके--संसार में;अपकीर्तिम्ू--अपयश; महतीम्-- अत्यधिक; अवाप्स्यति--प्राप्त करेगा; यत्-अड्भ-जाम्--जिसकी पुत्री; स्वाम्-- अपने; पुरुष-द्विटू--शिव का शत्रु; उद्यतामू--उद्यत, तैयार; न प्रत्यषेधत्--रोका नहीं; मृतये--मृत्यु से; अपराधत:--अपने अपराधों केकारण
ऐसा दक्ष जो इतना कठोर-हृदय है कि ब्राह्मण होने के अयोग्य है, वह अपनी पुत्री के प्रतिकिये गये अपराधों के कारण अतीव अपयश को प्राप्त होगा, क्योंकि उसने अपनी पुत्री को मरनेसे नहीं रोका और वह भगवान् के प्रति अत्यन्त द्वेष रखता था।
"
बदत्येवं जने सत्या इृष्ठासुत्यागमद्भुतम् ।
दक्ष तत्पार्षदा हन्तुमुदतिष्ठन्नुदायुधा: ॥
३१॥
वदति--बातें कर रहे थे; एवम्--इस प्रकार; जने--जबकि लोग; सत्या:--सती की; दृष्टा--देखकर; असु-त्यागम्--मृत्यु,देह-त्याग; अद्भुतम्-- आश्चर्यमय; दक्षम्--दक्ष; तत्-पार्षदा:--शिव के अनुचर; हन्तुमू--मारने के लिए; उदतिष्ठन्--उठकरखड़े हुए; उदायुधा:--अपने हथियार उठाये।
जिस समय सब लोग सती की आश्चर्यजनक स्वेच्छित मृत्यु के विषय में परस्पर बातें कर रहेथे, उसी समय शिव के पार्षद, जो सती के साथ आये थे, अपने-अपने हथियार लेकर दक्ष कोमारने के लिए उद्यत हो गये।
"
तेषामापततां वेग निशाम्य भगवान्भूगु: ।
यज्ञघ्नघ्नेन यजुषा दक्षिणाग्नौ जुहाव ह ॥
३२॥
तेषामू-- उनके; आपतताम्--निकट पहुँचे; वेगम्--वेग; निशाम्य--देखकर; भगवान्--समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; भूगुः--भृगुमुनि; यज्ञ-घ्त-घ्नेन--यज्ञ को विध्वंस करने वालों को मारने के लिए; यजुषा--यजुर्वेद के मंत्रों से; दक्षिण-अग्नौ--यज्ञ कीअग्नि की दक्षिण दिशा में; जुहाव--आहुति दी; ह--निश्चय ही |
वे बलपूर्वक आगे बढ़े, किन्तु भूगु मुनि ने संकट को ताड़ लिया और याज्ञिक अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुति डालते हुए उन्होंने तुरन्त यजुर्वेद से मंत्र पढ़े जिससे यज्ञ को विध्वंस करनेवाले तुरन्त मर जाएँ।
"
अध्वर्युणा हूयमाने देवा उत्पेतुरोजसा ।
ऋभवो नाम तपसा सोम॑ प्राप्ता: सहस्त्रश: ॥
३३॥
अध्वर्युणा--पुरोहित, भृगु द्वारा; हूयमाने--आहुति डाले जाने पर; देवा:--देवता; उत्पेतु: --प्रकट हुए; ओजसा--परमशक्तिपूर्वक; ऋभव:--ऋभुगण; नाम--नामक; तपसा--तपस्या द्वारा; सोमम्--सोम; प्राप्ता:--प्राप्त हुए; सहस््रश:--हजारों |
जब भूगु मुनि ने अग्नि में आहुति डाली तो तत्क्षण ऋभु नामक हजारों देवता प्रकट हो गये।
वे सभी शक्तिशाली थे और उन्होंने सोम अर्थात् चन्द्र से शक्ति प्राप्त की थी।
"
तैरलातायुथे: सर्वे प्रभथा: सहगुहाका: ।
हन्यमाना दिशो भेजुरुशद्धिर्ब्रह्मतजसा ॥
३४॥
तैः--उनके द्वारा; अलात-आयुधैः--अग्नि के हथियारों से; सर्वे--सभी; प्रमथा:-- भूतगण; सह-गुहाका:--गुह्यकों सहित;हन्यमाना:--आक्रमण किये गये; दिश:ः--विभिन्न दिशाओं में; भेजु:-- भग गये; उशद्धि:--जलते हुए; ब्रह्य-तेजसा--ब्रह्मशक्ति से।
जब ऋशभु देवताओं ने भूतों तथा गुह्कों पर यज्ञ की अधजली समिधाओं से आक्रमण करदिया तो सती के सारे अनुचर विभिन्न दिशाओं में भागकर अदृश्य हो गये।
यह ब्रह्मतेज अर्थात्ब्राह्मणशक्ति के कारण ही सम्भव हो सका।
"
अध्याय पाँच: दक्ष के बलिदान की निराशा
4.5मैत्रेय उवाचभवो भवान्या निधन प्रजापतेर्असत्कृताया अवगम्य नारदातू ।
स्वपार्षदसैन्यं च तदध्वरभुभि-विद्रावितं क्रोधमपारमादधे ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; भव:--शिव; भवान्या:--सती का; निधनम्--मृत्यु; प्रजापतेः--प्रजापति दक्ष के कारण;असतू-कृताया:--अपमानित होकर; अवगम्य--सुनकर; नारदात्--नारद से; स्व-पार्षद-सैन्यम्-- अपने पार्षदों के सैनिक;च--तथा; ततू-अध्वर--उस ( दक्ष ) के यज्ञ ( से उत्पन्न ); ऋभुभि:--ऋभुओं द्वारा; विद्रावितम्--खदेड़ दिए गये; क्रोधम्--क्रोध; अपारमू-- असीम; आदधे--प्रदर्शित किया |
मैत्रेय ने कहा; जब शिव ने नारद से सुना कि उनकी पत्नी सती प्रजापति दक्ष द्वारा किये गयेअपमान के कारण मर चुकी हैं और ऋभुओं द्वारा उनके सैनिक खदेड़ दिये गये हैं, तो वेअत्यधिक क्रोधित हुए।
"
क्रुद्ध: सुदष्टीष्ठपुट: स धूर्जटि-जटां तडिद्वह्निसटोग्ररोचिषम् ।
उत्कृत्य रुद्र:ः सहसोत्थितो हसन्गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि ॥
२॥
क्रुद्ध:--क्रुद्ध; सु-दष्ट-ओष्ठ-पुटः-- अपने होठों को दाँतों से काटते हुए; सः--वह ( शिव ); धू:-जटि:--शरीर पर जटा धारणकिये; जटाम्ू--एक लट; तडित्--बिजली की; वह्वि--अग्नि की; सटा--ज्वाला, लपट; उग्र--भीषण; रोचिषम्-- प्रज्वलित;उत्कृत्य--नोच कर; रुद्र:ः--शिव; सहसा--तुरनन््त; उत्थित:--खड़े हो गये; हसन्ू--हँसते हुए; गम्भीर--गहरा; नाद:ः--ध्वनि;विससर्ज--पटक दिया; ताम्--उस ( बाल ) को; भुवि--पृथ्वी पर
इस प्रकार अत्यधिक क्रुद्ध होने के कारण शिव ने अपने दाँतों से होठ चबाते हुए तुरन्तअपने सिर की जटाओं से एक लट नोच ली, जो बिजली अथवा अग्नि की भाँति जलने लगी।
वेपागल की भाँति हँसते हुए तुरन्त खड़े हो गये और उस लट को पृथ्वी पर पटक दिया।
"
ततोतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवंसहस्त्रबाहुर्घनरुक्त्रिसूर्यटक् ।
करालदंष्टी ज्वलदग्निमूर्धज:कपालमाली विविधोद्यतायुध: ॥
३॥
ततः--उस समय; अतिकाय: --विशाल शरीर वाला ( वीरभद्र ); तनुवा--अपने शरीर के साथ; स्पृशन्--स्पर्श करता;दिवम्ू--आकाश; सहस्त्र--एक हजार; बाहु:--हाथ; घन-रुक्--श्याम रंग का; त्रि-सूर्य-हक्--तीन सूर्यो के समानतेज वाला;कराल-दंष्ट:ः--अत्यन्त भयानक दाढ़ों वाला; ज्वलत्-अग्नि--जलती हुईं आग ( के समान ); मूर्धज:--शिर पर बाल धारणकिये; कपाल-माली--नरमुंडों की माला पहने; विविध--अनेक प्रकार से; उद्यत--उठाये हुए; आयुध:--हथियारों से लैस
उससे आकाश के समान ऊँचा तथा तीन सूर्यों के सम्मिलित तेज के समान एक भयानकश्याम वर्ण का असुर उत्पन्न हुआ, जिसके दाँत अत्यन्त भयानक थे और उसके सिर के केशप्रज्वलित अग्नि के समान लग रहे थे।
उसके हजारों भुजाएँ थीं, जो अस्त्र-शस्त्रों से लैस थीं औरउसने नरमुंडों की माला पहन रखी थी।
"
त॑ कि करोमीति गृणन्तमाहबद्धाडलिं भगवान्भूतनाथ: ।
दक्ष सयज्ञं जहि मद्धटानांत्वमग्रणी रुद्र भटांशको मे ॥
४॥
तम्--उसको ( वीरभद्र को ); किम्--क्या; करोमि--करूँ; इति--इस प्रकार; गृणन्तम्--पूछने पर; आह--आदेश दिया;बद्ध-अद्जलिम्--हाथ जोड़ कर; भगवान्--समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी ( शिव ); भूत-नाथ:--भूतों के नाथ; दक्षम्--दक्ष को;स-यज्ञम्--उसके यज्ञ सहित; जहि--मारो; मत्-भटानाम्--मेंरे सभी पार्षदों के; त्वम्--तुम; अग्रणी:--प्रमुख; रुद्र--हे रुद्र;भट-हे युद्ध में कुशल; अंशकः--शरीर से उत्पन्न; मे--मेरे |
उस महाकाय असुर ने जब हाथ जोड़ कर पूछा, 'हे नाथ।
मैं क्या करूँ ?' भूतनाथ रूपशिव ने प्रत्यक्षतः आदेश दिया, 'तुम मेरे शरीर से उत्पन्न होने के कारण मेरे समस्त पार्षदों केप्रमुख हुए, अत: यज्ञ ( स्थल ) पर जाकर दक्ष को उसके सैनिकों सहित मार डालो।
"
आज्ञप्त एवं कुपितेन मन्युनास देवदेवं परिचक्रमे विभुम् ।
मेनेतदात्मानमसडुरंहसा महीयसां तात सहः सहिष्णुम् ॥
५॥
आज्ञप्त:--आज्ञा दी; एवम्--इस प्रकार; कुपितेन--क्रुद्ध; मन्युना--शिव द्वारा ( जो साक्षात् क्रोध हैं ); सः--उसने ( वीरभद्र );देव-देवम्--जो देवताओं द्वारा पूजित है; परिचक्रमे--परिक्रमा की; विभुम्--शिव की; मेने--विचार किया; तदा--उस समय;आत्मानम्--स्वतः; असड्र-रंहसा--शिव की शक्ति से, जिसका विरोध नहीं किया जा सकता; महीयसाम्--अत्यन्त शक्तिशालीका; तात--हे विदुर; सहः--शक्ति; सहिष्णुम्--सहने में समर्थ |
मैत्रेय ने आगे बताया : हे विदुर, वह श्याम पुरुष भगवान् का साक्षात् क्रोध था और शिवजीके आदेशों का पालन करने के लिए उद्यत था।
इस प्रकार किसी भी विरोधी शक्ति का सामनाकरने में अपने को समर्थ समझ कर उसने भगवान् शिव की प्रदक्षिणा की।
"
अन्वीयमानः स तु रुद्रपार्षदै-भ्रूशं नद॒द्धिव्यनदत्सुभैरवम् ।
उद्यम्य शूलं जगदन्तकान्तकंसम्प्राद्रवद्धोषणभूषणाडूप्रि: ॥
६॥
अन्वीयमान:--पीछे चलते हुए; सः--वह ( वीरभद्र ); तु--लेकिन; रुद्र-पार्षदै:--शिव के सैनिकों द्वारा; भूशम्--शोर करतेहुए; नदद्धिः--गर्जते हुए; व्यनदत्-- ध्वनि की; सु-भैरवम्--अत्यन्त भयानक; उद्यम्य--लेकर; शूलम्--त्रिशूल; जगत्-अन्तक- मृत्यु; अन्तकम्-मारते हुए; सम्प्राद्रवत्-( दक्ष के यज्ञ ) की ओर लपके; घोषण--गर्जते हुए; भूषण-अद्डृप्रि: --अपने पैरों में कड़े पहने।
घोर गर्जना करते हुए शिव के अन्य अनेक सैनिक भी उस भयानक असुर के साथ हो लिए।
वह एक विशाल त्रिशूल लिए हुए था, जो इतना भयानक था कि मृत्यु का भी वध करने मेंसमर्थ था और उसके पाँवों में कड़े थे, जो गर्जना करते प्रतीत हो रहे थे।
"
अथर्तिवजो यजमानः सदस्या:ककुभ्युदीच्यां प्रसमीक्ष्य रेणुम् ।
तमः किमेतत्कुत एतद्रजो भू-दिति द्विजा ट्विजपल्यश्च दध्यु: ॥
७॥
अथ--उस समय; ऋत्विज:-- पुरोहित; यजमान:--यज्ञ सम्पन्न करने वाला प्रमुख व्यक्ति ( दक्ष ); सदस्या:--यज्ञस्थल में एकत्रसभी पुरुष; ककुभि उदीच्याम्--उत्तरी दिशा में; प्रसमीक्ष्य--देखकर; रेणुम्-- धूल; तम:--अधंकार; किम्--क्या; एतत्--यह; कुतः--वहाँ से; एतत्--यह; रज:-- धूल; अभूत्-- आई है; इति--इस प्रकार; द्विजा:--ब्राह्मण; द्विज-पत्य:--ब्राह्मणोंकी पत्नियाँ; च--तथा; दध्यु:--विचार करने लगींउस समय यज्ञस्थल में एकत्रित सभी लोग--पुरोहित, प्रमुख यजमान, ब्राह्मण तथा उनकीपत्नियाँ--आश्चर्य करने लगे कि यह अंधकार कहाँ से आ रहा है।
बाद में उनकी समझ में आया कि यह धूलभरी आँधी थी और वे सभी अत्यन्त व्याकुल हो गये थे।
"
वाता न वान्ति न हि सन्ति दस्यवःप्राचीनबर्हिर्जीवति होग्रदण्डः ।
गावो न काल्यन्त इदं कुतो रजोलोकोथधुना कि प्रलयाय कल्पते ॥
८॥
वाता:ः--हवाएँ; न वान्ति--नहीं बह रही हैं; न--न तो; हि-- क्योंकि; सन्ति--सम्भव है; दस्यव: --लुटेरे; प्राचीन-बर्हि: --प्राचीन राजा बहहि; जीवति--जीवित है; ह--अब भी; उग्र-दण्ड:--जो कठोर दण्ड देगा; गाव: --गाएँ; न काल्यन्ते--हाँकीनहीं जाती; इदम्--यह; कुतः--कहाँ से; रज:--धूलि; लोक:--लोक; अधुना-- अब; किम्-- क्या; प्रलयाय--प्रलय केलिए; कल्पते--आया समझा जाय ।
आँधी के स्त्रोत के सम्बन्ध में अनुमान लगाते हुए उन्होंने कहा : न तो तेज हवाएँ चल रही हैंऔर न गौएं ही जा रही हैं, न यह सम्भव है कि यह धूल भरी आँधी लुटेरों द्वारा उठी है, क्योंकिअभी भी बलशाली राजा बर्हि उन्हें दण्ड देने के लिए जीवित है।
तो फिर यह धूलभरी आँधीकहाँ से आ रही है ? क्या इस लोक का प्रलय होने वाला है ?"
प्रसूतिमि श्रा: स्त्रिय उद्विग्नचित्ताऊचुर्विपाको वृजिनस्यैव तस्य ।
यत्पश्यन्तीनां दुहितृणां प्रजेश:सुतां सतीमवदध्यावनागाम् ॥
९॥
प्रसूति-मिश्रा: -- प्रसूति इत्यादि; स्त्रियः--स्त्रियाँ; उद्विग्न-चित्ता:--अत्यन्त उद्विग्न; ऊचु:--बोली; विपाक:--दुर्देव;वृजिनस्थ--पापकर्म का; एब--निस्सन्देह; तस्थ--उसका ( दक्ष का ); यत्--क्योंकि; पश्यन्तीनाम्ू--देखने वाली;दुहितृणाम्--अपनी बहनों का; प्रजेश:--प्रजा के स्वामी ( दक्ष ); सुताम्--पुत्री; सतीम्--सती; अवदध्यौ-- अपमानित;अनागामू--पूर्णतया निर्दोष
दक्ष की पत्नी प्रसूति एवं वहाँ पर एकत्र अन्य स्त्रियों ने अत्यन्त आकुल होकर कहा : यहसंकट दक्ष के कारण सती की मृत्यु से उत्पन्न है, क्योंकि निर्दोष सती ने अपनी बहनों के देखते-देखते अपना शरीर त्याग दिया है।
"
यस्त्वन्तकाले व्युप्तजटाकलाप:स्वशूलसूच्यर्पितदिग्गजेन्द्र: ।
वितत्य नृत्यत्युदितास्त्रदोर्ध्वजा-नुच्चाइहासस्तनयित्नुभिन्नदिक् ॥
१०॥
यः--जो ( शिव ); तु--लेकिन; अन्त-काले--प्रलय से समय; व्युप्त--छिटका कर; जटा-कलाप:ः--अपने बालों का गुच्छा;स्व-शूल--अपना त्रिशूल; सूचि--नोकों पर; अर्पित--बिंधा हुआ; दिक्-गजेन्द्र:--विभिन्न दिशाओं के शासक; वितत्य--बिखेर कर; नृत्यति--नाचता है; उदित--ऊपर उठाये; अस्त्र--हथियार; दोः --हाथ; ध्वजान्--झंडे; उच्च--ऊँचे स्वर से; अट्ट-हास--जोर की हँसी; स्तनयित्नु--घोर गर्जना से; भिन्न--विभाजित; दिक्ू--दिशाएँ |
प्रलय के समय, शिव के बाल बिखर जाते हैं और वे अपने त्रिशूल से विभिन्न दिशाओं केशासकों ( दिक्पतियों ) को बेध लेते हैं।
वे गर्वपूर्वक अट्टहास करते हुए ताण्डव नृत्य करते हैंऔर दिकपतियों की भुजाओं को पताकाओं के समान बिखेर देते हैं, जिस प्रकार मेघों की गर्जनासे समस्त लोकों में बादल छितरा जाते हैं।
"
अमर्षयित्वा तमसह्मतेजसंमन्युप्लुतं दुर्निरीक्ष्यं ध्रुकुट्या ।
करालदंष्टराभिरुदस्तभागणंस्यात्स्वस्ति कि कोपयतो विधातु: ॥
११॥
अमर्षयित्वा--नाराज करके; तमू--उसको ( शिव को ); असहा-तेजसम्--असहनीय तेज वाले; मन्यु-प्लुतम्ू--क्रोध से पूरित;दुर्निरीक्ष्म्--देखने में असमर्थ; भ्रु-कुट्या-- भौंहों के हिलने से; कराल-दंष्टाभि: --डरावने दाँतों से; उदस्त-भागणम्--ज्योतिपुंजों ( तारों ) को अस्त-व्यस्त करके; स्थात्--हो; स्वस्ति--कल्याण; किमू--कैसे; कोपयत:--( शिव को ) क्ुद्ध करनेपर; विधातु:--ब्रह्मा का।
उस विराट श्याम पुरुष ने अपने डरावने दाँत निकाल लिए।
अपनी भौंहों के चालन से उसनेआकाश भर में तारों को तितर-बितर कर दिया और उन्हें अपने प्रबल भेदक तेज से आच्छादितकर लिया।
दक्ष के कुव्यवहार के कारण दक्ष के पिता ब्रह्म तक इस घोर कोप-प्रदर्शन से नहींबच सकते थे।
"
बह्वेवमुद्रिग्नहशोच्यमानेजनेन दक्षस्य मुहुर्महात्मनः ।
उत्पेतुरुत्पाततमा: सहस्त्रशोभयावहा दिवि भूमौ च पर्यक् ॥
१२॥
बहु--अनेक; एवम्--इस प्रकार; उद्विग्न-हशा--कातर दृष्टि से; उच्यमाने--जब ऐसा कहा जा रहा था; जनेन--( यज्ञ मेंएकत्र ) व्यक्तियों द्वारा; दक्षस्य--दक्ष के; मुहुः--पुनः-पुनः; महा-आत्मन:--पुष्ट हृदय वाले, निडर; उत्पेतु:--प्रकट हुआ;उत्पात-तमा:--अत्यन्त प्रबल लक्षण; सहस्त्रश:--हजारों; भय-आवहा:-- भय उत्पन्न करने वाले; दिवि--आकाश् में; भूमौ --भूमि पर; च--तथा; पर्यकु--सभी दिशाओं से।
जब सभी लोग परस्पर बातें कर रहे थे तो दक्ष को समस्त दिशाओं से, पृथ्वी से तथाआकाश से, अशुभ संकेत ( अपशकुन ) दिखाई पड़ने लगे।
"
तावत्स रुद्रानुचरैरमहामखोनानायुधेर्वामनकैरुदायुथैः ।
पिड़्ैः पिशड्रैर्मकरोदराननै:पर्याद्रवद्धिर्विदुरान््वरुध्यत ॥
१३॥
तावत्--शीघ्र ही; सः--वह; रुद्र-अनुचरैः--शिव के अनुयायियों द्वारा; महा-मख:--महान् यज्ञस्थल; नाना--विविध प्रकारके; आयुधे:--हथियारों सहित; वामनकै:--नाटे कदके; उदायुधै:--ऊपर उठे हुए; पिड्जैः--श्यामाभ भूरे; पिशड्रैः--पीले;मकर-उदर-आननै: --मगर के समान पेट तथा मुख वालों से; पर्याद्रवद्धि:--चारों ओर दौड़ते हुए; विदुर--हे विदुर;अन्वरुध्यत--घिरा हुआ था
हे विदुर, शिव के समस्त अनुचरों ने यज्ञस्थल को घेर लिया।
वे नाटे कद के थे और अनेकप्रकार के हथियार लिये हुए थे उनके शरीर मकर के समान कुछ-कुछ काले तथा पीले थे।
वेयज्ञस्थल के चारों ओर दौड़दौड़कर उत्पात मचाने लगे।
"
केचिद्नभज्ञुः प्राग्वंशं पत्नीशालां तथापरे ।
सद आग्नीश्वशालां च तद्विहारं महानसम् ॥
१४॥
केचित्--किन्हीं ने; बभज्जञु;--गिरा दिया; प्राकु-वंशम्--यज्ञ-मंडप के ख भों को; पली-शालाम्--स्त्रियों के कक्ष; तथा--भी; अपरे--अन्य; सदः --यज्ञशाला; आग्नी ध्र-शालाम्--पुरोहितों का आवास; च--तथा; तत्-विहारम्--यजमान का घर;महा-अनसम्--पाकशाला।
कुछ सैनिकों ने यज्ञ-पंडाल के आधार-स्तम्भों को नीचे गिरा दिया, कुछ स्त्रियों के कक्ष मेंघुस गये, कुछ ने यज्ञस्थान को विनष्ट करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ रसोई घर तथाआवासीय कक्षों में घुस गये।
"
रुसजुर्यज्ञपात्राणि तथेके ग्नीननाशयन् ।
कुण्डेष्वमूत्रयन्केचिद्विभिदुर्वेदिमिखला: ॥
१५॥
रुरुजु:--तोड़ डाला; यज्ञ-पात्राणि--यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले पात्रों को; तथा--इस प्रकार; एके --कुछ ने; अग्नीन्ू--यज्ञ कीअग्नियाँ; अनाशयन्--बुझा दीं; कुण्डेषु--यज्ञ स्थल में; अमूत्रयन्ू--पेशाब कर दिया; केचित्--किन््हीं ने; बिभिदु:--फाड़डाला; वेदि-मेखला:--यज्ञस्थल की सीमा रेखाएँ।
उन्होंने यज्ञ के सभी पात्र तोड़ दिये और उनमें से कुछ यज्ञ-अग्नि को बुझाने लगे।
कुछेक नेतो यज्ञस्थल की सीमांकन मेखलाएँ तोड़ दी और कुछ ने यज्ञस्थल में पेशाब कर दिया।
"
अबाधन्त मुनीनन्ये एके पत्नीरतर्जयन् ।
अपरे जगुहुर्देवान्प्रत्यासन्नान्पलायितान् ॥
१६॥
अबाधन्त--रास्ता रोक लिया; मुनीन्--मुनियों को; अन्ये--दूसरे; एके--कुछ ने; पतली: --स्त्रियों को; अतर्जयन्--डराया-धमकाया; अपरे-- अन्य; जगृहु: --बन्दी कर लिया; देवान्ू--देवताओं को; प्रत्यासन्नान्ू--निकट ही; पलायितानू-- भगने वालोंको
इनमें से कुछ ने भागते मुनियों का रास्ता रोक लिया, किन्हीं ने वहाँ पर एकत्र स्त्रियों कोडराया-धमकाया और कुछ ने पण्डाल से भागते हुए देवताओं को बन्दी बना लिया।
"
भूगुं बबन्ध मणिमान्वीरभद्र: प्रजापतिम् ।
चण्डेशः पूषणं देवं भगं नन््दी श्वरोग्रहीत् ॥
१७॥
भृगुम्-- भूगु मुनि को; बबन्ध--बन्दी कर लिया; मणिमान्--मणिमान ने; वीरभद्गर:--वीरभद्र ने; प्रजापतिम्--प्रजापति दक्षको; चण्डेश: -- चण्डेश ने; पूषणम्--पूषा को; देवम्--देवता; भगम्-- भग; नन््दी श्वर: --नन्दी श्वर ने; अग्रहीत्ू-- बन्दी करलिया
शिव के एक अनुचर मणिमान ने भृगु मुनि को बन्दी बना लिया तथा श्याम असुर वीरभद्र नेप्रजापति दक्ष को पकड़ लिया।
एक अन्य अनुचर चण्डेश ने पूषा को तथा नन्न्दीश्वर ने भग देवताको बन्दी बना लिया।
"
सर्व एवर्त्वजो इृष्टा सदस्या: सदिवौकस: ।
तैरच्माना: सुभूशं ग्रावभिनेकधाद्रवन् ॥
१८॥
सर्वे--सभी; एव--निश्चय ही; ऋत्विज: --पुरोहित; हृष्टा--देखकर; सदस्या: --यज्ञ में एकत्र सभी सदस्य; स-दिवौकसः--देवताओं सहित; तैः--उन ९ पत्थरों ); अर्द्यमाना:--विचलित होकर; सु-भूशम्--अत्यधिक; ग्रावभि: --पत्थरों से; न एकधा--विभिन्न दिशाओं में; अद्रबन्--तितर-बितर हो गये।
लगातार पत्थरों की वर्षा के कारण समस्त पुरोहित तथा यज्ञ में एकत्र अन्य सदस्य महान्संकट में पड़ गये।
अपने प्राणों के भय से वे चारों ओर तितर-बितर हो गये।
"
जुह्बतः स्त्रुवहस्तस्य एमश्रूणि भगवान्भव: ।
भगोर्लुलुल्ले सदसि योहसच्छ्म श्रु दर्शयन् ॥
१९॥
जुह्तः--हवन करते हुए; स्नरुब-हस्तस्य--हाथ में स्त्रुवा लिए; श्मश्रूणि --मूँछ; भगवान्ू--समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; भव:--वीरभद्र; भूगो: -- भूगुमुनि की; लुलुझ्षे--नोंच लीं; सदसि--भरी सभा में; य:--जो ( भृगुमुनि )) अहसत्--हँसा था; श्मश्रु--मूँछ; दर्शयन्ू--दिखाते हुएवीरभद्र ने अपने हाथों से अग्नि में आहुति डालते हुए भूगुमुनि की मूँछ नोच ली।
"
भगस्य नेत्रे भगवान्पातितस्य रुषा भुवि ।
उज्जहार सदस्थोक्ष्णा यः शपन्तमसूसुचत् ॥
२०॥
भगस्य-- भग की; नेत्रे--दोनों आँखें; भगवान्--वीरभद्र; पातितस्य--गिरा करके; रुषा--रोषपूर्वक; भुवि--पृथ्वी पर;उजहार--निकाल लीं; सद-स्थ:--विश्वसृक् की सभा में स्थित; अक्ष्णा--अपनी भृकुटियों के हिलने से; यः--जो ( भग );शपन्तमू--( शिव को ) शाप देता ( दक्ष ); असूसुचत्--उकसाया था।
वीरभद्र ने तुरन्त उस भग को पकड़ लिया, जो भूगु द्वारा शिव को शाप देते समय अपनीभौहे मटका रहा था।
उसने अत्यन्त क्रोध में आकर भग को पृथ्वी पर पटक दिया और बलपूर्वक उसकी आँखें निकाल लीं।
"
पृष्णो ह्पातयहन्तान्कालिड्रस्य यथा बल: ।
शप्यमाने गरिमणि योहसहर्शयन्दतः ॥
२१॥
पृष्ण:--पूषा का; हि--चूँकि; अपातयत्--निकाल लिया; दन्तान्ू--दाँत; कालिड्रस्थ--कलिंग के राजा के; यथा--जिसप्रकार; बल:--बलदेव ने; शप्यमाने--शाप दिये जाने पर; गरिमणि--शिव; य:--जो ( पूषा ); अहसतू-- हँसा था; दर्शयन्--दिखाते हुए; दतः--दाँत |
जिस प्रकार बलदेव ने अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में द्यूतक्रीड़ा के समय कलिंगराज दंतवक्रके दाँत निकाल लिये थे, उसी प्रकार से वीरभद्र ने दक्ष तथा पूषा दोनों के दाँत उखाड़ लिये,क्योंकि दक्ष ने शिव को शाप दिये जाते समय दाँत दिखाये थे और पूषा ने भी सहमति स्वरूपहँसते हुए दाँत दिखाए थे।
"
आक्रम्योरसि दक्षस्य शितधारेण हेतिना ।
छिन्दन्नपि तदुद्धर्तु नाशक्नोत्त्यम्बकस्तदा ॥
२२॥
आक्रम्य--बैठकर; उरसि--छाती पर; दक्षस्थ--दक्ष की; शित-धारेण--तीक्ष्ण धार वाले; हेतिना--हथियार से; छिन्दन्--काटते हुए; अपि-- भी; तत्--वह ( सिर ); उद्धर्तुमू-पृथक् करने में; न अशकनोत्--समर्थ न हुआ; त्रि-अम्बक:--वीरभद्र( तीन नेत्रों वाला ); तदा--तत्पश्चात्
तब वह दैत्य सहृश पुरुष वीरभद्र दक्ष की छाती पर चढ़ बैठा और तीक्ष्ण हथियार से उसकेशरीर से सिर काटकर अलग करने का प्रयत्न करने लगा, किन्तु सफल नहीं हुआ।
"
शस्त्रैरस्त्रान्वितिरेवमनिर्भिन्नत्वचं हर: ।
विस्मयं परमापन्नो दध्यौँ पशुपतिश्चिरम् ॥
२३॥
शस्त्र: --हथियार से; अस्त्र-अन्वितै:ः--मंत्रों से; एवम्--इस प्रकार; अनिर्भिन्न--न कटने से; त्वचम्--चमड़ा; हर: --वीरभद्र ने;विस्मयम्ू--विस्मित; परम्--अत्यधिक; आपतन्न:-- चकित; दध्यौ--सोचा; पशुपति:-- वीरभद्र; चिरमू--दीर्घ-काल तक
उसने मंत्रों तथा हथियारों के बल पर दक्ष का सिर काटना चाहा, किन्तु दक्ष के सिर कीचमड़ी तक को काट पाना दूभर हो रहा था।
इस प्रकार वीरभद्र अत्यधिक चकित हुआ।
"
इृष्टा संज्ञपनं योगं पशूनां स पतिर्मखे ।
यजमानपशोः कस्य कायात्तेनाहरच्छिर: ॥
२४॥
इृष्ठा--देखकर; संज्ञपनम्--यज्ञ में पशुओं के वध के लिए; योगम्--युक्ति; पशूनाम्--पशुओं की; सः--वह ( वीरभद्र );'पति:--स्वामी; मखे--यज्ञ में; यजमान-पशो:--यजमान रूपी पशु; कस्य--दक्ष का; कायात्--शरीर से; तेन--उस ( युक्ति )से; अहरतू--काट दिया; शिरः--उसका सिर
तब वीरभद्र ने यज्ञशाला में लकड़ी की बनी युक्ति ( करनी ) देखी जिससे पशुओं का वधकिया जाता था।
उसने दक्ष का सिर काटने में इसका लाभ उठाया।
"
साधुवादस्तदा तेषां कर्म तत्तस्य पश्यताम् ।
भूतप्रेतपिशाचानां अन्येषां तद्विपर्यय: ॥
२५॥
साधु-वाद:--वाहवाही; तदा--उस समय; तेषाम्ू--उनके ( शिव के अनुचरों के ); कर्म--क्रिया; तत्--वह; तस्य--उस( वीरभद्र ) का; पश्यताम्-देखते हुए; भूत-प्रेत-पिशाचानाम्-- भूतों, प्रेतों तथा पिशाचों का; अन्येषाम्--अन्यों ( दक्ष केदल ) का; ततू-विपर्यय:--इसके विपरीत ( शोकपूर्ण शब्द, हाहाकार )
वीरभद्र के कार्य से शिवजी के दल को प्रसन्नता हुई और वह वाह-वाह कर उठा तथा जितनेभी भूत, प्रेत तथा असुर वहाँ आये थे, उन सबों ने भयानक किलकारियाँ भरी।
दूसरी ओर, यज्ञका भार सँभालने वाले ब्राह्मण दक्ष की मृत्यु के कारण शोक से चीत्कार करने लगे।
जुहावैतच्छिरस्तस्मिन्दक्षिणाग्नावमर्षित: ।
तद्देवयजन दबग्ध्वा प्रातिष्ठद्गुह्यकालयम् ॥
२६॥
जुहाव--आहुति की; एतत्--वह; शिर: --सिर; तस्मिन्--उसमें; दक्षिण-अग्नौ--दक्षिण दिशा की यज्ञ-अग्नि में; अमर्षित: --अत्यन्त क्रुद्ध वीरभद्र; तत्ू--दक्ष का; देव-यजनम्--देवताओं के यज्ञ की व्यवस्था; दग्ध्वा--आग लगाकर; प्रातिष्ठत्--विदाहुआ; गुह्मक-आलयम्--गुह्मकों के धाम ( कैलास )
फिर वीरभद्र ने उस सिर को लेकर अत्यन्त क्रोध से यज्ञ अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुतिके रूप में डाल दिया।
इस प्रकार शिव के अनुचरों ने यज्ञ की सारी व्यवस्था तहस-नहस करडाली और समस्त यज्ञ क्षेत्र में आग लगाकर अपने स्वामी के धाम, कैलास के लिए प्रस्थानकिया।
"
अध्याय छह: ब्रह्मा भगवान शिव को संतुष्ट करते हैं
4.6मैत्रेय उवाचअथ देवगणा: सर्वे रुद्रानीकै: पराजिता: ।
शूलपट्टिशनिस्त्रिशगदापरिघमुद्गरः ॥
१॥
सज्छिन्नभिन्नसर्वाजझ्ञः सर्तिविक्सभ्या भयाकुलाः ।
स्वयम्भुवे नमस्कृत्य कार््स््येनेतज्यवेदयन् ॥
२॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; अथ--इसके पश्चात्; देव-गणा:--देवता; सर्वे--समस्त; रुद्र-अनीकैः --शिव के सैनिकों से;'पराजिता:--हार कर; शूल--त्रिशूल; पट्टिश--तेजधार का भाला; निर्त्रिश--तलवार; गदा--गदा; परिघ--लोहे की साँग,परिघ; मुद्गरः --मुद्गर से; सिछन्न-भिन्न-सर्व-अड्भा:--अंग-प्रत्यंग घायल; स-ऋत्विक् -सभ्या:-- समस्त पुरोहित तथा यज्ञ-सभा के सदस्यों सहित; भय-आकुला:--अत्यधिक भय से; स्वयम्भुवे-- भगवान् ब्रह्मा को; नमस्कृत्य--नमस्कार करके;कार्ल्स्येन--विस्तार में; एतत्--दक्ष के यज्ञ की घटना; न्यवेदयन्--विस्तार से निवेदन किया, सूचित किया।
जब समस्त पुरोहित तथा यज्ञ-सभा के सभी सदस्य और देवतागण शिवजी के सैनिकों द्वारापराजित कर दिये गये और त्रिशूल तथा तलवार जैसे हथियारों से घायल कर दिये गये, तब वेडरते हुए ब्रह्माजी के पास पहुँचे।
उनको नमस्कार करने के पश्चात्,जो हुआ था, उन्होंने विस्तारसे उसके विषय में बोलना प्रारम्भ किया।
"
उपलभ्य प्रैवैतद्भधगवानब्जसम्भव: ।
नारायणश्च विश्वात्मा न कस्याध्वरमीयतु: ॥
३॥
उपलभ्य--जानकर; पुरा-पहले से; एब--निश्चय ही; एतत्--दक्ष के यज्ञ की ये सभी घटनाएँ; भगवान्--समस्त ऐश्वर्यों केस्वामी; अब्ज-सम्भव:--कमल से उत्पन्न ( ब्रह्म ); नारायण:--नारायण; च--तथा; विश्व-आत्मा--सम्पूर्ण विश्व के परमात्मा;न--नहीं; कस्य--दक्ष के; अध्वरम्--यज्ञ में; ईयतु:--गये |
ब्रह्मा तथा विष्णु दोनों ही पहले से जान गये थे कि दक्ष के यज्ञ-स्थल में ऐसी घटनाएँ होंगी,अतः पहले से पूर्वानुमान हो जाने से वे उस यज्ञ में नहीं गये।
"
तदाकर्ण्य विभुः प्राह तेजीयसि कृतागसि ।
क्षेमाय तत्र सा भूयात्र प्रायेण बुभूषताम् ॥
४॥
तत्--देवों तथा अन्यों द्वारा वर्णित घटनाएँ; आकर्ण्य--सुनकर; विभु:--ब्रह्मा ने; प्राह--उत्तर दिया; तेजीयसि--महापुरुष;कृत-आगसि--अपराध किया गया; क्षेमाय--अपनी कुशलता के लिए; तत्र--उस प्रकार; सा--वह; भूयात् न--अच्छा नहींहै; प्रायेण--सामान्यत; बुभूषताम्--रहने की इच्छा |
जब ब्रह्मा ने देवताओं तथा यज्ञ में सम्मिलित होने वाले सदस्यों से सब कुछ सुन लिया तोउन्होंने उत्तर दिया; यदि तुम किसी महापुरुष की निन्दा करके उसके चरणकमलों की अवमाननाकरते हो तो यज्ञ करके तुम कभी सुखी नहीं रह सकते।
तुम्हें इस तरह से सुख की प्राप्ति नहीं होसकती।
"
अथापि यूयं कृतकिल्बिषा भवंये बर्हिषो भागभाजं परादु: ।
प्रसादयध्व॑ परिशुद्धचेतसाक्षिप्रप्रसादं प्रगृहीताड्पप्रिपद्ाम् ॥
५॥
अथ अपि--फिर भी; यूयम्ू--तुम सबों ने; कृत-किल्बिषा:--पाप करके; भवम्--शिव को; ये--तुम सभी; बर्हिष: --यज्ञका; भाग-भाजम्--प्राप्य भाग; परादु:--से अलग कर दिया है; प्रसादयध्वम्ू--तुम सभी प्रसन्न होओ; परिशुद्ध-चेतसा--बिनाकिसी हिचक के; क्षिप्र-प्रसादम्-तुरन्त दया; प्रगृहीत-अड्घ्रि-पद्यम्--चरणकमलों की शरण ग्रहण करके
तुम लोगों ने शिव को प्राप्य यज्ञ-भाग ग्रहण करने से वंचित किया है, अतः तुम सभी उनके चरणकमलों के प्रति अपराधी हो।
फिर भी, यदि तुम बिना किसी हिचक के उनके पास जाओऔर उनको आत्मसमर्पण करके उनके चरणकमलों में गिरो तो वे अत्यन्त प्रसन्न होंगे।
"
आशासाना जीवितमध्वरस्यलोकः सपालः कुपिते न यस्मिन् ।
तमाशु देवं प्रियया विहीनक्षमापयध्वं हृदि विद्धं दुरुक्तै: ॥
६॥
आशासाना: --पूछने के इच्छुक; जीवितमू--अवधि तक; अध्वरस्य--यज्ञ की; लोक:--समस्त लोक; स-पाल:--अपनेनियामकों सहित; कुपिते--क्रुद्ध होने पर; न--नहीं; यस्मिन्--जिसको; तम्ू--वह; आशु--तुरनन््त; देवम्--शिव से; प्रियया--अपनी प्रिया से; विहीनम्--रहित; क्षमापयध्वम्-- क्षमा माँगो; हृदि-- उसके हृदय में; विद्धम्--अत्यन्त दुखी; दुरुक्तै:--कटुबचनों से ब
्रह्मा ने उन्हें यह भी बतलाया कि शिवजी इतने शक्तिमान हैं कि उनके कोप से समस्त लोकतथा इनके प्रमुख लोकपाल तुरन्त ही विनष्ट हो सकते हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि विशेषकरहाल ही में अपनी प्रियतमा के निधन के कारण वे बहुत ही दुखी हैं और दक्ष के कटुवचनों सेअत्यन्त मर्माहत हैं।
ऐसी स्थिति में ब्रह्मा ने उन्हें सुझाया कि उनके लिए कल्याणप्रद यह होगा किवे तुरन्त उनके पास जाकर उनसे क्षमा माँगें।
"
नाहं न यज्ञो न च यूयमन्येये देहभाजो मुनयश्च तत्त्वम् ।
विदुः प्रमाणं बलवीर्ययोर्वायस्यात्मतन्त्रस्य क उपायं विधित्सेत् ॥
७॥
न--नहीं; अहमू--मैं; न--न तो; यज्ञ:--इन्द्र; न--न तो; च--तथा; यूयम्--तुम सभी; अन्ये--दूसरे; ये--जो; देह-भाज:--देहधारी; मुनवः--मुनि; च--तथा; तत्त्वम्--सच्चाई; विदुः--जानते हैं; प्रमाणम्--विस्तार; बल-वीर्ययो: --बल तथा वीर्य;वा--अथवा; यस्य--शिव का; आत्म-तन्त्रस्य--आत्मनिर्भर शिव का; कः--क्या; उपायम्--साधन; विधित्सेत--निकालनाचाहेगा।
ब्रह्म ने कहा कि न तो वे स्वयं, न इन्द्र, न यज्ञस्थल में समवेत समस्त सदस्य ही अथवासभी मुनिगण ही जान सकते हैं कि शिव कितने शक्तिमान हैं।
ऐसी अवस्था में ऐसा कौन होगाजो उनके चरणकमलों पर पाप करने का दुस्साहस करेगा ?"
स इत्थमादिश्य सुरानजस्तु तैःसमन्वितः पितृभि: सप्रजेशै: ।
ययौ स्वधिष्णयान्निलयं पुरद्दिषःकैलासमद्रिप्रवरं प्रियं प्रभोः ॥
८ ॥
सः--वह ( ब्रह्मा ); इत्थम्--इस प्रकार; आदिश्य--शिक्षा देकर; सुरान्ू--देवों को; अजः--ब्रह्मा; तु--तब; तैः--उनके;समन्वित:--सहित; पितृभि:--पितरों; स-प्रजेशै:ः--जीवात्माओं के स्वामियों सहित; ययौ--चले गये; स्व-धिष्ण्यात्-- अपनेस्थान से; निलयम्-- धाम; पुर-द्विष:--शिव का; कैलासम्ू--कैलास; अद्वि-प्रवरम्--पर्वतों में श्रेष्ठ; प्रियम्--प्रिय; प्रभो:--प्रभु (शिव ) का।
इस प्रकार समस्त देवताओं, पितरों तथा जीवात्माओं के अधिपतियों को उपदेश देकर ब्रह्माने उन सबों को अपने साथ ले लिया और शिव के धाम पर्वतों में श्रेष्ठ केलास पर्वत के लिए प्रस्थान किया।
"
जन्मौषधितपोमन्त्रयोगसिद्धैनरितरै: ।
जुष्टे किन्नरगन्धर्वैरप्सरोभिवृत सदा ॥
९॥
जन्म--जन्म; औषधि--जड़ी-बूटियाँ; तपः--तपस्या; मन्त्र--वैदिक मंत्र; योग--योग-अभ्यास; सिद्धै:--सिद्ध पुरुषों द्वारा;नर-इतरैः--देवताओं द्वारा; जुष्टम्-- भोगा गया; किन्नर-गन्धर्व: --किन्नरों तथा गन्धर्वों द्वारा; अप्सरोभि:--अप्सराओं द्वारा;बृतम्-पूर्ण; सदा--सदैव |
कैलास नामक धाम विभिन्न जड़ी-बूटियों तथा वनस्पतियों से भरा हुआ है और वैदिक मंत्रोंतथा योग-अभ्यास द्वारा पवित्र हो गया है।
इस प्रकार इस धाम के वासी जन्म से ही देवता हैंऔर समस्त योगशक्तियों से युक्त हैं।
इनके अतिरिक्त यहाँ पर अन्य मनुष्य हैं, जो किन्नर तथागन्धर्व कहलाते हैं और वे अपनी-अपनी सुन्दर स्त्रियों के संग रहते हैं, जो अप्सराएँ कहलाती हैं।
"
नानामणिमयै: श्रुड्ठै्ननाधातुविचित्रितैः ।
नानाहुमलतागुल्मैर्नानामृगगणावृतैः ॥
१०॥
नाना--विभिन्न प्रकार के; मणि--रल; मयै:--से निर्मित; श्रृद्ठौ:--चोटियों से; नाना-धातु-विचित्रितैः--अनेक धातुओं सेअलंकृत; नाना--विभिन्न; द्रुम--वृक्ष; लता--बेलें, लताएँ; गुल्मैः --वृक्ष; नाना--विविध; मृग-गण--हिरनों के समूहों द्वारा;आवृतैः--आबाद।
कैलास समस्त प्रकार की बहुमूल्य मणियों तथा खनिजों ( धातुओं ) से युक्त पर्वतों से भराहुआ है और सभी प्रकार के मूल्यवान वृक्षों तथा पौधों द्वारा घिरा हुआ है।
पर्वतों की चोटियाँतरह-तरह के हिरनों से शोभायमान हैं।
"
नानामलप्रस्त्रवणैर्नानाकन्दरसानुभि: ।
रमणं विहरन्तीनां रमणै: सिद्धयोषिताम् ॥
११॥
नाना--विविध; अमल--निर्मल, पारदर्शी ; प्रस्नवणै:--जल प्रपातों से; नाना--विविध; कन्दर--गुफाएँ; सानुभि:--चोटियोंसे; रमणम्--आनन्द प्रदान करती हुईं; विहरन्तीनाम्ू--विहार करती हुई; रमणैः--अपने-अपने प्रेमियों सहित; सिद्ध-योषिताम्ू--योगियों की प्रियतमाओं के |
वहाँ अनेक झरने हैं और पर्वतों में अनेक गुफाएँ हैं जिनमें योगियों की अत्यन्त सुन्दर पत्नियाँ रहती हैं।
"
मयूरकेकाभिरुतं मदान्धालिविमूच्छितम् ।
प्लावितै रक्तकण्ठानां कूजितैश्व पतत्त्रिणाम्ू ॥
१२॥
मयूर--मोरों की; केका--बोली ( शोर ); अभिरुतमू--गुंजायमान; मद--मादकता से; अन्ध--अंधे हुए; अलि-- भौरों से;विमूर्च्छितम्--गुंजायमान; प्लावितै:ः --गायन से; रक्त-कण्ठानाम्ू--कोयलों के; कूजितैः--कूजन ( कलरव ) से; च--तथा;'पतत्रिणाम्ू--अन्य
पक्षियों के कैलास पर्वत पर सदैव मोरों की मधुर ध्वनि तथा भौंरों के गुंजार की ध्वनि गूँजती रहती है।
कोयलें सदैव कूजती रहती हैं और अन्य पक्षी परस्पर कलरव करते रहते हैं।
"
आह्यन्तमिवोद्धस्तैद्वि जान्कामदुषैर्दधमै: ।
ब्रजन्तमिव मातड़ै्गृणन्तमिव निझरैः ॥
१३॥
आह्यन्तम्--बुलाते हुए; इव--मानो; उत्-हस्तैः --उठे हुए हाथों ( डालियों ) से; द्विजान्--पक्षियों को; काम-दुघै:--कामप्रद,मनोरथ पूरा करने वाले; द्रमै:--वृक्षों से; ब्रजन्तम्ू--चलते हुए; इब--मानों; मातड्लैः--हाथियों द्वारा; गृणन्तम्--चिग्घाड़ करते;इब--मानो; निझरै:--झरनों के द्वारा।
वहाँ पर सीधी शाखाओं वाले ऊँचे-ऊँचे वृक्ष हैं, जो मधुर पक्षियों को बुलाते प्रतीत होते हैंऔर जब हाथियों के झुंड पर्वतों के पास से गुजरते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो कैलास पर्वतउनके साथ-साथ चल रहा है।
जब झरनों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, तो ऐसा प्रतीत होता हैमानो कैलास पर्वत भी सुर में सुर मिला रहा हो।
"
मन्दारैः पारिजातैश्व सरलैश्लोपशोभितम् ।
तमालै: शालतालैश्व कोविदारासनार्जुनै: ॥
१४॥
चूते: कदम्बैर्नपैश्व नागपुन्नागचम्पकै: ।
पाटलाशोकबकुलै: कुन्दे: कुरबकैरपि ॥
१५॥
मन्दारैः--मन्दार से; पारिजातै:--पारिजात से; च--तथा; सरलैः--सरल से; च--तथा; उपशोभितम्--अलंकृत; तमालै:--तमाल वृक्षों से; शाल-तालैः:--शाल तथा ताड़ वृक्षों से; च--तथा; कोविदार-आसन-अर्जुनै:--कोविदार, आसन( विजयसार ) तथा अर्जुन वृक्षों से; चूतेः-- आम का एक प्रकार; कदम्बै:ः--कदम्ब वृक्षों से; नीपैः--नीपों से ( धूलि कदम्बोंसे ); च--तथा; नाग-पुन्नाग-चम्पकै:--नाग, पुन्नाग तथा चम्पक से; पाटल-अशोक-बकुलैः --पाटल, अशोक तथा बकुल से;कुन्दैः--कुन्द से; कुरबकै:--कुरबक से; अपि--भी
पूरा कैलास पर्वत अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित है, जिनमें से उल्लेखनीय नाम हैं--मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, ताल, कोविदार, आसन, अर्जुन, आम्र-जाति, कदम्ब, धूलि-कदम्ब, नाग, पुन्नाग, चम्पक, पाटल, अशोक, बकुल, कुंद तथा कुरबक।
सारा पर्वत ऐसे वृक्षोंसे सुसज्जित है जिनमें सुगन्धित पुष्प निकलते हैं।
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स्वर्णार्णशतपत्रै श्व वररेणुकजातिभि: ।
कुब्जकैर्मल्लिकाभिश्व माधवीभिश्व मण्डितम् ॥
१६॥
स्वर्णार्ण--सुनहरे रंग का; शत-पत्रै:ः--कमलों से; च--तथा; वर-रेणुक-जातिभि:--वर, रेणुक तथा मालती से; कुब्जकै: --कुब्जकों से; मल्लिकाभि:--मल्लिकाओं से; च--तथा; माधवीभि: --माधवी से; च--तथा; मण्डितम्ू--सुशोभित, अलंकृत ;वहाँ अन्य वृक्ष भी हैं, जो पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं, यथा सुनहरा कमलपुष्प, दारचीनी,मालती, कुब्ज, मल्लिका तथा माधवी।
"
पनसोदुम्बराश्चत्थप्लक्षन्यग्रोधहिड्बुभि: ।
भूजैरोषधिभि: पूगै राजपूगैश्च जम्बुभि: ॥
१७॥
पनस-उदुम्बर-अश्वत्थ-प्लक्ष-न्यग्रो ध-हिड्डुभि: --पनस ( कटहल ), उदुम्बर, अश्रत्थ, प्लक्ष, न्यग्रोध तथा हींग उत्पन्न करने वालेवृक्ष; भूजैं: -- भोजपत्र से; ओषधिभि: --सुपारी वृक्षों से; पूगैः--पूण से; राजपूगैः --राजपूगों से; च--तथा; जम्बुभि:--जामुनसे
कैलास पर्वत जिन अन्य वृक्षों से सुशोभित है वे हैं कट अर्थात् कटहल, गूलर, बरगद,पाकड़, न्यग्रोध तथा हींग उत्पादक वृक्ष।
इसके अतिरिक्त सुपारी, भोजपत्र, राजपूग, जामुन तथाइसी प्रकार के अन्य वृक्ष हैं।
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खर्जूराग्रातकाम्राद्यै: प्रियालमथुकेड्डुदै: ।
द्रुमजातिभिरन्यैश्व राजितं वेणुकीचकै: ॥
१८ ॥
खर्जूर-आम्रातक-आम्र-आद्यै:--खजूर, आम्रातक, आम्र तथा अन्य वृक्षों से; प्रियाल-मधुक-इब्डुदैः--प्रियाल, मधुक तथा इंगुदसे; द्रुम-जातिभि:--वृक्षों की जातियों से; अन्यैः--अन्य; च--तथा; राजितम्--सुशोभित्; वेणु-कीचकै :--वेणु ( बाँस ) तथा'कीचक ( खोखले बाँस ) से |
वहाँ आम, प्रियाल, मधुक ( महुआ ) तथा इंगुद ( च्यूर ) के वृक्ष हैं।
इनके अतिरिक्त पतलेबाँस, कीचक तथा बाँसों की अन्य किस्में कैलास पर्वत को सुशोभित करने वाली हैं।
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कुमुदोत्पलकह्लारशतपत्रवनर्द्धिभि: ।
नलिनीषु कल॑ कूजत्खगवृन्दोपशोभितम् ॥
१९॥
मृगैः शाखामूृगैः क्रोडैमृगेन्द्रैसक्षशल्यकै: ।
गवयै: शरभेव्यप्रि रुरुभिर्महिषादिभि: ॥
२०॥
कुमुद--कुमुद; उत्पल--उत्पल; कह्लार--कल्हार; शतपत्र--कमल; वन--जंगल; ऋद्ध्धिभि:--से आच्छादित; नलिनीषु--झीलों में; कलम्-- अत्यन्त मधुर; कूजत्--चहकते हुए; खग--पक्षियों का; वृन्द--समूह; उपशोभितम्--से अलकूंत; मृगैः--हिरनों से; शाखा-मृगैः--बन्दरों से; क्रोडै:--सुअरों से; मृग-इन्द्रै:--सिंहों से; ऋक्ष-शल्यकै:ः--रीछों तथा साहियों से;गवयै:--नील गायों से; शरभे:--जंगली गधों से; व्याप्रै:--बाघों से; रुकूभिः--एक प्रकार के छोटे मृग से; महिष-आदिभि:--भैंसे आदि से |
वहाँ कई प्रकार के कमल पुष्प हैं यथा कुमुद, उत्पल, शतपत्र।
वहाँ का वन अलकूंत उद्यानसा प्रतीत होता है और छोटी-छोटी झीलें विभिन्न प्रकार के पक्षियों सें भरी पड़ी हैं, जो अत्यन्तमीठे स्वर से चहकती हैं।
साथ ही कई प्रकार के अन्य पशु भी पाये जाते हैं, यथा मृग, बन्दर,सुअर, सिंह, रीछ, साही, नील गाय, जंगली गधे, लघुमृग, भेंसे इत्यादि जो अपने जीवन का पूराआनन्द उठाते हैं।
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कर्णानत्रैकपदाश्रास्यर्निर्जुष्ट वृकनाभिभि: ।
कदलीखण्डसंरुद्धनलिनीपुलिनअियम् ॥
२१॥
कर्णानत्र--कर्णात्र से; एकपद--एकपद; अश्वास्यै:--अश्वास्य से; निर्जुष्टभ[-- पूर्णतः भोगा हुआ; वृक-नाभिभि:--वृक तथानाभि ( कस्तूरी मृग ) द्वारा; कदली--केला के; खण्ड--समूह से; संरुद्ध--आच्छादित; नलिनी--कमलों से भरा सरोवर;पुलिन--रेतीला किनारा; श्रियम्--अत्यन्त सुन्दर।
वहाँ पर तरह तरह के मृग पाये जाते हैं, यथा कर्णात्र, एकपद, अश्वास्य, वृक तथा कस्तूरीमृग।
इन मृगों के अतिरिक्त विविध केले के वृक्ष हैं, जो छोटी-छोटी झीलों के तटों को सुशोभितकरते हैं।
"
पर्यस्तं नन्दया सत्या: स्नानपुण्यतरोदया ।
विलोक्य भूतेशगिरिं विबुधा विस्मयं ययु: ॥
२२॥
पर्यस्तम्--घिरा हुआ; नन्दया--नन्दा नदी से; सत्या:--सती के; स्नान--स्नान से; पुण्य-तर--विशेष रूप से सुगन्धित;उदया--जल से; विलोक्य--देखकर; भूत-ईश-- भूतों के स्वामी ( शिव ) का; गिरिम्--पर्वत; विबुधा:--देवतागण;विस्मयम्--आश्चर्य; ययु:--हुआ |
वहाँ पर अलकनन्दा नामक एक छोटी सी झील है, जिसमें सती स्नान किया करती थीं।
यहझील विशेष रूप से शुभ है।
कैलास पर्वत की विशेष शोभा देखकर सभी देवता वहाँ के ऐश्वर्यसे अत्यधिक विशस्त्रित थे।
"
दहशुस्तत्र ते रम्यामलकां नाम बै पुरीम् ।
बन॑ सौगन्धिकं चापि यत्र तन्नाम पड्टडूजम् ॥
२३॥
दहृशुः--देखा; तत्र--वहाँ ( कैलास में ); ते--वे ( देवता ); रम्यामू--अत्यन्त आकर्षक; अलकाम्--अलका; नाम--नामक;वै--निस्सन्देह; पुरीमू-- धाम; वनम्ू-- जंगल; सौगन्धिकम्--सौगन्धिक; च--तथा; अपि-- भी ; यत्र--जिस स्थान में; तत्-नाम--उस नाम की; पड्डूजम्--कमल पुष्पों की जाति।
इस प्रकार देवताओं ने सौगन्धिक नामक वन में अलका नामक विचित्र सुन्दर भाग कोदेखा।
यह वन कमल पुष्पों की अधिकता के कारण सौगन्धिक कहलाता है।
सौगन्धिक काअर्थ है 'सुगन्धि से पूर्ण' ।
"
नन्दा चालकनन्दा च सरितौ बाह्मतः पुरः ।
तीर्थपादपदाम्भोजरजसातीव पावने ॥
२४॥
नन्दा--नन्दा; च--तथा; अलकनन्दा--अलकनन्दा; च--तथा; सरितौ--दो नदियाँ; बाह्मतः--बाहर की ओर; पुरः--नगरी से;तीर्थ-पाद-- भगवान् के; पद-अम्भोज--चरणकमल की; रजसा--धूलि से; अतीव--अत्यधिक; पावने--पवित्र हुईउन्होंने नन्दरा तथा अलकनन्दा नामक दो नदियाँ भी देखीं।
ये दोनों नदियाँ भगवान् गोविन्दके चरणकमलों की रज से पवित्र हो चुकी हैं।
"
ययो:ः सुरस्त्रिय: क्षत्तरवरुह्म स्वधिष्ण्यतः ।
क्रीडन्ति पुंसः सिद्ञन्त्यो विगाह् रतिकर्शिता: ॥
२५॥
ययो:--जिन दोनों ( नदियों ) में; सुर-स्त्रियः--स्वर्ग की सुन्दरियाँ अपने पतियों समेत; क्षत्त:--हे विदुर; अवरुह्म--उतर कर;स्व-धिष्णयत:ः--अपने-अपने विमानों से; क्रीडन्ति--क्री ड़ा करते हैं; पुंस:--उनके पति; सिद्ञन्त्य:--जल छिड़क कर;विगाह्म--( जल में ) प्रवेश करके; रति-कर्शिता: --जिनका रति-सुख घट चुका है।
हे क्षत्त, है विदुर, स्वर्ग की सुन्दरियाँ अपने-अपने पतियों सहित विमानों से इन नदियों मेंउतरती हैं और काम-क्रीड़ा के पश्चात् जल में प्रवेश करती हैं तथा अपने पतियों के ऊपर पानीउलीच कर आनन्द उठाती हैं।
"
ययोस्तत्स्नानविशभ्रष्टनवकुड्डू मपिञ्ञरम् ।
वितृषोपि पिबन्त्यम्भ: पाययन्तो गजा गजी: ॥
२६॥
ययो:--जिन दोनों नदियों में; तत्-स्नान--उनके स्नान से; विश्रष्ट-गिरे हुए; नव--ताजे; कुल्लू म--कुंकुम चूर्ण से; पिल्लमम्ू-पीला; वितृष:--प्यासे न होने पर; अपि-- भी; पिबन्ति--पीते हैं; अम्भ:--जल; पाययन्त:--पिलाते हैं; गजा: --हाथी;गजी:--हथिनियाँ।
स्वर्गलोक की सुन्दरियों द्वारा जल में स्नान करने के पश्चात् उनके शरीर के कुंकुम के कारण वह जल पीला तथा सुगंधित हो जाता है।
अतः वहाँ पर स्नान करने के लिए हाथीअपनी-अपनी पत्नी हथिनियों के साथ आते हैं और प्यासे न होने पर भी वे उस जल को पीते हैं।
"
तारहेममहारलविमानशतसड्डू लाम् ॥
जुष्टां पुण्यजनस्त्रीभिर्यथा खं सतडिद्धनम् ॥
२७॥
तार-हेम--मोती तथा सोने का; महा-रत्त--बहुमूल्य रत्न; विमान--विमानों का; शत--सैकड़ों; सह्लु लाम्--पुंजित; जुष्टाम्--व्यक्त, भोगा गया; पुण्यजन-स्त्रीभि: --यक्षों की पत्नियों द्वारा; यथा--जिस प्रकार; खम्--आकाश; स-तडित्-घनम्--बिजलीतथा बादलों से युक्त |
स्वर्ग के निवासियों के विमानों में मोती, सोना तथा अनेक बहुमूल्य रत्न जड़े रहते हैं।
स्वर्गके निवासियों की तुलना उन बादलों से की गई है, जो आकाश में रहकर बिजली की चमक सेसुशोभित रहते हैं।
"
हित्वा यक्षेश्वरपुरीं वन॑ सौगन्धिकं च तत् ।
ब्ुमै: कामदुघैईद्यं चित्रमाल्यफलच्छदै: ॥
२८॥
हित्वा--पीछे छोड़ कर; यक्ष-ई ध्वर--यक्षों के स्वामी ( कुबेर ) का; पुरीम्-- धाम, वासस्थान; वनम्--जंगल; सौगन्धिकम्--सौगन्धिक नामक; च--तथा; तत्--वह; ब्रुमैः --वृक्षों से; काम-दुघैः:--कामनाओं को पूरा करने वाले; हृद्यमू--आकर्षक;चित्र--चित्रित; माल्य--पुष्प; फल--फल; छदैः --पत्तियों से |
यात्रा करते हुए देवता सौगन्धिक वन से होकर निकले जो अनेक प्रकार के पुष्पों, फलोंतथा कल्पवृक्षों से पूर्ण था।
इस वन से जाते हुए उन्होंने यक्षेश्वर के प्रदेशों को भी देखा।
"
रक्तकण्ठखगानीकस्वरमण्डितषट्पदम् ।
कलहंसकुलप्रेष्ठं खरदण्डजलाशयम् ॥
२९॥
रक्त--लाल; कण्ठ-गर्दन; खग-अनीक-- अनेक पक्षियों का; स्वर--मीठी बोली से; मण्डित--सुशोभित; षट्-पदम्-- भौरे;कलहंस-कुल-हंसों के झुंडों का; प्रेष्ठमू-- अत्यन्त प्रिय; खर-दण्ड--कमल पुष्प; जल-आशयम्--झील, सरोवर।
उस नेसर्गिक वन में अनेक पक्षी थे जिनकी गर्दन लाल रंग की थीं और उनका कलरव भौंरोंके गुंजार से मिल रहा था।
वहाँ के सरोवर शब्द करते हंसों के समूहों तथा लम्बे नाल वालेकमल पुष्पों से सुशोभित थे।
"
वनकुञझ्जरसडडष्टहरिचन्दनवायुना ।
अधि पुण्यजनस्त्रीणां मुहुरुन्मथयन्मन: ॥
३०॥
वबन-कुझर--जंगली हाथी से; सट्डष्ट--रगड़ा गया; हरिचन्दन--चन्दन के वृक्ष; वायुना--मन्द वायु से; अधि--अधिक;पुण्यजन-स्त्रीणाम्-यक्षों की पत्नियों के; मुहुः--पुनः पुनः; उन््मथयत्--विचलित; मन:--मन |
ऐसा वातावरण जंगली हाथियों को विचलित कर रहा था, जो चन्दन वृक्ष के जंगल में झुंडोंमें एकत्र हुए थे।
बहती हुई वायु अप्सराओं के मनों को अधिकाधिक इन्द्रियभोग के लिएविचलित किए जा रही थी।
"
बैदूर्यकृतसोपाना वाप्य उत्पलमालिनी: ।
प्राप्तं किम्पुरुषैर्दट्ठा त आराहहशुर्वटम् ॥
३१॥
बैदूर्य-कृत--वैदूर्य की बनी; सोपाना:--सीढ़ियाँ; वाप्य:--झीलें; उत्पल--कमल पुष्पों की; मालिनी:--पंक्तियों से युक्त;प्राप्तम्--बसा हुआ; किम्पुरुषै:--किम्पुरुषों द्वारा; दृष्टा--देखकर; ते--उन देवताओं ने; आरात्ू--निकट ही; दहशु:--देखा;वटम्--बरगद का वृक्ष
उन्होंने यह भी देखा कि नहाने के घाट तथा उनकी सीढ़ियाँ बैदूर्यमणि की बनी थीं।
जल कमलपुष्पों से भरा था।
ऐसी झीलों के निकट से जाते हुए देवता उस स्थान पर पहुँचे जहाँ एक बट वृक्ष था।
"
स योजनशतोत्सेध: पादोनविटपायतः ।
पर्यकृताचलच्छायो निर्नीडस्तापवर्जित: ॥
३२॥
सः--वह वट वृक्ष; योजन-शत--एक सौ योजन ( आठ सौ मील ); उत्सेध:--उँचाई; पाद-ऊन--एक चौथाई कम ( छह सौमील ); विटप--शाखाओं से; आयतः--फैला हुआ; पर्यक्ू--चारों ओर; कृत--बना हुआ; अचल--स्थिर; छाय:--छाया;निर्नीड:--बिना घोंसले का; ताप-वर्जित:--तापरहित, गर्मी से रहित।
वह वट वृक्ष आठ सौ मील ऊँचा था और उसकी शाखाएँ चारों ओर छह सौ मील तक फैलीथीं।
उसकी मनोहर छाया से सतत शीतलता छाई थी, तो भी पक्षियों की गूँज सुनाई नहीं पड़ रहीथी।
"
तस्मिन्महायोगमये मुमुक्षुशरणे सुरा: ।
दहृशु: शिवमासीन त्यक्तामर्षमिवान्तकम् ॥
३३॥
तस्मिन्ू--उस वृक्ष के नीचे; महा-योग-मये--परमेश्वर के ध्यान में मगन अनेक साधुओं से युक्त; मुमुक्षु--मुक्ति की कामना करनेवाले; शरणे--आश्रय; सुरा:--देवताओं ने; दहशु:--देखा; शिवम्--शिव को; आसीनम्--आसन लगाये; त्यक्त-अमर्षम्--क्रोधरहित; इब--मानों; अन्तकम्--अनन्त काल।
देवताओं ने शिव को, जो योगियों को सिद्धि प्रदान करने एवं समस्त लोगों का उद्धार करनेमें सक्षम थे, उस वृक्ष के नीचे आसीन देखा।
