श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 2

  • अध्याय एक: ईश्वर प्राप्ति में पहला कदम

  • अध्याय दो: हृदय में भगवान

  • अध्याय तीन: शुद्ध भक्ति सेवा: हृदय में परिवर्तन

  • अध्याय चार: निर्माण की प्रक्रिया

  • अध्याय पाँच: सभी कारणों का कारण

  • अध्याय छह: पुरुष-सूक्त की पुष्टि

  • अध्याय सात: विशिष्ट कार्यों के साथ अनुसूचित अवतार

  • अध्याय आठ: राजा परीक्षित के प्रश्न

  • अध्याय नौ: प्रभु के संस्करण का हवाला देकर उत्तर

  • अध्याय दस: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है

    अध्याय एक: ईश्वर प्राप्ति में पहला कदम

    2.1श्री -शुक उवाचवरीयानेष ते प्रश्न: कृतो लोक-हितं नृप ।'आत्मवित्सम्मत:पुंसांश्रोतव्यादिषु यः पर: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; वरीयान्‌--महिमायुक्त; एष:--यह; ते--तुम्हारा; प्रश्न:--प्रश्न, सवाल;कृत:ः--तुम्हारे द्वारा किया गया; लोक-हितम्‌--सभी मनुष्यों के लिए लाभप्रद; नृप--हे राजा; आत्मवित्‌--अध्यात्मवादी,योगी; सम्मतः--स्वीकृत; पुंसामू--सभी पुरुषों का; श्रोतव्य-आदिषु--सभी प्रकार के श्रवण में; यः--जो है; पर:--परम,सर्वश्रेष् ठ

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, आपका प्रश्न महिमामय है, क्योंकि यह समस्तप्रकार के लोगों के लिए बहुत लाभप्रद है। इस प्रश्न का उत्तर श्रवण करने का प्रमुख विषय है और समस्त अध्यात्मवादियों ने इसको स्वीकार किया है।

    श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्त्रशः ।अपश्यतामात्म-तत्त्वं गृहेषु गृह-मेधिनाम्‌ ॥

    २॥

    श्रोतव्य-आदीनि-- श्रवण योग्य विषयों में; राजेन्द्र--हे सप्राट; नृणामू--मानव समाज का; सन्ति--हैं; सहस्त्रश:--सैकड़ों तथाहजारों; अपश्यताम्‌--अंधे का; आत्म-तत्त्वम्‌--आत्म-ज्ञान, परम सत्य; गृहेषु--घर में; गृह-मेधिनाम्‌-- भौतिकता में फँसेव्यक्तियों का

    है सप्राट, भौतिकता में उलझे उन व्यक्तियों के पास जो परम सत्य विषयक ज्ञान के प्रतिअंधे हैं, मानव समाज में सुनने के लिए अनेक विषय होते हैं।

    निद्रया हियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः ।दिवा चार्थहया राजन्‌ कुटुम्ब-भरणेन वा ॥

    ३॥

    निद्रया--सो करके; हियते--नष्ट करते हैं; नक्तम्‌--रात्रि; व्यवायेन--मैथुन में; च-- भी; वा--या तो; वबः--जीवन-अवधि,आयु; दिवा--दिन; च-- भी; अर्थ--आर्थिक; ईहया--विकास; राजन्‌--हे राजा; कुटुम्ब--पारिवारिक सदस्यों के; भरणेन--पालन करने में; वा--अथवा।।

    ऐसे ईर्ष्यालु गृहस्थ ( गृहमेधी ) का जीवन रात्रि में या तो सोने या मैथुन में रत रहने तथा दिनमें धन कमाने या परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण में बीतता है।

    देहापत्य-कलत्रादिष्वात्म-सैन्येष्वसत्स्वपि ।

    तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥

    ४॥

    देह--शरीर; अपत्य--बच्चे; कलत्र--पती; आदिषु--तथा अन्य सारे सम्बन्धों में; आत्म--निजी; सैन्येषु--सिपाहियों में;असत्सु--पतनशील; अपि--के बावजूद; तेषाम्‌--उन सबों का; प्रमत्त:--अत्यधिक आसक्त; निधनम्‌--विनाश; पश्यन्‌--अनुभव करके; अपि--यद्यपि; न--नहीं; पश्यति--देखते हैं |

    आत्मतत्त्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते, क्योंकिवे शरीर, बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं।

    पर्याप्तअनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यंभावी मृत्यु को नहीं देख पाते।

    तस्माद्धारत सर्वात्मा भगवानी श्वरो हरिः ।

    श्रोतव्य: कीर्तितव्यश्व स्मर्तव्यश्रेच्छताभयम्‌ ॥

    ५॥

    तस्मात्‌ू--अतएव; भारत--हे भरतवंशी; सर्वात्मा--परमात्मा; भगवान्‌-- भगवान्‌; ईश्वर: --नियामक; हरि: -- भगवान्‌, जो सारेकष्टों को हरनेवाले हैं; श्रोतव्य:-- श्रवणीय है; कीर्तितव्य:--महिमागायन के योग्य; च-- भी; स्मर्तव्य:--स्मरणीय; च--तथा;इच्छता--इच्छा करनेवाले की; अभयम्‌--स्वतन्त्रता |

    हे भरतवंशी, जो समस्त कष्टों से मुक्त होने का इच्छुक है उसे उन भगवान्‌ का श्रवण,महिमा-गायन तथा स्मरण करना चाहिए जो परमात्मा, नियंता तथा समस्त कष्टों से रक्षा करनेवाले हैं।

    एतावान्‌ साड्ख्य-योगाभ्यां स्व-धर्म-परिनिष्ठया ।

    जन्म-लाभ: पर: पुंसामन्ते नारायण-स्मृति: ॥

    ६॥

    एतावान्‌--ये सब; साड्ख्य--पदार्थ तथा आत्मा विषयक पूर्ण ज्ञान; योगाभ्याम्‌--योगशक्ति के ज्ञान से; स्व-धर्म--विशिष्टवृत्तिपरक कर्तव्य; परिनिष्ठया--पूर्ण अनुभूति के द्वारा; जन्म--जन्म; लाभ:--लाभ; पर: --परम; पुंसामू-- पुरुष का; अन्ते--अन्त में; नारायण-- भगवान्‌ की; स्मृति:--स्मृति, याद |

    पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति से या स्वधर्म का भलीभाँति पालन करने सेमानव जीवन की जो सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान्‌का स्मरण करना।

    प्रायेण मुनयो राजन्निवृत्ता विधि-षेधत: ।

    नैर्गुण्य-स्था रमन्ते सम गुणानुकथने हरे: ॥

    ७॥

    प्रायेण--मुख्यतया; मुनयः --सारे मुनि; राजन्‌--हे राजा; निवृत्ता:--ऊपर उठे हुए, निवृत्त; विधि--विधि-विधान; षेधत: --प्रतिबन्धों से; नैर्गुण्य-स्था:-- आध्यात्मिक रूप से स्थित; रमन्ते--आनन्द लेते हैं; स्म--प्रकट रूप से; गुण-अनुकथने--महिमाका वर्णन करते हुए; हरेः-- भगवान्‌ की

    हे राजा परीक्षित, मुख्यतया सर्वोच्च अध्यात्मवादी, जो विधि-विधानों एवं प्रतिबन्धों से ऊपरहैं, भगवान्‌ का गुणगान करने में आनन्द का अनुभव करते हैं।

    इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्म -सम्मितम्‌ ।

    अधीततवान्‌ द्वापरादौ पितुद्वैँपायनादहम्‌ ॥

    ८ ॥

    इदम्‌--यह; भागवतम्‌-- श्रीमद्भागवत; नाम--नाम वाला; पुराणम्‌--वैदिक अनुपूरक, पुराण; ब्रह्म-सम्मितम्‌--वेदों के सारस्वरूप स्वीकृत; अधीतवान्‌--अध्ययन किया; द्वापर-आदौ--द्वापर युग के अन्त में; पितु:--अपने पिता से; द्वैघणायनात्‌--द्वैषायन व्यासदेव से;

    अहम्‌--मैंने स्वयं द्वापर युग के अन्त में अपने पिता श्रील द्वैपायन व्यासदेव से मैंने श्रीमद्भागवत नाम के इसमहान्‌ वैदिक साहित्य के अनुपूरक ग्रंथ का अध्ययन किया, जो समस्त वेदों के तुल्य है।

    परिनिष्ठितोपि नैर्गुण्य उत्तम-शलोक-लीलया ।

    गृहीत-चेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान्‌ ॥

    ९॥

    परिनिष्ठित:--पूर्णतया अनुभूत; अपि-- भी; नैर्गुण्ये-- अध्यात्म में; उत्तम--प्रबुद्ध; एलोक--श्लोक; लीलया--लीलाओं केद्वारा; गृहीत--आकृष्ट; चेता:--ध्यान; राजर्षे--हे राजर्षि; आख्यानम्‌--वर्णन, चित्रण; यत्‌--जो; अधीतवान्‌--मैंने अध्ययनकिया है।

    हे राजर्षि, मैं दृढ़तापूर्वक अध्यात्म में पूर्ण रूप से स्थित था तथापि मैं उन भगवान्‌ कीलीलाओं के वर्णन के प्रति आकृष्ट हुआ, जिनका वर्णन उत्तम एलोकों द्वारा किया जाता है।

    तदहं तेडभिधास्यामि महा-पौरुषिको भवान्‌ ।

    यस्य श्रदधतामाशु स्यान्मुकुन्दे मतिः सती ॥

    १०॥

    तत्‌--वह; अहम्‌--मैं; ते--तुमको; अभिधास्यामि--सुनाऊँगा; महा-पौरुषिक:-- भगवान्‌ कृष्ण का अत्यन्त निष्ठावान भक्त;भवान्‌--आप; यस्य--जिसका; श्रद्धधताम्‌-पूरी तरह सम्मान तथा ध्यान देनेवाले का; आशु--अत्यन्त शीघ्र; स्थातू-ऐसा हो;मुकुन्दे-- भगवान्‌ में, जो मोक्ष-दाता हैं; मति:-- श्रद्धा; सती--निश्चल |

    मैं उसी श्रीमद्भागवत को आपको सुनाने जा रहा हूँ, क्योंकि आप भगवान्‌ कृष्ण केअत्यन्त निष्ठावान भक्त हैं।

    जो व्यक्ति श्रीमद्भागवत को पूरे मनोयोग से तथा सम्मानपूर्वक सुनताहै, उसे मोक्षदायक परमेश्वर की अविचल श्रद्धा प्राप्त होती है।

    एतन्निर्विद्यमानानामिच्छतामकुतो - भयम्‌ ।

    योगिनां नृप निर्णातं हरे्नामानुकीर्तनम्‌ ॥

    ११॥

    एतत्‌--यह है; निर्विद्यमानानाम्‌ू--जो समस्त भौतिक इच्छाओं से पूरी तरह मुक्त हैं, उनका; इच्छताम्‌--जो समस्त प्रकार केभौतिक भोग के इच्छुक हैं, उनका; अकुतः-भयम्‌--समस्त सन्देहों तथा भय से मुक्त; योगिनाम्‌--आत्मतुष्टों का; नृप--हेराजा; निर्णीतम्‌--निश्चित सत्य; हरेः-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण का; नाम--पवित्र नाम; अनु--किसी के पीछे, सदैव; कीर्तनम्‌--कीर्तन

    हे राजन, महापुरुषों का अनुगमन करके भगवान्‌ के पवित्र नाम का निरन्तर कीर्तन उनसमस्त लोगों के लिए सफलता का निःसंशय तथा निर्भीक मार्ग है, जो समस्त भौतिक इच्छाओंसे मुक्त हैं, अथवा जो समस्त भौतिक भोगों के इच्छुक हैं और उन लोगों के लिए भी, जो दिव्यज्ञान के कारण आत्मतुष्ट हैं।

    कि प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह ।

    वरं मुहूर्त विदितं घटते श्रेयसे यत: ॥

    १२॥

    किम्‌--क्या है; प्रमत्तस्य--मोहग्रस्त का; बहुभि: --बहुतों के द्वारा; परोक्षे:--अनुभव-विहीन; हायनै: --वर्षो तक; इह--इससंसार में; वरम्‌-- श्रेष्ठ; मुहूर्तमू--एक क्षण; विदितम्‌--चेतन; घटते--प्रयास कर सकता है; श्रेयसे--परमार्थ के मामले में;यत:--जिससे।

    ऐसे दीर्घ जीवन से क्या लाभ, जिसे इस संसार में वर्षो तक अनुभवहीन बने रहकर गँवादिया जाये? इससे तो अच्छा है पूर्ण चेतना का एक क्षण, क्योंकि इससे उसके परम कल्याणका मार्ग प्रशस्त होता है।

    खट्वाड़ो नाम राजर्षिज्ञात्वेयत्तामिहायुष: ।

    मुहूर्तात्सर्वमुत्सृज्य गतवानभयं हरिम्‌ ॥

    १३॥

    खट्वाड्--राजा खट्वांग; नाम--नामक; राज-ऋषि:--ऋषितुल्य राजा; ज्ञात्वा--जानकर; इयत्ताम्‌-- अवधि; इह--इससंसार में; आयुष:-- अपने जीवन की; मुहूर्तात्‌--एक ही क्षण में; सर्वम्‌--सब कुछ; उत्सृज्य--छोड़कर; गतवान्‌--स्वीकारकिया; अभयम्‌--पूरी तरह सुरक्षित; हरिम्‌-- भगवान्‌ को |

    राजर्षि खट्वांग को जब यह सूचना दी गई कि उनकी आयु का केवल एक क्षण ( मुहूर्त )शेष है, तो उन्होंने तुरतत अपने आपको समस्त भौतिक कार्यकलापों से मुक्त करके परम रक्षकभगवान्‌ की शरण ले ली।

    तवाप्येतर्हि कौरव्य सप्ताहं जीवितावधि: ।

    उपकल्पय तत्सर्व॑ तावद्यत्साम्परायिकम्‌ ॥

    १४॥

    तब--तुम्हारा; अपि-- भी; एतहिं--अतएव; कौरव्य--हे कुरुवंशी; सप्ताहम्‌--सात दिन, हफ्ता; जीवित--आयु; अवधि: --सीमा; उपकल्पय--सम्पन्न करो; तत्‌--वे; सर्वम्‌--समस्त; तावत्‌--तब तक; यत्‌--जो है; साम्परायिकमू-- अगले जीवन केलिए अनुष्ठान।

    हे महाराज परीक्षित, अब आपकी आयु के और सात दिन शेष हैं।

    अतएवं इस अवधि मेंआप उन समस्त अनुष्ठानों को सम्पन्न कर सकते हैं, जो आपके अगले जीवन के परम कल्याणके लिए आवश्यक हैं।

    अन्त-काले तु पुरुष आगते गत-साध्वस: ।

    छिन्द्यादसड-शस्त्रेण स्पूहां देहेडउनु ये च तम्‌ ॥

    १५॥

    अन्त-काले--जीवन की अन्तिम अवस्था में; तु--लेकिन; पुरुष:--व्यक्ति; आगते--आ करके; गत-साध्वस:--मृत्यु के भयके बिना; छिन्द्यात्‌-काट दे; असड्र--अनासक्ति; शस्त्रेण --हथियार से; स्पृहाम्‌--सारी इच्छाओं को; देहे-- भौतिक शरीर से;अनु--से सम्बन्धित; ये--वे सब; च--तथा; तम्‌ू--उसको |

    मनुष्य को चाहिए कि जीवन के अन्तकाल में मृत्यु से तनिक भी भयभीत न हो, अपितु वहभौतिक शरीर से तथा उससे सम्बन्धित सारी वस्तुओं एवं उसकी समस्त इच्छाओं से अपनीआसक्ति तोड़ ले।

    स्थानान्तरित कर दिया जाय।

    गृहात्‌ प्रत्नजितो धीर: पुण्य-तीर्थ-जलाप्लुतः ।

    शुचौ विविक्त आसीनो विधिवत्कल्पितासने ॥

    १६॥

    गृहात्‌--अपने घर से; प्रत्नजित:--बाहर जाकर; धीर:--आत्मसंयमी; पुण्य--पतवित्र; तीर्थ--तीर्थ-स्थान; जल-आप्लुत:ः--पूरीतरह धोया हुआ; शुचौ--स्वच्छ किया; विविक्ते--एकान्त; आसीन:--बैठा हुआ; विधिवत्‌--नियमानुसार; कल्पित--सम्पन्नकरके; आसने--आसन पर।

    मनुष्य को घर छोड़ करके आत्मसंयम का अभ्यास करना चाहिए।

    उसे तीथर्थस्थानों मेंनियमित रूप से स्नान करना चाहिए और ठीक से शुद्ध होकर एकान्त स्थान में आसन जमाना चाहिए।

    दिलाने में सहायक होगी।

    अभ्यसेन्मनसा शुद्ध त्रिवृद्कह्माक्षरं परम्‌ ।

    मनो यच्छेज्जित-श्वासो ब्रह्म-जीजमविस्मरन्‌ ॥

    १७॥

    अभ्यसेत्‌--अभ्यास करना चाहिए; मनसा--मन से; शुद्धम्‌--पतवित्र; त्रि-वृतू--तीन ( अक्षरों ) से निर्मित; ब्रह्म-अक्षरम्‌--दिव्यअक्षर; परम्‌ू--परम; मन:--मन; यच्छेत्‌ू--वश में करे; जित-श्रास:-- श्वास को नियमित करके; ब्रह्मय--परम; बीजम्‌--बीजको; अविस्मरन्‌--बिना भुलाये।

    मनुष्य उपर्युक्त विधि से आसन जमा कर, मन को तीन दिव्य अक्षरों ( अ, उ, म्‌ ) का स्मरणकराये और श्रास-विधि को नियमित करके मन को वश्ञ में करे, जिससे वह दिव्य बीज को नहींभूले।

    नियच्छेद्विषये भ्यो क्षान्मनसा बुदर्द्धि-सारथि: ।

    मनः कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेद्धिया ॥

    १८॥

    नियच्छेतू-- खींच ले; विषयेभ्य:--विषयों से; अक्षान्‌--इन्द्रियों को; मनसा--मन से; बुद्धि--बुद्धि; सारथि: -- हाँकनेवाला;मनः--मन; कर्मभि: --सकाम कर्म से; आक्षिप्तम्‌--लीन रहकर; शुभ-अर्थे-- भगवान्‌ के निमित्त; धारयेत्‌-- धारण करे;धिया--पूर्ण चेतना में |

    धीरे-धीरे जब मन उत्तरोत्तर आध्यात्मिक हो जाय, तो उसे इन्द्रिय-कार्यों से खींच लिया जाय(विलग कर लिया जाय )।

    इससे इन्द्रियाँ बुद्धि द्वारा वशीभूत हो जायेंगी।

    इससे भौतिक कार्य-कलापों में लीन मन भी भगवान्‌ की सेवा में प्रवृत्त किया जा सकता है और पूर्ण दिव्य भाव मेंस्थिर हो सकता है।

    तत्रैकावयवं ध्यायेदव्युच्छिन्नेन चेतसा ।

    मनो निर्विषयं युकत्वा ततः किज्ञन न स्मरेत्‌ ।

    पदं तत्परमं विष्णोर्मनो यत्र प्रसीदति ॥

    १९॥

    तत्र--तत्पश्चात्‌; एक--एक-एक करके; अवयवम्‌--शरीर के अंगों को; ध्यायेत्‌-- ध्यान करे; अव्युच्छिन्नेन--पूर्णस्वरूप सेविचलित हुए बिना; चेतसा--मन से; मन:--मन; निर्विषयम्‌--विषयों से दूषित हुए बिना; युक्त्वा--जुड़ कर के; तत:--तत्पश्चात्‌; किजल्लन--कुछ भी; न--नहीं; स्मरेत्‌--सोचे; पदम्‌--व्यक्तित्व को; तत्‌ू--वह; परमम्‌--परम; विष्णो:--विष्णु का;मनः--मन; यत्र--जहाँ; प्रसीदति-- प्रसन्न होता है, रमता है।

    तत्पश्चात्‌, श्रीविष्णु के पूर्ण शरीर की अव-धारणा को हटाये बिना, एक-एक करके विष्णुके अंगों का ध्यान करना चाहिए।

    इस तरह मन समस्त इन्द्रिय-विषयों से मुक्त हो जाता है।

    तबचिन्तन के लिए कोई अन्य वस्तु नहीं रह जानी चाहिए।

    चूँकि भगवान्‌ विष्णु परम सत्य हैं,अतएव केवल उन्हीं में मन पूर्ण रूप से रम जाता है।

    रजस्तमोभ्यामाक्षिप्तं विमूढ मन आत्मन: ।

    यच्छेद्धारणया धीरो हन्ति या तत्कृतं मलम्‌ ॥

    २०॥

    रज:--रजोगुण; तमोभ्याम्‌--तथा तमोगुण के द्वारा; आक्षिप्तम्‌--उद्देलित; विमूढम्‌--मोहग्रस्त; मन: --मन; आत्मन:--अपना;यच्छेत्‌--सुधार ले; धारणया--( विष्णु की ) धारणा से; धीर:--शान्त; हन्ति--नष्ट करता है; या--वे सब; तत्‌-कृतम्‌--उनकेद्वारा की गई; मलम्‌--गंदी वस्तुओं को।

    मनुष्य का मन सदैव रजोगुण द्वारा विचलित और तमोगुण द्वारा मोहग्रस्त होता रहता है।

    किन्तु मनुष्य ऐसी धारणाओं को भगवान्‌ विष्णु के सम्बन्ध द्वारा ठीक कर सकता है और इसतरह उनसे उत्पन्न गंदी वस्तुओं को स्वच्छ करके शान्त यस्यां सन्धार्यमाणायां योगिनो भक्ति-लक्षण: ।

    आशूु सम्पद्यते योग आश्रयं भद्गमीक्षतः ॥

    २१॥

    यस्याम्‌--ऐसे सुनियोजित स्मरण से; सन्धार्यमाणायाम्‌-- और इस तरह के अभ्यास में स्थिर होकर; योगिन: --योगीजन; भक्ति-लक्षण:-- भक्तियोग का अभ्यास करके; आशु--शीघ्र; सम्पद्यते--सफलता प्राप्त करता है; योग:-- भक्तिमयी सेवा से सम्बन्ध;आश्रयमू--शरण के अन्तर्गत; भद्रमू--कल्याण; ईक्षतः--देखते हुएहे राजन, स्मरण की इस पद्धति से तथा भगवान्‌ के कल्याणप्रद साकार-स्वरूप का दर्शनकरने के अभ्यास में स्थिर होने से, मनुष्य भगवान्‌ के प्रत्यक्ष आश्रय के अन्तर्गत उनकी भक्तिको शाकघ्र ही प्राप्त कर सकता है।

    राजोवाचयथा सन्धार्यते ब्रह्मन्‌ धारणा यत्र सम्मता ।

    याहशी वा हरेदाशु पुरुषस्थ मनो-मलम्‌ ॥

    २२॥

    राजा उवाच--सौभाग्यशाली राजा ने कहा; यथा--जिस तरह; सन्धार्यते-- धारणा बनाई जाती है; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण;धारणा--धारणा; यत्र--जहाँ तथा जैसे; सम्मता--संक्षेप में; याह॒शी--जैसी; वा--अथवा; हरेतू--समूल नष्ट करता है;आशु--विलम्ब किये बिना; पुरुषस्य--व्यक्ति के; मन:--मन के; मलमू--मल को

    सौभाग्यशाली राजा परीक्षित ने आगे पूछा : हे ब्राह्मण, कृपा करके विस्तार से यह बतायेंकि मन को कहाँ और कैसे लगाया जाये? और धारणा को किस तरह स्थिर किया जाय किमनुष्य के मन का सारा मैल हटाया जा सके ?

