श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 3
अध्याय एक: विदुर के प्रश्न
3.1श्रीशुक उबाचएवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान्किल ।
क्षत्रा वन॑ प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृहमृद्द्धिमत् ॥ १॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; एतत्--यह; पुरा--पूर्व काल में; पृष्ठ: --पूछने पर;मैत्रेय: --मैत्रेय ऋषि ने कहा; भगवान्--अनुग्रहकारी; किल--निश्चय ही; क्षत्रा--विदुर द्वारा; बनम्ू--जंगल में; प्रविष्टन--प्रविष्ट हुए; त्यक्त्वा--त्याग कर; स्व-गृहम्--अपना घर; ऋद्धिमत्--समृद्ध
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपना समृद्ध घर त्याग कर जंगल में प्रवेश करके महान् भक्तराजा विदुर ने अनुग्रहकारी मैत्रेय ऋषि से यह प्रश्न पूछा।
"
यद्वा अयं मन्त्रकृद्दो भगवानखिलेश्वर: ।
पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम् ॥
२॥
यत्--जो घर; बै--और क्या कहा जा सकता है; अयमू-- श्रीकृष्ण; मन्त्र-कृतू--मंत्री; व: --तुम लोग; भगवान्-- भगवान्;अखिल-ईश्वर:--सबके स्वामी; पौरवेन्द्र--दुर्योधन के; गृहम्ू--घर को; हित्वा--त्याग कर; प्रविवेश--प्रविष्ट हुए;आत्मसात्--अपना ही; कृतम्--स्वीकार किया हुआ।
पाण्डवों के रिहायशी मकान के विषय में और क्या कहा जा सकता है? सबों के स्वामीश्रीकृष्ण तुम लोगों के मंत्री बने।
वे उस घर में इस तरह प्रवेश करते थे मानो वह उन्हीं का अपनाघर हो और वे दुर्योधन के घर की ओर कोई ध्यान ही नहीं देते थे।
"
राजोबाचकुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सड्रमः ।
कदा वा सह संवाद एतद्ठर्णय नः प्रभो ॥
३॥
राजा उवाच--राजा ने कहा; कुत्र--कहाँ; क्षत्तु:--विदुर के साथ; भगवता--तथा अनुग्रहकारी; मैत्रेयेण--मैत्रेय के साथ;आस-हुईं थी; सड़्म:--मिलन, भेंट; कदा--कब; वा--भी; सह--साथ; संवाद: --विचार-विमर्श; एतत्--यह; वर्णय--वर्णन कीजिये; न:ः--मुझसे; प्रभो-हे प्रभु
राजा ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा : सन्त विदुर तथा अनुग्रहकारी मैत्रेय मुनि के बीच कहाँऔर कब यह भेंट हुई तथा विचार-विमर्श हुआ ? हे प्रभु, कृपा करके यह कहकर मुझे कृतकृत्यकरें।
"
न हाल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्यामलात्मन: ।
तस्मिन्वरीयसि प्रश्न: साधुवादोपबूंहितः ॥
४॥
न--कभी नहीं; हि--निश्चय ही; अल्प-अर्थ--लघु ( महत्त्वहीन ) कार्य; उदय: --उठाया; तस्थ--उसका; विदुरस्य--विदुर का;अमल-आत्मन:--सन््त पुरुष का; तस्मिन्ू--उसमें; वरीयसि-- अत्यन्त सार्थक; प्रश्न:-- प्रश्न; साधु-वाद--सन््तों तथा ऋषियोंद्वारा अनुमोदित वस्तुएँ; उपबृंहित:--से पूर्ण |
सन्त विदुर भगवान् के महान् एवं शुद्ध भक्त थे, अतएव कृपालु ऋषि मैत्रेय से पूछे गयेउनके प्रश्न अत्यन्त सार्थक, उच्चस्तरीय तथा विद्वन्मण्डली द्वारा अनुमोदित रहे होंगे।
"
सूत उबाचस एवमृषिवर्यो यं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता ।
प्रत्याह तं सुबहुवित्प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥
५॥
सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; सः--वह; एवम्--इस प्रकार; ऋषि-वर्य: --महान् ऋषि; अयम्--शुककदेवगोस्वामी; पृष्ट:--पूछे जाने पर; राज्ञा--राजा; परीक्षिता--महाराज परीक्षित द्वारा; प्रति--से; आह--कहा; तम्--उस राजा को;सु-बहु-वित्--अत्यन्त अनुभवी; प्रीत-आत्मा--पूर्ण तुष्ट; श्रूयताम्--कृपया सुनें; इति--इस प्रकार
श्री सूत गोस्वामी ने कहा : महर्षि शुकदेव गोस्वामी अत्यन्त अनुभवी थे और राजा से प्रसन्नथे।
अतः राजा द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन्होंने उससे कहा; कृपया इस विषय को ध्यान पूर्वक सुनें ।
श्रीशुक उबाचयदा तु राजा स्वसुतानसाधून्पुष्णन्न धर्मेण विनष्टदृष्टि: ।
क्रातुर्यविष्ठस्थ सुतान्विबन्धून्प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥
६॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; यदा--जब; तु--लेकिन; राजा--राजा धृतराष्ट्र; स्व-सुतान्--अपने पुत्रों को;असाधून्--बेईमान; पुष्णन्--पोषण करते हुए; न--कभी नहीं; धर्मेण--उचित मार्ग पर; विनष्ट-दृष्टि:--जिसकी अन्तःदृष्टि खोचुकी है; भ्रातु:--अपने भाई के; यविष्ठस्थ--छोटे, सुतान्; सुतान्--पुत्रों को; विबन्धूनू-- अनाथ; प्रवेश्य--प्रवेश करा कर;लाक्षा--लाख के; भवने--घर में; ददाह-- आग लगा दी
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : राजा धृतराष्ट्र अपने बेईमान पुत्रों का पालन-पोषण करनेकी अपवित्र इच्छाओं के वश में होकर अन्तर्दृष्टि खो चुका था और उसने अपने पितृविहीनभतीजों, पाण्डवों को जला डालने के लिए लाक्षागृह में आग लगा दी।
यदा सभायां कुरुदेवदेव्या:केशाभिमर्श सुतकर्म गह्म॑म् ।
न वारयामास नृपः स्नुषाया:स्वास्ैहरन्त्या: कुचकुड्डू मानि ॥
७॥
यदा--जब; सभायाम्--सभा में; कुरू-देव-देव्या:--देवतुल्य युधिष्ठिर की पती द्रौपदी का; केश-अभिमर्शम्--उसके बालपकड़ने के अपमान; सुत-कर्म--अपने पुत्र द्वारा किया गया कार्य; गहाम्--निन्दनीय; न--नहीं; वारयाम् आस--मना किया;नृप:--राजा; स्नुषाया: --अपनी पुत्रबधू के; स्वास्त्री:--उसके अश्रुओं से; हरन्त्या:-- धोती हुई; कुच-कुट्डु मानि--अपनेवक्षस्थल के कुंकुम को |
(इस ) राजा ने अपने पुत्र दुःशासन द्वारा देवतुल्य राजा युधिष्टिर की पत्नी द्रौपदी के बालखींचने के निन्दनीय कार्य के लिए मना नहीं किया, यद्यपि उसके अश्रुओं से उसके वक्षस्थल काकुंकुम तक धुल गया था।
झूते त्वधर्मेण जितस्य साधो:सत्यावलम्बस्य वनं गतस्य ।
न याचतोडदात्समयेन दायंतमोजुषाणो यदजातशत्रो; ॥
८॥
झूते--जुआ खेलकर; तु-- लेकिन; अधर्मेण--कुचाल से; जितस्थ--पराजित; साधो:--सन््त पुरुष का; सत्य-अवलम्बस्य--जिसने सत्य को शरण बना लिया है; वनम्ू--जंगल; गतस्य-- जाने वाले का; न--कभी नहीं; याचत:--माँगे जाने पर;अदातू-दिया; समयेन--समय आने पर; दायम्ू--उचित भाग; तम:ः-जुषाण: --मोह से अभिभूत; यत्--जितना; अजात-शत्रो:--जिसके कोई शत्रु न हो, उसका।
युथ्ष्टिर, जो कि अजातशत्रु हैं, जुए में छलपूर्वक हरा दिये गये।
किन्तु सत्य का ब्रत लेने केकारण वे जंगल चले गये।
समय पूरा होने पर जब वे वापस आये और जब उन्होंने साम्राज्य काअपना उचित भाग वापस करने की याचना की तो मोहग्रस्त धृतराष्ट्र ने देने से इनकार कर दिया।
यदा च पार्थप्रहितः सभायांजगदगुरुर्यानि जगाद कृष्ण: ।
न तानि पुंसाममृतायनानिराजोरु मेने क्षतपुण्यलेश: ॥
९॥
यदा--जब; च-- भी; पार्थ-प्रहित: --अर्जुन द्वारा सलाह दिये जाने पर; सभायाम्--सभा में; जगत्-गुरु:--संसार के गुरु को;यानि--उन; जगाद--गया; कृष्ण: -- भगवान् कृष्ण; न--कभी नहीं; तानि--शब्दों को; पुंसामू--सभी विवेकवान व्यक्तियोंके; अमृत-अयनानि--अमृत तुल्य; राजा--राजा ( धृतराष्ट्र या दुर्योधन ); उरुू--अत्यन्त महत्त्वपूर्ण; मेने--विचार किया; क्षत--क्षीण; पुण्य-लेश:--पुण्यकर्मों का अंश
अर्जुन ने श्रीकृष्ण को जगदगुरु के रूप में ( धृतराष्ट्र की ) सभा में भेजा था और यद्यपिउनके शब्द कुछेक व्यक्तियों ( यथा भीष्म ) द्वारा शुद्ध अमृत के रूप में सुने गये थे, किन्तु जोलोग पूर्वजन्म के पुण्यकर्मो के लेशमात्र से भी वंचित थे उन्हें वे वैसे नहीं लगे।
राजा ( धृतराष्ट्रया दुर्योधन ) ने कृष्ण के शब्दों को गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया।
यदोपहूतो भवन प्रविष्टोमन्त्राय पृष्टः किल पूर्वजेन ।
अथाह तन्मन्त्रदहशां वरीयान्यन्मन्त्रिणो वैदुरिकं वदन्ति ॥
१०॥
यदा--जब; उपहूत: --बुलाया गया; भवनम्--राजमहल में; प्रविष्ट:--प्रवेश किया; मन्त्राय--मंत्रणा के लिए; पृष्ट:--पूछे जानेपर; किल--निस्सन्देह; पूर्वजेन--बड़े भाई द्वारा; अथ--इस प्रकार; आह--कहा; तत्--वह; मन्त्र--उपदेश; दृशाम्--उपयुक्त;वरीयानू-- श्रेष्ठठम; यत्--जो; मन्त्रिण:--राज्य के मंत्री अथवा पटु राजनीतिज्ञ; बैदुरिकम्--विदुर द्वारा उपदेश; वदन्ति--कहतेहैं।
जब विदुर अपने ज्येष्ठ भ्राता ( धृतराष्ट्र ) द्वारा मंत्रणा के लिए बुलाये गये तो वे राजमहल मेंप्रविष्ट हुए और उन्होंने ऐसे उपदेश दिये जो उपयुक्त थे।
उनका उपदेश सर्वविदित है और राज्य केदक्ष मन्त्रियों द्वारा अनुमोदित है।
अजाततपत्रो: प्रतियच्छ दाय॑ तितिक्षतो दुर्विषह्ं तवाग: ।
सहानुजो यत्र वृकोदराहिःश्रसन्रुषा यत्त्वमलं बिभेषि ॥
११॥
अजात-शत्रो:--युधिष्ठिर का, जिसका कोई शत्रु नहीं है; प्रतियच्छ--लौटा दो; दायम्ू--उचित भाग; तितिक्षत:--सहिष्णु का;दुर्विषमम्--असहा; तव--तुम्हारा; आग: --अपराध; सह--सहित; अनुज: --छोटे भाइयों; यत्र--जिसमें; वृकोदर-- भीम;अहिः--बदला लेने वाला सर्प; श्रसन्--उच्छास भरा; रुषा--क्रोध में; यत्--जिससे; त्वम्ू--तुम; अलम्ू--निश्चय ही;बिभेषि--डरते हो |
[विदुर ने कहा तुम्हें चाहिए कि युधिष्ठिर को उसका न््यायोचित भाग लौटा दो, क्योंकिउसका कोई शत्रु नहीं है और वह तुम्हारे अपराधों के कारण अकथनीय कष्ट सहन करता रहा है।
वह अपने छोटे भाइयों सहित प्रतीक्षारत है जिनमें से प्रतिशोध की भावना से पूर्ण भीम सर्प कीतरह उच्छास ले रहा है।
तुम निश्चय ही उससे भयभीत हो।
पार्थास्तु देवो भगवान्मुकुन्दोगृहीतवान्सक्षितिदेवदेव: ।
आस्ते स्वपुर्या यदुदेवदेवोविनिर्जिताशेषनूदेवदेव: ॥
१२॥
पार्थानू-पृथा ( कुन्ति ) के पुत्रों को; तु--लेकिन; देव:--प्रभु; भगवान्-- भगवान् मुकुन्दः --मुक्तिदाता श्रीकृष्ण ने;गृहीतवान्--ग्रहण कर लिया है; स--सहित; क्षिति-देव-देव:--ब्राह्मण तथा देवता; आस्ते--उपस्थित है; स्व-पुर्यामू-- अपनेपरिवार सहित; यदु-देव-देव: --यदुवंश के राजकुल द्वारा पूजित; विनिर्जित--जीते हुए; अशेष---असीम; नृदेव--राजा;देवः--स्वामी।
भगवान् कृष्ण ने पृथा के पुत्रों को अपना परिजन मान लिया है और संसार के सारे राजाश्रीकृष्ण के साथ हैं।
वे अपने घर में अपने समस्त पारिवारिक जनों, यदुकुल के राजाओं तथाराजकुमारों के साथ, जिन्होंने असंख्य शासकों को जीत लिया है, उपस्थित हैं और वे उन सबों केस्वामी हैं।
स एष दोष: पुरुषद्विडास्तेगृहान्प्रविष्टो यमपत्यमत्या ।
पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्रीस्त्यजाश्रशैवं कुलकौशलाय ॥
१३॥
सः--वह; एष:--यह; दोष: --साक्षात् अपराध; पुरुष-द्विट्ू-- श्रीकृष्ण का ईर्ष्यालु; आस्ते--विद्यमान है; गृहान्--घर में;प्रविष्ट: --प्रवेश किया हुआ; यम्--जिसको; अपत्य-मत्या--अपना पुत्र सोचकर; पुष्णासि--पालन कर रहे हो; कृष्णात्--कृष्ण से; विमुख:--विरुद्ध; गत-श्री:-- प्रत्येक शुभ वस्तु से विहीन; त्यज--त्याग दो; आशु--यथाशीघ्र; अशैवम्-- अशुभ;कुल--परिवार; कौशलाय-के हेतु
तुम साक्षात् अपराध रूप दुर्योधन का पालन-पोषण अपने अच्युत पुत्र के रूप में कर रहे हो,किन्तु वह भगवान् कृष्ण से ईर्ष्या करता है।
चूँकि तुम इस तरह से कृष्ण के अभक्त का पालनकर रहे हो, अतएवं तुम समस्त शुभ गुणों से विहीन हो।
तुम यथाशीघ्र इस दुर्भाग्य से छुटकारापा लो और सारे परिवार का कल्याण करो।
इत्यूचिवांस्तत्र सुयोधनेनप्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण ।
असत्कृतः सत्स्पृहणीयशीलःक्षत्ता सकर्णानुगसौबलेन ॥
१४॥
इति--इस प्रकार; ऊचिवान्--कहते हुए; तत्र--वहाँ; सुयोधनेन--दुर्योधन द्वारा; प्रवृद्ध--फूला हुआ; कोप--क्रो ध से;स्फुरित--फड़कते हुए; अधरेण--होठों से; असत्-कृत:--अपमानित; सत्--सम्मानित; स्पृहणीय-शील:--वांछित गुण;क्षत्ता--विदुर; स--सहित; कर्ण--कर्ण; अनुज--छोटे भाइयों; सौबलेन--शकुनि सहित |
विदुर जिनके चरित्र का सभी सम्मानित व्यक्ति आदर करते थे, जब इस तरह बोल रहे थे तोदुर्योधन द्वारा उनको अपमानित किया गया।
दर्योधन क्रोध के मारे फूला हुआ था और उसकेहोंठ फड़क रहे थे।
दुर्योधन कर्ण, अपने छोटे भाइयों तथा अपने मामा शकुनी के साथ था।
'क एनमत्रोपजुहाव जिहांदास्या: सुतं यद्वलिनैव पुष्ट: ।
तस्मिन्प्रतीप: परकृत्य आस्तेनिर्वास्यतामाशु पुराच्छुसान: ॥
१५॥
कः--कौन; एनम्--यह; अत्र--यहाँ; उपजुहाव--बुलाया; जिह्मम्--कुटिल; दास्या:--रखैल के; सुतम्--पुत्र को; यत्--जिसके; बलिना--भरण से; एव--निश्चय ही; पुष्ट:--बड़ा हुआ; तस्मिन्--उसको; प्रतीप:--शत्रुता; परकृत्य--शत्रु का हित;आस्ते--स्थित है; निर्वास्थताम्ू--बाहर निकालो; आशु--तुरन्त; पुरातू--महल से; श्रसान:--उसकी केवल साँस चलने दो।
इस रखैल के पुत्र को यहाँ आने के लिए किसने कहा है ? यह इतना कुटिल है कि जिनकेबल पर यह बड़ा हुआ है उन्हीं के विरुद्ध शत्रु-हित में गुप्तचरी करता है।
इसे तुरन्त इस महल सेनिकाल बाहर करो और इसकी केवल साँस भर चलने दो।
स्वयं धनुर्द्धारि निधाय मायांभ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोपि ।
स इत्थमत्युल्बणकर्णबाणै-गतव्यथोयादुरु मानयान: ॥
१६॥
स्वयम्--स्वयं; धनु: द्वारि--दरवाजे पर धनुष; निधाय--रखकर; मायाम्--माया, बाहरी प्रकृति को; भ्रातु:--भाई के; पुर: --राजमहल से; मर्मसु--अपने हृदय में; ताडित:--दुखी होकर; अपि-- भी; स:ः--वह ( विदुर ); इत्थम्--इस तरह; अति-उल्बण--अत्यंत कठोरता से; कर्ण--कान; बाणै:--तीरों से; गत-व्यथ:--दुखी हुए बिना; अयात्--उत्तेजित हुआ; उरू--अत्यधिक; मान-यान: --इस प्रकार विचारते हुए
इस तरह अपने कानों से होकर वाणों द्वारा बेधे गये और अपने हृदय के भीतर मर्माहत विदुरने अपना धनुष दरवाजे पर रख दिया और अपने भाई के महल को छोड़ दिया।
उन्हें कोई खेदनहीं था, क्योंकि वे माया के कार्यों को सर्वोपरि मानते थे।
स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धोगजाह्नयात्तीर्थथदः पदानि ।
अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोव्याम्अधिष्ठितो यानि सहस्त्रमूर्ति: ॥
१७॥
सः--वह ( विदुर ); निर्गतः--छोड़ने के बाद; कौरव--कुरु वंश; पुण्य--पुण्य; लब्ध:--प्राप्त किया हुआ; गज-आह्॒यात् --हस्तिनापुर से; तीर्थ-पद:ः-- भगवान् की; पदानि--तीर्थयात्राओं की; अन्वाक्रमत्--शरण ली; पुण्य--पुण्य; चिकीर्षया--ऐसीइच्छा करते हुए; उर्व्यामू--उच्चकोटि की; अधिष्ठित:--स्थित; यानि--वे सभी; सहस्त्र--हजारों; मूर्ति: --स्वरूप |
अपने पुण्य के द्वारा विदुर ने पुण्यात्मा कौरवों के सारे लाभ प्राप्त किये।
उन्होंने हस्तिनापुरछोड़ने के बाद अनेक तीर्थस्थानों की शरण ग्रहण की जो कि भगवान् के चरणकमल हैं।
उच्चकोटि का पवित्र जीवन पाने की इच्छा से उन्होंने उन पवित्र स्थानों की यात्रा की जहाँ भगवान् के हजारों दिव्य रूप स्थित हैं।
सामान्य जनों को अपने पापों से निवारण करने की सुविधा प्राप्त हो तथा संसार में धर्म की स्थापना कीजा सके।
पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुझे-घ्वपड्डतोयेषु सरित्सरःसु ।
अनन्तलिड्डैः समलड्ड तेषुअचार तीर्थायतनेष्वनन्य: ॥
१८॥
पुरेषु--अयोध्या, द्वारका तथा मथुरा जैसे स्थानों में; पुण्य--पुण्य; उप-बन--वायु; अद्वि--पर्वत; कुझ्लेषु--बगीचों में;अपड्डू--पापरहित; तोयेषु--जल में; सरित्--नदी; सरःसु--झीलों में; अनन्त-लिड्रैः--अनन्त के रूपों; समलड्डू तेषु--इस तरहसे अलंकृत किये गये; चचार--सम्पन्न किया; तीर्थ--तीर्थस्थान; आयतनेषु--पवित्र भूमि; अनन्य:--एकमात्र या केवल कृष्णका दर्शन करना
वे एकमात्र कृष्ण का चिन्तन करते हुए अकेले ही विविध पवित्र स्थानों यथा अयोध्या,द्वारका तथा मथुरा से होते हुए यात्रा करने निकल पढ़े।
उन्होंने ऐसे स्थानों की यात्रा की जहाँ कीवायु, पर्वत, बगीचे, नदियाँ तथा झीलें शुद्ध तथा निष्पाप थीं और जहाँ अनन्त के विग्रह मन्दिरोंकी शोभा बढ़ाते हैं।
इस तरह उन्होंने तीर्थयात्रा की प्रगति सम्पन्न की।
गां पर्यटन्मेध्यविविक्तवृत्ति:सदाप्लुतोध: शयनोवधूत: ।
अलक्षितः स्वैरवधूतवेषोब्रतानि चेरे हरितोषणानि ॥
१९॥
गाम्--पृथ्वी पर; पर्यटन्ू-- भ्रमण करते; मेध्य--शुद्ध; विविक्त-वृत्तिः--जीने के लिए स्वतंत्र पेशा; सदा--सदैव; आप्लुत:--पवित्र किया गया; अध:--पृथ्वी पर; शयन:--लेटे हुए; अवधूत:--( बाल, नाखून इत्यादि ) बिना सँवारे या कटे );अलक्षित:--किसी के द्वारा बिना देखे हुए; स्वै:--अकेले; अवधूत-वेष:--साधू की तरह वेश धारण किये; ब्रतानि--ब्रत;चेरे--सम्पन्न किया; हरि-तोषणानि-- भगवान् को प्रसन्न करने वाले।
इस तरह पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने भगवान् हरि को प्रसन्न करने के लिए कृतकार्यकिये।
उनकी वृत्ति शुद्ध एवं स्वतंत्र थी।
वे पवित्र स्थानों में स्नान करके निरन्तर शुद्ध होते रहे,यद्यपि वे अवधूत वेश में थे--न तो उनके बाल सँवरे हुए थे न ही लेटने के लिए उनके पासबिस्तर था।
इस तरह वे अपने तमाम परिजनों से अलक्षित रहे।
इत्थं ब्रजन्भारतमेव वर्षकालेन यावद्गतवान्प्रभासम् ।
तावच्छशास क्षितिमेक चक्रा-मेकातपत्रामजितेन पार्थ: ॥
२०॥
इत्थम्--इस तरह से; ब्रजन्--विचरण करते हुए; भारतम्-- भारत; एब--केवल ; वर्षम्-- भूखण्ड; कालेन--यथासमय;यावत्--जब; गतवान्--गया; प्रभासम्ू--प्रभास तीर्थस्थान; तावत्--तब; शशास--शासन किया; क्षितिमू--पृथ्वी पर; एक-चक्राम्--एक सैन्य बल से; एक--एक; आतपत्राम्-- ध्वजा; अजितेन-- अजित कृष्ण की कृपा से; पार्थ:--महाराजयुधिष्ठिर।
इस तरह जब वे भारतवर्ष की भूमि में समस्त तीर्थस्थलों का भ्रमण कर रहे थे तो वे प्रभासक्षेत्र गये।
उस समय महाराज युधिष्ठिर सम्राट थे और वे सारे जगत को एक सैन्य शक्ति तथा एकध्वजा के अन्तर्गत किये हुए थे।
तत्राथ शुश्राव सुहद्दिनष्टिंवनं यथा वेणुजवहिसंश्रयम् ।
संस्पर्धया दग्धमथानुशोचन्सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम् ॥
२१॥
तत्र--वहाँ; अथ--तत्पश्चात्; शुश्राव--सुना; सुहत्--प्रियजन; विनष्टिमू--मृत; वनम्ू--जंगल; यथा--जिस तरह; वेणुज-वहि--बाँस के कारण लगी अग्नि; संश्रयम्--एक दूसरे से घर्षण; संस्पर्थया--उग्र कामेच्छा द्वारा; दग्धम्--जला हुआ; अथ--इस प्रकार; अनुशोचन्--सोचते हुए; सरस्वतीम्ू--सरस्वती नदी को; प्रत्यक्ु-पश्चिम की ओर; इयाय--गया; तृष्णीम्--मौनहोकर।
प्रभास तीर्थ स्थान में उन्हें पता चला कि उनके सारे सम्बन्धी उग्र आवेश के कारण उसी तरहमारे जा चुके हैं जिस तरह बाँसों के घर्षण से उत्पन्न अग्नि सारे जंगल को जला देती है।
इसकेबाद वे पश्चिम की ओर बढ़ते गये जहाँ सरस्वती नदी बहती है।
तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्वपृथोरथाग्नेरसितस्य वायो: ।
तीर्थ सुदासस्य गवां गुहस्ययच्छाद्धदेवस्थ स आसिषेवे ॥
२२॥
तस्याम्--सरस्वती नदी के किनारे; त्रितस्थ--त्रित नामक तीर्थस्थल; उशनस:--उशना नामक तीर्थस्थल; मनो: च--मनु नामकतीर्थस्थल भी; पृथोः--पृथु के; अथ--तत्पश्चात्; अग्ने:-- अग्नि के; असितस्य--असित के; वायो: --वायु के ; तीर्थम्--तीर्थस्थान; सुदासस्य--सुदास नाम का; गवामू--गो नामक; गुहस्य--तथा गुह का; यत्--तत्पश्चात्; भ्राद्धदेवस्य-- श्राद्धदेवका; सः--विदुर ने; आसिषेवे--ठीक से देखा और कर्मकाण्ड किया।
सरस्वती नदी के तट पर ग्यारह तीर्थस्थल थे जिनके नाम हैं (१)बत्रित (२) उशना(३) मनु (४) पृथु (५) अग्नि (६) असित (७) वायु ( ८ ) सुदास ( ९ ) गो ( १० ) गुह तथा(११) श्राद्धदेव।
विदुर इन सबों में गये और ठीक से कर्मकाण्ड किये।
अन्यानि चेह द्विजदेवदेवै:कृतानि नानायतनानि विष्णो: ।
प्रत्यड्गमुख्याद्वितमन्दिराणियहर्शनात्कृष्णमनुस्मरन्ति ॥
२३॥
अन्यानि--अन्य; च--तथा; इह--यहाँ; द्विज-देव--महर्षियों द्वारा; देवै:--तथा देवताओं द्वारा; कृतानि-- स्थापित; नाना--विविध; आयतनानि--विविध रूप; विष्णो:-- भगवान् के; प्रति--प्रत्येक; अड्ड--अंग; मुख्य--प्रमुख; अद्धित--चिन्हित;मन्दिराणि--मन्दिर; यत्--जिनके ; दर्शनात्--दूर से देखने से; कृष्णमम्--आदि भगवान् को; अनुस्मरन्ति--निरन्तर स्मरणकराते हैं।
वहाँ महर्षियों तथा देवताओं द्वारा स्थापित किये गये पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु केविविध रूपों से युक्त अनेक अन्य मन्दिर भी थे।
ये मन्दिर भगवान् के प्रमुख प्रतीकों से अंकितथे और आदि भगवान् श्रीकृष्ण का सदैव स्मरण कराने वाले थे।
ततस्त्वति्रज्य सुराष्ट्रमृद्धंसौवीरमस्सान्कुरुजाडूलांश्व ।
कालेन तावद्यमुनामुपेत्यतत्रोद्धवं भागवतं ददर्श ॥
२४॥
ततः--वहाँ से; तु--लेकिन; अतित्रज्य--पार करके; सुराष्ट्रमू--सूरत का राज्य; ऋद्धम्--अत्यन्त धनवान; सौवीर--सौवीर,साम्राज्य; मत्स्यानू--मस्स्य साम्राज्य; कुरुजाडुलान्--दिल्ली प्रान्त तक फैला पश्चिमी भारत का साम्राज्य; च-- भी; कालेन--यथासमय; तावत्--ज्योंही; यमुनाम्ू--यमुना नदी के किनारे; उपेत्य--पहुँच कर; तत्र--वहाँ; उद्धवम्--यदुओं में प्रमुख, उद्धवको; भागवतम्-- भगवान् कृष्ण के भक्त; ददर्श--देखा |
तत्पश्चात् वे अत्यन्त धनवान प्रान्तों यथा सूरत, सौवीर और मत्स्य से होकर तथा कुरुजांगलनाम से विख्यात पश्चिमी भारत से होकर गुजरे।
अन्त में वे यमुना के तट पर पहुँचे जहाँ उनकी" भेंट कृष्ण के महान् भक्त उद्धव से हुई।
स वासुदेवानुचरं प्रशान्तंबृहस्पतेः प्राक्तनयं प्रतीतम् ।
आलिड्ग्य गाढं प्रणयेन भद्रं स्वानामपृच्छद्धगवत्प्रजानामू ॥
२५॥
सः--वह, विदुर; वासुदेव--कृष्ण का; अनुचरम्--नित्य संगी; प्रशान्तम्--अत्यन्त शान्त एवं सौम्य; बृहस्पतेः--देवताओं केविद्वान गुरु बृहस्पति का; प्राक्ू-पूर्वकाल में; तनयम्--पुत्र या शिष्य; प्रतीतम्--स्वीकार किया; आलिड्ग्य--आलिगंनकरके; गाढमू--गहराई से; प्रणयेन--प्रेम में; भद्रमू--शुभ; स्वानाम्--निजी; अपृच्छत्ू--पूछा; भगवत्-- भगवान् के;प्रजानामू--परिवार का।
तत्पश्चात् अत्यधिक प्रेम तथा अनुभूति के कारण विदुर ने भगवान् कृष्ण के नित्य संगी तथाबृहस्पति के पूर्व महान् शिष्य उद्धव का आलिंगन किया।
तत्पश्चात् विदुर ने भगवान् कृष्ण केपरिवार का समाचार पूछा।
कच्चित्पुराणौ पुरुषौ स्वनाभ्य-पाद्मनुवृत्त्येह किलावतीर्णों ।
आसात उर्व्या: कुशलं विधायकृतक्षणौ कुशल शूरगेहे ॥
२६॥
कच्चित्ू--क्या; पुराणौ--आदि; पुरुषौ--दो भगवान् ( कृष्ण तथा बलराम ); स्वनाभ्य--ब्रह्मा; पाद्म-अनुवृत्त्या--कमल सेउत्पन्न होने वाले के अनुरोध पर; इह--यहाँ; किल--निश्चय ही; अवतीर्णों--अवतरित; आसाते-- हैं; उर्व्या:--जगत में;कुशलम्--कुशल-क्षेम; विधाय--ऐसा करने के लिए; कृत-क्षणौ--हर एक की सम्पन्नता के उन्नायक; कुशलम्--सर्वमंगल;शूर-गेहे --शूरसेन के घर में |
कृपया मुझे बतलाएँ कि ( भगवान् की नाभि से निकले कमल से उत्पन्न ) ब्रह्मा केअनुरोध पर अवतरित होने वाले दोनों आदि भगवान्, जिन्होंने हर व्यक्ति को ऊपर उठा कर सम्पन्नता में वृद्धि की है, शूरसेन के घर में ठीक से तो रह रहे हैं ?कच्चित्कुरूणां परमः सुहन्नोभाम:ः स आस्ते सुखमड़ शौरिः ।
कच्चित्कुरूणां परम: सुहतन्नो भाम: स आस्ते सुखमड़ शौरि: ।
यो वै स्वसृणां पितृवद्ददातिवरान्वदान्यो वरतर्पणेन ॥
२७॥
कच्चित्--क्या; कुरूणाम्--कुरूओं के; परम:--सबसे बड़े; सुहत्--शुभचिन्तक; न:--हमारा; भाम:--बहनोई; सः--वह;आस्ते--है; सुखम्--सुखी; अड्ड--हे उद्धव; शौरि:--वसुदेव; यः--जो; बै--निस्सन्देह; स्वसृणाम्--बहनों का; पितृ-वत्--पिता के समान; ददाति--देता है; वरानू-- इच्छित वस्तुएँ; वदान्य:--अत्यन्त उदार; वर--स्त्री; तर्पणेन--प्रसन्न करके
कृपया मुझे बताएँ कि कुरुओं के सबसे अच्छे मित्र हमारे बहनोई वसुदेव कुशलतापूर्वकतो हैं? वे अत्यन्त दयालु हैं।
वे अपनी बहनों के प्रति पिता के तुल्य हैं और अपनी पत्नियों केप्रति सदैव हँसमुख रहते हैं।
कच्चिद्वरूथाधिपतिर्यदूनांप्रद्यम्म आस्ते सुखमड़ वीर: ।
यं रुक्मिणी भगवतोभिलेभेआशध्य विप्रान्स्मरमादिसगें ॥
२८ ॥
'कच्चित्ू-- क्या; वरूथ--सेना का; अधिपति:--नायक; यदूनाम्ू--यदुओं का; प्रद्यम्न:--कृष्ण का पुत्र प्रद्मुम्न; आस्ते--है;सुखम्--सुखी; अड्ग--हे उद्धव; बवीर:--महान् योद्धा; यम्--जिसको; रुक्मिणी--कृष्ण की पत्नी, रुक्मिणी ने; भगवतः--भगवान् से; अभिलेभे--पुरस्कारस्वरूप प्राप्त किया; आराध्य--प्रसन्न करके ; विप्रानू--ब्राह्मणों को; स्मरम्--कामदेव; आदि-सर्गे--अपने पूर्व जन्म में |
हे उद्धव, मुझे बताओ कि यदुओं का सेनानायक प्रद्युम्न, जो पूर्वजन्म में कामदेव था, कैसाहै? रुक्मिणी ने ब्राह्मणों को प्रसन्न करके उनकी कृपा से भगवान् कृष्ण से अपने पुत्र रुपमें उसेउत्पन्न किया था।
कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोज-दाशाईकाणामधिप: स आस्ते ।
यमशभ्यषिश्जञच्छतपत्रनेत्रोनृपासनाशां परिहत्य दूरातू ॥
२९॥
'कच्चित्-- क्या; सुखम्--सब कुशल मंगल है; सात्वत--सात्वत जाति; वृष्णि--वृष्णि वंश; भोज-- भोज वंश;दाशाहकाणाम्--दाशाई जाति; अधिप:--राजा उग्रसेन; सः--वह; आस्ते-- है; यमू--जिसको; अभ्यषिज्ञत्-- प्रतिष्ठित; शत-पत्र-नेत्र:-- श्रीकृष्ण ने; नृूप-आसन-आशाम्--राजसिंहासन की आशा; परिहत्य--त्याग कर; दूरातू-दूरस्थान पर |
हे मित्र, ( मुझे बताओ ) कया सात्वतों, वृष्णियों, भोजों तथा दाशाहों के राजा उग्रसेन अब कुशल-मंगल तो हैं? वे अपने राजसिंहासन की सारी आशाएँ त्यागकर अपने साम्राज्य से दूरचले गये थे, किन्तु भगवान् कृष्ण ने पुनः उन्हें प्रतिष्ठित किया।
कच्चिद्धरेः सौम्य सुतः सदक्षआस्तेग्रणी रथिनां साधु साम्ब: ।
असूत यं जाम्बवती ब्रताढ्यादेवं गुहं योउम्बिकया धृतोग्रे ॥
३०॥
'कच्चित्--क्या; हरेः-- भगवान् का; सौम्य--हे गम्भीर; सुत:--पुत्र; सहक्ष:--समान; आस्ते--ठीक से रह रहा है; अग्रणी: --अग्रगण्य; रथिनामू--योद्धाओं के; साधु--अच्छे आचरण वाला; साम्ब:--साम्ब; असूत--जन्म दिया; यम्--जिसको;जाम्बवती--कृष्ण की पत्नी जाम्बवती ने; ब्रताढ्या--्रतों से सम्पन्न; देवम्-देवता; गुहम्--कार्तिकेय नामक; यः--जिसको;अम्बिकया--शिव की पत्नी से; धृतः--उत्पन्न; अग्रे--पूर्व जन्म में |
हे भद्रपुरुष, साम्ब ठीक से तो है? वह भगवान् के पुत्र सहृश ही है।
पूर्वजन्म में वह शिवकी पत्नी के गर्भ से कार्तिकिय के रूप में जन्मा था और अब वही कृष्ण की अत्यन्तसौभाग्यशालिनी पली जाम्बवती के गर्भ से उत्पन्न हुआ है।
क्षेमं स कच्चिद्युयुधान आस्तेयः फाल्गुनाल्लब्धधनूरहस्यः ।
लेभेञ्जसाधोक्षजसेवयैवगतिं तदीयां यतिभिर्दुरापाम् ॥
३१॥
क्षेमम्--सर्वमंगल; सः--वह; कच्चित्--क्या; युयुधान: --सात्यकि; आस्ते--है; यः--जिसने; फाल्गुनात्ू-- अर्जुन से;लब्ध--प्राप्त किया है; धनु:-रहस्यः--सैन्यकला के भेदों का जानकार; लेभे--प्राप्त किया है; अज्ञसा-- भलीभाँति;अधोक्षज--ब्रह्म का; सेवया--सेवा से; एव--निश्चय ही; गतिम्--गन्तव्य; तदीयाम्--दिव्य; यतिभि:--बड़े-बड़े संन्यासियोंद्वारा; दुरापाम-- प्राप्त कर पाना अत्यन्त कठिन
हे उद्धव, क्या युयुधान कुशल से? उसने अर्जुन से सैन्य कला की जटिलताएँ सीखीं औरउस दिव्य गन्तव्य को प्राप्त किया जिस तक बड़े-बड़े संन्यासी भी बहुत कठिनाई से पहुँच पातेहैं।
कच्चिद्दुध: स्वस्त्यनमीव आस्ते श्रफल्कपुत्रो भगवत्प्रपन्न: ।
यः कृष्णपादाड्डधितमार्गपांसु-घ्वचेष्टत प्रेमविभिन्नधेर्य: ॥
३२॥
कच्चित्-- क्या; बुध: --अत्यन्त विद्वान; स्वस्ति--ठीक से; अनमीव:--त्रुटिरहित; आस्ते--है; श्रफल्क-पुत्र:-- ध्रफल्क कापुत्र अक्रूर; भगवत्-- भगवान् के; प्रपन्न:--शरणागत; य:--वह जो; कृष्ण-- भगवान् श्रीकृष्ण; पाद-अद्धित--चरण चिह्ढों सेशोभित; मार्ग--रास्ता; पांसुषु-- धूल में; अचेष्टत--प्रकट किया; प्रेम-विभिन्न--दिव्य प्रेम में निमग्न; धैर्य:--मानसिकसंतुलन
कृपया मुझे बताएँ कि श्रफल्क पुत्र अक्रूर ठीक से तो है? वह भगवान् का शरणागत एकदोषरहित आत्मा है।
उसने एक बार दिव्य प्रेम-भाव में अपना मानसिक सन्तुलन खो दिया थाऔर उस मार्ग की धूल में गिर पड़ा था जिसमें भगवान् कृष्ण के पदचिन्ह अंकित थे।
कच्चिच्छिवं देवक भोजपुत्र्याविष्णुप्रजाया इव देवमातु: ।
या वै स्वगर्भेण दधार देवंज्रयी यथा यज्ञवितानमर्थम् ॥
३३॥
कच्चित्ू--क्या; शिवम्--ठीकठाक; देवक-भोज-पुत्रया:--राजा देवक भोज की पुत्री का; विष्णु-प्रजाया:-- भगवान् को जन्मदेने वाली; इब--सहृश; देव-मातुः--देवताओं की माता ( अदिति ) का; या--जो; बै--निस्सन्देह; स्व-गर्भेण-- अपने गर्भ से;दधार-- धारण किया; देवम्-- भगवान् को; त्रयी--वेद; यथा--जितना कि; यज्ञ-वितानम्--यज्ञ के प्रसार का; अर्थम्--उद्देश्य |
जिस तरह सारे वेद याज्ञिक कार्यो के आगार हैं उसी तरह राजा देवक-भोज की पुत्री ने देवताओं की माता के ही सदृश भगवान् को अपने गर्भ में धारण किया।
क्या वह ( देवकी )कुशल से है?
अपिस्विदास्ते भगवान्सुखं वोयः सात्वतां कामदुघोनिरुद्धः ।
यमामनन्ति सम हि शब्दयोनिंमनोमयं सत्त्वतुरीयतत्त्वम् ॥
३४॥
अपि--भी; स्वित्ू-- क्या; आस्ते-- है; भगवान्ू-- भगवान्; सुखम्-- समस्त सुख; व: --तुम्हारा; य:--जो; सात्वतामू-भक्तोंकी; काम-दुघ:--समस्त इच्छाओं का स्रोत; अनिरुद्ध:--स्वांश अनिरुद्ध; यम्ू--जिसको; आमनन्ति--स्वीकार करते हैं;स्म--प्राचीन काल से; हि--निश्चय ही; शब्द-योनिम्--ऋग्वेवेद का कारण; मनः-मयम्--मन का स्त्रष्टा; सत्तत--दिव्य;तुरीय--चौथा विस्तार; तत्त्वमू--तत्व, सिद्धान्त |
क्या मैं पूछ सकता हूँ कि अनिरुद्ध कुशलतापूर्वक है? वह शुद्ध भक्तों की समस्त इच्छाओंकी पूर्ति करने वाला है और प्राचीन काल से ऋग्वेद का कारण, मन का स्त्रष्टा तथा विष्णु काचौथा स्वांश माना जाता रहा है।
अपिस्विदन्ये च निजात्मदैव-श़मनन्यदृत्त्या समनुव्रता ये।
हृदीकसत्यात्मजचारुदेष्णगदादय: स्वस्ति चरन्ति सौम्य ॥
३५॥
अपि-भी; स्वित्-- क्या; अन्ये-- अन्य; च--तथा; निज-आत्म--अपने ही; दैवम्-- श्रीकृष्ण; अनन्य--पूर्णरूपेण; वृत्त्या--श्रद्धा; समनुब्रता:--अनुयायीगण; ये-- वे जो; हदीक--हृदीक; सत्य-आत्मज--सत्यभामा का पुत्र; चारुदेष्ण--चारुदेष्ण;गद--गद; आदय:--इत्यादि; स्वस्ति--कुशलतापूर्वक; चरन्ति--समय बताते हैं; सौम्य--हे भद्गःपुरुष |
हे भद्र पुरुष, अन्य लोग, यथा हदीक, चारुदेष्ण, गद तथा सत्यभामा का पुत्र जो श्रीकृष्णको अपनी आत्मा के रूप में मानते हैं और बिना किसी विचलन के उनके मार्ग का अनुसरणकरते हैं-ठीक से तो हैं ?
अपि स्वदोर्भ्या विजयाच्युताभ्यांधर्मेण धर्म: परिपाति सेतुम् ।
दुर्योधनोउतप्यत यत्सभायांसाम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या ॥
३६॥
अपि- भी; स्व-दोर्भ्याम्-- अपनी भुजाएँ; विजय--अर्जुन; अच्युता-भ्याम्-- श्रीकृष्ण समेत; धर्मेण-- धर्म द्वारा; धर्म:--राजायुधिष्ठटि; परिपाति--पालनपोषण करता है; सेतुम््-- धर्म का सम्मान; दुर्योधन: --दुर्योधन; अतप्यत--ईर्ष्या करता था; यत्--जिसका; सभायाम्--राज दरबार; साप्राज्य--राजसी; लक्ष्म्या--ऐश्वर्य; विजय-अनुवृत्त्या--अर्जुन की सेवा द्वारा
अब मैं पूछना चाहूँगा कि महाराज युधिष्टठिर धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार तथा धर्मपथ केप्रति सम्मान सहित राज्य का पालन-पोषण कर तो रहे हैं? पहले तो दुर्योधन ईर्ष्या से जलतारहता था, क्योंकि युथिष्ठिर कृष्ण तथा अर्जुन रूपी दो बाहुओं के द्वारा रक्षित रहते थे जैसे वेउनकी अपनी ही भुजाएँ हों।
किं वा कृताधेष्वघमत्यमर्षीभीमोहिवद्दीर्घतमं व्यमुझ्जत् ।
यस्याड्प्रिपातं रणभूर्न सेहेमार्ग गदायाश्वरतो विचित्रम् ॥
३७॥
किम्--क्या; वा--अथवा; कृत--सम्पन्न; अधेषु--पापियों के प्रति; अधम्ू--क्रुद्ध; अति-अमर्षी--अजेय; भीम: -- भीम;अहि-वत्-काले सर्प की भाँति; दीर्घ-तमम्--दीर्घ काल से; व्यमुञ्ञत्-विमुक्त किया; यस्य--जिसका; अड्ध्रि-पातम्--पदचाप; रण-भू:--युद्ध भूमि; न--नहीं; सेहे--सह सका; मार्गम्--मार्ग; गदाया: --गदाओं द्वारा; चरत:--चलाते हुए;विचित्रम्--विचित्र |
कृपया मुझे बताएँ क्या विषैले सर्प तुल्य एवं अजेय भीम ने पापियों पर अपनादीर्घकालीन क्रोध बाहर निकाल दिया है? गदा-चालन के उसके कौशल को रण-भूमि भीसहन नहीं कर सकती थी, जब वह उस पथ पर चल पड़ता था।
कच्चिद्यशोधा रथयूथपानांगाण्डीवधन्वोपरतारिरास्ते ।
अलक्षितो यच्छरकूटगूढोमायाकिरातो गिरिशस्तुतोष ॥
३८॥
कच्चित्--क्या; यश:-धा--विख्यात; रथ-यूथपानाम्--महान् रथ्िियों के बीच; गाण्डीब--गाण्डीव; धन्व-- धनुष; उपरत-अरिः--जिसने शत्रुओं का विनाश कर दिया है; आस्ते--ठीक से है; अलक्षित:--बिना पहचाने हुए; यत्--जिसका; शर-कूट-गूढ:ः--बाणों से आच्छादित होकर; माया-किरात:--छद्ा शिकारी; गिरिश:ः --शिवजी; तुतोष--सन्तुष्ट हो गये थे
कृपया मुझे बताएँ कि अर्जुन, जिसके धनुष का नाम गाण्डीव है और जो अपने शत्रुओंका विनाश करने में रथ्िियों में सदैव विख्यात है, ठीक से तो है? एक बार उसने न पहचानेजानेवाले छद्य शिकारी के रूप में आये हुए शिवजी को बाणों की बौछार करके उन्हें तुष्ट किया" यमावुतस्वित्तनयौ पृथाया:पार्थवृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव ।
रेमात उद्दाय मृधे स्वरिक्थंपरात्सुपर्णाविव वज्िवक्त्रात् ॥
३९॥
यमौ--जुड़वाँ ( नकुल तथा सहदेव ); उत्स्वित्--क्या; तनयौ--पुत्र; पृथाया: --पृथा के; पार्थै: --पृथा के पुत्रों द्वारा; वृतौ--संरक्षित; पक्ष्मभि:--पलकों द्वारा; अक्षिणी-- आँखों के; इब--सहृश; रेमाते-- असावधानीपूर्वक खेलते हुए; उद्याय--छीन कर;मृधे--युद्ध में; स्व-रिक्थम्--अपनी सम्पत्ति; परातू--शत्रु दुर्योधन से; सुपर्णौ--विष्णु का वाहन गरुड़; इब--सहश; बज्ि-वक्त्रात्ू-इन्द्र के मुख से।
क्या अपने भाइयों के संरक्षण में रह रहे जुड़वाँ भाई कुशल पूर्वक हैं? जिस तरह आँखपलक द्वारा सदैव सुरक्षित रहती है उसी तरह वे पृथा पुत्रों द्वारा संरक्षित हैं जिन्होंने अपने शत्रुदुर्योधन के हाथों से अपना न्यायसंगत साप्राज्य उसी तरह छीन लिया है, जिस तरह गरुड़ नेवजधारी इन्द्र के मुख से अमृत छीन लिया था।
अहो पृथापि धश्वियतेर्भकार्थेराजर्षिवर्येण विनापि तेन ।
यस्त्वेकवीरोधिरथो विजिग्येधनुद्वितीय: ककुभश्चतस्त्र: ॥
४०॥
अहो--ओह; पृथा--कुन्ती; अपि-- भी; प्चियते--अपना जीवन बिताती है; अर्भक-अर्थे--पितृविहीन बच्चों के निमित्त;राजर्षि--राजा पाए्डु; वर्येण --सर्वश्रेष्ठ; बिना अपि--बिना भी; तेन--उसके; यः--जो; तु--लेकिन; एक--अकेला; वीर: --योद्धा; अधिरथ:--सेनानायक; विजिग्ये--जीत सका; धनु:--धनुष; द्वितीय:--दूसरा; ककुभ:--दिशाएँ; चतस्त्र:--चारों |
हे स्वामी, क्या पृथा अब भी जीवित है? वह अपने पितृविहीन बालकों के निमित्त हीजीवित रही अन्यथा राजा पाण्डु के बिना उसका जीवित रह पाना असम्भव था, जो कि महानतमसेनानायक थे और जिन्होंने अकेले ही अपने दूसरे धनुष के बल पर चारों दिशाएँ जीत ली थीं।
सौम्यानुशोचे तमधः:पतन्तंभ्रात्रे परेताय विदुद्रहे यः ।
निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्याअहं स्वपुत्रान्समनुत्रतेन ॥
४१॥
सौम्य--हे भद्गपुरुष; अनुशोचे--शोक करता हूँ; तम्--उसको; अधः-पतन्तम्--नीचे गिरते हुए; भ्रात्रे--अपने भाई पर;परेताय-- मृत्यु; विदुद्रहे--विद्रोह किया; यः--जिसने; निर्यापित:--भगा दिया गया; येन--जिसके द्वारा; सुहत्ू--शुभैषी; स्व-पुर्या:--अपने ही घर से; अहमू--मैं; स्व-पुत्रान्ू--अपने पुत्रों समेत; समनु-व्रतेन--वैसी ही कार्यवाही को स्वीकार करते हुए।
हे भद्गपुरुष, मैं तो एकमात्र उस ( धृतराष्ट्र) के लिए शोक कर रहा हूँ जिसने अपने भाई कीमृत्यु के बाद उसके प्रति विद्रोह किया।
उसका निष्ठावान हितैषी होते हुए भी उसके द्वारा मैं अपनेघर से निकाल दिया गया, क्योंकि उसने भी अपने पुत्रों के द्वारा अपनाए गये मार्ग का हीअनुसरण किया था।
सोहहं हरेर्मत्यविडम्बनेन इशो नृणां चालयतो विधातु: ।
नान्योपलक्ष्य: पदवीं प्रसादा-च्यरामि पश्यन्गतविस्मयोउत्र ॥
४२॥
सः अहम्--इसलिए मैं; हरेः -- भगवान् का; मर्त्य--इस मर्त्यलोक में; विडम्बनेन--बिना जाने-पहचाने; हृशः--देखने पर;नृणाम्ू--सामान्य लोगों के; चालयत:--मोहग्रस्त; विधातु:--इसे करने के लिए; न--नहीं; अन्य--दूसरा; उपलक्ष्य: --दूसरोंद्वारा देखा गया; पदवीम्--महिमा; प्रसादात्--कृपा से; चरामि--घूमता हूँ; पश्यन्--देखते हुए; गत-विस्मय:--बिना संशयके; अत्र--इस मामले में |
अन्यों द्वारा अलक्षित रहकर विश्वभर में भ्रमण करने के बाद मुझे इस पर कोई आश्चर्य नहींहो रहा।
भगवान् के कार्यकलाप जो इस मर्त्यलोक के मनुष्य जैसे हैं, अन्यों को मोहित करनेवाले हैं, किन्तु भगवान् की कृपा से मैं उनकी महानता को जानता हूँ, अतएव मैं सभी प्रकार सेसुखी हूँ।
नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानांमहीं मुहुश्नालयतां चमूभि: ।
वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशो -उप्युपैक्षताघं भगवान्कुरूणाम् ॥
४३॥
नूनम्--निस्सन्देह; नृपाणामू-राजाओं के; त्रि--तीन; मद-उत्पथानाम्-मिथ्या गर्व से बहके हुए; महीम्--पृथ्वी को; मुहुः--निरन्तर; चालयतामू्--श्षुब्ध करते; चमूभि:--सैनिकों की गति से; वधात्--हत्या के कार्य से; प्रपन्न--शरणागत; आर्ति-जिहीर्षय--पीड़ितों के दुख को दूर करने के लिए इच्छुक; ईशः--भगवान् ने; अपि--के बावजूद; उपैक्षत--प्रतीक्षा की;अधघम्--अपराध; भगवान्-- भगवान्; कुरूणाम्-कुरुओं के |
( कृष्ण ) भगवान् होते हुए भी तथा पीड़ितों के दुख को सदैव दूर करने की इच्छा रखते हुएभी, वे कुरुओं का वध करने से अपने को बचाते रहे, यद्यपि वे देख रहे थे कि उन लोगों ने सभीप्रकार के पाप किये हैं और यह भी देख रहे थे कि, अन्य राजा तीन प्रकार के मिथ्या गर्व के वशमें होकर अपनी प्रबल सैन्य गतिविधियों से पृथ्वी को निरन्तर श्षुब्ध कर रहे हैं।
अजस्य जन्मोत्पधनाशनायकर्माण्यकर्तुग्रहणाय पुंसाम् ।
नन्वन्यथा कोहति देहयोगंपरो गुणानामुत कर्मतन्त्रमू ॥
४४॥
अजस्य--अजन्मा का; जन्म--प्राकट्य; उत्पथ-नाशनाय--दुष्टों का विनाश करने के लिए; कर्माणि--कार्य ; अकर्तु:ः--निठल्लेका; ग्रहणाय--ग्रहण करने के लिए; पुंसाम्--सारे व्यक्तियों का; ननु अन्यथा--नहीं तो; कः--कौन; अर्हति--योग्य होसकता है; देह-योगम्--शरीर का सम्पर्क; पर: --दिव्य; गुणानाम्--तीन गुणों का; उत--क्या कहा जा सकता है; कर्म-तन्ब्रमू--कार्य-कारण का नियम।
भगवान् का प्राकट्य दुष्टों का संहार करने के लिए होता है।
उनके कार्य दिव्य होते हैं औरसमस्त व्यक्तियों के समझने के लिए ही किये जाते हैं।
अन्यथा, समस्त भौतिक गुणों से परे रहनेवाले भगवान् का इस पृथ्वी में आने का क्या प्रयोजन हो सकता है ?
तस्य प्रपन्नाखिललोकपाना-मवस्थितानामनुशासने स्वे ।
अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्यवार्ता सखे कीर्तय तीर्थकीर्ते: ॥
४५॥
तस्य--उसका; प्रपन्न--शरणागत; अखिल-लोक-पानाम्--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सारे शासकों के; अवस्थितानाम्--स्थित;अनुशासने--नियंत्रण में; स्वे--अपने; अर्थाय--स्वार्थ हेतु; जातस्थ--उत्पन्न होने वाले का; यदुषु--यदु कुल में; अजस्य--अजन्मा की; वार्तामू-कथाएँ; सखे--हे मित्र; कीर्तय--कहो; तीर्थ-कीर्ते: --तीर्थस्थानों में जिन के यश का कीर्तन होता है,उन भगवान् का।
अतएव हे मित्र, उन भगवान् की महिमा का कीर्तन करो जो तीर्थस्थानों में महिमामंडितकिये जाने के निमित्त हैं।
वे अजन्मा हैं फिर भी ब्रह्माण्ड के सभी भागों के शरणागत शासकों पर अपनी अहैतुकी कृपा द्वारा वे प्रकट होते हैं।
उन्हीं के हितार्थ वे अपने शुद्ध भक्त यदुओं केपरिवार में प्रकट हुए।
अध्याय दो: भगवान कृष्ण का स्मरण
3.2श्रीशुक उबाचइति भागवत: पृष्ठ: क्षत्रा वार्ता प्रियाश्रयाम् ।
प्रतिवक्तु न चोत्सेह औत्कण्ठ्यात्स्मारितेश्वरः ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; भागवतः--महान् भक्त; पृष्ट:--पूछे जाने पर; क्षत्रा--विदुर द्वारा; वार्तामू--सन्देश; प्रिय-आश्रयाम्--प्रियतम के विषय में; प्रतिवक्तुमू--उत्तर देने के लिए; न--नहीं; च--भी;उत्सेहे--उत्सुक हुआ; औत्कण्ठ्यात्--अत्यधिक उत्सुकता वश; स्मारित--स्मृति; ईश्वर: --ईश्वर
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब विदुर ने महान् भक्त उद्धव से प्रियतम ( कृष्ण ) कासन्देश बतलाने के लिए कहा तो भगवान् की स्मृति के विषय में अत्यधिक विह्लता के कारणउद्धव तुरन्त उत्तर नहीं दे पाये।
यः पञ्जञहायनो मात्रा प्रातरशाय याचित: ।
तन्नैच्छद्रचयन्यस्थ सपर्या बाललीलया ॥
२॥
यः--जो; पश्ञ--पाँच; हायन:--वर्ष का; मात्रा--अपनी माता द्वारा; प्रातः-आशाय--कलेवा के लिए; याचित:ः--बुलाये जानेपर; तत्--उस; न--नहीं; ऐच्छत्--चाहा; रचयन्--खेलते हुए; यस्य--जिसकी; सपर्याम्--सेवा; बाल-लीलया--बचपन।
वे अपने बचपन में ही जब पाँच वर्ष के थे तो भगवान् कृष्ण की सेवा में इतने लीन हो जातेथे कि जब उनकी माता प्रातःकालीन कलेवा करने के लिए बुलातीं तो वे कलेवा करना नहींचाहते थे।
स कथं सेवया तस्य कालेन जरसं गतः ।
पूष्टो वार्ता प्रतिब्रूयाद्धर्तु: पादावनुस्मरन् ॥
३॥
सः--उद्धव; कथम्--कैसे; सेवया--ऐसी सेवा से; तस्थ--उसका; कालेन--समय के साथ; जरसम्--अशक्तता को; गत:--प्राप्त; पृष्ट:--पूछे जाने पर; वार्तामू--सन्देश; प्रतिब्रूयात्ू--उत्तर देने के लिए; भर्तु:--भगवान् के; पादौ--चरण कमलों का;अनुस्मरन्ू--स्मरण करते हुए।
इस तरह उद्धव अपने बचपन से ही लगातार कृष्ण की सेवा करते रहे और उनकीवृद्धावस्था में सेवा की वह प्रवृत्ति कभी शिधिल नहीं हुईं।
जैसे ही उनसे भगवान् के सन्देश केविषय में पूछा गया, उन्हें तुरन्त उनके विषय में सब कुछ स्मरण हो आया।
स मुहूर्तमभूत्तृष्णी कृष्णाड्प्रिसुधया भूशम् ।
तीब्रेण भक्तियोगेन निमग्नः साधु निर्वृतः ॥
४॥
सः--उद्धव; मुहूर्तम्-- क्षण भर के लिए; अभूत्--हो गया; तृष्णीम्--मौन; कृष्ण-अड्घ्रि-- भगवान् के चरणकमलों के;सुधया--अमृत से; भूशम्--सुपक्व; तीव्रेण --अत्यन्त प्रबल; भक्ति-योगेन--भक्ति द्वारा; निमग्न: --डूबे हुए; साधु--उत्तम;निर्वृतः-प्रेम पूर्ण
वे क्षणभर के लिए एकदम मौन हो गये और उनका शरीर हिला-डुला तक नहीं।
वेभक्तिभाव में भगवान् के चरणकमलों के स्मरण रूपी अमृत में पूरी तरह निमग्न हो गये औरउसी भाव में वे गहरे उतरते दिखने लगे।
पुलकोद्धिन्नसर्वाज्े मुझ्नन्मीलदृशा शुच्चः ।
पूर्णार्थो लक्षितस्तेन स्नेहप्रसरसम्प्लुत: ॥
५॥
पुलक-उद्ध्रिन्न--दिव्य भाव के शारीरिक परिवर्तन; सर्व-अड्डभ:--शरीर का हर भाग; मुझ्ननू--लेपते हुए; मीलत्--खोलते हुए;इहशा--आँखों द्वारा; शुचः--शोक के अश्रू; पूर्ण-अर्थ:--पूर्ण सिद्धि; लक्षित:--इस तरह देखा गया; तेन--विदुर द्वारा; स्नेह-प्रसर--विस्तृत प्रेम; सम्प्लुतः--पूर्णरूपेण स्वात्मीकृत |
विदुर ने देखा कि उद्धव में सम्पूर्ण भावों के कारण समस्त दिव्य शारीरिक परिवर्तन उत्पन्नहो आये हैं और वे अपनी आँखों से विछोह के आँसुओं को पोंछ डालने का प्रयास कर रहे हैं।
इस तरह विदुर यह जान गये कि उद्धव ने भगवान् के प्रति गहन प्रेम को पूर्णरूपेण आत्मसात्कर लिया है।
शनकैभं॑गवल्लोकान्नूलोक॑ पुनरागतः ।
विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रीत्याहोद्धव उत्स्मयन् ॥
६॥
शनकै:--धधीरे-धीरे; भगवत्-- भगवान्; लोकात्-- धाम से; नूलोकम्--मनुष्य लोक को; पुनः आगत:--फिर से आकर;विमृज्य--पोंछकर; नेत्रे-- आँखें; विदुरम्--विदुर से; प्रीत्या--स्नेहपूर्वक; आह--कहा; उद्धव:--उद्धव ने; उत्स्मयन्--उनस्मृतियों के द्वारा।
महाभागवत उद्धव तुरन्त ही भगवान् के धाम से मानव-स्तर पर उतर आये और अपनी आँखेंपोंछते हुए उन्होंने अपनी पुरानी स्मृतियों को जगाया तथा वे विदुर से प्रसन्नचित्त होकर बोले।
उद्धव उबाचकृष्णद्युमणि निम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह ।
कि नु नः कुशल ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम् ॥
७॥
उद्धवः उवाच-- श्री उद्धव ने कहा; कृष्ण-द्युमणि--कृष्ण सूर्य; निम्लोचे--अस्त होने पर; गीर्णेषु--निगला जाकर;अजगरेण---अजगर सर्प द्वारा; ह-- भूतकाल में; किम्--क्या; नु--अन्य; नः--हमारी; कुशलम्--कुशल-मंगल; ब्रूयामू--मैंकहूँ; गत--गई हुई, विहीन; श्रीषु गृहेषु--घर में; अहम्--मैं
श्री उद्धव ने कहा : हे विदुर, संसार का सूर्य कृष्ण अस्त हो चुका है और अब हमारे घर कोकाल रूपी भारी अजगर ने निगल लिया है।
मैं आपसे अपनी कुशलता के विषय में क्या कहसकता हूँ?
दुर्भगो बत लोकोयं यदवो नितरामपि ।
ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इबोडुपम् ॥
८॥
दुर्भप:--अभागा; बत--निश्चय ही; लोक: --ब्रह्माण्ड; अयम्ू--यह; यदव:ः--यदुकुल; नितराम्--विशेषरूप से; अपि-- भी;ये--जो; संवसन्तः--एकसाथ रहते हुए; न--नहीं; विदु:--जान पाये; हरिम्-- भगवान् को; मीना:--मछलियाँ; इब उडुपम्--चन्द्रमा की तरह।
समस्त लोकों समेत यह ब्रह्माण्ड अत्यन्त अभागा है।
युदुकुल के सदस्य तो उनसे भी बढ़करअभागे हैं, क्योंकि वे श्री हरि को भगवान् के रूप में नहीं पहचान पाये जिस तरह मछलियाँअन्द्रमा को नहीं पहचान पातीं।
इड्डितज्ञा: पुरुप्रौढा एकारामाश्व सात्वता: ।
सात्वतामृषभं सर्वे भूतावासममंसत ॥
९॥
इड्ड्ति-ज्ञाः--मनोवैज्ञानिक अध्ययन में पटु; पुरु-प्रौढा: --अत्यन्त अनुभवी; एक--एक; आरामा:--विश्राम; च--भी;सात्वता:--भक्तगण या अपने ही लोग; सात्वताम् ऋषभम्--परिवार का मुखिया; सर्वे--समस्त; भूत-आवासम्--सर्व-व्यापी;अमंसत--जान सके
यदुगण अनुभवी भक्त, विद्वान तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन में पटु थे।
इससे भी बड़ी बातयह थी कि वे सभी लोग समस्त प्रकार की विश्रान्ति में भगवान् के साथ रहते थे, फिर भी वेउन्हें केवल उस ब्रह्म के रूप में जान पाये जो सर्वत्र निवास करता है।
देवस्य मायया स्पृष्टा ये चान्यद्सदाश्रिता: ।
भ्राम्यते धीर्न तद्वाक्यैरात्मन्युप्तात्मनो हरो ॥
१०॥
देवस्य-- भगवान् की; मायया--माया के प्रभाव से; स्पृष्टा:--दूषित हुए; ये--जो लोग; च--तथा; अन्यत्--अन्य लोग;असतू--मायावी; आश्लिता: --वशी भूत; भ्राम्यते--मोहग्रस्त बनाते हैं; धीः--बुद्द्धि; न--नहीं; तत्--उनके ; वाक्यैः --वचनोंसे; आत्मनि--परमात्मा में; उप्त-आत्मन:--शरणागत आत्माएँ; हरौ--हरि के प्रति
भगवान् की माया द्वारा मोहित व्यक्तियों के वचन किसी भी स्थिति में उन लोगों की बुद्धिको विचलित नहीं कर सकते जो पूर्णतया शरणागत हैं।
प्रदर्श्यातप्ततपसामवितृप्तदृशां नृणाम् ।
आदायान्तरधाहामस्तु स्वबिम्बं लोकलोचनम् ॥
११॥
प्रदर्श--दिखलाकर; अतप्त--बिना किये; तपसाम्--तपस्या; अवितृप्त-दशाम्--दर्शन को पूरा किया; नृणाम्--लोगों का;आदाय--लेकर; अन्त:-- अन्तर्धान; अधात्--सम्पन्न किया; यः--जिसने; तु--लेकिन; स्व-बिम्बम्-- अपने ही स्वरूप को;लोक-लोचनम्--सार्वजनिक दृष्टि में
भगवान् श्रीकृष्ण, जिन्होंने पृथ्वी पर सबों की दृष्टि के समक्ष अपना नित्य स्वरूप प्रकटकिया था, अपने स्वरूप को उन लोगों की दृष्टि से हटाकर अन््तर्धान हो गये जो वांछित तपस्या न कर सकने के कारण उन्हें यथार्थ रूप में देख पाने में असमर्थ थे।
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग-मायाबलं दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्थ च सौभगरद्ें:पर पदं भूषणभूषणाड्ुम् ॥
१२॥
यत्--उनका जो नित्यरूप; मर्त्य--मर्त्पजगत; लीला-उपयिकम्--लीलाओं के लिए उपयुक्त; स्व-योग-माया-बलम्--अन्तरंगाशक्ति का बल; दर्शबता--अभिव्यक्ति के लिए; गृहीतम्ू--ढूँढ निकाला; विस्मापनम्-- अद्भुत; स्वस्य-- अपना; च--तथा;सौभग-ऋद्धेः--ऐ श्रर्यवान् का; परम्--परम; पदम्--गन्तव्य; भूषण-- आभूषण; भूषण-अड्र्मू--आभूषणों का।
भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति योगमाया के द्वारा मर्त्यलोक में प्रकट हुए।
वे अपने नित्यरूप में आये जो उनकी लीलाओं के लिए उपयुक्त है।
ये लीलाएँ सबों के लिए आश्चर्यजनक थीं,यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिन्हें अपने ऐश्वर्य का गर्व है, जिसमें वैकुण्ठपति के रूप मेंभगवान् का स्वरूप भी सम्मिलित है।
इस तरह उनका ( श्रीकृष्ण का ) दिव्य शरीर समस्तआभूषणों का आभूषण है।
यद्धर्मसूनोर्बत राजसूयेनिरीक्ष्य हकक््स्वस्त्ययनं त्रिलोक: ।
कार्ल्स्येन चाद्येह गतं विधातुर्अर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ॥
१३॥
यत्--जो रूप; धर्म-सूनो:--महाराज युधिष्ठिर के; बत--निश्चय ही; राजसूये--राजसूय यज्ञ शाला में; निरीक्ष्य--देखकर;हक्--दृष्टि; स्वस्त्ययनम्--मनोहर; त्रि-लोक:--तीनों लोक के; कार्त्स्येन--सम्पूर्णत:; च--इस तरह; अद्य--आज; इह--इसब्रह्माण्ड के भीतर; गतम्--पार करके; विधातु:--स्त्रष्टा ( ब्रह्म ) का; अर्वाक्--अर्वाचीन मानव; सृतौ-- भौतिक जगत में;'कौशलम्--दक्षता; इति--इस प्रकार; अमनन््यत--सोचा |
महाराज युधिष्टिर द्वारा सम्पन्न किये गये राजसूय यज्ञ शाला में उच्चतर, मध्य तथाअधोलोकों से सारे देवता एकत्र हुए।
उन सबों ने भगवान् कृष्ण के सुन्दर शारीरिक स्वरूप को देखकर विचार किया कि वे मनुष्यों के स्त्रष्टा ब्रह्म की चरम कौशलपूर्ण सृष्टि हैं।
यस्थानुरागप्लुतहासरास-लीलावलोकप्रतिलब्धमाना: ।
ब्रजस्त्रियो हश्भिरनुप्रवृत्तधियोवतस्थु: किल कृत्यशेषा: ॥
१४॥
यस्य--जिसकी; अनुराग--आसक्ति; प्लुत--वर्धित; हास--हँसी; रास--मजाक, विनोद; लीला--लीलाएँ; अवलोक--चितवन; प्रतिलब्ध--से प्राप्त; माना:--व्यथित; ब्रज-स्त्रिय:--व्रज की बालाएँ; हग्भि:ः--आँखों से; अनुप्रवृत्त-- अनुगमनकरती; धिय:--बुद्धि द्वारा; अवतस्थु:--चुपचाप बैठ गईं; किल--निस्सन्देह; कृत्य-शेषा:--घर का काम काज।
हँसी, विनोद तथा देखादेखी की लीलाओं के पश्चात् ब्रज की बालाएँ कृष्ण के चले जानेपर व्यधित हो जातीं।
वे अपनी आँखों से उनका पीछा करती थीं, अतः वे हतबुद्धि होकर बैठजातीं और अपने घरेलू कामकाज पूरा न कर पातीं।
स्वशान्तरूपेष्वितरैः स्वरूपै-रभ्यर््रमानेष्वनुकम्पितात्मा ।
परावरेशो महदंशयुक्तोहाजोपि जातो भगवान्यथाग्नि: ॥
१५॥
स्व-शान्त-रूपेषु-- अपने शान्त भक्तों के प्रति; इतरैः--अन्यों, अभक्तों; स्व-रूपैः--अपने गुणों के अनुसार; अभ्यर्द्मानेषु --सताए जाकर; अनुकम्पित-आत्मा--सर्वदयामय भगवान्; पर-अवर--आध्यात्मिक तथा भौतिक; ईशः --नियंत्रक; महत्-अंश-युक्त:--महत् तत्त्व अंश के साथ; हि--निश्चय ही; अज:--अजन्मा; अपि--यद्यपि; जात: --उत्पन्न है; भगवानू-- भगवान्;यथा--मानो; अग्निः--आग।
आध्यात्मिक तथा भौतिक सृष्टियों के सर्वदयालु नियन्ता भगवान् अजन्मा हैं, किन्तु जबउनके शान्त भक्तों तथा भौतिक गुणों वाले व्यक्तियों के बीच संघर्ष होता है, तो वे महत् तत्त्व केसाथ उसी तरह जन्म लेते हैं जिस तरह अग्नि उत्पन्न होती है।
मां खेदयत्येतदजस्य जन्म-विडम्बनं यद्वसुदेवगेहे ।
ब्रजे च वासोरिभयादिव स्वयंपुरादव्यवात्सीद्यदनन्तवीर्य: ॥
१६॥
माम्--मुझको; खेदयति--पीड़ा पहुँचाता है; एतत्ू--यह; अजस्य--अजन्मा का; जन्म--जन्म; विडम्बनमू--मोहित करना;यत्--जो; वसुदेव-गेहे --वसुदेव के घर में; ब्रजे--वृन्दावन में; च-- भी; वास:--निवास; अरि--शत्रु के; भयात्-- भय से;इवब--मानो; स्वयमू--स्वयं; पुरात्--मथुरा पुरी से; व्यवात्सीतू-- भाग गया; यत्--जो हैं; अनन्त-वीर्य:--असीम बलशाली।
जब मैं भगवान् कृष्ण के बारे में सोचता हूँ कि वे अजन्मा होते हुए किस तरह वसुदेव केबन्दीगृह में उत्पन्न हुए थे, किस तरह अपने पिता के संरक्षण से ब्रज चले गये और वहाँ शत्रु-भयसे प्रच्छन्न रहते रहे तथा किस तरह असीम बलशाली होते हुए भी वे भयवश मथुरा से भागगये--ये सारी भ्रमित करने वाली घटनाएँ मुझे पीड़ा पहुँचाती हैं।
दुनोति चेतः स्मरतो ममैतद्यदाह पादावभिवन्द्य पित्रो: ।
ताताम्ब कंसादुरुशल्वितानांप्रसीदतं नोकृतनिष्कृतीनाम् ॥
१७॥
दुनोति--मुझे पीड़ा पहुँचाता है; चेत:--हृदय; स्मरतः--सोचते हुए; मम--मेरा; एतत्--यह; यत्--जितना; आह--कहा;पादौ--चरणों की; अभिवन्द्य--पूजकर; पित्रो:--माता-पिता के; तात--हे पिता; अम्ब--हे माता; कंसात्--कंस से; उरू--महान; श्धितानाम्-- भयभीतों का; प्रसीदतम्--प्रसन्न हों; न: --हमारा; अकृत--सम्पन्न नहीं हुआ; निष्कृतीनामू--आपकीसेवा करने के कर्तव्य
भगवान् कृष्ण ने अपने माता-पिता से उनके चरणों की सेवा न कर पाने की अपनी ( कृष्णतथा बलराम की ) अक्षमता के लिए क्षमा माँगी, क्योंकि कंस के विकट भय के कारण वे घरसे दूर रहते रहे।
उन्होंने कहा, 'हे माता, हे पिता, हमारी असमर्थता के लिए हमें क्षमा करें'।
भगवान् का यह सारा आचरण मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचाता है।
को वा अमुष्याड्ध्रिसरोजरेणुंविस्मर्तुमीशीत पुमान्विजिप्रनू ।
यो विस्फुरद्भ्रूविटपेन भूमे-भरिं कृतान्तेन तिरश्चकार ॥
१८॥
'कः--और कौन; वा--अथवा; अमुष्य-- भगवान् के; अड्ध्रि--पाँव; सरोज-रेणुम्--कमल की धूल; विस्मर्तुमू-- भुलाने केलिए; ईशीत--समर्थ हो सके ; पुमानू--मनुष्य; विजिप्रन्--सूँघते हुए; यः--जो; विस्फुरत्--विस्तार करते हुए; भ्रू-विटपेन--भौहों की पत्तियों के द्वारा; भूमेः --पृथ्वी का; भारम्-- भार; कृत-अन्तेन-- मृत्यु प्रहारों से; तिरश्चकार--सम्पन्न किया।
भला ऐसा कौन होगा जो उनके चरणकमलों की धूल को एकबार भी सूँघ कर उसे भुलासके ? कृष्ण ने अपनी भौहों की पत्तियों को विस्तीर्ण करके उन लोगों पर मृत्यु जैसा प्रहार कियाहै, जो पृथ्वी पर भार बने हुए थे।
इृष्टा भवद्धिर्ननु राजसूयेचैद्यस्य कृष्णं द्विषतोपि सिद्धि: ।
यां योगिन: संस्पृहयन्ति सम्यग्योगेन कस्तद्विरहं सहेत ॥
१९॥
इृष्टा--देखी गयी; भवद्धिः--आपके द्वारा; ननु--निस्सन्देह; राजसूये --महाराज युधथिष्टिर द्वारा सम्पन्न राजसूय यज्ञ की सभा में;चैद्यस्थ--चेदिराज ( शिशुपाल ) के; कृष्णम्--कृष्ण के प्रति; द्विषत:--ईर्ष्या से; अपि--के बावजूद; सिद्द्ध:--सफलता;यामू--जो; योगिन:--योगीजन; संस्पृहयन्ति--तीव्रता से इच्छा करते हैं; सम्यक्--पूर्णरूपेण; योगेन--योग द्वारा; क:ः--कौन;तत्--उनका; विरहम्--विच्छेद; सहेत--सहन कर सकता है।
आप स्वयं देख चुके हैं कि चेदि के राजा ( शिशुपाल ) ने किस तरह योगाभ्यास में सफलताप्राप्त की यद्यपि वह भगवान् कृष्ण से ईर्ष्या करता था।
वास्तविक योगी भी अपने विविधअभ्यासों द्वारा ऐसी सफलता की सुरुचिपूर्वक कामना करते हैं।
भला उनके विछोह को कौनसह सकता है ?
तथेव चान्ये नरलोकवीराय आहवे कृष्णमुखारविन्दम् ।
नेत्रै: पिबन्तो नयनाभिरामंपार्थास्त्रपूत: पदमापुरस्थ ॥
२०॥
तथा-- भी; एव च--तथा निश्चय ही; अन्ये-- अन्य; नर-लोक--मानव समाज; वीरा:--योद्धा; ये--जो; आहवे --युद्धभूमि( कुरुक्षेत्र की ) में; कृष्ण-- भगवान् कृष्ण का; मुख-अरविन्दम्--कमल के फूल जैसा मुँह; नेत्रै:--नेत्रों से; पिबन्त:--देखतेहुए; नयन-अभिरामम्-- आँखों को अतीव अच्छा लगने वाले; पार्थ--अर्जुन के; अस्त्र-पूत:--बाणों से शुद्ध हुआ; पदम्--धाम; आपु:--प्राप्त किया; अस्य--उनका |
निश्चय ही कुरुक्षेत्र युद्धस्थल के अन्य योद्धागण अर्जुन के बाणों के प्रहार से शुद्ध बन गयेऔर आँखों को अति मनभावन लगने वाले कृष्ण के कमल-मुख को देखकर उन्होंने भगवद्धामप्राप्त किया।
स्वयं त्वसाम्यातिशयस्त्यधीश:स्वाराज्यलक्ष्म्याप्ससमस्तकाम: ।
बलि हरद्धिश्चिरलोकपालै:किरीटकोट्बग्रेडितपादपीठ: ॥
२१॥
स्वयम्--स्वयं; तु--लेकिन; असाम्य--अद्वितीय; अतिशय: --महत्तर; त्रि-अधीश:--तीन का स्वामी; स्वाराज्य--स्वतंत्र सत्ता;लक्ष्मी--सम्पत्ति; आप्त--प्राप्त किया; समस्त-काम:--सारी इच्छाएँ; बलिमू--पूजा की साज सामग्री; हरद्धिः--प्रदत्त; चिर-लोक-पालै:--सृष्टि की व्यवस्था को नित्य बनाये रखने वालों द्वारा; किरीट-कोटि--करोड़ों मुकुट; एडित-पाद-पीठ:--स्तुतियों द्वारा सम्मानित पाँव |
भगवान् श्रीकृष्ण समस्त त्रयियों के स्वामी हैं और समस्त प्रकार के सौभाग्य की उपलब्धिके द्वारा स्वतंत्र रूप से सर्वोच्च हैं।
वे सृष्टि के नित्य लोकपालों द्वारा पूजित हैं, जो अपने करोड़ोंमुकुटों द्वारा उनके पाँवों का स्पर्श करके उन्हें पूजा की साज-सामग्री अर्पित करते हैं।
तत्तस्य कैड्डर्यमलं भूृतान्नोविग्लापयत्यडु यदुग्रसेनम् ।
तिष्ठन्निषण्णं परमेष्ठिधिष्ण्येन््यबोधयद्देव निधारयेति ॥
२२॥
तत्--इसलिए; तस्य--उसकी; कैड्डर्यम्ू--सेवा; अलम्--निस्सन्देह; भृतान्ू--सेवकों को; नः--हम; विग्लापयति--पीड़ा देतीहै; अड्रन--हे विदुर; यत्--जितनी कि; उग्रसेनम्--राजा उग्रसेन को; तिष्ठन्--बैठे हुए; निषण्णम्--सेवा में खड़े; परमेष्टि-धिष्ण्ये--राजसिंहासन पर; न्यबोधयत्--निवेदन किया; देव--मेरे प्रभु को सम्बोधित करते हुए; निधारय--आप जान लें;इति--इस प्रकार।
अतएबव हे विदुर, क्या उनके सेवकगण हम लोगों को पीड़ा नहीं पहुँचती जब हम स्मरणकरते हैं कि वे ( भगवान् कृष्ण ) राजसिंहासन पर आसीन राजा उग्रसेन के समक्ष खड़े होकर,'हे प्रभु, आपको विदित हो कि ' यह कहते हए सारे स्पष्टीकरण प्रस्तत करते थे।
अहो बकी यं स्तनकालकूटंजिघांसयापाययदप्यसाध्वी ॥
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततो३न्यंक॑ वा दयालुं शरणं ब्रजेम ॥
२३॥
अहो--ओह; बकी--असुरिनी ( पूतना ); यम्--जिसको; स्तन--अपने स्तन में; काल--घातक; कूटम्--विष; जिघांसया --ईर्ष्यावश; अपाययत्--पिलाया; अपि--यद्यपि; असाध्वी--कृतघ्ल; लेभे--प्राप्त किया; गतिम्ू--गन्तव्य; धात्री-उचिताम्ू--धाई के उपयुक्त; ततः--जिसके आगे; अन्यम्--दूसरा; कम्--अन्य कोई; वा--निश्चय ही; दयालुमू--कृपालु; शरणम्--शरण; ब्रजेम--ग्रहण करूँगा।
ओह, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उसअसुरिनी ( पूतना ) को माता का पद प्रदान किया, यद्यपि वह कृतघ्त थी और उसने अपने स्तनसे पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था ?
मन्येडसुरान्भागवतांस्त्रयधीशेसंरम्भमार्गाभिनिविष्टचित्तान् ।
ये संयुगेडचक्षत ताश््च्यपुत्र-मंसे सुनाभायुधमापतन्तम् ॥
२४॥
मन्ये--मैं सोचता हूँ; असुरान्ू--असुरों को; भागवतानू-महान् भक्तों को; त्रि-अधीशे--तीन के स्वामी को; संरम्भ--शत्रुता;मार्ग--मार्ग से होकर; अभिनिविष्ट-चित्तानू--विचारों में मग्न; ये--जो; संयुगे--युद्ध में; अचक्षत--देख सका; तार्श््य-पुत्रम्--भगवान् के वाहन गरुड़ को; अंसे--कन्धे पर; सुनाभ--चक्र; आयुधम्--हथियार धारण करनेवाला; आपतन्तम्--सामने आताहुआ।
मैं उन असुरों को जो भगवान् के प्रति शत्रुभाव रखते हैं, भक्तों से बढ़कर मानता हूँ, क्योंकिशत्रुता के भावों से भरे वे सभी युद्ध करते हुए भगवान् को तार्क्ष्य ( कश्यप ) पुत्र गरुड़ के कन्धोंपर बैठे तथा अपने हाथ में चक्रायुध लिए देख सकते हैं।
वसुदेवस्य देवक्यां जातो भोजेन्द्रबन्धने ।
चिकीरषुभ्भगवानस्या: शमजेनाभियाचित: ॥
२५॥
वसुदेवस्य--वसुदेव की पत्नी के; देवक््याम्--देवकी के गर्भ में; जात:--उत्पन्न; भोज-इन्द्र-- भोजों के राजा के; बन्धने--बन्दीगृह में; चिकीर्ष;--करने के लिए; भगवान्-- भगवान्; अस्या:--पृथ्वी का; शम्--कल्याण; अजेन--ब्रह्म द्वारा;अभियाचित:--याचना किये जाने पर।
पृथ्वी पर कल्याण लाने के लिए ब्रह्मा द्वारा याचना किये जाने पर भगवान् श्री कृष्ण कोभोज के राजा के बन्दीगृह में वसुदेव ने अपनी पत्नी देवकी के गर्भ से उत्पन्न किया।
ततो नन्दव्रजमितः पित्रा कंसाद्विबिभ्यता ।
एकादश समास्तत्र गूढाचि: सबलोवसत् ॥
२६॥
ततः--तत्पश्चात्; नन्द-ब्रजम्--नन्द महाराज के चरागाहों में; इत:--पाले-पोषे जाकर; पित्रा--अपने पिता द्वारा; कंसातू--कंससे; विबिभ्यता-- भयभीत होकर; एकादश--ग्यारह; समा: --वर्ष ; तत्र--वहाँ; गूढ-अर्चि:--प्रच्छन्न अग्नि; स-बल:--बलरामसहित; अवसत्--रहे
तत्पश्चात् कंस से भयभीत होकर उनके पिता उन्हें नन्द महाराज के चरागाहों में ले आये जहाँ वे अपने बड़े भाई बलदेव सहित ढकी हुईं अग्नि की तरह ग्यारह वर्षों तक रहे।
परीतो वत्सपैर्व॑त्सां श्वारयन्व्यहरद्विभु: ।
यमुनोपवने कूजद्दिवजसड्डू लिताड्प्रिपे ॥
२७॥
'परीतः--घिरे; वत्सपैः:--ग्वालबालों से; वत्सान्--बछड़ों को; चारयन्ू--चराते हुए; व्यहरत्--विहार का आनन्द लिया;विभु:--सर्वशक्तिमान; यमुना--यमुना नदी; उपवने--तट के बगीचे में; कूजत्--शब्दायमान; द्विज--पक्षी; सह्ढु लित--सघन;अड्टप्निपे--वृक्षों में
अपने बाल्यकाल में सर्वशक्तिमान भगवान् ग्वालबालों तथा बछड़ों से घिरे रहते थे।
इस तरह वे यमुना नदी के तट पर सघन वृक्षों से आच्छादित तथा चहचहाते पक्षियों की ध्वनि सेपूरित बगीचों में विहार करते थे।
कौमारीं दर्शयंश्रैष्टां प्रेक्षणीयां त्रजौकसाम् ।
रुदन्निव हसन्मुग्धवालसिंहावलोकनः ॥
२८॥
कौमारीमू--बचपन के लिए उपयुक्त; दर्शयन्--दिखलाते हुए; चेष्टाम्ू--कार्यकलाप; प्रेक्षणीयाम्--देखने के योग्य, दर्शनीय;ब्रज-ओकसाम्ू--वृन्दावन के वासियों द्वारा; रुदन्ू--चिल्लाते; इब--सहश; हसन्-- हँसते; मुग्ध-- आश्चर्यचकित; बाल-सिंह--सिंह-शावक; अवलोकन:--उसी तरह का दिखते हुए
जब भगवान् ने बालोचित कार्यो का प्रदर्शन किया, तो वे एकमात्र वृन्दावनवासियों को हीइृष्टिगोचर थे।
वे शिशु की तरह कभी रोते तो कभी हँसते और ऐसा करते हुए वे सिंह के बच्चेके समान प्रतीत होते थे।
स एव गोधन लक्ष्म्या निकेतं सितगोवृषम् ।
चारयब्ननुगान्गोपान्रणद्वेणुररीरमत् ॥
२९॥
सः--वह ( कृष्ण ); एब--निश्चय ही; गो-धनम्--गौ रूपी खजाना; लक्ष्म्या:--ऐश्वर्य से; निकेतम्ू--आगार; सित-गो-वृषम्--सुन्दर गौवें तथा बैल; चारयन्--चराते हुए; अनुगान्-- अनुयायियों को; गोपान्ू--ग्वाल बालों को; रणत्--बजती हुई;बेणु:--वंशी; अरीरमत्--उल्लसित किया।
अत्यन्त सुन्दर गाय-बैलों को चराते हुए समस्त ऐश्वर्य तथा सम्पत्ति के आगार भगवान्अपनी वंशी बजाया करते।
इस तरह वे अपने श्रद्धावान् अनुयायी ग्वाल-बालों को प्रफुल्लितकरते थे।
प्रयुक्तान्भोजराजेन मायिन: कामरूपिण: ।
लीलया व्यनुदत्तांस्तान्बाल: क्रीडनकानिव ॥
३०॥
प्रयुक्तान्ू--लगाये गये; भोज-राजेन--कंस द्वारा; मायिन:--बड़े-बड़े जादूगर, मायावी; काम-रूपिण:--इच्छानुसार रूपधारण करने वाले; लीलया--लीलाओं के दौरान; व्यनुदत्--मार डाला; तानू--उनको; तानू--जैसे ही वे निकट आये;बाल:--बालक; क़्रीडनकान्--खिलौनों; इब--सहृश |
भोज के राजा कंस ने कृष्ण को मारने के लिए बड़े-बड़े जादूगरों को लगा रखा था, जोकैसा भी रूप धारण कर सकते थे।
किन्तु अपनी लीलाओं के दौरान भगवान् ने उन सबों कोउतनी ही आसानी से मार डाला जिस तरह कोई बालक खिलौनों को तोड़ डालता है।
विपन्नान्विषपानेन निगृह्म भुजगाधिपम् ।
उत्थाप्यापाययदगावस्तत्तोय॑ प्रकृतिस्थितम् ॥
३१॥
विपन्नान्ू--महान् विपदाओं में परेशान; विष-पानेन--विष पीने से; निगृह्य--दमन करके; भुजग-अधिपम्--सर्पों के मुखियाको; उत्थाप्प--बाहर निकाल कर; अपाययत्--पिलाया; गाव: --गौवें; तत्--उस; तोयम्--जल को; प्रकृति--स्वाभाविक;स्थितम्--स्थिति में |
वृन्दावन के निवासी घोर विपत्ति के कारण परेशान थे, क्योंकि यमुना के कुछ अंश काजल सर्पों के प्रमुख ( कालिय ) द्वारा विषाक्त किया जा चुका था।
भगवान् ने सर्पपाज को जलके भीतर प्रताड़ित किया और उसे दूर खदेड़ दिया।
फिर नदी से बाहर आकर उन्होंने गौवों को जल पिलाया तथा यह सिद्ध किया कि वह जल पुन: अपनी स्वाभाविक स्थिति में है।
अयाजयदगोसवेन गोपराजं द्विजोत्तमै: ।
वित्तस्य चोरु भारस्य चिकीर्षन्सद्व्ययं विभु: ॥
३२॥
अयाजयत्--सम्पन्न कराया; गो-सवेन--गौवों की पूजा द्वारा; गोप-राजम्--्वालों के राजा; द्विज-उत्तमै:--विद्वान ब्राह्मणोंद्वारा; वित्तस्य--सम्पत्ति का; च-- भी; उरु-भारस्य--महान् ऐश्वर्य; चिकीर्षन्ू--कार्य करने की इच्छा से; सतू-व्ययम्--उचितउपभोग; विभु:--महान् |
भगवान् कृष्ण महाराज नन्द की ऐश्वर्यशशाली आर्थिक शक्ति का उपयोग गौबों की पूजा केलिए कराना चाहते थे और वे स्वर्ग के राजा इन्द्र को भी पाठ पढ़ाना चाह रहे थे।
अतः उन्होंनेअपने पिता को सलाह दी थी कि बे विद्वान ब्राह्मणों की सहायता से गो अर्थात् चरागाह तथागौवों की पूजा कराएँ।
वर्षतीन्द्रे ब्रज: कोपाद्धग्नमानेठतिविहल: ।
गोत्रलीलातपत्रेण त्रातो भद्गरानुगृह्ता ॥
३३॥
वर्षति--जब बरसात में; इन्द्रे--इन्द्र द्वारा; ब्रज:--गौवों की भूमि ( वृन्दावन ); कोपात् भग्नमाने--अपमानित होने से क्रुद्ध;अति--अत्यधिक; विह॒लः--विचलित; गोत्र--गायों के लिए पर्वत; लीला-आतपत्रेण--छाता की लीला द्वारा; त्रात:--बचालिये गये; भद्ग--हे सौम्य; अनुगृह्वता--कृपालु भगवान् द्वारा।
हे भद्र विदुर, अपमानित होने से राजा इन्द्र ने वृन्दावन पर मूसलाधार वर्षा की।
इस तरहगौवों की भूमि ब्रज के निवासी बहुत ही व्याकुल हो उठे।
किन्तु दयालु भगवान् कृष्ण ने अपनेलीलाछत्र गोवर्धन पर्वत से उन्हें संकट से उबार लिया।
शरच्छशिकरैर्मृ्ट मानयत्रजनीमुखम् ।
गायन्कलपदं रेमे स्त्रीणां मण्डलमण्डन: ॥
३४॥
शरत्--शरद् कालीन; शशि--चन्द्रमा की; करैः --किरणों से; मृष्टमू--चमकीला; मानयन्--सोचते हुए; रजनी-मुखम्--रातका मुख; गायन्--गाते हुए; कल-पदम्--मनोहर गीत; रेमे--विहार किया; स्त्रीणाम्--स्त्रियों का; मण्डल-मण्डन:-स्त्रियोंकी सभा के मुख्य आकर्षण के रूप में |
वर्ष की तृतीय ऋतु में भगवान् ने स्त्रियों की सभा के मध्यवर्ती सौन्दर्य के रूप में चाँदनी सेउजली हुई शरद् की रात में अपने मनोहर गीतों से उन्हें आकृष्ट करके उनके साथ विहार किया।
अध्याय तीन: वृन्दावन से बाहर भगवान की लीलाएँ
3.3उद्धव उबाचततः स आगत्य पुरं स्वपित्रो-श्विकीर्षया शं बलदेवसंयुतः ।
निपात्य तुड्जद्रिपुयूथनाथंहतं व्यकर्षद्व्यसुमोजसोर्व्याम् ॥
१॥
उद्धव: उबाच-- श्रीउद्धव ने कहा; तत:--तत्पश्चात्; सः--भगवान्; आगत्य--आकर; पुरम्ू--मथुरा नगरी में; स्व-पित्रो: --अपने माता पिता की; चिकीर्षया--चाहते हुए; शम्--कुशलता; बलदेव-संयुतः--बलदेव के साथ; निपात्य--नीचे खींचकर;तुड्जात्ू-सिंहासन से; रिपु-यूथ-नाथम्--जनता के शत्रुओं के मुखिया को; हतम्ू--मार डाला; व्यकर्षत्--खींचा; व्यसुम्--मृत; ओजसा--बल से; उर्व्याम्-पृथ्वी पर।
श्री उद्धव ने कहा : तत्पश्चात् भगवान् कृष्ण श्री बलदेव के साथ मथुरा नगरी आये औरअपने माता पिता को प्रसन्न करने के लिए जनता के शत्रुओं के अगुवा कंस को उसके सिंहासनसे खींच कर अत्यन्त बलपर्वूक भूमि पर घसीटते हुए मार डाला।
सान्दीपने: सकृत््रोक्त ब्रह्माधीत्य सविस्तरम् ।
तस्मै प्रादाद्वरं पुत्रं मृतं पश्ञजनोदरात् ॥
२॥
सान्दीपने: --सान्दीपनि मुनि के; सकृतू--केवल एक बार; प्रोक्तम--कहा गया; ब्रह्म--ज्ञान की विभिन्न शाखाओं समेत सारेवेद; अधीत्य--अध्ययन करके; स-विस्तरम्--विस्तार सहित; तस्मै--उसको; प्रादात्ू--दिया; वरमू--वरदान; पुत्रमू--उसकेपुत्र का; मृतम्-मरे हुए; पञ्ञ-जन--मृतात्माओं का क्षेत्र; उदरात्ू--के भीतर से |
भगवान् ने अपने शिक्षक सान्दीपनि मुनि से केवल एक बार सुनकर सारे वेदों को उनकीविभिन्न शाखाओं समेत सीखा और गुरुदक्षिणा के रूप में अपने शिक्षक के मृत पुत्र कोयमलोक से वापस लाकर दे दिया।
समाहुता भीष्मककन्यया येभ्रियः सवर्णेन बुभूषयैषाम् ।
गान्धर्ववृत्त्या मिषतां स्वभागंजहे पद मूर्ध्नि दधत्सुपर्ण: ॥
३॥
समाहुता: --आमंत्रित; भीष्मक--राजा भीष्मक की; कन्यया--पुत्री द्वारा; ये--जो; भिय:--सम्पत्ति; स-वर्णेन--उसी तरह केक्रम में; बुभूषया--ऐसा होने की आशा से; एषाम्--उनका; गान्धर्व--ब्याह की; वृत्त्या--ऐसी प्रथा द्वारा; मिषताम्--ले जातेहुए; स्व-भागम्--अपना हिस्सा; जह्ढे--ले गया; पदम्--पाँव; मूर्ध्नि--सिर पर; दधत्--रखते हुए; सुपर्ण:--गरुड़ |
राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के सौन्दर्य तथा सम्पत्ति से आकृष्ट होकर अनेक बड़े-बड़ेराजकुमार तथा राजा उससे ब्याह करने के लिए एकत्र हुए।
किन्तु भगवान् कृष्ण अन्यआशावान् अभ्यर्थियों को पछाड़ते हुए उसी तरह अपना भाग जान कर उसे उठा ले गये जिस तरहगरुड़ अमृत ले गया था।
ककुद्धिनोविद्धनसो दमित्वास्वयंवरे नाग्नजितीमुवाह ।
तद्धग्नमानानपि गृध्यतोज्ञा-अधघ्नेक्षत: शस्त्रभृतः स्वशस्त्रै: ॥
४॥
ककुद्चिन:--बैल जिनकी नाकें छिदी हुई नहीं थीं; अविद्ध-नस:ः--नाकें छिदी हुई; दमित्वा--दमन करके; स्वयंवरे--दुलहिनचुनने के लिए खुली स्पर्धा में; नाग्गजितीम्ू--राजकुमारी नाग्नजिती को; उवाह--ब्याहा; तत्-भग्नमानान्--इस तरह निराशहुओं को; अपि--यद्यपि; गृध्यत:--चाहा; अज्ञानू--मूर्खजन; जघ्ने--मारा तथा घायल किया; अक्षतः--बिना घायल हुऐ;शस्त्र-भृतः--सभी हथियारों से लैस; स्व-शस्त्रै:--अपने हथियारों से |
बिना नथ वाले सात बैलों का दमन करके भगवान् ने स्वयंवर की खुली स्पर्धा मेंराजकुमारी नाग्नजिती का हाथ प्राप्त किया।
यद्यपि भगवान् विजयी हुए, किन्तु उनके प्रत्याशियोंने राजकुमारी का हाथ चाहा, अतः युद्ध हुआ।
अतः शस्त्रों से अच्छी तरह लैस, भगवान् ने उनसबों को मार डाला या घायल कर दिया, परन्तु स्वयं उन्हें कोई चोट नहीं आई।
प्रियं प्रभुग्राम्य इब प्रियायाविधित्सुरा्च्छ॑द्द्युतरुं यदर्थे ।
वह्गयाद्रवत्तं सगणो रुषान्ध:क्रीडामृगो नूनमयं वधूनाम् ॥
५॥
प्रियम्--प्रिय पत्नी के; प्रभु:--स्वामी; ग्राम्य:ः--सामान्य जीव; इब--सहश; प्रियाया: --प्रसन्न करने के लिए; विधित्सु:--चाहते हुए; आर्च्छत्--ले आये; द्युतरुम्--पारिजात पुष्प का वृक्ष; यत्--जिसके; अर्थ--विषय में; बज्जी --स्वर्ग का राजा इन्द्र;आद्रवत् तम्--उससे लड़ने आया; स-गण:--दलबल सहित; रुषा--क्रोध में; अन्ध: --अन्धा; क्रीडा-मृग: --कठपुतली;नूनमू--निस्सन्देह; अयम्--यह; वधूनाम्--स्त्रियों का।
अपनी प्रिय पत्नी को प्रसन्न करने के लिए भगवान् स्वर्ग से पारिजात वृक्ष ले आये जिस तरहकि एक सामान्य पति करता है।
किन्तु स्वर्ग के राजा इन्द्र ने अपनी पत्नियों के उकसाने पर( क्योंकि वह स्त्रीवश्य था ) लड़ने के लिए दलबल सहित भगवान् का पीछा किया।
सुतं मृथे खं वपुषा ग्रसन्तंइृष्ठा सुनाभोन्मथितं धरित्र्या ।
आमन्त्रितस्तत्तनयाय शेषंदत्त्वा तदन्तःपुरमाविवेश ॥
६॥
सुतम्--पुत्र को; मृधे --युद्ध में; खम्-- आकाश; वपुषा-- अपने शरीर से; ग्रसन््तम्--निगलते हुए; हृष्टा--देखकर; सुनाभ--सुदर्शन चक्र से; उन््मधितम्--मार डाला; धरित्र्या--पृथ्वी द्वारा; आमन्त्रित:--प्रार्थना किये जाने पर; तत्-तनयाय--नरकासुरके पुत्र को; शेषम्--उससे लिया हुआ; दत्त्वा--लौटा कर; तत्--उसके; अन्तः-पुरमू--घर के भीतर; आविवेश --घुसे |
धरित्री अर्थात् पृथ्वी के पुत्र नरकासुर ने सम्पूर्ण आकाश को निगलना चाहा जिसके कारणयुद्ध में वह भगवान् द्वारा मार डाला गया।
तब उसकी माता ने भगवान् से प्रार्थना की।
इससेनरकासुर के पुत्र को राज्य लौटा दिया गया और भगवान् उस असुर के घर में प्रविष्ट हुए।
तत्राहतास्ता नरदेवकन्याःकुजेन हृष्ठा हरिमार्तबन्धुम् ।
उत्थाय सद्यो जगृहुः प्रहर्ष-ब्रीडानुरागप्रहितावलोकै: ॥
७॥
तत्र--नरकासुर के घर के भीतर; आहता:--अपहत, भगाई हुई; ताः--उन सबों को; नर-देव-कन्या: --अनेक राजाओं कीपुत्रियों को; कुजेन--असुर द्वारा; दृष्ठा--देखकर; हरिम्-- भगवान् को; आर्त-बन्धुम्--दुखियारों के मित्र; उत्थाय--उठकर;सद्य:ः--वहीं पर, तत्काल; जगृहुः--स्वीकार किया; प्रहर्ष--हँसी खुशी के साथ; ब्रीड--लज्जा; अनुराग--आसक्ति; प्रहित-अवलोकै: --उत्सुक चितवनों से।
उस असुर के घर में नरकासुर द्वारा हरण की गई सारी राजकुमारियाँ दुखियारों के मित्रभगवान् को देखते ही चौकन्नी हो उठीं।
उन्होंने अतीव उत्सुकता, हर्ष तथा लज्जा से भगवान कीओर देखा और अपने को उनकी पत्नियों के रूप में अर्पित कर दिया।
आसां मुहूर्त एकस्मिन्नानागारेषु योषिताम् ।
सविध॑ जगूहे पाणीननुरूप: स्वमायया ॥
८॥
आसामू--सबों को; मुहूर्त --एक समय; एकस्मिन्ू--एकसाथ; नाना-आगारेषु--विभिन्न कमरों में; योषिताम्--स्त्रियों के; स-विधम्--विधिपूर्वक; जगृहे--स्वीकार किया; पाणीन्--हाथों को; अनुरूप:--के अनुरूप; स्व-मायया-- अपनी अन्तरंगाशक्ति से।
वे सभी राजकुमारियाँ अलग-अलग भवनों में रखी गई थीं और भगवान् ने एकसाथ प्रत्येकराजकुमारी के लिए उपयुक्त युग्म के रूप में विभिन्न शारीरिक अंश धारण कर लिये।
उन्होंनेअपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा विधिवत् उनके साथ पाणिग्रहण कर लिया।
तास्वपत्यान्यजनयदात्मतुल्यानि सर्वतः ।
एकैकस्यां दश दश प्रकृते्विबुभूषया ॥
९॥
तासु--उनके; अपत्यानि--सन्तानें; अजनयत्--उत्पन्न किया; आत्म-तुल्यानि--अपने ही समान; सर्वतः--सभी तरह से; एक-एकस्याम्--उनमें से हर एक में; दश--दस; दश--दस; प्रकृतेः-- अपना विस्तार करने के लिए; विबुभूषया--ऐसी इच्छा करतेहुए
अपने दिव्य स्वरूपों के अनुसार ही अपना विस्तार करने के लिए भगवान् ने उनमें से हरएक से ठीक अपने ही गुणों वाली दस-दस सम्तानें उत्पन्न कीं।
'कालमागधशाल्वादीननीकै रुन्धतः पुरम् ।
अजीघनत्स्वयं दिव्यं स्वपुंसां तेज आदिशत् ॥
१०॥
काल--कालयवन; मागध--मगध का राजा ( जरासन्ध ); शाल्व--शाल्व राजा; आदीनू्--इत्यादि; अनीकै: --सैनिकों से;रुन्धतः--घिरा हुआ; पुरमू--मथुरा नगरी; अजीघनतू--मार डाला; स्वयमू्--स्वयं; दिव्यम्--दिव्य; स्व-पुंसामू-- अपने हीलोगों को; तेज:--तेज; आदिशत्-- प्रकट किया।
कालयवन, मगध के राजा तथा शाल्व ने मथुरा नगरी पर आक्रमण किया, किन्तु जब नगरीउनके सैनिकों से घिर गई तो भगवान् ने अपने जनों की शक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से उनसबों को स्वयम् नहीं मारा।
शम्बरं द्विविदं बाणं मुरें बल्वलमेव च ।
अन््यांश्व दन्तवक्रादीनवधीत्कां श्र घातयत् ॥
११॥
शम्बरम्ू--शम्बर; द्विविदमू--द्विविद; बाणम्ू--बाण; मुरम्--मुर; बल्वलम्--बल्वल; एव च--तथा; अन्यान्ू--अन्यों को;च--भी; दन्तवक्र-आदीनू्--दन्तवक्र इत्यादि को; अवधीत्--मारा; कान् च--तथा अनेक अन्यों को; घातयत्--मरवाया।
शम्बर, द्विविद, बाण, मुर, बल्वल जैसे राजाओं तथा दन्तवक़र इत्यादि बहुत से असुरों में सेकुछ को उन्होंने स्वयं मारा और कुछ को अन्यों ( यथा बलदेव इत्यादि ) द्वारा मरवाया।
अथ ते क्रातृपुत्राणां पक्षयो: पतितान्नूपान् ।
चचाल भू: कुरुक्षेत्र येघामापततां बलै: ॥
१२॥
अथ--तत्पश्चात्; ते--तुम्हारे; भ्रातृ-पुत्राणाम्ू-- भतीजों के; पक्षयो:--दोनों पक्षों के; पतितानू--मारे गये; नृपान्ू--राजाओंको; चचाल--हिला दिया; भू:--पृथ्वी; कुरुक्षेत्रमू--कुरुक्षेत्र युद्धस्थल; येषामू--जिसके; आपतताम्--चलते समय; बलै:--बल द्वारा
तत्पश्चात्, हे विदुर, भगवान् ने शत्रुओं को तथा लड़ रहे तुम्हारे भतीजों के पक्ष के समस्तराजाओं को कुरुक्षेत्र के युद्ध में मरवा डाला।
वे सारे राजा इतने विराट तथा बलवान थे कि जब वे युद्धभूमि में विचरण करते तो पृथ्वी हिलती प्रतीत होती ।
स कर्णदु:शासनसौबलानांकुमन्त्रपषाकेन हतथ्रियायुषम् ।
सुयोधन सानुचरं शयानंभग्नोरुमूर्व्या न ननन्द पश्यन् ॥
१३॥
सः--वह ( भगवान् ); कर्ण--कर्ण; दुःशासन--दुःशासन; सौबलानाम्ू--सौबल; कुमन्त्र-पाकेन--कुमंत्रणा की जटिलता से;हत-भ्रिय--सम्पत्ति से विहीन; आयुषम्--आयु से; सुयोधनम्--दुर्योधन; स-अनुचरम्-- अनुयायियों सहित; शयानम्--लेटेहुए; भग्न--टूटी; ऊरुम्--जंघाएँ; ऊर्व्याम्--अत्यन्त शक्तिशाली; न--नहीं; ननन्द-- आनन्द मिला; पश्यन्ू--इस तरह देखतेहुए
कर्ण, दुःशासन तथा सौबल की कुमंत्रणा के कपट-योग के कारण दुर्योधन अपनी सम्पत्तितथा आयु से विहीन हो गया।
यद्यपि वह शक्तिशाली था, किन्तु जब वह अपने अनुयायियोंसमेत भूमि पर लेटा हुआ था उसकी जाँघें टूटी थीं।
भगवान् इस दृश्य को देखकर प्रसन्न नहीं थे।
कियान्भुवोयं क्षपितोरु भारोयद्द्रोणभीष्मार्जुनभीममूलै: ।
अष्टादशाक्षौहिणिको मदंशै-रास्ते बल॑ दुर्विषहं यदूनाम् ॥
१४॥
कियान्--यह क्या है; भुव:ः--पृथ्वी पर; अयम्--यह; क्षपित--घटा हुआ; उरू--बहुत बड़ा; भार: -- भार, बोझा; यत्--जो;द्रोण--द्रोण; भीष्म-- भीष्म; अर्जुन--अर्जुन; भीम-- भीम; मूलैः --सहायता से; अष्टादइश--अठारह; अक्षौहिणिक:--सैन्यबलकी व्यूह रचना ( देखें भागवत ११६३४ ); मत्-अंशै:--मेरे बंशजों के साथ; आस्ते--अब भी हैं; बलम्--महान् शक्ति;दुर्विषहम्--असहा; यदूनाम्--यदुवंश की |
कुरुक्षेत्र युद्ध की समाप्ति पर भगवान् ने कहा अब द्रोण, भीष्म, अर्जुन तथा भीम कीसहायता से अठारह अक्षौहिणी सेना का पृथ्वी का भारी बोझ कम हुआ है।
किन्तु यह कया है?अब भी मुझी से उत्पन्न यदुवंश की विशाल शक्ति शेष है, जो और भी अधिक असह्ाय बोझ बनसकती है।
मिथो यदैषां भविता विवादोमध्वामदाताप्रविलोचनानाम् ।
नैषां वधोपाय इयानतोउन्योमय्युद्यतेउन्तर्दधते स्वयं सम ॥
१५॥
मिथ: --परस्पर; यदा--जब; एषाम्--उनके; भविता--होगा; विवाद: --झगड़ा; मधु-आमद--शराब पीने से उत्पन्न नशा;आताम्र-विलोचनानाम्ू--ताँबे जैसी लाल आँखों के; न--नहीं; एषाम्--उनके; वध-उपाय:--लोप का साधन; इयान्ू--इसजैसा; अत:--इसके अतिरिक्त; अन्यः--वैकल्पिक; मयि--मुझ पर; उद्यते--लोप; अन्तः-दधते--विलुप्त होंगे; स्वयम्-- अपनेसे; स्म--निश्चय है
जब वे नशे में चूर होकर, मधु-पान के कारण ताँबें जैसी लाल-लाल आँखें किये, परस्परलड़ेंगे-झगड़ेंगे तभी वे विलुप्त होंगे अन्यथा यह सम्भव नहीं है।
मेरे अन्तर्धान होने पर यह घटना घटेगी।
एवं सद्धिन्त्य भगवान्स्वराज्ये स्थाप्य धर्मजम् ।
नन्दयामास सुहृदः साधूनां वर्त्म दर्शयन् ॥
१६॥
एवम्--इस प्रकार; सश्ञिन्त्य-- अपने मन में सोचकर; भगवान्-- भगवान् ने; स्व-राज्ये-- अपने राज्य में; स्थाप्य--स्थापितकरके; धर्मजम्--महाराज युधिष्ठिर को; नन्दयाम् आस--हर्षित किया; सुहृदः--मित्र गणों; साधूनाम्--सन्तों के; वर्त्म--मार्ग;दर्शयन्ू--दिखलाते हुए।
इस तरह अपने आप सोचते हुए भगवान् कृष्ण ने पुण्य के मार्ग में प्रशासन का आदर्शप्रदर्शित करने के लिए संसार के परम नियन्ता के पद पर महाराज युध्चिष्ठिर को स्थापित किया।
उत्तरायां धृतः पूरोर्वश: साध्वभिमन्युना ।
स वे द्रौण्यस्त्रसम्प्लुष्ट: पुनर्भगवता धृतः ॥
१७॥
उत्तरायाम्--उत्तरा के; धृतः--स्थापित; पूरो: --पूरु का; वंश:--उत्तराधिकारी; साधु-अभिमन्युना--वीर अभिमन्यु द्वारा; सः--वह; बै--निश्चय ही; द्रौि-अस्त्र--द्रोण के पुत्र द्रोणि के हथियार द्वारा; सम्प्लुष्ट: --जलाया जाकर; पुनः--दुबारा; भगवता--भगवान् द्वारा; धृतः--बचाया गया था।
महान् वीर अभिमन्यु द्वारा अपनी पत्नी उत्तरा के गर्भ में स्थापित पूरु के वंशज का भ्रूणद्रोण के पुत्र के अस्त्र द्वारा भस्म कर दिया गया था, किन्तु बाद में भगवान् ने उसकी पुनः रक्षाकी।
अयाजयद्धर्मसुतमश्रमेधेस्त्रिभिर्विभु: ।
सोडपि क्ष्मामनुजै रक्षत्रेमे कृष्णमनुत्रतः ॥
१८ ॥
अयाजयत्--सम्पन्न कराया; धर्म-सुतम्--धर्म के पुत्र ( महाराज युधिष्टिर ) द्वारा; अश्वमेथे: --यज्ञ द्वारा; त्रिभिः--तीन; विभु:--परमेश्वर; सः--महाराज युधिष्ठटिर; अपि-- भी; क्ष्माम्-पृथ्वी को; अनुजैः--अपने छोटे भाइयों सहित; रक्षन्--रक्षा करते हुए;रेमे--भोग किया; कृष्णम्-- भगवान् कृष्ण; अनुव्रतः--निरन्तर अनुगामी |
भगवान् ने धर्म के पुत्र महाराज युथ्रिष्ठिर को तीन अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरितकिया और उन्होंने भगवान् कृष्ण का निरन्तर अनुगमन करते हुए अपने छोटे भाइयों की सहायता" से पृथ्वी की रक्षा की और उसका भोग किया।
भगवानपि विश्वात्मा लोकवेदपथानुग: ।
कामान्सिषेवे द्वार्वत्यामसक्त: साड्ख्यमास्थित: ॥
१९॥
भगवान्-- भगवान्; अपि-- भी; विश्व-आत्मा--ब्रह्माण्ड के परमात्मा; लोक--लोक व्यवहार; बेद--वैदिक सिद्धान्त; पथ-अनुग:ः--मार्ग का अनुकरण करने वाला; कामान्--जीवन की आवश्यकताएँ; सिषेबे--भोग किया; द्वार्वत्यामू-दद्वारका पुरी में;असक्त:--बिना आसक्त हुए; साइड्ख्यम्--सांख्य दर्शन के ज्ञान में; आस्थित: --स्थित होकर।
उसी के साथ-साथ भगवान् ने समाज के वैदिक रीति-रिवाजों का हढ़ता से पालन करते हुएद्वारकापुरी में जीवन का भोग किया।
वे सांख्य दर्शन प्रणाली के द्वारा प्रतिपादित बैराग्य तथाज्ञान में स्थित थे।
स्निग्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया ।
चरित्रेणानवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना ॥
२०॥
स्निग्ध--सौम्य; स्मित-अवलोकेन--मृदुहँसी से युक्त चितवन द्वारा; वाचा--शब्दों से; पीयूष-कल्पया--अमृत के तुल्य;चरित्रेण--चरित्र से; अनवद्येन--दोषरहित; श्री--लक्ष्मी; निकेतेन-- धाम; च-- तथा; आत्मना-- अपने दिव्य शरीर से।
वे वहाँ पर लक्ष्मी देवी के निवास, अपने दिव्य शरीर, में सदा की तरह के अपने सौम्य तथामधुर मुसकान युक्त मुख, अपने अमृतमय वचनों तथा अपने निष्क॑लक चरित्र से युक्त रह रहे थे।
इमं लोकममुं चैव रमयन्सुतरां यदून् ।
रेमे क्षणदया दत्तक्षणस्त्रीक्षणसौहद: ॥
२१॥
इममू--यह; लोकम्--पृथ्वी; अमुमू--तथा अन्य लोक; च-- भी; एव--निश्चय ही; रमयन्--मनोहर; सुतराम्--विशेष रूप से;यदून्ू--यदुओं को; रेमे--आनन्द लिया; क्षणदया--रात में; दत्त--प्रदत्त; क्षण--विश्राम; स्त्री--स्त्रियों के साथ; क्षण--दाम्पत्य प्रेम; सौहद: --मैत्री |
भगवान् ने इस लोक में तथा अन्य लोकों में ( उच्च लोकों में ), विशेष रूप से यदुवंश कीसंगति में अपनी लीलाओं का आनन्द लिया।
रात्रि में विश्राम के समय उन्होंने अपनी पत्नियों केसाथ दाम्पत्य प्रेम की मैत्री का आनन्द लिया।
तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान्बहून् ।
गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत ॥
२२॥
तस्य--उसका; एवम्--इस प्रकार; रममाणस्थ--रमण करने वाले; संवत्सर--वर्षो; गणान्ू--अनेक; बहूनू--कई; गृहमेधेषु --गृहस्थ जीवन में; योगेषु--यौन जीवन में; विराग:--विरक्ति; समजायत--जागृत हुईं
इस तरह भगवान् अनेकानेक वर्षों तक गृहस्थ जीवन में लगे रहे, किन्तु अन्त में नश्वर यौनजीवन से उनकी विरक्ति पूर्णतया प्रकट हुई।
दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान् ।
को विश्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुत्रत: ॥
२३॥
" दैव--अलौकिक; अधीनेषु--नियंत्रित होकर; कामेषु--इन्द्रिय भोग विलास में; दैव-अधीन:--अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित;स्वयम्--अपने आप; पुमान्--जीव; कः--जो भी; विश्रम्भेत-- श्रद्धा रख सकता हो; योगेन--भक्ति से; योगेश्वरम्-- भगवान्में; अनुब्रत:--सेवा करते हुए।
प्रत्येक जीव एक अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित होता है और इस तरह उसका इन्द्रिय भोगभी उसी अलौकिक शक्ति के नियंत्रण में रहता है।
इसलिए कृष्ण के दिव्य इन्द्रिय-कार्यकलापोंमें वही अपनी श्रद्धा टिका सकता है, जो भक्ति-मय सेवा करके भगवान् का भक्त बन चुकाहो।
पुर्या कदाचित्क्रीडद्धिर्यदुभोजकुमारकै: ।
कोपिता मुनयः शेपुर्भगवन्मतकोविदा: ॥
२४॥
पुर्यामू-द्वारका पुरी में; कदाचित्--एक बार; क्रीडद्धि:--क्रीड़ाओं द्वारा; यदु--यदुबंशी; भोज-- भोज के वंशज;कुमारकैः--राजकुमारों द्वारा; कोपिता:--क्रुद्ध हुए; मुनयः--मुनियों ने; शेपु:--शाप दिया; भगवत्-- भगवान् की; मत--इच्छा; कोविदा:--जानकार।
एक बार यदुवंशी तथा भोजवंशी राजकुमारों की क्रीड़ाओं से महामुनिगण क्रुद्ध हो गये तोउन्होंने भगवान् की इच्छानुसार उन राजकुमारों को शाप दे दिया।
ततः कतिपयैर्मासैर्वृष्णिभोजान्धकादयः ।
ययु: प्रभासं संहष्टा रथेदेवविमोहिता: ॥
२५॥
ततः--तत्पश्चात्; कतिपयैः --कुछेक; मासैः--मास बिता कर; वृष्णि--वृष्णि के वंशज; भोज--भोज के वंशज; अन्धक-आदयः--अन्धक के पुत्र इत्यादि; ययु:--गये; प्रभासम्--प्रभास नामक तीर्थस्थान; संहृष्टा:-- अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; रथै:--अपने अपने रथों पर; देव--कृष्ण द्वारा; विमोहिता:--मोह ग्रस्त |
कुछेक महीने बीत गये तब कृष्ण द्वारा विमोहित हुए समस्त वृष्णि, भोज तथा अन्धक वंशी,जो कि देवताओं के अवतार थे, प्रभास गये।
किन्तु जो भगवान् के नित्य भक्त थे वे द्वारका में हीरहते रहे।
तत्र स्नात्वा पितृन्देवानृषी क्षेव तदम्भसा ।
तर्पयित्वाथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददुः ॥
२६॥
" तत्र--वहाँ पर; स्नात्वा--स्नान करके; पितृनू--पितरों को; देवानू--देवताओं को; ऋषीन्--ऋषियों को; च-- भी; एव--निश्चय ही; तत्ू--उसके; अम्भसा--जल से; तर्पयित्वा--प्रसन्न करके; अथ--तत्पश्चात्; विप्रेभ्य:--ब्राह्मणों को; गाव: --गौवें;बहु-गुणा: --अत्यन्त उपयोगी; ददुः--दान में दीं
वहाँ पहुँचकर उन सबों ने स्नान किया और उस तीर्थ स्थान के जल से पितरों, देवताओं तथाऋषियों का तर्पण करके उन्हें तुष्ट किया।
उन्होंने राजकीय दान में ब्राह्मणों को गौवें दीं।
हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकम्बलान् ।
यान॑ रथानिभान्कन्या धरां वृत्तिकरीमपि ॥
२७॥
हिरण्यम्--सोना; रजतम्ू--रजत; शब्याम्--बिस्तर; वासांसि--वस्त्र; अजिन--आसन के लिए पशुचर्म; कम्बलानू--कम्बल;यानमू--घोड़े; रथान्ू--रथ; इभान्ू--हाथी; कन्या:-- लड़कियाँ; धराम्-- भूमि; वृत्ति-करीम्--आजीविका प्रदान करने केलिए; अपि-- भी ।
ब्राह्मणों को दान में न केवल सुपोषित गौवें दी गईं, अपितु उन्हें सोना, चाँदी, बिस्तर, वस्त्र,पशुचर्म के आसन, कम्बल, घोड़े, हाथी, कन्याएँ तथा आजीविका के लिए पर्याप्त भूमि भी दीगई।
अन्न चोरुरसं तेभ्यो दत्त्ता भगवदर्पणम् ।
गोविप्रार्थासव: शूरा: प्रणेमुर्भुवि मूर्थभि: ॥
२८॥
अन्नम्ू--खाद्यवस्तुएँ; च-- भी; उरू-रसम्ू--अत्यन्त स्वादिष्ट; तेभ्य:--ब्राह्मणों को; दत्त्वा--देकर; भगवत््-अर्पणम्--जिन््हेंसर्वप्रथम भगवान् को अर्पित किया गया; गो--गौवें; विप्र--ब्राह्मण; अर्थ--प्रयोजन, उद्देश्य; असव:--जीवन का प्रयोजन;शूराः--सारे बहादुर क्षत्रिय; प्रणेमु:--प्रणाम किया; भुवि-- भूमि छूकर; मूर्थभि:--अपने सिरों से
तत्पश्चात् उन्होंने सर्वप्रथम भगवान् को अर्पित किया गया अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन उनब्राह्मणों को भेंट किया और तब अपने सिरों से भूमि का स्पर्श करते हुए उन्हें सादर नमस्कारकिया।
वे गौवों तथा ब्राह्मणों की रक्षा करते हुए भलीभाँति रहने लगे।
अध्याय चार: विदुर मैत्रेय के पास पहुंचे
3.4उद्धव उबाचअथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।
तया विश्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशु; ॥
१॥
उद्धवः उवाच--उद्धव ने कहा; अथ--तत्पश्चात्; ते--वे ( यादवगण ); ततू्--ब्राह्मणों द्वारा; अनुज्ञाता:--अनुमति दिये जाकर;भुक्त्वा--खाकर; पीत्वा--पीकर; च--तथा; वारुणीम्--मदिरा; तया--उससे; विभ्रंशित-ज्ञाना:--ज्ञानसे विहीन होकर;दुरुक्ते:--कर्कश शब्दों से; मर्म--हृदय के भीतर; पस्पृशु:--छू गया।
तत्पश्चात् उन सबों ने ( वृष्णि तथा भोज वंशियों ने ) ब्राह्मणों की अनुमति से प्रसाद काउच्छिष्ट खाया और चावल की बनी मदिरा भी पी।
पीने से वे सभी संज्ञाशून्य हो गये और ज्ञान सेरहित होकर एक दूसरे को वे मर्मभेदी कर्कश वचन कहने लगे।
तेषां मैरैयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।
निम्लोचति रवावासीद्वेणूनामिव मर्दनम् ॥
२॥
तेषामू--उनके; मैरेय--नशे के; दोषेण--दोष से; विषमीकृत-- असंतुलित; चेतसामू--जिनके मन; निम्लोचति--अस्त होताहै; रवौ--सूर्य; आसीत्--घटित होता है; वेणूनाम्--बाँसों का; इब--सहश; मर्दनम्--विनाश
जिस तरह बाँसों के आपसी घर्षण से विनाश होता है उसी तरह सूर्यास्त के समय नशे केदोषों की अन्तःक्रिया से उनके मन असंतुलित हो गये और उनका विनाश हो गया।
भगवान्स्वात्ममायाया गतिं तामवलोक्य सः ।
सरस्वतीमुपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥
३॥
भगवान्-- भगवान्; स्व-आत्म-मायाया: -- अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा; गतिम्ू-- अन्त; तामू--उसको; अवलोक्य--देखकर;सः--वे ( कृष्ण ); सरस्वतीम्--सरस्वती नदी का; उपस्पृश्य--जल का आचमन करके; वृक्ष-मूलम्--वृक्ष की जड़ के पास;उपाविशत्--बैठ गये।
भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अन्तरंगा शक्ति से ( अपने परिवार का ) भावी अन्त देखकरसरस्वती नदी के तट पर गये, जल का आचमन किया और एक वृक्ष के नीचे बैठ गये।
अहं चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरिण ह ।
बदरीं त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सज्िहीर्षुणा ॥
४॥
अहम्-ैं; च--तथा; उक्त:ः--कहा गया; भगवता-- भगवान् द्वारा; प्रपन्न--शरणागत का; आर्ति-हरेण--कष्टों को हरण करनेवाले के द्वारा; ह--निस्सन्देह; बदरीम्--बदरी; त्वम्--तुम; प्रयाहि--जाओ; इति--इस प्रकार; स्व-कुलम्-- अपने ही परिवारको; सज्िहीर्षुणा--विनष्ट करना चाहा।
भगवान् उनके कष्टों का विनाश करते हैं, जो उनके शरणागत हैं।
अतएव जब उन्होंने अपनेपरिवार का विनाश करने की इच्छा की तो उन्होंने पहले ही बदरिकाश्रम जाने के लिए मुझसेकह दिया था।
तथापि तदभिप्रेतं जानन्नहमरिन्दम ।
पृष्ठतोउन्वगमं भर्तु: पादविश्लेषणाक्षम: ॥
५॥
तथा अपि--तिस पर भी; तत्-अभिप्रेतम्-- उनकी इच्छा; जानन्--जानते हुए; अहमू--मैं; अरिम्-दम--हे शत्रुओं के दमनकर्ता( विदुर ); पृष्ठतः--पीछे; अन्वगमम्-- अनुसरण किया; भर्तु:--स्वामी का; पाद-विश्लेषण--उनके चरणकमलों से बिलगाव;अक्षम:--समर्थ न होकर।
हे अरिन्दम ( विदुर ), ( वंश का विनाश करने की ) उनकी इच्छा जानते हुए भी मैं उनकाअनुसरण करता रहा, क्योंकि अपने स्वामी के चरणकमलों के बिछोह को सह पाना मेरे लिए सम्भव न था।
अद्वाक्षमेकमासीनं विचिन्वन्दयितं पतिम् ।
श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥
६॥
अद्राक्षम्-मैंने देखा; एकम्-- अकेले; आसीनम्--बैठे हुए; विचिन्वन्--गम्भीर चिन्तन करते हुए; दवितम्--संरक्षक;पतिम्--स्वामी को; श्री-निकेतम्--लक्ष्मीजी के आश्रय को; सरस्वत्याम्ू--सरस्वती के तट पर; कृत-केतम्--आ श्रय लिएहुए; अकेतनम्ू--बिना आश्रय के स्थित
इस तरह उनका पीछा करते हुए मैंने अपने संरक्षक तथा स्वामी ( भगवान् श्रीकृष्ण ) कोसरस्वती नदी के तट पर आश्रय लेकर अकेले बैठे और गहन चिन्तन करते देखा, यद्यपि वे देवीलक्ष्मी के आश्रय हैं।
एयामावदातं विरजं प्रशान्तारुणलोचनम् ।
दोर्भिश्वतुर्भिविंदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥
७॥
श्याम-अवदातमू--श्याम वर्ण से सुन्दर; विरजम्-शुद्ध सतोगुण से निर्मित; प्रशान्त--शान्त; अरूण--लाल लाल; लोचनम्--नेत्र; दोर्भि:-- भुजाओं द्वारा; चतुर्भि:--चार; विदितम्--पहचाने जाकर; पीत--पीला; कौश--रेशमी; अम्बरेण--वस्त्र से;च--तथा
भगवान् का शरीर श्यामल है, किन्तु वह सच्चिदानन्दमय है और अतीव सुन्दर है।
उनके नेत्रसदैव शान्त रहते हैं और बे प्रातःकालीन उदय होते हुए सूर्य के समान लाल हैं।
मैं उनके चारहाथों, विभिन्न प्रतीकों तथा पीले रेशमी वस्त्रों से तुरत पहचान गया कि वे भगवान् हैं।
वाम ऊरावधिश्नित्य दक्षिणाड्प्रिसरोरूहम् ।
अपश्षितार्भका श्रत्थमकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥
८ ॥
वामे--बाईं; ऊरौ--जाँघ पर; अधिश्रित्य--रख कर; दक्षिण-अड्प्रि-सरोरुहम्ू--दाहिने चरणकमल को; अपाश्रित--टिकाकर; अर्भक--छोटा; अश्वत्थम्--बरगद का वृक्ष; अकृशम्-प्रसन्न; त्यक्त--छोड़े हुए; पिप्पलम्--घरेलू आराम।
भगवान् अपना दाहिना चरण-कमल अपनी बाई जांघ पर रखे एक छोटे से बरगद वृक्ष का सहारा लिए हुए बैठे थे।
यद्यपि उन्होंने सारे घरेलू सुपास त्याग दिये थे, तथापि बे उस मुद्रा में पूर्णरुपेण प्रसन्न दीख रहे थे।
तस्मिन्महाभागवतो द्वैपायनसुहत्सखा ।
लोकाननुचरन्सिद्ध आससाद यहच्छया ॥
९॥
तस्मिन्ू--तब; महा-भागवतः-- भगवान् का महान् भक्त; द्वैघायन--कृष्ण द्वैपायन व्यास का; सुहृत्--हितैषी; सखा--मित्र;लोकानू--तीनों लोकों में; अनुचरन्--विचरण करते हुए; सिद्धे--उस आश्रम में; आससाद--पहुँचा; यहच्छया-- अपनी पूर्णइच्छा से
उसी समय संसार के अनेक भागों की यात्रा करके महान् भगवद्भक्त तथा महर्षिकृष्णद्वैपायन व्यास के मित्र एवं हितैषी मैत्रेय अपनी इच्छा से उस स्थान पर आ पहुँचे।
" तस्यानुरक्तस्य मुनेर्मुकुन्दःप्रमोदभावानतकन्धरस्य ।
आश्रण्वतो मामनुरागहास-समीक्षया विश्रमयन्नुवाच ॥
१०॥
तस्य--उसका; अनुरक्तस्थ--अनुरक्त का; मुनेः--मुनि ( मैत्रेय ) का; मुकुन्दः--मोक्ष प्रदान करने वाले भगवान्; प्रमोद-भाव--प्रसन्न मुद्रा में; आनत--नीचे किये; कन्धरस्य--कन्धों का; आश्रृण्वतः--इस तरह सुनते हुए; माम्--मुझको; अनुराग-हास--दयालु हँसी से; समीक्षया--मुझे विशेष रूप से देखकर; विश्र-मयन्--मुझे विश्राम पूरा करने देकर; उवाच--कहा।
मैत्रेय मुनि उनमें ( भगवान् में ) अत्यधिक अनुरक्त थे और वे अपना कंधा नीचे किये प्रसन्नमुद्रा में सुन रहे थे।
मुझे विश्राम करने का समय देकर, भगवान् मुसकुराते हुए तथा विशेषचितवन से मुझसे इस प्रकार बोले।
हः न ऊ अ+ ८ न' न" श्रीभगवानुवाचवेदाहमन्तर्मनसीप्सितं तेददामि यत्तहुरवापमन्य: ।
सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनांमत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्ट: ॥
११॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; वेद--जानता हूँ; अहम्-मैं; अन्तः-- भीतर; मनसि--मन में; ईप्सितम्--इच्छित; ते--तुम्हें; ददामि--देता हूँ; यत्--जो है; तत्ू--वह; दुरवापम्--प्राप्त कर पाना अतीव कठिन; अन्यै:--अन्यों द्वारा; सत्रे--यज्ञ में;पुरा--प्राचीन काल में; विश्व-सृजाम्--इस सृष्टि का सृजन करने वालों के; बसूनाम्--वसुओं का; मत्-सिद्धि-कामेन--मेरीसंगति प्राप्त करने की इच्छा से; वसो--हे वसु; त्वया--तुम्हारे द्वारा; इष्ट:--जीवन का चरम लक्ष्य
हे बसु, मैं तुम्हारे मन के भीतर से वह जानता हूँ, जिसे पाने की तुमने प्राचीन काल में इच्छाकी थी जब विश्व के कार्यकलापों का विस्तार करने वाले वसुओं तथा देवताओं ने यज्ञ किये थे।
तुमने विशेषरूप से मेरी संगति प्राप्त करने की इच्छा की थी।
अन्य लोगों के लिए इसे प्राप्त करपाना दुर्लभ है, किन्तु मैं तुम्हें यह प्रदान कर रहा हूँ।
स एष साधो चरमो भवानाम्आसादितस्ते मदनुग्रहो यत् ।
यन्मां नूलोकान्रह उत्सूजन्तंदिष्टय्या दहश्रान्विशदानुवृत्त्या ॥
१२॥
सः--वह; एष:--उनका; साधो--हे साधु; चरम: --चरम; भवानाम्--तुम्हारे सारे अवतारों ( वसु रूप में ) में से; आसादित:--अब प्राप्त; ते--तुम पर; मत्--मेरी; अनुग्रह:--कृपा; यत्--जिस रूप में; यत्--क्योंकि; माम्--मुझको; नृू-लोकानू--बद्धजीवों के लोक; रह:--एकान्त में; उत्सृजन्तम्-त्यागते हुए; दिष्टठ्या--देखने से; ददश्चानू--जो तुम देख चुके हो; विशद-अनुवृत्त्या--अविचल भक्ति से
हे साधु तुम्हारा वर्तमान जीवन अन्तिम तथा सर्वोपरि है, क्योंकि तुम्हें इस जीवन में मेरीचरम कृपा प्राप्त हुई है।
अब तुम बद्धजीवों के इस ब्रह्माण्ड को त्याग कर मेरे दिव्य धाम वैकुण्ठजा सकते हो।
तुम्हारी शुद्ध तथा अविचल भक्ति के कारण इस एकान्त स्थान में मेरे पास तुम्हाराआना तुम्हारे लिए महान् वरदान है।
पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये'पदो निषण्णाय ममादिसर्गे ।
ज्ञानं परं मन्महिमावभासंयत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥
१३॥
पुरा--प्राचीन काल में; मया--मेरे द्वारा; प्रोक्तमू--कहा गया था; अजाय--ब्रह्मा से; नाभ्ये--नाभि से बाहर; पढो--कमल पर;निषण्णाय--स्थित; मम--मेरा; आदि-सर्गे --सृष्टि के प्रारम्भ में; ज्ञाममू--ज्ञान; परमू--परम; मत् -महिमा--मेरी दिव्य कीर्ति;अवभासम्ू--जो निर्मल बनाती है; यत्--जिसे; सूरय:--महान् विद्वान् मुनि; भागवतम्-- श्रीमद्भागवत; वदन्ति--कहते हैं
हे उद्धव, प्राचीन काल में कमल कल्प में, सृष्टि के प्रारम्भ में मैंने अपनी नाभि से उगे हुएकमल पर स्थित ब्रह्म से अपनी उस दिव्य महिमाओं के विषय में बतलाया था, जिसे बड़े-बड़ेमुनि श्रीमद्भागवत कहते हैं।
इत्याहतोक्त: परमस्य पुंसःप्रतिक्षणानुग्रहभाजनोहम् ।
स्नेहोत्थरोमा स्खलिताक्षरस्तंमुझ्नज्छुच: प्राज्लिराबभाषे ॥
१४॥
इति--इस प्रकार; आहत--अनुग्रह किये गये; उक्त:--सम्बोधित; परमस्यथ--परम का; पुंसः--भगवान्; प्रतिक्षण--हर क्षण;अनुग्रह-भाजन:--कृपापात्र; अहम्--मैं; स्नेह-- स्नेह; उत्थ--विस्फोट; रोमा--शरीर के रोएँ; स्खलित--शिथिल; अक्षर:--आँखों के; तम्--उसको; मुझ्नन्ू--पोंछकर; शुचः--आँसू; प्राज्ञलिः--हाथ जोड़े; आबभाषे--कहा |
उद्धव ने कहा: हे विदुर, जब मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा इस प्रकार से प्रतिक्षणकृपाभाजन बना हुआ था और उनके द्वारा अतीव स्नेहपूर्वक सम्बोधित किया जा रहा था, तो मेरीवाणी रुक कर आँसुओं के रूप में बह निकली और मेरे शरीर के रोम खड़े हो गये।
अपने आँसूपोंछ कर और दोनों हाथ जोड़ कर मैं इस प्रकार बोला।
को न्वीश ते पादसरोजभाजांसुदुर्लभो<रथेषु चतुर्ष्वपीह ।
तथापि नाहं प्रवृणोमि भूमन्भवत्पदाम्भोजनिषेवणोत्सुक: ॥
१५॥
कः नु ईश-हे प्रभु; ते--तुम्हारे; पाद-सरोज-भाजाम्--आपके चरणकमलों की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे भक्तों के; सु-दुर्लभ:--प्राप्त कर पाना अतीव कठिन; अर्थेषु--विषय में; चतुर्षु--चार पुरुषार्थों के; अपि--बावजूद; इह--इस जगत में;तथा अपि--फिर भी; न--नहीं; अहम्--मैं; प्रवृणोमि--वरीयता प्रदान करता हूँ; भूमन्--हे महात्मन्; भवत्-- आपके; पद-अम्भोज--चरणकमल; निषेवण-उत्सुक:--सेवा करने के लिए उत्सुक |
हे प्रभु, जो भक्तमण आपके चरणकमलों की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे हुए हैं उन्हें धर्म, अर्थ,काम तथा मोक्ष--इन चार पुरुषार्थों के क्षेत्र में कुछ भी प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती।
किन्तु हे भूमन्, जहाँ तक मेरा सम्बन्ध हैं मैंने आपके चरणकमलों की प्रेमाभक्ति में ही अपने कोलगाना श्रेयस्कर माना है।
कर्माण्यनीहस्य भवोभवस्य तेदुर्गाअ्रयोथारिभयात्पलायनम् ।
कालात्मनो यत्प्रमदायुता श्रम:स्वात्मन्रतेः खिद्यति धीर्विदामिह ॥
१६॥
कर्माणि--कर्म; अनीहस्य--न चाहने वाले का; भवः--जन्म; अभवस्य--कभी भी न जन्मे का; ते--तुम्हारा; दुर्ग-आश्रय: --किले की शरण लेकर; अथ--तत्पश्चात्; अरि-भयात्--शत्रु के डर से; पलायनमू--पलायन, भागना; काल-आत्मन:--नित्यकाल के नियन्ता का; यत्--जो; प्रमदा-आयुत--स्त्रियों की संगति में; आ श्रम: --गृहस्थ जीवन; स्व-आत्मन्-- अपनीआत्मा में; रतेः--रमण करने वाली; खिद्यति--विचलित होती है; धीः--बुद्धि; विदाम्--विद्वान की; इह--इस जगत में
हे प्रभु, विद्वान मुनियों की बुद्धि भी विचलित हो उठती है जब वे देखते हैं कि आप समस्तइच्छाओं से मुक्त होते हुए भी सकाम कर्म में लगे रहते हैं; अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं; अजेयकाल के नियन्ता होते हुए भी शत्रुभय से पलायन करके दुर्ग में शरण लेते हैं तथा अपनी आत्मामें रमण करते हुए भी आप अनेक स्त्रियों से घिरे रहकर गृहस्थ जीवन का आनन्द लेते हैं।
मन्त्रेषु मां वा उपहूय यत्त्व-मकुण्ठिताखण्डसदात्मबोध: ।
पृच्छे: प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्तस्तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥
१७॥
मन्त्रेषु--मन्त्रणाओं या परामर्शो में; मामू-- मुझको; बै---अथवा; उपहूय-- बुलाकर; यत्--जितना; त्वमू--आप; अकुण्ठित--बिना हिचक के; अखण्ड--विना अलग हुए; सदा--सदैव; आत्म--आत्मा; बोध:--बुद्धिमान; पृच्छे:--पूछा; प्रभो--हे प्रभु;मुग्ध: --मोहग्रस्त; इब--मानो; अप्रमत्त:--यद्यपि कभी मोहित नहीं होता; तत्ू--वह; न:--हमारा; मन:--मन; मोहयति--मोहित करता है; इब--मानो; देव-हे प्रभु
हे प्रभु, आपकी नित्य आत्मा कभी भी काल के प्रभाव से विभाजित नहीं होती और आपकेपूर्णज्ञान की कोई सीमा नहीं है।
इस तरह आप अपने आप से परामर्श लेने में पर्याप्त सक्षम थे,किन्तु फिर भी आपने परामर्श के लिए मुझे बुलाया मानो आप मोहग्रस्त हो गए हैं, यद्यपि आपकभी भी मोहग्रस्त नहीं होते।
आपका यह कार्य मुझे मोहग्रस्त कर रहा है।
ज्ञान पर स्वात्मरह:प्रकाशंप्रोवाच कस्मै भगवान्समग्रम् ।
अपि क्षमं नो ग्रहणाय भर्त-व॑दाज्जसा यद्वृजिनं तरेम ॥
१८॥
ज्ञानम्ू-ज्ञान; परम्--परम; स्व-आत्म--निजी आत्मा; रह:--रहस्य; प्रकाशम्-- प्रकाश; प्रोवाच--कहा; कस्मै--क( ब्रह्मजी ) से; भगवान्-- भगवान्; समग्रम्--पूर्ण रूपेण; अपि--यदि ऐसा; क्षमम्--समर्थ; न: --मुझको; ग्रहणाय--स्वीकार्य; भर्त:--हे प्रभु; वद--कहें; अज्ञसा--विस्तार से; यत्--जिससे; वृजिनम्--कष्टों को; तरेम--पार कर सकूँ |
हे प्रभु, यदि आप हमें समझ सकने के लिए सक्षम समझते हों तो आप हमें वह दिव्य ज्ञानबतलाएँ जो आपके विषय में प्रकाश डालता हो और जिसे आपने इसके पूर्व ब्रह्माजी कोबतलाया है।
इत्यावेदितहार्दाय महां स भगवान्पर: ।
आदिदेशारविन्दाक्ष आत्मन: परमां स्थितिम्ू ॥
१९॥
इति आवेदित-मेरे द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर; हार्दाय--मेरे हृदय के भीतर से; महाम्--मुझको; सः--उन;भगवानू्-- भगवान् ने; पर: --परम; आदिदेश-- आदेश दिया; अरविन्द-अक्ष:--कमल जैसे नेत्रों वाला; आत्मन:--अपनी ही;'परमाम्--दिव्य; स्थितिम्--स्थिति |
जब मैंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अपनी यह हार्दिक इच्छा व्यक्त की तो कमलनेत्रभगवान् ने मुझे अपनी दिव्य स्थिति के विषय में उपदेश दिया।
स एवमाराधितपादतीर्थाद्अधीततत्त्वात्मविबोधमार्ग: ।
प्रणम्य पादौ परिवृत्य देव-मिहागतोहं विरहातुरात्मा ॥
२०॥
सः--अतएव मैं; एवम्--इस प्रकार; आराधित--पूजित; पाद-तीर्थात्-- भगवान् से; अधीत--अध्ययन किया हुआ; तत्त्व-आत्म--आत्मज्ञान; विबोध--ज्ञान, जानकारी; मार्ग:--पथ; प्रणम्य--प्रणाम करके; पादौ--उनके चरणकमलों पर;परिवृत्य--प्रदक्षिणा करके; देवम्-- भगवान्; इह--इस स्थान पर; आगत:--पहुँचा; अहम्--मैं; विरह--वियोग; आतुर-आत्मा--आत्मा में दुखी, दुखित आत्मा से ।
मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु भगवान् से आत्मज्ञान के मार्ग का अध्ययन किया है, अतएवउनकी प्रदक्षिणा करके मैं उनके विरह-शोक से पीड़ित होकर इस स्थान पर आया हूँ।
सोहं तहर्शनाह्ादवियोगार्तियुतः प्रभो ।
गमिष्ये दयितं तस्य बरदर्याश्रममण्डलम् ॥
२१॥
सः अहमू्--इस तरह स्वयं मैं; तत्--उसका; दर्शन--दर्शन; आह्ाद--आनन्द के; वियोग--विरह; आर्ति-युतः--दुख सेपीड़ित; प्रभो--हे प्रभु; गमिष्ये--जाऊँगा; दवितम्--इस तरह उपदेश दिया गया; तस्य--उसका; बदर्याअ्रम--हिमालय स्थितबदरिकाश्रम; मण्डलम्--संगति |
हे विदुर, अब मैं उनके दर्शन से मिलने वाले आनन्द के अभाव में पागल हो रहा हूँ और इसेकम करने के लिए ही अब मैं संगति के लिए हिमालय स्थित बदरिकाश्रम जा रहा हूँ जैसा किउन्होंने मुझे आदेश दिया है।
यत्र नारायणो देवो नरश्च भगवानृषि: ।
मृदु तीब्रं तपो दीर्घ तेपाते लोकभावनौ ॥
२२॥
यत्र--जहाँ; नारायण: -- भगवान्; देव:--अवतार से; नरः--मनुष्य; च-- भी; भगवान्-- स्वामी; ऋषि:--ऋषि; मृदु--मिलनसार; तीब्रमू--कठिन; तपः--तपस्या; दीर्घम्--दीर्घकाल; तेपाते--करते हुए; लोक-भावनौ--सारे जीवों का मंगल।
वहाँ बदरिकाश्रम में नर तथा नारायण ऋषियों के रूप में अपने अवतार में भगवान्अनादिकाल से समस्त मिलनसार जीवों के कल्याण हेतु महान् तपस्या कर रहे हैं।
श्रीशुक उवाचइत्युद्धवादुपाकर्णय्य सुहृदां दु:सहं वधम् ।
ज्ञानेनाशमयक्ष्षत्ता शोकमुत्पतितं बुध: ॥
२३॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकगोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उद्धवात्--उद्धव से; उपाकर्ण्य--सुनकर; सुहृदाम्-मित्रोंतथा सम्बन्धियों का; दुःसहम्--असहा; वधम्--संहार; ज्ञानेन--दिव्य ज्ञान से; अशमयत्--स्वयं को सान्त्वना दी; क्षत्ता--विदुर ने; शोकम्--वियोग; उत्पतितम्--उत्पन्न हुआ; बुध: --विद्वान् |
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : उद्धव से अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों के संहार के विषय मेंसुनकर दिद्वान् विदुर ने स्वयं के दिव्य ज्ञान के बल पर अपने असह्य शोक को प्रशमित किया।
स तं महाभागवतं ब्रजन्तं कौरवर्षभः ।
विश्रम्भादभ्यधत्तेदं मुख्यं कृष्णपरिग्रहे ॥
२४॥
सः-विदुर ने; तम्--उद्धव से; महा- भागवतम्-- भगवान् का महान् भक्त; ब्रजन्तम्--जाते हुए; कौरव-ऋषभ:--कौरवों मेंसर्वश्रेष्ठ; विश्रम्भातू-विश्वास वश; अभ्यधत्त--निवेदन किया; इृदम्--यह; मुख्यम्-प्रधान; कृष्ण-- भगवान् कृष्ण की;परिग्रहे-- भगवद्भक्ति में |
भगवान् के प्रमुख तथा अत्यन्त विश्वस्त भक्त उद्धव जब जाने लगे तो विदुर ने स्नेह तथाविश्वास के साथ उनसे प्रश्न किया।
विदुर उवाचज्ञानं परे स्वात्मरहःप्रकाशंयदाह योगेश्वर ई श्वरस्ते ।
वक्तुं भवान्नोहति यद्द्धि विष्णोभृत्या: स्वभृत्यार्थकृतश्चवरन्ति ॥
२५॥
विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; ज्ञानमू--ज्ञान; परमू--दिव्य; स्व-आत्म--आत्मा विषयक; रह:--रहस्य; प्रकाशम्--प्रबुद्धता;यत्--जो; आह--कहा; योग-ईश्वर: -- समस्त योगों के स्वामी; ईश्वर: -- भगवान् ने; ते--तुमसे; वक्तुमू--कहने के लिए;भवान्ू--आप; न:ः--मुझसे; अर्हति--योग्य हैं; यत्--क्योंकि; हि--कारण से; विष्णो: -- भगवान् विष्णु के; भृत्या:--सेवक ;स्व-भृत्य-अर्थ-कृतः--अपने सेवकों के हित के लिए; चरन्ति--विचरण करते हैं |
विदुर ने कहा : हे उद्धव, चूँकि भगवान् विष्णु के सेवक अन्यों की सेवा के लिए विचरणकरते हैं, अतः यह उचित ही है कि आप उस आत्मज्ञान का वर्णन करें जिससे स्वयं भगवान् नेआपको प्रबुद्ध किया है।
उद्धव उबाचननु ते तत्त्वसंराध्य ऋषि: कौषारवोन्तिके ।
साक्षाद्धगवतादिष्टो मर्त्सलोक॑ जिहासता ॥
२६॥
उद्धवः उवाच--उद्धव ने कहा; ननु--लेकिन; ते--तुम्हारा; तत्त्व-संराध्य:--दिव्य ज्ञान को ग्रहण करने के लिए पूजनीय;ऋषि:--विद्वान्; कौषारव:--कौषारु पुत्र ( मैत्रेय ) को; अन्तिके--निकट; साक्षात्- प्रत्यक्ष; भगवता-- भगवान् द्वारा;आदिष्ट:--आदेश दिया गया; मर्त्य-लोकम्--मर्त्बलोक को; जिहासता--छोड़ते हुए
श्री उद्धव ने कहा : आप महान् विद्वान ऋषि मैत्रेय से शिक्षा ले सकते हैं, जो पास ही में हैंऔर जो दिव्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए पूजनीय हैं।
जब भगवान् इस मर्त्यलोक को छोड़ने वालेथे तब उन्होंने मैत्रेय को प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा दी थी।
श्रीशुक उवाचइति सह विदुरेण विश्वमूर्ते-गुणकथया सुधया प्लावितोरुताप: ।
क्षणमिव पुलिने यमस्वसुस्तांसमुषित औपगविर्निशां ततोगात् ॥
२७॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; सह--साथ; विदुरेण--विदुर के; विश्व-मूर्तें:--विराटपुरुष का; गुण-कथया--दिव्य गुणों की बातचीत के दौरान; सुधया--अमृत के तुल्य; प्लावित-उरू-ताप:--अत्यधिक कष्ट सेअभिभूत; क्षणम्-- क्षण; इब--सहश; पुलिने--तट पर; यमस्वसु: ताम्--उस यमुना नदी के; समुषित: --बिताया;औपगवि:--औपगव का पुत्र ( उद्धव ); निशाम्--रात्रि; ततः--तत्पश्चात् अगातू--चला गया।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह यमुना नदी के तट पर विदुर से ( भगवान्के ) दिव्य नाम, यश, गुण इत्यादि की चर्चा करने के बाद उद्धव अत्यधिक शोक से अभिभूतहो गये।
उन्होंने सारी रात एक क्षण की तरह बिताईं।
तत्पश्चात् वे वहाँ से चले गये।
राजोबाचनिधनमुपगतेषु वृष्णिभोजे-घ्वधिरथयूथपयूथपेषु मुख्य: ।
सतु कथमवशिष्ट उद्धवो यद्धरिरपि तत्यज आकृति तज्यधीशः ॥
२८॥
राजा उबाच--राजा ने पूछा; निधनम्--विनाश; उपगतेषु--हो जाने पर; वृष्णि--वृष्णिवंश; भोजेषु-- भोजबंश का; अधिरथ--महान् सेनानायक; यूथ-प--मुख्य सेनानायक; यूथ-पेषु--उनके बीच; मुख्य: --प्रमुख; सः--वह; तु--केवल; कथम्--कैसे;अवशिष्ट:--बचा रहा; उद्धव: --उद्धव; यत्--जबकि; हरि: -- भगवान् ने; अपि-- भी; तत्यजे--समाप्त किया; आकृतिम्--सम्पूर्ण लीलाएँ; त्रि-अधीश:--तीनों लोकों के स्वामी |
राजा ने पूछा : तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण की लीलाओं के अन्त में तथा उन वृष्णि एवंभोज वंशों के सदस्यों के अन्तर्धान होने पर, जो महान् सेनानायकों में सर्वश्रेष्ठ थे, अकेले उद्धवक्यों बचे रहे ?
श्रीशुक उवाचब्रह्यशापापदेशेन कालेनामोघवाउ्छत:ः ।
संहृत्य स्वकुलं स्फीतं त्यक्ष्यन्देहमचिन्तयत् ॥
२९॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; ब्रह्य-शाप--ब्रह्मणों द्वारा शाप दिया जाना; अपदेशेन--बहाने से; कालेन--नित्य काल द्वारा; अमोघ-- अचूक; वाउ्छित:--ऐसा चाहने वाला; संहत्य--बन्द करके; स्व-कुलम्--अपने परिवार को;स्फीतम्--असंख्य; त्यक्ष्यन्ू--त्यागने के बाद; देहम्--विश्व रूप को; अचिन्तयत्--अपने आप में सोचा।
शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया : हे प्रिय राजन, ब्राह्मण का शाप तो केवल एक बहाना था,किन्तु वास्तविक तथ्य तो भगवान् की परम इच्छा थी।
वे अपने असंख्य पारिवारिक सदस्यों कोभेज देने के बाद पृथ्वी के धरातल से अन्तर्धान हो जाना चाहते थे।
उन्होंने अपने आप इस तरहसोचा।
अस्माल्लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम् ।
अ्त्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वर: ॥
३०॥
अस्मात्--इस ( ब्रह्माण्ड ) से; लोकात्--पृथ्वी से; उपरते--ओझल होने पर; मयि--मेरे विषय के; ज्ञानमू--ज्ञान; मतू-आश्रयम्--मुझसे सम्बन्धित; अर्हति--योग्य होता है; उद्धवः--उद्धव; एव--निश्चय ही; अद्धघा-प्रत्यक्षत: ; सम्प्रति--इससमय; आत्मवताम्-भक्तों में; बर:--सर्वोपरि।
अब मैं इस लौकिक जगत की दृष्टि से ओझल हो जाऊँगा और मैं समझता हूँ कि मेरे भक्तोंमें अग्रणी उद्धव ही एकमात्र ऐसा है, जिसे मेरे विषय का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से सौंपा जा सकताहै।
नोद्धवोण्वपि मन्न्यूनो यदगुणैर्नादितः प्रभु: ।
अतो मद्ठयुनं लोकं ग्राहयन्निह तिष्ठतु ॥
३१॥
न--नहीं; उद्धव: --उद्धव; अणु--रंचभर; अपि-- भी; मत्-- मुझसे; न्यून:--घटकर; यत्-- क्योंकि; गुणैः -- प्रकृति के गुणोंके द्वारा; न--न तो; अर्दित:--प्रभावित; प्रभु:--स्वामी; अत:--इसलिए; मत्-वयुनम्--मेरा ( भगवान् का ) ज्ञान; लोकमू--संसार; ग्राहयन्-- प्रसार करने के लिए; इह--इस संसार में; तिष्ठतु--रहता रहे |
उद्धव किसी भी तरह मुझसे घटकर नहीं है, क्योंकि वह प्रकृति के गुणों द्वारा कभी भीप्रभावित नहीं हुआ है।
अतएवं भगवान् के विशिष्ट ज्ञान का प्रसार करने के लिए वह इस जगतमें रहता रहे।
एवं त्रिलोकगुरुणा सन्दिष्ट: शब्दयोनिना ।
बदर्याश्रममासाद्य हरिमीजे समाधिना ॥
३२॥
एवम्--इस तरह; त्रि-लोक--तीनों जगत के; गुरुणा-- गुरु द्वारा; सन्दिष्ट:--ठीक से शिक्षा दी जाकर; शब्द-योनिना--जोसमस्त वैदिक ज्ञान का स्त्रोत है उसके द्वारा; बदर्याअ्रमम्--बदरिकाश्रम के तीर्थस्थान में; आसाद्य--पहुँचकर; हरिम्ू-- भगवान्को; ईजे--तुष्ट किया; समाधिना--समाधि द्वारा
शुकदेव गोस्वामी ने राजा को सूचित किया कि इस तरह समस्त वैदिक ज्ञान के स्रोत औरतीनों लोकों के गुरु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा उपदेश दिये जाने पर उद्धव बदरिकाश्रमतीर्थस्थल पहुँचे और भगवान् को तुष्ट करने के लिए उन्होंने अपने को समाधि में लगा दिया।
विदुरोप्युद्धवाच्छुत्वा कृष्णस्य परमात्मन: ।
क्रीडयोपात्तदेहस्य कर्माणि एलाघितानि च ॥
३३॥
विदुर:--विदुर; अपि--भी; उद्धवात्--उद्धव के स्त्रोत से; श्रुत्वा--सुनकर; कृष्णस्य-- भगवान् कृष्ण का; परम-आत्मन:--परमात्मा का; क्रीडया--मर्त्यलोक में लीलाओं के लिए; उपात्त--असाधारण रूप से स्वीकृत; देहस्य--शरीर के; कर्माणि--दिव्य कर्म; एलाघितानि--अत्यन्त प्रशंसनीय; च-- भी |
विदुर ने उद्धव से इस मर्त्यलोक में परमात्मा अर्थात् भगवान् कृष्ण के आविर्भाव तथातिरोभाव के विषय में भी सुना जिसे महर्षिगण बड़ी ही लगन के साथ जानना चाहते हैं।
देहन्यासं च तस्यैवं धीराणां धैर्यवर्धनम् ।
अन्येषां दुष्करतरं पशूनां विक्लवात्मनाम् ॥
३४॥
देह-न्यासम्ू--शरीर में प्रवेश; च-- भी; तस्य--उसका; एवम्-- भी; धीराणाम्--महर्षियों का; धैर्य--धीरज; वर्धनम्--बढ़ातेहुए; अन्येषाम्--अन्यों के लिए; दुष्कर-तरम्--निश्चित कर पाना अत्यन्त कठिन; पशूनामू--पशुओं के; विक्लब--बेचैन;आत्मनाम्--ऐसे मन का।
भगवान् के यशस्वी कर्मों तथा मर्त्यलोक में असाधारण लीलाओं को सम्पन्न करने के लिएउनके द्वारा धारण किये जाने वाले विविध दिव्य रूपों को समझ पाना उनके भक्तों के अतिरिक्तअन्य किसी के लिए अत्यन्त कठिन है और पशुओं के लिए तो वे मानसिक विश्षोभ मात्र हैं।
आत्मानं च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनसेक्षितम् ।
ध्यायन्गते भागवते रुरोद प्रेमविहलः ॥
३५॥
आत्मानम्--स्वयं; च-- भी; कुरु-श्रेष्ठ--हे कुरुओं में श्रेष्ठ; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; मनसा--मन से; ईक्षितम्--स्मरण कियागया; ध्यायन्--इस तरह सोचते हुए; गते--चले जाने पर; भागवते-- भक्त के; रुरोद--जोर से चिल्लाया; प्रेम-विहल: --प्रेमभाव से अभिभूत हुआ।
यह सुनकर कि ( इस जगत को छोड़ते समय ) भगवान् कृष्ण ने उनका स्मरण किया था,विदुर प्रेमभाव से अभिभूत होकर जोर-जोर से रो पड़े।
तकालिन्द्या: कतिभिः सिद्ध अहोभिर्भरतर्षभ ।
प्रापद्यत स्वःसरितं यत्र मित्रासुतो मुनि: ॥
३६॥
कालिन्द्या:--यमुना के तट पर; कतिभि:--कुछ; सिद्धे--बीत जाने पर; अहोभि: --दिन; भरत-ऋषभ--हे भरत वंश में श्रेष्ठ;प्रापद्यत--पहुँचा; स्व:-सरितम्--स्वर्ग की गंगा नदी; यत्र--जहाँ; मित्रा-सुतः--मित्र का पुत्र; मुनिः--मुनि।
यमुना नदी के तट पर कुछ दिन बिताने के बाद स्वरूपसिद्ध आत्मा विदुर गंगा नदी के तटपर पहुँचे जहाँ मैत्रेय मुनि स्थित थे।
अध्याय पाँच: विदुर की मैत्रेय से बातचीत
3.5श्रीशुक उवाचद्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणांमैत्रेयमासीनमगाधबोधम्।
क्षत्तोपसृत्याच्युतभावसिद्ध:ःपप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्त: ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; द्वारि--उदगम पर; द्यु-नद्या:--स्वर्गलोक की गंगा नदी; ऋषभः -- श्रेष्ठ;कुरूणाम्ू-कुरुओं के; मैत्रेयमू--मैत्रेय से; आसीनम्--बैठे हुए; अगाध-बोधम्--अगाध ज्ञान का; क्षत्ता--विदुर ने;उपसृत्य--पास आकर; अच्युत--अच्युत भगवान्; भाव--चरित्र; सिद्धः--पूर्ण; पप्रच्छ--पूछा; सौशील्य--सुशीलता; गुण-अभितृप्त:--दिव्य गुणों से तृप्त।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह कुरुवंशियों में सर्व श्रेष्ठ विदुर, जो कि भगवद्भक्ति मेंपरिपूर्ण थे, स्वर्ग लोक की नदी गंगा के उदगम (हरद्वार ) पहुँचे जहाँ विश्व के अगाध विद्वानमहामुनि मैत्रेय आसीन थे।
मद्गरता से ओत-प्रोत में पूर्ण तथा अध्यात्म में तुष्ट विदुर ने उनसे पूछा।
विदुर उवाचसुखाय कर्माणि करोति लोकोन तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।
विन्देत भूयस्तत एव दु:खंयदत्र युक्त भगवान्वदेन्न: ॥
२॥
विदुर: उवाच--विदुर ने कहा; सुखाय--सुख प्राप्त करने के लिए; कर्माणि--सकाम कर्म; करोति--हर कोई करता है;लोक:--इस जगत में; न--कभी नहीं; तैः--उन कर्मों के द्वारा; सुखम्ू--कोई सुख; वा--अथवा; अन्यत्--भिन्न रीति से;उपारमम्--तृप्ति; वा--अथवा; विन्देत--प्राप्त करता है; भूयः--इसके विपरीत; ततः--ऐसे कार्यों के द्वारा; एब--निश्चय ही;दुःखम्--कष्ट; यत्--जो; अत्र--परिस्थितिवश; युक्तम्--सही मार्ग; भगवान्--हे महात्मन्; वदेतू--कृपया प्रकाशित करें;नः--हमको।
विदुर ने कहा : हे महर्षि, इस संसार का हर व्यक्ति सुख प्राप्त करने के लिए सकाम कर्मों मेंप्रवृत्त होता है, किन्तु उसे न तो तृप्ति मिलती है न ही उसके दुख में कोई कमी आती है।
विपरीतइसके ऐसे कार्यों से उसके दुख में वृद्धि होती है।
इसलिए कृपा करके हमें इसके विषय में हमारामार्गदर्शन करें कि असली सुख के लिए कोई कैसे रहे ?
जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य दैवा-दधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।
अनुग्रहायेह चरन्ति नूनंभूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥
३॥
जनस्य--सामान्य व्यक्ति की; कृष्णात्-- भगवान् कृष्ण से; विमुखस्य--विमुख, मुँह फेरने वाले का; दैवात्-माया के प्रभावसे; अधर्म-शीलस्य--अधर्म में लगे हुए का; सु-दुःखितस्य--सदैव दुखी रहने वाले का; अनुग्रहाय--उनके प्रति दयालु होने केकारण; इह--इस जगत में; चरन्ति--विचरण करते हैं; नूनम्--निश्चय ही; भूतानि--लोग; भव्यानि--अत्यन्त परोपकारीआत्माएँ; जनार्दनस्य-- भगवान् की ।
हे प्रभु, महान् परोपकारी आत्माएँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की ओर से पृथ्वी पर उन पतितआत्माओं पर अनुकंपा दिखाने के लिए विचरण करती है, जो भगवान् की अधीनता के विचारमात्र से ही विमुख रहते हैं।
तत्साधुवर्यादिश वर्त्म शं नःसंराधितो भगवान्येन पुंसाम् ।
हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूतेज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥
४॥
तत्--इसलिए; साधु-वर्य --हे सन्तों में सर्व श्रेष्ठ आदिश--आदेश दें; वर्त्म--मार्ग; शम्--शुभ; न:--हमारे लिए; संराधित:--पूरी तरह सेवित; भगवानू-- भगवान्; येन--जिससे; पुंसामू-- जीव का; हृदि स्थित:--हृदय में स्थित; यच्छति--प्रदान करताहै; भक्ति-पूते--शुद्ध भक्त को; ज्ञानमू--ज्ञान; स--वह; तत्त्व--सत्य; अधिगमम्--जिससे कोई सीखता है; पुराणम्--प्रामाणिक, प्राचीन।
इसलिए, हे महर्षि, आप मुझे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य भक्ति के विषय में उपदेश देंजिससे हर एक के हृदय में स्थित भगवान् भीतर से परम सत्य विषयक वह ज्ञान प्रदान करने केलिए प्रसन्न हों जो कि प्राचीन वैदिक सिद्धान्तों के रूप में उन लोगों को ही प्रदान किया जाता है,जो भक्तियोग द्वारा शुद्ध हो चुके है।
करोति कर्माणि कृतावतारोयान्यात्मतन्त्रो भगवांस्त्यधीश: ।
यथा ससर्जाग्र इृदं निरीहःसंस्थाप्य वृत्ति जगतो विधत्ते ॥
५॥
करोति--करता है; कर्माणि--दिव्य कर्म; कृत--स्वीकार करके; अवतार:--अवतार; यानि--वे सब; आत्म-तन्त्र:--स्वतंत्र;भगवान्-- भगवान्; त्रि-अधीश: --तीनों लोकों के स्वामी; यथा--जिस तरह; ससर्ज--उत्पन्न किया; अग्रे--सर्वप्रथम; इृदम्--इस विराट जगत को; निरीह:--यद्यपि इच्छारहित; संस्थाप्य--स्थापित करके; वृत्तिमू--जीविकोपार्जन का साधन; जगत: --ब्रह्माण्डों का; विधत्ते--जिस तरह वह नियमन करता है।
हे महर्षि, कृपा करके बतलाएँ कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् जो तीनों लोकों के इच्छारहितस्वतंत्र स्वामी तथा समस्त शक्तियों के नियन्ता हैं, किस तरह अवतारों को स्वीकार करते हैं औरकिस तरह विराट जगत को उत्पन्न करते हैं, जिसके परिपालन के लिए नियामक सिद्धान्त पूर्णरुप से व्यवस्थित हैं।
यथा पुनः स्वे ख इदं निवेश्यशेते गुहायां स निवृत्तवृत्ति: ।
योगेश्वराधी श्वर एक एत-दनुप्रविष्टो बहुधा यथासीत् ॥
६॥
यथा--जिस तरह; पुनः --फिर; स्वे--अपने में; खे--आकाश के रूप ( विराट रूप ) में; इदम्--यह; निवेश्य-- प्रविष्ट होकर;शेते--शयन करता है; गुहायाम्ू-ब्रह्माण्ड के भीतर; सः--वह ( भगवान् ); निवृत्त--बिना प्रयास के; वृत्तिः--आजीविका कासाधन; योग-ई श्वरर-- समस्त योगशक्तियों के स्वामी; अधीश्वर:ः--सभी वस्तुओं के स्वामी; एक:--अद्वितीय; एतत्--यह;अनुप्रविष्ट:--बाद में प्रविष्ट होकर; बहुधा--असंख्य प्रकारों से; यथा--जिस तरह; आसीतू--विद्यमान रहता है।
वे आकाश के रूप में फैले अपने ही हृदय में लेट जाते हैं और उस आकाश में सम्पूर्ण सृष्टिको रखकर वे अपना विस्तार अनेक जीवों में करते हैं, जो विभिन्न योनियों के रूप में प्रकट होतेहैं।
उन्हें अपने निर्वाह के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता क्योंकि वे समस्त यौगिक शक्तियोंके स्वामी और प्रत्येक वस्तु के मालिक है।
इस प्रकार वे जीवों से भिन्न है।
क्रीडन्विधत्ते द्विजगोसुराणांक्षेमाय कर्माण्यवतारभेदैः ।
मनो न तृप्यत्यपि श्रण्वतां नःसुश्लोकमौले श्वरितामृतानि ॥
७॥
क्रीडन्ू-- लीलाएँ करते हुए; विधत्ते--सम्पन्न करता है; द्विज--द्विजन्मा; गो--गौवें; सुराणाम्ू--देवताओं के; क्षेमाय--कल्याण के लिए; कर्माणि--दिव्य कर्म; अवतार--अवतार; भेदै:--पृथक्-पृथक्; मन:--मन; न--कभी नहीं; तृप्यति--तुष्टहोता है; अपि--के बावजूद; श्रुण्वताम्--निरन्तर सुनते हुए; न:ः--हमारा; सु-श्लोक--शुभ, मंगलमय; मौले:-- भगवान् की;चरित--विशेषताएँ; अमृतानि--- अमरआप द्विजों, गौवों तथा देवताओं के कल्याण हेतु
भगवान् के विभिन्न अवतारों के शुभलक्षणों के विषय में भी वर्णन करें।
यद्यपि हम निरन्तर उनके दिव्य कार्यकलापों के विषय मेंसुनते हैं, किन्तु हमारे मन कभी भी पूर्णतया तुष्ट नहीं हो पाते।
यैस्तत्त्वभेदेधधिलोकनाथोलोकानलोकान्सह लोकपालानू ।
अचीक्िपद्यत्र हि सर्वसत्त्व-निकायभेदोधिकृतः प्रतीत: ॥
८॥
यैः--जिसके द्वारा; तत्त्व--सत्य; भेदैः --अन्तर द्वारा; अधिलोक-नाथ:--राजाओं के राजा; लोकान्--लोकों को;अलोकान्--अधोभागों के लोकों; सह--के सहित; लोक-पालान्--उनके राजाओं को; अचीक़िपत्--आयोजना की; यत्र--जिसमें; हि--निश्चय ही; सर्व--समस्त; सत्त्व-- अस्तित्व; निकाय--जीव; भेद: --अन्तर; अधिकृत:-- अधिकार जमाये;प्रतीत:ः--ऐसा लगता है।
समस्त राजाओं के परम राजा ने विभिन्न लोकों की तथा आवास स्थलों की सृष्टि की जहाँप्रकृति के गुणों और कर्म के अनुसार सारे जीव स्थित है और उन्होंने उनके विभिन्न राजाओं तथाशासकों का भी सृजन किया।
येन प्रजानामुत आत्मकर्म-रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।
नारायणो विश्वसृगात्मयोनि-रेतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥
९॥
येन-- जिससे; प्रजानाम्--उत्पन्न लोगों के; उत--जैसा भी; आत्म-कर्म--नियत व्यस्तता; रूप--स्वरूप तथा गुण;अभिधानाम्--प्रयास; च-- भी; भिदाम्ू-- अन्तर; व्यधत्त--बिखरे हुए; नारायण:--नारायण; विश्वसृक् --ब्रह्माण्ड के स््रष्टा;आत्म-योनि:--आत्मनिर्भर; एतत्--ये सभी; च-- भी; न:--हमसे; वर्णय--वर्णन कीजिये ; विप्र-वर्य --हे ब्राह्मण श्रेष्ठ |
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ आप यह भी बतलाएँ कि ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा तथा आत्मनिर्भर प्रभु नारायण नेकिस तरह विभिन्न जीवों के स्वभावों, कार्यो, रूपों, लक्षणों तथा नामों की पृथक्-पृथक् रचनाकी है।
परावरेषां भगवन्द्रतानिश्रुतानि मे व्यासमुखादभी क्षणम् ।
अतृष्ुम क्षुल्लसुखावहानांतेषामृते कृष्णकथामृतौघात् ॥
१०॥
'पर--उच्चतर; अवरेषाम्ू--इन निम्नतरों का; भगवनू--हे प्रभु, हे महात्मन्; ब्रतानि--वृत्तियाँ, पेशे; श्रुतानि--सुना हुआ; मे--मेरे द्वारा; व्यास--व्यास के; मुखात्--मुँह से; अभीक्षणम्--बारम्बार; अतृप्नुम--मैं तुष्ट हूँ; क्षुलल--अल्प; सुख-आवहानाम्--सुख लाने वाला; तेषाम्--उनमें से; ऋते--बिना; कृष्ण-कथा-- भगवान् कृष्ण विषयक बातें; अमृत-ओघात् -- अमृत से |
हे प्रभु, मैं व्यासदेव के मुख से मानव समाज के इन उच्चतर तथा निम्नतर पदों के विषय मेंबारम्बार सुन चुका हूँ और मैं इन कम महत्व वाले विषयों तथा उनके सुखों से पूर्णतया तृप्त हूँ।
पर वे विषय बिना कृष्ण विषयक कथाओं के अमृत से मुझे तुष्ट नहीं कर सके ।
कस्तृष्नुयात्तीर्थपदो भिधानात्सत्रेषु व: सूरिभिरीड्यमानात् ।
यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातोभवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥
११॥
कः--वह कौन मनुष्य है; तृप्नुयात्--जो तुष्ट किया जा सके; तीर्थ-पदः--जिसके चरणकमल तीर्थस्थल हैं; अभिधानातू--कीबातों से; सत्रेषु--मानव समाज में; व: --जो है; सूरिभिः:--महान् भक्तों द्वारा; ईंडयमानातू--इस तरह पूजित होने वाला; यः--जो; कर्ण-नाडीम्-कानों के छेदों में; पुरुषस्थ--मनुष्य के; यात:ः--प्रवेश करते हुए; भव-प्रदाम्--जन्म-मृत्यु प्रदान करनेवाला; गेह-रतिम्--पारिवारिक स्नेह; छिनत्ति--काट देता है।
जिनके चरणकमल समस्त तीर्थों के सार रूप हैं तथा जिनकी आराधना महर्षियों तथा भक्तोंद्वारा की जाती है, ऐसे भगवान् के विषय में पर्याप्त श्रवण किये बिना मानव समाज में ऐसाकौन होगा जो तुष्ट होता हो? मनुष्य के कानों के छेदों में ऐसी कथाएँ प्रविष्ट होकर उसकेपारिवारिक मोह के बन्धन को काट देती हैं।
मुनिर्विवक्षुर्भगवद्गुणानांसखापि ते भारतमाह कृष्ण: ।
यस्मिन्रृणां ग्राम्यसुखानुवादै-म॑तिर्गृहीता नु हरेः कथायाम् ॥
१२॥
मुनिः--मुनि ने; विवक्षु:--वर्णन किया; भगवत्-- भगवान् के; गुणानाम्--दिव्य गुणों का; सखा--मित्र; अपि-- भी; ते--तुम्हारा; भारतम्--महाभारत; आह--वर्णन किया है; कृष्ण: --कृष्ण-द्वैपायन व्यास; यस्मिनू--जिसमें; नृणाम्--मनुष्यों के;ग्राम्य--सांसारिक; सुख-अनुवादैः --लौकिक कथाओं से प्राप्प आनन्द; मति:--ध्यान; गृहीता नु--अपनी ओर खींचने केलिए; हरेः-- भगवान् की; कथायाम्-- भाषणों का ( भगवदगीता ) |
आपके मित्र महर्षि कृष्णद्वैषायन व्यास पहले ही अपने महान ग्रन्थ महाभारत में भगवान् केदिव्य गुणों का वर्णन कर चुके हैं।
किन्तु इसका सारा उद्देश्य सामान्य जन का ध्यान लौकिककथाओं को सुनने के प्रति उनके प्रबल आकर्षण के माध्यम से कृष्णकथा ( भगवदगीता ) कीओर आकृष्ट करना है।
सा श्रदधानस्य विवर्धमानाविरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।
हरेः पदानुस्मृतिनिर्वृतस्यसमस्तदुःखाप्ययमाशु धत्ते ॥
१३॥
सा--कृष्णकथा; श्रहधानस्य-- श्रद्धापूर्वक सुनने के इच्छुक लोगों के ; विवर्धभाना--क्रमश: बढ़ती हुईं; विरक्तिम्--अन्यमनस्कता; अन्यत्र--अन्य बातों ( ऐसी कथाओं के अतिरिक्त ) में; करोति--करता है; पुंसः--ऐसे व्यस्त व्यक्ति का; हरेः--भगवान् का; पद-अनुस्मृति-- भगवान् के चरणकमलों का निरन्तर स्मरण; निर्वृतस्थ--ऐसा दिव्य आनन्द प्राप्त करने वाले का;समस्त-दुःख--सारे कष्ट; अप्ययम्-दूर हुए; आशु--तुरन्त; धत्ते--सम्पन्न करता है
जो व्यक्ति ऐसी कथाओं का निरन्तर श्रवण करते रहने के लिए आतुर रहता है, उसके लिए कृष्णकथा क्रमशः अन्य सभी बातों के प्रति उसकी उदासीनता को बढ़ा देती है।
वह भक्तजिसने दिव्य आनन्द प्राप्त कर लिया हो उसके द्वारा भगवान् के चरणकमलों का ऐसा निरन्तरस्मरण तुरन्त ही उसके सारे कष्टों को दूर कर देता है।
ताञ्छोच्यशोच्यानविदोनुशोचेहरे: कथायां विमुखानघेन ।
क्षिणोति देवोनिमिषस्तु येषा-मायुर्वथावादगतिस्मृतीनाम् ॥
१४॥
तानू--उन सब; शोच्य--दयनीय; शोच्यान्--दयनीयों का; अविदः--अज्ञ; अनुशोचे--मुझे तरस आती है; हरेः-- भगवान् की;कथायाम्ू--कथाओं के ; विमुखान्ू--विमुखों पर; अधेन--पापपूर्ण कार्यो के कारण; क्षिणोति--क्षीण पड़ते; देव:ः--भगवान्;अनिमिष:--नित्यकाल; तु--लेकिन; येषाम्--जिसकी; आयु:--आयु; वृथा--व्यर्थ; वाद--दार्शनिक चिन्तन; गति--चरमलक्ष्य; स्मृतीनामू--विभिन्न अनुष्ठानों का पालन करने वालों के ॥
हे मुनि, जो व्यक्ति अपने पाप कर्मों के कारण दिव्य कथा-प्रसंगों से विमुख रहते हैं औरफलस्वरूप महाभारत ( भगवदगीता ) के उद्देश्य से वंचित रह जाते हैं, वे दयनीय द्वारा भी दयाके पात्र होते हैं।
मुझे भी उन पर तरस आती है, क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि किस तरह नित्यकालद्वारा उनकी आयु नष्ट की जा रही है।
वे दार्शनिक चिन्तन, जीवन के सैद्धान्तिक चरम लक्ष्योंतथा विभिन्न कर्मकाण्डों की विधियों को प्रस्तुत करने में स्वयं को लगाये रहते हैं।
तदस्य कौषारव शर्मदातु-हरे: कथामेव कथासु सारम् ।
उद्धृत्य पुष्पे भ्य इवार्तबन्धोशिवाय नः कीर्त॑य तीर्थकीर्ते: ॥
१५॥
तत्--इसलिए; अस्य--उसका; कौषारव--हे मैत्रेय; शर्म-दातु:--सौभाग्य प्रदान करने वाले; हरेः-- भगवान् की; कथाम्--कथाएँ; एव--एकमात्र; कथासु--सभी कथाओं में; सारम्--सार; उद्धृत्य--उद्धरण देकर; पुष्पेभ्य:-- फूलों से; इब--सहश;आर्त-बन्धो--हे दुखियों के बन्धु; शिवाय--कल्याण के लिए; नः--हमारे; कीर्तय--कृपया वर्णन कीजिये; तीर्थ--तीर्थयात्रा;कीर्ते:--कीर्तिवान को
हे मैत्रेय, हे दुखियारों के मित्र, एकमात्र भगवान् की महिमा सारे जगत के लोगों काकल्याण करने वाली है।
अतएव जिस तरह मधुमक्खियाँ फूलों से मधु एकत्र करती हैं, उसी तरहकृपया समस्त कथाओं के सार--कृष्णकथा-का वर्णन कीजिये।
स विश्वजन्मस्थितिसंयमार्थकृतावतारः प्रगृहीतशक्ति: ।
चकार कर्माण्यतिपूरुषाणियानीश्वरः कीर्तय तानि महाम् ॥
१६॥
सः--भगवान्; विश्व--ब्रह्माण्ड; जन्म --सृष्टि; स्थिति-- भरण-पोषण; संयम-अर्थ--पूर्ण नियंत्रण की दृष्टि से; कृत--स्वीकृत;अवतार:--अवतार; प्रगृहीत--सम्पन्न किया हुआ; शक्ति:--शक्ति; चकार--किया; कर्माणि--दिव्यकर्म; अति-पूरुषाणि--अतिमानवीय; यानि--वे सभी; ईश्वर: -- भगवान्; कीर्तवय--कृपया कीर्तन करें; तानि--उन सबों का; महाम्--मुझसे |
कृपया उन परम नियन्ता भगवान् के समस्त अतिमानवीय दिव्य कर्मों का कीर्तन करेंजिन्होंने विराट सृष्टि के प्राकट्य तथा पालन के लिए समस्त शक्ति से समन्वित होकर अवतारलेना स्वीकार किया।
श्रीशुक उवाचस एवं भगवा-न्पृष्ट: क्षत्रा कौषारवो मुनि: ।
पुंसां नि: श्रेयसार्थन तमाह बहुमानयन् ॥
१७॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह; एवम्--इस प्रकार; भगवान्--महर्षि; पृष्ट:--पूछे जाने पर;क्षत्रा--विदुर द्वारा; कौषारव: --मैत्रेय; मुनि: --महर्षि; पुंसामू--सारे लोगों के लिए; नि: श्रेयस--महानतम कल्याण; अर्थेन--के लिए; तम्--उसको; आह--वर्णन किया; बहु--अत्यधिक; मानयन्--सम्मान करते हुए।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : विदुर का अत्यधिक सम्मान करने के बाद विदुर के अनुरोध परसमस्त लोगों के महानतम कल्याण हेतु महर्षि मैत्रेय मुनि बोले।
मैत्रेय उवाचसाधु पृष्टे त्वया साधो लोकान्साध्वनुगृह्कता ।
कीर्ति वितन्व॒ता लोके आत्मनोधोक्षजात्मन: ॥
१८ ॥
मैत्रेय: उवाच-- श्री मैत्रेय ने कहा; साधु--सर्वमंगलमय; पृष्टमू-- पूछा गया; त्वया--तुम्हारे द्वारा; साधो--हे भद्रे; लोकानू--सारे लोग; साधु अनुगृह्ता-- अच्छाई में दया का प्रदर्शन; कीर्तिम्ू--कीर्ति; वितन्वता-- प्रसार करते हुए; लोके --संसार में;आत्मन:--आत्मा का; अधोक्षज--ब्रह्म; आत्मन:--मन |
श्रीमैत्रेय ने कहा : हे विदुर, तुम्हारी जय हो।
तुमने मुझसे सबसे अच्छी बात पूछी है।
इसतरह तुमने संसार पर तथा मुझ पर अपनी कृपा प्रदर्शित की है, क्योंकि तुम्हारा मन सदैव ब्रह्म केविचारों में लीन रहता है।
नैतच्चित्र॑ त्वयि क्षत्तर्बादरायणवीर्यजे ।
गृहीतोनन्यभावेन यच्त्वया हरिरीश्वर: ॥
१९॥
न--कभी नहीं; एतत्--ऐसे प्रश्न; चित्रमू--अत्यन्त आश्चर्यजनक; त्वयि--तुममें; क्षत्त:--हे विदुर; बादरायण--व्यासदेव के;वीर्य-जे--वीर्य से उत्पन्न; गृहीत:--स्वीकृत; अनन्य-भावेन--विचार से हटे बिना; यत्--क्योंकि; त्वया--तुम्हारे द्वारा; हरि: --भगवान्; ईश्वर: -- भगवान्
हे विदुर, यह तनिक भी आश्चर्यप्रद नहीं है कि तुमने अनन्य भाव से भगवान् को इस तरहस्वीकार कर लिया है, क्योंकि तुम व्यासदेव के वीर्य से उत्पन्न हो।
माण्डव्यशापाद्धगवान्प्रजासंयमनो यम: ।
रातुः क्षेत्रे भुजिष्यायां जात: सत्यवतीसुतात् ॥
२०॥
माण्डव्य--माण्डव्य नामक महर्षि; शापात्--उसके शाप से; भगवान्-- अत्यन्त शक्तिशाली; प्रजा--जन्म लेने वाला;संयमन:--मृत्यु का नियंत्रक; यम:--यमराज नाम से विख्यात; भ्रातु:-- भाई की क्षेत्रे--पत्ली में; भुजिष्यायामू--रखैल;जातः--उत्पन्न; सत्यवती--सत्यवती ( विचित्रवीर्य तथा व्यासदेव की माता ); सुतात्--पुत्र ( व्यासदेव ) से |
मैं जानता हूँ कि तुम माण्डव्य मुनि के शाप के कारण विदुर बने हो और इसके पूर्व तुमजीवों की मृत्यु के पश्चात उनके महान् नियंत्रक राजा यमराज थे।
तुम सत्यवती के पुत्र व्यासदेवद्वारा उसके भाई की रखैल पतली से उत्पन्न हुए थे।
भवान्भगवतो नित्य॑ं सम्मतः सानुगस्य ह ।
यस्य ज्ञानोपदेशाय मादिशद्धगवान्त्रजन् ॥
२१॥
भवान्--आप ही; भगवतः-- भगवान् के; नित्यम्ू--नित्य; सम्मतः--मान्य; स-अनुगस्य--संगियों में से एक; ह--रहे हैं;यस्य--जिसका; ज्ञान--ज्ञान; उपदेशाय--उपदेश के लिए; मा--मुझको; आदिशत्--इस तरह आदिष्ट; भगवान्-- भगवान् ने;ब्रजन्ू--अपने धाम जाते हुए।
आप भगवान् के नित्यसंगियों में से एक हैं जिनके लिए भगवान् अपने धाम वापस जातेसमय मेरे पास उपदेश छोड़ गये हैं।
हः त त त न" अथ ते भगवल्लीला योगमायोरुबृंहिता: ।
विश्वस्थित्युद्धवान्तार्था वर्णयाम्यनुपूर्वश: ॥
२२॥
अथ--इसलिए; ते--आपसे; भगवत्-- भगवान् विषयक; लीला:--लीलाएँ; योग-माया-- भगवान् की शक्ति; उरू--अत्यधिक; बुंहिता:--विस्तारित; विश्व--विराट जगत के; स्थिति--पालन; उद्धव--सृजन; अन्त--संहार; अर्था: -- प्रयोजन;वर्णयामि--वर्णन करूँगा; अनुपूर्वशः--क्रमबद्ध रीति से
अतएव मैं आपसे उन लीलाओं का वर्णन करूँगा जिनके द्वारा भगवान् विराट जगत केक्रमबद्ध सृजन, भरण-पोषण तथा संहार के लिए अपनी दिव्य शक्ति का विस्तार करते हैं।
भगवानेक आसेदमग्र आत्मात्मनां विभु: ।
आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षण: ॥
२३॥
भगवानू्-- भगवान्; एक:--अद्दय; आस-- था; इृदम्--यह सृष्टि; अग्रे--सृष्टि के पूर्व; आत्मा--अपने स्वरूप में; आत्मनाम्--जीवों के; विभुः--स्वामी; आत्मा--आत्मा; इच्छा--इच्छा; अनुगतौ--लीन होकर; आत्मा--आत्मा; नाना-मति--विभिन्नइृष्टियाँ; उपलक्षण:--लक्षण
समस्त जीवों के स्वामी, भगवान् सृष्टि के पूर्व अद्दय रूप में विद्यमान थे।
केवल उनकीइच्छा से ही यह सृष्टि सम्भव होती है और सारी वस्तुएँ पुनः उनमें लीन हो जाती हैं।
इस परमपुरुष को विभिन्न नामों से उपलक्षित किया जाता है।
सवा एष तदा द्रष्टा नापश्यदृश्यमेकराट् ।
मेनेसन्तमिवात्मानं सुप्तशक्तिरसुप्तटक् ॥
२४॥
सः--भगवान्; वा--अथवा; एष: --ये सभी; तदा--उस समय; द्रष्टा--देखने वाला; न--नहीं; अपश्यत्--देखा; दृश्यम्ू--विराट सृष्टि; एक-राट्--निर्विवाद स्वामी; मेने--इस तरह सोचा; असन्तम्--अविद्यमान; इब--सहृश; आत्मानम्--स्वांश रूप;सुप्त--अव्यक्त; शक्ति:--भौतिक शक्ति; असुप्त--व्यक्त; हक्--अन्तरंगा शक्ति
हर वस्तु के निर्विवाद स्वामी भगवान् ही एकमात्र द्रष्टा थे।
उस समय विराट जगत काअस्तित्व न था, अतः अपने स्वांशों तथा भिन्नांशों के बिना वे अपने को अपूर्ण अनुभव कर रहे थे।
तब भौतिक शक्ति सुसुप्त थी जबकि अन्तरंगा शक्ति व्यक्त थी।
सा वा एतस्य संद्रष्ट: शक्ति: सदसदात्मिका ।
माया नाम महाभाग ययेदं निर्ममे विभु: ॥
२५॥
सा--वह बहिरंगा शक्ति; वा--अथवा है; एतस्य-- भगवान् की; संद्रष्ट: --पूर्ण द्रष्टा की; शक्ति:--शक्ति; सत्-असत्-आत्मिका--कार्य तथा कारण दोनों रूप में; माया नाम--माया नामक; महा-भाग--हे भाग्यवान; यया--जिससे; इृदम्--यहभौतिक जगत; निर्ममे--निर्मित किया; विभुः--सर्वशक्तिमान ने |
भगवान् द्रष्टा हैं और बहिरंगा शक्ति, जो दृष्टिगोचर है, विराट जगत में कार्य तथा कारणदोनों रूप में कार्य करती है।
हे महाभाग विदुर, यह बहिरंगा शक्ति माया कहलाती है और केवल इसी के माध्यम से सम्पूर्ण भौतिक जगत सम्भव होता है।
कालवृत्त्या तु मायायां गुणमय्यामधोक्षज: ।
पुरुषेणात्मभूतेन वीर्यमाधत्त वीर्यवान् ॥
२६॥
काल--शाश्वत काल के; वृत्त्या--प्रभाव से; तु--लेकिन; मायायामू--बहिरंगा शक्ति में; गुण-मय्याम्-- प्रकृति के गुणात्मकरूप में; अधोक्षज:--ब्रह्म; पुरुषेण--पुरुष के अवतार द्वारा; आत्म-भूतेन--जो भगवान् का स्वांश है; वीर्यमू--जीवों का बीज;आधत्त--संस्थापित किया; वीर्यवान्--
परम पुरुष ने अपने स्वांश दिव्य पुरुष अवतार के रूप में परम पुरुष प्रकृति के तीन गुणों में बीजसंस्थापित करता है और इस तरह नित्य काल के प्रभाव से सारे जीव प्रकट होते हैं।
ततोभवन्महत्तत्त्वमव्यक्तात्कालचोदितातू ।
विज्ञानात्मात्मदेहस्थं विश्व व्यद्जस्तमोनुदः ॥
२७॥
ततः--तत्पश्चात्; अभवत् --जन्म हुआ; महत्--परम; तत्त्वमू--सार; अव्यक्तात्--अव्यक्त से; काल-चोदितात्ू--काल कीअन्तःक्रिया से; विज्ञान-आत्मा--शुद्ध सत्त्व; आत्म-देह-स्थम्--शारीरिक आत्मा में स्थित; विश्वम्--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड;व्यञ्ञनू--प्रकट करते हुए; तम:-नुदः--परम प्रकाश |
तत्पश्चात् नित्यकाल की अन्तःक्रियाओं से प्रभावित पदार्थ का परम सार, जो कि महत् तत्त्वकहलाता है, प्रकट हुआ और इस महत् तत्त्व में शुद्ध सत्त्व अर्थात् भगवान् ने अपने शरीर सेब्रह्माण्ड अभिव्यक्ति के बीज बोये।
सोप्यंशगुणकालात्मा भगवद्गृष्टिगोचर: ।
आत्मानं व्यकरोदात्मा विश्वस्यास्य सिसृक्षया ॥
२८॥
सः--महत् तत्त्व; अपि-- भी; अंश--पुरुष स्वांश; गुण--मुख्यतया तमोगुण; काल--काल की अवधि; आत्मा--पूर्णचेतना;भगवत्-- भगवान् की; दृष्टि-गोचर:--दृष्टि की सीमा; आत्मानम्--अनेक भिन्न-भिन्न रूपों को; व्यकरोत्--विभेदित; आत्मा--आगार; विश्वस्थ-होने वाले जीवों का; अस्य--इस; सिसृक्षया--मिथ्या अहंकार को उत्पन्न करता है।
तत्पश्चात् महत् तत्त्व अनेक भिन्न-भिन्न भावी जीवों के आगार रूपों में विभेदित हो गया।
यह महत् तत्त्व मुख्यतया तमोगुणी होता है और यह मिथ्या अहंकार को जन्म देता है।
यहभगवान् का स्वांश है, जो सर्जनात्मक सिद्धान्तों की पूर्ण चेतना तथा फलनकाल से युक्त होता है।
महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणादहंतत्त्वं व्यजायत ।
कार्यकारणकर्त्रात्मा भूतेन्द्रियमनोमय: ।
वैकारिकस्तैजसश्न तामसश्चैत्यहं त्रिधा ॥
२९॥
महत्--महान्; तत्त्वात्ू--कारणस्वरूप सत्य से; विकुर्वाणात्ू--रूपान्तरित होने से; अहम्--मिथ्या अहंकार; तत्त्वम्--भौतिकसत्य; व्यजायत--प्रकट हुआ; कार्य--प्रभाव; कारण--कारण; कर्त्--कर्ता; आत्मा--आत्मा या स्त्रोत; भूत-- भौतिकअवयव; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मनः-मय:--मानसिक धरातल पर मँडराता; वैकारिक: --सतोगुण; तैजस:ः--रजोगुण; च--तथा;तामस:--तमोगुण; च--तथा; इति--इस प्रकार; अहमू--मिथ्या अहंकार; त्रिधा--तीन प्रकार।
महत् तत्त्व या महान् कारण रूप सत्य मिथ्या अहंकार में परिणत होता है, जो तीनअवस्थाओं में--कारण, कार्य तथा कर्ता के रूप में-प्रकट होता है।
ऐसे सारे कार्य मानसिकधरातल पर होते हैं और वे भौतिक तत्त्वों, स्थूल इन्द्रियों तथा मानसिक चिन्तन पर आधारित होतेहैं।
मिथ्या अहंकार तीन विभिन्न गुणों--सतो, रजो तथा तमो-में प्रदर्शित होता है।
अहंतत्त्वाद्विकुर्वाणान्मनो वैकारिकादभूत् ।
वैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यज्जनं यतः ॥
३०॥
अहमू-तत्त्वातू-मिथ्या अहंकार के तत्त्व से; विकुर्वाणात्--रूपान्तर द्वारा; मन:--मन; बैकारिकात्--सतोगुण के साथअन्तःक्रिया द्वारा; अभूत्--उत्पन्न हुआ; वैकारिका:--अच्छाई से अन्तःक्रिया द्वारा; च-- भी; ये--ये सारे; देवा:--देवता;अर्थ--घटना सम्बन्धी; अभिव्यज्नम्-- भौतिक ज्ञान; यत:ः--स्रोत
मिथ्या अहंकार सतोगुण से अन्तःक्रिया करके मन में रूपान्तरित हो जाता है।
सारे देवता भीजो घटनाप्रधान जगत को नियंत्रित करते हैं, उसी सिद्धान्त ( तत्त्व ), अर्थात् मिथ्या अहंकार तथासतोगुण की अन्तःक्रिया के परिणाम हैं।
तैजसानीन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ॥
३१॥
तैजसानि--रजोगुण; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; एब--निश्चय ही; ज्ञान--ज्ञान, दार्शनिक चिन्तन; कर्म--सकाम कर्म; मयानि--प्रधान रूप से; च-- भी ।
इन्द्रियाँ निश्चय ही मिथ्या अहंकारजन्य रजोगुण की परिणाम हैं, अतएवं दार्शनिकचिन्तनपरक ज्ञान तथा सकाम कर्म रजोगुण के प्रधान उत्पाद हैं।
तामसो भूतसूक्ष्मादिर्यतः खं लिड्डमात्मनः ॥
३२॥
तामस:--तमोगुण से; भूत-सूक्ष्म-आदि: --सूक्ष्म इन्द्रिय विषय; यतः--जिससे; खम्--आकाश; लिड्रमू--प्रतीकात्मक स्वरूप;आत्मन:--परमात्मा का।
आकाश ध्वनि का परिणाम है और ध्वनि अहंकारात्मक काम का रूपान्तर ( विकार ) है।
दूसरे शब्दों में आकाश परमात्मा का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है।
'कालमायांशयोगेन भगदद्वीक्षितं नभः ।
नभसो नुसूतं स्पर्श विकुर्वन्निर्ममेडनिलम् ॥
३३॥
काल--काल; माया--बहिरंगा शक्ति; अंश-योगेन--अंशतःमिश्रित; भगवत्-- भगवान् वीक्षितम्--दृष्टिपात किया हुआ;नभः--आकाश; नभसः--आकाश से; अनुसृतम्--इस तरह स्प्शित होकर; स्पर्शम्--स्पर्श; विकुर्बत्--रूपान्तरित होकर;निर्ममे--निर्मित हुआ; अनिलम्--वायु।
तत्पश्चात् भगवान् ने आकाश पर नित्यकाल तथा बहिरंगा शक्ति से अंशतः मिश्रित दृष्टिपातकिया और इस तरह स्पर्श की अनुभूति विकसित हुई जिससे आकाश में वायु उत्पन्न हुई।
अनिलोपि विकुर्वाणो नभसोरूबलान्वित: ।
ससर्ज रूपतन्मात्रं ज्योतिलोकस्य लोचनम् ॥
३४॥
अनिलः--वायु; अपि-- भी; विकुर्वाण: --रूपान्तरित होकर; नभसा--आकाश; उरू-बल-अन्वित: -- अत्यन्त शक्तिशाली;ससर्ज--उत्पन्न किया; रूप--रूप; ततू-मात्रम्--इन्द्रिय अनुभूति, तन्मात्रा; ज्योतिः--बिजली; लोकस्य--संसार के;लोचनम्--देखने के लिए प्रकाश।
तत्पश्चात् अतीव शक्तिशाली वायु ने आकाश से अन्तःक्रिया करके इन्द्रिय अनुभूति( तन्मात्रा ) का रूप उत्पन्न किया और रूप की अनुभूति बिजली में रूपान्तरित हो गई जो संसारको देखने के लिए प्रकाश है।
अनिलेनान्वितं ज्योतिर्विकुर्वत्परवीक्षितम् ।
आध्षत्ताम्भो रसमयं कालमायांशयोगतः ॥
३५॥
अनिलेन--वायु द्वारा; अन्वितम्--अन्तःक्रिया करते हुए; ज्योतिः--बिजली; विकुर्वत्--रूपान्तरित होकर; परवीक्षितम्--ब्रह्मद्वारा दष्टिपात किया जाकर; आधत्त--उत्पन्न किया; अम्भ: रस-मयम्--स्वाद से युक्त जल; काल--नित्य काल का; माया-अंश--तथा बहिरंगा शक्ति; योगत:ः--मिश्रण द्वारा |
जब वायु में बिजली की क्रिया हुई और उस पर ब्रह्म ने दृष्टिपात किया उस समय नित्यकालतथा बहिरंगा शक्ति के मिश्रण से जल तथा स्वाद की उत्पत्ति हुई।
ज्योतिषाम्भो नुसंसूष्टे विकुर्वद्गह्मवीक्षितम् ।
महीं गन्धगुणामाधात्कालमायांशयोगतः ॥
३६॥
ज्योतिषा--बिजली; अम्भ:--जल; अनुसंसृष्टम्--इस प्रकार उत्पन्न हुआ; विकुर्वत्--रूपान्तर के कारण; ब्रह्म--ब्रह्म द्वारा;वीक्षितम्--दृष्टिपात किया गया; महीम्--पृथ्वी; गन्ध--गन्ध; गुणाम्--गुण; आधात्--उत्पन्न किया गया; काल--नित्य काल;माया--बहिरंगा शक्ति; अंश-- अंशतः ; योगत:ः-- अन्तःमिश्रण से
तत्पश्चात् बिजली से उत्पन्न जल पर भगवान् ने इृष्टिपात किया और फिर उसमें नित्यकालतथा बहिरंगा शक्ति का मिश्रण हुआ।
इस तरह वह पृथ्वी में रूपान्तरित हुआ जो मुख्यतः गन्धके गुण से युक्त है।
भूतानां नभआदीनां यद्यद्धव्यावरावरम् ।
तेषां परानुसंसर्गाद्यथा सड्ख्यं गुणान्विदु: ॥
३७॥
भूतानाम्--सारे भौतिक तत्त्वों का; नभ:--आकाश; आदीनामू--इत्यादि; यत्--जिस तरह; यत्--तथा जिस तरह; भव्य--हेसौम्य; अवर--निकृष्ट; वरम्-- श्रेष्ठ; तेषामू--उन सबों का; पर--परम, ब्रह्म; अनुसंसर्गात्-- अन्तिम स्पर्श; यथा--जितने;सड्ख्यमू--गिनती; गुणान्--गुण; विदु:ः--आप समझ सकें |
हे भद्र पुरुष, आकाश से लेकर पृथ्वी तक के सारे भौतिक तत्त्वों में जितने सारे निम्न तथाश्रेष्ठ गुण पाये जाते हैं, वे भगवान् के दृष्टिपात के अन्तिम स्पर्श के कारण होते हैं।
एते देवा: कला विष्णो: कालमायांशलिड्विन: ।
नानात्वात्स्वक्रियानीशा: प्रोचु: प्राज्ञलयो विभुम् ॥
३८ ॥
एते--इन सारे भौतिक तत्त्वों में; देवा:--नियंत्रक देवता; कला: --अंश; विष्णो:-- भगवान् के; काल--काल; माया--बहिरंगा शक्ति; अंश-- अंश; लिड्रिनः:--इस तरह देहधारी; नानात्वात्--विभिन्नता के कारण; स्व-क्रिया--निजी कार्य;अनीशा:--न कर पाने के कारण; प्रोचु:--कहा; प्राज्ललय:--मनोहारी; विभुम्-- भगवान् को |
उपर्युक्त समस्त भौतिक तत्त्वों के नियंत्रक देव भगवान् विष्णु के शक्त्याविष्ट अंश हैं।
वेबहिरंगा शक्ति के अन्तर्गत नित्यकाल द्वारा देह धारण करते हैं और वे भगवान् के अंश हैं।
चूँकिउन्हें ब्रह्माण्डीय दायित्वों के विभिन्न कार्य सौंपे गये थे और चूँकि वे उन्हें सम्पन्न करने में असमर्थथे, अतएव उन्होंने भगवान् की मनोहारी स्तुतियाँ निम्नलिखित प्रकार से कीं।
देवा ऊचुःनमाम ते देव पदारविन्दंप्रपन्नतापोपशमातपत्रम् ।
यन्मूलकेता यतयोझ्जसोरू -संसारदु:खं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥
३९॥
देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; नमाम--हम सादर नमस्कार करते हैं; ते--तुम्हें; देव--हे प्रभु; पद-अरविन्दमू--चरणकमल;प्रपन्न--शरणागत; ताप--कष्ट; उपशम--शमन करता है; आतपत्रम्--छाता; यत्-मूल-केता:--चरणकमलों की शरण;यतय: --महर्षिगण; अद्धसा--पूर्णतया; उरु--महान्; संसार-दुःखम्--संसार के दुख; बहि:--बाहर; उत्क्षिपन्ति--बलपूर्वकफेंक देते हैं
देवताओं ने कहा : हे प्रभु, आपके चरणकमल शरणागतों के लिए छाते के समान हैं, जोसंसार के समस्त कष्टों से उनकी रक्षा करते हैं।
सारे मुनिगण उस आश्रय के अन्तर्गत समस्तभौतिक कष्टों को निकाल फेंकते हैं।
अतएव हम आपके चरणकमलों को सादर नमस्कार करतेहै।
धातर्यदस्मिन्भव ईश जीवा-स्तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।
आत्मनलभन्ते भगवंस्तवाडूप्रिच्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥
४०॥
धात:--हे पिता; यत्--क्योंकि; अस्मिन्--इस; भवे--संसार में; ईश--हे ईश्वर; जीवा:--जीव; ताप--कष्ट; त्रयेण--तीन;अभिहताः --सदैव; न--कभी नहीं; शर्म--सुख में; आत्मन्-- आत्मा; लभन््ते--प्राप्त करते हैं; भगवन्--हे भगवान्; तव--तुम्हारे; अड्घ्रि-छायाम्--चरणों की छाया; स-विद्याम्--ज्ञान से पूर्ण; अत:--प्राप्त करते हैं; आश्रयेम--शरण।
हे पिता, हे प्रभु, हे भगवान्, इस भौतिक संसार में जीवों को कभी कोई सुख प्राप्त नहीं होसकता, क्योंकि वे तीन प्रकार के कष्टों से अभिभूत रहते हैं।
अतएव वे आपके उन चरणकमलोंकी छाया की शरण ग्रहण करते हैं, जो ज्ञान से पूर्ण है और इस लिए हम भी उन्हीं की शरण लेतेहैं।
मार्गन्ति यत्ते मुखपद्नीडै-इछन्दःसुपर्णैरृषयो विविक्ते ।
यस्याधमर्षोदसरिद्वराया:पदं पदं तीर्थपद: प्रपन्ना: ॥
४१॥
मार्गन्ति--खोज करते हैं; यत्--जिस तरह; ते--तुम्हारा; मुख-पद्य--कमल जैसा मुख; नीडै:--ऐसे कमलपुष्प की शरण मेंआये हुओं के द्वारा; छन््दः--वैदिक-स्तोत्र; सुपर्ण:--पंखों से; ऋषय:--ऋषिगण; विविक्ते--निर्मल मन में; यस्य--जिसका;अघ-मर्ष-उद--जो पाप के सारे फलों से मुक्ति दिलाता है; सरित्ू--नदियाँ; वराया: --सर्वोत्तम; पदम् पदम्-- प्रत्येक कदम पर;तीर्थ-पदः--जिसके चरणकमल तीर्थस्थान के तुल्य हैं; प्रपन्ना:--शरण में आये हुए।
भगवान् के चरणकमल स्वयं ही समस्त तीर्थस्थलों के आश्रय हैं।
निर्मल मनवाले महर्षिगणवेदों रूपी पंखों के सहारे उड़कर सदैव आपके कमल सहश मुख रूपी घोंसले की खोज करतेहैं।
उनमें से कुछ सर्वश्रेष्ठ नदी (गंगा ) में शरण लेकर पद-पद पर आपके चरणकमलों कीशरण ग्रहण करते हैं, जो सारे पापफलों से मनुष्य का उद्धार कर सकते हैं।
यच्छुद्धया श्रुतवत्या च् भक्त्यासम्मृज्यमाने हृदयेउवधाय ।
ज्ञानेन वैराग्यबलेन धीराब्रजेम तत्तेडड्घ्रिसरोजपीठम् ॥
४२॥
यत्--वह जो; श्रद्धया--उत्सुकता से; श्रुतवत्या--केवल सुनने से; च-- भी; भक्त्या--भक्ति से; सम्मृज्यमाने-- धुलकर;हृदये--हृदय में; अवधाय--ध्यान; ज्ञानेन--ज्ञान से; वैराग्य--विरक्ति के; बलेन--बल से; धीरा:--शान्त; ब्रजेम--जानाचाहिए; तत्--उस; ते--तुम्हारे; अड्ध्रि--पाँव; सरोज-पीठम्--कमल पुण्यालय |
आपके चरणकमलों के विषय में केवल उत्सुकता तथा भक्ति पूर्वक श्रवण करने से तथाउनके विषय में हृदय में ध्यान करने से मनुष्य तुरन्त ही ज्ञान से प्रकाशित और वैराग्य के बल परशानन््त हो जाता है।
अतएवं हमें आपके चरणकमल रूपी पुण्यालय की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
विश्वस्य जन्मस्थितिसंयमार्थेकृतावतारस्य पदाम्बुजं ते ।
ब्रजेम सर्वे शरणं यदीशस्मृतं प्रयच्छत्यभयं स्वपुंसाम् ॥
४३ ॥
विश्वस्य--विराट ब्रह्माण्ड के; जन्म--सृजन; स्थिति--पालन; संयम-अर्थे--प्रलय के लिए भी; कृत--धारण किया हुआ यास्वीकृत; अवतारस्य--अवतार का; पद-अम्बुजम्ू--चरणकमल; ते--आपके; ब्रजेम--शरण में जाते है; सर्वे--हम सभी;शरणम्--शरण; यत्--जो; ईश--हे भगवान्; स्मृतम्ू--स्मृति; प्रयच्छति--प्रदान करके ; अभयम्--साहस; स्व-पुंसाम्ू--भक्तों का
हे प्रभु, आप विराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार के लिए अवतरित होते हैं इसलिएहम सभी आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि ये चरण आपके भक्तों कोसदैव स्मृति तथा साहस प्रदान करने वाले हैं।
यत्सानुबन्धेसति देहगेहेममाहमित्यूढदुराग्रहाणाम् ।
पुंसां सुदूरं बसतोपि पुर्याभजेम तत्ते भगवन्पदाब्जम् ॥
४४॥
यत्--चूँकि; स-अनुबन्धे--पाश में बँधने से; असति--इस तरह होकर; देह--स्थूल शरीर; गेहे--घर में; मम--मेरा; अहम्--मैं; इति--इस प्रकार; ऊढ--महान्, गम्भीर; दुराग्रहाणाम्-- अवांछित उत्सुकता; पुंसाम्--मनुष्यों की; सु-दूरम्--काफी दूर;वबसतः--रहते हुए; अपि--यद्यपि; पुर्यामू--शरीर में; भजेम--पूजा करें; तत्--इसलिए; ते--तुम्हारे; भगवन्--हे भगवान्;'पद-अब्जमू--चरणकमल।
हे प्रभु, जो लोग नश्वर शरीर तथा बन्धु-बाँधवों के प्रति अवांछित उत्सुकता के द्वारापाशबद्ध हैं और जो लोग 'मेरा ' तथा 'मैं' के विचारों से बँधे हुए हैं, वे आपके चरणकमलोंका दर्शन नहीं कर पाते यद्यपि आपके चरणकमल उनके अपने ही शरीरों में स्थित होते हैं।
किन्तुहम आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करें।
तान्वै हासद्गुत्तिभिरक्षिभियेंपराहतान्तर्मनसः परेश ।
अथो न पश््यन्त्युरुगाय नूनंये ते पदन््यासविलासलक्ष्या: ॥
४५॥
तानू-- भगवान् के चरणकमल; बै--निश्चय ही; हि--क्योंकि; असत्-- भौतिकतावादी; वृत्तिभि:--बहिरंगा शक्ति से प्रभावितहोने वालों के द्वारा; अश्लिभि:--इन्द्रियों द्वारा; ये--जो; पराहृत--दूरी पर खोये हुए; अन्तः-मनस:--आन्तरिक मन को;परेश--हे परम; अथो--इसलिए; न--कभी नहीं; पश्यन्ति--देख सकते है; उरुगाय--हे महान्; नूनम्--लेकिन; ये--जो;ते--तुम्हारे; पदन््यास--कार्यकलाप; विलास--दिव्य भोग; लक्ष्या:--देखने वाले
हे महान् परमेश्वर, वे अपराधी व्यक्ति, जिनकी अन्तःदृष्टि बाह्य भौतिकतावादी कार्यकलापोंसे अत्यधिक प्रभावित हो चुकी होती है वे आपके चरणकमलों का दर्शन नहीं कर सकते, किन्तुआपके शुद्ध भक्त दर्शन कर पाते हैं, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य आपके कार्यकलापों कादिव्य भाव से आस्वादन करना है।
पानेन ते देव कथासुधाया:प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।
वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोध॑ यथाञझ्जसान्वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम् ॥
४६॥
पानेन--पीने से; ते-- आपके; देव--हे प्रभु; कथा-- कथाएँ; सुधाया:-- अमृत की; प्रवृद्ध--अत्यन्त प्रब॒ुद्ध; भक्त्या-- भक्तिद्वारा; विशद-आशयाः --अत्यधिक गम्भीर विचार से युक्त; ये--जो; वैराग्य-सारम्--वैराग्य का सारा तात्पर्य; प्रतिलभ्य--प्राप्तकरके; बोधम्--बुद्धि; यथा--जिस तरह; अज्ञसा--तुरन्त; अन्वीयु:--प्राप्त करते हैं; अकुण्ठ-धिष्ण्यम्-- आध्यात्मिकआकाश में बैकुण्ठलोक |
हे प्रभु, जो लोग अपनी गम्भीर मनोवृत्ति के कारण प्रबुद्ध भक्ति-मय सेवा की अवस्थाप्राप्त करते हैं, वे वैराग्य तथा ज्ञान के संपूर्ण अर्थ को समझ लेते हैं और आपकी कथाओं केअमृत को पीकर ही आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठलोक को प्राप्त करते हैं।
तथापरे चात्मसमाधियोग-बलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम् ।
त्वामेव धीरा: पुरुषं विशन्तितेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥
४७॥
तथा--जहाँ तक; अपरे-- अन्य; च-- भी; आत्म-समाधि--दिव्य आत्म-साक्षात्कार; योग--साधन; बलेन--के बल पर;जित्वा--जीतकर; प्रकृतिम्ू--अर्जित स्वभाव या गुण; बलिष्ठाम्--अत्यन्त बलवान; त्वामू--तुमको; एब--एकमात्र; धीरा: --शान्त; पुरुषम्--व्यक्ति को; विशन्ति--प्रवेश करते हैं; तेषामू--उनके लिए; श्रम:--अत्यधिक परिश्रम; स्थात्ू--करना होता है;न--कभी नहीं; तु--लेकिन; सेवया--सेवा द्वारा; ते--तुम्हारी ।
अन्य लोग भी जो कि दिव्य आत्म-साक्षात्कार द्वारा शान्त हो जाते हैं तथा जिन्होंने प्रबलशक्ति एवं ज्ञान के द्वारा प्रकृति के गुणों पर विजय पा ली है, आप में प्रवेश करते हैं, किन्तु उन्हेंकाफी कष्ट उठाना पड़ता है, जबकि भक्त केवल भक्ति-मय सेवा सम्पन्न करता है और उसे ऐसाकोई कष्ट नहीं होता।
तत्ते वयं लोकसिसृक्षयाद्यत्वयानुसृष्टास्त्रिभिरात्मभि: सम ।
सर्वे वियुक्ता: स्वविहारतन्त्रंन शब्नुमस्तत्प्रतिहर्तवे ते ॥
४८ ॥
तत्--इसलिए; ते--तुम्हारा; वयम्--हम सभी; लोक--संसार; सिसृक्षया--सृष्टि के लिए; आद्य--हे आदि पुरुष; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अनुसूष्टा:--एक के बाद एक उत्पन्न किया जाकर; त्रिभि: --तीन गुणों द्वारा; आत्मभि:--अपने आपसे; स्म--भूतकाल में; सर्वे--सभी; वियुक्ता:--पृथक् किये हुए; स्व-विहार-तन्त्रमू--अपने आनन्द के लिए कार्यो का जाल; न--नहीं;शकक््नुमः--कर सके; तत्--वह; प्रतिहर्तवे-- प्रदान करने के लिए; ते--तुम्हें
हे आदि पुरुष, इसलिए हम एकमात्र आपके हैं।
यद्यपि हम आपके द्वारा उत्पन्न प्राणी हैं,किन्तु हम प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाव के अन्तर्गत एक के बाद एक जन्म लेते हैं, इसीलिएहम अपने कर्म में पृथक्-पृथक् होते हैं।
अतएवं सृष्टि के बाद हम आपके दिव्य आनन्द के हेतुसम्मिलित रूप में कार्य नहीं कर सके ।
यावद्वलिं तेडज हराम कालेयथा वयं चान्नमदाम यत्र ।
यथोभयेषां त इमे हि लोकाबलि हरन्तोन्नमदन्त्यनूहा: ॥
४९॥
यावत्--जैसा सम्भव हो; बलिम्-- भेंट; ते--तुम्हारी; अज--हे अजन्मा; हराम--अर्पित करेंगे; काले--उचित समय पर;यथा--जिस तरह; वयम्--हम; च--भी; अन्नमू--अन्न, अनाज; अदाम--खाएँगे; यत्र--जहाँ; यथा--जिस तरह;उभयेषाम्--तुम्हारे तथा अपने दोनों के लिए; ते--सारे; इमे--ये; हि--निश्चय ही; लोकाः--जीव; बलिम्-- भेंट; हरन्तः --अर्पित करते हुए; अन्नम्--अन्न; अदन्ति--खाते हैं; अनूहा:--बिना किसी प्रकार के उत्पात के |
है अजन्मा, आप हमें वे मार्ग तथा साधन बतायें जिनके द्वारा हम आपको समस्त भोग्य अन्नतथा वस्तुएँ अर्पित कर सकें जिससे हम तथा इस जगत के अन्य समस्त जीव बिना किसी उत्पातके अपना पालन-पोषण कर सकें तथा आपके लिए और अपने लिए आवश्यक वस्तुओं कासंग्रह कर सकें ।
त्वं न: सुराणामसि सान्वयानांकूटस्थ आद्य: पुरुष: पुराण: ।
त्वं देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौरेतस्त्वजायां कविमादधेडज: ॥
५०॥
त्वमू--आप; नः--हम; सुराणाम्--देवताओं के; असि--हो; स-अन्वयानाम्--विभिन्न कोटियों समेत; कूट-स्थ:--अपरिवर्तित; आद्य:--बिना किसी श्रेष्ठ के अद्वितीय; पुरुष:--संस्थापक व्यक्ति; पुराण: --सबसे प्राचीन, जिस का कोई औरसंस्थापक न हो; त्वम्ू--आप; देव--हे भगवान्; शक्त्याम्-अशक्ति के प्रति; गुण-कर्म-योनौ-- भौतिक गुणों तथा कर्मों केकारण के प्रति; रेत:--जन्म का वीर्य; तु--निस्सन्देह; अजायाम्--उत्पन्न करने के लिए; कविम्--सारे जीव; आदधे-- आरम्भकिया; अज:--अजन्मा।
आप समस्त देवताओं तथा उनकी विभिन्न कोटियों के आदि साकार संस्थापक हैं फिर भीआप सबसे प्राचीन हैं और अपरिवर्तित रहते हैं।
हे प्रभु, आपका न तो कोई उद्गम है, न ही कोईआपसे श्रेष्ठ है।
आपने समस्त जीव रूपी वीर्य द्वारा बहिरंगा शक्ति को गर्भित किया है, फिर भी आप स्वयं अजन्मा हैं।
ततो वयं मत्प्रमुखा यदर्थबभूविमात्मन्करवाम किं ते ।
त्वं नः स्वच॒क्षु: परिदेहि शक््त्या देव क्रियार्थे यदनुग्रहाणाम् ॥
५१॥
ततः--अतः ; वयम्--हम सभी; मत्-प्रमुखा: --महतत्त्व से उत्पन्न; यत्-अर्थ--जिस कार्य के लिए; बभूविम--उत्पन्न किया;आत्मनू्--हे परम आत्मा; करवाम--करेंगे; किमू--क्या; ते--आपकी सेवा; त्वम्ू--आप स्वयं; न:ः--हम को; स्व-चक्षु:--निजी योजना; परिदेहि--विशेष रूप से प्रदान करें; शक्त्या--कार्य करने की शक्ति से; देव--हे प्रभु; क्रिया-अर्थ--कार्य करनेके लिए; यत्--जिससे; अनुग्रहाणाम्-विशेष रूप से कृपा प्राप्त लोगों का।
हे परम प्रभु, महत्-तत्त्व से प्रारम्भ में उत्पन्न हुए हम सबों को अपना कृपापूर्ण निर्देश दें किहम किस तरह से कर्म करें।
कृपया हमें अपना पूर्ण ज्ञान तथा शक्ति प्रदान करें जिससे हमपरवर्ती सृष्टि के विभिन्न विभागों में आपकी सेवा कर सकें।
अध्याय छह: विश्व स्वरूप का निर्माण
3.6ऋषिरुवाचइति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ।
प्रसुप्तलोकतन्त्राणांनिशाम्य गतिमीश्वर: ॥
१॥
ऋषि: उबाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; इति--इस प्रकार; तासाम्--उनका; स्व-शक्तीनाम्-- अपनी शक्ति; सतीनाम्--इस प्रकारस्थित; असमेत्य--किसी संयोग के बिना; सः--वह ( भगवान् ); प्रसुप्त--निलम्बित; लोक-तन्त्राणामू--विश्व सृष्टियों में;निशाम्य--सुनकर; गतिम्-- प्रगति; ईश्वर: -- भगवान् |
मैत्रेय ऋषि ने कहा : इस तरह भगवान् ने महत्-तत्त्व जैसी अपनी शक्तियों के संयोग न होनेके कारण विश्व के प्रगतिशील सृजनात्मक कार्यकलापों के निलम्बन के विषय में सुना।
कालसज्ज्ञां तदा देवीं बिभ्रच्छक्तिमुरुक्रम: ।
त्रयोविंशति तत्त्वानां गणं युगपदाविशत् ॥
२॥
काल-सज्ज्ञामू-काली के नाम से विख्यात; तदा--उस समय; देवीम्-देवी को; बिभ्रत्ू--विनाशकारी; शक्तिमू-शक्ति;उरुक़॒मः--परम शक्तिशाली; त्रय:-विंशति-- तेईस; तत्त्वानामू--तत्त्वों के; गणम्--उन सभी; युगपत्--एक ही साथ;आविशत्-प्रवेश किया।
तब परम शक्तिशाली भगवान् ने अपनी बहिरंगा शक्ति, देवी काली सहित तेईस तत्त्वों केभीतर प्रवेश किया, क्योंकि वे ही विभिन्न प्रकार के तत्त्वों को संमेलित करती हैं।
सोशनुप्रविष्टो भगवांश्रेष्ठारूपेण तं गणम् ।
भिन्न॑ संयोजयामास सुप्तं कर्म प्रबोधयन् ॥
३॥
सः--वह; अनुप्रविष्ट: --इस तरह बाद में प्रवेश करते हुए; भगवान्ू-- भगवान् चेष्टा-रूपेण--अपने प्रयास काली के रूप में;तम्--उनको; गणम्--सारे जीव जिनमें देवता सम्मिलित हैं; भिन्नम्ू--पृथक्-पृथक्; संयोजयाम् आस--कार्य करने में लगाया;सुप्तम्--सोई हुई; कर्म--कर्म; प्रबोधयन्--प्रबुद्ध करते हुए
इस तरह जब भगवान् अपनी शक्ति से तत्त्वों के भीतर प्रविष्ट हो गये तो सारे जीव प्रबुद्धहोकर विभिन्न कार्यों में उसी तरह लग गये जिस तरह कोई व्यक्ति निद्रा से जगकर अपने कार्य मेंलग जाता है।
प्रबुद्धकर्मा दैवेन त्रयोविंशतिको गण: ।
प्रेरितोजनयत्स्वाभिर्मात्राभिरधिपूरुषम् ॥
४॥
प्रबुद्ध-जाग्रत; कर्मा--कार्यकलाप; दैवेन--ब्रह्म की इच्छा से; त्रयः-विंशतिक: --तेईस प्रमुख अवयवों द्वारा; गण:--संमेल;प्रेरितः--द्वारा प्रेरित; अजनयतू-- प्रकट किया; स्वाभि:--अपने; मात्राभि:--स्वांश से; अधिपूरुषम्--विराट रूप ( विश्वरूप )को
जब परम पुरुष की इच्छा से तेईस प्रमुख तत्त्वों को सक्रिय बना दिया गया तो भगवान् काविराट विश्वरूप शरीर प्रकट हुआ।
परेण विशता स्वस्मिन्मात्रया विश्वसृग्गण: ।
चुक्षोभान्योन्यमासाद्य यस्मिन्लोकाश्चराचरा: ॥
५॥
परेण--भगवान् द्वारा; विशता--इस तरह प्रवेश करके; स्वस्मिनू--स्वतः ; मात्रया--स्वांश द्वारा; विश्व-सुक्--विश्व सृष्टि केतत्त्व; गण:--सारे; चुक्षोभ--रूपान्तरित हो गये; अन्योन्यम्--परस्पर; आसाद्य--प्राप्त करके; यस्मिन्--जिसमें; लोका: --लोक; चर-अचरा:--जड़ तथा चेतन
ज्योंही भगवान् ने अपने स्वांश रूप में विश्व के सारे तत्त्वों में प्रवेश किया, त्योंही वे विराटरूप में रूपान्तरित हो गये जिसमें सारे लोक और समस्त जड़ तथा चेतन सृष्टियाँ टिकी हुई हैं।
हिरण्मयः स पुरुष: सहस्त्रपरिवत्सरान् ।
आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबूंहित: ॥
६॥
हिरण्मय:--विराट रूप धारण करने वाले गर्भोदकशायी विष्णु; सः--वह; पुरुष:--ईश्वर का अवतार; सहस्त्र--एक हजार;परिवत्सरानू-दैवी वर्षों तक; आण्ड-कोशे--अंडाकार ब्रह्माण्ड के भीतर; उबास--निवास करता रहा; अप्सु--जल में; सर्व-सत्त्व--उनके साथ शयन कर रहे सारे जीव; उपबूंहित:--इस तरह फैले हुए।
विराट पुरुष जो हिरण्मय कहलाता है, ब्रह्माण्ड के जल में एक हजार दैवी वर्षों तक रहतारहा और सारे जीव उसके साथ शयन करते रहे।
सब विश्वसूजां गर्भो देवकर्मात्मशक्तिमान् ।
विबभाजात्मनात्मानमेकधा दशधा त्रिधा ॥
७॥
सः--वह; वै--निश्चय ही; विश्व-सृजाम्--विराट रूप की; गर्भ:--सम्पूर्ण शक्ति; देव--सजीव शक्ति; कर्म--जीवन कीक्रियाशीलता; आत्म--आत्मा; शक्तिमान्ू--शक्तियों से पूरित; विबभाज--विभाजित कर दिया; आत्मना--अपने आप से;आत्मानम्--अपने को; एकधा--एक में; दशधा--दस में; त्रिधा--तथा तीन में
विराट रूप में महत् तत्त्व की समग्र शक्ति ने स्वतः अपने को जीवों की चेतना, जीवन कीक्रियाशीलता तथा आत्म-पहचान के रूप में विभाजित कर लिया जो एक, दस तथा तीन मेंक्रमशः उपविभाजित हो गए हैं।
एप हाशेषसत्त्वानामात्मांश: परमात्मन: ।
आद्योवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते ॥
८॥
एष:--यह; हि--निस्सन्देह; अशेष-- असीम; सत्त्वानामू--जीवों के; आत्मा--आत्मा; अंश: --अंश; परम-आत्मन: -- परमात्माका; आद्यः-- प्रथम; अवतार: -- अवतार; यत्र--जिसमें; असौ--वे सब; भूत-ग्राम:--समुचित सृष्टियाँ; विभाव्यते--फलती'फूलती हैं।
भगवान् का विश्वरूप प्रथम अवतार तथा परमात्मा का स्वांश होता है।
वे असंख्य जीवों केआत्मा हैं और उनमें समुच्चित सृष्टि ( भूतग्राम ) टिकी रहती है, जो इस तरह फलती फूलती है।
साध्यात्म: साधिदैवश्च साधिभूत इति त्रिधा ।
विराट्प्राणो दशविध एकधा हृदयेन च ॥
९॥
स-आध्यात्म:--शरीर तथा समस्त इन्द्रियों समेत मन; स-आधिदैव: --तथा इन्द्रियों के नियंत्रक देवता; च--तथा; स-आधिभूतः--वर्तमान विषय; इति--इस प्रकार; त्रिधा--तीन; विराट्ू--विराट; प्राण:--चालक शक्ति; दश-विध:--दसप्रकार; एकधा--केवल एक; हृदयेन--चेतना शक्ति; च-- भी
विश्वरूप तीन, दस तथा एक के द्वारा इस अर्थ में प्रस्तुत होता है कि वे ( भगवान् ) शरीरतथा मन और इन्द्रियाँ हैं।
वे ही दस प्रकार की जीवन शक्ति द्वारा समस्त गतियों की गत्यात्मकशक्ति हैं और वे ही एक हृदय हैं जहाँ जीवन-शक्ति सृजित होती है।
स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितमधोक्षज: ।
विराजमतपत्स्वेन तेजसैषां विवृत्तये ॥
१०॥
स्मरनू--स्मरण करते हुए; विश्व-सृजाम्--विश्व रचना का कार्यभार सँभालने वाले देवता-गण; ईश:--भगवान्; विज्ञापितम्--स्तुति किया गया; अधोक्षज:--ब्रह्म; विराजम्--विराट रूप; अतपत्--इस तरह विचार किया; स्वेन--अपनी; तेजसा--शक्तिसे; एषाम्--उनके लिए; विवृत्तये--समझने के लिए |
परम प्रभु इस विराट जगत की रचना का कार्यभार सँभालने वाले समस्त देवताओं केपरमात्मा हैं।
इस तरह ( देवताओं द्वारा ) प्रार्थना किये जाने पर उन्होंने मन में विचार किया औरतब उनको समझाने के लिए अपना विराट रूप प्रकट किया।
नअथ तस्याभितप्तस्य कतिधायतनानि ह ।
\िरभिद्यन्त देवानां तानि मे गदतः श्रुणु ॥
११॥
अथ--इसलिए; तस्य--उसका; अभितप्तस्थ--उसके चिन्तन के अनुसार; कतिधा--कितने; आयतनानि--विग्रह; ह-- थे;निरभिद्यन्त--विभिन्नांशों द्वारा; देवानामू--देवताओं का; तानि--उन समस्त; मे गदतः--मेरे द्वारा वर्णित; श्रुणु--सुनो
मैत्रेय ने कहा : अब तुम मुझसे यह सुनो कि परमेश्वर ने अपना विराट रूप प्रकट करने केबाद किस तरह से अपने को देवताओं के विविध रूपों में विलग किया।
तस्याग्निरास्यं निर्भिन्नं लोकपालोविशत्पदम् ।
वबाचा स्वांशेन वक्तव्यं ययासौ प्रतिपद्यते ॥
१२॥
तस्य--उसकी; अग्निः--अग्नि; आस्यम्-- मुँह; निर्भिन्नम्ू--इस तरह वियुक्त; लोक-पाल:--भौतिक मामलों के निदेशक;अविशत्-प्रवेश किया; पदम्--अपने-अपने पदों को; वाचा--शब्दों से; स्व-अंशेन-- अपने अंश से; वक्तव्यम्--वाणी;यया--जिससे; असौ--वे; प्रतिपद्यते--व्यक्त करते हैं।
उनके मुख से अग्नि अथवा उष्मा विलग हो गई और भौतिक कार्य संभालने वाले सारेनिदेशक अपने-अपने पदों के अनुसार इस में प्रविष्ट हो गये।
जीव उसी शक्ति से शब्दों के द्वाराअपने को अभि-व्यक्त करता है।
निर्भिन्नं तालु वरूणो लोकपालोविशद्धरे: ।
जिह्यांशेन च रसं ययासौ प्रतिपद्यते ॥
१३॥
निर्भिन्नमू--वियुक्त; तालु--तालू; वरुण: --वायु का नियन्ता देव; लोक-पाल: --लोकों का निदेशक; अविशतू--प्रविष्ट हुआ;हरेः-- भगवान् के; जिहया अंशेन--जीभ के अंश से; च-- भी; रसम्-- स्वाद; यया--जिससे; असौ--जीव ; प्रतिपद्यते--अभि-व्यक्त करता है।
जब विराट रूप का तालू पृथक् प्रकट हुआ तो लोकों में वायु का निदेशक वरुण उसमेंप्रविष्ट हुआ जिससे जीव को अपनी जीभ से हर वस्तु का स्वाद लेने की सुविधा प्राप्त है।
निर्भिन्ने अश्विनौ नासे विष्णोराविशतां पदम् ।
घ्राणेनांशेन गन्धस्य प्रतिपत्तियतो भवेत् ॥
१४॥
निर्िन्ने--इस प्रकार से पृथक् हुए; अश्विनौ--दोनों अश्विनीकुमार; नासे--दोनों नथुनों के; विष्णो:-- भगवान् के;आविशताम्--प्रविष्ट होकर; पदम्--पद; घप्राणेन अंशेन-- आंशिक रूप से सूँघने से; गन्धस्य--गन्ध का; प्रतिपत्ति:--अनुभव;यतः--जिससे; भवेत्--होता है।
जब भगवान् के दो नथुने पृथक् प्रकट हुए तो दोनों अश्विनीकुमार उनके भीतर अपने-अपनेपदों पर प्रवेश कर गये।
इसके फलस्वरूप जीव हर वस्तु की गन्ध सूँघ सकते हैं।
निर्भिन्ने अक्षिणी त्वष्टा लोकपालोविशद्विभो: ।
चक्षुषांशेन रूपाणां प्रतिपत्तियतो भवेत् ॥
१५॥
निर्भिन्ने--इस प्रकार से पृथक् होकर; अक्षिणी--आँखें; त्वष्टा--सूर्य ने; लोक-पाल:-- प्रकाश का निदेशक; अविशतू-- प्रवेशकिया; विभो: --महान् का; चक्षुषा अंशेन--दृष्टि के अंश से; रूपाणाम्ू--रूपों के; प्रतिपत्तिः--अनुभव; यतः--जिससे;भवेत्--होता है
तत्पश्चात् भगवान् के विराट रूप की दो आँखें पृथक् हो गईं।
प्रकाश का निदेशक सूर्य दृष्टिके आंशिक प्रतिनिधित्व के साथ उनमें प्रविष्ट हुआ जिससे जीव रूपों को देख सकते हैं।
निर्भिन्नान्यस्थ चर्माण लोकपालोनिलोविशत् ।
प्राणेनांशेन संस्पर्श येनासौ प्रतिपद्यते ॥
१६॥
निर्िन्नानि--पृथक् होकर; अस्य--विराट रूप की; चर्माणि--त्वचा; लोक-पाल:--निदेशक; अनिल: --वायु ने; अविशतू --प्रवेश किया; प्राणेन अंशेन-- श्वास के अंश से; संस्पर्शम्-स्पर्श; येन--जिससे; असौ--जीव; प्रतिपद्यते-- अनुभव कर सकताहै।
जब विराट रूप से त्वचा पृथक् हुई तो वायु का निदेशक देव अनिल आंशिक स्पर्श सेप्रविष्ट हुआ जिससे जीव स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं।
कर्णावस्य विनिर्भिन्नौ धिष्ण्यं स्वं विविशुर्दिश: ।
श्रोत्रेणांशेन शब्दस्य सिद्धि येन प्रपद्यते ॥
१७॥
कर्णों--दोनों कान; अस्य--विराट रूप के; विनिर्भिन्नी--इस तरह पृथक् होकर; धिष्ण्यम्ू--नियंत्रक देव; स्वम्--अपने से;विविशु:--प्रवेश किया; दिश:--दिशाओं का; श्रोत्रेण अंशेन-- श्रवण तत्त्व के साथ; शब्दस्य-- ध्वनि का; सिद्धिम्--सिद्धि;येन--जिससे; प्रपद्यते-- अनुभव की जाती है।
जब विराट रूप के कान प्रकट हुए तो सभी दिशाओं के नियंत्रक देव श्रवण तत्त्वों समेतउनमें प्रविष्ट हो गये जिससे सारे जीव सुनते हैं और ध्वनि का लाभ उठाते हैं।
त्वचमस्य विनिर्भिन्नां विविशुर्धिष्ण्यमोषधी: ।
अंशेन रोमभिः कण्डूं यैरसौ प्रतिपद्यते ॥
१८ ॥
त्वचमू--चमड़ी; अस्य--विराट रूप की; विनिर्भिन्नामू--अलग से प्रकट होकर; विविशु:--प्रविष्ट हुआ; धिष्ण्यम्--नियंत्रकदेव; ओषधी: --संस्पर्श; अंशेन--अंशों के साथ; रोमभि:--शरीर के रोओं से होकर; कण्डूम्--खुजली; यैः--जिससे;असौ--जीव; प्रतिपद्यते--अनुभव करता है।
जब चमड़ी की पृथक् अभिव्यक्ति हुई तो अपने विविध अंशों समेत संस्पर्श नियंत्रक देवउसमें प्रविष्ट हो गये।
इस तरह जीवों को स्पर्श के कारण खुजलाहट तथा प्रसन्नता का अनुभवहोता है।
मेढ़ें तस्य विनिर्भिन्नं स्वधिष्ण्यं क उपाविशत् ।
रेतसांशेन येनासावानन्दं प्रतिपद्यते ॥
१९॥
मेढ्म्--जननांग; तस्य--उस विराट रूप का; विनिर्मिन्नम्ू--पृथक् होकर; स्व-धिष्ण्यम्ू--अपना पद; कः--ब्रह्मा, आदिप्राणी; उपाविशत्--प्रविष्ट हुआ; रेतसा अंशेन--वीर्य के अंश सहित; येन--जिससे; असौ--जीव; आनन्दम्--यौन आनन्द;प्रतिपद्यते-- अनुभव करता है।
जब विराट रूप के जननांग पृथक् हो गये तो आदि प्राणी प्रजापति अपने आंशिक वीर्यसमेत उनमें प्रविष्ट हो गये और इस तरह जीव यौन आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।
गुदं पुंसो विनिर्भिन्नं मित्रो लोकेश आविशत् ।
पायुनांशेन येनासौ विसर्ग प्रतिपद्यते ॥
२०॥
गुदम्--गुदा; पुंसः--विराट रूप का; विनिर्भिन्नम्ू--पृथक् होकर; मित्र: --सूर्यदेव; लोक-ईशः--मित्र नामक निदेशक;आविशत्-प्रविष्ट हुआ; पायुना अंशेन--आंशिक वायु के साथ; येन--जिससे; असौ--जीव; विसर्गम्--मलमूत्र त्याग;प्रतिपद्यते--सम्पन्न करता है।
फिर विसर्जन मार्ग पृथक् हुआ और मित्र नामक निदेशक विसर्जन के आंशिक अंगों समेतउसमें प्रविष्ट हो गया।
इस प्रकार जीव अपना मल-मूत्र विसर्जित करने में सक्षम हैं।
हस्तावस्य विनिर्भिन्नाविन्द्र: स्वर्पतिराविशत् ।
वार्तयांशेन पुरुषो यया वृत्ति प्रपद्यत ॥
२१॥
हस्तौ--दो हाथ; अस्य--विराट रूप के; विनिर्भिन्नी--पृथक् होकर; इन्द्र:--स्वर्ग का राजा; स्व:-पति:--स्वर्ग लोकों काशासक; आविशतू-प्रविष्ट हुआ; वार्तया अंशेन--अंशत: व्यवसायिक सिद्धान्तों के साथ; पुरुष:--जीव; यया--जिससे;वृत्तिमू--जीविका का व्यापार; प्रपद्यते--चलाता है।
तत्पश्चात् जब विराट रूप के हाथ पृथक् हुए तो स्वर्गलोक का शासक इन्द्र उनमें प्रविष्ट हुआऔर इस तरह से जीव अपनी जीविका हेतु व्यापार चलाने में समर्थ हैं।
पादावस्य विनिर्भिन्नी लोकेशो विष्णुराविशत् ।
गत्या स्वांशेन पुरुषो यया प्राप्यं प्रपद्यते ॥
२२॥
पादौ--दो पाँव; अस्य--विराट रूप के; विनिर्भिन्नी--पृथक् प्रकट हुए; लोक-ईशः विष्णु:--विष्णु नामक देवता ( भगवान्नहीं ); आविशत्--प्रविष्ट हुआ; गत्या--चलने-फिरने की शक्ति द्वारा; स्व-अंशेन--अपने ही अंश सहित; पुरुष:--जीव;यया--जिससे; प्राप्मम्-गन्तव्य तक; प्रपद्यते--पहुँचता है।
तत्पश्चात् विराट रूप के पाँव पृथक् रुप से प्रकट हुए और विष्णु नामक देवता ( भगवान्नहीं ) ने उन में आंशिक गति के साथ प्रवेश किया।
इससे जीव को अपने गन्तव्य तक जाने मेंसहायता मिलती है।
बुद्धि चास्य विनिर्भिन्नां वागीशो थधिष्णयमाविशत् ।
बोधेनांशेन बोद्धव्यम्प्रतिपत्तियतो भवेत् ॥
२३॥
बुद्धिम--बुद्धि; च-- भी; अस्य--विराट रूप की; विनिर्भिन्नामू--पृथक् हुई; वाक्-ईशः--वेदों का स्वामी ब्रह्मा; धिष्णयम्--नियंत्रक शक्ति; आविशत्--प्रविष्ट हुए; बोधेन अंशेन--अपने बुद्धि अंश सहित; बोद्धव्यम्--ज्ञान का विषय; प्रतिपत्ति: --समझ गया; यतः--जिससे; भवेत्--इस तरह होती है |
जब विराट रूप की बुद्धि पृथक् रुप से प्रकट हुई तो वेदों के स्वामी ब्रह्मा बुद्धि कीआंशिक शक्ति के साथ उसमें प्रविष्ट हुए और इस तरह जीवों द्वारा बुद्धि के ध्येय का अनुभवकिया जाता है।
हृदयं चास्य निर्भिन्नं चन्द्रमा धिष्णयमाविशत् ।
मनसांशेन येनासौ विक्रियां प्रतिपद्यते ॥
२४॥
हृदयम्--हृदय; च-- भी; अस्य--विराट रूप का; निर्मिन्नम्ू--पृथक् से प्रकट होकर; चन्द्रमा--चन्द्र देवता; धिष्णयम्--नियंत्रक शक्ति समेत; आविशत्--प्रविष्ट हुआ; मनसा अंशेन--आंशिक मानसिक क्रिया सहित; येन--जिससे; असौ--जीव;विक्रियाम्--संकल्प; प्रतिपद्यते--करता है
इसके बाद विराट रूप का हृदय पृथक् रूप से प्रकट हुआ और इसमें चन्द्रदेबता अपनीआंशिक मानसिक क्रिया समेत प्रवेश कर गया।
इस तरह जीव मानसिक चिन्तन कर सकता है।
आत्मानं चास्य निर्भिन्नमभिमानोविशत्पदम् ।
कर्मणांशेन येनासौ कर्तव्यं प्रतिपद्यते ॥
२५॥
आत्मानम्ू--मिथ्या अहंकार; च--भी; अस्य--विराट रूप का; निर्भिन्नमू--पृथक् से प्रकट होकर; अभिमान:--मिथ्यापहचान; अविशत्ू--प्रविष्ट हुआ; पदम्--पद पर; कर्मणा--कर्म द्वारा; अंशेन--अंशत:; येन--जिससे; असौ--जीव;कर्तव्यमू--करणीय कार्यकलाप; प्रतिपद्यते--करता है।
तत्पश्चात् विराट रूप का भौतिकतावादी अहंकार पृथक् से प्रकट हुआ और इसमें मिथ्याअंहकार के नियंत्रक रुद्र ने अपनी निजी आंशिक क्रियाओं समेत प्रवेश किया जिससे जीवअपना लक्षियत कर्तव्य पूरा करता है।
सत्त्वं चास्य विनिर्भिन्नं महान्धिष्ण्यमुपाविशत् ।
चित्तेनांशेन येनासौ विज्ञान प्रतिपद्यते ॥
२६॥
सत्त्ममू--चेतना; च-- भी; अस्य--विराट रूप की; विनिर्भिन्मम्ू--पृथक् से प्रकट होकर; महान्--समग्र शक्ति, महत् तत्त्व;धिष्ण्यमू--नियंत्रण समेत; उपाविशत्-- प्रविष्ट हुई; चित्तेन अंशेन-- अपनी अंश चेतना समेत; येन--जिससे; असौ--जीव;विज्ञानम्-विशिष्ट ज्ञान; प्रतिपद्यते--अनुशीलन करता है।
तत्पश्चात् जब विराट रूप से उसकी चेतना पृथक् होकर प्रकट हुई तो समग्र शक्ति अर्थात्महतत्त्व अपने चेतन अंश समेत प्रविष्ट हुआ।
इस तरह जीव विशिष्ट ज्ञान को अवधारण करने मेंसमर्थ होता है।
शीष्णोंस्य द्यौर्धरा पद्भ्यां खं नाभेरुदपद्यत ।
गुणानां वृत्तयो येषु प्रतीयन्ते सुरादयः ॥
२७॥
शीर्ष्ण:--सिर; अस्य--विराट रूप का; द्यौ:--स्वर्गलोक; धरा--पृथ्वीलोक; पद्भ्याम्--उसके पैरों पर; खम्--आकाश;नाभे: --नाभि से; उदपद्यत--प्रकट हुआ; गुणानाम्--तीनों गुणों के; वृत्तव:--फल; येषु--जिनमें; प्रतीयन्ते--प्रकट होते हैं;सुर-आदयः--देवता इत्यादि
तत्पश्चात् विराट रूप के सिर से स्वर्गलोक, उसके पैरों से पृथ्वीलोक तथा उसकी नाभि सेआकाश पृथक्-पृथक् प्रकट हुए।
इनके भीतर भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के रूप में देवताइत्यादि भी प्रकट हुए।
आत्यन्तिकेन सच्त्वेन दिवं देवा: प्रपेदिरे ।
धरां रज:स्वभावेन पणयो ये च ताननु ॥
२८॥
आत्यन्तिकेन--अत्यधिक; सत्त्वेन--सतोगुण द्वारा; दिवम्--उच्चतर लोकों में; देवा: --देवता; प्रपेदिरि--स्थित है; धराम्--पृथ्वी पर; रज:--रजोगुण; स्वभावेन--स्वभाव से; पणय:--मानव; ये--वे सब; च-- भी; तानू--उनके; अनु--अधीन |
देवतागण, अति उत्तम गुण, सतोगुण के द्वारा योग्य बनकर, स्वर्गलोक में अवस्थित रहते हैं।
जबकि मनुष्य अपने रजोगुणी स्वभाव के कारण अपने अधीनस्थों की संगति में पृथ्वी पर रहते हैं।
तार्तीयेन स्वभावेन भगवन्नाभिमाश्रिता: ।
उभयोरन्तरं व्योम ये रुद्रपार्षदां गणा: ॥
२९॥
तार्तीयेन--तृतीय गुण अर्थात् तमोगुण के अत्यधिक विकास द्वारा; स्वभावेन--ऐसे स्वभाव से; भगवत्-नाभिम्-- भगवान् केविराट रूप की नाभि में; आशभ्रिता:--स्थित; उभयो:--दोनों के; अन्तरम्--बीच में; व्योम--आकाश; ये--जो सब; रुद्र-पार्षदाम्ू-रूद्र के संगी; गणा:--लोग।
जो जीव रुद्र के संगी हैं, वे प्रकृति के तीसरे गुण अर्थात् तमोगुण में विकास करते हैं।
वेपृथ्वीलोकों तथा स्वर्गलोकों के बीच आकाश में स्थित होते हैं।
मुखतोवर्तत ब्रह्म पुरुषस्य कुरूद्वह ।
यस्तून्मुखत्वाद्वर्णानां मुख्योभूद्राह्मणो गुरु: ॥
३०॥
मुखतः--मुँह से; अवर्तत--उत्पन्न हुआ; ब्रह्म--वैदिक ज्ञान; पुरुषस्थ--विराट पुरुष का; कुरु-उद्दद-हे कुरुवंश के प्रधान;यः--जो; तु--के कारण; उन्मुखत्वात्--उन्मुख; वर्णानामू--समाज के वर्णो का; मुख्य:--मुख्य; अभूत्--ऐसा हो गया;ब्राह्मण: --ब्राह्मण कहलाया; गुरु:--मान्य शिक्षक या गुरु
हे कुरुवंश के प्रधान, विराट अर्थात् विश्व रुप के मुख से वैदिक ज्ञान प्रकट हुआ।
जो लोगइस वैदिक ज्ञान के प्रति उन्मुख होते हैं, वे ब्राह्मण कहलाते हैं और वे समाज के सभी वर्णों केस्वाभाविक शिक्षक तथा गुरु हैं।
बाहुभ्योउवर्तत क्षत्रं क्षत्रियस्तदनुब्रत: ।
यो जातस्त्रायते वर्णान्पौरुष: कण्टकक्षतात् ॥
३१॥
बाहुभ्य:--बाहुओं से; अवर्तत--उत्पन्न हुआ; क्षत्रमू--संरक्षण की शक्ति; क्षत्रिय:--संरक्षण की शक्ति के सन्दर्भ में; तत्--वह;अनुव्रत:--अनुयायी; यः--जो; जात:--ऐसा होता है; त्रायते--उद्धार करता है; वर्णान्ू--अन्य वृत्तियाँ; पौरुष: -- भगवान् काप्रतिनिधि; कण्टक--चोर उचक्के जैसे उपद्रवी तत्त्व; क्षतात्--दुष्टता से
तत्पश्चात् विराट रूप की बाहुओं से संरक्षण शक्ति उत्पन्न हुई और ऐसी शक्ति के प्रसंग मेंसमाज का चोर-उचक्ों के उत्पातों से रक्षा करने के सिद्धान्त का पालन करने से क्षत्रिय भीअस्तित्व में आये।
विशोवर्तन्त तस्योरवोर्लोकवृत्तिकरीर्विभो: ।
वैश्यस्तदुद्धवो वार्ता नृणां यः समवर्तयत् ॥
३२॥
विशः--उत्पादन तथा वितरण द्वारा जीविका का साधन; अवर्तन्त--उत्पन्न किया; तस्य--उसका ( विराट रूप का ); ऊर्वो:--जाँघों से; लोक-वृत्तिकरी:--आजीविका के साधन; विभो:-- भगवान् के; वैश्य: --वैश्य जाति; तत्ू--उनका; उद्धव:--समायोजन ( जन्म ); वार्तामू--जीविका का साधन; नृणाम्--सारे मनुष्यों की; यः--जिसने; समवर्तयत्--सम्पन्न किया।
समस्त पुरुषों की जीविका का साधन, अर्थात् अन्न का उत्पादन तथा समस्त प्रजा में उसकावितरण भगवान् के विराट रूप की जाँघों से उत्पन्न किया गया।
वे व्यापारी जन जो ऐसे कार्यको संभालते हैं वैश्य कहलाते हैं।
पद्भ्यां भगवतो जज्ने शुश्रूषा धर्मसिद्धये ।
तस्यां जात: पुरा शूद्रो यद्वृत्त्या तुष्यते हरि: ॥
३३॥
पद्भ्यामू-पैरों से; भगवतः--भगवान् के; जज्ञे--प्रकट हुआ; शुश्रूषा--सेवा; धर्म--वृत्तिपरक कार्य; सिद्धये--के हेतु;तस्यामू--उसमें; जात:--उत्पन्न हुआ; पुरा--प्राचीन काल में; शूद्र:ः--सेवक; यत्-वृत्त्या--वृत्ति जिससे; तुष्यते--तुष्ट होता है;हरिः-- भगवान् |
तत्पश्चात् धार्मिक कार्य पूरा करने के लिए भगवान् के पैरों से सेवा प्रकट हुई।
पैरों पर शूद्रस्थित होते हैं, जो सेवा द्वारा भगवान् को तुष्ट करते हैं।
एते वर्णा: स्वधर्मेंण यजन्ति स्वगुरुं हरिम् ।
श्रद्धयात्मविशुद्धयर्थ यज्जाता: सह वृत्तिभि: ॥
३४॥
एते--ये सारे; वर्णा:--समाज की श्रेणियाँ; स्व-धर्मेण-- अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों द्वारा; यजन्ति--पूजा करते हैं; स्व-गुरुम--अपने गुरु; हरिमू-- भगवान् को; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक; आत्म--आत्मा; विशुद्धि-अर्थम्--शुद्ध करने केलिए; यत्--जिससे; जाता: -- उत्पन्न; सह-- के साथ; वृत्तिभि:--वृत्तिपरक कर्तव्यये
भिन्न-भिन्न समस्त सामाजिक विभागअपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्यों तथा जीवनपरिस्थितियों के साथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से उत्पन्न होते हैं।
इस तरह अबद्धजीवन तथाआत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य को गुरु के निर्देशानुसार परम प्रभु की पूजा करनी होती है।
एतक्क्षत्तर्भगवतो दैवकर्मात्मरूपिण: ।
कः श्रद्धध्यादुपाकर्तु योगमायाबलोदयम् ॥
३५॥
एतत्--यह; क्षत्त:--हे विदुर; भगवतः-- भगवान् का; दैव-कर्म-आत्म-रूपिण:--विराट रूप के दिव्य कर्म, काल तथाप्रकृति का; कः--और कौन; श्रद्दध्यात्--आकांक्षा कर सकता है; उपाकर्तुम्ू--समग्र रूप में मापने के लिए; योगमाया--अन्तरंगाशक्ति के; बल-उदयम्--बल द्वारा प्रकट |
हे विदुर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अन्तरंगा शक्ति द्वारा प्रकट किये गये विराट रूप केदिव्य काल, कर्म तथा शक्ति को भला कौन माप सकता है या उसका आकलन कर सकता है?
तथापि कीर्तयाम्यड्र यथामति यथा श्रुतम् ।
कीर्ति हरेः स्वां सत्कर्तु गिरमन्याभिधासतीम् ॥
३६॥
तथा--इसलिए; अपि--यद्यपि ऐसा है; कीर्तयामि--मैं वर्णन करता हूँ; अड्ग--हे विदुर; यथा--जिस तरह; मति--बुद्धि;यथा--जिस तरह; श्रुतम्--सुना हुआ; कीर्तिमू--यश; हरेः-- भगवान् का; स्वाम्ू--निजी; सत्-कर्तुम्-शुद्ध करने हेतु;गिरम्ू--वाणी; अन्याभिधा-- अन्यथा; असतीम्--अपवित्र |
अपनी असमर्थता के बावजूद मैं ( अपने गुरु से) जो कुछ सुन सका हूँ तथा जितनाआत्मसात् कर सका हूँ उसे अब शुद्ध वाणी द्वारा भगवान् की महिमा के वर्णन में लगा रहा हूँ,अन्यथा मेरी वाक्शक्ति अपवित्र बनी रहेगी।
एकान्तलाभं बचसो नु पुंसांसुश्लोकमौलेगुणवादमाहु: ।
श्रुतेश्च विद्वद्धिरुपाकृतायांकथासुधायामुपसम्प्रयोगम् ॥
३७॥
एक-अन्त--बेजोड़; लाभम्--लाभ; वचस:--विवेचना द्वारा; नु पुंसामू-परम पुरुष के बाद; सुश्लोक--पवित्र; मौले:--कार्यकलाप; गुण-वादम्--गुणगान; आहु:--ऐसा कहा जाता है; श्रुते:--कान का; च-- भी; विद्वद्धिः --विद्वान द्वारा;उपाकृतायाम्--इस तरह सम्पादित; कथा-सुधायाम्--ऐसे दिव्य सन्देश रूपी अमृत में; उपसम्प्रयोगम्--असली उद्देश्य को पूराकरता है
निकट होने सेमानवता का सर्वोच्च सिद्धिप्रद लाभ पवित्रकर्ता के कार्यकलापों तथा महिमा की चर्चा मेंप्रवृत्त होना है।
ऐसे कार्यकलाप महान् विद्वान ऋषियों द्वारा इतनी सुन्दरता से लिपिबद्ध हुए हैंकि कान का असली प्रयोजन उनके निकट रहने से ही पूरा हो जाता है।
आत्मनोवसितो वत्स महिमा कविनादिना ।
संवत्सरसहस्त्रान्ते धिया योगविपक्कया ॥
३८ ॥
आत्मन:--परमात्मा की; अवसित:ः--ज्ञात; वत्स--हे पुत्र; महिमा--महिमा; कविना--कवि ब्रह्मा द्वारा; आदिना--आदि;संवत्सर--दैवी वर्ष; सहस्त्र-अन्ते--एक हजार वर्षो के अन्त में; धिया--बुद्धि द्वारा; योग-विपक्रया--परिपक्व ध्यान द्वारा |
हे पुत्र, आदि कवि ब्रह्मा एक हजार दैवी वर्षो तक परिपक्व ध्यान के बाद केवल इतनाजान पाये कि भगवान् की महिमा अचिन्त्य है।
अतो भगवतो माया मायिनामपि मोहिनी ।
यत्स्वयं चात्मवर्त्मात्मा न वेद किमुतापरे ॥
३९॥
अतः--इसलिए; भगवत:--ई श्वरीय; माया--शक्तियाँ; मायिनामू-- जादूगरों को; अपि-- भी; मोहिनी--मोहने वाली; यत्--जो; स्वयम्--अपने से; च-- भी; आत्म-वर्त्त--आत्म-निर्भर; आत्मा--आत्म; न--नहीं; वेद--जानता है; किम्--क्या; उत--विषय में कहना; अपरे--अन्यों के |
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की आश्चर्यजनक शक्ति जादूगरों को भी मोहग्रस्त करने वाली है।
यह निहित शक्ति आत्माराम भगवान् तक को अज्ञात है, अतः अन्यों के लिए यह निश्चय हीअज्ञात है।
यतोप्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्च मनसा सह ।
अहं चान्य इमे देवास्तस्मै भगवते नमः ॥
४०॥
यतः--जिससे; अप्राप्प--माप न सकने के कारण; न्यवर्तन्त--प्रयास करना बन्द कर देते हैं; वाच:--शब्द; च-- भी;मनसा--मन से; सह--सहित; अहम् च--अहंकार भी; अन्ये-- अन्य; इमे--ये सभी; देवा:--देवतागण; तस्मै--उस;भगवते-- भगवान् को; नम:ः--नमस्कार करते हैं।
अपने-अपने नियंत्रक देवों सहित शब्द, मन तथा अहंकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कोजानने में असफल रहे हैं।
अतएव हमें विवेकपूर्वक उन्हें सादर नमस्कार करना होता है।
अध्याय सात: विदुर द्वारा आगे की पूछताछ
3.7श्रीशुक उबाचएवं ब्रुवाण मैत्रेयं द्वैवायनसुतो बुध: ।
प्रीणयन्निवभारत्या विदुर: प्रत्यभाषत ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; ब्रुवाणम्--बोलते हुए; मैत्रेयम्--मैत्रेयमुनि से मैत्रेय;द्वैषायन-सुत:ः--द्वैपायन का पुत्र; बुध:--विद्वान; प्रीणयन्--अच्छे लगने वाले ढंग से; इब--मानो; भारत्या--अनुरोध के रूपमें; बिदुर: --विदुर ने; प्रत्यभाषत--व्यक्त किया।
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, जब महर्षि मैत्रेय इस प्रकार से बोल रहे थे तोद्वैपायन व्यास के दिद्वान पुत्र विदुर ने यह प्रश्न पूछते हुए मधुर ढंग से एक अनुरोध व्यक्त किया।
विदुर उवाचब्रह्मन्क थ॑ भगवतश्रिन्मात्रस्थाविकारिण: ।
लीलया चापि युज्येरन्निर्गुणस्य गुणा: क्रिया: ॥
२॥
विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; कथम्--कैसे; भगवतः -- भगवान् का; चित्-मात्रस्य--पूर्ण आध्यात्मिकका; अविकारिण:--अपरिवर्तित का; लीलया--अपनी लीला से; च--अथवा; अपि--यद्यपि यह ऐसा है; युज्येरनू--घटितहोती हैं; निर्गुणस्थ--वह जो भौतिक गुणों से रहित है; गुणा:--प्रकृति के गुण; क्रिया:--कार्यकलाप |
श्री विदुर ने कहा : हे महान् ब्राह्मण, चूँकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् संपूर्ण आध्यात्मिकसमष्टि हैं और अविकारी हैं, तो फिर वे प्रकृति के भौतिक गुणों तथा उनके कार्यकलापों से किसतरह सम्बन्धित हैं? यदि यह उनकी लीला है, तो फिर अविकारी के कार्यकलाप किस तरहघटित होते हैं और प्रकृति के गुणों के बिना गुणों को किस तरह प्रदर्शित करते हैं ?
क्रीडायामुद्यमो$र्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यत: ।
स्वतस्तृप्तस्थ च कं निवृत्तस्य सदान्यत: ॥
३॥
क्रीडायाम्--खेलने के मामले में; उद्यम: --उत्साह; अर्भस्य--बालकों का; काम: --इच्छा; चिक्रीडिषा--खेलने के लिए इच्छा;अन्यतः--अन्य बालकों के साथ; स्वतः-तृप्तस्य--जो आत्मतुष्ट है उसके लिए; च--भी; कथम्--किस लिए; निवृत्तस्थ--विरक्त; सदा--सदैव; अन्यतः--अन्यथा |
बालक अन्य बालकों के साथ या विविध क्रीड़ाओं में खेलने के लिए उत्सुक रहते हैं,क्योंकि वे इच्छा द्वारा प्रोत्साहित किये जाते हैं।
किन्तु भगवान् में ऐसी इच्छा की कोई सम्भावनानहीं होती, क्योंकि वे आत्म-तुष्ट हैं और सदैव हर वस्तु से विरक्त रहते हैं।
अस््राक्षीद्धगवान्विश्व॑ं गुणमय्यात्ममायया ।
तया संस्थापयत्येतद्धूय: प्रत्यपिधास्यति ॥
४॥
अस्त्राक्षीत्-उत्पन्न कराया; भगवान्-- भगवान् ने; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; गुण-मय्या-- भौतिक प्रकृति के तीन गुणों से समन्वित;आत्म--अपनी; मायया--शक्ति द्वारा; तया--उसके द्वारा; संस्थापयति--पालन करता है; एतत्--ये सब; भूय:--तब पुनः;प्रत्यू-अपिधास्यति--उल्टे विलय भी करता है।
भगवान् ने प्रकृति के तीन गुणों की स्वरक्षित शक्ति द्वारा इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि कराई।
वेउसी के द्वारा सृष्टि का पालन करते हैं और उल्टे पुन: पुनः: उसका विलय भी करते हैं।
देशतः कालतो योसाववस्थातः स्वतोउन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया कथम् ॥
५॥
देशतः--परिस्थितिवश; कालतः--काल के प्रभाव से; यः--जो; असौ--जीव; अवस्थात:--स्थिति से; स्वतः --स्वप्न से;अन्यतः--अन्यों द्वारा; अविलुप्त--लुप्त; अवबोध--चेतना; आत्मा--शुद्ध आत्मा; सः--वह; युज्येत--संलग्न; अजया--अज्ञान द्वारा; कथम्--यह ऐसा किस तरह है।
शुद्ध आत्मा विशुद्ध चेतना है और वह परिस्थितियों, काल, स्थितियों, स्वप्नों अथवा अन्यकारणों से कभी भी चेतना से बाहर नहीं होता।
तो फिर वह अविद्या में लिप्त क्यों होता है ?
भगवानेक एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।
अमुष्य दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा कर्मभि: कुतः ॥
६॥
भगवान्-- भगवान्; एक:--एकमात्र; एव एष: --ये सभी; सर्व--समस्त; क्षेत्रेषु--जीवों में; अवस्थित:--स्थित; अमुष्य--जीवों का; दुर्भगत्वमू-दुर्भाग्य; वा--या; क्लेश:--कष्ट; वा--अथवा; कर्मभि:--कार्यो द्वारा; कुतः--किसलिए।
भगवान् परमात्मा के रूप में हर जीव के हृदय में स्थित रहते हैं।
तो फिर जीवों के कर्मों सेदुर्भाग्य तथा कष्ट क्यों प्रतिफलित होते हैं ?
एतस्मिन्मे मनो विद्वन्खिद्यतेञज्ञानसड्डूटे ।
तन्नः पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ॥
७॥
एतस्मिनू--इसमें; मे--मेरा; मन:--मन; विद्वनू--हे विद्वान; खिद्यते--कष्ट दे रहा है; अज्ञान--अविद्या; सड्डुटे--संकट में;तत्--इसलिए; न:ः--मेरा; पराणुद--स्पष्ट कीजिये; विभो--हे महान्; कश्मलम्--मोह; मानसम्--मन विषयक; महतू--महान्।
हे महान् एवं विद्वान पुरुष, मेरा मन इस अज्ञान के संकट द्वारा अत्यधिक मोहग्रस्त है,इसलिए मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप इसको स्पष्ट करें।
श्रीशुक उबाचस इत्थं चोदित: क्षत्ना तत्त्वजिज्ञासुना मुनि: ।
प्रत्याह भगवच्चित्त: स्मयन्निव गतस्मय: ॥
८॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह ( मैत्रेय मुनि ); इत्थम्--इस प्रकार; चोदित: --विश्षुब्ध किये जानेपर; क्षत्रा--विदुर द्वारा; तत्त्व-जिज्ञासुना--सत्य जानने के लिए पूछताछ करने के इच्छुक व्यक्ति द्वारा, जिज्ञासु द्वारा; मुनिः--मुनि ने; प्रत्याह--उत्तर दिया; भगवतू-चित्त:--ईशभावनाभावित; स्मयन्--आश्चर्य करते हुए; इब--मानो; गत-स्मय: --हिचकके बिना।
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन, इस तरह जिज्ञासु विदुर द्वारा विक्षुब्ध किये गयेमैत्रेय सर्वप्रथम आश्चर्यचकित प्रतीत हुए, किन्तु इसके बाद उन्होंने बिना किसी हिचक के उन्हेंउत्तर दिया, क्योंकि वे पूर्णरूपेण ईशभावनाभावित थे।
मैत्रेय उवाचसेयं भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते ।
ईश्वरस्य विमुक्तस्य कार्पण्यमुत बन्धनम् ॥
९॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; सा इयम्--ऐसा कथन; भगवत:-- भगवान् की; माया--माया; यत्--जो; नयेन--तर्क द्वारा;विरुध्यते--विरोधी बन जाता है; ईश्वरस्थ-- भगवान् का; विमुक्तस्थ--नित्य मुक्त का; कार्पण्यम्--अपर्याप्तता; उत--क्याकहा जाय, जैसा भी; बन्धनम्--बन्धन
श्री मैत्रेय ने कहा : कुछ बद्धजीव यह सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि परब्रह्म या भगवान् को माया द्वारा जीता जा सकता है, किन्तु साथ ही उनका यह भी मानना है कि वे अबद्ध हैं।
यहसमस्त तर्क के विपरित है।
यदर्थन विनामुष्य पुंस आत्मविपर्यय: ।
प्रतीयत उपद्रष्ट: स्वशिरश्छेदनादिक: ॥
१०॥
यत्--इस प्रकार; अर्थन--अभिप्राय या अर्थ; विना--बिना; अमुष्य--ऐसे; पुंसः:--जीव का; आत्म-विपर्यय:-- आत्म-पहचानके विषय में विभ्रमित; प्रतीयते--ऐसा लगता है; उपद्रष्ट:--उथले द्रष्टा का; स्व-शिर:--अपना सिर; छेदन-आदिक:--काटलेना।
जीव अपनी आत्म-पहचान के विषय में संकट में रहता है।
उसके पास वास्तविक पृष्ठभूमिनहीं होती, ठीक उसी तरह जैसे स्वप्न देखने वाला व्यक्ति यह देखे कि उसका सिर काट लियागया है।
यथा जले चन्द्रमसः कम्पादिस्तत्कृतो गुण: ।
हृश्यतेसन्नपि द्रष्टरात्मनो उनात्मनो गुण: ॥
११॥
यथा--जिस तरह; जले--जल में; चन्द्रमस: --चन्द्रमा का; कम्प-आदि: --कम्पन इत्यादि; तत्-कृत:--जल द्वारा किया गया;गुण:--गुण; दृश्यते--इस तरह दिखता है; असन् अपि--बिना अस्तित्व के; द्रष्ट:--द्रष्टा का; आत्मन:--आत्मा का;अनात्मन:--आत्मा के अतिरिक्त अन्य का; गुण:--गुण |
जिस तरह जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा जल के गुण से सम्बद्ध होने के कारण देखने वालेको हिलता हुआ प्रतीत होता है उसी तरह पदार्थ से सम्बद्ध आत्मा पदार्थ के ही समान प्रतीत होताहै।
स वी निवृत्तिधमेंण वासुदेवानुकम्पया ।
भगवद्धक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह ॥
१२॥
सः--वह; वै-- भी; निवृत्ति--विरक्ति; धर्मेण-- संलग्न रहने से; वासुदेव-- भगवान् की; अनुकम्पया--कृपा से; भगवत् --भगवान् के सम्बन्ध में; भक्ति-योगेन-- जुड़ने से; तिरोधत्ते--कम होती है; शनैः--क्रमश:; इह--इस संसार में |
किन्तु आत्म-पहचान की उस भ्रान्ति को भगवान् वासुदेव की कृपा से विरक्त भाव सेभगवान् की भक्तिमय सेवा की विधि के माध्यम से धीरे-धीरे कम किया जा सकता है।
यदेन्द्रियोपरामोथ द्रष्टात्मनि परे हरौ ।
विलीयन्ते तदा क्लेशा: संसुप्तस्येव कृत्सनश: ॥
१३॥
यदा--जब; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; उपराम: --तृप्त; अथ--इस प्रकार; द्रष्ट-आत्मनि--द्रष्टा या परमात्मा के प्रति; परे--अध्यात्म में;हरौ--भगवान् में; विलीयन्ते--लीन हो जाती है; तदा--उस समय; क्लेशा:--कष्ट; संसुप्तस्य--गहरी नींद का भोग कर चुकाव्यक्ति; इब--सहश; कृत्स्नश:--पूर्णतया |
जब इन्द्रियाँ द्रष्टा-परमात्मा अर्थात् भगवान् में तुष्ट हो जाती है और उनमें विलीन हो जाती है,तो सारे कष्ट उसी तरह पूर्णतया दूर हो जाते हैं जिस तरह ये गहरी नींद के बाद दूर हो जाते हैं।
अशेषसड्क्लेशशमं विधत्ते गुणानुवादश्रवर्णं मुरारे: ।
कि वा पुनस्तच्चरणारविन्दपरागसेवारतिरात्मलब्धा ॥
१४॥
अशेष--असीम; सड्क्लेश--कष्टमय स्थिति; शमम्--शमन; विधत्ते--सम्पन्न कर सकता है; गुण-अनुवाद--दिव्य नाम, रूप,गुण, लीला, पार्षद तथा साज-सामग्री इत्यादि का; श्रवणम्--सुनना तथा कीर्तन करना; मुरारे: --मुरारी ( श्रीकृष्ण ) का; किम्वा--और अधिक क्या कहा जाय; पुनः--फिर; तत्--उसके; चरण-अरविन्द--चरणकमल; पराग-सेवा --सुगंधित धूल कीसेवा के लिए; रतिः--आकर्षण; आत्म-लब्धा--जिन्होंने ऐसी आत्म-उपलब्धि प्राप्त कर ली है।
भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य नाम, रूप इत्यादि के कीर्तन तथा श्रवण मात्र से मनुष्य कीअसीम कष्टप्रद अवस्थाएँ शमित हो सकती हैं।
अतएव उनके विषय में क्या कहा जाये, जिन्होंनेभगवान् के चरणकमलों की धूल की सुगंध की सेवा करने के लिए आकर्षण प्राप्त कर लियाहो?
विदुर उवाचसज्छिन्न: संशयो मह्यं तव सूक्तासिना विभो ।
उभयत्रापि भगवन्मनो मे सम्प्रधावति ॥
१५॥
विदुर: उवाच--विदुर ने कहा; सज्छिन्न:--कटे हुए; संशय:--सन्देह; महाम्--मेरे; तव--तुम्हारे; सूक्त-असिना--विश्वसनीयशब्द रूपी हथियार से; विभो--हे प्रभु; उभयत्र अपि--ई श्र तथा जीव दोनों में; भगवन्--हे शक्तिमान; मन: --मन; मे--मेरा;सम्प्रधावति--पूरी तरह प्रवेश करता है।
विदुर ने कहा : हे शक्तिशाली मुनि, मेरे प्रभु, आपके विश्वसनीय शब्दों से पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान् तथा जीवों से सम्बन्धित मेरे सारे संशय अब दूर हो गये हैं।
अब मेरा मन पूरी तरह सेउनमें प्रवेश कर रहा है।
साध्वेतद्व्याहतं विद्वन्नात्ममायायनं हरे: ।
आभात्यपार्थ निर्मूलं विश्वमूलं न यद्वहि: ॥
१६॥
साधु--उतनी अच्छी जितनी कि होनी चाहिए; एतत्--ये सारी व्याख्याएँ; व्याहतम्--इस तरह कही गई; विद्वनू--हे विद्वान;न--नहीं; आत्म--आत्मा; माया--शक्ति; अयनम्--गति; हरेः-- भगवान् की; आभाति-- प्रकट होती है; अपार्थम्--बिना अर्थके, निरर्थक; निर्मूलमू--बिना किसी आधार के, निराधार; विश्व-मूलम्-- भगवान् जिसका उद्गम है; न--नहीं; यत्--जो;बहिः--बाहरी |
हे विद्वान महर्षि, आपकी व्याख्याएँ अति उत्तम हैं जैसी कि उन्हें होना चाहिए।
बद्धजीव केविक्षोभों का आधार भगवान् की बहिरंगा शक्ति की गतिविधि के अलावा कुछ भी नहीं ।
यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जन: ॥
१७॥
यः--जो; च--भी; मूढ-तमः --निकृष्टतम मूर्ख; लोके --संसार में; यः च--तथा जो; बुद्धेः--बुद्धि का; परम्--दिव्य;गतः--गया हुआ; तौ--उन; उभौ--दोनों; सुखम्--सुख; एथेते-- भोगते हैं; क्लिशयति--कष्ट पाते हैं; अन्तरित:--बीच मेंस्थित; जन:--लोग।
निकृष्ठतम मूर्ख तथा समस्त बुद्धि के परे रहने वाले दोनों ही सुख भोगते हैं, जबकि उनकेबीच के व्यक्ति भौतिक क्लेश पाते हैं।
अर्थाभावं विनिश्ित्य प्रतीतस्यापि नात्मन: ।
तां चापि युष्मच्चरणसेवयाहं पराणुदे ॥
१८॥
अर्थ-अभावम्--बिना सार के; विनिश्चित्य--सुनिश्चित करके; प्रतीतस्य--बाह्य मूल्यों का; अपि-- भी; न--कभी नहीं;आत्मन:--आत्मा का; तामू--उसे; च-- भी; अपि--इस तरह; युष्मत्-- तुम्हारे; चरण--पाँव की; सेवया--सेवाद्वारा; अहम्--मैं; पराणुदे--त्याग सकूँगा किन्तु
हे महोदय, मैं आपका कृतज्ञ हूँ, क्योंकि अब मैं समझ सकता हूँ कि यह भौतिक जगत साररहित है यद्यपि यह वास्तविक प्रतीत होता है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपके चरणोंकी सेवा करने से मेरे लिए इस मिथ्या विचार को त्याग सकना सम्भव हो सकेगा।
यत्सेवया भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विष: ।
रतिरासो भवेत्तीत्र: पादयोव्यसनार्दन: ॥
१९॥
यत्--जिसको; सेवया--सेवा द्वारा; भगवत:ः -- भगवान् का; कूट-स्थस्य--अपरिवर्तनीय का; मधु-द्विष: --मधु असुर का शत्रु;रति-रास:--विभिन्न सम्बश्धों में अनुरक्ति; भवेत्--उत्पन्न होती है; तीब्र:--अत्यन्त भावपूर्ण; पादयो: --चरणों की; व्यसन--क्लेश; अर्दन:--नष्ट करनेवाले
गुरु के चरणों की सेवा करने से मनुष्य उन भगवान् की सेवा में दिव्य भावानुभूति उत्पन्नकरने में समर्थ होता है, जो मधु असुर के कूटस्थ शत्रु हैं और जिनकी सेवा से मनुष्य के भौतिकक्लेश दूर हो जाते हैं।
दुरापा ह्ल्पतपस: सेवा बैकुण्ठवर्त्मसु ।
यत्रोपगीयते नित्यं देवदेवो जनार्दन: ॥
२०॥
दुरापा--दुर्लभ; हि--निश्चय ही; अल्प-तपस:--अल्प तपस्या वाले की; सेवा--सेवा; वैकुण्ठ--ईश्वर के धाम के; वर्त्मसु--मार्ग पर; यत्र--जिसमें; उपगीयते--महिमा गाई जाती है; नित्यमू--सदैव; देव--देवताओं के ; देव: --स्वामी; जन-अर्दन:--जीवों के नियन्ता |
जिन लोगों की तपस्या अत्यल्प है वे उन शुद्ध भक्तों की सेवा नहीं कर पाते हैं जो भगवद्धामअर्थात् वैकुण्ठ के मार्ग पर अग्रसर हो रहे होते हैं।
शुद्धभक्त शत प्रतिशत उन परम प्रभु कीमहिमा के गायन में लगे रहते हैं, जो देवताओं के स्वामी तथा समस्त जीवों के नियन्ता हैं।
सृष्ठाग्रे महदादीनि सविकाराण्यनुक्रमात् ।
तेभ्यो विराजमुद्धृत्य तमनु प्राविशद्विभु; ॥
२१॥
सृष्ठा--सृष्टि करके; अग्रे--प्रारम्भ में; महत्-आदीनि--सम्पूर्ण भौतिक शक्ति आदि की; स-विकाराणि--इन्द्रिय विषयों सहित;अनुक्रमात्--विभेदन की क्रमिक विधि द्वारा; तेभ्य:--उसमें से; विराजम्--विराट रूप; उद्धृत्य--प्रकट करके; तम्--उसमें ;अनु--बाद में; प्राविशत्-- प्रवेश किया; विभुः--परमेश्वर ने
सम्पूर्ण भौतिक शक्ति अर्थात् महत् तत्त्व की सृष्टि कर लेने के बाद तथा इन्द्रियों और इन्द्रियविषयों समेत विराट रूप को प्रकट कर लेने पर परमेश्वर उसके भीतर प्रविष्ट हो गये।
यमाहुराद्य॑ पुरुष सहस्त्राइट्यूरूबाहुकम् ।
यत्र विश्व इमे लोकाः सविकाशं त आसते ॥
२२॥
यम्--जो; आहुः--कहलाता है; आद्यम्ू--आदि; पुरुषम्--विराट जगत का अवतार; सहस्त्र--हजार; अड्प्रि--पाँव; ऊरू--जंघाएँ; बाहुकम्--हाथ; यत्र--जिसमें; विश्व: --ब्रह्माण्ड; इमे--ये सब; लोकाः--लोक; स-विकाशम्-- अपने-अपनेविकासों के साथ; ते--वे सब; आसते--रह रहे हैं।
कारणार्णव में शयन करता पुरुष अवतार भौतिक सृष्टियों में आदि पुरुष कहलाता है औरउनके विराट रूप में जिसमें सारे लोक तथा उनके निवासी रहते हैं, उस पुरुष के कई-कई हजारहाथ-पाँव होते हैं।
यस्मिन्द्शविध: प्राण: सेन्द्रियार्थन्द्रियस्त्रिवृत् ।
त्वयेरितो यतो वर्णास्तद्विभूतीर्वदस्व नः ॥
२३॥
यस्मिनू--जिसमें; दश-विध: --दस प्रकार की; प्राण:--प्राणवायु; स--सहित; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अर्थ--रुचि; इन्द्रियः--इन्द्रियों की; त्रि-वृतू--जीवनी शक्ति ( बल ) के तीन प्रकार; त्वया--आपके द्वारा; ईरित:--विवेचित; यत:--जिससे; वर्णा: --चार विभाग; ततू-विभूती:--पराक्रम; वदस्व-- कृपया वर्णन करें; न:--मुझसे |
हे महान् ब्राह्मण, आपने मुझे बताया है कि विराट रूप तथा उनकी इन्द्रियाँ, इन्द्रिय विषयतथा दस प्रकार के प्राण तीन प्रकार की जीवनीशक्ति के साथ विद्यमान रहते हैं।
अब, यदि आपचाहें तो कृपा करके मुझे विशिष्ट विभागों ( वर्णों ) की विभिन्न शक्तियों का वर्णन करें।
यत्र पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभि: सह गोत्रजै: ।
प्रजा विचित्राकृतव आसन्याभिरिदं ततम् ॥
२४॥
यत्र--जिसमें; पुत्रैः--पुत्रों; च--तथा; पौत्रै: --पौत्रों; च-- भी; नप्तृभि:--नातियों; सह--के सहित; गोत्र-जैः--एक हीपरिवार की; प्रजा:--सन््तानें; विचित्र--विभिन्न प्रकार की; आकृतय:--इस तरह से की गई; आसन्ू--है; याभि:--जिससे;इदम्--ये सारे लोक; ततम्--विस्तार करते हैं।
हे प्रभु, मेरे विचार से पुत्रों, पौत्रों तथा परिजनों के रूप में प्रकट शक्ति ( बल ) सारे ब्रह्माण्ड में विभिन्न रूपों तथा योनियों में फैल गयी है।
प्रजापतीनां स पतिश्वक्रिपे कान्प्रजापतीन् ।
सर्गश्चिवानुसर्गाश्च मनून्मन्वन्तराधिपान् ॥
२५॥
प्रजा-पतीनाम्--ब्रह्मा इत्यादि देवताओं के; सः--वह; पतिः--अग्रणी ; चक़िपे--निश्चय किया; कान्--जिस किसी को;प्रजापतीन्--जीवों के पिताओं; सर्गानू--सनन््तानें; च-- भी; एव--निश्चय ही; अनुसर्गान्--बाद की सनन््तानें; च-- भी; मनून्--मनुओं को; मन्वन्तर-अधिपान्--तथा ऐसों के परिवर्तन |
हे विद्वान ब्राह्मण, कृपा करके बतायें कि किस तरह समस्त देवताओं के मुखिया प्रजापतिअर्थात् ब्रह्मा ने विभिन्न युगों के अध्यक्ष विभिन्न मनुओं को स्थापित करने का निश्चय किया।
कृपा करके मनुओं का भी वर्णन करें तथा उन मनुओं की सन््तानों का भी वर्णन करें।
उपर्यधश्च ये लोका भूमेर्मित्रात्मजासते ।
तेषां संस्थां प्रमाणं च भूलोकस्य च वर्णय ॥
२६॥
उपरि--सिर पर; अध: --नीचे; च-- भी; ये--जो; लोका:--लोक; भूमे:--पृथ्बी के; मित्र-आत्मज--हे मित्रा के पुत्र ( मैत्रेयमुनि ); आसते--विद्यमान हैं; तेषामू--उनके; संस्थाम्--स्थिति; प्रमाणम् च--उनकी माप भी; भूः-लोकस्य--पृथ्वी लोकोंका; च--भी; वर्णय--वर्णन कीजिये।
हे मित्रा के पुत्र, कृपा करके इस बात का वर्णन करें कि किस तरह पृथ्वी के ऊपर के तथाउसके नीचे के लोक स्थित हैं और उनकी तथा पृथ्वी लोकों की प्रमाप का भी उल्लेख करें।
तिर्यड्मानुषदेवानां सरीसृपपतत्त्रिणाम् ।
बद नः सर्गसंव्यूहं गार्भस्वेदद्विजोद्धिदाम् ॥
२७॥
तिर्यक्ू--मानवेतर; मानुष--मानव प्राणी; देवानामू--अतिमानव प्राणियों या देवताओं का; सरीसृप--रेंगने वाले प्राणी;पतत्रिणाम्--पक्षियों का; वद--कृपया वर्णन करें; न:--मुझसे; सर्ग--उत्पत्ति; संव्यूहमू--विशिष्ट विभाग; गार्भ--गर्भस्थ;स्वेद--पसीना; ट्विज--द्विजन्मा; उद्धिदामू--लोकों आदि का।
कृपया जीवों का विभिन्न विभागों के अन्तर्गत यथा मानवेतर, मानव, भ्रूण से उत्पन्न, पसीनेसे उत्पन्न, द्विजन्मा ( पक्षी ) तथा पौधों एवं शाकों का भी वर्णन करें।
कृपया उनकी पीढ़ियों तथाउपविभाजनों का भी वर्णन करें।
गुणावतारेर्विश्वस्य सर्गस्थित्यप्यया भ्रयम् ।
सृजत: श्रीनिवासस्य व्याचक्ष्वोदारविक्रमम् ॥
२८ ॥
गुण--प्रकृति के गुणों के; अवतारैः--अवतारों का; विश्वस्य--ब्रह्माण्ड के; सर्ग--सृष्टि; स्थिति--पालन; अप्यय--संहार;आश्रयम्--तथा चरम विश्राम; सृजतः--स्त्रष्टा का; श्रीनिवासस्थ-- भगवान् का; व्याचक्ष्व--कृपया वर्णन करें; उदार--उदार;विक्रमम्--विशिष्ट कार्यकलाप |
कृपया प्रकृति के गुणावतारों-ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर-का भी वर्णन करें।
कृपया पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् के अवतार तथा उनके उदार कार्यकलापों का भी वर्णन करें।
वर्णाश्रमविभागां श्र रूपशीलस्वभावत: ।
ऋषीणां जन्मकर्माणि वेदस्य च विकर्षणम् ॥
२९॥
वर्ण-आश्रम--सामाजिक पदों तथा आध्यात्मिक संस्कृति के चार विभाग; विभागान्ू--पृथक् -पृथक् विभागों; च--भी;रूप--निजी स्वरूप; शील-स्वभावत: --निजी चरित्र; ऋषीणाम्--ऋषियों के; जन्म--जन्म; कर्माणि--कार्यकलाप;वेदस्य--वेदों के; च--तथा; विकर्षणम्--कोटियों में विभाजन
हे महर्षि, कृपया मानव समाज के वर्णों तथा आश्रमों के विभाजनों का वर्णन उनकेलक्षणों, स्वभाव तथा मानसिक संतुलन एवं इन्द्रिय नियंत्रण के स्वरूपों के रूप के अनुसारकरें।
कृपया महर्षियों के जन्म तथा वेदों के कोटि-विभाजनों का भी वर्णन करें।
यज्ञस्थ च वितानानि योगस्य च पथः प्रभो ।
नैष्कर्म्यस्थ च साड्ख्यस्य तन्त्रं वा भगवत्स्पृतम् ॥
३०॥
यज्ञस्य--यज्ञों का; च--भी; वितानानि--विस्तार; योगस्थ--योग शक्ति का; च-- भी; पथ:--मार्ग; प्रभो-हे प्रभु;नैष्कर्म्यस्थ--ज्ञान का; च--तथा; साड्ख्यस्य--वैश्लेषिक अध्ययन का; तन्त्रमू--भक्ति का मार्ग; वा--तथा; भगवत्--भगवान् के सम्बन्ध में; स्मृतम्ू--विधि-विधान |
कृपया विभिन्न यज्ञों के विस्तारों तथा योग शक्तियों के मार्गों, ज्ञान के वैश्लेषिक अध्ययन( सांख्य ) तथा भक्ति-मय सेवा का उनके विधि-विधानों सहित वर्णन करें।
'पाषण्डपथवैषम्यं प्रतिलोमनिवेशनम् ।
जीवस्य गतयो याश्व यावतीर्गुणकर्मजा: ॥
३१॥
पाषण्ड-पथ--अश्रद्धा का मार्ग; वैषम्यम्-विरोध के द्वारा अपूर्णता; प्रतिलोम--वर्णसंकर; निवेशनम्--स्थिति; जीवस्थ--जीवों की; गतयः--गतिविधियाँ; या: --वे जैसी हैं; च-- भी; यावती:--जितनी; गुण-- भौतिक प्रकृति के गुण; कर्म-जा:--विभिन्न प्रकार के कर्म से उत्पन्न
कृपया श्रद्धाविहीन नास्तिकों की अपूर्णताओं तथा विरोधों का, वर्णसंकरों की स्थिति तथाविभिन्न जीवों के प्राकृतिक गुणों तथा कर्म के अनुसार विभिन्न जीव-योनियों की गतिविधियोंका भी वर्णन करें।
धर्मार्थकाममोक्षाणां निमित्तान्यविरोधतः ।
वार्ताया दण्डनीतेश्व श्रुतस्य च विधि पृथक् ॥
३२॥
धर्म--धार्मिकता; अर्थ--आर्थिक विकास; काम--इन्द्रियतृप्ति; मोक्षाणाम्--मोक्ष के; निमित्तानि--कारण; अविरोधत:--बिना विरोध के; वार्ताया:--जीविका के साधनों के सिद्धान्तों पर; दण्ड-नीतेः --कानून तथा व्यवस्था का; च-- भी; श्रुतस्थ--शास्त्र संहिता का; च-- भी; विधिम्ू--नियम; पृथक्--विभिन्न |
आप धर्म, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृष्ति तथा मोक्ष के परस्पर विरोधी कारणों का और उसीके साथ जीविका के विभिन्न साधनों, विधि की विभिन्न विधियों तथा शास्त्रों में उल्लिखितव्यवस्था का भी वर्णन करें।
श्राद्धस्य च विधि ब्रह्मन्पितृणां सर्गमेव च ।
ग्रहनक्षत्रताराणां कालावयवसंस्थितिम् ॥
३३॥
श्राद्धस्य--समय-समय पर सम्मानसूचक भेंटों का; च-- भी; विधिम्--नियम; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; पितृणाम्--पूर्वजों की;सर्गम्ू--सृष्टि; एब--जिस तरह; च--भी; ग्रह--ग्रह प्रणाली; नक्षत्र--तारे; ताराणाम्--ज्योतिपिण्डों; काल--समय;अवयव-- अवधि; संस्थितिम्--स्थितियाँ
कृपा करके पूर्वजों के श्राद्ध के विधि-विधानों, पितृलोक की सृष्टि, ग्रहों, नक्षत्रों तथातारकों के काल-विधान तथा उनकी अपनी-अपनी स्थितियों के विषय में भी बतलाएँ।
दानस्य तपसो वापि यच्चेष्टापूर्तयो: फलम् ।
प्रवासस्थस्य यो धर्मो यश्च पुंस उतापदि ॥
३४॥
दानस्य--दान का; तपसः--तपस्या का; वापि--बावड़ी; यत्--जो; च--तथा; इष्टा-- प्रयास; पूर्तयो: --जलाशयों का;'फलम्--सकाम फल; प्रवास-स्थस्य--घर से दूर रहने वाले का; य:ः--जो; धर्म:--कर्तव्य; यः च--और जो; पुंस:--मनुष्यका; उत--वर्णित; आपदि--आपत्ति में
कृपया दान तथा तपस्या का एवं जलाशय खुदवाने के सकाम फलों का भी वर्णन करें।
कृपया घर से दूर रहने वालों की स्थिति का तथा आपदग्रस्त मनुष्य के कर्तव्य का भी वर्णनकरें।
येन वा भगवांस्तुष्येद्धर्मयोनिर्जनार्दन: ।
सम्प्रसीदति वा येषामेतदाख्याहि मेडनघ ॥
३५॥
येन--जिससे; वा--अथवा; भगवान्-- भगवान्; तुष्येत्--तुष्ट होता है; धर्म-योनि:--समस्त धर्मों का पिता; जनार्दन:--सारेजीवों का नियन्ता; सम्प्रसीदति--पूर्णतया तुष्ट होता है; वा--अथवा; येषाम्ू--जिनका; एतत्--ये सभी; आख्याहि--कृपयावर्णन करें; मे-- मुझसे; अनघ--हे निष्पाप पुरुष
हे निष्पाप पुरुष, चूँकि समस्त जीवों के नियन्ता भगवान् समस्त धर्मों के तथा धार्मिक कर्मकरने वाले समस्त लोगों के पिता हैं, अतएव कृपा करके इसका वर्णन कीजिये कि उन्हें किसप्रकार पूरी तरह से तुष्ट किया जा सकता है।
अनुव्रतानां शिष्याणां पुत्राणां च द्विजोत्तम ।
अनापृष्टमपि ब्रूयुर्गुर॒वो दीनवत्सला: ॥
३६॥
अनुव्रतानाम्--अनुयायियों के; शिष्याणाम्--शिष्यों के; पुत्राणाम्ू--पुत्रों के; च-- भी; द्विज-उत्तम-हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ;अनापृष्टमू--अनपूछा; अपि-- भी; ब्रूयु:--कृपया वर्णन करें; गुरवः--गुरुजन; दीन-वत्सला:--दीनों के प्रति कृपालुहे ब्राह्मणश्रेष्ठ, जो गुरुजन हैं, वे दीनों पर अत्यन्त कृपालु रहते हैं।
वे अपने अनुयायियों,शिष्यों तथा पुत्रों के प्रति सदैव कृपालु होते हैं और उनके द्वारा बिना पूछे ही सारा ज्ञान प्रदानकरते हैं।
तत्त्वानां भगवंस्तेषां कतिधा प्रतिसड्क्रम: ।
तत्रेमं क उपासीरन्क उ स्विदनुशेरते ॥
३७॥
तत्त्वानाम्ू--प्रकृति के तत्त्वों का; भगवनू्--हे महर्षि; तेषामू--उनके; कतिधा--कितने; प्रतिसड्क्रम:--प्रलय; तत्र--वहाँ;इमम्-- भगवान् को; के --वे कौन हैं; उपासीरनू--बचाया जाकर; के--वे कौन हैं; उ--जो; स्वित्--कर सकती है;अनुशेरते-- भगवान् के शयन करते समय सेवा।
कृपया इसका वर्णन करें कि भौतिक प्रकृति के तत्त्वों का कितनी बार प्रलय होता है औरइन प्रलयों के बाद जब भगवान् सोये रहते हैं उन की सेवा करने के लिए कौन जीवित रहता है?
पुरुषस्य च संस्थान स्वरूपं वा परस्थ च ।
ज्ञानं च नैगमं यत्तदगुरुशिष्यप्रयोजनम् ॥
३८॥
पुरुषस्थ--जीव का; च--भी; संस्थानम्--अस्तित्व; स्वरूपम्--पहचान; वा--या; परस्थय--परम का; च-- भी; ज्ञामम्--ज्ञान; च--भी; नैगमम्--उपनिषदों के विषय में; यत्--जो; तत्ू--वही; गुरु--गुरु; शिष्य--शिष्य; प्रयोजनम्-- अनिवार्यता |
जीवों तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विषय में क्या क्या सच्चाइयाँ हैं ? उनके स्वरूप क्याक्या हैं? वेदों में ज्ञान के क्या विशिष्ट मूल्य हैं और गुरु तथा उसके शिष्यों की अनिवार्यताएँ क्याहैं?
निमित्तानि च तस्येह प्रोक्तान्यनघसूरिभि: ।
स्वतो ज्ञानं कुतः पुंसां भक्तिवैराग्यमेव वा ॥
३९॥
निमित्तानि--ज्ञान का स्त्रोत; च-- भी; तस्य--ऐसे ज्ञान का; इह--इस संसार में; प्रोक्तानि-- कहे गये; अनध--निष्कलंक;सूरिभिः--भक्तों द्वारा; स्वत:ः--आत्म-निर्भर; ज्ञाममू--ज्ञान; कुतः--कैसे; पुंसामू--जीव का; भक्ति: --भक्ति; वैराग्यम्ू--विरक्ति; एव--निश्चय ही; वा--भी |
भगवान् के निष्कलुष भक्तों ने ऐसे ज्ञान के स्त्रोत का उल्लेख किया है।
ऐसे भक्तों कीसहायता के बिना कोई व्यक्ति भला किस तरह भक्ति तथा वैराग्य के ज्ञान को पा सकता है?
एतान्मे पृच्छतः प्रशनानहरे: कर्मविवित्सया ।
ब्रृहि मेउज्ञस्य मित्र॒त्वादजया नष्टचक्षुष: ॥
४०॥
एतानू--ये सारे; मे--मेरे; पृच्छत: -- पूछने वाले के; प्रश्नान्-- प्रश्नों को; हरेः-- भगवान् की; कर्म--लीलाएँ; विवित्सया--जानने की इच्छा करते हुए; ब्रूहि--कृपया वर्णन करें; मे-- मुझसे; अज्ञस्थ--अज्ञानी की; मित्रत्वातू-मित्रता के कारण;अजया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; नष्ट-चक्षुष:--वे जिनकी दृष्टि नष्ट हो चुकी है।
हे मुनि, मैंने आपके समक्ष इन सारे प्रश्नों को अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हरि कीलीलाओं को जानने के उद्देश्य से ही रखा है।
आप सबों के मित्र हैं, अतएव कृपा करके उन सबोंके लाभार्थ जिनकी दृष्टि नष्ट हो चुकी हैं उनका वर्णन करें।
सर्वे वेदाश्व यज्ञाश्न तपो दानानि चानघ ।
जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन््कलामपि ॥
४१॥
सर्वे--सभी तरह के; वेदा:ः--वेदों के विभाग; च-- भी; यज्ञा:--यज्ञ; च-- भी; तप:--तपस्याएँ; दानानि--दान; च--तथा;अनघ--हे निष्कलुष; जीव--जीव; अभय--भौतिक पीड़ाओं से मुक्ति; प्रदानस्य--ऐसा आश्वासन देने वाले का; न--नहीं;कुर्वीरनू--बराबरी की जा सकती है; कलाम्ू--अंशतः भी; अपि--निश्चय ही
हे अनघ, इन सरे प्रश्नों के आप के द्वारा दिए जाने वाले उत्तर समस्त भौतिक कष्टों से मुक्ति दिला सकेंगे।
ऐसा दान समस्त वैदिक दानों, यज्ञों, तपस्याओं इत्यादि से बढ़कर है।
श्रीशुक उवाचस इत्थमापृष्टपुराणकल्पः कुरुप्रधानेन मुनिप्रधान: ।
प्रवृद्धर्षो भगवत्कथायां सद्जोदितस्तं प्रहसन्निवाह ॥
४२॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; सः--वह; इत्थम्--इस प्रकार; आपृष्ट-- पूछे जाने पर; पुराण-कल्प:--जोबेदों के पूरकों ( पुराणों ) की व्याख्या करना जानता है; कुरु-प्रधानेन--कुरुओं के प्रधान द्वारा; मुनि-प्रधान:--प्रमुख मुनि;प्रवृद्ध-पर्याप्त रूप से समृद्ध; हर्ष:--सन्तोष; भगवत्-- भगवान् की; कथायाम्--कथाओं में; सज्ञोदित:--इस तरह प्रेरितहोकर; तम्--विदुर को; प्रहसन्--हँसते हुए; इब--मानो; आह--उत्तर दिया।
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह वे मुनियों में-प्रधान, जो भगवान् विषयक कथाओंका वर्णन करने के लिए सदैव उत्साहित रहते थे, विदुर द्वारा इस तरह प्रेरित किये जाने परपुराणों की विवरणात्मक व्याख्या का बखान करने लगे।
वे भगवान् के दिव्य कार्यकलापों केविषय में बोलने के लिए अत्यधिक उत्साहित थे।
अध्याय आठ: गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा की अभिव्यक्ति
3.8मैत्रेय उवाचसत्सेवनीयो बत पूरुवंशोयल्लोकपालो भगवत्प्रधान:।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालांपदे पदे नूतनयस्यभीक्षणम् ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच-- श्रीमैत्रेय मुनि ने कहा; सत्-सेवनीय:--शुद्ध भक्तों की सेवा करने का पात्र; बत--ओह, निश्चय ही; पूरू-बंश:--राजा पूरु का वंश; यत्--क्योंकि; लोक-पाल:--राजा हैं; भगवत्-प्रधान:-- भगवान् के प्रति मुख्य रूप से अनुरक्त;बभूविथ--तुम भी उत्पन्न थे; हह--इसमें; अजित--अजेय भगवान्; कीर्ति-मालाम्--दिव्य कार्यों की श्रृंखला; पदे पदे--प्रत्येक पग पर; नूतनयसि--नवीन से नवीनतर बनते हो; अभीक्ष्णमम्--सदैव।
महा-मुनि मैत्रेय ने विदुर से कहा : राजा पूरु का राजवंश शुद्ध भक्तों की सेवा करने केलिए योग्य है, क्योंकि उस वंश के सारे उत्तराधिकारी भगवान् के प्रति अनुरक्त हैं।
तुम भी उसीकुल में उत्पन्न हो और यह आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे प्रयास से भगवान् की दिव्य लीलाएँप्रतिक्षण नूतन से नूतनतर होती जा रही हैं।
सोउहं नृणां क्षुल्लसुखाय दु:खंमहदगतानां विरमाय तस्य ।
प्रवर्तये भागवतं पुराणं यदाह साक्षाद्धगवानृषि भ्य: ॥
२॥
सः--वह; अहम्-मैं; नृणाम्--मनुष्यों के; क्षुलल--अत्यल्प; सुखाय--सुख के लिए; दुःखम्--दुख; महत्-- भारी;गतानाम्-को प्राप्त; विरमाय--शमन हेतु; तस्थ--उसका; प्रवर्तये--प्रारम्भ में; भागवतम्-- श्रीमद्भागवत; पुराणम्--पुराणमें; यत्ू--जो; आह--कहा; साक्षात्--प्रत्यक्ष; भगवानू-- भगवान् ने; ऋषिभ्य:--ऋषियों से |
अब मैं भागवत पुराण से प्रारम्भ करता हूँ जिसे भगवान् ने प्रत्यक्ष रूप से महान् ऋषियों सेउन लोगों के लाभार्थ कहा था, जो अत्यल्प आनन्द के लिए अत्यधिक कष्ट में फँसे हुए हैं।
आसीनमुर्व्या भगवन्तमाद्यंसड्डूर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम् ।
विवित्सवस्तत्त्वमत: परस्यकुमारमुख्या मुनयोउन्वपृच्छन् ॥
३॥
आसीनमू--विराजमान; उर्व्याम्-ब्रह्माण्ड की तली पर; भगवन्तम्-- भगवान् को; आद्यम्ू--आदि; सद्डूर्षणम्--संकर्षण को;देवम्--भगवान्; अकुण्ठ-सत्त्वम्--अबाध ज्ञान; विवित्सव: --जानने के लिए उत्सुक; तत्त्वम् अत:--इस प्रकार का सत्य;परस्य-- भगवान् के विषय में; कुमार--बाल सन्त; मुख्या: --इत्यादि, प्रमुख; मुनयः--मुनियों ने; अन्वपृच्छन्ू--इसी तरह सेपूछा
कुछ काल पूर्व तुम्हारी ही तरह कुमार सन्तों में प्रमुख सनत् कुमार ने अन्य महर्षियों के साथ जिज्ञासावश ब्रह्माण्ड की तली में स्थित भगवान् संकर्षण से भगवान् वासुदेव विषयक सत्यों केबारे में पूछा था।
स्वमेव धिष्ण्यं बहु मानयन्तंयद्वासुदेवाभिधमामनन्ति ।
प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीषद्उन्मीलयन्तं विबुधोदयाय ॥
४॥
स्वमू-स्वयं; एब--इस प्रकार; धिष्ण्यमू--स्थित; बहु--अत्यधिक; मानयन्तम्--माननीय; यत्--जो; वासुदेव-- भगवान्वासुदेव; अभिधम्-- नामक; आमनन्ति-- स्वीकार करते हैं; प्रत्यकू-धृत-अक्ष-- भीतर झाँकने के लिए टिकी आँखें; अम्बुज-कोशम्--कमल सहश नेत्र; ईषघत्--कुछ-कुछ; उनन््मीलयन्तम्--खुली हुईं; विबुध--अत्यन्त विद्वान ऋषियों की; उदयाय--प्रगति के लिए
उस समय भगवान् संकर्षण अपने परमेश्वर का ध्यान कर रहे थे जिन्हें विद्वज्नन भगवान्वासुदेव के रूप में सम्मान देते हैं।
किन्तु महान् पंडित मुनियों की उन्नति के लिए उन्होंने अपनेकमलवत् नेत्रों को कुछ-कुछ खोला और बोलना शुरू किया।
स्वर्धुन्युदाद्रं: स््वजटाकलापै-रुपस्पृशन्तश्चरणोपधानम् ।
पद्म यरदर्चन्त्यहिराजकन्या:सप्रेम नानाबलिभिववरार्था: ॥
५॥
स्वर्धुनी-उद--गंगा के जल से; आर्द्रै:-- भीगे हुए; स्व-जटा--बालों का गुच्छा; कलापै: --सिर पर स्थित; उपस्पृशन्तः--इसतरह छूने से; चरण-उपधानम्--उनके चरणों की शरण; पद्मम्ू--कमल चरण; यत्--जो; अर्चन्ति--पूजा करते हैं; अहि-राज--सर्पों का राजा; कन्या: --पुत्रियाँ; स-प्रेम--अतीव भक्ति समेत; नाना--विविध; बलिभि:--साज-सामग्री द्वारा; बर-अर्था:--पतियों की इच्छा से।
चूँकि मुनिगण गंगानदी के माध्यम से उच्चतर लोकों से निम्नतर भाग में आये थे,फलस्वरूप उनके सिर के बाल भीगे हुए थे।
उन्होंने भगवान् के उन चरणकमलों का स्पर्श कियाजिनकी पूजा नागराज की कन्याओं द्वारा अच्छे पति की कामना से विविध सामग्री द्वारा की" जाती है।
मुहुर्गुणन्तो बचसानुराग-स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञा: ।
किरीटसाहस्त्रमणिप्रवेकप्रद्योतितोद्यमफणासहस्त्रमू ॥
६॥
मुहुः--बार बार; गृणन्त:--गुणगान करते; वचसा--शब्दों से; अनुराग--अतीव स्नेह से; स्खलत्ू-पदेन--सम लय के साथ;अस्य--भगवान् के; कृतानि--कार्यकलाप; तत्-ज्ञाः:--लीलाओं के जानने वाले; किरीट--मुकुट; साहस्त्र--हजारों; मणि-प्रवेक--मणियों के चमचमाते तेज; प्रद्योतित--उद्भासित; उद्याम--उठे हुए; फणा--फन; सहस्त्रमू--हजारों |
सनत् कुमार आदि चारों कुमारों ने जो भगवान् की दिव्य लीलाओं के विषय में सब कुछजानते थे, स्नेह तथा प्रेम से भरे चुने हुए शब्दों से लय सहित भगवान् का गुणगान किया।
उससमय भगवान् संकर्षण अपने हजारों फनों को उठाये हुए अपने सिर की चमचमाती मणियों सेतेज बिखेरने लगे।
प्रोक्त किलैतद्धगवत्तमेननिवृत्तिधर्माभिरताय तेन ।
सनत्कुमाराय स चाह पृष्ठ:साड्ख्यायनायाडु धृतब्रताय ॥
७॥
प्रोक्तमू--कहा गया था; किल--निश्चय ही; एतत्--यह; भगवत्तमेन-- भगवान् संकर्षण द्वारा; निवृत्ति--वैराग्य; धर्म-अभिरताय--इस धार्मिक ब्रत को धारण करने वाले के लिए; तेन--उसके द्वारा; सनत्-कुमाराय--सनत् कुमार को; सः--उसने; च-- भी; आह--कहा; पृष्ट: --पूछे जाने पर; साड्ख्यायनाय--सांख्यायन नामक महर्षि को; अड्--हे विदुर; धृत-ब्रताय--ब्रत धारण करने वाले को |
इस तरह भगवान् संकर्षण ने उन महर्षि सनत्कुमार से श्रीमद्भागवत का भावार्थ कहाजिन्होंने पहले से वैराग्य का व्रत ले रखा था।
सनत्कुमार ने भी अपनी पारी में सांख्यायन मुनिद्वारा पूछे जाने पर श्रीमद्भागवत को उसी रूप में बतलाया जिस रूप में उन्होंने संकर्षण से सुनाथा।
साड्ख्यायनः पारमहंस्यमुख्यो विवक्षमाणो भगवद्विभूती: ।
जगाद सोस्मदगुरवेडन्वितायपराशरायाथ बृहस्पतेश्व ॥
८ ॥
साइ्ख्यायन:--महर्षि सांख्यायन; पारमहंस्य-मुख्य:--समस्त अध्यात्मवादियों में प्रमुख; विवक्षमाण:--बाँचते समय; भगवत्ू-विभूती:-- भगवान् की महिमाएँ; जगाद--बतलाया; सः--उसने; अस्मत्--मेरे; गुरवे--गुरु को; अन्विताय--अनुसरण किया;'पराशराय--पराशर मुनि के लिए; अथ बृहस्पतेः च--बृहस्पति को भी
सांख्यायन मुनि अध्यात्मवादियों में प्रमुख थे और जब वे श्रीमद्भागवत के शब्दों में भगवान्की महिमाओं का वर्णन कर रहे थे तो ऐसा हुआ कि मेरे गुरु पराशर तथा बृहस्पति दोनों नेउनको सुना।
प्रोवाच मह्यं स दयालुरुक्तोमुनि: पुलस्त्येन पुराणमाद्यम् ।
सोहं तवैतत्कथयामि वत्सश्रद्धालवे नित्यमनुत्रताय ॥
९॥
प्रोवाच--कहा; महाम्--मुझसे; सः-- उसने; दयालु:--दयालु; उक्त: --उपर्युक्त; मुनि:--मुनि; पुलस्त्येन--पुलस्त्य मुनि से;पुराणम् आद्यम्--समस्त पुराणों में अग्रगण्य; सः अहम्--और वह भी मैं; तब--तुम से; एतत्--यह; कथयामि--कहता हूँ;बत्स--पुत्र; श्रद्धालवे-- श्रद्धालु के लिए; नित्यमू--सदैव; अनुब्रताय-- अनुयायी के लिए
जैसा कि पहले कहा जा चुका है महर्षि पराशर ने महर्षि पुलस्त्य के द्वारा कहे जाने पर मुझेअग्रगण्य पुराण ( भागवत ) सुनाया।
हे पुत्र, जिस रूप में उसे मैंने सुना है उसी रूप में में तुम्हारेसम्मुख उसका वर्णन करूँगा, क्योंकि तुम सदा ही मेरे श्रद्धालु अनुयायी रहे हो।
जज फुत क्जलानचाज पजारएएणजयन्निद्रयामीलितहृड्न्यमीलयत् ।
अहीन्द्रतल्पेदधिशयान एक:कृतक्षण: स्वात्मरतौ निरीह: ॥
१०॥
उद--जल में; आप्लुतम्--डूबे, निमग्न; विश्वम्--तीनों जगतों को; इृदमू--इस; तदा--उस समय; आसीत्--यह इसी तरह था;यत्--जिसमें; निद्रया--नींद में; अमीलित--बन्द की; हक्--आँखें; न््यमीलयत्--पूरी तरह से बन्द नहीं; अहि-इन्द्र--महान्सर्प अनन्त; तल्पे--शय्या में; अधिशयान:--लेटे हुए; एक:--एकाकी; कृत-क्षण:--व्यस्त; स्व-आत्म-रतौ--अपनी अन्तरंगाशक्ति का आनन्द लेते; निरीह:--बहिरंगा शक्ति के किसी अंश के बिना।
उस समय जब तीनों जगत जल में निमग्न थे तो गर्भोदकशायी विष्णु महान् सर्प अनन्त कीअपनी शय्या में अकेले लेटे थे।
यद्यपि वे अपनी निजी अन्तरंगा शक्ति में सोये हुए लग रहे थेऔर बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से मुक्त थे, किन्तु उनकी आँखें पूर्णतया बन्द नहीं थीं।
सोउन्तः शरीरेउर्पितभूतसूक्ष्म:कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाण: ।
उवास तस्मिन्सलिले पदे स्वेयथानलो दारुणि रुद्धवीर्य: ॥
११॥
सः--भगवान्; अन्तः-- भीतर; शरीरे--दिव्य शरीर में; अर्पित-- रखा हुआ; भूत-- भौतिक तत्त्व; सूक्ष्म: --सूक्ष्म; काल-आत्मिकाम्ू--काल का स्वरूप; शक्तिमू--शक्ति; उदीरयाण:--अर्जित करते हुए; उबास--निवास किया; तस्मिन्--उस में;सलिले--जल में; पदे--स्थान में; स्वे--निजी; यथा--जिस तरह; अनलः--अग्नि; दारुणि--लक ड़ी में; रुद्ध-वीर्य:--लीनशक्ति
जिस तरह ईंधन के भीतर अग्नि की शक्ति छिपी रहती है उसी तरह भगवान् समस्त जीवोंको उनके सूक्ष्म शरीरों में लीन करते हुए प्रलय के जल के भीतर पड़े रहे।
वे काल नामक स्वतःअर्जित शक्ति में लेटे हुए थे।
चतुर्युगानां च सहस्त्रमप्सुस्वपन्स्वयोदीरितया स्वशकत्या ।
कालाख्ययासादितकर्मतन्त्रोलोकानपीतान्दहृशे स्वदेहे ॥
१२॥
चतुः--चार; युगानाम--युगों के; च-- भी; सहस्त्रमू--एक हजार; अप्सु--जल में; स्वपन्ू--निद्रा में स्वप्न देखते हुए; स्वया--अपनी अन्तरंगा शक्ति के साथ; उदीरितया--आगे विकास के लिए; स्व-शकत्या--अपनी निजी शक्ति से; काल-आख्यया--काल नाम से; आसादित--इस तरह व्यस्त रहते हुए; कर्म-तन्त्र:ः--सकाम कर्मो के मामले में; लोकान्--सारे जीवों को;अपीतान्ू--नीलाभ; ददहशे-- देखा; स्व-देहे -- अपने ही शरीर में |
भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति में चार हजार युगचक्रों तक लेटे रहे और अपनी बहिरंगाशक्ति से जल के भीतर सोते हुए प्रतीत होते रहे।
जब सारे जीव कालशक्ति द्वारा प्रेरित होकरअपने सकाम कर्मों के आगे के विकास के लिए बाहर आ रहे थे तो उन्होंने अपने दिव्य शरीर कोनीले रंग का देखा।
तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्ट दृष्टेरअन्तर्गतो$र्थो रजसा तनीयान् ।
गुणेन कालानुगतेन विद्धःसूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात् ॥
१३॥
तस्य--उसका; अर्थ--विषय; सूक्ष्म--सूक्ष्म; अभिनिविष्ट-दृष्टे:--जिसका ध्यान स्थिर किया गया था, उसका; अन्त:-गत:--आन्तरिक; अर्थ: -- प्रयोजन; रजसा--रजोगुण से; तनीयान्--अत्यन्त सूक्ष्म; गुणेन--गुणों के द्वारा; काल-अनुगतेन--कालक्रम में; विद्ध:ः--श्षुब्ध किया गया; सूष्यन्--उत्पन्न करते हुए; तदा--तब; अभिद्यत--वेध दिया; नाभि-देशात्--उदर से |
सृष्टि का सूक्ष्म विषय-तत्व, जिस पर भगवान् का ध्यान टिका था, भौतिक रजोगुण द्वाराविश्षुब्ध हुआ।
इस तरह से सृष्टि का सूक्ष्म रूप उनके उदर ( नाभि ) से बाहर निकल आया।
स पद्यकोशः सहसोदतिष्ठत्कालेन कर्मप्रतिबोधनेन ।
स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालंविद्योतयन्नर्क इवात्मयोनि: ॥
१४॥
सः--वह; पढ-कोश:--कमल के फूल की कली; सहसा--एकाएक; उदतिष्ठत्-- प्रकट हुई; कालेन--काल के द्वारा;कर्म--सकाम कर्म; प्रतिबोधनेन--जगाते हुए; स्व-रोचिषा-- अपने ही तेज से; तत्ू--वह; सलिलम्--प्रलय का जल;विशालम्--अपार; विद्योतवन्--प्रकाशित करते हुए; अर्क:--सूर्य; इब--सहृश; आत्म-योनि:--विष्णु से उत्पन्न |
जीवों के सकाम कर्म के इस समग्र रूप ने भगवान् विष्णु के शरीर से प्रस्फुटित होते हुएकमल की कली का स्वरूप धारण कर लिया।
फिर उनकी परम इच्छा से इसने सूर्य की तरह हरवस्तु को आलोकित किया और प्रलय के अपार जल को सुखा डाला।
तल्लोकपदां स उ एव विष्णु:प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम् ।
तस्मिन्स्वयं वेदमयो विधातास्वयम्भुवं यं सम वदन्ति सोभूत् ॥
१५॥
तत्--उस; लोक--ब्रह्माण्ड के; पढ्ममू--कमल को; सः--वह; उ--निश्चय ही; एब--वस्तुत: ; विष्णु: -- भगवान्;प्रावीविशत्-- भीतर घुसा; सर्व--समस्त; गुण-अवभासम्--समस्त गुणों का आगार; तस्मिन्--जिसमें; स्वयम्--खुद; बेद-मयः--साक्षात् वैदिक; विधाता--ब्रह्माण्ड का नियंत्रक; स्वयम्-भुवम्--स्वतः उत्पन्न; यमू--जिसको; स्म--भूतकाल में;बदन्ति--कहते हैं; सः--वह; अभूत्--उत्पन्न हुआ |
उस ब्रह्माण्डमय कमल पुष्प के भीतर भगवान् विष्णु परमात्मा रूप में स्वयं प्रविष्ट हो गयेऔर जब यह इस तरह भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों से गर्भित हो गया तो साक्षात् वैदिक ज्ञानउत्पन्न हुआ जिसे हम स्वयंभुव ९ ब्रह्मा ) कहते हैं।
तस्यां स चाम्भोरुहकर्णिकाया-मवस्थितो लोकमपश्यमान: ।
परिक्रमन्व्योम्नि विवृत्तनेत्र-श्वत्वारि लेभेडनुदिशं मुखानि ॥
१६॥
तस्याम्ू--उसमें; सः--वे; च--तथा; अम्भ: --जल; रुह-कर्णिकायाम्--कमल का कोश; अवस्थित:--स्थित हुआ;लोकमू्--जगत; अपश्यमान:--देख पाये बिना; परिक्रमन्--परिक्रमा करते हुए; व्योग्नि--आकाश में; विवृत्त-नेत्र: --आँखेचलाते हुए; चत्वारि--चार; लेभे--प्राप्त किये; अनुदिशम्--दिशाओं के रूप में; मुखानि--सिर।
कमल के फूल से उत्पन्न हुए ब्रह्मा जगत को नहीं देख सके यद्यपि वे कोश में स्थित थे।
अतः उन्होंने सारे अन्तरिक्ष की परिक्रमा की और सभी दिशाओं में अपनी आँखें घुमाते समयउन्होंने चार दिशाओं के रूप में चार सिर प्राप्त किये।
तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण-जलोर्मिचक्रात्सलिलाद्विरूढम् ।
उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वंनात्मानमद्धाविददादिदेव: ॥
१७॥
तस्मात्ू--वहाँ से; युग-अन्त--युग के अन्त में; श्रसन--प्रलय की वायु; अवधूर्ण--गति के कारण; जल--जल; ऊर्मि-चक्रात्-- भँवरों में से; सलिलात्--जल से; विरूढम्--उन पर स्थित; उपाभ्रित:--आश्रय के रूप में; कञ्ममू--कमल के फूलको; उ--आश्चर्य में; लोक-तत्त्वम्--सृष्टि का रहस्य; न--नहीं; आत्मानम्--स्वयं को; अद्धा--पूर्णरूपेण; अविदत्--समझसका; आदि-देव:--प्रथम देवता ।
उस कमल पर स्थित ब्रह्मा न तो सृष्टि को, न कमल को, न ही अपने आपको भलीभाँतिसमझ सके ।
युग के अन्त में प्रलय वायु जल तथा कमल को बड़ी-बड़ी भँवरों में हिलाने लगी।
कक एष योसावहमब्जपृष्ठएतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु ।
अस्ति हाधस्तादिह किड्जनैत-दथिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम् ॥
१८॥
कः--कौन; एष: --यह; यः असौ अहम्--जो मैं हूँ; अब्ज-पृष्ठे--कमल के ऊपर; एतत्--यह; कुतः--कहाँ से; वा-- अथवा;अब्जमू--कमल का फूल; अनन्यत्--अन्यथा; अप्सु--जल में; अस्ति-- है; हि--निश्चय ही; अधस्तात्--नीचे से; इह--इस में;किज्लन--कुछ भी; एतत्--यह; अधिष्ठितम्--स्थित; यत्र--जिसमें; सता--स्वत:; नु--या नहीं; भाव्यम्ू--होना चाहिए
ब्रह्माजी ने अपनी अनभिज्ञता से विचार किया : इस कमल के ऊपर स्थित मैं कौन हूँ? यह( कमल ) कहाँ से फूटकर निकला है? इसके नीचे कुछ अवश्य होना चाहिए और जिससे यहकमल निकला है उसे जल के भीतर होना चाहिए।
स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल-नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश ।
नार्वग्गतस्तत्खरनालनाल-नाभि विचिन्व॑ंस्तदविन्दताज: ॥
१९॥
सः--वह ( ब्रह्मा ); इत्थम्--इस प्रकार से; उद्दीक्ष्य--विचार करके; तत्ू--वह; अब्जन--कमल; नाल--डंठल; नाडीभि:--नली द्वारा; अन्त:-जलम्--जल के भीतर; आविवेश--घुस गया; न--नहीं; अर्वाकु-गत:-- भीतर जाने के बावजूद; तत्-खर-नाल--कमल-नाल; नाल--नली; नाभिमू--नाभि की; विचिन्वन्--सोचते हुए; तत्--वह; अविन्दत--समझ गया; अजः--स्वयंभुव।
इस तरह विचार करते हुए ब्रह्मजी कमल नाल के र्ध्रों ( छिद्रों) से होकर जल के भीतरप्रविष्ट हुए।
किन्तु नाल में प्रविष्ट होकर तथा विष्णु की नाभि के निकटतम जाकर भी वे जड़( मूल ) का पता नहीं लगा पाये।
तमस्यपारे विदुरात्मसर्गविचिन्वतो भूत्सुमहांस्त्रिणेमि: ।
यो देहभाजां भयमीरयाण:परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेति: ॥
२०॥
तमसि अपारे--ढूँढने के अज्ञानपूर्ण ढंग के कारण; विदुर--हे विदुर; आत्म-सर्गमू--अपनी सृष्टि का कारण; विचिन्ब॒तः --सोचते हुए; अभूत्--हो गया; सु-महान्--अत्यन्त महान्; त्रि-नेमि:--त्रिनेमी का काल; य:--जो; देह-भाजाम्ू--देहधारी का;भयम्--भय; ईरयाण: --उत्पन्न करते हुए; परिक्षिणोति--एक सौ वर्ष कम करते हुए; आयु:--आयु; अजस्य--अजन्मा का;हेतिः:--शाश्वत काल का चक्र |
हे विदुर, अपने अस्तित्व के विषय में इस तरह खोज करते हुए ब्रह्म अपने चरमकाल में पहुँच गये, जो विष्णु के हाथों में शाश्वत चक्र है और जो जीव के मन में मृत्यु-भय की क्रान्तिभय उत्पन्न करता है।
ततो निवृत्तोप्रतिलब्धकाम:स्वधिष्ण्यमासाद्य पुन: स देव: ।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तोन्यषीददारूढसमाधियोग: ॥
२१॥
ततः--तत्पश्चात्; निवृत्त:--उस प्रयास से विरत होकर; अप्रतिलब्ध-काम:--वांछित लक्ष्य को प्राप्त किये बिना; स्व-धिष्ण्यमू--अपने आसन पर; आसाद्य-पहुँच कर; पुनः--फिर; सः--वह; देव:--देवता; शनैः--अविलम्ब; जित-ध्वास--श्वास को नियंत्रित करते हुए; निवृत्त--विरत; चित्त:--बुद्द्ि; न््यषीदत्--बैठ गया; आरूढ--विश्वास में; समाधि-योग: --भगवान् का ध्यान करने के लिए।
तत्पश्चात् वॉछित लक्ष्य प्राप्त करने में असमर्थ होकर वे ऐसी खोज से विमुख हो गये औरपुनः कमल के ऊपर आ गये।
इस तरह इन्द्रियविषयों को नियंत्रित करते हुए उन्होंने अपना मनपरमेश्वर पर एकाग्र किया।
कालेन सोज: पुरुषायुषाभि-प्रवृत्तयोगेन विरूढबोध: ।
स्वयं तदन्तईदयेवभातम्अपश्यतापश्यत यत्न पूर्वम् ॥
२२॥
कालेन--कालक्रम में; सः--वह; अज: --स्वयंभुव ब्रह्मा; पुरुष-आयुषा--अपनी आयु से; अभिप्रवृत्त--लगा रहकर;योगेन--ध्यान में; विरूढद--विकसित; बोध: --बुद्द्धि: स्वयम्; स्वयम्--स्वतः ; तत् अन्त:-हृदये--हृदय में; अवभातम्--प्रकटहुआ; अपश्यत--देखा; अपश्यत--देखा; यत्--जो; न--नहीं ; पूर्वम्ू--इसके पहले ।
अपने सौ वर्षों के बाद जब ब्रह्मा का ध्यान पूरा हुआ तो उन्होंने वांछित ज्ञान विकसित किया" जिसके फलस्वरूप वे अपने ही भीतर अपने हृदय में परम पुरुष को देख सके जिन्हें वे इसकेपूर्व महानतम् प्रयास करने पर भी नहीं देख सके थे।
मृणालगौरायतशेषभोग-पर्यट्डू एकं पुरुष शयानम् ।
'फणातपत्रायुतमूर्थरत्तझुभिहतध्वान्तयुगान्ततोये ॥
२३॥
मृणाल--कमल का फूल; गौर--पूरी तरह सफेद; आयत--विराट; शेष-भोग--शेषनाग का शरीर; पर्यद्ले--शय्या पर;एकम्--अकेले; पुरुषम्--परम पुरुष; शयानम्--लेटे हुए; फण-आतपत्र--सर्प के फन का छाता; आयुत--सज्जित; मूर्ध--सिर; रत्न--रत्न की; द्युभि:--किरणों से; हत-ध्वान्त--अँधेरा दूर हो गया; युग-अन्त--प्रलय; तोये--जल में |
ब्रह्म यह देख सके कि जल में शेषनाग का शरीर विशाल कमल जैसी श्वेत शय्या था जिसपर भगवान् अकेले लेटे थे।
सारा वायुमण्डल शेषनाग के फन को विभूषित करने वाले रत्नों कीकिरणों से प्रदीप्त था और इस प्रकाश से उस क्षेत्र का समस्त अंधकार मिट गया था।
प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलादिःसब्ध्याभ्रनीवेरुरुरुक्ममूर्ध्न: ।
रत्नोदधारौषधिसौमनस्यवनस्त्रजो वेणुभुजाडुप्रिपाड्स़े: ॥
२४॥
प्रेक्षामू--दृश्य; क्षिपन्तम्--उपहास करते हुए; हरित--हरा; उपल--मूँगे के; अद्वेः--पर्वत का; सन्ध्या-अभ्च-नीवे: --सांध्यकालीन आकाश का वस्त्र; उरु--महान्; रुक्म--स्वर्ण ; मूर्धश्ध; --शिखर पर; रत्तन--रल; उदधार--झरने; औषधि--जड़ी -बूटियाँ; सौमनस्य--हृश्य का; वन-स्त्रज:--फूल की माला; वेणु--वस्त्र; भुज--हाथ; अड्घ्रिप--वृक्ष; अद्ख्रे:--पाँव |
भगवान् के दिव्य शरीर की कान्ति मूँगे के पर्वत की शोभा का उपहास कर रही थी।
मूँगे कापर्वत संध्याकालीन आकाश द्वारा सुन्दर ढंग से वस्त्राभूषित होता है, किन्तु भगवान् का पीतवस्त्रउसकी शोभा का उपहास कर रहा था।
इस पर्वत की चोटी पर स्वर्ण है, किन्तु रत्नजटितभगवान् का मुकुट इसकी हँसी उड़ा रहा था।
पर्वत के झरने, जड़ी-बूटियाँ आदि फूलों के दृश्यके साथ मालाओं जैसे लगते हैं, किन्तु भगवान् का विराट शरीर तथा उनके हाथ-पाँव रत्नों,मोतियों, तुलसीदल तथा फूलमालाओं से अलंकृत होकर उस पर्वत के दृश्य का उपहास कर रहेथे।
आयामतो विस्तरतः स्वमान-देहेन लोकत्रयसड्ग्रहेण ।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानांकृतश्रियापाश्रितवेषदेहम् ॥
२५॥
आयामतः--लम्बाई से; विस्तरत:--चौड़ाई से; स्व-मान--अपने ही माप से; देहेन--दिव्य शरीर से; लोक-त्रय--तीन( उच्चतर, मध्य तथा निम्न ) लोक; सड्ग्रहेण --पूर्ण निमग्नता द्वारा; विचित्र--नाना प्रकार का; दिव्य--दिव्य; आभरण-अंशुकानाम्ू--आभूषणों की किरणों से; कृत-भ्रिया अपाश्रित--उन वस्त्रों तथा आभूषणों से उत्पन्न सौन्दर्य; वेष--वेश;देहम्ू--दिव्य शरीर
उनके दिव्य शरीर की लम्बाई तथा चौड़ाई असीम थी और वह तीनों लोकों-उच्च, मध्यतथा निम्न-लोकों में फैली हुई थी।
उनका शरीर अद्वितीय वेश तथा विविधता सेस्वतःप्रकाशित था और भलीभाँति अलंकृत था।
पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गै -रभ्यर्चतां कामदुघाडुप्रिपद्यम् ।
प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु-मयूखभिन्नाडुलिचारुपत्रम् ॥
२६॥
पुंसामू-मनुष्यों का; स्व-कामाय--अपनी इच्छा के अनुसार; विविक्त-मार्गं:--शक्ति मार्ग द्वारा; अभ्यर्चताम्--पूजित; काम-दुघ-अड्प्रि-पद्ममू-- भगवान् के चरणकमल जो मनवांछित फल देने वाले हैं; प्रदर्शयन्तम्--उन्हें दिखलाते हुए; कृपया--अहैतुकी कृपा द्वारा; नख--नाखून; इन्दु-- चन्द्रमा सहश; मयूख--किरणें; भिन्न--विभाजित; अद्डुलि--अँगुलियाँ; चारु-पत्रमू--अतीव सुन्दर
भगवान् ने अपने चरणकमलों को उठाकर दिखलाया।
उनके चरणकमल समस्त भौतिककल्मष से रहित भक्ति-मय सेवा द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त वरों के स्त्रोत हैं।
ऐसे वर उन लोगोंके लिए होते हैं, जो उनकी पूजा शुद्ध भक्तिभाव में करते हैं।
उनके पाँव तथा हाथ के चन्द्रमासहश नाखूनों से निकलने वाली दिव्य किरणों की प्रभा ( छटा ) फूल की पंखुड़ियों जैसी प्रतीतहो रही थी।
तमहं भजामि में अंकित किया है।
मुखेन लोकार्तिहरस्मितेनपरिस्फुरत्कुण्डलमण्डितेन ।
शोणायितेनाधरबिम्बभासाप्रत्यहयन्तं सुनसेन सुप्वा ॥
२७॥
मुखेन--मुख के संकेत से; लोक-आर्ति-हर--भक्तों के कष्ट को हरनेवाले; स्मितेन--हँसी के द्वारा; परिस्फुरत्--चकाचौं धकरते; कुण्डल--कुण्डल से; मण्डितेन--सुसज्जित; शोणायितेन--स्वीकार करते हुए; अधर--अपने होठों का; बिम्ब--प्रतिबिम्ब; भासा--किरणें; प्रत्यहयन्तम्-- आदान-प्रदान करते हुए; सु-नसेन--अपनी मनोहर नाक से; सु-प्वा--तथा मनोहरभौहों से |
उन्होंने भक्तों की सेवा भी स्वीकार की और अपनी सुन्दर हँसी से उनका कष्ट मिटा दिया।
कुंडलों से सज्जित उनके मुख का प्रतिबिम्ब अत्यन्त मनोहारी था, क्योंकि यह उनके होठों कीकिरणों तथा उनकी नाक एवं भौंहों की सुन्दरता से जगमगा रहा था।
कदम्बकिज्लल्कपिशड्रवाससास्वलड्डू तं मेखलया नितम्बे ।
हारेण चानन्तधनेन वत्सश्रीवत्सवक्ष:स्थलवल्लभेन ॥
२८॥
कदम्ब-किल्लल्क--कदम्ब फूल की केसरिया धूल; पिशड्ग--रंगीन परिधान; वाससा--वस्त्रों से; सु-अलड्डू तम्--अच्छी तरहसुसज्जित; मेखलया--करधनी से; नितम्बे--कमर पर; हारेण--हार से; च-- भी; अनन्त--अत्यन्त; धनेन--मूल्यवान; वत्स--हे विदुर; श्रीवत्स--दिव्य चिह्न का; वक्ष:-स्थल--छाती पर; वलल्लभेन--अत्यन्त मनोहर |
हे विदुर, भगवान् की कमर पीले वस्त्र से ढकी थी जो कदम्ब फूल के केसरिया धूल जैसाप्रतीत हो रहा था और इसको अतीव सज्जित करधनी घेरे हुए थी।
उनकी छाती श्रीवत्स चिन्ह सेतथा असीम मूल्य वाले हार से शोभित थी।
परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक -पर्यस्तदोर्दण्डसहसत्रशाखम् ।
अव्यक्तमूलं भुवनाडूप्रिपेन्द्र-महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम् ॥
२९॥
परार्ध्य--अत्यन्त मूल्यवान; केयूर-- आभूषण; मणि-प्रवेक--अत्यन्त मूल्यवान मणि; पर्यस्त--फैलाते हुए; दोर्दण्ड-- भुजाएँ;सहस्त्र-शाखम्--हजारों शाखाओं से युक्त; अव्यक्त-मूलम्--आत्मस्थित; भुवन--विश्व; अद्धघ्रिप--वृशक्ष; इन्द्रमू--स्वामी;अहि-इन्द्र--अनन्तदेव; भोगैः--फनों से; अधिवीत--घिरा; वल्शम्--कंघा |
जिस तरह चन्दन वृक्ष सुगन्धित फूलों तथा शाखाओं से सुशोभित रहता है उसी तरह भगवान्का शरीर मूल्यवान मणियों तथा मोतियों से अलंकृत था।
वे आत्म-स्थित ( अव्यक्त मूल ) वृक्षऔर विश्व के अन्य सभी के स्वामी थे।
जिस तरह चन्दन वृक्ष अनेक सर्पों से आच्छादित रहता हैउसी तरह भगवान् का शरीर भी अनन्त के फनों से ढका था।
चराचरौको भगवन्न्महीक्ष-महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम् ।
किरीटसाहस््रहिरण्यश्रुड्र-माविर्भवत्कौस्तुभरलगर्भम् ॥
३०॥
चर--गतिशील पशु; अचर--स्थिर वृक्ष; ओकः--स्थान या स्थिति; भगवत्-- भगवान् मही ध्रम्--पर्वत; अहि-इन्द्र-- श्रीअनन्तदेव; बन्धुम्-मित्र; सलिल--जल; उपगूढम्--निमग्न; किरीट--मुकुट; साहस्त्र--हजारों; हिरण्य--स्वर्ण ; श्रूड़म्--चोटियाँ; आविर्भवत्--प्रकट किया; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि; रत्ल-गर्भम्--समुद्र |
विशाल पर्वत की भाँति भगवान् समस्त जड़ तथा चेतन जीवों के लिए आवास की तरहखड़े हैं।
वे सर्पों के मित्र हैं, क्योंकि अनन्त देव उनके मित्र हैं।
जिस तरह पर्वत में हजारों सुनहरीचोटियाँ होती हैं उसी तरह अनन्त नाग के सुनहरे मुकुटों वाले हजारों फनों से युक्त भगवान् दीखरहे थे।
जिस तरह पर्वत कभी-कभी रत्नों से पूरित रहता है उसी तरह उनका शरीर मूल्यवान रत्नोंसे पूर्णतया सुशोभित था।
जिस तरह कभी-कभी पर्वत समुद्र जल में डूबा रहता है उसी तरहभगवान् कभी-कभी प्रलय-जल में डूबे रहते हैं।
निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रियास्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम् ।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिःपरिक्रमत्प्राधनिकैर्दुरासदम् ॥
३१॥
निवीतम्ू--इस प्रकार घिरा; आम्नाय--वैदिक ज्ञान; मधु-व्रत-भ्रिया-- सौन्दर्य में मधुर ध्वनि; स्व-कीर्ति-मय्या-- अपनी हीमहिमा से; बन-मालया--फूल की माला से; हरिम्ू-- भगवान् को; सूर्य --सूरज; इन्दु--चन्द्रमा; वायु--वायु; अग्नि--आग;अगमम्--न पहुँचने योग्य दुर्गम; त्रि-धामभि:--तीनों लोकों द्वारा; परिक्रमत्--परिक्रमा करते हुए; प्राधनिकै:--युद्ध के लिए;दुरासदम्--पहुँचने के लिए कठिन।
इस तरह पर्वताकार भगवान् पर दृष्टि डालते हुए ब्रह्मा ने यह निष्कर्ष निकाला कि वे भगवान्हरि ही हैं।
उन्होंने देखा कि उनके वक्षस्थल पर पड़ी फूलों की माला वैदिक ज्ञान के मधुर गीतोंसे उनका महिमागान कर रही थी और अतीव सुन्दर लग रही थी।
वे युद्ध के लिए सुदर्शन चक्रद्वारा सुरक्षित थे और सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि इत्यादि तक उनके पास फटक नहीं सकते थे।
तहाोंव तन्नाभिसरःसरोजम्आत्मानमम्भ: श्वसन वियच्च ।
ददर्श देवो जगतो विधातानातः पर लोकविसर्गदृष्टि: ॥
३२॥
तहिं--अतः; एव--निश्चय ही; तत्ू--उसकी; नाभि--नाभि; सर:--झील; सरोजम्--कमल का फूल; आत्मानमू्--ब्रह्मा;अम्भ:--प्रलय का जल; श्वसनम्--सुखाने वाली वायु; वियत्--आकाश; च-- भी; ददर्श--देखा; देव:--देवता; जगत: --ब्रह्माण्ड का; विधाता--भाग्य का निर्माता; न--नहीं; अत: परम्--परे; लोक-विसर्ग--विराट जगत की सृष्टि; दृष्टि: --चितवन।
जब ब्रह्माण्ड के भाग्य विधाता ब्रह्मा ने भगवान् को इस प्रकार देखा तो उसी समय उन्होंने सृष्टि पर नजर दौड़ाई।
ब्रह्मा ने विष्णु की नाभि में झील ( नाभि सरोवर ) तथा कमल देखा औरउसी के साथ प्रलयकारी जल, सुखाने वाली वायु तथा आकाश को भी देखा।
सब कुछ उन्हें इृष्टिगोचर हो गया।
स कर्मबीजं॑ रजसोपरक्तःप्रजा: सिसृक्षन्रियदेव दृष्टा ।
अस्तौद्विसर्गाभिमुखस्तमीड्य-मव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा ॥
३३॥
सः--वह ( ब्रह्मा ); कर्म-बीजम्--सांसारिक कार्यो का बीज; रजसा उपरक्त:--रजोगुण द्वारा प्रेरित; प्रजा:--जीव; सिसृक्षन्--सनन््तान उत्पन्न करने की इच्छा से; इयत्--सृष्टि के सभी पाँचों कारण; एब--इस तरह; दृष्टा--देखकर; अस्तौत्--स्तुति की;विसर्ग--भगवानू द्वारा सृष्टि के पश्चात् सृष्टि; अभिमुख:--की ओर; तम्--उसको; ईंड्यम्--पूजनीय; अव्यक्त--दिव्य;वर्त्मनि-- के मार्ग पर; अभिवेशित--स्थिर; आत्मा--मन |
इस तरह रजोगुण से प्रेरित ब्रह्मा सूजन करने के लिए उन्मुख हुए और भगवान् द्वारा सुझायेगये सृष्टि के पाँच कारणों को देखकर वे सृजनशील मनोवृत्ति के मार्ग पर सादर स्तुति करनेलगे।
अध्याय नौ: रचनात्मक ऊर्जा के लिए ब्रह्मा की प्रार्थना
3.9ब्रह्मोवाचज्ञातोअसि मेड सुचिरात्ननु देहभाजांन ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम्।
नान्यत्त्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धमायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासि ॥
१॥
ब्रह्मा उबाच--ब्रह्मा ने कहा; ज्ञात:--ज्ञात; असि--हो; मे--मेरे द्वारा; अद्य--आज; सुचिरात्--दीर्घकाल के बाद; ननु--लेकिन; देह-भाजाम्-- भौतिक देह वाले का; न--नहीं; ज्ञायते--ज्ञात है; भगवत:-- भगवान् का; गति:ः--रास्ता; इति--इसप्रकार; अवद्यम्--महान् अपराध; न अन्यत्--इसके परे कोई नहीं; त्वत्--तुम; अस्ति--है; भगवन्--हे भगवान्; अपि--यद्मपि है; तत्ू--जो कुछ हो सके; न--कभी नहीं; शुद्धमू--परम; माया-- भौतिक शक्ति के; गुण-व्यतिकरात्-गुणों केमिश्रण के कारण; यत्--जिसको; उरु:--दिव्य; विभासि--तुम हो |
ब्रह्माजी ने कहा : हे प्रभु, आज अनेकानेक वर्षों की तपस्या के बाद मैं आपके विषय मेंजान पाया हूँ।
ओह! देहधारी जीव कितने अभागे हैं कि वे आपके स्वरूप को जान पाने मेंअसमर्थ हैं।
हे स्वामी, आप एकमात्र ज्ञेय तत्व हैं, क्योंकि आपसे परे कुछ भी सर्वोच्च नहीं है।
यदि कोई वस्तु आपसे श्रेष्ठ प्रतीत होती भी है, तो वह परम पूर्ण नहीं है।
आप पदार्थ की सृजनशक्ति को प्रकट करके ब्रह्म रूप में विद्यमान हैं।
रूप॑ यदेतदवबोधरसोदयेनशश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।
आदौ गृहीतमवतारशतैकबीजंयन्नाभिपदाभवनादहमाविरासम् ॥
२॥
रूपम्--स्वरूप; यत्ू--जो; एतत्--वह; अवबोध-रस--आपकी अन्तरंगा शक्ति के; उदयेन--प्राकट्य से; शश्वत्--चिरन्तन;निवृत्त--से मुक्त; तमस:ः--भौतिक कल्मष; सतू-अनुग्रहाय--भक्तों के हेतु; आदौ--पदार्थ की सृजनशक्ति में मौलिक;गृहीतम्--स्वीकृत; अवतार--अवतारों का; शत-एक-बीजम्--सैकड़ों का मूल कारण; यत्--जो; नाभि-पद्मय--नाभि सेनिकला कमल का फूल; भवनात्--घर से; अहम्--मैं; आविरासम्--उत्पन्न हुआ।
मैं जिस रूप को देख रहा हूँ वह भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त है और अन्तरंगा शक्ति कीअभिव्यक्ति के रूप में भक्तों पर कृपा दिखाने के लिए अवतरित हुआ है।
यह अवतार अन्यअनेक अवतारों का उदगम है और मैं स्वयं आपके नाभि रूपी घर से उगे कमल के फूल से उत्पन्नहुआ हूँ।
नातः पर परम यद्धवतः स्वरूप-मानन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्च: ।
पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन्भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाभ्रितोउस्मि ॥
३॥
न--नहीं; अतः परम्--इसके पश्चात्; परम--हे परमेश्वर; यत्ू--जो; भवतः--आपका; स्वरूपम्ू--नित्यरूप; आनन्द-मात्रम्--निर्विशेष ब्रह्म्योति; अविकल्पम्--बिना परिवर्तन के; अविद्ध-वर्च:--शक्ति के हास बिना; पश्यामि--देखता हूँ; विश्व-सृजम्ू--विराट जगत के स्त्रष्टा को; एकम्--अद्बय; अविश्वम्--फिर भी पदार्थ का नहीं; आत्मन्--हे परम कारण; भूत--शरीर;इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्मक--ऐसी पहचान से; मदः--गर्व; ते--आपके प्रति; उपाभ्रित:--शरणागत; अस्मि--हूँ।
हे प्रभु, मैं आपके इस सच्चिदानन्द रूप से श्रेष्ठ अन्य कोई रूप नहीं देखता।
वैकुण्ठ मेंआपकी निर्विशेष ब्रह्मज्योति में न तो यदाकदा परिवर्तन होता है और न अन्तरंगा शक्ति में कोईहास आता है।
मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि जहाँ मैं अपने भौतिक शरीर तथाइन्द्रियों पर गर्वित हूँ वहीं आप विराट जगत का कारण होते हुए भी पदार्थ द्वारा अस्पृश्य हैं।
तद्ठा ड्दं भुवनमड़्ुल मड़लायध्याने सम नो दर्शितं त उपासकानाम् ।
तस्मै नमो भगवतेनुविधेम तुभ्यंयोनाहतो नरकभाग्भिरसत्प्रसड़ैः ॥
४॥
तत्--भगवान् श्रीकृष्ण; वा--अथवा; इदम्--यह वर्तमान स्वरूप; भुवन-मड़ल--हे समस्त ब्रह्माण्डों के लिए सर्वमंगलमय;मड्लाय--समस्त सम्पन्नता के लिए; ध्याने-ध्यान में; स्म--मानो था; न:ः--हमको; दर्शितम्-- प्रकट; ते--तुम्हारे;उपासकानाम्--भक्तों का; तस्मै--उनको; नम:ः--मेरा सादर नमस्कार; भगवते-- भगवान् को; अनुविधेम--सम्पन्न करता हूँ;तुभ्यमू--तुमको; यः--जो; अनाहत: --उपेक्षित है; नरक-भाग्भि:--नरक जाने वाले व्यक्तियों द्वारा; असत्-प्रसड्रैः-- भौतिककथाओं द्वारा
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का यह वर्तमान रूप या उनके द्वारा विस्तार किया हुआ कोईभी दिव्य रूप सारे ब्रह्माण्डों के लिए समान रूप से मंगलमय है।
चूँकि आपने यह नित्य साकाररूप प्रकट किया है, जिसका ध्यान आपके भक्त करते हैं, इसलिए मैं आपको सादर नमस्कारकरता हूँ।
जिन्हें नरकगामी होना बदा है वे आपके साकार रूप की उपेक्षा करते हैं, क्योंकि वेलोग भौतिक विषयों की ही कल्पना करते रहते हैं।
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धंजिप्रन्ति कर्णविवरे: श्रुतिवातनीतम् ।
भक्त्या गृहीतचरण: परया च तेषांनापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम्ू ॥
५॥
ये--जो लोग; तु--लेकिन; त्वदीय--आपके ; चरण-अम्बुज--चरणकमल; कोश-- भी तर; गन्धम्--सुगन्ध; जिप्रन्ति--सूँघतेहैं; कर्ण-विवरैः--कानों के मार्ग से होकर; श्रुति-वात-नीतम्--वैदिक ध्वनि की वायु से ले जाये गये; भक्त्या--भक्ति द्वारा;गृहीत-चरण:--चरणकमलों को स्वीकार करते हुए; परया--दिव्य; च-- भी; तेषामू-- उनके लिए; न--कभी नहीं; अपैषि--पृथक्; नाथ--हे प्रभु; हदय--हृदय रूपी; अम्बु-रुहात्ू--कमल से; स्व-पुंसामू--अपने ही भक्तों के
हे प्रभु, जो लोग वैदिक ध्वनि की वायु द्वारा ले जाई गई आपके चरणकमलों की सुगन्धको अपने कानों के द्वारा सूँघते हैं, वे आपकी भक्ति-मय सेवा को स्वीकार करते हैं।
उनके लिएआप उनके हृदय रूपी कमल से कभी भी विलग नहीं होते।
तावद्धयं द्रविणदेहसुहनब्निमित्तंशोक: स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभ: ।
तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलंयावन्न तेडड्प्रिमभयं प्रवृणीत लोक: ॥
६॥
तावत्--तब तक; भयमू-- भय; द्रविण--सम्पत्ति; देह--शरीर; सुहृत्-- सम्बन्धी जन; निमित्तमू--के लिए; शोक:--शोक;स्पृहा--इच्छा; परिभव: --साज-सामग्री; विपुल:--अत्यधिक; च-- भी; लोभ:-- लालच; तावत्--उस समय तक; मम--मेरा;इति--इस प्रकार; असत्--नश्वर; अवग्रहः --दुराग्रह; आर्ति-मूलम्--चिन््ता से पूर्ण; यावत्--जब तक; न--नहीं ; ते--तुम्हारे;अद्प्रिम् अभयम्--सुरक्षित चरणकमल; प्रवृणीत--शरण लेते हैं; लोक:--संसार के लोग।
हे प्रभु, संसार के लोग समस्त भौतिक चिन्ताओं से उद्विग्न रहते हैं--वे सदैव भयभीत रहतेहैं।
वे सदैव धन, शरीर तथा मित्रों की रक्षा करने का प्रयास करते हैं, वे शोक तथा अवैधइच्छाओं एवं साज-सामग्री से पूरित रहते हैं तथा लोभवश 'मैं' तथा 'मेरे' की नश्वरधारणाओंपर अपने दुराग्रह को आधारित करते हैं।
जब तक वे आपके सुरक्षित चरणकमलों की शरणग्रहण नहीं करते तब तक वे ऐसी चिन्ताओं से भरे रहते हैं।
दैवेन ते हतधियो भवत:ः प्रसड़ा-त्सर्वाशुभोपशमनाद्विमुखेन्द्रिया ये ।
कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीनालोभाभिभूतमनसोकुशलानि शश्वत् ॥
७॥
दैवेन--दुर्भाग्य से; ते--वे; हत-धियः--स्मृति से वंचित; भवतः--आपकी; प्रसड्ञात्ू--कथाओं से; सर्व--समस्त; अशुभ--अकल्याणकारी; उपशमनात्--शमन करते हुए; विमुख--के विरुद्ध बने हुए; इन्द्रिया:--इन्द्रियाँ; ये--जो; कुर्वन्ति--करते हैं;काम--इन्द्रिय-तृप्ति; सुख--सुख; लेश--अल्प; लवाय-- क्षण भर के लिए; दीना:--बेचारे; लोभ-अभिभूत--लोभ सेग्रसित; मनस:--मन वाले; अकुशलानि--अशुभ कार्यकलाप; शश्वत्--सदैव |
हे प्रभु, वे व्यक्ति जो आपके दिव्य कार्यकलापों के विषय में सर्वमंगलकारी कीर्तन तथाश्रवण करने से वंचित हैं निश्चित रूप से वे अभागे हैं और सह्दुद्धि से विहीन हैं।
वे तनिक देर केलिए इन्द्रियतृष्ति का भोग करने हेतु अशुभ कार्यों में लग जाते हैं।
ऊपर उठ पाते हैं।
क्षुत्तट्त्रिधातुभिरिमा मुहुरर्ध्यमाना:शीतोष्णवातवरषैरितरेतराच्च ।
कामाग्निनाच्युतरुषा च सुदुर्भरणसम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे ॥
८ ॥
क्षुत्ू- भूख; तृट्--प्यास; त्रि-धातुभिः--तीन-रस, यथा कफ, पित्त तथा वायु; इमा:--ये सभी; मुहुः--सदैव; अर्द्यमाना: --व्यग्र; शीत--जाड़ा; उष्ण--गर्मी ; वात--वायु; वरषै:--वर्षा द्वारा; इतर-इतरात्--तथा अन्य अनेक उत्पात; च-- भी; काम-अग्निना--प्रबल यौन इच्छा से; अच्युत-रुषा--दुःसह क्रोध; च-- भी; सुदुर्भरण -- अत्यन्त असहा; सम्पश्यत:--देखते हुए;मनः--मन; उरुक्रम--हे महान् कर्ता; सीदते--निराश होता है; मे--मेरा |
हे महान् कर्ता, मेरे प्रभु, ये सभी दीन प्राणी निरन्तर भूख, प्यास, शीत, कफ तथा पित्त सेव्यग्र रहते हैं, इन पर कफ युक्त शीतऋतु, भीषण गर्मी, वर्षा तथा अन्य अनेक क्षुब्ध करने वालेतत्त्व आक्रमण करते रहते हैं और ये प्रबल कामेच्छाओं तथा दुःसह क्रोध से अभिभूत होते रहतेहैं।
मुझे इन पर दया आती है और मैं इनके लिए अत्यन्त सन्तप्त रहता हूँ।
यावत्पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ-मायाबलं भगवतो जन ईंश पश्येत् ।
तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसड्क्रमेतव्यर्थापि दुःखनिवहं बहती क्रियार्था ॥
९॥
यावत्--जब तक; पृथक्त्वमू--विलगाव; इृदम्--यह; आत्मन:--शरीर का; इन्द्रिय-अर्थ--इन्द्रियतृप्ति के लिए; माया-बलमू--बहिरंगा शक्ति का प्रभाव; भगवतः-- भगवान् का; जन:--व्यक्ति; ईश-हे प्रभु; पश्येत्ू--देखता है; तावत्--तबतक; न--नहीं; संसृतिः--भौतिक जगत का प्रभाव; असौ--वह मनुष्य; प्रतिसड्क्रमेत--लाँघ सकता है; व्यर्था अपि--यद्यपिअर्थहीन; दुःख-निवहम्-- अनेक दुख; बहती --लाते हुए; क्रिया-अर्था--सकाम कर्मो के लिए
हे प्रभु, आत्मा के लिए भौतिक दुखों का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता।
फिर भी जबतक बद्धात्मा शरीर को इन्द्रिय भोग के निमित्त देखता है तब तक वह आपकी बहिरंगा शक्तिद्वारा प्रभावित होने से भौतिक कष्टों के पाश से बाहर नहीं निकल पाता।
अह्न्यापृतार्तकरणा निशि निःशयानानानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्रा: ।
दैवाहतार्थरचना ऋषयोपि देवयुष्मत्प्रसड्रविमुखा इह संसरन्ति ॥
१०॥
अहि-दिन के समय; आपृत--व्यस्त; आर्त--दुखदायी कार्य; करणा:--इन्द्रियाँ; निशि--रात में; निःशयाना:--अनिद्रा;नाना--विविध; मनोरथ--मानसिक चिन्तन; धिया--बुद्धि द्वारा; क्षण--निरन्तर; भग्न--टूटी हुई; निद्रा:--नींद; दैव--अतिमानवीय; आहत-अर्थ--हताश; रचना:--योजनाएँ; ऋषय:--ऋषिगण; अपि-- भी; देव--हे प्रभु; युष्मत्-- आपकी;प्रसड्र---कथा से; विमुखा:--विरुद्ध; इह--इस ( जगत ) में; संसरन्ति--चक्कर लगाते हैं।
ऐसे अभक्तगण अपनी इन्द्रियों को अत्यन्त कष्टप्रद तथा विस्तृत कार्य में लगाते हैं और रातमें उनिद्र रोग से पीड़ित रहते हैं, क्योंकि उनकी बुद्धि विविध मानसिक चिन्ताओं के कारणउनकी नींद को लगातार भंग करती रहती है।
वे अतिमानवीय शक्ति द्वारा अपनी विविधयोजनाओं में हताश कर दिए जाते हैं।
यहाँ तक कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यदि आपकी दिव्य कथाओं से विमुख रहते हैं, तो वे भी इस भौतिक जगत में ही चक्कर लगाते रहते हैं।
त्वं भक्तियोगपरिभावितहत्सरोजआस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।
यद्यद्द्विया त उरुगाय विभावयन्तितत्तद्वपु: प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥
११॥
त्वमू--तुमको; भक्ति-योग--भक्ति में; परिभावित--शत प्रतिशत लगे रहकर; हत्--हदय के; सरोजे--कमल में; आस्से--निवास करते हो; श्रुत-ईक्षित--कान के माध्यम से देखा हुआ; पथ:--पथ; ननु--अब; नाथ--हे स्वामी; पुंसाम्ू--भक्तों का;यतू-यत्--जो जो; धिया--ध्यान करने से; ते--तुम्हारा; उरुगाय--हे बहुख्यातिवान्; विभावयन्ति--विशेष रूप से चिन्तनकरते हैं; तत्-तत्--वही वही; वपु:--दिव्य स्वरूप; प्रणयसे--प्रकट करते हो; सत्-अनुग्रहाय--अपनी अहैतुकी कृपा दिखानेके लिए
हे प्रभु, आपके भक्तगण प्रामाणिक श्रवण विधि द्वारा कानों के माध्यम से आपको देखसकते हैं और इस तरह उनके हृदय विमल हो जाते हैं तथा आप वहाँ पर अपना स्थान ग्रहण करलेते हैं।
आप अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि आप अपने को उस अध्यात्म के विशेष नित्यरूप में प्रकट करते हैं जिसमें वे सदैव आपका चिन्तन करते हैं।
नातिप्रसीदति तथोपचितोपचारै-राराधितः सुरगणईदि बद्धकामै: ।
यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैकोनानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥
१२॥
न--कभी नहीं; अति--अत्यधिक; प्रसीदति--तुष्ट होता है; तथा--जितना; उपचित--ठाठबाट से; उपचारैः--पूजनीय साजसामग्री सहित; आराधितः--पूजित होकर; सुर-गणै:--देवताओं द्वारा; हृदि बद्ध-कामै:--समस्त प्रकार की भौतिक इच्छाओं सेपूरित हृदय से; यत्--जो; सर्व--समस्त; भूत--जीव; दयया--उन पर अहैतुकी कृपा दिखाने के लिए; असत्--अभक्त;अलभ्यया-्राप्त न हो सकने से; एक:--अद्वितीय; नाना--विविध; जनेषु--जीवों में; अवहित:--अनुभूत; सुहत्--शुभेच्छुमित्र; अन्तः-- भीतर; आत्मा--परमात्मा |
हे प्रभु, आप उन देवताओं की पूजा से बहुत अधिक तुष्ट नहीं होते जो आपकी पूजा अत्यन्तठाठ-बाट से तथा विविध साज-सामग्री के साथ करते तो हैं, किन्तु भौतिक लालसाओं से पूर्णहोते हैं।
आप हर एक के हृदय में परमात्मा के रूप में अपनी अहैतुकी कृपा दर्शाने के लिए स्थित रहते हैं।
आप नित्य शुभचिन्तक हैं, किन्तु आप अभक्तों के लिए अनुपलब्ध हैं।
पुंसामतो विविधकर्मभिरध्वराद्यै-दनिन चोग्रतपसा परिचर्यया च ।
आराधनं भगवतस्तव सत्क्रियार्थो धर्मोडर्पित: कर्हिंचिद्म्रियते न यत्र ॥
१३॥
पुंसामू--लोगों का; अत:--इसलिए; विविध-कर्मभि: --नाना प्रकार के सकाम कर्मों द्वारा; अध्वर-आद्यै:--वैदिक अनुष्ठानसम्पन्न करने से; दानेन--दान के द्वारा; च--तथा; उग्र-- अत्यन्त कठोर; तपसा--तपस्या से; परिचर्यया--दिव्य सेवा द्वारा;च--भी; आराधनम्-- पूजा; भगवतः -- भगवान् की; तव--तुम्हारा; सत्-क्रिया-अर्थ:--एकमात्र आपको प्रसन्न करने केलिए; धर्म: --धर्म; अर्पित:--इस प्रकार अर्पित; क्हिंचितू--किसी समय; प्रियते--विनष्ट होता है; न--कभी नहीं; यत्र--वहाँ।
किन्तु वैदिक अनुष्ठान, दान, कठोर तपस्या तथा दिव्य सेवा जैसे पुण्य कार्य भी, जो लोगोंद्वारा सकाम फलों को आपको अर्पित करके आपकी पूजा करने तथा आपको तुष्ट करने केउद्देश्य से किये जाते हैं, लाभप्रद होते हैं।
धर्म के ऐसे कार्य व्यर्थ नहीं जाते।
शश्वत्स्वरूपमहसैव निपीतभेद-मोहाय बोधधिषणाय नमः परस्मै ।
विश्वोद्धवस्थितिलयेषु निमित्तलीला-रासाय ते नम इदं चकृमेश्वराय ॥
१४॥
शश्वत्-शा श्रत रूप से; स्वरूप--दिव्य रूप; महसा--महिमा के द्वारा; एब--निश्चय ही; निपीत--विभेदित; भेद--अन्तर;मोहाय--मोहमयी धारणा के हेतु; बोध-- आत्म-ज्ञान; धिषणाय--बुद्धि; नमः--नमस्कार; परस्मै--ब्रह्म को; विश्व-उद्धव--विराट जगत की सृष्टि; स्थिति--पालन; लयेषु--संहार भी; निमित्त--के हेतु; लीला--ऐसी लीलाओं से; रासाय-- भोग हेतु;ते--तुम्हें; नम:--नमस्कार; इृदम्--यह; चकूम--मैं करता हूँ; ईश्वराय--परमे श्वर को |
मैं उन परब्रह्म को नमस्कार करता हूँ जो अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा शाश्वत विशिष्टअवस्था में रहते हैं।
उनका विभेदित न किया जा सकने वाला निर्विशेष स्वरूप आत्म-साक्षात्कारहेतु बुद्धि द्वारा पहचाना जाता है।
मैं उनको नमस्कार करता हूँ जो अपनी लीलाओं के द्वाराविराट जगत के सृजन, पालन तथा संहार का आनच्द लेते हैं।
यस्यावतारगुणकर्मविडम्बनानिनामानि येसुविगमे विवशा गृणन्ति ।
तेनैकजन्मशमलं सहसैव हित्वासंयान्त्यपावृतामृतं तमजं प्रपद्ये ॥
१५॥
यस्य--जिसके; अवतार--अवतार; गुण--दिव्य गुण; कर्म--कर्म; विडम्बनानि--सभी रहस्यमय; नामानि--दिव्य नाम; ये--वे; असु-विगमे--इस जीवन को छोड़ते समय; विवशा:--स्वतः; गृणन्ति--आवाहन करते हैं; ते--वे; अनैक--अनेक;जन्म--जन्म; शमलम्--संचित पाप; सहसा--तुरन््त; एव--निश्चय ही; हित्वा--त्याग कर; संयान्ति--प्राप्त करते हैं;अपावृत--खुली; अमृतम्-- अमरता; तमू--उस; अजम्--अजन्मा की; प्रपद्ये--मैं शरण लेता हूँ।
मैं उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जिनके अवतार, गुण तथा कर्म सांसारिकमामलों के रहस्यमय अनुकरण हैं।
जो व्यक्ति इस जीवन को छोड़ते समय अनजाने में भी उनके दिव्य नाम का आवाहन करता है उसके जन्म-जन्म के पाप तुरन्त धुल जाते हैं और वह उनभगवान् को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
यो वा अहं च गिरिशश्च विभुः स्वयं चस्थित्युद्धवप्रलयहेतव आत्ममूलम् ।
भिन्त्वा त्रिपाद्ववृध एक उरुप्ररोहस्तस्मै नमो भगवते भुवनद्रुमाय ॥
१६॥
यः--जो; वै--निश्चय ही; अहम् च--मैं भी; गिरिश: च--शिव भी; विभुः--सर्वशक्तिमान; स्वयम्--स्वयं ( विष्णु रूप में );च--तथा; स्थिति--पालन; उद्धव--सृजन; प्रलय--संहार; हेतवः -- कारण; आत्म-मूलम्--स्वतःस्थित; भित्त्वा-- भेदकर;त्रि-पातू--तीन तने; ववृधे--उगा; एक:--अद्वितीय; उरुू--अनेक ; प्ररोह:--शाखाएँ; तस्मै-- उसे; नम:--नमस्कार;भगवते-- भगवान् को; भुवन-द्रुमाय--लोक रूपी वृक्ष को |
आप लोक रूपी वृक्ष की जड़ हैं।
यह वृक्ष सर्वप्रथम भौतिक प्रकृति को तीन तनों के रूपमें--मुझ, शिव तथा सर्वशक्तिमान आपके रूप में--सृूजन, पालन तथा संहार के लिए भेदकरनिकला है और हम तीनों से अनेक शाखाएँ निकल आई हैं।
इसलिए हे विराट जगत रूपी वृजक्ष,मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तःकर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।
यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशांसद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोस्तु तस्मै ॥
१७॥
लोकः:--सामान्य लोग; विकर्म--अविचारित कर्म में; निरत:--लगे हुए; कुशले--लाभप्रद कार्य में; प्रमत्त:--लापरवाह;कर्मणि--कर्म में; अयम्--यह; त्वत्--आपके द्वारा; उदिते--घोषित; भवत्-- आपकी; अर्चने--पूजा में; स्वे-- अपने; य:--जो; तावत्ू--जब तक; अस्य--सामान्य लोगों का; बलवान्--अत्यन्त शक्तिमान; इह--यह; जीवित-आशाम्--जीवन-संघर्ष;सद्यः--प्रत्यक्षतः; छिनत्ति--काट कर खण्ड खण्ड कर दिया जाता है; अनिमिषाय--नित्य काल द्वारा; नम:--नमस्कार;अस्तु--हो; तस्मै--उसके लिएसामान्य लोग मूर्खतापूर्ण कार्यो में लगे रहते हैं।
वे अपने मार्गदर्शन हेतु आपके द्वारा प्रत्यक्षघोषित लाभप्रद कार्यों में अपने को नहीं लगाते।
जब तक उनकी मूर्खतापूर्ण कार्यों की प्रवृत्तिबलवती बनी रहती है तब तक जीवन-संघर्ष में उनकी सारी योजनाएँ छिन्न-भिन्न होती रहेंगी।
अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ जो नित्यकाल स्वरूप हैं।
यस्माद्विभेम्यहमपि द्विपरार्धधिष्ण्य-मध्यासित: सकललोकनमस्कृतं यत् ।
तेपे तपो बहुसवोवरुरुत्समान-स्तस्मै नमो भगवतेधिमखाय तुभ्यम् ॥
१८॥
यस्मात्--जिससे; बिभेमि--डरता हूँ; अहम्--मैं; अपि-- भी; द्वि-पर-अर्ध--४, ३०, ००, ००, ०००७२५३०००१२५१०० सौरवर्षो की सीमा तक; धिष्ण्यम्--स्थान में; अध्यासित:--स्थित; सकल-लोक--अन्य सारे लोकों द्वारा; नमस्कृतम्-- आदरित;यत्--जिसने; तेपे--किया; तप:ः--तपस्या; बहु-सव:--अनेकानेक वर्ष; अवरुरुत्समान:--आपको प्राप्त करने की इच्छा से;तस्मै--उन को; नमः--मैं नमस्कार करता हूँ; भगवते-- भगवान् को; अधिमखाय--समस्त यज्ञों के भोक्ता; तुभ्यमू--आपको |
हे प्रभु, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ जो अथक काल तथा समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं।
यद्यपि मैं ऐसे स्थान में स्थित हूँ जो दो परार्धों की अवधि तक विद्यमान रहेगा, और यद्यपि मैंब्रह्माण्ड के अन्य सभी लोकों का अगुआ हूँ, और यद्यपि मैंने आत्म-साक्षात्कार हेतु अनेकानेकवर्षो तक तपस्या की है, फिर भी मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
तिर्यड्मनुष्यविबुधादिषु जीवयोनि-घ्वात्मेच्छयात्मकृतसेतुपरीप्सया यः ।
रैमे निरस्तविषयोप्यवरुद्धदेह-स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥
१९॥
तिर्यक्--मनुष्येतर पशु; मनुष्य--मानव आदि; विबुध-आदिषु--देवताओं इत्यादि; जीव-योनिषु--विभिन्न जीव योनियों में;आत्म--आत्मा; इच्छया--इच्छा द्वारा; आत्म-कृत--स्वतःउत्पन्न; सेतु--दायित्व; परीप्सया--बनाये रखने की इच्छा से; यः--जो; रेमे--दिव्य लीला सम्पन्न करते हुए; निरस्त--अधिक प्रभावित हुए बिना; विषय:-- भौतिक कल्मष; अपि--निश्चय ही;अवरुद्ध-प्रकट; देह: --दिव्य शरीर; तस्मै--उस; नम:--मेरा नमस्कार; भगवते-- भगवान् को; पुरुषोत्तमाय--आदिभगवान्)
हे प्रभु, आप अपनी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न करने हेतु स्वेच्छा से विविध जीवयोनियों में,मनुष्येतर पशुओं में तथा देवताओं में प्रकट होते हैं।
आप भौतिक कल्मष से तनिक भी प्रभावितनहीं होते।
आप धर्म के अपने सिद्धान्तों के दायित्वों को पूरा करने के लिए ही आते हैं, अतः, हेपरमेश्वर ऐसे विभिन्न रूपों को प्रकट करने के लिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
योविद्ययानुपहतोपि दशार्धवृत्त्यानिद्रामुबाह जठरीकृतलोकयात्र: ।
अन्तर्जलेडहिकशि पुस्पर्शानुकूलांभीमोर्मिमालिनि जनस्य सुखं विवृण्वन् ॥
२०॥
यः--जो, जिसने; अविद्यया--अविद्या से प्रभावित; अनुपहतः--प्रभावित हुए बिना; अपि-- भी; दश-अर्ध--पाँच; वृत्त्या--अन्योन्य क्रिया; निद्रामू--नींद; उबाह--स्वीकार किया; जठरी--उदर के भीतर; कृत--ऐसा करते हुए; लोक-यात्र:--विभिन्नजीवों का पालन पोषण; अन्त:ः-जले--प्रलयरूपी जल के भीतर; अहि-कशिपु--सर्प-शय्या पर; स्पर्श-अनुकूलाम्--स्पर्श केलिए सुखी; भीम-ऊर्मि--प्रचण्ड लहरों की; मालिनि-- श्रृंखला; जनस्य--बुदर्ध्धिमान पुरुष का; सुखम्--सुख; विवृण्वन्--प्रदर्शित करते हुए।
हे प्रभु, आप उस प्रलयकालीन जल में शयन करने का आनन्द लेते हैं जहाँ प्रचण्ड लहरेंउठती रहती हैं और बुद्धिमान लोगों को अपनी नींद का सुख दिखाने के लिए आप सर्पों कीशय्या का आनन्द भोगते हैं।
उस काल में ब्रह्माण्ड के सारे लोक आपके उदर में स्थित रहते हैं।
यन्नाभिपदाभवनादहमासमीड्यलोकत्रयोपकरणो यदनुग्रहेण ।
तस्मै नमस्त उदरस्थभवाय योग-निद्रावसानविकसन्नलिनेक्षणाय ॥
२१॥
यत्--जिसकी; नाभि--नाभि; पद्मय--कमल रूपी; भवनात्ू--घर से; अहम्ू--मैं; आसम्-- प्रकट हुआ; ईड्यू--हे पूजनीय;लोक-त्रय--तीनों लोकों के; उपकरण:--सृजन में सहायक बनकर; यत्--जिसकी; अनुग्रहेण--कृपा से; तस्मै--उसको;नमः--मेरा नमस्कार; ते--तुमको; उदर-स्थ--उदर के भीतर स्थित; भवाय--ब्रह्माण्ड से युक्त; योग-निद्रा-अवसान--उसदिव्य निद्रा के अन्त होने पर; विकसत्--खिले हुए; नलिन-ईक्षणाय--जिसकी खुली आँखें कमलों के समान हैं उसे |
हे मेरी पूजा के लक्ष्य, मैं आपकी कृपा से ब्रह्माण्ड की रचना करने हेतु आपके कमल-नाभि रूपी घर से उत्पन्न हुआ हूँ।
जब आप नींद का आनन्द ले रहे थे, तब ब्रह्माण्ड के ये सारेलोक आपके दिव्य उदर के भीतर स्थित थे।
अब आपकी नींद टूटी है, तो आपके नेत्र प्रातःकालमें खिलते हुए कमलों की तरह खुले हुए हैं।
सो5यं समस्तजगतां सुहदेक आत्मा सत्त्वेन यन्मूडयते भगवान्भगेन ।
तेनैव मे हशमनुस्पृशताद्य थाहं स्त्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणतप्रियोउसौ ॥
२२॥
सः--वह; अयमू-- भगवान्; समस्त-जगताम्--समस्त ब्रह्माण्डों में से; सुहत् एक:--एकमात्र मित्र तथा दार्शनिक; आत्मा--परमात्मा; सत्त्वेन--सतोगुण के द्वारा; यत्ू--जो; मृडयते--सुख उत्पन्न करता है; भगवान्ू-- भगवान्; भगेन--छ: ऐश्वर्यों द्वारा;तेन--उसके द्वारा; एब--निश्चय ही; मे--मुझको; दृशम्--आत्मपरी क्षण की शक्ति, अन्तर्दष्टि; अनुस्पृशतात्--वह दे; यथा--जिस तरह; अहम्--ैं; स््रक्ष्यामि--सृजन कर सकूँगा; पूर्व-वत्--पहले की तरह; इृदम्--यह ब्रह्माण्ड; प्रणत--शरणागत;प्रियः--प्रिय; असौ--वह ( भगवान् )॥
परमेश्वर मुझ पर कृपालु हों।
वे इस जगत में सारे जीवों के एकमात्र मित्र तथा आत्मा हैं औरवे अपने छः ऐश्वर्यों द्वारा जीवों के चरम सुख हेतु इन सबों का पालन-पोषण करते हैं।
वे मुझपर कृपालु हों, जिससे मैं पहले की तरह सृजन करने की आत्मपरीक्षण शक्ति से युक्त हो सकूँ,क्योंकि मैं भी उन शरणागत जीवों में से हूँ जो भगवान् को प्रिय हैं।
एष प्रपन्नवरदो रमयात्मशक्त्यायद्यत्करिष्यति गृहीतगुणावतार: ।
तस्मिन्स्वविक्रममिदं सृजतोपि चेतोयुज्जीत कर्मशमलं च यथा विजद्याम् ॥
२३॥
एव: --यह; प्रपन्न--शरणागत; वर-दः --वर देने वाला; रमया--लक्ष्मीदेवी के साथ रमण करते हुए; आत्म-शकत्या--अपनीअन्तरंगा शक्ति सहित; यत् यत्ू--जो जो; करिष्यति--वह कर सके ; गृहीत--स्वीकार करते हुए; गुण-अबतार:--सतोगुण काअवतार; तस्मिन्--उसको; स्व-विक्रमम्--सर्वशक्तिमत्ता से; इदम्--इस विराट जगत को; सृजतः--रचते हुए; अपि-- भी;चेत:--हृदय; युज्ञीत--लगा रहे; कर्म--कार्य; शमलम्-- भौतिक प्रभाव, व्याधि; च-- भी; यथा--यथासम्भव; विजह्याम्--मैंत्याग सकता हूँ।
भगवान् सदा ही शरणागतों को वर देने वाले हैं।
उनके सारे कार्य उनकी अन्तरंगा शक्ति रमा या लक्ष्मी के माध्यम से सम्पन्न होते हैं।
मेरी उनसे यही विनती है कि भौतिक जगत के सृजन मेंवे मुझे अपनी सेवा में लगा लें और मेरी यही प्रार्थना है कि मैं अपने कर्मो द्वारा भौतिक रूप सेप्रभावित न होऊँ, क्योंकि इस तरह मैं स्त्रष्टा होने की मिथ्या-प्रतिष्ठा त्यागने में सक्षम हो सकूँगा।
नाभिहृदादिह सतोम्भसि यस्य पुंसोविज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्ति: ।
रूप॑ विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मेमा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्ग: ॥
२४॥
नाभि-हृदात्ू--नाभिरूपी झील से; इह--इस कल्प में; सत:--लेटे हुए; अम्भसि--जल में; यस्य--जिसका; पुंसः--भगवान्का; विज्ञान--सप्पूर्ण ब्रह्माण्ड की; शक्ति:--शक्ति; अहम्ू--मैं; आसम्--उत्पन्न हुआ था; अनन्त-- असीम; शक्ते: --शक्तिशाली का; रूपमू--स्वरूप; विचित्रम्--विचित्र; इदम्--यह; अस्य--उसका; विवृण्बत:--प्रकट करते हुए; मे--मुझको; मा--नहीं; रीरिषीष्ट--लुप्त; निगमस्य--वेदों की; गिराम्--ध्वनियों का; विसर्ग:--कम्पन |
भगवान् की शक्तियाँ असंख्य हैं।
जब वे प्रलय-जल में लेटे रहते हैं, तो उस नाभिरूपी झीलसे, जिसमें कमल खिलता है, मैं समग्र विश्वशक्ति के रूप में उत्पन्न होता हूँ।
इस समय मैं विराटजगत के रूप में उनकी विविध शक्तियों को उद्धाटित करने में लगा हुआ हूँ।
इसलिए मैं प्रार्थनाकरता हूँ कि अपने भौतिक कार्यों को करते समय मैं वैदिक स्तुतियों की ध्वनि से कहींविचलित न हो जाऊँ।
सोसावदभ्रकरुणो भगवान्विवृद्ध-प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरुहं विजृम्भन् ।
उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादंमाध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराण: ॥
२५॥
सः--वह ( भगवान् ); असौ--उस; अदभ्र-- असीम; करुण: --कृपालु; भगवान्-- भगवान्; विवृद्ध-- अत्यधिक; प्रेम --प्रेम;स्मितेन--हँसी द्वारा; नयन-अम्बुरुहमू--कमललनेत्रों को; विजृम्भन्ू--खोलते हुए; उत्थाय-- उत्थान हेतु; विश्व-विजयाय--विराटसृष्टि की महिमा के गायन हेतु; च-- भी; न: --हमारी; विषादम्--निराशा; माध्व्या--मधुर; गिरा--शब्द; अपनयतात्--वे दूरकरें; पुरुष: --परम; पुराण: --सबसे प्राचीन |
भगवान् जो कि परम हैं और सबसे प्राचीन हैं, अपार कृपालु हैं।
मैं चाहता हूँ कि वे अपनेकमलनेत्रों को खोल कर मुसकाते हुए मुझे वर दें।
वे सम्पूर्ण विराट सृष्टि का उत्थान कर सकतेहैं और अपने कृपापूर्ण आदेशों के द्वारा हमारा विषाद दूर कर सकते हैं।
मैत्रेय उबाचस्वसम्भवं निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभि: ।
यावन्मनोवच: स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत् ॥
२६॥
मैत्रेयः उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; स्व-सम्भवम्-- अपने प्राकट्य का स्त्रोत; निशाम्य--देखकर; एवम्--इस प्रकार; तपः--तपस्या; विद्या--ज्ञान; समाधिभि:--तथा मन की एकाग्रता द्वारा; यावत्--यथासम्भव; मन:--मन; वच: --शब्द; स्तुत्वा--स्तुति करके; विरराम--मौन हो गया; सः--वह ( ब्रह्मा ); खिन्न-वत्--मानो थक गया हो
मैत्रेय मुनि ने कहा : हे विदुर, अपने प्राकट्य के स्त्रोत अर्थात् भगवान् को देखकर ब्रह्मा नेअपने मन तथा वाणी की क्षमता के अनुसार उनकी कृपा हेतु यथासम्भव स्तुति की।
इस प्रकारस्तुति करने के बाद वे मौन हो गये मानो अपनी तपस्या, ज्ञान तथा मानसिक एकाग्रता के कारणवे थक गये हों।
अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य ब्रह्मणो मधुसूदन: ।
विषण्णचेतसं तेन कल्पव्यतिकराम्भसा ॥
२७॥
लोकसंस्थानविज्ञान आत्मन: परिखिद्यतः ।
तमाहागाधया वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥
२८॥
अथ-त्पश्चात्; अभिप्रेतम्-मंशा, मनोभाव; अन्वीक्ष्य--देखकर; ब्रह्मण: --ब्रह्मा का; मधुसूदन: --मधु नामक असुर केवधकर्ता; विषणण--खिन्न; चेतसमू--हृदय के; तेन--उसके द्वारा; कल्प--युग; व्यतिकर-अम्भसा--प्रलयकारी जल; लोक-संस्थान--लोक की स्थिति; विज्ञाने--विज्ञान में; आत्मन:--स्वयं को; परिखिद्यत:--अत्यधिक चिन्तित; तम्--उससे; आह--कहा; अगाधया--अ त्यन्त विचारपूर्ण; वाचा--शब्दों से; कश्मलम्--अशुद्द्धियाँ; शमयन्--हटाते हुए; इब--मानो |
भगवान् ने देखा कि ब्रह्माजी विभिन्न लोकों की योजना बनाने तथा उनके निर्माण को लेकरअतीव चिन्तित हैं और प्रलयंकारी जल को देखकर खिन्न हैं।
वे ब्रह्मा के मनोभाव को समझगये, अतः उन्होंने उत्पन्न मोह को दूर करते हुए गम्भीर एवं विचारपूर्ण शब्द कहे।
श्रीभगवानुवाचमा वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।
तन्मयापादित ह्ग्रे यन्मां प्रार्थथते भवान् ॥
२९॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; मा--मत; वेद-गर्भ--वैदिक ज्ञान की गहराई तक पहुँचने वाले; गा: तन्द्रीमू--निराशहो; सर्गे--सूजन के लिए; उद्यमम्--अध्यवसाय; आवह--जरा हाथ तो लगाओ; तत्--वह ( जो तुम चाहते हो ); मया--मेरेद्वारा; आपादितमू--सम्पन्न हुआ; हि--निश्चय ही; अग्रे--पहले ही; यत्--जो; माम्--मुझसे; प्रार्थयते--माँग रहे हो; भवान्--तुम
तब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने कहा, 'हे ब्रह्मा, हे वेदगर्भ, तुम सृष्टि करने के लिए न तोनिराश होओ, न ही चिन्तित।
तुम जो मुझसे माँग रहे हो वह तुम्हें पहले ही दिया जा चुका है।
भूयस्त्वं तप आतिष्ठ विद्यां चैव मदाश्रयाम् ।
ताभ्यामन्तईदि ब्रह्मन्लोकान्द्रक्ष्यस्यपावृतान्ू ॥
३०॥
भूयः--पुनः ; त्वमू--तुम; तपः--तपस्या; आतिष्ठ--स्थित होओ; विद्याम्--ज्ञान में; च-- भी; एव--निश्चय ही; मत्--मेरा;आश्रयाम्--संरक्षण में; ताभ्याम्ू--उन योग्यताओं द्वारा; अन्त:-- भीतर; हृदि--हृदय में; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; लोकान्--सारेलोक; द्रक्ष्य्सि--देखोगे; अपावृतान्ू-- प्रकट हुआ
हे ब्रह्मा, तुम अपने को तपस्या तथा ध्यान में स्थित करो और मेरी कृपा पाने के लिए ज्ञानके सिद्धान्तों का पालन करो।
इन कार्यों से तुम अपने हृदय के भीतर से हर बात को समझसकोगे।
तत आत्मनि लोके च भक्तियुक्त: समाहितः ।
द्रष्टासि मां ततं ब्रह्मन्मयि लोकांस्त्वमात्मन: ॥
३१॥
ततः--तत्पश्चात्: आत्मनि--तुम अपने में; लोके--ब्रह्माण्ड में; च-- भी; भक्ति-युक्त:--भक्ति में स्थित; समाहितः--पूर्णतयानिमग्न; द्रष्टा असि--तुम देखोगे; माम्--मुझको; ततम्--सर्वत्र व्याप्त; ब्रह्मनू--हे ब्रह्मा; मयि--मुझमें; लोकान्-- सारेब्रह्माण्डों को; त्वम्ू--तुम; आत्मन:--जीव |
हे ब्रह्मा, जब तुम अपने सर्जनात्मक कार्यकलाप के दौरान भक्ति में निमग्न रहोगे तो तुममुझको अपने में तथा ब्रह्माण्ड भर में देखोगे और तुम देखोगे कि मुझमें स्वयं तुम, ब्रह्माण्ड तथासारे जीव हैं।
यदा तु सर्वभूतेषु दारुष्वग्निमिव स्थितम् ।
प्रतिचक्षीत मां लोको जद्यात्तहव कश्मलम् ॥
३२॥
यदा--जब; तु-- लेकिन; सर्व--समस्त; भूतेषु--जीवों में; दारुषु--लकड़ी में; अग्निम्--अग्नि; इब--सहश; स्थितम्--स्थित; प्रतिचक्षीत--तुम देखोगे; मामू--मुझको; लोक:--तथा ब्रह्माण्ड; जह्यात्-त्याग सकता है; तहिं--तब तुरन्त; एब--निश्चय ही; कश्मलमू-मोह |
तुम मुझको सारे जीवों में तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र उसी प्रकार देखोगे जिस तरह काठ में अग्निस्थित रहती है।
केवल उस दिव्य दृष्टि की अवस्था में तुम सभी प्रकार के मोह से अपने को मुक्तकर सकोगे।
यदा रहितमात्मानं भूतेन्द्रियपुणाशयै: ।
स्वरूपेण मयोपेतं पश्यन्स्वाराज्यमृच्छति ॥
३३॥
यदा--जब; रहितम्--से मुक्त; आत्मानम्--आत्मा; भूत--भौतिक तत्त्व; इन्द्रिय-- भौतिक इन्द्रियाँ; गुण-आशयै:-- भौतिकगुणों के प्रभाव के अधीन; स्वरूपेण--शुद्ध जीवन में; मया--मेरे द्वारा; उपेतम्ू--निकट आकर; पश्यन्--देखने से;स्वाराज्यमू-- आध्यात्मिक साम्राज्य; ऋच्छति-- भोग करते हैं।
जब तुम स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के विचार से मुक्त होगे तथा तुम्हारी इन्द्रियाँ प्रकृति के सारेप्रभावों से मुक्त होंगी तब तुम मेरी संगति में अपने शुद्ध रूप की अनुभूति कर सकोगे।
उस समयतुम शुद्ध भावनामृत में स्थित होगे।
नानाकर्मवितानेन प्रजा बह्नीः सिसृक्षत: ।
नात्मावसीदत्यसिंमस्ते वर्षीयान्मदनुग्रह: ॥
३४॥
नाना-कर्म--तरह तरह की सेवा; वितानेन--विस्तार से; प्रजा:--जनता; बह्ली:ः--असंख्य; सिसृक्षत:--वृद्द्धि करने की इच्छाकरते हुए; न--कभी नहीं; आत्मा--आत्मा; अवसीदति--वंचित होगा; अस्मिनू--पदार्थ में; ते--तुम्हारा; वर्षीयान्ू--सदैवबढ़ती हुई; मत्--मेरी; अनुग्रह:--अहैतुकी कृपा।
चूँकि तुमने जनसंख्या को असंख्य रूप में बढ़ाने तथा अपनी सेवा के प्रकारों को विस्तारदेने की इच्छा प्रकट की है, अतः तुम इस विषय से कभी भी वंचित नहीं होगे, क्योंकि सभीकालों में तुम पर मेरी अहैतुकी कृपा बढ़ती ही जायेगी।
ऋषिमाद्यं न बध्नाति पापीयांस््त्वां रजोगुण: ।
यन्मनो मयि निर्बद्धं प्रजा: संसजतोउपि ते ॥
३५॥
ऋषिम्--ऋषि को; आद्यम्--सर्वप्रथम; न--कभी नहीं; बध्नाति--पास फटकता है; पापीयान्--पापी; त्वामू--तुम; रज:-गुण:--रजोगुण; यत्--क्योंकि; मन:--मन; मयि--मुझमें; निर्बद्धम्--लगे रहने पर; प्रजा:--सन्तति; संसृजतः--उत्पन्न करतेहुए; अपि-- भी; ते--तुम्हारे |
तुम आदि ऋषि हो और तुम्हारा मन सदैव मुझमें स्थिर रहता है इसीलिए विभिन्न सन्ततियाँउत्पन्न करने के कार्य में लगे रहने पर भी तुम्हारे पास पापमय रजोगुण फटक भी नहीं सकेगा।
ज्ञातोहं भवता त्वद्य दुर्विज्ञेयोपि देहिनाम् ।
यम्मां त्वं मन्यसेयुक्त भूतेन्द्रियगुणात्मभि: ॥
३६॥
ज्ञातः--ज्ञात; अहम्--मैं; भवता--तुम्हारे द्वारा; तु--लेकिन; अद्य--आज; दुः--कठिन; विज्ञेय:--जाना जा सकना; अपि--के बावजूद; देहिनामू--बद्धजीव के लिए; यत्--क्योंकि; मामू--मुझको; त्वम्--तुम; मन्यसे--समझते हो; अयुक्तम्-बिनाबने हुए; भूत-- भौतिक तत्त्व; इन्द्रिय-- भौतिक इन्द्रियाँ; गुण-- भौतिक गुण; आत्मभि:ः--तथा मिथ्या अभिमान यथा बद्धआत्मा द्वारा |
यद्यपि मैं बद्ध आत्मा द्वारा सरलता से ज्ञेय नहीं हूँ, किन्तु आज तुमने मुझे जान लिया है,क्योंकि तुम जानते हो कि मैं किसी भौतिक वस्तु से विशेष रूप से पाँच स्थूल तथा तीन सूक्ष्मतत्त्वों से नहीं बना हूँ।
तुभ्यं मद्विचिकित्सायामात्मा मे दर्शितोबहिः ।
नालेन सलिले मूलं॑ पुष्करस्य विचिन्बतः ॥
३७॥
तुभ्यम्--तुमको; मत्--मुझको; विचिकित्सायाम्--जानने के तुम्हारे प्रयास करने पर; आत्मा--आत्मा; मे--मेरा; दर्शित: --प्रदर्शित; अबहि:-- भीतर से; नालेन--डंठल से; सलिले--जल में; मूलम्--जड़; पुष्करस्थ--आदि स्त्रोत कमल का;विचिन्वत:--चिंतन करते हुए।
जब तुम यह सोच-विचार कर रहे थे कि तुम्हारे जन्म के कमल-नाल के डंठल का कोईस्त्रोत है कि नहीं और तुम उस डंठल के भीतर प्रविष्ट भी हो गये थे, तब तुम कुछ भी पता नहींलगा सके थे।
किन्तु उस समय मैंने भीतर से अपना रूप प्रकट किया था।
यच्चकर्थाड़ु मत्स्तोत्रं मत्कथाभ्युदयाड्वितम् ।
यद्वा तपसि ते निष्ठा स एब मदनुग्रह: ॥
३८ ॥
यत्--वह जो; चकर्थ--सम्पन्न किया; अड्र--हे ब्रह्मा; मत्-स्तोत्रम्ू-मेरे लिए प्रार्थना; मत्-कथा--मेरे कार्यकलापों के विषयमें शब्द; अभ्युदय-अड्भितम्-मेरी दिव्य लीलाओं की परिगणना करते हुए; यत्--या जो; वा--अथवा; तपसि--तपस्या में;ते--तुम्हारी; निष्ठा-- श्रद्धा; सः--वह; एष:--ये सब; मत्--मेरी; अनुग्रह:-- अहैतुकी कृपा |
हे ब्रह्मा, तुमने मेरे दिव्य कार्यों की महिमा की प्रशंसा करते हुए जो स्तुतियाँ की हैं, मुझेसमझने के लिए तुमने जो तपस्याएँ की हैं तथा मुझमें तुम्हारी जो हढ़ आस्था है--इन सबों कोतुम मेरी अहैतुकी कृपा ही समझो।
प्रीतोहमस्तु भद्वं ते लोकानां विजयेच्छया ।
यदस्तौषीर्गुणमयं निर्गुणं मानुवर्णयन् ॥
३९॥
प्रीत:ः--प्रसन्न; अहम्--मैं; अस्तु--ऐसा ही हो; भद्रमू--समस्त आशीर्वाद; ते--तुमको; लोकानाम्--लोकों का; विजय--गुणगान की; इच्छया--तुम्हारी इच्छा से; यत्--वह जो; अस्तौषी:--तुमने प्रार्थना की है; गुण-मयम्--दिव्य गुणों का वर्णनकरते हुए; निर्गुणम्--यद्यपि मैं समस्त भौतिक गुणों से रहित हूँ; मा--मुझको; अनुवर्णयन्--अच्छे ढंग से वर्णन करते हुए।
मेरे दिव्य गुण जो कि संसारी लोगों को सांसारिक प्रतीत होते हैं, उनका जो वर्णन तुम्हारेद्वारा प्रस्तुत किया गया है उससे मैं अतीव प्रसन्न हूँ।
अपने कार्यो से समस्त लोकों को महिमामयकरने की जो तुम्हारी इच्छा है उसके लिए मैं तुम्हें वर देता हूँ।
य एतेन पुमात्रित्य॑ स्तुत्वा स्तोत्रेण मां भजेतू ।
तस्याशु सम्प्रसीदेयं सर्वकामवरेश्वर: ॥
४०॥
यः--जो कोई; एतेन--इतने से; पुमानू--मनुष्य; नित्यमू--नियमित रूप से; स्तुत्वा--स्तुति करके; स्तोत्रेण--श्लोकों से;माम्--मुझको; भजेत्--पूजे; तस्य--उसकी; आशु--अतिशीघ्र; सम्प्रसीदेयम्--मैं पूरा करूँगा; सर्व--समस्त; काम--इच्छाएँ; वर-ईश्वरः --समस्त वरों का स्वामी ।
जो भी मनुष्य ब्रह्म की तरह प्रार्थना करता है और इस तरह जो मेरी पूजा करता है, उसे शीघ्रही यह वर मिलेगा कि उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हों, क्योंकि मैं समस्त वरों का स्वामी हूँ।
पूर्तन तपसा यज्लैदनिर्योगसमाधिना ।
राद्धं निःश्रेयसं पुंसां मत्प्रीतिस्तत्त्वविन्मतम् ॥
४१॥
पूर्तेन-- परम्परागत अच्छे कार्य द्वारा; तपसा--तपस्या से; यज्जै:--यज्ञों के द्वारा; दानैः--दान के द्वारा; योग--योग द्वारा;समाधिना--समाधि द्वारा; राद्धमू--सफलता; नि: श्रेयसमू--अन्ततोगत्वा लाभप्रद; पुंसामू--मनुष्य की; मत्--मेरी; प्रीति: --तुष्टि; तत्तत-वित्--दक्ष अध्यात्मवादी; मतमू--मत।
दक्ष अध्यात्मवादियों का यह मत है कि परम्परागत सत्कर्म, तपस्या, यज्ञ, दान, योग कर्म,समाधि आदि सम्पन्न करने का चरम लक्ष्य मेरी तुष्टि का आवाहन करना है।
अहमात्मात्मनां धातः प्रेष्ठ: सन्प्रेयसामपि ।
अतो मयि रतिं कुयहिहादिरयत्कृते प्रिय: ॥
४२॥
अहम्ू-मैं; आत्मा--परमात्मा; आत्मनाम्--अन्य सारी आत्माओं का; धात:--निदेशक; प्रेष्ठ: --प्रियतम; सन्--होकर;प्रेयसाम्--समस्त प्रिय वस्तुओं का; अपि--निश्चय ही; अत:--इसलिए; मयि--मेरे प्रति; रतिम्--अनुरक्ति; कुर्यात्ू--करे;देह-आदि:--शरीर तथा मन; यत्-कृते--जिसके कारण; प्रिय:--अत्यन्त प्रियमैं प्रत्येक जीव का परमात्मा हूँ।
मैं परम निदेशक तथा परम प्रिय हूँ।
लोग स्थूल तथा सूक्ष्मशरीरों के प्रति झूठे ही अनुरक्त रहते हैं; उन्हें तो एकमात्र मेरे प्रति अनुरक्त होना चाहिए।
सर्ववेदमयेनेदमात्मनात्मात्मयोनिना ।
प्रजा: सृज यथापूर्व याश्व मय्यनुशेरते ॥
४३॥
सर्व--समस्त; वेद-मयेन--पूर्ण वैदिक ज्ञान के अधीन; इृदम्--यह; आत्मना--शरीर द्वारा; आत्मा--तुम; आत्म-योनिना--सीधे भगवान् से उत्पन्न; प्रजा:--जीव; सृज--उत्पन्न करो; यथा-पूर्वम्--पहले की ही तरह; या:--जो; च-- भी; मयि--मुझमें ;अनुशेरते--स्थित हैं।
मेरे आदेशों का पालन करके तुम पहले की तरह अपने पूर्ण बैदिक ज्ञान से तथासर्वकारण-के-कारण-रूप मुझसे प्राप्त अपने शरीर द्वारा जीवों को उत्पन्न कर सकते हो।
मैत्रेय उबाचतस्मा एवं जगत्स्ष्टे प्रधानपुरुषे श्वरः ।
व्यज्येदं स्वेन रूपेण कझ्जनाभस्तिरोदथे ॥
४४॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; तस्मै-- उससे; एवम्--इस प्रकार; जगत््-स्त््टे--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा के प्रति; प्रधान-पुरुष-ईश्वर:-- आदि भगवान्; व्यज्य इदम्--यह आदेश देकर; स्वेन--अपने; रूपेण --स्वरूप द्वारा; कञ्ल-नाभ:-- भगवान् नारायण;तिरोदधे--अन्तर्धान हो गये |
मैत्रेय मुनि ने कहा : ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ब्रह्म को विस्तार करने का आदेश देकर आदिभगवान् अपने साकार नारायण रूप में अन्तर्धान हो गये।
अध्याय दस: सृष्टि के विभाग
3.10विदुर उवाचअन्त्िते भगवति ब्रह्मा लोकपितामहः ।
प्रजा: ससर्ज कतिधादैहिकीर्मानसीर्विभु: ॥
१॥
विदुरः उवाच-- श्री विदुर ने कहा; अन्तर्हिते--अन्तर्धान होने पर; भगवति-- भगवान् के; ब्रह्मा-- प्रथम उत्पन्न प्राणी ने; लोक-पितामह:--समस्त लोकवासियों के दादा; प्रजा: --सनन््तानें; ससर्ज--उत्पन्न किया; कतिधा: --कितनी; दैहिकी:-- अपने शरीरसे; मानसी:--अपने मन से; विभु:--महान् |
श्री विदुर ने कहा : हे महर्षि, कृपया मुझे बतायें कि लोकवासियों के पितामह ब्रह्मा नेअन्तर्धान हो जाने पर किस तरह से अपने शरीर तथा मन से जीवों के शरीरों को उत्पन्न किया ?