अनन्त काल के समान गम्भीर, शिवजी ऐसे प्रतीतहो रहे थे मानो समस्त क्रोध का परित्याग कर चुके हों।
"
सनन्दनादैर्महासिद्धैः शान्तैः संशान्तविग्रहम् ।
उपास्यमानं सख्या च भर्त्रां गुह्करक्षसाम् ॥
३४॥
सनन्दन-आह्यैः --सनन्दन इत्यादि चारों कुमार; महा-सिद्धै:--मुक्त जीव; शान्तै:ः --साधु प्रकृति का; संशान्त-विग्रहम्ू--गम्भीरतथा साधु प्रकृति वाले शिव; उपास्थमानम्--प्रशंसित; सख्या--कुबेर द्वारा; च--तथा; भर्त्रा--स्वामी द्वारा; गुह्क-रक्षसाम्--गुह्कों तथा राक्षसों द्वारा
वहाँ पर शिवजी कुबेर, गुह्मकों के स्वामी तथा चारों कुमारों जैसी मुक्तात्माओं से घिरे हुएबैठे थे।
शिवजी अत्यन्त गम्भीर एवं शान्त थे।
"
विद्यातपोयोगपथमास्थितं तमधी श्वरम् ।
चरन्तं विश्वसुहृदं वात्सल्याल्लोकमड़लम् ॥
३५॥
विद्या--ज्ञान; तप:--तपस्या; योग-पथम्-- भक्ति मार्ग; आस्थितम्--स्थित; तम्--उसको ( शिव को ); अधी श्वरम्--इन्दियोंके स्वामी; चरन्तम्--( तप इत्यादि ) करते हुए ); विश्व-सुहृदम्--समस्त संसार के सखा; बात्सल्यात्ू-पूर्ण स्नेह से; लोक-मड्जलम्- प्रत्येक के लिए कल्याणकर।
देवताओं ने शिवजी को इन्द्रिय, ज्ञान, सकाम कर्मों तथा सिद्धि मार्ग के स्वामी के रूप मेंस्थित देखा।
वे समस्त जगत के भिन्न हैं और सबके लिए पूर्ण स्नेह रखने के कारण वे अत्यन्तकल्याणकारी हैं।
"
लिड् च तापसाभीष्टं भस्मदण्डजटाजिनम् ।
अड्लेन सब्ध्याभ्ररुचा चन्द्रलेखां च बिभ्रतम् ॥
३६॥
लिड्रमू--चिह्त; च--तथा; तापस-अभीष्टम्-शैव साधुओं द्वारा वांछित; भस्म--राख; दण्ड--डंडा; जटा--जटाजूट;अजिनमू--मृग चर्म; अड्रेन--अपने शरीर से; सन्ध्या-आभ्र--लाल लाल; रुचा--र₹ँगा हुआ; चन्द्र-लेखाम्--अर्द्धचन्द्र कला;च--तथा; बिभ्रतम्ू-- धारण किये |
वे मृगचर्म पर आसीन थे और सभी प्रकार की तपस्या कर रहे थे।
शरीर में राख लगाये रहनेसे वे संध्याकालीन बादल की भाँति दिखाई पड़ रहे थे।
उनकी जटाओं में अरद्धचन्द्र का चिह्नथा, जो सांकेतिक प्रदर्शन है।
"
उपविष्ट दर्भमय्यां बृस््यां ब्रह्मा सनातनम् ।
नारदाय प्रवोचन्तं पृच्छते श्रण्वतां सताम्ू ॥
३७॥
उपविष्टमू--बैठे हुए; दर्भ-मय्याम्--दर्भ से बने; बृस्थाम्--चटाई ( आसन ) पर; ब्रह्म--परम सत्य; सनातनमू--शाश्वत;नारदाय--नारद को; प्रवोचन्तम्--बोलते हुए; पृच्छते--पूछते हुए; श्रृण्वताम्ू--सुनते हुए; सताम्--साधु पुरुषों का |
वे तृण ( कुश ) के आसन पर बैठे थे और वहाँ पर उपस्थित सबों को, विशेषरूप से नारदमुनि, को परम सत्य के विषय में उपदेश दे रहे थे।
"
कृत्वोरौ दक्षिणे सव्यं पादपद्मं च जानुनि ।
बाहुं प्रकोष्टेक्षमालामासीन तर्कमुद्रया ॥
३८ ॥
कृत्वा--रखकर; ऊरौ--जाँघ पर; दक्षिणे--दाहिनी; सव्यम्--बाँये; पाद-पद्ममू--चरणकमल; च--तथा; जानुनि--घुटने पर;बाहुम्-हाथ; प्रकोष्टे--दाहिनी हाथ की कलाई में; अक्ष-मालाम्--रुद्राक्ष की माला; आसीनमू--बैठे हुए; तर्क-मुद्रया--तर्कमुद्रा से |
उनका बायाँ पैर उनकी दाहिनी जाँघ पर रखा था और उनका बायाँ हाथ बायीं जाँघ पर था।
दाहिने हाथ में उन्होंने रुद्राक्ष की माला पकड़ रखी थी।
यह आसन वीरासन कहलाता है।
इस प्रकार वे वीरासन में थे और उनकी अँगुली तर्क-मुद्रा में थी।
"
त॑ ब्रह्मनिर्वाणसमाधिमाश्रितंव्युपाथ्नितं गिरिशं योगकक्षाम् ।
सलोकपाला मुनयो मनूना-माद्य॑ मनुं प्रा्ललय: प्रणेमु: ॥
३९॥
तम्--उसको ( शिव को ); ब्रह्म-निर्वाण-- ब्रह्मानन्द में; समाधिम्-- समाधि में; आभ्रितम्-- लीन; व्युपाभ्रितम्-टेके हुए;गिरिशम्--शिव; योग-कक्षाम्ू--अपने बायें घुटने को गांठदार कपड़े से मजबूती से कसे; स-लोक-पाला:--देवताओं सहित( इन्द्र इत्यादि ); मुन॒यः--साधुगण; मनूनाम्--समस्त चिन्तकों का; आद्यमू-- प्रमुख; मनुम्--चिन्तक; प्राज्ललय:--हाथ जोड़े;प्रणेमुः--प्रणाम किया
समस्त मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओं ने हाथ जोड़कर शिवजी को सादर प्रणाम किया।
शिवजी ने केसरिया वस्त्र धारण कर रखा था और समाधि में लीन थे जिससे वे समस्त साधुओंमें अग्रणी प्रतीत हो रहे थे।
"
स तूपलभ्यागतमात्मयोनिंसुरासुरेशैरभिवन्दिताडुप्रि: ।
उत्थाय चक्रे शिरसाभिवन्दन-महत्तम: कस्य यथेव विष्णु; ॥
४०॥
सः--शिव; तु--लेकिन; उपलभ्य--देखकर; आगतम्--आया हुआ; आत्म-योनिम्--ब्रह्मा को; सुर-असुर-ईशै: --सर्व श्रेष्ठदेवताओं तथा असुरों द्वारा; अभिवन्दित-अड्ध्रि:--जिनके चरण पूजित हैं; उत्थाय--खड़े होकर; चक्रे--किया; शिरसा--शिरसे; अभिवन्दनम्--सादर नमस्कार; अर्हत्तम:--वामनदेव ने; कस्य--कश्यप का; यथा एब--जिस प्रकार; विष्णु: --विष्णु
शिवजी के चरणकमल देवताओं तथा असुरों द्वारा समान रूप से पूज्य थे, फिर भी अपनेउच्च पद की परवाह न करके उन्होंने ज्योंही देखा कि अन्य देवताओं में ब्रह्मा भी हैं, तो वे तुरन्तखड़े हो गये और झुक कर उनके चरणकमलों का स्पर्श करके उनका सत्कार किया, जिसप्रकार वामनदेव ने कश्यप मुनि को सादर नमस्कार किया था।
"
तथापरे सिद्धगणा महर्षिभि-यें वै समन््तादनु नीललोहितम् ।
नमस्कृतः प्राह शशाड्डुशेखरं'कृतप्रणामं प्रहसन्निवात्मभू: ॥
४१ ॥
तथा--उसी प्रकार; अपरे-- अन्य; सिद्ध-गणा:--सिद्ध जन; महा-ऋषिभि:--बड़े-बड़े ऋषियों सहित; ये--जो; वै--निस्सन्देह; समन्तात्ू--चारों ओर से; अनु--पीछे; नीललोहितम्--शिव; नमस्कृतः -- नमस्कार करते हुए; प्राह--कहा; शशाड्र-शेखरम्--शिव से; कृत-प्रणामम्--प्रणाम करके; प्रहसन्--हँसते हुए; इब--सहृश्य; आत्मभू: --ब्रह्मा ने।
शिवजी के साथ जितने भी ऋषि, यथा नारद आदि, बैठे हुए थे उन्होंने भी ब्रह्मा को सादरनमस्कार किया।
इस प्रकार पूजित होकर शिव से ब्रह्मा हँसते हुए कहने लगे।
"
ब्रह्मोवाचजाने त्वामीशं विश्वस्थ जगतो योनिबीजयो: ।
शक्ते: शिवस्य च परं यत्तद्ह्म निरन्तरम् ॥
४२॥
ब्रह्मा उबाच--ब्रह्मा ने कहा; जाने--जानता हूँ; त्वामू--तुमको ( शिव को ); ईशम्--नियन्ता; विश्वस्थ--सम्पूर्ण भौतिक जगतका; जगतः--हृश्य जगत का; योनि-बीजयो:--माता तथा पिता दोनों का; शक्तेः--शक्ति का; शिवस्थ--शिव का; च--तथा;परम्--परब्रह्म; यत्ू--जो; तत्--वह; ब्रह्म--बिना परिवर्तन के; निरन्तरमू--बिना किसी भौतिक गुण के |
ब्रह्मा ने कहा : हे शिव, मैं जानता हूँ कि आप सारे भौतिक जगत के नियन्ता, दृश्य जगत केमाता-पिता और दृश्य जगत से भी परे परब्रह्म हैं।
मैं आपको इसी रूप में जानता हूँ।
"
त्वमेव भगवन्नेतच्छिवशक्त्यो: स्वरूपयो: ।
विश्व सृजसि पास्यत्सि क्रीडब्नूर्णपपटो यथा ॥
४३॥
त्वमू--तुम; एव--ही; भगवन्--हे भगवान्; एतत्--यह; शिव-शक्त्यो:--अपनी शुभ शक्ति में स्थित होकर; स्वरूपयो: --अपने व्यक्तिगत विस्तार से; विश्वम्--यह ब्रह्माण्ड; सृजसि--उत्पन्न करते हो; पासि--पालन करते हो; अत्सि--संहार करते हो;क्रीडनू--खेलते हुए; ऊर्ण-पट:--मकड़ी का जाला; यथा--जिस प्रकार |
हे भगवान्, आप अपने व्यक्तिगत विस्तार से इस दृश्य जगत की सृष्टि, पालन तथा संहारउसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मकड़ी अपना जाला बनाती है, बनाये रखती हैं और फिर अन्तकर देती है।
"
त्वमेव धर्मार्थदुघाभिपत्तयेदक्षेण सूत्रेण ससर्जिथाध्वरम् ।
त्वयैव लोकेवसिताश्न सेतवोयान्ब्राह्मणा: श्रदधते धृतब्रता: ॥
४४॥
त्वमू--आपने; एव--निश्चय ही; धर्म-अर्थ-दुघ-- धर्म तथा आर्थिक विकास से प्राप्त लाभ; अभिपत्तये--उनकी रक्षा हेतु;दक्षेण--दक्ष द्वारा; सूत्रेण--निमित्त बनाते हुए; ससर्जिथ--उत्पन्न किया; अध्वरम्--यज्ञ; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; एब--निश्चय ही;लोके--इस संसार में; अवसिता:--संयमित; च--तथा; सेतव:--वर्णा श्रम संस्था की मर्यादाएँ; यान्--जो; ब्राह्मणा:-- ब्राह्मणवर्ग; श्रद्रधते-- अत्यधिक सम्मान करते हैं; धृत-ब्रता:--ब्रत लेकर
हे भगवान्, आपने दक्ष को माध्यम बनाकर यज्ञ-प्रथा चलाई है, जिससे मनुष्य धार्मिककृत्य तथा आर्थिक विकास का लाभ उठा सकता है।
आपके ही नियामक विधानों से चारों वर्णोंतथा आश्रमों को सम्मानित किया जाता है।
अतः ब्राह्मण इस प्रथा का दृढ़तापूर्वक पालन करनेका ब्रत लेते हैं।
"
त्वं कर्मणां मड्रल मड़लानांकर्तुः स्वलोकं तनुषे स्व: परं वा ।
अमडूूलानां च तमिस्त्रमुल्बणंविपर्यय: केन तदेव कस्यचित् ॥
४५॥
त्वमू--आप; कर्मणाम्-कर्तव्यों का; मडल--हे परम शुभ; मड्रलानाम्ू--शुभ करने वालों का; कर्तुः--कर्ता का; स्व-लोकम्--क्रम से उच्च लोक; तनुषे--विस्तार करते हैं; स्व:--स्वर्गलोक; परम्--दिव्य लोक; वा--अथवा; अमड्रलानाम्ू--अमंगल का; च--तथा; तमिस्त्रमू--तमिस्त्र नरक; उल्बणम्--घोर; विपर्यय: -- उल्टा; केन--क्यों; तत् एब--निश्चय ही वह;कस्यचित्--किसी के लिए।
हे परम मंगलमय भगवान्, आपने स्वर्गलोक, वैकुण्ठलोक तथा निर्गुण ब्रह्मलोक को शुभकर्म करने वालों का गन्तव्य निर्दिष्ट किया है।
इसी प्रकार जो दुराचारी हैं उनके लिए अत्यन्त घोरनरकों की सृष्टि की है।
तो भी कभी-कभी ये गन्तव्य उलट जाते हैं।
इसका कारण तय कर पानाअत्यन्त कठिन है।
"
न वे सतां त्वच्चरणार्पितात्मनांभूतेषु सर्वेष्वभिपश्यतां तव ।
भूतानि चात्मन्यपृथग्दिहक्षतांप्रायेण रोषोडभिभवेद्यथा पशुम् ॥
४६॥
न--नहीं; बै-- लेकिन; सताम्-भक्तों का; त्वत्-चरण-अर्पित-आत्मनाम्ू--आपके चरणकमलों पर पूर्णतया समर्पण करनेबालों का; भूतेषु--जीवात्माओं में; सर्वेषु--सभी प्रकार के; अभिपश्यताम्--ठीक से देखते हुए; तब--तुम्हारा; भूतानि--जीवात्माएँ; च--तथा; आत्मनि--परब्रह्म में; अपृथक्-- अभिन्न; दिदृक्षताम्--उस प्रकार देखने वाले; प्रायेण--प्राय:, सदैव;रोष:--क्रोध; अभिभवेत्--होता है; यथा--समान; पशुम्--पशुओं के
हे भगवान्, जिन भक्तों ने अपना जीवन आपके चरण-कमलों पर अर्पित कर दिया है, वेप्रत्येक प्राणी में परमात्मा के रूप में आपकी उपस्थिति पाते हैं; फलत:ः वे प्राणी-प्राणी में भेदनहीं करते।
ऐसे लोग सभी प्राणियों को समान रूप से देखते हैं।
वे पशुओं की तरह क्रोध केवशीभूत नहीं होते, क्योंकि पशु बिना भेदबुद्धि के कोई वस्तु नहीं देख सकते।
"
पृथग्धिय: कर्महशो दुराशया:परोदयेनार्पितहद्गुजोडनिशम् ।
परान्दुरुक्तैवितुद॒न्त्यरुन्तुदास्तान्मावधीद्दैववधान्भवद्विध: ॥
४७॥
पृथक्-भिन्न रूप से; धिय:--सोचने वाले; कर्म--सकाम कर्म; दहृश:ः --दर्शक; दुराशया:--तुच्छ बुद्धि; पर-उदयेन--अन्योंकी उन्नति से; अर्पित--त्यक्त; हृत्ू--हृदय; रुज:--क्रोध; अनिशम्--सदैव; परान्ू-- अन्य; दुरुक्त:--कदु वचन से;वितुदन्ति--पीड़ा पहुँचाता है; अरुन्तुदा:--मर्मभेदी बचनों से; तानू--उनको; मा--नहीं; अवधीतू--मारो; दैव--विधाता द्वारा;वधान्--पहले से मारे हुए; भवत्--आप; विध: --चाहते हैं |
जो लोग भेद-बुद्धि से प्रत्येक वस्तु को देखते हैं, जो केवल सकाम कर्मों में लिप्त रहते हैं,जो तुच्छबुद्धि हैं, जो अन्यों के उत्कर्ष को देखकर दुखी होते हैं और उन्हें कटु तथा मर्मभेदीबचनों से पीड़ा पहुँचाते रहते हैं, वे तो पहले से विधाता द्वारा मारे जा चुके हैं।
अतः आप जैसेमहान् पुरुष द्वारा उनको फिर से मारने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
"
यस्मिन्यदा पुष्करनाभमाययादुरन्तया स्पृष्टधिय: पृथग्हशः ।
कुर्वन्ति तत्र ह्मानुकम्पया कृपांन साधवो दैवबलात्कृते क्रमम् ॥
४८ ॥
यस्मिनू--किसी स्थान में; यदा--जब; पुष्कर-नाभ-मायया--पुष्करनाभ अर्थात् भगवान् की माया से; दुरन््तया--दुर्लघ्य;स्पृष्ट-धिय:ः--मोहित; पृथक्-हशः--भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने वाले पुरुष; कुर्वन्ति--करते हैं; तत्र--वहाँ; हि--निश्चय ही;अनुकम्पया--दयावश; कृपाम्--कृपा, अनुग्रह; न--कभी नहीं; साधव:ः--साधु पुरुष; दैव-बलात्--विधाता द्वारा; कृते--किया गया; क्रमम्--शौर्य
हे भगवान्, यदि कहीं भगवान् की दुर्लध्य माया से पहले से मोहग्रस्त भौतिकतावादी( संसारी ) कभी-कभी पाप करते हैं, तो साधु पुरुष दया करके इन पापों को गम्भीरता से नहींलेता।
यह जानते हुए कि वे माया के वशीभूत होकर पापकर्म करते हैं, वह उनका प्रतिघात करनेश़ में अपने शौर्य का प्रदर्शन नहीं करता।
"
भवांस्तु पुंसः परमस्य माययादुरन्तयास्पृष्टमति: समस्तह॒क् ।
तया हतात्मस्वनुकर्मचेतःस्व्अनुग्रहं कर्तुमिहाईसि प्रभो ॥
४९॥
भवान्--आप; तु-- लेकिन; पुंस:ः-- पुरुष की; परमस्य--परम; मायया-- भौतिक शक्ति द्वारा; दुरतया--अत्यधिक शक्ति का;अस्पृष्ट--अप्रभावित; मति: --बुद्धि; समस्त-हक्-प्रत्येक वस्तु को देखने या जानने वाला; तया--उसी माया द्वारा; हत-आत्मसु--हृदय में मोहित; अनुकर्म-चेतःसु--जिनके हृदय सकाम कर्मों द्वारा आकृष्ट हैं; अनुग्रहम्--कृपा; कर्तुमू--करने केलिए; इह--इस प्रसंग में; अहंसि--आकांक्षा करते हैं; प्रभो--हे भगवान्
हे भगवान्, आप परमात्मा की माया के मोहक प्रभाव से कभी मोहित नहीं होते।
अतः आपसर्वज्ञ हैं, और जो उसी माया के द्वारा मोहित एवं सकाम कर्मों में अत्यधिक लिप्त हैं, उन परकृपालु हों और अनुकम्पा करें।
"
कुर्वध्वरस्योद्धरणं हतस्य भो:त्वयासमाप्तस्य मनो प्रजापते: ।
न यत्र भागं तब भागिनो ददुःकुयाजिनो येन मखो निनीयते ॥
५०॥
कुरु--करो; अध्वरस्य--यज्ञ का; उद्धरणम्--उद्धार, पूरा किया जाना; हतस्य--मारे हुए का; भो:--हे; त्वया--तुम्हारे द्वारा;असमाप्तस्य--अपूर्ण यज्ञ का; मनो--हे शिव; प्रजापतेः--महाराज दक्ष का; न--नहीं; यत्र--जहाँ; भागम्-- भाग, हिस्सा;तब--तुम्हारा; भागिन: -- भाग के पात्र; ददुः--नहीं दिया; कु-याजिन:--दुष्ट पुरोहितों ने; येन--दाता से; मख:--यज्ञ;निनीयते--फल पाता है।
हे शिव, आप यज्ञ का भाग पाने वाले हैं तथा फल प्रदान करने वाले हैं।
दुष्ट पुरोहितों नेआपका भाग नहीं दिया, अतः आपने सर्वस्व ध्वंस कर दिया, जिससे यज्ञ अधूरा पड़ा है।
अबआप जो आवश्यक हो, करें और अपना उचित भाग प्राप्त करें।
"
जीवताद्यजमानो यं प्रपद्येताक्षिणी भगः ।
भूगो: एमश्रूणि रोहन्तु पूष्णो दन्ताश्व पूर्ववत् ॥
५१॥
जीवतातू्--जी उठे; यजमान:--यज्ञकर्ता ( दक्ष ); अयम्ू--यह; प्रपद्येत--उसे वापस मिल जाय; अक्षिणी--नेत्र; भग: --भगदेव; भूगो: -- भूगु मुनि की; शमश्रूणि--मूँछें; रोहन्तु-- पुनः उग आएं; पूृष्ण:--पूषादेव के; दन््ता:--दन्त पंक्ति; च--तथा;पूर्व-बत्--पहले की तरह
है भगवान्, आपकी कृपा से यज्ञ के कर्त्ता ( राजा दक्ष ) को पुनः जीवन दान मिले, भग कोउसके नेत्र मिल जाये, भूगु को उसकी मूँछें तथा पूषा को उसके दाँत मिल जाएँ।
"
देवानां भग्नगात्राणामृत्विजां चायुधाश्मभि: ।
भवतानुगृहीतानामाशु मन्योस्त्वनातुरम् ॥
५२॥
देवानाम्--देवताओं के; भग्न-गात्राणाम्-- क्षत-विक्षत अंग वाले; ऋत्विजाम्--पुरोहितों के; च--तथा; आयुध-अश्मभि: --हथियारों तथा पत्थरों से; भवता--आपके द्वारा; अनुगृहीतानाम्--कृपापात्र; आशु--शीघ्र; मन््यो--हे शिव ( क्रुद्ध रूप में );अस्तु--हो; अनातुरम्--घावों का भरना।
हे शिव, जिन देवताओं तथा पुरोहितों के अंग आपके सैनिकों द्वारा क्षत-विश्षत हो चुके हैं,वे आपकी कृपा से तुरन्त ठीक हो जाँय।
"
एष ते रुद्र भागोउस्तु यदुच्छिष्टो ध्वरस्य वे ।
यज्ञस्ते रुद्र भागेन कल्पतामद्य यज्ञहन् ॥
५३॥
एषः--यह; ते--तुम्हारा; रुद्र--हे शिव; भाग:-- भाग; अस्तु--हो; यत्--जो भी; उच्छिष्ट: --बचा हुआ, शेष; अध्वरस्य--यज्ञका; बै--निस्सन्देह; यज्ञ:--यज्ञ; ते--तुम्हारा; रुद्र--हे रुद्र; भागेन-- भाग से; कल्पताम्--पूर्ण हो; अद्य--आज; यज्ञ-हन्ू--यज्ञ के विध्वंसक!हे यज्ञविध्वंसक, आप अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करें और कृपापूर्वक यज्ञ को पूरा होने दें।
"
अध्याय सात: दक्ष द्वारा किया गया यज्ञ
4.7मैत्रेय उवाचइत्यजेनानुनीतेन भवेन परितुष्यता ।
अभ्यधायि महाबाहो प्रहस्य श्रूयतामिति ॥
१॥
मैत्रेय:--मैत्रेय ने; उवाच--कहा; इति--इस प्रकार; अजेन--ब्रह्मा द्वारा; अनुनीतेन--शान्त किया जाकर; भवेन--शिव द्वारा;परितुष्यता--पूर्णतया सन्तुष्ट होकर; अभ्यधायि--कहा; महा-बाहो--हे विदुर; प्रहस्थ--हँस कर; श्रूयताम्--सुनो; इति--इसप्रकार।
मैत्रेय मुनि ने कहा : हे महाबाहु विदुर, भगवान् ब्रह्मा के शब्दों से शान्त होकर शिव नेउनकी प्रार्थना का उत्तर इस प्रकार दिया।
"
महादेव उबवाचनाघं प्रजेश बालानां वर्णये नानुचिन्तये ।
देवमायाभिभूतानां दण्डस्तत्र धृतो मया ॥
२॥
महादेव: --शिव ने; उवाच--कहा; न--नहीं; अघम्--पाप; प्रजा-ईश--हे प्रजापति; बालानाम्ू--बच्चों का; वर्णये--सत्कारकरता हूँ; न--नहीं; अनुचिन्तये -- मानता हूँ; देव-माया-- भगवान् की बहिरंगा शक्ति के; अभिभूतानामू--द्वारा ठगे हुओं का;दण्ड:--डंडा; तत्र--वहाँ; धृत:--प्रयुक्त; मया--मेरे द्वारा |
शिवजी ने कहा : हे पूज्य पिता ब्रह्माजी, मैं देवताओं द्वारा किये गये अपराधों की परवाहनहीं करता।
चूँकि ये देवता बालकों के समान अल्पज्ञानी हैं, अतः मैं उनके अपराधों परगम्भीरतापूर्वक विचार नहीं कर रहा हूं।
मैंने तो उन्हें राह पर लाने के लिए ही दण्डित किया है।
"
प्रजापतेर्दग्धशीष्णों भवत्वजमुखं शिरः ।
मित्रस्य चश्नुषेक्षेत भागं स्व॑ बर्हिषो भग: ॥
३॥
प्रजापते:-- प्रजापति दक्ष का; दग्ध-शीर्ष्ण:--जिसका सिर जलकर राख हो गया है; भवतु--हो जाए; अज-मुखम्--बकरे केमुँह से युक्त; शिरः--सिर; मित्रस्थ--मित्र के; चक्षुषा--नेत्रों से; ईक्षेत--देखे; भागम्-- भाग; स्वमू-- अपना; बर्हिष:--यज्ञका; भगः-- भग।
शिव ने आगे कहा : चूँकि दक्ष का सिर पहले ही जल कर भस्म हो चुका है, अतः उसेबकरे का सिर प्राप्त होगा।
भग नामक देवता, मित्र के नेत्रों से यज्ञ का अपना भाग देख सकेगा।
"
पूषा तु यजमानस्य दद्धिर्जक्षतु पिष्टभुक् ।
देवा: प्रकृतसर्वाड्रा ये म उच्छेषणं ददु: ॥
४॥
पूषा--पूषा; तु--लेकिन; यजमानस्य--यज्ञकर्ता का; दद्धिः--दाँतों से; जक्षतु--चबाए; पिष्ट-भुक्ू--आटे का भोजन;देवा:--देवता; प्रकृत--निर्मित; सर्व-अड्भा:--पूर्ण; ये-- जो; मे--मुझको; उच्छेषणम्--यज्ञ भाग; ददु:--दिया |
पूषादेव अपने शिष्यों के दाँतों से चबायेंगे और यदि अकेले चाहें तो उन्हें सत्तू की बनी लोईखाकर सन्तुष्ट होना पड़ेगा।
किन्तु जिन देवताओं ने मेरा यज्ञ-भाग देना स्वीकार कर लिया है वेसभी प्रकार की चोटों से स्वस्थ हो जाएँगे।
"
बाहुभ्यामश्विनो: पूष्णो हस्ताभ्यां कृतबाहव: ।
भवन्त्वध्वर्यवश्वान्ये बस्तश्म श्रुभगुर्भवेत् ॥
५॥
बाहुभ्याम्ू-दो भुजाओं से; अश्विनो: --अश्विनी कुमारों की; पृष्ण:--पूषा के; हस्ताभ्याम्-दो हाथों से; कृत-बाहवः--बाहुओंकी इच्छा रखने वाले; भवन्तु--हों; अध्वर्यवः--पुरोहितगण; च--तथा; अन्ये--अन्य; बस्त-श्म श्रु; --बकरे की दाढ़ी; भूगुः--भूगु; भवेत्--उसके हों ।
जिन लोगों की भुजाएँ कट गई हैं, उन्हें अश्विनी कुमार की बाहों से काम करना होगा औरजिनके हाथ कट गये हैं उन्हें पूषा के हाथों से काम करना होगा।
पुरोहितों को भी तदनुसार कार्यकरना होगा।
जहाँ तक भृगु का प्रशन है, उन्हें बकरे की दाढ़ी प्राप्त होगी।
"
मैत्रेय उवाचतदा सर्वाणि भूतानि श्रुत्वा मीदुष्टमोदितम् ।
परितुष्टात्मभिस्तात साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥
६॥
मैत्रेय:--मैत्रेय सुनि ने; उवाच--कहा; तदा--उस समय; सर्वाणि--समस्त; भूतानि--मनुष्य; श्रुत्वा--सुनकर; मीढुः-तम--वरदेने वालों में श्रेष्ठ (शिव ); उदितम्--कहा गया; परितुष्ट--सन्तुष्ट होकर; आत्मभि:--हृदय तथा आत्मा से; तात--हे विदुर;साधु साधु-- धन्य-धन्य हुआ; इति--इस प्रकार; अथ अन्लुवन्--जैसा हम कह चुके हैं।
मैत्रेय मुनि ने कहा : हे विदुर, वहाँ पर उपस्थित सभी मनुष्य सर्वश्रेष्ठ वरदाता शिव के बचनोंको सुनने से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर गदगद हो गये।
"
ततो मीढ्वांसमामन्त्रय शुनासीरा: सहर्षिभि: ।
भूयस्तद्देवयजनं समीढ्वद्वेधसो ययु; ॥
७॥
ततः--तत्पश्चात्; मीढ्वांसमू--शिव; आमन््य--बुलाकर; शुनासीरा:--इन्द्र इत्यादि देवता; सह ऋषिभि: -- भृगु इत्यादि ऋषियोंसहित; भूय:--पुनः; तत्--उस; देव-यजनम्--वह स्थान जहाँ देवता पूजे जाते हैं; स-मीढ्वत्--शिव समेत; वेधस: --ब्रह्मासहित; ययुः--गये
तब मुनियों के प्रमुख भूगु ने शिवजी को यज्ञशाला में पधारने के लिए आमंत्रित किया।
इसतरह से ऋषिगण, शिवजी तथा ब्रह्मा समेत सभी देवता उस स्थान पर गये जहाँ वह महान् यज्ञसम्पन्न हो रहा था।
"
विधाय कार्त्स्येन च तद्यदाह भगवान्भव: ।
सन्दधु: कस्य कायेन सवनीयपशो: शिर: ॥
८॥
विधाय--सम्पन्न करके; कार्त्स्येन--सर्वेसर्वा; च-- भी; तत्ू--वह; यत्-- जो; आह--कहा गया; भगवान्-- भगवान्; भव: --शिव ने; सन्दधु: --सम्पन्न किया; कस्य--जीवित ( दक्ष ) का; कायेन--शरीर से; सवनीय--यज्ञ के निमित्त; पशो:--पशु का;शिरः--सिर।
जब शिवजी के निर्देशानुसार सब कुछ सम्पन्न हो गया तो यज्ञ में वध के निमित्त लाए पशुके सिर को दक्ष के शरीर से जोड़ दिया गया।
"
सन्धीयमाने शिरसि दक्षो रुद्राभिवीक्षितः ।
सद्यः सुप्त इवोत्तस्थौ ददशे चाग्रतो मृडम् ॥
९॥
सन्धीयमाने--सम्पन्न होने पर; शिरसि--सिर से; दक्ष:--राजा दक्ष; रुद्र-अभिवीक्षित:--रुद्र द्वारा देखे जाने पर; सद्यः --तुरन्त;सुप्ते--सोया हुआ; इब--समान; उत्तस्थौ--जगाया जाकर; ददशे--देखा; च-- भी; अग्रत:--समक्ष; मृडम्ू--शिव को |
जब दक्ष के शरीर पर पशु का सिर लगा दिया गया तो दक्ष को तुरन्त ही होश आ गया औरज्योंही वह निद्रा से जगा, तो उसने अपने समक्ष शिवजी को खड़े देखा।
"
तदा वृषध्वजद्वेषकलिलात्मा प्रजापति: ।
शिवावलोकादभवच्छरद्ध्रद इबामलः ॥
१०॥
तदा--उस समय; वृष-ध्वज--शिव, जो बैल पर सवार रहते हैं; द्वेष--ईर्ष्या; कलिल-आत्मा--दूषित हृदय; प्रजापति:--राजादक्ष; शिव--शिव को; अवलोकात्--देखने से; अभवत्--हो गया; शरत्--शरद ऋतु में; हृदः--झील; इब--सहश;अमलः--निर्मल, स्वच्छ।
उस समय जब दक्ष ने बैल पर सवारी करने वाले शिव को देखा तो उसका हृदय, जो शिवके प्रति द्वेष से कलुषित था, तुरन्त निर्मल हो गया, जिस प्रकार सरोवर का जल शरदकालीनवर्षा से स्वच्छ हो जाता है।
"
भवस्तवाय कृतधीर्नाशक्नोदनुरागत: ।
औत्कण्ठ्याद्वाष्पकलया सम्परेतां सुतां स्मरन् ॥
११॥
भव-स्तवाय--शिव की स्तुति के लिए; कृत-धी:--कृतसंकल्प; न--नहीं ही; अशक्नोत्--समर्थ था; अनुरागत:--विचार से;औत्कण्ठ्यात्--उत्कंठा से; बाष्प-कलया--आँखों में आँसू भर कर; सम्परेताम्--मृत; सुताम्--पुत्री; स्मरन्ू--स्मरण करतेहुए
राजा दक्ष ने शिव की स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी पुत्री सती की दुर्भाग्यपूर्ण-मृत्यू कास्मरण हो आने से उसके नेत्र आँसुओं से भर आये और शोक से उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई।
वह कुछ भी न कह सका।
"
कृच्छात्संस्तभ्य च मन: प्रेमविह्लित: सुधीः ।
शशंस निर्व्यलीकेन भावेनेशं प्रजापति: ॥
१२॥
कृच्छात्--बड़े यत्न से; संस्तभ्य--शान्त करके; च-- भी; मन: --मन; प्रेम-विह्ललित:--प्रेम से विभोर; सु-धी:--जिसे चेत होआया हो; शशंस-- प्रशंसा की; निर्व्यलीकेन--बिना द्वैत के, अथवा अत्यन्त प्यार से; भावेन--विचार में; ईशम्--शिव की;प्रजापति:--राजा दक्ष
उस समय प्रेम-विहल होने से राजा दक्ष अत्यधिक जागरूक हो उठा।
उसने बड़े ही यत्न सेअपने मन को शान्त किया, अपने भावावेग को रोका और शुद्ध चेतना से शिव की स्तुति करनीप्रारम्भ की।
"
दक्ष उवाचभूयाननुग्रह अहो भवता कृतो मेदण्डस्त्वया मयि भृतो यदपि प्रलब्ध: ।
न ब्रह्मबन्धुषु च वां भगवन्नवज्ञातुभ्यं हरेश्व कुत एवं धृतब्रतेषु ॥
१३॥
दक्ष: उबाच--दक्ष ने कहा; भूयान्-- अत्यधिक; अनुग्रह:--कृपा; अहो--ओह; भवता--आपके द्वारा; कृतः--की गई; मे--मुझपर; दण्ड:--दण्ड, सजा; त्ववा--आपके द्वारा; मयि--मुझको; भृत:ः--की गई; यत् अपि--यद्यपि; प्रलब्ध: --पराजित;न--न तो; ब्रह्म-बन्धुषु-- अयोग्य ब्रह्मण को; च--भी; वाम्--तुम दोनों; भगवन्--मेरे स्वामी; अवज्ञा--अनादर; तुभ्यम्--आपका; हरे: च--विष्णु का; कुत:ः--कहाँ; एव--निश्चय ही; धृत-ब्रतेषु--यज्ञ करने में दत्तचित्त |
राजा दक्ष ने कहा : हे शिव, मैने आपके प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है, किन्तु आप इतनेउदार हैं कि आपने अपने अनुग्रह से वंचित करने के बजाय, मुझे दण्ड देकर मेरे ऊपर कृपा कीहै।
आप तथा भगवान् विष्णु अयोग्य-निकम्मे ब्राह्मणों तक की उपेक्षा नहीं करते तो फिर भलाआप मेरी उपेक्षा क्यों करने लगे, मैं तो यज्ञ करने में लगा रहता हूँ?"
विद्यातपोब्रतधरान्मुखतः सम विप्रान्ब्रह्मात्मतत्त्वमवितु प्रथम त्वमस्त्राक् ।
तद्गाह्मणान्परम सर्वविपत्सु पासिपाल: पशूनिव विभो प्रगृहीतदण्ड: ॥
१४॥
विद्या--विद्या; तपः--तपस्या; ब्रत--ब्रत; धरान्--- अनुचर; मुखत:--मुख से $ स्म-- था; विप्रान्ू--ब्राह्मण: ब्रह्मा--ब्रह्मा;आत्म-तत्त्वम्ू-आत्म-साक्षात्कार; अवितुम्-फैलाने के लिए; प्रथमम्--पहले; त्वम्--तुम; अस्त्राकु--उत्पन्न किया; तत्--अतः; ब्राह्मणान्--ब्राह्मणों की; परम--हे महान; सर्व--सभी; विपत्सु--संकट में; पासि--रक्षा करते हो; पाल:--रक्षक कीतरह; पशून्ू-- पशु; इब--समान; विभो--हे महान; प्रगृहीत--हाथ में धारण किये; दण्ड:--डंडा |
हे महान् तथा शक्तिमान शिव, विद्या, तप, ब्रत तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए ब्राह्मणों कीरक्षा करने के हेतु ब्रह्म के मुख से सर्वप्रथम आपकी उत्पत्ति हुई थी।
आप ब्राह्मणों के पालकबनकर उनके द्वारा आचरित अनुष्ठानों की सदैव रक्षा करते हैं, जिस प्रकार ग्वाला गायों कीरखवाली के लिए अपने हाथ में दण्ड धारण किये रहता है।
"
योसौ मयाविदिततत्त्वदशा सभायांक्षिप्तो दुरुक्तिविशिखैर्विगणय्य तन्माम् ।
अर्वाक्पतन्तमर्हत्तमनिन्दयापाद्इृष्टचार्दया स भगवान्स्वकृतेन तुष्येत् ॥
१५॥
यः--जो; असौ--उस; मया--मेरे द्वारा; अविदित-तत्त्व--वास्तविकता को जाने बिना; हशा--अनुभव से; सभायाम्ू--सभामें; क्षिप्:--गाली दिया गया; दुरुक्ति--कटु वचन रूपी; विशिखै:ः--बाणों से; विगणय्य--परवाह न करके; तत्--वह;माम्--मुझको; अर्वाक्--नीचे की ओर; पतन्तम्--नरक में गिरते हुए; अईहत्-तम--सर्वाधिक पूज्य; निन्दया--निन्दा से;अपातू--बचा लिया; दृष्या--देख कर; आर्द्रया--दयावश; सः--वह; भगवान्-- भगवान्; स्व-कृतेन--अपनी कृपा से;तुष्येत्-प्रसन्न हो |
मैं आपकी समस्त कीर्ति से परिच्चित न था।
अतः मैंने खुली सभा में आपके ऊपर कटु शब्दरूपी बाणों की वर्षा की थी, तो भी आपने उनकी कोई परवाह नहीं की।
मैं आप जैसे परम पूज्यपुरुष के प्रति अवज्ञा के कारण नरक में गिरने जा रहा था, किन्तु आपने मुझ पर दया कर केऔर दण्डित करके मुझे उबार लिया है।
मेरी प्रार्थना है कि आप अपने ही अनुग्रह से प्रसन्न हों,क्योंकि मुझमें वह सामर्थ्य नहीं कि मैं अपने शब्दों से आपको तुष्ट कर सकूँ।
"
मैत्रेय उवाचक्षमाप्यैवं स मीढ्वांसं ब्रह्मणा चानुमन्त्रित: ।
कर्म सन््तानयामास सोपाध्यायर्त्विगादिभि: ॥
१६॥
मैत्रेय:--मैत्रेय मुनि ने; उवाच--कहा; क्षमा-- क्षमा; आप्य--प्राप्त करके; एवम्--इस प्रकार; सः--राजा दक्ष; मीढ्वांसम्--शिव को; ब्रह्मणा-- ब्रह्मा सहित; च-- भी; अनुमन्त्रितः --अनुमति पाकर; कर्म--यज्ञ; सन््तानयाम् आस-- पुनः प्रारम्भ किया;स--सहित; उपाध्याय--विद्वान साधु; ऋत्विक् --पुरोहित; आदिभि: --इत्यादि के द्वारा |
मैत्रेय मुनि ने कहा : इस प्रकार शिवजी द्वारा क्षमा कर दिये जाने पर राजा दक्ष ने ब्रह्मा कीअनुमति से विद्वान साधुओं, पुरोहितों तथा अन्यों के साथ पुनः यज्ञ करना प्रारम्भ कर दिया।
"
वैष्णवं यज्ञसन्तत्यै त्रिकपालं द्विजोत्तमा: ।
पुरोडाशं निरवपन्वीरसंसर्गशुद्धये ॥
१७॥
वैष्णवम्--विष्णु या उनके भक्तों के हेतु; यज्ञ-यज्ञ; सन्तत्यै--कृत्यों के लिए; त्रि-कपालम्--तीन प्रकार की भेंटें; द्विज-उत्तमा:--ब्राहमणों में श्रेष्ठ; पुरोडाशम्--पुरोडाश नामक आहुतिनि; निरवपन्-- भेंट की गईं; वीर--वीरभद्र तथा शिव के अन्यअनुचर; संसर्ग--स्पर्श के कारण दोष; शुद्धये--शुद्धि के लिए
तत्पश्चात ब्राह्मणों ने यज्ञ कार्य फिर से प्रारम्भ करने के लिए वीरभद्र तथा शिव के भूत-प्रेतसदृश अनुचरों के स्पर्श से प्रदूषित हो चुके यज्ञ स्थल को पवित्र करने की व्यवस्था की।
तबजाकर उन्होंने अग्नि में पुरोडाश नामक आहुतियाँ अर्पित की।
"
अध्वर्युणात्तरविषा यजमानो विशाम्पते ।
धिया विशुद्धया दध्यौ तथा प्रादुरभूद्धरिः ॥
१८॥
अध्वर्युणा--यजुर्वेद से; आत्त--लेकर; हविषा--घृत से; यजमान:--राजा दक्ष; विशाम्-पते--हे विदुर; धिया--चिन्तन में;विशुद्धबा-शुद्ध की गई; दध्यौ--डाला; तथा--तुरन्त; प्रादु:--प्रकट; अभूत्--हो गये; हरि:--हरि, भगवान्
महामुनि मैत्रेय ने विदुर से कहा : हे विदुर, जैसे ही राजा दक्ष ने शुद्धचित्त से यजुर्वेद केमंत्रो के साथ घी की आहुति डाली, वैसे ही भगवान् विष्णु अपने आदि नारायण रूप में वहाँप्रकट हो गये।
"
तदा स्वप्रभया तेषां द्योतयन्त्या दिशो दश ।
मुष्णंस्तेज उपानीतस्ताक्ष्येण स्तोत्रवाजिना ॥
१९॥
तदा--उस समय; स्व-प्रभया--अपने तेज से; तेषाम्--उन सबों के ; द्योतयन्त्या--कान्ति से; दिश:--दिशाएँ; दश--दस;मुष्णन्ू--कम करते हुए; तेज: --तेज; उपानीत:--लाया गया; ता्ष्येण --गरुड़ द्वारा; स्तोत्र-वाजिना--जिसके पंख बृहत् तथारथन्तर कहलाते हैं।
भगवान् नारायण स्तोत्र अर्थात् गरुड़ के कन्धे पर आरूढ़ थे, जिसके बड़े-बड़े पंख थे।
जैसे ही भगवान् प्रकट हुए, सभी दिशाएँ प्रकाशित हो उठीं जिससे ब्रह्मा तथा अन्य उपस्थितजनों की कान्ति घट गई।
"
इयामो हिरण्यरशनोर्ककिरीटजुष्टोनीलालकशभ्रमरमण्डितकुण्डलास्य: ।
शझ्जब्जचक्रशरचापगदासिचर्म -व्यग्रर्हिरण्मयभुजैरिव कर्णिकार: ॥
२०॥
श्याम:--श्याम वर्ण के; हिरण्य-रशनः --स्वर्ण के समान वस्त्र; अर्क-किरीट-जुष्ट:ः --सूर्य के समान देदीप्यमान मुकुट; नील-अलक--काले बाल; भ्रमर--भौरे; मण्डित-कुण्डल-आस्यः--कुण्डलों से सुशोभित मुख; शद्भु--शंख; अब्ज--कमल पुष्प;चक्र--चक्र; शर--बाण; चाप-- धनुष; गदा--गदा; असि--तलवार; चर्म--ढाल; व्यग्रै: --पूरित; हिरण्मय--सुनहले( बाजूबन्द तथा कंगन ); भुजैः--हाथों से; इब--सहृश; कर्णिकार: --पुष्प-वृक्ष, कनेर।
उनका वर्ण श्याम था, उनके वस्त्र स्वर्ण की तरह पीले तथा मुकुट सूर्य के समान देदीप्यमानथा।
उनके बाल भौंरों के समान काले और मुख कुण्डलों से आभूषित था।
उनकी आठ भुजाएँशंख, चक्र, गदा, कमल, बाण, धनुष, ढाल तथा तलवार धारण किये थीं ये कंगन तथाबिजावट जैसे स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत थीं।
उनका सारा शरीर कनेर के उस कुसुमित वृक्ष केसमान प्रतीत हो रहा था जिसमें विभिन्न प्रकार के फूल सुन्दर ढंग से सजे हों।
"
वक्षस्यधिश्रितवधूर्वनमाल्युदार-हासावलोककलया रमयंश्न विश्वम् ।
पार्श्भ्रमद्व्यजनचामरराजहंस:श्रेतातपत्रशशिनोपरि रज्यमान: ॥
२१॥
वक्षसि--छाती पर; अधिश्रित--स्थित; वधू: --स्त्री ( लक्ष्मी )वन-माली--वनपुष्पों की माला पहने; उदार--सुन्दर; हास--हँसती हुई; अवलोक--चितवन; कलया--किंचित्; रमयन्--मोहक; च--तथा; विश्वम्--पूरा संसार; पार्थ--बगल; भ्रमत्--आगे-पीछे हिलते हुए; व्यजन-चामर--झलने के लिए सफेद चबूँरी गाय की पूँछ; राज-हंसः--हंस; श्रेत-आतपत्र-शशिना--चन्द्र के समान श्वेत छत्र से; उपरि--ऊपर; रज्यमान:--सुन्दर दिखता हुआ।
भगवान् विष्णु असाधारण रूप से सुन्दर लग रहे थे, क्योंकि उनके वक्षस्थल पर ऐश्वर्य कीदेवी ( लक्ष्मी ) तथा एक हार विराजमान थे।
उनका मुख मन्द हास के कारण अत्यन्त सुशोभितथा, जो सारे जगत को और विशेष रूप से भक्तों के मन को मोहने वाला था।
भगवान् के दोनोंओर श्वेत चामर डुल रहे थे, मानो श्वेत हंस हों और उनके ऊपर तना हुआ श्वेत छत्र चन्द्रमा के" समान लग रहा था।
तमुपागतमालक्ष्य सर्वे सुरगणादय: ।
प्रणेमु: सहसोत्थाय ब्रहोन्द्रव्यक्षनायका: ॥
२२॥
तम्--उसको; उपागतम्--आया हुआ; आलक्ष्य--देखकर; सर्वे --सभी; सुर-गण-आदय:--देवता अथा अन्य लोग; प्रणेमु:--नमस्कार; सहसा--तुरन्त; उत्थाय--खड़े होकर; ब्रह्म--ब्रह्माजी; इन्द्र--इन्द्रदेव; त्रि-अक्ष--शिव ( जिनके तीन नेत्र हैं ) ;नायका:--के नायकत्व में |
जैसे ही भगवान् विष्णु दृष्टिगोचर हुए, वहाँ पर उपस्थित--ब्रह्मा, शिव, गंधर्व तथा वहाँउपस्थित सभी जनों ने उनके समक्ष सीधे गिरकर ( दण्डवत् ) सादर नमस्कार किया।
"
तत्तेजसा हतरुच: सन्नजिह् ससाध्वसा: ।
मूर्ध्ना धृताझ्ललिपुटा उपतस्थुरधोक्षजम् ॥
२३॥
ततू-तेजसा--उनके शरीर के चमचमाते तेज से; हत-रुच:--मलिन कान्ति वाला; सन्न-जिह्ना:ः--मौन जीभ से; स-साध्वसा:--उनके भय से भयभीत; मूर्ध्न--सर सहित; धृत-अद्जलि-पुटा:--सिर पर हाथ रखे; उपतस्थु: --प्रार्थना की; अधोक्षजम्--अधोक्षज भगवान् की |
नारायण की शारीरिक कान्ति के तेज से अन्य सबों की कान्ति मन्द पड़ गई और सबों काबोलना बन्द हो गया।
आश्चर्य तथा सम्मान से भयभीत, सबों ने अपने-अपने सिरों पर हाथ धरलिये और भगवान् अधोक्षज की स्तुति करने के लिए उद्यत हो गए।
"
अप्यर्वाग्वृत्तयो यस्य महि त्वात्मभुवादय:ः ।
यथामति गृणन्ति सम कृतानुग्रहविग्रहम् ॥
२४॥
अपि--अब भी; अर्वाक्-वृत्तय:--मानसिक क्रिया-कलापों से परे; यस्य--जिसकी; महि--यश; तु-- लेकिन; आत्मभू-आदय: --ब्रह्मा इत्यादि ने; यथा-मति--अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार; गृणन्ति स्म--स्तुति की; कृत-अनुग्रह--उनकेअनुग्रह से प्रकट; विग्रहम्--दिव्य रूप |
यद्यपि ब्रह्मा जैसे देवता भी परमेश्वर की अनन्त महिमा का अनुमान लगाने में असमर्थ थे,किन्तु वे सभी भगवान् की कृपा से उनके दिव्य रूप को देख सकते थे।
अतः वे अपने-अपनेसामर्थ्य के अनुसार उनकी सादर स्तुति कर सके।
"
दक्षो गृहीताईणसादनोत्तमंयज्जेश्वरं विश्वसूजां परं गुरुम् ।
सुनन्दनन्दाद्यनुगैर्वृत मुदागृणन्प्रपेदे प्रयतः कृताझ्ञललि: ॥
२५॥
दक्ष:--दक्ष ने; गृहीत--ग्रहण कर लिया; अर्हण --उचित; सादन-उत्तमम्--पूजा-पात्र; यज्ञ-ई श्वरम्--समस्त यज्ञों के स्वामीको; विश्व-सूजाम्--समस्त प्रजापतियों को; परम्--परम; गुरुम्--उपदेशक; सुनन्द-नन्द-आदि-अनुगै: --सुनन्द तथा नन््द जैसपार्षदों द्वारा; वृतम्ू-घिरा हुआ; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; गृणन्--स्तुति करते हुए; प्रपेदे--शरण ली; प्रयतः--विनीत भाव से;कृत-अज्जञलि:--हाथ जोड़ कर।
जब भगवान् विष्णु ने यज्ञ में डाली गई आहुतियों को स्वीकार कर लिया तो दक्ष प्रजापति नेअत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति करनी प्रारम्भ की।
वस्तुतः भगवान् समस्त यज्ञों के स्वामीऔर सभी प्रजापतियों के गुरु हैं और नन्द-सुनन्द जैसे पुरुष तक उनकी सेवा करते हैं।
"
दक्ष उबाचशुद्ध स्वधाम्न्युपरताखिलबुद्धयवस्थंचिन्मात्रमेकमभयं प्रतिषिध्य मायाम् ।
तिष्ठंस्तयैव पुरुषत्वमुपेत्य तस्याम्आस्ते भवानपरिशुद्ध इवात्मतन्त्र: ॥
२६॥
दक्ष:--दक्ष ने; उबाच--कहा; शुद्धम्-शुद्ध; स्व-धाम्नि-- अपने धाम में; उपरत-अखिल--पूर्णतया रहित; बुद्धि-अवस्थम्--मानसिक कल्पना की अवस्था; चित्-मात्रम्-पूर्णतया आध्यात्मिक; एकम्--अद्वितीय; अभयम्--निडर; प्रतिषिध्य--वश मेंकरके; मायाम्-- भौतिक शक्ति को; तिष्ठन्--स्थित होकर; तया--उस ( माया ) के द्वारा; एब--निश्चय ही; पुरुषत्वम्--पर्यवेक्षक; उपेत्य--प्रविष्ट होकर; तस्याम्--उसमें; आस्ते--उपस्थित है; भवान्--आप; अपरिशुद्ध:--अशुद्ध; इब--मानो;आत्म-तन्त्र:--आत्म-निर्भर, स्वतंत्रदक्ष ने भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा--हे प्रभु, आप समस्त कल्पना-अवस्थाओं सेपरे हैं।
आप परम चिन्मय, भय-रहित और भौतिक माया को वश में रखने वाले हैं।
यद्यपि आपमाया में स्थित प्रतीत होते हैं, किन्तु आप दिव्य हैं।
आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं, क्योंकि आपपरम स्वतंत्र हैं।
"
ऋत्विज ऊचुःतत्त्वं न ते वयमनझ्जन रुद्रशापात्कर्मण्यवग्रहधियो भगवन्विदाम: ।
धर्मोपलक्षणमिदं त्रिवृदध्वराख्य॑ज्ञातं यदर्थमधिदैवमदो व्यवस्था: ॥
२७॥
ऋत्विज: --पुरोहितों ने; ऊचु:--कहतना प्रारम्भ किया; तत्त्वम्--सत्य; न--नहीं; ते--आपका; वयम्--हम सब; अनझ्जन--किसी भौतिक कल्मष से रहित; रुद्र--शिव के; शापात्--शाप से; कर्मणि--सकाम कर्मों में; अवग्रह--अत्यधिक लिप्त रहनेसे; धियः--ऐसी बुद्धि का; भगवन्--हे भगवान्; विदाम:--जानते हैं; धर्म--धर्म; उपलक्षणम्--सांकेतिक; इृदम्--यह; त्रि-वबृत्-वेद ज्ञान के तीन विभाग, वेदत्रयी; अध्वर--यज्ञ; आख्यम्--नाम का; ज्ञातम्ू--ज्ञात; यत्--वह; अर्थम्--प्रयोजन केहेतु; अधिदैवम्--देवताओं की पूजा के लिए; अदः--यह; व्यवस्था: --प्रबन्ध, व्यवस्था |
पुरोहितों ने भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा--हे भगवन्, आप भौतिक कल्मष से परेहैं।
शिव के अनुचरों द्वारा दिये गये शाप के कारण हम सकाम कर्म में लिप्त हैं, अतः हम पतितहो चुके हैं और आपके विषय में कुछ भी नहीं जानते।
उल्टे, हम यज्ञ के नाम पर अनुष्ठानों कोसम्पन्न करने के लिए वेदत्रयी के आदेशों में आ फँसे हैं।
हमें ज्ञात है कि आपने देवताओं कोअपने-अपने उनके भाग दिये जाने की व्यवस्था कर रखी है।
"
सदस्या ऊचुःउत्पत्त्यध्वन्यशरण उरुक्लेशदुर्गेन्तको ग्र-व्यालान्विष्टे विषयमृगतृष्यात्मगेहोरु भार: ।
इन्द्रध्रश्न खलमृगभये शोकदावेऊज्ञसार्थ:पादौकस्ते शरणद कदा याति कामोपसूष्ट: ॥
२८॥
सदस्या:--सभा के सदस्य; ऊचु:--बोले; उत्पत्ति--जन्म-मृत्यु का चक्र; अध्वनि--के मार्ग पर; अशरणे--जिसका आश्रय नहो; उरु--महान; क्लेश--कष्टकारक; दुर्गे--किले में; अन्तक--अन्त; उग्र--डरावना; व्याल--सर्प; अन्विष्टे--परिपूर्ण ;विषय--भौतिक सुख; मृग-तृषि--मृग-तृष्णा; आत्म--शरीर; गेह--घर; उरू-- भारी; भार: -- भार, बोझ; द्वन्ध--द्वैत; श्रश्रे--छिद्र, सुख तथा दुख के खंदक; खल--दुष्ट; मृग--पशु; भये--डरा हुआ; शोक-दावे--शोक रूपी दावाग्नि; अज्ञ-स-अर्थ:--दुष्टों के हित के लिए; पाद-ओक:--चरणकमलों की शरण; ते--तुम्हारे; शरण-द--शरण देने वाला; कदा--जब;याति--गया; काम-उपसृष्ट:--सभी प्रकार की इच्छाओं से दुखित।
सभा के सदस्यों ने भगवान् को सम्बोधित किया--हे संतप्त जीवों के एकमात्र आश्रय, इसबद्ध संसार के दुर्ग में काल-रूपी सर्प प्रहार करने की ताक में रहता है।
यह संसार तथाकथितसुख तथा दुख की खंदकों से भरा पड़ा है और अनेक हिंस्त्र पशु आक्रमण करने को सन्नद्ध रहतेहैं।
शोक रूपी अग्नि सदैव प्रज्वलित रहती है और मृषा सुख की मृगतृष्णा सदैव मोहती रहतीहै, किन्तु मनुष्य को इनसे छुटकारा नहीं मिलता।
इस प्रकार अज्ञानी पुरुष जन्म-मरण के चक्र मेंपड़े रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों के भार से सदा दबे रहते हैं।
हमें ज्ञात नहीं कि वेआपके चरणकमलों की शरण में कब जाएँगे।
"
रुद्र उबाचतव वरद वराड्घ्रावाशिषेहाखिलार्थहाषि मुनिभिरसक्तैरादरेणाहणीये ।
यदि रचितधियं माविद्यलोकोपविद्धंजपति न गणये तत्त्वत्परानुग्रहेण ॥
२९॥
रुद्र: उबाच--शिव ने कहा; तब--तुम्हारा; वर-द--हे परम दानी; वर-अड्घ्रौ -- अमूल्य चरणकमल; आशिषा--इच्छा से;इह--संसार में; अखिल-अर्थ--पूर्ति के लिए; हि अपि--निश्चय ही; मुनिभि:--मुनियों द्वारा; असक्तै:--मुक्त; आदरेण--आदरपूर्वक; अर्हणीये-- पूज्य; यदि--यदि; रचित-धियम्--स्थिर मन; मा--मुझको; अविद्य-लोक: --अज्ञानी पुरुष;अपविद्धमू--अशुद्ध कर्म; जपति--कहता है; न गणये--मूल्य नहीं जानते; तत्--वह; त्वत्-पर-अनुग्रहेण--आप की जैसीकृपा से।
शिवजी ने कहा : हे भगवान्, मेरा मन तथा मेरी चेतना निरन्तर आपके पूजनीय चरणकमलोंपर स्थिर रहती है, जो समस्त वरों तथा इच्छाओं की पूर्ति के स्त्रोत होने के कारण समस्त मुक्तमहामुनियों द्वारा पूजित हैं क्योंकि आपके चरण कमल ही पूजा के योग्य।
आपके चरणकमलोंमें मन को स्थिर रखकर मैं उन व्यक्तियों से विचलित नहीं होता जो यह कहकर मेरी निन््दा करतेहैं कि मेरे कर्म पवित्र नहीं हैं।
में उनके आरोपों की परवाह नहीं करता और मैं उसी प्रकारदयावश उन्हें क्षमा कर देता हूँ, जिस प्रकार आप समस्त जीवों के प्रति दया प्रदर्शित करते हैं।
"
भूगुरुवाचयन्मायया गहनयापहतात्मबोधाब्रह्मादयस्तनुभूतस्तमसि स्वपन्त: ।
नात्मन्श्रितं तव विदन्त्यधुनापि तत्त्वंसोथयं प्रसीदतु भवान्प्रणतात्मबन्धु; ॥
३०॥
भूगु: उवाच--उवाच श्रीभूगु ने कहा; यत्--जो; मायया--माया से; गहनया--दुर्लध्य; अपहृत--चुराया हुआ; आत्म-बोधा: --स्वाभाविक स्थिति का ज्ञान; ब्रहय-आदय: --ब्रह्मा इत्यादि ; तनु-भृतः--जीवात्माओं सहित; तमसि--मोहान्धकार में;स्वपन्तः--सोये हुए; न--नहीं; आत्मन्--जीवात्मा में; भ्रितम्--स्थित; तब--तुम्हारा; विदन्ति--जानते हैं; अधुना--अब;अपि--निश्चय ही; तत्त्वमू--परम पद; सः--वह ( आप ); अयम्--यह; प्रसीदतु--प्रसन्न हों; भवान्ू--आप; प्रणत-आत्म--शरणागत जीव के; बन्धु:--सखा
मित्रभूगु मुनि ने कहा : हे भगवन्, सर्वोच्च ब्रह्म से लेकर सामान्य चींटी तक सारे जीव आपकीमाया शक्ति के दुर्लघ्य जादू के वशीभूत हैं और इस प्रकार वे अपनी स्वाभाविक स्थिति सेअपरिचित हैं।
देहात्मबुद्धि में विश्वास करने के कारण सभी मोह के अंधकार में पड़े हुए हैं।
वेवास्तव में यह नहीं समझ पाते कि आप प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा के रूप में कैसे रहते हैं, नतो वे आपके परम पद को ही समझ सकते हैं।
किन्तु आप समस्त शरणागत जीवों के नित्यसखा एवं रक्षक हैं।
अतः आप हम पर कृपालु हों और हमारे समस्त पापों को क्षमा कर दें।
"
ब्रह्मोवाचनैतत्स्वरूपं भवतोसौ पदार्थ-भेदग्रहैः पुरुषो यावदीक्षेत् ।
ज्ञानस्थ चार्थस्य गुणस्य चाश्रयोमायामयादव्यतिरिक्तो मतस्त्वम् ॥
३१॥
ब्रह्मा उवाच--ब्रह्मा ने कहा; न--नहीं; एतत्--यह; स्वरूपम्--अनित्य रूप; भवत:--आपका; असौ--वह; पद-अर्थ--ज्ञान;भेद--भिन्न; ग्रहैः--प्राप्ति से; पुरुष:--पुरुष; यावत्--जब तक; ईक्षेत्--देखना चाहता है; ज्ञानस्य--ज्ञान का; च--भी;अर्थस्य--लक्ष्य का; गुणस्य--ज्ञान के साधनों का; च-- भी; आश्रय: --आधार; माया-मयात्--माया से निर्मित होने से;व्यतिरिक्त:--स्पष्ट; मतः--माना हुआ; त्वम्--तुम |
ब्रह्मजी ने कहा : हे भगवन्, यदि कोई पुरुष आपको ज्ञानअर्जित करने की विभिन्न विधियोंद्वारा जानने का प्रयास करे तो वह आपके व्यक्तित्व एवं शाश्वत रूप को नहीं समझ सकता।
आपकी स्थिति भौतिक सृष्टि की तुलना में सदैव दिव्य है, जबकि आपको समझने के प्रयास,लक्ष्य तथा साधन सभी भौतिक और काल्पनिक हैं।
"
इन्द्र उबाचइदमप्यच्युत विश्वभावनंवपुरानन्दकरं मनोहृशाम् ।
सुरविद्विट्क्षपणैरुदायुधै -भुजदण्डैरुपपन्नमष्टभि: ॥
३२॥
इन्द्र: उबाच--राजा इन्द्र ने कहा; इदम्--यह; अपि--निश्चय ही; अच्युत--हे अच्युत; विश्व-भावनम्--विश्व के कल्याण हेतु;वपु:--दिव्य रूप; आनन्द-करम्-- आनन्द के कारण; मनः-हशाम्--मन तथा नेत्रों को; सुर-विद्विटू--आपके भक्तों से ईर्ष्यालु;क्षपणै: --दण्ड द्वारा; उद्-आयुधे: -- हथियार उठाये; भुज-दण्डै:--बाहों से; उपपन्नम्--युक्त; अष्टभि:--आठ |
राजा इन्द्र ने कहा : हे भगवन्, प्रत्येक हाथ में आयुध धारण किये आपका यह अष्टभुजदिव्य रूप सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु प्रकट होता है और मन तथा नेत्रों को अत्यन्त आनन्दितकरने वाला है।
आप इस रूप में अपने भक्तों से ईर्ष्या करने वाले असुरों को दण्ड देने के लिएसदैव तत्पर रहते हैं।
"
पल्य ऊचु:यज्ञोयं तब यजनाय केन सूष्टोविध्वस्त: पशुपतिनाद्य दक्षकोपात् ।
त॑ नस्त्वं शवशयनाभशान्तमेधंयज्ञात्मन्नलिनरुचा हशा पुनीहि ॥
३३॥
पल्य: ऊचु:--यज्ञकर्ताओं की पत्नियों ने कहा; यज्ञ:--यज्ञ; अयम्--यह; तब--तुम्हारा; यजनाय--पूजा के हेतु; केन--ब्रह्माद्वारा; सृष्ट: --व्यवस्थित; विध्वस्त: --नष्ट- भ्रष्ट; पशुपतिना--शिव द्वारा; अद्य--आज; दक्ष-कोपात्--दक्ष पर क्रोध करने से;तमू--यह; नः--हमारा; त्वमू--तुम; शव-शयन--मृत शरीर; आभ--के समान; शान्त-मेधम्--शान्त बलि-पशु; यज्ञ-आत्मनू्--हे यज्ञ के स्वामी; नलिन--कमल; रुचा--सुन्दर; हशा--अपने नेत्रों की दृष्टि से; पुनीहि--पवित्र कीजिये
याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा : हे भगवान्, वह यज्ञ ब्रह्म के आदेशानुसार व्यवस्थित कियागया था, किन्तु दुर्भाग्यवश दक्ष से क्रुद्ध होकर शिव ने समस्त दृश्य को ध्वस्त कर दिया औरउनके रोष के कारण यज्ञ के निमित्त लाये गये पशु निर्जीव पड़े हैं।
अतः यज्ञ की सारी तैयारियाँबेकार हो चुकी हैं।
अब आपके कमल जैसे नेत्रों की चितवन से इस यज्ञस्थल की पवित्रता पुनःप्राप्त हो।
"
ऋषय ऊचु:अनन्वितं ते भगवन्विचेष्टितंयदात्मना चरसि हि कर्म नाज्यसे ।
विभूतये यत उपसेदुरी श्वरींन मन्यते स्वयमनुवर्ततीं भवान् ॥
३४॥
ऋषय:--ऋषियों ने; ऊचु:--प्रार्थना की; अनन्वितम्-- आश्चर्यजनक; ते--तुम्हारा; भगवन्--हे समस्त ऐ श्वर्यों के स्वामी;विचेष्टितम्ू--कार्यकलाप; यत्--जो; आत्मना--अपनी शक्तियों से; चरसि--करते हो; हि--निश्चय ही; कर्म--ऐसे कार्यों को;न अज्यसे--लिप्त नहीं होते; विभूतये--उसकी कृपा के हेतु; यतः--जिससे; उपसेदु:--पूज्य; ईश्वरीम्-ऐश्वर्य की देवी, लक्ष्मी;न मन्यते--लिप्त नहीं होती हैं; स्वयम्--स्वयं; अनुवर्ततीम्--अपनी आज्ञाकारी दासी ( लक्ष्मी ); भवान्ू--आप
ऋषियों ने प्रार्थना की: हे भगवान्, आपके कार्य अत्यन्त आश्चर्यमय हैं और यद्यपि आप सबकुछ अपनी विभिन्न शक्तियों से करते हैं, किन्तु आप उनसे लिप्त नहीं होते।
यहाँ तक कि आपसम्पत्ति की देवी लक्ष्मीजी से भी लिप्त नहीं हैं, जिनकी पूजा ब्रह्माजी जैसे बड़े-बड़े देवताओंद्वारा उनकी कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती है।
"
सिद्धा ऊचुःअयं त्वत्कथामृष्टपीयूषनद्यांमनोवारणः क्लेशदावाग्निदग्धः ॥
