श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 3

  • अध्याय एक: विदुर के प्रश्न

  • अध्याय दो: भगवान कृष्ण का स्मरण

  • अध्याय तीन: वृन्दावन से बाहर भगवान की लीलाएँ

  • अध्याय चार: विदुर मैत्रेय के पास पहुंचे

  • अध्याय पाँच: विदुर की मैत्रेय से बातचीत

  • अध्याय छह: विश्व स्वरूप का निर्माण

  • अध्याय सात: विदुर द्वारा आगे की पूछताछ

  • अध्याय आठ: गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा की अभिव्यक्ति

  • अध्याय नौ: रचनात्मक ऊर्जा के लिए ब्रह्मा की प्रार्थना

  • अध्याय दस: सृष्टि के विभाग

  • अध्याय ग्यारह: परमाणु से समय की गणना

  • अध्याय बारह: कुमारों और अन्य लोगों की रचना

  • अध्याय तेरह: भगवान वराह का प्राकट्य

  • अध्याय चौदह: सायंकाल दिति का गर्भाधान

  • अध्याय पंद्रह: परमेश्वर के राज्य का विवरण

  • अध्याय सोलह: वैकुंठ के दो द्वारपाल, जया और विजया, ऋषियों द्वारा शापित

  • अध्याय सत्रह: ब्रह्मांड की सभी दिशाओं पर हिरण्याक्ष की विजय

  • अध्याय अठारह: भगवान सूअर और राक्षस हिरण्यक्ष के बीच लड़ाई

  • अध्याय उन्नीस: राक्षस हिरण्याक्ष का वध

  • अध्याय बीस: मैत्रेय और विदुर के बीच बातचीत

  • अध्याय इक्कीसवाँ: मनु और कर्दम के बीच बातचीत

  • अध्याय बाईसवाँ: कर्दम मुनि और देवहुति का विवाह

  • अध्याय तेईसवाँ: देवहुति का विलाप

  • अध्याय चौबीस: कर्दम मुनि का त्याग

  • अध्याय पच्चीसवाँ: भक्ति सेवा की महिमा

  • अध्याय छब्बीसवाँ: भौतिक प्रकृति के मौलिक सिद्धांत

  • अध्याय सत्ताईसवां: भौतिक प्रकृति को समझना

  • अध्याय अट्ठाईसवां: भक्ति सेवा के निष्पादन पर कपिला के निर्देश

  • अध्याय उनतीसवां: भगवान कपिल द्वारा भक्ति सेवा की व्याख्या

  • अध्याय तीस: भगवान कपिल द्वारा प्रतिकूल सकाम गतिविधियों का वर्णन

  • अध्याय इकतीसवाँ: जीवित संस्थाओं की गतिविधियों पर भगवान कपिला के निर्देश

  • अध्याय बत्तीस: सकाम गतिविधियों में उलझाव

  • अध्याय तैंतीसवाँ: कपिला की गतिविधियाँ

    अध्याय एक: विदुर के प्रश्न

    3.1श्रीशुक उबाचएवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान्किल ।

    क्षत्रा वन॑ प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृहमृद्द्धिमत्‌ ॥ १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; एतत्‌--यह; पुरा--पूर्व काल में; पृष्ठ: --पूछने पर;मैत्रेय: --मैत्रेय ऋषि ने कहा; भगवान्‌--अनुग्रहकारी; किल--निश्चय ही; क्षत्रा--विदुर द्वारा; बनम्‌ू--जंगल में; प्रविष्टन--प्रविष्ट हुए; त्यक्त्वा--त्याग कर; स्व-गृहम्‌--अपना घर; ऋद्धिमत्‌--समृद्ध

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपना समृद्ध घर त्याग कर जंगल में प्रवेश करके महान्‌ भक्तराजा विदुर ने अनुग्रहकारी मैत्रेय ऋषि से यह प्रश्न पूछा।

    "

    यद्वा अयं मन्त्रकृद्दो भगवानखिलेश्वर: ।

    पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम्‌ ॥

    २॥

    यत्‌--जो घर; बै--और क्या कहा जा सकता है; अयमू-- श्रीकृष्ण; मन्त्र-कृतू--मंत्री; व: --तुम लोग; भगवान्‌-- भगवान्‌;अखिल-ईश्वर:--सबके स्वामी; पौरवेन्द्र--दुर्योधन के; गृहम्‌ू--घर को; हित्वा--त्याग कर; प्रविवेश--प्रविष्ट हुए;आत्मसात्‌--अपना ही; कृतम्‌--स्वीकार किया हुआ।

    पाण्डवों के रिहायशी मकान के विषय में और क्‍या कहा जा सकता है? सबों के स्वामीश्रीकृष्ण तुम लोगों के मंत्री बने।

    वे उस घर में इस तरह प्रवेश करते थे मानो वह उन्हीं का अपनाघर हो और वे दुर्योधन के घर की ओर कोई ध्यान ही नहीं देते थे।

    "

    राजोबाचकुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सड्रमः ।

    कदा वा सह संवाद एतद्ठर्णय नः प्रभो ॥

    ३॥

    राजा उवाच--राजा ने कहा; कुत्र--कहाँ; क्षत्तु:--विदुर के साथ; भगवता--तथा अनुग्रहकारी; मैत्रेयेण--मैत्रेय के साथ;आस-हुईं थी; सड़्म:--मिलन, भेंट; कदा--कब; वा--भी; सह--साथ; संवाद: --विचार-विमर्श; एतत्‌--यह; वर्णय--वर्णन कीजिये; न:ः--मुझसे; प्रभो-हे प्रभु

    राजा ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा : सन्त विदुर तथा अनुग्रहकारी मैत्रेय मुनि के बीच कहाँऔर कब यह भेंट हुई तथा विचार-विमर्श हुआ ? हे प्रभु, कृपा करके यह कहकर मुझे कृतकृत्यकरें।

    "

    न हाल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्यामलात्मन: ।

    तस्मिन्वरीयसि प्रश्न: साधुवादोपबूंहितः ॥

    ४॥

    न--कभी नहीं; हि--निश्चय ही; अल्प-अर्थ--लघु ( महत्त्वहीन ) कार्य; उदय: --उठाया; तस्थ--उसका; विदुरस्य--विदुर का;अमल-आत्मन:--सन्‍्त पुरुष का; तस्मिन्‌ू--उसमें; वरीयसि-- अत्यन्त सार्थक; प्रश्न:-- प्रश्न; साधु-वाद--सन्‍्तों तथा ऋषियोंद्वारा अनुमोदित वस्तुएँ; उपबृंहित:--से पूर्ण |

    सन्त विदुर भगवान्‌ के महान्‌ एवं शुद्ध भक्त थे, अतएव कृपालु ऋषि मैत्रेय से पूछे गयेउनके प्रश्न अत्यन्त सार्थक, उच्चस्तरीय तथा विद्वन्मण्डली द्वारा अनुमोदित रहे होंगे।

    "

    सूत उबाचस एवमृषिवर्यो यं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता ।

    प्रत्याह तं सुबहुवित्प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥

    ५॥

    सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; सः--वह; एवम्‌--इस प्रकार; ऋषि-वर्य: --महान्‌ ऋषि; अयम्‌--शुककदेवगोस्वामी; पृष्ट:--पूछे जाने पर; राज्ञा--राजा; परीक्षिता--महाराज परीक्षित द्वारा; प्रति--से; आह--कहा; तम्‌--उस राजा को;सु-बहु-वित्‌--अत्यन्त अनुभवी; प्रीत-आत्मा--पूर्ण तुष्ट; श्रूयताम्‌--कृपया सुनें; इति--इस प्रकार

    श्री सूत गोस्वामी ने कहा : महर्षि शुकदेव गोस्वामी अत्यन्त अनुभवी थे और राजा से प्रसन्नथे।

    अतः राजा द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन्होंने उससे कहा; कृपया इस विषय को ध्यान पूर्वक सुनें ।

    श्रीशुक उबाचयदा तु राजा स्वसुतानसाधून्‌पुष्णन्न धर्मेण विनष्टदृष्टि: ।

    क्रातुर्यविष्ठस्थ सुतान्विबन्धून्‌प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥

    ६॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; यदा--जब; तु--लेकिन; राजा--राजा धृतराष्ट्र; स्व-सुतान्‌--अपने पुत्रों को;असाधून्‌--बेईमान; पुष्णन्‌--पोषण करते हुए; न--कभी नहीं; धर्मेण--उचित मार्ग पर; विनष्ट-दृष्टि:--जिसकी अन्तःदृष्टि खोचुकी है; भ्रातु:--अपने भाई के; यविष्ठस्थ--छोटे, सुतान्‌; सुतान्‌--पुत्रों को; विबन्धूनू-- अनाथ; प्रवेश्य--प्रवेश करा कर;लाक्षा--लाख के; भवने--घर में; ददाह-- आग लगा दी

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : राजा धृतराष्ट्र अपने बेईमान पुत्रों का पालन-पोषण करनेकी अपवित्र इच्छाओं के वश में होकर अन्तर्दृष्टि खो चुका था और उसने अपने पितृविहीनभतीजों, पाण्डवों को जला डालने के लिए लाक्षागृह में आग लगा दी।

    यदा सभायां कुरुदेवदेव्या:केशाभिमर्श सुतकर्म गह्म॑म्‌ ।

    न वारयामास नृपः स्नुषाया:स्वास्ैहरन्त्या: कुचकुड्डू मानि ॥

    ७॥

    यदा--जब; सभायाम्‌--सभा में; कुरू-देव-देव्या:--देवतुल्य युधिष्ठिर की पती द्रौपदी का; केश-अभिमर्शम्‌--उसके बालपकड़ने के अपमान; सुत-कर्म--अपने पुत्र द्वारा किया गया कार्य; गहाम्‌--निन्दनीय; न--नहीं; वारयाम्‌ आस--मना किया;नृप:--राजा; स्नुषाया: --अपनी पुत्रबधू के; स्वास्त्री:--उसके अश्रुओं से; हरन्त्या:-- धोती हुई; कुच-कुट्डु मानि--अपनेवक्षस्थल के कुंकुम को |

    (इस ) राजा ने अपने पुत्र दुःशासन द्वारा देवतुल्य राजा युधिष्टिर की पत्नी द्रौपदी के बालखींचने के निन्दनीय कार्य के लिए मना नहीं किया, यद्यपि उसके अश्रुओं से उसके वक्षस्थल काकुंकुम तक धुल गया था।

    झूते त्वधर्मेण जितस्य साधो:सत्यावलम्बस्य वनं गतस्य ।

    न याचतोडदात्समयेन दायंतमोजुषाणो यदजातशत्रो; ॥

    ८॥

    झूते--जुआ खेलकर; तु-- लेकिन; अधर्मेण--कुचाल से; जितस्थ--पराजित; साधो:--सन्‍्त पुरुष का; सत्य-अवलम्बस्य--जिसने सत्य को शरण बना लिया है; वनम्‌ू--जंगल; गतस्य-- जाने वाले का; न--कभी नहीं; याचत:--माँगे जाने पर;अदातू-दिया; समयेन--समय आने पर; दायम्‌ू--उचित भाग; तम:ः-जुषाण: --मोह से अभिभूत; यत्‌--जितना; अजात-शत्रो:--जिसके कोई शत्रु न हो, उसका।

    युथ्ष्टिर, जो कि अजातशत्रु हैं, जुए में छलपूर्वक हरा दिये गये।

    किन्तु सत्य का ब्रत लेने केकारण वे जंगल चले गये।

    समय पूरा होने पर जब वे वापस आये और जब उन्होंने साम्राज्य काअपना उचित भाग वापस करने की याचना की तो मोहग्रस्त धृतराष्ट्र ने देने से इनकार कर दिया।

    यदा च पार्थप्रहितः सभायांजगदगुरुर्यानि जगाद कृष्ण: ।

    न तानि पुंसाममृतायनानिराजोरु मेने क्षतपुण्यलेश: ॥

    ९॥

    यदा--जब; च-- भी; पार्थ-प्रहित: --अर्जुन द्वारा सलाह दिये जाने पर; सभायाम्‌--सभा में; जगत्‌-गुरु:--संसार के गुरु को;यानि--उन; जगाद--गया; कृष्ण: -- भगवान्‌ कृष्ण; न--कभी नहीं; तानि--शब्दों को; पुंसामू--सभी विवेकवान व्यक्तियोंके; अमृत-अयनानि--अमृत तुल्य; राजा--राजा ( धृतराष्ट्र या दुर्योधन ); उरुू--अत्यन्त महत्त्वपूर्ण; मेने--विचार किया; क्षत--क्षीण; पुण्य-लेश:--पुण्यकर्मों का अंश

    अर्जुन ने श्रीकृष्ण को जगदगुरु के रूप में ( धृतराष्ट्र की ) सभा में भेजा था और यद्यपिउनके शब्द कुछेक व्यक्तियों ( यथा भीष्म ) द्वारा शुद्ध अमृत के रूप में सुने गये थे, किन्तु जोलोग पूर्वजन्म के पुण्यकर्मो के लेशमात्र से भी वंचित थे उन्हें वे वैसे नहीं लगे।

    राजा ( धृतराष्ट्रया दुर्योधन ) ने कृष्ण के शब्दों को गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया।

    यदोपहूतो भवन प्रविष्टोमन्त्राय पृष्टः किल पूर्वजेन ।

    अथाह तन्मन्त्रदहशां वरीयान्‌यन्मन्त्रिणो वैदुरिकं वदन्ति ॥

    १०॥

    यदा--जब; उपहूत: --बुलाया गया; भवनम्‌--राजमहल में; प्रविष्ट:--प्रवेश किया; मन्त्राय--मंत्रणा के लिए; पृष्ट:--पूछे जानेपर; किल--निस्सन्देह; पूर्वजेन--बड़े भाई द्वारा; अथ--इस प्रकार; आह--कहा; तत्‌--वह; मन्त्र--उपदेश; दृशाम्‌--उपयुक्त;वरीयानू-- श्रेष्ठठम; यत्‌--जो; मन्त्रिण:--राज्य के मंत्री अथवा पटु राजनीतिज्ञ; बैदुरिकम्‌--विदुर द्वारा उपदेश; वदन्ति--कहतेहैं।

    जब विदुर अपने ज्येष्ठ भ्राता ( धृतराष्ट्र ) द्वारा मंत्रणा के लिए बुलाये गये तो वे राजमहल मेंप्रविष्ट हुए और उन्होंने ऐसे उपदेश दिये जो उपयुक्त थे।

    उनका उपदेश सर्वविदित है और राज्य केदक्ष मन्त्रियों द्वारा अनुमोदित है।

    अजाततपत्रो: प्रतियच्छ दाय॑ तितिक्षतो दुर्विषह्ं तवाग: ।

    सहानुजो यत्र वृकोदराहिःश्रसन्रुषा यत्त्वमलं बिभेषि ॥

    ११॥

    अजात-शत्रो:--युधिष्ठिर का, जिसका कोई शत्रु नहीं है; प्रतियच्छ--लौटा दो; दायम्‌ू--उचित भाग; तितिक्षत:--सहिष्णु का;दुर्विषमम्‌--असहा; तव--तुम्हारा; आग: --अपराध; सह--सहित; अनुज: --छोटे भाइयों; यत्र--जिसमें; वृकोदर-- भीम;अहिः--बदला लेने वाला सर्प; श्रसन्‌--उच्छास भरा; रुषा--क्रोध में; यत्‌--जिससे; त्वम्‌ू--तुम; अलम्‌ू--निश्चय ही;बिभेषि--डरते हो |

    [विदुर ने कहा तुम्हें चाहिए कि युधिष्ठिर को उसका न्‍्यायोचित भाग लौटा दो, क्योंकिउसका कोई शत्रु नहीं है और वह तुम्हारे अपराधों के कारण अकथनीय कष्ट सहन करता रहा है।

    वह अपने छोटे भाइयों सहित प्रतीक्षारत है जिनमें से प्रतिशोध की भावना से पूर्ण भीम सर्प कीतरह उच्छास ले रहा है।

    तुम निश्चय ही उससे भयभीत हो।

    पार्थास्तु देवो भगवान्मुकुन्दोगृहीतवान्सक्षितिदेवदेव: ।

    आस्ते स्वपुर्या यदुदेवदेवोविनिर्जिताशेषनूदेवदेव: ॥

    १२॥

    पार्थानू-पृथा ( कुन्ति ) के पुत्रों को; तु--लेकिन; देव:--प्रभु; भगवान्‌-- भगवान्‌ मुकुन्दः --मुक्तिदाता श्रीकृष्ण ने;गृहीतवान्‌--ग्रहण कर लिया है; स--सहित; क्षिति-देव-देव:--ब्राह्मण तथा देवता; आस्ते--उपस्थित है; स्व-पुर्यामू-- अपनेपरिवार सहित; यदु-देव-देव: --यदुवंश के राजकुल द्वारा पूजित; विनिर्जित--जीते हुए; अशेष---असीम; नृदेव--राजा;देवः--स्वामी।

    भगवान्‌ कृष्ण ने पृथा के पुत्रों को अपना परिजन मान लिया है और संसार के सारे राजाश्रीकृष्ण के साथ हैं।

    वे अपने घर में अपने समस्त पारिवारिक जनों, यदुकुल के राजाओं तथाराजकुमारों के साथ, जिन्होंने असंख्य शासकों को जीत लिया है, उपस्थित हैं और वे उन सबों केस्वामी हैं।

    स एष दोष: पुरुषद्विडास्तेगृहान्प्रविष्टो यमपत्यमत्या ।

    पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्रीस्‌त्यजाश्रशैवं कुलकौशलाय ॥

    १३॥

    सः--वह; एष:--यह; दोष: --साक्षात्‌ अपराध; पुरुष-द्विट्‌ू-- श्रीकृष्ण का ईर्ष्यालु; आस्ते--विद्यमान है; गृहान्‌--घर में;प्रविष्ट: --प्रवेश किया हुआ; यम्‌--जिसको; अपत्य-मत्या--अपना पुत्र सोचकर; पुष्णासि--पालन कर रहे हो; कृष्णात्‌--कृष्ण से; विमुख:--विरुद्ध; गत-श्री:-- प्रत्येक शुभ वस्तु से विहीन; त्यज--त्याग दो; आशु--यथाशीघ्र; अशैवम्‌-- अशुभ;कुल--परिवार; कौशलाय-के हेतु

    तुम साक्षात्‌ अपराध रूप दुर्योधन का पालन-पोषण अपने अच्युत पुत्र के रूप में कर रहे हो,किन्तु वह भगवान्‌ कृष्ण से ईर्ष्या करता है।

    चूँकि तुम इस तरह से कृष्ण के अभक्त का पालनकर रहे हो, अतएवं तुम समस्त शुभ गुणों से विहीन हो।

    तुम यथाशीघ्र इस दुर्भाग्य से छुटकारापा लो और सारे परिवार का कल्याण करो।

    इत्यूचिवांस्तत्र सुयोधनेनप्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण ।

    असत्कृतः सत्स्पृहणीयशीलःक्षत्ता सकर्णानुगसौबलेन ॥

    १४॥

    इति--इस प्रकार; ऊचिवान्‌--कहते हुए; तत्र--वहाँ; सुयोधनेन--दुर्योधन द्वारा; प्रवृद्ध--फूला हुआ; कोप--क्रो ध से;स्फुरित--फड़कते हुए; अधरेण--होठों से; असत्‌-कृत:--अपमानित; सत्‌--सम्मानित; स्पृहणीय-शील:--वांछित गुण;क्षत्ता--विदुर; स--सहित; कर्ण--कर्ण; अनुज--छोटे भाइयों; सौबलेन--शकुनि सहित |

    विदुर जिनके चरित्र का सभी सम्मानित व्यक्ति आदर करते थे, जब इस तरह बोल रहे थे तोदुर्योधन द्वारा उनको अपमानित किया गया।

    दर्योधन क्रोध के मारे फूला हुआ था और उसकेहोंठ फड़क रहे थे।

    दुर्योधन कर्ण, अपने छोटे भाइयों तथा अपने मामा शकुनी के साथ था।

    'क एनमत्रोपजुहाव जिहांदास्या: सुतं यद्वलिनैव पुष्ट: ।

    तस्मिन्प्रतीप: परकृत्य आस्तेनिर्वास्यतामाशु पुराच्छुसान: ॥

    १५॥

    कः--कौन; एनम्‌--यह; अत्र--यहाँ; उपजुहाव--बुलाया; जिह्मम्‌--कुटिल; दास्या:--रखैल के; सुतम्‌--पुत्र को; यत्‌--जिसके; बलिना--भरण से; एव--निश्चय ही; पुष्ट:--बड़ा हुआ; तस्मिन्‌--उसको; प्रतीप:--शत्रुता; परकृत्य--शत्रु का हित;आस्ते--स्थित है; निर्वास्थताम्‌ू--बाहर निकालो; आशु--तुरन्त; पुरातू--महल से; श्रसान:--उसकी केवल साँस चलने दो।

    इस रखैल के पुत्र को यहाँ आने के लिए किसने कहा है ? यह इतना कुटिल है कि जिनकेबल पर यह बड़ा हुआ है उन्हीं के विरुद्ध शत्रु-हित में गुप्तचरी करता है।

    इसे तुरन्त इस महल सेनिकाल बाहर करो और इसकी केवल साँस भर चलने दो।

    स्वयं धनुर्द्धारि निधाय मायांभ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोपि ।

    स इत्थमत्युल्बणकर्णबाणै-गतव्यथोयादुरु मानयान: ॥

    १६॥

    स्वयम्‌--स्वयं; धनु: द्वारि--दरवाजे पर धनुष; निधाय--रखकर; मायाम्‌--माया, बाहरी प्रकृति को; भ्रातु:--भाई के; पुर: --राजमहल से; मर्मसु--अपने हृदय में; ताडित:--दुखी होकर; अपि-- भी; स:ः--वह ( विदुर ); इत्थम्‌--इस तरह; अति-उल्बण--अत्यंत कठोरता से; कर्ण--कान; बाणै:--तीरों से; गत-व्यथ:--दुखी हुए बिना; अयात्‌--उत्तेजित हुआ; उरू--अत्यधिक; मान-यान: --इस प्रकार विचारते हुए

    इस तरह अपने कानों से होकर वाणों द्वारा बेधे गये और अपने हृदय के भीतर मर्माहत विदुरने अपना धनुष दरवाजे पर रख दिया और अपने भाई के महल को छोड़ दिया।

    उन्हें कोई खेदनहीं था, क्‍योंकि वे माया के कार्यों को सर्वोपरि मानते थे।

    स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धोगजाह्नयात्तीर्थथदः पदानि ।

    अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोव्याम्‌अधिष्ठितो यानि सहस्त्रमूर्ति: ॥

    १७॥

    सः--वह ( विदुर ); निर्गतः--छोड़ने के बाद; कौरव--कुरु वंश; पुण्य--पुण्य; लब्ध:--प्राप्त किया हुआ; गज-आह्॒यात्‌ --हस्तिनापुर से; तीर्थ-पद:ः-- भगवान्‌ की; पदानि--तीर्थयात्राओं की; अन्वाक्रमत्‌--शरण ली; पुण्य--पुण्य; चिकीर्षया--ऐसीइच्छा करते हुए; उर्व्यामू--उच्चकोटि की; अधिष्ठित:--स्थित; यानि--वे सभी; सहस्त्र--हजारों; मूर्ति: --स्वरूप |

    अपने पुण्य के द्वारा विदुर ने पुण्यात्मा कौरवों के सारे लाभ प्राप्त किये।

    उन्होंने हस्तिनापुरछोड़ने के बाद अनेक तीर्थस्थानों की शरण ग्रहण की जो कि भगवान्‌ के चरणकमल हैं।

    उच्चकोटि का पवित्र जीवन पाने की इच्छा से उन्होंने उन पवित्र स्थानों की यात्रा की जहाँ भगवान्‌ के हजारों दिव्य रूप स्थित हैं।

    सामान्य जनों को अपने पापों से निवारण करने की सुविधा प्राप्त हो तथा संसार में धर्म की स्थापना कीजा सके।

    पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुझे-घ्वपड्डतोयेषु सरित्सरःसु ।

    अनन्तलिड्डैः समलड्ड तेषुअचार तीर्थायतनेष्वनन्य: ॥

    १८॥

    पुरेषु--अयोध्या, द्वारका तथा मथुरा जैसे स्थानों में; पुण्य--पुण्य; उप-बन--वायु; अद्वि--पर्वत; कुझ्लेषु--बगीचों में;अपड्डू--पापरहित; तोयेषु--जल में; सरित्‌--नदी; सरःसु--झीलों में; अनन्त-लिड्रैः--अनन्त के रूपों; समलड्डू तेषु--इस तरहसे अलंकृत किये गये; चचार--सम्पन्न किया; तीर्थ--तीर्थस्थान; आयतनेषु--पवित्र भूमि; अनन्य:--एकमात्र या केवल कृष्णका दर्शन करना

    वे एकमात्र कृष्ण का चिन्तन करते हुए अकेले ही विविध पवित्र स्थानों यथा अयोध्या,द्वारका तथा मथुरा से होते हुए यात्रा करने निकल पढ़े।

    उन्होंने ऐसे स्थानों की यात्रा की जहाँ कीवायु, पर्वत, बगीचे, नदियाँ तथा झीलें शुद्ध तथा निष्पाप थीं और जहाँ अनन्त के विग्रह मन्दिरोंकी शोभा बढ़ाते हैं।

    इस तरह उन्होंने तीर्थयात्रा की प्रगति सम्पन्न की।

    गां पर्यटन्मेध्यविविक्तवृत्ति:सदाप्लुतोध: शयनोवधूत: ।

    अलक्षितः स्वैरवधूतवेषोब्रतानि चेरे हरितोषणानि ॥

    १९॥

    गाम्‌--पृथ्वी पर; पर्यटन्‌ू-- भ्रमण करते; मेध्य--शुद्ध; विविक्त-वृत्तिः--जीने के लिए स्वतंत्र पेशा; सदा--सदैव; आप्लुत:--पवित्र किया गया; अध:--पृथ्वी पर; शयन:--लेटे हुए; अवधूत:--( बाल, नाखून इत्यादि ) बिना सँवारे या कटे );अलक्षित:--किसी के द्वारा बिना देखे हुए; स्वै:--अकेले; अवधूत-वेष:--साधू की तरह वेश धारण किये; ब्रतानि--ब्रत;चेरे--सम्पन्न किया; हरि-तोषणानि-- भगवान्‌ को प्रसन्न करने वाले।

    इस तरह पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने भगवान्‌ हरि को प्रसन्न करने के लिए कृतकार्यकिये।

    उनकी वृत्ति शुद्ध एवं स्वतंत्र थी।

    वे पवित्र स्थानों में स्नान करके निरन्तर शुद्ध होते रहे,यद्यपि वे अवधूत वेश में थे--न तो उनके बाल सँवरे हुए थे न ही लेटने के लिए उनके पासबिस्तर था।

    इस तरह वे अपने तमाम परिजनों से अलक्षित रहे।

    इत्थं ब्रजन्भारतमेव वर्षकालेन यावद्गतवान्प्रभासम्‌ ।

    तावच्छशास क्षितिमेक चक्रा-मेकातपत्रामजितेन पार्थ: ॥

    २०॥

    इत्थम्‌--इस तरह से; ब्रजन्‌--विचरण करते हुए; भारतम्‌-- भारत; एब--केवल ; वर्षम्‌-- भूखण्ड; कालेन--यथासमय;यावत्‌--जब; गतवान्‌--गया; प्रभासम्‌ू--प्रभास तीर्थस्थान; तावत्‌--तब; शशास--शासन किया; क्षितिमू--पृथ्वी पर; एक-चक्राम्‌--एक सैन्य बल से; एक--एक; आतपत्राम्‌-- ध्वजा; अजितेन-- अजित कृष्ण की कृपा से; पार्थ:--महाराजयुधिष्ठिर।

    इस तरह जब वे भारतवर्ष की भूमि में समस्त तीर्थस्थलों का भ्रमण कर रहे थे तो वे प्रभासक्षेत्र गये।

    उस समय महाराज युधिष्ठिर सम्राट थे और वे सारे जगत को एक सैन्य शक्ति तथा एकध्वजा के अन्तर्गत किये हुए थे।

    तत्राथ शुश्राव सुहद्दिनष्टिंवनं यथा वेणुजवहिसंश्रयम्‌ ।

    संस्पर्धया दग्धमथानुशोचन्‌सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम्‌ ॥

    २१॥

    तत्र--वहाँ; अथ--तत्पश्चात्‌; शुश्राव--सुना; सुहत्‌--प्रियजन; विनष्टिमू--मृत; वनम्‌ू--जंगल; यथा--जिस तरह; वेणुज-वहि--बाँस के कारण लगी अग्नि; संश्रयम्‌--एक दूसरे से घर्षण; संस्पर्थया--उग्र कामेच्छा द्वारा; दग्धम्‌--जला हुआ; अथ--इस प्रकार; अनुशोचन्‌--सोचते हुए; सरस्वतीम्‌ू--सरस्वती नदी को; प्रत्यक्‌ु-पश्चिम की ओर; इयाय--गया; तृष्णीम्‌--मौनहोकर।

    प्रभास तीर्थ स्थान में उन्हें पता चला कि उनके सारे सम्बन्धी उग्र आवेश के कारण उसी तरहमारे जा चुके हैं जिस तरह बाँसों के घर्षण से उत्पन्न अग्नि सारे जंगल को जला देती है।

    इसकेबाद वे पश्चिम की ओर बढ़ते गये जहाँ सरस्वती नदी बहती है।

    तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्वपृथोरथाग्नेरसितस्य वायो: ।

    तीर्थ सुदासस्य गवां गुहस्ययच्छाद्धदेवस्थ स आसिषेवे ॥

    २२॥

    तस्याम्‌--सरस्वती नदी के किनारे; त्रितस्थ--त्रित नामक तीर्थस्थल; उशनस:--उशना नामक तीर्थस्थल; मनो: च--मनु नामकतीर्थस्थल भी; पृथोः--पृथु के; अथ--तत्पश्चात्‌; अग्ने:-- अग्नि के; असितस्य--असित के; वायो: --वायु के ; तीर्थम्‌--तीर्थस्थान; सुदासस्य--सुदास नाम का; गवामू--गो नामक; गुहस्य--तथा गुह का; यत्‌--तत्पश्चात्‌; भ्राद्धदेवस्य-- श्राद्धदेवका; सः--विदुर ने; आसिषेवे--ठीक से देखा और कर्मकाण्ड किया।

    सरस्वती नदी के तट पर ग्यारह तीर्थस्थल थे जिनके नाम हैं (१)बत्रित (२) उशना(३) मनु (४) पृथु (५) अग्नि (६) असित (७) वायु ( ८ ) सुदास ( ९ ) गो ( १० ) गुह तथा(११) श्राद्धदेव।

    विदुर इन सबों में गये और ठीक से कर्मकाण्ड किये।

    अन्यानि चेह द्विजदेवदेवै:कृतानि नानायतनानि विष्णो: ।

    प्रत्यड्गमुख्याद्वितमन्दिराणियहर्शनात्कृष्णमनुस्मरन्ति ॥

    २३॥

    अन्यानि--अन्य; च--तथा; इह--यहाँ; द्विज-देव--महर्षियों द्वारा; देवै:--तथा देवताओं द्वारा; कृतानि-- स्थापित; नाना--विविध; आयतनानि--विविध रूप; विष्णो:-- भगवान्‌ के; प्रति--प्रत्येक; अड्ड--अंग; मुख्य--प्रमुख; अद्धित--चिन्हित;मन्दिराणि--मन्दिर; यत्‌--जिनके ; दर्शनात्‌--दूर से देखने से; कृष्णमम्‌--आदि भगवान्‌ को; अनुस्मरन्ति--निरन्तर स्मरणकराते हैं।

    वहाँ महर्षियों तथा देवताओं द्वारा स्थापित किये गये पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णु केविविध रूपों से युक्त अनेक अन्य मन्दिर भी थे।

    ये मन्दिर भगवान्‌ के प्रमुख प्रतीकों से अंकितथे और आदि भगवान्‌ श्रीकृष्ण का सदैव स्मरण कराने वाले थे।

    ततस्त्वति्रज्य सुराष्ट्रमृद्धंसौवीरमस्सान्कुरुजाडूलांश्व ।

    कालेन तावद्यमुनामुपेत्यतत्रोद्धवं भागवतं ददर्श ॥

    २४॥

    ततः--वहाँ से; तु--लेकिन; अतित्रज्य--पार करके; सुराष्ट्रमू--सूरत का राज्य; ऋद्धम्‌--अत्यन्त धनवान; सौवीर--सौवीर,साम्राज्य; मत्स्यानू--मस्स्य साम्राज्य; कुरुजाडुलान्‌--दिल्ली प्रान्त तक फैला पश्चिमी भारत का साम्राज्य; च-- भी; कालेन--यथासमय; तावत्‌--ज्योंही; यमुनाम्‌ू--यमुना नदी के किनारे; उपेत्य--पहुँच कर; तत्र--वहाँ; उद्धवम्‌--यदुओं में प्रमुख, उद्धवको; भागवतम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण के भक्त; ददर्श--देखा |

    तत्पश्चात्‌ वे अत्यन्त धनवान प्रान्तों यथा सूरत, सौवीर और मत्स्य से होकर तथा कुरुजांगलनाम से विख्यात पश्चिमी भारत से होकर गुजरे।

    अन्त में वे यमुना के तट पर पहुँचे जहाँ उनकी" भेंट कृष्ण के महान्‌ भक्त उद्धव से हुई।

    स वासुदेवानुचरं प्रशान्तंबृहस्पतेः प्राक्तनयं प्रतीतम्‌ ।

    आलिड्ग्य गाढं प्रणयेन भद्रं स्वानामपृच्छद्धगवत्प्रजानामू ॥

    २५॥

    सः--वह, विदुर; वासुदेव--कृष्ण का; अनुचरम्‌--नित्य संगी; प्रशान्तम्‌--अत्यन्त शान्त एवं सौम्य; बृहस्पतेः--देवताओं केविद्वान गुरु बृहस्पति का; प्राक्‌ू-पूर्वकाल में; तनयम्‌--पुत्र या शिष्य; प्रतीतम्‌--स्वीकार किया; आलिड्ग्य--आलिगंनकरके; गाढमू--गहराई से; प्रणयेन--प्रेम में; भद्रमू--शुभ; स्वानाम्‌--निजी; अपृच्छत्‌ू--पूछा; भगवत्‌-- भगवान्‌ के;प्रजानामू--परिवार का।

    तत्पश्चात्‌ अत्यधिक प्रेम तथा अनुभूति के कारण विदुर ने भगवान्‌ कृष्ण के नित्य संगी तथाबृहस्पति के पूर्व महान्‌ शिष्य उद्धव का आलिंगन किया।

    तत्पश्चात्‌ विदुर ने भगवान्‌ कृष्ण केपरिवार का समाचार पूछा।

    कच्चित्पुराणौ पुरुषौ स्वनाभ्य-पाद्मनुवृत्त्येह किलावतीर्णों ।

    आसात उर्व्या: कुशलं विधायकृतक्षणौ कुशल शूरगेहे ॥

    २६॥

    कच्चित्‌ू--क्या; पुराणौ--आदि; पुरुषौ--दो भगवान्‌ ( कृष्ण तथा बलराम ); स्वनाभ्य--ब्रह्मा; पाद्म-अनुवृत्त्या--कमल सेउत्पन्न होने वाले के अनुरोध पर; इह--यहाँ; किल--निश्चय ही; अवतीर्णों--अवतरित; आसाते-- हैं; उर्व्या:--जगत में;कुशलम्‌--कुशल-क्षेम; विधाय--ऐसा करने के लिए; कृत-क्षणौ--हर एक की सम्पन्नता के उन्नायक; कुशलम्‌--सर्वमंगल;शूर-गेहे --शूरसेन के घर में |

    कृपया मुझे बतलाएँ कि ( भगवान्‌ की नाभि से निकले कमल से उत्पन्न ) ब्रह्मा केअनुरोध पर अवतरित होने वाले दोनों आदि भगवान्‌, जिन्होंने हर व्यक्ति को ऊपर उठा कर सम्पन्नता में वृद्धि की है, शूरसेन के घर में ठीक से तो रह रहे हैं ?कच्चित्कुरूणां परमः सुहन्नोभाम:ः स आस्ते सुखमड़ शौरिः ।

    कच्चित्कुरूणां परम: सुहतन्नो भाम: स आस्ते सुखमड़ शौरि: ।

    यो वै स्वसृणां पितृवद्ददातिवरान्वदान्यो वरतर्पणेन ॥

    २७॥

    कच्चित्‌--क्या; कुरूणाम्‌--कुरूओं के; परम:--सबसे बड़े; सुहत्‌--शुभचिन्तक; न:--हमारा; भाम:--बहनोई; सः--वह;आस्ते--है; सुखम्‌--सुखी; अड्ड--हे उद्धव; शौरि:--वसुदेव; यः--जो; बै--निस्सन्देह; स्वसृणाम्‌--बहनों का; पितृ-वत्‌--पिता के समान; ददाति--देता है; वरानू-- इच्छित वस्तुएँ; वदान्य:--अत्यन्त उदार; वर--स्त्री; तर्पणेन--प्रसन्न करके

    कृपया मुझे बताएँ कि कुरुओं के सबसे अच्छे मित्र हमारे बहनोई वसुदेव कुशलतापूर्वकतो हैं? वे अत्यन्त दयालु हैं।

    वे अपनी बहनों के प्रति पिता के तुल्य हैं और अपनी पत्नियों केप्रति सदैव हँसमुख रहते हैं।

    कच्चिद्वरूथाधिपतिर्यदूनांप्रद्यम्म आस्ते सुखमड़ वीर: ।

    यं रुक्मिणी भगवतोभिलेभेआशध्य विप्रान्स्मरमादिसगें ॥

    २८ ॥

    'कच्चित्‌ू-- क्या; वरूथ--सेना का; अधिपति:--नायक; यदूनाम्‌ू--यदुओं का; प्रद्यम्न:--कृष्ण का पुत्र प्रद्मुम्न; आस्ते--है;सुखम्‌--सुखी; अड्ग--हे उद्धव; बवीर:--महान्‌ योद्धा; यम्‌--जिसको; रुक्मिणी--कृष्ण की पत्नी, रुक्मिणी ने; भगवतः--भगवान्‌ से; अभिलेभे--पुरस्कारस्वरूप प्राप्त किया; आराध्य--प्रसन्न करके ; विप्रानू--ब्राह्मणों को; स्मरम्‌--कामदेव; आदि-सर्गे--अपने पूर्व जन्म में |

    हे उद्धव, मुझे बताओ कि यदुओं का सेनानायक प्रद्युम्न, जो पूर्वजन्म में कामदेव था, कैसाहै? रुक्मिणी ने ब्राह्मणों को प्रसन्न करके उनकी कृपा से भगवान्‌ कृष्ण से अपने पुत्र रुपमें उसेउत्पन्न किया था।

    कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोज-दाशाईकाणामधिप: स आस्ते ।

    यमशभ्यषिश्जञच्छतपत्रनेत्रोनृपासनाशां परिहत्य दूरातू ॥

    २९॥

    'कच्चित्‌-- क्या; सुखम्‌--सब कुशल मंगल है; सात्वत--सात्वत जाति; वृष्णि--वृष्णि वंश; भोज-- भोज वंश;दाशाहकाणाम्‌--दाशाई जाति; अधिप:--राजा उग्रसेन; सः--वह; आस्ते-- है; यमू--जिसको; अभ्यषिज्ञत्‌-- प्रतिष्ठित; शत-पत्र-नेत्र:-- श्रीकृष्ण ने; नृूप-आसन-आशाम्‌--राजसिंहासन की आशा; परिहत्य--त्याग कर; दूरातू-दूरस्थान पर |

    हे मित्र, ( मुझे बताओ ) कया सात्वतों, वृष्णियों, भोजों तथा दाशाहों के राजा उग्रसेन अब कुशल-मंगल तो हैं? वे अपने राजसिंहासन की सारी आशाएँ त्यागकर अपने साम्राज्य से दूरचले गये थे, किन्तु भगवान्‌ कृष्ण ने पुनः उन्हें प्रतिष्ठित किया।

    कच्चिद्धरेः सौम्य सुतः सदक्षआस्तेग्रणी रथिनां साधु साम्ब: ।

    असूत यं जाम्बवती ब्रताढ्यादेवं गुहं योउम्बिकया धृतोग्रे ॥

    ३०॥

    'कच्चित्‌--क्या; हरेः-- भगवान्‌ का; सौम्य--हे गम्भीर; सुत:--पुत्र; सहक्ष:--समान; आस्ते--ठीक से रह रहा है; अग्रणी: --अग्रगण्य; रथिनामू--योद्धाओं के; साधु--अच्छे आचरण वाला; साम्ब:--साम्ब; असूत--जन्म दिया; यम्‌--जिसको;जाम्बवती--कृष्ण की पत्नी जाम्बवती ने; ब्रताढ्या--्रतों से सम्पन्न; देवम्‌-देवता; गुहम्‌--कार्तिकेय नामक; यः--जिसको;अम्बिकया--शिव की पत्नी से; धृतः--उत्पन्न; अग्रे--पूर्व जन्म में |

    हे भद्रपुरुष, साम्ब ठीक से तो है? वह भगवान्‌ के पुत्र सहृश ही है।

    पूर्वजन्म में वह शिवकी पत्नी के गर्भ से कार्तिकिय के रूप में जन्मा था और अब वही कृष्ण की अत्यन्तसौभाग्यशालिनी पली जाम्बवती के गर्भ से उत्पन्न हुआ है।

    क्षेमं स कच्चिद्युयुधान आस्तेयः फाल्गुनाल्‍लब्धधनूरहस्यः ।

    लेभेञ्जसाधोक्षजसेवयैवगतिं तदीयां यतिभिर्दुरापाम्‌ ॥

    ३१॥

    क्षेमम्‌--सर्वमंगल; सः--वह; कच्चित्‌--क्या; युयुधान: --सात्यकि; आस्ते--है; यः--जिसने; फाल्गुनात्‌ू-- अर्जुन से;लब्ध--प्राप्त किया है; धनु:-रहस्यः--सैन्यकला के भेदों का जानकार; लेभे--प्राप्त किया है; अज्ञसा-- भलीभाँति;अधोक्षज--ब्रह्म का; सेवया--सेवा से; एव--निश्चय ही; गतिम्‌--गन्तव्य; तदीयाम्‌--दिव्य; यतिभि:--बड़े-बड़े संन्यासियोंद्वारा; दुरापाम-- प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन

    हे उद्धव, क्‍या युयुधान कुशल से? उसने अर्जुन से सैन्य कला की जटिलताएँ सीखीं औरउस दिव्य गन्तव्य को प्राप्त किया जिस तक बड़े-बड़े संन्‍यासी भी बहुत कठिनाई से पहुँच पातेहैं।

    कच्चिद्दुध: स्वस्त्यनमीव आस्ते श्रफल्कपुत्रो भगवत्प्रपन्न: ।

    यः कृष्णपादाड्डधितमार्गपांसु-घ्वचेष्टत प्रेमविभिन्नधेर्य: ॥

    ३२॥

    कच्चित्‌-- क्या; बुध: --अत्यन्त विद्वान; स्वस्ति--ठीक से; अनमीव:--त्रुटिरहित; आस्ते--है; श्रफल्क-पुत्र:-- ध्रफल्क कापुत्र अक्रूर; भगवत्‌-- भगवान्‌ के; प्रपन्न:--शरणागत; य:--वह जो; कृष्ण-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण; पाद-अद्धित--चरण चिह्ढों सेशोभित; मार्ग--रास्ता; पांसुषु-- धूल में; अचेष्टत--प्रकट किया; प्रेम-विभिन्न--दिव्य प्रेम में निमग्न; धैर्य:--मानसिकसंतुलन

    कृपया मुझे बताएँ कि श्रफल्क पुत्र अक्रूर ठीक से तो है? वह भगवान्‌ का शरणागत एकदोषरहित आत्मा है।

    उसने एक बार दिव्य प्रेम-भाव में अपना मानसिक सन्तुलन खो दिया थाऔर उस मार्ग की धूल में गिर पड़ा था जिसमें भगवान्‌ कृष्ण के पदचिन्ह अंकित थे।

    कच्चिच्छिवं देवक भोजपुत्र्याविष्णुप्रजाया इव देवमातु: ।

    या वै स्वगर्भेण दधार देवंज्रयी यथा यज्ञवितानमर्थम्‌ ॥

    ३३॥

    कच्चित्‌ू--क्या; शिवम्‌--ठीकठाक; देवक-भोज-पुत्रया:--राजा देवक भोज की पुत्री का; विष्णु-प्रजाया:-- भगवान्‌ को जन्मदेने वाली; इब--सहृश; देव-मातुः--देवताओं की माता ( अदिति ) का; या--जो; बै--निस्सन्देह; स्व-गर्भेण-- अपने गर्भ से;दधार-- धारण किया; देवम्‌-- भगवान्‌ को; त्रयी--वेद; यथा--जितना कि; यज्ञ-वितानम्‌--यज्ञ के प्रसार का; अर्थम्‌--उद्देश्य |

    जिस तरह सारे वेद याज्ञिक कार्यो के आगार हैं उसी तरह राजा देवक-भोज की पुत्री ने देवताओं की माता के ही सदृश भगवान्‌ को अपने गर्भ में धारण किया।

    क्‍या वह ( देवकी )कुशल से है?

    अपिस्विदास्ते भगवान्सुखं वोयः सात्वतां कामदुघोनिरुद्धः ।

    यमामनन्ति सम हि शब्दयोनिंमनोमयं सत्त्वतुरीयतत्त्वम्‌ ॥

    ३४॥

    अपि--भी; स्वित्‌ू-- क्या; आस्ते-- है; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; सुखम्‌-- समस्त सुख; व: --तुम्हारा; य:--जो; सात्वतामू-भक्तोंकी; काम-दुघ:--समस्त इच्छाओं का स्रोत; अनिरुद्ध:--स्वांश अनिरुद्ध; यम्‌ू--जिसको; आमनन्ति--स्वीकार करते हैं;स्म--प्राचीन काल से; हि--निश्चय ही; शब्द-योनिम्‌--ऋग्वेवेद का कारण; मनः-मयम्‌--मन का स्त्रष्टा; सत्तत--दिव्य;तुरीय--चौथा विस्तार; तत्त्वमू--तत्व, सिद्धान्त |

    क्या मैं पूछ सकता हूँ कि अनिरुद्ध कुशलतापूर्वक है? वह शुद्ध भक्तों की समस्त इच्छाओंकी पूर्ति करने वाला है और प्राचीन काल से ऋग्वेद का कारण, मन का स्त्रष्टा तथा विष्णु काचौथा स्वांश माना जाता रहा है।

    अपिस्विदन्ये च निजात्मदैव-श़मनन्यदृत्त्या समनुव्रता ये।

    हृदीकसत्यात्मजचारुदेष्णगदादय: स्वस्ति चरन्ति सौम्य ॥

    ३५॥

    अपि-भी; स्वित्‌-- क्या; अन्ये-- अन्य; च--तथा; निज-आत्म--अपने ही; दैवम्‌-- श्रीकृष्ण; अनन्य--पूर्णरूपेण; वृत्त्या--श्रद्धा; समनुब्रता:--अनुयायीगण; ये-- वे जो; हदीक--हृदीक; सत्य-आत्मज--सत्यभामा का पुत्र; चारुदेष्ण--चारुदेष्ण;गद--गद; आदय:--इत्यादि; स्वस्ति--कुशलतापूर्वक; चरन्ति--समय बताते हैं; सौम्य--हे भद्गःपुरुष |

    हे भद्र पुरुष, अन्य लोग, यथा हदीक, चारुदेष्ण, गद तथा सत्यभामा का पुत्र जो श्रीकृष्णको अपनी आत्मा के रूप में मानते हैं और बिना किसी विचलन के उनके मार्ग का अनुसरणकरते हैं-ठीक से तो हैं ?

    अपि स्वदोर्भ्या विजयाच्युताभ्यांधर्मेण धर्म: परिपाति सेतुम्‌ ।

    दुर्योधनोउतप्यत यत्सभायांसाम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या ॥

    ३६॥

    अपि- भी; स्व-दोर्भ्याम्‌-- अपनी भुजाएँ; विजय--अर्जुन; अच्युता-भ्याम्‌-- श्रीकृष्ण समेत; धर्मेण-- धर्म द्वारा; धर्म:--राजायुधिष्ठटि; परिपाति--पालनपोषण करता है; सेतुम्‌्-- धर्म का सम्मान; दुर्योधन: --दुर्योधन; अतप्यत--ईर्ष्या करता था; यत्‌--जिसका; सभायाम्‌--राज दरबार; साप्राज्य--राजसी; लक्ष्म्या--ऐश्वर्य; विजय-अनुवृत्त्या--अर्जुन की सेवा द्वारा

    अब मैं पूछना चाहूँगा कि महाराज युधिष्टठिर धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार तथा धर्मपथ केप्रति सम्मान सहित राज्य का पालन-पोषण कर तो रहे हैं? पहले तो दुर्योधन ईर्ष्या से जलतारहता था, क्योंकि युथिष्ठिर कृष्ण तथा अर्जुन रूपी दो बाहुओं के द्वारा रक्षित रहते थे जैसे वेउनकी अपनी ही भुजाएँ हों।

    किं वा कृताधेष्वघमत्यमर्षीभीमोहिवद्दीर्घतमं व्यमुझ्जत्‌ ।

    यस्याड्प्रिपातं रणभूर्न सेहेमार्ग गदायाश्वरतो विचित्रम्‌ ॥

    ३७॥

    किम्‌--क्या; वा--अथवा; कृत--सम्पन्न; अधेषु--पापियों के प्रति; अधम्‌ू--क्रुद्ध; अति-अमर्षी--अजेय; भीम: -- भीम;अहि-वत्‌-काले सर्प की भाँति; दीर्घ-तमम्‌--दीर्घ काल से; व्यमुञ्ञत्‌-विमुक्त किया; यस्य--जिसका; अड्ध्रि-पातम्‌--पदचाप; रण-भू:--युद्ध भूमि; न--नहीं; सेहे--सह सका; मार्गम्‌--मार्ग; गदाया: --गदाओं द्वारा; चरत:--चलाते हुए;विचित्रम्‌--विचित्र |

    कृपया मुझे बताएँ क्‍या विषैले सर्प तुल्य एवं अजेय भीम ने पापियों पर अपनादीर्घकालीन क्रोध बाहर निकाल दिया है? गदा-चालन के उसके कौशल को रण-भूमि भीसहन नहीं कर सकती थी, जब वह उस पथ पर चल पड़ता था।

    कच्चिद्यशोधा रथयूथपानांगाण्डीवधन्वोपरतारिरास्ते ।

    अलक्षितो यच्छरकूटगूढोमायाकिरातो गिरिशस्तुतोष ॥

    ३८॥

    कच्चित्‌--क्या; यश:-धा--विख्यात; रथ-यूथपानाम्‌--महान्‌ रथ्िियों के बीच; गाण्डीब--गाण्डीव; धन्व-- धनुष; उपरत-अरिः--जिसने शत्रुओं का विनाश कर दिया है; आस्ते--ठीक से है; अलक्षित:--बिना पहचाने हुए; यत्‌--जिसका; शर-कूट-गूढ:ः--बाणों से आच्छादित होकर; माया-किरात:--छद्ा शिकारी; गिरिश:ः --शिवजी; तुतोष--सन्तुष्ट हो गये थे

    कृपया मुझे बताएँ कि अर्जुन, जिसके धनुष का नाम गाण्डीव है और जो अपने शत्रुओंका विनाश करने में रथ्िियों में सदैव विख्यात है, ठीक से तो है? एक बार उसने न पहचानेजानेवाले छद्य शिकारी के रूप में आये हुए शिवजी को बाणों की बौछार करके उन्हें तुष्ट किया" यमावुतस्वित्तनयौ पृथाया:पार्थवृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव ।

    रेमात उद्दाय मृधे स्वरिक्थंपरात्सुपर्णाविव वज्िवक्त्रात्‌ ॥

    ३९॥

    यमौ--जुड़वाँ ( नकुल तथा सहदेव ); उत्स्वित्‌--क्या; तनयौ--पुत्र; पृथाया: --पृथा के; पार्थै: --पृथा के पुत्रों द्वारा; वृतौ--संरक्षित; पक्ष्मभि:--पलकों द्वारा; अक्षिणी-- आँखों के; इब--सहृश; रेमाते-- असावधानीपूर्वक खेलते हुए; उद्याय--छीन कर;मृधे--युद्ध में; स्व-रिक्थम्‌--अपनी सम्पत्ति; परातू--शत्रु दुर्योधन से; सुपर्णौ--विष्णु का वाहन गरुड़; इब--सहश; बज्ि-वक्त्रात्‌ू-इन्द्र के मुख से।

    क्या अपने भाइयों के संरक्षण में रह रहे जुड़वाँ भाई कुशल पूर्वक हैं? जिस तरह आँखपलक द्वारा सदैव सुरक्षित रहती है उसी तरह वे पृथा पुत्रों द्वारा संरक्षित हैं जिन्होंने अपने शत्रुदुर्योधन के हाथों से अपना न्यायसंगत साप्राज्य उसी तरह छीन लिया है, जिस तरह गरुड़ नेवजधारी इन्द्र के मुख से अमृत छीन लिया था।

    अहो पृथापि धश्वियतेर्भकार्थेराजर्षिवर्येण विनापि तेन ।

    यस्त्वेकवीरोधिरथो विजिग्येधनुद्वितीय: ककुभश्चतस्त्र: ॥

    ४०॥

    अहो--ओह; पृथा--कुन्ती; अपि-- भी; प्चियते--अपना जीवन बिताती है; अर्भक-अर्थे--पितृविहीन बच्चों के निमित्त;राजर्षि--राजा पाए्डु; वर्येण --सर्वश्रेष्ठ; बिना अपि--बिना भी; तेन--उसके; यः--जो; तु--लेकिन; एक--अकेला; वीर: --योद्धा; अधिरथ:--सेनानायक; विजिग्ये--जीत सका; धनु:--धनुष; द्वितीय:--दूसरा; ककुभ:--दिशाएँ; चतस्त्र:--चारों |

    हे स्वामी, क्या पृथा अब भी जीवित है? वह अपने पितृविहीन बालकों के निमित्त हीजीवित रही अन्यथा राजा पाण्डु के बिना उसका जीवित रह पाना असम्भव था, जो कि महानतमसेनानायक थे और जिन्होंने अकेले ही अपने दूसरे धनुष के बल पर चारों दिशाएँ जीत ली थीं।

    सौम्यानुशोचे तमधः:पतन्तंभ्रात्रे परेताय विदुद्रहे यः ।

    निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्याअहं स्वपुत्रान्समनुत्रतेन ॥

    ४१॥

    सौम्य--हे भद्गपुरुष; अनुशोचे--शोक करता हूँ; तम्‌--उसको; अधः-पतन्तम्‌--नीचे गिरते हुए; भ्रात्रे--अपने भाई पर;परेताय-- मृत्यु; विदुद्रहे--विद्रोह किया; यः--जिसने; निर्यापित:--भगा दिया गया; येन--जिसके द्वारा; सुहत्‌ू--शुभैषी; स्व-पुर्या:--अपने ही घर से; अहमू--मैं; स्व-पुत्रान्‌ू--अपने पुत्रों समेत; समनु-व्रतेन--वैसी ही कार्यवाही को स्वीकार करते हुए।

    हे भद्गपुरुष, मैं तो एकमात्र उस ( धृतराष्ट्र) के लिए शोक कर रहा हूँ जिसने अपने भाई कीमृत्यु के बाद उसके प्रति विद्रोह किया।

    उसका निष्ठावान हितैषी होते हुए भी उसके द्वारा मैं अपनेघर से निकाल दिया गया, क्‍योंकि उसने भी अपने पुत्रों के द्वारा अपनाए गये मार्ग का हीअनुसरण किया था।

    सोहहं हरेर्मत्यविडम्बनेन इशो नृणां चालयतो विधातु: ।

    नान्योपलक्ष्य: पदवीं प्रसादा-च्यरामि पश्यन्गतविस्मयोउत्र ॥

    ४२॥

    सः अहम्‌--इसलिए मैं; हरेः -- भगवान्‌ का; मर्त्य--इस मर्त्यलोक में; विडम्बनेन--बिना जाने-पहचाने; हृशः--देखने पर;नृणाम्‌ू--सामान्य लोगों के; चालयत:--मोहग्रस्त; विधातु:--इसे करने के लिए; न--नहीं; अन्य--दूसरा; उपलक्ष्य: --दूसरोंद्वारा देखा गया; पदवीम्‌--महिमा; प्रसादात्‌--कृपा से; चरामि--घूमता हूँ; पश्यन्‌--देखते हुए; गत-विस्मय:--बिना संशयके; अत्र--इस मामले में |

    अन्यों द्वारा अलक्षित रहकर विश्वभर में भ्रमण करने के बाद मुझे इस पर कोई आश्चर्य नहींहो रहा।

    भगवान्‌ के कार्यकलाप जो इस मर्त्यलोक के मनुष्य जैसे हैं, अन्यों को मोहित करनेवाले हैं, किन्तु भगवान्‌ की कृपा से मैं उनकी महानता को जानता हूँ, अतएव मैं सभी प्रकार सेसुखी हूँ।

    नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानांमहीं मुहुश्नालयतां चमूभि: ।

    वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशो -उप्युपैक्षताघं भगवान्कुरूणाम्‌ ॥

    ४३॥

    नूनम्‌--निस्सन्देह; नृपाणामू-राजाओं के; त्रि--तीन; मद-उत्पथानाम्‌-मिथ्या गर्व से बहके हुए; महीम्‌--पृथ्वी को; मुहुः--निरन्तर; चालयतामू्‌--श्षुब्ध करते; चमूभि:--सैनिकों की गति से; वधात्‌--हत्या के कार्य से; प्रपन्न--शरणागत; आर्ति-जिहीर्षय--पीड़ितों के दुख को दूर करने के लिए इच्छुक; ईशः--भगवान्‌ ने; अपि--के बावजूद; उपैक्षत--प्रतीक्षा की;अधघम्‌--अपराध; भगवान्‌-- भगवान्‌; कुरूणाम्‌-कुरुओं के |

    ( कृष्ण ) भगवान्‌ होते हुए भी तथा पीड़ितों के दुख को सदैव दूर करने की इच्छा रखते हुएभी, वे कुरुओं का वध करने से अपने को बचाते रहे, यद्यपि वे देख रहे थे कि उन लोगों ने सभीप्रकार के पाप किये हैं और यह भी देख रहे थे कि, अन्य राजा तीन प्रकार के मिथ्या गर्व के वशमें होकर अपनी प्रबल सैन्य गतिविधियों से पृथ्वी को निरन्तर श्षुब्ध कर रहे हैं।

    अजस्य जन्मोत्पधनाशनायकर्माण्यकर्तुग्रहणाय पुंसाम्‌ ।

    नन्वन्यथा कोहति देहयोगंपरो गुणानामुत कर्मतन्त्रमू ॥

    ४४॥

    अजस्य--अजन्मा का; जन्म--प्राकट्य; उत्पथ-नाशनाय--दुष्टों का विनाश करने के लिए; कर्माणि--कार्य ; अकर्तु:ः--निठल्लेका; ग्रहणाय--ग्रहण करने के लिए; पुंसाम्‌--सारे व्यक्तियों का; ननु अन्यथा--नहीं तो; कः--कौन; अर्हति--योग्य होसकता है; देह-योगम्‌--शरीर का सम्पर्क; पर: --दिव्य; गुणानाम्‌--तीन गुणों का; उत--क्या कहा जा सकता है; कर्म-तन्ब्रमू--कार्य-कारण का नियम।

    भगवान्‌ का प्राकट्य दुष्टों का संहार करने के लिए होता है।

    उनके कार्य दिव्य होते हैं औरसमस्त व्यक्तियों के समझने के लिए ही किये जाते हैं।

    अन्यथा, समस्त भौतिक गुणों से परे रहनेवाले भगवान्‌ का इस पृथ्वी में आने का क्‍या प्रयोजन हो सकता है ?

    तस्य प्रपन्नाखिललोकपाना-मवस्थितानामनुशासने स्वे ।

    अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्यवार्ता सखे कीर्तय तीर्थकीर्ते: ॥

    ४५॥

    तस्य--उसका; प्रपन्न--शरणागत; अखिल-लोक-पानाम्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सारे शासकों के; अवस्थितानाम्‌--स्थित;अनुशासने--नियंत्रण में; स्वे--अपने; अर्थाय--स्वार्थ हेतु; जातस्थ--उत्पन्न होने वाले का; यदुषु--यदु कुल में; अजस्य--अजन्मा की; वार्तामू-कथाएँ; सखे--हे मित्र; कीर्तय--कहो; तीर्थ-कीर्ते: --तीर्थस्थानों में जिन के यश का कीर्तन होता है,उन भगवान्‌ का।

    अतएव हे मित्र, उन भगवान्‌ की महिमा का कीर्तन करो जो तीर्थस्थानों में महिमामंडितकिये जाने के निमित्त हैं।

    वे अजन्मा हैं फिर भी ब्रह्माण्ड के सभी भागों के शरणागत शासकों पर अपनी अहैतुकी कृपा द्वारा वे प्रकट होते हैं।

    उन्हीं के हितार्थ वे अपने शुद्ध भक्त यदुओं केपरिवार में प्रकट हुए।

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    अध्याय दो: भगवान कृष्ण का स्मरण

    3.2श्रीशुक उबाचइति भागवत: पृष्ठ: क्षत्रा वार्ता प्रियाश्रयाम्‌ ।

    प्रतिवक्तु न चोत्सेह औत्कण्ठ्यात्स्मारितेश्वरः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; भागवतः--महान्‌ भक्त; पृष्ट:--पूछे जाने पर; क्षत्रा--विदुर द्वारा; वार्तामू--सन्देश; प्रिय-आश्रयाम्‌--प्रियतम के विषय में; प्रतिवक्तुमू--उत्तर देने के लिए; न--नहीं; च--भी;उत्सेहे--उत्सुक हुआ; औत्कण्ठ्यात्‌--अत्यधिक उत्सुकता वश; स्मारित--स्मृति; ईश्वर: --ईश्वर

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब विदुर ने महान्‌ भक्त उद्धव से प्रियतम ( कृष्ण ) कासन्देश बतलाने के लिए कहा तो भगवान्‌ की स्मृति के विषय में अत्यधिक विह्लता के कारणउद्धव तुरन्त उत्तर नहीं दे पाये।

    यः पञ्जञहायनो मात्रा प्रातरशाय याचित: ।

    तन्नैच्छद्रचयन्यस्थ सपर्या बाललीलया ॥

    २॥

    यः--जो; पश्ञ--पाँच; हायन:--वर्ष का; मात्रा--अपनी माता द्वारा; प्रातः-आशाय--कलेवा के लिए; याचित:ः--बुलाये जानेपर; तत्‌--उस; न--नहीं; ऐच्छत्‌--चाहा; रचयन्‌--खेलते हुए; यस्य--जिसकी; सपर्याम्‌--सेवा; बाल-लीलया--बचपन।

    वे अपने बचपन में ही जब पाँच वर्ष के थे तो भगवान्‌ कृष्ण की सेवा में इतने लीन हो जातेथे कि जब उनकी माता प्रातःकालीन कलेवा करने के लिए बुलातीं तो वे कलेवा करना नहींचाहते थे।

    स कथं सेवया तस्य कालेन जरसं गतः ।

    पूष्टो वार्ता प्रतिब्रूयाद्धर्तु: पादावनुस्मरन्‌ ॥

    ३॥

    सः--उद्धव; कथम्‌--कैसे; सेवया--ऐसी सेवा से; तस्थ--उसका; कालेन--समय के साथ; जरसम्‌--अशक्तता को; गत:--प्राप्त; पृष्ट:--पूछे जाने पर; वार्तामू--सन्देश; प्रतिब्रूयात्‌ू--उत्तर देने के लिए; भर्तु:--भगवान्‌ के; पादौ--चरण कमलों का;अनुस्मरन्‌ू--स्मरण करते हुए।

    इस तरह उद्धव अपने बचपन से ही लगातार कृष्ण की सेवा करते रहे और उनकीवृद्धावस्था में सेवा की वह प्रवृत्ति कभी शिधिल नहीं हुईं।

    जैसे ही उनसे भगवान्‌ के सन्देश केविषय में पूछा गया, उन्हें तुरन्त उनके विषय में सब कुछ स्मरण हो आया।

    स मुहूर्तमभूत्तृष्णी कृष्णाड्प्रिसुधया भूशम्‌ ।

    तीब्रेण भक्तियोगेन निमग्नः साधु निर्वृतः ॥

    ४॥

    सः--उद्धव; मुहूर्तम्‌-- क्षण भर के लिए; अभूत्‌--हो गया; तृष्णीम्‌--मौन; कृष्ण-अड्घ्रि-- भगवान्‌ के चरणकमलों के;सुधया--अमृत से; भूशम्‌--सुपक्व; तीव्रेण --अत्यन्त प्रबल; भक्ति-योगेन--भक्ति द्वारा; निमग्न: --डूबे हुए; साधु--उत्तम;निर्वृतः-प्रेम पूर्ण

    वे क्षणभर के लिए एकदम मौन हो गये और उनका शरीर हिला-डुला तक नहीं।

    वेभक्तिभाव में भगवान्‌ के चरणकमलों के स्मरण रूपी अमृत में पूरी तरह निमग्न हो गये औरउसी भाव में वे गहरे उतरते दिखने लगे।

    पुलकोद्धिन्नसर्वाज्े मुझ्नन्मीलदृशा शुच्चः ।

    पूर्णार्थो लक्षितस्तेन स्नेहप्रसरसम्प्लुत: ॥

    ५॥

    पुलक-उद्ध्रिन्न--दिव्य भाव के शारीरिक परिवर्तन; सर्व-अड्डभ:--शरीर का हर भाग; मुझ्ननू--लेपते हुए; मीलत्‌--खोलते हुए;इहशा--आँखों द्वारा; शुचः--शोक के अश्रू; पूर्ण-अर्थ:--पूर्ण सिद्धि; लक्षित:--इस तरह देखा गया; तेन--विदुर द्वारा; स्नेह-प्रसर--विस्तृत प्रेम; सम्प्लुतः--पूर्णरूपेण स्वात्मीकृत |

    विदुर ने देखा कि उद्धव में सम्पूर्ण भावों के कारण समस्त दिव्य शारीरिक परिवर्तन उत्पन्नहो आये हैं और वे अपनी आँखों से विछोह के आँसुओं को पोंछ डालने का प्रयास कर रहे हैं।

    इस तरह विदुर यह जान गये कि उद्धव ने भगवान्‌ के प्रति गहन प्रेम को पूर्णरूपेण आत्मसात्‌कर लिया है।

    शनकैभं॑गवल्लोकान्नूलोक॑ पुनरागतः ।

    विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रीत्याहोद्धव उत्स्मयन्‌ ॥

    ६॥

    शनकै:--धधीरे-धीरे; भगवत्‌-- भगवान्‌; लोकात्‌-- धाम से; नूलोकम्‌--मनुष्य लोक को; पुनः आगत:--फिर से आकर;विमृज्य--पोंछकर; नेत्रे-- आँखें; विदुरम्‌--विदुर से; प्रीत्या--स्नेहपूर्वक; आह--कहा; उद्धव:--उद्धव ने; उत्स्मयन्‌--उनस्मृतियों के द्वारा।

    महाभागवत उद्धव तुरन्त ही भगवान्‌ के धाम से मानव-स्तर पर उतर आये और अपनी आँखेंपोंछते हुए उन्होंने अपनी पुरानी स्मृतियों को जगाया तथा वे विदुर से प्रसन्नचित्त होकर बोले।

    उद्धव उबाचकृष्णद्युमणि निम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह ।

    कि नु नः कुशल ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम्‌ ॥

    ७॥

    उद्धवः उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; कृष्ण-द्युमणि--कृष्ण सूर्य; निम्लोचे--अस्त होने पर; गीर्णेषु--निगला जाकर;अजगरेण---अजगर सर्प द्वारा; ह-- भूतकाल में; किम्‌--क्या; नु--अन्य; नः--हमारी; कुशलम्‌--कुशल-मंगल; ब्रूयामू--मैंकहूँ; गत--गई हुई, विहीन; श्रीषु गृहेषु--घर में; अहम्‌--मैं

    श्री उद्धव ने कहा : हे विदुर, संसार का सूर्य कृष्ण अस्त हो चुका है और अब हमारे घर कोकाल रूपी भारी अजगर ने निगल लिया है।

    मैं आपसे अपनी कुशलता के विषय में क्या कहसकता हूँ?

    दुर्भगो बत लोकोयं यदवो नितरामपि ।

    ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इबोडुपम्‌ ॥

    ८॥

    दुर्भप:--अभागा; बत--निश्चय ही; लोक: --ब्रह्माण्ड; अयम्‌ू--यह; यदव:ः--यदुकुल; नितराम्‌--विशेषरूप से; अपि-- भी;ये--जो; संवसन्तः--एकसाथ रहते हुए; न--नहीं; विदु:--जान पाये; हरिम्‌-- भगवान्‌ को; मीना:--मछलियाँ; इब उडुपम्‌--चन्द्रमा की तरह।

    समस्त लोकों समेत यह ब्रह्माण्ड अत्यन्त अभागा है।

    युदुकुल के सदस्य तो उनसे भी बढ़करअभागे हैं, क्योंकि वे श्री हरि को भगवान्‌ के रूप में नहीं पहचान पाये जिस तरह मछलियाँअन्द्रमा को नहीं पहचान पातीं।

    इड्डितज्ञा: पुरुप्रौढा एकारामाश्व सात्वता: ।

    सात्वतामृषभं सर्वे भूतावासममंसत ॥

    ९॥

    इड्ड्ति-ज्ञाः--मनोवैज्ञानिक अध्ययन में पटु; पुरु-प्रौढा: --अत्यन्त अनुभवी; एक--एक; आरामा:--विश्राम; च--भी;सात्वता:--भक्तगण या अपने ही लोग; सात्वताम्‌ ऋषभम्‌--परिवार का मुखिया; सर्वे--समस्त; भूत-आवासम्‌--सर्व-व्यापी;अमंसत--जान सके

    यदुगण अनुभवी भक्त, विद्वान तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन में पटु थे।

    इससे भी बड़ी बातयह थी कि वे सभी लोग समस्त प्रकार की विश्रान्ति में भगवान्‌ के साथ रहते थे, फिर भी वेउन्हें केवल उस ब्रह्म के रूप में जान पाये जो सर्वत्र निवास करता है।

    देवस्य मायया स्पृष्टा ये चान्यद्सदाश्रिता: ।

    भ्राम्यते धीर्न तद्वाक्यैरात्मन्युप्तात्मनो हरो ॥

    १०॥

    देवस्य-- भगवान्‌ की; मायया--माया के प्रभाव से; स्पृष्टा:--दूषित हुए; ये--जो लोग; च--तथा; अन्यत्‌--अन्य लोग;असतू--मायावी; आश्लिता: --वशी भूत; भ्राम्यते--मोहग्रस्त बनाते हैं; धीः--बुद्द्धि; न--नहीं; तत्‌--उनके ; वाक्यैः --वचनोंसे; आत्मनि--परमात्मा में; उप्त-आत्मन:--शरणागत आत्माएँ; हरौ--हरि के प्रति

    भगवान्‌ की माया द्वारा मोहित व्यक्तियों के वचन किसी भी स्थिति में उन लोगों की बुद्धिको विचलित नहीं कर सकते जो पूर्णतया शरणागत हैं।

    प्रदर्श्यातप्ततपसामवितृप्तदृशां नृणाम्‌ ।

    आदायान्तरधाहामस्तु स्वबिम्बं लोकलोचनम्‌ ॥

    ११॥

    प्रदर्श--दिखलाकर; अतप्त--बिना किये; तपसाम्‌--तपस्या; अवितृप्त-दशाम्‌--दर्शन को पूरा किया; नृणाम्‌--लोगों का;आदाय--लेकर; अन्त:-- अन्तर्धान; अधात्‌--सम्पन्न किया; यः--जिसने; तु--लेकिन; स्व-बिम्बम्‌-- अपने ही स्वरूप को;लोक-लोचनम्‌--सार्वजनिक दृष्टि में

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण, जिन्होंने पृथ्वी पर सबों की दृष्टि के समक्ष अपना नित्य स्वरूप प्रकटकिया था, अपने स्वरूप को उन लोगों की दृष्टि से हटाकर अन्‍्तर्धान हो गये जो वांछित तपस्या न कर सकने के कारण उन्हें यथार्थ रूप में देख पाने में असमर्थ थे।

    यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग-मायाबलं दर्शयता गृहीतम्‌ ।

    विस्मापनं स्वस्थ च सौभगरद्ें:पर पदं भूषणभूषणाड्ुम्‌ ॥

    १२॥

    यत्‌--उनका जो नित्यरूप; मर्त्य--मर्त्पजगत; लीला-उपयिकम्‌--लीलाओं के लिए उपयुक्त; स्व-योग-माया-बलम्‌--अन्तरंगाशक्ति का बल; दर्शबता--अभिव्यक्ति के लिए; गृहीतम्‌ू--ढूँढ निकाला; विस्मापनम्‌-- अद्भुत; स्वस्य-- अपना; च--तथा;सौभग-ऋद्धेः--ऐ श्रर्यवान्‌ का; परम्‌--परम; पदम्‌--गन्तव्य; भूषण-- आभूषण; भूषण-अड्र्मू--आभूषणों का।

    भगवान्‌ अपनी अन्तरंगा शक्ति योगमाया के द्वारा मर्त्यलोक में प्रकट हुए।

    वे अपने नित्यरूप में आये जो उनकी लीलाओं के लिए उपयुक्त है।

    ये लीलाएँ सबों के लिए आश्चर्यजनक थीं,यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिन्हें अपने ऐश्वर्य का गर्व है, जिसमें वैकुण्ठपति के रूप मेंभगवान्‌ का स्वरूप भी सम्मिलित है।

    इस तरह उनका ( श्रीकृष्ण का ) दिव्य शरीर समस्तआभूषणों का आभूषण है।

    यद्धर्मसूनोर्बत राजसूयेनिरीक्ष्य हकक्‍्स्वस्त्ययनं त्रिलोक: ।

    कार्ल्स्येन चाद्येह गतं विधातुर्‌अर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ॥

    १३॥

    यत्‌--जो रूप; धर्म-सूनो:--महाराज युधिष्ठिर के; बत--निश्चय ही; राजसूये--राजसूय यज्ञ शाला में; निरीक्ष्य--देखकर;हक्‌--दृष्टि; स्वस्त्ययनम्‌--मनोहर; त्रि-लोक:--तीनों लोक के; कार्त्स्येन--सम्पूर्णत:; च--इस तरह; अद्य--आज; इह--इसब्रह्माण्ड के भीतर; गतम्‌--पार करके; विधातु:--स्त्रष्टा ( ब्रह्म ) का; अर्वाक्‌--अर्वाचीन मानव; सृतौ-- भौतिक जगत में;'कौशलम्‌--दक्षता; इति--इस प्रकार; अमनन्‍्यत--सोचा |

    महाराज युधिष्टिर द्वारा सम्पन्न किये गये राजसूय यज्ञ शाला में उच्चतर, मध्य तथाअधोलोकों से सारे देवता एकत्र हुए।

    उन सबों ने भगवान्‌ कृष्ण के सुन्दर शारीरिक स्वरूप को देखकर विचार किया कि वे मनुष्यों के स्त्रष्टा ब्रह्म की चरम कौशलपूर्ण सृष्टि हैं।

    यस्थानुरागप्लुतहासरास-लीलावलोकप्रतिलब्धमाना: ।

    ब्रजस्त्रियो हश्भिरनुप्रवृत्तधियोवतस्थु: किल कृत्यशेषा: ॥

    १४॥

    यस्य--जिसकी; अनुराग--आसक्ति; प्लुत--वर्धित; हास--हँसी; रास--मजाक, विनोद; लीला--लीलाएँ; अवलोक--चितवन; प्रतिलब्ध--से प्राप्त; माना:--व्यथित; ब्रज-स्त्रिय:--व्रज की बालाएँ; हग्भि:ः--आँखों से; अनुप्रवृत्त-- अनुगमनकरती; धिय:--बुद्धि द्वारा; अवतस्थु:--चुपचाप बैठ गईं; किल--निस्सन्देह; कृत्य-शेषा:--घर का काम काज।

    हँसी, विनोद तथा देखादेखी की लीलाओं के पश्चात्‌ ब्रज की बालाएँ कृष्ण के चले जानेपर व्यधित हो जातीं।

    वे अपनी आँखों से उनका पीछा करती थीं, अतः वे हतबुद्धि होकर बैठजातीं और अपने घरेलू कामकाज पूरा न कर पातीं।

    स्वशान्तरूपेष्वितरैः स्वरूपै-रभ्यर््रमानेष्वनुकम्पितात्मा ।

    परावरेशो महदंशयुक्तोहाजोपि जातो भगवान्यथाग्नि: ॥

    १५॥

    स्व-शान्त-रूपेषु-- अपने शान्त भक्तों के प्रति; इतरैः--अन्यों, अभक्तों; स्व-रूपैः--अपने गुणों के अनुसार; अभ्यर्द्मानेषु --सताए जाकर; अनुकम्पित-आत्मा--सर्वदयामय भगवान्‌; पर-अवर--आध्यात्मिक तथा भौतिक; ईशः --नियंत्रक; महत्‌-अंश-युक्त:--महत्‌ तत्त्व अंश के साथ; हि--निश्चय ही; अज:--अजन्मा; अपि--यद्यपि; जात: --उत्पन्न है; भगवानू-- भगवान्‌;यथा--मानो; अग्निः--आग।

    आध्यात्मिक तथा भौतिक सृष्टियों के सर्वदयालु नियन्ता भगवान्‌ अजन्मा हैं, किन्तु जबउनके शान्त भक्तों तथा भौतिक गुणों वाले व्यक्तियों के बीच संघर्ष होता है, तो वे महत्‌ तत्त्व केसाथ उसी तरह जन्म लेते हैं जिस तरह अग्नि उत्पन्न होती है।

    मां खेदयत्येतदजस्य जन्म-विडम्बनं यद्वसुदेवगेहे ।

    ब्रजे च वासोरिभयादिव स्वयंपुरादव्यवात्सीद्यदनन्तवीर्य: ॥

    १६॥

    माम्‌--मुझको; खेदयति--पीड़ा पहुँचाता है; एतत्‌ू--यह; अजस्य--अजन्मा का; जन्म--जन्म; विडम्बनमू--मोहित करना;यत्‌--जो; वसुदेव-गेहे --वसुदेव के घर में; ब्रजे--वृन्दावन में; च-- भी; वास:--निवास; अरि--शत्रु के; भयात्‌-- भय से;इवब--मानो; स्वयमू--स्वयं; पुरात्‌--मथुरा पुरी से; व्यवात्सीतू-- भाग गया; यत्‌--जो हैं; अनन्त-वीर्य:--असीम बलशाली।

    जब मैं भगवान्‌ कृष्ण के बारे में सोचता हूँ कि वे अजन्मा होते हुए किस तरह वसुदेव केबन्दीगृह में उत्पन्न हुए थे, किस तरह अपने पिता के संरक्षण से ब्रज चले गये और वहाँ शत्रु-भयसे प्रच्छन्न रहते रहे तथा किस तरह असीम बलशाली होते हुए भी वे भयवश मथुरा से भागगये--ये सारी भ्रमित करने वाली घटनाएँ मुझे पीड़ा पहुँचाती हैं।

    दुनोति चेतः स्मरतो ममैतद्‌यदाह पादावभिवन्द्य पित्रो: ।

    ताताम्ब कंसादुरुशल्वितानांप्रसीदतं नोकृतनिष्कृतीनाम्‌ ॥

    १७॥

    दुनोति--मुझे पीड़ा पहुँचाता है; चेत:--हृदय; स्मरतः--सोचते हुए; मम--मेरा; एतत्‌--यह; यत्‌--जितना; आह--कहा;पादौ--चरणों की; अभिवन्द्य--पूजकर; पित्रो:--माता-पिता के; तात--हे पिता; अम्ब--हे माता; कंसात्‌--कंस से; उरू--महान; श्धितानाम्‌-- भयभीतों का; प्रसीदतम्‌--प्रसन्न हों; न: --हमारा; अकृत--सम्पन्न नहीं हुआ; निष्कृतीनामू--आपकीसेवा करने के कर्तव्य

    भगवान्‌ कृष्ण ने अपने माता-पिता से उनके चरणों की सेवा न कर पाने की अपनी ( कृष्णतथा बलराम की ) अक्षमता के लिए क्षमा माँगी, क्योंकि कंस के विकट भय के कारण वे घरसे दूर रहते रहे।

    उन्होंने कहा, 'हे माता, हे पिता, हमारी असमर्थता के लिए हमें क्षमा करें'।

    भगवान्‌ का यह सारा आचरण मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचाता है।

    को वा अमुष्याड्ध्रिसरोजरेणुंविस्मर्तुमीशीत पुमान्विजिप्रनू ।

    यो विस्फुरद्भ्रूविटपेन भूमे-भरिं कृतान्तेन तिरश्चकार ॥

    १८॥

    'कः--और कौन; वा--अथवा; अमुष्य-- भगवान्‌ के; अड्ध्रि--पाँव; सरोज-रेणुम्‌--कमल की धूल; विस्मर्तुमू-- भुलाने केलिए; ईशीत--समर्थ हो सके ; पुमानू--मनुष्य; विजिप्रन्‌--सूँघते हुए; यः--जो; विस्फुरत्‌--विस्तार करते हुए; भ्रू-विटपेन--भौहों की पत्तियों के द्वारा; भूमेः --पृथ्वी का; भारम्‌-- भार; कृत-अन्तेन-- मृत्यु प्रहारों से; तिरश्चकार--सम्पन्न किया।

    भला ऐसा कौन होगा जो उनके चरणकमलों की धूल को एकबार भी सूँघ कर उसे भुलासके ? कृष्ण ने अपनी भौहों की पत्तियों को विस्तीर्ण करके उन लोगों पर मृत्यु जैसा प्रहार कियाहै, जो पृथ्वी पर भार बने हुए थे।

    इृष्टा भवद्धिर्ननु राजसूयेचैद्यस्य कृष्णं द्विषतोपि सिद्धि: ।

    यां योगिन: संस्पृहयन्ति सम्यग्‌योगेन कस्तद्विरहं सहेत ॥

    १९॥

    इृष्टा--देखी गयी; भवद्धिः--आपके द्वारा; ननु--निस्सन्देह; राजसूये --महाराज युधथिष्टिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ की सभा में;चैद्यस्थ--चेदिराज ( शिशुपाल ) के; कृष्णम्‌--कृष्ण के प्रति; द्विषत:--ईर्ष्या से; अपि--के बावजूद; सिद्द्ध:--सफलता;यामू--जो; योगिन:--योगीजन; संस्पृहयन्ति--तीव्रता से इच्छा करते हैं; सम्यक्‌--पूर्णरूपेण; योगेन--योग द्वारा; क:ः--कौन;तत्‌--उनका; विरहम्‌--विच्छेद; सहेत--सहन कर सकता है।

    आप स्वयं देख चुके हैं कि चेदि के राजा ( शिशुपाल ) ने किस तरह योगाभ्यास में सफलताप्राप्त की यद्यपि वह भगवान्‌ कृष्ण से ईर्ष्या करता था।

    वास्तविक योगी भी अपने विविधअभ्यासों द्वारा ऐसी सफलता की सुरुचिपूर्वक कामना करते हैं।

    भला उनके विछोह को कौनसह सकता है ?

    तथेव चान्ये नरलोकवीराय आहवे कृष्णमुखारविन्दम्‌ ।

    नेत्रै: पिबन्तो नयनाभिरामंपार्थास्त्रपूत: पदमापुरस्थ ॥

    २०॥

    तथा-- भी; एव च--तथा निश्चय ही; अन्ये-- अन्य; नर-लोक--मानव समाज; वीरा:--योद्धा; ये--जो; आहवे --युद्धभूमि( कुरुक्षेत्र की ) में; कृष्ण-- भगवान्‌ कृष्ण का; मुख-अरविन्दम्‌--कमल के फूल जैसा मुँह; नेत्रै:--नेत्रों से; पिबन्त:--देखतेहुए; नयन-अभिरामम्‌-- आँखों को अतीव अच्छा लगने वाले; पार्थ--अर्जुन के; अस्त्र-पूत:--बाणों से शुद्ध हुआ; पदम्‌--धाम; आपु:--प्राप्त किया; अस्य--उनका |

    निश्चय ही कुरुक्षेत्र युद्धस्थल के अन्य योद्धागण अर्जुन के बाणों के प्रहार से शुद्ध बन गयेऔर आँखों को अति मनभावन लगने वाले कृष्ण के कमल-मुख को देखकर उन्होंने भगवद्धामप्राप्त किया।

    स्वयं त्वसाम्यातिशयस्त्यधीश:स्वाराज्यलक्ष्म्याप्ससमस्तकाम: ।

    बलि हरद्धिश्चिरलोकपालै:किरीटकोट्बग्रेडितपादपीठ: ॥

    २१॥

    स्वयम्‌--स्वयं; तु--लेकिन; असाम्य--अद्वितीय; अतिशय: --महत्तर; त्रि-अधीश:--तीन का स्वामी; स्वाराज्य--स्वतंत्र सत्ता;लक्ष्मी--सम्पत्ति; आप्त--प्राप्त किया; समस्त-काम:--सारी इच्छाएँ; बलिमू--पूजा की साज सामग्री; हरद्धिः--प्रदत्त; चिर-लोक-पालै:--सृष्टि की व्यवस्था को नित्य बनाये रखने वालों द्वारा; किरीट-कोटि--करोड़ों मुकुट; एडित-पाद-पीठ:--स्तुतियों द्वारा सम्मानित पाँव |

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त त्रयियों के स्वामी हैं और समस्त प्रकार के सौभाग्य की उपलब्धिके द्वारा स्वतंत्र रूप से सर्वोच्च हैं।

    वे सृष्टि के नित्य लोकपालों द्वारा पूजित हैं, जो अपने करोड़ोंमुकुटों द्वारा उनके पाँवों का स्पर्श करके उन्हें पूजा की साज-सामग्री अर्पित करते हैं।

    तत्तस्य कैड्डर्यमलं भूृतान्नोविग्लापयत्यडु यदुग्रसेनम्‌ ।

    तिष्ठन्निषण्णं परमेष्ठिधिष्ण्येन्‍्यबोधयद्देव निधारयेति ॥

    २२॥

    तत्‌--इसलिए; तस्य--उसकी; कैड्डर्यम्‌ू--सेवा; अलम्‌--निस्सन्देह; भृतान्‌ू--सेवकों को; नः--हम; विग्लापयति--पीड़ा देतीहै; अड्रन--हे विदुर; यत्‌--जितनी कि; उग्रसेनम्‌--राजा उग्रसेन को; तिष्ठन्‌--बैठे हुए; निषण्णम्‌--सेवा में खड़े; परमेष्टि-धिष्ण्ये--राजसिंहासन पर; न्यबोधयत्‌--निवेदन किया; देव--मेरे प्रभु को सम्बोधित करते हुए; निधारय--आप जान लें;इति--इस प्रकार।

    अतएबव हे विदुर, क्या उनके सेवकगण हम लोगों को पीड़ा नहीं पहुँचती जब हम स्मरणकरते हैं कि वे ( भगवान्‌ कृष्ण ) राजसिंहासन पर आसीन राजा उग्रसेन के समक्ष खड़े होकर,'हे प्रभु, आपको विदित हो कि ' यह कहते हए सारे स्पष्टीकरण प्रस्तत करते थे।

    अहो बकी यं स्तनकालकूटंजिघांसयापाययदप्यसाध्वी ॥

    लेभे गतिं धात्र्युचितां ततो३न्यंक॑ वा दयालुं शरणं ब्रजेम ॥

    २३॥

    अहो--ओह; बकी--असुरिनी ( पूतना ); यम्‌--जिसको; स्तन--अपने स्तन में; काल--घातक; कूटम्‌--विष; जिघांसया --ईर्ष्यावश; अपाययत्‌--पिलाया; अपि--यद्यपि; असाध्वी--कृतघ्ल; लेभे--प्राप्त किया; गतिम्‌ू--गन्तव्य; धात्री-उचिताम्‌ू--धाई के उपयुक्त; ततः--जिसके आगे; अन्यम्‌--दूसरा; कम्‌--अन्य कोई; वा--निश्चय ही; दयालुमू--कृपालु; शरणम्‌--शरण; ब्रजेम--ग्रहण करूँगा।

    ओह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उसअसुरिनी ( पूतना ) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतघ्त थी और उसने अपने स्तनसे पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था ?