ये च मे भगवस्पृष्टास्त्वय्यर्था बहुवित्तम ।
तान्वदस्वानुपूर्व्येण छिन्धि न: सर्वसंशयान् ॥
२॥
ये--वे सभी; च--भी; मे--मेरे द्वारा; भगवन्--हे शक्तिशाली; पृष्ठाः --पूछे गये; त्वयि--तुमसे; अर्था:--प्रयोजन; बहु-वित्ू-तम--हे परम विद्वान; तानू--उन सबों को; वदस्व--कृपा करके वर्णन करें; आनुपूर्व्येण --आदि से अन्त तक; छिन्धि--कृपयासमूल नष्ट कीजिये; न:--मेरे; सर्व--समस्त; संशयान्--सन्देहों को |
हे महान् विद्वान, कृपा करके मेरे सारे संशयों का निवारण करें और मैंने आपसे जो कुछजिज्ञासा की है उसे आदि से अन्त तक मुझे बताएँ।
सूत उवाचएवं सञ्जोदितस्तेन क्षत्रा कौषारविर्मुनि: ।
प्रीतः प्रत्याह तान्प्रश्नान्हदिस्थानथ भार्गव ॥
३॥
सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; सझ्ञोदितः--प्रोत्साहित हुआ; तेन--उसके द्वारा; क्षत्रा--विदुर से;'कौषारवि:--कुषार का पुत्र; मुनि:--मुनि ने; प्रीत:--प्रसन्न होकर; प्रत्याह--उत्तर दिया; तानू--उन; प्रश्नानू-- प्रश्नों के; हृदि-स्थान्ू--अपने हृदय के भीतर से; अथ--इस प्रकार; भार्गव--हे भूगु पुत्र |
सूत गोस्वामी ने कहा : हे भृगुपुत्र, महर्षि मैत्रेय मुनि विदुर से इस तरह सुनकर अत्यधिकप्रोत्साहित हुए।
हर वस्तु उनके हृदय में थी, अतः वे प्रश्नों का एक एक करके उत्तर देने लगे।
मैत्रेय उवाचविरिश्ञोपि तथा चक्रे दिव्यं वर्षशतं तपः ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य यथाह भगवानज: ॥
४॥
मैत्रेय: उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; विरिज्ञ:ः --ब्रह्मा ने; अपि-- भी; तथा--उस तरह से; चक्रे--सम्पन्न किया; दिव्यम्ू--स्वर्गिक; वर्ष-शतम्--एक सौ वर्ष; तपः--तपस्या; आत्मनि-- भगवान् की; आत्मानम्--अपने आप; आवेश्य--संलग्न रहकर; यथा आह--जैसा कहा गया था; भगवान्-- भगवान्; अज:--अजन्मा |
परम दिद्वान मैत्रेय मुनि ने कहा : हे विदुर, इस तरह भगवान् द्वारा दी गई सलाह के अनुसारब्रह्मा ने एक सौ दिव्य वर्षों तक अपने को तपस्या में संलग्न रखा और अपने को भगवान् कीभक्ति में लगाये रखा।
तद्विलोक्याब्जसम्भूतो वायुना यदधिष्ठित: ।
पद्ममम्भश्न तत्कालकृतवीर्येण कम्पितम् ॥
५॥
तत् विलोक्य--उसके भीतर देखकर; अब्ज-सम्भूत:--कमल से उत्पन्न; वायुना--वायु द्वारा; यत्--जो; अधिष्टित:--जिस परयह स्थित था; पद्ममू--कमल; अम्भ:--जल; च--भी; तत्-काल-कृत--जो नित्य काल द्वारा प्रभावित था; वीर्येण--अपनीनिहित शक्ति से; कम्पितम्ू--काँपता |
तत्पश्चात् ब्रह्म ने देखा कि वह कमल जिस पर बे स्थित थे तथा वह जल जिसमें कमल उगाथा प्रबल प्रचण्ड वायु के कारण काँप रहे हैं।
तपसा होधमानेन विद्यया चात्मसंस्थया ।
विवृद्धविज्ञानबलो न्यपाद्वायुं सहाम्भसा ॥
६॥
तपसा--तपस्या से; हि--निश्चय ही; एधमानेन--बढ़ते हुए; विद्यया--दिव्य ज्ञान द्वारा; च-- भी; आत्म--आत्मा; संस्थया--आत्मस्थ; विवृद्ध--परिपक्व; विज्ञान--व्यावहारिक ज्ञान; बल:--शक्ति; न्यपात्--पी लिया; वायुम्ू--वायु को; सहअम्भसा--जल के सहित।
दीर्घकालीन तपस्या तथा आत्म-साक्षात्कार के दिव्य ज्ञान ने ब्रह्मा को व्यावहारिक ज्ञान मेंपरिपक्व बना दिया था, अतः उन्होंने वायु को पूर्णतः जल के साथ पी लिया।
तद्विलोक्य वियद्व्यापि पुष्करं यदधिष्टितम् ।
अनेन लोकाऋच्प्राग्लीनानन्कल्पितास्मीत्यचिन्तयत् ॥
७॥
तत् विलोक्य--उसे देखकर; वियत्-व्यापि--अतीब विस्तृत; पुष्करम्--कमल; यत्--जो; अधिष्टठितम्--स्थित था; अनेन--इससे; लोकान्--सारे लोक; प्राकु-लीनान्--पहले प्रलय में मग्न; कल्पिता अस्मि--मैं सृजन करूँगा; इति--इस प्रकार;अचिन्तयत्--उसने सोचा।
तत्पश्चात् उन्होंने देखा कि वह कमल, जिस पर वे आसीन थे, ब्रह्माण्ड भर में फैला हुआ हैऔर उन्होंने विचार किया कि उन समस्त लोकों को किस तरह उत्पन्न किया जाय जो इसके पूर्वउसी कमल में लीन थे।
पद्मकोशं तदाविश्य भगवत्कर्मचोदितः ।
एक॑ व्यभाड्क्षीदुरुधा त्रिधा भाव्यं द्विसप्तथा ॥
८॥
पदा-कोशम्--कमल-चक्र में; तदा--तब; आविश्य--प्रवेश करके; भगवत्-- भगवान् द्वारा; कर्म--कार्यकलाप में;चोदित:--प्रोत्साहित किया गया; एकम्--एक; व्यभाड्क्षीत्--विभाजित कर दिया; उरुधा--महान् खण्ड; त्रिधा--तीनविभाग; भाव्यम्--आगे सृजन करने में समर्थ; द्वि-सप्तधा--चौदह विभाग ।
इस तरह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में लगे ब्रह्माजी कमल के कोश में प्रविष्ट हुए औरचूँकि वह सारे ब्रह्माण्ड में फैला हुआ था, अतः उन्होंने इसे ब्रह्माण्ड के तीन विभागों में औरउसके बाद चौदह विभागों में बाँट दिया।
एतावाझ्जीवलोकस्य संस्थाभेद: समाहतः ।
धर्मस्य हानिमित्तस्थ विपाकः परमेष्ठयसौ ॥
९॥
एतावान्ू--यहाँ तक; जीव-लोकस्य--जीवों द्वारा निवसित लोकों के ; संस्था-भेदः--निवास स्थान की विभिन्न स्थितियाँ;समाहतः--पूरी तरह सम्पन्न; धर्मस्थ--धर्म का; हि--निश्चय ही; अनिमित्तस्य--अहैतुकता का; विपाक:--परिपक्व अवस्था;परमेष्ठी --ब्रह्माण्ड में सर्वोच्च व्यक्ति; असौ--उस |
परिपक्व दिव्य ज्ञान में भगवान् की अहैतुकी भक्ति के कारण ब्रह्माजी ब्रह्माण्ड में सर्वोच्चपुरुष हैं।
इसीलिए उन्होंने विभिन्न प्रकार के जीवों के निवास स्थान के लिए चौदह लोकों कासृजन किया।
विदुर उवाचयथात्थ बहुरूपस्य हरेरद्धुतकर्मण: ।
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन्यथा वर्णय नः प्रभो ॥
१०॥
विदुर: उवाच--विदुर ने कहा; यथा--जिस तरह; आत्थ--आपने कहा है; बहु-रूपस्य--विभिन्न रूपों वाले; हरेः-- भगवान्के; अद्भुत--विचित्र; कर्मण:-- अभिनेता का; काल--समय; आख्यम्--नामक; लक्षणम्--लक्षण; ब्रह्मनू--हे विद्वानब्राह्मण; यथा--यह जैसा है; वर्णय--कृपया वर्णन करें; नः--हमसे; प्रभो--हे प्रभु ॥
विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे प्रभु, हे परम विद्वान ऋषि, कृपा करके नित्यकाल का वर्णन करेंजो अद्भुत अभिनेता परमेश्वर का दूसरा रूप है।
नित्य काल के क्या लक्षण हैं ? कृपा करकेहमसे विस्तार से कहें।
मैत्रेय उवाचगुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोप्रतिष्ठित: ।
पुरुषस्तदुपादानमात्मानं लीलयासूजत् ॥
११॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; गुण-व्यतिकर-- प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रियाओं का; आकार: --स््रोत; निर्विशेष:--विविधता रहित; अप्रतिष्ठित:--असीम; पुरुष: --परम पुरुष का; तत्--वह; उपादानम्--निमित्त; आत्मानम्-- भौतिक सृष्टि;लीलया--लीलाओं द्वारा; असृजत्--उत्पन्न किया
मैत्रेय ने कहा : नित्यकाल ही प्रकृति के तीनों गुणों की अन्योन्य क्रियाओं का आदि स्त्रोतहै।
यह अपरिवर्तनशील तथा सीमारहित है और भौतिक सृजन की लीलाओं में यह भगवान् केनिमित्त रूप में कार्य करता है।
विश्व वै ब्रह्मतन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया ।
ईश्वेरेण परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना ॥
१२॥
विश्वम्-- भौतिक चक्र; बै--निश्चय ही; ब्रह्म--ब्रह्म; तत्-मात्रमू--उसी तरह का; संस्थितम्--स्थित; विष्णु-मायया--विष्णुकी शक्ति से; ई श्वरण -- भगवान् द्वारा; परिच्छिन्नम्ू--पृथक् की गई; कालेन--नित्य काल द्वारा; अव्यक्त--अप्रकट; मूर्तिना--ऐसे स्वरूप द्वारा
यह विराट जगत भौतिक शक्ति के रूप में अप्रकट तथा भगवान् के निर्विशेष स्वरूप कालद्वारा भगवान् से विलग किया हुआ है।
यह विष्णु की उसी भौतिक शक्ति के प्रभाव के अधीनभगवान् की वस्तुगत अभिव्यक्ति के रूप में स्थित है।
यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीहशम् ॥
१३॥
यथा--जिस तरह है; इृदानीम--इस समय; तथा--उसी तरह; अग्रे--प्रारम्भ में; च--तथा; पश्चात्-- अन्त में; अपि-- भी; एतत्ईहशम्--वैसा ही रहता है |
यह विराट जगत जैसा अब है वैसा ही रहता है।
यह भूतकाल में भी ऐसा ही था और भविष्यमें इसी तरह रहेगा।
सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः ।
कालद्रव्यगुणैरस्य त्रिविध: प्रतिसड्क्रम: ॥
१४॥
सर्ग:--सृष्टि; नव-विध: --नौ भिन्न-भिन्न प्रकार की; तस्य--इसका; प्राकृत:-- भौतिक; वैकृत:--प्रकृति के गुणों द्वारा; तु--लेकिन; यः--जो; काल--नित्यकाल; द्रव्य--पदार्थ; गुणैः --गुणों के द्वारा; अस्थ--इसके; त्रि-विध: --तीन प्रकार;प्रतिसड्क्रम:--संहार |
उस एक सृष्टि के अतिरिक्त जो गुणों की अन्योन्य क्रियाओं के फलस्वरूप स्वाभाविक रूप से घटित होती है नौ प्रकार की अन्य सृष्टियाँ भी हैं।
नित्य काल, भौतिक तत्त्वों तथा मनुष्य केकार्य के गुण के कारण प्रलय तीन प्रकार का है।
आद्मस्तु महतः सर्गो गुणवैषम्यमात्मनः ।
द्वितीयस्त्वहमो यत्र द्रव्यज्ञानक्रियोदयः ॥
१५॥
आद्य:-प्रथम; तु--लेकिन; महत:-- भगवान् से पूर्ण उद्भास की; सर्ग:--सृष्टि; गुण-वैषम्यम्-- भौतिक गुणों की अन्योन्यक्रिया; आत्मन:--ब्रह्म का; द्वितीय:--दूसरी; तु--लेकिन; अहम: --मिथ्या अहंकार; यत्र--जिसमें; द्रव्य-- भौतिक घटक;ज्ञान--भौतिक ज्ञान; क्रिया-उदय:--कार्य की जागृति
नौ सृष्टरियों में से पहली सृष्टि महत् तत्त्वसृष्टि अर्थात् भौतिक घटकों की समग्रता है, जिसमेंपरमेश्वर की उपस्थिति के कारण गुणों में परस्पर क्रिया होती है।
द्वितीय सृष्टि में मिथ्या अहंकारउत्पन्न होता है, जिसमें से भौतिक घटक, भौतिक ज्ञान तथा भौतिक कार्यकलाप प्रकट होते हैं।
भूतसर्गस्तृतीयस्तु तन्मात्रो द्रव्यशक्तिमान् ।
चतुर्थ ऐन्द्रियः सर्गो यस्तु ज्ञानक्रियात्मक: ॥
१६॥
भूत-सर्ग:--पदार्थ की उत्पत्ति; तृतीय:--तीसरी; तु--लेकिन; ततू-मात्र:--इन्द्रियविषय; द्रव्य--तत्वों के; शक्तिमान्--स्त्रष्टा;चतुर्थ: --चौथा; ऐन्द्रियः--इन्द्रियों के विषय में; सर्ग:--सृष्टि; यः--जो; तु--लेकिन; ज्ञान--ज्ञान-अर्जन; क्रिया--कार्य करनेकी; आत्मक:--मूलतः ।
इन्द्रिय विषयों का सृजन तृतीय सृष्टि में होता है और इनसे तत्त्व उत्पन्न होते हैं।
चौथी सृष्टि हैज्ञान तथा कार्य-क्षमता ( क्रियाशक्ति ) का सृजन।
वैकारिको देवसर्ग: पञ्ञमो यन्मयं मनः ।
षष्ठस्तु तमसः सर्गो यस्त्वबुद्धिकृतः प्रभोः ॥
१७॥
वैकारिक:--सतोगुण की अन्योन्य क्रिया; देव--देवता या अधिष्ठाता देव; सर्ग:--सृष्टि; पश्ञमः--पाँचवीं; यत्ू-- जो; मयम्--सम्पूर्णता; मनः--मन; षष्ठ:--छठी; तु--लेकिन; तमस:--तमोगुण की; सर्ग:--सृष्टि; यः--जो; तु--अनुपूरक; अबुद्धि-कृतः--मूर्ख बनाई गई; प्रभो:--स्वामी की |
पाँचवीं सृष्टि सतोगुण की अन्योन्य क्रिया द्वारा बने अधिष्ठाता देवों की है, जिसका सारसमाहार मन है।
छठी सृष्टि जीव के अज्ञानतापूर्ण अंधकार की है, जिससे स्वामी मूर्ख की तरहकार्य करता है।
घडिमे प्राकृताः सर्गा वैकृतानपि मे श्रुणु ।
रजोभाजो भगवतो लीलेयं हरिमेधसः ॥
१८॥
घट्ू--छठी; इमे--ये सब; प्राकृताः:--भौतिक शक्ति की; सर्गाः--सृष्टियाँ; वैकृतान्--ब्रह्मा द्वारा गौण सृष्टियाँ; अपि-- भी;मे--मुझसे; श्रुणु--सुनो; रज:-भाज:--रजोगुण के अवतार ( ब्रह्म ) का; भगवतः--अत्यन्त शक्तिशाली की; लीला--लीला;इयम्--यह; हरि-- भगवान्; मेधस:--ऐसे मस्तिष्क वाले का
उपर्युक्त समस्त सृष्टियाँ भगवान् की बहिरंगा शक्ति की प्राकृतिक सृष्टियाँ हैं।
अब मुझसे उनब्रह्माजी द्वारा की गई सृष्टियों के विषय में सुनो जो रजोगुण के अवतार हैं और सृष्टि के मामले मेंजिनका मस्तिष्क भगवान् जैसा ही है।
सप्तमो मुख्यसर्गस्तु षड्िवधस्तस्थुषां च यः ।
वनस्पत्योषधिलतात्वक्सारा वीरुधो द्रुमा: ॥
१९॥
सप्तम:ः--सातवीं; मुख्य-- प्रधान; सर्ग: --सृष्टि; तु--निस्सन्देह; षघटू-विध:--छ: प्रकार की; तस्थुषाम्ू--न चलने वालों की;च--भी; यः--वे; वनस्पति--बिना फूल वाले फल वृक्ष; ओषधि--पेड़-पौधे जो फल के पकने तक जीवित रहते हैं; लता--लताएँ; त्वक्साराः:--नलीदार पौधे; वीरुध:--बिना आधार वाली लताएँ; द्रुमाः--फलफूल वाले वृक्ष
सातवीं सृष्टि अचर प्राणियों की है, जो छः प्रकार के हैं: फूलरहित फलवाले वृक्ष, फल पकने तक जीवित रहने वाले पेड़-पौधे, लताएं, नलीदार पौधे; बिना आधार वाली लताएँ तथा'फलफूल वाले वृक्ष।
उत्स्नोतसस्तमःप्राया अन्तःस्पर्शा विशेषिण: ॥
२०॥
उत्स्रोतस:--ऊर्ध्वगामी, नीचे से ऊपर की ओर; तम:-प्राया:--प्रायः अचेत; अन्तः-स्पर्शा:-- भीतर कुछ कुछ अनुभव करतेहुए; विशेषिण:--नाना प्रकार के स्वरूपों से युक्त |
सारे अचर पेड़-पौधे ऊपर की ओर बढ़ते हैं।
वे अचेतप्राय होते हैं, किन्तु भीतर ही भीतरउनमें पीड़ा की अनुभूति होती है।
वे नाना प्रकारों में प्रकट होते हैं।
तिरश्नामष्टम: सर्ग: सोउष्टाविंशद्विधो मतः ।
अविदो भूरितमसो प्राणज्ञा हृद्यवेदिन: ॥
२१॥
तिरश्वामू--निम्न पशुओं की जातियाँ; अष्टम:--आठवीं ; सर्ग:--सृष्टि; सः--वे हैं; अष्टाविंशत्-- अट्टाईस; विध:--प्रकार;मतः--माने हुए; अविदः--कल के ज्ञान से रहित; भूरि--अत्यधिक; तमस:--अज्ञानी; प्राण-ज्ञा:--गन्ध से इच्छित वस्तुओं कोजानने वाले; हृदि अवेदिन:--हृदय में बहुत कम स्मरण रखने वाले |
आठवीं सृष्टि निम्नतर जीवयोनियों की है और उनकी अट्ठाईस विभिन्न जातियाँ हैं।
वे सभीअत्यधिक मूर्ख तथा अज्ञानी होती हैं।
वे गन्ध से अपनी इच्छित वस्तुएँ जान पाती हैं, किन्तु हृदयमें कुछ भी स्मरण रखने में अशक्य होती हैं।
गौरजो महिषः कृष्ण: सूकरो गवयो रुरु: ।
द्विशफा: पशवश्चेमे अविरुष्टश्न सत्तम ॥
२२॥
गौः--गाय; अजः--बकरी; महिष:-- भेंस; कृष्ण: --एक प्रकार का बारहसिंगा; सूकर:--सुअर; गवयः--पशु की एक जाति( नीलगाय ); रुरु:--हिरन; द्वि-शफा:--दो खुरों वाले; पशव:--पशु; च-- भी; इमे--ये सभी; अवि:--मेंढा; उ्ट:--ऊँट;च--तथा; सत्तम-हे शुद्धतम |
हे शुद्धतम विदुर, निम्नतर पशुओं में गाय, बकरी, भेंस, काला बारहसिंगा, सूकर,नीलगाय, हिरन, मेंढा तथा ऊँट ये सब दो खुरों वाले हैं।
खरोश्वो श्वतरो गौर: शरभश्नमरी तथा ।
एते चैकशफा: क्षत्तः श्रुणु पञ्ननखान्पशून् ॥
२३॥
खरः--गधा; अश्वः--घोड़ा; अश्वतर: --खच्चर; गौर: --सफेद हिरन; शरभ: -- भैंसा; चमरी -- चँवरी गाय; तथा--इस प्रकार;एते--ये सभी; च--तथा; एक--केवल एक; शफा:--खुर; क्षत्त:--हे विदुर; श्रेणु--सुनो; पञ्ञ-- पाँच; नखान्--नाखूनवाले; पशून्--पशुओं के बारे में |
घोड़ा, खच्चर, गधा, गौर, शरभ-भेंसा तथा चँवरी गाय इन सबों में केवल एक खुर होताहै।
अब मुझसे उन पशुओं के बारे में सुनो जिनके पाँच नाखून होते हैं।
श्वा सृगालो वृको व्याप्रो मार्जार: शशशल्लकौ ।
सिंहः कपिर्गजः कूर्मो गोधा च मकरादय: ॥
२४॥
श्रा--कुत्ता; सृगाल:--सियार; वृकः--लोमड़ी; व्याप्र:--बाघ; मार्जार: --बिल्ली; शश--खरगोश; शललकौ--सजारू( स्थाही, जिसके शरीर पर काँटे होते हैं )।
सिंहः--शेर; कपि:--बन्दर; गज:--हाथी; कूर्म:--कछुआ; गोधा--गोसाप( गोह ); च-- भी; मकर-आदय: --मगर इत्यादि |
कुत्ता, सियार, बाघ, लोमड़ी, बिल्ली, खरगोश, सजारु ( स्याही ), सिंह, बन्दर, हाथी,कछुवा, मगर, गोसाप ( गोह ) इत्यादि के पंजों में पाँच नाखून होते हैं।
वे पञ्ननख अर्थात् पाँचनाखूनों वाले पशु कहलाते हैं।
कड्डगृश्रबकश्येनभासभल्लूकबर्हिण: ।
हंससारसचक्राहकाकोलूकादयः खगा: ॥
२५॥
कड्ढू--बगुला; गृश्च--गीध; बक--बगुला; श्येन--बाज; भास-- भास; भल्लूक-- भल्लूक ( भालू ); ब्हिण: --मोर; हंस--हंस; सारस--सारस; चअक्राह्म-- चक्रवाक, ( चकई चकवा ); काक--कौवा; उलूक- उल्लू; आदय: --इत्यादि; खगा:--पक्षी ।
कंक, गीध, बगुला, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चक्रवाक, कौवा, उल्लूइत्यादि पक्षी कहलाते हैं।
अर्वाक्स्नोतस्तु नवमः क्षत्तेकविधो नृणाम् ।
रजोधिका: कर्मपरा दुःखे च सुखमानिन: ॥
२६॥
अर्वाक्--नीचे की ओर; स्रोत:--भोजन की नली; तु--लेकिन; नवमः--नौवीं ; क्षत्त:--हे विदुर; एक-विध:--एक जाति;नृणाम्--मनुष्यों की; रज:--रजोगुण; अधिका: --अत्यन्त प्रधान; कर्म-परा:--कर्म में रुचि रखने वाले; दुःखे--दुख में; च--लेकिन; सुख--सुख; मानिन:--सोचने वाले |
मनुष्यों की सृष्टि क्रमानुसार नौवीं है।
यही केवल एक ही योनि ( जाति ) ऐसी है और अपनाआहार उदर में संचित करते हैं।
मानव जाति में रजोगुण की प्रधानता होती है।
मनुष्यगदुखीजीवन में भी सदैव व्यस्त रहते हैं, किन्तु वे अपने को सभी प्रकार से सुखी समझते हैं।
वैकृतास्त्रय एवते देवसर्गश्व सत्तम ।
वैकारिकस्तु यः प्रोक्त: कौमारस्तूभयात्मक: ॥
२७॥
वैकृताः--ब्रह्मा की सृष्टियाँ; त्रयः--तीन प्रकार की; एव--निश्चय ही; एते--ये सभी; देव-सर्ग:--देवताओं का प्राकट्य; च--भी; सत्तम--हे उत्तम विदुर; वैकारिक:--प्रकृति द्वारा देवताओं की सृष्टि; तु--लेकिन; यः--जो; प्रोक्त:--पहले वर्णित;'कौमारः--चारों कुमार; तु--लेकिन; उभय-आत्मकः--दोनों प्रकार ( यथा वैकृत तथा प्राकृत )
हे श्रेष्ठ विदुर, ये अन्तिम तीन सृष्टियाँ तथा देवताओं की सृष्टि ( दसवीं सृष्टि ) वैकृत सृष्टियाँहैं, जो पूर्ववर्णित प्राकृत ( प्राकृतिक ) सृष्टियों से भिन्न हैं।
कुमारों का प्राकट्य दोनों ही सृष्टियाँहैं।
देवसर्गश्राष्टविधो विबुधा: पितरोसुरा: ।
गन्धर्वाप्सरस: सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणा: ॥
२८॥
भूतप्रेतपिशाचाश्च विद्याश्रा: किन्नरादय: ।
दशते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वस॒क्कता: ॥
२९॥
देव-सर्ग:--देवताओं की सृष्टि; च--भी; अष्ट-विध:-- आठ प्रकार की; विबुधा: --देवता; पितर:--पूर्वज; असुरा: --असुरगण; गन्धर्व--उच्चलोक के दक्ष कलाकार; अप्सरस:--देवदूत; सिद्धा:--योगशक्तियों में सिद्ध व्यक्ति; यक्ष--सर्वोत्कृष्टरक्षक; रक्षांसि--राक्षस; चारणा:--देवलोक के गवैये; भूत--जिन्न, भूत; प्रेत--बुरी आत्माएँ, प्रेत; पिशाचा:-- अनुगामी भूत;च--भी; विद्याक्रा:--विद्याधर नामक दैवी निवासी; किन्नर--अतिमानव; आदय:--इत्यादि; दश एते--ये दस ( सृष्टियाँ );विदुर--हे विदुर; आख्याता:--वर्णित; सर्गा:--सृष्टियाँ; ते--तुमसे; विश्व-सृक्--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ( ब्रह्मा ) द्वारा; कृता:--सम्पन्नदेवताओं की सृष्टि आठ प्रकार की है--( १) देवता (२) पितरगण (३) असुरगण(४) गन्धर्व तथा अप्सराएँ (५) यक्ष तथा राक्षस ( ६ ) सिद्ध, चारण तथा विद्याधर ( ७ ) भूत,प्रेत तथा पिशाच (८ ) किन्नर--अतिमानवीय प्राणी, देवलोक के गायक इत्यादि।
ये सब ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न हैं।
अतः परं प्रवक्ष्यामि वंशान्मन्वन्तराणि चएवं रजःप्लुत: स्त्रष्टा कल्पादिष्वात्म भूहरिः ।
सृजत्यमोघसड्डल्प आत्मैवात्मानमात्मना ॥
३०॥
अतः--यहाँ; परम्--बाद में; प्रवक्ष्यामि--बतलाऊँगा; वंशानू--वंशज; मन्वन्तराणि--मनुओं के विभिन्न अवतरण; च--तथा;एवम्--इस प्रकार; रज:-प्लुत:--रजोगुण से संतृप्त; स्त्रष्टा--निर्माता; कल्प-आदिषु--विभिन्न कल्पों में; आत्म-भू: --स्वयंअवतार; हरिः-- भगवान्; सृजति--उत्पन्न करता है; अमोघ--बिना चूक के; सड्डूल्प:--हृढ़निश्चय; आत्मा एव--वे स्वयं;आत्मानम्--स्वयं; आत्मना--अपनी ही शक्ति से |
अब मैं मनुओं के वंशजों का वर्णन करूँगा।
स्त्रष्टा ब्रह्मा जो कि भगवान् के रजोगुणीअवतार हैं भगवान् की शक्ति के बल से प्रत्येक कल्प में अचूक इच्छाओं सहित विश्व प्रपंच कीसृष्टि करते हैं।
अध्याय ग्यारह: परमाणु से समय की गणना
3.11मैत्रेय उवाचचरम: सद्विशेषाणामनेकोसंयुतः सदा ।
परमाणु: स विज्ञेयोनृणामैक्यभ्रमो यत: ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; चरम:--चरम; सत्-- प्रभाव; विशेषाणाम्ू--लक्षण; अनेकः--असंख्य; असंयुतः--अमिश्रित;सदा--सदैव; परम-अणु:--परमाणु; सः--वह; विज्ञेयः--जानने योग्य; नृणाम्ू-- मनुष्यों का; ऐक्च--एकत्व; भ्रम: -- भ्रमित;यतः--जिससे |
भौतिक अभिव्यक्ति का अनन्तिम कण जो कि अविभाज्य है और शरीर रूप में निरुपित नहींहुआ हो, परमाणु कहलाता है।
यह सदैव अविभाज्य सत्ता के रूप में विद्यमान रहता है यहाँ तककि समस्त स्वरूपों के विलीनीकरण (लय ) के बाद भी।
भौतिक देह ऐसे परमाणुओं कासंयोजन ही तो है, किन्तु सामान्य मनुष्य इसे गलत ढ़ग से समझता है।
सत एव पदार्थस्य स्वरूपावस्थितस्य यत् ।
कैवल्यं परममहानविशेषो निरन्तर: ॥
२॥
सतः--प्रभावशाली अभिव्यक्ति का; एब--निश्चय ही; पद-अर्थस्य--भौतिक वस्तुओं का; स्वरूप-अवस्थितस्य--प्रलय कालतक एक ही रूप में रहने वाला; यत्--जो; कैवल्यम्--एकत्व; परम--परम; महानू-- असीमित; अविशेष:--स्वरूप;निरन्तर: --शाश्वत रीति से।
परमाणु अभिव्यक्त ब्रह्मण्ड की चरम अवस्था है।
जब वे विभिन्न शरीरों का निर्माण कियेबिना अपने ही रूपों में रहते हैं, तो वे असीमित एकत्व ( कैवल्य ) कहलाते हैं।
निश्चय हीभौतिक रूपों में विभिन्न शरीर हैं, किन्तु परमाणु स्वयं में पूर्ण अभिव्यक्ति का निर्माण करते हैं।
एवं कालोप्यनुमितः सौधक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम ।
संस्थानभुक्त्या भगवानव्यक्तो व्यक्तभुग्विभु: ॥
३॥
एवम्--इस प्रकार; काल:--समय; अपि-- भी; अनुमितः--मापा हुआ; सौक्ष्म्ये--सूक्ष्म में; स्थौल्ये--स्थूल रूप में; च-- भी;सत्तम--हे सर्वश्रेष्ठ; संस्थान--परमाणुओं का संयोग; भुक्त्या--गति द्वारा; भगवान्-- भगवान्; अव्यक्त: --अप्रकट; व्यक्त-भुक्--समस्त भौतिक गति को नियंत्रित करने वाला; विभुः--महान् बलवान्।
काल को शरीरों के पारमाणविक संयोग की गतिशीलता के द्वारा मापा जा सकता है।
कालउन सर्वशक्तिमान भगवान् हरि की शक्ति है, जो समस्त भौतिक गति का नियंत्रण करते हैं यद्यपिवे भौतिक जगत में दृष्टिगोचर नहीं हैं।
स काल: परमाणुर्वे यो भुड़े परमाणुताम् ।
सतोविशेषभुग्यस्तु स काल: परमो महान् ॥
४॥
सः--वह; काल:--नित्यकाल; परम-अणु:--पारमाणविक; बै--निश्चय ही; य:--जो; भुड़े --गुजरता है; परम-अणुताम्--एक परमाणु का अवकाश; सतः --सम्पूर्ण समुच्चय; अविशेष-भुक्--अद्वैत प्रदर्शन से गुजरने वाला; यः तु--जो; सः--वह;काल:--काल; परम: --परम; महान्--महान् |
परमाणु काल का मापन परमाणु के अवकाश विशेष को तय कर पाने के अनुसार कियाजाता है।
वह काल जो परमाणुओं के अव्यक्त समुच्चय को प्रच्छन्न करता है महाकाल कहलाताहै।
अणुट्दों परमाणू स्यात््॒रसरेणुस्त्रयः स्मृतः ।
जालार्करशए्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात् ॥
५॥
अणु:--द्विगुण परमाणु; द्वौ--दो; परम-अणु--परमाणु; स्थात्--बनते हैं; त्रसरेणु;:--षट् परमाणु; त्रय:--तीन; स्मृतः --विचार किया हुआ; जाल-अर्क--खिड़की के पर्दे के छेदों से होकर धूप को; रश्मि--किरणों द्वारा; अवग॒त:--जाना जा सकताहै; खम् एब--आकाश की ओर; अनुपतन् अगात्--ऊपर जाते हुए
स्थूल काल की गणना इस प्रकार की जाती है: दो परमाणु मिलकर एक द्विगुण परमाणु( अणु ) बनाते हैं और तीन द्विगुण परमाणु ( अणु ) एक षट् परमाणु बनाते हैं।
यह षट्परमाणुउस सूर्य प्रकाश में दृष्टिगोचर होता है, जो खिड़की के परदे के छेदों से होकर प्रवेश करता है।
यह आसानी से देखा जा सकता है कि षट्परमाणु आकाश की ओर ऊपर जाता है।
त्रसरेणुत्रिकं भुड् यः काल: स त्रुटि: स्मृतः ।
शतभागस्तु वेधः स्यात्तैस्त्रिभिस्तु लव: स्मृतः ॥
६॥
त्रसरेणु-त्रिकम्ू--तीन षट् परमाणुओं का संयोग; भुड्ढे --जब वे संयुक्त होते हैं; य:--जो; काल:--काल की अवधि; सः--बह; त्रुटिः--त्रुटि; स्मृत:--कहलाती है; शत-भाग:--एक सौ त्रुटियाँ; तु--लेकिन; वेध: --वेध नाम से; स्थातू--यदि ऐसाहोता है; तैः--उनके द्वारा; त्रिभि:--तीन गुना; तु--लेकिन; लवः--लव; स्मृतः--ऐसा कहलाता है।
तीन त्रसरेणुओं के समुच्चयन में जितना समय लगता है, वह त्रुटि कहलाता है और एक सौत्रुटियों का एक वेध होता है।
तीन वेध मिलकर एक लव बनाते हैं।
निमेषस्त्रिलवो ज्ञेय आम्नातस्ते त्रय: क्षण: ।
क्षणान्पञ्ञ विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्ञ च ॥
७॥
निमेष:--निमेष नामक काल की अवधि; त्रि-लवः--तीन लवों की अवधि; ज्ञेय:--जानी जानी चाहिए; आम्नात:--ऐसाकहलाते हैं; ते--वे; त्रय:--तीन; क्षण:--क्षण; क्षणान्ू--ऐसे क्षण; पञ्च--पाँच; विदु:--समझना चाहिए; काष्ठाम्ू-काष्टानामक कालावधि; लघु--लघु नामक कालावधि; ता:--वे; दश पञ्ञ--पन्द्रह;।
च--भी |
तीन लवों की कालावधि एक निमेष के तुल्य है, तीन निमेष मिलकर एक क्षण बनाते हैं,पाँच क्षण मिलकर एक काष्ठा और पन्द्रह काष्ठा मिलकर एक लघु बनाते हैं।
लघूनि बै समाम्नाता दश पञ्ञ च नाडिका ।
तेद्ठे मुहूर्त: प्रहरः षड्याम: सप्त वा नृणाम् ॥
८॥
लघूनि--ऐसे लघु ( प्रत्येक दो मिनट का ); वै--सही सही; समाम्नाता--कहलाता है; दश पश्च--पन्द्रह; च-- भी; नाडिका--एक नाडिका; ते--उनमें से; द्वे--दो; मुहूर्त:-- क्षण; प्रहरः--तीन घंटे; घट्--छ: ; याम:--दिन या रात का चौथाई भाग;सप्त--सात; वा--अथवा; नृणाम्--मनुष्य की गणना का
पन्द्रह लघु मिलकर एक नाडिका बनाते हैं जिसे दण्ड भी कहा जाता है।
दो दण्ड से एकमुहूर्त बनता है।
और मानवीय गणना के अनुसार छः: या सात दण्ड मिलकर दिन या रात काचतुर्थाश बनाते हैं।
द्वादशार्धपलोन्मानं चतुर्मिश्चतुरडुलैः ।
स्वर्णमाषै: कृतच्छिद्रं यावत्प्रस्थजलप्लुतम् ॥
९॥
द्वादश-अर्ध--छह; पल-- भार की माप का; उन्मानम्--मापक पात्र, मापना; चतुर्भि:--चार के भार के बराबर; चतुः-अड्'ुलैः --चार अंगुल माप का; स्वर्ण--सोने के; माषैः-- भार का; कृत-छिद्रमू--छेद बनाकर; यावत्--जितना; प्रस्थ--एकप्रस्थ के जितना; जल-प्लुतमू--जल से भरा।
एक नाडिका या दण्ड के मापने का पात्र छ: पल भार ( १४ औंस ) वाले ताम्र पात्र से तैयारकिया जा सकता है, जिसमें चार माषा भार वाले तथा चार अंगुल लम्बे सोने की सलाई से एकछेद बनाया जाता है।
जब इस पात्र को जल में रखा जाता है, तो इस पात्र को लबालब भरने मेंजो समय लगता है, वह एक दण्ड कहलाता है।
यामाश्चत्वारश्नत्वारो मर्त्यानामहनी उभे ।
पक्ष: पञ्जदशाहानि शुक्ल: कृष्णश्च मानद ॥
१०॥
यामा:--तीन घंटे; चत्वार: --चार; चत्वार: --तथा चार; मर्त्यानामू--मनुष्यों के; अहनी--दिन की अवधि; उभे--रात तथा दिनदोनों; पक्ष:--पखवाड़ा; पञ्च-दश--पन्द्रह; अहानि--दिन; शुक्ल:--उजाला; कृष्ण:-- अँधेरा; च-- भी; मानद--मापा हुआ।
यह भी गणना की गई है कि मनुष्य के दिन में चार प्रहर या याम होते हैं और रात में भी चारप्रहर होते हैं।
इसी तरह पन्द्रह दिन तथा पन्द्रह रातें पखवाड़ा कहलाती हैं और एक मास में दो'पखवाड़े ( पक्ष ) उजाला ( शुक्ल ) तथा अँधियारा ( कृष्ण ) होते हैं।
तयोः समुच्चयो मास: पितृणां तदहर्निशम् ।
द्वै तावृतु: षडयन॑ दक्षिणं चोत्तरं दिवि ॥
११॥
तयो:--उनके ; समुच्चय: --योग; मास:--महीना; पितृणाम्--पित-लोकों का; तत्--वह ( मास ); अहः-निशम्--दिन तथारात; द्वौ--दोनों; तौ--महीने; ऋतु: --ऋतु; घट्ू--छ:; अयनम्--छह महीनों में सूर्य की गति; दक्षिणम्--दक्षिणी; च-- भी;उत्तरमू--उत्तरी; दिवि--स्वर्ग में |
दो पक्षों को मिलाकरएक मास होता है और यह अवधि पित-लोकों का पूरा एक दिन तथारात है।
ऐसे दो मास मिलकर एक ऋतु बनाते हैं और छह मास मिलकर दक्षिण से उत्तर तक सूर्यकी पूर्ण गति को बनाते हैं।
अयने चाहनी प्राह॒र्वत्सरो द्वादश स्मृतः ।
संवत्सरशतं नृणां परमायुर्निरूपितम् ॥
१२॥
अयने--सूर्य की गति ( छह मास की ) में; च--तथा; अहनी--देवताओं का दिन; प्राहु:--कहा जाता है; वत्सर:--एक पंचांगवर्ष; द्वादश--बारह मास; स्मृतः--ऐसा कहलाता है; संवत्सर-शतम्--एक सौ वर्ष; नृणाम्--मनुष्यों की; परम-आयु:--जीवनकी अवधि, उप्र; निरूपितम्--अनुमानित की जाती है।
दो सौर गतियों से देवताओं का एक दिन तथा एक रात बनते हैं और दिन-रात का यहसंयोग मनुष्य के एक पूर्ण पंचांग वर्ष के तुल्य है।
मनुष्य की आयु एक सौ वर्ष की है।
ग्रहर्क्षताराचक्रस्थ: परमाण्वादिना जगतू ।
संवत्सरावसानेन पर्येत्यनिमिषो विभु: ॥
१३॥
ग्रह--प्रभावशील ग्रह यथा चन्द्रमा; ऋक्ष--अश्विनी जैसे तारे; तारा--तारा; चक्र-स्थ:--कक्ष्या में; परम-अणु-आदिना--'परमाणुओं सहित; जगत्--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; संवत्सर-अवसानेन--एक वर्ष के अन्त होने पर; पर्येति-- अपनी कक्ष्या पूरी करताहै; अनिमिष: --नित्य काल; विभुः--सर्वशक्तिमान ।
सारे ब्रह्माण्ड के प्रभावशाली नक्षत्र, ग्रह, तारे तथा परमाणु पर ब्रह्म के प्रतिनिधि दिव्यकाल के निर्देशानुसार अपनी अपनी कक्ष्याओं में चक्कर लगाते हैं।
संवत्सर: परिवत्सर इडावत्सर एव च ।
अनुव॒त्सरो वत्सरश्न विदुरैवं प्रभाष्यते ॥
१४॥
संवत्सर:--सूर्य की कक्ष्या; परिवत्सरः--बृहस्पति की प्रदक्षिणा; इडा-वत्सर:--नक्षत्रों की कक्ष्या; एव--जैसे हैं; च-- भी;अनुवत्सर: --चन्द्रमा की कश्ष्या; वत्सरः--एक पंचांग वर्ष; च-- भी; विदुर--हे विदुर; एवम्--इस प्रकार; प्रभाष्यते--ऐसाउनके बारे में कहा जाता है।
सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र तथा आकाश के तारों के पाँच भिन्न-भिन्न नाम हैं और उनमें से प्रत्येकका अपना संवत्सर है।
यः सृज्यशक्तिमुरु धोच्छुसयन्स्वशक्त्यापुंसोभ्रमाय दिवि धावति भूतभेद: ।
कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वंस्तस्मै बलि हरत वत्सरपदश्लकाय ॥
१५॥
यः--जो; सृज्य--सृष्टि के; शक्तिमू--बीज; उरुधा--विभिन्न प्रकारों से; उच्छुसयन्--शक्ति देते हुए; स्व-शक्त्या--अपनीशक्ति से; पुंसः--जीव का; अभ्रमाय--अंधकार दूर करने के लिए; दिवि--दिन के समय; धावति--चलता है; भूत-भेदः--अन्य समस्त भौतिक रूप से पृथक; काल-आख्यया--नित्यकाल के नाम से; गुण-मयम्-- भौतिक परिणाम; क्रतुभि:--भेंटोंके द्वारा; वितन्वन्--विस्तार देते हुए; तस्मै--उसको ; बलिमू--उपहार की वस्तुएँ; हरत--अर्पित करे; वत्सर-पञ्णञकाय--हरपाँच वर्ष की भेंट
हे विदुर, सूर्य अपनी असीम उष्मा तथा प्रकाश से सारे जीवों को जीवन देता है।
वह सारेजीवों की आयु को इसलिए कम करता है कि उन्हें भौतिक अनुरक्ति के मोह से छुड़ाया जासके।
वह स्वर्गलोक तक ऊपर जाने के मार्ग को लम्बा ( प्रशस्त ) बनाता है।
इस तरह वहआकाश में बड़े वेग से गतिशील है, अतएव हर एक को चाहिए कि प्रत्येक पाँच वर्ष में एकबार पूजा की समस्त सामग्री के साथ उसको नमस्कार करे।
विदुर उवाचपितृदेवमनुष्याणामायु: परमिदं स्मृतम् ।
परेषां गतिमाचक्ष्व ये स्यु: कल्पाह्वहिर्विद: ॥
१६॥
विदुरः उबाच--विदुर ने कहा; पितृ-पितृलोक; देव--स्वर्गलोक; मनुष्याणाम्--तथा मनुष्यों की; आयु:--आयु; परम्--अन्तिम; इृदमू--उनकी अपनी माप में; स्मृतम्ू--परिगणित; परेषाम्-- श्रेष्ठ जीवों की; गतिम्ू--आयु; आचक्ष्व--कृपया गणनाकरें; ये--वे जो; स्यु:ः--हैं; कल्पातू--कल्प से; बहिः--बाहर; विद:ः--अत्यन्त विद्वान
विदुर ने कहा : मैं पितृलोकों, स्वर्गलोकों तथा मनुष्यों के लोक के निवासियों की आयु कोसमझ पाया हूँ।
कृपया अब मुझे उन महान् विद्वान जीवों की जीवन अवधि के विषय में बतायेंजो कल्प की परिधि के परे हैं।
भगवान्वेद कालस्य गतिं भगवतो ननु ।
विश्व॑ विचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा ॥
१७॥
भगवानू--हे आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली; वेद--आप जानते हैं; कालस्य--नित्य काल की; गतिमू--चालें; भगवत:--भगवान् के; ननु--निश्चय ही; विश्वम्--पूरा ब्रह्माण्ड; विचक्षते--देखते हैं; धीरा:--स्वरूपसिद्ध व्यक्ति; योग-राद्धेन--योगइृष्टि के बल पर; चक्षुषा--आँखों द्वाराहै
आध्यात्मिक रूप से शक्तिशालीआप उस नित्य काल की गतियों को समझ सकते हैं,जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का नियंत्रक स्वरूप है।
चूँकि आप स्वरूपसिद्ध व्यक्ति हैं, अत: आपयोग दृष्टि की शक्ति से हर वस्तु देख सकते हैं।
मैत्रेय उवाचकृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्वेति चतुर्युगम् ।
दिव्यैद्ठांद(शभिर्वर्ष: सावधान निरूपितम् ॥
१८ ॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; कृतम्--सत्ययुग; त्रेता--त्रेतायुग; द्वापरम्--द्वापरयुग; च-- भी; कलि:-- कलियुग; च--तथा;इति--इस प्रकार; चतुः-युगम्--चारों युग; दिव्यैः--देवताओं के ; द्वादशभि:--बारह; वर्ष: --हजारों वर्ष; स-अवधानम्--लगभग; निरूपितम्--निश्चित किया गया।
मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, चारों युग सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलि युग कहलाते हैं।
इन सबोंके कुल वर्षों का योग देवताओं के बारह हजार वर्षों के बराबर है।
चत्वारि त्रीणि द्वे चैक कृतादिषु यथाक्रमम् ।
सड्ख्यातानि सहस्त्राणि द्विगुणानि शतानि च ॥
१९॥
चत्वारि--चार; त्रीणि--तीन; द्वे--दो; च-- भी; एकम्--एक; कृत-आदिषु--सत्य युग में; यथा-क्रमम्--बाद में अन्य;सड़्ख्यातानि--संख्या वाले; सहस्त्राणि --हजारों; द्वि-गुणानि--दुगुना; शतानि--सौ; च--भी
सत्य युग की अवधि देवताओं के ४,८०० वर्ष के तुल्य है; त्रेतायुग की अवधि ३,६०० दैवीवर्षो के तुल्य, द्वापर युग की २,४०० वर्ष तथा कलियुग की अवधि १,२०० दैवी वर्षो के तुल्यहै।
सन्ध्यासन्ध्यांशयोरन्तर्य: काल: शतसड्ख्ययो: ।
तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मों विधीयते ॥
२०॥
सन्ध्या--पहले का बीच का काल; सन्ध्या-अंशयो:-- तथा बाद का बीच का काल; अन्त:ः-- भीतर; य:--जो; काल: -- समयकी अवधि; शत-सड्ख्ययो: --सैकड़ों वर्ष; तम् एब--वह अवधि; आहुः--कहते हैं; युगम्--युग; तत्-ज्ञाः--दक्ष ज्योतिर्विद;यत्र--जिसमें; धर्म:--धर्म; विधीयते--सम्पन्न किया जाता है।
प्रत्येक युग के पहले तथा बाद के सन्धिकाल, जो कि कुछ सौ वर्षो के होते हैं, जैसा किपहले उल्लेख किया जा चुका है, दक्ष ज्योतिर्विदों के अनुसार युग-सन्ध्या या दो युगों के सन्धिकाल कहलाते हैं।
इन अवधियों में सभी प्रकार के धार्मिक कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।
धर्मश्चतुष्पान्मनुजान्कृते समनुवर्तते ।
स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता ॥
२१॥
धर्म:--धर्म; चतु:-पात्--पूंरे चार विस्तार ( पाद ); मनुजान्ू--मानव जाति; कृते--सत्ययुग में; समनुवर्तते--ठीक से पालित;सः--वह; एव--निश्चय ही; अन्येषु--अन्यों में; अधर्मेण--अधर्म के प्रभाव से; व्येति--पतन को प्राप्त हुआ; पादेन--एकअंश से; वर्धता--धीरे धीरे वृद्धि करता हुआ।
हे विदुर, सत्ययुग में मानव जाति ने उचित तथा पूर्णरूप से धर्म के सिद्धान्तों का पालनकिया, किन्तु अन्य युगों में ज्यों ज्यों अधर्म प्रवेश पाता गया त्यों त्यों धर्म क्रमशः एक एक अंशघटता गया।
त्रिलोक्या युगसाहस्त्रं बहिरातब्रह्मणो दिनम् ।
तावत्येव निशा तात यन्निमीलति विश्वसृक् ॥
२२॥
त्रि-लोक्या:--तीनों लोकों के; युग--चार युग; साहस्त्रमू--एक हजार; बहि:--बाहर; आब्रह्मण: --ब्रह्मलोक तक; दिनम्--दिन है; तावती--वैसा ही ( काल ); एव--निश्चय ही; निशा--रात है; तात--हे प्रिय; यत्--क्योंकि; निमीलति--सोने चलाजाता है; विश्व-सूक् -- ब्रह्मा |
तीन लोकों ( स्वर्ग, मर्त्य तथा पाताल ) के बाहर चार युगों को एक हजार से गुणा करने सेब्रह्मा के लोक का एक दिन होता है।
ऐसी ही अवधि ब्रह्मा की रात होती है, जिसमें ब्रह्माण्ड कास्त्रष्टा सो जाता है।
निशावसान आरब्धो लोककल्पोऊनुवर्तते ।
यावहिनं भगवतो मनून्भुझलंश्चतुर्दश ॥
२३॥
निशा--रात; अवसाने--समाप्ति; आरब्ध: --प्रारम्भ करते हुए; लोक-कल्प:--तीन लोकों की फिर से उत्पत्ति; अनुवर्तते--पीछे पीछे आती है; यावत्--जब तक; दिनमू--दिन का समय; भगवतः -- भगवान् ( ब्रह्मा ) का; मनून्ू--मनुओं; भुञ्ञनू--विद्यमान रहते हुए; चतुः:-दश--चौदह
ब्रह्मा की रात्रि के अन्त होने पर ब्रह्म के दिन के समय तीनों लोकों का पुनः सूजन प्रारम्भहोता है और वे एक के बाद एक लगातार चौदह मनुओं के जीवन काल तक विद्यमान रहते हैं।
स्वं स्वं काल॑ मनुर्भुड़े साधिकां होकसप्ततिम् ॥
२४॥
स्वमू--अपना; स्वम्ू--तदनुसार; कालम्ू--जीवन की अवधि, आयु; मनु:--मनु; भुड्ढे --भोग करता है; स-अधिकाम्--कीअपेक्षा कुछ अधिक; हि--निश्चय ही; एक-सप्ततिम्--इकहत्तर।
प्रत्येक मनु चतुर्युगों के इकहत्तर से कुछ अधिक समूहों का जीवन भोग करता है।
मन्वन्तरेषु मनवस्तद्वृंश्या ऋषय: सुरा: ।
भवन्ति चैव युगपत्सुरेशाश्वानु ये च तानू ॥
२५॥
मनु-अन्तरेषु--प्रत्येक मनु के अवसान के बाद; मनव:--अन्य मनु; ततू-बंश्या: --तथा उनके वंशज; ऋषय:--सात विख्यातऋषि; सुराः-- भगवान् के भक्त; भवन्ति--उन्नति करते हैं; च एब--वे सभी भी; युगपत्--एक साथ; सुर-ईशा:--इन्द्र जैसेदेवता; च--तथा; अनु-- अनुयायी; ये--समस्त; च-- भी; तानू--उनको |
प्रत्येक मनु के अवसान के बाद क्रम से अगला मनु अपने वंशजों के साथ आता है, जोविभिन्न लोकों पर शासन करते हैं।
किन्तु सात विख्यात ऋषि तथा इन्द्र जैसे देवता एवं गन्धर्वजैसे उनके अनुयायी मनु के साथ साथ प्रकट होते हैं।
एष दैनन्दिनः सर्गो ब्राह्मस्त्रैलोक्यवर्तन: ।
तिर्यडनृपितृदेवानां सम्भवो यत्र कर्मभि: ॥
२६॥
एष:--ये सारी सृष्टियाँ; दैनम्-दिन:ः--प्रतिदिन; सर्ग:--सृष्टि; ब्राह्मः--ब्रह्मा के दिनों के रूप में; त्रैलोक्य-वर्तन:ः--तीनों लोकोंका चक्कर; तिर्यक्ू--मनुष्येतर पशु; नू--मनुष्य; पितृ--पितृलोक के; देवानामू--देवताओं के; सम्भव:--प्राकट्य; यत्र--जिसमें; कर्मभि:--सकाम कर्मो के चक्र में |
ब्रह्म के दिन के समय सृष्टि में तीनों लोक--स्वर्ग, मर्त्प तथा पाताल लोक--चक्कर लगाते हैंतथा मनुष्येतर पशु, मनुष्य, देवता तथा पितृगण समेत सारे निवासी अपने अपने सकाम कर्मों केअनुसार प्रकट तथा अप्रकट होते रहते हैं।
मन्वन्तरेषु भगवान्बिश्रत्सत्त्वं स्वमूर्तिभि: ।
मन्वादिभिरिदं विश्वमवत्युदितपौरुष: ॥
२७॥
मनु-अन्तरेषु-- प्रत्येक मनु-परिवर्तन में; भगवान्-- भगवान्; बिभ्रतू-- प्रकट करते हुए; सत्त्वम्--अपनी अन्तरंगा शक्ति; स्व-मूर्तिभिः--अपने विभिन्न अवतारों द्वारा; मनु-आदिभि:--मनुओं के रूप में; इदम्--यह; विश्वम्-ब्रह्माण्ड; अवति--पालनकरता है; उदित--खोजी; पौरुष:--दैवशक्तियाँ |
प्रत्येक मनु के बदलने के साथ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विभिन्न अवतारों के रूप में यथा मनुइत्यादि के रूप में अपनी अन्तरंगा शक्ति प्रकट करते हुए अवतीर्ण होते हैं।
इस तरह प्राप्त हुईशक्ति से वे ब्रह्माण्ड का पालन करते हैं।
तमोमात्रामुपादाय प्रतिसंरुद्धविक्रम: ।
कालेनानुगताशेष आस्ते तृष्णीं दिनात्यये ॥
२८॥
तमः--तमोगुण या रात का अंधकार; मात्रामू--नगण्य अंशमात्र; उपादाय--स्वीकार करके; प्रतिसंरुद्ध-विक्रम: --अभिव्यक्तिकी सारी शक्ति को रोक करके; कालेन--नित्य काल के द्वारा; अनुगत--विलीन; अशेष: --असंख्य जीव; आस्ते--रहता है;तृष्णीम्ू--मौन; दिन-अत्यये--दिन का अन्त होने पर।
दिन का अन्त होने पर तमोगुण के नगण्य अंश के अन्तर्गत ब्रह्माण्ड की शक्तिशालीअभिव्यक्ति रात के आँधेरे में लीन हो जाती है।
नित्यकाल के प्रभाव से असंख्य जीव उस प्रलय मेंलीन रहते हैं और हर वस्तु मौन रहती है।
तमेवान्वषि धीयन्ते लोका भूरादयस्त्रय: ।
निशायामनुवृत्तायां निर्मुक्तशशिभास्करम् ॥
२९॥
तम्--वह; एव--निश्चय ही; अनु--पीछे; अपि धीयन्ते--दृष्टि से लुप्त हो जाते हैं; लोका:--लोक; भू:-आदय:--तीनों लोक,भू:, भुवः तथा स्व: ; त्रय:--तीन; निशायाम्--रात में; अनुवृत्तायाम्--सामान्य; निर्मुक्त--बिना चमक दमक के; शशि--चन्द्रमा; भास्करम्ू--सूर्य |
जब ब्रह्मा की रात शुरू होती है, तो तीनों लोक दृष्टिगोचर नहीं होते और सूर्य तथा चन्द्रमातेज विहीन हो जाते हैं जिस तरह कि सामान्य रात के समय होता है।
त्रिलोक्यां दहामानायां शक्त्या सड्डूर्षणाग्निना ।
यान्त्यूष्मणा महलोंकाज्जनं भृग्वादयोउर्दिता: ॥
३०॥
त्रि-लोक्याम्--जब तीनों लोको के मंडल; दह्ममानायाम्--प्रज्वलित; शक्त्या--शक्ति के द्वारा; सड्डर्षण--संकर्षण के मुखसे; अग्निना--आग से; यान्ति--जाते हैं; ऊष्मणा--ताप से तपे हुए; महः-लोकात्ू--महलोंक से; जनमू--जनलोक; भृगु--भूगु मुनि; आदय: --इत्यादि; अर्दिता:--पीड़ित |
संकर्षण के मुख से निकलने वाली अग्नि के कारण प्रलय होता है और इस तरह भृगुइत्यादि महर्षि तथा महलॉक के अन्य निवासी उस प्रज्वलित अग्नि की उष्मा से, जो नीचे केतीनों लोकों में लगी रहती है, व्याकूुल होकर जनलोक को चले जाते हैं।
तावत्रिभुवनं सद्य: कल्पान्तैधितसिन्धव: ।
प्लावयन्त्युत्कतटाटोपचण्डवातेरितोर्मय: ॥
३१॥
तावतू--तब; त्रि-भुवनम्--तीनों लोक; सद्यः--उसके तुरन्त बाद; कल्प-अन्त--प्रलय के प्रारम्भ में; एधित--उमड़ कर;सिन्धव:--सारे समुद्र; प्लावयन्ति--बाढ़ से जलमग्न हो जाते हैं; उत्तट-- भीषण; आटोप--क्षोभ; चण्ड-- अंधड़; वात--हवाओं द्वारा; ईरित--बहाई गईं; ऊर्मय: --लहरें।
प्रलय के प्रारम्भ में सारे समुद्र उमड़ आते हैं और भीषण हवाएँ उग्र रूप से चलती हैं।
इसतरह समुद्र की लहरें भयावह बन जाती हैं और देखते ही देखते तीनों लोक जलमग्न हो जाते हैं।
अन्त: स तस्मिन्सलिल आस्तेनन्तासनो हरिः ।
योगनिद्रानिमीलाक्ष: स्तूयमानो जनालयै: ॥
३२॥
अन्तः--भीतर; सः--वह; तस्मिन्ू--उस; सलिले--जल में; आस्ते--है; अनन्त-- अनन्त के; आसन:--आसन पर; हरिः--भगवान्; योग--योग की; निद्रा--नींद; निमील-अक्ष:--बन्द आँखें; स्तूय-मान:--प्रकीर्तित; जन-आलयैः--जनलोक केनिवासियों द्वारा
परमेश्वर अर्थात् भगवान् हरि अपनी आँखें बन्द किए हुए अनन्त के आसन पर जल में लेटजाते हैं और जनलोक के निवासी हाथ जोड़ कर भगवान् की महिमामयी स्तुतियाँ करते हैं।
एवंविधेरहोरात्रै: कालगत्योपलक्षितै: ।
अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वयःशतम् ॥
३३॥
एवम्--इस प्रकार; विधैः --विधि से; अह:--दिनों; रात्रै:--रात्रियों के द्वारा; काल-गत्या--काल की प्रगति; उपलक्षितैः --ऐसेलक्षणों द्वारा; अपक्षितम्--घटती हुई; इब--सहृश; अस्य--उसकी; अपि--यद्यपि; परम-आयु: -- आयु; वय: --वर्ष; शतम्--एक सौ
इस तरह ब्रह्माजी समेत प्रत्येक जीव के लिए आयु की अवधि के क्षय की विधि विद्यमानरहती है।
विभिन्न लोकों में काल के सन्दर्भ में हट किसी जीव की आयु केवल एक सौ वर्ष तकहोती है।
यदर्धमायुषस्तस्य परार्धमभिधीयते ।
पूर्व: परार्धो उपक्रान्तो ह्ापरोडद्य प्रवर्तते ॥
३४॥
यतू--जो; अर्धम्--आधा; आयुष:--आयु का; तस्य--उसका; परार्धमू--एक परार्ध; अभिधीयते--कहलाता है; पूर्व:--पहलेवाला; पर-अर्ध:--आधी आयु; अपक्रान्तः--बीत जाने पर; हि--निश्चय ही; अपर:--बाद वाला; अद्य--इस युग में; प्रवर्तते --प्रारम्भ करेगा।
ब्रह्मा के जीवन के एक सौ वर्ष दो भागों में विभक्त हैं प्रथमार्थ तथा द्वितीयार्थ या परार्ध।
ब्रह्म के जीवन का प्रथमार्थ समाप्त हो चुका है और द्वितीयार्थ अब चल रहा है।
पूर्वस्यादौ परार्धस्य ब्राह्मो नाम महानभूत् ।
कल्पो यत्राभवद्गह्मा शब्दब्रह्ेति यं विदु; ॥
३५॥
पूर्वस्य--प्रथमार्धथ के; आदौ--प्रारम्भ में; पर-अर्धस्य--द्वितीयार्थ का; ब्राह्मः--ब्राह्म-कल्प; नाम--नामक; महानू--महान्;अभूत्--प्रकट था; कल्प:--कल्प; यत्र--जहाँ; अभवत्-- प्रकट हुआ; ब्रह्मा --ब्रह्मा; शब्द-ब्रह्म इति--वेदों की ध्वनियाँ;यम्--जिसको; विदुः--वे जानते हैं।
ब्रह्मा के जीवन के प्रथमार्ध के प्रारम्भ में ब्राह्य-कल्प नामक कल्प था जिसमें ब्रह्माजी उत्पन्नहुए।
वेदों का जन्म ब्रह्मा के जन्म के साथ साथ हुआ।
तस्यैव चान्ते कल्पो भूद्यं पाद्ममभिचक्षते ।
यद्धरेनाभिसरस आसीललोकसरोरूहम् ॥
३६॥
तस्य--ब्राह्म कल्प का; एब--निश्चय ही; च-- भी; अन्ते--के अन्त में; कल्प:--कल्प; अभूत्--उत्पन्न हुआ; यम्--जो;पाद्मम्--पाद्य; अभिचक्षते--कहलाता है; यत्--जिसमें; हरेः-- भगवान् की; नाभि--नाभि में; सरसः--जलाशय से;आसीतू--था; लोक--ब्रह्माण्ड; सरोरूहम्ू--कमल।
प्रथम ब्राह्य-कल्प के बाद का कल्प पाद्य-कल्प कहलाता है, क्योंकि उस काल में विश्वरूपकमल का फूल भगवान् हरि के नाभि रूपी जलाशय से प्रकट हुआ।
अयं तु कथितः कल्पो द्वितीयस्यापि भारत ।
वाराह इति विख्यातो यत्रासीच्छूकरो हरि: ॥
३७॥
अयम्--यह; तु--लेकिन; कथित: --प्रसिद्ध; कल्प: --चालू कल्प; द्वितीयस्य--परार्थ का; अपि--निश्चय ही; भारत--हेभरतवंशी; वाराह:--वाराह; इति--इस प्रकार; विख्यात:--प्रसिद्ध है; यत्र--जिसमें; आसीत्-- प्रकट हुआ; शूकरः:--सूकरका रूप; हरिः-- भगवान् |
है भरतवंशी, ब्रह्मा के जीवन के द्वितीयार्थ में प्रथम कल्प वाराह कल्प भी कहलाता है,क्योंकि उस कल्प में भगवान् सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे।
कालोयं द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते ।
अव्याकृतस्यानन्तस्य हानादेज॑गदात्मन: ॥
३८ ॥
काल:--नित्य काल; अयम्--यह ( ब्रह्म की आयु की अवधि से मापा गया ); द्वि-परार्ध-आख्य:--ब्रह्मा के जीवन के दो अर्धोंसे मापा हुआ; निमेष:--एक क्षण से भी कम; उपचर्यते--इस तरह मापा जाता है; अव्याकृतस्य--अपरिवर्तित रहता है, जो,उसका; अनन्तस्थ--असीम का; हि--निश्चय ही; अनादे:-- आदि-रहित का; जगत्-आत्मन: --ब्रह्मण्ड की आत्मा का।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ब्रह्म के जीवन के दो भागों की अवधि भगवान् के लिएएक निमेष ( एक सेकेंड से भी कम ) के बराबर परिगणित की जाती है।
भगवान् अपरिवर्तनीयतथा असीम हैं और ब्रह्माण्ड के समस्त कारणों के कारण हैं।
कालोयं परमाण्वादिद्विपरार्धानत ईश्वर: ।
नैवेशितु प्रभुर्भूम्न ईश्वरो धाममानिनाम् ॥
३९॥
\'काल:ः--नित्य काल; अयम्--यह; परम-अणु--परमाणु; आदि: -- प्रारम्भ से; द्वि-परार्ध--काल की दो परम अवधियाँ;अन्त:ः--अन्त तक; ईश्वरः --नियन्ता; न--कभी नहीं; एव--निश्चय ही; ईशितुम््--नियंत्रित करने के लिए; प्रभु:--समर्थ;भूम्न:--ब्रह्मा का; ईश्वर: --नियन्ता; धाम-मानिनाम्--उनका जो देह में अभिमान रखने वाले हैं।
नित्य काल निश्चय ही परमाणु से लेकर ब्रह्म की आयु के परार्धों तक के विभिन्न आयामोंका नियन्ता है, किन्तु तो भी इसका नियंत्रण सर्वशक्तिमान ( भगवान ) द्वारा होता है।
कालकेवल उनका नियंत्रण कर सकता है, जो सत्यलोक या ब्रह्माण्ड के अन्य उच्चतर लोकों तक मेंदेह में अभिमान करने वाले हैं।
विकारैः सहितो युक्तविशेषादिभिरावृतः ।
आण्डकोशो बहिरयं पञ्ञाशत्कोटिविस्तृत: ॥
४०॥
विकारैः--तत्त्वों के रूपान्तर द्वारा; सहित:--सहित; युक्तै:--इस प्रकार से मिश्रित; विशेष-- अभिव्यक्तियाँ; आदिभि:--उनकेद्वारा; आवृतः--प्रच्छन्न; आण्ड-कोश:--ब्रह्माण्ड; बहिः--बाहर; अयम्--यह; पश्चाशत्--पचास; कोटि--करोड़;विस्तृत:--विस्तीर्ण |
यह दृश्य भौतिक जगत चार अरब मील के व्यास तक फैला हुआ है, जिसमें आठ भौतिकतत्त्वों का मिश्रण है, जो सोलह अन्य कोटियों में, भीतर-बाहर निम्नवत् रूपान्तरित हैं।
\दशोत्तराधिकैयंत्र प्रविष्ट: परमाणुव॒त् ।
लक्ष्यतेन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो हाण्डराशय: ॥
४१॥
दश-उत्तर-अधिकै: --दस गुनी अधिक मोटाई वाली; यत्र--जिसमें; प्रविष्ट:--प्रविष्ट; परम-अणु-वत्--परमाणुओं की तरह;लक्ष्यते--( ब्रह्माण्डों का भार ) प्रतीत होता है; अन्तः-गताः--एकसाथ रहते हैं; च--तथा; अन्ये-- अन्य में; कोटिश:--संपुंजित; हि--क्योंकि; अण्ड-राशय: --ब्रह्माण्डों के विशाल संयोग |
ब्रह्माण्डों को ढके रखने वाले तत्त्वों की परतें पिछले वाली से दस गुनी अधिक मोटी होतीहैं और सारे ब्रह्माण्ड एकसाथ संपुंजित होकर परमाणुओं के विशाल संयोग जैसे प्रतीत होते हैं।
तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् ।
विष्णोर्धाम परं साक्षात्पुरुषस्य महात्मनः ॥
४२॥
तत्--वह; आहुः--कहा जाता है; अक्षरम्--अच्युत; ब्रह्म--परम; सर्व-कारण--समस्त कारणों का; कारणम्ू--परम कारण;विष्णो: धाम--विष्णु का आध्यात्मिक निवास; परमू--परम; साक्षात्--निस्सन्देह; पुरुषस्य--पुरुष अवतार का; महात्मन:--महाविष्णु का।
इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण समस्त कारणों के आदि कारण कहलाते हैं।
इस प्रकार विष्णुका आध्यात्मिक धाम निस्सन्देह शाश्वत है और यह समस्त अभिव्यक्तियों के उद्गम महाविष्णुका भी धाम है।
अध्याय बारह: कुमारों और अन्य लोगों की रचना
3.12मैत्रेय उवाचइति ते वर्णित: क्षत्त: कालाख्य: परमात्मन: ।
महिमा वेदगर्भोथ यथास्त्राक्षीत्निबोध मे ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच-- श्री मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; ते--तुमसे; वर्णित:--वर्णन किया गया; क्षत्त:--हे विदुर; काल-आख्य:--नित्य काल नामक; परमात्मन:--परमात्मा की; महिमा-- ख्याति; वेद-गर्भ:--वेदों के आगार, ब्रह्मा; अथ--इसकेबाद; यथा--जिस तरह यह है; अस्त्राक्षीत्-उत्पन्न किया; निबोध--समझने का प्रयास करो; मे--मुझसे
श्री मैत्रेय ने कहा : हे विद्वान विदुर, अभी तक मैंने तुमसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के काल-रूप की महिमा की व्याख्या की है।
अब तुम मुझसे समस्त वैदिक ज्ञान के आगार ब्रह्मा की सृष्टिके विषय में सुन सकते हो।
ससजजग्रेउन्धतामिस्त्रमथ तामिस्त्रमादिकृत् ।
महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञानवृत्तय: ॥
२॥
ससर्ज--उत्पन्न किया; अग्रे--सर्वप्रथम; अन्ध-तामिस्त्रमू--मृत्यु का भाव; अथ--तब; तामिस्त्रमू--हताशा पर क्रोध; आदि-कृत्ू--ये सभी; महा-मोहम्-- भोग्य वस्तुओं का स्वामित्व; च-- भी; मोहम्-- भ्रान्त धारणा; च-- भी; तम: -- आत्मज्ञान मेंअंधकार; च-- भी; अज्ञान--अविद्या; वृत्तय:--पेशे, वृत्तियाँ
ब्रह्मा ने सर्वप्रथम आत्मप्रवंचना, मृत्यु का भाव, हताशा के बाद क्रोध, मिथ्या स्वामित्व काभाव तथा मोहमय शारीरिक धारणा या अपने असली स्वरूप की विस्मृति जैसी अविद्यापूर्णवृत्तियों की संरचना की।
इृष्ठा पापीयसीं सृष्टि नात्मानं बह्मन्यत ।
भगवद्धयानपूतेन मनसान्यां ततोडसृजत् ॥
३॥
इृष्ठा--देखकर; पापीयसीम्--पापमयी; सृष्टिम्--सृष्टि को; न--नहीं; आत्मानम्--स्वयं को; बहु--अत्यधिक हर्ष; अमन्यत--अनुभव किया; भगवत्-- भगवान् का; ध्यान--ध्यान; पूतेन--उसके द्वारा शुद्ध; मनसा--मन से; अन्याम्--दूसरा; ततः--तत्पश्चात्; असृजत्--उत्पन्न किया
ऐसी भ्रामक सृष्टि को पापमय कार्य मानते हुए ब्रह्माजी को अपने कार्य में अधिक हर्ष काअनुभव नहीं हुआ, अतएव उन्होंने भगवान् के ध्यान द्वारा अपने आपको परि शुद्ध किया।
तबउन्होंने सृष्टि की दूसरी पारी की शुरुआत की।
सनक॑ च सनन्दं च सनातनमथात्मभू: ।
सनत्कुमारं च मुनीन्निष्क्रियानूथ्वरितस: ॥
४॥
सनकम्--सनक; च-- भी; सनन्दम्ू-- सनन््द; च--तथा; सनातनम्--सनातन; अथ--तत्पश्चात्; आत्म-भू:--स्वयं भू ब्रह्मा;सनत्-कुमारम्--सनत्कुमार; च-- भी; मुनीन्--मुनिगण; निष्क्रियानू--समस्त सकाम कर्म से मुक्त; ऊर्ध्व-रेतस:--वे जिनकावीर्य ऊपर की ओर प्रवाहित होता है।
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने चार महान् मुनियों को उत्पन्न किया जिनके नाम सनक, सननन्द, सनातनतथा सनत्कुमार हैं।
वे सब भौतिकतावादी कार्यकलाप ग्रहण करने के लिए अनिच्छुक थे,क्योंकि ऊर्ध्वरेता होने के कारण वे अत्यधिक उच्चस्थ थे।
तान्बभाषे स्वभू: पृत्रान्प्रजा: सृजत पुत्रका: ।
तन्नैच्छन्मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणा: ॥
५॥
तानू--उन कुमारों से, जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है; बभाषे--कहा; स्वभू:--ब्रह्मा ने; पुत्रानू--पुत्रों से; प्रजा: --सन्तानें;सृजत--सृजन करने के लिए; पुत्रका: --मेरे पुत्रो; तत्ू--वह; न--नहीं; ऐच्छन्--चाहते हुए; मोक्ष-धर्माण:--मोक्ष केसिद्धान्तों के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध; वासुदेव-- भगवान् के प्रति; परायणा: --परायण, अनुरक्त |
पुत्रों को उत्पन्न करने के बाद ब्रह्मा ने उनसे कहा, 'पुत्रो, अब तुम लोग सन््तान उत्पन्नकरो।
किन्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव के प्रति अनुरक्त होने के कारण उन्होंने अपनालक्ष्य मोक्ष बना रखा था, अतएव उन्होंने अपनी अनिच्छा प्रकट की।
सोउवध्यातः सुतैरेवं प्रत्याख्यातानुशासने: ।
क्रोधं दुर्विषहं जातं नियन्तुमुपचक्रमे ॥
६॥
सः--वह ( ब्रह्मा ); अवध्यात:--इस प्रकार अनादरित होकर; सुतैः--पुत्रों द्वारा; एवम्--इस प्रकार; प्रत्याख्यात--आज्ञा माननेसे इनकार; अनुशासनै:--अपने पिता के आदेश से; क्रोधम्--क्रो ध; दुर्विषहम्-- असहनीय; जातम्--इस प्रकार उत्पन्न;नियन्तुम्ू--नियंत्रण करने के लिए; उपचक्रमे-- भरसक प्रयत्न किया।
पुत्रों द्वारा अपने पिता के आदेश का पालन करने से इनकार करने पर ब्रह्मा के मन मेंअत्यधिक क्रोध उत्पन्न हुआ जिसे उन्होंने व्यक्त न करके दबाए रखना चाहा।
धिया निगृह्ममाणोपि भ्रुवोर्मध्यात्प्रजापते: ।
सद्योडजायत तन्मन्युः कुमारो नीललोहितः ॥
७॥
धिया--बुद्धि से; निगृह्ममाण:--नियंत्रित हुए; अपि--के बावजूद; भ्रुवो:--भौहों के; मध्यात्--बीच से; प्रजापते:--ब्रह्मा के;सद्यः--तुरन्त; अजायत--उत्पन्न हुआ; तत्--उसका; मन्यु:--क्रोध; कुमार: --बालक; नील-लोहितः--नीले तथा लाल कामिश्रण |
यद्यपि उन्होंने अपने क्रोध को दबाए रखने का प्रयास किया, किन्तु वह उनकी भौंहों केमध्य से प्रकट हो ही गया जिससे तुरन्त ही नीललोहित रंग का बालक उत्पन्न हुआ।
उपज है।
स बै रुरोद देवानां पूर्वजो भगवान्भव: ।
नामानि कुरु मे धातः स्थानानि च जगदगुरो ॥
८॥
सः--वह; वै--निश्चय ही; रुरोद--जोर से चिल्लाया; देवानाम् पूर्वज:--समस्त देवताओं में ज्येष्ठतम; भगवान्-- अत्यन्तशक्तिशाली; भव:ः--शिवजी; नामानि--विभिन्न नाम; कुरू--नाम रखो; मे--मेरा; धात:ः--हे भाग्य विधाता; स्थानानि--स्थान;च--भी; जगत्ू-गुरो--हे ब्रह्माण्ड के शिक्षक |
जन्म के बाद वह चिललाने लगा : हे भाग्यविधाता, हे जगदगुरु, कृपा करके मेरा नाम तथास्थान बतलाइये।
इति तस्य बच: पाद्ो भगवान्परिपालयन् ।
अभ्यधाद्धद्रया वाचा मा रोदीस्तत्करोमि ते ॥
९॥
इति--इस प्रकार; तस्य--उसकी; वच:--याचना; पाद्म; --कमल के फूल से उत्पन्न हुआ; भगवान्--शक्तिशाली;'परिपालयन्--याचना स्वीकार करते हुए; अभ्यधात्--शान्त किया; भद्रया--भद्ग, मृदु; वाचा--शब्दों द्वारा; मा--मत;रोदीः--रोओ; तत्-- वह; करोमि-- करूँगा; ते--जैसा तुम चाहते हो |
कमल के फूल से उत्पन्न हुए सर्वशक्तिमान ब्रह्मा ने उसकी याचना स्वीकार करते हुए मृदुवाणी से उस बालक को शान्त किया और कहा--मत चिललाओ।
जैसा तुम चाहोगे मैं वैसा ही करूँगा।
यदरोदीः सुरश्रेष्ठ सोद्ठेग इव बालक: ।
ततस्त्वामभिधास्यन्ति नाम्ना रुद्र इति प्रजा: ॥
१०॥
यत्--जितना; अरोदी:ः--जोर से रोया; सुर-श्रेष्ठ--हे देवताओं के प्रधान; स-उद्देग: --अत्यधिक चिन्ता सहित; इब--सहश;बालक:ः--बालक; ततः --त त्पश्चात्; त्वामू-- तुमको; अभिधास्यन्ति--पुकारेंगे; नाम्ना--नाम लेकर; रुद्र:--रुद्र; इति--इसप्रकार; प्रजा:--लोग।
तत्पश्चात् ब्रह्म ने कहा : हे देवताओं में प्रधान, सभी लोगों के द्वारा तुम रुद्र नाम से जानेजाओगे, क्योंकि तुम इतनी उत्सुकतापूर्वक चिल्लाये हो।
हृदिन्द्रियाण्यसुर्व्योम वायुरग्निर्जलं मही ।
सूर्यश्चन्द्रस्तपश्चेव स्थानान्यग्रे कृतानि ते ॥
११॥
हत्--हृदय; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; असु:--प्राणवायु; व्योम-- आकाश; वायु:--वायु; अग्नि:ः--आग; जलम्-- जल; मही--पृथ्वी; सूर्य :--सूर्य ; चन्द्र: --चन्द्रमा; तप:--तपस्या; च-- भी; एव--निश्चय ही; स्थानानि--ये सारे स्थान; अग्रे--इसके पहलेके; कृतानि--पहले किये गये; ते--तुम्हारे लिए।
हे बालक, मैंने तुम्हारे निवास के लिए पहले से निम्नलिखित स्थान चुन लिये हैं: हृदय,इद्रियाँ, प्राणवायु, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तपस्या।
मन्युर्मनुर्महिनसो महाउिछव ऋतध्वज: ।
उमग्ररेता भव: कालो वामदेवो धृतव्रतः ॥
१२॥
मन्यु:, मनु:, महिनसः, महान्ू, शिव:, ऋतध्वज:, उग्ररेताः, भव:, काल:, वामदेव:, धृतब्रत:--ये सभी रुद्र के नाम हैं।
ब्रह्मजी ने कहा : हे बालक रुद्र, तुम्हारे ग्यारह अन्य नाम भी हैं-मन्यु, मनु, महिनस,महान, शिव, ऋतुध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव तथा धृतब्रत।
धीर्धृतिरसलोमा च नियुत्सर्पिरिलाम्बिका ।
इरावती स्वधा दीक्षा रुद्राण्यो रुद्र ते स्त्रियः ॥
१३॥
धी:, धृति, रसला, उमा, नियुत्, सर्पि,, इला, अम्बिका, इरावती, स्वधा, दीक्षा रुद्राण्य:--ये ग्यारह रुद्राणियाँ हैं; रुद्र--हे रुद्र;ते--तुम्हारी; स्त्रियः--पत्लियाँ ।
हे रुद्र, तुम्हारी ग्यारह पत्नियाँ भी हैं, जो रुद्राणी कहलाती हैं और वे इस प्रकार है-धी,धृति, रसला, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, स्वधा तथा दीक्षा।
गृहाणैतानि नामानि स्थानानि च सयोषण: ।
एशि: सृज प्रजा बह्लीः प्रजानामसि यत्पति: ॥
१४॥
गृहाण--स्वीकार करो; एतानि--इन सारे; नामानि--विभिन्न नामों को; स्थानानि--तथा स्थानों को; च-- भी; स-योषण:--पत्नियों समेत; एभि:--उनके द्वारा; सृज--उत्पन्न करो; प्रजा:--सन्तानें; बह्नीः--बड़े पैमाने पर; प्रजानामू--जीवों के; असि--तुम हो; यत्--क्योंकि; पति:--स्वामी
हे बालक, अब तुम अपने तथा अपनी पत्नियों के लिए मनोनीत नामों तथा स्थानों कोस्वीकार करो और चूँकि अब तुम जीवों के स्वामियों में से एक हो अतः तुम व्यापक स्तर परजनसंख्या बढ़ा सकते हो।
इत्यादिष्ट: स्वगुरुणा भगवान्नीललोहितः ।
सत्त्वाकृतिस्वभावेन ससर्जात्मसमा: प्रजा: ॥
१५॥
इति--इस प्रकार; आदिष्ट:--आदेश दिये जाने पर; स्व-गुरुणा--अपने ही गुरु द्वारा; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; नील-लोहितः--रुद्र, जिनका रंग नीले तथा लाल का मिश्रण है; सत्त्व--शक्ति; आकृति--शारीरिक स्वरूप; स्वभावेन--तथाअत्यन्त उग्र स्वभाव से; ससर्ज--उत्पन्न किया; आत्म-समा:--अपने ही तरह की; प्रजा: --सन्तानें |
नील-लोहित शारीरिक रंग वाले अत्यन्त शक्तिशाली रुद्र ने अपने ही समान स्वरूप, बलतथा उग्र स्वभाव वाली अनेक सस्तानें उत्पन्न कीं।
रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्तादग्रसतां जगत् ।
निशाम्यासड्ख्यशो यूथान्प्रजापतिरशब्डुत ॥
१६॥
" रुद्राणामू-रुद्र के पुत्रों का; रुद्र-सृष्टानाम्ू--रुद्र द्वारा उत्पन्न किये गये; समन्तात्ू--एकसाथ एकत्र होकर; ग्रसताम्ू--निगलतेसमय; जगत्--ब्रह्माण्ड; निशाम्य--उनके कार्यकलापों को देखकर; असड्ख्यश: --असीम; यूथान्--टोली, समूह; प्रजा-पतिः--जीवों के पिता; अशद्भुत-- भयभीत हो गया।
रुद्र द्वारा उत्पन्न पुत्रों तथा पौत्रों की संख्या असीम थी और जब वे एकत्र हुए तो वे सम्पूर्णब्रह्माण्ड को निगलने लगे।
जब जीवों के पिता ब्रह्मा ने यह देखा तो वे इस स्थिति से भयभीत होउठे।
अलं प्रजाभि: सूष्टाभिरीदशीभि: सुरोत्तम ।
मया सह दहन्तीभिर्दिशश्चक्षुभिसल्बणै: ॥
१७॥
अलमू--व्यर्थ; प्रजाभि:--ऐसे जीवों द्वारा; सूष्टाभि: --उत्पन्न; ईहशीभि: --इस प्रकार के; सुर-उत्तम--हे देवताओं में सर्वश्रेष्ठ;मया--मुझको; सह--सहित; दहन्तीभि: --जलती हुई; दिशः--सारी दिशाएँ; चश्लु्भि: --आँखों से; उल्बणै:--दहकती लपटें।
ब्रह्मा ने रुद्र से कहा: हे देवश्रेष्ठ, तुम्हें इस प्रकार के जीवों को उत्पन्न करने कीआवश्यकता नहीं है।
उन्होंने अपने नेत्रों की दहकती लपटों से सभी दिशाओं की सारी वस्तुओंको विध्वंस करना शुरू कर दिया है और मुझ पर भी आक्रमण किया है।
तप आतिष्ठ भद्गं ते सर्वभूतसुखावहम् ।
तपसैव यथा पूर्व स्त्रष्टा विश्वमिदं भवान् ॥
१८॥
तपः--तपस्या; आतिष्ठ --बैठिये; भद्रमू--शुभ; ते--तुम्हारा; सर्व--समस्त; भूत--जीव; सुख-आवहम्--सुख लानेवाली;तपसा--तपस्या द्वारा; एव--ही; यथा--जितना; पूर्वम्--पहले; स्त्रष्टा--उत्पन्न करेगा; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; इदमू--यह;भवान्ू--आप।
हे पुत्र, अच्छा हो कि तुम तपस्या में स्थित होओ जो समस्त जीवों के लिए कल्याणप्रद हैऔर जो तुम्हें सारे वर दिला सकती है।
केवल तपस्या द्वारा तुम पूर्ववत् ब्रह्माण्ड की रचना करसकते हो।
तपसैव परं ज्योतिर्भगवन्तमधोक्षजम् ।
सर्वभूतगुहावासमझ्जसा विन्दते पुमान् ॥
१९॥
तपसा--तपस्या से; एब--एकमात्र; परम्ू--परम; ज्योति: -- प्रकाश; भगवन्तम्-- भगवान् को; अधोक्षजम्--वह जो इन्द्रियोंकी पहुँच के परे है; सर्व-भूत-गुहा-आवासम्--सारे जीवों के हृदय में वास करने वाले; अज्जसा--पूर्णतया; विन्दते--जानसकता है; पुमानू--मनुष्य
एकमात्र तपस्या से उन भगवान् के भी पास पहुँचा जा सकता है, जो प्रत्येक जीव के हृदयके भीतर हैं किन्तु साथ ही साथ समस्त इन्द्रियों की पहुँच के बाहर हैं।
मैत्रेय उवाचएवमात्मभुवादिष्ट: परिक्रम्य गिरां पतिम् ।
बाढमित्यमुमामन्त्रय विवेश तपसे वनम् ॥
२०॥
मैत्रेयः उवाच-- श्री मैत्रेय ने कहा; एवम्--इस प्रकार; आत्म-भुवा--ब्रह्मा द्वारा; आदिष्ट: --इस तरह प्रार्थना किये जाने पर;परिक्रम्य--प्रदक्षिणा करके; गिराम्--वेदों के; पतिम्--स्वामी को; बाढम्ू--उचित; इति--इस प्रकार; अमुम्--ब्रह्मा को;आमनन््त्रय--इस प्रकार सम्बोधित करते हुए; विवेश--प्रविष्ट हुए; तपसे--तपस्या के लिए; वनम्--वन में |
श्री मैत्रेय ने कहा : इस तरह ब्रह्मा द्वारा आदेशित होने पर रुद्र ने वेदों के स्वामी अपने पिता की प्रदक्षिणा की।
हाँ कहते हुए उन्होंने तपस्या करने के लिए बन में प्रवेश किया।
अथाभिध्यायत: सर्ग दश पुत्रा: प्रजज्ञिरि ।
भगवच्छक्तियुक्तस्थ लोकसन्तानहेतव: ॥
२१॥
अथ--इस प्रकार; अभिध्यायत:--सोचते हुए; सर्गम्--सृष्टि; दश--दस; पुत्रा: --पुत्र; प्रजज्ञिरि--उत्पन्न करते हुए; भगवत्--श्रीभगवान् से सम्बन्धित; शक्ति--ऊर्जा; युक्तस्य--शक्तिमान बने हुए; लोक--संसार; सन््तान--संतति; हेतवः--कारण |
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने पर ब्रह्मा ने जीवों को उत्पन्न करने कीसोची और सन्तानों के विस्तार हेतु उन्होंने दस पुत्र उत्पन्न किये।
मरीचिरत्र्यद्धिरसौ पुलस्त्य: पुलहः क्रतु: ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्न दशमस्तत्र नारद: ॥
२२॥
मरीचि:, अत्रि, अड्विरसौ, पुलस्त्य:, पुलहः, क्रतु:, भृगु:, वसिष्ठ:, दक्ष:--ब्रह्मा के पुत्रों के नाम; च--तथा; दशम:--दसवाँ;तत्र--वहाँ; नारद:--नारद |
इस तरह मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भूगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा दसवें पुत्रनारद उत्पन्न हुए।
उत्सज्ञान्नारदो जज्ले दक्षोडुष्टात्स्वयम्भुव: ।
प्राणाद्वसिष्ठ: सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतु: ॥
२३॥
उत्सड़ात्ू--दिव्य विचार-विमर्श से; नारद: --महामुनि नारद; जज्ञे--उत्पन्न किया गया; दक्ष:--दक्ष; अद्जुष्ठात्-- अँगूठे से;स्वयम्भुव:ः--ब्रह्मा के; प्राणातू--प्राणवायु से या श्वास लेने से; वसिष्ठ:--वसिष्ठ; सज्भात:--उत्पन्न हुआ; भृगु:-- भूगु, मुनि;त्वचि--स्पर्श से; करातू--हाथ से; क्रतुः--क्रतु
मुनिनारद ब्रह्मा के शरीर के सर्वोच्च अंग मस्तिष्क से उत्पन्न पुत्र हैं।
वसिष्ठ उनकी श्वास से, दक्षअँगूठे से, भूगु उनके स्पर्श से तथा क्रतु उनके हाथ से उत्पन्न हुए।
पुलहो नाभितो जज्ने पुलस्त्य: कर्णयोरषि: ।
अड्डिरा मुखतो कषो त्रिर्मरीचिर्ममसो भवत् ॥
२४॥
पुलहः--पुलह मुनि; नाभित:--नाभि से; जज्ञे--उत्पन्न किया; पुलस्त्य:--पुलस्त्यमुनि; कर्णयो:--कानों से; ऋषि: --महामुनि;अड्डिराः--अंगिरा मुनि; मुखतः--मुख से; अक्ष्ण:--आँखों से; अत्रि: --अत्रि मुनि; मरीचि:--मरीचि मुनि; मनस:--मन से;अभवत्--प्रकट हुए
पुलस्त्य ब्रह्मा के कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि आँखों से, मरीचि मन से तथा पुलह नाभिसे उत्पन्न हुए।
धर्म: स्तनाइक्षिणतो यत्र नारायण: स्वयम् ।
अधर्म: पृष्ठतो यस्मान्मृत्युलेकभयड्भूर: ॥
२५॥
धर्म:--धर्म; स्तनातू--वक्षस्थल से; दक्षिणत:--दाहिनी ओर के; यत्र--जिसमें ; नारायण :--पर मे श्वर; स्वयम्-- अपने से;अधर्म: --अधर्म; पृष्ठतः--पीठ से; यस्मात्--जिससे; मृत्यु:--मृत्यु; लोक--जीव के लिए; भयम्-करः--भयकारक |
धर्म ब्रह्मा के वक्षस्थल से प्रकट हुआ जहाँ पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण आसीन हैंऔर अधर्म उनकी पीठ से प्रकट हुआ जहाँ जीव के लिए भयावह मृत्यु उत्पन्न होती है।
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्वाधरदच्छदात् ।
आस्याद्वाक्सिन्धवो मेढ़ान्निरृतिः पायोरघाअ्रय: ॥
२६॥
हृदि--हृदय से; काम:--काम; भ्रुव:--भौंहों से; क्रो ध:--क्रो ध; लोभ: --लालच; च-- भी; अधर-दच्छदात्--ओठों के बीचसे; आस्यात्--मुख से; वाक्ू--वाणी; सिन्धव: --समुद्र; मेढ़ात्--लिंग से; निरृति:--निम्न कार्य; पायो:--गुदा से; अघ-आश्रयः--सारे पापों का आगार।
काम तथा इच्छा ब्रह्मा के हृदय से, क्रोध उनकी भौंहों के बीच से, लालच उनके ओठों केबीच से, वाणी की शक्ति उनके मुख से, समुद्र उनके लिंग से तथा निम्न एवं गहित कार्यकलापसमस्त पापों के स्रोत उनकी गुदा से प्रकट हुए।
छायाया: कर्दमो जज्ञे देवहूत्या: पति: प्रभु: ।
मनसो देहतश्रेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥
२७॥
छायाया:--छाया से; कर्दम: --कर्दम मुनि; जज्ञे-- प्रकट हुआ; देवहूत्या:--देवहूति का; पति: --पति; प्रभुः--स्वामी;मनसः--मन से; देहतः--शरीर से; च-- भी; इृदम्--यह; जज्ञे--उत्पन्न किया; विश्व--ब्रह्मण्ड; कृत:--स्त्रष्टा का; जगत्--विराट जगत।
महान् देवहूति के पति कर्दम मुनि ब्रह्म की छाया से प्रकट हुए।
इस तरह सभी कुछ ब्रह्माके शरीर से या मन से प्रकट हुआ।
बाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूहरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्त: सकाम इति न: श्रुतम् ॥
२८॥
वाचम्--वाक्; दुहितरम्--पुत्री को; तन्वीम्--उसके शरीर से उत्पन्न; स्वयम्भू:--ब्रह्मा; हरतीम्--आकृष्ट करते हुए; मनः--मन; अकामाम्--कामुक हुए बिना; चकमे--इच्छा की; क्षत्त:--हे विदुर; स-काम:ः--कामुक हुआ; इति--इस प्रकार; न: --हमने; श्रुतम्--सुना है।
हे विदुर, हमने सुना है कि ब्रह्मा के वाक् नाम की पुत्री थी जो उनके शरीर से उत्पन्न हुई थीजिसने उनके मन को यौन की ओर आकृष्ट किया यद्यपि वह उनके प्रति कामासक्त नहीं थी।
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुता: ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात्प्रत्यजो धयन् ॥
२९॥
तम्--उस; अधर्मे--अनैतिकता में; कृत-मतिम्--ऐसे मन वाला; विलोक्य--देखकर; पितरम्--पिता को; सुताः --पुत्रों ने;मरीचि-मुख्या: --मरीचि इत्यादि; मुन॒यः--मुनिगण; विश्रम्भातू-- आदर सहित; प्रत्यवोधयन्--निवेदन किया
अपने पिता को अनैतिकता के कार्य में इस प्रकार मुग्ध पाकर मरीचि इत्यादि ब्रह्मा के सारेपुत्रों ने अतीव आदरपूर्वक यह कहा।
नैतत्पूर्वे: कृतं त्वद्यो न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेरनिगृह्याड्गजं प्रभु: ॥
३०॥
न--कभी नहीं; एतत्--ऐसी वस्तु; पूर्व: --किसी पूर्व कल्प में अन्य किसी ब्रह्मा द्वारा या तुम्हारे द्वारा; कृतम्--सम्पन्न; त्वत्--तुम्हारे द्वारा; ये--वह जो; न--न तो; करिष्यन्ति--करेंगे; च-- भी; अपरे-- अन्य कोई; यः--जो; त्वम्--तुम; दुहितरम्--पुत्रीके प्रति; गच्छे:--जायेगा; अनिगृह्य-- अनियंत्रित होकर; अड़जम्--कामेच्छा; प्रभु:--हे पिता।
है पिता, आप जिस कार्य में अपने को उलझाने का प्रयास कर रहे हैं उसे न तो किसी अन्यब्रह्मा द्वारा न किसी अन्य के द्वारा, न ही पूर्व कल्पों में आपके द्वारा, कभी करने का प्रयासकिया गया, न ही भविष्य में कभी कोई ऐसा दुस्साहस ही करेगा।
आप ब्रह्माण्ड के सर्वोच्चप्राणी हैं, अतः आप अपनी पुत्री के साथ संभोग क्यों करना चाहते हैं और अपनी इच्छा को वशमें क्यों नहीं कर सकते ?
तेजीयसामपि होतन्न सुएलोक्यं जगदगुरो ।
यद्वत्तमनुतिष्ठन्वे लोक: क्षेमाय कल्पते ॥
३१॥
तेजीयसाम्--अत्यन्त शक्तिशालियों में; अपि-- भी; हि--निश्चय ही; एतत्--ऐसा कार्य; न--उपयुक्त नहीं; सु-श्लोक्यम्--अच्छा आचरण; जगतू-गुरो--हे ब्रह्माण्ड के गुरु; यत्--जिसका; वृत्तमू--चरित्र; अनुतिष्ठन्--पालन करते हुए; बै--निश्चयही; लोक:--जगत; क्षेमाय--सम्पन्नता के लिए; कल्पते--योग्य बन जाता है
यद्यपि आप सर्वाधिक शक्तिमान जीव हैं, किन्तु यह कार्य आपको शोभा नहीं देता क्योंकिसामान्य लोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए आपके चरित्र का अनुकरण करते हैं।
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थ॑ व्यज्ञयामास स धर्म पातुमहति ॥
३२॥
तस्मै--उसे; नम:--नमस्कार; भगवते-- भगवान् को; यः --जो; इृदम्--इस; स्वेन--अपने; रोचिषा--तेज से; आत्म-स्थम्--अपने में ही स्थित; व्यज्ञयाम् आस--प्रकट किया है; सः--वह; धर्मम्--धर्म की; पातुम्ू--रक्षा करने के लिए; अरहति--ऐसाकरे
हम उन भगवान् को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने आत्मस्थ होकर अपने ही तेज से इसब्रह्माण्ड को प्रकट किया है।
वे समस्त कल्याण हेतु धर्म की रक्षा करें!" स इत्थं गृणतः पुत्रान्पुरो दृष्ठा प्रजापतीन्प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज ब्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगुहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तम: ॥
३३॥
सः--वह ( ब्रह्मा ); इत्थम्--इस प्रकार; गृणतः--बोलते हुए; पुत्रान्ू--पुत्र; पुर: --पहले; हृष्ला-- देखकर; प्रजा-पतीन्--जीवोंके पूर्वजों को; प्रजापति-पति:ः--उन सबों के पिता ( ब्रह्मा ); तन्वम्--शरीर; तत्याज--त्याग दिया; ब्रीडित:--लज्जित; तदा--उस समय; ताम्ू--उस शरीर को; दिशः --सारी दिशाएँ; जगृहु:--स्वीकार किया; घोराम्--निन्दनीय; नीहारम्--नीहार, कुहरा;यतू--जो; विदुः--वे जानते हैं; तमः--अंधकार के रूप में ।
अपने समस्त प्रजापति पुत्रों को इस प्रकार बोलते देख कर समस्त प्रजापतियों के पिता ब्रह्माअत्यधिक लज्जित हुए और तुरन्त ही उन्होंने अपने द्वारा धारण किये हुए शरीर को त्याग दिया।
बाद में वही शरीर अंधकार में भयावह कुहरे के रूप में सभी दिशाओं में प्रकट हुआ।
कदाचिद्धयायतः सरष्टवेंदा आसं श्चतुर्मुखात् ।
कथं स्त्रक्ष्याम्यह॑ लोकान्समवेतान्यथा पुरा ॥
३४॥
कदाचित्--एक बार; ध्यायतः--ध्यान करते समय; स्त्रष्ट:--ब्रह्म का; वेदाः--वैदिक वाड्मय; आसनू--प्रकट हुए; चतुः-मुखात्--चारों मुखों से; कथम् स्त्रक्ष्यामि--मैं किस तरह सृजन करूँगा; अहम्--मैं; लोकान्--इन सारे लोकों को;समवेतान्--एकत्रित; यथा--जिस तरह वे थे; पुरा-- भूतकाल में |
एक बार जब ब्रह्माजी यह सोच रहे थे कि विगत कल्प की तरह लोकों की सृष्टि केसे कीजाय तो चारों वेद, जिनमें सभी प्रकार का ज्ञान निहित है, उनके चारों मुखों से प्रकट हो गये।
चातुहत्रं कर्मतन्त्रमुपवेदनयै: सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारस्तथेवा श्रमवृत्तय: ॥
३५॥
चातु:--चार; होत्रमू--यज्ञ की सामग्री; कर्म--कर्म; तन्त्रमू--ऐसे कार्यकलापों का विस्तार; उपवेद--वेदों के पूरक; नयैः --तथा तर्कशास्त्रीय निर्णय; सह--साथ; धर्मस्थ--धर्म के; पादा:ः--सिद्धान्त; चत्वार:--चार; तथा एव--इसी प्रकार से;आश्रम--सामाजिक व्यवस्था; वृत्तय:--वृत्तियाँ, पेशे |
अग्नि यज्ञ को समाहित करने वाली चार प्रकार की साज-सामग्री प्रकट हुई।
ये प्रकार हैंयज्ञकर्ता, होता, अग्नि तथा उपवेदों के रूप में सम्पन्न कर्म।
धर्म के चार सिद्धान्त ( सत्य, तप,दया, शौच ) एवं चारों आश्रमों के कर्तव्य भी प्रकट हुए।
विदुर उवाचसबै विश्वसृजामीशो वेदादीन्मुखतो सृजत् ।
यद्यद्येनासृजद्देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥
३६॥
विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; सः--वह ( ब्रह्मा ); वै--निश्चय ही; विश्व--ब्रह्माण्ड; सृजामू--सृजनकर्ताओं का; ईशः --नियन्ता; वेद-आदीन्--वेद इत्यादि; मुखतः--मुख से; असृजत्--स्थापित किया; यत्--जो; यत्--जो; येन--जिससे;असृजत्--उत्पन्न किया; देव:--देवता; तत्--वह; मे--मुझसे; ब्रूहि--बतलाइये; तप:ः-धन--हे मुनि, तपस्या जिसका एकमात्रधन है।
विदुर ने कहा, हे तपोधन महामुनि, कृपया मुझसे यह बतलाएँ कि ब्रह्म ने किस तरह औरकिसकी सहायता से उस वैदिक ज्ञान की स्थापना की जो उनके मुख से निकला था।
मैत्रेय उवाचऋग्यजु:सामाथर्वाख्यान्वेदान्पूर्वादिभि्मुखै: ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्ित्तं व्यधात्क्रमात् ॥
३७॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; ऋक्-यजु:-साम-अथर्व--चारों वेद; आख्यान्ू--नामक; वेदान्--वैदिक ग्रन्थ; पूर्व-आदिभिः:--सामने से प्रारम्भ करके ; मुखैः--मुखों से; शास्त्रमू--पूर्व अनुच्चरित वैदिक मंत्र; इज्याम्--पौरोहित्य अनुष्ठान;स्तुति-स्तोमम्--बाँचने वालों की विषयवस्तु; प्रायश्चित्तम्-दिव्य कार्य; व्यधात्--स्थापित किया; क्रमात्ू--क्रमश: |
मैत्रेय ने कहा : ब्रह्म के सामने वाले मुख से प्रारम्भ होकर क्रमशः चारों वेद--ऋक्, यजु:,साम और अथर्व-आविर्भूत हुए।
तत्पश्चात् इसके पूर्व अनुच्चरित वैदिक स्त्तोत्र, पौरोहित्यअनुष्ठान, पाठ की विषयवस्तु तथा दिव्य कार्यकलाप एक-एक करके स्थापित किये गये।
आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्व वेदमात्मन: ।
स्थापत्यं चासूजद्देदं क्रमात्पूर्वांदिभि्मुखै: ॥
३८ ॥
आयु:-वेदम्--औषधि विज्ञान; धनु:-वेदम्--सैन्य विज्ञान; गान्धर्वम्--संगीतकला; वेदम्ू--ये सभी वैदिक ज्ञान हैं; आत्मन: --अपने से; स्थापत्यम्--वास्तु सम्बन्धी विज्ञान; च--भी; असृजत्--सृष्टि की; वेदम्--ज्ञान; क्रमात्--क्रमशः ; पूर्व-आदिभि: --सामने वाले मुख से प्रारम्भ करके; मुखै:--मुखों द्वारा
उन्होंने ओषधि विज्ञान, सैन्य विज्ञान, संगीत कला तथा स्थापत्य विज्ञान की भी सृष्टि वेदों से की।
ये सभी सामने वाले मुख से प्रारम्भ होकर क्रमश: प्रकट हुए।
इतिहासपुराणानि पशञ्ञमं वेदमी श्वरः ।
सर्वेभ्य एव वक्त्ेभ्य: ससूजे सर्वदर्शन: ॥
३९॥
इतिहास--इतिहास; पुराणानि--पुराण ( पूरक वेद ); पञ्षमम्--पाँचवाँ; वेदम्--वैदिक वाड्मय; ईश्वर: -- भगवान्; सर्वेभ्य: --सब मिला कर; एव--निश्चय ही; वक्टेभ्य: --अपने मुखों से; ससृजे--उत्पन्न किया; सर्व--चारों ओर; दर्शन:--जो हर समयदेख सकता है।
तब उन्होंने अपने सारे मुखों से पाँचवें वेद-पुराणों तथा इतिहासों-की सृष्टि की, क्योंकिवे सम्पूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्य को देख सकते थे।
षोडश्युक्थौ पूर्ववक्त्रात्पुरीष्यग्निष्ठटतावथ ।
आप्तोर्यामातिरात्रौ च वाजपेयं सगोसवम् ॥
४०॥
घोडशी-उक्थौ --यज्ञ के प्रकार; पूर्व-वक्त्रात्--पूर्वी मुँह से; पुरीषि-अग्निष्ठतौ--यज्ञ के प्रकार; अथ--तब; आप्तोर्याम-अतिरात्रौ--यज्ञ के प्रकार; च--तथा; वाजपेयम्--एक प्रकार का यज्ञ; स-गोसवम्--एक प्रकार का यज्ञ |
ब्रह्मा के पूर्वी मुख से विभिन्न प्रकार के समस्त अग्नि यज्ञ (षोडशी, उक्थ, पुरीषि,अग्निष्टोम, आप्तोर्याम, अतिरात्र, वाजपेय तथा गोसव ) प्रकट हुए।
विद्या दानं तपः सत्य धर्मस्येति पदानिच ।
आश्रमांश्व यथासड्ख्यमसृजत्सह वृत्तिभि: ॥
४१॥
विद्या--विद्या; दानमू-- दान; तपः--तपस्या; सत्यमू--सत्य; धर्मस्य-- धर्म का; इति--इस प्रकार; पदानि--चार पाँव; च--भी; आश्रमान्ू--आश्रमों; च-- भी; यथा--वे जिस प्रकार के हैं; सड्ख्यम्--संख्या में; असृजत्ू--रचना की; सह--साथ-साथ; वृत्तिभि:--पेशों या वृत्तियों के द्वारा।
शिक्षा, दान, तपस्या तथा सत्य को धर्म के चार पाँव कहा जाता है और इन्हें सीखने के लिएचार आश्रम हैं जिनमें वृत्तियों के अनुसार जातियों ( वर्णों ) का अलग-अलग विभाजन रहता है।
ब्रह्मा ने इन सबों की क्रमबद्ध रूप में रचना की।
सावित्र प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा ।
वार्ता सजञ्नयशालीनशिलोउज्छ इति वै गृहे ॥
४२॥
सावित्रम्-द्विजों का यज्ञोपवीत संस्कार; प्राजापत्यमू--एक वर्ष तक ब्रत रखने के लिए; च--तथा; ब्राह्ममू--वेदों कीस्वीकृति; च--तथा; अथ-- भी; बृहत्--यौनजीवन से पूर्ण विरक्ति; तथा--तब; वार्ता--वैदिक आदेश के अनुसार वृत्ति;सञ्नय--वृत्तिपरक कर्तव्य; शालीन--किसी का सहयोग माँगे बिना जीविका; शिल-उड्छः -त्यक्त अन्नों को बीनना; इति--इस प्रकार; वै--यद्यपि; गृहे--गृहस्थ जीवन में ।
तत्पश्चात् द्विजों के लिए यज्ञोपवीत संस्कार ( सावित्र ) का सूत्रपात हुआ और उसी के साथवेदों की स्वीकृति के कम से कम एक वर्ष बाद तक पालन किये जाने वाले नियमों( प्राजापत्यम् ), यौनजीवन से पूर्ण विरक्ति के नियम ( बृहत् ), वैदिक आदेशों के अनुसारवृत्तियाँ ( वार्ता ), गृहस्थ जीवन के विविध पेशेवार कर्तव्य ( सञ्ञय ) तथा परित्यक्त अन्नों कोबीन कर ( शिलोज्छ ) एवं किसी का सहयोग लिए बिना ( अयाचित ) जीविका चलाने कीविधि का सूत्रपात हुआ।
वैखानसा वालखिल्यौदुम्बरा: फेनपा वने ।
न्यासे कुटीचकः पूर्व बह्लोदो हंसनिष्क्रियौं ॥
४३॥
वैखानसाः--ऐसे मनुष्य जो सक्रिय जीवन से अवकाश लेकर अध-उबले भोजन पर निर्वाह करते हैं; वालखिल्य--वह जोअधिक अन्न पाने पर पुराने संग्रह को त्याग देता है; औदुम्बरा:--बिस्तर से उठकर जिस दिशा की ओर आगे जाने पर जो मिलेउसी पर निर्वाह करना; फेनपा:--वृक्ष से स्वतः गिरे हुए फलों को खाकर रहने वाला; वने--जंगल में; न्यासे--संन्यास आश्रममें; कुटीचकः--परिवार से आसक्तिरहित जीवन; पूर्वम्--प्रारम्भ में; बल्लेद:--सारे भौतिक कार्यो को त्याग कर दिव्य सेवा मेंलगे रहना; हंस--दिव्य ज्ञान में पूरी तरह लगा रहने वाला; निष्क्रियौ--सभी प्रकार के कार्यों को बन्द करते हुए।
वानप्रस्थ जीवन के चार विभाग हैं--वैखानस, वाल-खिल्य, औदुम्बर तथा फेनप।
संन्यासआश्रम के चार विभाग हैं-कुटीचक, बह्नोद, हंस तथा निष्क्रिय ।
ये सभी ब्रह्मा से प्रकट हुए थे।
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथेव च ।
एवं व्याहतयश्चासन्प्रणवो हास्य दह्ुतः ॥
४४॥
आन्वीक्षिकी--तर्क ; त्रयी--तीन लक्ष्य जिनके नाम धर्म, अर्थ तथा मोक्ष हैं; वार्ता--इन्द्रियतृप्ति; दण्ड--विधि तथा व्यवस्था;नीतिः:--आचरण सम्बन्धी संहिता; तथा-- भी; एव च--क्रमश: ; एवम्--इस प्रकार; व्याहतय:-- भू: भुवः तथा स्व: नामकविख्यात स्तोत्र; च-- भी; आसन्ू--उत्पन्न हुए; प्रणव: --»कार; हि--निश्चय ही; अस्य--उसका ( ब्रह्मा का ); दहतः--हृदयसे
तर्कशास्त्र विज्ञानजीवन के वैदिक लक्ष्य, कानून तथा व्यवस्था, आचार संहिता तथा भू:भुवः स्व: नामक विख्यात मंत्र-ये सब ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए और उनके हृदय से प्रणव कार प्रकट हुआ।
'तस्योष्णिगासील्लोमभ्यो गायत्री च त्वचो विभो: ।
त्रिष्ठम्मांसात्स्नुतोनुष्ठुब्जगत्यस्थ्न: प्रजापते: ॥
४५॥
तस्य--उसका; उष्णिकू--एक वैदिक छन्द; आसीतू--उत्पन्न हुआ; लोमभ्य:--शरीर पर के रोमों से; गायत्री-- प्रमुख वैदिकस्तोत्र; च--भी; त्वच:--चमड़ी से; विभो: --प्रभु के ; त्रिष्टपू--एक विशेष प्रकार का छन्द; मांसातू--मांस से; स्नुत:--शिराओंसे; अनुष्ठप्ू-- अन्य छन््द; जगती--एक अन्य छन्द; अस्थ्:--हड्डियों से; प्रजापतेः --जीवों के पिता के |
तत्पश्चात् सर्वशक्तिमान प्रजापति के शरीर के रोमों से उष्णिक अर्थात् साहित्यिक अभिव्यक्तिकी कला उत्पन्न हुई।
प्रमुख वैदिक मंत्र गायत्री जीवों के स्वामी की चमड़ी से उत्पन्न हुआ, त्रिष्ट॒ुप्उनके माँस से, अनुष्ठुप् उनकी शिराओं से तथा जगती छन्द उनकी हड्डियों से उत्पन्न हुआ।
मज्जाया: पड्डि रुत्पन्ना बृहती प्राणतो भवत् ॥
४६॥
मज्जाया: --अस्थिमज्ञा से; पड़्ि :--एक विशेष प्रकार का श्लोक; उत्पन्ना--उत्पन्न हुआ; बृहती --अन्य प्रकार का श्लोक;प्राणतः--प्राण से; अभवत्--उत्पन्न हुआ
पंक्ति श्लोक लिखने की कला का उदय अस्थिमज्जा से हुआ और एक अन्य एलोक बृहतीलिखने की कला जीवों के स्वामी के प्राण से उत्पन्न हुई।
स्पर्शस्तस्याभवज्जीव: स्वरो देह उदाहतऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुरन्त:स्था बलमात्मन: ।
स्वरा: सप्त विहारेण भवन्ति सम प्रजापते: ॥
४७॥
स्पर्शः:--क से म तक के अक्षरों का समूह; तस्य--उसका; अभवत्--हुआ; जीव:--आत्मा; स्वर: --स्वर; देह: --उनका शरीर;उदाहतः--व्यक्त किये जाते हैं; ऊष्माणम्--श, ष, स तथा ह अक्षर; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; आहुः--कहलाते हैं; अन्तः-स्था: --य, र, ल तथा व ये अन्तस्थ अक्षर हैं; बलमू--शक्ति; आत्मन:--उसका; स्वरा:--संगीत; सप्त--सात; विहारेण--ऐन्द्रियकार्यकलाप के द्वारा; भवन्ति स्म--प्रकट हुए; प्रजापते:--जीवों के स्वामी का।
ब्रह्मा की आत्मा स्पर्श अक्षरों के रूप में, उनका शरीर स्वरों के रूप में, उनकी इन्द्रियाँ ऊष्मअक्षरों के रूप में, उनका बल अन्तःस्थ अक्षरों के रूप में और उनके ऐन्द्रिय कार्यकलाप संगीतके सप्त स्वरों के रूप में प्रकट हुए।
शब्दब्रह्मात्मनस्तस्य व्यक्ताव्यक्तात्मन: पर: ।
ब्रह्मावभाति विततो नानाशक्त्युपबूंहित: ॥
४८ ॥
शब्द-ब्रह्म --दिव्य ध्वनि; आत्मनः --परमे श्वर श्रीकृष्ण; तस्य--उनका; व्यक्त--प्रकट; अव्यक्त-आत्मन:-- अव्यक्त का; पर: --दिव्य; ब्रह्मा--परम; अवभाति--पूर्णतया प्रकट; वितत:--वितरित करते हुए; नाना--विविध; शक्ति--शक्तियाँ; उपबूंहित:--से युक्त
ब्रह्मा दिव्य ध्वनि के रूप में भगवान् के साकार स्वरूप हैं, अतएव वे व्यक्त तथा अव्यक्तश़ की धारणा से परे हैं।
ब्रह्म परम सत्य के पूर्ण रूप हैं और नानाविध शक्तियों से समन्वित हैं।
ततोपरामुपादाय स सर्गाय मनो दधे ॥
४९॥
ततः--तत्पश्चात्: अपराम्-- अन्य; उपादाय-- स्वीकार करके; सः--वह; सर्गाय--सृष्टि विषयक; मनः--मन; दधे--ध ध्यानदिया।
तत्पश्चात् ब्रह्म ने दूसरा शरीर धारण किया जिसमें यौन जीवन निषिद्ध नहीं था और इस तरहवे आगे सृष्टि के कार्य में लग गये।
ऋषीणां भूरिवीर्याणामपि सर्गमविस्तृतम् ।
ज्ञात्वा तद्धृदये भूयश्चविन्तयामास कौरव ॥
५०॥
ऋषीणाम्--ऋषियों का; भूरि-वीर्याणाम्--अत्यधिक पराक्रम से; अपि--के बावजूद; सर्गम्--सृष्टि; अविस्तृतम्-विस्तृतनहीं; ज्ञात्वा--जानकर; तत्ू--वह; हृदये --हृदय में; भूय:--पुन; चिन्तयाम् आस--विचार करने लगा; कौरब--हे कुरुपुत्र |
हे कुरुपुत्र, जब ब्रह्मा ने देखा कि अत्यन्त वीर्यवान ऋषियों के होते हुए भी जनसंख्या मेंपर्याप्त वृद्धि नहीं हुई तो वे गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे कि जनसंख्या किस तरह बढ़ायीजाय।
अहो अद्भुतमेतन्मे व्यापृतस्यापि नित्यदा ।
न होधन्ते प्रजा नूनं दैवमत्र विघधातकम् ॥
५१॥
अहो--हाय; अद्भुतम्-- अद्भुत है; एतत्ू--यह; मे--मेरे लिए; व्यापृतस्य--व्यस्त होते हुए; अपि--यद्यपि; नित्यदा--सदैव;न--नहीं; हि--निश्चय ही; एधन्ते--उत्पन्न करते हैं; प्रजा:--जीव; नूनम्--किन्तु; दैवम्-- भाग्य; अत्र--यहाँ; विधातकम्--विरुद्धविपरीत
ब्रह्म ने अपने आप सोचा : हाय! यह विचित्र बात है कि मेरे सर्वत्र फैले हुए रहने पर भीब्रह्माण्ड भर में जन-संख्या अब भी अपर्याप्त है।
इस दुर्भाग्य का कारण एकमात्र भाग्य केअतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
एवं युक्तकृतस्तस्य दैवं चावेक्षतस्तदा ।
'कस्य रूपमभूदद्वेधा यत्कायमभिचक्षते ॥
५२॥
एवम्--इस प्रकार; युक्त--सोच विचार करते; कृत:--ऐसा करते हुए; तस्थ--उसका; दैवम्--दैवी शक्ति; च-- भी;अवेक्षतः--देखते हुए; तदा--उस समय; कस्य--ब्रह्माण्ड; रूपम्--स्वरूप; अभूत्--प्रकट हो गया; द्वेधा--दोहरा; यत्--जोहै; कायम्--उसका शरीर; अभिचक्षते--कहा जाता है।
जब वे इस तरह विचारमग्न थे और अलौकिक शक्ति को देख रहे थे तो उनके शरीर से दोअन्य रूप उत्पन्न हुए।
वे अब भी ब्रह्मा के शरीर के रूप में विख्यात हैं।
ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥
५३॥
ताभ्याम्--उनके; रूप--रूप; विभागाभ्यामू-- इस तरह विभक्त होकर; मिथुनम्--यौन सम्बन्ध; समपद्यत--ठीक से सम्पन्नकिया।
ये दोनों पृथक् हुए शरीर यौन सम्बन्ध में एक दूसरे से संयुक्त हो गये।
यस्तु तत्र पुमान्सोभून्मनु: स्वायम्भुवः स्वराट् ।
स्त्री यासीच्छतरूपाख्या महिष्यस्य महात्मन: ॥
५४॥
यः--जो; तु-- लेकिन; तत्र--वहाँ; पुमान्ू--नर; सः-- वह; अभूत्--बना; मनुः--मनुष्यजाति का पिता; स्वायम्भुव:--स्वायंभुव नामक; स्व-राट्--पूर्णतया स्वतंत्र; स्त्री--नारी; या--जो; आसीत्-- थी; शतरूपा--शतरूपा; आख्या--नामक;महिषी--रानी; अस्य-- उसकी ; महात्मन:--महात्मा |
इनमें से जिसका नर रूप था वह स्वायंभुव मनु कहलाया और नारी शतरूपा कहलायी जोमहात्मा मनु की रानी के रुप में जानी गई।
तदा मिथुनधर्मेण प्रजा होधाम्बभूविरि ॥
५५॥
तदा--उस समय; मिथुन--यौन जीवन; धर्मेण--विधि-विधानों के अनुसार; प्रजा:--सन््तानें; हि--निश्चय ही; एधाम्--बढ़ीहुईं; बभूविरि--घटित हुई |
तत्पश्चात् उन्होंने सम्भोग द्वारा क्रमशः एक एक करके जनसंख्या की पीढ़ियों में वृद्धि की।
स चापि शतरूपायां पशञ्ञापत्यान्यजीजनत्प्रियव्रतोत्तानपादौ तिस्त्र: कन्याश्व भारत ।
आकूतिर्देवहूतिश्व प्रसूतिरिति सत्तम ॥
५६॥
सः--वह ( मनु ); च-- भी; अपि--कालान्तर में; शतरूपायाम्--शतरूपा में; पञ्ञ--पाँच; अपत्यानि--सन्तानें; अजीजनतू --उत्पन्न किया; प्रियव्रत--प्रियब्रत; उत्तानपादौ--उत्तानपाद; तिस्त्रः--तीन; कन्या:--कन्याएँ; च-- भी; भारत--हे भरत के पुत्र;आकृति:--आकूति; देवहूति:--देवहूति; च--तथा; प्रसूति: --प्रसूति; इति--इस प्रकार; सत्तम-हे सर्वश्रेष्ठ |
हे भरतपुत्र, समय आने पर उसने ( मनु ने ) शतरूपा से पाँच सन्तानें उत्पन्न कौं-दो पुत्रप्रियत्रत तथा उत्तानपाद एवं तीन कन्याएँ आकृति, देवहूति तथा प्रसूति।
आकूतिं रुचये प्रादात्कर्दमाय तु मध्यमाम् ।
दक्षायादात्प्रसूतिं च यत आपूरितं जगत् ॥
५७॥
आकृतिम्--आकूति नामक कन्या; रुचये--रूचि मुनि को; प्रादात्-प्रदान किया; कर्दमाय--कर्दम मुनि को; तु--लेकिन;मध्यमाम्--बीच की ( देवहूति ); दक्षाय--दक्ष को; अदात्--प्रदान किया; प्रसूतिमू--सबसे छोटी पुत्री को; च-- भी; यतः--जिससे; आपूरितम्--पूर्ण है; जगतू--सारा संसारपिता
मनु ने अपनी पहली पुत्री आकृति रुचि मुनि को दी, मझली पुत्री देवहूति कर्दम मुनिको और सबसे छोटी पुत्री प्रसूति दक्ष को दी।
उनसे सारा जगत जनसंख्या से पूरित हो गया।
अध्याय तेरह: भगवान वराह का प्राकट्य
3.13श्रीशुक उवाचनिशम्य वाचं वबदतो मुने: पुण्यतमां नूप ।
भूय: पप्रच्छ कौरव्यो वासुदेवकथाहतः ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; निशम्य--सुन कर; वाचम्--बातें; वदत:--बोलते हुए; मुनेः --मैत्रेय मुनिका; पुण्य-तमाम्--अत्यन्त पुण्यमय; नृप--हे राजा; भूय:--तब फिर; पप्रच्छ--पूछा; कौरव्य: --कुरुओं में सर्वश्रेष्ठ ( विदुर );वासुदेव-कथा-- भगवान् वासुदेव विषयक कथाएँ; आहत: --जो इस तरह सादर पूजता है।
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, मैत्रेय मुनि से इन समस्त पुण्यतम कथाओं कोसुनने के बाद विदुर ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की कथाओं के विषय में और अधिक पूछताछकी, क्योंकि इनका आदरपूर्वक सुनना उन्हें पसन्द था।
विदुर उवाचस बै स्वायम्भुव: सम्राट्प्रिय: पुत्र: स्वयम्भुवः ।
प्रतिलभ्य प्रियां पत्नीं कि चक्कार ततो मुने ॥
२॥
विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; सः--वह; बै--सरलता से; स्वायम्भुव:--स्वायम्भुव मनु; सम्राट्--समस्त राजाओं के राजा;प्रिय:--प्रिय ; पुत्र:--पुत्र; स्वयम्भुव: --ब्रह्मा का; प्रतिलभ्य--प्राप्त करके; प्रियाम्-- अत्यन्त प्रिय; पत्लीमू--पत्नी को;किम्--क्या; चकार--किया; ततः--तत्पश्चात्; मुने--हे मुनि
विदुर ने कहा : हे मुनि, ब्रह्मा के प्रिय पुत्र स्वायम्भुव ने अपनी अतीव प्रिय पत्नी को पाने केबाद क्या किया ?
चरितं तस्य राजर्षेरादिराजस्य सत्तम ।
ब्रृहि मे भ्रद्धानाय विष्वक्सेनाश्रयो हासौं ॥
३॥
चरितम्--चरित्र; तस्थ--उसका; राजर्षे: --ऋषितुल्य राजा का; आदि-राजस्य--आदि राजा का; सत्तम--हे अति पवित्र;ब्रूहि--कृपया कहें; मे--मुझसे; श्रद्धानाय--प्राप्त करने के लिए जो इच्छुक है उसे ; विष्वक्सेन-- भगवान् का; आश्रय:--जिसने शरण ले रखी है; हि--निश्चय ही; असौ--वह राजा
हे पुण्यात्मा श्रेष्ठ राजाओं का आदि राजा ( मनु ) भगवान् हरि का महान् भक्त था, अतएवउसके शुद्ध चरित्र तथा कार्यकलाप सुनने योग्य हैं।
कृपया उनका वर्णन करें।
मैं सुनने के लिएअतीव उत्सुक हूँ।
श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्यनन्वझ्जसा सूरिभिरीडितोडर्थ: ।
तत्तदगुणानुश्रवर्ण मुकुन्द-पादारविन्दं हृदयेषु येषामू ॥
४॥
श्रुतस्य--ऐसे व्यक्तियों का जो सुन रहे हों; पुंसामू--ऐसे पुरुषों का; सुचिर--दीर्घकाल तक; श्रमस्य--कठिन श्रम करते हुए;ननु--निश्चय ही; अज्ञसा--विस्तार से; सूरिभि:--शुद्ध भक्तों द्वारा; ईडित:--व्याख्या किया गया:; अर्थ:--कथन; तत्--वह;तत्--वह; गुण--दिव्य गुण; अनुश्रवणम्--सोचते हुए; मुकुन्द--मुक्तिदाता भगवान् का; पाद-अरविन्दमू--चरणकमल;हृदयेषु--हृदय के भीतर; येषाम्--जिनके ।
जो लोग अत्यन्त श्रमपूर्वक तथा दीर्घकाल तक गुरु से श्रवण करते हैं उन्हें शुद्धभक्तों केचरित्र तथा कार्यकलापों के विषय में शुद्धभक्तों के मुख से ही सुनना चाहिए।
शुद्ध भक्त अपनेहृदयों के भीतर सदैव उन भगवान् के चरणकमलों का चिन्तन करते हैं, जो अपने भक्तों कोमोक्ष प्रदान करने वाले हैं।
श्रीशुक उवाचइति ब्रुवाणं विदुरं विनीतंसहस््रशीर्ष्ण श्वरणोपधानम् ।
प्रहष्टरोमा भगवत्कथायांप्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट ॥
५॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; ब्रुवाणम्--बोलते हुए; विदुरम्--विदुर को; विनीतम्--अतीव नग्न; सहस्त्र-शीर्ष्ण:-- भगवान् कृष्ण; चरण---चरणकमल; उपधानम्--तकिया; प्रहष्ट-रोमा--आनन्द से जिसके रोमखड़े हो गये हों; भगवत्-- भगवान् के सम्बन्ध में; कथायाम्--शब्दों में; प्रणीयमान: --ऐसे आत्मा द्वारा प्रभावित हो कर;मुनिः--मुनि ने; अभ्यचष्ट--बोलने का प्रयास किया |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् कृष्ण विदुर की गोद में अपना चरणकमल रख करप्रसन्न थे, क्योंकि विदुर अत्यन्त विनीत तथा भद्र थे।
मैत्रेय मुनि विदुर के शब्दों से अति प्रसन्न थेऔर अपनी आत्मा से प्रभावित होकर उन्होंने बोलने का प्रयास किया।
मैत्रेय उवाचयदा स्वभार्यया सार्ध जात: स्वायम्भुवो मनु: ।
प्राज्ललिः प्रणतश्चेदं वेदगर्भभभाषत ॥
६॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; यदा--जब; स्व-भार्यया-- अपनी पत्नी के; सार्धम्--साथ में; जात:--प्रकट हुआ;स्वायम्भुव:--स्वायम्भुव मनु; मनु;--मानवजाति का पिता; प्राज्ललि:--हाथ जोड़े; प्रणतः--नमस्कार करके; च--भी;इदम्--यह; वेद-गर्भभ्ू--वैदिक विद्या के आगार को; अभाषत--सम्बोधित किया।
मैत्रेय मुनि ने विदुर से कहा : मानवजाति के पिता मनु अपनी पत्नी समेत अपने प्राकट्य केबाद वेदविद्या के आगार ब्रह्मा को नमस्कार करके तथा हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोले।
त्वमेक: सर्वभूतानां जन्मकृद्दुत्तिदः पिता ।
तथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत् ॥
७॥
त्वमू--तुम; एक: --एक; सर्व--समस्त; भूतानामू--जीवों के; जन्म-कृत्--जनक; वृत्ति-दः--जीविका का साधन; पिता--पिता; तथा अपि--तो भी; न:ः--हम; प्रजानाम्--उत्पन्न हुए सबों का; ते--तुम्हारी; शुश्रूषा--सेवा; केन--कैसे; वा-- अथवा;भवेत्--सम्भव हो सकती है।
आप सारे जीवों के पिता तथा उनकी जीविका के स्त्रोत हैं, क्योंकि वे सभी आपसे उत्पन्नहुए हैं।
कृपा करके हमें आदेश दें कि हम आपकी सेवा किस तरह कर सकते हैं।
तद्ठिधेहि नमस्तुभ्यं कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु ।
यत्कृत्वेह यशो विष्वगमुत्र च भवेद्गति: ॥
८॥
तत्--वह; विधेहि-- आदेश दें; नम:--मेरा नमस्कार; तुभ्यम्--तुमको; कर्मसु--कार्यो में; ईड्य--हे पूज्य; आत्म-शक्तिषु--हमारी कार्य क्षमता के अन्तर्गत; यत्--जो; कृत्वा--करके ; इह--इस जगत में; यश: --यश; विष्वक् --सर्वत्र; अमुत्र-- अगलेजगत में; च--तथा; भवेत्--इसे होना चाहिए; गति: --प्रगति ।
है आराध्य, आप हमें हमारी कार्यक्षमता के अन्तर्गत कार्य करने के लिए अपना आदेश देंजिससे हम इस जीवन में यश के लिए तथा अगले जीवन में प्रगति के लिए उसका पालन करसकें।
ब्रह्मोवाचप्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर ।
यन्निरव्यलीकेन हदा शाधि मेत्यात्मनार्पितम् ॥
९॥
ब्रह्म उवाच--ब्रह्मा ने कहा; प्रीतः--प्रसन्न; तुभ्यम्--तुम को; अहम्--मैं; तात-हे पुत्र; स्वस्ति--कल्याण; स्तात्ू--हो;वाम्--तुम दोनों को; क्षिति-ईश्वर--हे संसार के स्वामी; यत्--क्योंकि; निर्व्यलीकेन--बिना भेदभाव के; हृदा--हृदय से;शाधि--आदेश दीजिये; मा--मुझको; इति--इस प्रकार; आत्मना--आत्मा से; अर्पितमू--शरणागत
ब्रह्माजी ने कहा, हे प्रिय पुत्र, हे जगत् के स्वामी, मैं तुम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हारे तथातुम्हारी पत्नी दोनों ही के कल्याण की कामना करता हूँ।
तुमने मेरे आदेशों के लिए अपने हृदयसे बिना सोचे विचारे अपने आपको मेरे शरणागत कर लिया है।
एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या ह्पचितिर्गुरौ ।
शत्त्याप्रमत्तैर्गुछेत सादर गतमत्सरै: ॥
१०॥
एतावती--ठीक इसी तरह; आत्मजै:--सनन््तान द्वारा; वीर--हे वीर; कार्या--सम्पन्न किया जाना चाहिए; हि--निश्चय ही;अपचिति:ः--पूजा; गुरौ--गुरुजन को; शक्त्या--पूरी क्षमता से; अप्रमत्तै:--विवेकवान द्वारा; गृह्ेत--स्वीकार किया जानाचाहिए; स-आदरम्--अतीव हर्ष के साथ; गत-मत्सरैः--ईर्ष्या की सीमा से परे रहने वालों के द्वारा।
हे वीर, तुम्हारा उदाहरण पिता-पुत्र सम्बन्ध के सर्वथा उपयुक्त है।
बड़ों की इस तरह कीपूजा अपेक्षित है।
जो ईर्ष्या की सीमा के परे है और विवेकी है, वह अपने पिता के आदेश कोप्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है और अपने पूरी सामर्थ्य से उसे सम्पन्न करता है।
स त्वमस्यथामपत्यानि सहशान्यात्मनो गुणै: ।
उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञै: पुरुष यज ॥
११॥
सः--इसलिए वह आज्ञाकारी पुत्र; त्वम्-तुम जैसे; अस्याम्--उसमें; अपत्यानि--सन्तानें; सहशानि--समानरूप से योग्य;आत्मन:--तुम्हारी; गुणैः -गुणों से; उत्पाद्य--उत्पन्न किये जाकर; शास--शासन करते हैं; धर्मेण-- भक्ति के नियमों के साथ;गाम्ू--जगत; यज्ञैः--वज्ञों से; पुरुषम्-- भगवान् की; यज--पूजा करो
चूँकि तुम मेरे अत्यन्त आज्ञाकारी पुत्र हो इसलिए मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम अपनी पत्नीके गर्भ से अपने ही समान योग्य सन्तानें उत्पन्न करो।
तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की भक्ति केसिद्धान्तों का पालन करते हुए सारे जगत पर शासन करो और इस तरह यज्ञ सम्पन्न करकेभगवान् की पूजा करो।
परं शुश्रूषणं महां स्यात्प्रजारक्षया नृप ।
भगवांस्ते प्रजाभर्तुईषीकेशो नुतुष्पति ॥
१२॥
'परम्--सबसे बड़ी; शुश्रूषणम्-- भक्ति; महामम्--मेरे प्रति; स्थात्ू--होनी चाहिए; प्रजा-- भौतिक जगत में उत्पन्न जीव; रक्षया--बिगड़ने से बचाकर; नृप--हे राजा; भगवान्-- भगवान्; ते--तुम्हारे साथ; प्रजा-भर्तु:--जीवों के रक्षक के साथ; हृषीकेश: --इन्द्रियों के स्वामी; अनुतुष्यति--तुष्ट होता है।
हे राजन, यदि तुम भौतिक जगत में जीवों को उचित सुरक्षा प्रदान कर सको तो मेरे प्रति वहसर्वोत्तम सेवा होगी।
जब परमेश्वर तुम्हें बद्धजीवों के उत्तम रक्षक के रूप में देखेंगे तो इन्द्रियों केस्वामी निश्चय ही तुम पर अतीव प्रसन्न होंगे।
येषां न तुष्टो भगवान्यज्ञलिझ्े जनार्दन: ।
तेषां श्रमो हापार्थाय यदात्मा नाहतः स्वयम् ॥
१३॥
येषाम्--उनका जिनके साथ; न--कभी नहीं; तुष्ट:--तुष्ट; भगवान्-- भगवान्; यज्ञ-लिड्र:--यज्ञ का स्वरूप; जनार्दन:--भगवान् कृष्ण या विष्णुतत्त्व; तेषामू--उनका; श्रम:-- श्रम; हि--निश्चय ही; अपार्थाय--बिना लाभ के; यत्--क्योंकि;आत्मा--परमात्मा; न--नहीं; आहत: --सम्मानित; स्वयम्--स्वयं |
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् जनार्दन ( कृष्ण ) ही समस्त यज्ञ फलों को स्वीकार करने वाले हैं।
यदि वे तुष्ट नहीं होते तो प्रगति के लिए किया गया मनुष्य का श्रम व्यर्थ है।
वे चरम आत्मा हैं,अतएव जो व्यक्ति उन्हें तुष्ट नहीं करता वह निश्चय ही अपने ही हितों की उपेक्षा करता है।
मनुरुवाचआदेशेहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन ।
स्थान त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो ॥
१४॥
मनु: उवाच-- श्री मनु ने कहा; आदेशे-- आदेश के अन्तर्गत; अहम्--मैं; भगवतः--शक्तिशाली आपका; वर्तेय--रूकूँगा;अमीव-सूदन--हे समस्त पापों के संहारक; स्थानम्--स्थान; तु--लेकिन; इह--इस जगत में; अनुजानीहि--कृपया मुझेबतलाइये; प्रजानाम्ू--मुझसे उत्पन्न जीवधारियों का; मम--मेरा; च-- भी; प्रभो--हे प्रभु
श्री मनु ने कहा : हे सर्वशक्तिमान प्रभु, हे समस्त पापों के संहर्ता, मैं आपके आदेशों कापालन करूँगा।
कृपया मुझे मेरा तथा मुझसे उत्पन्न जीवों के बसने के लिए स्थान बतलाएँ।
यदोकः सर्वभूतानां मही मग्ना महाम्भसि ।
अस्या उद्धरणे यत्नो देव देव्या विधीयताम् ॥
१५॥
यत्--क्योंकि; ओक:--वासस्थान; सर्व--सभी के लिए; भूतानाम्--जीवों के लिए; मही--पृथ्वी; मग्ना--डूबी हुई; महा-अम्भसि--विशाल जल में; अस्या:--इसके; उद्धरणे--उठाने में; यत्न:-- प्रयास; देव--हे देवताओं के स्वामी; देव्या:--इसपृथ्वी का; विधीयताम्--कराएँ |
है देवताओं के स्वामी, विशाल जल में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर उठाने का प्रयास करें,क्योंकि यह सारे जीवों का वासस्थान है।
यह आपके प्रयास तथा भगवान् की कृपा से ही सम्भवहै।
मैत्रेय उवाचपरमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम् ।
कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम् ॥
१६॥
मैत्रेयः उवाच-- श्री मैत्रेय मुनि ने कहा; परमेष्ठी --ब्रह्मा; तु-- भी; अपाम्--जल के ; मध्ये-- भीतर; तथा--इस प्रकार;सन्नामू--स्थित; अवेक्ष्य--देखकर; गाम्--पृथ्वी को; कथम्--कैसे; एनामू--यह; समुन्नेष्ये -- मैं उठा लूँगा; इति--इस प्रकार;दध ्यौ-- ध्यान दिया; धिया--बुद्धि से; चिरमू--दीर्घ काल तक |
श्री मैत्रेय ने कहा : इस प्रकार पृथ्वी को जल में डूबी हुई देखकर ब्रह्मा दीर्घकाल तकसोचते रहे कि इसे किस प्रकार उठाया जा सकता है।
सृजतो मे ्षितिर्वार्भि: प्लाव्यमाना रसां गताअथात्र किमनुष्ठेयमस्माभि: सर्गयोजितै: ।
यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥
१७॥
सृजतः--सृजन करते समय; मे--मेरा; क्षिति:--पृथ्वी; वार्भि:--जल के द्वारा; प्लाव्यमाना-- आप्लावित की गई; रसामू--जलकी गहराई; गता--नीचे गया हुआ; अथ--इसलिए; अत्र--इस मामले में; किम्--क््या; अनुष्ठेयम्--क्या प्रयास किया जानाचाहिए; अस्माभि: --हमारे द्वारा; सर्ग--सृष्टि में; योजितैः--लगे हुए; यस्य--जिसका; अहम्--मैं; हृदयात्--हृदय से;आसमू--उत्पन्न; सः--वह; ईशः--पर मेश्वर; विदधातु--निर्देश कर सकते हैं; मे--मुझको |
ब्रह्म ने सोचा : जब मैं सृजन कार्य में लगा हुआ था, तो पृथ्वी बाढ़ से आप्लावित हो गईऔर समुद्र के गर्त में चली गई।
हम लोग जो सृजन के इस कार्य में लगे हैं भला कर ही क्यासकते हैं ? सर्वोत्तम यही होगा कि सर्वशक्तिमान हमारा निर्देशन करें।
इत्यभिध्यायतो नासाविवरात्सहसानघ ।
वराहतोको निरगादडुष्ठपरिमाणकः ॥
१८॥
इति--इस प्रकार; अभिध्यायत:--सोचते हुए; नासा-विवरात्--नथुनों से; सहसा--एकाएक; अनघ--हे निष्पाप; वराह-तोकः--वराह का लघुरूप ( सूअर ); निरगात्ू--बाहर आया; अद्डुष्ट--अँगूठे का ऊपरी हिस्सा; परिमाणक:--माप वाला
हे निष्पाप विदुर, जब ब्रह्माजी विचारमग्न थे तो उनके नथुने से सहसा एक सूअर ( वराह )का लघुरूप बाहर निकल आया।
इस प्राणी की माप अँगूठे के ऊपरी हिस्से से अधिक नहीं थी।
तस्याभिपष्टयत: खस्थ: क्षणेन किल भारत ।
गजमात्र:ः प्रववृधे तदद्भधुतमभून्महत् ॥
१९॥
तस्य--उसका; अभिपश्यत: --इस प्रकार देखते हुए; ख-स्थ:--आकाश में स्थित; क्षणेन--सहसा; किल--निश्चय ही;भारत--हे भरतवंशी; गज-मात्र:--हाथी के समान; प्रववृधे-- भलीभाँति विस्तार किया; तत्ू--वह; अद्भुतम्-- असामान्य;अभूत्--बदल गया; महत्--विराट शरीर में
हे भरतवंशी, तब ब्रह्मा के देखते ही देखते वह वराह विशाल काय हाथी जैसा अद्भुत विराट स्वरूप धारण करके आकाश में स्थित हो गया।
मरीचिप्रमुखैर्विप्रै: कुमारैर्मनुना सह ।
इृष्ठा तत्सौकरं रूप॑ं तर्कयामास चित्रधा ॥
२०॥
मरीचि--मरीचि मुनि; प्रमुखैः--इत्यादि; विप्रैः--सारे ब्राह्मणों; कुमारैः--चारों कुमारों सहित; मनुना--तथा मनु; सह--केसाथ; दृष्टा--देख कर; तत्--वह; सौकरम्--सूकर जैसा; रूपम्--स्वरूप; तर्कयाम् आस--परस्पर तर्क-वितर्क किया;चित्रधा--विविध प्रकारों से |
आकाश में अद्भुत सूकर जैसा रूप देखने से आश्वर्यचकित ब्रह्माजी मरीचि जैसे महान्ब्राह्मणों तथा चारों कुमारों एवं मनु के साथ अनेक प्रकार से तर्क-वितर्क करने लगे।
किमेतत्सूकरव्याजं सत्त्वं दिव्यमवस्थितम् ।
अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम् ॥
२१॥
किम्--क्या; एतत्--यह; सूकर--सूकर के; व्याजम्ू--बहाने से; सत्त्वम्--जीव; दिव्यम्ू--असामान्य; अवस्थितम्--स्थित;अहो बत--ओह, यह है; आश्चर्यम्--अत्यन्त अद्भुत; इदम्--यह; नासाया:--नाक से; मे--मेरी; विनिःसृतम्--बाहर आया।
क्या सूकर के बहाने से यह कोई असामान्य व्यक्तित्व आया है ? यह अति आश्चर्यप्रद है किवह मेरी नाक से निकला है।
इृष्टो डडुष्ठशिरोमात्र क्षणाद्गण्डशिलासम: ।
अपि स्विद्धगवानेष यज्ञों मे खेदयन्मन: ॥
२२॥
हृष्ठ;:--अभी-अभी देखा हुआ; अब्जुष्ठ --अँगूठे का; शिर:--सिरा; मात्र:--केवल; क्षणात्--तुरन्त; गण्ड-शिला--विशालपत्थर; सम:--सहृश; अपि स्वित्ू-- क्या; भगवान्-- भगवान्; एष: --यह; यज्ञ:--विष्णु; मे--मेरा; खेदयन्--खिन्न; मन: --मन
प्रारम्भ में यह सूकर अँगूठे के सिरे से बड़ा न था, किन्तु क्षण भर में वह शिला के समानविशाल बन गया।
मेरा मन विदश्लुब्ध है।
क्या वह पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु हैं ?
इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मण: सह सूनुभिः ।
भगवान्यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभ: ॥
२३॥
इति--इस प्रकार; मीमांसत: --विचार-विमर्श करते; तस्य--उस; ब्रह्मण: --ब्रह्मा के; सह--साथ-साथ; सूनुभि: --उनकेपुत्रगण; भगवान्--परमे श्वर; यज्ञ-- भगवान् विष्णु ने; पुरुष: --सर्व श्रेष्ठ पुरुष; जगर्ज--गर्जना की; अग-इन्द्र--विशाल पर्वत;सन्निभ:--सहृश
जब ब्रह्माजी अपने पुत्रों के साथ विचार-विमर्श कर रहे थे तो पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु नेविशाल पर्वत के समान गम्भीर गर्जना की।
ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्व द्विजोत्तमान् ।
स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता विभु: ॥
२४॥
ब्रह्मणम्--ब्रह्मा को; हर्षबाम् आस--जीवन्त कर दिया; हरि:ः-- भगवान् ने; तानू--वे उन सबों को; च-- भी; द्विज-उत्तमानू--अति उच्च ब्राह्मणों को; स्व-गर्जितेन--अपनी असाधारण वाणी से; ककु भ:--सारी दिशाएँ; प्रतिस्वनयता--प्रतिध्वनित होउठीं; विभु:--सर्वशक्तिमान |
सर्वशक्तिमान भगवान् ने पुनः असाधारण वाणी से ऐसी गर्जना कर के ब्रह्मा तथा अन्यउच्चस्थ ब्राह्मणों को जीवन्त कर दिया, जिससे सारी दिशाओं में गूँज उठीं।
निशम्य ते घर्घरितं स्वखेद-क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य ।
त्जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते रिभिः पवित्रैर्मुनयोगृणन्स्म ॥
२५॥
निशम्य--सुनकर; ते--वे; घर्घरितम्-- कोलाहलपूर्ण ध्वनि, घुरघुराहट; स्व-खेद--निजी शोक; क्षयिष्णु--विनष्ट करने वाला;माया-मय--सर्व कृपालु; सूकरस्य--सूकर का; जन:--जनलोक; तपः--तपोलोक ; सत्य--सत्यलोक के; निवासिन:--निवासी; ते--वे सभी; त्रिभि:--तीन वेदों से; पवित्रै: --शुभ मंत्रों से; मुन॒यः--महान् चिन्तकों तथा ऋषियों ने; अगृणन् स्म--उच्चारण किया।
जब जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक के निवासी महर्षियों तथा चिन्तकों ने भगवान्सूकर की कोलाहलपूर्ण वाणी सुनी, जो सर्वकृपालु भगवान् की सर्वकल्याणमय ध्वनि थी तोउन्होंने तीनों वेदों से शुभ मंत्रों का उच्चारण किया।
तेषां सतां वेदवितानमूर्ति-ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम् ।
विनद्य भूयो विबुधोदयायगजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥
२६॥
तेषामू--उन; सताम्-महान् भक्तों के; वेद--सम्पूर्ण ज्ञान; वितान-मूर्तिः--विस्तार का स्वरूप; ब्रह्म--वैदिक ध्वनि;अवधार्य--इसे ठीक से जानकर; आत्म--अपना; गुण-अनुवादम्--दिव्य गुणगान; विनद्य--प्रतिध्वनित; भूय:--पुनः;विबुध--विद्वानों के; उदयाय--लाभ या उत्थान् हेतु; गजेन्द्र-लील:--हाथी के समान कीड़ा करते हुए; जलम्--जल में;आविवेश--प्रविष्ट हुआ
हाथी के समान क़ीड़ा करते हुए वे महान् भक्तों द्वारा की गई वैदिक स्तुतियों के उत्तर मेंपुनः गर्जना करके जल में घुस गये।
भगवान् वैदिक स्तुतियों के लक्ष्य हैं, अतएव वे समझ गयेकि भक्तों की स्तुतियाँ उन्हीं के लिए की जा रही हैं।
उत्क्षिप्तवाल: खचर: कठोरःसटा विधुन्वन्खररोमशत्वक् ।
खुराहताभ्र: सितदंष्र ईक्षाज्योतिर्बभासे भगवान्मही श्र: ॥
२७॥
उत्क्षिप्त-वाल:--पूँछ फटकारते; ख-चर:-- आकाश में; कठोर: -- अति कठोर; सटाः:--कंधे तक लटकते बाल; विधुन्चन् --हिलाता; खर--तेज; रोमश-त्वक् --रोओं से भरी त्वचा; खुर-आहत--खुरों से टकराया; अभ्र:--बादल; सित-दंष्ट: --सफेददाढ़ें; ईक्षा--चितवन; ज्योति:ः--चमकीली; बभासे--तेज निकालने लगा; भगवानू-- भगवान्; मही-क्ष:--जगत को धारणकरने वाला।
पृथ्वी का उद्धार करने के लिए जल में प्रवेश करने के पूर्व भगवान् वराह अपनी पूँछ'फटकारते तथा अपने कड़े बालों को हिलाते हुए आकाश में उड़े।
उनकी चितवन चमकीली थी।
और उन्होंने अपने खुरों तथा चमचमाती सफेद दाढ़ों से आकाश में बादलों को बिखरा दिया।
राणेन पृथ्व्या: पदवीं विजिप्रन् क्रोडापदेश: स्वयमध्वराड्र: ।
'करालदंध्टोउप्यकरालहग्भ्या-मुद्वीक्ष्य विप्रान्यूणतो उविशत्कम् ॥
२८॥
घ्राणेन--सूँघने से; पृथ्व्या:--पृथ्वी की; पदवीम्--स्थिति; विजिप्रन्ू--पृथ्वी की खोज करते हुए; क्रोड-अपदेश: --सूकर काशरीर धारण किये हुए; स्वयम्--स्वयं; अध्वर--दिव्य; अड्र:--शरीर; कराल-- भयावना; दंष्टः --दाँत ( दाढ़ें )) अपि--केबावजूद; अकराल--भयावना नहीं; दृग्भ्यामू--अपनी चितवन से; उद्दीक्ष्य--दृष्टि दौड़ाकर; विप्रान्ू--सारे ब्राह्मण भक्त;गृणतः-स्तुति में लीन; अविशतू-- प्रवेश दिया; कमू--जल में |
वे साक्षात् परम प्रभु विष्णु थे, अतएवं दिव्य थे, फिर भी सूकर का शरीर होने से उन्होंनेपृथ्वी को उसकी गंध से खोज निकाला।
उनकी दाढ़ें अत्यन्त भयावनी थीं।
उन्होंने स्तुति करने मेंव्यस्त भक्त-ब्राह्मणों पर अपनी दृष्टि दौड़ाई।
इस तरह वे जल में प्रविष्ट हुए।
स वज्ञकूटाड्निपातवेग-विशीर्णकुक्षि: स्तनयन्नुदन्वान् ।
उत्सृष्टदीर्घोर्मि भुजैरिवार्त-श्रुक्रोश यज्ञे ध्वर पाहि मेति ॥
२९॥
सः--वह; वज़्-कूट-अड्गभ--विशाल पर्वत जैसा शरीर; निपात-वेग--डुबकी लगाने का वेग; विशीर्ण--दो भागों में करते हैं;कुक्षिः--मध्य भाग को; स्तनयन्--के समान गुँजाते; उदन्वान्--समुद्र; उत्सूष्ट--उत्पन्न करके; दीर्घ--ऊँची; ऊर्मि-- लहरें;भुजै:--बाँहों से; इब आर्त:--दुखी पुरुष की तरह; चुक्रोश--तेज स्वर से स्तुति की; यज्ञ-ईश्वर--हे समस्त यज्ञों के स्वामी;पाहि--कृपया बचायें; मा--मुझको; इति--इस प्रकार।
दानवाकार पर्वत की भाँति जल में गोता लगाते हुए भगवान् वराह ने समुद्र के मध्यभाग कोविभाजित कर दिया और दो ऊँची लहरें समुद्र की भुजाओं की तरह प्रकट हुईं जो उच्च स्वर सेआर्तनाद कर रही थीं मानो भगवान् से प्रार्थना कर रही हों,'हे समस्त यज्ञों के स्वामी, कृपया मेरेदो खण्ड न करें।
कृपा करके मुझे संरक्षण प्रदान करें।
खरे: क्षुरप्रैर्दरयंस्तदापउत्पारपारं त्रिपरू रसायाम् ।
ददर्श गां तत्र सुघुप्सुरग्रेयां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त ॥
३०॥
खुरै:--खुरों से; क्षुरप्रै:--तेज हथियार के समान; दरयन्--घुस कर; तत्--वह; आप:--जल; उत्पार-पारम्ू--असीम् की सीमापा ली; त्रि-परुः--सभी यज्ञों का स्वामी; रसायामू--जल के भीतर; ददर्श--पाया; गाम्-- पृथ्वी को; तत्र--वहाँ; सुषुप्सु:--लेटे हुए; अग्रे--प्रारम्भ में; यामू--जिसको; जीव-धानीम्--सभी जीवों की विश्राम की स्थली; स्वयम्--स्वयं; अभ्यधत्त--ऊपर उठा लिया।
भगवान् वराह तीरों जैसे नुकीले अपने खुरों से जल में घुस गये और उन्होंने अथाह समुद्र कीसीमा पा ली।
उन्होंने समस्त जीवों की विश्रामस्थली पृथ्वी को उसी तरह पड़ी देखा जिस तरहवह सृष्टि के प्रारम्भ में थी और उन्होंने उसे स्वयं ऊपर उठा लिया।
स्वदंष्टयोद्धृत्य महीं निमग्नांस उत्थितः संरुरुचे रसाया: ।
तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तंसुनाभसन्दीपिततीत्रमन्यु; ॥
३१॥
स्व-दंष्टया--अपनी ही दाढ़ों से; उद्धृत्य--उठाकर; महीम्--पृथ्वी को; निमग्नामू--डूबी हुई; सः--उसने; उत्थित: -- ऊपरउठाकर; संरुरुचे--अतीव भव्य दिखाई पड़ा; रसाया:--जल से; तत्र--वहाँ; अपि-- भी; दैत्यम्-- असुर को; गदया--गदा से;आपतन्तम्--उसकी ओर दौड़ाते हुए; सुनाभ--कृष्ण का चक्र; सन्दीपित--चमकता हुआ; तीब्र-- भयानक; मन्यु:--क्रोध |
भगवान् वराह ने बड़ी ही आसानी से पृथ्वी को अपनी दाढ़ों में ले लिया और वे उसे जल से बाहर निकाल लाये।
इस तरह वे अत्यन्त भव्य लग रहे थे।
तब उनका क्रोध सुदर्शन चक्र कीतरह चमक रहा था और उन्होंने तुरन्त उस असुर ( हिरण्याक्ष ) को मार डाला, यद्यपि वह भगवान्से लड़ने का प्रयास कर रहा था।
जघान रुन्धानमसहाविक्रमंस लीलयेभं॑ मृगराडिवाम्भसि ।
तद्रक्तपड्डाद्डितगण्डतुण्डोयथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥
३२॥
जघान--वध किया; रुन्धानम्--अवरोध उत्पन्न करनेवाला शत्रु; असहा--असहनीय; विक्रमम्--पराक्रम; सः --उसने;लीलया--सरलतापूर्वक; इभम्--हाथी; मृग-राट्--सिंह; इब--सहश; अम्भसि--जल में; तत्-रक्त--उसके रक्त का; पड्ढू-अड्वित--कीचड़ से रँगा हुआ; गण्ड--गाल; तुण्ड:--जीभ; यथा--मानो; गजेन्द्र:--हाथी; जगतीम्--पृथ्वी को; विभिन्दन्--खोदते हुए
तत्पश्चात् भगवान् वराह ने उस असुर को जल के भीतर मार डाला जिस तरह एक सिंह हाथीको मारता है।
भगवान् के गाल तथा जीभ उस असुर के रक्त से उसी तरह रँगे गये जिस तरहहाथी नीललोहित पृथ्वी को खोदने से लाल हो जाता है।
तमालनीलं सितदन्तकोट्याक्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाड़ु ।
प्रज्ञाय बद्धाज्ललयोनुवाकै-विरिश्विमुख्या उपतस्थुरीशम् ॥
३३॥
तमाल--नीला वृक्ष जिसका नाम तमाल है; नीलम्--नीले रंग का; सित-- श्वेत; दन््त--दाँत; कोट्या--टेढ़ी कोर वाला;क्ष्मामू-पृथ्वी; उत्क्षिपन्तमू--लटकाये हुए; गज-लीलया--हाथी की तरह क्रीड़ा करता; अड्ग--हे विदुर; प्रज्ञाय--इसे जान लेने पर; बद्ध--जोड़े हुए; अज्ञललयः--हाथ; अनुवाकै:--वैदिक मंत्रों से; विरिश्चि-- ब्रह्मा; मुख्या: --इत्यादि; उपतस्थु:--स्तुतिकी; ईशम्-- भगवान्
के प्रतितब हाथी की तरह क्रीड़ा करते हुए भगवान् ने पृथ्वी को अपने सफेद टेढ़े दाँतों के किनारेपर अटका लिया।
उनके शरीर का वर्ण तमाल वृक्ष जैसा नीलाभ हो गया और तब ब्रह्मा इत्यादिऋषि उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् समझ सके और उन्होंने सादर नमस्कार किया।
ऋषय ऊचु:जितं जितं तेडजित यज्ञभावनञ्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद्वोमगर्तेषु निलिल्युरद्धय-स्तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥
३४॥
ऋषय: ऊचु:--यशस्वी ऋषि बोल पड़े; जितम्--जय हो; जितम्--जय हो; ते--तुम्हारी; अजित--हे न जीते जा सकने वाले;यज्ञ-भावन--यज्ञ सम्पन्न करने पर जाना जाने वाले; त्रयीम्--साक्षात् वेद; तनुम्--ऐसा शरीर; स्वामू--अपना; परिधुन्वते--हिलाते हुए; नम:ः--नमस्कार; यत्--जिसके; रोम--रोएँ; गर्तेषु--छेदों में; निलिल्यु:--डूबे हुए; अद्धवः--सागर; तस्मै--उसको; नमः --नमस्कार करते हुए; कारण-सूकराय--सकारण शूकर विग्रह धारण करने वाले; ते--तुमको |
सारे ऋषि अति आदर के साथ बोल पड़े' हे समस्त यज्ञों के अजेय भोक्ता, आपकी जयहो, जय हो, आप साक्षात् वेदों के रूप में विचरण कर रहे हैं और आपके शरीर के रोमकूपों मेंसारे सागर समाये हुए हैं।
आपने किन्हीं कारणों से ( पृथ्वी का उद्धार करने के लिए ) अब सूकरका रूप धारण किया है।
रूप तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।
छन््दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-स्वाज्यं दृशि त्वड्टप्रिषु चातुहोंत्रम् ॥
३५॥
रूपम्--स्वरूप; तब--तुम्हारा; एतत्--यह; ननु--लेकिन; दुष्कृत-आत्मनाम्--दुष्टात्माओं का; दुर्दर्शनम्ू--देख पाना कठिन;देव-हे प्रभु; यत्ू--वह; अध्वर-आत्मकम्--यज्ञ सम्पन्न करने के कारण पूजनीय; छन्दांसि--गायत्री तथा अन्य छंद; यस्य--जिसके; त्वचि--त्वचा का स्पर्श; बह्हि:--कुश नामक पवित्र घास; रोमसु--शरीर के रोएँ; आज्यम्--घी; दहशि--आँखों में;तु--भी; अद्प्रिषु--चारों पाँवों पर; चातुः-होत्रमू--चार प्रकार के सकाम कर्म |
हे प्रभु, आपका स्वरूप यज्ञ सम्पन्न करके पूजा के योग्य है, किन्तु दुष्टात्माएँ इसे देख पाने मेंअसमर्थ हैं।
गायत्री तथा अन्य सारे वैदिक मंत्र आपकी त्वचा के सम्पर्क में हैं।
आपके शरीर केरोम कुश हैं, आपकी आँखें घृत हैं और आपके चार पाँव चार प्रकार के सकाम कर्म हैं।
स्रक्तुण्ड आसीत्ख्रुव ईश नासयो-रिडोदरे चमसाः कर्णरन्श्रे ।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु तेयच्चर्वणं ते भगवजन्नग्निहोत्रम्ू ॥
३६॥
सत्रकू--यज्ञ का पात्र; तुण्डे--जीभ पर; आसीत्ू-- है; स्त्रुवः--यज्ञ का दूसरा पात्र; ईश-हे प्रभु; नासयो:--नथुनों का; इडा--खाने का पात्र; उदरे--पेट में; चमसा: --यज्ञ का अन्य पात्र, चम्मच; कर्ण-रन्ध्रे--कान के छेदों में; प्राशित्रमू--ब्रह्मा नामक पात्र; आस्ये--मुख में; ग्रसने-- गले में; ग्रहा: --सोम पात्र; तु--लेकिन; ते--तुम्हारा; यत्--जो; चर्वणम्--चबाना; ते--तुम्हारा; भगवन्--हे प्रभु; अग्नि-होत्रमू--अपनी यज्ञ-अग्नि के माध्यम से तुम्हारा भोजन है।
हे प्रभु, आपकी जीभ यज्ञ का पात्र ( स्रक् ) है, आपका नथुना यज्ञ का अन्य पात्र ( स्त्रुवा )है।
आपके उदर में यज्ञ का भोजन-पात्र ( इडा ) है और आपके कानों के छिठ्रों में यज्ञ का अन्यपात्र ( चमस ) है ॥
आपका मुख ब्रह्मा का यज्ञ पात्र (् प्राशित्र ) है, आपका गला यज्ञ पात्र है,जिसका नाम सोमपात्र है तथा आप जो भी चबाते हैं वह अग्निहोत्र कहलाता है।
दीक्षानुजन्मोपसद: शिरोधरंत्वं प्रायणीयोदयनीयदंप्र: ।
जिह्ा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षक॑ क्रतो:सत्यावसथ्यं चितयोसवो हि ते ॥
३७॥
दीक्षा--दीक्षा; अनुजन्म--आध्यात्मिक जन्म या बारम्बार अवतार; उपसदः--तीन प्रकार की इच्छाएँ ( सम्बन्ध, कर्म तथा चरमलक्ष्य ); शिर:-धरम्--गर्दन; त्वमू--तुम; प्रायणीय--दीक्षा के परिणाम के बाद; उदयनीय--इच्छाओं का अन्तिम संस्कार;दंष्टः --दाढ़ें; जिह्वा--जीभ; प्रवर्ग्य;--पहले के कार्य; तब--तुम्हारा; शीर्षकम्--सिर; क्रतोः--यज्ञ का; सत्य--यज्ञ के बिनाअग्नि; आवसशथ्यम्--पूजा की अग्नि; चितय:--समस्त इच्छाओं का समूह; असव:--प्राणवायु; हि--निश्चय ही; ते--तुम्हारा
हे प्रभु, इसके साथ ही साथ सभी प्रकार की दीक्षा के लिए आपके बारम्बार प्राकट्य कीआकांक्षा भी है।
आपकी गर्दन तीनों इच्छाओं का स्थान है और आपकी दाढ़ें दीक्षा-फल तथासभी इच्छाओं का अन्त हैं, आप की जिव्हा दीक्षा के पूर्व-कार्य हैं, आपका सिर यज्ञ रहित अग्नितथा पूजा की अग्नि है तथा आप की जीवनी-शक्ति समस्त इच्छाओं का समुच्चय है।
सोमस्तु रेत: सवनान्यवस्थिति:संस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धन: ॥
३८॥
सोम: तु रेत:--आपका वीर्य सोमयज्ञ है; सवनानि--प्रातःकाल के अनुष्ठान; अवस्थिति:--शारीरिक वृद्धि की विभिन्नअवस्थाएँ; संस्था-विभेदा:--यज्ञ के सात प्रकार; तब--तुम्हारा; देव--हे प्रभु; धातवः--शरीर के अवयव यथा त्वचा एवं मांस;सत्राणि--बारह दिनों तक चलने वाले यज्ञ; सर्वाणि--सारे; शरीर--शारीरिक; सन्धि:--जोड़; त्वमू--आप; सर्व--समस्त;यज्ञ--असोम यज्ञ; क्रतु:--सोम यज्ञ; इष्टि--चरम इच्छा; बन्धन:--आसक्ति |
हे प्रभु, आपका वीर्य सोम नामक यज्ञ है।
आपकी वृद्धि प्रातःकाल सम्पन्न किये जाने वालेकर्मकाण्डीय अनुष्ठान हैं।
आपकी त्वचा तथा स्पर्श अनुभूति अग्निष्टोम यज्ञ के सात तत्त्व हैं।
आपके शरीर के जोड़ बारह दिनों तक किये जाने वाले विविध यज्ञों के प्रतीक हैं।
अतएव आपसोम तथा असोम नामक सभी यज्ञों के लक्ष्य हैं और आप एकमात्र यज्ञों से बंधे हुए हैं।
नमो नमस्ते खिलमन्त्रदेवता-द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानु भावित-ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥
३९॥
नमः नमः--नमस्कार है; ते--आपको, जो कि आराध्य है; अखिल--सभी सम्मिलित रूप से; मन्त्र--मंत्र; देवता-- भगवान्;द्रव्याय--यज्ञ सम्पन्न करने की समस्त सामग्रियों को; सर्व-क्रतवे--सभी प्रकार के यज्ञों को; क्रिया-आत्मने-- सभी यज्ञों केपरम रूप आपको; वैराग्य--वैराग्य; भक्त्या--भक्ति द्वारा; आत्म-जय-अनुभावित--मन को जीतने पर अनुभूत किए जानेवाले; ज्ञानाय--ऐसे ज्ञान को; विद्या-गुरवे--समस्त ज्ञान के परम गुरु को; नमः नमः--मैं पुनः सादर नमस्कार करता हूँ।
हे प्रभु, आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और वैश्विक-प्रार्थनाओं, वैदिक मंत्रों तथा यज्ञ कीसामग्री द्वारा पूजनीय हैं।
हम आपको नमस्कार करते हैं।
आप समस्त हृश्य तथा अदृश्य भौतिककल्मष से मुक्त शुद्ध मन द्वारा अनुभवगम्य हैं।
हम आपको भक्ति-योग के ज्ञान के परम गुरु केरूप में सादर नमस्कार करते हैं।
दंष्टाग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृताविराजते भूधर भू: सभूधरा ।
यथा वनान्निःसरतो दता धृतामतड़जेन्द्रस्थ सपत्रपदिनी ॥
४०॥
दंट्र-अग्र--दाढ़ के अगले भाग; कोट्या--किनारों के द्वारा; भगवन्--हे भगवान्; त्ववा--आपके द्वारा; धृता--धारण किया;विराजते--सुन्दर ढंग से स्थित है; भू-धर--हे पृथ्वी के उठाने वाले; भू:--पृथ्वी; स-भूधरा--पर्वतों सहित; यथा--जिस तरह;वनातू--जल से; निःसरतः--बाहर आते हुए; दता--दाँत से; धृता--पकड़े हुए है; मतम्-गजेन्द्रस्थ--क्रुद्ध हाथी; स-पत्र--पत्तियों सहित; पद्चिनी--कमलिनी |
हे पृथ्वी के उठाने वाले, आपने जिस पृथ्वी को पर्वतों समेत उठाया है, वह उसी तरह सुन्दरलग रही है, जिस तरह जल से बाहर आने वाले क्रुद्ध हाथी के द्वारा धारण की गई पत्तियों सेयुक्त एक कमलिनी।
तअ्रयीमयं रूपमिदं च सौकरंभूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।
चकास्ति श्रृड्रेडघनेन भूयसाकुलाचलेन्द्रस्य यथेव विभ्रम: ॥
४१॥
त्रयी-मयम्--साक्षात् वेद; रूपम्--स्वरूप; इदम्ू--यह; च-- भी; सौकरम्--सूकर का; भू-मण्डलेन-- भूलोक द्वारा; अथ--अब; दता--दाढ़ के द्वारा; धृतेन-- धारण किया गया; ते--तुम्हारी; चकास्ति--चमक रही है; श्रूड़ु-ऊढ--शिखरों द्वारा धारित;घनेन--बादलों द्वारा; भूयसा--अत्यधिक मंडित; कुल-अचल-इन्द्रस्य--विशाल पर्वतों के; यथा--जिस तरह; एब--निश्चयही; विभ्रम:--अलंकरण
हे प्रभु, जिस तरह बादलों से अलंकृत होने पर विशाल पर्वतों के शिखर सुन्दर लगने लगतेहैं उसी तरह आपका दिव्य शरीर सुन्दर लग रहा है, क्योंकि आप पृथ्वी को अपनी दाढ़ों के सिरेपर उठाये हुए हैं।
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषांलोकाय पत्नीमसि मातरं पिता ।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वयायस्यां स्वतेजोग्निमिवारणावधा: ॥
४२॥
संस्थापय एनाम्ू--इस पृथ्वी को उठाओ; जगताम्--चर; स-तस्थुषाम्--तथा अचर दोनों; लोकाय--उनके निवास स्थान केलिए; पतीम्--पतली; असि--हो; मातरमू--माता; पिता--पिता; विधेम--हम अर्पित करते हैं; च-- भी; अस्यै--माता को;नमसा--नमस्कार; सह--समेत; त्वया--तुम्हारे साथ; यस्याम्ू--जिसमें; स्व-तेज:-- अपनी शक्ति द्वारा; अग्निमू-- अग्नि;इब--सहश; अरणौ--अरणि काष्ठ में; अधा:--निहित |
हे प्रभु, यह पृथ्वी चर तथा अचर दोनों प्रकार के निवासियों के रहने के लिए आपकी पत्नीहै और आप परम पिता हैं।
हम उस माता पृथ्वी समेत आपको सादर नमस्कार करते हैं जिसमेंआपने अपनी शक्ति स्थापित की है, जिस तरह कोई दक्ष यज्ञकर्ता अरणि काष्ट में अग्नि स्थापितकरता है।
'कः श्रद्धीतान्यतमस्तव प्रभोरसां गताया भुव उद्विबरहणम् ।
न विस्मयोसौ त्वयि विश्वविस्मयेयो माययेदं ससृजेडतिविस्मयम् ॥
४३॥
कः--और कौन; श्रदधीत-- प्रयास कर सकता है; अन्यतम:--आपके अतिरिक्त अन्य कोई; तब--तुम्हारा; प्रभो--हे प्रभु;रसाम्--जल में; गताया:--पड़ी हुई; भुवः--पृथ्वी को; उद्विबहणम्--उद्धार; न--कभी नहीं; विस्मय:--आश्चर्यमय; असौ--ऐसा कार्य; त्वयि--तुमको; विश्व--विश्व के ; विस्मये--आश्चर्यों से पूर्ण; यः--जो; मायया--शक्तियों द्वारा; इदमू--यह;ससृजे--उत्पन्न किया; अतिविस्मयमू--सभी आश्चर्यो से बढ़कर।
हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो जल के भीतर से पृथ्वी काउद्धार कर सकता? किन्तु यह आपके लिए बहुत आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि ब्रह्माण्ड केसृजन में आपने अति अद्भुत कार्य किया है।
अपनी शक्ति से आपने इस अद्भुत विराट जगतकी सृष्टि की है।
विधुन्वता वेदमयं निजं वबपु-ज॑नस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् ।
सटाशिखोद्धूतशिवाम्बुबिन्दुभि-विंमृज्यमाना भूशमीश पाविता: ॥
४४॥
विधुन्वता--हिलाते हुए; वेद-मयम्--साक्षात् वेद; निजमू--अपना; वपु:--शरीर; जन:ः--जनलोक; तप:--तपोलोक; सत्य--सत्यलोक; निवासिन:--निवासी; वयम्--हम; सटा--कन्धे तक लटकते बाल; शिख-उद्धृूत--चोटी ( शिखा ) के द्वारा धारणकिया हुआ; शिव--शुभ; अम्बु--जल; बिन्दुभि:--कणों के द्वारा; विमृज्यमाना: --छिड़के जाते हुए हम; भृूशम्--अत्यधिक;ईश--हे परमेश्वर; पाविता:--पवित्र किये गये।
हे परमेश्वर, निस्सन्देह, हम जन, तप तथा सत्य लोकों जैसे अतीव पवित्र लोकों के निवासीहैं फिर भी हम आपके शरीर के हिलने से आपके कंधों तक लटकते बालों के द्वारा छिड़के गएजल की बूँदों से शुद्ध बन गये हैं।
सबेै बत भ्रष्टमतिस्तवैषतेयः कर्मणां पारमपारकर्मण: ।
यदोगमायागुणयोगमोहितंविश्व समस््तं भगवन्विधेहि शम् ॥
४५॥
सः--वह; वै--निश्चय ही; बत--हाय; भ्रष्टटमति:--मतिक्रष्ट, मूर्ख; तब--तुम्हारी; एघते--इच्छाएँ; यः--जो; कर्मणाम्--कर्मो का; पारम्ू--सीमा; अपार-कर्मण:--असीम कर्मों वाले का; यत्--जिससे; योग--योगशक्ति; माया--शक्ति; गुण--भौतिक प्रकृति के गुण; योग--योग शक्ति; मोहितम्--मोह ग्रस्त; विश्वम्-ब्रह्माण्ड; समस्तम्--सम्पूर्ण; भगवन्--हे भगवान्;विधेहि--वर दें; शम्--सौ भाग्य ।
हे प्रभु, आपके अदभुत कार्यों की कोई सीमा नहीं है।
जो भी व्यक्ति आपके कार्यों कीसीमा जानना चाहता है, वह निश्चय ही मतिशभ्रष्ट है।
इस जगत में हर व्यक्ति प्रबल योगशक्तियों सेबँधा हुआ है।
कृपया इन बद्धजीवों को अपनी अहैतुकी कृपा प्रदान करें।
मैत्रेय उवाचइत्युपस्थीयमानोसौ मुनिभि्रह्ववादिभि: ।
सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् ॥
४६॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; इति--इस प्रकार; उपस्थीयमान: --प्रशंसित होकर; असौ-- भगवान् वराह; मुनिभि:--मुनियों द्वारा; ब्रह्य-वादिभि:--अध्यात्मवादियों द्वारा; सलिले--जल में; स्व-खुर-आक्रान्ते-- अपने ही खुरों से स्पर्श हुआ;उपाधत्त--रखा; अविता--पालनकर्ता; अवनिम्--पृथ्वी को |
मैत्रेय मुनि ने कहा : इस तरह समस्त महर्षियों तथा दिव्यात्माओं के द्वारा पूजित होकरभगवान् ने अपने खुरों से पृथ्वी का स्पर्श किया और उसे जल पर रख दिया।
स इत्थं भगवानुर्वी विष्वक्सेन: प्रजापति: ।
रसाया लीलयोन्नीतामप्सु न्यस्य ययौ हरि; ॥
४७॥
सः--वह; इत्थम्--इस तरह से; भगवान्-- भगवान्; उर्बीम्-पृथ्वी को; विष्वक्सेन:--विष्णु का अन्य नाम; प्रजा-पति: --जीवों के स्वामी; रसाया:--जल के भीतर से; लीलया--आसानी से; उन्नीताम्ू--उठाया हुआ; अप्सु--जल में; न्यस्य--रखकर;ययौ--अपने धाम लौट गये; हरि: -- भगवान्
इस प्रकार से समस्त जीवों के पालनहार भगवान् विष्णु ने पृथ्वी को जल के भीतर सेउठाया और उसे जल के ऊपर तैराते हुए रखकर वे अपने धाम को लौट गये।
य एवमेतां हरिमेधसो हरेःकथां सुभद्रां कथनीयमायिन: ।
श्रण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतींजनार्दनोस्याशु हृदि प्रसीदति ॥
४८ ॥
यः--जो; एवम्--इस प्रकार; एताम्--यह; हरि-मेधस:-- भक्त के भौतिक शरीर को विनष्ट करनेवाला; हरेः --भगवान् की;कथाम्--कथा; सु-भद्रामू--मंगलकारी; कथनीय--कहने योग्य; मायिन: --उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा कृपालु का;श्रुण्वीत--सुनता है; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; श्रवयेत--अन्यों को भी सुनाता है; वा-- अथवा; उशतीम्--अत्यन्त सुहावना;जनार्दन:--भगवान्; अस्य--उसका; आशु--तुरन््त; हृदि--हृदय के भीतर; प्रसीदति--प्रसन्न हो जाता है।
यदि कोई व्यक्ति भगवान् वराह की इस शुभ एवं वर्णनीय कथा को भक्तिभाव से सुनता हैअथवा सुनाता है, तो हर एक के हृदय के भीतर स्थित भगवान् अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।
तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौकिं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभि: ।
अनन्यहदृष्टय्या भजतां गुहाशय:स्वयं विधत्ते स्वगतिं पर: पराम् ॥
४९॥
तस्मिन्ू--उन; प्रसन्ने--प्रसन्न होने पर; सकल-आशिषाम्--सारे आशीर्वादों का; प्रभौ-- भगवान् को; किम्--वह क्या है;दुर्लभम्-प्राप्त कर सकना अतीव कठिन; ताभि:--उनके साथ; अलम्--दूर; लब-आत्मभि:--क्षुद्र लाभ सहित; अनन्य-इष्यया--अन्य कुछ से नहीं अपितु भक्ति से; भजताम्-भक्ति में लगे हुओं का; गुहा-आशय: --हृदय के भीतर निवास करनेवाले; स्वयम्--स्वयं; विधत्ते--सम्पन्न करता है; स्व-गतिम्--अपने धाम में; पर:--परम; पराम्ू--दिव्य |
जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहींरहता।
दिव्य उपलब्धि के द्वारा मनुष्य अन्य प्रत्येक वस्तु को नगण्य मानता है।
जो व्यक्ति दिव्यप्रेमाभक्ति में अपने को लगाता है, वह हर व्यक्ति के हृदय में स्थित भगवान् के द्वारा सर्वोच्चसिद्धावस्था तक ऊपर उठा दिया जाता है।
को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् ।
आपीय कर्णाज्जलिभिर्भवापहा-महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥
५०॥
कः--कौन; नाम--निस्सन्देह; लोके--संसार में; पुरुष-अर्थ--जीवन-लक्ष्य; सार-वित्--सार को जानने वाला; पुरा-कथानाम्--सारे विगत इतिहासों में; भगवत्-- भगवान् विषयक; कथा-सुधाम्-- भगवान् विषयक कथाओं का अमृत;आपीय--पीकर; कर्ण-अद्जलिभि:--कानों के द्वारा ग्रहण करके; भव-अपहाम्--सारे भौतिक तापों को नष्ट करने वाला;अहो--हाय; विरज्येत--मना कर सकता है; विना--बिना; नर-इतरम्--मनुष्येतर प्राणी ।
बेइन्गूमनुष्य के अतिरिक्त ऐसा प्राणी कौन है, जो इस जगत में विद्यमान हो और जीवन के चरमलक्ष्य के प्रति रुचि न रखता हो? भला कौन ऐसा है, जो भगवान् के कार्यो से सम्बन्धित उनकथाओं के अमृत से मुख मोड़ सके जो मनुष्य को समस्त भौतिक तापों से उबार सकती हैं ?