तृषार्तोड>वगाढो न सस्मार दावंन निष्क्रामति ब्रह्मसम्पन्नवन्न: ॥
३५॥
सिद्धाः:--सिद्धों ने; ऊचुः--प्रार्थना की; अयम्ू--वह; त्वत्ू-कथा--आपकी लीलाएँ; मृष्ट--शुद्ध; पीयूष-- अमृत की;नद्यामू--नदी में; मन: --मन का; वारण:--हाथी; क्लेश--कष्ट; दाव-अग्नि--जंगल की आग से; दग्ध: --जला हुआ; तृषा--प्यास; आर्त:--त्रस्त; अवगाढ:--निमज्जित; न सस्मार--स्मरण नहीं करते; दावम्--दावाग्नि या कष्टों को; न निष्क्रामति--बाहर नहीं आता; ब्रह्म--परम; सम्पन्न-वत्--मानो तदाकार हों; न:--हम |
सिद्धों ने स्तुति की : हे भगवन्, हमारे मन उस हाथी के समान हैं, जो जंगल की आग सेत्रस्त होने पर नदी में प्रविष्ट हो ते ही सभी कष्ट भूल सकता है।
उसी तरह ये हमारे मन भीआपकी दिव्य लीलाओं की अमृत-नदी में निमज्जित हैं और ऐसे दिव्य आनन्द में निरन्तर बनेरहना चाहते हैं, जो परब्रह्म में तदाकार होने के सुख के समान ही है।
"
यजमान्युवाचस्वागतं ते प्रसीदेश तुभ्यं नमःश्रीनिवास श्रिया कान्तया त्राहि नः ।
त्वामृतेधीश नाड्रैर्मखः शोभतेशीर्षहीन: कबन्धो यथा पुरुष: ॥
३६॥
यजमानी--दक्ष की पत्नी ने; उबाच--प्रार्थना की; सु-आगतम्--शुभ आगमन; ते--आपका; प्रसीद-प्रसन्न हों; ईश--मेरेभगवान्; तुभ्यम्ू--तुमको; नमः--नमस्कार है; श्रीनिवास--हे सम्पत्ति की देवी के धाम; अ्रिया--लक्ष्मी समेत; कान्तया--अपनी पतली; त्राहि--रक्षा करें; न:--हमारी; त्वामू--तुम्हारे; ऋते--बिना; अधीश--हे परम नियंता; न--नहीं; अच्डैः--शारिरिक अंगों से; मख:--यज्ञ स्थल; शोभते--शोभा पाता है; शीर्ष-हीन:--शिर रहित; क-बन्ध: -- धड़; यथा--जिस प्रकार;पुरुष:--पुरुषदक्ष की पत्नी ने इस प्रकार प्रार्थना की--हे भगवान्यह हमारा सौभाग्य है कि आपयज्ञस्थल में पधारे हैं।
मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ और आपसे प्रार्थना करती हूँ कि इसअवसर पर आप प्रसन्न हों।
यह यज्ञस्थल आपके बिना शोभा नहीं पा रहा था, जिस प्रकार किसिर के बिना धड़ शोभा नहीं पाता।
"
लोकपाला ऊचु:इृष्ट: कि नो हग्भिरसदग्रहैस्त्वंप्रत्यग्द्रष्टा इश्यते येन विश्वम् ।
माया होषा भवदीया हि भूमन्यस्त्वं षष्ठ: पञ्ञभिर्भास भूतेः ॥
३७॥
लोक-पाला:--विभिन्न लोकों के प्रशासकों ने; ऊचु:--कहा; दृष्ट:--देखा हुआ; किमू--क्या; न: --हमारे द्वारा; हग्भि: --इन्द्रियों सें; असत्-ग्रहैः--हश्य जगत को प्रकट करने वाले; त्वम्--तुम; प्रत्यक्-द्रष्टा-- आन्तरिक साक्षी; दृश्यते--देखा जाताहै; येन--जिससे; विश्वम्--ब्रह्मण्ड; माया-- भौतिक जगत; हि-- क्योंकि; एघा--यह; भवदीया--आपकी; हि--निश्चय ही;भूमन्--हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; य:ः--क्योंकि; त्वम्--तुम; षष्ठ:--छठवाँ; पञ्ञभि:--पाँच; भासि--प्रकट होते हो; भूतैः --तत्त्वों से
विभिन्न लोकों के लोकपालों ने इस प्रकार कहा : हे भगवन्, हम अपनी प्रत्यक्ष प्रतीति परही विश्वास करते हैं, किन्तु इस परिस्थिति में हम नहीं जानते कि हमने आपका दर्शन वास्तव मेंअपनी भौतिक इन्द्रियों से किया है अथवा नहीं ।
इन इन्द्रियों से तो हम हृश्य जगत को ही देखपाते हैं, किन्तु आप तो पाँच तत्त्वों के परे हैं।
आप तो छठवें तत्त्व हैं।
अतः हम आपको भौतिकजगत की सृष्टि के रूप में देख रहे हैं।
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योगेश्वरा ऊचुःप्रेयान्न तेउन्यो स्त्यमुतस्त्वयि प्रभोविश्वात्मनीक्षेन्न पृथग्य आत्मन: ।
अथापि भक्त्येश तयोपधावता-मनन्यदृत्त्यानुगृहाण बत्सल ॥
३८॥
योग-ई श्वराः -- परम योगीजनों ने; ऊचु:--कहा; प्रेयान्-- अत्यन्त प्रिय; न--नहीं; ते--तुम्हारा; अन्य:--दूसरा; अस्ति-- है;अमुतः--उससे; त्वयि--तुम में; प्रभो--हे ईश्वर; विश्व-आत्मनि--समस्त जीवात्माओं के परमात्मा में; ईक्षेत्--देखते हैं; न--नहीं; पृथक्ू-भिन्न; यः--जो; आत्मन:--जीवात्माएँ; अथ अपि-- और अधिक; भक्त्या--भक्ति से; ईश--हे भगवान्; तया--उससे; उपधावताम्--पूजा करने वालों का; अनन्य-वृत्त्या--न चूकने वाला; अनुगृहाण--कृपा करें; वत्सल--हे हितकारी भगवान्महान्
योगियों ने कहा : हे भगवान्, जो लोग यह जानते हुए कि आप समस्त जीवात्माओंके परमात्मा हैं, आपको अपने से अभिन्न देखते हैं, वे निश्चय ही आपको परम प्रिय हैं।
जोआपको स्वामी तथा अपने आपको दास मानकर आपकी भक्ति में अनुरक्त रहते हैं, आप उन परपरम कृपालु रहते हैं।
आप कृपावश उन पर सदैव हितकारी रहते हैं।
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जगदुद्धवस्थितिलयेषु दैवतोबहुभिद्यमानगुणयात्ममायया ।
रचितात्मभेदमतये स्वसंस्थयाविनिवर्तितभ्रमगुणात्मने नम: ॥
३९॥
जगत्--भौतिक जगत; उद्धव--सृष्टि; स्थिति--पालन; लयेषु--संहार में; दैवत:-- भाग्य; बहु-- अनेक ; भिद्यमान--भिन्नता;गुणया--भौतिक गुणों के द्वारा; आत्म-मायया--अपनी भौतिक शक्ति से; रचित--उत्पन्न; आत्म--जीवात्माओं; भेद-मतये--भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न करने वाली भेदबुद्धि; स्व-संस्थया--अपनी अन्तरंगा शक्ति से; विनिवर्तित--रोका गया; भ्रम--बन्धन; गुण-- भौतिक गुणों का; आत्मने--उनके साक्षात् रूप को; नमः--नमस्कार।
हम उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने नाना प्रकार की वस्तुएँ उत्पन्न कींऔर उन्हें भौतिक जगत के त्रिगुणों के वशीभूत कर दिया जिससे उनकी उत्पत्ति, स्थिति तथासंहार हो सके।
वे स्वयं बहिरंगा शक्ति के अधीन नहीं हैं, वे साक्षात् रूप में भौतिक गुणों केविविध प्राकट्य से रहित हैं और मिथ्या मायामोह से दूर हैं।
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ब्रह्मोवाचनमस्ते थ्रितसत्त्वाय धर्मादीनां च सूतये ।
निर्गुणाय च यत्काष्ठटां नाहं वेदापरेडपि च ॥
४०॥
ब्रह्म--साक्षात् वेद ने; उबाच--कहा; नम: --सादर नमस्कार; ते--तुमको; श्रित-सत्त्वाय--सतोगुण के आश्रय; धर्म-आदीनाम्--समस्त धर्म तथा तपस्या; च--तथा; सूतये--स्त्रोत; निर्गुणाय--भौतिक गुणों से परे; च--तथा; यत्--जिसका( परमेश्वर का ); काष्ठाम्--स्थिति; न--नहीं; अहम्--मैं; बेद--जानता हूँ; अपरे-- अन्य; अपि--निश्चय ही; च--तथासाक्षात्
वेदों ने कहा : हे भगवान्, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आपसतोगुण के आश्रय होने के कारण समस्त धर्म तथा तपस्या के स्त्रोत हैं; आप समस्त भौतिकगुणों से परे हैं और कोई भी न तो आपको और न आपकी वास्तविक स्थिति को जानने वालाहै।
"
अग्निरुवाचयत्तेजसाहं सुसमिद्धतेजाहव्यं वहे स्वध्वर आज्यसिक्तम् ।
त॑ यज्ञियं पञ्जञविधं च पञ्ञभिःस्विष्टे यजुर्मि: प्रणतोस्मि यज्ञम् ॥
४१॥
अग्नि:ः--अग्निदेव ने; उबाच--कहा; यत्-तेजसा--जिसके तेज से; अहम्--मैं; सु-समिद्ध-तेजा: -- प्रज्वलित अग्नि के समानतेजवान; हव्यम्--आहुतियाँ; वहे--स्वीकार करता हूँ; सु-अध्वरे--यज्ञ में; आज्य-सिक्तम्-घृतमिश्रित; तम्--वह;यज्ञियम्ू--यज्ञ का रक्षक; पञ्ञ-विधम्--पाँच; च--तथा; पञ्चभि:--पाँच द्वारा; सु-इष्टम्-- पूज्य; यजुर्भि:-- वैदिक मंत्र;प्रणतः--सादर नत; अस्मि--मैं हूँ; यज्ञम्--यज्ञ ( विष्णु ) को।
अग्निदेव ने कहा : हे भगवान्, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि आपकी हीकृपा से मैं प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी हूँ और मैं यज्ञ में प्रदत्त घृतमिश्रित आहुतियाँस्वीकार करता हूँ।
यजुर्वेद में वर्णित पाँच प्रकार की हवियाँ आपकी ही विभिन्न शक्तियाँ हैं औरआपकी पूजा पाँच प्रकार के वैदिक मंत्रों से की जाती है।
यज्ञ का अर्थ ही आप अर्थात् परमभगवान् है।
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देवा ऊचुःपुरा कल्पापाये स्वकृतमुदरीकृत्य विकृतंत्वमेवाद्यस्तस्मिन्सलिल उरगेन्द्राधिशयने ।
पुमान्शेषे सिद्धैईदि विमृशिताध्यात्मपदवि:स एवाद्याक्ष्णोर्य: पथि चरसि भृत्यानवसि न: ॥
४२॥
देवा:--देवताओं ने; ऊचु:--कहा; पुरा--पहले, पूर्व; कल्प-अपाये--कल्पान्त में; स्व-कृतम्-- आत्म-प्रसूत; उदरी-कृत्य--उदरस्थ करके; विकृतम्--प्रभाव; त्वम्ू--तुम; एब--निश्चय ही; आद्य:--आदि; तस्मिन्ू--उसमें; सलिले--जल में; उरग-इन्द्र--शेष पर; अधिशयने--शय्या पर; पुमानू--पुरुष; शेषे--शयन करते हुए; सिद्धैः--मुक्तात्माओं ( यथा सनकादि ) द्वारा );हृदि--हृदय में; विमृशित-- ध्यान किया गया; अध्यात्म-पदविः--दार्शनिक चिन्तन का मार्ग; सः--वह; एव--निश्चय ही;अद्य--अब; अक्ष्णो:--दोनों नेत्रों का; यः--जो; पथि--पथ पर; चरसि--चलते हो; भृत्यानू--दास; अवसि--रक्षा करो;नः--हमारी।
देवताओं ने कहा : हे भगवान्, पहले जब प्रलय हुआ था, तो आपने भौतिक जगत कीविभिन्न शक्तियों को संरक्षित कर लिया था।
उस समय ऊर्ध्वलोकों के सभी वासी, जिनमें सनकजैसे मुक्त जीव भी थे, दार्शनिक चिन्तन द्वारा आपका ध्यान कर रहे थे।
अत: आप आदिपुरुषहैं।
आप प्रलयकालीन जल में शेषशय्या पर शयन करते हैं।
अब आज आप हमारे के समक्षदिख रहे हैं।
हम सभी आप के दास हैं।
कृपया हमें शरण दीजिये।
"
गन्धर्वा ऊचुःअंशांशास्ते देव मरीच्यादय एतेब्रह्मेन्द्राद्य देवगणा रुद्रपुरोगा: ।
क्रीडाभाण्डं विश्वमिदं यस्य विभूमन्तस्मै नित्यं नाथ नमस्ते करवाम ॥
४३॥
गन्धर्वा:--गंधर्वों ने; ऊचु:--कहा; अंश-अंशा:--आपके शरीर के विभिन्न अंश; ते--तुम्हारे; देब--हे भगवान्; मरीचि-आदय: --मरीचि तथा अन्य ऋषिगण; एते--ये; ब्रह्म-इन्द्र-आद्या: -- ब्रह्मा, इन्द्र इत्यादि; देव-गणा:--देवता; रुद्र-पुरोगा:--शिव ही जिनके प्रधान हैं; क्रीडा-भाण्डमू--खिलौना; विश्वम्--सारी सृष्टि; इदमू--यह; यस्य--जिसका; विभूमन्-- भगवन्;तस्मै--उसको; नित्यमू-सदैव; नाथ--हे भगवान्; नम:--सादर नमस्कार; ते--तुमको; करवाम--हम करते हैं।
गन्धर्वों ने कहा : हे भगवन्, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र तथा मरीचि समेत समस्त देवता तथाऋषिगण आपके ही शरीर के विभिन्न अंश हैं।
आप परम शक्तिमान हैं, यह सारी सृष्टि आपकेलिए खिलवाड़ मात्र है।
हम सदैव आपको पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् रूप में स्वीकार करते है औरआपको सादर नमस्कार करते हैं।
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विद्याधरा ऊचुःत्वन्माययार्थभभिपद्य कलेवरेस्मिन्कृत्वा ममाहमिति दुर्मतिरुत्पथे: स्वै: ।
क्षिप्तोप्यसद्विषषयलालस आत्ममोहंयुष्मत्कथामृतनिषेवक उद्व्युदस्येत् ॥
४४॥
विद्याधरा:--विद्याधरों ने; ऊचु:--कहा; त्वत्ू-मायया--आपकी बहिरंगा शक्ति से; अर्थम्--मानव शरीर; अभिपद्य-प्राप्तकरके; कलेवरे--शरीर में; अस्मिन्ू--इस; कृत्वा--ठीक से न पहचान करके; मम--मेरा; अहम्--मैं; इति--इस प्रकार;दुर्मतिः-- अज्ञानी पुरुष; उत्पथै:--गलत मार्ग से; स्वै:--स्वजनों के द्वारा; क्षिप्त:--विपथ; अपि-- भी; असत्-- क्षणिक;विषय-लालस: -- भोग की वस्तुओं में सुख मानकर; आत्म-मोहम्--देह को आत्मा मानने का मोह; युष्मत्--आपकी; कथा--कथा, वार्ता; अमृत--अमृत; निषेवक:--आस्वादन करता हुआ; उत्--दूर से; व्युदस्येत्--उद्द्धार हो सकता है|
विद्याधरों ने कहा : हे प्रभु, यह मानव देह सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के निमित्त है, किन्तुआपकी बहिरंगा शक्ति के वशीभूत होकर जीवात्मा अपने आपको भ्रमवश देह तथा भौतिकशक्ति मान बैठता है, अतः माया के वश में आकर वह सांसारिक भोग द्वारा सुखी बनना चाहताहै।
वह दिग्भ्रमित हो जाता है और क्षणिक माया-सुख के प्रति सदैव आकर्षित होता रहता है।
किन्तु आपके दिव्य कार्यकलाप इतने प्रबल हैं कि यदि कोई उनके श्रवण तथा कीर्तन में अपनेको लगाए तो मोह से उसका उद्धार हो सकता है।
"
ब्राह्मणा ऊचु:त्वं क्रतुस्त्वं हविस्त्वं हुताश: स्वयंत्वं हि मन्त्र: समिदहर्भपात्राणि च ।
त्वं सदस्यर्त्विजो दम्पती देवताअग्निहोत्रं स्वधा सोम आज्यं पशु: ॥
४५॥
ब्राह्मणा:--ब्राह्मणों ने; ऊचुः--कहा; त्वम्ू--तुम; क्रतु:--यज्ञ; त्वमू--तुम; हवि:ः--घी की आहुति; त्वम्--तुम; हुत-आशः--अग्नि; स्वयम्--साक्षात्; त्वमू--तुम; हि-- क्योंकि; मन्त्र:ः--वैदिक मंत्र; समित्-दर्भ-पात्राणि--ईंधन, कुश तथा यज्ञके पात्र; च--तथा; त्वम्ू--तुम; सदस्य--सभा के सदस्य; ऋत्विज: --पुरोहित; दम्पती--यजमान तथा उसकी पली; देवता--देवता; अग्नि-होत्रम्ू--पवित्र अग्नि-उत्सव; स्वधा--पितरों की हवि; सोम:--सोम पादप; आज्यम्--घृत; पशु:--यज्ञ कापशु।
ब्राह्मणों ने कहा : हे भगवान्, आप साक्षात् यज्ञ हैं।
आप ही घृत की आहुति हैं; आप अग्निहैं; आप वैदिक मंत्रों के उच्चारण हैं, जिनसे यज्ञ कराया जाता है; आप ईंधन हैं; आप ज्वाला हैं;आप कुश हैं और आप ही यज्ञ के पात्र हैं।
आप यज्ञकर्ता पुरोहित हैं, इन्द्र आदि देवतागण आपही हैं और आप यज्ञ-पशु हैं।
जो कुछ भी यज्ञ में अर्पित किया जाता है, वह आप या आपकीशक्ति है।
"
त्वं पुरा गां रसाया महासूकरोदंष्टया पद्धिनीं वारणेन्द्रो यथा ।
स्तूयमानो नदल्लीलया योगिभि-व्युजहर्थ त्रयीगात्र यज्ञक्रतु: ॥
४६॥
त्वमू--तुम; पुरा-- भूतकाल में; गाम्ू--पृथ्वी; रसाया:--जल के भीतर से; महा-सूकरः --महान् शूकर अवतार; दंष्टया --अपनी दाढ़ से; पद्चिनीमू--कमलिनी; वारण-इन्द्र:--हाथी; यथा--जिस प्रकार; स्तूयमान:--स्तुति किया गया; नदनू--गूँजताहुआ; लीलया--सरलता से; योगिभि:--सनक इत्यादि परम साधुओं द्वारा; व्युजहर्थ--ऊपर उठाया; त्रयी-गात्र--हे साक्षात्वैदिक ज्ञान; यज्ञ-क्रतु:--यज्ञ के रूप में |
हे भगवान्, हे साक्षात् वैदिक ज्ञान, अत्यन्त पुरातन काल पहले, पिछले युग में जब आपमहान् सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे तो आपने पृथ्वी को जल के भीतर से इस प्रकारऊपर उठा लिया था जिस प्रकार कोई हाथी सरोवर में से कमलिनी को उठा लाता है।
जब आपनेउस विराट सूकर रूप में दिव्य गर्जन किया, तो उस ध्वनि को यज्ञ मंत्र के रूप में स्वीकार करलिया गया और सनक जैसे महान् ऋषियों ने उसका ध्यान करते हुए आपकी स्तुति की।
"
स प्रसीद त्वमस्माकमाकादुक्षतां दर्शन ते परिभ्रष्टसत्कर्मणाम् ।
कीरत्यमाने नृभिर्नाम्नि यज्ञेश तेयज्ञविघ्ना: क्षयं यान्ति तसस््मै नमः: ॥
४७॥
सः--वही व्यक्ति; प्रसीद--प्रसन्न हों; त्वमू--आप; अस्माकम्--हम पर; आकाइुक्षताम्-- प्रतीक्षा करते हुए; दर्शनम्--दर्शन;ते--तुम्हारा; परिभ्रष्ट--पतित; सत्-कर्मणाम्--जिससे यज्ञ कार्य; कीर्त्यमाने--कीर्तन किया जाकर; नृभि:--पुरुषों द्वारा;नाम्नि--आपका पवित्र नाम; यज्ञ-ईश--हे यज्ञों के स्वामी; ते--तुम्हारा; यज्ञ-विष्ना:--बाधाएँ; क्षयम्--विनाश; यान्ति--प्राप्त करते हैं; तस्मै--तुमको; नमः--नमस्कार है।
हे भगवान्, हम आपके दर्शन के लिए प्रतीक्षारत थे क्योंकि हम वैदिक अनुष्ठानों के अनुसारयज्ञ करने में असमर्थ रहे हैं।
अत: हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर प्रसन्न हों।
आपकेपवित्र नाम-कीर्तन मात्र से समस्त बाधाएँ दूर हो जाती हैं।
हम आपके समक्ष आपको सादरनमस्कार करते हैं।
"
मैत्रेय उवाचइति दक्ष: कविर्यज्ञं भद्र रुद्राभिमशितम् ।
कीर्त्यमाने हषीकेशे सन्निन्ये यज्ञभावने ॥
४८ ॥
मैत्रेय:--मैत्रेय ने; उदाच--कहा; इति--इस प्रकार; दक्ष:--दक्ष; कवि:--चेतना के परिशुद्ध हो जाने पर; यज्ञम्ू--यज्ञ; भद्र--हे विदुर; रुद्र-अभिमर्शितम्--वीरभद्र द्वारा विध्वंसित; कीर्त्य-माने--महिमा का वर्णन किये जाने पर; हषीकेशे -- भगवान्विष्णु; सन्निन्ये-- पुनः प्रारम्भ करने की व्यवस्था की; यज्ञ-भावने--यज्ञ का रक्षक |
श्रीमैत्रेय ने कहा : वहाँ पर उपस्थित सबों के द्वारा विष्णु की स्तुति किये जाने पर दक्ष नेअन्तःकरण शुद्ध हो जाने से पुनः यज्ञ प्रारम्भ किये जाने की व्यवस्था की, जिसे शिव केअनुचरों ने ध्वंस कर दिया था।
"
भगवान्स्वेन भागेन सर्वात्मा सर्वभागभुक् ।
दक्षं बभाष आभाष्य प्रीयमाण इवानघ ॥
४९॥
भगवानू्-- भगवान् विष्णु; स्वेन--अपने से; भागेन--अंश ( भाग ) से; सर्व-आत्मा--समस्त जीवात्माओं का परमात्मा; सर्व-भाग-भुक्--समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता; दक्षमू--दक्ष; बभाषे--कहा; आभाष्य--सम्बोधित करके; प्रीयमाण:--प्रसन्न;इब--सहश; अनघ--हे पापरहित विदुर।
मैत्रेय ने आगे कहा : हे पापमुक्त विदुर, भगवान् विष्णु ही वास्तव में समस्त यज्ञों के फल केभोक्ता हैं।
फिर भी समस्त जीवात्माओं के परमात्मा होने से वे अपना यज्ञ-भाग प्राप्त हो जाने सेप्रसन्न हो गये, अतः उन्होंने प्रमुदित भाव से दक्ष को सम्बोधित किया।
"
श्रीभगवानुवाचअहं ब्रह्मा च शर्वश्व॒ जगत: कारणं परम् ।
आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्ववन्हगविशेषण: ॥
५०॥
श्री-भगवान्-- भगवान् विष्णु ने; उवाच--कहा; अहमू--मैं; ब्रह्मा--ब्रह्मा; च--तथा; शर्व:--शिव; च--तथा; जगत: --दृश्यजगत का; कारणम्--कारण; परमू-- परम; आत्म-ई श्वरः -- परमात्मा; उपद्रष्टा-- साक्षी; स्वयम्-हक् -- आत्म-निर्भर;अविशेषण: -- भेदरहित |
भगवान् विष्णु ने उत्तर दिया ब्रह्मा, शिव तथा मैं इस दृश्य जगत के परम कारण हैं।
मैंपरमात्मा, स्वःनिर्भर साक्षी हूँ।
किन्तु निर्गुण-निराकार रूप में ब्रह्मा, शिव तथा मुझमें कोई अन्तरनहीं है।
"
आत्ममायां समाविश्य सोहं गुणमयीं द्विज ।
सृजन्रक्षन्हरन्विश्वैं दश्ने संज्ञां क्रियोचिताम् ॥
५१॥
आत्म-मायाम्--अपनी शक्ति में; समाविश्य--प्रवेश करके; सः--स्वयं ; अहम्--मैं; गुण-मयीम्-- प्राकृतिक गुणों से युक्त;द्वि-ज--हे द्विजन्मा दक्ष; सृजन्--सृष्टि करते हुए; रक्षनू--पालन करते हुए; हरन्ू--संहार करते हुए; विश्वम्--हृश्य जगत;दक्षे--मैं उत्पन्न होता हूँ; संज्ञामू--नाम; क्रिया-उचिताम्--क्रिया के अनुसार
भगवान् ने कहा : हे दक्ष द्विज, मैं आदि भगवान् हूँ, किन्तु इस हश्य जगत की सृष्टि, पालनतथा संहार के लिए मैं अपनी भौतिक शक्ति के माध्यम से कार्य करता हूँ और कार्य की भिन्नकोटियों के अनुसार मेरे भिन्न-भिन्न नाम हैं।
"
तस्मिन्ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि ।
ब्रह्मरुद्रो च भूतानि भेदेनाज्ञोडनुपश्यति ॥
५२॥
तस्मिन्ू--उसको; ब्रह्मणि--परब्रह्म; अद्वितीये--अद्वितीय; केवले-- अकेला; परम-आत्मनि--पर मात्मा; ब्रह्म-रुद्रौ--ब्रह्मा तथाशिव दोनों; च--तथा; भूतानि--जीवात्माएँ; भेदेन--विलगाव से; अज्ञ:--नादान, अज्ञानी; अनुपश्यति--सोचता है।
भगवान् ने आगे कहा : जिसे समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं है, वह ब्रह्म तथा शिव जैसे देवताओंको स्वतंत्र समझता है या वह यह भी सोचता है कि जीवात्माएँ भी स्वतंत्र हैं।
"
यथा पुमात्र स्वाड्रेषु शिरःपाण्यादिषु क्वचित् ।
पारक्यबुद्धि कुरुते एवं भूतेषु मत्पर: ॥
५३॥
यथा--जिस प्रकार; पुमान्ू--पुरुष; न--नहीं; स्व-अड्लेषु--अपने ही शरीर में; शिर:-पाणि-आदिषु--सिर, हाथ तथा शरीर केअन्य भागों में; क्वचित्--क भी -क भी ; पारक्य-बुद्धिम्-- अन्तर; कुरुते--करते हैं; एवम्--इस प्रकार; भूतेषु--जीवात्माओं में;मतू-परः--मेरा भक्त |
सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति सिर तथा शरीर के अन्य भागों को पृथक्-पृथक् नहीं मानता।
इसी प्रकार मेरे भक्त सर्वव्यापी भगवान् विष्णु तथा किसी वस्तु या किसी जीवात्मा में अन्तर नहींमानते।
"
त्रयाणामेक भावानां यो न पश्यति वै भिदाम् ।
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मनम्स शान्तिमधिगच्छति ॥
५४॥
त्रयाणाम्--तीनों का; एक-भावानाम्--एक ही स्वभाव वाले; य:ः--जो; न पश्यति--नहीं देखता; बै--निश्चय ही; भिदाम्ू--पृथक्ता; सर्व-भूत-आत्मनाम्--समस्त जीवात्माओं के परमात्मा का; ब्रह्मनू-हे दक्ष; सः--वह; शान्तिम्ू--शान्ति;अधिगच्छति--प्राप्त करता है
भगवान् ने आगे कहा : जो मनुष्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव या जीवात्माओं को परब्रह्म से पृथक्नहीं मानता और ब्रह्म को जानता है, वही वास्तव में शान्ति प्राप्त करता है, अन्य नहीं।
"
मैत्रेय उवाचएवं भगवतादिष्ट: प्रजापतिपतिहरिम् ।
अर्चित्वा क्रतुना स्वेन देवानुभयतोयजत् ॥
५५॥
मैत्रेय:--मैत्रेय; उवाच--कहा; एवम्--इस प्रकार; भगवता-- भगवान् द्वारा; आदिष्ट:--आदेश दिया जाकर; प्रजापति-'पति:ः--समस्त प्रजापतियों के प्रधान; हरिम्--हरि की; अर्चित्वा--पूजा करके; क्रतुना--यज्ञोत्सव से; स्वेन--अपना; देवानू--देवताओं की; उभयत:--पृथक्-पृथक्; अयजत्--पूजा की |
मैत्रेय मुनि ने कहा : इस प्रकार भगवान् से भलीभाँति आदेश पाकर समस्त प्रजापतियों केप्रधान दक्ष ने भगवान् विष्णु की पूजा की।
यज्ञोत्सव के लिए स्वीकृत विधि से उनकी पूजा करनेके अनन्तर उसने ब्रह्म तथा शिव की भी अलग-अलग पूजा की।
"
रुद्रं च स्वेन भागेन ह्युपाधावत्समाहितःकर्मणोदवसानेन सोमपानितरानपि ।
उदवस्य सहर्तिग्भि: सस्नाववभूथं ततः ॥
५६॥
रुद्रमू--शिव को; च--तथा; स्वेन-- अपने; भागेन-- भाग से; हि-- चूँकि; उपाधावत्--पूजा की; समाहित:ः--ध्यानस्थ होकर;कर्मणा--कर्म से; उदवसानेन--समाप्त करने के कार्य द्वारा; सोम-पान्ू--देवता; इतरान्ू--अन्य; अपि-- भी; उदवस्य--समाप्त करके; सह--साथ-साथ; ऋत्विग्भि: --पुरोहितों के साथ; सस्नौ--स्नान किया; अवभूथम्-- अवभूथ-स्नान; तत:--तब
दक्ष ने सभी प्रकार से सम्मान पूर्वक यज्ञ के शेष भाग के साथ शिव की पूजा की।
याज्ञिकअनुष्ठानों की समाप्ति के पश्चात् उसने अन्य समस्त देवों तथा वहाँ पर एकत्र अन्य जनों को संतुष्टकिया।
तब पुरोहितों के साथ-साथ इन सारे कर्तव्यों को सम्पन्न करके उसने स्नान किया औरबह पूर्णतया संतुष्ट हुआ।
"
तस्मा अप्यनुभावेन स्वेनैवावाप्तराधसे ।
धर्म एवं मतिं दत्त्वा त्रिदशास्ते दिवं ययु: ॥
५७॥
तस्मै--उस ( दक्ष ) को; अपि--ही; अनुभावेन-- परमेश्वर की पूजा द्वारा; स्वेन-- अपने से; एव--निश्चय ही; अवाप्त-राधसे--सिद्धि प्राप्त करके; धर्में-- धर्म में; एब--निश्चय ही; मतिम्--बुद्ध्धि; दत्त्वा--देकर; त्रिदशा:--देवता; ते--वे; दिवम्--स्वर्गलोक को; ययुः:--चले गये।
इस प्रकार यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा विष्णु की पूजा करके दक्ष पूर्ण रूप से धार्मिक पथ परस्थित हो गया।
इसके साथ ही, यज्ञ में समागत समस्त देवताओं ने उसे आशीर्वाद दिया कि*धर्मनिष्ठ हो' और तब वे चले गये।
"
एवं दाक्षायणी हित्वा सती पूर्वकलेवरम् ।
जज्ने हिमवतः क्षेत्रे मेनायामिति शुश्रुम ॥
५८॥
एवमू--इस प्रकार; दाक्षायणी--दक्ष की पुत्री; हित्वा--त्याग कर; सती--सती ; पूर्व-कलेवरम्-- अपना पहले का शरीर;जज्ञे--उत्पन्न हुई; हिमवतः--हिमालय के; क्षेत्रे--पत्ली ( के गर्भ ) में; मेनायाम्-- मेना में; इति--इस प्रकार; शु श्रुम--मैंने सुनाहै।
मैत्रेय ने कहा : मैंने सुना है कि दक्ष से प्राप्त शरीर को त्याग देने के पश्चात दाक्षायणी ( दक्षकी पुत्री ) ने हिमालय के राज्य में जन्म लिया।
वह मेना की पुत्री के रूप में जन्मी।
इसे मैंनेप्रामाणिक स्त्रोतों से सुना है।
"
तमेव दयितं भूय आवृड्धे पतिमम्बिका ।
अनन्यभावैकगतिं शक्ति: सुप्तेव पूरुषम् ॥
५९॥
तम्--उस ( शिव ) को; एव--निश्चय ही; दयितम्--प्रिया; भूय:ः --पुन:; आवृड्धे --स्वीकार किया; पतिम्--पति रूप में;अम्बिका--अम्बिका या सती; अनन्य-भावा--अन्यों से अलिप्त; एक-गतिमू--एक लक्ष्य; शक्ति:--( तटस्था तथा बाह्य ),स्त्री शक्तियाँ; सुप्ता--निष्क्रिय; इब--सहृश; पूरुषम्--पुरुष ( परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में शिव )।
अम्बिका ( देवी दुर्गा ) ने, जो दाक्षायणी ( सती ) कहलाती थीं, पुनः शिव को अपने पतिके रूप में स्वीकार किया, जिस प्रकार कि भगवान् की विभिन्न शक्तियाँ नवीन सृष्टि के समयकार्य करती हैं।
"
एतद्धगवतः शम्भो: कर्म दक्षाध्वरद्रुह: ।
श्रुतं भागवताच्छिष्यादुद्धवान्मे बृहस्पते: ॥
६०॥
एतत्--यह; भगवतः --समस्त ऐ श्वर्य के स्वामी; शम्भो:--शम्भु ( शिव ) का; कर्म--कथा; दक्ष-अध्वर-द्गुह: --जिसने दक्ष केयज्ञ का विध्वंस किया; श्रुतम्--सुना गया; भागवतात्--परम भक्त से; शिष्यात्--शिष्य से; उद्धवात्--उद्धव से; मे--मेरे द्वारा;बृहस्पते:-- बृहस्पति के
मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, मैंने परम भक्त एवं बृहस्पति के शिष्य उद्धव से शिव द्वारा ध्वंसकिये गये दक्ष-यज्ञ की यह कथा सुनी थी।
"
इदं पवित्र परमीशचेष्टितंयशस्यमायुष्यमघौधमर्षणम् ।
यो नित्यदाकर्णय्य नरोनुकीर्तयेद्धुनोत्यघं कौरव भक्तिभावत: ॥
६१॥
इदम्--यह; पवित्रम्-शुद्ध; परमू--परम; ईश-चेष्टितम्-परमे श्वर की लीलाएँ; यशस्यम्--यश; आयुष्यम्-दीर्घजीवनकाल; अघ-ओघ-मर्षणम्-- पापों का विनाश; य:--जो; नित्यदा--सदैव; आकर्ण्य--सुनकर; नर: --मनुष्य;अनुकीर्तयेत्--सुनावे; धुनोति-- धो देता है; अधम्-- भौतिक दूषण; कौरव--हे कुरुवंशी; भक्ति-भावतः-- श्रद्धा तथा भक्तिके साथ।
मैत्रेय मुनि ने अन्त में कहा : हे कुरुनन्दन, यदि कोई भगवान् विष्णु द्वारा संचालित दक्ष-यज्ञकी यह कथा श्रद्धा एवं भक्ति के साथ सुनता है और इसे फिर से सुनाता है, तो वह निश्चय हीइस संसार के समस्त कल्मष से विमल हो जाता है।
"
अध्याय आठ: ध्रुव महाराज जंगल के लिए घर छोड़ देते हैं
4.8मैत्रेय उवाचसनकाद्या नारदश्च ऋभुर्हसोरुणियति: ।
नैतेगृहान्ब्रहासुताह्यावसन्नूध्वरितस: ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; सनक-आद्या:--सनक इत्यादि; नारद:--नारद; च--तथा; ऋभुः--ऋशभु; हंस:--हंस;अरुणि:--अरुणि; यतिः--यति; न--नहीं; एते--ये सब; गृहान्ू--घर पर; ब्रह्म-सुता: --ब्रह्मा के पुत्र; हि--निश्चय ही;आवसनू--निवास किया; ऊर्ध्व-रेतस:--नैष्ठिक ब्रह्मचारी |
मैत्रेय ऋषि ने कहा : सनकादि चारों कुमार और नारद, ऋभु, हंस, अरुणि तथा यति--ब्रह्मा के ये सारे पुत्र घर पर न रहकर ( गृहस्थ नहीं बने ) नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए।
"
मृषाधर्मस्य भार्यासीहम्भं मायां च शत्रुहन् ।
असूत मिथुन तत्तु निरृतिर्जगूहेडप्रज: ॥
२॥
मृषा--मृषा; अधर्मस्य--अधर्म का; भार्या--स्त्री; आसीत्-- थी; दम्भम्--झूठा गर्व; मायाम--ठगना; च--तथा; शत्रु-हन्--हेशत्रुओं के संहारक; असूत--उत्पन्न किया; मिथुनम्--जुडवाँ; तत्ू--वह; तु-- लेकिन; निरृतिः:--निरऋति; जगूहे--ग्रहणकिया; अप्रज:--सन्तानहीन |
ब्रह्मा का अन्य पुत्र अधर्म था जिसकी पत्नी का नाम मृषा था।
उनके संयोग से दो असुर हुएजिनके नाम दम्भ अर्थात धोखेबाज तथा माया अर्थात ठगिनी थे।
इन दोनों को निरऋति नामकअसुर ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी।
"
तयो: समभवल्लोभो निकृतिश्च महामते ।
ताभ्यां क्रोधश्व हिंसा च यहुरुक्ति: स््वसा कलिः ॥
३॥
तयो:--वे दोनों; समभवत्--उत्पन्न हुए; लोभ:--लोभ, लालच; निकृतिः:--चालाकी; च--तथा; महा-मते--हे महापुरुष;ताभ्यामू--उन दोनों से; क्रोध:--क्रोध; च--तथा; हिंसा--हिंसा; च--तथा; यत्--जिन दोनों से; दुरुक्ति:--कटु वचन;स्वसा--बहन; कलि:--कलि |
मैत्रेय ने विदुर से कहा : हे महापुरुष, दम्भ तथा माया से लोभ और निकृति ( चालाकी )उत्पन्न हुए।
उनके संयोग से क्रोध और हिंसा और फिर इनकी युति से कलि तथा उसकी बहिनदुरुक्ति उत्पन्न हुए।
"
दुरुक्तौ कलिराधत्त भयं मृत्युं च सत्तम ।
तयोश्व मिथुनं जज्ञे यातना निरयस्तथा ॥
४॥
दुरुक्तौ--दुरुक्ति से; कलि:ः--कलि; आधचत्त--उत्पन्न किया; भयम्-- भय; मृत्युम्-मृत्यु; च--तथा; सत्-तम--हे उत्तमपुरुषों में श्रेष्ठ; तयो:--उन दोनों के; च--तथा; मिथुनम्--संयोग से; जज्ञे--उत्पन्न हुए; यातना--अत्यधिक पीड़ा; निरय:--नरक; तथा--और भी |
हे श्रेष्ठ पुरुषों में महान्, कलि तथा दुरुक्ति से मृत्यु तथा भीति नामक सन्तानें उत्पन्न हुईं।
फिरइनके संयोग से यातना और निरय ( नरक ) उत्पन्न हुए।
"
सड्ग्रहेण मयाख्यातः प्रतिसर्गस्तवानघ ।
त्रि: श्रुत्वैतत्पुमान्पुण्यं विधुनोत्यात्मनो मलम् ॥
५॥
सड़ग्रहेण--संक्षेप में; मया--मेरे द्वारा; आख्यात:--कहा गया है; प्रतिसर्ग:--प्रलय का कारण; तब--तुम्हारा; अनघ--हेशुद्ध; त्रिः--तीन बार; श्रुत्वा--सुनकर; एतत्--वर्णन; पुमान्--वह जो; पुण्यम्--पुण्य; विधुनोति-- धो देता है; आत्मन:--आत्मा का; मलमू--मल, कल्मष।
हे विदुर, मैंने संक्षेप में प्रलय के कारणों का वर्णन किया।
जो इस वर्णन को तीन बारसुनता है उसे पुण्य लाभ होता है और उसके आत्मा का पापमय कल्मष धुल जाता है।
"
अथात:ः कीर्ततये वंशं पुण्यकीतें: कुरूद्रह ।
स्वायम्भुवस्यापि मनोहरेरंशांशजन्मन: ॥
६॥
अथ--अब; अत:--इसके बाद; कीर्तये--वर्णन करूँगा; वंशम्--वंश; पुण्य-कीर्ते:--पुण्य गुणों के लिए विख्यात; कुरु-उद्दद-हे कुरु श्रेष्ठ; स्वायम्भुवस्य--स्वायं भुव का; अपि-- भी; मनो:--मनु का; हरे: -- श्रीभगवान् का; अंश--विस्तार;अंश--का भाग; जन्मन:--जन्मा हुआ
मैत्रेय ने आगे कहा : हे कुरु श्रेष्ठ अब मैं आपके समक्ष स्वायंभुव मनु के वंशजों का वर्णनकरता हूँ जो भगवान् के अंशांश के रूप में उत्पन्न हुए थे।
"
प्रियव्रतोत्तानपादौ शतरूपापते: सुतौ ।
वासुदेवस्य कलया रक्षायां जगत: स्थितौ ॥
७॥
प्रियत्रत--प्रियव्रत; उत्तानपादौ--उत्तानपाद; शतरूपा-पते:--रानी शतरूपा तथा उनके पति का; सुतौ--दो पुत्र; वासुदेवस्थ--भगवान् का; कलया--अंश से; रक्षायाम्--रक्षा के लिए; जगत:--संसार के; स्थितौ--पालन के लिए
स्वायंभुव मनु को अपनी पत्नी शतरूपा से दो पुत्र हुए जिनके नाम थे--उत्तानपाद तथाप्रियत्रत।
चूँकि ये दोनों श्रीभगवान् वासुदेव के अंश के वंशज थे, अतः वे ब्रह्माण्ड का शासनकरने और प्रजा का भलीभाँति पालन करने में सक्षम थे।
"
जाये उत्तानपादस्य सुनीति: सुरुचिस्तयो: ।
सुरुचि: प्रेयसी पत्युर्नेतरा यत्सुतो श्रुवः ॥
८॥
जाये--दोनों पत्नियों के; उत्तानपादस्य--उत्तानपाद की; सुनीति: --सुनीति; सुरुचि: --सुरुचि; तयो: --उन दोनों से; सुरुचि: --सुरुचि; प्रेयसी--अत्यन्त प्रिय; पत्यु:--पति की; न इतरा--दूसरी वाली नहीं; यत्--जिसका; सुत:--पुत्र; ध्रुव: -- ध्रुव |
उत्तानपाद के दो रानियाँ थीं--सुनीति तथा सुरुचि।
इनमें से सुरुचि राजा को अत्यन्त प्रियथी।
सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, राजा को इतनी प्रिय न थी।
"
एकदा सुरुचेः पुत्रमड्डमारोप्य लालयन् ।
उत्तमं नारुरुक्षन्तं श्रुवं राजाभ्यनन्दत ॥
९॥
एकदा--एक बार; सुरुचे:--सुरुचि के; पुत्रमू--पुत्र को; अड्डमू-गोद में; आरोप्य--बैठा कर; लालयनू--दुलारते हुए;उत्तममू--उत्तम; न--नहीं; आरुरुक्षन्तम्-चढ़ने का प्रयास करता; ध्रुवम्-ध्रुव का; राजा--राजा ने; अभ्यनन्दत--स्वागतकिया।
एक बार राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को अपनी गोद में लेकर सहला रहे थे।
ध्रुवमहाराज भी राजा की गोद में चढ़ने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु राजा ने उन्हें अधिक दुलार नहींदिया।
"
तथा चिकीर्षमाणं त॑ सपत्यास्तनयं श्रुवम् ।
सुरुचि: श्रृण्वतो राज्ञः सेर्ष्यमाहातिगर्विता ॥
१०॥
तथा--इस प्रकार; चिकीर्षमाणम्--चढ़ने के लिए प्रयलशील बालक श्लुव; तम्--उस; स-पत्या:--अपनी सौत ( सुनीति ) का;तनयम्--पुत्र; ध्रुवम्-- ध्रुव को; सुरुचि: --सुरुचि ने; श्रृण्वत:--सुनता हुआ; राज्ञ:--राजा का; स-ईर्ष्चम्--ईष्या से; आह--कहा; अतिगर्विता--अत्यन्त घमण्ड से भरी।
जब बालक श्रुव महाराज अपने पिता की गोद में जाने का प्रयत्न कर रहे थे तो उसकीविमाता सुरुचि को उस बालक से अत्यन्त ईर्ष्या हुई और वह अत्यन्त दम्भ के साथ इस प्रकारबोलने लगी जिससे कि राजा सुन सके।
"
न वत्स नृपतेर्थिष्ण्यं भवानारोढुमहति ।
न गृहीतो मया यत्त्वं कुक्षावषि नृपात्मज: ॥
११॥
न--नहीं; वत्स--मेरे लड़के; नृपतेः --राजा का; धिष्ण्यम्ू-- आसन; भवान्--अपने आप; आरोढुम्-चढ़ने के लिए; अर्हति--योग्य; न--नहीं; गृहीतः--लिया गया; मया--मेरे द्वारा; यत्--क्योंकि; त्वम्-तुम; कुक्षौ--गर्भ में; अपि--यद्यपि; नृप-आत्मज:--राजा का पुत्र |
सुरुचि ने ध्रुव महाराज से कहा : हे बालक, तुम राजा की गोद या सिंहासन पर बैठने केयोग्य नहीं हो।
निस्सन्देह, तुम भी राजा के पुत्र हो, किन्तु तुम मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हो, अतःतुम अपने पिता की गोद में बैठने के योग्य नहीं हो।
"
बालोसि बत नात्मानमन्यस्त्रीगर्भसम्भृतम् ।
नूनं वेद भवान्यस्य दुर्लभेर्थे मनोरथ: ॥
१२॥
बाल:--बालक; असि--हो; बत--फिर भी; न--नहीं; आत्मानम्--मेरे; अन्य--दूसरी; स्त्री--स्त्री; गर्भ--गर्भ; सम्भूृतम्-सेउत्पन्न; नूममू--फिर भी; वेद--जानने का प्रयत्त करो; भवान्--अपने आप; यस्य--जिसका; दुर्लभे--अप्राप्य; अर्थे--वस्तु;मनः-रथ:--इच्छुक
मेरे बालक, तुम्हें पता नहीं कि तुम मेरी कोख से नहीं, वरन् दूसरी स्त्री से उत्पन्न हुए हो।
अतः तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि तुम्हारा प्रयास व्यर्थ है।
तुम ऐसी इच्छा की पूर्ति चाह रहे होजिसका पूरा होना असम्भव है।
"
तपसाराध्य पुरुष तस्यैवानुग्रहेण मे ।
गर्भ त्वं साधयात्मानं यदीच्छसि नृपासनम् ॥
१३॥
तपसा--तपस्या से; आराध्य--सन्तुष्ट करके; पुरुषम्-- भगवान्; तस्थ--उसकी; एव--केवल; अनुग्रहेण --कृपा से; मे--मेरे;गर्भ--गर्भ में; त्वम्ू--तुम; साधय--प्रस्थापित करो; आत्मानम्ू-- अपने को; यदि--यदि; इच्छसि--चाहते हो; नृप-आसनमू--राजा के सिंहासन पर
यदि तुम राजसिंहासन पर बैठना चाहते हो तो तुम्हें कठिन तपस्या करनी होगी।
सर्वप्रथमतुम्हें भगवान् नारायण को प्रसन्न करना होगा और वे तुम्हारी पूजा से प्रसन्न हो लें तो तुम्हें अगलाजन्म मेरे गर्भ से लेना होगा।
"
मैत्रेय उवाचमातु: सपल्याः स दुरुक्तिविद्धःश्रसन्रुषा दण्डहतो यथाहिः ।
हित्वा मिषन्तं पितरं सन्नवा्च॑जगाम मातु: प्ररुदन््सकाशम् ॥
१४॥
मैत्रेय:ः उवाच--महामुनि मैत्रेय ने कहा; मातुः--अपनी माता की; स-पत्या:--सौत का; सः--वह; दुरुक्ति--कटु बचनों से;विद्धः--विंध कर; श्वसन्--तेजी से साँस लेता; रुषा--रोष से; दण्ड-हतः--डंडे से मारा गया; यथा--जिस प्रकार; अहिः--सर्प; हित्वा--त्याग कर; मिषन्तम्--केवल ऊपर देखता; पितरम्--अपना पिता; सन्न-वाचम्ू--मौन; जगाम--चला गया;मातु:--अपनी माता के; प्ररूदन्ू--रोते हुए; सकाशम्--पास |
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : हे विदुर, जिस प्रकार से लाठी से मारा गया सर्प फुफकारता है,उसी प्रकार श्रुव महाराज अपनी विमाता के कटु वचनों से आहत होकर क्रोध से तेजी से साँसलेने लगे।
जब उन्होंने देखा कि पिता मौन हैं और उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया, तो उन्होंने तुरन्तउस स्थान को छोड़ दिया और अपनी माता के पास गये।
"
त॑ निःश्वसन्तं स्फुरिताधरोष्टसुनीतिरुत्सड़ उदूह्य बालम् ।
निशम्य तत्पौरमुखान्नितान्तंसा विव्यथे यद्गदितं सपत्या ॥
१५॥
तम्--उसको; निः श्वसन्तम्--जोर से साँस लेते; स्फुरित--कम्पित; अधर-ओएष्ठम्--नीचे तथा ऊपर के होंठ; सुनीति:--सुनीति;उत्सड़े--अपनी गोद में; उदृह्य --उठाकर; बालम्--पुत्र को; निशम्य--सुनकर; ततू-पौर-मुखात्-- अन्य पुरजनों के मुख से;नितान्तमू--सारा हाल; सा--वह; विव्यथे--दुखी हुईं; यत्--जो; गदितम्ू--कहा गया; स-पल्या--सौत द्वारा |
जब श्रुव महाराज अपनी माता के पास आये तो उनके होंठ क्रोध से काँप रहे थे और वेसिसक-सिसक कर जोर से रो रहे थे।
रानी सुनीति ने अपने लाड़ले को तुरन्त गोद में उठा लियाऔर अन्तःपुर के वासियों ने सुरुचि के जो कटु वचन सुने थे उन सबको विस्तार से कह सुनाया।
इस तरह सुनीति अत्यधिक दुखी हुई।
"
सोत्सूज्य धैर्य विललाप शोकदावाग्निना दावलतेव बाला ।
वाक्य सपत्या: स्मरती सरोजश्रिया दशा बाष्पयकलामुवाह ॥
१६॥
सा--वह; उत्सृज्य--छोड़कर; धैर्यम्--धैर्य, ढाढस; विललाप--विलाप करने लगी; शोक-दाव-अग्निना--शोक की अग्नि से;दाव-लता इब--जली हुईं पत्तियों के समान; बाला--स्त्री; वाक्यम्ू--शब्द; स-पल्या:--अपनी सौत द्वारा कहे; स्मरती--स्मरण करती; सरोज-भ्रिया--कमल के समान सुन्दर मुख; हशा--देखते हुए; बाष्प-कलाम्--रोते हुए; उबाह--कहा |
यह घटना सुनीति के लिए असह्य थी।
वह मानो दावाग्नि में जल रही थी और शोक केकारण वह जली हुई पत्ती ( बेलि ) के समान हो गई और पश्चात्ताप करने लगी।
अपनी सौत केशब्द स्मरण होने से उसका कमल जैसा सुन्दर मुख आँसुओं से भर गया और वह इस प्रकारबोली।
"
दीर्घ श्रसन्ती वृजिनस्य पारम्अपश्यती बालकमाह बाला ।
मामड्नलं तात परेषु मंस्थाभुड़े जनो यत्परदुःखदस्तत् ॥
१७॥
दीर्घम्--अत्यधिक; श्वसन्ती--साँस लेती हुई; वृजिनस्थ--संकट की; पारम्--सीमा; अपश्यती--बिना पाये; बालकम्-- अपनेपुत्र से; आह--कहा; बाला--स्त्री ने; मा--मत; अमड्लम्--अशकुन; तात--मेरे पुत्र; परेषु--अन्यों को; मंस्था:-- कामना;भु्े --भोग करता है; जन:--व्यक्ति; यत्ू--जो; पर-दुःखद:--जो दूसरों को पीड़ा पहुँचाए; तत्--वह।
वह तेजी से साँस भी ले रही थी और वह इस दुखद स्थिति का कोई इलाज ठीक नहीं ढूँढपा रही थी।
अतः उसने अपने पुत्र से कहा : हे पुत्र, तुम अन्यों के अमंगल की कामना मत करो।
जो भी दूसरों को कष्ट पहुँचाता है, वह स्वयं दुख भोगता है।
"
सत्य सुरुच्याभिहितं भवान्मेयहुर्भगाया उदरे गृहीतः ।
स्तन्येन वृद्धश्न विलजते यांभार्येति वा वोढुमिडस्पतिर्माम् ॥
१८॥
सत्यम्--सत्य; सुरुच्या--सुरुचि द्वारा; अभिहितम्--कहा गया; भवान्--आपको; मे--मुझ; यत्-- क्योंकि; दुर्भगाया: --अभागी के; उदरे--गर्भ में; गृहीत:--जन्म लेकर; स्तन्येन--स्तन के दूध से; वृद्धः च--बड़ा हुआ; विलजते--लज्जा आती है;याम्ू--उसको; भार्या--पत्नी; इति--इस प्रकार; वा--अथवा; वोढुम्--स्वीकार करने के लिए; इडः-पति:--राजा; मामू--मुझको ।
सुनीति ने कहा : प्रिय पुत्र, सुरुचि ने जो कुछ भी कहा है, वह ठीक है, क्योंकि तुम्हारे पितामुझको अपनी पत्नी तो क्या अपनी दासी तक नहीं समझते, उन्हें मुझको स्वीकार करने में लज्जाआती है।
अतः यह सत्य है कि तुमने एक अभागी स्त्री की कोख से जन्म लिया है और तुम उसकेस्तनों का दूध पीकर बड़े हुए हो।
"
आतिष्ठ तत्तात विमत्सरस्त्व-मुक्त समात्रापि यदव्यलीकम् ।
आराधयाधोक्षजपादपद्ंयदीच्छसेध्यासनमुत्तमो यथा ॥
१९॥
आतिष्ठ--पालन करो; तत्--वही; तात--प्रिय पुत्र; विमत्सर: --बिना ईर्ष्या के; त्वम्--तुमको; उक्तम्--कहा गया; समात्राअपि--तुम्हारी विमाता द्वारा; यत्--जो कुछ; अव्यलीकम्--वे सत्य हैं; आराधय-- आराधना प्रारम्भ करो; अधोक्षज--सत्त्व,दिव्य पुरुष; पाद-पदम्ू--चरणकमल; यदि--यदि; इच्छसे--चाहते हो; अध्यासनम्--आसन ग्रहण करना; उत्तम:--अपनेसौतेले भाई उत्तम के साथ; यथा--जिस प्रकार |
प्रिय पुत्र, तुम्हारी विमाता सुरुचि ने जो कुछ कहा है, यद्यपि वह सुनने में कटु है, किन्तु हैसत्य।
अतः यदि तुम उसी सिंहासन पर बैठना चाहते हो जिसमें तुम्हारा सौतेला भाई उत्तम बैठेगातो तुम अपना ईर्ष्याभाव त्याग कर तुरन्त अपनी विमाता के आदेशों का पालन करो।
तुम्हें बिनाकिसी विलम्ब के पुरुषोत्तम भगवान् के चरण-कमलों की पूजा में लग जाना चाहिए।
"
यस्याड्प्रिपद्ं परिचर्य विश्व-विभावनायात्तगुणाभिपत्ते: ।
अजोडध्यतिष्ठ त्खलु पारमेष्ठयंपदं जितात्मश्वसनाभिवन्द्यम्ू ॥
२०॥
यस्य--जिसके; अड्प्रि--पाँव; पद्ममू--कमल; परिचर्य--पूजा करके; विश्व--ब्रह्माण्ड; विभावनाय--सृष्टि के लिए; आत्त--प्राप्त; गुण-अभिपत्ते:--वांछित योग्यता प्राप्त करने के लिए; अज:--अजन्मा ( ब्रह्मा ); अध्यतिष्ठत्--प्राप्त हुआ; खलु--निश्चित रूप से; पारमेष्ठय्मम्--इस ब्रह्माण्ड में सर्वोच्च पद; पदम्--पद; जित-आत्म--जिसने मन को जीत लिया है; श्वसन--श्वास को साध कर; अभिवन्द्यमू-पूज्य |
सुनीति ने कहा : भगवान् इतने महान् हैं कि तुम्हारे परदादा ब्रह्मा ने मात्र उनके चरणकमलोंकी पूजा द्वारा इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने की योग्यता अर्जित की।
यद्यपि वे अजन्मा हैं औरसब जीवात्माओं में प्रधान हैं, किन्तु वे इस उच्च पद पर भगवान् की ही कृपा से आसीन हैं,जिनकी आराधना बड़े-बड़े योगी तक अपने मन तथा प्राण-वायु को रोक कर करते हैं।
"
तथा मनुर्वो भगवान्पितामहोयमेकमत्या पुरुदक्षिणर्मखै: ।
इष्ठाभिपेदे दुरवापमन्यतोभौम॑ सुख दिव्यमथापवर्ग्यम् ॥
२१॥
तथा--उसी प्रकार; मनु:--स्वायंभुव मनु; वः--तुम्हारे; भगवान्--पूज्य; पितामह:--दादा ( बाबा ); यम्ू--जिनको; एक-मत्या--एकनिष्ठ सेवा से; पुरु--महान; दक्षिणै:--दान से; मखै:--यज्ञ करने से; इश्ला--पूजा करके; अभिपेदे--प्राप्त किया;दुरवापम्--दुष्प्राप्प; अन्यतः--किसी अन्य साधन से; भौमम्ू-- भौतिक; सुखम्--सुख; दिव्यम्ू--नैसर्गिक; अथ--तत्पश्चात्;आपवर्ग्यम्ू-मुक्ति |
सुनीति ने अपने पुत्र को बताया : तुम्हारे बाबा स्वायंभुव मनु ने दान-दक्षिणा के साथ बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न किये और एकनिष्ठ श्रद्धा तथा भक्ति से उन्होंने पूजा द्वारा भगवान् को प्रसन्नकिया।
इस प्रकार उन्होंने भौतिक सुख तथा बाद में मुक्ति प्राप्त करने में महान् सफलता पाईजिसे देवताओं को पूजकर प्राप्त कर पाना असंभव है।
"
तमेव वत्साश्रय भृत्यवत्सलंमुमुक्षुभिमृग्यपदाब्जपद्धतिम् ।
अनन्यभावे निजधर्मभावितेमनस्यवस्थाप्य भजस्व पूरुषम् ॥
२२॥
तम्--उसको; एबव--भी; वत्स--मेरे पुत्र; आश्रय--शरण ग्रहण करो; भृत्य-वत्सलम्-- भगवान् की, जो अपने भक्तों परअत्यन्त कृपालु हैं; मुमुक्षुभिः--जो मुक्ति की इच्छा रखने वाले हैं, वे भी; मृग्य--खोजे जाकर; पद-अब्ज--चरणकमल;पद्धतिम्--प्रणाली; अनन्य- भावे--एकान्त भाव में; निज-धर्म-भाविते--अपने मूल स्वाभाविक पद पर स्थित; मनसि--मनको; अवस्थाप्य--रखकर; भजस्व--भक्ति करते रहो; पूरुषम्--परम पुरुष |
मेरे पुत्र, तुम्हें भी भगवान् की शरण ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वे अपने भक्तों परअत्यन्त दयालु हैं।
जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति सदैव भक्ति सहित भगवान्के चरणकमलों की शरण में जाते हैं।
अपना निर्दिष्ट कार्य करके पवित्र होकर तुम अपने हृदय मेंभगवान् को स्थिर करो और एक पल भी विचलित हुए बिना उनकी सेवा में तन््मय रहो।
"
नान््यं ततः पद्यपलाशलोचनाद्दुःखच्छिदं ते मृगयामि कञ्ञन ।
यो मृग्यते हस्तगृहीतपदायाश्रियेतरैरड़ विमृग्यमाणया ॥
२३॥
न अन्यम्--दूसरे नहीं; ततः--अतः; पद्य-पलाश-लोचनात्--कमल नेत्र वाले भगवान् से; दुःख-छिदम्--अन्यों के कष्टों कोकम करने वाला; ते--तुम्हारा; मृगयामि--खोज में हूँ; कञ्लनन-- अन्य कोई; यः--जो; मृग्यते--ढूँढता है; हस्त-गृहीत-पदाया--हाथ में कमल पुष्प लेकर; थ्रिया--सम्पत्ति की देवी; इतरैः--अन्यों से; अड्भ--मेरे पुत्र; विमृग्यमाणया--पूजित |
हे प्रिय ध्रुव, कमल के दलों जैसे नेत्रों वाले भगवान् के अतिरिक्त मुझे कोई ऐसा नहींदिखता जो तुम्हारे दुखों को कम कर सके।
ब्रह्मा जैसे अनेक देवता लक्ष्मी देवी को प्रसन्न करनेके लिए लालायित रहते हैं, किन्तु लक्ष्मी जी स्वयं अपने हाथ में कमल पुष्प लेकर परमेश्वर कीसेवा करने के लिए सदेव तत्पर रहती हैं।
"
मैत्रेय उवाचएवं सञ्जल्पितं मातुराकर्ण्यार्थागमं बच: ।
सन्नियम्यात्मनात्मानं निश्चक्राम पितु: पुरातू ॥
२४॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; एवम्--इस प्रकार; सझल्पितम्--परस्पर बातें करते; मातु:--माता से; आकर्ण्य--सुनकर;अर्थ-आगमम्--सार्थक; वच:--शब्द; सन्नियम्य--संयमित करके; आत्मना--मन से; आत्मानम्--अपने को; निश्चक्राम--निकल पड़े; पितु:--पिता के; पुरात्-घर से |
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा: श्रुव महाराज की माता सुनीति का उपदेश वस्तुतः उनकेमनोवांछित लक्ष्य को पूरा करने के निमित्त था, अतः बुद्धि तथा दृढ़ संकल्प द्वारा चित्त कासमाधान करके उन्होंने अपने पिता का घर त्याग दिया।
"
नारदस्तदुपाकर्णयय ज्ञात्वा तस्य चिकीर्षितम् ।
स्पृष्ठा मूर्धन्यघघ्नेन पाणिना प्राह विस्मित: ॥
२५॥
नारदः--नारद मुनि ने; तत्--वह; उपाकर्ण्य--सुनकर; ज्ञात्वा--तथा जानकर; तस्य--उसका ( श्रुव महाराज का );चिकीर्षितम्--कार्यकलाप; स्पृष्ठा--स्पर्श करके; मूर्धनि--सिर पर; अघ-घ्नेन--समस्त पापों को भगाने वाले; पाणिना--हाथसे; प्राह--कहा; विस्मित:--चकित होकर
नारद मुनि ने यह समाचार सुना और श्लुव महाराज के समस्त कार्यकलापों को जानकर वेचकित रह गये।
वे श्रुव के पास आये और उनके सिर को अपने पुण्यवर्धक हाथ से स्पर्श करतेहुए इस प्रकार बोले।
"
अहो तेज: क्षत्रियाणां मानभड़ममृष्यताम् ।
बालोप्ययं हृदा धत्ते यत्समातुरसद्बच: ॥
२६॥
अहो--कितना आश्चर्यमय है; तेज:--बल; क्षत्रियाणाम्--क्षत्रियों का; मान-भड्डम्--प्रतिष्ठा को धक्का; अमृष्यताम्ू--सहन करसकने में अक्षम; बाल:--मात्र बालक; अपि--यद्यपि; अयमू--यह; हृदा--हृदय में; धत्ते--घर कर लिया है; यत्--जो; स-मातु:--अपनी विमाता का; असत्--अरूचिकर, कटु; वचः--वचन |
अहो! शक्तिशाली क्षत्रिय कितने तेजमय होते हैं! वे थोड़ा भी मान-भंग सहन नहीं करसकते।
जरा सोचो तो, यह नन््हा सा बालक है, तो भी उसकी सौतेली माता के कटु वचन उसकेलिए असह्ा हो गये।
"
नारद उवाचनाधुनाप्यवमानं ते सम्मान वापि पुत्रक ।
लक्षयाम: कुमारस्य सक्तस्य क्रीडनादिषु ॥
२७॥
नारदः उवाच--नारद मुनि ने कहा; न--नहीं; अधुना-- अभी; अपि--यद्यपि; अवमानम्-- अपमान; ते--तुमको; सम्मानम्--आदर; वा--अथवा; अपि--निश्चय ही; पुत्रक-हे पुत्र; लक्षयाम: --मुझे दिखाई पड़ रहा है; कुमारस्थ--तुम जैसे बालकों का;सक्तस्थ--आसक्त; क्रीडन-आदिषु--खेल इत्यादि में |
महर्षि नारद ने श्रुव से कहा : हे बालक, अभी तो तुम नन्हें बालक हो, जिसकी आसक्तिखेल इत्यादि में रहती है।
तो फिर तुम अपने सम्मान के विपरीत अपमानजनक शब्दों से इतनेप्रभावित क्यों हो ?"