    श्रीशुक उवाच जितासनो जित-श्वासो जित-सड् जितेन्द्रिय: ।

    स्थूले भगवतो रूपे मन: सन्धारयेद्धिया ॥

    २३॥

    श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; जित-आसन:--संयमित आसन; जित-श्वासः --संयमित श्वास-क्रिया; जित-सड्ड:--संयमित संगति; जित-इन्द्रियः--संयमित इन्द्रियाँ; स्थूले--स्थूल पदार्थ में; भगवत:-- भगवान्‌ के; रूपे--स्वरूप में;मनः--मन को; सन्धारयेत्‌--लगाए; धिया--बुद्धि से |

    शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया : मनुष्य को चाहिए कि आसन को नियन्त्रित करे, यौगिकप्राणायाम द्वारा श्वास-क्रिया को नियमित करे और इस तरह मन तथा इन्द्रियों को वश में करे।

    फिर ब॒द्धिपूर्वक मन को भगवान्‌ की स्थूल शक्तियों ( विराट रूप ) में लगाये।

    विशेषस्तस्य देहोयं स्थविष्ठश्न स्थवीयसाम्‌ ।

    यत्रेदं व्यज्यते विश्व भूतं भव्यं भवच्च सत्‌ ॥

    २४॥

    विशेष:--साकार; तस्य--उसका; देह:--शरीर; अयम्‌--यह; स्थविष्ठ:--स्थूल रूप से भौतिक; च--तथा; स्थवीयसाम्‌ --समस्त पदार्थ का; यत्र--जहाँ; इृदम्‌--ये सारे नियम; व्यज्यते-- अनुभव किया जाता है; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; भूतम्‌--विगत;भव्यमू-- भविष्य; भवत्‌--वर्तमान; च--तथा; सत्‌--फलीभूत, परिणामी ।

    सम्पूर्ण व्यवहार-जगत की यह विराट अभिव्यक्ति परम सत्य का साक्षात्‌ शरीर है, जिसमेंब्रह्माण्ड के भूत, वर्तमान एवं भविष्य का अनुभव किया जाता है।

    अण्ड-कोशे शरीरेउस्मिन्‌ सप्तावरण-संयुते ।

    वैराजः पुरुषो योडसौ भगवान्‌ धारणाश्रय: ॥

    २५॥

    अण्ड-कोशे--ब्रह्मण्ड-रूपी खोल के भीतर; शरीरे--शरीर में; अस्मिन्‌ू--इस; सप्त--सात; आवरण---आवरण, खोले;संयुते--ऐसा करके; वैराज: --विराट स्वरूप; पुरुष:-- भगवान्‌ के स्वरूप; यः--जो; असौ--वह; भगवान्‌-- भगवान्‌;धारणा--धारणा का; आश्रय:--वस्तु, विषय |

    भौतिक तत्त्वों के द्वारा सात प्रकार से प्रच्छन्न ब्रह्माणडीय खोल ( आवरण ) रूपी शरीर केभीतर भगवान्‌ का विराट ब्रह्माण्डीय स्वरूप विराट धारणा का विषय है।

    पातालमेतस्य हि पाद-मूलं'पठन्ति पार्ण्णि-प्रपदे रसातलम्‌ ।

    महातलं विश्व-सृजोथ गुल्फौतलातलं वे पुरुषस्य जड्डे ॥

    २६॥

    पातालमू्‌--ब्रह्मण्ड के अधोलोक; एतस्य--उनका; हि--निश्चय ही; पाद-मूलम्‌--पाँवों के तलवे; पठन्ति--वे अध्ययन करतेहैं; पार्ष्णि--एड़ियाँ; प्रपदे--पंजे; रसातलम्‌--रसातल नाम का लोक; महातलम्‌--महातल नामक लोक; विश्व-सृज: --ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा का; अथ--इस प्रकार; गुल्फौ--टखने; तलातलम्‌--तलातल नामक लोक; बै--वे जैसे हैं; पुरुषस्य--विराट पुरुष की; जद्ढे--पिंडलियाँ ।

    जिन पुरुषों ने इसकी अनुभूति की है, उन्होंने यह अध्ययन किया है कि पाताल लोक विराटपुरुष के पाँवों के तलवे हैं तथा उनकी एड़ियाँ और पंजे रसातल लोक हैं।

    टखने महातल लोकहैं तथा उनकी पिंडलियाँ तलातल लोक हैं।

    द्वे जानुनी सुतलं विश्व-मूर्ते -रूरु-द्वयं वितलं चातलं च ।

    महीतलं तज्जघनं महीपतेनभस्तलं नाभि-सरो गृणन्ति ॥

    २७॥

    द्वे--दो; जानुनी--घुटने; सुतलमू--सुतल नामक लोक; विश्व-मूर्तें:--विराट रूप के; ऊरु-द्वयम्‌--दोनों जाँघें; वितलम्‌--वितल लोक; च-- भी; अतलम्‌--अतल लोक; च--तथा; महीतलम्‌--महातल लोक; तत्‌--उसका; जघनम्‌--कटि-प्रदेश;महीपते--हे राजा; नभस्तलम्‌--बाह्य अन्तरिक्ष; नाभि-सर:--नाभि का गट्ढा; गृणन्ति--कहते हैं |

    विश्व-रूप के घुटने सुतल नामक लोक हैं तथा दोनों जाँघें वितल तथा अतल लोक हैं।

    कटि- प्रदेश महीतल है और उसकी नाभि का गट्टा बाह्य अन्तरिक्ष है।

    उरः-स्थलं ज्योतिरनीकमस्यग्रीवा महर्वदनं वै जनोस्य ।

    तपो वराटीं विदुरादि-पुंसःसत्यं तु शीर्षाणि सहस्त्र-शीर्ष्ण: ॥

    २८॥

    उरः--उच्च; स्थलम्‌--स्थान ( छाती ); ज्योतिः-अनीकमू-- ज्योतिष्क; अस्य--उसकी; ग्रीवा--गर्दन; महः --ज्योतिष्कों केऊपर का लोक; वदनम्‌-- मुख; बै--ठीक उसी तरह; जनः--इस लोक के ऊपर का लोक; अस्य--उनका; तपः--जनः लोकके ऊपर का लोक; वराटीम्‌--मस्तक; विदु:--जाना जाता है; आदि--मूल; पुंसः--पुरुष; सत्यम्‌ू--सर्वोच्च लोक; तु--लेकिन; शीर्षाणि--शिर; सहस्त्र--एक हजार; शीर्ष्ण:--शिरों से युक्त |

    विराट रूप वाले आदि पुरुष की छाती ज्योतिष्क ( स्वर्ग ) लोक है, उसकी गर्दन महलोंकहै, उसका मुख जनःलोक है और उसका मस्तक तपःलोक है।

    सर्वोच्च लोक, जिसे सत्यलोक कहते हैं, एक हजार सिरों ( मस्तिष्कों ) वाले उनआदि पुरुष का सिर है।

    इन्द्रादयो बाहव आहुरुस्त्रा:कर्णों दिश: श्रोत्रममुष्य शब्द: ।

    नासत्य-दस्त्रौ परमस्य नासेघ्राणोस्य गन्धो मुखमग्निरिद्ध: ॥

    २९॥

    इन्द्र-आदय:--स्वर्ग के राजा इन्द्र इत्यादि देवता; बाहव:ः--बाँहें; आहु:--कहलाते हैं; उस्त्रा:--देवता; कर्णौं--कान; दिशः--चारों दिशाएँ; श्रोत्रमू--सुनने की इन्द्रियाँ; अमुष्य-- भगवान्‌ की; शब्द:--ध्वनि; नासत्य-दस्त्रौ--अश्विनी कुमार नामक देवता;'परमस्य--परम के; नासे--नथुने; प्राण: --सुंगधि की इन्द्रिय; अस्य--उसका; गन्ध: --सुगन्धि; मुखम्‌--मुँह; अग्नि: -- अग्नि;इद्धः--प्रज्वलित ।

    इन्द्र इत्यादि देवता उस विराट पुरुष की बाँहें हैं, दसों दिशाएँ उसके कान हैं और भौतिकध्वनि उसकी श्रवणेन्द्रिय है।

    दोनों अश्विनीकुमार उसके नथने हैं तथा भौतिक सुगंध उसकीप्राणेन्द्रिय है।

    उसका मुख प्रज्वलित अग्नि है।

    झौरक्षिणी चकश्षुरभूत्पतड़ःपक्ष्माणि विष्णोरहनी उभे च ।

    तदभ्रू-विजृम्भ: परमेष्ठटि-धिष्ण्य-मापोउस्य तालू रस एव जिह्नमा ॥

    ३०॥

    चौ:--अन्तरिक्ष; अक्षिणी--नेत्र-गोलक; चक्षु:--आँखों के; अभूत्‌--ऐसा हुआ; पतड्ढ:--सूर्य; पक्ष्माणि--पलकें ; विष्णो: --भगवान्‌ श्री विष्णु की; अहनी--दिन तथा रात; उभे--दोनों; च--तथा; तत्‌--उसका; भ्रू-- भौहें; विजृम्भ: --गतियाँ;परमेष्ठटि--सर्वोपरि जीव ( ब्रह्मा ); धिष्णयमू--पद; आप:--वरुण, जल का स्वामी; अस्य--उसका; तालू--तालू; रस: --रस;एव--निश्चय ही; जिह्वा--जीभ |

    बाह्य अन्तरिक्ष उसकी आँखों के गड्ढे हैं तथा देखने की शक्ति के लिए सूर्य नेत्र-गोलक हैं।

    दिन तथा रात पलकें हैं और उसकी भृकुटि की गतियों में ब्रह्म तथा अन्य महापुरुषों का निवासहोता है।

    जल का अधीश्वर वरुण उसका तालु तथा सभी वस्तुओं का रस या सार उसकी जीभहै।

    छन्दांस्यनन्तस्थ शिरो गृणन्तिदंष्टा यमः स्नेह-कला द्विजानि ।

    हासो जनोन्माद-करी च मायादुरन्त-सर्गों यदपाड्ु-मोक्ष: ॥

    ३१॥

    छन्दांसि--वैदिक स्तोत्र; अनन्तस्य--परमेश्वर के; शिर:--मस्तक; गृणन्ति--उनका कहना है; दंष्टाः--दाढ़ें; यम:--यमराज,जो पापियों का निदेशक है; स्नेह-कला:--स्नेह करने की कला; द्विजानि--दाँत; हास:--मुस्कान; जन-उन्माद-करी --अत्यन्तमोहक; च--भी; माया-- भ्रामिका शक्ति; दुरन्‍्त--अजेय; सर्ग:-- भौतिक सृष्टि; यत्‌-अपाड़---जिसकी चितवन; मोक्ष: --विक्षेप |

    वे कहते हैं कि वैदिक स्तोत्र भगवान्‌ के मस्तक हैं और मृत्यु का देवता तथा पापियों कोदण्ड देनेवाला यम उनकी दाढ़ें हैं।

    स्नेह की कला ही उनके दाँत हैं और सर्वाधिक मोहिनी मायाही उनकी मुस्कान है।

    यह भौतिक सृष्टि रूपी महान्‌ सागर उनकी चितवन स्वरूप है।

    ब्रीडोत्तरौष्ठोधर एवं लोभोधर्म: स्तनोधर्म-पथोउस्य पृष्ठम्‌ ।

    कस्तस्य मेढ़ं वृषणौ चर मित्रोकुक्षिः समुद्रा गिरयोउस्थि-सड्भा: ॥

    ३२॥

    ब्रीड--लज्जा; उत्तर--ऊपरी; ओष्ठ:--होंठ; अधर:--ठुड्ी; एब--निश्चय ही; लोभ: --लालसा; धर्म:--धर्म; स्तन:--वक्षस्थल; अधर्म--अधर्म; पथ: --मार्ग; अस्य--उसका; पृष्ठम्‌--पीठ; कः--ब्रह्मा; तस्थ--उसकी; मेढ़म्‌--जननेन्द्रिय;वृषणौ--अण्डकोश; च-- भी; मित्रौ--मित्रावरुण; कुक्षिः--कमर, कोख,; समुद्रा:--समुद्र; गिरय:--पर्वत; अस्थि--हड्डियाँ;सझ्ञ:--समूह ।

    लज्जा भगवान्‌ का ऊपरी होठ है, लालसा उनकी ठुड्डी है, धर्म उनका वक्ष:स्थल तथा अधर्मउनकी पीठ है।

    भौतिक जगत में समस्त जीवों के जनक ब्रह्मा जी उनकी जननेन्द्रिय ( लिंग ) हैंऔर मित्रा-वरुण उनके दोनों अण्डकोश हैं।

    सागर उनकी कमर है और पर्वत उनकी अस्थियों केसमूह हैं।

    नद्योउस्य नाड्योथ तनू-रुहाणिमही-रुहा विश्व-तनोनुपिन्द्र ।

    अनन्त-वीर्य: श्वसितं मातरिश्ागतिर्वय: कर्म गुण-प्रवाह: ॥

    ३३॥

    नद्यः--नदियाँ; अस्य--उसकी; नाड्य:--नाडियाँ, नसें; अथ--तत्पश्चात्‌; तनू-रुहाणि--शरीर के बाल; मही-रुहा: --पेड़-पौधे; विश्व-तनो:--विश्व-रूप का; नृप-इन्द्र--हे राजा; अनन्त-वीर्य:--सर्व-शक्तिमान; श्रसितम्‌-- श्रास-क्रिया; मातरिश्रा --वायु; गतिः--गति; वयः--व्यतीत होती आयु; कर्म--कर्म; गुण-प्रवाह:--प्रकृति के गुणों की प्रतिक्रियाएँ

    हे राजन, नदियाँ उस विराट शरीर की नसें हैं, वृक्ष रोम हैं और सर्वशक्तिमान वायु उनकीश्वास है।

    व्यतीत होते हुए युग उनकी गति तथा प्रकृति के तीनों गुणों की प्रतिक्रियाएँ ही उनके कार्यकलाप हैं।

    ईशस्यथ केशान्‌ विदुरम्बुवाहान्‌वासस्तु सन्ध्यां कुरु-वर्य भूम्न: ।

    अव्यक्तमाहुईदयं मनश्नस चन्द्रमा: सर्व-विकार-कोशः ॥

    ३४॥

    ईशस्यथ--परम नियन्ता के; केशान्‌--सिर के बाल; विदुः--तुम मुझसे जान लो; अम्बु-वाहान्‌ू--जल ले जाने वाले बादल;वास: तु--वस्त्र; सन्ध्यामू-दिन तथा रात्रि का सन्धि-काल; कुरु-वर्य--हे कुरुओं में श्रेष्ठ; भूम्न:--सर्वशक्तिमान का;अव्यक्तमू-- भौतिक सृष्टि का आदि कारण; आहु:--कहा जाता है; हृदयम्‌--बुद्धि; मनः च--तथा मन; सः--वह; चन्द्रमा:--चन्द्रमा; सर्व-विकार-कोशः --समस्त परिर्वतनों का आगार।

    हे कुरुश्रेष्ठ, जल ले जानेवाले बादल उनके सिर के बाल हैं, दिन या रात्रि की सन्धियाँ हीउनके वस्त्र हैं तथा भौतिक सृष्टि का परम कल्याण ही उनकी बुद्धि है।

    चन्द्रमा ही उनका मन है,जो समस्त परिवर्तनों का आगार है।

    विज्ञान-शक्ति महिमामनन्तिसर्वात्मनोउन्त:-करणं गिरित्रम्‌ ।

    अश्वाश्वतर्युष्ट-गजा नखानिसर्वे मृगा: पशव: श्रोणि-देशे ॥

    ३५॥

    विज्ञान-शक्तिमू--चेतना; महिम्‌-पदार्थ का सिद्धान्त; आमनन्ति--वे ऐसा कहते है; सर्व-आत्मन:--सर्व-व्यापी का; अन्तः-करणम्‌--अहंकार; गिरित्रमू-रुद्र ( शिव ); अश्व--घोड़ा; अश्वतरि--खच्चर; उष्ट--ऊँट; गजा:--हाथी; नखानि--नाखून;सर्वे-- अन्य सब; मृगा:-- हिरन; पशव:--चौपाये; श्रोणि-देशे --कटि-प्रदेश में |

    पदार्थ का सिद्धान्त ( महत्‌-तत्त्व ) सर्वव्यापी भगवान्‌ की चेतना है, जैसा कि विद्वानों नेबल देकर कहा है तथा रुद्रदेव उनका अहंकार है।

    घोड़ा, खच्चर, ऊँट तथा हाथी उनके नाखूनहैं तथा जंगली जानवर और सारे चौपाये भगवान्‌ के कटि-प्रदेश में स्थित हैं।

    वयांसि तद्व्याकरणं विचित्रमनुर्मनीषा मनुजो निवास: ।

    गन्धर्व-विद्याधर-चारणाप्सरःस्वर-स्मृतीरसुरानीक-वीर्य: ॥

    ३६॥

    वयांसि--विभिन्न प्रकार के पक्षी; तत्‌-व्याकरणम्‌--शब्दावली; विचित्रमू--कलात्मक; मनुः--मनुष्यों के पिता; मनीषा--विचार; मनुज:--मानव जाति ( मनु-पुत्र ); निवास:--निवास; गन्धर्व--गन्धर्व नामक मनुष्य; विद्याधर--विद्या धर; चारण--चारण; अप्सर:--देवदूत; स्वर--संगीतात्मक स्वर-लहरी; स्मृती:--स्मृति; असुर-अनीक--आसुरी सैनिक; वीर्य:--शक्ति |

    विभिन्न प्रकार के पक्षी उनकी दक्ष कलात्मक रुचि के सूचक हैं।

    मानवजाति के पिता, मनु,उनकी आदर्श बुद्धि के प्रतीक हैं और मानवता उनका निवास है।

    गन्धर्व, विद्याधर, चारण तथादेवदूत जैसी दैवी योनियाँ उनके संगीत की स्वर-लहरी को व्यक्त करती हैं और आसुरी सैनिकउनकी अद्भुत शक्ति के प्रतिरूप हैं।

    ब्रह्माननं क्षत्र-भुजो महात्माविडूरुरडप्रि-अ्रित-कृष्ण-वर्ण: ।

    नानाभिधाभीज्य-गणोपपतन्नोद्रव्यात्मक: कर्म वितान-योग: ॥

    ३७॥

    ब्रह्म--ब्राह्षणप; आननम्‌--मुख; क्षत्र--क्षत्रिय; भुज:--बाँहें ; महात्मा--विराट पुरुष; विट्‌ू--वैश्य; ऊरु:--जाँघ; अदडप्नि-भ्रित--उनके चरणों की छाया में; कृष्ण-वर्ण:--शूद्र; नाना--विविध; अभिधा--नामों से; अभीज्य-गण--देवता; उपपन्न: --निहित; द्रव्य-आत्मक:--उपलब्ध वस्तुओं से; कर्म--कर्म; वितान-योग: --यज्ञ का सम्पन्न होना।

    विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण है, उनकी भुजाएँ क्षत्रिय हैं, उनकी जाँघें वैश्य हैं तथा शूद्रउनके चरणों के संरक्षण में हैं।

    सारे पूज्य देवता उनमें सन्निहित हैं और यह प्रत्येक व्यक्ति काकर्तव्य है कि भगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिए यथासम्भव वस्तुओं से यज्ञसम्पन्न करे।

    इयानसावी श्वर-विग्रहस्ययः सन्निवेश: कथितो मया ते ।

    सन्धार्यतेस्मिन्‌ वपुषि स्थविष्टेमनः स्व-बुद्धया न यतोस्ति किल्ञित्‌ ॥

    ३८॥

    इयान्‌ू--ये सब; असौ--वह; ईश्वर--परमे श्वर के ; विग्रहस्थ--स्वरूप का; यः--जो कुछ; सन्निवेश:--जिस तरह वे स्थित हैं;कथितः--कहा गया; मया--मेरे द्वारा; ते--तुमको; सन्धार्यते--एकाग्र कर सकता है; अस्मिन्‌--इसमें; वपुषि--विराट स्वरूपमें; स्थविष्ठे --स्थूल में; मन: --मन; स्व-बुद्धब्ा--अपनी बुद्धि से; न--नहीं; यत:--उनसे परे; अस्ति--है; किल्ञित्‌ू--कुछभी।