अध्याय चौदह: सायंकाल दिति का गर्भाधान
3.14श्रीशुक उबाचनिशम्य कौषारविणोपवर्णितांहरे: कथां कारणसूकरात्मन: ।
पुनः स पप्रच्छ तमुद्यताझ्ञलि-न॑ चातितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; निशम्य--सुनकर; कौषारविणा--मैत्रेय मुनि द्वारा; उपवर्णिताम्--वर्णित;हरेः --भगवान् की; कथाम्--कथा; कारण--पृथ्वी उठाने के कारण; सूकर-आत्मन:--सूकर अवतार; पुन:--फिर; सः--उसने; पप्रच्छ--पूछा; तम्--उस ( मैत्रेय ) से; उद्यत-अद्जधलि: --हाथ जोड़े हुए; न--कभी नहीं; च-- भी; अति-तृप्त:--अत्यधिक तुष्ट; विदुर:--विदुर; धृत-ब्रत:--ब्रत लिए हुए।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महर्षि मैत्रेय से वराह रूप में भगवान् के अवतार के विषय मेंसुनकर हढ़संकल्प विदुर ने हाथ जोड़कर उनसे भगवान् के अगले दिव्य कार्यो के विषय मेंसुनाने की प्रार्थना की, क्योंकि वे ( विदुर ) अब भी तुष्ट अनुभव नहीं कर रहे थे।
विदुर उबाचतेनेव तु मुनिश्रेष्ठ हरिणा यज्ञमूर्तिना ।
आदिदैत्यो हिरण्याक्षो हत इत्यनुशुश्रुम ॥
२॥
विदुरः उबाच-- श्री विदुर ने कहा; तेन--उसके द्वारा; एब--निश्चय ही; तु--लेकिन; मुनि-श्रेष्ठ--हे मुनियों में श्रेष्ठ; हरिणा--भगवान् द्वारा; यज्ञ-मूर्तिना--यज्ञ का स्वरूप; आदि--मूल; दैत्य:--असुर; हिरण्याक्ष:--हिरण्याक्ष नामक; हतः--मारा गया;इति--इस प्रकार; अनुशु श्रुम-- उसी क्रम में सुना है
श्री विदुर ने कहा : हे मुनिश्रेष्ठ, मैंने शिष्य-परम्परा से यह सुना है कि आदि असुर हिरण्याक्षउन्हीं यज्ञ रूप भगवान् ( वराह ) द्वारा मारा गया था।
तस्य चोद्धरतः क्षौणीं स्वदंष्टाग्रेण लीलया ।
दैत्यराजस्य च ब्रहान्कस्माद्धेतोरभून्मूधथ: ॥
३॥
तस्य--उसका; च-- भी ; उद्धरतः--उठाते हुए; क्षौणीम्-- पृथ्वी लोक को; स्व-दंष्ट-अग्रेण--अपनी दाढ़ के सिरे से;लीलया--अपनी लीला में; दैत्य-राजस्य--दैत्यों के राजा का; च--तथा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; कस्मात्--किस; हेतो:-- कारणसे; अभूत्--हुआ; मृध:--युद्ध |
हे ब्राह्मण, जब भगवान् अपनी लीला के रूप में पृथ्वी ऊपर उठा रहे थे, तब उस असुरराजतथा भगवान् वराह के बीच, युद्ध का क्या कारण था ?
अ्रददधानाय भक्ताय ब्रूहि तज्जन्मविस्तरम् ।
ऋषे न तृप्यति मनः परं कौतूहलं हि मे ॥
४॥
श्रह्धानाय-- श्रद्धावान पुरुष के लिए; भक्ताय--भक्त के लिए; ब्रूहि--कृपया बतलाएँ; तत्--उसका; जन्म--आविर्भाव;विस्तरम्--विस्तार से; ऋषे--हे ऋषि; न--नहीं; तृप्पति--सन्तुष्ट होता है; मनः--मन; परम्ू--अत्यधिक; कौतूहलम्--जिज्ञासु; हि--निश्चय ही; मे--मेरा |
मेरा मन अत्यधिक जिज्ञासु बन चुका है, अतएवं भगवान् के आविर्भाव की कथा सुन करमुझे तुष्टि नहीं हो रही है।
इसलिए आप इस श्रद्धावान् भक्त से और अधिक कहें।
ह कि जज तः कि सर कर न नमैत्रेय उवाचसाधु वीर त्वया पृष्टमवतारकथां हरे: ।
यच्त्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाशविशातनीम् ॥
५॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; साधु-- भक्त; वीर--हे योद्धा; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; पृष्टम[--पूछी गयी; अवतार-कथाम्--अवतार की कथाएँ; हरेः-- भगवान् की; यत्--जो; त्वमू--तुम स्वयं; पृच्छसि--मुझसे पूछ रहे हो; मर्त्यानाम्--मर्त्यों के; मृत्यु-पाश--जन्म-मृत्यु की श्रृंखला; विशातनीम्--मोक्ष का स्त्रोत
महर्षि मैत्रेय ने कहा : हे योद्धा, तुम्हारे द्वारा की गई जिज्ञासा एक भक्त के अनुरूप है,क्योंकि इसका सम्बन्ध भगवान् के अवतार से है।
वे मर्त्यों को जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से मोक्षदिलाने वाले हैं।
ययोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।
मृत्यो: कृत्वैव मूर्ध्न्यड्प्रिमारुरोह हरे: पदम् ॥
६॥
यया--जिससे; उत्तानपदः--राजा उत्तानपाद; पुत्र:--पुत्र; मुनिना--मुनि द्वारा; गीतया--गाया जाकर; अर्भक:--शिशु;मृत्यो:--मृत्यु का; कृत्वा--रखते हुए; एव--निश्चय ही; मूर्थ्नि--सिर पर; अड्प्रिमू-पाँव; आरुरोह--चढ़ गया; हरे: --भगवान् के; पदम्-- धाम तक।
इन कथाओं को मुनि ( नारद ) से सुनकर राजा उत्तानपाद का पुत्र ( ध्रुव ) भगवान् के विषयमें प्रबुद्ध हो सका और मृत्यु के सिर पर पाँव रखते हुए वह भगवान् के धाम पहुँच गया।
अथात्रापीतिहासोयं श्रुतो मे वर्णित: पुरा ।
ब्रह्मणा देवदेवेन देवानामनुपृच्छताम् ॥
७॥
अथ--अब; अत्र--इस विषय में; अपि-- भी; इतिहास:--इतिहास; अयम्--यह; श्रुतः--सुना हुआ; मे--मेरे द्वारा; वर्णित: --वर्णित; पुरा--वर्षो बीते; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; देव-देवेन--देवताओं में अग्रणी; देवानामू--देवताओं द्वारा; अनुपृच्छताम्--पूछने पर
वराह रूप भगवान् तथा हिरण्याक्ष असुर के मध्य युद्ध का यह इतिहास मैंने बहुत वर्षों पूर्वतब सुना था जब यह देवताओं के अग्रणी ब्रह्मा द्वारा अन्य देवताओं के पूछे जाने पर वर्णनकिया गया था।
दिति्दाक्षायणी क्षत्तर्मारीचं कश्यपं पतिम् ।
अपत्यकामा चकमे सन्ध्यायां हच्छयार्दिता ॥
८॥
दिति:ः--दिति; दाक्षायणी--दक्ष कन्या; क्षत्त:--हे विदुर; मारीचम्--मरीचि का पुत्र; कश्यपम्--कश्यप से; पतिमू-- अपनेपति; अपत्य-कामा--सन्तान की इच्छुक; चकमे--इच्छा की; सन्ध्यायाम्--सायंकाल; हत्-शय--यौन इच्छा से; अर्दिता--पीड़ित
दक्ष-कन्या दिति ने कामेच्छा से पीड़ित होकर संध्या के समय अपने पति मरीचि पुत्र कश्यपसे सन्तान उत्पन्न करने के उद्देश्य से संभोग करने के लिए प्रार्थना की।
इष्ठाग्निजिह्नं पयसा पुरुषं यजुषां पतिम् ।
निम्लोचत्यर्क आसीनमग्न्यगारे समाहितम् ॥
९॥
इश्ला--पूजा करके; अग्नि--अग्नि; जिहम्-- जीभ को; पयसा--आहुति से; पुरुषम्--परम पुरुष को; यजुषाम्--समस्त यज्ञोंके; पतिम्--स्वामी; निम्लोचति--अस्त होते हुए; अर्के-- सूर्य; आसीनम्--बैठे हुए; अग्नि-अगारे--यज्ञशाला में;समाहितम्-पूर्णतया समाधि में |
सूर्य अस्त हो रहा था और मुनि भगवान् विष्णु को, जिनकी जीभ यज्ञ की अग्नि है, आहुतिदेने के बाद समाधि में आसीन थे।
दितिरुवाचएष मां त्वत्कृते विद्वन्काम आत्तशरासन: ।
दुनोति दीनां विक्रम्य रम्भामिव मतड़ज: ॥
१०॥
दितिः उबाच--सुन्दरी दिति ने कहा; एष:--ये सब; माम्--मुझको; त्वत्ू-कृते--आपके लिए; विद्वनू--हे विद्वान; काम: --कामदेव; आत्त-शरासन:--अपने तीर लेकर; दुनोति--पीड़ित करता है; दीनाम्ू--मुझ दीना को; विक्रम्य--आक्रमण करके;रम्भामू-केले के वृक्ष पर; इब--सह्ृश; मतम्-गज: --उन्मत्त हाथी
उस स्थान पर सुन्दरी दिति ने अपनी इच्छा व्यक्त की : हे विद्वान, कामदेव अपने तीर लेकरमुझे बलपूर्वक उसी तरह सता रहा है, जिस तरह उन्मत्त हाथी एक केले के वृक्ष को झकझोरताहै।
तद्धवान्दह्ममानायां सपत्लीनां समृद्द्धिभि: ।
प्रजावतीनां भद्गं ते मय्यायुड्ुमनुग्रहम् ॥
११॥
ततू--इसलिए; भवान्--आप; दह्ममानायाम्--सताई जा रही; स-पत्लीनाम्ू--सौतों की; समृद्द्धभि: --समृद्धि द्वारा; प्रजा-वतीनाम्--सन्तान वालियों की; भद्गमू--समस्त समृद्धि; ते--तुमको; मयि--मुझको; आयुद्धाम्--सभी तरह से, मुझपर करें;अनुग्रहम्ू--कृपा।
अतएव आपको मुझ पर पूर्ण दया दिखाते हुए मेरे प्रति कृपालु होना चाहिए मुझे पुत्र प्राप्तकरने की चाह है और मैं अपनी सौतों का ऐश्वर्य देखकर अत्यधिक व्यथित हूँ।
इस कृत्य कोकरने से आप सुखी हो सकेंगे।
भर्तर्याप्तीरुमानानां लोकानाविशते यश: ।
पतिर्भवद्विधो यासां प्रजया ननु जायते ॥
१२॥
भर्तरि--पति द्वारा; आप्त-उरुमानानामू्-- प्रेयसियों का; लोकानू--संसार में; आविशते--फैलता है; यश: --यश; पति:-- पति;भवत्ू-विध:--आपकी तरह; यासाम्--जिसकी; प्रजया--सन्तानों द्वारा; ननु--निश्चय ही; जायते--विस्तार करता है।
एक स्त्री अपने पति के आशीर्वाद से संसार में आदर पाती है और सन््तानें होने से आप जैसा पतिप्रसिद्धि पाएगा, क्योंकि आप जीवों के विस्तार के निमित्त ही हैं।
पुरा पिता नो भगवान्दक्षो दुहितृवत्सल: ।
कं वृणीत वरं वत्सा इत्यपृच्छत नः पृथक् ॥
१३॥
पुरा--बुहत काल पूर्व; पिता--पिता; न:--हमारा; भगवान्--अत्यन्त ऐश्वर्यवान्; दक्ष:--दक्ष; दुहितृ-वत्सलः --अपनी पुत्रियोंके प्रति स्नेहिल; कम्--किसको; वृणीत--तुम स्वीकार करना चाहते हो; वरम्--अपना पति; वत्सा:--हे मेरी सन््तानो; इति--इस प्रकार; अपृच्छत--पूछा; न:--हमसे; पृथक्ू--अलग अलग
बहुत काल पूर्व अत्यन्त ऐश्वर्यवान हमारे पिता दक्ष ने, जो अपनी पुत्रियों के प्रति अत्यन्तवत्सल थे, हममें से हर एक को अलग अलग से पूछा कि तुम किसे अपने पति के रूप में चुननाचाहोगी।
स विदित्वात्मजानां नो भावं सनन््तानभावन: ।
त्रयोदशाददात्तासां यास्ते शीलमनुत्रता: ॥
१४॥
सः--दक्ष; विदित्वा--समझ करके; आत्म-जानाम्--अपनी पुत्रियों के; न:--हमारा; भावम्--संकेत; सन््तान--सन्तानों का;भावन:--हितैषी; त्रयोदश--तेरह; अददातू-- प्रदान किया; तासामू--उन सबों का; या:--जो हैं; ते--तुम्हारे; शीलम्--आचरण; अनुक्रता:--सभी आज्ञाकारिणी |
हमारे शुभाकांक्षी पिता दक्ष ने हमारे मनोभावों को जानकर अपनी तेरहों कन्याएँ आपकोसमर्पित कर दीं और तबसे हम सभी आपकी आज्ञाकारिणी रही हैं।
अथ मे कुरु कल्याणं कामं कमललोचन ।
आर्तेपसर्पणं भूमन्नमोघं हि महीयसि ॥
१५॥
अथ--इसलिए; मे--मेरा; कुरू--कीजिये; कल्याणम्--कल्याण; कामम्--इच्छा; कमल-लोचन--हे कमल सहश नेत्र वाले;आर्त--पीड़ित; उपसर्पणम्--निकट आना; भूमन्--हे महान्; अमोघम्--जो विफल न हो; हि--निश्चय ही; महीयसि--महापुरुष के प्रति।
है कमललोचन, कृपया मेरी इच्छा पूरी करके मुझे आशीर्वाद दें।
जब कोई त्रस्त होकरकिसी महापुरुष के पास पहुँचता है, तो उसकी याचना कभी भी व्यर्थ नहीं होनी चाहिए।
इति तां बीर मारीचः कृपणां बहुभाषिणीम् ।
प्रत्याहानुनयन्वाचा प्रवृद्धानड्रकश्मलाम् ॥
१६॥
इति--इस प्रकार; तामू--उस; वीर--हे वीर; मारीच: --मरीचि पुत्र ( कश्यप ); कृपणाम्--निर्धन को; बहु-भाषिणीम्--अत्यधिक बातूनी को; प्रत्याह--उत्तर दिया; अनुनयन्--शान्त करते हुए; वाचा--शब्दों से; प्रवृद्ध--अत्यधिक उत्तेजित;अनड्ु--कामवासना; कश्मलामू--दूषित |
हे वीर ( विदुर ), इस तरह कामवासना के कल्मष से ग्रस्त, और इसलिए असहाय एवंबड़बड़ाती हुई दिति को मरीचिपुत्र ने समुचित शब्दों से शान्त किया।
एघ तेहं विधास्यामि प्रियं भीरु यदिच्छसि ।
तस्या: कामं॑ न कः कुर्यात्सिद्धिस्त्रेवर्गिकी यत: ॥
१७॥
एष:--यह; ते--तुम्हारी विनती; अहम्--मैं; विधास्थामि--सम्पन्न करूँगा; प्रियम्--अत्यन्त प्रिय; भीरू--हे डरी हुई; यत्--जो; इच्छसि--तुम चाह रही हो; तस्या:--उसकी ; कामम्--इच्छाएँ; न--नहीं; कः-- कौन; कुर्यात्ू--करेगा; सिद्धि: --मुक्तिकी सिद्धि; त्रैवर्गिकी-- तीन; यतः--जिससे |
हे भीरु, तुम्हें जो भी इच्छा प्रिय हो उसे मैं तुरन्त तृप्त करूँगा, क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्तमुक्ति की तीन सिद्धियों का स्रोत और कौन है?
सर्वाश्रमानुपादाय सवा श्रमेण कलत्रवान् ।
व्यसनार्णवमत्येति जलयानैर्यथार्णवम् ॥
१८ ॥
सर्व--समस्त; आश्रमान्--सामाजिक व्यवस्थाओं, आश्रमों को; उपादाय--पूर्ण करके; स्व--अपने; आश्रमेण-- आश्रमों केद्वारा; कलत्र-वान्ू--अपनी पत्नी के साथ रहने वाला व्यक्ति; व्यसन-अर्गवम्--संसार रूपी भयावह सागर; अत्येति--पार करसकता है; जल-यानै:--समुद्री जहाजों द्वारा; यथा--जिस तरह; अर्णवम्--समुद्र को
जिस तरह जहाजों के द्वारा समुद्र को पार किया जा सकता है उसी तरह मनुष्य पत्नी के साथरहते हुए भवसागर की भयावह स्थिति से पार हो सकता है।
यामाहुरात्मनो ह्ार्थ श्रेयस्कामस्थ मानिनि ।
यस्यां स्वधुरमध्यस्य पुमां श्वरति विज्वर: ॥
१९॥
याम्--जिस पत्नी को; आहुः--कहा जाता है; आत्मन:--शरीर का; हि--इस प्रकार; अर्धम्--आधा; श्रेय:--कल्याण;कामस्य--सारी इच्छाओं का; मानिनि--हे आदरणीया; यस्याम्--जिसमें; स्व-धुरम्--सारे उत्तरदायित्व; अध्यस्य--सौंपकर;पुमान्--पुरुष; चरति--भ्रमण करता है; विज्वर: --निश्चिन्तहै
आदरणीया, पत्नी इतनी सहायताप्रद होती है कि वह मनुष्य के शरीर की अर्धांगिनीकहलाती है, क्योंकि वह समस्त शुभ कार्यों में हाथ बँटाती है।
पुरुष अपनी पत्नी परजिम्मेदारियों का सारा भार डालकर निश्चिन्त होकर विचरण कर सकता है।
यामाश्रित्येन्द्रियारातीन्दुर्जयानितरा श्रमै: ।
वयं जयेम हेलाभिर्दस्यून्दुर्गपतिर्यथा ॥
२०॥
याम्ू--जिसको; आश्नित्य--आश्रय बनाकर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अरातीन्--शत्रुगण; दुर्जवान्ू--जीत पाना कठिन; इतर--गृहस्थों के अतिरिक्त; आश्रमैः--आश्रमों द्वारा; वबम्--हम; जयेम--जीत सकते हैं; हेलाभि:-- आसानी से; दस्यून्--आक्रमणकारी लुटेरों को; दुर्ग-पति:--किले का सेनानायक; यथा--जिस तरह |
जिस तरह किले का सेनापति आक्रमणकारी लुटेरों को बहुत आसानी से जीत लेता है उसीतरह पत्नी का आश्रय लेकर मनुष्य उन इन्द्रियों को जीत सकता है, जो अन्य आश्रमों में अजेयहोती हैं।
न वयं प्रभवस्तां त्वामनुकर्तु गृहे श्वरि ।
अप्यायुषा वा कार्त्स्येन ये चान्ये गुणगृध्नवः ॥
२१॥
न--कभी नहीं; वयम्--हम; प्रभव:--समर्थ हैं; तामू--उस; त्वामू--तुमको; अनुकर्तुमू--वही करने के लिए; गृह-ईश्वरि--हेघर की रानी; अपि--के बावजूद; आयुषा--आयु के द्वारा; वा--अथवा ( अगले जन्म में ); कार्त्स्येन--सम्पूर्ण; ये--जो;च--भी; अन्ये-- अन्य; गुण-गृध्नव: --गुणों को पहचानने वाले।
हे घर की रानी, हम न तो तुम्हारी तरह कार्य करने में सक्षम हैं, न ही तुमने जो कुछ किया हैउससे उऋण हो सकते हैं, चाहे हम अपने जीवन भर या मृत्यु के बाद भी कार्य करते रहें।
तुमसे उऋण हो पाना उन लोगों के लिए भी असम्भव है, जो निजी गुणों के प्रशंसक होते हैं।
अथापि काममेतं ते प्रजात्ये करवाण्यलम् ।
यथा मां नातिरोचन्ति मुहूर्त प्रतिपालय ॥
२२॥
अथ अपि--यद्यपि ( यह सम्भव नहीं है ); कामम्--यह कामेच्छा; एतम्--जैसी है; ते--तुम्हारा; प्रजात्यै--सन्तानों के लिए;करवाणि--मुझे करने दें; अलमू--बिना विलम्ब किये; यथा--जिस तरह; माम्--मुझको; न--नहीं; अतिरोचन्ति--निन्दा करें;मुहूर्तम्--कुछ क्षण; प्रतिपालय--प्रतीक्षा करो।
यद्यपि मैं तुम्हारे ऋण से उक्रण नहीं हो सकता, किन्तु मैं सन््तान उत्पन्न करने के लिए तुम्हारीकामेच्छा को तुरन्त तुष्ट करूँगा।
किन्तु तुम केवल कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा करो जिससे अन्यलोग मेरी भर्त्सना न कर सकें।
एषा घोरतमा वेला घोराणां घोरदर्शना ।
चरन्ति यस्यां भूतानि भूतेशानुचराणि ह ॥
२३॥
एषा--यह समय; घोर-तमा--सर्वाधिक भयावनी; वेला--घड़ी; घोराणाम्-- भयावने का; घोर-दर्शना-- भयावनी लगनेवाली;चरन्ति--विचरण करते हैं; यस्याम्--जिसमें; भूतानि-- भूत-प्रेत; भूत-ईश-- भूतों के स्वामी; अनुचराणि--नित्यसंगी; ह--निस्सन्देह।
यह विशिष्ट वेला अतीव अशुभ है, क्योंकि इस बेला में भयावने दिखने वाले भूत तथा भूतोंके स्वामी के नित्य संगी दृष्टिगोचर होते हैं।
एतस्यां साध्वि सन्ध्यायां भगवान्भूतभावन: ।
परीतो भूतपर्षद्धिर्वेषेणाटति भूतराट् ॥
२४॥
एतस्याम्--इस वेला में; साध्वि--हे सती; सन्ध्यायाम्ू--दिन तथा रात के सन्धिकाल में ( संध्या समय ); भगवानू-- भगवान्;भूत-भावन: --भूतों के हितैषी; परीतः--घिरे हुए; भूत-पर्षद्धिः--भूतों के संगियों से; वृषेण--बैल की पीठ पर; अटति--भ्रमण करता है; भूत-राट्--भूतों का राजा
इस वेला में भूतों के राजा शिवजी, अपने वाहन बैल की पीठ पर बैठकर उन भूतों के साथविचरण करते हैं, जो अपने कल्याण के लिए उनका अनुगमन करते हैं।
एमशानचक्रानिलधूलिधूम्रविकीर्णविद्योतजटाकलाप: ।
भस्मावगुण्ठामलरुक्मदेहोदेवस्त्रिभि: पश्यति देवरस्ते ॥
२५॥
श्मशान--श्मशान भूमि; चक्र-अनिल--बवंडर; धूलि-- धूल; धूम्र-- धुआँ; विकीर्ण-विद्योत--सौन्दर्य के ऊपर पुता हुआ;जटा-कलापः--जटाओं के गुच्छे; भस्म--राख; अवगुण्ठ--से ढका; अमल--निष्कलंक; रुक्म--लाल; देह:--शरीर;देव:ः--देवता; त्रिभिः--तीन आँखों वाला; पश्यति--देखता है; देवर:--पति का छोटा भाई; ते--तुम्हारा
शिवजी का शरीर लालाभ है और वह निष्कलुष है, किन्तु वे उस पर राख पोते रहते हैं।
उनकी जटा एमशान भूमि की बवंडर की धूल से धूसरित रहती है।
वे तुम्हारे पति के छोटे भाईहैं--और वे अपने तीन नेत्रों से देखते हैं।
न यस्य लोके स्वजन: परो वानात्याहतो नोत कश्रिद्दिगहा: ।
वयं ब्रतैर्यच्चरणापविद्धा-माशास्महेजां बत भुक्तभोगाम् ॥
२६॥
न--कभी नहीं; यस्य--जिसका; लोके --संसार में; स्व-जन:-- अपना; पर: --पराया; वा--न तो; न--न ही; अति-- अधिक;आहतः--अनुकूल; न--नहीं; उत--अथवा; कश्चित्--कोई; विगर्ह:-- अपराधी; वयम्--हम; ब्रतैः --ब्रतों के द्वारा; यत्ू--जिसके; चरण--पाँव; अपविद्धाम्--तिरस्कृत; आशास्महे--सादर पूजा करते हैं; अजाम्--महा-प्रसाद; बत--निश्चय ही;भुक्त-भोगाम्--उच्छिष्ट भोजन |
शिवजी किसी को भी अपना सम्बन्धी नहीं मानते फिर भी ऐसा कोई भी नहीं है, जो उनसेसम्बन्धित न हो।
वे किसी को न तो अति अनुकूल, न ही निन्दनीय मानते हैं।
हम उनके उच्छिष्टभोजन की सादर पूजा करते हैं और वे जिसका तिरस्कार करते हैं उसको हम शीश झुका करस्वीकार करते हैं।
यस्यानवद्याचरितं मनीषिणोगुणन्त्यविद्यापटलं बिभित्सव: ।
निरस्तसाम्यातिशयोपि यत्स्वयंपिशाचचर्यामचरद्गति: सताम् ॥
२७॥
यस्य--जिसका; अनवद्य--अनिंद्य; आचरितम्-- चरित्र; मनीषिण:--बड़े बड़े मुनिगण; गृणन्ति-- अनुगमन करते हैं;अविद्या--अज्ञान; पटलम्--पिंड; बिभित्सव:--उखाड़ फेंकने के लिए इच्छुक; निरस्त--निरस्त किया हुआ; साम्य--समता;अतिशयः--महानता; अपि--के बावजूद; यत्--क्योंकि; स्वयम्--स्वयं; पिशाच--पिशाच, शैतान; चर्याम्--कार्यकलाप;अचरत्--सम्पन्न किया; गति:--गन्तव्य; सताम्ू-- भगवद्भक्तों का।
यद्यपि भौतिक जगत में न तो कोई भगवान् शिव के बराबर है, न उनसे बढ़कर है औरअविद्या के समूह को छिन्न-भिन्न करने के लिए उनके अनिंद्य चरित्र का महात्माओं द्वाराअनुसरण किया जाता है फिर भी वे सारे भगवदभक्तों को मोक्ष प्रदान करने के लिए ऐसे बनेरहते हैं जैसे कोई पिशाच हो।
हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगाःस्वात्मच्रतस्थाविदुष: समीहितम् ।
यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनै:श्रभोजनं स्वात्मतयोपलालितम् ॥
२८ ॥
हसन्ति--हँसते हैं; यस्थ--जिसका; आचरितम्--कार्य; हि--निश्चय ही; दुर्भगा: --अभागे; स्व-आत्मन्--अपने में; रतस्य--संलग्न रहने वाले का; अविदुष:--न जानने वाला; समीहितम्--उसका उद्देश्य; यैः--जिसके द्वारा; वस्त्र--वस्त्र; माल्य--मालाएँ; आभरण--आभूषण; अनु--ऐसे विलासी; लेपनैः:--लेप से; श्र-भोजनम्--कुत्तों का भोजन; स्व-आत्मतया--मानोस्वयं; उपलालितम्--लाड़-प्यार किया गया।
अभागे मूर्ख व्यक्ति यह न जानते हुए कि वे अपने में मस्त रहते हैं उन पर हँसते हैं।
ऐसे मूर्खव्यक्ति अपने उस शरीर को जो कुत्तों द्वारा खाये जाने योग्य है वस्त्र, आभूषण, माला तथा लेप सेसजाने में लगे रहते हैं।
ब्रह्मादयो यत्कृतसेतुपालायत्कारणं विश्वमिदं च माया ।
आज्ञाकरी यस्य पिशाचचर्याअहो विभूम्नश्वरितं विडम्बनम् ॥
२९॥
ब्रह्य-आदय: --ब्रह्मा जैसे देवतागण; यत्--जिसका; कृत--कार्यकलाप; सेतु--धार्मिक अनुष्ठान; पाला:--पालने वाले;यत्--जो है; कारणम्--उद्गम; विश्वम्--ब्रह्माण्ड का; इृदम्--इस; च-- भी; माया-- भौतिक शक्ति; आज्ञा-करी-- आदेशपूरा करने वाला; यस्थय--जिसका; पिशाच--शैतानवत्; चर्या--कर्म; अहो-हे प्रभु; विभूम्न:--महान् का; चरितम्--चरित्र;विडम्बनम्--केवल विडम्बना |
ब्रह्मा जैसे देवता भी उनके द्वारा अपनाये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं।
वेउस भौतिक शक्ति के नियन्ता हैं, जो भौतिक जगत का सृजन करती है।
वे महान् हैं, अतएवउनके पिशाचवत् गुण मात्र विडम्बना हैं।
मैत्रेय उवाचसैवं संविदिते भर्त्रां मन्मथोन्मथितेन्द्रिया ।
जग्राह वासो ब्रह्मर्षेवृषघलीव गतत्रपा ॥
३०॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; सा--वह; एवम्--इस प्रकार; संविदिते--सूचित किए जाने पर भी; भर्त्रा--पति द्वारा; मन्मथ--कामदेव द्वारा; उनन््मधित--विवश की गई; इन्द्रिया--इन्द्रियों के द्वारा; जग्राह--पकड़ लिया; वास:--वस्त्र; ब्रह्म-ऋषे:--उसमहान् ब्राह्मण ऋषि का; वृषली--वेश्या; इब--सहृश; गत-त्रपा--लज्जारहित
मैत्रेय ने कहा : इस तरह दिति अपने पति द्वारा सूचित की गई, किन्तु वह संभोग-तुष्टि हेतुकामदेव द्वारा विवश कर दी गई।
उसने उस महान् ब्राह्मण ऋषि का वस्त्र पकड़ लिया जिस तरहएक निर्लज् वेश्या करती है।
स विदित्वाथ भार्यायास्तं निर्बन्धं विकर्मणि ।
नत्वा दिष्टाय रहसि तयाथोपविवेश हि ॥
३१॥
सः--उसने; विदित्वा--समझकर; अथ--तत्पश्चात्; भार्याया:-- पत्नी की; तम्--उस; निर्बन्धम्--जड़ता या दुराग्रह को;विकर्मणि--निषिद्ध कार्य में; नत्वा--नमस्कार करके; दिष्टाय--पूज्य भाग्य को; रहसि--एकान्त स्थान में; तया--उसके साथ;अथ--इस प्रकार; उपविवेश--लेट गया; हि--निश्चय ही |
अपनी पली के मन्तव्य को समझकर उन्हें वह निषिद्ध कार्य करना पड़ा और तब पूज्यप्रारब्ध को नमस्कार करके वे उसके साथ एकान्त स्थान में लेट गये।
अथोपस्पृश्य सलिलं प्राणानायम्य वाग्यतः ।
ध्यायज्जजाप विरजं ब्रह्म ज्योति: सनातनम् ॥
३२॥
अथ--त्पश्चात्; उपस्पृश्य--जल का स्पर्श करके या जल में स्नान करके; सलिलम्--जल; प्राणान् आयम्य--समाधि काअभ्यास करके; वाक्ू-यतः--वाणी को नियंत्रित करते हुए; ध्यायन्-- ध्यान करते हुए; जजाप--मुख के भीतर जप किया;विरजम्--शुद्ध; ब्रह्म -- गायत्री मंत्र; ज्योतिः--तेज; सनातनम्--नित्य |
तत्पश्चात् उस ब्राह्मण ने जल में स्नान किया और समाधि में नित्य तेज का ध्यान करते हुएतथा मुख के भीतर पवित्र गायत्री मंत्र का जप करते हुए अपनी वाणी को वश में किया।
दितिस्तु ब्रीडिता तेन कर्मावद्चेन भारत ।
उपसडूुम्य विप्रर्षिमधोमुख्यभ्यभाषत ॥
३३॥
दिति:--कश्यप-पत्ली दिति ने; तु--लेकिन; ब्रीडिता--लज्जित; तेन--उस; कर्म--कार्य से; अवद्येन--दोषपूर्ण; भारत--हेभरतवंश के पुत्र; उपसड्रम्ध--पास जाकर; विप्र-ऋषिम्--ब्राह्मण ऋषि के; अध: -मुखी -- अपना मुख नीचे किये;अभ्यभाषत--विनप्र होकर कहा।
है भारत, इसके बाद दिति अपने पति के और निकट गई।
उसका मुख दोषपूर्ण कृत्य केकारण झुका हुआ था।
उसने इस प्रकार कहा।
दितिरुवाचन मे गर्भमिमं ब्रह्मन्भूतानामृषभो उवधीत् ।
रुद्र: पतिरह्हि भूतानां यस्याकरवमंहसम् ॥
३४॥
दितिः उबाच--सुन्दरी दिति ने कहा; न--नहीं; मे--मेरा; गर्भमू--गर्भ; इमम्--यह; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; भूतानाम्--सारे जीवोंका; ऋषभः --सारे जीवों में सबसे नेक; अवधीतू--मार डाले; रुद्र:--शिवजी; पति:--स्वामी; हि--निश्चय ही; भूतानाम्--सारे जीवों का; यस्थ--जिसका; अकरवम्--मैंने किया है; अंहसम्--अपराध |
सुन्दरी दिति ने कहा : हे ब्राह्मण, कृपया ध्यान रखें कि समस्त जीवों के स्वामी भगवान्शिव द्वारा मेरा यह गर्भ नष्ट न किया जाय, क्योंकि मैंने उनके प्रति महान् अपराध किया है।
नमो रुद्राय महते देवायोग्राय मीदुषे ।
शिवाय न्यस्तदण्डाय धृतदण्डाय मन्यवे ॥
३५॥
नमः--नमस्कार; रुद्राय--क्रुद्ध शिवजी को; महते--महान् को; देवाय--देवता को; उमग्राय--उग्र को; मीढुषे--समस्तइच्छाओं को पूरा करने वाले को; शिवाय--सर्व कल्याण-कर को; न्यस्त-दण्डाय-- क्षमा करने वाले को; धृत-दण्डाय--तुरन्तदण्ड देने वाले को; मन्यवे--क्रुद्ध को |
मैं उन क्रुद्ध शिवजी को नमस्कार करती हूँ जो एक ही साथ अत्यन्त उग्र महादेव तथा समस्तइच्छाओं को पूरा करने वाले हैं।
वे सर्वकल्याणप्रद तथा क्षमाशील हैं, किन्तु उनका क्रोध उन्हेंतुरन्त ही दण्ड देने के लिए चलायमान कर सकता है।
स नः प्रसीदतां भामो भगवानुर्वनुग्रह: ।
व्याधस्याप्यनुकम्प्यानां स्त्रीणां देव: सतीपति: ॥
३६॥
सः--वह; न:--हम पर; प्रसीदताम्--प्रसन्न हों; भाम:--बहनोई; भगवान्--समस्त एऐश्वर्यों वाले व्यक्ति; उरू--अति महान;अनुग्रह:--कृपालु; व्याधस्य--शिकारी का; अपि--भी; अनुकम्प्यानाम्ू--कृपा के पात्रों का; स्त्रीणाम्--स्त्रियों के; देव: --आराध्य स्वामी; सती-पति:--सती ( साध्वी ) के पति।
वे हम पर प्रसन्न हों, क्योंकि वे मेरी बहिन सती के पति, मेरे बहनोई हैं।
वे समस्त स्त्रियों केआशध्य देव भी हैं।
वे समस्त ऐश्वर्यों के व्यक्ति हैं और उन स्त्रियों के प्रति कृपा प्रदर्शित करसकते हैं, जिन्हें असभ्य शिकारी भी क्षमा कर देते हैं।
मैत्रेय उवाचस्वसर्गस्याशिषं लोक्यामाशासानां प्रवेपतीम् ।
निवृत्तसन्ध्यानियमो भार्यामाह प्रजापति: ॥
३७॥
मैत्रेयः उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; स्व-सर्गस्थ--अपनी ही सन््तानों का; आशिषम्--कल्याण; लोक्याम्--संसार में;आशासानाम्--इच्छा करते हुए; प्रवेपतीम्--काँपते हुए; निवृत्त--टाल दिया; सन्ध्या-नियम:--संध्याकालीन विधि-विधान;भार्यामू--पत्नी से; आह--कहा; प्रजापति:--जनक ।
मैत्रेय ने कहा : तब महर्षि कश्यप ने अपनी पत्नी को सम्बोधित किया जो इस भय से काँपरही थी कि उसके पति का अपमान हुआ है।
वह समझ गई कि उन्हें संध्याकालीन प्रार्थना करनेके नैत्यिक कर्म से विरत होना पड़ा है, फिर भी वह संसार में अपनी सनन््तानों का कल्याण चाहतीथी।
कश्यप उबाचअप्रायत्यादात्मनस्ते दोषान्मौहूर्तिकादुत ।
मन्निदेशातिचारेण देवानां चातिहेलनात् ॥
३८॥
कश्यप: उवाच--विद्वान ब्राह्मण कश्यप ने कहा; अप्रायत्यात्ू--दूषण के कारण; आत्मन:--मन के; ते--तुम्हारे; दोषात् --अपवित्र होने; मौहूर्तिकात्--मुहूर्त भर में; उत-- भी; मत्--मेरा; निदेश--निर्देश; अतिचारेण--अत्यधिक उपेक्षा करने से;देवानामू--देवताओं का; च-- भी; अतिहेलनात्--- अत्यधिक अवहेलित होकर ।
विद्वान कश्यप ने कहा : तुम्हारा मन दूषित होने, मुहूर्त विशेष के अपवित्र होने, मेरे निर्देशोंकी तुम्हारे द्वारा उपेक्षा किये जाने तथा तुम्हारे द्वारा देवताओं की अवहेलना होने से सारी बातेंअशुभ थीं।
भविष्यतस्तवाभद्रावभद्रे जाठराधमौ ।
लोकान्सपालांस्त्रीं श्रण्डि मुहुराक्रन्दयिष्यत:ः ॥
३९॥
भविष्यत: --जन्म लेगा; तब--तुम्हारा; अभद्रौ --दो अभद्र पुत्र; अभद्रे--हे अभागिन; जाठर-अधमौ--निन्दनीय गर्भ से उत्पन्न;लोकानू--सारे लोकों; स-पालान्--उनके शासकों समेत; त्रीन्--तीन; चण्डि--गर्वीली; मुहुः--निरन्तर; आक्रनू-दयिष्यत: --शोक के कारण बनेंगे।
हे अभिमानी स्त्री! तुम्हारे निंदित गर्भ से दो अभद्र पुत्र उत्पन्न होंगे।
अरी अभागिन! वे तीनोंलोकों के लिए निरन्तर शोक का कारण बनेंगे।
प्राणिनां हन्यमानानां दीनानामकृतागसाम् ।
स्त्रीणां निगृह्ममाणानां कोपितेषु महात्मसु ॥
४०॥
प्राणिनामू--जब जीवों का; हन्यमानानाम्--मारे जाते हुए; दीनानामू--दीनों का; अकृत-आगसाम्--निर्दोषों का; स्त्रीणाम्--स्त्रियों का; निगृह्ममाणानाम्--सताये जाते हुओं का; कोपितेषु--क्रुद्ध हुओं का; महात्मसु--महात्माओं का।
वे दीन, निर्दोष जीवों का वध करेंगे, स्त्रियों को सताएँगे तथा महात्माओं को क्रोधित करेंगे।
तदा विश्वेश्वरः क्रुद्धो भगवाल्लोकभावन: ।
हनिष्यत्यवतीर्यासौ यथाद्रीन्शतपर्वधृक्ू ॥
४१॥
तदा--उस समय; विश्व-ई श्र: -- ब्रह्माण्ड के स्वामी; क्रुद्ध:--अतीव क्रोध में; भगवान्-- भगवान्; लोक-भावन:--सामान्यजनों का कल्याण चाहने वाले; हनिष्यति--वध करेगा; अवतीर्य--स्वयं अवतरित होकर; असौ--वह; यथा--मानो; अद्रीन्--पर्वतों को; शत-पर्व-धृक्ू--वज् का नियन्ता ( इन्द्र ) |
उस समय ब्रह्माण्ड के स्वामी पुरुषोत्तम भगवान् जो कि समस्त जीवों के हितैषी हैं अवतरितहोंगे और उनका इस तरह वध करेंगे जिस तरह इन्द्र अपने वज्ज से पर्वतों को ध्वस्त कर देता है।
दितिरुवाचवधं भगवता साक्षात्सुनाभोदारबाहुना ।
आशसे पुत्रयोर्महां मा क्रुद्धाद्राह्मणादप्रभो ॥
४२॥
दितिः उबाच--दिति ने कहा; वधम्--मारा जाना; भगवता-- भगवान् द्वारा; साक्षात्- प्रत्यक्ष रूप से; सुनाभ--अपने सुदर्शनअक्र द्वारा; उदार--अत्यन्त उदार; बाहुना--बाहों द्वारा; आशासे-- मेरी इच्छा है; पुत्रयोः--पुत्रों की; महाम्--मेरे; मा--क भीऐसा न हो; क्रुद्धात्-क्रोध से; ब्राह्मणात्--ब्राह्मण के; प्रभो--हे पति।
दिति ने कहा: यह तो अति उत्तम है कि मेरे पुत्र भगवान् द्वारा उनके सुदर्शन चक्र सेउदारतापूर्वक मारे जायेंगे।
हे मेरे पति, वे ब्राह्मण-भक्तों के क्रोध से कभी न मारे जाँय।
श़" न ब्रह्मठण्डदग्धस्य न भूतभयदस्य च ।
नारकाश्चानुगृहन्ति यां यां योनिमसौ गत: ॥
४३॥
न--कभी नहीं; ब्रह्म-दण्ड--ब्राह्मण द्वारा दिया गया दण्ड; दग्धस्य--इस तरह से दण्डित होने वाले का; न--न तो; भूत-भय-दस्य--उसका, जो जीवों को सदा डराता रहता है; च-- भी; नारका:--नरक जाने वाले; च--भी; अनुगृहन्ति--कोई अनुग्रहकरते हैं; याम् यामू--जिस जिस को; योनिमू--जीव योनि को; असौ--अपराधी; गत:--जाता है|
जो व्यक्ति ब्राह्मण द्वारा तिरस्कृत किया जाता है या जो अन्य जीवों के लिए सदैव भयप्रदबना रहता है, उसका पक्ष न तो पहले से नरक में रहने वालों द्वारा, न ही उन योनियों में रहनेवालों द्वारा लिया जाता है, जिसमें वह जन्म लेता है।
कश्यप उबाचकृतशोकानुतापेन सद्य: प्रत्यवमर्शनात् ।
भगवत्युरुमानाच्च भवे मय्यपि चादरात्ू ॥
४४॥
पुत्रस्यैव च पुत्राणां भवितैक: सतां मतः ।
गास्यन्ति यद्यशः शुद्ध भगवद्यशसा समम् ॥
४५ ॥
कश्यप: उवाच--विद्वान कश्यप ने कहा; कृत-शोक--शोक कर चुकने पर; अनुतापेन--पक्चात्ताप द्वारा; सद्यः--तुरन्त;प्रत्यवरमर्शनात्--उचित विचार-विमर्श द्वारा; भगवति-- भगवान् के प्रति; उरू--अत्यधिक; मानात्-- प्रशंसा; च--तथा; भवे--शिव के प्रति; मयि अपि--मुझको भी; च--तथा; आदरात्ू--आदर से; पुत्रस्य--पुत्र का; एब--निश्चय ही; च--तथा;पुत्राणाम्--पुत्रों का; भविता--उत्पन्न होगा; एक:--एक; सताम्-- भक्तों का; मतः--अनुमोदित; गास्यन्ति--प्रचार करेगा;यत्--जिसको; यशः--ख्याति; शुद्धम्-दिव्य; भगवत्-- भगवान् को; यशसा--ख्याति से; समम्ू--समान रूप से।
विद्वान कश्यप ने कहा : तुम्हारे शोक, पश्चात्ताप तथा समुचित वार्तालाप के कारण तथापूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में तुम्हारी अविचल श्रद्धा एवं शिवजी तथा मेरे प्रति तुम्हारी प्रशंसा केकारण भी तुम्हारे पुत्र ( हिरण्यकशिपु ) का एक पुत्र ( प्रह्द ) भगवान् द्वारा अनुमोदित भक्तहोगा और उसकी ख्याति भगवान् के ही समान प्रचारित होगी।
योगैह्मेव दुर्वर्ण भावयिष्यन्ति साधव: ।
निर्वेरादिभिरात्मानं यच्छीलमनुवर्तितुम् ॥
४६॥
योगै:--शुद्द्रिकरण की विधि से; हेम--सोना; इब--सहश ; दुर्वर्णप्--निम्न गुण; भावयिष्यन्ति--शुद्ध कर देगा; साधव:--साधु पुरुष; निर्वैर-आदिभि:--शत्रुता इत्यादि से मुक्त होने के अभ्यास से; आत्मानम्--आत्मा; यत्ू--जिसका; शीलम्--चरित्र; अनुवर्तितुमू--चरणचिह्नों का अनुगमन करना |
उसके पदचिन्हों का अनुसरण करने के लिए सन्त पुरुष शत्रुता से मुक्त होने का अभ्यासकरके उसके चरित्र को आत्मसात् करना चाहेंगे जिस तरह शुद्द्विकरण की विधियाँ निम्न गुणवाले सोने को शुद्ध कर देती हैं।
यत्प्रसादादिदं विश्व प्रसीदति यदात्मकम् ।
स स्वहग्भगवान्यस्य तोष्यतेनन्यया हशा ॥
४७॥
यत्--जिसके; प्रसादात्ू-कृपा से; इदम्--यह; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; प्रसीदति--सुखी बनता है; यत्--जिसके; आत्मकम्--सर्वव्यापक होने से; सः--वह; स्व-हक्--अपने भक्तों की विशेष परवाह करने वाले; भगवान्-- भगवान्; यस्य--जिसका;तोष्यते--प्रसन्न होता है; अनन्यया--बिना विचलन के; दृशा--बुद्धि से
हर व्यक्ति उनसे प्रसन्न रहेगा, क्योंकि ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भगवान् सदैव ऐसे भक्त सेतुष्ट रहते हैं, जो उनके अतिरिक्त और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता।
सब महाभागवतो महात्मामहानुभावो महतां महिष्ठ: ।
प्रवृद्धभकत्या ह्मनुभाविताशयेनिवेश्य वैकुण्ठमिमं विहास्यति ॥
४८॥
सः--वह; वै--निश्चय ही; महा-भागवतः--सर्वोच्च भक्त; महा-आत्मा--विशाल बुद्द्धि; महा-अनुभाव:--विशाल प्रभाव;महताम्--महात्माओं का; महिष्ठ:--सर्वोच्च; प्रवृद्ध--पूर्णतया प्रौढ़; भक्त्या--भक्ति से; हि--निश्चय ही; अनुभावित-- भावकी अनुभाव दशा को प्राप्त: आशये--मन में; निवेश्य--प्रवेश करके; वैकुण्ठम्-- आध्यात्मिक आकाश में; इमम्--इसको( भौतिक जगत ) को; विहास्यति--छोड़ देगा।
भगवान् का सर्वोच्च भक्त विशाल बुद्धि तथा विशाल प्रभाव वाला होगा और महात्माओं मेंसबसे महान् होगा।
परिपक्व भक्तियोग के कारण वह निश्चय ही दिव्य भाव में स्थित होगा औरइस संसार को छोड़ने पर बैकुण्ठ में प्रवेश करेगा।
अलम्पट: शीलधरो गुणाकरोहृष्टः परद्धर्या व्यथितो दुःखितेषु ।
अभूतशत्रुर्जगतः शोकहर्तानैदाधिकं तापमिवोडुराज: ॥
४९॥
अलम्पट:--पुण्यशील; शील-धर: --योग्य; गुण-आकरः--समस्त सदगुणों की खान; हृष्ट:--प्रसन्न; पर-ऋद्धयधा--अन्य केसुख से; व्यथित:ः--दुखी; दुःखितेषु--अन्यों के दुख में; अभूत-शत्रु;--शत्रुरहित, अजातशत्रु; जगत:--सारे ब्रह्माण्डका;शोक-हर्ता--शोक का विनाशक; नैदाधिकम्--ग्रीष्मकालीन घाम से; तापम्--कष्ट; इब--सहृश; उडु-राज:-- चन्द्रमा |
वह समस्त सदगुणों का अतीव सुयोग्य आगार होगा, वह प्रसन्न रहेगा और अन्यों के सुख मेंसुखी, अन्यों के दुख में दुखी होगा तथा उसका एक भी शत्रु नहीं होगा।
वह सारे ब्रह्माण्डों केशोक का उसी तरह नाश करने वाला होगा जिस तरह ग्रीष्मकालीन सूर्य के बाद सुहावनाचन्द्रमा ।
अन्तर्बहिश्चामलमब्जनेत्रंस्वपूरुषेच्छानुगृहीतरूपम् ।
पौत्रस्तव श्रीललनाललामंद्रष्टा स्फुरत्कुण्डलमण्डिताननम् ॥
५०॥
अन्तः-- भीतर से; बहि:--बाहर से; च-- भी; अमलम्--निर्मल; अब्ज-नेत्रमू--कमल नेत्र; स्व-पूरुष--अपना भक्त; इच्छा-अनुगृहीत-रूपम्--इच्छानुरूप शरीर धारण करके; पौत्र:--नाती; तब--तुम्हारा; श्री-ललना--सुन्दर लक्ष्मीजी; ललामम्--अलंकृत; द्रष्टा--देखेगा; स्फुरत्-कुण्डल--चमकीले कुंडलों से; मण्डित--सुशोभित; आननम्--मुख |
तुम्हारा पौत्र भीतर तथा बाहर से उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का दर्शन कर सकेगा जिन की पत्नी सुन्दरी लक्ष्मीजी हैं।
भगवान् भक्त द्वारा इच्छित रूप धारण कर सकते हैं और उनकामुखमण्डल सदैव कुण्डलों से सुन्दर ढंग से अलंकृत रहता है।
मैत्रेय उवाचश्रुत्वा भागवतं पौत्रममोदत दितिभूशम् ।
पुत्रयोश्च वध कृष्णाद्विदित्वासीन्न्महामना: ॥
५१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; श्रुत्वा--सुनकर; भागवतम्-- भगवान् के महान् भक्त होने के लिए; पौत्रम्ू--पौत्र को;अमोदत--आनन्द का अनुभव किया; दिति:ः --दिति ने; भूशम्--अत्यधिक; पुत्रयो: --दोनों पुत्रों का; च-- भी; वधम्--वध;कृष्णात्-कृष्ण द्वारा; विदित्वा--जानकर; आसीत्--हो गईं; महा-मना:--मन में अतीव हर्षित |
मैत्रेय मुनि ने कहा : यह सुनकर कि उसका पौत्र महान् भक्त होगा और उसके पुत्र भगवान्कृष्ण द्वारा मारे जायेंगे, दिति मन में अत्यधिक हर्षित हुई।
अध्याय पंद्रह: परमेश्वर के राज्य का विवरण
3.15मैत्रेय उवाचप्राजापत्यं तु तत्तेज: परतेजोहनं दिति: ।
दधार वर्षाणि शतंशट्डमाना सुरार्दनात् ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--महर्षि मैत्रेय ने कहा; प्राजापत्यम्--महान् प्रजापति का; तु--लेकिन; तत् तेज:--उसका बलशाली वीर्य; पर-तेज:--अन्यों का पराक्रम; हनम्--कष्ट देने वाला; दितिः--दिति ( कश्यप पत्नी ) ने; दधार-- धारण किया; वर्षाणि--वर्षोतक; शतम्--एक सौ; शट्भमाना--शंकालु; सुर-अर्दनातू--देवताओं को उद्विग्न करने वाले |
श्री मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, महर्षि कश्यप की पत्नी दिति यह समझ गई कि उसके गर्भ मेंस्थित पुत्र देवताओं के विक्षोभ के कारण बनेंगे।
अत: वह कश्यप मुनि के तेजवान वीर्य कोएक सौ वर्षो तक निरन्तर धारण किये रही, क्योंकि यह अन्यों को कष्ट देने वाला था।
लोके तेनाहतालोके लोकपाला हतौजस: ।
न्यवेदयन्विश्वसूजे ध्वान्तव्यतिकरं दिशाम् ॥
२॥
लोके--इस ब्रह्माण्ड में; तेन--दिति के गर्भधारण के बल पर; आहत--विहीन होकर; आलोके -- प्रकाश; लोक-पाला: --विभिन्न लोकों के देवता; हत-ओजस:--जिसका तेज मन्द हो चुका था; न्यवेदयन्--पूछा; विश्व-सृजे--ब्रह्मा से; ध्वान्त-व्यतिकरम्--अंधकार का विस्तार; दिशाम्--सारी दिशाओं में |
दिति के गर्भधारण करने से सारे लोकों में सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश मंद हो गया औरविभिन्न लोकों के देवताओं ने उस बल से विचलित होकर ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ब्रह्म से पूछा,'सारी दिशाओं में अंधकार का यह विस्तार कैसा ?!'" देवा ऊचु:तम एतद्विभो वेत्थ संविग्ना यद्वयं भूशम् ।
न हाव्यक्ते भगवतः कालेनास्पृष्टवर्त्मन: ॥
३॥
देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; तम:--अंधकार; एतत्--यह; विभो--हे महान्; वेत्थ--तुम जानो; संविग्ना:--अत्यन्तचिन्तित; यत्--क्योंकि; वयम्--हम; भूशम्--अत्यधिक; न--नहीं; हि-- क्योंकि; अव्यक्तम्--अप्रकट; भगवत:--आपका( भगवान् का ); कालेन--काल द्वारा; अस्पृष्ट-- अछूता; वर्त्मन: --जिसका मार्ग
भाग्यवान् देवताओं ने कहा : हे महान्, जरा इस अंधकार को तो देखो, जिसे आप अच्छीतरह जानते हैं और जिससे हमें चिन्ता हो रही है।
चूँकि काल का प्रभाव आपको छू नहीं सकता,अतएव आपके समक्ष कुछ भी अप्रकट नहीं है।
देवदेव जगद्धातलॉकनाथशिखामणे ।
परेषामपरेषां त्वं भूतानामसि भाववित् ॥
४॥
देव-देव--हे देवताओं के स्वामी; जगतू-धात:ः--ब्रह्मण्ड को धारण करने वाले; लोकनाथ-शिखामणे--हे अन्य लोकों केसमस्त देवताओं के शिरो-मणि; परेषाम्--आध्यात्मिक जगत का; अपरेषाम्-- भौतिक जगत का; त्वम्--तुम; भूतानामू--सारेजीवों के; असि--हो; भाव-वित्--मनोभावों को जानने वाले
है देवताओं के देव, हे ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले, हे अन्यलोकों के समस्त देवताओं केशिरोमणि, आप आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही जगतों में सारे जीवों के मनोभावों को जानतेहैं।
नमो विज्ञानवीर्याय माययेदमुपेयुषे ।
गृहीतगुणभेदाय नमस्तेउव्यक्तयोनये ॥
५॥
नमः--सादर नमस्कार; विज्ञान-वीर्याय--हे बल तथा वैज्ञानिक ज्ञान के आदि स्त्रोत; मायया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; इदम्--ब्रह्मा का यह शरीर; उपेयुषे-- प्राप्त करके ; गृहीत-- स्वीकार करते हुए; गुण-भेदाय--विभेदित रजोगुण; नम: ते--आपकोनमस्कार करते हुए; अव्यक्त--अप्रकट; योनये--स्त्रोत |
हे बल तथा विज्ञानमय ज्ञान के आदि स्रोत, आपको नमस्कार है।
आपने भगवान् से पृथक्ृतरजोगुण स्वीकार किया है।
आप बहिरंगा शक्ति की सहायता से अप्रकट स्त्रोत से उत्पन्न हैं।
आपको नमस्कार।
ये त्वानन्येन भावेन भावयन्त्यात्मभावनम् ।
आत्मनि प्रोतभुवनं परं सदसदात्मकम् ॥
६॥
ये--वे जो; त्वा--तुम पर; अनन्येन--विचलित हुए बिना; भावेन--भक्तिपूर्वक; भावयन्ति-- ध्यान करते हैं; आत्म-भावनम्--जो सारे जीवों को उत्पन्न करता है; आत्मनि--अपने भीतर; प्रोत--जुड़ा हुआ; भुवनम्--सारे लोक; परम्ू--परम; सत्--प्रभाव; असत्--कारण; आत्मकम्--जनक ।
हे प्रभु, ये सारे लोक आपके भीतर विद्यमान हैं और सारे जीव आपसे उत्पन्न हुए हैं।
अतएवआप इस ब्रह्माण्ड के कारण हैं और जो भी अनन्य भाव से आपका ध्यान करता है, वहभक्तियोग प्राप्त करता है।
तेषां सुपक्वयोगानां जितश्वासेन्द्रियात्मनाम् ।
लब्धयुष्मत्प्रसादानां न कुतश्चित्पपाभव: ॥
७॥
तेषाम्--उनका; सु-पक््व-योगानाम्-- जो प्रौढ़ योगी हैं; जित--संयमित; श्रास--साँस; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्मनामू--मन;लब्ध--प्राप्त किया हुआ; युष्मत्--आपकी ;; प्रसादानामू--कृपा; न--नहीं; कुतश्चित्--कहीं भी; पराभव:--हार।
जो लोग श्वास प्रक्रिया को साध कर मन तथा इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं और इस प्रकारजो अनुभवी प्रौढ़ योगी हो जाते हैं उनकी इस जगत में पराजय नहीं होती।
ऐसा इसलिए है,क्योंकि योग में ऐसी सिद्धि के कारण, उन्होंने आपकी कृपा प्राप्त कर ली है।
यस्य वाचा प्रजा: सर्वा गावस्तन्त्येव यन्त्रिता: ।
हरन्ति बलिमायत्तास्तस्मै मुख्याय ते नमः ॥
८॥
यस्य--जिसका; वाचा--वैदिक निर्देशों द्वारा; प्रजा:--जीव; सर्वा:--सारे; गाव:--बैल; तन्त्या--रस्सी से; इब--सहश;यन्त्रिता:--निर्देशित हैं; हरन्ति-- भेंट करते हैं, लेते हैं; बलिम्-- भेंट, पूजा-सामग्री; आयत्ता:--नियंत्रण के अन्तर्गत; तस्मै--उसको; मुख्याय--मुख्य पुरुष को; ते--तुमको; नम:--सादर नमस्कार |
ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत सारे जीव वैदिक आदेशों से उसी प्रकार संचालित होते हैं जिस तरहएक बैल अपनी नाक से बँधी रस्सी ( नथुनी ) से संचालित होता है।
वैदिक ग्रंथों में निर्दिष्टनियमों का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता।
उस प्रधान पुरुष को हम सादर नमस्कार करते हैं,जिसने हमें वेद दिये हैं।
स त्वं विधत्स्व शं भूमंस्तमसा लुप्तकर्मणाम् ।
अदश्नदयया दृष्ठय्या आपन्नानईसीक्षितुम् ॥
९॥
सः--वह; त्वमू--तुम; विधत्स्व--सम्पन्न करो; शम्--सौभाग्य; भूमन्--हे परमेश्वर; तमसा--अंधकार द्वारा; लुप्त--निलम्बित; कर्मणाम्--नियमित कार्यों का; अदभ्न--उदार, बिना भेदभाव के; दयया--दया के द्वारा; दृष्या-- आपकी दृष्टिद्वारा; आपन्नानू--हम शरणागत; अर्हसि--समर्थ हैं; ईक्षितुम्--देख पाने के लिए।
देवताओं ने ब्रह्म की स्तुति की: कृपया हम पर कृपादृष्टि रखें, क्योंकि हम कष्टप्रद स्थितिको प्राप्त हो चुके हैं; अंधकार के कारण हमारा सारा काम रुक गया है।
एघ देव दितेर्गर्भ ओज: काश्यपमर्पितम् ।
दिशस्तिमिरयन्सर्वा वर्धतेडग्निरिविधसि ॥
१०॥
एष:--यह; देव--हे प्रभु; दितेः--दिति का; गर्भ:--गर्भ; ओज:--वीर्य; काश्यपमू--कश्यप का; अर्पितम्--स्थापित कियागया; दिशः--दिशाएँ; तिमिरयन्--पूर्ण अंधकार उत्पन्न करते हुए; सर्वा:--सारे; वर्धते--बढ़ाता है; अग्नि:--आग; इब--सहश; एधसि--ईंधन
जिस तरह ईंधन अग्नि को वर्धित करता है उसी तरह दिति के गर्भ में कश्यप के वीर्य सेउत्पन्न भ्रूण ने सारे ब्रह्माण्ड में पूर्ण अंधकार उत्पन्न कर दिया है।
मैत्रेय उवाचस प्रहस्य महाबाहो भगवान्शब्दगोचरः ।
प्रत्याचष्टात्म भूर्देवान्प्रीणन्रुच्चिरया गिरा ॥
११॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; सः--वह; प्रहस्य--हँसते हुए; महा-बाहो--हे शक्तिशाली भुजाओं वाले ( विदुर ); भगवान्--समस्त ऐ श्वर्यों के स्वामी; शब्द-गोचर: --दिव्य ध्वनि के द्वारा समझा जाने वाला; प्रत्याचष्ट--उत्तर दिया; आत्म-भू:--ब्रह्मा ने;देवान्ू-देवताओं को; प्रीणन्--तुष्ट करते हुए; रुचिरया--मधुर; गिरा--शब्दों से
श्रीमैत्रेय ने कहा : इस तरह दिव्य ध्वनि से समझे जाने वाले ब्रह्मा ने देवताओं की स्तुतियोंसे प्रसन्न होकर उन्हें तुष्ट करने का प्रयास किया।
ब्रह्मोवाचमानसा मे सुता युष्मत्पूर्वजा: सनकादय: ।
चेरुविहायसा लोकाल्लोकेषु विगतस्पूहा: ॥
१२॥
ब्रह्मा उवाच--ब्रह्मा ने कहा; मानसा: --मन से उत्पन्न; मे--मेरे; सुता:--पुत्र; युष्मत्--तुम्हारी अपेक्षा; पूर्व-जा:--पहले उत्पन्न;सनक-आदय: --सनक इत्यादि ने; चेरु:--यात्रा की; विहायसा--अन्तरिक्ष में यान द्वारा या आकाश में उड़कर; लोकान्ू--भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों तक; लोकेषु--लोगों के बीच; विगत-स्पृहा:--किसी इच्छा से रहित |
ब्रह्माजी ने कहा : मेरे मन से उत्पन्न चार पुत्र सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार तुम्हारेपूर्वज हैं।
कभी कभी वे बिना किसी विशेष इच्छा के भौतिक तथा आध्यात्मिक आकाशों सेहोकर यात्रा करते हैं।
तएकदा भगवतो वैकुण्ठस्थामलात्मन: ययुर्वैकुण्ठनिलयं सर्वलोकनमस्कृतम् ॥
१३॥
ते--वे; एकदा--एक बार; भगवतः--भगवान् के; वैकुण्ठस्थ-- भगवान् विष्णु का; अमल-आत्मन: --समस्त भौतिक कल्मषसे मुक्त हुए; ययुः:--प्रविष्ट हुए; बैकुण्ठ-निलयम्--वैकुण्ठ नामक धाम; सर्व-लोक--समस्त भौतिक लोकों के निवासियों केद्वारा; नमस्कृतम्-- पूजित |
इस तरह सारे ब्रह्माण्डों का भ्रमण करने के बाद वे आध्यात्मिक आकाश में भी प्रविष्ट हुए,क्योंकि वे समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त थे।
आध्यात्मिक आकाश में अनेक आध्यात्मिक लोकहैं, जो वैकुण्ठ कहलाते हैं, जो पुरुषोत्तम भगवान् तथा उनके शुद्धभक्तों के निवास-स्थान हैं और समस्त भौतिक लोकों के निवासियों द्वारा पूजे जाते हैं।
वसन्ति यत्र पुरुषा: सर्वे वैकुण्ठमूर्तयः ।
येडनिमित्तनिमित्तेन धर्मेणाराधयन्हरिम् ॥
१४॥
वसन्ति--निवास करते हैं; यत्र--जहाँ; पुरुषा:--व्यक्ति; सर्वे--सारे; वैकुण्ठ-मूर्तयः --भगवान् विष्णु की ही तरह चारभुजाओं वाले; ये--वे वैकुण्ठ पुरुष; अनिमित्त--इन्द्रियतृप्ति की इच्छा से रहित; निमित्तेन--उत्पन्न; धर्मेण-- भक्ति द्वारा;आराधयनू--निरन्तर पूजा करते हुए; हरिम्ू-- भगवान् की |
वैकुण्ठ लोकों में सारे निवासी पुरुषोत्तम भगवान् के समान आकृतिवाले होते हैं।
वे सभीइन्द्रिय-तृप्ति की इच्छाओं से रहित होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहते हैं।
यत्र चाद्यः पुमानास्ते भगवान्शब्दगोचर: ।
सत्त्वं विष्टभ्य विरजं स्वानां नो मृडयन्वृष: ॥
१५॥
यत्र--वैकुण्ठ लोकों में; च--तथा; आद्यः--आदि; पुमान्ू--पुरुष; आस्ते--है; भगवान्-- भगवान्; शब्द-गोचर: -- वैदिकवाड्मय के माध्यम से समझा गया; सत्त्वम्--सतोगुण; विष्टभ्य--स्वीकार करते; विरजम्--अकलुषित, निर्मल; स्वानाम्--अपने संगियों का; न:--हमको; मृडयन्ू--सुख को बढ़ाते हुए; वृष:--साक्षात् धर्म ॥
वैकुण्ठलोकों में भगवान् रहते हैं, जो आदि पुरुष हैं और जिन्हें वैदिक वाड्मय के माध्यमसे समझा जा सकता है।
वे कल्मषरहित सतोगुण से ओतप्रोत हैं, जिसमें रजो या तमो गुणों केलिए कोई स्थान नहीं है।
वे भक्तों की धार्मिक प्रगति में योगदान करते हैं।
यत्र नैःश्रेयसं नाम वन॑ कामदुषैर्द्ुमै: ।
सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत्कैवल्यमिव मूर्तिमत् ॥
१६॥
यत्र--वैकुण्ठलोकों में; नै: श्रेयसम्--शुभ; नाम--नामक; वनम्-- जंगल; काम-दुघैः --इच्छा पूरी करने वाले; द्रुमैः --वृक्षोंसमेत; सर्व--समस्त; ऋतु--ऋतुएँ; श्रीभि:--फूलों -फलों से; विध्राजत्ू--शो भायमान; कैवल्यम्-- आध्यात्मिक; इव--सहृश;मूर्तिमत्--साकार।
उन बैकुण्ठ लोकों में अनेक वन हैं, जो अत्यन्त शुभ हैं।
उन वनों के वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, जोसभी ऋतुओं में फूलों तथा फलों से लदे रहते हैं, क्योंकि वैकुण्ठलोकों में हर वस्तु आध्यात्मिकतथा साकार होती है।
वैमानिकाः सललनाश्चरितानि शश्वद्गायन्ति यत्र शमलक्षपणानि भर्तु: ।
अन्तर्जलेनुविकसन्मधुमाधवीनांगन्धेन खण्डितधियोप्यनिलं क्षिपन्त: ॥
१७॥
वैमानिका:--अपने विमानों में उड़ते हुए; स-ललना:ः--अपनी अपनी पत्नियों समेत; चरितानि--कार्यकलाप; शश्वत्--नित्यरूप से; गायन्ति--गाते हैं; यत्र--जिन वैकुण्ठलोकों में; शमल--समस्त अशुभ गुणों से; क्षपणानि--विहीन; भर्तुः--परमे श्वर का; अन्तः-जले--जल के बीच में; अनुविकसत्--खिलते हुए; मधु--सुगन्धित, शहद से पूर्ण; माधवीनाम्--माधवी फूलोंकी; गन्धेन--सुगन्ध से; खण्डित--विचलित; धिय:--मन; अपि--यद्यपि; अनिलम्--मन्द पवन; क्षिपन्त:--उपहास करतेहुए।
वैकुण्ठलोकों के निवासी अपने विमानों में अपनी पत्नियों तथा प्रेयसियों के साथ उड़ानेंभरते हैं और भगवान् के चरित्र तथा उन कार्यों का शाश्वत गुणगान करते हैं, जो समस्त अशुभगुणों से सदैव विहीन होते हैं।
भगवान् के यश का गान करते समय वे सुगन्धित तथा मधु से भरेहुए पुष्पित माधवी फूलों की उपस्थिति तक का उपहास करते हैं।
पारावतान्यभूतसारसचक्रवाक -दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः ।
कोलाहलो विरमतेचिरमात्रमुच्चै -भ्रृड्राधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥
१८॥
पारावत--कबूतर; अन्यभूत--कोयल; सारस--सारस; चक्रवाक--चकई चकदवा; दात्यूह--चातक; हंस--हंस; शुक --तोता; तित्तिरि--तीतर; ब्हिणाम्--मोर का; यः--जो; कोलाहल:--कोलाहल; विरमते--रुकता है; अचिर-मात्रम्ू-- अस्थायीरूप से; उच्चै:--तेज स्वर से; भूड़-अधिपे--भौरे का राजा; हरि-कथाम्-- भगवान् की महिमा; इब--सहृश; गायमाने--गायेजाते समय
जब भौंरों का राजा भगवान् की महिमा का गायन करते हुए उच्च स्वर से गुनगुनाता है, तो कबूतर, कोयल, सारस, चक्रवाक, हंस, तोता, तीतर तथा मोर का शोर अस्थायी रूप से बन्दपड़ जाता है।
ऐसे दिव्य पक्षी केवल भगवान् की महिमा सुनने के लिए अपना गाना बन्द कर देते हैं।
मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण-पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाता: ।
गन्धेचिंते तुलसिकाभरणेन तस्यायस्मिस्तप: सुमनसो बहु मानयन्ति ॥
१९॥
मन्दार-मन्दार; कुन्द--कुन्द; कुरब--कुरबक; उत्पल--उत्पल; चम्पक--चम्पक; अर्ण--अर्ण फूल; पुन्नाग--पुन्नाग;नाग--नागकेशर; बकुल--बकुल; अम्बुज--कुमुदिनी; पारिजाता: --पारिजात; गन्धे--सुगन्ध; अर्चिते--पूजित होकर;तुलसिका--तुलसी; आभरणेन--माला से; तस्या: --उसकी; यस्मिन्--जिस वैकुण्ठ में; तपः--तपस्या; सु-मनस:--अच्छे मनवाले, वैकुण्ठ मन वाले; बहु--अत्यधिक; मानयन्ति--गुणगान करते हैं।
यद्यपि मन्दार, कुन्द, कुरबक, उत्पल, चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेशर, बकुल, कुमुदिनीतथा पारिजात जैसे फूलने वाले पौधे दिव्य सुगन्ध से पूरित हैं फिर भी वे तुलसी द्वारा की गईतपस्या से सचेत हैं, क्योंकि भगवान् तुलसी को विशेष वरीयता प्रदान करते हैं और स्वयं तुलसीकी पत्तियों की माला पहनते हैं।
अल न गवाह ; ल॑ हरिपदानतिमात्रहृष्टेः।
येषां बृहत्कटितटा: स्मितशोभिमुख्य:कृष्णात्मनां नरज आदधुरुत्स्मयाद्यैः ॥
२०॥
यत्--वह वैकुण्ठधाम; सह्लु लम्--से पूरित; हरि-पद-- भगवान् हरि के दोनों चरण कमलों पर; आनति--नमस्कार द्वारा;मात्र--केवल; दृष्टे:--प्राप्त किये जाते हैं; बैदूर्य--वैदूर्य मणि; मारकत--मरकत; हेम--स्वर्ण; मयै:--से निर्मित; विमानै:--विमानों से; येषाम्--उन यात्रियों का; बृहत्ू--विशाल; कटि-तटा:ः--कूल्हे; स्मित--हँसते हुए; शोभि--सुन्दर; मुख्य: --मुख-मण्डल; कृष्ण--कृष्ण में; आत्मनामू--जिनके मन लीन हैं; न--नहीं; रज:--यौन इच्छा; आदधु: --उत्तेजित करती है; उत्स्मय-आहद्यैः--घनिष्ठ मित्रवत् व्यवहार, हँसी मजाक द्वारा।
वैकुण्ठनिवासी वबैदूर्य, मरकत तथा स्वर्ण के बने हुए अपने अपने विमानों में यात्रा करते हैं।
यद्यपि वे विशाल नितम्बों तथा सुन्दर हँसीले मुखों वाली अपनी-अपनी प्रेयसियों के साथ सटेरहते हैं, किन्तु वे उनके हँसी मजाक तथा उनके सुन्दर मोहकता से कामोत्तेजित नहीं होते।
श्री रूपिणी क्वणयती चरणारविन्दंलीलाम्बुजेन हरिसदानि मुक्तदोषा ।
संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्निसम्मार्जतीव यदनुग्रहणेउन्ययत्त: ॥
२१॥
श्री--लक्ष्मीजी; रूपिणी --सुन्दर रूप धारण करने वाली; क्वणयती--शब्द करती; चरण-अरविन्दम्ू--चरणकमल; लीला-अम्बुजेन--कमल के फूल के साथ क्रीड़ा करती; हरि-सद्यनि-- भगवान् के घर में; मुक्त-दोषा--समस्त दोषों से मुक्त हुई;संलक्ष्यते--दृष्टिगोचर होती है; स्फटिक--संगमरमर; कुड्ये--दीवालों में; उपेत--मिली-जुली; हेम्नि--स्वर्ण ; सम्मार्जती इब--बुहारने वाली की तरह लगने वाली; यत्-अनुग्रहणे--उसकी कृपा पाने के लिए; अन्य--दूसरे; यलः--अत्यधिक सतर्क ।
वैकुण्ठलोकों की महिलाएँ इतनी सुन्दर हैं कि जैसे देवी लक्ष्मी स्वयं है।
ऐसी दिव्यसुन्दरियाँ जिनके हाथ कमलों के साथ क्रौड़ा करते हैं तथा पाँवों के नुपूर झंकार करते हैं कभीकभी उन संगमरमर की दीवालों को जो थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुनहले किनारों से अलंकृत हैं,इसलिए बुहारती देखी जाती है कि उन्हें भगवान् की कृपा प्राप्त हो सके ।
वापीषु विद्युमतटास्वमलामृताप्सुप्रेष्यान्विता निजवने तुलसीभिरीशम् ।
अभ्यर्चती स्वलकमुन्नसमीक्ष्य वक्त्र-मुच्छेषितं भगवतेत्यमताड़ यच्छी: ॥
२२॥
वापीषु--तालाबों में; विद्युम--मूँगे के बने; तटासु--किनारे; अमल--पारदर्शी; अमृत-- अमृत जैसे; अप्सु--जल; प्रेष्या-अन्विता--दासियों से घिरी; निज-वने--अपने बगीचे में; तुलसीभि:--तुलसी से; ईशम्-- परमेश्वर को; अभ्यर्चती--पूजाकरती हैं; सु-अलकम्--तिलक से विभूषित मुखवाली; उन्नसम्--उठी नाक; ईक्ष्य--देखकर; वक्त्रमू--मुख; उच्छेषितम्--चुम्बित होकर; भगवता-- भगवान् द्वारा; इति--इस प्रकार; अमत--सोचा; अड़--हे देवताओ; यत्ू-श्री:--जिसकी सुन्दरता |
लक्ष्मियाँ अपने उद्यानों में दिव्य जलाशयों के मूँगे से जड़े किनारों पर तुलसीदल अर्पितकरके भगवान् की पूजा करती हैं।
भगवान् की पूजा करते समय वे उभरे हुए नाकों से युक्तअपने अपने सुन्दर मुखों के प्रतिबिम्ब को जल में देख सकती हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानोभगवान् द्वारा मुख चुम्बित होने से वे और भी अधिक सुन्दर बन गई हैं।
यन्न ब्रजन्त्यधभिदो रचनानुवादा-च्छुण्वन्ति येडन्यविषया: कुकथा मतिघ्नी: ।
यास्तु श्रुता हतभगै्नृभिरात्तसारा-स्तांस्तान्क्षिपन्त्यशरणेषु तमःसु हन््त ॥
२३॥
यतू--वैकुण्ठ; न--कभी नहीं; ब्रजन्ति--पहुँचते हैं; अध-भिदः--सभी प्रकार के पापों के विनाशक; रचना--सृष्टि का;अनुवादात्--कथन की अपेक्षा; श्रृण्वन्ति--सुनते हैं; ये--जो; अन्य--दूसरों; विषया:--विषय; कु-कथा:--बुरे शब्द; मति-घ्नीः--बुद्धि को मारने वाली; या:--जो; तु--लेकिन; श्रुता:--सुना जाता है; हत-भगैः -- अभागे; नृभि: --मनुष्यों द्वारा;आत्त--छीना हुआ; सारा:--जीवन मूल्य; तान् तानू--ऐसे व्यक्ति; क्षिपन्ति--फेंके जाते हैं; अशरणेषु--समस्त आश्रय सेविहीन; तमःसु--संसार के सबसे अँधेरे भाग में; हन्त--हाय |
यह अतीव शोचनीय है कि अभागे लोग बैकुण्ठलोकों के विषय में चर्चा नहीं करते, अपितुऐसे विषयों में लगे रहते हैं, जो सुनने के लायक नहीं होते तथा मनुष्य की बुद्धि को संभ्रमितकरते हैं।
जो लोग वैकुण्ठ के प्रसंगों का त्याग करते हैं, तथा भौतिक जगत की बातें चलाते हैं,वे अज्ञान के गहनतम अंधकार में फेंक दिये जाते हैं।
येभ्यर्थितामपि च नो नृगतिं प्रपन्नाज्ञानं च तत्त्वविषयं सहधर्म यत्र ।
नाराधनं भगवतो वितरन्त्यमुष्यसम्मोहिता विततया बत मायया ते ॥
२४॥
ये--वे व्यक्ति; अभ्यर्थितामू--वांछित; अपि--निश्चय ही; च--तथा; न: --हमारे ( ब्रह्म तथा अन्य देवताओं ) द्वारा; नू-गतिमू--मनुष्य योनि; प्रपन्ना:--प्राप्त किया है; ज्ञाममू--ज्ञान; च--तथा; तत्त्व-विषयम्--परब्रह्म का विषय; सह-धर्मम्--धार्मिक सिद्धान्तों सहित; यत्र--जहाँ; न--नहीं; आराधनम्ू--पूजा; भगवतः-- भगवान् की; वितरन्ति--सम्पन्न करते हैं;अमुष्य--परमेश्वर का; सम्मोहिता:--मोहग्रस्त; विततया--सर्वव्यापी; बत--हाय; मायया--माया के प्रभाव से; ते--वे |
ब्रह्माजी ने कहा : हे प्रिय देवताओ, मनुष्य जीवन इतना महत्वपूर्ण है कि हमें भी ऐसे जीवनको पाने की इच्छा होती है, क्योंकि मनुष्य रूप में पूर्ण धार्मिक सत्य तथा ज्ञान प्राप्त किया जासकता है।
यदि इस मनुष्य जीवन में कोई व्यक्ति भगवान् तथा उनके धाम को नहीं समझ पातातो यह समझना होगा कि वह बाह्य प्रकृति के प्रभाव से अत्यधिक ग्रस्त है।
यच्च ब्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्यादूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीला: ।
भर्तुर्मिथ: सुयशसः कथनानुराग-वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताड्ाः ॥
२५॥
यतू--वैकुण्ठ; च--तथा; ब्रजन्ति--जाते हैं; अनिमिषाम्--देवताओं का; ऋषभ--मुखिया; अनुवृत्त्या--चरणचिद्नों काअनुसरण करके; दूरे--दूर रहते हुए; यमा:--विधि-विधान; हि--निश्चय ही; उपरि--ऊपर; न:ः--हमको; स्पृहणीय--वांछनीय;शीला:--सद्गुण; भर्तुः--भगवान् के; मिथ:--एक दूसरे के लिए; सुयशसः --ख्याति; कथन--विचार विमर्श या वार्ताओंद्वारा; अनुराग--आकर्षण; वैक्लव्य-- भाव, आनन्द; बाष्प-कलया--आँखों में अश्रु; पुलकी-कृत--काँपते हुए; अड्भा:--शरीर
आनन्दभाव में जिन व्यक्तियों के शारीरिक लक्षण परिवर्तित होते हैं और जो भगवान् कीमहिमा का श्रवण करने पर गहरी-गहरी साँस लेने लगते हैं तथा प्रस्वेदित हो उठते हैं, वेभगवद्धाम को जाते हैं भले ही वे ध्यान तथा अन्य अनुष्ठानों की तनिक भी परवाह न करते हों।
भगवद्धाम भौतिक ब्रह्माण्डों के ऊपर है और ब्रह्मा तथा अन्य देवतागण तक इसकी इच्छा करतेहैं।
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्॑दिव्यं विचित्रविबुधाछयविमानशोचि: ।
आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग-मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥
२६॥
तत्--तब; विश्व-गुरु--ब्रह्माण्ड के गुरु अर्थात् परमेश्वर द्वारा; अधिकृतम्--अधिकृत; भुवन--लोकों का; एक--एकमात्र;वन्द्यमू--पूजा जाने योग्य; दिव्यम्--आध्यात्मिक; विचित्र--अत्यधिक अलंकृत; विबुध-अछय--भक्तों का ( जो दिद्ठानों मेंसर्वश्रेष्ठ हैं )) विमान--वायुयानों का; शोचि:--प्रकाशित; आपु: --प्राप्त किया; पराम्--सर्वोच्च; मुदम्--सुख; अपूर्वम्--अभूतपूर्व; उपेत्य--प्राप्त करके ; योग-माया-- आध्यात्मिक शक्ति द्वारा; बलेन--प्रभाव द्वारा; मुन॒यः--मुनिगण; तत्--वैकुण्ठ;अथो--वह; विकुण्ठम्--विष्णु।
इस तरह सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार नामक महर्षियों ने अपने योग बल से आध्यात्मिक जगत के उपर्युक्त वैकुण्ठ में पहुँच कर अभूतपूर्व सुख का अनुभव किया।
उन्होंनेपाया कि आध्यात्मिक आकाश अत्यधिक अलंकृत विमानों से, जो बैकुण्ठ के सर्वश्रेष्ठ भक्तोंद्वारा चालित थे, प्रकाशमान था और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा अधिशासित था।
तस्मिन्नतीत्य मुनयः षडसज्जमाना:कक्षा: समानवयसावथ सप्तमायाम् ।
देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य-केयूरकुण्डलकिरीटविटड्डूवेषौ ॥
२७॥
तस्मिन्--उस वैकुण्ठ में; अतीत्य--पार कर लेने पर; मुनयः--मुनियों ने; घट्ू--छह; असज्ज माना:--बिना आकृष्ट हुए;कक्षा:--द्वार; समान--बराबर; वयसौ-- आयु; अथ--तत्पश्चात्; सप्तमायाम्--सातवें द्वार पर; देवौ--वैकुण्ठ के दो द्वारपालों;अचक्षत--देखा; गृहीत--लिये हुए; गदौ--गदाएँ; पर-अर्ध्य--सर्वाधिक मूल्यवान; केयूर--बाजूबन्द; कुण्डल--कान केआभूषण; किरीट--मुकुट; विटड्ढू--सुन्दर; वेषौ--वस्त्र |
भगवान् के आवास वैकुण्ठपुरी के छः द्वारों को पार करने के बाद और सजावट से तनिकभी आश्चर्यचकित हुए बिना, उन्होंने सातवें द्वार पर एक ही आयु के दो चमचमाते प्राणियों कोदेखा जो गदाएँ लिए हुए थे और अत्यन्त मूल्यवान आभूषणों, कुण्डलों, हीरों, मुकुटों, वस्त्रोंइत्यादि से अलंकृत थे।
मत्तद्विरफिवनमालिकया निवीतौविन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये ।
वकत्रं भ्रुवा कुटिलया स्फुटनिर्गमाभ्यांरक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥
२८॥
मत्त--उन्मत्त; द्वि-रेफ-- भौरे; बन-मालिकया--ताजे फूलों की माला से; निवीतौ--गर्दन पर लटकते; विन्यस्तवा--चारों ओररखे हुए; असित--नीला; चतुष्टय--चार; बाहु--हाथ; मध्ये--बीच में; वक्त्रमू--मुखमण्डल; भ्रुवा--भौहों से; कुटिलया--टेढ़ी; स्फुट--हुँकारते हुए; निर्गमाभ्याम्-- श्वास; रक्त--लालाभ; ईक्षणेन-- आँखों से; च--तथा; मनाक्ू--कुछ कुछ;रभसम्--चंचल, क्षुब्ध; दधानौ--दृष्टि फेरी |
दोनों द्वारपाल ताजे फूलों की माला पहने थे, जो मदोन्मत्त भौंरों को आकृष्ट कर रही थींऔर उनके गले के चारों ओर तथा उनकी चार नीली बाहों के बीच में पड़ी हुई थीं।
अपनीकुटिल भौहों, अतृप्त नथनों तथा लाल लाल आँखों से वे कुछ कुछ श्षुब्ध प्रतीत हो रहे थे।
द्वार्येतयोर्निविविशुर्मिषतोरपृष्टापूर्वा यथा पुरटवज्ञकपाटिका या: ।
सर्वत्र तेशविषमया मुनय: स्वदृष्टयाये सञ्जरन्त्यविहता विगताभिशड्भा: ॥
२९॥
द्वारि--द्वार पर; एतयो: --दोनों द्वारपाल; निविविशु:--प्रवेश किया; मिषतो:--देखते देखते; अपृष्ठा --बिना पूछे; पूर्वा:--पहलेकी तरह; यथा--जिस तरह; पुरट--स्वर्ण ; वज्ञ--तथा हीरों से बना; कपाटिका:--दरवाजे; या:--जो; सर्वत्र--सभी जगह;ते--वे; अविष-मया--बिना भेदभाव के; मुनय:--मुनिगण; स्व-दृष्टया--स्वेच्छा से; ये--जो; सञ्जलरन्ति--विचरण करते हैं;अविहता:--बिना रोक टोक के; विगत--बिना; अभिश्ढा:--सन्देह।
सनक इत्यादि मुनियों ने सभी जगहों के दरवाजों को खोला।
उन्हें अपने पराये का कोईविचार नहीं था।
उन्होंने खुले मन से स्वेच्छा से उसी तरह साततें द्वार में प्रवेश किया जिस तरह वेअन्य छह दरवाजों से होकर आये थे, जो सोने तथा हीरों से बने हुए थे।
तान्वीक्ष्य वातरशनां श्वतुरः कुमारान्वृद्धान्दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान् ।
वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौतेजो विहस्य भगवत्प्रतिकूलशीलौ ॥
३०॥
तानू--उनको; वीक्ष्य--देखकर; वात-रशनान्--नग्न; चतुर: --चार; कुमारानू--बालकों को; वृद्धान्ू--काफी आयु वाले;दश-अर्ध--पांच वर्ष; वबस:--आयु के लगने वाले; विदित--अनुभव कर चुके थे; आत्म-तत्त्वानू--आत्मा के सत्य को;वेत्रेण-- अपने डंडों से; च-- भी; अस्खलयताम्--मना किया; अ-तत् -अर्हणान्--उनसे ऐसी आशा न करते हुए; तौ--वे दोनोंद्वारपाल; तेज:--यश; विहस्य--शिष्टाचार की परवाह न करके; भगवत्-प्रतिकूल-शीलौ-- भगवान् को नाराज करने वालेस्वभाव वाले।
चारों बालक मुनि, जिनके पास अपने शरीरों को ढकने के लिए वायुमण्डल के अतिरिक्तकुछ नहीं था, पाँच वर्ष की आयु के लग रहे थे यद्यपि वे समस्त जीवों में सबसे वृद्ध थे औरउन्होंने आत्मा के सत्य की अनुभूति प्राप्त कर ली थी।
किन्तु जब द्वारपालों ने, जिनके स्वभावभगवान् को तनिक भी रुचिकर न थे, इन मुनियों को देखा तो उन्होंने उनके यश का उपहासकरते हुए अपने डंडों से उनका रास्ता रोक दिया, यद्यपि ये मुनि उनके हाथों ऐसा बर्ताव पाने केयोग्य न थे।
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमाना:स्व्हनत्तमा ह्ापि हरे: प्रतिहारपा भ्याम् ।
ऊचु: सुहृत्तमदिदृक्षितभड़ ईष-त्कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षा: ॥
३१॥
ताभ्याम्--उन दोनों द्वारपालों द्वारा; मिषत्सु--इधर उधर देखते हुए; अनिमिषेषु--वैकुण्ठ में रहने वाले देवताओं;निषिध्यमाना:--मना किये जाने पर; सु-अर्त्तमा: --सर्वोपयुक्त व्यक्तियों द्वारा; हि अपि--यद्यपि; हरेः-- भगवान् हरि का;प्रतिहार-पाभ्याम्--दो द्वारपालों द्वारा; ऊचु:--कहा; सुहृत्-तम--अत्यधिक प्रिय; दिदृक्षित--देखने की उत्सुकता; भड्ढे--अवरोध; ईषत्ू-- कुछ कुछ; काम-अनुजेन--काम के छोटे भाई ( क्रोध ) द्वारा; सहसा--अचानक; ते--वे ऋषि; उपप्लुत--विश्षुब्ध; अक्षा:--आँखें
इस तरह सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति होते हुए भी जब चारों कुमार अन्य देवताओं के देखतेदेखते श्री हरि के दो प्रमुख द्वारपालों द्वारा प्रवेश करने से रोक दिये गये तो अपने सर्वाधिक प्रियस्वामी श्रीहरि को देखने की परम उत्सुकता के कारण उनके नेत्र क्रोधवश सहसा लाल हो गये।
मुनय ऊचु:को वामिहैत्य भगवत्परिचर्ययोच्चै-स्तद्धर्मिणां निवसतां विषम: स्वभाव: ।
तस्मिन्प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे वांको वात्मवत्कुहकयो: परिशड्डूनीय: ॥
३२॥
मुनयः--मुनियों ने; ऊचु;--कहा; कः--कौन; वाम्--तुम दोनों; इह--वैकुण्ठ में; एत्य--प्राप्त करके; भगवत्-- भगवान् को;परिचर्यया--सेवा द्वारा; उच्चै:--विगत पुण्यकर्मो के द्वारा उन्नति करके; तत्-धर्मिणाम्-- भक्तों के; निवसताम्--वैकुण्ठ में रहतेहुए; विषम:--विरोधी; स्वभाव: --मनो वृत्ति; तस्मिनू-- भगवान् में; प्रशान्त-पुरुषे--निश्चिन्त, चिन्तारहित; गत-विग्रहे--शत्रुविहीन; वाम्ू--तुम दोनों का; कः--कौन; वा--अथवा; आत्म-वत्-- अपने समान; कुहकयो:--द्वैतभाव रखने वाले;परिशड्भूनीय:--विश्वासपात्र न होना।
मुनियों ने कहा : ये दोनों व्यक्ति कौन हैं जिन्होंने ऐसी विरोधात्मक मनोवृत्ति विकसित कररखी है।
ये भगवान् की सेवा करने के उच्चतम पद पर नियुक्त हैं और इनसे यह उम्मीद की जातीहै कि इन्होंने भगवान् जैसे ही गुण विकसित कर रखे होंगे? ये दोनों व्यक्ति वैकुण्ठ में किस तरहरह रहे हैं? इस भगवद्धाम में किसी शत्रु के आने की सम्भावना कहाँ है ? पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्का कोई शत्रु नहीं है।
भला उनका कौन ईर्ष्यालु हो सकता है ? शायद ये दोनों व्यक्ति कपटी हैं,अतएव अपनी ही तरह होने की अन्यों पर शंका करते हैं।
न हान्तरं भगवतीह समस्तकुक्षा-वात्मानमात्मनि नभो नभसीव धीरा: ।
पश्यन्ति यत्र युवयो: सुरलिड्रिनो: किव्युत्पादितं ह्युदरभेदि भयं यतोस्य ॥
३३॥
न--नहीं; हि-- क्योंकि; अन्तरम्- भेद, अन्तर; भगवति-- भगवान् में; हह--यहाँ; समस्त-कुक्षौ --हर वस्तु उदर के भीतर है;आत्मानम्ू--जीव; आत्मनि--परमात्मा में; नभ: --वायु की अल्प मात्रा; नभसि--सम्पूर्ण वायु के भीतर; इब--सहश; धीरा:--विद्वान; पश्यन्ति--देखते हैं; यत्र--जिसमें; युवयो:--तुम दोनों का; सुर-लिड्डिनो:--वैकुण्ठ वासियों की तरह वेश बनाएँ;किम्--कैसे; व्युत्पादितमू--विकसित, जागृत; हि--निश्चय ही; उदर-भेदि--शरीर तथा आत्मा में अन्तर; भयम्--डर; यत:--जहाँ से; अस्य--परमे श्वर का ।
वैकुण्ठलोक में वहाँ के निवासियों तथा भगवान् में उसी तरह पूर्ण सामझझजस्य है, जिस तरहअन्तरिक्ष में वृहत् तथा लघु आकाशों में पूर्ण सामझस्य रहता है।
तो इस सामञझस्य के क्षेत्र मेंभय का बीज क्यों है? ये दोनों व्यक्ति वैकुण्ठवासियों की तरह वेश धारण किये हैं, किन्तुउनका यह असामञझस्य कहाँ से उत्पन्न हुआ ?
तद्ठाममुष्य परमस्य विकुण्ठभर्तु:कर्तु प्रकृष्ठमिह धीमहि मन्दधी भ्याम् ।
लोकानितो ब्रजतमन्तरभावदृष्टययापापीयसस्त्रय इमे रिपवोस्थ यत्र ॥
३४॥
तत्--इसलिए; वाम्--इन दोनों को; अमुष्य--उस; परमस्थ--परम का; विकुण्ठ- भर्तु:--वैकुण्ठ के स्वामी; कर्तुम्ू--प्रदानकरने के लिए; प्रकृष्टमू--लाभ; इह--इस अपराध के विषय में; धीमहि--हम विचार करें; मन्द-धीभ्याम्--मन्द बुद्धि वाले;लोकानू्-- भौतिक जगत को; इतः--इस स्थान ( बैकुण्ठ ) से; ब्रजतम्--चले जाओ; अन्तर-भाव-दद्विधा; दृष्या--देखने केकारण; पापीयस: --पापी; त्रयः--तीन; इमे--ये; रिपव: --शत्रु; अस्य--जीव के; यत्र--जहाँ
अतएव हम विचार करें कि इन दो संदूषित व्यक्तियों को किस तरह दण्ड दिया जाय।
जोदण्ड दिया जाय वह उपयुक्त हो क्योंकि इस तरह से अन्ततः उन्हें लाभ दिया जा सकता है।
चूँकिवे वैकुण्ठ जीवन के अस्तित्व में द्वैध पाते हैं, अत: वे संदूषित हैं और इन्हें इस स्थान से भौतिकजगत में भेज दिया जाना चाहिए जहाँ जीवों के तीन प्रकार के शत्रु होते हैं।
तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरंतं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगै: ।
सद्यो हरेरनुचरावुरु बिभ्यतस्ततू-पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥
३५॥
तेषाम्--चारों कुमारों के; इति--इस प्रकार; ईरितम्--उच्चरित; उभौ--दोनों द्वारपाल; अवधार्य --समझ करके; घोरम्--भयंकर; तम्ू--उस; ब्रह्म-दण्डम्--ब्राह्मण के शाप को; अनिवारणम्--जिसका निवारण न किया जा सके; अस्त्र-पूगैः--किसी प्रकार के हथियार द्वारा; सद्य;ः--तुरन्त; हरेः-- भगवान् के; अनुचरौ -- भक्तगण; उरु-- अत्यधिक; बिभ्यतः -- भयभीत होउठे; तत्-पाद-ग्रहौ--उनके पाँव पकड़ कर; अपतताम्--गिर पड़े; अति-कातरेण--अत्यधिक चिन्ता में
जब वैकुण्ठलोक के द्वारपालों ने, जो कि सचमुच ही भगवद्भक्त थे, यह देखा कि वेब्राह्मणों द्वारा शापित होने वाले हैं, तो वे तुरन्त बहुत भयभीत हो उठे और अत्यधिक चिन्तावशब्राह्मणों के चरणों पर गिर पड़े, क्योंकि ब्राह्मण के शाप का निवारण किसी भी प्रकार केहथियार से नहीं किया जा सकता।
भूयादघोनि भगवद्धिरकारि दण्डोयो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम् ।
मा वोनुतापकलया भगवत्स्मृतिध्नोमोहो भवेदिह तु नौ ब्रजतोरधोध: ॥
३६॥
भूयात्--ऐसा ही हो; अघोनि--पापी के लिए; भगवद्धि:--आपके द्वारा; अकारि--किया गया; दण्ड:--दण्ड; य:--जो;नौ--हमारे सम्बन्ध में; हरेत--नष्ट करे; सुर-हेलनम्--महान् देवताओं की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए; अपि--निश्चय ही;अशेषम्--असीम; मा--नहीं; वः--तुम्हारा; अनुताप--पछतावा; कलया--थोड़ा थोड़ा करके; भगवत्-- भगवान् का; स्मृति-घन:--स्मरण शक्ति का विनाश करते हुए; मोह: --मोह; भवेत्--हो; इह-मूर्ख जीवयोनि में; तु--लेकिन; नौ--हम दोनों का;ब्रजतो:--जा रहे; अध: अध:--नीचे भौतिक जगत को
मुनियों द्वारा शापित होने के बाद द्वारपालों ने कहा : यह ठीक ही हुआ कि आपने हमें आपजैसे मुनियों का अनादर करने के लिए दण्ड दिया है।
किन्तु हमारी प्रार्थना है कि हमारे पछतावेपर आपकी दया के कारण हमें उस समय भगवान् की विस्मृति का मोह न आए जब हम नीचे-नीचे जा रहे हों।
एवं तदैव भगवानरविन्दनाभ:स्वानां विबुध्य सदतिक्रममार्यहद्य:ः ।
तस्मिन्ययौ परमहंसमहामुनीना-मन्वेषणीयचरणौ चलयन्सह श्री: ॥
३७॥
एवम्--इस प्रकार; तदा एव--उसी क्षण; भगवान्-- भगवान्; अरविन्द-नाभ: --जिसकी नाभि से कमल निकला है;स्वानामू--अपने दासों के विषय में; विबुध्य--जानकर; सत्--मुनियों को; अतिक्रमम्--अपमान; आर्य--सदाचारियों की;हृद्यः--प्रसन्नता; तस्मिनू--वहाँ; ययौ--गये; परमहंस--परमहंस; महा-मुनीनाम्--महामुनियों द्वारा; अन्वेषणीय--जो खोजेजाने योग्य हैं; चरणौ--चरणकमल; चलयनू--विचरण करते हुए; सह- श्री:--लक्ष्मीजी सहित |
नाभि से उगे कमल के कारण पद्ानाभ कहलाने वाले तथा सदाचारियों की प्रसन्नता के रूपभगवान् को उन सन्तों के प्रति अपने ही दासों के द्वारा किये गये अपमान का उसी क्षण पता चलगया।
वे अपनी प्रेयसी लक्ष्मी सहित उस स्थान पर उन चरणों से चलकर गये जिनकी खोजसंन्यासी तथा महामुनि करते हैं।
त॑ त्वागतं प्रतिहतौपयिक स्वपुम्भि-स्तेडचक्षताक्षविषयं स्वसमाधिभाग्यम् ।
हंसश्रियोर्व्यजनयो: शिववायुलोल-च्छुभ्रातपत्रशशिकेसरशीकराम्बुम् ॥
३८॥
तम्--उन्हें; तु--लेकिन; आगतम्--आगे आए हुए; प्रतिहत--ले गया; औपयिकम्--साज-सामग्री; स्व-पुम्भि:--अपनेसंगियों द्वारा; ते--उन महामुनियों ( कुमारगण ) ने; अचक्षत--देखा; अक्ष-विषयम्-- अब देखने का विषय; स्व-समाधि-भाग्यम्-- भावमय समाधि द्वारा ही दृश्य; हंस-भ्रियो: -- श्वेत हंसों के समान सुन्दर; व्यजनयो:--चामर ( श्वेत बालों के गुच्छे );केशिव-वायु--अनुकलू वायु; लोलत्--हिलती हुई; शुभ्र-आतपत्र-- श्वेत छाता; शशि--चन््रमा; केसर--मोतियों; शीकर--बूँदें;अम्बुम्--जल की
सनक इत्यादि मुनियों ने देखा कि भगवान् विष्णु जो भावमय समाधि में पहले उनके हृदयोंके ही भीतर दृष्टिगोचर होते थे अब वे साकार रूप में उनके नेत्रों के सामने दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
जब वे छाता तथा चामर जैसी साज-सामग्री सहित अपने संगियों के साथ आगे आये तो श्वेतचामर के बालों के गुच्छे धीमे धीमे हिल रहे थे, मानो दो श्वेत हंस हों तथा अनुकूल हवा से छातेसे लटक रही मोतियों की झालरें भी हिल रही थीं मानो श्वेत पूर्णचन्द्रमा से अमृत की बूँदें टपकरही हों, अथवा हवा के झोंके से बर्फ पिघल रही हो।
कृत्स्नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधामस्नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम् ।
श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया स्व-श्वूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥
३९॥
कृत्स्न-प्रसाद--हर एक को आशीर्वाद देते हुए; सु-मुखम्--शुभ मुखमण्डल; स्पृहणीय--वांछनीय; धाम--आश्रय; स्नेह--स्नेह; अवलोक--देखते हुए; कलया--अंश द्वारा; हदि--हृदय में; संस्पृशन्तम्--स्पर्श करते हुए; श्यामे--साँवले रंग वालेभगवान् के प्रति; पृथौ--चौड़ी; उरसि--छाती पर; शोभितया--सुसज्जित होकर; थ्रिया--लक्ष्मी द्वारा; स्व:--स्वर्गलोक; चूडा-मणिम्--चोटी; सुभगयन्तम्--सौभाग्य का विस्तार करते हुए; इब--सहृश; आत्म-- भगवान्; धिष्ण्यम्-- धाम |
भगवान् सारे आनन्द के आगार हैं।
उनकी शुभ उपस्थिति हर एक के आशीष के लिए हैऔर उनकी स्नेहमयी मुस्कान तथा चितवन हृदय के अन्तरतम को छू लेती है।
भगवान् के सुन्दरशरीर का रंग श्यामल है और उनका चौ वक्षस्थल लक्ष्मीजी का विश्रामस्थल है, जो समस्तस्वर्गलोकों के शिखर रूपी सम्पूर्ण आध्यात्मिक जगत को महिमामंडित करने वाली हैं।
इस तरहऐसा प्रतीत हो रहा था मानो भगवान् स्वयं ही आध्यात्मिक जगत के सौन्दर्य तथा सौभाग्य काविस्तार कर रहे हों।
पीतांशुके पृथुनितम्बिनि विस्फुरन्त्याकाउ्च्यालिभिविरुतया वनमालया च ।
बल्गुप्रकोष्ठवलयं विनतासुतांसेविन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जम् ॥
४०॥
पीत-अंशुके -- पीले वस्त्र से ढका; पृथु-नितम्बिनि--अपने विशाल कूल्हों पर; विस्फुरन्त्या--चमचमाती; काउच्या--करधनीसे; अलिभि: -- भौरों द्वारा; विरुतया--गुंजार करती; वन-मालया--ताजे फूलों की माला से; च--तथा; वल्गु--सुन्दर;प्रकोष्ठ--कलाइयाँ; वलयम्--कंगन; विनता-सुत--विनता पुत्र गरुड़ के; अंसे--कन्धे पर; विन्यस्त--टिकाये; हस्तम्--एकहाथ; इतरेण--दूसरे हाथ से; धुनानम्ू--घुमाते हुए; अब्जम्ू--कमल का फूल।
वे करधनी से अलंकृत थे, जो उनके विशाल कूल्हों को आवृत्त किये हुए पीत वस्त्र परचमचमा रही थी।
वे ताजे फूलों की माला पहने थे, जो गुंजरित भौरों से लक्षित थी।
उनकी सुन्दरकलाइयों पर कंगन सुशोभित थे और वे अपना एक हाथ अपने वाहन गरुड़ के कन्धे पर रखे थेतथा दूसरे हाथ से कमल का फूल घुमा रहे थे।
विद्युत्क्षिपमकरकुण्डलमण्डनाई-गण्डस्थलोन्नसमुखं मणिमत्किरीटम् ।
दोर्दण्डषण्डविवरे हरता परार्ध्य-हारेण कन्धरगतेन च कौस्तुभेन ॥
४१॥
विद्युतू-बिजली; क्षिपत्--प्रकाश करते; मकर--मगर के आकार के; कुण्डल--कान के आभूषण; मण्डन--अलंकरण;अर्ह--जैसाकि उचित है; गण्ड-स्थल--गाल; उन्नस--उठी नाक; मुखम्--मुखमण्डल; मणि-मत्--मणियों से जटित;किरीटम्--मुकुट; दोः-दण्ड--चार बलिष्ट भुजाएँ; षण्ड--समूह; विवरे--बीच में; हरता--मोहने वाला; पर-अर्ध्य--अत्यन्तमूल्यवान; हारेण--हार के द्वारा; कन्धर-गतेन--गर्दन को अलंकृत करते हुए; च--तथा; कौस्तुभेन--कौस्तुभ मणि द्वारा |
उनका मुखमण्डल गालों से सुस्पष्ट हो रहा था, जो उनके बिजली को मात करने वालेमकराकृत कुण्डलों की शोभा को बढ़ा रहे थे।
उनकी नाक उन्नत थी और उनका सिर रललजटित मुकुट से आवृत था।
उनकी बलिष्ठ भुजाओं के मध्य एक मोहक हार लटक रहा था और उनकीगर्दन कौस्तुभ मणि से विभूषित थी।
अतन्रोपसृष्टमिति चोत्स्मितमिन्दिराया:स्वानां धिया विरचितं बहुसौष्ठवाढ्यम् ।
महां भवस्य भवतां च भजन्तमड़ूंनेमुर्निरीक्ष्य न वितृप्तदशो मुदा कै: ॥
४२॥
अत्र--यहाँ, सौन्दर्य के मामले में; उपसूष्टमू--पराजित; इति--इस प्रकार; च--तथा; उत्स्मितम्ू--उसकी सुन्दरता का गर्व;इन्दिराया:--लक्ष्मीजी का; स्वानामू-- अपने भक्तों का; धिया--बुद्धि द्वारा; विरचितम्-- ध्यायित; बहु-सौष्ठव-आढ्यम् --अत्यधिक सुंदर ढंग से अलंकृत किया गया; महाम्--मेरा; भवस्य--शिवजी का; भवताम्--तुम सबों का; च--तथा;भजन्तम्--पूजित; अड्डभम्-- श्रीविग्रह, स्वरूप; नेमु;--नमस्कार किया; निरीक्ष्य--देखकर; न--नहीं; वितृप्त--तृप्त; हशः --आँखें; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक; कैः--उनके सिरों से
नारायण का अनुपम सौन्दर्य उनके भक्तों की बुद्धि द्वारा कई गुना वर्धित होने से इतनाआकर्षक था कि वह अतीव सुन्दरी लक्ष्मी देवी के गर्व को भी पराजित कर रहा था।
हेदेवताओ, इस तरह प्रकट हुए भगवान् मेरे द्वारा, शिव जी द्वारा तथा तुम सबों के द्वारा पूजनीयहैं।
मुनियों ने उन्हें अतृप्त आँखों से आदर अर्पित किया और प्रसन्नतापूर्वक उनके चरणकमलों परअपना अपना सिर झुकाया।
'तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-किझ्लल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायु: ।
अन्तर्गत: स्वविवरेण चकार तेषांसड्झ्लो भमक्षरजुषामपि चित्ततन्वो: ॥
४३॥
तस्य--उसका; अरविन्द-नयनस्यथ--कमलनेत्र भगवान् का; पद-अरविन्द--चरणकमलों का; किज्ञल्क-- अँगूठों समेत;मिश्र--मिश्रित; तुलसी--तुलसी दल; मकरन्द--सुगन्धि; वायु:--मन्द पवन; अन्त:ः-गत:-- भीतर प्रविष्ट हुए; स्व-विवरेण--अपने नथुनों से होकर; चकार--बना दिया; तेषाम्--कुमारों के; सड्क्षोभम्--परिवर्तन के लिए क्षोभ; अक्षर-जुषाम्--निर्विशेष ब्रह्म-साक्षात्कार के प्रति अनुरक्त; अपि--यद्यपि; चित्त-तन्वो: --मन तथा शरीर दोनों में |
जब भगवान् के चरणकमलों के अँगूठों से तुलसीदल की सुगन्ध ले जाने वाली मन्द वायुउन मुनियों के नथुनों में प्रविष्ट हुई तो उन्हें शरीर तथा मन दोनों में परिवर्तन का अनुभव हुआयद्यपि वे निर्विशेष ब्रह्म ज्ञान के प्रति अनुरक्त थे।
ते वा अमुष्य वदनासितपदाकोश-मुद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् ।
लब्धाशिष: पुनरवेक्ष्य तदीयमडप्रि-इन्द्दं नखारुणमणिश्रयणं निदध्यु: ॥
४४॥
ते--वे मुनि; वै--निश्चय ही; अमुष्य-- भगवान् का; वदन--मुख; असित--नीला; पद्मय--कमल का; कोशम्-- भीतरी भाग;उद्दीक्षष--ऊपर देखकर; सुन्दर-तर--अधिक सुन्दर; अधर--होठ; कुन्द--चमेली का फूल; हासम्--हँसी; लब्ध--प्राप्तकिया; आशिष:--जीवन के लक्ष्य; पुन:--फिर; अवेक्ष्य--नीचे देखकर; तदीयम्ू--उसका; अड्प्रि-द्वन्द्मू--चरणकमलों कीजोड़ी; नख--नाखून; अरुण--लाल; मणि--पन्ना; श्रयणम्-- आश्रय; निदध्यु;--ध्यान किया।
उन्हें भगवान् का सुन्दर मुख नीले कमल के भीतरी भाग जैसा प्रतीत हुआ और भगवान् कीमुसकान खिले हुए चमेली के फूल सी प्रतीत हुईं।
मुनिगण भगवान् का मुख देखकर पूर्णतयासन्तुष्ट थे और जब उन्होंने उनको अधिक देखना चाहा तो उन्होंने उनके चरणकमलों के नाखूनोंको देखा जो पन्ना जैसे थे।
इस तरह वे भगवान् के शरीर को बारम्बार निहार रहे थे, अतः उन्होंनेअन्त में भगवान् के साकार रूप का ध्यान किया।
पुंसां गतिं मृगयतामिह योगमार्गैं-धर्यानास्पदं बहुमतं नयनाभिरामम् ।
पौंस्न॑ वपुर्दर्शयानमनन्यसिद्धै-रौत्पत्तिके: समगृणन्युतमष्टभोगै: ॥
४५॥
पुंसामू--उन पुरुषों की; गतिम्--मुक्ति; मृगयताम्--ढूँढ रहे; हह--इस जगत में; योग-मार्गैं:--अष्टांग योग विधि के द्वारा;ध्यान-आस्पदम्-- ध्यान का विषय; बहु--महान् योगियों द्वारा; मतमू--संस्तुत; नयन--नेत्र; अभिरामम्--सुहावने; पौंस्नम्--मानव; वपु:--रूप; दर्शयानम्-- प्रदर्शित करते हुए; अनन्य--अन्यों द्वारा नहीं; सिद्धैः--सिद्ध; औत्पत्तिके:--शाश्वत उपस्थित;समगृणन्-- प्रशंसित; युतम्-- भगवान्, जो समन्वित है; अष्ट-भोगैः--आठ प्रकार की सिद्धियों से |
यही भगवान् का वह रूप है, जिसका ध्यान योगविधि के अनुयायी करते हैं और ध्यान मेंयह योगियों को मनोहर लगता है।
यह काल्पनिक नहीं, अपितु वास्तविक है जैसा कि महान्योगियों ने सिद्ध किया है।
भगवान् आठ प्रकार की सिद्ध्द्रियों से पूर्ण हैं, किन्तु अन्यों के लिए येपूर्णरूप में सम्भव नहीं हैं।
कुमारा ऊचु:योअन्तर्हितो हृदि गतोपि दुरात्मनां त्वंसोदैव नो नयनमूलमनन्त राद्धः ।
यहाँव कर्णविवरेण गुहां गतो नःपित्रानुवर्णितरहा भवदुद्धवेन ॥
४६॥
कुमारा: ऊचु:--कुमारों ने कहा; यः--जो; अन्तर्हित:--अव्यक्त; हृदि--हृदय में; गतः--आसीन है; अपि--यद्यपि;दुरात्मनाम्-- धूर्तों को; त्वमू--तुम; सः--वह; अद्य--आज; एव--निश्चय ही; न:--हमारा; नयन-मूलम्--आमने-सामने;अनन्त--हे अनन्त; राद्ध:--प्राप्त किया; यहिं-- जब; एव--निश्चय ही; कर्ण-विवरेण --कानों से होकर; गुहाम्--बुद्धि;गतः--प्राप्त किया है; नः--हमको; पित्रा--पिता के द्वारा; अनुवर्णित--वर्णन किये गये; रहा:--रहस्य; भवत््-उद्धवेन--आपके प्राकट्य से।
कुमारों ने कहा : हे प्रिय प्रभु, आप धूर्तों के समक्ष प्रकट नहीं होते यद्यपि आप हर एक केहृदय के भीतर आसीन रहते हैं।
किन्तु जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है, हम आपको अपने समक्ष देखरहे हैं यद्यपि आप अनन्त हैं।
हमने आपके विषय में अपने पिता ब्रह्मा के द्वारा अपने कानों से जोकथन सुने हैं, वे अब आपके कृपापूर्ण प्राकट्य से वस्तुतः साकार हो गए हैं।
त॑ त्वां विदाम भगवन्परमात्मतत्त्वंसत्त्वेन सम्प्रति रतिं रचयन्तमेषाम् ।
यत्तेडनुतापविदितैर्दढ भक्तियोगै-रुदग्रन्थयो हृदि विदुर्मुन॒यो विरागा: ॥
४७॥
तम्--उसको; त्वामू--तुमको; विदाम--हम जानते हैं; भगवन्--हे भगवान्; परम्ू-- परम; आत्म-तत्त्वम्-परब्रह्म; सत्त्वेन--आपके सतोगुणी रूप के द्वारा; सम्प्रति--अब; रतिम्--ईश प्रेम; रचयन्तम्--उत्पन्न करते हुए; एषाम्--उन सबों का; यत्--जो; ते--तुम्हारी; अनुताप--कृपा; विदितैः--समझ गया; हृढ--अविचल; भक्ति-योगै:--भक्ति द्वारा; उद्ग्रन्थय:--अनुरक्ति सेरहित, भौतिक बन्धन से मुक्त; हृदि--हृदय में; विदु;:--समझ गये; मुनयः--मुनिगण; विरागा: --भौतिक जीवन में रूचि न रखनेबाले।
हम जानते हैं कि आप परम सत्य अर्थात् परमेश्वर हैं, जो अपने दिव्य रूप को अकलुषित( विशुद्ध ) सतोगुण में प्रकट करते हैं।
आपका यह दिव्य शाश्वत रूप आपकी कृपा से हीअविचल भक्ति के द्वारा उन मुनियों द्वारा समझा जाता है जिनके हृदय भक्तिमयी विधि से शुद्धकिये जा चुके हैं।
नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादकिम्वन्यदर्पितभयं श्रुव उन्नयैस्ते ।
येडड़ त्वदड्घ्रिशरणा भवतः कथाया:कीर्तन्यतीर्थथशस: कुशला रसज्ञा: ॥
४८॥
न--नहीं; आत्यन्तिकम्--मुक्ति; विगणयन्ति--परवाह करते हैं; अपि-- भी; ते--वे; प्रसादम्ू--वर; किम् उ--क्या कहा जाय;अन्यत्-- अन्य भौतिक सुख; अर्पित--दिया गया; भयम्-- भय; भ्रुव:--भौंहों का; उन्नयै:ः--उठाने से; ते--तुम्हारे; ये--वेभक्त; अड़--हे भगवान्; त्वत्--तुम्हारे; अद्धघ्रि-- चरणकमल; शरणा: --शरण लिये हुए; भवतः--आपकी; कथाया: --कथाएँ; कीर्तन्य--कीर्तन के योग्य; तीर्थ--शुद्ध यशसः--यश; कुशला: --अत्यन्त पटु; रस-ज्ञाः:--रस के ज्ञाता।
वे व्यक्ति जो वस्तुओं को यथारूप में समझने में अत्यन्त पटु और सर्वाधिक बुद्धिमान हैंअपने को भगवान् के शुभ कार्यो तथा उनकी लीलाओं की कथाओं को सुनने में लगाते हैं, जोकीर्तन तथा श्रवण के योग्य होती हैं।
ऐसे व्यक्ति सर्वोच्च भौतिक वर की, अर्थात् मुक्ति की भीपरवाह नहीं करते, स्वर्गलोक के भौतिक सुख जैसे कम महत्वपूर्ण बरों के विषय में तो कुछकहना ही नहीं।
काम भव: स्ववृजिनैर्निरयेषु न: स्ता-च्वेतोइलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत ।
वाचश्च नस्तुलसिवद्यदि तेड्प्रिशो भा:पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्श्र: ॥
४९॥
'कामम्--वांछित; भव:ः--जन्म; स्व-वृजिनै:--अपने ही पाप कर्मों से; निरयेषु--निम्न जन्मों में; नः--हमारा; स्तातू--ऐसा हीहो; चेत:--मन; अलि-वत्-- भौरे सहश; यदि--यदि; नु--हो सकता है; ते--तुम्हारे; पदयो:--चरणकमलों पर; रमेत--लगेरहते हैं; वाच:--शब्द; च--तथा; नः--हमारे; तुलसि-वत्-- तुलसी दल के समान; यदि--यदि; ते--तुम्हारे; अड्प्रि--चरणकमलों पर; शोभा: --सजाये गये; पूर्येत--पूरित हो जाते हैं; ते--तुम्हारे; गुण-गणै:--दिव्य गुणों के द्वारा; यदि--यदि;कर्ण-रन्ध्र:--कान के छेद |
हे प्रभु, हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि जब तक हमारे हृदय तथा मन आपके चरणकमलोंकी सेवा में लगे रहें, हमारे शब्द ( आपके कार्यों के कथन से ) सुन्दर बनते रहें जिस तरह आपकेचरणकमलों पर चढ़ाये गये तुलसीदल सुन्दर लगने लगते हैं तथा जब तक हमारे कान आपकेदिव्य गुणों के कीर्तन से सदैव पूरित होते रहें, तब तक आप जीवन की जिस किसी भी नारकीयस्थिति में हमें जन्म दे सकते हैं।
प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूप॑तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दशो नः ।
तस्मा इदं भगवते नम इद्धिधेमयोअनात्मनां दुरूदयो भगवान्प्रतीत: ॥
५०॥
प्रादुश्षकर्थ--आपने प्रकट किया है; यत्--जो; इृदम्--यह; पुरुहूत--हे अतीव पूज्य; रूपम्--नित्यरूप; तेन--उस रूप से;ईश-हे प्रभु; निर्वृतिमू--सन्तोष; अवापु:--प्राप्त किया; अलम्--इतना अधिक; दृशः--दृष्टि; न:ः--हमारी; तस्मै--उस;इदम्--यह; भगवते-- भगवान् को; नम:--नमस्कार; इत्--केवल; विधेम--अर्पित करें; यः--जो; अनात्मनाम्--अल्पज्ञोंको; दुरुदयः--देखे नहीं जा सकते; भगवान्--भगवान्; प्रतीत:--हमारे द्वारा देखे गए हैं।
अतः हे प्रभु, हम भगवान् के रूप में आपके नित्य स्वरूप को सादर नमस्कार करते हैं जिसे आपने इतनी कृपा करके हमारे समक्ष प्रकट किया है।
आपका परम नित्य स्वरूप अभागे अल्पज्ञव्यक्तियों द्वारा नहीं देखा जा सकता, किन्तु हम इसे देखकर अपने मन में तथा दृष्टि में अत्यधिकतुष्ट हैं।
अध्याय सोलह: वैकुंठ के दो द्वारपाल, जया और विजया, ऋषियों द्वारा शापित
3.16ब्रह्मोवाचइति तदगृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम् ।
प्रतिनन्द्यजगादेदं विकुण्ठनिलयो विभु: ॥
१॥
ब्रह्मा उबाच--ब्रह्माजी ने कहा; इति--इस प्रकार; ततू--वाणी; गृणताम्-- प्रशंसा करते हुए; तेषाम्--उन; मुनीनाम्-चारोंमुनियों का; योग-धर्मिणाम्-ब्रह्म के साथ युक्त होने में लगे हुए; प्रतिनन्य --बधाई देकर; जगाद--कहा; इृदम्--ये शब्द;विकुण्ठ-निलय:--जिनका धाम चिन्ता से रहित है; विभु:-- भगवान् ने।
ब्रह्मजी ने कहा : इस तरह मुनियों को उनके मनोहर शब्दों के लिए बधाई देते हुएभगवद्धाम में निवास करनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने इस प्रकार कहा।
श्रीभगवानुवाचएतौ तौ पार्षदी मह्ं जयो विजय एव च ।
कदर्थीकृत्य मां यद्वो बह्क्रातामतिक्रमम् ॥
२॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; एतौ--ये दोनों; तौ--वे; पार्षदौ--परिचर; महाम्--मेरे; जयः--जय नामक;विजय:--विजय नामक; एब--निश्चय ही; च--तथा; कदर्थी-कृत्य--अवहेलना करके; माम्--मुझको; यत्--जो; वः--तुम्हारे विरुद्ध; बहु-- अत्यधिक; अक्राताम्--किया है; अतिक्रमम्--अपराध |
भगवान् ने कहा : जय तथा विजय नामक मेरे इन परिचरों ने मेरी अवज्ञा करके आपके प्रतिमहान् अपराध किया है।
यस्त्वेतयोर्धृतो दण्डो भवद्धिर्मामनुव्रतेः ।
स एवानुमतोउस्माभिमुनयो देवहेलनात् ॥
३॥
यः--जो; तु--लेकिन; एतयो:--जय तथा विजय के विषय में; धृत:--दिया गया; दण्ड:--दण्ड; भवद्धि:--आपके द्वारा;मामू--मुझको; अनुव्रतेः -- भक्ति करने वाले; सः--वह; एव--निश्चय ही; अनुमतः-- अनुमोदित; अस्माभि:--मेरे द्वारा;मुनयः--हे मुनियो; देव--आपके विरुद्ध; हेलनातू--अपराध के कारण
हे मुनियो, आप लोगों ने उन्हें जो दण्ड दिया है उसका मैं अनुमोदन करता हूँ, क्योंकि आपमेरे भक्त हैं।
तद्ठः प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म देव परं हि मे ।
तद्धीत्यात्मकृतं मन्ये यत्स्वपुम्भिरसत्कृता: ॥
४॥
तत्--इसलिए; वः--तुम मुनियों; प्रसादयामि-- तुमसे क्षमा चाहता हूँ; अद्य--अभी; ब्रह्म--ब्राह्मण; दैवम्-- अत्यन्त प्रियव्यक्ति; परमू--सर्वोच्च; हि-- क्योंकि; मे--मेरा; ततू--वह अपराध; हि-- क्योंकि ; इति--इस प्रकार; आत्म-कृतम्--मेरे द्वाराकिया हुआ; मन्ये--मानता हूँ; यत्--जो; स्व-पुम्भि: --मेंरे सेवकों द्वारा; असत्-कृता:--अनादरित |
मेरे लिए ब्राह्मण सर्वोच्च तथा सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति है।
मेरे सेवकों द्वारा दिखाया गयाअनादर वास्तव में मेरे द्वारा प्रदर्शित हुआ है, क्योंकि वे द्वारपाल मेरे सेवक हैं।
इसे मैं अपने द्वाराकिया गया अपराध मानता हूँ, इसलिए मैं घटी हुई इस घटना के लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ।
यन्नामानि च गृह्ाति लोको भृत्ये कृतागसि ।
सोसाधुवादस्तत्कीर्ति हन्ति त्वचमिवामय: ॥
५॥
यत्--जिसके; नामानि--नाम; च--तथा; गृह्ाति--ग्रहण करता है; लोक:--सामान्य जन; भृत्ये--जब एक सेवक; कृत-आगसि--कुछ गलती कर चुकता है; सः--वह; असाधु-वाद:ः--दोष; तत्--उस व्यक्ति की; कीर्तिमू-- ख्याति; हन्ति--नष्टकरता है; त्वचम्--चमड़ी; इब--सहश; आमय:--कोढ़
किसी सेवक द्वारा किये गये गलत कार्य से सामान्य तौर पर लोग उसके स्वामी को दोष देतेहैं जिस तरह शरीर के किसी भी अंग पर श्वेत कुष्ट के धब्बे सारे चमड़ी को दूषित बना देते हैं।
यस्यथामृतामलयश: श्रवणावगाहःसद्यः पुनाति जगदाश्चपचाद्विकुण्ठ: ।
सोहं भवद्भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्ति-शिछन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम्ू ॥
६॥
यस्य--जिसका; अमृत-- अमृत; अमल--दूषणरहित; यश: --यश, महिमा; श्रवण--सुनना; अवगाह: --प्रविष्ट करना;सद्यः--तुरन्त; पुनाति--पवित्र करती है; जगत्--ब्रह्माण्ड; आश्व-पचात्--कुत्ता-भक्षक तक; विकुण्ठ:--चिन्तारहित; सः--वह व्यक्ति; अहम्ू-मैं हूँ; भवद्भ्य:--आप से; उपलब्ध--प्राप्त; सु-तीर्थ--तीर्थयात्रा का सर्वोत्तम स्थान; कीर्ति:--यश;छिन्द्यामू--काट देगा; स्व-बाहुमू--अपनी भुजा; अपि--भी; वः--तुम्हारे प्रति; प्रतिकूल-वृत्तिम्ू--शत्रुवत् कार्य करते हुए
सम्पूर्ण संसार में कोई भी व्यक्ति, यहाँ तक कि चण्डाल भी जो कुत्ते का मांस पका करऔर खा कर जीता है, वह भी तुरन्त शुद्ध हो जाता है यदि वह मेरे नाम, यश आदि के गुणगानरूपी अमृत में कान से सुनते हुए स्नान करता है।
अब आप लोगों ने निश्चित रूप से मेरासाक्षात्कार कर लिया है, अतएव मैं अपनी ही भुजा को काटकर अलग करने में तनिक संकोचनहीं करूँगा, यदि इसका आचरण आपके प्रतिकूल लगे।
यत्सेवया चरणपद्पवित्ररेणुं सद्य: क्षताखिलमलं प्रतिलब्धशीलम् ।
न श्रीर्विरक्तमपि मां विजहाति यस्या:प्रेक्षालवार्थ इतरे नियमान्वहन्ति ॥
७॥
यत्--जिसकी; सेवया--सेवा द्वारा; चरण--पाँव; पद्य--कमल; पवित्र--पवित्र; रेणुम्-- धूल; सद्यः--तुरन्त; क्षत--पोंछीगई; अखिल--समस्त; मलम्--पापों को; प्रतिलब्ध--अर्जित; शीलम्ू--स्वभाव; न--नहीं; श्री:--लक्ष्मीजी; विरक्तम्--कोईआसक्ति न रखना; अपि--यद्यपि; माम्--मुझको; विजहाति--छोड़ती हैं; यस्या:-- लक्ष्मी का; प्रेक्षा-लव-अर्थ: --थोड़ी भीकृपा पाने के लिए; इतरे--अन्य, यथा ब्रह्मा जैसे; नियमान्--पवित्र ब्रतों को; वहन्ति--पालन करते हैं।
भगवान् ने आगे कहा : चूँकि मैं अपने भक्तों का सहायक हूँ, इसलिए मेरे चरणकमल इतनेपवित्र बन चुके हैं कि वे तुरन्त ही सारे पापों को धो डालते हैं और मुझे ऐसा स्वभाव प्राप्त होचुका है कि देवी लक्ष्मी मुझे छोड़ती नहीं, यद्यपि उसके प्रति मेरा कोई लगाव नहीं है और अन्यलोग उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते हैं तथा उसकी रंचमात्र कृपा पाने के लिए भी पवित्र व्रतरखते हैं।
नाह तथादि यजमानहविर्वितानेएच्योतद्धृतप्लुतमदन्हुतभुड्मुखेन ।
यद्वाह्मणस्य मुखतश्चरतो नुघासंतुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकै: ॥
८ ॥
न--नहीं; अहम्--मैं; तथा--दूसरी ओर; अद्धि--खाता हूँ; यजमान--यज्ञकर्ता द्वारा; हविः--आहुति; विताने--यज्ञ-अग्नि में;श्च्योतत्--डालते हुए; घृत--घी; प्लुतमू--मिश्रित; अदन्--खाते हुए; हुत-भुक्ू--यज्ञ की अग्नि; मुखेन--मुँह से; यत्--क्योंकि; ब्राह्मणस्थ--ब्राह्मण के; मुखतः --मुख से; चरत:--कार्य करते हुए; अनुघासम्ू--कौर ; तुष्टस्य--तुष्ट; मयि-- मेरेलिए; अवहितैः--अर्पित किया गया; निज--अपना; कर्म--कार्यकलाप; पाकैः-- फलों के द्वारा यज्ञाग्नि में
जो मेरे ही निजी मुखों में से एक है, यज्ञकर्ताओं के द्वारा डाली गई आहुतियों मेंमुझे उतना स्वाद नहीं मिलता जितना कि घी से सिक्त उन व्यंजनों से जो उन ब्राह्मणों के मुख मेंअर्पित किये जाते हैं जिन्होंने अपने कर्मों के फल मुझे अर्पित कर दिये हैं और जो मेरे प्रसाद सेसदैव तुष्ट रहते हैं।
येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग-मायाविभूतिरमलाड्ध्रिरज: किरीटैः ।
विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भःसद्यः पुनाति सहचन्द्रललामलोकान् ॥
९॥
येषाम्--ब्राह्मणों का; बिभर्मि-- धारण करता हूँ; अहम्ू--मैं; अखण्ड--अटूट; विकुण्ठ--बिना अवरोध के; योग-माया--अन्तरंगा शक्ति; विभूति:--ऐश्वर्य; अमल--शुद्ध; अड्घ्रि--पाँवों की; रज:--धूलि; किरीटैः --मेरे मुकुट पर; विप्रान्--ब्राह्मण; तु--लेकिन; कः --कौन; न--नहीं; विषहेत--ले जाते हैं; यत्-- भगवान् का; अर्हण-अम्भ:--पाँवों को धोने से प्राप्तजल; सद्यः --तुरन्त; पुनाति--पवित्र बनाता है; सह--सहित; चन्द्र-ललाम--शिवजी; लोकान्--तीनों लोकों को
मैं अपनी अबाधित अन्तरंगा शक्ति का स्वामी हूँ तथा गंगा जल मेरे पाँवों को धोने सेनिकलता हुआ जल है।
वही जल जिसे शिवजी अपने सिर पर धारण किए हुए हैं, उनको तथातीनों लोकों को पवित्र करता है।
यदि मैं वैष्णव के पैरों की धूल को अपने सिर पर धारण करूँ,तो मुझे ऐसा करने से कौन मना करेगा ?
ये मे तनूद्विजवरान्दुहतीर्मदीयाभूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्धया ।
द्रक्ष्यन्त्यघक्षतह्॒शो हाहिमन्यवस्तान्गृश्ना रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतु: ॥
१०॥
ये--जो पुरुष; मे--मेरा; तनू:--शरीर; द्विज-वरान्--ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ; दुहती: --गौवें; मदीया: --मुझसे सम्बन्धित;भूतानि--जीव; अलब्ध-शरणानि--आश्रयविहीन; च--तथा; भेद-बुद्धया--भिन्न मानते हुए; द्रक्ष्यन्ति--देखते हैं; अध--पापके द्वारा; क्षत--क्षतिग्रस्त; हशः--निर्णय की शक्ति; हि-- क्योंकि; अहि--सर्पवत्; मन्यव:--क्रुद्ध; तान्--उन्हीं व्यक्तियों को;गृक्नाः--गीध जैसे दूत; रुषा--क्रोध से; मम--मेरे; कुषन्ति--नोच डालते हैं; अधिदण्ड-नेतु:--दण्ड के अधीक्षक, यमराजकाब्राह्मण, गौवें तथा निस्सहाय प्राणी मेरे ही शरीर हैं।
जिन लोगों की निर्णय शक्ति अपने पापके कारण क्षतिग्रस्त हो चुकी है वे इन्हें मुझसे पृथक् रूप में देखते हैं।
वे क्रुद्ध सर्पों के समान हैंऔर वे पापी पुरुषों के अधीक्षक यमराज के गीध जैसे दूतों की चोचों से क्रोध में नोच डालेजाते हैं।
ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतो<र्चयन्त-स्तुष्यद्धृद: स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्रा: ।
वाण्यानुरागकलयात्मजवद्गृणन्तःसम्बोधयन्त्यडमिवाहमुपाहतस्तैः ॥
११॥
ये--जो व्यक्ति; ब्राह्मणान्ू--ब्राह्मणजन; मयि--मुझमें; धिया--बुद्धिपूर्वक; क्षिपत:ः--कटुवचन बोलते हुए; अर्चयन्त: --आदर करते हुए; तुष्यत्--हर्षित हुए; हृद:ः --हृदय; स्मित--हँसी; सुधा-- अमृत; उक्षित--नम; पद्म-- कमल सहश; वकक्त्रा:--मुखमंडल; वाण्या--शब्दों से; अनुराग-कलया--प्रेम करते हुए; आत्मज-बत्--पुत्र के समान; गृणन्त:--प्रशंसा करते हुए;सम्बोधयन्ति--सान्त्वना देते हैं; अहम्ू--मैं; इब--सहृश; अहम्--मैं; उपाहृत:--नियंत्रित होकर; तैः--उनके द्वारा
दूसरी ओर ऐसे लोग जो हृदय में पुलकित रहते हैं और अमृततुल्य हँसी से आलोकित अपने'कमलमुखों से ब्राह्मणों द्वारा कटु वचन बोलने पर भी उनका आदर करते हैं, वे मुझे मोह लेते हैं।
वे ब्राह्मणों को मुझ जैसा ही मानते हैं और प्रियवचनों से उनकी प्रशंसा करके उन्हें उसी तरहशान्त करते हैं जिस तरह पुत्र अपने क्रुद्ध पिता को प्रसन्न करता है या मैं तुम लोगों को शान्त कररहा हूँ।
तन्मे स्वभर्तुरवसायमलक्षमाणौयुष्मद्व्यतिक्रमगतिं प्रतिपद्य सद्य: ।
भूयो ममान्तिकमितां तदनुग्रहो मेयत्कल्पतामचिरतो भृतयोरविवास: ॥
१२॥
तत्--इसलिए; मे--मेरा; स्व-भर्तु:--अपने स्वामी का; अवसायम्--मनोभाव; अलक्षमाणौ--न जानते हुए; युष्मत् -- तुम्हारेविरुद्ध; व्यतिक्रम--अपराध; गतिम्--फल; प्रतिपद्य--पाकर; सद्य:--तुरन्त; भूय:ः--पुन:; मम अन्तिकम्--मेरे निकट;इताम्-- प्राप्त करते हैं; तत्--वह; अनुग्रह:--कृपा; मे--मुझको; यत्--जो; कल्पताम्--व्यवस्थित हो; अचिरत:ः--शीघ्र ही;भूतयो:--इन दोनों सेवकों का; विवास:--निर्वासन, देश निकाला।
मेरे इन सेवकों ने अपने स्वामी के मनोभाव को न जानते हुए आपके प्रति अपराध किया है,इसलिए मैं इसे अपने प्रति किया गया अनुग्रह मानूँगा यदि आप यह आदेश दें कि वे मेरे पासशीघ्र ही लौट आयें तथा मेरे धाम से उनका निर्वासन-काल शीघ्र ही समाप्त हो जाय।
ब्रह्मोवाचअथ तसस््योशतीं देवीमृषिकुल्यां सरस्वतीम् ।
नास्वाद्य मन्युदष्टानां तेषामात्माप्यतृप्यत ॥
१३॥
ब्रह्मा--ब्रह्माजी ने; उबाच--कहा; अथ--अब; तस्य--परमे श्वर का; उशतीम्--मनोहर; देवीम्--चमकते; ऋषि-कुल्याम्--वैदिक स्तोत्रों की श्रृंखला के समान; सरस्वतीमू--वाणी; न--नहीं; आस्वाद्य--सुनकर; मन्यु--क्रोध; दष्टानामू--काटा गया;तेषाम्--उन मुनियों के; आत्मा--मन; अपि--यद्यपि; अतृप्यत--तुष्ट किया
ब्रह्म ने आगे कहा : यद्यपि मुनियों को क्रोध रूपी सर्प ने डस लिया था, किन्तु उनकीआत्माएँ भगवान् की उस मनोहर तथा तेजपूर्ण वाणी को सुनकर अघाई नहीं थीं जो वैदिक मंत्रोंकी श्रृंखला के समान थी।
सतीं व्यादाय श्रृण्वन्तो लघ्वीं गुर्वर्थगह्रराम् ।
विगाह्मागाधगम्भीरां न विदुस्तच्चिकीर्षितम् ॥
१४॥
सतीम्--सर्वोत्तम; व्यादाय-दध्यानपूर्वक सुनकर; श्रृण्वन्तः--सुनते हुए; लघ्वीम्--ठीक से रचा हुआ; गुरु--गहन; अर्थ--आशय; गह्नाम्ू--समझ पाना कठिन; विगाह्म--मनन करके; अगाध--गहरा; गम्भीराम्--गम्भीर; न--नहीं; विदु: --समझतेहैं; तत्-परमे श्वर का; चिकीर्षितम्ू--मनोभाव |
भगवान् की उत्कृष्ट वाणी इसके गहन आशय तथा इसके अत्यधिक गहन महत्व के कारणसमझी जाने में कठिन थी।
मुनियों ने उसे कान खोलकर सुना तथा उस पर मनन भी किया।
किन्तु सुनकर भी वे यह नहीं समझ पाये कि भगवान् कया करना चाह रहे हैं।
ते योगमाययारब्धपारमेष्ठयमहोदयम् ।
प्रोचु: प्राज्ललयो विप्रा: प्रहष्टा: क्षुभितत्वच: ॥
१५॥
ते--वे; योग-मायया--उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा; आरब्ध--प्रकट किया गया; पारमेष्ठयय-- भगवान् का; महा-उदयम् --बहुमुखी यश; प्रोचु:--बोले; प्रा्ललय:ः--हाथ जोड़कर; विप्रा:--चारों ब्राह्मण; प्रहष्टा:--अत्यधिक प्रसन्न; क्षुभित-त्वच: --रोमांचित |
तो भी चारों ब्राह्मण मुनि उन्हें देखकर अतीव प्रसन्न थे और उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीरों मेंरोमांच का अनुभव किया।
तब उन भगवान् से जिन्होंने अपनी योगमाया से परम पुरुष कीबहुमुखी महिमा को प्रकट किया था, वे इस प्रकार बोले।
ऋषय ऊचु:न बय॑ भगवन्विदास्तव देव चिकीर्षितम् ।
कृतो मेजनुग्रहश्चेति यदध्यक्ष: प्रभाषसे ॥
१६॥
ऋषय:--ऋषियों ने; ऊचु:--कहा; न--नहीं; वयम्ू--हम; भगवन्--हे भगवान्; विदा: --जानते थे; तब--तुम्हारा; देव--हेप्रभु; चिकीर्षितम्--करने की इच्छा; कृत:--किया हुआ; मे--मेरे प्रति; अनुग्रह:ः --कृपा; च--तथा; इति--इस प्रकार; यत्--जो; अध्यक्ष:--परम शासक; प्रभाषसे--तुम कहते हो |
ऋषियों ने कहा : हे भगवन्, हम यह नहीं जान पा रहे कि आप हमारे लिए क्या करनाचाहते हैं, क्योंकि आप सबों के परम शासक होते हुए भी हमारे पक्ष में बोल रहे हैं मानो हमनेआपके साथ कोई अच्छाई की हो।
ब्रह्मण्यस्य परं दैवं ब्राह्मणा: किल ते प्रभो ।
विप्राणां देवदेवानां भगवानात्मदैवतम् ॥
१७॥
ब्रह्मण्यस्थ--ब्राह्मण संस्कृति के परम निदशेक का; परम्--सर्वोच्च; दैवम्--स्थिति, पद; ब्राह्मणा:--ब्राह्मण जन; किल--अन्यों को शिक्षा देने के लिए; ते--तुम्हारा; प्रभो--हे प्रभु; विप्राणाम्--ब्राह्मणों का; देव-देवानाम्--देवताओं द्वारा पूजे जानेके लिए; भगवान्-- भगवान्; आत्म--स्वयं; दैवतम्-- पूज्य विग्रह।
हे प्रभु, आप ब्राह्मण संस्कृति के परम निदेशक हैं।
ब्राह्मणों को सर्वोच्च पद पर आपकेद्वारा माना जाना अन्यों को शिक्षा देने के लिए आपका उदाहरण है।
वस्तुतः आप न केवलदेवताओं के लिए, अपितु ब्राह्मणों के लिए भी परम पूज्य विग्रह हैं।
त्वत्त: सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव ।
धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः ॥
१८॥
त्वत्तः--तुमसे; सनातन:--शा श्वत; धर्म:--वृत्ति; रक्ष्यते--रक्षा किया जाता है; तनुभि:--अनेक अभिव्यक्तियों द्वारा; तब--तुम्हारा; धर्मस्थ--धार्मिक सिद्धान्तों का; परम:--परम; गुहा: --विषय; निर्विकार: --अपरिवर्तनीय; भवान्ू--आप; मतः--हमारे मत से
आप सारे जीवों की शाश्वत वृत्ति के स्त्रोत हैं और भगवान् के नाना स्वरूपों द्वारा आपनेसदैव धर्म की रक्षा की है।
आप धार्मिक नियमों के परम लक्ष्य हैं और हमारे मत से आप अक्षयतथा शाश्वत रूप से अपरिवर्तनीय हैं।
'तरन्ति ह्यझ्जसा मृत्युं निवृत्ता यदनुग्रहात् ।
योगिनः स भवान्कि स्विदनुगृहोत यत्पर: ॥
१९॥
तरन्ति--पार करते हैं; हि-- क्योंकि; अज्लसा-- आसानी से; मृत्युमू--जन्म तथा मृत्यु को; निवृत्ता:--सारी भौतिक इच्छाओं कोछोड़ करके; यत्--तुम्हारे; अनुग्रहातू--कृपा से; योगिन:--योगीजन; सः--परमेश्वर; भवान्--आप; किम् स्वितू--कभीसम्भव नहीं; अनुगृह्मेत--अनुग्रह किया जा सकता है; यत्--जो; परैः--अन्यों द्वारा
भगवान् की कृपा से योगीजन तथा अध्यात्मवादी समस्त भौतिक इच्छाओं को छोड़करअज्ञान को पार कर जाते हैं।
इसलिए यह सम्भव नहीं कि कोई परमेश्वर पर अनुग्रह कर सके।
यं वै विभूतिरुपयात्यनुवेलमन्यै-रर्थारथिभि: स्वशिरसा धृतपादरेणु: ।
धन्यार्पिताड्घ्रितुलसीनवदामधाम्नोलोकं मधुव्रतपतेरिव कामयाना ॥
२०॥
यम्--जिसको; बै--निश्चय ही; विभूति:--लक्ष्मी जी; उपयाति--प्रतीक्षा में खड़ी रहती है; अनुवेलम्--यदा कदा; अन्यै:--अन्यों के द्वारा; अर्थ--भौतिक सुविधा; अर्थिभि:--चाहने वालों के द्वारा; स्व-शिरसा--अपने अपने सिरों पर; धृत--स्वीकारकरते हुए; पाद--पाँवों की; रेणु:-- धूल; धन्य--भक्तों के द्वारा; अर्पित--अर्पित; अड्प्रि-- आपके चरणों पर; तुलसी--तुलसीदल के; नव--नवीन; दाम--माला पर; धाम्न:--स्थान वाला; लोकम्--स्थान; मधु-ब्रत-पते:-- भौरों के राजा का; इब--सहश; काम-याना--प्राप्त करने के लिए उत्सुक है।
जिनके चरणों की धूल अन्य लोग अपने शिरों पर धारण करते हैं, वहीं लक्ष्मीदेवी आपकीपूर्व निर्धारित सेवा में रहती हैं, क्योंकि वे उन भौंरों के राजा के धाम में स्थान सुरक्षित करने केलिए उत्सुक रहती हैं, जो आपके चरणों पर किसी धन्य भक्त के द्वारा अर्पित तुलसीदलों कीताजी माला पर मँडराता है।
अस्तां विविक्तचरितैरनुवर्तमानांनात्याद्रियत्परमभागवतप्रसड़ः ॥
सत्वं द्विजानुपथपुण्यरज:पुनीतःश्रीवत्सलक्ष्म किमगा भगभाजनस्त्वम् ॥
२१॥
यः--जो; तामू--लक्ष्मी को; विविक्त--नितान्त शुद्ध; चरितैः-- भक्ति; अनुवर्तमानाम्--सेवा करते हुए; न--नहीं;अत्याद्वियत्--अनुरक्त; परम--सर्वाधिक; भागवत--भक्तगण; प्रसड़र:ः--अनुरक्त; सः--परमेश्वर; त्वमू-तुम; द्विज--ब्राह्मणोंके; अनुपथ--पथ पर; पुण्य--पवित्र की गई; रज:--धूल; पुनीत:--शुद्ध किया हुआ; श्रीवत्स-- श्रीवत्स का; लक्ष्म--चिह्;किम्--क्या; अगा:ः--तुमने प्राप्त किया है; भग--सारे ऐश्वर्य या सारे सदुगुण; भाजन:--आगार; त्वम्-तुम |
हे प्रभु, आप अपने शुद्ध भक्तों के कार्यों के प्रति अत्यधिक अनुरक्त रहते हैं फिर भी आपउन लक्ष्मीजी से कभी अनुरक्त नहीं रहते जो निरन्तर आपकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लगी रहती हैं।
अतएव आप उस पथ की धूल द्वारा कैसे शुद्ध हो सकते हैं जिन पर ब्राह्मण चलते हैं, और अपनेवक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह के द्वारा आप किस तरह महिमामंडित या भाग्यशाली बन सकते हैं ?
धर्मस्य ते भगवतस्त्रियुग त्रिभि: स्वैःपद्धिश्चराचरमिदं द्विजदेवतार्थम् ।
नूनं भूत तदभिघाति रजस्तमश्चसत्त्वेन नो वरदया तनुवा निरस्य ॥
२२॥
धर्मस्थ--धधर्मस्वरूप; ते--तुम्हारा; भगवत:-- भगवान् का; त्रि-युग--तीनों युगों में प्रकट होने वाले आप; त्रिभि:--तीन;स्वै:--अपने; पद्धिः--पाँवों द्वारा; चर-अचरम्--चर तथा अचर; इृदम्--यह ब्रह्माण्ड; द्विज--दो बार जन्म लेने वाला;देवता--देवता; अर्थम्--के लिए; नूनम्-किन््तु; भृतम्--सुरक्षित; तत्--वे पाँव; अभिघाति--विनष्ट करते हुए; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; च--तथा; सत्त्वेन--सतोगुण का; न:--हमको; वर-दया--सारे आशीर्वाद देते हुए; तनुवा--अपनेदिव्य रूप द्वारा; निरस्थ-- भगाकर।
हे प्रभु, आप साक्षात् धर्म हैं।
अतः आप तीनों युगों में अपने को प्रकट करते हैं और इसतरह इस ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हैं जिसमें चर तथा अचर प्राणी रहते हैं।
आप शुद्ध सत्त्व रूपतथा समस्त आशीषों को प्रदान करने वाली कृपा से देवताओं तथा द्विजों के रजो तथा तमो गुणोंको भगा दें।
गोप्ता वृष: स्वहणेन ससूनृतेन ।
तहाँव नड्छक्ष्यति शिवस्तव देव पन्थालोकोग्रहीष्यदषभस्य हि तत्प्रमाणम् ॥
२३॥
न--नहीं; त्वम्-तुम; द्विज--दो बार जन्म लेने वाले का; उत्तम-कुलम्--सर्वोच्च जाति; यदि--यदि; ह--निस्सन्देह; आत्म-गोपम्--आपके द्वारा रक्षित होने के योग्य; गोप्ता--रक्षक; वृष: --सर्वोत्कृष्ट; सु-अर्हणेन--पूजा द्वारा; स-सूनृतेन--मृदु शब्दोंके साथ साथ; तहि--तब; एव--निश्चय ही; नड्छ््यति--खो जायेगा; शिवः--शुभ; तब--तुम्हारा; देव--हे प्रभु; पन्था: --पथ; लोक:--सामान्यजन; अग्रहीष्यत्--स्वीकार करेगा; ऋषभस्य--सर्वोत्कृष्ट का; हि-- क्योंकि; तत्--वह; प्रमाणम्--प्रमाण |
हे प्रभु, आप सर्वोच्च द्विजों के रक्षक हैं।
यदि आप पूजा तथा मृदु वचनों को अर्पित करकेउनकी रक्षा न करें तो निश्चित है कि पूजा का शुभ मार्ग उन सामान्यजनों द्वारा परित्यक्त कर दियाजाएगा जो आपके बल तथा प्रभुत्व पर कर्म करते हैं।
तत्तेडनभीष्टमिव सत्त्वनिधेर्विधित्सो:क्षेमं जनाय निजशक्तिभिरुद्धृतारे: ।
नैतावता त्यधिपतेर्बत विश्वभर्तु-स्तेज: क्षतं त्ववनतस्य स ते विनोद: ॥
२४॥
तत्--शुभसूचक मार्ग का वह विनाश; ते--तुम्हारे द्वारा; अनभीष्टम्--पसन्द नहीं किया हुआ; इब--सहश; सत्त्व-निधे:--सारीअच्छाई का आगार; विधित्सो:--करने के लिए इच्छुक; क्षेममू--कल्याण; जनाय--सामान्य लोगों के लिए; निज-शक्तिभि: --अपनी ही शक्तियों द्वारा; उद्धृत--विनष्ट किया हुआ; अरे: --विरोधी तत्त्व; न--नहीं; एतावता--इससे; त्रि-अधिपते: --तीनप्रकार की सृष्टियों के स्वामी का; बत-हे प्रभु; विश्व-भर्तु:--ब्रह्माण्ड के पालक; तेज:--शक्ति; क्षतम्--न्यून; तु--लेकिन;अवनतस्य--विनीत; सः--वह; ते--आपका; विनोद: -- आनन्द प्रिय प्रभु
आप नहीं चाहते कि शुभ मार्ग को विनष्ट किया जाय, क्योंकि आप समस्त शिष्टाचार के आगार हैं।
आप सामान्य लोगों के लाभ हेतु अपनी बलवती शक्ति से दुष्ट तत्त्व कोविनष्ट करते हैं।
आप तीनों सृष्टियों के स्वामी तथा पूरे ब्रह्माण्ड के पालक हैं।
अतएव आपकेविनीत व्यवहार से आपकी शक्ति घटती नहीं, प्रत्युत इस विनम्रता द्वारा आप अपनी दिव्यलीलाओं का प्रदर्शन करते हैं।
यं वानयोर्दममधीश भवान्विधत्तेवृत्ति नु वा तदनुमन्महि निर्व्यलीकम् ।
अस्मासु वा य उचितो श्चियतां स दण्डोयेउनागसौ वयमयुड्छ्महि किल्बिषेण ॥
२५॥
यम्--जो; वा--अथवा; अनयो:--उन दोनों का; दमम्--दण्ड; अधीश--हे प्रभु; भवान्--आप; विधत्ते--प्रदान करता है;वृत्तिमू-- अच्छा जीवन; नु--निश्चय ही; वा--अथवा; तत्--वह; अनुमन्महि--हम स्वीकार करते हैं; निर्व्यलीकम्--द्वैतरहित;अस्मासु--हमको; वा--अथवा; य:--जो भी; उचित:--उचित हो; प्रियताम्-- प्रदान किया जाय; सः--वह; दण्ड: --दण्ड;ये--जो; अनागसौ--पापरहित; वयम्ू--हम; अयुद्छमहि--नियत किया है; किल्बिषेण--शाप से |
हे प्रभु, आप इन दोनों निर्दोष व्यक्तियों को या हमें भी जो दण्ड देना चाहेंगे उसे हम बिनाद्वैत के स्वीकार करेंगे।
हम जानते हैं कि हमने दो निर्दोष व्यक्तियों को शाप दिया है।
श्रीभगवानुवाचएतौ सुरेतरगतिं प्रतिपद्य सद्यःसंरम्भसम्भूतसमाध्यनुबद्धयोगौ ।
भूयः सकाशमुपयास्यत आशु यो वःशापो मयैव निमितस्तदवेत विप्रा: ॥
२६॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने उत्तर दिया; एतौ--ये दोनों द्वारपाल; सुर-इतर--आसुरी; गतिम्ू--गर्भ; प्रतिपद्य--पाकर;सद्यः--शीघ्र ही; संरम्भ--क्रोध से; सम्भूत--सम्बर्धित होकर; समाधि--मन की एकाग्रता; अनुबद्ध--हृढ़तापूर्वक; योगौ--मुझसे बँधे; भूय:--पुत्र; सकाशम्--मेंरे पास; उपयास्यत:--लौटेंगे; आशु--शीघ्र ही; यः--जो; व:--तुम्हारा; शाप:--शाप;मया--मेरे द्वारा; एब--एकमात्र; निमित:--नियत; तत्--वह; अवेत--जानो; विप्रा:--हे ब्राह्मणो |
भगवान् ने उत्तर दिया : हे ब्राह्णो, यह जान लो कि तुमने उनको जो दण्ड दिया है, वह मूलतः मेरे द्वारा निश्चित किया गया था, अतः वे आसुरी परिवार में जन्म लेने के लिए पतित होंगे।
किन्तु वे क्रोध द्वारा वर्धित मानसिक एकाग्रता द्वारा मेरे विचार में मुझसे हढ़तापूर्वक संयुक्त होंगेऔर शीधघ्र ही मेरे पास लौट आयेंगे।
ब्रह्मोवाचअथ ते मुनयो दृष्ठा नयनानन्दभाजनम् ।
बैकुण्ठं तदधिष्ठानं विकुण्ठं च स्वयंप्रभम् ॥
२७॥
ब्रह्म उवाच--ब्रह्म ने कहा; अथ--अब; ते--वे; मुनयः --मुनिगण; हृध्ना-- देखकर; नयन--आँखों का; आनन्द--आननन््द;भाजनमू-त्पन्न करते हुए; वैकुण्ठम्--वैकुण्ठ लोक; तत्--उसका; अधिष्ठानम्ू-- धाम; विकुण्ठम्-- भगवान्; च--तथा;स्वयम्-प्रभम्ू--आत्म-ज्योतित |
ब्रह्माजी ने कहा : बैकुण्ठ के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को आत्मज्योतित वैकुण्ठललोकमें देखने के बाद मुनियों ने वह दिव्य धाम छोड़ दिया।
भगवन्तं परिक्रम्य प्रणिपत्यानुमान्य च ।
प्रतिजग्मु: प्रमुदिता: शंसन्तो वैष्णवीं अ्ियम् ॥
२८॥
भगवन्तम्-- भगवान् को; परिक्रम्य--प्रदक्षिणा करके; प्रणिपत्य--नमस्कार करके; अनुमान्य--जानकर; च--तथा;प्रतिजग्मु:--वापस आये; प्रमुदिता:--अतीव हर्षित; शंसन्त:--प्रशंसा करते हुए; वैष्णवीम्--वैष्णवों के; भ्रियम्--ऐश्वर्य की।
मुनियों ने भगवान् की प्रदक्षिणा की, उन्हें नमस्कार किया तथा दिव्य वैष्णव ऐश्वर्य को जानलेने पर वे अत्यधिक हर्षित होकर लौट आये।
भगवाननुगावाह यात॑ मा भेष्टमस्तु शम् ।
ब्रह्मतेज: समर्थोपि हन्तुं नेच्छे मतं तु मे ॥
२९॥
भगवानू्-- भगवान् ने; अनुगौ--अपने दोनों सेवकों ( अनुचरों ) से; आह--कहा; यातम्--इस स्थान से जाओ; मा--मत;भेष्टम्ू-- डरो; अस्तु--हो; शम्--सुख; ब्रह्म--ब्राह्मण का; तेज:--शाप; समर्थ:--समर्थ होने से; अपि-- भी; हन्तुम्--निरस्तकरने के लिए; न इच्छे--नहीं चाहता; मतम्--अनुमोदित; तु-- प्रत्युत; मे--मेरे द्वारा
तब भगवान् ने अपने सेवकों जय तथा विजय से कहा : इस स्थान से चले जाओ, किन्तुडरो मत।
तुम लोगों की जय हो।
यद्यपि मैं ब्राह्मणों के शाप को निरस्त कर सकता हूँ, किन्तु मैंऐसा करूँगा नहीं।
प्रत्युत इसे मेरा समर्थन प्राप्त है।
एतत्पुरैव निर्दिष्ट रमया क्रुद्धया यदा ।
पुरापवारिता द्वारि विशन्ती मय्युपारते ॥
३०॥
एतत्--यह प्रस्थान; पुरा--प्राचीन काल में; एब--निश्चय ही; निर्दिप्टम्--पहले से बतलाया गया; रमया--लक्ष्मी द्वारा;क्रुद्धया-क्रुद्ध; यदा--जब; पुरा--पहले; अपवारिता--रोकी गईं; द्वारि--द्वार पर; विशन्ती-- प्रवेश करते; मयि--जब मैं;उपारते--विश्राम कर रहा था
वैकुण्ठ से यह प्रस्थान लक्ष्मीजी ने पहले ही बतला दिया था।
वे क्रुद्ध थीं, क्योंकि जबउन्होंने मेरा धाम छोड़ा और वे फिर लौटीं तो तुमने उन्हें द्वार पर रोक लिया जब कि मैं सो रहाथा।
मयि संरम्भयोगेन निस्तीर्य ब्रह्महेलनम् ।
प्रत्येष्वतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुनः ॥
३१॥
मयि--मुझमें; संरम्भ-योगेन--क्रोध में योग के अभ्यास द्वारा; निस्तीर्य--से मुक्त किया गया; ब्रह्म-हेलनम्--ब्राह्मणों कीअवज्ञा का फल; प्रत्येष्यतम्--वापस आयेंगे; निकाशम्--निकट; मे--मेरे; कालेन--कालक्रम में; अल्पीयसा--अत्यन्त अल्प;पुनः--फिर।
भगवान् ने जय तथा विजय नामक दोनों वैकुण्ठवासियों को आश्वस्त किया : क्रोध मेंयोगाभ्यास द्वारा तुम ब्राह्मणों की अवज्ञा करने के पाप से मुक्त हो जाओगे और अत्यल्प अवधिमें मेरे पास वापस आ जाओगे।
श़" द्वाःस्थावादिश्य भगवान्विमानश्रेणिभूषणम् ।
सर्वातिशयया लक्ष्म्या जुष्ट स्वं धिष्णयमाविशत् ॥
३२॥
द्वाः-स्थौ--द्वारपालों को; आदिश्य--आदेश देकर; भगवान्-- भगवान्; विमान- श्रेणि- भूषणम् -- उच्च कोटि के विमानों सेसदैव विभूषित; सर्व-अतिशयया--हर प्रकार से अत्यधिक एऐश्वर्यशाली; लक्ष्म्या--ऐश्वर्य; जुष्टमू-- से सजाया गया; स्वम्ू--अपने; धिष्ण्यम्ू-- धाम में; आविशत्--वापस चले गये ।
वैकुण्ठ के द्वार पर इस प्रकार बोलकर भगवान् अपने धाम लौट गये जहाँ पर अनेकस्वर्गिक विमान तथा सर्वोपरि सम्पत्ति तथा चमक-दमक रहती है।
तौ तु गीर्वाणऋषभौ दुस्तराद्धरिलोकतः ।
हतश्रियौ ब्रह्मशापादभूतां विगतस्मयौ ॥
३३॥
तौ--वे दोनों द्वारपाल; तु--लेकिन; गीर्वाण-ऋषभौ--देवताओं में सर्वश्रेष्ठ; दुस्तरात्--बच सकने में असमर्थ; हरि-लोकतः--हरि के धाम वैकुण्ठ से; हत-भ्रियौ--सौन्दर्य तथा कान्ति से हीन; ब्रह्म -शापात्--ब्राह्मण के शाप से; अभूताम्--हो गये;विगत-स्मयौ--खिन्न |
किन्तु वे दोनों द्वारपाल, जो कि देवताओं में सर्वश्रेष्ठ थे, जिनका सौन्दर्य तथा कान्ति ब्राह्मणों के शाप से उतर गए थे, खिन्न हो गये और भगवान् के धाम बैकुण्ठ से नीचे गिर गये।
तदा विकुण्ठधिषणात्तयोर्निपतमानयो: ।
हाहाकारो महानासीद्विमानाछयेषु पुत्रका: ॥
३४॥
तदा--तब; विकुण्ठ--परमे श्वर के; धिषणात्-- धाम से; तयो:--दोनों; निपतमानयो: --गिर रहे थे; हाहा-कारः --निराशा मेंगर्जते हुए; महान्ू--महान्; आसीतू--घटित हुआ; विमान-अछयेषु--सर्वोत्तम विमानों में; पुत्र॒का:--हे देवताओ |
तब, जब जय तथा विजय भगवान् के धाम से गिरे तो अपने भव्य विमानों में बैठे हुए सारेदेवताओं ने निराश होकर उत्कट हाहाकार किया।
तावेब ह्धुना प्राप्तौ पार्षदप्रवरौ हरे: ।
दितेर्जठरनिर्विष्ट काश्यपं तेज उल्बणम् ॥
३५॥
तौ--वे दोनों द्वारपाल; एब--निश्चय ही; हि--सम्बोधन किया; अधुना--अब; प्राप्तौ--प्राप्त करके; पार्षद-प्रवरौ-- महत्त्वपूर्णसंगी; हरेः-- भगवान् के; दितेः--दिति के; जठर--गर्भ; निर्विष्टम्ू-- प्रवेश करते हुए; काश्यपम्--कश्यप मुनि का; तेज: --वीर्य; उल्बणम्--अत्यन्त प्रबल |
ब्रह्म ने आगे कहा : भगवान् के उन दो प्रमुख द्वारपालों ने अब दिति के गर्भ में प्रवेश कियाहै और कश्यप मुनि के बलशाली वीर्य से वे आवृत हो चुके हैं।
तयोरसुरयोरद्य तेजसा यमयोहि वः ।
अआक्षिप्तं तेज एतहिं भगवांस्तद्विधित्सति ॥
३६॥
तयो:--उन; असुरयो:--दोनों असुरों के; अद्य--आज; तेजसा--तेज से; यमयो:--जुड़वों का; हि--निश्चय ही; व:--तुम सारेदेवताओं का; आशक्षिप्तम्ू-- क्षुब्ध; तेज:--शक्ति; एतहिं--इस प्रकार निश्चय ही; भगवान्-- भगवान्; तत्--वह; विधित्सति--करना चाहता है।
यह इन जुड़वे असुरों का तेज है, जिसने तुम सबों को विचलित किया है, क्योंकि इसनेतुम्हारी शक्ति को कम कर दिया है।
किन्तु मेरी शक्ति में कोई इसका उपचार नहीं है, क्योंकिभगवान् स्वयं ही यह सब करना चाहते हैं।
विश्वस्य यः स्थितिलयोद्धवहेतुराद्योयोगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमाय: ।
क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्रयधीश-स्तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थ: ॥
३७॥
विश्वस्य--ब्रह्मण्ड का; यः--जो; स्थिति--पालन-पोषण; लय--विनाश; उद्धव--सृष्टि; हेतु:--कारण; आद्य: --सबसेप्राचीन पुरुष; योग-ईश्वरः--योग के स्वामियों द्वारा; अपि-- भी; दुरत्यय-- आसानी से समझा नहीं जा सकता; योग-माय:--उनकी योगमाया शक्ति; क्षेममू--कल्याण, मंगल; विधास्यति--करेगा; सः--वह; नः--हमारा; भगवान्-- भगवान्; त्रि-अधीशः--तीनों गुणों के नियन्ता; तत्र--वहाँ; अस्मदीय--हमारे द्वारा; विमुशेन--विचार-विमर्श; कियान्-- क्या; इह--इसविषय में; अर्थ: --लाभ
हे प्रिय पुत्रो, भगवान् प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं और वे ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालनतथा संहार के लिए उत्तरदायी हैं।
उनकी अद्भुत सृजनात्मक शक्ति योगमाया योगेश्वरों तक सेआसानी से नहीं समझी जा सकती।
सबसे प्राचीन पुरुष भगवान् ही हमें बचा सकते हैं।
किन्तुइस विषय पर विचार-विमर्श करने से हम उन की ओर से और कया कर सकते हैं ?