    मन्येडसुरान्भागवतांस्त्रयधीशेसंरम्भमार्गाभिनिविष्टचित्तान्‌ ।

    ये संयुगेडचक्षत ताश््च्यपुत्र-मंसे सुनाभायुधमापतन्तम्‌ ॥

    २४॥

    मन्ये--मैं सोचता हूँ; असुरान्‌ू--असुरों को; भागवतानू-महान्‌ भक्तों को; त्रि-अधीशे--तीन के स्वामी को; संरम्भ--शत्रुता;मार्ग--मार्ग से होकर; अभिनिविष्ट-चित्तानू--विचारों में मग्न; ये--जो; संयुगे--युद्ध में; अचक्षत--देख सका; तार्श््य-पुत्रम्‌--भगवान्‌ के वाहन गरुड़ को; अंसे--कन्धे पर; सुनाभ--चक्र; आयुधम्‌--हथियार धारण करनेवाला; आपतन्तम्‌--सामने आताहुआ।

    मैं उन असुरों को जो भगवान्‌ के प्रति शत्रुभाव रखते हैं, भक्तों से बढ़कर मानता हूँ, क्योंकिशत्रुता के भावों से भरे वे सभी युद्ध करते हुए भगवान्‌ को तार्क्ष्य ( कश्यप ) पुत्र गरुड़ के कन्धोंपर बैठे तथा अपने हाथ में चक्रायुध लिए देख सकते हैं।

    वसुदेवस्य देवक्यां जातो भोजेन्द्रबन्धने ।

    चिकीरषुभ्भगवानस्या: शमजेनाभियाचित: ॥

    २५॥

    वसुदेवस्य--वसुदेव की पत्नी के; देवक्‍्याम्‌--देवकी के गर्भ में; जात:--उत्पन्न; भोज-इन्द्र-- भोजों के राजा के; बन्धने--बन्दीगृह में; चिकीर्ष;--करने के लिए; भगवान्‌-- भगवान्‌; अस्या:--पृथ्वी का; शम्‌--कल्याण; अजेन--ब्रह्म द्वारा;अभियाचित:--याचना किये जाने पर।

    पृथ्वी पर कल्याण लाने के लिए ब्रह्मा द्वारा याचना किये जाने पर भगवान्‌ श्री कृष्ण कोभोज के राजा के बन्दीगृह में वसुदेव ने अपनी पत्नी देवकी के गर्भ से उत्पन्न किया।

    ततो नन्दव्रजमितः पित्रा कंसाद्विबिभ्यता ।

    एकादश समास्तत्र गूढाचि: सबलोवसत्‌ ॥

    २६॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; नन्द-ब्रजम्‌--नन्द महाराज के चरागाहों में; इत:--पाले-पोषे जाकर; पित्रा--अपने पिता द्वारा; कंसातू--कंससे; विबिभ्यता-- भयभीत होकर; एकादश--ग्यारह; समा: --वर्ष ; तत्र--वहाँ; गूढ-अर्चि:--प्रच्छन्न अग्नि; स-बल:--बलरामसहित; अवसत्‌--रहे

    तत्पश्चात्‌ कंस से भयभीत होकर उनके पिता उन्हें नन्द महाराज के चरागाहों में ले आये जहाँ वे अपने बड़े भाई बलदेव सहित ढकी हुईं अग्नि की तरह ग्यारह वर्षों तक रहे।

    परीतो वत्सपैर्व॑त्सां श्वारयन्व्यहरद्विभु: ।

    यमुनोपवने कूजद्दिवजसड्डू लिताड्प्रिपे ॥

    २७॥

    'परीतः--घिरे; वत्सपैः:--ग्वालबालों से; वत्सान्‌--बछड़ों को; चारयन्‌ू--चराते हुए; व्यहरत्‌--विहार का आनन्द लिया;विभु:--सर्वशक्तिमान; यमुना--यमुना नदी; उपवने--तट के बगीचे में; कूजत्‌--शब्दायमान; द्विज--पक्षी; सह्ढु लित--सघन;अड्टप्निपे--वृक्षों में

    अपने बाल्यकाल में सर्वशक्तिमान भगवान्‌ ग्वालबालों तथा बछड़ों से घिरे रहते थे।

    इस तरह वे यमुना नदी के तट पर सघन वृक्षों से आच्छादित तथा चहचहाते पक्षियों की ध्वनि सेपूरित बगीचों में विहार करते थे।

    कौमारीं दर्शयंश्रैष्टां प्रेक्षणीयां त्रजौकसाम्‌ ।

    रुदन्निव हसन्मुग्धवालसिंहावलोकनः ॥

    २८॥

    कौमारीमू--बचपन के लिए उपयुक्त; दर्शयन्‌--दिखलाते हुए; चेष्टाम्‌ू--कार्यकलाप; प्रेक्षणीयाम्‌--देखने के योग्य, दर्शनीय;ब्रज-ओकसाम्‌ू--वृन्दावन के वासियों द्वारा; रुदन्‌ू--चिल्लाते; इब--सहश; हसन्‌-- हँसते; मुग्ध-- आश्चर्यचकित; बाल-सिंह--सिंह-शावक; अवलोकन:--उसी तरह का दिखते हुए

    जब भगवान्‌ ने बालोचित कार्यो का प्रदर्शन किया, तो वे एकमात्र वृन्दावनवासियों को हीइृष्टिगोचर थे।

    वे शिशु की तरह कभी रोते तो कभी हँसते और ऐसा करते हुए वे सिंह के बच्चेके समान प्रतीत होते थे।

    स एव गोधन लक्ष्म्या निकेतं सितगोवृषम्‌ ।

    चारयब्ननुगान्गोपान्रणद्वेणुररीरमत्‌ ॥

    २९॥

    सः--वह ( कृष्ण ); एब--निश्चय ही; गो-धनम्‌--गौ रूपी खजाना; लक्ष्म्या:--ऐश्वर्य से; निकेतम्‌ू--आगार; सित-गो-वृषम्‌--सुन्दर गौवें तथा बैल; चारयन्‌--चराते हुए; अनुगान्‌-- अनुयायियों को; गोपान्‌ू--ग्वाल बालों को; रणत्‌--बजती हुई;बेणु:--वंशी; अरीरमत्‌--उल्लसित किया।

    अत्यन्त सुन्दर गाय-बैलों को चराते हुए समस्त ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति के आगार भगवान्‌अपनी वंशी बजाया करते।

    इस तरह वे अपने श्रद्धावान्‌ अनुयायी ग्वाल-बालों को प्रफुल्लितकरते थे।

    प्रयुक्तान्भोजराजेन मायिन: कामरूपिण: ।

    लीलया व्यनुदत्तांस्तान्बाल: क्रीडनकानिव ॥

    ३०॥

    प्रयुक्तान्‌ू--लगाये गये; भोज-राजेन--कंस द्वारा; मायिन:--बड़े-बड़े जादूगर, मायावी; काम-रूपिण:--इच्छानुसार रूपधारण करने वाले; लीलया--लीलाओं के दौरान; व्यनुदत्‌--मार डाला; तानू--उनको; तानू--जैसे ही वे निकट आये;बाल:--बालक; क़्रीडनकान्‌--खिलौनों; इब--सहृश |

    भोज के राजा कंस ने कृष्ण को मारने के लिए बड़े-बड़े जादूगरों को लगा रखा था, जोकैसा भी रूप धारण कर सकते थे।

    किन्तु अपनी लीलाओं के दौरान भगवान्‌ ने उन सबों कोउतनी ही आसानी से मार डाला जिस तरह कोई बालक खिलौनों को तोड़ डालता है।

    विपन्नान्विषपानेन निगृह्म भुजगाधिपम्‌ ।

    उत्थाप्यापाययदगावस्तत्तोय॑ प्रकृतिस्थितम्‌ ॥

    ३१॥

    विपन्नान्‌ू--महान्‌ विपदाओं में परेशान; विष-पानेन--विष पीने से; निगृह्य--दमन करके; भुजग-अधिपम्‌--सर्पों के मुखियाको; उत्थाप्प--बाहर निकाल कर; अपाययत्‌--पिलाया; गाव: --गौवें; तत्‌--उस; तोयम्‌--जल को; प्रकृति--स्वाभाविक;स्थितम्‌--स्थिति में |

    वृन्दावन के निवासी घोर विपत्ति के कारण परेशान थे, क्योंकि यमुना के कुछ अंश काजल सर्पों के प्रमुख ( कालिय ) द्वारा विषाक्त किया जा चुका था।

    भगवान्‌ ने सर्पपाज को जलके भीतर प्रताड़ित किया और उसे दूर खदेड़ दिया।

    फिर नदी से बाहर आकर उन्होंने गौवों को जल पिलाया तथा यह सिद्ध किया कि वह जल पुन: अपनी स्वाभाविक स्थिति में है।

    अयाजयदगोसवेन गोपराजं द्विजोत्तमै: ।

    वित्तस्य चोरु भारस्य चिकीर्षन्सद्व्ययं विभु: ॥

    ३२॥

    अयाजयत्‌--सम्पन्न कराया; गो-सवेन--गौवों की पूजा द्वारा; गोप-राजम्‌--्वालों के राजा; द्विज-उत्तमै:--विद्वान ब्राह्मणोंद्वारा; वित्तस्य--सम्पत्ति का; च-- भी; उरु-भारस्य--महान्‌ ऐश्वर्य; चिकीर्षन्‌ू--कार्य करने की इच्छा से; सतू-व्ययम्‌--उचितउपभोग; विभु:--महान्‌ |

    भगवान्‌ कृष्ण महाराज नन्द की ऐश्वर्यशशाली आर्थिक शक्ति का उपयोग गौबों की पूजा केलिए कराना चाहते थे और वे स्वर्ग के राजा इन्द्र को भी पाठ पढ़ाना चाह रहे थे।

    अतः उन्होंनेअपने पिता को सलाह दी थी कि बे विद्वान ब्राह्मणों की सहायता से गो अर्थात्‌ चरागाह तथागौवों की पूजा कराएँ।

    वर्षतीन्द्रे ब्रज: कोपाद्धग्नमानेठतिविहल: ।

    गोत्रलीलातपत्रेण त्रातो भद्गरानुगृह्ता ॥

    ३३॥

    वर्षति--जब बरसात में; इन्द्रे--इन्द्र द्वारा; ब्रज:--गौवों की भूमि ( वृन्दावन ); कोपात्‌ भग्नमाने--अपमानित होने से क्रुद्ध;अति--अत्यधिक; विह॒लः--विचलित; गोत्र--गायों के लिए पर्वत; लीला-आतपत्रेण--छाता की लीला द्वारा; त्रात:--बचालिये गये; भद्ग--हे सौम्य; अनुगृह्वता--कृपालु भगवान्‌ द्वारा।

    हे भद्र विदुर, अपमानित होने से राजा इन्द्र ने वृन्दावन पर मूसलाधार वर्षा की।

    इस तरहगौवों की भूमि ब्रज के निवासी बहुत ही व्याकुल हो उठे।

    किन्तु दयालु भगवान्‌ कृष्ण ने अपनेलीलाछत्र गोवर्धन पर्वत से उन्हें संकट से उबार लिया।

    शरच्छशिकरैर्मृ्ट मानयत्रजनीमुखम्‌ ।

    गायन्कलपदं रेमे स्त्रीणां मण्डलमण्डन: ॥

    ३४॥

    शरत्‌--शरद्‌ कालीन; शशि--चन्द्रमा की; करैः --किरणों से; मृष्टमू--चमकीला; मानयन्‌--सोचते हुए; रजनी-मुखम्‌--रातका मुख; गायन्‌--गाते हुए; कल-पदम्‌--मनोहर गीत; रेमे--विहार किया; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों का; मण्डल-मण्डन:-स्त्रियोंकी सभा के मुख्य आकर्षण के रूप में |

    वर्ष की तृतीय ऋतु में भगवान्‌ ने स्त्रियों की सभा के मध्यवर्ती सौन्दर्य के रूप में चाँदनी सेउजली हुई शरद्‌ की रात में अपने मनोहर गीतों से उन्हें आकृष्ट करके उनके साथ विहार किया।

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    अध्याय तीन: वृन्दावन से बाहर भगवान की लीलाएँ

    3.3उद्धव उबाचततः स आगत्य पुरं स्वपित्रो-श्विकीर्षया शं बलदेवसंयुतः ।

    निपात्य तुड्जद्रिपुयूथनाथंहतं व्यकर्षद्व्यसुमोजसोर्व्याम्‌ ॥

    १॥

    उद्धव: उबाच-- श्रीउद्धव ने कहा; तत:--तत्पश्चात्‌; सः--भगवान्‌; आगत्य--आकर; पुरम्‌ू--मथुरा नगरी में; स्व-पित्रो: --अपने माता पिता की; चिकीर्षया--चाहते हुए; शम्‌--कुशलता; बलदेव-संयुतः--बलदेव के साथ; निपात्य--नीचे खींचकर;तुड्जात्‌ू-सिंहासन से; रिपु-यूथ-नाथम्‌--जनता के शत्रुओं के मुखिया को; हतम्‌ू--मार डाला; व्यकर्षत्‌--खींचा; व्यसुम्‌--मृत; ओजसा--बल से; उर्व्याम्‌-पृथ्वी पर।

    श्री उद्धव ने कहा : तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ कृष्ण श्री बलदेव के साथ मथुरा नगरी आये औरअपने माता पिता को प्रसन्न करने के लिए जनता के शत्रुओं के अगुवा कंस को उसके सिंहासनसे खींच कर अत्यन्त बलपर्वूक भूमि पर घसीटते हुए मार डाला।

    सान्दीपने: सकृत््रोक्त ब्रह्माधीत्य सविस्तरम्‌ ।

    तस्मै प्रादाद्वरं पुत्रं मृतं पश्ञजनोदरात्‌ ॥

    २॥

    सान्दीपने: --सान्दीपनि मुनि के; सकृतू--केवल एक बार; प्रोक्तम--कहा गया; ब्रह्म--ज्ञान की विभिन्न शाखाओं समेत सारेवेद; अधीत्य--अध्ययन करके; स-विस्तरम्‌--विस्तार सहित; तस्मै--उसको; प्रादात्‌ू--दिया; वरमू--वरदान; पुत्रमू--उसकेपुत्र का; मृतम्‌-मरे हुए; पञ्ञ-जन--मृतात्माओं का क्षेत्र; उदरात्‌ू--के भीतर से |

    भगवान्‌ ने अपने शिक्षक सान्दीपनि मुनि से केवल एक बार सुनकर सारे वेदों को उनकीविभिन्न शाखाओं समेत सीखा और गुरुदक्षिणा के रूप में अपने शिक्षक के मृत पुत्र कोयमलोक से वापस लाकर दे दिया।

    समाहुता भीष्मककन्यया येभ्रियः सवर्णेन बुभूषयैषाम्‌ ।

    गान्धर्ववृत्त्या मिषतां स्वभागंजहे पद मूर्ध्नि दधत्सुपर्ण: ॥

    ३॥

    समाहुता: --आमंत्रित; भीष्मक--राजा भीष्मक की; कन्यया--पुत्री द्वारा; ये--जो; भिय:--सम्पत्ति; स-वर्णेन--उसी तरह केक्रम में; बुभूषया--ऐसा होने की आशा से; एषाम्‌--उनका; गान्धर्व--ब्याह की; वृत्त्या--ऐसी प्रथा द्वारा; मिषताम्‌--ले जातेहुए; स्व-भागम्‌--अपना हिस्सा; जह्ढे--ले गया; पदम्‌--पाँव; मूर्ध्नि--सिर पर; दधत्‌--रखते हुए; सुपर्ण:--गरुड़ |

    राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के सौन्दर्य तथा सम्पत्ति से आकृष्ट होकर अनेक बड़े-बड़ेराजकुमार तथा राजा उससे ब्याह करने के लिए एकत्र हुए।

    किन्तु भगवान्‌ कृष्ण अन्यआशावान्‌ अभ्यर्थियों को पछाड़ते हुए उसी तरह अपना भाग जान कर उसे उठा ले गये जिस तरहगरुड़ अमृत ले गया था।

    ककुद्धिनोविद्धनसो दमित्वास्वयंवरे नाग्नजितीमुवाह ।

    तद्धग्नमानानपि गृध्यतोज्ञा-अधघ्नेक्षत: शस्त्रभृतः स्वशस्त्रै: ॥

    ४॥

    ककुद्चिन:--बैल जिनकी नाकें छिदी हुई नहीं थीं; अविद्ध-नस:ः--नाकें छिदी हुई; दमित्वा--दमन करके; स्वयंवरे--दुलहिनचुनने के लिए खुली स्पर्धा में; नाग्गजितीम्‌ू--राजकुमारी नाग्नजिती को; उवाह--ब्याहा; तत्‌-भग्नमानान्‌--इस तरह निराशहुओं को; अपि--यद्यपि; गृध्यत:--चाहा; अज्ञानू--मूर्खजन; जघ्ने--मारा तथा घायल किया; अक्षतः--बिना घायल हुऐ;शस्त्र-भृतः--सभी हथियारों से लैस; स्व-शस्त्रै:--अपने हथियारों से |

    बिना नथ वाले सात बैलों का दमन करके भगवान्‌ ने स्वयंवर की खुली स्पर्धा मेंराजकुमारी नाग्नजिती का हाथ प्राप्त किया।

    यद्यपि भगवान्‌ विजयी हुए, किन्तु उनके प्रत्याशियोंने राजकुमारी का हाथ चाहा, अतः युद्ध हुआ।

    अतः शस्त्रों से अच्छी तरह लैस, भगवान्‌ ने उनसबों को मार डाला या घायल कर दिया, परन्तु स्वयं उन्हें कोई चोट नहीं आई।

    प्रियं प्रभुग्राम्य इब प्रियायाविधित्सुरा्च्छ॑द्द्युतरुं यदर्थे ।

    वह्गयाद्रवत्तं सगणो रुषान्ध:क्रीडामृगो नूनमयं वधूनाम्‌ ॥

    ५॥

    प्रियम्‌--प्रिय पत्नी के; प्रभु:--स्वामी; ग्राम्य:ः--सामान्य जीव; इब--सहश; प्रियाया: --प्रसन्न करने के लिए; विधित्सु:--चाहते हुए; आर्च्छत्‌--ले आये; द्युतरुम्‌--पारिजात पुष्प का वृक्ष; यत्‌--जिसके; अर्थ--विषय में; बज्जी --स्वर्ग का राजा इन्द्र;आद्रवत्‌ तम्‌--उससे लड़ने आया; स-गण:--दलबल सहित; रुषा--क्रोध में; अन्ध: --अन्धा; क्रीडा-मृग: --कठपुतली;नूनमू--निस्सन्देह; अयम्‌--यह; वधूनाम्‌--स्त्रियों का।

    अपनी प्रिय पत्नी को प्रसन्न करने के लिए भगवान्‌ स्वर्ग से पारिजात वृक्ष ले आये जिस तरहकि एक सामान्य पति करता है।

    किन्तु स्वर्ग के राजा इन्द्र ने अपनी पत्नियों के उकसाने पर( क्योंकि वह स्त्रीवश्य था ) लड़ने के लिए दलबल सहित भगवान्‌ का पीछा किया।

    सुतं मृथे खं वपुषा ग्रसन्तंइृष्ठा सुनाभोन्मथितं धरित्र्या ।

    आमन्त्रितस्तत्तनयाय शेषंदत्त्वा तदन्तःपुरमाविवेश ॥

    ६॥

    सुतम्‌--पुत्र को; मृधे --युद्ध में; खम्‌-- आकाश; वपुषा-- अपने शरीर से; ग्रसन्‍्तम्‌--निगलते हुए; हृष्टा--देखकर; सुनाभ--सुदर्शन चक्र से; उन्‍्मधितम्‌--मार डाला; धरित्र्या--पृथ्वी द्वारा; आमन्त्रित:--प्रार्थना किये जाने पर; तत्‌-तनयाय--नरकासुरके पुत्र को; शेषम्‌--उससे लिया हुआ; दत्त्वा--लौटा कर; तत्‌--उसके; अन्तः-पुरमू--घर के भीतर; आविवेश --घुसे |

    धरित्री अर्थात्‌ पृथ्वी के पुत्र नरकासुर ने सम्पूर्ण आकाश को निगलना चाहा जिसके कारणयुद्ध में वह भगवान्‌ द्वारा मार डाला गया।

    तब उसकी माता ने भगवान्‌ से प्रार्थना की।

    इससेनरकासुर के पुत्र को राज्य लौटा दिया गया और भगवान्‌ उस असुर के घर में प्रविष्ट हुए।

    तत्राहतास्ता नरदेवकन्याःकुजेन हृष्ठा हरिमार्तबन्धुम्‌ ।

    उत्थाय सद्यो जगृहुः प्रहर्ष-ब्रीडानुरागप्रहितावलोकै: ॥

    ७॥

    तत्र--नरकासुर के घर के भीतर; आहता:--अपहत, भगाई हुई; ताः--उन सबों को; नर-देव-कन्या: --अनेक राजाओं कीपुत्रियों को; कुजेन--असुर द्वारा; दृष्ठा--देखकर; हरिम्‌-- भगवान्‌ को; आर्त-बन्धुम्‌--दुखियारों के मित्र; उत्थाय--उठकर;सद्य:ः--वहीं पर, तत्काल; जगृहुः--स्वीकार किया; प्रहर्ष--हँसी खुशी के साथ; ब्रीड--लज्जा; अनुराग--आसक्ति; प्रहित-अवलोकै: --उत्सुक चितवनों से।

    उस असुर के घर में नरकासुर द्वारा हरण की गई सारी राजकुमारियाँ दुखियारों के मित्रभगवान्‌ को देखते ही चौकन्नी हो उठीं।

    उन्होंने अतीव उत्सुकता, हर्ष तथा लज्जा से भगवान कीओर देखा और अपने को उनकी पत्नियों के रूप में अर्पित कर दिया।

    आसां मुहूर्त एकस्मिन्नानागारेषु योषिताम्‌ ।

    सविध॑ जगूहे पाणीननुरूप: स्वमायया ॥

    ८॥

    आसामू--सबों को; मुहूर्त --एक समय; एकस्मिन्‌ू--एकसाथ; नाना-आगारेषु--विभिन्न कमरों में; योषिताम्‌--स्त्रियों के; स-विधम्‌--विधिपूर्वक; जगृहे--स्वीकार किया; पाणीन्‌--हाथों को; अनुरूप:--के अनुरूप; स्व-मायया-- अपनी अन्तरंगाशक्ति से।

    वे सभी राजकुमारियाँ अलग-अलग भवनों में रखी गई थीं और भगवान्‌ ने एकसाथ प्रत्येकराजकुमारी के लिए उपयुक्त युग्म के रूप में विभिन्न शारीरिक अंश धारण कर लिये।

    उन्होंनेअपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा विधिवत्‌ उनके साथ पाणिग्रहण कर लिया।

    तास्वपत्यान्यजनयदात्मतुल्यानि सर्वतः ।

    एकैकस्यां दश दश प्रकृते्विबुभूषया ॥

    ९॥

    तासु--उनके; अपत्यानि--सन्तानें; अजनयत्‌--उत्पन्न किया; आत्म-तुल्यानि--अपने ही समान; सर्वतः--सभी तरह से; एक-एकस्याम्‌--उनमें से हर एक में; दश--दस; दश--दस; प्रकृतेः-- अपना विस्तार करने के लिए; विबुभूषया--ऐसी इच्छा करतेहुए

    अपने दिव्य स्वरूपों के अनुसार ही अपना विस्तार करने के लिए भगवान्‌ ने उनमें से हरएक से ठीक अपने ही गुणों वाली दस-दस सम्तानें उत्पन्न कीं।

    'कालमागधशाल्वादीननीकै रुन्धतः पुरम्‌ ।

    अजीघनत्स्वयं दिव्यं स्वपुंसां तेज आदिशत्‌ ॥

    १०॥

    काल--कालयवन; मागध--मगध का राजा ( जरासन्ध ); शाल्व--शाल्व राजा; आदीनू्‌--इत्यादि; अनीकै: --सैनिकों से;रुन्धतः--घिरा हुआ; पुरमू--मथुरा नगरी; अजीघनतू--मार डाला; स्वयमू्‌--स्वयं; दिव्यम्‌--दिव्य; स्व-पुंसामू-- अपने हीलोगों को; तेज:--तेज; आदिशत्‌-- प्रकट किया।

    कालयवन, मगध के राजा तथा शाल्व ने मथुरा नगरी पर आक्रमण किया, किन्तु जब नगरीउनके सैनिकों से घिर गई तो भगवान्‌ ने अपने जनों की शक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से उनसबों को स्वयम्‌ नहीं मारा।

    शम्बरं द्विविदं बाणं मुरें बल्वलमेव च ।

    अन्‍्यांश्व दन्‍तवक्रादीनवधीत्कां श्र घातयत्‌ ॥

    ११॥

    शम्बरम्‌ू--शम्बर; द्विविदमू--द्विविद; बाणम्‌ू--बाण; मुरम्‌--मुर; बल्वलम्‌--बल्वल; एव च--तथा; अन्यान्‌ू--अन्यों को;च--भी; दन्तवक्र-आदीनू्‌--दन्तवक्र इत्यादि को; अवधीत्‌--मारा; कान्‌ च--तथा अनेक अन्यों को; घातयत्‌--मरवाया।

    शम्बर, द्विविद, बाण, मुर, बल्वल जैसे राजाओं तथा दन्तवक़र इत्यादि बहुत से असुरों में सेकुछ को उन्होंने स्वयं मारा और कुछ को अन्यों ( यथा बलदेव इत्यादि ) द्वारा मरवाया।

    अथ ते क्रातृपुत्राणां पक्षयो: पतितान्नूपान्‌ ।

    चचाल भू: कुरुक्षेत्र येघामापततां बलै: ॥

    १२॥

    अथ--तत्पश्चात्‌; ते--तुम्हारे; भ्रातृ-पुत्राणाम्‌ू-- भतीजों के; पक्षयो:--दोनों पक्षों के; पतितानू--मारे गये; नृपान्‌ू--राजाओंको; चचाल--हिला दिया; भू:--पृथ्वी; कुरुक्षेत्रमू--कुरुक्षेत्र युद्धस्थल; येषामू--जिसके; आपतताम्‌--चलते समय; बलै:--बल द्वारा

    तत्पश्चात्‌, हे विदुर, भगवान्‌ ने शत्रुओं को तथा लड़ रहे तुम्हारे भतीजों के पक्ष के समस्तराजाओं को कुरुक्षेत्र के युद्ध में मरवा डाला।

    वे सारे राजा इतने विराट तथा बलवान थे कि जब वे युद्धभूमि में विचरण करते तो पृथ्वी हिलती प्रतीत होती ।

    स कर्णदु:शासनसौबलानांकुमन्त्रपषाकेन हतथ्रियायुषम्‌ ।

    सुयोधन सानुचरं शयानंभग्नोरुमूर्व्या न ननन्द पश्यन्‌ ॥

    १३॥

    सः--वह ( भगवान्‌ ); कर्ण--कर्ण; दुःशासन--दुःशासन; सौबलानाम्‌ू--सौबल; कुमन्त्र-पाकेन--कुमंत्रणा की जटिलता से;हत-भ्रिय--सम्पत्ति से विहीन; आयुषम्‌--आयु से; सुयोधनम्‌--दुर्योधन; स-अनुचरम्‌-- अनुयायियों सहित; शयानम्‌--लेटेहुए; भग्न--टूटी; ऊरुम्‌--जंघाएँ; ऊर्व्याम्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; न--नहीं; ननन्द-- आनन्द मिला; पश्यन्‌ू--इस तरह देखतेहुए

    कर्ण, दुःशासन तथा सौबल की कुमंत्रणा के कपट-योग के कारण दुर्योधन अपनी सम्पत्तितथा आयु से विहीन हो गया।

    यद्यपि वह शक्तिशाली था, किन्तु जब वह अपने अनुयायियोंसमेत भूमि पर लेटा हुआ था उसकी जाँघें टूटी थीं।

    भगवान्‌ इस दृश्य को देखकर प्रसन्न नहीं थे।

    कियान्भुवोयं क्षपितोरु भारोयद्द्रोणभीष्मार्जुनभीममूलै: ।

    अष्टादशाक्षौहिणिको मदंशै-रास्ते बल॑ दुर्विषहं यदूनाम्‌ ॥

    १४॥

    कियान्‌--यह क्या है; भुव:ः--पृथ्वी पर; अयम्‌--यह; क्षपित--घटा हुआ; उरू--बहुत बड़ा; भार: -- भार, बोझा; यत्‌--जो;द्रोण--द्रोण; भीष्म-- भीष्म; अर्जुन--अर्जुन; भीम-- भीम; मूलैः --सहायता से; अष्टादइश--अठारह; अक्षौहिणिक:--सैन्यबलकी व्यूह रचना ( देखें भागवत ११६३४ ); मत्‌-अंशै:--मेरे बंशजों के साथ; आस्ते--अब भी हैं; बलम्‌--महान्‌ शक्ति;दुर्विषहम्‌--असहा; यदूनाम्‌--यदुवंश की |

    कुरुक्षेत्र युद्ध की समाप्ति पर भगवान्‌ ने कहा अब द्रोण, भीष्म, अर्जुन तथा भीम कीसहायता से अठारह अक्षौहिणी सेना का पृथ्वी का भारी बोझ कम हुआ है।

    किन्तु यह कया है?अब भी मुझी से उत्पन्न यदुवंश की विशाल शक्ति शेष है, जो और भी अधिक असह्ाय बोझ बनसकती है।

    मिथो यदैषां भविता विवादोमध्वामदाताप्रविलोचनानाम्‌ ।

    नैषां वधोपाय इयानतोउन्योमय्युद्यतेउन्तर्दधते स्वयं सम ॥

    १५॥

    मिथ: --परस्पर; यदा--जब; एषाम्‌--उनके; भविता--होगा; विवाद: --झगड़ा; मधु-आमद--शराब पीने से उत्पन्न नशा;आताम्र-विलोचनानाम्‌ू--ताँबे जैसी लाल आँखों के; न--नहीं; एषाम्‌--उनके; वध-उपाय:--लोप का साधन; इयान्‌ू--इसजैसा; अत:--इसके अतिरिक्त; अन्यः--वैकल्पिक; मयि--मुझ पर; उद्यते--लोप; अन्तः-दधते--विलुप्त होंगे; स्वयम्‌-- अपनेसे; स्म--निश्चय है

    जब वे नशे में चूर होकर, मधु-पान के कारण ताँबें जैसी लाल-लाल आँखें किये, परस्परलड़ेंगे-झगड़ेंगे तभी वे विलुप्त होंगे अन्यथा यह सम्भव नहीं है।

    मेरे अन्तर्धान होने पर यह घटना घटेगी।

    एवं सद्धिन्त्य भगवान्स्वराज्ये स्थाप्य धर्मजम्‌ ।

    नन्दयामास सुहृदः साधूनां वर्त्म दर्शयन्‌ ॥

    १६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; सश्ञिन्त्य-- अपने मन में सोचकर; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; स्व-राज्ये-- अपने राज्य में; स्थाप्य--स्थापितकरके; धर्मजम्‌--महाराज युधिष्ठिर को; नन्दयाम्‌ आस--हर्षित किया; सुहृदः--मित्र गणों; साधूनाम्‌--सन्तों के; वर्त्म--मार्ग;दर्शयन्‌ू--दिखलाते हुए।

    इस तरह अपने आप सोचते हुए भगवान्‌ कृष्ण ने पुण्य के मार्ग में प्रशासन का आदर्शप्रदर्शित करने के लिए संसार के परम नियन्ता के पद पर महाराज युध्चिष्ठिर को स्थापित किया।

    उत्तरायां धृतः पूरोर्वश: साध्वभिमन्युना ।

    स वे द्रौण्यस्त्रसम्प्लुष्ट: पुनर्भगवता धृतः ॥

    १७॥

    उत्तरायाम्‌--उत्तरा के; धृतः--स्थापित; पूरो: --पूरु का; वंश:--उत्तराधिकारी; साधु-अभिमन्युना--वीर अभिमन्यु द्वारा; सः--वह; बै--निश्चय ही; द्रौि-अस्त्र--द्रोण के पुत्र द्रोणि के हथियार द्वारा; सम्प्लुष्ट: --जलाया जाकर; पुनः--दुबारा; भगवता--भगवान्‌ द्वारा; धृतः--बचाया गया था।

    महान्‌ वीर अभिमन्यु द्वारा अपनी पत्नी उत्तरा के गर्भ में स्थापित पूरु के वंशज का भ्रूणद्रोण के पुत्र के अस्त्र द्वारा भस्म कर दिया गया था, किन्तु बाद में भगवान्‌ ने उसकी पुनः रक्षाकी।

    अयाजयद्धर्मसुतमश्रमेधेस्त्रिभिर्विभु: ।

    सोडपि क्ष्मामनुजै रक्षत्रेमे कृष्णमनुत्रतः ॥

    १८ ॥

    अयाजयत्‌--सम्पन्न कराया; धर्म-सुतम्‌--धर्म के पुत्र ( महाराज युधिष्टिर ) द्वारा; अश्वमेथे: --यज्ञ द्वारा; त्रिभिः--तीन; विभु:--परमेश्वर; सः--महाराज युधिष्ठटिर; अपि-- भी; क्ष्माम्‌-पृथ्वी को; अनुजैः--अपने छोटे भाइयों सहित; रक्षन्‌--रक्षा करते हुए;रेमे--भोग किया; कृष्णम्‌-- भगवान्‌ कृष्ण; अनुव्रतः--निरन्तर अनुगामी |

    भगवान्‌ ने धर्म के पुत्र महाराज युथ्रिष्ठिर को तीन अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरितकिया और उन्होंने भगवान्‌ कृष्ण का निरन्तर अनुगमन करते हुए अपने छोटे भाइयों की सहायता" से पृथ्वी की रक्षा की और उसका भोग किया।

    भगवानपि विश्वात्मा लोकवेदपथानुग: ।

    कामान्सिषेवे द्वार्वत्यामसक्त: साड्ख्यमास्थित: ॥

    १९॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; अपि-- भी; विश्व-आत्मा--ब्रह्माण्ड के परमात्मा; लोक--लोक व्यवहार; बेद--वैदिक सिद्धान्त; पथ-अनुग:ः--मार्ग का अनुकरण करने वाला; कामान्‌--जीवन की आवश्यकताएँ; सिषेबे--भोग किया; द्वार्वत्यामू-दद्वारका पुरी में;असक्त:--बिना आसक्त हुए; साइड्ख्यम्‌--सांख्य दर्शन के ज्ञान में; आस्थित: --स्थित होकर।

    उसी के साथ-साथ भगवान्‌ ने समाज के वैदिक रीति-रिवाजों का हढ़ता से पालन करते हुएद्वारकापुरी में जीवन का भोग किया।

    वे सांख्य दर्शन प्रणाली के द्वारा प्रतिपादित बैराग्य तथाज्ञान में स्थित थे।

    स्निग्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया ।

    चरित्रेणानवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना ॥

    २०॥

    स्निग्ध--सौम्य; स्मित-अवलोकेन--मृदुहँसी से युक्त चितवन द्वारा; वाचा--शब्दों से; पीयूष-कल्पया--अमृत के तुल्य;चरित्रेण--चरित्र से; अनवद्येन--दोषरहित; श्री--लक्ष्मी; निकेतेन-- धाम; च-- तथा; आत्मना-- अपने दिव्य शरीर से।

    वे वहाँ पर लक्ष्मी देवी के निवास, अपने दिव्य शरीर, में सदा की तरह के अपने सौम्य तथामधुर मुसकान युक्त मुख, अपने अमृतमय वचनों तथा अपने निष्क॑लक चरित्र से युक्त रह रहे थे।

    इमं लोकममुं चैव रमयन्सुतरां यदून्‌ ।

    रेमे क्षणदया दत्तक्षणस्त्रीक्षणसौहद: ॥

    २१॥

    इममू--यह; लोकम्‌--पृथ्वी; अमुमू--तथा अन्य लोक; च-- भी; एव--निश्चय ही; रमयन्‌--मनोहर; सुतराम्‌--विशेष रूप से;यदून्‌ू--यदुओं को; रेमे--आनन्द लिया; क्षणदया--रात में; दत्त--प्रदत्त; क्षण--विश्राम; स्त्री--स्त्रियों के साथ; क्षण--दाम्पत्य प्रेम; सौहद: --मैत्री |

    भगवान्‌ ने इस लोक में तथा अन्य लोकों में ( उच्च लोकों में ), विशेष रूप से यदुवंश कीसंगति में अपनी लीलाओं का आनन्द लिया।

    रात्रि में विश्राम के समय उन्होंने अपनी पत्नियों केसाथ दाम्पत्य प्रेम की मैत्री का आनन्द लिया।

    तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान्बहून्‌ ।

    गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत ॥

    २२॥

    तस्य--उसका; एवम्‌--इस प्रकार; रममाणस्थ--रमण करने वाले; संवत्सर--वर्षो; गणान्‌ू--अनेक; बहूनू--कई; गृहमेधेषु --गृहस्थ जीवन में; योगेषु--यौन जीवन में; विराग:--विरक्ति; समजायत--जागृत हुईं

    इस तरह भगवान्‌ अनेकानेक वर्षों तक गृहस्थ जीवन में लगे रहे, किन्तु अन्त में नश्वर यौनजीवन से उनकी विरक्ति पूर्णतया प्रकट हुई।

    दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान्‌ ।

    को विश्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुत्रत: ॥

    २३॥

    " दैव--अलौकिक; अधीनेषु--नियंत्रित होकर; कामेषु--इन्द्रिय भोग विलास में; दैव-अधीन:--अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित;स्वयम्‌--अपने आप; पुमान्‌--जीव; कः--जो भी; विश्रम्भेत-- श्रद्धा रख सकता हो; योगेन--भक्ति से; योगेश्वरम्‌-- भगवान्‌में; अनुब्रत:--सेवा करते हुए।

    प्रत्येक जीव एक अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित होता है और इस तरह उसका इन्द्रिय भोगभी उसी अलौकिक शक्ति के नियंत्रण में रहता है।

    इसलिए कृष्ण के दिव्य इन्द्रिय-कार्यकलापोंमें वही अपनी श्रद्धा टिका सकता है, जो भक्ति-मय सेवा करके भगवान्‌ का भक्त बन चुकाहो।

    पुर्या कदाचित्क्रीडद्धिर्यदुभोजकुमारकै: ।

    कोपिता मुनयः शेपुर्भगवन्मतकोविदा: ॥

    २४॥

    पुर्यामू-द्वारका पुरी में; कदाचित्‌--एक बार; क्रीडद्धि:--क्रीड़ाओं द्वारा; यदु--यदुबंशी; भोज-- भोज के वंशज;कुमारकैः--राजकुमारों द्वारा; कोपिता:--क्रुद्ध हुए; मुनयः--मुनियों ने; शेपु:--शाप दिया; भगवत्‌-- भगवान्‌ की; मत--इच्छा; कोविदा:--जानकार।

    एक बार यदुवंशी तथा भोजवंशी राजकुमारों की क्रीड़ाओं से महामुनिगण क्रुद्ध हो गये तोउन्होंने भगवान्‌ की इच्छानुसार उन राजकुमारों को शाप दे दिया।

    ततः कतिपयैर्मासैर्वृष्णिभोजान्धकादयः ।

    ययु: प्रभासं संहष्टा रथेदेवविमोहिता: ॥

    २५॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; कतिपयैः --कुछेक; मासैः--मास बिता कर; वृष्णि--वृष्णि के वंशज; भोज--भोज के वंशज; अन्धक-आदयः--अन्धक के पुत्र इत्यादि; ययु:--गये; प्रभासम्‌--प्रभास नामक तीर्थस्थान; संहृष्टा:-- अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; रथै:--अपने अपने रथों पर; देव--कृष्ण द्वारा; विमोहिता:--मोह ग्रस्त |

    कुछेक महीने बीत गये तब कृष्ण द्वारा विमोहित हुए समस्त वृष्णि, भोज तथा अन्धक वंशी,जो कि देवताओं के अवतार थे, प्रभास गये।

    किन्तु जो भगवान्‌ के नित्य भक्त थे वे द्वारका में हीरहते रहे।

    तत्र स्नात्वा पितृन्देवानृषी क्षेव तदम्भसा ।

    तर्पयित्वाथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददुः ॥

    २६॥

    " तत्र--वहाँ पर; स्नात्वा--स्नान करके; पितृनू--पितरों को; देवानू--देवताओं को; ऋषीन्‌--ऋषियों को; च-- भी; एव--निश्चय ही; तत्‌ू--उसके; अम्भसा--जल से; तर्पयित्वा--प्रसन्न करके; अथ--तत्पश्चात्‌; विप्रेभ्य:--ब्राह्मणों को; गाव: --गौवें;बहु-गुणा: --अत्यन्त उपयोगी; ददुः--दान में दीं

    वहाँ पहुँचकर उन सबों ने स्नान किया और उस तीर्थ स्थान के जल से पितरों, देवताओं तथाऋषियों का तर्पण करके उन्हें तुष्ट किया।

    उन्होंने राजकीय दान में ब्राह्मणों को गौवें दीं।

    हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकम्बलान्‌ ।

    यान॑ रथानिभान्कन्या धरां वृत्तिकरीमपि ॥

    २७॥

    हिरण्यम्‌--सोना; रजतम्‌ू--रजत; शब्याम्‌--बिस्तर; वासांसि--वस्त्र; अजिन--आसन के लिए पशुचर्म; कम्बलानू--कम्बल;यानमू--घोड़े; रथान्‌ू--रथ; इभान्‌ू--हाथी; कन्या:-- लड़कियाँ; धराम्‌-- भूमि; वृत्ति-करीम्‌--आजीविका प्रदान करने केलिए; अपि-- भी ।

    ब्राह्मणों को दान में न केवल सुपोषित गौवें दी गईं, अपितु उन्हें सोना, चाँदी, बिस्तर, वस्त्र,पशुचर्म के आसन, कम्बल, घोड़े, हाथी, कन्याएँ तथा आजीविका के लिए पर्याप्त भूमि भी दीगई।

    अन्न चोरुरसं तेभ्यो दत्त्ता भगवदर्पणम्‌ ।

    गोविप्रार्थासव: शूरा: प्रणेमुर्भुवि मूर्थभि: ॥

    २८॥

    अन्नम्‌ू--खाद्यवस्तुएँ; च-- भी; उरू-रसम्‌ू--अत्यन्त स्वादिष्ट; तेभ्य:--ब्राह्मणों को; दत्त्वा--देकर; भगवत््‌-अर्पणम्‌--जिन्‍्हेंसर्वप्रथम भगवान्‌ को अर्पित किया गया; गो--गौवें; विप्र--ब्राह्मण; अर्थ--प्रयोजन, उद्देश्य; असव:--जीवन का प्रयोजन;शूराः--सारे बहादुर क्षत्रिय; प्रणेमु:--प्रणाम किया; भुवि-- भूमि छूकर; मूर्थभि:--अपने सिरों से

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने सर्वप्रथम भगवान्‌ को अर्पित किया गया अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन उनब्राह्मणों को भेंट किया और तब अपने सिरों से भूमि का स्पर्श करते हुए उन्हें सादर नमस्कारकिया।

    वे गौवों तथा ब्राह्मणों की रक्षा करते हुए भलीभाँति रहने लगे।

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    अध्याय चार: विदुर मैत्रेय के पास पहुंचे

    3.4उद्धव उबाचअथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम्‌ ।

    तया विश्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशु; ॥

    १॥

    उद्धवः उवाच--उद्धव ने कहा; अथ--तत्पश्चात्‌; ते--वे ( यादवगण ); ततू्‌--ब्राह्मणों द्वारा; अनुज्ञाता:--अनुमति दिये जाकर;भुक्त्वा--खाकर; पीत्वा--पीकर; च--तथा; वारुणीम्‌--मदिरा; तया--उससे; विभ्रंशित-ज्ञाना:--ज्ञानसे विहीन होकर;दुरुक्ते:--कर्कश शब्दों से; मर्म--हृदय के भीतर; पस्पृशु:--छू गया।

    तत्पश्चात्‌ उन सबों ने ( वृष्णि तथा भोज वंशियों ने ) ब्राह्मणों की अनुमति से प्रसाद काउच्छिष्ट खाया और चावल की बनी मदिरा भी पी।

    पीने से वे सभी संज्ञाशून्य हो गये और ज्ञान सेरहित होकर एक दूसरे को वे मर्मभेदी कर्कश वचन कहने लगे।

    तेषां मैरैयदोषेण विषमीकृतचेतसाम्‌ ।

    निम्लोचति रवावासीद्वेणूनामिव मर्दनम्‌ ॥

    २॥

    तेषामू--उनके; मैरेय--नशे के; दोषेण--दोष से; विषमीकृत-- असंतुलित; चेतसामू--जिनके मन; निम्लोचति--अस्त होताहै; रवौ--सूर्य; आसीत्‌--घटित होता है; वेणूनाम्‌--बाँसों का; इब--सहश; मर्दनम्‌--विनाश

    जिस तरह बाँसों के आपसी घर्षण से विनाश होता है उसी तरह सूर्यास्त के समय नशे केदोषों की अन्तःक्रिया से उनके मन असंतुलित हो गये और उनका विनाश हो गया।

    भगवान्स्वात्ममायाया गतिं तामवलोक्य सः ।

    सरस्वतीमुपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत्‌ ॥

    ३॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; स्व-आत्म-मायाया: -- अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा; गतिम्‌ू-- अन्त; तामू--उसको; अवलोक्य--देखकर;सः--वे ( कृष्ण ); सरस्वतीम्‌--सरस्वती नदी का; उपस्पृश्य--जल का आचमन करके; वृक्ष-मूलम्‌--वृक्ष की जड़ के पास;उपाविशत्‌--बैठ गये।

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी अन्तरंगा शक्ति से ( अपने परिवार का ) भावी अन्त देखकरसरस्वती नदी के तट पर गये, जल का आचमन किया और एक वृक्ष के नीचे बैठ गये।

    अहं चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरिण ह ।

    बदरीं त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सज्िहीर्षुणा ॥

    ४॥

    अहम्‌-ैं; च--तथा; उक्त:ः--कहा गया; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; प्रपन्न--शरणागत का; आर्ति-हरेण--कष्टों को हरण करनेवाले के द्वारा; ह--निस्सन्देह; बदरीम्‌--बदरी; त्वम्‌--तुम; प्रयाहि--जाओ; इति--इस प्रकार; स्व-कुलम्‌-- अपने ही परिवारको; सज्िहीर्षुणा--विनष्ट करना चाहा।

    भगवान्‌ उनके कष्टों का विनाश करते हैं, जो उनके शरणागत हैं।

    अतएव जब उन्होंने अपनेपरिवार का विनाश करने की इच्छा की तो उन्होंने पहले ही बदरिकाश्रम जाने के लिए मुझसेकह दिया था।

    तथापि तदभिप्रेतं जानन्नहमरिन्दम ।

    पृष्ठतोउन्वगमं भर्तु: पादविश्लेषणाक्षम: ॥

    ५॥

    तथा अपि--तिस पर भी; तत्‌-अभिप्रेतम्‌-- उनकी इच्छा; जानन्‌--जानते हुए; अहमू--मैं; अरिम्‌-दम--हे शत्रुओं के दमनकर्ता( विदुर ); पृष्ठतः--पीछे; अन्वगमम्‌-- अनुसरण किया; भर्तु:--स्वामी का; पाद-विश्लेषण--उनके चरणकमलों से बिलगाव;अक्षम:--समर्थ न होकर।

    हे अरिन्दम ( विदुर ), ( वंश का विनाश करने की ) उनकी इच्छा जानते हुए भी मैं उनकाअनुसरण करता रहा, क्‍योंकि अपने स्वामी के चरणकमलों के बिछोह को सह पाना मेरे लिए सम्भव न था।

    अद्वाक्षमेकमासीनं विचिन्वन्दयितं पतिम्‌ ।

    श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम्‌ ॥

    ६॥

    अद्राक्षम्‌-मैंने देखा; एकम्‌-- अकेले; आसीनम्‌--बैठे हुए; विचिन्वन्‌--गम्भीर चिन्तन करते हुए; दवितम्‌--संरक्षक;पतिम्‌--स्वामी को; श्री-निकेतम्‌--लक्ष्मीजी के आश्रय को; सरस्वत्याम्‌ू--सरस्वती के तट पर; कृत-केतम्‌--आ श्रय लिएहुए; अकेतनम्‌ू--बिना आश्रय के स्थित

    इस तरह उनका पीछा करते हुए मैंने अपने संरक्षक तथा स्वामी ( भगवान्‌ श्रीकृष्ण ) कोसरस्वती नदी के तट पर आश्रय लेकर अकेले बैठे और गहन चिन्तन करते देखा, यद्यपि वे देवीलक्ष्मी के आश्रय हैं।

    एयामावदातं विरजं प्रशान्तारुणलोचनम्‌ ।

    दोर्भिश्वतुर्भिविंदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥

    ७॥

    श्याम-अवदातमू--श्याम वर्ण से सुन्दर; विरजम्‌-शुद्ध सतोगुण से निर्मित; प्रशान्त--शान्त; अरूण--लाल लाल; लोचनम्‌--नेत्र; दोर्भि:-- भुजाओं द्वारा; चतुर्भि:--चार; विदितम्‌--पहचाने जाकर; पीत--पीला; कौश--रेशमी; अम्बरेण--वस्त्र से;च--तथा

    भगवान्‌ का शरीर श्यामल है, किन्तु वह सच्चिदानन्दमय है और अतीव सुन्दर है।

    उनके नेत्रसदैव शान्त रहते हैं और बे प्रातःकालीन उदय होते हुए सूर्य के समान लाल हैं।

    मैं उनके चारहाथों, विभिन्न प्रतीकों तथा पीले रेशमी वस्त्रों से तुरत पहचान गया कि वे भगवान्‌ हैं।

    वाम ऊरावधिश्नित्य दक्षिणाड्प्रिसरोरूहम्‌ ।

    अपश्षितार्भका श्रत्थमकृशं त्यक्तपिप्पलम्‌ ॥

    ८ ॥

    वामे--बाईं; ऊरौ--जाँघ पर; अधिश्रित्य--रख कर; दक्षिण-अड्प्रि-सरोरुहम्‌ू--दाहिने चरणकमल को; अपाश्रित--टिकाकर; अर्भक--छोटा; अश्वत्थम्‌--बरगद का वृक्ष; अकृशम्‌-प्रसन्न; त्यक्त--छोड़े हुए; पिप्पलम्‌--घरेलू आराम।

    भगवान्‌ अपना दाहिना चरण-कमल अपनी बाई जांघ पर रखे एक छोटे से बरगद वृक्ष का सहारा लिए हुए बैठे थे।

    यद्यपि उन्होंने सारे घरेलू सुपास त्याग दिये थे, तथापि बे उस मुद्रा में पूर्णरुपेण प्रसन्न दीख रहे थे।

    तस्मिन्महाभागवतो द्वैपायनसुहत्सखा ।

    लोकाननुचरन्सिद्ध आससाद यहच्छया ॥

    ९॥

    तस्मिन्‌ू--तब; महा-भागवतः-- भगवान्‌ का महान्‌ भक्त; द्वैघायन--कृष्ण द्वैपायन व्यास का; सुहृत्‌--हितैषी; सखा--मित्र;लोकानू--तीनों लोकों में; अनुचरन्‌--विचरण करते हुए; सिद्धे--उस आश्रम में; आससाद--पहुँचा; यहच्छया-- अपनी पूर्णइच्छा से

    उसी समय संसार के अनेक भागों की यात्रा करके महान्‌ भगवद्भक्त तथा महर्षिकृष्णद्वैपायन व्यास के मित्र एवं हितैषी मैत्रेय अपनी इच्छा से उस स्थान पर आ पहुँचे।

    " तस्यानुरक्तस्य मुनेर्मुकुन्दःप्रमोदभावानतकन्धरस्य ।

    आश्रण्वतो मामनुरागहास-समीक्षया विश्रमयन्नुवाच ॥

    १०॥

    तस्य--उसका; अनुरक्तस्थ--अनुरक्त का; मुनेः--मुनि ( मैत्रेय ) का; मुकुन्दः--मोक्ष प्रदान करने वाले भगवान्‌; प्रमोद-भाव--प्रसन्न मुद्रा में; आनत--नीचे किये; कन्धरस्य--कन्धों का; आश्रृण्वतः--इस तरह सुनते हुए; माम्‌--मुझको; अनुराग-हास--दयालु हँसी से; समीक्षया--मुझे विशेष रूप से देखकर; विश्र-मयन्‌--मुझे विश्राम पूरा करने देकर; उवाच--कहा।

    मैत्रेय मुनि उनमें ( भगवान्‌ में ) अत्यधिक अनुरक्त थे और वे अपना कंधा नीचे किये प्रसन्नमुद्रा में सुन रहे थे।

    मुझे विश्राम करने का समय देकर, भगवान्‌ मुसकुराते हुए तथा विशेषचितवन से मुझसे इस प्रकार बोले।

    हः न ऊ अ+ ८ न' न" श्रीभगवानुवाचवेदाहमन्तर्मनसीप्सितं तेददामि यत्तहुरवापमन्य: ।

    सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनांमत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्ट: ॥

    ११॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; वेद--जानता हूँ; अहम्‌-मैं; अन्तः-- भीतर; मनसि--मन में; ईप्सितम्‌--इच्छित; ते--तुम्हें; ददामि--देता हूँ; यत्‌--जो है; तत्‌ू--वह; दुरवापम्‌--प्राप्त कर पाना अतीव कठिन; अन्यै:--अन्यों द्वारा; सत्रे--यज्ञ में;पुरा--प्राचीन काल में; विश्व-सृजाम्‌--इस सृष्टि का सृजन करने वालों के; बसूनाम्‌--वसुओं का; मत्‌-सिद्धि-कामेन--मेरीसंगति प्राप्त करने की इच्छा से; वसो--हे वसु; त्वया--तुम्हारे द्वारा; इष्ट:--जीवन का चरम लक्ष्य

    हे बसु, मैं तुम्हारे मन के भीतर से वह जानता हूँ, जिसे पाने की तुमने प्राचीन काल में इच्छाकी थी जब विश्व के कार्यकलापों का विस्तार करने वाले वसुओं तथा देवताओं ने यज्ञ किये थे।

    तुमने विशेषरूप से मेरी संगति प्राप्त करने की इच्छा की थी।

    अन्य लोगों के लिए इसे प्राप्त करपाना दुर्लभ है, किन्तु मैं तुम्हें यह प्रदान कर रहा हूँ।

    स एष साधो चरमो भवानाम्‌आसादितस्ते मदनुग्रहो यत्‌ ।

    यन्मां नूलोकान्रह उत्सूजन्तंदिष्टय्या दहश्रान्विशदानुवृत्त्या ॥

    १२॥

    सः--वह; एष:--उनका; साधो--हे साधु; चरम: --चरम; भवानाम्‌--तुम्हारे सारे अवतारों ( वसु रूप में ) में से; आसादित:--अब प्राप्त; ते--तुम पर; मत्‌--मेरी; अनुग्रह:--कृपा; यत्‌--जिस रूप में; यत्‌--क्योंकि; माम्‌--मुझको; नृू-लोकानू--बद्धजीवों के लोक; रह:--एकान्त में; उत्सृजन्तम्‌-त्यागते हुए; दिष्टठ्या--देखने से; ददश्चानू--जो तुम देख चुके हो; विशद-अनुवृत्त्या--अविचल भक्ति से

    हे साधु तुम्हारा वर्तमान जीवन अन्तिम तथा सर्वोपरि है, क्योंकि तुम्हें इस जीवन में मेरीचरम कृपा प्राप्त हुई है।

    अब तुम बद्धजीवों के इस ब्रह्माण्ड को त्याग कर मेरे दिव्य धाम वैकुण्ठजा सकते हो।

    तुम्हारी शुद्ध तथा अविचल भक्ति के कारण इस एकान्त स्थान में मेरे पास तुम्हाराआना तुम्हारे लिए महान्‌ वरदान है।

    पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये'पदो निषण्णाय ममादिसर्गे ।

    ज्ञानं परं मन्महिमावभासंयत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥

    १३॥

    पुरा--प्राचीन काल में; मया--मेरे द्वारा; प्रोक्तमू--कहा गया था; अजाय--ब्रह्मा से; नाभ्ये--नाभि से बाहर; पढो--कमल पर;निषण्णाय--स्थित; मम--मेरा; आदि-सर्गे --सृष्टि के प्रारम्भ में; ज्ञाममू--ज्ञान; परमू--परम; मत्‌ -महिमा--मेरी दिव्य कीर्ति;अवभासम्‌ू--जो निर्मल बनाती है; यत्‌--जिसे; सूरय:--महान्‌ विद्वान्‌ मुनि; भागवतम्‌-- श्रीमद्भागवत; वदन्ति--कहते हैं

    हे उद्धव, प्राचीन काल में कमल कल्प में, सृष्टि के प्रारम्भ में मैंने अपनी नाभि से उगे हुएकमल पर स्थित ब्रह्म से अपनी उस दिव्य महिमाओं के विषय में बतलाया था, जिसे बड़े-बड़ेमुनि श्रीमद्भागवत कहते हैं।

    इत्याहतोक्त: परमस्य पुंसःप्रतिक्षणानुग्रहभाजनोहम्‌ ।

    स्नेहोत्थरोमा स्खलिताक्षरस्तंमुझ्नज्छुच: प्राज्लिराबभाषे ॥

    १४॥

    इति--इस प्रकार; आहत--अनुग्रह किये गये; उक्त:--सम्बोधित; परमस्यथ--परम का; पुंसः--भगवान्‌; प्रतिक्षण--हर क्षण;अनुग्रह-भाजन:--कृपापात्र; अहम्‌--मैं; स्नेह-- स्नेह; उत्थ--विस्फोट; रोमा--शरीर के रोएँ; स्खलित--शिथिल; अक्षर:--आँखों के; तम्‌--उसको; मुझ्नन्‌ू--पोंछकर; शुचः--आँसू; प्राज्ञलिः--हाथ जोड़े; आबभाषे--कहा |

    उद्धव ने कहा: हे विदुर, जब मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ द्वारा इस प्रकार से प्रतिक्षणकृपाभाजन बना हुआ था और उनके द्वारा अतीव स्नेहपूर्वक सम्बोधित किया जा रहा था, तो मेरीवाणी रुक कर आँसुओं के रूप में बह निकली और मेरे शरीर के रोम खड़े हो गये।

    अपने आँसूपोंछ कर और दोनों हाथ जोड़ कर मैं इस प्रकार बोला।

    को न्वीश ते पादसरोजभाजांसुदुर्लभो<रथेषु चतुर्ष्वपीह ।

    तथापि नाहं प्रवृणोमि भूमन्‌भवत्पदाम्भोजनिषेवणोत्सुक: ॥

    १५॥

    कः नु ईश-हे प्रभु; ते--तुम्हारे; पाद-सरोज-भाजाम्‌--आपके चरणकमलों की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे भक्तों के; सु-दुर्लभ:--प्राप्त कर पाना अतीव कठिन; अर्थेषु--विषय में; चतुर्षु--चार पुरुषार्थों के; अपि--बावजूद; इह--इस जगत में;तथा अपि--फिर भी; न--नहीं; अहम्‌--मैं; प्रवृणोमि--वरीयता प्रदान करता हूँ; भूमन्‌--हे महात्मन्‌; भवत्‌-- आपके; पद-अम्भोज--चरणकमल; निषेवण-उत्सुक:--सेवा करने के लिए उत्सुक |

    हे प्रभु, जो भक्तमण आपके चरणकमलों की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे हुए हैं उन्हें धर्म, अर्थ,काम तथा मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों के क्षेत्र में कुछ भी प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती।

    किन्तु हे भूमन्‌, जहाँ तक मेरा सम्बन्ध हैं मैंने आपके चरणकमलों की प्रेमाभक्ति में ही अपने कोलगाना श्रेयस्कर माना है।

    कर्माण्यनीहस्य भवोभवस्य तेदुर्गाअ्रयोथारिभयात्पलायनम्‌ ।

    कालात्मनो यत्प्रमदायुता श्रम:स्वात्मन्रतेः खिद्यति धीर्विदामिह ॥

    १६॥

    कर्माणि--कर्म; अनीहस्य--न चाहने वाले का; भवः--जन्म; अभवस्य--कभी भी न जन्मे का; ते--तुम्हारा; दुर्ग-आश्रय: --किले की शरण लेकर; अथ--तत्पश्चात्‌; अरि-भयात्‌--शत्रु के डर से; पलायनमू--पलायन, भागना; काल-आत्मन:--नित्यकाल के नियन्ता का; यत्‌--जो; प्रमदा-आयुत--स्त्रियों की संगति में; आ श्रम: --गृहस्थ जीवन; स्व-आत्मन्‌-- अपनीआत्मा में; रतेः--रमण करने वाली; खिद्यति--विचलित होती है; धीः--बुद्धि; विदाम्‌--विद्वान की; इह--इस जगत में

    हे प्रभु, विद्वान मुनियों की बुद्धि भी विचलित हो उठती है जब वे देखते हैं कि आप समस्तइच्छाओं से मुक्त होते हुए भी सकाम कर्म में लगे रहते हैं; अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं; अजेयकाल के नियन्ता होते हुए भी शत्रुभय से पलायन करके दुर्ग में शरण लेते हैं तथा अपनी आत्मामें रमण करते हुए भी आप अनेक स्त्रियों से घिरे रहकर गृहस्थ जीवन का आनन्द लेते हैं।

    मन्त्रेषु मां वा उपहूय यत्त्व-मकुण्ठिताखण्डसदात्मबोध: ।

    पृच्छे: प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्तस्‌तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥

    १७॥

    मन्त्रेषु--मन्त्रणाओं या परामर्शो में; मामू-- मुझको; बै---अथवा; उपहूय-- बुलाकर; यत्‌--जितना; त्वमू--आप; अकुण्ठित--बिना हिचक के; अखण्ड--विना अलग हुए; सदा--सदैव; आत्म--आत्मा; बोध:--बुद्धिमान; पृच्छे:--पूछा; प्रभो--हे प्रभु;मुग्ध: --मोहग्रस्त; इब--मानो; अप्रमत्त:--यद्यपि कभी मोहित नहीं होता; तत्‌ू--वह; न:--हमारा; मन:--मन; मोहयति--मोहित करता है; इब--मानो; देव-हे प्रभु

    हे प्रभु, आपकी नित्य आत्मा कभी भी काल के प्रभाव से विभाजित नहीं होती और आपकेपूर्णज्ञान की कोई सीमा नहीं है।

    इस तरह आप अपने आप से परामर्श लेने में पर्याप्त सक्षम थे,किन्तु फिर भी आपने परामर्श के लिए मुझे बुलाया मानो आप मोहग्रस्त हो गए हैं, यद्यपि आपकभी भी मोहग्रस्त नहीं होते।

    आपका यह कार्य मुझे मोहग्रस्त कर रहा है।

    ज्ञान पर स्वात्मरह:प्रकाशंप्रोवाच कस्मै भगवान्समग्रम्‌ ।

    अपि क्षमं नो ग्रहणाय भर्त-व॑दाज्जसा यद्वृजिनं तरेम ॥

    १८॥

    ज्ञानम्‌ू-ज्ञान; परम्‌--परम; स्व-आत्म--निजी आत्मा; रह:--रहस्य; प्रकाशम्‌-- प्रकाश; प्रोवाच--कहा; कस्मै--क( ब्रह्मजी ) से; भगवान्‌-- भगवान्‌; समग्रम्‌--पूर्ण रूपेण; अपि--यदि ऐसा; क्षमम्‌--समर्थ; न: --मुझको; ग्रहणाय--स्वीकार्य; भर्त:--हे प्रभु; वद--कहें; अज्ञसा--विस्तार से; यत्‌--जिससे; वृजिनम्‌--कष्टों को; तरेम--पार कर सकूँ |

    हे प्रभु, यदि आप हमें समझ सकने के लिए सक्षम समझते हों तो आप हमें वह दिव्य ज्ञानबतलाएँ जो आपके विषय में प्रकाश डालता हो और जिसे आपने इसके पूर्व ब्रह्माजी कोबतलाया है।

    इत्यावेदितहार्दाय महां स भगवान्पर: ।

    आदिदेशारविन्दाक्ष आत्मन: परमां स्थितिम्‌ू ॥

    १९॥

    इति आवेदित-मेरे द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर; हार्दाय--मेरे हृदय के भीतर से; महाम्‌--मुझको; सः--उन;भगवानू्‌-- भगवान्‌ ने; पर: --परम; आदिदेश-- आदेश दिया; अरविन्द-अक्ष:--कमल जैसे नेत्रों वाला; आत्मन:--अपनी ही;'परमाम्‌--दिव्य; स्थितिम्‌--स्थिति |

    जब मैंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से अपनी यह हार्दिक इच्छा व्यक्त की तो कमलनेत्रभगवान्‌ ने मुझे अपनी दिव्य स्थिति के विषय में उपदेश दिया।

    स एवमाराधितपादतीर्थाद्‌अधीततत्त्वात्मविबोधमार्ग: ।

    प्रणम्य पादौ परिवृत्य देव-मिहागतोहं विरहातुरात्मा ॥

    २०॥

    सः--अतएव मैं; एवम्‌--इस प्रकार; आराधित--पूजित; पाद-तीर्थात्‌-- भगवान्‌ से; अधीत--अध्ययन किया हुआ; तत्त्व-आत्म--आत्मज्ञान; विबोध--ज्ञान, जानकारी; मार्ग:--पथ; प्रणम्य--प्रणाम करके; पादौ--उनके चरणकमलों पर;परिवृत्य--प्रदक्षिणा करके; देवम्‌-- भगवान्‌; इह--इस स्थान पर; आगत:--पहुँचा; अहम्‌--मैं; विरह--वियोग; आतुर-आत्मा--आत्मा में दुखी, दुखित आत्मा से ।

    मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु भगवान्‌ से आत्मज्ञान के मार्ग का अध्ययन किया है, अतएवउनकी प्रदक्षिणा करके मैं उनके विरह-शोक से पीड़ित होकर इस स्थान पर आया हूँ।

    सोहं तहर्शनाह्ादवियोगार्तियुतः प्रभो ।

    गमिष्ये दयितं तस्य बरदर्याश्रममण्डलम्‌ ॥

    २१॥

    सः अहमू्‌--इस तरह स्वयं मैं; तत्‌--उसका; दर्शन--दर्शन; आह्ाद--आनन्द के; वियोग--विरह; आर्ति-युतः--दुख सेपीड़ित; प्रभो--हे प्रभु; गमिष्ये--जाऊँगा; दवितम्‌--इस तरह उपदेश दिया गया; तस्य--उसका; बदर्याअ्रम--हिमालय स्थितबदरिकाश्रम; मण्डलम्‌--संगति |

    हे विदुर, अब मैं उनके दर्शन से मिलने वाले आनन्द के अभाव में पागल हो रहा हूँ और इसेकम करने के लिए ही अब मैं संगति के लिए हिमालय स्थित बदरिकाश्रम जा रहा हूँ जैसा किउन्होंने मुझे आदेश दिया है।

    यत्र नारायणो देवो नरश्च भगवानृषि: ।

    मृदु तीब्रं तपो दीर्घ तेपाते लोकभावनौ ॥

    २२॥

    यत्र--जहाँ; नारायण: -- भगवान्‌; देव:--अवतार से; नरः--मनुष्य; च-- भी; भगवान्‌-- स्वामी; ऋषि:--ऋषि; मृदु--मिलनसार; तीब्रमू--कठिन; तपः--तपस्या; दीर्घम्‌--दीर्घकाल; तेपाते--करते हुए; लोक-भावनौ--सारे जीवों का मंगल।

    वहाँ बदरिकाश्रम में नर तथा नारायण ऋषियों के रूप में अपने अवतार में भगवान्‌अनादिकाल से समस्त मिलनसार जीवों के कल्याण हेतु महान्‌ तपस्या कर रहे हैं।

    श्रीशुक उवाचइत्युद्धवादुपाकर्णय्य सुहृदां दु:सहं वधम्‌ ।

    ज्ञानेनाशमयक्ष्षत्ता शोकमुत्पतितं बुध: ॥

    २३॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकगोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उद्धवात्‌--उद्धव से; उपाकर्ण्य--सुनकर; सुहृदाम्‌-मित्रोंतथा सम्बन्धियों का; दुःसहम्‌--असहा; वधम्‌--संहार; ज्ञानेन--दिव्य ज्ञान से; अशमयत्‌--स्वयं को सान्त्वना दी; क्षत्ता--विदुर ने; शोकम्‌--वियोग; उत्पतितम्‌--उत्पन्न हुआ; बुध: --विद्वान्‌ |

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : उद्धव से अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों के संहार के विषय मेंसुनकर दिद्वान्‌ विदुर ने स्वयं के दिव्य ज्ञान के बल पर अपने असह्य शोक को प्रशमित किया।

    स तं महाभागवतं ब्रजन्तं कौरवर्षभः ।

    विश्रम्भादभ्यधत्तेदं मुख्यं कृष्णपरिग्रहे ॥

    २४॥

    सः-विदुर ने; तम्‌--उद्धव से; महा- भागवतम्‌-- भगवान्‌ का महान्‌ भक्त; ब्रजन्तम्‌--जाते हुए; कौरव-ऋषभ:--कौरवों मेंसर्वश्रेष्ठ; विश्रम्भातू-विश्वास वश; अभ्यधत्त--निवेदन किया; इृदम्‌--यह; मुख्यम्‌-प्रधान; कृष्ण-- भगवान्‌ कृष्ण की;परिग्रहे-- भगवद्भक्ति में |

    भगवान्‌ के प्रमुख तथा अत्यन्त विश्वस्त भक्त उद्धव जब जाने लगे तो विदुर ने स्नेह तथाविश्वास के साथ उनसे प्रश्न किया।

    विदुर उवाचज्ञानं परे स्वात्मरहःप्रकाशंयदाह योगेश्वर ई श्वरस्ते ।

    वक्तुं भवान्नोहति यद्द्धि विष्णोभृत्या: स्वभृत्यार्थकृतश्चवरन्ति ॥

    २५॥

    विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; ज्ञानमू--ज्ञान; परमू--दिव्य; स्व-आत्म--आत्मा विषयक; रह:--रहस्य; प्रकाशम्‌--प्रबुद्धता;यत्‌--जो; आह--कहा; योग-ईश्वर: -- समस्त योगों के स्वामी; ईश्वर: -- भगवान्‌ ने; ते--तुमसे; वक्तुमू--कहने के लिए;भवान्‌ू--आप; न:ः--मुझसे; अर्हति--योग्य हैं; यत्‌--क्योंकि; हि--कारण से; विष्णो: -- भगवान्‌ विष्णु के; भृत्या:--सेवक ;स्व-भृत्य-अर्थ-कृतः--अपने सेवकों के हित के लिए; चरन्ति--विचरण करते हैं |

    विदुर ने कहा : हे उद्धव, चूँकि भगवान्‌ विष्णु के सेवक अन्यों की सेवा के लिए विचरणकरते हैं, अतः यह उचित ही है कि आप उस आत्मज्ञान का वर्णन करें जिससे स्वयं भगवान्‌ नेआपको प्रबुद्ध किया है।

    उद्धव उबाचननु ते तत्त्वसंराध्य ऋषि: कौषारवोन्तिके ।

    साक्षाद्धगवतादिष्टो मर्त्सलोक॑ जिहासता ॥

    २६॥

    उद्धवः उवाच--उद्धव ने कहा; ननु--लेकिन; ते--तुम्हारा; तत्त्व-संराध्य:--दिव्य ज्ञान को ग्रहण करने के लिए पूजनीय;ऋषि:--विद्वान्‌; कौषारव:--कौषारु पुत्र ( मैत्रेय ) को; अन्तिके--निकट; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा;आदिष्ट:--आदेश दिया गया; मर्त्य-लोकम्‌--मर्त्बलोक को; जिहासता--छोड़ते हुए

    श्री उद्धव ने कहा : आप महान्‌ विद्वान ऋषि मैत्रेय से शिक्षा ले सकते हैं, जो पास ही में हैंऔर जो दिव्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए पूजनीय हैं।

    जब भगवान्‌ इस मर्त्यलोक को छोड़ने वालेथे तब उन्होंने मैत्रेय को प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा दी थी।

    श्रीशुक उवाचइति सह विदुरेण विश्वमूर्ते-गुणकथया सुधया प्लावितोरुताप: ।

    क्षणमिव पुलिने यमस्वसुस्तांसमुषित औपगविर्निशां ततोगात्‌ ॥

    २७॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; सह--साथ; विदुरेण--विदुर के; विश्व-मूर्तें:--विराटपुरुष का; गुण-कथया--दिव्य गुणों की बातचीत के दौरान; सुधया--अमृत के तुल्य; प्लावित-उरू-ताप:--अत्यधिक कष्ट सेअभिभूत; क्षणम्‌-- क्षण; इब--सहश; पुलिने--तट पर; यमस्वसु: ताम्‌--उस यमुना नदी के; समुषित: --बिताया;औपगवि:--औपगव का पुत्र ( उद्धव ); निशाम्‌--रात्रि; ततः--तत्पश्चात्‌ अगातू--चला गया।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह यमुना नदी के तट पर विदुर से ( भगवान्‌के ) दिव्य नाम, यश, गुण इत्यादि की चर्चा करने के बाद उद्धव अत्यधिक शोक से अभिभूतहो गये।

    उन्होंने सारी रात एक क्षण की तरह बिताईं।

    तत्पश्चात्‌ वे वहाँ से चले गये।

    राजोबाचनिधनमुपगतेषु वृष्णिभोजे-घ्वधिरथयूथपयूथपेषु मुख्य: ।

    सतु कथमवशिष्ट उद्धवो यद्‌धरिरपि तत्यज आकृति तज्यधीशः ॥

    २८॥

    राजा उबाच--राजा ने पूछा; निधनम्‌--विनाश; उपगतेषु--हो जाने पर; वृष्णि--वृष्णिवंश; भोजेषु-- भोजबंश का; अधिरथ--महान्‌ सेनानायक; यूथ-प--मुख्य सेनानायक; यूथ-पेषु--उनके बीच; मुख्य: --प्रमुख; सः--वह; तु--केवल; कथम्‌--कैसे;अवशिष्ट:--बचा रहा; उद्धव: --उद्धव; यत्‌--जबकि; हरि: -- भगवान्‌ ने; अपि-- भी; तत्यजे--समाप्त किया; आकृतिम्‌--सम्पूर्ण लीलाएँ; त्रि-अधीश:--तीनों लोकों के स्वामी |

    राजा ने पूछा : तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण की लीलाओं के अन्त में तथा उन वृष्णि एवंभोज वंशों के सदस्यों के अन्तर्धान होने पर, जो महान्‌ सेनानायकों में सर्वश्रेष्ठ थे, अकेले उद्धवक्यों बचे रहे ?

    श्रीशुक उवाचब्रह्यशापापदेशेन कालेनामोघवाउ्छत:ः ।

    संहृत्य स्वकुलं स्फीतं त्यक्ष्यन्देहमचिन्तयत्‌ ॥

    २९॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; ब्रह्य-शाप--ब्रह्मणों द्वारा शाप दिया जाना; अपदेशेन--बहाने से; कालेन--नित्य काल द्वारा; अमोघ-- अचूक; वाउ्छित:--ऐसा चाहने वाला; संहत्य--बन्द करके; स्व-कुलम्‌--अपने परिवार को;स्फीतम्‌--असंख्य; त्यक्ष्यन्‌ू--त्यागने के बाद; देहम्‌--विश्व रूप को; अचिन्तयत्‌--अपने आप में सोचा।

    शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया : हे प्रिय राजन, ब्राह्मण का शाप तो केवल एक बहाना था,किन्तु वास्तविक तथ्य तो भगवान्‌ की परम इच्छा थी।

    वे अपने असंख्य पारिवारिक सदस्यों कोभेज देने के बाद पृथ्वी के धरातल से अन्तर्धान हो जाना चाहते थे।

    उन्होंने अपने आप इस तरहसोचा।

    अस्माल्लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम्‌ ।

    अ्त्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वर: ॥

    ३०॥

    अस्मात्‌--इस ( ब्रह्माण्ड ) से; लोकात्‌--पृथ्वी से; उपरते--ओझल होने पर; मयि--मेरे विषय के; ज्ञानमू--ज्ञान; मतू-आश्रयम्‌--मुझसे सम्बन्धित; अर्हति--योग्य होता है; उद्धवः--उद्धव; एव--निश्चय ही; अद्धघा-प्रत्यक्षत: ; सम्प्रति--इससमय; आत्मवताम्‌-भक्तों में; बर:--सर्वोपरि।

    अब मैं इस लौकिक जगत की दृष्टि से ओझल हो जाऊँगा और मैं समझता हूँ कि मेरे भक्तोंमें अग्रणी उद्धव ही एकमात्र ऐसा है, जिसे मेरे विषय का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से सौंपा जा सकताहै।

    नोद्धवोण्वपि मन्न्यूनो यदगुणैर्नादितः प्रभु: ।

    अतो मद्ठयुनं लोकं ग्राहयन्निह तिष्ठतु ॥

    ३१॥

    न--नहीं; उद्धव: --उद्धव; अणु--रंचभर; अपि-- भी; मत्‌-- मुझसे; न्यून:--घटकर; यत्‌-- क्योंकि; गुणैः -- प्रकृति के गुणोंके द्वारा; न--न तो; अर्दित:--प्रभावित; प्रभु:--स्वामी; अत:--इसलिए; मत्‌-वयुनम्‌--मेरा ( भगवान्‌ का ) ज्ञान; लोकमू--संसार; ग्राहयन्‌-- प्रसार करने के लिए; इह--इस संसार में; तिष्ठतु--रहता रहे |

    उद्धव किसी भी तरह मुझसे घटकर नहीं है, क्योंकि वह प्रकृति के गुणों द्वारा कभी भीप्रभावित नहीं हुआ है।

    अतएवं भगवान्‌ के विशिष्ट ज्ञान का प्रसार करने के लिए वह इस जगतमें रहता रहे।

    एवं त्रिलोकगुरुणा सन्दिष्ट: शब्दयोनिना ।

    बदर्याश्रममासाद्य हरिमीजे समाधिना ॥

    ३२॥

    एवम्‌--इस तरह; त्रि-लोक--तीनों जगत के; गुरुणा-- गुरु द्वारा; सन्दिष्ट:--ठीक से शिक्षा दी जाकर; शब्द-योनिना--जोसमस्त वैदिक ज्ञान का स्त्रोत है उसके द्वारा; बदर्याअ्रमम्‌--बदरिकाश्रम के तीर्थस्थान में; आसाद्य--पहुँचकर; हरिम्‌ू-- भगवान्‌को; ईजे--तुष्ट किया; समाधिना--समाधि द्वारा

    शुकदेव गोस्वामी ने राजा को सूचित किया कि इस तरह समस्त वैदिक ज्ञान के स्रोत औरतीनों लोकों के गुरु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ द्वारा उपदेश दिये जाने पर उद्धव बदरिकाश्रमतीर्थस्थल पहुँचे और भगवान्‌ को तुष्ट करने के लिए उन्होंने अपने को समाधि में लगा दिया।

    विदुरोप्युद्धवाच्छुत्वा कृष्णस्य परमात्मन: ।

    क्रीडयोपात्तदेहस्य कर्माणि एलाघितानि च ॥

    ३३॥

    विदुर:--विदुर; अपि--भी; उद्धवात्‌--उद्धव के स्त्रोत से; श्रुत्वा--सुनकर; कृष्णस्य-- भगवान्‌ कृष्ण का; परम-आत्मन:--परमात्मा का; क्रीडया--मर्त्यलोक में लीलाओं के लिए; उपात्त--असाधारण रूप से स्वीकृत; देहस्य--शरीर के; कर्माणि--दिव्य कर्म; एलाघितानि--अत्यन्त प्रशंसनीय; च-- भी |

    विदुर ने उद्धव से इस मर्त्यलोक में परमात्मा अर्थात्‌ भगवान्‌ कृष्ण के आविर्भाव तथातिरोभाव के विषय में भी सुना जिसे महर्षिगण बड़ी ही लगन के साथ जानना चाहते हैं।

    देहन्यासं च तस्यैवं धीराणां धैर्यवर्धनम्‌ ।

    अन्येषां दुष्करतरं पशूनां विक्लवात्मनाम्‌ ॥

    ३४॥

    देह-न्यासम्‌ू--शरीर में प्रवेश; च-- भी; तस्य--उसका; एवम्‌-- भी; धीराणाम्‌--महर्षियों का; धैर्य--धीरज; वर्धनम्‌--बढ़ातेहुए; अन्येषाम्‌--अन्यों के लिए; दुष्कर-तरम्‌--निश्चित कर पाना अत्यन्त कठिन; पशूनामू--पशुओं के; विक्लब--बेचैन;आत्मनाम्‌--ऐसे मन का।

    भगवान्‌ के यशस्वी कर्मों तथा मर्त्यलोक में असाधारण लीलाओं को सम्पन्न करने के लिएउनके द्वारा धारण किये जाने वाले विविध दिव्य रूपों को समझ पाना उनके भक्तों के अतिरिक्तअन्य किसी के लिए अत्यन्त कठिन है और पशुओं के लिए तो वे मानसिक विश्षोभ मात्र हैं।

    आत्मानं च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनसेक्षितम्‌ ।

    ध्यायन्गते भागवते रुरोद प्रेमविहलः ॥

    ३५॥

    आत्मानम्‌--स्वयं; च-- भी; कुरु-श्रेष्ठ--हे कुरुओं में श्रेष्ठ; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; मनसा--मन से; ईक्षितम्‌--स्मरण कियागया; ध्यायन्‌--इस तरह सोचते हुए; गते--चले जाने पर; भागवते-- भक्त के; रुरोद--जोर से चिल्लाया; प्रेम-विहल: --प्रेमभाव से अभिभूत हुआ।

    यह सुनकर कि ( इस जगत को छोड़ते समय ) भगवान्‌ कृष्ण ने उनका स्मरण किया था,विदुर प्रेमभाव से अभिभूत होकर जोर-जोर से रो पड़े।

    तकालिन्द्या: कतिभिः सिद्ध अहोभिर्भरतर्षभ ।

    प्रापद्यत स्वःसरितं यत्र मित्रासुतो मुनि: ॥

    ३६॥

    कालिन्द्या:--यमुना के तट पर; कतिभि:--कुछ; सिद्धे--बीत जाने पर; अहोभि: --दिन; भरत-ऋषभ--हे भरत वंश में श्रेष्ठ;प्रापद्यत--पहुँचा; स्व:-सरितम्‌--स्वर्ग की गंगा नदी; यत्र--जहाँ; मित्रा-सुतः--मित्र का पुत्र; मुनिः--मुनि।

    यमुना नदी के तट पर कुछ दिन बिताने के बाद स्वरूपसिद्ध आत्मा विदुर गंगा नदी के तटपर पहुँचे जहाँ मैत्रेय मुनि स्थित थे।

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    अध्याय पाँच: विदुर की मैत्रेय से बातचीत

    3.5श्रीशुक उवाचद्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणांमैत्रेयमासीनमगाधबोधम्‌।

    क्षत्तोपसृत्याच्युतभावसिद्ध:ःपप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्त: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; द्वारि--उदगम पर; द्यु-नद्या:--स्वर्गलोक की गंगा नदी; ऋषभः -- श्रेष्ठ;कुरूणाम्‌ू-कुरुओं के; मैत्रेयमू--मैत्रेय से; आसीनम्‌--बैठे हुए; अगाध-बोधम्‌--अगाध ज्ञान का; क्षत्ता--विदुर ने;उपसृत्य--पास आकर; अच्युत--अच्युत भगवान्‌; भाव--चरित्र; सिद्धः--पूर्ण; पप्रच्छ--पूछा; सौशील्य--सुशीलता; गुण-अभितृप्त:--दिव्य गुणों से तृप्त।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह कुरुवंशियों में सर्व श्रेष्ठ विदुर, जो कि भगवद्भक्ति मेंपरिपूर्ण थे, स्वर्ग लोक की नदी गंगा के उदगम (हरद्वार ) पहुँचे जहाँ विश्व के अगाध विद्वानमहामुनि मैत्रेय आसीन थे।

    मद्गरता से ओत-प्रोत में पूर्ण तथा अध्यात्म में तुष्ट विदुर ने उनसे पूछा।

    विदुर उवाचसुखाय कर्माणि करोति लोकोन तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।

    विन्देत भूयस्तत एव दु:खंयदत्र युक्त भगवान्वदेन्न: ॥

    २॥

    विदुर: उवाच--विदुर ने कहा; सुखाय--सुख प्राप्त करने के लिए; कर्माणि--सकाम कर्म; करोति--हर कोई करता है;लोक:--इस जगत में; न--कभी नहीं; तैः--उन कर्मों के द्वारा; सुखम्‌ू--कोई सुख; वा--अथवा; अन्यत्‌--भिन्न रीति से;उपारमम्‌--तृप्ति; वा--अथवा; विन्देत--प्राप्त करता है; भूयः--इसके विपरीत; ततः--ऐसे कार्यों के द्वारा; एब--निश्चय ही;दुःखम्‌--कष्ट; यत्‌--जो; अत्र--परिस्थितिवश; युक्तम्‌--सही मार्ग; भगवान्‌--हे महात्मन्‌; वदेतू--कृपया प्रकाशित करें;नः--हमको।

    विदुर ने कहा : हे महर्षि, इस संसार का हर व्यक्ति सुख प्राप्त करने के लिए सकाम कर्मों मेंप्रवृत्त होता है, किन्तु उसे न तो तृप्ति मिलती है न ही उसके दुख में कोई कमी आती है।

    विपरीतइसके ऐसे कार्यों से उसके दुख में वृद्धि होती है।

    इसलिए कृपा करके हमें इसके विषय में हमारामार्गदर्शन करें कि असली सुख के लिए कोई कैसे रहे ?

    जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य दैवा-दधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।

    अनुग्रहायेह चरन्ति नूनंभूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥

    ३॥

    जनस्य--सामान्य व्यक्ति की; कृष्णात्‌-- भगवान्‌ कृष्ण से; विमुखस्य--विमुख, मुँह फेरने वाले का; दैवात्‌-माया के प्रभावसे; अधर्म-शीलस्य--अधर्म में लगे हुए का; सु-दुःखितस्य--सदैव दुखी रहने वाले का; अनुग्रहाय--उनके प्रति दयालु होने केकारण; इह--इस जगत में; चरन्ति--विचरण करते हैं; नूनम्‌--निश्चय ही; भूतानि--लोग; भव्यानि--अत्यन्त परोपकारीआत्माएँ; जनार्दनस्य-- भगवान्‌ की ।

    हे प्रभु, महान्‌ परोपकारी आत्माएँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की ओर से पृथ्वी पर उन पतितआत्माओं पर अनुकंपा दिखाने के लिए विचरण करती है, जो भगवान्‌ की अधीनता के विचारमात्र से ही विमुख रहते हैं।

    तत्साधुवर्यादिश वर्त्म शं नःसंराधितो भगवान्येन पुंसाम्‌ ।

    हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूतेज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम्‌ ॥

    ४॥

    तत्‌--इसलिए; साधु-वर्य --हे सन्तों में सर्व श्रेष्ठ आदिश--आदेश दें; वर्त्म--मार्ग; शम्‌--शुभ; न:--हमारे लिए; संराधित:--पूरी तरह सेवित; भगवानू-- भगवान्‌; येन--जिससे; पुंसामू-- जीव का; हृदि स्थित:--हृदय में स्थित; यच्छति--प्रदान करताहै; भक्ति-पूते--शुद्ध भक्त को; ज्ञानमू--ज्ञान; स--वह; तत्त्व--सत्य; अधिगमम्‌--जिससे कोई सीखता है; पुराणम्‌--प्रामाणिक, प्राचीन।

    इसलिए, हे महर्षि, आप मुझे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की दिव्य भक्ति के विषय में उपदेश देंजिससे हर एक के हृदय में स्थित भगवान्‌ भीतर से परम सत्य विषयक वह ज्ञान प्रदान करने केलिए प्रसन्न हों जो कि प्राचीन वैदिक सिद्धान्तों के रूप में उन लोगों को ही प्रदान किया जाता है,जो भक्तियोग द्वारा शुद्ध हो चुके है।

    करोति कर्माणि कृतावतारोयान्यात्मतन्त्रो भगवांस्त्यधीश: ।

    यथा ससर्जाग्र इृदं निरीहःसंस्थाप्य वृत्ति जगतो विधत्ते ॥

    ५॥

    करोति--करता है; कर्माणि--दिव्य कर्म; कृत--स्वीकार करके; अवतार:--अवतार; यानि--वे सब; आत्म-तन्त्र:--स्वतंत्र;भगवान्‌-- भगवान्‌; त्रि-अधीश: --तीनों लोकों के स्वामी; यथा--जिस तरह; ससर्ज--उत्पन्न किया; अग्रे--सर्वप्रथम; इृदम्‌--इस विराट जगत को; निरीह:--यद्यपि इच्छारहित; संस्थाप्य--स्थापित करके; वृत्तिमू--जीविकोपार्जन का साधन; जगत: --ब्रह्माण्डों का; विधत्ते--जिस तरह वह नियमन करता है।

    हे महर्षि, कृपा करके बतलाएँ कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ जो तीनों लोकों के इच्छारहितस्वतंत्र स्वामी तथा समस्त शक्तियों के नियन्ता हैं, किस तरह अवतारों को स्वीकार करते हैं औरकिस तरह विराट जगत को उत्पन्न करते हैं, जिसके परिपालन के लिए नियामक सिद्धान्त पूर्णरुप से व्यवस्थित हैं।

    यथा पुनः स्वे ख इदं निवेश्यशेते गुहायां स निवृत्तवृत्ति: ।

    योगेश्वराधी श्वर एक एत-दनुप्रविष्टो बहुधा यथासीत्‌ ॥

    ६॥

    यथा--जिस तरह; पुनः --फिर; स्वे--अपने में; खे--आकाश के रूप ( विराट रूप ) में; इदम्‌--यह; निवेश्य-- प्रविष्ट होकर;शेते--शयन करता है; गुहायाम्‌ू-ब्रह्माण्ड के भीतर; सः--वह ( भगवान्‌ ); निवृत्त--बिना प्रयास के; वृत्तिः--आजीविका कासाधन; योग-ई श्वरर-- समस्त योगशक्तियों के स्वामी; अधीश्वर:ः--सभी वस्तुओं के स्वामी; एक:--अद्वितीय; एतत्‌--यह;अनुप्रविष्ट:--बाद में प्रविष्ट होकर; बहुधा--असंख्य प्रकारों से; यथा--जिस तरह; आसीतू--विद्यमान रहता है।

    वे आकाश के रूप में फैले अपने ही हृदय में लेट जाते हैं और उस आकाश में सम्पूर्ण सृष्टिको रखकर वे अपना विस्तार अनेक जीवों में करते हैं, जो विभिन्न योनियों के रूप में प्रकट होतेहैं।

    उन्हें अपने निर्वाह के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता क्योंकि वे समस्त यौगिक शक्तियोंके स्वामी और प्रत्येक वस्तु के मालिक है।

    इस प्रकार वे जीवों से भिन्न है।

    क्रीडन्विधत्ते द्विजगोसुराणांक्षेमाय कर्माण्यवतारभेदैः ।

    मनो न तृप्यत्यपि श्रण्वतां नःसुश्लोकमौले श्वरितामृतानि ॥

    ७॥

    क्रीडन्‌ू-- लीलाएँ करते हुए; विधत्ते--सम्पन्न करता है; द्विज--द्विजन्मा; गो--गौवें; सुराणाम्‌ू--देवताओं के; क्षेमाय--कल्याण के लिए; कर्माणि--दिव्य कर्म; अवतार--अवतार; भेदै:--पृथक्‌-पृथक्‌; मन:--मन; न--कभी नहीं; तृप्यति--तुष्टहोता है; अपि--के बावजूद; श्रुण्वताम्‌--निरन्तर सुनते हुए; न:ः--हमारा; सु-श्लोक--शुभ, मंगलमय; मौले:-- भगवान्‌ की;चरित--विशेषताएँ; अमृतानि--- अमरआप द्विजों, गौवों तथा देवताओं के कल्याण हेतु

    भगवान्‌ के विभिन्न अवतारों के शुभलक्षणों के विषय में भी वर्णन करें।

    यद्यपि हम निरन्तर उनके दिव्य कार्यकलापों के विषय मेंसुनते हैं, किन्तु हमारे मन कभी भी पूर्णतया तुष्ट नहीं हो पाते।

    यैस्तत्त्वभेदेधधिलोकनाथोलोकानलोकान्सह लोकपालानू ।

    अचीक्िपद्यत्र हि सर्वसत्त्व-निकायभेदोधिकृतः प्रतीत: ॥

    ८॥

    यैः--जिसके द्वारा; तत्त्व--सत्य; भेदैः --अन्तर द्वारा; अधिलोक-नाथ:--राजाओं के राजा; लोकान्‌--लोकों को;अलोकान्‌--अधोभागों के लोकों; सह--के सहित; लोक-पालान्‌--उनके राजाओं को; अचीक़िपत्‌--आयोजना की; यत्र--जिसमें; हि--निश्चय ही; सर्व--समस्त; सत्त्व-- अस्तित्व; निकाय--जीव; भेद: --अन्तर; अधिकृत:-- अधिकार जमाये;प्रतीत:ः--ऐसा लगता है।

    समस्त राजाओं के परम राजा ने विभिन्न लोकों की तथा आवास स्थलों की सृष्टि की जहाँप्रकृति के गुणों और कर्म के अनुसार सारे जीव स्थित है और उन्होंने उनके विभिन्न राजाओं तथाशासकों का भी सृजन किया।

    येन प्रजानामुत आत्मकर्म-रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।

    नारायणो विश्वसृगात्मयोनि-रेतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥

    ९॥

    येन-- जिससे; प्रजानाम्‌--उत्पन्न लोगों के; उत--जैसा भी; आत्म-कर्म--नियत व्यस्तता; रूप--स्वरूप तथा गुण;अभिधानाम्‌--प्रयास; च-- भी; भिदाम्‌ू-- अन्तर; व्यधत्त--बिखरे हुए; नारायण:--नारायण; विश्वसृक्‌ --ब्रह्माण्ड के स््रष्टा;आत्म-योनि:--आत्मनिर्भर; एतत्‌--ये सभी; च-- भी; न:--हमसे; वर्णय--वर्णन कीजिये ; विप्र-वर्य --हे ब्राह्मण श्रेष्ठ |

    हे ब्राह्मणश्रेष्ठ आप यह भी बतलाएँ कि ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा तथा आत्मनिर्भर प्रभु नारायण नेकिस तरह विभिन्न जीवों के स्वभावों, कार्यो, रूपों, लक्षणों तथा नामों की पृथक्‌-पृथक्‌ रचनाकी है।

    परावरेषां भगवन्द्रतानिश्रुतानि मे व्यासमुखादभी क्षणम्‌ ।

    अतृष्ुम क्षुल्लसुखावहानांतेषामृते कृष्णकथामृतौघात्‌ ॥

    १०॥

    'पर--उच्चतर; अवरेषाम्‌ू--इन निम्नतरों का; भगवनू--हे प्रभु, हे महात्मन्‌; ब्रतानि--वृत्तियाँ, पेशे; श्रुतानि--सुना हुआ; मे--मेरे द्वारा; व्यास--व्यास के; मुखात्‌--मुँह से; अभीक्षणम्‌--बारम्बार; अतृप्नुम--मैं तुष्ट हूँ; क्षुलल--अल्प; सुख-आवहानाम्‌--सुख लाने वाला; तेषाम्‌--उनमें से; ऋते--बिना; कृष्ण-कथा-- भगवान्‌ कृष्ण विषयक बातें; अमृत-ओघात्‌ -- अमृत से |

    हे प्रभु, मैं व्यासदेव के मुख से मानव समाज के इन उच्चतर तथा निम्नतर पदों के विषय मेंबारम्बार सुन चुका हूँ और मैं इन कम महत्व वाले विषयों तथा उनके सुखों से पूर्णतया तृप्त हूँ।

    पर वे विषय बिना कृष्ण विषयक कथाओं के अमृत से मुझे तुष्ट नहीं कर सके ।

    कस्तृष्नुयात्तीर्थपदो भिधानात्‌सत्रेषु व: सूरिभिरीड्यमानात्‌ ।

    यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातोभवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥

    ११॥

    कः--वह कौन मनुष्य है; तृप्नुयात्‌--जो तुष्ट किया जा सके; तीर्थ-पदः--जिसके चरणकमल तीर्थस्थल हैं; अभिधानातू--कीबातों से; सत्रेषु--मानव समाज में; व: --जो है; सूरिभिः:--महान्‌ भक्तों द्वारा; ईंडयमानातू--इस तरह पूजित होने वाला; यः--जो; कर्ण-नाडीम्‌-कानों के छेदों में; पुरुषस्थ--मनुष्य के; यात:ः--प्रवेश करते हुए; भव-प्रदाम्‌--जन्म-मृत्यु प्रदान करनेवाला; गेह-रतिम्‌--पारिवारिक स्नेह; छिनत्ति--काट देता है।

    जिनके चरणकमल समस्त तीर्थों के सार रूप हैं तथा जिनकी आराधना महर्षियों तथा भक्तोंद्वारा की जाती है, ऐसे भगवान्‌ के विषय में पर्याप्त श्रवण किये बिना मानव समाज में ऐसाकौन होगा जो तुष्ट होता हो? मनुष्य के कानों के छेदों में ऐसी कथाएँ प्रविष्ट होकर उसकेपारिवारिक मोह के बन्धन को काट देती हैं।

    मुनिर्विवक्षुर्भगवद्गुणानांसखापि ते भारतमाह कृष्ण: ।

    यस्मिन्रृणां ग्राम्यसुखानुवादै-म॑तिर्गृहीता नु हरेः कथायाम्‌ ॥

    १२॥

    मुनिः--मुनि ने; विवक्षु:--वर्णन किया; भगवत्‌-- भगवान्‌ के; गुणानाम्‌--दिव्य गुणों का; सखा--मित्र; अपि-- भी; ते--तुम्हारा; भारतम्‌--महाभारत; आह--वर्णन किया है; कृष्ण: --कृष्ण-द्वैपायन व्यास; यस्मिनू--जिसमें; नृणाम्‌--मनुष्यों के;ग्राम्य--सांसारिक; सुख-अनुवादैः --लौकिक कथाओं से प्राप्प आनन्द; मति:--ध्यान; गृहीता नु--अपनी ओर खींचने केलिए; हरेः-- भगवान्‌ की; कथायाम्‌-- भाषणों का ( भगवदगीता ) |

    आपके मित्र महर्षि कृष्णद्वैषायन व्यास पहले ही अपने महान ग्रन्थ महाभारत में भगवान्‌ केदिव्य गुणों का वर्णन कर चुके हैं।

    किन्तु इसका सारा उद्देश्य सामान्य जन का ध्यान लौकिककथाओं को सुनने के प्रति उनके प्रबल आकर्षण के माध्यम से कृष्णकथा ( भगवदगीता ) कीओर आकृष्ट करना है।

    सा श्रदधानस्य विवर्धमानाविरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।

    हरेः पदानुस्मृतिनिर्वृतस्यसमस्तदुःखाप्ययमाशु धत्ते ॥

    १३॥

    सा--कृष्णकथा; श्रहधानस्य-- श्रद्धापूर्वक सुनने के इच्छुक लोगों के ; विवर्धभाना--क्रमश: बढ़ती हुईं; विरक्तिम्‌--अन्यमनस्कता; अन्यत्र--अन्य बातों ( ऐसी कथाओं के अतिरिक्त ) में; करोति--करता है; पुंसः--ऐसे व्यस्त व्यक्ति का; हरेः--भगवान्‌ का; पद-अनुस्मृति-- भगवान्‌ के चरणकमलों का निरन्तर स्मरण; निर्वृतस्थ--ऐसा दिव्य आनन्द प्राप्त करने वाले का;समस्त-दुःख--सारे कष्ट; अप्ययम्‌-दूर हुए; आशु--तुरन्त; धत्ते--सम्पन्न करता है

    जो व्यक्ति ऐसी कथाओं का निरन्तर श्रवण करते रहने के लिए आतुर रहता है, उसके लिए कृष्णकथा क्रमशः अन्य सभी बातों के प्रति उसकी उदासीनता को बढ़ा देती है।

    वह भक्तजिसने दिव्य आनन्द प्राप्त कर लिया हो उसके द्वारा भगवान्‌ के चरणकमलों का ऐसा निरन्तरस्मरण तुरन्त ही उसके सारे कष्टों को दूर कर देता है।

    ताञ्छोच्यशोच्यानविदोनुशोचेहरे: कथायां विमुखानघेन ।

    क्षिणोति देवोनिमिषस्तु येषा-मायुर्वथावादगतिस्मृतीनाम्‌ ॥

    १४॥

    तानू--उन सब; शोच्य--दयनीय; शोच्यान्‌--दयनीयों का; अविदः--अज्ञ; अनुशोचे--मुझे तरस आती है; हरेः-- भगवान्‌ की;कथायाम्‌ू--कथाओं के ; विमुखान्‌ू--विमुखों पर; अधेन--पापपूर्ण कार्यो के कारण; क्षिणोति--क्षीण पड़ते; देव:ः--भगवान्‌;अनिमिष:--नित्यकाल; तु--लेकिन; येषाम्‌--जिसकी; आयु:--आयु; वृथा--व्यर्थ; वाद--दार्शनिक चिन्तन; गति--चरमलक्ष्य; स्मृतीनामू--विभिन्न अनुष्ठानों का पालन करने वालों के ॥

    हे मुनि, जो व्यक्ति अपने पाप कर्मों के कारण दिव्य कथा-प्रसंगों से विमुख रहते हैं औरफलस्वरूप महाभारत ( भगवदगीता ) के उद्देश्य से वंचित रह जाते हैं, वे दयनीय द्वारा भी दयाके पात्र होते हैं।

    मुझे भी उन पर तरस आती है, क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि किस तरह नित्यकालद्वारा उनकी आयु नष्ट की जा रही है।

    वे दार्शनिक चिन्तन, जीवन के सैद्धान्तिक चरम लक्ष्योंतथा विभिन्न कर्मकाण्डों की विधियों को प्रस्तुत करने में स्वयं को लगाये रहते हैं।

    तदस्य कौषारव शर्मदातु-हरे: कथामेव कथासु सारम्‌ ।

    उद्धृत्य पुष्पे भ्य इवार्तबन्धोशिवाय नः कीर्त॑य तीर्थकीर्ते: ॥

    १५॥

    तत्‌--इसलिए; अस्य--उसका; कौषारव--हे मैत्रेय; शर्म-दातु:--सौभाग्य प्रदान करने वाले; हरेः-- भगवान्‌ की; कथाम्‌--कथाएँ; एव--एकमात्र; कथासु--सभी कथाओं में; सारम्‌--सार; उद्धृत्य--उद्धरण देकर; पुष्पेभ्य:-- फूलों से; इब--सहश;आर्त-बन्धो--हे दुखियों के बन्धु; शिवाय--कल्याण के लिए; नः--हमारे; कीर्तय--कृपया वर्णन कीजिये; तीर्थ--तीर्थयात्रा;कीर्ते:--कीर्तिवान को

    हे मैत्रेय, हे दुखियारों के मित्र, एकमात्र भगवान्‌ की महिमा सारे जगत के लोगों काकल्याण करने वाली है।

    अतएव जिस तरह मधुमक्खियाँ फूलों से मधु एकत्र करती हैं, उसी तरहकृपया समस्त कथाओं के सार--कृष्णकथा-का वर्णन कीजिये।

    स विश्वजन्मस्थितिसंयमार्थकृतावतारः प्रगृहीतशक्ति: ।

    चकार कर्माण्यतिपूरुषाणियानीश्वरः कीर्तय तानि महाम्‌ ॥

    १६॥

    सः--भगवान्‌; विश्व--ब्रह्माण्ड; जन्म --सृष्टि; स्थिति-- भरण-पोषण; संयम-अर्थ--पूर्ण नियंत्रण की दृष्टि से; कृत--स्वीकृत;अवतार:--अवतार; प्रगृहीत--सम्पन्न किया हुआ; शक्ति:--शक्ति; चकार--किया; कर्माणि--दिव्यकर्म; अति-पूरुषाणि--अतिमानवीय; यानि--वे सभी; ईश्वर: -- भगवान्‌; कीर्तवय--कृपया कीर्तन करें; तानि--उन सबों का; महाम्‌--मुझसे |

    कृपया उन परम नियन्ता भगवान्‌ के समस्त अतिमानवीय दिव्य कर्मों का कीर्तन करेंजिन्होंने विराट सृष्टि के प्राकट्य तथा पालन के लिए समस्त शक्ति से समन्वित होकर अवतारलेना स्वीकार किया।

    श्रीशुक उवाचस एवं भगवा-न्पृष्ट: क्षत्रा कौषारवो मुनि: ।

    पुंसां नि: श्रेयसार्थन तमाह बहुमानयन्‌ ॥

    १७॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह; एवम्‌--इस प्रकार; भगवान्‌--महर्षि; पृष्ट:--पूछे जाने पर;क्षत्रा--विदुर द्वारा; कौषारव: --मैत्रेय; मुनि: --महर्षि; पुंसामू--सारे लोगों के लिए; नि: श्रेयस--महानतम कल्याण; अर्थेन--के लिए; तम्‌--उसको; आह--वर्णन किया; बहु--अत्यधिक; मानयन्‌--सम्मान करते हुए।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : विदुर का अत्यधिक सम्मान करने के बाद विदुर के अनुरोध परसमस्त लोगों के महानतम कल्याण हेतु महर्षि मैत्रेय मुनि बोले।

    मैत्रेय उवाचसाधु पृष्टे त्वया साधो लोकान्साध्वनुगृह्कता ।

    कीर्ति वितन्व॒ता लोके आत्मनोधोक्षजात्मन: ॥

    १८ ॥

    मैत्रेय: उवाच-- श्री मैत्रेय ने कहा; साधु--सर्वमंगलमय; पृष्टमू-- पूछा गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; साधो--हे भद्रे; लोकानू--सारे लोग; साधु अनुगृह्ता-- अच्छाई में दया का प्रदर्शन; कीर्तिम्‌ू--कीर्ति; वितन्वता-- प्रसार करते हुए; लोके --संसार में;आत्मन:--आत्मा का; अधोक्षज--ब्रह्म; आत्मन:--मन |

    श्रीमैत्रेय ने कहा : हे विदुर, तुम्हारी जय हो।

    तुमने मुझसे सबसे अच्छी बात पूछी है।

    इसतरह तुमने संसार पर तथा मुझ पर अपनी कृपा प्रदर्शित की है, क्योंकि तुम्हारा मन सदैव ब्रह्म केविचारों में लीन रहता है।

    नैतच्चित्र॑ त्वयि क्षत्तर्बादरायणवीर्यजे ।

    गृहीतोनन्यभावेन यच्त्वया हरिरीश्वर: ॥

    १९॥

    न--कभी नहीं; एतत्‌--ऐसे प्रश्न; चित्रमू--अत्यन्त आश्चर्यजनक; त्वयि--तुममें; क्षत्त:--हे विदुर; बादरायण--व्यासदेव के;वीर्य-जे--वीर्य से उत्पन्न; गृहीत:--स्वीकृत; अनन्य-भावेन--विचार से हटे बिना; यत्‌--क्योंकि; त्वया--तुम्हारे द्वारा; हरि: --भगवान्‌; ईश्वर: -- भगवान्‌

    हे विदुर, यह तनिक भी आश्चर्यप्रद नहीं है कि तुमने अनन्य भाव से भगवान्‌ को इस तरहस्वीकार कर लिया है, क्योंकि तुम व्यासदेव के वीर्य से उत्पन्न हो।

    माण्डव्यशापाद्धगवान्प्रजासंयमनो यम: ।

    रातुः क्षेत्रे भुजिष्यायां जात: सत्यवतीसुतात्‌ ॥

    २०॥

    माण्डव्य--माण्डव्य नामक महर्षि; शापात्‌--उसके शाप से; भगवान्‌-- अत्यन्त शक्तिशाली; प्रजा--जन्म लेने वाला;संयमन:--मृत्यु का नियंत्रक; यम:--यमराज नाम से विख्यात; भ्रातु:-- भाई की क्षेत्रे--पत्ली में; भुजिष्यायामू--रखैल;जातः--उत्पन्न; सत्यवती--सत्यवती ( विचित्रवीर्य तथा व्यासदेव की माता ); सुतात्‌--पुत्र ( व्यासदेव ) से |

    मैं जानता हूँ कि तुम माण्डव्य मुनि के शाप के कारण विदुर बने हो और इसके पूर्व तुमजीवों की मृत्यु के पश्चात उनके महान्‌ नियंत्रक राजा यमराज थे।

    तुम सत्यवती के पुत्र व्यासदेवद्वारा उसके भाई की रखैल पतली से उत्पन्न हुए थे।

    भवान्भगवतो नित्य॑ं सम्मतः सानुगस्य ह ।

    यस्य ज्ञानोपदेशाय मादिशद्धगवान्त्रजन्‌ ॥

    २१॥

    भवान्‌--आप ही; भगवतः-- भगवान्‌ के; नित्यम्‌ू--नित्य; सम्मतः--मान्य; स-अनुगस्य--संगियों में से एक; ह--रहे हैं;यस्य--जिसका; ज्ञान--ज्ञान; उपदेशाय--उपदेश के लिए; मा--मुझको; आदिशत्‌--इस तरह आदिष्ट; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने;ब्रजन्‌ू--अपने धाम जाते हुए।

    आप भगवान्‌ के नित्यसंगियों में से एक हैं जिनके लिए भगवान्‌ अपने धाम वापस जातेसमय मेरे पास उपदेश छोड़ गये हैं।

    हः त त त न" अथ ते भगवल्लीला योगमायोरुबृंहिता: ।

    विश्वस्थित्युद्धवान्तार्था वर्णयाम्यनुपूर्वश: ॥

    २२॥

    अथ--इसलिए; ते--आपसे; भगवत्‌-- भगवान्‌ विषयक; लीला:--लीलाएँ; योग-माया-- भगवान्‌ की शक्ति; उरू--अत्यधिक; बुंहिता:--विस्तारित; विश्व--विराट जगत के; स्थिति--पालन; उद्धव--सृजन; अन्त--संहार; अर्था: -- प्रयोजन;वर्णयामि--वर्णन करूँगा; अनुपूर्वशः--क्रमबद्ध रीति से

    अतएव मैं आपसे उन लीलाओं का वर्णन करूँगा जिनके द्वारा भगवान्‌ विराट जगत केक्रमबद्ध सृजन, भरण-पोषण तथा संहार के लिए अपनी दिव्य शक्ति का विस्तार करते हैं।

    भगवानेक आसेदमग्र आत्मात्मनां विभु: ।

    आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षण: ॥

    २३॥

    भगवानू्‌-- भगवान्‌; एक:--अद्दय; आस-- था; इृदम्‌--यह सृष्टि; अग्रे--सृष्टि के पूर्व; आत्मा--अपने स्वरूप में; आत्मनाम्‌--जीवों के; विभुः--स्वामी; आत्मा--आत्मा; इच्छा--इच्छा; अनुगतौ--लीन होकर; आत्मा--आत्मा; नाना-मति--विभिन्नइृष्टियाँ; उपलक्षण:--लक्षण

    समस्त जीवों के स्वामी, भगवान्‌ सृष्टि के पूर्व अद्दय रूप में विद्यमान थे।

    केवल उनकीइच्छा से ही यह सृष्टि सम्भव होती है और सारी वस्तुएँ पुनः उनमें लीन हो जाती हैं।

    इस परमपुरुष को विभिन्न नामों से उपलक्षित किया जाता है।

    सवा एष तदा द्रष्टा नापश्यदृश्यमेकराट्‌ ।

    मेनेसन्तमिवात्मानं सुप्तशक्तिरसुप्तटक्‌ ॥

    २४॥

    सः--भगवान्‌; वा--अथवा; एष: --ये सभी; तदा--उस समय; द्रष्टा--देखने वाला; न--नहीं; अपश्यत्‌--देखा; दृश्यम्‌ू--विराट सृष्टि; एक-राट्‌--निर्विवाद स्वामी; मेने--इस तरह सोचा; असन्तम्‌--अविद्यमान; इब--सहृश; आत्मानम्‌--स्वांश रूप;सुप्त--अव्यक्त; शक्ति:--भौतिक शक्ति; असुप्त--व्यक्त; हक्‌--अन्तरंगा शक्ति

    हर वस्तु के निर्विवाद स्वामी भगवान्‌ ही एकमात्र द्रष्टा थे।

    उस समय विराट जगत काअस्तित्व न था, अतः अपने स्वांशों तथा भिन्नांशों के बिना वे अपने को अपूर्ण अनुभव कर रहे थे।

    तब भौतिक शक्ति सुसुप्त थी जबकि अन्तरंगा शक्ति व्यक्त थी।

    सा वा एतस्य संद्रष्ट: शक्ति: सदसदात्मिका ।

    माया नाम महाभाग ययेदं निर्ममे विभु: ॥

    २५॥

    सा--वह बहिरंगा शक्ति; वा--अथवा है; एतस्य-- भगवान्‌ की; संद्रष्ट: --पूर्ण द्रष्टा की; शक्ति:--शक्ति; सत्‌-असत्‌-आत्मिका--कार्य तथा कारण दोनों रूप में; माया नाम--माया नामक; महा-भाग--हे भाग्यवान; यया--जिससे; इृदम्‌--यहभौतिक जगत; निर्ममे--निर्मित किया; विभुः--सर्वशक्तिमान ने |

    भगवान्‌ द्रष्टा हैं और बहिरंगा शक्ति, जो दृष्टिगोचर है, विराट जगत में कार्य तथा कारणदोनों रूप में कार्य करती है।

    हे महाभाग विदुर, यह बहिरंगा शक्ति माया कहलाती है और केवल इसी के माध्यम से सम्पूर्ण भौतिक जगत सम्भव होता है।

    कालवृत्त्या तु मायायां गुणमय्यामधोक्षज: ।

    पुरुषेणात्मभूतेन वीर्यमाधत्त वीर्यवान्‌ ॥

    २६॥

    काल--शाश्वत काल के; वृत्त्या--प्रभाव से; तु--लेकिन; मायायामू--बहिरंगा शक्ति में; गुण-मय्याम्‌-- प्रकृति के गुणात्मकरूप में; अधोक्षज:--ब्रह्म; पुरुषेण--पुरुष के अवतार द्वारा; आत्म-भूतेन--जो भगवान्‌ का स्वांश है; वीर्यमू--जीवों का बीज;आधत्त--संस्थापित किया; वीर्यवान्‌--

    परम पुरुष ने अपने स्वांश दिव्य पुरुष अवतार के रूप में परम पुरुष प्रकृति के तीन गुणों में बीजसंस्थापित करता है और इस तरह नित्य काल के प्रभाव से सारे जीव प्रकट होते हैं।

    ततोभवन्महत्तत्त्वमव्यक्तात्कालचोदितातू ।

    विज्ञानात्मात्मदेहस्थं विश्व व्यद्जस्तमोनुदः ॥

    २७॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; अभवत्‌ --जन्म हुआ; महत्‌--परम; तत्त्वमू--सार; अव्यक्तात्‌--अव्यक्त से; काल-चोदितात्‌ू--काल कीअन्तःक्रिया से; विज्ञान-आत्मा--शुद्ध सत्त्व; आत्म-देह-स्थम्‌--शारीरिक आत्मा में स्थित; विश्वम्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड;व्यञ्ञनू--प्रकट करते हुए; तम:-नुदः--परम प्रकाश |

    तत्पश्चात्‌ नित्यकाल की अन्तःक्रियाओं से प्रभावित पदार्थ का परम सार, जो कि महत्‌ तत्त्वकहलाता है, प्रकट हुआ और इस महत्‌ तत्त्व में शुद्ध सत्त्व अर्थात्‌ भगवान्‌ ने अपने शरीर सेब्रह्माण्ड अभिव्यक्ति के बीज बोये।

    सोप्यंशगुणकालात्मा भगवद्गृष्टिगोचर: ।

    आत्मानं व्यकरोदात्मा विश्वस्यास्य सिसृक्षया ॥

    २८॥

    सः--महत्‌ तत्त्व; अपि-- भी; अंश--पुरुष स्वांश; गुण--मुख्यतया तमोगुण; काल--काल की अवधि; आत्मा--पूर्णचेतना;भगवत्‌-- भगवान्‌ की; दृष्टि-गोचर:--दृष्टि की सीमा; आत्मानम्‌--अनेक भिन्न-भिन्न रूपों को; व्यकरोत्‌--विभेदित; आत्मा--आगार; विश्वस्थ-होने वाले जीवों का; अस्य--इस; सिसृक्षया--मिथ्या अहंकार को उत्पन्न करता है।

    तत्पश्चात्‌ महत्‌ तत्त्व अनेक भिन्न-भिन्न भावी जीवों के आगार रूपों में विभेदित हो गया।

    यह महत्‌ तत्त्व मुख्यतया तमोगुणी होता है और यह मिथ्या अहंकार को जन्म देता है।

    यहभगवान्‌ का स्वांश है, जो सर्जनात्मक सिद्धान्तों की पूर्ण चेतना तथा फलनकाल से युक्त होता है।

    महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणादहंतत्त्वं व्यजायत ।

    कार्यकारणकर्त्रात्मा भूतेन्द्रियमनोमय: ।

    वैकारिकस्तैजसश्न तामसश्चैत्यहं त्रिधा ॥

    २९॥

    महत्‌--महान्‌; तत्त्वात्‌ू--कारणस्वरूप सत्य से; विकुर्वाणात्‌ू--रूपान्तरित होने से; अहम्‌--मिथ्या अहंकार; तत्त्वम्‌--भौतिकसत्य; व्यजायत--प्रकट हुआ; कार्य--प्रभाव; कारण--कारण; कर्त्‌--कर्ता; आत्मा--आत्मा या स्त्रोत; भूत-- भौतिकअवयव; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मनः-मय:--मानसिक धरातल पर मँडराता; वैकारिक: --सतोगुण; तैजस:ः--रजोगुण; च--तथा;तामस:--तमोगुण; च--तथा; इति--इस प्रकार; अहमू--मिथ्या अहंकार; त्रिधा--तीन प्रकार।

    महत्‌ तत्त्व या महान्‌ कारण रूप सत्य मिथ्या अहंकार में परिणत होता है, जो तीनअवस्थाओं में--कारण, कार्य तथा कर्ता के रूप में-प्रकट होता है।

    ऐसे सारे कार्य मानसिकधरातल पर होते हैं और वे भौतिक तत्त्वों, स्थूल इन्द्रियों तथा मानसिक चिन्तन पर आधारित होतेहैं।

    मिथ्या अहंकार तीन विभिन्न गुणों--सतो, रजो तथा तमो-में प्रदर्शित होता है।

    अहंतत्त्वाद्विकुर्वाणान्मनो वैकारिकादभूत्‌ ।

    वैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यज्जनं यतः ॥

    ३०॥

    अहमू-तत्त्वातू-मिथ्या अहंकार के तत्त्व से; विकुर्वाणात्‌--रूपान्तर द्वारा; मन:--मन; बैकारिकात्‌--सतोगुण के साथअन्तःक्रिया द्वारा; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; वैकारिका:--अच्छाई से अन्तःक्रिया द्वारा; च-- भी; ये--ये सारे; देवा:--देवता;अर्थ--घटना सम्बन्धी; अभिव्यज्नम्‌-- भौतिक ज्ञान; यत:ः--स्रोत

    मिथ्या अहंकार सतोगुण से अन्तःक्रिया करके मन में रूपान्तरित हो जाता है।

    सारे देवता भीजो घटनाप्रधान जगत को नियंत्रित करते हैं, उसी सिद्धान्त ( तत्त्व ), अर्थात्‌ मिथ्या अहंकार तथासतोगुण की अन्तःक्रिया के परिणाम हैं।

    तैजसानीन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ॥

    ३१॥

    तैजसानि--रजोगुण; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; एब--निश्चय ही; ज्ञान--ज्ञान, दार्शनिक चिन्तन; कर्म--सकाम कर्म; मयानि--प्रधान रूप से; च-- भी ।

    इन्द्रियाँ निश्चय ही मिथ्या अहंकारजन्य रजोगुण की परिणाम हैं, अतएवं दार्शनिकचिन्तनपरक ज्ञान तथा सकाम कर्म रजोगुण के प्रधान उत्पाद हैं।

    तामसो भूतसूक्ष्मादिर्यतः खं लिड्डमात्मनः ॥

    ३२॥

    तामस:--तमोगुण से; भूत-सूक्ष्म-आदि: --सूक्ष्म इन्द्रिय विषय; यतः--जिससे; खम्‌--आकाश; लिड्रमू--प्रतीकात्मक स्वरूप;आत्मन:--परमात्मा का।

    आकाश ध्वनि का परिणाम है और ध्वनि अहंकारात्मक काम का रूपान्तर ( विकार ) है।

    दूसरे शब्दों में आकाश परमात्मा का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है।

    'कालमायांशयोगेन भगदद्वीक्षितं नभः ।

    नभसो नुसूतं स्पर्श विकुर्वन्निर्ममेडनिलम्‌ ॥

    ३३॥

    काल--काल; माया--बहिरंगा शक्ति; अंश-योगेन--अंशतःमिश्रित; भगवत्‌-- भगवान्‌ वीक्षितम्‌--दृष्टिपात किया हुआ;नभः--आकाश; नभसः--आकाश से; अनुसृतम्‌--इस तरह स्प्शित होकर; स्पर्शम्‌--स्पर्श; विकुर्बत्‌--रूपान्तरित होकर;निर्ममे--निर्मित हुआ; अनिलम्‌--वायु।

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ ने आकाश पर नित्यकाल तथा बहिरंगा शक्ति से अंशतः मिश्रित दृष्टिपातकिया और इस तरह स्पर्श की अनुभूति विकसित हुई जिससे आकाश में वायु उत्पन्न हुई।

    अनिलोपि विकुर्वाणो नभसोरूबलान्वित: ।

    ससर्ज रूपतन्मात्रं ज्योतिलोकस्य लोचनम्‌ ॥

    ३४॥

    अनिलः--वायु; अपि-- भी; विकुर्वाण: --रूपान्तरित होकर; नभसा--आकाश; उरू-बल-अन्वित: -- अत्यन्त शक्तिशाली;ससर्ज--उत्पन्न किया; रूप--रूप; ततू-मात्रम्‌--इन्द्रिय अनुभूति, तन्मात्रा; ज्योतिः--बिजली; लोकस्य--संसार के;लोचनम्‌--देखने के लिए प्रकाश।

    तत्पश्चात्‌ अतीव शक्तिशाली वायु ने आकाश से अन्तःक्रिया करके इन्द्रिय अनुभूति( तन्मात्रा ) का रूप उत्पन्न किया और रूप की अनुभूति बिजली में रूपान्तरित हो गई जो संसारको देखने के लिए प्रकाश है।

    अनिलेनान्वितं ज्योतिर्विकुर्वत्परवीक्षितम्‌ ।

    आध्षत्ताम्भो रसमयं कालमायांशयोगतः ॥

    ३५॥

    अनिलेन--वायु द्वारा; अन्वितम्‌--अन्तःक्रिया करते हुए; ज्योतिः--बिजली; विकुर्वत्‌--रूपान्तरित होकर; परवीक्षितम्‌--ब्रह्मद्वारा दष्टिपात किया जाकर; आधत्त--उत्पन्न किया; अम्भ: रस-मयम्‌--स्वाद से युक्त जल; काल--नित्य काल का; माया-अंश--तथा बहिरंगा शक्ति; योगत:ः--मिश्रण द्वारा |

    जब वायु में बिजली की क्रिया हुई और उस पर ब्रह्म ने दृष्टिपात किया उस समय नित्यकालतथा बहिरंगा शक्ति के मिश्रण से जल तथा स्वाद की उत्पत्ति हुई।

    ज्योतिषाम्भो नुसंसूष्टे विकुर्वद्गह्मवीक्षितम्‌ ।

    महीं गन्धगुणामाधात्कालमायांशयोगतः ॥

    ३६॥

    ज्योतिषा--बिजली; अम्भ:--जल; अनुसंसृष्टम्‌--इस प्रकार उत्पन्न हुआ; विकुर्वत्‌--रूपान्तर के कारण; ब्रह्म--ब्रह्म द्वारा;वीक्षितम्‌--दृष्टिपात किया गया; महीम्‌--पृथ्वी; गन्ध--गन्ध; गुणाम्‌--गुण; आधात्‌--उत्पन्न किया गया; काल--नित्य काल;माया--बहिरंगा शक्ति; अंश-- अंशतः ; योगत:ः-- अन्तःमिश्रण से

    तत्पश्चात्‌ बिजली से उत्पन्न जल पर भगवान्‌ ने इृष्टिपात किया और फिर उसमें नित्यकालतथा बहिरंगा शक्ति का मिश्रण हुआ।

    इस तरह वह पृथ्वी में रूपान्तरित हुआ जो मुख्यतः गन्धके गुण से युक्त है।

    भूतानां नभआदीनां यद्यद्धव्यावरावरम्‌ ।

    तेषां परानुसंसर्गाद्यथा सड्ख्यं गुणान्विदु: ॥

    ३७॥

    भूतानाम्‌--सारे भौतिक तत्त्वों का; नभ:--आकाश; आदीनामू--इत्यादि; यत्‌--जिस तरह; यत्‌--तथा जिस तरह; भव्य--हेसौम्य; अवर--निकृष्ट; वरम्‌-- श्रेष्ठ; तेषामू--उन सबों का; पर--परम, ब्रह्म; अनुसंसर्गात्‌-- अन्तिम स्पर्श; यथा--जितने;सड्ख्यमू--गिनती; गुणान्‌--गुण; विदु:ः--आप समझ सकें |

    हे भद्र पुरुष, आकाश से लेकर पृथ्वी तक के सारे भौतिक तत्त्वों में जितने सारे निम्न तथाश्रेष्ठ गुण पाये जाते हैं, वे भगवान्‌ के दृष्टिपात के अन्तिम स्पर्श के कारण होते हैं।

    एते देवा: कला विष्णो: कालमायांशलिड्विन: ।

    नानात्वात्स्वक्रियानीशा: प्रोचु: प्राज्ञलयो विभुम्‌ ॥

    ३८ ॥

    एते--इन सारे भौतिक तत्त्वों में; देवा:--नियंत्रक देवता; कला: --अंश; विष्णो:-- भगवान्‌ के; काल--काल; माया--बहिरंगा शक्ति; अंश-- अंश; लिड्रिनः:--इस तरह देहधारी; नानात्वात्‌--विभिन्नता के कारण; स्व-क्रिया--निजी कार्य;अनीशा:--न कर पाने के कारण; प्रोचु:--कहा; प्राज्ललय:--मनोहारी; विभुम्‌-- भगवान्‌ को |

    उपर्युक्त समस्त भौतिक तत्त्वों के नियंत्रक देव भगवान्‌ विष्णु के शक्त्याविष्ट अंश हैं।

    वेबहिरंगा शक्ति के अन्तर्गत नित्यकाल द्वारा देह धारण करते हैं और वे भगवान्‌ के अंश हैं।

    चूँकिउन्हें ब्रह्माण्डीय दायित्वों के विभिन्न कार्य सौंपे गये थे और चूँकि वे उन्हें सम्पन्न करने में असमर्थथे, अतएव उन्होंने भगवान्‌ की मनोहारी स्तुतियाँ निम्नलिखित प्रकार से कीं।

    देवा ऊचुःनमाम ते देव पदारविन्दंप्रपन्नतापोपशमातपत्रम्‌ ।

    यन्मूलकेता यतयोझ्जसोरू -संसारदु:खं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥

    ३९॥

    देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; नमाम--हम सादर नमस्कार करते हैं; ते--तुम्हें; देव--हे प्रभु; पद-अरविन्दमू--चरणकमल;प्रपन्न--शरणागत; ताप--कष्ट; उपशम--शमन करता है; आतपत्रम्‌--छाता; यत्‌-मूल-केता:--चरणकमलों की शरण;यतय: --महर्षिगण; अद्धसा--पूर्णतया; उरु--महान्‌; संसार-दुःखम्‌--संसार के दुख; बहि:--बाहर; उत्क्षिपन्ति--बलपूर्वकफेंक देते हैं

    देवताओं ने कहा : हे प्रभु, आपके चरणकमल शरणागतों के लिए छाते के समान हैं, जोसंसार के समस्त कष्टों से उनकी रक्षा करते हैं।

    सारे मुनिगण उस आश्रय के अन्तर्गत समस्तभौतिक कष्टों को निकाल फेंकते हैं।

    अतएव हम आपके चरणकमलों को सादर नमस्कार करतेहै।

    धातर्यदस्मिन्भव ईश जीवा-स्तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।

    आत्मनलभन्ते भगवंस्तवाडूप्रिच्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥

    ४०॥

    धात:--हे पिता; यत्‌--क्योंकि; अस्मिन्‌--इस; भवे--संसार में; ईश--हे ईश्वर; जीवा:--जीव; ताप--कष्ट; त्रयेण--तीन;अभिहताः --सदैव; न--कभी नहीं; शर्म--सुख में; आत्मन्‌-- आत्मा; लभन्‍्ते--प्राप्त करते हैं; भगवन्‌--हे भगवान्‌; तव--तुम्हारे; अड्घ्रि-छायाम्‌--चरणों की छाया; स-विद्याम्‌--ज्ञान से पूर्ण; अत:--प्राप्त करते हैं; आश्रयेम--शरण।

    हे पिता, हे प्रभु, हे भगवान्‌, इस भौतिक संसार में जीवों को कभी कोई सुख प्राप्त नहीं होसकता, क्योंकि वे तीन प्रकार के कष्टों से अभिभूत रहते हैं।

    अतएव वे आपके उन चरणकमलोंकी छाया की शरण ग्रहण करते हैं, जो ज्ञान से पूर्ण है और इस लिए हम भी उन्हीं की शरण लेतेहैं।

    मार्गन्ति यत्ते मुखपद्नीडै-इछन्दःसुपर्णैरृषयो विविक्ते ।

    यस्याधमर्षोदसरिद्वराया:पदं पदं तीर्थपद: प्रपन्ना: ॥

    ४१॥

    मार्गन्ति--खोज करते हैं; यत्‌--जिस तरह; ते--तुम्हारा; मुख-पद्य--कमल जैसा मुख; नीडै:--ऐसे कमलपुष्प की शरण मेंआये हुओं के द्वारा; छन्‍्दः--वैदिक-स्तोत्र; सुपर्ण:--पंखों से; ऋषय:--ऋषिगण; विविक्ते--निर्मल मन में; यस्य--जिसका;अघ-मर्ष-उद--जो पाप के सारे फलों से मुक्ति दिलाता है; सरित्‌ू--नदियाँ; वराया: --सर्वोत्तम; पदम्‌ पदम्‌-- प्रत्येक कदम पर;तीर्थ-पदः--जिसके चरणकमल तीर्थस्थान के तुल्य हैं; प्रपन्ना:--शरण में आये हुए।

    भगवान्‌ के चरणकमल स्वयं ही समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं।

    निर्मल मनवाले महर्षिगणवेदों रूपी पंखों के सहारे उड़कर सदैव आपके कमल सहश मुख रूपी घोंसले की खोज करतेहैं।

    उनमें से कुछ सर्वश्रेष्ठ नदी (गंगा ) में शरण लेकर पद-पद पर आपके चरणकमलों कीशरण ग्रहण करते हैं, जो सारे पापफलों से मनुष्य का उद्धार कर सकते हैं।

    यच्छुद्धया श्रुतवत्या च्‌ भक्त्यासम्मृज्यमाने हृदयेउवधाय ।

    ज्ञानेन वैराग्यबलेन धीराब्रजेम तत्तेडड्घ्रिसरोजपीठम्‌ ॥

    ४२॥

    यत्‌--वह जो; श्रद्धया--उत्सुकता से; श्रुतवत्या--केवल सुनने से; च-- भी; भक्त्या--भक्ति से; सम्मृज्यमाने-- धुलकर;हृदये--हृदय में; अवधाय--ध्यान; ज्ञानेन--ज्ञान से; वैराग्य--विरक्ति के; बलेन--बल से; धीरा:--शान्त; ब्रजेम--जानाचाहिए; तत्‌--उस; ते--तुम्हारे; अड्ध्रि--पाँव; सरोज-पीठम्‌--कमल पुण्यालय |

    आपके चरणकमलों के विषय में केवल उत्सुकता तथा भक्ति पूर्वक श्रवण करने से तथाउनके विषय में हृदय में ध्यान करने से मनुष्य तुरन्त ही ज्ञान से प्रकाशित और वैराग्य के बल परशानन्‍्त हो जाता है।

    अतएवं हमें आपके चरणकमल रूपी पुण्यालय की शरण ग्रहण करनी चाहिए।

    विश्वस्य जन्मस्थितिसंयमार्थेकृतावतारस्य पदाम्बुजं ते ।

    ब्रजेम सर्वे शरणं यदीशस्मृतं प्रयच्छत्यभयं स्वपुंसाम्‌ ॥

    ४३ ॥

    विश्वस्य--विराट ब्रह्माण्ड के; जन्म--सृजन; स्थिति--पालन; संयम-अर्थे--प्रलय के लिए भी; कृत--धारण किया हुआ यास्वीकृत; अवतारस्य--अवतार का; पद-अम्बुजम्‌ू--चरणकमल; ते--आपके; ब्रजेम--शरण में जाते है; सर्वे--हम सभी;शरणम्‌--शरण; यत्‌--जो; ईश--हे भगवान्‌; स्मृतम्‌ू--स्मृति; प्रयच्छति--प्रदान करके ; अभयम्‌--साहस; स्व-पुंसाम्‌ू--भक्तों का

    हे प्रभु, आप विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार के लिए अवतरित होते हैं इसलिएहम सभी आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि ये चरण आपके भक्तों कोसदैव स्मृति तथा साहस प्रदान करने वाले हैं।

    यत्सानुबन्धेसति देहगेहेममाहमित्यूढदुराग्रहाणाम्‌ ।

    पुंसां सुदूरं बसतोपि पुर्याभजेम तत्ते भगवन्पदाब्जम्‌ ॥

    ४४॥

    यत्‌--चूँकि; स-अनुबन्धे--पाश में बँधने से; असति--इस तरह होकर; देह--स्थूल शरीर; गेहे--घर में; मम--मेरा; अहम्‌--मैं; इति--इस प्रकार; ऊढ--महान्‌, गम्भीर; दुराग्रहाणाम्‌-- अवांछित उत्सुकता; पुंसाम्‌--मनुष्यों की; सु-दूरम्‌--काफी दूर;वबसतः--रहते हुए; अपि--यद्यपि; पुर्यामू--शरीर में; भजेम--पूजा करें; तत्‌--इसलिए; ते--तुम्हारे; भगवन्‌--हे भगवान्‌;'पद-अब्जमू--चरणकमल।

    हे प्रभु, जो लोग नश्वर शरीर तथा बन्धु-बाँधवों के प्रति अवांछित उत्सुकता के द्वारापाशबद्ध हैं और जो लोग 'मेरा ' तथा 'मैं' के विचारों से बँधे हुए हैं, वे आपके चरणकमलोंका दर्शन नहीं कर पाते यद्यपि आपके चरणकमल उनके अपने ही शरीरों में स्थित होते हैं।

    किन्तुहम आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करें।

    तान्वै हासद्गुत्तिभिरक्षिभियेंपराहतान्तर्मनसः परेश ।

    अथो न पश््यन्त्युरुगाय नूनंये ते पदन्‍्यासविलासलक्ष्या: ॥

    ४५॥

    तानू-- भगवान्‌ के चरणकमल; बै--निश्चय ही; हि--क्योंकि; असत्‌-- भौतिकतावादी; वृत्तिभि:--बहिरंगा शक्ति से प्रभावितहोने वालों के द्वारा; अश्लिभि:--इन्द्रियों द्वारा; ये--जो; पराहृत--दूरी पर खोये हुए; अन्तः-मनस:--आन्तरिक मन को;परेश--हे परम; अथो--इसलिए; न--कभी नहीं; पश्यन्ति--देख सकते है; उरुगाय--हे महान्‌; नूनम्‌--लेकिन; ये--जो;ते--तुम्हारे; पदन्‍्यास--कार्यकलाप; विलास--दिव्य भोग; लक्ष्या:--देखने वाले

    हे महान्‌ परमेश्वर, वे अपराधी व्यक्ति, जिनकी अन्तःदृष्टि बाह्य भौतिकतावादी कार्यकलापोंसे अत्यधिक प्रभावित हो चुकी होती है वे आपके चरणकमलों का दर्शन नहीं कर सकते, किन्तुआपके शुद्ध भक्त दर्शन कर पाते हैं, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य आपके कार्यकलापों कादिव्य भाव से आस्वादन करना है।

    पानेन ते देव कथासुधाया:प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।

    वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोध॑ यथाञझ्जसान्वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम्‌ ॥

    ४६॥

    पानेन--पीने से; ते-- आपके; देव--हे प्रभु; कथा-- कथाएँ; सुधाया:-- अमृत की; प्रवृद्ध--अत्यन्त प्रब॒ुद्ध; भक्त्या-- भक्तिद्वारा; विशद-आशयाः --अत्यधिक गम्भीर विचार से युक्त; ये--जो; वैराग्य-सारम्‌--वैराग्य का सारा तात्पर्य; प्रतिलभ्य--प्राप्तकरके; बोधम्‌--बुद्धि; यथा--जिस तरह; अज्ञसा--तुरन्त; अन्वीयु:--प्राप्त करते हैं; अकुण्ठ-धिष्ण्यम्‌-- आध्यात्मिकआकाश में बैकुण्ठलोक |

    हे प्रभु, जो लोग अपनी गम्भीर मनोवृत्ति के कारण प्रबुद्ध भक्ति-मय सेवा की अवस्थाप्राप्त करते हैं, वे वैराग्य तथा ज्ञान के संपूर्ण अर्थ को समझ लेते हैं और आपकी कथाओं केअमृत को पीकर ही आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठलोक को प्राप्त करते हैं।

    तथापरे चात्मसमाधियोग-बलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम्‌ ।

    त्वामेव धीरा: पुरुषं विशन्तितेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥

    ४७॥

    तथा--जहाँ तक; अपरे-- अन्य; च-- भी; आत्म-समाधि--दिव्य आत्म-साक्षात्कार; योग--साधन; बलेन--के बल पर;जित्वा--जीतकर; प्रकृतिम्‌ू--अर्जित स्वभाव या गुण; बलिष्ठाम्‌--अत्यन्त बलवान; त्वामू--तुमको; एब--एकमात्र; धीरा: --शान्त; पुरुषम्‌--व्यक्ति को; विशन्ति--प्रवेश करते हैं; तेषामू--उनके लिए; श्रम:--अत्यधिक परिश्रम; स्थात्‌ू--करना होता है;न--कभी नहीं; तु--लेकिन; सेवया--सेवा द्वारा; ते--तुम्हारी ।

    अन्य लोग भी जो कि दिव्य आत्म-साक्षात्कार द्वारा शान्त हो जाते हैं तथा जिन्होंने प्रबलशक्ति एवं ज्ञान के द्वारा प्रकृति के गुणों पर विजय पा ली है, आप में प्रवेश करते हैं, किन्तु उन्हेंकाफी कष्ट उठाना पड़ता है, जबकि भक्त केवल भक्ति-मय सेवा सम्पन्न करता है और उसे ऐसाकोई कष्ट नहीं होता।

    तत्ते वयं लोकसिसृक्षयाद्यत्वयानुसृष्टास्त्रिभिरात्मभि: सम ।

    सर्वे वियुक्ता: स्वविहारतन्त्रंन शब्नुमस्तत्प्रतिहर्तवे ते ॥

    ४८ ॥

    तत्‌--इसलिए; ते--तुम्हारा; वयम्‌--हम सभी; लोक--संसार; सिसृक्षया--सृष्टि के लिए; आद्य--हे आदि पुरुष; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अनुसूष्टा:--एक के बाद एक उत्पन्न किया जाकर; त्रिभि: --तीन गुणों द्वारा; आत्मभि:--अपने आपसे; स्म--भूतकाल में; सर्वे--सभी; वियुक्ता:--पृथक्‌ किये हुए; स्व-विहार-तन्त्रमू--अपने आनन्द के लिए कार्यो का जाल; न--नहीं;शकक्‍्नुमः--कर सके; तत्‌--वह; प्रतिहर्तवे-- प्रदान करने के लिए; ते--तुम्हें

    हे आदि पुरुष, इसलिए हम एकमात्र आपके हैं।

    यद्यपि हम आपके द्वारा उत्पन्न प्राणी हैं,किन्तु हम प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाव के अन्तर्गत एक के बाद एक जन्म लेते हैं, इसीलिएहम अपने कर्म में पृथक्‌-पृथक्‌ होते हैं।

    अतएवं सृष्टि के बाद हम आपके दिव्य आनन्द के हेतुसम्मिलित रूप में कार्य नहीं कर सके ।

    यावद्वलिं तेडज हराम कालेयथा वयं चान्नमदाम यत्र ।

    यथोभयेषां त इमे हि लोकाबलि हरन्तोन्नमदन्त्यनूहा: ॥

    ४९॥

    यावत्‌--जैसा सम्भव हो; बलिम्‌-- भेंट; ते--तुम्हारी; अज--हे अजन्मा; हराम--अर्पित करेंगे; काले--उचित समय पर;यथा--जिस तरह; वयम्‌--हम; च--भी; अन्नमू--अन्न, अनाज; अदाम--खाएँगे; यत्र--जहाँ; यथा--जिस तरह;उभयेषाम्‌--तुम्हारे तथा अपने दोनों के लिए; ते--सारे; इमे--ये; हि--निश्चय ही; लोकाः--जीव; बलिम्‌-- भेंट; हरन्तः --अर्पित करते हुए; अन्नम्‌--अन्न; अदन्ति--खाते हैं; अनूहा:--बिना किसी प्रकार के उत्पात के |

    है अजन्मा, आप हमें वे मार्ग तथा साधन बतायें जिनके द्वारा हम आपको समस्त भोग्य अन्नतथा वस्तुएँ अर्पित कर सकें जिससे हम तथा इस जगत के अन्य समस्त जीव बिना किसी उत्पातके अपना पालन-पोषण कर सकें तथा आपके लिए और अपने लिए आवश्यक वस्तुओं कासंग्रह कर सकें ।

    त्वं न: सुराणामसि सान्वयानांकूटस्थ आद्य: पुरुष: पुराण: ।

    त्वं देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौरेतस्त्वजायां कविमादधेडज: ॥

    ५०॥

    त्वमू--आप; नः--हम; सुराणाम्‌--देवताओं के; असि--हो; स-अन्वयानाम्‌--विभिन्न कोटियों समेत; कूट-स्थ:--अपरिवर्तित; आद्य:--बिना किसी श्रेष्ठ के अद्वितीय; पुरुष:--संस्थापक व्यक्ति; पुराण: --सबसे प्राचीन, जिस का कोई औरसंस्थापक न हो; त्वम्‌ू--आप; देव--हे भगवान्‌; शक्त्याम्‌-अशक्ति के प्रति; गुण-कर्म-योनौ-- भौतिक गुणों तथा कर्मों केकारण के प्रति; रेत:--जन्म का वीर्य; तु--निस्सन्देह; अजायाम्‌--उत्पन्न करने के लिए; कविम्‌--सारे जीव; आदधे-- आरम्भकिया; अज:--अजन्मा।

    आप समस्त देवताओं तथा उनकी विभिन्न कोटियों के आदि साकार संस्थापक हैं फिर भीआप सबसे प्राचीन हैं और अपरिवर्तित रहते हैं।

    हे प्रभु, आपका न तो कोई उद्गम है, न ही कोईआपसे श्रेष्ठ है।

    आपने समस्त जीव रूपी वीर्य द्वारा बहिरंगा शक्ति को गर्भित किया है, फिर भी आप स्वयं अजन्मा हैं।

    ततो वयं मत्प्रमुखा यदर्थबभूविमात्मन्करवाम किं ते ।

    त्वं नः स्वच॒क्षु: परिदेहि शक्‍्त्या देव क्रियार्थे यदनुग्रहाणाम्‌ ॥

    ५१॥

    ततः--अतः ; वयम्‌--हम सभी; मत्-प्रमुखा: --महतत्त्व से उत्पन्न; यत्‌-अर्थ--जिस कार्य के लिए; बभूविम--उत्पन्न किया;आत्मनू्‌--हे परम आत्मा; करवाम--करेंगे; किमू--क्या; ते--आपकी सेवा; त्वम्‌ू--आप स्वयं; न:ः--हम को; स्व-चक्षु:--निजी योजना; परिदेहि--विशेष रूप से प्रदान करें; शक्त्या--कार्य करने की शक्ति से; देव--हे प्रभु; क्रिया-अर्थ--कार्य करनेके लिए; यत्‌--जिससे; अनुग्रहाणाम्‌-विशेष रूप से कृपा प्राप्त लोगों का।

    हे परम प्रभु, महत्‌-तत्त्व से प्रारम्भ में उत्पन्न हुए हम सबों को अपना कृपापूर्ण निर्देश दें किहम किस तरह से कर्म करें।

    कृपया हमें अपना पूर्ण ज्ञान तथा शक्ति प्रदान करें जिससे हमपरवर्ती सृष्टि के विभिन्न विभागों में आपकी सेवा कर सकें।

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    अध्याय छह: विश्व स्वरूप का निर्माण

    3.6ऋषिरुवाचइति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ।

    प्रसुप्तलोकतन्त्राणांनिशाम्य गतिमीश्वर: ॥

    १॥

    ऋषि: उबाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; इति--इस प्रकार; तासाम्‌--उनका; स्व-शक्तीनाम्‌-- अपनी शक्ति; सतीनाम्‌--इस प्रकारस्थित; असमेत्य--किसी संयोग के बिना; सः--वह ( भगवान्‌ ); प्रसुप्त--निलम्बित; लोक-तन्त्राणामू--विश्व सृष्टियों में;निशाम्य--सुनकर; गतिम्‌-- प्रगति; ईश्वर: -- भगवान्‌ |

    मैत्रेय ऋषि ने कहा : इस तरह भगवान्‌ ने महत्‌-तत्त्व जैसी अपनी शक्तियों के संयोग न होनेके कारण विश्व के प्रगतिशील सृजनात्मक कार्यकलापों के निलम्बन के विषय में सुना।

    कालसज्ज्ञां तदा देवीं बिभ्रच्छक्तिमुरुक्रम: ।

    त्रयोविंशति तत्त्वानां गणं युगपदाविशत्‌ ॥

    २॥

    काल-सज्ज्ञामू-काली के नाम से विख्यात; तदा--उस समय; देवीम्‌-देवी को; बिभ्रत्‌ू--विनाशकारी; शक्तिमू-शक्ति;उरुक़॒मः--परम शक्तिशाली; त्रय:-विंशति-- तेईस; तत्त्वानामू--तत्त्वों के; गणम्‌--उन सभी; युगपत्‌--एक ही साथ;आविशत्‌-प्रवेश किया।

    तब परम शक्तिशाली भगवान्‌ ने अपनी बहिरंगा शक्ति, देवी काली सहित तेईस तत्त्वों केभीतर प्रवेश किया, क्योंकि वे ही विभिन्न प्रकार के तत्त्वों को संमेलित करती हैं।

    सोशनुप्रविष्टो भगवांश्रेष्ठारूपेण तं गणम्‌ ।

    भिन्न॑ संयोजयामास सुप्तं कर्म प्रबोधयन्‌ ॥

    ३॥

    सः--वह; अनुप्रविष्ट: --इस तरह बाद में प्रवेश करते हुए; भगवान्‌ू-- भगवान्‌ चेष्टा-रूपेण--अपने प्रयास काली के रूप में;तम्‌--उनको; गणम्‌--सारे जीव जिनमें देवता सम्मिलित हैं; भिन्नम्‌ू--पृथक्‌-पृथक्‌; संयोजयाम्‌ आस--कार्य करने में लगाया;सुप्तम्‌--सोई हुई; कर्म--कर्म; प्रबोधयन्‌--प्रबुद्ध करते हुए

    इस तरह जब भगवान्‌ अपनी शक्ति से तत्त्वों के भीतर प्रविष्ट हो गये तो सारे जीव प्रबुद्धहोकर विभिन्न कार्यों में उसी तरह लग गये जिस तरह कोई व्यक्ति निद्रा से जगकर अपने कार्य मेंलग जाता है।

    प्रबुद्धकर्मा दैवेन त्रयोविंशतिको गण: ।

    प्रेरितोजनयत्स्वाभिर्मात्राभिरधिपूरुषम्‌ ॥

    ४॥

    प्रबुद्ध-जाग्रत; कर्मा--कार्यकलाप; दैवेन--ब्रह्म की इच्छा से; त्रयः-विंशतिक: --तेईस प्रमुख अवयवों द्वारा; गण:--संमेल;प्रेरितः--द्वारा प्रेरित; अजनयतू-- प्रकट किया; स्वाभि:--अपने; मात्राभि:--स्वांश से; अधिपूरुषम्‌--विराट रूप ( विश्वरूप )को

    जब परम पुरुष की इच्छा से तेईस प्रमुख तत्त्वों को सक्रिय बना दिया गया तो भगवान्‌ काविराट विश्वरूप शरीर प्रकट हुआ।

    परेण विशता स्वस्मिन्मात्रया विश्वसृग्गण: ।

    चुक्षोभान्योन्यमासाद्य यस्मिन्लोकाश्चराचरा: ॥

    ५॥

    परेण--भगवान्‌ द्वारा; विशता--इस तरह प्रवेश करके; स्वस्मिनू--स्वतः ; मात्रया--स्वांश द्वारा; विश्व-सुक्‌--विश्व सृष्टि केतत्त्व; गण:--सारे; चुक्षोभ--रूपान्तरित हो गये; अन्योन्यम्‌--परस्पर; आसाद्य--प्राप्त करके; यस्मिन्‌--जिसमें; लोका: --लोक; चर-अचरा:--जड़ तथा चेतन

    ज्योंही भगवान्‌ ने अपने स्वांश रूप में विश्व के सारे तत्त्वों में प्रवेश किया, त्योंही वे विराटरूप में रूपान्तरित हो गये जिसमें सारे लोक और समस्त जड़ तथा चेतन सृष्टियाँ टिकी हुई हैं।

    हिरण्मयः स पुरुष: सहस्त्रपरिवत्सरान्‌ ।

    आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबूंहित: ॥

    ६॥

    हिरण्मय:--विराट रूप धारण करने वाले गर्भोदकशायी विष्णु; सः--वह; पुरुष:--ईश्वर का अवतार; सहस्त्र--एक हजार;परिवत्सरानू-दैवी वर्षों तक; आण्ड-कोशे--अंडाकार ब्रह्माण्ड के भीतर; उबास--निवास करता रहा; अप्सु--जल में; सर्व-सत्त्व--उनके साथ शयन कर रहे सारे जीव; उपबूंहित:--इस तरह फैले हुए।

    विराट पुरुष जो हिरण्मय कहलाता है, ब्रह्माण्ड के जल में एक हजार दैवी वर्षों तक रहतारहा और सारे जीव उसके साथ शयन करते रहे।

    सब विश्वसूजां गर्भो देवकर्मात्मशक्तिमान्‌ ।

    विबभाजात्मनात्मानमेकधा दशधा त्रिधा ॥

    ७॥

    सः--वह; वै--निश्चय ही; विश्व-सृजाम्‌--विराट रूप की; गर्भ:--सम्पूर्ण शक्ति; देव--सजीव शक्ति; कर्म--जीवन कीक्रियाशीलता; आत्म--आत्मा; शक्तिमान्‌ू--शक्तियों से पूरित; विबभाज--विभाजित कर दिया; आत्मना--अपने आप से;आत्मानम्‌--अपने को; एकधा--एक में; दशधा--दस में; त्रिधा--तथा तीन में

    विराट रूप में महत्‌ तत्त्व की समग्र शक्ति ने स्वतः अपने को जीवों की चेतना, जीवन कीक्रियाशीलता तथा आत्म-पहचान के रूप में विभाजित कर लिया जो एक, दस तथा तीन मेंक्रमशः उपविभाजित हो गए हैं।

    एप हाशेषसत्त्वानामात्मांश: परमात्मन: ।

    आद्योवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते ॥

    ८॥

    एष:--यह; हि--निस्सन्देह; अशेष-- असीम; सत्त्वानामू--जीवों के; आत्मा--आत्मा; अंश: --अंश; परम-आत्मन: -- परमात्माका; आद्यः-- प्रथम; अवतार: -- अवतार; यत्र--जिसमें; असौ--वे सब; भूत-ग्राम:--समुचित सृष्टियाँ; विभाव्यते--फलती'फूलती हैं।

    भगवान्‌ का विश्वरूप प्रथम अवतार तथा परमात्मा का स्वांश होता है।

    वे असंख्य जीवों केआत्मा हैं और उनमें समुच्चित सृष्टि ( भूतग्राम ) टिकी रहती है, जो इस तरह फलती फूलती है।

    साध्यात्म: साधिदैवश्च साधिभूत इति त्रिधा ।

    विराट्प्राणो दशविध एकधा हृदयेन च ॥

    ९॥

    स-आध्यात्म:--शरीर तथा समस्त इन्द्रियों समेत मन; स-आधिदैव: --तथा इन्द्रियों के नियंत्रक देवता; च--तथा; स-आधिभूतः--वर्तमान विषय; इति--इस प्रकार; त्रिधा--तीन; विराट्‌ू--विराट; प्राण:--चालक शक्ति; दश-विध:--दसप्रकार; एकधा--केवल एक; हृदयेन--चेतना शक्ति; च-- भी

    विश्वरूप तीन, दस तथा एक के द्वारा इस अर्थ में प्रस्तुत होता है कि वे ( भगवान्‌ ) शरीरतथा मन और इन्द्रियाँ हैं।

    वे ही दस प्रकार की जीवन शक्ति द्वारा समस्त गतियों की गत्यात्मकशक्ति हैं और वे ही एक हृदय हैं जहाँ जीवन-शक्ति सृजित होती है।

    स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितमधोक्षज: ।

    विराजमतपत्स्वेन तेजसैषां विवृत्तये ॥

    १०॥

    स्मरनू--स्मरण करते हुए; विश्व-सृजाम्‌--विश्व रचना का कार्यभार सँभालने वाले देवता-गण; ईश:--भगवान्‌; विज्ञापितम्‌--स्तुति किया गया; अधोक्षज:--ब्रह्म; विराजम्‌--विराट रूप; अतपत्‌--इस तरह विचार किया; स्वेन--अपनी; तेजसा--शक्तिसे; एषाम्‌--उनके लिए; विवृत्तये--समझने के लिए |

    परम प्रभु इस विराट जगत की रचना का कार्यभार सँभालने वाले समस्त देवताओं केपरमात्मा हैं।

    इस तरह ( देवताओं द्वारा ) प्रार्थना किये जाने पर उन्होंने मन में विचार किया औरतब उनको समझाने के लिए अपना विराट रूप प्रकट किया।

    नअथ तस्याभितप्तस्य कतिधायतनानि ह ।

    \िरभिद्यन्त देवानां तानि मे गदतः श्रुणु ॥

    ११॥

    अथ--इसलिए; तस्य--उसका; अभितप्तस्थ--उसके चिन्तन के अनुसार; कतिधा--कितने; आयतनानि--विग्रह; ह-- थे;निरभिद्यन्त--विभिन्नांशों द्वारा; देवानामू--देवताओं का; तानि--उन समस्त; मे गदतः--मेरे द्वारा वर्णित; श्रुणु--सुनो

    मैत्रेय ने कहा : अब तुम मुझसे यह सुनो कि परमेश्वर ने अपना विराट रूप प्रकट करने केबाद किस तरह से अपने को देवताओं के विविध रूपों में विलग किया।

    तस्याग्निरास्यं निर्भिन्नं लोकपालोविशत्पदम्‌ ।

    वबाचा स्वांशेन वक्तव्यं ययासौ प्रतिपद्यते ॥

    १२॥

    तस्य--उसकी; अग्निः--अग्नि; आस्यम्‌-- मुँह; निर्भिन्नम्‌ू--इस तरह वियुक्त; लोक-पाल:--भौतिक मामलों के निदेशक;अविशत्‌-प्रवेश किया; पदम्‌--अपने-अपने पदों को; वाचा--शब्दों से; स्व-अंशेन-- अपने अंश से; वक्तव्यम्‌--वाणी;यया--जिससे; असौ--वे; प्रतिपद्यते--व्यक्त करते हैं।

    उनके मुख से अग्नि अथवा उष्मा विलग हो गई और भौतिक कार्य संभालने वाले सारेनिदेशक अपने-अपने पदों के अनुसार इस में प्रविष्ट हो गये।

    जीव उसी शक्ति से शब्दों के द्वाराअपने को अभि-व्यक्त करता है।

    निर्भिन्नं तालु वरूणो लोकपालोविशद्धरे: ।

    जिह्यांशेन च रसं ययासौ प्रतिपद्यते ॥

    १३॥

    निर्भिन्नमू--वियुक्त; तालु--तालू; वरुण: --वायु का नियन्ता देव; लोक-पाल: --लोकों का निदेशक; अविशतू--प्रविष्ट हुआ;हरेः-- भगवान्‌ के; जिहया अंशेन--जीभ के अंश से; च-- भी; रसम्‌-- स्वाद; यया--जिससे; असौ--जीव ; प्रतिपद्यते--अभि-व्यक्त करता है।

    जब विराट रूप का तालू पृथक्‌ प्रकट हुआ तो लोकों में वायु का निदेशक वरुण उसमेंप्रविष्ट हुआ जिससे जीव को अपनी जीभ से हर वस्तु का स्वाद लेने की सुविधा प्राप्त है।

    निर्भिन्ने अश्विनौ नासे विष्णोराविशतां पदम्‌ ।

    घ्राणेनांशेन गन्धस्य प्रतिपत्तियतो भवेत्‌ ॥

    १४॥

    निर्िन्ने--इस प्रकार से पृथक्‌ हुए; अश्विनौ--दोनों अश्विनीकुमार; नासे--दोनों नथुनों के; विष्णो:-- भगवान्‌ के;आविशताम्‌--प्रविष्ट होकर; पदम्‌--पद; घप्राणेन अंशेन-- आंशिक रूप से सूँघने से; गन्धस्य--गन्ध का; प्रतिपत्ति:--अनुभव;यतः--जिससे; भवेत्‌--होता है।

    जब भगवान्‌ के दो नथुने पृथक्‌ प्रकट हुए तो दोनों अश्विनीकुमार उनके भीतर अपने-अपनेपदों पर प्रवेश कर गये।

    इसके फलस्वरूप जीव हर वस्तु की गन्ध सूँघ सकते हैं।

    निर्भिन्ने अक्षिणी त्वष्टा लोकपालोविशद्विभो: ।

    चक्षुषांशेन रूपाणां प्रतिपत्तियतो भवेत्‌ ॥

    १५॥

    निर्भिन्ने--इस प्रकार से पृथक्‌ होकर; अक्षिणी--आँखें; त्वष्टा--सूर्य ने; लोक-पाल:-- प्रकाश का निदेशक; अविशतू-- प्रवेशकिया; विभो: --महान्‌ का; चक्षुषा अंशेन--दृष्टि के अंश से; रूपाणाम्‌ू--रूपों के; प्रतिपत्तिः--अनुभव; यतः--जिससे;भवेत्‌--होता है

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ के विराट रूप की दो आँखें पृथक्‌ हो गईं।

    प्रकाश का निदेशक सूर्य दृष्टिके आंशिक प्रतिनिधित्व के साथ उनमें प्रविष्ट हुआ जिससे जीव रूपों को देख सकते हैं।

    निर्भिन्नान्यस्थ चर्माण लोकपालोनिलोविशत्‌ ।

    प्राणेनांशेन संस्पर्श येनासौ प्रतिपद्यते ॥

    १६॥

    निर्िन्नानि--पृथक्‌ होकर; अस्य--विराट रूप की; चर्माणि--त्वचा; लोक-पाल:--निदेशक; अनिल: --वायु ने; अविशतू --प्रवेश किया; प्राणेन अंशेन-- श्वास के अंश से; संस्पर्शम्‌-स्पर्श; येन--जिससे; असौ--जीव; प्रतिपद्यते-- अनुभव कर सकताहै।

    जब विराट रूप से त्वचा पृथक्‌ हुई तो वायु का निदेशक देव अनिल आंशिक स्पर्श सेप्रविष्ट हुआ जिससे जीव स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं।

    कर्णावस्य विनिर्भिन्नौ धिष्ण्यं स्वं विविशुर्दिश: ।

    श्रोत्रेणांशेन शब्दस्य सिद्धि येन प्रपद्यते ॥

    १७॥

    कर्णों--दोनों कान; अस्य--विराट रूप के; विनिर्भिन्नी--इस तरह पृथक्‌ होकर; धिष्ण्यम्‌ू--नियंत्रक देव; स्वम्‌--अपने से;विविशु:--प्रवेश किया; दिश:--दिशाओं का; श्रोत्रेण अंशेन-- श्रवण तत्त्व के साथ; शब्दस्य-- ध्वनि का; सिद्धिम्‌--सिद्धि;येन--जिससे; प्रपद्यते-- अनुभव की जाती है।

    जब विराट रूप के कान प्रकट हुए तो सभी दिशाओं के नियंत्रक देव श्रवण तत्त्वों समेतउनमें प्रविष्ट हो गये जिससे सारे जीव सुनते हैं और ध्वनि का लाभ उठाते हैं।

    त्वचमस्य विनिर्भिन्नां विविशुर्धिष्ण्यमोषधी: ।

    अंशेन रोमभिः कण्डूं यैरसौ प्रतिपद्यते ॥

    १८ ॥

    त्वचमू--चमड़ी; अस्य--विराट रूप की; विनिर्भिन्नामू--अलग से प्रकट होकर; विविशु:--प्रविष्ट हुआ; धिष्ण्यम्‌--नियंत्रकदेव; ओषधी: --संस्पर्श; अंशेन--अंशों के साथ; रोमभि:--शरीर के रोओं से होकर; कण्डूम्‌--खुजली; यैः--जिससे;असौ--जीव; प्रतिपद्यते--अनुभव करता है।

    जब चमड़ी की पृथक्‌ अभिव्यक्ति हुई तो अपने विविध अंशों समेत संस्पर्श नियंत्रक देवउसमें प्रविष्ट हो गये।

    इस तरह जीवों को स्पर्श के कारण खुजलाहट तथा प्रसन्नता का अनुभवहोता है।

    मेढ़ें तस्य विनिर्भिन्नं स्वधिष्ण्यं क उपाविशत्‌ ।

    रेतसांशेन येनासावानन्दं प्रतिपद्यते ॥

    १९॥

    मेढ्म्‌--जननांग; तस्य--उस विराट रूप का; विनिर्मिन्नम्‌ू--पृथक्‌ होकर; स्व-धिष्ण्यम्‌ू--अपना पद; कः--ब्रह्मा, आदिप्राणी; उपाविशत्‌--प्रविष्ट हुआ; रेतसा अंशेन--वीर्य के अंश सहित; येन--जिससे; असौ--जीव; आनन्दम्‌--यौन आनन्द;प्रतिपद्यते-- अनुभव करता है।

    जब विराट रूप के जननांग पृथक्‌ हो गये तो आदि प्राणी प्रजापति अपने आंशिक वीर्यसमेत उनमें प्रविष्ट हो गये और इस तरह जीव यौन आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।

    गुदं पुंसो विनिर्भिन्नं मित्रो लोकेश आविशत्‌ ।

    पायुनांशेन येनासौ विसर्ग प्रतिपद्यते ॥

    २०॥

    गुदम्‌--गुदा; पुंसः--विराट रूप का; विनिर्भिन्नम्‌ू--पृथक्‌ होकर; मित्र: --सूर्यदेव; लोक-ईशः--मित्र नामक निदेशक;आविशत्‌-प्रविष्ट हुआ; पायुना अंशेन--आंशिक वायु के साथ; येन--जिससे; असौ--जीव; विसर्गम्‌--मलमूत्र त्याग;प्रतिपद्यते--सम्पन्न करता है।

    फिर विसर्जन मार्ग पृथक्‌ हुआ और मित्र नामक निदेशक विसर्जन के आंशिक अंगों समेतउसमें प्रविष्ट हो गया।

    इस प्रकार जीव अपना मल-मूत्र विसर्जित करने में सक्षम हैं।

    हस्तावस्य विनिर्भिन्नाविन्द्र: स्वर्पतिराविशत्‌ ।

    वार्तयांशेन पुरुषो यया वृत्ति प्रपद्यत ॥

    २१॥

    हस्तौ--दो हाथ; अस्य--विराट रूप के; विनिर्भिन्नी--पृथक्‌ होकर; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; स्व:-पति:--स्वर्ग लोकों काशासक; आविशतू-प्रविष्ट हुआ; वार्तया अंशेन--अंशत: व्यवसायिक सिद्धान्तों के साथ; पुरुष:--जीव; यया--जिससे;वृत्तिमू--जीविका का व्यापार; प्रपद्यते--चलाता है।

    तत्पश्चात्‌ जब विराट रूप के हाथ पृथक्‌ हुए तो स्वर्गलोक का शासक इन्द्र उनमें प्रविष्ट हुआऔर इस तरह से जीव अपनी जीविका हेतु व्यापार चलाने में समर्थ हैं।

    पादावस्य विनिर्भिन्नी लोकेशो विष्णुराविशत्‌ ।

    गत्या स्वांशेन पुरुषो यया प्राप्यं प्रपद्यते ॥

    २२॥

    पादौ--दो पाँव; अस्य--विराट रूप के; विनिर्भिन्नी--पृथक्‌ प्रकट हुए; लोक-ईशः विष्णु:--विष्णु नामक देवता ( भगवान्‌नहीं ); आविशत्‌--प्रविष्ट हुआ; गत्या--चलने-फिरने की शक्ति द्वारा; स्व-अंशेन--अपने ही अंश सहित; पुरुष:--जीव;यया--जिससे; प्राप्मम्‌-गन्तव्य तक; प्रपद्यते--पहुँचता है।

    तत्पश्चात्‌ विराट रूप के पाँव पृथक्‌ रुप से प्रकट हुए और विष्णु नामक देवता ( भगवान्‌नहीं ) ने उन में आंशिक गति के साथ प्रवेश किया।

    इससे जीव को अपने गन्तव्य तक जाने मेंसहायता मिलती है।

    बुद्धि चास्य विनिर्भिन्नां वागीशो थधिष्णयमाविशत्‌ ।

    बोधेनांशेन बोद्धव्यम्प्रतिपत्तियतो भवेत्‌ ॥

    २३॥

    बुद्धिम--बुद्धि; च-- भी; अस्य--विराट रूप की; विनिर्भिन्नामू--पृथक्‌ हुई; वाक्‌-ईशः--वेदों का स्वामी ब्रह्मा; धिष्णयम्‌--नियंत्रक शक्ति; आविशत्‌--प्रविष्ट हुए; बोधेन अंशेन--अपने बुद्धि अंश सहित; बोद्धव्यम्‌--ज्ञान का विषय; प्रतिपत्ति: --समझ गया; यतः--जिससे; भवेत्‌--इस तरह होती है |

    जब विराट रूप की बुद्धि पृथक्‌ रुप से प्रकट हुई तो वेदों के स्वामी ब्रह्मा बुद्धि कीआंशिक शक्ति के साथ उसमें प्रविष्ट हुए और इस तरह जीवों द्वारा बुद्धि के ध्येय का अनुभवकिया जाता है।

    हृदयं चास्य निर्भिन्नं चन्द्रमा धिष्णयमाविशत्‌ ।

    मनसांशेन येनासौ विक्रियां प्रतिपद्यते ॥

    २४॥

    हृदयम्‌--हृदय; च-- भी; अस्य--विराट रूप का; निर्मिन्नम्‌ू--पृथक्‌ से प्रकट होकर; चन्द्रमा--चन्द्र देवता; धिष्णयम्‌--नियंत्रक शक्ति समेत; आविशत्‌--प्रविष्ट हुआ; मनसा अंशेन--आंशिक मानसिक क्रिया सहित; येन--जिससे; असौ--जीव;विक्रियाम्‌--संकल्प; प्रतिपद्यते--करता है

    इसके बाद विराट रूप का हृदय पृथक्‌ रूप से प्रकट हुआ और इसमें चन्द्रदेबता अपनीआंशिक मानसिक क्रिया समेत प्रवेश कर गया।

    इस तरह जीव मानसिक चिन्तन कर सकता है।

    आत्मानं चास्य निर्भिन्नमभिमानोविशत्पदम्‌ ।

    कर्मणांशेन येनासौ कर्तव्यं प्रतिपद्यते ॥

    २५॥

    आत्मानम्‌ू--मिथ्या अहंकार; च--भी; अस्य--विराट रूप का; निर्भिन्नमू--पृथक्‌ से प्रकट होकर; अभिमान:--मिथ्यापहचान; अविशत्‌ू--प्रविष्ट हुआ; पदम्‌--पद पर; कर्मणा--कर्म द्वारा; अंशेन--अंशत:; येन--जिससे; असौ--जीव;कर्तव्यमू--करणीय कार्यकलाप; प्रतिपद्यते--करता है।

    तत्पश्चात्‌ विराट रूप का भौतिकतावादी अहंकार पृथक्‌ से प्रकट हुआ और इसमें मिथ्याअंहकार के नियंत्रक रुद्र ने अपनी निजी आंशिक क्रियाओं समेत प्रवेश किया जिससे जीवअपना लक्षियत कर्तव्य पूरा करता है।

    सत्त्वं चास्य विनिर्भिन्नं महान्धिष्ण्यमुपाविशत्‌ ।

    चित्तेनांशेन येनासौ विज्ञान प्रतिपद्यते ॥

    २६॥

    सत्त्ममू--चेतना; च-- भी; अस्य--विराट रूप की; विनिर्भिन्मम्‌ू--पृथक्‌ से प्रकट होकर; महान्‌--समग्र शक्ति, महत्‌ तत्त्व;धिष्ण्यमू--नियंत्रण समेत; उपाविशत्‌-- प्रविष्ट हुई; चित्तेन अंशेन-- अपनी अंश चेतना समेत; येन--जिससे; असौ--जीव;विज्ञानम्‌-विशिष्ट ज्ञान; प्रतिपद्यते--अनुशीलन करता है।

    तत्पश्चात्‌ जब विराट रूप से उसकी चेतना पृथक्‌ होकर प्रकट हुई तो समग्र शक्ति अर्थात्‌महतत्त्व अपने चेतन अंश समेत प्रविष्ट हुआ।

    इस तरह जीव विशिष्ट ज्ञान को अवधारण करने मेंसमर्थ होता है।

    शीष्णोंस्य द्यौर्धरा पद्भ्यां खं नाभेरुदपद्यत ।

    गुणानां वृत्तयो येषु प्रतीयन्ते सुरादयः ॥

    २७॥

    शीर्ष्ण:--सिर; अस्य--विराट रूप का; द्यौ:--स्वर्गलोक; धरा--पृथ्वीलोक; पद्भ्याम्‌--उसके पैरों पर; खम्‌--आकाश;नाभे: --नाभि से; उदपद्यत--प्रकट हुआ; गुणानाम्‌--तीनों गुणों के; वृत्तव:--फल; येषु--जिनमें; प्रतीयन्ते--प्रकट होते हैं;सुर-आदयः--देवता इत्यादि

    तत्पश्चात्‌ विराट रूप के सिर से स्वर्गलोक, उसके पैरों से पृथ्वीलोक तथा उसकी नाभि सेआकाश पृथक्‌-पृथक्‌ प्रकट हुए।

    इनके भीतर भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के रूप में देवताइत्यादि भी प्रकट हुए।

    आत्यन्तिकेन सच्त्वेन दिवं देवा: प्रपेदिरे ।

    धरां रज:स्वभावेन पणयो ये च ताननु ॥

    २८॥

    आत्यन्तिकेन--अत्यधिक; सत्त्वेन--सतोगुण द्वारा; दिवम्‌--उच्चतर लोकों में; देवा: --देवता; प्रपेदिरि--स्थित है; धराम्‌--पृथ्वी पर; रज:--रजोगुण; स्वभावेन--स्वभाव से; पणय:--मानव; ये--वे सब; च-- भी; तानू--उनके; अनु--अधीन |

    देवतागण, अति उत्तम गुण, सतोगुण के द्वारा योग्य बनकर, स्वर्गलोक में अवस्थित रहते हैं।

    जबकि मनुष्य अपने रजोगुणी स्वभाव के कारण अपने अधीनस्थों की संगति में पृथ्वी पर रहते हैं।

    तार्तीयेन स्वभावेन भगवन्नाभिमाश्रिता: ।

    उभयोरन्तरं व्योम ये रुद्रपार्षदां गणा: ॥

    २९॥

    तार्तीयेन--तृतीय गुण अर्थात्‌ तमोगुण के अत्यधिक विकास द्वारा; स्वभावेन--ऐसे स्वभाव से; भगवत्‌-नाभिम्‌-- भगवान्‌ केविराट रूप की नाभि में; आशभ्रिता:--स्थित; उभयो:--दोनों के; अन्तरम्‌--बीच में; व्योम--आकाश; ये--जो सब; रुद्र-पार्षदाम्‌ू-रूद्र के संगी; गणा:--लोग।

    जो जीव रुद्र के संगी हैं, वे प्रकृति के तीसरे गुण अर्थात्‌ तमोगुण में विकास करते हैं।

    वेपृथ्वीलोकों तथा स्वर्गलोकों के बीच आकाश में स्थित होते हैं।

    मुखतोवर्तत ब्रह्म पुरुषस्य कुरूद्वह ।

    यस्तून्मुखत्वाद्वर्णानां मुख्योभूद्राह्मणो गुरु: ॥

    ३०॥

    मुखतः--मुँह से; अवर्तत--उत्पन्न हुआ; ब्रह्म--वैदिक ज्ञान; पुरुषस्थ--विराट पुरुष का; कुरु-उद्दद-हे कुरुवंश के प्रधान;यः--जो; तु--के कारण; उन्मुखत्वात्‌--उन्मुख; वर्णानामू--समाज के वर्णो का; मुख्य:--मुख्य; अभूत्‌--ऐसा हो गया;ब्राह्मण: --ब्राह्मण कहलाया; गुरु:--मान्य शिक्षक या गुरु

    हे कुरुवंश के प्रधान, विराट अर्थात्‌ विश्व रुप के मुख से वैदिक ज्ञान प्रकट हुआ।

    जो लोगइस वैदिक ज्ञान के प्रति उन्मुख होते हैं, वे ब्राह्मण कहलाते हैं और वे समाज के सभी वर्णों केस्वाभाविक शिक्षक तथा गुरु हैं।

    बाहुभ्योउवर्तत क्षत्रं क्षत्रियस्तदनुब्रत: ।

    यो जातस्त्रायते वर्णान्पौरुष: कण्टकक्षतात्‌ ॥

    ३१॥

    बाहुभ्य:--बाहुओं से; अवर्तत--उत्पन्न हुआ; क्षत्रमू--संरक्षण की शक्ति; क्षत्रिय:--संरक्षण की शक्ति के सन्दर्भ में; तत्‌--वह;अनुव्रत:--अनुयायी; यः--जो; जात:--ऐसा होता है; त्रायते--उद्धार करता है; वर्णान्‌ू--अन्य वृत्तियाँ; पौरुष: -- भगवान्‌ काप्रतिनिधि; कण्टक--चोर उचक्के जैसे उपद्रवी तत्त्व; क्षतात्‌--दुष्टता से

    तत्पश्चात्‌ विराट रूप की बाहुओं से संरक्षण शक्ति उत्पन्न हुई और ऐसी शक्ति के प्रसंग मेंसमाज का चोर-उचक्ों के उत्पातों से रक्षा करने के सिद्धान्त का पालन करने से क्षत्रिय भीअस्तित्व में आये।

    विशोवर्तन्त तस्योरवोर्लोकवृत्तिकरीर्विभो: ।

    वैश्यस्तदुद्धवो वार्ता नृणां यः समवर्तयत्‌ ॥

    ३२॥

    विशः--उत्पादन तथा वितरण द्वारा जीविका का साधन; अवर्तन्त--उत्पन्न किया; तस्य--उसका ( विराट रूप का ); ऊर्वो:--जाँघों से; लोक-वृत्तिकरी:--आजीविका के साधन; विभो:-- भगवान्‌ के; वैश्य: --वैश्य जाति; तत्‌ू--उनका; उद्धव:--समायोजन ( जन्म ); वार्तामू--जीविका का साधन; नृणाम्‌--सारे मनुष्यों की; यः--जिसने; समवर्तयत्‌--सम्पन्न किया।

    समस्त पुरुषों की जीविका का साधन, अर्थात्‌ अन्न का उत्पादन तथा समस्त प्रजा में उसकावितरण भगवान्‌ के विराट रूप की जाँघों से उत्पन्न किया गया।

    वे व्यापारी जन जो ऐसे कार्यको संभालते हैं वैश्य कहलाते हैं।

    पद्भ्यां भगवतो जज्ने शुश्रूषा धर्मसिद्धये ।

    तस्यां जात: पुरा शूद्रो यद्वृत्त्या तुष्यते हरि: ॥

    ३३॥

    पद्भ्यामू-पैरों से; भगवतः--भगवान्‌ के; जज्ञे--प्रकट हुआ; शुश्रूषा--सेवा; धर्म--वृत्तिपरक कार्य; सिद्धये--के हेतु;तस्यामू--उसमें; जात:--उत्पन्न हुआ; पुरा--प्राचीन काल में; शूद्र:ः--सेवक; यत्‌-वृत्त्या--वृत्ति जिससे; तुष्यते--तुष्ट होता है;हरिः-- भगवान्‌ |

    तत्पश्चात्‌ धार्मिक कार्य पूरा करने के लिए भगवान्‌ के पैरों से सेवा प्रकट हुई।

    पैरों पर शूद्रस्थित होते हैं, जो सेवा द्वारा भगवान्‌ को तुष्ट करते हैं।

    एते वर्णा: स्वधर्मेंण यजन्ति स्वगुरुं हरिम्‌ ।

    श्रद्धयात्मविशुद्धयर्थ यज्जाता: सह वृत्तिभि: ॥

    ३४॥

    एते--ये सारे; वर्णा:--समाज की श्रेणियाँ; स्व-धर्मेण-- अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों द्वारा; यजन्ति--पूजा करते हैं; स्व-गुरुम--अपने गुरु; हरिमू-- भगवान्‌ को; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक; आत्म--आत्मा; विशुद्धि-अर्थम्‌--शुद्ध करने केलिए; यत्‌--जिससे; जाता: -- उत्पन्न; सह-- के साथ; वृत्तिभि:--वृत्तिपरक कर्तव्यये

    भिन्न-भिन्न समस्त सामाजिक विभागअपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों तथा जीवनपरिस्थितियों के साथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ से उत्पन्न होते हैं।

    इस तरह अबद्धजीवन तथाआत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य को गुरु के निर्देशानुसार परम प्रभु की पूजा करनी होती है।

    एतक्क्षत्तर्भगवतो दैवकर्मात्मरूपिण: ।

    कः श्रद्धध्यादुपाकर्तु योगमायाबलोदयम्‌ ॥

    ३५॥

    एतत्‌--यह; क्षत्त:--हे विदुर; भगवतः-- भगवान्‌ का; दैव-कर्म-आत्म-रूपिण:--विराट रूप के दिव्य कर्म, काल तथाप्रकृति का; कः--और कौन; श्रद्दध्यात्‌--आकांक्षा कर सकता है; उपाकर्तुम्‌ू--समग्र रूप में मापने के लिए; योगमाया--अन्तरंगाशक्ति के; बल-उदयम्‌--बल द्वारा प्रकट |

    हे विदुर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की अन्तरंगा शक्ति द्वारा प्रकट किये गये विराट रूप केदिव्य काल, कर्म तथा शक्ति को भला कौन माप सकता है या उसका आकलन कर सकता है?