    इस प्रकार मैंने आपको भगवान्‌ के स्थूल भौतिक विराट स्वरूप की अवधारणा का वर्णन किया।

    जो व्यक्ति सचमुच मुक्ति की इच्छा करता है, वह भगवान्‌ के इस स्वरूप पर अपने मनको एकाग्र करता है, क्योंकि भौतिक जगत में इससे अधिक कुछ भी नहीं है।

    स सर्व-धी-वृत्त्यनुभूत-सर्वआत्मा यथा स्वप्न-जनेक्षितैक: ।

    तं सत्यमानन्द-निधि भजेतनान्यत्र सज्जेद यत आत्म-पातः ॥

    ३९॥

    सः--वह ( परम पुरुष ); सर्व-धी-वृत्ति--सभी प्रकार की बुद्धि द्वारा अनुभूति होने की विधि; अनुभूत--सावधान; सर्वे--हरएक; आत्मा--परमात्मा; यथा-- जिस तरह; स्वप्न-जन--सपना देखनेवाला; ईक्षित--देखा हुआ; एक:--एक और वही;तम्‌--उसको; सत्यम्‌ू--परम सत्य; आनन्द-निधिम्‌--आनन्द का सागर; भजेत--पूजा करे; न--कभी नहीं; अन्यत्र-- अन्यत्र;सज्जेत्‌--अनुरक्त हो; यत:--जिससे; आत्म-पात:--अपना पतन |

    मनुष्य को अपना मन भगवान्‌ में एकाग्र करना चाहिए, क्योंकि वे ही अपने को इतने सारेरूपों में उसी तरह वितरित करते हैं, जिस तरह कि सामान्य मनुष्य स्वण में हजारों रूपों की सृष्टिकरता है।

    मनुष्य को अपना मन एकमात्र सर्व आनन्दमय परम सत्य पर एकाग्र करना चाहिएअन्यथा वह पथभ्रष्ट हो जायेगा और अपने हाथों ही अपना पतन कर लेगा।

    TO

    अध्याय दो: हृदय में भगवान

    2.2श्री -शुक उवाचएवं पुरा धारणयात्म-योनि-नष्टां स्मृति प्रत्यवरूध्य तुष्ठात्‌।

    तथा ससर्जेदममोघ-दृष्टि-्थाप्ययात्‌ प्राग्‌ व्यवसाय-बुद्द्धि: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस प्रकार; पुरा--विश्व के प्राकट्य के पूर्व; धारणया--ऐसी धारणाद्वारा; आत्म-योनि:--ब्रह्मा जी की; नष्टाम्‌--विनष्ट; स्मृतिम्‌--स्मृति, याददाइत; प्रत्यवरुध्य--पुनः चेतना प्राप्त करके; तुष्टात्‌--भगवान्‌ को प्रसन्न करने के कारण; तथा--तत्पश्चात्‌; ससर्ज--सृजन किया; इृदम्‌--यह भौतिक जगत; अमोघ-दृष्टि:--जिसेस्पष्ट दृष्टि प्राप्त है; यथा--जिस प्रकार; अप्ययात्‌--निर्मित किया; प्राकु--पहले की तरह; व्यवसाय--सुनिश्चित; बुद्दधि:--बुद्धि)

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस ब्रह्माण्ड के प्राकट्य के पूर्व, ब्रह्माजी ने विराट रूप केध्यान द्वारा भगवान्‌ को प्रसन्न करके विलुप्त हो चुकी अपनी चेतना प्राप्त की।

    इस तरह वे सृष्टिका पूर्ववत्‌ पुनर्निर्माण कर सके।

    शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्‍्थायन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थे: ।

    परिश्रमंस्तत्र न विन्दतेर्थान्‌मायामये वासनया शयान: ॥

    २॥

    शाब्दस्य--वैदिक ध्वनि का; हि--निश्चय ही; ब्रह्मण:--वेदों का; एब:--ये; पन्‍्था:--मार्ग; यत्‌--जो है; नामभि:--विभिन्ननामों से; ध्यायति--ध्यान करता है; धीः --बुद्धि; अपार्थ:--व्यर्थ के विचारों से; परिभ्रमन्‌--घूमते हुए; तत्र--वहाँ; न--कभीनहीं; विन्दते-- भोग करता है; अर्थान्‌ू--वास्तविकताओं को; माया-मये--मोहमयी वस्तुओं में; वासनया--विभिन्न इच्छाओं से;शयानः--मानो निद्रा में स्वप्न देख रहा हो |

    वैदिक ध्वनियों (वेदवाणी ) को प्रस्तुत करने की विधि इतनी मोहनेवाली है कि यहव्यक्तियों की बुद्धि को स्वर्ग जैसी व्यर्थ की वस्तुओं की ओर ले जाती है।

    बद्धजीव ऐसीस्वर्गिक मायामयी वासनाओं के स्वप्नों में मंडराते रहते हैं, लेकिन उन्हें ऐसे स्थानों में सच्चे सुखकी प्राप्ति नहीं हो पाती।

    अतः कविर्नामसु यावदर्थ:स्यादप्रमत्तो व्यवसाय-बुद्धिः ।

    सिद्धेउन्यथार्थे न यतेत तत्रपरिश्रमं तत्र समीक्षमाण: ॥

    ३॥

    अतः--इस कारण; कवि: --प्रबुद्ध व्यक्ति; नामसु--केवल नाम के लिए; यावत्‌--न्यूनतम; अर्थ:-- आवश्यकता; स्यात्‌--होए; अप्रमत्त:--उनके पीछे पागल हुए बिना; व्यवसाय-बुद्धि: --बुद्धिपूर्वक स्थित; सिद्धे--सफलता के लिए; अन्यथा--अन्यथा; अर्थे--के हित में; न--कभी नहीं; यतेत-- प्रयास करे; तत्र--वहाँ; परिश्रमम्‌--कठोर श्रम; तत्र--वहाँ;समीक्षमाण: --व्यावहारिक दृष्टि से देखनेवाला |

    अतएव प्रबुद्ध व्यक्ति को उपाधियों वाले इस जगत में रहते हुए जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए प्रयतल करना चाहिए।

    उसे बुद्ध्विमत्तापूर्वक स्थिर रहना चाहिए।

    औरअवांछित वस्तुओं के लिए कभी कोई प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह इससे व्यावहारिकरूप में यह अनुभव करने में सक्षम होता है कि ऐसे सारे प्रयास कठोर श्रम के अतिरिक्त औरकुछ नहीं होते।

    सत्यां क्षितौ कि कशिपो: प्रयासै-बाहौ स्वसिद्धे ह्ुपबईणै: किम्‌ ।

    सत्यञ्जलौ कि पुरुधान्न-पात्र्यादिग्वल्कलादौ सति कि दुकूलै: ॥

    ४॥

    सत्याम्‌--अधिकार में करके; क्षितौ--पृथ्वी का खंड; किमू--क्या आवश्यकता है; कशिपो:--खाट तथा गद्दों की; प्रयासैः --प्रयास करने से; बाहौ--बाँह के; स्व-सिद्धे--आत्म-निर्भर होने के लिए; हि--निश्चय ही; उपबर्हणैः--गद्दा तथा तकिया से;किम्‌--क्या लाभ है; सति--उपस्थित होकर; अद्खलौ--हथेली में; किम्‌--क्या लाभ है; पुरुधा--व्यंजन, किसमें; अन्न--खाद्यपदार्थों के; पात्या--बर्तनों से; दिकु--खुला स्थान; वल्कल-आदौ--वृक्षों की छाल; सति--होने से; किम्‌--क्या लाभ है;दुकूलैः--वस्त्रों से।

    जब लेटने के लिए विपुल भूखंड पड़े हैं, तो चारपाइयों तथा गद्दों की क्या आवश्यकता है?जब मनुष्य अपनी बाँह का उपयोग कर सकता है, तो फिर तकिये की क्या आवश्यकता है ? जबमनुष्य अपनी हथेलियों का उपयोग कर सकता है, तो तरह-तरह के बर्तनों की क्या आवश्यकताहै? जब पर्याप्त ओढ़न अथवा वृक्ष की छाल उपलब्ध हो, तो फिर वस्त्र की क्या आवश्यकताहै?

    चीराणि कि पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षांनैवाडप्रिपा: पर-भूतः सरितोप्यशुष्यन्‌ ।

    रुद्धा गुहा: किमजितोवति नोपसन्नान्‌कस्माद्‌ भजन्ति कवयो धन-दुर्मदान्धान्‌ ॥

    ५॥

    चीराणि--फटे-पुराने कपड़े; किम्‌--क्या; पथि--मार्ग में; न--नहीं; सन्ति-- हैं; दिशन्ति--दान देते हैं; भिक्षाम्‌--भिक्षा;न--नहीं; एव-- भी; अड्प्रिपा:--वृक्ष; पर-भूत:ः--अन्यों का पालन करने वाली; सरित:--नदियाँ; अपि-- भी; अशुष्यन्‌ --सूख गई हैं; रुद्धा:--बन्द; गुहा:--गुफाएँ; किम्‌--क्या; अजित:-- भगवान्‌; अवति--सुरक्षा प्रदान करता है; न--नहीं;उपसन्नानू--शरणागतों को; कस्मात्‌--तब, किसलिए; भजन्ति--चापलूसी करते हैं; कवयः--विद्वान; धन--सम्पत्ति; दुर्मद-अन्धान्‌ू--अत्यन्त मतवालों को |

    क्या सड़कों पर चिथड़े नहीं पड़े हैं? क्या दूसरों का पालन करनेवाले वृक्ष अब दान मेंभिक्षा नहीं देते ? क्या सूख जाने पर नदियाँ अब प्यासे को जल प्रदान नहीं करतीं ? क्या अबपर्वतों की गुफाएँ बन्द हो चुकी हैं? या सर्व-शक्तिमान भगवान्‌ पूर्ण शरणागत आत्माओं कीरक्षा नहीं करते ? तो फिर विद्वान मुनिजन उनकी चापलूसी क्‍यों करते हैं, जो अपनी गाढ़ी कमाईकी सम्पत्ति के कारण प्रमत्त हो गये हैं ?

    एवं स्व-चित्ते स्वत एवं सिद्धआत्मा प्रियोर्थों भगवाननन्तः ।

    त॑ निर्वृतोी नियतार्थों भजेतसंसार-हेतूपरमश्न यत्र ॥

    ६॥

    एवम्‌--इस प्रकार; स्व-चित्ते--अपने हृदय में; स्वतः--उनकी सर्वशक्तिमत्ता से; एब--निश्चय ही; सिद्धः--पूरी तरह प्रस्तुत;आत्मा--परमात्मा; प्रिय: --अत्यन्त प्रिय; अर्थ: --वस्तु; भगवान्‌-- भगवान्‌; अनन्तः--नित्य असीम, अनन्त; तमू--उसको; निर्वृतः--संसार से विरक्त होकर; नियत--स्थायी; अर्थ: --परम लाभ; भजेत--पूजा करे; संसार-हेतु--संसार की बद्ध अवस्थाका कारण; उपरमः--समाप्ति; च--निश्चय ही; यत्र-- जिसमें |

    मनुष्य को इस प्रकार स्थिर होकर, उनकी ( भगवान की ) सर्वशक्तिमत्ता के कारण अपनेहृदय में स्थित परमात्मा की सेवा करनी चाहिए।

    चूँकि वे सर्वशक्तिमान, भगवान्‌ नित्य एवंअसीम हैं, अतएवं वे जीवन के चरम लक्ष्य हैं और उनकी पूजा करके मनुष्य बद्ध जीवन केकारण को दूर कर सकता है।

    कस्तां त्वनाहत्य परानुचिन्ता-मृते पशूनसतीं नाम कुर्यात्‌ ।

    पश्यञ्जनं पतितं वैतरण्यांस्व-कर्मजान्‌ परितापाझुषाणम्‌ ॥

    ७॥

    कः--और कौन; ताम्‌ू--उसको; तु--लेकिन; अनाहत्य--उपेक्षा करके; पर-अनुचिन्ताम्‌--दिव्य विचार; ऋते--बिना;पशून्‌-- भौतिकतावादी; असतीम्‌--क्षण-भंगुर; नाम--नाम को; कुर्यात्‌ू--स्वीकार करेगा; पश्यन्‌--निश्चित रूप से देखते हुए;जनम्‌--जनता, सामान्यजन; पतितम्‌--पतित; बैतरण्याम्‌--दुखों की नदी वैतरणी में; स्व-कर्म-जान्‌--अपने कर्मों से उत्पन्न;परितापान्‌ू--दुखों को; जुषाणम्‌--आक्रान्त ।

    निपट भौतिकतावादी के अतिरिक्त कौन ऐसा होगा जो यह देखकर कि जन-सामान्य अपनेकर्मों से मिलने वाले फलों के कारण क्लेशों की नदी में गिरे हुए हैं, ऐसे विचार की उपेक्षा करेऔर केवल क्षणभंगुर नामों को ग्रहण करे ?

    केचित्‌ स्व-देहान्तईदयावकाशेप्रादेश-मात्र पुरुष वसन्‍्तम्‌ ।

    चतुर्भुजं कञ्ल-रथाड्र--शट्डु--गदा-धरं धारणया स्मरन्ति ॥

    ८॥

    केचित्‌--अन्य लोग; स्व-देह-अन्त:--अपने शरीर के भीतर; हृदय-अवकाशे --हृदय-प्रदेश में; प्रादेश-मात्रमू--एक बित्ता( लगभग आठ इंच ); पुरुषम्‌-- भगवान्‌ को; वसन्तम्‌--वास करते हुए; चतु:-भुजम्‌--चार हाथों वाले; कञ्ल-- कमल; रथ-अड़--रथ का चक्र ( पहिया ); शट्बडु--शंख; गदा-धरम्‌--तथा हाथ में गदा लिए; धारणया--इस प्रकार की धारणा से;स्मरन्ति--उनका स्मरण करते हैं।

    अन्य लोग शरीर के हृदय प्रदेश में वास करनेवाले एवं केवल एक बित्ता परिमाण के, चारहाथोंवाले तथा उनमें से प्रत्येक में क्रमश: कमल, रथ का चक्र, शंख तथा गदा धारण किये हुएभगवान्‌ का ध्यान करते हैं।

    प्रसन्न-वक्त्र॑ नलिनायतेक्षणंकदम्ब-किल्लल्क-पिशड़-वाससम्‌ ।

    लसन्महा-रत्न-हिरण्मयाडुदंस्फुरन्महा-रत्तन-किरीट-कुण्डलम्‌ ॥

    ९॥

    प्रसन्न--प्रसन्नता सूचित करता; वक्‍्त्रमू--मुख; नलिन-आयत--कमल की पंखड़ियों के समान फैली; ईक्षणम्‌-- आँखें;कदम्ब--कदम्ब पुष्प; किल्लल्क--केसर; पिशड्र--पीला; वाससम्‌--वस्त्र; लसत्‌ू--लटकता हुआ; महा-रत्त--बहुमूल्य रत्न;हिरण्मय--स्वर्ण निर्मित; अड्भदम्‌--आभूषण; स्फुरतू--चमकता; महा-रत्त--मूल्यवान रल; किरीट--मुकुट; कुण्डलम्‌--कान के कुण्डल।

    उनका मुख उनकी प्रसन्नता को व्यक्त करता है।

    उनकी आँखें कमल की पंखड़ियों के समानहैं और उनका वस्त्र कदम्ब पुष्प के केसर के समान पीले रंग का तथा बहुमूल्य रत्नों से जटित है।

    उनके सारे आभूषण स्वर्ण से निर्मित तथा रत्नों से जटित हैं।

    वे चमकीला मुकुट तथा कुण्डलधारण किये हुए हैं।

    उन्निद्र-हत्पड्डुज-कर्णिकालयेयोगेश्वरास्थापित-पाद-पल्लवम्‌ ।

    श्री-लक्षणं कौस्तुभ-रत्त-कन्धर-मम्लान-लक्ष्म्या वन-मालयाचितम्‌ ॥

    १०॥

    उन्निद्र--खिले हुए; हत्‌ू--हृदय; पड्डूज--कमल का फूल; कर्णिका-आलये--पुष्पगुच्छ की सतह पर; योग-ईश्वर--महान्‌योगी; आस्थापित--रखा हुआ; पाद-पल्‍लवम्‌--चरणकमल; श्री--लक्ष्मी या सुन्दर बछड़ा; लक्षणम्‌--इस प्रकार के चिह्न सेयुक्त; कौस्तुभ--कौस्तुभि मणि; रत्न--अन्य रल; कन्धरम्‌--कन्धे पर; अम्लान--ताजा; लक्ष्म्या--सौन्दर्य; वन-मालया--पुष्पहार से; आचितम्‌--फैला हुआ।

    उनके चरण-कमल महान्‌ योगियों के कमल-सहृश हृदयों के गुच्छों के ऊपर रखे हैं।

    उनकेवक्षस्थल पर कौस्तुभ मणि है, जिसमें सुन्दर बछड़ा अंकित है और उनके कंधों पर अनेक रत्नहैं।

    उनका पूर्ण स्कंध-प्रदेश ताजे फूलों की माला से सज्जित है।

    विभूषितं मेखलयाडुलीयकै -महा-धनेर्नूपुर-कड्डूणादिभि: ।

    स्निग्धामलाकुश्चित-नील-कुन्तलै-विरोचमानानन-हास-पेशलम्‌ ॥

    ११॥

    विभूषितम्‌--सुसज्जित; मेखलया--करधनी से; अड्डुलीयकै: --अँगूठियों से; महा-धनैः--अत्यन्त मूल्यवान; नूपुर--पायल;'कड्ढूण-आदिभि: --कंकण आदि से; स्निग्ध--चिकना; अमल--निष्कलंक; आकुश्धित--घुँघराले; नील--नीले रंग के ;कुन्तलै:ः--बालों से; विरोचमान--अत्यन्त सुहावना; आनन--मुख; हास--मुस्कान; पेशलम्‌--सुन्दर |

    उनकी कमर अलंकृत करधनी से सुशोभित है और उनकी अंगुलियों में बहुमूल्य रत्नों सेजटित अँगूठियाँ हैं।

    उनके नूपुर, उनके कंकण, उनके घुँघराले नीले रंग के चिकने बाल तथा उनका सुन्दर मुस्कान-युक्त मुख--ये सभी अत्यन्त लुभावने हैं।

    अदीन-लीला-हसितेक्षणोल्लसद्‌-भ्रू-भड़-संसूचित- भूर्य नुग्रहम्‌ ।

    ईक्षेत चिन्तामयमेनमी श्वरंयावन्मनो धारणयावतिष्ठते ॥

    १२॥

    अदीन--अत्यन्त उदार, दैन्यरहित; लीला--लीलाएँ; हसित--हास; ईक्षण--चितवन से; उललसत्‌--चमकता; भ्रू-भड़-- भौहोंका बाँकपन; संसूचित--सूचित; भूरि--विशाल; अनुग्रहम्‌--वर, कृपा; ईक्षेत--एकाग्र करे; चिन्तामयम्‌--दिव्य; एनम्‌ू--इसविशेष; ईश्वरम्‌--परमे श्रर को; यावत्‌-- जब तक; मन:--मन; धारणया--ध्यान से; अवतिष्ठते--स्थिर किया जा सकता है।

    भगवान्‌ की भव्य लीलाएँ तथा उनके हास्यमय मुख की उललासमयी चितवन उनके व्यापकवरदानों के संकेत हैं।

    अतएव मनुष्य को चाहिए कि जब तक ध्यान द्वारा उसका मन भगवान्‌ परस्थिर रखा जा सके, तब तक मन को उनके इसी दिव्य रूप में एकाग्र करे।

    एकैकशोड्नि धियानुभावयेत्‌पादादि यावद्धसितं गदाभूत: ।

    जितं जित॑ं स्थानमपोह्य धारयेत्‌पर पर शुद्धयति धीर्यथा यथा ॥

    १३॥

    एक-एकश:--एक-एक करके, या एक के पश्चात्‌ दूसरा; अज्भनि--अंगों को; धिया-- ध्यान से; अनुभावयेत्‌ -- ध्यान करे;पाद-आदि--पाँव इत्यादि; यावत्‌--जब तक; हसितम्‌--मुसकान; गदा- भूत: -- भगवान्‌; जितम्‌ जितम्‌-- धीरे-धीरे मन कोनियन्त्रित करते हुए; स्थानम्‌ू--स्थान को; अपोह्म --छोड़ कर; धारयेत्‌-- ध्यान करे; परम्‌ परम्‌--उच्चा से उच्चतर; शुद्धगति--शुद्ध होती है; धीः--बुद्द्धि; यथा यथा--जितनी |

    ध्यान की प्रक्रिया भगवान्‌ के चरण-कमलों से प्रारंभ करते हुए उसे उनके हँसते मुखमंडलतक ले आये।

    इस तरह पहले ध्यान को चरण-कमलों पर एकाग्र करे, फिर पिंडलियों पर, तबजाँघों पर और क्रमश : ऊपर की ओर उठता जाये।

    मन जितना ही एक-एक करके भगवान्‌ केविभिन्न अंगों पर स्थिर होगा, बुद्धि उतनी ही अधिक परिष्कृत होगी।