अध्याय सत्रह: ब्रह्मांड की सभी दिशाओं पर हिरण्याक्ष की विजय
3.17मैत्रेय उवाचनिशम्यात्मभुवा गीत॑ कारणं शड्डयोज्झिता: ।
ततः सर्वे न्यवर्तन्त त्रेदिवाय दिवौकसः ॥
१॥
मैत्रेय: --मैत्रेय मुनि ने; उवाच--कहा; निशम्य--सुनकर; आत्म-भुवा--ब्रह्मा द्वारा; गीतम्ू--व्याख्या; कारणम्ू--कारण; शट्ढडया-- भय से; उज्झिता: --मुक्त; ततः--तब; सर्वे--सभी; न्यवर्तन्त--लौट गये; त्रि-दिवाय--स्वर्ग लोकको; दिव-ओकसः--देवतागण ( जो स्वर्गलोक के वासी हैं )।
श्रीमैत्रेय ने कहा-विष्णु से उत्पन्न ब्रह्म ने जब अन्धकार का कारण कह सुनाया,तो स्वर्गलोक के निवासी देवता समस्त भय से मुक्त हो गये।
इस प्रकार वे सभी अपने-अपने लोकों को वापस चले गये।
दितिस्तु भर्तुरादेशादपत्यपरिशड्डिनी ।
पूर्णे वर्षशते साध्वी पुत्रौ प्रसुषुवे यमौ ॥
२॥
दिति:--दिति; तु--लेकिन; भर्तु:ः--अपने पति की; आदेशात्--आज्ञा से; अपत्य--अपने बच्चों से; परिश्धिनी --शंकालु।
; पूर्णे--पूरे; वर्ष-शते--एक सौ वर्ष बाद; साध्वी--पतित्रता स्त्री ने; पुत्रौ--दो पुत्र; प्रसुषुबे--जन्म दिया;यमौ--जुड़वाँ |
साध्वी दिति अपने गर्भ में स्थित सन््तानों से देवों के प्रति उपद्रव किये जाने के लिएअत्यधिक शंकालु थी और उसके पति ने भी यही भविष्यवाणी की थी।
अत: उसने एकसौ वर्षो के गर्भकाल के पश्चात् जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया।
उत्पाता बहवस्तत्र निपेतुर्जायमानयो: ।
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च लोकस्योरुभयावहा: ॥
३॥
उत्पाता:--प्राकृतिक उपद्रव; बहवः--अनेक; तत्र--वहाँ; निपेतु:--घटित हुए; जायमानयो:--उनके जन्म के समय;दिवि--स्वर्गलोक में; भुवि--पृथ्वी पर; अन्तरिक्षे--बाह्य आकाश में; च--तथा; लोकस्य--संसार का; उरुू--अत्यधिक; भय-आवहा:--भय उत्पन्न करने वालाभयानक
दोनों असुरों के जन्म के समय स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक तथा इन दोनों के मध्य केलोकों में अनेक प्राकृतिक उपद्रव हुए जो अत्यन्त भयावने एवं विस्मयपूर्ण थे।
सहाचला भुवश्लेलुर्दिश: सर्वा: प्रजज्वलु: ।
सोल्काश्चाशनयः पेतु: केतवश्चार्तिहितव: ॥
४॥
सह--के साथ साथ; अचला:--पर्वत; भुवः--पृथ्वी के; चेलु:--हिल उठी; दिश:--दिशाएँ; सर्वा:--समस्त;प्रजज्वलु:--अग्नि के समान धधक उठीं; स--साथ; उल्का:--उल्कापिंड; च--तथा; अशनय:--वज्; पेतु:--गिरपड़े; केतव:--पुच्छल तारे; च--तथा; आर्ति-हेतवः--समस्त अशुभों का कारण ।
पृथ्वी पर पर्वत काँपने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो सर्वत्र अग्नि ही अग्निहो।
उल्काओं, पुच्छल तारों तथा वज्ों के साथ-साथ शनि जैसे अनेक अशुभ ग्रह दिखाईदेने लगे।
वबवौ वायु: सुदुःस्पर्श: फूत्कारानीरयन्मुहुः ।
उन्मूलयन्नगपतीन्वात्यानीको रजोध्वज: ॥
५॥
वबवबौ--बहने लगीं; वायु:--हवाएँ; सु-दुःस्पर्श:--छूने में बुरी लगने वाली; फूत्-कारानू--साँय-साँय का शब्द;ईरयन्ू--निकालती हुई; मुहुः--पुनःपुन:; उन्मूलयन्--उखाड़ती हुई; नग-पतीन्--विशाल वृक्षों को; वात्या--अंधड़;अनीकः--सेनाएँ; रज:-- धूल; ध्वज:--झंडे, पताकाएँ |
बारम्बार साँय-साँय करती तथा विशाल वृक्षों को उखाड़ती हुई अत्यन्त दुस्सह-स्पर्शी हवाएँ बहने लगीं।
उस समय अंधड़ उनकी सेनाएँ और धूल के मेघ उनकी ध्वजाएँलग रही थीं।
उद्धसत्तडिदम्भोद्घटया नष्टभागणे ।
व्योम्नि प्रविष्ठटमसा न सम व्याहृश्यते पदम् ॥
६॥
उद्धसत्--जोर जोर से हँसकर; तडित्--बिजली; अम्भोद--बादलों के; घटया--समूह; नष्ट--विनष्ट; भा-गणे--नक्षत्र; व्योग्नि--आकाश में; प्रविष्ट--घिरा हुआ; तमसा--अंधकार से; न--नहीं; सम व्याहश्यते--दिखता था;पदम्--कोई स्थान
आकाश के नक्षत्रों को मेघों की घटाओं ने घेर लिया और उनमें कभी कभी बिजलीचमक जाती तो लगता मानो जोर से हँस रही हो।
चारों ओर अन्धकार का राज्य था औरकुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।
चुक्रोश विमना वार्थिरुदूर्मि: क्षुभितोदर: ।
सोदपानाश्च सरितश्रुक्षुभु: शुष्कपड्डजा: ॥
७॥
चुक्रोश--जोर जोर से विलाप करने लगा; विमना:--दुखी; वार्धि: --समुद्र; उदूर्मि:ः-- ऊँची ऊँची लहरें; क्षुभित--विश्लुब्ध; उदरः--भीतर के प्राणी; स-उदपाना:--जलाशयों तथा कुंओं के पेयजल सहित; च--तथा; सरितः--नदियाँ; चुक्षुभुः--श्षुब्ध हुए; शुष्क--सूखे हुए; पड्ढूजा:--कमल पुष्प
उत्ताल तरंगों से युक्त सागर मानो शोक में जोर जोर से विलाप कर रहा था औरउसमें रहने वाले प्राणियों में हलचल मची थी।
नदियाँ तथा सरोवर भी विश्षुब्ध हो उठेऔर कमल मुरझा गये।
मुहुः परिधयो भूवन्सराह्ये: शशिसूर्ययो: ।
निर्घाता रथनिर्हठादा विवरेभ्य: प्रजज्ञिरि ॥
८॥
मुहुः--पुनः पुनः; परिधय:--कुहरे से युक्त मण्डल; अभूवन्--प्रकट हुआ; स-राह्वोः--ग्रहणों के समय; शशि--चन्द्रमा का; सूर्ययो: --सूर्य का; निर्घाता:--गर्जन; रथ-निर्हादा: --घर्घर करते रथों का सा शब्द; विवरेभ्य:--पर्वतकी गुफाओं से; प्रजज्ञिरि--उत्पन्न हो रहा था।
सूर्य तथा चन्द्रमा के चारों ओर ग्रहण लगने के समय अमंगल-सूचक मण्डल बार-बार दिखाई पड़ने लगा।
बिना बादलों के ही गरजने की ध्वनि और पर्वत की गुफाओं सेरथों जैसी घरघराहट सुनाई पड़ने लगी।
अन्तग्रमिषु मुखतो वमन्त्यो वह्िमुल्बणम् ।
सृगालोलूकटड्डारैः प्रणेदुशशिवं शिवा: ॥
९॥
अन्तः--भीतर; ग्रामेषु--गाँवों के; मुखतः--उनके मुखों से; वमन्त्य:;--उगलते हुए; वह्विमू--आग; उल्बणम्--भयावनी; सृगाल--सियार; उलूक--उललू; टट्ढारै:--चीख से; प्रणेदु:--उत्पन्न; अशिवम्--अशुभ, अमंगलसूचक;शिवा:--सियारिनें
गाँवों के भीतर सियारिनें अपने मुखों से दहकती आग उगलती हुई अमंगल सूचकशब्द करने लगीं।
इस रोने में सियार तथा उल्लू भी साथ हो लिये।
सड्डीतवद्रोदनवदुन्नमय्य शिरोधराम् ।
व्यमुझ्जन्विविधा वाचो ग्रामसिंहास्ततस्ततः ॥
१०॥
सड़ीत-वत्--मानो गा रहे हों; रोदन-वत्--रोने के समान; उन्नमय्य--उठाकर; शिरोधराम्-र्दन; व्यमुझ्नन् --निकालते हुए; विविधा:--नाना प्रकार की; वाच: --चीत्कार; ग्राम-सिंहा: -- कुत्ते; ततः ततः--जहाँ तहाँ
जहाँ तहाँ कुत्ते अपनी गर्दन ऊपर उठा उठाकर शब्द करने लगे मानो कभी वे गा रहेहों और कभी विलाप कर रहे हों।
खराश्च कर्कशैः क्षत्त: खुरर्घ्नन्तो धरातलम् ।
खार्काररभसा मत्ताः पर्यधावन्वरूथश: ॥
११॥
खराः--गधे; च--तथा; कर्कशैः--कटु; क्षत्त:--हे विदुर; खुरैः--अपने खुरों से; घ्नन्तः--मारते हुए; धरा-तलम्--पृथ्वी पर; खा:-कार--रेंकते हुए; रभसा:--बुरी तरह से संलग्न; मत्ता:--प्रमत्त, पागल; पर्यधावन्--इधर उधर दौड़नेलगे; वरूथशः --झुंडों में ।
हे विदुर, झुंड के झुंड गधे अपने कठोर खुरों से पृथ्वी पर प्रहार करते हुए तथा जोरजोर से रेंकते हुए इधर उधर दौड़ने लगे।
रुदन्तो रासभत्रस्ता नीडादुदपतन्खगा: ।
घोषेरण्ये च पशव: शकृन्मूत्रमकुर्बवत ॥
१२॥
रुदन्तः--रोते हुए; रासभ--गधों के द्वारा; त्रस्ता:-- भयभीत; नीडात्--घोंसले से; उदपतन्--ऊपर उड़ने लगे;खगा:--पक्षी; घोषे--गोशाला में; अरण्ये--जंगल में; च--तथा; पशव:--पशु; शकृत्--मल; मूत्रम्--मूत्र;अकुर्वत--त्याग दिया।
गधों के रेंकने से भयभीत होकर पक्षी अपने घोसलों से निकलकर चीख चीख करउड़ने लगे और गोशालाओं तथा जंगलों में पशु मल-मूत्र त्यागने लगे।
गावोअत्रसन्नसूग्दोहास्तोयदा: पूयवर्षिण: ।
व्यरुदन्देवलिड्भानि द्रुमा: पेतुर्विनानिलम् ॥
१३॥
" गावः-गाएँ; अत्रसन्-- भयभीत थीं; असूक् --रक्त; दोहा:--प्रदान किया; तोयदा:--बादल; पूय--पीब;वर्षिण:--वर्षा करते हुए; व्यरूदन्ू--अश्रुपात करने लगे; देव-लिड्जनि--देवों के विग्रह; द्रुमा: --वृक्ष; पेतु:--गिरपड़े; विना--की अनुपस्थिति में; अनिलमू--हवा का झोंका, आँधी |
भयभीत होने के कारण गौवें दूध के स्थान पर रक्त देने लगीं, बादलों से पीब बरसनेलगा, मन्दिरों में देवों के विग्रहों से आँसू निकलने लगे और वृक्ष बिना आँधी के ही गिरनेलगे।
ग्रहान्पुण्यतमानन्ये भगणांश्चापि दीपिता: ।
अतिचेरुव॑ क्रगत्या युयुधुश्ष परस्परम् ॥
१४॥
ग्रहानू-ग्रह ( लोक ); पुण्य-तमान्--अत्यन्त शुभ; अन्ये--अन्य ( क्रूर ग्रह ); भ-गणान्--नक्षत्र समूह; च--यथा;अपि--भी; दीपिता:-- प्रकाशमान; अतिचेरु: --अध्यारोपित; वक्र-गत्या--टेढ़ी मेढ़ी चाल से; युयुधु:--परस्पर भिड़गये; च--तथा; परः-परम्--एक दूसरे से |
मंगल तथा शनि जैसे क्रूर ग्रह बृहस्पति, शुक्र तथा अनेक शुभ नक्षत्रों को लाँघधकरतेजी से चमकने लगे।
टेढ़े मेढ़े रास्तों में घूमने के कारण ग्रहों में परस्पर टक्कर होने लगी।
इष्टान्यांश्व महोत्पातानतत्तत्त्वविदः प्रजा: ।
ब्रह्मपुत्रानृते भीता मेनिरे विश्वसम्प्लवम् ॥
१५॥
इष्ठा--देखकर; अन्यानू--अन्य लोग; च--यथा; महा--महान; उत्पातान्ू--अपशकुन; अ-ततू-तत्त्व-विद: --रहस्यको न जानते हुए; प्रजा:--लोग; ब्रह्म-पुत्रान्--ब्रह्मा के पुत्रों ( चारों कुमारों ); ऋते--के सिवाय; भीता:--अन्यन्तडरे हुए; मेनिरे--सोचा; विश्व-सम्प्लवम्--विश्व का विलय |
इस प्रकार के तथा अन्य अनेक अपशकुनों को देखकर ब्रह्मा के चारों ऋषि-पुत्र,जिन्हें जय तथा विजय के पतन एवं दिति के पुत्रों के रूप में जन्म लेने का ज्ञान था, उनके अतिरिक्त सभी लोग भयभीत हो उठे।
उन्हें इन उत्पातों के मर्म का पता न था औरवे सोच रहे थे कि ब्रह्माण्ड का प्रलय होने वाला है।
तावादिदैत्यौ सहसा व्यज्यमानात्मपौरुषौ ।
ववृधातेश्मसारेण कायेनाद्विपती इव ॥
१६॥
तौ--वे दोनों; आदि-दैत्यौ--सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न असुर; सहसा--शीघ्र, तेजी से; व्यज्यमान--प्रकट होकर;आत्म--अपने; पौरुषौ--शौर्य ; ववृधाते--बड़े हुए; अश्म-सारेण--इस्पात तुल्य; कायेन--शरीर से; अद्वि-पती--दोविशाल पर्वत; इव--सहृश |
पुराकाल में प्रकट इन दोनों असुरों के शरीर में शीघ्र ही असामान्य लक्षण प्रकट होनेलगे, उनके शारीरिक ढाँचे इस्पात के समान थे और वे दो विशाल पर्वतों के समान बढ़नेलगे।
दिविस्पृूशौ हेमकिरीटकोटिभिर्निरुद्धकाष्ठो स्फुरदड्रदाभुजौ ।
गां कम्पयन्तौ चरणै: पदे पदेकट्य़ा सुकाा्च्यार्कमतीत्य तस्थतुः ॥
१७॥
दिवि-स्पूृशौ--आकाश को छूने वाला; हेम--स्वर्णिम; किरीट--उनके मुकुटों का; कोटिभि: --शिखरों से;निरुद्ध--अवरुद्ध; काष्टौ--दिशाएँ; स्फुरत्ू--चमकीले; अड्भदा--बाजूबंद; भुजौ--जिनकी बाँहों में; गाम्--पृथ्वी को; कम्पयन्तौ--हिलाते हुए; चरणैः--अपने पाँवों से; पदे पदे--पत्येक पद पर; कट्या--अपनी कमर से; सु-काउ्च्या--आभूषित करधनियों से; अर्कम्--सूर्य; अतीत्य--पार करके; तस्थतु:--वे खड़े हुए
उनके शरीर इतने ऊँचे हो गये कि उनके स्वर्ण-मुकुटों के शिखर मानो आकाश कोचूम रहे हों।
उनके कारण सभी दिशाएँ अवरुद्ध हो जाती थीं और जब वे चलते तो उनकेप्रत्येक पग पर पृथ्वी हिलती थी।
उनके बाहुओं में चमकीले बाजूबन्द सुशोभित थे।
उनकी कमर में परम सुन्दर करधनियाँ बँधी थीं और जब वे खड़े होते तो ऐसा लगतामानो उनकी कमर से सूर्य ढक गया हो।
प्रजापतिर्नाम तयोरकार्षीद्यः प्राक्स्वदेहाद्यममयोरजायत ।
तं वै हिरण्यकशिपुं विदुः प्रजायं तं हिरण्याक्षमसूत साग्रतः ॥
१८॥
प्रजापति:--कश्यप ने; नाम--नाम; तयो:--दोनों के; अकार्षीत्--रखा; यः:--जो; प्राक्-- प्रथम; स्व-देहात् --अपने शरीर से; यमयो: --जुड़वों में से; अजायत--उत्पन्न हुआ; तम्--उसको; बै--निस्सन्देह; हिरण्यकशिपुम्ू--हिरण्यकशिपु; विदुः--जानते हैं; प्रजा:--लोग; यम्--जिसको; तम्--उसको; हिरण्याक्षम्--हिरण्याक्ष; असूत--जन्म दिया; सा--वह ( दिति ); अग्रतः--पहले |
जीवात्माओं के सृष्ठा कश्यप ने अपने जुड़वां पुत्रों का नामकरण किया।
जो पहलेउत्पन्न हुआ उसका नाम उन्होंने हिरण्याक्ष रखा और जिसको दिति ने पहले गर्भ में धारणकिया था उसका नाम हिरण्यकश्पु रखा।
चक्रे हिरण्यकशिपुर्दो भ्या ब्रह्मवरेण च ।
वशे सपालॉल्लोकांस्त्रीनकुतोमृत्युरुद्धत: ॥
१९॥
चक्रे--बनाया; हिरण्यकशिपु:--हिरण्यकशिपु; दोर्भ्याम्ू--अपने दोनों हाथों से; ब्रह्म-वरेण--ब्रह्मा के वरदान से;च--तथा; वशे--नियन्त्रण में; स-पालानू--उनके पालने वालों सहित; लोकान्--लोक; त्रीनू--तीन; अकुतः-मृत्यु:--किसी से भी मृत्यु का भय न होना; उद्धतः--गर्वित, उद्धत।
ज्येष्ट पुत्र हिरण्यकशिपु को तीनों लोकों में किसी से भी अपनी मृत्यु का भय न था,क्योंकि उसे ब्रह्मा से वरदान प्राप्त हुआ था।
इस वरदान के कारण यह अत्यन्त दंभी तथाअभिमानी हो गया था और तीनों लोकों को अपने वश्ञ में करने में समर्थ था।
हिरण्याक्षोनुजस्तस्य प्रिय: प्रीतिकृदन्वहम् ।
गदापाणिर्दिवं यातो युयुत्सुर्मृगयन्रणम् ॥
२०॥
हिरण्याक्ष:--हिरण्याक्ष; अनुज:--छोटा भाई; तस्थ--उसका; प्रिय:--प्रिय; प्रीति-कृत्--प्रसन्न करने के लिए उद्यत;अनु-अहम्--प्रतिदिन; गदा-पाणि:--गदा धारण किये; दिवम्ू--उच्च लोकों को; यात:--घूमा; युयुत्सु:--लड़ने कीइच्छावाला; मृगयन्--खोजते हुए; रणम्--युद्ध |
छोटा भाई हिरण्याक्ष अपने कार्यों से अपने अग्रज भ्राता को प्रसन्न रखने के लिएउद्यत रहता था।
हिरण्यकशिपु को प्रसन्न रखने के उद्देश्य से ही उसने अपने कंधे पर गदारखी और लड़ने की इच्छा से पूरे ब्रह्माण्ड में घूम आया।
त॑ वीक्ष्य दुःसहजवं रणत्काञझ्जननूपुरम् ।
वैजयन्त्या स्त्रजा जुष्टमंसन्यस्तमहागदम् ॥
२१॥
तम्--उसको; वीक्ष्य--देखकर; दुःसह--वश में करना कठिन; जवम्--वेग; रणत्--बजती हुई; काञ्लन--स्वर्ण;नूपुरमू--नूपुर, पाँव का आभूषण; वैजयन्त्या सत्रजा--वैजयन्ती माला से; जुष्टमू-- आभूषित; अंस--कंधे पर;न्यस्त--टिका; महा-गदम्--बड़ी गदा।
हिरण्याक्ष के आवेग को नियंत्रण कर पाना कठिन था।
उसके पैरों में सोने के नूपुरोंकी झनकार हो रही थी, उसके गले में विशाल माला सुशोभित थी और वह अपनीविशाल गदा को अपने एक कंधे पर धारण किये था।
मनोवीर्यवरोत्सिक्तमसृण्यमकुतो भयम् ।
भीता निलिल्यरे देवास्ताक्च्यत्रस्ता इवाहय: ॥
२२॥
मनः-वीर्य--मनोबल तथा शारीरिक बल; वर--वरदान से; उत्सिक्तम्-दंभी, गर्वीला; असृण्यम्--रोक पाने मेंअसमर्थ; अकुतः-भयम्--किसी से न डरने वाला; भीता:--डरे हुए; निलिल्यिरि--छिपा लिया; देवा:--देवताओं ने;ताक्ष्य--गरुड़ से; त्रस्ताः-- भयभीत; इव--के समान; अहयः--सर्प
उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्मा द्वारा प्राप्त वरदान ने उसे दंभी बना दियाथा।
उसे न तो किसी से अपनी मृत्यु का भय था और न उस पर किसी का अंकुश था।
अतः देवता उसे देखकर ही भयभीत हो उठते थे और अपने को उसी प्रकार छिपा लेतेजिस तरह गरुड़ के भय से सर्प छिप जाते हैं।
स वे तिरोहितान्दष्ठा महसा स्वेन दैत्यराट् ।
सेन्द्रान्देवगणान्क्षीबानपश्यन्व्यनदद्भुशम् ॥
२३॥
सः--उसने; वै--निस्सन्देह; तिरोहितानू--लुप्त; दृष्टा--देखकर; महसा--शक्ति से; स्वेन--अपनी; दैत्य-राट्--दैत्यों( असुरों ) का प्रधान; स-इन्द्रान्--इन्द्र सहित; देव-गणान्--देवताओं को; क्षीबान्ू--मदान्ध; अपश्यनू--न पाकर;व्यनदत्-गर्जना की; भूशम्--उच्च स्वर से |
पहले अपनी शक्ति के मद से चूर रहने वाले इन्द्र तथा अन्य देवताओं को अपनेसमक्ष न पाकर तथा यह देखकर कि उसकी शक्ति के सम्मुख वे सभी छिप गये हैं, उसदैत्यराज ने गम्भीर गर्जना की।
ततो निवृत्त: क्रीडिष्यन्गम्भीरं भीमनिस्वनम् ।
विजगाहे महासत्त्वो वार्थि मत्त इव द्विप: ॥
२४॥
ततः--तब ; निवृत्त:--लौट आया; क्रीडिष्यन्ू--क्रीड़ा ( कौतुक ) करने के लिए; गम्भीरम्--गहरे; भीम-निस्वनम्--घोर गर्जना करता; विजगाहे--डुबकी लगाई; महा-सत्त्व:--शक्तिमान प्राणी; वार्थिम्--समुद्र में; मत्त: --क्रोध में;इब--समान; द्विप:--हाथी
स्वर्गलोक से लौटने के बाद मतवाले हाथी के समान उस महाबली असुर नेभयानक गर्जना करते हुए गहरे समुद्र में क्रीड़ावश डुबकी लगाई।
तस्मिन्प्रविष्ट वरूणस्य सैनिकायादोगणा: सन्नधिय: ससाध्वसा: ।
अहन्यमाना अपि तस्य वर्चसाप्रधर्षिता दूरतरं प्रदुद्वुबुः ॥
२५॥
तस्मिन् प्रविष्ट--समुद्र में घुसने पर; वरुणस्य--वरुण के; सैनिका:--रक्षक; याद:-गणा:--जलचर जीव; सन्न-धिय:--हकबकाये हुए; स-साध्वसा: --डर से; अहन्यमाना: --न मारा जाकर; अपि-- भी; तस्य--उनकी ; वर्चसा--धाक से; प्रधर्षिता:--घबड़ाकर; दूर-तरम्--बहुत दूर; प्रदुद्रबुः--तेजी से भाग गये।
समुद्र में उसके प्रवेश करते ही वरुण के सैनिक समस्त जलचर प्राणी डर गये औरबहुत दूर भाग गये।
इस प्रकार बिना वार किये ही हिरण्याक्ष ने अपनी धाक जमा ली।
स वर्षपूगानुदधौ महाबल-श्वरन्महोर्मी ज्छुसनेरितान्मुहु: ।
मौर्व्याभिजघ्ने गदया विभावरी-मासेदिवांस्तात पुरी प्रचेतस: ॥
२६॥
सः--वह; वर्ष-पूगानू--अनेक वर्षों तक; उदधौ--समुद्र में; महा-बलः--शक्तिशाली; चरन्--घूमते हुए; महा-ऊर्मीन्--उत्ताल तरंगें; श्रसन--वायु से; ईरितानू--ऊपर नीचे उठते हुए; मुहुः--पुनः पुनः; मौर्व्या--लोहे की;अभिजघ्ने--वार किया; गदया--गदा से; विभावरीम्--विभावरी; आसेदिवान्--पहुँचा; तात--हे विदुर; पुरीम्--राजधानी; प्रचेतस:--वरुण की हे विदुर
वह महाबली हिरण्याक्ष अनेकानेक वर्षो तक समुद्र में घूमता हुआ वायु सेदोलायमान उत्ताल तरंगों पर अपनी लोहे की गदा से बारम्बार प्रहार करता हुआ वरुण की राजधानी विभावरी में जा पहुँचा।
तत्रोपलभ्यासुरलोकपालक॑यादोगणानामृषभं प्रचेतसम् ।
स्मयन्प्रलब्धुं प्रणिपत्य नीचव-ज्जगाद मे देहयाधिराज संयुगम् ॥
२७॥
तत्र--वहाँ; उपलभ्य--पहुँचकर; असुर-लोक--असुरों के रहने के भूभाग का; पालकम्--रक्षक; यादः-गणानाम्--जलचरों का; ऋषभम्--राजा; प्रचेतसम्--वरुण; स्मयन्--हँसते हुए; प्रलब्धुम्-हँसी उड़ाते;प्रणिपत्य--झुक करके; नीच-वत्--नीच मनुष्य की तरह; जगाद--कहा; मे-- मुझको; देहि--दो; अधिराज--हेमहान् राजा; संयुगम्-युद्ध |
विभावरी वरुण की पुरी है और वरुण समस्त जलचरों का स्वामी तथा ब्रह्माण्ड केअध: क्षेत्रों का रक्षक है, जहाँ सामान्य रूप से असुर वास करते हैं।
वहाँ पहुँचकरहिरण्याक्ष नीच पुरुष के समान वरुण के चरणों पर गिर पड़ा और उसकी हँसी उड़ाने केलिए उसने मुस्कुराते हुए कहा, ' हे परमेश्वर, मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये।
!त्वं लोकपालोधिपतिर्॑हच्छुवावीर्यापहो दुर्मदवीरमानिनाम् ।
विजित्य लोके खिलदैत्यदानवान्यद्राजसूयेन पुरायजत्प्रभो ॥
२८॥
त्वमू--तुम ( वरुण ); लोक-पाल:--लोक का रक्षक; अधिपतिः --शासक; बृहत्ू-श्रवा: --कीर्तिवान्; वीर्य--शक्ति; अपह:--घटा हुआ; दुर्मद--घमंडी का; वीर-मानिनाम्--अपने को महान् वीर समझते हुए; विजित्य--जीतकर; लोके --संसार में; अखिल--समस्त; दैत्य--असुर; दानवान्--दानवों को; यत्--जहाँ से; राज-सूयेन--राजसूय यज्ञ द्वारा; पुरा--प्राचीनकाल में; अथजत्--पूजा की; प्रभो--हे भगवान्
आप समस्त गोलक के रक्षक तथा अत्यन्त कीर्तिवान शासक हैं।
आपने अहंकारी तथा मोहग्रस्त वीरों के दर्प को दल कर तथा इस संसार के सभी दैत्यों तथा दानवों कोजीत कर भगवान् के हेतु एक बार राजसूय यज्ञ सम्पन्न किया था।
स एवमुत्सिक्तमदेन विद्विषाहढं प्रलब्धो भगवानपां पति: ।
रोषं समुत्थं शमयन्स्वया धियाव्यवोचदड्रपशमं गता वयम् ॥
२९॥
सः--वरुण; एवम्--इस प्रकार; उत्सिक्त--चूर; मदेन--मद से; विद्विषा--शत्रु के द्वारा; हहम्--अत्यधिक;प्रलब्ध: --हँसी उड़ाए जाने पर; भगवान्-- पूज्य; अपाम्--जल का; पति: --स्वामी; रोषम्ू--क्रो ध; समुत्थम्--उठकर; शमयन्--शान्त करते हुए; स्वया धिया--अपने तर्क से; व्यवोचत्--उसने उत्तर दिया; अड़-नहे प्रिय;उपशमम्--युद्ध से विरत; गता:--गये हुए; वयम्--हम |
अत्यन्त दंभी शत्रु के द्वारा इस प्रकार उपहास किये जाने पर जल के पूज्य स्वामी कोक्रोध तो आया, किन्तु तर्क के बल पर वे उस क्रोध को पी गये और उन्होंने इस प्रकारउत्तर दिया-हे प्रिय, युद्ध के लिए अत्यधिक बूढ़ा होने के कारण अब मैं युद्ध से दूररहता हूँ।
पश्यामि नान्य॑ पुरुषात्पुरातनाद्यः संयुगे त्वां रणमार्गकोविदम् ।
आराधयिष्यत्यसुरष भेहि तंमनस्विनो य॑ं गृणते भवाहशा: ॥
३०॥
पश्यामि--देखता हूँ; न--नहीं; अन्यम्ू--अन्य; पुरुषातू-पुरुष की अपेक्षा; पुरातनात्--अत्यन्त प्राचीन; यः--जो;संयुगे--युद्ध में; त्वामू--तुमको; रण-मार्ग--युद्ध कला में; कोविदम्--अत्यन्त पटु; आराधयिष्यति--सन्तोषमिलेगा; असुर-ऋषभ--हे असुरों के प्रमुख; इहि--पास जाओ; तम्--उसको; मनस्विन:--बहादुर; यम्--जिसको;गृणते--प्रशंसा करते हैं; भवाहशा: --तुम्हारी तरह ।
तुम युद्ध में इतने कुशल हो कि मुझे परम पुरातन पुरुष भगवान् विष्णु के अतिरिक्तकोई ऐसा नहीं दिखता, जो तुम्हें युद्ध में तुष्टि प्रदान कर सके।
अतः हे असुरश्रेष्ठ, तुमउन्हीं के पास जाओ, जिनकी तुम जैसे योद्धा भी बड़ाई करते हैं।
त॑ वीरमारादभिपद्य विस्मय:शयिष्यसे वीरशये श्रभिर्वृतः ।
यस्त्वद्विधानामसतां प्रशान्तयेरूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥
३१॥
तमू--उसको; वीरम्--परम वीर; आरातू--तुरन््त; अभिपद्य--पहुँचने पर; विस्मय:--गर्व से रहित; शविष्यसे--तुमसो जाओगे; वीरशये--युद्ध भूमि में; श्रभिः--कुत्तों के द्वारा; वृत:--घिरे हुए; यः--जो; त्वत्-विधानाम्ू--तुमसमान; असताम्--दुष्ट पुरुषों का; प्रशान्तये--मार भगाने; रूपाणि--विविध रूप; धत्ते--धारण करता है; सत्--सत्पुरुषों के लिए; अनुग्रह--अपनी कृपा दिखाने के लिए; इच्छया--इच्छा से |
वरुण ने आगे कहा--उनके पास पहुँचते ही तुम्हारा सारा अभिमान दूर हो जाएगाऔर तुम युद्धभूमि में कुत्तों से घिरकर चिर निद्रा में सो जाओगे।
तुम जैसे दुष्टों को मारभगाने तथा सत्पुरुषों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही वे वराह जैसे विविधरूपों में अवतरित होते रहते हैं।
अध्याय अठारह: भगवान सूअर और राक्षस हिरण्यक्ष के बीच लड़ाई
3.18मैत्रेय उवाचतदेवमाकर्ण्य जलेशभाषितंमहामनास्तद्विगणय्य दुर्मदः ।
हरेर्विंदित्वा गतिमड़ नारदाद्रसातलं निर्विविशे त्वरान्वित: ॥
१॥
मैत्रेय:--परम संत मैत्रेय ने; उवाच--कहा; तत्--वह; एवम्--इस प्रकार; आकर्ण्य--सुनकर; जल-ईश--जल कास्वामी, वरुण का; भाषितम्--शब्द; महा-मना: --घमंडी; तत्--वे शब्द; विगणय्य--उपेक्षा करके; दुर्मदः --अहंकारी; हरे: --पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के; विदित्वा--पता लगाकर; गतिम्--पता; अड़--हे विदुर; नारदातू--नारद से; रसातलम्--समुद्र के नीचे; निर्विविशे -- प्रवेश किया; त्वरा-अन्वित:--अत्यन्त वेग से |
मैत्रेय ने आगे कहा-उस घंमडी तथा अभिमानी दैत्य ने वरुण के शब्दों की तनिकभी परवाह नहीं की।
हे विदुर, उसे नारद से श्रीभगवान् के बारे में पता लगा और वहअत्यन्त वेग से समुद्र की गहराइयों में पहुँच गया।
ददर्श तत्राभिजितं धराधरंप्रोन्नीयमानावनिमग्रदंप्टया ।
मुष्णन्तमक्ष्णा स्वरुचोरुणश्रियाजहास चाहो वनगोचरो मृग: ॥
२॥
ददर्श--देखा; तत्र--वहाँ; अभिजितम्--विजयी; धरा--पृथ्वी; धरम्-- धारण किये हुए; प्रोन्नीयमान--ऊपर उठाईजाकर; अवनिम्--पृथ्वी को; अग्र-दंष्रया-- अपनी दाढ़ों की नोक से; मुष्णन्तम्--जो घटा रहा था; अक्षणा--अपनी आँखों से; स्व-रुच:--हिरण्याक्ष का आत्मतेज; अरुण--लाल लाल; श्रिया--चमकीला; जहास--हँसा; च--तथा;अहो--ओह; वन-गोचर:--उभयचर; मृग:--पशु |
वहाँ उसने सर्वशक्तिमान श्रीभगवान् को उनके वराह रूप में, अपनी दाढ़ों केअग्रभाग पर पृथ्वी को ऊपर की ओर धारण किये तथा अपनी लाल लाल आँखों सेउसके समस्त तेज को हरते हुए देखा।
इस पर वह असुर हँस पड़ा और बोला, 'ओह!कैसा उभयचर पशु है ?
आहैनमेह्ज्ञ महीं विमुझ्ञ नोरसौकसां विश्वसृजेयमर्पिता ।
न स्वस्ति यास्यस्यनया ममेक्षतःसुराधमासादितसूकराकृते ॥
३॥
आह-हिरण्याक्ष ने कहा; एनम्ू-- भगवान् से; एहि--आओ और लड़ो; अज्ञ--ओरे मूर्ख; महीम्--पृथ्वी को;विमुशज्न--छोड़ दो; नः--हमारे लिए; रसा-ओकसामू--निम्न लोकों के वासियों का; विश्व-सृजा--ब्रह्माण्ड की सृष्टिकरने वाले के द्वारा; इयम्--यह पृथ्वी; अर्पिता--अर्पित; न--नहीं; स्वस्ति--कल्याण; यास्यसि--तुम जाओगे;अनया--इसके साथ; मम ईक्षत:--मेरे देखते देखते; सुर-अधम--हे देवताओं में नीच; आसादित--लेकर; सूकर-आकृते--वराह का रूप ।
असुर ने भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा--सूकर का रूप धारण किये हुए हेदेवश्रेष्ठ, थोड़ा सुनिये तो।
यह पृथ्वी हम अधोलोक के वासियों को सौंपी जा चुकी है,अतः तुम इसे मेरी उपस्थिति में मुझसे बचकर नहीं ले जा सकते।
त्वं नः सपत्नैरभवाय कि भूृतोयो मायया हन्त्यसुरान्परोक्षजित् ।
त्वां योगमायाबलमल्पपौरुषंसंस्थाप्य मूढ प्रमृजे सुहच्छुच: ॥
४॥
त्वमू--तुम; नः--हम सबके; सपत्नैः:--हमारे शत्रुओं के द्वारा; अभवाय--मारने के लिए; किम्ू--क्या ऐसा ही है;भृतः--पालित; यः--जो; मायया--छल से; हन्ति--मारता है; असुरान्--असुर को; परोक्ष-जित्ू--अदृश्य रहकरजीतने वाला; त्वाम्--तुमको; योगमाया-बलम्--जिसकी शक्ति मोहक शक्ति है; अल्प-पौरुषम्--कम शक्ति वाला;संस्थाप्य--मारकर; मूढ--मूर्ख ; प्रमुजे--दूर कर दूँगा; सुहत्-शुचः--अपने बन्धुओं का शोक |
अरे धूर्त, हमारे शत्रुओं ने हमारे वध के लिए तुम्हें पाला है और तुमने अदृश्य रहकरकुछ असुरों को मार दिया है।
ओरे मूर्ख! तुम्हारी शक्ति केवल योगमाया है, अतः आज मैंतुम्हें मारकर अपने बन्धुओं का शोक दूर कर दूँगा।
त्वयि संस्थिते गदया शीर्णशीर्ष-ण्यस्मद्भुजच्युतया ये च तुभ्यम् ।
बलिं हरन्त्यूषयो ये च देवा:स्वयं सर्वे न भविष्यन्त्यमूला: ॥
५॥
त्वयि--जब तुम; संस्थिते--मारे जाओगे; गदया--गदा से; शीर्ण--छिन्न भिन्न; शीर्षणि-- सिर; अस्मत्-भुज--मेरेहाथ से; च्युतया--छूटी हुई; ये--जो; च--तथा; तुभ्यम्ू--तुमको; बलिम्--भेंट; हरन्ति-- प्रदान करते हैं;ऋषय:--ऋषिगण; ये-- जो; च--तथा; देवा: --देवता; स्वयम्--अपने आप; सर्वे--सभी; न--नहीं; भविष्यन्ति--होंगे; अमूला:--बिना जड़ के, निराधार।
असुर ने आगे कहा--जब मेरी भुजाओं से फेंकी गई गदा द्वारा तुम्हारा सिर फटजाएगा और तुम मर जाओगे तो वे देवता तथा ऋषि जो तुम्हें भक्तिवश नमस्कार करतेतथा भेंट चढ़ाते हैं, स्वतः मृत हो जाएँगे जिस प्रकार बिना जड़ के वृश्ष नष्ट हो जाते हैं।
स तुद्यमानोरिदुरुक्ततोमरै-दष्टाग्रगां गामुपलक्ष्य भीताम् ।
तोदं मृषन्निरगादम्बुमध्याद्ग्राहहतः सकरेणुर्यथेभ: ॥
६॥
सः--वह; तुद्यमान:--सताया जाकर; अरि--शत्रु का; दुरुक्त-दुर्वचनों से; तोमरै:--आयुधों से; दंघ्ट-अग्र--अपनीदाढ़ों के अग्र भाग पर; गाम्--स्थित; गाम्--पृथ्वी को; उपलक्ष्य--देखकर; भीताम्-- भयभीत; तोदम्--पीड़ा;मृषन्--सहते हुए; निरगातू--बाहर निकल आया; अम्बु-मध्यात्--जल के भीतर से; ग्राह--घड़ियाल से; आहत: --आक्रमण किया गया; स-करेणु: --हथिनी सहित; यथा--जिस प्रकार; इभ: --हा थी |
यद्यपि भगवान् असुर के तीर सहृश बेधने वाले दुर्वचनों से अत्यन्त पीड़ित हुए थे,किन्तु उन्होंने इस पीड़ा को सह लिया।
वे अपनी दाढ़ों के अग्रभाग पर स्थित पृथ्वी कोभयभीत देखकर जल में से निकलकर उसी प्रकार बाहर आ गये जिस प्रकार घड़ियालद्वारा आक्रमण किये जाने पर हाथी अपनी सहचरी हथिनी के साथ बाहर आ जाता है।
त॑ निःसरन्तं सलिलादनुद्गुतोहिरण्यकेशो द्विरदं यथा झष: ।
करालदंष्टो शनिनिस्वनोब्रवीद्गतहियां किं त्वसतां विगर्हितम् ॥
७॥
तम्--उसको; निःसरन्तम्--बाहर निकलते हुए; सलिलातू--जल से; अनुद्गुतः--पीछा किया गया; हिरण्य-केश:--सुनहले बालों वाला; द्विरदम्--हाथी; यथा--जिस प्रकार; झष:--मकर, घड़ियाल; कराल-दंष्ट:--अत्यन्त भयावनेदाँतों वाला; अशनि-निस्वन:--बिजली के समान कड़कते हुए; अब्रवीत्--बोला; गत-हियाम्--निर्लज; किम्--क्या; तु--निस्सन्देह; असताम्--दुष्टों के लिए; विगर्हितम्--निन्दनीय |
सुनहले बालों तथा भयावने दाँतों वाले उस असुर ने जल से निकलते हुए भगवान्का उसी प्रकार पीछा किया जिस प्रकार कोई घड़ियाल हाथी का पीछा कर रहा हो।
उसने बिजली के समान कड़क कर कहा, 'क्या तुम अपने ललकारने वाले प्रतिद्वन्द्दी केसमक्ष इस प्रकार भागते हुए लज्जित नहीं हुए हो ?'! निर्लज्ज प्राणियों के लिए कुछ भीनिन्दनीय नहीं है।
स गामुद॒स्तात्सलिलस्य गोचरेविन्यस्य तस्यामदधात्स्वसत्त्वम् ।
अभिष्ठृतो विश्वसृजा प्रसूने-रापूर्यमाणो विबुधे: पश्यतोउरे: ॥
८॥
सः--वह ( भगवान् ); गाम्--पृथ्वी को; उदस्तातू--सतह पर; सलिलस्य--जल की; गोचरे-- अपनी दृष्टि केअन्तर्गत; विन्यस्थ--रखकर; तस्याम्-पृथ्वी को; अदधात्--सञ्ञार किया; स्व--अपना, निज; सत्त्वम्--अस्तित्व;अभिष्ठृत:-- प्रशंसा की; विश्व-सृजा--ब्रह्मा ( ब्रह्माण्ड के सृष्टा ) द्वारा; प्रसूने: --फूलों से; आपूर्यमाण: --प्रसन्नहोकर; विबुधेः--देवताओं द्वारा; पश्यतः --देखते हुए; अरेः--शत्रु के
भगवान् ने पृथ्वी को लाकर जल की सतह पर अपनी दृष्टि के सामने रख छोड़ा औरअपनी निजी शक्ति को उसमें स्थानान्तरित कर दिया जिससे वह जल पर तैरती रहे।
शत्रुके देखते-देखते, ब्रह्माण्ड के सत्रष्टा ब्रद्माजी ने उनकी स्तुति की और अन्य देवताओं नेउन पर फूलों की वर्षा की।
परानुषक्त तपनीयोपकल्पंमहागदं काझ्जनचित्रदंशम् ।
मर्माण्यभीष्षणं प्रतुदन्तं दुरुक्तै:प्रचण्डमन्यु: प्रहसंस्तं बभाषे ॥
९॥
परा--पीछे से; अनुषक्तम्--पीछा करते हुए; तपनीय-उपकल्पम्-- प्रचुर स्वर्ण आभूषण धारण किये हुए; महा-गदम्--भारी गदा सहित; काझ्जन--स्वर्णिम; चित्र--सुन्दर; दंशम्--कवच; मर्माणि--अन्तस्तल; अभीक्षणम् --लगातार; प्रतुदन््तम्--बेधकर; दुरुक्तै:--दुर्वचनों से; प्रचण्ड--उग्र; मन्यु:--क्रोध; प्रहसन्--हँसते हुए; तम्--उससे;बभाषे--कहा।
शरीर में प्रचुर आभूषण, कंकण तथा सुन्दर स्वर्णिय कवच धारण किये हुए वहअसुर एक बड़ी सी गदा लिए भगवान् का पीछा कर रहा था।
भगवान् ने उसके भेदनेवाले दुर्बचचनों को तो सहन कर लिया, किन्तु प्रत्युत्तर में उन्होंने अपना प्रचण्ड क्रोध व्यक्तकिया।
श्रीभगवानुवाचसत्यं बयं भो वनगोचरा मृगायुष्मद्विधान्मृगये ग्रामसिंहान् ।
न मृत्युपाशै: प्रतिमुक्तस्थ वीराविकत्थनं तव गृहन्त्यभद्र ॥
१०॥
श्री-भगवान् उबाच-- श्रीभगवान् ने कहा; सत्यम्--निस्सन्देह; वयम्--हम; भो:--ओरे; वन-गोचरा: -- जंगल में वासकरने वाले; मृगा: -- प्राणी; युष्मत् -विधान्-- तुम्हारे जैसों को; मृगये--मारने के लिए खोज रहा हूँ; ग्राम-सिंहानू--कुत्ते; न--नहीं; मृत्यु-पाशैः --मृत्यु के फन्दे से; प्रतिमुक्तस्य--बद्धजीवों का; बीरा:--वीर पुरुष; विकत्थनम्--आत्मए्लाघा; तब--तुम्हारा; गृह्वन्ति-- ध्यान देते हैं; अभद्र--ओरे दुष्ट |
भगवान् ने कहा--सचमुच हम जंगल के प्राणी हैं और तुम जैसे ही शिकारी कुत्तोंका हम पीछा कर रहे हैं।
जो मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो चुका है, वह तुम्हारी आत्मश्लाघासे नहीं डरता, क्योंकि तुम मृत्यु-बन्धन के नियमों से बँधे हुए हो।
एते वयं न्यासहरा रसौकसांगतहियो गदया द्रावितास्ते ।
तिष्ठामहेथापि कथश्ञिदाजौस्थेयं क्व यामो बलिनोत्पाद्य वैरम् ॥
११॥
एते--अपने आप; वयम्--हम; न््यास-- धरोहर का; हरा:--चोर; रसा-ओकसाम्--रसातल के वासियों का; गत-हियः--निर्लजज; गदया--गदा से; द्राविता:--पीछा किया जाकर; ते--तुम्हारा; तिष्ठामहे--हम बैठे रहेंगे; अथअपि--तो भी; कथज्चलित्--कुछ-कुछ; आजौ--युद्धभूमि में; स्थेयम्--हम ठहर सकें; क्ब--कहाँ; याम:--हम जासकते हैं; बलिना--शक्तिशाली शत्रु से; उत्पाद्य-उत्पन्न करके; वैरम्--शत्रुता
निस्सन्देह मैंने रसातलवासियों की धरोहर चुरा ली है और सारी शर्म खो दी है।
यद्यपि तुम्हारी शक्तिशाली गदा से मुझे कष्ट हो रहा है, किन्तु मैं जल में कुछ काल तकऔर रहूँगा क्योंकि तुम जैसे पराक्रमी शत्रु से शत्रुता ठान कर अन्यत्र जाने के लिए मेरेपास कोई ठौर भी नहीं है।
त्वं पद्रथानां किल यूथपाधिपोघटस्व नो<स्वस्तय आश्वनूहः ।
संस्थाप्य चास्मान्प्रमृजा श्रु स्वकानांयः स्वां प्रतिज्ञां नातिपिपर्त्सस भ्य: ॥
१२॥
त्वमू--तुम; पद्ू-रथानामू--पैदल सैनिकों का; किल--निस्सन्देह; यूथप--नायकों का; अधिप:--सरकार;घटस्व--प्रयत्त करो; न:--हमारा; अस्वस्तये--हार के लिए; आशु--शाधघ्रतापूर्वक; अनूह:--बिना विचार किए;संस्थाप्प--मार कर; च--तथा; अस्मान्ू--हमको; प्रमूज--पोछ डालो; अश्रु-- आँसू; स्वकानाम्-- अपने सम्बन्धियोंका; यः--वह जो; स्वाम्ू--अपना, निज; प्रतिज्ञाम्ू-प्रतिज्ञा किये हुए वचन; न--नहीं; अतिपिपर्ति-- पूरा करते हैं;असभ्य:--सभा के अयोग्य
तुम पैदल सेना के नायक की तरह हो अतः तुम शीघ्र ही हमें हराने का प्रयत्न करो।
तुम अपनी बकवास बन्द कर दो और हमारा वध करके अपने सम्बन्धियों की चिन्ताओंको मिटा दो।
कोई भले ही गर्वित हो, किन्तु यदि वह जो अपने दिये गये बचनों( प्रतिज्ञा ) को पूरा नहीं कर पाता, सभा में आसन प्राप्त करने का पात्र नहीं है।
मैत्रेय उवाचसोधिक्षिप्तो भगवता प्रलब्धश्न रुषा भूशम् ।
आजहारोल्बणं क्रोधं क्रीड्यमानोहिराडिव ॥
१३॥
मैत्रेय:--परम ऋषि मैत्रेय ने; उवाच--कहा; सः--असुर ने; अधिक्षिप्त:--अपमानित होकर; भगवता-- भगवान्द्वारा; प्रलब्ध:--उपहास किया; च--तथा; रुषा--कुद्ध; भूशम्-- अत्यधिक; आजहार--जुटाया; उल्बणम्--अधिक; क्रोधम्ू--क्रोध, गुस्सा; क्रीड्यमान:--खेला जाकर; अहि-राट्ू--विशाल विषधर ( सर्प ); इब--सहृश |
श्रीमैत्रेय ने कहा--जब श्रीभगवान् ने उस राक्षस को इस प्रकार ललकारा तो वहक्रुद्ध और क्षुब्ध हुआ और क्रोध से इस प्रकार काँपने लगा, जिस प्रकार छेड़ा गया हुआविषधर सर्प।
सृजन्नमर्षित: श्वासान्मन्युप्रचलितेन्द्रिय: ।
आसाद्य तरसा दैत्यो गदया न्यहनद्धरिम् ॥
१४॥
सृजन्--निकालते हुए; अमर्षित:--अत्यन्त क्रुद्ध; श्रासानू--साँसें; मन्यु--क्रो ध से; प्रचलित--विश्लुब्ध; इन्द्रिय:--जिसकी इन्द्रियाँ; आसाद्य--आक्रमण करके; तरसा--शीकघ्रता से; दैत्यः--असुर; गदया--गदा से; न््यहनत्--वारकिया; हरिम्ू-- भगवान् हरि पर।
क्रोध के मारे सारे अंगों को कँपाते तथा फुफकारता हुआ वह राक्षस तुरन्त भगवान्के ऊपर झपट पड़ा और उस ने अपनी शक्तिशाली गदा से उन पर प्रहार किया।
भगवांस्तु गदावेगं विसृष्टे रिपुणोरसि ।
अवज्जञयत्तिरश्नीनो योगारूढ इवान्तकम् ॥
१५॥
भगवानू-- भगवान्; तु--लेकिन; गदा-वेगम्--गदा के प्रहार को; विसृष्टम्--चलाया गया; रिपुणा--शत्रु द्वारा;उरसि--वक्षस्थल पर; अवज्ञयत्-- धोखा देते हुए; तिरश्लीन:--एक ओर; योग-आरूढ:--सिद्ध योगी; इब--सहृश;अन्तकम्- मृत्यु
किन्तु भगवान् ने एक ओर सरक कर शत्रु द्वारा अपने वक्षस्थल पर चलाई गई गदाके प्रखर प्रहार को उसी प्रकार झुठला दिया जिस प्रकार सिद्ध योगी मृत्यु को चकमा देदेता है।
पुनर्गदां स्वामादाय भ्रामयन्तमभीक्ष्णश: ।
अभ्यधावद्धरि: क्रुद्ध: संरम्भाइृष्टदच्छदम् ॥
१६॥
पुन:ः--फिर; गदाम्--गदा; स्वामू--अपना; आदाय--लेकर; भ्रामयन्तम्--घुमाता हुआ; अभीक्ष्णश: --बारम्बार;अभ्यधावत्--भेंट करने के लिए दौड़ा; हरिः-- श्रीभगवान्; क्रुद्ध:--नाराज; संरम्भात्--क्रोध में; दष्ट--काटताहुआ, चबाता हुआ; दच्छदम्-- अपना होठ।
तब श्री भगवान् अपना क्रोध प्रदर्शित करते हुए उस राक्षत की ओर झपटे जो क्रोधके कारण अपने होठ चबा रहा था।
उसने फिर से अपनी गदा उठाई और उसे बारम्बारघुमाने लगा।
ततश्न गदयारातिं दक्षिणस्यां भ्रुवि प्रभु: ।
आजल्ने स तु तां सौम्य गदया कोविदोहनत् ॥
१७॥
ततः--तब; च--तथा; गदया--अपनी गदा से; अरातिम्--शत्रु को; दक्षिणस्थाम्--दाई ओर; भ्रुवि--भौंह पर;प्रभु:-- भगवान् ने; आजघ्ने-- प्रहार किया; सः-- भगवान्; तु--लेकिन; तामू--गदा; सौम्य--हे भद्गर विदुर;गदया-- अपनी गदा से; कोविद: --कुशल; अहनत्--उसने अपने को बचा लिया।
तब भगवान् ने अपनी गदा से शत्रु की दाहिनी भौंह पर प्रहार किया, किन्तु वहअसुर युद्ध में कुशल था, इसलिए, हे भद्र विदुर, उसने अपनी गदा की चाल से अपनेआपको बचा लिया।
एवं गदाभ्यां गुर्वीभ्यां हर्यक्षो हरिरिव च ।
जिगीषया सुसंरब्धावन्योन्यमभिजष्नतु: ॥
१८॥
एवम्--इस प्रकार; गदाभ्याम्--अपनी गदाओं से; गुर्वी भ्यामू--विशाल; हर्यक्ष:--हर्यक्ष नामक असुर ( हिरण्याक्ष );हरिः-- भगवान् हरि; एबव--निश्चय ही; च--तथा; जिगीषया--विजय की लालसा से; सुसंरब्धौ--क्रुद्ध;अन्योन्यम्--परस्पर; अभिजष्नतु: --उन्होंने प्रहार किया |
इस प्रकार असुर हिरण्याक्ष तथा भगवान् हरि ने एक दूसरे को जीतने की इच्छा सेक्रुद्ध होकर अपनी अपनी विशाल गदाओं से एक-दूसरे पर प्रहार किया।
तयोः स्पृधोस्तिग्मगदाहताडुुयो:क्षतास्त्रवष्राणविवृद्धमन्य्वो: ।
विचित्रमार्गाश्चरतोर्जिंगीषयाव्यभादिलायामिव शुष्मिणोर्मुध: ॥
१९॥
तयो:--उन दोनों में; स्पृधो: --दोनों प्रतिस्पर्धा करने वाले; तिग्म--नुकीली; गदा--गदाओं से; आहत--घायल;अड्डयो:--उनके शरीर; क्षत-आस्त्रव--घावों से बहता रक्त; प्राण--गन्ध; विवृद्ध--बढ़ गई; मन्य्वो:--क्रो ध;विचित्र-- अनेक प्रकार के; मार्गानू--चालें; चरतो: --करते हुए; जिगीषया--जीतने की इच्छा से; व्यभात्ू--केसमान प्रतीत होता था; इलायाम्--गाय ( अथवा पृथ्वी ) के लिए; इब--सहृश; शुष्मिणो: --दो साँड़ों की; मृथः --मुठभेड़
दोनों योद्धाओं में तीखी स्पर्धा थी, दोनों के शरीरों पर एक दूसरे की नुकीलीगदाओं से चोटें लगी थीं और अपने-अपने शरीर से बहते हुए रक्त की गन्ध से वेअधिकाधिक क्रुद्ध हो चले थे।
जीतने की उत्कण्ठा से वे तरह-तरह की चालें चल रहे थेऔर उनकी यह मुठभेड़ बैसी ही प्रतीत होती थी जैसे किसी गाय के लिए दो बलवानसाँड़ लड़ रहे हों।
दैत्यस्य यज्ञावयवस्य माया-गृहीतवाराहतनोर्महात्मन: ।
कौरव्य मझ्ां द्विषतोर्विमर्दनदिदृक्षुरागाह्ृषिभिर्वृतः स्वराट् ॥
२०॥
दैत्यस्य--असुर का; यज्ञ-अवयवस्य-- श्री भगवान् का ( यज्ञ जिसके शरीर का एक अंग है ); माया--अपनी शक्तिसे; गृहीत-- धारण किया गया; वाराह--सूकर का; तनो: --जिसका रूप; महा-आत्मन: --परमे श्वर का; कौरव्य--हेविदुर ( कौरवों के वंशज ); मह्याम्ू--संसार के कल्याण हेतु; द्विषतो:--दोनों शत्रुओं का; विमर्दनम्ू-युद्ध;दिदक्षु:--देखने के लिए इच्छुक; आगात्--आये; ऋषिभि: --ऋषियों द्वारा; वृत:--साथ साथ आये हुए; स्वराट्--ब्रह्माहे कुरुवंशी
वाराह रूप में प्रकट श्री भगवान् तथा असुर के मध्य विश्व के निमित्तहोने वाले इस भयंकर युद्ध को संसार के हेतु देखने के लिए ब्रह्माण्ड के परम स्वतन्त्रदेवता ब्रह्म अपने अनुयायियों सहित आये।
आसन्नशौण्डीरमपेतसाध्वसंकृतप्रतीकारमहार्यविक्रमम् ।
विलक्ष्य दैत्यं भगवान्सहस्त्रणी-ज॑गाद नारायणमादिसूकरम् ॥
२१॥
आसन्न-प्राप्त करके; शौण्डीरम्--शक्ति; अपेत--विहीन; साध्वसम्-- भय; कृत--करके ; प्रतीकारम्--विरोध;अहार्य--निर्विरोध होकर; विक्रमम्-शक्ति युक्त; विलक्ष्य--देखकर; दैत्यम्ू--असुर को; भगवान्-- पूज्य ब्रह्मा ने;सहस्त्र-नी:--हजारों ऋषियों के नायक; जगाद--सम्बोधित किया; नारायणम्-- भगवान् नारायण को; आदि--मूल;सूकरम्ू--सूकर रूप |
युद्धस्थल में पहुँचकर हजारों ऋषियों तथा योगियों के नायक ब्रह्माजी ने असुर कोदेखा, जिसने अभूतपूर्व शक्ति प्राप्त कर ली थी जिससे कोई भी उससे युद्ध नहीं करसकता था।
तब ब्रह्मा ने आदि सूकर रूप धारण करने वाले नारायण को सम्बोधितकिया।
एष ते देव देवानामड्प्रिमूलमुपेयुषाम् ।
विप्राणां सौरभेयीणां भूतानामप्यनागसाम् ॥
२२॥
आगम्स्कृद्धयकृदुष्कृदस्मद्राद्धवरो सुर: ।
अन्वेषन्नप्रतिरथो लोकानटति कण्टक: ॥
२३॥
ब्रह्मा उवाच--ब्रह्माजी ने कहा; एष:--यह असुर; ते--आपका; देव--हे भगवान्; देवानामू--देवताओं का; अड्प्रि-मूलम्ू--आपके चरण; उपेयुषाम्--शरणागत; विप्राणाम्--ब्राह्मणों को; सौरभेयीणाम्--गायों को; भूतानाम्--सामान्य जीवात्माओं को; अपि-- भी; अनागसाम्--निर्दोष; आग: -कृत्-- अपराधी; भय-कृत्-- भय का कारण;दुष्कृतू-दोषी; अस्मत्--मुझसे; राद्ध-वरः --वरदान प्राप्त; असुर:ः--असुर; अन्वेषन्-ढँढ़ते हुए; अप्रतिरथ:--योग्यजोड़ न होने से; लोकान्ू--समूचे ब्रह्माण्ड में; अटति--घूमता है; कण्टक:ः--सबों के लिए काँटे के समान बनाहुआ।
ब्रह्माजी ने कहा--हे भगवन्, यह राक्षस, देवताओं, ब्राह्मणों, गौवों तथा आपकेचरणकमलों में समर्पित निष्कलुष व्यक्तियों के लिए निरन्तर चुभने वाला काँटा बनाहुआ है।
उन्हें अकारण सताते हुए यह भय का कारण बन गया है।
इन्हें अकारण सतातेहुए यह भय का कारण बन गया है।
मुझसे वरदान प्राप्त करने के कारण यह असुर बनाहै और समस्त भूमण्डल में अपनी जोड़ के योद्धा की तलाश में इस अशुभ कार्य के लिए घूमता रहता है।
मैनं मायाविनं हप्तं निरद्भु शमसत्तमम् ।
आक्रीड बालवद्देव यथाशीविषमुत्थितम् ॥
२४॥
मा--मत; एनम्--उसको; माया-विनम्ू--माया करने वाला; हप्तम्--हेकड़ीबाज; निरड्ठु शम्--आत्मनिर्भर; असत्ू-तमम्--अत्यन्त दुष्ट; आक्रीड--खेल करें; बाल-वत्--बच्चे के समान; देव--हे भगवान्; यथा--जिस प्रकार;आशीविषमू--सर्प; उत्थितम्--जगा हुआ
ब्रह्मजी ने आगे कहा-हहे भगवन्इस सर्पतुल्य असुर से खेल करने कीआवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह सदेव मायावी करतब में दक्ष तथा हेकड़ी बाज है,साथ ही निरंकुश एवं अत्यधिक दुष्ट भी।
न यावदेष वर्धत स्वां वेलां प्राप्प दारुण: ।
स्वां देव मायामास्थाय तावजहाघमच्युत ॥
२५॥
न यावत्--इसके पूर्व कि; एष:--यह असुर; वर्धत--बढ़े; स्वाम्--स्वत:; वेलाम्--आसुरी वेला; प्राप्य--प्राप्तकरके; दारुण:-- भयंकर, दुर्जय; स्वाम्ू--निजी; देव--हे भगवान्; मायाम्--अन्तरंगा शक्ति; आस्थाय--प्रयोगकरके; तावत्--तुरन्त; जहि--मार डालें; अघम्--पापी; अच्युत--हे अच्युत या अमोघ |
ब्रह्माजी ने आगे कहा--हे भगवान्, आप अच्युत हैं।
कृपा करके इस पापी असुर कोइसके पूर्व कि आसुरी घड़ी आए और यह अपने अनुकूल दूसरा भयंकर शरीर धारण करसके, आप इसका वध कर दें।
निस्सन्देह आप इसे अपनी अन्तरंगा शक्ति से मार सकतेहैं।
एषा घोरतमा सन्ध्या लोकच्छम्बट्करी प्रभो ।
उपसर्पति सर्वात्मन्सुराणां जयमावह ॥
२६॥
एषा--यह; घोर-तमा--परम अँधेरी; सन्ध्या--सायंकाल; लोक--संसार; छम्बटू-करी--विनाशकारी; प्रभो--हेभगवान्; उपसर्पति--पास आती है; सर्व-आत्मन्ू--समस्त आत्माओं का आत्मा, परमात्मा; सुराणामू--देवताओं का;जयम्--विजय; आवह--लाएं |
हे भगवन्, संसार को आच्छादित करने वाली अत्यन्त अँधेरी सन्ध्या वेला निकट आरही है चूँकि आप सभी आत्माओं के आत्मा हैं, अतः आप इसका वध करके देवताओंको विजयी बनाएँ।
अधुनैषोभिजिन्नाम योगो मौहूर्तिको हागात् ।
शिवाय नस्त्वं सुहृदामाशु निस्तर दुस्तरम् ॥
२७॥
अधुना--इस समय; एष: --यह; अभिजित् नाम--अभिजित कहलाने वाला; योग: --शुभ; मौहूर्तिक:--घड़ी; हि--निस्सन्देह; अगात्-- प्रायः बीत चुकी है; शिवाय--कल्याण के लिए; नः--हम सबों के; त्वमू--तुम ( आप );सुहृदाम्--अपने मित्रों का; आशु--तुरन््त; निस्तर--निपट लीजिये; दुस्तरम्-दुर्जय शत्रु॥
विजय के लिए सर्वाधिक उपयुक्त अभिजित नामक शुभ मुहूर्त (घड़ी ) का योग दोपहर से हो चुका है और अब बीतने ही वाला है, अतः अपने मित्रों के हित में आप इसदुर्जय शत्रु का अविलम्ब सफाया कर दें।
दिष्टद्या त्वां विहितं मृत्युमपमासादितः स्वयम् ।
विक्रम्यैनं मृथे हत्वा लोकानाधेहि शर्मणि ॥
२८ ॥
दिष्टायया--सौभाग्यवश; त्वामू-- तुमको; विहितम्--विहित; मृत्युमू--मृत्यु; अयम्--यह असुर; आसादितः--आया है;स्वयम्--स्वेच्छा से; विक्रम्य--अपना शौर्य प्रदर्शन करके; एनम्--उसको; मृधे--द्व्व में; हत्वा--मारकर;लोकान्--लोकों को; आधेहि--स्थापित करें; शर्मणि--शान्ति में |
सौभाग्य से यह असुर स्वेच्छा से आपके पास आया है और आपके द्वारा ही इसकीमृत्यु विहित है, अतः आप इसे अपने ढंग से युद्ध में मारिये और लोकों में शान्ति स्थापितकीजिये।
अध्याय उन्नीस: राक्षस हिरण्याक्ष का वध
3.19मैत्रेय उवाचअवधार्य विरिज्ञस्य निर्व्यलीकामृतं बच: ।
प्रहस्यप्रेमगर्भग तदपाड्रेन सोग्रहीत् ॥
१॥
मैत्रेय: उबाच--मैत्रेय ने कहा; अवधार्य--सुनकर; विरिक्लस्थ--ब्रह्माजी का; निर्व्यलीक--समस्त पापों से मुक्त;अमृतम्ू--अमृतमय; बच: --शब्द; प्रहस्थ--खूब हँसकर; प्रेम-गर्भग--प्रेम से पूरित; तत्--वे शब्द; अपाड्रेन--चितवन से; सः-- श्रीभगवान् ने; अग्रहीत्--स्वीकार किया।
श्री मैत्रेय ने कहा-स्त्रष्टा ब्रह्म के निष्पाप, निष्कपट तथा अमृत के समान मधुरवचनों को सुनकर भगवान् जीभरकर हँसे और उन्होंने प्रेमपूर्ण चितवन के साथ उनकीप्रार्थना स्वीकार कर ली।
ततः सपत्न॑ मुखतश्चरन्तमकुतोभयम् ।
जघानोत्पत्य गदया हनावसुरमक्षज: ॥
२॥
ततः--तब; सपतलम्--शत्रु; मुखत:--समक्ष; चरन्तमू--विचरण करते हुए; अकुतः-भयम्--निर्भीक; जघान-- प्रहारकिया; उत्पत्य--उछल कर; गदया--अपनी गदा से; हनौ--ठोड़ी पर; असुरम्-- असुर; अक्ष-ज:--ब्रह्मा के नथुने सेउत्पन्न भगवान् ने
ब्रह्मा के नथुने से प्रकट भगवान् उछल पड़े और अपने सामने निर्भय होकर विचरणकरने वाले अपने असुर शत्रु हिरण्याक्ष की ठोड़ी पर उन्होंने अपनी गदा से प्रहार किया।
साहता तेन गदया विहता भगवत्करात् ।
विघूर्णितापतद्रेजे तदद्भुतमिवाभवत् ॥
३॥
सा--वह गदा; हता-- प्रहार की गई; तेन--हिरण्याक्ष द्वारा; गदया--उसकी गदा से; विहता--छुट गयी; भगवत्--श्रीभगवान् के; करात्--हाथ से; विघूर्णिता--घूमती हुई; अपतत्--गिर पड़ी; रेजे--चमक रही थी; तत्--वह;अद्भुतम्-विचित्र; इब--निस्सन्देह; अभवत्--था।
किन्तु असुर की गदा से टकराकर भगवान् की गदा उनके हाथ से छिटक गई औरघूमती हुई जब वह नीचे गिरी तो अत्यन्त मनोरम लग रही थी।
यह अद्भुत दृश्य था,क्योंकि गदा विचित्र ढंग से प्रकाशमान थी।
स तदा लब्धतीर्थोडपि न बबाधे निरायुधम् ।
मानयन्स मृधे धर्म विष्वक्सेनं प्रकोपयन् ॥
४॥
सः--उस हिरण्याक्ष ने; तदा--तब; लब्ध-तीर्थ:--सुअवसर पाकर; अपि--यद्यपि; न--नहीं; बबाधे-- आक्रमणकिया; निरायुधम्--अस्त्र-शस्त्र विहीन; मानयनू--आदर करते हुए; सः--हिर ण्याक्ष; मृधे--युद्ध में; धर्मम्-युद्धकी आचार संहिता; विष्वक्सेनम्-- श्री भगवान् ने; प्रकोपयन्--कुपित हो करके |
यद्यपि हिरण्याक्ष को अपने निरस्त्र शत्रु पप बिना किसी रुकावट के वार करने काअच्छा अवसर प्राप्त हुआ था, किन्तु उसने युद्ध-धर्म का आदर किया जिससे किश्रीभगवान् का रोष बढ़ जाए।
गदायामपविद्धायां हाहाकारे विनिर्गते ।
मानयामास तद्धर्म सुनाभं चास्मरद्विभु: ॥
५॥
गदायाम्--ज्योंही उनकी गदा; अपविद्धायाम्--गिरी; हाहा-कारे--हाहाकार, कुहराम; विनिर्गते--मच गया; मानयाम्आस--स्वीकार किया; तत्--हिरण्याक्ष की; धर्मम्--सत्यता; सुनाभम्ू--सुदर्शन चक्र; च--तथा; अस्मरत्--स्मरणकिया; विभुः-- श्रीभगवान् ने
ज्योंही भगवान् की गदा भूमि पर गिर गई और देखने वाले देवताओं तथा ऋषियों केसमूह में हाहाकार मच गया, त्योंही श्रीभगवान् ने असुर की धर्मप्रियता की प्रशंसा कीऔर फिर अपने सुदर्शन चक्र का आवाहन किया।
त॑ व्यग्रचक्रं दितिपुत्राधमेनस्वपार्षदमुख्येन विषज्ञमानम् ।
चित्रा वाचोतद्विदां खेचराणांतत्र स्मासन्स्वस्ति तेडमुं जहीति ॥
६॥
तमू-- श्री भगवान् को; व्यग्र--घूमते हुए; चक्रमू--जिसका चक्र; दिति-पुत्र--दिति का पुत्र; अधमेन--नीच; स्व-पार्षद--अपने सहयोगियों का; मुख्येन-- प्रमुख सहित; विषज्ञमानम्ू--खेलते हुए; चित्रा:--विविध; वाच: --अभिव्यक्तियाँ; अ-ततू-विदाम्--न जानने वालों का; खे-चराणाम्--आकाश् में उड़ते हुए; तत्र--वहाँ; सम आसनू--घटित हुआ; स्वस्ति--कल्याण; ते--आपका; अमुम्--उसको; जहि--मार डालें; इति--इस प्रकार।
जब चक्र भगवान् के हाथों में घूमने लगा और वे अपने बैकुण्ठवासी पार्षदों केमुखिया से, जो दिति के नीच पुत्र हिरण्याक्ष के रूप में प्रकट हुआ था, खेलने लगे तोअपने-अपने विमानों से देखने वाले देवता इत्यादि प्रत्येक दिशा से विचित्र-विचित्र शब्दनिकालने लगे।
उन्हें भगवान् की वास्तविकता ज्ञात न थी, अतः वे उद्घोष करने लगे' आपकी जय हो, कृपा करके उसे मार डालें, अब उसके साथ अधिक खिलवाड़ नकरें।
'सतं निशाम्यात्तरथाड्रमग्रतोव्यवस्थितं पद्यापलाशलोचनम् ।
विलोक्य चामर्षपरिप्लुतेन्द्रियोरुषा स्वदन्तच्छदमादशच्छुसन् ॥
७॥
सः--उस असुर ने; तम्-- श्रीभगवान् को; निशाम्य--देखकर; आत्त-रथाड्रम्--सुदर्शन चक्र धारण किए हुए;अग्रतः--समक्ष; व्यवस्थितम्--खड़े हुए; पद्य--कमल-पुष्प; पलाश--पंखड़ियाँ; लोचनम्--नेत्र; विलोक्य--देखकर; च--यथा; अमर्ष--क्रोध से; परिप्लुत--तिलमिलाई हुई; इन्द्रियः --उसकी इन्द्रियाँ; रुषा--अत्यन्त रोष से;स्व-दन्त-छदम्-- अपने ही होंठ; आदशत्--काट लिया; श्वसन्ू--फुफकारता।
जब असुर ने कमल की पंखड़ियों जैसे नेत्र वाले श्रीभगवान् को सुदर्शन चक्र सेयुक्त अपने समक्ष खड़ा देखा तो क्रोध के मारे उसके अंग तिलमिला उठे।
वह साँप कीतरह फुफकारने लगा और अत्यन्त क्रोध में अपने ही होठ चबाने लगा।
करालदंष्टश्चक्षु भ्या सञ्ञक्षाणो दहन्निव ।
अभिप्लुत्य स्वगदया हतोउसीत्याहनद्धरिम् ॥
८ ॥
कराल-भयावने; दंष्टः--दाढ़ों वाले; चक्षुभ्याम्-दोनों आँखों से; सञ्ञक्षाण:--घूरते हुए; दहन्ू--जलता हुआ;इब--मानो; अभिष्लुत्य-- आक्रमण करके; स्व-गदया--अपनी गदा से; हतः--बधे हुए; असि--तुम हो; इति--इसप्रकार; आहनत्-- प्रहार किया; हरिम्--हरि पर।
भयावनी दाढ़ों वाला वह असुर श्रीभगवान् को इस प्रकार घूर रहा था मानो वह उन्हेंभस्म कर देगा।
उसने हवा में उछलकर भगवान् पर अपनी गदा तानी और तभी जोर सेचीखा, 'तुम मारे जा चुके।
'पदा सव्येन तां साधो भगवान्यज्ञसूकरः ।
लीलया मिषत: शत्रोः प्राहरद्वातरंहसम् ॥
९॥
पदा--अपने पाँव से; सव्येन--बायें; तामू--उस गदा को; साधो--हे विदुर; भगवान्-- श्रीभगवान्; यज्ञ-सूकर:--समस्त यज्ञों के भोक्ता, अपने शूकर रूप में; लीलया--खिलवाड़ में; मिषतः--देखते हुए; शत्रो:--अपने शत्रु( हिराण्याक्ष ) का; प्राहरत्--गिरा दिया; वात-र॑ंहसम्--तूफान के वेग से
हे साधु विदुर, समस्त यज्ञों की बलि के भोक्ता श्रीभगवान् ने अपने सूकर रूप मेंअपने शत्रु के देखते-देखते खेल-खेल में उसकी उस गदा को अपने बाँए पाँव से नीचेगिरा दिया यद्यपि वह तूफान के वेग से उनकी ओर आ रही थी।
आह चायुधमाधत्स्व घटस्व त्वं जिगीषसि ।
इत्युक्त: स तदा भूयस्ताडयन्व्यनदद्धूशम् ॥
१०॥
आह--उसने कहा; च--तथा; आयुधम्--हथियार; आधत्स्व--ग्रहण करो; घटस्व--प्रयत्न करो; त्वम्--तुम;जिगीषसि--जीतने के लिए इच्छुक हो; इति--इस प्रकार; उक्त:--ललकारते हुए; सः--हिरण्याक्ष ने; तदा--उससमय; भूयः--पुनः; ताडयन्--प्रहार करते हुए; व्यनदत्--गर्जना की; भूशम्--जोर से |
तब भगवान् ने कहा, 'तुम अपना शस्त्र उठा लो और मुझे जीतने के इच्छुक हो तोपुनः प्रयत्न करो।
' इन शब्दों से ललकारे जाने पर असुर ने अपनी गदा भगवान् पर तानीऔर पुनः जोर से गरजा।
तां स आपततीं वीक्ष्य भगवान्समवस्थित: ।
जग्राह लीलया प्राप्तां गरुत्मानिव पन्नगीम् ॥
११॥
तामू--उस गदा को; सः--वह; आपततीम्--अपनी ओर आते हुए; वीक्ष्य--देखकर; भगवानू-- श्रीभगवान्;समवस्थित:--दृढ़तापूर्वक खड़े; जग्राह--पकड़ लिया; लीलया--सरलतापूर्वक; प्राप्तामू--वहीं से; गरुत्मान्--गरुड़; इब--सहश; पन्नगीम्--सर्पिणी को |
जब भगवान् ने गदा को अपनी ओर आते देखा तो बे वहीं पर हृढ़तापूर्वक खड़े रहेऔर उसे अनायास उसी प्रकार पकड़ लिया जिस प्रकार पक्षिराज गरुड़ किसी सर्प कोपकड़ ले।
स्वपौरुषे प्रतिहते हतमानो महासुरः ।
नैच्छदगदां दीयमानां हरिणा विगतप्रभ: ॥
१२॥
स्व-पौरुषे-- अपना पौरूष या उद्यम; प्रतिहते--व्यर्थ हुआ; हत--विनष्ट किया; मान:--गर्व; महा-असुरः --महान्असुर ने; न ऐच्छत्--( लेने की ) इच्छा न की; गदाम्--गदा; दीयमानाम्--देने पर; हरिणा--हरि के द्वारा; विगत-प्रभ:--तेज घटने से।
इस प्रकार अपने पुरुषार्थ को व्यर्थ हुआ देखकर, वह महान् असुर अत्यन्त लज्जितहुआ और उसका तेज जाता रहा।
अब वह श्रीभगवान् द्वारा लौटा दी जाने वाली गदा कोग्रहण करने में संकोच कर रहा था।
जग्राह त्रिशिखं शूलं ज्वलज्वलनलोलुपम् ।
यज्ञाय धृतरूपाय विप्रायाभिचरन्यथा ॥
१३॥
जग्राह--उठाया; त्रि-शिखम्--तीन नोकों वाला; शूलम्-त्रिशूल; ज्वलत्ू--जलती हुईं; ज्वलन-- अग्नि;लोलुपमू--लपलपाता; यज्ञाय--समस्त यज्ञों के भोक्ता; धृत-रूपाय--वराह रूप में; विप्राय--ब्राह्मण को;अभिचरन्--दुष्टतावश प्रयोग करके; यथा--जिस प्रकार।
अब उसने प्रजबलित अग्नि के समान लपलपाता त्रिशूल निकाला और समस्त यज्ञोंके भोक्ता भगवान् पर फेंका, जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी पवित्र ब्राह्मण परदुर्भावनावश अपनी तपस्या का प्रयोग करे।
तदोजसा दैत्यमहाभटार्पितंचकासदन्तःख उदीर्णदीधिति ।
अक्रेण चिच्छेद निशातनेमिनाहरियर्यथा तार्श््यपतत्रमुज्झितम् ॥
१४॥
तत्--वह त्रिशूल; ओजसा--अपनी सारी शक्ति से; दैत्य--असुरों में से; महा-भट--परम योद्धा के द्वारा; अर्पितम्--फेंका हुआ; चकासत्--चमकता हुआ; अन्त:-खे--आकाश के बीच में; उदीर्ण--बढ़ा हुआ; दीधिति--प्रकाश;चक्रेण--सुदर्शनचक्र से; चिच्छेद--खण्ड़ खण्ड़ कर दिये; निशात--तीखी; नेमिना--धार ( परिधि ); हरिः--इन्द्र;यथा--जिस तरह; तार्श््य--गरुड़ का; पतत्रम्--पंख; उज्लितम्--त्याग दिया।
उस परम योद्धा असुर के द्वारा पूरे बल फेंका गया वह त्रिशूल आकाश में तेजी सेचमक रहा था।
किन्तु श्रीभगवान् ने अपने तेज धार वाले सुदर्शन चक्र से उसके खण्ड-खण्ड कर दिये मानो इन्द्र ने गरुड़ का पंख काट दिया हो।
वृक््णे स्वशूले बहुधारिणा हरेःप्रत्येत्य विस्तीर्णमुरो विभूतिमत् ।
प्रवृद्धरोष: स कठोरमुष्टिनानद-्प्रहत्यान्तरधीयतासुर: ॥
१५॥
वृक्णे--कटने पर; स्व-शूले--अपना त्रिशूल; बहुधा--अनेक खण्डों में; अरिणा--सुदर्शन चक्र द्वारा; हरे: --श्रीभगवान् की; प्रत्येत्य--ओर बढ़कर; विस्तीर्णम्--चौड़ा; उर: --वक्षस्थल; विभूति-मत्-- धन की देवी काआवास; प्रवृद्ध-बढ़ा हुआ; रोष:--क्रोध; सः--हिरण्याक्ष; कठोर--कठोर; मुष्टिना--अपनी मुट्ठी से; नदन्--गर्जना करते; प्रहत्य--प्रहार करके; अन्तरधीयत--अन्तर्धान हो गया; असुरः --असुर |
जब श्रीभगवान् के चक्र से उसका त्रिशूल खण्ड खण्ड हो गया तो असुर अत्यन्तक्रोधित हुआ।
अत: वह भगवान् की ओर लपका और तेज गर्जना करते हुए उनके चौड़ेवक्षस्थल पर, जिस पर श्रीवत्स का चिह्न था, अपनी कठोर मुष्टिका से प्रहार किया।
फिरवह अदृश्य हो गया।
तेनेत्थमाहतः क्षत्तर्भगवानादिसूकरः ।
नाकम्पत मनावकक्वापि स्त्रजा हत इव द्विप: ॥
१६॥
तेन--हिरण्याक्ष द्वारा; इत्थम्--इस प्रकार; आहत: --प्रहार किया गया; क्षत्त:--हे विदुर; भगवान् -- श्री भगवान्आदि-सूकरः--प्रथम शूकर; न अकम्पत--हिला-डुला नहीं; मनाक्--तनिक भी; क््व अपि--कहीं भी; सत्रजा--पुष्प की माला से; हतः--मारा गया; इब--सहश; द्विप:--हाथी |
हे विदुर, असुर द्वारा इस प्रकार प्रहार किये जाने पर आदि वराह रूप भगवान् केशरीर का कोई अंग तनिक भी हिला-डुला नहीं मानो किसी हाथी पर फूलों की माला सेप्रहार किया गया हो।
अथोरुधासूजन्मायां योगमायेश्वरे हरौ ।
यां विलोक्य प्रजास्त्रस्ता मेनिरेडस्योपसंयमम् ॥
१७॥
अथ--तब; उरुधा--अनेक प्रकार से; असृजत्--चलाईं; मायाम्--कपटपूर्ण चालें; योग-माया-ई श्वर--योगमाया केईश्वर; हरौ--हरि पर; यामू--जिसको; विलोक्य--देखकर; प्रजा:--लोग; त्रस्ता:-- भयभीत; मेनिरे--सोचा;अस्य--इस ब्रह्माण्ड का; उपसंयमम्--संहार, प्रलय ।
किन्तु असुर ने योगेश्वर श्रीभगवान् पर अनेक कपटपूर्ण चालों का प्रयोग किया।
यहदेखकर सभी लोग भयभीत हो उठे और सोचने लगे कि ब्रह्माण्ड का संहार निकट है।
प्रववुर्वायवश्चण्डास्तम: पांसवमैरयन् ।
दिग्भ्यो निपेतुग्रावाण: क्षेपणै: प्रहिता इव ॥
१८ ॥
प्रववु:--बह रही थी; वायव:--हवाएँ; चण्डा:-- भयानक; तमः--अन्धकार; पांसवम्-- धूल से उत्पन्न; ऐरयन्--फैल रहे थे; दिग्भ्य:--सभी दिशाओं से; निपेतु:--गिरे; ग्रावाण: --पत्थर; क्षेपणैः --मशीनगनों से; प्रहिता: --फेंकेगये; इब--मानो |
सभी दिशाओं से प्रचण्ड वायु बहने लगी और धूल तथा उपलवृष्टि से अन्धकार फैलगया, प्रत्येक दिशा से पत्थर गिरने लगे मानो वे मशीनगनों द्वारा फेंके जा रहे हों।
दौर्नष्ठभगणाभ्रौधे: सविद्युत्ततनयित्नुभि: ।
वर्षद्धि: पूयकेशासूग्विण्मूत्रास्थीनि चासकृत् ॥
१९॥
चौ:--आकाश; नष्ट--विलुप्त; भ-गण--नक्षत्र गण; अभ्र--बादलों के; ओघै:--समूहों से; स--सहित; विद्युत्--बिजली; स्तनयित्नुभि:ः--तथा कड़क ( गर्जना ) से; वर्षर्द्धः--बरसने से; पूय--पीब; केश--बाल; असृक्--रक्त;विट्--विष्ठा; मूत्र--मूत्र; अस्थीनि--हड्डियाँ; च--यथा; असकृत्-पुनः
पुनःबिजली तथा गर्जना से युक्त आकाश में बादलों के समूह घिर आने से नक्षत्रगणविलुप्त हो गए।
आकाश से पीब, बाल, रक्त, मल, मूत्र तथा हड्डियों की वर्षा होने लगी।
गिरय: प्रत्यहश्यन्त नानायुधमुचोनघ ।
दिग्वाससो यातुधान्य: शूलिन्यो मुक्तमूर्धजा: ॥
२०॥
गिरय: --पर्वत; प्रत्यदश्यन्त--दिखने लगे; नाना--अनेक प्रकार के; आयुध--अस्त्र-शस्त्र; मुच:--छोड़ते हुए;अनघ--हे पापमुक्त विदुर; दिकु-वासस:--नंगी; यातुधान्य:--राक्षसिनियाँ; शूलिन्य:--त्रिशूलों से सज्जित; मुक्त--लटकते; मूर्धजा:--बाल |
हे अनघ विदुर, पर्वतों से नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र निकलने लगे और त्रिशूलधारण किये हुए नग्न राक्षसिनियाँ अपने खुले केश लटकाते हुए प्रकट हो गईं।
बहुभिरयक्षरक्षोभि: पत्त्यश्वरथकुड्धरै: ।
आततायिभिरुत्सृष्टा हिंस्रा वाचोउतिवैशसा: ॥
२१॥
बहुभि:--अनेक; यक्ष-रक्षोभि:--यक्षों तथा राक्षसों के द्वारा; पत्ति--पैदल; अश्व--घुड़सवार; रथ--रथ पर चढ़े हुए;कुझरैः:--अथवा हाथियों से; आततायिभि:--आततायियों द्वारा; उत्सूष्टा:--उच्चारित; हिंस्त्रा:--क्रूर; वाच:--शब्द;अति-वैशसा:--हिंसक ।
यक्षों तथा राक्षस आततायियों के समूह के समूह अत्यन्त क्रूर एवं अशिष्ट नारे लगारहे थे, जिनमें से अनेक या तो पैदल जा रहे थे, या घोड़े, हाथियों अथवा रथों पर सवारथे।
प्रादुष्कृतानां मायानामासुरीणां विनाशयत् ।
सुदर्शनास्त्रं भगवान्प्रायुड्रः दयितं त्रिपात् ॥
२२॥
प्रादुष्कृतानाम्-- प्रदर्शित; मायानाम्--जादुई शक्तियाँ, इन्द्रजाल; आसुरीणाम्--असुर द्वारा प्रदर्शित; विनाशयत्--विनष्ट करने का इच्छुक; सुदर्शन-अस्त्रमू--सुदर्शन चक्र; भगवान् -- श्रीभगवान् ने; प्रायुड्र --फेंका; दयितम्--प्रिय;त्रि-पातू--समस्त यज्ञों के भोक्ता।
तब समस्त यज्ञों के भोक्ता श्रीभगवान् ने अपना प्रिय सुदर्शन चक्र छोड़ा जो असुरद्वारा प्रदर्शित समस्त इन्द्रजाल की शक्तियों ( माया जाल ) को तहस-नहस करने में समर्थथा।
तदा दितेः समभवत्सहसा हृदि वेषथु: ।
स्मरन्त्या भर्तुरादेशं स्तनाच्चासृक्प्रसुस्त्रेवे ॥
२३॥
तदा--उसी क्षण; दितेः--दिति के; समभवत्--उत्पन्न हुआ; सहसा--अचानक ; हृदि--हृदय में; वेपथु:--कम्पन;स्मरन्त्या:--स्मरण करके; भर्तु:--अपने पति, कश्यप के; आदेशम्--वचन; स्तनात्--स्तन से; च--यथा;असृक्--रक्त; प्रसुस्रुवे--बहने लगा।
उसी क्षण, हिरण्याक्ष की माता दिति के हृदय में सहसा एक थरथराहट हुई।
उसेअपने पति कश्यप के वचनों का स्मरण हो आया और उसके स्तनों से रक्त बहने लगा।
विनष्टासु स्वमायासु भूयश्चात्रज्य केशवम् ।
रुषोपगूहमानोमुं दहृशेवस्थितं बहि: ॥
२४॥
विनष्टासु--दूर हो जाने पर; स्व-मायासु--अपनी माया शक्ति; भूय:--पुन:; च--यथा; आद्रज्य--सामने आकर;केशवम्-- श्रीभगवान् को; रुषा--क्रोध से पूर्ण; उपगूहमान: --आलिंगन करते; अमुम्-- भगवान् को; दहशे--देखा;अवस्थितम्ू--खड़े हुए; बहि:ः--बाहर |
जब असुर ने देखा कि उसकी मायाशक्ति विलुप्त हो गई है, तो वह एक बार फिरश्रीभगवान् केशव के सामने आया और उन्हें रौंद देने की इच्छा से तमतमाते हुए अपनेबाहुओं में भर कर उनको जकड़ लेना चाहा।
किन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहाजब उसने भगवान् को अपने बाहु-पाश से बाहर खड़े देखा।
तं॑ मुष्टिभिर्विनिष्नन्तं वज़्सारैरधोक्षज: ।
'करेण कर्णमूलेहन्यथा त्वाष्ट्र मरुत्पति: ॥
२५॥
तम्--हिरण्याक्ष को; मुष्टिभि:--अपने मुक्कों से; विनिष्तन्तम्--प्रहार करते हुए; वज़-सारैः--वज़ के समान कठोर;अधोक्षज:-- भगवान् अधोक्षज ने; करेण--हाथ से; कर्ण-मूले--कनपटी पर; अहनू--मारा; यथा-- जैसे; त्वाप्टमू--वृत्रासुर ( त्वष्टा का पुत्र ) को; मरुत्-पति:--मरुतों के स्वामी इन्द्र ने।
तब वह असुर भगवान् को कठोर मुक्कों से मारने लगा किन्तु भगवान् अधोक्षज नेउसकी कनपटी में उस तरह थप्पड़ मारा जिस प्रकार मरुतों के स्वामी इन्द्र ने वृत्रासुर कोमारा था।
स आहतो विश्वजिता हावज्ञयापरिभ्रमद्गात्र उदस्तलोचन: ।
विशीर्णबाह्नड्प्रिशिरोरुहो पतद्यथा नगेन्द्रो लुलितो नभस्वता ॥
२६॥
सः--वह; आहत:--चोट खाकर; विश्व-जिता-- श्रीभगवान् द्वारा; हि--यद्यपि; अवज्ञया --उपेक्षापूर्वक; परिभ्रमत्--चकराकर; गात्र:--शरीर; उदस्त--बाहर निकली; लोचन:--आँखें; विशीर्ण--छितन्न-भिन्न; बाहु-- भुजाएँ;अड्प्रि--पाँव; शिर:ः-रूह:--बाल; अपतत्--गिर पड़ा; यथा--जैसे; नग-इन्द्र:--विशाल वृक्ष; लुलित:--उखड़ाहुआ; नभस्वता--आँधी से |
सर्वजेता भगवान् ने यद्यपि अत्यन्त उपेक्षापूर्वक प्रहार किया था, किन्तु उससे असुरका शरीर चकराने लगा।
उसकी आँखे बाहर निकल आईं।
उसके हाथ तथा पैर टूट गये,सिर के बाल बिखर गये और वह अंधड़ से उखड़े हुए विशाल वृक्ष की भाँति मृत होकरगिर पड़ा।
क्षितौ शयानं तमकुण्ठवर्चसकरालदंष्ट परिदष्टदच्छदम् ।
अजादयो वीक्ष्य शशंसुरागताअहो इमं को नु लभेत संस्थितिमू ॥
२७॥
क्षितौ--पृथ्वी पर; शयानम्--लेटे हुए; तम्--हिरण्याक्ष को; अकुण्ठ---अमलिन; वर्चसमू--तेज; कराल--भयावने;दंष्रमू--दाँत; परिदष्ट--काटे हुए; दत्-छदम्--ओंठ; अज-आदय:ः --ब्रह्मा इत्यादि ने; वीक्ष्य--देखकर; शशंसु:--प्रशंसा में कहा; आगता: --आये हुए; अहो--ओह; इमम्--यह; कः--कौन; नु--निस्सन्देह; लभेत--प्राप्त करसकता है; संस्थितिम्--मृत्यु |
उस स्थान भूमि पर लेटे भयावने दाँतों वाले तथा अपने होंठों को काटते हुए उसअसुर को देखने के लिए ब्रह्मा तथा अन्य देवता आ गये।
उसके मुखमण्डल का तेज अबभी अमलिन था।
ब्रह्मा ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ओह! ऐसी भाग्यशाली मृत्यु किसकी हो सकती है ?
यं योगिनो योगसमाधिना रहोध्यायन्ति लिड्रादसतो मुमुक्षया ।
तस्यैष देत्यऋषभ: पदाहतोमुखं प्रपशयंस्तनुमुत्ससर्ज ह ॥
२८ ॥
यम्--जिसको; योगिन: --योगी जन; योग-समाधिना--योग की समाधि में; रह:--एकान्त में; ध्यायन्ति-- ध्यान धरतेहैं; लिड्जात्ू--शरीर से; असत: --मिथ्या; मुमुक्षया--मुक्ति की इच्छा से; तस्य--उसका; एष:--यह; दैत्य--दिति कापुत्र; ऋषभ:-- श्रेष्ठ मणि; पदा--पाँव से; आहत: --मारा गया; मुखम्-- मुँह; प्रपश्यन्--देखते या ताकते हुए;तनुम्ू--शरीर; उत्ससर्ज--छोड़ दिया; ह--निस्सन्देह
ब्रह्म ने आगे कहा--योगीजन योगसमाधि में अपने मिथ्या भौतिक शरीरों से छूटनेके लिए जिसका एकान्त में ध्यान करते हैं, उन श्रीभगवान् के पादाग्र से इस पर प्रहारहुआ है।
दिति के पुत्रों में शिरोमणि इसने भगवान् का मुख देखते-देखते अपने मर्त्यशरीर का त्याग किया है।
एतौ तौ पार्षदावस्य शापाद्यातावसद्गतिम् ।
पुनः कांतपय: स्थान प्रपत्स्थत ह जन्माभ: ॥
२९॥
एतौ--ये दोनों; तौ--दोनों; पार्षदौ--पार्षद; अस्य-- भगवान् के; शापात्--शाप के कारण; यातौ--गये हैं; असत्-गतिम्--आसुरी परिवार में जन्म लेना; पुन:--फिर; कतिपयै: --कुछ; स्थानम्ू-- अपना स्थान; प्रपत्स्येते--पुनः प्राप्तकरेंगे; ह--निस्सन्देह; जन्मभि:--जन्मों के पश्चात्
भगवान् के इन दोनों पार्षदों को शापवश असुर-परिवारों में जन्म लेना पड़ा।
ऐसेकुछ जन्मों के पश्चात् ये अपने-अपने स्थानों में लौट जायेंगे।
देवा ऊचु:नमो नमस्तेडखिलयज्ञतन्तवेस्थितौ गृहीतामलसत्त्वमूर्तये ।
दिछ्टय्या हतोयं जगतामरुन्तुद-स्त्वत्यादभक्त्या वयमीश निर्वृता: ॥
३०॥
देवा:--देवताओं ने; ऊचु:--कहा; नम: --नमस्कार; नम: --नमस्कार; ते--तुमको; अखिल-यज्ञ-तन्तवे--समस्तयज्ञों के भोक्ता; स्थितौ--स्थिति को बनाए रखने के निमित्त; गृहीत-- धारण किया; अमल--शुद्ध; सत्त्त--अच्छाई;मूर्तये--रूप; दिष्टयया--सौभाग्यवश; हतः--मारा गया; अयमू--यह; जगताम्--लोकों को; अरुन्तुदः--कष्ट देनेवाला; त्वत्ू-पाद--आपके चरण की; भक्त्या--भक्ति से; वयम्--हमने; ईश--हे भगवान्; निर्वृता:--सुख प्राप्तकिया है।
देवताओं ने भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा--हम आपको नमस्कार करते हैं।
आप समस्त यज्ञों के भोक्ता हैं और आपने शुद्ध सात्विक भाव में विश्व की स्थिति बनायेरखने के लिए वराह रूप धारण किया है।
यह हमारा सौभाग्य है कि समस्त लोकों कोकष्ट देने वाला असुर आपके हाथों मारा गया और हे भगवान्, अब हम आपके चरण-कमलों की भक्ति करने के लिए स्वतन्त्र हैं।
मैत्रेय उवाचएवं हिरण्याक्षमसह्मविक्रमंस सादयित्वा हरिरादिसूकर: ।
जगाम लोकं स्वमखण्डितोत्सवंसमीडित: पुष्करविष्टरादिभि: ॥
३१॥
मैत्रेयः उवाच-- श्रीमैत्रेय ने कहा; एवम्--इस प्रकार; हिरण्याक्षम्-हिरण्याक्ष को; असह्य-विक्रमम्-- अत्यन्तशक्तिमान; सः-- भगवान् ने; सादयित्वा--मारकर; हरि: -- श्रीभगवान् ने; आदि-सूकरः --सूकर योनियों का मूल;जगाम--वापस गया; लोकम्--अपने धाम; स्वम्ू--निजी; अखण्डित-- अनवरत्; उत्सवम्-- उत्सव; समीडितः --प्रशंसित; पुष्कर-विष्टर--कमल-आसन ( कमलासन ); आदिभि:--तथा अन्य ।
श्री मैत्रेय ने आगे कहा--इस प्रकार अत्यन्त भयानक असुर हिरण्याक्ष को मारकरआदि वराह-रूप भगवान् हरि अपने धाम वापस चले गये जहाँ निरन्तर उत्सव होता रहताहै।
ब्रह्म आदि समस्त देवताओं ने भगवान् की प्रशंसा की।
मया यथानृक्तमवादि ते हरेःकृतावतारस्य सुमित्र चेष्टितम् ।
यथा हिरण्याक्ष उदारविक्रमो महामृथे क्रीडनवन्निराकृतः ॥
३२॥
मया--मेरे द्वारा; यथा--जिस रूप में; अनूक्तम्--कहा गया; अवादि--व्याख्या की गई; ते--तुमको; हरे: --श्रीभगवान् का; कृत-अवतारस्थ--जिसने अवतार लिया; सुमित्र--हे विदुर; चेष्टितम्ू--कार्यकलाप; यथा--जिसप्रकार; हिरण्याक्ष:--हिरण्याक्ष; उदार--अत्यन्त विस्तृत; विक्रम:--शौर्य; महा-मृधे--महान् युद्ध में; क्रीडन-बत्--खिलौन की तरह; निराकृत:--मारा गया।
मैत्रेय ने आगे कहा-हे विदुर, मैंने तुम्हें कह सुनाया कि भगवान् किस प्रकार प्रथमशूकर के रूप में अवतरित हुए और अद्वितीय शौर्य वाले असुर को महान् युद्ध में मारडाला मानो वह कोई खिलौना रहा हो।
मैंने अपने पूर्ववर्ता गुरु से इसे जिस रूप में सुनाथा, वह तुम्हें सुना दिया।
सूत उबाचइति कौषारवाख्यातामा श्रुत्य भगवत्कथाम् ।
क्षत्तानन्दं पर लेभे महाभागवतो द्विज ॥
३३॥
सूत:--सूत गोस्वामी; उवाच--कहा; इति--इस प्रकार; कौषारब--मैत्रेय ( कुषारु के पुत्र ) से; आख्याताम्ू--कहागया; आश्रुत्य--सुनकर; भगवत्-कथाम्-- भगवान् विषयक आख्यान; क्षत्ता--विदुर ने; आनन्दम्-- आनन्द;परम्--दिव्य; लेभे--प्राप्त किया; महा-भागवत:--परम भक्त; द्विज--हे ब्राह्मण ( शौनक )
श्री सूत गोस्वामी ने आगे कहा--हे शौनक, मेरे प्रिय ब्राह्मण, भगवान् के परमभक्त, क्षत्ता (विदुर) को कौषारव ( मैत्रेय ) मुनि के आधिकारिक स्त्रोत से पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् की लीलाओं का वर्णन सुनकर दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ और वहअत्यन्त प्रसन्न हुआ।
अन्येषां पुण्यश्लोकानामुद्दामयशसां सताम् ।
उपश्रुत्य भवेन्मोद: श्रीवत्साड्डस्य कि पुनः ॥
३४॥
अन्येषाम्ू--दूसरों का; पुण्य-श्लोकानाम्--पवित्र यश का; उद्दाम-यशसाम्--जिनकी ख्याति सर्वत्र फैली है;सताम्-भक्तों का; उपश्रुत्य--सुन करके; भवेत्--उठ सकते हैं; मोद:--आनन्द; श्रीवत्स-अड्डस्य-- श्रीवत्स चिह्नधारण करने वाले भगवान् का; किम् पुन:--फिर क्या कहना
मनुष्य चाहें तो अमर यश वाले भक्तों के कार्यकलापों को सुनकर आनन्द उठासकते हैं, फिर श्रीवत्सधारी श्रीभगवान् की लीलाओं के श्रवण का कहना ही क्या!" यो गजेन्द्रं झषग्रस्तं ध्यायन्तं चरणाम्बुजम् ।
क्रोशन्तीनां करेणूनां कृच्छृतोडमोचयद्द्रूतम् ॥
३५॥
यः--जो; गज-इन्द्रमू--हाथियों के राजा को; झष--मकर, घड़ियाल द्वारा; ग्रस्तमू--आक्रमण किया गया;ध्यायन्तम्-- ध्यान करते हुए; चरण--पाँव; अम्बुजम्ू--कमल; क्रोशन्तीनाम्ू--विलाप करती हुईं; करेणूनाम्--हथिनियों को; कृच्छृतः --संकट से; अमोचयत्--उबारा; द्रुतम्-शीघ्र |
वह गजराज जिस पर मगरमच्छ ने आक्रमण कर दिया था और जिसने तब भगवान्के चरणकमलों का ध्यान किया, उसे भगवान ने तुरंत उबार किया।
उस समय उसकेसाथ की हथिनियाँ चिंघाड़ रही थीं, किन्तु भगवान् ने आसन्न संकट से उनको बचा लिया।
तं॑ सुखाराध्यमृजुभिरनन्यशरणैनूभिः ।
कृतज्ञः को न सेवेत दुराराध्यमसाधुभि: ॥
३६॥
तम्--उसको; सुख--सरलतापूर्वक ; आराध्यम्--पूजनीय; ऋजुभि:--सरल लोगों द्वारा; अनन्य-- अन्य कोई नहीं;शरणैः --शरणागत; नृभि:--मनुष्यों के द्वारा; कृत-ज्ञ:--उपकार मानने वाला; क:ः--क्या; न--नहीं; सेवेत--सेवाकरनी चाहिए; दुराराध्यम्--पूजा कर पाना दुष्कर; असाधुभि: --अभक्तों द्वारा
ऐसा कौन कृतज्ञ जीव होगा जो श्रीभगवान् जैसे परम स्वामी की प्रेमाभक्ति नहींकरना चाहेगा? वे विमल भक्तों पर, जो उन्हीं पर अपनी रक्षा के लिए आश्वित रहते हैं,सरलता से प्रसन्न हो जाते हैं, किन्तु किसी अनुचित व्यक्ति को उन्हें प्रसन्न कर पाने मेंकठिनाई होती है।
यो वै हिरण्याक्षवधं महाद्भुतंविक्रीडितं कारणसूकरात्मन: ।
श्रुणोति गायत्यनुमोदतेझ्जसा विमुच्यते ब्रह्मवधादपि द्विजा: ॥
३७॥
यः--जो; वै--निस्सन्देह; हिरण्याक्ष-वधम्--हिरण्याक्ष के वध का; महा-अद्भुतम्-- अत्यन्त विस्मयजनक;विक्रीडितम्--लीला; कारण--समुद्र से पृथ्वी के उद्धार जैसे कारणों के लिए; सूकर--सूकर रूप में प्रकट होकर;आत्मन:--श्रीभगवान् का; श्रूणोति--सुनता है; गायति--जप करता है; अनुमोदते--आनन्द लेता है; अज्ञसा--तुरन्त; विमुच्यते--मुक्त हो जाता है; ब्रह्म -वधात्--ब्रह्महत्या के पाप से; अपि--भी; द्विजा:--हे ब्राह्मणों
हे ब्राह्मणो, जगत के उद्धार हेतु आदि सूकर रूप में प्रकट होने वाले भगवान् द्वाराहिरण्याक्ष वध के इस अद्भुत आख्यान को जो कोई सुनता है, गाता है या इसमें रस लेताहै, वह ब्रह्महत्या जैसे पापमय कर्मो के फल से भी तुरन्त मुक्त हो जाता है।
एतन्महापुण्यमलं पवित्र धन्यं यशस्यं पदमायुराशिषाम् ।
प्राणेन्द्रियाणां युधि शौर्यवर्धनंनारायणोडन्ते गतिरड्ड श्रुण्वताम् ॥
३८ ॥
एतत्--यह आख्यान; महा-पुण्यम्-पुण्यप्रद; अलमू-- अत्यन्त; पवित्रमू--पवित्र; धनन््यम्ू-- धन देनेवाला;यशस्यम्--यश की प्राप्ति करने वाला; पदम्--पात्र, भाजन; आयु: --दीर्घजीविता का; आशिषाम्--कामनाओं का;प्राण--जीवनदाता अंगों का; इन्द्रियाणाम्-कर्मेन्द्रियों का; युधि--युद्धभूमि में; शौर्य--पराक्रम; वर्धनम्--बढ़ानेवाला; नारायण:--भगवान् नारायण; अन्ते--जीवन के अन्त में; गति:--शरण; अड्ग--हे शौनक; श्रृण्वतामू--श्रोताओं का।
यह परम पवित्र आख्यान ( चरित्र ) अद्वितीय यश, सम्पत्ति, ख्याति, आयुष्य तथामनवांछित फल देने वाला है।
युद्ध भूमि में यह मनुष्य के प्राणों तथा कर्मेन्द्रियों कीशक्ति वर्थित करने वाला है।
हे शौनक, जो अपने अन्तकाल में इसे सुनता है, वहभगवान् के परम धाम को जाता है।
अध्याय बीस: मैत्रेय और विदुर के बीच बातचीत
3.20शौनक उवाचमहीं प्रतिष्ठामध्यस्य सौते स्वायम्भुवो मनु: ।
कान्यन्वतिष्ठद्द्वाराणि मार्गायावरजन्मनाम् ॥
१॥
शौनक:--शौनक; उवाच--कहा; महीम्--पृथ्वी को; प्रतिष्ठामू--स्थित; अध्यस्य--प्राप्त करके; सौते--हे सूतगोस्वामी; स्वायम्भुव:--स्वायंभुव; मनु:--मनु ने; कानि--क्या; अन्वतिष्ठत्--किया; द्वाराणि--मार्ग; मार्गाय--निकलने के लिए; अवर--बाद में; जन्मनाम्ू--जन्म लेनेवालों का
श्री शौनक ने पूछा-हे सूत गोस्वामी, जब पृथ्वी अपनी कक्ष्या में पुन: स्थापित होगई तो स्वायंभुव मनु ने बाद में जन्म ग्रहण करने वाले व्यक्तियों को मुक्ति-मार्ग प्रदर्शितकरने के लिए क्या-क्या किया ?
क्षत्ता महाभागवत: कृष्णस्यैकान्तिकः सुहत् ।
यस्तत्याजाग्रजं कृष्णे सापत्यमघवानिति ॥
२॥
क्षत्ता--विदुर; महा-भागवतः -- भगवान् का परम भक्त; कृष्णस्य-- श्रीकृष्ण का; एकान्तिक:--एकनिष्ठ भक्त;सुहत्--मित्र; यः--जो; तत्याज--त्याग दिया; अग्र-जम्--अपने बड़े भाई ( राजा धृतराष्ट्र ) को; कृष्णे--कृष्ण केप्रति; स-अपत्यम्--अपने सौ पुत्रों सहित; अघ-वान्-- अपराधी; इति--इस प्रकार।
शौनक ऋषि ने विदुर के बारे में जानना चाहा, जो भगवान कृष्ण का महान भक्तएवं सखा था और जिसने भगवान के लिए ही अपने उस ज्येष्ट भाई का साथ छोड़ दियाथा जिसने अपने पुत्रों के साथ मिलकर भगवान की इच्छा के विरुद्ध षड्यंत्र किया थो।
द्वैपायनादनवरो महित्वे तस्य देहजः ।
सर्वात्मना थ्रितः कृष्ण तत्परांश्चाप्यनुत्रतः ॥
३॥
द्वैपायनात्ू--व्यासदेव से; अनवर:--किसी प्रकार से हेय नहीं; महित्वे--महानता में; तस्थ--उसका ( व्यास का );देह-ज:--उसके शरीर से उत्पन्न; सर्ब-आत्मना--अपने सम्पूर्ण मन से; अ्रित:--शरण ली; कृष्णम्-- भगवान्श्रीकृष्ण की; ततू-परान्--उनमें अनुरक्त; च--तथा; अपि--भी; अनुव्रत:--पालन किया।
विदुर वेदव्यास के आत्मज थे और उनसे किसी प्रकार से कम न थे।
इस तरह उन्होंनेपूर्ण मनोभाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों को स्वीकार किया और वे उनके भक्तों के प्रति अनुरक्त थे।
किमन्वपृच्छन्मैत्रेयं विरजास्तीर्थसेवया ।
उपगम्य कुशावर्त आसीन तत्त्ववित्तमम् ॥
४॥
किम्--क्या; अन्वपृच्छत्ू--पूछा; मैत्रेयम्--मैत्रेय ऋषि से; विरजा:--विदुर जो भौतिक कल्मष से रहित थे; तीर्थ-सेवया--तीर्थस्थलों में जाकर; उपगम्य--मिल कर; कुशावर्ते--कुशावर्त ( हरद्वार ) में; आसीनम्--स्थित; तत्त्व-वित्-तमम्--आत्म-विज्ञान के आदि ज्ञाता।
तीर्थस्थलों की यात्रा करने से विदुर सारी विषय वासना से शुद्ध हो गये।
अन्त में वेहरद्वार पहुँचे जहाँ आत्मज्ञान के ज्ञाता एक महर्षि से उनकी भेंट हुई जिससे उन्होंने कुछप्रश्न किये।
अत: शौनक ऋषि ने पूछा कि मैत्रेय से विदुर ने और क्या-क्या पूछा ?
तयो: संवदतो: सूत प्रवृत्ता हमला: कथा: ।
आपो गाज इवाघघ्नीहरे: पादाम्बुजाअ्या: ॥
५॥
तयो:--जब दोनों ( मैत्रेय तथा विदुर ); संवदतो:--वार्तालाप कर रहे थे; सूत--हे सूत; प्रवृत्ताः:--निकली हुई; हि--निश्चय ही; अमला:--निर्मल; कथा:--आख्यान; आप: --जल; गाड्राः--गंगा नदी का; इब--सहश; अघ-घ्नी: --समस्त पापों का नाश करने वाला; हरेः-- भगवान् के; पाद-अम्बुज--चरणारविन्द; आश्रया:--आशञ्रित, शरणागत |
शौनक ने विदुर तथा मैत्रेय के बीच होने वाले वार्तालाप के सम्बन्ध में प्रश्न कियाकि भगवान् की निर्मल लीलाओं के अनेक आख्यान रहे होंगे।
ऐसे आख्यानों को सुननागंगाजल में स्नान करने के सदृश है क्योंकि इससे सभी पाप-बन्धन छूट सकते हैं।
ता नः कीर्तय भद्गं ते कीर्तन्योदारकर्मण: ।
रसज्ञः को नु तृप्येत हरिलीलामृतं पिबन् ॥
६॥
ताः--उनकी वार्ता; न:--हमको ; कीर्तय--सुनाइये; भद्रम् ते--आपका मंगल हो; कीर्तन्य--जपना चाहिए; उदार--उदार; कर्मण: --कार्य; रस-ज्ञ:-- भक्त जो रस को समझ सके, रसिक; कः--कौन; नु--निस्सन्देह; तृप्येत-- तृप्तिका अनुभव करे; हरि-लीला-अमृतम्-- भगवान् की लीलाओं का अमृत; पिबन्ू--पीते हुए
है सूत गोस्वामी, आपका मंगल हो, कृपा करके भगवान् के कार्यो को कह सुनाइयेक्योंकि वे उदार एवं स्तुति के योग्य हैं।
ऐसा कौन भक्त है, जो भगवान् की अमृतमयीलीलाओं को सुनकर तृप्त हो जाये ?
एवमुग्रश्नवा: पृष्ट ऋषिभिनैमिषायनै: ।
भगवत्यर्पिताध्यात्मस्तानाह श्रूयतामिति ॥
७॥
एवम्--इस प्रकार; उग्रश्रवा:--सूत गोस्वामी; पृष्ट:--पूछे जाने पर; ऋषिभि:--ऋषियों द्वारा; नैमिष-अयनै: --जोनैमिष के जंगल ( नैमिषारण्य ) में एकत्र हुए थे; भगवति-- भगवान् को; अर्पित--अर्पित; अध्यात्म:--अपना मन;तानू--उनसे; आह--कहा; श्रूयताम्--सुनो; इति--इस प्रकार |
नैमिषारण्य के ऋषियों द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर रोमहर्षण के पुत्र सूत गोस्वामीने, जिनका मन भगवान् की दिव्य लीलाओं में लीन था, कहा--अब जो मैं कहता हूँ,कृपया उसे सुनें।
सूत उबाचहरेर्धृतक्रोडतनो: स्वमाययानिशम्य गोरुद्धरणं रसातलातू ।
लीलां हिरण्याक्षमवज्ञया हतंसज्जातहर्षो मुनिमाह भारत: ॥
८॥
सूतः उबाच--सूत ने कहा; हरेः-- भगवान् का; धृत-- धारण किया; क़रोड--सूकर का; तनो:--शरीर; स्व-मायया--अपनी दैवी शक्ति से; निशम्य--सुनकर; गो:--पृथ्वी का; उद्धरणम्--उद्धार; रसातलात्--समुद्र के गर्भसे; लीलाम्--खिलवाड़; हिरण्याक्षम्-हिरण्याक्ष असुर; अवज्ञया--अवज्ञापूर्वक; हतम्--मारा गया; सज्भजात-हर्ष: --परम प्रफुल्लित; मुनिम्--मुनि ( मैत्रेय ) से; आह--कहा; भारत:--विदुर ने
सूत गोस्वामी ने आगे कहा--भरत के वंशज विदुर भगवान् की कथा सुन कर परमप्रफुल्लित हुए क्योंकि भगवान् ने अपनी दैवी शक्ति से शूकर का रूप धारण करकेपृथ्वी को समुद्र के गर्भ से खेल-खेल में ऊपर लाने ( लीला ) तथा हिरण्याक्ष कोउदासीन भाव से मारने का कार्य किया था।
फिर विदुर मैत्रेय से इस प्रकार बोले।
विदुर उवाचप्रजापतिपति: सृष्ठरा प्रजासगें प्रजापतीन् ।
किमारभत मे ब्रह्मन्प्रबूह्मव्यक्तमार्गवित् ॥
९॥
विदुरः उबाच--विदुर ने कहा; प्रजापति-पतिः--भगवानू् ब्रह्मा ने; सृष्ठा--सृष्टि करके; प्रजा-सर्गे --जीवों की सृष्टिकरने के उद्देश्य से; प्रजापतीन्--प्रजापतियों को; किम्--क्या; आरभत--प्रारम्भ किया; मे--मुझको; ब्रह्मनू--हेपवित्र ऋषि; प्रत्रूहि--बताइये; अव्यक्त-मार्ग-वित्--न जानने वालों का ज्ञाता।
विदुर ने कहा--हे पवित्र मुनि, आप हमारी समझ में न आने वाले विषयों को भी जानते हैं, अतः मुझे यह बताएँ कि जीवों के आदि जनक प्रजापतियों को उत्पन्न करने केबाद ब्रह्मा ने जीवों की सृष्टि के लिए क्या किया ?
ये मरीच्यादयो विप्रा यस्तु स्वायम्भुवो मनु: ।
ते वै ब्रह्मण आदेशात्कथमेतदभावयन् ॥
१०॥
ये--जो; मरीचि-आदय: --मरीचि आदि महर्षि; विप्रा:--ब्राह्मण; य: --जो; तु--निस्सन्देह; स्वायम्भुवः मनु;:--तथास्वायंभुव मनु; ते--वे; बै--निस्सन्देह; ब्रह्मण:-- भगवान् ब्रह्म के; आदेशात्--आज्ञा से; कथम्-कैसे; एतत्--यहब्रह्माण्ड; अभावयन्--उत्पन्न हुआ
विदुर ने पूछा-प्रजापतियों ( मरीचि तथा स्वायंभुव मनु जैसे जीवों के आदि जनक )ने ब्रह्मा के आदेश के अनुसार किस प्रकार सृष्टि की और इस दृश्य जगत का किसप्रकार विकास किया ?
सद्ठितीया: किमसूजन्स्व॒तन्त्रा उत कर्मसु ।
आहो स्वित्संहता: सर्व इदं स्प समकल्पयन् ॥
११॥
स-द्वितीया:--अपनी पत्नियों सहित; किम्--क्या; असृजन्--उत्पन्न किया; स्व-तन््त्रा: --स्वतन्त्र रहकर; उत--अथवा; कर्मसु--अपने कार्यों में; आहो स्वित्--अथवा; संहता:--मिलकर, एकसाथ; सर्वे--सभी प्रजापति;इदम्--यह; सम समकल्पयन्--रचना की।
क्या उन्होंने इस जगत की सृष्टि अपनी-अपनी पत्नियों के सहयोग से की अथवा वेस्वतन्त्र रूप से अपना कार्य करते रहे ? या कि उन्होंने संयुक्त रूप से इसकी रचना की ?
मैत्रेय उवाचदैवेन दुर्वितक्येण परेणानिमिषेण च ।
जातक्षोभाद्धगवतो महानासीद्गुणत्रयात् ॥
१२॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; दैवेन--प्रारब्ध ( भाग्य ) द्वारा; दुर्वित्क्येण--कल्पना शक्ति से परे; परेण--महाविष्णुद्वारा; अनिमिषेण--सनातन काल की शक्ति से; च--यथा; जात-क्षोभात्--सन्तुलन बिगड़ गया; भगवतः --श्रीभगवान् का; महान्--समस्त भौतिक तत्त्व ( महत्ू-तत्त्व ); आसीत्--उत्पन्न हुए थे; गुण-त्रयात्--तीन गुणों से |
मैत्रेय ने कहा--जब प्रकृति के तीन तत्त्वों के सहयोग का सन्तुलन जीवात्मा कीअदृश्य क्रियाशीलता, महाविष्णु तथा कालशक्ति के द्वारा विश्लुब्ध हुआ तो समग्र भौतिकतत्त्व ( महत्-तत्त्व ) उत्पन्न हुए।
रजःप्रधानान्महतस्त्रिलिड़ो दैवचोदितात् ।
जातः ससर्ज भूतादिवियदादीनि पञ्ञशः ॥
१३॥
रजः-प्रधानात्ू--रजोगुण की प्रधानता से; महतः--महत्--तत्त्व से; त्रि-लिड्र:--तीन प्रकार का; दैव-चोदितातू-- श्रेष्ठअधिकारी के द्वारा प्रेरित; जात:--उत्पन्न हुआ; ससर्ज--विकसित हुआ; भूत-आदि: --अहंकार ( भौतिक तत्त्वों कामूल ); वियत्--शून्य; आदीनि--इत्यादि; पञ्षश: -- पाँच पाँच के समूहों में ।
जीव के भाग्य ( दैव ) की प्रेरणा से रजोगुण प्रधान महत्ू-तत्त्व से तीन प्रकार काअहंकार उत्पन्न हुआ।
फिर अंहकार से पाँच-पाँच तत्त्वों के अनेक समूह उत्पन्न हुए।
तानि चैकैकशः स्त्रष्टमसमर्थानि भौतिकम् ।
संहत्य दैवयोगेन हैममण्डमवासूजन् ॥
१४॥
तानि--उन तत्त्वों का; च--यथा; एक-एकशः --पृथक् -पृथक्; स्क्रष्टम्--उत्पन्न करने में; असमर्थानि-- असमर्थ;भौतिकम्-भौतिक ब्रह्माण्ड; संहत्य--संगठित करके; दैव-योगेन--परमे श्वर की शक्ति से; हैमम्--सोने की तरहचमकीला; अण्डम्--गोलक; अवासूजनू--उत्पन्न किया |
अलग-अलग रहकर ब्रह्माण्ड की रचना करने में असमर्थ होने के कारण वे परमेश्वरकी शक्ति के सहयोग से संगठित हुए और फिर एक चमकीले अण्डे का सृजन करने मेंसक्षम छुए।
सोशयिष्टाब्धिसलिले आण्डकोशो निरात्मकः ।
साग्रं वे वर्षसाहस्त्रमन्ववात्सीत्तमी श्वर: ॥
१५॥
सः--यह; अशयिष्ट-- पड़ा रहा; अब्धि-सलिले--कारणार्णव के जल में; आण्ड-कोश:--अण्डा; निरात्मक:--अचेत अव्स्था में; साग्रमू--कुछ अधिक; बै--निस्सन्देह; वर्ष-साहस्त्रमू--एक हजार वर्षों तक; अन्ववात्सीतू--स्थितहो गया; तमू--अंडे में; ईश्वर: -- भगवान् |
यह चमकीला अण्डा एक हजार वर्षो से भी अधिक काल तक अचेतन अवस्था मेंकारणार्णव के जल में पड़ा रहा।
तब भगवान् ने इसके भीतर गर्भोदकशायी विष्णु केरूप में प्रवेश किया।
तस्य नाभेरभूत्पद्ां सहस्त्राकोरुदीधिति ।
सर्वजीवनिकायौको यत्र स्वयमभूत्स्वराट् ॥
१६॥
तस्य-- भगवान् की; नाभे:--नाभि से; अभूत्--बाहर निकला; पदढाम्--कमल; सहस्त्र-अर्क--एक हजार सूर्यों से;उरू--अधिक; दीधिति--देदीप्यमान; सर्व--समस्त; जीव-निकाय--बद्धजीवों का आश्रय; ओकः --स्थान; यत्र--जहाँ; स्वयम्--अपने आप; अभूत्--आविर्भाव हुआ; स्व-राट्--सर्वशक्तिमान ब्रह्माजी |
गर्भोदकशायी भगवान् विष्णु की नाभि से हजार सूर्यो की दीप्ति सदृश प्रकाशमान एक कमल पुष्प प्रकट हुआ।
यह कमल पुष्प समस्त बद्धजीवों का आश्रय है और इसपुष्प से प्रकट होने वाले पहले जीवात्मा सर्वशक्तिमान ब्रह्मा थे।
सोडनुविष्टो भगवता यः शेते सलिलाशये ।
लोकसंस्थां यथा पूर्व निर्ममे संस्थया स्वया ॥
१७॥
सः--ब्रह्माजी ने; अनुविष्ट:--प्रविष्ट किया गया; भगवता-- भगवान् द्वारा; यः--जो; शेते--शयन करता है; सलिल-आशये--गर्भोदक सागर में; लोक-संस्थाम्--ब्रह्माण्ड; यथा पूर्वम्--पूर्ववत्; निर्ममे--निर्माण किया; संस्थया--बुद्धि से; स्वया--अपनी |
जब गर्भोदकशायी भगवान् ब्रह्मा के हृदय में प्रवेश कर गये तो ब्रह्मा को बुद्धि आईऔर इस बुद्धि से उन्होंने ब्रह्माण्ड की पूर्ववत् सृष्टि प्रारम्भ कर दी।
ससर्ज च्छाययाविद्यां पञ्ञपर्वाणमग्रत: ।
तामिस्त्रमन्धतामिस्त्रं तमो मोहो महातमः ॥
१८॥
ससर्ज--उत्पन्न किया; छायया--अपनी छाया से; अविद्याम्--अज्ञान; पञ्ञ-पर्वाणम्--पाँच प्रकार; अग्रत:--सर्वप्रथम; तामिस्त्रमू--तामिस्त्र; अन्ध-तामिस्त्रमू-अन्ध-तामिस्त्र; तम:-तमस्ू; मोह: -मोह; महा-तम:-महा-तमस्,
ओर्महा-मोहब्रह्म ने सबसे पहले अपनी छाया से बद्धजीवों के अज्ञान के आवरण (कोश )उत्पन्न किये।
इनकी संख्या पाँच है और ये तामिस्त्र, अन्ध-तामिस्त्र, तमस्, मोह तथामहामोह कहलाते हैं।
विससर्जात्मन: काय॑ नाभिनन्दंस्तमोमयम् ।
जगहुर्यक्षरक्षांसि रात्रि क्षुत्त्ट्समुद्भधवाम् ॥
१९॥
विससर्ज--फेंक दिया; आत्मन:--अपना; कायम्--शरीर; न--नहीं; अभिनन्दन्-- प्रसन्न होकर; तम:-मयम्--अज्ञान से युक्त; जगृहु:-- अधिकार कर लिया; यक्ष-रक्षांसि--यक्ष तथा राक्षस; रात्रिमू--रात; क्षुत्-- भूख; तृदू--प्यास; समुद्धवाम्-स््रोत |
क्रोध के कारण ब्रह्मा ने उस अविद्यामय शरीर को त्याग दिया।
इस अवसर का लाभउठाकर यक्ष तथा राक्षसगण उस रात्रि रूप में स्थित शरीर पर अधिकार जमाने के लिएकूद-फाँद मचाने लगे।
रात्रि भूख तथा प्यास की स्त्रोत है।
क्षुत्तृड्भ्यामुपसूष्टास्ते तं जग्धुमभिदुद्गुवु: ।
मा रक्षतैनं जश्षध्वमित्यूचु: क्षुत्तडर्दिता: ॥
२०॥
क्षुत्ू-तृड्भ्यामू-- भूख तथा प्यास से; उपसूष्टा:--पराजित; ते--वे असुर ( यक्ष तथा राक्षस ); तम्--ब्रह्मा को;जग्धुम्--खाने को; अभिदुद्गुवु:--आगे को दौड़ा; मा--मत; रक्षत--बचाओ, छोड़ो; एनमू--उसको; जक्षध्वम्--खाओ; इति--इस प्रकार; ऊचुः--कहा; क्षुत्-तृट्-अर्दिता:-- भूख तथा प्यास से आकुल |
भूख तथा प्यास से अभिभूत होकर वे चारों ओर से ब्रह्म को खा जाने के लिए दोौड़ेऔर चिल्लाए, 'उसे मत छोड़ो, उसे खा जाओ।
देवस्तानाह संविग्नो मा मां जक्षत रक्षत ।
अहो मे यक्षरक्षांसि प्रजा यूयं बभूविथ ॥
२१॥
देवः--ब्रह्माजी ने; तानू--उनको; आह--कहा; संविग्न:--चिन्तित; मा--मत; माम्--मुझको; जक्षत--खाओ;रक्षत--रक्षा करो; अहो--ओह; मे--मेरे; यक्ष-रक्षांसि--हे यक्ष तथा राक्षसों; प्रजा:--पुत्र; यूयम्--तुम सब;बभूविथ--उत्पन्न हुए थे।
देवताओं के प्रधान ब्रह्माजी ने घबराकर उनसे कहा, 'मुझे खाओ नहीं, मेरी रक्षाकरो।
तुम मुझसे उत्पन्न हो और मेरे पुत्र हो चुके हो।
अतः तुम लोग यक्ष तथा राक्षसहो ।
" देवता: प्रभया या या दीव्यन्प्रमुखतोसृजत् ।
ते अहार्षुदेिवयन्तो विसूष्टां तां प्रभामह: ॥
२२॥
देवता:--देवतागण; प्रभया--प्रकाश के तेज से; या: या:--जो जो; दीव्यनू--चमकते हुए; प्रमुखतः--मुख्य रूप से;असृजत्--उत्पन्न किया; ते--उन्होंने; अहार्ष:--अधिकार जमा लिया; देवयन्त:ः--सक्रिय होने से; विसृष्टाम्--पृथक्किया हुआ; तामू--उस; प्रभामू--तेज को; अह:--दिन |
तब उन्होंने प्रमुख देवताओं की सृष्टि की जो सात्त्विक प्रभा से चमचमा रहे थे।
उन्होंने देवताओं के समक्ष दिन का तेज फैला दिया जिस पर देवताओं ने खेल-खेल मेंही अधिकार जमा लिया।
देवोदेवाज्लघनतः: सृजति स्मातिलोलुपान् ।
त एन लोलुपतया मैथुनायाभिपेदिर ॥
२३॥
देवः--ब्रह्माजी ने; अदेवान्--असुरों को; जघनतः--अपने नितंबों से; सृजति स्म--उत्पन्न किया; अति-लोलुपान्ू--अत्यन्त कामुक ( विषयी ); ते--वे; एनम्--ब्रह्माजी; लोलुपतया--कामवश; मैथुनाय--संभोग के लिए;अभिपेदिरि--निकट आये।
ब्रह्माजी ने अपने नितंब प्रदेश से असुरों को उत्पन्न किया जो अत्यन्त कामी थे।
अत्यन्त कामी होने के कारण वे संभोग के लिए उनके निकट आ गये।
ततो हसन्स भगवानसुरैर्निरपत्रपैः ।
अन्वीयमानस्तरसा क्रुद्धो भीतः परापतत् ॥
२४॥
ततः--तब; हसनू--हँसते हुए; सः भगवान्-- पूज्य ब्रह्माजी; असुरैः--असुरों के द्वारा; निरपत्रपै:--निर्लज्ज;अन्वीयमान: --पीछा करते हुए; तरसा--तेजी से; क्रुद्ध:--नाराज; भीत:-- भयभीत; परापतत्-- भाग गया।
पहले तो पूज्य ब्रह्माजी उनकी मूर्खता पर हँसे, किन्तु उन निर्लज्ज असुरों को अपनापीछा करते देखकर वे क्रुद्ध हुए और भयभीत होकर हड़बड़ी में भागने लगे।
स उपत्रज्य वरदं प्रपन्नार्तिहरं हरिम् ।
अनुग्रहाय भक्तानामनुरूपात्मदर्शनम् ॥
२५॥
सः--ब्रह्माजी; उपब्रज्य--पास पहुँच कर; वर-दम्--समस्त वरों के दाता; प्रपन्न--चरणकमल की शरण लेने वाले;आर्ति-कष्ट; हरम्-दूर करने वाला; हरिमू-- भगवान् श्री हरि के; अनुग्रहाय--कृपावश; भक्तानामू--अपने भक्तोंके प्रति; अनुरूप--उपयुक्त रूप में; आत्म-दर्शनम्--अपने आप को प्रकट करने वाला |
वे भगवान् श्री हरि के पास पहुँचे जो समस्त वरों को देने वाले तथा अपने भक्तों एवंअपने चरणों की शरण ग्रहण करने वालों की पीड़ा को हरने वाले हैं।
वे अपने भक्तों कीतुष्टि के लिए असंख्य दिव्य रूपों में प्रकट होते हैं।
पाहि मां परमात्मंस्ते प्रेषणेनासूजं प्रजा: ।
ता इमा यभितुं पापा उपाक्रामन्ति मां प्रभो ॥
२६॥
'पाहि--रक्षा कीजिये; माम्--मुझको; परम-आत्मनू्--हे परमेश्वर; ते--तुम्हारी; प्रेषणेन-- आज्ञा से; असृजम्--मैंनेउत्पन्न किया; प्रजा:--समस्त जीव; ता: इमा:--वे ही; यभितुम्--संभोग की इच्छा से; पापा:--पापी जीव;उपाक्रामन्ति--पास आ रहे हैं; माम्-मेरे; प्रभो--हे भगवान् ।
भगवान् के पास जाकर ब्रह्माजी ने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया--हे भगवान्,इन पापी असुरों से मेरी रक्षा करें, जिन्हें आपकी आज्ञा से मैंने उत्पन्न किया था।
येविषय-वासना की भूख से क्रोधोन्माद में आकर मुझ पर आक्रमण करने आये हैं।
त्वमेक: किल लोकानां क्लिष्टानां क्लेशनाशनः ।
त्वमेकः क्लेशदस्तेषामनासन्नपदां तव ॥
२७॥
त्वमू--तुम; एक:--अकेले; किल--निस्सन्देह; लोकानाम्-मनुष्यों के; क्लिप्टानामू-क्लेशों से ग्रस्त; क्लेश --कष्ट; नाशन:--नाश करने के लिए; त्वम् एक:--तुम्हीं अकेले; क्लेश-दः--क्लेश देने वाले; तेषामू--उन पर;अनासन्न--जो शरण नहीं लेते; पदाम्-पैरों की; तब--तुम्हारे |
है भगवान्, केवल आप ही दुखियों के कष्ट दूर करने और आपके चरणों की शरणमें न आने वालों को यातना देने में समर्थ हैं।
सोवधार्यास्य कार्पण्यं विविक्ताध्यात्मदर्शन: ।
विमुज्ञात्मतनुं घोरामित्युक्तो विमुमोच ह ॥
२८॥
सः-परसे श्वर, हरि; अवधार्य--देखकर; अस्य--ब्रह्मा की; कार्पण्यम्--व्यथा; विविक्त--सन्देहरहित; अध्यात्म--अन्यों के मन; दर्शन:--जो देख सकता है; विमुज्ञ--त्याग दो; आत्म-तनुमू--अपना शरीर; घोराम्--अपवित्र; इतिउक्त:--इस प्रकार आदेशित होकर; विमुमोच ह--ब्रह्माजी ने छोड़ दिया।
सबों के मनों को स्पष्ट रूप से देख सकने वाले भगवान् ने ब्रह्मा की वेदना समझली और वे उनसे बोले, 'तुम अपना यह अशुद्ध शरीर त्याग दो।
भगवान् से आदेशपाकर ब्रह्मा ने अपना शरीर त्याग दिया।
तां क्वणच्चरणाम्भोजां मदविह्लललोचनाम् ।
काझ्लीकलापविलसदुकूलच्छन्नरोधसम् ॥
२९॥
तामू--उस शरीर को; क्वणत्--नुपुर ध्वनि करता; चरण-अम्भोजाम्--चरणकमल वाली; मद--नशा; विहल--विभोर; लोचनाम्--आँखों वाली; काञ्जी-कलाप--स्वर्णाभरण से निर्मित करधनी वाली; विलसत्--चमकती;दुकूल--महीन वस्त्र से; छन्न--ढकी; रोधसम्--कटि वाली
ब्रह्मा द्वारा परित्यक्त शरीर ने सन्ध्या का रूप धारण कर लिया जो काम को जगानेवाली दिन-रात की संधि वेला है।
असुर जो स्वभाव से कामुक होते हैं और जिनमेंरजोगुण का प्राधान्य होता है उसे सुन्दरी मान बैठे जिसके चरण-कमलों से नूपुरों कीध्वनि निकल रही थी, जिसके नेत्र मद से विस्तीर्ण थे और जिसका कटि भाग महीनवस्त्र से ढका था और जिस पर मेखला चमक रही थी।
अन्योन्यशए्लेषयोत्तुड्डनिरन्तरपयोधराम् ।
सुनासां सुद्विजां स्निग्धहासलीलावलोकनाम् ॥
३०॥
अन्योन्य--परस्पर; श्लेषया--चिपकने से; उत्तुड़---उठे हुए; निरन्तर--अन्तर हीन ( सटे ); पयः-धराम्--स्तन; सु-नासाम्--सुन्दर नाक; सु-द्विजाम्--सुन्दर दाँत; स्निग्ध--आकर्षक; हास--हँसी; लीला-अवलोकनामू्--विलासमयीचितवन।
एक दूसरे से सटे होने के कारण उसके स्तन ऊपर उठे हुए थे और उनके बीच मेंकोई रिक्त स्थान बचा न था।
उसकी नाक तथा दाँतों की बनावट सुन्दर थी; उसके होठोंपर आकर्षक हँसी नाच रही थी और वह असुरों को क्रीड़ापूर्ण चितवन से देख रही थी।
गूहन्तीं ब्रीडयात्मानं नीलालकवरूधिनीम् ।
उपलभ्यासुरा धर्म सर्वे सम्मुमुहुः स्त्रियम् ॥
३१॥
गूहन्तीम्--छिपाते हुए; ब्रीडया--लज्जावश; आत्मानम्--अपने आपको; नील--काले; अलक--बाल;वरूधिनीम्--गुच्छा; उपलभ्य--कल्पना करके; असुरा:--असुरगण; धर्म--हे विदुर; सर्वे--सभी; सम्मुमुहु:ः --मोहित हो गये; स्त्रियम्-स्त्री को |
काले-काले बालसमूह से विभूषित वह मानो लज्जावश अपने को छिपा रही थी।
उसबाला को देखकर सभी असुर विषय-वासना की भूख से मोहित हो गये।
अहो रूपमहो धेर्यमहो अस्या नवं वयः ।
मध्ये कामयमानानामकामेव विसर्पति ॥
३२॥
अहो--ओह; रूपम्--कैसा सौन्दर्य; अहो-- ओह; धैर्यम्--कैसा धैर्य ( संयम ); अहो--ओह; अस्या:--इसका;नवम्--उभरता हुआ; वय:--यौवन; मध्ये--बीच में; कामयमानानामू--कामियों के; अकामा--कामरहित; इब--सहश; विसर्पति--साथ टहल रही है|
असुरों ने उसकी प्रशंसा की--अहा! कैसा रूप, कैसा अप्रतिम धैर्य, कैसा उभरतायौवन, हम कामपीड़ितों के बीच वह इस प्रकार विचर रही है मानो काम-भाव से सर्वथारहित हो।
वितर्कयन्तो बहुधा तां सन्ध्यां प्रमदाकृतिम् ।
अभिसम्भाव्य विश्रम्भाप्पर्यपृच्छन्कुमेधस: ॥
३३॥
वितर्कयन्तः--तर्क-वितर्क करते हुए; बहुधा--अनेक प्रकार से; ताम्--उस; सन्ध्याम्--संध्या वेला को; प्रमदा--तरुणी स्त्री; आकृतिम्--के रूप में; अभिसम्भाव्य--सम्मानपूर्वक; विश्रम्भात्--प्यार से; पर्यपृच्छन्ू--पूछी जाकर;कु-मेधसः--दुष्ट बुद्धि वाले।
तरुणी स्त्री के रूप में प्रतीत होने वाली संध्या के विषय में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क करते हुए दुष्ट-बुद्धि असुरों ने उसका अत्यन्त आदर किया और उससे प्रेमपूर्वकइस प्रकार बोले।
कासि कस्यासि रम्भोरु को वार्थस्तेउत्र भामिनि ।
रूपद्रविणपण्येन दुर्भगान्नो विबाधसे ॥
३४॥
का--कौन; असि--हो; कस्य--किसकी; असि--हो; रम्भोरु--हे सुन्दरी; कः--क्या; वा--अथवा; अर्थ: --प्रयोजन; ते--तुम्हारा; अत्र--यहाँ; भामिनि-- हे कामिनी; रूप--सौन्दर्य; द्रविण-- अमूल्य; पण्येन--सामग्री से;दुर्भगानू--अभागे; न:--हमें; विबाधसे--तरसा रही हो |
हे सुन्दरी बाला, तुम कौन हो? तुम किसकी पत्नी या पुत्री हो और तुम हम सबों केसमक्ष किस प्रयोजन से प्रकट हुई हो ? हम अभागों को तुम अपने सौन्दर्य रूपी अमूल्यसामग्री से क्यों तरसा रही हो ?
या वा काचित्त्वमबले दिष्टय्या सन्दर्शनं तव ।
उत्सुनोषीक्षमाणानां कन्दुकक्रीडया मन: ॥
३५॥
या--जो कोई भी; वा--अथवा; काचित्--कोई; त्वम्ू--तुम; अबले--हे सुन्दरी बाला; दिछ्टद्या-- भाग्यवश;सन्दर्शनम्--दर्शन पाकर; तब--तुम्हारा; उत्सुनोषि--विचलित करती हो; ईक्षमाणानाम्--देखने वालों के;कन्दुक--गेंद के साथ; क्रीडया--खेल से; मन:--मन |
हे सुन्दरी बाला, तुम चाहे जो भी हो, हम भाग्यशाली हैं कि तुम्हारा दर्शन कर रहेहैं।
तुमने गेंद के अपने खेल से हम दर्शकों के मन को विचलित कर दिया है।
नैकत्र ते जयति शालिनि पादपद्ंघ्नन्त्या मुहु: करतलेन पतत्पतड़म् ।
मध्यं विषीदति बृहत्स्तनभारभीतंशान्तेव दृष्टिरमला सुशिखासमूह: ॥
३६॥
न--नहीं; एकत्र--एक स्थान पर; ते--तुम्हारा; जयति--ठहरता है; शालिनि--हे सुन्दर स्त्री; पाद-पद्मम्ू--चरणकमल; घ्नन्त्या:--मार कर; मुहुः--पुनः पुनः; कर-तलेन--हथेली से; पतत्--उछालती; पतड़म्-गेंद को;मध्यम्--कटि; विषीदति--थक जाती है; बृहत्--पूर्ण विकसित; स्तन--तुम्हारे स्तनों के; भार--बोझ से; भीतम्--दुखित; शान्ता इब--मानो थकित; दृष्टि:--दृष्टि; अमला--स्वच्छ; सु--सुन्दर; शिखा--तुम्हारी चोटी; समूह: --गुच्छा।
हे सुन्दरी, जब तुम धरती से उछलती गेंद को अपने हाथों से बार-बार मारती हो तोतुम्हारे चरण-कमल एक स्थान पर नहीं रुके रहते।
तुम्हारे पूर्ण विकसित स्तनों के भारसे पीड़ित तुम्हारी कमर थक जाती है और स्वच्छ दृष्टि मन्द पड़ जाती है।
कृपया अपनेसुन्दर बालों को ठीक से गूँथ तो लो।
इति सायन्तनीं सन्ध्यामसुरा: प्रमदायतीम् ।
प्रलोभयन्तीं जगृहुर्मत्वा मूढधिय: स्त्रियम् ॥
३७॥
इति--इस प्रकार से; सायन्तनीम्--सायंकाल; सन्ध्याम्--सन्ध्या का प्रकाश; असुरा:-- असुरगण; प्रमदायतीम्--गर्वीली स्त्री की भाँति आचरण करती; प्रलोभयन्तीम्--लुभाती हुई; जगृहः--पकड़ लिया; मत्वा--मानकर; मूढ-धियः--मूर्ख ; स्त्रियम्-स्त्री को |
जिनकी बुद्धि पर पर्दा पड़ चुका है, ऐसे असुरों ने सन्ध्या को हावभाव करने वालीआकर्षक सुन्दरी मानकर उसको पकड़ लिया।
प्रहस्य भावगम्भीरं जिप्रन्त्यात्मानमात्मना ।
कान्त्या ससर्ज भगवानान्धर्वाप्सरसां गणान् ॥
३८॥
प्रहस्थ--हँस कर; भाव-गम्भीरम्--गम्भीर प्रयोजन से; जिप्रन्त्या--समझकर; आत्मानम्--स्वयं को; आत्मना--अपने आप से; कान्त्या--अपनी कान्ति से; ससर्ज--उत्पन्न किया; भगवान्--पूज्य भगवान् ब्रह्मा; गन्धर्व--नैसर्गिकगायक; अप्सरसाम्--तथा स्वर्ग की नर्तकियाँ; गणान्--समूह |
तब गम्भीर भावपूर्ण हँसी हँसते हुए पूज्य ब्रह्म ने अपनी कान्ति से, जो अपने सौन्दर्यका मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्वों व अप्सराओं के समूह को उत्पन्न किया।
विससर्ज तनु तां वै ज्योत्स्तां कान्तिमतीं प्रियाम् ।
त एव चाददुः प्रीत्या विश्वावसुपुरोगमा: ॥
३९॥
विससर्ज--त्याग दिया; तनुम्ू--रूप को; तामू--उस; बै--निस्सन्देह; ज्योत्स्नामू--चाँदनी; कान्ति-मतीम्--चमकतीहुई; प्रियामू-प्रिया; ते--गन्धर्व; एब--निश्चय ही; च--तथा; आददु:ः--अपना लिया; प्रीत्या--प्रसन्नतापूर्वक;विश्वावसु-पुरः-गमा:--विश्वावसु जिनका अग्रणी था।
तत्पश्चात् ब्रह्म ने वह चाँदनी सा दीप्तिमान तथा सुन्दर रूप त्याग दिया औरविश्वावसु तथा अन्य गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक उसे अपना लिया।
सृष्ठा भूतपिशाचां श्व भगवानात्मतन्द्रिणा ।
दिग्वाससो मुक्तकेशान्वीक्ष्य चामीलयहूशौ ॥
४०॥
सृघष्ठा--उत्पन्न करके; भूत-- भूत-प्रेत; पिशाचान्ू--पिशाचों को; च--तथा; भगवान्--ब्रह्माजी ने; आत्म--अपने;तन्द्रिणा--आलस्य से; दिकू-वासस: --नग्न; मुक्त--बिखरे; केशान्--बालों को; वीक्ष्य--देखकर; च--तथा;अमीलयत्--बन्द किया; दृशौ--दोनों नेत्र
तब पूज्य ब्रह्म ने अपनी तन््द्रा से भूतों तथा पिशाचों को उत्पन्न किया, किन्तु जबउन्हें नग्न एवं बिखरे बाल वाले देखा तो उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं।
जगहुस्तद्विसूष्टां तां जुम्भणाख्यां तनु प्रभो:निद्रामिन्द्रियविक्लेदो यया भूतेषु दृश्यते ।
येनोच्छिष्टान्धर्षयन्ति तमुन्मादं प्रचक्षते ॥
४१॥
जगृहु:ः--अपना लिया; ततू-विसृष्टाम्--उसके द्वारा फेंका गया; तामू--उस; जृम्भण-आख्याम्--जम्हाई लेता हुआ;तनुम्--शरीर को; प्रभो: -- भगवान् ब्रह्मा का; निद्राम--नींद; इन्द्रिय-विक्लेद:--लार चुआता; यया--जिससे;भूतेषु--जीवों के मध्य; दृश्यते--देखा जाता है; येन--जिससे; उच्छिष्टान्ू--मलमूत्र से सना; धर्षयन्ति--आक्रमणकरते हैं; तम्--उसे; उन््मादम्--पागलपन; प्रचक्षते--कहा जाता है।
जीवों के सत्रष्टा ब्रह्मा द्वारा उस अँगड़ाई रूप में फेंके जाने वाले शरीर को भूत-पिशाचों ने उस शरीर को अपना लिया।
इसी को निद्रा भी कहते हैं जिसमें लार चू जातीहै।
जो लोग अशुद्ध रहते हैं उन पर ये भूत-प्रेत आक्रमण करते हैं और उनका यहआक्रमण उन्माद ( पागलपन ) कहलाता है।
ऊर्जस्वन्तं मन्यमान आत्मानं भगवानज: ।
साध्यान्गणान्पितृगणान्परो क्षेणासृजत्प्रभु; ॥
४२॥
ऊर्ज:-वन्तम्-शक्ति से परिपूर्ण; मन्यमान:--मानकर; आत्मानम्ू--अपने आप को; भगवान्--परमपूज्य; अज:--ब्रह्मा ने; साध्यान्ू--देवता; गणान्--समूह; पितृ-गणान्ू--तथा पितर; परोक्षेण-- अदृश्य होकर; असृजत्--उत्पन्नकिया; प्रभुः--जीवों के स्वामी |
जीवात्माओं के स्त्रष्टा, पूज्य ब्रह्म ने अपने आपको इच्छा तथा शक्ति से पूर्ण मानकर अपने अदृश्य रूप, अपनी नाभि, से साध्यों तथा पितरों के समूह को उत्पन्न किया।
त आत्मसर्ग तं कायं पितरः प्रतिपेदिरे ।
साध्येभ्यश्व पितृभ्यश्च॒ कवयो यद्वितन्वते ॥
४३॥
ते--वे; आत्म-सर्गम्--उनके अस्तित्व का स्त्रोत; तमू--उस; कायम्--शरीर को; पितर: --पितृगण ने; प्रतिपेदिरि--स्वीकार कर लिया; साध्येभ्य:--साध्यों के लिए; च--तथा; पितृभ्य:--पितरों को; च-- भी; कवयः--कर्मकाण्ड मेंपटु; यत्--जिससे; वितन्वते--पिण्डदान करते हैं।
पितृगण ने अपने अस्तित्व के स्रोत उस अहृश्य शरीर को स्वयं धारण कर लिया।
इस अदृश्य शरीर के माध्यम से ही श्राद्ध के अवसर पर कर्मकाण्ड में पटु लोग साध्योंतथा पितरों ( दिवंगत पूर्वजों के रूप में ) को पिण्डदान करते हैं।
सिद्धान्विद्याधरांक्षेव तिरोधानेन सो$सृजत् ।
तेभ्योददात्तमात्मानमन्तर्धानाख्यमद्भुतम् ॥
४४॥
सिद्धान्ू--सिद्धों को; विद्याधरान्ू--विद्याधरों को; च एब--तथा भी; तिरोधानेन--अदृश्य रहने के कारण; सः--ब्रह्मा ने; असृजत्--उत्पन्न किया; तेभ्य:--उनको; अददात्ू--दिया; तम् आत्मानम्--अपना वह रूप; अन््तर्धान-आख्यम्--अतन्तर्धान नाम से ज्ञात; अद्भुतम्-विचित्र |
तब दृष्टि से अदृश्य रहने की अपनी क्षमता के कारण ब्रह्माजी ने सिद्धों तथाविद्याधरों को उत्पन्न किया और उन्हें अपना अन्तर्धान नामक विचित्र रूप प्रदान किया।
स किन्नरान्किम्पुरुषान्प्रत्यात्म्येनासूजत्प्रभु: ।
मानयतन्नात्मनात्मानमात्माभासं विलोकयन् ॥
४५ ॥
सः-हब्रह्मा ने; किन्नरानू-किकन्नरों को; किम्पुरुषान्ू-किम्पुरुषों को; प्रत्यात्म्येन--अपने प्रतिबिम्ब ( जल में ) से;असृजत्--उत्पन्न किया; प्रभुः--जीवों के स्वामी ( ब्रह्मा ); मानयन्--प्रशंसा करते हुए; आत्मना आत्मानम्--अपने सेअपने को; आत्म-आभासम्--अपना प्रतिबिम्ब; विलोकयन्--देखते हुए
एक दिन समस्त जीवात्माओं के सर्जक ब्रह्मा ने जल में अपनी परछाई देखी औरआत्मप्रशंसा करते हुए उन्होंने उस प्रतिबिम्ब ( परछाई ) से किन्नरों तथा किम्पुरुषों कीसृष्टि की।
ते तु तज्जगृहू रूप॑ त्यक्तं यत्परमेष्ठिना ।
मिथुनीभूय गायन्तस्तमेवोषसि कर्मभि: ॥
४६॥
ते--उन्होंने ( किन्नर तथा किम्पुरुष ); तु--लेकिन; तत्--वह; जगृहु:--अपना लिया; रूपमू--उस छाया रूप को;त्यक्तमू-परित्यक्त; यत्--जो; परमेष्ठिना--ब्रह्मा द्वारा; मिथुनी-भूय--पत्नियों सहित; गायन्त: --स्तुति; तमू--उसको; एव--केवल; उषसि--उषाकाल में; कर्मभि:--अपने कर्म के द्वारा
किम्पुरुषों तथा किब्नरों ने ब्रह्मा द्वारा त्यक्त उस छाया-शरीर को ग्रहण कर लियाइसीलिए वे अपनी पत्नियों सहित प्रत्येक प्रातःकाल उनके कर्म का स्मरण कर करकेउनकी प्रशंसा का गान करते हैं।
देहेन वै भोगवता शयानो बहुचिन्तया ।
सर्गेडनुपचिते क्रोधादुत्ससर्ज ह तद्बपु: ॥
४७॥
देहेन--शरीर से; बै--निस्सन्देह; भोगवता--पूरा फैलकर; शयान:--शयन करते हुए; बहु-- अधिक; चिन्तया--चिन्ता से; सर्गे--सृष्टि; अनुपचिते--बढ़ती न देखकर; क्रोधात्--क्रोधवश; उत्ससर्ज--त्याग दिया; ह--निस्सन्देह;ततू--वह; वपु:--शरीर |
एक बार ब्रह्माजी अपने शरीर को पूरी तरह फैलाकर लेटे थे।
वे अत्यधिक चिन्तितथे कि उनकी सृष्टि का कार्य आगे नहीं बढ़ रहा है, अतः उन्होंने रोष में आकर उस शरीरको भी त्याग दिया।
येउहीयन्तामुत: केशा अहयस्तेउड़ जज्ञिरि ।
सर्पाः प्रसर्पतः क्रूरा नागा भोगोरुकन्धरा: ॥
४८॥
ये--जो; अहीयन्त--गिर गये; अमुत:--उससे; केशा: --बाल; अहयः --सर्प; ते--वे; अड़--हे विदुर; जज्ञिरि--केरूप में जन्म लिया; सर्पा:--साँप; प्रसर्पत:ः--रेंगने वाले शरीर से; क्रूरा:--ईर्ष्यालु; नागा:--काले साँप; भोग--फनोंसे; उरु--विशाल; कन्धरा:--जिनके कंधे।
हे विदुर, उस शरीर से जो बाल गिरे वे सर्पों में परिणत हो गये।
उनके हाथ-पैरसिकोड़ कर चलने से उस शरीर से क्रूर सर्प तथा नाग उत्पन्न हुए जिनके फन फैले हुएहोते हैं।
स आत्मानं मन्यमान: कृतकृत्यमिवात्मभू: ।
तदा मनून्ससर्जान्ते ममसा लोकभावनान् ॥
४९॥
सः--ब्रह्मा ने; आत्मानम्--अपने आपको; मन्यमान:--मानकर; कृत-कृत्यम्--जीवन उद्देश्य को प्राप्त, धन्य; इब--मानो; आत्मभू: --परमेश्वर से उत्पन्न; तदा--तब; मनून्ू--सभी मनुओं को; ससर्ज--उत्पन्न किया; अन्ते--अन्त में;मनसा--अपने मन से; लोक--संसार का; भावनान्--कल्याणकारी |
एक दिन स्वयंजन्मा प्रथम जीवात्मा ब्रह्म ने अनुभव किया कि उन्होंने अपने जीवनका उद्देश्य प्राप्त कर लिया है।
उस समय उन्होंने अपने मन से मनुओं को उत्पन्न किया, जोब्रह्माण्ड के कल्याण-कार्यो की वृद्धि करने वाले हैं।
तेभ्य: सोसृजत्स्वीयं पुरं पुरुषमात्मवान् ।
तान्हष्ठा ये पुरा सृष्टा: प्रशशंसु: प्रजापतिम् ॥
५०॥
तेभ्य:--उनके लिए; सः--ब्रह्मा ने; असृजत्--प्रदान किया; स्वीयमू--निज; पुरम्ू--शरीर; पुरुषम्--मनुष्य का;आत्म-वान्--स्व-युक्त; तान्ू--उनको; दृष्ठा--देखकर; ये--जो; पुरा--इससे पूर्व; सृष्टा:--रचे गये ( देव, गंधर्वआदि, जिनकी सृष्टि पहले हो चुकी थी ); प्रशशंसु:--बड़ाई की; प्रजापतिम्--ब्रह्मा ( उत्पन्न जीवों के स्वामी ) की ।
आत्मवान स्रष्टा ने उन्हें अपना मानवी रूप दे दिया।
मनुओं को देखकर, उनसे पूर्वउत्पन्न देवता, गन्धर्व आदि ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा की स्तुति करने लगे।
अहो एतज्गर्स्रष्ट: सुकृतं बत ते कृतम् ।
प्रतिष्ठिता: क्रिया यस्मिन्साकमन्नमदाम हे ॥
५१॥
अहो--ओह; एतत्--यह; जगत्-स्त्रष्ट:--हे ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा; सुकृतम्--अच्छा किया; बत--निस्सन्देह; ते--तुम्हारेद्वारा; कृतम्-उत्पन्न; प्रतिष्ठिता:--भलीभाँति स्थापित; क्रिया:--समस्त विधि-विधान; यस्मिन्ू--जिसमें; साकम्--इसके साथ साथ; अन्नम्--यज्ञ की आहुति, हव्य; अदाम--अपना अपना भाग लेंगे
हे-हे !उन्होंने स्तुति की-हे ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा, हम प्रसन्न हैं, आपने जो भी सृष्टि की है, वहसुन्दर है।
चूँकि इस मानवी रूप में अनुष्ठान-कार्य पूर्णतया स्थापित हो चुके हैं, अतः हमहवि में साझा कर लेंगे।
तपसा विद्यया युक्तो योगेन सुसमाधिना ।
ऋषीनृषिहषीकेश: ससर्जाभिमता: प्रजा: ॥
५२॥
तपसा--तप से; विद्यया--पूजा से; युक्त: --संलग्न होकर; योगेन--भक्ति में मन को एकाग्र करके; सु-समाधिना--सुन्दर चिन्तन से; ऋषीन्--ऋषियों में; ऋषि:--प्रथम दूत ( ब्रह्मा ); हषीकेश: --इन्द्रियों को वश में करने वाला;ससर्ज--उत्पन्न किया; अभिमता: --प्रिय ; प्रजा:--पुत्र |
फिर आत्म-भू जीवित प्राणी ब्रह्मा ने अपने आपको कठोर तप, पूजा, मानसिकएकाग्रता तथा भक्ति-तल्लीनता से सुसज्जित करके एवं निष्काम भाव से अपनी इन्द्रियोंको वश में करते हुए महर्षियों को अपने पुत्रों ( प्रजा ) के रूप में उत्पन्न किया।
तेभ्यश्लेकेकशः स्वस्य देहस्यांशमदादज: ।
यत्तत्समाधियोगर्द्धितपोविद्याविरक्तिमत् ॥
५३॥
तेभ्य:--उनको; च--तथा; एकैकश:--हर एक को; स्वस्थ--अपने; देहस्य--देह का; अंशम्ू--अंश, भाग;अदातू--प्रदान किया; अज:--अजन्मा ब्रह्मा; यत्--जो; तत्--वह; समाधि--गहन ध्यान; योग--मन की एकाग्रता;ऋद्धि--नैसर्गिक शक्ति; तपः--तपस्या; विद्या--ज्ञान; विरक्ति--वैराग्य; मत्--युक्त |
ब्रह्माण्ड के अजन्मा स्त्रष्टा ( ब्रह्मा ) ने इन पुत्रों में से प्रत्येक को अपने शरीर काएक-एक अंश प्रदान किया जो गहन चिन्तन, मानसिक एकाग्रता, नैसर्गिक शक्ति,तपस्या, पूजा तथा वैराग्य के लक्षणों से युक्त था।
अध्याय इक्कीसवाँ: मनु और कर्दम के बीच बातचीत
3.21विदुर उवाचस्वायम्भुवस्य च मनोर्वश: परमसम्मतः ।
कथ्यतां भगवन्यत्रमैथुनेनेधिरे प्रजा: ॥
१॥
विदुरः उवाच--विदुर ने कहा; स्वायम्भुवस्य--स्वायम्भुव का; च--तथा; मनो: --मनु का; वंश: --वंश; परम--सर्वाधिक; सम्मत:ः--आदरणीय; कथ्यताम्--कृपया कहिये; भगवन्--हे पूज्य ऋषि; यत्र--जिसमें; मैथुनेन--संभोग से; एधिरे--वृद्धि की; प्रजा:--सन्तति ने |
विदुर ने कहा-स्वायम्भुव मनु की वंश परम्परा अत्यन्त आदरणीय थी।
हे पूज्यऋषि, मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस वंश का वर्णन करें जिसकी सन्तति-वृद्ध्धिसंभोग के द्वारा हुई।
प्रियब्रतोत्तानपादौ सुतौ स्वायम्भुवस्य वै ।
यथाधर्म जुगुपतुः सप्तद्वीपवर्ती महीम् ॥
२॥
प्रियत्रत--महाराज प्रियब्रत; उत्तानपादौ--तथा महाराज उत्तानपाद; सुतौ--दो पुत्र; स्वायम्भुवस्य--स्वायंभुव मनु के;बै--निस्सन्देह; यथा--के अनुसार; धर्मम्--धार्मिक नियम; जुगुपतु:--शासन किया; सप्त-द्वीप-वतीम्--सात द्वीपोंवाली; महीम्--पृथ्वी, संसार पर।
स्वायम्भुव मनु के दो पुत्रों-प्रियत्रत तथा उत्तानपाद--ने धार्मिक नियमानुसार सप्तद्वीपों वाले इस संसार पर राज्य किया।
तस्य बै दुहिता ब्रह्मन्देवहूतीति विश्रुता ।
पती प्रजापतेरुक्ता कर्दमस्य त्ववानघ ॥
३॥
तस्य--उस मनु की; वै--निस्सन्देह; दुहिता--पुत्री; ब्रह्मनू--हे पवित्र ब्राह्मण; देवहूति--देवहूति नामक; इति--इसप्रकार; विश्रुता--प्रसिद्ध थी; पत्ती--सहधर्मिणी; प्रजापते: --उत्पन्न जीवों के स्वामी की; उक्ता--कहा गया;कर्दमस्य--कर्दम मुनि का; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अनघ--हे पापविहीन पुरुष |
हे पवित्र ब्राह्मण, हे पापविहीन पुरुष, आपने उनकी पुत्री के विषय में कहा है कि वेप्रजापति ऋषि कर्दम की पत्नी देवहूति थीं।
तस्यां स वै महायोगी युक्तायां योगलक्षणै: ।
ससर्ज कतिधा वीर्य तन्मे शुश्रूषवे वद ॥
४॥
तस्याम्--उसमें; सः--कर्दम मुनि; बै--निस्सन्देह; महा-योगी--परम योगी; युक्तायामू--युक्त; योग-लक्षणै:--योगिक सिद्धि के आठ लक्षणों से; ससर्ज--आगे बढ़ाया; कतिधा--कितनी बार; वीर्यम्--सन्तान; तत्--वहआख्पान; मे--मुझको; शुश्रूषवे--सुनने का इच्छुक; बद--कहिये।
उस महायोगी ने, जिसे अष्टांग योग के सिद्धान्तों में सिद्धि प्राप्त थी, इस राजकुमारीसे कितनी सन्तानें उत्पन्न कीं? कृपा करके आप मुझे यह बताएँ, क्योंकि मैं इसे सुनने काइच्छुक हूँ।
रुचिर्यों भगवान्ब्रह्मन्दक्षो वा ब्रह्मण: सुतः ।
यथा ससर्ज भूतानि लब्ध्वा भार्या च मानवीम् ॥
५॥
रूचि:--रूचि; य:--जो; भगवानू--पूज्य; ब्रह्मनू-हे साधु; दक्ष:--दक्ष; वा--तथा; ब्रह्मण:-- भगवान् ब्रह्मा का;सुतः--पुत्र; यथा--जिस प्रकार; ससर्ज--उत्पन्न किया; भूतानि--सन्तान; लब्ध्वा--पा करके; भार्याम्-- अपनीपत्नियों के रूप में; च--तथा; मानवीम्--स्वायम्भुव मनु की कन्याएँ।
हे ऋषि, कृपा करके मुझे बताएँ कि ब्रह्मा के पुत्र दक्ष तथा रुचि ने स्वायंभुव मनुकी अन्य दो कन्याओं को पत्नी रूप में प्राप्त करके किस प्रकार सनन््तानें उत्पन्न कीं ?
मैत्रेय उवाचप्रजा: सृजेति भगवान्कर्दमो ब्रह्मणोदितः ।
सरस्वत्यां तपस्तेपे सहस्त्राणां समा दश ॥
६॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; प्रजा:--सनन््तानें; सृज--उत्पन्न करो; इति--इस प्रकार; भगवान्--पूज्य;कर्दमः--कर्दम मुनि; ब्रह्मणा-- भगवान् ब्रह्मा द्वारा; उदित:ः--आदेशित; सरस्वत्याम्--सरस्वती नदी के तट पर;तपः--तपस्या; तेपे--अभ्यास किया; सहस्त्राणाम्ू--हजारों; समा:--वर्षो की; दश--दस महान्
ऋषि मैत्रेय ने उत्तर दिया-भगवान् ब्रह्मा से लोकों में सन्तान उत्पन्न करने काआदेश पाकर पूज्य कर्दम मुनि ने सरस्वती नदी के तट पर दस हजार वर्षों तक तपस्याकी।
ततः समाधियुक्तेन क्रियायोगेन कर्दम: ।
सम्प्रपेदे हरिं भक्त्या प्रपन्नवरदाशुषम् ॥
७॥
ततः--तब, उस तप में; समाधि-युक्तेन--समाधि अवस्था में; क्रिया-योगेन-- भक्तियोग अथवा पूजा से; कर्दम:--कर्दम मुनि ने; सम्प्रपेदे--सेवा की; हरिम्-- श्री भगवान् की; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; प्रपन्न--शरणागत जीवों को;वरदाशुषम्--समस्त वरों के प्रदाता |
समाधिकाल में कर्दम मुनि ने समाधि में अपनी भक्ति द्वारा शरणागतों को तुरंतसमस्त वर देने वाले श्रीभगवान् की आराधना की।
तावद््रसन्नो भगवान्पुष्कराक्ष: कृते युगे ।
दर्शयामास त॑ क्षत्तः शाब्दं ब्रह्म दधद्वपु: ॥
८ ॥
तावत्--तब; प्रसन्न: --प्रसन्न होकर; भगवान्-- श्रीभगवान् ने; पुष्कर-अक्ष:--कमल के समान नेत्र वाले; कृतेयुगे--सत्ययुग में; दर्शयाम् आस--दिखलाया; तम्--कर्दम मुनि को; क्षत्त:--हे विदुर; शाब्दम्--जिसे वेदों केमाध्यम से ही जाना जा सकता है; ब्रह्मय--परम सत्य; दधत्--प्रकट करते हुए; वपु:--अपना दिव्य शरीर
तब सत्ययुग में कमल-नयन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने प्रसन्न होकर कर्दम मुनि कोअपने दिव्य रूप का दर्शन कराया, जिसे वेदों के माध्यम से ही जाना जा सकता है।
सतं विरजमर्काभं सितपद्मोत्पलस्त्रजम् ।
स्निग्धनीलालककब्रातवक्त्राब्ज॑ विरजोम्बरम् ॥
९॥
सः--वह कर्दम मुनि; तम्--उसको; विरजमू--कल्मषहीन; अर्क-आभम्ू--सूर्य का सा तेज; सित-- श्वेत; पद्य--कमल; उत्पल--कुमुदिनी की; स्त्रजमू--माला; स्निग्ध--चिकना; नील--श्याममिश्रित नीला; अलक--बालों केसमूह की; ब्रात--अधिकता; वकक््त्र--मुख; अब्जम्ू--कमल-सहृश; विरज: --निर्मल; अम्बरम्--वस्त्र |
कर्दम मुनि ने भौतिक कल्मष से रहित, सूर्य के समान तेजमय, श्वेत कमलों तथाकुमुदिनियों की माला पहने श्रीभगवान् के नित्य रूप का दर्शन किया।
भगवान् ने निर्मलपीला रेशमी वस्त्र धारण कर रखा था और उनका मुख-कमल घुँघराले नीले चिकने बालों के गुच्छों से सुशोभित था।
किरीटिनं कुण्डलिनं शद्भुच्क्रगदाधरम् ।
श्रेतोत्पलक्रीडनकं मनःस्पर्शस्मितेक्षणम् ॥
१०॥
किरीटिनमू--मुकुट धारण किये हुए; कुण्डलिनम्-कुण्डल पहने हुए; शट्डु--शंख; चक्र-- चक्र; गदा--गदा;धरम्-- धारण किये; श्वेत--उज्वल; उत्पल--कुमुदिनी; क्रीडनकम्--खिलौना; मन:--हृदय; स्पर्श--स्पर्श;स्मित--हँसी; ईक्षणम्--तथा चितवन।
मुकुट तथा कुण्डलों से आभूषित श्रीभगवान् अपने तीन हाथों में अपने विशिष्टशंख, चक्र तथा गदा और चौथे में श्वेत कुमुदिनी धारण किये हुए थे।
उन्होंने प्रसन्न तथाहासयुक्त मुद्रा में समस्त भक्तों के चित्त को चुराने वाली चितवन से देखा।
विन्यस्तचरणाम्भोजमंसदेशे गरुत्मतः ।
इृष्टा खेउवस्थितं वक्ष:अ्रियं कौस्तुभकन्धरम् ॥
११॥
विन्यस्त--रखे हुए; चरण-अम्भोजम्--चरणकमल; अंस-देशे--कं धों पर; गरुत्मतः--गरुड़ के; दृष्ठा--देखकर;खे--आकाश में; अवस्थितम्--खड़े हुए; वक्ष:--अपनी छाती पर; थ्रियम्--शुभ चिह्न श्रीवत्स ; कौस्तुभ--'कौस्तुभमणि; कन्धरम्--गले में |
अपने वक्षस्थल पर सुनहरी रेखा धारण किये तथा अपने गले में प्रसिद्ध कौस्तुभमणिलटकाये हुए वे गरुड़ के कन्धों पर अपने चरण-कमल रखे हुए आकाश वायु मेंखड़े थे।
जातहर्षो पतन्मूर्ध्या क्षितो लब्धमनोरथः ।
गीर्भिस्त्वभ्यगृणात्प्रीतिस्वभावात्मा कृताझ्ञलि: ॥
१२॥
जात-हर्ष:--स्वाभाविक रूप से प्रमुदित; अपतत्--गिर पड़ा; मूर्धश्न--अपने सिर के बल; क्षितौ--पृथ्वी पर;लब्ध--प्राप्त हुआ; मनः-रथ:--अपनी इच्छा; गीर्मि:--स्तुतियों से; तु--तथा; अभ्यगृणात्-- प्रसन्न किया; प्रीति-स्वभाव-आत्मा--जिनका हृदय स्वभाव से प्रेम पूर्ण है; कृत-अद्जलि:--हाथ जोड़कर ।
जब कर्दम मुनि ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का साक्षात् दर्शन किया, तो वे अत्यधिकतुष्ट हुए, क्योंकि उनकी दिव्य इच्छा पूर्ण हुई थी।
वे भगवान् के चरण-कमलों कोनमस्कार करने के लिए नतमस्तक होकर पृथ्वी पर लेट गये।
उनका हृदय स्वभाविकरूप में भगवत्प्रेम से पूरित था।
उन्होंने हाथ जोड़कर स्तुतियों द्वारा भगवान् को तुष्टकिया।
ऋषिरुवाचजुष्ट बताद्याखिलसत्त्वराशे:सांसिद्धयमक्ष्णोस्तव दर्शनान्न: ।
यहर्शनं जन्मभिरीड्य सद्धि-राशासते योगिनो रूढयोगा: ॥
१३॥
ऋषि: उवाच--ऋषि ने कहा; जुष्टम्--प्राप्त किया जाता है; बत--आह; अद्य--अब; अखिल--सभी; सत्त्व--सद्गुण का; राशे: --जो आगार है; सांसिद्धबम्-पूर्ण सफलता; अक्ष्णो:--दोनों नेत्रों का; तब--तुम्हारे; दर्शनात्ू--दर्शन से; न:ः--हमारे द्वारा; यत्ू--जिसका; दर्शनम्--दर्शन; जन्मभि: --जन्म के द्वारा; ईड्य--हे पूज्य स्वामी;सद्धिः--क्रमशः पद को प्राप्त; आशासते--महत्त्वाकांक्षा रखते हैं; योगिन:ः --योगी; रूढ-योगा: --योग मेंसिद्ध््िप्राप्त।
कर्दम मुनि ने कहा-हे परम पूज्य भगवान्, समस्त अस्तित्वों के आगार आपकादर्शन प्राप्त करके मेरी दर्शन की साध पूरी हो गई।
महान् योगीजन बारम्बार जन्म लेकरगहन ध्यान में आपके दिव्य रूप का दर्शन करने की आकांक्षा करते रहते हैं।
ये मायया ते हतमेधसस्त्वतू-पादारविन्दं भवसिन्धुपोतम् ।
उपासते कामलवाय तेषांरासीश कामान्निरयेडपि ये स्यु: ॥
१४॥
ये--जो व्यक्ति; मायया--छलने वाली शक्ति से; ते--तुम्हारा; हत-- भ्रष्ट; मेधस: --जिनकी बुद्धि; त्वत्--तुम्हारा;पाद-अरविन्दमू--चरणकमल; भव--संसार का; सिन्धु--सागर; पोतम्--पार करने की नाव; उपासते--पूजा करतेहैं; काम-लवाय--क्षुद्र सुखों के लिए; तेषामू--उनकी; रासि--देते हो; ईश--हे ईश्वर; कामान्--इच्छाएँ; निरये--नरक में; अपि-- भी; ये--जो इच्छा करते हैं; स्यु:--प्राप्त हो सकती हैं।
आपके चरण-कमल सांसारिक अज्ञान के सागर को पार करने के लिए सच्चे पोतनाव के तुल्य हैं।
माया के वशीभूत केवल अज्ञानी पुरुष ही इन चरणों की पूजाइन्द्रियों के क्षुद्र तथा क्षणिक सुख की प्राप्ति हेतु करते हैं जिनकी प्राप्ति नरक में सड़नेवाले व्यक्ति भी कर सकते हैं।
तो भी, हे भगवान्, आप इतने दयालु हैं कि उन पर भीआप अनुग्रह करते हैं।
तथा स चाहं परिवोदुकाम:समानशीलां गृहमेधधेनुम् ।
उपेयिवान्मूलमशेषमूलंदुराशयः कामदुघाडूप्रिपस्थ ॥
१५॥
तथा--उसी प्रकार से; सः--मैं स्वयं; च-- भी; अहम्--मैं; परिवोढु-काम:--ब्याह करने की इच्छा से; समान-शीलाम्-- अनुरूप चरित्र वाली कन्या; गृह-मेध--विवाहित जीवन में; धेनुम्ू--कामधेनु; उपेयिवान्ू--पास आयाहुआ; मूलम्--जड़ चरणकमल ; अशेष- प्रत्येक वस्तु का; मूलमू--स्त्रोत; दुराशयः --कामेच्छा से; काम-दुघ--समस्त इच्छाओं को प्रदान करने वाला; अड्प्रिपस्थ--वृक्ष सहश आपका।
अतः मैं भी ऐसी समान स्वभाव वाली कन्या से विवाह करने की इच्छा लेकरआपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ, जो मेरे विवाहित जीवन में मेरी कामेच्छाओंको पूरा करने में कामधेनु के समान सिद्ध हो सके।
आपके चरण प्रत्येक वस्तु के देनेवाले हैं, क्योंकि आप कल्पवृक्ष के समान हैं।
प्रजापतेस्ते वचसाधीश तन्त्यालोक: किलाय॑ कामहतोनुबद्ध: ।
अहं च लोकानुगतो वहामिबलिं च शुक्लानिमिषाय तुभ्यम् ॥
१६॥
प्रजापते:--जो समस्त जीवात्माओं के स्वामी हैं; ते--तुम्हारे; वचसा--निर्देश से; अधीश--हे भगवान्; तन्त्या--डोरीसे; लोक:--बद्धजीव; किल--निस्सन्देह; अयम्--ये; काम-हतः--काम वासनाओं से विजित; अनुबद्धः --बँधेहुए; अहम्-मैं; च--तथा; लोक-अनुगत:--बद्धजीवों का अनुसरण करता; वहामि--प्रदान करता हूँ; बलिम्ू--बलि, भेंट; च--तथा; शुक्ल--हे धर्मरूप; अनिमिषाय--शाश्रत समय के रूप में रहकर; तुभ्यम्--तुम्हें |
हे भगवान्, आप समस्त जीवात्माओं के स्वामी तथा नायक हैं।
आपके आदेश सेसभी बद्धजीव मानो डोरी से बँधकर अपनी-अपनी इच्छाओं की तुष्टि में निरन्तर लगेरहते हैं।
उन्हीं का अनुसरण करते हुए, हे धर्ममूर्ते, शाश्वत काल रूप आपको मैं भीअपनी आहुति बलि अर्पण करता हूँ।
लोकां श्व लोकानुगतान्पशूंश्चहित्वा थ्रितास््ते चरणातपत्रम् ।
परस्पर त्वद्गुणवादसी धु-पीयूषनिर्यापितदेहधर्मा: ॥
१७॥
लोकान्--सांसारिक कार्यकलाप; च--तथा; लोक-अनुगतान्--सांसारिकता का अनुसरण करने वाले; पशून्--पशुवत्; च--तथा; हित्वा--त्याग कर; थ्रिता:--शरणागत; ते--तुम्हारे;: चरण--चरणकमलों का; आतपत्रम्--छत्र; परस्परमू--एक दूसरे से; त्वत्-तुम्हारा; गुण--गुणों का; वाद--तर्क-वितर्क द्वारा; सीधु--मादक; पीयूष--अमृत से; निर्यापित--बुझाया गया; देह-धर्मा:--शरीर की मूल आवश्यकताएँ।
फिर भी जिन पुरुषों ने रूढ़ सांसारिकता तथा इनके पशुतुल्य अनुयायियों कापरित्याग कर दिया है और जिन्होंने परस्पर विचार-विनिमय के द्वारा आपके गुणों तथाकार्यकलापों के मादक अमृत सुधा का पान करके आपके चरण-कमलों की छत्र-छाया ग्रहण की है वे भौतिक देह की मूल आवश्यकताओं से मुक्त हो सकते हैं।
न तेउजराक्षभ्रमिरायुरेषांअयोदशारं त्रिशतं षष्टिपर्व ।
घण्नेम्यनन्तच्छदि यत्त्रिणाभिकरालस्त्रोतो जगदाच्छिद्य धावत् ॥
१८॥
न--नहीं; ते--तुम्हारे; अजर--अमर ब्रह्म का; अक्ष--धुरी; भ्रमिः--घूमती हुई; आयु:--जीवन काल, उम्र; एषाम्--भक्तों का; त्रयोदश-- तेरह; अरम्ू--तीलियाँ, अरा; त्रि-शतम्--तीन सौ; षष्टि--साठ; पर्ब--जोड़, गांठे; घट्ू--छह;नेमि--परिधियाँ, रिम; अनन्त--असंख्य; छदि--पत्तियाँ, पत्तर; यत्ू-- जो; त्रि--तीन; नाभि--नाभियाँ; कराल-स््रोत:--प्रचण्ड वेग से; जगत्--ब्रह्माण्ड; आच्छिद्य --छेदन करता हुआ; धावत्--दौड़ता हुआ
आपका तीन नाभिवाला काल चक्र अमर ब्रह्म की धुरी के चारों ओर घूम रहा है।
इसमें तेरह तीलियाँ अरे ३६० जोड़, छह परिधियाँ तथा उस पर अनन्त पत्तियाँ पत्तर पिरोयी हुई हैं।
यद्यपि इसके घूमने से सम्पूर्ण सृष्टि की जीवन-अवधि घट जातीहै, किन्तु यह प्रचण्ड वेगवान् चक्र भगवान् के भक्तों की आयु का स्पर्श नहीं करसकता।
एक: स्वयं सझ्जगतः सिसृक्षया-द्वितीययात्मन्नधियोगमायया ।
सृजस्यद: पासि पुनर्ग्रसिष्यसेयथोर्णनाभिर्भगवन्स्वशक्तिभि; ॥
१९॥
एकः--एक; स्वयम्-- अपने से; सन्--होकर; जगत:--ब्रह्माण्ड; सिसृक्षया--सृष्टि करने की अभिलाषा से;अद्वितीयया--अद्वितीय; आत्मन्--अपने में; अधि--वश में करते हुए; योग-मायया--योगमाया से; सृजसि--उत्पन्नकरते हो; अदः--वे ब्रह्माण्ड; पासि--भरण करते हो; पुन:--फिर; ग्रसिष्यसे-- अन्त कर देते हो; यथा--जिसप्रकार; ऊर्ण-नाभि:--मकड़ी; भगवन्--हे भगवान्; स्व-शक्तिभि:--अपनी शक्ति से
हे भगवान्, आप अकेले ही ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं।
हे श्रीभगवान्, इनब्रह्माण्डों की सृष्टि करने की इच्छा से, आप उनकी सृष्टि करते, उन्हें पालते और फिरअपनी शक्तियों से उनका अन्त कर देते हैं।
ये शक्तियाँ आपकी दूसरी शक्ति योगमाया केअधीन हैं, जिस प्रकार एक मकड़ी अपनी शक्ति से जाला बुनती है और पुन: उसे निगलजाती है।
नैतद्वताधीश पद तवेप्सितंअन्मायया नस्तनुषे भूतसूक्ष्मम् ।
अनुग्रहायास्त्वपि यहिं माययालसत्तुलस्या भगवान्विलक्षित: ॥
२०॥
न--नहीं; एतत्--यह; बत--निस्सन्देह; अधीश--हे भगवान्; पदम्-- भौतिक संसार; तव--तुम्हारी; ईप्सितम्--इच्छा; यत्ू--जो; मायया--आपकी बहिरंगा शक्ति से; न:ः--हमारे लिए; तनुषे-- प्रकट होते हो; भूत-सूक्ष्मम्--स्थूलतथा सूक्ष्म तत्त्व; अनुग्रहाय--अनुग्रह करने के लिए; अस्तु--हो; अपि-- भी; यहिं---जब; मायया--आपकीअहैतुकी कृपा से; लसत्--भव्य; तुलस्या--तुलसी दल की माला से; भगवान्-- श्रीभगवान्; विलक्षित:--देखाजाता है।
हे भगवान्, इच्छा के न होते हुए भी आप स्थूल तथा सूक्ष्म तत्त्वों की इस सृष्टि कोहमारी ऐन्द्रिय तुष्टि के लिए प्रकट करते हैं।
आपकी अहैतुकी कृपा हमें प्राप्त हो, क्योंकिआप अपने नित्य रूप में तुलसीदल की माला से विभूषित होकर हमारे समक्ष प्रकट हुएहैं।
त॑ त्वानुभूत्योपरतक्रियार्थस्वमायया वर्तितलोकतन्त्रम् ।
नमाम्यभीक्ष्णं नमनीयपाद-सरोजमल्पीयसि कामवर्षम् ॥
२१॥
तम्--उस; त्वा--तुमको; अनुभूत्या-- अनुभूति द्वारा; उपरत--उपेक्षित; क्रिया--सकाम कर्मो का सुख; अर्थम्--जिससे कि; स्व-मायया--अपनी शक्ति से; वर्तित--लाया गया; लोक-तन्त्रमू-- भौतिक लोक; नमामि--नमस्कारकरता हूँ; अभीक्षणम्--निरन्तर; नमनीय--पूज्य; पाद-सरोजम्--चरणकमल; अल्पीयसि-- अकिंचन; काम--आकांक्षाएँ; वर्षम्-वर्षा करते हुए।
मैं आपके चरण-कमलों में निरन्तर सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी शरण ग्रहणकरना श्रेयस्कर है, क्योंकि आप अकिंचनों पर समस्त आशीर्वादों की वृष्टि करने वालेहैं।
आपने इन भौतिक लोकों को अपनी ही शक्ति से विस्तार दिया है, जिससे समस्तजीवात्माएँ आपकी अनुभूति के द्वारा सकाम कर्मों से विरक्ति प्राप्त कर सकें ।
ऋषिरुवाचइत्यव्यलीकं प्रणुतोबजनाभ-स्तमाबभाषे वचसामृतेन ।
सुपर्णपक्षोपरि रोचमानःप्रेमस्मितोद्वीक्षणविभ्रमद्भ्रू: ॥
२२॥
ऋषि: उवाच--मैत्रेय ऋषि ने कहा; इति--इस प्रकार; अव्यलीकम्--निष्ठापूर्वक; प्रणुत:ः--प्रशंसित होकर; अब्ज-नाभः--भगवान् विष्णु ने; तम्ू--कर्दम मुनि को; आबभाषे--उत्तर दिया; वचसा--शब्दों से; अमृतेन-- अमृत केसमान मधुर; सुपर्ण--गरुड़; पक्ष--कंधे के; उपरि--ऊपर; रोचमान:--चमकते हुए; प्रेम--स्नेह का; स्मित--हँसीसे; उद्दीक्षण--देखते हुए; विभ्रमत्--चलायमान; भ्रू:--भौंहें |
मैत्रेय ने कहा--इन शब्दों से प्रशंसित होने पर गरुड़ के कंधों पर अत्यन्त मनोहारीरूप से दैदीप्यमान भगवान् विष्णु ने अमृत के समान मधुर शब्दों में उत्तर दिया।
उनकीभौहें ऋषि की ओर स्नेहपूर्ण हँसी से देखने के कारण चञ्जल हो रही थीं।
श्रीभगवानुवाचविदित्वा तव चैत्यं मे पुरव समयोजि तत् ।
यदर्थमात्मनियमैस्त्वयैवाहं समर्चित: ॥
२३॥
श्री-भगवान् उवाच--परमे श्वर से कहा; विदित्वा--जानकर; तव--तुम्हारी; चैत्यम्ू--मानसिक स्थिति; मे--मेरे द्वारा;पुरा--इसके पूर्व ही; एब--निश्चय ही; समयोजि--योजना की गईं; तत्ू--वह; यत्-अर्थम्--जिसके लिए; आत्म--मन तथा इन्द्रियों का; नियमैः--संयम या अनुशासन से; त्वया--तुम्हारे द्वारा; एब--केवल; अहम्--मैं; समर्चित:--पूजित हुआ
भगवान् ने कहा-जिसके लिए तुमने आत्मा संयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है,तुम्हारे मन के उस भाव को पहले ही जानकर मैंने उसकी व्यवस्था कर दी है।
न वे जातु मृषैव स्यात्प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् ।
भवद्ठिधेष्वतितरां मयि सड्भभितात्मनाम् ॥
२४॥
न--नहीं; वै--निस्सन्देह; जातु--क भी; मृषा--झूठा, वृथा; एबव--केवल; स्यात्ू--होए; प्रजा--जीवात्माओं के;अध्यक्ष--हे प्रमुख; मत्-अर्हणम्--मेरी पूजा; भवत्-विधेषु--तुम जैसे लोगों को; अतितराम्--पूर्णतया; मयि--मुझमें; सड्डभित--स्थिर हैं; आत्मनाम्--उनका जिनके मन।
भगवान् ने आगे कहा--हे ऋषि, हे जीवात्माओं के अध्यक्ष, जो लोग मेरी पूजा द्वाराभक्तिपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, विशेष रूप से तुम जैसे पुरुष जिन्होंने अपना सर्वस्व मुझेअर्पित कर रखा है, उन्हें निराश होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
प्रजापतिसुतः सप्राण्मनुर्विख्यातमड्रल: ।
ब्रह्मावर्त योडधिवसन्शास्ति सप्तार्णवां महीम् ॥
२५॥
प्रजापति-सुत:-- भगवान् ब्रह्मा का पुत्र; सम्राट्--महान् राजा; मनु:--स्वायंभुव मनु; विख्यात--सुप्रसिद्ध; मड्गल:--जिसके शुभ कार्य ; ब्रह्मावर्तम्-ब्रह्मावर्त; यः--जो; अधिवसन्--रहते हुए; शास्ति--शासन करता है; सप्त--सात;अर्णवाम्--समुद्र; महीम्--पृथ्वी |
भगवान् ब्रह्मा के पुत्र सम्राट स्वायंभुव मनु जो अपने सुकृत्यों के लिए विख्यात हैं,ब्रह्मावर्त में स्थित होकर सात समुद्रों वाली पृथ्वी पर शासन करते हैं।
स चेह विप्र राजर्षिमहिष्या शतरूपया ।
आयास्यति दिदृश्लुस्त्वां परश्नो धर्मकोविद: ॥
२६॥
सः--स्वायंभुव मनु; च--तथा; इह--यहाँ; विप्र--हे पवित्र ब्राह्मण; राज-ऋषि:--साधु राजा; महिष्या-- अपनी रानी महिषी सहित; शतरूपया--शतरूपा नामक; आयास्यति--आएंगे; दिहक्षुः--देखने की इच्छा से; त्वाम्--तुमको;परश्च:--परसों; धर्म--धार्मिक कृत्यों में; कोविद:ः--दक्ष |
हे ब्राह्मण, धार्मिक कृत्यों में दक्ष सुप्रसिद्ध सम्राट अपनी पत्नी शतरूपा सहित तुम्हेंदेखने के लिए परसों यहाँ आएँगे।
आत्मजामसितापाड़ीं वयःशीलगुणान्विताम् ।
मृगयन्तीं पतिं दास्यत्यनुरूपाय ते प्रभो ॥
२७॥
आत्म-जाम्--अपनी पुत्री; असित--श्याम; अपाड्रीमू--आँखें; वयः--तरुण आयु; शील--आचरण से; गुण--अच्छे गुणों से; अन्विताम्--युक्त; मृगयन्तीम्--खोजती हुई; पतिम्--पति को; दास्यति--दे देंगे; अनुरूपाय--अनुरूप, उपयुक्त; ते--तुमको; प्रभो--महोदय !