विकल्पे विद्यमानेडपि न ह्ासन्तोषहेतव: ।
पुंसो मोहमृते भिन्ना यल्लोके निजकर्मभि: ॥
२८॥
विकल्पे-- अन्य उपाय; विद्यमाने अपि--रहने पर भी; न--नहीं; हि--निश्चय ही; असन्तोष--नाराजगी; हेतव:ः-- कारण;पुंसः--मनुष्यों का; मोहम् ऋते--मोह ग्रस्त हुए बिना; भिन्ना:--पृथक् हुआ; यत् लोके--इस लोक में; निज-कर्मभि:--अपनेकार्य से
हे ध्रुव, यदि तुम समझते हो कि तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची है, तो भी तुम्हें असंतुष्टहोने का कोई कारण नहीं है।
इस प्रकार का असन्तोष माया का ही अन्य लक्षण है; प्रत्येकजीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के अनुसार नियंत्रित होता है, अतः सुख तथा दुख भोगने के लिए नानाप्रकार के जीवन होते हैं।
"
परितुष्येत्ततस्तात तावन्मात्रेण पूरुष: ।
दैवोपसादितं यादद्वीक्ष्ये श्वरगतिं बुध: ॥
२९॥
परितुष्येत्--सन्तुष्ट रहना चाहिए; ततः--अतः ; तात--हे बालक; तावत्--तब तक; मात्रेण--गुण; पूरुष:-- पुरुष; दैव--भाग्य के; उपसादितम्-द्वारा प्रदत्त; यावत्--जब तक; वीक्ष्य--देखकर; ई श्वर-गतिमू-- भगवान् की विधि; बुध:--बुद्धिमानमनुष्य,भगवान् की गति बड़ी विचित्र है।
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह इस गति को स्वीकारकरे और अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी भगवान् की इच्छा से सम्मुख आए, उससे संतुष्ट रहे।
"
अथ मात्रोपदिष्टेन योगेनावरुरुत्ससि ।
यत्प्रसादं स वै पुंसां दुराराध्यो मतो मम ॥
३०॥
अथ--अतः; मात्रा--अपनी माता द्वारा; उपदिष्टेन--उपदेश दिया जाकर; योगेन--योग ध्यान से; अवरुरुत्ससि-- अपने कोऊपर उठाना चाहते हो; यत््-प्रसादम्ू--जिसकी कृपा; सः--वह; बै--निश्चय ही; पुंसामू--जीवात्माओं का; दुराराध्य:--करनेमें अत्यन्त कठिन; मत:--विचार; मम--मेरा |
अब तुमने अपनी माता के उपदेश से भगवान् की कृपा प्राप्त करने के लिए ध्यान की योग-विधि पालन करने का निश्चय किया है, किन्तु मेरे विचार से ऐसी तपस्या सामान्य व्यक्ति के लिएसम्भव नहीं है।
भगवान् को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है।
"
मुनयः पदवीं यस्य निःसड्लेनोरुजन्मभिः ।
न विदुर्मृगयन्तो पि तीत्रयोगसमाधिना ॥
३१॥
मुनयः--मुनिगण; पदवीम्--पथ; यस्य--जिसका; निःसड्बेन--विरक्ति से; उरु-जन्मभि:--अनेक जन्मों के पश्चात्; न--कभीनहीं; विदु:--समझ पाये; मृगयन्तः--खोज करते हुए; अपि--निश्चय ही; तीब्र-योग--कठिन तपस्या; समाधिना--समाधि से |
नारद मुनि ने आगे बताया : अनेकानेक जन्मों तक इस विधि का पालन करते हुए तथाभौतिक कल्मष से विरक्त रह कर, अपने को निरन्तर समाधि में रखकर और विविध प्रकार कीतपस्याएँ करके अनेक योगी ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग का पार नहीं पा सके।
अतो निवर्ततामेष निर्बन्धस्तव निष्फल: ।
यतिष्यति भवान्काले श्रेयसां समुपस्थिते ॥
३२॥
अतः--इसलिए; निवर्तताम्--अपने को रोको; एष:--यह; निर्बन्ध:--संकल्प; तब--तुम्हारा; निष्फल:--वृथा; यतिष्यति--भविष्य में प्रयल करना; भवान्--स्वयं; काले--काल-क्रम में; श्रेयसाम्--अवसर; समुपस्थिते-- आने पर।
इसलिए हे बालक, तुम्हें इसके लिए प्रयत्न नहीं करना चाहिए, इसमें सफलता नहीं मिलनेवाली।
अच्छा हो कि तुम घर वापस चले जाओ।
जब तुम बड़े हो जाओगे तो ईश्वर की कृपा सेतुम्हें इन योग-कर्मों के लिए अवसर मिलेगा।
उस समय तुम यह कार्य पूरा करना।
"
यस्य यदैवविहितं स तेन सुखदुःखयो: ।
आत्मानं तोषयन्देही तमस:ः पारमृच्छति ॥
३३॥
यस्य--कोई भी; यत्--जो; दैव-- भाग्य से; विहितम्--बदा; सः--वह व्यक्ति; तेन--उससे; सुख-दुःखयो:--सुख अथवादुख; आत्मानम्--अपने आपको; तोषयनू--संतुष्ट; देही-- आत्मा; तमसः ---अंधकार के; पारम्--दूसरी ओर; ऋच्छति--पार होजाता
मनुष्य को चाहिए कि जीवन की किसी भी अवस्था में, चाहे सुख हो या दुख, जो दैवीइच्छा ( भाग्य ) द्वारा प्रदत्त है, सन्तुष्ट रहे।
जो मनुष्य इस प्रकार टिका रहता है, वह अज्ञान केअंधकार को बहुत सरलता से पार कर लेता है।
"
गुणाधिकान्मुदं लिप्सेदनुक्रोशं गुणाधमात् ।
मैत्रीं समानादन्विच्छेन्न तापैरभिभूयते ॥
३४॥
गुण-अधिकात्--अधिक योग्य पुरुष से; मुदम्--प्रसन्नता; लिप्सेत--अनुभव करे; अनुक्रोशम्-- दया; गुण-अधमात्--कमयोग्य पुरुष से; मैत्रीमू--मित्रता; समानात्ू--समान ( गुण वाले ) से; अन्विच्छेत्--कामना करे; न--नहीं; तापैः--दुख से;अभिभूयते--प्रभावित होता हैप
्रत्येक मनुष्य को इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए : यदि वह अपने से अधिक योग्यव्यक्ति से मिले, तो उसे अत्यधिक हर्षित होना चाहिए, यदि अपने से कम योग्य व्यक्ति से मिलेतो उसके प्रति सदय होना चाहिए और यदि अपने समान योग्यता वालों से मिले तो उससे मित्रताकरनी चाहिए।
इस प्रकार मनुष्य को इस भौतिक संसार के त्रिविध ताप कभी भी प्रभावित नहींकर पाते।
"
ध्रुव उवाचसोयं शमो भगवता सुखदुःखहतात्मनाम् ।
दर्शितः कृपया पुसां दुर्दर्शो उस्मद्विधैस्तु य: ॥
३५॥
श्रुवः उबाच--श्रुव महाराज ने कहा; सः--वह; अयम्--यह; शम:--मन का संतुलन; भगवता--आपके द्वारा; सुख-दुःख--सुख तथा दुख; हत-आत्मनाम्--जो प्रभावित हैं; दर्शित:--दिखाया गया; कृपया--कृपा द्वारा; पुंसामू--लोगों का; दुर्दर्शः--देख पाना कठिन; अस्मतू-विधैः--हम जैसे व्यक्तियों द्वारा; तु--लेकिन; यः--जो भी आपने कहा।
ध्रुव महाराज ने कहा : हे नारद जी, आपने मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए कृपापूर्वक जोभी कहा है, वह ऐसे पुरुष के लिए निश्चय ही अत्यन्त शिक्षाप्रद है, जिसका हृदय सुख तथा दुखकी भौतिक परिस्थितियों से चलायमान है।
लेकिन जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है मैं तो अविद्या सेप्रच्छन्न हूँ और इस प्रकार का दर्शन मेरे हृदय को स्पर्श नहीं कर पाता।
"
अथापि मेविनीतस्य क्षार्त घोरमुपेयुष: ।
सुरुच्या दुर्वचोबाणैर्न भिन्ने भ्रयते हंदि ॥
३६॥
अथ अपि--अतः ; मे--मेरा; अविनीतस्य-- अविनीत का क्षात्रम्--क्षत्रियत्व; घोरम्-- असह्य; उपेयुष: --प्राप्त; सुरुच्या: --सुरुचि का; दुर्वच:--कटु वचन; बाणैः--बाणों से; न--नहीं; भिन्ने--बेधा जाकर; श्रयते--रह रहे हैं, पड़े हैं; हदि--हृदय मेंहे भगवन्, मैं आपके उपदेशों को न मानने की धुृष्टता कर रहा हूँ।
किन्तु यह मेरा दोष नहींहै।
यह तो क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के कारण है।
मेरी विमाता सुरुचि ने मेरे हृदय को अपने कटुवबचनों से क्षत-विक्षत कर दिया है।
अतः आपकी यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा मेरे हृदय में टिक नहीं पारही।
"
पदं त्रिभुवनोत्कृष्ट जिगीषो: साधु वर्त्म मे ।
ब्रूह्मस्मत्पितृभिर््रह्यन्नन्यैरप्पनधिष्ठितम् ॥
३७॥
पदम्--पद; त्रि-भुवन--तीनों लोक; उत्कृष्टम्--सर्व श्रेष्ठ; जिगीषो: --इच्छुक; साधु--ईमानदार; वर्त्म--राह; मे--मुझको;ब्रूहि--कहो; अस्मत्--हमारा; पितृभि:--पूर्वजों, पिता तथा पितामह द्वारा; ब्रह्मनू--हे महान् ब्राह्मण; अन्यैः --अन्यों द्वारा;अपि--भी; अनधिष्ठितम्-- प्राप्त नहीं हो सका।
हे दिद्वान् ब्राह्मण, मैं ऐसा पद ग्रहण करना चाहता हूँ जिसे अभी तक तीनों लोकों में किसीने भी, यहाँ तक कि मेरे पिता तथा पितामहों ने भी, ग्रहण न किया हो।
यदि आप अनुगृहीत करसकें तो कृपा करके मुझे ऐसे सत्य मार्ग की सलाह दें, जिसे अपना करके मैं अपने जीवन केलक्ष्य को प्राप्त कर सकूँ।
"
नूनं भवान्भगवतो योडउड्भज: परमेष्ठिन: ।
वितुदन्नटते वीणां हिताय जगतोर्कवत् ॥
३८॥
नूनम्--निश्चय ही; भवान्ू--आप; भगवतः -- भगवान् के; यः--जो; अड़-जः: --शरीर से उत्पन्न; परमेष्ठटिन: --ब्रह्मा; वितुदन् --बजाते हुए; अटते--सर्वत्र विचरण करते हो; वीणाम्ू--वीणा; हिताय--कल्याण के लिए; जगतः--संसार के; अर्क-वत्--सूर्य के समान |
हे भगवन्, आप ब्रह्मा के सुयोग्य पुत्र हैं और आप अपनी वीणा बजाते हुए समस्त विश्व केकल्याण हेतु विचरण करते रहते हैं।
आप सूर्य के समान हैं, जो समस्त जीवों के लाभ के लिएब्रह्माण्ड-भर में चक्कर काटता रहता है।
"
मैत्रेय उवाचइत्युदाहतमाकर्ण्य भगवान्नारदस्तदा ।
प्रीत: प्रत्याह तं बाल॑ सद्दाक्यमनुकम्पया ॥
३९॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; इति--इस प्रकार; उदाहतम्--कहा जाकर; आकर्णर्य--सुन कर; भगवान् नारद:--महापुरुष नारद; तदा--तब; प्रीतः-- प्रसन्न होकर; प्रत्याह--उत्तर दिया; तमू--उस; बालम्ू--बालक को; सतू-वाक्यम्--अच्छा उपदेश; अनुकम्पया--कृपावश
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : श्रुव महाराज के शब्दों को सुनकर महापुरुष नारद मुनि उन परअत्यधिक दयालु हो गये और अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के उद्देश्य से उन्होंने निम्नलिखितविशिष्ट उपदेश दिया।
"
नारद उवाचजनन्याभिहितः पन्था: स वै नि: श्रेयसस्य ते ।
भगवान्वासुदेवस्तं भज तं प्रवणात्मना ॥
४०॥
नारद: उवाच--नारद मुनि ने कहा; जनन्या--अपनी माता के द्वारा; अभिहित:--कहे गये; पन््था:--पथ; सः--उस; बै--निश्चयही; नि: श्रेयसस्थ-- जीवन का परम लक्ष्य; ते--तुम्हारे लिए; भगवानू-- भगवान्; वासुदेव:-- श्रीकृष्ण; तम्--उसकी; भज--सेवा करो; तम्ू--उसके द्वारा; प्रवण-आत्मना--अपने मन को एकाग्र करके |
नारद मुनि ने श्रुव महाराज से कहा : तुम्हारी माता सुनीति ने भगवान् की भक्ति के पथ काअनुसरण करने के लिए जो उपदेश दिया है, वह तुम्हारे लिए सर्वथा अनुकूल है।
अतः तुम्हेंभगवान् की भक्ति में पूर्ण रूप से निमग्न हो जाना चाहिए।
"
धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छेच्छेय आत्मन: ।
एकं हब हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम् ॥
४१॥
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष--धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रिय-तृप्ति तथा मुक्ति, ये चार पुरुषार्थ; आख्यम्--नाम से; यः--जो;इच्छेत्--इच्छा करता है; श्रेय:--जीवन का लक्ष्य; आत्मन:--स्वयं का; एकम् हि एव--केवल एक; हरेः-- भगवान् का;तत्र--उसमें; कारणम्--कारण; पाद-सेवनम्--चरणकमल की पूजा।
जो व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों की कामना करता है उसे चाहिएकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भक्ति में अपने आपको लगाए, क्योंकि उनके चरणकमलों कीपूजा से इन सबकी पूर्ति होती है।
"
तत्तात गच्छ भद्गं ते यमुनायास्तर्ट शुचि ।
पुण्य॑ मधुवन यत्र सान्रिध्यं नित्यदा हरे: ॥
४२॥
तत्--उस; तात-हे पुत्र; गच्छ--जाओ; भद्रम्--शुभ हो; ते--तुम्हारा; यमुनाया:-- यमुना का; तटमू--किनारा, तट; शुचि--शुद्ध; पुण्यम्--पवित्र; मधु-वनम्--मधुवन नामक; यत्र--जहाँ; सान्निध्यमू--निकट होते हुए; नित्यदा--सदैव; हरेः-- भगवान्के।
हे बालक, तुम्हारा कल्याण हो।
तुम यमुना के तट पर जाओ, जहाँ पर मधुवन नामक विख्यात जंगल है और वहीं पर पवित्र होओ।
वहाँ जाने से ही मनुष्य वृन्दावनवासी भगवान् केनिकट पहुँचता है।
"
स्नात्वानुसवनं तस्मिन्कालिन्द्या: सलिले शिवे ।
कृत्वोचितानि निवसन्नात्मन: कल्पितासन: ॥
४३॥
स्नात्वा--स्तान करके; अनुसवनम्--तीन बार; तस्मिन्ू--उस; कालिन्द्या:--कालिन्दी नदी ( यमुना ) में; सलिले--जल में;शिवे--शुभ; कृत्वा--करके ; उचितानि--उपयुक्त; निवसन्--बैठ कर; आत्मन:--स्वयं का; कल्पित-आसन:ः--आसनबनाकर
नारद मुनि ने उपदेश दिया : हे बालक, यमुना नदी अथवा कालिन्दी के जल में तुम नित्यतीन बार स्नान करना, क्योंकि यह जल शुभ, पवित्र एवं स्वच्छ है।
स्नान के पश्चात् अष्टांगयोगके आवश्यक अनुष्ठान करना और तब शान्त मुद्रा में अपने आसन पर बैठ जाना।
"
प्राणायामेन त्रिवृता प्राणेन्द्रियमनोमलम् ।
शनैर्व्युदस्याभिध्यायेन्मनसा गुरुणा गुरुम् ॥
४४॥
प्राणायामेन-- प्राणायाम ( श्वास की कसरत ) से; त्रि-वृता--तीन विधियों से; प्राण-इन्द्रिय--प्राणवायु तथा इन्द्रियाँ; मनः --मन; मलम्--अशुद्धि; शनैः -- धीरे-धीरे; व्युदस्य--छोड़कर; अभिध्यायेत्-- ध्यान धरो; मनसा--मन से; गुरुणा--अविचल;गुरुमू--परम गुरुश्रीकृष्ण को |
आसन ग्रहण करने के पश्चात् तुम तीन प्रकार के प्राणायाम करना और इस प्रकार धीरे-धीरेप्राणवायु, मन तथा इन्द्रियों को वश में करना।
अपने को समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त करकेतुम अत्यन्त धैर्यपूर्वक भगवान् का ध्यान प्रारम्भ करना।
"
प्रसादाभिमुखं शश्चत्प्रसन्नवदनेक्षणम् ।
सुनासं सुश्रुवं चारुकपोलं सुरसुन्दरम् ॥
४५॥
प्रसाद-अभिमुखम्--सदैव अहैतुकी कृपा करने के लिए तत्पर; शश्वत्--सदैव; प्रसन्न--हर्षित; वदन--मुख; ईक्षणम्--दृष्टि;सु-नासम्--सुन्दर नाक; सु-भ्रुवम्--सुसज्जित भौंहें; चारु--सुन्दर; कपोलम्--कपोल; सुर--देवता; सुन्दरम्--देखने मेंसुन्दर |
[ यहाँ पर भगवान् के रूप का वर्णन हुआ है।
भगवान् का मुख सदैव अत्यन्त सुन्दर औरप्रसन्न मुद्रा में रहता है।
देखने वाले भक्तों को वे कभी अप्रसन्न नहीं दिखते और वे सदैव उन्हेंवरदान देने के लिए उद्यत रहते हैं।
उनके नेत्र, सुसज्जित भौंहें, उन्नत नासिका तथा चौड़ामस्तक--ये सभी अत्यन्त सुन्दर हैं।
वे समस्त देवताओं से अधिक सुन्दर हैं।
"
तरुणं रमणीयाडमरुणोष्ठेक्षणाधरम् ।
प्रणताश्रयणं नृम्णं शरण्यं करुणार्णबम् ॥
४६॥
तरुणम्ू--जवान; रमणीय--आकर्षक; अड्डमू--शरीर के सभी अंग; अरुण-ओएष्ठ --उदीयमान सूर्य की तरह लाल-लाल होंठ;ईक्षण-अधरम्--उसी प्रकार की आँखें; प्रणत--शरणागत; आश्रयणम्--शरणागतों की शरण ( आश्रय ); नृम्णम्-दिव्य रूपसे मनोहर; शरण्यम्--जिसकी शरण में जाने योग्य हो; करुणा--मानो दया से पूर्ण; अर्गबम्--समुद्र |
नारद मुनि ने आगे कहा : भगवान् का रूप सदैव युवावस्था में रहता है।
उनके शरीर काअंग-प्रत्यंग सुगठित एवं दोषरहित है।
उनके नेत्र तथा होंठ उदीयमान सूर्य की भाँति गुलाबी सेहैं।
वे शरणागतों को सदैव शरण देने वाले हैं और जिसे उनके दर्शन का अवसर मिलता है, वहसभी प्रकार से संतुष्ट हो जाता है।
दया के सिन्धु होने के कारण भगवान् शरणागतों के स्वामीहोने के योग्य हैं।
"
श्रीवत्साडूं घनश्यामं पुरुष वनमालिनम् ।
शद्भुचक्रगदापदौरभिव्यक्तचतुर्भुजम् ॥
४७॥
श्रीवत्स-अड्भम्-- भगवान् के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न; घन-श्यामम्--गहरा नीला; पुरुषम्--परम पुरुष; बन-मालिनमू-- फूलों की माला से युक्त; शट्डु--शंख; चक्र -- चक्र; गदा--गदा; पदौ:--कमल पुष्प से; अभिव्यक्त--प्रकट;चतुः-भुजम्--चार हाथों वाले को |
भगवान् को श्रीवत्स चिह्न अथवा ऐश्वर्य की देवी का आसन धारण किये हुए बताया गयाहै।
उनके शरीर का रंग गहरा नीला ( श्याम ) है।
भगवान् पुरुष हैं, वे फूलों की माला पहनते हैंऔर वे चतुर्भुज रूप में ( नीचेवाले बाएँ हाथ से आरम्भ करते हुए ) शंख, चक्र, गदा तथाकमल पुष्प धारण किये हुए नित्य प्रकट होते हैं।
"
किरीटिनं कुण्डलिनं केयूरवलयान्वितम् ।
कौस्तुभाभरणग्रीवं पीतकौशेयवाससम् ॥
४८ ॥
किरीटिनम्ू--मुकुट धारण किये भगवान्; कुण्डलिनम्ू--कुण्डल सहित; केयूर--रलजटित हार; बलय-अन्वितम्--रत्तजटितबाजूबन्द सहित; कौस्तुभ-आभरण-ग्रीवम्--जिनकी ग्रीवा ( गर्दन ) कौस्तुभ मणि से अलंकृत है; पीत-कौशेय-वाससम्--जोपीले रेशम का वस्त्र धारण किये हैं।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव का सारा शरीर आभूषित है।
वे बहुमूल्य मणिमय मुकुट,हार तथा बाजूबन्द धारण किये हुए हैं।
उनकी गर्दन कौस्तुभ मणि से अलंकृत है और वे पीतरेशमी वस्त्र धारण किये हैं।
"
काञझ्जीकलापपर्यस्तं लसत्काझ्जननूपुरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयनवर्धनम् ॥
४९॥
काञ्ञी-कलाप--छोटे-छोटे घुंघुरू; पर्यस्तम्--कमर को घेरते हुए; लसत्-काझ्नन-नूपुरम्--सुनहले नूपुरों से अलंकृत पाँव;दर्शनीय-तमम्--अत्यन्त दर्शनीय; शान्तम्--शान्त, मौन; मन:-नयन-वर्धनम्--आँखों तथा मन को मोहने वाला।
भगवान् का कटि- प्रदेश सोने की छोटी-छोटी घंटियों से अलंकृत है और उनके चरणकमलसुनहले नूपुरों से सुशोभित हैं।
उनके सभी शारीरिक अंग अत्यन्त आकर्षक एवं नेत्रों को भानेवाले हैं।
वे सदैव शान्त तथा मौन रहते हैं और नेत्रों तथा मन को अत्यधिक मोहनेवाले हैं।
"
पद्भ्यां नखमणिश्रेण्या विलसद्भ्यां समर्चताम् ।
हत्पद्यकर्णिकाशिष्ण्यमाक्रम्यात्मन्यवस्थितम् ॥
५० ॥
पदभ्यामू--अपने चरणकमलों से; नख-मणि-श्रेण्या--पाँव के अँगूठे के मणि सहृश्य नाखूनों की ज्योति से; विलसद्भ्याम्ू--चमकते चरणकमल; समर्चताम्--उनकी पूजा में तत्पर पुरुष; हत्-पद्य-कर्णिका--हृदय के कमल पुष्प का पुंज; धिष्णयमू--स्थित; आक्रम्य--पकड़कर, कब्जा करके; आत्मनि--हृदय में; अवस्थितम्--स्थित |
वास्तविक योगी भगवान् के उस दिव्यरूप का ध्यान करते हैं जिसमें वे उनके हृदयरूपीकमल-पुंज में खड़े रहते हैं और उनके चरण-कमलों के मणितुल्य नाखून चमकते रहते हैं।
"
स्मयमानमभिध्यायेत्सानुरागावलोकनम् ।
नियतेनैक भूतेन मनसा वरदर्षभम् ॥
५१॥
स्मयमानम्-- भगवान् की हँसी; अभिध्यायेत्--उनका ध्यान करे; स-अनुराग-अवलोकनमू-- भक्तों की ओर अत्यन्त स्नेह सेदेखते हुए; नियतेन--इस प्रकार, नियमित रूप से; एक-भूतेन--अत्यन्त ध्यानपूर्वक; मनसा--मन-ही-मन; वर-द-ऋषभम् --श्रेष्ठ वरदायक का ध्यान करे।
भगवान् सदैव मुस्कराते रहते हैं और भक्त को चाहिए कि वह सदा इसी रूप में उनका दर्शनकरता रहे, क्योंकि वे भक्तों पर कृपा-पूर्वक दृष्टि डालते हैं।
इस प्रकार से ध्यानकर्ता को चाहिएकि वह समस्त वरों को देने वाले भगवान् की ओर निहारता रहे।
"
एवं भगवतो रूप॑ सुभद्वं ध्यायतो मन: ।
निर्व॒त्या परया तूर्ण सम्पन्न न निवर्तते ॥
५२॥
एवम्--इस प्रकार; भगवत:-- भगवान् का; रूपम्ू--रूप; सु-भद्रमू-- अत्यन्त कल्याणकारी; ध्यायत:--ध्यान करते हुए;मनः--मन; निर्व॒त्या--समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त होकर; परया--दिव्य; तूर्णम्--शीघ्र; सम्पन्नम्ू--समृद्ध होकर; न--कभी नहीं; निवर्तते--नीचे आता है
भगवान् के नित्य मंगलमय रूप में जो अपने मन को एकाग्र करते हुए इस प्रकार से ध्यानकरता है, वह अतिशीघ्र ही समस्त भौतिक कल्मष से छूट जाता है और भगवान् के ध्यान कीस्थिति से फिर लौटकर नीचे ( मर्त्य-लोक ) नहीं आता।
"
जपश्च परमो गुह्य: श्रूयतां मे नृपात्मज ।
यं सप्तरात्रं प्रपठन्पुमान्पश्यति खेचरान् ॥
५३॥
जपः च--इस सम्बन्ध में मंत्र का जाप; परम: --अत्यन्त; गुह्ा:--गोपनीय; श्रूयताम्--सुनो; मे--मुझसे; नृप-आत्मज--हेराजपुत्र; यमू--जो; सप्त-रात्रमू--सात रात्रियाँ; प्रपठन्--जपता हुआ; पुमान्-- पुरुष; पश्यति--देख सकता है; खे-चरान्ू--आकाश में चलने वाले प्राणियों को |
हे राजपुत्र, अब मैं तुम्हें वह मंत्र बताऊँगा जिसे इस ध्यान विधि के समय जपना चाहिए।
जोकोई इस मंत्र को सात रात सावधानी से जपता है, वह आकाश में उड़ने वाले सिद्ध मनुष्यों कोदेख सकता है।
"
नमो भगवते वासुदेवायमन्त्रेणानेन देवस्य कुर्याद्द्रव्यमयीं बुध: ।
सपर्या विविधेद्ध॑व्यैर्देशकालविभागवित् ॥
५४॥
३४--हे भगवान्; नमः--नमस्कार है; भगवते-- भगवान् को; वासुदेवाय--वासुदेव को; मन्त्रेण--मंत्र से; अनेन--इस;देवस्थ-- भगवान् का; कुर्यातू-करना चाहिए; द्रव्यमयीम्-- भौतिक; बुध:--विद्वान; सपर्याम्--वेदोक्त विधि से पूजा;विविधे:-- अनेक प्रकार की; द्रव्यै:--सामग्री से; देश--स्थान के अनुसार; काल--समय; विभाग-वित्--विभागों को जाननेवाला।
श्रीकृष्ण की पूजा का बारह अक्षर वाला मंत्र है--» नमो भगवते वासुदेवाय।
ईश्वर काविग्रह स्थापित करके उसके समक्ष मंत्रोच्चार करते हुए प्रामाणिक विधि-विधानों सहित मनुष्यको फूल, फल तथा अन्य खाद्य-सामग्रियाँ अर्पित करनी चाहिए।
किन्तु यह सब देश, कालतथा साथ ही सुविधाओं एवं असुविधाओं का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।
"
सलिलै: शुचिभिर्माल्यैर्वन्यर्मूलूफलादिभि: ।
शस्ताहु रांशुकैश्वार्चेत्तुलस्था प्रियया प्रभुम् ॥
५५॥
सलिलै:--जल के प्रयोग से; शुचिभि: --पवित्र किया गया; माल्यैः--माला से; वन्यैः--जंगली फूलों से; मूल--जड़ों; फल-आदिभि:--नाना प्रकार की वनस्पतियों तथा फलों से; शस्त--दूर्वा ( दूब ); अड्'ु र-कलियाँ; अंशुकैः--वृक्षों की छाल, यथाभोज-पत्र से; च--तथा; अर्चेत्--पूजा करें; तुलस्था--तुलसी दलों से; प्रियया--जो भगवान् को अत्यन्त प्रिय; प्रभुम्--भगवान् को
भगवान् की पूजा शुद्ध जल, शुद्ध पुष्प-माला, फल, फूल तथा जंगल में उपलब्धवनस्पतियों या ताजे उगे हुए दूर्वांदल एकत्र करके, फूलों की कलियों, अथवा वृक्षों की छालसे, या सम्भव हो तो भगवान् को अत्यन्त प्रिय तुलसीदल अर्पित करते हुए करनी चाहिए।
"
लब्ध्वा द्रव्यमयीमर्चा क्षित्यम्ब्वादिषु वार्चयेत् ।
आशभ्षृतात्मा मुनि: शान्तो यतवाड्मितवन्यभुक् ॥
५६॥
लब्ध्वा--पाकर; द्र॒व्य-मयीम्-- भौतिक तत्त्वों से बने; अर्चामू--पूज्य विग्रह; क्षिति--पृथ्वी; अम्बु--जल; आदिषु--इत्यादि;बा--अथवा; अर्चयेत्--पूजा करे; आभृत-आत्मा-- आत्मसंयमी; मुनि:ः--महापुरुष; शान्त: --शान्तिपूर्वक; यत-वाक्--वाग्शक्ति पर संयम रखते हुए; मित-- थोड़ा; वन्य-भुक्--जंगल में प्राप्य सामग्री को खाकर
यदि सम्भव हो तो मिट्टी, लुगदी, लकड़ी तथा धातु जैसे भौतिक तत्त्वों से बनी भगवान् कीमूर्ति को पूजा जा सकता है।
जंगल में मिट्टी तथा जल से मूर्ति बनाई जा सकती है और उपर्युक्तनियमों के अनुसार उसकी पूजा की जा सकती है।
जो भक्त अपने ऊपर पूर्ण संयम रखता है, उसेअत्यन्त नप्र तथा शान्त होना चाहिए और जंगल में जो भी फल तथा वनस्पतियाँ प्राप्त हों उन्हें हीखाकर संतुष्ट रहना चाहिए।
"
स्वेच्छावतारचरितैरचिन्त्यनिजमायया ।
करिष्यत्युत्तमएलोकस्तद्धयायेद्धूदयड्गरमम् ॥
५७॥
स्व-इच्छा--उनकी ( भगवान की ) परम इच्छा से; अवतार--अवतार; चरितैः --कार्यकलाप; अचिन्त्य-- अकल्पनीय; निज-मायया--अपनी ही शक्ति से; करिष्यति--करता है; उत्तम-श्लोक:-- भगवान्; तत्ू--वह; ध्यायेत्-- ध्यान करना चाहिए;हृदयम्-गमम्--अत्यन्त आकर्षक ।
हे श्रुव, प्रतिदिन तीन बार मंत्र जप करने और श्रीविग्रह की पूजा के अतिरिक्त तुम्हें भगवान्के विभिन्न अवतारों के दिव्य कार्यों के विषय में भी ध्यान करना चाहिए, जो उनकी परम इच्छातथा व्यक्तिगत शक्ति से प्रदर्शित होते हैं।
"
परिचर्या भगवतो यावत्य: पूर्वसेविता: ।
ता मन्त्रहदयेनैव प्रयुउ्ज्यान्मन्त्रमूर्तये ॥
५८ ॥
परिचर्या:--सेवा; भगवत:--भगवान् की; यावत्य:--जिस रूप में ( उपर्युक्त ) संस्तुत हैं; पूर्व-सेविता: --पूर्व आचार्यो द्वारा कृतअथवा संस्तुत; ताः--वह; मन्त्र--मंत्र; हृदयेन--हृदय के भीतर; एब--निश्चय ही; प्रयुड्यात्--पूजा करे; मन्त्र-मूर्तये--जो मंत्रसे अभिन्न है।
संस्तुत सामग्री द्वारा परमेश्वर की पूजा किस प्रकार की जाये, इसके लिए मनुष्य को चाहिएकि पूर्व-भक्तों के पद-चिह्नों का अनुसरण करे अथवा हृदय के भीतर ही मंत्रोच्चार करकेभगवान् की, पूजा करे जो मंत्र से भिन्न नहीं हैं।
"
एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् ।
परिचर्यमाणो भगवान्भक्तिमत्परिचर्यया ॥
५९॥
पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धन: ।
श्रेयो दिशत्यभिमतं यद्धर्मादिषु देहिनामू ॥
६०॥
एवम्--इस प्रकार; कायेन--शरीर से; मससा--मन से; वचसा--शब्दों से; च-- भी; मन:-गतम्-- भगवान् के चिन्तन मात्र से;परिचर्यमाण:--भक्ति में लगे हुए; भगवान्-- भगवान्; भक्ति-मत्-- भक्ति के नियमों के अनुसार; परिचर्यया-- भगवान् कीपूजा द्वारा; पुंसामू-- भक्त का; अमायिनाम्--जो एकनिष्ठ तथा गम्भीर है; सम्यक् --पूर्णरूप से; भजताम्--भक्ति में लगा हुआ;भाव-वर्धन:--जो भक्त के भाव को बढ़ाते हैं, भगवान्, श्रेय: ; श्रेयः--अन्तिम उद्देश्य; दिशति--प्रदान करता है; अभिमतम्--आकांक्षा; यतू--यावत्रूप; धर्म-आदिषु--आध्यात्मिक जीवन तथा आर्थिक विकार के विषय में; देहिनामू--बद्धजीवों का
इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन, वचन तथा शरीर से भगवान् कीभक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति-विधियों के कार्यों में मगन रहता है, उसे उसकीइच्छानुसार भगवान् वर देते हैं।
यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म, अर्थ, काम या भौतिक संसारसे मोक्ष चाहता है, तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं।
"
विरक्तश्नेन्द्रियरतौ भक्तियोगेन भूयसा ।
त॑ निरन्तरभावेन भजेताद्धा विमुक्तये ॥
६१॥
विरक्त: च--पूर्णतया विरक्त; इन्द्रिय-रतौ--इन्द्रिय-तृप्ति के विषय में; भक्ति-योगेन-- भक्ति की पद्धति से; भूयसा--अत्यन्तगम्भीरता से; तम्--उस ( परम ) को; निरन्तर--लगातार; भावेन--समाधि की सर्वोच्च अवस्था में; भजेत--पूजा करे; अद्धा--प्रत्यक्ष; विमुक्तये--मुक्ति के लिए।
यदि कोई मुक्ति के लिए अत्यन्त उत्सुक हो तो उसे दिव्य प्रेमाभक्ति की पद्धति का हढ़ता सेपालन करके चौबीसों घंटे समाधि की सर्वोच्च अवस्था में रहना चाहिए और उसे इन्द्रियतृप्ति केसमस्त कार्यो से अनिर्वायतः पृथक् रहना चाहिए।
"
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य प्रणम्य च नृपार्भक: ।
ययौ मधुवन पुण्यं हरेश्वरणचर्चितम् ॥
६२॥
इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; तम्--उसको ( नारद मुनि को ); परिक्रम्य--प्रदक्षिणा करके; प्रणम्य--नमस्कार करके;च--भी; नृप-अर्भक:--राजा का पुत्र; ययौ--पास गया; मधुवनम्--वृन्दावन का एक जंगल जो मधुवन कहलाता है;पुण्यमू--शुभ; हरेः-- भगवान् का; चरण-चर्चितम्--
श्रीकृष्ण के चरणकमल द्वारा अंकितजब राजपुत्र श्रुव महाराज को नारद मुनि इस प्रकार उपदेश दे रहे थे तो उन्होंने अपने गुरुनारद मुनि की प्रदक्षिणा की और उन्हें सादर नमस्कार किया।
तत्पश्चात् वे मधुवन के लिए चलपड़े, जहाँ श्रीकृष्ण के चरणकमल सदैव अंकित रहते हैं, अतः जो विशेष रूप से शुभ है।
"
तपोवनं गते तस्मिन्प्रविष्टो उन्तःपुरं मुनि: ।
अर्हिताईणको राज्ञा सुखासीन उबाच तम् ॥
६३॥
तपः-वनम्--वह वन मार्ग जहाँ ध्रुव महाराज ने तपस्या की; गते--इस प्रकार पास जाने पर; तस्मिन्--वहाँ; प्रविष्ट: -- प्रवेशकरके; अन्तः-पुरम्ू--व्यक्तिगत घर के भीतर; मुनि:--नारद मुनि; अर्हित--पूजित होकर; अर्हणक: --आदरपूर्ण आचरण केद्वारा; राज्ञा--राजा द्वारा; सुख-आसीन:--अपने आसन पर सुखपूर्वक बैठा; उबाच--कहा; तम्--उस ( राजा ) से |
जब श्रुव भक्ति करने के लिए मधुवन में प्रविष्ट हो गए तब महर्षि नारद ने राजा के पासजाकर यह देखना उचित समझा कि वे महल के भीतर कैसे रह रहे हैं।
जब नारद मुनि वहाँ पहुँचेतो राजा ने उन्हें प्रणाम करके उनका समुचित स्वागत किया।
आराम से बैठ जाने पर नारद कहनेलगे।
"
नारद उबाचराजन्कि ध्यायसे दीर्घ मुखेन परिशुष्यता ।
कि वा न रिष्यते कामो धर्मो वार्थेन संयुत: ॥
६४॥
नारद: उवाच--नारद मुनि ने कहा; राजन्--हे राजा; किम्ू--क्या; ध्यायसे--सोचते हुए; दीर्घम्--अत्यन्त गहनता से; मुखेन--अपने मुँह से; परिशुष्यता--सूखते हुए; किम् वा--अथवा; न--नहीं; रिष्यते--खो जाना; काम: --इन्द्रियतृप्ति; धर्म:--धार्मिकअनुष्ठान; वा--या; अर्थेन--आर्थिक विकास से; संयुत:--से युक्त
महर्षि नारद ने पूछा : हे राजन, तुम्हारा मुख सूख रहा दिखता है और ऐसा लगता है कि तुमदीर्घकाल से कुछ सोचते रहे हो।
ऐसा क्यों है? क्या तुम्हें धर्म, अर्थ तथा काम के मार्ग कापालन करने में कोई बाधा हुई है ?"
राजोबाचसुतो मे बालको ब्रह्मन्स्त्रणेनाकरुणात्मना ।
निर्वासितः पञ्जवर्ष: सह मात्रा महान्कवि: ॥
६५॥
राजा उवाच--राजा ने उत्तर दिया; सुतः--पुत्र; मे--मेरा; बालकः--अल्प वयस वाला; ब्रह्मन्ू--हे ब्राह्मण; स्त्रैणेन --स्त्री मेंलिप्त रहने वाला; अकरुणा-आत्मना--कठोर हृदय; निर्वासित:--घर से निकाला गया; पशञ्ञ-वर्ष:--पाँच वर्ष का बालक;सह--साथ; मात्रा--माता द्वारा; महान्ू--महापुरुष; कवि: --भक्त ।
राजा ने उत्तर दिया : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं अपनी पत्नी में अत्यधिक आसक्त हूँ और मैं इतनापतित हूँ कि मैंने अपने पाँच वर्ष के बालक के प्रति भी दया भाव के व्यवहार का त्याग करदिया।
मैने उसे महात्मा तथा महान् भक्त होते हुए भी माता सहित निर्वासित कर दिया है।
"
अप्यनाथं बने ब्रह्मन्मा स्मादन्त्यर्भक वृका: ।
श्रान्तं शयानं क्षुधितं परिम्लानमुखाम्बुजम् ॥
६६॥
अपि--निश्चय ही; अनाथम्--अरक्षित; बने--जंगल में; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; मा-- अथवा, नहीं; स्म--नहीं; अदन्ति-- भक्षणकिया; अर्भकम्--निरीह बालक; वृका: --भेड़िये; श्रान्तम्-- थका हुआ; शयानम्--लेटा हुआ; क्षुधितम्-- भूखा; परिम्लान--मुरझाया; मुख-अम्बुजम्ू--कमल के समान मुख ।
हे ब्राह्मण, मेरे पुत्र का मुख कमल के फूल के समान था।
मैं उसकी दयनीय दशा के विषयमें सोच रहा हूँ।
वह असुरक्षित और अत्यन्त भूखा होगा।
वह जंगल में कहीं लेटा होगा औरभेड़ियों ने झपट करके उसका शरीर काट खा लिया होगा।
अहो मे बत दौरात्म्यं स्रीजितस्योपधारय ।
योडड्डू प्रेम्णारुरुक्षन्तं नाभ्यनन्दमसत्तम: ॥
६७॥
अहो--ओह; मे--मेरा; बत--निश्चय ही; दौरात्म्यमू-क्रूरता; स्त्री-जितस्य--स्त्री का गुलाम; उपधारय--जरा सोचो तो; यः--जो; अड्भम्--गोद; प्रेम्णा--प्रेमवश; आरुरुक्षन्तम्-चढ़ने को इच्छुक; न--नहीं; अभ्यनन्दम्--उचित ढंग से आदर; असतू-तमः--अत्यन्त क्रूर
अहो! जरा देखिये तो मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ! जरा मेरी क्रूरता के विषय में तो सोचिये!वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढ़ना चाहता था, किन्तु मैंने न तो उसको आने दिया, न उसेएक क्षण भी दुलारा।
जरा सोचिये कि मैं कितना कठोर-हृदय हूँ!" नारद उबाचमा मा शुचः स्वतनयं देवगुप्तं विशाम्पते ।
तत्प्रभावमविज्ञाय प्रावृड्डे यद्यशों जगत् ॥
६८ ॥
नारद: उबवाच--नारद मुनि ने कहा; मा--मत; मा--मत; शुच्च: --दुखी होओ; स्व-तनयम्-- अपने पुत्र के लिए; देव-गुप्तम्ू--भगवान् द्वारा भली-भाँति रक्षित; विशाम्-पते--हे मानव समाज के स्वामी; तत्--उसका; प्रभावम्ू--प्रभाव; अविज्ञाय--बिनाजाने; प्रावृद्ें --चारों ओर फैला; यत्--जिसका; यश:--ख्याति; जगत्--संसार भर में |
महर्षि नारद ने उत्तर दिया: हे राजन, तुम अपने पुत्र के लिए शोक मत करो।
वह भगवान्द्वारा पूर्ण रूप से रक्षित है।
यद्यपि तुम्हें उसके प्रभाव के विषय में सही-सही जानकारी नहीं है,किन्तु उसकी ख्याति पहले ही संसार भर में फैल चुकी है।
"
सुदुष्करं कर्म कृत्वा लोकपालैरपि प्रभु: ।
ऐष्यत्यचिरतो राजन्यशो विपुलयंस्तव ॥
६९॥
सु-दुष्करम्ू--न कर सकने योग्य; कर्म--कार्य; कृत्वा--करके; लोक-पालै:ः --महापुरुषों द्वारा; अपि-- भी ; प्रभुः--अत्यन्तसमर्थ; ऐष्यति--लौटेगा; अचिरत:--शीघ्र ही; राजन्--हे राजा; यश:--कीर्ति; विपुलयन्--बढ़ाते हुए; तब--तुम्हारी |
हे राजन, तुम्हारा पुत्र अत्यन्त समर्थ है।
वह ऐसे कार्य करेगा जो बड़े-बड़े राजा तथा साधुभी नहीं कर पाते।
वह शीघ्र ही अपना कार्य पूरा करके घर वापस आएगा।
तुम यह भी जान लो कि वह तुम्हारी ख्याति को सारे संसार में फैलाएगा।
"
मैत्रेय उबाचइति देवर्षिणा प्रोक्त विश्रुत्य जगतीपति: ।
राजलक्ष्मीमनाहत्य पुत्रमेवान्बचिन्तयत् ॥
७०॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; देवर्षिणा--नारद मुनि द्वारा; प्रोक्तम्ू--कहा गया; विश्रुत्य--सुनकर; जगती-'पति:--राजा; राज-लक्ष्मीम्--राज्य का ऐश्वर्य; अनाहत्य--परवाह किये बिना; पुत्रमू--अपना पुत्र; एब--निश्चय ही;अन्वचिन्तयत्ू--सोचने लगा
मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : नारद मुनि से उपदेश प्राप्त करने के बाद राजा उत्तानपाद ने अपनेअत्यन्त विशाल एवं ऐश्वर्यमय राज्य के सारे कार्य छोड़ कर दिये और केवल अपने पुत्र ध्रुव केविषय में ही सोचने लगा।
"
तत्राभिषिक्तः प्रयतस्तामुपोष्य विभावरीम् ।
समाहितः पर्यचरद्ृष्यादेशेन पूरुषम् ॥
७१॥
तत्र--तत्पश्चात्; अभिषिक्त: --स्नान करने के पश्चात्; प्रयतः--ध्यानपूर्वक; ताम्ू--उस; उपोष्य--उपवास करके; विभावरीम्--रात्रि; समाहितः--पूर्ण ध्यान से; पर्यचरत्--पूजा की; ऋषि--नारद ऋषि द्वारा; आदेशेन--आदेश के अनुसार; पूरुषम्--भगवान् की।
इधर, श्रुव महाराज ने मधुवन पहुँचकर यमुना नदी में स्नान किया और उस रात्रि को अत्यन्तमनोयोग से उपवास किया।
तत्पश्चात् वे नारद मुनि द्वारा बताई गई विधि से भगवान् की आराधनामें मग्न हो गये।
"
त्रिरात्रान्ते त्रिरात्रान्ते कपित्थबदराशन:ः ।
आत्पवृत्त्यनुसारेण मासं निन्येर्चयन्हरिम्ू ॥
७२॥
ब्रि--तीन; रात्र-अन्ते--रात बीतने पर; त्रि--तीन; रात्र-अन्ते--रात बीतने पर; कपित्थ-बदर--कैथा तथा बेर; अशनः--खातेहुए; आत्म-वृत्ति--शरीर पालने के लिए निर्वाह; अनुसारेण--आवश्यक या न्यूनतम; मासम्--एक माह; निन््ये--बीत गया;अर्चयन्-पूजा करते; हरिम्ू-- भगवान् की |
ध्रुव महाराज ने पहले महीने में अपने शरीर की रक्षा ( निर्वाह ) हेतु हर तीसरे दिन केवलकैथे तथा बेर का भोजन किया और इस प्रकार से वे भगवान् की पूजा को आगे बढ़ाते रहे।
"
द्वितीयं च तथा मासं षष्ठे षष्ठे र्भको दिने ।
तृणपर्णादिभि: शीर्णै: कृतान्नो भ्यर्चयन्विभुम् ॥
७३॥
द्वितीयमू--अगले मास; च--भी; तथा--उपयुक्त विधि से; मासम्--माह; षष्टे षष्टे-- प्रत्येक छह दिन पर; अर्भकः--अबोधबालक; दिने--दिने में; तृण-पर्ण-आदिभि:--घास-पात से; शीर्णै:--शुष्क; कृत-अन्न:--अन्न के रूप में; अभ्यर्चयन्ू--- औरइस प्रकार पूजा करता रहा; विभुम्-- भगवान् के लिए
दूसरे महीने में महाराज ध्रुव छह-छह दिन बाद खाने लगे।
शुष्क घास तथा पत्ते ही उनकेखाद्य पदार्थ थे।
इस प्रकार उन्होंने अपनी पूजा चालू रखी।
"
तृतीय चानयन्मासं नवमे नवमेहनि ।
अब्भक्ष उत्तमश्लोकमुपाधावत्समाधिना ॥
७४॥
तृतीयम्--तीसरे महीने; च-- भी; आनयनू--बीतने पर; मासम्ू--एक महीना; नवमे नवमे--प्रत्येक नवें; अहनि--दिन में;अपू-भक्ष:--केवल जल पीकर; उत्तम-शलोकम्-- भगवान्, जिनकी आराधना चुने हुए श्लोकों से की जाती है; उपाधावत्--पूजा की; समाधिना--समाधि में |
तीसरे महीने में वे प्रत्येक नवें दिन केवल जल ही पीते।
इस प्रकार वे पूर्ण रूप से समाधि मेंरहते हुए पुण्यश्लोक भगवान् की पूजा करते रहे।
"
चतुर्थमपि बे मासं द्वादशे द्वादशे हनि ।
वायुभक्षो जितश्चासो ध्यायन्देवमधारयत् ॥
७५॥
चतुर्थभमू--चौथे; अपि-- भी; बै--उस प्रकार; मासम्ू--माह; द्वादशे द्वादशे--प्रति बारहवें; अहनि--दिन में; वायु--हवा;भक्ष:--खाकर; जित-श्वास:-- श्वास क्रिया को वश में करके; ध्यायन्--ध्यान करते हुए; देवम्--परमे श्वर की; अधारयत्--
पूजा की चौथे महीने में श्रुव महाराज प्राणायाम में पटु हो गये और इस प्रकार प्रत्येक बारहवें दिनवायु को श्वास से भीतर ले जाते।
इस प्रकार अपने स्थान पर पूर्ण रूप से स्थिर होकर उन्होंनेभगवान् की पूजा की।
"
पञ्ञमे मास्यनुप्राप्ते जितश्रासो नृपात्मज: ।
ध्यायन्त्रह् पदैकेन तस्थौ स्थाणुरिवाचल: ॥
७६॥
पश्ञमे--पाँचवें; मासि--महीने में; अनुप्राप्त--स्थित होकर; जित-श्रास:--तब भी श्वास को नियंत्रित करके; नृप-आत्मज:--राजा का पुत्र; ध्यायन्ू-- ध्यान करता हुआ; ब्रह्म-- भगवान्; पदा एकेन--एक पाँव से; तस्थौ--खड़ा रहा; स्थाणु: --ढूँठ के;इब--समान; अचलः:--स्थिर, जड़ |
पाँचवें महीने में राजपुत्र महाराज श्लुव ने श्वास रोकने पर ऐसा नियत्रंण प्राप्त कर लिया किवे एक ही पाँव पर खड़े रहने में समर्थ हो गए, मानो कोई अचल दूँठ हो।
इस प्रकार उन्होंनेपरब्रह्म में अपने मन को केन्द्रित कर लिया।
"
सर्वतो मन आकृष्य हृदि भूतेन्द्रियाशयम् ।
ध्यायन्भगवतो रूप नाद्राक्षीत्किल्ननापरम् ॥
७७॥
सर्वतः--सभी प्रकार से; मनः--मन को; आकृष्य--केन्द्रित करके; हृदि--हृदय में; भूत-इन्द्रिय-आशयम्--इन्द्रियों के आश्रयतथा विषयों; ध्यायन्-- ध्यान करते हुए; भगवत:-- भगवान् का; रूपम्--रूप, आकार; न अद्वाक्षीत्--नहीं देखा; किज्ञन--कुछ भी; अपरम्--अन्य |
उन्होंने अपनी इन्द्रियों तथा उनके विषयों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया और इस तरहअपने मन को चारों ओर से खींच कर भगवान् के रूप पर स्थिर कर दिया।
आधारं महदादीनां प्रधानपुरुषे श्वरम् ।
ब्रह्म धारयमाणस्य त्रयो लोकाश्चकम्पिरि ॥
७८ ॥
आधारम्--आश्रय; महत्-आदीनामू--समस्त भौतिक सृष्टि आदि, महत्-तत्त्व; प्रधान--मुख्य; पुरुष-ईश्वरम्--सभीजीवात्माओं का स्वामी; ब्रह्म--परब्रह्म परमेश्वर; धारयमाणस्य-- हृदय में धारण करके; त्रय:--तीनों; लोका:--लोक;चकम्पिरि--हिलने लगे।
इस प्रकार जब श्लरुव महाराज ने समग्र भौतिक सृष्टि के आश्रय तथा समस्त जीवात्माओं केस्वामी भगवान् को अपने वश में कर लिया तो तीनों लोक हिलने लगे।
"
यदैकपादेन स पार्थिवार्भक-स्तस्थौ तदड्ुष्ठनिपीडिता मही ।
ननाम तत्रार्धमिभेन्द्रधिष्ठितातरीब सब्येतरतः पदे पदे ॥
७९॥
यदा--जब; एक--एक; पादेन-- पाँव से; सः-- ध्रुव महाराज; पार्थिव--राजा का; अर्भक:--बालक; तस्थौ--खड़ा रहा;तत्-अब्ुष्ठ --उनके अँगूठे से; निपीडिता--दब कर; मही--पृथ्वी; ननाम--नीचे झुकी; तत्र--तब; अर्धम्--आधा; इभ-इन्द्र--हाथियों का राजा; धिष्ठिता--स्थित; तरी इब--नाव के समान; सव्य-इतरत:--दाहिने तथा बाएँ; पदे पदे--पग-पग पर |
जब राजपुत्र ध्रुव महाराज अपने एक पाँव पर अविचलित भाव से खड़े रहे तो उनके पाँव केभार से आधी पृथ्वी उसी प्रकार नीचे चली गई जिस प्रकार कि हाथी के चढ़ने से ( पानी में ) उसके प्रत्येक कदम से नाव कभी दाएँ हिलती है, तो कभी बाएँ।
"
तस्मिन्नभिध्यायति विश्वमात्मनोद्वार निरुध्यासुमनन्यया धिया ।
लोका निरुच्छुसनिपीडिता भृशंसलोकपाला: शरणं ययुहरिम् ॥
८०॥
तस्मिन्ू-- ध्रुव महाराज; अभिध्यायति--पूर्ण मनोयोग से ध्यान करते हुए; विश्वम् आत्मन:--ब्रह्माण्ड का पूर्ण शरीर; द्वारम्--दरवाजे, छेद; निरुध्य--बन्द करके; असुम्--प्राण वायु; अनन्यया--अविचल भाव से; धिया--ध्यान; लोका:--सभी लोक;निरुच्छास-- श्वास लेना रोककर; निपीडिता: --दम घुटने से; भूशम्--शीघ्र; स-लोक-पाला:--विभिन्न लोकों के समस्त देवता;शरणम्--शरण; ययु:--ग्रहण की; हरिम्ू-- भगवान् की
जब श्रुव महाराज गुरुता में भगवान् विष्णु अर्थात् समग्र चेतना से एकाकार हो गये तो उनकेपूर्ण रूप से केन्द्रीभूत होने तथा शरीर के सभी छिद्रों के बन्द हो जाने से सारे विश्व की साँसघुटने लगी और सभी लोकों के समस्त बड़े-बड़े देवताओं का दम घुटने लगा।
अतः वे भगवान्की शरण में आये।
"
देवा ऊचु:नैवं विदामो भगवन्प्राणरोध॑चराचरस्याखिलसत्त्वधाम्न: ।
विधेहि तन्नो वृजिनाद्विमोश्षंप्राप्ता बय॑ त्वां शरणं शरण्यम् ॥
८१॥
देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; न--नहीं; एवम्--इस प्रकार; विदाम:--हम समझ पाते हैं; भगवन्--हे भगवान्; प्राण-रोधम्-रुद्ध हुआ श्वास; चर--चलता हुआ; अचरस्य--अचल का; अखिल--विश्वजनीन; सत्त्व--अस्तित्व; धाम्न:--आगार;विधेहि--कृपा करके जो आवश्यक हो करें; तत्ू--अतः; नः--हमारा; वृजिनात्ू--संकट से; विमोक्षम्--उद्धार; प्राप्ता:--निकट आता; वयम्--हम सभी; त्वाम्ू--तुमको; शरणम्--शरण; शरण्यम्ू--शरण ग्रहण की जाने योग्य |
देवताओं ने कहा : हे भगवान्, आप समस्त जड़ तथा चेतन जीवात्माओं के आश्रय हैं।
हमेंलग रहा है कि सभी जीवों का दम घुट रहा है और उनकी श्वास-क्रिया अवरुद्ध हो गई है।
हमेंऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ।
आप सभी शरणागतों के चरम आश्रय है, अतः हम आपके पासआये हैं।
कृपया हमें इस संकट से उबारिये।
"
श्रीभगवानुवाचमा भेष्ट बाल॑ तपसो दुरत्यया-न्रिवर्तयिष्ये प्रतियात स्वधाम ।
यतो हि वः प्राणनिरोध आसी-दौत्तानपादिर्मयि सड्भतात्मा ॥
८२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने उत्तर दिया; मा भैष्ट--मत डरो; बालमू--बालक श्रुव; तपसः--कठिन तपस्या से;दुरत्ययात्-इृढ़ निश्चय; निवर्तयिष्ये--रोकने के लिए कहूँगा; प्रतियात-- तुम जा सकते हो; स्व-धाम--अपने घर; यतः--जिससे; हि--निश्चय ही; वः--तुम्हारा; प्राण-निरोध:--प्राण वायु का अवरोध; आसीत्--हुआ; औत्तानपादि:--राजाउत्तानपाद के पुत्र के कारण; मयि--मुझको; सड्भत-आत्मा--मेरे विचार में पूरी तरह लीन।
श्रीभगवान् ने उत्तर दिया : हे देवो, तुम इससे विचलित न होओ।
यह राजा उत्तानपाद के पुत्रकी कठोर तपस्या तथा हृढ़निश्चय के कारण हुआ है, जो इस समय मेरे चिन्तन में पूर्णतया लीनहै।
उसी ने सारे ब्रह्माण्ड की श्वास क्रिया को रोक दिया है।
तुम लोग अपने-अपने घरसुरक्षापूर्वक जा सकते हो।
मैं उस बालक को कठिन तपस्या करने से रोक दूँगा तो तुम इसपरिस्थिति से उबर जाओगे।
"
अध्याय नौ: ध्रुव महाराज घर लौटे
4.9मैत्रेय उवाचत एवसमुत्सबन्नभया उरुक्रमेकृतावनामा: प्रययुस्त्रिविष्टपम् ।
सहस्त्रशीर्षापि ततो गरुत्मतामधोर्वन भृत्यदिदृक्षया गत: ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; ते--देवतागण; एवम्--इस प्रकार; उत्सन्न-भया:--समस्त प्रकार के डर से रहित;उरुक़मे-- भगवान् को, जिनके कार्य अलौलिक हैं; कृत-अवनामा:ः--नमस्कार किये गये; प्रययु:--वे लौट गये; त्रि-विष्टपम्--अपने अपने दैव लोकों को; सहस्त्र-शीर्षा अपि--सहस्त्रशीर्ष कहलानेवाले भगवान् भी; ततः--वहाँ से; गरुत्मता--गरुड़ पर आरुढ़ होकर; मधो: वनम्--मधुवन; भृत्य--दास; दिदक्षया--देखने की इच्छा से; गत:--गये |
महर्षि मैत्रेय ने विदुर से कहा : जब भगवान् ने देवताओं को इस प्रकार फिर से आश्वासनदिलाया तो वे समस्त प्रकार के भय से मुक्त हो गये और वे सब उन्हें नमस्कार करके अपने-अपने देवलोकों को चले गये।
तब भगवान्, जो साक्षात् सहस्त्रशीर्ष अवतार हैं, गरुड़ पर सवारहुए और अपने दास श्रुव को देखने के लिए मधुवन गये।
"
स वै धिया योगविपाकतीकब्रयाहत्पद्यकोशे स्फुरितं तडित्प्रभम् ।
तिरोहितं सहसैवोपलक्ष्यबहिःस्थितं तदवस्थं दरदर्श ॥
२॥
सः--श्लुव महाराज; बै-- भी; धिया-- ध्यान से; योग-विपाक-तीब्रया-- प्रखर योगाभ्यास के कारण; हत्--हृदय के; पद्म-कोशे--कमल पर; स्फुरितम्--प्रकट; तडित्-प्रभम्--बिजली के समान तेजमय; तिरोहितम्ू--विलीन हुईं; सहसा--अकस्मात्;एव--भी; उपलक्ष्य--देखकर; बहि:-स्थितम्--बाहर स्थित; तत्-अवस्थम्--उसी मुद्रा में; ददर्श--देख सकाध
्रुव महाराज अपने प्रखर योगाभ्यास के समय भगवान् के जिस बिजली सहृश तेजमान रूपके ध्यान में निमग्न थे, वह सहसा विलीन हो गया।
फलत:ः श्लुव अत्यन्त विचलित हो उठे औरउनका ध्यान टूट गया।
किन्तु ज्योंही उन्होंने अपने नेत्र खोले, वैसे ही उन्होंने अपने समक्ष पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् को उसी रूप में साक्षात् उपस्थित देखा, जिस रूप का दर्शन वे अपने हृदय मेंकर रहे थे।
"
तहर्शनेनागतसाध्वस: क्षिता-वबन्दताड़ूं विनमय्य दण्डवत् ।
हृ्भ्यां प्रपश्यन्प्रपिबन्निवार्भक-श्लुम्बन्निवास्येन भुजैरिवाश्लिषन् ॥
३॥
ततू-दर्शनेन-- भगवान् का दर्शन करके; आगत-साध्वस:-- अत्यधिक विह्ल श्लुव महाराज; क्षितौ--पृथ्वी पर; अवन्दत--नमस्कार किया; अड्भडमू--शरीर; विनमय्य--गिरकर; दण्डवत्--डंडे के समान; दृग्भ्यामू--अपनी आँखों से; प्रपश्यन्--देखतेहुए; प्रपिबन्ू--पान करते हुए; इब--सहश; अर्भक:--बालक; चुम्बन्--चुम्बन; इब--सहृश्य; आस्येन--मुख से; भुजैः--अपनी बाहों से; इब--सहृश; आश्लिषन्-- भरते हुए।
जब श्रुव महाराज ने अपने भगवान् को अपने सन्मुख देखा तो वे अत्यन्त विह्ल हो उठे औरउन्होंने उनका सादर अभिवादन किया।
वे उनके समक्ष दण्ड के समान गिर पड़े और भगवत्प्रेम में मग्न हो गये।
आनन्द में ध्रुव महाराज भगवान् को इस प्रकार देख रहे थे, मानो उन्हें आँखों से पीरहे हों, उनके चरण कमलों को अपने मुख से चूम रहे हों और उन्हें अपनी भुजाओं में भर रहे हों।
"
सतं विवक्षन्तमतद्विदं हरि-ज्ञात्वास्य सर्वस्य च हद्यवस्थितः ।
कृताझलिं ब्रह्ममयेन कम्बुनापस्पर्श बालं कृपया कपोले ॥
४॥
सः--भगवान्; तम्--श्वुव महाराज को; विवक्षन्तम्-गुणों का गान करने की अभिलाषा से; अ-तत्-विदम्--उसमें पदु न होनेसे; हरिः-- भगवान्; ज्ञात्वा--जानकर; अस्य-- श्रुव का; सर्वस्य--प्रत्येक का; च--तथा; हृदि--हृदय में; अवस्थित:--स्थितहोकर; कृत-अज्जञलिम्--हाथ जोड़ कर; ब्रह्म-मयेन--वैदिक मंत्रों के शब्दों से युक्त; कम्बुना--अपने शंख से; पस्पर्श--स्पर्शकिया; बालमू--बालक को; कृपया--अहैतुकी कृपा से; कपोले--मस्तक पर
यद्यपि ध्रुव महाराज छोटे से बालक थे, किन्तु वे उपयुक्त शब्दों से भगवान् की स्तुति करनाचाह रहे थे।
किन्तु अनुभवहीन होने के कारण वे तुरन्त अपने को सँभाल नहीं सके।
प्रत्येक हृदयमें वास करनेवाले भगवान् श्रुव महाराज की विषम स्थिति को समझ गये।
अत: अपनी अहैतुकीकृपा से उन्होंने अपने समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हुए ध्रुव महाराज के मस्तक पर अपना शंख छुआदिया।
"
स बै तदैव प्रतिपादितां गिरंदैवीं परिज्ञातपरात्मनिर्णय: ।
त॑ भक्तिभावो भ्यगृणा दस त्वरंपरिश्रुतोरु श्रवसं श्रुवक्षिति: ॥
५॥
सः--श्लुव महाराज; बै--निश्चय ही; तदा--उस समय; एव--ही; प्रतिपादिताम्--प्राप्त करके; गिरमू--वाणी; दैवीम्--दिव्य;परिज्ञात--जाना हुआ; पर-आत्म--परम-आत्मा का; निर्णय:--निष्कर्ष ; तमू-- भगवान् को; भक्ति-भावः--भक्ति में स्थित;अभ्यगृणात्--स्तुति की; असत्वरम्-बिना जल्दबाजी दिखाये; परिश्रुत--विख्यात; उरु- भ्रवसम्--जिसका यश; ध्रुव-क्षितिः--श्रुव जिसके लोक का नाश नहीं होगा
उस समय श्रुव महाराज को वैदिक निष्कर्ष का पूर्ण ज्ञान हो गया और वे परम सत्य तथासभी जीवात्माओं से उनके सम्बन्ध को जान गये।
भगवान् के सेवाभाव के अनुसार विश्वविख्यातध्रुव ने, जिन्हें शीघ्र ही ऐसे लोक की प्राप्ति होनेवाली थी, जो कभी भी यहाँ तक कि प्रलयकाल में विनष्ट न होने वाला है, सहज भाव से सोदेश्य व निर्णयात्मक स्तुति की।
"
ध्रुव उवाचयोउन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तांसञ्जीवयत्यखिलशक्तिधर: स्वधाम्ना ।
अन््यांश्व हस्तचरण भ्रवणत्वगादीन्प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥
६॥
श्रुव: उबाच-- ध्रुव महाराज ने कहा; यः--जो परमेश्वर; अन्त:--अन्तःकरण; प्रविश्य--प्रवेश करके ; मम--मेरे; वाचम्--शब्द; इमामू--ये सभी; प्रसुप्तामू-निश्चल या मृत; सञ्जीवबति--पुनः जीवित होता है; अखिल--विश्वव्यापी; शक्ति--शक्ति;धरः--धारण करनेवाला; स्व-धाम्ना--अपनी अन्तरंगा शक्ति से; अन्यान् च--अन्य अंग भी; हस्त--यथा हाथ; चरण--पाँव;श्रवण--कान; त्वक्--चर्म; आदीन्--इत्यादि; प्राणान्ू-- प्राण, जीवन-शक्ति; नमः--नमस्कार है; भगवते-- भगवान् को;पुरुषाय--परम पुरुष को; तुभ्यम्--तुमको |
ध्रुव महाराज ने कहा : हे भगवन्, आप सर्वशक्तिमान हैं।
मेरे अन्तःकरण में प्रविष्ट होकरआपने मेरी सभी सोई हुई इन्द्रियों को--हाथों, पाँवों, स्प्शेन्द्रिय, प्राण तथा मेरी वाणी को--जाग्रत कर दिया है।
मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
"
एकस्त्वमेव भगवन्निदमात्मशक्त्यामायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषम् ।
सृष्ठानुविश्य पुरुषस्तदसद्गुणेषुनानेव दारुषु विभावसुवद्दधिभासि ॥
७॥
एकः--एक; त्वमू--तुम; एव--निश्चय ही; भगवन्--हे भगवन्; इृदम्--यह भौतिक जगत; आत्म-शकत्या--अपनी शक्ति से;माया-आख्यया--माया नाम की; उरु--अत्यन्त शक्तिशाली; गुणया--प्रकृति के गुणों से युक्त; महत्ू-आदि--महत्-तत्त्वआदि; अशेषम्--- अनन्त; सृष्ठा--सृष्टि करके; अनुविश्य--फिर प्रवेश करके; पुरुष: --परमात्मा; ततू--माया का; असतू-गुणेषु-- क्षणिक प्रकट गुणों में; नाना--प्रत्येक प्रकार से; इब--मानो; दारुषु--काष्ठ खण्डों में; विभावसु-वत्-- अग्नि केसमान; विभासि--प्रकट होते हो
हे भगवन्, आप सर्वश्रेष्ठ हैं, किन्तु आप आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों में अपनी विभिन्नशक्तियों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकट होते रहते हैं।
आप अपनी बहिरंगा शक्ति सेभौतिक जगत की समस्त शक्ति को उत्पन्न करके बाद में भौतिक जगत में परमात्मा के रूप मेंप्रविष्ट हो जाते हैं।
आप परम पुरुष हैं और क्षणिक गुणों से अनेक प्रकार की सृष्टि करते हैं, जिसप्रकार कि अग्नि विभिन्न आकार के काष्ट्खण्डों में प्रविष्ट होकर विविध रूपों में चमकती हुईजलती है।
"
त्वद्त्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वसुप्तप्रबुद्ध इब नाथ भवत्प्रपन्न: ।
तस्यापवर्ग्यशरणं तब पादमूलंविस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो ॥
८॥
त्वतू-दत्तया--तुम्हारे द्वारा प्रदत्त; वयुनया--ज्ञान से; इदम्--यह; अचष्ट--देख सकता है; विश्वम्--समग्र ब्रह्माण्ड; सुप्त-प्रबुद्ध;:--सोकर जगे हुए पुरुष; इब--के समान; नाथ-हे प्रभु; भवत्-प्रपन्न:-- भगवान् ब्रह्म, जो आपके शरणागत हैं;तस्य--उसका; आपवर्ग्य--मुक्ति के इच्छुक; शरणम्--शरण; तब--तुम्हारी; पाद-मूलम्--चरणकमल; विस्मर्यते-- भुलायाजा सकता है; कृत-विदा--विद्वान पुरुष; कथम्--किस प्रकार; आर्त-बन्धो--हे दुखियों के मित्र |
हे स्वामी, ब्रह्मा पूर्ण रूप से आपके शरणागत हैं।
आरम्भ में आपने उन्हें ज्ञान दिया तो वेसमस्त ब्रह्माण्ड को उसी तरह देख और समझ पाये जिस प्रकार कोई मनुष्य नींद से जगकरतुरन्त अपने कार्य समझने लगता है।
आप मुक्तिकामी समस्त पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं औरआप समस्त दीन-दुखियों के मित्र हैं।
अतः पूर्ण ज्ञान से युक्त विद्वान पुरुष आपको किस प्रकारभुला सकता है?"
नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया तेये त्वां भवाप्ययविमोक्षणमन्यहेतो: ।
अर्चन्ति कल्पकतरूं कुणपोपभोग्य-मिच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरयेडपि नृणाम् ॥
९॥
नूनमू--अवश्य ही; विमुष्ट-मतय:--जिन्होंने अपनी बुद्धि खो दी है; तब--तुम्हारी; मायया--माया के प्रभाव से; ते--वे; ये--जो; त्वाम्ू--तुम; भव--जन्म से; अप्यय--तथा मृत्यु; विमोक्षणम्--मुक्ति का कारण; अन्य-हेतो:--अन्य कार्यो के लिए;अर्चन्ति--पूजते हैं; कल्पक-तरुम्--जो कल्पतरु के समान हैं; कुणप--इस मृत शरीर का; उपभोग्यम्--इन्द्रियतृप्ति;इच्छन्ति--इच्छा करते हैं; यत्--जो; स्पर्श-जम्--स्पर्श से उत्पन्न; निरये--नरक में; अपि-- भी; नृणाम्ू--मनुष्यों के लिए।
जो व्यक्ति इस चमड़े के थेले ( शवतुल्य देह ) की इन्द्रियतृप्ति के लिए ही आपकी पूजाकरते हैं, वे निश्चय ही आपकी माया द्वारा प्रभावित हैं।
आप जैसे कल्पवृक्ष तथा जन्म-मृत्यु से मुक्ति के कारण को पार करके भी मेरे समान मूर्ख व्यक्ति आपसे इन्द्रियतृप्ति हेतु वरदान चाहतेहैं, जो नरक में रहनेवाले व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध हैं।
"
या निर्वृतिस्तनुभूृतां तव पादपद्ा-ध्यानाद्धवज्जनकथा श्रवणेन वा स्थात् ।
सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्कि त्वन्तकासिलुलितात्पततां विमानात् ॥
१०॥
या--वह जो; निर्व॒ृतिः--आनन्द; तनु-भृताम्--देह धारियों का; तब--तुम्हारे; पाद-पढ्य--चरणकमल का; ध्यानातू--ध्यानकरने से; भवत्-जन--आपके अन्तरंगी भक्तों से; कथा--कथा; श्रवणेन--सुनने से; वा-- अथवा; स्थात्ू--सम्भव; सा--वहआनन्द; ब्रह्मणि--निर्गुण ब्रह्म में; स्व-महिमनि---अपनी महिमा; अपि-- भी; नाथ--हे भगवन्; मा--कभी नहीं; भूत्--उपस्थित रहता है; किम्--क्या कहना; तु--तब; अन्तक-असि--मृत्यु की तलवार से; लुलितात्--विनष्ट होकर; पतताम्--गिरेहुओं का; विमानात्ू--विमान से |
हे भगवन्, आपके चरणकमलों के ध्यान से या शुद्ध भक्तों से आपकी महिमा का श्रवणकरने से जो दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, वह उस ब्रह्मानन्द अवस्था से कहीं बढ़कर है, जिसमेंमनुष्य अपने को निर्गुण ब्रह्म से तदाकार हुआ सोचता है।
चूँकि ब्रह्मानन्द भी भक्ति सेमिलनेवाले दिव्य आनन्द से परास्त हो जाता है, अतः उस क्षणिक आनन्दमयता का क्या कहना,जिसमें कोई स्वर्ग तक पहुँच जाये और जो कालरूपी तलवार के द्वारा विनष्ट हो जाता है? भलेही कोई स्वर्ग तक क्यों न उठ जाये, कालक्रम में वह नीचे गिर जाता है।
"
भक्ति मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसड़ोभूयादनन्त महताममलाशयानाम् ।
येनाझ्सोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धि नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्त: ॥
११॥
भक्तिम्ू--भक्ति; मुहुः --निरन्तर; प्रवहताम्--करनेवालों का; त्वयि--तुमको; मे--मेरा; प्रसड़र:--अन्तरंग संगति; भूयात्--सम्भव है कि; अनन्त--हे अनन्त; महताम्--महान् भक्तों का; अमल-आशयानाम्--जिनके हृदय भौतिक कल्मष से रहित हैं;येन--जिससे; अज्ञसा--सरलतापूर्वक; उल्बणम्-- भयंकर; उरुू--बड़ा; व्यसनम्--संकटों से पूर्ण; भव-अब्धिम्ू--संसार-सागर; नेष्ये-- पार करूँगा; भवत्--आपके; गुण--दिव्य गुण; कथा--लीलाएँ; अमृत--अमृत, शाश्वत; पान--पीकर;मत्त:--मस्त, पागल।
भ्रुव महाराज ने आगे कहा : हे अनन्त भगवान्, कृपया मुझे आशीर्वाद दें जिससे मैं उनमहान् भक्तों की संगति कर सकूँ जो आपकी दिव्य प्रेमा भक्ति में उसी प्रकार निरन्तर लगे रहते हैंजिस प्रकार नदी की तरंगें लगातार बहती रहती हैं।
ऐसे दिव्य भक्त नितान्त कल्मषरहित जीवनबिताते हैं।
मुझे विश्वास है कि भक्तियोग से मैं संसार रूपी अज्ञान के सागर को पार कर सकूँगाजिसमें अग्नि की लपटों के समान भयंकर संकटों की लहरें उठ रही हैं।
यह मेरे लिए सरलरहेगा, क्योंकि मैं आपके दिव्य गुणों तथा लीलाओं के सुनने के लिए पागल हो रहा हूँ, जिनकाअस्तित्व शाश्वत है।
"
ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्यये चान्वदः सुतसुहृदगृहवित्तदारा: ।
ये त्वव्जनाभ भवदीयपदारविन्द-सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसड़ाः ॥
१२॥
ते--वे; न--कभी नहीं; स्मरन्ति--स्मरण करते हैं; अतितराम्--अत्यधिक; प्रियम्--प्रिय; ईश--हे भगवान्; मर्त्यमू-- भौतिकदेह; ये--जो; च-- भी; अनु--के अनुसार; अदः--वह; सुत--पुत्र; सुहृत्--मित्र; गृह--घर; वित्त--सम्पत्ति; दारा:--पत्ली;ये--जो; तु--लेकिन; अब्ज-नाभ--हे कमलनाभि वाले भगवान्; भवदीय--आपका; पद-अरविन्द--चरणकमल;सौगन्ध्य--सुगन्धि; लुब्ध--आकृष्ट; हृदयेषु-- भक्तों सहित, जिनके हृदय; कृत-प्रसड्राः--संगति करते हैं।
हे कमलनाभ भगवान्, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे भक्त की संगति करता है, जिसका हृदयसदैव आपके चरणकमलों की सुगन्ध में लुब्ध रहता है, तो वह न तो कभी अपने भौतिक शरीरके प्रति आसक्त रहता है और न सन्तति, मित्र, घर, सम्पति तथा पत्नी के प्रति देहात्मबुद्धि रखताहै, जो भौतिकतावादी पुरुषों को अत्यन्त ही प्रिय हैं।
वस्तुतः वह उनकी तनिक भी परवाह नहींकरता।
"
तिर्यड्नगद्विजसरीसूपदेवदैत्य-मर्त्यादिभि: परिचितं सदसद्विशेषम् ।
रूप॑ स्थविष्ठमज ते महदाद्यनेकंनातः परं परम वेद्ि न यत्र वाद: ॥
१३॥
तिर्यक्ू--पशुओं; नग--वृक्ष; द्विज--पक्षी; सरीसृप--रेंगनेवाले जीव; देव--देवता; दैत्य--असुर; मर्त्य-आदिभि:--मनुष्योंइत्यादि के द्वारा; परिचितम्--परिव्याप्त; सत्-असतू-विशेषम्--प्रकट तथा अप्रकट योनियों द्वारा; रूपम्ू--रूप; स्थविष्ठम्--स्थूल विश्व का; अज--हे अजन्मा; ते--तुम्हारा; महत्ू-आदि--सम्पूर्ण भौतिक शक्ति से उत्पन्न; अनेकम्-- अनेक कारण; न--नहीं; अतः--इससे; परम्ू--दिव्य; परम--हे परम; वेद्धि--जानता हूँ; न--नहीं ; यत्र--जहाँ; वाद: --विभिन्न तर्क |
हे भगवन्, हे परम अजन्मा, मैं जानता हूँ कि जीवात्माओं की विभिन्न योनियाँ, यथा पशु,पक्षी, रेंगनेवाले जीव, देवता तथा मनुष्य सारे ब्रह्माण्ड में फैली हुई हैं, जो समग्र भौतिक शक्तिसे उत्पन्न हैं।
मैं यह भी जानता हूँ कि ये कभी प्रकट रूप में रहती हैं, तो कभी अप्रकट रूप में,किन्तु मैने ऐसा परम रूप कभी नहीं देखा जैसा कि अब आप का देख रहा हूँ।
अब किसी भीसिद्धान्त के बनाने की आवश्यकता नहीं रह गई है।
"
कल्पान्त एतदखिलं जठरेण गृहन्शेते पुमान्स्वटगनन्तसखस्तदड्ले ।
यन्नाभिसिन्धुरूहकाञ्ननलोकपदा-गर्भ द्युमान्भगवते प्रणतोस्मि तस्मै ॥
१४॥
कल्प-अन्ते--कल्प के अन्त में; एतत्--यह ब्रह्माण्ड; अखिलम्--समस्त; जठरेण--उदर के भीतर; गृहन्ू--ले करके; शेते--लेटा रहता है; पुमानू--परम पुरुष; स्व-हक्--अपने आपको देखता हुआ; अनन्त--अनन्त जीव शेष; सख:--के साथ; तत्ू-अद्डे--उसकी गोद में; यत्--जिसकी; नाभि--नाभि से; सिन्धु--सागर; रूह--उगा हुआ; काझ्नन--सुनहला; लोक--लोक;पद्म--कमल के; गर्भे--पुष्प पुंज में; द्युमान्ू-- भगवान् ब्रह्मा; भगवते-- भगवान् को; प्रणतः--नमस्कार करता; अस्मि--हूँ;तस्मै--उसको |
हे भगवन्, प्रत्येक कल्प के अन्त में भगवान् गर्भोदकशायी विष्णु ब्रह्माण्ड में दिखाईपड़नेवाली प्रत्येक वस्तु को अपने उदर में समाहित कर लेते हैं।
वे शेषनाग की गोद में लेट जातेहैं, उनकी नाभि से एक डंठल में से सुनहला कमल-पुष्प फूट निकलता है और इस कमल-पुष्पपर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं।
मैं समझ सकता हूँ कि आप वही परमेश्वर हैं।
अतः मैं आपको सादरनमस्कार करता हूँ।
"
त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्माकूटस्थ आदिपुरुषो भगवांस्त्रयधीश: ।
यहुद्धय॒वस्थितिमखण्डितया स्वदृष्टयाद्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से ॥
१५॥
त्वमू-तुम; नित्य--शाश्वत; मुक्त--मुक्त; परिशुद्ध--विशुद्ध; विबुद्ध:--ज्ञान से पूर्ण; आत्मा--परमात्मा; कूट-स्थ:--परिवर्तनरहित; आदि--मूल; पुरुष:--पुरुष; भगवान्--छह ऐश्वर्यों से पूर्ण, भगवान्; त्रि-अधीश: --तीनों गुणों के स्वामी;यत्--जहाँ से; बुद्धि-- बौद्धिक कार्यो का; अवस्थितिम्--समस्त अवस्थाएँ; अखण्डितया--अखंडित, पूर्ण; स्व-दृष्या--दिव्यइृष्टि द्वारा; द्रष्टा--साक्षी; स्थितौ--( ब्रह्माण्ड ) के पालनार्थ; अधिमखः --समस्त यज्ञों के भोक्ता; व्यतिरिक्त:--भिन्न-भिन्नप्रकार से; आस्से--स्थित हो |
है भगवन्, अपनी अखंड दिव्य चितवन से आप बौद्धिक कार्यों की समस्त अवस्थाओं केपरम साक्षी हैं।
आप शाश्वत-मुक्त हैं, आप शुद्ध सत्व में विद्यमान रहते हैं और अपरिवर्तित रूप मेंपरमात्मा में विद्यमान हैं।
आप छह ऐश्वर्यों से युक्त आदि भगवान् हैं और भौतिक प्रकृति के तीनोंगुणों के शाश्वत स्वामी हैं।
इस प्रकार आप सामान्य जीवात्माओं से सदैव भिन्न रहते हैं।
विष्णु रूप में आप सारे ब्रह्माण्ड के कार्यो का लेखा-जोखा रखते हैं, तो भी आप पृथक् रहते हैं औरसमस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।
"
यस्मिन्विरुद्धगतयो हानिशं पतन्तिविद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात् ।
तद्गह्म विश्वभववमेकमनन्तमाद्य-मानन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये ॥
१६॥
यस्मिनू--जिसमें; विरुद्ध-गतयः--विरोधी स्वभाव का; हि--निश्चय ही; अनिशम्--सदैव; पतन्ति-- प्रकट हैं; विद्या-आदयः--ज्ञान तथा अविद्या इत्यादि; विविध--विभिन्न; शक्तय: --शक्तियाँ; आनुपूर्व्यात्--सतत; तत्--उस; ब्रह्म--ब्रहा;विश्व-भवम्--भौतिक उत्पत्ति का कारण; एकम्--एक; अनन्तम्--अपार; आद्यम्--आदि; आनन्द-मात्रमू--केवलआनन्दमय; अविकारम्--अपरिवर्तित; अहम्--मैं; प्रपद्ये--नमस्कार करता हूँ।
हे भगवन्, ब्रह्म के आप के निर्गुण प्राकट्य में सदैव दो विरोधी तत्त्व रहते हैं--ज्ञान तथाअविद्या।
आपकी विविध शक्तियाँ निरन्तर प्रकट होती हैं, किन्तु निर्गुण ब्रह्म, जो अविभाज्य,आदि, अपरिवर्तित, असीम तथा आनन्दमय है, भौतिक जगत का कारण है।
चूँकि आप वहीनिर्गुण ब्रह्म हैं, अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।
"
सत्याशिषो हि भगवंस्तव पादपदा-माशीस्तथानुभजत:ः पुरुषार्थमूत्ते: ।
अप्येवमर्य भगवान्परिपाति दीनान्वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोस्मान् ॥
१७॥
सत्य--वास्तविक; आशिष:--अन्य आशीर्वादों ( बरों ) की तुलना में; हि--निश्चय ही; भगवन्--हे भगवन्; तब--तुम्हारा;पाद-पदाम्--चरणकमल; आशी: --वर; तथा--उस प्रकार से; अनुभजत:ः--भक्तों के लिए; पुरुष-अर्थ--जीवन के वास्तविकलक्ष्य का; मूर्ति:--साक्षात्: अपि--यद्यपि; एवम्--इस प्रकार; अर्य-हे श्रेष्ठ; भगवान्-- श्री भगवान्; परिपाति--पालन करताहै; दीनान्ू--दीनों का; वाश्रा--गाय; इब--के समान; वत्सकम्--बछड़े को; अनुग्रह--कृपा करने के लिए; कातर:--उत्सुक;अस्मान्ू--मुझ पर
हे भगवन्, हे परमेश्वर, आप सभी वरों के परम साक्षात् रूप हैं, अतः जो बिना किसीकामना के आपकी भक्ति पर दृढ़ रहता है, उसके लिए राजा बनने तथा राज करने की अपेक्षाआपके चरण-कमलों की रज श्रेयस्कर है।
आपके चरणकमल की पूजा का यही वरदान है।
आप अपनी अहैतुकी कृपा से मुझ जैसे अज्ञानी भक्त के लिए पूर्ण परिपालक हैं, जिस प्रकारगाय अपने नवजात बछड़े को दूध पिलाती है और हमले से उसकी रक्षा करके उसकी देखभालकरती है।
"
मैत्रेय उवाचअथाभिष्ठृत एवं बै सत्सड्डूल्पेन धीमता ।
भृत्यानुरक्तो भगवान्प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥
१८॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; अथ--तब; अभिष्ठटृतः --पूजा किये जाने पर; एवम्--इस प्रकार; बै--निश्चय ही; सत्-सड्जूल्पेन--ध्रुव महाराज द्वारा, जिनके हृदय में उत्तम आकाक्षाएँ थीं; धी-मता--अत्यधिक बुद्धिमान होने से; भृत्य-अनुरक्त:--भक्त के प्रति अनुकूल; भगवान्-- भगवान् ने; प्रतिनन्द्य--उसको बधाई देकर; इृदम्--यह; अब्नवीत्--कहा |
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, जब सद्ठिचारों से पूर्ण अन्तःकरण वाले श्रुव महाराज नेअपनी प्रार्थना समाप्त की तो अपने भक्तों तथा दासों पर अत्यन्त दयालु भगवान् ने उन्हें बधाई दी और इस प्रकार कहा।
"
श्रीभगवानुवाचवेदाहं ते व्यवसितं हदि राजन्यबालक ।
तत्प्रयच्छामि भद्गं ते दुरापमपि सुत्रत ॥
१९॥
श्री-भगवान् उबाच-- श्रीभगवान् ने कहा; वेद-- जानता हूँ; अहम्--मैं; ते--तुम्हारा; व्यवसितम्--हृढ संकल्प; हदि--हृदय केभीतर; राजन्य-बालक-हे राजा के पुत्र; तत्--वह; प्रयच्छामि--तुम्हें दूँगा; भद्रमू--समस्त कल्याण; ते-- तुमको; दुरापमू--यद्यपि प्राप्त करना कठिन है, दुर्लभ; अपि--तो भी; सु-ब्रत--जिसने पवित्र व्रत धारण कर रखा है।
भगवान् ने कहा : हे राजपुत्र ध्रुव, तुमने पवित्र व्रतों का पालन किया है और मैं तुम्हारीआन्तरिक इच्छा भी जानता हूँ।
यद्यपि तुम अत्यन्त महत्वाकांक्षी हो और तुम्हारी इच्छा को पूराकर पाना कठिन है, तो भी मैं उसे पूरा करूँगा।
तुम्हारा कल्याण हो।
"
नान्यैरथिष्ठितं भद्र यद्भ्राजिष्णु ध्रुवक्षितियत्र ग्रहर्क्षताराणां ज्योतिषां चक्रमाहितम् ।
मेढ्यां गोचक्रवत्स्थास्नु परस्तात्कल्पवासिनाम् ॥
२०॥
धर्मोडग्नि: कश्यप: शुक्रो मुनयो ये वनौकस: ।
चरन्ति दक्षिणीकृत्य भ्रमन्तो यत्सतारका: ॥
२१॥
न--नहीं; अन्यैः --अन्यों के द्वारा; अधिष्ठितम्ू--शासित; भद्ग--मेंरे अच्छे बालक; यत्--जो; भ्राजिष्णु--देदीप्यमान; श्रुव-क्षिति-- शुवलोक नामक स्थान; यत्र--जहाँ; ग्रह--ग्रह; ऋक्ष--तारापुंज; ताराणाम्ू--तथा तारे; ज्योतिषाम्--नक्षत्रों से;चक्रमू--चक्कर; आहितम्--किया जाता है; मेढ्याम्--केन्द्रीय दण्ड के चारों ओर; गो--बैलों का; चक्र--झुंड; वत्--सदश;स्थास्नु--स्थिर; परस्तातू--परे; कल्प--ब्रह्म का एक दिन ( कल्प ); वासिनामू--रहेन वालों का; धर्म:--धर्म; अग्नि: --अग्नि; कश्यप:--कश्यप; शुक्र :--शुक्र; मुन॒य:ः -- मुनिगण; ये--जो सभी; वन-ओकस: --जंगल में रहकर; चरन्ति--चलतेहैं; दक्षिणी-कृत्य--अपनी दायीं ओर करके; भ्रमन्तः--प्रदक्षिणा लगाते हुए; यत्--जो ग्रह; सतारकाः:--समस्त तारों सहित |
भगवान् ने आगे कहा : हे श्वुव, मैं तुम्हें ध्रुव नामक देदीप्यमान ग्रह प्रदान करूँगा जोकल्पान्त में प्रलय के बाद भी अस्तित्व में रहेगा।
अभी तक उस ग्रह में किसी ने राज्य नहीं कियाहै; तथा वह समस्त सौर मण्डल, ग्रहों तथा नक्षत्रों से घिरा हुआ है।
आकाश में सभी ज्योतिष्कइसी ग्रह की प्रदक्षिणा करते हैं, जिस प्रकार कि अनाज को कूटने के लिए सारे बैल एककेन्द्रीय लट्टे के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।
धर्म, अग्नि, कश्यप तथा शुक्र जैसे ऋषियों द्वाराबसाये गये सभी तारे श्रुवतारे को अपनी दाईं ओर रखकर उसकी परिक्रमा करते हैं, जो अन्यों केविनष्ट हो जाने पर भी इसी प्रकार बना रहता है।
"
प्रस्थिते तु बन पित्रा दत्त्वा गां धर्मसंश्रयः ।
घदटिंत्रशद्वर्षसाहस्त्रं रक्षिताव्याहतेन्द्रिय:ः ॥
२२॥
प्रस्थिते--प्रस्थान के पश्चात्; तु--लेकिन; वनम्--जंगल को; पित्रा--तुम्हारे पिता द्वारा; दत्त्वा--देकर; गाम्--सम्पूर्ण जगत;धर्म-संभ्रयः--धर्मपूर्वक; षट्-त्रिंशत्--छत्तीस; वर्ष--वर्ष, साल; साहस्त्रमू--एक हजार; रक्षिता--राज्य करोगे; अव्याहत--बिना नाश के; इन्द्रियः--इन्द्रियों की शक्ति |
जब तुम्हारे पिता तुम्हें अपने राज्य का शासन देकर जंगल के लिए प्रस्थान करेंगे तो तुमलगातार छत्तीस हजार वर्षो तक सारे संसार पर राज्य करोगे और तुम्हारी सारी इन्द्रियाँ उतनी हीशक्तिशाली बनी रहेंगी जितनी कि वे आज हैं।
तुम कभी वृद्ध नहीं होगे।
"
त्वद्नातर्युत्तमे नष्टे मृगयायां तु तन््मना: ।
अन्वेषन्ती वनं माता दावागिनि सा प्रवेक्ष्यति ॥
२३॥
त्वत्-तुम्हारा; भ्रातरि-- भ्राता; उत्तमे--उत्तम; नष्टे--मारे जाने पर; मृगयायाम्--शिकार में; तु--तब; ततू-मना:--अत्यन्तशोकाकुल; अन्वेषन्ती--ढूँढते हुए; वनम्ू--जंगल में; माता--माता; दाव-अग्निमू--जंगल की अग्नि में; सा--वह;प्रवेक्ष्यति--प्रवेश करेगी
भगवान् ने आगे कहा : निकट भविष्य में तुम्हारा भाई उत्तम जंगल में शिकार करने जाएगाऔर जब वह शिकार में मग्न रहेगा तो मार डाला जाएगा।
तुम्हारी विमाता सुरुचि अपने पुत्र कीमृत्यु से पागल होकर उसकी खोज करने जंगल में जाएगी, किन्तु वहाँ वह दावाग्नि में मारीजाएगी।
"
इष्टा मां यज्ञहदयं यज्जैः पुष्कलद॒क्षिणै: ।
भुक्त्वा चेहाशिष: सत्या अन्ते मां संस्मरिष्यसि ॥
२४॥
इश्ला--पूजा करके; माम्--मुझको; यज्ञ-हदयम्--समस्त यज्ञों का हृदय; यज्जैः--महान् यज्ञों से; पुष्कल-दक्षिणै: -- प्रभूत दानवितरित करके; भुक्त्वा-- भोग करने के पश्चात्; च--भी; इह--इस संसार में; आशिष:--आशीर्वाद; सत्या:--सच, सही;अन्ते--अन्त में; माम्--मुझको; संस्मरिष्यसि--स्मरण करने में समर्थ होगे।
भगवान् ने आगे कहा : मैं समस्त यज्ञों का हृदय हूँ।
तुम अनेक बड़े-बड़े यज्ञ सम्पन्न करोगेऔर प्रचुर दान भी दोगे।
इस प्रकार तुम इस जीवन में भौतिक सुख के वरदान को भोग सकोगेऔर अपनी मृत्यु के समय तुम मेरा स्मरण कर सकोगे।
"
ततो गन्तासि मत्स्थानं सर्वलोकनमस्कृतम् ।
उपरिष्टादषिभ्यस्त्वं यतो नावर्तते गत: ॥
२५॥
ततः--तत्पश्चात्; गन्ता असि--तुम जाओगे; मत्-स्थानम्--मेरे धाम को; सर्व-लोक--समस्त लोकों द्वारा; नम:-कृतम्ू--वन्दनीय होकर; उपरिष्टात्ू--ऊपर स्थित; ऋषिभ्य:--ऋषियों के लोकों की अपेक्षा; त्वम्--तुम; यतः--जहाँ से; न--कभीनहीं; आवर्तते--वापस आओगे; गत:--वहाँ जा करके |
भगवान् ने आगे कहा : हे ध्रुव, इस देह में अपने भौतिक जीवन के पश्चात् तुम मेरे लोक कोजाओगे जो अन्य समस्त लोकों के वासियों द्वारा सदैव वंदनीय है।
यह सप्त-ऋषि के लोकों केऊपर स्थित है और वहाँ जाने के बाद तुम को इस भौतिक जगत में फिर कभी नहीं लौटनापड़ेगा।
"
मैत्रेय उवाचइत्यचितः स भगवानतिदिश्यात्मनः पदम् ।
बालस्य पश्यतो धाम स्वमगादगरुडध्वज: ॥
२६॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा; इति--इस प्रकार; अर्चितः --सम्मानित एवं पूजित होकर; सः--परमे श्वर; भगवान् --भगवान्; अतिदिश्य-- प्रदान करके; आत्मन:--अपना; पदम्--वासस्थान; बालस्य--जबकि बालक; पश्यतः --देख रहा था;धाम--उनके धाम को; स्वमू--अपनी, निजी; अगात्--वे लौट गये; गरुड-ध्वज: -- भगवान् विष्णु जिनकी ध्वजा में गरुड़ काचिह्न है।
मैत्रेय मुनि ने कहा : बालक श्रुव महाराज द्वारा पूजित तथा सम्मानित होकर और उन्हें अपनाधाम देकर भगवान् विष्णु गरुड़ की पीठ पर चढ़ कर श्लुव के देखते-देखते अपने धाम को चलेगये।
"
सोपि सड्डूल्पजं विष्णो: पादसेवोपसादितम् ।
प्राप्य सड्डूल्पनिर्वाणं नातिप्रीतो भ्यगात्पुरम् ॥
२७॥
सः--वह ( ध्रुव ); अपि--यद्यपि; सट्लूल्प-जम्--वांछित फल; विष्णो:--विष्णु का; पाद-सेवा--चरणकमल की सेवा करके;उपसादितम्-प्राप्त किया; प्राप्य--प्राप्त करके ; सड्डूल्प--अपने हढ़ निश्चय का; निर्वाणम्--संतुष्टि; न--नहीं; अतिप्रीत:--अत्यधिक प्रसन्न; अभ्यगात्--वापस गया; पुरमू--अपने घर को
भगवान् के चरण-कमलों की उपासना द्वारा अपने संकल्प का मनवांछित फल प्राप्त करकेभी श्रुव महाराज अत्यधिक प्रसन्न नहीं हुए।
तब वे अपने घर चले गए।
"
विदुर उबाचसुदुर्लभं यत्परमं पदं हरे-मायाविनस्तच्चरणार्चनार्जितम् ।
लब्ध्वाप्यसिद्धार्थमिवैकजन्मना कथं स्वमात्मानममन्यतार्थवित् ॥
२८ ॥
विदुर: उबाच--विदुर ने पूछा; सुदुर्लभम्--अत्यन्त दुर्लभ; यत्--जो; परमम्--परम; पदम्--पद, स्थान; हरेः-- भगवान् का;माया-विन:--अत्यन्त वत्सल; तत्--उसके; चरण---चरणकमल; अर्चन--पूजन के द्वारा; अर्जितम्--उपलब्ध; लब्ध्वा--प्राप्तकरके; अपि--यद्यपि; असिद्ध-अर्थम्--अपूर्ण; इब--मानो; एक-जन्मना--एक जीवन काल में; कथम्--क््यों; स्वम्--अपना; आत्मानम्--हृदय; अमन्यत-- अनुभव किया; अर्थ-वित्--अत्यन्त चतुर होने से |
श्री विदुर ने पूछा : हे ब्राह्मण, भगवान् का धाम प्राप्त करना बहुत कठिन है।
इसे केवलशुद्ध भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि अत्यन्त वत्सल तथा कृपालु भगवान् केवलउसी से प्रसन्न होते हैं।
ध्रुव महाराज ने इस पद को एक ही जीवन में प्राप्त कर लिया और वे थेभी बहुत बुद्धिमान और विवेकी।
तो फिर वे प्रसन्न क्यों न थे ?"
मैत्रेय उवाचमातुः सपत्या वाग्बाणैईदि विद्धस्तु तान्स्मरन् ।
नैच्छन्मुक्तिपतेर्मुक्ति तस्मात्तापमुपेयिवान् ॥
२९॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने उत्तर दिया; मातु:--अपनी माता की; स-पत्या:--सौत के; वाक्-बाणै:--कटु वचनों के तीरोंसे; हृदि--हृदय में; विद्ध:ः--धँसा हुआ; तु--तब; तानू--उन सबको; स्मरन्ू--स्मरण करते हुए; न--नहीं; ऐच्छत्--इच्छा की;मुक्ति-पतेः-- भगवान् से, जिनके चरणकमल मुक्ति प्रदाता हैं; मुक्तिम्ू--मोक्ष; तस्मात्ू--अत:; तापम्--शोक; उपेयिवानू--प्राप्त हुआ।
मैत्रेय ने उत्तर दिया : ध्रुव महाराज का हृदय, जो अपनी विमाता के कटु वचनों के बाणों सेबिद्ध हो चुका था, अत्यधिक संतप्त था; अतः जब उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारितकिया, तो वे उसके दुर्व्यवहार को नहीं भूल पाये थे।
उन्होंने इस भौतिक जगत से वास्तविक मोक्ष की माँग नहीं की, वरन् अपनी भक्ति के अन्त में, जब भगवान् उनके समक्ष प्रकट हुए तोवे अपनी उन भौतिक याचनाओं (माँगों) के लिए लज्जित थे, जो उनके मन में थीं।
"
श्रुव उवाचसमाधिना नैकभवेन यत्पदंविदुः सनन्दादय ऊर्ध्वरितसः ।
मासैरहं षड़्भिरमुष्य पादयो-इछायामुपेत्यापगतः पृथड्मति: ॥
३०॥
श्रुव: उबाच-- ध्रुव महाराज ने कहा; समाधिना--समाधि में योग अभ्यास द्वारा; न--कभी नहीं; एक-भवेन--एक जन्म से;यतू्--जो; पदम्ू--पद, स्थिति; विदु:--समझ गया; सनन्द-आदय: --सनन्दन इत्यादि चारों ब्रह्मचारी; ऊर्ध्व-रेतस:--अच्युतब्रह्मचारी; मासैः--महीनों में; अहम्--मैं; षड़िभः --छह; अमुष्य--उनके ; पादयो:--चरणकमलों का; छायामू--आश्रय,शरण; उपेत्य-- प्राप्त करके; अपगत:--गिर पड़ा; पृथक्-मतिः -- भगवान् के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं पर स्थित मेरा मन।
ध्रुव महाराज ने मन ही मन सोचा--भगवान् के चरणकमलों की छाया में स्थित रहने काप्रयतल करना कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि सनन््दन इत्यादि जैसे महान् ब्रह्मचारियों ने भी,जिन्होंने समाधि में अष्टांग योग की साधना की, अनेक जन्मों के बाद ही भगवान् के चरणारविन्दकी शरण प्राप्त की है।
मैंने तो छह महीनों में ही वही फल प्राप्त कर लिया है, तो भी मैं भगवान्से भिन्न प्रकार से सोचने के कारण मैं अपने पद से नीचे गिर गया हूँ।
"
अहो बत ममानात्म्य॑ मन्दभाग्यस्य पश्यत ।
भवच्छिद: पादमूलं गत्वा याचे यदन्तवत् ॥
३१॥
अहो--अहो; बत--हाय; मम--मेरा; अनात्म्यम्ू--देहात्म बोध; मन्द-भाग्यस्य--अभागे का; पश्यत--जरा देखो तो; भव--भौतिक अस्तित्व; छिदः--छिन्न कर सकने वाले भगवान् के; पाद-मूलमू--चरणकमल के; गत्वा--पास जाकर; याचे-- मैंनेयाचना की; यत्--वह जो; अन्त-वत्--नाशवान
ओह! जरा देखो तो; मैं कितना अभागा हूँ! मैं उन भगवान् के चरणकमलों से पास पहुँचगया जो जन्म-मरण के चक्र की श्रृंखला को तुरन्त काट सकते हैं, किन्तु फिर भी अपनी मूर्खताके कारण, मैने ऐसी वस्तुओं की याचना की, जो नाशवान् हैं।
"
मतिर्विदूषिता देवै: पतद्धिरसहिष्णुभि: ।
यो नारदवच्स्तथ्यं नाग्राहिषमसत्तम: ॥
३२॥
मतिः--बुद्धि; विदूषिता--दूषित, कल्मष- ग्रस्त; देवै:--देवताओं द्वारा; पतद्धि:--गिरनेवाले के द्वारा; असहिष्णुभि: --असहनशील द्वारा; यः--मैं जो; नारद--नारद मुनि के; वच:ः--उपदेशों का; तथ्यम्--सत्य; न--नहीं; अग्राहिषम्--स्वीकारकिया; असतू-तमः--सर्वाधिक दुष्ट
चूँकि सभी देवताओं को, जो उच्च लोकों में स्थित हैं, फिर से नीचे आना होगा, अतः वेसभी भक्ति द्वारा मेरे विष्णुलोक को प्राप्त करने के प्रति ईर्ष्यालु हैं।
इन असहिष्णु देवताओं नेमेरी बुद्धि नष्ट कर दी है और यही एकमात्र कारण है, जिससे मैं नारदमुनि के उपदेशों केआशीर्वाद को स्वीकार नहीं कर सका!" दैवीं मायामुपाश्रित्य प्रसुप्त इव भिन्नहक् ।
तप्ये द्वितीयेउप्यसति भ्रातृभ्रातृव्यहद्रुजा ॥
३३॥
दैवीम्-- भगवान् की; मायाम्--माया; उपाश्रित्य--शरण ग्रहण करके; प्रसुप्तः:--निद्रा में स्वप्न देखता; इब--सहश्य; भिन्न-हक्--विलग दृष्टि वाला; तप्ये--मैंने पश्चात्ताप किया; द्वितीये--माया में; अपि---यद्यपि; असति--क्षणिक; भ्रातृ- भाई;भ्रातृव्य--शत्रु; हत्ू--हृदय के भीतर; रुजा--पक्षात्ताप से।
ध्रुव महाराज पश्चात्ताप करने लगे कि मैं माया के वश में था; वास्तविकता से अपरिचितहोने के कारण मैं उसकी गोद में सोया था।
द्वैत दृष्टि के कारण मैं अपने भाई को शत्रु समझतारहा और झूठे ही यह सोचकर मन ही मन पश्चात्ताप करता रहा कि वे मेरे शत्रु हैं।
"
मयैतत्ार्थितं व्यर्थ चिकित्सेव गतायुषिप्रसाद्य जगदात्मानं तपसा दुष्प्रसादनम् ।
भवच्छिदमयाचेहं भवं भाग्यविवर्जित: ॥
३४॥
मया--मेरे द्वारा; एतत्--यह; प्रार्थितम्--के लिए प्रार्थना किया गया; व्यर्थम्--वृथा ही; चिकित्सा--उपचार; इब--सहश;गत--समाप्त; आयुषि--उसके लिए जिसकी आयु; प्रसाद्य--तुष्ट करके ; जगत्-आत्मानम्--ब्रह्मण्ड की आत्मा; तपसा--तपस्या से; दुष्प्रसादनम्--जिसे प्रसन्न कर पाना कठिन है; भव-छिदम्-- भगवान् जो जन्म तथा मृत्यु की श्रृंखला को काटने मेंसमर्थ हैं; अयाचे--याचना की; अहम्--मैंने; भवम्--जन्म तथा मृत्यु की आवृत्ति; भाग्य--भाग्य; विवर्जित: --रहित, हीन
भगवान् को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु मैंने तो समस्त ब्रह्माण्ड के परमात्माको प्रसन्न करके भी अपने लिए व्यर्थ की वस्तुएँ माँगी हैं।
मेरे कार्य ठीक वैसे ही हैं जैसे पहले सेकिसी मृत व्यक्ति का उपचार करना।
जरा देखो तो मैं कितना अभागा हूँ कि जन्म तथा मृत्यु कीश्रृंखला को काटने में समर्थ परमेश्वर से साक्षात्कार कर लेने पर भी मैंने फिर उन्हीं दशाओं के लिए पुनः प्रार्थना की है!" स्वाराज्यं यच्छतो मौढ्यान्मानो मे भिक्षितो बत ।
ईश्वरात्क्षीणपुण्येन फलीकारानिवाधन: ॥
३५॥
स्वाराज्यम्--उनकी भक्ति; यच्छत:--भगवान् से, जो देने के लिए इच्छुक थे; मौढ्यात्--मूर्खता से; मान:--सम्पन्नता; मे--मेरेद्वारा; भिक्षित:--याचित; बत--ओह; ईश्वरात्-महान् सम्राट से; क्षीण--घटा हुआ; पुण्येन--जिसके पवित्र कर्म; फली-कारानू--चावल के टूटन, कना; इब--सहश; अधनः--निर्धन मनुष्य |
पूरी तरह अपनी मूर्खता और पुण्यकर्मो की न््यूनता के कारण ही मैंने भौतिक नाम, यशतथा सम्पन्नता चाही यद्यपि भगवान् ने मुझे अपनी निजी सेवा प्रदान की थी।
मेरी स्थिति तो उसनिर्धन व्यक्ति की-सी है, जिस बेचारे ने महान् सप्राट के प्रसन्न होने पर मुँहमाँगी वस्तु माँगने केलिए कहे जाने पर अज्ञानवश चावल के कुछ कने ही माँगे।
"
सतण उजायन वै मुकुन्दस्य पदारविन्दयोरजोजुषस्तात भवाहशा जना: ।
वाञ्छन्ति तद्दास्यमृतेर्थमात्मनोयहच्छया लब्धमन:समृचब्द्यः ॥
३६॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; न--कभी नहीं; बै--निश्चय ही; मुकुन्दस्य-- भगवान् का, जो मुक्ति देनेवाले हैं; पद-अरविन्दयो:--चरणकमलों का; रज:-जुष:--जो लोग धूल का स्वाद लेने के लिए इच्छुक हैं; तात--हे विदुर; भवाहशा: --आपके तुल्य; जना: --व्यक्ति; वाउ्छन्ति--कामना करते हैं; तत्--उसका; दास्यमू--दासता; ऋते--बिना; अर्थम्--स्वार्थ;आत्मन:--अपने लिए; यह्च्छया-- स्वतः; लब्ध--जितना प्राप्त हो उसी से; मनः-समृद्धयः--अपने आपको धनी समझते हुए
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, आप जैसे व्यक्ति, जो मुकुन्द ( मुक्तिप्रदाता भगवान् )के चरणकमलों के विशुद्ध भक्त हैं और उनके चरणकमलों में भौंरों के सहश्य आसक्त रहते हैं,सदैव भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने में ही प्रसन्न रहते हैं।
ऐसे पुरुष, जीवन की किसीभी परिस्थिति में संतुष्ट रहते हैं और भगवान् से कभी भी किसी भौतिक सम्पन्नता की याचनानहीं करते।
"
आकर्णयत्मजमायान्तं सम्परेत्य यथागतम् ।
राजा न श्रद्दधे भद्रमभद्ग॒स्य कुतो मम ॥
३७॥
आकर्णरय--सुनकर; आत्म-जम्--अपना पुत्र; आयान्तम्--आते हुए; सम्परेत्य--मरने के बाद; यथा--जिस प्रकार; आगतम्--वापस आया हुआ; राजा--राजा उत्तानपाद; न--नहीं; श्रदधधे--विश्वास हुआ; भद्गरमू--कल्याण; अभद्रस्थ--अशुभ का;कुतः--कहाँ से; मम--मेरा |
जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उसका पुत्र ध्रुव घर वापस आ रहा है, मानो मृत्यु के पश्चात्पुनर्जीवित हो रहा हो, तो उसे इस समाचार पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उसे सन्देह था कि यहहो कैसे सकता है।
उसने अपने को अत्यन्त अभागा समझ लिया था, अतः उसने सोचा कि ऐसासौभाग्य उसे कहाँ नसीब हो सकता है ?"