    यावन्न जायेत परावरेस्मिन्‌विश्वेश्वरे द्रष्टरे भक्ति-योग: ।

    तावत्‌ स्थवीय: पुरुषस्य रूप॑क्रियावसाने प्रयतः स्मरेत ॥

    १४॥

    यावत्‌--जब तक; न--नहीं; जायेत--विकसित होता है; पर--दिव्य; अवरे--संसारी; अस्मिन्‌ू--इस रूप में; विश्व-ई श्रे --समस्त जगतों के स्वामी; द्रष्टरे--देखनेवाले को; भक्ति-योग: -- भक्तिमयी सेवा, भक्ति; तावत्‌--तब तक; स्थवीय: --स्थूलभौतिकतावादी; पुरुषस्य--विराट पुरुष का; रूपम्‌ू--विश्वरूप; क्रिया-अवसाने--अपने कर्तव्यों के पूरा होने पर; प्रयतः--सावधानीपूर्वक; स्मरेत--स्मरण करे।

    जब तक स्थूल भौतिकतावादी व्यक्ति दिव्य तथा भौतिक दोनों ही जगतों के द्रष्टा परमेश्वरकी प्रेमाभक्ति विकसित न कर ले, तब तक उसे अपने कर्तव्यों को पूरा कर लेने के बाद भगवान्‌के विराट रूप का स्मरण या ध्यान करना चाहिए।

    स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यति-दा जिहासुरिममड् लोकम्‌ ।

    काले च देशे च मनो न सज्येत्‌प्राणान्‌ नियच्छेन्‍्मनसा जितासु: ॥

    १५॥

    स्थिरम्‌--स्थिर; सुखम्‌--आरामदेह; च-- भी; आसनम्‌--बैठने का आसन; आस्थित:--स्थित होकर; यतिः--साधु ; यदा--जब भी; जिहासु:--त्यागना चाहता है; इमम्‌--इसे; अड्ग--हे राजा; लोकम्‌--शरीर को; काले--समय में; च--तथा; देशे--उचित स्थान में; च-- भी; मनः--मन; न--नहीं; सज्जयेत्‌--उद्ठिग्न न हो; प्राणान्‌--प्राणों को; नियच्छेत्‌--वश में करे;मनसा--मन से; जित-असु:--प्राणवायु को जीतकर।

    हे राजनू, जब भी योगी इस मानव लोक को छोड़ने की इच्छा करे तो वह उचित काल यास्थान की तनिक भी इच्छा न करते हुए, सुविधापूर्वक अविचल भाव से आसन लगा ले औरप्राणवायु को नियमित करके मन द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करे।

    मन: स्व-बुद्धयामलया नियम्यक्षेत्र-ज्ञ एतां निनयेत्‌ तमात्मनि ।

    आत्मानमात्मन्यवरु ध्य धीरोलब्धोपशान्तिर्विर्मेत कृत्यातू ॥

    १६॥

    मनः--मन को; स्व-बुद्धया--अपनी बुद्धि से; अमलया--विशुद्ध; नियम्य--नियमित करके ; क्षेत्र-ज्ञे-- जीव को; एतामू--येसब; निनयेत्‌--विलीन करे; तम्‌--उसको; आत्मनि--आत्मा में; आत्मानम्‌--आत्मा को; आत्मनि--परम आत्मा में;अवसरुध्य--बँधकर; धीर:ः--पूर्ण रूप से तुष्ट; लब्ध-उपशान्ति:--जिसने पूर्ण आनन्द प्राप्त कर लिया है; विरमेत--विराम लेताहै; कृत्यातू--अन्य कृत्यों से |

    तत्पश्चात्‌ योगी को चाहिए कि वह अपनी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने मन को जीवात्मा मेंतदाकार करे और फिर जीवात्मा को परम आत्मा में विलीन कर दे।

    ऐसा करने के बाद, पूर्णतयातुष्ट जीव, तुष्टि की चरमावस्था को प्राप्त होता है, जिससे वह अन्य सारे कार्यकलाप बन्द करदेता है।

    न यत्र कालोनिमिषां परः प्रभु:कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे ।

    न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्नन वै विकारो न महान्‌ प्रधानम्‌ ॥

    १७॥

    न--नहीं; यत्र--जहाँ; काल:--विनाशकारी काल; अनिमिषाम्‌--देवताओं का; परः-- श्रेष्ठ; प्रभु:ः--नियन्ता; कुत:--कहाँ है;नु--निश्चय ही; देवा: --देवता; जगताम्‌--संसारी प्राणी; ये--जो; ईशिरे--नियम; न--नहीं; यत्र--जहाँ; सत्त्वमू--संसारीअच्छाई, सतोगुण; न--न तो; रज:--संसारी काम; तमः--संसारी अज्ञान, तमोगुण; च--भी; न--न तो; बै--निश्चय ही;विकार:--रूपान्तर; न--न तो; महान्‌-- भौतिक कारणार्णव; प्रधानम्‌-- भौतिक प्रकृति |

    उस लब्धोपशान्ति की दिव्य अवस्था में विनाशकारी काल की श्रेष्ठता नहीं रह पाती, जो उनदेवी-देवताओं का भी नियामक है, जिन्हें संसारी प्राणियों के ऊपर शासन करने की शक्ति प्राप्तहै।

    ( तो फिर स्वयं देवताओं के विषय में क्या कहा जाये ? )।

    इस अवस्था में न तो सतोगुण,रजोगुण या तमोगुण रहते हैं, न ही मिथ्या अहंकार, भौतिक कारणार्णव अथवा न भौतिकप्रकृति ही रह पाती है।

    परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्‌यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षव: ।

    विसृज्य दौरात्म्यमनन्य-सौहदाहृदोपगुझ्ाई -पदं पदे पदे ॥

    १८॥

    'परमू--परम; पदम्‌--पद; वैष्णवम्‌-- भगवान्‌ के साथ; आमनन्ति--वे जानते हैं; तत्‌--वह; यत्‌--जो; न इति--यह नहीं; नइति--यह नहीं; इति--इस प्रकार; अतत्‌--ईश्वर-विहीन; उत्सिसृक्षवः --जो बचना चाहते हैं; विसृज्य--पूर्ण रूप से त्याग कर;दौरात्म्यमू--जटिलताएँ; अनन्य-- पूर्णतया; सौहृदा:--उत्तम अभिलाषा से; हृदा उपगुह्य --हृदय में धारण करके; अर्ह--एकमात्रपूज्य; पदम्‌--चरणकमल; पदे पदे--क्षण-क्षण में |

    योगीजन ईश्वर-विहीन प्रत्येक वस्तु से बचना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें उस परम स्थिति कापता है, जिसमें प्रत्येक वस्तु भगवान्‌ विष्णु से सम्बन्धित है।

    अतएवं वह शुद्ध भक्त, जो किभगवान्‌ से पूर्ण ऐक्य रखता है, जटिलताएँ उत्पन्न नहीं करता, अपितु भगवान्‌ के चरण-कमलों को हृदय में धारण करके उनकी प्रत्येक क्षण पूजा करता है।

    इत्थं मुनिस्तूपरमेद्‌ व्यवस्थितोविज्ञान-हग्वीर्य-सुरन्धिताशय: ।

    स्व-पार्ण्गिनापीड्य गुदं ततोनिलंस्थानेषु षट्सून्नमयेज्जित-क्लम: ॥

    १९॥

    इत्थम्‌ू--इस प्रकार ब्रह्म-साक्षात्कार से; मुनि:ः--दार्शनिक; तु--लेकिन; उपरमेत्‌-- अलग हो ले; व्यवस्थित:-- भली भाँतिस्थित; विज्ञान-हक्‌--वैज्ञानिक दृष्टि से; वीर्य--बल; सु-रन्धित-- भलीभाँति नियमित; आशय: --जीवन-उद्देश्य; स्व-पार्ण्णिना-- अपनी एड़ी से; आपीड्य--रोककर; गुदम्‌--वायुद्वार को; ततः--तत्पश्चात्‌; अनिलम्‌--प्राणवायु को; स्थानेषु--स्थानों में; घट्सु--छः मुख्य; उन्नमयेत्‌--ऊपर उठाये; जित-क्लम:-- भौतिक इच्छाओं को दमित करके |

    वैज्ञानिक ज्ञान के बल पर मनुष्य को परम अनुभूति में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाना चाहिएऔर इस तरह समस्त भौतिक इच्छाओं को शमन करने में समर्थ हो जाना चाहिए।

    मनुष्य कोवायु-द्वार ( गुदा ) को पाँव की एड़ी से बन्द करके तथा प्राणवायु को एक-एक करके क्रमशःछः प्रमुख स्थानों ( चक्रों ) में एक-एक करके ऊपर ले जाना चाहिए और तब भौतिक शरीर कात्याग कर देना चाहिए।

    नाभ्यां स्थितं हद्मधिरोप्य तस्मा-दुदान-गत्योरसि त॑ नयेन्मुनिः ।

    ततोनुसन्धाय धिया मनस्वीस्व-तालु-मूलं शनकैर्नयेत ॥

    २०॥

    नाभ्यामू--नाभि में; स्थितम्‌--स्थित; हृदि--हृदय में; अधिरोप्प--रखकर; तस्मात्‌--वहाँ से; उदान--उदान, ऊपर उठाते हुए;गत्य--वेग से; उरसि--छाती पर; तम्‌ू--तत्पश्चात्‌; नयेत्‌--ले जाय; मुनि: --ध्यानवान भक्त; तत:--उनको; अनुसन्धाय--खोज करने के लिए; धिया--बुद्ध्ि से; मनस्वी--ध्यानशील; स्व-तालु-मूलम्‌--तालू के निचले भाग में; शनकै: -- धीरे-धीरे;नयेत--ले जाये।

    ध्यानमग्न भक्त को चाहिए कि वह प्राणवायु को धीरे-धीरे नाभि से हृदय में, हृदय से छातीमें और वहाँ से तालु के निचले भाग तक ले जाये।

    उसे बुद्धि से समुचित स्थानों को ढूँढनिकालना चाहिए।

    तस्माद्‌ भ्रुवोरन्तरमुन्नयेतनिरुद्ध-सप्तायतनोनपेक्ष: ।

    स्थित्वा मुहूर्तार्धभकुण्ठ -दृष्टि-निर्भिद्य मूर्धन्‌ विसृजेत्परं गत: ॥

    २१॥

    तस्मात्‌ू--वहाँ से; भ्रुवो:--भौहों के; अन्तरम्‌--बीच में; उन्नयेत--ले जाना चाहिए; निरुद्ध--रोककर; सप्त--सात;आयतनः--प्राणवायु के बहिर्द्धार; अनपेक्ष:--समस्त भौतिक भोग से स्वतन्त्र; स्थित्वा--रखकर; मुहूर्त-- क्षण भर; अर्धम्‌--आधा; अकुण्ठ-- भगवान्‌ के धाम वापस; दृष्टिः--जिसका ध्येय है; निर्भिद्य-- भेदकर; मूर्थन्‌--ब्रह्मरन्ध्; विसृजेत्‌ू-- अपनाशरीर त्याग दे; परमू--परमे श्वर; गत:--गया हुआ।

    तत्पश्चातु, भक्तियोगी को अपनी प्राणवायु दोनों भौहों के मध्य लाना चाहिए और तबप्राणवायु के सातों बहिर्द्धारों को बन्द करके, उसे भगवद्धाम वापस जाने को अपना लक्ष्य बनानाचाहिए।

    यदि वह भौतिक भोग की सारी इच्छाओं से मुक्त है, तब उसे ब्रह्मरन्ध्व तक पहुँचना यदि प्रयास्यन्‌ नृप पारमेष्ठ्यवैहायसानामुत यद्‌ विहारम्‌ ।

    अष्टाधिपत्यं गुण-सन्निवायेसहैव गच्छेन्मनसेन्द्रियैश्व ॥

    २२॥

    यदि--यदि; प्रयास्थनू--इच्छा करने पर; नृप--हे राजा; पारमेष्ठयम्‌-- भौतिक जगत का अधिष्ठाता लोक; वैहायसानाम्‌--वैहायस नामक जीवों का; उत--कहा जाता है; यत्‌--जो है; विहारम्‌-- भोग का स्थान; अष्ट-आधिपत्यम्‌--अष्ट्सिद्धियों कास्वामी; गुण-सन्निवाये--त्रिगुणात्मक जगत में; सह--साथ; एब--निश्चय ही; गच्छेत्‌--जाना चाहिए; मनसा--मन से;इन्द्रिये: --तथा इन्द्रियों से; च-- भीतथापि

    हे राजन, यदि योगी में अत्यधिक भौतिक भोगों की, यथा सर्वोच्चलोक ब्रह्मलोकजाने की, या अष्ट-सिद्धियाँ प्राप्त करने की, अथवा वैहायसों के साथ बाह्य अन्तरिक्ष में यात्राकरने, या लाखों लोकों में से किसी एक में स्थान प्राप्त करने की इच्छा बनी रहती है, तो उसेभौतिकता में ढले मन तथा इन्द्रियों को अपने साथ-साथ ले जाना होता है।

    योगेश्वराणां गतिमाहुरन्त-ब॑हिस्त्रि-लोक्या: पवनान्तरात्मनाम्‌ ।

    न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्तिविद्या-तपो-योग-समाधि-भाजाम्‌ ॥

    २३॥

    योग-ईश्वराणाम्‌--महान्‌ सन्‍्तों तथा भक्तों का; गतिम्‌ू--गन्तव्य; आहुः--कहा जाता है; अन्तः-- भीतर; बहि:--बाहर; त्रि-लोक्या:--तीनों लोकों का; पवन-अन्त:ः--वायु के भीतर; आत्मनाम्‌--सूक्ष्म शरीर का; न--कभी नहीं; कर्मभि: --सकामकर्मों के द्वारा; तामू--उस; गतिमू--चालक को; आप्नुवन्ति--प्राप्त करते हैं; विद्या-- भक्ति; तप:--तपस्या; योग--योग-शक्ति; समाधि--ज्ञान; भाजामू--पात्रों को |

    योगियों का सम्बन्ध आध्यात्मिक शरीर के होता है।

    फलस्वरूप अपनी भक्ति, तपस्या,योगशक्ति तथा दिव्य ज्ञान के बल पर वे भौतिक जगत के भीतर तथा बाहर अबाघ रुप सेविचरण कर सकते हैं।

    किन्तु सकाम-कर्मी या निपट भौतिकतावादी इस तरह मुक्त भाव सेकभी विचरण नहीं कर सकते।

    वैश्वानरं याति विहायसा गतःसुषुम्णया ब्रह्म-पथेन शोचिषा ।

    विधूत-कल्कोथ हरेरुदस्तात्‌प्रयाति चक्र नृप शैशुमारम्‌ ॥

    २४॥

    वैश्वानरम्-- अग्निदेव; याति--जाता है; विहायसा--आकाश मार्ग ( आकाश-गंगा ) से; गत:ः--पार करके; सुषुम्णया--सुषुण्णा द्वारा; ब्रह्य--ब्रहालोक ; पथेन--पथ से; शोचिषा--प्रकाशमान; विधूत-- धुला हुआ; कल्क:-- धूल, मल; अथ--तत्पश्चात्‌; हरेः--हरि के; उदस्तात्‌--ऊपर; प्रयाति--पहुँचता है; चक्रम्‌--चक्र; नृप--हे राजा; शैशुमारम्‌--शिशुमार नामक |

    हे राजन, जब योगी सर्वोच्चलोक ब्रह्मलोक पहुँचने के लिए प्रकाशमान सुषुम्णा द्वाराआकाश-गंगा के ऊपर से गुजरता है, तो वह सर्वप्रथम अग्निदेव के लोक वैजश्वानर जाता है, जहाँवह सारे कल्मषों से परि-शुद्ध हो जाता है।

    तब वह भगवान्‌ से तादात्म के लिए उससे भी ऊपरशिशुमार चक्र को जाता है।

    तद्‌ विश्व-नाभि त्वतिवर्त्य विष्णो-रणीयसा विरजेनात्मनैक: ।

    नमस्कृतं ब्रह्म-विदामुपैतिकल्पायुषो यद्‌ विबुधा रमन्ते ॥

    २५॥

    तत्‌--उस; विश्व-नाभिम्‌--विराट पुरुष की नाभि को; तु--लेकिन; अतिवर्त्य--पार कर; विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु की;अणीयसा--योग-सिद्धि के कारण; विरजेन--शुद्ध की गई; आत्मना--जीव द्वारा; एक: --अकेला; नमस्कृतम्‌-- पूज्य; ब्रह्म-विदाम्‌--अध्यात्म-पद पर स्थित रहनेवालों का; उपैति--पहुँचता है; कल्प-आयुष:--४, ३००, ०००, ००० सौर वर्ष; यत्‌--जहाँपर; विबुधा:--स्वरूपसिद्ध व्यक्ति; रमन्ते-- भोग करते हैंयह शिशुमार चक्र संपूर्ण ब्रह्माण्ड के घूमने की कीली है और यह विष्णु ( गर्भोदकशायीविष्णु ) की नाभि कहलाती है।

    केवल योगी ही इस शिशुमार चक्र को पार करता है और ऐसे अथो अनन्तस्य मुखानलेनदन्दह्ममानं स निरीक्ष्य विश्वम्‌ ।

    निर्याति सिद्धेश्वर-युष्ट-धिष्ण्यंयद्‌ द्वै-परार्ध्य तदु पारमेछ्यम्‌ ॥

    २६॥

    अथो--तत्पश्चात्‌; अनन्तस्य--ईश्वर के विश्राम करनेवाले अवतार अनन्त के; मुख-अनलेन--मुख से निकलनेवाली अग्नि से;दन्दह्ममानम्‌-- भस्मी भूत करते हुए; सः--वह; निरीक्ष्य--देखकर; विश्वम्‌-- ब्रह्माण्ड को; निर्याति--बाहर जाता है; सिद्धेश्वर-युष्ट-धिष्ण्यम्‌ू--शुद्धात्मा द्वारा प्रयुक्त वायुयान; यत्‌--स्थान; द्वै-परार्ध्यमू-- १५,४८०, ०००,०००,००० सौर वर्ष; तत्‌--वह;उ-महान्‌; पारमेछ्यम्‌--सत्यलोक जहाँ ब्रह्मा निवास करते हैं संपूर्ण ब्रह्माण्ड के अन्तिम संहार के समय ( ब्रह्मा के जीवन के अन्त में ), अनन्त के मुख से( ब्रह्माण्ड के नीचे से ) अग्नि की ज्वाला फूट निकलती है।

    योगी ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों कोभस्म होकर क्षार होते हुए देखता है और वह शुद्धात्माओं द्वारा प्रयुक्त होनेवाले वायुयानों के द्वारासत्यलोक के लिए प्रस्थान करता है।

    सत्यलोक में जीवन की अवधि दो परार्ध अर्थात्‌१०५४८०,०००,०००,००० सौर वर्ष आँकी जाती है।

    न यत्र शोको न जरा न मृत्यु-नार्तिर्न चोद्वेग ऋते कुतश्चित्‌ ।

    यच्चित्ततोद: कृपयानिदं-विदांदुरन्त-दुःख-प्रभवानुदर्शनात्‌ ॥

    २७॥

    न--कभी नहीं; यत्र--जहाँ है; शोक:--शोक; न--न तो; जरा--बुढ़ापा; न--न तो; मृत्यु:--मृत्यु; न--न तो; अर्ति:-- पीड़ा;न--न तो; च-- भी; उद्देग:--चिन्ताएँ; ऋते--के अतिरिक्त, बिना; कुतश्चित्‌ू--कभी-कभी; यत्‌--के कारण; चित्‌-- चेतना;ततः--तत्पश्चात्‌; अदः--दया; कृपया--हार्दिक दया से; अनू-इदम्‌-विदाम्‌-- भक्तियोग के अनभिज्ञों का; दुरन्‍्त--दुल॑ध्य;दुःख--कष्ट; प्रभवब--बारम्बार जन्म तथा मृत्यु; अनुदर्शनात्‌ू--क्रमिक अनुभव से |

    सत्यलोक में न तो शोक है, न बुढ़ापा, न मृत्यु।

    वहाँ किसी प्रकार की वेदना नहीं है,जिसके कारण किसी तरह की चिन्ता भी नहीं है।

    हाँ, कभी-कभी चेतना के कारण उन लोगोंपर दया उमड़ती है, जो भक्तियोग से अवगत न होने से भौतिक जगत के दुर्लघ्य कष्टों को भोगरहे हैं।

    ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भय-स्तेनात्मनापोनल-मूर्तिरत्वरन्‌ ।

    ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य कालेवाय्वात्मना खं बृहदात्म-लिड्रम्‌ू ॥

    २८॥

    ततः--तत्पश्चात्‌: विशेषम्‌--विशेषरूप से; प्रतिपद्य--प्राप्त करके; निर्भय:ः --बिना किसी सन्देह के; तेन--उससे; आत्मना--शुद्ध आत्मा; आप:--जल; अनल--अग्नि; मूर्ति:--रूप; अत्वरन्‌ू--पार करके; ज्योति:-मय:--तेजवान; वायुम्‌ू--वायुमण्डलमें; उपेत्य--पहुँचकर; काले--कालक्रम से; वायु--वायु; आत्मना--आत्मा से; खम्‌--आकाश में; बृहत्‌--विशाल; आत्म-लिड्डम--आत्मा का असली स्वरूप।

    सत्यलोक पहुँचकर भक्त अपने सूक्ष्म शरीर से, अपने स्थूल शरीर जैसी सत्ता में निर्भयहोकर समाविष्ट हो जाता है और क्रमश: वह भूमि से जल, अग्नि, तेज तथा वायु की अवस्थाएँपार करता हुआ अन्त में स्वर्गीय आकाश में पहुँच पाता है।