उनके एक श्याम नेत्रों वाली तरुणी कन्या है।
वह विवाह के योग्य है, वह उत्तमआचरण वाली तथा सर्व गुणसम्पन्न है।
वह भी अच्छे पति की तलाश में है।
महाशय,उसके माता-पिता तुम्हें देखने आएँगे।
तुम उसके सर्वथा अनुरूप हो जिससे वे अपनीकन्या को तुम्हारी पत्नी के रूप में अर्पित कर देंगे।
समाहित ते हृदयं यत्रेमान्परिवत्सरान् ।
सात्वां ब्रह्मन्रपवधू: काममाशु भजिष्यति ॥
२८॥
समाहितम्--स्थिर; ते--तुम्हारे; हदयम्--हृदय; यत्र--जिस पर; इमान्--इतने; परिवत्सरानू-- वर्षो तक; सा--वह;त्वामू--तुमको; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; नृप-वधू: --राजकुमारी; कामम्--इच्छानुरूप; आशु--शीघ्र ही; भजिष्यति--सेवा करेगी।
हे ऋषि, वह राजकुमारी उसी प्रकार की होगी जिस प्रकार की तुम इतने वर्षों सेअपने मन में सोचते रहे हो।
वह शीघ्र ही तुम्हारी हो जाएगी और वह जी भर तुम्हारी सेवाकरेगी।
या त आत्मभृतं वीर्य नवधा प्रसविष्यति ।
वबीर्ये त्वदीये ऋषय आधास्यन्त्यञ्जसात्मन: ॥
२९॥
या--वह; ते--तुम्हारे द्वारा; आत्म-भृतम्ू--उसमें बोये गये; वीर्यमू--बीज से; नव-धा--नौ कन्याएँ; प्रसविष्यति--जन्म देगी; वीर्ये त्वदीये--तुम्हारे द्वारा उत्पन्न कन्याओं में; ऋषय:--ऋषिगण; आधास्यन्ति--उत्पन्न करेंगे; अज्ससा--कुल मिलाकर; आत्मन:ः--सन्तानें |
वह तुम्हारा वीर्य धारण करके नौ पुत्रियाँ उत्पन्न करेगी और यथासमय इन कन्याओंसे ऋषि स्तानें उत्पन्न करेंगे।
त्वं च सम्यगनुष्ठाय निदेशं म उशत्तम: ।
मयि तीर्थीकृताशेषक्रियार्थों मां प्रपत्स्यसे ॥
३०॥
त्वमू--तुम; च--तथा; सम्यक्ू--उचित रीति से; अनुष्ठाय--अनुष्ठान करके; निदेशम्-- आदेश; मे--मेरा;उशत्तम:--पूर्णतया पवित्र किया; मयि--मुझको; तीर्थी-कृत--अर्पित करके; अशेष--समस्त; क्रिया--कार्यो का;अर्थ:--फल; माम्--मुझको; प्रपत्स्यसे --प्राप्त करोगे |
मेरी आज्ञा का अच्छी तरह से पालन करने के कारण स्वच्छ हृदय होकर तुम अपनेसब कर्मों का फल मुझे अर्पित करके अन्त में मुझे ही प्राप्त करोगे।
कृत्वा दयां च जीवेषु दत्त्वा चाभयमात्मवान् ।
मय्यात्मानं सह जगद्द्रक्ष्यस्यात्मनि चापि माम् ॥
३१॥
कृत्वा--प्रदर्शित करके; दयाम्--दया; च--तथा; जीवेषु--जीवों के प्रति; दत्त्ता--दे करके; च--तथा; अभयम्--सुरक्षा का आश्वासन; आत्म-वान्--आत्म-साक्षात्कार; मयि--मुझमें; आत्मानम्--अपने आप को; सह जगत्--ब्रह्माण्ड सहित; द्रकष्यसि--देखोगे; आत्मनि--अपने में; च--तथा; अपि-- भी; माम्--मुझको |
समस्त जीवों पर दया करते हुए तुम आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकोगे; फिरसबको अभयदान देकर अपने सहित सम्पूर्ण जगत को मुझमें और मुझको अपने में स्थितदेखोगे।
सहाहं स्वांशकलया त्वद्ठीयेण महामुने ।
तव क्षेत्रे देवहूत्यां प्रणेष्ये तत्त्वसंहिताम् ॥
३२॥
सह--साथ; अहम्--मैं; स्व-अंश-कलया--अपने स्वांश से; त्वत्-वीर्येण -- तुम्हारे वीर्य से; महा-मुने--हे ऋषि; तवक्षेत्रे-- तुम्हारी पतली; देवहूत्याम्--देवहूति में; प्रणेष्ये--उपदेश दूँगा; तत्त्व--परम तत्त्वों का; संहिताम्--संहिता,शास्त्र
हे ऋषि, मैं तुम्हारी नवों कन्याओं सहित तुम्हारी पत्नी देवहूति के माध्यम से अपने स्वांश को प्रकट करूँगा और उसे उस दर्शनशास्त्र सांख्य दर्शन का उपदेश दूँगा जोपरम तत्त्वों या श्रेणियों से सम्बद्ध है।
मैत्रेय उवाचएवं तमनुभाष्याथ भगवान्धप्रत्यगक्षज: ।
जगाम बिन्दुसरस: सरस्वत्या परिश्रितात् ॥
३३॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; एवम्--इस प्रकार; तम्ू--उसको; अनुभाष्य--सम्भाषण करके; अथ--तब;भगवान्-- भगवान; प्रत्यक्- प्रत्यक्ष; अक्ष--इन्द्रियों से; ज:--जो देखा जाता है; जगाम--चला गया; बिन्दु-सरसः--बिन्दु सरोवर से; सरस्वत्या--सरस्वती नदी से; परिश्रितात्ू-घिरा हुआ
मैत्रेय ने आगे कहा इस प्रकार कर्दम मुनि से बातें करने के बाद, इन्द्रियों के कृष्ण-भावनामृत में लीन रहने पर प्रकट होने वाले भगवान् उस बिन्दु नामक सरोवर से, जोसरस्वती नदी के द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ था, अपने लोक को चले गये।
निरीक्षतस्तस्य ययावशेष-सिद्धेश्वराभिष्ठृतसिद्धमार्ग: ।
आकर्णयन्पत्ररथेन्द्रपक्षे -रुच्चारितं स्तोममुदीर्णसाम ॥
३४॥
निरीक्षतः तस्थ--उसके देखते देखते; ययौ--वे चले गये; अशेष--समस्त; सिद्ध-ईश्वर--मुक्त जीवों से; अभिष्ठत--प्रशंसित; सिद्ध-मार्ग:--वैकुण्ठ लोक का रास्ता; आकर्णयन्--सुनते हुए; पत्र-रथ-इन्द्र--गरुड़ पक्षिराज के;पक्षै:--पंखों से; उच्चारितम्ू--निकलने वाले; स्तोमम्--स्तुति; उदीर्ण-साम--सामवेद की आधारस्वरूप |
खड़े हुए कर्दम मुनि के देखते-देखते भगवान्, बैकुण्ठ जानेवाले मार्ग से प्रस्थानकर गये, जिस मार्ग की प्रशंसा सभी महान् मुक्त आत्माएँ करती हैं।
मुनि खड़े-खड़े,भगवान् के वाहन गरुड़ के फड़फड़ाते पंखों से गुंजादित, सामवेद के मंगलाचरण जैसेलगने वाली ध्वनि को सुनते रह गये।
अथ सप्प्रस्थिते शुक्ले कर्दमो भगवानृषि: ।
आस्ते सम बिन्दुसरसि तं काल॑ प्रतिपालयन् ॥
३५॥
अथ--तब; सम्प्रस्थिते शुक्ले-- भगवान् के चले जाने पर; कर्दम:--कर्दम मुनि ने; भगवान्ू--परम शक्तिमान;ऋषि: --ऋषि; आस्ते स्म--रहते रहे; बिन्दु-सरसि--बिन्दु सरोवर के तट पर; तम्--उस; कालम्--समय;प्रतिपालयन्--प्रतीक्षा करते हुए।
तब भगवान् के चले जाने पर पूज्य साधु कर्दम भगवान् द्वारा बताये उस समय कीप्रतीक्षा करते हुए बिन्दु सरोवर के तट पर ही ठहरे रहे।
मनु: स्यन्दनमास्थाय शातकौम्भपरिच्छदम् ।
आरोप्य स्वां दुहितरं सभार्य: पर्यटन्महीम् ॥
३६॥
मनुः--स्वायंभुव मनु; स्यन्दनमम्--रथ; आस्थाय--चढ़कर; शातकौम्भ--स्वर्ण रचित; परिच्छदम्--बाहरी खोल;आरोप्य--बिठाकर; स्वाम्ू--अपनी; दुहितरम्--पुत्री; स-भार्य:--अपनी पत्नी के साथ-साथ; पर्यटन्--सर्वत्र घूमतेहुए; महीम्--पृथ्वी मण्डल में |
स्वायंभुव मनु अपनी पत्नी सहित स्वर्णाभूषणों से सुसज्जित अपने रथ पर आरूढ़ हुए।
अपनी पुत्री को भी उस पर चढ़ाकर वे समस्त भूमण्डल का भ्रमण करने लगे।
तस्मिन्सुधन्वन्नहनि भगवान्यत्समादिशत् ।
उपायादाश्रमपदं मुने शान्तब्रतस्यथ ततू ॥
३७॥
तस्मिनू--उस पर; सु-धन्वन्--हे परम धनुर्धर विदुर; अहनि--दिन में; भगवान्-- श्रीभगवान्; यत्--जो;समादिशत्-- भविष्यवाणी की; उपायात्--पहुँच गया; आश्रम-पदम्--पतवित्र कुटी में; मुनेः--मुनि की; शान्त--पूर्ण; ब्रतस्य--जिसका तपस्या का ब्रत; तत्--वह |
हे विदुर, वे मुनि की कुटी में पहुँचे, जिसने अपनी तपस्या का ब्रत भगवान् द्वारापहले से बताये गये दिन ही समाप्त किया था।
यस्मिन्भगवतो नेत्राज््यपतन्नश्रुबिन्दवः ।
कृपया सम्परीतस्य प्रपन्नेडर्पितया भूशम् ॥
३८ ॥
तद्दै बिन्दुसरो नाम सरस्वत्या परिप्लुतम् ।
पुण्यं शिवामृतजलं महर्षिगणसेवितम् ॥
३९॥
यस्मिनू--जिसमें; भगवत:-- भगवान् के; नेत्रातू--नेत्र से; न््यपतन्--गिरे हुए; अश्रु-बिन्दवः--ऑआँसू की बूँदें;कृपया--दया से; सम्परीतस्थ--अभिभूत होने वाला; प्रपन्ने--शरणागत कर्दम ; अर्पितया--चढ़ाया गया;भृूशम्--अत्यधिक; तत्ू--वह; बै--निस्सन्देह; बिन्दु-सर:--अश्रुओं का सरोवर; नाम--नामक ; सरस्वत्या--सरस्वती नदी से; परिप्लुतम्--उमड़ कर बहता हुआ; पुण्यम्--पवित्र; शिव--मंगलदायक; अमृत-- अमृत; जलम्--जल; महा-ऋषि--परम साधु के; गण--समूह द्वारा; सेवितम्--सेवित
सरस्वती नदी के बाढ़-जल से भरने वाले पवित्र बिन्दु सरोवर का सेवन ऋषियों का समूह करता था।
इसका पवित्र जल न केवल कल्याणकारी था वरन् अमृत के समानमीठा भी था।
यह बिन्दु सरोवर कहलाता था, क्योंकि यहीं पर, जब भगवान् शरणागतऋषि पर दयाद्दर हो उठे थे, उनके नेत्रों से आँसुओं की बूँदें गिरी थीं।
पुण्यद्रुमलताजालै: कूजत्पुण्यमृगद्विजै: ।
सर्वर्तुफलपुष्पाढ्य वनराजिश्रियान्वितम् ॥
४०॥
पुण्य--पवित्र; द्रुम--वृक्षों का; लता--बेलों के; जालैः:--समूहों से; कूजत्--बोलते हुए; पुण्य--पवित्र; मृग--पशु; द्विजै:--पक्षियों के द्वारा; सर्व--समस्त; ऋतु--ऋतुओं में; फल--फलों से; पुष्प--फूलों से; आढ्यम्--सम्पन्न;बन-राजि--वृक्षों के कुंजों की; ्रिया--सुन्दरता से; अन्वितम्ू--सुशोभित |
सरोवर के तट पवित्र वृक्षों तथा लताओं के समूहों से घिरे थे, जो सभी ऋतुओं मेंफलों तथा फूलों से लदे रहते थे और जिनमें पवित्र पशु तथा पक्षी अपना-अपना बसेराबनाते थे और विविध प्रकार से कूजन करते थे।
यह स्थान वृक्षों के कुंजों की शोभा सेविभूषित था।
मत्तद्विजगणैर्घु्ट मत्तभ्रमरविश्रमम् ।
मत्तबर्हिनटाटोपमाहयन्मत्तकोकिलम् ॥
४१॥
मत्त-प्रसन्नता से मतवाले; द्विज--पक्षियों के; गणैः--समूहों से; घुष्टम्--प्रतिध्वनित; मत्त--मतवाले; भ्रमर--भौरोंका; विधभ्रमम्--मँडराते हुए; मत्त--मतवाले; ब्हि--मोरों का; नट--नर्तकों का; आटोपमू-गर्व; आहृयत्--एकदूसरे को बुलाते हुए; मत्त--प्रसन्न; कोकिलम्--कोयलें |
यह प्रदेश मतवाले पक्षियों के स्वर से प्रतिध्वनित था।
मतवाले भौरे मँडरा रहे थे,प्रमत्त मोर गर्व से नाच रहे थे और प्रमुदित कोयलें एक दूसरे को पुकार रही थीं।
'कदम्बचम्पकाशोककरझ्जबकुलासने: ।
कुन्दमन्दारकुटजैश्वूतपोतैरलड्डू तम् ॥
४२॥
कारण्डवै: प्लवैहसै: कुरैर्जलकुक्ुटै: ।
साससैश्चक्रवाकै श्व चकोरैर्वल्गु कूजितम् ॥
४३॥
कदम्ब--कदम्ब के फूल; चम्पक--चम्पा के फूल; अशोक--अशोक के फूल; करज्ल--करज्ञ पुष्प; बकुल--बकुल पुष्पा; आसनै: --आसन वृक्षों से; कुन्द--कुन्द; मन्दार--मन्दार; कुटजैः --तथा कुटज वृक्षों से; चूत-पोतैः--नव आम्र वृक्षों से; अलड्डू तम्--सुशोभित; कारण्डवै:--कारण्डव, बत्तख पक्षी से; प्लवैः--प्लवों से; हंसै:--हंसोंसे; कुरैः--कुररी पक्षी से; जल-कुक्कुटै:--जल कुक्कुट से; सारसै:--सारसों से; चक्रवाकै:--चक्रवाक चकई-चकवा पक्षियों से; च--तथा; चकोरैः--चकोर नामक पक्षियों से; वल्गु--मनोहर; कूजितम्--पक्षियों काकलरव।
बिन्दु-सरोवर कदम्ब, चम्पक, अशोक, करंज, बकुल, आसन, कुन्द, मन्दार,कुटज तथा नव-आम्र के पुष्पित वृक्षों से सुशोभित था।
वायु कारण्डव, प्लव, हंस,कुररी, जलपक्षी, सारस, चक्रवाक तथा चकोर के कलरव से गुँजायमान थे।
तथेव हरिणै: क्रोडै: श्राविदगवयकुझ्जरैः ।
गोपुच्छैहरिभिर्मकैर्नकुलै्नाभिभि्वृतम् ॥
४४॥
तथा एव--उसी प्रकार; हरिणैः--हिरनों से; क्रोडैः--सुअरों से; श्रावित्ू--साही; गवय--नील गाय; कुझरैः--हाथियों से; गोपुच्छै: --लंगूरों से; हरिभि:--सिंहों से; मर्के:--बन्दरों से; नकुलैः--नेवलों से; नाभिभि:--कस्तूरी मृगसे; वृतम्ू-घिरा हुआ।
इसके तटों पर हिरन, सूकर, साही, नीलगाय, हाथी, लंगूर, शेर, बन्दर, नेवला तथाकस्तूरी मृगों की बहुलता थी।
प्रविश्य तत्तीर्थवरमादिराज: सहात्मजःददर्श मुनिमासीनं तस्मिन्हुतहुताशनम् ।
विद्योतमानं वपुषा तपस्युग्रयुजा चिरम् ॥
४५॥
नातिक्षामं भगवतः स्निग्धापाड्रावलोकनात् ।
तद्व्याहतामृतकलापीयूषश्रवणेन च ॥
४६॥
प्रांशुं पदयापलाशाक्ष॑ जटिलं चीरवाससम् ।
उपसंश्रित्य मलिनं यथाईणमसंस्कृतम् ॥
४७॥
प्रविश्य-- प्रवेश करने पर; तत्--उस; तीर्थ-वरम्--पवित्र स्थलों में श्रेष्ठ आदि-राज:--प्रथम राजा स्वायंभुवमनु ; सह-आत्मज: --अपनी पुत्री के समेत; ददर्श--देखा; मुनिमू--मुनि को; आसीनम्--बैठे हुए; तस्मिनू--उसआश्रम में; हुत--आहुति करते हुए; हुत-अशनम्--पवित्र अग्नि; विद्योतमानम्--परम ज्योतिमान; वपुषा-- अपनेशरीर से; तपसि--तपस्या में; उग्र--कठिन; युजा--योग में लगे; चिरम्--दीर्घकाल से; न--नहीं; अतिक्षामम् --अत्यन्त दुर्बल; भगवतः -- भगवान् की; स्निग्ध--स्नेहिल; अपाड़--तिरछी; अवलोकनातू्--चितवन से; तत्--उसका; व्याहत--शब्दों से; अमृत-कला--चन्द्रमा के समान; पीयूष--अमृत; श्रवणेन--सुनकर; च--तथा;प्रांशुम्-- लम्बा; पद्य--कमल-पुष्प; पलाश--पंखुड़ी; अक्षम्--आँखें; जटिलम्-- जुड़ा; चीर-वाससम्--चिथड़ेवस्त्र धारण किये; उपसंभ्रित्य--निकट जाकर; मलिनम्--मलिन, गंदा; यथा--जिस प्रकार; अर्हणम्--मणि;असंस्कृतम्ू--बिना तराशा हुआ
उस पवित्र स्थान में आदि राजा स्वयांभुव मनु अपनी पुत्री सहित प्रविष्ट हुए औरउन्होंने जाकर देखा कि अभी-अभी पवित्र अग्नि में आहुति देकर वे मुनि अपने आश्रम मेंआसन लगाए थे।
उनका शरीर अत्यन्त आभावान था।
यद्यपि वे दीर्घ काल तक कठोरतपस्या में लगे हुए थे, किन्तु वे तनिक भी क्षीण नहीं थे, क्योंकि भगवान् ने उन परकृपा-कटाक्ष किया था और उन्होंने भगवान् के चन्द्रमा के समान स्निग्ध अमृतमय शब्दोंका पान किया था।
मुनि लम्बे थे, उनकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं मानो कमल-दल हों औरउनके सिर पर जटा-जूट था।
वे चिथड़े पहने थे।
स्वायंभुव मनु उनके पास गये औरउन्होंने देखा कि वे धूलधूसरित हैं मानो बिना तराशा हुआ कोई मणि हो।
अथोटजमुपायातं नृदेवं प्रणतं पुर: ।
सपर्यया पर्यगृह्लात्प्रतिनन्द्यानुरूपया ॥
४८॥
अथ--तब; उटजम्--कुटी, आश्रम; उपायातम्--पहुँचकर; नृदेवम्--राजा; प्रणतम्--नतमस्तक; पुर:--सामने;सपर्यया--आदर से; पर्यगृह्मात्--उसका स्वागत किया; प्रतिनन्द्य--सत्कार करके; अनुरूपया--राजा के योग्य
राजा को अपने आश्रम में आकर प्रणाम करते देखकर उस मुनि ने आशीर्वाद देकरसत्कार किया और यथोचित सम्मान सहित उसका स्वागत किया।
गृहीताईणमासीनं संयतं प्रीणयन्मुनि: ।
स्मरन्भगवदादेशमित्याह इलक्ष्णया गिरा ॥
४९॥
गृहीत--प्राप्त करके; अर्हणम्ू--सम्मान; आसीनम्--बैठा हुआ; संयतम्--शान्त; प्रीणयन्-- प्रमुदित करता;मुनिः--मुनि; स्मरन्--स्मरण करते हुए; भगवत्-- भगवान् की; आदेशम्-- आज्ञा; इति--इस प्रकार; आह--बोला;एलक्ष्णया--मीठी; गिरा-- वाणी से |
मुनि से सम्मान पाकर राजा स्वयांभुव मनु बैठ गये और शान्त बने रहे।
तब भगवान्की आदेशों का स्मरण करते हुए कर्दम मुनि अपनी मधुर वाणी से राजा को प्रमुदितकरते हुए इस प्रकार बोले।
नूनं चड्क्रमणं देव सतां संरक्षणाय ते ।
वधाय चासतां यस्त्वं हरे: शक्तिहिं पालिनी ॥
५०॥
नूनमू--निश्चय ही; चड्क्रमणम्--यात्रा; देव--हे भगवान्; सतामू--सज्जनों की; संरक्षणाय--रक्षा के लिए; ते--तुम्हारा; वधाय--मारने के लिए; च--तथा; असताम्--असुरों को; यः--जो पुरुष; त्वम्--तुम; हरे: -- श्री भगवान्की; शक्ति:--शक्ति; हि-- चूँकि; पालिनी--रक्षा करते हुए।
हे भगवान्, आपका यह भ्रमण यात्रा निश्चित रूप से सज्जनों की रक्षा तथा असुरोंके वध के उद्देश्य से सम्पन्न हुआ है, क्योंकि आप श्री हरि की रक्षक-शक्ति से समन्वितहैं।
योऊर्केन्द्रग्नीन्द्रवायूनां यमधर्मप्रचेतसाम् ।
रूपाणि स्थान आधत्से तस्मै शुक्लाय ते नम: ॥
५१॥
यः--जो; अर्क--सूर्य का; इन्दु--चन्द्रमा का; अग्नि--अग्नि, अग्निदेव का; इन्द्र--स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र का;वायूनामू--वायु का; यम--यम का; धर्म--धर्म; प्रचेतसामू--तथा वरुण का; रूपाणि--रूप; स्थाने--आवश्यकतानुसार; आधत्से-- धारण करते हो; तस्मै-- उसे; शुक्लाय-- भगवान् विष्णु को; ते--तुमको; नम:--नमस्कार
जब भी आवश्यक होता है, आप सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म, वरुणका अंश धारण करते हैं।
आप भगवान् विष्णु के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं, अतःआपको सभी प्रकार से नमस्कार है।
न यदा रथमास्थाय जैत्र॑ं मणिगणार्पितम् ।
विस्फूर्जच्चण्डकोदण्डो रथेन त्रासयन्नघान् ॥
५२॥
स्वसैन्यचरणक्षुण्णं वेपयन्मण्डलं भुव: ।
विकर्षन्बृहतीं सेनां पर्यटस्यंशुमानिव ॥
५३॥
तदैव सेतवः सर्वे वर्णाअ्रमनिबन्धना: ।
भगवद्रचिता राजन्भिद्येरन्बत दस्युभि: ॥
५४॥
न--नहीं; यदा--जब; रथम्ू--रथ; आस्थाय--चढ़कर; जैत्रमू--विजयी; मणि--मणियों के; गण--समूह सहित;अर्पितम्--सज्जित; विस्फूर्जत्ू--टंकार करते; चण्ड--घोर शब्द; कोदण्ड: -- धनुष; रथेन--ऐसा रथ होने से;त्रासबन्--डराते हुए; अधान्ू--समस्त अपराधियों को; स्व-सैन्य--अपने सैनिकों के; चरण--पाँव से; क्षुणणम्--मर्दित, कुचला; वेपयन्--हिलाते हुए; मण्डलम्ू--गोलक; भुवः--पृथ्वी का; विकर्षन्ू--पथ प्रदर्शन करते;बृहतीम्--विशाल; सेनामू--सेना; पर्यटसि--घूम रहा हो; अंशुमान्ू--चमकीले सूर्य; इब--सहृश; तदा--तब;एव--निश्चय ही; सेतव:--धार्मिक आचार संहिता; सर्वे--सभी; वर्ण--वर्णो जातियों की; आश्रम--आ श्रमों की;निबन्धना: --मर्यादा, बन्धन; भगवत्-- भगवान् के द्वारा; रचिता:--उत्पन्न; राजन्ू--हे राजा; भिद्येरन्ू--तोड़ डालेजाऐंगे; बत--हाय; दस्युभि:--बदमाशों के द्वारा।
यदि आप अपने विजयी रत्नजटित रथ पर जिसकी उपस्थिति मात्र से अपराधीभयभीत हो उठते हैं सवार न हों, यदि आप अपने धनुष की प्रचंड टंकार न करें और यदिआप तेजवान सूर्य की भाँति संसार भर में एक विशाल सेना लेकर विचरण न करेंजिसके पदाघात से पृथ्वी मंडल हिलने लगती है, तो स्वंय भगवान् द्वारा बनाई गई समस्तवर्णो तथा आश्रमों की व्यवस्था चोरों तथा डाकुओं द्वारा छिन्न-भिन्न हो जाय।
अधर्मश्न समेधेत लोलुपैर्व्यड्डु शैननभि: ।
शयाने त्वयि लोकोयं दस्युग्रस्तो विनड्क्ष्यति ॥
५५॥
अधर्म:--अधर्म, अनाचार; च--तथा; समेधेत--उन्नति करेगा; लोलुपैः--धन के लालची; व्यह्ठु शै:-- अनियन्त्रित;नृभि:--मनुष्यों द्वारा; शयाने त्वयि--तुम्हारे लेट जाने पर; लोक:--संसार; अयम्--यह; दस्यु--दुराचारियों के द्वारा;ग्रस्त:--आक्रमण किये जाने पर; विनड्छ््यति--विनष्ट हो जाएगा।
यदि आप संसार की स्थिति के विषय में सोचना छोड़ दें निश्चिन्त हो जायेँ तोअधर्म बढ़ेगा, क्योंकि धनलोलुप व्यक्ति निद्द्न्द् हो जाएँगे।
ऐसे दुराचारियों के आक्रमणोंसे यह संसार विनष्ट हो जाएगा।
अथापि पृच्छे त्वां वीर यदर्थ त्वमिहागत: ।
तद्गयं निर्व्यलीकेन प्रतिपद्यामहे हृदा ॥
५६॥
अथ अपि--इतने पर भी; पृच्छे--मैं पूछता हूँ; त्वाम्ू--तुमसे; वीर--हे पराक्रमी राजा; यत्-अर्थम्--प्रयोजन;त्वमू--तुम; इहह--यहाँ; आगत:ः--आये हो; तत्--वह; वयम्--हम सब; निर्व्यलीकेन--बिना हिचक के;प्रतिपद्यामहे -- पूरा करेंगे; हृदा--हृदय से |
तो भी, हे पराक्रमी राजा, मैं आपसे यहाँ आने का कारण पूछ रहा हूँ।
वह चाहे जोभी हो, हम बिना हिचक के उसको पूरा करेंगे।
अध्याय बाईसवाँ: कर्दम मुनि और देवहुति का विवाह
3.22मैत्रेय उवाचएवमाविष्कृताशेषगुणकर्मोदयो मुनिम् ।
सत्रीड इव त॑सप्राडुपारतमुवाच ह ॥
१॥
मैत्रेय:--महान् साधु मैत्रेय ने; उबाच--कहा; एवम्--इस प्रकार; आविष्कृत--वर्णन कर लेने के पश्चात्; अशेष--समस्त; गुण--विशेषताओं की; कर्म--कार्यो की; उदय: --महानता; मुनिम्--महर्षि; स-ब्रीड:--संकोचवश; इब--मानो; तम्--वह कर्दम ; सम्राट्ू--राजा मनु; उपारतमू--मौन; उवाच ह--बोला |
श्रीमैत्रेय ने कहा--सम्राट के अनेक गुणों तथा तथा कार्यों की महानता का वर्णनकरने के पश्चात् मुनि शान्त हो गये और राजा ने संकोचवश उन्हें इस प्रकार से सम्बोधितकिया।
मनुरुवाचब्रह्मासृजत्स्वमुखतो युष्मानात्मपरीप्सया ।
छन््दोमयस्तपोविद्यायोगयुक्तानलम्पटान् ॥
२॥
मनु:--मनु ने; उवाच--कहा; ब्रह्मा--ब्रह्माजी ने; असृजत्--उत्पन्न किया; स्व-मुखतः--अपने मुख से; युष्मान्--आपको ब्राह्मणों को ; आत्म-परीप्सबा--अपनी रक्षा के लिए विस्तार करके ; छन्दः-मय:--वेदरूप; तपः-विद्या-योग-युक्तानू--तप, ज्ञान तथा योग से युक्त; अलम्पटानू--इन्द्रिय-तृप्ति से विमुख |
मनु ने कहा--वेदस्वरूप ब्रह्मा ने वैदिक ज्ञान के विस्तार हेतु अपने मुख से आप जैसेब्राह्मणों को उत्पन्न किया है, जो तप, ज्ञान तथा योग से युक्त और इन्द्रियतृप्ति से विमुखहैं।
तत्ताणायासूजच्चास्मान्दो:सहस्त्रात्सहसत्रपात् ॥
हृदयं तस्य हि ब्रहा क्षत्रमड़ूं प्रचक्षते ॥
३॥
ततू-त्राणाय--ब्राह्मणों की रक्षा के लिए; असृजत्--उत्पन्न किया; च--तथा; अस्मान्--हमको क्षत्रिय ; दोः-सहस्रात्ू--उनका हजार भुजाओं से; सहस्त्र-पात्--हजार पाँव वाले परम पुरुष विराट रूप ; हदयम्--हृदय;तस्य--उसका; हि--अतः; ब्रह्म--ब्राह्मण; क्षत्रम्--क्षत्रिय; अड्रम्ू-- भुजाएँ; प्रचक्षते--कहे जाते हैं।
ब्राह्मणों की रक्षा के लिए सहस्त्र-पाद विराट पुरुष ने हम क्षत्रियों को अपनी सहस्त्रभुजाओं से उत्पन्न किया।
अतः ब्राह्मणों को उनका हृदय और क्षत्रियों को उनकी भुजाएँकहते हैं।
अतो हान्योन्यमात्मान ब्रह्म क्षत्रं च रक्षतः ।
रक्षति स्माव्ययो देव: स यः सदसदात्मक: ॥
४॥
अतः--अतएव; हि--निश्चय ही; अन्योन्यम्--परस्पर; आत्मानम्--स्वयं; ब्रह्म--ब्राह्मण; क्षत्रम्ू--क्षत्रिय; च--तथा;रक्षतः--रक्षा करते हैं; रक्षति स्म--रक्षा करता है; अव्यय:--निर्विकार; देव: -- भगवान्; सः--वह; य:--जो; सत्ू-असतू-आत्मकः--कार्य-कारण रूप
इसीलिए ब्राह्मण तथा क्षत्रिय एक दूसरे की और साथ ही स्वयं की रक्षा करते हैं।
कार्य-कारण रूप तथा निर्विकार होकर भगवान् स्वयं एक दूसरे के माध्यम से उनकीरक्षा करते हैं।
तब सन्दर्शनादेव चि्छन्ना मे सर्वसंशया: ।
यत्स्वयं भगवान्प्रीत्या धर्ममाह रिरक्षिषो: ॥
५॥
तव--आपके; सन्दर्शनात्ू--दर्शन से; एब--केवल; छिलन्ना:--दूर हो गये; मे--मेरे; सर्व-संशया:--सारे सन्देह;यत्--यहाँ तक कि; स्वयम्--स्वतः; भगवान्--आपने; प्रीत्या--प्रीतीपूर्वक; धर्मम्--कर्तव्य; आह--बतलाया;रिरक्षिषो:--अपनी प्रजा की रक्षा के लिए उत्सुक राजा का।
अब आपके दर्शन मात्र से मेरे सारे सन्देह दूर हो चुके हैं, क्योंकि आपने कृपापूर्वकअपनी प्रजा की रक्षा के लिए उत्सुक राजा के कर्तव्य की सुस्पष्ट व्याख्या की है।
दिष्टय्ा मे भगवान्हष्टो दुर्दशों योकृतात्मनाम् ।
दिष्टयया पादरज: स्पृष्टे शीर्ष्णा मे भवत: शिवम् ॥
६॥
दिछ्या--सौभाग्य से; मे--मेरा; भगवान्--सर्व शक्तिमान; दृष्ट:--देखा जाता है; दुर्दर्शः--सरलता से न दिखनेवाला; यः--जो; अकृत-आत्मनाम्--जिन्होंने अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में नहीं किया; दिछ्यया--अपने भाग्य से;'पाद-रज:--पैरों की धूलि; स्पृष्टम्ू--स्पर्श करने पर; शीर्ष्णा--शिर से; मे--मेरा; भवत:--आपका; शिवम्--कल्याणकारी
यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन हो सके क्योंकि जिन लोगों ने अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में नहीं किया उन्हें आपके दर्शन दुर्लभ हैं।
मैं आपके चरणों कीधूलि को शिर से स्पर्श करके और भी कृतकृत्य हुआ हूँ।
दिष्टया त्वयानुशिष्टो हं कृतश्चानुग्रहो महान् ।
अपावृतै: कर्णरन्श्रेर्जुष्टा दिष्ठयोशतीर्गिर: ॥
७॥
दिष्टयया--सौभाग्यवश; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अनुशिष्ट: --उपदेशित; अहम्--मैं; कृत:-- प्रदान किया हुआ; च--और;अनुग्रह:--कृपा; महान्ू--महान; अपावृतैः--खुले; कर्ण-रन्श्रै:--कानों के छिद्रों से; जुष्टा:--ग्रहण किया गया;दिछ्वा-- भाग्य से; उशती:--शुद्ध; गिर: --शब्द |
सौभाग्य से मुझे आपके द्वारा उपदेश प्राप्त हुआ है और इस प्रकार आपने मेरे ऊपरमहती कृपा की है।
मैं भगवान् को धन्यवाद देता हूँ कि मैं अपने कान खोलकर आपकेविमल शब्दों को सुन रहा हूँ।
स भवान्दुहितृस्नेहपरिक्लिष्टात्मनो मम ।
श्रोतुमहसि दीनस्य श्रावितं कृपया मुने ॥
८॥
सः--आप; भवान्--आप; दुहितृ-स्नेह--अपनी पुत्री के स्नेहवश; परिक्लिष्ट-आत्मन:--क्षुब्ध मन वाला; मम--मेरा; श्रोतुमू--सुनने के लिए; अर्हसि--प्रसन्न हों; दीनस्य--मुझ दीन की; श्रावितम्--प्रार्थना को; कृपया--कृपापूर्वक; मुने--हे मुनिहे मुनि, कृपापूर्वक मुझ दीन की प्रार्थना सुनें, क्योंकि मेरा मन अपनी पुत्री के स्नेहसे अत्यन्त उद्दिग्न है।
प्रियव्रतोत्तानपदो: स्वसेयं दुहिता मम ।
अन्विच्छति पतिं युक्त वव:शीलगुणादिभि: ॥
९॥
प्रियत्रत-उत्तानपदो:--प्रियव्रत तथा उत्तानपद की; स्वसा--बहन; इयम्--यह; दुहिता--पुत्री; मम--मेरी;अन्विच्छति--खोज रही है; पतिम्ू--पति या वर; युक्तम्--अनुकूल; वयः-शील-गुण-आदिभि:-- आयु, चरित्र, गुणआदि से।
मेरी पुत्री प्रियत्रत तथा उत्तानपाद की बहन है।
वह आयु, शील, गुण आदि में अपने अनुकूल पति की तलाश में है।
यदा तु भवतः शीलश्रुतरूपवयोगुणान् ।
अश्रुणोन्नारदादेषा त्वय्यासीत्कृतनिश्चया ॥
१०॥
यदा--जब; तु-- लेकिन; भवतः--तुम्हारा; शील--उत्तम चरित्र; श्रुत--विद्या; रूप--सुन्दर आकार, सूरत; वय:--युवावस्था; गुणान्--गुण; अश्रणोत्--सुना; नारदात्--नारद मुनि से; एघा--देवहूति ने; त्वयि--तुममें; आसीत्--होगयी; कृत-निश्चया-- हृढ़ संकल्प |
जब से इसने नारद मुनि से आपके उत्तम चरित्र, विद्या, रूप, वय आयु तथा अन्यगुणों के विषय में सुना है तब से यह अपना मन आपमें स्थिर कर चुकी है।
तत्प्रतीच्छ द्विजाछयेमां श्रद्धयोपहतां मया ।
सर्वात्मनानुरूपां ते गृहमेधिषु कर्मसु ॥
११॥
तत्--अतः; प्रतीच्छ--कृपया स्वीकार करें; द्विज-अछय--हे ब्राह्मण श्रेष्ठ; इमामू--इसको; श्रद्धया-- श्रद्धा से;उपहताम्--भेंट स्वरूप प्रदत्त; मया--मेरे द्वारा; सर्व-आत्मना--सब प्रकार से; अनुरूपाम्--उपयुक्त; ते--तुम्हारेलिए; गृह-मेधिषु --गृहस्थी में; कर्मसु--कर्म, कर्तव्य |
अतः हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, आप इसे स्वीकार करें, क्योंकि मैं इसे श्रद्धापूर्वक अर्पित कररहा हूँ।
यह सभी प्रकार से आपकी पत्नी होने और आपकी गृहस्थी के कार्यों को चलानेमें सर्वथा योग्य है।
उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते ।
अपि निर्मुक्तसड्स्स्थ कामरक्तस्य कि पुनः ॥
१२॥
उद्यतस्य--स्वयं प्राप्त; हि--निस्सन्देह; कामस्य-- भौतिक इच्छा का; प्रतिवाद:--निरादर; न--नहीं; शस्यते--प्रशंसनीय; अपि--यद्यपि; निर्मुक्त--स्वतन्त्र; सड्रस्य--आसक्ति का; काम--इन्द्रिय-सुख के प्रति; रक्तस्य--आसक्तका; किम् पुनः--क्या कहना है।
स्वतः प्राप्त होने वाली भेंट का निरादर नितान्त विरक्त पुरुष के लिए भी प्रशंसनीयनहीं है, फिर विषयासक्त के लिए तो कहना ही क्या है।
य उद्यतमनाहत्य कीनाशमभियाचते ।
क्षीयते तद्यशः स्फीतं मानश्वावज्ञया हतः ॥
१३॥
यः--जो; उद्यतम्-भेंट; अनाहत्य-- अनादर करके; कीनाशम्--कंजूस से; अभियाचते--याचना करता है;क्षीयते--नष्ट होता है; तत्ू--उसका; यशः--कीर्ति; स्फीतम्ू--विस्तीर्ण; मान: --सम्मान; च--तथा; अवज्ञया--अवमानना से; हतः--नष्ट।
जो स्वतः प्राप्त भेंट का पहले अनादर करता है और बाद में कंजूस से वर माँगता है,वह अपने विस्तीर्ण यश को खो देता है और अन्यों द्वारा अवमानना से उसका मान भंगहोता है।
अहं त्वाश्रुणवं विद्वन्विवाहार्थ समुद्यतम् ।
अतत्त्वमुपकुर्वाण: प्रत्तां प्रतिगृहाण मे ॥
१४॥
अहमू--ैंने; त्वा--तुमको; अश्रृणवम्--सुना; विद्वन्ू--हे बुद्धिमान पुरुष; विवाह-अर्थम्--विवाह हेतु; समुद्यतम्--तैयार; अत:--अतएव; त्वमू--तुम; उपकुर्वाण:--आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत न लेने के कारण; प्रत्तामू-- भेंट कियागया; प्रतिगृहाण-- कृपया स्वीकार कीजिये; मे--मेरा |
स्वायंभुव मनु ने कहा-हे विद्वान, मैंने सुना है कि आप ब्याह के इच्छुक हैं।
कृपयामेरे द्वारा दान में दी जाने वाली अर्पित कन्या को स्वीकार करें, क्योंकि आपनेआजीवन ब्रह्माचर्य का व्रत नहीं ले रखा है।
ऋषिरुवाचबाढसमुद्बोढुकामोहमप्रत्ता च तवात्मजा ।
आवयोरनुरूपो सावाद्यो वैवाहिको विधि: ॥
१५॥
ऋषि: --परम साधु कर्दम ने; उवाच--कहा; बाढम्--एवमस्तु; उद्बेढु-काम: --विवाह का इच्छुक; अहम्-ैं;अप्रत्ता--अन्य किसी से वचनबद्ध न होना; च--तथा; तब--तुम्हारी; आत्म-जा--पुत्री; आवयो:--हम दोनों का;अनुरूप:--उपयुक्त; असौ--यह; आद्य:-- प्रथम; वैवाहिक:--विवाह का; विधि:--अनुष्ठान ।
महामुनि ने उत्तर दिया--निस्सन्देह मैं विवाह का इच्छुक हूँ और आपकी कन्या ने नकिसी से विवाह किया है और न ही किसी दूसरे को वचन दिया है।
अतः वैदिक पद्धतिके अनुसार हम दोनों का विवाह हो सकता है।
कामः स भूयात्ररदेव तेउस्याःपुत्रया: समाम्नायविधौ प्रतीत: ।
क एव ते तनयां नाद्रवियेतस्वयैव कान्त्या क्षिपतीमिव अियम् ॥
१६॥
काम:ः--इच्छा; सः--वह; भूयात्--पूरी हो; नर-देव--हे राजा; ते--तुम्हारी; अस्या:--इस; पुत्र्या:--पुत्री का;समाम्नाय-विधौ--वेदोक्त विधि से; प्रतीत:--मान्य; क:ः--कौन; एव--निस्सन्देह; ते--तुम्हारी; तनयाम्--पुत्री को;न आद्रियेत--आदर पूजा नहीं करेगा; स्वया--अपने से; एब--अकेले; कान्त्या--देह की कान्ति आभा ;क्षिपतीम्--तिरस्कृत करती; इब--मानो; थ्रियम्ू--आभूषण |
आप अपनी पुत्री की, वेदों द्वारा स्वीकृत विवाह-इच्छा की पूर्ति करें।
उसको कौननहीं ग्रहण करना चाहेगा? वह इतनी सुन्दर है कि उसकी शारीरिक कान्ति ही उसकेआभूषणों की सुन्दरता को मात कर रही है।
यां हर्म्यपृष्ठे क्वणदड्प्रिशोभांविक्रीडतीं कन्दुकविहलाक्षीम् ।
विश्वावसुन्यपतत्स्वाद्विमाना-द्विलोक्य सम्मोहविमूढचेता: ॥
१७॥
याम्--जिसको; हर्म्य-पूष्ठे--राज प्रासाद की छत पर; क्वणत्-अड्प्रि-शो भाम्--उसके चरणों के नूपरों की ध्वनि सेजिसकी सुन्दरता बढ़ी हुई हैं; विक्रीडतीम्--खेलती हुईं; कन्दुक-विह्ल-अक्षीम्--मोहित नेत्रों से अपनी गेंद का पीछाकरती; विश्वावसु:--विश्वावसु; न्यपतत्--गिर पड़ा; स्वात्-- स्वतः; विमानातू--विमान से; विलोक्य--देखकर;सम्मोह-विमूढ-चेता:--जिसका मन सम्मोहित था
मैंने सुना है कि आपकी कन्या को महल की छत पर गेंद खेलते हुए देखकर महान्गन्धर्व विश्वावसु मोहवश अपने विमान से गिर पड़ा, क्योंकि वह अपने नूपुरों की ध्वनितथा चञ्जल नेत्रों के कारण अत्यन्त सुन्दरी लग रही थी।
तां प्रार्थयन्तीं ललनाललाम-मसेवितश्रीचरणैरदृष्टाम् ।
वत्सां मनोरुच्यपद: स्वसारंको नानुमन्येत बुधोडभियाताम् ॥
१८॥
ताम्--उसको; प्रार्थथन्तीम्--खोजती हुई; ललना-ललामम्--स्त्रियों के आभूषण; असेवित-श्री-चरणै: --जिन्होंनेलक्ष्मी के चरणों की पूजा नहीं की, उनके द्वारा; अद्ृष्टामू-न देखी गई; बत्साम्ू--लाड़ली पुत्री को; मनो: --स्वायं भुवमनु की; उच्चपद:--उत्तानपाद की; स्वसारम्--बहन; कः--क्या; न अनुमन्येत-- आदर नहीं करेगा; बुध: --बुद्धिमान; अभियाताम्--स्वेच्छा से आई हुईं
ऐसा कौन है, जो स्त्रियों में शिरोमणि, स्वायंभुव मनु की पुत्री और उत्तानपाद कीबहन का समादर नहीं करेगा ? जिन लोगों ने कभी श्रीलक्ष्मी जी के चरणों की पूजा नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन तक नहीं हो सकता, फिर भी यह स्वेच्छा से मेरी अर्द्धांगिनीबनने आई है।
अतो भजिष्ये समयेन साध्वींयावत्तेजो बिभूयादात्मनो मे ।
अतो धर्मान्पारमहंस्यमुख्यान्शुक्लप्रोक्तान्बहु मन्येउविहिंस्त्रानू ॥
१९॥
अतः--अतएव; भजिष्ये--मैं स्वीकार करूँगा; समयेन--शर्त के साथ; साध्वीम्--कुमारी को; यावत्--जब तक;तेज:--वीर्य; बिभूयात्-- धारण करे; आत्मन:--मेरे शरीर से; मे--मेरे; अत:--तत्पश्चात्; धर्मानू--कर्तव्य;पारमहंस्य-मुख्यान्-- श्रेष्ठ परम हंसों का; शुक्ल-प्रोक्तानू-- भगवान् विष्णु द्वारा बताये; बहु--अधिक; मन्ये--मैंविचार करूँगा; अविहिंस्रानू-द्वेष से रहित होकर |
अतः इस कुँवारी को मैं अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करूँगा, किन्तु इस शर्त केसाथ कि जब यह मेरा वीर्य धारण कर चुकेगी तो मैं परम सिद्ध पुरुषों के समान भक्ति-योग को स्वीकार करूँगा।
इस विधि को भगवान् विष्णु ने बताया है और यह द्वेष रहितहै।
यतोभवद्विश्वमिदं विचित्रसंस्थास्यते यत्र च वावतिष्ठते ।
प्रजापतीनां पतिरेष महांपरं प्रमाणं भगवाननन्तः ॥
२०॥
यतः--जिससे; अभवत्-- प्रकट हुआ; विश्वम्--सृष्टि; इदम्--यह; विचित्रम्ू-- आश्चर्यजनक; संस्थास्यते--विलीनहो जावेगा; यत्र--जिसमें; च--यथा; वा--या; अवतिष्ठते--इस समय उपस्थित है; प्रजा-पतीनाम्ू--प्रजापतियों का;'पतिः--भगवान्; एक: --यह; महामम्--मुझको; परम्--सर्वोच्च; प्रमाणम्-- प्रमाण; भगवानू--परमे श्वर; अनन्त: --असीम
मेरे लिए तो सर्वोच्च अधिकारी अनन्त श्रीभगवान् हैं जिनसे यह विचित्र सृष्टि उद्भूतहोती है और जिन पर इसका भरण तथा विलय आश्रित है।
वे उन समस्त प्रजापतियों केमूल हैं, जो इस संसार में जीवात्माओं को उत्पन्न करने वाले महापुरुष हैं।
मैत्रेय उबाच स उग्रधन्वन्नियदेवाबभाषे आसीच्च तृष्णीमरविन्दनाभम् ।
धियोपगृह्नन्स्मितशोभितेन मुखेन चेतो लुलुभे देवहूत्या: ॥
२१॥
मैत्रेय:--ऋषि मैत्रेय ने; उवाच--कहा; सः--वह कर्दम ; उग्र-धन्वन्--हे योद्धा विदुर; इयत्--इतना; एव--ही;आबभाषे--बोला; आसीत्--हो गया; च--यथा; तृष्णीम्--मौन; अरविन्द-नाभम्-- भगवान् विष्णु जिनकी नाभिकमल से भूषित है ; धिया--विचार से; उपगृहन्--पकड़ते हुए; स्मित-शोभितेन--अपनी मुस्कान से सुशोभित;मुखेन--अपने मुखमण्डल से; चेत:--मन; लुलुभे--मोहित हो गया; देवहूत्या: --देवहूति के |
श्री मैत्रेय ने कहा-हे योद्धा विदुर, कर्दम मुनि ने केवल इतना ही कहा औरकमलनाभ पूज्य भगवान् विष्णु का चिन्तन करते हुए वह मौन हो गये।
वे उसी मौन मेंहँस पड़े जिससे उनके मुखमण्डल पर देवहूति आकृष्ट हो गई और वह मुनि का ध्यानकरने लगी।
सोनु ज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या दुहितुः स्फुटम् ।
तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां प्रहर्षित: ॥
२२॥
सः--वह सप्राट मनु ; अनु--तदनन्तर; ज्ञात्वा--जानकर; व्यवसितम्--हृढ़ संकल्प; महिष्या:--रानी का;दुहितुः:--अपनी पुत्री का; स्फुटम्-स्पष्ट रूप से; तस्मै--उसको; गुण-गण-आढ्याय--अनेक गुणों से सम्पन्न;ददौ--अर्पित कर दिया; तुल्यामू--समान, सम गुणों में ; प्रहर्षित:--अत्यधिक प्रसन्न |
रानी शतरूपा तथा देवहूति दोनों के दृढ़ संकल्प को स्पष्ट रुप से जानलेने परसम्राट मनु ने अपनी पुत्री को समान गुणों से युक्त मुनि कर्दम को अर्पित करदिया।
शतरूपा महाराज्ञी पारिबर्हन्महाधनान् ।
दम्पत्यो: पर्यदात्प्रीत्या भूषावास: परिच्छदान् ॥
२३॥
शतरूपा--शतरूपा; महा-राज्ञी--महारानी; पारिबर्हानू-- दहेज; महा-धनान्-- बहुमूल्य भेंट; दम्-पत्यो: --वर-वधूको; पर्यदात्--दिया; प्रीत्या--प्रेमपूर्वक; भूषा-- आभूषण; वास:--वस्त्र; परिच्छदान्--गृहस्थी की वस्तुएँ।
महारानी शतरूपा ने बर-वधू बेटी-दामाद को प्रेमपूर्वक्क अवसर के अनुकूलअनेक बहुमूल्य भेंटें, यथा आभूषण, वस्त्र तथा गृहस्थी की वस्तुएँ प्रदान कीं।
प्रत्तां दुहितरं सम्राट्सदक्षाय गतव्यथः ।
उपगुह्ा च बाहुभ्यामौत्कण्ठ्योन्मधिताशय: ॥
२४॥
प्रत्तामू--दान दी गई; दुहितरम्--कन्या को; सप्राटू--राजा मनु ; सहक्षाय--उपयुक्त व्यक्ति को; गत-व्यथ:-- भारसे मुक्त; उपगुहा--चूमकर; च--तथा; बाहुभ्याम्-- अपने दोनों हाथों से; औत्कण्ठ्य-उन्मधित-आशय: --अत्यन्तउत्सुक एवं क्षुब्ध मन |
इस प्रकार अपनी पुत्री को योग्य वर को प्रदान करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्तहोकर स्वायंभुव मनु का मन वियोग के कारण विचलित हो उठा और उन्होंने अपनीप्यारी पुत्री को दोनों बाहों में भर लिया।
अशबनुवंस्तद्विरहं मुझ्नन्बाष्पकलां मुहुः ।
आसिज्ञदम्ब वत्सेति नेत्रोदैर्दुहिितु: शिखा: ॥
२५॥
अशक्नुवन्--न सह सकने के कारण; ततू-विरहम्ू--उसका वियोग; मुझ्नन्ू--गिराते हुए; बाष्प-कलाम्-- आँसू;मुहुः--पुनः पुनः; आसिश्ञत्ू-- भीग गया; अम्ब--मेरी माता; वत्स--मेरी प्रिय पुत्री; इति--इस प्रकार; नेत्र-उदैः--नेत्रों के जल से; दुहितु:ः--अपनी पुत्री का; शिखा:--बालों का गुच्छा।
सप्राट अपनी पुत्री के वियोग को न सह सके, अतः उनके नेत्रों से बारम्बार अश्रुझरने लगे और उनकी पुत्री का सिर भीग गया।
वे विलख पड़े 'मेरी माता, मेरी प्यारी बेटी।
'" आमन्त्रय तं मुनिवरमनुज्ञात: सहानुगः ।
प्रतस््थे रथमारुह्य सभार्य: स्वपुरं नृप: ॥
२६॥
उभयोरृषिकुल्याया: सरस्वत्या: सुरोधसो: ।
ऋषीणामुपशान्तानां पश्यन्ना भ्रमसम्पद: ॥
२७॥
आमन््य--जाने की अनुमति लेकर; तम्--उससे; मुनि-वरम्--मुनियों में श्रेष्ठ, कर्दम से; अनुज्ञात:--जाने कीअनुमति पाकर; सह-अनुग: -- अपने सेवकों सहित; प्रतस्थे--प्रस्थान किया; रथम् आरुह्म --रथ में चढ़कर; स-भार्य:--अपनी पत्नी के साथ; स्व-पुरम्--अपनी राजधानी को; नृप:--राजा; उभयो: --दोनों पर; ऋषि-कुल्याया:--ऋषियों को स्वीकार्य; सरस्वत्या:--सरस्वती नदी का; सु-रोधसो: --सुहावने किनारे; ऋषीणाम्--ऋषियों का; उपशान्तानामू--शान्त; पश्यनू--देखते हुए; आश्रम-सम्पद:--सुन्दर आश्रम की समृद्धि
तब महर्षि से आज्ञा लेते हुए और उनकी अनुमति पाकर राजा अपनी पत्नी के साथरथ में सवार हुआ और अपने सेवकों सहित अपनी राजधानी के लिए चल पड़ा।
रास्तेभर वे साधु पुरुषों के लिए अनुकूल सरस्वती नदी के दोनों ओर सुहावने तटों पर उनकेशान्त एवं सुन्दर आश्रमों की समृद्धि को देखते रहे।
तमायान्तमभिप्रेत्य ब्रह्मावर्तात्प्रजा: पतिम् ।
गीतसंस्तुतिवादित्रैः प्रत्युदीयु: प्रहर्षिता: ॥
२८ ॥
तम्--उसको; आयान्तम्--आया हुआ; अभिप्रेत्य--समझ कर; ब्रह्मावर्तातू--ब्रह्मावर्त से; प्रजा:--उसकी प्रजा;पतिम्--अपने स्वामी को; गीत-संस्तुति-वादित्रै:--गीत, स्तुति तथा वाच्यसंगीत से; प्रत्युदीयु:--स्वागत के लिए आगेआये; प्रहर्षिता: -- अत्यधिक प्रसन्न |
राजा का आगमन जानकर उसकी प्रजा अपार प्रसन्नता से ब्रह्मावर्त से बाहर निकलआईं और वापस आते हुए अपने राजा का गीतों, स्तुतियों तथा वाद्य संगीत से सम्मानकिया।
बर्हिष्मती नाम पुरी सर्वसम्पत्समन्विता ।
न्यपतन्यत्र रोमाणि यज्ञस्याडुं विधुन्वतः ॥
२९॥
कुशाः काशास्त एवासन्शश्वद्धरितवर्चस: ।
ऋषयो ये: पराभाव्य यज्ञघ्नान्यज्ञमीजिरे ॥
३०॥
बर्हिष्मती--बर्हिष्मती; नाम--नामक; पुरी--नगरी; सर्व-सम्पत्--सभी प्रकार की सम्पदा; समन्विता--से पूर्ण;न्यपतनू--गिर पड़े; यत्र--जहाँ; रोमाणि--बाल रोएँ ; यज्ञस्थ-- भगवान् शूकर के; अड्रम्--शरीर; विधुन्बत: --हिलाने पर; कुशा:--कुश एक घास ; काशा:--काँस एक घास ; ते--वे; एब--निश्चय ही; आसनू--हो गया;शश्वत्-हरित--सदाबहार का; वर्चस:ः--रंग का; ऋषय: --ऋषिगण; यै:--जिससे; पराभाव्य--हराकर; यज्ञ-घ्नानू--यज्ञ में बाधक; यज्ञम्ू-- भगवान् विष्णु; ईजिरे--उन्होंने पूजा की
सभी प्रकार की सम्पदा में धनी बर्दहिष्मती नगरी का यह नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि जब भगवान् ने अपने आपको वराह रूप में प्रकट किया, तो भगवान् विष्णु का बाल रोम उनके शरीर से नीचे गिर पड़ा।
जब उन्होंने अपना शरीर हिलाया तो जो बाल नीचे गिरा वह सदैव हरे भरे रहने वाले उन कुश तथा काँस में बदल गया जिनके द्वारा ऋषियोंने भगवान् विष्णु की तब पूजा की थी जब उन्होंने यज्ञों को सम्पन्न करने में बाधा डालनेवाले असुरों को हराया था।
कुशकाशमयं बर्हिरास्तीर्य भगवान्मनु: ।
अयजद्यज्ञपुरुषं लब्धा स्थानं यतो भुवम् ॥
३१॥
कुश--कुश की; काश--तथा काँस की; मयम्--निर्मित; बर्हि:-- आसनी; आस्तीर्य--फैलाकर; भगवान्-- अत्यन्तभाग्यशाली; मनु:--स्वायंभुव मनु ने; अयजत्--पूजा की; यज्ञ-पुरुषम्-- भगवान् विष्णु; लब्धा--प्राप्त किया;स्थानम्--वास, धाम; यत:--जिससे; भुवम्--पृथ्वी |
मनु ने कुश तथा काँस की बनी आसनी बिछाई और श्रीभगवान् की अर्चना कीजिनकी कृपा से उन्हें पृथ्वी मंडल का राज्य प्राप्त हुआ था।
बर्ष्मतीं नाम विभुर्या निर्विश्य समावसत् ।
तसयां प्रविष्टो भवनं तापत्रयविनाशनम् ॥
३२॥
बर्हिष्मतीम्--बर्हिष्मती नगरी में; नाम--नामक; विभु:--परम शक्तिमान स्वायंभुव मनु; याम्ू--जिस; निर्विश्य--प्रवेश करके; समावसत्--पहले रहता था; तस्याम्--उस नगरी में; प्रविष्ट: --प्रवेश किया; भवनम्--महल; ताप-त्रय--तीन प्रकार के ताप; विनाशनम्--नष्ट करते हुए
जिस बर्हिष्मती नगरी में मनु पहले से रहते थे उसमें प्रवेश करने के पश्चात् वे अपनेमहल में गये जो सांसारिक त्रय-तापों को नष्ट करने वाले वातावरण से परिव्याप्त था।
सभार्य: सप्रज: कामान्बुभुजेन्याविरो धतःसड्जीयमानसत्कीर्ति: सस्त्रीभि: सुरगायकै: ।
प्रत्यूषेष्वनुबद्धेन हृदा श्रृण्वन्हे: कथा: ॥
३३॥
स-भार्य:--अपनी पत्नी के सहित; स-प्रज:--अपनी प्रजा के साथ; कामान्ू--जीवन की आवश्यकताएँ; बुभुजे--भोग किया; अन्य--दूसरों से; अविरोधत:--बिना अड़चन के; सड्डरीयमान--प्रशंसित होकर; सत्-कीर्ति: --पुण्यकार्यों के लिए प्रसिद्धि; स-स्त्रीभिः--अपनी-अपनी पत्नियों समेत; सुर-गायकै :--स्वर्गिक गायकों गंधर्वों केद्वारा; प्रति-ऊषेषु-- प्रत्येक उषा प्रात: समय; अनुबद्धेन--बँधा हुआ; हृदा--हृदय से; श्रृण्वन्--सुनते हुए; हरेः--भगवान् की; कथाः:--कथाएँ।
स्वायंभुव मनु अपनी पत्नी तथा प्रजा सहित जीवन का आनन्द उठाते रहे और उन्होंनेधर्म के विरुद्ध अवांछित नियमों से विचलित हुए बिना अपनी इच्छाओं की पूर्ति की।
गन्धर्वगण अपनी भार्याओं सहित सम्राट की कीर्ति का गान करते और सम्राट प्रतिदिनउषाकाल में अत्यन्त प्रेमभाव से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की लीलाओं का श्रवण करतेथे।
निष्णातं योगमायासु मुनि स्वायम्भुवं मनुम् ।
यदाभ्रृंशयितुं भोगा न शेकुर्भगवत्परम् ॥
३४॥
निष्णातम्--लिप्त; योग-मायासु-- क्षणिक सुख में; मुनिम्--मुनि तुल्य; स्वायम्भुवम्-स्वायं भुव; मनुम्--मनु को;यत्--जिससे; आश्रंशयितुमू--विचलित होकर; भोगा: --सांसारिक सुख; न--नहीं; शेकु:--सक्षम थे; भगवत्ू-परम्--भगवान् का परम भक्त
इस प्रकार स्वयंभुव मनु साधु-सदृश राजा थे।
भौतिक सुख में लिप्त रहकर भी वेनिम्नकोटि के जीवन की ओर आकृष्ट नहीं थे, क्योंकि वे निरन्तर कृष्णभावनामृत केवातावरण में भौतिक सुख का भोग कर रहे थे।
अयातयामास्तस्यासन्यामा: स्वान्तरयापना: ।
श्रण्वतो ध्यायतो विष्णो: कुर्वतो ब्रुवबतः कथा: ॥
३५॥
अयात-यामा:--समय व्यर्थ नहीं गया; तस्य--मनु का; आसनू-- थे; यामा: --घंटे; स्व-अन्तर--जीवनकाल;यापना:--व्यतीत करके; श्रुण्वतः --सुनते हुए; ध्यायत:--ध्यान करते; विष्णो: -- भगवान् विष्णु का; कुर्वतः--करतेहुए; ब्रुवतः--बोलते हुए; कथा:--कथाएँ |
फलत: धीरे-धीरे उनके जीवन का अन्त-समय आ पहुँचा आया; किन्तु उनका दीर्घजीवन, जो मन्वन्तर कल्प से युक्त है, व्यर्थ नहीं गया क्योंकि वे सदैव भगवान् कीलीलाओं के श्रवण, चिन्तन, लेखन तथा कीर्तन में व्यस्त रहे।
स एवं स्वान्तरं निन्ये युगानामेकसप्ततिम् ।
वासुदेवप्रसड़ेन परिभूतगतित्रय: ॥
३६॥
सः--उसने स्वायंभुव मनु ने ; एवम्ू--इस प्रकार; स्व-अन्तरमू--अपना काल जीवन ; निनन््ये--बिताया;युगानाम्--चार युगों के चक्रों का; एक-सप्ततिम्--एकहत्तर; वासुदेव--वासुदेव से; प्रसड़ेन--सम्बद्ध कथाओं से;'परिभूत--पार कर गया; गति-त्रयः--तीनों लक्ष्य अवस्थाएँ ।
उन्होंने निरन्तर वासुदेव का ध्यान करते और उन्हीं का गुणानुवाद करते इकहत्तरचतुर्युग ४३,२०,००० वर्ष पूरे किये।
इस प्रकार उन्होंने तीनों लक्ष्यों को पारकर लिया।
शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषा: ।
भौतिकाश्च कथ॑ं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम् ॥
३७॥
शारीरा:--शरीर सम्बधी; मानसा: --मन सम्बन्धी; दिव्या:--दैवी शक्ति सम्बन्धी देवताओं का ; वैयासे--हे विदुर;ये--जो; च--यथा; मानुषा: -- अन्य मनुष्यों से सम्बन्धित; भौतिका: --अन्य जीवों से सम्बन्धित; च--तथा;कथम्-कैसे; क्लेशा:--दुख; बाधन्ते--कष्ट पहुँचा सकते हैं; हरि-संभ्रयम्--जिसने भगवान् कृष्ण की शरण लीहुई है
अतः हे विदुर, जो व्यक्ति भगवान् कृष्ण के शरणागत हैं, भला वे किस प्रकारशरीर, मन, प्रकृति, अन्य मनुष्यों तथा जीवित प्राणियों से सम्बन्धित कष्टों में पड़ सकतेहैं।
यः पृष्टो मुनिभिः प्राह धर्मान्नानाविधाज्छुभान् ।
नृणां वर्णाश्रमाणां च सर्वभूतहितः सदा ॥
३८॥
यः--जो; पृष्ट:--पूछे जाने पर; मुनिभि:--मुनियों के द्वारा; प्राह--बोला; धर्मान्--कर्तव्य; नाना-विधान्ू---अनेकप्रकार के; शुभान्ू--शुभ; नृणाम्--मनुष्य समाज का; वर्ण-आश्रमाणाम्--वर्णो तथा आश्रमों का; च--यथा; सर्व-भूत--सभी जीवों के लिए; हित:ः--कल्याणकर; सदा--सदैव |
कुछ मुनियों के पूछे जाने पर उन्होंने स्वायंभुव मनु ने समस्त जीवों पर दया करकेमनुष्य के सामान्य पवित्र कर्तव्यों तथा वर्णो और आश्रमों का उपदेश दिया।
एतत्त आदिराजस्य मनो श्वरितमद्भुतम् ।
वर्णितं वर्णनीयस्य तदपत्योदयं श्रुणु ॥
३९॥
एतत्--यह; ते--तुम; आदि-राजस्य--प्रथम सम्राट के; मनो:--स्वायंभुव मनु के ; चरितम्--चरित्र; अद्भुतम्--आश्चर्यजनक; वर्णितमू--वर्णन किया गया; वर्णनीयस्य--जिनका यश वर्णन करने के योग्य है; तत्-अपत्य--उनकीपुत्री का; उदयम्--अभ्युदय; श्रुणु--सुनो |
मैंने तुमसे आदि सम्राट स्वायंभुव मनु के अद्भुत चरित्र का वर्णन किया।
उनकी ख्याति वर्णन के योग्य है।
अब ध्यान से उनकी पुत्री देवहूति के अभ्युदय का वर्णनसुनो।
अध्याय तेईसवाँ: देवहुति का विलाप
3.23मैत्रेय उवाचपितृभ्यां प्रस्थिते साध्वी पतिमिड्ितिकोविदा ।
नित्य॑ पर्यचरत्प्रीत्या भवानीव भवं प्रभुम् ॥
१॥
मैत्रेय: उवाच--मैत्रेय ने कहा; पितृभ्याम्--माता-पिता के द्वारा; प्रस्थिते--प्रस्थान करने पर; साध्वी--पतिक्रता;पतिम्--अपने पति की; इड़त-कोविदा--मनोभावों को जानने वाली; नित्यम्--निरन्तर; पर्यचरत्--सेवा की;प्रीत्या--प्रेमपूर्वक; भवानी--देवी पार्वती; इब--समान; भवम्--शिवजी की; प्रभुम्--अपने स्वामी |
मैत्रेय ने कहा--अपने माता-पिता के चले जाने पर अपने पति की इच्छाओं कोसमझनेवाली पतिक्रता देवहूति अपने पति की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी जिसप्रकार भवानी अपने पति शंकर जी की करती हैं।
विश्रम्भेणात्मशौचेन गौरवेण दमेन च ।
शुश्रूषया सौहदेन वाचा मधुरया च भो: ॥
२॥
विश्रम्भेण--आत्मीयता से; आत्म-शौचेन--मन तथा देह की शुद्धता से; गौरवेण--सम्मान से; दमेन--इन्द्रियों कोवश में करके; च--तथा; शुश्रूषया--सेवा से; सौहदेन--प्रेम से; वाचा--वाणी से; मधुरया--मीठी; च--तथा;भो:--हे विदुर!
हे विदुर, देवहूति ने अत्यन्त आत्मीयता और आदर के साथ, इन्द्रियों को वश मेंरखते हुए, प्रेम तथा मधुर वचनों से अपने पति की सेवा की।
विसृज्य काम दम्भं च द्वेष॑ लोभमघं मदम् ।
अप्रमत्तोद्यता नित्यं तेजीयांसमतोषयत् ॥
३॥
विसृज्य--त्याग कर; कामम्--काम-वासना; दम्भमू-गर्व; च--तथा; द्वेषम्-द्वेष; लोभमू--लोभ, लालच;अघम्--पापपूर्ण कृत्य; मदम्--मद, घमण्ड; अप्रमत्ता--समझदार; उद्यता--तत्पर रहकर; नित्यम्ू--सदैव;तेजीयांसम्--अपने अत्यन्त शक्तिशाली पति को; अतोषयत्--प्रसन्न कर लिया।
बुद्धिमानी तथा तत्परता के साथ कार्य करते हुए उसने समस्त काम, दम्भ, द्वेष,लोभ, पाप तथा मद को त्यागकर अपने शक्तिशाली पति को प्रसन्न कर लिया।
स वै देवर्षिवर्यस्तां मानवीं समनुव्रताम् ।
दैवादगरीयसः पत्युराशासानां महाशिष: ॥
४॥
कालेन भूयसा क्षामां कर्शितां ब्रतचर्यया ।
प्रेमगदूगदया वाचा पीडित: कृपयात्रवीत् ॥
५॥
सः--वह कर्दम ; बै--निश्चय ही; देव-ऋषि--दैवी साधुओं में; वर्य:--सर्वश्रेष्ठ; तामू--उस; मानवीम्--मनु कीपुत्री को; समनुव्रताम्-पूर्णतः अनुरक्त; दैवात्--विधाता की अपेक्षा; गरीयस:--महान्; पत्यु:--अपने पति से;आशासानाम्--आशावान्; महा-आशिष:--महान् आशीर्वाद; कालेन भूयसा--दीर्घकाल तक; क्षामाम्-दुर्बल;कशिताम्--क्षीण; ब्रत-चर्यया-- धार्मिक चर्या से; प्रेम--प्रेम से; गद्गदया--विह्नल, रुद्ध; वाचा--वाणी से;पीडित:--विजित; कृपया--दया से; अब्नवीत्--कहा
पतिपरायणा मनु की पुत्री अपने पति को विधाता से भी बड़ा मानती थी।
इस प्रकारवह उनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ किये रहती थी।
दीर्घकाल तक सेवा करते रहने से धार्मिकब्रतों को रखने के कारण वह अत्यन्त क्षीण हो गई।
उसकी दशा देखकर देवर्षिश्रेष्ठकर्दम को उस पर दया आ गई और वे अत्यन्त प्रेम से गदगद वाणी में बोले।
कर्दम उवाचतुष्टोडहमद्य तब मानवि मानदाया:शुश्रूषया परमया परया च भकक्त्या ।
यो देहिनामयमतीव सुहत्स देहोनावेक्षित: समुचित: क्षपितुं मदर्थे ॥
६॥
कर्दम: उबाच--परम साधु कर्दम ने कहा; तुष्ट:-- प्रसन्न हूँ; अहम्ू--मैं; अद्य--आज; तव--तुमसे; मानवि--हे मनुकी पुत्री; मान-दाया: --सम्माननीय; शुश्रूषया -- सेवा से; परमया--सर्व श्रेष्ठ; परया--उच्चतम; च--तथा; भक्त्या--भक्ति से; यः--जो; देहिनाम्--देहधारियों को; अयम्--यह; अतीव--अत्यन्त; सुहत्--प्रिय; सः--वह; देह:--देह;न--नहीं; अवेक्षित:--ध्यान दिया गया; समुचितः--ठीक से; क्षपितुमू--व्यय करना; मत्-अर्थ--मेरे लिए।
कर्दम मुनि ने कहा-हे स्वायंभुव मनु की मानिनी पुत्री, आज मैं तुम्हारी अत्यधिकअनुरक्ति तथा प्रेमपूर्ण सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ।
चूँकि देहधारियों को शरीर अत्यन्त प्रिय है,अतः मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुमने मेरे लिये अपने शरीर को उपेक्षित कर रखा है।
ये मे स्वधर्मनिरतस्य तपःसमाधिविद्यात्मयोगविजिता भगवत्प्रसादा: ।
तानेव ते मदनुसेवनयावरुद्धान्दृष्टि प्रपश्य वितराम्यभयानशोकान् ॥
७॥
ये--जो; मे--मेरे द्वारा; स्व-धर्म--अपना धार्मिक जीवन; निरतस्थ--पूर्णतया लगे रहकर; तप: --तपस्या में;समाधि--ध्यान में; विद्या--कृष्णभावनामृत में; आत्म-योग--मन को स्थिर करके ; विजिता:--प्राप्त किया गया;भगवत्-प्रसादा: -- भगवान् के आशीर्वाद; तानू--उनको; एब--भी; ते--तुम्हारे द्वारा; मत्--मुझको; अनुसेवनया--भक्ति से; अवरुद्धानू--प्राप्त की गई; दृष्टिम्--दिव्य दृष्टि; प्रपश्य--देखो; वितरामि--मैं दे रहा हूँ; अभयान्-- भयसेरहित; अशोकान्--शोक से रहित।
कर्दम मुनि ने आगे कहा-मैंने तप, ध्यान तथा कृष्णभक्ति का अपना धार्मिकजीवन बिताते हुए भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त किया है।
यद्यपि तुम्हें भय तथा शोक सेरहित इन उपलब्धियों विभूतियों का अभी तक अनुभव नहीं है, किन्तु इन सबों को मैंतुम्हें प्रदान करूँगा, क्योंकि तुम मेरी सेवा में लगी हुई हो।
अब उन्हें देखो तो।
मैं तुम्हेंदिव्यद्ृष्टि प्रदान कर रहा हूँ जिससे तुम देख सको कि वे कितनी सुन्दर हैं।
अन्ये पुनर्भगवतो भ्रुव उद्विजृम्भ-विश्रंशितार्थरचना: किमुरुक्रमस्य ।
सिद्धासि भुड्छ्व विभवान्निजधर्मदोहान्दिव्यान्नरर्दुरधिगान्नूपविक्रियाभि: ॥
८ ॥
अन्ये--अन्य; पुनः--फिर; भगवतः-- भगवान् की; भ्रुवः--भुकूटी के; उद्विजुम्भ--हिलने से; विभ्रेशित--नष्ट;अर्थ-रचना:-- भौतिक उपलब्धियों भोग के; किम्--क्या लाभ; उरुक्रमस्य-- भगवान् विष्णु का; सिद्धा--सफल; असि--तुम हो; भुड्छझ्व--भोगो; विभवान्--भेंटें; निज-धर्म--अपनी भक्ति से; दोहान्--प्राप्त; दिव्यान्--दिव्य; नरैः --पुरुषों द्वारा; दुरधिगान्--दुर्लभ; नृप-विक्रियाभि: --राजमद से गर्वित
कर्दम मुनि ने कहा--भगवान् की कृपा के अतिरिक्त अन्य भोगों से कौन सा लाभहै? सभी भौतिक उपलब्धियाँ श्रीभगवान् विष्णु के भूकुटि-चालन से ही ध्वंस हो जानेवाली हैं।
तुमने अपने पति की भक्ति करके बे दिव्य भेंटें प्राप्त की हैं और उनका भोगकर रही हो जो राजमद तथा भौतिक सम्पत्ति से गर्वित मनुष्यों के लिए भी दुर्लभ हैं।
एवं ब्रुवाणमबलाखिलयोगमाया-विद्याविचक्षणमवेक्ष्य गताधिरासीतू ।
सम्प्रश्रयप्रणयविह्नलया गिरेषद् -ब्रीडावलोकविलसद्धसिताननाह ॥
९॥
एवमू--इस प्रकार; ब्रुवाणम्--बोलते हुए; अबला--स्त्री; अखिल--सम्पूर्णफ; योग-माया--दिव्य ज्ञान का; विद्या-विचक्षणम्--ज्ञान में अद्वितीय; अवेक्ष्य--सुनकर; गत-आधि: --सन्तुष्ट; आसीत्--हो गई; सम्प्रश्रय--विनय केसाथ; प्रणय--तथा प्रेम से; विहलया--विह्ल होकर; गिरा--वाणी से; ईषत्--कुछ-कुछ; ब्रीडा--लज्जा, संकोच;अवलोक--चितवन से; विलसत्--चमकती; हसित--हँसती; आनना--मुख वाली; आह--बोली
समस्त प्रकार के दिव्य ज्ञान में अद्वितीय, अपने पति को बोलते हुए सुनकर निष्पापदेवहूति अत्यन्त प्रसन्न हुई, उसका मुख किंचित् संकोच भरी चितवन और मधुर मुस्कानसे खिल उठा और वह अत्यन्त विनय एवं प्रेमवश गद्गद वाणी में रुद्ध कण्ठ से " बोली।
देवहूांतिरुवाचराद्धं बत द्विजवृषैतदमोघयोग-मायाधिपे त्वयि विभो तदवैमि भर्त: ।
यस्ते भ्यधायि समय: सकृदड्रसड़ोभूयादगरीयसि गुण: प्रसवः सतीनाम् ॥
१०॥
देवहूति: उबाच--देवहूति ने कहा; राद्धम्--प्राप्त हुआ; बत--निस्सन्देह; द्विज-वृष--हे ब्राह्मण श्रेष्ठ; एतत्--यह;अमोघ--अचूक; योग-माया--योगशक्ति के; अधिपे--स्वामी; त्वयि--तुम में; विभो--हे महान्; तत्--वह;अवैमि--ैं जानती हूँ; भर्त: --हे पति; यः--जो; ते--तुम्हारे द्वारा; अभ्यधायि--दिया गया; समय:--वचन, प्रतिज्ञा;सकृत्--एक बार; अड्ड-सड्ृः--शारीरिक संयोग; भूयात्--होवे; गरीयसि--जब अत्यन्त यशस्वी; गुण:--सदगुण;प्रसवः--सन्तान; सतीनाम्--पतिक्रता स्त्रियों का
श्री देवहूति ने कहा-हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मेरे प्रिय पति, मैं जानती हूँ कि आपने सिद्धिप्राप्त कर ली है और समस्त अचूक योगशक्ति के स्वामी हैं, क्योंकि आप दिव्य प्रकृतियोगमाया के संरक्षण में हैं।
किन्तु आपने एक बार वचन दिया था कि अब हमाराशारीरिक संसर्ग होना चाहिए, क्योंकि तेजस्वी पति वाली साध्वी पत्नी के लिए सन्तानबहुत बड़ा गुण है।
तत्रेतिकृत्यमुपशिक्ष यथोपदेशंयेनैष मे कर्शितोतिरिरंसयात्मा ।
सिद्धब्रेत ते कृतमनो भवधर्षितायादीनस्तदीश भवन सहशं विचक्ष्व ॥
११॥
तत्र--उसमें; इति-कृत्यमू--जो करणीय था; उपशिक्ष--सम्पन्न करो; यथा--के अनुसार; उपदेशम्--शास्त्रों केउपदेश; येन--जिससे; एष:--यह; मे--मेरा; कर्शित:--क्षीण; अतिरिरं-सया--तीक्र कामेच्छा के तुष्ट न होने से;आत्मा--शरीर; सिद्धब्ेत--उपयुक्त बन सकता है; ते--तुम्हारे लिए; कृत--उत्तेजित; मन:-भव--कामेच्छा से;धर्षिताया:--पीड़ित; दीन:--दीन; तत्--अतः ; ईश--हे भगवान्; भवनम्--घर; सहृशम्--उपयुक्त; विचक्ष्व--केविषय में सोचो
देवहूति ने आगे कहा-हे प्रभु, मैं कामवेदना से पीड़ित हो रही हूँ।
अतः आप शास्त्रोंके अनुसार जो भी व्यवस्था की जानी हो, करें जिससे कामेच्छा सन्तुष्ट न हो पाने से यहमेरा दुर्बल शरीर आपके योग्य हो जाय।
हाँ, स्वामी, इस कार्य के लिए उपयुक्त घर केविषय में भी विचार करें।
मैत्रेय उवाचप्रियाया: प्रियमन्विच्छन्कर्दमो योगमास्थित: ।
विमान काम क्षत्तस्तहोंवाविरचीकरत् ॥
१२॥
मैत्रेय:--मैत्रेय मुनि ने; उवाच--कहा; प्रियाया:--अपनी प्रिय पत्नी की; प्रियम्--इच्छा, चाह; अन्विच्छन्--खोजतेहुए; कर्दम:--कर्दम मुनि ने; योगम्--योगशक्ति; आस्थित:-- प्रयोग किया; विमानम्--विमान; काम-गम्--इच्छानुसार चलने वाला; क्षत्त:--हे विदुर; तहिं--तुरन्त; एब--ही; आविरचीकरत्--उत्पन्न किया |
मैत्रेय ने आगे कहा--हे विदुर, अपनी प्रिया की इच्छा को पूरा करने के लिए कर्दममुनि ने अपनी योगशक्ति का प्रयोग किया और तुरन्त ही एक हवाई महल विमान उत्पन्न कर दिया जो उनकी इच्छानुसार यात्रा कर सकता था।
सर्वकामदुघं दिव्यं सर्वरत्ससमन्वितम् ।
सर्वद्धर्युपचयोदर्क मणिस्तम्भेरुपस्कृतम् ॥
१३॥
सर्व--समस्त; काम--इच्छाएँ; दुघम्--प्रदायक; दिव्यमू--आश्चर्यमय; सर्व-रत्न--सभी प्रकार की मणियों;समन्वितम्--से जटित; सर्व--समस्त; ऋद्द्धि--सम्पत्ति की; उपचय--वृद्ध्धि; उदर्कम्--क्रमिक; मणि--बहुमूल्यरत्नों के; स्तम्भैः--ख भों से; उपस्कृतम्--सुशोभित |
यह सभी प्रकार के रत्नों से जटित, बहुमूल्य मणियों के ख भों से सुशोभित तथा इच्छित फल प्रदान करने वाली विस्मयजनक संरचना महल थी।
यह सभी प्रकार केसाज-सामान तथा सम्पदा से सुसज्जित था, जो दिन-प्रति-दिन बढ़ने वाले थे।
दिव्योपकरणोपेतं सर्वकालसुखावहम् ।
पट्टिकाभि: पताकाभिर्विचित्राभिरलड्डू तम् ॥
१४॥
स्त्रश्भिविचित्रमाल्याभिर्मझुशिज्ञत्वडड्प्रिभि: ।
दुकूलक्षौमकौशेयैर्नानावस्त्रैविराजितम् ॥
१५॥
दिव्य--विचित्र; उपकरण--सामग्री से; उपेतम्ू--युक्त; सर्व-काल--सभी ऋतुओं में; सुख-आवहम्--सुखदायक;पट्टिकाभि:--बंदनवारों से; पताकाभि:--पताकाओं से; विचित्राभि:--विभिन्न रंगों तथा धागों से; अलड्डू तम्--सज्जित; स््रग्भिः--हारों से; विचित्र-माल्याभि:--आकर्षक पुष्पों से; मज्जु--मधुर; शिक्ञत्--गुंजार करता; षटू-अद्प्रिभि:--भौरों से; दुकूल--महीन वस्त्र; क्षौम--लिनेन; कौशेयै: --रेशमी वस्त्र से; नाना--विविध; बस्त्रैः--पर्दोंसे; विराजितमू--शोभायमान
यह प्रासाद दुर्ग सभी प्रकार की सामग्री से सुसज्जित था और यह सभी ऋतुओं मेंसुखदायक था।
यह चारों ओर से पताकाओं, बन्दनवारों तथा नाना-विधिक रंगों कीकला-कृतियों से सजाया गया था।
यह आकर्षक पुष्पों के हारों से, जिससे मधुर गुंजार करते भौरे आकृष्ट हो रहे थे तथा लिनेन, रेशमी तथा अन्य तन््तुओं से बने पर्दों सेशोभायमान था।
उपर्युपरि विन्यस्तनिलयेषु पृथक्पृथक् ।
क्षिप्तै: कशिपुभि: कान्तं पर्यड्रव्यजनासने: ॥
१६॥
उपरि उपरि--एक के ऊपर एक; विन्यस्त--रखे हुए; निलयेषु--मंजिलों में; पृथक् पृथक्ू--अलग अलग; क्षिप्तै:--व्यवस्थित; कशिपुभि:--बिस्तरे शय्या से; कान्तम्--कमनीय; पर्यड्रू--पलंग; व्यजन--पंखे; आसनै: --आसनों बैठने के स्थान, सीट सहित।
यह प्रासाद शय्याओं, पलंगों, पंखों तथा आसनों से युक्त सात पृथक्-पृथक् मंजिलों तल््लों वाला होने से अत्यन्त मनोहर लग रहा था।
तत्र तत्र विनिक्षिप्तनानाशिल्पोपशोभितम् ।
महामरकतस्थल्या जुष्टे विद्यमवेदिभि: ॥
१७॥
तत्र तत्र--जहाँ तहाँ; विनिक्षिप्त--रखे हुए; नाना--विविध; शिल्प--कला-कृतियों से; उपशोभितम्-- अत्यधिकसुन्दर; महा-मरकत--विशाल मरकत पन्ना के; स्थल्या--फर्श से; जुष्टमू--सुसज्जित; विद्रुम--मूँगे के;वेदिभि: --उठे हुए
ऊँचे चबूतरों सेदीवालों में जहाँ तहाँ कलापूर्ण संरचना होने से उनकी सुन्दरता बढ़ गई थी।
उसकी फर्श मरकत मणि की थी और चबूतरे मूँगे के बने थे।
द्वाःसु विद्रुमदेहल्या भातं वज़कपाटवत् ।
शिखरेष्विन्द्रनीलेषु हेमकुम्भेरधिश्रितम् ॥
१८ ॥
द्वाःसु--द्वारों पर; विद्युय--मूँगे की; देहल्या--देहली से युक्त; भातम्--सुन्दर; वज़--हीरों से जटित; कपाट-वत्--दरवाजों से युक्त; शिखरेषु--गुम्बदों पर; इन्द्र-नीलेषु--इन्द्र नीलमणि के; हेम-कुम्भेः--सोने के कलशों से युक्त;अधिश्रितमू--रखे हुए
वह महल अतीव सुन्दर था, उसके द्वारों की देहलियाँ मूँगे की थीं और दरवाजे हीरोंसे जटित थे।
इन्द्र नीलमणि के बने गुम्बदों पर सोने के कलश रखे हुए थे।
चहश्षुष्मत्पद्यरागाछयैर्वज़भित्तिषु निर्मित: ।
जुष्ट विचित्रवैतानैर्महाहैंहमतोरणै: ॥
१९॥
चक्षु:-मत्--मानो आँखों से युक्त हो; पद्य-राग--लालमणि, माणिक; अछयै:--चुने हुए; वज्ञ--हीरे की; भित्तिषु--दीवालों पर; निर्मिति:-- जड़े हुए; जुष्टम्--सुसज्जित; विचित्र--तरह तरह के; वैतानैः--वितानों चँदोवों से; महा-अहैं: --अत्यन्त बहुमूल्य; हेम-तोरणैः --सोने के तोरणों द्वारों से
वह हीरों की दीवालों में जड़े हुए मनभावने माणिक से ऐसा प्रतीत होता था मानोनेत्रों से युक्त हो।
वह विचित्र चँदोवों और अत्यधिक मूल्यवान सोने के तोरणों सेसुसज्जित था।
हंसपारावतत्रातैस्तत्र तत्र निकूजितम् ।
कृत्रिमान्मन्यमानैः स्वानधिरु्मधिरुह्या च ॥
२०॥
हंस--हंसों के; पारावत--कबूतरों के ; ब्रातैः--झुंड के झुंड से; तत्र तत्र--इधर उधर; निकूजितम्--शोर करते;कृत्रिमान्ू--कृत्रिम; मन्यमानै:-- सोचते हुए; स्वानू--अपनी तरह के; अधिरुह्म अधिरुह्म --बार-बार उड़कर; च--तथा।
उस प्रासाद में जहाँ तहाँ जीवित हंसों तथा कबूतरों के साथ ही कृत्रिम हंस तथाकबूतर इतने सजीव थे कि असली हंस उन्हें अपने ही तुल्य सजीव पक्षी समझ कर अपनीगर्दनें ऊपर उठा रहे थे।
इस प्रकार वह प्रासाद इन पक्षियों के ध्वनियों से गूँज रहा था।
विहारस्थानविश्रामसंवेशप्राड्रणाजिरै: ।
यथोपजोष॑ं रचितैर्विस्मापनमिवात्मन: ॥
२१॥
विहार-स्थान--क्रीड़ा-स्थल; विश्राम--आराम करने के कक्ष; संवेश--शयनगृह; प्राड्रण-- आँगन; अजिरै:--बाहरीखुला स्थान, चौक; यथा-उपजोषम्--सुविधानुसार; रचितैः--निर्मित; विस्मापनम्--विस्मय उत्पन्न करने वाले;इब--निस्सन्देह; आत्मन:--स्वयं कर्दम द्वारा |
उस प्रासाद में क्रीड़ास्थल, विश्रामघर, शयनगृह, आँगन तथा चौकें थीं जो नेत्रों कोसुख देने वाली थीं।
इन सबसे स्वयं मुनि को विस्मय हो रहा था।
ईहग्गृहं तत्पश्यन्तीं नातिप्रीतेन चेतसा ।
सर्वभूताशयाभिज्ञः प्रावोचत्कर्दम: स्वयम् ॥
२२॥
ईहक्--ऐसे; गृहम्--घर को; तत्--वह; पश्यन्तीम्--देखती हुई; न अतिप्रीतेन--अधिक प्रसन्न नहीं हुई; चेतसा--हृदय से; सर्वब-भूत--प्रत्येक प्राणी के; आशय-अभिज्ञ:--हृदय को जानते हुए; प्रावोचत्--सम्बोधित किया;कर्दम:--कर्दम ने; स्वयम्--स्वयं
जब उन्होंने देखा कि देवहूति इतने विशाल, ऐश्वर्ययुक्त प्रासाद भवन को अप्रसन्नहृदय से देख रही है, तो कर्दम मुनि को उसकी भावनाओं का पता चला, क्योंकि वेकिसी के हृदय की बात जान सकते थे।
अतः उन्होंने अपनी पत्नी को स्वयं ही इस प्रकारसम्बोधित किया।
निमज्यास्मिन्हदे भीरु विमानमिदमारुह ।
इदं शुक्लकृतं तीर्थमाशिषां यापकं नृणाम् ॥
२३॥
निमज्य--स्नान करके; अस्मिन्--इसमें; हृदे--सरोवर में; भीरू--अरे डरपोक; विमानमू--विमान में; इृदम्ू--इस;आरुह--चढ़ जाओ; इदम्--यह; शुक्ल-कृतम्-- भगवान् विष्णु द्वारा निर्मित; तीर्थम्--पवित्र सरोवर; आशिषाम्--इच्छाओं को; यापकम्--देते हुए; नृणाम्--मनुष्यों की ।
प्रिये देवहूति, तुम इतनी भयभीत क्यों हो? पहले स्वयं भगवान् विष्णु द्वारा निर्मितबिन्दु-सरोवर में स्नान करो, जो मनुष्य की समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाला है औरतब इस विमान पर चढ़ो।
सा तद्धर्तु: समादाय बच: कुवलयेक्षणा ।
सरजं बिश्रती वासो वेणीभूतांश्व मूर्धजान् ॥
२४॥
सा--वह; तत्--तब; भर्तु:--अपने पति का; समादाय--स्वीकार करके; वच:--शब्द; कुवलय-ईक्षणा--कमलके समान नेत्र वाली; स-रजम्--मैली-कुचैली; बिभ्रती--पहने हुए; वास:--वस्त्र; वेणी-भूतान्ू--जटा तुल्य लटें;च--तथा; मूर्थ-जानू--बाल।
कमललोचना देवहूति ने अपने पति की आज्ञा मान ली।
मैले-कुचैले वस्त्रों तथा सिरपर बालों के जटों के कारण वह आकर्षक नहीं दिख रही थी।
अड़् च मलपड्लेन सज्छन्नं शबलस्तनम् ।
आविवेश सरस्वत्या: सर: शिवजलाशयम् ॥
२५॥
अड्डमू--शरीर; च--तथा; मल-पड्लेन--धूल से; सज्छन्नम्ू--ढकी; शबल--विवर्ण, कान्तिहीन; स्तनमू--वक्षस्थल;आविवेश-- प्रवेश किया; सरस्वत्या:--सरस्वती नदी के; सर:--सरोवर झील; शिव--पवित्र; जल--जल;आशयमू--युक्त |
उसके शरीर पर धूल की मोटी पर्त चढ़ी थी और उसके स्तन कान्तिहीन हो गये थे।
किन्तु उसने सरस्वती नदी के पवित्र जल से भरे सरोवर में डुबकी लगाई।
सान्तः सरसि वेश्मस्था: शतानि दश कन्यकाः ।
सर्वा: किशोरवयसो ददशॉत्पलगन्धय: ॥
२६॥
सा--उसने; अन्त:ः-- भीतर; सरसि--सरोवर में; वेश्म-स्था: --घर में स्थित; शतानि दश--एक हजार; कन्यका:--कन्याएँ; सर्वा:--समस्त; किशोर-वयस:--किशोर अवस्था की; दरदर्श--देखा; उत्पल--कमलों के समान;गन्धयः--सुगन्धित |
उसने सरोवर के भीतर एक घर में एक हजार कन्याएँ देखीं जो सब की सब अपनीकिशोरावस्था में थीं और कमलों के समान सुगन्धित थीं।
तां दृष्ठा सहसोत्थाय प्रोचु: प्राज्ञलयः स्त्रियः ।
वबयं कर्मकरीस्तुभ्यं शाधि न: करवाम किम् ॥
२७॥
तामू--उसको; दृष्टा--देखकर; सहसा--एकाएक; उत्थाय--उठकर; प्रोचु:--उन्होंने कहा; प्राज्ललयः--हाथ जोड़े;स्त्रियः:--स्त्रियाँ; वयम्--हम; कर्म-करी:ः--दासियाँ; तुभ्यम्--तुम्हारे लिए; शाधि--कृपा करके कहो; नः--हमको;'करवाम--हम कर सकती हैं; किमू--क्या।
उसे देखकर वे तरुणियाँ सहसा उठ खड़ी हुईं और हाथ जोड़कर कहा, ‘हमआपकी दासी हैं।
कृपा करके बताएँ कि हम आपके लिए क्या करें?!" स्नानेन तां महाहेण स्नापयित्वा मनस्विनीम् ।
दुकूले निर्मले नूत्ने ददुरस्थै च मानदा: ॥
२८॥
स्नानेन--नहाने के तेल से; तामू--उसको; महा-अर्हेण --बहूमूल्य; स्नापयित्वा--स्नान कराकर; मनस्विनीम्--सच्चरित्र पत्नी को; दुकूले--सुन्दर वस्त्र में; निर्मले--स्वच्छ; नूत्ते--नवीन; ददुः--दिया; अस्यै--उसको; च--तथा;मान-दाः--सम्मान करने वाली |
देवहूति के प्रति अत्यन्त सम्मान प्रदर्शित करने वाली कन्याएँ उसे बाहर लाई औरबहुमूल्य तेलों तथा उबटनों को लगाकर नहलाया और उसे महीन, निर्मल, नये वस्त्रपहनने को दिये।
भूषणानि परार्ध्यानि वरीयांसि द्युमन्ति च ।
अन्नं सर्वगुणोपेतं पानं चैवामृतासवम् ॥
२९॥
भूषणानि-- आभूषण; पर-अर्ध्यानि--अत्यन्त मूल्यवान; वरीयांसि-- श्रेष्ठ; द्युमन्ति--चमकीले; च--तथा; अन्नम्--भोजन; सर्व-गुण--समस्त सदगुण; उपेतम्--से युक्त; पानम्--पेय पदार्थ; च--तथा; एब-- भी; अमृत--मधुर;आसवमू--मादक
तब उन्होंने उसे उत्तम तथा बहुमूल्य आभूषणों से सजाया जो चमचमा रहे थे।
फिर उन्होंने सर्वगुण सम्पन्न भोजन तथा मधुर मादक पेय पदार्थ आसवम् प्रदान किया।
अथादर्शे स्वमात्मानं स्त्रग्विणं विरजाम्बरम् ।
विरजं कृतस्वस्त्ययनं कन्याभिर्बहुमानितम् ॥
३०॥
अथ--तब; आदर्शे--दर्पण में; स्वम् आत्मानम्-- अपने प्रतिबिम्ब को; सत्रकू-विणम्--माला से सजी; विरज--निर्मल; अम्बरम्--वस्त्र; विरजम््--मलरहित; कृत-स्वस्ति-अयनम्--शुभ-चिह्नों से अलंकृत; कन्याभि:--दासियोंद्वारा; बहु-मानितम्-- अत्यन्त आदरपूर्वक सेवित।
तब उसने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखा।
उसका शरीर समस्त प्रकार के मल सेरहित हो गया था और वह माला से सज्जित की गई थी।
वह निर्मल वस्त्र पहने थी औरशुभ तिलक से विभूषित थी।
दासियाँ उसकी अत्यन्त आदरपूर्वक सेवा कर रही थीं।
स्नातं कृतशिरःस्नानं सर्वाभरणभूषितम् ।
निष्कग्रीवं बलयिन॑ कूजत्काझ्नननूपुरम् ॥
३१॥
स्नातम्ू--स्नान किये; कृत-शिर:--सिर सहित; स्नानम्--नहाते हुए; सर्व--सर्वत्र; आभरण--आशभूषणों से;भूषितम्--अलंकृत; निष्क--लटकन से युक्त सोने का गले का हार; ग्रीवम्-गर्दन में; बलयिनम्--चूड़ियों से;कूजत्-ध्वनि करते; काझ्नन--सोने के बने; नूपुरमू--पायल।
सिर सहित उसका सारा शरीर नहलाया गया और उसके अंग-प्रत्यंग को आभूषणोंसे सजाया गया।
उसने लटकन से युक्त हार हार-हुमेल पहना था।
उसकी कलाइयों मेंचूड़ियाँ थीं और उसकी एड़ियों में सोने के खनकते पायल थे।
श्रोण्योरध्यस्तया काउ्च्या काझ्जन्या बहुरलया ।
हारेण च महाहँण रूचकेन च भूषितम् ॥
३२॥
श्रोण्यो: --कटि-भाग पर; अध्यस्तया--पहने हुए; काउ्च्या--करधनी से; काञझ्नन्या--सोने की; बहु-रलया-- अनेकरत्नों से भूषित; हरेण--मोती के हार से; च--तथा; महा-अ्हेण--बहुमूल्य; रुचकेन--शुभ समाग्रियों से; च--तथा; भूषितम्--सज्जित
उसने कमर में अनेक रत्नों से जटित सोने की करधनी पहन रखी थी; वह बहुमूल्यमोतियों के हार तथा मंगल-द्र॒व्यों से सुसज्जित थी।
सुदता सुभ्रुवा एलक्ष्णस्निग्धापाड्रेन चक्षुषा ।
पद्मयकोशस्पृधा नीलैरलकैश्व लसन्मुखम् ॥
३३॥
सुदता--सुन्दर दाँतों वाली; सु-भ्रुवा--मनोहर भौहों वाली; श्लक्ष्ण--सुन्दर; स्निग्ध--गीली; अपाड्रेन--तिरछीचितवन से; चक्षुषा--आँखों से; पद्य-कोश--कमल की कलियाँ; स्पृधा--परास्त करने वाली; नीलैः--नीली-नीली;अलकै:--घुँघराले बाल से; च--तथा; लसत्--चमकती हुई; मुखम्--मुख।
उसका मुखमण्डल सुन्दर दाँतों तथा मनोहर भौहों से चमक रहा था।
उसके नेत्रसुन्दर स्निग्ध कोरों से स्पष्ट दिखाई पड़ने के कारण कमल कली की शोभा को मातकरते थे।
उसका मुख काले घुँघराले बालों से घिरा हुआ था।
यदा सस्मार ऋषभमृषीणां दयितं पतिम् ।
तत्र चास्ते सह स्त्रीभिर्यत्रास्ते स प्रजापति: ॥
३४॥
यदा--जब; सस्मार-- स्मरण किया; ऋषभम्--अग्रगण्य; ऋषीणाम्--ऋषियों में; दयितम्--प्रिय; पतिम्--पति;तत्र--वहाँ; च--तथा; आस्ते--उपस्थित थी; सह--साथ; स्त्रीभि:--दासियों के; यत्र--जहाँ; आस्ते--उपस्थित था;सः--वह; प्रजापति:--प्रजापति कर्दम
जब उसने ऋषियों में अग्रगण्य अपने परम प्रिय पति कर्दम मुनि का स्मरण किया,तो वह अपनी समस्त दासियों सहित वहाँ प्रकट हो गई जहाँ मुनि थे।
भर्तुः पुरस्तादात्मानं स्त्रीसहस्त्रवृतं तदा ।
निशाम्य तद्योगगतिं संशयं प्रत्यपद्मयत ॥
३५॥
भर्तुः--अपने पति की; पुरस्तात्ू--उपस्थिति में, समक्ष; आत्मानम्--स्वयं को; स्त्री-सहस्त्र--एक हजार दासियों से;वृतम्ू--घिरी; तदा--तब; निशाम्य--देखकर; तत्-- उसका; योग-गतिम्--योगशक्ति; संशयम् प्रत्यपद्मत-- वहचकित हुई।
अपने पति की उपस्थिति में अपने चारों ओर एक हजार दासियाँ और पति कीयोगशक्ति देखकर वह अत्यन्त चकित थी।
सतां कृतमलस्नानां विभ्राजन्तीमपूर्ववत् ।
आत्मनो बिश्षतीं रूपं संवीतरुचिरस्तनीम् ॥
३६॥
विद्याधरीसहस्त्रेण सेव्यमानां सुवाससम् ।
जातभावो विमान तदारोहयदमित्रहन् ॥
३७॥
सः--मुनि; ताम्--उसको देवहूति को ; कृत-मल-स्नानाम्--स्वच्छ स्नान किये हुए; विश्राजन्तीमू--चमकती हुई;अपूर्व-वबत्--अतुलनीय; आत्मन:--उसका निजी; बिभ्रतीमू--से युक्त; रूपम्--सौंदर्य; संवीत--कसे हुए; रुचिर--मोहक; स्तनीम्--वक्षस्थलों वाली; विद्याधरी --गंधर्वकुमारियों से; सहस्त्रेण--एक हजार; सेव्यमानाम्--सेवित; सु-वाससमू-- श्रेष्ठ वस्त्रों से युक्त; जात-भाव: -- भाव से विभोर; विमानम्--प्रासाद जैसा विमान; तत्--उस;आरोहयत्--उसे चढ़ा लिया; अमित्र-हन्ू--हे शत्रुओं के नाशकर्ता |
मुनि ने देखा कि देवहूति ने स्नान कर लिया है और चमक रही है मानो वह उनकीपहले वाली पत्नी नहीं है।
उसने राजकुमारी जैसा अपना पूर्व सौन्दर्य पुन: प्राप्त कर लियाथा।
वह श्रेष्ठ वस्त्रों से आच्छादित सुन्दर वक्षस्थलों वाली थी।
उसकी आज्ञा के लिए एकहजार गंधर्व कन्याएँ खड़ी थीं।
हे शत्रुजित, मुनि को उसकी चाह उत्पन्न हुई और उन्होंनेउसे हवाई-प्रासाद में चढ़ा लिया।
तस्मिन्नलुप्तमहिमा प्रिययानुरक्तोविद्याधरीभिरुपचीर्णवपुर्विमाने ।
बश्राज उत्कचकुमुद्गणवानपीच्य-स्ताराभिरावृत इवोडुपतिर्नभःस्थ: ॥
३८ ॥
तस्मिन्ू--उसमें; अलुप्त--बिना खोये हुए; महिमा--यश; प्रियया--अपनी प्रियतमा के साथ; अनुरक्त:--लुब्ध;विद्याधरीभि:--गंधर्व कनन््याओं से; उपचीर्ण --सेवित; वपु:--शरीर; विमाने--विमान में; बच्राज--चमकता था;उत्कच--खुला; कुमुत्-गणवान्--चन्द्रमा जिससे कुमुदिनियाँ खिलती हैं; अपीच्य:--अत्यन्त आकर्षक; ताराभि: --तारागणों से; आवृतः--घिरा हुआ; इब--जिस प्रकार; उडु-पतिः--चन्द्रमा नक्षत्रों में मुख्य ; नभः-स्थ:--आकाशमें
अपनी प्रिया पर अत्यधिक अनुरक्त रहने तथा गंधर्व-कन्याओं द्वारा सेवित होने परभी मुनि की महिमा कम नहीं हुई, क्योंकि उनको अपने पर नियंत्रण प्राप्त था।
उसहवाई-प्रासाद में कर्दम मुनि अपनी प्रिया के साथ इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानोआकाश में नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा हो, जिससे रात्रि में जलाशयों में कुमुदिनियाँ खिलतीहैं।
तेनाष्टलोकपविहारकुलाचलेन्द्र -द्रोणीष्वनड्सखमारुतसौभगासु ।
सिद्धैर्नुतो द्युधुनिषातशिवस्वनासुरेमे चिरें धनदवलललनावरूथी ॥
३९॥
तेन--उस विमान से; अष्ट-लोक-प--आठों स्वर्गलोकों के मुख्य देवताओं का; विहार-- भ्रमणस्थली; कुल-अचल-इन्द्र--पर्वतों के राजा मेरु की; द्रोणीषु--घाटियों में; अनड़---कामदेव का; सख--साथी; मारुत--वायु से;सौभगासु--सुन्दर; सिद्धैः--सिद्धों के द्वारा; नुतः--प्रशंसित; द्यु-धुनि--गंगा की; पात--गिरने की; शिव-स्वनासु--मंगलध्वनि से हिलती; रेमे--सुख भोगा; चिरम्--दीर्घकाल तक; धनद-वत्--कुबेर के समान; ललना--कन्याओं से; बरूथी --घिरे हुए
उस हवाई-प्रासाद में आरूढ़ हो वे मेरु पर्वत की सुखद घाटियों में भ्रमण करते रहेजो शीतल, मन्द तथा सुगन्ध वायु से अधिक सुन्दर होकर कामवासना को उत्तेजित करनेवाली थी।
इन घाटियों में देवताओं का धनपति कुबेर सुन्दरियों से घिरा रहकर औरसिद्धों द्वारा प्रशंसति होकर आनन्द लाभ उठाता है।
कर्दम मुनि भी अपनी पत्नी तथा उनसुन्दर कन्याओं से घिरे हुए वहाँ गये और अनेक वर्षो तक सुख-भोग किया।
वैश्रम्भके सुरसने नन्दने पुष्पभद्रके ।
मानसे चेत्ररथ्ये च स रेमे रामया रत: ॥
४०॥
वैश्रम्भके --वै श्रम्भक उद्यान में; सुरसने--सुरसन में; नन्दने--नन्दन में; पुष्पभद्रके -- पुष्पभद्रक में; मानसे--मानसरोवर के तट पर; चैत्ररथ्ये--चैत्रपथ में; च--तथा; सः--वह; रेमे-- भोग करता रहा; रामया--अपनी पत्नी से;रतः-तुष्ट |
अपनी पतली से संतुष्ट होकर वे उस विमान में न केवल मेरु पर्वत पर ही वरन्वैश्रम्भक, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्रक तथा चेत्ररथ्या में और मानसरोवर के तट पर भीविहार करते रहे।
भ्राजिष्णुना विमानेन कामगेन महीयसा ।
वैमानिकानत्यशेत चरेल्लोकान्यथानिल: ॥
४१॥
भ्राजिष्णुना--कान्तिमान; विमानेन--विमान से; काम-गेन--इच्छानुसार उड़ने वाला; महीयसा--अत्यधिक;वैमानिकान्--अपने विमान में स्थित देवतागण; अत्यशेत--आगे बढ़ गया; चरन्--यात्रा करते हुए; लोकान्ू--लोकोंसे होकर; यथा--जिस प्रकार; अनिल:--वायु |
वे रास्ते में विभिन्न लोकों से होकर उसी तरह यात्रा करते रहे जिस प्रकार वायुप्रत्येक दिशा में अबाध रूप से चलती रहती है।
उसी महान् तथा कान्तिमान हवाई-प्रासादमें, जो उनकी इच्छानुसार उड़ सकता था, बैठकर वे देवताओं से बाजी मार ले गये।
कि दुरापादन तेषां पुंसामुद्यामचेतसाम् ।
यैराभश्रितस्तीर्थपदश्चरणो व्यसनात्यय: ॥
४२॥
किमू्--क्या; दुरापादनम्--प्राप्त करना कठिन, दुर्लभ; तेषाम्--उनके लिए; पुंसाम्--मनुष्यों को; उद्दाम-चेतसाम्--जो हृढ़ संकल्प हैं; यै:--जिनके द्वारा; आश्रित:--शरण ली गई है; तीर्थ-पदः-- श्रीभगवान् के; चरण: --पाँव;व्यसन-अत्यय:-- भव-भय को हरने वाले
जिन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के चरण-कमलों की शरण प्राप्त कर ली है उनहढ़प्रतिज्ञ मनुष्यों के लिए कौन सी वस्तु दुर्लभ है? उनके चरण तो गंगा जैसी पवित्र नदीके उद्गम हैं, जिनसे सांसारिक जीवन के समस्त अनिष्ट दूर हो जाते हैं।
प्रेक्षयित्वा भुवो गोलं पल्ये यावान्स्वसंस्थया ।
बह्लाश्चर्य महायोगी स्वाश्रमाय न्यवर्तत ॥
४३॥
प्रेक्षयित्वा-- दिखलाकर; भुव:--ब्रह्माण्ड का; गोलमू--गोलक; पल्यै-- अपनी पत्नी को; यावान्ू--जितना भी;स्व-संस्थया--अपनी रचना सहित; बहु-आश्चर्यम्ू--अनेक आश्चर्यो से पूर्ण; महा-योगी--परमयोगी कर्दम ; स्व-आश्रमाय--अपने आश्रम को; न्यवर्तत--लौट आया।
अपनी पत्नी को अनेक आश्चर्यों से पूर्ण ब्रह्माण्ड गोलक तथा इसकी रचना दिखलाकर परमयोगी कर्दम मुनि अपने आश्रम को लौट आये।
विभज्य नवधात्मानं मानवीं सुरतोत्सुकाम् ।
रामां निरमयच्नेमे वर्षपूगान्मुहूर्ततत् ॥
४४॥
विभज्य--विभक्त करके; नव-धा--नौ रूपों में; आत्मानम्--स्वयं को; मानवीम्--मनु की पुत्री देवहूति ; सुरत--संभोग के लिए; उत्सुकाम्--अत्यन्त इच्छुक; रामामू--अपनी पत्नी को; निरमयन्--आनन्द प्रदान करते हुए; रेमे --सुख भोगा; वर्ष-पूगान्ू--अनेक वर्षो तक; मुहूर्तवत्--एक क्षण के सृदश |
अपने आश्रम लौटने पर उन्होंने मनु की पुत्री देवहूति के सुख लिए, जो रति सुख केलिए अत्यधिक उत्सुक थी, अपने आपको नौ रूपों में विभक्त कर लिया।
इस प्रकार उन्होंने उसके साथ अनेक वर्षों तक विहार किया, जो एक क्षण के समान व्यतीत होगये।
तस्मिन्विमान उत्कृष्टां शय्यां रतिकरीं थ्रिता ।
न चाबुध्यत तं काल पत्यापीच्येन सड़ता ॥
४५॥
तस्मिनू--उस; विमाने--विमान में; उत्कृष्टाम्-सर्व श्रेष्ठ; शय्याम्ू--सेज; रति-करीम्--कामेच्छा को बढ़ाने वाली;भ्रिता--स्थित; न--नहीं; च--तथा; अबुध्यत--उसने ध्यान दिया; तमू--उस; कालम्--समय; पत्या--अपने पतिके साथ; अपीच्येन--अत्यन्त मनोहर; सड्भगता--संगति में, साथ में ।
उस विमान में, देवहूति अपने पति के साथ उत्कृष्ट एवं कामेच्छा बढ़ाने वाली सेज मेंस्थित रह कर जान भी न पाई कि कितना समय कैसे बीत गया।
एवं योगानुभावेन दम्पत्यो रममाणयो: ।
शतं व्यतीयु: शरद: कामलालसयोर्मनाक् ॥
४६॥
एवम्--इस प्रकार; योग-अनु भावेन--योगशक्ति से; दम्-पत्यो: --पति-पत्नी; रममाणयो: --स्वयं आनन्द भोगते हुए;शतम्--एक सौ; व्यतीयु:--बीते; शरद: --शरद ऋतुएँ; काम--रतिसुख; लालसयो:--जो लालायित थे; मनाक्--अल्प समय के समान।
रति सुख के उत्कट इच्छुक पति-पत्नी योग शक्तियों के बल पर विहार करते रहेऔर एक सौ वर्ष अल्प काल के समान व्यतीत हो गये।
तस्यामाधत्त रेतस्तां भावयन्नात्मनात्मवित् ।
नोधा विधाय रूप॑ स्व॑ सर्वसट्डल्पविद्विभु: ॥
४७॥
तस्याम्--उसमें; आधत्त--स्थापित किया; रेत:--वीर्य; तामू--उसको; भावयन्--मानते हुए; आत्मना--अपनीअर्धाड्रिनी के रूप में; आत्म-वित्-- आत्मा का ज्ञाता; नोधा--नौ में; विधाय--विभक्त करके; रूपमू--शरीर;स्वम्--अपने; सर्व-सड्डूल्प-वित्ू--समस्त इच्छाओं के ज्ञाता; विभु:--अत्यन्त शक्तिमान कर्दम।
शक्तिमान कर्दम मुनि सबों के मन की बात जानने वाले थे और जो कुछ माँगे उसेवही प्रदान कर सकते थे।
आत्मा के ज्ञाता होने के कारण वे देवहूति को अपनीअर्धाड्रिनी मानते थे।
अपने आपको नौ रूपों में विभक्त करके उन्होंने देवहूति के गर्भ मेंनौ बार वीर्यपात किया।
अतः सा सुषुवे सद्यो देवहूतिः स्त्रिय: प्रजा: ।
सर्वास्ताश्चारुसर्वाड्ग्यो लोहितोत्पलगन्धयः ॥
४८ ॥
अतः--तब; सा--उसने; सुषुवे--जन्म दिया; सद्यः--एक ही दिन; देवहूति:--देवहूति ने; स्त्रियः--स्त्रियाँ; प्रजा: --सन््तान; सर्वा:--सभी; ता:--वे; चारु-सर्व-अड्ग्य: --सर्वाग सुन्दर; लोहित--लाल; उत्पल--कमल के समान;गन्धयः--सुगन्धित |
उसके तुरन्त बाद उसी दिन देवहूति ने नौ कन््याओं को जन्म दिया जिनके अंग अंगसुन्दर थे और उनसे लाल कमल की सी सुगन्धि निकल रही थी।
पतिं सा प्रव्नजिष्यन्तं तदालक्ष्योशती बहिः ।
स्मयमाना विक्लवेन हृदयेन विदूयता ॥
४९॥
पतिम्--उसका पति; सा--वह; प्रत्नजिष्यन्तम्-घर छोड़ने को तत्पर; तदा--तब; आलक्ष्य--देखकर; उशती--सुन्दर; बहिः--बाहर से; स्मयमाना--हँसती हुई; विक्लवेन--विचलित, विकल; हृदयेन--हृदय से; विदूयता--संतप्त |
जब उसने देखा कि उसके पति गृह-त्याग करने ही वाले हैं, तो वह बाहर से हँसी,किन्तु हृदय में अत्यन्त विकल और सन्तप्त थी।
लिखन्त्यधोमुखी भूमिं पदा नखमणिश्रिया ।
उवाच ललितां वाचं निरुध्याश्रुकलां शनैः ॥
५०॥
लिखन्ती--कुरेदती हुई; अध:-मुखी--अपना मुँह नीचे किये; भूमिम्--पृथ्वी को; पदा--अपने पाँव से; नख--नाखूनों; मणि--मणि के तुल्य; भ्रिया--दमक से; उबाच--वह बोली; ललिताम्--मोहक; वाचम्--वाणी;निरुध्य--रोक कर; अश्रु-कलाम्--आँसू; शनैः-- धीरे-धीरे वह खड़ी थी और मणितुल्य नाखूनों से मण्डित अपने पैर से पृथ्वी को कुरेद रहीथी।
उसका सिर झुका था और वह अपने आँसुओं को रोककर धीरे-धीरे मोहक वाणी सेबोली।
देवहूतिरुवाचसर्व तद्धभगवान्मह्ममुपोवाह प्रतिश्रुतम् ।
अथापि मे प्रपन्नाया अभयं दातुमहसि ॥
५१॥
देवहूति:--देवहूति ने; उबाच--कहा; सर्वम्--सभी; तत्--वह; भगवानू्--हे भगवान्; महाम्--मेंरे लिए;उपोवाह--पूर्ण हुईं; प्रतिश्रुतम्--वचन दिया; अथ अपि--फिर भी; मे--मुझको; प्रपन्नायै--शरणागत को;अभयम्--निर्भीकता; दातुमू-देने के लिए; अहसि--योग्य हो |
देवहूति ने कहा-हे स्वामी, आपने जितने वचन दिये थे वे सब पूर्ण हुए, किन्तु मैंआपकी शरणागत हूँ इसलिए मुझे अभयदान भी दें।
ब्रह्मन्दुहितृभिस्तु भ्यं विमृग्या: पतय: समा: ।
कश्रित्स्यान्मे विशोकाय त्वयि प्रव्नजिते वनम् ॥
५२॥
ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; दुहितृभि:--कन्याओं के द्वारा; तुभ्यम्--तुम्हारे लिए; विमृग्या:--ढूँढे जाने के हुए; पतय:--पति;समा:--उपयुक्त; कश्चित्--कोई; स्थात्ू--होना चाहिए; मे--मेरा; विशोकाय--सान्त्वना के लिए; त्वयि--तुम्हारे;प्रत्रजिते--जा चुकने पर; वनम्--जंगल को
हे ब्राह्मण, जहाँ तक आपकी पुत्रियों का प्रश्न है, वे स्वयं ही अपने योग्य वर ढूँढलेंगी और अपने अपने घर चली जाएँगी।
किन्तु आपके संन्यासी होकर चले जाने पर मुझेकौन सान्त्वना देगा?
एतावतालं कालेन व्यतिक्रान्तेन मे प्रभो ।
इन्द्रियार्थप्रसड्रेन परित्यक्तपरात्मन: ॥
५३॥
एतावता--इतना; अलमू--व्यर्थ ही; कालेन--समय; व्यतिक्रान्तेन--बीतने पर; मे--मेरा; प्रभो--हे स्वामी; इन्द्रिय-अर्थ--इन्द्रिय-तृप्ति; प्रसड़ेन--रतिक्रीड़ा में; परित्यक्त--परवाह न करके, उपेक्षा करके; पर-आत्मन:--परमेश्वर काज्ञान
अभी तक हमने अपना सारा समय परमेश्वर के ज्ञान के अनुशीलन की उपेक्षा करकेइन्द्रियतृप्ति में ही व्यर्थ गँवाया है।
इन्द्रियार्थेषु सज्नन्त्या प्रसड़स्त्वयि मे कृतः ।
अजानन्त्या पर भावं तथाप्यस्त्वभयाय मे ॥
५४॥
इन्द्रिय-अर्थषु--इन्द्रियतृप्ति हेतु; सज्जन्त्या--अनुरक्त रह कर; प्रसड्र:-- आकर्षण; त्वयि--तुम्हारे लिए; मे--मेरेद्वारा; कृत:--किया गया था; अजानन्त्या--न जानते हुए; परम् भावम्--आपकी दिव्य स्थिति; तथा अपि--तो भी;अस्तु--होवे; अभयाय-- भय दूर करने के लिए; मे--मेरा
आपकी दिव्य स्थिति पद से परिचित न होने के कारण ही मैं इन्द्रियों के विषयोंमें लिप्त रह कर आपको प्यार करती रही।
तो भी मैंने आपके लिए जो आकर्षण अनुराग उत्पन्न कर लिया है, वह मेरे समस्त भय को दूर करे।
सझ्े यः संसूतेहँतुरसत्सु विहितोधिया ।
स एव साधुषु कृतो निःसड्भत्वाय कल्पते ॥
५५॥
सड्ड--संगति; यः--जो; संसूते:--जन्म-मृत्यु के चक्र का; हेतु:--कारण; असत्सु--इन्द्रिय-तृप्ति में लगे रहने वालोंके साथ; विहित:--किया गया; अधिया--अविद्या से; सः--वही वस्तु; एव--निश्चय ही; साधुषु--साधु पुरुषों केसाथ; कृत:--किया गया; निःसड््त्वाय--मुक्ति के लिए; कल्पते--ले जाता है
इन्द्रियतृप्ति हेतु संगति निश्चय ही बन्धन का मार्ग है।
किन्तु जब वही संगति किसीसाधु पुरुष से की जाती है, तो भले ही वह अनजाने में की जाय, मुक्ति के मार्ग पर लेजाने वाली है।
नेह यत्कर्म धर्माय न विरागाय कल्पते ।
न तीर्थपदसेवाय जीवन्नपि मृतो हि सः ॥
५६॥
न--नहीं; इह--यहाँ; यत्--जो; कर्म--कार्य; धर्माय--धार्मिक जीवन की सिद्धि के लिए; न--नहीं; विरागाय--विरक्ति के लिए; कल्पते--ले जाता है; न--नहीं; तीर्थ-पद-- भगवान् के चरणकमलों का; सेवायै-- भक्ति के लिए;जीवनू--जीवित रह कर; अपि--यद्यपि; मृतः--मरा हुआ; हि--निश्चय ही; सः--वह
जिस पुरुष के कर्म से न तो धार्मिक जीवन का उत्कर्ष होता है, न जिसके धार्मिकविधि-विधानों से उसे वैराग्य प्राप्त हो पाता है और वैराग्य प्राप्त पुरुष यदि श्रीभगवान्की भक्ति को प्राप्त नहीं होता, तो उसे जीवित होते हुए भी मृत मानना चाहिए।
साहं भगवतो नूनं वद्धिता मायया हढम् ।
यच्त्वां विमुक्तिदं प्राप्य न मुमुक्षेय बन्धनात् ॥
५७॥
सा--वही व्यक्ति; अहम्--मैं; भगवत:-- भगवान् की; नूनम्-- अवश्य ही; वश्चिता--ठगी गई; मायया--माया केद्वारा; हढम्--हढ़तापूर्वक; यत्-- क्योंकि; त्वामू--तुमको; विमुक्ति-दम्--मुक्तिदाता; प्राप्प--प्राप्त करके; नमुमुक्षेय--मैंने मुक्ति की याचना नहीं की; बन्धनात्ू-- भवबन्धन से |
हे स्वामी, मैं निश्चित रूप से श्रीभगवान् की अलंघ्य माया द्वारा बुरी तरह से ठगी हुईहूँ, क्योंकि भवबन्धन से मुक्ति दिलाने वाली आपकी संगति में रह कर भी मैंने मुक्ति कीचाहत नहीं की।
अध्याय चौबीस: कर्दम मुनि का त्याग
3.24मैत्रेय उवाचनिर्वेदवादिनीमेवं मनोर्दुहितरं मुनि: ।
दयालु: शालिनीमाहशुक्लाभिव्याहतं स्मरन् ॥
१॥
मैत्रेय:--परम साधु मैत्रेय ने; उवाच--कहा; निर्वेद-वादिनीम्ू--वैराग्य से युक्त बातें करने वाली; एवम्--इस प्रकार;मनो:--स्वायंभुव मनु की; दुहितरम्--पुत्री को; मुनिः--कर्दम मुनि ने; दयालु:--दयालु; शालिनीम्ू-- प्रशंसा कीपात्र; आह--कहा; शुक्ल-- भगवान् विष्णु द्वारा; अभिव्याहतम्--कथित; स्मरन्--स्मरण करते हुए।
भगवान् विष्णु के वचनों का स्मरण करते हुए कर्दम मुनि ने वैराग्यपूर्ण बातें करनेवाली, स्वायंभुव मनु की प्रशंसनीय पुत्री देवहूति से इस प्रकार कहा।
ऋषिरुवाचमा खिदो राजपुत्रीत्थमात्मानं प्रत्यनिन्दिते ।
भगवांस्तेक्षरों गर्भमदूरात्सम्प्रपत्स्यते ॥
२॥
ऋषि: उवाच--ऋषि ने कहा; मा खिदः--निराश मत हो; राज-पुत्रि--हे राजकुमारी; इत्थम्--इस प्रकार;आत्मानम्--अपने; प्रति--प्रति; अनिन्दिते--हे प्रशंसनीय देवहूति; भगवान्-- श्रीभगवान्; ते--तुम्हारे; अक्षर: --अविनाशी; गर्भम्--गर्भ में; अदूरात्ू--देर किये बिना, शीघ्र; सम्प्रपत्स्यते--प्रवेश करेंगे।
मुनि ने कहा-हे राजकुमारी, तुम अपने आपसे निराश न हो।
तुम निस्सन्देहप्रशंसनीय हो।
अविनाशी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् शीघ्र ही पुत्र रूप में तुम्हारे गर्भ मेंप्रवेश करेंगे।
धृतव्रतासि भद्गं ते दमेन नियमेन च ।
तपोद्गविणदानैश्व श्रद्धया चेश्वरं भज ॥
३॥
धृत-ब्रता असि--तुमने पवित्र व्रत ले रखा है; भद्रम् ते--ई श्वर तुम्हारा कल्याण करे; दमेन--इन्द्रियों को वश मेंकरके; नियमेन--धर्म के पालन से; च--तथा; तपः--तपस्या; द्रविण-- धन का; दानै:--दान करने से; च--तथा;श्रद्धया-- श्रद्धा से; च--तथा; ई श्वरम्--परमे ध्वर को; भज-- पूजा करोतुमने पवित्र व्रत धारण किये हैं।
ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे।
अब तुम ईश्वर की पूजाअत्यन्त श्रद्धा, संयम, नियम, तप तथा अपने धन के दान द्वारा करो।
स त्वयाराधित: शुक्लो वितन्वन्मामकं यश: ।
छेत्ता ते हृदयग्रन्थिमौदर्यों ब्रह्मभावन: ॥
४॥
सः--वह; त्वया--तुम्हारे द्वारा; आराधित: --पूजित होकर; शुक्ल:-- श्रीभगवान्; वितन्वन्--विस्तार करते हुए;मामकमू--मेरा; यशः--यश ; छेत्ता--वे काट देंगे; ते--तुम्हारे; हदय--हृदय की; ग्रन्थिम्--गाँठ; औदर्य:--तुम्हारापुत्र; ब्रह्य--ब्रह्मज्ञान; भावन: --शिक्षा देते हुए।
तुम्हारे द्वारा पूजित होकर श्रीभगवान् मेरे नाम तथा यश का विस्तार करेंगे।
वे तुम्हारेपुत्र बनकर तथा तुम्हें ब्रह्मज्षान की शिक्षा देकर तुम्हारे हृदय में पड़ी गाँठ को छिन्न करदेंगे।
मैत्रेय उवाचदेवहूत्यपि सन्देशं गौरवेण प्रजापते: ।
सम्यक्श्रद्धाय पुरुष कूटस्थमभजद्गुरुम् ॥
५॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; देवहूती--देवहूति; अपि-- भी; सन्देशम्-- आदेश; गौरवेण--- आदरपूर्वक ;प्रजापतेः:--कर्दम का; सम्यक् --पूर्ण; श्रद्धाय-- श्रद्धापूर्वक; पुरुषम्--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्; कूट-स्थम्-- प्रत्येकके हृदय में स्थित; अभजत्--पूजा की; गुरुम्--अत्यन्त पूज्य |
श्री मैत्रेय ने कहा-देवहूति में अपने पति कर्दम के आदेश के प्रति अत्यन्त श्रद्धातथा सम्मान था, क्योंकि वे ब्रह्माण्ड में मनुष्यों के उत्पन्न करने वाले प्रजापतियों में सेएक थे।
हे मुनि, इस प्रकार वह ब्रह्माण्ड के स्वामी घट-घट के वासी श्रीभगवान् कीपूजा करने लगी।
तस्यां बहुतिथे काले भगवान्मधुसूदन: ।
कार्दमं वीर्यमापन्नो जज्ञेउग्निरिव दारुणि ॥
६॥
तस्याम्ू--देवहूति में; बहु-तिथे काले--अनेक वर्षों बाद; भगवान्--पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्; मधु-सूदन:--मधु असुरके संहारक; कार्दमम्--कर्दम; वीर्यम्--वीर्य में; आपन्न:--प्रविष्ट किया; जज्ञे-- प्रकट हुआ; अग्नि:--आग; इब--समान; दारुणि-काष्ट में
अनेक वर्षो बाद मधुसूदन अर्थात् मधु नामक असुर के संहारकर्ता, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कर्दम मुनि के वीर्य में प्रविष्ठ होकर देवहूति के गर्भ में उसी प्रकार प्रकट हुएजिस प्रकार किसी यज्ञ के काष्टठ में से अग्नि उत्पन्न होती है।
अवादयंस्तदा व्योम्नि वादित्राणि घनाघना: ।
गायन्ति तं सम गन्धर्वा नृत्यन्त्यप्सससो मुदा ॥
७॥
अवादयनू--बजाते हुए; तदा--उस समय; व्योम्नि--आकाश में; वादित्राणि--वाद्ययंत्र, बाजे; घनाघना:--बादल;गायन्ति--गाने लगे; तमू--उसको; स्म--निश्चय ही; गन्धर्वा:--गंधर्वगण; नृत्यन्ति--नाचने लगे; अप्सरस: --अप्सराएँ; मुदा--आनन्दित होकर
पृथ्वी पर उनके अवतरित होते समय, आकाश में देवताओं ने वाद्ययंत्रों के रूप मेंजल बरसाने वाले मेघों से वाद्यसंगीत की सी ध्वनियाँ बजायी।
स्वर्गिक गवैये गंधर्वगण भगवान् की महिमा का गान करने लगे और अप्सराओं के नाम से प्रसिद्ध स्वर्गिकनर्तकियाँ आनन्द विभोर होकर नाचने लगीं।
पेतु: सुमनसो दिव्या: खेचरैरपवर्जिता: ।
प्रसेदुश्न॒ दिश: सर्वा अम्भांसि च मनांसिच ॥
८॥
पेतु:--गिरे, बरसे; सुमनस:--फूल; दिव्या:--सुन्दर; खे-चरैः --आकाशचारी देवताओं द्वारा; अपवर्जिता:--गिरायेगये; प्रसेदु:--संतुष्ट हुआ; च--तथा; दिश:--दिशाएँ; सर्वा:ः--सभी; अम्भांसि--जल; च--तथा; मनांसि--मन;च-यथा।
भगवान् के प्राकट्य के समय आकाश में मुक्त रुप से विचरण करनेवाले देवताओंने फूल बरसाये।
सभी दिशाएँ, सभी सागर तथा सबों के मन परम प्रसन्न हुए।
तत्कर्दमाश्रमपदं सरस्वत्या परिश्रितम् ।
स्वयम्भू: साकमृषिभिर्मरीच्यादिभिरभ्ययात् ॥
९॥
तत्--वह; कर्दम--कर्दम के; आश्रम-पदम्--आश्रम के स्थान पर; सरस्वत्या--सरस्वती नदी के द्वारा; परिश्रितम्--घिरा हुआ; स्वयम्भू:--ब्रह्मा आत्म-जन्मा ; साकम्--साथ; ऋषिभि:--ऋषियों के; मरीचि--मरीचि मुनि;आदिभि:--तथा अन्य; अभ्ययात्--वहाँ आये
सर्वप्रथम सृजित जीव ब्रह्मा मरीचि तथा अन्य मुनियों के साथ कर्दम के आश्रम गये,जो सरस्वती नदी से चारों ओर से घिरा था।
भगवत्तं परं ब्रह्म सत्त्वेनांशेन शत्रुहन् ।
तत्त्वसड्ख्यानविज्ञप्त्यै जातं विद्वानज: स्वराट् ॥
१०॥
भगवन्तम्-- भगवान्; परमू-- परम; ब्रह्म --ब्रह्म; सत्त्वेन--कल्मषरहित अस्तित्व वाला; अंशेन--अंश से; शत्रु-हन्--हे शत्रुओं के संहारक, विदुर; तत्त्व-सड्ख्यान--चौबीस भौतिक तत्त्वों का दर्शन; विज्ञप्त्य--व्याख्या के लिए;जातम्- उत्पन्न; विद्वानू--ज्ञाता; अजः--अजन्मा ब्रह्मा ; स्व-राट्ू-स्वच्छन्द |
मैत्रेय ने आगे कहा-हे शत्रुओं के संहारक, ज्ञान प्राप्त करने में प्राय: स्वच्छन्द,अजन्मा ब्रह्मजी समझ गये कि श्रीभगवान् का एक अंश अपने कल्मषरहि अस्तित्व में,सांख्ययोग रूप में समस्त ज्ञान की व्याख्या के लिए देवहूति के गर्भ से प्रकट हुआ है।
सभाजयन्विशुद्धेन चेतसा तच्चिकीर्षितम् ।
प्रहष्यमाणैरसुभि: कर्दमं चेदमभ्यधात् ॥
११॥
सभाजयन्ू--पूजा करते हुए; विशुद्धेन--विशुद्ध; चेतसा--हृदय से; तत्-- श्री भगवान् का; चिकीर्षितम्--वांछितकार्यकलाप; प्रहृष्यमाणै:--प्रमुदित; असुभि:--इन्द्रियों से; कर्दमम्--कर्दम मुनि; च--तथा देवहूति से; इदम्--यह;अभ्यधात्--कहा |
अवतार रुप में भगवान के अभिप्रेत कार्यकलापों के लिए प्रमुदित इन्द्रियों तथाविशुद्ध हृदय से परमेश्वर की पूजा करके, ब्रह्माजी ने कर्दम तथा देवहूति से इस प्रकारकहा।
ब्रह्मोवाचत्वया मेपचितिस्तात कल्पिता निर्व्यलीकतः ।
यन्मे सझ्जगृहे वाक्यं भवान्मानद मानयन् ॥
१२॥
ब्रह्मा--ब्रह्माजी ने; उबाच--कहा; त्वया--तुम्हारे द्वारा; मे--मेरा; अपचिति: --पूजा; तात-हे पुत्र; कल्पिता--सम्पन्न; निर्व्यलीकत:--बिना द्वैत के; यत्--चूँकि; मे--मेरा; सझ्जगृहे-- पूर्णतया स्वीकार किया है; वाक्यम्--उपदेश; भवान्ू--आप; मान-द-हे कर्दम अन्यों का सम्मान करने वाले ; मानयन्ू--आदर करते हुए।
ब्रह्माजी ने कहा : प्रिय पुत्र कर्दम, चूँकि तुमने मेरे उपदेशों का आदर करते हुए उन्हेंबिना किसी द्वैत के स्वीकार किया है, अतः तुमने मेरी समुचित तरह से पूजा की है।
तुमनेमेरे सारे उपदेशों का पालन किया है, ऐसा करके तुमने मेरा सम्मान किया है।
एतावत्येव शुश्रूषा कार्या पितरि पुत्रकै: ।
बाढमित्यनुमन्येत गौरवेण गुरोर्वच: ॥
१३॥
एतावती--इस हद तक; एव--ठीक ठीक; शुश्रूषा--सेवा; कार्या--करनी चाहिए; पितरि--पिता की; पुत्रकै:--पुत्रों के द्वारा; बाढम् इति--स्वीकार करते हुए, 'जो आज्ञा'; अनुमन्येत--आज्ञा पालन करना चाहिए; गौरवेण--आदरपूर्वक; गुरो:ः--गुरु के; बच:--आदेश |
पुत्रों को अपने पिता की ऐसी ही सेवा करनी चाहिए पुत्र को चाहिए कि अपनेपिता या गुरु के आदेश का पालन सम्मानपूर्वक ‘जो आज्ञा'' कहते हुए करे, ।
इमा दुहितरः सत्यस्तव वत्स सुमध्यमा: ।
सर्गमेतं प्रभाव: स्वैर्बृहयिष्यन्त्यनेकधा ॥
१४॥
इमा:--ये; दुहितरः --पुत्रियाँ; सत्य:--साध्वी; तव--तुम्हारी; वत्स--हे पुत्र; सु-मध्यमा:--तन्वंगी, पतली कमरवाली; सर्गम्--सृष्टि; एतम्--यह; प्रभावै: --वंशों द्वारा; स्वै:--स्वतः ; बूंहयिष्यन्ति--वे बढ़ावेंगी; अनेक-धा--नानाप्रकार से।
तब ब्रह्माजी ने कर्दम मुनि की नवों कन्याओं की प्रशंसा यह कह कर की-तुम्हारीसभी तन््वंगी कन्याएँ निस्संदेह साध्वी हैं।
मुझे विश्वास है कि वे अनेक प्रकार से अपनेवंशों द्वारा इस सृष्टि का वर्धन करेंगी।
अतत्त्वमृषिमुख्येभ्यो यथाशीलं यथारूचि ।
आत्मजा: परिदेह्मद्य विस्तृणीहि यशो भुवि ॥
१५॥
अतः--इसलिए; त्वम्-तुम; ऋषि-मुख्येभ्य: -- प्रमुख ऋषियों को; यथा-शीलम्--स्वभावों के अनुसार; यथा-रुचि--रुचि के अनुसार; आत्म-जा:--अपनी पुत्रियाँ; परिदेहि-- प्रदान करो; अद्य--आज; विस्तृणीहि-- प्रसारकरो; यशः--यश; भुवि--ब्रह्माण्ड भर में |
अतः आज तुम इन पुत्रियों को उनके स्वभाव तथा उनकी रुचियों के अनुसार श्रेष्ठमुनियों को प्रदान कर दो और इस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड में अपना सुयश फैलाओ।
वेदाहमाद्यं पुरुषमवर्तीर्ण स्वमायया ।
भूतानां शेवधि देहं बिभ्राणं कपिल मुने ॥
१६॥
बेद--जानता हूँ; अहम्ू--मैं; आद्यम्ू--आदि; पुरुषम्--भोक्ता; अवतीर्णम्--अवतरित होकर; स्व-मायया--अपनीअन्तरंगा शक्ति से; भूतानाम्ू--समस्त जीवात्माओं का; शेवधिम्ू--सभी इच्छाओं का प्रदाता, जो विशाल कोष केतुल्य है; देहमू--शरीर; बिश्राणम्--मानते हुए; कपिलम्--कपिल मुनि को; मुने--हे कर्दम मुनि!
हे कर्दम मुनि, मुझे ज्ञात है कि अब आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपनी अन्तरंगाशक्ति से अवतार रूप में प्रकट हुए हैं।
वे जीवात्माओं के सभी मनोरथों को पूरा करनेवाले हैं और उन्होंने अब कपिल मुनि का शरीर धारण किया है।
ज्ञानविज्ञानयोगेन कर्मणामुद्धरन्जटा: ।
हिरण्यकेशः पद्याक्ष: पद्ममुद्रापदाम्बुज: ॥
१७॥
ज्ञान--शास्त्रीय ज्ञान का; विज्ञान--तथा व्यवहार; योगेन--योग के द्वारा; कर्मणाम्-कार्यो का; उद्धरन्--समूलविच्छेद करने के लिए; जटा:--जड़ें; हिरण्य-केश:--सुनहले बाल; पद्मय-अक्ष:--कमल से समान नेत्र वाला; पदा-मुद्रा--कमल चिह्न से युक्त; पद-अम्बुज:--कमल सदूश चरणों वाले
सुनहले बालकमल की पंखड़ियों जैसे नेत्र तथा कमल के पुष्प से अंकित कमलके समान चरणोवाले कपिल मुनि अपने योग तथा शास्त्रीय ज्ञान के व्यवहार से इसभौतिक जगत में कर्म की इच्छा को समूल नष्ट कर देंगे।
एष मानवि ते गर्भ प्रविष्ट: कैटभार्दनः ।
अविद्यासंशयग्रन्थि छित्त्वा गां विचरिष्यति ॥
१८॥
एष:--वही श्रीभगवान्; मानवि--हे मनु की पुत्री; ते--तुम्हारे; गर्भभू--गर्भ में; प्रविष्ट:-- प्रविष्ट हुआ है; कैटभ-अर्दन:--कैटभ असुर को मारने वाला; अविद्या--अज्ञान का; संशय--तथा सन्देह का; ग्रन्थिमू--गाँठ; छित्त्वा--काटकर; गाम्--संसार में; विचरिष्यति--विचरण करेगा।
तब ब्रह्माजी ने देवहूति से कहा : हे मनुपुत्री, जिन श्रीभगवान् ने कैटभ असुर काबध किया है, वे ही अब तुम्हारे गर्भ में आये हैं।
वे तुम्हारे समस्त संशय तथा अज्ञान कीगाँठ को नष्ट कर देंगे।
तब वे सारे विश्व का भ्रमण करेंगे।
अयं सिद्धगणाधीश: साड्ख्याचार्य: सुसम्मतः ।
लोके कपिल हइत्याख्यां गन्ता ते कीर्तिवर्धन: ॥
१९॥
अयमू--यह भगवान्; सिद्ध-गण--सिद्धमुनियों का; अधीश:--प्रमुख; साइड्ख्य-आचार्य: --सांख्य दर्शन में दक्षआचार्योो द्वारा; सु-सम्मतः--वैदिक नियमों के अनुसार मान्य; लोके --संसार में; कपिल: इति--कपिल रूप में;आख्याम्--विख्यात; गन्ता--वह घूमेगा; ते--तुम्हारा; कीर्ति--यश; वर्धन:--बढ़ाते हुएतुम्हारा पुत्र समस्त सिद्धगणों का अग्रणी होगा।
वह वास्तविक ज्ञान का प्रसार करनेमें दक्ष आचार्यो द्वारा मान्य होगा और मनुष्यों में वह कपिल नाम से विख्यात होगा।
देवहूति के पुत्र-रूप में वह तुम्हारे यश को बढ़ाएगा।
मैत्रेय उवाचतावाश्वास्य जगत्स््रष्टा कुमारैः सहनारदः ।
हंसो हंसेन यानेन त्रिधामपरमं ययौ ॥
२०॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; तौ--दम्पति; आश्वास्य-- आश्वस्त करके; जगत्ू-स्त्रष्टा--ब्रह्माण्ड का निर्माता;कुमारैः--कुमारों के साथ साथ; सह-नारद:--नारद सहित; हंसः--ब्रह्माजी; हंसेन यानेन-- अपने हंस वाहन द्वारा;त्रि-धाम-परमम्--सर्वोच्च लोक को; ययौ--चले गये।
श्रीमैत्रेय ने कहा-कर्दम मुनि तथा उनकी पत्नी देवहूति से इस प्रकार कह करब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा ब्रह्माजी, जिन्हें हंस भी कहा जाता है, अपने वाहन हंस पर चढ़करचारों कुमारों तथा नारद सहित तीनों लोकों में से सर्वोच्च लोक को वापस चले गये।
गते शतधृतौ क्षत्त: कर्दमस्तेन चोदित: ।
यथोदितं स्वदुहितृः प्रादाद्विश्वसृजां ततः ॥
२१॥
गते--चले जाने के बाद; शत-धृतौ-- भगवान् ब्रह्मा; क्षत्त:--हे विदुर; कर्दम:--कर्दम मुनि; तेन--उसके द्वारा;चोदित:--आदेशित होकर; यथा-उदितम्--कहे जाने के अनुसार; स्व-दुहितृ:--अपनी कन्याएँ; प्रादात्ू--प्रदान करदिया; विश्व-सृजाम्-- प्राणियों के स्त्रष्टा; ततः--तदनन्तर।
हे विदुर ब्रह्माजी, कर्दम मनि ने अपनी नवों पुत्रियों को ब्रह्मा द्वारा दिये गये आदेशोंके अनुसार नौ ऋषियों को प्रदान कर दिया, जिन्होंने इस संसार के मनुष्यों का सृजनकिया।
मरीचये कलां प्रादादनसूयामथात्रये ।
श्रद्धामड्रिरसे उयच्छत्पुलस्त्याय हविर्भुवम् ॥
२२॥
पुलहाय गतिं युक्तां क्रतवे च क्रियां सतीम् ।
ख्यातिं च भूगवेयच्छद्ठसिष्ठायाप्यरुन्धतीम् ॥
२३॥
मरीचये--मरीचि को; कलाम्--कला; प्रादात्-- प्रदान किया; अनसूयाम्-- अनुसूया; अथ--तब ; अन्नये--अत्रिको; श्रद्धाम्- श्रद्धा; अड्विसे--अंगिरा को; अयच्छतू--दे दिया; पुलस्त्याय--पुलस्त्य को; हविर्भुवम्-हविर्भू;पुलहाय--पुलह को; गतिम्--गति; युक्ताम्--उपयुक्त; क्रतवे--क्रतु को; च--यथा; क्रियाम्--क्रिया; सतीम्--सती; ख्यातिम्-ख्याति; च--यथा; भूगवे-- भूगु को; अयच्छत्--दे दिया; वसिष्ठाय--वसिष्ठ मुनि को; अपि-- भी;अरुन्धतीम्--अरुन्धती |
कर्दम मुनि ने अपने पुत्री कला को मारीचि को और दूसरी कन्या अनुसूया को अत्रिको समर्पित कर दिया।
श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति तथा अरुन्धती नामककन्याएँ क्रमशः अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भूगु और वसिष्ठ को प्रदान की गईं।
अथर्वणेददाच्छान्ति यया यज्ञो वितन्यते ।
विप्रर्षभान्कृतोद्वाहान्सदारान्स्समलालयत् ॥
२४॥
अथर्वणे--अथर्वा को; अददात्--प्रदान किया; शान्तिमू--शान्ति; यया--जिसके द्वारा; यज्ञ:--यज्ञ; वितन्यते--किया जाता है; विप्र-ऋषभानू्--ब्राह्मणों में अग्रगण्य ; कृत-उद्दाहान्ू--विवाह कर दिया; स-दारानू--उनकी पत्नियोंसहित; समलालयतू--पालन किया।
उन्होंने शान्ति अथर्वा को प्रदान की।
शान्ति के कारण यज्ञ अच्छी तरह सम्पन्न होनेलगे।
इस प्रकार उन्होंने अग्रणी ब्राह्मणों से उन सबका विवाह कर दिया और पतियोंसहित उन सबका पालन करने लगे।
ततस्त ऋषय: क्षत्त: कृतदारा निमन्त्रय तम् ।
प्रातिष्ठन्नन्दिमापन्ना: स्वं स्वमाश्रममण्डलम् ॥
२५॥
ततः--तब; ते--वे; ऋषय: --ऋषिगण; क्षत्त:--हे विदुर; कृत-दारा:--इस प्रकार विवाहित; निमन्त्रय--विदा लेकर;तम्--कर्दम से; प्रातिष्ठन्ू--चले गये; नन्दिम्--प्रसन्नता को; आपतन्ना:--प्राप्त; स्वम् स्वमू-- अपने अपने; आश्रम-मण्डलमू--आश्रम।
हे विदुर, इस प्रकार विवाहित होकर ऋषियों ने कर्दम से विदा ली और वेप्रसन्नतापूर्वक अपने अपने आश्रम को चले गये।
सचावतीर्ण त्रियुगमाज्ञाय विबुधर्षभम् ।
विविक्त उपसड्डम्य प्रणम्य समभाषत ॥
२६॥
सः-कर्दम मुनि ने; च--तथा; अवतीर्णम्--अवतार लिया; त्रि-युगम्--विष्णु को; आज्ञाय--समझ कर; विबुध-ऋषभम्--देवताओं का मुखिया; विविक्ते--एकान्त स्थान में; उपसड्रम्य--पास जाकर; प्रणम्य--प्रणाम करके ;समभाषत--बोला।
जब कर्दम मुनि ने समझ लिया कि सब देवताओं के प्रधान पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्विष्णु ने अवतार लिया है, तो वे एकान्त स्थान में जाकर उन्हें नमस्कार करते हुए इसप्रकार बोले।
अहो पापच्यमानानां निरये स्वैरमड्रलै: ।
कालेन भूयसा नूनं प्रसीदन््तीह देवता: ॥
२७॥
अहो--ओह; पापच्यमानानाम्--सताये हुओं के साथ; निरये--नारकीय बंधन में; स्वैः--अपना, निजी; अमड्रनलै:--कुकृत्यों पापों से; कालेन भूयसा--दीर्घकाल बाद; नूनम्--निस्सन्देह; प्रसीदन्ति--प्रसन्न होते हैं; हह--इस संसारमें; देवता:--देवतागण ।
कर्दम मुनि ने कहा--ओह! इस ब्रह्माण्ड के देवता लम्बी अवधि के बाद कष्ट मेंपड़ी हुई उन आत्माओं पर प्रसन्न हुए हैं, जो अपने कुकृत्यों के कारण भौतिक बन्धन मेंपड़े हुए हैं।
बहुजन्मविपक्वेन सम्यग्योगसमाधिना ।
द्रह्लूं यतन्ते यतयः शून्यागारेषु यत्पदम् ॥
२८॥
बहु--अनेक; जन्म--जन्मों के बाद; विपक्वेन--पका हुआ, प्रौढ़; सम्यक्--पूर्णतः; योग-समाधिना--योग मेंसमाधि द्वारा; द्रष्टमू--देखने के लिए; यतन्ते--प्रयत्त करते हैं; यतय:--योगीजन; शून्य-अगारेषु--एकान्त स्थानों में;यत्--जिसके; पदम्--पाँवपरिपक्व
योगीजन योग समाधि में अनेक जन्म लेकर एकान्त स्थानों में रह करश्रीभगवान् के चरणकमलों को देखने का प्रयत्ल करते रहते हैं।
करते हैं।
" स एव भगवानद्य हेलनं न गणय्य नः ।
ग्हेषु जातो ग्राम्याणां यः स्वानां पक्षपोषण: ॥
२९॥
सः एव--वही; भगवानू-- श्रीभगवान्; अद्य--आज; हेलनम्---उपेक्षा; न--नहीं; गणय्य--ऊँचा तथा नीचा मानकर;नः--हमारे; गृहेषु--घरों में; जात:--प्रकट हुआ; ग्राम्याणाम्--सामान्य गृहस्थों का; यः--जो; स्वानाम्-- अपनेभक्तों का; पक्ष-पोषण:--पक्षधर |
हम जैसे सामान्य गृहस्थों की उपेक्षा का ध्यान न करते हुए वही श्रीभगवान् अपनेभक्तों की सहायता के लिए ही हमारे घरों में प्रकट होते हैं।
स्वीयं वाक्यमृतं कर्तुमवतीों उसि मे गृहे ।
चिकीर्षुर्भगवान्ज्ञानं भक्तानां मानवर्धन: ॥
३०॥
स्वीयम्ू--निज के; वाक्यम्--शब्द; ऋतम्--सत्य; कर्तुमू--बनाने के लिए; अवतीर्ण:--अवतरित; असि--हुए हो;मे गृहे --मेरे घर में; चिकीर्षु:--विस्तार करने के लिए इच्छुक; भगवान् -- श्री भगवान्; ज्ञानमू--ज्ञान; भक्तानाम्--भक्तों का; मान--सम्मान, आदर; वर्धन:--बढ़ाने वाला।
कर्दम मुनि ने कहा--सदैव अपने भक्तों का मानवर्धन करने वाले मेरे प्रिय भगवान्,आप अपने बचनों को पूरा करने तथा वास्तविक ज्ञान का प्रसार करने के लिए ही मेरे घरमें अवतरित हुए हैं।
तान्येव तेडभिरूपाणि रूपाणि भगवंस्तव ।
यानि यानि च रोचन्ते स्वजनानामरूपिण: ॥
३१॥
तानि--वे; एब--सचमुच; ते--तुम्हारे; अभिरूपाणि-- अनुकूल; रूपाणि--रूप; भगवनू--हे भगवान्; तब--तुम्हारा; यानि यानि--जो जो; च--तथा; रोचन्ते-- अच्छे लगते हैं; स्व-जनानामू-- अपने भक्तों को; अरूपिण:--बिना भौतिक रूप वाले का।
हे भगवन्, यद्यपि आपका कोई भौतिक रूप नहीं है, किन्तु आपके अपने ही अनन्तरूप हैं।
वे सचमुच ही आपके दिव्य रूप हैं और आपके भक्तों को आनन्दित करनेवालेहैं।
त्वां सूरिभिस्तत्त्वबुभुत्सयाद्धासदाभिवादाईणपादपीठम् ।
ऐश्वर्यवैराग्ययशो वबोध-वीर्यश्रिया पूर्तमहं प्रपय्ये ॥
३२॥
त्वामू--तुमको; सूरिभि:--परम साधुओं द्वारा; तत्त्त--परम सत्य; बुभुत्सया--जानने की इच्छा से; अद्धा--निश्चयही; सदा--सदैव; अभिवाद--अभिवादनों का; अर्हण--योग्य; पाद--आपके पैरों के; पीठम्--आसन को;ऐश्वर्य--ऐश्वर्य; वैराग्य--विराग; यश:--कीर्ति; अवबोध--ज्ञान; वीर्य--पौरूष; भ्रिया--सौन्दर्य से; पूर्तम्--पूर्ण;अहम्--ैं; प्रपद्ले--शरण में हूँ, समर्पण करता हूँ।
हे भगवान्, आपके चरणकमल ऐसे कोष के समान हैं, जो परम सत्य को जानने केइच्छुक बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों का सदैव आदर प्राप्त करने वाला है।
आप ऐश्वर्य,वैराग्य, दिव्य यश, ज्ञान, वीर्य और सौन्दर्य से ओत-प्रोत हैं अत: मैं आपके चरणकमलोंकी शरण में हूं।
परं प्रधान पुरुष महान्तंकालं कविं त्रिवृतं लोकपालम् ।
आत्मानुभूत्यानुगतप्रपन्ञंस्वच्छन्दशक्ति कपिल प्रपद्ये ॥
३३॥
परम्--दिव्य; प्रधानम्--परम; पुरुषम्--व्यक्ति, पुरुष; महान्तम्ू--जो इस भौतिक जगत का मूल है; कालम्ू--जोकाल समय है; कविम्--पूर्णतया ज्ञात; त्रि-वृतम्ू--तीन गुण; लोक-पालम्--समस्त लोकों का पालनकर्ता;आत्म--अपने आप में; अनुभूत्य-- अनुभूति शक्ति से; अनुगत--मग्न; प्रपञ्मम्ू--जिनका भौतिक प्राकट्य; स्व-छन्द--स्वतन्त्र रीति से; शक्तिमू--जो शक्तिमान है; कपिलम्-- भगवान् कपिल की; प्रपद्ये--शरण लेता हूँ।
मैं कपिल के रूप में अवतरित होने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की शरण लेता हूँ,जो स्वतन्त्र रूप से शक्तिमान तथा दिव्य हैं, जो परम पुरुष हैं तथा पदार्थ और काल कोमिलाकर सबों के भगवान् हैं, जो त्रिगुणमय सभी ब्रह्माण्डों के पालनकर्ता हैं और प्रलयके पश्चात् भौतिक प्रपञ्ञों को अपने में लीन कर लेते हैं।
आ स्माभिपृच्छेद्द्य पतिं प्रजानांत्वयावतीर्णर्ण उताप्तकाम: ।
परिब्रजत्पदवीमास्थितो हंचरिष्ये त्वां हदि युझ्नन्विशोक: ॥
३४॥
आ सम अभिपृच्छे--मैं पूछ रहा या आज्ञा माँग रहा हूँ; अद्य--अब; पतिम्ू-- भगवान्; प्रजानाम्ू--समस्त प्राणियों का;त्वया--तुम्हारे द्वारा; अवतीर्ण-ऋण:--ऋणमुक्त; उत--तथा; आप्त-- पूर्ण; काम:--इच्छाएँ; परिव्रजत्--परिव्राजककी; पदवीम्--पथ; आस्थित:--स्वीकार करते हुए; अहम्--मैं; चरिष्ये-- भ्रमण करूँगा; त्वाम्--तुम; हृदि--मेरेहृदय में ; युज्नन्ू--रखते हुए; विशोक:--शोक से मुक्त |
समस्त जीवात्माओं के स्वामी मुझे आप से आज कुछ पूछना है।
चूँकि आपने मुझेअब पितृ-ऋण से मुक्त कर दिया है और मेरे सभी मनोरथ पूरे हो चुके हैं, अतः मैंसंन्यास-मार्ग ग्रहण करना चाहता हूँ।
इस गृहस्थ जीवन को त्याग कर मैं शोकरहितहोकर अपने हृदय में सदैव आपको धारण करते हुए सर्वत्र भ्रणण करना चाहता हूँ।
श्रीभगवानुवाचमया प्रोक्ते हि लोकस्य प्रमाणं सत्यलौकिके ।
अथाजनि मया तुभ्यं यदवोचमृतं मुने ॥
३५॥
श्री-भगवान् उबाच-- श्री भगवान् ने कहा; मया--मेरे द्वारा; प्रोक्तम्ू--कहा गया; हि--वास्तव में; लोकस्य--मनुष्योंके लिए; प्रमाणम्--प्रमाण, मानदण्ड; सत्य--शास्त्रोक्त वैदिक ; लौकिके--तथा सामान्य बोली में; अथ--अतः;अजनि--जन्म लिया; मया--मेरे द्वारा; तुभ्यम्ू--तुमको; यत्--जो; अवोचम्--मैंने कहा; ऋतम्--सत्य; मुने--हेमुनि!
भगवान् कपिल ने कहा-मैं जो भी प्रत्यक्ष रूप से या शास्त्रों में कहता हूँ वह संसारके लोगों के लिए सभी प्रकार से प्रामाणिक है।
हे मुने, चूँकि मैं तुमसे पहले ही कहचुका हूँ कि मैं तुम्हारा पुत्र बनूँगा, अतः उसी को सत्य करने हेतु मैंने अवतार लिया है।
एतन्मे जन्म लोकेस्मिन्मुमुक्षूणां दुराशयात् ।
प्रसड्ख्यानाय तत्त्वानां सम्मतायात्मदर्शने ॥
३६॥
एतत्--यह; मे--मेरा; जन्म--जन्म; लोके --संसार में; अस्मिन्ू--इस; मुमुक्षूणाम्--मुक्ति के इच्छुक परम साधुओंद्वारा; दुराशयात्--अनावश्यक भौतिक इच्छाओं से; प्रसड्ख्यानाय--विवेचन करने के लिए; तत्त्वानामू--सत्यों का;सम्मताय--अत्यन्त समाहत; आत्म-दर्शने-- आत्म-साक्षात्कार में |
इस संसार में मेरा प्राकट्य विशेष रूप से सांख्य दर्शन का प्रतिपादन करने के लिएहुआ है।
यह दर्शन उन व्यक्तियों के द्वारा आत्म-साक्षात्कार हेतु परम समाहत है, जोअनावश्यक भौतिक कामनाओं के बन्धन से मुक्ति चाहते हैं।
एष आत्मपथोव्यक्तो नष्ट: कालेन भूयसा ।
त॑ प्रवर्तयितुं देहमिमं विद्धि मया भूतम् ॥
३७॥
एष:--यह; आत्म-पथ: --आत्म-साक्षात्कार का मार्ग; अव्यक्त: --समझने में दुरूह; नष्ट:--खोया हुआ; कालेनभूयसा--बहुत समय से, कालक्रम से; तमू--इसको; प्रवर्तयितुमू--पुन: चालू करने के लिए; देहम्--देह को;इमम्--इस; विद्धि--जानो; मया--मेरे द्वारा; भूतम्--स्वीकार किया गया।
आत्म-साक्षात्कार का यह मार्ग, जिसको समझ पाना दुष्कर है, अब कालक्रम सेलुप्त हो गया है।
इस दर्शन को पुन: मानव समाज में प्रवर्तित करने और व्याख्या करने केलिए ही मैंने कपिल का यह शरीर धारण किया है--ऐसा जानो।
गच्छ काम मयापृष्टो मयि सन्न्यस्तकर्मणा ।
जित्वा सुदुर्जयं मृत्युममृतत्वाय मां भज ॥
३८ ॥
गच्छ--जाओ; कामम्-- जैसी तुम्हारी इच्छा है; मया--मेरे द्वारा; आपृष्ट: --आदिष्ट; मयि--मुझमें; सन्न्यस्त--पूरीतरह शरणागत; कर्मणा--अपने कार्य से; जित्वा--जीतकर; सुदुर्जयम्-- अजेय ; मृत्युम्--मृत्यु को; अमृतत्वाय--अमर जीवन के लिए; माम्--मुझको; भज--भजो, मेरी भक्ति में तत्पर हो |
अब मेरे द्वारा आदिष्ट तुम मुझे अपने समस्त कार्यों को अर्पित करके जहाँ भी चाहोजाओ।
दुर्जेय मृत्यु को जीतते हुए शाश्वत जीवन के लिए मेरी पूजा करो।
मामात्मानं स्वयंज्योतिः सर्वभूतगुहाशयम् ।
आत्मन्येवात्मना वीक्ष्य विशोकोभयमृच्छसि ॥
३९॥
माम्--मुझे; आत्मानम्-परमात्मा को; स्वयम्-ज्योति:ः--आत्म-प्रकाश; सर्व-भूत--सभी जीवों को; गुहा--हृदयोंमें; आशयम्--निवास; आत्मनि--अपने हृदय में; एव--निस्सन्देह; आत्मना--अपनी बुद्धि से; वीक्ष्य--सदैव देखकर, सदैव सोच कर; विशोक:ः --शोक से रहित; अभयम्--निर्भीकता; ऋच्छसि--तुम प्राप्त करोगे।
तुम अपनी बुद्धि के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर मेरा दर्शन करोगे, जो समस्तजीवात्माओं के हृदयों के भीतर वास करने वाला परम स्वतः प्रकाशमान आत्मा है।
इसप्रकार तुम समस्त शोक व भय से रहित शाश्वत जीवन प्राप्त करोगे।
मात्र आध्यात्मिकीं विद्यां शमनीं सर्वकर्मणाम् ।
वितरिष्ये यया चासौ भयं चातितरिष्यति ॥
४०॥
मात्रे--अपनी माँ को; आध्यात्मिकीम्--आत्मजीवन का द्वार खोलने वाली; विद्याम्ू--ज्ञान, विद्या को; शमनीम्--समाप्त करने वाली; सर्व-कर्मणाम्--समस्त सकाम कर्मों को; वितरिष्ये--मैं प्रदान करूँगा; यया--जिससे; च--भी; असौ--वह; भयम्--डर; च-- भी; अतितरिष्यति--पार कर लेगी।
मैं इस परम ज्ञान को, जो आत्म जीवन का द्वार खोलने वाला है, अपनी माता को भी बतलाऊँगा, जिससे वह भी समस्त सकाम कर्मों के बन्धनों को तोड़कर सिद्धि तथाआत्म दर्शन प्राप्त कर सके ।
इस प्रकार वह भी समस्त भौतिक भय से मुक्त हो जाएगी।
मैत्रेय उवाचएवं समुदितस्तेन कपिलेन प्रजापति: ।
दक्षिणीकृत्य तं॑ प्रीतो वनममेव जगाम ह ॥
४१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय मुनि ने कहा; एवम्--इस प्रकार; समुदित:--सम्बोधित होकर; तेन--उनके द्वारा; कपिलेन--कपिल द्वारा; प्रजापति:--मानव-समाज का जनक; दक्षिणी-कृत्य--परिक्रमा करके; तम्--उसको ; प्रीत:--शान्तिपूर्वक; वनम्ू--जंगल को; एव--निस्सन्देह; जगाम--प्रस्थान किया; ह--तब
श्रीमैत्रेय ने कहा--इस प्रकार अपने पुत्र कपिल द्वारा सम्बोधित किये जाने पर मानवसमाज के जनक श्रीकर्दमुनि ने उसकी परिक्रमा की और अच्छे तथा शान्त मन से उन्होंनेतुरन्त जंगल के लिए प्रस्थान कर दिया।
ब्रतं स आस्थितो मौनमात्मैकशरणो मुनि: ।
निःसड़ो व्यचरत्क्षोणीमनग्निरनिकेतन: ॥
४२॥
ब्रतम्ू-ब्रत; सः--वह कर्दम ; आस्थित: --स्वीकृत; मौनम्--मौन; आत्म-- श्रीभगवान् द्वारा; एक--नितान्त;शरण: --शरण में आया; मुनि:--मुनि; नि:सड्ढ:--बिना संगति के ; व्यचरत्-- भ्रमण करने लगा; क्षोणीम्--पृथ्वीपर; अनग्नि:--अग्निरहित; अनिकेतन: --आश्रमविहीन
कर्दममुनि ने मौन व्रत धारण करना स्वीकार किया जिससे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्का चिन्तन कर सकें और एकमात्र उन्हीं की शरण में जा सकें।
बिना किसी संगी के वेसंन्यासी रूप में पृथ्वी भर में भ्रमण करने लगे, अग्नि अथवा आश्रय से उनका कोईसम्बन्ध न रहा।
मनो ब्रह्मणि युज्ञानो यत्तत्सदसतः परम् ।
गुणावभासे विगुण एकभकक््त्यानुभाविते ॥
४३॥
मनः--मन; ब्रह्मणि--परब्रह्म में; युज्ञान:--स्थिर करते हुए; यत्--जो; तत्--उस; सत् -असतः--कार्य तथा कारण;परम्--अतीत, परे; गुण-अवभासे--तीनों गुणों को प्रकट करने वाला; विगुणे-- भौतिक गुणों से परे; एक-भक्त्या--एकान्तभक्ति से; अनुभाविते--देखा जाता है
उन्होंने अपना मन परब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् में स्थिर कर दिया जो कार्य-कारण से परे हैं, जो तीनों गुणों को प्रकट करने वाले हैं किन्तु उन तीनों गुणों से अतीतहैं और जो केवल अटूट भक्तियोग के द्वारा देखे जा सकते हैं।
निरहड्ड तिर्निर्ममश्न निईन्द्र: समहक्स्वहक् ।
प्रत्यक्प्रशान्तधीर्धीर: प्रशान्तोर्मिरिवोदधि: ॥
४४॥
निरहड्ड तिः--अहंकार से रहित; निर्मम:--ममतारहित; च--यथा; निर्दन्द्दः --द्वैत भाव से रहित; सम-हक् --समदर्शी;स्व-हक्--आत्मदर्शी ; प्रत्यक्--अन्तर्मुखी; प्रशान्त--पूर्णतया संयमित; धी:--मन; धीर:--अविचलित; प्रशान्त--शान्त; ऊर्मि:--जिसकी लहरें; इब--सहश; उदधि: --समुद्र |
इस प्रकार वे अंहकार से रहित और भौतिक ममता से मुक्त हो गये।
अविचलित,समदर्शी तथा अद्वैतभाव से वे अपने को भी देख सके आत्मदर्शी ।
वे अन्तर्मुखी होगये और उसी तरह परम शान्त बन गये जिस प्रकार लहरों से अविचलित समुद्र ।
वबासुदेवे भगवति सर्वन्ञे प्रत्यगात्मनि ।
परेण भक्तिभावेन लब्धात्मा मुक्तबन्धन: ॥
४५॥
वबासुदेवे--वासुदेव को; भगवति-- श्रीभगवान्; सर्व-ज्ञे--सर्वज्ञाता; प्रत्यक्-आत्मनि-- प्रत्येक प्राणी के भीतर स्थिरपरमात्मा; परेण--दिव्य; भक्ति- भावेन-- भक्ति से; लब्ध-आत्मा--आत्मलीन होकर; मुक्त-बन्धन:-- भवबन्धन सेछूटा हुआ।
इस प्रकार वे बद्ध जीवन से मुक्त हो गये और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्थित सर्वज्ञपरमात्मा श्रीभगवान् वासुदेव की दिव्य सेवा में तल्लीन हो गये।
आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तमवस्थितम् ।
अपएयत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि ॥
४६॥
आत्मानम्-परमात्मा; सर्व-भूतेषु--समस्त प्राणियों में; भगवन्तम्-- श्रीभगवान् को; अवस्थितम्--स्थित;अपश्यत्--देखा; सर्व-भूतानि--सब जीवों को; भगवति-- श्री भगवान् में; अपि---और; च--तथा; आत्मनि--परमात्मा में |
उन्हें दिखाई पड़ने लगा कि सबों के हृदय में श्रीभगवान् स्थित हैं और प्रत्येक जीवउनमें स्थित है, क्योंकि वे प्रत्येक के परमात्मा हैं।
इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा ।
भगवद्धक्तियुक्तेन प्राप्त भागवती गति: ॥
४७॥
इच्छा--आकाक्षा; द्वेष--तथा ईर्ष्या; विहीनेन-- से रहित; सर्वत्र--सभी जगह; सम--समान; चेतसा--मन से;भगवत्-- श्रीभगवान् को; भक्ति-युक्तेन-- भक्ति- भाव से; प्राप्ता--प्राप्त किया गया; भागवती गतिः--भक्त के धाम परम धाम को वापस जाना
वे समस्त द्वेष तथा इच्छा से रहित, अकल्मष भक्ति करने के कारण समदर्शा होने सेअन्त में भगवान् के धाम को प्राप्त हुए।
अध्याय पच्चीसवाँ: भक्ति सेवा की महिमा
3.25शौनक उवाच'कपिलस्तत्त्वसड्ख्याता भगवानात्ममायया ।
जातः स्वयमज:साक्षादात्मप्रज्ञप्तये नृणाम् ॥
१॥
शौनकः उवाच-- श्री शौनक ने कहा; कपिल: --भगवान् श्रीकपिल; तत्त्व--सत्य का; सड्ख्याता--व्याख्याता;भगवान्-- श्रीभगवान्; आत्म-मायया--अपनी अन्तरंगा शक्ति से; जात:--जन्म लिया; स्वयम्--स्वयं ही; अज:ः--अजन्मा; साक्षात्-- प्रकट रूप में; आत्म-प्रज्ञप्तये --दिव्य ज्ञान का विस्तार करने के लिए; नृणाम्--मानव जाति केलिए
श्री शौनक ने कहा : यद्यपि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अजन्मा हैं, किन्तु उन्होंने अपनीअन्तरंगा शक्ति से कपिल मुनि के रूप में जन्म धारण किया।
वे सम्पूर्ण मानव जाति केलाभार्थ दिव्य ज्ञान का विस्तार करने के लिए अवतरित हुए।
न हास्य वर्ष्षण: पुंसां वरिम्ण: सर्वयोगिनाम् ।
विश्रुतौ श्रुतदेवस्य भूरि तृप्यन्ति मेइसव: ॥
२॥
न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अस्य--उसके विषय में; वर्ष्षण: --महानतम्; पुंसामू--मनुष्यों में से; वरिम्ण:--अग्रगण्य;सर्व--समस्त; योगिनामू--योगियों का; विश्रुतौ--सुनने में; श्रुत-देवस्य--वेदों का स्वामी; भूरि--बारम्बार, पुनःपुनः; तृप्यन्ति--तृप्त होती हैं; मे--मेरी; असवः--इन्द्रियाँ
शौनक ने आगे कहा : स्वयं भगवान् से अधिक जानने वाला कोई अन्य नहीं है।
नतो कोई उनसे अधिक पूज्य है, न अधिक प्रौढ़ योगी।
अतः वे वेदों के स्वामी हैं औरउनके विषय में सुनते रहना इन्द्रियों को सदैव वास्तविक आनन्द प्रदान करने वाला है।
यहद्विधत्ते भगवान्स्वच्छन्दात्मात्ममायया ।
तानि मे अश्रहरधानस्य कीर्तन्यान्यनुकीर्तय ॥
३॥
यत् यत्--जो जो; विधत्ते--करते हैं; भगवान्-- भगवान्; स्व-छन्द-आत्मा--आत्म इच्छा से पूर्ण, स्वतन्त्र; आत्म-मायया--अपनी अन्तरंगा शक्ति से; तानि--वे सब; मे--मुझको; श्रद्धधानस्य-- श्रद्धावान; कीर्तन्यानि--प्रशंसा केयोग्य; अनुकीर्तय--कृपया वर्णन करें।
अतः कृपया उन भगवान् के समस्त कार्यकलापों एवं लीलाओं का संक्षेप में वर्णनकरें, जो स्वतन्त्र हैं और अपनी अन्तरंगा शक्ति से इन सारे कार्यकलापों को सम्पन्न करतेहैं।
सूत उबाचद्वैपायनसखत्त्वेवं मैत्रेयो भगवांस्तथा ।
प्राहेदं विदुरं प्रीत आन्वीक्षिक्यां प्रचोदित: ॥
४॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; द्वै६वायन-सखः--व्यासदेव के मित्र; तु--तब; एवम्--इस प्रकार; मैत्रेय: --मैत्रेय; भगवान्--पूज्य; तथा--इस तरह; प्राह--कहा; इृदम्--यह; विदुरम्--विदुर से; प्रीत:--प्रसन्न होकर;आन्वीक्षिक्याम्-दिव्य ज्ञान के विषय में; प्रचोदित:--पूछे जाने पर |
श्रीसूत गोस्वामी ने कहा : परम शक्तिमान ऋषि मैत्रेय व्यासदेव के मित्र थे।
दिव्यज्ञान के विषय में विदुर की जिज्ञासा से प्रोत्साहित एवं प्रसन्न होकर मैत्रेय ने इस प्रकारकहा।
मैत्रेय उवाचपितरि प्रस्थितेरण्यं मातु: प्रियचिकीर्षया ।
तस्मिन्बिन्दुसरेवात्सीद्धगवान्कपिल: किल ॥
५॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; पितरि--पिता के; प्रस्थिते--प्रस्थान करने पर; अरण्यमू--वन के लिए; मातुः--अपनी माता को; प्रिय-चिकीर्षया-- प्रसन्न करने की इच्छा से; तस्मिन्--उस; बिन्दुसरे--बिन्दुसरोवर में; अवात्सीतू--रुका रहा; भगवान्-- भगवान्; कपिल:--कपिल; किल--निस्सन्देह
मैत्रेय ने कहा : जब कर्दम मुनि बन चले गये तो भगवान् कपिल अपनी मातादेवहूति को प्रसन्न करने के लिए बिन्दु सरोवर के तट पर रहे आये।
तमासीनमकर्माणं तत्त्वमार्गाग्रदर्शनम् ।
स्वसुतं देवहूत्याह धातु: संस्मरती वचः ॥
६॥
तम्--उसको कपिल को ; आसीनमू--स्थित; अकर्माणम्--फुरसत से; तत्त्वत--परम सत्य का; मार्ग-अग्र--चरमलक्ष्य; दर्शनम्--जो दिखा सके; स्व-सुतम्--अपने पुत्र को; देवहूति: --देवहूति ने; आह--कहा; धातु:--ब्रह्मा का;संस्मरती--स्मरण करते हुए; बच: --वचन, शब्द
अपनी माँ देवहूति को परम सत्य का चरम लक्ष्य दिखला सकने में समर्थ कपिलजब उसके समक्ष फुरसत से बैठे थे तो देवहूति को वे शब्द याद आये जो ब्रह्मा ने उससेकहे थे, अतः वह कपिल से इस प्रकार प्रश्न पूछने लगी।
देवहूतिरुवाचनिर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात् ।
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तम: प्रभो ॥
७॥
देवहूति: उबाच--देवहूति ने कहा; निर्विण्णा--ऊबी हुईं; नितरामू--अत्यधिक; भूमन्--हे भगवान्; असत्--क्षणिक; इन्द्रिय--इन्द्रियों की; तर्षणात्--उत्तेजना से; येन--जिससे; सम्भाव्यमानेन--सम्भव होने से; प्रपन्ना--मैंगिर चुकी हूँ; अन्धम् तम:--अज्ञान के गर्त में; प्रभो-हे प्रभु!
देवहूति ने कहा : हे प्रभु, मैं अपनी इन्द्रियों के विक्षोभ से ऊबी हुई हूँ और इसके'फलस्वरूप मैं अज्ञान रूपी अन्धकार के गर्त में गिर गई हूँ।
'तस्य त्वं तमसोन्धस्य दुष्पारस्थाद्य पारगम् ।
सच्चक्षुर्जन्मनामन्ते लब्धं मे त्वदनुग्रहात् ॥
८ ॥
तस्य--उस; त्वमू--तुम; तमसः--अज्ञान; अन्धस्य--अन्धकार का; दुष्पारस्थ--पार करना दुष्कर; अद्य--अब; पार-गम्--पार जाना; सत्--दिव्य; चक्षु:--नेत्र; जन्मनाम्-- जन्मों के; अन्ते--अन्त में; लब्धम्--प्राप्त किया; मे--मेरा;त्वतू-अनुग्रहात्-तुम्हारी कृपा से |
हे प्रभो, आप ही अज्ञान के इस घने अन्धकार से बाहर निकलने के एकमात्र साधनहैं, क्योंकि आप ही मेरे दिव्य नेत्र हैं जिसे मैंने आपके अनुग्रह से अनेकानेक जन्मों केपश्चात् प्राप्त किया है।
य आद्यो भगवान्पुंसामी श्वरो वै भवान्किल ।
लोकस्य तमसान्धस्य चनश्षु: सूर्य इबोदित:ः ॥
९॥
यः--जो; आद्य:--मूल; भगवान्-- भगवान्; पुंसाम्ू--समस्त जीवों के; ईश्वर: --स्वामी; बै--वास्तव में; भवान्--आप; किल--निस्सन्देह; लोकस्य--ब्रह्माण्ड का; तमसा--अज्ञान के अन्धकार से; अन्धस्य--अन्धे का; चक्षु:--नेत्र; सूर्य:--सूर्य; इब--सहश; उदित:ः--उदित, उदय हुआ।
आप श्रीभगवान् हैं, जो समस्त जीवों के मूल तथा परमेश्वर हैं।
आप ब्रह्माण्ड केअज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य की किरणें विस्तारित करने के लिए उदित हुए हैं।
अथ मे देव सम्मोहमपाक्रष्टूं त्वमहसि ।
योवग्रहोहं ममेतीत्येतस्मिन्योजितस्त्ववा ॥
१०॥
अथ--अब; मे--मेरा; देव--हे भगवान्; सम्मोहम्--मोह, भ्रम; अपाक्रष्टमू-- भगाने के लिए; त्वमू--तुम; अर्हसि--प्रसन्न होवो; यः--जो; अवग्रह:-- भ्रान्त धारणा; अहम्--मैं; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; इति--इस प्रकार;एतस्मिनू-- इसमें; योजित:--लगाया हुआ; त्वया--तुम्हारे द्वारा
हे प्रभु, अब प्रसन्न हों और मेरे महा मोह को दूर करें।
अहंकार के कारण मैं आपकीमाया में व्यस्त रही और मैंने अपने आपको शरीर रूप में तथा फलस्वरूप शारीरिकसम्बन्धों के रूप में पहचाना।
तं त्वा गताहं शरणं शरण्यंस्वभृत्यसंसारतरो: कुठारम् ।
जिज्ञासयाहं प्रकृतेः पूरुषस्यनमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ॥
११॥
तम्--उस व्यक्ति को; त्वा--तुम तक; गता--गया हुआ; अहम्--मैं; शरणम्--शरण; शरण्यम्ू--शरण ग्रहण करनेयोग्य; स्व-भृत्य-- अपने आश्रितों के लिए; संसार--संसार के ; तरो:--वृक्ष की; कुठारम्--कुल्हाड़ी; जिज्ञासया--जानने की इच्छा से; अहम्--मैं; प्रकृतेः--पदार्थ स्त्री का; पूरुषस्य--आत्मा पुरुष का; नमामि-- नमस्कारकरती हूँ; सत्-धर्म--शाश्वत वृत्ति के; विदाम्--ज्ञाताओं का; वरिष्ठम्--महानतम को |
देवहूति ने आगे कहा : मैंने आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण की है, क्योंकिआप ही एकमात्र व्यक्ति हैं जिनकी शरण ग्रहण की जा सकती है।
आप वह कुल्हाड़ी हैंजिससे संसार रूपी वृक्ष काटा जा सकता है।
अतः मैं आपको नमस्कार करती हूँ,क्योंकि समस्त योगियों में आप महानतम हैं।
मैं आपसे पुरुष तथा स्त्री और आत्मा तथापदार्थ के सम्बन्ध के विषय में जानना चाहती हूँ।
मैत्रेय उवाचइति स्वमातुर्निरवद्यमीप्सितंनिशम्य पुंसामपवर्गवर्धनम् ।
धियाभिनन्द्यात्मवतां सतां गति-बैभाष ईषत्स्मितशोभितानन: ॥
१२॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; स्व-मातु:--अपनी माता की; निरवद्यमू--कल्मषहीन; ईप्सितम्--इच्छा को; निशम्य--सुनकर; पुंसाम्ू--लोगों के; अपवर्ग--मोक्ष; वर्धनम्--बढ़ते हुए; धिया--मानसिक रूप से;अभिनन्द्य--धन्यवाद देकर; आत्म-वताम्--आत्म-साक्षात्कार में रूचि रखने वाले, आत्मज्ञ; सताम्--सत्यपुरुष,गुणातीतवादी; गतिः--पथ, मार्ग; बभाषे--कह सुनाया; ईषत्ू--कुछ-कुछ; स्मित--हँसते हुए; शोभित--सुन्दर;आनन:--मुखमण्डल
मैत्रेय ने कहा : दिव्य साक्षात्कार के लिए अपनी माता की कल्मषरहित इच्छा कोसुनकर भगवान् ने मन-ही-मन उनके प्रश्नों के लिए धन्यवाद दिया और इस प्रकारमुस्कान-युत मुख से उन्होंने आत्म-साक्षात्कार में रूचि रखने वाले अध्यात्मवादियों केमार्ग की व्याख्या की।
श्रीभगवानुवाचयोग आध्यात्मिक: पुंसां मतो नि: श्रेयसाय मे ।
अत्यन्तोपरतिर्यत्र दुःखस्य च सुखस्य च ॥
१३॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; योग:--योग प्रणाली; आध्यात्मिक: --आत्मा से सम्बन्धित; पुंसामू--जीवोंका; मतः--स्वीकृत है; निःश्रेयसाय-- चरम लाभ हेतु; मे--मेरे द्वारा; अत्यन्त--पूर्ण; उपरतिः--विरक्ति; यत्र--जहाँ;दुःखस्य--दुख से; च--तथा; सुखस्य--सुख से; च--तथा |
भगवान् ने उत्तर दिया : जो योग पद्धति भगवान् तथा व्यक्तिगत जीवात्मा कोजोड़ती है, जो जीवात्मा के चरम लाभ के लिए है और जो भौतिक जगत में समस्त सुखोंतथा दुखों से विरक्ति उत्पन्न करती है, वही सर्वोच्च योग पद्धति है।
तमिमं ते प्रवक्ष्यामि यमवोचं पुरानघे ।
ऋषीणां श्रोतुकामानां योगं सर्वाड्रनैपुणम् ॥
१४॥
तम् इमम्--वही; ते-- तुमको ; प्रवक्ष्यामि--बतलाऊँगा; यम्--जो; अवोचम्--मैंने बतलाया था; पुरा--पहले;अनधे-हे पूज्य माता; ऋषीणाम्--ऋषियों को; श्रोतु-कामानाम्--सुनने के लिए उत्सुक; योगम्--योग पद्धति;सर्व-अड्ड--सभी प्रकार से; नैपुणम्--उपयोगी एवं व्यावहारिक |
हे परम पवित्र माता, अब मैं आपको वही प्राचीन योग पद्धति समझाऊँगा, जिसे मैंनेपहले महान् ऋषियों को समझाया था।
यही हर प्रकार से उपयोगी एवं व्यावहारिक है।
चेत: खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।
गुणेषु सक्त बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ॥
१५॥
चेत:--चेतना; खलु--निस्सन्देह; अस्य--उसका; बन्धाय--बन्धन के लिए; मुक्तये--मुक्ति के लिए; च--तथा;आत्मन:--जीव का; मतम्--माना जाता है; गुणेषु--तीनों गुणों में; सक्तम्--मोहित; बन्धाय--बद्धजीवन के लिए;रतम्ू--आसक्त; वा--अथवा; पुंसि--परमात्मा में; मुक्तये--मुक्ति के लिए।
जीवात्मा की चेतना जिस अवस्था में प्रकृति के तीन गुणों के द्वारा आकृष्ट होती है,वह बद्धजीवन कहलाती है।
किन्तु जब वही चेतना श्रीभगवान् के प्रति आसक्त होती है,तो मनुष्य मोक्ष की चेतना में स्थित हो ।
अहं ममाभिमानोत्थे: कामलोभादिभिर्मलै: ।
वबीत॑ यदा मन: शुद्धमदुःखमसुखं समम् ॥
१६॥
अहम्ू-मैं; मम--मेरा; अभिमान-- भ्रान्ति से; उत्थैः--उत्पन्न, जनित; काम--काम; लोभ--लालच; आदिभि:--इत्यादि; मलैः--मलों विकारों से; वीतम्--मुक्त, से रहित; यदा--जब; मन:--मन; शुद्धम्-शुद्ध; अदुःखम्--दुःखरहित; असुखम्--सुखबिहीन; समम्--समभाव |
जब मनुष्य शरीर को ‘'मैं'' तथा भौतिक पदार्थों को ‘'मेरा '' मानने के झूठे भाव सेउत्पन्न काम तथा लोभ के विकारों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है, तो उसका मन शुद्ध होजाता है।
उस विशुद्धावस्था में वह तथाकथित भौतिक सुख तथा दुख की अवस्था कोलाँघ जाता है।
तदा पुरुष आत्मानं केवल प्रकृतेः परम् ।
निरन्तरं स्वयंज्योतिरणिमानमखण्डितम् ॥
१७॥
तदा--तब; पुरुष: --जीव; आत्मानमू--अपने आपको; केवलम्--शुद्ध; प्रकृतेः परम्--संसार से परे; निरन्तरम्--अभिन्न; स्वयम्-ज्योति:--स्वयं-प्रकाश, स्वतः तेजवान; अणिमानम्--सूक्ष्प; अखण्डितम्--खंडित नहीं, अखण्ड।
उस समय जीव अपने आपको संसार से परे, सदैव स्वयंप्रकाशित, अखंडित एवंसूक्ष्म आकार में देख सकता है।
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियुक्तेन चात्मना ।
परिपश्यत्युदासीनं प्रकृति च हतौजसम् ॥
१८ ॥
ज्ञान--ज्ञान; वैराग्य--वैराग्य; युक्तेन--से युक्त; भक्ति-- भक्ति; युक्तेन-- से युक्त; च--तथा; आत्मना--मन से;'परिपश्यति--देखता है; उदासीनम्--उदासीन; प्रकृतिमू--संसार को; च--तथा; हत-ओजसमू--शक्ति से वंचित।
आत्म-साक्षात्कार की उस अवस्था में मनुष्य ज्ञान तथा भक्ति में त्याग के अभ्यास सेप्रत्येक वस्तु को सही रूप में देख सकता है, वह इस संसार के प्रति अन्यमनस्क हो जाताहै और उस पर भौतिक प्रभाव अत्यल्प प्रबलता के साथ काम कर पाते हैं।
न युज्यमानया भकत्या भगवत्यखिलात्मनि ।
सहशोउस्ति शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ॥
१९॥
न--नहीं; युज्यमानया--सम्पन्न की जा रही; भक्त्या-- भक्ति से; भगवति-- भगवान् के प्रति; अखिल-आत्मनि--परमात्मा; सहशः--के समान; अस्ति--है; शिव:--मंगलकारी, शुभ; पन्था:--पथ; योगिनाम्ू--योगियों का; ब्रह्म-सिद्धये-- आत्म-साक्षात्कार की सिद्धि के लिए।
किसी भी प्रकार का योगी जब तक श्रीभगवान् की भक्ति में प्रवृत्त नहीं हो जाता, तब तक आत्म-साक्षात्कार में पूर्णता नहीं प्राप्त की जा सकती, क्योंकि भक्ति ही एकमात्र शुभ मार्ग है।
प्रसड्रमजरं पाशमात्मन: कवयो विदु: ।
स एव साथुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ॥
२०॥
प्रसड्मू--आसक्ति; अजरम्--प्रबल; पाशम्--बन्धन; आत्मन:--आत्मा का; कवय: --विद्वान पुरुष; विदु:--जानतेहैं; सः एव--वही; साधुषु-- भक्तों में; कृत:--प्रयुक्त; मोक्ष-द्वारम्--मुक्ति का दरवाजा; अपावृतम्--खुला हुआ प
्रत्येक विद्वान व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि सांसारिक आसक्ति ही आत्मा कासबसे बड़ा बन्धन है।
किन्तु वही आसक्ति यदि स्वरूपसिद्ध भक्तों के प्रति हो जाय तोमोक्ष का द्वार खुल जाता है।
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातजशत्रवः शान्ता: साधव: साधुभूषणा: ॥
२१॥
तितिक्षवः--सहनशील; कारुणिका:--दयालु; सुहृदः --सुहृद; सर्व-देहिनाम्ू--समस्त जीवों के; अजात-शत्रव:--किसी के प्रति शत्रुता न रखने वाले; शान्ता:--शान्त; साधव: --शास्त्रों के अनुसार चलने वाले; साधु-भूषणा:--अलौकिक गुणों से भूषित।
साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भावरखता है।
उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता हैऔर उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।
मय्यनन्येन भावेन भक्ति कुर्वन्ति ये हढाम् ।
मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवा: ॥
२२॥
मयि--मेरे प्रति; अनन्येन भावेन-- अनन्य भाव से, अविचलित मन से; भक्तिमू--भक्ति; कुर्वन्ति--करते हैं; ये--जो;हढामू--कट्टर, दृढ़; मत्-कृते--मेंरे लिए; त्यक्त-्यागे हुए; कर्माण:--कर्म; त्यक्त-्यागे हुए; स्व-जन--सम्बन्धीजन; बान्धवा:--परिचितों, बन्धुगणों को |
ऐसा साधु अविचलित भाव से भगवान् की कट्टर भक्ति करता है।
भगवान् के लिएवह संसार के अन्य समस्त सम्बन्धों यथा पारिवारिक सम्बन्ध तथा मैत्री का परित्याग करदेता है।
मदाश्रया: कथा मृष्टा: श्रुण्वन्ति कथयन्ति च ।
तपन्ति विविधास्तापा नैतान्मद्गतचेतस: ॥
२३॥
मत्-आश्रया: --मेरे विषय में; कथा: --कथाएँ; मृष्टाः:-- आनन्दप्रद; श्रृण्वन्ति--सुनते हैं; कथयन्ति-- कीर्तन करते हैं;च--तथा; तपन्ति--कष्ट झेलते हैं; विविधा:--नाना प्रकार के; तापाः:--भौतिक क्लेश; न--नहीं; एतानू--उनको;मतू-गत--मुझमें लगाये; चेतस:--अपने विचार।
निरन्तर मेरे अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कीर्तन तथा श्रवण में संलग्न रहकरसाधुगण किसी प्रकार का भौतिक कष्ट नहीं पाते, क्योंकि वे सैदव मेरी लीलाओं तथाकार्यकलापों के विचारों में ही निमग्न रहते हैं।
त एते साधव: साध्वि सर्वसड्भविवर्जिता: ।
सड़स्तेष्वथ ते प्रार्थ्य: सड़दोषहरा हि ते ॥
२४॥
ते एते--वे ही; साधव:--भक्तगण; साध्वि--हे साध्वी; सर्ब--समस्त; सड़--लगाव से; विवर्जिता: --मुक्त; सड्:--लगाव; तेषु--उनके प्रति; अथ--अत:ः; ते--तुम्हारे द्वारा; प्रार्थ्य:--खोजे जाने चाहिए; सड्र-दोष-- भौतिक आसक्तिके बुरे प्रभाव; हराः--हरने वाले; हि--निस्सन्देह; ते--वेहे माते
हे साध्वी, ये उन महान् भक्तों के गुण हैं, जो समस्त आसक्तियों से मुक्त हैं।
तुम्हें ऐसे पवित्र पुरुषों की संगति करनी चाहिए, क्योंकि ऐसी संगति भौतिक आसक्तिके समस्त कुप्रभावों को हरने वाली है।
सतां प्रसझन्मम वीर्यसंविदोभवन्ति हत्कर्णरसायना: कथा: ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनिश्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
२५॥
सताम्--शुद्ध भक्तों की; प्रसड्रातू--संगति से; मम--मेरे; वीर्य--अलौकिक कार्यो; संविद:--चर्चा से; भवन्ति--होजाते हैं; हत्--हृदय को; कर्ण--कान को; रस-अयना:--अच्छी लगने वाली; कथा:--कथाएँ; तत्--उसके;श़जोषणात्--अनुशीलन से, सेवन से; आशु--तुरन््त; अपवर्ग--मोक्ष के; वर्त्मनि--मार्ग पर; श्रद्धा --हढ़ विश्वास;रतिः--आकर्षण; भक्ति:--भक्ति; अनुक्रमिष्यति--क्रमश: आएँगी |
शुद्ध भक्तों की संगति में श्रीभगवान् की लीलाओं तथा उनके कार्यकलापों कीचर्चा कान तथा हृदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाली होती है।
ऐसे ज्ञान केअनुशीलन मे मनुष्य धीरे-धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात् मुक्त हो जाता हैऔर उसका आकर्षण स्थिर हो जाता है।
तब असली समर्पण तथा भक्तियोग काशुभारम्भ होता है।
भक्त्या पुमाज्जातविराग ऐन्द्रियाद्दृष्टश्रुतान्मद्रचनानुचिन्तया ।
चित्तस्य यत्तो ग्रहणे योगयुक्तोयतिष्यते ऋजुभियोंगमार्गं: ॥
२६॥
भक्त्या-- भक्ति से; पुमान्--मनुष्य; जात-विराग: --अरुचि उत्पन्न होने पर; ऐन्द्रियात्--इन्द्रियतृप्ति के लिए; दृष्ट--इस संसार में देखा हुआ; श्रुतातू-- अगले संसार में सुना हुआ; मत्-रचन--सृष्टि के मेरे कार्यकलाप इत्यादि;अनुचिन्तया--निरन्तर चिन्तन करने से; चित्तस्य--मन का; यत्त:--लगा हुआ; ग्रहणे--नियन्त्रण में; योग-युक्त: --भक्ति योग में स्थित; यतिष्यते-- प्रयास करेगा; ऋजुभि:-- सरल; योग-मार्गै: --योग की विधियों के द्वारा |
इस प्रकार भक्तों की संगति में सचेत होकर भक्ति करते हुए भगवान् केकार्यकलापों के विषय में निरन्तर सोचते रहने से मनुष्य को इस लोक में तथा परलोक मेंइन्द्रियतृप्ति के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है।
कृष्णभावनामृत की यह विधि योग कीसरलतम विधि है।
जब मनुष्य भक्तियोग के मार्ग में सही-सही स्थित हो जाता है, तो यहअपने चित्त मन को नियन्त्रित करने में सक्षम होता है।
असेवयाय॑ प्रकृतेर्गुणानांज्ञानेन वैराग्यविजृम्भितेन ।
योगेन मय्यर्पितया च भक्त्यामां प्रत्यगात्मानमिहावरुन्धे ॥
२७॥
असेवया--सेवा न करते हुए; अयम्--यह पुरूष; प्रकृतेः गुणानाम्-प्रकृति के गुणों का; ज्ञानेन--ज्ञान से;वैराग्य--वैराग्य से; विजृम्भितेन--विकसित; योगेन--योग के अभ्यास से; मयि--मुझको; अर्पितया--अर्पित, हृढ़रहकर; च--तथा; भकत्या-- भक्ति से; माम्--मुझको; प्रत्यक्-आत्मानमू--परम सत्य; इह--इसी जीवन में;अवरुन्धे-- प्राप्त कर लेता है|
इस तरह प्रकृति के गुणों की सेवा में न लगकर, अपितु कृष्णभक्ति विकसितकरके, वैराग्य युक्त ज्ञान प्राप्त करके तथा योग के अभ्यास से, जिसमें मनुष्य का मनसदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की भक्तिमय सेवा में स्थिर रहता है, मनुष्य इसी जीवन मेंमेरा साहचर्य संगति प्राप्त कर लेता है, क्योंकि मैं परम पुरुष अर्थात् परम सत्य हूँ।
देवहूतिरुवाचकाचित्त्वय्युच्चिता भक्ति: कीहशी मम गोचरा ।
यया पदं ते निर्वाणमञ्जसान्वाशनवा अहम् ॥
२८॥
देवहूति: उबाच--देवहूति ने कहा; काचित्--क्या; त्वयि--तुमको; उचिता--उचित; भक्ति:-- भक्ति; कीहशी--किस प्रकार की; मम--मेरे द्वारा; गो-चरा--अभ्यास की जाने के लिए उपयुक्त; यया--जिससे; पदम्--पाँव; ते--तुम्हारे; निर्वाणम्--मुक्ति; अज्ञसा--तुरन््त; अन्वाश्नवै--प्राप्त करूँगी; अहम्--मैं |
भगवान् का यह वचन सुनकर देवहूति ने पूछा : मैं किस प्रकार के भक्तियोग का विकास और अभ्यास करूँ जिससे मुझे आपके चरणकमलों की सेवा तत्काल एवंसरलता से प्राप्त हो सके ?