    तथापि कीर्तयाम्यड्र यथामति यथा श्रुतम्‌ ।

    कीर्ति हरेः स्वां सत्कर्तु गिरमन्याभिधासतीम्‌ ॥

    ३६॥

    तथा--इसलिए; अपि--यद्यपि ऐसा है; कीर्तयामि--मैं वर्णन करता हूँ; अड्ग--हे विदुर; यथा--जिस तरह; मति--बुद्धि;यथा--जिस तरह; श्रुतम्‌--सुना हुआ; कीर्तिमू--यश; हरेः-- भगवान्‌ का; स्वाम्‌ू--निजी; सत्-कर्तुम्‌-शुद्ध करने हेतु;गिरम्‌ू--वाणी; अन्याभिधा-- अन्यथा; असतीम्‌--अपवित्र |

    अपनी असमर्थता के बावजूद मैं ( अपने गुरु से) जो कुछ सुन सका हूँ तथा जितनाआत्मसात्‌ कर सका हूँ उसे अब शुद्ध वाणी द्वारा भगवान्‌ की महिमा के वर्णन में लगा रहा हूँ,अन्यथा मेरी वाक्शक्ति अपवित्र बनी रहेगी।

    एकान्तलाभं बचसो नु पुंसांसुश्लोकमौलेगुणवादमाहु: ।

    श्रुतेश्च विद्वद्धिरुपाकृतायांकथासुधायामुपसम्प्रयोगम्‌ ॥

    ३७॥

    एक-अन्त--बेजोड़; लाभम्‌--लाभ; वचस:--विवेचना द्वारा; नु पुंसामू-परम पुरुष के बाद; सुश्लोक--पवित्र; मौले:--कार्यकलाप; गुण-वादम्‌--गुणगान; आहु:--ऐसा कहा जाता है; श्रुते:--कान का; च-- भी; विद्वद्धिः --विद्वान द्वारा;उपाकृतायाम्‌--इस तरह सम्पादित; कथा-सुधायाम्‌--ऐसे दिव्य सन्देश रूपी अमृत में; उपसम्प्रयोगम्‌--असली उद्देश्य को पूराकरता है

    निकट होने सेमानवता का सर्वोच्च सिद्धिप्रद लाभ पवित्रकर्ता के कार्यकलापों तथा महिमा की चर्चा मेंप्रवृत्त होना है।

    ऐसे कार्यकलाप महान्‌ विद्वान ऋषियों द्वारा इतनी सुन्दरता से लिपिबद्ध हुए हैंकि कान का असली प्रयोजन उनके निकट रहने से ही पूरा हो जाता है।

    आत्मनोवसितो वत्स महिमा कविनादिना ।

    संवत्सरसहस्त्रान्ते धिया योगविपक्कया ॥

    ३८ ॥

    आत्मन:--परमात्मा की; अवसित:ः--ज्ञात; वत्स--हे पुत्र; महिमा--महिमा; कविना--कवि ब्रह्मा द्वारा; आदिना--आदि;संवत्सर--दैवी वर्ष; सहस्त्र-अन्ते--एक हजार वर्षो के अन्त में; धिया--बुद्धि द्वारा; योग-विपक्रया--परिपक्व ध्यान द्वारा |

    हे पुत्र, आदि कवि ब्रह्मा एक हजार दैवी वर्षो तक परिपक्व ध्यान के बाद केवल इतनाजान पाये कि भगवान्‌ की महिमा अचिन्त्य है।

    अतो भगवतो माया मायिनामपि मोहिनी ।

    यत्स्वयं चात्मवर्त्मात्मा न वेद किमुतापरे ॥

    ३९॥

    अतः--इसलिए; भगवत:--ई श्वरीय; माया--शक्तियाँ; मायिनामू-- जादूगरों को; अपि-- भी; मोहिनी--मोहने वाली; यत्‌--जो; स्वयम्‌--अपने से; च-- भी; आत्म-वर्त्त--आत्म-निर्भर; आत्मा--आत्म; न--नहीं; वेद--जानता है; किम्‌--क्या; उत--विषय में कहना; अपरे--अन्यों के |

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की आश्चर्यजनक शक्ति जादूगरों को भी मोहग्रस्त करने वाली है।

    यह निहित शक्ति आत्माराम भगवान्‌ तक को अज्ञात है, अतः अन्यों के लिए यह निश्चय हीअज्ञात है।

    यतोप्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्च मनसा सह ।

    अहं चान्य इमे देवास्तस्मै भगवते नमः ॥

    ४०॥

    यतः--जिससे; अप्राप्प--माप न सकने के कारण; न्यवर्तन्त--प्रयास करना बन्द कर देते हैं; वाच:--शब्द; च-- भी;मनसा--मन से; सह--सहित; अहम्‌ च--अहंकार भी; अन्ये-- अन्य; इमे--ये सभी; देवा:--देवतागण; तस्मै--उस;भगवते-- भगवान्‌ को; नम:ः--नमस्कार करते हैं।

    अपने-अपने नियंत्रक देवों सहित शब्द, मन तथा अहंकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कोजानने में असफल रहे हैं।

    अतएव हमें विवेकपूर्वक उन्हें सादर नमस्कार करना होता है।

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    अध्याय सात: विदुर द्वारा आगे की पूछताछ

    3.7श्रीशुक उबाचएवं ब्रुवाण मैत्रेयं द्वैवायनसुतो बुध: ।

    प्रीणयन्निवभारत्या विदुर: प्रत्यभाषत ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; ब्रुवाणम्‌--बोलते हुए; मैत्रेयम्‌--मैत्रेयमुनि से मैत्रेय;द्वैषायन-सुत:ः--द्वैपायन का पुत्र; बुध:--विद्वान; प्रीणयन्‌--अच्छे लगने वाले ढंग से; इब--मानो; भारत्या--अनुरोध के रूपमें; बिदुर: --विदुर ने; प्रत्यभाषत--व्यक्त किया।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, जब महर्षि मैत्रेय इस प्रकार से बोल रहे थे तोद्वैपायन व्यास के दिद्वान पुत्र विदुर ने यह प्रश्न पूछते हुए मधुर ढंग से एक अनुरोध व्यक्त किया।

    विदुर उवाचब्रह्मन्क थ॑ भगवतश्रिन्मात्रस्थाविकारिण: ।

    लीलया चापि युज्येरन्निर्गुणस्य गुणा: क्रिया: ॥

    २॥

    विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; कथम्‌--कैसे; भगवतः -- भगवान्‌ का; चित्‌-मात्रस्य--पूर्ण आध्यात्मिकका; अविकारिण:--अपरिवर्तित का; लीलया--अपनी लीला से; च--अथवा; अपि--यद्यपि यह ऐसा है; युज्येरनू--घटितहोती हैं; निर्गुणस्थ--वह जो भौतिक गुणों से रहित है; गुणा:--प्रकृति के गुण; क्रिया:--कार्यकलाप |

    श्री विदुर ने कहा : हे महान्‌ ब्राह्मण, चूँकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ संपूर्ण आध्यात्मिकसमष्टि हैं और अविकारी हैं, तो फिर वे प्रकृति के भौतिक गुणों तथा उनके कार्यकलापों से किसतरह सम्बन्धित हैं? यदि यह उनकी लीला है, तो फिर अविकारी के कार्यकलाप किस तरहघटित होते हैं और प्रकृति के गुणों के बिना गुणों को किस तरह प्रदर्शित करते हैं ?

    क्रीडायामुद्यमो$र्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यत: ।

    स्वतस्तृप्तस्थ च कं निवृत्तस्य सदान्यत: ॥

    ३॥

    क्रीडायाम्‌--खेलने के मामले में; उद्यम: --उत्साह; अर्भस्य--बालकों का; काम: --इच्छा; चिक्रीडिषा--खेलने के लिए इच्छा;अन्यतः--अन्य बालकों के साथ; स्वतः-तृप्तस्य--जो आत्मतुष्ट है उसके लिए; च--भी; कथम्‌--किस लिए; निवृत्तस्थ--विरक्त; सदा--सदैव; अन्यतः--अन्यथा |

    बालक अन्य बालकों के साथ या विविध क्रीड़ाओं में खेलने के लिए उत्सुक रहते हैं,क्योंकि वे इच्छा द्वारा प्रोत्साहित किये जाते हैं।

    किन्तु भगवान्‌ में ऐसी इच्छा की कोई सम्भावनानहीं होती, क्योंकि वे आत्म-तुष्ट हैं और सदैव हर वस्तु से विरक्त रहते हैं।

    अस््राक्षीद्धगवान्विश्व॑ं गुणमय्यात्ममायया ।

    तया संस्थापयत्येतद्धूय: प्रत्यपिधास्यति ॥

    ४॥

    अस्त्राक्षीत्‌-उत्पन्न कराया; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; गुण-मय्या-- भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से समन्वित;आत्म--अपनी; मायया--शक्ति द्वारा; तया--उसके द्वारा; संस्थापयति--पालन करता है; एतत्‌--ये सब; भूय:--तब पुनः;प्रत्यू-अपिधास्यति--उल्टे विलय भी करता है।

    भगवान्‌ ने प्रकृति के तीन गुणों की स्वरक्षित शक्ति द्वारा इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि कराई।

    वेउसी के द्वारा सृष्टि का पालन करते हैं और उल्टे पुन: पुनः: उसका विलय भी करते हैं।

    देशतः कालतो योसाववस्थातः स्वतोउन्यतः ।

    अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया कथम्‌ ॥

    ५॥

    देशतः--परिस्थितिवश; कालतः--काल के प्रभाव से; यः--जो; असौ--जीव; अवस्थात:--स्थिति से; स्वतः --स्वप्न से;अन्यतः--अन्यों द्वारा; अविलुप्त--लुप्त; अवबोध--चेतना; आत्मा--शुद्ध आत्मा; सः--वह; युज्येत--संलग्न; अजया--अज्ञान द्वारा; कथम्‌--यह ऐसा किस तरह है।

    शुद्ध आत्मा विशुद्ध चेतना है और वह परिस्थितियों, काल, स्थितियों, स्वप्नों अथवा अन्यकारणों से कभी भी चेतना से बाहर नहीं होता।

    तो फिर वह अविद्या में लिप्त क्‍यों होता है ?

    भगवानेक एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।

    अमुष्य दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा कर्मभि: कुतः ॥

    ६॥

    भगवान्‌-- भगवान्‌; एक:--एकमात्र; एव एष: --ये सभी; सर्व--समस्त; क्षेत्रेषु--जीवों में; अवस्थित:--स्थित; अमुष्य--जीवों का; दुर्भगत्वमू-दुर्भाग्य; वा--या; क्लेश:--कष्ट; वा--अथवा; कर्मभि:--कार्यो द्वारा; कुतः--किसलिए।

    भगवान्‌ परमात्मा के रूप में हर जीव के हृदय में स्थित रहते हैं।

    तो फिर जीवों के कर्मों सेदुर्भाग्य तथा कष्ट क्यों प्रतिफलित होते हैं ?

    एतस्मिन्मे मनो विद्वन्खिद्यतेञज्ञानसड्डूटे ।

    तन्नः पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत्‌ ॥

    ७॥

    एतस्मिनू--इसमें; मे--मेरा; मन:--मन; विद्वनू--हे विद्वान; खिद्यते--कष्ट दे रहा है; अज्ञान--अविद्या; सड्डुटे--संकट में;तत्‌--इसलिए; न:ः--मेरा; पराणुद--स्पष्ट कीजिये; विभो--हे महान्‌; कश्मलम्‌--मोह; मानसम्‌--मन विषयक; महतू--महान्‌।

    हे महान्‌ एवं विद्वान पुरुष, मेरा मन इस अज्ञान के संकट द्वारा अत्यधिक मोहग्रस्त है,इसलिए मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप इसको स्पष्ट करें।

    श्रीशुक उबाचस इत्थं चोदित: क्षत्ना तत्त्वजिज्ञासुना मुनि: ।

    प्रत्याह भगवच्चित्त: स्मयन्निव गतस्मय: ॥

    ८॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह ( मैत्रेय मुनि ); इत्थम्‌--इस प्रकार; चोदित: --विश्षुब्ध किये जानेपर; क्षत्रा--विदुर द्वारा; तत्त्व-जिज्ञासुना--सत्य जानने के लिए पूछताछ करने के इच्छुक व्यक्ति द्वारा, जिज्ञासु द्वारा; मुनिः--मुनि ने; प्रत्याह--उत्तर दिया; भगवतू-चित्त:--ईशभावनाभावित; स्मयन्‌--आश्चर्य करते हुए; इब--मानो; गत-स्मय: --हिचकके बिना।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन, इस तरह जिज्ञासु विदुर द्वारा विक्षुब्ध किये गयेमैत्रेय सर्वप्रथम आश्चर्यचकित प्रतीत हुए, किन्तु इसके बाद उन्होंने बिना किसी हिचक के उन्हेंउत्तर दिया, क्‍योंकि वे पूर्णरूपेण ईशभावनाभावित थे।

    मैत्रेय उवाचसेयं भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते ।

    ईश्वरस्य विमुक्तस्य कार्पण्यमुत बन्धनम्‌ ॥

    ९॥

    मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; सा इयम्‌--ऐसा कथन; भगवत:-- भगवान्‌ की; माया--माया; यत्‌--जो; नयेन--तर्क द्वारा;विरुध्यते--विरोधी बन जाता है; ईश्वरस्थ-- भगवान्‌ का; विमुक्तस्थ--नित्य मुक्त का; कार्पण्यम्‌--अपर्याप्तता; उत--क्याकहा जाय, जैसा भी; बन्धनम्‌--बन्धन

    श्री मैत्रेय ने कहा : कुछ बद्धजीव यह सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि परब्रह्म या भगवान्‌ को माया द्वारा जीता जा सकता है, किन्तु साथ ही उनका यह भी मानना है कि वे अबद्ध हैं।

    यहसमस्त तर्क के विपरित है।

    यदर्थन विनामुष्य पुंस आत्मविपर्यय: ।

    प्रतीयत उपद्रष्ट: स्वशिरश्छेदनादिक: ॥

    १०॥

    यत्‌--इस प्रकार; अर्थन--अभिप्राय या अर्थ; विना--बिना; अमुष्य--ऐसे; पुंसः:--जीव का; आत्म-विपर्यय:-- आत्म-पहचानके विषय में विभ्रमित; प्रतीयते--ऐसा लगता है; उपद्रष्ट:--उथले द्रष्टा का; स्व-शिर:--अपना सिर; छेदन-आदिक:--काटलेना।

    जीव अपनी आत्म-पहचान के विषय में संकट में रहता है।

    उसके पास वास्तविक पृष्ठभूमिनहीं होती, ठीक उसी तरह जैसे स्वप्न देखने वाला व्यक्ति यह देखे कि उसका सिर काट लियागया है।

    यथा जले चन्द्रमसः कम्पादिस्तत्कृतो गुण: ।

    हृश्यतेसन्नपि द्रष्टरात्मनो उनात्मनो गुण: ॥

    ११॥

    यथा--जिस तरह; जले--जल में; चन्द्रमस: --चन्द्रमा का; कम्प-आदि: --कम्पन इत्यादि; तत्‌-कृत:--जल द्वारा किया गया;गुण:--गुण; दृश्यते--इस तरह दिखता है; असन्‌ अपि--बिना अस्तित्व के; द्रष्ट:--द्रष्टा का; आत्मन:--आत्मा का;अनात्मन:--आत्मा के अतिरिक्त अन्य का; गुण:--गुण |

    जिस तरह जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा जल के गुण से सम्बद्ध होने के कारण देखने वालेको हिलता हुआ प्रतीत होता है उसी तरह पदार्थ से सम्बद्ध आत्मा पदार्थ के ही समान प्रतीत होताहै।

    स वी निवृत्तिधमेंण वासुदेवानुकम्पया ।

    भगवद्धक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह ॥

    १२॥

    सः--वह; वै-- भी; निवृत्ति--विरक्ति; धर्मेण-- संलग्न रहने से; वासुदेव-- भगवान्‌ की; अनुकम्पया--कृपा से; भगवत्‌ --भगवान्‌ के सम्बन्ध में; भक्ति-योगेन-- जुड़ने से; तिरोधत्ते--कम होती है; शनैः--क्रमश:; इह--इस संसार में |

    किन्तु आत्म-पहचान की उस भ्रान्ति को भगवान्‌ वासुदेव की कृपा से विरक्त भाव सेभगवान्‌ की भक्तिमय सेवा की विधि के माध्यम से धीरे-धीरे कम किया जा सकता है।

    यदेन्द्रियोपरामोथ द्रष्टात्मनि परे हरौ ।

    विलीयन्ते तदा क्लेशा: संसुप्तस्येव कृत्सनश: ॥

    १३॥

    यदा--जब; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; उपराम: --तृप्त; अथ--इस प्रकार; द्रष्ट-आत्मनि--द्रष्टा या परमात्मा के प्रति; परे--अध्यात्म में;हरौ--भगवान्‌ में; विलीयन्ते--लीन हो जाती है; तदा--उस समय; क्लेशा:--कष्ट; संसुप्तस्य--गहरी नींद का भोग कर चुकाव्यक्ति; इब--सहश; कृत्स्नश:--पूर्णतया |

    जब इन्द्रियाँ द्रष्टा-परमात्मा अर्थात्‌ भगवान्‌ में तुष्ट हो जाती है और उनमें विलीन हो जाती है,तो सारे कष्ट उसी तरह पूर्णतया दूर हो जाते हैं जिस तरह ये गहरी नींद के बाद दूर हो जाते हैं।

    अशेषसड्क्लेशशमं विधत्ते गुणानुवादश्रवर्णं मुरारे: ।

    कि वा पुनस्तच्चरणारविन्दपरागसेवारतिरात्मलब्धा ॥

    १४॥

    अशेष--असीम; सड्क्लेश--कष्टमय स्थिति; शमम्‌--शमन; विधत्ते--सम्पन्न कर सकता है; गुण-अनुवाद--दिव्य नाम, रूप,गुण, लीला, पार्षद तथा साज-सामग्री इत्यादि का; श्रवणम्‌--सुनना तथा कीर्तन करना; मुरारे: --मुरारी ( श्रीकृष्ण ) का; किम्‌वा--और अधिक क्‍या कहा जाय; पुनः--फिर; तत्‌--उसके; चरण-अरविन्द--चरणकमल; पराग-सेवा --सुगंधित धूल कीसेवा के लिए; रतिः--आकर्षण; आत्म-लब्धा--जिन्होंने ऐसी आत्म-उपलब्धि प्राप्त कर ली है।

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण के दिव्य नाम, रूप इत्यादि के कीर्तन तथा श्रवण मात्र से मनुष्य कीअसीम कष्टप्रद अवस्थाएँ शमित हो सकती हैं।

    अतएव उनके विषय में क्या कहा जाये, जिन्होंनेभगवान्‌ के चरणकमलों की धूल की सुगंध की सेवा करने के लिए आकर्षण प्राप्त कर लियाहो?

    विदुर उवाचसज्छिन्न: संशयो मह्यं तव सूक्तासिना विभो ।

    उभयत्रापि भगवन्मनो मे सम्प्रधावति ॥

    १५॥

    विदुर: उवाच--विदुर ने कहा; सज्छिन्न:--कटे हुए; संशय:--सन्देह; महाम्‌--मेरे; तव--तुम्हारे; सूक्त-असिना--विश्वसनीयशब्द रूपी हथियार से; विभो--हे प्रभु; उभयत्र अपि--ई श्र तथा जीव दोनों में; भगवन्‌--हे शक्तिमान; मन: --मन; मे--मेरा;सम्प्रधावति--पूरी तरह प्रवेश करता है।

    विदुर ने कहा : हे शक्तिशाली मुनि, मेरे प्रभु, आपके विश्वसनीय शब्दों से पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ तथा जीवों से सम्बन्धित मेरे सारे संशय अब दूर हो गये हैं।

    अब मेरा मन पूरी तरह सेउनमें प्रवेश कर रहा है।

    साध्वेतद्व्याहतं विद्वन्नात्ममायायनं हरे: ।

    आभात्यपार्थ निर्मूलं विश्वमूलं न यद्वहि: ॥

    १६॥

    साधु--उतनी अच्छी जितनी कि होनी चाहिए; एतत्‌--ये सारी व्याख्याएँ; व्याहतम्‌--इस तरह कही गई; विद्वनू--हे विद्वान;न--नहीं; आत्म--आत्मा; माया--शक्ति; अयनम्‌--गति; हरेः-- भगवान्‌ की; आभाति-- प्रकट होती है; अपार्थम्‌--बिना अर्थके, निरर्थक; निर्मूलमू--बिना किसी आधार के, निराधार; विश्व-मूलम्‌-- भगवान्‌ जिसका उद्गम है; न--नहीं; यत्‌--जो;बहिः--बाहरी |

    हे विद्वान महर्षि, आपकी व्याख्याएँ अति उत्तम हैं जैसी कि उन्हें होना चाहिए।

    बद्धजीव केविक्षोभों का आधार भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति की गतिविधि के अलावा कुछ भी नहीं ।

    यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।

    तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जन: ॥

    १७॥

    यः--जो; च--भी; मूढ-तमः --निकृष्टतम मूर्ख; लोके --संसार में; यः च--तथा जो; बुद्धेः--बुद्धि का; परम्‌--दिव्य;गतः--गया हुआ; तौ--उन; उभौ--दोनों; सुखम्‌--सुख; एथेते-- भोगते हैं; क्लिशयति--कष्ट पाते हैं; अन्तरित:--बीच मेंस्थित; जन:--लोग।

    निकृष्ठतम मूर्ख तथा समस्त बुद्धि के परे रहने वाले दोनों ही सुख भोगते हैं, जबकि उनकेबीच के व्यक्ति भौतिक क्लेश पाते हैं।

    अर्थाभावं विनिश्ित्य प्रतीतस्यापि नात्मन: ।

    तां चापि युष्मच्चरणसेवयाहं पराणुदे ॥

    १८॥

    अर्थ-अभावम्‌--बिना सार के; विनिश्चित्य--सुनिश्चित करके; प्रतीतस्य--बाह्य मूल्यों का; अपि-- भी; न--कभी नहीं;आत्मन:--आत्मा का; तामू--उसे; च-- भी; अपि--इस तरह; युष्मत्‌-- तुम्हारे; चरण--पाँव की; सेवया--सेवाद्वारा; अहम्‌--मैं; पराणुदे--त्याग सकूँगा किन्तु

    हे महोदय, मैं आपका कृतज्ञ हूँ, क्योंकि अब मैं समझ सकता हूँ कि यह भौतिक जगत साररहित है यद्यपि यह वास्तविक प्रतीत होता है।

    मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपके चरणोंकी सेवा करने से मेरे लिए इस मिथ्या विचार को त्याग सकना सम्भव हो सकेगा।

    यत्सेवया भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विष: ।

    रतिरासो भवेत्तीत्र: पादयोव्यसनार्दन: ॥

    १९॥

    यत्‌--जिसको; सेवया--सेवा द्वारा; भगवत:ः -- भगवान्‌ का; कूट-स्थस्य--अपरिवर्तनीय का; मधु-द्विष: --मधु असुर का शत्रु;रति-रास:--विभिन्न सम्बश्धों में अनुरक्ति; भवेत्‌--उत्पन्न होती है; तीब्र:--अत्यन्त भावपूर्ण; पादयो: --चरणों की; व्यसन--क्लेश; अर्दन:--नष्ट करनेवाले

    गुरु के चरणों की सेवा करने से मनुष्य उन भगवान्‌ की सेवा में दिव्य भावानुभूति उत्पन्नकरने में समर्थ होता है, जो मधु असुर के कूटस्थ शत्रु हैं और जिनकी सेवा से मनुष्य के भौतिकक्लेश दूर हो जाते हैं।

    दुरापा ह्ल्पतपस: सेवा बैकुण्ठवर्त्मसु ।

    यत्रोपगीयते नित्यं देवदेवो जनार्दन: ॥

    २०॥

    दुरापा--दुर्लभ; हि--निश्चय ही; अल्प-तपस:--अल्प तपस्या वाले की; सेवा--सेवा; वैकुण्ठ--ईश्वर के धाम के; वर्त्मसु--मार्ग पर; यत्र--जिसमें; उपगीयते--महिमा गाई जाती है; नित्यमू--सदैव; देव--देवताओं के ; देव: --स्वामी; जन-अर्दन:--जीवों के नियन्ता |

    जिन लोगों की तपस्या अत्यल्प है वे उन शुद्ध भक्तों की सेवा नहीं कर पाते हैं जो भगवद्धामअर्थात्‌ वैकुण्ठ के मार्ग पर अग्रसर हो रहे होते हैं।

    शुद्धभक्त शत प्रतिशत उन परम प्रभु कीमहिमा के गायन में लगे रहते हैं, जो देवताओं के स्वामी तथा समस्त जीवों के नियन्ता हैं।

    सृष्ठाग्रे महदादीनि सविकाराण्यनुक्रमात्‌ ।

    तेभ्यो विराजमुद्धृत्य तमनु प्राविशद्विभु; ॥

    २१॥

    सृष्ठा--सृष्टि करके; अग्रे--प्रारम्भ में; महत्‌-आदीनि--सम्पूर्ण भौतिक शक्ति आदि की; स-विकाराणि--इन्द्रिय विषयों सहित;अनुक्रमात्‌--विभेदन की क्रमिक विधि द्वारा; तेभ्य:--उसमें से; विराजम्‌--विराट रूप; उद्धृत्य--प्रकट करके; तम्‌--उसमें ;अनु--बाद में; प्राविशत्‌-- प्रवेश किया; विभुः--परमेश्वर ने

    सम्पूर्ण भौतिक शक्ति अर्थात्‌ महत्‌ तत्त्व की सृष्टि कर लेने के बाद तथा इन्द्रियों और इन्द्रियविषयों समेत विराट रूप को प्रकट कर लेने पर परमेश्वर उसके भीतर प्रविष्ट हो गये।

    यमाहुराद्य॑ पुरुष सहस्त्राइट्यूरूबाहुकम्‌ ।

    यत्र विश्व इमे लोकाः सविकाशं त आसते ॥

    २२॥

    यम्‌--जो; आहुः--कहलाता है; आद्यम्‌ू--आदि; पुरुषम्‌--विराट जगत का अवतार; सहस्त्र--हजार; अड्प्रि--पाँव; ऊरू--जंघाएँ; बाहुकम्‌--हाथ; यत्र--जिसमें; विश्व: --ब्रह्माण्ड; इमे--ये सब; लोकाः--लोक; स-विकाशम्‌-- अपने-अपनेविकासों के साथ; ते--वे सब; आसते--रह रहे हैं।

    कारणार्णव में शयन करता पुरुष अवतार भौतिक सृष्टियों में आदि पुरुष कहलाता है औरउनके विराट रूप में जिसमें सारे लोक तथा उनके निवासी रहते हैं, उस पुरुष के कई-कई हजारहाथ-पाँव होते हैं।

    यस्मिन्द्शविध: प्राण: सेन्द्रियार्थन्द्रियस्त्रिवृत्‌ ।

    त्वयेरितो यतो वर्णास्तद्विभूतीर्वदस्व नः ॥

    २३॥

    यस्मिनू--जिसमें; दश-विध: --दस प्रकार की; प्राण:--प्राणवायु; स--सहित; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अर्थ--रुचि; इन्द्रियः--इन्द्रियों की; त्रि-वृतू--जीवनी शक्ति ( बल ) के तीन प्रकार; त्वया--आपके द्वारा; ईरित:--विवेचित; यत:--जिससे; वर्णा: --चार विभाग; ततू-विभूती:--पराक्रम; वदस्व-- कृपया वर्णन करें; न:--मुझसे |

    हे महान्‌ ब्राह्मण, आपने मुझे बताया है कि विराट रूप तथा उनकी इन्द्रियाँ, इन्द्रिय विषयतथा दस प्रकार के प्राण तीन प्रकार की जीवनीशक्ति के साथ विद्यमान रहते हैं।

    अब, यदि आपचाहें तो कृपा करके मुझे विशिष्ट विभागों ( वर्णों ) की विभिन्न शक्तियों का वर्णन करें।

    यत्र पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभि: सह गोत्रजै: ।

    प्रजा विचित्राकृतव आसन्याभिरिदं ततम्‌ ॥

    २४॥

    यत्र--जिसमें; पुत्रैः--पुत्रों; च--तथा; पौत्रै: --पौत्रों; च-- भी; नप्तृभि:--नातियों; सह--के सहित; गोत्र-जैः--एक हीपरिवार की; प्रजा:--सन्‍्तानें; विचित्र--विभिन्न प्रकार की; आकृतय:--इस तरह से की गई; आसन्‌ू--है; याभि:--जिससे;इदम्‌--ये सारे लोक; ततम्‌--विस्तार करते हैं।

    हे प्रभु, मेरे विचार से पुत्रों, पौत्रों तथा परिजनों के रूप में प्रकट शक्ति ( बल ) सारे ब्रह्माण्ड में विभिन्न रूपों तथा योनियों में फैल गयी है।

    प्रजापतीनां स पतिश्वक्रिपे कान्प्रजापतीन्‌ ।

    सर्गश्चिवानुसर्गाश्च मनून्मन्वन्तराधिपान्‌ ॥

    २५॥

    प्रजा-पतीनाम्‌--ब्रह्मा इत्यादि देवताओं के; सः--वह; पतिः--अग्रणी ; चक़िपे--निश्चय किया; कान्‌--जिस किसी को;प्रजापतीन्‌--जीवों के पिताओं; सर्गानू--सनन्‍्तानें; च-- भी; एव--निश्चय ही; अनुसर्गान्‌--बाद की सनन्‍्तानें; च-- भी; मनून्‌--मनुओं को; मन्वन्तर-अधिपान्‌--तथा ऐसों के परिवर्तन |

    हे विद्वान ब्राह्मण, कृपा करके बतायें कि किस तरह समस्त देवताओं के मुखिया प्रजापतिअर्थात्‌ ब्रह्मा ने विभिन्न युगों के अध्यक्ष विभिन्न मनुओं को स्थापित करने का निश्चय किया।

    कृपा करके मनुओं का भी वर्णन करें तथा उन मनुओं की सन्‍्तानों का भी वर्णन करें।

    उपर्यधश्च ये लोका भूमेर्मित्रात्मजासते ।

    तेषां संस्थां प्रमाणं च भूलोकस्य च वर्णय ॥

    २६॥

    उपरि--सिर पर; अध: --नीचे; च-- भी; ये--जो; लोका:--लोक; भूमे:--पृथ्बी के; मित्र-आत्मज--हे मित्रा के पुत्र ( मैत्रेयमुनि ); आसते--विद्यमान हैं; तेषामू--उनके; संस्थाम्‌--स्थिति; प्रमाणम्‌ च--उनकी माप भी; भूः-लोकस्य--पृथ्वी लोकोंका; च--भी; वर्णय--वर्णन कीजिये।

    हे मित्रा के पुत्र, कृपा करके इस बात का वर्णन करें कि किस तरह पृथ्वी के ऊपर के तथाउसके नीचे के लोक स्थित हैं और उनकी तथा पृथ्वी लोकों की प्रमाप का भी उल्लेख करें।

    तिर्यड्मानुषदेवानां सरीसृपपतत्त्रिणाम्‌ ।

    बद नः सर्गसंव्यूहं गार्भस्वेदद्विजोद्धिदाम्‌ ॥

    २७॥

    तिर्यक्‌ू--मानवेतर; मानुष--मानव प्राणी; देवानामू--अतिमानव प्राणियों या देवताओं का; सरीसृप--रेंगने वाले प्राणी;पतत्रिणाम्‌--पक्षियों का; वद--कृपया वर्णन करें; न:--मुझसे; सर्ग--उत्पत्ति; संव्यूहमू--विशिष्ट विभाग; गार्भ--गर्भस्थ;स्वेद--पसीना; ट्विज--द्विजन्मा; उद्धिदामू--लोकों आदि का।

    कृपया जीवों का विभिन्न विभागों के अन्तर्गत यथा मानवेतर, मानव, भ्रूण से उत्पन्न, पसीनेसे उत्पन्न, द्विजन्मा ( पक्षी ) तथा पौधों एवं शाकों का भी वर्णन करें।

    कृपया उनकी पीढ़ियों तथाउपविभाजनों का भी वर्णन करें।

    गुणावतारेर्विश्वस्य सर्गस्थित्यप्यया भ्रयम्‌ ।

    सृजत: श्रीनिवासस्य व्याचक्ष्वोदारविक्रमम्‌ ॥

    २८ ॥

    गुण--प्रकृति के गुणों के; अवतारैः--अवतारों का; विश्वस्य--ब्रह्माण्ड के; सर्ग--सृष्टि; स्थिति--पालन; अप्यय--संहार;आश्रयम्‌--तथा चरम विश्राम; सृजतः--स्त्रष्टा का; श्रीनिवासस्थ-- भगवान्‌ का; व्याचक्ष्व--कृपया वर्णन करें; उदार--उदार;विक्रमम्‌--विशिष्ट कार्यकलाप |

    कृपया प्रकृति के गुणावतारों-ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर-का भी वर्णन करें।

    कृपया पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ के अवतार तथा उनके उदार कार्यकलापों का भी वर्णन करें।

    वर्णाश्रमविभागां श्र रूपशीलस्वभावत: ।

    ऋषीणां जन्मकर्माणि वेदस्य च विकर्षणम्‌ ॥

    २९॥

    वर्ण-आश्रम--सामाजिक पदों तथा आध्यात्मिक संस्कृति के चार विभाग; विभागान्‌ू--पृथक्‌ -पृथक्‌ विभागों; च--भी;रूप--निजी स्वरूप; शील-स्वभावत: --निजी चरित्र; ऋषीणाम्‌--ऋषियों के; जन्म--जन्म; कर्माणि--कार्यकलाप;वेदस्य--वेदों के; च--तथा; विकर्षणम्‌--कोटियों में विभाजन

    हे महर्षि, कृपया मानव समाज के वर्णों तथा आश्रमों के विभाजनों का वर्णन उनकेलक्षणों, स्वभाव तथा मानसिक संतुलन एवं इन्द्रिय नियंत्रण के स्वरूपों के रूप के अनुसारकरें।

    कृपया महर्षियों के जन्म तथा वेदों के कोटि-विभाजनों का भी वर्णन करें।

    यज्ञस्थ च वितानानि योगस्य च पथः प्रभो ।

    नैष्कर्म्यस्थ च साड्ख्यस्य तन्त्रं वा भगवत्स्पृतम्‌ ॥

    ३०॥

    यज्ञस्य--यज्ञों का; च--भी; वितानानि--विस्तार; योगस्थ--योग शक्ति का; च-- भी; पथ:--मार्ग; प्रभो-हे प्रभु;नैष्कर्म्यस्थ--ज्ञान का; च--तथा; साड्ख्यस्य--वैश्लेषिक अध्ययन का; तन्त्रमू--भक्ति का मार्ग; वा--तथा; भगवत्‌--भगवान्‌ के सम्बन्ध में; स्मृतम्‌ू--विधि-विधान |

    कृपया विभिन्न यज्ञों के विस्तारों तथा योग शक्तियों के मार्गों, ज्ञान के वैश्लेषिक अध्ययन( सांख्य ) तथा भक्ति-मय सेवा का उनके विधि-विधानों सहित वर्णन करें।

    'पाषण्डपथवैषम्यं प्रतिलोमनिवेशनम्‌ ।

    जीवस्य गतयो याश्व यावतीर्गुणकर्मजा: ॥

    ३१॥

    पाषण्ड-पथ--अश्रद्धा का मार्ग; वैषम्यम्‌-विरोध के द्वारा अपूर्णता; प्रतिलोम--वर्णसंकर; निवेशनम्‌--स्थिति; जीवस्थ--जीवों की; गतयः--गतिविधियाँ; या: --वे जैसी हैं; च-- भी; यावती:--जितनी; गुण-- भौतिक प्रकृति के गुण; कर्म-जा:--विभिन्न प्रकार के कर्म से उत्पन्न

    कृपया श्रद्धाविहीन नास्तिकों की अपूर्णताओं तथा विरोधों का, वर्णसंकरों की स्थिति तथाविभिन्न जीवों के प्राकृतिक गुणों तथा कर्म के अनुसार विभिन्न जीव-योनियों की गतिविधियोंका भी वर्णन करें।

    धर्मार्थकाममोक्षाणां निमित्तान्यविरोधतः ।

    वार्ताया दण्डनीतेश्व श्रुतस्य च विधि पृथक्‌ ॥

    ३२॥

    धर्म--धार्मिकता; अर्थ--आर्थिक विकास; काम--इन्द्रियतृप्ति; मोक्षाणाम्‌--मोक्ष के; निमित्तानि--कारण; अविरोधत:--बिना विरोध के; वार्ताया:--जीविका के साधनों के सिद्धान्तों पर; दण्ड-नीतेः --कानून तथा व्यवस्था का; च-- भी; श्रुतस्थ--शास्त्र संहिता का; च-- भी; विधिम्‌ू--नियम; पृथक्‌--विभिन्न |

    आप धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृष्ति तथा मोक्ष के परस्पर विरोधी कारणों का और उसीके साथ जीविका के विभिन्न साधनों, विधि की विभिन्न विधियों तथा शास्त्रों में उल्लिखितव्यवस्था का भी वर्णन करें।

    श्राद्धस्य च विधि ब्रह्मन्पितृणां सर्गमेव च ।

    ग्रहनक्षत्रताराणां कालावयवसंस्थितिम्‌ ॥

    ३३॥

    श्राद्धस्य--समय-समय पर सम्मानसूचक भेंटों का; च-- भी; विधिम्‌--नियम; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; पितृणाम्‌--पूर्वजों की;सर्गम्‌ू--सृष्टि; एब--जिस तरह; च--भी; ग्रह--ग्रह प्रणाली; नक्षत्र--तारे; ताराणाम्‌--ज्योतिपिण्डों; काल--समय;अवयव-- अवधि; संस्थितिम्‌--स्थितियाँ

    कृपा करके पूर्वजों के श्राद्ध के विधि-विधानों, पितृलोक की सृष्टि, ग्रहों, नक्षत्रों तथातारकों के काल-विधान तथा उनकी अपनी-अपनी स्थितियों के विषय में भी बतलाएँ।

    दानस्य तपसो वापि यच्चेष्टापूर्तयो: फलम्‌ ।

    प्रवासस्थस्य यो धर्मो यश्च पुंस उतापदि ॥

    ३४॥

    दानस्य--दान का; तपसः--तपस्या का; वापि--बावड़ी; यत्‌--जो; च--तथा; इष्टा-- प्रयास; पूर्तयो: --जलाशयों का;'फलम्‌--सकाम फल; प्रवास-स्थस्य--घर से दूर रहने वाले का; य:ः--जो; धर्म:--कर्तव्य; यः च--और जो; पुंस:--मनुष्यका; उत--वर्णित; आपदि--आपत्ति में

    कृपया दान तथा तपस्या का एवं जलाशय खुदवाने के सकाम फलों का भी वर्णन करें।

    कृपया घर से दूर रहने वालों की स्थिति का तथा आपदग्रस्त मनुष्य के कर्तव्य का भी वर्णनकरें।

    येन वा भगवांस्तुष्येद्धर्मयोनिर्जनार्दन: ।

    सम्प्रसीदति वा येषामेतदाख्याहि मेडनघ ॥

    ३५॥

    येन--जिससे; वा--अथवा; भगवान्‌-- भगवान्‌; तुष्येत्‌--तुष्ट होता है; धर्म-योनि:--समस्त धर्मों का पिता; जनार्दन:--सारेजीवों का नियन्ता; सम्प्रसीदति--पूर्णतया तुष्ट होता है; वा--अथवा; येषाम्‌ू--जिनका; एतत्‌--ये सभी; आख्याहि--कृपयावर्णन करें; मे-- मुझसे; अनघ--हे निष्पाप पुरुष

    हे निष्पाप पुरुष, चूँकि समस्त जीवों के नियन्ता भगवान्‌ समस्त धर्मों के तथा धार्मिक कर्मकरने वाले समस्त लोगों के पिता हैं, अतएव कृपा करके इसका वर्णन कीजिये कि उन्हें किसप्रकार पूरी तरह से तुष्ट किया जा सकता है।

    अनुव्रतानां शिष्याणां पुत्राणां च द्विजोत्तम ।

    अनापृष्टमपि ब्रूयुर्गुर॒वो दीनवत्सला: ॥

    ३६॥

    अनुव्रतानाम्‌--अनुयायियों के; शिष्याणाम्‌--शिष्यों के; पुत्राणाम्‌ू--पुत्रों के; च-- भी; द्विज-उत्तम-हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ;अनापृष्टमू--अनपूछा; अपि-- भी; ब्रूयु:--कृपया वर्णन करें; गुरवः--गुरुजन; दीन-वत्सला:--दीनों के प्रति कृपालुहे ब्राह्मणश्रेष्ठ, जो गुरुजन हैं, वे दीनों पर अत्यन्त कृपालु रहते हैं।

    वे अपने अनुयायियों,शिष्यों तथा पुत्रों के प्रति सदैव कृपालु होते हैं और उनके द्वारा बिना पूछे ही सारा ज्ञान प्रदानकरते हैं।

    तत्त्वानां भगवंस्तेषां कतिधा प्रतिसड्क्रम: ।

    तत्रेमं क उपासीरन्क उ स्विदनुशेरते ॥

    ३७॥

    तत्त्वानाम्‌ू--प्रकृति के तत्त्वों का; भगवनू्‌--हे महर्षि; तेषामू--उनके; कतिधा--कितने; प्रतिसड्क्रम:--प्रलय; तत्र--वहाँ;इमम्‌-- भगवान्‌ को; के --वे कौन हैं; उपासीरनू--बचाया जाकर; के--वे कौन हैं; उ--जो; स्वित्‌--कर सकती है;अनुशेरते-- भगवान्‌ के शयन करते समय सेवा।

    कृपया इसका वर्णन करें कि भौतिक प्रकृति के तत्त्वों का कितनी बार प्रलय होता है औरइन प्रलयों के बाद जब भगवान्‌ सोये रहते हैं उन की सेवा करने के लिए कौन जीवित रहता है?

    पुरुषस्य च संस्थान स्वरूपं वा परस्थ च ।

    ज्ञानं च नैगमं यत्तदगुरुशिष्यप्रयोजनम्‌ ॥

    ३८॥

    पुरुषस्थ--जीव का; च--भी; संस्थानम्‌--अस्तित्व; स्वरूपम्‌--पहचान; वा--या; परस्थय--परम का; च-- भी; ज्ञामम्‌--ज्ञान; च--भी; नैगमम्‌--उपनिषदों के विषय में; यत्‌--जो; तत्‌ू--वही; गुरु--गुरु; शिष्य--शिष्य; प्रयोजनम्‌-- अनिवार्यता |

    जीवों तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के विषय में क्या क्‍या सच्चाइयाँ हैं ? उनके स्वरूप क्‍याक्या हैं? वेदों में ज्ञान के क्या विशिष्ट मूल्य हैं और गुरु तथा उसके शिष्यों की अनिवार्यताएँ क्‍याहैं?

    निमित्तानि च तस्येह प्रोक्तान्यनघसूरिभि: ।

    स्वतो ज्ञानं कुतः पुंसां भक्तिवैराग्यमेव वा ॥

    ३९॥

    निमित्तानि--ज्ञान का स्त्रोत; च-- भी; तस्य--ऐसे ज्ञान का; इह--इस संसार में; प्रोक्तानि-- कहे गये; अनध--निष्कलंक;सूरिभिः--भक्तों द्वारा; स्वत:ः--आत्म-निर्भर; ज्ञाममू--ज्ञान; कुतः--कैसे; पुंसामू--जीव का; भक्ति: --भक्ति; वैराग्यम्‌ू--विरक्ति; एव--निश्चय ही; वा--भी |

    भगवान्‌ के निष्कलुष भक्तों ने ऐसे ज्ञान के स्त्रोत का उल्लेख किया है।

    ऐसे भक्तों कीसहायता के बिना कोई व्यक्ति भला किस तरह भक्ति तथा वैराग्य के ज्ञान को पा सकता है?

    एतान्मे पृच्छतः प्रशनानहरे: कर्मविवित्सया ।

    ब्रृहि मेउज्ञस्य मित्र॒त्वादजया नष्टचक्षुष: ॥

    ४०॥

    एतानू--ये सारे; मे--मेरे; पृच्छत: -- पूछने वाले के; प्रश्नान्‌-- प्रश्नों को; हरेः-- भगवान्‌ की; कर्म--लीलाएँ; विवित्सया--जानने की इच्छा करते हुए; ब्रूहि--कृपया वर्णन करें; मे-- मुझसे; अज्ञस्थ--अज्ञानी की; मित्रत्वातू-मित्रता के कारण;अजया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; नष्ट-चक्षुष:--वे जिनकी दृष्टि नष्ट हो चुकी है।

    हे मुनि, मैंने आपके समक्ष इन सारे प्रश्नों को अर्थात्‌ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हरि कीलीलाओं को जानने के उद्देश्य से ही रखा है।

    आप सबों के मित्र हैं, अतएव कृपा करके उन सबोंके लाभार्थ जिनकी दृष्टि नष्ट हो चुकी हैं उनका वर्णन करें।

    सर्वे वेदाश्व यज्ञाश्न तपो दानानि चानघ ।

    जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन्‍्कलामपि ॥

    ४१॥

    सर्वे--सभी तरह के; वेदा:ः--वेदों के विभाग; च-- भी; यज्ञा:--यज्ञ; च-- भी; तप:--तपस्याएँ; दानानि--दान; च--तथा;अनघ--हे निष्कलुष; जीव--जीव; अभय--भौतिक पीड़ाओं से मुक्ति; प्रदानस्य--ऐसा आश्वासन देने वाले का; न--नहीं;कुर्वीरनू--बराबरी की जा सकती है; कलाम्‌ू--अंशतः भी; अपि--निश्चय ही

    हे अनघ, इन सरे प्रश्नों के आप के द्वारा दिए जाने वाले उत्तर समस्त भौतिक कष्टों से मुक्ति दिला सकेंगे।

    ऐसा दान समस्त वैदिक दानों, यज्ञों, तपस्याओं इत्यादि से बढ़कर है।

    श्रीशुक उवाचस इत्थमापृष्टपुराणकल्पः कुरुप्रधानेन मुनिप्रधान: ।

    प्रवृद्धर्षो भगवत्कथायां सद्जोदितस्तं प्रहसन्निवाह ॥

    ४२॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह; इत्थम्‌--इस प्रकार; आपृष्ट-- पूछे जाने पर; पुराण-कल्प:--जोबेदों के पूरकों ( पुराणों ) की व्याख्या करना जानता है; कुरु-प्रधानेन--कुरुओं के प्रधान द्वारा; मुनि-प्रधान:--प्रमुख मुनि;प्रवृद्ध-पर्याप्त रूप से समृद्ध; हर्ष:--सन्तोष; भगवत्‌-- भगवान्‌ की; कथायाम्‌--कथाओं में; सज्ञोदित:--इस तरह प्रेरितहोकर; तम्‌--विदुर को; प्रहसन्‌--हँसते हुए; इब--मानो; आह--उत्तर दिया।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह वे मुनियों में-प्रधान, जो भगवान्‌ विषयक कथाओंका वर्णन करने के लिए सदैव उत्साहित रहते थे, विदुर द्वारा इस तरह प्रेरित किये जाने परपुराणों की विवरणात्मक व्याख्या का बखान करने लगे।

    वे भगवान्‌ के दिव्य कार्यकलापों केविषय में बोलने के लिए अत्यधिक उत्साहित थे।

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    अध्याय आठ: गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा की अभिव्यक्ति

    3.8मैत्रेय उवाचसत्सेवनीयो बत पूरुवंशोयल्लोकपालो भगवत्प्रधान:।

    बभूविथेहाजितकीर्तिमालांपदे पदे नूतनयस्यभीक्षणम्‌ ॥

    १॥

    मैत्रेयः उवाच-- श्रीमैत्रेय मुनि ने कहा; सत्‌-सेवनीय:--शुद्ध भक्तों की सेवा करने का पात्र; बत--ओह, निश्चय ही; पूरू-बंश:--राजा पूरु का वंश; यत्‌--क्योंकि; लोक-पाल:--राजा हैं; भगवत्‌-प्रधान:-- भगवान्‌ के प्रति मुख्य रूप से अनुरक्त;बभूविथ--तुम भी उत्पन्न थे; हह--इसमें; अजित--अजेय भगवान्‌; कीर्ति-मालाम्‌--दिव्य कार्यों की श्रृंखला; पदे पदे--प्रत्येक पग पर; नूतनयसि--नवीन से नवीनतर बनते हो; अभीक्ष्णमम्‌--सदैव।

    महा-मुनि मैत्रेय ने विदुर से कहा : राजा पूरु का राजवंश शुद्ध भक्तों की सेवा करने केलिए योग्य है, क्योंकि उस वंश के सारे उत्तराधिकारी भगवान्‌ के प्रति अनुरक्त हैं।

    तुम भी उसीकुल में उत्पन्न हो और यह आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे प्रयास से भगवान्‌ की दिव्य लीलाएँप्रतिक्षण नूतन से नूतनतर होती जा रही हैं।

    सोउहं नृणां क्षुल्लसुखाय दु:खंमहदगतानां विरमाय तस्य ।

    प्रवर्तये भागवतं पुराणं यदाह साक्षाद्धगवानृषि भ्य: ॥

    २॥

    सः--वह; अहम्‌-मैं; नृणाम्‌--मनुष्यों के; क्षुलल--अत्यल्प; सुखाय--सुख के लिए; दुःखम्‌--दुख; महत्‌-- भारी;गतानाम्‌-को प्राप्त; विरमाय--शमन हेतु; तस्थ--उसका; प्रवर्तये--प्रारम्भ में; भागवतम्‌-- श्रीमद्भागवत; पुराणम्‌--पुराणमें; यत्‌ू--जो; आह--कहा; साक्षात्‌--प्रत्यक्ष; भगवानू-- भगवान्‌ ने; ऋषिभ्य:--ऋषियों से |

    अब मैं भागवत पुराण से प्रारम्भ करता हूँ जिसे भगवान्‌ ने प्रत्यक्ष रूप से महान्‌ ऋषियों सेउन लोगों के लाभार्थ कहा था, जो अत्यल्प आनन्द के लिए अत्यधिक कष्ट में फँसे हुए हैं।

    आसीनमुर्व्या भगवन्तमाद्यंसड्डूर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम्‌ ।

    विवित्सवस्तत्त्वमत: परस्यकुमारमुख्या मुनयोउन्वपृच्छन्‌ ॥

    ३॥

    आसीनमू--विराजमान; उर्व्याम्‌-ब्रह्माण्ड की तली पर; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ को; आद्यम्‌ू--आदि; सद्डूर्षणम्‌--संकर्षण को;देवम्‌--भगवान्‌; अकुण्ठ-सत्त्वम्‌--अबाध ज्ञान; विवित्सव: --जानने के लिए उत्सुक; तत्त्वम्‌ अत:--इस प्रकार का सत्य;परस्य-- भगवान्‌ के विषय में; कुमार--बाल सन्त; मुख्या: --इत्यादि, प्रमुख; मुनयः--मुनियों ने; अन्वपृच्छन्‌ू--इसी तरह सेपूछा

    कुछ काल पूर्व तुम्हारी ही तरह कुमार सन्तों में प्रमुख सनत्‌ कुमार ने अन्य महर्षियों के साथ जिज्ञासावश ब्रह्माण्ड की तली में स्थित भगवान्‌ संकर्षण से भगवान्‌ वासुदेव विषयक सत्यों केबारे में पूछा था।

    स्वमेव धिष्ण्यं बहु मानयन्तंयद्वासुदेवाभिधमामनन्ति ।

    प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीषद्‌उन्मीलयन्तं विबुधोदयाय ॥

    ४॥

    स्वमू-स्वयं; एब--इस प्रकार; धिष्ण्यमू--स्थित; बहु--अत्यधिक; मानयन्तम्‌--माननीय; यत्‌--जो; वासुदेव-- भगवान्‌वासुदेव; अभिधम्‌-- नामक; आमनन्ति-- स्वीकार करते हैं; प्रत्यकू-धृत-अक्ष-- भीतर झाँकने के लिए टिकी आँखें; अम्बुज-कोशम्‌--कमल सहश नेत्र; ईषघत्‌--कुछ-कुछ; उनन्‍्मीलयन्तम्‌--खुली हुईं; विबुध--अत्यन्त विद्वान ऋषियों की; उदयाय--प्रगति के लिए

    उस समय भगवान्‌ संकर्षण अपने परमेश्वर का ध्यान कर रहे थे जिन्हें विद्वज्नन भगवान्‌वासुदेव के रूप में सम्मान देते हैं।

    किन्तु महान्‌ पंडित मुनियों की उन्नति के लिए उन्होंने अपनेकमलवत्‌ नेत्रों को कुछ-कुछ खोला और बोलना शुरू किया।

    स्वर्धुन्युदाद्रं: स्‍्वजटाकलापै-रुपस्पृशन्तश्चरणोपधानम्‌ ।

    पद्म यरदर्चन्त्यहिराजकन्या:सप्रेम नानाबलिभिववरार्था: ॥

    ५॥

    स्वर्धुनी-उद--गंगा के जल से; आर्द्रै:-- भीगे हुए; स्व-जटा--बालों का गुच्छा; कलापै: --सिर पर स्थित; उपस्पृशन्तः--इसतरह छूने से; चरण-उपधानम्‌--उनके चरणों की शरण; पद्मम्‌ू--कमल चरण; यत्‌--जो; अर्चन्ति--पूजा करते हैं; अहि-राज--सर्पों का राजा; कन्या: --पुत्रियाँ; स-प्रेम--अतीव भक्ति समेत; नाना--विविध; बलिभि:--साज-सामग्री द्वारा; बर-अर्था:--पतियों की इच्छा से।

    चूँकि मुनिगण गंगानदी के माध्यम से उच्चतर लोकों से निम्नतर भाग में आये थे,फलस्वरूप उनके सिर के बाल भीगे हुए थे।

    उन्होंने भगवान्‌ के उन चरणकमलों का स्पर्श कियाजिनकी पूजा नागराज की कन्याओं द्वारा अच्छे पति की कामना से विविध सामग्री द्वारा की" जाती है।

    मुहुर्गुणन्तो बचसानुराग-स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञा: ।

    किरीटसाहस्त्रमणिप्रवेकप्रद्योतितोद्यमफणासहस्त्रमू ॥

    ६॥

    मुहुः--बार बार; गृणन्त:--गुणगान करते; वचसा--शब्दों से; अनुराग--अतीव स्नेह से; स्खलत्‌ू-पदेन--सम लय के साथ;अस्य--भगवान्‌ के; कृतानि--कार्यकलाप; तत्‌-ज्ञाः:--लीलाओं के जानने वाले; किरीट--मुकुट; साहस्त्र--हजारों; मणि-प्रवेक--मणियों के चमचमाते तेज; प्रद्योतित--उद्भासित; उद्याम--उठे हुए; फणा--फन; सहस्त्रमू--हजारों |

    सनत्‌ कुमार आदि चारों कुमारों ने जो भगवान्‌ की दिव्य लीलाओं के विषय में सब कुछजानते थे, स्नेह तथा प्रेम से भरे चुने हुए शब्दों से लय सहित भगवान्‌ का गुणगान किया।

    उससमय भगवान्‌ संकर्षण अपने हजारों फनों को उठाये हुए अपने सिर की चमचमाती मणियों सेतेज बिखेरने लगे।

    प्रोक्त किलैतद्धगवत्तमेननिवृत्तिधर्माभिरताय तेन ।

    सनत्कुमाराय स चाह पृष्ठ:साड्ख्यायनायाडु धृतब्रताय ॥

    ७॥

    प्रोक्तमू--कहा गया था; किल--निश्चय ही; एतत्‌--यह; भगवत्तमेन-- भगवान्‌ संकर्षण द्वारा; निवृत्ति--वैराग्य; धर्म-अभिरताय--इस धार्मिक ब्रत को धारण करने वाले के लिए; तेन--उसके द्वारा; सनत्‌-कुमाराय--सनत्‌ कुमार को; सः--उसने; च-- भी; आह--कहा; पृष्ट: --पूछे जाने पर; साड्ख्यायनाय--सांख्यायन नामक महर्षि को; अड्--हे विदुर; धृत-ब्रताय--ब्रत धारण करने वाले को |

    इस तरह भगवान्‌ संकर्षण ने उन महर्षि सनत्कुमार से श्रीमद्भागवत का भावार्थ कहाजिन्होंने पहले से वैराग्य का व्रत ले रखा था।

    सनत्कुमार ने भी अपनी पारी में सांख्यायन मुनिद्वारा पूछे जाने पर श्रीमद्भागवत को उसी रूप में बतलाया जिस रूप में उन्होंने संकर्षण से सुनाथा।

    साड्ख्यायनः पारमहंस्यमुख्यो विवक्षमाणो भगवद्विभूती: ।

    जगाद सोस्मदगुरवेडन्वितायपराशरायाथ बृहस्पतेश्व ॥

    ८ ॥

    साइ्ख्यायन:--महर्षि सांख्यायन; पारमहंस्य-मुख्य:--समस्त अध्यात्मवादियों में प्रमुख; विवक्षमाण:--बाँचते समय; भगवत्‌ू-विभूती:-- भगवान्‌ की महिमाएँ; जगाद--बतलाया; सः--उसने; अस्मत्‌--मेरे; गुरवे--गुरु को; अन्विताय--अनुसरण किया;'पराशराय--पराशर मुनि के लिए; अथ बृहस्पतेः च--बृहस्पति को भी

    सांख्यायन मुनि अध्यात्मवादियों में प्रमुख थे और जब वे श्रीमद्भागवत के शब्दों में भगवान्‌की महिमाओं का वर्णन कर रहे थे तो ऐसा हुआ कि मेरे गुरु पराशर तथा बृहस्पति दोनों नेउनको सुना।

    प्रोवाच मह्यं स दयालुरुक्तोमुनि: पुलस्त्येन पुराणमाद्यम्‌ ।

    सोहं तवैतत्कथयामि वत्सश्रद्धालवे नित्यमनुत्रताय ॥

    ९॥

    प्रोवाच--कहा; महाम्‌--मुझसे; सः-- उसने; दयालु:--दयालु; उक्त: --उपर्युक्त; मुनि:--मुनि; पुलस्त्येन--पुलस्त्य मुनि से;पुराणम्‌ आद्यम्‌--समस्त पुराणों में अग्रगण्य; सः अहम्‌--और वह भी मैं; तब--तुम से; एतत्‌--यह; कथयामि--कहता हूँ;बत्स--पुत्र; श्रद्धालवे-- श्रद्धालु के लिए; नित्यमू--सदैव; अनुब्रताय-- अनुयायी के लिए

    जैसा कि पहले कहा जा चुका है महर्षि पराशर ने महर्षि पुलस्त्य के द्वारा कहे जाने पर मुझेअग्रगण्य पुराण ( भागवत ) सुनाया।

    हे पुत्र, जिस रूप में उसे मैंने सुना है उसी रूप में में तुम्हारेसम्मुख उसका वर्णन करूँगा, क्योंकि तुम सदा ही मेरे श्रद्धालु अनुयायी रहे हो।

    जज फुत क्‍जलानचाज पजारएएणजयन्निद्रयामीलितहृड्न्यमीलयत्‌ ।

    अहीन्द्रतल्पेदधिशयान एक:कृतक्षण: स्वात्मरतौ निरीह: ॥

    १०॥

    उद--जल में; आप्लुतम्‌--डूबे, निमग्न; विश्वम्‌--तीनों जगतों को; इृदमू--इस; तदा--उस समय; आसीत्‌--यह इसी तरह था;यत्‌--जिसमें; निद्रया--नींद में; अमीलित--बन्द की; हक्‌--आँखें; न्‍्यमीलयत्‌--पूरी तरह से बन्द नहीं; अहि-इन्द्र--महान्‌सर्प अनन्त; तल्पे--शय्या में; अधिशयान:--लेटे हुए; एक:--एकाकी; कृत-क्षण:--व्यस्त; स्व-आत्म-रतौ--अपनी अन्तरंगाशक्ति का आनन्द लेते; निरीह:--बहिरंगा शक्ति के किसी अंश के बिना।

    उस समय जब तीनों जगत जल में निमग्न थे तो गर्भोदकशायी विष्णु महान्‌ सर्प अनन्त कीअपनी शय्या में अकेले लेटे थे।

    यद्यपि वे अपनी निजी अन्तरंगा शक्ति में सोये हुए लग रहे थेऔर बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से मुक्त थे, किन्तु उनकी आँखें पूर्णतया बन्द नहीं थीं।

    सोउन्तः शरीरेउर्पितभूतसूक्ष्म:कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाण: ।

    उवास तस्मिन्सलिले पदे स्वेयथानलो दारुणि रुद्धवीर्य: ॥

    ११॥

    सः--भगवान्‌; अन्तः-- भीतर; शरीरे--दिव्य शरीर में; अर्पित-- रखा हुआ; भूत-- भौतिक तत्त्व; सूक्ष्म: --सूक्ष्म; काल-आत्मिकाम्‌ू--काल का स्वरूप; शक्तिमू--शक्ति; उदीरयाण:--अर्जित करते हुए; उबास--निवास किया; तस्मिन्‌--उस में;सलिले--जल में; पदे--स्थान में; स्वे--निजी; यथा--जिस तरह; अनलः--अग्नि; दारुणि--लक ड़ी में; रुद्ध-वीर्य:--लीनशक्ति

    जिस तरह ईंधन के भीतर अग्नि की शक्ति छिपी रहती है उसी तरह भगवान्‌ समस्त जीवोंको उनके सूक्ष्म शरीरों में लीन करते हुए प्रलय के जल के भीतर पड़े रहे।

    वे काल नामक स्वतःअर्जित शक्ति में लेटे हुए थे।

    चतुर्युगानां च सहस्त्रमप्सुस्वपन्स्वयोदीरितया स्वशकत्या ।

    कालाख्ययासादितकर्मतन्त्रोलोकानपीतान्दहृशे स्वदेहे ॥

    १२॥

    चतुः--चार; युगानाम--युगों के; च-- भी; सहस्त्रमू--एक हजार; अप्सु--जल में; स्वपन्‌ू--निद्रा में स्वप्न देखते हुए; स्वया--अपनी अन्तरंगा शक्ति के साथ; उदीरितया--आगे विकास के लिए; स्व-शकत्या--अपनी निजी शक्ति से; काल-आख्यया--काल नाम से; आसादित--इस तरह व्यस्त रहते हुए; कर्म-तन्त्र:ः--सकाम कर्मो के मामले में; लोकान्‌--सारे जीवों को;अपीतान्‌ू--नीलाभ; ददहशे-- देखा; स्व-देहे -- अपने ही शरीर में |

    भगवान्‌ अपनी अन्तरंगा शक्ति में चार हजार युगचक्रों तक लेटे रहे और अपनी बहिरंगाशक्ति से जल के भीतर सोते हुए प्रतीत होते रहे।

    जब सारे जीव कालशक्ति द्वारा प्रेरित होकरअपने सकाम कर्मों के आगे के विकास के लिए बाहर आ रहे थे तो उन्होंने अपने दिव्य शरीर कोनीले रंग का देखा।

    तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्ट दृष्टेरअन्तर्गतो$र्थो रजसा तनीयान्‌ ।

    गुणेन कालानुगतेन विद्धःसूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात्‌ ॥

    १३॥

    तस्य--उसका; अर्थ--विषय; सूक्ष्म--सूक्ष्म; अभिनिविष्ट-दृष्टे:--जिसका ध्यान स्थिर किया गया था, उसका; अन्त:-गत:--आन्तरिक; अर्थ: -- प्रयोजन; रजसा--रजोगुण से; तनीयान्‌--अत्यन्त सूक्ष्म; गुणेन--गुणों के द्वारा; काल-अनुगतेन--कालक्रम में; विद्ध:ः--श्षुब्ध किया गया; सूष्यन्‌--उत्पन्न करते हुए; तदा--तब; अभिद्यत--वेध दिया; नाभि-देशात्‌--उदर से |

    सृष्टि का सूक्ष्म विषय-तत्व, जिस पर भगवान्‌ का ध्यान टिका था, भौतिक रजोगुण द्वाराविश्षुब्ध हुआ।

    इस तरह से सृष्टि का सूक्ष्म रूप उनके उदर ( नाभि ) से बाहर निकल आया।

    स पद्यकोशः सहसोदतिष्ठत्‌कालेन कर्मप्रतिबोधनेन ।

    स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालंविद्योतयन्नर्क इवात्मयोनि: ॥

    १४॥

    सः--वह; पढ-कोश:--कमल के फूल की कली; सहसा--एकाएक; उदतिष्ठत्‌-- प्रकट हुई; कालेन--काल के द्वारा;कर्म--सकाम कर्म; प्रतिबोधनेन--जगाते हुए; स्व-रोचिषा-- अपने ही तेज से; तत्‌ू--वह; सलिलम्‌--प्रलय का जल;विशालम्‌--अपार; विद्योतवन्‌--प्रकाशित करते हुए; अर्क:--सूर्य; इब--सहृश; आत्म-योनि:--विष्णु से उत्पन्न |

    जीवों के सकाम कर्म के इस समग्र रूप ने भगवान्‌ विष्णु के शरीर से प्रस्फुटित होते हुएकमल की कली का स्वरूप धारण कर लिया।

    फिर उनकी परम इच्छा से इसने सूर्य की तरह हरवस्तु को आलोकित किया और प्रलय के अपार जल को सुखा डाला।

    तल्लोकपदां स उ एव विष्णु:प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम्‌ ।

    तस्मिन्स्वयं वेदमयो विधातास्वयम्भुवं यं सम वदन्ति सोभूत्‌ ॥

    १५॥

    तत्‌--उस; लोक--ब्रह्माण्ड के; पढ्ममू--कमल को; सः--वह; उ--निश्चय ही; एब--वस्तुत: ; विष्णु: -- भगवान्‌;प्रावीविशत्‌-- भीतर घुसा; सर्व--समस्त; गुण-अवभासम्‌--समस्त गुणों का आगार; तस्मिन्‌--जिसमें; स्वयम्‌--खुद; बेद-मयः--साक्षात्‌ वैदिक; विधाता--ब्रह्माण्ड का नियंत्रक; स्वयम्‌-भुवम्‌--स्वतः उत्पन्न; यमू--जिसको; स्म--भूतकाल में;बदन्ति--कहते हैं; सः--वह; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ |

    उस ब्रह्माण्डमय कमल पुष्प के भीतर भगवान्‌ विष्णु परमात्मा रूप में स्वयं प्रविष्ट हो गयेऔर जब यह इस तरह भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों से गर्भित हो गया तो साक्षात्‌ वैदिक ज्ञानउत्पन्न हुआ जिसे हम स्वयंभुव ९ ब्रह्मा ) कहते हैं।

    तस्यां स चाम्भोरुहकर्णिकाया-मवस्थितो लोकमपश्यमान: ।

    परिक्रमन्व्योम्नि विवृत्तनेत्र-श्वत्वारि लेभेडनुदिशं मुखानि ॥

    १६॥

    तस्याम्‌ू--उसमें; सः--वे; च--तथा; अम्भ: --जल; रुह-कर्णिकायाम्‌--कमल का कोश; अवस्थित:--स्थित हुआ;लोकमू्‌--जगत; अपश्यमान:--देख पाये बिना; परिक्रमन्‌--परिक्रमा करते हुए; व्योग्नि--आकाश में; विवृत्त-नेत्र: --आँखेचलाते हुए; चत्वारि--चार; लेभे--प्राप्त किये; अनुदिशम्‌--दिशाओं के रूप में; मुखानि--सिर।

    कमल के फूल से उत्पन्न हुए ब्रह्मा जगत को नहीं देख सके यद्यपि वे कोश में स्थित थे।

    अतः उन्होंने सारे अन्तरिक्ष की परिक्रमा की और सभी दिशाओं में अपनी आँखें घुमाते समयउन्होंने चार दिशाओं के रूप में चार सिर प्राप्त किये।

    तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण-जलोर्मिचक्रात्सलिलाद्विरूढम्‌ ।

    उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वंनात्मानमद्धाविददादिदेव: ॥

    १७॥

    तस्मात्‌ू--वहाँ से; युग-अन्त--युग के अन्त में; श्रसन--प्रलय की वायु; अवधूर्ण--गति के कारण; जल--जल; ऊर्मि-चक्रात्‌-- भँवरों में से; सलिलात्‌--जल से; विरूढम्‌--उन पर स्थित; उपाभ्रित:--आश्रय के रूप में; कञ्ममू--कमल के फूलको; उ--आश्चर्य में; लोक-तत्त्वम्‌--सृष्टि का रहस्य; न--नहीं; आत्मानम्‌--स्वयं को; अद्धा--पूर्णरूपेण; अविदत्‌--समझसका; आदि-देव:--प्रथम देवता ।

    उस कमल पर स्थित ब्रह्मा न तो सृष्टि को, न कमल को, न ही अपने आपको भलीभाँतिसमझ सके ।

    युग के अन्त में प्रलय वायु जल तथा कमल को बड़ी-बड़ी भँवरों में हिलाने लगी।

    कक एष योसावहमब्जपृष्ठएतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु ।

    अस्ति हाधस्तादिह किड्जनैत-दथिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम्‌ ॥

    १८॥

    कः--कौन; एष: --यह; यः असौ अहम्‌--जो मैं हूँ; अब्ज-पृष्ठे--कमल के ऊपर; एतत्‌--यह; कुतः--कहाँ से; वा-- अथवा;अब्जमू--कमल का फूल; अनन्यत्‌--अन्यथा; अप्सु--जल में; अस्ति-- है; हि--निश्चय ही; अधस्तात्‌--नीचे से; इह--इस में;किज्लन--कुछ भी; एतत्‌--यह; अधिष्ठितम्‌--स्थित; यत्र--जिसमें; सता--स्वत:; नु--या नहीं; भाव्यम्‌ू--होना चाहिए

    ब्रह्माजी ने अपनी अनभिज्ञता से विचार किया : इस कमल के ऊपर स्थित मैं कौन हूँ? यह( कमल ) कहाँ से फूटकर निकला है? इसके नीचे कुछ अवश्य होना चाहिए और जिससे यहकमल निकला है उसे जल के भीतर होना चाहिए।

    स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल-नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश ।

    नार्वग्गतस्तत्खरनालनाल-नाभि विचिन्व॑ंस्तदविन्दताज: ॥

    १९॥

    सः--वह ( ब्रह्मा ); इत्थम्‌--इस प्रकार से; उद्दीक्ष्य--विचार करके; तत्‌ू--वह; अब्जन--कमल; नाल--डंठल; नाडीभि:--नली द्वारा; अन्त:-जलम्‌--जल के भीतर; आविवेश--घुस गया; न--नहीं; अर्वाकु-गत:-- भीतर जाने के बावजूद; तत्‌-खर-नाल--कमल-नाल; नाल--नली; नाभिमू--नाभि की; विचिन्वन्‌--सोचते हुए; तत्‌--वह; अविन्दत--समझ गया; अजः--स्वयंभुव।

    इस तरह विचार करते हुए ब्रह्मजी कमल नाल के र्ध्रों ( छिद्रों) से होकर जल के भीतरप्रविष्ट हुए।

    किन्तु नाल में प्रविष्ट होकर तथा विष्णु की नाभि के निकटतम जाकर भी वे जड़( मूल ) का पता नहीं लगा पाये।

    तमस्यपारे विदुरात्मसर्गविचिन्वतो भूत्सुमहांस्त्रिणेमि: ।

    यो देहभाजां भयमीरयाण:परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेति: ॥

    २०॥

    तमसि अपारे--ढूँढने के अज्ञानपूर्ण ढंग के कारण; विदुर--हे विदुर; आत्म-सर्गमू--अपनी सृष्टि का कारण; विचिन्ब॒तः --सोचते हुए; अभूत्‌--हो गया; सु-महान्‌--अत्यन्त महान्‌; त्रि-नेमि:--त्रिनेमी का काल; य:--जो; देह-भाजाम्‌ू--देहधारी का;भयम्‌--भय; ईरयाण: --उत्पन्न करते हुए; परिक्षिणोति--एक सौ वर्ष कम करते हुए; आयु:--आयु; अजस्य--अजन्मा का;हेतिः:--शाश्वत काल का चक्र |

    हे विदुर, अपने अस्तित्व के विषय में इस तरह खोज करते हुए ब्रह्म अपने चरमकाल में पहुँच गये, जो विष्णु के हाथों में शाश्वत चक्र है और जो जीव के मन में मृत्यु-भय की क्रान्तिभय उत्पन्न करता है।

    ततो निवृत्तोप्रतिलब्धकाम:स्वधिष्ण्यमासाद्य पुन: स देव: ।

    शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तोन्यषीददारूढसमाधियोग: ॥

    २१॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; निवृत्त:--उस प्रयास से विरत होकर; अप्रतिलब्ध-काम:--वांछित लक्ष्य को प्राप्त किये बिना; स्व-धिष्ण्यमू--अपने आसन पर; आसाद्य-पहुँच कर; पुनः--फिर; सः--वह; देव:--देवता; शनैः--अविलम्ब; जित-ध्वास--श्वास को नियंत्रित करते हुए; निवृत्त--विरत; चित्त:--बुद्द्ि; न्‍्यषीदत्‌--बैठ गया; आरूढ--विश्वास में; समाधि-योग: --भगवान्‌ का ध्यान करने के लिए।

    तत्पश्चात्‌ वॉछित लक्ष्य प्राप्त करने में असमर्थ होकर वे ऐसी खोज से विमुख हो गये औरपुनः कमल के ऊपर आ गये।

    इस तरह इन्द्रियविषयों को नियंत्रित करते हुए उन्होंने अपना मनपरमेश्वर पर एकाग्र किया।

    कालेन सोज: पुरुषायुषाभि-प्रवृत्तयोगेन विरूढबोध: ।

    स्वयं तदन्तईदयेवभातम्‌अपश्यतापश्यत यत्न पूर्वम्‌ ॥

    २२॥

    कालेन--कालक्रम में; सः--वह; अज: --स्वयंभुव ब्रह्मा; पुरुष-आयुषा--अपनी आयु से; अभिप्रवृत्त--लगा रहकर;योगेन--ध्यान में; विरूढद--विकसित; बोध: --बुद्द्धि: स्वयम्‌; स्वयम्‌--स्वतः ; तत्‌ अन्त:-हृदये--हृदय में; अवभातम्‌--प्रकटहुआ; अपश्यत--देखा; अपश्यत--देखा; यत्‌--जो; न--नहीं ; पूर्वम्‌ू--इसके पहले ।

    अपने सौ वर्षों के बाद जब ब्रह्मा का ध्यान पूरा हुआ तो उन्होंने वांछित ज्ञान विकसित किया" जिसके फलस्वरूप वे अपने ही भीतर अपने हृदय में परम पुरुष को देख सके जिन्हें वे इसकेपूर्व महानतम्‌ प्रयास करने पर भी नहीं देख सके थे।

    मृणालगौरायतशेषभोग-पर्यट्डू एकं पुरुष शयानम्‌ ।

    'फणातपत्रायुतमूर्थरत्तझुभिहतध्वान्तयुगान्ततोये ॥

    २३॥

    मृणाल--कमल का फूल; गौर--पूरी तरह सफेद; आयत--विराट; शेष-भोग--शेषनाग का शरीर; पर्यद्ले--शय्या पर;एकम्‌--अकेले; पुरुषम्‌--परम पुरुष; शयानम्‌--लेटे हुए; फण-आतपत्र--सर्प के फन का छाता; आयुत--सज्जित; मूर्ध--सिर; रत्न--रत्न की; द्युभि:--किरणों से; हत-ध्वान्त--अँधेरा दूर हो गया; युग-अन्त--प्रलय; तोये--जल में |

    ब्रह्म यह देख सके कि जल में शेषनाग का शरीर विशाल कमल जैसी श्वेत शय्या था जिसपर भगवान्‌ अकेले लेटे थे।

    सारा वायुमण्डल शेषनाग के फन को विभूषित करने वाले रत्नों कीकिरणों से प्रदीप्त था और इस प्रकाश से उस क्षेत्र का समस्त अंधकार मिट गया था।

    प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलादिःसब्ध्याभ्रनीवेरुरुरुक्ममूर्ध्न: ।

    रत्नोदधारौषधिसौमनस्यवनस्त्रजो वेणुभुजाडुप्रिपाड्स़े: ॥

    २४॥

    प्रेक्षामू--दृश्य; क्षिपन्तम्‌--उपहास करते हुए; हरित--हरा; उपल--मूँगे के; अद्वेः--पर्वत का; सन्ध्या-अभ्च-नीवे: --सांध्यकालीन आकाश का वस्त्र; उरु--महान्‌; रुक्म--स्वर्ण ; मूर्धश्ध; --शिखर पर; रत्तन--रल; उदधार--झरने; औषधि--जड़ी -बूटियाँ; सौमनस्य--हृश्य का; वन-स्त्रज:--फूल की माला; वेणु--वस्त्र; भुज--हाथ; अड्घ्रिप--वृक्ष; अद्ख्रे:--पाँव |

    भगवान्‌ के दिव्य शरीर की कान्ति मूँगे के पर्वत की शोभा का उपहास कर रही थी।

    मूँगे कापर्वत संध्याकालीन आकाश द्वारा सुन्दर ढंग से वस्त्राभूषित होता है, किन्तु भगवान्‌ का पीतवस्त्रउसकी शोभा का उपहास कर रहा था।

    इस पर्वत की चोटी पर स्वर्ण है, किन्तु रत्नजटितभगवान्‌ का मुकुट इसकी हँसी उड़ा रहा था।

    पर्वत के झरने, जड़ी-बूटियाँ आदि फूलों के दृश्यके साथ मालाओं जैसे लगते हैं, किन्तु भगवान्‌ का विराट शरीर तथा उनके हाथ-पाँव रत्नों,मोतियों, तुलसीदल तथा फूलमालाओं से अलंकृत होकर उस पर्वत के दृश्य का उपहास कर रहेथे।

    आयामतो विस्तरतः स्वमान-देहेन लोकत्रयसड्ग्रहेण ।

    विचित्रदिव्याभरणांशुकानांकृतश्रियापाश्रितवेषदेहम्‌ ॥

    २५॥

    आयामतः--लम्बाई से; विस्तरत:--चौड़ाई से; स्व-मान--अपने ही माप से; देहेन--दिव्य शरीर से; लोक-त्रय--तीन( उच्चतर, मध्य तथा निम्न ) लोक; सड्ग्रहेण --पूर्ण निमग्नता द्वारा; विचित्र--नाना प्रकार का; दिव्य--दिव्य; आभरण-अंशुकानाम्‌ू--आभूषणों की किरणों से; कृत-भ्रिया अपाश्रित--उन वस्त्रों तथा आभूषणों से उत्पन्न सौन्दर्य; वेष--वेश;देहम्‌ू--दिव्य शरीर

    उनके दिव्य शरीर की लम्बाई तथा चौड़ाई असीम थी और वह तीनों लोकों-उच्च, मध्यतथा निम्न-लोकों में फैली हुई थी।

    उनका शरीर अद्वितीय वेश तथा विविधता सेस्वतःप्रकाशित था और भलीभाँति अलंकृत था।

    पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गै -रभ्यर्चतां कामदुघाडुप्रिपद्यम्‌ ।

    प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु-मयूखभिन्नाडुलिचारुपत्रम्‌ ॥

    २६॥

    पुंसामू-मनुष्यों का; स्व-कामाय--अपनी इच्छा के अनुसार; विविक्त-मार्गं:--शक्ति मार्ग द्वारा; अभ्यर्चताम्‌--पूजित; काम-दुघ-अड्प्रि-पद्ममू-- भगवान्‌ के चरणकमल जो मनवांछित फल देने वाले हैं; प्रदर्शयन्तम्‌--उन्हें दिखलाते हुए; कृपया--अहैतुकी कृपा द्वारा; नख--नाखून; इन्दु-- चन्द्रमा सहश; मयूख--किरणें; भिन्न--विभाजित; अद्डुलि--अँगुलियाँ; चारु-पत्रमू--अतीव सुन्दर

    भगवान्‌ ने अपने चरणकमलों को उठाकर दिखलाया।

    उनके चरणकमल समस्त भौतिककल्मष से रहित भक्ति-मय सेवा द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त वरों के स्त्रोत हैं।

    ऐसे वर उन लोगोंके लिए होते हैं, जो उनकी पूजा शुद्ध भक्तिभाव में करते हैं।

    उनके पाँव तथा हाथ के चन्द्रमासहश नाखूनों से निकलने वाली दिव्य किरणों की प्रभा ( छटा ) फूल की पंखुड़ियों जैसी प्रतीतहो रही थी।

    तमहं भजामि में अंकित किया है।

    मुखेन लोकार्तिहरस्मितेनपरिस्फुरत्कुण्डलमण्डितेन ।

    शोणायितेनाधरबिम्बभासाप्रत्यहयन्तं सुनसेन सुप्वा ॥

    २७॥

    मुखेन--मुख के संकेत से; लोक-आर्ति-हर--भक्तों के कष्ट को हरनेवाले; स्मितेन--हँसी के द्वारा; परिस्फुरत्‌--चकाचौं धकरते; कुण्डल--कुण्डल से; मण्डितेन--सुसज्जित; शोणायितेन--स्वीकार करते हुए; अधर--अपने होठों का; बिम्ब--प्रतिबिम्ब; भासा--किरणें; प्रत्यहयन्तम्‌-- आदान-प्रदान करते हुए; सु-नसेन--अपनी मनोहर नाक से; सु-प्वा--तथा मनोहरभौहों से |

    उन्होंने भक्तों की सेवा भी स्वीकार की और अपनी सुन्दर हँसी से उनका कष्ट मिटा दिया।

    कुंडलों से सज्जित उनके मुख का प्रतिबिम्ब अत्यन्त मनोहारी था, क्योंकि यह उनके होठों कीकिरणों तथा उनकी नाक एवं भौंहों की सुन्दरता से जगमगा रहा था।

    कदम्बकिज्लल्कपिशड्रवाससास्वलड्डू तं मेखलया नितम्बे ।

    हारेण चानन्तधनेन वत्सश्रीवत्सवक्ष:स्थलवल्लभेन ॥

    २८॥

    कदम्ब-किल्लल्क--कदम्ब फूल की केसरिया धूल; पिशड्ग--रंगीन परिधान; वाससा--वस्त्रों से; सु-अलड्डू तम्‌--अच्छी तरहसुसज्जित; मेखलया--करधनी से; नितम्बे--कमर पर; हारेण--हार से; च-- भी; अनन्त--अत्यन्त; धनेन--मूल्यवान; वत्स--हे विदुर; श्रीवत्स--दिव्य चिह्न का; वक्ष:-स्थल--छाती पर; वलल्‍लभेन--अत्यन्त मनोहर |

    हे विदुर, भगवान्‌ की कमर पीले वस्त्र से ढकी थी जो कदम्ब फूल के केसरिया धूल जैसाप्रतीत हो रहा था और इसको अतीव सज्जित करधनी घेरे हुए थी।

    उनकी छाती श्रीवत्स चिन्ह सेतथा असीम मूल्य वाले हार से शोभित थी।

    परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक -पर्यस्तदोर्दण्डसहसत्रशाखम्‌ ।

    अव्यक्तमूलं भुवनाडूप्रिपेन्द्र-महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम्‌ ॥

    २९॥

    परार्ध्य--अत्यन्त मूल्यवान; केयूर-- आभूषण; मणि-प्रवेक--अत्यन्त मूल्यवान मणि; पर्यस्त--फैलाते हुए; दोर्दण्ड-- भुजाएँ;सहस्त्र-शाखम्‌--हजारों शाखाओं से युक्त; अव्यक्त-मूलम्‌--आत्मस्थित; भुवन--विश्व; अद्धघ्रिप--वृशक्ष; इन्द्रमू--स्वामी;अहि-इन्द्र--अनन्तदेव; भोगैः--फनों से; अधिवीत--घिरा; वल्शम्‌--कंघा |

    जिस तरह चन्दन वृक्ष सुगन्धित फूलों तथा शाखाओं से सुशोभित रहता है उसी तरह भगवान्‌का शरीर मूल्यवान मणियों तथा मोतियों से अलंकृत था।

    वे आत्म-स्थित ( अव्यक्त मूल ) वृक्षऔर विश्व के अन्य सभी के स्वामी थे।

    जिस तरह चन्दन वृक्ष अनेक सर्पों से आच्छादित रहता हैउसी तरह भगवान्‌ का शरीर भी अनन्त के फनों से ढका था।

    चराचरौको भगवन्‍न्महीक्ष-महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम्‌ ।