श्रद्धाय वाक्यं देवरषेईर्षवेगेन धर्षित: ।
वार्ताहर्तुरतिप्रीतो हारं प्रादान्महाधनम् ॥
३८ ॥
श्रद्धाय-- श्रद्धा रखकर; वाक्यम्--वचनों में; देवर्षे: --नारद मुनि के; हर्ष-वेगेन--परम संतोष से; धर्षित:--भावविभोरहोकर; वार्ता-हर्तु:--समाचार लानेवाले से; अतिप्रीत:-- अत्यन्त प्रसन्न होकर; हारमू--मोती की माला; प्रादात्ू--प्रदान किया;महा-धनम्-- अत्यन्त मूल्यवान।
यद्यपि उसे सन्देशवाहक की बातों पर विश्वास नहीं हुआ, किन्तु महर्षि नारद के वचन परउसकी सम्पूर्ण श्रद्धा थी।
अत: वह इस समाचार से अत्यन्त भावविहलल हो उठा और हर्षातिरेक मेंझट उसने संदेशवाहक को एक बहुमूल्य हार भेंट कर दिया।
"
सदश्च॑ं रथमारुह्म कार्तस्वरपरिष्कृतम् ।
ब्राह्मणै: कुलवृद्धैश्व पर्यस्तोमात्यबन्धुभि: ॥
३९॥
शद्डुदुन्दुभिनादेन ब्रह्मघोषेण वेणुभि: ।
निश्चक्राम पुरात्तूर्णमात्मजाभीक्षणोत्सुक: ॥
४०॥
सत्-अश्वम्--सुन्दर घोड़ों द्वारा खींचा जानेवाला; रथम्--रथ पर; आरुह्म--चढ़ कर; कार्तस्वर-परिष्कृतम्--सुवर्णजटित;ब्राह्मणैः--ब्राह्मणों के साथ; कुल-वृद्धैः--परिवार के बूढ़े लोगों के साथ; च--भी; पर्यस्त:--घिरकर; अमात्य--अधिकारियोंतथा मंत्रियों द्वारा; बन्धुभि: --तथा मित्रों से; शद्भ--शंख; दुन्दुभि--तथा दुन्दुभी की; नादेन--ध्वनि से; ब्रहय-घोषेण--वैदिकमंत्रों के उच्चारण से; वेणुभि:--वंशी से; निश्चक्राम--बाहर आया; पुरातू--नगर से; तूर्णम्--शीघ्रता से; आत्म-ज--पुत्र को;अभीक्षण--देखने के लिए; उत्सुक: --अत्यन्त इच्छुक |
अपने खोये हुए पुत्र के मुख को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक राजा उत्तानपाद उत्तम घोड़ोंसे खींचे जानेवाले तथा स्वर्णजटित रथ पर आरूढ़ हुआ।
वह अपने साथ अनेक दिद्वान् ब्राह्मण,परिवार के गुरुजन, अपने अधिकारी तथा मंत्री और अपने सगे मित्रों को लेकर तुरन्त नगर सेबाहर चला गया।
जब वह इस दल के साथ आगे बढ़ रहा था, तो शंख, दुन्दुभी, वंशी तथा वेद-मंत्रों के उच्चारण की मंगलसूचक ध्वनि हो रही थी।
"
सुनीतिः सुरुचिश्वास्य महिष्यौ रुक्मभूषिते ।
आरुह्म शिबिकां सार्धमुत्तमेनाभिजग्मतु: ॥
४१॥
सुनीति:ः--सुनीति; सुरुचि: --सुरुचि; च-- भी; अस्य--राजा की; महिष्यौ--रानियाँ; रुक्म-भूषिते--स्वर्ण आभूषणों सेविभूषित; आरुह्म --चढ़कर; शिवबिकाम्--पालकी में; सार्धम्--के साथ साथ; उत्तमेन--राजा का अन्य पुत्र; अभिजम्मतु:--सभी साथ-साथ गये।
उस स्वागत-यत्रा में राजा उत्तानपाद की दोनों रानियाँ, सुनीति तथा सुरुचि और राजा कादूसरा पुत्र उत्तम दिख रहे थे।
रानियाँ पालकी में बैठी थीं।
"
त॑ दृष्टोपवनाभ्याश आयान्तं तरसा रथात् ।
अवसुद्य नृपस्तूर्णमासाद्य प्रेमविह्ल: ॥
४२॥
परिरेभेडड्गजं दोर्भ्या दीर्घोत्कण्ठमना: श्वसन् ।
विष्वक्सेनाड्प्रिसंस्पर्शहताशेषाघबन्धनम् ॥
४३ ॥
तम्--उसको ( ध्रुव महाराज को ); हृष्ला--देखकर; उपवन--छोटा जंगल; अभ्याशे--निकट; आयान्तम्--लौटते हुए; तरसा--तेजी से; रथात्--रथ से; अवरुह्म--उतर कर; नृप:--राजा; तूर्णम्--तुरन््त; आसाद्य--निकट आकर; प्रेम--प्रेम से; विहल: --विभोर; परिरेभे--आलिंगन किया; अड्ड-जम्--अपने पुत्र को; दोर्भ्याम्ू--अपनी बाँहों से; दीर्घ--दीर्घ समय तक; उत्कण्ठ--उत्सुक; मनाः:--जिसका मन, राजा; श्रसन्--तेजी से साँस लेता; विष्वक्सेन-- भगवान् के; अद्धप्रि--चरणकमल से; संस्पर्श--स्पर्श किया जाकर; हत--नष्ट; अशेष-- अनन्त; अघध-- भौतिक कल्मष; बन्धनम्--जिसका बन्धन।
ध्रुव महाराज को एक उपवन के निकट पहुँचा देखकर राजा उत्तानपाद तुरन्त अपने रथ सेनीचे उतर आये।
वे अपने पुत्र श्रुव को देखने के लिए दीर्घकाल से अत्यन्त उत्सुक थे, अतः वेअत्यन्त प्रेमवश दीर्घकाल से खोये अपने पुत्र का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़े।
लम्बी-लम्बी साँसें भरते हुए राजा ने उनको अपने दोनों बाहुओं में भर लिया।
किन्तु ध्रुव महाराज पहलेजैसे न थे; वे भगवान् के चरणकमलों के स्पर्श से आध्यात्मिक उन्नति मिलने से पूर्ण रूप सेपवित्र हो चुके थे।
"
अथाजिपष्रन्मुहर्मूर्थिन शीतैर्नयनवारिभि: ।
स्नापयामास तनयं जातोद्मममनोरथ: ॥
४४॥
अथ--त्पश्चात्; आजिप्रन्--सूँघते हुए; मुहुः--बारम्बार; मूर्धिन--सिर पर; शीतैः--ठंडे; नयन--नेत्रों के; वारिभि:--जल से;स्नापयाम् आस--नहला दिया; तनयम्--पुत्र को; जात--पूर्ण; उद्यम--बड़ी; मनः-रथ: --उसकी कामना
श्रुव महाराज के मिलन से राजा उत्तानपाद की चिर-अभिलषित साध पूरी हुई, अतः उन्होंनेबारम्बार ध्रुव का सिर सूँघा और अपने ठंडे अश्रुओं की धाराओं से उन्हें नहला दिया।
"
अभिवन्द्य पितु: पादावाशीर्भिश्चाभिमन्त्रित: ।
ननाम मातरौ शीर्ष्णा सत्कृतः सज्जनाग्रणी: ॥
४५॥
अभिवन्द्य-पूजा करके; पितु:--अपने पिता के; पादौ--चरणों को; आशीर्मि: --आशीर्वादों से; च--तथा; अभिमन्त्रित:--सम्बोधित; ननाम--झुकाया; मातरौ--दोनों माताओं को; शीर्ष्णा--अपने सिर से; सत्-कृतः--आदर किया गया; सत्-जन--सज्ननों के; अग्रणी: --सर्व श्रेष्ठ |
तब समस्त सजनों में सर्वश्रेष्ठ श्ुव महाराज ने सर्वप्रथम अपने पिता के चरणों में प्रणामकिया और उनके पिता ने अनेक प्रश्न पूछते हुए उनका सम्मान किया।
तब उन्होंने अपनी दोनोंमाताओं के चरणों पर अपना सिर झुकाया।
"
सुरुचिस्तं समुत्थाप्य पादावनतमर्भकम् ।
परिष्वज्याह जीवेति बाष्पगद्गदया गिरा ॥
४६॥
सुरुचि:--सुरुचि; तम्--उस; समुत्थाप्य--उठाकर; पाद-अवनतम्--अपने चरणों पर नत; अर्भकम्--नादान बालक को;परिष्वज्य--आलिंगन करके; आह--कहा; जीव--दीर्घायु हो; इति--इस प्रकार; बाष्प--आँसुओं से; गदगदया--रुद्ध;गिरा--वाणी से
ध्रुव महाराज की छोटी माता सुरुचि ने यह देखकर कि निर्दोष बालक उसके चरणों पर नतहै, उसे तुरन्त उठा लिया, अपनी बाँहों में भर लिया और अश्रुपूर्ण गदगद वाणी से आशीर्वाददिया कि मेरे बालक, चिरज्जीवी हो।
"
यस्य प्रसन्नो भगवान्गुणैमैत्रयादिभिहरि: ।
तस्मै नमन्ति भूतानि निम्नमाप इव स्वयम् ॥
४७॥
यस्य--जिस किसी से; प्रसन्न:--प्रसन्न होता है; भगवान्-- भगवान्; गुणैः--गुणों से; मैत्री-आदिभि: --मित्रता इत्यादि से;हरिः-- भगवान् हरि; तस्मै-- उसको; नमन्ति-- नमस्कार करते हैं; भूतानि--समस्त जीवात्माएँ; निम्ममू--नीचे की ओर;आपः--जल; इब--जिस प्रकार; स्वयम्ू--स्वतः
जिस प्रकार स्वभावगत रूप से जल स्वत: नीचे की ओर बहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान्के साथ मैत्रीपूर्ण आचरण के कारण दिव्य गुणों वाले व्यक्ति को सभी जीवात्माएँ मस्तकझुकाती हैं।
"
उत्तमश्न श्रुवश्चोभावन्योन्यं प्रेमविह्नलौ ।
अड्भसड्जादुत्पुलकावस््रौघं मुहुरूहतु: ॥
४८ ॥
उत्तम: च--उत्तम भी; ध्रुवः च--ध्रुव भी; उभौ--दोनों ; अन्योन्यम्--परस्पर; प्रेम-विह्लौ--प्रेम से अभिभूत होकर; अड्र-सझ़त्--अंग-स्पर्श के आलिंगन से; उत्पुलकौ--रोमांच हो आया; असख्त्र--अश्रुओं की; ओघम्-- धारा; मुहुः --बारम्बार;ऊहतु:--आदान-प्रदान किया।
उत्तम तथा श्रुव महाराज दोनों भाइयों ने परस्पर अश्रुओं का आदान-प्रदान किया।
वे स्नेहकी अनुभूति से विभोर हो उठे और जब उन्होंने एक दूसरे का आलिंगन किया, तो उन्हें रोमांच होआया।
"
सुनीतिरस्य जननी प्राणेभ्योपि प्रियं सुतम् ।
उपगुह्ा जहावाधि तदड़स्पर्शनिर्वृता ॥
४९॥
सुनीति:--सुनीति, श्रुव की असली माता; अस्य--उसकी; जननी--माता; प्राणेभ्य:--प्राणवायु से बढ़कर; अपि-- भी;प्रियम्-प्रिय; सुतम्-पुत्र को; उपगुह्म --गले लगा कर; जहौ--त्याग दिया; आधिम्--सारा शोक; ततू-अड्ग--उसका शरीर;स्पर्श--छूकर; निर्वृता--सन्तुष्ट |
ध्रुव महाराज की असली माता सुनीति ने अपने पुत्र के कोमल शरीर को गले लगा लिया,क्योंकि वह उसे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारा था।
इस प्रकार वह सारा भौतिक शोक भूलगई, क्योंकि वह परम प्रसन्न थी।
"
पयः स्तनाभ्यां सुस्त्राव नेत्रजे: सलिलै: शिवैः ।
तदाभिषिच्यमानाभ्यां वीर वीरसुवो मुहु: ॥
५०॥
'पयः--दूध; स्तनाभ्याम्--दोनों स्तनों से; सुस्राव--बहने लगा; नेत्र-जैः--नेत्रों से; सलिलैः--अश्रुओं के द्वारा; शिवैः:--शुभ;तदा--उस समय; अभिषिच्यमानाभ्याम्-- भीग कर; वीर--हे विदुर; वीर-सुब:ः--वीर को जन्म देनेवाली माता का; मुहुः--लगातारहे विदुर, सुनीति एक वीर की माता थी।
उसके अश्रुओं ने उसके स्तनों से बहनेवाले दूध कीधारा के साथ मिलकर श्लुव महाराज के सार शरीर को भिगो दिया।
यह परम मांगलिक लक्षणथा।
"
तां शशंसुर्जना राज्ञीं दिष्टद्या ते पुत्र आर्तिहा ।
प्रतिलब्धश्िरं नष्टो रक्षिता मण्डलं भुवः ॥
५१॥
तामू--सुनीति को; शशंसु:-- प्रशंसा की; जना:--सामान्य लोग; राज्ञीमू--रानी को; दिछ्ठदय्या-- भाग्य से; ते--तुम्हारा; पुत्र:--पुत्र; आर्ति-हा--तुम्हारे समस्त कष्टों को नष्ट कर देगा; प्रतिलब्ध:--अब लौटा हुआ; चिरम्--दीर्घकाल से; नष्ट:--नष्ट;रक्षिता--रक्षा करेगा; मण्डलम्--मंडल, भू-गोलक; भुवः-- भूमि को |
राज महल के निवासियों ने रानी की इस प्रकार से प्रशंसा की : हे रानी, दीर्घकाल सेआपका प्रिय पुत्र खोया हुआ था।
यह आपका परम सौभाग्य है कि वह अब वापस आ गया है।
अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वह दीर्घकाल तक आपकी रक्षा करेगा और आपके सारे सांसारिककष्टों को दूर कर देगा।
"
अभ्यर्चितस्त्वया नूनं भगवान्प्रणतार्तिहा ।
यदनुध्यायिनो धीरा मृत्युं जिग्यु: सुदुर्जयम् ॥
५२॥
अभ्यर्चित:--पूजित; त्वया--तुम्हारे द्वारा; नूममू--फिर भी; भगवान्-- भगवान्; प्रणत-आर्ति-हा--जो अपने भक्तों को संकटसे उबार सके; यत्--जिसको; अनुध्यायिन:--निरन्तर ध्यान धरते हुए; धीरा:--परम साधु पुरुष; मृत्युमू--मृत्यु को; जिग्यु:--जीत लिया; सुदुर्जयम्--जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है|
हे रानी, आपने अवश्य ही उन भगवान् की पूजा की होगी, जो भक्तों को बड़े संकट सेउबारनेवाले हैं।
जो मनुष्य निरन्तर उनका ध्यान करते हैं, वे जन्म तथा मृत्यु की प्रक्रिया से आगेनिकल जाते हैं।
यह सिद्धि प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है।
"
लाल्यमानं जनैरेवं ध्रुवं सभ्रातरं नृप: ।
आरोप्य करिणीं हृष्ट: स्तूयमानोविशत्पुरम् ॥
५३॥
लाल्यमानम्--प्रशंसित; जनैः --जनता द्वारा; एवम्--इस प्रकार; ध्रुवम्--महाराज श्रुव को; स-भ्रातरम्--अपने भाई के साथ;नृप:--राजा; आरोप्य--चढ़ाकर; करिणीम्--हथिनी की पीठ पर; हृष्ट: --प्रसन्न; स्तूयमान:--तथा प्रशंसित होकर; अविशतू --वापस आया; पुरम्--अपनी राजधानी को
मैत्रेय मुनि ने आगे बताया : हे विदुर, सभी लोग जब इस प्रकार से श्रुव महाराज की बड़ाईकर रहे थे तो राजा अत्यन्त प्रसन्न था।
उसने श्रुव तथा उनके भाई को एक हथिनी की पीठ परसवार कराया।
इस प्रकार वह अपनी राजधानी लौट आया, जहाँ सभी वर्ग के लोगों ने उसकीप्रशंसा की।
"
तत्र तत्रोपसड्डिप्तैलंसन्मकरतोरणै: ।
सवृन्दे: कदलीस्तम्भे: पूगपोतैश्व तद्विधिः ॥
५४॥
तत्र तत्र--जहाँ तहाँ; उपसड्डिप्तैः--बनाये गये; लसत्--चमकीले; मकर--मगर के आकार के; तोरणैः--मेहराबदार दरवाजोंसे; स-वृन्दै:--फूलों तथा फलों के गुच्छों से; कदली--केले के वृक्षों के; स्तम्भेः--ख भों से; पूग-पोतैः--सुपारी के नये पौधोंसे; च-- भी; तत्ू-विधै:--उस प्रकार का।
सारा नगर केले के स्तम्भों से सजाया गया था, जिनमें फूलों तथा फलों के गुच्छे लटक रहेथे और जहाँ-तहाँ पत्तियों तथा टहनियों से युक्त सुपारी के वृक्ष दिख रहे थे।
ऐसे अनेक तोरण भी बनाये गये थे, जो मगर के आकार के थे।
"
चूतपल्लववास:स्त्रड्मुक्तादामविलम्बिभि: ।
उपस्कृतं प्रतिद्वारमपां कुम्भेः सदीपकै: ॥
५५॥
चूत-पल्ललव--आम की पत्तियों से; वास:--वस्त्र; स्रक्ू--फूल की मालाएँ; मुक्ता-दाम--मोती की लड़ें; विलम्बिभि:--'लटकती हुई; उपस्कृतम्--सुसज्जित; प्रति-द्वारम्--प्रत्येक द्वार पर; अपाम्--जल से पूर्ण; कुम्भैः--जलपात्रों से; स-दीपकै: --जलते हुए दीपों से |
द्वार-द्वार पर जलते हुए दीपक और तरह-तरह के रंगीन वस्त्र, मोती की लड़ों, पुष्पहारों तथालटकती आम की पत्तियों से सज्जित बड़े-बड़े जल के कलश रखे हुए थे।
"
प्राकारैगोंपुरागारै: शातकुम्भपरिच्छदै: ।
सर्वतोलड्डू तं श्रीमद्विमानशिखरद्युभि: ॥
५६॥
प्राकारैः--परकोटों से; गोपुर--नगर-द्वारों; आगारैः--घरों से; शातकुम्भ--सुनहले; परिच्छदैः:--अलंकृत काम से, कारीगरीसे; सर्वतः--चारों ओर; अलड्डू तम्--सजाया हुआ; श्रीमत्--बहुमूल्य, सुन्दर; विमान--विमान; शिखर--चोटी, कँगूरे;झुभिः--चमकते हुए।
राजधानी में अनेक महल, नगर-द्वार तथा परकोटे थे, जो पहले से ही अत्यन्त सुन्दर थे,किन्तु इस अवसर पर उन्हें सुनहले आभूषणों से सजाया गया था।
नगर के महलों के कंँगूरे तोचमक ही रहे थे साथ ही नगर के ऊपर मँडराने वाले सुन्दर विमानों के शिखर भी।
"
मृष्टचत्वररथ्याइमार्ग चन्दनचर्चितम् ।
लाजाक्षतै: पुष्पफलैस्तण्डुलैबलिभियुतम् ॥
५७॥
मृष्ट--पूरी तरह स्वच्छ; चत्वर--चौक; रथ्या--मार्ग; अट्ट--चौपालें, अटारियाँ; मार्गमू--गलियाँ; चन्दन--चन्दन से;चर्चितम्-छिड़की हुई; लाज--लावा से; अक्षतैः--जौ से; पुष्प--फूलों से; फलैः:--तथा फलों से; तण्डुलैः-- धान से;बलिभि:--उपहार-सामग्रियों से; युतम्--युक्त नगर की
सभी चौकें, गलियाँ, मार्ग तथा चौराहों की अटारियाँ अच्छी तरह स्वच्छ करकेचन्दन जल से छिड़की गई थीं और सारे नगर में धान तथा जौ जैसे शुभ अन्न, फूल, फल तथाअन्य अनेक शुभ उपहार-सामग्रियाँ बिखेरी हुई थीं।
"
ध्रुवाय पथि दृष्टाय तत्र तत्र पुरस्त्रियः ।
सिद्धार्थक्षतद्यम्बुदूर्वापुष्पफलानि च ॥
५८ ॥
उपजहुः प्रयुज्ञाना वात्सल्यादाशिष: सतीः ।
श्रृण्वंस्तद्वल्गुगीतानि प्राविशद्धवनं पितु: ॥
५९॥
ध्रुवाय-- ध्रुव पर; पथि--मार्ग पर; दृष्टाय--देखी हुई; तत्र तत्र--जहाँ-तहाँ; पुर-स्त्रियः--घरों की महिलाएँ; सिद्धार्थ--सफेदसरसों; अक्षत--जौ; दधि--दही; अम्बु--जल; दूर्वा--दूब; पुष्प--फूल; फलानि--फल; च-- भी; उपजह्ु:--वर्षा की;प्रयुज्ञाना:--उच्चारण करते हुए; वात्सल्यात्ू--वासल्यभाव से; आशिष:--आशीर्वाद; सती:--भद्र महिलाएँ; श्रृण्वन्ू--सुनतेहुए; तत्ू--उनके; वल्गु--अत्यन्त मधुर; गीतानि--गीत; प्राविशत्--प्रविष्ट किया; भवनम्--महल; पितु:--पिता के |
इस प्रकार जब श्लुव महाराज मार्ग से जा रहे थे तो पास-पड़ोस की समस्त भद्र महिलाएँ उन्हेंदेखने के लिए एकत्र हो गईं, वे वात्सल्य-भाव से अपना-अपना आशीर्वाद देने लगीं और उन परसफेद सरसों, जौ, दही, जल, दूब, फल तथा फूल बरसाने लगीं।
इस प्रकार श्रुव महाराज स्त्रियोंद्वारा गाये गये मनोहर गीत सुनते हुए अपने पिता के महल में प्रविष्ट हुए।
"
महामणिव्रातमये स तस्मिन्भवनोत्तमे ।
लालितो नितरां पित्रा न्यवसद्दिवि देववत् ॥
६०॥
महा-मणि--मूल्यवान मणियों के; ब्रात--समूह; मये--से सज्जित; सः--वह ( ध्रुव ); तस्मिन्--उसमें; भवन-उत्तमे--चमकीलेभवन में; लालित:--लाड़-प्यार से; नितराम्ू--सदैव; पित्रा--पिता द्वारा; न््यवसत्--वहाँ निवास किया; दिवि--स्वर्ग में; देव-बत्--देवताओं के समान।
तत्पश्चात् श्रुव महाराज अपने पिता के महल में रहने लगे, जिसकी दीवालें अत्यन्त मूल्यवानमणियों से सज्जित थीं।
उनके वत्सल पिता ने उनकी विशेष देख-रेख की और वे उस महल मेंउसी तरह रहने लगे, जिस प्रकार देवतागण स्वर्गलोक में अपने प्रासादों में रहते हैं।
"
परयःफेननिभाः शब्या दान्ता रुक्मपरिच्छदा: ।
आसनानि महाहाणि यत्र रौक््मा उपस्करा: ॥
६१॥
'पयः--दूध; फेन-- फेना, झाग; निभा:--सहृश; शब्या:--बिस्तर; दान्ता:--हाथी-दाँत के बने; रुक्म--सुनहरे; परिच्छदा: --'कामदार; आसनानि---आसन; महा-अर्हाणि--अ त्यन्त मूल्यवान; यत्र--जहाँ; रौैक्मा: --सुनहले; उपस्करा:--सामान ।
महल में जो शयन-शय्या थी, वह दूध के फेन के समान श्वेत तथा अत्यन्त मुलायम थी।
उसके भीतर की पलंगें हाथी-दाँत की थीं, जिनमें सोने की कारीगरी थी और कुर्सियाँ, बेन्चेंतथा अन्य आसन एवं सामान सोने के बने हुए थे।
"
यत्र स्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
मणिप्रदीपा आभान्ति ललनारलसंयुता: ॥
६२॥
यत्र--जहाँ; स्फटिक--संगमरमर की; कुड्य्ेषु--दीवारों पर; महा-मारकतेषु--मरकतमणि जैसी बहुमूल्य मणियों से सज्जित;च--भी; मणि-प्रदीपा:--मणियों के दीपक; आभान्ति--प्रकाश कर रहे थे; ललना--स्त्री -मूर्ति; रतत--मणियों से निर्मित;संयुता:--पर रखी |
राजा का महल संगमरमर की दीवालों से घिरा था, जिन पर बहुमूल्य मरकत मणियों सेपच्चीकारी की गई थी और जिन पर हाथ में प्रदीप्त मणिदीपक लिए सुन्दर स्त्रियों जैसी मूर्तियाँलगी थीं।
"
उद्यानानि च रम्याणि विचित्रैरमरद्रुमै: ।
कूजद्विहड्रमिथुनेर्गायन्मत्तमधुव्रते: ॥
६३॥
उद्यानानि--बगीचे; च-- भी; रम्याणि-- अत्यन्त सुन्दर; विचित्रै:--विविध; अमर-द्रुमै:--स्वर्ग से लाये गये वृक्षों से; कूजत्--गाते हुए; विहड़--पक्षियों के; मिथुनैः--जोड़ों से; गायत्--गुंजार करते; मत्त--पागल, उन्मत्त; मधु-ब्रतैः--भौरों से ।
राजा के महल के चारों ओर बगीचे थे, जिनमें उच्चस्थ लोकों से लाये गये अनेक प्रकार केवृक्ष थे।
इन वृक्षों पर मधुर गीत गाते पक्षियों के जोड़े तथा गुंजार करते मदमत्त भौरे थे।
"
वाप्यो बैदूर्यसोपाना: पद्मोत्पलकुमुद्दती: ।
हंसकारण्डवकुलैर्जुष्टा श्रक्राहसारसे: ॥
६४॥
वाप्य:--बावड़ियाँ; वैदूर्य--वैदूर्य ( पुखराज ); सोपाना:--सीढ़ियों से; पद्य--कमल; उत्पल--नील कमल; कुमुत्-बती:--कुमुदिनियों से पूर्ण; हंस--हंस पक्षी; कारण्डब--तथा बत्तखें; कुलैः--के झुंडों से; जुष्टाः--निवसित; चक्राह्न-- चक्रवाक से;सारसैः--तथा सारसों से |
बावड़ियों में पुखराज की सीढ़ियाँ थीं।
इन बाबड़ियाँ में विविध रंग के कमल तथा कुमुदिनियाँ, हंस, कारण्डव, चक्रवाक, सारस तथा अन्य महत्त्वपूर्ण पक्षी दिखाई पड़ रहे थे।
"
उत्तानपादो राजर्षि: प्रभावं तनयस्य तम् ।
श्रुत्वा इष्ठाद्भुततमं प्रपेदे विस्मयं परम् ॥
६५॥
उत्तानपाद:--राजा उत्तानपाद; राज-ऋषि:--साधु प्रकृति का महान् राजा; प्रभावम्--प्रभाव; तनयस्य--अपने पुत्र का; तम्--उसे; श्रुत्वा--सुनकर; हृष्टा--देखकर; अद्भुत--आश्चर्यमय; तमम्--अधिकतम; प्रपेदे--सुखपूर्वक अनुभव किया;विस्मयम्--विस्मय; परमू--परम |
राजर्षि उत्तानपाद ने ध्रुव महाराज के यशस्वी कार्यों के विषय में सुना और स्वयं भी देखाकि वे कितने प्रभावशाली और महान् थे, इससे वे अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि श्रुव महाराज केकार्य अत्यन्त विस्मयकारी थे।
"
वीक्ष्योढवयसं तं च प्रकृतीनां च सम्मतम् ।
अनुरक्तप्रजं राजा श्लुवं चक्रे भुवः पतिम् ॥
६६॥
वीक्ष्य--देखकर; ऊढ-वयसम्--प्रौढ़ अवस्था; तम्-- ध्रुव को; च--तथा; प्रकृतीनाम्--मंत्रियों द्वारा; च-- भी; सम्मतम्--अनुमोदित; अनुरक्त-प्रिय; प्रजमू-- अपनी प्रजा द्वारा; राजा--राजा; ध्रुवम्-- ध्रुव महाराज को; चक्रे--बना दिया; भुव:ः--पृथ्वी का; पतिम्ू--स्वामी ( राजा )
तत्पचश्चात् जब राजा उत्तानपाद ने विचार करके देखा कि श्रुव महाराज राज्य का भारसँभालने के लिए समुचित प्रौढ़ ( वयस्क ) हो चुके हैं और उनके मंत्री भी सहमत हैं तथा प्रजाको भी वे प्रिय हैं, तो उन्होंने शुव को इस लोक के सम्राट के रूप में सिंहासन पर बिठा दिया।
"
आत्मानं च प्रवयसमाकलय्य विशाम्पतिः ।
बन विरक्त: प्रातिष्ठद्विमृशन्नात्मनो गतिम् ॥
६७॥
आत्मानम्--स्वयं; च-- भी; प्रववसम्--वृद्धावस्था; आकलय्य--समझ कर; विशाम्पति: --राजा उत्तानपाद ने; वनमू--वनको; विरक्त:--विरक्त; प्रातिष्ठत्--प्रयाण किया; विमृशन्--चिन्तन करते; आत्मन: --अपनी, आत्म की; गतिम्--मुक्ति।
अपनी वृद्धावस्था और आत्म-कल्याण पर विचार करके, राजा उत्तानपाद ने अपने आपकोसांसारिक कार्यो से विरक्त कर लिया और जंगल में चले गये।
"
अध्याय दस: ध्रुव महाराज की यक्षों के साथ लड़ाई
4.10मैत्रेय उवाचप्रजापतेर्दुहितरं शिशुमारस्य वै ध्रुव: ।
उपयेमे भ्रमिं नामतत्सुतौ कल्पवत्सरी ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; प्रजापतेः -- प्रजापति की; दुहितरम्--पुत्री; शिशुमारस्थ--शिशुमार की; बै--निश्चय ही;श्रुव:-- ध्रुव महाराज; उपयेमे--ब्याह किया; भ्रमिम्ू-- भ्रमि; नाम--नामक; ततू-सुतौ--उसके दो पुत्र; कल्प--कल्प;वत्सरौ--तथा वत्सर |
मैत्रेय ऋषि ने कहा : हे विदुर, तत्पश्चात् ध्रुव महाराज ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री के साथविवाह कर लिया जिसका नाम भ्रमि था।
उसके कल्प तथा वत्सर नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।
"
इलायामपि भार्यायां वायो: पुत्रयां महाबलः ।
पुत्रमुत्कलनामानं योषिद्रत्ममजीजनत् ॥
२॥
इलायाम्--अपनी पली इला को; अपि--भी; भार्यायाम्--अपनी पत्नी को; वायो:--वायुदेव की; पुत्रयाम्--पुत्री को; महा-बलः:--शक्तिशाली श्लुव महाराज; पुत्रम्-पुत्र; उत्तल--उत्कल; नामानम्--नाम के; योषित्--स्त्री; रलम्--रल ( श्रेष्ठ );अजीजनतू--त्पन्न किया।
अत्यन्त शक्तिशाली श्रुव महाराज की एक दूसरी पत्नी थी, जिसका नाम इला था और वहवायुदेव की पुत्री थी।
उससे उन्हें एक अत्यन्त सुन्दर कन्या तथा उत्कल नाम का एक पुत्र उत्पन्नहुआ।
"
उत्तमस्त्वकृतोद्दाहो मृगयायां बलीयसा ।
हतः पुण्यजनेनाद्रौ तन्मातास्य गतिं गता ॥
३॥
उत्तम: --उत्तम; तु--लेकिन; अकृत--बिना; उद्बाह:--ब्याह; मृगयायाम्ू--आखेट करने में; बलीयसा--अत्यन्त बलशाली;हतः--मारा गया; पुण्य-जनेन--एक यक्ष द्वारा; अद्रौ--हिमालय पर्वत पर; तत्ू--उसकी; माता--माता ( सुरुचि ); अस्य--अपने पुत्र को; गतिमू--पथ; गता--अनुसरण किया।
श्रुव महाराज का छोटा भाई उत्तम, जो अभी तक अनब्याहा था, एक बार आखेट करनेगया और हिमालय पर्वत में एक शक्तिशाली यक्ष द्वारा मार डाला गया।
उसकी माता सुरुचि नेभी अपने पुत्र के पथ का अनुसरण किया ( अर्थात् मर गई )।
"
श्रुवो भ्रातृवर्ध॑ श्रुत्वा कोपामर्षशुचार्पित: ।
जैत्र स्वन्दनमास्थाय गत: पुण्यजनालयम् ॥
४॥
ध्रुव:--श्रुव महाराज; भ्रातृ-वधम्--अपने भाई की मृत्यु का; श्रुत्वा--समाचार सुनकर; कोप--क्रोध; अमर्ष--प्रतिशोध;शुचा--विलाप से; अर्पित:--पूरित होकर; जैत्रमू--विजयी; स्यन्दमम्--रथ पर; आस्थाय--चढ़ कर; गतः--गया; पुण्य-जन-आलयमू--यक्षों की पुरी में |
जब श्लुव महाराज ने यक्षों द्वारा हिमालय पर्वत में अपने भाई उत्तम के वध का समाचार सुनातो वे शोक तथा क्रोध से अभिभूत हो गये।
वे रथ पर सवार हुए और यक्षों की पुरी अलकापुरीपर विजय करने के लिए निकल पड़े।
"
गत्वोदीचीं दिशं राजा रुद्रानुचरसेविताम् ।
ददर्श हिमवददरोण्यां पुरीं गुह्ाकसड्डू लाम् ॥
५॥
गत्वा--जाकर; उदीचीम्--उत्तरी; दिशम्--दिशा; राजा--राजा श्लुव ने; रुद्र-अनुचर--रुद्र अर्थात् शिव के अनुयायियों द्वारा;सेविताम्--बसी हुई; ददर्श--देखा; हिमवत्--हिमालय की; द्रोण्यामू--घाटी में; पुरीम्--नगरी; गुह्मक--प्रेत लोगों से;सद्जु लामू-पूर्श्रुव महाराज हिमालय प्रखण्ड की उत्तरी दिशा की ओर गये।
उन्होंने एक घाटी में एक नगरीदेखी जो शिव के अनुचर भूत-प्रेतों से भरी पड़ी थी।
"
दध्मौ शट्डुं बृहद्वाहु: खं दिशश्चानुनादयन् ।
येनोद्विग्नहश: क्षत्तरुपदेव्योउत्रसन्भूशम् ॥
६॥
दध ्मौ--बजाया; शद्बुम्--शंख; बृहत्-बाहु:--शक्तिशाली भुजाओं वाला; खम्-- आकाश; दिश: च--तथा सभी दिशाएँ;अनुनादयन्--गूँजते हुए; येन--जिससे; उद्विग्ग-दहश:ः--अत्यन्त चिन्तित दिखों; क्षत्त:--हे विदुर; उपदेव्य:--यक्षों की पत्नियाँ;अत्रसन्-- भयभीत हो गईं; भूशम्--अत्यधिक |
मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, जैसे ही ध्रुव महाराज अलकापुरी पहुँचे, उन्होंने तुरन्त अपनाशंख बजाया जिसकी ध्वनि सम्पूर्ण आकाश तथा प्रत्येक दिशा में गूँजने लगी।
यक्षों की पत्नियाँअत्यन्त भयभीत हो उठीं।
उनके नेत्रों से प्रकट हो रहा था कि वे चिन्ता से परिपूर्ण थीं।
"
ततो निष्क्रम्य बलिन उपदेवमहाभटा: ।
असहन्तस्तन्निनादमभिपेतुरूदायुधा: ॥
७॥
ततः--तत्पश्चात्; निष्क्रम्य--बाहर आकर; बलिन:--अत्यन्त बलशाली; उपदेव--कुवेर के; महा-भटा:--बड़े बड़े सैनिक;असहन्तः--असहनीय; तत्--शंख की; निनादम्ू--ध्वनि; अभिपेतु: --आक्रमण किया; उदायुधा:--विभिन्न आयुधों सेसज्जित।
हे वीर विदुर, ध्रुव महाराज के शंख की गूँजती ध्वनि को सहन न कर सकने के कारण यक्षोंके महा-शक्तिशाली सैनिक अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर अपनी नगरी से बाहर निकल आये और उन्होंने ध्रुव पर धावा बोल दिया।
"
स तानापततो वीर उग्रधन्वा महारथः ।
एकैकं युगपत्सर्वानहन्बाणैस्त्रिभिस्त्रिभि: ॥
८॥
सः--वह ( श्रुव महाराज ); तानू--उन सबों को; आपततः--अपने ऊपर टूटते हुए; वीर: --वीर; उग्र-धन्वा--शक्तिशालीधनुर्धर; महा-रथ:--जो अनेक रथों से लड़ सके; एक-एकम्--एक-एक करके; युगपत्--एकसाथ, एक समय; सर्वानू--उनसबों को; अहनू--मार डाला; बाणैः--बाणों से; त्रिभि: त्रिभिः--तीन तीन करके ।
ध्रुव महाराज, जो महारथी तथा निश्चय ही महान् धनुर्धर भी थे, तुरन्त ही एकसाथ तीन-तीनबाण छोड़ करके उन्हें मारने लगे।
"
ते वै ललाटलग्नैस्तैरिषुभि: सर्व एव हि ।
मत्वा निरस्तमात्मानमाशंसन्कर्म तस्य तत् ॥
९॥
ते--वे; वै--निश्चय ही; ललाट-लग्नै:--उनके सिरों से सट कर; तैः--उनके द्वारा; इषुभि:ः--बाण; सर्वे--सभी; एव--निश्चयही; हि--निस्सन्देह; मत्वा--सोचकर; निरस्तमू--पराजित; आत्मानमू--अपने आप; आशंसन्--प्रशंसित; कर्म--कर्म; तस्य--उसका; तत्--वह |
जब यक्ष वीरों ने देखा कि उनके शिरों पर श्रुव महाराज द्वारा बाण-वर्षा की जा रही है, तोउन्हें अपनी विषम स्थिति का पता चला और उन्होंने यह समझ लिया कि उनकी हार निश्चित है।
किन्तु वीर होने के नाते उन्होंने ध्रुव के कार्य की सराहना की।
"
तेडपि चामुममृष्यन्त: पादस्पर्शमिवोरगा: ।
शरैरविध्यन्युगपद्द्वगुणं प्रचिकीर्षव: ॥
१०॥
ते--यक्षगण; अपि-- भी; च--तथा; अमुमू-- ध्रुव पर; अमृष्यन्त:--असह्य होने पर; पाद-स्पर्शम्--पाँव से छुये जाकर; इब--सहश; उरगा:--सर्प; शरैः--बाणों से; अविध्यन्-- प्रहार किया जाकर; युगपत्--उसी समय; द्वि-गुणम्--दो गुना;प्रचिकीर्षव:--प्रतिशोध की भावना से
जिस प्रकार सर्प किसी के पाँव द्वारा कुचले जाने को सहन नहीं कर पाते, उसी प्रकार यक्षभी श्रुव महाराज के आश्चर्यजनक पराक्रम को न सह सकने के कारण, उन पर एक साथ उनसेदुगुने बाण--अर्थात् प्रत्येक सैनिक छह-छह बाण--छोड़ने लगे और इस प्रकार उन्होंने अपनीशूरवीरता का बड़ी बहादुरी से प्रदर्शन किया।
"
ततः परिघनिस्त्रिशैः प्रासशूलपरश्चथै: ।
शत्त्यूष्टिभिर्भुशुण्डीभिश्चित्रवाजैः शरैरपि ॥
११॥
अभ्यवर्षन्प्रकुपिता: सरथं सहसारथिम् ।
इच्छन्तस्तत्प्रतीकर्तुमयुतानां त्रयोदश ॥
१२॥
ततः--तपश्चात्; परिघ--लोहे के गदे; निरित्रिशै:ः--तथा तलवारों से; प्रास-शूल--त्रिशूल से; परश्चधैः --तथा बरछों से;शक्ति--तथा शक्ति से; ऋष्टिभि:--तथा भालों से; भुशुण्डीभि:--भुशुण्डी आयुध से; चित्र-वाजै:--विविध प्रकार के पंखोंवाले; शरैः--वाणों से; अपि-- भी; अभ्यवर्षन्-- श्रुव पर वर्षा की; प्रकुपिता:--अत्यन्त क्रुद्ध; स-रथम्--उनके रथ समेत;सह-सारथिम्--उनके रथवान सहित; इच्छन्त:--चाहते हुए; ततू--श्लुव के कार्य; प्रतीकर्तुमु--बदला लेने के लिए;अयुतानाम्--दस हजारों का; त्रयोदश--तेरह
यक्ष सैनिकों की संख्या एक लाख तीस हजार थी वे सभी अत्यन्त क्रुद्ध थे और श्रुवमहाराज के आश्चर्यजनक कार्यो को विफल करने की इच्छा लिए थे।
उन्होंने पूरी शक्ति सेमहाराज श्रुव तथा उनके रथ तथा सारथी पर विभिन्न प्रकार के पंखदार बाणों, परिघों, निम्त्रिशों( तलवारों ), प्रासशूलों ( त्रिशूलों ), परश्चधों (बरछों ), शक्तियों, ऋष्टियों ( भालों ) तथाभूशुण्डियों से वर्षा की।
"
औत्तानपादि: स तदा शस्त्रवर्षण भूरिणा ।
न एवाहश्यताच्छन्न आसारेण यथा गिरिः ॥
१३॥
औत्तानपादि: -- ध्रुव महाराज; सः--वह; तदा--उस समय; शस्त्र-वर्षण --शस्त्रों की वर्षा से; भूरिणा--निरन्तर; न--नहीं;एव--निश्चय ही; अहृश्यत--दिखाई पड़ता था; आच्छन्न:--ढका हुआ; आसारेण--निरन्तर वर्षा से; यथा--जिस प्रकार;गिरिः--पर्वत
ध्रुव महाराज आयुधों की निरन्तर वर्षा से पूरी तरह ढक गये मानो निरन्तर जल-दवृष्टि से कोईपर्वत ढक गया हो।
"
हाहाकारस्तदैवासीत्सिद्धानां दिवि पश्यताम् ।
हतोयं मानवः सूर्यो मग्नः पुण्यजनार्णवे ॥
१४॥
हाहा-कार:--हाहाकार शब्द, निराशा की ध्वनि; तदा--उस समय; एव--निश्चय ही; आसीत्--प्रकट था; सिद्धानाम्ू--सिद्धलोक के समस्त वासियों का; दिवि--आकाश में; पश्यताम्--युद्ध को देखते हुए; हतः--मारा गया; अयम्--यह;मानव:--मनु के पौत्र का; सूर्य:--सूर्य; मग्न:--डूबा हुआ; पुण्य-जन--यक्षों के; अर्णवे --समुद्र में |
स्वर्गलोकवासी सभी सिद्धजन आकाश से युद्ध देख रहे थे और जब उन्होंने देखा कि श्लुवमहाराज शत्रु की निरन्तर बाण-वर्षा से ढक गये हैं, तो वे हाहाकार करने लगे, 'मनु के पौत्रध्रुव हार गये, हार गये।
वे चिल्ला रहे थे कि ध्रुव महाराज तो सूर्य के समान हैं और इस समयवे यक्षों के समुद्र में डूब गए हैं।
"
नदत्सु यातुधानेषु जयकाशिष्वथो मृधे ।
उदतिष्ठद्रथस्तस्य नीहारादिव भास्कर: ॥
१५॥
नदत्सु--निनाद करते अथवा गरजते हुए; यातुधानेषु--प्रेत रूप यक्ष; जय-काशिषु--विजय घोष करते हुए; अथो--तब;मृधे--युद्ध में; उदतिष्ठत्--प्रकट हुआ; रथ:--रथ; तस्य-- ध्रुव महाराज का; नीहारात्ू--कुहरे; इब--सहश; भास्कर: --सूर्य |
क्षणिक विजय जैसी स्थिति देखकर यक्षों ने घोषित कर दिया कि उन्होंने ध्रुव महाराज परविजय प्राप्त कर ली है।
किन्तु तभी श्रुव का रथ एकाएक प्रकट हुआ, जैसे कुहरे को भेदकरसूर्य सहसा प्रकट हो जाता है।
"
धनुर्विस्फूर्जयन्दिव्यं द्विषतां खेदमुद्दहन् ।
अस्त्रौघं व्यधमद्दाणैर्घधनानीकमिवानिल: ॥
१६॥
धनु:--उसका धनुष; विस्फूर्जयन्--टंकार, फूत्कार; दिव्यमू--आश्चर्यमय; द्विषताम्--शत्रुओं का; खेदम्--विषाद; उद्दहन् --उत्पन्न करते हुए; अस्त्र-ओघम्--विभिन्न प्रकार के हथियार; व्यधमत्--तितर-बितर कर दिया; बाणैः--बाणों से; घन--बादलों का; अनीकम्--दल; इब--सहृश; अनिल: --वायु
श्रुव महाराज के धनुष-बाण टंकार तथा फूत्कार करने लगे जिससे उनके शत्रुओं के हृदय मेंआ्रास उत्पन्न होने लगा।
वे निरन्तर बाण बरसाने लगे, जिससे सभी के विभिन्न हथियार वैसे हीतितर-बितर हो गये, जिस प्रकार प्रबल वायु से आकाश में एकत्र बादल बिखर जाते हैं।
"
तस्य ते चापनिर्मुक्ता भित्त्वा वर्माणि रक्षसाम् ।
कायानाविविशुस्तिग्मा गिरीनशनयो यथा ॥
१७॥
तस्य--श्रुव के; ते--वे बाण; चाप-- धनुष से; निर्मुक्ता:--छूटे हुए; भित्त्वा-- भेदकर; वर्माणि--कवचों को; रक्षसाम्--असुरों के; कायान्ू--शरीर में; आविविशु:--घुस गये; तिग्मा:-- प्रखर; गिरीन्-- पर्वत; अशनय:--वज्; यथा--जिस प्रकार |
श्रुव महाराज के धनुष से छूटे हुए प्रखर बाण शत्रुओं के कवचों तथा शरीरों में घुसने लगे,मानो स्वर्ग के राजा द्वारा छोड़ा गया वज्र हो, जो पर्वतों के शरीरों को छिन्न-भिन्न कर देता है।
"
भल्लै: सज्छिद्यमानानां शिरोभिश्चवारुकुण्डलै: ।
ऊरुभि्वेमतालाभेदोर्भिवलयवल्गुभि: ॥
१८॥
हारकेयूरमुकुटैरुष्णीषैश्व महाधनैः ।
आस्तृतास्ता रणभुवो रेजुर्वीरमनोहरा: ॥
१९॥
भल््लै:--बाणों से; सज्छिद्यमानानामू--खण्ड-खण्ड हुए यक्षों के; शिरोभि:--सिरों से; चारु--सुन्दर; कुण्डलैः--कान केकुण्डलों से; ऊरुभि:--जाँघों से; हेम-तालाभे:--सुनहले ताड़ वृक्षों के समान; दोर्भि:-- भुजाओं से; वलय-वल्गुभि:--सुन्दरकंकणों से; हार--हारों से; केयूर--बाजूबन्द; मुकुटैः--तथा मुकुटों; उष्णीषै:--पगड़ियों से; च-- भी; महा-धनैः--बहुमूल्य;आस्तृता:--आच्छादित; ता:--वे; रण-भुव:--रणभूमि; रेजु:--चमकने लगे; वीर--वीरों के; मनः-हरा:--मनों कोहरनेवाले।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, शुव महाराज के बाणों से जो सिर छिन्न-भिन्न हुए थे वेसुन्दर कुण्डलों तथा पागों से अच्छी तरह से अलंकृत थे।
उन शरीरों के पाँव सुनहरे ताड़ के वृक्षोंके समान सुन्दर थे; उनकी भुजाएं सुनहरे कंकणों तथा बाजूबन्दों से सुसज्जित थीं और उनकेसिरों पर बहुमूल्य सुनहरे मुकुट थे।
युद्ध भूमि में बिखरे हुए ये आभूषण अत्यन्त आकर्षक लगरहे थे और किसी भी वीर के मन को मोह सकते थे।
"
हतावशिष्टा इतरे रणाजिराद्रक्षोगणा: क्षत्रियवर्यसायकै: ।
प्रायो विवृक्णावयवा विदुद्गुव॒ु-मुंगेन्द्रविक्रोडितयूथपा इव ॥
२०॥
हत-अवशिष्टा:--मरने से बचे हुए; इतरे-- अन्य; रण-अजिरात्--युद्धभूमि से; रक्ष:-गणा:--यक्ष गण; क्षत्रिय-वर्य--द्षत्रियोंअथवा सैनिकों में श्रेष्ठ; सायकैः--बाणों से; प्रायः--प्राय:; विवृकण--खण्ड-खण्ड हुए; अवयवा:--शरीर के अंग;विदुद्गुवु:-- भग गये; मृगेन्द्र--सिंह द्वारा; विक्रीडित--हार कर; यूथपा: --हाथी; इब--सहृश |
जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बच गए, उनके अंग-प्रत्यंग परम वीर श्रुव महाराज के बाणोंसे कट कर खण्ड-खण्ड हो गये।
वे युद्ध-भूमि छोड़ कर उसी तरह भागने लगे जैसे कि सिंहद्वारा पराजित होने पर हाथी भागते हैं।
"
अपश्यमान: स तदाततायिनंमहामृथे कञ्जन मानवोत्तम: ।
पुरी दिदृक्षत्रपि नाविशद्द्वषांन मायिनां वेद चिकीर्षितं जन: ॥
२१॥
अपश्यमान:--न देखते हुए; सः-- ध्रुव; तदा--उस समय; आततायिनम्--सशस्त्र शत्रु सैनिक को; महा-मृथे--उस महायुद्ध में;कशञ्लनन--कोई; मानव-उत्तम:--नर- श्रेष्ठ; पुरीमू--पुरी, नगरी; दिहक्षन्ू--देखने की इच्छा से; अपि--यद्यपि; न आविशतू--प्रवेश नहीं किया; द्विषामू--शत्रुओं का; न--नहीं; मायिनाम्--मायावी का; वेद--जानता है; चिकीर्षितम्--योजनाएँ; जन:--कोई भी ।
मानवों में श्रेष्ठ श्रुव महाराज ने देखा कि उस विशाल युद्धभूमि में एक भी सशस्त्र शत्रुसैनिक शेष नहीं रहा।
तब उनकी इच्छा अलकापुरी देखने को हुई।
किन्तु उन्होंने मन में सोचा,'यक्षों की मायावी योजनाओं को कोई नहीं जानता।
"
'इति ब्रुवंश्चित्ररथ: स्वसारथियत्तः परेषां प्रतियोगशद्धितः ।
शुश्राव शब्दं जलधेरिवेरितंनभस्वतो दिक्षु रजोउन्वहृश्यत ॥
२२॥
इति--इस प्रकार; ब्रुवनू--बातें करते; चित्र-रथ:--थ्रुव महाराज, जिनका रथ अत्यन्त सुन्दर था; स्व-सारथिम्--अपने सारथीसे; यत्त:--सावधान; परेषाम्--अपने शत्रुओं से; प्रतियोग--जवाबी हमला; शद्धितः--सशंकित; शुभश्राव--सुना; शब्दम्--शब्द; जलधे: --समुद्र से; इब--मानो; ईरितम्--प्रतिध्वनित; नभस्वत:--वायु के कारण; दिश्षु--सभी दिशाओं में; रज:--धूल; अनु--तब; अदृश्यत--दिखाई पड़ी |
जब श्रुव महाराज अपने मायावी शत्रुओं से सशंकित होकर अपने सारथी से बातें कर रहे थे तो उन्हें प्रचण्ड ध्वनि सुनाई पड़ी, मानो सम्पूर्ण समुद्र उमड़ आया हो।
उन्होंने देखा कि आकाशसे उन पर चारों ओर से धूल भरी आँधी आ रही है।
"
क्षणेनाच्छादितं व्योम घनानीकेन सर्वतः ।
विस्फुरत्तडिता दिश्लु त्रासयत्स्तनयित्नुना ॥
२३॥
क्षणेन--एक क्षण में; आच्छादितम्--ढका हुआ; व्योम--आकाश; घन--घने बादलों का; अनीकेन--समूह से; सर्वतः--सभी दिशाओं में; विस्फुरत्--चमकती; तडिता--बिजली से; दिक्षु--सभी दिशाओं में; त्रासबत्-- भयभीत करता;स्तनयित्नुना-गर्जन से |
एक क्षण में सारा आकाश घने बादलों से छा गया और घोर गर्जन सुनाई पड़ने लगा।
बिजली चमकने लगी और भीषण वर्षा होने लगी।
"
ववृषू रुधिरौघासृक्पूयविण्मूत्रमेदस: ।
निपेतुर्गगनादस्य कबन्धान्यग्रतोइनघ ॥
२४॥
ववृषु:--वर्षा होने लगी; रुधिर--रक्त की; ओघ--बाढ़; असृक्--श्लेष्मा; पूय--पीब; विट्--विष्ठा; मूत्र--मूत्र; मेदस:--तथा मज्जा; निपेतु:--गिरने लगे; गगनात्ू--आकाश से; अस्य-- श्रुव के; कबन्धानि--धड़; अग्रत:--समक्ष; अनघ--हे निष्पापविदुर।
हे निष्पाप विदुर, उस वर्षा में श्रुव महाराज के समक्ष भारी मात्रा में रक्त, एलेष्मा (कफ ),पीब, मल, मूत्र तथा मजा और आकाश से शरीरों के धड़ ( रुंड ) गिर रहे थे।
"
ततः खेहृश्यत गिरिरनिपेतु: सर्वतोदिशम् ।
गदापरिघनिस्त्रिशमुसला: साश्मवर्षिण: ॥
२५॥
ततः--तत्पश्चात्: खे--आकाश में; अहश्यत--दिखाई पड़ा; गिरि:--पर्वत; निपेतु:--गिरा हुआ; सर्वतः-दिशम्--सभीदिशाओं से; गदा--गदा; परिघ--परिघ; निर्त्रिश--तलवारें; मुसला:--मूसल; स-अश्म--पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़ों की;वर्षिण:--वर्षा के साथ।
फिर आकाश में एक विशाल पर्वत दिखाई पड़ा और चारों ओर से बर्छे, गदा, तलवारें,परिघ तथा पत्थरों के विशाल खण्डों की वर्षा के साथ उपलवृष्टि होने लगी।
"
अहयोउडशनिनि: श्रासा वमन्तोउंगिंन रुषाक्षिभि: ।
अभ्यधावन्गजा मत्ताः सिंहव्याप्राश्न यूथश: ॥
२६॥
अहयः--साँप; अशनि--वज्; नि: श्रासा: -- साँस लेते हुए; वमनन््त:--वमन करते; अग्निमू--अग्नि; रुषा-अक्षिभि:--क्रोधितनेत्रों से; अभ्यधावन्--आगे आये; गजा:--हाथी; मत्ता: --उन्मत्त; सिंह--शेर; व्याप्रा:--बाघ; च-- भी; यूथश: -- समूह केसमूह
श्रुव महाराज ने देखा कि रोषपूर्ण आँखों वाले बहुत से सर्प अग्नि उगलते हुए उनको निगलनेके लिए आगे लपक रहे हैं।
साथ ही मत्त हाथियों, सिंहों तथा बाघों के समूह भी चले आ रहे हैं।
"
समुद्र ऊर्मिभिर्भीम: प्लावयन्सर्वतों भुवम् ।
आससाद महाह्वादः कल्पान्त इब भीषण: ॥
२७॥
समुद्र: --समुद्र; ऊर्मिभि: --लहरों से; भीम:--भयानक; प्लावयन्--डुबाता हुआ; सर्वतः--सभी दिशाओं से; भुवम्--पृथ्वीको; आससाद--आगे आ रहा था; महा-हादः--भीषण शोर करता; कल्प-अन्ते--कल्प के अन्त में ( प्रलय ); इब--सहश;भीषण: -- भयावना ।
फिर, समस्त जगत के लिए प्रलय-काल के समान भयानक समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों तथाभीषण गर्जना के साथ उनके समक्ष आ पहुँचा।
"
एवंविधान्यनेकानि त्रासनान्यमनस्विनाम् ।
ससृजुस्तिग्मगतय आसुर्या माययासुरा: ॥
२८॥
एवमू-विधानि--इस प्रकार के ( कौतुक ); अनेकानि--बहुत से; त्रासनानि-- डरावने; अमनस्विनाम्--अल्पज्ञों के लिए;ससूजु:--उत्पन्न किया; तिग्म-गतय: --क्रूर स्वभाव वाले; आसुर्या--आसुरी; मायया--माया से; असुरा:--असुर गण ।
असुर-यक्ष स्वभाव से अत्यन्त क्रूर होते हैं और अपनी आसुरी माया से वे अल्पज्ञानियों कोडराने वाले अनेक कौतुक कर सकते थे।
"
ध्रुवे प्रयुक्तामसुरैस्तां मायामतिदुस्तराम् ।
निशम्य तस्य मुनयः शमाशंसन्समागता: ॥
२९॥
ध्रुवे-- धुव के विरुद्ध; प्रयुक्ताम्--प्रयुक्त; असुरैः--असुरों द्वारा; तामू--उस; मायाम्--मायावी शक्ति; अति-दुस्तराम्-- अत्यन्तभयावनी; निशम्य--सुनकर; तस्य--उसका; मुनयः--बड़े-बड़े मुनि; शम्--कल्याण; आशंसन्ू--प्रोत्साहित करते हुए;समागता:--एकत्र हो गये।
जब मुनियों ने सुना कि ध्रुव महाराज असुरों के मायावी करतबों से पराजित हो गये हैं, तो वेउनकी मंगल-कामना के लिए तुरन्त वहाँ एकत्र हो गये।
"
मुनय ऊचुःऔत्तानपाद भगवांस्तव शार्ड्रधन्वादेव: क्षिणोत्ववनतार्तिहरो विपक्षान् ।
यन्नामधेयमभिधाय निशम्य चाद्धालोकोजझ्जञसा तरति दुस्तरमड़ मृत्युम् ॥
३०॥
मुनयः ऊचुः--मुनियों ने कहा; औत्तानपाद--हे उत्तानपाद के पुत्र; भगवान्-- भगवान्; तब--तुम्हारा; शार्ड-धन्वा --शार्डनामक धनुष को धारण करनेवाला; देव: --देव, भगवान; क्षिणोतु--वध कर दे; अवनत--शरणागतों के; आर्ति--क्लेश;हरः--हरनेवाला; विपक्षान्ू--विपक्षियों, शत्रुओं; यत्--जिसका; नामधेयम्--पवित्र नाम; अभिधाय-- लेकर; निशम्य--सुनकर; च--भी; अद्धघा--शीघ्र ही; लोक:--लोग; अज्ञसा-- पूर्णतः; तरति--पार करते हैं; दुस्तरम्--दुर्लध्य; अड्ड-हे ध्रुव;मृत्युमू--मृत्यु कोसभी
मुनियों ने कहा : हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव, अपने भक्तों के क्लेशों को हरनेवालेशार्ड्धन्वा भगवान् आपके भयानक शत्रुओं का संहार करें।
भगवान् का पवित्र नाम भगवान् केही समान शक्तिमान है, अतः भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन तथा श्रवण-मात्र से अनेक लोगभयानक मृत्यु से रक्षा पा सकते हैं।
इस प्रकार भक्त बच जाता है।
"
अध्याय ग्यारह: स्वायंभुव मनु ने ध्रुव महाराज को युद्ध बंद करने की सलाह दी
4.11मैत्रेय उबाचनिशम्य गदतामेवमृषीणां धनुषि श्रुवः ।
सन्दधेस्त्रमुपस्पृश्ययन्नारायणनिर्मितम् ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने आगे कहा; निशम्य--सुनकर; गदताम्--शब्द; एवम्--इस प्रकार; ऋषीणाम्--ऋषियों के;धनुषि--अपने धनुष पर; श्रुव:ः-- ध्रुव महाराज ने; सन्दधे--सन्धान किया; अस्त्रमू--बाण; उपस्पृश्य--जल छूकर; यत्--जो;नारायण--नारायण द्वारा; निर्मितम्ू--बनाया गया।
श्री मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, जब श्रुव महाराज ने ऋषियों के प्रेरक शब्द सुने तो उन्होंने जललेकर आचमन किया और भगवान् नारायण द्वारा निर्मित बाण लेकर उसे अपने धनुष परचढ़ाया।
"
सन्धीयमान एतस्मिन्माया गुह्मकनिर्मिता: ।
क्षिप्रं विनेशुर्विदुर क्लेशा ज्ञानोदये यथा ॥
२॥
सन्धीयमाने-- धनुष पर रखते हुए; एतस्मिन्--इस नारायणास्त्र को; माया: --माया, मोह; गुह्मक-निर्मिता: --यक्षों द्वारा निर्मित;क्षिप्रमू--शीघ्र; विनेशु:--नष्ट हो गये; विदुर--हे विदुर; क्लेशा:--मोहजनित कष्ट तथा आनन्द; ज्ञान-उदये--ज्ञान के उदय होनेपर; यथा--जिस प्रकार।
ज्योंही श्रुव महाराज ने अपने धनुष पर नारायणास्त्र को चढ़ाया, त्योंही यक्षों द्वारा रची गईसारी माया उसी प्रकार तुरन्त दूर हो गई जिस प्रकार कि आत्मज्ञान होने पर समस्त भौतिक क्लेशतथा सुख विनष्ट हो जाते हैं।
"
तस्यार्षास्त्रं धनुषि प्रयुद्धतःसुवर्णपुद्जः कलहंसवासस: ।
विनिःसृता आविविशुद्धिषद्वलंयथा वन॑ भीमरवा: शिखण्डिन: ॥
३॥
तस्य--जब श्वुव ने; आर्ष-अस्त्रमू--नारायण ऋषि द्वारा प्रदत्त हथियार; धनुषि--अपने धनुष पर; प्रयुज्धत:--चढ़ाया; सुवर्ण-पुद्ठाः--सुनहले फलों वाले ( तीर ); कलहंस-वासस:--हंस के पंखों के समान; विनि:सृता:--निकल पड़े; आविविशु:--प्रविष्ट; द्विषत्-बलम्--शत्रु के सैनिक; यथा--जिस प्रकार; वनम्--वन में; भीम-रवा:-- भीषण शब्द करते; शिखण्डिन:--मोर
ध्रुव महाराज ने ज्योंही अपने धनुष पर नारायण ऋषि द्वारा निर्मित अस्त्र को चढ़ाया, उससेसुनहरे फलों तथा पंखोंवाले बाण हंस के पंखों के समान बाहर निकलने लगे।
वे फूत्कार करतेहुए शत्रु सैनिकों में उसी प्रकार घुसने लगे जिस प्रकार मोर केका ध्वनि करते हुए जंगल में प्रवेशकरते हैं।
"
तैस्तिग्मधारैः प्रधने शिलीमुखैर्इतस्तत: पुण्यजना उपद्गुता: ।
तमभ्यधावन्कुपिता उदायुधा:सुपर्णमुन्नद्धफणा इबाहयः ॥
४॥
तैः--उनके द्वारा; तिग्म-धारैः--पैनी धार वाले; प्रधने--युद्धभूमि में; शिली-मुखैः--बाण; इतः तत:--इधर-उधर; पुण्य-जना:--यक्षगण; उपद्गुता:--अत्यन्त क्षुब्ध होकर; तम्-- ध्रुव महाराज की ओर; अभ्यधावन्--दौड़े; कुपिता: -क्रुद्ध;उदायुधा: --हथियार उठाये; सुपर्णम्ू--गरुड़ की ओर; उन्नद्ध-फणा:--फन उठाये; इब--सहृश; अहयः--सर्प |
उन तीखी धारवाले बाणों ने शत्रु-सैनिकों को विचलित कर दिया, और वे प्रायः मूर्च्छित हो गये।
किन्तु ध्रुव महाराज से क्रुद्ध होकर यक्षगण युद्धक्षेत्र में किसी न किसी प्रकार अपने-अपनेहथियार लेकर एकत्र हो गये और उन्होंने आक्रमण कर दिया।
जिस प्रकार गरुड़ के छेड़ने परसर्प अपना-अपना फन उठाकर गरुड़ की ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार समस्त यक्ष सैनिक अपने-अपने हथियार उठाये ध्रुव महाराज को जीतने की तैयारी करने लगे।
"
स तान्पृषत्कैरभिधावतो मृथेनिकृत्तबाहूर॒शिरोधरोदरान् ।
निनाय लोकं परमर्कमण्डलंब्रजन्ति निर्भिद्य यमूध्वरितस: ॥
५॥
सः--वह ( ध्रुव ); तानू--समस्त यक्षों को; पृषत्कैः--अपने बाण से; अभिधावत:--आगे आते हुए; मृधे--युद्ध भूमि में;निकृत्त--विलग, छिन्न; बाहु-- भुजाएँ; ऊरु--जंघाएँ; शिर:-धर--गर्दन; उदरान्--तथा पेट; निनाय-- प्रदान किया;लोकम्--लोक को; परम्--परम; अर्क-मण्डलम्--सूर्य -मण्डल; ब्रजन्ति--जाते हैं; निर्भिद्य-- भेदते हुए; यम्--जिसको;ऊर्ध्व-रेतस:ः-- ऊध्वरिता ब्रह्मचारी, जो वीर्य स्खलित नहीं करते ।
जब श्रुव महाराज ने यक्षों को आगे बढ़ते देखा तो उन्होंने तुरन्त बाणों को चढ़ा लिया औरशत्रुओं को खण्ड-खण्ड कर डाला।
शरीरों से बाहु, पाँव, सिर तथा उदर अलग-अलग करकेउन्होंने यक्षों को सूर्य-मण्डल के ऊपर स्थित लोकों में भेज दिया, जो केवल श्रेष्ठ ऊर्ध्वरिताब्रह्मचारियों को प्राप्त हो पाता है।
"
तान्हन्यमानानभिवीक्ष्य गुह्यका-ननागसश्रित्ररथेन भूरिशः ।
औत्तानपादिं कृपया पितामहोमनुर्जगादोपगतः सहर्षिभि: ॥
६॥
तान्ू--उन यक्षों को; हन्यमानानू--मरे हुए; अभिवीक्ष्य-- देखकर; गुह्मकान्--यक्षगण; अनागस:--पाप-रहित; चित्र-रथेन--ध्रुव महाराज द्वारा, जिनके पास सुन्दर रथ था; भूरिश:--अत्यधिक; औत्तानपादिम्--उत्तानपाद के पुत्र को; कृपया--कृपा से;पिता-मह:--बाबा; मनुः--स्वायंभुव मनु ने; जगाद--उपदेश दिया; उपगत:--पास जाकर; सह-ऋषिभि:--ऋषियों सहित।
जब स्वायंभुव मनु ने देखा कि उनका पौत्र ध्रुव ऐसे अनेक यक्षों का वध कर रहा है, जोवास्तव में अपराधी नहीं हैं, तो वे करूणावश ऋषियों को साथ लेकर श्रुव के पास उन्हें सदुपदेश" देने गये ।
मनुरुवाचअलं वत्सातिरोषेण तमोद्वारेण पाप्मना ।
येन पुण्यजनानेतानवधीस्त्वमनागस: ॥
७॥
मनु: उबाच--मनु ने कहा; अलम्--बहुत हुआ, बस; वत्स--मेरे बालक; अतिरोषेण --अत्यन्त क्रोधपूर्वक; तमः-द्वारेण --अज्ञान का मार्ग; पाप्मना--पापी; येन--जिससे; पुण्य-जनानू--यक्षगण; एतानू--ये सब; अवधी:--तुम्हारे द्वारा मारे गये;त्वमू--तुम; अनागस: --निरपराध ।
श्री मनु ने कहा : हे पुत्र, बस करो।
वृथा क्रोध करना अच्छा नहीं--यह तो नारकीय जीवनका मार्ग है।
अब तुम यक्षों को मार कर अपनी सीमा से परे जा रहे हो, क्योंकि ये वास्तव मेंअपराधी नहीं हैं।
"
नास्मत्कुलोचितं तात कर्मतत्सद्विगर्हितम् ।
वधो यदुपदेवानामारब्धस्तेकृतैनसाम् ॥
८॥
न--नहीं; अस्मत्-कुल--हमारे कुल के लिए; उचितम्--उचित, उपयुक्त; तात--मेरे पुत्र; कर्म--कर्म; एतत्--यह; सत् --साधु पुरुष; विगर्हितम्--वर्जित; वध:--ह त्या; यत्--जो; उपदेवानाम्--यक्षों का; आरब्ध:--किया गया; ते--तुम्हारे द्वारा;अकृत-एनसाम्--पाप-विहीनों अथवा निर्दोषों का।
हे पुत्र, तुम निर्दोष यक्षों का जो यह वध कर रहे हो वह न तो अधिकृत पुरुषों द्वारा स्वीकार्यहै और न यह हमारे कुल को शोभा देनेवाला है क्योंकि तुमसे आशा की जाती है कि तुम धर्मतथा अधर्म के विधानों को जानो।
"
नन्वेकस्यापराधेन प्रसड्राद्वववो हता: ।
भ्रातुर्वधाभितप्तेन त्वयाड्र भ्रातृवत्सल ॥
९॥
ननु--निश्चय ही; एकस्य--एक ( यक्ष ) के; अपराधेन--अपराध से; प्रसझझत्--संगति से; बहवः--अनेक; हता: --मारे गये;भ्रातु:--अपने भाई की; बध--मृत्यु से; अभितप्तेन--शोक से; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अड्र-हे पुत्र; भ्रातृ-वत्सल--अपने भाईके प्रिय
हे पुत्र, यह सिद्ध हो चुका है कि तुम अपने भाई के प्रति कितने वत्सल हो और यक्षों द्वाराउसके मारे जाने से तुम कितने सन्तप्त हो, किन्तु जगा सोचो तो कि केवल एक यक्ष के अपराधके कारण तुमने कितने अन्य निर्दोष यक्षों का वध कर दिया है।
"
नायं मार्गो हि साधूनां हषीकेशानुवर्तिनाम् ।
यदात्मानं पराग्गृह्य पशुवद्धृतवैशसम् ॥
१०॥
न--नहीं; अयम्--यह; मार्ग: --रास्ता; हि--निश्चय ही; साधूनाम्-- भले पुरुषों का; हषीकेश-- भगवान् के; अनुवर्तिनामू--पथ का अनुगमन करते; यत्--जो; आत्मानम्--स्वयं; पराक्--शरीर; गृह्य--मानकर; पशु-वत्--पशुओं के तुल्य; भूत--जीवात्माओं का; वैशसम्ू--वध |
मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर को आत्मा न माने और इस प्रकार पशुओं की भाँति अन्योंका वध न करे।
भगवान् की भक्ति के पथ का अनुसरण करनेवाले साधु पुरुषों ने इसे विशेषरूप से वर्जित किया है।
"
सर्वभूतात्मभावेन भूतावासं हरिं भवान् ।
आशाध्याप दुराराध्यं विष्णोस्तत्परमं पदम् ॥
११॥
सर्व-भूत--समस्त जीवात्माओं में; आत्म--परमात्मा के ऊपर; भावेन-- ध्यान से; भूत--समस्त संसार का; आवासम्--घर;हरिम्-- भगवान् हरि; भवान्ू--आप; आराध्य--पूजा करके; आप--प्राप्त कर लिया है; दुराराध्यम्ू--जिनकी आराधना करना'कठिन है; विष्णो:-- भगवान् विष्णु के; तत्--उस; परमम्--परम; पदम्--स्थान या, स्थिति को |
वैकुण्ठलोक में हरि के धाम को प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है; किन्तु तुम इतने भाग्यशालीहो कि समस्त जीवात्माओं के परमधाम भगवान् की पूजा द्वारा तुम्हारा उस धाम को जाना निश्चित हो चुका है।
"
स त्वं हरेरनुध्यातस्तत्पुंसामपि सम्मतः ।
कथं त्ववद्यं कृतवाननुशिक्षन्सतां ब्रतम् ॥
१२॥
सः--वह व्यक्ति; त्वमू--तुम; हरेः--परमे श्वर द्वारा; अनुध्यात:-- सदैव स्मरण किया जाकर; तत्--उसका; पुंसाम्ू-भक्तोंद्वारा; अपि-- भी; सम्मत:--पूज्य; कथम्--क्यों; तु--तब; अवद्यम्ू--निन्दनीय ( कार्य ); कृतवान्--किया गया;अनुशिक्षन्--दृष्टान्त उपस्थित करके; सताम्ू--साधु पुरुषों का; ब्रतम्--ब्रत |
भगवान् के शुद्ध भक्त होने के कारण भगवान् सदैव तुम्हारे बारे में सोचते रहते हैं और तुमभी उनके सभी परम विश्वस्त भक्तों द्वारा मान्य हो।
तुम्हारा जीवन आदर्श आचरण के निमित्त है।
अतः मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुमने ऐसा निन्दनीय कार्य कैसे किया।
"
तितिक्षया करुणया मैत्रया चाखिलजन्तुषु ।
समत्वेन च सर्वात्मा भगवान्सम्प्रसीदति ॥
१३॥
तितिक्षया--सहनशीलता से; करुणया--दया से; मैत्रया--मैत्री से; च-- भी; अखिल--समस्त; जन्तुषु--जीवात्माओं के;समत्वेन--समता से; च-- भी; सर्व-आत्मा--परमात्मा; भगवान्-- भगवान्; सम्प्रसीदति-- प्रसन्न हो जाता है।
भगवान् अपने भक्तों से तब अत्यधिक प्रसन्न होते हैं जब वे अन्य लोगों के साथ सहिष्णुता,दया, मैत्री तथा समता का बर्ताव करते हैं।
"
सम्प्रसन्ने भगवति पुरुष: प्राकृतैर्गुणै: ।
विमुक्तो जीवनिर्मुक्तो ब्रह्म निर्वाणमृच्छति ॥
१४॥
सम्प्रसन्ने--प्रसन्न होने पर; भगवति-- भगवान् के; पुरुष:--पुरुष; प्राकृते:--भौतिक; गुणैः -- प्रकृति के गुणों से; विमुक्त:--मुक्त हुए; जीव-निर्मुक्त:--सूक्ष्म शरीर से भी मुक्त; ब्रहा-- अनन्त; निर्वाणमू--आत्म-आनन्द; ऋच्छति--प्राप्त करता है
जो मनुष्य अपने जीवनकाल में भगवान् को सचमुच प्रसन्न कर लेता है, वह स्थूल तथासूक्ष्म भौतिक परिस्थितियों से मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार समस्त भौतिक गुणों से छूटकर वहअनन्त आत्म-आनच्द प्राप्त करता है।
"
भूतेः पञ्ञभिरारब्धेयोषित्पुरुष एव हि ।
तयोवव्यवायात्सम्भूतियोंषित्पुरुषयोरिह ॥
१५॥
भूतीः-- भौतिक तत्त्वों द्वारा; पञ्ञभि:--पाँच; आरब्धै:--प्रारम्भ की गई; योषित्--स्त्री; पुरुष:--पुरुष; एबव--की तरह; हि--निश्चय ही; तयो:--उनके; व्यवायात्--विषयी जीवन द्वारा; सम्भूति:--पुनः सृष्टि; योषित्--स्त्रियों की; पुरुषयो: --तथा पुरुषोंकी; इह--इस जगत में |
भौतिक जगत की सृष्टि पाँच तत्त्वों से प्रारम्भ होती है और इस तरह प्रत्येक वस्तु, जिसमेंपुरुष अथवा स्त्री का शरीर भी सम्मिलित है, इन तत्त्वों से उत्पन्न होती है।
पुरुष तथा स्त्री केविषयी जीवन ( समागम ) से इस जगत में पुरुषों तथा स्त्रियों की संख्या में और वृद्धि होती है।
"
एवं प्रवर्तते सर्ग: स्थिति: संयम एव च ।
गुणव्यतिकराद्राजन्मायया परमात्मन: ॥
१६॥
एवम्--इस प्रकार; प्रवर्तते--घटित होता है; सर्ग:--सृष्टि; स्थितिः--पालन; संयम:--प्रलय; एव--निश्चय ही; च--तथा;गुण--गुणों की; व्यतिकरात्--पारस्परिक क्रिया से; राजन्ू--हे राजा; मायया--माया द्वारा; परम-आत्मन:-- भगवान् की |
मनु ने आगे कहा : हे राजा श्रुव, भगवान् की मोहमयी भौतिक शक्ति के द्वारा तथा भौतिकप्रकृति के तीनों गुणों की पारस्परिक क्रिया से ही सृष्टि, पालन तथा संहार होता रहता है।
"
निमित्तमात्रं तत्रासीच्निर्गुण: पुरुषर्षभ: ।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्व॑ं यत्र भ्रमति लोहवतू ॥
१७॥
निमित्त-मात्रमू-दूरस्थ कारण; तत्र--तब; आसीतू-- था; निर्गुण:--कल्मषरहित; पुरुष-ऋषभ: -- परम पुरुष; व्यक्त--प्रकट;अव्यक्तमू--अप्रकट; इृदम्--यह; विश्वम्--जगत; यत्र--जहाँ; भ्रमति--घूमता है; लोह-वत्--लोहे के समान |
हे श्रुव, भगवान् प्रकृति के गुणों के द्वारा कलुषित नहीं होते।
वे इस भौतिक दृश्य जगत कीउत्पति के दूरस्थ कारण ( निमित्त ) हैं।
उनकी प्रेरणा से अन्य अनेक कारण तथा कार्य उत्पन्न होतेहैं और तब यह सारा ब्रह्माण्ड उसी प्रकार घूमता है जैसे कि लोहा चुम्बक की संचित शक्ति सेघूमता है।
"
स खल्विदं भगवान्कालशक्त्यागुणप्रवाहेण विभक्तवीर्य: ।
करोत्यकर्तेव निहन्त्यहन्ताचेष्टा विभूम्न: खलु दुर्विभाव्या ॥
१८॥
सः--वह; खलु--फिर भी; इृदम्--यह ( ब्रह्माण्ड ); भगवानू-- भगवान्; काल--समय की; शक्त्या--शक्ति से; गुण-प्रवाहेण--गुणों की अन्योन्य क्रिया से; विभक्त--विभाजित; बीर्य:--( जिसकी ) शक्तियाँ; करोति-- प्रभाव डालता है;अकर्ता--न करनेवाला; एव--यद्यपि; निहन्ति--मारता है; अहन्ता--न मारनेवाला; चेष्टा--शक्ति; विभूम्न:--भगवान् की;खलु--निश्चय ही; दुर्विभाव्या--अचिन्तनीय |
भगवान् अपनी अचिन्त्य काल-रूप परम शक्ति से प्रकृति के तीनों गुणों में अन्योन्य क्रियाउत्पन्न करते हैं जिससे नाना प्रकार की शक्तियाँ प्रकट होती हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि वेकार्यशील हैं, किन्तु वे कर्ता नहीं हैं।
वे संहार तो करते हैं, किन्तु संहारकर्ता नहीं हैं।
अत: यहमाना जाता है कि केवल उनकी अचिन्तनीय शक्ति से सब कुछ घट रहा है।
"
सोनन्तोन्तकर: कालोनादिरादिकृदव्यय: ।
जन॑ जनेन जनयन्मारयन्पृत्युनान्नतकम् ॥
१९॥
सः--वह; अनन्त:--अनन्त; अन्त-करः--संहारकर्ता; काल:--काल, समय; अनादि: --जिसका आदि नहीं है; आदि-कृत्--प्रत्येक वस्तु का आदि; अव्यय:--न चुकने वाले; जनम्--जीवात्माएँ; जनेन--जीवात्माओं के द्वारा; जनयन्--उत्पन्न कराकर;मारयन्--मारना; मृत्युना--के द्वारा; अन्तकम्--वधकर्ता |
हे ध्रुव, भगवान् नित्य हैं, किन्तु कालरूप में वे सबों को मारनेवाले हैं।
उनका आदि नहीं है,यद्यपि वे हर वस्तु के आदि कर्ता हैं।
वे अव्यय हैं, यद्यपि कालक्रम में हर वस्तु चुक जाती है।
जीवात्मा की उत्पत्ति पिता के माध्यम से होती है और मृत्यु द्वारा उसका विनाश होता है, किन्तुभगवान् जन्म तथा मृत्यु से सदा मुक्त हैं।
"
न वे स्वपक्षोस्य विपक्ष एव वापरस्य मृत्योर्विशतः सम॑ प्रजा: ।
त॑ धावमानमनुधावन्त्यनीशायथा रजांस्यनिलं भूतसड्जाः ॥
२०॥
न--नहीं; वै--फिर भी; स्व-पक्ष:--मित्र-पक्ष; अस्य-- भगवान् का; विपक्ष:--शत्रु; एव--निश्चय ही; वा--अथवा; परस्यथ--परमेश्वर का; मृत्यो:--काल रूप में; विशतः--प्रवेश करता; समम्--समान रूप से; प्रजा:--जीवात्माएँ; तम्--उसको;धावमानम्--चलायमान; अनुधावन्ति-- अनुसरण करते हैं; अनीशा:--पराश्रित जीवात्माएँ; यथा--जिस तरह; रजांसि-- धूलके कण; अनिलम्--वायु; भूत-सझ्ञ:--अन्य भौतिक तत्त्व