    घ्राणेन गन्ध॑ रसनेन वै रसंरूप॑ च दृष्टयया श्वसनं त्वचेव ।

    श्रोत्रेण चोपेत्य नभो-गुणत्वंप्राणेन चाकूतिमुपैति योगी ॥

    २९॥

    प्राणेन--सूँघने से; गन्धम्‌--सुगन्ध; रसनेन--स्वाद से; वै--ठीक-ठीक ; रसम्‌--स्वाद; रूपमू-- स्वरूप; च-- भी; दृष्ठया--दृष्टि से; श्रसनम्‌ू--सम्पर्क; त्वचा--स्पर्श; एब--मानो; श्रोत्रेण--कान के कम्पन से; च--भी; उपेत्य--प्राप्त करके; नभः-गुणत्वमू--आकाश की पहचान; प्राणेन--इन्द्रियों से; च-- भी; आकूतिम्‌-- भौतिक कार्य-कलाप; उपैति--प्राप्त करता है;योगी-- भक्त।

    इस प्रकार भक्त विभिन्न इन्द्रियों के सूक्ष्म विषयों को पार कर जाता है, यथा सूँघने सेसुगन्धि को, चखने से स्वाद को, स्वरूप देखने से दृष्टि को, सम्पर्क द्वारा स्पर्श को, आकाशीयपहचान से कान के कम्पनों को तथा भौतिक कार्य-कलापों से इन्द्रियों को।

    स भूत-सूक्ष्मेन्द्रिय-सन्निकर्षमनोमयं देवमयं विकार्यम्‌ ।

    संसाद्य गत्या सह तेन यातिविज्ञान-तत्त्वं गुण-सन्निरोधम्‌ ॥

    ३०॥

    सः--वह ( भक्त ); भूत--स्थूल; सूक्ष्म--तथा सूक्ष्म; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; सन्निकर्षम्‌--उदासीनता का बिन्दु; मन:-मयम्‌--मानसिक स्तर; देव-मयम्‌--सतोगुण में; विकार्यमू--अहंकार; संसाद्य--पार करके; गत्या-- प्रगति से; सह--साथ-साथ;तेन--उनके; याति--जाता है; विज्ञान--पूर्ण ज्ञान; तत्त्म्‌ू--सत्य; गुण--गुण; सन्निरोधम्‌--पूर्ण रूप से अवरुद्ध।

    इस तरह से भक्त स्थूल तथा सूक्ष्म आवरणों को पार करके अहंकार के स्तर में प्रवेश करताहै।

    उस अवस्था में वह भौतिक गुणों ( रजो तथा तमो गुणों ) को इस उदासीन बिन्दु में विलीनकर देता है और इस तरह वह सतोगुणी अहंकार को प्राप्त होता है।

    इसके पश्चात्‌ सारा अहंकारमहत्‌ तत्त्व में विलीन हो जाता है और वह श॒द्ध आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त होता है।

    तेनात्मनात्मानमुपैति शान्त-मानन्दमानन्दमयोवसाने ।

    एतां गतिं भागवतीं गतो यःसै पुनर्नेह विषज्जतेउड़ ॥

    ३१॥

    तेन--उस शुद्ध; आत्मना--आत्मा द्वारा; आत्मानम्‌--परमात्मा को; उपैति--प्राप्त करता है; शान्तम्‌ू--शान्त; आनन्दम्‌--प्रसन्नता; आनन्द-मय:--स्वाभाविक रूप से ऐसा होने पर; अवसाने--सारे भौतिक कल्मष से रहित होकर; एताम्‌--ऐसा;गतिमू--गन्तव्य; भागवतीम्‌-- भक्तिमयी; गतः-८दवारा प्राप्त; यः--जो व्यक्ति; सः--वह; बै--निश्चय ही; पुन:--फिर; न--कभी नहीं; इह--इस जगत में; विषज्ते--आकृष्ट होता है; अड़--हे महाराज परीक्षित।

    केवल विशुद्धात्मा ही भगवान्‌ की संगति की पूर्णता अपनी स्वाभाविक स्थिति में परि-पूर्णआनन्द तथा तुष्टि के साथ प्राप्त कर सकता है।

    जो कोई भी ऐसी भक्तिमयी पूर्णता को पुनःजागृत करने में समर्थ होता है, वह इस भौतिक जगत के प्रति फिर से आकृष्ट नहीं होता औरइसमें लौटकर कभी नहीं आता।

    एते सूती ते नूप वेद-गीतेत्वयाभिपृष्टे च सनातने च ।

    ये वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्टआराधितो भगवान्‌ वासुदेव: ॥

    ३२॥

    एते--ये सब, जिनका वर्णन किया गया; सृती--मार्ग; ते--तुम तक; नृप--हे महाराज परीक्षित; वेद-गीते--वेदों केकथनानुसार; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अभिपृष्ट--ठीक से पूछे जाने पर; च-- भी; सनातने--नित्य सत्य के मामले में; च--सचमुच; ये--जो; बै--निश्चय ही; पुरा--पहले; ब्रह्मणे--ब्रह्मजी से; आह-- कहा; तुष्ट:--सन्तुष्ट होकर; आराधित:ः--पूजितहोकर; भगवान्‌-- भगवान्‌; वासुदेव: -- भगवान्‌ कृष्ण ने |

    हे महाराज परीक्षित, आप इतना जान लें कि मैंने आपकी समुचित जिज्ञासा के प्रति जो भीवर्णन किया है, वह वेदों के कथनानुसार है और वही नित्य सत्य है।

    इसे साक्षात्‌ भगवान्‌ कृष्णने ब्रह्म से कहा था, क्योंकि वे ब्रह्मा द्वारा समुचित रुप से पूजे जाने पर उनसे प्रसन्न थे।

    न ह्ातोउन्य: शिव: पन्था विशत: संसृताविह ।

    वासुदेवे भगवति भक्ति-योगो यतो भवेत्‌ ॥

    ३३॥

    न--कभी नहीं; हि--निश्चय ही; अत:--इसके परे; अन्य:--अन्य कुछ; शिव:--कल्याण प्रद; पन्था: --साधन; विशतः --भटकते हुए; संसृतौ-- भौतिक जगत में; इह--इस जीवन में; वासुदेवे--भगवान्‌ वासुदेव कृष्ण में; भगवति-- भगवान्‌; भक्ति-योग:--प्रत्यक्ष भक्ति; यत:--जहाँ; भवेत्‌--ऐसा हो |

    जो लोग भौतिक विश्व में भटक रहे हैं, उनके लिए भगवान्‌ कृष्ण की प्रत्यक्ष भक्ति सेबढ़कर मोक्ष का कोई अधिक कल्याणकर साधन नहीं है।

    भगवान्‌ ब्रह्म कार्ल्स्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया ।

    तदध्यवस्यत्‌ कूट-स्थो रतिरात्मन्‌ यतो भवेत्‌ ॥

    ३४॥

    भगवान्‌--महापुरुष ब्रह्माजी ने; ब्रह्म--वेद; कार्त्स्येन--संक्षिप्तीकरण द्वारा; त्रिः--तीन बार; अन्वीक्ष्य--परीक्षा करके;मनीषया--अ त्यन्त दिद्वत्तापूर्वक; तत्‌ू--वह; अध्यवस्यत्‌--निश्चित किया; कूट-स्थ:--मन की एकाग्रता से; रति:--आकर्षण;आत्मन्‌ ( आत्मनि )--भगवान्‌ श्रीकृष्ण में; यतः--जिसके द्वारा; भवेत्‌--ऐसा होता है

    महापुरुष ब्रह्मा ने अत्यन्त मनोयोग से वेदों का तीन बार अध्ययन किया और उनकीभलीभाँति संवीक्षा कर लेने के बाद, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्रतिआकर्षण ( रति ) ही धर्म की सर्वोच्च सिद्धि है।

    भगवान्‌ सर्व-भूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरि: ।

    हश्यैर्बुद्धयादिभिर्रष्ठा लक्षणरनुमापकै: ॥

    ३५॥

    भगवानू्‌-- भगवान्‌; सर्व--समस्त; भूतेषु--सारे जीवों में; लक्षित:--देखे जाते हैं; स्व-आत्मना-- आत्मा सहित; हरिः--भगवान्‌; दृश्यै:--देखे जाने के द्वारा; बुद्धि-आदिभि:--बुद्धि के द्वारा; द्रष्ठा--देखने वाला; लक्षणै:--विभिन्न लक्षणों से;अनुमापकै:-- परिकल्पना द्वारा।

    आत्मा के साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रत्येक जीव में हैं।

    यह तथ्य हमारे देखने से तथा बुद्धि सेसहायता लेने पर अनुभूत तथा परिकल्पित होता है।

    तस्मात्‌ सर्वात्मना राजन्‌ हरिः सर्वत्र सर्वदा ।

    श्रोतव्य: कीर्तितव्यश्व स्मर्तव्यों भगवात्रूणाम्‌ ॥

    ३६॥

    तस्मात्‌--अतएव; सर्व--सभी; आत्मना--आत्मा; राजन्‌--हे राजा; हरिः-- भगवान्‌; सर्वत्र--सभी जगह; सर्वदा--सदैव;श्रोतव्य: --सुना जाना चाहिए; कीर्तितव्य:--गुणगान किया जाना चाहिए; च-- भी; स्मर्तव्य:--स्मरण किया जाना चाहिए;भगवान्‌-- भगवान्‌; नृणाम्‌--मनुष्यों द्वारा।

    हे राजनू, अतएव यह आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य सर्वत्र तथा सदैव भगवान्‌ का श्रवणकरे, गुणगान करे तथा स्मरण करे।

    पिबन्ति ये भगवत आत्मन: सतांकथामृतं श्रवण-पुटेषु सम्भूतम्‌ ।

    पुनन्ति ते विषय-विदूषिताशयंब्रजन्ति तच्चरण-सरोरुहान्तिकम्‌ ॥

    ३७॥

    पिबन्ति--पीते हैं; ये--जो; भगवतः--भगवान्‌ का; आत्मन:--अत्यन्त प्रिय; सताम्‌ू-- भक्तों के; कथा-अमृतम्‌ू--सन्देश-रूपीअमृत; श्रवण-पुटेषु--कान के छेदों के भीतर; सम्भृतम्‌--परिपूरित; पुनन्ति--पवित्र करते हैं; ते--उनके ; विषय-- भौतिकभोग; विदूषित-आशयम्‌--कलुषित जीवन लक्ष्य; ब्रजन्ति--वापस जाते हैं; तत्‌-- भगवान्‌ के; चरण--चरण; सरोरुह-अन्तिकमू--कमल के निकट

    जो लोग भक्तों के अत्यन्त प्रिय भगवान्‌ कृष्ण की अमृत-तुल्य कथा को कर्णरूपी पात्रों सेभर-भर कर पीते हैं, वे भौतिक भोग के नाम से विख्यात दूषित जीवन-उद्देश्य को पवित्र करलेते हैं और इस प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर के चरणकमलों में भगवद्धाम को वापस जाते हैं।

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    अध्याय तीन: शुद्ध भक्ति सेवा: हृदय में परिवर्तन

    2.3श्री -शुक उवाचएवमेतन्निगदितं पृष्ठवान्‌ यदभवान्‌ मम ।

    नृणां यन्प्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम्‌ ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्‌--इस तरह; एतत्‌--यह सब; निगदितम्‌--उत्तरित; पृष्टवान्‌--तुम्हारेपूछे जाने पर; यत्‌--जो; भवान्‌--आपने; मम--मुझसे; नृणाम्‌--मानव का; यत्‌--जो; प्रियमाणानाम्‌--मरणासन्न;मनुष्येषु--मनुष्यों में; मनीषिणाम्‌--बुद्धिमान मनुष्यों के ।

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, आपने मुझसे मरणासतन्न बुद्धिमानमनुष्य के कर्तव्य के विषय में जिस प्रकार जिज्ञासा की, उसी प्रकार मैंने आपको उत्तर दिया है।

    ब्रह्म-वर्चस-कामस्तु यजेत ब्रह्मण: पतिम्‌ ।

    इन्द्रमिन्द्रिय-कामस्तु प्रजा-काम: प्रजापतीन्‌ ॥

    २॥

    देवीं मायां तु श्री-कामस्तेजस्कामो विभावसुम्‌ ।

    वसु-कामो वबसून्‌ रुद्रान्‌ वीर्य-कामोथ वीर्यवान्‌ ॥

    ३॥

    अन्नाद्य-कामस्त्वदितिं स्वर्ग -कामोदितेः सुतान्‌ ।

    विश्वान्देवान्‌ राज्य-काम: साध्यान्संसाधको विशाम्‌ ॥

    ४॥

    आयुष्कामोश्चिनौ देवौ पुष्टि-काम इलां यजेत्‌ ।

    प्रतिष्ठा-काम: पुरुषो रोदसी लोक-मातरौ ॥

    ५॥

    रूपाभिकामो गन्धर्वान्‌ स्त्री-कामोप्सर उर्वशीम्‌ ।

    आधिपत्य-काम: सर्वेषां यजेत परमेष्ठटिनम्‌ ॥

    ६॥

    यज्ञ यजेदू यशस्काम: कोश-काम: प्रचेतसम्‌ ।

    विद्या-कामस्तु गिरिशं दाम्पत्यार्थ उमां सतीम्‌ ॥

    ७॥

    ब्रह्म--परम; वर्चस--तेज; काम: तु--जो उनकी कामना करता है; यजेत--पूजें; ब्रह्मण:--वेदों के; पतिम्‌--स्वामी को;इन्द्रमू--स्वर्ग के राजा को; इन्द्रिय-कामः तु--लेकिन जो प्रबल इन्द्रिय का इच्छुक है; प्रजा-काम:--सन्तान चाहनेवाला;प्रजापतीन्‌--प्रजापतियों को; देवीम्‌--देवी को; मायाम्‌--संसार की स्वामिनी को; तु-- भी; श्री-काम: --सौन्दर्य की कामना'करनेवाला; तेज:--शक्ति; काम: --चाहनेवाला; विभावसुम्‌--अग्निदेव को; वसु-काम: --सम्पत्ति चाहनेवाला; वसूनू--बसुओं को; रुद्रानू--शिवजी के रुद्र अंशों को; वीर्य-काम:--बलिष्ठ बनने का इच्छुक; अथ--इसीलिए; वीर्यवान्‌--अत्यन्तशक्तिशाली; अन्न-अद्य--अनाज की; काम:--कामना करनेवाला; तु--लेकिन; अदितिम्‌--देवताओं की माता अदिति को;स्वर्ग--स्वर्ग की; काम:--अभिलाषा करनेवाला; अदिते: सुतान्‌ू--अदिति के पुत्रों को; विश्वानू--विश्वदेव को; देवानू--देवताओं को; राज्य-काम:--राज्य की लालसा रखनेवाले; साध्यान्‌ू--साध्यदेवों को; संसाधक:--इच्छा पूरी करनेवाला;विशामू--वणिक वर्ग की; आयु:-काम:--दीर्घायु चाहनेवाला; अश्विनौ--अश्विनीकुमार नामक; देवौ--दोनों देवताओं को;पुष्टि-काम:--सुगठित शरीर चाहनेवाला; इलाम्‌--पृथ्वी को; यजेत्‌--पूजे; प्रतिष्ठा-काम:--यश या पद में स्थिरताचाहनेवाला; पुरुष:--ऐसे व्यक्ति; रोदसी--अन्तरिक्ष; लोक-मातरौ--तथा पृथ्वी को; रूप--सौन्दर्य; अभिकाम:--निश्चित रूपसे कामना करनेवाला; गन्धर्वानू--गन्धर्वों को, जो गंधर्व लोक के रहनेवाले हैं तथा गायन में अत्यन्त पटु होते हैं; स्त्री-काम: --अच्छी पली चाहनेवाला; अप्सर: उर्वशीम्‌--स्वर्गलोक की अप्सराओं को; आधिपत्य-काम:--दूसरों पर शासन चलाने की इच्छा रखनेवाला; सर्वेषाम्‌--सबों की; यजेत--पूजा करे; परमेष्ठटिनम्‌--ब्रह्माण्ड के प्रमुख ब्रह्मा को; यज्ञम्‌-- भगवान्‌ को;यजेत्‌--पूजे; यशः-काम: -- प्रसिद्ध होने का इच्छुक; कोश-काम:--अच्छी बैंक-बचत का इच्छुक; प्रचेतसम्‌--स्वर्ग केकोषाध्यक्ष वरुण को; विद्या-कामः तु--लेकिन जो विद्या का इच्छुक हो; गिरिशम्‌--हिमालय के स्वामी शिवजी को; दाम्पत्य-अर्थ:--तथा दाम्पत्य प्रेम के लिए; उमाम्‌ सतीमू--शिवजी की सती पत्नी को, जो उमा के नाम से विख्यात हैं।

    जो व्यक्ति निर्विशेष ब्रह्मज्योति तेज में लीन होने की कामना करता है, उसे वेदों के स्वामी( भगवान्‌ ब्रह्मा या विद्वान पुरोहित बृहस्पति ) की पूजा करनी चाहिए; जो प्रबल कामवासना काइच्छुक हो, उसे स्वर्ग के राजा इन्द्र की और जो अच्छी सनन्‍्तान का इच्छुक हो, उसे प्रजापतियोंकी पूजा करनी चाहिए।

    जो सौभाग्य का आकांक्षी हो, उसे भौतिक जगत की अधीक्षिकादुर्गादेवी की पूजा करनी चाहिए।

    जो अत्यन्त शक्तिशाली बनना चाहे, उसे अग्नि की और जोकेवल धन की इच्छा करता हो, उसे वसुओं की पूजा करनी चाहिए।

    यदि कोई महान्‌ वीर बननाचाहता है, तो उसे शिवजी के रुद्रावतारों की पूजा करनी चाहिए।

    जो प्रचुर अन्न की राशि चाहताहो, उसे अदिति की पूजा करनी चाहिए।

    जो स्वर्ग-लोक की कामना करे, उसे अदिति के पुत्रोंकी पूजा करनी चाहिए।

    जो व्यक्ति सांसारिक राज्य चाहता हो, उसे विश्वदेव की और जो जनतामें लोकप्रियता का इच्छुक हो, उसे साध्यदेव की पूजा करनी चाहिए।

    जो दीर्घायु की कामनाकरता हो, उसे अश्विनीकुमारों की और जो पुष्ट शरीर चाहे, उसे पृथ्वी की पूजा करनी चाहिए।

    जो अपनी नौकरी ( पद ) के स्थायित्व की कामना करता हो, उसे क्षितिज तथा पृथ्वी दोनों कीसम्मिलित पूजा करनी चाहिए।

    जो सुन्दर बनना चाहता हो, उसे गन्धर्व-लोक के निवासियों कीऔर जो सुन्दर पत्नी चाहता हो, उसे अप्सराओं तथा स्वर्ग की उर्वशी अप्सराओं की पूजा करनीचाहिए।

    जो अन्यों पर शासन करना चाहता हो, उसे ब्रह्माण्ड के प्रमुख भगवान्‌ ब्रह्माजी की पूजाकरनी चाहिए।

    जो स्थायी कीर्ति का इच्छुक हो, उसे भगवान्‌ की तथा जो अच्छी बैंक-बचतचाहता हो, उसे वरुणदेव की पूजा करनी चाहिए।

    और यदि कोई अच्छा वैवाहिक सम्बन्धचाहता है, तो उसे शिवजी की पत्नी, सती देवी उमा, की पूजा करनी चाहिए।

    धर्मार्थ उत्तम-श्लोकं तन्‍्तु: तन्वन्‌ पितृन्‌ यजेत्‌ ।

    रक्षा-कामः पुण्य-जनानोजस्कामो मरुदगणान्‌ ॥

    ८ ॥

    धर्म-अर्थ:--आध्यात्मिक विकास के लिए; उत्तम-शलोकम्‌--परमेश्वर या उनके प्रति आसक्त व्यक्तियों को; तन्तु:ः--सन्तान केलिए; तन्वन्‌--तथा उनकी सुरक्षा के लिए; पितृनू--पितृलोक के वासियों को; यजेत्‌--पूजे; रक्षा-काम:--सुरक्षा चाहनेवाला;पुण्य-जनानू्‌--पवित्र व्यक्तियों को; ओज:-काम:--शक्ति चाहनेवाला; मरुतू-गणान्‌--देवताओं को ।

    ज्ञान के आध्यात्मिक विकास के लिए मनुष्य को चाहिए कि भगवान्‌ विष्णु या उनके भक्तकी पूजा करे और वंश की रक्षा के लिए तथा कुल की उन्नति के लिए उसे विभिन्न देवताओं कीपूजा करनी चाहिए।

    राज्य-कामो मनून्‌ देवान्‌ निर्क्रतिं त्वभिचरन्‌ यजेत्‌ ।

    काम-कामो यजेत्‌ सोममकाम:ः पुरुषं परम्‌ ॥

    ९॥

    राज्य-काम:--राज्य की इच्छा करनेवाला; मनून्‌--ईश्वर के अर्धअवतार मनुओं को; देवान्‌--देवताओं को; निर्क्रतिम्‌--असुरोंको; तु--लेकिन; अभिचरनू--शत्रु पर विजय पाने की इच्छा रखते हुए; यजेत्‌--पूजे; काम-काम: --इन्द्रिय तृप्ति का इच्छुक;यजेत्‌--पूजा करे; सोमम्‌--चन्द्र देवता की; अकाम:--निष्काम; पुरुषम्‌-परमेश्वर की; परम्‌--परमजो व्यक्ति राज्य-सत्ता पाने का इच्छुक हो, उसे मनुओं की पूजा करनी चाहिए।

    जो व्यक्तिशत्रुओं पर विजय पाने का इच्छुक हो, उसे असुरों की और जो इन्द्रियतृप्ति चाहता हो, उसे चन्द्रमा की पूजा करनी चाहिए।

    किन्तु जो किसी प्रकार के भोग की इच्छा नहीं करता, उसे पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा करनी चाहिए।