    किरीटसाहस््रहिरण्यश्रुड्र-माविर्भवत्कौस्तुभरलगर्भम्‌ ॥

    ३०॥

    चर--गतिशील पशु; अचर--स्थिर वृक्ष; ओकः--स्थान या स्थिति; भगवत्‌-- भगवान्‌ मही ध्रम्‌--पर्वत; अहि-इन्द्र-- श्रीअनन्तदेव; बन्धुम्‌-मित्र; सलिल--जल; उपगूढम्‌--निमग्न; किरीट--मुकुट; साहस्त्र--हजारों; हिरण्य--स्वर्ण ; श्रूड़म्‌--चोटियाँ; आविर्भवत्‌--प्रकट किया; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि; रत्ल-गर्भम्‌--समुद्र |

    विशाल पर्वत की भाँति भगवान्‌ समस्त जड़ तथा चेतन जीवों के लिए आवास की तरहखड़े हैं।

    वे सर्पों के मित्र हैं, क्योंकि अनन्त देव उनके मित्र हैं।

    जिस तरह पर्वत में हजारों सुनहरीचोटियाँ होती हैं उसी तरह अनन्त नाग के सुनहरे मुकुटों वाले हजारों फनों से युक्त भगवान्‌ दीखरहे थे।

    जिस तरह पर्वत कभी-कभी रत्नों से पूरित रहता है उसी तरह उनका शरीर मूल्यवान रत्नोंसे पूर्णतया सुशोभित था।

    जिस तरह कभी-कभी पर्वत समुद्र जल में डूबा रहता है उसी तरहभगवान्‌ कभी-कभी प्रलय-जल में डूबे रहते हैं।

    निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रियास्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम्‌ ।

    सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिःपरिक्रमत्प्राधनिकैर्दुरासदम्‌ ॥

    ३१॥

    निवीतम्‌ू--इस प्रकार घिरा; आम्नाय--वैदिक ज्ञान; मधु-व्रत-भ्रिया-- सौन्दर्य में मधुर ध्वनि; स्व-कीर्ति-मय्या-- अपनी हीमहिमा से; बन-मालया--फूल की माला से; हरिम्‌ू-- भगवान्‌ को; सूर्य --सूरज; इन्दु--चन्द्रमा; वायु--वायु; अग्नि--आग;अगमम्‌--न पहुँचने योग्य दुर्गम; त्रि-धामभि:--तीनों लोकों द्वारा; परिक्रमत्‌--परिक्रमा करते हुए; प्राधनिकै:--युद्ध के लिए;दुरासदम्‌--पहुँचने के लिए कठिन।

    इस तरह पर्वताकार भगवान्‌ पर दृष्टि डालते हुए ब्रह्मा ने यह निष्कर्ष निकाला कि वे भगवान्‌हरि ही हैं।

    उन्होंने देखा कि उनके वक्षस्थल पर पड़ी फूलों की माला वैदिक ज्ञान के मधुर गीतोंसे उनका महिमागान कर रही थी और अतीव सुन्दर लग रही थी।

    वे युद्ध के लिए सुदर्शन चक्रद्वारा सुरक्षित थे और सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि इत्यादि तक उनके पास फटक नहीं सकते थे।

    तहाोंव तन्नाभिसरःसरोजम्‌आत्मानमम्भ: श्वसन वियच्च ।

    ददर्श देवो जगतो विधातानातः पर लोकविसर्गदृष्टि: ॥

    ३२॥

    तहिं--अतः; एव--निश्चय ही; तत्‌ू--उसकी; नाभि--नाभि; सर:--झील; सरोजम्‌--कमल का फूल; आत्मानमू्‌--ब्रह्मा;अम्भ:--प्रलय का जल; श्वसनम्‌--सुखाने वाली वायु; वियत्‌--आकाश; च-- भी; ददर्श--देखा; देव:--देवता; जगत: --ब्रह्माण्ड का; विधाता--भाग्य का निर्माता; न--नहीं; अत: परम्‌--परे; लोक-विसर्ग--विराट जगत की सृष्टि; दृष्टि: --चितवन।

    जब ब्रह्माण्ड के भाग्य विधाता ब्रह्मा ने भगवान्‌ को इस प्रकार देखा तो उसी समय उन्होंने सृष्टि पर नजर दौड़ाई।

    ब्रह्मा ने विष्णु की नाभि में झील ( नाभि सरोवर ) तथा कमल देखा औरउसी के साथ प्रलयकारी जल, सुखाने वाली वायु तथा आकाश को भी देखा।

    सब कुछ उन्हें इृष्टिगोचर हो गया।

    स कर्मबीजं॑ रजसोपरक्तःप्रजा: सिसृक्षन्रियदेव दृष्टा ।

    अस्तौद्विसर्गाभिमुखस्तमीड्य-मव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा ॥

    ३३॥

    सः--वह ( ब्रह्मा ); कर्म-बीजम्‌--सांसारिक कार्यो का बीज; रजसा उपरक्त:--रजोगुण द्वारा प्रेरित; प्रजा:--जीव; सिसृक्षन्‌--सनन्‍्तान उत्पन्न करने की इच्छा से; इयत्‌--सृष्टि के सभी पाँचों कारण; एब--इस तरह; दृष्टा--देखकर; अस्तौत्‌--स्तुति की;विसर्ग--भगवानू द्वारा सृष्टि के पश्चात्‌ सृष्टि; अभिमुख:--की ओर; तम्‌--उसको; ईंड्यम्‌--पूजनीय; अव्यक्त--दिव्य;वर्त्मनि-- के मार्ग पर; अभिवेशित--स्थिर; आत्मा--मन |

    इस तरह रजोगुण से प्रेरित ब्रह्मा सूजन करने के लिए उन्मुख हुए और भगवान्‌ द्वारा सुझायेगये सृष्टि के पाँच कारणों को देखकर वे सृजनशील मनोवृत्ति के मार्ग पर सादर स्तुति करनेलगे।

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    अध्याय नौ: रचनात्मक ऊर्जा के लिए ब्रह्मा की प्रार्थना

    3.9ब्रह्मोवाचज्ञातोअसि मेड सुचिरात्ननु देहभाजांन ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम्‌।

    नान्यत्त्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धमायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासि ॥

    १॥

    ब्रह्मा उबाच--ब्रह्मा ने कहा; ज्ञात:--ज्ञात; असि--हो; मे--मेरे द्वारा; अद्य--आज; सुचिरात्‌--दीर्घकाल के बाद; ननु--लेकिन; देह-भाजाम्‌-- भौतिक देह वाले का; न--नहीं; ज्ञायते--ज्ञात है; भगवत:-- भगवान्‌ का; गति:ः--रास्ता; इति--इसप्रकार; अवद्यम्‌--महान्‌ अपराध; न अन्यत्‌--इसके परे कोई नहीं; त्वत्‌--तुम; अस्ति--है; भगवन्‌--हे भगवान्‌; अपि--यद्मपि है; तत्‌ू--जो कुछ हो सके; न--कभी नहीं; शुद्धमू--परम; माया-- भौतिक शक्ति के; गुण-व्यतिकरात्‌-गुणों केमिश्रण के कारण; यत्‌--जिसको; उरु:--दिव्य; विभासि--तुम हो |

    ब्रह्माजी ने कहा : हे प्रभु, आज अनेकानेक वर्षों की तपस्या के बाद मैं आपके विषय मेंजान पाया हूँ।

    ओह! देहधारी जीव कितने अभागे हैं कि वे आपके स्वरूप को जान पाने मेंअसमर्थ हैं।

    हे स्वामी, आप एकमात्र ज्ञेय तत्व हैं, क्योंकि आपसे परे कुछ भी सर्वोच्च नहीं है।

    यदि कोई वस्तु आपसे श्रेष्ठ प्रतीत होती भी है, तो वह परम पूर्ण नहीं है।

    आप पदार्थ की सृजनशक्ति को प्रकट करके ब्रह्म रूप में विद्यमान हैं।

    रूप॑ यदेतदवबोधरसोदयेनशश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।

    आदौ गृहीतमवतारशतैकबीजंयन्नाभिपदाभवनादहमाविरासम्‌ ॥

    २॥

    रूपम्‌--स्वरूप; यत्‌ू--जो; एतत्‌--वह; अवबोध-रस--आपकी अन्तरंगा शक्ति के; उदयेन--प्राकट्य से; शश्वत्‌--चिरन्तन;निवृत्त--से मुक्त; तमस:ः--भौतिक कल्मष; सतू-अनुग्रहाय--भक्तों के हेतु; आदौ--पदार्थ की सृजनशक्ति में मौलिक;गृहीतम्‌--स्वीकृत; अवतार--अवतारों का; शत-एक-बीजम्‌--सैकड़ों का मूल कारण; यत्‌--जो; नाभि-पद्मय--नाभि सेनिकला कमल का फूल; भवनात्‌--घर से; अहम्‌--मैं; आविरासम्‌--उत्पन्न हुआ।

    मैं जिस रूप को देख रहा हूँ वह भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त है और अन्तरंगा शक्ति कीअभिव्यक्ति के रूप में भक्तों पर कृपा दिखाने के लिए अवतरित हुआ है।

    यह अवतार अन्यअनेक अवतारों का उदगम है और मैं स्वयं आपके नाभि रूपी घर से उगे कमल के फूल से उत्पन्नहुआ हूँ।

    नातः पर परम यद्धवतः स्वरूप-मानन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्च: ।

    पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन्‌भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाभ्रितोउस्मि ॥

    ३॥

    न--नहीं; अतः परम्‌--इसके पश्चात्‌; परम--हे परमेश्वर; यत्‌ू--जो; भवतः--आपका; स्वरूपम्‌ू--नित्यरूप; आनन्द-मात्रम्‌--निर्विशेष ब्रह्म्योति; अविकल्पम्‌--बिना परिवर्तन के; अविद्ध-वर्च:--शक्ति के हास बिना; पश्यामि--देखता हूँ; विश्व-सृजम्‌ू--विराट जगत के स्त्रष्टा को; एकम्‌--अद्बय; अविश्वम्‌--फिर भी पदार्थ का नहीं; आत्मन्‌--हे परम कारण; भूत--शरीर;इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्मक--ऐसी पहचान से; मदः--गर्व; ते--आपके प्रति; उपाभ्रित:--शरणागत; अस्मि--हूँ।

    हे प्रभु, मैं आपके इस सच्चिदानन्द रूप से श्रेष्ठ अन्य कोई रूप नहीं देखता।

    वैकुण्ठ मेंआपकी निर्विशेष ब्रह्मज्योति में न तो यदाकदा परिवर्तन होता है और न अन्तरंगा शक्ति में कोईहास आता है।

    मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि जहाँ मैं अपने भौतिक शरीर तथाइन्द्रियों पर गर्वित हूँ वहीं आप विराट जगत का कारण होते हुए भी पदार्थ द्वारा अस्पृश्य हैं।

    तद्ठा ड्दं भुवनमड़्ुल मड़लायध्याने सम नो दर्शितं त उपासकानाम्‌ ।

    तस्मै नमो भगवतेनुविधेम तुभ्यंयोनाहतो नरकभाग्भिरसत्प्रसड़ैः ॥

    ४॥

    तत्‌--भगवान्‌ श्रीकृष्ण; वा--अथवा; इदम्‌--यह वर्तमान स्वरूप; भुवन-मड़ल--हे समस्त ब्रह्माण्डों के लिए सर्वमंगलमय;मड्लाय--समस्त सम्पन्नता के लिए; ध्याने-ध्यान में; स्म--मानो था; न:ः--हमको; दर्शितम्‌-- प्रकट; ते--तुम्हारे;उपासकानाम्‌--भक्तों का; तस्मै--उनको; नम:ः--मेरा सादर नमस्कार; भगवते-- भगवान्‌ को; अनुविधेम--सम्पन्न करता हूँ;तुभ्यमू--तुमको; यः--जो; अनाहत: --उपेक्षित है; नरक-भाग्भि:--नरक जाने वाले व्यक्तियों द्वारा; असत्‌-प्रसड्रैः-- भौतिककथाओं द्वारा

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ कृष्ण का यह वर्तमान रूप या उनके द्वारा विस्तार किया हुआ कोईभी दिव्य रूप सारे ब्रह्माण्डों के लिए समान रूप से मंगलमय है।

    चूँकि आपने यह नित्य साकाररूप प्रकट किया है, जिसका ध्यान आपके भक्त करते हैं, इसलिए मैं आपको सादर नमस्कारकरता हूँ।

    जिन्हें नरकगामी होना बदा है वे आपके साकार रूप की उपेक्षा करते हैं, क्योंकि वेलोग भौतिक विषयों की ही कल्पना करते रहते हैं।

    ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धंजिप्रन्ति कर्णविवरे: श्रुतिवातनीतम्‌ ।

    भक्‍त्या गृहीतचरण: परया च तेषांनापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम्‌ू ॥

    ५॥

    ये--जो लोग; तु--लेकिन; त्वदीय--आपके ; चरण-अम्बुज--चरणकमल; कोश-- भी तर; गन्धम्‌--सुगन्ध; जिप्रन्ति--सूँघतेहैं; कर्ण-विवरैः--कानों के मार्ग से होकर; श्रुति-वात-नीतम्‌--वैदिक ध्वनि की वायु से ले जाये गये; भक्त्या--भक्ति द्वारा;गृहीत-चरण:--चरणकमलों को स्वीकार करते हुए; परया--दिव्य; च-- भी; तेषामू-- उनके लिए; न--कभी नहीं; अपैषि--पृथक्‌; नाथ--हे प्रभु; हदय--हृदय रूपी; अम्बु-रुहात्‌ू--कमल से; स्व-पुंसामू--अपने ही भक्तों के

    हे प्रभु, जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्धको अपने कानों के द्वारा सूँघते हैं, वे आपकी भक्ति-मय सेवा को स्वीकार करते हैं।

    उनके लिएआप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते।

    तावद्धयं द्रविणदेहसुहनब्निमित्तंशोक: स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभ: ।

    तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलंयावन्न तेडड्प्रिमभयं प्रवृणीत लोक: ॥

    ६॥

    तावत्‌--तब तक; भयमू-- भय; द्रविण--सम्पत्ति; देह--शरीर; सुहृत्‌-- सम्बन्धी जन; निमित्तमू--के लिए; शोक:--शोक;स्पृहा--इच्छा; परिभव: --साज-सामग्री; विपुल:--अत्यधिक; च-- भी; लोभ:-- लालच; तावत्‌--उस समय तक; मम--मेरा;इति--इस प्रकार; असत्‌--नश्वर; अवग्रहः --दुराग्रह; आर्ति-मूलम्‌--चिन्‍्ता से पूर्ण; यावत्‌--जब तक; न--नहीं ; ते--तुम्हारे;अद्प्रिम्‌ अभयम्‌--सुरक्षित चरणकमल; प्रवृणीत--शरण लेते हैं; लोक:--संसार के लोग।

    हे प्रभु, संसार के लोग समस्त भौतिक चिन्ताओं से उद्विग्न रहते हैं--वे सदैव भयभीत रहतेहैं।

    वे सदैव धन, शरीर तथा मित्रों की रक्षा करने का प्रयास करते हैं, वे शोक तथा अवैधइच्छाओं एवं साज-सामग्री से पूरित रहते हैं तथा लोभवश 'मैं' तथा 'मेरे' की नश्वरधारणाओंपर अपने दुराग्रह को आधारित करते हैं।

    जब तक वे आपके सुरक्षित चरणकमलों की शरणग्रहण नहीं करते तब तक वे ऐसी चिन्ताओं से भरे रहते हैं।

    दैवेन ते हतधियो भवत:ः प्रसड़ा-त्सर्वाशुभोपशमनाद्विमुखेन्द्रिया ये ।

    कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीनालोभाभिभूतमनसोकुशलानि शश्वत्‌ ॥

    ७॥

    दैवेन--दुर्भाग्य से; ते--वे; हत-धियः--स्मृति से वंचित; भवतः--आपकी; प्रसड्ञात्‌ू--कथाओं से; सर्व--समस्त; अशुभ--अकल्याणकारी; उपशमनात्‌--शमन करते हुए; विमुख--के विरुद्ध बने हुए; इन्द्रिया:--इन्द्रियाँ; ये--जो; कुर्वन्ति--करते हैं;काम--इन्द्रिय-तृप्ति; सुख--सुख; लेश--अल्प; लवाय-- क्षण भर के लिए; दीना:--बेचारे; लोभ-अभिभूत--लोभ सेग्रसित; मनस:--मन वाले; अकुशलानि--अशुभ कार्यकलाप; शश्वत्‌--सदैव |

    हे प्रभु, वे व्यक्ति जो आपके दिव्य कार्यकलापों के विषय में सर्वमंगलकारी कीर्तन तथाश्रवण करने से वंचित हैं निश्चित रूप से वे अभागे हैं और सह्दुद्धि से विहीन हैं।

    वे तनिक देर केलिए इन्द्रियतृष्ति का भोग करने हेतु अशुभ कार्यों में लग जाते हैं।

    ऊपर उठ पाते हैं।

    क्षुत्तट्त्रिधातुभिरिमा मुहुरर्ध्यमाना:शीतोष्णवातवरषैरितरेतराच्च ।

    कामाग्निनाच्युतरुषा च सुदुर्भरणसम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे ॥

    ८ ॥

    क्षुत्‌ू- भूख; तृट्‌--प्यास; त्रि-धातुभिः--तीन-रस, यथा कफ, पित्त तथा वायु; इमा:--ये सभी; मुहुः--सदैव; अर्द्यमाना: --व्यग्र; शीत--जाड़ा; उष्ण--गर्मी ; वात--वायु; वरषै:--वर्षा द्वारा; इतर-इतरात्‌--तथा अन्य अनेक उत्पात; च-- भी; काम-अग्निना--प्रबल यौन इच्छा से; अच्युत-रुषा--दुःसह क्रोध; च-- भी; सुदुर्भरण -- अत्यन्त असहा; सम्पश्यत:--देखते हुए;मनः--मन; उरुक्रम--हे महान्‌ कर्ता; सीदते--निराश होता है; मे--मेरा |

    हे महान्‌ कर्ता, मेरे प्रभु, ये सभी दीन प्राणी निरन्तर भूख, प्यास, शीत, कफ तथा पित्त सेव्यग्र रहते हैं, इन पर कफ युक्त शीतऋतु, भीषण गर्मी, वर्षा तथा अन्य अनेक क्षुब्ध करने वालेतत्त्व आक्रमण करते रहते हैं और ये प्रबल कामेच्छाओं तथा दुःसह क्रोध से अभिभूत होते रहतेहैं।

    मुझे इन पर दया आती है और मैं इनके लिए अत्यन्त सन्तप्त रहता हूँ।

    यावत्पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ-मायाबलं भगवतो जन ईंश पश्येत्‌ ।

    तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसड्क्रमेतव्यर्थापि दुःखनिवहं बहती क्रियार्था ॥

    ९॥

    यावत्‌--जब तक; पृथक्त्वमू--विलगाव; इृदम्‌--यह; आत्मन:--शरीर का; इन्द्रिय-अर्थ--इन्द्रियतृप्ति के लिए; माया-बलमू--बहिरंगा शक्ति का प्रभाव; भगवतः-- भगवान्‌ का; जन:--व्यक्ति; ईश-हे प्रभु; पश्येत्‌ू--देखता है; तावत्‌--तबतक; न--नहीं; संसृतिः--भौतिक जगत का प्रभाव; असौ--वह मनुष्य; प्रतिसड्क्रमेत--लाँघ सकता है; व्यर्था अपि--यद्यपिअर्थहीन; दुःख-निवहम्‌-- अनेक दुख; बहती --लाते हुए; क्रिया-अर्था--सकाम कर्मो के लिए

    हे प्रभु, आत्मा के लिए भौतिक दुखों का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता।

    फिर भी जबतक बद्धात्मा शरीर को इन्द्रिय भोग के निमित्त देखता है तब तक वह आपकी बहिरंगा शक्तिद्वारा प्रभावित होने से भौतिक कष्टों के पाश से बाहर नहीं निकल पाता।

    अह्न्यापृतार्तकरणा निशि निःशयानानानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्रा: ।

    दैवाहतार्थरचना ऋषयोपि देवयुष्मत्प्रसड्रविमुखा इह संसरन्ति ॥

    १०॥

    अहि-दिन के समय; आपृत--व्यस्त; आर्त--दुखदायी कार्य; करणा:--इन्द्रियाँ; निशि--रात में; निःशयाना:--अनिद्रा;नाना--विविध; मनोरथ--मानसिक चिन्तन; धिया--बुद्धि द्वारा; क्षण--निरन्तर; भग्न--टूटी हुई; निद्रा:--नींद; दैव--अतिमानवीय; आहत-अर्थ--हताश; रचना:--योजनाएँ; ऋषय:--ऋषिगण; अपि-- भी; देव--हे प्रभु; युष्मत्‌-- आपकी;प्रसड्र---कथा से; विमुखा:--विरुद्ध; इह--इस ( जगत ) में; संसरन्ति--चक्कर लगाते हैं।

    ऐसे अभक्तगण अपनी इन्द्रियों को अत्यन्त कष्टप्रद तथा विस्तृत कार्य में लगाते हैं और रातमें उनिद्र रोग से पीड़ित रहते हैं, क्योंकि उनकी बुद्धि विविध मानसिक चिन्ताओं के कारणउनकी नींद को लगातार भंग करती रहती है।

    वे अतिमानवीय शक्ति द्वारा अपनी विविधयोजनाओं में हताश कर दिए जाते हैं।

    यहाँ तक कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यदि आपकी दिव्य कथाओं से विमुख रहते हैं, तो वे भी इस भौतिक जगत में ही चक्कर लगाते रहते हैं।

    त्वं भक्तियोगपरिभावितहत्सरोजआस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम्‌ ।

    यद्यद्द्विया त उरुगाय विभावयन्तितत्तद्वपु: प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥

    ११॥

    त्वमू--तुमको; भक्ति-योग--भक्ति में; परिभावित--शत प्रतिशत लगे रहकर; हत्‌--हदय के; सरोजे--कमल में; आस्से--निवास करते हो; श्रुत-ईक्षित--कान के माध्यम से देखा हुआ; पथ:--पथ; ननु--अब; नाथ--हे स्वामी; पुंसाम्‌ू--भक्तों का;यतू-यत्‌--जो जो; धिया--ध्यान करने से; ते--तुम्हारा; उरुगाय--हे बहुख्यातिवान्‌; विभावयन्ति--विशेष रूप से चिन्तनकरते हैं; तत्‌-तत्‌--वही वही; वपु:--दिव्य स्वरूप; प्रणयसे--प्रकट करते हो; सत्‌-अनुग्रहाय--अपनी अहैतुकी कृपा दिखानेके लिए

    हे प्रभु, आपके भक्तगण प्रामाणिक श्रवण विधि द्वारा कानों के माध्यम से आपको देखसकते हैं और इस तरह उनके हृदय विमल हो जाते हैं तथा आप वहाँ पर अपना स्थान ग्रहण करलेते हैं।

    आप अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि आप अपने को उस अध्यात्म के विशेष नित्यरूप में प्रकट करते हैं जिसमें वे सदैव आपका चिन्तन करते हैं।

    नातिप्रसीदति तथोपचितोपचारै-राराधितः सुरगणईदि बद्धकामै: ।

    यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैकोनानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥

    १२॥

    न--कभी नहीं; अति--अत्यधिक; प्रसीदति--तुष्ट होता है; तथा--जितना; उपचित--ठाठबाट से; उपचारैः--पूजनीय साजसामग्री सहित; आराधितः--पूजित होकर; सुर-गणै:--देवताओं द्वारा; हृदि बद्ध-कामै:--समस्त प्रकार की भौतिक इच्छाओं सेपूरित हृदय से; यत्‌--जो; सर्व--समस्त; भूत--जीव; दयया--उन पर अहैतुकी कृपा दिखाने के लिए; असत्‌--अभक्त;अलभ्यया-्राप्त न हो सकने से; एक:--अद्वितीय; नाना--विविध; जनेषु--जीवों में; अवहित:--अनुभूत; सुहत्‌--शुभेच्छुमित्र; अन्तः-- भीतर; आत्मा--परमात्मा |

    हे प्रभु, आप उन देवताओं की पूजा से बहुत अधिक तुष्ट नहीं होते जो आपकी पूजा अत्यन्तठाठ-बाट से तथा विविध साज-सामग्री के साथ करते तो हैं, किन्तु भौतिक लालसाओं से पूर्णहोते हैं।

    आप हर एक के हृदय में परमात्मा के रूप में अपनी अहैतुकी कृपा दर्शाने के लिए स्थित रहते हैं।

    आप नित्य शुभचिन्तक हैं, किन्तु आप अभक्तों के लिए अनुपलब्ध हैं।

    पुंसामतो विविधकर्मभिरध्वराद्यै-दनिन चोग्रतपसा परिचर्यया च ।

    आराधनं भगवतस्तव सत्क्रियार्थो धर्मोडर्पित: कर्हिंचिद्म्रियते न यत्र ॥

    १३॥

    पुंसामू--लोगों का; अत:--इसलिए; विविध-कर्मभि: --नाना प्रकार के सकाम कर्मों द्वारा; अध्वर-आद्यै:--वैदिक अनुष्ठानसम्पन्न करने से; दानेन--दान के द्वारा; च--तथा; उग्र-- अत्यन्त कठोर; तपसा--तपस्या से; परिचर्यया--दिव्य सेवा द्वारा;च--भी; आराधनम्‌-- पूजा; भगवतः -- भगवान्‌ की; तव--तुम्हारा; सत्‌-क्रिया-अर्थ:--एकमात्र आपको प्रसन्न करने केलिए; धर्म: --धर्म; अर्पित:--इस प्रकार अर्पित; क्हिंचितू--किसी समय; प्रियते--विनष्ट होता है; न--कभी नहीं; यत्र--वहाँ।

    किन्तु वैदिक अनुष्ठान, दान, कठोर तपस्या तथा दिव्य सेवा जैसे पुण्य कार्य भी, जो लोगोंद्वारा सकाम फलों को आपको अर्पित करके आपकी पूजा करने तथा आपको तुष्ट करने केउद्देश्य से किये जाते हैं, लाभप्रद होते हैं।

    धर्म के ऐसे कार्य व्यर्थ नहीं जाते।

    शश्वत्स्वरूपमहसैव निपीतभेद-मोहाय बोधधिषणाय नमः परस्मै ।

    विश्वोद्धवस्थितिलयेषु निमित्तलीला-रासाय ते नम इदं चकृमेश्वराय ॥

    १४॥

    शश्वत्‌-शा श्रत रूप से; स्वरूप--दिव्य रूप; महसा--महिमा के द्वारा; एब--निश्चय ही; निपीत--विभेदित; भेद--अन्तर;मोहाय--मोहमयी धारणा के हेतु; बोध-- आत्म-ज्ञान; धिषणाय--बुद्धि; नमः--नमस्कार; परस्मै--ब्रह्म को; विश्व-उद्धव--विराट जगत की सृष्टि; स्थिति--पालन; लयेषु--संहार भी; निमित्त--के हेतु; लीला--ऐसी लीलाओं से; रासाय-- भोग हेतु;ते--तुम्हें; नम:--नमस्कार; इृदम्‌--यह; चकूम--मैं करता हूँ; ईश्वराय--परमे श्वर को |

    मैं उन परब्रह्म को नमस्कार करता हूँ जो अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा शाश्वत विशिष्टअवस्था में रहते हैं।

    उनका विभेदित न किया जा सकने वाला निर्विशेष स्वरूप आत्म-साक्षात्कारहेतु बुद्धि द्वारा पहचाना जाता है।

    मैं उनको नमस्कार करता हूँ जो अपनी लीलाओं के द्वाराविराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार का आनच्द लेते हैं।

    यस्यावतारगुणकर्मविडम्बनानिनामानि येसुविगमे विवशा गृणन्ति ।

    तेनैकजन्मशमलं सहसैव हित्वासंयान्त्यपावृतामृतं तमजं प्रपद्ये ॥

    १५॥

    यस्य--जिसके; अवतार--अवतार; गुण--दिव्य गुण; कर्म--कर्म; विडम्बनानि--सभी रहस्यमय; नामानि--दिव्य नाम; ये--वे; असु-विगमे--इस जीवन को छोड़ते समय; विवशा:--स्वतः; गृणन्ति--आवाहन करते हैं; ते--वे; अनैक--अनेक;जन्म--जन्म; शमलम्‌--संचित पाप; सहसा--तुरन्‍्त; एव--निश्चय ही; हित्वा--त्याग कर; संयान्ति--प्राप्त करते हैं;अपावृत--खुली; अमृतम्‌-- अमरता; तमू--उस; अजम्‌--अजन्मा की; प्रपद्ये--मैं शरण लेता हूँ।

    मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जिनके अवतार, गुण तथा कर्म सांसारिकमामलों के रहस्यमय अनुकरण हैं।

    जो व्यक्ति इस जीवन को छोड़ते समय अनजाने में भी उनके दिव्य नाम का आवाहन करता है उसके जन्म-जन्म के पाप तुरन्त धुल जाते हैं और वह उनभगवान्‌ को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।

    यो वा अहं च गिरिशश्च विभुः स्वयं चस्थित्युद्धवप्रलयहेतव आत्ममूलम्‌ ।

    भिन्त्वा त्रिपाद्ववृध एक उरुप्ररोहस्‌तस्मै नमो भगवते भुवनद्रुमाय ॥

    १६॥

    यः--जो; वै--निश्चय ही; अहम्‌ च--मैं भी; गिरिश: च--शिव भी; विभुः--सर्वशक्तिमान; स्वयम्‌--स्वयं ( विष्णु रूप में );च--तथा; स्थिति--पालन; उद्धव--सृजन; प्रलय--संहार; हेतवः -- कारण; आत्म-मूलम्‌--स्वतःस्थित; भित्त्वा-- भेदकर;त्रि-पातू--तीन तने; ववृधे--उगा; एक:--अद्वितीय; उरुू--अनेक ; प्ररोह:--शाखाएँ; तस्मै-- उसे; नम:--नमस्कार;भगवते-- भगवान्‌ को; भुवन-द्रुमाय--लोक रूपी वृक्ष को |

    आप लोक रूपी वृक्ष की जड़ हैं।

    यह वृक्ष सर्वप्रथम भौतिक प्रकृति को तीन तनों के रूपमें--मुझ, शिव तथा सर्वशक्तिमान आपके रूप में--सृूजन, पालन तथा संहार के लिए भेदकरनिकला है और हम तीनों से अनेक शाखाएँ निकल आई हैं।

    इसलिए हे विराट जगत रूपी वृजक्ष,मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तःकर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।

    यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशांसद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोस्तु तस्मै ॥

    १७॥

    लोकः:--सामान्य लोग; विकर्म--अविचारित कर्म में; निरत:--लगे हुए; कुशले--लाभप्रद कार्य में; प्रमत्त:--लापरवाह;कर्मणि--कर्म में; अयम्‌--यह; त्वत्‌--आपके द्वारा; उदिते--घोषित; भवत्‌-- आपकी; अर्चने--पूजा में; स्वे-- अपने; य:--जो; तावत्‌ू--जब तक; अस्य--सामान्य लोगों का; बलवान्‌--अत्यन्त शक्तिमान; इह--यह; जीवित-आशाम्‌--जीवन-संघर्ष;सद्यः--प्रत्यक्षतः; छिनत्ति--काट कर खण्ड खण्ड कर दिया जाता है; अनिमिषाय--नित्य काल द्वारा; नम:--नमस्कार;अस्तु--हो; तस्मै--उसके लिएसामान्य लोग मूर्खतापूर्ण कार्यो में लगे रहते हैं।

    वे अपने मार्गदर्शन हेतु आपके द्वारा प्रत्यक्षघोषित लाभप्रद कार्यों में अपने को नहीं लगाते।

    जब तक उनकी मूर्खतापूर्ण कार्यों की प्रवृत्तिबलवती बनी रहती है तब तक जीवन-संघर्ष में उनकी सारी योजनाएँ छिन्न-भिन्न होती रहेंगी।

    अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ जो नित्यकाल स्वरूप हैं।

    यस्माद्विभेम्यहमपि द्विपरार्धधिष्ण्य-मध्यासित: सकललोकनमस्कृतं यत्‌ ।

    तेपे तपो बहुसवोवरुरुत्समान-स्तस्मै नमो भगवतेधिमखाय तुभ्यम्‌ ॥

    १८॥

    यस्मात्‌--जिससे; बिभेमि--डरता हूँ; अहम्‌--मैं; अपि-- भी; द्वि-पर-अर्ध--४, ३०, ००, ००, ०००७२५३०००१२५१०० सौरवर्षो की सीमा तक; धिष्ण्यम्‌--स्थान में; अध्यासित:--स्थित; सकल-लोक--अन्य सारे लोकों द्वारा; नमस्कृतम्‌-- आदरित;यत्‌--जिसने; तेपे--किया; तप:ः--तपस्या; बहु-सव:--अनेकानेक वर्ष; अवरुरुत्समान:--आपको प्राप्त करने की इच्छा से;तस्मै--उन को; नमः--मैं नमस्कार करता हूँ; भगवते-- भगवान्‌ को; अधिमखाय--समस्त यज्ञों के भोक्ता; तुभ्यमू--आपको |

    हे प्रभु, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ जो अथक काल तथा समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।

    यद्यपि मैं ऐसे स्थान में स्थित हूँ जो दो परार्धों की अवधि तक विद्यमान रहेगा, और यद्यपि मैंब्रह्माण्ड के अन्य सभी लोकों का अगुआ हूँ, और यद्यपि मैंने आत्म-साक्षात्कार हेतु अनेकानेकवर्षो तक तपस्या की है, फिर भी मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    तिर्यड्मनुष्यविबुधादिषु जीवयोनि-घ्वात्मेच्छयात्मकृतसेतुपरीप्सया यः ।

    रैमे निरस्तविषयोप्यवरुद्धदेह-स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥

    १९॥

    तिर्यक्‌--मनुष्येतर पशु; मनुष्य--मानव आदि; विबुध-आदिषु--देवताओं इत्यादि; जीव-योनिषु--विभिन्न जीव योनियों में;आत्म--आत्मा; इच्छया--इच्छा द्वारा; आत्म-कृत--स्वतःउत्पन्न; सेतु--दायित्व; परीप्सया--बनाये रखने की इच्छा से; यः--जो; रेमे--दिव्य लीला सम्पन्न करते हुए; निरस्त--अधिक प्रभावित हुए बिना; विषय:-- भौतिक कल्मष; अपि--निश्चय ही;अवरुद्ध-प्रकट; देह: --दिव्य शरीर; तस्मै--उस; नम:--मेरा नमस्कार; भगवते-- भगवान्‌ को; पुरुषोत्तमाय--आदिभगवान्‌)

    हे प्रभु, आप अपनी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न करने हेतु स्वेच्छा से विविध जीवयोनियों में,मनुष्येतर पशुओं में तथा देवताओं में प्रकट होते हैं।

    आप भौतिक कल्मष से तनिक भी प्रभावितनहीं होते।

    आप धर्म के अपने सिद्धान्तों के दायित्वों को पूरा करने के लिए ही आते हैं, अतः, हेपरमेश्वर ऐसे विभिन्न रूपों को प्रकट करने के लिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

    योविद्ययानुपहतोपि दशार्धवृत्त्यानिद्रामुबाह जठरीकृतलोकयात्र: ।

    अन्तर्जलेडहिकशि पुस्पर्शानुकूलांभीमोर्मिमालिनि जनस्य सुखं विवृण्वन्‌ ॥

    २०॥

    यः--जो, जिसने; अविद्यया--अविद्या से प्रभावित; अनुपहतः--प्रभावित हुए बिना; अपि-- भी; दश-अर्ध--पाँच; वृत्त्या--अन्योन्य क्रिया; निद्रामू--नींद; उबाह--स्वीकार किया; जठरी--उदर के भीतर; कृत--ऐसा करते हुए; लोक-यात्र:--विभिन्नजीवों का पालन पोषण; अन्त:ः-जले--प्रलयरूपी जल के भीतर; अहि-कशिपु--सर्प-शय्या पर; स्पर्श-अनुकूलाम्‌--स्पर्श केलिए सुखी; भीम-ऊर्मि--प्रचण्ड लहरों की; मालिनि-- श्रृंखला; जनस्य--बुदर्ध्धिमान पुरुष का; सुखम्‌--सुख; विवृण्वन्‌--प्रदर्शित करते हुए।

    हे प्रभु, आप उस प्रलयकालीन जल में शयन करने का आनन्द लेते हैं जहाँ प्रचण्ड लहरेंउठती रहती हैं और बुद्धिमान लोगों को अपनी नींद का सुख दिखाने के लिए आप सर्पों कीशय्या का आनन्द भोगते हैं।

    उस काल में ब्रह्माण्ड के सारे लोक आपके उदर में स्थित रहते हैं।

    यन्नाभिपदाभवनादहमासमीड्यलोकत्रयोपकरणो यदनुग्रहेण ।

    तस्मै नमस्त उदरस्थभवाय योग-निद्रावसानविकसन्नलिनेक्षणाय ॥

    २१॥

    यत्‌--जिसकी; नाभि--नाभि; पद्मय--कमल रूपी; भवनात्‌ू--घर से; अहम्‌ू--मैं; आसम्‌-- प्रकट हुआ; ईड्यू--हे पूजनीय;लोक-त्रय--तीनों लोकों के; उपकरण:--सृजन में सहायक बनकर; यत्‌--जिसकी; अनुग्रहेण--कृपा से; तस्मै--उसको;नमः--मेरा नमस्कार; ते--तुमको; उदर-स्थ--उदर के भीतर स्थित; भवाय--ब्रह्माण्ड से युक्त; योग-निद्रा-अवसान--उसदिव्य निद्रा के अन्त होने पर; विकसत्‌--खिले हुए; नलिन-ईक्षणाय--जिसकी खुली आँखें कमलों के समान हैं उसे |

    हे मेरी पूजा के लक्ष्य, मैं आपकी कृपा से ब्रह्माण्ड की रचना करने हेतु आपके कमल-नाभि रूपी घर से उत्पन्न हुआ हूँ।

    जब आप नींद का आनन्द ले रहे थे, तब ब्रह्माण्ड के ये सारेलोक आपके दिव्य उदर के भीतर स्थित थे।

    अब आपकी नींद टूटी है, तो आपके नेत्र प्रातःकालमें खिलते हुए कमलों की तरह खुले हुए हैं।

    सो5यं समस्तजगतां सुहदेक आत्मा सत्त्वेन यन्मूडयते भगवान्भगेन ।

    तेनैव मे हशमनुस्पृशताद्य थाहं स्त्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणतप्रियोउसौ ॥

    २२॥

    सः--वह; अयमू-- भगवान्‌; समस्त-जगताम्‌--समस्त ब्रह्माण्डों में से; सुहत्‌ एक:--एकमात्र मित्र तथा दार्शनिक; आत्मा--परमात्मा; सत्त्वेन--सतोगुण के द्वारा; यत्‌ू--जो; मृडयते--सुख उत्पन्न करता है; भगवान्‌ू-- भगवान्‌; भगेन--छ: ऐश्वर्यों द्वारा;तेन--उसके द्वारा; एब--निश्चय ही; मे--मुझको; दृशम्‌--आत्मपरी क्षण की शक्ति, अन्तर्दष्टि; अनुस्पृशतात्‌--वह दे; यथा--जिस तरह; अहम्‌--ैं; स््रक्ष्यामि--सृजन कर सकूँगा; पूर्व-वत्‌--पहले की तरह; इृदम्‌--यह ब्रह्माण्ड; प्रणत--शरणागत;प्रियः--प्रिय; असौ--वह ( भगवान्‌ )॥

    परमेश्वर मुझ पर कृपालु हों।

    वे इस जगत में सारे जीवों के एकमात्र मित्र तथा आत्मा हैं औरवे अपने छः ऐश्वर्यों द्वारा जीवों के चरम सुख हेतु इन सबों का पालन-पोषण करते हैं।

    वे मुझपर कृपालु हों, जिससे मैं पहले की तरह सृजन करने की आत्मपरीक्षण शक्ति से युक्त हो सकूँ,क्योंकि मैं भी उन शरणागत जीवों में से हूँ जो भगवान्‌ को प्रिय हैं।

    एष प्रपन्नवरदो रमयात्मशक्त्यायद्यत्करिष्यति गृहीतगुणावतार: ।

    तस्मिन्स्वविक्रममिदं सृजतोपि चेतोयुज्जीत कर्मशमलं च यथा विजद्याम्‌ ॥

    २३॥

    एव: --यह; प्रपन्न--शरणागत; वर-दः --वर देने वाला; रमया--लक्ष्मीदेवी के साथ रमण करते हुए; आत्म-शकत्या--अपनीअन्तरंगा शक्ति सहित; यत्‌ यत्‌ू--जो जो; करिष्यति--वह कर सके ; गृहीत--स्वीकार करते हुए; गुण-अबतार:--सतोगुण काअवतार; तस्मिन्‌--उसको; स्व-विक्रमम्‌--सर्वशक्तिमत्ता से; इदम्‌--इस विराट जगत को; सृजतः--रचते हुए; अपि-- भी;चेत:--हृदय; युज्ञीत--लगा रहे; कर्म--कार्य; शमलम्‌-- भौतिक प्रभाव, व्याधि; च-- भी; यथा--यथासम्भव; विजह्याम्‌--मैंत्याग सकता हूँ।

    भगवान्‌ सदा ही शरणागतों को वर देने वाले हैं।

    उनके सारे कार्य उनकी अन्तरंगा शक्ति रमा या लक्ष्मी के माध्यम से सम्पन्न होते हैं।

    मेरी उनसे यही विनती है कि भौतिक जगत के सृजन मेंवे मुझे अपनी सेवा में लगा लें और मेरी यही प्रार्थना है कि मैं अपने कर्मो द्वारा भौतिक रूप सेप्रभावित न होऊँ, क्योंकि इस तरह मैं स्त्रष्टा होने की मिथ्या-प्रतिष्ठा त्यागने में सक्षम हो सकूँगा।

    नाभिहृदादिह सतोम्भसि यस्य पुंसोविज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्ति: ।

    रूप॑ विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मेमा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्ग: ॥

    २४॥

    नाभि-हृदात्‌ू--नाभिरूपी झील से; इह--इस कल्प में; सत:--लेटे हुए; अम्भसि--जल में; यस्य--जिसका; पुंसः--भगवान्‌का; विज्ञान--सप्पूर्ण ब्रह्माण्ड की; शक्ति:--शक्ति; अहम्‌ू--मैं; आसम्‌--उत्पन्न हुआ था; अनन्त-- असीम; शक्ते: --शक्तिशाली का; रूपमू--स्वरूप; विचित्रम्‌--विचित्र; इदम्‌--यह; अस्य--उसका; विवृण्बत:--प्रकट करते हुए; मे--मुझको; मा--नहीं; रीरिषीष्ट--लुप्त; निगमस्य--वेदों की; गिराम्‌--ध्वनियों का; विसर्ग:--कम्पन |

    भगवान्‌ की शक्तियाँ असंख्य हैं।

    जब वे प्रलय-जल में लेटे रहते हैं, तो उस नाभिरूपी झीलसे, जिसमें कमल खिलता है, मैं समग्र विश्वशक्ति के रूप में उत्पन्न होता हूँ।

    इस समय मैं विराटजगत के रूप में उनकी विविध शक्तियों को उद्धाटित करने में लगा हुआ हूँ।

    इसलिए मैं प्रार्थनाकरता हूँ कि अपने भौतिक कार्यों को करते समय मैं वैदिक स्तुतियों की ध्वनि से कहींविचलित न हो जाऊँ।

    सोसावदभ्रकरुणो भगवान्विवृद्ध-प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरुहं विजृम्भन्‌ ।

    उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादंमाध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराण: ॥

    २५॥

    सः--वह ( भगवान्‌ ); असौ--उस; अदभ्र-- असीम; करुण: --कृपालु; भगवान्‌-- भगवान्‌; विवृद्ध-- अत्यधिक; प्रेम --प्रेम;स्मितेन--हँसी द्वारा; नयन-अम्बुरुहमू--कमललनेत्रों को; विजृम्भन्‌ू--खोलते हुए; उत्थाय-- उत्थान हेतु; विश्व-विजयाय--विराटसृष्टि की महिमा के गायन हेतु; च-- भी; न: --हमारी; विषादम्‌--निराशा; माध्व्या--मधुर; गिरा--शब्द; अपनयतात्‌--वे दूरकरें; पुरुष: --परम; पुराण: --सबसे प्राचीन |

    भगवान्‌ जो कि परम हैं और सबसे प्राचीन हैं, अपार कृपालु हैं।

    मैं चाहता हूँ कि वे अपनेकमलनेत्रों को खोल कर मुसकाते हुए मुझे वर दें।

    वे सम्पूर्ण विराट सृष्टि का उत्थान कर सकतेहैं और अपने कृपापूर्ण आदेशों के द्वारा हमारा विषाद दूर कर सकते हैं।

    मैत्रेय उबाचस्वसम्भवं निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभि: ।

    यावन्मनोवच: स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत्‌ ॥

    २६॥

    मैत्रेयः उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; स्व-सम्भवम्‌-- अपने प्राकट्य का स्त्रोत; निशाम्य--देखकर; एवम्‌--इस प्रकार; तपः--तपस्या; विद्या--ज्ञान; समाधिभि:--तथा मन की एकाग्रता द्वारा; यावत्‌--यथासम्भव; मन:--मन; वच: --शब्द; स्तुत्वा--स्तुति करके; विरराम--मौन हो गया; सः--वह ( ब्रह्मा ); खिन्न-वत्‌--मानो थक गया हो

    मैत्रेय मुनि ने कहा : हे विदुर, अपने प्राकट्य के स्त्रोत अर्थात्‌ भगवान्‌ को देखकर ब्रह्मा नेअपने मन तथा वाणी की क्षमता के अनुसार उनकी कृपा हेतु यथासम्भव स्तुति की।

    इस प्रकारस्तुति करने के बाद वे मौन हो गये मानो अपनी तपस्या, ज्ञान तथा मानसिक एकाग्रता के कारणवे थक गये हों।

    अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य ब्रह्मणो मधुसूदन: ।

    विषण्णचेतसं तेन कल्पव्यतिकराम्भसा ॥

    २७॥

    लोकसंस्थानविज्ञान आत्मन: परिखिद्यतः ।

    तमाहागाधया वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥

    २८॥

    अथ-त्पश्चात्‌; अभिप्रेतम्‌-मंशा, मनोभाव; अन्वीक्ष्य--देखकर; ब्रह्मण: --ब्रह्मा का; मधुसूदन: --मधु नामक असुर केवधकर्ता; विषणण--खिन्न; चेतसमू--हृदय के; तेन--उसके द्वारा; कल्प--युग; व्यतिकर-अम्भसा--प्रलयकारी जल; लोक-संस्थान--लोक की स्थिति; विज्ञाने--विज्ञान में; आत्मन:--स्वयं को; परिखिद्यत:--अत्यधिक चिन्तित; तम्‌--उससे; आह--कहा; अगाधया--अ त्यन्त विचारपूर्ण; वाचा--शब्दों से; कश्मलम्‌--अशुद्द्धियाँ; शमयन्‌--हटाते हुए; इब--मानो |

    भगवान्‌ ने देखा कि ब्रह्माजी विभिन्न लोकों की योजना बनाने तथा उनके निर्माण को लेकरअतीव चिन्तित हैं और प्रलयंकारी जल को देखकर खिन्न हैं।

    वे ब्रह्मा के मनोभाव को समझगये, अतः उन्होंने उत्पन्न मोह को दूर करते हुए गम्भीर एवं विचारपूर्ण शब्द कहे।

    श्रीभगवानुवाचमा वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।

    तन्मयापादित ह्ग्रे यन्मां प्रार्थथते भवान्‌ ॥

    २९॥

    श्री-भगवान्‌ उवाच-- भगवान्‌ ने कहा; मा--मत; वेद-गर्भ--वैदिक ज्ञान की गहराई तक पहुँचने वाले; गा: तन्द्रीमू--निराशहो; सर्गे--सूजन के लिए; उद्यमम्‌--अध्यवसाय; आवह--जरा हाथ तो लगाओ; तत्‌--वह ( जो तुम चाहते हो ); मया--मेरेद्वारा; आपादितमू--सम्पन्न हुआ; हि--निश्चय ही; अग्रे--पहले ही; यत्‌--जो; माम्‌--मुझसे; प्रार्थयते--माँग रहे हो; भवान्‌--तुम

    तब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने कहा, 'हे ब्रह्मा, हे वेदगर्भ, तुम सृष्टि करने के लिए न तोनिराश होओ, न ही चिन्तित।

    तुम जो मुझसे माँग रहे हो वह तुम्हें पहले ही दिया जा चुका है।

    भूयस्त्वं तप आतिष्ठ विद्यां चैव मदाश्रयाम्‌ ।

    ताभ्यामन्तईदि ब्रह्मन्लोकान्द्रक्ष्यस्यपावृतान्‌ू ॥

    ३०॥

    भूयः--पुनः ; त्वमू--तुम; तपः--तपस्या; आतिष्ठ--स्थित होओ; विद्याम्‌--ज्ञान में; च-- भी; एव--निश्चय ही; मत्‌--मेरा;आश्रयाम्‌--संरक्षण में; ताभ्याम्‌ू--उन योग्यताओं द्वारा; अन्त:-- भीतर; हृदि--हृदय में; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; लोकान्‌--सारेलोक; द्रक्ष्य्सि--देखोगे; अपावृतान्‌ू-- प्रकट हुआ

    हे ब्रह्मा, तुम अपने को तपस्या तथा ध्यान में स्थित करो और मेरी कृपा पाने के लिए ज्ञानके सिद्धान्तों का पालन करो।

    इन कार्यों से तुम अपने हृदय के भीतर से हर बात को समझसकोगे।

    तत आत्मनि लोके च भक्तियुक्त: समाहितः ।

    द्रष्टासि मां ततं ब्रह्मन्मयि लोकांस्त्वमात्मन: ॥

    ३१॥

    ततः--तत्पश्चात्‌: आत्मनि--तुम अपने में; लोके--ब्रह्माण्ड में; च-- भी; भक्ति-युक्त:--भक्ति में स्थित; समाहितः--पूर्णतयानिमग्न; द्रष्टा असि--तुम देखोगे; माम्‌--मुझको; ततम्‌--सर्वत्र व्याप्त; ब्रह्मनू--हे ब्रह्मा; मयि--मुझमें; लोकान्‌-- सारेब्रह्माण्डों को; त्वम्‌ू--तुम; आत्मन:--जीव |

    हे ब्रह्मा, जब तुम अपने सर्जनात्मक कार्यकलाप के दौरान भक्ति में निमग्न रहोगे तो तुममुझको अपने में तथा ब्रह्माण्ड भर में देखोगे और तुम देखोगे कि मुझमें स्वयं तुम, ब्रह्माण्ड तथासारे जीव हैं।

    यदा तु सर्वभूतेषु दारुष्वग्निमिव स्थितम्‌ ।

    प्रतिचक्षीत मां लोको जद्यात्तहव कश्मलम्‌ ॥

    ३२॥

    यदा--जब; तु-- लेकिन; सर्व--समस्त; भूतेषु--जीवों में; दारुषु--लकड़ी में; अग्निम्‌--अग्नि; इब--सहश; स्थितम्‌--स्थित; प्रतिचक्षीत--तुम देखोगे; मामू--मुझको; लोक:--तथा ब्रह्माण्ड; जह्यात्‌-त्याग सकता है; तहिं--तब तुरन्त; एब--निश्चय ही; कश्मलमू-मोह |

    तुम मुझको सारे जीवों में तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र उसी प्रकार देखोगे जिस तरह काठ में अग्निस्थित रहती है।

    केवल उस दिव्य दृष्टि की अवस्था में तुम सभी प्रकार के मोह से अपने को मुक्तकर सकोगे।

    यदा रहितमात्मानं भूतेन्द्रियपुणाशयै: ।

    स्वरूपेण मयोपेतं पश्यन्स्वाराज्यमृच्छति ॥

    ३३॥

    यदा--जब; रहितम्‌--से मुक्त; आत्मानम्‌--आत्मा; भूत--भौतिक तत्त्व; इन्द्रिय-- भौतिक इन्द्रियाँ; गुण-आशयै:-- भौतिकगुणों के प्रभाव के अधीन; स्वरूपेण--शुद्ध जीवन में; मया--मेरे द्वारा; उपेतम्‌ू--निकट आकर; पश्यन्‌--देखने से;स्वाराज्यमू-- आध्यात्मिक साम्राज्य; ऋच्छति-- भोग करते हैं।

    जब तुम स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के विचार से मुक्त होगे तथा तुम्हारी इन्द्रियाँ प्रकृति के सारेप्रभावों से मुक्त होंगी तब तुम मेरी संगति में अपने शुद्ध रूप की अनुभूति कर सकोगे।

    उस समयतुम शुद्ध भावनामृत में स्थित होगे।

    नानाकर्मवितानेन प्रजा बह्नीः सिसृक्षत: ।

    नात्मावसीदत्यसिंमस्ते वर्षीयान्मदनुग्रह: ॥

    ३४॥

    नाना-कर्म--तरह तरह की सेवा; वितानेन--विस्तार से; प्रजा:--जनता; बह्ली:ः--असंख्य; सिसृक्षत:--वृद्द्धि करने की इच्छाकरते हुए; न--कभी नहीं; आत्मा--आत्मा; अवसीदति--वंचित होगा; अस्मिनू--पदार्थ में; ते--तुम्हारा; वर्षीयान्‌ू--सदैवबढ़ती हुई; मत्‌--मेरी; अनुग्रह:--अहैतुकी कृपा।

    चूँकि तुमने जनसंख्या को असंख्य रूप में बढ़ाने तथा अपनी सेवा के प्रकारों को विस्तारदेने की इच्छा प्रकट की है, अतः तुम इस विषय से कभी भी वंचित नहीं होगे, क्योंकि सभीकालों में तुम पर मेरी अहैतुकी कृपा बढ़ती ही जायेगी।

    ऋषिमाद्यं न बध्नाति पापीयांस्‍्त्वां रजोगुण: ।

    यन्मनो मयि निर्बद्धं प्रजा: संसजतोउपि ते ॥

    ३५॥

    ऋषिम्‌--ऋषि को; आद्यम्‌--सर्वप्रथम; न--कभी नहीं; बध्नाति--पास फटकता है; पापीयान्‌--पापी; त्वामू--तुम; रज:-गुण:--रजोगुण; यत्‌--क्योंकि; मन:--मन; मयि--मुझमें; निर्बद्धम्‌--लगे रहने पर; प्रजा:--सन्तति; संसृजतः--उत्पन्न करतेहुए; अपि-- भी; ते--तुम्हारे |

    तुम आदि ऋषि हो और तुम्हारा मन सदैव मुझमें स्थिर रहता है इसीलिए विभिन्न सन्ततियाँउत्पन्न करने के कार्य में लगे रहने पर भी तुम्हारे पास पापमय रजोगुण फटक भी नहीं सकेगा।

    ज्ञातोहं भवता त्वद्य दुर्विज्ञेयोपि देहिनाम्‌ ।

    यम्मां त्वं मन्यसेयुक्त भूतेन्द्रियगुणात्मभि: ॥

    ३६॥

    ज्ञातः--ज्ञात; अहम्‌--मैं; भवता--तुम्हारे द्वारा; तु--लेकिन; अद्य--आज; दुः--कठिन; विज्ञेय:--जाना जा सकना; अपि--के बावजूद; देहिनामू--बद्धजीव के लिए; यत्‌--क्योंकि; मामू--मुझको; त्वम्‌--तुम; मन्यसे--समझते हो; अयुक्तम्‌-बिनाबने हुए; भूत-- भौतिक तत्त्व; इन्द्रिय-- भौतिक इन्द्रियाँ; गुण-- भौतिक गुण; आत्मभि:ः--तथा मिथ्या अभिमान यथा बद्धआत्मा द्वारा |

    यद्यपि मैं बद्ध आत्मा द्वारा सरलता से ज्ञेय नहीं हूँ, किन्तु आज तुमने मुझे जान लिया है,क्योंकि तुम जानते हो कि मैं किसी भौतिक वस्तु से विशेष रूप से पाँच स्थूल तथा तीन सूक्ष्मतत्त्वों से नहीं बना हूँ।

    तुभ्यं मद्विचिकित्सायामात्मा मे दर्शितोबहिः ।

    नालेन सलिले मूलं॑ पुष्करस्य विचिन्बतः ॥

    ३७॥

    तुभ्यम्‌--तुमको; मत्‌--मुझको; विचिकित्सायाम्‌--जानने के तुम्हारे प्रयास करने पर; आत्मा--आत्मा; मे--मेरा; दर्शित: --प्रदर्शित; अबहि:-- भीतर से; नालेन--डंठल से; सलिले--जल में; मूलम्‌--जड़; पुष्करस्थ--आदि स्त्रोत कमल का;विचिन्वत:--चिंतन करते हुए।

    जब तुम यह सोच-विचार कर रहे थे कि तुम्हारे जन्म के कमल-नाल के डंठल का कोईस्त्रोत है कि नहीं और तुम उस डंठल के भीतर प्रविष्ट भी हो गये थे, तब तुम कुछ भी पता नहींलगा सके थे।

    किन्तु उस समय मैंने भीतर से अपना रूप प्रकट किया था।

    यच्चकर्थाड़ु मत्स्तोत्रं मत्कथाभ्युदयाड्वितम्‌ ।

    यद्वा तपसि ते निष्ठा स एब मदनुग्रह: ॥

    ३८ ॥

    यत्‌--वह जो; चकर्थ--सम्पन्न किया; अड्र--हे ब्रह्मा; मत्‌-स्तोत्रम्‌ू-मेरे लिए प्रार्थना; मत्‌-कथा--मेरे कार्यकलापों के विषयमें शब्द; अभ्युदय-अड्भितम्‌-मेरी दिव्य लीलाओं की परिगणना करते हुए; यत्‌--या जो; वा--अथवा; तपसि--तपस्या में;ते--तुम्हारी; निष्ठा-- श्रद्धा; सः--वह; एष:--ये सब; मत्‌--मेरी; अनुग्रह:-- अहैतुकी कृपा |

    हे ब्रह्मा, तुमने मेरे दिव्य कार्यों की महिमा की प्रशंसा करते हुए जो स्तुतियाँ की हैं, मुझेसमझने के लिए तुमने जो तपस्याएँ की हैं तथा मुझमें तुम्हारी जो हढ़ आस्था है--इन सबों कोतुम मेरी अहैतुकी कृपा ही समझो।

    प्रीतोहमस्तु भद्वं ते लोकानां विजयेच्छया ।

    यदस्तौषीर्गुणमयं निर्गुणं मानुवर्णयन्‌ ॥

    ३९॥

    प्रीत:ः--प्रसन्न; अहम्‌--मैं; अस्तु--ऐसा ही हो; भद्रमू--समस्त आशीर्वाद; ते--तुमको; लोकानाम्‌--लोकों का; विजय--गुणगान की; इच्छया--तुम्हारी इच्छा से; यत्‌--वह जो; अस्तौषी:--तुमने प्रार्थना की है; गुण-मयम्‌--दिव्य गुणों का वर्णनकरते हुए; निर्गुणम्‌--यद्यपि मैं समस्त भौतिक गुणों से रहित हूँ; मा--मुझको; अनुवर्णयन्‌--अच्छे ढंग से वर्णन करते हुए।

    मेरे दिव्य गुण जो कि संसारी लोगों को सांसारिक प्रतीत होते हैं, उनका जो वर्णन तुम्हारेद्वारा प्रस्तुत किया गया है उससे मैं अतीव प्रसन्न हूँ।

    अपने कार्यो से समस्त लोकों को महिमामयकरने की जो तुम्हारी इच्छा है उसके लिए मैं तुम्हें वर देता हूँ।

    य एतेन पुमात्रित्य॑ स्तुत्वा स्तोत्रेण मां भजेतू ।

    तस्याशु सम्प्रसीदेयं सर्वकामवरेश्वर: ॥

    ४०॥

    यः--जो कोई; एतेन--इतने से; पुमानू--मनुष्य; नित्यमू--नियमित रूप से; स्तुत्वा--स्तुति करके; स्तोत्रेण--श्लोकों से;माम्‌--मुझको; भजेत्‌--पूजे; तस्य--उसकी; आशु--अतिशीघ्र; सम्प्रसीदेयम्‌--मैं पूरा करूँगा; सर्व--समस्त; काम--इच्छाएँ; वर-ईश्वरः --समस्त वरों का स्वामी ।

    जो भी मनुष्य ब्रह्म की तरह प्रार्थना करता है और इस तरह जो मेरी पूजा करता है, उसे शीघ्रही यह वर मिलेगा कि उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हों, क्योंकि मैं समस्त वरों का स्वामी हूँ।

    पूर्तन तपसा यज्लैदनिर्योगसमाधिना ।

    राद्धं निःश्रेयसं पुंसां मत्प्रीतिस्तत्त्वविन्मतम्‌ ॥

    ४१॥

    पूर्तेन-- परम्परागत अच्छे कार्य द्वारा; तपसा--तपस्या से; यज्जै:--यज्ञों के द्वारा; दानैः--दान के द्वारा; योग--योग द्वारा;समाधिना--समाधि द्वारा; राद्धमू--सफलता; नि: श्रेयसमू--अन्ततोगत्वा लाभप्रद; पुंसामू--मनुष्य की; मत्‌--मेरी; प्रीति: --तुष्टि; तत्तत-वित्‌--दक्ष अध्यात्मवादी; मतमू--मत।

    दक्ष अध्यात्मवादियों का यह मत है कि परम्परागत सत्कर्म, तपस्या, यज्ञ, दान, योग कर्म,समाधि आदि सम्पन्न करने का चरम लक्ष्य मेरी तुष्टि का आवाहन करना है।

    अहमात्मात्मनां धातः प्रेष्ठ: सन्प्रेयसामपि ।

    अतो मयि रतिं कुयहिहादिरयत्कृते प्रिय: ॥

    ४२॥

    अहम्‌ू-मैं; आत्मा--परमात्मा; आत्मनाम्‌--अन्य सारी आत्माओं का; धात:--निदेशक; प्रेष्ठ: --प्रियतम; सन्‌--होकर;प्रेयसाम्‌--समस्त प्रिय वस्तुओं का; अपि--निश्चय ही; अत:--इसलिए; मयि--मेरे प्रति; रतिम्‌--अनुरक्ति; कुर्यात्‌ू--करे;देह-आदि:--शरीर तथा मन; यत्‌-कृते--जिसके कारण; प्रिय:--अत्यन्त प्रियमैं प्रत्येक जीव का परमात्मा हूँ।

    मैं परम निदेशक तथा परम प्रिय हूँ।

    लोग स्थूल तथा सूक्ष्मशरीरों के प्रति झूठे ही अनुरक्त रहते हैं; उन्हें तो एकमात्र मेरे प्रति अनुरक्त होना चाहिए।

    सर्ववेदमयेनेदमात्मनात्मात्मयोनिना ।

    प्रजा: सृज यथापूर्व याश्व मय्यनुशेरते ॥

    ४३॥

    सर्व--समस्त; वेद-मयेन--पूर्ण वैदिक ज्ञान के अधीन; इृदम्‌--यह; आत्मना--शरीर द्वारा; आत्मा--तुम; आत्म-योनिना--सीधे भगवान्‌ से उत्पन्न; प्रजा:--जीव; सृज--उत्पन्न करो; यथा-पूर्वम्‌--पहले की ही तरह; या:--जो; च-- भी; मयि--मुझमें ;अनुशेरते--स्थित हैं।

    मेरे आदेशों का पालन करके तुम पहले की तरह अपने पूर्ण बैदिक ज्ञान से तथासर्वकारण-के-कारण-रूप मुझसे प्राप्त अपने शरीर द्वारा जीवों को उत्पन्न कर सकते हो।

    मैत्रेय उबाचतस्मा एवं जगत्स्ष्टे प्रधानपुरुषे श्वरः ।

    व्यज्येदं स्वेन रूपेण कझ्जनाभस्तिरोदथे ॥

    ४४॥

    मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; तस्मै-- उससे; एवम्‌--इस प्रकार; जगत््‌-स्त््टे--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा के प्रति; प्रधान-पुरुष-ईश्वर:-- आदि भगवान्‌; व्यज्य इदम्‌--यह आदेश देकर; स्वेन--अपने; रूपेण --स्वरूप द्वारा; कञ्ल-नाभ:-- भगवान्‌ नारायण;तिरोदधे--अन्तर्धान हो गये |

    मैत्रेय मुनि ने कहा : ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ब्रह्म को विस्तार करने का आदेश देकर आदिभगवान्‌ अपने साकार नारायण रूप में अन्तर्धान हो गये।

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    अध्याय दस: सृष्टि के विभाग

    3.10विदुर उवाचअन्त्िते भगवति ब्रह्मा लोकपितामहः ।

    प्रजा: ससर्ज कतिधादैहिकीर्मानसीर्विभु: ॥

    १॥

    विदुरः उवाच-- श्री विदुर ने कहा; अन्तर्हिते--अन्तर्धान होने पर; भगवति-- भगवान्‌ के; ब्रह्मा-- प्रथम उत्पन्न प्राणी ने; लोक-पितामह:--समस्त लोकवासियों के दादा; प्रजा: --सनन्‍्तानें; ससर्ज--उत्पन्न किया; कतिधा: --कितनी; दैहिकी:-- अपने शरीरसे; मानसी:--अपने मन से; विभु:--महान्‌ |

    श्री विदुर ने कहा : हे महर्षि, कृपया मुझे बतायें कि लोकवासियों के पितामह ब्रह्मा नेअन्तर्धान हो जाने पर किस तरह से अपने शरीर तथा मन से जीवों के शरीरों को उत्पन्न किया ?

    ये च मे भगवस्पृष्टास्त्वय्यर्था बहुवित्तम ।

    तान्वदस्वानुपूर्व्येण छिन्धि न: सर्वसंशयान्‌ ॥

    २॥

    ये--वे सभी; च--भी; मे--मेरे द्वारा; भगवन्‌--हे शक्तिशाली; पृष्ठाः --पूछे गये; त्वयि--तुमसे; अर्था:--प्रयोजन; बहु-वित्‌ू-तम--हे परम विद्वान; तानू--उन सबों को; वदस्व--कृपा करके वर्णन करें; आनुपूर्व्येण --आदि से अन्त तक; छिन्धि--कृपयासमूल नष्ट कीजिये; न:--मेरे; सर्व--समस्त; संशयान्‌--सन्देहों को |

    हे महान्‌ विद्वान, कृपा करके मेरे सारे संशयों का निवारण करें और मैंने आपसे जो कुछजिज्ञासा की है उसे आदि से अन्त तक मुझे बताएँ।

    सूत उवाचएवं सञ्जोदितस्तेन क्षत्रा कौषारविर्मुनि: ।

    प्रीतः प्रत्याह तान्प्रश्नान्हदिस्थानथ भार्गव ॥

    ३॥

    सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; सझ्ञोदितः--प्रोत्साहित हुआ; तेन--उसके द्वारा; क्षत्रा--विदुर से;'कौषारवि:--कुषार का पुत्र; मुनि:--मुनि ने; प्रीत:--प्रसन्न होकर; प्रत्याह--उत्तर दिया; तानू--उन; प्रश्नानू-- प्रश्नों के; हृदि-स्थान्‌ू--अपने हृदय के भीतर से; अथ--इस प्रकार; भार्गव--हे भूगु पुत्र |

    सूत गोस्वामी ने कहा : हे भृगुपुत्र, महर्षि मैत्रेय मुनि विदुर से इस तरह सुनकर अत्यधिकप्रोत्साहित हुए।

    हर वस्तु उनके हृदय में थी, अतः वे प्रश्नों का एक एक करके उत्तर देने लगे।

    मैत्रेय उवाचविरिश्ञोपि तथा चक्रे दिव्यं वर्षशतं तपः ।

    आत्मन्यात्मानमावेश्य यथाह भगवानज: ॥

    ४॥

    मैत्रेय: उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; विरिज्ञ:ः --ब्रह्मा ने; अपि-- भी; तथा--उस तरह से; चक्रे--सम्पन्न किया; दिव्यम्‌ू--स्वर्गिक; वर्ष-शतम्‌--एक सौ वर्ष; तपः--तपस्या; आत्मनि-- भगवान्‌ की; आत्मानम्‌--अपने आप; आवेश्य--संलग्न रहकर; यथा आह--जैसा कहा गया था; भगवान्‌-- भगवान्‌; अज:--अजन्मा |

    परम दिद्वान मैत्रेय मुनि ने कहा : हे विदुर, इस तरह भगवान्‌ द्वारा दी गई सलाह के अनुसारब्रह्मा ने एक सौ दिव्य वर्षों तक अपने को तपस्या में संलग्न रखा और अपने को भगवान्‌ कीभक्ति में लगाये रखा।

    तद्विलोक्याब्जसम्भूतो वायुना यदधिष्ठित: ।

    पद्ममम्भश्न तत्कालकृतवीर्येण कम्पितम्‌ ॥

    ५॥

    तत्‌ विलोक्य--उसके भीतर देखकर; अब्ज-सम्भूत:--कमल से उत्पन्न; वायुना--वायु द्वारा; यत्‌--जो; अधिष्टित:--जिस परयह स्थित था; पद्ममू--कमल; अम्भ:--जल; च--भी; तत्‌-काल-कृत--जो नित्य काल द्वारा प्रभावित था; वीर्येण--अपनीनिहित शक्ति से; कम्पितम्‌ू--काँपता |

    तत्पश्चात्‌ ब्रह्म ने देखा कि वह कमल जिस पर बे स्थित थे तथा वह जल जिसमें कमल उगाथा प्रबल प्रचण्ड वायु के कारण काँप रहे हैं।

    तपसा होधमानेन विद्यया चात्मसंस्थया ।

    विवृद्धविज्ञानबलो न्यपाद्वायुं सहाम्भसा ॥

    ६॥

    तपसा--तपस्या से; हि--निश्चय ही; एधमानेन--बढ़ते हुए; विद्यया--दिव्य ज्ञान द्वारा; च-- भी; आत्म--आत्मा; संस्थया--आत्मस्थ; विवृद्ध--परिपक्व; विज्ञान--व्यावहारिक ज्ञान; बल:--शक्ति; न्यपात्‌--पी लिया; वायुम्‌ू--वायु को; सहअम्भसा--जल के सहित।

    दीर्घकालीन तपस्या तथा आत्म-साक्षात्कार के दिव्य ज्ञान ने ब्रह्मा को व्यावहारिक ज्ञान मेंपरिपक्व बना दिया था, अतः उन्होंने वायु को पूर्णतः जल के साथ पी लिया।

    तद्विलोक्य वियद्व्यापि पुष्करं यदधिष्टितम्‌ ।

    अनेन लोकाऋच्प्राग्लीनानन्‍कल्पितास्मीत्यचिन्तयत्‌ ॥

    ७॥

    तत्‌ विलोक्य--उसे देखकर; वियत्‌-व्यापि--अतीब विस्तृत; पुष्करम्‌--कमल; यत्‌--जो; अधिष्टठितम्‌--स्थित था; अनेन--इससे; लोकान्‌--सारे लोक; प्राकु-लीनान्‌--पहले प्रलय में मग्न; कल्पिता अस्मि--मैं सृजन करूँगा; इति--इस प्रकार;अचिन्तयत्‌--उसने सोचा।

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने देखा कि वह कमल, जिस पर वे आसीन थे, ब्रह्माण्ड भर में फैला हुआ हैऔर उन्होंने विचार किया कि उन समस्त लोकों को किस तरह उत्पन्न किया जाय जो इसके पूर्वउसी कमल में लीन थे।

    पद्मकोशं तदाविश्य भगवत्कर्मचोदितः ।

    एक॑ व्यभाड्क्षीदुरुधा त्रिधा भाव्यं द्विसप्तथा ॥

    ८॥

    पदा-कोशम्‌--कमल-चक्र में; तदा--तब; आविश्य--प्रवेश करके; भगवत्‌-- भगवान्‌ द्वारा; कर्म--कार्यकलाप में;चोदित:--प्रोत्साहित किया गया; एकम्‌--एक; व्यभाड्क्षीत्‌--विभाजित कर दिया; उरुधा--महान्‌ खण्ड; त्रिधा--तीनविभाग; भाव्यम्‌--आगे सृजन करने में समर्थ; द्वि-सप्तधा--चौदह विभाग ।

    इस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की सेवा में लगे ब्रह्माजी कमल के कोश में प्रविष्ट हुए औरचूँकि वह सारे ब्रह्माण्ड में फैला हुआ था, अतः उन्होंने इसे ब्रह्माण्ड के तीन विभागों में औरउसके बाद चौदह विभागों में बाँट दिया।

    एतावाझ्जीवलोकस्य संस्थाभेद: समाहतः ।

    धर्मस्य हानिमित्तस्थ विपाकः परमेष्ठयसौ ॥

    ९॥

    एतावान्‌ू--यहाँ तक; जीव-लोकस्य--जीवों द्वारा निवसित लोकों के ; संस्था-भेदः--निवास स्थान की विभिन्न स्थितियाँ;समाहतः--पूरी तरह सम्पन्न; धर्मस्थ--धर्म का; हि--निश्चय ही; अनिमित्तस्य--अहैतुकता का; विपाक:--परिपक्व अवस्था;परमेष्ठी --ब्रह्माण्ड में सर्वोच्च व्यक्ति; असौ--उस |

    परिपक्व दिव्य ज्ञान में भगवान्‌ की अहैतुकी भक्ति के कारण ब्रह्माजी ब्रह्माण्ड में सर्वोच्चपुरुष हैं।

    इसीलिए उन्होंने विभिन्न प्रकार के जीवों के निवास स्थान के लिए चौदह लोकों कासृजन किया।

    विदुर उवाचयथात्थ बहुरूपस्य हरेरद्धुतकर्मण: ।

    कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन्यथा वर्णय नः प्रभो ॥

    १०॥

    विदुर: उवाच--विदुर ने कहा; यथा--जिस तरह; आत्थ--आपने कहा है; बहु-रूपस्य--विभिन्न रूपों वाले; हरेः-- भगवान्‌के; अद्भुत--विचित्र; कर्मण:-- अभिनेता का; काल--समय; आख्यम्‌--नामक; लक्षणम्‌--लक्षण; ब्रह्मनू--हे विद्वानब्राह्मण; यथा--यह जैसा है; वर्णय--कृपया वर्णन करें; नः--हमसे; प्रभो--हे प्रभु ॥

    विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे प्रभु, हे परम विद्वान ऋषि, कृपा करके नित्यकाल का वर्णन करेंजो अद्भुत अभिनेता परमेश्वर का दूसरा रूप है।

    नित्य काल के क्या लक्षण हैं ? कृपा करकेहमसे विस्तार से कहें।

    मैत्रेय उवाचगुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोप्रतिष्ठित: ।

    पुरुषस्तदुपादानमात्मानं लीलयासूजत्‌ ॥

    ११॥

    मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; गुण-व्यतिकर-- प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रियाओं का; आकार: --स््रोत; निर्विशेष:--विविधता रहित; अप्रतिष्ठित:--असीम; पुरुष: --परम पुरुष का; तत्‌--वह; उपादानम्‌--निमित्त; आत्मानम्‌-- भौतिक सृष्टि;लीलया--लीलाओं द्वारा; असृजत्‌--उत्पन्न किया

    मैत्रेय ने कहा : नित्यकाल ही प्रकृति के तीनों गुणों की अन्योन्य क्रियाओं का आदि स्त्रोतहै।

    यह अपरिवर्तनशील तथा सीमारहित है और भौतिक सृजन की लीलाओं में यह भगवान्‌ केनिमित्त रूप में कार्य करता है।

    विश्व वै ब्रह्मतन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया ।

    ईश्वेरेण परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना ॥

    १२॥

    विश्वम्‌-- भौतिक चक्र; बै--निश्चय ही; ब्रह्म--ब्रह्म; तत्‌-मात्रमू--उसी तरह का; संस्थितम्‌--स्थित; विष्णु-मायया--विष्णुकी शक्ति से; ई श्वरण -- भगवान्‌ द्वारा; परिच्छिन्नम्‌ू--पृथक्‌ की गई; कालेन--नित्य काल द्वारा; अव्यक्त--अप्रकट; मूर्तिना--ऐसे स्वरूप द्वारा

    यह विराट जगत भौतिक शक्ति के रूप में अप्रकट तथा भगवान्‌ के निर्विशेष स्वरूप कालद्वारा भगवान्‌ से विलग किया हुआ है।

    यह विष्णु की उसी भौतिक शक्ति के प्रभाव के अधीनभगवान्‌ की वस्तुगत अभिव्यक्ति के रूप में स्थित है।

    यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीहशम्‌ ॥

    १३॥

    यथा--जिस तरह है; इृदानीम--इस समय; तथा--उसी तरह; अग्रे--प्रारम्भ में; च--तथा; पश्चात्‌-- अन्त में; अपि-- भी; एतत्‌ईहशम्‌--वैसा ही रहता है |

    यह विराट जगत जैसा अब है वैसा ही रहता है।

    यह भूतकाल में भी ऐसा ही था और भविष्यमें इसी तरह रहेगा।

    सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः ।

    कालद्रव्यगुणैरस्य त्रिविध: प्रतिसड्क्रम: ॥

    १४॥

    सर्ग:--सृष्टि; नव-विध: --नौ भिन्न-भिन्न प्रकार की; तस्य--इसका; प्राकृत:-- भौतिक; वैकृत:--प्रकृति के गुणों द्वारा; तु--लेकिन; यः--जो; काल--नित्यकाल; द्रव्य--पदार्थ; गुणैः --गुणों के द्वारा; अस्थ--इसके; त्रि-विध: --तीन प्रकार;प्रतिसड्क्रम:--संहार |

    उस एक सृष्टि के अतिरिक्त जो गुणों की अन्योन्य क्रियाओं के फलस्वरूप स्वाभाविक रूप से घटित होती है नौ प्रकार की अन्य सृष्टियाँ भी हैं।

    नित्य काल, भौतिक तत्त्वों तथा मनुष्य केकार्य के गुण के कारण प्रलय तीन प्रकार का है।

    आद्मस्तु महतः सर्गो गुणवैषम्यमात्मनः ।

    द्वितीयस्त्वहमो यत्र द्रव्यज्ञानक्रियोदयः ॥

    १५॥

    आद्य:-प्रथम; तु--लेकिन; महत:-- भगवान्‌ से पूर्ण उद्भास की; सर्ग:--सृष्टि; गुण-वैषम्यम्‌-- भौतिक गुणों की अन्योन्यक्रिया; आत्मन:--ब्रह्म का; द्वितीय:--दूसरी; तु--लेकिन; अहम: --मिथ्या अहंकार; यत्र--जिसमें; द्रव्य-- भौतिक घटक;ज्ञान--भौतिक ज्ञान; क्रिया-उदय:--कार्य की जागृति

    नौ सृष्टरियों में से पहली सृष्टि महत्‌ तत्त्वसृष्टि अर्थात्‌ भौतिक घटकों की समग्रता है, जिसमेंपरमेश्वर की उपस्थिति के कारण गुणों में परस्पर क्रिया होती है।

    द्वितीय सृष्टि में मिथ्या अहंकारउत्पन्न होता है, जिसमें से भौतिक घटक, भौतिक ज्ञान तथा भौतिक कार्यकलाप प्रकट होते हैं।

    भूतसर्गस्तृतीयस्तु तन्मात्रो द्रव्यशक्तिमान्‌ ।

    चतुर्थ ऐन्द्रियः सर्गो यस्तु ज्ञानक्रियात्मक: ॥

    १६॥

    भूत-सर्ग:--पदार्थ की उत्पत्ति; तृतीय:--तीसरी; तु--लेकिन; ततू-मात्र:--इन्द्रियविषय; द्रव्य--तत्वों के; शक्तिमान्‌--स्त्रष्टा;चतुर्थ: --चौथा; ऐन्द्रियः--इन्द्रियों के विषय में; सर्ग:--सृष्टि; यः--जो; तु--लेकिन; ज्ञान--ज्ञान-अर्जन; क्रिया--कार्य करनेकी; आत्मक:--मूलतः ।

    इन्द्रिय विषयों का सृजन तृतीय सृष्टि में होता है और इनसे तत्त्व उत्पन्न होते हैं।

    चौथी सृष्टि हैज्ञान तथा कार्य-क्षमता ( क्रियाशक्ति ) का सृजन।

    वैकारिको देवसर्ग: पञ्ञमो यन्मयं मनः ।

    षष्ठस्तु तमसः सर्गो यस्त्वबुद्धिकृतः प्रभोः ॥

    १७॥

    वैकारिक:--सतोगुण की अन्योन्य क्रिया; देव--देवता या अधिष्ठाता देव; सर्ग:--सृष्टि; पश्ञमः--पाँचवीं; यत्‌ू-- जो; मयम्‌--सम्पूर्णता; मनः--मन; षष्ठ:--छठी; तु--लेकिन; तमस:--तमोगुण की; सर्ग:--सृष्टि; यः--जो; तु--अनुपूरक; अबुद्धि-कृतः--मूर्ख बनाई गई; प्रभो:--स्वामी की |

    पाँचवीं सृष्टि सतोगुण की अन्योन्य क्रिया द्वारा बने अधिष्ठाता देवों की है, जिसका सारसमाहार मन है।

    छठी सृष्टि जीव के अज्ञानतापूर्ण अंधकार की है, जिससे स्वामी मूर्ख की तरहकार्य करता है।

    घडिमे प्राकृताः सर्गा वैकृतानपि मे श्रुणु ।

    रजोभाजो भगवतो लीलेयं हरिमेधसः ॥

    १८॥

    घट्‌ू--छठी; इमे--ये सब; प्राकृताः:--भौतिक शक्ति की; सर्गाः--सृष्टियाँ; वैकृतान्‌--ब्रह्मा द्वारा गौण सृष्टियाँ; अपि-- भी;मे--मुझसे; श्रुणु--सुनो; रज:-भाज:--रजोगुण के अवतार ( ब्रह्म ) का; भगवतः--अत्यन्त शक्तिशाली की; लीला--लीला;इयम्‌--यह; हरि-- भगवान्‌; मेधस:--ऐसे मस्तिष्क वाले का

    उपर्युक्त समस्त सृष्टियाँ भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति की प्राकृतिक सृष्टियाँ हैं।

    अब मुझसे उनब्रह्माजी द्वारा की गई सृष्टियों के विषय में सुनो जो रजोगुण के अवतार हैं और सृष्टि के मामले मेंजिनका मस्तिष्क भगवान्‌ जैसा ही है।

    सप्तमो मुख्यसर्गस्तु षड्िवधस्तस्थुषां च यः ।

    वनस्पत्योषधिलतात्वक्सारा वीरुधो द्रुमा: ॥

    १९॥

    सप्तम:ः--सातवीं; मुख्य-- प्रधान; सर्ग: --सृष्टि; तु--निस्सन्देह; षघटू-विध:--छ: प्रकार की; तस्थुषाम्‌ू--न चलने वालों की;च--भी; यः--वे; वनस्पति--बिना फूल वाले फल वृक्ष; ओषधि--पेड़-पौधे जो फल के पकने तक जीवित रहते हैं; लता--लताएँ; त्वक्साराः:--नलीदार पौधे; वीरुध:--बिना आधार वाली लताएँ; द्रुमाः--फलफूल वाले वृक्ष

    सातवीं सृष्टि अचर प्राणियों की है, जो छः प्रकार के हैं: फूलरहित फलवाले वृक्ष, फल पकने तक जीवित रहने वाले पेड़-पौधे, लताएं, नलीदार पौधे; बिना आधार वाली लताएँ तथा'फलफूल वाले वृक्ष।

    उत्स्नोतसस्तमःप्राया अन्तःस्पर्शा विशेषिण: ॥

    २०॥

    उत्स्रोतस:--ऊर्ध्वगामी, नीचे से ऊपर की ओर; तम:-प्राया:--प्रायः अचेत; अन्तः-स्पर्शा:-- भीतर कुछ कुछ अनुभव करतेहुए; विशेषिण:--नाना प्रकार के स्वरूपों से युक्त |

    सारे अचर पेड़-पौधे ऊपर की ओर बढ़ते हैं।

    वे अचेतप्राय होते हैं, किन्तु भीतर ही भीतरउनमें पीड़ा की अनुभूति होती है।

    वे नाना प्रकारों में प्रकट होते हैं।

    तिरश्नामष्टम: सर्ग: सोउष्टाविंशद्विधो मतः ।

    अविदो भूरितमसो प्राणज्ञा हृद्यवेदिन: ॥

    २१॥

    तिरश्वामू--निम्न पशुओं की जातियाँ; अष्टम:--आठवीं ; सर्ग:--सृष्टि; सः--वे हैं; अष्टाविंशत्‌-- अट्टाईस; विध:--प्रकार;मतः--माने हुए; अविदः--कल के ज्ञान से रहित; भूरि--अत्यधिक; तमस:--अज्ञानी; प्राण-ज्ञा:--गन्ध से इच्छित वस्तुओं कोजानने वाले; हृदि अवेदिन:--हृदय में बहुत कम स्मरण रखने वाले |

    आठवीं सृष्टि निम्नतर जीवयोनियों की है और उनकी अट्ठाईस विभिन्न जातियाँ हैं।

    वे सभीअत्यधिक मूर्ख तथा अज्ञानी होती हैं।

    वे गन्ध से अपनी इच्छित वस्तुएँ जान पाती हैं, किन्तु हृदयमें कुछ भी स्मरण रखने में अशक्य होती हैं।

    गौरजो महिषः कृष्ण: सूकरो गवयो रुरु: ।

    द्विशफा: पशवश्चेमे अविरुष्टश्न सत्तम ॥

    २२॥

    गौः--गाय; अजः--बकरी; महिष:-- भेंस; कृष्ण: --एक प्रकार का बारहसिंगा; सूकर:--सुअर; गवयः--पशु की एक जाति( नीलगाय ); रुरु:--हिरन; द्वि-शफा:--दो खुरों वाले; पशव:--पशु; च-- भी; इमे--ये सभी; अवि:--मेंढा; उ्ट:--ऊँट;च--तथा; सत्तम-हे शुद्धतम |

    हे शुद्धतम विदुर, निम्नतर पशुओं में गाय, बकरी, भेंस, काला बारहसिंगा, सूकर,नीलगाय, हिरन, मेंढा तथा ऊँट ये सब दो खुरों वाले हैं।

    खरोश्वो श्वतरो गौर: शरभश्नमरी तथा ।

    एते चैकशफा: क्षत्तः श्रुणु पञ्ननखान्पशून्‌ ॥

    २३॥

    खरः--गधा; अश्वः--घोड़ा; अश्वतर: --खच्चर; गौर: --सफेद हिरन; शरभ: -- भैंसा; चमरी -- चँवरी गाय; तथा--इस प्रकार;एते--ये सभी; च--तथा; एक--केवल एक; शफा:--खुर; क्षत्त:--हे विदुर; श्रेणु--सुनो; पञ्ञ-- पाँच; नखान्‌--नाखूनवाले; पशून्‌--पशुओं के बारे में |

    घोड़ा, खच्चर, गधा, गौर, शरभ-भेंसा तथा चँवरी गाय इन सबों में केवल एक खुर होताहै।

    अब मुझसे उन पशुओं के बारे में सुनो जिनके पाँच नाखून होते हैं।

    श्वा सृगालो वृको व्याप्रो मार्जार: शशशल्लकौ ।

    सिंहः कपिर्गजः कूर्मो गोधा च मकरादय: ॥

    २४॥

    श्रा--कुत्ता; सृगाल:--सियार; वृकः--लोमड़ी; व्याप्र:--बाघ; मार्जार: --बिल्ली; शश--खरगोश; शललकौ--सजारू( स्थाही, जिसके शरीर पर काँटे होते हैं )।

    सिंहः--शेर; कपि:--बन्दर; गज:--हाथी; कूर्म:--कछुआ; गोधा--गोसाप( गोह ); च-- भी; मकर-आदय: --मगर इत्यादि |

    कुत्ता, सियार, बाघ, लोमड़ी, बिल्ली, खरगोश, सजारु ( स्याही ), सिंह, बन्दर, हाथी,कछुवा, मगर, गोसाप ( गोह ) इत्यादि के पंजों में पाँच नाखून होते हैं।