यो योगो भगवद्दाणो निर्वाणात्मंस्त्वयोदित: ।
कीहशः कति चाड्भानि यतस्तत्त्वावबोधनम् ॥
२९॥
यः--जो; योग: --योग विधि; भगवत्-बाण:-- भगवान् को लक्ष्य की गई; निर्वाण-आत्मनू--हे निर्वाणस्वरूप;त्वया--तुम्हारे द्वारा; उदित:--कही गई; कीहश:--किस तरह की; कति--कितनी; च--तथा; अड्रानि--शाखाएँ;यतः--जिससे; तत्त्व--सत्य का; अवबोधनम्--ज्ञान |
आपने जैसा बताया है कि योग पद्धति का उद्देश्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को प्राप्तकरने और सांसारिक अस्तित्व माया के पूर्णतया विनाश के लिए है, तो कृपया मुझेउस योग पद्धति की प्रकृति बतलाएँ।
उस अलौकिक योग को यथार्थ रूप में कितनीविधियों से समझा जा सकता है ?
तदेतन्मे विजानीहि यथाहं मन्दधीहरे ।
सुखं बुद्धग्रेय दुर्बोधं योषा भवदनुग्रहात् ॥
३०॥
तत् एतत्--वही; मे--मुझको; विजानीहि--कृपया समझावें; यथा--जिससे; अहम्--मैं; मन्द--कुन्द; धीः --बुद्धिवाली; हरे--हे भगवान्; सुखम्--सरलतापूर्वक; बुद्धयेय--समझ सकूँ; दुर्बोधम्--न समझ में आने वाली;योषा--स्त्री; भवत्-अनुग्रहात्-- आपके अनुग्रह से |
मेरे पुत्र कपिल, आखिर मैं एक स्त्री हूँ।
परम सत्य को समझ पाना मेरे लिए अत्यन्तकठिन है, क्योंकि मेरी बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं है।
यद्यपि मैं इतनी बुद्धिमान नही हूँ।
किन्तु तो भी, यदि आप मुझे कृपा करके समझाएँगे तो मैं उसे समझ कर दिव्य सुख काअनुभव कर सकूँगी।
मैत्रेय उवाचविदित्वार्थ कपिलो मातुरित्थ॑जातस्नेहो यत्र तन्वाभिजातः ।
तत्त्वाम्नायं यत्प्रवदन्ति साड्ख्यंप्रोवाच वै भक्तिवितानयोगम् ॥
३१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; विदित्वा--जानकर; अर्थम्--अभिप्राय; कपिल:--कपिल; मातु:--अपनी माता का;इत्थम्--इस प्रकार; जात-स्नेह:--दया आ गईं; यत्र--उस पर; तन्वा--अपने शरीर से; अभिजात: -- उत्पन्न; तत्त्व-आम्नायम्--शिष्य-परम्परा से प्राप्त सत्य; यत्--जो; प्रवदन्ति--पुकारते हैं; साइख्यम्--सांख्य दर्शन; प्रोवाच--वर्णन किया; बै--वास्तव में; भक्ति-- भक्ति; वितान--विस्तार; योगम्--योग
श्रीमैत्रेय ने कहा : अपनी माता का कथन सुनकर कपिल उसका प्रयोजन समझ गयेऔर उसके प्रति दयारद्द्र हो उठे, क्योंकि उन्होंने उसके शरीर से जन्म लिया था।
उन्होंने सांख्य दर्शन का वर्णन किया जो शिष्य-परम्परा से प्राप्त भक्ति तथा योगिक साक्षात्कार का एक मिलाजुला रूप है।
श्रीभगवानुवाचदेवानां गुणलिड्भानामानु श्रविककर्मणाम् ।
सत्त्व एवैकमनसो वृत्ति: स्वाभाविकी तु याअनिमित्ता भागवती भक्ति: सिद्धेर्गगीयसी ॥
३२॥
श्री-भगवान् उवाच-- श्री भगवान् ने कहा; देवानामू--इन्द्रियों के प्रमुख देवों या इन्द्रियों का; गुण-लिड्ञनाम्--जोविषयों को पहचानते हैं; आनुभश्रविक--शास्त्रों के अनुसार; कर्मणाम्ू--कौन सा कर्म; सत्त्वे--मन को या भगवान्को; एब--केवल; एक-मनसः ---अविभाजित मन वाले व्यक्ति का; वृत्तिः--झुकाव; स्वाभाविकी -- प्राकृतिक ;तु--वास्तव में; या--जो; अनिमित्ता--निमित्तरहित; भागवती-- भगवान् के प्रति; भक्ति:--भक्ति; सिद्धेः--मोक्ष कीअपेक्षा; गरीयसी-- श्रेयस्कर |
भगवान् कपिल ने कहा : ये इन्द्रियाँ दैवों की प्रतीकात्मक प्रतिनिधि हैं और इनकास्वाभाविक झुकाव बैदिक आदेशों के अनुसार कर्म करने में है।
जिस प्रकार इन्द्रियाँदेवताओं देवताओं की प्रतीक हैं, उसी प्रकार मन भी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् काप्रतिनिधि है।
मन का प्राकृतिक कार्य सेवा करना है।
जब यह सेवा-भाव किसी हेतु केबिना श्रीभगवान् की सेवा में लगा रहता है, तो यह सिद्धि से कहीं बढ़कर है।
जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा ॥
३३॥
'जरयति--पचा देती है; आशु--तुरन््त; या--जो; कोशम्--सूक्ष्म शरीर को; निगीर्णम्--खाई वस्तुओं को; अनल:ः--अग्नि; यथा--जिस प्रकार।
भक्ति जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर को बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के उसी प्रकारविलय कर देती है, जिस प्रकार जठराग्नि खाये हुए भोजन को पचा देती है।
नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचिन्मत्पादसेवाभिरता मदीहाः ।
येडन्योन्यतो भागवताः प्रसज्यसभाजयन्ते मम पौरुषाणि ॥
३४॥
न--कभी नहीं; एक-आत्मताम्--एकाकार होना; मे--मेरा; स्पृहयन्ति--इच्छा करते हैं; केचित्--कोई भी; मत्ू-पाद-सेवा--मेरे चरणकमलों की सेवा में; अभिरता:--लगे हुए; मत्-ईहा:--मुझे प्राप्त करने का प्रयास करते हुए;ये--जो; अन्योन्यतः--परस्पर; भागवता:-- शुद्ध भक्त; प्रसज्य--जुट कर; सभाजयन्ते--गुणगान करते हैं; मम--मेरे; पौरुषाणि--पराक्रमों का
जो भक्ति-कार्यों में संलग्न है और जो मेरे चरणकमलों की सेवा में निरन्तर लगा रहता है, ऐसा शुद्ध भक्त कभी भी मुझसे तदाकार एकात्म होना नहीं चाहता।
ऐसा भक्त जो अविचिलित होकर लगा रहता है सदैव मेरी लीलाओं तथा कार्य-कलापों कागुणगान करता है।
पश्यन्ति ते मे रुचिराण्यम्ब सन्तःप्रसन्नवक्त्रार॒णलोचनानि ।
रूपाणि दिव्यानि वरप्रदानिसाकं वाचं स्पृहणीयां वदन्ति ॥
३५॥
'पश्यन्ति--देखते हैं; ते--वे; मे--मेरा; रुचिराणि-- सुन्दर; अम्ब--हे माता; सन््तः--भक्तजन; प्रसन्न--हँसता हुआ;वक्त्र--मुखमंडल; अरुण --प्रभातकालीन सूर्य के समान; लोचनानि--नेत्र; रूपाणि--रूप; दिव्यानि--दिव्य ; वर-प्रदानि--वरदायक; साकम्--मेरे साथ; वाचम्--शब्द; स्पृहणीयाम्-- अनुकूल; वदन्ति--कहते हैं |
हे माता, मेरे भक्त नित्य ही उदीयमान प्रभात के सूर्य सदृश नेत्रों से युक्त मेरे प्रसन्नमुखमण्डल वाले रूप का अवलोकन करते हैं।
वे मेरे विभिन्न दिव्य मित्रवत रूपों कोदेखना चाहते हैं और साथ ही मुझसे अनुकूल सम्भाषण करना चाहते हैं।
तैर्दर्शनीयावयवैरुदार-विलासहासेक्षितवामसूक्ते: ।
हतात्मनो हतप्राणांश्व भक्ति-रनिच्छतो मे गतिमण्वीं प्रयुड़े ॥
३६॥
तैः--उन रूपों से; दर्शनीय--मोहक; अवयवै:--अंगों-प्रत्यंगों से; उदार--उदार; विलास--लीलाएँ; हास--मुसकान; ईक्षित--चितवन; वाम--मनोहर; सूक्तै:--आनन्दायक शब्दों से; हत--मोहित; आत्मन:--मन; हत--मोहित; प्राणानू--इन्द्रियाँ; च--तथा; भक्ति:-- भक्ति; अनिच्छत:--न चाहते हुए; मे--मेरा; गतिम्ू-- धाम;अण्वीम्--सूक्ष्म; प्रयुड़े --प्राप्त करता है
भगवान् के मुसकाते तथा आकर्षक स्वरूप को देखकर तथा उनके अत्यन्त मोहकशब्दों को सुनकर शुद्ध भक्त अपनी अन्य समस्त चेतना खो बैठते हैं।
उनकी इन्द्रियाँअन्य समस्त कार्यों से मुक्त होकर भक्ति में तल्लीन हो जाती हैं।
इस प्रकार अनिच्छित हीसही उसे अनायास मुक्तिप्राप्त हो जाती है।
अथो विभूतिं मम मायाविनस्ता-मैश्वर्यमष्टाड्रमनुप्रवृत्तम् ।
श्रियं भागवतीं वास्पृहयन्ति भद्रांपरस्य मे तेउश्नुवते तु लोके ॥
३७॥
अथो--तब; विभूतिम्--ऐश्वर्य; मम--मेरे; मायाविन:--माया के स्वामी का; ताम्--उस; ऐ श्वर्यमू--योग की सिद्ध्धिको; अष्ट-अड्र्म्--आठ अंगों वाली; अनुप्रवृत्तम्--पालन करते हुए; अ्ियमू--चमक-दमक; भागवतीम्--ईश्वर केसाम्राज्य को; वा--अथवा; अस्पृहयन्ति--कामना नहीं करते; भद्रामू--शुभ; परस्य--परमे श्वर का; मे--मेरा; ते--वेभक्त; अश्नुवते-- भोग करते हैं; तु--लेकिन; लोके --इस जीवन में
इस प्रकार मेरे ही विचारों में निमग्न रहने के कारण भक्त को स्वर्गलोक में प्राप्य श्रेष्ठवर जिसमें सत्यलोक सम्मिलित है की भी इच्छा नहीं रह जाती।
उसमें योग से प्राप्तहोने वाली अष्ट सिद्धियों की भी कामना नहीं रह जाती, न ही वह ईश्वर के धाम पहुँचनाचाहता है।
तथापि न चाहते हुए भी, इसी जीवन में भक्त प्रदान किए गये उन समस्तवरदानों को भोगता है।
न कर्हिचिन्मत्परा: शान्तरूपेनदडुछ्ष्यन्ति नो मेडनिमिषो लेढि हेति: ।
येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्चसखा गुरु: सुहृदो दैवमिष्टम् ॥
३८ ॥
न--नहीं; कर्हिचित्ू--सदैव; मत्-परा: --मेरे भक्त; शान्त-रूपे--हे माता; नड्छ्यन्ति--खो देंगे; नो--नहीं; मे--मेरा; अनिमिष:--समय ; लेढि--नष्ट करता है; हेतिः:--आयुध; येषामू--जिनका; अहम्--मैं; प्रियः--प्यारा;आत्मा--स्व; सुतः--पुत्र; च--तथा; सखा--मित्र; गुरुः--शिक्षक; सुहृदः--शुभचिन्तक; दैवम्--देवता, विग्रह;इष्टम्-हृष्ट, अभीष्ट |
भगवान् ने आगे कहा : हे माते, जो भक्त ऐसा दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त कर लेते हैं, वेउससे कभी वंचित नहीं होते।
ऐसे ऐश्वर्य को न तो आयुध, न काल-परिवर्तन ही विनष्टकर सकता है।
चूँकि भक्तगण मुझे अपना मित्र, सम्बन्धी, पुत्र, शिक्षक, शुभचिन्तकतथा परमदेव मानते हैं, अतः किसी काल में भी उनसे यह ऐश्वर्य छीना नहीं जा सकता।
इमं लोक॑ तथैवामुमात्मानमुभयायिनम् ।
आत्मानमनु ये चेह ये राय: पशवो गृहा: ॥
३९॥
विसृज्य सर्वानन्यांश्व मामेवं विश्वतोमुखम् ।
भजन्त्यनन्यया भकत्या तान्मृत्योरतिपारये ॥
४०॥
इमम्--इस; लोकम्--संसार; तथा--उसी तरह; एव--निश्चय ही; अमुम्--वह संसार; आत्मानम्--सूक्ष्म देह;उभय--दोनों में; अयिनम्-- भ्रमण करते; आत्मानम्--शरीर; अनु--के साथ-साथ; ये--जो; च-- भी; इह--इससंसार में; ये--जो; राय:--सम्मति; पशव:--पशु; गृहा: --घर; विसृज्य--त्याग कर; सर्वानू--सभी; अन्यान्ू--अन्य; च--तथा; मामू--मुझको; एवम्--इस प्रकार; विश्वतः -मुखम्--ब्रह्माण्डव्यापी भगवान् को; भजन्ति--पूजतेहैं; अनन्यया--अनन्य भाव से; भक्त्या--भक्ति से; तानू--उनको; मृत्यो: --मृत्यु के; अतिपारये--पार ले जाता हूँ
इस प्रकार जो भक्त मुझे सर्वव्यापी, जगत् के स्वामी की अनन्य भाव से पूजा करताहै, वह स्वर्ग जैसे उच्चतर लोकों में भेजे जाने अथवा इसी लोक में धन, सन्तति, पशु, घरअथवा शरीर से सम्बन्धित किसी भी वस्तु के साथ सुख पूर्वक रहने की समस्तकामनाओं को त्याग देता है।
मैं उसे जन्म और मृत्यू के सागर के उस पार ले जाता हूँ।
नान्यत्र मद्भगवत:ः प्रधानपुरुषेश्वरात् ।
आत्मनः सर्वभूतानां भयं तीब्रं निवर्तते ॥
४१॥
न--नहीं; अन्यत्र--दूसरा; मत्--मेरे सिवा; भगवतः-- श्रीभगवान् ; प्रधान-पुरुष-ई श्वरात्ू--ईश्वर जो प्रकृति तथापुरुष दोनों है; आत्मन:--आत्मा; सर्व-भूतानाम्--समस्त जीवों में; भयम्-- भय; तीव्रमू--विकट; निवर्तते--छुटकारा पाता है।
यदि कोई मुझको छोड़कर अन्य की शरण ग्रहण करता है, तो वह जन्म तथा मृत्युके विकट भय से कभी छुटकारा नहीं पा सकता, क्योंकि मैं सर्वशक्तिमान, परमेश्वरअर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, समस्त सृष्टि का आदि स्त्रोत तथा समस्त आत्माओं काभी परमात्मा हूँ।
मद्धयाद्वाति वातोयं सूर्यस्तपति मद्धयात् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निर्मृत्युश्वरति मद्भयात् ॥
४२॥
मत्-भयात्--मेरे भय से; वाति--बहती है; वात:--वायु; अयम्--यह; सूर्य: --सूर्य; तपति--चमकता है; मत्ू-भयातू--मेरे भय से; वर्षति--बरसता है; इन्द्र:--इनद्र; दहति--जलती है; अग्निः-- अग्नि; मृत्यु: --मृत्यु; चरति--जाती है; मत्-भयात्--मेरे भय से ।
यह मेरी श्रेष्ठता है कि मेरे ही भय से हवा बहती है, मेरे ही भय से सूर्य चमकता हैऔर मेघों का राजा इन्द्र मेरे ही भय से वर्षा करता है।
मेरे ही भय से अग्नि जलती है औरमेरे ही भय से मृत्यु इतनी जानें लेती है।
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियोगेन योगिन: ।
क्षेमाय पादमूलं मे प्रविशन्त्यकुतोभयम् ॥
४३॥
ज्ञान--ज्ञान; वैराग्य--तथा वैराग्य से; युक्तेन--सज्जित; भक्ति-योगेन-- भक्तियोग के द्वारा; योगिन:--योगीजन;क्षेमाय--शाश्रत लाभ के लिए; पाद-मूलम्--चरणों में; मे--मेरे; प्रविशन्ति--शरण ग्रहण करते हैं; अकुतः-भयम्--निडर, निर्भय |
योगीजन दिव्य ज्ञान तथा त्याग से युक्त होकर एवं अपने शाश्रत लाभ के लिए मेरेचरणकमलों में शरण लेते हैं और चूंकि मैं भगवान् हूँ, अतः वे भयमुक्त होकरभगवद्धाम में प्रवेश पाने के लिए पात्र हो जाते हैं।
एतावानेव लोकेस्मिन्पुंसां नि: श्रेयसोदय: ।
तीब्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरमू ॥
४४॥
एतावान् एव--इतना ही; लोके अस्मिन्--इस संसार में; पुंसामू--मनुष्यों का; नि:श्रेयस--जीवन की अन्तिम सिद्धिकी; उदय:--प्राप्ति; तीत्रेण --तीत्; भक्ति-योगेन-- भक्ति के अभ्यास से; मनः--मन; मयि--मुझमें; अर्पितम्--लगेहुए; स्थिरम्--स्थिर।
अतः जिन व्यक्तियों के मन भगवान् में स्थिर हैं, वे भक्ति का तीव्र अभ्यास करते हैं।
जीवन की अन्तिम सिद्धि प्राप्त करने का यही एकमात्र साधन है।
अध्याय छब्बीसवाँ: भौतिक प्रकृति के मौलिक सिद्धांत
3.26श्रीभगवानुवाचअथ ते सपम्प्रवक्ष्यामि तत्त्वानां लक्षणं पृथक् ।
यद्विदित्वा विमुच्येत पुरुष: प्राकृतैर्गुणै: ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; अथ---अब ; ते--तुमसे; सम्प्रवक्ष्यामि--कहूँगा; तत्त्वानामू--परम सत्य कीकोटियों के; लक्षणम्--लक्षण; पृथक्-- अलग-अलग; यत्--जिसे; विदित्वा-- जानकर; विमुच्येत--मुक्त होसकता है; पुरुष:--कोई व्यक्ति; प्राकृतैः--प्रकृति के; गुणैः--गुणों से
भगवान् कपिल ने आगे कहा : हे माता, अब मैं तुमसे परम सत्य की विभिन्नकोटियों का वर्णन करूँगा जिनके जान लेने से कोई भी पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रभावसे मुक्त हो सकता है।
ज्ञानं निःश्रेयसार्थाय पुरुषस्यात्मदर्शनम् ।
यदाहुर्वर्णये तत्ते हृदयग्रन्थिभेदनम् ॥
२॥
ज्ञानम्--ज्ञान; नि: श्रेयस-अर्थाय--चरम सिद्धि के लिए; पुरुषस्य--मनुष्य का; आत्म-दर्शनम्--आत्म-साक्षात्कार;यत्--जो; आहु: --कहा है; वर्णये--वर्णन करूँगा; तत्ू--वह; ते-- तुमसे; हृदय--हृदय में; ग्रन्थि-- ग्रन्थियाँ;भेदनम्--काटती हैं।
आत्म-साक्षात्कार की चरम सिद्धि ज्ञान है।
मैं तुमको वह ज्ञान बतलाऊँगा जिससेभौतिक संसार के प्रति आसक्ति की ग्रन्थियाँ कट जाती हैं।
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुण: प्रकृतेः पर: ।
प्रत्यग्धामा स्वयंज्योतिर्विश्चं येन समन्वितम् ॥
३॥
अनादिः--जिसका आदि न हो; आत्मा--परमात्मा; पुरुष: -- भगवान्; निर्गुण:-- प्रकृति के गुणों से परे; प्रकृतेः'परः--इस भौतिक संसार से परे; प्रत्यक्-धामा--सर्वत्र दर्शनीय; स्वयम्-ज्योति:--स्वयं प्रकाशवान; विश्वम्--सम्पूर्णसृष्टि; येन--जिससे; समन्वितम्--पालित है।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् परमात्मा हैं और उनका आदि नहीं है।
वे प्रकृति के गुणों सेपरे और इस भौतिक जगत के अस्तित्व के परे हैं।
वे सर्वत्र दिखाई पड़ने वाले हैं, क्योंकिवे स्वयं प्रकाशवान हैं और उनकी स्वयं प्रकाशवान कान्ति से सम्पूर्ण सृष्टि का पालनहोता है।
सषष प्रकृतिं सूक्ष्मां दैवीं गुणमर्यीं विभु: ।
यहच्छयैवोपगताम भ्यपद्यत लीलया ॥
४॥
सः एष:--वही भगवान; प्रकृतिमू-- भौतिक शक्ति को; सूक्ष्माम्--सूक्ष्म; दैवीम्--विष्णु से सम्बन्धित, वैष्णवी;गुणमयीम्--तीन गुणों से युक्त; विभुः--महान् से महानतम्; यहच्छया--स्वेच्छा से; इब--पर्याप्त; उपगताम्--प्राप्त;अभ्यपद्यत--स्वीकार किया; लीलया-- अपनी लीला के रूप में |
उस महान् से महानतम् श्रीभगवान् ने सूक्ष्म भौतिक शक्ति को अपनी लीला के रूपमें स्वीकार किया जो त्रिगुणमयी है और विष्णु से सम्बन्धित है।
गुणैर्विचित्रा: सृजतीं सरूपा: प्रकृतिं प्रजा: ।
विलोक्य मुमुहे सद्यः स इह ज्ञानगूहया ॥
५॥
गुणैः--तीनों गुणों से; विचित्रा:--विविध प्रकार का; सृजतीम्--उत्पन्न करती हुईं; स-रूपा:--रूपों सहित;प्रकृतिम्--प्रकृति; प्रजा:--जीवात्माएँ; विलोक्य--देखकर; मुमुहे--मोह ग्रस्त था; सद्य: --तुरन््त; सः--जीवात्मा;इह--इस संसार में; ज्ञान-गूहया--ज्ञान-आवरण के गुण से।
अपने तीन गुणों से अनेक प्रकारों में विभक्त यह भौतिक प्रकृति जीवों के स्वरूपोंको उत्पन्न करती है और इसे देखकर सारे जीव माया के ज्ञान-आच्छादक गुण सेमोहग्रस्त हो जाते हैं।
एवं पराभिध्यानेन कर्तृत्व॑ प्रकृते: पुमान् ।
कर्मसु क्रियमाणेषु गुणैरात्मनि मन््यते ॥
६॥
एवम्--इस प्रकार; पर-- अन्य; अभिध्यानेन--पहचान से; कर्तृत्वम्ू--कर्म का सम्पादन; प्रकृतेः--प्रकृति का;पुमान्--जीवात्मा; कर्मसु क्रियमाणेषु--कर्म करते समय; गुणैः--तीन गुणों के द्वारा; आत्मनि--अपने आपको;मन्यते--मानता है।
अपनी विस्मृति के कारण दिव्य जीवात्मा प्रकृति के प्रभाव को अपना कर्मक्षेत्र मानबैठता है और इस प्रकार प्रेरित होकर त्रुटिवश अपने को कर्मों का कर्ता मानता है।
तदस्य संसृतिर्बन्ध: पारतन्र्यं च तत्कृतम् ।
भवत्यकर्तुरीशस्य साक्षिणो निर्वृतात्मनः ॥
७॥
ततू-- भ्रान्त धारणा से; अस्य--जीव का; संसृति:--बद्ध जीवन; बन्ध:--बन्धन: ; पार-तन्त्रयम्--पराधीन, निर्भरता;च--तथा; तत्-कृतम्--उससे निर्मित; भवति--है; अकर्तुः--अकर्ता का; ईशस्य--स्वतन्त्र; साक्षिण: --साक्षी,गवाह; निर्वृत-आत्मन:--प्रकृति से प्रसन्न |
भौतिक चेतना ही मनुष्य के बद्धजीवन का कारण है, जिसमें परिस्थितियाँ जीव परहाबी हो जाती हैं।
यद्यपि आत्मा कुछ भी नहीं करता और ऐसे कर्मों से परे रहता है,किन्तु इस प्रकार वह बद्धजीवन से प्रभावित होता है।
कार्यकारणकर्तत्वे कारणं प्रकृतिं विदुः ।
भोक्तृत्वे सुखदुःखानां पुरुष प्रकृतेः परम् ॥
८॥
कार्य--शरीर; कारण--इन्द्रियाँ; कर्तृत्वे--देवताओं के विषय में; कारणम्--कारण; प्रकृतिम्-- प्रकृति; विदुः--विद्वान समझते हैं; भोक्तृत्वे--अनुभव के विषय में; सुख--सुख का; दुःखानाम्--तथा दुख का; पुरुषमू--आत्मा;प्रकृते:--प्रकृति का; परम्--दिव्य
बद्धजीव के शरीर, इन्द्रियों तथा इन्द्रियों के अधिष्ठता देवों का कारण भौतिकप्रकृति है।
इसे विद्वान मनुष्य जानते हैं।
स्वभाव से दिव्य, ऐसे आत्मा के सुख तथा दुखजैसे अनुभव स्वयं आत्मा द्वारा उत्पन्न होते हैं।
देवहूतिरुवाचप्रकृते: पुरुषस्यापि लक्षणं पुरुषोत्तम ।
ब्रूहि कारणयोरस्य सदसच्च यदात्मकम् ॥
९॥
देवहूति: उबाच--देवहूति ने कहा; प्रकृते:--शक्तियों का; पुरुषस्य--परम पुरुष की; अपि--भी; लक्षणमू्-- लक्षण;पुरुष-उत्तम--हे भगवान्; बूहि--कहें; कारणयो:-- कारण; अस्य--इस सृष्टि का; सत्-असत्--प्रकट तथाअप्रकट; च--तथा; यत्-आत्मकम्--जिससे युक्त |
देवहूति ने कहा : हे भगवान्, आप परम पुरुष तथा उनकी शक्तियों के लक्षण कहें,क्योंकि ये दोनों इस प्रकट तथा अप्रकट सृष्टि के कारण हैं।
श्रीभगवानुवाचयत्तत्त्रिगुणमव्यक्त नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधान प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत् ॥
१०॥
श्री-भगवान् उवाच-- श्रीभगवान् ने कहा; यत्--अब आगे; तत्--वह; त्रि-गुणम्--तीन गुणों का संयोग;अव्यक्तम्--अप्रकट; नित्यम्-शाश्वत; सत्-असतू-आत्मकम्-कार्य तथा कारण से युक्त; प्रधानम्-प्रधान;प्रकृतिम्--प्रकृति; प्राहु:--कहते हैं; अविशेषम्--जिसमें अन्तर न किया जा सके ; विशेष-बत्--अन्तर से युक्त
भगवान् ने कहा : तीनों गुणों का अप्रकट शाश्वत संयोग ही प्रकट अवस्था काकारण है और प्रधान कहलाता है।
जब यह प्रकट अवस्था में होता है, तो इसे प्रकृति कहते हैं।
पदञ्ञभिः पञ्ञभि्रहा चतुर्भिरदेशभिस्तथा ।
एतच्चतुर्विशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः ॥
११॥
पश्चभि:ः--पाँच सहित स्थूल तत्त्व ; पञ्ञभिः--पाँच सूक्ष्म तत्त्व ; ब्रह्म--ब्रह्म; चतुर्भि:--चार अन्तःकरण ;दश्भि:--दस पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ ; तथा--उस प्रकार से; एतत्--यह; चतु:-विंशतिकम्--चौबीस तत्त्वों वाला; गणम्--समूह; प्राधानिकम्--प्रधान से युक्त; विदु:--जानते हैं |
पाँच स्थूल तत्त्व, पाँच सूक्ष्म तत्त्व, चार अन्तःकरण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँचकर्मेन्द्रियाँ इन चौबीस तत्त्वों का यह समूह प्रधान कहलाता है।
महाभूतानि पञ्जैव भूरापोउग्निर्मरुन्नभः ।
तन्मात्राणि च तावन्ति गन्धादीनि मतानि मे ॥
१२॥
महा-भूतानि--स्थूल तत्त्व; पञ्ञ--पाँच; एब--ठीक-ठीक; भूः--पृथ्वी; आप:--जल; अग्नि:-- अग्नि; मरुतू--वायु; नभ:--आकाश; ततू-मात्राणि--सूक्ष्म तत्त्त; च--तथा; तावन्ति--इतने सारे; गन्ध-आदीनि--गंध इत्यादि स्वाद, रंग, स्पर्श तथा ध्वनि ; मतानि--माने जाते हैं; मे--मेरे द्वारा
पाँच स्थूल तत्त्वों के नाम हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश शून्य ।
सूक्ष्मतत्त्व भी पाँच हैं-गंध, स्वाद, रंग, स्पर्श तथा शब्द ध्वनि ।
इन्द्रियाणि दश श्रोत्रं त्वग्हग्रसननासिका: ।
वाक्करौ चरणौ मेढ़ं पायुर्दशम उच्यते ॥
१३॥
इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; दश--दस; श्रोत्रम्ू-- श्रवणेन्द्रिय; त्वक्--स्पर्शेन्द्रिय; हक् --दृष्टि की इन्द्रिय; रसन--स्वाद कीइन्द्रिय; नासिका:--गन्ध की इन्द्रिय; वाक्ु--वाणी की इन्द्रिय; करौ--दो हाथ; चरणौ--चलने की इन्द्रियाँ पाँव ;मेढ्मू--जननेन्द्रिय; पायु;:--मलत्याग की इन्द्रिय; दशम:--दसवीं; उच्यते--कहलाती है|
ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रयों को मिलाकर इनकी संख्या दस है।
ये हैं-- श्रवणेन्द्रिय,स्वादेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय दृश्येन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, वागेन्द्रिय, कार्य करने की इन्द्रियाँ, चलनेकी इन्द्रियाँ, जननेन्द्रियाँ तथा मलत्याग इन्द्रियाँ।
मनो बुद्धिरहड्डारश्नित्तमित्यन्तरात्मकम् ।
चतुर्धा लक्ष्यते भेदो वृत्त्या लक्षणरूपया ॥
१४॥
मनः--मन; बुद्धि:--बुद्धि; अहड्लार: --अहंकार; चित्तम्--चेतना; इति--इस प्रकार; अन्त:ः-आत्मकम्--आन्तरिकसूक्ष्म इन्द्रियाँ; चतु:-धा--चार प्रकार की; लक्ष्यते--देखी जाती हैं; भेद: --अन्तर; वृत्त्या--अपने कार्यो से; लक्षण-रूपया--विभिन्न लक्षणों द्वारा।
आन्तरिक सूक्ष्म इन्द्रियाँ मन, बुद्धि, अहंकार तथा कलुषित चेतना के रूप में चारप्रकार की जानी जाती हैं।
उनके विभिन्न कार्यों के अनुसार ही इनमें भेद किया जासकता है क्योंकि ये विभिन्न लक्षणों को बताने वाली हैं।
एतावानेव सड्ख्यातो ब्रह्मण: सगुणस्य ह ।
सन्निवेशो मया प्रोक्तो य: काल: पञ्ञविंशकः ॥
१५॥
एतावान्--इतना; एव--ही; सड्ख्यात:--गिनाया गया; ब्रह्मण: --ब्रह्म का; स-गुणस्य-- भौतिक गुणों से युक्त;ह--निस्सन्देह; सन्निवेश: -- प्रबन्ध; मया-- मेरे द्वारा; प्रोक्त:--कहा गया; यः--जो; काल:--समय; पशञ्ञ-विंशकः--पच्चीसवाँ |
इन सबको सुयोग्य ब्रह्म माना जाता है।
इन सबको मिलाने वाला तत्त्व काल है,जिसे पच्चीसवें तत्त्व के रूप में गिना जाता है।
प्रभाव पौरुषं प्राहु: कालमेके यतो भयम् ।
अहड्डारविमूढस्य कर्तु: प्रकृतिमीयुष: ॥
१६॥
प्रभावम्--प्रभाव; पौरुषम्-- भगवान् का; प्राहुः--कहा गया है; कालमू--काल; एके--कुछ; यत:--जिससे;भयम्-- भय; अहड्ढार-विमूढस्य--अहंकार से विमूढ़; कर्तु:--आत्मा का; प्रकृतिम्--प्रकृति को; ईयुष:--स्पर्शकरके ।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का प्रभाव काल में अनुभव किया जाता है, क्योंकि यहभौतिक प्रकृति के सम्पर्क में आने वाले मोहित आत्मा के अहंकार के कारण मृत्यु काभय उत्पन्न करता है।
प्रकृतेर्गुणसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि ।
चेष्टा यतः स भगवान्काल इत्युपलक्षितः ॥
१७॥
प्रकृते:--प्रकृति का; गुण-साम्यस्य--तीनों गुणों की क्रिया के बिना; निर्विशेषस्य--विशिष्ट गुणों से रहित;मानवि--हे मनु पुत्री; चेष्टा--गति; यत:ः--जिससे; सः--वह; भगवानू-- श्री भगवान्; काल: --समय, काल; इति--इस प्रकार; उपलक्षित:--नाम रखा जाता है।
हे स्वायंभुव-पुत्री, हे माता, जैसा कि मैने बतलाया काल ही श्रीभगवान् है, जिससेउदासीन समभाव एवं अप्रकट प्रकृति के गतिमान होने से सृष्टि प्रारम्भ होती है।
अन्त: पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः ।
समन्वेत्येष सत्त्वानां भगवानात्ममायया ॥
१८॥
अन्तः-- भीतर; पुरुष-रूपेण--परमात्मा के रूप में; काल-रूपेण--काल के रूप में; य:--वह जो; बहि:--बाहा;समन्वेति--विद्यमान है; एष:--वह; सत्त्वानामू--समस्त जीवों का; भगवान्-- श्रीभगवान्; आत्म-मायया--अपनीशक्तियों द्वारा
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हुए अपने आपको भीतरसे परमात्मा रूप में और बाहर काल-रूप में रखकर विभिन्न तत्त्वों का समन्वयन करतेहैं।
दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ पर: पुमान् ।
आश्षत्त वीर्य सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ॥
१९॥
दैवात्-जीवों के भाग्य से; क्षुभित--श्षुब्ध; धर्मिण्यामू--जिसका गुण साम्य; स्वस्थामू--निजी, अपना; योनौ--गर्भ प्रकृति में; पर: पुमान्--परमात्मा; आधत्त-- धारण किया हुआ; वीर्यम्--वीर्य अन्तरंगा शक्ति ; सा--उस प्रकृति ने; असूत--उत्पन्न किया; महत्-तत्त्वमू--समग्र विराट बुर्द्धि; हिरण्मयम्--हिरण्मय नामक |
जब भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति से प्रकृति में व्याप्त होते हैं, तो प्रकृति समग्रविराट बुद्धि को उत्पन्न करती है, जिसे हिरण्मय कहते हैं।
यह तब घटित होता है जबप्रकृति बद्धजीवों के गन्तव्यों द्वारा श्षुब्ध की जाती है।
विश्वमात्मगतं व्यञ्ञन्कूटस्थो जगदड्ढु रः ।
स्वतेजसापिबत्तीव्रमात्मप्रस्वापनं तम: ॥
२०॥
विश्वम्-ब्रह्माण्ड; आत्म-गतम्ू--अपने में सन्निहित; व्यज्ञन्ू--प्रकट करते हुए; कूट-स्थ:--अपरिवर्तनीय; जगतू-अह्'ु रः:--समस्त दृश्य जगत का मूल; स्व-तेजसा--अपने ही तेज से; अपिबत्--पी लिया; तीव्रमू-घना; आत्म-प्रस्वापनम्--जिसने महत् तत्त्व को आवृत कर रखा था; तम:ः--अंधकार |
इस प्रकार तेजस्वी महत् तत्त्व, जिसके भीतर सारे ब्रह्माण्ड समाये हुए हैं, जो समस्तहृश्य जगत का मूल है और जो प्रलय के समय भी नष्ट नहीं होता, अपनी विविधता प्रकटकरके उस अंधकार को निगल जाता है, जिसने प्रलय के समय तेज को ढक लिया था।
यत्तत्सत्त्वगुणं स्वच्छ शान्तं भगवतः पदम् ।
यदाहुर्वासुदेवाख्यं चित्तं तन्महदात्मकम् ॥
२१॥
यत्--जो; तत्--वह; सत्त्व-गुणम्--सतोगुण; स्वच्छम्--साफ; शान्तम्--शान्त; भगवतः-- भगवान् का; पदम्--ज्ञान का पद; यत्ू--जो; आहु: --कहलाता है; वासुदेव-आख्यम्--वासुदेव के नाम से; चित्तमू--चेतना; तत्--वह;महत्-आत्मकम्--महत् तत्त्व में प्रकट |
सतोगुण, जो भगवान् के ज्ञान की स्वच्छ, सौम्य अवस्था है और जो सामान्यतःवासुदेव या चेतना कहलाता है, महत् तत्त्व में प्रकट होता है।
स्वच्छत्वमविकारित्वं शान्तत्वमिति चेतस: ।
वृत्तिभिल॑क्षणं प्रोक्ते यथापां प्रकृति: परा ॥
२२॥
स्वच्छत्वमू--स्वच्छत्व; अविकारित्वम्-विकारों से मुक्ति; शान्तत्वम्-शान्तत्व; इति--इस प्रकार; चेतस:--चेतनाका; वृत्तिभि:--गुणों के द्वारा; लक्षणम्--लक्षण; प्रोक्तम्ू--कहा जाता है; यथा--जिस तरह; अपामू--जल की;प्रकृतिः--स्वाभाविक अवस्था; परा-शुद्धमहत्-
तत्त्व के प्रकट होने के बाद ये वृत्तियाँ एकसाथ प्रकट होती हैं।
जिस प्रकारजल पृथ्वी के संसर्ग में आने के पूर्व अपनी स्वाभाविक अवस्था में स्वच्छ, मीठा तथाशान्त रहता है उसी तरह विशुद्ध चेतना के विशिष्ट लक्षण शान्तत्व, स्वच्छत्व तथाअविकारित्व हैं।
महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणाद्धगवद्ठीर्यसम्भवात् ।
क्रियाशक्तिरहड्डारस्त्रिविध: समपद्यत ॥
२३॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्च यतो भव: ।
मनसश्रैन्द्रियाणां च भूतानां महतामपि ॥
२४॥
महत्-तत्त्वात्ू-महत् तत्त्व से; विकुर्वाणात्--विकृत होने से; भगवत्-वीर्य-सम्भवात्-- भगवान् की निजी शक्ति सेउत्पन्न; क्रिया-शक्ति:--सक्रिय शक्ति से युत; अहड्लार:--अहंकार; त्रि-विध:--तीन प्रकार का; समपद्यत--उत्पन्नहुआ; वैकारिक:--रूपान्तरित सतोगुण में अहंकार; तैजस:ः--रजोगुण में अहंकार; च--तथा; तामस:--तमोगुण में अहंकार; च-- भी; यत:--जिससे; भव: --उत्पत्ति; मनस:--मन का; च--तथा; इन्द्रियाणाम्--ज्ञान तथा कर्म कीइन्द्रियों का; च--तथा; भूतानाम् महताम्--पाँच स्थूल तत्त्वों का; अपि--भी
महत् तत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है, जो भगवान् की निजी शक्ति से उद्भूत है।
अहंकार में मुख्य रूप से तीन प्रकार की क्रियाशक्तियाँ होती हैं--सत्त्व, रज तथा तम।
इन्हीं तीन प्रकार के अहंकार से मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा स्थूल तत्त्व उत्पन्न हुए।
सहस्त्रशिरसं साक्षाद्यममनन्तं प्रचक्षते ।
सड्डूर्षणाख्यं पुरुषं भूतेन्द्रियमनोमयम् ॥
२५॥
सहस्त्र-शिरसम्--एक हजार शिरों वाला; साक्षात्-- प्रकट रूप में; यमू--जिसको; अनन्तम्ू-- अनन्त; प्रचक्षते --कहते हैं; सड्डर्षण-आख्यम्--संकर्षण नाम से; पुरुषम्-- श्रीभगवान्; भूत--स्थूल तत्त्व; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मन:-मयम्--मन से युक्त
स्थूल तत्त्वों का स्त्रोत, इन्द्रियाँ तथा मन--ये ही तीन प्रकार के अहंकार उनसे अमिन्तहैं, क्योंकि अहंकार ही उनका कारण है।
यह संकर्षण के नाम से जाना जाता है, जो किएक हजार शिरों वाले साक्षात् भगवान् अनन्त हैं।
कर्तृत्वं करणत्वं च कार्यत्वं चेति लक्षणम् ।
शान्तघोरविमूढत्वमिति वा स्यादहड्डू ते: ॥
२६॥
कर्तृत्वमू--कर्ता होने; करणत्वम्--कारण होना; च--तथा; कार्यत्वम्--प्रभाव होना; च-- भी; इति--इस प्रकार;लक्षणम्--लक्षण; शान्त--शान्त; घोर--सक्रिय; विमूढत्वम्--मन्द या बुद्धू होना; इति--इस प्रकार; वा--अथवा;स्थात्-होवे; अहड्डू ते: --अहंकार।
यह अहंकार कर्ता, करण साधन तथा कार्य प्रभाव के लक्षणों वाला होता है।
सतो, रजो तथा तमो गुणों के द्वारा यह जिस प्रकार प्रभावित होता है उसी के अनुसार यहशान्त, क्रियावान या मन्द लक्षण वाला माना जाता है।
वैकारिकाद्विकुर्वाणान्मनस्तत्त्वमजायत ।
यत्सट्डूल्पविकल्पाभ्यां वर्तते कामसम्भव: ॥
२७॥
वैकारिकात्--सत्व के अहंकार से; विकुर्वाणात्ू--विकृत होने से; मनः--मन; तत्त्वमू--नियम; अजायत--उत्पन्नहुआ; यत्--जिसके ; सड्डूल्प--विचार; विकल्पाभ्याम्--तथा विकल्पों से; वर्तते--घटित होता है; काम-सम्भव: --इच्छा का उदय ।
सत्त्व के अहंकार से दूसरा विकार आता है।
इससे मन उत्पन्न होता है, जिसकेसंकल्पों तथा विकल्पों से इच्छा का उदय होता है।
यद्विदुर्हनिरुद्धाख्यं हषीकाणामधी श्वरम् ।
शारदेन्दीवरश्यामं संराध्यं योगिभि: शनै: ॥
२८॥
यत्--जो मन; विदुः--जाना जाता है; हि--निस्सन्देह; अनिरुद्ध-आख्यम्-- अनिरुद्ध के नाम से; हषीकाणाम्--इन्द्रियों का; अधी श्वरम्--परम शासक; शारद--शरदकालीन; इन्दीवर--नील, कमल के समान; श्याममू--नीला;संराध्यम्ू--जो पाया जाता है; योगिभि:--योगियों के द्वारा; शनैः -- धीरे-धीरे |
जीवात्मा का मन इन्द्रियों के परम अधिष्ठाता अनिरुद्ध के नाम से प्रसिद्ध है।
उसकानील-श्याम शरीर शरद्कालीन कमल के समान है।
योगीजन उसे शनै-शने प्राप्त करतेहैं।
तैजसात्तु विकुर्वाणाद्वुद्धितत्त्वमभूत्सति ।
द्रव्यस्फुरणविज्ञानमिन्द्रियाणामनुग्रह: ॥
२९॥
तैजसात्--रजोगुणी अहंकार से; तु--तब; विकुर्वाणात्ू--विकार होने से; बुद्धि--बुद्धि; तत्त्वम्-तत्त्व; अभूत्--जन्म लिया; सति--हे सती; द्रव्य--पदार्थ; स्फुरण--दिखाई पड़ने पर; विज्ञानम्--निश्चित करते हुए; इन्द्रियाणाम्--इन्द्रियों की; अनुग्रह:ः--सहायता करना |
हे सती, रजोगुणी अहंकार में विकार होने से बुद्धि का जन्म होता है।
बुद्धि के कार्यहैं दिखाई पड़ने पर पदार्थों की प्रकृति के निर्धारण में सहायता करना और इन्द्रियों कीसहायता करना।
संशयोथ विपर्यासो निश्चय: स्मृतिरिव च ।
स्वाप इत्युच्यते बुद्धेर्लक्षणं वृत्तित: पृथक् ॥
३०॥
संशय:--सन्देह; अथ--तब; विपर्यास:--विपरीत ज्ञान; निश्चय:ः--सही ज्ञान; स्मृतिः--स्मरण शक्ति; एव-- भी;च--तथा; स्वाप:--निद्रा; इति--इस प्रकार; उच्यते--कहे जाते हैं; बुद्धेः--बुद्धि के; लक्षणम्--लक्षण; वृत्तित:--अपने कार्यों से
पृथक्ू-भिन्न सन्देह, विपरीत ज्ञान, सही ज्ञान, स्मृति तथा निद्रा, ये अपने भिन्न-भिन्न कार्यों सेनिश्चित किये जाते हैं और ये ही बुद्धि के स्पष्ट लक्षण हैं।
तैजसानीन्द्रियाण्येव क्रियाज्ञानविभागश: ।
प्राणस्य हि क्रियाशक्तिर्बुद्धेर्विज्ञानशशक्तिता ॥
३१॥
तैजसानि--रजोगुणी अहंकार से उत्पन्न; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; एबव--निश्चय ही; क्रिया--कर्म; ज्ञान--ज्ञान;विभागश:--के अनुसार; प्राणस्थ--प्राण की; हि--निश्चय ही; क्रिया-शक्ति:--कर्मेनिद्रियाँ; बुद्धेः--बुद्धि की;विज्ञान-शक्तिता-ज्ञानेन्द्रियाँ ॥
रजोगुणी अहंकार से दो प्रकार की इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं-ज्ञानेन्द्रियाँ तथाकर्मेन्द्रियाँ।
कर्मेन्द्रियाँ प्राणशक्ति पर और ज्ञानेन्द्रियाँ बुद्धि पर आश्रित होती हैं।
तामसाच्च विकुर्वाणाद्धगवद्ठीर्यचोदितात् ।
शब्दमात्रमभूत्तस्मान्नभः श्रोत्रं तु शब्दगम् ॥
३२॥
तामसात्--तामसी अहंकार से; च--तथा; विकुर्वाणात्--विकार से; भगवत्-बीर्य-- भगवान् की शक्ति से;चोदितात्-प्रेरित; शब्द-मात्रमू-शब्द का सूक्ष्म तत्त्व; अभूत्-- प्रकट हुआ; तस्मात्--उससे; नभ:ः--आकाश;श्रोत्रमू--कर्णेन्द्रिय; तु--तब; शब्द-गम्--जो शब्द को ग्रहण करता है।
जब तामसी अहंकार भगवान् की वीर्य काम शक्ति से प्रेरित होता है, तो सूक्ष्मशब्द तत्त्व प्रकट होता है और शब्द से आकाश तथा और उससे श्रवणेन्द्रिय उत्पन्न होतीहैं।
अर्थाश्रयत्वं शब्दस्य द्रष्टलिड्रत्वमेव च ।
तन्मात्रत्वं च नभसो लक्षणं कवयो विदु: ॥
३३॥
अर्थ-आश्रयत्वमू--जो किसी पदार्थ का अर्थ वहन करे; शब्दस्य--शब्द का; द्रष्ट:--वक्ता का; लिड्डत्वमू--उपस्थितिका सूचक; एव-- भी; च--यथा; ततू-मात्रत्वम्--सूक्ष्म तत्त; च--तथा; नभस:ः--आकाश की; लक्षणम्--परिभाषा; कवयः--विद्वान पुरुष; विदुः--जानते हैं
जो लोग विद्वान हैं और वास्तविक ज्ञान से युक्त हैं, वे शब्द की परिभाषा इस प्रकारकरते हैं अर्थात् वह जो किसी पदार्थ के विचार अर्थ को वहन करता है, ओट में खड़ेवक्ता की उपस्थिति को सूचित करता है और आकाश का सूक्ष्म रूप होता है।
भूतानां छिद्रदातृत्वं बहिरन्तरमेव च ।
प्राणेन्द्रियात्मधिष्ण्यत्वं नभसो वृत्तिलक्षणम् ॥
३४॥
भूतानामू--समस्त जीवों का; छिद्र-दातृत्वम्-स्थान देना; बहि:--बाह्य; अन्तरमू--आन्तरिक; एब-- भी; च--तथा;प्राण-- प्राणवायु का; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आत्म--तथा मन; धिष्ण्यत्वम्--कर्म क्षेत्र होने से; नभसः--आकाश तत्त्व;वृत्ति--कार्य; लक्षणम्ू--लक्षण |
समस्त जीवों को उनके बाह्य तथा आन्तरिक अस्तित्व के लिए अवकाश स्थान प्रदान करना, जैसे कि प्राणवायु, इन्द्रिय एवं मन का कार्यक्षेत्र-ये आकाश तत्त्व केकार्य तथा लक्षण हैं।
नभस: शब्दतन्मात्रात्कालगत्या विकुर्व॒तः ।
स्पर्शोभवत्ततो वायुस्त्वक्स्पर्शस्य च सड्ग्रह: ॥
३५॥
नभसः--आकाश से; शब्द-तन्मात्रात्--सूक्ष्म शब्द तत्त्व से प्रकट होता है; काल-गत्या--काल की गति से;विकुर्वतः--विकार आने से; स्पर्श:--स्पर्श सूक्ष्म तत्तत; अभवत्--उत्पन्न हुआ; ततः--उससे; वायु: --वायु; त्वक् --स्पर्शेन्द्रिय, त्वचा; स्पर्शस्य--स्पर्श की; च--यथा; सड्ग्रहः--अनुभव |
ध्वनि उत्पन्न करने वाले आकाश में काल की गति से विकार उत्पन्न होता है और इसतरह स्पर्श तन्मात्र प्रकट होता है।
इससे फिर वायु तथा स्पर्श इन्द्रिय उत्पन्न होती है।
मृदुत्वं कठिनत्वं च शैत्यमुष्णत्वमेव च ।
एतत्स्पर्शस्य स्पर्शत्वं तन्मात्रत्वं नभस्वतः ॥
३६॥
मृदुत्वम्--कोमलता; कठिनत्वम्--कठोरता; च--तथा; शैत्यम्ू--शीतलता; उष्णत्वमू--उष्णता; एव-- भी; च--यथा; एतत्--यह; स्पर्शस्य--स्पर्श तन्मात्र का; स्पर्शत्वमू-भिन्नता बताने वाले लक्षण; ततू-मात्रत्वम्--सूक्ष्म रूप;नभस्वतः--वायु का।
कोमलता तथा कठोरता एवं शीतलता तथा उष्णता--ये स्पर्श को बताने वाले लक्षणहैं, जिन्हें वायु के सूक्ष्म रूप में लक्षित किया जाता है।
चालन॑ व्यूहन॑ प्राप्तिनेतृत्वं द्रव्यशब्दयो: ।
सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं वायो: कर्माभिलक्षणम् ॥
३७॥
चालनम्--हिलाना; व्यूहनम्--मिला देना; प्राप्ति:--पहुँचना; नेतृत्वम्--ले जाना; द्रव्य-शब्दयो:--पदार्थों के कणतथा शब्द; सर्व-इन्द्रियाणाम्ू--समस्त इन्द्रियों के; आत्मत्वमू--ठीक-ठीक कार्य करने के लिए; वायो:--वायु का;कर्म--क्रियाओं से; अभिलक्षणम्--स्पष्ट लक्षण |
गतियों, मिश्रण, शब्द को पदार्थों तथा अन्य इन्द्रिय बोधों तक पहुँचाने एवं अन्यसमस्त इन्द्रियों के समुचित कार्य करते रहने के लिए सुविधाएँ प्रदान कराने में वायु कीक्रिया लक्षित होती है।
वायोश्र स्पर्शतन्मात्रादूपं दैवेरितादभूत् ।
समुत्यितं ततस्तेजश्चक्नू रूपोपलम्भनम् ॥
३८॥
वायोः--वायु से; च--तथा; स्पर्श-तन्मात्रात्-स्पर्श तन्मात्र से उत्पन्न; रूपम्--रूप; दैव-ईरितात्ू-- भाग्य केअनुसार; अभूत्--उत्पन्न हुआ; समुत्थितम्--ऊपर उठा; ततः--उससे; तेज:-- अग्नि; चक्षु:--नेत्र, हृश्येन्द्रिय; रूप--रंग तथा रूप; उपलम्भनम्--देखने के लिए॥
वायु तथा स्पर्श तन्मात्राओं की अन्तःक्रियाओं से मनुष्य को भाग्य के अनुसारविभिन्न रूप दिखते हैं।
ऐसे रूपों के विकास के फलस्वरूप अग्नि उत्पन्न हुई और आँखेंविविध रंगीन रूपों को देखती हैं।
द्रव्याकृतित्वं गुणता व्यक्तिसंस्थात्वमेव च ।
तेजस्त्वं तेजस: साध्वि रूपमात्रस्य वृत्तय: ॥
३९॥
द्र॒व्य--द्रव्य का; आकृतित्वम्-- आकार- प्रकार; गुणता--गुण; व्यक्ति-संस्थात्वम्--व्यक्तित्व; एव-- भी; च--यथा;तेजस्त्वमू--तेज; तेजस:--अग्नि का; साध्वि--हे सती; रूप-मात्रस्य--सूक्ष्म तत्त्व रूप के; वृत्तय:--लक्षण |
हे माता, रूप के लक्षण आकार-प्रकार, गुण तथा व्यष्टि से जाने जाते हैं।
अग्नि कारूप उसके तेज से जाना जाता है।
झलोतनं पचनं पानमदन हिममर्दनम् ।
तेजसो वृत्तयस्त्वेता: शोषणं क्षुत्तडेव च ॥
४०॥
झोतनम्-- प्रकाश; पचनमू--पकाना, पचाना; पानम्--पीना; अदनम्--खाना; हिम-मर्दनम्--शीत को विनष्ट करनेवाला; तेजस: --अग्नि के; वृत्तय:--कार्य; तु--निस्सन्देह; एता:--ये; शोषणम्--वाष्पीकरण; क्षुत्-- भूख; तृट्--प्यास; एव-- भी; च--तथा |
अग्नि अपने प्रकाश के कारण पकाने, पचाने, शीत नष्ट करने, भाप बनाने कीक्षमता के कारण एवं भूख, प्यास, खाने तथा पीने की इच्छा उत्पन्न करने के कारणअनुभव की जाती है।
रूपमात्राद्विकुर्वाणात्तेजसो दैवचोदितातू ।
रसमात्रमभूत्तस्मादम्भो जिह्ना रसग्रह: ॥
४१॥
रूप-मात्रात्--सूक्ष्म तत्त्व रूप से उत्पन्न; विकुर्वाणात्ू--विकार से; तेजस:--अग्नि से; दैव-चोदितात्ू--दैवी व्यवस्थासे; रस-मात्रम्--सूक्ष्म तत्त्व स्वाद; अभूत्--प्रकट हुआ; तस्मात्--उससे; अम्भ:--जल; जिह्ला--स्वादेन्द्रिय; रस-ग्रहः--स्वाद ग्रहण करने वाली |
अग्नि तथा दृष्टि की अन्तःक्रिया से दैवी व्यवस्था के अन्तर्गत स्वाद तन्मात्र उत्पन्नहोता है।
इस स्वाद से जल उत्पन्न होता है और स्वाद ग्रहण करने वाली जीभ भी प्रकटहोती है।
कषायो मधुरस्तिक्त: कट्वम्ल इति नैकधा ।
भौतिकानां विकारेण रस एको विभिद्यते ॥
४२॥
कषाय:--कषैला; मधुर: --मीठा; तिक्त:--तीता; कटु--कड़वा; अम्ल: --खट्ठा; इति--इस प्रकार; न-एकधा--अनेक प्रकार का; भौतिकानाम्-- अन्य वस्तुओं के; विकारेण--विकार से; रसः--सूक्ष्म तत्त्व स्वाद; एक:--मूलतःएक; विभिद्यते--विभाजित होता है
यद्यपि मूल रूप से स्वाद एक ही है, किन्तु अन्य पदार्थों के संसर्ग से यह कषैलामधुर, तीखा, कड़वा, खट्टा तथा नमकीन--कई प्रकार का हो जाता है।
क्लेदनं पिण्डनं तृप्ति: प्राणनाप्यायनोन्दनम् ।
तापापनोदो भूयस्त्वमम्भसो वृत्तयस्त्विमा: ॥
४३॥
क्लेदनम्--गीला करना; पिण्डनमू--पिंड बना देना, थक्के जमा देना; तृप्तिः--तृप्त करना; प्राणन--जीवित रखना;आप्यायन--तरोताजा रखना; उन्दनम्--मुलायम बनाना; ताप--उष्मा, गर्मी; अपनोद:--भगाना; भूयस्त्वम्--प्रचुरतासे; अम्भस:--जल के; वृत्तय:--विशिष्ट कार्य; तु--वास्तव में; इमा:--ये |
जल की विशेषताएँ उसके द्वारा अन्य पदार्थों को गीला करने, विभिन्न मिश्रणों केपिण्ड बनाने, तृप्ति लाने, जीवन पालन करने, वस्तुओं को मुलायम बनाने, गर्मी भगाने,जलागारों की निरन्तर पूर्ति करते रहने तथा प्यास बुझाकर तरोताजा बनाने में हैं।
रसमात्राद्विकुर्वाणादम्भसो दैवचोदितात् ।
गन्धमात्रमभूत्तस्मात्पृथ्वी पघ्राणस्तु गन्धग: ॥
४४॥
रस-मात्रात्--सूक्ष्म तत्त्व स्वाद से उत्पन्न; विकुर्वाणात्-विकार से; अम्भसः --जल से; दैव-चोदितात्--दैवीव्यवस्था से; गन्ध-मात्रम्--सूक्ष्म तत्त्व गंध; अभूत्--प्रकट हुआ; तस्मात्--उससे; पृथ्वी --पृथ्वी; घ्राण:--घ्राणेन्द्रिय; तु--वास्तव में; गन्ध-ग:--सुगन्धि ग्रहण करने वाली |
स्वाद अनुभूति और जल की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप देवी विधान से गन्ध तन्मात्राउत्पन्न होती है।
उससे पृथ्वी तथा प्राणेन्द्रिय उत्पन्न होते हैं जिससे हम पृथ्वी की सुगन्धिका बहुविध अनुभव कर सकते हैं।
'करम्भपूतिसौरभ्यशान्तोग्राम्लादिभि: पृथक् ।
द्रव्यावयववैषम्यादगन्ध एको विभिद्यते ॥
४५॥
करम्भ--मिश्रित; पूति--दुर्गन््ध; सौरभ्य--सुगन्धित; शान्त--मृदु; उग्र--ती क्षण, तीव्र; अम्ल--खड्टी; आदिभि: --इत्यादि; पृथक्--भिन्न; द्रव्य--पदार्थ के; अवयव- भागों के; वैषम्यात्--विविधता के अनुसार; गन्ध:--गन्ध;एकः--एक; विभिद्यते--विभाजित होती है।
यद्यपि गन्ध एक है, किन्तु सम्बद्ध पदार्थों के अनुपातों के अनुसार अनेक प्रकार कीहो जाती है, यथा-मिश्रित, दुर्गध, सुगन्धित, मृदु, तीव्र, अम्लीय इत्यादि।
भावनं ब्रह्मण: स्थानं धारणं सद्विशेषणम् ।
सर्वसत्त्वगुणोद्धेदः पृथिवीवृत्तिलक्षणम् ॥
४६॥
भावनम्--मूर्ति जैसे रूप; ब्रह्मण:--परब्रह्म के; स्थानम्-- आवास स्थान बनाने; धारणम्--वस्तुओं को धारण करने;सत्-विशेषणम्--खुले आकाश को अलग करना; सर्व--समस्त; सत्त्व--अस्तित्व के; गुण--गुण; उद्धेदः --प्राकट्य का स्थान; पृथिवी--पृथ्वी के; वृत्ति--कार्यो के; लक्षणम्--लक्षण |
परब्रह्म के स्वरूपों को आकार प्रदान करके, आवास स्थान बनाकर, जल रखने केपात्र बनाकर पृथ्वी के कार्यों के लक्षणों को देखा जा सकता है।
दूसरे शब्दों में, पृथ्वीसमस्त तत्त्वों का आश्रय स्थल है।
नभोगुणविशेषोरथो यस्य तच्छोत्रमुच्यते ।
वायोर्गुणविशेषो<र्थो यस्य तत्स्पर्शनं विदु: ॥
४७॥
नभः-गुण-विशेष:--आकाश का विशिष्ट गुण शब्द ; अर्थ:--विषय; यस्य--जिसका; तत्--वह; श्रोत्रमू--श्रवणेन्द्रिय; उच्चते--कहलाता है; वायो: गुण-विशेष:--वायु का विशिष्ट गुण स्पर्श ; अर्थ:--विषय; यस्य--जिसका; तत्--वह; स्पर्शनम्--स्पर्शेन्द्रिय त्वचा ; विदुः--जानते हैं |
वह इन्द्रिय जिसका विषय शब्द है श्रवणेन्द्रिय और जिसका विषय स्पर्श है, वहत्वगिन्द्रिय कहलाती है।
तेजोगुणविशेषो थो यस्य तच्चक्षुरुच्यतेअम्भोगुणविशेषोथों यस्य तद्गसनं विदु: ।
भूमेर्गुणविशेषो थों यस्य स प्राण उच्यते ॥
४८ ॥
तेज:-गुण-विशेष: -- अग्नि का विशेष गुण रूप ; अर्थ:--विषय ; यस्य--जिसका; तत्--वह; चक्षु:-- आँख,नेत्रेन्द्रिय; उच्चते--कहलाती है; अम्भ:-गुण-विशेष:--जल का विशेष गुण स्वाद ; अर्थ:--विषय; यस्य--जिसका; तत्--वह; रसनम्--स्वाद की इन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, रसना; विदु:--जानी जाती है; भूमेः गुण-विशेष: -- भूमिका विशेष गुण गंध ; अर्थ:--विषय; यस्य--जिसका; सः--वह; घ्राण:--प्राणेन्द्रिय; उच्चते-- कहलाती है |
वह इन्द्रिय जिसका विषय अग्नि का विशेष गुण रूप है, वह नेत्रेन्द्रिय है।
जिसइन्द्रिय का विषय जल का विशेष स्वाद है, वह रसनेन्द्रिय कहलाती है।
जिस इन्द्रिय काविषय पृथ्वी का विशिष्ट गुण गंध है, वह प्राणेन्द्रिय कही जाती है।
'परस्य दृश्यते धर्मो ह्मपरस्मिन्समन्वयात् ।
अतो विशेषो भावानां भूमावेवोपलक्ष्यते ॥
४९॥
'परस्य--कारण का; दृश्यते--देखा जाता है; धर्म:--गुण; हि--निस्सन्देह; अपरस्मिनू--कार्य में; समनन््वयात्--समन्वय या व्यवस्था से; अत:ः--अतएव; विशेष:--विशेष गुण; भावानाम्--समस्त तत्त्वों से; भूमौ --पृथ्वी में;एव--अकेले; उपलक्ष्यते--देखा जाता है।
चूँकि कारण अपने कार्य में भी विद्यमान रहता है, अतः पहले के लक्षण गुण दूसरे में भी देखे जाते हैं।
इसीलिए केवल पृथ्वी में ही सारे तत्त्वों की विशिष्टताएँ पाईजाती हैं।
एतान्यसंहत्य यदा महदादीनि सप्त वै ।
कालकर्मगुणोपेतो जगदादिरुपाविशत् ॥
५०॥
एतानि--ये; असंहत्य--न मिलकर; यदा--जब; महत्-आदीनि--महत्_ तत्त्व, अहंकार तथा पाँच स्थूलतत्त्व; सप्त--कुल मिलाकर सात; बै--वास्तव में; काल--समय; कर्म--कार्य; गुण--तथा तीनों गुणों के; उपेत:--साथ होकर;जगत्-आदि: --सृष्टि की उत्पत्ति; उपाविशत्--प्रविष्ट किया |
जब ये सारे तत्त्व मिले नहीं थे, तो सृष्टि के आदि कारण श्रीभगवान् ने काल, कर्मतथा गुणों के सहित सात विभागों वाली अपनी समग्र भौतिक शक्ति महत् तत्त्व केसाथ ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया।
ततस्तेनानुविद्धेभ्यो युक्तेभ्योण्डमचेतनम् ।
उत्थितं पुरुषो यस्मादुदतिष्ठदसौ विराट् ॥
५१॥
ततः--तब; तेन--भगवान् के द्वारा; अनुविद्धेभ्य:--उन सात तत्त्वों से सक्रिय हो उठे; युक्तेभ्य: --मिले हुए;अण्डम्--अंडा; अचेतनमू-- अज्ञानी; उत्थितम्-- उठा; पुरुष: --विराट प्राणी; यस्मात्--जिससे; उदतिष्ठत्-प्रकटहुआ; असौ--वह; विराट्--सुप्रसिद्ध
भगवान् की उपस्थिति के कारण उत्प्रेरित होने तथा परस्पर मिलने से इन सात तत्त्वोंसे एक जड़ अण्डा उत्पन्न हुआ जिससे विख्यात विराट-पुरुष प्रकट हुआ।
एतदण्डं विशेषाख्यं क्रमवृद्धैर्दशोत्तरैःतोयादिभि: परिवृतं प्रधानेनावृतैर्बहि: ।
यत्र लोकवितानोयं रूपं भगवतो हरे: ॥
५२॥
एतत्--यह; अण्डम्--अण्डा; विशेष-आख्यम्-- विशेष ' कहलाने वाला; क्रम--एक के पश्चात् एक, क्रमशः;वृद्धै:--बढ़ा; दश--दसगुना; उत्तरै:--अधिक बड़ा; तोय-आदिभि:--जल इत्यादि के द्वारा; परिवृतम्ू--घिरा हुआ;प्रधानेन--प्रधान के द्वारा; आवृतैः--ढका हुआ; बहि:--बाहर से; यत्र--यहाँ; लोक-वितान:--लोकों का विस्तार;अयमू--यह; रूपम्ू--रूप; भगवतः -- श्रीभगवान् का; हरेः-- भगवान् हरि का।
यह अण्डाकार ब्रह्माण्ड भौतिक शक्ति का प्राकट्य कहलाता है।
जल, वायु, अग्नि,आकाश, अहंकार तथा महत्ू-तत्त्व की इसकी परतें स्तर क्रमशः मोटी होती जाती हैं।
प्रत्येक परत अपने से पूर्ववाली से दसगुनी मोटी होती है और अन्तिम बाह्य परत 'प्रधान' से घिरी हुई है।
इस अण्डे के भीतर भगवान् हरि का विराट रूप रहता है, जिनके शरीर के अंग चौदहों लोक हैं।
प्रत्येक परत अपने से पूर्ववाली से दसगुनी मोटी होती है और अन्तिम बाह्य परत ‘प्रधान 'से घिरी हुई है।
इस अण्डे के भीतर भगवान् हरि का विराट रूप रहता है, जिनके शरीरके अंग चौदहों लोक हैं।
हिरण्मयादण्डकोशादुत्थाय सलिले शयात् ।
'तमाविश्य महादेवो बहुधा निर्बिभेद खम् ॥
५३॥
हिरण्मयात्--सुनहले; अण्ड-कोशात्-- अण्डे से; उत्थाय--निकल कर; सलिले--जल में; शयात्--लेटे हुए;'तम्ू--उस; आविश्य--घुसकर; महा-देव:-- श्री भगवान्; बहुधा--कई प्रकार से; निर्विभेद--बाँट दिया; खम्--छिद्र विराट-पुरुष
श्रीभगवान् उस सुनहले अंडे में स्थित हो गये जो जल में पड़ा हुआ था और उन्होंने उसे कई विभागों में बाँट दिया।
निरभिद्यतास्य प्रथमं मुखं वाणी ततोभवत् ।
वाण्या वह्विरथो नासे प्राणोतो प्राण एतयो; ॥
५४॥
निरभिद्यत--प्रकट हुआ; अस्य--उसका; प्रथमम्--सर्वप्रथम; मुखम्--मुँह; वाणी--वागेन्द्रिय; ततः--तब;अभवत्--बाहर आया; वाण्या--वागेन्द्रिय से; वहिः--अग्नि का देवता; अथ: --तब; नासे--दो नथुने; प्राण --प्राणवायु; उतः--जुड़ गये; प्राण:--घ्राणेन्द्रिय; एतयो: --उनमें ।
सर्वप्रथम उनके मुख प्रकट हुआ और फिर वागेन्द्रिय और इसी के साथ अग्नि देवप्रकट हुए जो इस इन्द्रिय के अधिष्ठाता देव हैं।
तब दो नथुने प्रकट हुए और उनमेंघ्राणेन्द्रिय तथा प्राण प्रकट हुए।
घ्राणाद्वायुरभिद्येतामक्षिणी चश्लुरेतयो: ।
तस्मात्सूर्यो न््यभिद्येतां कर्णों श्रोत्रं ततो दिशः ॥
५५॥
घ्राणात्ू--घ्राणेन्द्रिय से; वायु:--वायुदेव; अभिद्येतामू--प्रकट हुआ; अक्षिणी--दो नेत्र; चक्षु:--चश्षु इन्द्रिय;एतयो:--इनमें; तस्मात्--उससे; सूर्य:--सूर्यदेव; न्यभिद्येतामू--प्रकट हुए; कर्णौं--दो कान; श्रोत्रम्-- श्रवणेन्द्रिय;ततः--उससे; दिश:--दिशाओं के अधिष्ठाता।
घ्राणेन्द्रिय के बाद उसका अधिष्ठाता वायुदेव प्रकट हुआ।
तत्पश्चात् विराट रूप में दोचक्षु और उनमें चश्लु-इन्द्रिय प्रकट हुई।
इसके अनन्तर चश्लुओं का अधिष्ठाता सूर्यदेवप्रकट हुआ।
फिर उनके दो कान और उनमें कर्णेन्द्रिय तथा दिशाओं के अधिष्ठातादिग्देवता प्रकट हुए।
निर्विभेद विराजस्त्वग्रोमएम श्रवादयस्ततः ।
तत ओषधयश्चासन्शिश्नं निर्विभिदे ततः ॥
५६॥
निर्विभेद-- प्रकट हुआ; विराज:--विराट रूप का; त्वक्--त्वचा, चमड़ी; रोम--बाल; श्मश्रु-- दाढ़ी, मूँछ;आदयः--इत्यादि; ततः--तब; ततः--उस पर; ओषधय: --जड़ी-बूटियाँ; च--यथा; आसनू-- प्रकट हुईं;शिश्नम्--लिंग; निर्विभिदे--प्रकट हुआ; ततः--इसके बाद।
तब भगवान् के विराट रूप, विराट पुरुष ने अपनी त्वचा प्रकट की और उस परबाल रोम , मूँछ तथा दाढ़ी निकल आये।
तत्पश्चात् सारी जड़ी-बूटियाँ प्रकट हुईं औरतब जननेन्द्रियाँ भी प्रकट हुई।
रेतस्तस्मादाप आसतन्निरभिद्यत बै गुदम् ।
गुदादपानोपानाच्च मृत्युलोेक भयड्भर: ॥
५७॥
रेतः--वीर्य; तस्मात्ू--उससे; आपः--जल का अधिष्ठाता देव; आसन्--प्रकट हुआ; निरभिद्यत--प्रकट हुआ; बै--निस्सन्देह; गुदम्--गुदा; गुदात्ू--गुदा से; अपान:--अपान वायु निकालने की इन्द्रिय; अपानात्ू--अपान से; च--यथा; मृत्यु:--मृत्यु; लोक-भयम्-करः--ब्रह्माण्ड भर में भय उत्पन्न करने वाला।
तत्पश्चात् वीर्य प्रजनन क्षमता और जल का अधिष्ठाता देव प्रकट हुआ।
फिर गुदा और उसकी इन्द्रिय और उसके भी बाद मृत्यु का देवता प्रकट हुआ जिससे सारा ब्रह्माण्डभयभीत रहता है।
हस्तौ च निरभिद्येतां बल॑ ताभ्यां ततः स्वराट् ।
पादौ च निरभिद्येतां गतिस्ताभ्यां ततो हरि ॥
५८ ॥
हस्तौ--दो हाथ; च--यथा; निरभिद्येतामू- प्रकट हुए; बलम्--शक्ति; ताभ्याम्--उनसे; तत:--तत्पश्चात्; स्वराट्--इन्द्र; पादौ--दो पाँव; च--यथा; निरभिद्येतामू--प्रकट हुए; गति:--चलने की क्रिया; ताभ्यामू--उनसे; तत:ः--तब;हरिः-- भगवान् विष्णु।
तत्पश्चात् भगवान् के विराट रूप के दो हाथ प्रकट हुए और उन्हीं के साथ वस्तुओंको पकड़ने तथा गिराने की शक्ति आईं।
फिर इन्द्र देव प्रकट हुए।
तदनन्तर दो पाँवप्रकट हुए, उन्हीं के साथ चलने-फिरने की क्रिया आईं और इसके बाद भगवान् विष्णुप्रकट हुए।
नाड्योउस्य निरभिद्यन्त ताभ्यो लोहितमाभूृतम् ।
नद्यस्ततः समभवच्नुदरं निरभिद्यत ॥
५९॥
नाड्य:--नसें, नाड़ियाँ; अस्य--विराट पुरुष की; निरभिद्यन्त--प्रकट हुईं; ताभ्य:--उनसे; लोहितम्--रक्त;आशभूृतम्--उत्पन्न हुआ; नद्य:ः--नदियाँ; तत:--उससे; समभवनू--प्रकट हुए; उदरम्--पेट; निरभिद्यत--प्रकटहुआ।
विराट शरीर की नाड़ियाँ प्रकट हुईं और तब लाल रक्त-कणिकाएँ या रक्त प्रकट हुआ।
इसके पीछे नदियाँ नाड़ियों की अधिष्ठात्री और तब उस शरीर में पेट प्रकट हुआ।
क्षुत्पिपासे ततः स्यातां समुद्रस्त्वेतयोरभूत् ।
अथास्य हृदयं भिन्न हृदयान्मन उत्थितम् ॥
६०॥
क्षुत्ू-पिपासे-- भूख तथा प्यास; तत:ः--तब; स्याताम्-- प्रकट हुए; समुद्र: --समुद्र; तु--तब; एतयो:--इनसे;अभूत्--उत्पन्न हुआ; अथ--तब; अस्य--विराट रूप का; हृदयम्ू--हृदय; भिन्नमू--प्रकट हुआ; हृदयात्--हृदय से;मनः--मन; उत्थितम्ू-- प्रकट हुआ
तत्पश्चात भूख तथा प्यास की अनुभूतियाँ उत्पन्न हुईं और इनके साथ ही समुद्र काप्राकट्य हुआ।
फिर हृदय प्रकट हुआ और हृदय के साथ-साथ मन प्रकट हुआ।
मनसश्चन्द्रमा जातो बुद्धिर्बुद्धेर्गिरां पति: ।
अहड्ढारस्ततो रुद्रश्चित्तं चैत्यस्ततोभवत् ॥
६१॥
मनसः--मन से; चन्द्रमा: -- चन्द्रमा; जात:--उत्पन्न हुआ; बुद्धि:--बुद्धि; बुद्धेः--बुद्धि से; गिराम् पतिः--वाणी केस्वामी ब्रह्मा ; अहड्डार:--अहंकार; तत:--तब; रुद्र:--शिव जी; चित्तम्--चेतना; चैत्य: --चेतना का अधिष्ठातादेव; ततः--तब; अभवत्--प्रकट हुआ।
मन के बाद चन्द्रमा प्रकट हुआ।
फिर बुद्धि और बुद्धि के बाद ब्रह्मा जी प्रकट हुए।
तब अहंकार, फिर शिव जी और शिव जी के बाद चेतना तथा चेतना का अधिष्ठाता देव प्रकट हुए।
एते ह्भ्युत्थिता देवा नैवास्योत्थापनेएशकन् ।
पुनराविविशु: खानि तमुत्थापयितुं क्रमात् ॥
६२॥
एते--ये; हि--निस्सन्देह; अभ्युत्थिता:--उत्पन्न; देवा:--देवता; न--नहीं; एब--रंचमात्र; अस्य--विराट-पुरुष का;उत्थापने--जगाने में; अशकन्--समर्थ; पुन:--फिर; आविविशु: --प्रविष्ट कर गये; खानि--शरीर के छिठ्दों में;तम्--उसको; उत्थापयितुम्--जगाने में; क्रमात्ू--क्रमशः
इस तरह जब देवता तथा विभिन्न इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव प्रकट हो चुके, तो उनसबों ने अपने-अपने उत्पत्ति स्थान को जगाना चाहा।
किन्तु ऐसा न कर सकने के कारणवे विराट-पुरुष को जगाने के उद्देश्य से उनके शरीर में एक-एक करके पुनः प्रविष्ट होगये।
बह्निर्वाचा मुखं भेजे नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
घ्राणेन नासिके वायुर्नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥
६३॥
वह्िः--अग्निदेव; वाचा--वागेन्द्रिय से; मुखम्--मुँह; भेजे--प्रविष्ट किया; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा; तदा--तब;विराटू--विराट-पुरुष; प्राणेन--पघ्राणेन्द्रिय से; नासिके --दोनों नथुनों में; वायु:--वायुदेव; न--नहीं ; उदतिष्ठत् --उठा; तदा--तब; विराट्--विराट-पुरुष।
अग्निदेव ने वागेन्द्रिय से उनके मुख में प्रवेश किया, किन्तु विराट-पुरुष उठा नहीं।
तब वायुदेव ने पघ्राणेन्द्रिय से होकर उनके नथुनों में प्रवेश किया, तो भी विराट-पुरुष नहींजागा।
अक्षिणी चश्नुषादित्यो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
श्रोत्रेण कर्णों च दिशो नोदतिष्ठत्तदा विराटू ॥
६४॥
अक्षिणी--दो आँखें; चक्षुषा--चक्षु इन्द्रिय से; आदित्य:--सूर्यदेव; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा; तदा--तब;विराटू--विराट-पुरुष; श्रोत्रेण-- श्रवणेन्द्रिय से; कर्णौ--दो कानों; च--तथा; दिश:--दिशाओं के अधिष्ठाता देव;न--नहीं; उदतिष्ठत्--जागा; तदा--तब; विराट्ू--विराट-पुरुष |
तब सूर्यदेव ने चक्षुरिन्द्रिय से विराट-पुरुष की आँखों में प्रवेश किया, तो भी वहउठा नहीं।
इसी तरह दिशाओं के अधिष्ठाता देवों ने श्रवणेन्द्रिय से होकर उनके कानों मेंप्रवेश किया, किन्तु तो भी वह नहीं उठा।
त्वचं रोमभिरोषध्यो नोदतिष्ठत्तदा विराट ।
रेतसा शिश्नमापस्तु नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥
६५॥
त्वचम्--विराट-पुरुष की चमड़ी; रोमभि:--शरीर के ऊपर के रोओं से; ओषध्य: --जड़ी-बूटियों के अधिष्ठाता देव;न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा; तदा--तब; विराट्--विराट-पुरुष; रेतसा--वीर्य से; शिश्नमू--लिंग; आप:--जल-देव;तु--तब; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा; तदा--तब; विराट्--विराट-पुरुष |
त्वचा तथा जड़ी-बूटियों के अधिष्ठाता देवों ने शरीर के रोमों से त्वचा में प्रवेशकिया, किन्तु तो भी विराट-पुरुष नहीं उठा।
तब जल के अधिष्ठाता देव ने वीर्य केमाध्यम से जननांग में प्रवेश किया, किन्तु विराट-पुरुष नहीं जागा।
गुदं मृत्युरपानेन नोदतिष्ठत्तदा विराट ।
हस्ताविन्द्रो बलेनैव नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥
६६॥
गुदम्-गुदा; मृत्यु:--मृत्यु का देवता; अपानेन--अपान वायु की इन्द्रिय से; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा; तदा--तोभी; विराट्ू--विराट-पुरुष; हस्तौ--दोनों हाथ; इन्द्र:--इन्द्रदेव; बलेन--वस्तुओं को पकड़ने तथा गिराने की शक्तिसे; एब--निस्सन्देह; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा; तदा--इतने पर भी; विराट्ू--विराट-पुरुष
मृत्यु-देव ने अपान-इन्द्रिय से उनकी गुदा में प्रवेश किया, किन्तु विराट-पुरुष मेंकोई गति नहीं आई।
तब इन्द्रदेव ने हाथों में पकड़कर गिराने की शक्ति के हाथों मेंप्रवेश किया, किन्तु इतने पर भी विराट-पुरुष उठा नहीं।
विष्णुर्गत्यैव चरणौ नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
नार्डीर्नद्यो लोहितेन नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥
६७॥
विष्णु:-- भगवान् विष्णु; गत्या--गति से; एब--निस्सन्देह; चरणौ--दो पाँव; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा; तदा--तबभी; विराट्ू--विराट-पुरुष; नाडी:--नाड़ियाँ; नद्यः--नदियाँ नदी के देवता; लोहितेन--रक्त के द्वारा, संचरण कीशक्ति से; न--नहीं; उदतिष्ठत्--हिला डुला; तदा--तो भी; विराट्--विराट-पुरुष
भगवान् विष्णु ने गति की क्षमता के साथ उनके पाँवों में प्रवेश किया, किन्तु तबभी विराट-पुरुष ने खड़े होने से इनकार कर दिया।
तब नदियों ने रक्त-नाड़ियों तथासंचरण शक्ति के माध्यम से रक्त में प्रवेश किया, किन्तु तो भी विराट-पुरुष हिला डुलानहीं।
क्षुत्तड्भ्यामुदरं सिन्धुर्नोंदतिष्ठत्तदा विराट् ।
हृदयं मनसा चन्द्रो नोदतिष्ठत्तदा विराटू ॥
६८ ॥
क्षुत्-तृड्भ्याम्-- भूख तथा प्यास से; उदरम्--पेट में; सिन्धु:--समुद्र या समुद्रदेवता; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा;तदा--तब भी; विराटू--विराट-पुरुष; हृदयम्ू--हृदय; मनसा--मन से; चन्द्र:--चन्द्रदेव; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा;तदा--तब; विराट्ू--विराट्-पुरुष |
सागर ने भूख तथा प्यास के सहित उसके पेट में प्रवेश किया, किन्तु तो भी विराट-पुरुष ने उठने से इनकार कर दिया।
चन्द्रदेव ने मन के साथ उसके हृदय में प्रवेश किया,किन्तु विराट-पुरुष को जगाया न जा सका।
बुद्धया ब्रह्मापि हृदयं नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।
रुद्रोउभिमत्या हृदयं नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥
६९॥
बुद्धया--बुद्धि से; ब्रह्मा --ब्रह्मा जी ने; अपि-- भी; हृदयम्--हृदय में; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा; तदा--तो भी;विराट्ू--विराट-पुरुष; रुद्र:--शिवजी; अभिमत्या--अहंकार से; हृदयम्--हृदय को; न--नहीं; उदतिष्ठत्--उठा;तदा--तब भी; विराट्ू--विराट-पुरुष |
ब्रह्मा भी बुद्धि के साथ उसके हृदय में प्रविष्ट हुए, किन्तु तब भी विराट-पुरुष उठनेके लिए राजी न हुआ।
रुद्र ने भी अहंकार समेत उसके हृदय में प्रवेश किया, किन्तु तोभी वह टस से मस न हुआ।
चित्तेन हृदयं चैत्य: क्षेत्रज्ञ: प्राविशद्यदा ।
विराट्तदैव पुरुष: सलिलादुदतिष्ठत ॥
७०॥
चित्तेन--चेतना या तर्क से; हृदयम्--हृदय में; चैत्य:--चेतना का अधिष्ठाता देव; क्षेत्र-ज्ञ:--क्षेत्र को जानने वाला;प्राविशत्--घुसा; यदा--जब; विराट्--विराट-पुरुष; तदा--तब; एव--ही; पुरुष:--विराट््-पुरुष; सलिलातू--जल से; उदतिष्ठत--उठ गया।
किन्तु जब चेतना का अधिष्ठाता, अन्तःकरण का नियामक, तर्क के साथ हृदय मेंप्रविष्ठ हुआ तो उसी क्षण विराट-पुरुष कारणार्णव से उठ खड़ा हुआ।
यथा प्रसुप्तं पुरुष प्राणेन्द्रयमनोधिय: ।
प्रभवन्ति बिना येन नोत्थापयितुमोजसा ॥
७१॥
यथा--जिस तरह; प्रसुप्तम्--सोया हुआ; पुरुषम्--मनुष्य; प्राण--प्राणवायु; इन्द्रिय--कर्म तथा ज्ञान की इन्द्रियाँ;मन:ः--मन; धियः --बुद्धि; प्रभवन्ति--समर्थ हैं; विना--के बिना; येन--जिसको परमात्मा ; न--नहीं;उत्थापयितुम्--उठाने में; ओजसा--अपनी शक्ति से |
जब मनुष्य सोता रहता है, तो उसकी सारी भौतिक सम्पदा-यथा प्राणशक्ति,ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि-उसे उत्प्रेरित नहीं कर सकतीं।
वह तभी जागृतहो पाता है जब परमात्मा उसकी सहायता करता है।
तमस्मिन्प्रत्यगात्मानं धिया योगप्रवृत्तया ।
भक्त्या विरकत्या ज्ञानेन विविच्यात्मनि चिन्तयेत् ॥
७२॥
तम्--उस पर; अस्मिन्--इसमें; प्रत्यक्ू-आत्मानमू--परमात्मा; धिया--मन से; योग-प्रवृत्तया--भक्ति में संलग्न;भक्त्या--भक्ति के माध्यम से; विरक्त्या--विरक्ति से; ज्ञानेन--ज्ञान से; विविच्य--सावधानी से विचार करते हुए;आत्मनि--शरीर में; चिन्तयेतू--सोचना चाहिए।
अतः मनुष्य को समर्पण, वैराग्य तथा एकाग्र भक्ति के माध्यम से प्राप्त आध्यत्मिक ज्ञान में प्रगति के द्वारा इसी शरीर में परमात्मा को विद्यमान समझ कर उसका चिन्तनकरना चाहिए यद्यपि वे इससे अलग रहते हैं।
अध्याय सत्ताईसवां: भौतिक प्रकृति को समझना
3.27श्रीभगवानुवाचप्रकृतिस्थोपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणैः ।
अविकारादकर्तृत्वान्निर्गुणत्वाजलार्कवत् ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- श्रीभगवान् ने कहा; प्रकृति-स्थ:-- भौतिक शरीर में वास करते; अपि--यद्यपि; पुरुष: --जीवात्मा; न--नहीं; अज्यते--प्रभावित होता है; प्राकृतै:ः--प्रकृति के; गुणैः--गुणों से; अविकारात्--बिना परिवर्तनआये, निर्विकार; अकर्तृत्वातू-कर्तृत्व से स्वतन्त्र; निर्गुणत्वातू-प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहने से; जल--जलपर; अर्कवत्--सूर्य के समान।
भगवान् कपिल ने आगे कहा : जिस प्रकार सूर्य जल पर पड़ने वाले प्रतिबिम्ब सेभिन्न रहा आता है उसी तरह जीवात्मा शरीर में स्थित होकर भी प्रकृति के गुणों सेअप्रभावित रहता है, क्योंकि वह अपरिवर्तित रहता है और किसी प्रकार का इन्द्रियतुष्टिका कर्म नहीं करता।
श़सएष यदि प्रकृतेर्गुणेष्वभिविषज्जते ।
अहड्क्रियाविमूढात्मा कर्तास्मीत्यभिमन्यते ॥
२॥
सः--वही जीवात्मा; एष:--यह; यहिं--जब; प्रकृतेः--प्रकृति के; गुणेषु--गुणों में; अभिविषज्जते--लीन रहता है;अहड्डक्रिया--अहंकार से; विमूढड--मोहग्रस्त; आत्मा--जीवात्मा; कर्ता--करने वाला; अस्मि--मैं हूँ; इति--इसप्रकार; अभिमन्यते--सोचता है |
जब आत्मा प्रकृति के जादू तथा अहंकार के वशीभूत होता है और शरीर को स्वआत्मा मान लेता है, तो वह भौतिक कार्यकलापों में लीन रहने लगता है औरअहंकारवश सोचता है कि मैं ही प्रत्येक वस्तु का कर्ता हूँ।
श़तेन संसारपदवीमवशो भ्येत्यनिर्वृतः ।
प्रासड्रिकैः कर्मदोषै: सदसन्मिश्रयोनिषु ॥
३॥
तेन--उससे; संसार--बारम्बार जन्म-मृत्यु का; पदवीम्--मार्ग, पथ; अवशः--निरुपाय होकर; अभ्येति-- भोगता है;अनिर्वृत:ः--असंतुष्ट; प्रासड्रिकि:--प्रकृति की संगति से उत्पन्न; कर्म-दोषै:--गलत कर्मों से; सत्--अच्छा; असत्--बुरा; मिश्र--मिला-जुला; योनिषु--विविध योनियों में |
अतः बद्धजीव भौतिक प्रकृति के गुणों के साथ अपनी संगति के कारण उच्चतरतथा निम्नतर विभिन्न योनियों में देहान्तर करता रहता है।
जब तक वह भौतिक कार्यो सेमुक्त नहीं हो लेता उसे अपने दोषपूर्ण कार्य के फलस्वरूप यह स्थिति स्वीकार करतेरहनी पड़ती है।
श़अर्थ हाविद्यमानेपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेडनर्थागमो यथा ॥
४॥
अर्थ--असली कारण; हि--निश्चय ही; अविद्यमाने--उपस्थित न होने पर; अपि--यद्यपि; संसृतिः--सांसारिक दशा;न--नहीं; निवर्तते--रुकती है; ध्यायत:--ध्यान करने से; विषयान्-- भोग; अस्य--जीवात्मा का; स्वप्ने--स्वण में;अनर्थ--हानियों का; आगम:--आना; यथा--जिस तरह ।
वास्तव में जीवात्मा इस संसार से परे है, किन्तु प्रकृति पर अधिकार जताने कीअपनी मनोवृत्ति के कारण उसके संसार-चक्र की स्थिति कभी रूकती नहीं और वहसभी प्रकार की अलाभकर स्थितियों से प्रभावित होता है, जिस प्रकार कि स्वप्न में होता" श़अत एव शनैश्ञित्तं प्रसक्तमसतां पथि ।
भक्तियोगेन तीब्रेण विरक्त्या च नयेद्वशम् ॥
५॥
अतः एव--अतः, इसलिए; शनै:--धीरे-धीरे; चित्तम्ू--मन, चेतना को; प्रसक्तम्--आसक्त; असताम्ू-- भौतिकभोगों के; पथि--पथ पर; भक्ति-योगेन-- भक्ति से; तीब्रेण-- अत्यन्त गभ्भीर; विरक्त्या--विरक्ति से, बिना आसक्तिके; च--तथा; नयेत्--वह लावे; वशम्--वश में
प्रत्येक बद्धजीव का कर्तव्य है कि वह भौतिक सुखोपभोग के प्रति आसक्त अपनीदूषित चेतना को विरक्तिपूर्वक अत्यन्त गभ्भीर भक्ति में लगावे।
इस प्रकार उसका मनतथा चेतना पूरी तरह वश में हो जाएँगे।
श़यमादिभिरय्योंगपथेरभ्यसउश्रद्धयान्वितः ।
मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च ॥
६॥
यम-आदिभि:--यम इत्यादि; योग-पथैः --योगपद्धति के द्वारा; अभ्यसन्--अभ्यास करते हुए; श्रद्धवा अन्वित:--परम श्रद्धा समेत; मयि--मुझमें; भावेन-- भक्ति से; सत्येन--अमिश्रित; मत्-कथा--मेरे विषय की कथाएँ;श्रवणेन--सुनने से; च--तथा ।
मनुष्य को योग पद्धति की संयम आदि विधियों के अभ्यास द्वारा श्रद्धालु बनना चाहिए और मेरे कीर्तन तथा श्रवण द्वारा अपने आपको शुद्ध भक्ति के पद तक ऊपरउठाना चाहिए।
श़सर्वभूतसमत्वेन निर्वरेणाप्रसड्गरतः ।
ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा ॥
७॥
सर्व--सभी; भूत--जीव; समत्वेन--समान रूप से देखने से; निर्वरेण--बिना शत्रुता के; अप्रसड़त:ः--बिना घनिष्टसम्बन्ध के; ब्रह्म-चर्येण--ब्रह्मचर्य के द्वारा; मौनेन--मौन व्रत से; स्व-धर्मेण-- अपनी वृत्ति से; बलीयसा--फल कोअर्पित करने से |
भक्तिमय सेवा सम्पन्न करने में मनुष्य को प्रत्येक जीव को समभाव से एवं किसी केप्रति शत्रुतारहित होते हुए घनिष्ठता से रहित होकर देखना होता है।
उसे ब्रह्मचर्य व्रतधारण करना होता है, गभ्भीर होना होता है और कर्म फलों को भगवान् को अर्पित करतेहुए अपने नित्य कर्म करने होते हैं।
श़यहच्छयोपलब्धेन सन्तुष्टो मितभुड्सुनि: ।
विविक्तशरण: शान्तो मैत्र: करुण आत्मवान् ॥
८॥
यहच्छया--बिना कठिनाई के; उपलब्धेन--जो कुछ उपलब्ध है उसी से; सन्तुष्ट:--सन्तुष्ट; मित--कम; भुक्--खाकर; मुनि:--विचारवान; विविक्त-शरण: --एकान्त स्थान में रहकर; शान्तः--शान्त स्वभाव; मैत्र:--मैत्रीपूर्ण ;करुण:--दयालु; आत्म-वान्--स्वरूपसिद्ध |
भक्त को चाहिए कि बहुत कठिनाई के बिना जो कुछ वह कमा सके उसी से सन्तुष्टरहे।
जितना आवश्यक हो उससे अधिक उसे नहीं खाना चाहिए।
उसे एकान्त स्थान मेंरहना चाहिए और सदैव विचारवान, शान्त, मैत्रीपूर्ण, उदार तथा स्वरूपसिद्ध होनाचाहिए।
श़सानुबन्धे च देहेउस्मिन्नकुर्वन्नसदाग्रहम् ।
ज्ञानेन दृष्ठतत्त्वेन प्रकृतेः पुरुषस्थ च ॥
९॥
स-अनुबन्धे--शारीरिक सम्बन्धों से; च--तथा; देहे--शरीर के प्रति; अस्मिन्ू--इस; अकुर्वन्--न करते हुए; असत्ू-आग्रहम्--जीवन का देह-बोध; ज्ञानेन--ज्ञान के द्वारा; दृष्ट--देखकर; तत्त्वेन--वास्तविकता; प्रकृतेः--पदार्थ की;पुरुषस्य--आत्मा की; च--तथा
मनुष्य को आत्मा तथा पदार्थ के ज्ञान के द्वारा देखने की शक्ति बढ़ानी चाहिए औरउसे व्यर्थ ही शरीर के रूप में अपनी पहचान नहीं करनी चाहिए, अन्यथा वह शारीरिक सम्बन्धों खिंचा चला जाएगा।
vनिवृत्तबुद्धयवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शन: ।
उपलक्यात्मनात्मानं चश्नुषेवार्कमात्महक् ॥
१०॥
निवृत्त--अलग; बुद्धि-अवस्थान: -- भौतिक चेतना की अवस्थाएँ; दूरी-भूत--सुदूर; अन्य--दूसरा; दर्शन:--जीवनबोध; उपलभ्य--प्राप्त करके; आत्मना--अपने विशुद्ध विवेक से; आत्मानम्--अपने आपको; चश्लुषा--अपनीआँखों से; इब--सहश; अर्कम्--सूर्य; आत्म-हक्--स्वरूपसिद्ध |
मनुष्य को भौतिक चेतना की अवस्थाओं से परे दिव्य स्थिति में रहना चाहिए औरअन्य समस्त जीवन-बोधों से विलग रहना चाहिए।
इस प्रकार अहंकार से मुक्त होकर उसेअपने आपको उसी तरह देखना चाहिए जिस प्रकार वह आकाश में सूर्य को देखता है।
श़मुक्तलिड्रं सदाभासमसति प्रतिपद्यते ।
सतो बन्धुमसच्चक्षु: सर्वानुस्यूतमद्दयम् ॥
११॥
मुक्त-लिड्डमू--दिव्य; सत्-आभासम्--प्रतिबिम्ब रूप में प्रकट; असति--अहंकार में; प्रतिपद्यते--उसे बोध होता है;सतः बन्धुमू-- भौतिक कारण का आधार; असत्-चक्षु:--माया के नेत्र; सर्व-अनुस्यूतम्--हर वस्तु में प्रविष्ट;अद्वयम्-- अद्वितीय |
मुक्त जीव को उस परमेश्वर का साक्षात्कार होता है, जो दिव्य है और अहंकार में भीप्रतिबिम्बि के रूप में प्रकट होता है।
वे भौतिक कारण के आधार हैं तथा प्रत्येक वस्तु मेंप्रवेश करने वाले हैं।
वे अद्वितीय हैं और माया के नेत्र हैं।
श़यथा जलस्थ आभास: स्थलस्थेनावदृश्यते ।
स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिवि स्थित: ॥
१२॥
यथा--जिस तरह; जल-स्थ: --जल में स्थित; आभास: --प्रतिबिम्ब; स्थल-स्थेन--दीवाल में स्थित; अवदृश्यते--देखा जाता है; स्व-आभासेन--अपने प्रतिबिम्ब से; तथा--उसी तरह; सूर्य:--सूर्य; जल-स्थेन--जल में स्थित;दिवि--आकाश में; स्थित:--स्थित |
जिस प्रकार आकाश में स्थित सूर्य को सर्वप्रथम जल में पड़े प्रतिबिम्ब से और फिरकमरे की दीवाल पर पड़े दूसरे प्रतिबिम्ब से देखा जाता है, उसी तरह परमेश्वर कीउपस्थिति महसूस की जाती है।
श़एवं त्रिवृदहड्डारो भूतेन्द्रियमनोमयै: ।
स्वाभासैल॑क्षितोनेन सदाभासेन सत्यहक् ॥
१३॥
एवम्--इस तरह; त्रि-वृतू-त्रिविध, तीन प्रकार का; अहड्ढडारः--अहंकार; भूत-इन्द्रिय-मनः -मयैः --शरीर, इन्द्रियाँतथा मन से युक्त; स्व-आभासै:--अपने ही प्रतिबिम्बों से; लक्षित:--देखा जाता है; अनेन--इसके द्वारा; सतू-आभासेन--ब्रह्म के प्रतिबिम्ब से; सत्य-हक्-- आत्मवान्स्वरूपसिद्ध आत्मा
इस प्रकार स्वरूपसिद्ध आत्मा सर्वप्रथम त्रिविध अहंकार में और तब शरीर, इन्द्रियोंएवं मन में प्रतिबिम्बित होता है।
श़भूतसूक्ष्मेन्द्रियमनोबुद्धयादिष्विह निद्रया ।
लीनेष्वसति यस्तत्र विनिद्रो निरहड्क्रियः ॥
१४॥
भूत-- भौतिक तत्त्व; सूक्ष्म-- भोग की वस्तुएँ; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मनः--मन; बुद्धि--बुद्धि; आदिषु--इत्यादि;इह--यहाँ; निद्रया--नींद से; लीनेषु-- लीन; असति--अप्रकट में; यः--जो; तत्र--वहाँ; विनिद्र:--जगा हुआ;निरहडूक्रिय:--अहंकार से रहित।
यद्यपि ऐसा लगता है भक्त पाँचों तत्त्वों, भोग की वस्तुओं, इन्द्रियों तथा मन औरबुद्धि में लीन है, किन्तु वह जागृत रहता है और अंधकार से रहित होता है।
श़मन्यमानस्तदात्मानमनष्टो नष्टवन्मूषा ।
नष्टे'हड्डरणे द्रष्टा नष्टवित्त इवातुर: ॥
१५॥
मन्यमान:--सोचते हुए; तदा--तब; आत्मानम्-- स्वयं; अनष्ट: --यद्यपि नष्ट नहीं; नष्ट-वत्--नष्ट के समान; मृषा--झूठे ही; नष्टे अहड्डरणे--अहंकार के नष्ट होने से; द्रष्टा--देखने वाला; नष्ट-वित्त:--जिसकी सम्पत्ति नष्ट हो गई है;इब--सहश; आतुरः--दुखी |
जीवात्मा स्पष्ट रूप से द्रष्टा के रूप में अपने अस्तित्व का अनुभव कर सकता है,किन्तु प्रगाढ़ निद्रा के समय अहंकार के दूर हो जाने के कारण वह अपने को उस तरह विनष्ट हुआ मान लेता है, जिस प्रकार सम्पत्ति के नष्ट होने पर मनुष्य अपने को विनष्टहुआ समझता है।
एवं प्रत्यवमृश्यासावात्मानं प्रतिपद्यते ।
साहड्डारस्य द्रव्यस्य योवस्थानमनुग्रह: ॥
१६॥
एवम्--इस प्रकार; प्रत्यवमृश्य--विचार करके; असौ--वह व्यक्ति; आत्मानम्--अपने आपको; प्रतिपद्यते--अनुभवकरता है; स-अहड्डारस्य--अहंकार के वश में माना हुआ; द्रव्यस्थ--स्थिति का; य:--जो; अवस्थानम्--आश्रय,अधिष्ठान; अनुग्रह:-- प्रकाशक |
जब मनुष्य परिपक्व ज्ञान के द्वारा अपने व्यक्तित्व का अनुभव करता है, तोअहंकारवश वह जिस स्थिति को स्वीकार करता है, वह उसे प्रकट हो जाती है।
श़देवहूतिरुवाचपुरुषं प्रकृतिर्रह्मन्न विमुज्ञति कर्हिचित् ।
अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वादनयो: प्रभो ॥
१७॥
देवहूति: उबाच--देवहूति ने कहा; पुरुषम्ू--आत्मा; प्रकृति:--प्रकृति; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; न--नहीं; विमुज्ञति --छोड़ती है; कह्िंचित्ू--किसी भी समय, कभी; अन्योन्य-- परस्पर; अपाश्रयत्वातू--आकर्षण से; च--तथा;नित्यत्वात्ू--नित्यता से; अनयो: --उन दोनों का; प्रभो--हे भगवान्
श्री देवहूति ने पूछा : हे ब्राह्मण, क्या कभी प्रकृति आत्मा का परित्याग करती है?चूँकि इनमें से कोई एक दूसरे के प्रति शाश्वत रूप से आकर्षित रहता है, तो उनकापृथकत्व वियोग कैसे सम्भव है ?
श़यथा गन्धस्य भूमेश्व न भावो व्यतिरिकतः ।
अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धे परस्य च ॥
१८ ॥
यथा--जिस तरह; गन्धस्य--गन्ध का; भूमे:--पृथ्वी की; च--तथा; न--नहीं; भाव: --अस्तित्व; व्यतिरिकतः --पृथक्; अपामू--जल का; रसस्य-- स्वाद का; च--तथा; यथा--जिस तरह; तथा--उसी तरह; बुद्धेः--बुद्धि का;परस्य--चेतना या आत्मा का; च--तथा
जिस प्रकार पृथ्वी तथा इसकी गन्ध या जल तथा इसके स्वाद का कोई पृथक्अस्तित्व नहीं होता उसी तरह बुद्ध्धि तथा चेतना का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं हो सकता।
अकर्तु: कर्मबन्धोयं पुरुषस्य यदाश्रय: ।
गुणेषु सत्सु प्रकृते: कैवल्यं तेष्वत: कथम् ॥
१९॥
अकर्तुः--न करने वाले का; कर्म-बन्ध:--कर्मों का बन्धन; अयमू--यह; पुरुषस्थ--आत्मा का; यतू-आश्रय: --गुणों की संगति से उत्पन्न; गुणेषु--जबकि गुणों में; सत्सु--उपस्थित हैं; प्रकृते:--प्रकृति के; कैवल्यम्--स्वतन्त्रता;तेषु--उन; अत:--अतः; कथम्--कैसे
अतः समस्त कर्मो का कर्ता न होते हुए भी जीव तब तक कैसे स्वतन्त्र हो सकता हैजब तक प्रकृति उस पर अपना प्रभाव डालती रहती है और उसे बाँधे रहती है।
श़क्वचित्तत्त्वावम्ेन निवृत्तं भयमुल्बणम् ।
अनिवृत्तनिमित्तत्वात्पुन: प्रत्यवतिष्ठते ॥
२०॥
क्वचित्--यदि कभी; तत्त्व--मूल सिद्धान्त; अवमर्शेन--विचार करने से; निवृत्तम्ू--बचा जा सके; भयम्-- भय;उल्बणम्--महान्; अनिवृत्त--छुटकारा न पाने वाला; निमित्तत्वात्ू--चूँकि कारण से; पुनः--फिर; प्रत्यवतिष्ठते--प्रकट होता है।
यदि चिन्तन तथा मूल सिद्धान्तों की जाँच-परख से बन्धन के महान् भय से बच भीलिया जाय तो भी यह पुनः प्रकट हो सकता है, क्योंकि इसके कारण का अन्त नहींहुआ होता है।
श़श्रीभगवानुवाचअनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना ।
तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसम्भूतया चिरम् ॥
२१॥
श्री-भगवान् उबाच-- श्रीभगवान् ने कहा; अनिमित्त-निमित्तेन--कर्म-फल की इच्छा के बिना; स्व-धर्मेण -- अपने-अपने निर्धारित कार्यो के करने से; अमल-आत्मना--शुद्ध मन से; तीव्रया--उत्कट, गभ्भीर; मयि--मुझको;भक्त्या-- भक्ति से; च--तथा; श्रुत-- श्रवण; सम्भृतया--से युक्त; चिरम्--दीर्घकाल तक |
भगवान् ने कहा : यदि कोई गम्भीरतापूर्वक मेरी सेवा करता है और दीर्घकाल तकमेरे विषय में या मुझसे सुनता है, तो वह मुक्ति पा सकता है।
इस प्रकार अपने-अपनेनियत कार्यों के करने से कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी और मनुष्य पदार्थ के कल्मष से मुक्तहो जाएगा।
श़ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना ॥
२२॥
ज्ञानेन--ज्ञान से; दृष्ट-तत्त्वेन--परम सत्य की दृष्टि से; वैराग्येण--विरक्ति से; बलीयसा-- अत्यन्त हृढ़तापूर्वक; तपः-युक्तेन--तप में लगाने से; योगेन--योग से; तीब्रेण--हढ़तापूर्वक स्थिर; आत्म-समाधिना--आत्म-लीन होने से |
यह भक्ति हढ़तापूर्वक पूर्ण ज्ञान से तथा दिव्य दृष्टि से सम्पन्न करनी चाहिए।
मनुष्य को प्रबल रूप से विरक्त होना चाहिए, तपस्या में लगना चाहिए और आत्मलीन होने केलिए योग करना चाहिए।
प्रकृति: पुरुषस्येह दह्ममाना त्वहर्निशम् ।
तिरोभवित्री शनकैरग्नेयोनिरिवारणि: ॥
२३॥
प्रकृति:--प्रकृति का प्रभाव; पुरुषस्थ--जीवात्मा का; इह--यहाँ; दह्ममाना--जलकर; तु--लेकिन; अहः-निशम्--दिन-रात; तिरः-भवित्री --विलीन होकर; शनकै: -- धीर-धीरे; अग्ने: -- अग्नि का; योनि:--उदय का कारण; इब--सहश; अरणि:--काष्ठ, जिससे अग्नि उत्पन्न की जाती है।
प्रकृति के प्रभाव ने जीवात्मा को ढक कर रखा है मानो जीवात्मा सदैव प्रज्वलितअग्नि में रह रहा हो।
किन्तु भक्ति करने से यह प्रभाव उसी प्रकार दूर किया जाता सकताहै, जिस प्रकार अग्नि उत्पन्न करने वाले काष्ठट-खण्ड स्वयं भी अग्नि द्वारा भस्म हो जाते" श़भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यश: ।
नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्थ च ॥
२४॥
भुक्त-- भोगा हुआ; भोगा-- भोग; परित्यक्ता--छोड़ा हुआ; दृष्ट--खोजा हुआ; दोषा--त्रुटि; च--तथा; नित्यश: --सदैव; न--नहीं; ई श्वरस्थ--स्वतन्त्र का; अशुभम्--हानि; धत्ते--नुकसान पहुँचाती है; स्वे महिम्नि--अपनी कीर्ति में;स्थितस्य--स्थित; च--तथा
प्रकृति पर अधिकार जताने की इच्छा के दोषों को ज्ञात करके और फलस्वरूप उसइच्छा को त्याग करके जीवात्मा स्वतन्त्र हो जाता है और अपनी कीर्ति में स्थित हो जाताहै।
श़यथा ह्प्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बहनर्थभूत् ।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥
२५॥
यथा--जिस प्रकार; हि--निस्सन्देह; अप्रतिबुद्धस्य--सोने वाले का; प्रस्वाप: --स्वप्न; बहु-अनर्थ-भृत्-- अनेकअशुभ बातें उत्पन्न करने वाला; सः एव--वही स्वण्न; प्रतिबुद्धस्थ--जगने वाले का; न--नहीं; बै--निश्चय ही;मोहाय--मोहग्रस्त करने के लिए; कल्पते--समर्थ है।
स्वप्नावस्था में मनुष्य की चेतना प्रायः ढकी रहती है और उसे अनेक अशुभ वस्तुएँदिखती हैं, किन्तु उसके जगने पर तथा पूर्ण चेतन होने पर ऐसी अशुभ वस्तुएँ उसेविभ्रमित नहीं कर सकतीं।
श़एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिमयि मानसम् ।
युज्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित् ॥
२६॥
एवम्--इस प्रकार; विदित-तत्त्वस्य--परम सत्य के जानने वाले की; प्रकृति:--प्रकृति; मयि--मुझ पर; मानसम्--मन को; युज्ञतः--स्थिर करते हुए; न--नहीं; अपकुरुते--हानि पहुँचा सकता है; आत्म-आरामस्य--आत्म में आनन्दउठाने वाले को; कर्हिचित्ू--कभी भी |
प्रकृति का प्रभाव किसी प्रबुद्ध मनुष्य को हानि नहीं पहुँचा सकता, भले ही वहभौतिक कार्यकलापों में ही व्यस्त क्यों न रहता हो, क्योंकि वह परम सत्य की सच्चाईको जानता है और उसका मन भगवान् में ही स्थिर रहता है।
श़यदैवमध्यात्मरत: कालेन बहुजन्मना ।
सर्वत्र जातवैराग्य आब्रह्मभुवनान्मुनि: ॥
२७॥
यदा--जब; एवम्--इस प्रकार; अध्यात्म-रत:--आत्म-साक्षात्कार में लगा हुआ; कालेन--अनेक वर्षो तक; बहु-जन्मना--अनके जन्मों तक; सर्वत्र--सभी जगह; जात-वबैराग्य:--विरक्ति उत्पन्न होती है; आ-ब्रह्म-भुवनात्--ब्रहालोक तक; मुनि:ः--विचारवान व्यक्ति
मनुष्य जब इस तरह अनेकानेक वर्षों तथा अनेक जन्मों तक भक्ति एवं आत्म-साक्षात्कार में लगा रहता है, तो उसे किसी भी लोक में, यहाँ तक कि सर्वोच्च लोकब्रह्मलोक में भी भोग से पूर्ण विरक्ति हो जाती है और उसमें चेतना पूर्णतया विकसित होजाती है।
श़मद्धक्तः प्रतिबुद्धार्थो मत्प्रसादेन भूयसा ।
निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम् ॥
२८ ॥
प्राप्नोतीहाज्जसा धीरः स्वदृशा चिछन्नसंशय: ।
यद्गत्वा न निवर्तेत योगी लिड्भाद्विनिर्गमे ॥
२९॥
मत्-भक्त:--मेरा भक्त; प्रतिबुद्ध-अर्थ:--स्वरूपसिद्ध; मत्-प्रसादेन--मेरी अहैतुकी कृपा से; भूयसा-- अनन्त;नि: श्रेयसमू-- चरम परिणति; स्व-संस्थानम्--अपने धाम को; कैवल्य-आख्यम्--कैवल्य नामक; मत्-आश्रयम्--मेरी शरण को; प्राप्पोति--प्राप्त करता है; इह--इस जीवन में; अज्ञ़सा-- सचमुच; धीरः -- धीर; स्व-हशा--आतम्ञान में; छिन्न-संशय:--संशयों से मुक्त; यत्--उस धाम तक; गत्वा--जाकर; न--कभी नहीं; निवर्तेत--लौटता है; योगी--योगी भक्त; लिझ्त्--सूक्ष्म तथा स्थूल भौतिक शरीरों से; विनिर्गमे--प्रस्थान के बाद।
मेरा भक्त मेरी असीम अहैतुकी कृपा से वस्तुतः स्वरूपसिद्ध हो जाता है और इस तरह समस्त संशयों से मुक्त होकर वह अपने गन्तव्य धाम की ओर अग्रसर होता है, जोमेरी शुद्ध आनन्द की आध्यात्मिक शक्ति के अधीन है।
जीव का यही चरम सिद्धि-गन्तव्य स्व-संस्थान है।
इस शरीर को त्यागने के बाद योगी भक्त उस दिव्य धाम कोजाता है जहाँ से वह फिर कभी नहीं लौटता।
यदा न योगोपचितासु चेतोमायासु सिद्धस्य विषज्ञतेठड़ ।
अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्याद्आत्यन्तिकी यत्र न मृत्युहास: ॥
३०॥
श़यदा--जब; न--नहीं; योग-उपचितासु--योग द्वारा प्राप्त शक्तियों तक; चेत:-- ध्यान; मायासु--माया के प्राकट्य;सिद्धस्य--सिद्ध योगी का; विषज्ञते--आकर्षित होता है; अड्र--हे माता; अनन्य-हेतुषु--जिसका कोई अन्य कारणन हो; अथ--तब; मे-- मुझको; गति:-- उसकी प्रगति; स्थात्--होती है; आत्यन्तिकी-- असीम; यत्र--जहाँ; न--नहीं; मृत्यु-हास:--मृत्यु की शक्ति
जब सिद्ध योगी का ध्यान योगशक्ति की गौण वस्तुओं की ओर, जो बहिरंगा शक्तिके प्राकट्य हैं, आकृष्ट नहीं होता तब मेरी ओर उसकी प्रगति असीमित होती है और इसतरह उसे मृत्यु कभी भी परास्त नहीं कर सकती।
अध्याय अट्ठाईसवां: भक्ति सेवा के निष्पादन पर कपिला के निर्देश
3.28श्रीभगवानुवाचयोगस्य लक्षणं वक्ष्ये सबीजस्य नृपात्मजे ।
मनो येनैव विधिना प्रसन्न॑ याति सत्पथम् ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; योगस्थ--योग पद्धति का; लक्षणम्--वर्णन; वक्ष्ये--कहूँगा; सबीजस्य--प्रामाणिक; नृप-आत्म-जे--हे राजपुत्री; मन:--मन; येन--जिससे; एव--निश्चय ही; विधिना-- अभ्यास से;प्रसन्नम्ू-- प्रसन्न; याति--प्राप्त करता है; सत्-पथम्--परम सत्य का मार्ग
भगवान् ने कहा: हे माता, हे राजपुत्री, अब मैं आपको योग विधि बताऊँगाजिसका उद्देश्य मन को केन्द्रित करना है।
इस विधि का अभ्यास करने से मनुष्य प्रसन्नरहकर परम सत्य के मार्ग की ओर अग्रसर होता है।
स्वधर्माचरणं शकत्या विधर्माच्च निवर्तनम् ।
देवाल्लब्धेन सन्तोष आत्मविच्चरणार्चनम् ॥
२॥
स्व-धर्म-आचरणम्--अपने कर्तव्यों का पालन; शक्त्या--अपनी शक्ति भर; विधर्मात्--शास्त्रविरुद्ध कर्तव्य से;च--तथा; निवर्तनम्--बचते हुए; दैवात्-- भगवान् की कृपा से; लब्धेन--जो कुछ प्राप्त हो उससे; सनन््तोष: --संतुष्ट;आत्म-वित्--स्वरूपसिद्ध जीव के; चरण--पाँव की; अर्चनम्--पूजा।
मनुष्य को चाहिए कि वह यथाशक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करे और उन कर्मोको करने से बचे, जो उसे नहीं करने हैं।
उसे ईश्वर की कृपा से जो भी प्राप्त हो उसी सेसन्तुष्ट रहना चाहिए और गुरु के चरणकमलों की पूजा करनी चाहिए।
ग्राम्यधर्मनिवृत्तिश्च मोक्षधर्मरतिस्तथा ।
मितमेध्यादनं शश्वद्विविक्तक्षेमसेवनम् ॥
३॥
ग्राम्य--परम्परागत; धर्म--धार्मिक प्रथा; निवृत्तिः--समाप्ति; च--तथा; मोक्ष--मोक्ष के लिए; धर्म--धार्मिक प्रथा;रतिः--अनुरक्ति; तथा--उसी तरह; मित--कुछ; मेध्य--शुद्ध; अदनमू-- भोजन करना; शश्वत्--सदैव; विविक्त--एकान्त; क्षेम--शान्तिपूर्ण; सेवनम्--घर |
मनुष्य को चाहिए कि परम्परागत धार्मिक प्रथाओं का परित्याग कर दे और उनप्रथाओं में अनुरक्त हो जो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली हैं।
उसे स्वल्प भोजन करनाचाहिए और सदैव एकान्तवास करना चाहिए जिससे उसे जीवन की चरम सिद्धि प्राप्त होसके।
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रह: ।
ब्रह्मचर्य तप: शौच स्वाध्याय: पुरुषार्चनम् ॥
४॥
अहिंसा--अहिंसा; सत्यम्--सत्यनिष्ठा; अस्तेयम्ू--चोरी न करना; यावत्-अर्थ--आवश्यकतानुसार; परिग्रह: --संग्रह; ब्रह्मचर्यम्--ब्रह्मचर्य ब्रत; तपः--तपस्या; शौचम्-- स्वच्छता; स्व-अध्याय:--वेदों का अध्ययन; पुरुष-अर्चनम्ू-- भगवान् की पूजा
मनुष्य को चाहिए कि अहिंसा तथा सत्य का आचरण करे, चोरी से बचे और अपनेनिर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करे।
वह विषयी जीवन से बचे,तपस्या करे, स्वच्छ रहे, वेदों का अध्ययन करे और भगवान् के परमस्वरूप की पूजाकरे।
मौन सदासनजय: स्थेर्य प्राणजय:ः शनेः ।
प्रत्याहारश्रेन्द्रियणां विषयान्मनसा हृदि ॥
५॥
मौनम्ू--मौन, मूकता; सत्--अच्छा; आसन--योग के आसन; जय:--वश में करते हुए; स्थैर्यमू--स्थिरता; प्राण-जय:--प्राणवायु को साधना; शनै:--धीरे-धीरे; प्रत्याहारः--निकालना; च--तथा; इन्द्रियाणाम्--इन्द्रियों का;विषयात्--विषयों से; मनसा--मन से; हृदि--हृदय में |
मनुष्य को इन विधियों अथवा अन्य किसी सही विधि से अपने दूषित तथा चंचलमन को वश में करना चाहिए, जिसे भौतिक भोग के द्वारा सदैव आकृष्ट किया जातारहता है और इस तरह अपने आप को भगवान् के चिन्तन में स्थिर करना चाहिए।
स्वधिष्ण्यानामेकदेशे मनसा प्राणधारणम् ।
वैकुण्ठलीलाभिध्यानं समाधान तथात्मन: ॥
६॥
स्व-धिष्ण्यानाम्--प्राणचक्रों के भीतर; एक-देशे--एक स्थान में; मनसा--मन से; प्राण--प्राणवायु; धारणम्--स्थिर करना; वैकुण्ठ-लीला-- श्रीभगवान् की लीलाओं में; अभिध्यानम्-- ध्यान; समाधानम्--समाधि; तथा--इसतरह; आत्मन:--मन की |
शरीर के भीतर के षटचक्रों में से किसी एक में प्राण तथा मन को स्थिर करना औरइस प्रकार से अपने मन को भगवान् की दिव्य लीलाओं में केन्द्रित करना समाधि या मनका समाधान कहलाता है।
एतैरन्यैश्व पथिभिर्मनो दुष्टमसत्पथम् ।
बुद्धया युज्ञीत शनकैर्जितप्राणो हमतन्द्रित: ॥
७॥
एतै:--इनसे; अन्यैः--दूसरे से; च--यथा; पथ्चिभि:--विधियों से; मनः--मन; दुष्टम्--कलुषित; असत्-पथम्--सांसारिक भोग के पथ पर; बुद्धया--बुद्धि से; युज्ञीत--वश में करना चाहिए; शनकै: -- धीरे-धीरे; जित-प्राण: --प्राणवायु को स्थिर करके; हि--निस्सन्देह; अतन्द्रितः--सतर्क
इन विधियों से या अन्य किसी सही विधि से मनुष्य को अपने दूषित तथा भौतिकभोग के द्वारा सदैव आकृष्ट होने वाले चंचल मन को वश में करना चाहिए और इस तरहअपने आपको भगवान् के चिन्तन में स्थिर करना चाहिए।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्प विजितासन आसनम् ।
तस्मिन्स्वस्ति समासीन ऋजुकायः समभ्यसेत् ॥
८॥
शुचौ देशे--पवित्र स्थान में; प्रतिष्ठाप्प--स्थापित करके ; विजित-आसन:--आसनों को वश में करते हुए;आसनमू--आसन, स्थान; तस्मिन्--उस स्थान में; स्वस्ति समासीन:--आरामदेह आसन में बैठे हुए; ऋजु-काय:--शरीर को सीधा रखते हुए; समभ्यसेत्--अभ्यास करना चाहिए
अपने मन तथा आसनों को वश में करने के बाद मनुष्य को चाहिए कि किसीएकान्त तथा पवित्र स्थान में अपना आसन बिछा दे, उस पर शरीर को सीधा रखते हुएसुखपूर्वक आसीन होकर श्वास नियन्त्रण प्राणायाम का अभ्यास करे।
प्राणस्य शोधयेन्मार्ग पूरकुम्भकरेचकै: ।
प्रतिकूलेन वा चित्तं यथा स्थिरमचञ्जलम् ॥
९॥
प्राणस्य--प्राणवायु के; शोधयेत्--स्वच्छ करे; मार्गम्ू--रास्ते को; पूर-कुम्भक-रेचकै:-- श्वास खींचकर, रोककरतथा निकालकर; प्रतिकूलेन--उलटने से; वा--अथवा; चित्तमू--मन को; यथा--जिसमें; स्थिरम्--स्थिर, स्थायी;अचञ्जलम्--अवरोधों से युक्त |
योगी को चाहिए कि प्राणवायु के मार्ग को निम्नलिखित विधि से श्वास लेकर इसप्रकार से स्वच्छ करे-पहले बहुत गहरी श्वास अंदर ले, फिर उस श्वास को धारण कियेरहे और अन्त में श्रास बाहर निकाल दे।
या फिर इस विधि को उलट कर योगी पहलेश्वास निकाले, फिर श्वास रोके रखे और अन्त में श्वास भीतर ले जाय।
ऐसा इसलिएकिया जाता है, जिससे मन स्थिर हो और बाहरी अवरोधों से मुक्त हो सके।
मनोचिरात्स्याद्विरजं जितश्रासस्यथ योगिन: ।
वाय्वग्निभ्यां यथा लोहं ध्मातं त्यजति वै मलम् ॥
१०॥
मनः--मन; अचिरातू--शीघ्र ही; स्थात्ू--हो सकता है; विरजम्--उद्देगों से मुक्त; जित-श्रासस्थ--जिसने श्वास परविजय पा ली है; योगिन:--योगी का; वायु-अग्निभ्याम्ू--वायु तथा अग्नि से; यथा--जिस प्रकार; लोहमू--स्वर्ण ;ध्मातम्--हवा किये जाने पर; त्यजति--मुक्त हो जाता है; बै--निश्चय ही; मलम्--अशुद्धि से |
जो योगी ऐसे प्राणायाम का अभ्यास करते हैं, वे तुरन्त समस्त मानसिक उद्देगों सेउसी तरह मुक्त हो जाते हैं जिस प्रकार हवा की फुहार से अग्नि में रखा सोना सारीअशुद्धियों से रहित हो जाता है।
प्राणायामैर्दहिद्योषान्धारणाभिश्च किल्बिषान् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानी श्वरान्गुणान् ॥
११॥
प्राणायामै:--प्राणायाम के अभ्यास से; दहेत्ू--समूल नष्ट कर सकता है; दोषानू--कल्मषों को; धारणाभि:--मनको केन्द्रित करने से; च--यथा; किल्बिषान्--पाप कर्म; प्रत्याहरेण--इन्द्रियों को रोकने से; संसर्गान्ू-- भौतिकसंगति; ध्यानेन-- ध्यान करने से; अनी श्वरान् गुणान्-- भौतिक प्रकृति के गुणों को
प्राणायाम विधि के अभ्यास से मनुष्य अपने शारीरिक दोषों को समूल नष्ट करसकता है और अपने मन को एकाग्र करने से वह सारे पापकर्मो से मुक्त हो सकता है।
इन्द्रियों को वश में करने से मनुष्य भौतिक संसर्ग से अपने को मुक्त कर सकता है औरभगवान् का ध्यान करने से वह भौतिक आसक्ति के तीनों गुणों से मुक्त हो सकता है।
यदा मन: स्वं विरजं योगेन सुसमाहितम् ।
काष्ठटां भगवतो ध्यायेत्स्वनासाग्रावलोकन: ॥
१२॥
यदा--जब; मनः--मन; स्वम्ू--अपने से; विरजम्--शुद्ध; योगेन--योगाभ्यास से; सु-समाहितम्--वशीभूत,नियंत्रित; काष्ठाम्-पूर्ण अंश; भगवत:-- श्री भगवान् का; ध्यायेत्-- ध्यान करना चाहिए; स्व-नासा-अग्र--अपनीनाक का अग्रभाग; अवलोकन: --देखते हुए
जब इस योगाभ्यास से मन पूर्णतया शुद्ध हो जाय, तो मनुष्य को चाहिए किअधखुलीं आखों से नाक के अग्रभाग में ध्यान को केन्द्रित करे और भगवान् के स्वरूपको देखे।
प्रसन्नवदनाम्भोजं॑ पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं शट्डुचक्रगदाधरम् ॥
१३॥
प्रसन्न--प्रसन्न; बदन--मुख; अम्भोजमू--कमलवत्; पद्य-गर्भ--कमल का भीतरी भाग; अरुण--लाल; ईक्षणम्--आँखों से; नील-उत्पल--नील कमल; दल--पंखड़ियाँ; श्यामम्-श्याम रंग की; शबट्भु--शंख; चक्र--चक्र ; गदा--गदा; धरम्-- धारण किये हुए।
भगवान् का मुख उत्फुल्ल कमल के समान है और लाल लाल आँखें कमल केकोश भीतरी भाग के समान हैं।
उनका श्यामल शरीर नील कमल की पंखड़ियों केसमान है।
वे अपने तीन हाथों में शट्ढु, चक्र तथा गदा धारण किये हैं।
लसत्पड्डूजकिञ्लल्कपीतकौशेयवाससम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम् ॥
१४॥
लसत्--चमकता हुआ; पड्डज--कमल के; किल्लल्क--तन्तु; पीत--पीला; कौशेय--रेशमी ; वाससम्--जिनकावस्त्र; श्रीवत्स--श्रीवत्स चिह्न से युक्त; वक्षसम्--वक्षस्थल; भ्राजत्--प्रकाशमान; कौस्तुभ--कौस्तुभ मणि;आमुक्त--पहने हुए; कन्धरम्-गला।
उनकी कटि पीले पद्-केशर के सहश चमकदार वस्त्र से आवरित है।
उनकेवशक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न श्वेत बालों का गुच्छा है।
उनके गले में चमचमाती कौस्तुभमणि लटक रही है।
मत्तद्विरिफकलया परीतं वनमालया ।
परार्ध्यहारवलयकिरीटाड्रदनूपुरम् ॥
१५॥
मत्त--मतवाले; द्वि-रफ--भौंरों से; कलया--गुंजार करते; परीतम्--हार पहने; बन-मालया--वन के फूलों कीमाला से; परार्ध्य--अमूल्य; हार--मोती की माला; वलय--कंकण; किरीट--मुकुट; अड्भद--बाजूबंद; नूपुरम्--नूपुर।
वे अपने गले में वनपुष्पों की आकर्षक माला भी धारण करते हैं जिसकी सुगन्धि सेमतवाले भौंरों के झुंड माला के चारों ओर गुंजार करते हैं।
वे मोती की माला, मुकुट,एक जोड़ी कंकण, बाजूबंद तथा नूपुर से अत्युत्तम ढंग से सुसज्जित हैं।
काञ्ञीगुणोल्लसच्छोणिं हृदयाम्भोजविष्टरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयनवर्धनम् ॥
१६॥
काञ्जी--करधनी; गुण--गुण; उल्लसत्--चमकीली; श्रोणिम्--कमर तथा कूल्हे; हदय--हृदय; अम्भोज--कमल;विष्टरमू--जिनका आसन; दर्शनीय-तमम्--देखने में सर्वाधिक मोहक; शान्तम्--शान्त, गम्भीर; मन:--मन, हृदय;नयन--आँखें; वर्धनम्--प्रसन्न करने वाला।
उनकी कमर तथा कूल्हे पर करधनी पड़ी है और वे भक्तों के हदय-कमल पर खड़ेहुए हैं।
वे देखने में अत्यन्त मोहक हैं और उनका शान्त स्वरूप देखने वाले भक्तों के नेत्रोंको तथा आत्माओं को आनन्दित करने वाला है।
अपीच्यदर्शनं शश्वत्सर्वलोकनमस्कृतम् ।
सन्त वयसि कैशोरे भृत्यानुग्रहकातरम् ॥
१७॥
अपीच्य-दर्शनम्--देखने में अतीव सुन्दर; शश्वत्--नित्य; सर्व-लोक-- प्रत्येक लोक से समस्त वासियों द्वारा; नमः-कृतम्--पूज्य; सन््तमू--स्थित; वयसि--युवावस्था में; कैशोरे--बाल्यपन में; भृत्य-- अपने भक्तों पर; अनुग्रह--आशीर्वाद देने के लिए; कातरम्ू--उत्सुक |
भगवान् शाश्वत रूप से अत्यन्त सुन्दर हैं और प्रत्येक लोक के समस्तवासियों द्वारापूजित हैं।
वे चिर-युवा रहते हैं और अपने भक्तों को आशीष देने के लिए उत्सुक रहते" हैं।
कीर्तन्यतीर्थयशसं पुण्यश्लोकयशस्करम् ।
ध्यायेद्देवं समग्राड़ुंं यावन्न च्यवते मन: ॥
१८॥
कीर्तन्य--गाये जाने के योग्य; तीर्थ-यशसम्-- भगवान् की महिमा; पुण्य-शलोक--भक्तों के; यशः-करम्--यश कोबढ़ाने वाले; ध्यायेत्-- ध्यान करना चाहिए; देवम्-- भगवान् का; समग्र-अड्रम्--सारे अंग; यावत्ू--जब तक; न--नहीं; च्यवते--विचलित होवे; मन:--मन
भगवान् का यश वन्दनीय है, क्योंकि उनका यश भक्तों के यश को बढ़ाने वाला है।
अतः मनुष्य को चाहिए कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तथा उनके भक्तों का ध्यान करे।
मनुष्य को तब तक भगवान् के शाश्वत रूप का ध्यान करना चाहिए जब तक मन स्थिरन हो जाय।
स्थितं ब्रजन्तमासीनं शयानं वा गुहाशयम् ।
प्रेक्षणीयेहितं ध्यायेच्छुद्धभावेन चेतसा ॥
१९॥
स्थितम्-खड़े रहते हुए; ब्रजन्तम्--चलते; आसीनम्--बैठे; शयानम्-- लेटे; वा--अथवा; गुहा-आशयम्--हृदय मेंवास करने वाले भगवान; प्रेक्षणीय--सुन्दर; ईहितम्--लीलाएँ; ध्यायेत्-- ध्यान करना चाहिए; शुद्ध- भावेन--शुद्ध;चेतसा--मन से |
इस प्रकार भक्ति में सदैव तल्लीन रहकर योगी अपने अन्तर में भगवान् को खड़े रहतेहुए, चलते, लेटे या बैठे हुए देखता है, क्योंकि परमेश्वर की लीलाएँ सुन्दर तथा आकर्षक होती हैं।
तस्मिल्लब्धपदं चित्तं सर्वावयवसंस्थितम् ।
विलक्ष्यैकत्र संयुज्यादड़े भगवतो मुनि: ॥
२०॥
तस्मिनू-- भगवान् के स्वरूप में; लब्ध-पदम्--स्थिर; चित्तम्--मन को; सर्व--सारे; अवयव--अआंगों में;संस्थितम्--स्थिर किया हुआ; विलक्ष्य--अन्तर जान करके ; एकत्र--एक स्थान पर; संयुज्यात्--मन को स्थिर करे;अड्ले--हर अंग में; भगवत:--भगवान् के; मुनि:--मुनि।
भगवान् के नित्य रूप में अपना मन स्थिर करते समय योगी को चाहिए कि वहभगवान् के समस्त अंगों पर एक ही साथ विचार न करके, भगवान् के एक-एक अंग पर मन को स्थिर करे।
सश्ञिन्तयेद्धगवतश्चरणारविन्दंवज़ाड्लु शध्वजसरोरुहलाउछनाढ्यम् ॥
उत्तुड़रक्तविलसन्नखचक्रवाल-ज्योत्स्नाभिराहतमहद्धूदयान्धकारम् ॥
२१॥
सशञ्ञिन्तयेत्--उसे केन्द्रित करना चाहिए; भगवत:ः -- भगवान् के; चरण-अरविन्दम्--चरणकमलों पर; वज्ञ--वज़;अछ्'ु श--हाथी हाँकने का दंड, अंकुश; ध्वज--पताका; सरोरूह--कमल; लाउ्छन--चिह्न से; आढ्यम्--अलंकृत;उत्तुड़-उमड़े हुए; रक्त--लाल; विलसत्--चमकीले; नख--नाखून; चक्रवाल--चन्द्रमण्डल; ज्योत्स्नाभि:--चन्द्रिका से; आहत--दूर किया गया; महत्--घना; हृदय--हृदय का; अन्धकारम्--अँधेरा
भक्त को चाहिए कि सर्वप्रथम वह अपना मन भगवान् के चरणकमलों में केन्द्रितकरे जो वज्ज, अंकुश, ध्वजा तथा कमल चिन्हों से सुशोभित रहते हैं।
सुन्दर माणिक सेउनके नाखूनों की शोभा चन्द्रमण्डल से मिलती-जुलती है और हृदय के गहन तम को दूरकरने वाली है।
यच्छौचनि:सृतसरित्प्रवरोदकेनतीर्थेन मूर्ध्यधिकृतेन शिव: शिवोभूत् ।
ध्यातुर्मन:शमलशैलनिसूष्टवज्नंध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम् ॥
२२॥
यत्--भगवान् के चरणकमल; शौच--धोने से, प्रक्षालन से; निःसृत--निकली हुईं; सरित्-प्रवर--गंगा नदी के;उदकेन--जल से; तीर्थेन--पतवित्र; मूर्थिनि--सर पर; अधिकृतेन--उत्पन्न; शिव:--शिवजी; शिव:--शुभ; अभूत्--होगया; ध्यातु:ः--ध्यान करने वाले का; मन:ः--मन; शमल-शैल--पाप का पहाड़; निसृष्ट--फेंका गया; वज़म्--वज़;ध्यायेत्ू-- ध्यान करना चाहिए; चिरम्--दीर्घकाल तक; भगवतः-- भगवान् के; चरण-अरविन्दम्--चरणकमलोंकोपूज्य
शिवजी भगवान् के चरणकमलों के प्रक्षालित जल से उत्पन्न गंगा नदी केपवित्र जल को अपने शिर पर धारण करके और भी पूज्य हो जाते हैं।
भगवान् के चरणउस वज के तुल्य हैं, जो ध्यान करने वाले भक्त के मन में संचित पाप के पहाड़ कोध्वस्त करने के लिए चलाया जाता है।
अतः मनुष्य को दीर्घताल तक भगवान् केचरणकमलों का ध्यान करना चाहिए ॥
" जानुद्दयं जलजलोचनया जनन्यालक्ष्म्याखिलस्य सुरवन्दितया विधातु: ।
ऊर्वोर्निधाय करपललवरोचिषा यत्संलालितं हृदि विभोरभवस्य कुर्यात् ॥
२३॥
जानु-द्रयम्--घुटनों तक; जलज-लोचनया--कमल-नेत्र वाली; जनन्या--माता; लक्ष्म्या-- लक्ष्मी द्वारा;अखिलस्य--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की; सुर-वन्दितया--देवताओं द्वारा पूजित; विधातु: --ब्रह्मा को; ऊर्वो: --जाँघों पर;निधाय--रख कर; कर-पल्लव-रोचिषा-- अपनी कान्तिमान अँगुलियों से; यत्--जो; संलालितम्--चापे जाकर,दबाये जाकर; हृदि--हृदय में; विभो: -- भगवान् का; अभवस्य--इस संसार से परे; कुर्यातू-ध्यान करना चाहिए
योगी को चाहिए कि वह सभी देवताओं द्वारा पूजित तथा सर्वोपरि जीव ब्रह्मा कीमाता, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मीजी के कार्यकलापों में अपने हृदय को स्थिर कर दे।
वे सदैवदिव्य भगवान् के पाँवों तथा जंघाओं को चाँपती हुई देखी जा सकती हैं।
इस प्रकार वेसावधानी के साथ उनकी सेवा करती हैं।
ऊरू सुपर्णभुजयोरधि शो भमाना-वोजोनिधी अतसिकाकुसुमावभासौ ।
व्यालम्बिपीतवरवाससि वर्तमान-काञझ्लजीकलापपरिरम्भि नितम्बबिम्बम् ॥
२४॥
ऊरू--दोनों जंघाएँ; सुपर्ण--गरुड़ की; भुजयो:--दो कंधे; अधि--ऊपर; शोभमानौ--सुन्दर; ओज:-निधी--समस्त शक्ति का आगार; अतसिका-कुसुम--अलसी के फूल की; अवभासौ--कान्ति जैसी; व्यालम्बि--लटकतेहुए; पीत--पीला; वर-- श्रेष्ठ; वाससि--वस्त्र पर; वर्तमान--रहकर; काज्नी-कलाप--करधनी से; परिरम्भि--घिराहुआ; नितम्ब-बिम्बम्--गोलाकार नितम्ब |
फिर, ध्यान में योगी को अपना मन भगवान् की जाँघों पर स्थित करना चाहिए जोसमस्त शक्ति की आगार हैं।
वे अलसी के फूलों की कान्ति के समान सफेद-नीली हैं और जब भगवान् गरुड़ पर चढ़ते हैं, तो ये जाँघें अत्यन्त भव्य लगती है।
योगी कोचाहिए कि वह भगवान् के गोलाकार नितम्बों का ध्यान धरे, जो करधनी से घिरे हुए हैऔर यह करधनी भगवान् के एड़ी तक लटकते पीताम्बर पर टिकी हुई है।
नाभिह॒दं भुवनकोशगुहोदरस्थंयत्रात्मयोनिधिषणाखिललोकपदाम् ।
व्यूढे हरिन्मणिवृषस्तनयोरमुष्यध्यायेद्द्वयं विशद्हारमयूखगौरम् ॥
२५॥
नाभि-हृदम्--नाभि रूपी सरोवर; भुवन-कोश--समस्त लोकों का; गुहा--आधार; उदर--आमाशय पर; स्थम्--स्थित; यत्र--जहाँ; आत्म-योनि--ब्रह्मा का; धिषण--वास; अखिल-लोक--समस्त लोकों सहित; पद्ममू--कमल;व्यूढमू--ऊपर निकला; हरित्ू-मणि--मरकत मणि के समान; वृष--अति सुन्दर; स्तनयो:--दोनों चूचुक; अमुष्य--भगवान् के; ध्यायेत्--ध्यान करे; द्यम्--युगल; विशद-- श्वेत; हार--मोती की मालाओं का; मयूख--प्रकाश से;गौरम्ू--गोरा।
तब योगी को चाहिए कि वह भगवान् के उदर के मध्य में स्थित चंद्रमा जैसी नाभिका ध्यान करे।
उनकी नाभि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आधारशिला है जहाँ से समस्त लोकोंसे युक्त कमलनाल प्रकट हुआ।
यह कमल आदि जीव ब्रह्मा का वासस्थान है।
इसी तरह योगी को अपना मन भगवान् के स्तनाग्रों पर केन्द्रित करना चाहिए जो श्रेष्ठ मरकत मणिकी जोड़ी के सदश है और जो उनके वक्षस्थल को अलंकृत करने वाली मोतीमाला कीदुग्धधवल किरणों के कारण श्वेत प्रतीत होती है।
वक्षोदधिवासमृषभस्य महाविभूते:पुंसां मनोनयननिर्वृतिमादधानम् ।
'कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थकुर्यान्मनस्यखिललोकनमस्कृतस्य ॥
२६॥
वक्ष:--छाती; अधिवासम्ू--आवास; ऋषभस्य-- भगवान् का; महा-विभूते:--महालक्ष्मी का; पुंसामू--मनुष्यों के;मनः--मन को; नयन--नेत्रों को; निर्वृतिमू--दिव्य आनन्द; आदधानम्--प्रदान करते हुए; कण्ठम्--गला; च-- भी;कौस्तुभ-मणे: --कौस्तुभ मणि का; अधिभूषण-अर्थम्--सुन्दरता को बढ़ाने वाला; कुर्यात्-- ध्यान करे; मनसि--मन में; अखिल-लोक--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड द्वारा; नमस्कृतस्य--पूजित |
फिर योगी को भगवान् के वक्षस्थल का ध्यान करना चाहिए जो देवी महालक्ष्मी काआवास है।
भगवान् का वक्षस्थल मन के लिए समस्त दिव्य आनन्द तथा नेत्रों को पूर्णसंतोष प्रदान करने वाला है।
तब योगी को अपने मन में सम्पूर्ण विश्व द्वारा पूजित भगवान्की गर्दन का ध्यान धारण करना चाहिए।
भगवान् की गर्दन उनके वक्षस्थल पर लटकनेवाले कौस्तुभ मणि की सुन्दरता को बढ़ाने वाली है।
बाहूंश्व मन्दरगिरे: परिवर्तनेननिर्णिक्तबाहुबलयानधिलोकपालानू ।
सश्जिन्तयेहशशतारमसह्मतेज:श् च तत्करसरोरुहराजहंसम् ॥
२७॥
बाहूनू-- भुजाओं का; च--तथा; मन्दर-गिरे: --मन्दर पर्वत का; परिवर्तनेन--घूमने से; निर्णिक्त--पालिश किया,रगड़ खाया; बाहु-बलयान्--बाहु के आभूषण; अधिलोक-पालान्--ब्रह्माण्ड के नियामकों का स्त्रोत; सश्चिन्तयेत्--ध्यान करे; दश-शत-अरम्--दस सौ आरे, सुदर्शन चक्र; असहा-तेज:--चकाचौं ध, द्युति; शब्डमू--शंख; च-- भी;तत्-कर--भगवान् के हाथ में; सरोरूह--कमल जैसे; राज-हंसम्--हंस की तरह |
इसके बाद योगी को भगवान् की चारों भुजाओं का ध्यान करना चाहिए जो प्रकृतिके विभिन्न कार्यों का नियन्त्रण करने वाले देवताओं की समस्त शक्तियों के स्त्रोत हैं।
फिर योगी चमचमाते उन आभूषणों पर मन केन्द्रित करे जो मन्दराचल के घूमने से रगड़गये थे।
उसे चाहिए कि भगवान् के चक्र सुदर्शन चक्र का भी ठीक से चिन्तन करेजो एक हजार आरों से तथा असह्वय तेज से युक्त है।
साथ ही वह शंख का ध्यान करे जोउनकी कमल-सहण हथेली में हंस सा प्रतीत होता है।
कौमोदकीं भगवतो दयितां स्मरेतदिग्धामरातिभटशोणितकर्दमेन ।
मालां मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टांचैत्यस्य तत्त्वममलं मणिमस्य कण्ठे ॥
२८॥
कौमोदकीम्--कौमोदकी नामक गदा; भगवतः -- भगवान् की; दयिताम्-- अत्यन्त प्रिय; स्मरेत--स्मरण करे;दिग्धाम्--सनी हुईं; अराति--शत्रुओं के; भट--सैनिक; शोणित-कर्दमेन--रक्त के धब्बों से; मालामू--माला, हार;मधुव्रत--भौंरों का; वरूथ--झुंड़; गिरा-- ध्वनि से; उपधुष्टाम्--घिरा; चैत्यस्थ--जीव का; तत्त्वमू--सिद्धान्त तत्त्व;अमलम्-शुद्ध; मणिम्ू--मोती की माला; अस्य-- भगवान् के; कण्ठे--गले में |
फिर योगी को चाहिए कि वह प्रभु की कौमोदकी नामक गदा का ध्यान करे जोउन्हें अत्यन्त प्रिय है।
यह गदा शत्रुतापूर्ण सैनिक असुरों को चूर-चूर करने वाली है औरउनके रक्त से सनी हुई है।
योगी को भगवान् के गले में पड़ी हुई सुन्दर माला का भीध्यान करना चाहिए जिस पर मधुर गुंजार करते हुए भौरे मँडराते रहते हैं।
भगवान् कीमोती की माला का भी ध्यान करना चाहिए जो उन शुद्ध आत्माओं की सूचक है, जोभगवान् की सेवा में लगे रहते हैं।
भृत्यानुकम्पितधियेह गृहीतमूर्ते:सशञ्ञिन्तयेद्धशवतो वदनारविन्दम् ।
यद्विस्फुरन्मकरकुण्डलवल्गितेनविद्योतितामलकपोलमुदारनासम् ॥
२९॥
भृत्य-- भक्तों के लिए; अनुकम्पित-धिया--अनुकम्पावश; इह--इस संसार में; गृहीत-मूर्तें: --विभिन्न रूपों कोधारण करने वाला; स्िन्तयेत्-- ध्यान करे; भगवत:-- भगवान् का; वदन--मुखमण्डल; अरविन्दम्--कमल-सहश; यत्--जो; विस्फुरन्ू--चमचमाता; मकर--मगर की आकृति का; कुण्डल--कान की बालियों का;वल्गितेन--हिलने-डुलने से; विद्योतित-- प्रकाशित; अमल--स्वच्छ; कपोलम्ू--गाल; उदार--सुस्पष्ट, सुघड़;नासमू--नाक
तब योगी को भगवान् के कमल-सहृश मुखमण्डल का ध्यान करना चाहिएजोइस जगत में उत्सुक भक्तों के लिए अनुकम्पावश अपने विभिन्न रूप प्रकट करते हैं।
उनकी नाक अत्यन्त उन्नत है और उनके स्वच्छ गाल उनके मकराकृत कुण्डलों के हिलनेसे प्रकाशमान हो रहे हैं।
यच्छीनिकेतमलिभि: परिसेव्यमानंभूत्या स्वया कुटिलकुन्तलवृन्दजुष्टम् ।
मीनद्वया श्रयमधिक्षिपदब्जनेत्रंध्यायेन्मनोमयमतन्द्रित उललसद्श्रु ॥
३०॥
यत्--भगवान् का जो मुखमण्डल; श्री-निकेतम्--कमल; अलिभि:--भौंरों से; परिसेव्यमानम्--घिरा हुआ;भूत्या--छटा से; स्वया--अपनी; कुटिल--घुँघराले; कुन्तल--बालों का; वृन्द--झुंड के झुंड; जुष्टम्ू--सुशोभित;मीन--मछली का; द्वय--जोड़ा; आश्रयम्--निवास; अधिक्षिपत्--लजाने वाला; अब्ज--कमल; नेत्रमू--नेत्र वाला;ध्यायेत्-- ध्यान करे; मन:ः-मयम्--मन में निर्मित; अतन्द्रित:--सतर्क ; उल्लसत्--नाचती हुई; भ्रु-- भौहें |
तब योगी भगवान् के सुन्दर मुखमण्डल का ध्यान करता है, जो घुँघराले बालों,कमल जैसे नेत्रों तथा नाचती भौंहों से सुशोभित है।
इसकी शोभा छटा के आगे भौरोंसे घिरा कमल तथा तैरती हुई मछलियों की जोड़ी मात खा जाती है।
तस्यावलोकमधिकं कृपयातिघोर-तापत्रयोपशमनाय निसृष्टमक्ष्णो: ।
स्निग्धस्मितानुगुणितं विपुलप्रसादंध्यायेच्चिरं विपुलभावनया गुहायाम् ॥
३१॥
तस्य-- भगवान् की; अवलोकम्--चितवन; अधिकम्--प्राय:; कृपया--अनुग्रह से; अतिघोर--अत्यन्त भयावह;ताप-त्रय--तीन प्रकार के कष्ट; उपशमनाय--कम करने के लिए; निसृष्टम्--चितवन; अक्ष्णो:--आँखों से;स्निग्ध--चिकनी, प्यारी; स्मित--मुस्कान; अनुगुणितम्--के साथ-साथ; विपुल--प्रचुर; प्रसादम्ू--दया से युक्त;ध्यायेत्-- ध्यान करे; चिरम्--दीर्घकाल तक; विपुल--पूर्ण; भावनया-- भक्ति से; गुहायाम्--हृदय में |
योगी को चाहिए कि भगवान् के नेत्रों की कृपापूर्ण चितवन का ध्यान पूर्ण समर्पणभाव से करे, क्योंकि उससे भक्तों के अत्यन्त भयावह तीन प्रकार के कष्टों का शमनहोता है।
प्रेमभरी मुसकान से युक्त उनकी चितवन विपुल प्रसाद से पूर्ण है।
हासं हरेरवनताखिललोकतीकब्र-शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम् ।
सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्यभ्रूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य ॥
३२॥
हासमू--मुसकान; हरे: -- श्री हरि का; अवनत--झुका हुआ; अखिल--समस्त; लोक--मनुष्यों के लिए; तीब्र-शोक--धोर दुख से उत्पन्न; अश्रु-सागर--आँसुओं का समुद्र; विशोषणम्--सुखाने के लिए; अति-उदारम्-- अत्यन्तउपकारी; सम्मोहनाय--मोहने के लिए; रचितम्--उत्पन्न किया गया; निज-मायया--अपनी अन्तरंगा शक्ति से;अस्य--इसका; भ्रू-मण्डलम्--टेढ़ी भौंहें; मुनि-कृते--मुनियों की भलाई के लिए; मकर-ध्वजस्य--कामदेव का
इसी प्रकार योगी को भगवान् श्री हरि की उदार मुसकान का ध्यान करना चाहिएजो घोर शोक से उत्पन्न उनके अश्रुओं के समुद्र को सुखाने वाली है, जो उनको नमस्कारकरते हैं।
उसे भगवान् की चाप सदृश भौंहों का भी ध्यान करना चाहिए जो मुनियों कीभलाई के लिए कामदेव को मोहने के लिए भगवान् की अन्तरंगा शक्ति से प्रकट है।
ध्यानायनं प्रहसितं बहुलाधरोष्ठ-भासारुणायिततनुद्धिजकुन्दपड्धि ।
ध्यायेत्स्वदेहकुहरेउवसितस्य विष्णो-भक्त्याद्रयार्पितमना न पृथग्दिहृक्षेत् ॥
३३॥
ध्यान-अयनम्--सरलतापूर्वक ध्यान किया गया; प्रहसितम्--हँसी, अट्टहास; बहुल--प्रभूत; अधर-ओएष्ठ --उनकेहोठों की; भास--भव्यता से; अरुणायित--गुलाबी हुए; तनु--छोटे-छोटे; द्विज--दाँत; कुन्द-पड्लि --चमेली कीकलियों की पंक्ति के समान; ध्यायेत्-- ध्यान करे; स्व-देह-कुहरे--अपने हृदय के मध्य में; अवसितस्य--वास करनेवाला; विष्णो: --विष्णु का; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; आर्द्रया--प्रेम में डूबा; अर्पित-मना:--मन को स्थिर किये; न--नहीं; पृथक्ू--अन्य कुछ; दिदक्षेत्--देखने की कामना करे।
योगी को चाहिए कि प्रेम में ड़बा हुआ भक्तिपूर्वक अपने अन्तरतम में भगवान् विष्णुके अट्टहास का ध्यान करे।
उनका यह अट्टहास इतना मोहक है कि इसका सरलता सेध्यान किया जा सकता है।
भगवान् के हँसते समय उनके छोटे-छोटे दाँत चमेली कीकलियों जैसे दिखते हैं और उनके होठों की कान्ति के कारण गुलाबी प्रतीत होते हैं।
एकबार अपना मन उनमें स्थिर करके, योगी को कुछ और देखने की कामना नहीं करनी चाहिए।
भकत्या द्रवद्धूदय उत्पुलकः प्रमोदात् ।
औत्कण्ट्यबाष्पकलया मुहुरर्ध्मान-स्तच्चापि चित्तबडिशं शनकैव्वियुड्भे ॥
३४॥
एवम्--इस प्रकार; हरौ--हरि के प्रति; भगवति--भगवान्; प्रतिलब्ध--विकसित; भाव: -- शुद्ध प्रेम; भक्त्या--भक्ति से; द्रवत्--द्रवी भूत हुआ; हृदय: --उसका हृदय; उत्पुलक:--शरीर में रोमांच होना; प्रमोदात्--अत्यधिकप्रसन्नता से; औत्कण्ठ्य--तीक्र प्रेम से; बाष्प-कलया--आँसुओं की धारा से; मुहुः--लगातार; अर्द्यमान:-- भीगा;तत्--वह; च--यथा; अपि-- भी; चित्त--मन; बडिशम्--वंशी, कँटिया; शनकै :--धीरे-धीरे; वियुड्डे --हटा लेताहैइस मार्ग का अनुसरण करते हुए धीरे-धीरे योगी में भगवान् हरि के प्रति प्रेम उत्पन्नहो जाता है।
इस प्रकार भक्ति करते हुए अत्यधिक आनन्द के कारण शरीर में रोमांच होनेलगता है और गहन प्रेम के कारण शरीर अश्रुओं की धारा से नहा जाता है।
यहाँ तक किधीरे-धीरे वह मन भी भौतिक कर्म से विमुख हो जाता है, जिसे योगी भगवान् कोआकृष्ट करने के साधन रूप में प्रयुक्त करता है, जिस प्रकार मछली को आकृष्ट करने केलिये कँटिया प्रयुक्त की जाती है।
मुक्ताश्रयं यर्हि निर्विषयं विरक्तंनिर्वाणमृच्छति मन: सहसा यथार्चि: ।
आत्मानमत्र पुरुषोव्यवधानमेक -मन्वीक्षते प्रतिनिवृत्तगुणप्रवाह: ॥
३५॥
मुक्त-आश्रयम्--मुक्ति में स्थित; यहिं--जिस समय; निर्विषयम्--विषयों से विरक्त; विरक्तम्--उदासीन; निर्वाणम्--बुझना, अन्त; ऋच्छति--प्राप्त करता है; मनः--मन; सहसा--तुरन्त; यथा--जिस तरह; अर्चि:--लपट;आत्मानमू--मन; अत्र--इस समय; पुरुष:--व्यक्ति; अव्यवधानम्--किसी प्रकार के वियोग के बिना; एकम्--एक;अन्वीक्षते--अनुभव करता है; प्रतिनिवृत्त--मुक्त; गुण-प्रवाह:--गुणों के प्रवाह से
इस प्रकार जब मन समस्त भौतिक कल्मष से रहित और विषयों से विरक्त हो जाताहै, तो यह दीपक की लौ के समान हो जाता है।
उस समय मन वस्तुतः परमेश्वर जैसा होजाता है और उनसे जुड़ा हुआ अनुभव किया जाता है, क्योंकि यह भौतिक गुणों केपारस्परिक प्रवाह से मुक्त हो जाता है।
सोप्येतया चरमया मनसो निवृत्त्यातस्मिन्महिम्न्यवसितः सुखदुःखबाहो ।
हेतुत्वमप्यसति कर्तरि दुःखयोर्यत्स्वात्मन्विधत्त उपलब्धपरात्मकाष्ट: ॥
३६॥
सः--योगी; अपि--इसके अतिरिक्त; एतया--इससे; चरमया-- अन्तिम; मनसः--मन का; निवृत्त्या--कर्मफल केरुकने अन्त से; तस्मिन्ू--उसमें; महिम्नि-- अन्तिम महिमा; अवसितः --स्थित; सुख-दुःख-बाहो --सुख तथा दुखसे बाहर; हेतुत्वम्--कारण; अपि--निस्सन्देह; असति--अविद्या का फल; कर्तरि--अहंकार में; दुःखयो:--सुखतथा दुख का; यत्--जो; स्व-आत्मन्--अपने आपको; विधत्ते--उपलक्षित करता है; उपलब्ध-- प्राप्त; पर-आत्म--भगवान् का; काष्ठः--सर्वोच्च सत्य |
इस प्रकार उच्चतम दिव्य अवस्था में स्थित मन समस्त कर्मफलों से निवृत्त होकरअपनी महिमा में स्थित हो जाता है, जो सुख तथा दुख के सारे भौतिक बोध से परे है।
उस समय योगी को परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का बोध होता है।
उसे पता चलता हैकि सुख तथा दुख तथा उनकी अन्तःक्रियाएँ, जिन्हें वह अपने कारण समझता था,वास्तव में अविद्याजनित अहंकार के कारण थीं।
चरमः स्थितमुत्थितं वासिद्धो विपश्यति यतोध्यगमत्स्वरूपम् ।
दैवादुपेतमथ दैववशादपेतंवासो यथा परिकृतं मदिरामदान्ध: ॥
३७॥
देहमू-- भौतिक शरीर; च--तथा; तमू--वह; न--नहीं; चरम: -- अन्तिम; स्थितम्--आसीन; उत्थितम्--उठा हुआ;वा--अथवा; सिद्ध:--सिद्ध जीव; विपश्यति--सोच सकता है; यत:ः--क्योंकि; अध्यगमत्--प्राप्त कर चुका है;स्व-रूपमू--अपनी असली पहचान; दैवात्-- भाग्य के अनुसार; उपेतम्--पहुँचा हुआ; अथ--और भी; दैव-वशात्--भाग्य के अनुसार; अपेतमू--गया हुआ; वास:--वस्त्र; यथा--जिस तरह; परिकृतम्--पहने गये; मदिरा-मद-अन्ध:--शराब पीने से अन्धा हुआ
अपना असली स्वरूप प्राप्त कर लेने के कारण पूर्णतया सिद्ध जीव को इसका कोईबोध नहीं होता है कि यह भौतिक देह किस तरह हिल-डुल रही है या काम कर रही है,जिस तरह कि नशा किया हुआ व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वह अपने शरीर में वस्त्रधारण किये हैं अथवा नहीं।
देहोपि दैववशग: खलु कर्म यावत्स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एवं सासु: ।
त॑ सप्रपक्लमधिरूढसमाधियोग:स्वाप्न॑ पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तु: ॥
३८ ॥
देह:--शरीर; अपि--इसके अतिरिक्त; दैव-वश-ग:--भगवान् के वश में; खलु--निस्सन्देह; कर्म--कर्म; यावत्--जब तक; स्व-आरम्भकम्-- अपने आप प्रारम्भ किया गया; प्रतिसमीक्षते--कार्य करता रहता है; एबव--निश्चय ही;स-असु:--इन्द्रियों के साथ-साथ; तम्--शरीर; स-प्रपञ्लम्--अपने विस्तारों सहित; अधिरूढ-समाधि-योग: --योगाभ्यास द्वारा समाधि में स्थित; स्वाप्म्--स्वप्न-जनित; पुनः--फिर; न--नहीं; भजते--अपनाता है; प्रतिबुद्ध--प्रबुद्ध, जाग्रत; वस्तु:--अपनी स्वाभाविक स्थिति के प्रति।
ऐसे मुक्त योगी के इन्द्रियों सहित शरीर का भार भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं औरयह शरीर तब तक कार्य करता रहता है जब तक इसके दैवाधीन कर्म समाप्त नहीं होजाते।
इस प्रकार अपनी स्वाभाविक स्थिति के प्रति जागरूक तथा योग की चरमसिद्धावस्था, समाधि, में स्थित मुक्त भक्त शरीर के गौण फलों को निजी कह करस्वीकार नहीं करता।
इस प्रकार वह अपने शारीरिक कार्यकलापों को स्वण में सम्पन्न कार्यकलाप सहृश मानता है।
यथा पुत्राच्च वित्ताच्च पृथड्मर्त्य: प्रतीयते ।
अप्पात्मत्वेनाभिमताहेहादेः पुरुषस्तथा ॥
३९॥
यथा--जिस प्रकार; पुत्रातू-पुत्र से; च--तथा; वित्तात्--सम्पत्ति से; च--भी; पृथक्--भिन्न रूप से; मर्त्य:--नाशवान पुरुष; प्रतीयते--समझा जाता है; अपि--ही; आत्मत्वेन--स्वभाव से; अभिमतातू--प्रिय से; देह-आदे:--अपने भौतिक शरीर, इन्द्रियों तथा मन से; पुरुष:--मुक्त जीव; तथा--उसी तरह
परिवार तथा सम्पत्ति के प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण मनुष्य पुत्र तथा सम्पत्ति कोअपना मानने लगता है और भौतिक शरीर के प्रति स्नेह होने से वह सोचता है कि यहमेरा है।
किन्तु वास्तव में जिस तरह मनुष्य समझ सकता है कि उसका परिवार तथाउसकी सम्पत्ति उससे पृथक् हैं, उसी तरह मुक्त आत्मा समझ सकता है कि वह तथाउसका शरीर एक नहीं हैं।
यथोल्मुकाद्विस्फुलिड्राद्धूमाद्वापि स्वसम्भवात् ।
अप्पात्मत्वेनाभिमताद्यथाग्नि: पृथगुल्मुकात् ॥
४०॥
यथा--जिस प्रकार; उल्मुकात्--लौ से; विस्फुलिड्ञातू-चिनगारियों से; धूमात्-- धुएँ से; बा--अथवा; अपि--भी;स्व-सम्भवात्-- अपने आप से उद्भूत; अपि--यद्यपि; आत्मत्वेन--प्रकृति स्वभाव से; अभिमतातू--घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित; यथा--जिस प्रकार; अग्नि:--अग्नि; पृथक् --भिन्न; उल्मुकात्--
लौ से प्रज्बलित अग्नि ज्वाला से, चिनगारी से तथा धुएँ से भिन्न है, यद्यपि ये सभी उससेघनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं, क्योकि वे एक ही प्रज्वलित काष्ठ से उत्पन्न होते हैं।
भूतेन्द्रियान्तःकरणात्प्रधानाज्जीवसंज्ञितात् ।
आत्मा तथा पृथग्द्रष्टा भगवान्ब्रह्मसंज्ञित: ॥
४१॥
भूत--पंच तत्त्व; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अन्त:ः-करणात्--मन से; प्रधानात्ू--प्रधान से; जीव-संज्ञितातू--जीवात्मा से;आत्मा--परमात्मा; तथा--उसी तरह; पृथक्-भिन्न; द्रष्टा--देखनेवाला; भगवान्-- भगवान्; ब्रह्म-संज्ञित:--ब्रह्म'कहलाने वाला।
परब्रह्म कहलाने वाला भगवान् द्रष्टा है।
वह जीवात्मा या जीव से भिन्न है, जोइन्द्रियों, पंचतत्त्वों तथा चेतना से संयुक्त है।
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षेतानन्यभावेन भूतेष्विव तदात्मताम् ॥
४२॥
सर्व-भूतेषु--समस्त जीवों में; च--तथा; आत्मानम्--आत्मा को; सर्व-भूतानि--समस्त जीव; च--यथा;आत्मनि--परमेश्वर में; ईक्षेत-- उसे देखना चाहिए; अनन्य-भावेन--समभाव से; भूतेषु--समस्त जीवों में; इब--सहश; ततू-आत्मताम्--स्व की प्रकृति
योगी को चाहिए कि समस्त जीवों में उसी एक आत्मा को देखे, क्योंकि जो कुछभी विद्यमान है, वह सब परमेश्वर की विभिन्न शक्तियों का प्राकट्य है।
इस तरह से भक्तको चाहिए कि वह समस्त जीवों को बिना भेदभाव के देखे।
यही परमात्मा कासाक्षात्कार है।
स्वयोनिषु यथा ज्योतिरेक॑ नाना प्रतीयते ।
योनीनां गुणवैषम्यात्तथात्मा प्रकृतो स्थित: ॥
४३॥
स्व-योनिषु--काष्ट के रूप में; यथा--जिस प्रकार; ज्योति:ः--अग्नि; एकम्ू--एक; नाना--भिन्न-भिन्न प्रकार से;प्रतीयते--प्रकट होती है; योनीनाम्--विभिन्न गर्भों में; गुण-वैषम्यात्--विभिन्न गुणों के कारण; तथा--उसी प्रकार;आत्मा--आत्मा; प्रकृतौ-- भौतिक प्रकृति में; स्थित: --स्थित |
जिस प्रकार अग्नि काष्ठ के विभिन्न प्रकारों में प्रकट होती है उसी प्रकार प्रकृति केगुणों की विभिन्न परिस्थितियों के अन्तर्गत शुद्ध आत्मा अपने आपको विभिन्न शरीरों मेंप्रकट करता है।
तस्मादिमां स्वां प्रकृति दैवीं सदसदात्मिकाम् ।
दुर्विभाव्यां पराभाव्य स्वरूपेणावतिष्ठते ॥
४४॥
तस्मात्ू--इस प्रकार; इमामू--इस; स्वाम्--निज; प्रकृतिमू-- भौतिक शक्ति को; दैवीम्--दैवी; सत्-असत्-आत्मिकाम्--कारण तथा कार्य से युक्त; दुर्विभाव्यामू--समझने में कठिन; पराभाव्य--जीतकर; स्व-रूपेण--स्वरूपसिद्ध स्थिति में; अवतिष्ठते--रहा आता है।
इस प्रकार माया के दुलघ्य सम्मोहन को जीतकर योगी स्वरूपसिद्ध स्थिति में रहसकता है।
यह माया इस जगत में अपने आपको कार्य-कारण रूप में उपस्थित करती है,अतः इसे समझ पाना अत्यन्त कठिन है।
अध्याय उनतीसवां: भगवान कपिल द्वारा भक्ति सेवा की व्याख्या
3.29देवहूतिरुवाचलक्षणं महदादीनां प्रकृतेः पुरुषस्य च ।
स्वरूपं लक्ष्यतेडमीषां येन तत्पारमार्थिकम् ॥
१॥
यथा साड्ख्येषु कथित यन्मूलं तत्प्रचक्षते ।
भक्तियोगस्य मे मार्ग ब्रूहि विस्तरशः प्रभो ॥
२॥
देवहूति: उबाच--देवहूति ने कहा; लक्षणम्--लक्षण; महत्-आदीनाम्--महत्-तत्त्व आदि का; प्रकृतेः--प्रकृति का;पुरुषस्य--आत्मा का; च--तथा; स्वरूपम्ू--स्वभाव; लक्ष्यते--वर्णन किया जाता है; अमीषाम्--उनका; येन--जिससे; तत्-पारम-अर्थिकम्--उनकी असली प्रकृति; यथा--जिस प्रकार; साड्ख्येषु--सांख्य दर्शन में; कथितम्--व्याख्यायित; यत्ू--जिसका; मूलमू--चरम परिणति; तत्--वह; प्रचक्षते--कहते हैं; भक्ति-योगस्य-- भक्ति का;मे--मुझको; मार्गम्ू--पथ; ब्रूहि--कहिये; विस्तरश: --विस्तार से; प्रभो--हे भगवान् कपिल ।
देवहूति ने जिज्ञासा की : हे प्रभु, आप सांख्य दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण प्रकृति तथाआत्मा के लक्षणों का अत्यन्त वैज्ञानिक रीति से पहले ही वर्णन कर चुके हैं।
अब मैंआपसे प्रार्थना करूँगी कि आप भक्ति के मार्ग की व्याख्या करें, जो समस्त दार्शनिकप्रणालियों की चरम परिणति है।
विरागो येन पुरुषो भगवन्सर्वतो भवेत् ।
आचक्ष्व जीवलोकस्य विविधा मम संसृती: ॥
३॥
विराग:--विरक्त; येन--जिससे; पुरुष:--व्यक्ति; भगवन्--हे प्रभु; सर्वतः--पूर्णत:; भवेत्--हो सके; आचशक्ष्व--कृपया वर्णन करें; जीव-लोकस्य--जनसामान्य के लिए; विविधा: -- अनेक; मम--मेरा; संसृती:--जन्म-मरण काचक्र ।
देवहूति ने आगे कहा : हे प्रभु, कृपया मेरे तथा जन-साधारण दोनों के लिए जन्म-मरण की निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करें, जिससे ऐसी विपदाओंको सुनकर हम इस भौतिक जगत के कार्यो से विरक्त हो सकें।
कालस्ये श्वररूपस्य परेषां च परस्य ते ।
स्वरूपं बत कुर्वन्ति यद्धेतो: कुशलं जना: ॥
४॥
कालस्य--काल का; ईश्वर-रूपस्थ-- भगवान् का प्रतिनिधि; परेषाम्--अन्य सबों का च--तथा; परस्य-- मुख्य;ते--तुम्हारा; स्वरूपम्-- प्रकृति; बत--ओह; कुर्वन्ति--करते हैं; यत्-हेतो:--जिसके प्रभाव से; कुशलम्--पुण्यकर्म; जना:--सामान्य जन
कृपया काल का भी वर्णन करें जो आपके स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है औरजिसके प्रभाव से सामान्य जन पुण्यकर्म करने में प्रवृत्त होते हैं।
लोकस्य मिथ्याभिमतेरचक्षुष-श्विरं प्रसुप्तस्य तमस्यनाश्रये ।
श्रान्तस्य कर्मस्वनुविद्धया धियात्वमाविरासी: किल योगभास्कर: ॥
५॥
लोकस्य--जीवों का; मिथ्या-अभिमते: --अहंकार से मोहग्रस्त; अचक्षुष:--अंधा; चिरम्--दीर्घकाल तक;प्रसुप्तस्थ--सोते हुए का; तमसि--अंधकार में; अनाश्रये--आश्रयविहीन; श्रान्तस्य--थके हुए के; कर्मसु--कर्मो केप्रति; अनुविद्धया--संलग्न, अनुरक्त; धिया--बुद्धि से; त्वम्--तुम; आविरासी:--प्रकट हुए हो; किल--निस्सन्देह;योग--योग प्रणाली का; भास्कर: --सूर्य |
हे भगवान्, आप सूर्य के समान हैं, क्योंकि आप जीवों के बद्धजीवन के अन्धकारको प्रकाशित करने वाले हैं।
उनके ज्ञान-चक्षु बन्द होने से वे आपके आश्रय के बिनाउस अन्धकार में लगातार सुप्त पड़े हुए हैं, फलत: वे अपने कर्मों के कार्य-कारण प्रभावसे झूठे ही व्यस्त रहते हैं और अत्यन्त थके हुए प्रतीत होते हैं।
मैत्रेय उबाचइति मातुर्वच: एलश्न्णं प्रतिनन््द्य महामुनि: ।
आबभाषे कुरुश्रेष्ठ प्रीतस्तां करुणार्दित: ॥
६॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; मातु:--उनकी माता के; वच:--शब्द; एलक्ष्णम्-- भद्र;प्रतिनन्द्य--स्वागत करते हुए; महा-मुनिः--ऋषि कपिल; आबभाषे--बोले; कुरु- श्रेष्ठ--हे कुरुओं में श्रेष्ठ, विदुर;प्रीत:ः--प्रसन्न; तामू--उससे; करुणा--दया से; अर्दितः --द्रवी भूत
श्री मैत्रेय ने कहा : हे कुरु श्रेष्ठ अपनी महिमामयी माता के शब्दों से प्रसन्न होकरतथा अत्यधिक अनुकम्पा से द्रवित होकर महामुनि कपिल इस प्रकार बोले।
श्रीभगवानुवाचभक्तियोगो बहुविधो मार्गैर्भामिनि भाव्यते ।
स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते ॥
७॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने उत्तर दिया; भक्ति-योग:--भक्ति; बहु-विध:--अनेक प्रकार के; मार्गैं:--मार्गों से;भामिनि--हे उत्तम स्त्री; भाव्यते-- प्रकट है; स्वभाव--प्रकृति; गुण--गुण; मार्गेण--व्यवहार के अनुसार; पुंसामू--साधकों के; भाव:--प्राकट्य; विभिद्यते--विभाजित हैभगवान् कपिल ने उत्तर दिया : हे भामिनि, साधक के विभिन्न गुणों के अनुसारभक्ति के अनेक मार्ग हैं।
अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा ।
संरम्भी भिन्नव्ग्भावं मयि कुर्यात्स तामस: ॥
८॥
अभिसन्धाय--दृष्टि में रखकर; य:--जो; हिंसाम्--हिंसा को; दम्भम्ू-गर्व को; मात्सर्यम्ू--ईर्ष्या को; एब--निस्सन्देह; वा--अथवा; संरम्भी--क्रोधी; भिन्न--पृथक्; हक्ू--जिसकी दृष्टि; भावम्-- भक्ति; मयि--मुझमें;कुर्यात्ू--करे; सः--वह; तामस: --तमोगुणी
ईर्ष्यालु, अहंकारी, हिंस्त्र तथा क्रोधी और पृथकतावादी व्यक्ति द्वारा की गई भक्तितमोगुण प्रधान मानी जाती है।
विषयानभिसन्धाय यश ऐश्वर्यमेव वा ।
अर्चादावर्चयेद्यो मां पृथग्भाव: स राजसः ॥
९॥
विषयान्--विषय, भोग को; अभिसन्धाय--लक्ष्य करके; यशः--ख्याति; ऐश्वर्यम्--ऐश्वर्य; एब--निस्सन्देह; वा--अथवा; अर्चा-आदौ--विग्रह-पूजन आदि में; अर्चयेत्ू--पूजा करे; यः--जो; मामू--मुझको; पृथक्- भाव: --भेदभाव रखने वाला, पृथकतावादी; सः--वह; राजस:--रजोगुण में |
मन्दिर में एक पृथकतावादी द्वारा भौतिक भोग, यश तथा ऐश्वर्य के प्रयोजन से कीजानेवाली विग्रह-पूजा रजोगुणी भक्ति है।
कर्मनिर्हारमुद्दिश्य परस्मिन्वा तदर्पणम् ।
यजेद्यष्टव्यमिति वा पृथग्भाव: स सात्त्विक: ॥
१०॥
कर्म--सकाम कर्म; निर्हारमू--अपने आपको मुक्त करने के; उद्दिश्य--उद्देश्य से; परस्मिन्ू-- भगवान् को; वा--अथवा; ततू-अर्पणमू--कर्मफल का अर्पण; यजेत्--पूजा करे; यष्टव्यम्-पूजे जाने के लिए; इति--इस प्रकार;वा--अथवा; पृथक्-भाव:--पृथकतावादी; सः--वह; सात्त्विक: --सतोगुण में स्थित
जब भक्त भगवान् की पूजा करता है और अपने कर्मों की त्रुटि से मुक्त होने के लिएअपने कर्मफलों को अर्पित करता है, तो उसकी भक्ति सात्त्विक होती है।
मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये ।
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गझ्जम्भसो म्बुधौ ॥
११॥
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहतम् ।
अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥
१२॥
मत्--मेरा; गुण--गुण; श्रुति--सुनकर; मात्रेण--केवल; मयि--मेरे प्रति; सर्व-गुहा-आशये--प्रत्येक के हृदय मेंरहते हुए; मन:ः-गति:--हृदय का मार्ग; अविच्छिन्ना--समुद्र की ओर; यथा--जिस तरह; गड्जा--गंगा के; अम्भस:--जल का; अम्बुधौ--समुद्र की ओर; लक्षणम्--प्राकट्य; भक्ति-योगस्थ--भक्ति का; निर्गुणस्थ--अमिश्रित; हि--निस्सन्देह; उदाहतम्-- प्रकट; अहैतुकी --बिना कारण के; अव्यवहिता--अभिन्न; या--जो; भक्ति:--भक्ति; पुरुष-उत्तमे-- भगवान् के प्रति
जब मनुष्य का मन प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के भीतर वास करने वाले भगवान् केदिव्य नाम तथा गुणों के श्रवण की ओर तुरन्त आकृष्ट हो जाता है, तो निर्गुण भक्ति काप्राकट्य होता है।
जिस प्रकार गंगा का पानी स्वभावतः समुद्र की ओर बहता है, उसीप्रकार ऐसा भक्तिमय आह्याद बिना रोक-टोक के परमेश्वर की ओर प्रवाहित होता है।
सालोक्यसाप्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्नन्ति विना मत्सेवनं जना: ॥
१३॥
सालोक्य--समान लोक में निवास; साप्टि--समान ऐश्वर्य वाला; सामीप्य--व्यक्तिगत पार्षद होना; सारूप्य--समानशारीरिक रूप वाला; एकत्वमू--तादात्म्य; अपि-- भी; उत--यहाँ तक कि; दीयमानम्-- प्रदान किये जाने पर; न--नहीं; गृहन्ति--स्वीकार करते हैं; विना--रहित; मत्--मेरी; सेवनम्-- भक्ति; जना: --शुद्ध भक्त
शुद्ध भक्त सालोक्य, साष्टि, सामीप्य, सारूप्य या एकत्व में से किसी प्रकार कामोक्ष स्वीकार नहीं करते, भले ही ये भगवान् द्वारा क्यों न दिये जा रहे हों।
स एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहत: ।
येनातिक्रज्य त्रिगुणं मद्भावायोपपद्यते ॥
१४॥
सः--यह; एव--निस्सन्देह; भक्ति-योग-- भक्ति; आख्य:--नामक; आत्यन्तिक:--सर्वोच्च पद; उदाहतः--कहागया; येन--जिससे; अतिक्रज्य--लाँघ कर; त्रि-गुणम्--प्रकृति के तीनों गुण; मत्-भावाय--मेरे दिव्य पद को;उपपद्यते-- प्राप्त करता है।
जैसा कि मैं बता चुका हूँ, भक्ति का उच्च पद प्राप्त करके मनुष्य प्रकृति के तीनोंगुणों के प्रभाव को लाँध सकता है और दिव्य पद पर स्थित हो सकता है, जिस तरहभगवान् हैं।
निषेवितेनानिमित्तेन स्वधर्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिंस्त्रेण नित्यशः ॥
१५॥
निषेवितेन--की गईं; अनिमित्तेन--फल की आकांक्षा के बिना, निष्काम भाव से; स्व-धर्मेण-- अपने नियत कार्योसे; महीयसा--महिमायुक्त; क्रिया-योगेन-- भक्ति सम्बन्धी कार्यों के द्वारा; शस्तेन--शुभ; न--बिना; अतिहिंस्त्रेण--अत्यधिक हिंसा से; नित्यशः--नियमित रूप से।
भक्त को अपने नियत कार्यो को सम्पन्न करना चाहिए, जो यशस्वी हों और बिनाकिसी भौतिक लाभ के हों।
उसे अधिक हिंसा किये बिना अपने भक्ति कार्य नियमितरूप से करने चाहिए।
मद्धिष्ण्यदर्शनस्पर्शपूजास्तुत्यभिवन्दनै: ।
भूतेषु मद्भावनया सत्त्वेनासड्रमेन च ॥
१६॥
मत्-मेरी; धिष्णय--मूर्ति, प्रतिमा; दर्शन--देखना; स्पर्श--छूना; पूजा--पूजा करना; स्तुति--प्रार्थना;अभिवन्दनै:--नमस्कार या वन्दना द्वारा; भूतेषु--समस्त जीवों में; मत्--मेरा; भावनया--विचार से; सत्त्वेन--सतोगुण से; असड्रमेन--विरक्ति से; च--तथा |
भक्त को नियमित रूप से मन्दिर में मेरी प्रतिमा का दर्शन करना, मेरे चरणकमलस्पर्श करना तथा पूजन सामग्री एवं प्रार्थना अर्पित करना चाहिए।
उसे सात्त्विक भाव सेवैराग्य दृष्टि रखनी चाहिए और प्रत्येक जीव को आध्यात्मिक दृष्टि से देखना चाहिए।
महतां बहुमानेन दीनानामनुकम्पया ।
मैत्र्या चेवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥
१७॥
महताम्-महापुरुषों को; बहु-मानेन--अत्यन्त सम्मान से; दीनानामू--गरीबों को; अनुकम्पया--दया से; मैत््या--मित्रता से; च--तथा; एब--निश्चय ही; आत्म-तुल्येषु-- अपने समान व्यक्तियों को; यमेन--इन्द्रियों को वश मेंकरके; नियमेन--नियमपूर्वक; च--तथा |
भक्त को चाहिए कि गुरु तथा आचार्यों को सर्वोच्च सम्मान प्रदान करते हुए भक्तिकरे।
उसे दीनों पर दयालु होना चाहिए और अपनी बराबरी के व्यक्तियों से मित्रता करनीचाहिए, किन्तु उसके सारे कार्यकलाप नियमपूर्वक तथा इन्द्रिय-संयम के साथ सम्पन्नहोने चाहिए।
आध्यात्मिकानुश्रवणान्नामसड्डीर्तनाच्च मे ।
आर्जवेनार्यसड़ेन निरहर्झक्रियया तथा ॥
१८॥
आध्यात्मिक--आध्यात्मिक बातें; अनुश्रवणात्--सुनने से; नाम-सड्डीर्तनातू--पवित्र नाम के संकीर्तन से; च--तथा;मे--मेरा; आर्जवेन--सरल आचरण से; आर्य-सड्जेन--साधु पुरुषों की संगति से; निरह्झ्ञक्रियया-- अहंकार रहित;तथा--इस प्रकार।
भक्त को चाहिए कि आध्यात्मिक बात ही सुने और अपने समय का सदुपयोगभगवान् के पवित्र नाम के जप में करे।
उसका आचरण सुस्पष्ट एवं सरल हो।
किन्तु वहईर्ष्यालु न हो।
वह सबों के प्रति मैत्रीपूर्ण होते हुए भी ऐसे व्यक्तियों की संगति से बचे जोआध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत नहीं हैं।
मद्धर्मणो गुणैरेतै: परिसंशुद्ध आशय: ।
पुरुषस्याज्साभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि मामू ॥
१९॥
मतू-धर्मण:--मेरे भक्त के; गुणैः--गुणों से; एतै:--इन; परिसंशुद्ध:--पूर्णतया शुद्ध; आशय: --चेतना; पुरुषस्थ--पुरुष की; अज्ञसा--तुरन्त; अभ्येति--निकट आता है; श्रुत--सुनकर; मात्र--केवल; गुणम्--गुण; हि--निश्चय ही;माम्--मुझको |
जब मनुष्य इन समस्त लक्षणों से पूर्णतया सम्पन्न होता है और इस तरह उसकीचेतना पूरी तरह शुद्ध हो लेती है, तो वह मेरे नाम या मेरे दिव्य गुण के श्रवण मात्र सेतुरन्त ही आकर्षित होने लगता है।
यथा वातरथो प्राणमावृड्े गन्न्ध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानमविकारि यत्ू ॥
२०॥
यथा--जिस तरह; वात--वायु का; रथ:--रथ; घ्राणम्--सूँघने की इन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय; आवृड्डे --ग्रहण करती है;गन्ध:--सुगन्धि; आशयातू-- स्त्रोत से; एवम्--उसी तरह; योग-रतम्--भक्ति में लगी हुई; चेत:--चेतना;आत्मानम्--परमात्मा; अविकारि--अपरिवर्तनशील; यत्--जो |
जिस प्रकार वायु का रथ गन्ध को उसके स्त्रोत से ले जाता है और तुरन्त प्राणेन्द्रियतक पहुँचाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति निरन्तर कृष्णभावनाभावित भक्ति में संलग्न रहताहै, वह सर्वव्यापी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थित: सदा ।
तमवज्ञाय मां मर्त्य: कुरुतेडर्चाविडम्बनम् ॥
२१॥
अहम्-मैं; सर्वेषु--समस्त; भूतेषु--जीवों में; भूत-आत्मा--सभी जीवों में परमात्मा; अवस्थित: --स्थित; सदा--सदैव; तम्--उस परमात्मा को; अवज्ञाय--अनादर करके; माम्--मुझको; मर्त्य:--मरणशील व्यक्ति; कुरुते--करता है; अर्चा--विग्रह की पूजा का; विडम्बनम्ू-- अनुकरण, स्वाँग |
मैं प्रत्येक जीव में परमात्मा रूप में स्थित हूँ।
यदि कोई ‘परमात्मा सर्वत्र है' इसकीउपेक्षा या अवमानना करके अपने आपको मन्दिर के विग्रह-पूजन में लगाता है, तो यहकेवल स्वाँग या दिखावा है।
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमी श्वरम् ।
हित्वार्चा भजते मौढ्याद्धस्मन्येव जुहोति सः ॥
२२॥