अपने शाश्वत काल रूप में श्रीभगवान् इस भौतिक जगत में विद्यमान हैं और सबों के प्रतिसमभाव रखनेवाले हैं।
न तो उनका कोई मित्र है, न शत्रु।
काल की परिधि में हर कोई अपनेकर्मों का फल भोगता है।
जिस प्रकार वायु के चलने पर श्षुद्र धूल के कण हवा में उड़ते हैं, उसीप्रकार अपने कर्म के अनुसार मनुष्य भौतिक जीवन का सुख भोगता या कष्ट उठाता है।
"
आयुषोपचयं जन्तोस्तथेवोपचयं विभु: ।
उभाभ्यां रहितः स्वस्थो दुःस्थस्य विदधात्यसौ ॥
२१॥
आयुष:--जीवन अवधि का; अपचयम्--हास; जन्तो:--जीवात्माओं का; तथा--उसी प्रकार; एब-- भी; उपचयम्--वृद्धि;विभुः--भगवान्; उभाभ्याम्--उन दोनों से; रहित:--रहित, मुक्त; स्व-स्थ:--अपनी दिव्य स्थिति में सदैव स्थित; दुःस्थस्य--कर्म के नियम के अन्तर्गत जीवात्मा का; विदधाति--देता है; असौ--वह ।
भगवान् विष्णु सर्वशक्तिमान हैं और वे प्रत्येक को सकाम कर्मों का फल देते हैं।
इस प्रकारजीवात्मा चाहे अल्पजीवी हो या दीर्घजीवी, भगवान् तो सदा ही दिव्य पद पर रहते हैं और उनकीजीवन-अवधि के घटने या बढ़ने का कोई प्रश्न नहीं उठता।
"
केचित्कर्म वदन्त्येनं स््वभावमपरे नृप ।
एके काल परे देव पुंसः काममुतापरे ॥
२२॥
केचित्--कुछ; कर्म--सकाम कर्म; वदन्ति--कहते हैं; एनमू--वह; स्वभावम्--स्वभाव; अपरे--अन्य; नृप--हे राजा श्रुव;एके--कुछ; कालम्--समय, काल; परे-- अन्य; दैवम्-- भाग्य; पुंसः--जीवात्मा की; कामम्--इच्छा; उत-- भी; अपरे--अन्य
कुछ लोग विभिन्न योनियों तथा उनके सुख-दुख में पाये जाने वाले अन्तर को कर्म-फलबताते हैं।
कुछ इसे प्रकृति के कारण, अन्य लोग काल तथा भाग्य के कारण और शेष इच्छाओंके कारण बताते हैं।
"
अव्यक्तस्थाप्रमेयस्य नानाशक्त्युदयस्य च ।
न वै चिकीर्षितं तात को वेदाथ स्वसम्भवम् ॥
२३॥
अव्यक्तस्थ--अप्रकट का; अप्रमेयस्थ--अप्रमेय का; नाना--अनेक; शक्ति--शक्तियाँ; उदयस्य-- प्रकट करनेवाले का; च--भी; न--कभी नहीं; वै--निश्चय ही; चिकीर्षितम्--योजना; तात--हे बालक; कः--कौन; वेद--जान सकता है; अथ--अतः; स्व--अपनी; सम्भवम्--उत्पत्ति |
परम सत्य अर्थात् सत्त्त कभी भी अपूर्ण ऐन्द्रिय प्रयास द्वारा जानने का विषय नहीं रहा है, नही उसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
वह पूर्ण भौतिक शक्ति सहश नाना प्रकार कीशक्तियों का स्वामी है और उसकी योजना या कार्यों को कोई भी नहीं समझ सकता।
अतःनिष्कर्ष यह निकलता है कि वे समस्त कारणों के आदि कारणस्वरूप हैं, अतः उन्हें कल्पना द्वारा नहीं जाना जा सकता।
"
न चैते पुत्रक भ्रातुर्हन्तारो धनदानुगा: ।
विसर्गादानयोस्तात पुंसो दैवं हि कारणम् ॥
२४॥
न--कभी नहीं; च-- भी; एते--ये सब; पुत्रक-हे पुत्र; भ्रातु:ः--तुम्हारे भाई के; हन्तार: --मारनेवाले; धनद--कुवेर के;अनुगा:--अनुचर; विसर्ग--जन्म; आदानयो:--मृत्यु का; तात--हे पुत्र; पुंसः--जीवात्मा का; दैवम्--ई श्वर; हि--निश्चय ही;कारणमू--कारण।
हे पुत्र, वे कुवेर के अनुचर यक्षगण तुम्हारे भाई के वास्तविक हत्यारे नहीं हैं; प्रत्येकजीवात्मा का जन्म तथा मृत्यु तो समस्त कारणों के कारण परमेश्वर द्वारा ही तय होती है।
स एव विश्व सृजति स एवावति हन्ति च ।
"
अथापि ह्ानहड्जारान्राज्यते गुणकर्मभि: ॥
२५॥
सः--वह; एव--निश्चय ही; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; सृजति--उत्पन्न करता है; सः--वह; एब--निश्चय ही; अवति--पालता है;हन्ति--संहार करता है; च-- भी; अथ अपि--और भी; हि--निश्चय ही; अनहड्जारात्ू--अहंकाररहित होने से; न--नहीं;अज्यते--फँसता है; गुण--गुणों से; कर्मभि:--कर्मों से
भगवान् ही इस भौतिक जगत की सृष्टि करते, पालते और यथासमय संहार करते हैं, किन्तुऐसे कार्यों से परे रहने के कारण वे इनमें न तो अहंकार से और न प्रकृति के गुणों द्वारा प्रभावितहोते हैं।
"
एष भूतानि भूतात्मा भूतेशों भूतभावन: ।
स्वशकत्या मायया युक्त: सृजत्यत्ति च पाति च ॥
२६॥
एक: --यह; भूतानि--समस्त प्राणी; भूत-आत्मा--समस्त जीवात्माओं का परमात्मा; भूत-ईश: --प्रत्येक का नियन्ता; भूत-भावन: --प्रत्येक का पालनकर्ता; स्व-शकत्या--अपनी शक्ति से; मायया--बहिरंगा शक्ति से; युक्त:--ऐसे साधन से; सृजति--उत्पन्न करता है; अत्ति--संहार करता है; च--तथा; पाति--पालन करता है; च--और।
भगवान् समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं।
वे हर एक के नियामक तथा पालक हैं; वेअपनी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से सभी जीवों का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं।
"
तमेव मृत्युममृतं तात दैव॑सर्वात्मनोपेहि जगत्परायणम् ।
यस्मै बलिं विश्वसृजो हरन्तिगावो यथा वै नसि दामयन्त्रिता: ॥
२७॥
तम्--उनको; एव--निश्चय ही; मृत्युम्-मृत्यु; अमृतम्-- अमरत्व; तात--हे पुत्र; दैवम्ू--ई श्वर; सर्व-आत्मना--सभी प्रकार से;उपेहि--शरण में जाओ; जगत्--जगत का; परायणम्--परिणति, चरम लक्ष्य; यस्मै--जिसको; बलिमू-- भेंट; विश्व-सृज:--ब्रह्मा जैसे समस्त देवता; हरन्ति--ले जाते हैं; गाव: --बैल; यथा--जिस प्रकार; बै--निश्चय ही; नसि--नाक में; दाम--रस्सीसे; यन्त्रिता:--वश में किये गये।
हे बालक श्रुव, तुम भगवान् की शरण में जाओ जो जगत की प्रगति के चरम लक्ष्य हैं।
ब्रह्मादि सहित सभी देवगण उनके नियंत्रण में कार्य कर रहे हैं, जिस प्रकार नाक में रस्सी पड़ाबैल अपने स्वामी द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
"
यः पञ्जञवर्षो जननीं त्वं विहायमातु: सपत्या वचसा भिन्नमर्मा ।
बन॑ गतस्तपसा प्रत्यगक्ष-माराध्य लेभे मूर्ध्नि पदं त्रिलोक्या: ॥
२८॥
यः--जो; पश्ञ-वर्ष:--पाँच साल के; जननीम्--माता को; त्वमू--तुम; विहाय--छोड़ कर; मातु:--माता का; स-पत्या: --सौतों के; वचसा--शब्दों से; भिन्न-मर्मा--हृदय में शोकाकुल; वनम्--जंगल को; गत:--गये हुए; तपसा--तपस्या द्वारा;प्रत्यक्-अक्षम्--परमे ध्वर को; आराध्य--पूज कर; लेभे--प्राप्त किया; मूर्ध्िनि--चोटी पर; पदम्--पद; त्रि-लोक्या:--तीनोंलोकों की।
हे श्रुव, तुम केवल पाँच वर्ष की आयु में ही अपनी माता कि सौत के बचनों से अत्यन्त दुखीहुए और बड़ी बहादुरी से अपनी माता का संरक्षण त्याग दिया तथा भगवान् का साक्षात्कार करनेके उद्देश्य से योगाभ्यास में संलग्न होने के लिए जंगल चले गये थे।
इस कारण तुमने पहले से हीतीनों लोकों में सर्वोच्च पद प्राप्त कर लिया है।
"
तमेनमझ्त्मनि मुक्तविग्रहेव्यपाश्नितं निर्गुणमेकमक्षरम् ।
आत्मानमन्विच्छ विमुक्तमात्महग्यस्मिन्रिदं भेदमसत्प्रतीयते ॥
२९॥
तम्--उसको; एनम्--वह; अड्र--हे ध्रुव; आत्मनि--मन में; मुक्त-विग्रहे--क्रो ध-रहित; व्यपाभ्रितम्--स्थित; निर्गुणम्--दिव्य; एकम्--एक; अक्षरम्--अच्युत ब्रह्म; आत्मानम्ू--स्व; अन्विच्छ--ढूँढने का यत्न करो; विमुक्तम्ू--अकलुषित; आत्म-हक्--परमात्मा की ओर मुख किये; यस्मिन्--जिसमें; इदम्--यह; भेदम््--अन्तर; असत्--असत्य; प्रतीयते--प्रतीत होता है |
अतः हे ध्रुव, अपना ध्यान परम पुरुष अच्युत ब्रह्म की ओर फेरो।
तुम अपनी मूल स्थिति में रह कर भगवान् का दर्शन करो।
इस तरह आत्म-साक्षात्कार द्वारा तुम इस भौतिक अन्तर कोक्षणिक पाओगे।
"
त्वं प्रत्यगात्मनि तदा भगवत्यनन्तआनन्दमात्र उपपन्नसमस्तशक्तौ ।
भक्ति विधाय परमां शनकैरविद्या-ग्रन्थि विभेत्स्यसि ममाहमिति प्ररूढम् ॥
३०॥
त्वमू--तुम; प्रत्यकू-आत्मनि--परमात्मा को; तदा--उस समय; भगवति-- भगवान् को; अनन्ते--असीम को; आनन्द-मात्रे--समस्त आनन्द का आगार; उपपन्न--से युक्त; समस्त--सर्व; शक्तौ--शक्तियाँ; भक्तिम्-- भक्ति; विधाय--करके; परमाम्--परम; शनकै: --तुरन्त; अविद्या--माया की; ग्रन्थिमू--गाँठ; विभेत्स्यसि--नष्ट कर दोगे, काट दोगे; मम--मेरा; अहमू--मैं;इति--इस प्रकार; प्ररूढम्--ह॒ढ़तापूर्वक स्थित, सुदृढ़
इस प्रकार अपनी सहज स्थिति प्राप्त करके तथा समस्त आनन्द के सर्व शक्तिसम्पन्न आगारतथा प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा में स्थित परमेश्वर की सेवा करके तुम तुरन्त ही 'मैं' तथा'मेरा' के मायाजनित बोध को भल जाओगे।
"
संयच्छ रोषं भद्वं ते प्रतीपं श्रेयसां परम् ।
श्रुतेन भूयसा राजन्नगदेन यथामयम् ॥
३१॥
संयच्छ--जरा रोको; रोषम्--क्रोध को; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; प्रतीपम्--शत्रु; श्रेयसाम्--समस्त अच्छाई का;परम्--अग्रणी; श्रुतेन--सुनकर; भूयसा--निरन्तर; राजन्--हे राजा; अगदेन--उपचार से; यथा--जिस प्रकार; आमयम्--रोग
हे राजन, मैंने तुम्हें जो कुछ कहा है, उस पर विचार करो।
यह राग पर ओषधि के समानकाम करेगा।
अपने क्रोध को रोको, क्योंकि आत्मबोध के मार्ग में क्रोध सबसे बड़ा शत्रु है।
मैंतुम्हारे मंगल की कामना करता हूँ।
तुम मेरे उपदेशों का पालन करो।
"
येनोपसूष्टात्ुरुषाललोक उद्विजते भूशम् ।
न बुधस्तद्वशं गच्छेदिच्छन्नभयमात्मन: ॥
३२॥
येन--जिससे; उपसृष्टात्--वशीभूत होकर; पुरुषात्--पुरुष द्वारा; लोक: -- प्रत्येक व्यक्ति; उद्धिजते-- भयभीत होता है;भूशम्--अत्यधिक; न--कभी नहीं; बुध: --बुद्धिमान पुरुष; ततू-क्रोध के; वशम्--वश में; गच्छेत्--जाए; इच्छन्--चाहतेहुए; अभयम्--निर्भीकता, मुक्ति; आत्मन:--स्व की |
जो व्यक्ति इस भौतिक जगत से मुक्ति चाहता है उसे चाहिए कि वह क्रोध के वशीभूत न हो,क्योंकि क्रोध से मोहग्रस्त होने पर वह अन्य सबों के लिए भय का कारण बन जाता है।
"
हेलनं गिरिश क्षातुर्धनदस्य त्वया कृतम् ।
यज्जघध्निवान्पुण्यजनान्भ्रातृष्नानित्यमर्षित: ॥
३३॥
हेलनम्--दुर्व्यवहार; गिरिश--शिवजी के; भ्रातु:-- भाई; धनदस्य--कुवेर का; त्वया--तुम्हारे द्वारा; कृतम्--किया गया;यत्--क्योंकि; जध्निवान्--तुम्हारे द्वारा मारे गये; पुण्य-जनान्ू--यक्षगण; भ्रातृ-तुम्हारे भाई के; घ्नान्ू--मारने वाले; इति--इस प्रकार ( सोचकर ); अमर्षित:--क्रुद्ध |
हे ध्रुव, तुमने सोचा कि यक्षों ने तुम्हारे भाई का वध किया है, अतः तुमने अनेक यक्षों कोमार डाला है।
किन्तु इस कृत्य से तुमने शिवजी के भ्राता एवं देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर केमन को क्षुब्ध कर दिया हैं।
ख्याल करो कि तुम्हारे ये कर्म कुबेर तथा शिव दोनों के प्रति अतीवअवज्ञापूर्ण हैं।
"
त॑ं प्रसादय वत्साशु सन्नत्या प्रश्रयोक्तिभि: ।
न यावन्महतां तेज: कुल नोउभिभविष्यति ॥
३४॥
तम्--उसको; प्रसादय--शान्त करो; वत्स--मेरे पुत्र; आशु--शीघ्र; सन्नत्या--नमस्कार द्वारा; प्रश्रया--सदाचरण से;उक्तिभि:--विनीत वचनों से; न यावत्--इसके पूर्व कि; महताम्-महान् पुरुषों का; तेज:--कोप; कुलम्ू--परिवार को;नः--हमारे; अभिभविष्यति-- प्रभावित कर दे।
इस कारण, हे पुत्र, तुम विनीत बचनों तथा प्रार्थना द्वारा कुबेर को शीघ्र शान्त कर लोजिससे कि उनका कोप हमारे परिवार को किसी तरह प्रभावित न कर सके।
"
एवं स्वायम्भुव: पौत्रमनुशास्य मनुर्ध्रुवम् ।
तेनाभिवन्दितः साकमृषिश्रिः स्वपुरं ययौ ॥
३५॥
एवम्--इस प्रकार; स्वायम्भुव: --स्वायंभुव; पौत्रम्-- अपने पौत्र को; अनुशास्य--शिक्षा देकर; मनुः--मनु; ध्रुवम्-- धुवमहाराज को; तेन--उसके द्वारा; अभिवन्दितः--नमस्कृत; साकम्--साथ-साथ; ऋषिभि:--ऋषियों के साथ; स्व-पुरम्ू-- अपनेधाम को; ययौ--चले गये।
इस प्रकार जब स्वायंभुव मनु अपने पौत्र ध्रुव महाराज को शिक्षा दे चुके तो श्वुव ने उन्हें सादर नमस्कार किया।
फिर ऋषियों समेत मनु अपने धाम को चले गये।
"
अध्याय बारह: ध्रुव महाराज भगवान के पास वापस चले गये
4.12मैत्रेय उवाचध्रुवं निवृत्तं प्रतिबुद्धय वैशसा-दपेतमन्युं भगवान्धनेश्वरः।
तत्रागतश्चारणयक्षकित्नरेःसंस्तूयमानो न््यवद॒त्कृताझ्ललिम् ॥
१॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; ध्रुवम्-- ध्रुव महाराज को; निवृत्तम्--विमुख; प्रतिबुद्धय--जानकर; बैशसात्--वध से;अपेत--शान्त; मन्युम्ू-- क्रोध; भगवान्--कुबेर; धन-ई श्वरः -- धन के स्वामी; तत्र--वहाँ; आगत:--प्रकट हुए; चारण--चारण; यक्ष--यक्षों; किन्नरैः--तथा किक्नरों द्वारा; संस्तूयमान:--पूजित होकर; न्यवदत्--बोला; कृत-अज्जञलिम्ू--हाथ जोड़ेहुए ध्रुव से |
महर्षि मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, ध्रुव महाराज का क्रोध शान्त हो गया और उन्होंने यक्षों कावध करना पूरी तरह बन्द कर दिया।
जब सर्वाधिक समृद्ध धनपति कुबेर को यह समाचार मिलातो बे श्रुव के समक्ष प्रकट हुए।
वे यक्षों, किन्नरों तथा चारणों द्वारा पूजित होकर अपने सामनेहाथ जोड़कर खड़े हुए ध्रुव महाराज से बोले।
"
धनद उबाचभो भो: क्षत्रियदायाद परितुष्टोस्मि तेडनघ ।
यत्त्वं पितामहादेशादवैरं दुस्त्यजमत्यज: ॥
२॥
धन-दः उबाच--धनपति ( कुबेर ) ने कहा; भो: भो:--ेरे; क्षत्रिय-दायाद-हे क्षत्रिय पुत्र; परितुष्ट: --अत्यन्त प्रसन्न; अस्मि--हूँ; ते--तुमसे; अनध--हे पापहीन; यत्--क्योंकि; त्वम्--तुम; पितामह--अपने पितामह के; आदेशात्-- आदेश से; बैरम्--शत्रुता, वैर; दुस्त्यजम्ू--न छोड़ी जा सकने योग्य; अत्यज:--त्याग किया है|
धनपति कुबेर ने कहा : हे निष्पाप क्षत्रियपुत्र, मुझ यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई किअपने पितामह के आदेश से तुमने वैरभाव को त्याग दिया यद्यपि इसे तज पाना बहुत कठिनहोता है।
मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ।
"
न भवानवधीद्यक्षान्न यक्षा भ्रातरं तव ।
काल एव हि भूतानां प्रभुरप्ययभावयो: ॥
३॥
न--नहीं; भवान्--तुमने; अवधीत्--मारा है; यक्षान्--यक्षों को; न--नहीं; यक्षा: --यक्षों ने; भ्रातरमू-- भाई को; तव--तुम्हारे; काल:--समय, काल; एव--निश्चय ही; हि--क्योंकि; भूतानाम्ू--जीवात्माओं के; प्रभु:ः--परमे श्वर; अप्यय-भावयो:--प्रलय तथा सृजन के |
वास्तव में न तो तुमने यक्षों को मारा है न उन्होंने तुम्हारे भाई को मारा है, क्योंकि सृजन तथाविनाश का अनन्तिम कारण परमेश्वर का नित्य स्वरूप काल ही है।
"
अहं त्वमित्यपार्था धीरज्ञानात्पुरुषस्य हि ।
स्वाणीवाभात्यतद्धयानाद्यया बन्धविपर्ययौं ॥
४॥
अहम्-ैं; त्वम्--तुम; इति--इस प्रकार; अपार्था--मिथ्या; धी: --बुद्द्धि; अज्ञानातू--अज्ञान से; पुरुषस्थ--पुरुष के; हि--निश्चय ही; स्वाप्नि--स्वज; इब--सहृश; आभाति--प्रकट होती है; अ-ततू-ध्यानात्--देहात्मबुद्धि से; यया--जिससे; बन्ध--बन्धन; विपर्ययौ--तथा दुख ।
देहात्मबुद्धि के आधार पर स्व तथा अन्यों का 'मैं' तथा 'तुम' के रूप में मिथ्याबोध अविद्याकी उपज है।
यही देहात्मबुद्धि जन्म-मृत्यु के चक्र का कारण है और इसीसे इस जगत में हमेंनिरन्तर बने रहना पड़ता है।
"
तद्गच्छ श्रुव भद्गं ते भगवन्तमधोक्षजम् ।
सर्वभूतात्मभावेन सर्वभूतात्मविग्रहम् ॥
५॥
तत्--अतः; गच्छ--आओ; ध्रुव-- ध्रुव; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; भगवन्तम्-- भगवान् को; अधोक्षजम्-- भौतिकइन्द्रियों की विचार शक्ति के परे; सर्व-भूत--समस्त जीवात्माएँ; आत्म-भावेन--उन्हें एक सोच करके; सर्व-भूत--समस्तजीवात्माओं में; आत्म--परमात्मा; विग्रहम्--मूर्ति, विग्रह रूप |
हे शरुव, आगे आओ।
ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें।
भगवान् ही जो हमारी इन्द्रियों की विचार-शक्ति से परे हैं, समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं।
इसलिए सभी जीवात्माएँ बिना किसी अन्तरके एक हैं।
अतः तुम भगवान् के दिव्य रूप की सेवा प्रारम्भ करो, क्योंकि वे ही समस्त जीवोंके अनन्तिम आश्रय हैं।
"
भजस्व भजनीयाड्ूप्रिमभवाय भवच्छिदम् ।
युक्त विरहितं शक्त्या गुणमय्यात्ममायया ॥
६॥
भजस्व--सेवा में लगो; भजनीय--पूजा के योग्य; अड्रघ्रिमू--उनको जिनके चरण कमल; अभवाय--संसार से उद्धार के लिए;भव-छिदम्--जो भौतिक बन्धन की ग्रंथि को काटता है; युक्तम्--संलग्न; विरहितम्--पृथक्, विलग; शक्त्या--उसकी शक्तिको; गुण-मय्या--त्रिगुणों से युक्त; आत्म-मायया--अपनी अकल्पनीय शक्ति से |
अतः तुम अपने आपको भगवान् की भक्ति में पूर्णरूपेण प्रवृत्त करो क्योंकि वे हीसांसारिक बन्धन से हमें छुटकारा दिला सकते हैं।
अपनी भौतिक शक्ति में आसक्त रहकर भी वेउसके क्रियाकलापों से विलग रहते हैं।
भगवान् की अकल्पनीय शक्ति से ही इस भौतिक जगतमें प्रत्येक घटना घटती है।
"
वृणीहि काम॑ नृप यन्मनोगतंमत्तस्त्वमौत्तानपदेविशद्धितः ।
वरं वराहों म्बुजना भपादयो -रनन्तरं त्वां वयमड़ शुश्रुम ॥
७॥
वृणीहि--माँगो; कामम्--इच्छा; नृप--हे राजा; यत्--जो कुछ; मनः-गतम्--तुम्हारे मन के भीतर है; मत्त: --मुझसे; त्वम्ू--तुम; औत्तानपदे--हे महाराज उत्तानपाद के पुत्र; अविशद्धित:ः--बिना हिचक के; वरम्--वरदान; वर-अर्हई:--वर प्राप्त करने केयोग्य; अम्बुज--कमल; नाभ--जिसकी नाभि; पादयो: --उनके चरमकमलों पर; अनन्तरम्--निरन्तर; त्वामू--तुमको;वयम्--हमने; अड्भ--हे श्रुव; शुश्रुम--सुना है
हे महाराज उत्तानपाद के पुत्र, ध्रुव महाराज, हमने सुना है कि तुम कमलनाभ भगवान् कीदिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लगे रहते हो।
अतः तुम हमसे समस्त आशीर्वाद लेने के पात्र हो।
अतःबिना हिचक के जो तुम वर माँगना चाहो माँग सकते हो।
"
मैत्रेय उवाचस राजराजेन वराय चोदितोभ्रुवोी महाभागवतो महामतिः ।
हरौ स वद्रेड्चलितां स्मृतिं ययातरत्ययत्नेन दुरत्ययं तमः ॥
८॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; सः--वह; राज-राजेन--राजाओं के राजा ( कुबेर ) द्वारा; वराय-- आशीर्वाद के लिए;चोदितः--माँगने पर; ध्रुवः--श्रुव महाराज; महा-भागवतः--प्रथम कोटि के भक्त; महा-मति:--सर्वाधिक बुद्द्धिमान याविचारवान; हरौ-- भगवान् के प्रति; सः--उसने; वब्रे--माँगा; अचलिताम्--स्थिर, अखण्ड; स्मृतिम्ू--स्मृति; यया--जिससे;तरति--पार करता है; अयलेन--बिना कठिनाई के; दुरत्ययम्--अलंघ्य, दुस्तर; तमः--अंधकार, अज्ञान।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, जब यक्षराज कुबेर ने ध्रुव महाराज से वर माँगने केलिए कहा तो उस परम दिद्वान् शुद्ध भक्त, बुद्धिमान तथा विचारवान् राजा श्रुव ने यही याचनाकी कि भगवान् में उनकी अखंड श्रद्धा और स्मृति बनी रहे, क्योंकि इस प्रकार से मनुष्य अज्ञानके सागर को सरलता से पार कर सकता है, यद्यपि उसे पार करना अन्यों के लिए अत्यन्त दुस्तरहै।
"
तस्य प्रीतेन मनसा तां दत्त्वैडविडस्ततः ।
पश्यतोःन्तर्दधे सोपि स्वपुरं प्रत्यपद्यत ॥
९॥
तस्य--श्रुव से; प्रीतेन--परम प्रसन्न होकर; मनसा--मन से; तामू--उस स्मृति को; दत्त्वा--देकर; ऐडविड:--इडविडा का पुत्र,कुबेर; ततः--तत्पश्चात्; पश्यत: --जब श्रुव देख रहे थे; अन्तर्दधे-- अन्तर्धान हो गया; सः--वह ( ध्रुव ); अपि-- भी; स्व-पुरम्ू--अपनी पुरी को; प्रत्यपद्यत--वापस चला गया।
इडविडा के पुत्र कुबेर अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रुव महाराज कोमनचाहा वरदान दिया।
तत्पश्चात् वे श्रुव को देखते-देखते से अन्तर्धान हो गये और ध्रुव महाराजअपनी राजधानी वापस चले गये।
"
अथायजत यज्ञेशं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।
द्रव्यक्रियादेवतानां कर्म कर्मफलप्रदम् ॥
१०॥
अथ--तत्पश्चात्; अयजत--पूजा की; यज्ञ-ईशम्--यज्ञों के स्वामी की; क्रतुभि:--यज्ञोत्सवों द्वारा; भूरि--बड़ी; दक्षिणै:--दक्षिणा द्वारा; द्रव्य-क्रिया-देवतानाम्--यज्ञों का ( जिसमें सामग्री, कार्य तथा देवता सम्मिलित हैं ); कर्म--कर्म; कर्म-फल--कर्मों का परिणाम; प्रदमू--देनेवाला |
जब तक श्रुव महाराज घर में रहे उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान् को प्रसन्न करने केलिए यज्ञोत्सव सम्पन्न किये।
जितने भी संस्कार सम्बन्धी निर्दिष्ट यज्ञ हैं, वे भगवान् विष्णु कोप्रसन्न करने के निमित्त हैं, क्योंकि वे ही ऐसे समस्त यज्ञों के लक्ष्य हैं और यज्ञ-जन्य आशीर्वादोंके प्रदाता हैं।
"
सर्वात्मन्यच्युतेसर्वे तीव्रौघां भक्तिमुद्रहन् ।
दर्दर्शात्मनि भूतेषु तमेवावस्थितं विभुम् ॥
११॥
सर्व-आत्मनि--परमात्मा में; अच्युते--अच्युत में; असर्वे--किसी सीमा के बिना, असीम; तीब्र-ओघाम्--प्रबल वेग युक्त;भक्तिम्ू--भक्ति; उद्धहनू-- करते हुए; ददर्श--देखा; आत्मनि--परम आत्मा में; भूतेषु--समस्त जीवात्माओं में; तम्--उसको;एव--केवल; अवस्थितम्--स्थित, विराजमान; विभुम्--सर्वशक्तिमान |
ध्रुव महाराज निर्बाध-बल के साथ हर वस्तु के आगार परमेश्वर की भक्ति करने लगे।
भक्तिकरते हुए उन्हें ऐसा दिखता मानो प्रत्येक वस्तु उन्हीं ( भगवान् ) में स्थित है और वे समस्तजीवात्माओं में स्थित हैं।
भगवान् अच्युत कहलाते हैं, क्योंकि वे कभी भी अपने भक्तों कोसुरक्षा प्रदान करने के मूल कर्तव्य से चूकते नहीं।
"
तमेवं शीलसम्पन्नं ब्रह्मण्यं दीनवत्सलम् ।
गोप्तारं धर्मसेतूनां मेनिरे पितरं प्रजा: ॥
१२॥
तम्--उसको; एवम्--इस प्रकार; शील--दैवी गुण से; सम्पन्नम्ू--युक्त; ब्रह्मण्यम्--ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धालु; दीन--निर्धनोंके प्रति; वत्सलम्--दयालु; गोप्तारम्--रक्षक; धर्म-सेतूनाम्-- धार्मिक नियमों का; मेनिरे--सोचा; पितरम्--पिता; प्रजा: --जनता।
ध्रुव महाराज सभी दैवी गुणों से सम्पन्न थे; वे भगवान् के भक्तों के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु,दीनों तथा निर्दोषों के प्रति दयालु एवं धर्म की रक्षा करनेवाले थे।
इन गुणों के कारण वे समस्तनागरिकों के पिता तुल्य समझे जाते थे।
"
घदिंत्रशद्वर्षसाहस्त्रं शशास क्षितिमण्डलम् ।
भोगै: पुण्यक्षयं कुर्वन्नभोगैरशुभक्षयम् ॥
१३॥
घट्-त्रिंशत्--छत्तीस; वर्ष--वर्ष; साहस्रमू--हजार; शशास--राज्य किया; क्षिति-मण्डलम्--पृथ्वी लोक में; भोगैः-- भोगद्वारा; पुण्य--पवित्र कार्यों के फल का; क्षयम्ू--हानि, हास; कुर्वन्ू--करते हुए; अभोगै:--तपस्या से; अशुभ--अशुभ फलोंका; क्षयमू--हास
ध्रुव महाराज ने इस लोक पर छत्तीस हजार वर्षो तक राज्य किया; उन्होंने पुण्यों को भोगद्वारा और अशुभ फलों को तपस्या द्वारा क्षीण बनाया।
"
एवं बहुसवं काल॑ महात्माविचलेन्द्रियः ।
त्रिवर्गोपयिकं नीत्वा पुत्रायादाब्रूपासनम् ॥
१४॥
एवम्--इस प्रकार; बहु--अनेक; सवम्--वर्ष; कालम्ू--समय; महा-आत्मा--महान् पुरुष; अविचल-इन्द्रियः--इन्द्रियों केचलायमान हुए बिना; त्रि-वर्ग--तीन प्रकार के सांसारिक कार्य; औपयिकम्--करने के अनुकूल; नीत्वा--बिता करके;पुत्राय--अपने पुत्र को; अदातू-- प्रदान कर दिया; नृप-आसनम्--राज-सिंहासन ।
इस प्रकार आत्मसंयमी महापुरुष श्रुव महाराज ने तीन प्रकार के सांसारिक कार्यो--धर्म,अर्थ, तथा काम--को ठीक तरह से अनेकानेक वर्षों तक सम्पन्न किया।
तत्पश्चात् उन्होंने अपनेपुत्र को राजसिंहासन सौंप दिया।
"
मन्यमान डदं विश्व मायारचितमात्मनि ।
अविद्यारचितस्वणगन्धर्वनगरोपमम् ॥
१५॥
मन्यमान:--मानते हुए; इृदम्-यह; विश्वम्-ब्रह्माण्ड; माया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; रचितम्-निर्मित; आत्मनि--जीवात्माको; अविद्या--मोह से; रचित--निर्मित; स्वण--स्वण; गन्धर्व-नगर--मायाजाल; उपमम्--सहश |
.श्रील ध्रुव महाराज को अनुभव हो गया कि यह दृश्य-जगत जीवात्माओं को स्वप्न अथवामायाजाल के समान मोहग्रस्त करता रहता है, क्योंकि यह परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति माया कीसृष्टि है।
"
आत्मस्त्रयपत्यसुहददो बलमृद्धकोश-मन्तःपुरं परिविहारभुवश्च रम्या: ।
भूमण्डलं 'जलधिमेखलमाकलय्यकालोपसृष्टमिति स प्रययौं विशालाम् ॥
१६॥
आत्म--शरीर; स्त्री--पत्नियाँ; अपत्य--सन्तानें; सुहृदः--मित्र; बलम्--प्रभाव, सेना; ऋद्ध-कोशम्--समृद्ध खजाना; अन्तः-पुरम्ू--रनिवास; परिविहार-भुव:ः--क्री ड़ा-स्थल; च--तथा; रम्या:--सुन्दर; भू-मण्डलम्--पूरी पृथ्वी; जल-धि--समुद्रोंद्वारा; मेखलम्ू--घिरा; आकलख्य--मान कर; काल--समय द्वारा; उपसृष्टम्--उत्पन्न; इति--इस प्रकार; सः--वह; प्रययौ--चला गया; विशालामू--बदरिकाश्रम को |
अन्त में ध्रुव महाराज ने सारी पृथ्वी पर फैले और महासागरों से घिरे अपने राज्य को त्यागदिया।
उन्होंने अपने शरीर, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों, सेना, समृद्ध कोश, सुखकर महलों तथाविनोद-स्थलों को माया की सृष्टियाँ मान लिया।
इस तरह वे कालक्रम में हिमालय पर्वत परस्थित बदरिकाश्रम के वन में चले गये।
"
तस्यां विशुद्धकरण: शिववार्विगाह्मबद्ध्वासनं जितमरुन्मनसाहताक्षः ।
स्थूले दधार भगवत्प्रतिरूप एतद्ध्यायंस्तदव्यवहितो व्यसृजत्समाधौ ॥
१७॥
तस्यामू-बदरिका श्रम में; विशुद्ध--शुद्ध करके; करण: -- अपनी इन्द्रियाँ; शिव--शुद्ध; वाः--जल में; विगाह्म--स्नानकरके; बद्ध्वा--स्थिर करके; आसनम्--आसन; जित--जीतकर; मरुतू-- श्रासक्रिया; मससा--मन से; आहत--हट गई;अक्ष:--इन्द्रियाँ; स्थूले-- भौतिक; दधार--केन्द्रित किया; भगवत्-प्रतिरूपे-- भगवान् के स्थूल रूप में; एतत्--मन;ध्यायन्ू-- ध्यान करते हुए; तत्--उस; अव्यवहित:--बिना रुके; व्यसृजत्-- प्रवेश किया; समाधौ--समाधि में |
बदरिकाश्रम में ध्रुव महाराज की इन्द्रियाँ पूर्णतः शुद्ध हो गईं क्योंकि वे स्वच्छ शुद्ध जल मेंनियमित रूप से स्नान करते थे।
वे आसन पर स्थित हो गये और फिर उन्होंने योगक्रिया से श्वासतथा प्राणवायु को वश में किया।
इस प्रकार उन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से समेट लिया।
तब उन्होंने अपने मन को भगवान् के अर्चाविग्रह रूप में केन्द्रित किया जो भगवान् का पूर्णप्रतिरूप है और इस प्रकार से उनका ध्यान करते हुए वे पूर्ण समाधि में प्रविष्ट हो गये।
"
भक्ति हरौ भगवति प्रवहन्नजस्त्र-मानन्दबाष्पकलया मुहुरर्धमान: ॥
विक्लिद्यमानहृदय: पुलकाचिताड़ेनात्मानमस्मरदसाविति मुक्तलिड्रः ॥
१८॥
भक्तिम्ू-- भक्ति; हरौ--हरि में; भगवति-- भगवान्; प्रवहन्--निरन्तर लगे रह कर; अजस्त्रमू--सदैव; आनन्द--आनन्दमय;बाष्प-कलया--आँसुओं की धारा से; मुहुः--बारम्बार; अर्द्मान:--अभिभूत होकर; विक्लिद्यमान-- द्रवित; हृदयः--उसकाहृदय; पुलक--रोमांच; आचित--ढका; अड्भ:--उसका शरीर; न--नहीं; आत्मानम्--शरीर; अस्मरत्--स्मरण किया; असौ--बह; इति--इस प्रकार; मुक्त-लिड्र:--सूक्ष्म शरीर से मुक्त |
दिव्य आनन्द के कारण उनके नेत्रों से सतत अश्रु बहने लगे, उनका हृदय द्रवित हो उठा औरपूरे शरीर में कम्पन तथा रोमांच हो आया।
भक्ति की समाधि में पहुँचने से ध्रुव महाराज अपनेशारीरिक अस्तित्व को पूर्णतः भूल गये और तुरन्त ही भौतिक बन्धन से मुक्त हो गये।
स्वतंत्र होना पड़ता है।
यह स्वतंत्रता मुक्त-लिड्ज कहलाती है।
"
स ददर्श विमानाछयं नभसोवतरद्ध्रूव: ।
विभ्राजयद्श दिशो राकापतिमिवोदितम् ॥
१९॥
सः--उसने; दरदर्श--देखा; विमान--विमान; अछयम्-- अत्यन्त सुन्दर; नभसः--आकाश से; अवतरत्--उतरते हुए; ध्रुव:--ध्रुव महाराज; विभ्राजयत्--आलोकित करते हुए; दश--दस; दिश:ः --दिशाएँ; राका-पतिम्--पूर्णचन्द्र; इब--सहश;डदितम्ू--उदित।
ज्योंही उनकी मुक्ति के लक्षण प्रकट हुए, उन्होंने एक अत्यन्त सुन्दर विमान को आकाश सेनीचे उतरते हुए देखा, मानो तेजस्वी पूर्ण चन्द्रमा दशों दिशाओं को आलोकित करते हुए नीचेआ रहा हो।
"
तत्रानु देवप्रवरौ चतुर्भुजाएयामौ किशोरावरुणाम्बुजेक्षणौ ।
स्थिताववष्ट भ्य गदां सुवाससौकिरीटहाराड्रदचारुकुण्डलौ ॥
२०॥
तत्र--वहाँ; अनु--तब; देव-प्रवरौ--दो अत्यन्त सुन्दर देवता; चतु:-भुजौ--चार भुजाओं वाले; श्यामौ--श्याम वर्ण के;किशोरौ--अत्यन्त तरुण; अरुण--लाल; अम्बुज--कमल; ईक्षणौ--आँखों वाले; स्थितौ--स्थित; अवष्टभ्य--लिये;गदाम्--गदा; सुवाससौ--सुन्दर वस्त्रों से युक्त; किरीट--मुकुट; हार--माला; अड्रद--बिजावट; चारु--सुन्दर; कुण्डलौ --कान के कुण्डल सहित
ध्रुव महाराज ने विमान में भगवान् विष्णु के दो अत्यन्त सुन्दर पार्षदों को देखा।
उनके चारभुजाएँ थीं और श्याम वर्ण की शारीरिक कान्ति थी, वे अत्यन्त तरुण थे और उनके नेत्र लाल कमल-पुष्पों के समान थे।
वे हाथों में गदा धारण किये थे और उनकी वेशभूषा अत्यन्तआकर्षक थी।
वे मुकुट धारण किये थे और हारों, बाजूबन्दों तथा कुण्डलों से सुशोभित थे।
"
विज्ञाय तावुत्तमगायकिड्जूरा-वशभ्युत्थित: साध्वसविस्मृतक्रम: ।
ननाम नामानि गृणन्मधुद्विष:पार्षत्प्रधानाविति संहताझ्ञलि: ॥
२१॥
विज्ञाय--जानकर; तौ--उन दोनों को; उत्तम-गाय--( उत्तम यशवाले ) विष्णु के; किड्डूरौ--दो दास; अभ्युत्थित:--खड़ा होगया; साध्वस--हड़बड़ा कर; विस्मृत-- भूल गया; क्रम: --उचित व्यवहार; ननाम--नमस्कार किया; नामानि--नामों को;गृणन्--उच्चारण करते, जपते; मधु-द्विष:--मधु के शत्रु, भगवान् के; पार्षत्-पार्षद; प्रधानौ-- प्रमुख; इति--इस प्रकार;संहत--बद्ध; अज्जञलिः--हाथ जोड़े |
यह देखकर कि ये असाधारण पुरुष भगवान् के प्रत्यक्ष दास हैं, ध्रुव महाराज तुरन्त उठ खड़ेहुए।
किन्तु हड़बड़ाहट में जल्दी के कारण वे उचित रीति से उनका स्वागत करना भूल गये।
अतः उन्होंने हाथ जोड़ कर केवल नमस्कार किया और वे भगवान् के पवित्र नामों की महिमाका जप करने लगे।
"
त॑ कृष्णपादाभिनिविष्टचेतसंबद्धाञलि प्रश्रयनप्रकन्धरम् ।
सुनन्दनन्दावुपसृत्य सस्मितंप्रत्यूचतु: पुष्करनाभसम्मतौ ॥
२२॥
तम्--उसको; कृष्ण -- भगवान् कृष्ण के; पाद--चरण कमलों का; अभिनिविष्ट--विचार में लीन; चेतसम्--जिसका हृदय;बद्ध-अद्जलिम्--हाथ जोड़े; प्रश्रय--विनीत भाव से; नम्न--झुका हुआ; कन्धरम्--जिसकी गर्दन; सुनन्द--सुनन्द; नन्दौ --तथा नन्द; उपसृत्य--पास आकर; स-स्मितम्--हँसते हुए; प्रत्यूचतु: --सम्बोधित किया; पुष्कर-नाभ--विष्णु का, जिनकेकमलनाभि है; सम्मतौ--निजी दास
भ्रुव महाराज भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के चिन्तन में सदैव लीन रहते थे।
उनकाहृदय कृष्ण से पूरित था।
जब परमेश्वर के दो निजी दास, जिनके नाम सुनन्द तथा नन्द थे,प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए उनके पास पहुँचे तो ध्रुव महाराज हाथ जोड़कर नग्नतापूर्वक सिर नीचाकिये खड़े हो गये।
तब उन्होंने धुत्र महाराज को इस प्रकार से सम्बोधित किया।
"
सुनन्दनन्दावूचतु:भो भो राजन्सुभद्वं ते वा नोउवहितः श्रृणु ।
यः पशञ्ञवर्षस्तपसा भवान्देवमतीतृपत् ॥
२३॥
सुनन्द-नन्दौ ऊचतु:--सुनन्द तथा नन्द ने कहा; भो: भो: राजन्--हे राजा; सु-भद्रम्ू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; वाचम्--शब्द; न:ः--हमारे; अवहितः-ध्यानपूर्वक; श्रुणु--सुनो; यः--जो; पश्च-वर्ष:--पाँच वर्ष के; तपसा--तपस्या द्वारा; भवान्--आप; देवम्-- भगवान्; अतीतृपत्-- अत्यधिक प्रसन्न |
विष्णु के दोनों विश्वस्त पार्षद सुनन्द तथा नन्द ने कहा : हे राजनू, आपका कल्याण हो।
हमजो कहें, कृपया उसे ध्यानपूर्वक सुनें।
जब आप पाँच वर्ष के थे तो आपने कठिन तपस्या की थीऔर उससे आपने पुरुषोत्तम भगवान् को अत्यधिक प्रसन्न कर लिया था।
"
तस्याखिलजगद्धातुरावां देवस्य शार्डलिण: ।
पार्षदाविह सम्प्राप्तौ नेतुं त्वां भगवत्पदम् ॥
२४॥
तस्य--उसके; अखिल--सम्पूर्ण; जगत्ू--ब्रह्माण्ड; धातु: --स्त्रष्टा; आवाम्--हम दोनों; देवस्थ-- भगवान् के; शार्किण: --शार्ड्र धनुष को धारण करने वाले; पार्षदौ--पार्षद; इह--अब; सम्प्राप्ती--पास आये हैं; नेतुम्--ले जाने के लिए; त्वामू--तुमको; भगवत्ू-पदम्-- भगवान् के स्थान तक |
हम उन भगवान् के प्रतिनिधि हैं, जो समग्र ब्रह्माण्ड का स्त्रष्टा हैं और हाथ में शार्ड़् नामकधनुष को धारण किये रहते हैं।
आपको वैकुण्ठलोक ले जाने के लिए हमें विशेष रूप से नियुक्तकिया गया है।
"
सुदुर्जयं विष्णुपदं जितं त्वयायत्सूरयोप्राप्य विचक्षते परम् ।
आतिष्ठ तच्चन्द्रदिवाकरादयोग्रहर्क्षतारा: परियन्ति दक्षिणम् ॥
२५॥
सुदुर्जयम्-प्राप्त करना कठिन; विष्णु-पदम्--विष्णुलोक ; जितम्--जीता गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; यत्--जो; सूरय:--बड़े-बड़े देवता; अप्राप्प--बिना प्राप्त किये; विचक्षते--केवल देखते हैं; परमू--परम; आतिष्ठ-- आइये; तत्--उस; चन्द्र--चन्द्रमा; दिव-आकर--सूर्य; आदय:--इत्यादि; ग्रह--नौ ग्रह ( बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल बृहस्पति, शनि, युरेनस, नेष्चून तथाप्लुटो ); ऋक्ष-तारा:--नक्षत्र; परियन्ति--परिक्रमा करते हैं; दक्षिणम्--दाईं ओर।
विष्णुलोक को प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन है, किन्तु आपने अपनी तपस्या से उसे जीतलिया है।
बड़े-बड़े ऋषि तथा देवता भी इस पद को प्राप्त नहीं कर पाते।
परमधाम( विष्णुलोक ) के दर्शन करने के लिए ही सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह, तारे, चन्द्र-भुवन( नक्षत्र ) तथा सौर-मण्डल उसकी परिक्रमा करते हैं।
कृपया आइये, वहाँ जाने के लिए आपकास्वागत है।
"
अनास्थितं ते पितृभिरन्यैरप्यड़ कर्हिचित् ।
आतिष्ठ जगतां वन्द्यं तद्विष्णो: परमं पदम् ॥
२६॥
अनास्थितमू--कभी भी प्राप्त नहीं हुआ; ते--तुम्हारे; पितृभि:--पूर्वजों द्वारा; अन्यै:--अन्यों के द्वारा; अपि-- भी; अड्भ--हेध्रुव; कर्हिचित्ू--कभी भी; आतिष्ठ--आकर रहिये; जगताम्--ब्रह्माण्ड के वासियों द्वारा; वन्द्यम्ू--पूज्य; तत्ू--वह;विष्णो: --विष्णु का; परमम्-परम; पदम्--पद, स्थान।
हे राजा श्रुव, आज तक न तो आपके पूर्वजों ने, न अन्य किसी ने ऐसा दिव्य लोक प्राप्तकिया है।
यह विष्णुलोक, जहाँ विष्णु निवास करते हैं, सबों से ऊपर है।
यह अन्य सभी इसब्रह्माण्डों के निवासियों द्वारा पूजित है।
आप हमारे साथ आयें और वहाँ शाश्वत वास करें।
"
एतद्ठिमानप्रवरमुत्तमशलोकमौलिना ।
उपस्थापितमायुष्मन्नधिरोढुं त्वमहसि ॥
२७॥
एतत्--वह; विमान--विमान; प्रवरम्--अद्वितीय; उत्तमशलोक-- भगवान्; मौलिना--समस्त जीवात्माओं में शिरोमणि;उपस्थापितम्-- भेजा है; आयुष्मन्--हे दीर्घजीवी; अधिरोढुम्--चढ़ने के लिए; त्वमू--तुम; अहसि--योग्य हो |
हे दीर्घजीवी, इस अद्वितीय विमान को उन भगवान् ने भेजा है, जिनकी स्तुति उत्तम एलोकोंद्वारा की जाती है और जो समस्त जीवात्माओं के प्रमुख हैं।
आप इस विमान में चढ़ने के सर्वथायोग्य हैं।
"
मैत्रेय उवाचनिशम्य वैकुण्ठनियोज्यमुख्ययो-मैधुच्युतं वाचमुरुक्रमप्रिय: ।
कृताभिषेकः कृतनित्यमड्रलोमुनीन्प्रणम्याशिषमभ्यवादयत् ॥
२८ ॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; निशम्य--सुनकर; वैकुण्ठ-- भगवान् के; नियोज्य--पार्षद; मुख्ययो:--प्रधान के; मधु-च्युतम्ू--मधु ढालनेवाले, अमृतमय; वाचम्--वचन; उरुक्रम-प्रियः--भगवान् के प्रिय, ध्रुव महाराज; कृत-अभिषेक:--स्नानकरके; कृत--निवृत्त; नित्य-मड्गडलः --अपने नैत्यिक कर्म; मुनीन्--मुनियों को; प्रणम्य--नमस्कार करके; आशिषम्--आशीर्वाद; अभ्यवादयत्--स्वीकार किया।
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा: श्रुव महाराज भगवान् के अत्यन्त प्रिय थे।
जब उन्होंनेश़वैकुण्ठलोक वासी भगवान् के मुख्य पार्षदों की मधुरवाणी सुनी तो उन्होंने तुरन्त स्नान किया,अपने को उपयुक्त आभूषणों से अलंकृत किया और अपने नित्य आध्यात्मिक कर्म सम्पन्न किए।
तत्पश्चात् उन्होंने वहाँ पर उपस्थित ऋषियों को प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद ग्रहण किया।
"
परीत्याभ्यर्च्य धिष्णयाछयं पार्षदावभिवन्द्य च ।
इयेष तदधिष्टातुं बिश्रद्रूपं हिरण्मयम् ॥
२९॥
परीत्य--प्रदक्षिणा करके; अभ्यर्च्य--पूजा करके; धिष्णय-अछयम्--दिव्य विमान; पार्षदौ--दोनों पार्षदों को; अभिवन्द्य--नमस्कार करके; च--भी; इयेष--प्रयत्त करने लगे; तत्--उस यान; अधिष्ठातुम--चढ़ने के लिए; बिभ्रतू--देदीप्यमान;रूपम्ू--अपना स्वरूप; हिरण्मयम्--सुनहलाचढ़ने के पूर्व
ध्रुव महाराज ने विमान की पूजा की, उसकी प्रदक्षिणा की और विष्णु केपार्षदों को भी नमस्कार किया।
इसी दौरान वे पिघले सोने के समान तेजमय तथा देदीप्यमान होउठे।
इस प्रकार से वे उस दिव्ययान में चढ़ने के लिए पूर्णतः सन्नद्ध थे।
"
तदोत्तानपद: पुत्रो ददर्शान्तकमागतम् ।
मृत्योमूर्थिन पदं दत्त्ता आरुरोहाद्भुतं गृहम् ॥
३०॥
तदा--तब; उत्तानपदः--राजा उत्तानपाद के; पुत्र:--पुत्र ने; ददर्श--देखा; अन्तकम्--साक्षात् मृत्यु को; आगतम्ू--आयाहुआ; मृत्योः मूर्थ्नि-- मृत्यु के सिर पर; पदम्--पाँव; दत्त्ता--रखकर; आरुरोह--चढ़ गये; अद्भुतम्--आश्चर्यमय; गृहम्--विमान में जो भवन के तुल्य था।
जब श्लरुव महाराज उस दिव्य विमान में चढ़ने जा रहे थे तो उन्होंने साक्षात् काल ( मृत्यु ) कोअपने निकट आते देखा।
किन्तु उन्होंने मृत्यु की परवाह नहीं की; उन्होंने इस अवसर का लाभउठाकर काल के सिर पर अपने पाँव रख दिये और वे विमान में चढ़ गये जो इतना विशाल थाकि जैसे एक भवन हो।
"
तदा दुन्दुभयो नेदुर्मृदड्णणवादय: ।
गन्धर्वमुख्या: प्रजगुः पेतु: कुसुमवृष्टयः ॥
३१॥
तदा--उस समय; दुन्दुभय:--दुन्दु भी; नेदुः--बजने लगे; मृदड़--मृदंग; पणव--ढोल; आदय:--इत्यादि; गन्धर्व-मुख्या:--गन्धर्वलोक के मुख्य निवासी; प्रजगु:--गाने लगे; पेतु:--वर्षा की; कुसुम--फूल; वृष्टय:--वर्षा की तरह।
उस समय ढोल, मृदंग तथा दुन्दुभी के शब्द आकाश से गूँजने लगे, प्रमुख-प्रमुख गंधर्व जनगाने लगे और अन्य देवताओं ने ध्रुव महाराज पर फूलों की मूसलाधार वर्षा की।
"
सच स्वरलोकमारोक्ष्यन्सुनीतिं जननीं ध्रुव: ।
अन्वस्मरदगं हित्वा दीनां यास्ये त्रिविष्टपम् ॥
३२॥
सः--वह; च-- भी; स्वः-लोकम्--दैव लोक को; आरोक्ष्यनू--चढ़ते समय; सुनीतिम्--सुनीति को; जननीम्ू--माता; श्रुवः--ध्रुव महाराज ने; अन्वस्मरत्--स्मरण किया; अगम्--प्राप्त करना कठिन; हित्वा--पीछे छोड़ कर; दीनाम्--बेचारी; यास्ये--मैंजाऊँगा; त्रि-विष्टपम्--वैकुण्ठलोक को |
ध्रुव महाराज जब उस दिव्य विमान पर बैठे थे, जो चलनेवाला था, तो उन्हें अपनी बेचारीमाता सुनीति का स्मरण हो आया।
वे सोचने लगे, 'मैं अपनी बेचारी माता को छोड़ करवैकुण्ठलोक अकेले कैसे जा सकूँगा ?'" इति व्यवसितं तस्य व्यवसाय सुरोत्तमौ ।
दर्शयामासतुर्देवीं पुरो यानेन गच्छतीम् ॥
३३॥
इति--इस प्रकार; व्यवसितम्--चिन्तन; तस्य-- ध्रुव का; व्यवसाय--ज्ञान; सुर-उत्तमौ--दो प्रमुख पार्षद; दर्शयाम् आसतु:--( उसको ) दिखाया; देवीम्--पूज्या सुनीति; पुर: --समक्ष; यानेन--विमान से; गच्छतीम्--आगे जाती हुईं।
वैकुण्ठलोक के महान् पार्षद नन््द तथा सुनन्द ध्रुव महाराज के मन की बात जान गये, अतःउन्होंने उन्हें दिखाया कि उनकी माता सुनीति दूसरे यान में आगे-आगे जा रही हैं।
"
तत्र तत्र प्रशंसद्द्धिः पथि वैमानिकै: सुरैः ।
अवकीर्यमाणो दहशे कुसुमै: क्रमशो ग्रहान् ॥
३४॥
तत्र तत्र--जहाँ-तहाँ; प्रशंसद््धिः-- ध्रुव महाराज के प्रशंसकों द्वारा; पथि--रास्ते में; वैमानिकै :--विभिन्न प्रकार के यानों द्वारा लेजाये जानेवाले; सुरैः--देवताओं द्वारा; अवकीर्यमाण:--बिखेरा जाकर; ददृशे--देख सके; कुसुमैः-- फूलों से; क्रमशः--एकके पश्चात् एक; ग्रहान्ू--सौर मण्डल के समस्त ग्रह ।
आकाश-मार्ग से जाते हुए श्रुव महाराज ने क्रमश: सौर मण्डल के सभी ग्रहों को देखा औररास्ते में समस्त देवताओं को उनके विमानों में से अपने ऊपर फूलों की वर्षा करते देखा।
"
त्रिलोकीं देवयानेन सोतिब्रज्य मुनीनपि ।
परस्ताद्यद्ध्रुवगतिर्विष्णो: पदमथाभ्यगात् ॥
३५॥
त्रि-लोकीम्--तीनों लोक; देव-यानेन--दिव्य विमान से; सः--ध्रुव; अतितब्रज्य--पार करके; मुनीन्ू--मुनिगण; अपि-- भी;परस्तात्--परे; यत्ू--जो; ध्रुव-गति:ः--श्लुव जिन्होंने अविचल जीवन प्राप्त किया; विष्णो: -- भगवान् विष्णु का; पदम्--धाम;अथ--तब; अभ्यगात्--प्राप्त किया।
इस प्रकार श्रुव महाराज ने सप्तर्षि कहलानेवाले ऋषियों के सात लोकों को पार किया।
इसके परे उन्होंने उस लोक में अविचल दिव्य पद प्राप्त किया जहाँ भगवान् विष्णु वास करते हैं।
"
यदभ्राजमानं स्वरुचैव सर्वतोलोकामस्त्रयो ह्ानु विश्राजन्त एते ।
यन्नाव्रजञझ्ञन्तुषु येननुग्रहाब्रजन्ति भद्राणि चरन्ति येडनिशम् ॥
३६॥
यत्--जो लोक; भ्राजमानम्--आलोकित; स्व-रुचा--अपने तेज से; एब--केवल; सर्वतः--सब जगह; लोका:--लोक;त्रयः--तीन; हि--निश्चय ही; अनु--तत्पश्चात्; विश्राजन्ते-- प्रकाश करते हैं; एते--ये; यत्ू--जो लोक; न--नहीं; अब्रजनू--पहुँच गये हैं; जन्तुषु--जीवात्माओं को; ये--जो; अननुग्रहा: --रुष्ट; ब्रजन्ति--पहुँचते हैं; भद्राणि--शुभ कार्य; चरन्ति--प्रवृत्तहोते हैं; ये--जो; अनिशम्--निरन्तर।
जो लोग दूसरे जीवों पर दयालु नहीं होते, वे स्वतेजोमय इन बैकुण्ठलोकों में नहीं पहुँच पाते, जिनके प्रकाश से इस भौतिक ब्रह्माण्ड के सभी लोक प्रकाशित हैं।
जो व्यक्ति निरन्तरअन्य प्राणियों के कल्याणकारी कार्यों में लगे रहते हैं, केवल वे ही वैकुण्ठलोक पहुँच पाते हैं।
"
शान्ता: समहशः शुद्धा: सर्वभूतानुरझना: ।
यान्त्यञ्ञसाच्युतपदमच्युतप्रियबान्धवा: ॥
३७॥
शान्ताः--शान्त; सम-हृशः --समदर्शी ; शुद्धा:--पवित्र; सर्व--समस्त; भूत--जीवात्माएँ; अनुरज्जना: -- प्रसन्न करनेवाले;यान्ति--जाते हैं; अज्लसा--सरलतापूर्वक; अच्युत-- भगवान् के; पदम्--धाम को; अच्युत-प्रिय-- भगवान् के भक्त;बान्धवा:--मित्र |
जो शानन््त, समदर्शी तथा पवित्र हैं तथा जो अन्य सभी जीवात्माओं को प्रसन्न करने की कलाजानते हैं, वे भगवान् के भक्तों से ही मित्रता रखते हैं।
केवल वे ही वापस घर को अर्थात्भगवान् के धाम को सरलता से जाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
"
इत्युत्तानपदः पुत्रो श्रुवः कृष्णपरायण: ।
अभूत्रयाणां लोकानां चूडामणिरिवामलः ॥
३८॥
इति--इस प्रकार; उत्तानपद:ः--महाराज उत्तानपाद का; पुत्र: --पुत्र; ध्रुवः-- ध्रुव महाराज; कृष्ण-परायण: --पूर्णतयाकृष्णभावनाभावित; अभूत्--हुआ; त्रयाणाम्--तीनों; लोकानाम्-- लोकों का; चूडा-मणि:--शीशफूल, श्रेष्ठ; इब--समान;अमलः- शुद्ध, पवित्र |
इस प्रकार महाराज उत्तानपाद के अति सम्माननीय पुत्र, पूरी तरह से कृष्णभावनाभावितध्रुव महाराज ने तीनों लोकों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया।
"
गम्भीरवेगोनिमिषं ज्योतिषां चक्रमाहितम् ।
यस्मिन्श्रमति कौरव्य मेढ्यामिव गवां गण: ॥
३९॥
गम्भीर-वेग: -- अत्यधिक वेग से; अनिमिषम्--निरन्तर; ज्योतिषाम्--नक्षत्रों का; चक्रमू--गोलक; आहितम्--जड़ा हुआ;यस्मिनू--जिसके चारों ओर; भ्रमति--घूमता है, चक्कर लगाता है; कौरव्य--हे विदुर; मेढ्याम्--मध्यवर्ती स्तम्भ; इब--सहश;गवाम्--बैलों का; गण:--समूह |
सन्त मैत्रेय ने आगे कहा : हे कौरव वंशी विदुर, जिस प्रकार बैल अपनी दाईं ओर बाँधेमध्यवर्ती लट्ठे के चारों ओर चक्कर लगाते हैं, उसी प्रकार आकाश के सभी नक्षत्र अत्यन्त वेग सेश्रुव महाराज के धाम का निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं।
"
महिमानं विलोक्यास्य नारदो भगवानृषि: ।
आतोद्य॑ं वितुदज्श्लोकान्सत्रेडगायत्प्रचेतसाम् ॥
४० ॥
महिमानम्--यश; विलोक्य--देखकर; अस्य-- ध्रुव महाराज का; नारद:--नारद मुनि; भगवान्-- भगवान् के ही समान पूज्य;ऋषि:--सनन््त; आतोद्यम्--वीणा; वितुदन्--बजाते हुए; श्लोकानू--श्लोक; सत्रे--यज्ञस्थल में; अगायत्--उच्चारण किया;प्रचेतसाम्--प्रचेताओं के |
ध्रुव महाराज की महिमा को देख कर, नारद मुनि अपनी वीणा बजाते प्रचेताओं केयज्ञस्थल पर गये और प्रसन्नतापूर्वक निम्नलिखित तीन इलोकों का उच्चार किया।
"
नारद उवाचनूनं सुनीते: पतिदेवताया-स्तपःप्रभावस्य सुतस्य तां गतिम् ।
इृष्ठाभ्युपायानपि वेदवादिनोनैवाधिगन्तुं प्रभवन्ति कि नूपा: ॥
४१॥
नारदः उवाच--नारद ने कहा; नूनम्--निश्चय ही; सुनीते: --सुनीति का; पति-देवताया:--पति-परायणा, अत्यन्त पतिक्रता;तपः-प्रभावस्य--तप के प्रभाव से; सुतस्य--पुत्र का; तामू--उस; गतिम्--स्थिति को; इृष्ला--देखकर; अभ्युपायान्--साधन;अपि--यद्यपि; वेद-वादिनः--वैदिक नियमों के पालक या तथाकथित वेदान्ती; न--कभी नहीं; एव--निश्चय ही;अधिगन्तुम्ू--प्राप्त करने के लिए; प्रभवन्ति--पात्र हैं; किमू-- क्या कहा जाये; नृपा:--सामान्य राजाओं की।
महर्षि नारद ने आगे कहा : अपनी आत्मिक उन्नति तथा सशक्त तपस्या के प्रभाव से हीपतिपरायणा सुनीति के पुत्र श्रुव महाराज ने ऐसा उच्च पद प्राप्त किया है, जो तथाकथितवेदान्तियों के लिए भी प्राप्त करना सम्भव नहीं, सामान्य मनुष्यों की तो बात ही क्या कही जाये।
"
यः पञ्ञवर्षो गुरुदारवाक्शरै-भिन्नेन यातो हृदयेन दूयता ।
वन॑ मदादेशकरोऊजितं प्रभुंजिगाय तद्धक्तगुणै: पराजितम् ॥
४२॥
यः--जो; पश्ञ-वर्ष:--पाँच वर्ष की अवस्था में; गुरु-दार--अपने पिता की पत्नी के; वाक्ू-शरैः--कटु बचनों से; भिन्नेन--मर्माहत, अत्यधिक दुखित होकर; यात:-- चला गया; हृदयेन--क्योंकि उसका हृदय; दूयता--अत्यधिक पीड़ित; वनम्--जंगल; मत्-आदेश--मेरे आदेश के अनुसार; करः--कार्य करते हुए; अजितम्--न जीता जा सकने योग्य; प्रभुम्-- भगवान्को; जिगाय--परास्त कर दिया; तत्ू--उसके; भक्त--भक्तों के; गुणैः--गुणों से; पराजितम्--जीता हुआ
महर्षि नारद ने आगे कहा : देखो न, किस प्रकार श्रुव महाराज अपनी विमाता के कटुबचनों से मर्माहत होकर केवल पाँच वर्ष की अवस्था में जंगल चले गये और उन्होंने मेरे निर्देशनमें तपस्या की।
यद्यपि भगवान् अजेय हैं, किन्तु श्रुव महाराज ने भगवद्भक्तों के विशिष्ट गुणों सेसमन्वित होकर उन्हें परास्त कर दिया।
"
यः क्षत्रबन्धुर्भुवि तस्याधिरूढ-मन्वारुरुक्षेदपि वर्षपूगैः ।
घट्पञ्जवर्षो यदहोभिरल्पै:प्रसाद्य वैकुण्ठमवाप तत्पदम् ॥
४३॥
यः--जो; क्षत्र-बन्धु:--क्षत्रिय का पुत्र; भुवि--पृथ्वी पर; तस्य-- ध्रुव का; अधिरूढम्--उच्च पद; अनु--पीछे; आरुरुक्षेत् --प्राप्त करने की इच्छा कर सकता है; अपि-- भी; वर्ष-पूगैः--अनेक वर्षों के पश्चात्; षट्-पञ्ञ-वर्ष:--पाँच या छः वर्ष का;यत्--जो; अहोभि: अल्पै:--कुछ दिनों बाद; प्रसाद्य--प्रसन्न करके; वैकुण्ठम्-- भगवान्; अवाप--प्राप्त किया; तत्-पदम्--उस ( भगवान् ) का धाम।
श्रुव महाराज ने पाँच-छह वर्ष की अवस्था में ही छह मास तक तपस्या करके उच्च पद प्राप्तकर लिया।
ओह! कोई बड़े से बड़ा क्षत्रिय अनेक वर्षों की तपस्या के बाद भी ऐसा पद प्राप्तनहीं कर सकता।
"
मैत्रेय उवाचएतत्तेडभिहितं सर्व यत्पृष्टोडहमिह त्वया ।
ध्रुवस्योद्यामयशसश्चरितं सम्मतं सताम् ॥
४४॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; एतत्--यह; ते--तुमसे; अभिहितम्--वर्णित; सर्वम्--सब कुछ; यत्-- जो; पृष्ठ: अहम्--मुझसेपूछा गया; इह--यहाँ; त्वया--तुम्हारे द्वारा; श्रुवस्थ-- ध्रुव महाराज का; उद्दाम--उत्कर्षकारी; यशसः --जिसकी ख्याति;चरितम्--चरित्र; सम्मतम्-स्वीकृत; सताम्-भक्तों द्वारा
मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, तुमने मुझसे श्रुव महाराज की परम ख्याति तथा चरित्रके विषय में जो कुछ पूछा था वह सब मैंने विस्तार से बता दिया है।
बड़े-बड़े साधु पुरुष तथाभक्त ध्रुव महाराज के विषय में सुनने की इच्छा रखते हैं।
"
धन्यं यशस्यमायुष्य॑ पुण्यं स्वस्त्ययनं महत् ।
स्वर्ग्य क्षौव्यं सौमनस्यं प्रशस्यमघमर्षणम् ॥
४५॥
धन्यम्ू--धन देनेवाला; यशस्यम्-- ख्याति देनेवाला; आयुष्यम्-- आयु बढ़ानेवाला; पुण्यम्--पवित्र; स्वस्ति-अयनम्--कल्याण उत्पन्न करने वाला; महत्--महान; स्वर्ग्यम्--स्वर्ग प्राप्त करानेवाला; श्रौव्यमू--या शुवलोक; सौमनस्यम्--मन कोभानेवाला; प्रशस्यम्--यशस्वी; अघ-मर्षणम्--समस्त पापों का नाश करनेवाला |
ध्रुव के आख्यान को सुनकर मनुष्य अपनी सम्पत्ति, यश तथा दीर्घायु की इच्छा को पूरा करसकता है।
यह इतना कल्याणकर है कि इसके श्रवणमात्र से मनुष्य स्वर्गलोक को जा सकता है,अथवा श्रुवलोक को प्राप्त कर सकता है।
देवता भी प्रसन्न होते हैं, क्योंकि यह आख्यान इतनायशस्वी है, इतना सशक्त है कि यह सारे पापकर्मों के फल का नाश करनेवाला है।
"
श्रुत्वैतच्छुद्धयाभी क्षणमच्युतप्रियचेष्टितम् ।
भवेद्धक्तिर्भगवति यया स्यात्कलेशसड्क्षय: ॥
४६॥
श्रुत्वा--सुन कर; एतत्--यह; श्रद्धया-- श्रद्धा से; अभीक्षणम्--बारम्बार; अच्युत-- भगवान् को; प्रिय-- प्रिय; चेष्टितम्--कार्यकलाप; भवेत्--उत्पन्न करता है; भक्ति:-- भक्ति; भगवति-- भगवान् में ; यया--जिससे; स्यात्--हो सके; क्लेश--कष्टोंका; सड्क्षय:--पूर्ण विनाश जो भी
श्रुव महाराज के आख्यान को सुनता है और श्रद्धा तथा भक्ति के साथ उनके शुद्धचरित्र को समझने का बारम्बार प्रयास करता है, वह शुद्ध भक्तिमय धरातल प्राप्त करता है औरेशुद्ध भक्ति करता है।
ऐसे कार्यों से मनुष्य भौतिक जीवन के तीनों तापों को नष्ट कर सकता हैं।
"
महत्त्वमिच्छतां तीर्थ श्रोतु: शीलादयो गुणा: ।
यत्र तेजस्तदिच्छूनां मानो यत्र मनस्विनाम् ॥
४७॥
महत्त्वम्--बड़प्पन; इच्छताम्--इच्छा करनेवालों को; तीर्थम्--विधि; श्रोतु:--सुननेवाले का; शील-आदय: --सच्चरित्रइत्यादि; गुणा: --गुण; यत्र--जिसमें; तेज:-- तेज; तत्--वह; इच्छूनामू--कामना करनेवालों को; मान: --सम्मान; यत्र--जिसमें; मनस्विनाम्--विचारवान पुरुषों कोजो कोई भी श्रुव महाराज के इस आख्यान को सुनता है, वह उन्हीं के समान उत्तम गुणों को प्राप्त करता है।
जो कोई महानता, तेज या बड़प्पन चाहता है उन्हें प्राप्त करने की विधि यही है।
जो विचारवान पुरुष सम्मान चाहते हैं, उनके लिए उचित साधन यही है।
"
प्रयतः कीर्तयेत्प्रातः: समवाये द्विजन्मनाम् ।
सायं च पुण्यश्लोकस्य ध्रुवस्य चरितं महत् ॥
४८॥
प्रयतः--सावधानी से; कीर्तयेत्ू-- कीर्तन करे; प्रातः--प्रातःकाल; समवाये--संगति में; द्वि-जन्मनामू--ट्विजों की; सायमू--संध्या समय; च-- भी; पुण्य-शलोकस्य--पवित्र ख्याति के; ध्रुवस्थ-- ध्रुव का; चरितम्--चरित्र; महत्--महान।
मैत्रेय मुनि ने संस्तुति की : मनुष्य को चाहिए कि प्रातः तथा सायंकाल अत्यन्त ध्यानपूर्वकब्राह्मणों अथवा अन्य की संगति में ध्रुव महाराज के चरित्र तथा कार्य-कलापों का संकीर्तन करे।
"
पौर्णमास्यां सिनीवाल्यां द्वादश्यां श्रवणेथवा ।
दिनक्षये व्यतीपाते सड्क्रमेउर्कदिनेडपि वा ॥
४९॥
श्रावयेच्छुद्दधानानां तीर्थपादपदा श्रय: ।
नेच्छस्तत्रात्मनात्मानं सन्तुष्ट इति सिध्यति ॥
५०॥
पौर्णमास्याम्--पूर्णमासी के दिन; सिनीवाल्यामू--अमावस्या के दिन; द्वादश्यामू--एकादशी के एक दिन बाद, द्वादशी को;श्रवणे-- श्रवण नक्षत्र के उदयकाल में; अथवा--या; दिन-क्षये--तिथि क्षय; व्यतीपाते--नाम का विशेष दिन; सड्क्रमे--मासके अन्त में; अर्कदिने--रविवार को; अपि-- भी; वा--अथवा; श्रावयेत्--सुनाना चाहिए; श्रद्धधानानाम्-- श्रद्धालु श्रोताओंको; तीर्थ-पाद-- भगवान् का; पद-आश्रय: --चरणकमल की शरण में आये; न इच्छन्--न चाहते हुए; तत्र--वहाँ;आत्मना--स्व के द्वारा; आत्मानम्ू--मन; सन्तुष्ट:--सन्तुष्ट; इति--इस प्रकार; सिध्यति--सिद्ध हो जाता है |
जिन व्यक्तियों ने भगवान् के चरण-कमलों की शरण ले रखी है उन्हें किसी प्रकार कापारिश्रमिक लिये बिना ही श्ुव महाराज के इस आख्यान को सुनाना चाहिए।
विशेष रूप सेपूर्णमासी, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र के प्रकट होने पर, तिथिक्षय पर या व्यतीपात केअवसर पर, मास के अन्त में या रविवार को यह आख्यान सुनाया जाए निस्सन्देह, इसे अनुकूलश्रोताओं के समक्ष सुनाएँ।
इस प्रकार बिना किसी व्यावसायिक उद्देश्य के सुनाने पर वाचक तथाश्रोता दोनों सिद्ध हो जाते हैं।
"
ज्ञानमज्ञाततत्त्वाय यो दद्यात्सत्पथेडमृतम् ।
कृपालोदीननाथस्य देवास्तस्यानुगृह्वते ॥
५१॥
ज्ञानमू--ज्ञान; अज्ञात-तत्त्वाय--सत्य से अपरिचितों को; यः--जो; दद्यातू-देता है; सत्ू-पथे--सत्य के मार्ग पर; अमृतम्ू--अमरत्व; कृपालो:--कृपालु; दीन-नाथस्य--दीनों के रक्षक; देवा:--देवतागण; तस्य--उसको; अनुगृह्वते--आशीर्वाद देते हैं।
भ्रुव महाराज का आख्यान अमरता प्राप्त करने के लिए परम ज्ञान है।
जो लोग परम सत्य सेअवगत नहीं हैं, उन्हें सत्य के मार्ग पर ले जाया जा सकता है।
जो लोग दिव्य कृपा के कारणदीन जीवात्माओं के रक्षक बनने का उत्तरदायित्व ग्रहण करते हैं, उन्हें स्वतः ही देवताओं कीकृपा तथा आशीर्वाद प्राप्त होते हैं।
"
इदं मया तेभिहितं कुरूद्रहध्रुवस्य विख्यातविशुद्धकर्मण: ।
हित्वार्भकः क्रीडनकानि मातु-गृह च विष्णुं शरणं यो जगाम ॥
५२॥
इदम्--यह; मया--मेरे द्वारा; ते--तुमको; अभिहितम्--वर्णित; कुरु-उद्ठद--हे कुरुओं सर्वश्रेष्ठ; ध्रुवस्थ-- ध्रुव का;विख्यात--अत्यन्त प्रसिद्ध; विशुद्ध--अत्यन्त शुद्ध; कर्मण: --जिसके कर्म; हित्वा--त्यागकर; अर्भक:--बालक;क्रीडनकानि--खिलौने तथा खेलने की अन्य वस्तुएँ; मातु:--अपनी माता का; गृहम्--घर; च-- भी ; विष्णुम्--विष्णु की;शरणम्--शरण; य:--जो; जगाम--चला गया।
ध्रुव महाराज के दिव्य कार्य सारे संसार में विख्यात हैं और वे अत्यन्त शुद्ध हैं।
बचपन मेंध्रुव महाराज ने सभी खिलौने तथा खेल की वस्तुओं का तिरस्कार किया, अपनी माता कासंरक्षण त्यागा और भगवान् विष्णु की शरण ग्रहण की।
अत: हे विदुर, मैं इस आख्यान कोसमाप्त करता हूँ, क्योंकि तुमसे इसके बारे में विस्तार से कह चुका हूँ।
"
अध्याय तेरह: ध्रुव महाराज के वंशजों का वर्णन
4.13सूत उबाचनिशम्य कौषारविणोपवर्णितंध्रुवस्य वैकुण्ठपदाधिरोहणम् ।
प्ररूढठभावो भगवत्यधोक्षजेप्रष्ठ पुनस्तं विदुरः प्रचक्रमे ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; निशम्य--सुनकर; कौषारविणा--मैत्रेय से; उपवर्णितम्--वर्णित; श्रुवस्थ-- ध्रुव का;बैकुण्ठ-पद--विष्णु-धाम को; अधिरोहणम्--आरूढ़ होना; प्ररूढ--बढ़ा हुआ; भाव: -- भक्तिभाव; भगवति-- भगवान् केप्रति; अधोक्षजे--जो प्रत्यक्ष अनुभव से परे है; प्रष्टमू--पूछने के लिए; पुनः--फिर; तम्--मैत्रेय को; विदुर:--विदुर ने;प्रचक्रमे-- प्रयास किया
सूत गोस्वामी ने शौनक इत्यादि समस्त ऋषियों से आगे कहा : मैत्रेय ऋषि द्वारा श्रुव महाराजके विष्णुधाम में आरोहण का वर्णन किये जाने पर विदुर में भक्तिभाव का अत्यधिक संचार होउठा और उन्होंने मैत्रेय से इस प्रकार पूछा।
"
विदुर उवाचके ते प्रचेतसो नाम कस्यापत्यानि सुब्रत ।
कस्यान्ववाये प्रख्याता: कुत्र वा सत्रमासत ॥
२॥
विदुरः उवाच--विदुर ने पूछा; के --कौन थे; ते--वे; प्रचेतस:--प्रचेतागण; नाम--नाम के; कस्य--किसके; अपत्यानि--पुत्र; सु-ब्रत--हे शुभ ब्रतधारी मैत्रेय; कस्य--किसके ; अन्ववाये--कुल में; प्रख्याता:-- प्रसिद्ध; कुत्र--कहाँ; वा-- भी;सत्रम्ू-यज्ञ; आसत--सम्पन्न हुआ
विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे महान् भक्त, प्रचेतागण कौन थे? वे किस कुल के थे? वेकिसके पुत्र थे और उन्होंने कहाँ पर महान् यज्ञ सम्पन्न किये ?"