    वे पञ्ननख अर्थात्‌ पाँचनाखूनों वाले पशु कहलाते हैं।

    कड्डगृश्रबकश्येनभासभल्लूकबर्हिण: ।

    हंससारसचक्राहकाकोलूकादयः खगा: ॥

    २५॥

    कड्ढू--बगुला; गृश्च--गीध; बक--बगुला; श्येन--बाज; भास-- भास; भल्लूक-- भल्लूक ( भालू ); ब्हिण: --मोर; हंस--हंस; सारस--सारस; चअक्राह्म-- चक्रवाक, ( चकई चकवा ); काक--कौवा; उलूक- उल्लू; आदय: --इत्यादि; खगा:--पक्षी ।

    कंक, गीध, बगुला, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चक्रवाक, कौवा, उल्लूइत्यादि पक्षी कहलाते हैं।

    अर्वाक्स्नोतस्तु नवमः क्षत्तेकविधो नृणाम्‌ ।

    रजोधिका: कर्मपरा दुःखे च सुखमानिन: ॥

    २६॥

    अर्वाक्‌--नीचे की ओर; स्रोत:--भोजन की नली; तु--लेकिन; नवमः--नौवीं ; क्षत्त:--हे विदुर; एक-विध:--एक जाति;नृणाम्‌--मनुष्यों की; रज:--रजोगुण; अधिका: --अत्यन्त प्रधान; कर्म-परा:--कर्म में रुचि रखने वाले; दुःखे--दुख में; च--लेकिन; सुख--सुख; मानिन:--सोचने वाले |

    मनुष्यों की सृष्टि क्रमानुसार नौवीं है।

    यही केवल एक ही योनि ( जाति ) ऐसी है और अपनाआहार उदर में संचित करते हैं।

    मानव जाति में रजोगुण की प्रधानता होती है।

    मनुष्यगदुखीजीवन में भी सदैव व्यस्त रहते हैं, किन्तु वे अपने को सभी प्रकार से सुखी समझते हैं।

    वैकृतास्त्रय एवते देवसर्गश्व सत्तम ।

    वैकारिकस्तु यः प्रोक्त: कौमारस्तूभयात्मक: ॥

    २७॥

    वैकृताः--ब्रह्मा की सृष्टियाँ; त्रयः--तीन प्रकार की; एव--निश्चय ही; एते--ये सभी; देव-सर्ग:--देवताओं का प्राकट्य; च--भी; सत्तम--हे उत्तम विदुर; वैकारिक:--प्रकृति द्वारा देवताओं की सृष्टि; तु--लेकिन; यः--जो; प्रोक्त:--पहले वर्णित;'कौमारः--चारों कुमार; तु--लेकिन; उभय-आत्मकः--दोनों प्रकार ( यथा वैकृत तथा प्राकृत )

    हे श्रेष्ठ विदुर, ये अन्तिम तीन सृष्टियाँ तथा देवताओं की सृष्टि ( दसवीं सृष्टि ) वैकृत सृष्टियाँहैं, जो पूर्ववर्णित प्राकृत ( प्राकृतिक ) सृष्टियों से भिन्न हैं।

    कुमारों का प्राकट्य दोनों ही सृष्टियाँहैं।

    देवसर्गश्राष्टविधो विबुधा: पितरोसुरा: ।

    गन्धर्वाप्सरस: सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणा: ॥

    २८॥

    भूतप्रेतपिशाचाश्च विद्याश्रा: किन्नरादय: ।

    दशते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वस॒क्कता: ॥

    २९॥

    देव-सर्ग:--देवताओं की सृष्टि; च--भी; अष्ट-विध:-- आठ प्रकार की; विबुधा: --देवता; पितर:--पूर्वज; असुरा: --असुरगण; गन्धर्व--उच्चलोक के दक्ष कलाकार; अप्सरस:--देवदूत; सिद्धा:--योगशक्तियों में सिद्ध व्यक्ति; यक्ष--सर्वोत्कृष्टरक्षक; रक्षांसि--राक्षस; चारणा:--देवलोक के गवैये; भूत--जिन्न, भूत; प्रेत--बुरी आत्माएँ, प्रेत; पिशाचा:-- अनुगामी भूत;च--भी; विद्याक्रा:--विद्याधर नामक दैवी निवासी; किन्नर--अतिमानव; आदय:--इत्यादि; दश एते--ये दस ( सृष्टियाँ );विदुर--हे विदुर; आख्याता:--वर्णित; सर्गा:--सृष्टियाँ; ते--तुमसे; विश्व-सृक्‌--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ( ब्रह्मा ) द्वारा; कृता:--सम्पन्नदेवताओं की सृष्टि आठ प्रकार की है--( १) देवता (२) पितरगण (३) असुरगण(४) गन्धर्व तथा अप्सराएँ (५) यक्ष तथा राक्षस ( ६ ) सिद्ध, चारण तथा विद्याधर ( ७ ) भूत,प्रेत तथा पिशाच (८ ) किन्नर--अतिमानवीय प्राणी, देवलोक के गायक इत्यादि।

    ये सब ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न हैं।

    अतः परं प्रवक्ष्यामि वंशान्मन्वन्तराणि चएवं रजःप्लुत: स्त्रष्टा कल्पादिष्वात्म भूहरिः ।

    सृजत्यमोघसड्डल्प आत्मैवात्मानमात्मना ॥

    ३०॥

    अतः--यहाँ; परम्‌--बाद में; प्रवक्ष्यामि--बतलाऊँगा; वंशानू--वंशज; मन्वन्तराणि--मनुओं के विभिन्न अवतरण; च--तथा;एवम्‌--इस प्रकार; रज:-प्लुत:--रजोगुण से संतृप्त; स्त्रष्टा--निर्माता; कल्प-आदिषु--विभिन्न कल्पों में; आत्म-भू: --स्वयंअवतार; हरिः-- भगवान्‌; सृजति--उत्पन्न करता है; अमोघ--बिना चूक के; सड्डूल्प:--हृढ़निश्चय; आत्मा एव--वे स्वयं;आत्मानम्‌--स्वयं; आत्मना--अपनी ही शक्ति से |

    अब मैं मनुओं के वंशजों का वर्णन करूँगा।

    स्त्रष्टा ब्रह्मा जो कि भगवान्‌ के रजोगुणीअवतार हैं भगवान्‌ की शक्ति के बल से प्रत्येक कल्प में अचूक इच्छाओं सहित विश्व प्रपंच कीसृष्टि करते हैं।

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    अध्याय ग्यारह: परमाणु से समय की गणना

    3.11मैत्रेय उवाचचरम: सद्विशेषाणामनेकोसंयुतः सदा ।

    परमाणु: स विज्ञेयोनृणामैक्यभ्रमो यत: ॥

    १॥

    मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; चरम:--चरम; सत्‌-- प्रभाव; विशेषाणाम्‌ू--लक्षण; अनेकः--असंख्य; असंयुतः--अमिश्रित;सदा--सदैव; परम-अणु:--परमाणु; सः--वह; विज्ञेयः--जानने योग्य; नृणाम्‌ू-- मनुष्यों का; ऐक्च--एकत्व; भ्रम: -- भ्रमित;यतः--जिससे |

    भौतिक अभिव्यक्ति का अनन्तिम कण जो कि अविभाज्य है और शरीर रूप में निरुपित नहींहुआ हो, परमाणु कहलाता है।

    यह सदैव अविभाज्य सत्ता के रूप में विद्यमान रहता है यहाँ तककि समस्त स्वरूपों के विलीनीकरण (लय ) के बाद भी।

    भौतिक देह ऐसे परमाणुओं कासंयोजन ही तो है, किन्तु सामान्य मनुष्य इसे गलत ढ़ग से समझता है।

    सत एव पदार्थस्य स्वरूपावस्थितस्य यत्‌ ।

    कैवल्यं परममहानविशेषो निरन्तर: ॥

    २॥

    सतः--प्रभावशाली अभिव्यक्ति का; एब--निश्चय ही; पद-अर्थस्य--भौतिक वस्तुओं का; स्वरूप-अवस्थितस्य--प्रलय कालतक एक ही रूप में रहने वाला; यत्‌--जो; कैवल्यम्‌--एकत्व; परम--परम; महानू-- असीमित; अविशेष:--स्वरूप;निरन्तर: --शाश्वत रीति से।

    परमाणु अभिव्यक्त ब्रह्मण्ड की चरम अवस्था है।

    जब वे विभिन्न शरीरों का निर्माण कियेबिना अपने ही रूपों में रहते हैं, तो वे असीमित एकत्व ( कैवल्य ) कहलाते हैं।

    निश्चय हीभौतिक रूपों में विभिन्न शरीर हैं, किन्तु परमाणु स्वयं में पूर्ण अभिव्यक्ति का निर्माण करते हैं।

    एवं कालोप्यनुमितः सौधक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम ।

    संस्थानभुक्त्या भगवानव्यक्तो व्यक्तभुग्विभु: ॥

    ३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; काल:--समय; अपि-- भी; अनुमितः--मापा हुआ; सौक्ष्म्ये--सूक्ष्म में; स्थौल्ये--स्थूल रूप में; च-- भी;सत्तम--हे सर्वश्रेष्ठ; संस्थान--परमाणुओं का संयोग; भुक्त्या--गति द्वारा; भगवान्‌-- भगवान्‌; अव्यक्त: --अप्रकट; व्यक्त-भुक्‌--समस्त भौतिक गति को नियंत्रित करने वाला; विभुः--महान्‌ बलवान्‌।

    काल को शरीरों के पारमाणविक संयोग की गतिशीलता के द्वारा मापा जा सकता है।

    कालउन सर्वशक्तिमान भगवान्‌ हरि की शक्ति है, जो समस्त भौतिक गति का नियंत्रण करते हैं यद्यपिवे भौतिक जगत में दृष्टिगोचर नहीं हैं।

    स काल: परमाणुर्वे यो भुड़े परमाणुताम्‌ ।

    सतोविशेषभुग्यस्तु स काल: परमो महान्‌ ॥

    ४॥

    सः--वह; काल:--नित्यकाल; परम-अणु:--पारमाणविक; बै--निश्चय ही; य:--जो; भुड़े --गुजरता है; परम-अणुताम्‌--एक परमाणु का अवकाश; सतः --सम्पूर्ण समुच्चय; अविशेष-भुक्‌--अद्वैत प्रदर्शन से गुजरने वाला; यः तु--जो; सः--वह;काल:--काल; परम: --परम; महान्‌--महान्‌ |

    परमाणु काल का मापन परमाणु के अवकाश विशेष को तय कर पाने के अनुसार कियाजाता है।

    वह काल जो परमाणुओं के अव्यक्त समुच्चय को प्रच्छन्न करता है महाकाल कहलाताहै।

    अणुट्दों परमाणू स्यात््॒रसरेणुस्त्रयः स्मृतः ।

    जालार्करशए्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात्‌ ॥

    ५॥

    अणु:--द्विगुण परमाणु; द्वौ--दो; परम-अणु--परमाणु; स्थात्‌--बनते हैं; त्रसरेणु;:--षट्‌ परमाणु; त्रय:--तीन; स्मृतः --विचार किया हुआ; जाल-अर्क--खिड़की के पर्दे के छेदों से होकर धूप को; रश्मि--किरणों द्वारा; अवग॒त:--जाना जा सकताहै; खम्‌ एब--आकाश की ओर; अनुपतन्‌ अगात्‌--ऊपर जाते हुए

    स्थूल काल की गणना इस प्रकार की जाती है: दो परमाणु मिलकर एक द्विगुण परमाणु( अणु ) बनाते हैं और तीन द्विगुण परमाणु ( अणु ) एक षट्‌ परमाणु बनाते हैं।

    यह षट्परमाणुउस सूर्य प्रकाश में दृष्टिगोचर होता है, जो खिड़की के परदे के छेदों से होकर प्रवेश करता है।

    यह आसानी से देखा जा सकता है कि षट्परमाणु आकाश की ओर ऊपर जाता है।

    त्रसरेणुत्रिकं भुड् यः काल: स त्रुटि: स्मृतः ।

    शतभागस्तु वेधः स्यात्तैस्त्रिभिस्तु लव: स्मृतः ॥

    ६॥

    त्रसरेणु-त्रिकम्‌ू--तीन षट्‌ परमाणुओं का संयोग; भुड्ढे --जब वे संयुक्त होते हैं; य:--जो; काल:--काल की अवधि; सः--बह; त्रुटिः--त्रुटि; स्मृत:--कहलाती है; शत-भाग:--एक सौ त्रुटियाँ; तु--लेकिन; वेध: --वेध नाम से; स्थातू--यदि ऐसाहोता है; तैः--उनके द्वारा; त्रिभि:--तीन गुना; तु--लेकिन; लवः--लव; स्मृतः--ऐसा कहलाता है।

    तीन त्रसरेणुओं के समुच्चयन में जितना समय लगता है, वह त्रुटि कहलाता है और एक सौत्रुटियों का एक वेध होता है।

    तीन वेध मिलकर एक लव बनाते हैं।

    निमेषस्त्रिलवो ज्ञेय आम्नातस्ते त्रय: क्षण: ।

    क्षणान्पञ्ञ विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्ञ च ॥

    ७॥

    निमेष:--निमेष नामक काल की अवधि; त्रि-लवः--तीन लवों की अवधि; ज्ञेय:--जानी जानी चाहिए; आम्नात:--ऐसाकहलाते हैं; ते--वे; त्रय:--तीन; क्षण:--क्षण; क्षणान्‌ू--ऐसे क्षण; पञ्च--पाँच; विदु:--समझना चाहिए; काष्ठाम्‌ू-काष्टानामक कालावधि; लघु--लघु नामक कालावधि; ता:--वे; दश पञ्ञ--पन्द्रह;।

    च--भी |

    तीन लवों की कालावधि एक निमेष के तुल्य है, तीन निमेष मिलकर एक क्षण बनाते हैं,पाँच क्षण मिलकर एक काष्ठा और पन्द्रह काष्ठा मिलकर एक लघु बनाते हैं।

    लघूनि बै समाम्नाता दश पञ्ञ च नाडिका ।

    तेद्ठे मुहूर्त: प्रहरः षड्याम: सप्त वा नृणाम्‌ ॥

    ८॥

    लघूनि--ऐसे लघु ( प्रत्येक दो मिनट का ); वै--सही सही; समाम्नाता--कहलाता है; दश पश्च--पन्द्रह; च-- भी; नाडिका--एक नाडिका; ते--उनमें से; द्वे--दो; मुहूर्त:-- क्षण; प्रहरः--तीन घंटे; घट्‌--छ: ; याम:--दिन या रात का चौथाई भाग;सप्त--सात; वा--अथवा; नृणाम्‌--मनुष्य की गणना का

    पन्द्रह लघु मिलकर एक नाडिका बनाते हैं जिसे दण्ड भी कहा जाता है।

    दो दण्ड से एकमुहूर्त बनता है।

    और मानवीय गणना के अनुसार छः: या सात दण्ड मिलकर दिन या रात काचतुर्थाश बनाते हैं।

    द्वादशार्धपलोन्मानं चतुर्मिश्चतुरडुलैः ।

    स्वर्णमाषै: कृतच्छिद्रं यावत्प्रस्थजलप्लुतम्‌ ॥

    ९॥

    द्वादश-अर्ध--छह; पल-- भार की माप का; उन्मानम्‌--मापक पात्र, मापना; चतुर्भि:--चार के भार के बराबर; चतुः-अड्'ुलैः --चार अंगुल माप का; स्वर्ण--सोने के; माषैः-- भार का; कृत-छिद्रमू--छेद बनाकर; यावत्‌--जितना; प्रस्थ--एकप्रस्थ के जितना; जल-प्लुतमू--जल से भरा।

    एक नाडिका या दण्ड के मापने का पात्र छ: पल भार ( १४ औंस ) वाले ताम्र पात्र से तैयारकिया जा सकता है, जिसमें चार माषा भार वाले तथा चार अंगुल लम्बे सोने की सलाई से एकछेद बनाया जाता है।

    जब इस पात्र को जल में रखा जाता है, तो इस पात्र को लबालब भरने मेंजो समय लगता है, वह एक दण्ड कहलाता है।

    यामाश्चत्वारश्नत्वारो मर्त्यानामहनी उभे ।

    पक्ष: पञ्जदशाहानि शुक्ल: कृष्णश्च मानद ॥

    १०॥

    यामा:--तीन घंटे; चत्वार: --चार; चत्वार: --तथा चार; मर्त्यानामू--मनुष्यों के; अहनी--दिन की अवधि; उभे--रात तथा दिनदोनों; पक्ष:--पखवाड़ा; पञ्च-दश--पन्द्रह; अहानि--दिन; शुक्ल:--उजाला; कृष्ण:-- अँधेरा; च-- भी; मानद--मापा हुआ।

    यह भी गणना की गई है कि मनुष्य के दिन में चार प्रहर या याम होते हैं और रात में भी चारप्रहर होते हैं।

    इसी तरह पन्द्रह दिन तथा पन्द्रह रातें पखवाड़ा कहलाती हैं और एक मास में दो'पखवाड़े ( पक्ष ) उजाला ( शुक्ल ) तथा अँधियारा ( कृष्ण ) होते हैं।

    तयोः समुच्चयो मास: पितृणां तदहर्निशम्‌ ।

    द्वै तावृतु: षडयन॑ दक्षिणं चोत्तरं दिवि ॥

    ११॥

    तयो:--उनके ; समुच्चय: --योग; मास:--महीना; पितृणाम्‌--पित-लोकों का; तत्‌--वह ( मास ); अहः-निशम्‌--दिन तथारात; द्वौ--दोनों; तौ--महीने; ऋतु: --ऋतु; घट्‌ू--छ:; अयनम्‌--छह महीनों में सूर्य की गति; दक्षिणम्‌--दक्षिणी; च-- भी;उत्तरमू--उत्तरी; दिवि--स्वर्ग में |

    दो पक्षों को मिलाकरएक मास होता है और यह अवधि पित-लोकों का पूरा एक दिन तथारात है।

    ऐसे दो मास मिलकर एक ऋतु बनाते हैं और छह मास मिलकर दक्षिण से उत्तर तक सूर्यकी पूर्ण गति को बनाते हैं।

    अयने चाहनी प्राह॒र्वत्सरो द्वादश स्मृतः ।

    संवत्सरशतं नृणां परमायुर्निरूपितम्‌ ॥

    १२॥

    अयने--सूर्य की गति ( छह मास की ) में; च--तथा; अहनी--देवताओं का दिन; प्राहु:--कहा जाता है; वत्सर:--एक पंचांगवर्ष; द्वादश--बारह मास; स्मृतः--ऐसा कहलाता है; संवत्सर-शतम्‌--एक सौ वर्ष; नृणाम्‌--मनुष्यों की; परम-आयु:--जीवनकी अवधि, उप्र; निरूपितम्‌--अनुमानित की जाती है।

    दो सौर गतियों से देवताओं का एक दिन तथा एक रात बनते हैं और दिन-रात का यहसंयोग मनुष्य के एक पूर्ण पंचांग वर्ष के तुल्य है।

    मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष की है।

    ग्रहर्क्षताराचक्रस्थ: परमाण्वादिना जगतू ।

    संवत्सरावसानेन पर्येत्यनिमिषो विभु: ॥

    १३॥

    ग्रह--प्रभावशील ग्रह यथा चन्द्रमा; ऋक्ष--अश्विनी जैसे तारे; तारा--तारा; चक्र-स्थ:--कक्ष्या में; परम-अणु-आदिना--'परमाणुओं सहित; जगत्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; संवत्सर-अवसानेन--एक वर्ष के अन्त होने पर; पर्येति-- अपनी कक्ष्या पूरी करताहै; अनिमिष: --नित्य काल; विभुः--सर्वशक्तिमान ।

    सारे ब्रह्माण्ड के प्रभावशाली नक्षत्र, ग्रह, तारे तथा परमाणु पर ब्रह्म के प्रतिनिधि दिव्यकाल के निर्देशानुसार अपनी अपनी कक्ष्याओं में चक्कर लगाते हैं।

    संवत्सर: परिवत्सर इडावत्सर एव च ।

    अनुव॒त्सरो वत्सरश्न विदुरैवं प्रभाष्यते ॥

    १४॥

    संवत्सर:--सूर्य की कक्ष्या; परिवत्सरः--बृहस्पति की प्रदक्षिणा; इडा-वत्सर:--नक्षत्रों की कक्ष्या; एव--जैसे हैं; च-- भी;अनुवत्सर: --चन्द्रमा की कश्ष्या; वत्सरः--एक पंचांग वर्ष; च-- भी; विदुर--हे विदुर; एवम्‌--इस प्रकार; प्रभाष्यते--ऐसाउनके बारे में कहा जाता है।

    सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र तथा आकाश के तारों के पाँच भिन्न-भिन्न नाम हैं और उनमें से प्रत्येकका अपना संवत्सर है।

    यः सृज्यशक्तिमुरु धोच्छुसयन्स्वशक्त्यापुंसोभ्रमाय दिवि धावति भूतभेद: ।

    कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वंस्‌तस्मै बलि हरत वत्सरपदश्लकाय ॥

    १५॥

    यः--जो; सृज्य--सृष्टि के; शक्तिमू--बीज; उरुधा--विभिन्न प्रकारों से; उच्छुसयन्‌--शक्ति देते हुए; स्व-शक्त्या--अपनीशक्ति से; पुंसः--जीव का; अभ्रमाय--अंधकार दूर करने के लिए; दिवि--दिन के समय; धावति--चलता है; भूत-भेदः--अन्य समस्त भौतिक रूप से पृथक; काल-आख्यया--नित्यकाल के नाम से; गुण-मयम्‌-- भौतिक परिणाम; क्रतुभि:--भेंटोंके द्वारा; वितन्वन्‌--विस्तार देते हुए; तस्मै--उसको ; बलिमू--उपहार की वस्तुएँ; हरत--अर्पित करे; वत्सर-पञ्णञकाय--हरपाँच वर्ष की भेंट

    हे विदुर, सूर्य अपनी असीम उष्मा तथा प्रकाश से सारे जीवों को जीवन देता है।

    वह सारेजीवों की आयु को इसलिए कम करता है कि उन्हें भौतिक अनुरक्ति के मोह से छुड़ाया जासके।

    वह स्वर्गलोक तक ऊपर जाने के मार्ग को लम्बा ( प्रशस्त ) बनाता है।

    इस तरह वहआकाश में बड़े वेग से गतिशील है, अतएव हर एक को चाहिए कि प्रत्येक पाँच वर्ष में एकबार पूजा की समस्त सामग्री के साथ उसको नमस्कार करे।

    विदुर उवाचपितृदेवमनुष्याणामायु: परमिदं स्मृतम्‌ ।

    परेषां गतिमाचक्ष्व ये स्यु: कल्पाह्वहिर्विद: ॥

    १६॥

    विदुरः उबाच--विदुर ने कहा; पितृ-पितृलोक; देव--स्वर्गलोक; मनुष्याणाम्‌--तथा मनुष्यों की; आयु:--आयु; परम्‌--अन्तिम; इृदमू--उनकी अपनी माप में; स्मृतम्‌ू--परिगणित; परेषाम्‌-- श्रेष्ठ जीवों की; गतिम्‌ू--आयु; आचक्ष्व--कृपया गणनाकरें; ये--वे जो; स्यु:ः--हैं; कल्पातू--कल्प से; बहिः--बाहर; विद:ः--अत्यन्त विद्वान

    विदुर ने कहा : मैं पितृलोकों, स्वर्गलोकों तथा मनुष्यों के लोक के निवासियों की आयु कोसमझ पाया हूँ।

    कृपया अब मुझे उन महान्‌ विद्वान जीवों की जीवन अवधि के विषय में बतायेंजो कल्प की परिधि के परे हैं।

    भगवान्वेद कालस्य गतिं भगवतो ननु ।

    विश्व॑ विचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा ॥

    १७॥

    भगवानू--हे आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली; वेद--आप जानते हैं; कालस्य--नित्य काल की; गतिमू--चालें; भगवत:--भगवान्‌ के; ननु--निश्चय ही; विश्वम्‌--पूरा ब्रह्माण्ड; विचक्षते--देखते हैं; धीरा:--स्वरूपसिद्ध व्यक्ति; योग-राद्धेन--योगइृष्टि के बल पर; चक्षुषा--आँखों द्वाराहै

    आध्यात्मिक रूप से शक्तिशालीआप उस नित्य काल की गतियों को समझ सकते हैं,जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का नियंत्रक स्वरूप है।

    चूँकि आप स्वरूपसिद्ध व्यक्ति हैं, अत: आपयोग दृष्टि की शक्ति से हर वस्तु देख सकते हैं।

    मैत्रेय उवाचकृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्वेति चतुर्युगम्‌ ।

    दिव्यैद्ठांद(शभिर्वर्ष: सावधान निरूपितम्‌ ॥

    १८ ॥

    मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; कृतम्‌--सत्ययुग; त्रेता--त्रेतायुग; द्वापरम्‌--द्वापरयुग; च-- भी; कलि:-- कलियुग; च--तथा;इति--इस प्रकार; चतुः-युगम्‌--चारों युग; दिव्यैः--देवताओं के ; द्वादशभि:--बारह; वर्ष: --हजारों वर्ष; स-अवधानम्‌--लगभग; निरूपितम्‌--निश्चित किया गया।

    मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, चारों युग सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि युग कहलाते हैं।

    इन सबोंके कुल वर्षों का योग देवताओं के बारह हजार वर्षों के बराबर है।

    चत्वारि त्रीणि द्वे चैक कृतादिषु यथाक्रमम्‌ ।

    सड्ख्यातानि सहस्त्राणि द्विगुणानि शतानि च ॥

    १९॥

    चत्वारि--चार; त्रीणि--तीन; द्वे--दो; च-- भी; एकम्‌--एक; कृत-आदिषु--सत्य युग में; यथा-क्रमम्‌--बाद में अन्य;सड़्ख्यातानि--संख्या वाले; सहस्त्राणि --हजारों; द्वि-गुणानि--दुगुना; शतानि--सौ; च--भी

    सत्य युग की अवधि देवताओं के ४,८०० वर्ष के तुल्य है; त्रेतायुग की अवधि ३,६०० दैवीवर्षो के तुल्य, द्वापर युग की २,४०० वर्ष तथा कलियुग की अवधि १,२०० दैवी वर्षो के तुल्यहै।

    सन्ध्यासन्ध्यांशयोरन्तर्य: काल: शतसड्ख्ययो: ।

    तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मों विधीयते ॥

    २०॥

    सन्ध्या--पहले का बीच का काल; सन्ध्या-अंशयो:-- तथा बाद का बीच का काल; अन्त:ः-- भीतर; य:--जो; काल: -- समयकी अवधि; शत-सड्ख्ययो: --सैकड़ों वर्ष; तम्‌ एब--वह अवधि; आहुः--कहते हैं; युगम्‌--युग; तत्‌-ज्ञाः--दक्ष ज्योतिर्विद;यत्र--जिसमें; धर्म:--धर्म; विधीयते--सम्पन्न किया जाता है।

    प्रत्येक युग के पहले तथा बाद के सन्धिकाल, जो कि कुछ सौ वर्षो के होते हैं, जैसा किपहले उल्लेख किया जा चुका है, दक्ष ज्योतिर्विदों के अनुसार युग-सन्ध्या या दो युगों के सन्धिकाल कहलाते हैं।

    इन अवधियों में सभी प्रकार के धार्मिक कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।

    धर्मश्चतुष्पान्मनुजान्कृते समनुवर्तते ।

    स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता ॥

    २१॥

    धर्म:--धर्म; चतु:-पात्‌--पूंरे चार विस्तार ( पाद ); मनुजान्‌ू--मानव जाति; कृते--सत्ययुग में; समनुवर्तते--ठीक से पालित;सः--वह; एव--निश्चय ही; अन्येषु--अन्यों में; अधर्मेण--अधर्म के प्रभाव से; व्येति--पतन को प्राप्त हुआ; पादेन--एकअंश से; वर्धता--धीरे धीरे वृद्धि करता हुआ।

    हे विदुर, सत्ययुग में मानव जाति ने उचित तथा पूर्णरूप से धर्म के सिद्धान्तों का पालनकिया, किन्तु अन्य युगों में ज्यों ज्यों अधर्म प्रवेश पाता गया त्यों त्यों धर्म क्रमशः एक एक अंशघटता गया।

    त्रिलोक्या युगसाहस्त्रं बहिरातब्रह्मणो दिनम्‌ ।

    तावत्येव निशा तात यन्निमीलति विश्वसृक्‌ ॥

    २२॥

    त्रि-लोक्या:--तीनों लोकों के; युग--चार युग; साहस्त्रमू--एक हजार; बहि:--बाहर; आब्रह्मण: --ब्रह्मलोक तक; दिनम्‌--दिन है; तावती--वैसा ही ( काल ); एव--निश्चय ही; निशा--रात है; तात--हे प्रिय; यत्‌--क्योंकि; निमीलति--सोने चलाजाता है; विश्व-सूक्‌ -- ब्रह्मा |

    तीन लोकों ( स्वर्ग, मर्त्य तथा पाताल ) के बाहर चार युगों को एक हजार से गुणा करने सेब्रह्मा के लोक का एक दिन होता है।

    ऐसी ही अवधि ब्रह्मा की रात होती है, जिसमें ब्रह्माण्ड कास्त्रष्टा सो जाता है।

    निशावसान आरब्धो लोककल्पोऊनुवर्तते ।

    यावहिनं भगवतो मनून्भुझलंश्चतुर्दश ॥

    २३॥

    निशा--रात; अवसाने--समाप्ति; आरब्ध: --प्रारम्भ करते हुए; लोक-कल्प:--तीन लोकों की फिर से उत्पत्ति; अनुवर्तते--पीछे पीछे आती है; यावत्‌--जब तक; दिनमू--दिन का समय; भगवतः -- भगवान्‌ ( ब्रह्मा ) का; मनून्‌ू--मनुओं; भुञ्ञनू--विद्यमान रहते हुए; चतुः:-दश--चौदह

    ब्रह्मा की रात्रि के अन्त होने पर ब्रह्म के दिन के समय तीनों लोकों का पुनः सूजन प्रारम्भहोता है और वे एक के बाद एक लगातार चौदह मनुओं के जीवन काल तक विद्यमान रहते हैं।

    स्वं स्वं काल॑ मनुर्भुड़े साधिकां होकसप्ततिम्‌ ॥

    २४॥

    स्वमू--अपना; स्वम्‌ू--तदनुसार; कालम्‌ू--जीवन की अवधि, आयु; मनु:--मनु; भुड्ढे --भोग करता है; स-अधिकाम्‌--कीअपेक्षा कुछ अधिक; हि--निश्चय ही; एक-सप्ततिम्‌--इकहत्तर।

    प्रत्येक मनु चतुर्युगों के इकहत्तर से कुछ अधिक समूहों का जीवन भोग करता है।

    मन्वन्तरेषु मनवस्तद्वृंश्या ऋषय: सुरा: ।

    भवन्ति चैव युगपत्सुरेशाश्वानु ये च तानू ॥

    २५॥

    मनु-अन्तरेषु--प्रत्येक मनु के अवसान के बाद; मनव:--अन्य मनु; ततू-बंश्या: --तथा उनके वंशज; ऋषय:--सात विख्यातऋषि; सुराः-- भगवान्‌ के भक्त; भवन्ति--उन्नति करते हैं; च एब--वे सभी भी; युगपत्‌--एक साथ; सुर-ईशा:--इन्द्र जैसेदेवता; च--तथा; अनु-- अनुयायी; ये--समस्त; च-- भी; तानू--उनको |

    प्रत्येक मनु के अवसान के बाद क्रम से अगला मनु अपने वंशजों के साथ आता है, जोविभिन्न लोकों पर शासन करते हैं।

    किन्तु सात विख्यात ऋषि तथा इन्द्र जैसे देवता एवं गन्धर्वजैसे उनके अनुयायी मनु के साथ साथ प्रकट होते हैं।

    एष दैनन्दिनः सर्गो ब्राह्मस्त्रैलोक्यवर्तन: ।

    तिर्यडनृपितृदेवानां सम्भवो यत्र कर्मभि: ॥

    २६॥

    एष:--ये सारी सृष्टियाँ; दैनम्‌-दिन:ः--प्रतिदिन; सर्ग:--सृष्टि; ब्राह्मः--ब्रह्मा के दिनों के रूप में; त्रैलोक्य-वर्तन:ः--तीनों लोकोंका चक्कर; तिर्यक्‌ू--मनुष्येतर पशु; नू--मनुष्य; पितृ--पितृलोक के; देवानामू--देवताओं के; सम्भव:--प्राकट्य; यत्र--जिसमें; कर्मभि:--सकाम कर्मो के चक्र में |

    ब्रह्म के दिन के समय सृष्टि में तीनों लोक--स्वर्ग, मर्त्प तथा पाताल लोक--चक्कर लगाते हैंतथा मनुष्येतर पशु, मनुष्य, देवता तथा पितृगण समेत सारे निवासी अपने अपने सकाम कर्मों केअनुसार प्रकट तथा अप्रकट होते रहते हैं।

    मन्वन्तरेषु भगवान्बिश्रत्सत्त्वं स्वमूर्तिभि: ।

    मन्वादिभिरिदं विश्वमवत्युदितपौरुष: ॥

    २७॥

    मनु-अन्तरेषु-- प्रत्येक मनु-परिवर्तन में; भगवान्‌-- भगवान्‌; बिभ्रतू-- प्रकट करते हुए; सत्त्वम्‌--अपनी अन्तरंगा शक्ति; स्व-मूर्तिभिः--अपने विभिन्न अवतारों द्वारा; मनु-आदिभि:--मनुओं के रूप में; इदम्‌--यह; विश्वम्‌-ब्रह्माण्ड; अवति--पालनकरता है; उदित--खोजी; पौरुष:--दैवशक्तियाँ |

    प्रत्येक मनु के बदलने के साथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ विभिन्न अवतारों के रूप में यथा मनुइत्यादि के रूप में अपनी अन्तरंगा शक्ति प्रकट करते हुए अवतीर्ण होते हैं।

    इस तरह प्राप्त हुईशक्ति से वे ब्रह्माण्ड का पालन करते हैं।

    तमोमात्रामुपादाय प्रतिसंरुद्धविक्रम: ।

    कालेनानुगताशेष आस्ते तृष्णीं दिनात्यये ॥

    २८॥

    तमः--तमोगुण या रात का अंधकार; मात्रामू--नगण्य अंशमात्र; उपादाय--स्वीकार करके; प्रतिसंरुद्ध-विक्रम: --अभिव्यक्तिकी सारी शक्ति को रोक करके; कालेन--नित्य काल के द्वारा; अनुगत--विलीन; अशेष: --असंख्य जीव; आस्ते--रहता है;तृष्णीम्‌ू--मौन; दिन-अत्यये--दिन का अन्त होने पर।

    दिन का अन्त होने पर तमोगुण के नगण्य अंश के अन्तर्गत ब्रह्माण्ड की शक्तिशालीअभिव्यक्ति रात के आँधेरे में लीन हो जाती है।

    नित्यकाल के प्रभाव से असंख्य जीव उस प्रलय मेंलीन रहते हैं और हर वस्तु मौन रहती है।

    तमेवान्वषि धीयन्ते लोका भूरादयस्त्रय: ।

    निशायामनुवृत्तायां निर्मुक्तशशिभास्करम्‌ ॥

    २९॥

    तम्‌--वह; एव--निश्चय ही; अनु--पीछे; अपि धीयन्ते--दृष्टि से लुप्त हो जाते हैं; लोका:--लोक; भू:-आदय:--तीनों लोक,भू:, भुवः तथा स्व: ; त्रय:--तीन; निशायाम्‌--रात में; अनुवृत्तायाम्‌--सामान्य; निर्मुक्त--बिना चमक दमक के; शशि--चन्द्रमा; भास्करम्‌ू--सूर्य |

    जब ब्रह्मा की रात शुरू होती है, तो तीनों लोक दृष्टिगोचर नहीं होते और सूर्य तथा चन्द्रमातेज विहीन हो जाते हैं जिस तरह कि सामान्य रात के समय होता है।

    त्रिलोक्यां दहामानायां शक्त्या सड्डूर्षणाग्निना ।

    यान्त्यूष्मणा महलोंकाज्जनं भृग्वादयोउर्दिता: ॥

    ३०॥

    त्रि-लोक्याम्‌--जब तीनों लोको के मंडल; दह्ममानायाम्‌--प्रज्वलित; शक्त्या--शक्ति के द्वारा; सड्डर्षण--संकर्षण के मुखसे; अग्निना--आग से; यान्ति--जाते हैं; ऊष्मणा--ताप से तपे हुए; महः-लोकात्‌ू--महलोंक से; जनमू--जनलोक; भृगु--भूगु मुनि; आदय: --इत्यादि; अर्दिता:--पीड़ित |

    संकर्षण के मुख से निकलने वाली अग्नि के कारण प्रलय होता है और इस तरह भृगुइत्यादि महर्षि तथा महलॉक के अन्य निवासी उस प्रज्वलित अग्नि की उष्मा से, जो नीचे केतीनों लोकों में लगी रहती है, व्याकूुल होकर जनलोक को चले जाते हैं।

    तावत्रिभुवनं सद्य: कल्पान्तैधितसिन्धव: ।

    प्लावयन्त्युत्कतटाटोपचण्डवातेरितोर्मय: ॥

    ३१॥

    तावतू--तब; त्रि-भुवनम्‌--तीनों लोक; सद्यः--उसके तुरन्त बाद; कल्प-अन्त--प्रलय के प्रारम्भ में; एधित--उमड़ कर;सिन्धव:--सारे समुद्र; प्लावयन्ति--बाढ़ से जलमग्न हो जाते हैं; उत्तट-- भीषण; आटोप--क्षोभ; चण्ड-- अंधड़; वात--हवाओं द्वारा; ईरित--बहाई गईं; ऊर्मय: --लहरें।

    प्रलय के प्रारम्भ में सारे समुद्र उमड़ आते हैं और भीषण हवाएँ उग्र रूप से चलती हैं।

    इसतरह समुद्र की लहरें भयावह बन जाती हैं और देखते ही देखते तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं।

    अन्त: स तस्मिन्सलिल आस्तेनन्तासनो हरिः ।

    योगनिद्रानिमीलाक्ष: स्तूयमानो जनालयै: ॥

    ३२॥

    अन्तः--भीतर; सः--वह; तस्मिन्‌ू--उस; सलिले--जल में; आस्ते--है; अनन्त-- अनन्त के; आसन:--आसन पर; हरिः--भगवान्‌; योग--योग की; निद्रा--नींद; निमील-अक्ष:--बन्द आँखें; स्तूय-मान:--प्रकीर्तित; जन-आलयैः--जनलोक केनिवासियों द्वारा

    परमेश्वर अर्थात्‌ भगवान्‌ हरि अपनी आँखें बन्द किए हुए अनन्त के आसन पर जल में लेटजाते हैं और जनलोक के निवासी हाथ जोड़ कर भगवान्‌ की महिमामयी स्तुतियाँ करते हैं।

    एवंविधेरहोरात्रै: कालगत्योपलक्षितै: ।

    अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वयःशतम्‌ ॥

    ३३॥

    एवम्‌--इस प्रकार; विधैः --विधि से; अह:--दिनों; रात्रै:--रात्रियों के द्वारा; काल-गत्या--काल की प्रगति; उपलक्षितैः --ऐसेलक्षणों द्वारा; अपक्षितम्‌--घटती हुई; इब--सहृश; अस्य--उसकी; अपि--यद्यपि; परम-आयु: -- आयु; वय: --वर्ष; शतम्‌--एक सौ

    इस तरह ब्रह्माजी समेत प्रत्येक जीव के लिए आयु की अवधि के क्षय की विधि विद्यमानरहती है।

    विभिन्न लोकों में काल के सन्दर्भ में हट किसी जीव की आयु केवल एक सौ वर्ष तकहोती है।

    यदर्धमायुषस्तस्य परार्धमभिधीयते ।

    पूर्व: परार्धो उपक्रान्तो ह्ापरोडद्य प्रवर्तते ॥

    ३४॥

    यतू--जो; अर्धम्‌--आधा; आयुष:--आयु का; तस्य--उसका; परार्धमू--एक परार्ध; अभिधीयते--कहलाता है; पूर्व:--पहलेवाला; पर-अर्ध:--आधी आयु; अपक्रान्तः--बीत जाने पर; हि--निश्चय ही; अपर:--बाद वाला; अद्य--इस युग में; प्रवर्तते --प्रारम्भ करेगा।

    ब्रह्मा के जीवन के एक सौ वर्ष दो भागों में विभक्त हैं प्रथमार्थ तथा द्वितीयार्थ या परार्ध।

    ब्रह्म के जीवन का प्रथमार्थ समाप्त हो चुका है और द्वितीयार्थ अब चल रहा है।

    पूर्वस्यादौ परार्धस्य ब्राह्मो नाम महानभूत्‌ ।

    कल्पो यत्राभवद्गह्मा शब्दब्रह्ेति यं विदु; ॥

    ३५॥

    पूर्वस्य--प्रथमार्धथ के; आदौ--प्रारम्भ में; पर-अर्धस्य--द्वितीयार्थ का; ब्राह्मः--ब्राह्म-कल्प; नाम--नामक; महानू--महान्‌;अभूत्‌--प्रकट था; कल्प:--कल्प; यत्र--जहाँ; अभवत्‌-- प्रकट हुआ; ब्रह्मा --ब्रह्मा; शब्द-ब्रह्म इति--वेदों की ध्वनियाँ;यम्‌--जिसको; विदुः--वे जानते हैं।

    ब्रह्मा के जीवन के प्रथमार्ध के प्रारम्भ में ब्राह्य-कल्प नामक कल्प था जिसमें ब्रह्माजी उत्पन्नहुए।

    वेदों का जन्म ब्रह्मा के जन्म के साथ साथ हुआ।

    तस्यैव चान्ते कल्पो भूद्यं पाद्ममभिचक्षते ।

    यद्धरेनाभिसरस आसीललोकसरोरूहम्‌ ॥

    ३६॥

    तस्य--ब्राह्म कल्प का; एब--निश्चय ही; च-- भी; अन्ते--के अन्त में; कल्प:--कल्प; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; यम्‌--जो;पाद्मम्‌--पाद्य; अभिचक्षते--कहलाता है; यत्‌--जिसमें; हरेः-- भगवान्‌ की; नाभि--नाभि में; सरसः--जलाशय से;आसीतू--था; लोक--ब्रह्माण्ड; सरोरूहम्‌ू--कमल।

    प्रथम ब्राह्य-कल्प के बाद का कल्प पाद्य-कल्प कहलाता है, क्योंकि उस काल में विश्वरूपकमल का फूल भगवान्‌ हरि के नाभि रूपी जलाशय से प्रकट हुआ।

    अयं तु कथितः कल्पो द्वितीयस्यापि भारत ।

    वाराह इति विख्यातो यत्रासीच्छूकरो हरि: ॥

    ३७॥

    अयम्‌--यह; तु--लेकिन; कथित: --प्रसिद्ध; कल्प: --चालू कल्प; द्वितीयस्य--परार्थ का; अपि--निश्चय ही; भारत--हेभरतवंशी; वाराह:--वाराह; इति--इस प्रकार; विख्यात:--प्रसिद्ध है; यत्र--जिसमें; आसीत्‌-- प्रकट हुआ; शूकरः:--सूकरका रूप; हरिः-- भगवान्‌ |

    है भरतवंशी, ब्रह्मा के जीवन के द्वितीयार्थ में प्रथम कल्प वाराह कल्प भी कहलाता है,क्योंकि उस कल्प में भगवान्‌ सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे।

    कालोयं द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते ।

    अव्याकृतस्यानन्तस्य हानादेज॑गदात्मन: ॥

    ३८ ॥

    काल:--नित्य काल; अयम्‌--यह ( ब्रह्म की आयु की अवधि से मापा गया ); द्वि-परार्ध-आख्य:--ब्रह्मा के जीवन के दो अर्धोंसे मापा हुआ; निमेष:--एक क्षण से भी कम; उपचर्यते--इस तरह मापा जाता है; अव्याकृतस्य--अपरिवर्तित रहता है, जो,उसका; अनन्तस्थ--असीम का; हि--निश्चय ही; अनादे:-- आदि-रहित का; जगत्‌-आत्मन: --ब्रह्मण्ड की आत्मा का।

    जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ब्रह्म के जीवन के दो भागों की अवधि भगवान्‌ के लिएएक निमेष ( एक सेकेंड से भी कम ) के बराबर परिगणित की जाती है।

    भगवान्‌ अपरिवर्तनीयतथा असीम हैं और ब्रह्माण्ड के समस्त कारणों के कारण हैं।

    कालोयं परमाण्वादिद्विपरार्धानत ईश्वर: ।

    नैवेशितु प्रभुर्भूम्न ईश्वरो धाममानिनाम्‌ ॥

    ३९॥

    \'काल:ः--नित्य काल; अयम्‌--यह; परम-अणु--परमाणु; आदि: -- प्रारम्भ से; द्वि-परार्ध--काल की दो परम अवधियाँ;अन्त:ः--अन्त तक; ईश्वरः --नियन्ता; न--कभी नहीं; एव--निश्चय ही; ईशितुम्‌्--नियंत्रित करने के लिए; प्रभु:--समर्थ;भूम्न:--ब्रह्मा का; ईश्वर: --नियन्ता; धाम-मानिनाम्‌--उनका जो देह में अभिमान रखने वाले हैं।

    नित्य काल निश्चय ही परमाणु से लेकर ब्रह्म की आयु के परार्धों तक के विभिन्न आयामोंका नियन्ता है, किन्तु तो भी इसका नियंत्रण सर्वशक्तिमान ( भगवान ) द्वारा होता है।

    कालकेवल उनका नियंत्रण कर सकता है, जो सत्यलोक या ब्रह्माण्ड के अन्य उच्चतर लोकों तक मेंदेह में अभिमान करने वाले हैं।

    विकारैः सहितो युक्तविशेषादिभिरावृतः ।

    आण्डकोशो बहिरयं पञ्ञाशत्कोटिविस्तृत: ॥

    ४०॥

    विकारैः--तत्त्वों के रूपान्तर द्वारा; सहित:--सहित; युक्तै:--इस प्रकार से मिश्रित; विशेष-- अभिव्यक्तियाँ; आदिभि:--उनकेद्वारा; आवृतः--प्रच्छन्न; आण्ड-कोश:--ब्रह्माण्ड; बहिः--बाहर; अयम्‌--यह; पश्चाशत्‌--पचास; कोटि--करोड़;विस्तृत:--विस्तीर्ण |

    यह दृश्य भौतिक जगत चार अरब मील के व्यास तक फैला हुआ है, जिसमें आठ भौतिकतत्त्वों का मिश्रण है, जो सोलह अन्य कोटियों में, भीतर-बाहर निम्नवत्‌ रूपान्तरित हैं।

    \दशोत्तराधिकैयंत्र प्रविष्ट: परमाणुव॒त्‌ ।

    लक्ष्यतेन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो हाण्डराशय: ॥

    ४१॥

    दश-उत्तर-अधिकै: --दस गुनी अधिक मोटाई वाली; यत्र--जिसमें; प्रविष्ट:--प्रविष्ट; परम-अणु-वत्‌--परमाणुओं की तरह;लक्ष्यते--( ब्रह्माण्डों का भार ) प्रतीत होता है; अन्तः-गताः--एकसाथ रहते हैं; च--तथा; अन्ये-- अन्य में; कोटिश:--संपुंजित; हि--क्योंकि; अण्ड-राशय: --ब्रह्माण्डों के विशाल संयोग |

    ब्रह्माण्डों को ढके रखने वाले तत्त्वों की परतें पिछले वाली से दस गुनी अधिक मोटी होतीहैं और सारे ब्रह्माण्ड एकसाथ संपुंजित होकर परमाणुओं के विशाल संयोग जैसे प्रतीत होते हैं।

    तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्‌ ।

    विष्णोर्धाम परं साक्षात्पुरुषस्य महात्मनः ॥

    ४२॥

    तत्‌--वह; आहुः--कहा जाता है; अक्षरम्‌--अच्युत; ब्रह्म--परम; सर्व-कारण--समस्त कारणों का; कारणम्‌ू--परम कारण;विष्णो: धाम--विष्णु का आध्यात्मिक निवास; परमू--परम; साक्षात्‌--निस्सन्देह; पुरुषस्य--पुरुष अवतार का; महात्मन:--महाविष्णु का।

    इसलिए भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त कारणों के आदि कारण कहलाते हैं।

    इस प्रकार विष्णुका आध्यात्मिक धाम निस्सन्देह शाश्वत है और यह समस्त अभिव्यक्तियों के उद्गम महाविष्णुका भी धाम है।

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    अध्याय बारह: कुमारों और अन्य लोगों की रचना

    3.12मैत्रेय उवाचइति ते वर्णित: क्षत्त: कालाख्य: परमात्मन: ।

    महिमा वेदगर्भोथ यथास्त्राक्षीत्निबोध मे ॥

    १॥

    मैत्रेयः उवाच-- श्री मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; ते--तुमसे; वर्णित:--वर्णन किया गया; क्षत्त:--हे विदुर; काल-आख्य:--नित्य काल नामक; परमात्मन:--परमात्मा की; महिमा-- ख्याति; वेद-गर्भ:--वेदों के आगार, ब्रह्मा; अथ--इसकेबाद; यथा--जिस तरह यह है; अस्त्राक्षीत्‌-उत्पन्न किया; निबोध--समझने का प्रयास करो; मे--मुझसे

    श्री मैत्रेय ने कहा : हे विद्वान विदुर, अभी तक मैंने तुमसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के काल-रूप की महिमा की व्याख्या की है।

    अब तुम मुझसे समस्त वैदिक ज्ञान के आगार ब्रह्मा की सृष्टिके विषय में सुन सकते हो।

    ससजजग्रेउन्धतामिस्त्रमथ तामिस्त्रमादिकृत्‌ ।

    महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञानवृत्तय: ॥

    २॥

    ससर्ज--उत्पन्न किया; अग्रे--सर्वप्रथम; अन्ध-तामिस्त्रमू--मृत्यु का भाव; अथ--तब; तामिस्त्रमू--हताशा पर क्रोध; आदि-कृत्‌ू--ये सभी; महा-मोहम्‌-- भोग्य वस्तुओं का स्वामित्व; च-- भी; मोहम्‌-- भ्रान्त धारणा; च-- भी; तम: -- आत्मज्ञान मेंअंधकार; च-- भी; अज्ञान--अविद्या; वृत्तय:--पेशे, वृत्तियाँ

    ब्रह्मा ने सर्वप्रथम आत्मप्रवंचना, मृत्यु का भाव, हताशा के बाद क्रोध, मिथ्या स्वामित्व काभाव तथा मोहमय शारीरिक धारणा या अपने असली स्वरूप की विस्मृति जैसी अविद्यापूर्णवृत्तियों की संरचना की।

    इृष्ठा पापीयसीं सृष्टि नात्मानं बह्मन्यत ।

    भगवद्धयानपूतेन मनसान्यां ततोडसृजत्‌ ॥

    ३॥

    इृष्ठा--देखकर; पापीयसीम्‌--पापमयी; सृष्टिम्‌--सृष्टि को; न--नहीं; आत्मानम्‌--स्वयं को; बहु--अत्यधिक हर्ष; अमन्यत--अनुभव किया; भगवत्‌-- भगवान्‌ का; ध्यान--ध्यान; पूतेन--उसके द्वारा शुद्ध; मनसा--मन से; अन्याम्‌--दूसरा; ततः--तत्पश्चात्‌; असृजत्‌--उत्पन्न किया

    ऐसी भ्रामक सृष्टि को पापमय कार्य मानते हुए ब्रह्माजी को अपने कार्य में अधिक हर्ष काअनुभव नहीं हुआ, अतएव उन्होंने भगवान्‌ के ध्यान द्वारा अपने आपको परि शुद्ध किया।

    तबउन्होंने सृष्टि की दूसरी पारी की शुरुआत की।

    सनक॑ च सनन्दं च सनातनमथात्मभू: ।

    सनत्कुमारं च मुनीन्निष्क्रियानूथ्वरितस: ॥

    ४॥

    सनकम्‌--सनक; च-- भी; सनन्दम्‌ू-- सनन्‍्द; च--तथा; सनातनम्‌--सनातन; अथ--तत्पश्चात्‌; आत्म-भू:--स्वयं भू ब्रह्मा;सनत्‌-कुमारम्‌--सनत्कुमार; च-- भी; मुनीन्‌--मुनिगण; निष्क्रियानू--समस्त सकाम कर्म से मुक्त; ऊर्ध्व-रेतस:--वे जिनकावीर्य ऊपर की ओर प्रवाहित होता है।

    सर्वप्रथम ब्रह्मा ने चार महान्‌ मुनियों को उत्पन्न किया जिनके नाम सनक, सननन्‍द, सनातनतथा सनत्कुमार हैं।

    वे सब भौतिकतावादी कार्यकलाप ग्रहण करने के लिए अनिच्छुक थे,क्योंकि ऊर्ध्वरेता होने के कारण वे अत्यधिक उच्चस्थ थे।

    तान्बभाषे स्वभू: पृत्रान्प्रजा: सृजत पुत्रका: ।

    तन्नैच्छन्मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणा: ॥

    ५॥

    तानू--उन कुमारों से, जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है; बभाषे--कहा; स्वभू:--ब्रह्मा ने; पुत्रानू--पुत्रों से; प्रजा: --सन्तानें;सृजत--सृजन करने के लिए; पुत्रका: --मेरे पुत्रो; तत्‌ू--वह; न--नहीं; ऐच्छन्‌--चाहते हुए; मोक्ष-धर्माण:--मोक्ष केसिद्धान्तों के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध; वासुदेव-- भगवान्‌ के प्रति; परायणा: --परायण, अनुरक्त |

    पुत्रों को उत्पन्न करने के बाद ब्रह्मा ने उनसे कहा, 'पुत्रो, अब तुम लोग सन्‍्तान उत्पन्नकरो।

    किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ वासुदेव के प्रति अनुरक्त होने के कारण उन्होंने अपनालक्ष्य मोक्ष बना रखा था, अतएव उन्होंने अपनी अनिच्छा प्रकट की।

    सोउवध्यातः सुतैरेवं प्रत्याख्यातानुशासने: ।

    क्रोधं दुर्विषहं जातं नियन्तुमुपचक्रमे ॥

    ६॥

    सः--वह ( ब्रह्मा ); अवध्यात:--इस प्रकार अनादरित होकर; सुतैः--पुत्रों द्वारा; एवम्‌--इस प्रकार; प्रत्याख्यात--आज्ञा माननेसे इनकार; अनुशासनै:--अपने पिता के आदेश से; क्रोधम्‌--क्रो ध; दुर्विषहम्‌-- असहनीय; जातम्‌--इस प्रकार उत्पन्न;नियन्तुम्‌ू--नियंत्रण करने के लिए; उपचक्रमे-- भरसक प्रयत्न किया।

    पुत्रों द्वारा अपने पिता के आदेश का पालन करने से इनकार करने पर ब्रह्मा के मन मेंअत्यधिक क्रोध उत्पन्न हुआ जिसे उन्होंने व्यक्त न करके दबाए रखना चाहा।

    धिया निगृह्ममाणोपि भ्रुवोर्मध्यात्प्रजापते: ।

    सद्योडजायत तन्मन्युः कुमारो नीललोहितः ॥

    ७॥

    धिया--बुद्धि से; निगृह्ममाण:--नियंत्रित हुए; अपि--के बावजूद; भ्रुवो:--भौहों के; मध्यात्‌--बीच से; प्रजापते:--ब्रह्मा के;सद्यः--तुरन्त; अजायत--उत्पन्न हुआ; तत्‌--उसका; मन्यु:--क्रोध; कुमार: --बालक; नील-लोहितः--नीले तथा लाल कामिश्रण |

    यद्यपि उन्होंने अपने क्रोध को दबाए रखने का प्रयास किया, किन्तु वह उनकी भौंहों केमध्य से प्रकट हो ही गया जिससे तुरन्त ही नीललोहित रंग का बालक उत्पन्न हुआ।

    उपज है।

    स बै रुरोद देवानां पूर्वजो भगवान्भव: ।

    नामानि कुरु मे धातः स्थानानि च जगदगुरो ॥

    ८॥

    सः--वह; वै--निश्चय ही; रुरोद--जोर से चिल्लाया; देवानाम्‌ पूर्वज:--समस्त देवताओं में ज्येष्ठतम; भगवान्‌-- अत्यन्तशक्तिशाली; भव:ः--शिवजी; नामानि--विभिन्न नाम; कुरू--नाम रखो; मे--मेरा; धात:ः--हे भाग्य विधाता; स्थानानि--स्थान;च--भी; जगत्‌ू-गुरो--हे ब्रह्माण्ड के शिक्षक |

    जन्म के बाद वह चिललाने लगा : हे भाग्यविधाता, हे जगदगुरु, कृपा करके मेरा नाम तथास्थान बतलाइये।

    इति तस्य बच: पाद्ो भगवान्परिपालयन्‌ ।

    अभ्यधाद्धद्रया वाचा मा रोदीस्तत्करोमि ते ॥

    ९॥

    इति--इस प्रकार; तस्य--उसकी; वच:--याचना; पाद्म; --कमल के फूल से उत्पन्न हुआ; भगवान्‌--शक्तिशाली;'परिपालयन्‌--याचना स्वीकार करते हुए; अभ्यधात्‌--शान्त किया; भद्रया--भद्ग, मृदु; वाचा--शब्दों द्वारा; मा--मत;रोदीः--रोओ; तत्‌-- वह; करोमि-- करूँगा; ते--जैसा तुम चाहते हो |

    कमल के फूल से उत्पन्न हुए सर्वशक्तिमान ब्रह्मा ने उसकी याचना स्वीकार करते हुए मृदुवाणी से उस बालक को शान्त किया और कहा--मत चिललाओ।

    जैसा तुम चाहोगे मैं वैसा ही करूँगा।

    यदरोदीः सुरश्रेष्ठ सोद्ठेग इव बालक: ।

    ततस्त्वामभिधास्यन्ति नाम्ना रुद्र इति प्रजा: ॥

    १०॥

    यत्‌--जितना; अरोदी:ः--जोर से रोया; सुर-श्रेष्ठ--हे देवताओं के प्रधान; स-उद्देग: --अत्यधिक चिन्ता सहित; इब--सहश;बालक:ः--बालक; ततः --त त्पश्चात्‌; त्वामू-- तुमको; अभिधास्यन्ति--पुकारेंगे; नाम्ना--नाम लेकर; रुद्र:--रुद्र; इति--इसप्रकार; प्रजा:--लोग।

    तत्पश्चात्‌ ब्रह्म ने कहा : हे देवताओं में प्रधान, सभी लोगों के द्वारा तुम रुद्र नाम से जानेजाओगे, क्योंकि तुम इतनी उत्सुकतापूर्वक चिल्लाये हो।

    हृदिन्द्रियाण्यसुर्व्योम वायुरग्निर्जलं मही ।

    सूर्यश्चन्द्रस्तपश्चेव स्थानान्यग्रे कृतानि ते ॥

    ११॥

    हत्‌--हृदय; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; असु:--प्राणवायु; व्योम-- आकाश; वायु:--वायु; अग्नि:ः--आग; जलम्‌-- जल; मही--पृथ्वी; सूर्य :--सूर्य ; चन्द्र: --चन्द्रमा; तप:--तपस्या; च-- भी; एव--निश्चय ही; स्थानानि--ये सारे स्थान; अग्रे--इसके पहलेके; कृतानि--पहले किये गये; ते--तुम्हारे लिए।

    हे बालक, मैंने तुम्हारे निवास के लिए पहले से निम्नलिखित स्थान चुन लिये हैं: हृदय,इद्रियाँ, प्राणवायु, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तपस्या।

    मन्युर्मनुर्महिनसो महाउिछव ऋतध्वज: ।

    उमग्ररेता भव: कालो वामदेवो धृतव्रतः ॥

    १२॥

    मन्यु:, मनु:, महिनसः, महान्‌ू, शिव:, ऋतध्वज:, उग्ररेताः, भव:, काल:, वामदेव:, धृतब्रत:--ये सभी रुद्र के नाम हैं।

    ब्रह्मजी ने कहा : हे बालक रुद्र, तुम्हारे ग्यारह अन्य नाम भी हैं-मन्यु, मनु, महिनस,महान, शिव, ऋतुध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव तथा धृतब्रत।

    धीर्धृतिरसलोमा च नियुत्सर्पिरिलाम्बिका ।

    इरावती स्वधा दीक्षा रुद्राण्यो रुद्र ते स्त्रियः ॥

    १३॥

    धी:, धृति, रसला, उमा, नियुत्‌, सर्पि,, इला, अम्बिका, इरावती, स्वधा, दीक्षा रुद्राण्य:--ये ग्यारह रुद्राणियाँ हैं; रुद्र--हे रुद्र;ते--तुम्हारी; स्त्रियः--पत्लियाँ ।

    हे रुद्र, तुम्हारी ग्यारह पत्नियाँ भी हैं, जो रुद्राणी कहलाती हैं और वे इस प्रकार है-धी,धृति, रसला, उमा, नियुत्‌, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, स्वधा तथा दीक्षा।

    गृहाणैतानि नामानि स्थानानि च सयोषण: ।

    एशि: सृज प्रजा बह्लीः प्रजानामसि यत्पति: ॥

    १४॥

    गृहाण--स्वीकार करो; एतानि--इन सारे; नामानि--विभिन्न नामों को; स्थानानि--तथा स्थानों को; च-- भी; स-योषण:--पत्नियों समेत; एभि:--उनके द्वारा; सृज--उत्पन्न करो; प्रजा:--सन्तानें; बह्नीः--बड़े पैमाने पर; प्रजानामू--जीवों के; असि--तुम हो; यत्‌--क्योंकि; पति:--स्वामी

    हे बालक, अब तुम अपने तथा अपनी पत्नियों के लिए मनोनीत नामों तथा स्थानों कोस्वीकार करो और चूँकि अब तुम जीवों के स्वामियों में से एक हो अतः तुम व्यापक स्तर परजनसंख्या बढ़ा सकते हो।

    इत्यादिष्ट: स्वगुरुणा भगवान्नीललोहितः ।

    सत्त्वाकृतिस्वभावेन ससर्जात्मसमा: प्रजा: ॥

    १५॥

    इति--इस प्रकार; आदिष्ट:--आदेश दिये जाने पर; स्व-गुरुणा--अपने ही गुरु द्वारा; भगवान्‌--अत्यन्त शक्तिशाली; नील-लोहितः--रुद्र, जिनका रंग नीले तथा लाल का मिश्रण है; सत्त्व--शक्ति; आकृति--शारीरिक स्वरूप; स्वभावेन--तथाअत्यन्त उग्र स्वभाव से; ससर्ज--उत्पन्न किया; आत्म-समा:--अपने ही तरह की; प्रजा: --सन्तानें |

    नील-लोहित शारीरिक रंग वाले अत्यन्त शक्तिशाली रुद्र ने अपने ही समान स्वरूप, बलतथा उग्र स्वभाव वाली अनेक सस्तानें उत्पन्न कीं।

    रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्तादग्रसतां जगत्‌ ।

    निशाम्यासड्ख्यशो यूथान्प्रजापतिरशब्डुत ॥

    १६॥

    " रुद्राणामू-रुद्र के पुत्रों का; रुद्र-सृष्टानाम्‌ू--रुद्र द्वारा उत्पन्न किये गये; समन्तात्‌ू--एकसाथ एकत्र होकर; ग्रसताम्‌ू--निगलतेसमय; जगत्‌--ब्रह्माण्ड; निशाम्य--उनके कार्यकलापों को देखकर; असड्ख्यश: --असीम; यूथान्‌--टोली, समूह; प्रजा-पतिः--जीवों के पिता; अशद्भुत-- भयभीत हो गया।

    रुद्र द्वारा उत्पन्न पुत्रों तथा पौत्रों की संख्या असीम थी और जब वे एकत्र हुए तो वे सम्पूर्णब्रह्माण्ड को निगलने लगे।

    जब जीवों के पिता ब्रह्मा ने यह देखा तो वे इस स्थिति से भयभीत होउठे।

    अलं प्रजाभि: सूष्टाभिरीदशीभि: सुरोत्तम ।

    मया सह दहन्तीभिर्दिशश्चक्षुभिसल्बणै: ॥

    १७॥

    अलमू--व्यर्थ; प्रजाभि:--ऐसे जीवों द्वारा; सूष्टाभि: --उत्पन्न; ईहशीभि: --इस प्रकार के; सुर-उत्तम--हे देवताओं में सर्वश्रेष्ठ;मया--मुझको; सह--सहित; दहन्तीभि: --जलती हुई; दिशः--सारी दिशाएँ; चश्लु्भि: --आँखों से; उल्बणै:--दहकती लपटें।

    ब्रह्मा ने रुद्र से कहा: हे देवश्रेष्ठ, तुम्हें इस प्रकार के जीवों को उत्पन्न करने कीआवश्यकता नहीं है।

    उन्होंने अपने नेत्रों की दहकती लपटों से सभी दिशाओं की सारी वस्तुओंको विध्वंस करना शुरू कर दिया है और मुझ पर भी आक्रमण किया है।

    तप आतिष्ठ भद्गं ते सर्वभूतसुखावहम्‌ ।

    तपसैव यथा पूर्व स्त्रष्टा विश्वमिदं भवान्‌ ॥

    १८॥

    तपः--तपस्या; आतिष्ठ --बैठिये; भद्रमू--शुभ; ते--तुम्हारा; सर्व--समस्त; भूत--जीव; सुख-आवहम्‌--सुख लानेवाली;तपसा--तपस्या द्वारा; एव--ही; यथा--जितना; पूर्वम्‌--पहले; स्त्रष्टा--उत्पन्न करेगा; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; इदमू--यह;भवान्‌ू--आप।

    हे पुत्र, अच्छा हो कि तुम तपस्या में स्थित होओ जो समस्त जीवों के लिए कल्याणप्रद हैऔर जो तुम्हें सारे वर दिला सकती है।

    केवल तपस्या द्वारा तुम पूर्ववत्‌ ब्रह्माण्ड की रचना करसकते हो।

    तपसैव परं ज्योतिर्भगवन्तमधोक्षजम्‌ ।

    सर्वभूतगुहावासमझ्जसा विन्दते पुमान्‌ ॥

    १९॥

    तपसा--तपस्या से; एब--एकमात्र; परम्‌ू--परम; ज्योति: -- प्रकाश; भगवन्तम्‌-- भगवान्‌ को; अधोक्षजम्‌--वह जो इन्द्रियोंकी पहुँच के परे है; सर्व-भूत-गुहा-आवासम्‌--सारे जीवों के हृदय में वास करने वाले; अज्जसा--पूर्णतया; विन्दते--जानसकता है; पुमानू--मनुष्य

    एकमात्र तपस्या से उन भगवान्‌ के भी पास पहुँचा जा सकता है, जो प्रत्येक जीव के हृदयके भीतर हैं किन्तु साथ ही साथ समस्त इन्द्रियों की पहुँच के बाहर हैं।

    मैत्रेय उवाचएवमात्मभुवादिष्ट: परिक्रम्य गिरां पतिम्‌ ।

    बाढमित्यमुमामन्त्रय विवेश तपसे वनम्‌ ॥

    २०॥

    मैत्रेयः उवाच-- श्री मैत्रेय ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; आत्म-भुवा--ब्रह्मा द्वारा; आदिष्ट: --इस तरह प्रार्थना किये जाने पर;परिक्रम्य--प्रदक्षिणा करके; गिराम्‌--वेदों के; पतिम्‌--स्वामी को; बाढम्‌ू--उचित; इति--इस प्रकार; अमुम्‌--ब्रह्मा को;आमनन्‍्त्रय--इस प्रकार सम्बोधित करते हुए; विवेश--प्रविष्ट हुए; तपसे--तपस्या के लिए; वनम्‌--वन में |

    श्री मैत्रेय ने कहा : इस तरह ब्रह्मा द्वारा आदेशित होने पर रुद्र ने वेदों के स्वामी अपने पिता की प्रदक्षिणा की।

    हाँ कहते हुए उन्होंने तपस्या करने के लिए बन में प्रवेश किया।

    अथाभिध्यायत: सर्ग दश पुत्रा: प्रजज्ञिरि ।

    भगवच्छक्तियुक्तस्थ लोकसन्तानहेतव: ॥

    २१॥

    अथ--इस प्रकार; अभिध्यायत:--सोचते हुए; सर्गम्‌--सृष्टि; दश--दस; पुत्रा: --पुत्र; प्रजज्ञिरि--उत्पन्न करते हुए; भगवत्‌--श्रीभगवान्‌ से सम्बन्धित; शक्ति--ऊर्जा; युक्तस्य--शक्तिमान बने हुए; लोक--संसार; सन्‍्तान--संतति; हेतवः--कारण |

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने पर ब्रह्मा ने जीवों को उत्पन्न करने कीसोची और सन्तानों के विस्तार हेतु उन्होंने दस पुत्र उत्पन्न किये।

    मरीचिरत्र्यद्धिरसौ पुलस्त्य: पुलहः क्रतु: ।

    भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्न दशमस्तत्र नारद: ॥

    २२॥

    मरीचि:, अत्रि, अड्विरसौ, पुलस्त्य:, पुलहः, क्रतु:, भृगु:, वसिष्ठ:, दक्ष:--ब्रह्मा के पुत्रों के नाम; च--तथा; दशम:--दसवाँ;तत्र--वहाँ; नारद:--नारद |

    इस तरह मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भूगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा दसवें पुत्रनारद उत्पन्न हुए।

    उत्सज्ञान्नारदो जज्ले दक्षोडुष्टात्स्वयम्भुव: ।

    प्राणाद्वसिष्ठ: सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतु: ॥

    २३॥

    उत्सड़ात्‌ू--दिव्य विचार-विमर्श से; नारद: --महामुनि नारद; जज्ञे--उत्पन्न किया गया; दक्ष:--दक्ष; अद्जुष्ठात्‌-- अँगूठे से;स्वयम्भुव:ः--ब्रह्मा के; प्राणातू--प्राणवायु से या श्वास लेने से; वसिष्ठ:--वसिष्ठ; सज्भात:--उत्पन्न हुआ; भृगु:-- भूगु, मुनि;त्वचि--स्पर्श से; करातू--हाथ से; क्रतुः--क्रतु

    मुनिनारद ब्रह्मा के शरीर के सर्वोच्च अंग मस्तिष्क से उत्पन्न पुत्र हैं।

    वसिष्ठ उनकी श्वास से, दक्षअँगूठे से, भूगु उनके स्पर्श से तथा क्रतु उनके हाथ से उत्पन्न हुए।

    पुलहो नाभितो जज्ने पुलस्त्य: कर्णयोरषि: ।

    अड्डिरा मुखतो कषो त्रिर्मरीचिर्ममसो भवत्‌ ॥

    २४॥

    पुलहः--पुलह मुनि; नाभित:--नाभि से; जज्ञे--उत्पन्न किया; पुलस्त्य:--पुलस्त्यमुनि; कर्णयो:--कानों से; ऋषि: --महामुनि;अड्डिराः--अंगिरा मुनि; मुखतः--मुख से; अक्ष्ण:--आँखों से; अत्रि: --अत्रि मुनि; मरीचि:--मरीचि मुनि; मनस:--मन से;अभवत्‌--प्रकट हुए

    पुलस्त्य ब्रह्मा के कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि आँखों से, मरीचि मन से तथा पुलह नाभिसे उत्पन्न हुए।

    धर्म: स्तनाइक्षिणतो यत्र नारायण: स्वयम्‌ ।

    अधर्म: पृष्ठतो यस्मान्मृत्युलेकभयड्भूर: ॥

    २५॥

    धर्म:--धर्म; स्तनातू--वक्षस्थल से; दक्षिणत:--दाहिनी ओर के; यत्र--जिसमें ; नारायण :--पर मे श्वर; स्वयम्‌-- अपने से;अधर्म: --अधर्म; पृष्ठतः--पीठ से; यस्मात्‌--जिससे; मृत्यु:--मृत्यु; लोक--जीव के लिए; भयम्‌-करः--भयकारक |

    धर्म ब्रह्मा के वक्षस्थल से प्रकट हुआ जहाँ पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ नारायण आसीन हैंऔर अधर्म उनकी पीठ से प्रकट हुआ जहाँ जीव के लिए भयावह मृत्यु उत्पन्न होती है।

    हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्वाधरदच्छदात्‌ ।

    आस्याद्वाक्सिन्धवो मेढ़ान्निरृतिः पायोरघाअ्रय: ॥

    २६॥

    हृदि--हृदय से; काम:--काम; भ्रुव:--भौंहों से; क्रो ध:--क्रो ध; लोभ: --लालच; च-- भी; अधर-दच्छदात्‌--ओठों के बीचसे; आस्यात्‌--मुख से; वाक्‌ू--वाणी; सिन्धव: --समुद्र; मेढ़ात्‌--लिंग से; निरृति:--निम्न कार्य; पायो:--गुदा से; अघ-आश्रयः--सारे पापों का आगार।

    काम तथा इच्छा ब्रह्मा के हृदय से, क्रोध उनकी भौंहों के बीच से, लालच उनके ओठों केबीच से, वाणी की शक्ति उनके मुख से, समुद्र उनके लिंग से तथा निम्न एवं गहित कार्यकलापसमस्त पापों के स्रोत उनकी गुदा से प्रकट हुए।

    छायाया: कर्दमो जज्ञे देवहूत्या: पति: प्रभु: ।

    मनसो देहतश्रेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत्‌ ॥

    २७॥

    छायाया:--छाया से; कर्दम: --कर्दम मुनि; जज्ञे-- प्रकट हुआ; देवहूत्या:--देवहूति का; पति: --पति; प्रभुः--स्वामी;मनसः--मन से; देहतः--शरीर से; च-- भी; इृदम्‌--यह; जज्ञे--उत्पन्न किया; विश्व--ब्रह्मण्ड; कृत:--स्त्रष्टा का; जगत्‌--विराट जगत।

    महान्‌ देवहूति के पति कर्दम मुनि ब्रह्म की छाया से प्रकट हुए।

    इस तरह सभी कुछ ब्रह्माके शरीर से या मन से प्रकट हुआ।

    बाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूहरतीं मनः ।

    अकामां चकमे क्षत्त: सकाम इति न: श्रुतम्‌ ॥

    २८॥

    वाचम्‌--वाक्‌; दुहितरम्‌--पुत्री को; तन्वीम्‌--उसके शरीर से उत्पन्न; स्वयम्भू:--ब्रह्मा; हरतीम्‌--आकृष्ट करते हुए; मनः--मन; अकामाम्‌--कामुक हुए बिना; चकमे--इच्छा की; क्षत्त:--हे विदुर; स-काम:ः--कामुक हुआ; इति--इस प्रकार; न: --हमने; श्रुतम्‌--सुना है।

    हे विदुर, हमने सुना है कि ब्रह्मा के वाक्‌ नाम की पुत्री थी जो उनके शरीर से उत्पन्न हुई थीजिसने उनके मन को यौन की ओर आकृष्ट किया यद्यपि वह उनके प्रति कामासक्त नहीं थी।

    तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुता: ।

    मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात्प्रत्यजो धयन्‌ ॥

    २९॥

    तम्‌--उस; अधर्मे--अनैतिकता में; कृत-मतिम्‌--ऐसे मन वाला; विलोक्य--देखकर; पितरम्‌--पिता को; सुताः --पुत्रों ने;मरीचि-मुख्या: --मरीचि इत्यादि; मुन॒यः--मुनिगण; विश्रम्भातू-- आदर सहित; प्रत्यवोधयन्‌--निवेदन किया

    अपने पिता को अनैतिकता के कार्य में इस प्रकार मुग्ध पाकर मरीचि इत्यादि ब्रह्मा के सारेपुत्रों ने अतीव आदरपूर्वक यह कहा।

    नैतत्पूर्वे: कृतं त्वद्यो न करिष्यन्ति चापरे ।

    यस्त्वं दुहितरं गच्छेरनिगृह्याड्गजं प्रभु: ॥

    ३०॥

    न--कभी नहीं; एतत्‌--ऐसी वस्तु; पूर्व: --किसी पूर्व कल्प में अन्य किसी ब्रह्मा द्वारा या तुम्हारे द्वारा; कृतम्‌--सम्पन्न; त्वत्‌--तुम्हारे द्वारा; ये--वह जो; न--न तो; करिष्यन्ति--करेंगे; च-- भी; अपरे-- अन्य कोई; यः--जो; त्वम्‌--तुम; दुहितरम्‌--पुत्रीके प्रति; गच्छे:--जायेगा; अनिगृह्य-- अनियंत्रित होकर; अड़जम्‌--कामेच्छा; प्रभु:--हे पिता।

    है पिता, आप जिस कार्य में अपने को उलझाने का प्रयास कर रहे हैं उसे न तो किसी अन्यब्रह्मा द्वारा न किसी अन्य के द्वारा, न ही पूर्व कल्पों में आपके द्वारा, कभी करने का प्रयासकिया गया, न ही भविष्य में कभी कोई ऐसा दुस्साहस ही करेगा।

    आप ब्रह्माण्ड के सर्वोच्चप्राणी हैं, अतः आप अपनी पुत्री के साथ संभोग क्‍यों करना चाहते हैं और अपनी इच्छा को वशमें क्‍यों नहीं कर सकते ?