यः--जो; माम्--मुझको; सर्वेषु--सभी; भूतेषु--जीवों में; सन््तम्--उपस्थित होकर; आत्मानम्--परमात्मा;ईश्वरम्-परमात्मा को; हित्वा--उपेक्षा करके; अर्चाम्--विग्रह को; भजते--पूजता है; मौढ्यात्-- अज्ञानवश;भस्मनि--राख में; एव--केवल; जुहोति-- आहुति डालता है; सः--
वह जो मन्दिरों में भगवान् के विग्रह का पूजन करता है, किन्तु यह नहीं जानता किपरमात्मा रूप में परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हैं, वह अज्ञानी है और उसकीतुलना उस व्यक्ति से की जाती है, जो राख में आहुतियाँ डालता है।
द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिन: ।
भूतेषु बद्धवैरस्थ न मनः शान्तिमृच्छति ॥
२३॥
द्विषतः--द्वेष रखने वाले का; पर-काये--दूसरे के शरीर के प्रति; मामू--मुझको; मानिन:--आदर करते हुए; भिन्न-दर्शि:--पृथकतवादी का; भूतेषु--जीवों के प्रति; बद्ध-वैरस्थ--शत्रुता रखने वाले का; न--नहीं; मनः--मन;शान्तिमू--शान्ति; ऋच्छति-- प्राप्त करता है।
जो मुझे श्रद्धा अर्पित करता है, किन्तु अन्य जीवों से ईर्ष्यालु है, वह इस कारणपृथकतावादी है।
उसे अन्य जीवों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने के कारण कभी भी मन की शान्ति प्राप्त नहीं हो पाती।
अहमुच्चावचेद्द्रव्यै: क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव तुष्येडर्चितोर्चायां भूतग्रामावमानिन: ॥
२४॥
अहम्--मैं; उच्च-अवचै:--विविध; द्वव्यैः --सामग्री से; क्रियया--धार्मिक अनुष्ठानों से; उत्पन्नया--सम्पन्न; अनघे--हे निष्कलुष माता; न--नहीं; एव--निश्चय ही; तुष्ये-- प्रसन्न होता हूँ; अर्चित:--पूजित; अर्चायाम्--प्रतिमा रूप में;भूत-ग्राम--अन्य जीवों को; अवमानिन:--अनादर करने वालों से |
हे माते, भले ही कोई पुरुष सही अनुष्ठानों तथा सामग्री द्वारा मेरी पूजा करता हो,किन्तु यदि वह समस्त प्राणियों में मेरी उपस्थिति से अनजान रहता है, तो वह मन्दिर मेंमेरे विग्रह की कितनी ही पूजा क्यों न करे, मैं उससे कभी प्रसन्न नहीं होता।
अर्चादावर्चयेत्तावदी श्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥
२५॥
अर्चा-आदौ--अर्चा पूजा इत्यादि; अर्चयेत्--पूजा करे; तावत्--तब तक; ई श्वरमू-- भगवान् को; मामू-- मुझ;स्व--अपना; कर्म--निर्दिष्ट कर्तव्य; कृतू--किये हुए; यावत्--जब तक; न--नहीं; वेद-- अनुभव करता है; स्व-हृदि--अपने हृदय में; सर्व-भूतेषु--समस्त जीवों में; अवस्थितम्--स्थित |
मनुष्य को चाहिए कि अपने निर्दिष्ट कर्म करते हुए भगवान् के अर्चाविग्रह का तबतक पूजन करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में तथा साथ ही साथ अन्य जीवों केहृदय में मेरी उपस्थिति का अनुभव न हो जाय।
आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।
तस्य भिन्नदशो मृत्युर्विदधे भयमुल्बणम् ॥
२६॥
आत्मन:--स्व का, अपना; च--तथा; परस्य--दूसरे का; अपि-- भी; यः--जो कोई; करोति-- भेदभाव रखता है;अन्तरा--मध्य में; उदरम्--शरीर के; तस्य--उसका; भिन्न-हश:-- भेद-दर्शी ; मृत्यु:--मृत्यु के रूप में; विदधे--मैंउत्पन्न करता हूँ; भयम्--डर; उल्बणम्--महान |
जो भी अपने में तथा अन्य जीवों के बीच भिन्न दृष्टिकोण के कारण तनिक भीभेदभाव करता है उसके लिए मैं मृत्यु की प्रज्वलित अग्नि के समान महान् भय उत्पन्नकरता हूँ।
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेह्दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥
२७॥
अथ--अतः; माम्--मुझको; सर्व-भूतेषु--समस्त प्राणियों में; भूत-आत्मानम्--सभी जीवों में आत्म स्व ; कृत-आलयमू--निवास करते हुए; अर्हयेत्--पूजा करनी चाहिए; दान-मानाभ्याम्--दान तथा आदर से; मैत्रया--मित्रतासे; अभिन्नेन--समान; चक्षुषा--देखने से |
अतः दान तथा सत्कार के साथ ही साथ मैत्रीपूर्ण आचरण से तथा सबों पर एक सीइृष्टि रखते हुए मनुष्य को मेरी पूजा करनी चाहिए, क्योंकि मैं सभी प्राणियों में उनकेआत्मा के रूप में निवास करता हूँ।
जीवा: श्रेष्ठा ह्मजीवानां ततः प्राणभूतः शुभे ।
ततः सचित्ता: प्रवरास्ततश्रेन्द्रियवृत्तय: ॥
२८ ॥
जीवा:--जीव; श्रेष्ठा:--अधिक अच्छे; हि--निस्सन्देह; अजीवानाम्--अचेतन पदार्थों से; ततः--उनकी अपेक्षा;प्राण-भूत:ः--जीवन के लक्षणों से युक्त जीव; शुभे--हे कल्याणी माता; ततः--उनकी अपेक्षा; स-चित्ता:--विकसित चेतना से युक्त जीव; प्रवरा: -- श्रेष्ठ; ततः--उनसे; च--तथा; इन्द्रिय-वृत्तय: --अनुभूति से युक्त |
हे कल्याणी माँ, जीवात्माएँ अचेतन पदार्थों से श्रेष्ठ हैं और इनमें से जो जीवन केलक्षणों से युक्त हैं, वे श्रेष्ठ हैं।
इनकी अपेक्षा विकसित चेतना वाले पशु श्रेष्ठ हैं और इनसेभी श्रेष्ठ वे हैं जिनमें इन्द्रिय अनुभूति विकसित हो चुकी है।
तत्रापि स्पर्शवेदिभ्य: प्रवरा रसवेदिन: ।
तेभ्यो गन्धविदः श्रेष्ठास्ततः शब्दविदों वरा: ॥
२९॥
तत्र--उनमें से; अपि--इसके अतिरिक्त; स्पर्श-वेदिभ्य:--स्पर्श का अनुभव करने वालों से; प्रवरा:-- श्रेष्ठ; रस-वेदिन:--स्वाद का अनुभव करने वाले; तेभ्य:--उनसे; गन्ध-विदः --गन्ध अनुभव करने वाले; श्रेष्ठा: -- श्रेष्ठ;ततः--उनसे भी; शब्द-विदः--ध्वनि का अनुभव करने वाले; वरा:-- श्रेष्ठ
इन्द्रियवृत्ति अनुभूति से युक्त जीवों में से जिन्होंने स्वाद की अनुभूति विकसितकर ली है वे स्पर्श अनुभूति विकसित किये हुए जीवों से श्रेष्ठ हैं।
इनसे भी श्रेष्ठ वे हैंजिन्होंने गंध की अनुभूति विकसति कर ली है और इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं जिनकीश्रवणेन्द्रिय विकसित है।
रूपभेदविदस्तत्र ततश्लोभयतोदतः ।
तेषां बहुपदाः श्रेष्ठाश्चतुष्पादस्ततो द्विपातू ॥
३०॥
रूप-भेद--रूप में अन्तर; विदः--जानने वाले; तत्र--उनकी उपेक्षा; ततः--उनसे; च--तथा; उभयत:--दोनों जबड़ोंमें; दतः--दाँतों से युक्त; तेषाम्ू--उनमें से; बहु-पदाः--अनेक पाँवों वाले; श्रेष्ठा:-- श्रेष्ठ; चतु:-पाद:--चौपाया;ततः--उनसे; द्वि-पातू-दो पाँव वाले |
ध्वनि सुन सकने वाले प्राणियों की अपेक्षा वे श्रेष्ठ हैं, जो एक रूप तथा दूसरे रूप मेंअन्तर जान लेते हैं।
इनसे भी अच्छे वे हैं जिनके ऊपरी तथा निचले दाँत होते हैं औरइनसे भी श्रेष्ठ अनेक पाँव वाले जीव हैं।
इनसे भी श्रेष्ठ चौपाये और चौपाये से भी बढ़करमनुष्य हैं।
ततो वर्णाश्व चत्वारस्तेषां ब्राह्मण उत्तम: ।
ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो हार्थज्ञो भ्यधिकस्ततः ॥
३१॥
ततः--उनमें से; वर्णा:--वर्ग; च--तथा; चत्वार:--चार; तेषाम्--उनमें से; ब्राह्मण: --ब्राह्मण; उत्तम: --सर्व श्रेष्ठ;ब्राह्मणेषु--ब्राह्मणों में से; अपि-- भी; वेद--वेदों का; ज्ञ:--जानने वाला; हि--निश्चय ही; अर्थ--प्रयोजन; ज्ञ:--जानने वाला; अभ्यधिक: -- श्रेष्ठ; ततः--उससे
मनुष्यों में वह समाज सर्वोत्तम है, जो गुण तथा कर्म के अनुसार विभाजित कियागया है और जिस समाज में बुद्धिमान जनों को ब्राह्मण पद दिया जाता है, वह सर्वोत्तमसमाज है।
ब्राह्मणों में से जिसने वेदों का अध्ययन किया है, वही सर्वोत्तम है और वेदज्ञब्राह्मणों में भी वेद के वास्तविक तात्पर्य को जानने वाला सर्वोत्तिम है।
अर्थज्ञात्संशयच्छेत्ता ततः श्रेयान्स्वकर्मकृत् ।
मुक्तसड्रस्ततो भूयानदोग्धा धर्ममात्मनः ॥
३२॥
अर्थ-ज्ञात्ू-वेदों का तात्पर्य समझने वाले की अपेक्षा; संशय--सन्देह; छेत्ता--छिन्न करने वाला; ततः--उसकीउपेक्षा; श्रेयान्-- श्रेष्ठ; स्व-कर्म--अपने निर्धारित कार्य; कृतू--करने वाला; मुक्त-सड्र:-- भौतिक संगति से मुक्त;ततः--उससे; भूयान्-- श्रेष्ठ; अदोग्धा--न करने वाला; धर्मम्--भक्ति; आत्मन:--अपने लिए
वेदों का तात्पर्य समझने वाले ब्राह्मण की अपेक्षा वह मनुष्य श्रेष्ठ है, जो सारे संशयोंका निवारण कर दे और उससे भी श्रेष्ठ वह है, जो ब्राह्मण-नियमों का हृढ़तापूर्वक पालनकरता है।
उससे भी श्रेष्ठ है समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त व्यक्ति।
इससे भी श्रेष्ठ वहशुद्ध भक्त है, जो निष्काम भाव से भक्ति करता है।
तस्मान्मय्यर्पिताशेषक्रियार्थात्मा निरन्तरःमय्यर्पितात्मन: पुंसो मयि सन्न्यस्तकर्मण: ।
न पश्यामि पर भूतमकर्तु: समदर्शनात् ॥
३३॥
तस्मात्--उसकी अपेक्षा; मयि--मुझको; अर्पित-- भेंट किया गया; अशेष--समस्त; क्रिया--कर्म; अर्थ--सम्पत्ति;आत्मा--जीवन, आत्मा; निरन्तर: --बिना रुके; मयि--मुझको; अर्पित--अर्पित; आत्मन:--जिसका मन; पुंस:ः--मनुष्य की अपेक्षा; मयि--मुझको; सन्न्यस्त--अर्पित; कर्मण:--जिसके कर्म; न--नहीं; पश्यामि--देखता हूँ;परम्ू--महानतम्; भूतम्--जीव को; अकर्तु:--स्वामित्व के बिना; सम--सम, वही; दर्शनात्--जिसको दृष्टि
अतः मुझे उस व्यक्ति से बड़ा कोई नहीं दिखता जो मेरे अतिरिक्त कोई अन्य रुचिनहीं रखता, जो अनवरत मुझे ही अपने समस्त कर्म तथा अपना सारा जीवन--सब कुछअर्पित करता है।
मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्ठहुमानयन् ।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥
३४॥
मनसा--मन से; एतानि--इन; भूतानि--जीवों को; प्रणमेत्--प्रणाम करे; बहु-मानयन्--आदर प्रदर्शित करते हुए;ईश्वरःः--नियामक ; जीव--जीवों का; कलया--परमात्मा के रूप में अपने अंश से; प्रविष्ट:--प्रवेश किया है;भगवानू्-- श्रीभगवान्; इति--इस प्रकार ।
ऐसा पूर्ण भक्त प्रत्येक जीव को प्रणाम करता है, क्योंकि उसका दृढ़ विश्वास है किभगवान् प्रत्येक जीव के शरीर के भीतर परमात्मा या नियामक के रूप में प्रविष्ट रहते हैं।
भक्तियोगश्च योगश्न मया मानव्युदीरित: ।
ययोरेकतरेणैव पुरुष: पुरुषं ब्रजेतू ॥
३५॥
भक्ति-योग:--भक्ति; च--तथा; योग: --योग; च--तथा; मया--मेरे द्वारा; मानवि--हे मनुपुत्री; उदीरित:--वर्णित;ययो:--जिस दो का; एकतरेण--किसी एक से; एव--अकेला; पुरुष:--पुरुष; पुरुषम्--परम पुरुष को; ब्रजेत्--प्राप्त कर सकता है।
हे माता, हे मनुपुत्री, जो भक्त इस प्रकार से भक्ति तथा योग का साधन करता है उसेकेवल भक्ति से ही परम पुरुष का धाम प्राप्त हो सकता है।
एतद्धगवतो रूप॑ ब्रह्मण: परमात्मन: ।
परं प्रधान पुरुष दैवं कर्मविचेष्टितम् ॥
३६॥
एतत्--यह; भगवतः --भगवान् का; रूपमू--रूप; ब्रह्मण: --ब्रह्म का; परम-आत्मन: -- परमात्मा का; परम्--दिव्य;प्रधानम्-प्रधान; पुरुषम्--पुरुष; दैवम्--दैवी, आध्यात्मिक; कर्म-विचेष्टितम्ू--जिनके कार्यकलाप |
वह पुरुष जिस तक प्रत्येक जीव को पहुँचना है, उस भगवान् का शाश्वत रूप है, जोब्रह्म तथा परमात्मा कहलाता है।
वह प्रधान दिव्य पुरुष है और उसके कार्यकलापअध्यात्मिक हैं।
रूपभेदास्पदं दिव्यं काल इत्यभिधीयते ।
भूतानां महदादीनां यतो भिन्नद॒शां भयम् ॥
३७॥
रूप-भेद--रूपों के परिवर्तन का; आस्पदम्--कारण; दिव्यम्--दिव्य; काल:--काल, समय; इति--इस प्रकार;अभिधीयते--जाना जाता है; भूतानाम्--जीवों का; महत्-आदीनाम्--ब्रह्म आदि; यत:--जिससे; भिन्न-हशाम्--पृथक् दृष्टिकोण से; भयम्--डर।
विभिन्न भौतिक रूपान्तरों को उत्पन्न करने वाला काल भगवान् का ही एक अन्यस्वरूप है।
जो व्यक्ति यह नहीं जानता कि काल तथा भगवान् एक ही हैं वह काल सेभयभीत रहता है।
योउन्तः प्रविश्य भूतानि भूतैरत्त्यखिलाश्रय: ।
स विष्ण्वाख्योधियज्ञोइ॥
सौ काल: कलयतां प्रभु: ॥
३८ ॥
यः--जो; अन्तः-- भीतर; प्रविश्य--घुसकर; भूतानि--जीवों को; भूतैः--जीवों के द्वारा; अत्ति--संहार करता है;अखिल-हर एक का; आश्रय:--आधार; सः--वह; विष्णु--विष्णु; आख्य:--नामक; अधियज्ञ:--समस्त यज्ञोंका भोक्ता; असौ--वह; काल:--काल; कलयताम्--समस्त स्वामियों का; प्रभुः--स्वामी |
समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान् विष्णु कालस्वरूप हैं तथा समस्त स्वामियों केस्वामी हैं।
वे प्रत्येक के हृदय में प्रविष्ट करने वाले हैं, वे सबके आश्रय हैं और प्रत्येकजीव का दूसरे जीव के द्वारा संहार कराने का कारण हैं।
नचास्य कश्रचिदयितो न द्वेष्यो न च बान्धवः ।
आविश्त्यप्रमत्तो उसौ प्रमत्तं जनमन्तकृत् ॥
३९॥
न--नहीं; च--तथा; अस्य-- भगवान् का; कश्चित्--कोई; दयितः--प्रिय; न--नहीं ; द्वेष्:--शत्रु; न--नहीं; च--तथा; बान्धव:--मित्र; आविशति--निकट जाता है; अप्रमत्त:--सजग; असौ--वह; प्रमत्तम्ू--असावधान; जनमू--व्यक्ति को; अन्त-कृत्ू--विनाशकर्ता
भगवान् का न तो कोई प्रिय है, न ही कोई शत्रु या मित्र है।
किन्तु जो उन्हें भूले नहीं हैं, उन्हें वे प्रेरणा प्रदान करते हैं और जो उन्हें भूल चुके हैं उनका क्षय करते हैं।
यद्भयाद्वाति बातोयं सूर्यस्तपति यद्धयात् ।
यद्भयाद्वर्षते देवों भगणो भाति यद्धयात् ॥
४०॥
यत्--जिस परमेश्वर के; भयात्-- भय से; वाति--बहती है; वात:--वायु; अयम्--यह; सूर्य:--सूर्य; तपति--चमकता है; यत्--जिसके; भयात्-- भय से; यत्--जिसके; भयात्-- भय से; वर्षते--वर्षा करता है; देव: --वर्षाका देवता; भ-गण:--नक्षत्रों का समूह; भाति--चमकता है; यत्--जिसके; भयात्-- भय से ।
भगवान् के ही भय से वायु बहती है, उन्हीं के भय से सूर्य चमकता है, वर्षा कादेवता पानी बरसाता है और उन्हीं के भय से नक्षत्रों का समूह चमकता है।
यद्वनस्पतयो भीता लताश्रौषधिभि: सह ।
स्वे स्वे कालेउभिगृह्नन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥
४१॥
यत्--जिसके कारण; वनः-पतयः--वृक्ष; भीताः-- भयभीत; लता:--लताएँ; च--तथा; ओषधिभि: --जड़ी-बूटियाँ; सह--साथ; स्वे स्वे काले-- अपनी-अपनी ऋतु में; अभिगृह्न्ति-- धारण करते हैं; पुष्पाणि-- फूल; च--तथा; फलानि--फल; च--भी |
भगवान् के भय से वृक्ष, लताएँ, जड़ी-बूटियाँ तथा मौसमी पौधे और फूल अपनी-अपनी ऋतु में फूलते और फलते हैं।
स्त्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।
अग्निरिन्धे सगिरिभिर्भूर्न मजति यद्भधयात् ॥
४२॥
स्त्रवन्ति--बहती हैं; सरित:--नदियाँ; भीता:--डरी हुई; न--नहीं; उत्सर्पति--उमड़ कर बहते हैं; उद-धि:--सागर;यत:--जिसके कारण; अग्नि:--अग्नि; इन्धे--जलती है; स-गिरिभि:--पर्वतों सहित; भू:ः--पृथ्वी; न--नहीं;मज्जति--डूबती है; यत्--जिसके; भयात्-- भय से
भगवान् के भय से नदियाँ बहती हैं तथा सागर कभी भरकर बाहर नहीं बहते।
उनकेही भय से अग्नि जलती है और पृथ्वी अपने पर्वतों सहित ब्रह्माण्ड के जल में डूबतीनहीं।
नभो ददाति श्वसतां पदं यन्नियमादद: ।
लोकं स्वदेहं तनुते महान्सप्तभिरावृतम् ॥
४३॥
नभः--आकाश; ददाति--देता है; श्रसताम्--जीवों को; पदम्--आवास; यत्--जिस भगवान् के; नियमात्--नियन्त्रण में; अदः--वह; लोकम्--ब्रह्माण्ड को; स्व-देहम्--अपने शरीर को; तनुते--विस्तार करता है; महान्--महत् तत्त्व; सप्तभि:--सात कोशों सहित; आवृतम्--आच्छादित |
भगवान् के ही नियन्त्रण में अन्तरक्षि में आकाश सारे लोकों को स्थान देता है जिनमेंअसंख्य जीव रहते हैं।
उन्हीं के नियन्त्रण में ही सकल विराट शरीर अपने सातों कोशोंसहित विस्तार करता है।
गुणाभिमानिनो देवा: सर्गादिष्वस्थ यद्धयात् ।
वर्तन्तेडनुयुगं येषां वश एतच्चराचरम् ॥
४४॥
गुण--प्रकृति के गुण; अभिमानिन:--के अधीन; देवा:--देवता; सर्ग-आदिषु--सृष्टि करने आदि में; अस्य--इसजगत का; यत्-भयात्--जिसके भय से; वर्तन्ते--कार्य करते हैं; अनुयुगम्--युगों के अनुसार; येषामू--जिनके;वशे--अधीन; एतत्--यह; चर-अचरम्--सारे सजीव तथा निर्जीव
भगवान् के भय से ही प्रकृति के गुणों के अधिष्ठाता देवता सृष्टि, पालन तथा संहारका कार्य करते हैं।
इस भौतिक जगत की प्रत्येक निर्जीव तथा सजीव वस्तु उनके हीअधीन है।
सोनन्तोउन्तकर: कालोनादिरादिकृद॒व्यय: ।
जन॑ जनेन जनयन्मारयन्पृत्युनान्तकम् ॥
४५॥
सः--वह; अनन्त:--अन्तहीन; अन्त-करः--विनाशकर्ता; काल:--समय; अनादिः -- जिसका आदि न हो; आदि-कृत्ू--स्त्रष्टा; अव्यय:--जिसमें परिवर्तन न हो; जनम्--लोगों को; जनेन--लोगों द्वारा; जनयन्--उत्पन्न करते हुए;मारयनू्--विनष्ट करते हुए; मृत्युना--मृत्यु द्वारा; अन्तकम्--म
ृत्यु का स्वामी शाश्रत काल खण्ड का न आदि है और न अन्त।
वह इस पातकी संसार के स्त्रष्टाभगवान् का प्रतिनिधि है।
वह दृश्य जगत का अन्त कर देता है, एक को मार कर दूसरे को जन्म देता है और इसका सृजन कार्य करता है।
इसी तरह मृत्यु के स्वामी यम को भीनष्ट करके ब्रह्माण्ड का विलय कर देता है।
अध्याय तीस: भगवान कपिल द्वारा प्रतिकूल सकाम गतिविधियों का वर्णन
3.30कपिल उबाचतस्यैतस्य जनो नूनं नायं वेदोरुविक्रमम् ।
'काल्यमानोपि बलिनो वायोरिव घनावलि: ॥
१॥
कपिल: उवाच--कपिल ने कहा; तस्य एतस्य--इसी काल का; जन: --व्यक्ति; नूनम्ू--निश्चय ही; न--नहीं;अयम्--यह; वेद--जानता है; उरु-विक्रमम्--महान् पराक्रम; काल्यमान: --दूर ले जाया जाकर; अपि--यद्यपि;बलिन:--शक्तिशाली; वायो:--ह वा द्वारा; इब--सहृश; घन--बादलों का; आवलि: --समूह |
भगवान् ने कहा : जिस प्रकार बादलों का समूह वायु के शक्तिशाली प्रभाव सेपरिचित नहीं रहता उसी प्रकार भौतिक चेतना में संलग्न व्यक्ति काल की उस महान्शक्ति से परिचित नहीं रहता, जिसके द्वारा उसे ले जाया जा रहा है।
यं यमर्थमुपादत्ते दुःखेन सुखहेतवे ।
तं तं धुनोति भगवान्पुमाड्छोचति यत्कृते ॥
२॥
यम् यम्--जो कुछ, जिस जिस; अर्थम्--वस्तु को; उपादत्ते--प्राप्त करता है; दुःखेन--कठिनाई से; सुख-हेतवे--सुख के लिए; तम् तम्--उस उस को; धुनोति--नष्ट कर देता है; भगवान्-- भगवान्; पुमान्--व्यक्ति; शोचति--शोक करता है; यत्-कृते--जिस कारण से |
तथाकथित सुख के लिए भौतिकतावादी द्वारा जो-जो वस्तुएँ अत्यन्त कष्ट तथा परिश्रम से अर्जित की जाती हैं उन-उन को कालरूप परम पुरुष नष्ट कर देता है औरइसके कारण बद्धजीव उन के लिए शोक करता है।
यदश्लुवस्य देहस्य सानुबन्धस्य दुर्मति: ।
ध्रुवाणि मन्यते मोहादगृहक्षेत्रवसूनि च ॥
३॥
यत्-क्योंकि; अध्ुवस्थ-- क्षणिक; देहस्य--शरीर का; स-अनुबन्धस्य--सम्बन्धियों से; दुर्मतिः--पशथश्रष्ट व्यक्ति;ध्रुवाणि--स्थायी; मन्यते--सोचता है; मोहात्--अज्ञानवश; गृह--घर; क्षेत्र--जमीन; वसूनि--सम्पत्ति; च--तथा |
विभ्रमित भौतिकतावादी व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसका अपना यह शरीरअस्थायी है और घर, जमीन तथा सम्पत्ति जो इस शरीर से सम्बन्धित हैं, ये सारे आकर्षणभी क्षणिक हैं।
वह अपने अज्ञान के कारण ही हर वस्तु को स्थायी मानता है।
जन्तुर्वे भव एतस्मिन्यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिंन विरज्यते ॥
४॥
जन्तु:--जीव; वै--निश्चय ही; भवे--संसार में; एतस्मिन्--इस; याम् यामू--जिस-जिस; योनिम्--योनि को;अनुब्रजेत्--प्राप्त करता है; तस्याम् तस्याम्--उस उसको; सः--वह; लभते--प्राप्त करता है; निर्वृतिमू--सन्तोष को;न--नहीं; विरज्यते--पराड्मुख विरक्त होता है।
जीव जिस योनि में भी प्रकट होता है, उसको उसी योनि में एक विशेष सन्तोष प्राप्तहोता है और वह उस अवस्था में रहने से कभी विमुख नहीं होता।
नरकस्थोपि देहं वै न पुमांस्त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां निर्वृतौ सत्यां देवमायाविमोहित: ॥
५॥
नरक--नरक में; स्थ:--स्थित; अपि-- भी; देहम्ू--शरीर को; बै--निस्सन्देह; न--नहीं; पुमान्--मनुष्य; त्यक्तुमू--छोड़ने के लिए; इच्छति--चाहता है; नारक्याम्ू--नारकीय, नरकतुल्य; निर्वृती-- भोग; सत्याम्--रहते हुए; देव-माया--भगवान् की माया से; विमोहित:--मोह ग्रस्त |
बद्धजीव अपनी योनि-विशेष में ही सन्तुष्ट रहता है, माया के आवरणात्मक प्रभावसे मोहग्रस्त होकर वह अपने शरीर को त्यागना नहीं चाहता, भले ही वह नरक में क्यों नहो, क्योंकि उसे नारकीय भोग में ही आनन्द मिलता है।
आत्मजायासुतागारपशुद्रविणबन्धुषु ।
निरूढमूलहदय आत्मानं बहु मनन््यते ॥
६॥
आत्म--शरीर; जाया-- पत्नी; सुत--बच्चे; अगार--घर; पशु-- पशु; द्रविण-- सम्पत्ति; बन्धुषु--मित्रों में; निरूढ-मूल--गहराई तक जड़ें जमाये, प्रगाढ़; हृदयः--उसका हृदय; आत्मानम्--अपने आपको; बहु--बहुत ऊँचा;मन्यते--सोचता है|
मनुष्य को अपने जीवनस्तर के प्रति इस प्रकार का सन्तोष अपने शरीर, पत्नी, घर,सन््तान, पशु, सम्पत्ति तथा मित्रों के प्रति प्रगाढ़ आकर्षण के कारण ही होता है।
ऐसीसंगति में बद्धजीव अपने आपको पूरी तरह सही मानता है।
सन्दह्ममानसर्वाड् एषामुद्ददनाधिना ।
करोत्यविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः ॥
७॥
सन्दह्ममान--जलते हुए; सर्व--सभी; अड्डग:--उसके अंग; एषाम्--इन परिजनों के; उद्ददन--पालन के लिए;आधिना--चिन्ता से युक्त; करोति--करता है; अविरतम्--सदैव; मूढ:--मूर्ख; दुरितानि--पापकर्म ; दुराशय: --दुर्ब॑द्धि:
यद्यपि वह चिन्ता से सदैव जलता रहता है, तो भी ऐसा मूर्ख कभी न पूरी होने वालीआशाओं के लिए सभी प्रकार के अनिष्ट कृत्य करता है, जिससे वह अपने तथाकथितपरिवार तथा समाज का भरण-पोषण कर सके।
आक्षिप्तात्मेन्द्रियः स्रीणामसतीनां च मायया ।
रहो रचितयालापै: शिशूनां कलभाषिणाम् ॥
८॥
आक्षिप्त--मोहित; आत्म--हृदय; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; स्त्रीणाम्--स्त्रियों का; असतीनाम्--झूठी; च--तथा;मायया--माया के द्वारा; रहः--एकान्त स्थान में; रचितया--प्रदर्शित; आलापैः --बातचीत से; शिशूनाम्--बच्चों के;कल-भाषिणामू--मीठे-मीठे शब्दों से |
वह उस स्त्री को अपना हृदय तथा इन्द्रियाँ दे बैठता है, जो झूठे ही उसे माया से मोहलेती है।
वह उसके साथ एकान्त में आलिंगन तथा संभाषण करता है और अपने छोटे-छोटे बच्चों के मीठे-मीठे बोलों से मुग्ध होता रहता है।
गृहेषु कूटधर्मेषु दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः ।
कुर्वन्दुःखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ॥
९॥
गृहेषु--पारिवारिक जीवन में; कूट-धर्मेषु--झूठ बोलने के अभ्यास में; दुःख-तन्त्रेषु--दुख फैलाने में; अतन्द्रित:--सावधान; कुर्वनू--करते हुए; दुःख-प्रतीकारम्--दुखों को झेलना; सुख-वत्--सुख की भाँति; मन्यते--सोचते हैं;गृही--गृहस्थ |
आसक्त गृहस्थ कूटनीति तथा राजनीति से पूर्ण अपने पारिवारिक जीवन में रहा आता है।
वह सदैव दुखों का विस्तार करता हुआ और इन्द्रियतृष्ति के कार्यों से नियन्त्रितहोकर अपने सारे दुखों के फल को झेलने के लिए कर्म करता है।
यदि वह इन दुखों कोसफलतापूर्वक झेल लेता है, तो वह अपने को सुखी मानता है।
अर्थरापादितैर्गुर्व्या हिंसयेतस्ततश्॒ तान् ।
पुष्णाति येषां पोषेण शेषभुग्यात्यध: स्वयम् ॥
१०॥
अर्थै: --सम्पत्ति से; आपादितैः --अर्जित; गुर्व्या--महान्; हिंसबा--हिंसा से; इत:ः-ततः--इधर-उधर; च--तथा;तान्--उनको परिजनों को ; पुष्णाति--पालन करता है; येषामू--जिनके; पोषेण--पालन से; शेष--बचा हुआ;भुक्ू-- भोजन; याति--जाता है; अध:--नीचे की ओर; स्वयमू--स्वयं |
वह इधर-उधर हिंसा करके धन प्राप्त करता है और यद्यपि वह इसे अपने परिवार केभरण-पोषण में लगाता है, किन्तु स्वयं इस प्रकार से खरीदे भोजन का अल्पांश ही ग्रहणकरता है।
इस तरह वह उन लोगों के लिए नरक जाता है, जिनके लिए उसने अवैध ढंगसे धन कमाया था।
वार्तायां लुप्यमानायामारब्धायां पुनः पुनः ।
लोभाभिभूतो निःसत्त्व: परार्थे कुरुते स्पृहाम् ॥
११॥
वार्तायाम्--उसकी वृत्ति या जीविका के; लुप्यमानायाम्ू--अवरुद्ध होने पर; आरब्धायाम्--ग्रहण की जाती है; पुनःपुन:ः--बार-बार; लोभ--लालच से; अभिभूतः--अधीर; निःसत्त्व: --विनष्ट; पर-अर्थे--अन्यों की सम्पत्ति के लिए;कुरुते स्पृहामू--कामना करता है।
जब उसे अपनी जीविका में प्रतिकूल फल मिलते हैं, तो वह बारम्बार अपने कोसुधारने का यत्न करता है, किन्तु जब उसके सारे प्रयास असफल रहते हैं और वह विनष्टहो जाता है, तो अत्यन्त लोभवश वह अन्यों का धन स्वीकार करता है।
कुटुम्बभरणाकल्पो मन्दभाग्यो वृथोद्यम: ।
भ्रिया विहीनः कृपणो ध्यायड्छुसिति मूढधी: ॥
१२॥
कुटुम्ब--अपना परिवार; भरण--पालन करने में; अकल्प:--असमर्थ; मन्द-भाग्य:-- अभागा; वृथा--व्यर्थ ही;उद्यम:--जिसका प्रयास; थ्रिया--सौंदर्य, धन; विहीन: --रहित; कृपण:--कंजूस; ध्यायन्--शोक करता हुआ;श्रसिति--आहें भरता है; मूढड--मोहग्रस्त; धीः--बुद्धि वाला ।
जब वह अभागा अपने परिवार वालों के भरण-पोषण में असफल होकर समस्तसौन्दर्य से विहीन हो जाता है, तो वह सदैव लम्बी-लम्बी आहें भरता हुआ अपनीविफलता के विषय में सोचता है।
एवं स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तथा ।
नाद्वियन्ते यथा पूर्व कीनाशा इव गोजरम् ॥
१३॥
एवम्--इस प्रकार; स्व-भरण--उनको पालने में; अकल्पम्-- असमर्थ; तत्ू--उसकी; कलत्र--पली; आदय: --इत्यादि; तथा--उसी प्रकार; न--नहीं; आद्रियन्ते--आदर करते हैं; यथा--जिस तरह; पूर्वम्--पहले; कीनाशा: --किसान; इब--सहश; गो-जरम्--पुराना बैल
उसे अपने पालन-पोषण में असमर्थ देखकर उसकी पत्नी तथा अन्य लोग उसे उसीतरह पहले जैसा सम्मान नहीं प्रदान करते जिस तरह कंजूस किसान अपने बुढ़े तथा थकेबैलों के साथ पहले जैसा व्यवहार नहीं करता।
तत्राप्यजातनिर्वेदो ध्रियमाण: स्वयम्भूतैः ।
जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ॥
१४॥
तत्र--वहाँ; अपि--यद्यपि; अजात--उदय नहीं हुई हो; निर्वेद:--विरुचि; प्रियमाण:--पालित होकर; स्वयम्--अपने आपसे; भृतीः--पालित लोगों से; जरया--वृद्धावस्था से; उपात्त-- प्राप्त; वैरूप्यः --विरूपता, रूप बिगड़ना;मरण--मृत्यु; अभिमुख:--पास आकर; गृहे--घर में
मूर्ख पारिवारिक व्यक्ति गृहस्थ जीवन से पराड्मुख नहीं होता, यद्यपि अब उसकापालन उन लोगों के द्वारा किया जा रहा है, जिन्हें पहले उसने पाला था।
वृद्धावस्था केकारण उसका रूप विकृत हो जाता है और वह मृत्यु की तैयारी करने लगता है।
आस्तेवमत्योपन्यस्तं गृहपाल इवाहरन् ।
आमयाव्यप्रदीप्ताग्निरल्पाहारोउल्पचेष्टित: ॥
१५॥
आस्ते--रहा आता है; अवमत्या--उपेक्षा भाव से; उपन्यस्तम्--जो दिया जाता है; गृह-पाल:--कुत्ता; इब--सहश;आहरन्--खाते हुए; आमयावी--रुग्ण; अप्रदीप्त-अग्नि:--अजीर्ण, मन्दाग्न्यता; अल्प--थोड़ा; आहार: -- भोजन;अल्प-- थोड़ा; चेष्टितः--उसके कार्य ।
वह घर पर पालतू कुत्ते की भाँति रह रहा होता है और उपेक्षाभाव से उसे जो भीदिया जाता है, उसे खाता है।
अजीर्ण तथा मंदाग्नि जैसी अनेक प्रकार की व्याधियों सेग्रस्त होकर, वह केवल कुछ कौर भोजन करता है और अशक्त होने के कारण कोई भीकाम नहीं कर पाता।
वह प्रसन्न रहता है।
वायुनोत्क्रमतोत्तार: कफसंरुद्धनाडिकः ।
कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते ॥
१६॥
वायुना--हवा के द्वारा; उत्क्रमता--बाहर निकलने से; उत्तारः--आँखें; कफ--कफ से; संरुद्ध--सँटी हुई;नाडिकः-- श्वास नली; कास--खाँसी; ध्वास--साँस लेना; कृत--किया हुआ; आयास:--कठिनाई; कण्ठे--गले में;घुर-घुरायते--घुर-घुर का शब्द करता है।
उस रुग्ण अवस्था में, भीतर से वायु के दबाब के कारण उसकी आँखें बाहर निकलआती हैं और उसकी ग्रंथियाँ कफ से भर जाती हैं।
उसे साँस लेने में कठिनाई होती हैऔर गले के भीतर से घुर-घुर की आवाज निकलती है।
शयानः परिशोचद्धिः परिवीतः स्वबन्धुभि: ।
वाच्यमानोपि न ब्रूते कालपाशवशं गत: ॥
१७॥
शयान:--लेटा हुआ; परिशोचदिद्धिः --पश्चात्ताप करते हुए; परिवीत:--घिरा हुआ; स्व-बन्धुभि: -- अपने सम्बन्धियोंतथा मित्रों से; वाच्यमान:--बोलने के लिए कहे जाने पर; अपि--यद्यपि; न--नहीं; ब्रूते--बोलता है; काल--समयके; पाश--फंदा के; वशम्--वशीभूत; गत:--गया हुआ।
इस प्रकार वह मृत्यु के पाश में बँधकर लेट जाता है, विलाप करते उसके मित्र तथासम्बन्धी उसे घेर लेते हैं और उन सबसे बोलने की इच्छा करते हुए भी वह बोल नहींपाता, क्योंकि वह काल के वश में रहता है।
एवं कुटुम्बभरणे व्यापृतात्माजितेन्द्रिय: ।
प्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयास्तधी: ॥
१८॥
एवम्--इस प्रकार; कुटुम्ब-भरणे--परिवार का पालन करने में; व्यापृत--तल्लीन; आत्मा--उसका मन; अजित--अनियन्त्रित; इन्द्रियः--उसकी इन्द्रियाँ; प्रियते--मर जाता है; रुदताम्--रोते हुए; स्वानाम्ू--कुटुम्बियों को; उरू--महान्; वेदनया--पीड़ा से; अस्त--विहीन; धी:--चेतना |
इस प्रकार जो व्यक्ति इन्द्रियों को वश में किये बिना परिवार के भरण-पोषण मेंलगा रहता है, वह अपने रोते कुटुम्बियों को देखता हुआ अत्यन्त शोक में मरता है।
वहअत्यन्त दयनीय अवस्था में, असह्य पीड़ा के साथ, किन्तु चेतना विहीन होकर मरता है।
यमदूतौ तदा प्राप्तौी भीमौ सरभसेक्षणौ ।
स दृष्ठा त्रस्तहदयः शकृन्मूत्रं विमुज्ञति ॥
१९॥
यम-दूतौ--यमराज के दो दूत; तदा--उस समय; प्राप्ती--आकर; भीमौ--घोर; स-रभस--क्रोध से पूर्ण; ईक्षणौ --अपनी आँखें; सः--वह; दृष्टा--देखकर; त्रस्त-- भयभीत; हृदयः -- अपना हृदय; शकृत्--मल; मूत्रमू--मूत्र;विमुश्जञति--त्यागता है, निकाल देता है।
मृत्यु के समय उसे अपने समक्ष यमराज के दूत आये दिखते हैं, जिनके नेत्र क्रोध सेपूर्ण रहते हैं।
इस तरह भय के मारे उसका मल-मूत्र छूट जाता है।
यातनादेह आवृत्य पाशैर्बदध्वा गले बलातू ।
नयतो दीर्घमध्वानं दण्ड्यं राजभटा यथा ॥
२०॥
यातना--दंड के लिए; देहे--उसका शरीर; आवृत्य--ढक कर; पाशै:--रस्सियों से; बद्ध्वा--बाँध कर; गले--गलेसे; बलात्--बलपूर्वक; नयतः--ले जाते हैं; दीर्घम्--लम्बी; अध्वानम्--दूरी; दण्ड्यम्-- अपराधी; राज-भटा:--राजा के सिपाही; यथा--जिस प्रकार।
जिस प्रकार राज्य के सिपाही अपराधी को दण्डित करने के लिए उसे गिरफ्तार करतेहैं उसी प्रकार इन्द्रियतृष्ति में संलग्न अपराधी पुरुष यमदूतों के द्वारा बन्दी बनाया जाताहै।
वे उसे मजबूत रस्सी से गले से बाँध लेते हैं और उसके सूक्ष्म शरीर को ढक देते हैंजिससे उसे कठोर से कठोर दण्ड दिया जा सके।
तयोर्निभिन्नहदयस्तर्जनैर्जातवेपथु: ।
पथि श्रभिर्भक्ष्यमाण आर्तोघं स्वमनुस्मरन् ॥
२१॥
तयो:--यम के दूतों की; निर्भिन्न--टूटा हुआ; हृदयः--हृदय; तर्जनैः--डाट-फटकार से; जात--उत्पन्न; वेपथु: --कँप-कँपी; पथि--रास्ते में; श्रभि:--कुत्तों के द्वारा; भक्ष््माण:--काटा जाकर; आर्त:--दुखी; अघम्--पाप;स्वमू--अपना; अनुस्मरन्--स्मरण करते हुए
इस प्रकार यमराज के सिपाहियों द्वारा ले जाये जाते समय उसे दबाया-कुचला जाताहै और उनके हाथों में वह काँपता रहता है।
रास्ते में जाते समय उसे कुत्ते काटते हैं औरउसे अपने जीवन के पापकर्म याद आते हैं।
इस प्रकार वह अत्यधिक दुखी रहता है।
क्षुत्तटूपरीतो कंदवानलानिलै:सन्तप्यमानः पथि तप्तवालुके ।
कृच्छेण पृष्ठे कशया च ताडितश्चलत्यशक्तोपि निराश्रमोदके ॥
२२॥
क्षुत्ू-तृट्-- भूख तथा प्यास से; परीत:--व्याकुल; अर्क--सूर्य; दव-अनल--जंगल की अग्नि; अनिलै: --वायु से;सन्तप्यमान:--झुलसते हुए; पथि--रास्ते में; तप्त-वालुके--गर्म बालू पर; कृच्छेण--कष्टपूर्वक; पृष्ठे--पीठ पर;कशया--चाबुक से; च--तथा; ताडित:--मारा जाकर; चलति--चलता है; अशक्त:--असमर्थ; अपि--यद्यपि;निराभ्रम-उदके--बिना किसी विश्राम या जल के
अपराधी को चिलचिलाती धूप में गर्म बालू के रास्ते से होकर जाना पड़ता है,जिसके दोनों ओर दावाग्नि जलती रहती है।
चलने में असमर्थता के कारण सिपाहीउसकी पीठ पर कोड़े लगाते हैं और वह भूख तथा प्यास से व्याकुल हो जाता है।
किन्तुदुर्भाग्यवश रास्ते भर न तो पीने के लिए जल रहता है, न विश्राम करने के लिए कोईआश्रय मिलता है।
तत्र तत्र पतउलान्तो मूर्च्छित: पुनरुत्थित: ।
'पथा पापीयसा नीतस्तरसा यमसादनम् ॥
२३॥
तत्र तत्र--जहाँ तहाँ; पतन्--गिरते हुए; श्रान्त:ः-- थका हुआ; मूर्च्छित:--बेहोश; पुन: --फिर से; उत्थितः--उठते हुए;पथा--रास्ते में; पापीयसा--अत्यन्त अशुभ; नीत:--लाया गया; तरसा--तेजी से; यम-सादनम्--यमराज केसामने।
यमराज के धाम के मार्ग पर वह थकान से गिरता-पड़ता जाता है और कभी-कभीअचेत हो जाता है, किन्तु उसे पुनः उठने के लिए बाध्य किया जाता है।
इस प्रकार उसेतेजी से यमराज के समक्ष लाया जाता है।
योजनानां सहस्त्राणि नवतिं नव चाध्वन: ।
त्रिभिमुहूर्तै्द्वा भ्यां वा नीत: प्राप्योति यातना: ॥
२४॥
योजनानाम्--योजनों की; सहस्त्राणि--हजार; नवतिम्--नब्बे; नव--नौ; च--तथा; अध्वन: --दूरी से; त्रिभि:--तीन; मुहूर्त: --क्षणों में; द्वाभ्यामू--दो; वा--अथवा; नीत:--लाया गया; प्राप्योति-- पाता है; यातना:--दण्ड |
इस तरह से ९९ हजार योजन की दूरी उसे दो या तीन पलों में पार करनी होती हैऔर फिर तुरन्त उसे घोर यातना दी जाती है, जिसे सहना पड़ता है।
आदीपनं स्वगात्राणां वेष्टयित्वोल्मुकादिभि: ।
आत्ममांसादनं क्वापि स्वकृत्तं परतोडषपि वा ॥
२५॥
आदीपनम्--अग्नि लगाकर; स्व-गात्राणाम्--अपने अंगों को; वेष्टयित्वा--लपेट कर; उल्मुक-आदिभि:--जलतीलकड़ी के टुकड़ों आदि से; आत्म-मांस--अपने मांस का; अदनम्-- भोजन करते; क्व अपि--कभी-कभी; स्व-कृत्तम्ू--अपने द्वारा किया गया; परत:--अन्यों द्वारा; अपि-- भी; वा--अथवा
वहाँ उसे जलती लकड़ियों के बीच में रख दिया जाता है और उसके अंगों में आगलगा दी जाती है।
कभी-कभी उसे अपना मांस स्वयं खाने के लिए बाध्य किया जाता हैअथवा अमन्यों द्वारा खाने दिया जाता है।
जीवतश्चान्त्राभ्युद्धार: श्वगृश्नेर्यमसादने ।
सर्पवृश्चिकदंशाद्यैर्दशद्धि श्रात्मवैश्सम् ॥
२६॥
जीवत:ः--जीवित; च--तथा; अन्त्र--आँतें; अभ्युद्धार:--बाहर खींचकर; श्व-गृश्नैः--कुत्तों तथा गीधों द्वारा; यम-सादने--यमराज के सदन में; सर्प--सर्प; वृश्चिक--बिच्छू; दंश--डाँस, मच्छर; आद्यै:--इत्यादि के द्वारा;दशशद््धः--काटे जाने पर; च--तथा; आत्म-वैशसम्--अपना उत्पीड़न |
नरक के कुत्तों तथा गीधों द्वारा उसकी आँखें उसके जीवित रहते और देखते-देखतेनिकाल ली जाती हैं और उसे साँपों, बिच्छुओं, डाँसों तथा अन्य काटने वाले जन्तुओं सेपीड़ा पहुँचाई जाती है।
कृन्तनं चावयवशो गजादिभ्यो भिदापनम् ।
पातनं गिरिश्रृड्भेभ्यो रोधनं चाम्बुगर्तयो: ॥
२७॥
कृन्तनमू--काट करके; च--तथा; अवयवश:ः --अंग प्रति अंग; गज-आदिभ्य:--हाथी आदि से; भिदापनम्--चिरवाया जाकर; पातनम्ू--नीचे गिराकर; गिरि--पहाड़ियों की; श्रृड्रेभ्य:--चोटियों से; रोधनम्--घेर कर; च--तथा; अम्बु-गर्तयो:--जल में या गुफा में |
फिर उसके अंग-प्रत्यंग काट डाले जाते हैं और उसे हाथियों से चिरवा दिया जाताहै।
उसे पर्वत की चोटियों से नीचे गिराया जाता है और फिर जल में या गुफा में बन्दीबना लिया जाता है।
यास्तामिस्त्रान्धतामिस्त्रा रौरवाद्याश्च यातना: ।
भुड़े नरो वा नारी वा मिथ: सड़ेन निर्मिता: ॥
२८॥
या:--जो; तामिस्त्र--नरक का नाम; अन्ध-तामिस्त्रा:--एक नरक; रौरव--एक नरक; आद्याः:--इत्यादि; च--तथा;यातना:--यातनाएँ, दण्ड; भुड्ढे -- भोगता है; नरः--मनुष्य; वा--अथवा; नारी--स्त्री; वा--अथवा; मिथ: --पारस्परिक; सड्जेन--संगति से; निर्मिता:--बनाये गये
जिन पुरुषों तथा स्त्रियों का जीवन अवैध यौनाचार में बीतता है उन्हें तामिस्त्र,अन्धतामिस्त्र तथा रौरव नामक नरकों में नाना प्रकार की यातनाएँ दी जाती हैं।
अन्नैव नरकः स्वर्ग इति मात: प्रचक्षते ।
या यातना वै नारक्यस्ता इहाप्युपलक्षिता: ॥
२९॥
अत्र--इस संसार में; एब--ही; नरकः--नरक ; स्वर्ग:--स्वर्ग; इति--इस प्रकार; मात:ः--हे माता; प्रच्क्षते--लोगकहते हैं; याः--जो जो; यातना:--यातनाएँ; वै--निश्चय ही; नारक्य:--नारकीय; ता:--वे; इह--यहाँ; अपि-- भी;उपलक्षिता:--दृष्टिगोचर होती हैं।
कपिलमुनि ने आगे कहा : हे माता, कभी-क भी यह कहा जाता है कि इसी लोक मेंहम नरक अथवा स्वर्ग का अनुभव करते हैं, क्योंकि कभी-कभी इस लोक में भीनारकीय यातनाएँ दिखाई पड़ती हैं।
एवं कुट॒म्बं बिभ्राण उदरम्भर एव वा ।
विसूज्येहोभयं प्रेत्य भुड़े तत्फलमीदशम् ॥
३०॥
एवम्--इस प्रकार; कुटुम्बम्--परिवार को; बिश्राण: --पालन करने वाला; उदरम्--पेट को; भर:--भरण करनेबाला; एव--केवल; वा--अथवा; विसृज्य--त्याग कर; इह--यहाँ; उभयम्--दोनों; प्रेत्य--मृत्यु के बाद; भुड़े --भोगता है; तत्--उसका; फलम्--फल; ईहशम्--ऐसा
इस शरीर को त्यागने के पश्चात् वह व्यक्ति जो पापकर्मो द्वारा अपना तथा अपनेपरिवार के सदस्यों का पालन-पोषण करता है नारकीय जीवन बिताता है और उसकेसाथ उसके परिवार वाले भी।
एक: प्रपद्यते ध्वान्तं हित्वेदं स्वकलेवरम् ।
कुशलेतरपाथेयो भूतद्रोहेण यद्भधुतम् ॥
३१॥
एकः--अकेला; प्रपद्यते--प्रवेश करता है; ध्वान्तम्--अन्धकार; हित्वा--छोड़कर; इृदम्--यह; स्व-- अपना;कलेवरम्--शरीर; कुशल-इतर--पाप; पाथेय:--सम्बल, रास्ते का खर्च; भूत--अन्य जीवों की; द्रोहेण-- क्षतिद्वारा; यत्ू--जो शरीर; भृतम्--पाला गया।
इस शरीर को त्याग कर वह अकेला नरक के अंधतम भागों में जाता है और अन्यजीवों के साथ ईर्ष्या करके उसने जो धन कमाया था वही पाथेय के रूप में उसके साथजाता है।
दैवेनासादितं तस्य शमलं निरये पुमान् ।
भुड़े कुटुम्बपोषस्य हतवित्त इवातुरः ॥
३२॥
दैवेन-- भगवान् की व्यवस्था से; आसादितम्--प्राप्त; तस्थ--उसका; शमलम्--पापपूर्ण फल, कुफल; निरये--नारकीय अवस्था में; पुमान्ू--मनुष्य; भुड़े -- भोगता है; कुटुम्ब-पोषस्थ--परिवार के पोषण का; हत-वित्त:--जिसकी सम्पत्ति लुट गई हो; इब--सहृश; आतुरः--व्याकुल |
इस प्रकार भगवान् की व्यवस्था से, परिवार का पोषणकर्ता अपने पापकर्मों कोभोगने के लिए नारकीय अवस्था में रखा जाता है मानो उसकी सारी सम्पत्ति लुट गई हो।
केवलेन हाधमेंण कुटुम्बभरणोत्सुकः ।
याति जीवोन्धतामिस्त्रं चरमं तमस: पदम् ॥
३३॥
केवलेन--केवल, निरे; हि--निश्चय ही; अधर्मेण-- अधर्म कार्यो से; कुठुम्ब--परिवार; भरण--पालने के लिए;उत्सुक:--उत्सुक; याति--जाता है; जीव:--व्यक्ति; अन्ध-तामिस्त्रमू--अन्धतामिस्त्र नरक को; चरमम्--परम;तमसः--अंधकार का; पदमू-क्षेत्रअतः
जो व्यक्ति केवल कुत्सित साधनों से अपने परिवार तथा कुटुम्बियों का पालनकरने के लिए लालायित रहता है, वह निश्चय ही अन्धतामिस्त्र नामक गहनतम नरक मेंजाता है।
अधस्तान्नरलोकस्य यावतीर्यातनादय: ।
क्रमशः समनुक्रम्य पुनरत्राव्रजेच्छुचि: ॥
३४॥
अधस्तात्--नीचे से; नर-लोकस्य--मनुष्य जन्म; यावती:--जितनी; यातना--दण्ड, सजाएँ; आदय: --इत्यादि;क्रमशः--नियत क्रम; समनुक्रम्य--से होकर जाने पर; पुनः--फिर; अत्र--यहाँ, इस पृथ्वी पर; आब्रजेत्ू--लौटसकता है; शुचि:-शुद्ध |
समस्त कष्टकर नारकीय परिस्थितियों से तथा मनुष्य जन्म के पूर्व पशु-जीवन केनिम्नतम रूपों को क्रमशः पार करते हुए और इस प्रकार अपने पापों को भोगते हुए, वहइस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में पुनः जन्म लेता है।
अध्याय इकतीसवाँ: जीवित संस्थाओं की गतिविधियों पर भगवान कपिला के निर्देश
3.31श्रीभगवानुवाचकर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये ।
स्त्रिया: प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रय: ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- श्रीभगवान् ने कहा; कर्मणा--कर्मफल के द्वारा; दैव-नेत्रेण-- भगवान् की अध्यक्षता में;जन्तु:--जीव; देह--शरीर; उपपत्तये--प्राप्त करने के लिए; स्त्रिया:--स्त्री के; प्रविष्ट: --प्रवेश करता है; उदरम्ू--गर्भ में; पुंसः--पुरुष के; रेत:--वीर्य का; कण--सूक्ष्म भाग; आश्रय: --रहते हुए।
भगवान् ने कहा : परमेश्वर की अध्यक्षता में तथा अपने कर्मफल के अनुसार विशेषप्रकार का शरीर धारण करने के लिए जीव आत्मा को पुरुष के वीर्यकण के रूप मेंस्त्री के गर्भ में प्रवेश करना होता है।
कलल त्वेकरात्रेण पञ्ञरात्रेण बुद्दुदम् ।
दशाहेन तु कर्कन्धू: पेश्यण्डं वा ततः परम् ॥
२॥
कललम्ू--शुक्राणु तथा रज का मिश्रण; तु--तब; एक-रात्रेण--पहली रात में; पञ्ञ-रात्रेण--पाँचवी रात तक;बुह्दुदम--बुलबुला; दश-अहेन--दस दिनों में; तु--तब; कर्कन्धू:--बेर के बराबर; पेशी--मांस का लोथड़ा;अण्डम्--अंडा; वा-- अथवा; तत:--उससे; परम्--बाद में
पहली रात में शुक्राणु तथा रज मिलते हैं और पाँचवी रात में यह मिश्रण बुलबलेका रूप धारण कर लेता है।
दसवीं रात्रि को यह बढ़कर बेर जैसा हो जाता है और उसकेबाद धीरे-धीरे यह मांस के पिण्ड या अंडे में परिवर्तित हो जाता है।
मासेन तु शिरो द्वाभ्यां बाह्इटयाद्यड्भविग्रह: ।
नखलोमास्थिचर्माणि लिड्गच्छिद्रोद्धवस्त्रिभि: ॥
३॥
मासेन--एक मास के भीतर; तु--तब; शिर: --सिर; द्वाभ्यामू-दो महीने में; बाहु--हाथ; अड्ध्रि--पैर; आदि--इत्यादि; अड्र--शरीर के अवयव; विग्रह:--स्वरूप; नख--नाखून; लोम--रोएँ; अस्थि--हड्डियाँ; चर्माणि--तथाचमड़ी; लिड्र--शिश्न; छिद्र--छेद; उद्धव:--प्राकट्य; त्रिभि:--तीन मास में |
एक महीने के भीतर सिर बन जाता है और दो महीने के अन्त में हाथ, पाँव तथाअन्य अंग आकार पाते हैं।
तीसरे मास के अन्त तक नाखून, अँगुलियाँ, अँगूठे, रोएँ,हड्डियाँ तथा चमड़ी प्रकट हो आती हैं और इसी तरह जननेन्द्रिय तथा आँखें, नथुने,कान, मुँह तथा गुदा जैसे छिद्र भी प्रकट होते हैं।
चतुर्भिर्धातव: सप्त पञ्जभि: क्षुत्तुडुद्धवः ।
षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति दक्षिणे ॥
४॥
चतुर्भिः--चार महीने के भीतर; धातव:--अवयव; सप्त--सात; पञ्ञभि: -- पाँच महीने के भीतर; क्षुत्-तृट्ू-- भूखतथा प्यास के; उद्धव: --प्राकट्य; षड़्भिः--छह मास के भीतर; जरायुणा--झिल्ली से; वीत:--घिर कर; कुक्षौ--उदर में; भ्राम्यति--चलता है; दक्षिणे--दाहिनी ओर
गर्भधारण के चार महीने के भीतर शरीर के सात मुख्य अवयव उत्पन्न हो जाते हैं।
इनके नाम हैं--रस, रक्त, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा तथा वीर्य।
पाँच महीने में भूख तथाप्यास लगने लगती है और छह मास के अन्त तक झिल्ली जरायु के भीतर बन्द गर्भ भ्रूण उदर के दाहिनी भाग में चलने लगता है।
मातुर्जग्धान्नपानाथैरेधद्धातुरसम्मते ।
शेते विप्मूत्रयोर्गते स जन्तुर्जन्तुसम्भवे ॥
५॥
मातुः--माता का; जग्ध--ग्रहण किया गया; अन्न-पान-- भोजन तथा पेय पदार्थ, खाना-पीना; आद्यि:--इत्यादि से;एधत्--बढ़ते हुए; धातु:ः--शरीर के अवयव; असम्मते--गर्हित, घृणित; शेते--रहा आता है; विट्-मूत्रयो:--मल-मूत्र के; गर्ते-गड्डे में; सः--वह; जन्तु:-- भ्रूण; जन्तु-- कीड़ों के; सम्भवे--पोषण-स्थल में
माता द्वारा ग्रहण किये गये भोजन तथा जल से पोषण प्राप्त करके भ्रूण बढ़ता है और मल-मूत्र के घृणित स्थान में, जो सभी प्रकार के कीटाणुओं के उपजने का स्थानहै, रहा आता है।
कृमिभिः क्षतसर्वाड्र: सौकुमार्यात्प्रतिक्षणम् ।
मूर्च्छामाणोत्युरुक्लेशस्तत्रत्यै: श्षुधितैर्मुहु: ॥
६॥
कृमिभिः-कौड़ों द्वारा; क्षत--काटे जाने पर; सर्व-अड्डभ:--पूंरे शरीर में; सौकुमार्यात्--सुकुमार होने के कारण;प्रति-क्षणम्ू-- क्षण-क्षण; मूर्च्छाम्-- अचेत अवस्था को; आप्नोति--प्राप्त करता है; उरु-क्लेश:--महान् कष्ट;तत्रत्यै:--वहाँ उदर में रहकर; क्षुधितैः-- भूख से; मुहुः--पुनः पुनः |
उदर में भूखे कीड़ों द्वारा शरीर भर में बारम्बार काटे जाने पर शिशु को अपनी सुकुमारता के कारण अत्यधिक पीड़ा होती है।
इस भयावह स्थिति के कारण वह क्षण-क्षण अचेत होता रहता है।
कटुतीक्ष्णोष्णलवणरूक्षाम्लादिभिरुल्बणै: ।
मातृभुक्तैरुपस्पृष्ट: सर्वाड्रोत्थितवेदन: ॥
७॥
'कटु--कड़वा; तीक्षण--तीता; उष्ण--गरम; लवण--नमकीन; रूक्ष--सूखा; अम्ल--खट्ठा; आदिभि: --इत्यादि से;उल्बणै: -- अत्यधिक; मातृ-भुक्तै: --माता द्वारा खाये गये भोजन से; उपस्पृष्ट: -- प्रभावित; सर्व-अड्ग--सारे शरीर में;उत्थित--उत्पन्न हुआ; वेदन:--दर्द, पीड़ा
माता के खाये कड़वे, तीखे, अत्यधिक नमकीन या खट्टे भोजन के कारण शिशु केशरीर में निरन्तर पीड़ा रहती है, जो प्रायः असह्य होती है।
उल्बेन संवृतस्तस्मिन्नन्त्रै श्र बहिरावृतः ।
आस्ते कृत्वा शिरः कुक्षौ भुग्नपृष्ठशिरोधर: ॥
८॥
उल्बेन--झिल्ली से; संवृत:--लिपटा हुआ; तस्मिनू--उस स्थान पर; अन्त्रै:--आँतों से; च--तथा; बहिः--बाहर;आवृतः--घिरा हुआ, ढका; आस्ते--लेटा रहता है; कृत्वा--रखा जाकर; शिरः:--सिर; कुक्षौ--पेट की ओर;भुग्न--झुका हुआ; पृष्ठ--पीठ; शिर:-धर:--गर्दन |
झिल्ली से लिपटा और बाहर से आँतों द्वारा ढका घिरा हुआ शिशु उदर में एकओर पड़ा रहता है।
उसका सिर उसके पेट की ओर मुड़ा हुआ रहता है और उसकी कमरतथा गर्दन धनुषाकार में मुड़े रहते हैं।
अकल्प: स्वाड्रचेष्टायां शकुन्त इव पञ्जरेतत्र लब्धस्मृतिर्देवात्कर्म जन्मशतोद्धवम् ।
स्मरन्दीर्घमनुच्छासं शर्म कि नाम विन्दते ॥
९॥
अकल्प:--अशक्त; स्व-अड्गड--अपने अंग; चेष्टायामू--हिलाने-डुलाने के लिए; शकुन्तः--पक्षी; इब--सहश;पञ्ञरे--पिंजड़े में; तत्र--वहाँ; लब्ध-स्मृति:--स्मृति को प्राप्त करके; दैवात्-- भाग्यवश; कर्म--कर्म; जन्म-शत-उद्धवम्-पिछले सौ जन्मों में घटित होने वाले; स्मरन्ू--याद करके; दीर्घम्--दीर्घकाल तक; अनुच्छासम्-- आहेंभरना; शर्म--मन को शान्ति; किमू--क्या; नाम--तब; विन्दते--प्राप्त कर सकता है |
इस तरह शिशु पिंजड़े के पक्षी के समान बिना हिले-डुले रह रहा होता है।
उससमय, यदि शिशु भाग्यवान हुआ, तो उसे विगत सौ जन्मों के कष्ट स्मरण हो आते हैं औरवह दुख से आहें भरता है।
भला ऐसी दशा में मन:शान्ति कैसे सम्भव है ?
आरशभ्य सप्तमान्मासाल्लब्धबोधोपि वेपित: ।
नैकत्रास्ते सूतिवातैर्विष्ठाभूरिव सोदर: ॥
१०॥
आरशभ्य--प्रारम्भ होने पर; सप्तमात् मासात्ू--सातवें महीने से; लब्ध-बोध: --चेतना प्राप्त; अपि--यद्यपि; वेपित:--हिलता डुलता; न--नहीं; एकत्र--एक स्थान पर; आस्ते--रहा आता है; सूति-वातैः--शिशु जन्म के लिए हवाओं प्रसूति वायु द्वारा; विष्ठा- भूः--क्री ड़ा; इब--सहृश; स-उदरः --उसी गर्भ से उत्पन्न ॥
इस प्रकार गर्भाधान के पश्चात् सातवें मास से चेतना विकसित होने पर यह शिशु उनहवाओं के द्वारा चलायमान रहता है, जो भ्रूण को प्रसव के कुछ सप्ताह पूर्व से दबातीरहती हैं।
वह उसी पेट की गन्दगी से उत्पन्न कीड़ों के समान एक स्थान में नहीं रहसकता।
नाथमान ऋषिर्भीत: सप्तवश्चि: कृताझ्जञलि: ।
स्तुवीत तं विक्लवया वाचा येनोदरेडर्पित: ॥
११॥
नाथमान:--याचना करता हुआ; ऋषि:--जीव; भीत:--डरा हुआ; सप्त-वश्चि:--सात आवरणों से बँधा; कृत-अज्जलि:--हाथ जोड़े; स्तुवीत--प्रार्थना करता है; तमू-- भगवान् को; विक्लवया--विकल होकर; वाचा--शब्दोंसे; येन--जिसके द्वारा; उदरे-गर्भ में; अर्पित:--स्थापित किया गया था।
इस भयभीत अवस्था में, भौतिक अवयवों के सात आवरणों से बँधा हुआ जीव हाथजोड़कर भगवान् से याचना करता है जिन्होंने उसे इस स्थिति में ला रखा है।
जन्तुरुवाचतस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्त-नानातनोर्भुवि चलच्चरणारविन्दम् ।
सोऊहं ब्रजामि शरणं हाकुतोभयं मेयेनेहशी गतिरदर्श्यसतो नुरूपा ॥
१२॥
जन्तु: उवाच--जीव कहता है; तस्य-- भगवान् का; उपसन्नम्--रक्षा के लिए पास आने पर; अवितुम्ू--रक्षा के लिए;जगत्--ब्रह्माण्ड; इच्छया--स्वेच्छा से; आत्त-नाना-तनो:--जो विभिन्न स्वरूपों को स्वीकार करता है; भुवि--पृथ्वीपर; चलत्--चलते हुए; चरण-अरविन्दमू--चरणकमल; सः अहमू--मैं स्वयं; ब्रजामि--जाता हूँ; शरणम्--शरणमें; हि--निस्सन्देह; अकुतः-भयम्--निर्भय बनाने; मे--मुझको; येन--जिससे; ईहशी--ऐसी; गति: -- जीवन दशा;अदर्शि--मानी जाती थी; असतः--अपवित्र; अनुरूपा--उपयुक्त |
जीव कहता है : मैं उन भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ जो अपनेविभिन्न नित्य स्वरूपों में प्रकट होते हैं और इस भूतल पर घूमते रहते हैं।
मैं उन्हीं कीशरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि वे ही मुझे निर्भय कर सकते हैं और उन्हीं से मुझे यहजीवन-अवस्था प्राप्त हुई है, जो मेरे अपवित्र कार्यों के सर्वथा अनुरूप है।
यस्त्वत्र बद्ध इव कर्मभिरावृतात्माभूतेन्द्रियशयमयीमवलम्ब्य मायाम् ।
आस्ते विशुद्धमविकारमखण्डबोध-मातप्यमानहृदयेवसितं नमामि ॥
१३॥
यः--जो; तु-- भी; अन्र--यहाँ; बद्ध:--बँधा हुआ; इब--मानो; कर्मभि: --कार्यों से; आवृत--आच्छादित;आत्मा--शुद्ध आत्मा; भूत--स्थूल तत्त्व; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आशय--मन; मयीम्--से युक्त; अवलम्ब्य--गिरकर;मायाम्--माया में; आस्ते--रहता है; विशुद्धम्--पूर्णतया शुद्ध; अविकारम्--परिवर्तन-रहित; अखण्ड-बोधम्--अनन्त ज्ञान से युक्त; आतप्यमान--संतप्त; हृदये--हृदय में; अवसितम्--रहते हुए; नमामि--नमस्कार करता हूँ।
मैं विशुद्ध आत्मा अपने कर्म के द्वारा बँधा हुआ, माया की व्यवस्थावश इस समयअपनी माता के गर्भ में पड़ा हुआ हूँ।
मैं उन भगवान् को नमस्कार करता हूँ जो यहाँ मेरेसाथ हैं, किन्तु जो अप्रभावित हैं और अपरिवर्तनशील हैं।
वे असीम हैं, किन्तु संतप्तहृदय में देखे जाते हैं।
मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
यः पञ्जञभूतरचिते रहितः शरीरेच्छन्नो उयथेन्द्रियगुणार्थचिदात्मकोहम् ।
तेनाविकुण्ठमहिमानमृषिं तमेनंबन्दे परं प्रकृतिपूरुषयो: पुमांसम् ॥
१४॥
यः--जो; पश्च-भूत--पाँच स्थूल तत्त्व से; रचिते--निर्मित; रहित:--पृथक्; शरीरे-- भौतिक शरीर में; छल्नः--आवृत; अयथा--अनुपयुक्त; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; गुण--गुण; अर्थ--विषय; चित्--गर्ब; आत्मक:--से युक्त;अहमू--ैं; तेन--शरीर द्वारा; अविकुण्ठ-महिमानम्ू--जिसकी महिमा प्रकट है; ऋषिम्--सर्वज्ञ; तमू--उस; एनमू--उसको; वन्दे--नमस्कार करता हूँ; परम्--दिव्य; प्रकृति--प्रकृति को; पूरुषयो: --जीव को; पुमांसम्-- भगवान्को।
मैं अपने इस पंचभूतों से निर्मित भौतिक शरीर में होने के कारण परमेश्वर से विलगहो गया हूँ, फलत:ः मेरे गुणों तथा इन्द्रियों का दुरुपयोग हो रहा है, यद्यपि मैं मूलतःआध्यात्मिक हूँ।
चूँकि ऐसे भौतिक शरीर से रहित होने के कारण भगवान् प्रकृति तथाजीव से परे हैं और चूँकि उनके आध्यात्मिक गुण महिमामय हैं, अतः मैं उन्हें नमस्कारकरता हूँ।
यन्माययोरुगुणकर्मनिबन्धनेस्मिन्सांसारिके पथि चरंस्तदभिश्रमेण ।
नष्टस्मृति: पुनरयं प्रवृणीत लोक॑युकत्या कया महदनुग्रहमन्तरेण ॥
१५॥
यत्--भगवान् की; मायया--माया से; उरु-गुण--महान् गुणों से निकलने वाला; कर्म--कर्म; निबन्धने--बन्धों से;अस्मिन्ू--इस; सांसारिके--बारम्बार जन्म तथा मृत्यु के; पथि--रास्ते पर; चरन्--चलते हुए; तत्--उसका;अभिश्रमेण --अत्यधिक कष्ट के साथ; नष्ट-- भ्रष्ट; स्मृति: --स्मरण शक्ति; पुनः--फिर; अयम्--यह जीव;प्रवृणीत--अनुभव कर सकता है; लोकम्--अपनी असली प्रकृति; युक्त्या कया--जिस किसी साधन से; महत्-अनुग्रहम्-- भगवान् की कृपा; अन्तरेण--बिना |
जीव आगे प्रार्थना करता है : जीवात्मा प्रकृति के वशीभूत रहता है और जन्म तथामरण का चक्र बनाये रखने के लिए कठिन श्रम करता रहता है।
यह बद्ध जीवन भगवान्के साथ अपने सम्बन्ध की विस्मृति के कारण है।
अतः बिना भगवान् की कृपा के कोईभगवान् की दिव्य प्रेमा-भक्ति में पुन: किस प्रकार संलग्न हो सकता है ?
ज्ञानं यदेतददधात्कतमः स देव-स्त्रैकालिकं स्थिरचरेष्वनुवर्तितांश: ।
त॑ जीवकर्मपदवीमनुवर्तमाना-स्तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ॥
१६॥
ज्ञानमू--ज्ञान; यत्ू--जो; एतत्--यह; अदधात्--दिया; कतम:--के अतिरिक्त दूसरा; सः--वह; देवः--भगवान्;त्रै-कालिकम्--तीनों कालों का; स्थिर-चरेषु--जड़ तथा जंगम में; अनुवर्तित--रहते हुए; अंश:--उनका आंशिकस्वरूप; तमू--उसको; जीव--जीवात्माओं का; कर्म-पदवीम्--सकाम कर्मो का मार्ग; अनुवर्तमाना: --पालन करनेवाले; ताप-त्रय--तीन प्रकार के कष्ट; उपशमनाय--मुक्त होने के लिए; वयम्--हम; भजेम--शरण में जाएँ ।
भगवान् के आंशिक स्वरूप अनन््तर्यामी परमात्मा के अतिरिक्त और कौन समस्त चरतथा अचर वस्तुओं का निर्देशन कर रहा है? वे काल की इन तीनों अवस्थाओं भूत,वर्तमान तथा भविष्य में उपस्थित रहते हैं।
अतः बद्धजीव उनके ही आदेश से विभिन्नकर्मो में रत है और इस बद्ध जीवन के तीनों तापों से मुक्त होने के लिए हमें उनकी हीशरण ग्रहण करनी होगी।
देहान्यदेहविवरे जठराग्निनासूगू-विण्मूत्रकृपपतितो भूशतप्तदेह: ।
इच्छन्नितो विवसितुं गणयन्स्वमासान्निर्वास्यते कृपणधीर्भगवन्कदा नु ॥
१७॥
देही--देहधारी जीव; अन्य-देह--दूसरे शरीर के; विवरे--उदर में; जठर--पेट की; अग्निना--अग्नि से; असृक्--रक्त; विटू--मल; मूत्र--तथा मूत्र के; कूप--कुएँ में; पतित:--गिरा हुआ; भूश--प्रबल रूप से; तप्त--जला हुआ;देह:--उसका शरीर; इच्छन्--चाहते हुए; इत:--इस स्थान से; विवसितुम्--बाहर निकलने के लिए; गणयन्--गिनते हुए; स्वमासान्--अपने महीने; निर्वास्थते--मुक्त किया जावेगा; कृपण-धी: --कृपण बुद्धि का व्यक्ति;भगवनू--हे भगवान्; कदा--कब; नु--निस्सन्देह |
अपनी माता के उदर में रक्त, मल तथा मूत्र के कूप में गिर कर और अपनी माँ कीजठराग्नि से दग्ध देहधारी जीव बाहर निकलने की व्यग्रता में महीनों की गिनती करतारहता है और प्रार्थना करता है, ‘हे भगवान्, यह अभागा जीव कब इस कारागार से मुक्तहो पाएगा ? !" येनेहशी गतिमसौ दशमास्य ईशसड्ग्राहितः पुरुदयेन भवाहशेन ।
स्वेनैव तुष्यतु कृतेन स दीननाथःको नाम तत्प्रति विनाञ्जलिमस्य कुर्यात् ॥
१८॥
येन--जिसके द्वारा भगवान् के द्वारा ; ईहशीम्--ऐसी; गतिम्--स्थिति; असौ--वह व्यक्ति मैं ; दश-मास्य:--दस मास का; ईश-हे प्रभु; सड्ग्राहित:--स्वीकार कराया जाता है; पुरु-दयेन--अत्यन्त दयालु; भवाहशेन--अतुलनीय; स्वेन--अपना; एव--अकेला; तुष्यतु--वे प्रसन्न हों; कृतेन--अपने कर्म से; सः--वह; दीन-नाथ: --पतितों के आश्रय; कः--कौन; नाम--निस्सन्देह; तत्--वह दया; प्रति--बदले में; विना--अतिरिक्त; अज्ललिमू--हाथ जोड़कर; अस्य-- भगवान् के; कुर्यात्ू--कर सकता है।
हे भगवान्, आपकी अहैतुकी कृपा से मुझमें चेतना आईं, यद्यपि मैं अभी केवल दसमास का हूँ।
पतितात्माओं के मित्र भगवान् की इस अहैतुकी कृपा के लिए कृतज्ञताप्रकट करने के हेतु मेरे पास हाथ जोड़कर प्रार्थना करने के अतिरिक्त है ही कया ?
कुछ सम्भव है।
पश्यत्ययं धिषणया ननु सप्तव्नि:शारीरके दमशरीर्यपरः स्वदेहे ।
यत्सृष्टयासं तमहं पुरुष पुराणंपश्ये बहिईदि च चैत्यमिव प्रतीतम् ॥
१९॥
'पश्यति--देखता है; अयम्--यह जीव; धिषणया--बुद्धि से; ननु--केवल; सप्त-वश्चिः--सात आवरणों से घिरा;शारीरके --ग्राह्म तथा अग्राह्म अनुभव; दम-शरीरी --आत्म-निग्रह के लिए शरीर धारण करने वाला; अपर: --दूसरा;स्व-देहे--अपने शरीरमें; यत्--पर मे श्वर द्वारा; सृष्टया--प्रदत्त; आसम्-- था; तम्--उस; अहम्--मैं; पुरुषम्--पुरुषको; पुराणम्--प्राचीनतम्; पश्ये--देखता हूँ; बहिः--बाहर; हृदि--हृदय में; च--तथा; चैत्यम्-- अहंकार का स्त्रोत;इब--निस्सन्देह; प्रतीतम्ू--मान्य ।
अन्य प्रकार का शरीरधारी जीव केवल अन््तःप्रेरणा से देखता है, वह उस शरीर केग्राह्म तथा अग्राह्म अनुभवों से ही परिचित होता है, किन्तु मुझे ऐसा शरीर प्राप्त है, जिसमेंमैं अपनी इन्द्रियों को वश में रखता हूँ और अपने गन्तव्य को समझता हूँ, अतः मैं उनभगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके आशीर्वाद से मुझे यह शरीर प्राप्त हुआ हैऔर जिनकी कृपा से मैं उन्हें भीतर और बाहर देख सकता हूँ।
सोहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासंगर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे ।
यत्रोपयातमुपसर्पति देवमायामिथ्या मतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतत् ॥
२०॥
सः अहम्--मैं स्वयं; वसन्--रहते हुए; अपि--यद्यपि; विभो--हे प्रभु; बहु-दुःख--अनेक दुखों से; वासम्--अवस्था में; गर्भातू--उदर से; न--नहीं; निर्जिगमिषे--जाना चाहता हूँ; बहिः--बाहर; अन्ध-कूपे--अंधे कुएँ में;यत्र--जहाँ; उपयातम्--जाने वाले को; उपसर्पति--पकड़ लेती है; देव-माया-- भगवान् की बहिरंगा शक्ति;मिथ्या--झूठी; मतिः--पहचान; यत्--जो माया; अनु--के अनुसार; संसृति--जन्म-मृत्यु का; चक्रमू--चक्र;एतत्--यह अतः
हे प्रभु, यद्यपि मैं अत्यन्त भयावह परिस्थिति में रह रहा हूँ, किन्तु मैं अपनी माँके गर्भ से बाहर आकर भौतिक जीवन के अन्धकृूप में गिरना नहीं चाहता।
देवमायानामक आपकी बहिरंगा शक्ति तुरन्त नवजात शिशु को पकड़ लेती है और उसके बादतुरन्त ही झूठा स्वरूपज्ञान प्रारम्भ हो जाता है, जो निरन्तर जन्म तथा मृत्यु के चक्र काशुभारम्भ है।
तस्मादहं विगतविक्लव उद्धरिष्यआत्मानमाशु तमस: सुहदात्मनैव ।
भूयो यथा व्यसनमेतदनेकरन्श्॑मा में भविष्यदुपसादितविष्णुपाद: ॥
२१॥
तस्मातू--अतः; अहम्ू--मैं; विगत--छोड़कर, रहित; विक्लव: --क्षोभ, व्याकुलता; उद्धरिष्ये--उद्धार करूँगा;आत्मानम्--अपना; आशु--शीघ्र; तमस: --अंधकार से; सुहदा आत्मना--मित्र रूपी बुद्धि से; एब--निस्सन्देह;भूय:ः--पुन:; यथा--जिससे; व्यसनम्--दयनीय स्थिति; एतत्--यह; अनेक-रन्ध्रमू--अनेक गर्भों में प्रविष्ट होना;मा--नहीं; मे--मेरा; भविष्यत्--होगा; उपसादित-- मन में रखा हुआ; विष्णु-पाद:-- भगवान् विष्णु केचरणकमल।
अतः और अधिक क्षुब्ध न होकर मैं अपने मित्र विशुद्ध चेतना की सहायता सेअज्ञान के अन्धकार से अपना उद्धार करूँगा।
केवल भगवान् विष्णु के चरणकमलों कोअपने मन में धारण करके मैं बारम्बार जन्म तथा मृत्यु के लिए अनेक माताओं के गर्भो मेंप्रविष्ट करने से बच सकूँगा।
कपिल उवाचएवं कृतमतिर्गर्भ दशमास्य: स्तुवन्नृषि: ।
सद्यः क्षिपत्यवाचीन प्रसूत्य सूतिमारुतः ॥
२२॥
कपिल: उवाच-- भगवान् कपिल ने कहा; एवम्--इस प्रकार; कृत-मति:--इच्छा करते हुए; गर्भ--गर्भ में; दश-मास्य:--दस मास का; स्तुवन्--स्तुति करता हुआ; ऋषि:--जीव; सद्यः--उसी समय; क्षिपति--बाहर फेंकती है;अवाचीनम्--औंधा, अधोमुख,; प्रसूत्य--जन्म के लिए; सूति-मारुत:--प्रसव काल की वायु।
भगवान् कपिल ने कहा : अभी तक गर्भ में स्थित इस दस मास के जीव की भीऐसी कामनाएँ होती हैं।
किन्तु जब वह भगवान् की स्तुति करता रहता है तभी प्रसूतिकाल की वायु औंधे मुँह पड़े हुए उस शिशु को बाहर की ओर धकेलती है, जिससे वहजन्म ले सके।
तेनावसृष्ठ: सहसा कृत्वावाक्शिर आतुरः ।
विनिष्क्रामति कृच्छेण निरुच्छासो हतस्मृतिः ॥
२३॥
तेन--उस वायु से; अवसृष्ट:--बाहर की ओर धकेला जाकर; सहसा--अकस्मात्; कृत्वा--करके; अवाक्--ऑऔंधा;शिरः--शिर; आतुरः--कष्ट पाता हुआ; विनिष्क्रामति--बाहर आता है; कृच्छेण--कठिनाई से; निरुच्छास: --श्रासरहित; हत--विनष्ट; स्मृतिः--स्मृति ।
वायु द्वारा सहसा नीचे की ओर धकेला जाकर अत्यन्त कठिनाई से, सिर के बल,श्वासरहित तथा तीब्र वेदना के कारण स्मृति से विहीन होकर शिशु बाहर आता है।
पतितो भुव्यसूड्मिश्र: विष्ठाभूरिव चेष्टते ।
रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गति गत: ॥
२४॥
'पतित:--गिरा हुआ; भुवि--पृथ्वी पर; असृक्ू--रक्त से; मिश्र: --सना हुआ; विष्ठा-भू:--कीड़ा; इब--सहश;चेष्टते--छटपटाता है; रोरूयति--जोर से चिल्लाता है; गते--नष्ट होने पर; ज्ञाने--अपनी चतुराई; विपरीताम्--विपरीत; गतिमू-- अवस्था को; गतः--गया हुआ।
इस प्रकार वह शिशु मल तथा रक्त से सना हुआ पृथ्वी पर आ गिरता है और मल सेउत्पन्न कीड़े के समान छटपटाता है।
उसका श्रेष्ठ ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह माया केमोहजाल में विलखता है।
परच्छन्दं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन सः ।
अनभिप्रेतमापतन्नः प्रत्याख्यातुमनी श्र: ॥
२५॥
पर-छन्दम्ू--पराई इच्छा; न--नहीं; विदुषा--समझ करके; पुष्यममाण:--पालित होकर; जनेन--व्यक्तियों द्वारा;सः--वह; अनभिप्रेतम्-- अवांछित परिस्थितियों में; आपन्न:--गिरा हुआ; प्रत्याख्यातुमू--इनकार करने के लिए;अनी श्वर:--असमर्थ |
उदर से निकलने के बाद शिशु ऐसे लोगों की देख-रेख में आ जाता है और उसकापालन ऐसे लोगों द्वारा होता रहता है, जो यह नहीं समझ पाते कि वह चाहता क्या है।
उसेजो कुछ मिलता है उसे वह इनकार न कर सकने के कारण वह अवांछित परिस्थिति में आ पढ़ता है।
शायितोशुचिपर्यड्डे जन्तु: स्वेदजदूषिते ।
नेश: कण्डूयनेझनामासनोत्थानचेष्टने ॥
२६॥
शायितः--लिटाया गया; अशुचि-पर्यड्जे--मैले कुचैले बिस्तर पर; जन्तु:--शिशु; स्वेद-ज--पसीने से उत्पन्न प्राणियोंसे; दूषिते--पूर्ण; न ईशः--असमर्थ; कण्डूयने--खुजलाते हुए; अड्भानाम्ू--अपने अंगों का; आसन--बैठे हुए;उत्थान--खड़े हुए; चेष्टने--या चलते हुए
पसीने तथा कीड़ों से भरे हुए मैले-कुचैले बिस्तर पर लिटाया हुआ शिशु खुजलाहटसे मुक्ति पाने के लिए अपना शरीर खुजला भी नहीं पाता; बैठने, खड़े होने या चलने कीबात तो दूर रही।
तुदन्त्यामत्वचं दंशा मशका मत्कुणादयः ।
रुदन्तं विगतज्ञानं कृमयः कृमिकं यथा ॥
२७॥
तुदन्ति--काटते हैं; आम-त्वचम्--मुलायम चमड़ी वाले बालक को; दंशा:--डाँस बड़ा मच्छर ; मशकाः:--मच्छर; मत्कुण--खटमल; आदय:--इत्यादि अन्य प्राणी; रुदन््तम्--रोते हुए; विगत--विनष्ट; ज्ञामम्ू--ज्ञान;कृमयः--कीड़े; कृमिकम्--कीड़े को; यथा--जिस तरह |
इस असहाय अवस्था में मुलायम त्वचा वाले बालक को डाँस, मच्छर, खटमल तथाअन्य कीड़े काटते रहते हैं, जिस तरह बड़े कीड़े को छोटे-छोटे कीड़े काटते रहते हैं।
बालक अपना सारा ज्ञान गँवा कर जोर-जोर से चिल्लाता है।
इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दुःखं पौगण्डमेव च ।
अलब्धाभीप्सितोउज्ञानादिद्धमन्यु: शुचार्पित: ॥
२८ ॥
इति एवम्--इस प्रकार से; शैशवम्--बाल्यकाल को; भुक््त्वा--बिताकर; दुःखम्--दुख को; पौगण्डम्--किशोरावस्था को; एव--ही; च--तथा; अलब्ध-- अप्राप्त; अभीष्सित:--जिसकी इच्छाएँ; अज्ञानातू--अज्ञानवश;इद्ध--प्रज्वलित; मन्यु:--क्रोध; शुचचा--शोक से; अर्पित:--अभिभूत, संतप्त।
इस प्रकार विविध प्रकार के कष्ट भोगता हुआ शिशु अपना बाल्यकाल बिता करकिशोरवस्था प्राप्त करता है।
किशोरावस्था में भी वह अप्राप्य वस्तुओं की इच्छा करताहै, किन्तु उनके न प्राप्त होने पर उसे पीड़ा होती है।
इस प्रकार अज्ञान के कारण वहक्रुद्ध तथा दुखित होता है।
सह देहेन मानेन वर्धमानेन मन्युना ।
करोति विग्रह कामी कामिष्वन्ताय चात्मनः ॥
२९॥
सह--साथ; देहेन--शरीर के; मानेन--झूठी प्रतिष्ठा से; वर्धभानेन--बढ़ने से; मन्युना--क्रो ध से; करोति--उत्पन्नकरता है; विग्रहम्--शत्रुता, बैर; कामी--विषयी पुरुष; कामिषु--दूसरे विषयी पुरुष के प्रति; अन्ताय--विनाश केलिए; च--तथा; आत्मन:--अपने आत्मा का।
शरीर बढ़ने के साथ ही जीव अपने आत्मा को परास्त करने के लिए अपनी झुठीप्रतिष्ठा को तथा क्रोध को बढ़ाता है और इस तरह अपने ही जैसे कामी पुरुषों के साथबैर उत्पन्न करता है।
श़" भूतेः पञ्नभिरारब्धे देहे देहाबुधोसकृत् ।
अहं ममेत्यसदग्राह: करोति कुमतिर्मतिम्ू ॥
३०॥
भूतैः-- भौतिक तत्त्वों के द्वारा; पञ्ञभि:--पाँच; आरब्धे--निर्मित; देहे-- शरीर में; देही--जीव; अबुध:--अज्ञानी;असकृत्--निरन्तर; अहम्--मैं; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; असत्--अस्थायी वस्तुएँ; ग्राहः--स्वीकार करते हुए;'करोति--करता है; कु-मतिः--मूर्ख होने के कारण; मतिमू--विचार |
ऐसे अज्ञान से जीव पंचतत्त्वों से निर्मित भौतिक शरीर को 'स्व' मान लेता है।
इसभ्रम के कारण वह क्षणिक वस्तुओं को निजी समझता है और अन्धकारमय क्षेत्र मेंअपना अज्ञान बढ़ाता है।
तदर्थ कुरुते कर्म यद्वद्धो याति संसृतिम् ।
योउनुयाति ददत्क्लेशमविद्याकर्मबन्धन: ॥
३१॥
तत्-अर्थम्--शरीर के लिए; कुरुते--करता है; कर्म--कर्म; यत्-बद्धः--जिससे बँधकर; याति--जाता है;संसृतिम्--जन्म तथा मृत्यु के चक्र को; यः--जो शरीर; अनुयाति-- अनुसरण करता है; ददत्--देते हुए; क्लेशम्--क्लेश; अविद्या--अज्ञान से; कर्म--सकाम कर्म से; बन्धन:--बन्धन का कारण
जो शरीर जीव के लिए निरन्तर कष्ट का साधन है और जो अज्ञान तथा कर्म केबन्धन से बँधे जीव का अनुगमन करता है, उस शरीर के लिए जीव अनेक प्रकार केकार्य करने पड़ते हैं जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्र के अधीन हो जाता है।
यद्यसद्धिः पथि पुनः शिश्नोदरकृतोद्यमै: ।
आस्थितो रमते जन्तुस्तमो विशति पूर्ववत् ॥
३२॥
यदि--यदि; असद्धि:ः--बुरों के साथ; पथि--मार्ग पर; पुनः--फिर से; शिश्न--लिंग के लिए; उदर--पेट के लिए;'कृत--किया गया; उद्यमै:ः--जिसके प्रयास; आस्थित:ः--संगति करते हुए; रमते-- भोग करता है; जन्तु:ः--जीव;तम:ः--अन्धकार; विशति-- प्रवेश करता है; पूर्व-वत्--पहले की तरह
अतः यदि जीव विषय-भोग में लगे हुए ऐसे कामी पुरुषों से प्रभावित होकर, जोस्त्रीसंग-सुख व स्वाद की तुष्टि में ही रत हैं, असत् मार्ग का अनुसरण करता है, तो वहपहले की तरह पुनः नरक को जाता है।
सत्यं शौचं दया मौन बुद्धि: श्रीहीर्यशः क्षमा ।
शमो दमो भगश्चेति यत्सड्राद्याति सड्क्षयम् ॥
३३॥
सत्यम्--सत्य; शौचम्--स्वच्छता; दया--दया; मौनम्--गम्भीरता; बुद्ध्धि:--बुद्धि; श्री:--सम्पन्नता; ही:--लज्जा;यशः--ख्याति; क्षमा-- क्षमा; शम:ः--मन का निग्रह; दम:--इन्द्रियों का निग्रह; भग: --सम्पत्ति; च--तथा; इति--इस प्रकार; यत्-सड्ात्--जिसकी संगति से; याति सड्क्षयम्--विनष्ट हो जाते हैं
वह सत्य, शौच, दया, गम्भीरता, आध्यात्मिक बुदर्द्धि, लजञा, संयम, यश, क्षमा,मन-निग्रह, इन्द्रिय-निग्रह, सौभाग्य और ऐसे ही अन्य सुअवसरों से विहीन हो जाता है।
तेष्वशान्तेषु मूढेषु खण्डितात्मस्वसाधुषु ।
सड़ूं न कुर्याच्छोच्येषु योषित्क्रीडामृगेषु च ॥
३४॥
तेषु--उन; अशान्तेषु --अभद्र; मूढेषु--मूर्खो की; खण्डित-आत्मसु--आत्म-साक्षात्कार से रहित; असाधुषु--दुष्टोंकी; सड्रम्-संगति; न--नहीं; कुर्यातू-करे; शोच्येषु--शोचनीय; योषित्--स्त्रियों का; क्रीडा-मृगेषु--नाचनेवाला कुत्ता; च--तथा
मनुष्य को चाहिए कि ऐसे अभद्र अशान्त मूर्ख की संगति न करे जो आत्म-साक्षात्कार के ज्ञान से रहित हो और स्त्री के हाथों का नाचने वाला कुत्ता बन कर रहगया हो।
न तथास्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्यप्रसड्भरतः ।
योषित्सझद्यथा पुंसो यथा तत्सड्रिसड्गरतः ॥
३५॥
न--नहीं; तथा--उस तरह से; अस्य--इस मनुष्य का; भवेत्--हो सके; मोह: --मुग्धता, प्रेमान्धता; बन्ध: --बन्धन;च--तथा; अन्य-प्रसड्गतः--अन्य किसी वस्तु के प्रति आसक्ति से; योषित्-सड्जात्--स्त्रियों के प्रति आसक्ति से;यथा--जिस तरह; पुंसः--मनुष्य का; यथा--जिस तरह; तत्-सड्लि--स्त्रियों के इच्छुक पुरुषों के; सड़त:--साथसे
अन्य किसी वस्तु के प्रति आसक्ति से उत्पन्न मुग्धता तथा बन्धन उतने पूर्ण नहीं होतेजितने कि किसी स्त्री के प्रति आसक्ति से या उन व्यक्तियों के साथ से जो स्त्रियों के'कामी रहते हैं।
प्रजापति: स्वां दुहितरं दृष्टा तद्रूपधर्षित: ।
रोहिद्धूतां सोउन्वधावहक्षरूपी हतत्रप: ॥
३६॥
प्रजा-पति: --ब्रह्माजी ने; स्वामू--अपनी; दुहितरम्--पुत्री को; दृष्टा--देखकर; तत्-रूप--उसके लावण्य से;धर्षित:--मोहित; रोहित्-भूताम्--मृगी के रूप में; सः--वह; अन्वधावत्--दौड़ा; ऋक्ष-रूपी --मृग के रूप में;हत--विहीन; त्रप:--लज्जा |
ब्रह्मा अपनी पुत्री को देखकर उसके रूप पर मोहित हो गये और जब उसने मृगी कारूप धारण कर लिया तो वे मृग रूप में निर्लज्ञतापूर्वक उसका पीछा करने लगे।
तत्सृष्टसृष्टसृष्टेपु को न््वखण्डितधी: पुमान् ।
ऋषिं नारायणमृते योषिन्मय्येह मायया ॥
३७॥
तत्ू--ब्रहा द्वारा; सृष्ट-सृष्ट-सूष्टेपु-- समस्त उत्पन्न जीवों में से; क:ः--कौन; नु--निस्सन्देह; अखण्डित--विपथ नहोने वाली; धी:--बुद्धि वाला; पुमान्ू--पुरुष; ऋषिम्--ऋषि; नारायणम्ू--नारायण; ऋते--के अतिरिक्त; योषितू -मय्या--स्त्री के रूप में; इह--यहाँ; मायया--माया के द्वारा।
ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न समस्त जीवों--अर्थात् मनुष्य, देवता तथा पशु में से ऋषि नारायणके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो स्त्री रूपी माया के आकर्षण के प्रति निश्चेष्ट हो।
बल॑ मे पश्य मायाया: स्त्रीमय्या जयिनो दिशाम् ।
या करोति पदाक्रान्तान्धूविजृम्भेण केवलम् ॥
३८ ॥
बलमू--शक्ति; मे--मेरा; पश्य--देखो; मायाया: --माया का; स्त्री-मय्या:--स्त्री के रूप में; जयिन:--विजेता;दिशाम्--सभी दिशाओं का; या--जो; करोति--करती है; पद-आक्रान्तान्ू--उसके पीछे-पीछे; भ्रूवि--उसकी भौंहकी; जृम्भेण--गति से; केवलम्--केवल |
तनिक स्त्री रूपी मेरी माया की अपार शक्ति को समझने का प्रयत्न तो करो, जो मात्रअपनी भौहों की गति से संसार के बड़े से बड़े विजेताओं को भी अपनी मुट्ठी में रखतीहै।
ज्नार्ग सतिश ज्प्ट टतिटास्स में गोसे यनेत्म टफ्शास्त पाप्त हैं ज्ताँ पात्म सान स़ि्तेता स्मिस्यी" सड् न कुर्यात्प्रमदासु जातुयोगस्य पारं परमारुरुक्षु: ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभोबदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥
३९॥
सड़म्--संगति; न--नहीं; कुर्यात्ू--करे; प्रमदासु--स्त्रियों की; जातु--कभी भी; योगस्थ--योग की; पारम्--पराकाष्ठा; परमू--सर्वोच्च; आरुरुक्षु:--पहुँचने की इच्छा करने वाला; मत्-सेवया--मेरी सेवा करके; प्रतिलब्ध--प्राप्त; आत्म-लाभ:--आत्म-साक्षात्कार; वदन्ति--कहते हैं; या:--जो स्त्रियाँ; निरय--नरक का; द्वारमू-द्वार;अस्य--आगे बढ़ने वाले भक्त का।
जो योग की पराकाष्ठा को प्राप्त करना चाहता हो तथा जिसने मेरी सेवा करकेआत्म-साक्षात्कार कर लिया हो उसे चाहिए कि वह कभी किसी आकर्षक स्त्री कीसंगति न करे, क्योंकि शास्त्रों में घोषणा की गई है कि प्रगतिशील के लिए ऐसी स्त्रीनरक के द्वार तुल्य है।
योपयाति शनैर्माया योषिद्देवविनिर्मिता ।
तामीक्षेतात्मनो मृत्युं तृणे: कूपमिवावृतम् ॥
४० ॥
या--जो; उपयाति--निकट आती है; शनै:ः--धीरे-धीरे; माया--माया स्वरूपा; योषित्--स्त्री; देव-- भगवान् द्वारा;विनिर्मिता--उत्पन्न; तामू--उसको; ईक्षेत--मानना चाहिए; आत्मन:ः --आत्मा की; मृत्युम्--मृत्यु; तृणैः--घास से;कूपम्--कुआँ; इब--सहश; आवृतम्--ढका हुआ।
भगवान् द्वारा उत्पन्न स्त्री माया स्वरूपा है और जो ऐसी माया की सेवाएँ स्वीकारकरके उसकी संगति करता है उसे यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि यह घास सेढके हुए अंधे कुएँ के समान उसकी मृत्यु का मार्ग है।
यां मन्यते पतिं मोहान्मन्मायामृषभायतीम् ।
स्त्रीत्वं स्त्रीसड्रतः प्राप्तो वित्तापत्यगृहप्रदम् ॥
४१॥
याम्--जिसको; मन्यते--वह सोचती है; पतिम्ू--अपना पति; मोहात्ू--मोहवश; मत्-मायाम्--मेरी माया; ऋषभ--पुरुष रूप में; आयतीम्--आती हुई; स्त्रीत्वम्-स्त्री बनने की दशा, स्त्रीत्व; स्त्री-सड्रत:ः--किसी स्त्री की संगति से;प्राप्त: --प्राप्त; वित्त--सम्पत्ति; अपत्य--सन्तान; गृह--घर; प्रदम्--प्रदान करने वाला
पूर्व जीवन में स्त्री-आसक्ति के कारण जीव स्त्री का रूप प्राप्त करता है मूर्खतावशमाया को अपना पति मानकर उसे ही सम्पत्ति, सन््तान, घर तथा अन्य भौतिक साज-समान देने वाला समझता है।
तामात्मनो विजानीयात्पत्यपत्यगृहात्मकम् ।
दैवोपसादितं मृत्युं मृगयोर्गायनं यथा ॥
४२॥
तामू-- भगवान् की माया को; आत्मन: --अपना; विजानीयात्-- जाने; पति--स्वामी; अपत्य--संतान; गृह--घर;आत्मकमू--से युक्त; दैव-- भगवान् की कृपा से; उपसादितम्--लाई हुई; मृत्युम्--मृत्यु; मृगयो:--बहेलिया,शिकारी का; गायनम्-गाते हुए; यथा-- जिस प्रकार।
अतएव स्त्री को अपने पति, घरबार और अपने बच्चों को उसकी मृत्यु के लिएभगवान् की बहिरंगा शक्ति की व्यवस्था के रूप में मानना चाहिए।
ठीक उसी तरह जैसेशिकारी की मधुर तान हिरन के लिए मृत्यु होती है।
देहेन जीवभूतेन लोकाल्लोकमनुव्रजन् ।
भुज्जान एवं कर्माणि करोत्यविरतं पुमान् ॥
४३॥
देहेन--शरीर के कारण; जीव-भूतेन--जीव द्वारा अधिकृत; लोकात्--एक लोक से; लोकम्--दूसरे लोक को;अनुब्रजन्--घूमते हुए; भुज्ञान: -- भोग करते हुए; एव--इस प्रकार; कर्माणि--सकाम कर्म; करोति--करता है;अविरतम्--निरन्तर; पुमान्ू--जीव
विशेष प्रकार का शरीर होने के कारण भौतिकतावादी जीव अपने कर्मो के अनुसारएक लोक से दूसरे लोक में भटकता रहता है।
इसी प्रकार वह अपने आपको सकामकर्मों में लगा लेता है और निरन्तर फल का भोग करता है।
जीवो ह्ास्यानुगो देहो भूतेन्द्रियमनोमय: ।
तन्निरोधोस्य मरणमाविर्भावस्तु सम्भव: ॥
४४॥
जीव:--जीव; हि--निस्सन्देह; अस्य--उसका; अनुग: --उपयुक्त; देह:--शरीर; भूत--स्थूल तत्त्व; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ;मनः--मन; मयः--से निर्मित; तत्ू--शरीर का; निरोध: --विनाश; अस्य--जीव का; मरणम्--मृत्यु; आविर्भाव:--प्राकट्य; तु--तब; सम्भव:--जन्म |
इस प्रकार सकाम कर्मो के अनुसार जीवात्मा को मन तथा इन्द्रियों से युक्त उपयुक्तशरीर प्राप्त होता है।
जब किसी कर्म का फल चुक जाता है, तो इस अन्त को मृत्यु कहतेहैं और जब कोई फल प्रारम्भ होता है, तो उस शुभारम्भ को जन्म कहते हैं।
द्रव्योपलब्धिस्थानस्य द्रव्येक्षायोग्यता यदा ।
तत्पञ्जञत्वमहंमानादुत्पत्तिद्रव्यदर्शनम् ॥
४५॥
यथाध्ष्णोर्द्रव्यावयवर्दर्शनायोग्यता यदा ।
तदैव चक्षुषो द्रष्ट॒र्दष्टत्वायोग्यतानयो: ॥
४६॥
द्रव्य--वस्तुओं की; उपलब्धि-- अनुभूति का; स्थानस्य--स्थान का; द्रव्य--वस्तुओं की; ईक्षा-- अनुभूति का;अयोग्यता--असमर्थता; यदा--जब; तत्--वह; पदञ्जञत्वम्-मृत्यु; अहम्-मानात्---' मैं ' की भ्रान्त धारणा से;उत्पत्ति:-- जन्म; द्रव्य--शरीर; दर्शनम्--दर्शन; यथा--जिस प्रकार; अक्ष्णो:--आँखों का; द्र॒व्य--वस्तुओं का;अवयव--अंग; दर्शन--देखने की; अयोग्यता--असमर्थता; यदा--जब; तदा--तब; एव--निस्सन्देह; चक्षुष: --देखने की इन्द्रिय से; द्रष्ठ:--द्रष्टा का; द्रष्टव--देखने की शक्ति का; अयोग्यता--अपात्रता; अनयो:--इन दोनों की |
जब दृष्टि-तंत्रिका के प्रभावित होने से आँखें रंग या रूप को देखने की शक्ति खोदेती हैं, तो चक्षु-इन्द्रिय मृतप्राय हो जाती है।
तब आँख तथा दृष्टि का द्रष्टा जीव अपनीदेखने की शक्ति खो देता है।
इसी प्रकार जब भौतिक शरीर, जो वस्तुओं की अनुभूतिका स्थल है, अनुभव करना बन्द कर देता है, तो इस अयोग्यता को मृत्यु कहते हैं।
जबमनुष्य शरीर को स्व मानने लगता है, तो इसे जन्म कहते हैं।
तस्मान्न कार्य: सन्त्रासो न कार्पण्यं न सम्भ्रम: ।
बुद्ध्वा जीवगतिं धीरो मुक्तसड्रश्चेरदिह ॥
४७॥
तस्मात्--मृत्यु के कारण; न--नहीं; कार्य:--करना चाहिए; सन्व्रास:-- भय; न--नहीं ; कार्पण्यम्--कंजूसी; न--नहीं; सम्भ्रम: --लाभ के लिए उत्सकुता; बुद्ध्वा--समझ करके; जीव-गतिम्--जीव के वास्तविक प्रकृति को;धीर:--स्थिर; मुक्त-सड्भ:--आसक्ति रहित; चरेतू--चलना चाहिए; इह--इस संसार में |
अतः मनुष्य को न तो मृत्यु को भयभीत होकर देखना चाहिए, न शरीर को आत्मामानना चाहिए, न ही जीवन की आवश्यकताओं के शारीरिक भोग को बढ़ा-चढ़ा करसमझना चाहिए।
जीव की असली प्रकृति को समझते हुए मनुष्य को आसक्ति से रहिततथा उद्देश्य में हढ़ होकर संसार में विचरण करना चाहिए।
सम्यग्दर्शनया बुद्ध योगवैराग्ययुक्तया ।
मायाविरचिते लोके चरेनज््यस्य कलेवरम् ॥
४८ ॥
सम्यक्-दर्शनया--सही दृष्टि से; बुद्धघा--तर्क से; योग--भक्ति से; बैराग्य--विरक्ति से; युक्तया--समन्वित, युक्त;माया-विरचिते--माया द्वारा व्यवस्थित; लोके--इस संसार में; चरेत्ू--चलना फिरना चाहिए; न्यस्य--गिरवी करके;कलेवरम्--शरीर को
सही-सही दृष्टि से युक्त तथा भक्ति से पुष्ट होकर एवं भौतिक पहचान के प्रतिनिराशावादी दृष्टिकोण से समन्वित होकर मनुष्य को तर्क द्वारा अपना शरीर इस मायामयसंसार को गिरवी कर देनी चाहिए।
इस तरह वह इस जगत से अपना सम्बन्ध छुड़ासकता है।
अध्याय बत्तीस: सकाम गतिविधियों में उलझाव
3.32कपिल उबाचअथ यो गृहमेधीयान्धर्मानेवावसन्गृहे ।
काममर्थ चधर्मान्स्वान्दोग्धि भूय: पिपर्ति तान्ू ॥
१॥
कपिल: उवाच--भगवान् कपिल ने कहा; अथ--अब; यः --जो व्यक्ति; गृह-मेधीयान्--गृहस्थों के; धर्मानू--कर्तव्य; एव--निश्चय ही; आवसन्--रहते हुए; गृहे--घर में; कामम्--इन्द्रियतृप्ति; अर्थभू-- आर्थिक विकास; च--तथा; धर्मानू--धार्मिक अनुष्ठान; स्वानू--अपने; दोग्धि-- भोगता है; भूयः--पुनः पुनः; पिपर्ति--सम्पन्न करता है;तानू--उनको
भगवान् ने कहा : गृहस्थ जीवन बिताने वाला व्यक्ति धार्मिक अनुष्ठान करते हुएभौतिक लाभ प्राप्त करता रहता है और इस तरह वह आर्थिक विकास तथा इन्द्रियतृप्तिकी अपनी इच्छापूर्ति करता है।
वह पुनः पुनः इसी तरह कार्य करता है।
स चापि भगवद्धर्मात्काममूढ: पराड्मुख: ।
यजते क्रतुभिर्देवान्पितृंश्व॒ श्रद्धयान्वित: ॥
२॥
सः--वह; च अपि--और भी; भगवत्-धर्मात्-- भक्ति से; काम-मूढ:--कामवासना से अन्धा; पराक्-मुखः --'पराड्मुख, से मुख मोड़कर; यजते--पूजा करता है; क्रतुभि:--यज्ञों से; देवान्--देवताओं की; पितृन्--पूर्वजों की;च--तथा; श्रद्धया-- श्रद्धा से; अन्वित:--युक्त |
ऐसे व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति के प्रति अत्यधिक आसक्त होने के कारण भक्ति से विहीनहोते हैं, अतः अनेक प्रकार के यज्ञ करते रहने तथा देवों एवं पितरों को प्रसन्न करने केलिए बडे-बडे व्रत करते रहने पर भी वे कष्णभावनाम॒त अर्थात भक्ति में रुचि नहीं लेते।
तच्छुद्धयाक्रान्तमतिः पितृदेवब्रतः पुमान् ।
गत्वा चान्द्रमसं लोक॑ सोमपा: पुनरेष्यति ॥
३॥
ततू-देवों तथा पितरों को; श्रद्धया--आदरपूर्वक; आक्रान्त--पराजित; मतिः--मन; पितृ--पितरों को; देव--देवताओं को; ब्रतः--उसका ब्रत; पुमान्--व्यक्ति; गत्वा--जाकर; चान्द्रमसम्--चन्द्रमा के; लोकमू--लोक को;सोम-पाः--सोमरस पीते हुए; पुनः--फिर; एष्यति--लौट आता है।
ऐसे भौतिकवादी व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति से आकृष्ट होकर एवं अपने पितरों एवं देवताओंके प्रति भक्तिभाव रखकर चन्द्रलोक को जा सकते हैं, जहाँ वे सोमरस का पान करते हैंऔर फिर से इसी लोक में लौट आते हैं।
यदा चाहीन्द्रशय्यायां शेतेडनन्तासनो हरि: ।
तदा लोका लयं यान्ति त एते गृहमेधिनाम् ॥
४॥
यदा--जब; च--तथा; अहि-इन्द्र--सर्पों के राजा शेषनाग की; शय्यायाम्ू--शय्या पर; शेते--लेटा रहता है;अनन्त-आसन:ः--जिसका आसन अनन्त शेष है; हरिः-- भगवान् हरि; तदा--तब; लोकाः--लोक; लयमू-- प्रलय;यान्ति--जाते हैं; ते एते--वे ही; गृह-मेधिनाम्--गृहमेधियों के
जब भगवान् हरि सर्पों की शय्या पर, जिसे अनन्त शेष कहते हैं, सोते हैं, तोभौतिकतावादी पुरुषों के सारे लोक, जिनमें चन्द्रमा जैसे स्वर्गलोक सम्मिलित हैं, विलीनहो जाते हैं।
ये स्वधर्मात्र दुह्मन्ति धीरा: कामार्थहेतवे ।
निःसड़जा न्यस्तकर्माण: प्रशान्ता: शुद्धचेतस: ॥
५॥
ये--जो; स्व-धर्मानू-- अपने-अपने वृत्तिपरक कर्तव्य; न--नहीं; दुद्मन्ति--लाभ उठाते हैं; धीरा: --बुद्ध्िमान;काम--इन्द्रियतृप्ति; अर्थ--आर्थिक विकास; हेतवे--के लिए; नि:सड्भाः-- भौतिक आसक्ति से मुक्त; न््यस्त--परित्यक्त; कर्माण: --सकाम कर्म; प्रशान्ता:--सन्तुष्ट; शुद्ध-चेतस:--शुद्धीकृत चेतना का |
जो बुद्धिमान हैं और शुद्ध चेतना वाले हैं, वे कृष्णभक्ति में पूर्णतया सन्तुष्ट रहते हैं।
वे प्रकृति के गुणों से मुक्त होकर वे इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म नहीं करते; अपितु वेअपने-अपने कर्मो में लगे रहते हैं और विधानानुसार कर्म करते हैं।
निवृत्तिधर्मनिरता निर्ममा निरहड्डू ता: ।
स्वधर्माप्तेन सत्त्वेन परिशुद्धेन चेतसा ॥
६॥
निवृत्ति-धर्म--विरक्ति के लिए धार्मिक कार्यों में; निरता:--निरन्तर लगे हुए; निर्ममा:--स्वामित्व के ज्ञान बिना;निरहड्डू ताः--अहंकाररहित; स्व-धर्म --अपने वृत्तिपरक कर्तव्य से; आप्तेन--सम्पन्न; सत्त्वेन--अच्छाई से;परिशुद्धेन--पूर्णतः शुद्ध; चेतसा--चेतना से |
अपने कर्तव्य-निर्वाह, विरक्तभाव से तथा स्वामित्व की भावना से अथवा अहंकारसे रहित होकर काम करने से मनुष्य पूर्ण शुद्ध चेतना के द्वारा अपनी स्वाभाविक स्थितिमें आसीन होकर और इस प्रकार से भौतिक कर्तव्यों को करते हुए सरलता के साथ ईश्वरके धाम में प्रविष्ट हो सकता है।
सूर्यद्वारेण ते यान्ति पुरुषं विश्वतोमुखम् ।
परावरेशं प्रकृतिमस्योत्पत्त्यन्तभावनम् ॥
७॥
सूर्य-द्वारेण-- प्रकाश मार्ग से होकर; ते--वे; यान्ति--निकट जाते हैं; पुरुषम्-- भगवान् के; विश्वतः-मुखम्--जिसका मुख सर्वत्र घूमता है; पर-अवर-ईशम्--आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का स्वामी; प्रकृतिम्ू-- भौतिककारण; अस्य--संसार की; उत्पत्ति--प्राकट्य का; अन्त--प्रलय का; भावनम्--कारण |
ऐसे मुक्त पुरुष प्रकाशमान मार्ग से होकर भगवान् तक पहुँचते हैं, जो भौतिक तथाआध्यात्मिक जगतों का स्वामी है और इन जगतों की उत्पत्ति तथा अन्त का परम कारणहै।
द्विपरार्धावसाने यः प्रलयो ब्रह्मणस्तु ते ।
तावदध्यासते लोक॑ परस्य परचिन्तका: ॥
८॥
द्वि-परार्ध--दो परार्धों के; अवसाने--अन्त में; य:--जो; प्रलय: --मृत्यु; ब्रह्मण: -- भगवान् ब्रह्म की; तु--लेकिन;ते--वे; तावत्ू--तब तक; अध्यासते--रहते हैं; लोकम्--लोक में; परस्य--परमे श्वर का; पर-चिन्तका:-- भगवान्का चिन्तन करते हुए।
भगवान् के हिरण्यगर्भ विस्तार के उपासक इस संसार में दो परार्धों के अन्त तक रहेआते हैं, जब ब्रह्मा की भी मृत्यु हो जाती है।
क्ष्माम्भोउनलानिलवियन्मनइन्द्रियार्थ-भूतादिभि: परिवृतं प्रतिसझ्िहीर्षु: ।
अव्याकृतं विशति यर्हिं गुणत्रयात्माकालं पराख्यमनुभूय परः स्वयम्भूः ॥
९॥
क्ष्मा--पृथ्वी; अम्भ:--जल; अनल--अग्नि; अनिल--वायु; वियत्--शून्य; मन: --मन; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अर्थ--इन्द्रियों के विषय; भूत--अहंकार; आदिभि:--इत्यादि से; परिवृतम्--आच्छादित; प्रतिसज्िहीर्षु:--संहार करने कीइच्छा से; अव्याकृतम्-परिर्वतनहीन वैकुण्ठ; विशति--प्रवेश करता है; यहिं--जिस समय; गुण-त्रय-आत्मा--तीनगुणों से युक्त; कालम्--काल; पर-आख्यम्--दो परार्ध; अनुभूय--अनुभव करके; पर:--प्रमुख; स्वयम्भू:--भगवान्
ब्रह्मात्रिगुणात्मिका प्रकृति के निवास करने योग्य दो परा्धों के काल का अनुभव करकेश्री ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड का, जो पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, अहंकार आदिके आवरणों से ढका हुआ है, संहार कर देते हैं और भगवान् के पास चले जाते हैं।
एवं परेत्य भगवन्तमनुप्रविष्टाये योगिनो जितमरुन्मनसो विरागा: ।
तेनैव साकममृतं पुरुष पुराणंब्रह्म प्रधानमुपयान्त्यगताभिमाना: ॥
१०॥
एवमू--इस प्रकार; परेत्य--दूर तक जाकर; भगवन्तम्-- भगवान् ब्रह्मा; अनुप्रविष्टा:--प्रविष्ट; ये--जो; योगिन: --योगीजन; जित--वश में किये हुए; मरुत्-- श्वास; मनसः विरागा:--विरक्त; तेन--ब्रह्मा से; एब--निस्सन्देह;साकम्--साथ; अमृतम्-- आनन्द रूप; पुरुषम्-- भगवान् को; पुराणम्--प्राचीनतम; ब्रह्म प्रधानम्--परब्रहा;उपयान्ति--जाते हैं; अग॒त--न गये हुए; अभिमाना:--जिनका अहंकार
जो योगी प्राणायाम तथा मन-निग्रह द्वारा इस संसार से विरक्त हो जाते हैं, वेब्रह्मलोक पहुँचते हैं, जो बहुत ही दूर है।
वे अपना शरीर त्याग कर ब्रह्मा के शरीर मेंप्रविष्ट होते हैं, अतः जब ब्रह्मा को मोक्ष प्राप्त होता है और वे भगवान् के पास जाते हैं,जो परब्रह्म हैं, तो ऐसे योगी भी भगवद्धाम में प्रवेश करते हैं।
अथ त॑ सर्वभूतानां हत्पदोषु कृतालयम् ।
श्रुतानुभावं शरणं ब्रज भावेन भामिनि ॥
११॥
अथ--अत:; तम्ू-- भगवान् को; सर्व-भूतानाम्--समस्त जीवों के; हत्ू-पदोषु--कमल हृदयों में; कृत-आलयम्--निवास करते हुए; श्रुत-अनुभावम्--जिनका यश आपने सुना; शरणम्--शरण में; ब्रज--जाओ; भावेन--भक्तिद्वारा; भामिनि--हे माता
अतः हे माता, आप प्रत्यक्ष भक्ति द्वारा जन-जन के हृदय में स्थित पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान् की शरण ग्रहण करें।
आद्य: स्थिरचराणां यो वेदगर्भ: सहर्षिभि: ।
योगेश्वर: कुमाराद्यैः सिद्धैर्योगप्रवर्तक: ॥
१२॥
भेददृष्य्याभिमानेन नि:सड्रेनापि कर्मणा ।
कर्तृत्वात्सगुणं ब्रह्म पुरुषं पुरुषर्षभम् ॥
१३॥
स संसृत्य पुनः काले कालेनेश्वरमूर्तिना ।
जाते गुणव्यतिकरे यथापूर्व प्रजायते ॥
१४॥
ऐश्वर्य पारमेछ्यं च तेडपि धर्मविनिर्मितम् ।
निषेव्य पुनरायान्ति गुणव्यतिकरे सति ॥
१५॥
आद्य:--स्रष्टा, ब्रह्म; स्थिर-चराणाम्--जड़ तथा जंगम का; य:--जो; वेद-गर्भ:--वेदगर्भ; सह--साथ;ऋषिभि:--ऋषियों के; योग-ईश्वरैः--महान् योगियों के साथ; कुमार-आद्यै:--कुमारगण तथा अन्य; सिद्धैः--सिद्धपुरुषों के साथ; योग-प्रवर्तकैः--योग पद्धति के जन्मदाता; भेद-दृष्य्या--स्वतन्त्र दृष्टि के कारण; अभिमानेन-गर्वसे; निःसड्रेन--निष्काम; अपि--यद्यपि; कर्मणा--कार्यो से; कर्तृत्वात्ू-कर्ता होने के भाव से; स-गुणम्--दैवीगुणों से युक्त; ब्रहा--ब्रह्म ; पुरुषम्-- भगवान्; पुरुष-ऋषभम्-- प्रथम पुरुष अवतार को; सः--वह; संसृत्य--प्राप्तकरके; पुनः--फिर; काले--समय पर; कालेन--काल द्वारा; ईश्वर-मूर्तिना-- भगवान् का रूप; जाते गुण-व्यतिकरे--जब गुणों की प्रतिक्रिया होती है; यथा--जिस तरह; पूर्वम्--पहले; प्रजायते--उत्पन्न होता है; ऐश्वर्यम्--ऐश्वर्य; पारमेछ्यम््--राजोचित; च--तथा; ते--ऋषिगण; अपि-- भी; धर्म--अपने पुण्य कर्मों से; विनिर्मितम्--उत्पन्न; निषेव्य-- भोगा जाकर; पुनः--फिर; आयान्ति--लौटते हैं; गुण-व्यतिकरे सति--जब गुणों की प्रतिक्रियाहोती है।
हे माता, भले ही कोई किसी विशेष स्वार्थ से भगवान् की पूजा करे, किन्तु ब्रह्माजैसे देवता, सनत्कुमार जैसे ऋषि-मुनि तथा मरीचि जैसे महामुनि सृष्टि के समय इसजगत में पुनः लौट आते हैं।
जब प्रकृति के तीनों गुणों की अन्तःक्रिया प्रारम्भ होती है,तो काल के प्रभाव से इस दृश्य जगत के स्त्रष्टा तथा वैदिक ज्ञान से पूर्ण ब्रह्मा एवंआध्यात्मिक मार्ग तथा योग-पद्धति के प्रवर्तक बड़े-बड़े ऋषि वापस आ जाते हैं।
वेअपने निष्काम कर्मों से मुक्त तो हो जाते हैं और पुरुष के प्रथम अवतार आदि पुरुष को प्राप्त होते हैं, किन्तु सृष्टि के समय वे पुनः अपने पहले के ही रूपों तथा पदों मेंवापस आ जाते हैं।
ये त्विहासक्तमनस: कर्मसु श्रद्धयान्विता: ।
कुर्वन्त्यप्रतिषिद्धानि नित्यान्यपि च कृत्सनश: ॥
१६॥
ये--जो; तु--लेकिन; इह--इस संसार में; आसक्त--अनुरक्त; मनस:--जिनके मन; कर्मसु--कर्मो में; श्रद्धया--श्रद्धा से; अन्विता: --युक्त; कुर्वन्ति--करते हैं; अप्रतिषिद्धानि--फल के प्रति आसक्ति सहित, काम्य; नित्यानि--नियत कर्म; अपि--निश्चय ही; च--तथा; कृत्स्नश: --बारम्बार |
जो लोग इस संसार के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं, वे अपने नियत कर्मों को बड़े हीढंग से तथा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करते हैं।
वे ऐसे नित्यकर्मों को कर्मफल कीआशा से करते हैं।
रजसा कुण्ठमनसः कामात्मानोजितेन्द्रिया: ।
पितृन्यजन्त्यनुदिनं गृहेष्वभिरताशया: ॥
१७॥
रजसा--रजोगुण द्वारा; कुण्ठ--चिन्ताओं से पूर्ण; मनस:--मन; काम-आत्मान:--इन्दियतृप्ति की इच्छा करते हुए;अजित--अनियन्त्रित; इन्द्रिया:--इन्द्रियाँ; पितृन्--पूर्वजों, पितरगणों; यजन्ति--पूजा करते हैं; अनुदिनम्-- प्रतिदिन;गृहेषु--घरेलू जीवन में; अभिरत--लगे हुए; आशया:--मन |
ऐसे लोग, रजोगुण से प्रेरित होकर चिन्ताओं से व्याप्त रहते हैं और इन्द्रियों को वशमें न कर सकने के कारण सदैव इन्द्रियतृप्ति की कामना करते रहते हैं।
वे पितरों कोपूजते हैं और अपने परिवार, सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन की आर्थिक स्थिति सुधारने मेंरात-दिन लगे रहते हैं।
त्रैवर्गिकास्ते पुरुषा विमुखा हरिमेधस: ।
कथायां कथनीयोरुविक्रमस्य मधुद्विष: ॥
१८ ॥
त्रै-वर्गिका:--तीन उन्नतिकारी विधियों में रूचि रखने वाले; ते--वे; पुरुषा: व्यक्ति; विमुखा:--रुचि न रखने वाले;हरि-मेधस:-- भगवान् हरि की; कथायाम्--लीलाओं में; कथनीय--कीर्तन करने योग्य; उरू-विक्रमस्थ--जिनकासर्वोत्तम विक्रम शौर्य ; मधु-द्विष:--मधु असुर के वध करने वाले
ऐसे लोग त्रैवर्गिक कहलाते हैं, क्योंकि वे तीन उन्नतिकारी विधियों-पुरुषार्थो-मेंरुचि लेते हैं।
वे उन भगवान् से विमुख हो जाते हैं, जो बद्धजीवों को विश्राम प्रदान करनेवाले हैं।
वे भगवान् की उन लीलाओं में कोई अभिरुचि नहीं दिखाते, जो भगवान् केदिव्य विक्रम के कारण श्रवण करने योग्य हैं।
नूनं दैवेन विहता ये चाच्युतकथासुधाम् ।
हित्वा श्रुण्वन्त्यसद्गाथा: पुरीषमिव विड्भुज: ॥
१९॥
नूनम्--निश्चय ही; दैवेन-- भगवान् की आज्ञा से; विहता: --निन्दित; ये--जो; च-- भी; अच्युत--अमोघ भगवान्की; कथा--कहानियाँ; सुधाम्--अमृत; हित्वा--त्याग कर; श्रृण्वन्ति--सुनते हैं; असत्-गाथा:-- भौतिकतावादीपुरुषों की कहानियाँ; पुरीषमू--मल; इब--सहश; विट्-भुज:--विष्ठा
भोजी सूकर ऐसे व्यक्ति भगवान् के परम आदेशानुसार निन्दित होते हैं।
चूँकि वे भगवान् केकार्यकलाप रूपी अमृत से विमुख रहते हैं, अतः उनकी तुलना विष्ठाभोजी सूकरों से कीगई है।
वे भगवान् के दिव्य कार्यकलापों को न सुनकर भौतिकतावादी पुरुषों कीकुत्सित कथाएँ सुनते हैं।
दक्षिणेन पथार्यम्ण: पितृलोकं ब्रजन्ति ते ।
प्रजामनु प्रजायन्ते श्मशानान्तक्रियाकृत: ॥
२०॥
दक्षिणेन--दक्षिणी; पथा--मार्ग से; अर्यम्ण: --सूर्य के; पितृ-लोकम्--पितृ लोक को; ब्रजन्ति--जाते हैं; ते--वे;प्रजामू--अपने परिवार; अनु--के साथ; प्रजायन्ते--जन्म लेते हैं; शमशान--मरघट; अन्त--अन्त में; क्रिया--सकामकर्म; कृतः--करते हुए
ऐसे भौतिकतावादी व्यक्तियों को सूर्य के दक्षिण मार्ग से पितूलोक जाने दिया जाताहै, किन्तु वे इस लोक में पुन: आकर अपने-अपने परिवारों में जन्म लेते हैं और जन्म सेलेकर जीवन के अन्त तक पुनः उसी तरह कर्म करते हैं।
ततस्ते क्षीणसुकृता: पुनर्लोकमिमं सति ।
'पतन्ति विवशा देवै: सद्यो विभ्रंशितोदया: ॥
२१॥
ततः--तब; ते--वे; क्षीण--चुक जाने पर; सु-कृताः--पुण्य कर्मों के फल; पुन:--फिर; लोकम् इमम्ू--इस लोकमें; सति--हे सती माता; पतन्ति--गिरते हैं; विवशा:--असहाय; देवै:--दैववश; सद्यः--अचानक; विभ्रेशित--गिराये जाकर; उदया:--उनकी सम्पन्नता।
जब उनके पुण्यकर्मों का फल चुक जाता है, तो वे दैववश नीचे गिरते हैं और पुनःइस लोक में आ जाते हैं जिस प्रकार किसी व्यक्ति को ऊँचे उठाकर सहसा नीचे गिरादिया जाये।
तस्मात्त्वं सर्वभावेन भजस्व परमेष्टिनम् ।
तद्गुणाश्रयया भक्त्या भजनीयपदाम्बुजम् ॥
२२॥
तस्मात्ू--अतः; त्वमू-तुम देवहूति ; सर्व-भावेन--प्रेमानु भूति में; भजस्व--पूजा करो; परमेष्ठटिनम्-- भगवान् को;ततू-गुण-- भगवान् के गुण; आश्रयया--से सम्बन्धित; भक्त्या--भक्ति से; भजनीय--पूज्य; पद-अम्बुजम्ू--जिनकेचरणकमल।
अतः हे माता, मैं आपको सलाह देता हूँ कि आप भगवान् की शरण ग्रहण करेंजिनके चरणकमल पूजनीय हैं।
इसे आप समस्त भक्ति तथा प्रेम से स्वीकार करें,क्योंकि इस तरह से आप दिव्य भक्ति को प्राप्त हो सकेंगी।
वबासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित: ।
जनयत्याशु बैराग्यं ज्ञानं यद्वह्मदर्शनम् ॥
२३॥
वासुदेवे--कृष्ण के प्रति; भगवति-- भगवान्; भक्ति-योग: -- भक्ति; प्रयोजित: --की गयी; जनयति--उत्पन्न करतीहै; आशु--तुरन्त; वैराग्यम्--विरक्ति; ज्ञाममू--ज्ञान; यत्ू--जो; ब्रह्म-दर्शनम्--आत्म-साक्षात्कार।
कृष्णचेतना में लगने और भक्ति को कृष्ण में लगाने से ज्ञान, विरक्ति तथा आत्म-साक्षात्कार में प्रगति करना सम्भव है।
यदास्य चित्तमर्थेषु समेष्विन्द्रियवृत्तिभि: ।
न विगृह्ाति वैषम्यं प्रियमप्रियमित्युत ॥
२४॥
यदा--जब; अस्य-- भक्त का; चित्तम्--मन; अर्थेषु--विषयों में; समेषु--सम; इन्द्रिय-वृत्तिभि:--इन्द्रियों कीक्रियाओं से; न--नहीं; विगृह्ञाति--देखता है; वैषम्यम्-- अन्तर; प्रियम्--स्वीकार्य; अप्रियम्--अस्वीकार्य; इति--इस प्रकार; उत--निश्चय ही।
उच्च भक्त का मन इन्द्रिय-वृत्तियों में समदर्शी हो जाता है और वह प्रिय तथा अप्रियसे परे हो जाता है।
स तदैवात्मनात्मानं नि:सड़ं समदर्शनम् ।
हेयोपादेयरहितमारूढं पदमीक्षते ॥
२५॥
सः--वह; तदा--तब; एब--निश्चय ही; आत्मना--अपनी दिव्य बुद्धि से; आत्मानम्--अपने आपको; निःसड्डमू--भौतिक आसक्ति से रहित; सम-दर्शनम्ू--दृष्टि में समभाव; हेय--त्याज्य; उपादेय--ग्राह्म; रहितम्--विहीन;आरूढम्--आसीन; पदम्--दिव्य पद पर; ईक्षते--देखता है।
अपनी दिव्य बुद्धि के कारण शुद्ध भक्त समदर्शी होता है और अपने आपको पदार्थके कल्मष से रहित देखता है।
वह किसी वस्तु को श्रेष्ठ या निम्न नहीं मानता और परमपुरुष के गुणों में समान होने के कारण अपने आपको परम पद पर आरूढ़ अनुभवकरता है।
ज्ञानमात्रं पर ब्रह्म परमात्मेश्वर: पुमान् ।
हृश्यादिभिः पृथग्भावैर्भगवानेक ईयते ॥
२६॥
ज्ञान-नज्ञान; मात्रमू-केवल; परम्--दिव्य; ब्रह्म--ब्रह्म ; परम-आत्मा--परमात्मा; ईश्वर: --ई धर, नियामक;पुमान्--परमात्मा; हशि-आदिभि:--दार्शनिक खोज तथा अन्य विधियों से; पृथक् भाव: --ज्ञान की विविध विधियोंके अनुसार; भगवानू-- श्री भगवान्; एक:--अकेला; ईयते--अनुभव किया जाता है।
केवल भगवान् ही पूर्ण दिव्य ज्ञान हैं, किन्तु समझने की भिन्न-भिन्न विधियों केअनुसार वे या तो निर्गुण ब्रह्म, परमात्मा, भगवान् या पुरुष अवतार के रूप में भिन्न-भिन्नप्रतीत होते हैं।
एतावानेव योगेन समग्रेणेह योगिनः ।
युज्यतेउभिमतो हार्थों यदसड़स्तु कृत्सनश: ॥
२७॥
एतावान्--इतना; एव--ही; योगेन--योगाभ्यास द्वारा; समग्रेण--सम्पूर्ण; हह--इस संसार में; योगिन:--योगी का;युज्यते--प्राप्त होता है; अभिमत:--इच्छित; हि--निश्चय ही; अर्थ:--अभिप्राय, उद्देश्य; यत्--जो; असड्डभ:--वैराग्य;तु--निस्सन्देह; कृत्स्नशः--पूर्णतया |
समस्त योगियों के लिए सबसे बड़ी सूझबूझ तो पदार्थ से पूर्ण विरक्ति है, जिसे योगके विभिन्न प्रकारों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
ज्ञानमेक॑ पराचीनैरिन्द्रियैब्रह्य निर्गुणम् ।
अवभात्यर्थरूपेण भ्रान्त्या शब्दादिधर्मिणा ॥
२८॥
ज्ञानमू--ज्ञान; एकम्--एक; पराचीनै:--पराड्रमुख; इन्द्रिये:--इन्द्रियों के द्वारा; ब्रह्म--परम सत्य; निर्गुणम्-गुणोंसे परे; अवभाति-- प्रकट होता है; अर्थ-रूपेण--विभिन्न विषयों के रूप में; भ्रान्या-- भूल से; शब्द-आदि--शब्दइत्यादि; धर्मिणा--से युक्त
जो अध्यात्म से पराड्मुख हैं वे परम सत्य परमेश्वर को कल्पित इन्द्रिय-प्रतीतिद्वारा अनुभव करते हैं, अतः भ्रान्तिवश उन्हें प्रत्येक वस्तु सापेक्ष प्रतीत होती है।
यथा महानहंरूपस्त्रिवृत्पज्ञविध: स्वराट् ।
एकादशविधस्तस्य वपुरण्डं जगद्यतः ॥
२९॥
यथा--जिस तरह; महान्ू--महत्-तत्त्व; अहमू-रूप:--मिथ्या, अहंकार; त्रि-वृत्ू--प्रकृति के तीन गुण; पञ्ञ-विध:--पाँच भौतिक तत्त्व; स्व-राट्--व्यष्टि चेतना; एकादश-विध:--ग्यारह इन्द्रियाँ; तस्थ--जीव की; वपु:--शरीर; अण्डम्ू--ब्रह्मण्ड; जगत्--विश्व; यत:--जिससे
मैंने महत् तत्त्व या समग्र शक्ति से अहंकार, तीनों गुण, पाँचों तत्त्व, व्यष्टि चेतना,ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शरीर उत्पन्न किये हैं।
इसी प्रकार मुझ भगवान् से ही सारा ब्रह्माण्डप्रकट हुआ।
एतट्टे श्रद्धया भक्त्या योगाभ्यासेन नित्यशः ।
समाहितात्मा निःसझ् विरक्त्या परिपश्यति ॥
३०॥
एतत्--यह; वै--निश्चय ही; श्रद्धया-- श्रद्धा से; भक्त्या-- भक्ति से; योग-अभ्यासेन--योगाभ्यास से; नित्यश:--सदैव; समाहित-आत्मा--स्थिर चित्त वाला; निःसड्रः--भौतिक संगति से विलग; विरक्त्या--विरक्ति से;'परिपश्यति--समझता है।
यह पूर्ण ज्ञान उस व्यक्ति को प्राप्त होता है, जो पहले से ही श्रद्धा, तन्मयता तथा पूर्णविरक्ति सहित भक्ति में लगा रहता है और भगवान् के विचार में निरन्तर निमग्न रहता है।
वह भौतिक संगति से निर्लिप्तदूर रहता है।
इत्येतत्कथितं गुर्वि ज्ञानं तद्बह्मदर्शनम् ।
येनानुबुद्धबते तत्त्वं प्रकृते: पुरुषस्थ च ॥
३१॥
इति--इस प्रकार; एतत्--यह; कथितम्-- वर्णित; गुर्वि-- आदरणीय माता; ज्ञानम्ू--ज्ञान; तत्--उस; ब्रह्म--परमसत्य; दर्शनम्--प्राकट्य; येन--जिससे; अनुबुद्धयते--समझा जाता है; तत्त्वम्--सत्य; प्रकृतेः--पदार्थ का;पुरुषस्थ--आत्मा का; च--तथा
आदरणीय माता, मैंने पहले ही आप को ही परम सत्य जानने का मार्ग बता दिया है, जिससे मनुष्य पदार्थ तथा आत्मा एवं उनके सम्बन्ध के वास्तविक सत्य को समझ सकता है।
ज्ञानयोगश्च मन्निष्ठो नैर्गुण्यो भक्तिलक्षण: ।
द्वयोरप्येक एवार्थो भगवच्छब्दलक्षण: ॥
३२॥
ज्ञान-योग: --दार्शनिक शोध; च--तथा; मत्-निष्ठ:--मुझको लक्षित करके; नैर्गुण्य:--प्रकृति के गुणों से मुक्त;भक्ति-- भक्ति; लक्षण:--नामक; द्वयो:--दोनों का; अपि-- और; एक:--एक; एव--निश्चय ही; अर्थ:--अभिप्राय;भगवत्-- भगवान्; शब्द--शब्द से; लक्षण:--बताने वाला।
दार्शनिक शोध का लक्ष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को जानना है।
इस ज्ञान को प्राप्तकरके जब मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है, तो उसे भक्ति की अवस्था प्राप्तहोती है।
मनुष्य को चाहे, प्रत्यक्षतः भक्ति से हो या दार्शनिक शोध से हो, एक ही गन्तव्यकी खोज करनी होती है और वह है भगवान्।
यथेन्द्रिय: पृथम्द्वारैरर्थों बहुगुणा श्रयः ।
एको नानेयते तद्वद्भगवान्शास्त्रवर्त्मभि: ॥
३३॥
यथा--जिस प्रकार; इन्द्रिये:--इन्द्रियों से; पृथक्-द्वारै:ः--विभिन्न प्रकार से; अर्थ:--वस्तु; बहु-गुण--अनेक गुणों;आश्रयः--से युक्त; एक:--एक; नाना--भिन्न-भिन्न प्रकार से; ईयबते--अनुभव किया जाता है; तद्बत्--उसी प्रकार;भगवान्-- भगवान्; शास्त्र-वर्त्मभि: --विभिन्न शास्त्रीय आदेशों के अनुसार।
एक ही वस्तु अपने विभिन्न गुणों के कारण भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा भिन्न-भिन्नप्रकार से ग्रहण की जाती है।
इसी तरह भगवान् एक है, किन्तु विभिन्न शास्त्रीय आदेशोंके अनुसार वह भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है।
क्रियया क्रतुभिदनिस्तपःस्वाध्यायमर्शने: ।
आत्मेन्द्रियजयेनापि सन्न्यासेन च कर्मणाम् ॥
३४॥
योगेन विविधाड़ेन भक्तियोगेन चैव हि ।
धर्मेणोभयचिदह्वेन यः प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ॥
३५॥
आत्मतत्त्वावबोधेन वैराग्येण हढेन च ।
ईयते भगवानेभि: सगुणो निर्गुण: स्वहक् ॥
३६॥
क्रियया--सकाम कर्म से; क्रतुभि:--यज्ञ से; दानैः--दान से; तपः--तपस्या; स्वाध्याय--वैदिक साहित्य काअध्ययन; मर्शनै:--तथा ज्ञानयोग के द्वारा; आत्म-इन्द्रिय-जयेन--मन तथा इन्द्रियों को वश में करने से; अपि-- भी;सन्न्यासेन--संन्यास के द्वारा; च--तथा; कर्मणाम्--सकाम कर्मो का; योगेन--योग से; विविध-अड्रेन--विविधविभागों वाले; भक्ति-योगेन-- भक्ति से; च--तथा; एव--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह; धर्मेण--नियत कार्यों से;उभय-चिह्नेन--दोनों लक्षणों वाले; यः--जो; प्रवृत्ति--आसक्ति; निवृत्ति-मान्--वैराग्य से युक्त; आत्म-तत्त्व--आत्म-साक्षात्कार का विज्ञान; अवबोधेन--ज्ञान से; वैराग्येण--वैराग्य से; इढेन--हढ़; च--तथा; ईयते-- अनुभवकिया जाता है; भगवानू-- भगवान्; एभि: -- इनसे; स-गुण:-- भौतिक संसार में; निर्गुण: --गुणों से परे; स्व-हक्--अपनी वैधानिक स्थिति को देखने वाला।
सकाम कर्म तथा यज्ञ सम्पन्न करके, दान देकर, तपस्या करके, विविध शास्त्रों केअध्ययन से, ज्ञानयोग से, मन के निग्रह से, इन्द्रियों के दमन से, संन्यास ग्रहण करकेतथा अपने आश्रम के कर्तव्यों का निर्वाह करके, योग की विभिन्न विधियों को सम्पन्नकरके, भक्ति करके तथा आसक्ति और विरक्ति के लक्षणों से युक्त भक्तियोग को प्रकटकरके, आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान को जान करके तथा प्रबल वैराग्य भाव जागृतकरके आत्म-साक्षात्कार की विभिन्न विधियों को समझने में अत्यन्त पटु व्यक्ति उस रूपमें भगवान् का साक्षात्कार करता है जैसा कि वे भौतिक जगत में तथा अध्यात्म में निरूपित किये जाते हैं।
प्रावोचं भक्तियोगस्य स्वरूपं ते चतुर्विधम् ।
कालस्य चाव्यक्तगतेरयों उन्तर्धावति जन्तुषु ॥
३७॥
प्रावोचम्--कहा गया; भक्ति-योगस्य-- भक्ति का; स्वरूपमू--पहचान, स्वरूप; ते--तुमसे; चतु:-विधम्--चारविभागों में; कालस्य--समय का; च-- भी; अव्यक्त-गतेः--जिसकी गति अलक्षित है; य:--जो; अन्तर्धावति--पीछाकरता है; जन्तुषु--जीवों का
है माताआपसे मैं भक्तियोग तथा चार विभिन्न आश्रमों में इसके स्वरूप की व्याख्याकर चुका हूँ।
मैं आपको यह भी बता चुका कि शाश्वत काल किस तरह जीवों का पीछाकर रहा है यद्यपि यह उनसे अदृश्य रहता है।
जीवस्य संसृतीर्बद्वीरविद्याकर्मनिर्मिता: ।
यास्वड् प्रविशन्नात्मा न वेद गतिमात्मनः ॥
३८॥
जीवस्य--जीव की; संसृती:--संसार के मार्ग; बह्नी:ः--अनेक; अविद्या--अज्ञान; कर्म--कार्य से; निर्मिता:--उत्पन्न;यासु--जिनमें; अड्ग--हे माता; प्रविशन्--प्रवेश करते हुए; आत्मा--जीव; न--नहीं; वेद--जानता है; गतिमू--गति; आत्मन:-- अपनी
अज्ञान में किये गये कर्म अथवा अपनी वास्तविक पहचान की विस्मृति के अनुसारजीवात्मा के लिए अनेक प्रकार के भौतिक अस्तित्व होते हैं।
हे माता, यदि कोई इसविस्मृति में प्रविष्ट होता है, तो वह यह नहीं समझ पाता कि उसकी गतियों का अन्त कहाँहोगा।
नैतत्खलायोपदिशेन्नाविनीताय कर्हिचित् ।
न स्तब्धाय न भिन्नाय नैव धर्मध्वजाय च ॥
३९॥
न--नहीं; एतत्--यह उपदेश; खलाय--ईर्ष्यालुओं को; उपदिशेत्--उपदेश देना चाहिए; न--नहीं; अविनीताय--अविनीत को; कहिंचित्--क भी; न--नहीं; स्तब्धाय--घमंडी को; न--नहीं; भिन्नाय--दुराचारी को; न--नहीं;एव--निश्चय ही; धर्म-ध्वजाय--दम्भियों को; च-- भी |
भगवान् कपिल ने आगे कहा : यह उपदेश उन लोगों के लिए नहीं है, जो ईर्ष्यालु हैं,अविनीत हैं या दुराचारी हैं।
न ही यह उपदेश दम्भियों या उन व्यक्तियों के लिए है, जिन्हेंअपनी भौतिक सम्पदा का गर्व है।
न लोलुपायोपदिशेन्न गृहारूढचेतसे ।
नाभक्ताय च मे जातु न मद्धक्तद्विषामपि ॥
४०॥
न--नहीं; लोलुपाय--लालची को; उपदिशेत्--उपदेश देवे; न--नहीं; गृह-आरूढ-चेतसे --गृहस्थ जीवन के प्रतिआसक्त को; न--नहीं; अभक्ताय--अभक्त को; च--तथा; मे--मेरा; जातु--कभी; न--नहीं; मत्--मेरे; भक्त--भक्तगण; द्विषामू--ईर्ष्यालुओं को; अपि-- भी
यह उपदेश न तो उन लोगों को दिया जाय जो अत्यन्त लालची हैं और गृहस्थ जीवनके प्रति अत्यधिक आसक्त हैं, न ही अभक्तों और भक्तों एवं भगवान् के भक्तों तथाभगवान् के प्रति ईर्ष्या रखने वालों को दिया जाय।
अ्रद्धानाय भक्ताय विनीतायानसूयवे ।
भूतेषु कृतमैत्राय शु श्रूषाभिरताय च ॥
४१॥
अ्रदधधानाय-- श्रद्धालु; भक्ताय-- भक्त के लिए; विनीताय--विनीत; अनसूयवे--ईर्ष्यारहित; भूतेषु--समस्त जीवोंको; कृत-मैत्राय--मैत्री भाव; शुश्रूषा--सेवा; अभिरताय--करने के लिए इच्छुक; च--तथा।
ऐसे श्रद्धालु भक्त को उपदेश दिया जाय जो गुरु के प्रति सम्मानपूर्ण, द्वेष न करनेवाला, समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव रखने वाला हो तथा श्रद्धा और निष्ठापूर्वक सेवाकरने के लिए उत्सुक हो।
बहिर्जातविरागाय शान्तचित्ताय दीयताम् ।
निर्मत्सराय शुचये यस्याहं प्रेयसां प्रिय: ॥
४२॥
बहि:--बाहरी; जात-विरागाय--विरागी को, अनासक्त को; शान्त-चित्ताय--शान्त मन वाले को; दीयताम्--उपदेशदिया जाय; निर्मत्सराय--मत्सरशून्य, द्वेष न रखने वाले को; शुचये-- पूर्णतया शुद्ध; यस्थय--जिसका; अहम्--मैं;प्रेयसाम्--प्रियों में; प्रिय: --अत्यन्त प्रिय
गुरु द्वारा यह उपदेश ऐसे व्यक्तियों को दिया जाय जो भगवान् को अन्य किसी भीवस्तु से अधिक प्रिय मानते हैं, जो किसी के प्रति द्वेष नहीं रखते, जो पूर्ण शुद्ध चित्त हैंऔर जिन्होंने कृष्णचेतना की परिधि के बाहर विराग उत्पन्न कर लिया है।
य इदं श्रृणुयादम्ब अश्रद्धया पुरुष: सकृत् ।
यो वाभिधत्ते मच्चित्त: स होति पदवीं च मे ॥
४३॥
यः--जो; इृदम्--इसको; श्रृणुयात्--सुनेगा; अम्ब--हे माता; श्रद्धया-- श्रद्धा से; पुरुष: -- व्यक्ति; सकृतू--एकबार; यः--जो; वा--अथवा; अभिधत्ते--उच्चारण करता है; मत्-चित्त:--अपने मन को मुझ पर स्थित करके;सः--वह; हि--निश्चय ही; एति--प्राप्त करता है; पदवीम्-- धाम को; च--तथा; मे--मेरा ।
जो कोई श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक एक बार मेरा ध्यान करता है, मेरे विषय में सुनतातथा कीर्तन करता है, वह निश्चय ही भगवान् के धाम को वापस जाता है।
अध्याय तैंतीसवाँ: कपिला की गतिविधियाँ
3..33मैत्रेय उबाचएवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्रीसा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः ।
विस्त्रस्तमोहपटला तमभिप्रणम्यतुष्टाव तत्त्वविषयाद्धितसिद्धिभूमिम् ॥
१॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; एवम्--इस प्रकार; निशम्य--सुनकर; कपिलस्थ--कपिल के; वच:ः--शब्द;जनित्री--माता; सा--वह; कर्दमस्य--कर्दम मुनि की; दयिता--प्रिय पत्ती; किल--नामक; देवहूति:--देवहूति;विस््रस्त--से युक्त होकर; मोह-पटला--मोह का आवरण; तम्--उसको; अभिप्रणम्य--नमस्कार करके; तुष्टाव--स्तुति की; तत्त्व--मूल सिद्धान्त; विषय--के सम्बन्ध में; अद्धित--रचियता, प्रतिपादक; सिद्धि--मुक्ति की;भूमिम्-पृष्ठभूमि |
श्री मैत्रेय ने कहा : इस प्रकार भगवान् कपिल की माता एवं कर्दम मुनि की पत्नीदेवहूति भक्तियोग तथा दिव्य ज्ञान सम्बन्धी समस्त अविद्या से मुक्त हो गईं।
उन्होंने उनभगवान् को नमस्कार किया जो मुक्ति की पृष्ठभूमि सांख्य दर्शन के प्रतिपादक हैं औरतब निम्नलिखित स्तुति द्वारा उन्हें प्रसन्न किया।
देवहूतिरुवाचअथाप्यजोन्तःसलिले शयानंभूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते ।
गुणप्रवाहं सदशेषबीजंदध्यौ स्वयं यज्जठराब्जजातः ॥
२॥
देवहूति: उबाच--देवहूति ने कहा; अथ अपि--और भी; अज:--ब्रह्मा जी; अन्तः-सलिले--जल में; शयानम्--लेटेहुए; भूत-- भौतिक तत्त्व; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; अर्थ--विषय; आत्म--मन; मयम्--से व्याप्त; वपु:--शरीर; ते--तुम्हारा; गुण-प्रवाहम्--प्रकृति के तीन तत्त्वों की धारा का उद्गम; सत्--प्रकट; अशेष--सबों का; बीजम्ू--बीज;दध्यौ-- ध्यान किया; स्वयम्--स्वयं; यत्--जिसके; जठर--उदर से; अब्जन--कमल-पुष्प से; जात:--उत्पन्न ।
देवहूति ने कहा : ब्रह्माजी अजन्मा कहलाते हैं, क्योंकि वे आपके उदर से निकलतेहुए कमल-पुष्प से जन्म लेते हैं और आप ब्रह्माण्ड के तल पर समुद्र में शयन करते रहतेहैं।
लेकिन ब्रह्माजी ने भी केवल अनन्त ब्रह्माण्डों के उदगम स्त्रोत, आपका ध्यान हीकिया।
स एव विश्वस्य भवान्विधत्तेगुणप्रवाहेण विभक्तवीर्य: ।
सर्गाद्यमीहो वितथाभिसन्धिर्आत्मेश्वरोतर्क्यसहस्त्रशक्ति: ॥
३॥
सः--वही पुरुष; एव--निश्चय ही; विश्वस्थ--ब्रह्माण्ड का; भवानू--आप; विधत्ते--करते हैं; गुण-प्रवाहेण--गुणोंकी अन्तःक्रिया से; विभक्त--विभाजित; वीर्य:--आपकी शक्तियाँ; सर्ग-आदि--सृष्टि इत्यादि; अनीह:--निष्क्रिय;अवितथ--सार्थक; अभिसन्धि:--हढ़संकल्प; आत्म-ई श्ररः -- समस्त जीवों के स्वामी; अतर्क्य--अकल्पनीय;सहस्त्र--हजारों; शक्ति:--शक्तियों से युक्त |
हे भगवान्, यद्यपि आपको निजी रूप से कुछ करना नहीं रहता, किन्तु आपने अपनीशक्तियाँ प्रकृति के गुणों की अन्तःक्रियाओं में वितरित कर दी हैं जिसके बल परहृश्यजगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार होता है।
हे भगवान्, आप हृढ़संकल्प हैं औरसमस्त जीवों के भगवान् हैं।
आपने उन्हीं के लिए यह संसार रचा और यद्यपि आप एकहैं, किन्तु आपकी शक्तियाँ अनेक प्रकार से कार्य करती हैं।
यह हमारे लिए अकल्पनीयहै।
स त्वं भूतो मे जठरेण नाथकथं नु यस्योदर एतदासीत् ।
विश्व युगान्ते वटपत्र एक: शेते सम मायाशिशुरडूप्रिपान: ॥
४॥
सः--वही पुरुष; त्वमू--तुमने; भूतः--जन्म लिया है; मे जठरेण--मेरे उदर से; नाथ--हे भगवान्; कथम्--कैसे;नु--तब; यस्य--जिसके; उदरे--पेट में; एतत्--यह; आसीत्--स्थित था; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; युग-अन्ते--कल्प केअन्त में; बट-पत्रे--वट वृक्ष के पेड़ की पत्ती पर; एक:--अकेले; शेते स्म--सोते थे; माया--अकल्पनीय शक्तियोंसे युक्त; शिशु:--बालक; अड्ध्रि--अँगूठा; पान:--चूसते हुए।
आपने मेरे उदर से श्रीभगवान् के रूप में जन्म लिया है।
हे भगवन्, यह उस परमेश्वरके लिए किस प्रकार सम्भव हो सका जिसके उदर में यह सारा हश्य-जगत स्थित है?इसका उत्तर होगा कि ऐसा सम्भव है, क्योंकि कल्प के अन्त में आप वटवृक्ष की एकपत्ती पर लेट जाते हैं और एकछोटे से बालक की भाँति अपने चरणकमल के अँगूठे कोचूसते हैं।
त्वं देहतन्त्र: प्रशमाय पाप्मनांनिदेशभाजां च विभो विभूतये ।
यथावतारास्तव सूकरादय-स्तथायमप्यात्मपथोपलब्धये ॥
५॥
त्वमू--तुमने; देह--यह शरीर; तन्त्र:ः--धारण किया है; प्रशमाय--कम करने के लिए; पाप्मनामू--पाप कर्मों का;निदेश-भाजाम्--भक्ति के उपदेश का; च--तथा; विभो--हे प्रभु; विभूतये--विस्तार के लिए; यथा--जिस प्रकार;अवतारा:--अवतार; तव--तुम्हारे; सूकर-आदय:--सूकर तथा अन्य रूप; तथा--उसी प्रकार; अयम्ू--यह कपिलअवतार; अपि--निश्चय ही; आत्म-पथ--आत्म-साक्षात्कार का मार्ग; उपलब्धये--दिखाने के लिए
हे भगवान्, आपने पतितों के पापपूर्ण कर्मों को घटाने तथा उनके भक्ति एवं मुक्तिके ज्ञान को बढ़ाने के लिए यह शरीर धारण किया है।
चूँकि ये पापात्माएँ आपके निर्देशपर आश्रित हैं, अतः आप स्वेच्छा से सूकर तथा अन्य रूपों में अवतरित होते हैं।
इसीप्रकार आप अपने आश्रितों को दिव्य ज्ञान वितरित करने के लिए प्रकट हुए हैं।
यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तनाद्यत्प्रह्मणाद्यत्स्मरणादपि क्वचित् ।
श्रादोडपि सद्यः सबनाय कल्पतेकुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥
६॥
यत्--जिसका भगवान् का ; नामधेय--नाम; श्रवण --सुनना; अनुकीर्तनात्ू-कीर्तन से; यत्--जिसको;प्रह्मणात्--नमस्कार द्वारा; यत्--जिसको; स्मरणात्---स्मरण द्वारा; अपि-- भी; क्वचित्--किसी समय; श्र-अदः--कुत्ता खाने वाला; अपि-- भी; सद्यः--तुरन््त; सवनाय--वैदिक यज्ञ करने के लिए; कल्पते--पात्र बन जाता है;कुतः--क्या कहा जाय; पुनः--फिर; ते--तुम्हारे; भगवन्-- भगवान्; नु--तब; दर्शनात्--साक्षात् दर्शन से |
उन व्यक्तियों की आध्यात्मिक उन्नति के विषय में क्या कहा जाय जो परम पुरुष काप्रत्यक्ष दर्शन करते हैं, यदि कुत्ता खाने वाले परिवार में उत्पन्न व्यक्ति भी भगवान् केपवित्र नाम का एक बार भी उच्चारण करता है अथवा उनका कीर्तन करता है, उनकीलीलाओं का श्रवण करता है, उन्हें नमस्कार करता है, या कि उनका स्मरण करता है, तोवह तुरन्त वैदिक यज्ञ करने के लिए योग्य बन जाता है।
अहो बत श्रपचोतो गरीयान्यजिह्ाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुबुः सस्नुरार्याब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥
७॥
अहो बत--ओह, धन्य है; श्र-पचः--कुत्ता खाने वाला; अत:--अतएव; गरीयान्-- पूज्य; यत्--जिसकी; जिह्ना-अग्रे--जीभ के अगले भाग पर; वर्तते--है; नाम--पवित्र नाम; तुभ्यम्--तुमको; तेपु: तप:ः--अभ्यासकृत तपस्या;ते--वे; जुहुबु:--अग्नि यज्ञ हवन सम्पन्न किये; सस्नुः--पवित्र नदियों में स्नान किया; आर्या: --आर्यजन; ब्रह्मअनूचु:--वेदों का अध्ययन किया; नाम--पवित्र नाम; गृणन्ति--स्वीकार करते हैं; ये--जो; ते--तुम्हारी
ओह! वे कितने धन्य हैं जिनकी जिह्माएँ आपके पवित्र नाम का जप करती हैं! कुत्ताखाने वाले वंशों में उत्पन्न होते हुए भी ऐसे पुरुष पूजनीय हैं।
जो पुरुष आपके पवित्र नाम का जप करते हैं उन्होंने सभी प्रकार की तपस्याएँ तथा हवन किये होंगे और आर्योके सदाचार प्राप्त किये होंगे।
आपके पवित्र नाम का जप करते रहने के लिए उन्होंनेतीर्थस्थानों में स्नान किया होगा, वेदों का अध्ययन किया होगा और अपेक्षित हर वस्तुकी पूर्ति की होगी।
त॑ त्वामहं ब्रह्म परे पुमांसंप्रत्यक्स्नोतस्यात्मनि संविभाव्यम् ।
स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहंबन्दे विष्णुं कपिल वेदगर्भम् ॥
८ ॥
तम्--उसको; त्वामू--तुमको; अहम्--मैं; ब्रह्म --ब्रह्म; परम्--परम; पुमांसमू--परमेश्वर को; प्रत्यक् -स््रोतसि--अन्तर्मुखी; आत्मनि--मन में; संविभाव्यम्-- ध्यान किया, अनुभूत; स्व-तेजसा--अपनी शक्ति से; ध्वस्त--विलीन ;गुण-प्रवाहम्--प्रकृति के गुणों का प्रभाव; बन्दे--नमस्कार करती हूँ; विष्णुमू--विष्णु को; कपिलमू--कपिलनामक; वेद-गर्भम्--वेदों के आगार।
हे भगवान्, मुझे विश्वास है कि आप कपिल नाम से स्वयं पुरुषोम भगवान् विष्णुअर्थात् परब्रह्म हैं।
सारे ऋषि-मुनि इन्द्रियों तथा मन के उद्देगों से मुक्त होकर आपका हीचिन्तन करते हैं, क्योंकि आपकी कृपा से ही मनुष्य भव-बन्धन से छूट सकता है।
प्रलयके समय सारे वेद आपपमें ही स्थान पाते हैं।
मैत्रेय उबाचईंडितो भगवानेवं कपिलाख्य: पर: पुमान् ।
वाचाविक्लवयेत्याह मातरं मातृवत्सल: ॥
९॥
" मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; ईंडित:--प्रशंसा किये जाने पर; भगवानू-- भगवान् ने; एवम्--इस प्रकार; कपिल-आख्य:--कपिल नामक; पर:--परम; पुमान्--पुरुष; वाचा--शब्दों से; अविक्लवया--गम्भीर; इति--इस प्रकार;आह--उत्तर दिया; मातरम्--अपनी माता को; मातृ-वत्सल:--अपनी माता का दुलारा।
इस प्रकार अपनी माता के शब्दों से प्रसन्न होकर मातृवत्सल भगवान् कपिल नेगम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया।
कपिल उवबाचमार्गेणानेन मातस्ते सुसेव्येनोदितेन मे ।
आस्थितेन परां काष्टरामचिरादवरोत्स्यसि ॥
१०॥
कपिल: उवाच--भगवान् कपिल ने कहा; मार्गेण--मार्ग के द्वारा; अनेन--इस; मातः--हे माता; ते--तुम्हारे लिए;सु-सेव्येन--सरलता से सम्पन्न होने वाला, सुगम; उदितेन--उपदेश दिया गया; मे--मेरे द्वारा; आस्थितेन--कियागया; परामू--परम; काष्ठाम्--लक्ष्य; अचिरात्ू--शीघ्र; अवरोत्स्यसि--प्राप्त करोगी |
भगवान् ने कहा : हे माता, मैंने आपको जिस आत्म-साक्षात्कार के मार्ग का उपदेशदिया है, वह अत्यन्त सुगम है।
आप बिना कठिनाई के इसका पालन कर सकती हैं औरऐसा करके आप इसी शरीर जन्म में शीघ्र ही मुक्त हो सकती हैं।
श्रद्धत्स्वैतन्मतं महमं जुष्टे यद्रह्मावादिभि: ।
येन मामभयं याया मृत्युमृच्छन्त्यतद्विद: ॥
११॥
श्रद्धत्व--आप आश्वस्त रहें; एतत्--इस विषय में; मतम्--उपदेश; महाम्--मेरा; जुष्टम्--पालन किया गया;यत्--जो; ब्रह्म-वादिभि:--अध्यात्मवादियों द्वारा; येन--जिससे; माम्--मुझको; अभयम्-- भयरहित; याया: -- तुमपहुँचोगी; मृत्युम्--मृत्यु को; ऋच्छन्ति--प्राप्त करते हैं; अ-तत्-विद:ः--जो लोग इससे अवगत नहीं हैं|
है माता, जो लोग वास्तव में अध्यात्मवादी हैं, वे निश्चित ही मेरे उपदेशों का पालनकरते हैं, जो मैंने आपको बताये हैं।
आप आश्वस्त रहें, यदि आप इस आत्म-साक्षात्कारके मार्ग पर सम्यक रीति से चलेंगी तो आप समस्त भयावह भौतिक कल्मष से मुक्तहोकर अन्त में मेरे पास पहुँचेंगी।
हे माता, जो लोग भक्ति की इस विधि से अवगत नहींहैं, वे जन्म-मरण के चक्र से बाहर नहीं निकल सकते।
मैत्रेय उवाचइति प्रदर्श् भगवान्सतीं तामात्मनो गतिम् ।
स्वमात्रा ब्रह्मवादिन्या कपिलोनुमतो ययौ ॥
१२॥
मैत्रेयः उवाच--मैत्रेय ने कहा; इति--इस प्रकार; प्रदर्शश--उपदेश देकर; भगवान्ू-- भगवान्; सतीम्--आदरणीयाको; ताम्ू--उस; आत्मन:--आत्म-साक्षात्कार का; गतिम्--पथ; स्व-मात्रा-- अपनी माता से; ब्रह्म-वादिन्या--स्वरूपसिद्ध; कपिल:-- भगवान् कपिल के; अनुमतः--आज्ञा ली; ययौ--चला गया
श्री मैत्रेय ने कहा : अपनी ममतामयी माता को उपदेश देकर भगवान् कपिल ने उनसेआज्ञा माँगी और अपना लक्ष्य पूरा हो जाने के कारण उन्होंने अपना घर छोड़ दिया।
सा चापि तनयोक्तेन योगादेशेन योगयुक् ।
तस्मिन्नाश्रम आपीडे सरस्वत्या: समाहिता ॥
१३॥
सा--वह; च--तथा; अपि-- भी; तनय-- अपने पुत्र द्वारा; उक्तेन--कहा गया; योग-आदेशेन--योग सम्बन्धी उपदेशसे; योग-युक्ू--भक्तियोग में लगी हुईं; तस्मिन्ू--उस; आश्रमे--कुटिया में; आपीडे--फूलों का मुकुट;सरस्वत्या:--सरस्वती का; समाहिता--समाधि में स्थिर
अपने पुत्र के उपदेशानुसार देवहूति उसी आश्रम में भक्तियोग का अभ्यास करनेलगीं।
उन्होंने कर्दम मुनि के घर में समाधि लगाई, जो फूलों से इस प्रकार सुसज्जित थामानो सरस्वती नदी का फूलों का मुकुट हो।
अभीक्ष्णावगाहकपिशान्जटिलान्कुटिलालकान् ।
आत्मानं चोग्रतपसा बिभ्रती चीरिणं कृशम् ॥
१४॥
अभीक्ष्ण--पुनः पुनः, बारम्बार; अवगाह--नहाने से; कपिशानू-- भूरे; जटिलानू--जटा रूप; कुटिल--घुंघराले;अलकानू--बाल; आत्मानम्--उनका शरीर; च--तथा; उग्र-तपसा--कठोर तपस्या से; बिभ्रती--हो गया;चीरिणम्--चिथड़ों से ढकी; कृशम्--दुबली |
वे तीन बार स्नान करने लगीं और इस तरह उनके घुँघराले काले-काले बाल क्रमशःभूरे पड़ गये।
तपस्या के कारण उनका शरीर धीरे-धीरे दुबला हो गया और वे पुराने वस्त्रधारण किये रहीं।
प्रजापते: कर्दमस्य तपोयोगविजूम्भितम् ।
स्वगाहस्थ्यमनौपम्यं प्रार्थ वैमानिकेरपि ॥
१५॥
प्रजा-पतेः--प्रजापति, मानव जाति के जनक; कर्दमस्य--कर्दम मुनि की; तपः--तपस्या से; योग--योग से;विजृम्भितम्--विकसित, समृद्ध; स्व-गाईस्थ्यम्--अपना घर तथा गृहस्थी; अनौपम्यम्--अद्वितीय; प्रार्थ्यम्--ईर्ष्याकी वस्तु; वैमानिकै:--स्वर्ग के वासियों से; अपि-- भी |
प्रजापति कर्दम का घर तथा उनकी गृहस्थी उनकी तपस्या तथा योग के बल पर इसप्रकार समृद्ध थी कि उनके ऐश्वर्य से आकाश में विमान से यात्रा करने वाले लोग भीईर्ष्या करते थे।
'पयःफेननिभा: शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदा: ।
आसनानि च हैमानि सुस्पर्शास्तरणानि च ॥
१६॥
'पयः--दूध का; फेन--फेन; निभा: --सहश; शय्या: -- पलँग; दान्ता:ः--हाथी-दाँत के ; रुक्म--सुनहले;परिच्छदा:--पर्दों सहित; आसनानि--कुर्सियाँ तथ बेंचें; च--तथा; हैमानि--सोने की; सु-स्पर्श--छूने में मुलायम;आस्तरणानि-गद्दियाँ; च--तथा |
यहाँ पर कर्दम मुनि के घरेलू ऐश्वर्य का वर्णन हुआ है।
चादर तथा चटाइयाँ दूध केफेन के समान श्वेत थीं, कुर्सियाँ तथा बेंचें हाथीदाँत की बनी थीं और वे सुनहरी जरीदारवस्त्र से ढकी थीं तथा पलँग सोने के बने थे जिन पर अत्यन्त मुलायम गद्दियाँ थीं।
स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
रलप्रदीपा आभान्ति ललना रत्नसंयुता: ॥
१७॥
स्वच्छ--शुद्ध; स्फटिक--संगमरमर; कुड्येषु--दीवालों पर; महा-मारकतेषु-- मूल्यवान मरकत मणि से अलंकृत;च--तथा; रत-प्रदीपाः--मणियों के दीपक; आभान्ति--चमकते है; ललना:--स्त्रियाँ; रतत--आभूषणों से;संयुता:--अलंकृत ।
घर की दीवालें उत्तमकोटि के संगमरमर की थीं और बहुमूल्य मणियों से अलंकृतथीं।
वहाँ प्रकाश की आवश्यकता न थी, क्योंकि इन मणियों की किरणों से घरप्रकाशित था।
घर की सभी स्त्रियाँ आभूषणों से अलंकृत थीं।
गृहोद्यानं कुसुमितै रम्यं बह्ममरद्रुमै: ।
कूजद्विहड्गरमिथुनं गायन्मत्तमधुव्रतम् ॥
१८ ॥
गृह-उद्यानम्-घरेलू बाग; कुसुमितैः--फूलों तथा फलों से; रम्यम्--सुन्दर; बहु-अमर-द्रुमैः --अनेक कल्पवृक्षोंसहित; कूजत्-गाते हुए; विहड्गन-- पक्षियों का; मिथुनम्--जोड़ा; गायत्--गुनगुनाती; मत्त--मतवाली; मधु-ब्रतम्--मधुमक्खियों सहित।
मुख्य घर का आँगन सुन्दर बगीचों से घिरा था जिनमें मधुर सुगन्धित फूल तथाअनेक वृक्ष थे जिनमें ताजे फल उत्पन्न होते थे और वे ऊँचे तथा सुन्दर थे।
ऐसे बगीचोंका आकर्षण यह था कि गाते पक्षी वृक्षों पर बैठते और उनके कलरव से तथामधुमक्खियों की गुंजार से सारा वातावरण यथासम्भव मोहक बना हुआ था।
यत्र प्रविष्टमात्मानं विबुधानुचरा जगुः ।
वाप्यामुत्पलगन्धिन्यां कर्दमेनोपलालितम् ॥
१९॥
यत्र--जहाँ; प्रविष्टम्--प्रविष्ट हुए; आत्मानम्--अपने ही; विबुध-अनुचरा:--स्वर्ग के वासियों के संगी; जगुः--गाया; वाप्यामू--ताल में; उत्पल--कमल; गन्धिन्याम्--सुगंध से; कर्दमेन--कर्दम द्वारा; उपलालितम्--सावधानी सेपाला गया।
जब देवहूति उस सुन्दर बगीचे में कमल फूलों से भरे हुए ताल में स्नान करने केलिए प्रवेश करतीं तो स्वर्गवासियों के संगी गर्न्धवगण कर्दम के महिमामय गृहस्थ जीवनका गुणगान करते।
देवहूति के महान् पति कर्दम उन्हें सभी कालों में सुरक्षा प्रदान करतेरहे।
हित्वा तदीप्सिततममप्याखण्डलयोषिताम् ।
किश्ञिच्चकार बदन पुत्रविश्लेषणातुरा ॥
२०॥
हित्वा--त्याग कर; तत्--वह घर; ईप्सित-तमम्--अभीष्ट; अपि--ही; आखण्डल-योषिताम्--इन्द्र की पत्नियों द्वारा;किझ्जित् चकार वदनम्-- उसके मुख पर उदासी छायी थी; पुत्र-विश्लेषण--अपने पुत्र के वियोग से; आतुरा--दुखी |
यद्यपि उनकी स्थिति सभी प्रकार से अद्वितीय थी, किन्तु साध्वी देवहूति ने इतनीसम्पत्ति होते हुए भी, जिसकी ईर्ष्या स्वर्ग की सुन्दरियाँ भी करती थीं, अपने सारे सुखत्याग दिये।
उन्हें यह शोक था कि उनका इतना महानू् पुत्र उनसे विलग हो रहा है।
बन॑ प्रत्नजिते पत्यावपत्यविरहातुरा ।
ज्ञाततत्त्वाप्यभून्रष्टे वत्से गौरिव वत्सला ॥
२१॥
वनम्--वन को; प्रत्नजिते पत्यौ--पति के चले जाने पर; अपत्य-विरह--अपने पुत्र के विरह से; आतुरा--अत्यन्तदुखी; ज्ञात-तत्त्वा--सत्य का ज्ञान; अपि--यद्यपि; अभूत्--हो गई; नष्टे वत्से--बछड़ा मर जाने पर; गौ: --गाय;इब--के सहश; वत्सला--स्नेहिल |
देवहूति के पति ने पहले ही गृहत्याग करके संन्यास आश्रम ग्रहण कर लिया था औरतब उनके एकमात्र पुत्र कपिल ने घर छोड़ दिया।
यद्यपि उन्हें जीवन तथा मृत्यु के सारेसत्य ज्ञात थे और यद्यपि उनका हृदय सभी प्रकार के मल से रहित था, किन्तु वे अपनेपुत्र के जाने से इस तरह दुखी थीं जिस प्रकार कि बछड़े के मरने पर गाय दुखी होती है।
तमेव ध्यायती देवमपत्यं कपिल हरिम् ।
बभूवाचिरतो वत्स निःस्पृहा ताहशे गृहे ॥
२२॥
तम्--उसको; एव--निश्चय ही; ध्यायती--ध्यान करती; देवम्--दैवी; अपत्यम्--पुत्र; कपिलमू--कपिल को;हरिम्ू-- भगवान्; बभूव--हो गयी; अचिरत:--तुरन्त; वत्स--हे विदुर; निःस्पृहा--अनासक्त; ताहशे गृहे--ऐसे घरके प्रति
हे विदुर, इस प्रकार अपने पुत्र भगवान् कपिलदेव का ध्यान करती हुईं वे शीघ्र हीउत्तम ढंग से सजे अपने घर के प्रति अनासक्त हो उठीं।
ध्यायती भगवद्गूपं यदाह ध्यानगोचरम् ।
सुतः प्रसन्नवदनं समस्तव्यस्तचिन्तया ॥
२३॥
ध्यायती--ध्यानमग्न; भगवत्-रूपम्-- भगवान् के स्वरूप को; यत्--जो; आह--उपदेश दिया; ध्यान-गोचरम्--ध्यान की वस्तु; सुत:--अपना पुत्र; प्रसन्न-वदनम्-- प्रसन्नमुख से; समस्त--समग्र; व्यस्त--अंगों का; चिन्तया--अपने मन से
तत्पश्चात् निरन्तर हँसमुख अपने पुत्र भगवान् कपिलदेव से अत्यन्त उत्सुकतापूर्वकएवं विस्तारपूर्वक सुनकर देवहूति परमेश्वर के विष्णुस्वरूप का निरन्तर ध्यान करने लगीं।
भक्तिप्रवाहयोगेन वैराग्येण बलीयसा ।
युक्तानुष्ठानजातेन ज्ञानेन ब्रह्महतुना ॥
२४॥
विशुद्धेन तदात्मानमात्मना विश्वतोमुखम् ।
स्वानुभूत्या तिरोभूतमायागुणविशेषणम् ॥
२५॥
भक्ति-प्रवाह-योगेन--निरन्तर भक्ति में लगे रहने से; बैराग्येण--वैराग्य द्वारा; बलीयसा--अत्यन्त प्रबल; युक्त-अनुष्ठान--उचित ढंग से कर्मो को करने से; जातेन--उत्पन्न; ज्ञानेन--ज्ञान से; ब्रह्म-हेतुना--ब्रह्म-साक्षात्कार होने से;विशुद्धेन--शुद्धिकरण से; तदा--तब; आत्मानम्-- भगवान् को; आत्मना--मन से; विश्वत:-मुखम्--जिसका मुखचारों ओर घूमता है; स्व-अनुभूत्या--आत्म-साक्षात्कार से; तिर:-भूत--अप्रकट; माया-गुण--प्रकृति के गुणों का;विशेषणम्--विशेष |
उन्होंने भक्ति में गम्भीरतापूर्वक संलग्न रह कर ऐसा किया।
चूँकि उनका वैराग्यप्रबल था, अतः उन्होंने मात्र शरीर की आवश्यकताओं को ग्रहण किया।
वे ब्रह्म-साक्षात्कार के कारण ज्ञान में व्यवस्थित हुईं, उनका हृदय शुद्ध हो गया, वे भगवान् केध्यान में पूर्णतः निमग्न हो गईं और प्रकृति के गुणों से उत्पन्न सारी दुर्भावनाएँ समाप्त होगईं।
ब्रह्मण्यवस्थितमतिर्भगवत्यात्मसं श्रये ।
निवृत्तजीवापत्तित्वात्क्षीणक्लेशाप्तनिर्वृति: ॥
२६॥
ब्रह्मणि--ब्रह्म में; अवस्थित--स्थित; मति:--मन; भगवति-- भगवान् में; आत्म-संश्रये--सभी जीवों में वास करनेवाला; निवृत्त--मुक्त; जीव--जीवात्मा का; आपत्तित्वात्-दुर्भाग्य से; क्षीण--लुप्त; क्लेश--कष्ट; आप्त--प्राप्त;निर्वृतिः--दिव्य आनन्द
उनका मन भगवान् में पूर्णतः निमग्न हो गया और उन्हें स्वतः निराकार ब्रह्म का बोधहो गया।
ब्रह्म-सिद्ध आत्मा के रूप में वे भौतिक जीवन-बोध की उपाधियों से मुक्त होगईं।
इस प्रकार उनके सारे क्लेश मिट गये और उन्हें दिव्य आनन्द प्राप्त हुआ।
नित्यारूढसमाधित्वात्परावृत्तगुण भ्रमा ।
न सस्मार तदात्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोत्थित: ॥
२७॥
नित्य--शाश्वत; आरूढ--स्थित; समाधित्वात्--समाधि से; परावृत्त--मुक्त; गुण--प्रकृति के गुणों का; भ्रमा--भ्रम; न सस्मार--उसे स्मरण नहीं आया; तदा--तब; आत्मानम्--अपना शरीर; स्वप्ने-- स्वप्न में; दृष्टमू-- देखा हुआ;इब--जिस प्रकार; उत्थित:--जागा हुआ।
नित्य समाधि में स्थित होने तथा प्रकृति के गुणों से उत्पन्न भ्रम से मुक्त होने केकारण उन्हें अपना शरीर वैसे ही भूल गया जिस तरह मनुष्य को स्वप्न में अपने विविधशरीर भूल जाते हैं।
तद्देह: परत: पोषोप्यकृशश्चाध्यसम्भवात् ।
बभौ मलैरवच्छन्न: सधूम इव पावक: ॥
२८॥
तत्-देह:--उनका शरीर; परतः--अन्यों से कर्दम द्वारा उत्पन्न युवतियों से ; पोष:--पाला गया; अपि--यद्यपि;अकृशः--दुबला नहीं; च--तथा; आधि--चिन्ता; असम्भवात्--उत्पन्न न होने से; बभौ--चमका; मलै:-- धूल से;अवच्छन्न:--ढका हुआ; स-धूम:--धुएँ से घिरा; इब--सहृश; पावक:--अग्नि।
उसके शरीर की देखभाल उसके पति कर्दम द्वारा उत्पन्न अप्सराओं द्वारा की जा रहीथी और चूँकि उस समय उसे किसी प्रकार की मानसकि चिन्ता न थी, अतः उसका शरीरदुर्बल नहीं हुआ।
वह धुएँ से घिरी हुई अग्नि के समान प्रतीत हो रही थी।
स्वाड्रं तपोयोगमयं मुक्तकेशं गताम्बरम् ।
दैवगुप्तं न बुबुधे वासुदेवप्रविष्टधी: ॥
२९॥
स्व-अड्डम्ू--अपना शरीर; तप:ः--तपस्या; योग--योगाभ्यास; मयम्--पूर्णतया संलग्न; मुक्त--खुले हुए; केशम्--बाल; गत--अस्तव्यस्त; अम्बरम्--वस्त्र; दैव-- भगवान् द्वारा; गुप्तम्--रक्षित; न--नहीं; बुबुधे--उसे पता था;वासुदेव-- भगवान् में; प्रविष्ट--तल्लीन; धी: --विचार
भगवान् के विचार में सदैव तलल्लीन रहने के कारण उसे इसकी सुधि भी न रही किउसके बाल बिखर गये हैं और उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये हैं।
एवं सा कपिलोक्तेन मार्गेणाचिरत: परम् ।
आत्मानं ब्रह्मनिर्वाणं भगवन्तमवाप ह ॥
३०॥
एवम्--इस प्रकार; सा--वह देवहूति ; कपिल--कपिल द्वारा; उक्तेन--बताये; मार्गेण--मार्ग से; अचिरतः --शीघ्र; परमू--परम; आत्मानम्--परमात्मा को; ब्रह्म--ब्रह्म; निर्वाणमम्ू--जीवन का अन्त; भगवन्तम्-- भगवान् को;अवाप- प्राप्त किया; ह--निश्चय ही
हे विदुर, कपिल द्वारा बताये गये नियमों का पालन करते हुए देवहूति शीघ्र ही भव-बन्धन से मुक्त हो गई और बिना कठिनाई के परमात्मास्वरूप भगवान् को प्राप्त हुईं।
तद्दवीरासीत्पुण्यतमं क्षेत्र त्रैलोक्यविश्रुतम् ।
नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी ॥
३१॥
तत्--वह; वीर--हे वीर विदुर; आसीतू-- था; पुण्य-तमम्--सर्वाधिक पवित्र; क्षेत्रम्ू--स्थान; त्रै-लोक्य--तीनोंलोकों में; विश्रुतम्--विख्यात; नाम्ना--नाम से; सिद्ध-पदम्--सिद्ध पद; यत्र--जहाँ; सा--उसने देवहूति ने ;संसिद्धिम्--सिद्धि; उपेयुषी -- प्राप्त की
हे विदुर, जिस स्थान पर देवहूति ने सिद्धि प्राप्त की वह स्थान अत्यन्त पवित्र मानाजाता है।
यह तीनों लोकों में सिद्धपद के नाम से विख्यात है।
तस्यास्तद्योगविधुतमार्त्य मर्त्यमभूत्सरित् ।
सत्रोतसां प्रवरा सौम्य सिद्धिदा सिद्धसेविता ॥
३२॥
तस्या:--देवहूति का; तत्ू--वह; योग--योग द्वारा; विधुत--परित्यक्त; मार्त्यमू-- भौतिक तत्त्व; मर्त्यम्--समस्तनदियों में; अभूत्--हो गया; सरित्--नदी; स्रोतसाम्--समस्त नदियों में; प्रवरा--अग्रणी; सौम्य--हे भद्ग विदुर;सिद्धि-दा--सिद्धि देने वाली; सिद्ध--सिद्धि के इच्छुक पुरुषों द्वारा; सेविता--सेवित |
हे विदुर, उनके शरीर के तत्त्व पिघलकर जल बन गये और अब समस्त नदियों मेंसबसे पवित्र नदी के रूप में बह रहे हैं।
जो भी इस नदी में स्नान करता है उसे सिद्धिप्राप्त होती है, अतः सिद्धि के इच्छुक लोग उसमें स्नान करते हैं।
कपिलोपि महायोगी भगवान्पितुरा श्रमात् ।
मातरं समनुज्ञाप्य प्रागुदीचीं दिशं ययौ ॥
३३॥
कपिल:-- भगवान् कपिल; अपि--निश्चय ही; महा-योगी--ऋषि; भगवान्-- भगवान्; पितु:--अपने पिता के;आश्रमात्--कुटी में; मातरम्--अपनी माता से; समनुज्ञाप्प--आज्ञा लेकर; प्राकू-उदीचीम्--उत्तर-पूर्व, ईशानकोण;दिशम्--दिशा को; ययौ--चला गया।
हे विदुर, महामुनि भगवान् कपिल अपनी माता की आज्ञा से अपने पिता का आश्रमछोड़कर उत्तरपूर्व दिशा की ओर चले गये।
सिद्धचारणगन्धर्वर्मुनिभिश्चाप्सरोगणै: ।
स्तूयमानः समुद्रेण दत्ताहणनिकेतन: ॥
३४॥
सिद्ध--सिद्धों द्वारा; चारण--चारणों द्वारा; गन्धर्वै: --गन्धर्वों द्वारा; मुनिभि:--मुनियों द्वारा; च--तथा; अप्सरः-गणै:--अप्सराओं स्वर्ग लोक की सुन्दरियाँ द्वारा; स्तूयमान:--स्तुति किये गये; समुद्रेण--समुद्र द्वारा; दत्त--दियागया; अहण--पूजन; निकेतन:--रहने का स्थान ।
जब वे उत्तर दिशा की ओर जा रहे थे तो चारणों, गन्धर्बों, मुनियों तथा अप्सराओं नेउनकी स्तुति की और सब प्रकार से उनका सम्मान किया।
समुद्र ने उनका पूजन कियाऔर रहने के लिए स्थान दिया।
आस्ते योगं समास्थाय साड्ख्याचार्यरभिष्टृत: ।
त्रयाणामपि लोकानामुपशान्त्यै समाहित: ॥
३५॥
आस्ते--रह रहा है; योगम्--योग; समास्थाय-- अभ्यास करके; साड्ख्य--सांख्य दर्शन के; आचार्य :--महान्शिक्षकों द्वारा; अभिष्ठृत:--पूजित; त्रयाणाम्ू--तीन; अपि-- भी; लोकानाम्--लोकों के ; उपशान्त्यै--उद्धार के लिए;समाहित:ः--समाधि में स्थित।
आज भी कपिल मुनि तीनों लोकों के बद्धजीवों के उद्धार हेतु वहाँ समाधिस्थ हैंऔर सांख्य दर्शन के समस्त आचार्य उनकी पूजा करते हैं।
एतन्निगदितं तात यत्पृष्टोहं तवानघ ।
कपिलस्य च संवादो देवहूत्याश्व पावन: ॥
३६॥
एतत्--यह; निगदितम्--कहा गया; तात--हे विदुर; यत्--जो; पृष्ट:--पूछे जाने पर; अहम्--मैंने; तव-- तुम्हारेद्वारा; अनघ--हे पापरहित विदुर; कपिलस्थ--कपिल की; च--तथा; संवाद:--वार्ता; देवहूत्या:--देवहूति की;च--तथा; पावन:-शुद्ध |
हे पुत्र, तुम्हारे पूछे जाने पर मैंने तुम्हें बताया।
हे पापरहित, कपिलदेव तथा उनकीमाता के वृत्तान्त तथा उनके कार्यकलाप समस्त वार्ताओं में शुद्धतम् हैं।
य इदमनुश्रुणोति योभिथत्तेकपिलमुनेर्मतमात्मयोगगुहाम् ।
भगवति कृतधी: सुपर्णकेताव्उपलभते भगवत्पदारविन्दम् ॥
३७॥
यः--जो भी; इृदम्--इसे; अनुश्रुणोति--सुनता है; यः--जो भी; अभिधत्ते--व्याख्या करता है; कपिल-मुने:--कपिल मुनि का; मतम्--उपदेश; आत्म-योग-- भगवान् के ध्यान पर आधारित; गुहाम्--गुप्त, गूढ़; भगवति--भगवान् पर; कृत-धी:--स्थिर मन से; सुपर्ण-केतौ--गरुड़ की ध्वजा वाले; उपलभते--प्राप्त करता है; भगवत्--भगवान् के; पद-अरविन्दम्--चरणकमल।
कपिलदेव तथा उनकी माता के व्यवहारों का विवरण अत्यन्त गोपनीय है और जोभी इस वृत्तान्त को सुनता या पढ़ता है, वह गरुड़ध्वज भगवान् का भक्त बन जाता हैऔर बाद में उनकी दिव्य प्रेमा-भक्ति में प्रवृत्त होने के लिए भगवद्धाम में प्रवेश करताहै।