    अकाम: सर्व-कामो वा मोक्ष-काम उदार-धीः ।

    तीब्रेण भक्ति-योगेन यजेत पुरुषं परम्‌ ॥

    १०॥

    अकामः--जिसने भौतिक इच्छाओं को पार कर लिया है; सर्व-काम:ः--जिसमें समग्र भौतिक इच्छाएँ हैं; वा--अथवा; मोक्ष-'कामः--मुक्ति की इच्छा रखनेवाला; उदार-धी:--व्यापक बुद्धि वाला; तीव्रेण--तीव्र शक्ति के साथ; भक्ति-योगेन--भगवद्भक्ति द्वारा; यजेत--पूजे; पुरुषम्‌-- भगवान्‌ को; परमू--परम पूर्ण ।

    जिस व्यक्ति की बुद्धि व्यापक है, वह चाहे सकाम हो या निष्काम अथवा मुक्ति का इच्छुकहो, उसे चाहिए कि सभी प्रकार से परमपूर्ण भगवान्‌ की पूजा करे।

    एतावानेव यजतामिह नि: श्रेयसोदय: ।

    भगवत्यचलो भावो यद्‌ भागवत-सड्भतः ॥

    ११॥

    एतावान्‌--ये भिन्न पूजक; एव--निश्चय ही; यजताम्‌-- पूजा करते हुए; इह--इस जीवन में; नि:श्रेयस--सर्वोच्च वर; उदय: --विकास; भगवति--परमेश्वर पर; अचल:--निश्चल; भाव: --आकर्षण; यत्‌--जो; भागवत-- भगवान्‌ के शुद्ध भक्त की;सड्डतः--संगति से ।

    अनेक देवताओं की पूजा करनेवाले विविध प्रकार के लोग, भगवान्‌ के शुद्ध भक्त कीसंगति से ही सर्वोच्च सिद्धिदायक वर प्राप्त कर सकते हैं, जो भगवान्‌ पर अविचल आकर्षण केरूप में होता है।

    ज्ञानं यदाप्रतिनिवृत्त-गुणोर्मि-चक्र-मात्म-प्रसाद उत यत्र गुणेष्वसड्रः ।

    कैवल्य-सम्मत-पथस्त्वथ भक्ति-योग:को निर्वृतो हरि-कथासु रतिं न कुर्यात्‌ ॥

    १२॥

    ज्ञामम्‌ू-ज्ञान; यत्‌ू--जो; आ--की सीमा तक; प्रतिनिवृत्त--पूर्णतया निवृत्त; गुण-ऊर्मि-- भौतिक गुणों की तरंगें; चक्रम्‌--भँवर; आत्म-प्रसाद: --आत्म-संतोष; उत--और भी; यत्र--जहाँ; गुणेषु-- प्रकृति के गुणों में; असड़ः--अनासक्ति; कैवल्य--दिव्य; सम्मत--स्वीकृत; पथ: --पथ, रास्ता; तु--लेकिन; अथ--अतएव; भक्ति-योग: -- भक्ति; क: --कौन; निर्वृत:--लीन;हरि-कथासु-- भगवान्‌ की दिव्य कथाओं में; रतिमू--आकर्षण; न--नहीं; कुर्यात्‌ू-करेंगे।

    भगवान्‌ हरि विषयक दिव्य ज्ञान वह ज्ञान है, जिससे भौतिक गुणों की तरंगें तथा भंवरें पूरीतरह थम जाती हैं।

    ऐसा ज्ञान भौतिक आसक्ति से रहित होने के कारण आत्मतुष्टि प्रदानकरनेवाला है और दिव्य होने के कारण महापुरुषों द्वारा मान्य है।

    तो भला ऐसा कौन है, जोइससे आकृष्ट नहीं होगा ?

    शौनक उवाचइत्यभिव्याहतं राजा निशम्य भरतर्षभः ।

    किमन्यत्पृष्टवान्‌ भूयो वैयासकिमृषिं कविम्‌ ॥

    १३॥

    शौनक: उबाच--शौनक ने कहा; इति--इस प्रकार; अभिव्याहतम्‌--जो कुछ कहा गया; राजा--राजा ने; निशम्य--सुनकर;भरत-ऋषभ: --महाराज परीक्षित; किमू--क्‍्या; अन्यत्‌-- अधिक ; पृष्टवान्‌--पूछा; भूयः--पुनः; वैयासकिम्‌--व्यास के पुत्रसे; ऋषिम्‌--दक्ष; कविम्‌--काव्यमय।

    शौनक ने कहा : व्यास-पुत्र श्रील शुकेदव गोस्वामी अत्यन्त विद्वान ऋषि थे और बातों कोकाव्यमय ढंग से प्रस्तुत करने में सक्षम थे।

    अतएवं जो कुछ उन्होंने कहा, उसे सुनने के बादमहाराज परीक्षित ने उनसे और क्‍या पूछा ?

    एतच्छुश्रूषतां विद्वन्‌ सूत नोहसि भाषितुम्‌ ।

    कथा हरि-कथोदर्का: सतां स्यु: सदसि श्रुवम्‌ ॥

    १४॥

    एतत्‌--यह; शुश्रूषताम्‌--सुनने के लिए उत्सुक रहनेवालों का; विद्वनू--हे विद्वान; सूत--सूत गोस्वामी; न:--हम सबों को;अर्हसि--आप कर सकते हैं; भाषितुम्‌--समझाने के लिए; कथा:--कथाएँ; हरि-कथा-उदर्का:--भगवत्कथा में प्रतिफलितहो; सताम्‌-भक्तों का; स्यु:--हों; सदसि--सभा में; श्रुवम्‌--निश्चय ही |

    हे विद्वान सूत गोस्वामी, आप हम सबों को ऐसी कथाएँ समझाते रहें, क्योंकि हम सुनने कोउत्सुक हैं।

    इसके अतिरिक्त, ऐसी कथाएँ, जिनसे भगवान्‌ हरि के विषय में विचार-विमर्श होसके, भक्तों की सभा में अवश्य ही कही-सुनी जाँय।

    स वे भागवतो राजा पाण्डवेयो महा-रथः ।

    बाल-क्रीडनकै: क्रीडन्‌ कृष्ण-क्रीडां य आददे ॥

    १५॥

    सः--वह; वै--निश्चय ही; भागवत:--भगवान्‌ के महान्‌ भक्त; राजा--महाराज परीक्षित; पाण्डवेय:--पाण्डवों का पौत्र; महा-रथः--महान्‌ योद्धा; बाल--बाल्यावस्था में ही; क्रीडनकै: --खिलौनों के साथ; क्रीडन्‌--खेलते हुए; कृष्ण-- भगवान्‌ कृष्णके; क्रीडामू--कार्य-कलापों को; यः--जिसने; आददे--स्वीकार किया।

    पाण्डवों के पौत्र महाराज परीक्षित अपने बाल्यकाल से भगवान्‌ के महान्‌ भक्त थे।

    वेखिलौनों से खेलते समय भी अपने कुलदेव की पूजा का अनुकरण करते हुए भगवान्‌ कृष्ण कीपूजा किया करते थे।

    वैयासकिश्व भगवान्‌ वासुदेव-परायण: ।

    उरुगाय-गुणोदाराः सतां स्युर्हि समागमे ॥

    १६॥

    वैयासकि:--व्यासदेव के पुत्र; च-- भी; भगवान्‌--दिव्य ज्ञान से पूर्ण; वासुदेव-- भगवान्‌ कृष्ण पर; परायण: --अनुरक्त;उरुगाय-महान्‌ दार्शनिकों द्वारा महिमान्वित भगवान्‌ कृष्ण का; गुण-उदारा:--महान्‌ गुण; सताम्‌-भक्तों का; स्यु;--अवश्यहुआ; हि--निश्चय ही; समागमे--उपस्थिति से ।

    व्यासपुत्र शुकदेव गोस्वामी दिव्य ज्ञान से पूर्ण भी थे और वसुदेव-पुत्र भगवान्‌ श्रीकृष्ण केमहान्‌ भक्त भी थे।

    अतएवं भगवान्‌ कृष्ण-विषयक चर्चाएँ अवश्य चलती रही होंगी, क्योंकिबड़े-बड़े दार्शनिकों द्वारा तथा महान्‌ भक्तों की सभा में कृष्ण के गुणों का बखान होता ही रहताहै।

    आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तं च यन्नसौ ।

    तस्यतें यत्क्षणो नीत उत्तम-शएलोक-वार्तया ॥

    १७॥

    आयु:--उप्र; हरति--घटाता है; बै--निश्चय ही; पुंसामू--लोगों की; उद्यनू--उदय होते; अस्तम्‌--अस्त होते; च-- भी; यन्‌ू--चलते हुए; असौ--सूर्य; तस्य-- भगवान्‌ की महिमा का गायन करनेवाले का; ऋते--सिवाय; यत्‌-- जिससे; क्षण: --समय;नीतः--उपयोग किया हुआ; उत्तम-श्लोक--सर्वोत्तम भगवान्‌ की; वार्तया--वार्ताओं में |

    उदय तथा अस्त होते हुए सूर्य सबों की आयु को क्षीण करता है, किन्तु जो सर्वोत्तम भगवान्‌की कथाओं की चर्चा चलाने में अपने समय का सदुपयोग करता हैं, उसकी आयु क्षीण नहीं होती।

    तरव: कि न जीवन्ति भस्त्रा: किं न श्वसन्त्युत ।

    न खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामे पशवोपरे ॥

    १८॥

    तरवः--वृक्ष; किमू-- क्या; न--नहीं; जीवन्ति--जीवित रहते हैं; भस्त्रा:--धौंकनी; किमू-- क्या; न--नहीं; श्रसन्ति--साँसलेते हैं; उत-- भी; न--नहीं; खादन्ति--खाते हैं; न--नहीं; मेहन्ति--वीर्य स्खलित करते हैं; किम्‌-- क्या; ग्रामे--स्थान में;'पशव:--पशु-तुल्य जीव; अपरे--अन्यक्या वृक्ष जीते नहीं हैं? क्‍या लुहार की धौंकनी साँस नहीं लेती? हमारे चारों ओर क्‍या'पशुगण भोजन नहीं करते ? या वीर्यपात नहीं करते ?

    श्र-विड्वराहोष्ट-खरैः संस्तुतः पुरुष: पशु: ।

    न यत्कर्ण-पथोपेतो जातु नाम गदाग्रज: ॥

    १९॥

    श्व--कुत्ता; विटू-वराह--ग्रामीण शूकर, जो विष्ठा खाता है; उष्ट--ऊँट; खरैः--तथा गधों से; संस्तुतः--पूर्णतया प्रशंसित;पुरुष:--व्यक्ति; पशु:--पशु; न--कभी नहीं; यत्‌--उसका; कर्ण--कान; पथ--रास्ता; उपेत:--पहुँचा हुआ; जातु--किसीसमय; नाम--पवित्र नाम; गदाग्रज:--समस्त बुराइयों से उद्धार करनेवाले भगवान्‌ कृष्ण ।

    कुत्तों, सूकरों, ऊँटों तथा गधों जैसे पुरुष, उन पुरुषों की प्रशंसा करते हैं, जो समस्तबुराइयों से उद्धार करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का कभी भी श्रवण नहींकरते।

    बिले बतोरुक्रम-विक्रमान्‌ येन श्रृण्वतः कर्ण-पुटे नरस्य ।

    जिह्नासती दार्दुरिकेव सूतन चोपगायत्युरुगाय-गाथा: ॥

    २०॥

    बिले--साँपों के बिल; बत--सहश; उरुक़्रम--अद्भुत कार्य करनेवाले भगवान्‌; विक्रमानू--शौर्य ; ये--जो सब; न--कभीनहीं; श्रुण्वतः--सुनते हैं; कर्ण-पुटे--कर्ण-छिठद्रों में; नरस्थ--मनुष्य के; जिह्वा--जी भ; असती--व्यर्थ; दार्दुरिका--मेंढकोंके; इब--सहश; सूत--हे सूत गोस्वामी; न--कभी नहीं; च-- भी; उपगायति--तेजी से उच्चारण करती है; उरुगाय--गानेयोग्य; गाथा: --गीत ।

    जिसने भगवान्‌ के शौर्य तथा अदभुत कार्यो की कथाएँ नहीं सुनी हैं तथा जिसने भगवान् ‌के विषय में गीतों को गाया या उच्चस्वर से उच्चारण नहीं किया है, उसके श्रवण-रंक्र मानो साँपके बिल हैं और जीभ मानो मेंढक की जीभ है।

    भार: पर पट्ट-किरीट-जुष्ट-मप्युत्तमाड़ुं न नमेन्मुकुन्दम्‌ ।

    शावौ करौ नो कुरुते सपर्याहरेल॑सत्काञ्जनन-कड्ढूणौ वा ॥

    २१॥

    भार:--बहुत बड़ा बोझा; परम्‌-- भारी; पट्ट--रेशम; किरीट--पगड़ी; जुष्टम्‌--से सज्जित; अपि-- भी; उत्तम--उत्कृष्ट;अड्भमू--शरीर के अंग; न--कभी नहीं; नमेत्‌--झुकते हैं; मुकुन्दम्‌--उद्धार करनेवाले भगवान्‌ कृष्ण को; शावौ--मृतकशरीर; करौ--दो हाथ; नो--नहीं; कुरुते--करते हैं; सपर्याम्‌-- पूजा; हरेः-- भगवान्‌ की; लसत्‌--चमचमातेहुए; काझ्नन--सुनहरे; कड्जूणौ--दो कंगन; बा--यद्यपि ।

    शरीर का ऊपरी भाग, भले ही रेशमी पगड़ी से सज्जित क्‍यों न हो, किन्तु यदि मुक्ति के दाताभगवान्‌ के समक्ष झुकाया नहीं जाता तो वह केवल एक भारी बोझ के समान है।

    इसी प्रकारचाहे हाथ चमचमाते कंकणों से अलंकृत हों, यदि भगवान्‌ हरि की सेवा में नहीं लगे रहते, तो वेमृत पुरुष के हाथों के तुल्य हैं।

    बहयिते ते नयने नराणांलिड्डानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये ।

    पादौ नृणां तौ द्रुम-जन्म-भाजौक्षेत्राणि नानुत्रजतो हरेयौं ॥

    २२॥

    बहायिते--मोर पंखों की भाँति; ते--वे; नयने--आँखें; नराणाम्‌--मनुष्यों के; लिड्रानि--स्वरूप; विष्णो: -- भगवान्‌ के; न--नहीं; निरीक्षतः--देखते हैं; ये--ऐसे सब; पादौ--पाँव; नृणाम्‌--मनुष्यों के; तौ--वे; द्रुम-जन्म--वृक्ष से उत्पन्न; भाजौ--उसके सह; क्षेत्राणि--पवित्र स्थल; न--नहीं; अनुब्रजत:--जाते हैं; हरेः-- भगवान्‌ के ; यौ--जो ।

    जो आँखें भगवान्‌ विष्णु की प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों ( उनके रूप, नाम, गुण आदि )को नहीं देखतीं, वे मोर पंख में अंकित आँखों के तुल्य हैं और जो पाँव तीर्थ-स्थानों की यात्रानहीं करते ( जहाँ भगवान्‌ का स्मरण किया जाता है ) वे वृक्ष के तनों जैसे माने जाते हैं।

    जीवज्छवो भागवताडूप्रि-रेणुंन जातु मर्त्योउभिलभेत यस्तु ।

    श्री-विष्णु-पद्या मनुजस्तुलस्या:श्रसज्छवो यस्तु न वेद गन्धम्‌ ॥

    २३॥

    जीवनू--जीवित रहते हुए; शव: --मृत शरीर; भागवत-अड्प्रि-रेणुम्‌--शुद्ध-भक्त के चरणों की धूलि; न--कभी नहीं;जातु--किसी भी समय; मर्त्य:--मरणशील, मर्त्य; अभिलभेत--विशेष रूप से प्राप्त; यः--जो व्यक्ति; तु--लेकिन; श्री--ऐश्वर्य से; विष्णु-पद्या:--विष्णु के चरणकमलों का; मनु-ज:--मनु की संतान ( मनुष्य ); तुलस्या:--तुलसीदल; श्वसन्‌-- श्वासलेते हुए; शवः--फिर भी शव; यः--जो; तु--लेकिन; न वेद-- अनुभव नहीं किया; गन्धम्‌--सुगन्धि को ।

    जिस व्यक्ति ने कभी भी भगवान्‌ के शुद्धभक्त की चरण-धूलि अपने मस्तक पर धारण नहीं की, वह निश्चित रूप से शव है तथा जिस व्यक्ति ने भगवान्‌ के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदलोंकी सुगगन्धि का अनुभव नहीं किया, वह श्वास लेते हुए भी मृत शरीर के तुल्य है।

    तदश्म-सारं हृदयं बतेदंयद्‌ गृह्ममाणैहरि-नाम-थेयै: ।

    न विक्रियेताथ यदा विकारोनेत्रे जल॑ गात्र-रुहेषु हर्ष: ॥

    २४॥

    तत्‌--वह; अश्म-सारम्‌ू--फौलाद का बना; हृदयम्‌--हदय; बत इदम्‌--निश्चय ही यह; यत्‌--जो; गृह्ममाणैः --उच्चारण करनेपर भी; हरि-नाम-- भगवान्‌ का पवित्र नाम; धेयैः--मन की एकाग्रता से; न--नहीं; विक्रियेत--बदले; अथ--इस तरह;यदा--जब; विकार: -- प्रतिक्रिया; नेत्रे--आँखों में; जलम्‌--अश्रु; गात्र-रुहेषु--छिद्रों पर; हर्ष: --उल्लास का प्रस्फुटन।

    निश्चय ही वह हृदय फौलाद का बना है, जो एकाग्र होकर भगवान्‌ के पवित्र नाम काउच्चारण करने पर भी नहीं बदलता; जब हर्ष होता है, तो आँखों में आँसू नहीं भर आते औरशरीर के रोम-रोम खड़े नहीं हो जाते।

    अथाभिधेहाडु मनोनुकूलं प्रभाषसे भागवत-प्रधान: ।

    यदाह वैयासकिरात्म-विद्या--विशारदो नृपतिं साधु पृष्ठ: ॥

    २५॥

    अथ--अतएव; अभिधेहि--कृपा करके बताएँ; अड्भ--हे सूत गोस्वामी; मनः--मन; अनुकूलम्‌--हमारी मनोवृत्ति के उपयुक्त;प्रभाषसे--आप कहें; भागवत-- परम भक्त; प्रधान:--प्रमुख; यत्‌ आह--जो कुछ उसने कहा; वैयासकि:--शुकदेव गोस्वामीने; आत्म-विद्या--दिव्य ज्ञान में; विशारद: --पटु; नृपतिम्‌ू--राजा से; साधु--अत्युत्तम; पृष्ठ: --पूछे जाने पर।

    हे सूतगोस्वामी, आपके वचन हमारे मनों को भानेवाले हैं।

    अतएव कृपा करके आप हमें यहउसी तरह बतायें जिस तरह से दिव्य ज्ञान में अत्यन्त कुशल परम भक्त शुकदेव गोस्वामी नेमहाराज परीक्षित के पूछे जाने पर उनसे कहा।

    TO

    अध्याय चार: निर्माण की प्रक्रिया

    2.4सूत उवाचवैयासकेरिति वच्स्तत्त्व-निश्चयमात्मन: ।

    उपधार्य मतिं कृष्णे औत्तरेय:सतीं व्यधात्‌ ॥

    १॥

    सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; वैयासके :--शुकदेव गोस्वामी के; इति--इस प्रकार; वच:--शब्द; तत्त्व-निश्चयम्‌--सत्यकी पुष्टि करनेवाले; आत्मन:--अपने में; उपधार्य--ठीक से समझ करके; मतिम्‌--मन की एकाग्रता; कृष्णे--कृष्ण के प्रति;औत्तरेय:--उत्तरा के पुत्र ने; सतीम्‌--संयत, निष्ठावान; व्यधात्‌--लगाया।

    सूत गोस्वामी ने कहा : शुकदेव गोस्वामी से आत्मा के सत्य के विषय में बातें सुनकर,उत्तरा के पुत्र महाराज परीक्षित ने आस्थापूर्वक अपना ध्यान भगवान्‌ कृष्ण में लगा दिया।

    आत्म-जाया-सुतागार-पशु-द्रविण-बन्धुषु ।

    राज्ये चाविकले नित्यं विरूढां ममतां जहौ ॥

    २॥

    आत्म--शरीर; जाया-- पत्नी; सुत--पुत्र; आगार--महल; पशु--हाथी घोड़े; द्रविण--खजाना; बन्धुषु--मित्रों तथासम्बन्धियों में; राज्ये--राज्य में; च-- भी; अविकले--अविचल, निष्कंटक; नित्यम्‌--निरन्तर; विरूढाम्‌--गहरी; ममताम्‌--ममता, लगाव; जहौ--त्याग दिया।

    भगवान्‌ कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ आकर्षण के फलस्वरूप महाराज परीक्षित ने अपने निजीशरीर, अपनी पत्नी, अपनी सन्तान, अपने महल, अपने पशु, हाथी-घोड़े, अपने खजाने, मित्रतथा सम्बन्धी और अपने निष्कंटक राज्य के प्रति प्रगाढ़ ममता त्याग दी।

    पप्रच्छ चेममेवार्थ यन्मां पृच्छथ सत्तमा: ।

    कृष्णानुभाव- श्रवणे श्रदधधानो महा-मना: ॥

    ३॥

    संस्थां विज्ञाय सन्न्यस्य कर्म त्रै-वर्गिकं च यत्‌ ।

    वबासुदेवे भगवति आत्म-भावं हढे गत: ॥

    ४॥

    पप्रच्छ-- पूछा; च-- भी; इमम्‌ू--यह; एव--इसी तरह; अर्थम्‌--प्रयोजन; यत्‌--जो; माम्‌--मुझसे; पृच्छथ-- आप पूछते हैं;सत्तमा:--हे महर्षियो; कृष्ण-अनुभाव--कृष्ण के विचार में लीन; श्रवणे--सुनने में; श्रदधान: -- श्रद्धा से पूर्ण; महा-मना:--महात्मा; संस्थाम्‌-- मृत्यु; विज्ञाय--जानकर; सन्न्यस्य--त्याग कर; कर्म--सकाम कर्म; त्रै-वर्गिकम्‌-- धर्म, अर्थ तथा कामनामक तीन सिद्धान्त; च--भी; यत्‌--जो भी हो; वासुदेवे-- भगवान्‌ कृष्ण में; भगवति-- भगवान्‌; आत्म-भावम्‌--प्रेम काआकर्षण; हृढम्‌--ठीक से स्थिर; गत: --प्राप्त किया |