    तेजीयसामपि होतन्न सुएलोक्यं जगदगुरो ।

    यद्वत्तमनुतिष्ठन्वे लोक: क्षेमाय कल्पते ॥

    ३१॥

    तेजीयसाम्‌--अत्यन्त शक्तिशालियों में; अपि-- भी; हि--निश्चय ही; एतत्‌--ऐसा कार्य; न--उपयुक्त नहीं; सु-श्लोक्यम्‌--अच्छा आचरण; जगतू-गुरो--हे ब्रह्माण्ड के गुरु; यत्‌--जिसका; वृत्तमू--चरित्र; अनुतिष्ठन्‌--पालन करते हुए; बै--निश्चयही; लोक:--जगत; क्षेमाय--सम्पन्नता के लिए; कल्पते--योग्य बन जाता है

    यद्यपि आप सर्वाधिक शक्तिमान जीव हैं, किन्तु यह कार्य आपको शोभा नहीं देता क्योंकिसामान्य लोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए आपके चरित्र का अनुकरण करते हैं।

    तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।

    आत्मस्थ॑ व्यज्ञयामास स धर्म पातुमहति ॥

    ३२॥

    तस्मै--उसे; नम:--नमस्कार; भगवते-- भगवान्‌ को; यः --जो; इृदम्‌--इस; स्वेन--अपने; रोचिषा--तेज से; आत्म-स्थम्‌--अपने में ही स्थित; व्यज्ञयाम्‌ आस--प्रकट किया है; सः--वह; धर्मम्‌--धर्म की; पातुम्‌ू--रक्षा करने के लिए; अरहति--ऐसाकरे

    हम उन भगवान्‌ को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने आत्मस्थ होकर अपने ही तेज से इसब्रह्माण्ड को प्रकट किया है।

    वे समस्त कल्याण हेतु धर्म की रक्षा करें!" स इत्थं गृणतः पुत्रान्पुरो दृष्ठा प्रजापतीन्‌प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज ब्रीडितस्तदा ।

    तां दिशो जगुहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तम: ॥

    ३३॥

    सः--वह ( ब्रह्मा ); इत्थम्‌--इस प्रकार; गृणतः--बोलते हुए; पुत्रान्‌ू--पुत्र; पुर: --पहले; हृष्ला-- देखकर; प्रजा-पतीन्‌--जीवोंके पूर्वजों को; प्रजापति-पति:ः--उन सबों के पिता ( ब्रह्मा ); तन्वम्‌--शरीर; तत्याज--त्याग दिया; ब्रीडित:--लज्जित; तदा--उस समय; ताम्‌ू--उस शरीर को; दिशः --सारी दिशाएँ; जगृहु:--स्वीकार किया; घोराम्‌--निन्दनीय; नीहारम्‌--नीहार, कुहरा;यतू--जो; विदुः--वे जानते हैं; तमः--अंधकार के रूप में ।

    अपने समस्त प्रजापति पुत्रों को इस प्रकार बोलते देख कर समस्त प्रजापतियों के पिता ब्रह्माअत्यधिक लज्जित हुए और तुरन्त ही उन्होंने अपने द्वारा धारण किये हुए शरीर को त्याग दिया।

    बाद में वही शरीर अंधकार में भयावह कुहरे के रूप में सभी दिशाओं में प्रकट हुआ।

    कदाचिद्धयायतः सरष्टवेंदा आसं श्चतुर्मुखात्‌ ।

    कथं स्त्रक्ष्याम्यह॑ लोकान्समवेतान्यथा पुरा ॥

    ३४॥

    कदाचित्‌--एक बार; ध्यायतः--ध्यान करते समय; स्त्रष्ट:--ब्रह्म का; वेदाः--वैदिक वाड्मय; आसनू--प्रकट हुए; चतुः-मुखात्‌--चारों मुखों से; कथम्‌ स्त्रक्ष्यामि--मैं किस तरह सृजन करूँगा; अहम्‌--मैं; लोकान्‌--इन सारे लोकों को;समवेतान्‌--एकत्रित; यथा--जिस तरह वे थे; पुरा-- भूतकाल में |

    एक बार जब ब्रह्माजी यह सोच रहे थे कि विगत कल्प की तरह लोकों की सृष्टि केसे कीजाय तो चारों वेद, जिनमें सभी प्रकार का ज्ञान निहित है, उनके चारों मुखों से प्रकट हो गये।

    चातुहत्रं कर्मतन्त्रमुपवेदनयै: सह ।

    धर्मस्य पादाश्चत्वारस्तथेवा श्रमवृत्तय: ॥

    ३५॥

    चातु:--चार; होत्रमू--यज्ञ की सामग्री; कर्म--कर्म; तन्त्रमू--ऐसे कार्यकलापों का विस्तार; उपवेद--वेदों के पूरक; नयैः --तथा तर्कशास्त्रीय निर्णय; सह--साथ; धर्मस्थ--धर्म के; पादा:ः--सिद्धान्त; चत्वार:--चार; तथा एव--इसी प्रकार से;आश्रम--सामाजिक व्यवस्था; वृत्तय:--वृत्तियाँ, पेशे |

    अग्नि यज्ञ को समाहित करने वाली चार प्रकार की साज-सामग्री प्रकट हुई।

    ये प्रकार हैंयज्ञकर्ता, होता, अग्नि तथा उपवेदों के रूप में सम्पन्न कर्म।

    धर्म के चार सिद्धान्त ( सत्य, तप,दया, शौच ) एवं चारों आश्रमों के कर्तव्य भी प्रकट हुए।

    विदुर उवाचसबै विश्वसृजामीशो वेदादीन्मुखतो सृजत्‌ ।

    यद्यद्येनासृजद्देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥

    ३६॥

    विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; सः--वह ( ब्रह्मा ); वै--निश्चय ही; विश्व--ब्रह्माण्ड; सृजामू--सृजनकर्ताओं का; ईशः --नियन्ता; वेद-आदीन्‌--वेद इत्यादि; मुखतः--मुख से; असृजत्‌--स्थापित किया; यत्‌--जो; यत्‌--जो; येन--जिससे;असृजत्‌--उत्पन्न किया; देव:--देवता; तत्‌--वह; मे--मुझसे; ब्रूहि--बतलाइये; तप:ः-धन--हे मुनि, तपस्या जिसका एकमात्रधन है।

    विदुर ने कहा, हे तपोधन महामुनि, कृपया मुझसे यह बतलाएँ कि ब्रह्म ने किस तरह औरकिसकी सहायता से उस वैदिक ज्ञान की स्थापना की जो उनके मुख से निकला था।

    मैत्रेय उवाचऋग्यजु:सामाथर्वाख्यान्वेदान्पूर्वादिभि्मुखै: ।

    शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्ित्तं व्यधात्क्रमात्‌ ॥

    ३७॥

    मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; ऋक्‌-यजु:-साम-अथर्व--चारों वेद; आख्यान्‌ू--नामक; वेदान्‌--वैदिक ग्रन्थ; पूर्व-आदिभिः:--सामने से प्रारम्भ करके ; मुखैः--मुखों से; शास्त्रमू--पूर्व अनुच्चरित वैदिक मंत्र; इज्याम्‌--पौरोहित्य अनुष्ठान;स्तुति-स्तोमम्‌--बाँचने वालों की विषयवस्तु; प्रायश्चित्तम्‌-दिव्य कार्य; व्यधात्‌--स्थापित किया; क्रमात्‌ू--क्रमश: |

    मैत्रेय ने कहा : ब्रह्म के सामने वाले मुख से प्रारम्भ होकर क्रमशः चारों वेद--ऋक्‌, यजु:,साम और अथर्व-आविर्भूत हुए।

    तत्पश्चात्‌ इसके पूर्व अनुच्चरित वैदिक स्त्तोत्र, पौरोहित्यअनुष्ठान, पाठ की विषयवस्तु तथा दिव्य कार्यकलाप एक-एक करके स्थापित किये गये।

    आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्व वेदमात्मन: ।

    स्थापत्यं चासूजद्देदं क्रमात्पूर्वांदिभि्मुखै: ॥

    ३८ ॥

    आयु:-वेदम्‌--औषधि विज्ञान; धनु:-वेदम्‌--सैन्य विज्ञान; गान्धर्वम्‌--संगीतकला; वेदम्‌ू--ये सभी वैदिक ज्ञान हैं; आत्मन: --अपने से; स्थापत्यम्‌--वास्तु सम्बन्धी विज्ञान; च--भी; असृजत्‌--सृष्टि की; वेदम्‌--ज्ञान; क्रमात्‌--क्रमशः ; पूर्व-आदिभि: --सामने वाले मुख से प्रारम्भ करके; मुखै:--मुखों द्वारा

    उन्होंने ओषधि विज्ञान, सैन्य विज्ञान, संगीत कला तथा स्थापत्य विज्ञान की भी सृष्टि वेदों से की।

    ये सभी सामने वाले मुख से प्रारम्भ होकर क्रमश: प्रकट हुए।

    इतिहासपुराणानि पशञ्ञमं वेदमी श्वरः ।

    सर्वेभ्य एव वक्त्ेभ्य: ससूजे सर्वदर्शन: ॥

    ३९॥

    इतिहास--इतिहास; पुराणानि--पुराण ( पूरक वेद ); पञ्षमम्‌--पाँचवाँ; वेदम्‌--वैदिक वाड्मय; ईश्वर: -- भगवान्‌; सर्वेभ्य: --सब मिला कर; एव--निश्चय ही; वक्टेभ्य: --अपने मुखों से; ससृजे--उत्पन्न किया; सर्व--चारों ओर; दर्शन:--जो हर समयदेख सकता है।

    तब उन्होंने अपने सारे मुखों से पाँचवें वेद-पुराणों तथा इतिहासों-की सृष्टि की, क्योंकिवे सम्पूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्य को देख सकते थे।

    षोडश्युक्थौ पूर्ववक्त्रात्पुरीष्यग्निष्ठटतावथ ।

    आप्तोर्यामातिरात्रौ च वाजपेयं सगोसवम्‌ ॥

    ४०॥

    घोडशी-उक्थौ --यज्ञ के प्रकार; पूर्व-वक्त्रात्‌--पूर्वी मुँह से; पुरीषि-अग्निष्ठतौ--यज्ञ के प्रकार; अथ--तब; आप्तोर्याम-अतिरात्रौ--यज्ञ के प्रकार; च--तथा; वाजपेयम्‌--एक प्रकार का यज्ञ; स-गोसवम्‌--एक प्रकार का यज्ञ |

    ब्रह्मा के पूर्वी मुख से विभिन्न प्रकार के समस्त अग्नि यज्ञ (षोडशी, उक्थ, पुरीषि,अग्निष्टोम, आप्तोर्याम, अतिरात्र, वाजपेय तथा गोसव ) प्रकट हुए।

    विद्या दानं तपः सत्य धर्मस्येति पदानिच ।

    आश्रमांश्व यथासड्ख्यमसृजत्सह वृत्तिभि: ॥

    ४१॥

    विद्या--विद्या; दानमू-- दान; तपः--तपस्या; सत्यमू--सत्य; धर्मस्य-- धर्म का; इति--इस प्रकार; पदानि--चार पाँव; च--भी; आश्रमान्‌ू--आश्रमों; च-- भी; यथा--वे जिस प्रकार के हैं; सड्ख्यम्‌--संख्या में; असृजत्‌ू--रचना की; सह--साथ-साथ; वृत्तिभि:--पेशों या वृत्तियों के द्वारा।

    शिक्षा, दान, तपस्या तथा सत्य को धर्म के चार पाँव कहा जाता है और इन्हें सीखने के लिएचार आश्रम हैं जिनमें वृत्तियों के अनुसार जातियों ( वर्णों ) का अलग-अलग विभाजन रहता है।

    ब्रह्मा ने इन सबों की क्रमबद्ध रूप में रचना की।

    सावित्र प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा ।

    वार्ता सजञ्नयशालीनशिलोउज्छ इति वै गृहे ॥

    ४२॥

    सावित्रम्‌-द्विजों का यज्ञोपवीत संस्कार; प्राजापत्यमू--एक वर्ष तक ब्रत रखने के लिए; च--तथा; ब्राह्ममू--वेदों कीस्वीकृति; च--तथा; अथ-- भी; बृहत्‌--यौनजीवन से पूर्ण विरक्ति; तथा--तब; वार्ता--वैदिक आदेश के अनुसार वृत्ति;सञ्नय--वृत्तिपरक कर्तव्य; शालीन--किसी का सहयोग माँगे बिना जीविका; शिल-उड्छः -त्यक्त अन्नों को बीनना; इति--इस प्रकार; वै--यद्यपि; गृहे--गृहस्थ जीवन में ।

    तत्पश्चात्‌ द्विजों के लिए यज्ञोपवीत संस्कार ( सावित्र ) का सूत्रपात हुआ और उसी के साथवेदों की स्वीकृति के कम से कम एक वर्ष बाद तक पालन किये जाने वाले नियमों( प्राजापत्यम्‌ ), यौनजीवन से पूर्ण विरक्ति के नियम ( बृहत्‌ ), वैदिक आदेशों के अनुसारवृत्तियाँ ( वार्ता ), गृहस्थ जीवन के विविध पेशेवार कर्तव्य ( सञ्ञय ) तथा परित्यक्त अन्नों कोबीन कर ( शिलोज्छ ) एवं किसी का सहयोग लिए बिना ( अयाचित ) जीविका चलाने कीविधि का सूत्रपात हुआ।

    वैखानसा वालखिल्यौदुम्बरा: फेनपा वने ।

    न्यासे कुटीचकः पूर्व बह्लोदो हंसनिष्क्रियौं ॥

    ४३॥

    वैखानसाः--ऐसे मनुष्य जो सक्रिय जीवन से अवकाश लेकर अध-उबले भोजन पर निर्वाह करते हैं; वालखिल्य--वह जोअधिक अन्न पाने पर पुराने संग्रह को त्याग देता है; औदुम्बरा:--बिस्तर से उठकर जिस दिशा की ओर आगे जाने पर जो मिलेउसी पर निर्वाह करना; फेनपा:--वृक्ष से स्वतः गिरे हुए फलों को खाकर रहने वाला; वने--जंगल में; न्यासे--संन्यास आश्रममें; कुटीचकः--परिवार से आसक्तिरहित जीवन; पूर्वम्‌--प्रारम्भ में; बल्लेद:--सारे भौतिक कार्यो को त्याग कर दिव्य सेवा मेंलगे रहना; हंस--दिव्य ज्ञान में पूरी तरह लगा रहने वाला; निष्क्रियौ--सभी प्रकार के कार्यों को बन्द करते हुए।

    वानप्रस्थ जीवन के चार विभाग हैं--वैखानस, वाल-खिल्य, औदुम्बर तथा फेनप।

    संन्यासआश्रम के चार विभाग हैं-कुटीचक, बह्नोद, हंस तथा निष्क्रिय ।

    ये सभी ब्रह्मा से प्रकट हुए थे।

    आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथेव च ।

    एवं व्याहतयश्चासन्प्रणवो हास्य दह्ुतः ॥

    ४४॥

    आन्वीक्षिकी--तर्क ; त्रयी--तीन लक्ष्य जिनके नाम धर्म, अर्थ तथा मोक्ष हैं; वार्ता--इन्द्रियतृप्ति; दण्ड--विधि तथा व्यवस्था;नीतिः:--आचरण सम्बन्धी संहिता; तथा-- भी; एव च--क्रमश: ; एवम्‌--इस प्रकार; व्याहतय:-- भू: भुवः तथा स्व: नामकविख्यात स्तोत्र; च-- भी; आसन्‌ू--उत्पन्न हुए; प्रणव: --»कार; हि--निश्चय ही; अस्य--उसका ( ब्रह्मा का ); दहतः--हृदयसे

    तर्कशास्त्र विज्ञानजीवन के वैदिक लक्ष्य, कानून तथा व्यवस्था, आचार संहिता तथा भू:भुवः स्व: नामक विख्यात मंत्र-ये सब ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए और उनके हृदय से प्रणव कार प्रकट हुआ।

    'तस्योष्णिगासील्लोमभ्यो गायत्री च त्वचो विभो: ।

    त्रिष्ठम्मांसात्स्नुतोनुष्ठुब्जगत्यस्थ्न: प्रजापते: ॥

    ४५॥

    तस्य--उसका; उष्णिकू--एक वैदिक छन्द; आसीतू--उत्पन्न हुआ; लोमभ्य:--शरीर पर के रोमों से; गायत्री-- प्रमुख वैदिकस्तोत्र; च--भी; त्वच:--चमड़ी से; विभो: --प्रभु के ; त्रिष्टपू--एक विशेष प्रकार का छन्द; मांसातू--मांस से; स्नुत:--शिराओंसे; अनुष्ठप्‌ू-- अन्य छन्‍्द; जगती--एक अन्य छन्द; अस्थ्:--हड्डियों से; प्रजापतेः --जीवों के पिता के |

    तत्पश्चात्‌ सर्वशक्तिमान प्रजापति के शरीर के रोमों से उष्णिक अर्थात्‌ साहित्यिक अभिव्यक्तिकी कला उत्पन्न हुई।

    प्रमुख वैदिक मंत्र गायत्री जीवों के स्वामी की चमड़ी से उत्पन्न हुआ, त्रिष्ट॒ुप्‌उनके माँस से, अनुष्ठुप्‌ उनकी शिराओं से तथा जगती छन्द उनकी हड्डियों से उत्पन्न हुआ।

    मज्जाया: पड्डि रुत्पन्ना बृहती प्राणतो भवत्‌ ॥

    ४६॥

    मज्जाया: --अस्थिमज्ञा से; पड़्ि :--एक विशेष प्रकार का श्लोक; उत्पन्ना--उत्पन्न हुआ; बृहती --अन्य प्रकार का श्लोक;प्राणतः--प्राण से; अभवत्‌--उत्पन्न हुआ

    पंक्ति श्लोक लिखने की कला का उदय अस्थिमज्जा से हुआ और एक अन्य एलोक बृहतीलिखने की कला जीवों के स्वामी के प्राण से उत्पन्न हुई।

    स्पर्शस्तस्याभवज्जीव: स्वरो देह उदाहतऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुरन्त:स्था बलमात्मन: ।

    स्वरा: सप्त विहारेण भवन्ति सम प्रजापते: ॥

    ४७॥

    स्पर्शः:--क से म तक के अक्षरों का समूह; तस्य--उसका; अभवत्‌--हुआ; जीव:--आत्मा; स्वर: --स्वर; देह: --उनका शरीर;उदाहतः--व्यक्त किये जाते हैं; ऊष्माणम्‌--श, ष, स तथा ह अक्षर; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; आहुः--कहलाते हैं; अन्तः-स्था: --य, र, ल तथा व ये अन्तस्थ अक्षर हैं; बलमू--शक्ति; आत्मन:--उसका; स्वरा:--संगीत; सप्त--सात; विहारेण--ऐन्द्रियकार्यकलाप के द्वारा; भवन्ति स्म--प्रकट हुए; प्रजापते:--जीवों के स्वामी का।

    ब्रह्मा की आत्मा स्पर्श अक्षरों के रूप में, उनका शरीर स्वरों के रूप में, उनकी इन्द्रियाँ ऊष्मअक्षरों के रूप में, उनका बल अन्तःस्थ अक्षरों के रूप में और उनके ऐन्द्रिय कार्यकलाप संगीतके सप्त स्वरों के रूप में प्रकट हुए।

    शब्दब्रह्मात्मनस्तस्य व्यक्ताव्यक्तात्मन: पर: ।

    ब्रह्मावभाति विततो नानाशक्त्युपबूंहित: ॥

    ४८ ॥

    शब्द-ब्रह्म --दिव्य ध्वनि; आत्मनः --परमे श्वर श्रीकृष्ण; तस्य--उनका; व्यक्त--प्रकट; अव्यक्त-आत्मन:-- अव्यक्त का; पर: --दिव्य; ब्रह्मा--परम; अवभाति--पूर्णतया प्रकट; वितत:--वितरित करते हुए; नाना--विविध; शक्ति--शक्तियाँ; उपबूंहित:--से युक्त

    ब्रह्मा दिव्य ध्वनि के रूप में भगवान्‌ के साकार स्वरूप हैं, अतएव वे व्यक्त तथा अव्यक्तश़ की धारणा से परे हैं।

    ब्रह्म परम सत्य के पूर्ण रूप हैं और नानाविध शक्तियों से समन्वित हैं।

    ततोपरामुपादाय स सर्गाय मनो दधे ॥

    ४९॥

    ततः--तत्पश्चात्‌: अपराम्‌-- अन्य; उपादाय-- स्वीकार करके; सः--वह; सर्गाय--सृष्टि विषयक; मनः--मन; दधे--ध ध्यानदिया।

    तत्पश्चात्‌ ब्रह्म ने दूसरा शरीर धारण किया जिसमें यौन जीवन निषिद्ध नहीं था और इस तरहवे आगे सृष्टि के कार्य में लग गये।

    ऋषीणां भूरिवीर्याणामपि सर्गमविस्तृतम्‌ ।

    ज्ञात्वा तद्धृदये भूयश्चविन्तयामास कौरव ॥

    ५०॥

    ऋषीणाम्‌--ऋषियों का; भूरि-वीर्याणाम्‌--अत्यधिक पराक्रम से; अपि--के बावजूद; सर्गम्‌--सृष्टि; अविस्तृतम्‌-विस्तृतनहीं; ज्ञात्वा--जानकर; तत्‌ू--वह; हृदये --हृदय में; भूय:--पुन; चिन्तयाम्‌ आस--विचार करने लगा; कौरब--हे कुरुपुत्र |

    हे कुरुपुत्र, जब ब्रह्मा ने देखा कि अत्यन्त वीर्यवान ऋषियों के होते हुए भी जनसंख्या मेंपर्याप्त वृद्धि नहीं हुई तो वे गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे कि जनसंख्या किस तरह बढ़ायीजाय।

    अहो अद्भुतमेतन्मे व्यापृतस्यापि नित्यदा ।

    न होधन्ते प्रजा नूनं दैवमत्र विघधातकम्‌ ॥

    ५१॥

    अहो--हाय; अद्भुतम्‌-- अद्भुत है; एतत्‌ू--यह; मे--मेरे लिए; व्यापृतस्य--व्यस्त होते हुए; अपि--यद्यपि; नित्यदा--सदैव;न--नहीं; हि--निश्चय ही; एधन्ते--उत्पन्न करते हैं; प्रजा:--जीव; नूनम्‌--किन्तु; दैवम्‌-- भाग्य; अत्र--यहाँ; विधातकम्‌--विरुद्धविपरीत

    ब्रह्म ने अपने आप सोचा : हाय! यह विचित्र बात है कि मेरे सर्वत्र फैले हुए रहने पर भीब्रह्माण्ड भर में जन-संख्या अब भी अपर्याप्त है।

    इस दुर्भाग्य का कारण एकमात्र भाग्य केअतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

    एवं युक्तकृतस्तस्य दैवं चावेक्षतस्तदा ।

    'कस्य रूपमभूदद्वेधा यत्कायमभिचक्षते ॥

    ५२॥

    एवम्‌--इस प्रकार; युक्त--सोच विचार करते; कृत:--ऐसा करते हुए; तस्थ--उसका; दैवम्‌--दैवी शक्ति; च-- भी;अवेक्षतः--देखते हुए; तदा--उस समय; कस्य--ब्रह्माण्ड; रूपम्‌--स्वरूप; अभूत्‌--प्रकट हो गया; द्वेधा--दोहरा; यत्‌--जोहै; कायम्‌--उसका शरीर; अभिचक्षते--कहा जाता है।

    जब वे इस तरह विचारमग्न थे और अलौकिक शक्ति को देख रहे थे तो उनके शरीर से दोअन्य रूप उत्पन्न हुए।

    वे अब भी ब्रह्मा के शरीर के रूप में विख्यात हैं।

    ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥

    ५३॥

    ताभ्याम्‌--उनके; रूप--रूप; विभागाभ्यामू-- इस तरह विभक्त होकर; मिथुनम्‌--यौन सम्बन्ध; समपद्यत--ठीक से सम्पन्नकिया।

    ये दोनों पृथक्‌ हुए शरीर यौन सम्बन्ध में एक दूसरे से संयुक्त हो गये।

    यस्तु तत्र पुमान्सोभून्मनु: स्वायम्भुवः स्वराट्‌ ।

    स्त्री यासीच्छतरूपाख्या महिष्यस्य महात्मन: ॥

    ५४॥

    यः--जो; तु-- लेकिन; तत्र--वहाँ; पुमान्‌ू--नर; सः-- वह; अभूत्‌--बना; मनुः--मनुष्यजाति का पिता; स्वायम्भुव:--स्वायंभुव नामक; स्व-राट्‌--पूर्णतया स्वतंत्र; स्त्री--नारी; या--जो; आसीत्‌-- थी; शतरूपा--शतरूपा; आख्या--नामक;महिषी--रानी; अस्य-- उसकी ; महात्मन:--महात्मा |

    इनमें से जिसका नर रूप था वह स्वायंभुव मनु कहलाया और नारी शतरूपा कहलायी जोमहात्मा मनु की रानी के रुप में जानी गई।

    तदा मिथुनधर्मेण प्रजा होधाम्बभूविरि ॥

    ५५॥

    तदा--उस समय; मिथुन--यौन जीवन; धर्मेण--विधि-विधानों के अनुसार; प्रजा:--सन्‍्तानें; हि--निश्चय ही; एधाम्‌--बढ़ीहुईं; बभूविरि--घटित हुई |

    तत्पश्चात्‌ उन्होंने सम्भोग द्वारा क्रमशः एक एक करके जनसंख्या की पीढ़ियों में वृद्धि की।

    स चापि शतरूपायां पशञ्ञापत्यान्यजीजनत्‌प्रियव्रतोत्तानपादौ तिस्त्र: कन्याश्व भारत ।

    आकूतिर्देवहूतिश्व प्रसूतिरिति सत्तम ॥

    ५६॥

    सः--वह ( मनु ); च-- भी; अपि--कालान्तर में; शतरूपायाम्‌--शतरूपा में; पञ्ञ--पाँच; अपत्यानि--सन्तानें; अजीजनतू --उत्पन्न किया; प्रियव्रत--प्रियब्रत; उत्तानपादौ--उत्तानपाद; तिस्त्रः--तीन; कन्या:--कन्याएँ; च-- भी; भारत--हे भरत के पुत्र;आकृति:--आकूति; देवहूति:--देवहूति; च--तथा; प्रसूति: --प्रसूति; इति--इस प्रकार; सत्तम-हे सर्वश्रेष्ठ |

    हे भरतपुत्र, समय आने पर उसने ( मनु ने ) शतरूपा से पाँच सन्तानें उत्पन्न कौं-दो पुत्रप्रियत्रत तथा उत्तानपाद एवं तीन कन्याएँ आकृति, देवहूति तथा प्रसूति।

    आकूतिं रुचये प्रादात्कर्दमाय तु मध्यमाम्‌ ।

    दक्षायादात्प्रसूतिं च यत आपूरितं जगत्‌ ॥

    ५७॥

    आकृतिम्‌--आकूति नामक कन्या; रुचये--रूचि मुनि को; प्रादात्‌-प्रदान किया; कर्दमाय--कर्दम मुनि को; तु--लेकिन;मध्यमाम्‌--बीच की ( देवहूति ); दक्षाय--दक्ष को; अदात्‌--प्रदान किया; प्रसूतिमू--सबसे छोटी पुत्री को; च-- भी; यतः--जिससे; आपूरितम्‌--पूर्ण है; जगतू--सारा संसारपिता

    मनु ने अपनी पहली पुत्री आकृति रुचि मुनि को दी, मझली पुत्री देवहूति कर्दम मुनिको और सबसे छोटी पुत्री प्रसूति दक्ष को दी।

    उनसे सारा जगत जनसंख्या से पूरित हो गया।

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    अध्याय तेरह: भगवान वराह का प्राकट्य

    3.13श्रीशुक उवाचनिशम्य वाचं वबदतो मुने: पुण्यतमां नूप ।

    भूय: पप्रच्छ कौरव्यो वासुदेवकथाहतः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; निशम्य--सुन कर; वाचम्‌--बातें; वदत:--बोलते हुए; मुनेः --मैत्रेय मुनिका; पुण्य-तमाम्‌--अत्यन्त पुण्यमय; नृप--हे राजा; भूय:--तब फिर; पप्रच्छ--पूछा; कौरव्य: --कुरुओं में सर्वश्रेष्ठ ( विदुर );वासुदेव-कथा-- भगवान्‌ वासुदेव विषयक कथाएँ; आहत: --जो इस तरह सादर पूजता है।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्‌, मैत्रेय मुनि से इन समस्त पुण्यतम कथाओं कोसुनने के बाद विदुर ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की कथाओं के विषय में और अधिक पूछताछकी, क्योंकि इनका आदरपूर्वक सुनना उन्हें पसन्द था।

    विदुर उवाचस बै स्वायम्भुव: सम्राट्प्रिय: पुत्र: स्वयम्भुवः ।

    प्रतिलभ्य प्रियां पत्नीं कि चक्कार ततो मुने ॥

    २॥

    विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; सः--वह; बै--सरलता से; स्वायम्भुव:--स्वायम्भुव मनु; सम्राट्‌--समस्त राजाओं के राजा;प्रिय:--प्रिय ; पुत्र:--पुत्र; स्वयम्भुव: --ब्रह्मा का; प्रतिलभ्य--प्राप्त करके; प्रियाम्‌-- अत्यन्त प्रिय; पत्लीमू--पत्नी को;किम्‌--क्या; चकार--किया; ततः--तत्पश्चात्‌; मुने--हे मुनि

    विदुर ने कहा : हे मुनि, ब्रह्मा के प्रिय पुत्र स्वायम्भुव ने अपनी अतीव प्रिय पत्नी को पाने केबाद क्‍या किया ?

    चरितं तस्य राजर्षेरादिराजस्य सत्तम ।

    ब्रृहि मे भ्रद्धानाय विष्वक्सेनाश्रयो हासौं ॥

    ३॥

    चरितम्‌--चरित्र; तस्थ--उसका; राजर्षे: --ऋषितुल्य राजा का; आदि-राजस्य--आदि राजा का; सत्तम--हे अति पवित्र;ब्रूहि--कृपया कहें; मे--मुझसे; श्रद्धानाय--प्राप्त करने के लिए जो इच्छुक है उसे ; विष्वक्सेन-- भगवान्‌ का; आश्रय:--जिसने शरण ले रखी है; हि--निश्चय ही; असौ--वह राजा

    हे पुण्यात्मा श्रेष्ठ राजाओं का आदि राजा ( मनु ) भगवान्‌ हरि का महान्‌ भक्त था, अतएवउसके शुद्ध चरित्र तथा कार्यकलाप सुनने योग्य हैं।

    कृपया उनका वर्णन करें।

    मैं सुनने के लिएअतीव उत्सुक हूँ।

    श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्यनन्वझ्जसा सूरिभिरीडितोडर्थ: ।

    तत्तदगुणानुश्रवर्ण मुकुन्द-पादारविन्दं हृदयेषु येषामू ॥

    ४॥

    श्रुतस्य--ऐसे व्यक्तियों का जो सुन रहे हों; पुंसामू--ऐसे पुरुषों का; सुचिर--दीर्घकाल तक; श्रमस्य--कठिन श्रम करते हुए;ननु--निश्चय ही; अज्ञसा--विस्तार से; सूरिभि:--शुद्ध भक्तों द्वारा; ईडित:--व्याख्या किया गया:; अर्थ:--कथन; तत्‌--वह;तत्‌--वह; गुण--दिव्य गुण; अनुश्रवणम्‌--सोचते हुए; मुकुन्द--मुक्तिदाता भगवान्‌ का; पाद-अरविन्दमू--चरणकमल;हृदयेषु--हृदय के भीतर; येषाम्‌--जिनके ।

    जो लोग अत्यन्त श्रमपूर्वक तथा दीर्घकाल तक गुरु से श्रवण करते हैं उन्हें शुद्धभक्तों केचरित्र तथा कार्यकलापों के विषय में शुद्धभक्तों के मुख से ही सुनना चाहिए।

    शुद्ध भक्त अपनेहृदयों के भीतर सदैव उन भगवान्‌ के चरणकमलों का चिन्तन करते हैं, जो अपने भक्तों कोमोक्ष प्रदान करने वाले हैं।

    श्रीशुक उवाचइति ब्रुवाणं विदुरं विनीतंसहस््रशीर्ष्ण श्वरणोपधानम्‌ ।

    प्रहष्टरोमा भगवत्कथायांप्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट ॥

    ५॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ब्रुवाणम्‌--बोलते हुए; विदुरम्‌--विदुर को; विनीतम्‌--अतीव नग्न; सहस्त्र-शीर्ष्ण:-- भगवान्‌ कृष्ण; चरण---चरणकमल; उपधानम्‌--तकिया; प्रहष्ट-रोमा--आनन्द से जिसके रोमखड़े हो गये हों; भगवत्‌-- भगवान्‌ के सम्बन्ध में; कथायाम्‌--शब्दों में; प्रणीयमान: --ऐसे आत्मा द्वारा प्रभावित हो कर;मुनिः--मुनि ने; अभ्यचष्ट--बोलने का प्रयास किया |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान्‌ कृष्ण विदुर की गोद में अपना चरणकमल रख करप्रसन्न थे, क्योंकि विदुर अत्यन्त विनीत तथा भद्र थे।

    मैत्रेय मुनि विदुर के शब्दों से अति प्रसन्न थेऔर अपनी आत्मा से प्रभावित होकर उन्होंने बोलने का प्रयास किया।

    मैत्रेय उवाचयदा स्वभार्यया सार्ध जात: स्वायम्भुवो मनु: ।

    प्राज्ललिः प्रणतश्चेदं वेदगर्भभभाषत ॥

    ६॥

    मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; यदा--जब; स्व-भार्यया-- अपनी पत्नी के; सार्धम्‌--साथ में; जात:--प्रकट हुआ;स्वायम्भुव:--स्वायम्भुव मनु; मनु;--मानवजाति का पिता; प्राज्ललि:--हाथ जोड़े; प्रणतः--नमस्कार करके; च--भी;इदम्‌--यह; वेद-गर्भभ्‌ू--वैदिक विद्या के आगार को; अभाषत--सम्बोधित किया।

    मैत्रेय मुनि ने विदुर से कहा : मानवजाति के पिता मनु अपनी पत्नी समेत अपने प्राकट्य केबाद वेदविद्या के आगार ब्रह्मा को नमस्कार करके तथा हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोले।

    त्वमेक: सर्वभूतानां जन्मकृद्दुत्तिदः पिता ।

    तथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत्‌ ॥

    ७॥

    त्वमू--तुम; एक: --एक; सर्व--समस्त; भूतानामू--जीवों के; जन्म-कृत्‌--जनक; वृत्ति-दः--जीविका का साधन; पिता--पिता; तथा अपि--तो भी; न:ः--हम; प्रजानाम्‌--उत्पन्न हुए सबों का; ते--तुम्हारी; शुश्रूषा--सेवा; केन--कैसे; वा-- अथवा;भवेत्‌--सम्भव हो सकती है।

    आप सारे जीवों के पिता तथा उनकी जीविका के स्त्रोत हैं, क्योंकि वे सभी आपसे उत्पन्नहुए हैं।

    कृपा करके हमें आदेश दें कि हम आपकी सेवा किस तरह कर सकते हैं।

    तद्ठिधेहि नमस्तुभ्यं कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु ।

    यत्कृत्वेह यशो विष्वगमुत्र च भवेद्गति: ॥

    ८॥

    तत्‌--वह; विधेहि-- आदेश दें; नम:--मेरा नमस्कार; तुभ्यम्‌--तुमको; कर्मसु--कार्यो में; ईड्य--हे पूज्य; आत्म-शक्तिषु--हमारी कार्य क्षमता के अन्तर्गत; यत्‌--जो; कृत्वा--करके ; इह--इस जगत में; यश: --यश; विष्वक्‌ --सर्वत्र; अमुत्र-- अगलेजगत में; च--तथा; भवेत्‌--इसे होना चाहिए; गति: --प्रगति ।

    है आराध्य, आप हमें हमारी कार्यक्षमता के अन्तर्गत कार्य करने के लिए अपना आदेश देंजिससे हम इस जीवन में यश के लिए तथा अगले जीवन में प्रगति के लिए उसका पालन करसकें।

    ब्रह्मोवाचप्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर ।

    यन्निरव्यलीकेन हदा शाधि मेत्यात्मनार्पितम्‌ ॥

    ९॥

    ब्रह्म उवाच--ब्रह्मा ने कहा; प्रीतः--प्रसन्न; तुभ्यम्‌--तुम को; अहम्‌--मैं; तात-हे पुत्र; स्वस्ति--कल्याण; स्तात्‌ू--हो;वाम्‌--तुम दोनों को; क्षिति-ईश्वर--हे संसार के स्वामी; यत्‌--क्योंकि; निर्व्यलीकेन--बिना भेदभाव के; हृदा--हृदय से;शाधि--आदेश दीजिये; मा--मुझको; इति--इस प्रकार; आत्मना--आत्मा से; अर्पितमू--शरणागत

    ब्रह्माजी ने कहा, हे प्रिय पुत्र, हे जगत्‌ के स्वामी, मैं तुम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हारे तथातुम्हारी पत्नी दोनों ही के कल्याण की कामना करता हूँ।

    तुमने मेरे आदेशों के लिए अपने हृदयसे बिना सोचे विचारे अपने आपको मेरे शरणागत कर लिया है।

    एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या ह्पचितिर्गुरौ ।

    शत्त्याप्रमत्तैर्गुछेत सादर गतमत्सरै: ॥

    १०॥

    एतावती--ठीक इसी तरह; आत्मजै:--सनन्‍्तान द्वारा; वीर--हे वीर; कार्या--सम्पन्न किया जाना चाहिए; हि--निश्चय ही;अपचिति:ः--पूजा; गुरौ--गुरुजन को; शक्त्या--पूरी क्षमता से; अप्रमत्तै:--विवेकवान द्वारा; गृह्ेत--स्वीकार किया जानाचाहिए; स-आदरम्‌--अतीव हर्ष के साथ; गत-मत्सरैः--ईर्ष्या की सीमा से परे रहने वालों के द्वारा।

    हे वीर, तुम्हारा उदाहरण पिता-पुत्र सम्बन्ध के सर्वथा उपयुक्त है।

    बड़ों की इस तरह कीपूजा अपेक्षित है।

    जो ईर्ष्या की सीमा के परे है और विवेकी है, वह अपने पिता के आदेश कोप्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है और अपने पूरी सामर्थ्य से उसे सम्पन्न करता है।

    स त्वमस्यथामपत्यानि सहशान्यात्मनो गुणै: ।

    उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञै: पुरुष यज ॥

    ११॥

    सः--इसलिए वह आज्ञाकारी पुत्र; त्वम्‌-तुम जैसे; अस्याम्‌--उसमें; अपत्यानि--सन्तानें; सहशानि--समानरूप से योग्य;आत्मन:--तुम्हारी; गुणैः -गुणों से; उत्पाद्य--उत्पन्न किये जाकर; शास--शासन करते हैं; धर्मेण-- भक्ति के नियमों के साथ;गाम्‌ू--जगत; यज्ञैः--वज्ञों से; पुरुषम्‌-- भगवान्‌ की; यज--पूजा करो

    चूँकि तुम मेरे अत्यन्त आज्ञाकारी पुत्र हो इसलिए मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम अपनी पत्नीके गर्भ से अपने ही समान योग्य सन्तानें उत्पन्न करो।

    तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की भक्ति केसिद्धान्तों का पालन करते हुए सारे जगत पर शासन करो और इस तरह यज्ञ सम्पन्न करकेभगवान्‌ की पूजा करो।

    परं शुश्रूषणं महां स्यात्प्रजारक्षया नृप ।

    भगवांस्ते प्रजाभर्तुईषीकेशो नुतुष्पति ॥

    १२॥

    'परम्‌--सबसे बड़ी; शुश्रूषणम्‌-- भक्ति; महामम्‌--मेरे प्रति; स्थात्‌ू--होनी चाहिए; प्रजा-- भौतिक जगत में उत्पन्न जीव; रक्षया--बिगड़ने से बचाकर; नृप--हे राजा; भगवान्‌-- भगवान्‌; ते--तुम्हारे साथ; प्रजा-भर्तु:--जीवों के रक्षक के साथ; हृषीकेश: --इन्द्रियों के स्वामी; अनुतुष्यति--तुष्ट होता है।

    हे राजन, यदि तुम भौतिक जगत में जीवों को उचित सुरक्षा प्रदान कर सको तो मेरे प्रति वहसर्वोत्तम सेवा होगी।

    जब परमेश्वर तुम्हें बद्धजीवों के उत्तम रक्षक के रूप में देखेंगे तो इन्द्रियों केस्वामी निश्चय ही तुम पर अतीव प्रसन्न होंगे।

    येषां न तुष्टो भगवान्यज्ञलिझ्े जनार्दन: ।

    तेषां श्रमो हापार्थाय यदात्मा नाहतः स्वयम्‌ ॥

    १३॥

    येषाम्‌--उनका जिनके साथ; न--कभी नहीं; तुष्ट:--तुष्ट; भगवान्‌-- भगवान्‌; यज्ञ-लिड्र:--यज्ञ का स्वरूप; जनार्दन:--भगवान्‌ कृष्ण या विष्णुतत्त्व; तेषामू--उनका; श्रम:-- श्रम; हि--निश्चय ही; अपार्थाय--बिना लाभ के; यत्‌--क्योंकि;आत्मा--परमात्मा; न--नहीं; आहत: --सम्मानित; स्वयम्‌--स्वयं |

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ जनार्दन ( कृष्ण ) ही समस्त यज्ञ फलों को स्वीकार करने वाले हैं।

    यदि वे तुष्ट नहीं होते तो प्रगति के लिए किया गया मनुष्य का श्रम व्यर्थ है।

    वे चरम आत्मा हैं,अतएव जो व्यक्ति उन्हें तुष्ट नहीं करता वह निश्चय ही अपने ही हितों की उपेक्षा करता है।

    मनुरुवाचआदेशेहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन ।

    स्थान त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो ॥

    १४॥

    मनु: उवाच-- श्री मनु ने कहा; आदेशे-- आदेश के अन्तर्गत; अहम्‌--मैं; भगवतः--शक्तिशाली आपका; वर्तेय--रूकूँगा;अमीव-सूदन--हे समस्त पापों के संहारक; स्थानम्‌--स्थान; तु--लेकिन; इह--इस जगत में; अनुजानीहि--कृपया मुझेबतलाइये; प्रजानाम्‌ू--मुझसे उत्पन्न जीवधारियों का; मम--मेरा; च-- भी; प्रभो--हे प्रभु

    श्री मनु ने कहा : हे सर्वशक्तिमान प्रभु, हे समस्त पापों के संहर्ता, मैं आपके आदेशों कापालन करूँगा।

    कृपया मुझे मेरा तथा मुझसे उत्पन्न जीवों के बसने के लिए स्थान बतलाएँ।

    यदोकः सर्वभूतानां मही मग्ना महाम्भसि ।

    अस्या उद्धरणे यत्नो देव देव्या विधीयताम्‌ ॥

    १५॥

    यत्‌--क्योंकि; ओक:--वासस्थान; सर्व--सभी के लिए; भूतानाम्‌--जीवों के लिए; मही--पृथ्वी; मग्ना--डूबी हुई; महा-अम्भसि--विशाल जल में; अस्या:--इसके; उद्धरणे--उठाने में; यत्न:-- प्रयास; देव--हे देवताओं के स्वामी; देव्या:--इसपृथ्वी का; विधीयताम्‌--कराएँ |

    है देवताओं के स्वामी, विशाल जल में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर उठाने का प्रयास करें,क्योंकि यह सारे जीवों का वासस्थान है।

    यह आपके प्रयास तथा भगवान्‌ की कृपा से ही सम्भवहै।

    मैत्रेय उवाचपरमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम्‌ ।

    कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम्‌ ॥

    १६॥

    मैत्रेयः उवाच-- श्री मैत्रेय मुनि ने कहा; परमेष्ठी --ब्रह्मा; तु-- भी; अपाम्‌--जल के ; मध्ये-- भीतर; तथा--इस प्रकार;सन्नामू--स्थित; अवेक्ष्य--देखकर; गाम्‌--पृथ्वी को; कथम्‌--कैसे; एनामू--यह; समुन्नेष्ये -- मैं उठा लूँगा; इति--इस प्रकार;दध ्यौ-- ध्यान दिया; धिया--बुद्धि से; चिरमू--दीर्घ काल तक |

    श्री मैत्रेय ने कहा : इस प्रकार पृथ्वी को जल में डूबी हुई देखकर ब्रह्मा दीर्घकाल तकसोचते रहे कि इसे किस प्रकार उठाया जा सकता है।

    सृजतो मे ्षितिर्वार्भि: प्लाव्यमाना रसां गताअथात्र किमनुष्ठेयमस्माभि: सर्गयोजितै: ।

    यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥

    १७॥

    सृजतः--सृजन करते समय; मे--मेरा; क्षिति:--पृथ्वी; वार्भि:--जल के द्वारा; प्लाव्यमाना-- आप्लावित की गई; रसामू--जलकी गहराई; गता--नीचे गया हुआ; अथ--इसलिए; अत्र--इस मामले में; किम्‌--क्‍्या; अनुष्ठेयम्‌--क्या प्रयास किया जानाचाहिए; अस्माभि: --हमारे द्वारा; सर्ग--सृष्टि में; योजितैः--लगे हुए; यस्य--जिसका; अहम्‌--मैं; हृदयात्‌--हृदय से;आसमू--उत्पन्न; सः--वह; ईशः--पर मेश्वर; विदधातु--निर्देश कर सकते हैं; मे--मुझको |

    ब्रह्म ने सोचा : जब मैं सृजन कार्य में लगा हुआ था, तो पृथ्वी बाढ़ से आप्लावित हो गईऔर समुद्र के गर्त में चली गई।

    हम लोग जो सृजन के इस कार्य में लगे हैं भला कर ही क्‍यासकते हैं ? सर्वोत्तम यही होगा कि सर्वशक्तिमान हमारा निर्देशन करें।

    इत्यभिध्यायतो नासाविवरात्सहसानघ ।

    वराहतोको निरगादडुष्ठपरिमाणकः ॥

    १८॥

    इति--इस प्रकार; अभिध्यायत:--सोचते हुए; नासा-विवरात्‌--नथुनों से; सहसा--एकाएक; अनघ--हे निष्पाप; वराह-तोकः--वराह का लघुरूप ( सूअर ); निरगात्‌ू--बाहर आया; अद्डुष्ट--अँगूठे का ऊपरी हिस्सा; परिमाणक:--माप वाला

    हे निष्पाप विदुर, जब ब्रह्माजी विचारमग्न थे तो उनके नथुने से सहसा एक सूअर ( वराह )का लघुरूप बाहर निकल आया।

    इस प्राणी की माप अँगूठे के ऊपरी हिस्से से अधिक नहीं थी।

    तस्याभिपष्टयत: खस्थ: क्षणेन किल भारत ।

    गजमात्र:ः प्रववृधे तदद्भधुतमभून्महत्‌ ॥

    १९॥

    तस्य--उसका; अभिपश्यत: --इस प्रकार देखते हुए; ख-स्थ:--आकाश में स्थित; क्षणेन--सहसा; किल--निश्चय ही;भारत--हे भरतवंशी; गज-मात्र:--हाथी के समान; प्रववृधे-- भलीभाँति विस्तार किया; तत्‌ू--वह; अद्भुतम्‌-- असामान्य;अभूत्‌--बदल गया; महत्‌--विराट शरीर में

    हे भरतवंशी, तब ब्रह्मा के देखते ही देखते वह वराह विशाल काय हाथी जैसा अद्भुत विराट स्वरूप धारण करके आकाश में स्थित हो गया।

    मरीचिप्रमुखैर्विप्रै: कुमारैर्मनुना सह ।

    इृष्ठा तत्सौकरं रूप॑ं तर्कयामास चित्रधा ॥

    २०॥

    मरीचि--मरीचि मुनि; प्रमुखैः--इत्यादि; विप्रैः--सारे ब्राह्मणों; कुमारैः--चारों कुमारों सहित; मनुना--तथा मनु; सह--केसाथ; दृष्टा--देख कर; तत्‌--वह; सौकरम्‌--सूकर जैसा; रूपम्‌--स्वरूप; तर्कयाम्‌ आस--परस्पर तर्क-वितर्क किया;चित्रधा--विविध प्रकारों से |

    आकाश में अद्भुत सूकर जैसा रूप देखने से आश्वर्यचकित ब्रह्माजी मरीचि जैसे महान्‌ब्राह्मणों तथा चारों कुमारों एवं मनु के साथ अनेक प्रकार से तर्क-वितर्क करने लगे।

    किमेतत्सूकरव्याजं सत्त्वं दिव्यमवस्थितम्‌ ।

    अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम्‌ ॥

    २१॥

    किम्‌--क्या; एतत्‌--यह; सूकर--सूकर के; व्याजम्‌ू--बहाने से; सत्त्वम्‌--जीव; दिव्यम्‌ू--असामान्य; अवस्थितम्‌--स्थित;अहो बत--ओह, यह है; आश्चर्यम्‌--अत्यन्त अद्भुत; इदम्‌--यह; नासाया:--नाक से; मे--मेरी; विनिःसृतम्‌--बाहर आया।

    क्या सूकर के बहाने से यह कोई असामान्य व्यक्तित्व आया है ? यह अति आश्चर्यप्रद है किवह मेरी नाक से निकला है।

    इृष्टो डडुष्ठशिरोमात्र क्षणाद्गण्डशिलासम: ।

    अपि स्विद्धगवानेष यज्ञों मे खेदयन्मन: ॥

    २२॥

    हृष्ठ;:--अभी-अभी देखा हुआ; अब्जुष्ठ --अँगूठे का; शिर:--सिरा; मात्र:--केवल; क्षणात्‌--तुरन्त; गण्ड-शिला--विशालपत्थर; सम:--सहृश; अपि स्वित्‌ू-- क्या; भगवान्‌-- भगवान्‌; एष: --यह; यज्ञ:--विष्णु; मे--मेरा; खेदयन्‌--खिन्न; मन: --मन

    प्रारम्भ में यह सूकर अँगूठे के सिरे से बड़ा न था, किन्तु क्षण भर में वह शिला के समानविशाल बन गया।

    मेरा मन विदश्लुब्ध है।

    क्या वह पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णु हैं ?

    इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मण: सह सूनुभिः ।

    भगवान्यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभ: ॥

    २३॥

    इति--इस प्रकार; मीमांसत: --विचार-विमर्श करते; तस्य--उस; ब्रह्मण: --ब्रह्मा के; सह--साथ-साथ; सूनुभि: --उनकेपुत्रगण; भगवान्‌--परमे श्वर; यज्ञ-- भगवान्‌ विष्णु ने; पुरुष: --सर्व श्रेष्ठ पुरुष; जगर्ज--गर्जना की; अग-इन्द्र--विशाल पर्वत;सन्निभ:--सहृश

    जब ब्रह्माजी अपने पुत्रों के साथ विचार-विमर्श कर रहे थे तो पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णु नेविशाल पर्वत के समान गम्भीर गर्जना की।

    ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्व द्विजोत्तमान्‌ ।

    स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता विभु: ॥

    २४॥

    ब्रह्मणम्‌--ब्रह्मा को; हर्षबाम्‌ आस--जीवन्त कर दिया; हरि:ः-- भगवान्‌ ने; तानू--वे उन सबों को; च-- भी; द्विज-उत्तमानू--अति उच्च ब्राह्मणों को; स्व-गर्जितेन--अपनी असाधारण वाणी से; ककु भ:--सारी दिशाएँ; प्रतिस्वनयता--प्रतिध्वनित होउठीं; विभु:--सर्वशक्तिमान |

    सर्वशक्तिमान भगवान्‌ ने पुनः असाधारण वाणी से ऐसी गर्जना कर के ब्रह्मा तथा अन्यउच्चस्थ ब्राह्मणों को जीवन्त कर दिया, जिससे सारी दिशाओं में गूँज उठीं।

    निशम्य ते घर्घरितं स्वखेद-क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य ।

    त्जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते रिभिः पवित्रैर्मुनयोगृणन्स्म ॥

    २५॥

    निशम्य--सुनकर; ते--वे; घर्घरितम्‌-- कोलाहलपूर्ण ध्वनि, घुरघुराहट; स्व-खेद--निजी शोक; क्षयिष्णु--विनष्ट करने वाला;माया-मय--सर्व कृपालु; सूकरस्य--सूकर का; जन:--जनलोक; तपः--तपोलोक ; सत्य--सत्यलोक के; निवासिन:--निवासी; ते--वे सभी; त्रिभि:--तीन वेदों से; पवित्रै: --शुभ मंत्रों से; मुन॒यः--महान्‌ चिन्तकों तथा ऋषियों ने; अगृणन्‌ स्म--उच्चारण किया।

    जब जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक के निवासी महर्षियों तथा चिन्तकों ने भगवान्‌सूकर की कोलाहलपूर्ण वाणी सुनी, जो सर्वकृपालु भगवान्‌ की सर्वकल्याणमय ध्वनि थी तोउन्होंने तीनों वेदों से शुभ मंत्रों का उच्चारण किया।

    तेषां सतां वेदवितानमूर्ति-ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम्‌ ।

    विनद्य भूयो विबुधोदयायगजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥

    २६॥

    तेषामू--उन; सताम्‌-महान्‌ भक्तों के; वेद--सम्पूर्ण ज्ञान; वितान-मूर्तिः--विस्तार का स्वरूप; ब्रह्म--वैदिक ध्वनि;अवधार्य--इसे ठीक से जानकर; आत्म--अपना; गुण-अनुवादम्‌--दिव्य गुणगान; विनद्य--प्रतिध्वनित; भूय:--पुनः;विबुध--विद्वानों के; उदयाय--लाभ या उत्थान्‌ हेतु; गजेन्द्र-लील:--हाथी के समान कीड़ा करते हुए; जलम्‌--जल में;आविवेश--प्रविष्ट हुआ

    हाथी के समान क़ीड़ा करते हुए वे महान्‌ भक्तों द्वारा की गई वैदिक स्तुतियों के उत्तर मेंपुनः गर्जना करके जल में घुस गये।

    भगवान्‌ वैदिक स्तुतियों के लक्ष्य हैं, अतएव वे समझ गयेकि भक्तों की स्तुतियाँ उन्हीं के लिए की जा रही हैं।

    उत्क्षिप्तवाल: खचर: कठोरःसटा विधुन्वन्खररोमशत्वक्‌ ।

    खुराहताभ्र: सितदंष्र ईक्षाज्योतिर्बभासे भगवान्मही श्र: ॥

    २७॥

    उत्क्षिप्त-वाल:--पूँछ फटकारते; ख-चर:-- आकाश में; कठोर: -- अति कठोर; सटाः:--कंधे तक लटकते बाल; विधुन्चन्‌ --हिलाता; खर--तेज; रोमश-त्वक्‌ --रोओं से भरी त्वचा; खुर-आहत--खुरों से टकराया; अभ्र:--बादल; सित-दंष्ट: --सफेददाढ़ें; ईक्षा--चितवन; ज्योति:ः--चमकीली; बभासे--तेज निकालने लगा; भगवानू-- भगवान्‌; मही-क्ष:--जगत को धारणकरने वाला।

    पृथ्वी का उद्धार करने के लिए जल में प्रवेश करने के पूर्व भगवान्‌ वराह अपनी पूँछ'फटकारते तथा अपने कड़े बालों को हिलाते हुए आकाश में उड़े।

    उनकी चितवन चमकीली थी।

    और उन्होंने अपने खुरों तथा चमचमाती सफेद दाढ़ों से आकाश में बादलों को बिखरा दिया।

    राणेन पृथ्व्या: पदवीं विजिप्रन्‌ क्रोडापदेश: स्वयमध्वराड्र: ।

    'करालदंध्टोउप्यकरालहग्भ्या-मुद्वीक्ष्य विप्रान्यूणतो उविशत्कम्‌ ॥

    २८॥

    घ्राणेन--सूँघने से; पृथ्व्या:--पृथ्वी की; पदवीम्‌--स्थिति; विजिप्रन्‌ू--पृथ्वी की खोज करते हुए; क्रोड-अपदेश: --सूकर काशरीर धारण किये हुए; स्वयम्‌--स्वयं; अध्वर--दिव्य; अड्र:--शरीर; कराल-- भयावना; दंष्टः --दाँत ( दाढ़ें )) अपि--केबावजूद; अकराल--भयावना नहीं; दृग्भ्यामू--अपनी चितवन से; उद्दीक्ष्य--दृष्टि दौड़ाकर; विप्रान्‌ू--सारे ब्राह्मण भक्त;गृणतः-स्तुति में लीन; अविशतू-- प्रवेश दिया; कमू--जल में |

    वे साक्षात्‌ परम प्रभु विष्णु थे, अतएवं दिव्य थे, फिर भी सूकर का शरीर होने से उन्होंनेपृथ्वी को उसकी गंध से खोज निकाला।

    उनकी दाढ़ें अत्यन्त भयावनी थीं।

    उन्होंने स्तुति करने मेंव्यस्त भक्त-ब्राह्मणों पर अपनी दृष्टि दौड़ाई।

    इस तरह वे जल में प्रविष्ट हुए।

    स वज्ञकूटाड्निपातवेग-विशीर्णकुक्षि: स्तनयन्नुदन्वान्‌ ।

    उत्सृष्टदीर्घोर्मि भुजैरिवार्त-श्रुक्रोश यज्ञे ध्वर पाहि मेति ॥

    २९॥

    सः--वह; वज़्-कूट-अड्गभ--विशाल पर्वत जैसा शरीर; निपात-वेग--डुबकी लगाने का वेग; विशीर्ण--दो भागों में करते हैं;कुक्षिः--मध्य भाग को; स्तनयन्‌--के समान गुँजाते; उदन्वान्‌--समुद्र; उत्सूष्ट--उत्पन्न करके; दीर्घ--ऊँची; ऊर्मि-- लहरें;भुजै:--बाँहों से; इब आर्त:--दुखी पुरुष की तरह; चुक्रोश--तेज स्वर से स्तुति की; यज्ञ-ईश्वर--हे समस्त यज्ञों के स्वामी;पाहि--कृपया बचायें; मा--मुझको; इति--इस प्रकार।

    दानवाकार पर्वत की भाँति जल में गोता लगाते हुए भगवान्‌ वराह ने समुद्र के मध्यभाग कोविभाजित कर दिया और दो ऊँची लहरें समुद्र की भुजाओं की तरह प्रकट हुईं जो उच्च स्वर सेआर्तनाद कर रही थीं मानो भगवान्‌ से प्रार्थना कर रही हों,'हे समस्त यज्ञों के स्वामी, कृपया मेरेदो खण्ड न करें।

    कृपा करके मुझे संरक्षण प्रदान करें।

    खरे: क्षुरप्रैर्दरयंस्तदापउत्पारपारं त्रिपरू रसायाम्‌ ।

    ददर्श गां तत्र सुघुप्सुरग्रेयां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त ॥

    ३०॥

    खुरै:--खुरों से; क्षुरप्रै:--तेज हथियार के समान; दरयन्‌--घुस कर; तत्‌--वह; आप:--जल; उत्पार-पारम्‌ू--असीम्‌ की सीमापा ली; त्रि-परुः--सभी यज्ञों का स्वामी; रसायामू--जल के भीतर; ददर्श--पाया; गाम्‌-- पृथ्वी को; तत्र--वहाँ; सुषुप्सु:--लेटे हुए; अग्रे--प्रारम्भ में; यामू--जिसको; जीव-धानीम्‌--सभी जीवों की विश्राम की स्थली; स्वयम्‌--स्वयं; अभ्यधत्त--ऊपर उठा लिया।

    भगवान्‌ वराह तीरों जैसे नुकीले अपने खुरों से जल में घुस गये और उन्होंने अथाह समुद्र कीसीमा पा ली।

    उन्होंने समस्त जीवों की विश्रामस्थली पृथ्वी को उसी तरह पड़ी देखा जिस तरहवह सृष्टि के प्रारम्भ में थी और उन्होंने उसे स्वयं ऊपर उठा लिया।

    स्वदंष्टयोद्धृत्य महीं निमग्नांस उत्थितः संरुरुचे रसाया: ।

    तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तंसुनाभसन्दीपिततीत्रमन्यु; ॥

    ३१॥

    स्व-दंष्टया--अपनी ही दाढ़ों से; उद्धृत्य--उठाकर; महीम्‌--पृथ्वी को; निमग्नामू--डूबी हुई; सः--उसने; उत्थित: -- ऊपरउठाकर; संरुरुचे--अतीव भव्य दिखाई पड़ा; रसाया:--जल से; तत्र--वहाँ; अपि-- भी; दैत्यम्‌-- असुर को; गदया--गदा से;आपतन्तम्‌--उसकी ओर दौड़ाते हुए; सुनाभ--कृष्ण का चक्र; सन्दीपित--चमकता हुआ; तीब्र-- भयानक; मन्यु:--क्रोध |

    भगवान्‌ वराह ने बड़ी ही आसानी से पृथ्वी को अपनी दाढ़ों में ले लिया और वे उसे जल से बाहर निकाल लाये।

    इस तरह वे अत्यन्त भव्य लग रहे थे।

    तब उनका क्रोध सुदर्शन चक्र कीतरह चमक रहा था और उन्होंने तुरन्त उस असुर ( हिरण्याक्ष ) को मार डाला, यद्यपि वह भगवान्‌से लड़ने का प्रयास कर रहा था।

    जघान रुन्धानमसहाविक्रमंस लीलयेभं॑ मृगराडिवाम्भसि ।

    तद्रक्तपड्डाद्डितगण्डतुण्डोयथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन्‌ ॥

    ३२॥

    जघान--वध किया; रुन्धानम्‌--अवरोध उत्पन्न करनेवाला शत्रु; असहा--असहनीय; विक्रमम्‌--पराक्रम; सः --उसने;लीलया--सरलतापूर्वक; इभम्‌--हाथी; मृग-राट्‌--सिंह; इब--सहश; अम्भसि--जल में; तत्‌-रक्त--उसके रक्त का; पड्ढू-अड्वित--कीचड़ से रँगा हुआ; गण्ड--गाल; तुण्ड:--जीभ; यथा--मानो; गजेन्द्र:--हाथी; जगतीम्‌--पृथ्वी को; विभिन्दन्‌--खोदते हुए

    तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ वराह ने उस असुर को जल के भीतर मार डाला जिस तरह एक सिंह हाथीको मारता है।

    भगवान्‌ के गाल तथा जीभ उस असुर के रक्त से उसी तरह रँगे गये जिस तरहहाथी नीललोहित पृथ्वी को खोदने से लाल हो जाता है।

    तमालनीलं सितदन्तकोट्याक्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाड़ु ।

    प्रज्ञाय बद्धाज्ललयोनुवाकै-विरिश्विमुख्या उपतस्थुरीशम्‌ ॥

    ३३॥

    तमाल--नीला वृक्ष जिसका नाम तमाल है; नीलम्‌--नीले रंग का; सित-- श्वेत; दन्‍्त--दाँत; कोट्या--टेढ़ी कोर वाला;क्ष्मामू-पृथ्वी; उत्क्षिपन्तमू--लटकाये हुए; गज-लीलया--हाथी की तरह क्रीड़ा करता; अड्ग--हे विदुर; प्रज्ञाय--इसे जान लेने पर; बद्ध--जोड़े हुए; अज्ञललयः--हाथ; अनुवाकै:--वैदिक मंत्रों से; विरिश्चि-- ब्रह्मा; मुख्या: --इत्यादि; उपतस्थु:--स्तुतिकी; ईशम्‌-- भगवान्

    ‌ के प्रतितब हाथी की तरह क्रीड़ा करते हुए भगवान्‌ ने पृथ्वी को अपने सफेद टेढ़े दाँतों के किनारेपर अटका लिया।

    उनके शरीर का वर्ण तमाल वृक्ष जैसा नीलाभ हो गया और तब ब्रह्मा इत्यादिऋषि उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ समझ सके और उन्होंने सादर नमस्कार किया।

    ऋषय ऊचु:जितं जितं तेडजित यज्ञभावनञ्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।

    यद्वोमगर्तेषु निलिल्युरद्धय-स्तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥

    ३४॥

    ऋषय: ऊचु:--यशस्वी ऋषि बोल पड़े; जितम्‌--जय हो; जितम्‌--जय हो; ते--तुम्हारी; अजित--हे न जीते जा सकने वाले;यज्ञ-भावन--यज्ञ सम्पन्न करने पर जाना जाने वाले; त्रयीम्‌--साक्षात्‌ वेद; तनुम्‌--ऐसा शरीर; स्वामू--अपना; परिधुन्वते--हिलाते हुए; नम:ः--नमस्कार; यत्‌--जिसके; रोम--रोएँ; गर्तेषु--छेदों में; निलिल्यु:--डूबे हुए; अद्धवः--सागर; तस्मै--उसको; नमः --नमस्कार करते हुए; कारण-सूकराय--सकारण शूकर विग्रह धारण करने वाले; ते--तुमको |

    सारे ऋषि अति आदर के साथ बोल पड़े' हे समस्त यज्ञों के अजेय भोक्ता, आपकी जयहो, जय हो, आप साक्षात्‌ वेदों के रूप में विचरण कर रहे हैं और आपके शरीर के रोमकूपों मेंसारे सागर समाये हुए हैं।

    आपने किन्हीं कारणों से ( पृथ्वी का उद्धार करने के लिए ) अब सूकरका रूप धारण किया है।

    रूप तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम्‌ ।

    छन्‍्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-स्वाज्यं दृशि त्वड्टप्रिषु चातुहोंत्रम्‌ ॥

    ३५॥

    रूपम्‌--स्वरूप; तब--तुम्हारा; एतत्‌--यह; ननु--लेकिन; दुष्कृत-आत्मनाम्‌--दुष्टात्माओं का; दुर्दर्शनम्‌ू--देख पाना कठिन;देव-हे प्रभु; यत्‌ू--वह; अध्वर-आत्मकम्‌--यज्ञ सम्पन्न करने के कारण पूजनीय; छन्दांसि--गायत्री तथा अन्य छंद; यस्य--जिसके; त्वचि--त्वचा का स्पर्श; बह्हि:--कुश नामक पवित्र घास; रोमसु--शरीर के रोएँ; आज्यम्‌--घी; दहशि--आँखों में;तु--भी; अद्प्रिषु--चारों पाँवों पर; चातुः-होत्रमू--चार प्रकार के सकाम कर्म |

    हे प्रभु, आपका स्वरूप यज्ञ सम्पन्न करके पूजा के योग्य है, किन्तु दुष्टात्माएँ इसे देख पाने मेंअसमर्थ हैं।

    गायत्री तथा अन्य सारे वैदिक मंत्र आपकी त्वचा के सम्पर्क में हैं।

    आपके शरीर केरोम कुश हैं, आपकी आँखें घृत हैं और आपके चार पाँव चार प्रकार के सकाम कर्म हैं।

    स्रक्तुण्ड आसीत्ख्रुव ईश नासयो-रिडोदरे चमसाः कर्णरन्श्रे ।

    प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु तेयच्चर्वणं ते भगवजन्नग्निहोत्रम्‌ू ॥

    ३६॥

    सत्रकू--यज्ञ का पात्र; तुण्डे--जीभ पर; आसीत्‌ू-- है; स्त्रुवः--यज्ञ का दूसरा पात्र; ईश-हे प्रभु; नासयो:--नथुनों का; इडा--खाने का पात्र; उदरे--पेट में; चमसा: --यज्ञ का अन्य पात्र, चम्मच; कर्ण-रन्ध्रे--कान के छेदों में; प्राशित्रमू--ब्रह्मा नामक पात्र; आस्ये--मुख में; ग्रसने-- गले में; ग्रहा: --सोम पात्र; तु--लेकिन; ते--तुम्हारा; यत्‌--जो; चर्वणम्‌--चबाना; ते--तुम्हारा; भगवन्‌--हे प्रभु; अग्नि-होत्रमू--अपनी यज्ञ-अग्नि के माध्यम से तुम्हारा भोजन है।

    हे प्रभु, आपकी जीभ यज्ञ का पात्र ( स्रक्‌ ) है, आपका नथुना यज्ञ का अन्य पात्र ( स्त्रुवा )है।

    आपके उदर में यज्ञ का भोजन-पात्र ( इडा ) है और आपके कानों के छिठ्रों में यज्ञ का अन्यपात्र ( चमस ) है ॥

    आपका मुख ब्रह्मा का यज्ञ पात्र (्‌ प्राशित्र ) है, आपका गला यज्ञ पात्र है,जिसका नाम सोमपात्र है तथा आप जो भी चबाते हैं वह अग्निहोत्र कहलाता है।

    दीक्षानुजन्मोपसद: शिरोधरंत्वं प्रायणीयोदयनीयदंप्र: ।

    जिह्ा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षक॑ क्रतो:सत्यावसथ्यं चितयोसवो हि ते ॥

    ३७॥

    दीक्षा--दीक्षा; अनुजन्म--आध्यात्मिक जन्म या बारम्बार अवतार; उपसदः--तीन प्रकार की इच्छाएँ ( सम्बन्ध, कर्म तथा चरमलक्ष्य ); शिर:-धरम्‌--गर्दन; त्वमू--तुम; प्रायणीय--दीक्षा के परिणाम के बाद; उदयनीय--इच्छाओं का अन्तिम संस्कार;दंष्टः --दाढ़ें; जिह्वा--जीभ; प्रवर्ग्य;--पहले के कार्य; तब--तुम्हारा; शीर्षकम्‌--सिर; क्रतोः--यज्ञ का; सत्य--यज्ञ के बिनाअग्नि; आवसशथ्यम्‌--पूजा की अग्नि; चितय:--समस्त इच्छाओं का समूह; असव:--प्राणवायु; हि--निश्चय ही; ते--तुम्हारा

    हे प्रभु, इसके साथ ही साथ सभी प्रकार की दीक्षा के लिए आपके बारम्बार प्राकट्य कीआकांक्षा भी है।

    आपकी गर्दन तीनों इच्छाओं का स्थान है और आपकी दाढ़ें दीक्षा-फल तथासभी इच्छाओं का अन्त हैं, आप की जिव्हा दीक्षा के पूर्व-कार्य हैं, आपका सिर यज्ञ रहित अग्नितथा पूजा की अग्नि है तथा आप की जीवनी-शक्ति समस्त इच्छाओं का समुच्चय है।

    सोमस्तु रेत: सवनान्यवस्थिति:संस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।

    सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धन: ॥

    ३८॥

    सोम: तु रेत:--आपका वीर्य सोमयज्ञ है; सवनानि--प्रातःकाल के अनुष्ठान; अवस्थिति:--शारीरिक वृद्धि की विभिन्नअवस्थाएँ; संस्था-विभेदा:--यज्ञ के सात प्रकार; तब--तुम्हारा; देव--हे प्रभु; धातवः--शरीर के अवयव यथा त्वचा एवं मांस;सत्राणि--बारह दिनों तक चलने वाले यज्ञ; सर्वाणि--सारे; शरीर--शारीरिक; सन्धि:--जोड़; त्वमू--आप; सर्व--समस्त;यज्ञ--असोम यज्ञ; क्रतु:--सोम यज्ञ; इष्टि--चरम इच्छा; बन्धन:--आसक्ति |

    हे प्रभु, आपका वीर्य सोम नामक यज्ञ है।

    आपकी वृद्धि प्रातःकाल सम्पन्न किये जाने वालेकर्मकाण्डीय अनुष्ठान हैं।

    आपकी त्वचा तथा स्पर्श अनुभूति अग्निष्टोम यज्ञ के सात तत्त्व हैं।

    आपके शरीर के जोड़ बारह दिनों तक किये जाने वाले विविध यज्ञों के प्रतीक हैं।

    अतएव आपसोम तथा असोम नामक सभी यज्ञों के लक्ष्य हैं और आप एकमात्र यज्ञों से बंधे हुए हैं।

    नमो नमस्ते खिलमन्त्रदेवता-द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।

    वैराग्यभक्त्यात्मजयानु भावित-ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥

    ३९॥

    नमः नमः--नमस्कार है; ते--आपको, जो कि आराध्य है; अखिल--सभी सम्मिलित रूप से; मन्त्र--मंत्र; देवता-- भगवान्‌;द्रव्याय--यज्ञ सम्पन्न करने की समस्त सामग्रियों को; सर्व-क्रतवे--सभी प्रकार के यज्ञों को; क्रिया-आत्मने-- सभी यज्ञों केपरम रूप आपको; वैराग्य--वैराग्य; भक्त्या--भक्ति द्वारा; आत्म-जय-अनुभावित--मन को जीतने पर अनुभूत किए जानेवाले; ज्ञानाय--ऐसे ज्ञान को; विद्या-गुरवे--समस्त ज्ञान के परम गुरु को; नमः नमः--मैं पुनः सादर नमस्कार करता हूँ।

    हे प्रभु, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं और वैश्विक-प्रार्थनाओं, वैदिक मंत्रों तथा यज्ञ कीसामग्री द्वारा पूजनीय हैं।

    हम आपको नमस्कार करते हैं।

    आप समस्त हृश्य तथा अदृश्य भौतिककल्मष से मुक्त शुद्ध मन द्वारा अनुभवगम्य हैं।

    हम आपको भक्ति-योग के ज्ञान के परम गुरु केरूप में सादर नमस्कार करते हैं।

    दंष्टाग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृताविराजते भूधर भू: सभूधरा ।

    यथा वनान्निःसरतो दता धृतामतड़जेन्द्रस्थ सपत्रपदिनी ॥

    ४०॥

    दंट्र-अग्र--दाढ़ के अगले भाग; कोट्या--किनारों के द्वारा; भगवन्‌--हे भगवान्‌; त्ववा--आपके द्वारा; धृता--धारण किया;विराजते--सुन्दर ढंग से स्थित है; भू-धर--हे पृथ्वी के उठाने वाले; भू:--पृथ्वी; स-भूधरा--पर्वतों सहित; यथा--जिस तरह;वनातू--जल से; निःसरतः--बाहर आते हुए; दता--दाँत से; धृता--पकड़े हुए है; मतम्‌-गजेन्द्रस्थ--क्रुद्ध हाथी; स-पत्र--पत्तियों सहित; पद्चिनी--कमलिनी |

    हे पृथ्वी के उठाने वाले, आपने जिस पृथ्वी को पर्वतों समेत उठाया है, वह उसी तरह सुन्दरलग रही है, जिस तरह जल से बाहर आने वाले क्रुद्ध हाथी के द्वारा धारण की गई पत्तियों सेयुक्त एक कमलिनी।

    तअ्रयीमयं रूपमिदं च सौकरंभूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।

    चकास्ति श्रृड्रेडघनेन भूयसाकुलाचलेन्द्रस्य यथेव विभ्रम: ॥

    ४१॥

    त्रयी-मयम्‌--साक्षात्‌ वेद; रूपम्‌--स्वरूप; इदम्‌ू--यह; च-- भी; सौकरम्‌--सूकर का; भू-मण्डलेन-- भूलोक द्वारा; अथ--अब; दता--दाढ़ के द्वारा; धृतेन-- धारण किया गया; ते--तुम्हारी; चकास्ति--चमक रही है; श्रूड़ु-ऊढ--शिखरों द्वारा धारित;घनेन--बादलों द्वारा; भूयसा--अत्यधिक मंडित; कुल-अचल-इन्द्रस्य--विशाल पर्वतों के; यथा--जिस तरह; एब--निश्चयही; विभ्रम:--अलंकरण

    हे प्रभु, जिस तरह बादलों से अलंकृत होने पर विशाल पर्वतों के शिखर सुन्दर लगने लगतेहैं उसी तरह आपका दिव्य शरीर सुन्दर लग रहा है, क्योंकि आप पृथ्वी को अपनी दाढ़ों के सिरेपर उठाये हुए हैं।

    संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषांलोकाय पत्नीमसि मातरं पिता ।

    विधेम चास्यै नमसा सह त्वयायस्यां स्वतेजोग्निमिवारणावधा: ॥

    ४२॥

    संस्थापय एनाम्‌ू--इस पृथ्वी को उठाओ; जगताम्‌--चर; स-तस्थुषाम्‌--तथा अचर दोनों; लोकाय--उनके निवास स्थान केलिए; पतीम्‌--पतली; असि--हो; मातरमू--माता; पिता--पिता; विधेम--हम अर्पित करते हैं; च-- भी; अस्यै--माता को;नमसा--नमस्कार; सह--समेत; त्वया--तुम्हारे साथ; यस्याम्‌ू--जिसमें; स्व-तेज:-- अपनी शक्ति द्वारा; अग्निमू-- अग्नि;इब--सहश; अरणौ--अरणि काष्ठ में; अधा:--निहित |

    हे प्रभु, यह पृथ्वी चर तथा अचर दोनों प्रकार के निवासियों के रहने के लिए आपकी पत्नीहै और आप परम पिता हैं।

    हम उस माता पृथ्वी समेत आपको सादर नमस्कार करते हैं जिसमेंआपने अपनी शक्ति स्थापित की है, जिस तरह कोई दक्ष यज्ञकर्ता अरणि काष्ट में अग्नि स्थापितकरता है।

    'कः श्रद्धीतान्यतमस्तव प्रभोरसां गताया भुव उद्विबरहणम्‌ ।

    न विस्मयोसौ त्वयि विश्वविस्मयेयो माययेदं ससृजेडतिविस्मयम्‌ ॥

    ४३॥

    कः--और कौन; श्रदधीत-- प्रयास कर सकता है; अन्यतम:--आपके अतिरिक्त अन्य कोई; तब--तुम्हारा; प्रभो--हे प्रभु;रसाम्‌--जल में; गताया:--पड़ी हुई; भुवः--पृथ्वी को; उद्विबहणम्‌--उद्धार; न--कभी नहीं; विस्मय:--आश्चर्यमय; असौ--ऐसा कार्य; त्वयि--तुमको; विश्व--विश्व के ; विस्मये--आश्चर्यों से पूर्ण; यः--जो; मायया--शक्तियों द्वारा; इदमू--यह;ससृजे--उत्पन्न किया; अतिविस्मयमू--सभी आश्चर्यो से बढ़कर।

    हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो जल के भीतर से पृथ्वी काउद्धार कर सकता? किन्तु यह आपके लिए बहुत आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि ब्रह्माण्ड केसृजन में आपने अति अद्भुत कार्य किया है।

    अपनी शक्ति से आपने इस अद्भुत विराट जगतकी सृष्टि की है।

    विधुन्वता वेदमयं निजं वबपु-ज॑नस्तपःसत्यनिवासिनो वयम्‌ ।

    सटाशिखोद्धूतशिवाम्बुबिन्दुभि-विंमृज्यमाना भूशमीश पाविता: ॥

    ४४॥

    विधुन्वता--हिलाते हुए; वेद-मयम्‌--साक्षात्‌ वेद; निजमू--अपना; वपु:--शरीर; जन:ः--जनलोक; तप:--तपोलोक; सत्य--सत्यलोक; निवासिन:--निवासी; वयम्‌--हम; सटा--कन्धे तक लटकते बाल; शिख-उद्धृूत--चोटी ( शिखा ) के द्वारा धारणकिया हुआ; शिव--शुभ; अम्बु--जल; बिन्दुभि:--कणों के द्वारा; विमृज्यमाना: --छिड़के जाते हुए हम; भृूशम्‌--अत्यधिक;ईश--हे परमेश्वर; पाविता:--पवित्र किये गये।

    हे परमेश्वर, निस्सन्देह, हम जन, तप तथा सत्य लोकों जैसे अतीव पवित्र लोकों के निवासीहैं फिर भी हम आपके शरीर के हिलने से आपके कंधों तक लटकते बालों के द्वारा छिड़के गएजल की बूँदों से शुद्ध बन गये हैं।

    सबेै बत भ्रष्टमतिस्तवैषतेयः कर्मणां पारमपारकर्मण: ।

    यदोगमायागुणयोगमोहितंविश्व समस्‍्तं भगवन्विधेहि शम्‌ ॥

    ४५॥

    सः--वह; वै--निश्चय ही; बत--हाय; भ्रष्टटमति:--मतिक्रष्ट, मूर्ख; तब--तुम्हारी; एघते--इच्छाएँ; यः--जो; कर्मणाम्‌--कर्मो का; पारम्‌ू--सीमा; अपार-कर्मण:--असीम कर्मों वाले का; यत्‌--जिससे; योग--योगशक्ति; माया--शक्ति; गुण--भौतिक प्रकृति के गुण; योग--योग शक्ति; मोहितम्‌--मोह ग्रस्त; विश्वम्‌-ब्रह्माण्ड; समस्तम्‌--सम्पूर्ण; भगवन्‌--हे भगवान्‌;विधेहि--वर दें; शम्‌--सौ भाग्य ।

    हे प्रभु, आपके अदभुत कार्यों की कोई सीमा नहीं है।

    जो भी व्यक्ति आपके कार्यों कीसीमा जानना चाहता है, वह निश्चय ही मतिशभ्रष्ट है।

    इस जगत में हर व्यक्ति प्रबल योगशक्तियों सेबँधा हुआ है।

    कृपया इन बद्धजीवों को अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान करें।

    मैत्रेय उवाचइत्युपस्थीयमानोसौ मुनिभि्रह्ववादिभि: ।

    सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम्‌ ॥

    ४६॥

    मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; इति--इस प्रकार; उपस्थीयमान: --प्रशंसित होकर; असौ-- भगवान्‌ वराह; मुनिभि:--मुनियों द्वारा; ब्रह्य-वादिभि:--अध्यात्मवादियों द्वारा; सलिले--जल में; स्व-खुर-आक्रान्ते-- अपने ही खुरों से स्पर्श हुआ;उपाधत्त--रखा; अविता--पालनकर्ता; अवनिम्‌--पृथ्वी को |

    मैत्रेय मुनि ने कहा : इस तरह समस्त महर्षियों तथा दिव्यात्माओं के द्वारा पूजित होकरभगवान्‌ ने अपने खुरों से पृथ्वी का स्पर्श किया और उसे जल पर रख दिया।

    स इत्थं भगवानुर्वी विष्वक्सेन: प्रजापति: ।

    रसाया लीलयोन्नीतामप्सु न्यस्य ययौ हरि; ॥

    ४७॥

    सः--वह; इत्थम्‌--इस तरह से; भगवान्‌-- भगवान्‌; उर्बीम्‌-पृथ्वी को; विष्वक्सेन:--विष्णु का अन्य नाम; प्रजा-पति: --जीवों के स्वामी; रसाया:--जल के भीतर से; लीलया--आसानी से; उन्नीताम्‌ू--उठाया हुआ; अप्सु--जल में; न्यस्य--रखकर;ययौ--अपने धाम लौट गये; हरि: -- भगवान्

    ‌इस प्रकार से समस्त जीवों के पालनहार भगवान्‌ विष्णु ने पृथ्वी को जल के भीतर सेउठाया और उसे जल के ऊपर तैराते हुए रखकर वे अपने धाम को लौट गये।

    य एवमेतां हरिमेधसो हरेःकथां सुभद्रां कथनीयमायिन: ।

    श्रण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतींजनार्दनोस्याशु हृदि प्रसीदति ॥

    ४८ ॥

    यः--जो; एवम्‌--इस प्रकार; एताम्‌--यह; हरि-मेधस:-- भक्त के भौतिक शरीर को विनष्ट करनेवाला; हरेः --भगवान्‌ की;कथाम्‌--कथा; सु-भद्रामू--मंगलकारी; कथनीय--कहने योग्य; मायिन: --उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा कृपालु का;श्रुण्वीत--सुनता है; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; श्रवयेत--अन्यों को भी सुनाता है; वा-- अथवा; उशतीम्‌--अत्यन्त सुहावना;जनार्दन:--भगवान्‌; अस्य--उसका; आशु--तुरन्‍्त; हृदि--हृदय के भीतर; प्रसीदति--प्रसन्न हो जाता है।

    यदि कोई व्यक्ति भगवान्‌ वराह की इस शुभ एवं वर्णनीय कथा को भक्तिभाव से सुनता हैअथवा सुनाता है, तो हर एक के हृदय के भीतर स्थित भगवान्‌ अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।

    तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौकिं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभि: ।

    अनन्यहदृष्टय्या भजतां गुहाशय:स्वयं विधत्ते स्वगतिं पर: पराम्‌ ॥

    ४९॥

    तस्मिन्‌ू--उन; प्रसन्ने--प्रसन्न होने पर; सकल-आशिषाम्‌--सारे आशीर्वादों का; प्रभौ-- भगवान्‌ को; किम्‌--वह क्‍या है;दुर्लभम्‌-प्राप्त कर सकना अतीव कठिन; ताभि:--उनके साथ; अलम्‌--दूर; लब-आत्मभि:--क्षुद्र लाभ सहित; अनन्य-इष्यया--अन्य कुछ से नहीं अपितु भक्ति से; भजताम्‌-भक्ति में लगे हुओं का; गुहा-आशय: --हृदय के भीतर निवास करनेवाले; स्वयम्‌--स्वयं; विधत्ते--सम्पन्न करता है; स्व-गतिम्‌--अपने धाम में; पर:--परम; पराम्‌ू--दिव्य |

    जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहींरहता।

    दिव्य उपलब्धि के द्वारा मनुष्य अन्य प्रत्येक वस्तु को नगण्य मानता है।

    जो व्यक्ति दिव्यप्रेमाभक्ति में अपने को लगाता है, वह हर व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान्‌ के द्वारा सर्वोच्चसिद्धावस्था तक ऊपर उठा दिया जाता है।

    को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्‌पुराकथानां भगवत्कथासुधाम्‌ ।

    आपीय कर्णाज्जलिभिर्भवापहा-महो विरज्येत विना नरेतरम्‌ ॥

    ५०॥

    कः--कौन; नाम--निस्सन्देह; लोके--संसार में; पुरुष-अर्थ--जीवन-लक्ष्य; सार-वित्‌--सार को जानने वाला; पुरा-कथानाम्‌--सारे विगत इतिहासों में; भगवत्‌-- भगवान्‌ विषयक; कथा-सुधाम्‌-- भगवान्‌ विषयक कथाओं का अमृत;आपीय--पीकर; कर्ण-अद्जलिभि:--कानों के द्वारा ग्रहण करके; भव-अपहाम्‌--सारे भौतिक तापों को नष्ट करने वाला;अहो--हाय; विरज्येत--मना कर सकता है; विना--बिना; नर-इतरम्‌--मनुष्येतर प्राणी ।

    बेइन्गूमनुष्य के अतिरिक्त ऐसा प्राणी कौन है, जो इस जगत में विद्यमान हो और जीवन के चरमलक्ष्य के प्रति रुचि न रखता हो? भला कौन ऐसा है, जो भगवान्‌ के कार्यो से सम्बन्धित उनकथाओं के अमृत से मुख मोड़ सके जो मनुष्य को समस्त भौतिक तापों से उबार सकती हैं ?

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    अध्याय चौदह: सायंकाल दिति का गर्भाधान

    3.14श्रीशुक उबाचनिशम्य कौषारविणोपवर्णितांहरे: कथां कारणसूकरात्मन: ।

    पुनः स पप्रच्छ तमुद्यताझ्ञलि-न॑ चातितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; निशम्य--सुनकर; कौषारविणा--मैत्रेय मुनि द्वारा; उपवर्णिताम्‌--वर्णित;हरेः --भगवान्‌ की; कथाम्‌--कथा; कारण--पृथ्वी उठाने के कारण; सूकर-आत्मन:--सूकर अवतार; पुन:--फिर; सः--उसने; पप्रच्छ--पूछा; तम्‌--उस ( मैत्रेय ) से; उद्यत-अद्जधलि: --हाथ जोड़े हुए; न--कभी नहीं; च-- भी; अति-तृप्त:--अत्यधिक तुष्ट; विदुर:--विदुर; धृत-ब्रत:--ब्रत लिए हुए।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महर्षि मैत्रेय से वराह रूप में भगवान्‌ के अवतार के विषय मेंसुनकर हढ़संकल्प विदुर ने हाथ जोड़कर उनसे भगवान्‌ के अगले दिव्य कार्यो के विषय मेंसुनाने की प्रार्थना की, क्योंकि वे ( विदुर ) अब भी तुष्ट अनुभव नहीं कर रहे थे।

    विदुर उबाचतेनेव तु मुनिश्रेष्ठ हरिणा यज्ञमूर्तिना ।

    आदिदैत्यो हिरण्याक्षो हत इत्यनुशुश्रुम ॥

    २॥

    विदुरः उबाच-- श्री विदुर ने कहा; तेन--उसके द्वारा; एब--निश्चय ही; तु--लेकिन; मुनि-श्रेष्ठ--हे मुनियों में श्रेष्ठ; हरिणा--भगवान्‌ द्वारा; यज्ञ-मूर्तिना--यज्ञ का स्वरूप; आदि--मूल; दैत्य:--असुर; हिरण्याक्ष:--हिरण्याक्ष नामक; हतः--मारा गया;इति--इस प्रकार; अनुशु श्रुम-- उसी क्रम में सुना है

    श्री विदुर ने कहा : हे मुनिश्रेष्ठ, मैंने शिष्य-परम्परा से यह सुना है कि आदि असुर हिरण्याक्षउन्हीं यज्ञ रूप भगवान्‌ ( वराह ) द्वारा मारा गया था।

    तस्य चोद्धरतः क्षौणीं स्वदंष्टाग्रेण लीलया ।

    दैत्यराजस्य च ब्रहान्कस्माद्धेतोरभून्मूधथ: ॥

    ३॥

    तस्य--उसका; च-- भी ; उद्धरतः--उठाते हुए; क्षौणीम्‌-- पृथ्वी लोक को; स्व-दंष्ट-अग्रेण--अपनी दाढ़ के सिरे से;लीलया--अपनी लीला में; दैत्य-राजस्य--दैत्यों के राजा का; च--तथा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; कस्मात्‌--किस; हेतो:-- कारणसे; अभूत्‌--हुआ; मृध:--युद्ध |

    हे ब्राह्मण, जब भगवान्‌ अपनी लीला के रूप में पृथ्वी ऊपर उठा रहे थे, तब उस असुरराजतथा भगवान्‌ वराह के बीच, युद्ध का क्या कारण था ?

    अ्रददधानाय भक्ताय ब्रूहि तज्जन्मविस्तरम्‌ ।

    ऋषे न तृप्यति मनः परं कौतूहलं हि मे ॥

    ४॥

    श्रह्धानाय-- श्रद्धावान पुरुष के लिए; भक्ताय--भक्त के लिए; ब्रूहि--कृपया बतलाएँ; तत्‌--उसका; जन्म--आविर्भाव;विस्तरम्‌--विस्तार से; ऋषे--हे ऋषि; न--नहीं; तृप्पति--सन्तुष्ट होता है; मनः--मन; परम्‌ू--अत्यधिक; कौतूहलम्‌--जिज्ञासु; हि--निश्चय ही; मे--मेरा |

    मेरा मन अत्यधिक जिज्ञासु बन चुका है, अतएवं भगवान्‌ के आविर्भाव की कथा सुन करमुझे तुष्टि नहीं हो रही है।

    इसलिए आप इस श्रद्धावान्‌ भक्त से और अधिक कहें।

    ह कि जज तः कि सर कर न नमैत्रेय उवाचसाधु वीर त्वया पृष्टमवतारकथां हरे: ।

    यच्त्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाशविशातनीम्‌ ॥

    ५॥

    मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; साधु-- भक्त; वीर--हे योद्धा; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; पृष्टम[--पूछी गयी; अवतार-कथाम्‌--अवतार की कथाएँ; हरेः-- भगवान्‌ की; यत्‌--जो; त्वमू--तुम स्वयं; पृच्छसि--मुझसे पूछ रहे हो; मर्त्यानाम्‌--मर्त्यों के; मृत्यु-पाश--जन्म-मृत्यु की श्रृंखला; विशातनीम्‌--मोक्ष का स्त्रोत

    महर्षि मैत्रेय ने कहा : हे योद्धा, तुम्हारे द्वारा की गई जिज्ञासा एक भक्त के अनुरूप है,क्योंकि इसका सम्बन्ध भगवान्‌ के अवतार से है।

    वे मर्त्यों को जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से मोक्षदिलाने वाले हैं।

    ययोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।

    मृत्यो: कृत्वैव मूर्ध्न्यड्प्रिमारुरोह हरे: पदम्‌ ॥

    ६॥

    यया--जिससे; उत्तानपदः--राजा उत्तानपाद; पुत्र:--पुत्र; मुनिना--मुनि द्वारा; गीतया--गाया जाकर; अर्भक:--शिशु;मृत्यो:--मृत्यु का; कृत्वा--रखते हुए; एव--निश्चय ही; मूर्थ्नि--सिर पर; अड्प्रिमू-पाँव; आरुरोह--चढ़ गया; हरे: --भगवान्‌ के; पदम्‌-- धाम तक।

    इन कथाओं को मुनि ( नारद ) से सुनकर राजा उत्तानपाद का पुत्र ( ध्रुव ) भगवान्‌ के विषयमें प्रबुद्ध हो सका और मृत्यु के सिर पर पाँव रखते हुए वह भगवान्‌ के धाम पहुँच गया।

    अथात्रापीतिहासोयं श्रुतो मे वर्णित: पुरा ।

    ब्रह्मणा देवदेवेन देवानामनुपृच्छताम्‌ ॥

    ७॥

    अथ--अब; अत्र--इस विषय में; अपि-- भी; इतिहास:--इतिहास; अयम्‌--यह; श्रुतः--सुना हुआ; मे--मेरे द्वारा; वर्णित: --वर्णित; पुरा--वर्षो बीते; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; देव-देवेन--देवताओं में अग्रणी; देवानामू--देवताओं द्वारा; अनुपृच्छताम्‌--पूछने पर

    वराह रूप भगवान्‌ तथा हिरण्याक्ष असुर के मध्य युद्ध का यह इतिहास मैंने बहुत वर्षों पूर्वतब सुना था जब यह देवताओं के अग्रणी ब्रह्मा द्वारा अन्य देवताओं के पूछे जाने पर वर्णनकिया गया था।

    दिति्दाक्षायणी क्षत्तर्मारीचं कश्यपं पतिम्‌ ।

    अपत्यकामा चकमे सन्ध्यायां हच्छयार्दिता ॥

    ८॥

    दिति:ः--दिति; दाक्षायणी--दक्ष कन्या; क्षत्त:--हे विदुर; मारीचम्‌--मरीचि का पुत्र; कश्यपम्‌--कश्यप से; पतिमू-- अपनेपति; अपत्य-कामा--सन्तान की इच्छुक; चकमे--इच्छा की; सन्ध्यायाम्‌--सायंकाल; हत्‌-शय--यौन इच्छा से; अर्दिता--पीड़ित

    दक्ष-कन्या दिति ने कामेच्छा से पीड़ित होकर संध्या के समय अपने पति मरीचि पुत्र कश्यपसे सन्तान उत्पन्न करने के उद्देश्य से संभोग करने के लिए प्रार्थना की।

    इष्ठाग्निजिह्नं पयसा पुरुषं यजुषां पतिम्‌ ।

    निम्लोचत्यर्क आसीनमग्न्यगारे समाहितम्‌ ॥

    ९॥

    इश्ला--पूजा करके; अग्नि--अग्नि; जिहम्‌-- जीभ को; पयसा--आहुति से; पुरुषम्‌--परम पुरुष को; यजुषाम्‌--समस्त यज्ञोंके; पतिम्‌--स्वामी; निम्लोचति--अस्त होते हुए; अर्के-- सूर्य; आसीनम्‌--बैठे हुए; अग्नि-अगारे--यज्ञशाला में;समाहितम्‌-पूर्णतया समाधि में |

    सूर्य अस्त हो रहा था और मुनि भगवान्‌ विष्णु को, जिनकी जीभ यज्ञ की अग्नि है, आहुतिदेने के बाद समाधि में आसीन थे।

    दितिरुवाचएष मां त्वत्कृते विद्वन्काम आत्तशरासन: ।

    दुनोति दीनां विक्रम्य रम्भामिव मतड़ज: ॥

    १०॥

    दितिः उबाच--सुन्दरी दिति ने कहा; एष:--ये सब; माम्‌--मुझको; त्वत्‌ू-कृते--आपके लिए; विद्वनू--हे विद्वान; काम: --कामदेव; आत्त-शरासन:--अपने तीर लेकर; दुनोति--पीड़ित करता है; दीनाम्‌ू--मुझ दीना को; विक्रम्य--आक्रमण करके;रम्भामू-केले के वृक्ष पर; इब--सह्ृश; मतम्‌-गज: --उन्मत्त हाथी

    उस स्थान पर सुन्दरी दिति ने अपनी इच्छा व्यक्त की : हे विद्वान, कामदेव अपने तीर लेकरमुझे बलपूर्वक उसी तरह सता रहा है, जिस तरह उन्मत्त हाथी एक केले के वृक्ष को झकझोरताहै।

    तद्धवान्दह्ममानायां सपत्लीनां समृद्द्धिभि: ।

    प्रजावतीनां भद्गं ते मय्यायुड्ुमनुग्रहम्‌ ॥

    ११॥

    ततू--इसलिए; भवान्‌--आप; दह्ममानायाम्‌--सताई जा रही; स-पत्लीनाम्‌ू--सौतों की; समृद्द्धभि: --समृद्धि द्वारा; प्रजा-वतीनाम्‌--सन्तान वालियों की; भद्गमू--समस्त समृद्धि; ते--तुमको; मयि--मुझको; आयुद्धाम्‌--सभी तरह से, मुझपर करें;अनुग्रहम्‌ू--कृपा।

    अतएव आपको मुझ पर पूर्ण दया दिखाते हुए मेरे प्रति कृपालु होना चाहिए मुझे पुत्र प्राप्तकरने की चाह है और मैं अपनी सौतों का ऐश्वर्य देखकर अत्यधिक व्यथित हूँ।

    इस कृत्य कोकरने से आप सुखी हो सकेंगे।

    भर्तर्याप्तीरुमानानां लोकानाविशते यश: ।

    पतिर्भवद्विधो यासां प्रजया ननु जायते ॥

    १२॥

    भर्तरि--पति द्वारा; आप्त-उरुमानानामू्‌-- प्रेयसियों का; लोकानू--संसार में; आविशते--फैलता है; यश: --यश; पति:-- पति;भवत्ू-विध:--आपकी तरह; यासाम्‌--जिसकी; प्रजया--सन्तानों द्वारा; ननु--निश्चय ही; जायते--विस्तार करता है।

    एक स्त्री अपने पति के आशीर्वाद से संसार में आदर पाती है और सन्‍्तानें होने से आप जैसा पतिप्रसिद्धि पाएगा, क्योंकि आप जीवों के विस्तार के निमित्त ही हैं।

    पुरा पिता नो भगवान्दक्षो दुहितृवत्सल: ।

    कं वृणीत वरं वत्सा इत्यपृच्छत नः पृथक्‌ ॥

    १३॥

    पुरा--बुहत काल पूर्व; पिता--पिता; न:--हमारा; भगवान्‌--अत्यन्त ऐश्वर्यवान्‌; दक्ष:--दक्ष; दुहितृ-वत्सलः --अपनी पुत्रियोंके प्रति स्नेहिल; कम्‌--किसको; वृणीत--तुम स्वीकार करना चाहते हो; वरम्‌--अपना पति; वत्सा:--हे मेरी सन्‍्तानो; इति--इस प्रकार; अपृच्छत--पूछा; न:--हमसे; पृथक्‌ू--अलग अलग

    बहुत काल पूर्व अत्यन्त ऐश्वर्यवान हमारे पिता दक्ष ने, जो अपनी पुत्रियों के प्रति अत्यन्तवत्सल थे, हममें से हर एक को अलग अलग से पूछा कि तुम किसे अपने पति के रूप में चुननाचाहोगी।

    स विदित्वात्मजानां नो भावं सनन्‍्तानभावन: ।

    त्रयोदशाददात्तासां यास्ते शीलमनुत्रता: ॥

    १४॥

    सः--दक्ष; विदित्वा--समझ करके; आत्म-जानाम्‌--अपनी पुत्रियों के; न:--हमारा; भावम्‌--संकेत; सन्‍्तान--सन्तानों का;भावन:--हितैषी; त्रयोदश--तेरह; अददातू-- प्रदान किया; तासामू--उन सबों का; या:--जो हैं; ते--तुम्हारे; शीलम्‌--आचरण; अनुक्रता:--सभी आज्ञाकारिणी |

    हमारे शुभाकांक्षी पिता दक्ष ने हमारे मनोभावों को जानकर अपनी तेरहों कन्याएँ आपकोसमर्पित कर दीं और तबसे हम सभी आपकी आज्ञाकारिणी रही हैं।

    अथ मे कुरु कल्याणं कामं कमललोचन ।

    आर्तेपसर्पणं भूमन्नमोघं हि महीयसि ॥

    १५॥

    अथ--इसलिए; मे--मेरा; कुरू--कीजिये; कल्याणम्‌--कल्याण; कामम्‌--इच्छा; कमल-लोचन--हे कमल सहश नेत्र वाले;आर्त--पीड़ित; उपसर्पणम्‌--निकट आना; भूमन्‌--हे महान्‌; अमोघम्‌--जो विफल न हो; हि--निश्चय ही; महीयसि--महापुरुष के प्रति।

    है कमललोचन, कृपया मेरी इच्छा पूरी करके मुझे आशीर्वाद दें।

    जब कोई त्रस्त होकरकिसी महापुरुष के पास पहुँचता है, तो उसकी याचना कभी भी व्यर्थ नहीं होनी चाहिए।

    इति तां बीर मारीचः कृपणां बहुभाषिणीम्‌ ।

    प्रत्याहानुनयन्वाचा प्रवृद्धानड्रकश्मलाम्‌ ॥

    १६॥

    इति--इस प्रकार; तामू--उस; वीर--हे वीर; मारीच: --मरीचि पुत्र ( कश्यप ); कृपणाम्‌--निर्धन को; बहु-भाषिणीम्‌--अत्यधिक बातूनी को; प्रत्याह--उत्तर दिया; अनुनयन्‌--शान्त करते हुए; वाचा--शब्दों से; प्रवृद्ध--अत्यधिक उत्तेजित;अनड्ु--कामवासना; कश्मलामू--दूषित |

    हे वीर ( विदुर ), इस तरह कामवासना के कल्मष से ग्रस्त, और इसलिए असहाय एवंबड़बड़ाती हुई दिति को मरीचिपुत्र ने समुचित शब्दों से शान्त किया।

    एघ तेहं विधास्यामि प्रियं भीरु यदिच्छसि ।

    तस्या: कामं॑ न कः कुर्यात्सिद्धिस्त्रेवर्गिकी यत: ॥

    १७॥

    एष:--यह; ते--तुम्हारी विनती; अहम्‌--मैं; विधास्थामि--सम्पन्न करूँगा; प्रियम्‌--अत्यन्त प्रिय; भीरू--हे डरी हुई; यत्‌--जो; इच्छसि--तुम चाह रही हो; तस्या:--उसकी ; कामम्‌--इच्छाएँ; न--नहीं; कः-- कौन; कुर्यात्‌ू--करेगा; सिद्धि: --मुक्तिकी सिद्धि; त्रैवर्गिकी-- तीन; यतः--जिससे |

    हे भीरु, तुम्हें जो भी इच्छा प्रिय हो उसे मैं तुरन्त तृप्त करूँगा, क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्तमुक्ति की तीन सिद्धियों का स्रोत और कौन है?