मन्ये महाभागवतं नारदं देवदर्शनम् ।
येन प्रोक्त: क्रियायोग: परिचर्याविधिहरे: ॥
३॥
मन्ये--सोचता हूँ; महा-भागवतम्--समस्त भक्तों में महान्; नारदम्--नारद मुनि को; देव--भगवान्; दर्शनम्--मिलने वाले;येन--जिसके द्वारा; प्रोक्त:--कहा गया; क्रिया-योग:-- भक्तियोग; परिचर्या--सेवा करने के लिए; विधि:--विधि; हरे:--भगवान् की।
विदुर ने कहा : मैं जानता हूँ कि नारद मुनि समस्त भक्तों के शिरोमणि हैं।
उन्होंने भक्ति कीपांचरात्रिक विधि का संकलन किया है और भगवान् से साक्षात् भेंट की है।
"
स्वधर्मशीलै: पुरुषैरभगवान्यज्ञपूरुष: ।
इज्यमानो भक्तिमता नारदेनेरित: किल ॥
४॥
स्व-धर्म-शीलै:--यज्ञ कर्म करते हुए; पुरुषै:--व्यक्तियों द्वारा; भगवान्ू-- भगवान्; यज्ञ-पूरुष:--समस्त यज्ञों के भोक्ता;इज्यमान: --पूजित होकर; भक्तिमता--भक्त द्वारा; नारदेन--नारद द्वारा; ईरित:--वर्णित; किल--निस्सन्देह
जब समस्त प्रचेता धार्मिक अनुष्ठान तथा यज्ञकर्म कर रहे थे और इस प्रकार भगवान् कोप्रसन्न करने के लिए पूजा कर रहे थे तो नारद मुनि ने ध्रुव महाराज के दिव्य गुणों का वर्णनकिया।
"
यास्ता देवर्षिणा तत्र वर्णिता भगवत्कथा: ।
महां शुश्रूषवे ब्रह्मन्कार््स्येनाचष्टमहसि ॥
५॥
या:--जो; ताः--वे सब; देवर्षिणा--नारद ऋषि द्वारा; तत्र--वहाँ; वर्णिता:--उल्लिखित; भगवत्-कथा:-- भगवान् केकार्यकलापों से सम्बन्धित उपदेश; महाम्--मुझको; शुश्रूषवे--सुनने के लिए इच्छुक; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; कार्त्स्येन -- पूर्णतः;आच्ष्टम् अर्हसि--कृपया बताइये ।
हे ब्राह्मण, नारद ने भगवान् का किस प्रकार गुणगान किया और उस सभा में किनलीलाओं का वर्णन हुआ? मैं उन्हें सुनने का इच्छुक हूँ।
कृपया विस्तार से भगवान् की उसमहिमा का वर्णन कीजिये।
"
मैत्रेय उवाचध्रुवस्यथ चोत्कल: पुत्र: पितरि प्रस्थिते वनम् ।
सार्वभौमश्रियं नैच्छद्धिराजासनं पितु: ॥
६॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; ध्रुवस्थ-- ध्रुव महाराज का; च-- भी; उत्कल:--उत्कल; पुत्र:--पुत्र; पितरि--पिता के पश्चात्;प्रस्थिते--चले जाने पर; वनम्--जंगल में; सार्ब-भौम--समस्त देशों सहित; भ्रियम्ू--सम्पदा; न ऐच्छत्ू--इच्छा नहीं की;अधिराज--राजसी; आसनमू--सिंहासन; पितु:ः--पिता के महामुनि
मैत्रेय ने उत्तर दिया : हे विदुर, जब श्रुव महाराज वन को चले गये तो उनके पुत्रउत्कल ने अपने पिता के वैभवपूर्ण राज सिंहासन की कोई कामना नहीं की, क्योंकि वह तो इसलोक के समस्त देशों के शासक के निमित्त था।
"
स जन्मनोपशान्तात्मा निःसड्र: समदर्शन: ।
ददर्श लोके विततमात्मानं लोकमात्मनि ॥
७॥
सः--वह, उत्कल; जन्मना--अपने जन्म से ही; उपशान्त--अत्यन्त संतुष्ट, संतोषी; आत्मा--जीव; निःसड्र:--आसक्ति-रहित;सम-दर्शन:--समदर्शी ; ददर्श--देखा; लोके --संसार में; विततमू--फैला; आत्मानम्--परमात्मा; लोकम्--सारा संसार;आत्मनि--परमात्मा मेंउत्कल जन्म से ही पूर्णतया सन्तुष्ट था तथा संसार से अनासक्त था।
वह समदर्शी था, क्योंकिवह प्रत्येक वस्तु को परमात्मा में और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा को स्थित देखता था।
"
आत्मानं ब्रह्म निर्वाणं प्रत्यस्तमितविग्रहम् ।
अवबोधरसैकात्म्यमानन्दमनुसन्ततम् ॥
८ ॥
अव्यवच्छिन्नयोगाग्निदग्धकर्ममलाशय: ।
स्वरूपमवरुन्धानो नात्मनोन्यं तदैक्षत ॥
९॥
आत्मानम्--स्व; ब्रह्म--आत्मा; निर्वाणम्--अस्तित्व का लोप; प्रत्यस्तमित--रूका हुआ; विग्रहम्--पार्थक्य, वियोग;अवबोध-रस--ज्ञान के रस से; एक-आत्म्यम्ू--एकाकार; आनन्दम्--आनन्द; अनुसन्ततम्--विस्तीर्ण; अव्यवच्छिन्न--सतत;योग--योगाभ्यास से; अग्नि-- अग्नि से; दग्ध--जला हुआ; कर्म--सकाम इच्छाएँ; मल--मलिन; आशय:--अपने मन में;स्वरूपम्--स्वाभाविक स्थिति; अवरुन्धान:--अनुभव करते हुए; न--नहीं; आत्मन:--परमात्मा की अपेक्षा; अन्यम्ू--कुछभी; तदा--तब; ऐक्षत--देखा
उसने परब्रह्म के विषय में अपने ज्ञान के प्रसार द्वारा पहले ही शरीर-बन्धन से मुक्ति प्राप्तकर ली थी।
यह मुक्ति निर्वाण कहलाती है।
वह दिव्य आनन्द की स्थिति को प्राप्त था और उसीआनन्दमय स्थिति में रहता रहा, जो अधिकाधिक बढ़ती जा रही थी।
यह सतत भक्तियोग केकारण ही सम्भव था जिसकी तुलना अग्नि से की गई है, जो समस्त मलिन भौतिक वस्तुओं कोभस्म कर देती है।
वह सदैव आत्म-साक्षात्कार की अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहता था औरभगवान् के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख सकता था और वह भक्तियोग में तल्लीन रहता था।
"
जडान्धबधिरोन्मत्तमूकाकृतिरतन्मति: ।
लक्षितः पथि बालानां प्रशान्तार्चिरिवानल: ॥
१०॥
जड--मूर्ख; अन्ध--अन्धा; बधिर--बहरा; उन्मत्त--पागल; मूक --गूँगा; आकृति: -- आकृति; अ-तत्--उस प्रकार का नहीं;मतिः--बुद्धि; लक्षित:--देखा जाता था; पथि--मार्ग पर; बालानाम्--अल्पज्ञों द्वारा; प्रशान्त--शान्त; अर्चि:--ज्वालाओं सेयुक्त; इब--सहश; अनल:--अग्नि
अल्पज्ञानी राह चलते लोगों को उत्कल मूर्ख, अन्धा, गूँगा, बहरा तथा पागल सा प्रतीत होता था, किन्तु वह वास्तव में ऐसा था नहीं।
वह उस अग्नि के समान बना रहा जो राख से ढकी होनेके कारण लपटों से रहित होती है।
"
मत्वा तं जडमुन्मत्तं कुलवृद्धा: समन्त्रिण: ।
वबत्सरं भूपतिं चक्रुर्यवीयांसं भ्रमेः सुतम् ॥
११॥
मत्वा--मान कर; तम्ू--उत्कल को; जडम्--बुद्धिहीन; उन्मत्तमू--पागल; कुल-वृद्धा:--कुल के गुरुजन; समन्त्रिण:--मंत्रियों समेत; वत्सरम्--वत्सर को; भू-पतिम्--संसार का शासक; चक्कु:--बनाया; यवीयांसम्--छोटा; भ्रमेः-- भ्रमि का;सुतम्-पुत्र |
फलत:ः मंत्रियों तथा कुल के समस्त गुरुजनों ने समझा कि उत्कल बुद्धिहीन और सचमुचही पागल है।
इस प्रकार उसका छोटा भाई, जिसका नाम वत्सर था और जो भ्रमि का पुत्र था,राजसिंहासन पर बिठा दिया गया और वह सारे संसार का राजा हो गया।
"
स्वर्वथिर्वत्सरस्येष्टा भार्यासूत षडात्मजान् ।
पुष्पार्ण तिग्मकेतुं च इषमूर्ज वसुं जयम् ॥
१२॥
स्वर्वीधि: --स्वर्वीथि; वत्सरस्य--राजा वत्सर की; इष्टा--अत्यन्त प्रिय; भार्या--पत्नी ने; असूत--जन्म दिया; षघट्ू--छह;आत्मजान्--पुत्रों को; पुष्पार्णम्--पुष्पार्ण; तिग्मकेतुम्--तिग्मकेतु; च-- भी; इषम्--इष; ऊर्जम्--ऊर्ज; वसुम्--वसु;जयम्--जय
राजा वत्सर की अत्यन्त प्रिय पत्नी स्वर्वीथि थी और उस ने छह पुत्रों को जन्म दिया जिनकेनाम थे पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु तथा जय।
"
पुष्पार्णस्य प्रभा भार्या दोषा च द्वे बभूवतु: ।
प्रार्मध्यन्दिनं सायमिति ह्यासन्प्रभासुता: ॥
१३॥
पुष्पार्णस्य--पुष्पार्ण की; प्रभा--प्रभा; भार्या--पत्नी; दोषा--दोषा; च-- भी ; द्वे-- दो; बभूवतु: --थीं; प्रातः--प्रातः ;मध्यन्दिनमू--मध्यन्दिनम्; सायम्--सायम्; इति--इस प्रकार; हि--निश्चय ही; आसन्-- थे; प्रभा-सुताः--प्रभा के पुत्र
पुष्पार्ण के दो पत्नियाँ थीं, जिनके नाम प्रभा तथा दोषा थे।
प्रभा के तीन पुत्र हुए जिनकेनाम प्रातः, मध्यन्दिनम् तथा सायम् थे।
"
प्रदोषो निशिथो व्युष्ट इति दोषासुतास्त्रय: ।
व्युष्ट: सुतं पुष्करिण्यां सर्ववेजसमादधे ॥
१४॥
प्रदोष: --प्रदोष; निशिथ:--निशिथ ; व्युष्ट: --व्युष्ट; इति--इस प्रकार; दोषा--दोषा के ; सुता:--पुत्र; त्रय:--तीन; व्युष्ट: --व्यूष्ट; सुतम्-पुत्र; पुष्करिण्याम्--पुष्करिणी में; सर्व-तेजसम्--सर्वतेजा ( सर्वशक्तिमान ) नामक; आदधे--उत्पन्न किया दोषा के तीन पुत्र थे--प्रदोष, निशिथ तथा व्युष्ट।
व्युप्ट की पत्ती का नाम पुष्करिणी था,जिसने सर्वतेजा नामक अत्यन्त बलशाली पुत्र को जन्म दिया।
"
स चनश्लु: सुतमाकूत्यां पत्यां मनुमवाप ह ।
मनोरसूत महिषी विरजान्नड्वला सुतान् ॥
१५॥
पुरुं कुत्सं त्रितं दुम्न॑ सत्यवन्तमृतं ब्रतम् ।
अग्निष्टोममतीरात्र प्रद्युम्नं शिबिमुल्मुकम् ॥
१६॥
सः--वह ( सर्वतेजा ); चक्षु;--चक्षु नामक; सुतम्--पुत्र; आकूत्याम्ू--आकृति में; पत्याम्-पत्नी में; मनुम्-चाक्षुष मनु;अवाप--प्राप्त किया; ह--निस्सन्देह; मनो: --मनु की; असूत--जन्म दिया; महिषी--रानी; विरजानू--निर्विकार; नड्वला--नड्वला ने; सुतान्--पुत्र; पुरुम्-पुरु; कुत्सम्-कुत्स; त्रितम्-त्रित; द्युम्मम्ू--झुम्न; सत्यवन्तम्--सत्यवान; ऋतम्--ऋत;ब्रतम्-ब्रत; अग्निष्टोमम्--अग्निष्टोम; अतीरात्रमू--अतितात्र; प्रद्मम्मम्--प्रद्यम्म; शिबिम्ू--शिबि; उल्मुकम्--उल्मुक कोस
र्वतेजा की पतली आकृति ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम चाक्षुष था, जो मनुकल्पान्त में छठा मनु बना।
चाक्षुष मनु की पत्नी नड्वला ने निम्नलिखित निर्दोष पुत्रों को जन्मदिया--पुरु, कुत्स, त्रित, झुम्न, सत्यवान्, ऋत, व्रत, अग्निष्टोमू, अतितरात्र, प्रद्यम्म, शित्रि तथाउल्मुक।
"
उल्मुकोजनयत्पत्रान्पुष्करिण्यां षद्त्तमान् ।
अड्डू सुमनसं ख्यातिं क्रतुमड्रिसं गयम् ॥
१७॥
उल्मुक:--उल्मुक ने; अजनयत्--उत्पन्न किया; पुत्रान्ू--पुत्रों को; पुष्करिण्याम्--अपनी पतली पुष्करिणी सें; घटू--छह;उत्तमान्ू--अत्यन्त उत्तम; अड्भमू-- अंग; सुमनसम्--सुमना; ख्यातिम्-ख्याति; क्रतुम्-क्रतु; अड्धिस्सम्-- अंगिरा; गयम्--गय।
उल्मुक के बारह पुत्रों में से छह पुत्र उनकी पत्नी पुष्करिणी से उत्पन्न हुए।
वे सभी अति उत्तमपुत्र थे।
उनके नाम थे अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा तथा गय।
"
सुनीथाडुस्य या पत्नी सुषुवे वेनमुल्बणम् ।
यहौःशील्यात्स राजर्षिनिर्विण्णो निरगात्पुरातू ॥
१८॥
सुनीथा--सुनीथा; अड्डस्थ--अंग की; या--जो; पत्ती-- पत्नी; सुषुबे--जन्म दिया; वेनमू--वेन; उल्बणम्--अत्यन्त कुटिल;यत्--जिसका; दौःशील्यात्--बुरा आचरण होने से; सः--वह; राज-ऋषि: --राजर्षि अंग; निर्विण्ण:--अत्यन्त निराश;निरगात्--बाहर चला गया; पुरात्ू--घर से |
अंग की पत्नी सुनीथा से वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो अत्यन्त कुटिल था।
साधु स्वभावका राजा अंग वेन के दुराचरण से अत्यन्त निराश था, फलत: उसने घर तथा राजपाट छोड़ दियाऔर जंगल चला गया।
"
यमड़ शेपु: कुपिता वाग्वज़्ा मुनय:ः किल ।
गतासोस्तस्य भूयस्ते ममन्थुर्दक्षिणं करम् ॥
१९॥
अराजके तदा लोके दस्युभिः पीडिताः प्रजा: ।
जातो नारायणांशेन पृथुराद्यः क्षितीश्वर: ॥
२०॥
यम्--जिसको ( वेन को ); अड़--हे विदुर; शेपु:--उन्होंने शाप दिया; कुपिता:--क्रुद्ध; वाक्-वज़ा:--जिनके शब्द बज्र केसमान कठोर हैं; मुनयः--बड़े-बड़े मुनि; किल--निस्सन्देह; गत-असो: --मरने के बाद; तस्य--उसका; भूय:--साथ ही; ते--वे; ममन्थु;--मथा; दक्षिणम्--दाहिना; करमू--हाथ; अराजके--बिना राजा के; तदा--तब; लोके--संसार में; दस्युभि: --बदमाशों तथा चोरों के द्वारा; पीडिता:--दुखी; प्रजा:--सभी नागरिक; जात:--उत्पन्न हुआ; नारायण-- भगवान् के; अंशेन--आंशिक प्रतिरूप द्वारा; पृथु:--पुथु; आद्य:--मूल; क्षिति-ई श्वरः--संसार का शासक |
हे विदुर, जब ऋषिगण शाप देते हैं, तो उनके शब्द वज्ञ के समान कठोर होते हैं।
अत: जबउन्होंने क्रोधवश वेन को शाप दे दिया तो वह मर गया।
उसकी मृत्यु के बाद कोई राजा न होने सेचोर-उचक्के पनपने लगे, राज्य में अनियमितता फैल गयी और समस्त नागरिकों को भारी कष्टझेलना पड़ा।
यह देखकर ऋषियों ने बेन की दाहिनी भुजा को दण्ड मथनी बना लिया औरउनके मथने के कारण भगवान् विष्णु अपने अंश रूप में संसार के आदि सप्राट राजा पृथु केरूप में अवतरित हुए।
"
तस्य शीलनिधे: साधोर्ब्रह्मण्यस्य महात्मन: ।
राज्ञ: कथमभूहुष्टा प्रजा यद्विमना ययौ ॥
२१॥
विदुर: उवाच--विदुर ने कहा; तस्य--उसका ( अंग का ); शील-निधे: --उत्तम गुणों का आगार; साधो:--सन्तु पुरुष;ब्रह्मण्यस्थ--ब्राह्मण सभ्यता का प्रेमी; महात्मत:--महापुरुष; राज्:--राजा का; कथम्--किस तरह; अभूत्-- था; दुष्टा--बुरा;प्रजा--पुत्र; यत्ू--जिससे; विमना: -- अन्यमनस्क; ययौ--छोड़ दिया।
विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे ब्राह्मण, राजा अंग तो अत्यन्त भद्र था।
वह अत्यन्त चरित्रवानतथा साधु पुरुष था और ब्राह्मण-संस्कृति का प्रेमी था।
तो फिर इतने महान् पुरुष के बेन जैसादुष्ट पुत्र कैसे उत्पन्न हुआ जिससे वह अपने राज्य के प्रति अन्यमनस्क हो उठा और उसे छोड़ दिया?"
कि वांहो वेन उद्दिश्य ब्रह्मदण्डमयूयुजन् ।
दण्डब्रतधरे राज्ञि मुनयो धर्मकोबिदा: ॥
२२॥
किम्--क्यों; वा-- भी; अंह:--पापकर्म; वेने--वेन को; उद्दिश्य--देखकर; ब्रह्म-दण्डम्--ब्राह्मण का शाप; अयूयुजन्--दण्डित करना चाहा; दण्ड-ब्रत-धरे--जो दण्ड के डण्डे को धारण करता है; राज्ञि--राजा को; मुनयः--मुनिगण; धर्म-कोविदा:--धर्म से पूरी तरह ज्ञात
विदुर ने आगे पूछा कि महान् धर्मात्मा ऋषियों ने राजा बेन को, जो स्वयं दण्ड देनेवालेदण्ड को धारण करनेवाला था, क्योंकर शाप देना चाहा और इस प्रकार उसे सबसे बड़ा दण्ड ( ब्रह्मशाप ) दे डाला ?"
नावध्येय: प्रजापाल: प्रजाभिरघवानपि ।
यदसौ लोकपालानां बिभर्त्योज: स्वतेजसा ॥
२३॥
न--कभी नहीं; अवध्येय:-- अपमानित होने के लिए; प्रजा-पाल: --राजा; प्रजाभि: --प्रजा द्वारा; अधवान्--पाप से पूर्ण;अपि--यद्यपि; यत्-- क्योंकि; असौ--वह; लोक-पालानाम्-- अनेक राजाओं का; बिभर्ति--पालन करता है; ओज:--ओज,तेज; स्व-तेजसा--व्यक्तिगत प्रभाव से |
प्रजा का कर्तव्य है कि वह राजा का अपमान न करे, चाहे यदाकदा वह अत्यन्त पापपूर्णकृत्य करता हुआ ही क्यों न प्रतीत हो।
अपने तेज के कारण राजा अन्य शासनकर्ता प्रमुखों सेसदैव अधिक प्रभावशाली होता है।
"
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन्सुनीथात्मजचेष्टितम् ।
अ्रहदधानाय भक्ताय त्वं परावरवित्तम: ॥
२४॥
एतत्--ये सब; आख्याहि--वर्णन करें; मे--मुझसे; ब्रह्मनू--हे परम ब्राह्मण; सुनीथधा-आत्मज--सुनीथा के पुत्र वेन का;चेष्टितमू--कार्यकलाप; श्रद्धानाय-- श्रद्धालु, आज्ञाकारी; भक्ताय--अपने भक्त को; त्वम्--तुम; पर-अवर-- भूत तथाभविष्य सहित; वितू्-तम:--सुपरिचित |
विदुर ने मैत्रेय से अनुरोध किया : हे ब्राह्मण, आप भूत तथा भविष्य के समस्त विषयों मेंपारंगत हैं।
अतः मैं आपसे राजा वेन के समस्त कार्यकलापों को सुनना चाहता हूँ।
मैं आपकाश्रद्धालु भक्त हूँ, अतः आप इसे विस्तार से कहें।
"
मैत्रेय उवाचअड्जो श्रमेधं॑ राजर्षिराजहार महाक्रतुम् ।
नाजम्मुर्देवतास्तस्मिन्नाहूता ब्रह्मगादिभि: ॥
२५॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने उत्तर दिया; अड्भ:--राजा अंग ने; अश्वमेधम्-- अश्वमेध यज्ञ; राज-ऋषि:--साधु राजा; आजहार--सम्पन्न किया; महा-क्रतुम्ू--महान् यज्ञ; न--नहीं; आजम्मु:--आये; देवता: --देवता; तस्मिन्--उस यज्ञ में; आहूता:--बुलायेगये; ब्रह्य-वादिभि: --यज्ञ करने में ब्राह्मणों द्वारा
श्री मैत्रेय ने उत्तर दिया : हे विदुर, एक बार राजा अंग ने अश्वमेध नामक महान् यज्ञ सम्पन्नकरने की योजना बनाई।
वहाँ पर उपस्थित समस्त सुयोग्य ब्राह्मण जानते थे कि देवताओं काआवाहन कैसे किया जाता है, किन्तु उनके प्रयास के बावजूद भी किसी देवता ने न तो भागलिया और न ही कोई उस यज्ञ में प्रकट हुआ।
"
तमूचुर्विस्मितास्तत्र यजमानमथर्त्विज: ।
हवींषि हूयमानानि न ते गृह्लन्ति देवता: ॥
२६॥
तम्ू--राजा अंग को; ऊचु:--कहा; विस्मिता:--आश्चर्यचकित; तत्र--वहाँ; यजमानम्--यज्ञ करानेवाले को; अथ--तब;ऋत्विज: --पुरोहित; हवींषि--शुद्ध घी की आहुतियाँ; हूयमानानि--डाले जाने पर; न--नहीं; ते--वे; गृह्वन्ति--स्वीकार करतेहैं; देवता:--देवतागण |
तब यज्ञ में लगे पुरोहितों ने राजा अंग को सूचित किया : हे राजन, हम यज्ञ में विधिपूर्वकशुद्ध घी की आहुति दे रहे हैं, किन्तु हमारे सारे यत्नों के बावजूद देवतागण उसे स्वीकार नहीं कररहे हैं।
"
राजन्हवींष्यदुष्टानि श्रद्धयासादितानि ते ।
छन्दांस्थयातयामानि योजितानि धृतक्रतैः ॥
२७॥
राजनू--हे राजा; हवींषि---यज्ञ की बलि, होमसामग्री; अदुष्टानि--दूषित नहीं; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा सावधानी सहित;आसादितानि--एकत्र की गई; ते--तुम्हारे; छन्दांसि--मंत्र; अयात-यामानि--न्यून नहीं; योजितानि--विधिपूर्वक सम्पन्न; धृत-ब्रतैः--सुपात्र ब्राह्मणों द्वारा |
हे राजन, हमें ज्ञात है कि आपने अत्यन्त श्रद्धा तथा सावधानी से यज्ञ की सारी सामग्रीएकत्रित की है और वह दूषित नहीं है।
हमारे द्वारा उच्चरित वैदिक मंत्रों में भी किसी प्रकार कीकमी नहीं है क्योंकि यहां उपस्थित सभी ब्राह्मण तथा पुरोहित योग्य है और समस्त कृत्यों कोठीक से कर भी रहे हैं।
"
न विदामेह देवानां हेलनं वयमण्वपि ।
यन्न गृहन्ति भागान्स्वान्ये देवा: कर्मसाक्षिण: ॥
२८ ॥
न--नहीं; विदाम--जान सकना; इह--इस प्रसंग में; देवानामू--देवताओं का; हेलनम्--तिरस्कार, उपेक्षा; वयम्--हम;अणु--सूक्ष्स; अपि-- भी; यत्--जिससे; न--नहीं; गृह्वन्ति--स्वीकार करते हैं; भागान्ू-- भाग, अंश; स्वान्ू--अपने-अपने;ये--जो; देवा:--देवतागण; कर्म-साक्षिण:--यज्ञ के साक्षी |
हे राजन, हमें ऐसा कोई कारण नहीं दिखता जिससे देवतागण अपने को किसी प्रकार सेअपमानित या उपेक्षित समझ सकें, तो भी यज्ञ के साक्षी देवता अपना भाग ग्रहण नहीं कर रहेहैं।
हमारी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है ?"
मैत्रेय उवाचअड़ोो द्विजवच: श्रुत्वा यजमानः सुदुर्मना: ।
तत्प्रष्टं व्यसृजद्वाचं सदस्यांस्तदनुज्ञया ॥
२९॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने उत्तर दिया; अड्ढ:--राजा अंग; द्विज-वच:--ब्राह्मणों के वचन; श्रुत्वा--सुनकर; यजमान: --यज्ञकर्ता;सुदुर्मना:--मन में अत्यन्त खिन्न; तत्ू--उसके सम्बध में; प्रष्टमू--पूछने के उद्देश्य से; व्यसृजत् वाचम्ू--वह बोला; सदस्यान्--पुरोहितों से; तत्--उनकी; अनुज्ञया--अनुमति से |
मैत्रेय ने बतलाया कि पुरोहितों के इस कथन को सुनकर राजा अंग अत्यधिक खिन्न होउठा।
तब उसने पुरोहितों से कुछ कहने की अनुमति माँगी और यज्ञस्थल में उपस्थित समस्तपुरोहितों से उसने पूछा।
"
नागच्छन्त्याहुता देवा न गृह्नन्ति ग्रहानिह ।
सदसस्पतयो ब्रूत किमवद्यं मया कृतम् ॥
३०॥
न--नहीं; आगच्छन्ति--आ रहे हैं; आहुता:--आमंत्रित किये जाने पर; देवा: --देवगण; न--नहीं; गृह्वन्ति--स्वीकार कर रहेहैं; ग्रहान्-- भाग; इह--इस यज्ञ में; सदसः-पतय:--हे पुरोहितो; ब्रूत--कृपया बताएँ; किमू-- क्या; अवद्यमू--अपराध;मया--मेरे द्वारा; कृतम्ू--किया गया।
राजा अंग ने पुरोहित वर्ग को सम्बोधित करते हुए पूछा : हे पुरोहितो, आप कृपा करकेबताएँ कि मुझसे कौन सा अपराध हुआ है।
आमंत्रित होने पर भी देवता न तो यज्ञ में सम्मिलितहो रहे हैं और न अपना भाग ग्रहण कर रहे हैं।
"
सदसस्पतय ऊचुःनरदेवेह भवतो नाघं तावन्मनाक्स्थितम् ।
अस्त्येकं प्राक्तनमघं यदिहेहक्त्वमप्रज: ॥
३१॥
सदसः-पतय: ऊचु:--प्रधान पुरोहित ने कहा; नर-देव--हे राजन; इह--इस जीवन में; भवत:--आपका; न--नहीं; अघम्--पापकर्म; तावत् मनाक्--रंचमात्र भी; स्थितम्--स्थित; अस्ति-- है; एकम्--एक; प्राक्तनम्--पूर्वजन्म में; अघम्--पापकर्म;यत्--जिससे; इह--जीवन में; ईहक्--इस प्रकार; त्वमू-तुम; अप्रज: --पुत्रहीन |
प्रधान पुरोहित ने कहा : हे राजन, हमें तो आपके इस जीवन में आप के मन से किया गयाभी कोई भी पापकर्म नहीं दिखता, अतः आप तनिक भी अपराधी नहीं हैं।
किन्तु हमें दिखता हैकि आपने पूर्वजन्म में पापकर्म किये हैं जिनके कारण समस्त गुणों के होते हुए भी आप पुत्रहीनहैं।
"
तथा साधय भद्वं ते आत्मानं सुप्रजं नूप ।
इष्टस्ते पुत्रकामस्य पुत्र दास्यति यज्ञभुक्ू ॥
३२॥
तथा--अतः; साधय--प्राप्त करने के लिए यज्ञ करें; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; आत्मानम्-- अपना; सु-प्रजम्--उत्तमपुत्र; नृप--हे राजा; इष्ट:--पूजित होकर; ते--तुम्हारे द्वारा; पुत्र-कामस्य--पुत्र की कामना से; पुत्रमू--पुत्र; दास्यति--प्रदानकरेगा; यज्ञ-भुक्ू--यज्ञ का भोक्ता श्रीभगवान् |
हे राजन, आपका कल्याण हो।
आपके कोई पुत्र नहीं हैं, अतः यदि आप तुरन्त भगवान् सेप्रार्थना करें और पुत्र माँगें तथा यदि इस कार्य के लिए यज्ञ करें तो यज्ञभोक्ता भगवान् आपकीकामना को पूर्ण करेंगे।
"
तथा स्वभागथधेयानि ग्रहीष्यन्ति दिवौकसः ।
यद्यज्ञपुरुष: साक्षादपत्याय हरिव्वृतः ॥
३३ ॥
तथा--तत्पश्चात्; स्व-भाग-धेयानि--यज्ञ में अपने-अपने भाग; ग्रहीष्यन्ति--ग्रहण करेंगे; दिब-ओकसः:--समस्त देवता;यत्--क्योंकि; यज्ञ-पुरुष:--समस्त यज्ञों का भोक्ता; साक्षात्- प्रत्यक्ष; अपत्याय--पुत्र के लिए; हरि: -- भगवान्; वृत:ः--आमंत्रित किया जाता है।
जब समस्त यज्ञों के भोक्ता हरि को पुत्र की कामना पूरी करने के लिए आमंत्रित कियाजाएगा, तो सभी देवता उनके साथ आएँगे और अपना-अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करेंगे।
"
तांस्तान्कामान्हरिदद्याद्यान्यान््कामयते जनः ।
आराधितो यथेवैष तथा पुंसां फलोदय: ॥
३४॥
तान् तानू--वही वही; कामान्--इच्छित वस्तुएँ; हरिः-- भगवान्; दद्यातू-देंगे; यान् यानू--जो जो; कामयते--इच्छा करता;जनः--व्यक्ति; आराधित:--पूजित होकर; यथा--जिस तरह; एव--निश्चय ही; एब: -- भगवान्; तथा--उसी प्रकार; पुंसाम्ू--मनुष्यों का; फल-उदयः--फल।
यज्ञों का कर्ता ( कर्मकाण्ड के अन्तर्गत ) जिस कामना से भगवान् की पूजा करता है, वहकामना पूरी होती है।
"
इति व्यवसिता विप्रास्तस्य राज्ञः प्रजातये ।
पुरोडाशं निरवपन्शिपिविष्टाय विष्णवे ॥
३५॥
इति--इस प्रकार; व्यवसिता:--निश्चय करके; विप्रा: --समस्त ब्राह्मण; तस्य--उसके; राज्:--राजा के; प्रजातये--पुत्र-प्राप्तिके उद्देश्य से; पुरोडाशम्--यज्ञ की सामग्री; निरवपन्--प्रदान की; शिपि-विष्टाय--यज्ञ की अग्नि में स्थित, भगवान् को;विष्णवे-- भगवान् विष्णु को |
इस प्रकार राजा अंग को पुत्र प्राप्ति कराने के लिए उन्होंने घट-घट वासी भगवान् विष्णु कोआहुतियाँ अर्पित करने का निश्चय किया।
"
तस्मात्पुरुष उत्तस्थौ हेममाल्यमलाम्बर: ।
हिरण्मयेन पात्रेण सिद्धमादाय पायसम् ॥
३६॥
तस्मात्--उस अग्नि से; पुरुष:--पुरुष; उत्तस्थौ--प्रकट हुआ; हेम-माली--सोने का हार पहने; अमल-अम्बर: -- श्वेत वन्त्नों में;हिरण्मयेन--सुनहले; पात्रेण--पात्र से; सिद्धमू--पकाया हुआ; आदाय--लाकर; पायसम्--खीर
अग्नि में आहुति डालते ही, अग्निकुण्ड से सोने का हार पहने तथा श्वेत वस्त्र धारण कियेएक पुरुष प्रकट हुआ।
वह एक स्वर्णपात्र में खीर लिये हुए था।
"
स विप्रानुमतो राजा गृहीत्वाज्ललिनौदनम् ।
अवष्नाय मुदा युक्तः प्रादात्पत्या उदारधीः ॥
३७॥
सः--वह; विप्र--ब्राह्मणों की; अनुमत:-- अनुमति से; राजा--राजा; गृहीत्वा--लेकर; अद्जलिना--अंजुली में; ओदनम्--खीर; अवध्राय--सूँघ कर; मुदा--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; युक्त:--सहित; प्रादात्--प्रदान किया; पत्यै--अपनी पत्नी को;उदार-धी:--उदार हृदय |
राजा अत्यन्त उदार था।
उसने पुरोहितों की अनुमति से उस खीर को अपनी अंजुली में लेलिया और फिर सूँघ कर उसका एक भाग अपनी पतली को दे दिया।
"
सा तत्पुंसवन राज्ञी प्राश्य वै पत्युरादथे ।
गर्भ काल उपावृत्ते कुमारं सुषुवेप्रजा ॥
३८ ॥
सा--वह; तत्--वह खीर; पुमू-सवनम्--जिससे पुत्र उत्पन्न होता है; राज्ञी--रानी; प्राशय--खाकर; बै--निस्सन्देह; पत्यु:--पति से; आदधे-- धारण किया; गर्भम्-गर्भ; काले--उचित समय पर; उपावृत्ते--प्रकट हुआ; कुमारम्--पुत्र; सुषुबे--जन्मदिया; अप्रजा--सन्तानहीन |
यद्यपि रानी को कोई पुत्र न था, किन्तु पुत्र उत्पन्न करने की शक्ति वाली उस खीर के खानेसे, वह अपने पति के सहवास से गर्भवती हो गई और यथासमय उसने एक पुत्र को जन्म दिया।
"
स बाल एव पुरुषो मातामहमनुव्रत: ।
अधर्माशोद्धवं मृत्युं तेनाभवदधार्मिक: ॥
३९॥
सः--वह; बाल:--बालक; एव--निश्चय ही; पुरुष: --नर; माता-महम्--नाना; अनुव्रत:--पालक, अनुगामी; अधर्म--अधर्मका; अंश--एक अंश से; उद्धवम्--प्रकट, अवतीर्ण; मृत्युम्ू--मृत्यु; तेन--इससे; अभवत्--हुआ; अधार्मिक:--धर्म को नमाननेवाला।
वह बालक अंशत: अधर्म के वंश में उत्पन्न था।
उसका नाना साक्षात् मृत्यु था और वहबालक उसका अनुगामी बना और अत्यन्त अधार्मिक व्यक्ति बन गया।
"
स शरासनमुद्यम्य मृगयुर्वनगोचर: ।
हन्त्यसाधुरमृगान्दीनान्वेनो सावित्यरौज्जन: ॥
४०॥
सः--वह, वेन नामक बालक; शरासनमू्-- अपना धनुष; उद्यम्य--लेकर; मृगयु:--शिकारी; वन-गोचर: --जंगल में जाकर;हन्ति--मारता था; असाधु:--अत्यन्त क्रूर होकर; मृगान्--मृगों को; दीनानू--दीन; वेन: --वेन; असौ--वह रहा, वह आया;इति--इस प्रकार; अरौत्--चिल्लाते; जन:--सभी लोग।
वह दुष्ट बालक धनुष-बाण चढ़ाकर जंगल में जाता और वृथा ही निर्दोष ( दीन ) हिरनों कोमार डालता।
ज्योंही वह आता कि सभी लोग चिल्ला उठते, 'वह आया क्रूर बेन! वह आया क्रूरबेन!'" आक्रीडे क्रीडतो बालान्ववस्थानतिदारुण: ।
प्रसह्य निरनुक्रोशः पशुमारममारयत् ॥
४१॥
आक्रीडे-- खेल के मैदान में; क्रीडत:ः--खेलता हुआ; बालान्ू--लड़के; वयस्यान्--अपनी उप्र के; अति-दारुण:--अत्यन्तक्रूर; प्रसह्ा--बल से; निरनुक्रोश: --निर्दयतापूर्वक; पशु-मारम्--मानो पशु की हत्या कर रहा हो; अमारयत्--मारता था।
वह बालक ऐसा क्रूर था कि समवयस्क बालकों के साथ खेलते हुए उन्हें इतनी निर्दयता केसाथ मारता मानो वे बध किये जाने वाले पशु हों।
"
तं विचक्ष्य खल॑ पुत्र शासनैर्विविधे्नूप: ।
यदा न शासितुं कल्पो भृशमासीत्सुदुर्मना: ॥
४२॥
तम्--उसे; विचक्ष्य--देख कर; खलम्--क्रूर; पुत्रम्-पुत्र को; शासनै:--दण्ड द्वारा; विविधै:--विविध प्रकार के; नृप:--राजा; यदा--जब; न--नहीं; शासितुम्--वश में करने के लिए; कल्प:--समर्थ; भूशम्--अत्यधिक; आसीत्--हो गया; सु-दुर्मना:--खित्न ।
अपने पुत्र बेन का क्रूर तथा निष्ठर आचरण देख कर, राजा अंग ने उसे सुधारने के लिएतरह-तरह के दण्ड दिये, किन्तु वह उसे सन्मार्ग में न ला सका।
वह इस प्रकार से अत्यधिकखिन्न रहने लगा।
"
प्रायेणाभ्यर्चितो देवो येप्रजा गृहमेधिन: ।
कदपत्यभृतं दुःखं ये न विन्दन्ति दुर्भरम् ॥
४३॥
प्रायेण--सम्भवत:; अभ्यर्चित:--पूजा किया गया; देव: -- भगवान्; ये-- जो; अप्रजा: --पुत्रहीन; गृह-मेधिन: --गृहस्थ लोग;कद््-अपत्य--बुरे पुत्र से; भृतम्-- उत्पन्न; दुःखम्--दुख; ये--जो; न--नहीं; विन्दन्ति--कष्ट भोगते हैं; दुर्भरम्--असहनीय ।
राजा ने मन में सोचा कि पुत्रहीन व्यक्ति निश्चय ही भाग्यशाली हैं।
उन्होंने अवश्य हीपूर्वजन्मों में भगवान् की पूजा की होगी जिससे उन्हें किसी कुपुत्र द्वारा दिया गया असह्य दुख नउठाना पड़े।
"
यतः पापीयसी कीर्तिरधर्मश्च महान्रणाम् ।
यतो विरोध: सर्वेषां यत आधिरनन्तक: ॥
४४॥
यतः--कुपुत्र के कारण; पापीयसी--पापमय; कीर्ति:--यश; अधर्म:--अधर्म; च-- भी; महान्--महान; नृणाम्-- मनुष्यों का;यतः--जिससे; विरोध: --झगड़ा; सर्वेषाम्--समस्त लोगों का; यत:ः--जिससे; आधि:--चिन्ता; अनन्तक:--अपार, असीम
पापी पुत्र के कारण मनुष्य का यश मिट्टी में मिल जाता है।
उसके अधार्मिक कृत्यों से घर मेंअधर्म और सबों में झगड़ा फैलता है।
इससे केवल अन्तहीन तनाव ही उत्पन्न होता है।
"
कस्तं प्रजापदेशं वै मोहबन्धनमात्मन: ।
पण्डितो बहु मन्येत यदर्था: क्लेशदा गृहा: ॥
४५॥
'कः--कौन; तम्--उसको ; प्रजा-अपदेशम्--केवल नाम का पुत्र; वै--निश्चय ही; मोह--मोह का; बन्धनम्--बन्धन;आत्मन:--आत्मा के लिए; पण्डित:--बुद्धिमान पुरुष; बहु मन्येत--सम्मान करेगा; यत्-अर्था: --जिसके कारण; क्लेश-दाः--कष्ट-कारक; गृहा:--घर
ऐसा कौन समझदार और बुद्धिमान है, जो इस तरह का निकम्मा पुत्र चाहेगा? ऐसा पुत्रजीवात्मा के लिए मोह का बन्धनमात्र होता है और वह मनुष्य के घर को दुखी बनाता है।
"
कदपत्यं वरं मनन््ये सदपत्याच्छुचां पदात् ।
निर्विद्येत गृहान्मत्यों यत्कलेशनिवहा गृहा: ॥
४६॥
कद््-अपत्यमू--कुपुत्र; वरम्-- श्रेष्ठ; मन्ये--मैं सोचता हूँ; सत्-अपत्यात्-- अच्छे पुत्र की अपेक्षा; शुचामू-शोक का;पदातू--साधन; निर्विद्येत--विरक्त हो जाता है; गृहात्-घर से; मर्त्य:--मरणशील मनुष्य; यत्--जिसके कारण; क्लेश-निवहा:--नारकीय; गृहा:--घर |
तब राजा ने सोचा : सुपुत्र की अपेक्षा कुपुत्र ही अच्छा है, क्योंकि सुपुत्र से घर के प्रतिआसक्ति उत्पन्न होती है, किन्तु कुपुत्र से नहीं।
कुपुत्र घर को नरक बना देता है, जिससे बुद्धिमान मनुष्य सरलता से अपने को अनासक्त कर लेता है।
"
एवं स निर्विण्णमना नृपो गृहा-न्रिशीथ उत्थाय महोदयोदयात् ।
अलब्धनिद्रोनुपलक्षितो नृभि-हित्वा गतो वेनसुव॒ं प्रसुप्ताम् ॥
४७॥
एवम्--इस प्रकार; सः--वह; निर्विणण-मना: --उदास मन; नृप:--राजा अंग; गृहात्--घर से; निशीथे--अर्द्ध॑रात्रि में;उत्थाय--उठकर; महा-उदय-उदयात्--महापुरुषों के आशीर्वाद से ऐश्वर्ययुक्त; अलब्ध-निद्र:--बिना नींद के; अनुपलक्षित: --बिना दिखे; नृभि:--मनुष्यों के द्वारा; हित्वा--त्याग कर; गत:--चला गया; वेन-सुवम्--वेन की माता को; प्रस॒ुप्तामू--गहरीनिद्रा में मग्न
इस प्रकार से सोचते हुए राजा अंग को रात भर नींद नहीं आई।
वह गृहस्थ जीवन से पूर्णतःउदास हो गया।
अतः एक दिन अर्धरात्रि में वह अपने बिस्तर से उठा और बेन की माता ( अपनीपत्नी ) को गहरी निद्रा में सोते हुए छोड़कर चला गया।
उसने अपने महान् ऐश्वर्यमय राज्य कामोह त्याग दिया और चुपके से अपना घर तथा ऐश्वर्य छोड़कर जंगल की ओर चला गया।
"
विज्ञाय निर्विद्य गतं पतिं प्रजा:पुरोहितामात्यसुहद्गणादय: ।
विचिक्युरुव्यामतिशोककातरायथा निगूढं पुरुष कुयोगिन: ॥
४८ ॥
विज्ञाय--जानकर; निर्विद्य--उदास; गतम्--चला गया; पतिम्--राजा; प्रजा:--समस्त नागरिक; पुरोहित--पुरोहित;आमात्य--मंत्री; सुहृत्ू-मित्र; गण-आदय: --तथा सामान्यजन; विचिक्यु:--खोजने लगे; उर्व्याम्--पृथ्वी पर; अति-शोक-कातरा:--अ त्यन्त दुखी होकर; यथा--जिस प्रकार; निगूढम्--छिपा हुआ; पुरुषम्--परमात्मा को; कु-योगिन:--अनुभवहीनयोगी
जब यह पता चला कि राजा ने उदास होकर गृहत्याग कर दिया है, तो समस्त नागरिक,पुरोहित, मंत्री, मित्र तथा सामान्यजन अत्यन्त दुखी हुए।
वे सर्वत्र उसकी खोज करने लगे जैसेकोई अनुभवहीन योगी अपने भीतर परमात्मा की खोज करता है।
"
अलक्षयन्तः पदवीं प्रजापते-ईतोद्यमा: प्रत्युपसृत्य ते पुरीम् ।
ऋषीन्समेतानभिवन्द्य साश्रवोन्यवेदयन्पौरव भर्तृविप्लवम् ॥
४९॥
अलक्षयन्त:--न पाकर; पदवीम्ू--कोई चिह्न, पता; प्रजापते:--राजा अंग का; हत-उद्यमा: --निराश होकर; प्रत्युपसृत्य--लौटकर; ते--वे नागरिक; पुरीमू--नगर को; ऋषीन्--ऋषि; समेतान्ू--एकत्रित; अभिवन्द्य--नमस्कार करके; स-अश्रव:--आँखों में आँसू भर कर; न्यवेदयन्--सूचित किया, निवेदन किया; पौरव--हे विदुर; भर्त्--राजा की; विप्लवम्--अनुपस्थिति।
जब सर्वत्र खोज करने पर नागरिकों को राजा का कोई पता न चला तो वे अत्यधिक निराशहुए और नगर को लौट आये, जहाँ पर राजा की अनुपस्थिति के कारण देश के समस्त बड़े-बड़ेऋषि एकत्र हुए थे।
अश्रुपूरित नागरिकों ने ऋषियों को नमस्कार किया और विस्तारपूर्वकबताया कि वे कहीं भी राजा को नहीं पा सके ।
"
अध्याय चौदह: राजा वेन की कहानी
4.14मैत्रेय उवाचभृग्वादयस्ते मुनयो लोकानां क्षेमदर्शिन: ।
गोप्तर्यसति वैनृणां पश्यन्त: पशुसाम्यताम् ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा; भूगु-आदयः:-- भृगु इत्यादि; ते--वे सब; मुनयः--मुनिगण; लोकानाम्--लोगों की;क्षेम-दर्शिन:--कुशल चाहनेवाले; गोप्तरि--राजा की; असति--अनुपस्थिति में; वै--निश्चय ही; नृणाम्--समस्त लोगों का;पश्यन्त:--जानते हुए; पशु-साम्यताम्--पशुतुल्य जीवन |
महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे महावीर विदुर, भूगु इत्यादि ऋषि सदैव जनता के कल्याण केलिए चिन्तन करते थे।
जब उन्होंने देखा कि राजा अंग की अनुपस्थिति में जनता के हितों कीरक्षा करनेवाला कोई नहीं रह गया तो उनकी समझ में आया कि बिना राजा के लोग स्वतंत्र एवंअसंयमी हो जाएँगे।
"
वीरमातरमाहूय सुनीथां ब्रह्मगादिन: ।
प्रकृत्यसम्मतं वेनमभ्यषिञ्ञन्पतिं भुवः ॥
२॥
बीर--वेन की; मातरम्--माता को; आहूय--बुलाकर; सुनीथाम्--सुनी था नाम की; ब्रह्म-वादिन: --वेदों में पारंगत ऋषिगण;प्रकृति--मंत्रियों से; असम्मतम्--असहमत; वेनमू--वेन को; अभ्यषिज्ञनू--सिंहासन पर बैठा दिया; पतिमू--स्वामी; भुव:--विश्व का।
तब ऋषियों ने वेन की माता रानी सुनीथा को बुलाया और उनकी अनुमति से वेन को विश्वके स्वामी के रूप में सिंहासन पर बिठा दिया।
तथापि सभी मंत्री इससे असहमत थे।
"
श्रुत्वा नूपासनगतं वेनमत्युग्रशासनम् ।
निलिल्युर्दस्यव: सद्यः सर्पत्रस्ता इबाखव: ॥
३॥
श्रुत्वा--सुनकर; नृप--राजा का; आसन-गतम्--सिंहासन पर आरूढ़; वेनम्ू--वेन को; अति--अत्यन्त; उग्र--घोर;शासनमू--दंड देनेवाला; निलिल्यु:--अपने को छिपा लिया; दस्यवः--सभी चोर; सद्यः--तुरन्त; सर्प--साँपों से; त्रस्ता:--डरेहुए; इब--सहृश; आखव:--चूहे |
यह पहले से ज्ञात था कि वेन अत्यन्त कठोर तथा क्रूर था, अतः जैसे ही राज्य के चोरों तथाउचक्कों ने सुना कि वह राज-सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है, वे उससे बहुत भयभीत हुए और वेसब उसी तरह छिप गये जिस प्रकार चूहे अपने आपको सर्पों से छिपा लेते हैं।
"
स आरूढनृपस्थान उन्नद्धो हष्टविभूतिभि: ।
अवमेने महाभागान्स्तब्ध: सम्भावित: स्वतः ॥
४॥
सः--राजा वेन; आरूढ--स्थित; नृप-स्थान:--राजा के आसन पर; उन्नद्ध:--अत्यन्त घमंडी; अष्ट-- आठ; विभूतिभि:--ऐश्वर्यों से; अवमेने--अपमान करने लगा; महा-भागान्--महापुरुषों को; स्तब्ध:--अदूरदर्शी ; सम्भावित:--महान् समझते हुए;स्वतः--अपने आपको
जब राजा सिंहासन पर बैठा तो वह आठों ऐश्वर्यों से युक्त होकर सर्वशक्तिमान बन गया।
फलतः वह अत्यन्त घंमडी हो गया।
झूठी प्रतिष्ठा के कारण वह अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगा और इस प्रकार से वह महापुरुषों का अपमान करने लगा।
"
एवं मदान्ध उत्सिक्तो निरह्ुश इव द्विप: ।
पर्यटत्रथमास्थाय कम्पयन्निव रोदसी ॥
५॥
एवम्--इस प्रकार; मद-अन्ध:--अधिकार के कारण अन्धा हुआ; उत्सिक्त:--घमंडी; निरहु शः--उऊहंड; इव--सहश; द्विप:--हाथी; पर्यटन्ू--घूमता हुआ; रथम्--रथ पर; आस्थाय--चढ़कर; कम्पयन्--हिलाता हुआ; इब--निरसन्देह; रोदसी-- आकाशतथा पृथ्वी
राजा वेन अपने ऐश्वर्य के मद से अन्धा होकर रथ पर आसीन होकर निरंकुश हाथी के समानसारे राज्य में घूमने लगा।
जहाँ-जहाँ वह जाता, आकाश तथा पृथ्वी दोनों हिलने लगते।
"
न यटष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं द्विजा: क्वचित् ।
इति न्यवारयद्धर्म भेरीघोषेण सर्वशः ॥
६॥
न--नहीं; यष्टव्यमू--एक भी यज्ञ हो पाते; न--न तो; दातव्यम्--कोई दान दे सकता था; न--नहीं; होतव्यम्--आहुति दी जासकती थी; द्विजा:--हे द्विजन्मा; क्वचित्--किसी भी समय; इति--इस प्रकार; न््यवारयत्--रोक दिया; धर्मम्-- धार्मिकनियमों की विधियाँ; भेरी--ढिंढोरा ( बाजा ); घोषेण--शब्द से; सर्वशः--सर्वत्र |
राजा वेन ने अपने राज्य में यह ढिंढोरा पिटवा दिया कि सभी द्वि