    हे महर्षियो, महात्मा महाराज परीक्षित ने भगवान्‌ कृष्ण के विचार में निरन्तर लीन रहते हुए,अपनी मृत्यु को आसन्न जानकर, सारे सकाम कर्म अर्थात्‌ धर्म के कार्य, आर्थिक विकास तथाइन्द्रिय तृप्ति त्याग दिए और कृष्ण के लिए सहज प्रेम में अपने को हृढ़ता से स्थिर कर लिया।

    तब उन्होंने इन सारे प्रश्नों को उसी तरह पूछा जिस तरह तुम सब मुझसे पूछ रहे हो।

    राजोवाचसमीचीन बचो ब्रह्मन्‌ सर्व-ज्ञस्थ तवानघ ।

    तमो विशीर्यते मह्यं हरेः कथयतः कथाम्‌ ॥

    ५॥

    राजा उबाच--राजा ने कहा; समीचीनम्‌--सर्वथा उचित; वच:--वाणी; ब्रह्मनू--हे विद्वान ब्राह्मण; सर्व-ज्ञस्थ--सब कुछजाननेवाले का; तव--तुम्हारा; अनघ--निष्पाप; तम: --अज्ञान का अंधकार; विशीर्यते--क्रमशः लुप्त हो रहा है; महाम्‌--मेरेलिए; हरेः-- भगवान्‌ की; कथयत:ः--जिस तरह आप कह रहे हैं; कथाम्‌ू--कथा ।

    महाराज परीक्षित ने कहा : हे विद्वान ब्राह्मण, आप भौतिक दूषण से रहित होने के कारणसब कुछ जानते हैं, अतएव आपने मुझसे जो भी कहा है, वह मुझे पूर्ण रूप से उचित प्रतीत होताहै।

    आपकी बातें क्रमश: मेरे अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर रही हैं, क्योंकि आप भगवान्‌ कीकथाएँ कह रहे हैं।

    भूय एवं विवित्सामि भगवानात्म-मायया ।

    यथेदं सूजते विश्व दुर्विभाव्यमधी श्र: ॥

    ६॥

    भूयः--फिर; एव--भी; विवित्सामि--मैं जानने का इच्छुक हूँ; भगवान्‌-- भगवान्‌; आत्म--निजी; मायया--शक्तियों से;यथा--जिस तरह; इृदम्‌--यह व्यवहार जगत; सृजते--सृजन करता है; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड को; दुर्विभाव्यमू-- अचिन्त्य;अधी श्वरैः--महान्‌ देवताओं द्वारा।

    मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि भगवान्‌ किस प्रकार अपनी निजी शक्तियों से इस रूपमें इन दृश्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं, जो बड़े से बड़े देवताओं के लिए भी अचित्त्य हैं।

    यथा गोपायति विभुर्यथा संयच्छते पुनः ।

    यां यां शक्तिमुपश्रित्य पुरु-शक्ति: परः पुमान्‌ ।

    आत्मानं क्रीडयन्‌ क्रीडन्‌ करोति विकरोति च ॥

    ७॥

    यथा--जिस तरह; गोपायति--पालन करता है; विभुः--महान्‌; यथा--जिस तरह; संयच्छते--समेट लेता है; पुनः--फिर; याम्‌याम्‌--जैसे-जैसे; शक्तिमू--शक्तियाँ; उपाश्रित्य--लगाकर; पुरु-शक्ति:--सर्वशक्तिमान; पर:--परम; पुमान्‌ू-- भगवान्‌आत्मानमू--पूर्ण अंश को; क्रीडबन्‌--उन्हें लगा करके; क्रीडन्‌--जिस तरह स्वयं भी लगे रहकर; करोति--करता है;विकरोति--करवाता है; च--तथा।

    कृपया बतायें कि सर्व-शक्तिमान परमेश्वर किस तरह अपनी विभिन्न शक्तियों तथा विभिन्नअंशों को इस व्यवहार जगत के पालन करने में लगाते हैं और एक खिलाड़ी के खेल की तरहफिरसे इसे समेट लेते हैं ?

    नूनं भगवतो ब्रह्मन्‌ हरेरद्भुत-कर्मण: ।

    दुर्विभाव्यमिवाभाति कविभिश्चापि चेष्टितम्‌ ॥

    ८ ॥

    नूनम्‌-फिर भी अपर्याप्त; भगवत:--भगवान्‌ का; ब्रह्मनू--हे विद्वान ब्राह्मण; हरे: -- भगवान्‌ का; अद्भुत--आश्चर्यजनक;कर्मण:--कर्म करनेवाला; दुर्विभाव्यमू-- अचिन्त्य; इब--सूदश; आभाति--प्रतीत होता है; कविभि:--अत्यधिक दिद्वानों द्वाराभी; च-- भी; अपि--के होते हुए; चेष्टितम्‌--प्रयास करने पर भी ।

    हे विद्वान ब्राह्मण, भगवान्‌ के दिव्य कार्यकलाप अद्भुत हैं और वे अचिन्त्य प्रतीत होते हैं,क्योंकि अनेक विद्वान पंडितों के अनेक प्रयास भी उन्हें समझने में अपर्याप्त सिद्ध होते रहे हैं।

    यथा गुणांस्तु प्रकृतेर्युगपत्‌ क्रमशोपि वा ।

    बिर्भर्ति भूरिशस्त्वेक: कुर्वन्‌ कर्माणि जन्मभि: ॥

    ९॥

    यथा--जिस तरह वे हैं; गुणान्‌ू--गुणों को; तु--लेकिन; प्रकृतेः--भौतिक शक्ति के; युगपत्‌--एकसाथ; क्रमश: -- धीरे-धीरे;अपि--भी; वा--अथवा; बिभर्ति--पालन करता है; भूरिश:--अनेक रूपों में; तु--लेकिन; एक:--सर्वोच्च एक; कुर्वन्‌--कार्य करते हुए; कर्माणि--कार्यकलाप; जन्मभि: --अवतारों के द्वारा।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ एक हैं, चाहे वे प्रकृति के गुणों से अकेले कर्म करें या एकसाथकई रूपों में विस्तार करें या कि प्रकृति के गुणों के निर्देशन हेतु बारी-बारी से विस्तार करें।

    विचिकित्सितमेतन्मे ब्रवीतु भगवान्‌ यथा ।

    शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परस्मिश्च॒ भवान्खलु ॥

    १०॥

    विचिकित्सितमू--सन्देहपूर्ण प्रश्न; एतत्‌--यह; मे--मुझे; ब्रवीतु--स्पष्ट करें; भगवान्‌-- भगवान्‌ के समान शक्तिशाली;यथा--जिस तरह; शाब्दे--दिव्य शब्द में; ब्रह्मणि-- वैदिक साहित्य में; निष्णात:--पूर्णतया प्रबुद्ध या पारंगत; परस्मिनू--अध्यात्म में; च-- भी; भवान्‌ू-- आप; खलु--वास्तव में ।

    कृपया इन सारे संशयप्रद प्रश्नों का निवारण कर दें, क्योंकि आप न केवल वैदिक साहित्यके परम विद्वान एवं अध्यात्म में आत्मसिद्ध हैं, अपितु आप भगवान्‌ के महान्‌ भक्त हैं अतएवआप भगवान्‌ के ही समान हैं।

    सूत उवाचइत्युपामन्त्रितो राज्ञा गुणानुकथने हरे: ।

    हृषीकेशमनुस्मृत्य प्रतिवक्तु प्रचक्रमे ॥

    ११॥

    सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उपामन्त्रितः--अनुरोध किये जाने पर; राज्ञा--राजा द्वारा; गुण-अनुकथने--दिव्य गुणों के वर्णन में; हरेः-- भगवान्‌ के; हृषीकेशम्‌--इन्द्रियों के स्वामी को; अनुस्मृत्य--ठीक से स्मरणकरके; प्रतिवक्तुमू--उत्तर देने के लिए; प्रचक्रमे--औपचारकिताएँ पूरी कीं ।

    सूत गोस्वामी ने कहा : जब राजा ने शुकदेव गोस्वामी से इस प्रकार प्रार्थना की कि वेभगवान्‌ की सृजनात्मक शक्ति का वर्णन करें, तो उन्होंने इन्द्रियों के स्वामी ( श्रीकृष्ण ) काठीक से स्मरण किया और उपयुक्त उत्तर देने के लिए इस प्रकार बोले।

    श्री -शुक उवाचनमः परस्मै पुरुषाय भूयसेसदुद्धव-स्थान-निरोध-लीलया ।

    गृहीत-शक्ति-त्रितयाय देहिना-मन्तर्भवायानुपलक्ष्य-वर्त्मने ॥

    १२॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नम:ः--नमस्कार; परस्मै--परम; पुरुषाय-- भगवान्‌ को; भूयसे-- परम पूर्णको; सद्‌-उद्धव-- भौतिक जगत की सृष्टि; स्थान--इसका पालन-पोषण; निरोध--तथा इसका संहार, समेटा जाना; लीलया--लीलाओं से; गृहीत--स्वीकार किया; शक्ति--शक्ति; त्रितयाय--तीन गुण; देहिनाम्‌ू--समस्त देहधारियों का; अन्तः-भवाय--अन्तःकरण में निवास करनेवाले को; अनुपलक्ष्य--अचिन्त्य; वर्त्मने--ऐसी गतियों वाला।

    शुकदेव गोस्वामी ने कहा : मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ को सादर नमस्कार करता हूँ, जोभौतिक जगत की सृष्टि के लिए प्रकृति के तीन गुणों को स्वीकार करते हैं।

    वे प्रत्येक शरीर केभीतर निवास करनेवाले परम पूर्ण हैं और उनकी गतियाँ अचित्त्य हैं।

    भूयो नम: सदवृजिन-च्छिदेउसता-मसम्भवायाखिल-सत्त्व-मूर्तये ।

    पुंसां पुनः पारमहंस्य आश्रमेव्यवस्थितानामनुमृग्य-दाशुषे ॥

    १३॥

    भूयः--पुनः; नम: --मेरा नमस्कार; सत्‌--भक्तों या पुण्यात्माओं का; वृजिन--आपत्तियाँ; छिदे--मुक्तिदाता; असताम्‌--नास्तिकों या अभक्त असुरों का; असम्भवाय-- अगले दुखों का अन्त; अखिल--पूर्ण ; सत्त्त--सतोगुण; मूर्तये--पुरुष को;पुंसामू--योगियों का; पुनः--फिर; पारमहंस्ये-- आध्यात्मिक सिद्धि; आश्रमे--आ श्रम में; व्यवस्थितानाम्‌--विशिष्ट रूप सेस्थित; अनुमृग्य--लक्ष्य; दाशुषे--उद्धारकर्ता ।

    मैं पुनः पूर्ण जगत-रूप तथा अध्यात्म-रूप उन भगवान्‌ को सादर नमस्कार करता हूँ, जोपुण्यात्मा भक्तों को समस्त संकटों से मुक्ति दिलानेवाले तथा अभक्त असुरों की नास्तिकमनोवृत्ति की वृद्धि को विनष्ट करनेवाले हैं।

    वे सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धधि-प्राप्त योगियों कोउनके विशिष्ट पद प्रदान करने वाले हैं।

    नमो नमस्तेस्त्वृषभाय सात्वतांविदूर-काष्ठाय मुहुः कुयोगिनाम्‌ ।

    निरस्त-साम्यातिशयेन राधसास्व-धामनि ब्रह्मणि रंस्थते नमः ॥

    १४॥

    नमः नमः ते--मैं आपको नमस्कार करता हूँ; अस्तु--हैं; ऋषभाय--महान्‌ पार्षद को; सात्वताम्‌--यदुवंश के सदस्यों को;विदूर-काष्ठाय--संसारी द्वन्द्दों से दूर रहनेवाला; मुहुः--सदैव; कु-योगिनाम्‌--अभक्तों का; निरस्त-- ध्वस्त; साम्य--समान पद;अतिशयेन--महानता से; राधसा--ऐश्वर्य से; स्व-धामनि--अपने धाम में; ब्रह्मणि--वैकुण्ठ लोक में; रंस्थते-- भोग करता है;नमः--मैं नमस्कार करता हूँ।

    मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ जो यदुवंशियों के संगी हैं और अभक्तों के लिए सदैवसमस्या बने रहते हैं।

    वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जगतों के परम भोक्ता हैं, फिर भी वेवैकुण्ठ स्थित अपने धाम का भोग करते हैं।

    कोई भी उनके समतुल्य नहीं है, क्योंकि उनकादिव्य ऐश्वर्य अमाप्य है।

    यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणंयद्वन्दनं यच्छुवणं यदर्हणम्‌ ।

    लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषंतस्मै सुभद्र-अ्रवसे नमो नम: ॥

    १५॥

    यत्‌--जिसका; कीर्तनम्‌ू--महिमागान; यत्‌--जिसका; स्मरणम्‌-- स्मरण; यत्‌--जिसका; ईक्षणम्‌--दर्शन्‌; यत्‌-- जिसका;वन्दनमू-प्रार्थना; यत्‌ू--जिसका; श्रवणम्‌-- श्रवण; यत्‌--जिसका; अर्हणम्‌--पूजा; लोकस्य--लोगों का; सद्यः --तुरन्त;विधुनोति--विशेष रूप से स्वच्छ करता है; कल्मषम्‌--पापों के प्रभावों को; तस्मै--उसको; सुभद्गर--मंगलमय; श्रवसे--श्रवण किया गया; नम:ः--नमस्कार; नमः--पुनः

    पुनःमैं उन सर्वमंगलमय भगवान्‌ श्रीकृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके यशोगान,स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण तथा पूजन से पाप करनेवाले के सारे पाप-फल तुरन्त धुल जाते हैं।

    विचक्षणा यच्चरणोपसादनात्‌सड्डं व्युदस्यो भयतो न्तरात्मन: ।

    विन्दन्ति हि ब्रह्म-गतिं गत-क्लमा-स्तस्मै सुभद्र-श्रवसे नमो नम: ॥

    १६॥

    विचक्षणा:--अत्यन्त बुद्धिमान; यत्‌--जिसका; चरण-उपसादनात्‌--चरणकमलों में आत्म-समर्पण करके; सड्रमू--आसक्ति;व्युदस्य--पूर्णतया त्यागकर; उभयतः--वर्तमान एवं भविष्य में; अन्तः-आत्मन: --हृदय तथा आत्मा का; विन्दन्ति--आगे प्रगतिकरता है; हि--निश्चय ही; ब्रह्म-गतिम्‌-- आध्यात्मिक जगत की ओर; गत-क्लमा:--बिना कठिनाई के; तस्मै-- उसको;सुभद्र--शुभ; श्रवसे--जो सुना गया है उसे; नम:--मेरा नमस्कार; नम:--पुनः पुनः ।

    मैं सर्व-मंगलमय भगवान्‌ श्रीकृष्ण को बारम्बार प्रणाम करता हूँ।

    उनके चरण-कमलों कीशरण ग्रहण करने मात्र से उच्च कोटि के बुद्धिमान जन वर्तमान तथा भावी जगत की सारीआसक्तियों से छुटकारा पा जाते हैं और बिना किसी कठिनाई के आध्यात्मिक जगत की ओर अग्रसर होते हैं।

    तपस्विनो दान-परा यशस्विनो मनस्विनो मन्त्र-विदः सुमड्रला: ।

    क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं तस्मै सुभद्र-अ्रवसे नमो नम: ॥

    १७॥

    तपस्विन:--बड़े-बड़े विद्वान्‌ ऋषि; दान-परा:--बड़े-बड़े दानी; यशस्विन:--बड़े-बड़े लब्धप्रतिष्ठ; मनस्विन:--बड़े-बड़ेदार्शनिक या योगी; मन्त्र-विद: --वैदिक मन्त्रों के उच्चारण करनेवाले; सु-मड्डला:--वैदिक सिद्धान्तों के कट्टर अनुयायी;क्षेमम्‌--सकाम फल; न--कभी नहीं; विन्दन्ति--प्राप्त करते हैं; विना--रहित; यत्‌-अर्पणम्‌--समर्पण; तस्मै-- उसको;सुभद्र--शुभ; श्रवसे--उसके विषय में सुनकर; नम:--मेरा नमस्कार; नम:--पुनः पुनः ।

    मैं समस्त मंगलमय भगवान्‌ श्रीकृष्ण को पुनः पुनः सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि बड़े-बड़े विद्वान ऋषि, बड़े-बड़े दानी, यश-लब्ध कार्यकर्ता, बड़े-बड़े दार्शनिक तथा योगी, बड़े बड़े वेदपाठी तथा बड़े-बड़े वैदिक सिद्धान्तों के बड़े-बड़े अनुयायी तक भी ऐसे महान्‌ गुणों कोभगवान्‌ की सेवा में समर्पित किये बिना कोई क्षेम ( कुशलता ) प्राप्त नहीं कर पाते।

    किरात-हूणान्श्र-पुलिन्द-पुल्कशाआभीर-शुम्भा यवना: खसादय: ।

    येडन्ये च पापा यदपाश्रया श्रयाःशुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नम: ॥

    १८॥

    किरात--प्राचीन भारत का एक प्रान्त; हूण--जर्मनी तथा रूस का एक अंग; आन्ध्र--दक्षिणी भारत का प्रान्त; पुलिन्द--ग्रीक;पुल्कशा: --अन्य प्रान्त; आभीर--प्राचीन सिंध का एक भाग; शुम्भा:--अन्य प्रान्त; यवना: --तुर्क; खस-आदय: --मंगोल काप्रान्त; ये--वे भी; अन्ये--अन्य; च-- भी; पापा:--पाप में प्रवृत्त रहनेवाले; यत्‌ू--जिसका; अपाश्रय-आश्रया: -- भगवद्भक्तोंकी शरण ग्रहण करके; शुध्यन्ति--तुरन्त शुद्ध हो जाते हैं; तस्मै--उस; प्रभविष्णवे--शक्तिमान विष्णु को; नम:--मेरा सादरनमस्कार।

    किरात, हूण, आन्श्र, पुलिन्द, पुल्कश, आभीर, शुम्भ, यवन, खस आदि जातियों के सदस्यतथा अन्य लोग, जो पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए परम शक्तिशाली भगवान्‌ के भक्तों की शरणग्रहण करके शुद्ध हो सकते हैं, मैं उन भगवान्‌ को सादर नमस्कार करता हूँ।

    सएष आत्मात्मवतामधी श्वर-स्त्रयीमयो धर्ममयस्तपोमय: ।

    गत-व्यलीकैरज-शड्भूरादिभि-विंतर्क्य-लिड्रो भगवान्‌ प्रसीदताम्‌ ॥

    १९॥

    सः--वह; एष:--यह है; आत्मा--परमात्मा; आत्मवताम्‌--स्वरूपसिद्धों का; अधी श्वर:--परमे श्वर; त्रयी-मय:--साक्षात्‌ वेद;धर्म-मयः--साक्षात्‌ शास्त्र; तप:ः-मयः--साक्षात्‌ तप; गत-व्यलीकै: --आडंबररहितों द्वारा; अज--ब्रह्माजी; शड्भूर-आदिभि:--शिवजी तथा अन्यों द्वारा; वितर्क्य-लिड्र:--आश्चर्य तथा सम्मान के साथ देखा जानेवाला; भगवान्‌-- भगवान्‌ प्रसीदताम्‌--मेरेप्रति दयालु हों ।

    वे परमात्मा हैं तथा समस्त स्वरूपसिद्ध पुरुषों के परमेश्वर हैं।

    वे साक्षात्‌ वेद, धर्मग्रंथ( शास्त्र ) तथा तपस्या हैं।

    वे ब्रह्मजी, शिवजी तथा कपट से रहित समस्त व्यक्तियों द्वारा पूजितहैं।

    आश्चर्य तथा सम्मान से ऐसे पूजित होनेवाले पूर्ण पुरुषोत्तम मुझ पर प्रसन्न हों।

    श्रिय: पतिर्यज्ञ-पतिः प्रजा-पति-घिंयां पतिलोक-पतिर्धरा-पति: ।

    पतिर्गतिश्वान्धक-वृष्णि-सात्वतांप्रसीदतां मे भगवान्‌ सतां पति: ॥

    २०॥

    भ्रिय:--समस्त ऐश्वर्य; पति: --स्वामी; यज्ञ--यज्ञ का; पति:--निर्देशक ; प्रजा-पति:--समस्त जीवों के नायक; धियाम्‌--बुद्धधिका; पतिः--स्वामी; लोक-पति:--समस्त लोकों के स्वामी; धरा--पृथ्वी का; पति:--परम; पति:-- अग्रणी; गति:-- गन्तव्य;च--भी; अन्धक--यदुवंश के राजाओं में से एक; वृष्णि--यदुवंश का पहला राजा; सात्वतामू--यदुगण; प्रसीदताम्‌-कृपालुहों; मे--मुझ पर; भगवान्‌-- श्रीकृष्ण; सताम्‌-- भक्तों के; पति:--स्वामी ।