    सर्वाश्रमानुपादाय सवा श्रमेण कलत्रवान्‌ ।

    व्यसनार्णवमत्येति जलयानैर्यथार्णवम्‌ ॥

    १८ ॥

    सर्व--समस्त; आश्रमान्‌--सामाजिक व्यवस्थाओं, आश्रमों को; उपादाय--पूर्ण करके; स्व--अपने; आश्रमेण-- आश्रमों केद्वारा; कलत्र-वान्‌ू--अपनी पत्नी के साथ रहने वाला व्यक्ति; व्यसन-अर्गवम्‌--संसार रूपी भयावह सागर; अत्येति--पार करसकता है; जल-यानै:--समुद्री जहाजों द्वारा; यथा--जिस तरह; अर्णवम्‌--समुद्र को

    जिस तरह जहाजों के द्वारा समुद्र को पार किया जा सकता है उसी तरह मनुष्य पत्नी के साथरहते हुए भवसागर की भयावह स्थिति से पार हो सकता है।

    यामाहुरात्मनो ह्ार्थ श्रेयस्कामस्थ मानिनि ।

    यस्यां स्वधुरमध्यस्य पुमां श्वरति विज्वर: ॥

    १९॥

    याम्‌--जिस पत्नी को; आहुः--कहा जाता है; आत्मन:--शरीर का; हि--इस प्रकार; अर्धम्‌--आधा; श्रेय:--कल्याण;कामस्य--सारी इच्छाओं का; मानिनि--हे आदरणीया; यस्याम्‌--जिसमें; स्व-धुरम्‌--सारे उत्तरदायित्व; अध्यस्य--सौंपकर;पुमान्‌--पुरुष; चरति--भ्रमण करता है; विज्वर: --निश्चिन्तहै

    आदरणीया, पत्नी इतनी सहायताप्रद होती है कि वह मनुष्य के शरीर की अर्धांगिनीकहलाती है, क्योंकि वह समस्त शुभ कार्यों में हाथ बँटाती है।

    पुरुष अपनी पत्नी परजिम्मेदारियों का सारा भार डालकर निश्चिन्त होकर विचरण कर सकता है।

    यामाश्रित्येन्द्रियारातीन्दुर्जयानितरा श्रमै: ।

    वयं जयेम हेलाभिर्दस्यून्दुर्गपतिर्यथा ॥

    २०॥

    याम्‌ू--जिसको; आश्नित्य--आश्रय बनाकर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अरातीन्‌--शत्रुगण; दुर्जवान्‌ू--जीत पाना कठिन; इतर--गृहस्थों के अतिरिक्त; आश्रमैः--आश्रमों द्वारा; वबम्‌--हम; जयेम--जीत सकते हैं; हेलाभि:-- आसानी से; दस्यून्‌--आक्रमणकारी लुटेरों को; दुर्ग-पति:--किले का सेनानायक; यथा--जिस तरह |

    जिस तरह किले का सेनापति आक्रमणकारी लुटेरों को बहुत आसानी से जीत लेता है उसीतरह पत्नी का आश्रय लेकर मनुष्य उन इन्द्रियों को जीत सकता है, जो अन्य आश्रमों में अजेयहोती हैं।

    न वयं प्रभवस्तां त्वामनुकर्तु गृहे श्वरि ।

    अप्यायुषा वा कार्त्स्येन ये चान्ये गुणगृध्नवः ॥

    २१॥

    न--कभी नहीं; वयम्‌--हम; प्रभव:--समर्थ हैं; तामू--उस; त्वामू--तुमको; अनुकर्तुमू--वही करने के लिए; गृह-ईश्वरि--हेघर की रानी; अपि--के बावजूद; आयुषा--आयु के द्वारा; वा--अथवा ( अगले जन्म में ); कार्त्स्येन--सम्पूर्ण; ये--जो;च--भी; अन्ये-- अन्य; गुण-गृध्नव: --गुणों को पहचानने वाले।

    हे घर की रानी, हम न तो तुम्हारी तरह कार्य करने में सक्षम हैं, न ही तुमने जो कुछ किया हैउससे उऋण हो सकते हैं, चाहे हम अपने जीवन भर या मृत्यु के बाद भी कार्य करते रहें।

    तुमसे उऋण हो पाना उन लोगों के लिए भी असम्भव है, जो निजी गुणों के प्रशंसक होते हैं।

    अथापि काममेतं ते प्रजात्ये करवाण्यलम्‌ ।

    यथा मां नातिरोचन्ति मुहूर्त प्रतिपालय ॥

    २२॥

    अथ अपि--यद्यपि ( यह सम्भव नहीं है ); कामम्‌--यह कामेच्छा; एतम्‌--जैसी है; ते--तुम्हारा; प्रजात्यै--सन्तानों के लिए;करवाणि--मुझे करने दें; अलमू--बिना विलम्ब किये; यथा--जिस तरह; माम्‌--मुझको; न--नहीं; अतिरोचन्ति--निन्दा करें;मुहूर्तम्‌--कुछ क्षण; प्रतिपालय--प्रतीक्षा करो।

    यद्यपि मैं तुम्हारे ऋण से उक्रण नहीं हो सकता, किन्तु मैं सन्‍्तान उत्पन्न करने के लिए तुम्हारीकामेच्छा को तुरन्त तुष्ट करूँगा।

    किन्तु तुम केवल कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा करो जिससे अन्यलोग मेरी भर्त्सना न कर सकें।

    एषा घोरतमा वेला घोराणां घोरदर्शना ।

    चरन्ति यस्यां भूतानि भूतेशानुचराणि ह ॥

    २३॥

    एषा--यह समय; घोर-तमा--सर्वाधिक भयावनी; वेला--घड़ी; घोराणाम्‌-- भयावने का; घोर-दर्शना-- भयावनी लगनेवाली;चरन्ति--विचरण करते हैं; यस्याम्‌--जिसमें; भूतानि-- भूत-प्रेत; भूत-ईश-- भूतों के स्वामी; अनुचराणि--नित्यसंगी; ह--निस्सन्देह।

    यह विशिष्ट वेला अतीव अशुभ है, क्योंकि इस बेला में भयावने दिखने वाले भूत तथा भूतोंके स्वामी के नित्य संगी दृष्टिगोचर होते हैं।

    एतस्यां साध्वि सन्ध्यायां भगवान्भूतभावन: ।

    परीतो भूतपर्षद्धिर्वेषेणाटति भूतराट्‌ ॥

    २४॥

    एतस्याम्‌--इस वेला में; साध्वि--हे सती; सन्ध्यायाम्‌ू--दिन तथा रात के सन्धिकाल में ( संध्या समय ); भगवानू-- भगवान्‌;भूत-भावन: --भूतों के हितैषी; परीतः--घिरे हुए; भूत-पर्षद्धिः--भूतों के संगियों से; वृषेण--बैल की पीठ पर; अटति--भ्रमण करता है; भूत-राट्‌--भूतों का राजा

    इस वेला में भूतों के राजा शिवजी, अपने वाहन बैल की पीठ पर बैठकर उन भूतों के साथविचरण करते हैं, जो अपने कल्याण के लिए उनका अनुगमन करते हैं।

    एमशानचक्रानिलधूलिधूम्रविकीर्णविद्योतजटाकलाप: ।

    भस्मावगुण्ठामलरुक्मदेहोदेवस्त्रिभि: पश्यति देवरस्ते ॥

    २५॥

    श्मशान--श्मशान भूमि; चक्र-अनिल--बवंडर; धूलि-- धूल; धूम्र-- धुआँ; विकीर्ण-विद्योत--सौन्दर्य के ऊपर पुता हुआ;जटा-कलापः--जटाओं के गुच्छे; भस्म--राख; अवगुण्ठ--से ढका; अमल--निष्कलंक; रुक्म--लाल; देह:--शरीर;देव:ः--देवता; त्रिभिः--तीन आँखों वाला; पश्यति--देखता है; देवर:--पति का छोटा भाई; ते--तुम्हारा

    शिवजी का शरीर लालाभ है और वह निष्कलुष है, किन्तु वे उस पर राख पोते रहते हैं।

    उनकी जटा एमशान भूमि की बवंडर की धूल से धूसरित रहती है।

    वे तुम्हारे पति के छोटे भाईहैं--और वे अपने तीन नेत्रों से देखते हैं।

    न यस्य लोके स्वजन: परो वानात्याहतो नोत कश्रिद्दिगहा: ।

    वयं ब्रतैर्यच्चरणापविद्धा-माशास्महेजां बत भुक्तभोगाम्‌ ॥

    २६॥

    न--कभी नहीं; यस्य--जिसका; लोके --संसार में; स्व-जन:-- अपना; पर: --पराया; वा--न तो; न--न ही; अति-- अधिक;आहतः--अनुकूल; न--नहीं; उत--अथवा; कश्चित्‌--कोई; विगर्ह:-- अपराधी; वयम्‌--हम; ब्रतैः --ब्रतों के द्वारा; यत्‌ू--जिसके; चरण--पाँव; अपविद्धाम्‌--तिरस्कृत; आशास्महे--सादर पूजा करते हैं; अजाम्‌--महा-प्रसाद; बत--निश्चय ही;भुक्त-भोगाम्‌--उच्छिष्ट भोजन |

    शिवजी किसी को भी अपना सम्बन्धी नहीं मानते फिर भी ऐसा कोई भी नहीं है, जो उनसेसम्बन्धित न हो।

    वे किसी को न तो अति अनुकूल, न ही निन्दनीय मानते हैं।

    हम उनके उच्छिष्टभोजन की सादर पूजा करते हैं और वे जिसका तिरस्कार करते हैं उसको हम शीश झुका करस्वीकार करते हैं।

    यस्यानवद्याचरितं मनीषिणोगुणन्त्यविद्यापटलं बिभित्सव: ।

    निरस्तसाम्यातिशयोपि यत्स्वयंपिशाचचर्यामचरद्गति: सताम्‌ ॥

    २७॥

    यस्य--जिसका; अनवद्य--अनिंद्य; आचरितम्‌-- चरित्र; मनीषिण:--बड़े बड़े मुनिगण; गृणन्ति-- अनुगमन करते हैं;अविद्या--अज्ञान; पटलम्‌--पिंड; बिभित्सव:--उखाड़ फेंकने के लिए इच्छुक; निरस्त--निरस्त किया हुआ; साम्य--समता;अतिशयः--महानता; अपि--के बावजूद; यत्‌--क्योंकि; स्वयम्‌--स्वयं; पिशाच--पिशाच, शैतान; चर्याम्‌--कार्यकलाप;अचरत्‌--सम्पन्न किया; गति:--गन्तव्य; सताम्‌ू-- भगवद्भक्तों का।

    यद्यपि भौतिक जगत में न तो कोई भगवान्‌ शिव के बराबर है, न उनसे बढ़कर है औरअविद्या के समूह को छिन्न-भिन्न करने के लिए उनके अनिंद्य चरित्र का महात्माओं द्वाराअनुसरण किया जाता है फिर भी वे सारे भगवदभक्तों को मोक्ष प्रदान करने के लिए ऐसे बनेरहते हैं जैसे कोई पिशाच हो।

    हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगाःस्वात्मच्रतस्थाविदुष: समीहितम्‌ ।

    यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनै:श्रभोजनं स्वात्मतयोपलालितम्‌ ॥

    २८ ॥

    हसन्ति--हँसते हैं; यस्थ--जिसका; आचरितम्‌--कार्य; हि--निश्चय ही; दुर्भगा: --अभागे; स्व-आत्मन्‌--अपने में; रतस्य--संलग्न रहने वाले का; अविदुष:--न जानने वाला; समीहितम्‌--उसका उद्देश्य; यैः--जिसके द्वारा; वस्त्र--वस्त्र; माल्य--मालाएँ; आभरण--आभूषण; अनु--ऐसे विलासी; लेपनैः:--लेप से; श्र-भोजनम्‌--कुत्तों का भोजन; स्व-आत्मतया--मानोस्वयं; उपलालितम्‌--लाड़-प्यार किया गया।

    अभागे मूर्ख व्यक्ति यह न जानते हुए कि वे अपने में मस्त रहते हैं उन पर हँसते हैं।

    ऐसे मूर्खव्यक्ति अपने उस शरीर को जो कुत्तों द्वारा खाये जाने योग्य है वस्त्र, आभूषण, माला तथा लेप सेसजाने में लगे रहते हैं।

    ब्रह्मादयो यत्कृतसेतुपालायत्कारणं विश्वमिदं च माया ।

    आज्ञाकरी यस्य पिशाचचर्याअहो विभूम्नश्वरितं विडम्बनम्‌ ॥

    २९॥

    ब्रह्य-आदय: --ब्रह्मा जैसे देवतागण; यत्‌--जिसका; कृत--कार्यकलाप; सेतु--धार्मिक अनुष्ठान; पाला:--पालने वाले;यत्‌--जो है; कारणम्‌--उद्गम; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड का; इृदम्‌--इस; च-- भी; माया-- भौतिक शक्ति; आज्ञा-करी-- आदेशपूरा करने वाला; यस्थय--जिसका; पिशाच--शैतानवत्‌; चर्या--कर्म; अहो-हे प्रभु; विभूम्न:--महान्‌ का; चरितम्‌--चरित्र;विडम्बनम्‌--केवल विडम्बना |

    ब्रह्मा जैसे देवता भी उनके द्वारा अपनाये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं।

    वेउस भौतिक शक्ति के नियन्ता हैं, जो भौतिक जगत का सृजन करती है।

    वे महान्‌ हैं, अतएवउनके पिशाचवत्‌ गुण मात्र विडम्बना हैं।

    मैत्रेय उवाचसैवं संविदिते भर्त्रां मन्मथोन्मथितेन्द्रिया ।

    जग्राह वासो ब्रह्मर्षेवृषघलीव गतत्रपा ॥

    ३०॥

    मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; सा--वह; एवम्‌--इस प्रकार; संविदिते--सूचित किए जाने पर भी; भर्त्रा--पति द्वारा; मन्मथ--कामदेव द्वारा; उनन्‍्मधित--विवश की गई; इन्द्रिया--इन्द्रियों के द्वारा; जग्राह--पकड़ लिया; वास:--वस्त्र; ब्रह्म-ऋषे:--उसमहान्‌ ब्राह्मण ऋषि का; वृषली--वेश्या; इब--सहृश; गत-त्रपा--लज्जारहित

    मैत्रेय ने कहा : इस तरह दिति अपने पति द्वारा सूचित की गई, किन्तु वह संभोग-तुष्टि हेतुकामदेव द्वारा विवश कर दी गई।

    उसने उस महान्‌ ब्राह्मण ऋषि का वस्त्र पकड़ लिया जिस तरहएक निर्लज् वेश्या करती है।

    स विदित्वाथ भार्यायास्तं निर्बन्धं विकर्मणि ।

    नत्वा दिष्टाय रहसि तयाथोपविवेश हि ॥

    ३१॥

    सः--उसने; विदित्वा--समझकर; अथ--तत्पश्चात्‌; भार्याया:-- पत्नी की; तम्‌--उस; निर्बन्धम्‌--जड़ता या दुराग्रह को;विकर्मणि--निषिद्ध कार्य में; नत्वा--नमस्कार करके; दिष्टाय--पूज्य भाग्य को; रहसि--एकान्त स्थान में; तया--उसके साथ;अथ--इस प्रकार; उपविवेश--लेट गया; हि--निश्चय ही |

    अपनी पली के मन्तव्य को समझकर उन्हें वह निषिद्ध कार्य करना पड़ा और तब पूज्यप्रारब्ध को नमस्कार करके वे उसके साथ एकान्त स्थान में लेट गये।

    अथोपस्पृश्य सलिलं प्राणानायम्य वाग्यतः ।

    ध्यायज्जजाप विरजं ब्रह्म ज्योति: सनातनम्‌ ॥

    ३२॥

    अथ--त्पश्चात्‌; उपस्पृश्य--जल का स्पर्श करके या जल में स्नान करके; सलिलम्‌--जल; प्राणान्‌ आयम्य--समाधि काअभ्यास करके; वाक्‌ू-यतः--वाणी को नियंत्रित करते हुए; ध्यायन्‌-- ध्यान करते हुए; जजाप--मुख के भीतर जप किया;विरजम्‌--शुद्ध; ब्रह्म -- गायत्री मंत्र; ज्योतिः--तेज; सनातनम्‌--नित्य |

    तत्पश्चात्‌ उस ब्राह्मण ने जल में स्नान किया और समाधि में नित्य तेज का ध्यान करते हुएतथा मुख के भीतर पवित्र गायत्री मंत्र का जप करते हुए अपनी वाणी को वश में किया।

    दितिस्तु ब्रीडिता तेन कर्मावद्चेन भारत ।

    उपसडूुम्य विप्रर्षिमधोमुख्यभ्यभाषत ॥

    ३३॥

    दिति:--कश्यप-पत्ली दिति ने; तु--लेकिन; ब्रीडिता--लज्जित; तेन--उस; कर्म--कार्य से; अवद्येन--दोषपूर्ण; भारत--हेभरतवंश के पुत्र; उपसड्रम्ध--पास जाकर; विप्र-ऋषिम्‌--ब्राह्मण ऋषि के; अध: -मुखी -- अपना मुख नीचे किये;अभ्यभाषत--विनप्र होकर कहा।

    है भारत, इसके बाद दिति अपने पति के और निकट गई।

    उसका मुख दोषपूर्ण कृत्य केकारण झुका हुआ था।

    उसने इस प्रकार कहा।

    दितिरुवाचन मे गर्भमिमं ब्रह्मन्भूतानामृषभो उवधीत्‌ ।

    रुद्र: पतिरह्हि भूतानां यस्याकरवमंहसम्‌ ॥

    ३४॥

    दितिः उबाच--सुन्दरी दिति ने कहा; न--नहीं; मे--मेरा; गर्भमू--गर्भ; इमम्‌--यह; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; भूतानाम्‌--सारे जीवोंका; ऋषभः --सारे जीवों में सबसे नेक; अवधीतू--मार डाले; रुद्र:--शिवजी; पति:--स्वामी; हि--निश्चय ही; भूतानाम्‌--सारे जीवों का; यस्थ--जिसका; अकरवम्‌--मैंने किया है; अंहसम्‌--अपराध |

    सुन्दरी दिति ने कहा : हे ब्राह्मण, कृपया ध्यान रखें कि समस्त जीवों के स्वामी भगवान्‌शिव द्वारा मेरा यह गर्भ नष्ट न किया जाय, क्योंकि मैंने उनके प्रति महान्‌ अपराध किया है।

    नमो रुद्राय महते देवायोग्राय मीदुषे ।

    शिवाय न्यस्तदण्डाय धृतदण्डाय मन्यवे ॥

    ३५॥

    नमः--नमस्कार; रुद्राय--क्रुद्ध शिवजी को; महते--महान्‌ को; देवाय--देवता को; उमग्राय--उग्र को; मीढुषे--समस्तइच्छाओं को पूरा करने वाले को; शिवाय--सर्व कल्याण-कर को; न्यस्त-दण्डाय-- क्षमा करने वाले को; धृत-दण्डाय--तुरन्तदण्ड देने वाले को; मन्यवे--क्रुद्ध को |

    मैं उन क्रुद्ध शिवजी को नमस्कार करती हूँ जो एक ही साथ अत्यन्त उग्र महादेव तथा समस्तइच्छाओं को पूरा करने वाले हैं।

    वे सर्वकल्याणप्रद तथा क्षमाशील हैं, किन्तु उनका क्रोध उन्हेंतुरन्त ही दण्ड देने के लिए चलायमान कर सकता है।

    स नः प्रसीदतां भामो भगवानुर्वनुग्रह: ।

    व्याधस्याप्यनुकम्प्यानां स्त्रीणां देव: सतीपति: ॥

    ३६॥

    सः--वह; न:--हम पर; प्रसीदताम्‌--प्रसन्न हों; भाम:--बहनोई; भगवान्‌--समस्त एऐश्वर्यों वाले व्यक्ति; उरू--अति महान;अनुग्रह:--कृपालु; व्याधस्य--शिकारी का; अपि--भी; अनुकम्प्यानाम्‌ू--कृपा के पात्रों का; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों के; देव: --आराध्य स्वामी; सती-पति:--सती ( साध्वी ) के पति।

    वे हम पर प्रसन्न हों, क्योंकि वे मेरी बहिन सती के पति, मेरे बहनोई हैं।

    वे समस्त स्त्रियों केआशध्य देव भी हैं।

    वे समस्त ऐश्वर्यों के व्यक्ति हैं और उन स्त्रियों के प्रति कृपा प्रदर्शित करसकते हैं, जिन्हें असभ्य शिकारी भी क्षमा कर देते हैं।

    मैत्रेय उवाचस्वसर्गस्याशिषं लोक्यामाशासानां प्रवेपतीम्‌ ।

    निवृत्तसन्ध्यानियमो भार्यामाह प्रजापति: ॥

    ३७॥

    मैत्रेयः उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; स्व-सर्गस्थ--अपनी ही सन्‍्तानों का; आशिषम्‌--कल्याण; लोक्याम्‌--संसार में;आशासानाम्‌--इच्छा करते हुए; प्रवेपतीम्‌--काँपते हुए; निवृत्त--टाल दिया; सन्ध्या-नियम:--संध्याकालीन विधि-विधान;भार्यामू--पत्नी से; आह--कहा; प्रजापति:--जनक ।

    मैत्रेय ने कहा : तब महर्षि कश्यप ने अपनी पत्नी को सम्बोधित किया जो इस भय से काँपरही थी कि उसके पति का अपमान हुआ है।

    वह समझ गई कि उन्हें संध्याकालीन प्रार्थना करनेके नैत्यिक कर्म से विरत होना पड़ा है, फिर भी वह संसार में अपनी सनन्‍्तानों का कल्याण चाहतीथी।

    कश्यप उबाचअप्रायत्यादात्मनस्ते दोषान्मौहूर्तिकादुत ।

    मन्निदेशातिचारेण देवानां चातिहेलनात्‌ ॥

    ३८॥

    कश्यप: उवाच--विद्वान ब्राह्मण कश्यप ने कहा; अप्रायत्यात्‌ू--दूषण के कारण; आत्मन:--मन के; ते--तुम्हारे; दोषात्‌ --अपवित्र होने; मौहूर्तिकात्‌--मुहूर्त भर में; उत-- भी; मत्‌--मेरा; निदेश--निर्देश; अतिचारेण--अत्यधिक उपेक्षा करने से;देवानामू--देवताओं का; च-- भी; अतिहेलनात्‌--- अत्यधिक अवहेलित होकर ।

    विद्वान कश्यप ने कहा : तुम्हारा मन दूषित होने, मुहूर्त विशेष के अपवित्र होने, मेरे निर्देशोंकी तुम्हारे द्वारा उपेक्षा किये जाने तथा तुम्हारे द्वारा देवताओं की अवहेलना होने से सारी बातेंअशुभ थीं।

    भविष्यतस्तवाभद्रावभद्रे जाठराधमौ ।

    लोकान्सपालांस्त्रीं श्रण्डि मुहुराक्रन्दयिष्यत:ः ॥

    ३९॥

    भविष्यत: --जन्म लेगा; तब--तुम्हारा; अभद्रौ --दो अभद्र पुत्र; अभद्रे--हे अभागिन; जाठर-अधमौ--निन्दनीय गर्भ से उत्पन्न;लोकानू--सारे लोकों; स-पालान्‌--उनके शासकों समेत; त्रीन्‌--तीन; चण्डि--गर्वीली; मुहुः--निरन्तर; आक्रनू-दयिष्यत: --शोक के कारण बनेंगे।

    हे अभिमानी स्त्री! तुम्हारे निंदित गर्भ से दो अभद्र पुत्र उत्पन्न होंगे।

    अरी अभागिन! वे तीनोंलोकों के लिए निरन्तर शोक का कारण बनेंगे।

    प्राणिनां हन्यमानानां दीनानामकृतागसाम्‌ ।

    स्त्रीणां निगृह्ममाणानां कोपितेषु महात्मसु ॥

    ४०॥

    प्राणिनामू--जब जीवों का; हन्यमानानाम्‌--मारे जाते हुए; दीनानामू--दीनों का; अकृत-आगसाम्‌--निर्दोषों का; स्त्रीणाम्‌--स्त्रियों का; निगृह्ममाणानाम्‌--सताये जाते हुओं का; कोपितेषु--क्रुद्ध हुओं का; महात्मसु--महात्माओं का।

    वे दीन, निर्दोष जीवों का वध करेंगे, स्त्रियों को सताएँगे तथा महात्माओं को क्रोधित करेंगे।

    तदा विश्वेश्वरः क्रुद्धो भगवाल्लोकभावन: ।

    हनिष्यत्यवतीर्यासौ यथाद्रीन्शतपर्वधृक्‌ू ॥

    ४१॥

    तदा--उस समय; विश्व-ई श्र: -- ब्रह्माण्ड के स्वामी; क्रुद्ध:--अतीव क्रोध में; भगवान्‌-- भगवान्‌; लोक-भावन:--सामान्यजनों का कल्याण चाहने वाले; हनिष्यति--वध करेगा; अवतीर्य--स्वयं अवतरित होकर; असौ--वह; यथा--मानो; अद्रीन्‌--पर्वतों को; शत-पर्व-धृक्‌ू--वज् का नियन्ता ( इन्द्र ) |

    उस समय ब्रह्माण्ड के स्वामी पुरुषोत्तम भगवान्‌ जो कि समस्त जीवों के हितैषी हैं अवतरितहोंगे और उनका इस तरह वध करेंगे जिस तरह इन्द्र अपने वज्ज से पर्वतों को ध्वस्त कर देता है।

    दितिरुवाचवधं भगवता साक्षात्सुनाभोदारबाहुना ।

    आशसे पुत्रयोर्महां मा क्रुद्धाद्राह्मणादप्रभो ॥

    ४२॥

    दितिः उबाच--दिति ने कहा; वधम्‌--मारा जाना; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष रूप से; सुनाभ--अपने सुदर्शनअक्र द्वारा; उदार--अत्यन्त उदार; बाहुना--बाहों द्वारा; आशासे-- मेरी इच्छा है; पुत्रयोः--पुत्रों की; महाम्‌--मेरे; मा--क भीऐसा न हो; क्रुद्धात्‌-क्रोध से; ब्राह्मणात्‌--ब्राह्मण के; प्रभो--हे पति।

    दिति ने कहा: यह तो अति उत्तम है कि मेरे पुत्र भगवान्‌ द्वारा उनके सुदर्शन चक्र सेउदारतापूर्वक मारे जायेंगे।

    हे मेरे पति, वे ब्राह्मण-भक्तों के क्रोध से कभी न मारे जाँय।

    श़" न ब्रह्मठण्डदग्धस्य न भूतभयदस्य च ।

    नारकाश्चानुगृहन्ति यां यां योनिमसौ गत: ॥

    ४३॥

    न--कभी नहीं; ब्रह्म-दण्ड--ब्राह्मण द्वारा दिया गया दण्ड; दग्धस्य--इस तरह से दण्डित होने वाले का; न--न तो; भूत-भय-दस्य--उसका, जो जीवों को सदा डराता रहता है; च-- भी; नारका:--नरक जाने वाले; च--भी; अनुगृहन्ति--कोई अनुग्रहकरते हैं; याम्‌ यामू--जिस जिस को; योनिमू--जीव योनि को; असौ--अपराधी; गत:--जाता है|

    जो व्यक्ति ब्राह्मण द्वारा तिरस्कृत किया जाता है या जो अन्य जीवों के लिए सदैव भयप्रदबना रहता है, उसका पक्ष न तो पहले से नरक में रहने वालों द्वारा, न ही उन योनियों में रहनेवालों द्वारा लिया जाता है, जिसमें वह जन्म लेता है।

    कश्यप उबाचकृतशोकानुतापेन सद्य: प्रत्यवमर्शनात्‌ ।

    भगवत्युरुमानाच्च भवे मय्यपि चादरात्‌ू ॥

    ४४॥

    पुत्रस्यैव च पुत्राणां भवितैक: सतां मतः ।

    गास्यन्ति यद्यशः शुद्ध भगवद्यशसा समम्‌ ॥

    ४५ ॥

    कश्यप: उवाच--विद्वान कश्यप ने कहा; कृत-शोक--शोक कर चुकने पर; अनुतापेन--पक्चात्ताप द्वारा; सद्यः--तुरन्त;प्रत्यवरमर्शनात्‌--उचित विचार-विमर्श द्वारा; भगवति-- भगवान्‌ के प्रति; उरू--अत्यधिक; मानात्‌-- प्रशंसा; च--तथा; भवे--शिव के प्रति; मयि अपि--मुझको भी; च--तथा; आदरात्‌ू--आदर से; पुत्रस्य--पुत्र का; एब--निश्चय ही; च--तथा;पुत्राणाम्‌--पुत्रों का; भविता--उत्पन्न होगा; एक:--एक; सताम्‌-- भक्तों का; मतः--अनुमोदित; गास्यन्ति--प्रचार करेगा;यत्‌--जिसको; यशः--ख्याति; शुद्धम्‌-दिव्य; भगवत्‌-- भगवान्‌ को; यशसा--ख्याति से; समम्‌ू--समान रूप से।

    विद्वान कश्यप ने कहा : तुम्हारे शोक, पश्चात्ताप तथा समुचित वार्तालाप के कारण तथापूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ में तुम्हारी अविचल श्रद्धा एवं शिवजी तथा मेरे प्रति तुम्हारी प्रशंसा केकारण भी तुम्हारे पुत्र ( हिरण्यकशिपु ) का एक पुत्र ( प्रह्द ) भगवान्‌ द्वारा अनुमोदित भक्तहोगा और उसकी ख्याति भगवान्‌ के ही समान प्रचारित होगी।

    योगैह्मेव दुर्वर्ण भावयिष्यन्ति साधव: ।

    निर्वेरादिभिरात्मानं यच्छीलमनुवर्तितुम्‌ ॥

    ४६॥

    योगै:--शुद्द्रिकरण की विधि से; हेम--सोना; इब--सहश ; दुर्वर्णप्‌--निम्न गुण; भावयिष्यन्ति--शुद्ध कर देगा; साधव:--साधु पुरुष; निर्वैर-आदिभि:--शत्रुता इत्यादि से मुक्त होने के अभ्यास से; आत्मानम्‌--आत्मा; यत्‌ू--जिसका; शीलम्‌--चरित्र; अनुवर्तितुमू--चरणचिह्नों का अनुगमन करना |

    उसके पदचिन्हों का अनुसरण करने के लिए सन्त पुरुष शत्रुता से मुक्त होने का अभ्यासकरके उसके चरित्र को आत्मसात्‌ करना चाहेंगे जिस तरह शुद्द्विकरण की विधियाँ निम्न गुणवाले सोने को शुद्ध कर देती हैं।

    यत्प्रसादादिदं विश्व प्रसीदति यदात्मकम्‌ ।

    स स्वहग्भगवान्यस्य तोष्यतेनन्यया हशा ॥

    ४७॥

    यत्‌--जिसके; प्रसादात्‌ू-कृपा से; इदम्‌--यह; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; प्रसीदति--सुखी बनता है; यत्‌--जिसके; आत्मकम्‌--सर्वव्यापक होने से; सः--वह; स्व-हक्‌--अपने भक्तों की विशेष परवाह करने वाले; भगवान्‌-- भगवान्‌; यस्य--जिसका;तोष्यते--प्रसन्न होता है; अनन्यया--बिना विचलन के; दृशा--बुद्धि से

    हर व्यक्ति उनसे प्रसन्न रहेगा, क्योंकि ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भगवान्‌ सदैव ऐसे भक्त सेतुष्ट रहते हैं, जो उनके अतिरिक्त और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता।

    सब महाभागवतो महात्मामहानुभावो महतां महिष्ठ: ।

    प्रवृद्धभकत्या ह्मनुभाविताशयेनिवेश्य वैकुण्ठमिमं विहास्यति ॥

    ४८॥

    सः--वह; वै--निश्चय ही; महा-भागवतः--सर्वोच्च भक्त; महा-आत्मा--विशाल बुद्द्धि; महा-अनुभाव:--विशाल प्रभाव;महताम्‌--महात्माओं का; महिष्ठ:--सर्वोच्च; प्रवृद्ध--पूर्णतया प्रौढ़; भक्त्या--भक्ति से; हि--निश्चय ही; अनुभावित-- भावकी अनुभाव दशा को प्राप्त: आशये--मन में; निवेश्य--प्रवेश करके; वैकुण्ठम्‌-- आध्यात्मिक आकाश में; इमम्‌--इसको( भौतिक जगत ) को; विहास्यति--छोड़ देगा।

    भगवान्‌ का सर्वोच्च भक्त विशाल बुद्धि तथा विशाल प्रभाव वाला होगा और महात्माओं मेंसबसे महान्‌ होगा।

    परिपक्व भक्तियोग के कारण वह निश्चय ही दिव्य भाव में स्थित होगा औरइस संसार को छोड़ने पर बैकुण्ठ में प्रवेश करेगा।

    अलम्पट: शीलधरो गुणाकरोहृष्टः परद्धर्या व्यथितो दुःखितेषु ।

    अभूतशत्रुर्जगतः शोकहर्तानैदाधिकं तापमिवोडुराज: ॥

    ४९॥

    अलम्पट:--पुण्यशील; शील-धर: --योग्य; गुण-आकरः--समस्त सदगुणों की खान; हृष्ट:--प्रसन्न; पर-ऋद्धयधा--अन्य केसुख से; व्यथित:ः--दुखी; दुःखितेषु--अन्यों के दुख में; अभूत-शत्रु;--शत्रुरहित, अजातशत्रु; जगत:--सारे ब्रह्माण्डका;शोक-हर्ता--शोक का विनाशक; नैदाधिकम्‌--ग्रीष्मकालीन घाम से; तापम्‌--कष्ट; इब--सहृश; उडु-राज:-- चन्द्रमा |

    वह समस्त सदगुणों का अतीव सुयोग्य आगार होगा, वह प्रसन्न रहेगा और अन्यों के सुख मेंसुखी, अन्यों के दुख में दुखी होगा तथा उसका एक भी शत्रु नहीं होगा।

    वह सारे ब्रह्माण्डों केशोक का उसी तरह नाश करने वाला होगा जिस तरह ग्रीष्मकालीन सूर्य के बाद सुहावनाचन्द्रमा ।

    अन्तर्बहिश्चामलमब्जनेत्रंस्वपूरुषेच्छानुगृहीतरूपम्‌ ।

    पौत्रस्तव श्रीललनाललामंद्रष्टा स्फुरत्कुण्डलमण्डिताननम्‌ ॥

    ५०॥

    अन्तः-- भीतर से; बहि:--बाहर से; च-- भी; अमलम्‌--निर्मल; अब्ज-नेत्रमू--कमल नेत्र; स्व-पूरुष--अपना भक्त; इच्छा-अनुगृहीत-रूपम्‌--इच्छानुरूप शरीर धारण करके; पौत्र:--नाती; तब--तुम्हारा; श्री-ललना--सुन्दर लक्ष्मीजी; ललामम्‌--अलंकृत; द्रष्टा--देखेगा; स्फुरत्‌-कुण्डल--चमकीले कुंडलों से; मण्डित--सुशोभित; आननम्‌--मुख |

    तुम्हारा पौत्र भीतर तथा बाहर से उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ का दर्शन कर सकेगा जिन की पत्नी सुन्दरी लक्ष्मीजी हैं।

    भगवान्‌ भक्त द्वारा इच्छित रूप धारण कर सकते हैं और उनकामुखमण्डल सदैव कुण्डलों से सुन्दर ढंग से अलंकृत रहता है।

    मैत्रेय उवाचश्रुत्वा भागवतं पौत्रममोदत दितिभूशम्‌ ।

    पुत्रयोश्च वध कृष्णाद्विदित्वासीन्‍न्महामना: ॥

    ५१॥

    मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; श्रुत्वा--सुनकर; भागवतम्‌-- भगवान्‌ के महान्‌ भक्त होने के लिए; पौत्रम्‌ू--पौत्र को;अमोदत--आनन्द का अनुभव किया; दिति:ः --दिति ने; भूशम्‌--अत्यधिक; पुत्रयो: --दोनों पुत्रों का; च-- भी; वधम्‌--वध;कृष्णात्‌-कृष्ण द्वारा; विदित्वा--जानकर; आसीत्‌--हो गईं; महा-मना:--मन में अतीव हर्षित |

    मैत्रेय मुनि ने कहा : यह सुनकर कि उसका पौत्र महान्‌ भक्त होगा और उसके पुत्र भगवान्‌कृष्ण द्वारा मारे जायेंगे, दिति मन में अत्यधिक हर्षित हुई।

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    अध्याय पंद्रह: परमेश्वर के राज्य का विवरण

    3.15मैत्रेय उवाचप्राजापत्यं तु तत्तेज: परतेजोहनं दिति: ।

    दधार वर्षाणि शतंशट्डमाना सुरार्दनात्‌ ॥

    १॥

    मैत्रेयः उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; प्राजापत्यम्‌--महान्‌ प्रजापति का; तु--लेकिन; तत्‌ तेज:--उसका बलशाली वीर्य; पर-तेज:--अन्यों का पराक्रम; हनम्‌--कष्ट देने वाला; दितिः--दिति ( कश्यप पत्नी ) ने; दधार-- धारण किया; वर्षाणि--वर्षोतक; शतम्‌--एक सौ; शट्भमाना--शंकालु; सुर-अर्दनातू--देवताओं को उद्विग्न करने वाले |

    श्री मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, महर्षि कश्यप की पत्नी दिति यह समझ गई कि उसके गर्भ मेंस्थित पुत्र देवताओं के विक्षोभ के कारण बनेंगे।

    अत: वह कश्यप मुनि के तेजवान वीर्य कोएक सौ वर्षो तक निरन्तर धारण किये रही, क्योंकि यह अन्यों को कष्ट देने वाला था।

    लोके तेनाहतालोके लोकपाला हतौजस: ।

    न्यवेदयन्विश्वसूजे ध्वान्तव्यतिकरं दिशाम्‌ ॥

    २॥

    लोके--इस ब्रह्माण्ड में; तेन--दिति के गर्भधारण के बल पर; आहत--विहीन होकर; आलोके -- प्रकाश; लोक-पाला: --विभिन्न लोकों के देवता; हत-ओजस:--जिसका तेज मन्द हो चुका था; न्यवेदयन्‌--पूछा; विश्व-सृजे--ब्रह्मा से; ध्वान्त-व्यतिकरम्‌--अंधकार का विस्तार; दिशाम्‌--सारी दिशाओं में |

    दिति के गर्भधारण करने से सारे लोकों में सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश मंद हो गया औरविभिन्न लोकों के देवताओं ने उस बल से विचलित होकर ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ब्रह्म से पूछा,'सारी दिशाओं में अंधकार का यह विस्तार कैसा ?!'" देवा ऊचु:तम एतद्विभो वेत्थ संविग्ना यद्वयं भूशम्‌ ।

    न हाव्यक्ते भगवतः कालेनास्पृष्टवर्त्मन: ॥

    ३॥

    देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; तम:--अंधकार; एतत्‌--यह; विभो--हे महान्‌; वेत्थ--तुम जानो; संविग्ना:--अत्यन्तचिन्तित; यत्‌--क्योंकि; वयम्‌--हम; भूशम्‌--अत्यधिक; न--नहीं; हि-- क्योंकि; अव्यक्तम्‌--अप्रकट; भगवत:--आपका( भगवान्‌ का ); कालेन--काल द्वारा; अस्पृष्ट-- अछूता; वर्त्मन: --जिसका मार्ग

    भाग्यवान्‌ देवताओं ने कहा : हे महान्‌, जरा इस अंधकार को तो देखो, जिसे आप अच्छीतरह जानते हैं और जिससे हमें चिन्ता हो रही है।

    चूँकि काल का प्रभाव आपको छू नहीं सकता,अतएव आपके समक्ष कुछ भी अप्रकट नहीं है।

    देवदेव जगद्धातलॉकनाथशिखामणे ।

    परेषामपरेषां त्वं भूतानामसि भाववित्‌ ॥

    ४॥

    देव-देव--हे देवताओं के स्वामी; जगतू-धात:ः--ब्रह्मण्ड को धारण करने वाले; लोकनाथ-शिखामणे--हे अन्य लोकों केसमस्त देवताओं के शिरो-मणि; परेषाम्‌--आध्यात्मिक जगत का; अपरेषाम्‌-- भौतिक जगत का; त्वम्‌--तुम; भूतानामू--सारेजीवों के; असि--हो; भाव-वित्‌--मनोभावों को जानने वाले

    है देवताओं के देव, हे ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले, हे अन्यलोकों के समस्त देवताओं केशिरोमणि, आप आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही जगतों में सारे जीवों के मनोभावों को जानतेहैं।

    नमो विज्ञानवीर्याय माययेदमुपेयुषे ।

    गृहीतगुणभेदाय नमस्तेउव्यक्तयोनये ॥

    ५॥

    नमः--सादर नमस्कार; विज्ञान-वीर्याय--हे बल तथा वैज्ञानिक ज्ञान के आदि स्त्रोत; मायया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; इदम्‌--ब्रह्मा का यह शरीर; उपेयुषे-- प्राप्त करके ; गृहीत-- स्वीकार करते हुए; गुण-भेदाय--विभेदित रजोगुण; नम: ते--आपकोनमस्कार करते हुए; अव्यक्त--अप्रकट; योनये--स्त्रोत |

    हे बल तथा विज्ञानमय ज्ञान के आदि स्रोत, आपको नमस्कार है।

    आपने भगवान्‌ से पृथक्ृतरजोगुण स्वीकार किया है।

    आप बहिरंगा शक्ति की सहायता से अप्रकट स्त्रोत से उत्पन्न हैं।

    आपको नमस्कार।

    ये त्वानन्येन भावेन भावयन्त्यात्मभावनम्‌ ।

    आत्मनि प्रोतभुवनं परं सदसदात्मकम्‌ ॥

    ६॥

    ये--वे जो; त्वा--तुम पर; अनन्येन--विचलित हुए बिना; भावेन--भक्तिपूर्वक; भावयन्ति-- ध्यान करते हैं; आत्म-भावनम्‌--जो सारे जीवों को उत्पन्न करता है; आत्मनि--अपने भीतर; प्रोत--जुड़ा हुआ; भुवनम्‌--सारे लोक; परम्‌ू--परम; सत्‌--प्रभाव; असत्‌--कारण; आत्मकम्‌--जनक ।

    हे प्रभु, ये सारे लोक आपके भीतर विद्यमान हैं और सारे जीव आपसे उत्पन्न हुए हैं।

    अतएवआप इस ब्रह्माण्ड के कारण हैं और जो भी अनन्य भाव से आपका ध्यान करता है, वहभक्तियोग प्राप्त करता है।

    तेषां सुपक्वयोगानां जितश्वासेन्द्रियात्मनाम्‌ ।

    लब्धयुष्मत्प्रसादानां न कुतश्चित्पपाभव: ॥

    ७॥

    तेषाम्‌--उनका; सु-पक्‍्व-योगानाम्‌-- जो प्रौढ़ योगी हैं; जित--संयमित; श्रास--साँस; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्मनामू--मन;लब्ध--प्राप्त किया हुआ; युष्मत्‌--आपकी ;; प्रसादानामू--कृपा; न--नहीं; कुतश्चित्‌--कहीं भी; पराभव:--हार।

    जो लोग श्वास प्रक्रिया को साध कर मन तथा इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं और इस प्रकारजो अनुभवी प्रौढ़ योगी हो जाते हैं उनकी इस जगत में पराजय नहीं होती।

    ऐसा इसलिए है,क्योंकि योग में ऐसी सिद्धि के कारण, उन्होंने आपकी कृपा प्राप्त कर ली है।

    यस्य वाचा प्रजा: सर्वा गावस्तन्त्येव यन्त्रिता: ।

    हरन्ति बलिमायत्तास्तस्मै मुख्याय ते नमः ॥

    ८॥

    यस्य--जिसका; वाचा--वैदिक निर्देशों द्वारा; प्रजा:--जीव; सर्वा:--सारे; गाव:--बैल; तन्त्या--रस्सी से; इब--सहश;यन्त्रिता:--निर्देशित हैं; हरन्ति-- भेंट करते हैं, लेते हैं; बलिम्‌-- भेंट, पूजा-सामग्री; आयत्ता:--नियंत्रण के अन्तर्गत; तस्मै--उसको; मुख्याय--मुख्य पुरुष को; ते--तुमको; नम:--सादर नमस्कार |

    ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सारे जीव वैदिक आदेशों से उसी प्रकार संचालित होते हैं जिस तरहएक बैल अपनी नाक से बँधी रस्सी ( नथुनी ) से संचालित होता है।

    वैदिक ग्रंथों में निर्दिष्टनियमों का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता।

    उस प्रधान पुरुष को हम सादर नमस्कार करते हैं,जिसने हमें वेद दिये हैं।

    स त्वं विधत्स्व शं भूमंस्तमसा लुप्तकर्मणाम्‌ ।

    अदश्नदयया दृष्ठय्या आपन्नानईसीक्षितुम्‌ ॥

    ९॥

    सः--वह; त्वमू--तुम; विधत्स्व--सम्पन्न करो; शम्‌--सौभाग्य; भूमन्‌--हे परमेश्वर; तमसा--अंधकार द्वारा; लुप्त--निलम्बित; कर्मणाम्‌--नियमित कार्यों का; अदभ्न--उदार, बिना भेदभाव के; दयया--दया के द्वारा; दृष्या-- आपकी दृष्टिद्वारा; आपन्नानू--हम शरणागत; अर्हसि--समर्थ हैं; ईक्षितुम्‌--देख पाने के लिए।

    देवताओं ने ब्रह्म की स्तुति की: कृपया हम पर कृपादृष्टि रखें, क्योंकि हम कष्टप्रद स्थितिको प्राप्त हो चुके हैं; अंधकार के कारण हमारा सारा काम रुक गया है।

    एघ देव दितेर्गर्भ ओज: काश्यपमर्पितम्‌ ।

    दिशस्तिमिरयन्सर्वा वर्धतेडग्निरिविधसि ॥

    १०॥

    एष:--यह; देव--हे प्रभु; दितेः--दिति का; गर्भ:--गर्भ; ओज:--वीर्य; काश्यपमू--कश्यप का; अर्पितम्‌--स्थापित कियागया; दिशः--दिशाएँ; तिमिरयन्‌--पूर्ण अंधकार उत्पन्न करते हुए; सर्वा:--सारे; वर्धते--बढ़ाता है; अग्नि:--आग; इब--सहश; एधसि--ईंधन

    जिस तरह ईंधन अग्नि को वर्धित करता है उसी तरह दिति के गर्भ में कश्यप के वीर्य सेउत्पन्न भ्रूण ने सारे ब्रह्माण्ड में पूर्ण अंधकार उत्पन्न कर दिया है।

    मैत्रेय उवाचस प्रहस्य महाबाहो भगवान्शब्दगोचरः ।

    प्रत्याचष्टात्म भूर्देवान्प्रीणन्रुच्चिरया गिरा ॥

    ११॥

    मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; सः--वह; प्रहस्य--हँसते हुए; महा-बाहो--हे शक्तिशाली भुजाओं वाले ( विदुर ); भगवान्‌--समस्त ऐ श्वर्यों के स्वामी; शब्द-गोचर: --दिव्य ध्वनि के द्वारा समझा जाने वाला; प्रत्याचष्ट--उत्तर दिया; आत्म-भू:--ब्रह्मा ने;देवान्‌ू-देवताओं को; प्रीणन्‌--तुष्ट करते हुए; रुचिरया--मधुर; गिरा--शब्दों से

    श्रीमैत्रेय ने कहा : इस तरह दिव्य ध्वनि से समझे जाने वाले ब्रह्मा ने देवताओं की स्तुतियोंसे प्रसन्न होकर उन्हें तुष्ट करने का प्रयास किया।

    ब्रह्मोवाचमानसा मे सुता युष्मत्पूर्वजा: सनकादय: ।

    चेरुविहायसा लोकाल्लोकेषु विगतस्पूहा: ॥

    १२॥

    ब्रह्मा उवाच--ब्रह्मा ने कहा; मानसा: --मन से उत्पन्न; मे--मेरे; सुता:--पुत्र; युष्मत्‌--तुम्हारी अपेक्षा; पूर्व-जा:--पहले उत्पन्न;सनक-आदय: --सनक इत्यादि ने; चेरु:--यात्रा की; विहायसा--अन्तरिक्ष में यान द्वारा या आकाश में उड़कर; लोकान्‌ू--भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों तक; लोकेषु--लोगों के बीच; विगत-स्पृहा:--किसी इच्छा से रहित |

    ब्रह्माजी ने कहा : मेरे मन से उत्पन्न चार पुत्र सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार तुम्हारेपूर्वज हैं।

    कभी कभी वे बिना किसी विशेष इच्छा के भौतिक तथा आध्यात्मिक आकाशों सेहोकर यात्रा करते हैं।

    तएकदा भगवतो वैकुण्ठस्थामलात्मन: ययुर्वैकुण्ठनिलयं सर्वलोकनमस्कृतम्‌ ॥

    १३॥

    ते--वे; एकदा--एक बार; भगवतः--भगवान्‌ के; वैकुण्ठस्थ-- भगवान्‌ विष्णु का; अमल-आत्मन: --समस्त भौतिक कल्मषसे मुक्त हुए; ययुः:--प्रविष्ट हुए; बैकुण्ठ-निलयम्‌--वैकुण्ठ नामक धाम; सर्व-लोक--समस्त भौतिक लोकों के निवासियों केद्वारा; नमस्कृतम्‌-- पूजित |

    इस तरह सारे ब्रह्माण्डों का भ्रमण करने के बाद वे आध्यात्मिक आकाश में भी प्रविष्ट हुए,क्योंकि वे समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त थे।

    आध्यात्मिक आकाश में अनेक आध्यात्मिक लोकहैं, जो वैकुण्ठ कहलाते हैं, जो पुरुषोत्तम भगवान्‌ तथा उनके शुद्धभक्तों के निवास-स्थान हैं और समस्त भौतिक लोकों के निवासियों द्वारा पूजे जाते हैं।

    वसन्ति यत्र पुरुषा: सर्वे वैकुण्ठमूर्तयः ।

    येडनिमित्तनिमित्तेन धर्मेणाराधयन्हरिम्‌ ॥

    १४॥

    वसन्ति--निवास करते हैं; यत्र--जहाँ; पुरुषा:--व्यक्ति; सर्वे--सारे; वैकुण्ठ-मूर्तयः --भगवान्‌ विष्णु की ही तरह चारभुजाओं वाले; ये--वे वैकुण्ठ पुरुष; अनिमित्त--इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रहित; निमित्तेन--उत्पन्न; धर्मेण-- भक्ति द्वारा;आराधयनू--निरन्तर पूजा करते हुए; हरिम्‌ू-- भगवान्‌ की |

    वैकुण्ठ लोकों में सारे निवासी पुरुषोत्तम भगवान्‌ के समान आकृतिवाले होते हैं।

    वे सभीइन्द्रिय-तृप्ति की इच्छाओं से रहित होकर भगवान्‌ की भक्ति में लगे रहते हैं।

    यत्र चाद्यः पुमानास्ते भगवान्शब्दगोचर: ।

    सत्त्वं विष्टभ्य विरजं स्वानां नो मृडयन्वृष: ॥

    १५॥

    यत्र--वैकुण्ठ लोकों में; च--तथा; आद्यः--आदि; पुमान्‌ू--पुरुष; आस्ते--है; भगवान्‌-- भगवान्‌; शब्द-गोचर: -- वैदिकवाड्मय के माध्यम से समझा गया; सत्त्वम्‌--सतोगुण; विष्टभ्य--स्वीकार करते; विरजम्‌--अकलुषित, निर्मल; स्वानाम्‌--अपने संगियों का; न:--हमको; मृडयन्‌ू--सुख को बढ़ाते हुए; वृष:--साक्षात्‌ धर्म ॥

    वैकुण्ठलोकों में भगवान्‌ रहते हैं, जो आदि पुरुष हैं और जिन्हें वैदिक वाड्मय के माध्यमसे समझा जा सकता है।

    वे कल्मषरहित सतोगुण से ओतप्रोत हैं, जिसमें रजो या तमो गुणों केलिए कोई स्थान नहीं है।

    वे भक्तों की धार्मिक प्रगति में योगदान करते हैं।

    यत्र नैःश्रेयसं नाम वन॑ कामदुषैर्द्ुमै: ।

    सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत्कैवल्यमिव मूर्तिमत्‌ ॥

    १६॥

    यत्र--वैकुण्ठलोकों में; नै: श्रेयसम्‌--शुभ; नाम--नामक; वनम्‌-- जंगल; काम-दुघैः --इच्छा पूरी करने वाले; द्रुमैः --वृक्षोंसमेत; सर्व--समस्त; ऋतु--ऋतुएँ; श्रीभि:--फूलों -फलों से; विध्राजत्‌ू--शो भायमान; कैवल्यम्‌-- आध्यात्मिक; इव--सहृश;मूर्तिमत्‌--साकार।

    उन बैकुण्ठ लोकों में अनेक वन हैं, जो अत्यन्त शुभ हैं।

    उन वनों के वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, जोसभी ऋतुओं में फूलों तथा फलों से लदे रहते हैं, क्योंकि वैकुण्ठलोकों में हर वस्तु आध्यात्मिकतथा साकार होती है।

    वैमानिकाः सललनाश्चरितानि शश्वद्‌गायन्ति यत्र शमलक्षपणानि भर्तु: ।

    अन्तर्जलेनुविकसन्मधुमाधवीनांगन्धेन खण्डितधियोप्यनिलं क्षिपन्त: ॥

    १७॥

    वैमानिका:--अपने विमानों में उड़ते हुए; स-ललना:ः--अपनी अपनी पत्नियों समेत; चरितानि--कार्यकलाप; शश्वत्‌--नित्यरूप से; गायन्ति--गाते हैं; यत्र--जिन वैकुण्ठलोकों में; शमल--समस्त अशुभ गुणों से; क्षपणानि--विहीन; भर्तुः--परमे श्वर का; अन्तः-जले--जल के बीच में; अनुविकसत्‌--खिलते हुए; मधु--सुगन्धित, शहद से पूर्ण; माधवीनाम्‌--माधवी फूलोंकी; गन्धेन--सुगन्ध से; खण्डित--विचलित; धिय:--मन; अपि--यद्यपि; अनिलम्‌--मन्द पवन; क्षिपन्त:--उपहास करतेहुए।

    वैकुण्ठलोकों के निवासी अपने विमानों में अपनी पत्नियों तथा प्रेयसियों के साथ उड़ानेंभरते हैं और भगवान्‌ के चरित्र तथा उन कार्यों का शाश्वत गुणगान करते हैं, जो समस्त अशुभगुणों से सदैव विहीन होते हैं।

    भगवान्‌ के यश का गान करते समय वे सुगन्धित तथा मधु से भरेहुए पुष्पित माधवी फूलों की उपस्थिति तक का उपहास करते हैं।

    पारावतान्यभूतसारसचक्रवाक -दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः ।

    कोलाहलो विरमतेचिरमात्रमुच्चै -भ्रृड्राधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥

    १८॥

    पारावत--कबूतर; अन्यभूत--कोयल; सारस--सारस; चक्रवाक--चकई चकदवा; दात्यूह--चातक; हंस--हंस; शुक --तोता; तित्तिरि--तीतर; ब्हिणाम्‌--मोर का; यः--जो; कोलाहल:--कोलाहल; विरमते--रुकता है; अचिर-मात्रम्‌ू-- अस्थायीरूप से; उच्चै:--तेज स्वर से; भूड़-अधिपे--भौरे का राजा; हरि-कथाम्‌-- भगवान्‌ की महिमा; इब--सहृश; गायमाने--गायेजाते समय

    जब भौंरों का राजा भगवान्‌ की महिमा का गायन करते हुए उच्च स्वर से गुनगुनाता है, तो कबूतर, कोयल, सारस, चक्रवाक, हंस, तोता, तीतर तथा मोर का शोर अस्थायी रूप से बन्दपड़ जाता है।

    ऐसे दिव्य पक्षी केवल भगवान्‌ की महिमा सुनने के लिए अपना गाना बन्द कर देते हैं।

    मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण-पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाता: ।

    गन्धेचिंते तुलसिकाभरणेन तस्यायस्मिस्तप: सुमनसो बहु मानयन्ति ॥

    १९॥

    मन्दार-मन्दार; कुन्द--कुन्द; कुरब--कुरबक; उत्पल--उत्पल; चम्पक--चम्पक; अर्ण--अर्ण फूल; पुन्नाग--पुन्नाग;नाग--नागकेशर; बकुल--बकुल; अम्बुज--कुमुदिनी; पारिजाता: --पारिजात; गन्धे--सुगन्ध; अर्चिते--पूजित होकर;तुलसिका--तुलसी; आभरणेन--माला से; तस्या: --उसकी; यस्मिन्‌--जिस वैकुण्ठ में; तपः--तपस्या; सु-मनस:--अच्छे मनवाले, वैकुण्ठ मन वाले; बहु--अत्यधिक; मानयन्ति--गुणगान करते हैं।

    यद्यपि मन्दार, कुन्द, कुरबक, उत्पल, चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेशर, बकुल, कुमुदिनीतथा पारिजात जैसे फूलने वाले पौधे दिव्य सुगन्ध से पूरित हैं फिर भी वे तुलसी द्वारा की गईतपस्या से सचेत हैं, क्योंकि भगवान्‌ तुलसी को विशेष वरीयता प्रदान करते हैं और स्वयं तुलसीकी पत्तियों की माला पहनते हैं।

    अल न गवाह ; ल॑ हरिपदानतिमात्रहृष्टेः।

    येषां बृहत्कटितटा: स्मितशोभिमुख्य:कृष्णात्मनां नरज आदधुरुत्स्मयाद्यैः ॥

    २०॥

    यत्‌--वह वैकुण्ठधाम; सह्लु लम्‌--से पूरित; हरि-पद-- भगवान्‌ हरि के दोनों चरण कमलों पर; आनति--नमस्कार द्वारा;मात्र--केवल; दृष्टे:--प्राप्त किये जाते हैं; बैदूर्य--वैदूर्य मणि; मारकत--मरकत; हेम--स्वर्ण; मयै:--से निर्मित; विमानै:--विमानों से; येषाम्‌--उन यात्रियों का; बृहत्‌ू--विशाल; कटि-तटा:ः--कूल्हे; स्मित--हँसते हुए; शोभि--सुन्दर; मुख्य: --मुख-मण्डल; कृष्ण--कृष्ण में; आत्मनामू--जिनके मन लीन हैं; न--नहीं; रज:--यौन इच्छा; आदधु: --उत्तेजित करती है; उत्स्मय-आहद्यैः--घनिष्ठ मित्रवत्‌ व्यवहार, हँसी मजाक द्वारा।

    वैकुण्ठनिवासी वबैदूर्य, मरकत तथा स्वर्ण के बने हुए अपने अपने विमानों में यात्रा करते हैं।

    यद्यपि वे विशाल नितम्बों तथा सुन्दर हँसीले मुखों वाली अपनी-अपनी प्रेयसियों के साथ सटेरहते हैं, किन्तु वे उनके हँसी मजाक तथा उनके सुन्दर मोहकता से कामोत्तेजित नहीं होते।

    श्री रूपिणी क्वणयती चरणारविन्दंलीलाम्बुजेन हरिसदानि मुक्तदोषा ।

    संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्निसम्मार्जतीव यदनुग्रहणेउन्ययत्त: ॥

    २१॥

    श्री--लक्ष्मीजी; रूपिणी --सुन्दर रूप धारण करने वाली; क्वणयती--शब्द करती; चरण-अरविन्दम्‌ू--चरणकमल; लीला-अम्बुजेन--कमल के फूल के साथ क्रीड़ा करती; हरि-सद्यनि-- भगवान्‌ के घर में; मुक्त-दोषा--समस्त दोषों से मुक्त हुई;संलक्ष्यते--दृष्टिगोचर होती है; स्फटिक--संगमरमर; कुड्ये--दीवालों में; उपेत--मिली-जुली; हेम्नि--स्वर्ण ; सम्मार्जती इब--बुहारने वाली की तरह लगने वाली; यत्‌-अनुग्रहणे--उसकी कृपा पाने के लिए; अन्य--दूसरे; यलः--अत्यधिक सतर्क ।

    वैकुण्ठलोकों की महिलाएँ इतनी सुन्दर हैं कि जैसे देवी लक्ष्मी स्वयं है।

    ऐसी दिव्यसुन्दरियाँ जिनके हाथ कमलों के साथ क्रौड़ा करते हैं तथा पाँवों के नुपूर झंकार करते हैं कभीकभी उन संगमरमर की दीवालों को जो थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुनहले किनारों से अलंकृत हैं,इसलिए बुहारती देखी जाती है कि उन्हें भगवान्‌ की कृपा प्राप्त हो सके ।

    वापीषु विद्युमतटास्वमलामृताप्सुप्रेष्यान्विता निजवने तुलसीभिरीशम्‌ ।

    अभ्यर्चती स्वलकमुन्नसमीक्ष्य वक्त्र-मुच्छेषितं भगवतेत्यमताड़ यच्छी: ॥

    २२॥

    वापीषु--तालाबों में; विद्युम--मूँगे के बने; तटासु--किनारे; अमल--पारदर्शी; अमृत-- अमृत जैसे; अप्सु--जल; प्रेष्या-अन्विता--दासियों से घिरी; निज-वने--अपने बगीचे में; तुलसीभि:--तुलसी से; ईशम्‌-- परमेश्वर को; अभ्यर्चती--पूजाकरती हैं; सु-अलकम्‌--तिलक से विभूषित मुखवाली; उन्नसम्‌--उठी नाक; ईक्ष्य--देखकर; वक्त्रमू--मुख; उच्छेषितम्‌--चुम्बित होकर; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; इति--इस प्रकार; अमत--सोचा; अड़--हे देवताओ; यत्ू-श्री:--जिसकी सुन्दरता |

    लक्ष्मियाँ अपने उद्यानों में दिव्य जलाशयों के मूँगे से जड़े किनारों पर तुलसीदल अर्पितकरके भगवान्‌ की पूजा करती हैं।

    भगवान्‌ की पूजा करते समय वे उभरे हुए नाकों से युक्तअपने अपने सुन्दर मुखों के प्रतिबिम्ब को जल में देख सकती हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानोभगवान्‌ द्वारा मुख चुम्बित होने से वे और भी अधिक सुन्दर बन गई हैं।

    यन्न ब्रजन्त्यधभिदो रचनानुवादा-च्छुण्वन्ति येडन्यविषया: कुकथा मतिघ्नी: ।

    यास्तु श्रुता हतभगै्नृभिरात्तसारा-स्तांस्तान्क्षिपन्त्यशरणेषु तमःसु हन्‍्त ॥

    २३॥

    यतू--वैकुण्ठ; न--कभी नहीं; ब्रजन्ति--पहुँचते हैं; अध-भिदः--सभी प्रकार के पापों के विनाशक; रचना--सृष्टि का;अनुवादात्‌--कथन की अपेक्षा; श्रृण्वन्ति--सुनते हैं; ये--जो; अन्य--दूसरों; विषया:--विषय; कु-कथा:--बुरे शब्द; मति-घ्नीः--बुद्धि को मारने वाली; या:--जो; तु--लेकिन; श्रुता:--सुना जाता है; हत-भगैः -- अभागे; नृभि: --मनुष्यों द्वारा;आत्त--छीना हुआ; सारा:--जीवन मूल्य; तान्‌ तानू--ऐसे व्यक्ति; क्षिपन्ति--फेंके जाते हैं; अशरणेषु--समस्त आश्रय सेविहीन; तमःसु--संसार के सबसे अँधेरे भाग में; हन्त--हाय |

    यह अतीव शोचनीय है कि अभागे लोग बैकुण्ठलोकों के विषय में चर्चा नहीं करते, अपितुऐसे विषयों में लगे रहते हैं, जो सुनने के लायक नहीं होते तथा मनुष्य की बुद्धि को संभ्रमितकरते हैं।

    जो लोग वैकुण्ठ के प्रसंगों का त्याग करते हैं, तथा भौतिक जगत की बातें चलाते हैं,वे अज्ञान के गहनतम अंधकार में फेंक दिये जाते हैं।

    येभ्यर्थितामपि च नो नृगतिं प्रपन्नाज्ञानं च तत्त्वविषयं सहधर्म यत्र ।

    नाराधनं भगवतो वितरन्त्यमुष्यसम्मोहिता विततया बत मायया ते ॥

    २४॥

    ये--वे व्यक्ति; अभ्यर्थितामू--वांछित; अपि--निश्चय ही; च--तथा; न: --हमारे ( ब्रह्म तथा अन्य देवताओं ) द्वारा; नू-गतिमू--मनुष्य योनि; प्रपन्ना:--प्राप्त किया है; ज्ञाममू--ज्ञान; च--तथा; तत्त्व-विषयम्‌--परब्रह्म का विषय; सह-धर्मम्‌--धार्मिक सिद्धान्तों सहित; यत्र--जहाँ; न--नहीं; आराधनम्‌ू--पूजा; भगवतः-- भगवान्‌ की; वितरन्ति--सम्पन्न करते हैं;अमुष्य--परमेश्वर का; सम्मोहिता:--मोहग्रस्त; विततया--सर्वव्यापी; बत--हाय; मायया--माया के प्रभाव से; ते--वे |

    ब्रह्माजी ने कहा : हे प्रिय देवताओ, मनुष्य जीवन इतना महत्वपूर्ण है कि हमें भी ऐसे जीवनको पाने की इच्छा होती है, क्योंकि मनुष्य रूप में पूर्ण धार्मिक सत्य तथा ज्ञान प्राप्त किया जासकता है।

    यदि इस मनुष्य जीवन में कोई व्यक्ति भगवान्‌ तथा उनके धाम को नहीं समझ पातातो यह समझना होगा कि वह बाह्य प्रकृति के प्रभाव से अत्यधिक ग्रस्त है।

    यच्च ब्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्यादूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीला: ।

    भर्तुर्मिथ: सुयशसः कथनानुराग-वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताड्ाः ॥

    २५॥

    यतू--वैकुण्ठ; च--तथा; ब्रजन्ति--जाते हैं; अनिमिषाम्‌--देवताओं का; ऋषभ--मुखिया; अनुवृत्त्या--चरणचिद्नों काअनुसरण करके; दूरे--दूर रहते हुए; यमा:--विधि-विधान; हि--निश्चय ही; उपरि--ऊपर; न:ः--हमको; स्पृहणीय--वांछनीय;शीला:--सद्‌गुण; भर्तुः--भगवान्‌ के; मिथ:--एक दूसरे के लिए; सुयशसः --ख्याति; कथन--विचार विमर्श या वार्ताओंद्वारा; अनुराग--आकर्षण; वैक्लव्य-- भाव, आनन्द; बाष्प-कलया--आँखों में अश्रु; पुलकी-कृत--काँपते हुए; अड्भा:--शरीर

    आनन्दभाव में जिन व्यक्तियों के शारीरिक लक्षण परिवर्तित होते हैं और जो भगवान्‌ कीमहिमा का श्रवण करने पर गहरी-गहरी साँस लेने लगते हैं तथा प्रस्वेदित हो उठते हैं, वेभगवद्धाम को जाते हैं भले ही वे ध्यान तथा अन्य अनुष्ठानों की तनिक भी परवाह न करते हों।

    भगवद्धाम भौतिक ब्रह्माण्डों के ऊपर है और ब्रह्मा तथा अन्य देवतागण तक इसकी इच्छा करतेहैं।

    तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्॑दिव्यं विचित्रविबुधाछयविमानशोचि: ।

    आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग-मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम्‌ ॥

    २६॥

    तत्‌--तब; विश्व-गुरु--ब्रह्माण्ड के गुरु अर्थात्‌ परमेश्वर द्वारा; अधिकृतम्‌--अधिकृत; भुवन--लोकों का; एक--एकमात्र;वन्द्यमू--पूजा जाने योग्य; दिव्यम्‌--आध्यात्मिक; विचित्र--अत्यधिक अलंकृत; विबुध-अछय--भक्तों का ( जो दिद्ठानों मेंसर्वश्रेष्ठ हैं )) विमान--वायुयानों का; शोचि:--प्रकाशित; आपु: --प्राप्त किया; पराम्‌--सर्वोच्च; मुदम्‌--सुख; अपूर्वम्‌--अभूतपूर्व; उपेत्य--प्राप्त करके ; योग-माया-- आध्यात्मिक शक्ति द्वारा; बलेन--प्रभाव द्वारा; मुन॒यः--मुनिगण; तत्‌--वैकुण्ठ;अथो--वह; विकुण्ठम्‌--विष्णु।

    इस तरह सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार नामक महर्षियों ने अपने योग बल से आध्यात्मिक जगत के उपर्युक्त वैकुण्ठ में पहुँच कर अभूतपूर्व सुख का अनुभव किया।

    उन्होंनेपाया कि आध्यात्मिक आकाश अत्यधिक अलंकृत विमानों से, जो बैकुण्ठ के सर्वश्रेष्ठ भक्तोंद्वारा चालित थे, प्रकाशमान था और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ द्वारा अधिशासित था।

    तस्मिन्नतीत्य मुनयः षडसज्जमाना:कक्षा: समानवयसावथ सप्तमायाम्‌ ।

    देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य-केयूरकुण्डलकिरीटविटड्डूवेषौ ॥

    २७॥

    तस्मिन्‌--उस वैकुण्ठ में; अतीत्य--पार कर लेने पर; मुनयः--मुनियों ने; घट्‌ू--छह; असज्ज माना:--बिना आकृष्ट हुए;कक्षा:--द्वार; समान--बराबर; वयसौ-- आयु; अथ--तत्पश्चात्‌; सप्तमायाम्‌--सातवें द्वार पर; देवौ--वैकुण्ठ के दो द्वारपालों;अचक्षत--देखा; गृहीत--लिये हुए; गदौ--गदाएँ; पर-अर्ध्य--सर्वाधिक मूल्यवान; केयूर--बाजूबन्द; कुण्डल--कान केआभूषण; किरीट--मुकुट; विटड्ढू--सुन्दर; वेषौ--वस्त्र |

    भगवान्‌ के आवास वैकुण्ठपुरी के छः द्वारों को पार करने के बाद और सजावट से तनिकभी आश्चर्यचकित हुए बिना, उन्होंने सातवें द्वार पर एक ही आयु के दो चमचमाते प्राणियों कोदेखा जो गदाएँ लिए हुए थे और अत्यन्त मूल्यवान आभूषणों, कुण्डलों, हीरों, मुकुटों, वस्त्रोंइत्यादि से अलंकृत थे।

    मत्तद्विरफिवनमालिकया निवीतौविन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये ।

    वकत्रं भ्रुवा कुटिलया स्फुटनिर्गमाभ्यांरक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥

    २८॥

    मत्त--उन्मत्त; द्वि-रेफ-- भौरे; बन-मालिकया--ताजे फूलों की माला से; निवीतौ--गर्दन पर लटकते; विन्यस्तवा--चारों ओररखे हुए; असित--नीला; चतुष्टय--चार; बाहु--हाथ; मध्ये--बीच में; वक्त्रमू--मुखमण्डल; भ्रुवा--भौहों से; कुटिलया--टेढ़ी; स्फुट--हुँकारते हुए; निर्गमाभ्याम्‌-- श्वास; रक्त--लालाभ; ईक्षणेन-- आँखों से; च--तथा; मनाक्‌ू--कुछ कुछ;रभसम्‌--चंचल, क्षुब्ध; दधानौ--दृष्टि फेरी |

    दोनों द्वारपाल ताजे फूलों की माला पहने थे, जो मदोन्मत्त भौंरों को आकृष्ट कर रही थींऔर उनके गले के चारों ओर तथा उनकी चार नीली बाहों के बीच में पड़ी हुई थीं।

    अपनीकुटिल भौहों, अतृप्त नथनों तथा लाल लाल आँखों से वे कुछ कुछ श्षुब्ध प्रतीत हो रहे थे।

    द्वार्येतयोर्निविविशुर्मिषतोरपृष्टापूर्वा यथा पुरटवज्ञकपाटिका या: ।

    सर्वत्र तेशविषमया मुनय: स्वदृष्टयाये सञ्जरन्त्यविहता विगताभिशड्भा: ॥

    २९॥

    द्वारि--द्वार पर; एतयो: --दोनों द्वारपाल; निविविशु:--प्रवेश किया; मिषतो:--देखते देखते; अपृष्ठा --बिना पूछे; पूर्वा:--पहलेकी तरह; यथा--जिस तरह; पुरट--स्वर्ण ; वज्ञ--तथा हीरों से बना; कपाटिका:--दरवाजे; या:--जो; सर्वत्र--सभी जगह;ते--वे; अविष-मया--बिना भेदभाव के; मुनय:--मुनिगण; स्व-दृष्टया--स्वेच्छा से; ये--जो; सञ्जलरन्ति--विचरण करते हैं;अविहता:--बिना रोक टोक के; विगत--बिना; अभिश्ढा:--सन्देह।

    सनक इत्यादि मुनियों ने सभी जगहों के दरवाजों को खोला।

    उन्हें अपने पराये का कोईविचार नहीं था।

    उन्होंने खुले मन से स्वेच्छा से उसी तरह साततें द्वार में प्रवेश किया जिस तरह वेअन्य छह दरवाजों से होकर आये थे, जो सोने तथा हीरों से बने हुए थे।

    तान्वीक्ष्य वातरशनां श्वतुरः कुमारान्‌वृद्धान्दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान्‌ ।

    वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौतेजो विहस्य भगवत्प्रतिकूलशीलौ ॥

    ३०॥

    तानू--उनको; वीक्ष्य--देखकर; वात-रशनान्‌--नग्न; चतुर: --चार; कुमारानू--बालकों को; वृद्धान्‌ू--काफी आयु वाले;दश-अर्ध--पांच वर्ष; वबस:--आयु के लगने वाले; विदित--अनुभव कर चुके थे; आत्म-तत्त्वानू--आत्मा के सत्य को;वेत्रेण-- अपने डंडों से; च-- भी; अस्खलयताम्‌--मना किया; अ-तत्‌ -अर्हणान्‌--उनसे ऐसी आशा न करते हुए; तौ--वे दोनोंद्वारपाल; तेज:--यश; विहस्य--शिष्टाचार की परवाह न करके; भगवत्-प्रतिकूल-शीलौ-- भगवान्‌ को नाराज करने वालेस्वभाव वाले।

    चारों बालक मुनि, जिनके पास अपने शरीरों को ढकने के लिए वायुमण्डल के अतिरिक्तकुछ नहीं था, पाँच वर्ष की आयु के लग रहे थे यद्यपि वे समस्त जीवों में सबसे वृद्ध थे औरउन्होंने आत्मा के सत्य की अनुभूति प्राप्त कर ली थी।

    किन्तु जब द्वारपालों ने, जिनके स्वभावभगवान्‌ को तनिक भी रुचिकर न थे, इन मुनियों को देखा तो उन्होंने उनके यश का उपहासकरते हुए अपने डंडों से उनका रास्ता रोक दिया, यद्यपि ये मुनि उनके हाथों ऐसा बर्ताव पाने केयोग्य न थे।

    ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमाना:स्व्हनत्तमा ह्ापि हरे: प्रतिहारपा भ्याम्‌ ।

    ऊचु: सुहृत्तमदिदृक्षितभड़ ईष-त्कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षा: ॥

    ३१॥

    ताभ्याम्‌--उन दोनों द्वारपालों द्वारा; मिषत्सु--इधर उधर देखते हुए; अनिमिषेषु--वैकुण्ठ में रहने वाले देवताओं;निषिध्यमाना:--मना किये जाने पर; सु-अर्त्तमा: --सर्वोपयुक्त व्यक्तियों द्वारा; हि अपि--यद्यपि; हरेः-- भगवान्‌ हरि का;प्रतिहार-पाभ्याम्‌--दो द्वारपालों द्वारा; ऊचु:--कहा; सुहृत्‌-तम--अत्यधिक प्रिय; दिदृक्षित--देखने की उत्सुकता; भड्ढे--अवरोध; ईषत्‌ू-- कुछ कुछ; काम-अनुजेन--काम के छोटे भाई ( क्रोध ) द्वारा; सहसा--अचानक; ते--वे ऋषि; उपप्लुत--विश्षुब्ध; अक्षा:--आँखें

    इस तरह सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति होते हुए भी जब चारों कुमार अन्य देवताओं के देखतेदेखते श्री हरि के दो प्रमुख द्वारपालों द्वारा प्रवेश करने से रोक दिये गये तो अपने सर्वाधिक प्रियस्वामी श्रीहरि को देखने की परम उत्सुकता के कारण उनके नेत्र क्रोधवश सहसा लाल हो गये।

    मुनय ऊचु:को वामिहैत्य भगवत्परिचर्ययोच्चै-स्तद्धर्मिणां निवसतां विषम: स्वभाव: ।

    तस्मिन्प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे वांको वात्मवत्कुहकयो: परिशड्डूनीय: ॥

    ३२॥

    मुनयः--मुनियों ने; ऊचु;--कहा; कः--कौन; वाम्‌--तुम दोनों; इह--वैकुण्ठ में; एत्य--प्राप्त करके; भगवत्‌-- भगवान्‌ को;परिचर्यया--सेवा द्वारा; उच्चै:--विगत पुण्यकर्मो के द्वारा उन्नति करके; तत्‌-धर्मिणाम्‌-- भक्तों के; निवसताम्‌--वैकुण्ठ में रहतेहुए; विषम:--विरोधी; स्वभाव: --मनो वृत्ति; तस्मिनू-- भगवान्‌ में; प्रशान्त-पुरुषे--निश्चिन्त, चिन्तारहित; गत-विग्रहे--शत्रुविहीन; वाम्‌ू--तुम दोनों का; कः--कौन; वा--अथवा; आत्म-वत्‌-- अपने समान; कुहकयो:--द्वैतभाव रखने वाले;परिशड्भूनीय:--विश्वासपात्र न होना।

    मुनियों ने कहा : ये दोनों व्यक्ति कौन हैं जिन्होंने ऐसी विरोधात्मक मनोवृत्ति विकसित कररखी है।

    ये भगवान्‌ की सेवा करने के उच्चतम पद पर नियुक्त हैं और इनसे यह उम्मीद की जातीहै कि इन्होंने भगवान्‌ जैसे ही गुण विकसित कर रखे होंगे? ये दोनों व्यक्ति वैकुण्ठ में किस तरहरह रहे हैं? इस भगवद्धाम में किसी शत्रु के आने की सम्भावना कहाँ है ? पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌का कोई शत्रु नहीं है।

    भला उनका कौन ईर्ष्यालु हो सकता है ? शायद ये दोनों व्यक्ति कपटी हैं,अतएव अपनी ही तरह होने की अन्यों पर शंका करते हैं।

    न हान्तरं भगवतीह समस्तकुक्षा-वात्मानमात्मनि नभो नभसीव धीरा: ।

    पश्यन्ति यत्र युवयो: सुरलिड्रिनो: किव्युत्पादितं ह्युदरभेदि भयं यतोस्य ॥

    ३३॥

    न--नहीं; हि-- क्योंकि; अन्तरम्‌- भेद, अन्तर; भगवति-- भगवान्‌ में; हह--यहाँ; समस्त-कुक्षौ --हर वस्तु उदर के भीतर है;आत्मानम्‌ू--जीव; आत्मनि--परमात्मा में; नभ: --वायु की अल्प मात्रा; नभसि--सम्पूर्ण वायु के भीतर; इब--सहश; धीरा:--विद्वान; पश्यन्ति--देखते हैं; यत्र--जिसमें; युवयो:--तुम दोनों का; सुर-लिड्डिनो:--वैकुण्ठ वासियों की तरह वेश बनाएँ;किम्‌--कैसे; व्युत्पादितमू--विकसित, जागृत; हि--निश्चय ही; उदर-भेदि--शरीर तथा आत्मा में अन्तर; भयम्‌--डर; यत:--जहाँ से; अस्य--परमे श्वर का ।

    वैकुण्ठलोक में वहाँ के निवासियों तथा भगवान्‌ में उसी तरह पूर्ण सामझझजस्य है, जिस तरहअन्तरिक्ष में वृहत्‌ तथा लघु आकाशों में पूर्ण सामझस्य रहता है।

    तो इस सामञझस्य के क्षेत्र मेंभय का बीज क्‍यों है? ये दोनों व्यक्ति वैकुण्ठवासियों की तरह वेश धारण किये हैं, किन्तुउनका यह असामञझस्य कहाँ से उत्पन्न हुआ ?

    तद्ठाममुष्य परमस्य विकुण्ठभर्तु:कर्तु प्रकृष्ठमिह धीमहि मन्दधी भ्याम्‌ ।

    लोकानितो ब्रजतमन्तरभावदृष्टययापापीयसस्त्रय इमे रिपवोस्थ यत्र ॥

    ३४॥

    तत्‌--इसलिए; वाम्‌--इन दोनों को; अमुष्य--उस; परमस्थ--परम का; विकुण्ठ- भर्तु:--वैकुण्ठ के स्वामी; कर्तुम्‌ू--प्रदानकरने के लिए; प्रकृष्टमू--लाभ; इह--इस अपराध के विषय में; धीमहि--हम विचार करें; मन्द-धीभ्याम्‌--मन्द बुद्धि वाले;लोकानू्‌-- भौतिक जगत को; इतः--इस स्थान ( बैकुण्ठ ) से; ब्रजतम्‌--चले जाओ; अन्तर-भाव-दद्विधा; दृष्या--देखने केकारण; पापीयस: --पापी; त्रयः--तीन; इमे--ये; रिपव: --शत्रु; अस्य--जीव के; यत्र--जहाँ

    अतएव हम विचार करें कि इन दो संदूषित व्यक्तियों को किस तरह दण्ड दिया जाय।

    जोदण्ड दिया जाय वह उपयुक्त हो क्योंकि इस तरह से अन्ततः उन्हें लाभ दिया जा सकता है।

    चूँकिवे वैकुण्ठ जीवन के अस्तित्व में द्वैध पाते हैं, अत: वे संदूषित हैं और इन्हें इस स्थान से भौतिकजगत में भेज दिया जाना चाहिए जहाँ जीवों के तीन प्रकार के शत्रु होते हैं।

    तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरंतं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगै: ।

    सद्यो हरेरनुचरावुरु बिभ्यतस्ततू-पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥

    ३५॥

    तेषाम्‌--चारों कुमारों के; इति--इस प्रकार; ईरितम्‌--उच्चरित; उभौ--दोनों द्वारपाल; अवधार्य --समझ करके; घोरम्‌--भयंकर; तम्‌ू--उस; ब्रह्म-दण्डम्‌--ब्राह्मण के शाप को; अनिवारणम्‌--जिसका निवारण न किया जा सके; अस्त्र-पूगैः--किसी प्रकार के हथियार द्वारा; सद्य;ः--तुरन्त; हरेः-- भगवान्‌ के; अनुचरौ -- भक्तगण; उरु-- अत्यधिक; बिभ्यतः -- भयभीत होउठे; तत्‌-पाद-ग्रहौ--उनके पाँव पकड़ कर; अपतताम्‌--गिर पड़े; अति-कातरेण--अत्यधिक चिन्ता में

    जब वैकुण्ठलोक के द्वारपालों ने, जो कि सचमुच ही भगवद्भक्त थे, यह देखा कि वेब्राह्मणों द्वारा शापित होने वाले हैं, तो वे तुरन्त बहुत भयभीत हो उठे और अत्यधिक चिन्तावशब्राह्मणों के चरणों पर गिर पड़े, क्योंकि ब्राह्मण के शाप का निवारण किसी भी प्रकार केहथियार से नहीं किया जा सकता।

    भूयादघोनि भगवद्धिरकारि दण्डोयो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम्‌ ।

    मा वोनुतापकलया भगवत्स्मृतिध्नोमोहो भवेदिह तु नौ ब्रजतोरधोध: ॥

    ३६॥

    भूयात्‌--ऐसा ही हो; अघोनि--पापी के लिए; भगवद्धि:--आपके द्वारा; अकारि--किया गया; दण्ड:--दण्ड; य:--जो;नौ--हमारे सम्बन्ध में; हरेत--नष्ट करे; सुर-हेलनम्‌--महान्‌ देवताओं की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए; अपि--निश्चय ही;अशेषम्‌--असीम; मा--नहीं; वः--तुम्हारा; अनुताप--पछतावा; कलया--थोड़ा थोड़ा करके; भगवत्‌-- भगवान्‌ का; स्मृति-घन:--स्मरण शक्ति का विनाश करते हुए; मोह: --मोह; भवेत्‌--हो; इह-मूर्ख जीवयोनि में; तु--लेकिन; नौ--हम दोनों का;ब्रजतो:--जा रहे; अध: अध:--नीचे भौतिक जगत को

    मुनियों द्वारा शापित होने के बाद द्वारपालों ने कहा : यह ठीक ही हुआ कि आपने हमें आपजैसे मुनियों क