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण, जो समस्त भक्तों द्वारा पूज्य हैं, यदुवंश के अंधक तथा वृष्णि जैसे समस्त राजाओं के रक्षक तथा उनके यश्ञ हैं, लक्ष्मी देवी के पति, समस्त यज्ञों के निर्देशक अतएवसमस्त जीवों के अग्रणी, समस्त बुद्धि के नियन्ता, समस्त दिव्य एवं भौतिक लोकों के अधिष्ठातातथा पृथ्वी पर परम अवतार ( सर्वेसर्वा ) हैं, वे मुझ पर कृपालु हों।

    यदड्ख्रूयभिध्यान-समाधि-धौतयाधियानुपश्यन्ति हि तत्त्वमात्मनः ।

    वदन्ति चेतत्‌ कवयो यथा-रुचंस मे मुकुन्दो भगवान्‌ प्रसीदताम्‌ ॥

    २१॥

    यत्‌-अड्घ्रि--जिसके चरणकमल; अभिध्यान--प्रत्येक क्षण चिन्तन करते; समाधि--समाधि; धौतया-- धुल जाने से; धिया--ऐसी विमल बुद्धि से; अनुपश्यन्ति--महापुरुषों का अनुसरण करते हुए देखते हैं; हि--निश्चय ही; तत्त्वमू--परम सत्य को;आत्मन:--परमेश्वर का तथा अपना; वदन्ति--कहते हैं; च-- भी; एतत्‌--यह; कवय: --दार्शनिक या विद्वान पंडित; यथा-रुचम्‌--जैसा वह सोचता है; सः--वह; मे--मेरा; मुकुन्दः-- भगवान्‌ कृष्ण ( जो मुक्ति के दाता हैं ); भगवान्‌-- भगवान्‌;प्रसीदताम्‌--मुझ पर प्रसन्न हों ।

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मुक्तिदाता हैं।

    भक्त प्रतिपल उनके चरण-कमलों का चिन्तन करकेऔर महापुरुषों के चरणचिन्हों पर चलते हुए समाधि में परम सत्य का दर्शन कर सकता है।

    तथापि विद्वान ज्ञानीजन उनके विषय में अपनी सनक के अनुसार चिन्तन करते हैं।

    ऐसे भगवान्‌मुझ पर प्रसन्न हों।

    प्रचोदिता येन पुरा सरस्वतीवितन्वताजस्य सत्तीं स्मृतिं हृदि ।

    स्व-लक्षणा प्रादुरभूत्‌ किलास्यतःस मे ऋषीणामृषभः प्रसीदताम्‌ ॥

    २२॥

    प्रचोदिता-- प्रेरित; येन--जिसके द्वारा; पुरा--सृष्टि के प्रारम्भ में; सरस्वती--विद्या की देवी; वितन्‍्वता--विस्तारित; अजस्य--प्रथम जीव ब्रह्मा का; सतीम्‌ स्मृतिमू--शक्तिशाली स्मरण शक्ति; हृदि--हृदय में; स्व-- अपना; लक्षणा--लक्षित; प्रादुरभूत्‌ --उत्पन्न किया गया; किल--मानो; आस्यतः --मुँह से; सः--वह; मे--मुझ पर; ऋषीणाम्‌--शिक्षकों का; ऋषभ:--प्रमुख;प्रसीदताम्‌--प्रसन्न हों।

    जिन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा के हृदय में शक्तिशाली ज्ञान का विस्तार किया और सृष्टितथा अपने विषय में पूर्ण ज्ञान की प्रेरणा दी और जो ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए प्रतीत हुए, वेभगवान्‌ मुझ पर प्रसन्न हों।

    भूतैर्महद्धिर्य इमा: पुरो विभु-निर्माय शेते यदमूषु पूरूष: ।

    भुड़े गुणान्‌ षोडश षोडशात्मक:सोउलड्कृषीष्ट भगवान्‌ वचांसि मे ॥

    २३॥

    भूतैः--तत्त्वों के द्वारा; महद्धिः--भौतिक सृष्टि के; यः--जो; इमाः--ये सब; पुरः--शरीर; विभु:-- भगवान्‌ के ; निर्माय--तैयार करने के लिए; शेते--लेटते हैं; यत्‌ अमूषु--अवतीर्ण होनेवाला; पूरुष:-- भगवान्‌ विष्णु; भुड्ढे --प्रभावित करते हैं;गुणान्‌--तीनों गुणों को; षोडश--सोलह भागों में; षोडश-आत्मक:--इन सोलह का जनक होने से; सः--वह; अलड्डू षीष्ट--सुसज्जित करे; भगवान्‌-- भगवान्‌; वचांसि--वाणी को; मे--मेरी ।

    ब्रह्माण्ड के भीतर लेटकर जो तत्त्वों से निर्मित शरीरों को प्राणमय बनाते हैं और जो अपनेपुरुष-अवतार में जीव को भौतिक गुणों के सोलह विभागों को, जो जीव के जनक रूप हैंअधीन करते हैं, वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ मेरे प्रवचचनों को अलंकृत करने के लिए प्रसन्न हों।

    नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय वेधसे ।

    पपुरज्ानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम्‌ ॥

    २४॥

    नमः--मेरा नमस्कार है; तस्मै--उस; भगवते-- भगवान्‌ को; वासुदेवाय--वासुदेव या उनके अवतारों को; वेधसे--वैदिक ग्रंथोंके संकलनकर्ता; पपु:--पान किया गया; ज्ञानमू--ज्ञान; अयम्‌--यह वैदिक ज्ञान; सौम्या:-- भक्तगण, विशेष रूप से भगवान्‌कृष्ण की प्रेमिकाएँ; यत्‌--जिनके ; मुख-अम्बुरुह--कमल सहश मुख का; आसवम्‌--अमृत |

    मैं साक्षात्‌ वासुदेव के अवतार उन श्रील व्यासदेव को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्होंने वैदिक शास्त्रों का संकलन किया।

    शुद्ध भक्तगण भगवान्‌ के कमल सद्ृश मुख से टपकते हुएअपृतोपम दिव्य ज्ञान का पान करते हैं।

    'एतदेवात्म-भू राजन्‌ नारदाय विपृच्छते ।

    वेद-गर्भो भ्यधात्‌ साक्षाद्‌ यदाह हरिरात्मन: ॥

    २५॥

    एतत्‌--इस विषय में; एब--इसी तरह; आत्म-भू:--प्रथम जन्मा ( ब्रह्माजी ); राजन्‌--हे राजा; नारदाय--नारदमुनि से;विपृच्छते--पूछा जाकर; बेद-गर्भ:--जन्म से ही वैदिक ज्ञान से संपृक्त है, जो; अभ्यधात्‌--बतलाया; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; यत्‌आह--उसने जो कहा; हरिः -- भगवान्‌; आत्मन:--अपने ही से ब्रह्मा से ) |

    हे राजन, नारद द्वारा पूछे जाने पर प्रथम-जन्मा ब्रह्माजी ने इस विषय में ठीक वही बातबतलाई जो भगवान्‌ ने अपने पुत्र ( ब्रह्मा ) से प्रत्यक्ष कही थी जो जन्म से ही वैदिक ज्ञान सेसंपृक्त थे।

    TO

    अध्याय पाँच: सभी कारणों का कारण

    2.5नारद उवाचदेव-देव नमस्तेस्तु भूत-भावन पूर्वज ।

    तद्‌ विजानीहि यज्ज्ञानमात्म-तत्त्व-निरदर्शनम्‌ ॥

    १॥

    नारद: उवाच-- श्री नारद ने कहा; देव--समस्त देवताओं के ; देव--देवता; नमः--नमस्कार; ते--तुमको; अस्तु--है; भूत-भावन--समस्त प्राणियों के जनक; पूर्व-ज--सर्वप्रथम जन्मा; तत्‌ विजानीहि--उस ज्ञान को बताएँ; यत्‌ ज्ञानमू--जो ज्ञान;आत्म-तत्त्व--दिव्य; निरदर्शनम्‌--विशेष रूप से निर्देश करता है।

    श्री नारद मुनि ने ब्रह्माजी से पूछा : हे देवताओं में प्रमुख देवता, हे अग्रजन्मा जीव, मैंआपको सादर नमस्कार करता हूँ।

    कृपा करके मुझे वह दिव्य ज्ञान बतायें, जो मनुष्य को आत्मातथा परमात्मा के सत्य तक ले जाने वाला है।

    यद्वूपं यदथ्ष्ठानं यतः सृष्टमिदं प्रभो ।

    यत्संस्थं यत्परं यच्च तत्‌ तत्त्वं बद तत्त्वतः ॥

    २॥

    यत्‌--जो; रूपमू-- लक्षण; यत्‌--जो; अधिष्ठानम्‌--पृष्ठ भूमि; यत:ः--जहाँ से; सृष्टम्‌--उत्पन्न; इदम्‌--यह संसार; प्रभो--हेपिता; यत्‌--जिसमें; संस्थम्‌--प्रतिष्ठित; यत्‌--जो; परम्‌ू--वश में; यत्‌--जो हैं; च--तथा; तत्‌--इसका; तत्त्वम्‌-लक्षण;वबद--कृपया वर्णन करें; तत्त्वतः--वास्तव में |

    है पिता, आप इस व्यक्त जगत के वास्तविक लक्षणों का वर्णन करें।

    इसका आधार क्‍याहै? यह किस तरह उत्पन्न हुआ ? यह किस तरह संस्थित है? और यह सब किसके नियन्त्रण मेंकिया जा रहा है?

    सर्व होतद्‌ भवान्‌ वेद भूत-भव्य-भवत्प्रभु: ।

    'करामलक-वद्‌ विश्व विज्ञानावसितं तव ॥

    ३॥

    सर्वम्--सारी वस्तुएँ; हि--निश्चय ही; एतत्‌--यह; भवान्‌--आप; वेद--जानते हैं; भूत--जो भी उत्पन्न है; भव्य--जो उत्पन्नहोंगे; भवत्‌ प्रभु;--आप, सबों के स्वामी; कर-आमलक-वत्‌--हथेली के आँवले के समान; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; विज्ञान-अवसितम्‌--आपके वैज्ञानिक ज्ञान के अन्तर्गत; तब--आपका

    हे पिता, आप यह सब वैज्ञानिक ढंग से जानते हैं, क्योंकि भूतकाल में जो कुछ रचा गया,भविष्य में जो भी रचा जायेगा या वर्तमान में जो कुछ रचा जा रहा है तथा इस ब्रह्माण्ड के भीतर जितनी सारी वस्तुएँ हैं, वे सब आपकी हथेली में आँवले के सहश हैं।

    यद्विज्ञानो यदाधारो यत्परस्त्वं यदात्मकः ।

    एकः सृजसि भूतानि भूतैरेवात्म-मायया ॥

    ४॥

    यतू-विज्ञान:--ज्ञान का स्त्रोत; यत्‌ू-आधार:--जिसके संरक्षण में; यत्‌-पर:--जिसकी अधीनता में; त्वम्‌--तुम; यत्‌-आत्मक:ः--किस हैसियत से; एक:--अकेले; सृजसि--सृष्टि करते हो; भूतानि--जीवों को; भूतैः -- भौतिक तत्त्वों के द्वारा;एव--निश्चय ही; आत्म--स्व; मायया--शक्ति से |

    है पिता, आपके ज्ञान का स्त्रोत क्या है? आप किसके संरक्षण में रह रहे हैं? आप किसकीअधीनता में कार्य करते हैं? आपकी वास्तविक स्थिति कया है? क्या आप अकेले ही सारे जीवोंको अपनी निजी शक्ति के द्वारा भौतिक तत्त्वों से उत्पन्न करते हैं ?

    आत्मन्‌ भावयसे तानि न पराभावयन्‌ स्वयम्‌ ।

    आत्म-शक्तिमवष्टभ्य ऊर्णनाभिरिवाक्लम: ॥

    ५॥

    आत्मन्‌ ( आत्मनि )--अपने द्वारा; भावयसे-- प्रकट करते हैं; तानि--वे सब; न--नहीं; पराभावयन्‌--पराजित होकर;स्वयमू--खुद, अपने आप; आत्म-शक्तिम्‌--आत्मनिर्भर शक्ति; अवष्टभ्य--नियुक्त होकर; ऊर्ण-नाभि:--मकड़ी; इब--सहृश;अक्लम:--बिना सहायता के।

    जिस प्रकार मकड़ी अपने जाले को सरलता से उत्पन्न करती है और अन्यों के द्वारा पराजितहुए बिना अपनी सृजन-शक्ति प्रकट करती है, उसी प्रकार आप अपनी आत्म-निर्भर शक्ति कोप्रयुक्त करके दूसरे से सहायता लिये बिना सृजन करते हैं।

    नाहं वेद पर हास्मिन्नापरं न समं विभो ।

    नाम-रूप-गुणैर्भाव्यं सदसत्‌ किल्लिदन्यतः ॥

    ६॥

    न--नहीं; अहम्‌--मैं; वेद-- जानता हूँ; परम्‌- श्रेष्ठ; हि--क्योंकि; अस्मिनू--इस संसार में; न--न तो; अपरम्‌--निकृष्ट; न--न तो; सममू--समान; विभो--हे महान्‌; नाम--नाम; रूप--लक्षण; गुणैः--योग्यता से; भाव्यम्‌--सूजित, सृष्ट; सत्‌ू--नित्य,शाश्वत; असतू--क्षण भंगुर; किल्ञित्‌--या अन्य इसी तरह की कोई वस्तु; अन्यतः--किसी अन्य स्त्रोत से ।

    हम किसी विशेष वस्तु-श्रेष्ठ, निकृष्ट या समतुल्य, नित्य या क्षणिक--इनके नामों,लक्षणों तथा गुणों से जो भी समझ पाते हैं, वह आपके अतिरिक्त अन्य किसी स्त्रोत से सृजितनहीं होती, क्योंकि आप इतने महान्‌ हैं।

    स भवानचरद्‌ घोरं यत्‌ तप: सुसमाहितः ।

    तेन खेदयसे नस्त्वं परा-शड्भां च यच्छसि ॥

    ७॥

    सः--वह; भवान्‌--आपने; अचरत्‌--किया; घोरम्‌ू--कठिन; यत्‌ तप: --ध्यान; सु-समाहितः --पूर्ण अनुशासन में; तेन--उसकारण से; खेदयसे--कष्ट देते हैं; न:--हमको; त्वमू--आप; परा--अन्तिम सत्य; शट्डामू--सन्देह; च--तथा; यच्छसि--हमेंअवसर प्रदान करते हैं।

    फिर भी जब हम आपके द्वारा पूर्ण अनुशासन में रहते हुए सम्पन्न कठिन तपस्याओं के विषयमें सोचते हैं, तो हमें आपसे भी अधिक शक्तिशाली किसी व्यक्ति के अस्तित्व के विषय मेंआश्चर्य-चकित रह जाना होता है, यद्यपि आप सृष्टि के मामले में इतने शक्तिशाली हैं।

    एतन्मे पृच्छतः सर्व सर्व-ज्ञ सकलेश्वर ।

    विजानीहि यथैवेदमहं बुध्येडनुशसित: ॥

    ८ ॥

    एतत्‌--यह सब; मे--मुझको; पृच्छत:--उत्सुक, जिज्ञासु; सर्वम्‌--जो कुछ पूछा जाता है; सर्व-ज्ञ--सब कुछ जाननेवाला;सकल--सप्पूर्ण; ईश्वर--नियन्ता; विजानीहि--कृपा करके बतायें; यथा--जिस तरह; एव--वे हैं; इदम्‌--यह; अहम्‌--मैं;बुध्ये--समझ सकूँ; अनुशासित:--आपसे सीखकर

    हे पिता, आप सब कुछ जाननेवाले हैं और सबों के नियन्ता हैं।

    अतएवं मैंने आपसे जितनेसारे प्रश्न किये हैं, उन्हें कृपा करके बताइये, जिससे मैं आपके शिष्य के रूप में उन्हें समझ सकूँ।

    ब्रह्मोवाचसम्यक्‌ कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम्‌ ।

    यदहं चोदितः सौम्य भगदद्दीर्य-दर्शने ॥

    ९॥

    ब्रह्मा उवाच--ब्रह्माजी ने कहा; सम्यक्‌ू--ठीक ढंग से; कारुणिकस्य--आपका, जो अत्यन्त दयालु हैं; इदम्‌--यह; वत्स--मेरेबच्चे; ते--तुम्हारी; विचिकित्सितम्‌--जिज्ञासा; यत्‌--जिससे; अहम्‌--मैं; चोदितः--प्रेरित; सौम्य--हे भद्र; भगवत्‌-- भगवान्‌का; वीर्य--पराक्रम के; दर्शने--सम्बन्ध में, विषयक ।

    ब्रह्माजी ने कहा : हे मेरे वत्स नारद, तुमने सबों पर ( मुझ सहित ) करुणा करके ही ये सारेप्रश्न पूछे हैं, क्योंकि इनसे मैं भगवान्‌ के पराक्रम को बारीकी से देखने के लिए प्रेरित हुआ हूँ।

    नानृतं तव तच्चापि यथा मां प्रत्रवीषि भो: ।

    अविज्ञाय परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे ॥

    १०॥

    न--नहीं; अनृतम्‌--झूठ; तव--तुम्हारा; तत्‌ू--वह; च-- भी; अपि--जैसा तुमने कहा है; यथा--विषय में; माम्‌--मेरे;प्रत्रवीषि--जिस तरह तुम कहते हो; भो:--हे पुत्र; अविज्ञाय--बिना जाने; परम्‌--परम; मत्त:--मुझसे परे; एतावत्‌--जो कुछकहा है; त्वमू--तुमने; यतः--के कारण से; हि--निश्चय ही; मे--मेंरे विषय में

    तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह असत्य नहीं है, क्योंकि जब तक कोई उन भगवान्‌के विषय में अवगत नहीं हो लेता, जो मुझसे परे परम सत्य रूप हैं, तब तक वह मेरे सशक्तकार्यकलापों से निश्चित रूप से मोहित होता रहेगा।

    येन स्व-रोचिषा विश्व रोचितं रोचयाम्यहम्‌ ।

    यथाकोग्निर्यथा सोमो यथर्क्नष-ग्रह-तारका: ॥

    ११॥

    येन--जिसके द्वारा; स्व-रोचिषा--अपने तेज से; विश्वम्‌--सारा जगत; रोचितम्‌--पहले से रचा हुआ; रोचयामि-- प्रकट करताहूँ; अहम्‌ू-मैं; यथा--जिस तरह; अर्क: --सूर्य; अग्नि:--अग्नि; यथा--जिस तरह; सोम: --चन्द्रमा; यथा--जिस तरह;ऋक्ष--आकाश; ग्रह-- प्रभावशाली लोक; तारका:--तारे ।

    भगवान्‌ द्वारा अपने निजी तेज ( ब्रह्मज्योति ) से की गईं सृष्टि के बाद मैं उसी तरह सृजनकरता हूँ जिस तरह कि सूर्य द्वारा अग्नि प्रकट होने के बाद चन्द्रमा, आकाश, प्रभावशाली ग्रहतथा टिमटिमाते तारे भी अपनी चमक प्रकट करते हैं।

    तस्मै नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि ।

    यन्मायया दुर्जयया मां वदन्ति जगदगुरुम्‌ू ॥

    १२॥

    तस्मै--उस; नम:ः--नमस्कार करता हूँ; भगवते-- भगवान्‌ को; वासुदेवाय-- भगवान्‌ कृष्ण को; धीमहि-- उनका ध्यान करताहूँ; यत्‌ू-जिस; मायया--शक्ति के द्वारा; दुर्जयया--दुर्जय; माम्‌--मुझको; वदन्ति--कहते हैं; जगत्‌--जगत; गुरुम्‌--स्वामी |

    मैं उन भगवान्‌ कृष्ण ( वासुदेव) को नमस्कार करता हूँ तथा उनका ध्यान करता हूँ,जिनकी दुर्जय शक्ति उन्हें ( अल्पज्ञ मनुष्यों को ) इस तरह प्रभावित करती है कि वे मुझे ही परमनियन्ता कहते हैं।

    विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षा-पथेउमुया ।

    विमोहिता विकत्थन्ते ममाहमिति दुर्धिय: ॥

    १३॥

    विलज्ञममानया--लज्तत व्यक्ति द्वारा; यस्थ--जिसका; स्थातुम्‌ू--ठहरने के लिए; ईक्षा-पथे--समक्ष; अमुया-- भ्रामिका शक्तिद्वारा; विमोहिता:--जो मोहित हैं; विकत्थन्ते--प्रलाप करते हैं; मम--यह मेरा है; अहम्‌ू--मैं ही सब कुछ हूँ; इति--इस तरहभला-बुरा कहकर; दुर्धियः--इस प्रकार बुरा सोचा गया।

    भगवान्‌ की भ्रामिका शक्ति ( माया ) अपनी स्थिति से लज्जित होने के कारण सामने ठहरनहीं पाती, लेकिन जो लोग इसके द्वारा मोहित होते हैं, वे 'यह मैं हूँ!' और 'यह मेरा है' केविचारों में लीन रहने के कारण व्यर्थ की बातें करते हैं।

    द्रव्यं कर्म च कालश्व स्वभावो जीव एव च ।

    वासुदेवात्परो ब्रह्मन्न चान्योर्थोउस्ति तत्त्वतः ॥

    १४॥

    द्रव्यमू--अवयवब ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश ); कर्म--अन्योन्य क्रियाएँ; च--तथा; काल:--शाश्वत काल; च--भी; स्व-भाव:--स्वभाव; जीव: --जीव; एब--निश्चय ही; च--तथा; वासुदेवात्‌--वासुदेव से; पर:--भिन्न अंश; ब्रह्मनू--हेब्राह्मण; न--कभी नहीं; च-- भी; अन्य:--पृथक्‌; अर्थ:--महत्त्व; अस्ति--है; तत्त्वतः--वास्तव में

    सृष्टि के पाँच मूल अवयव शाश्वत काल द्वारा उनसे उत्पन्न अन्योन्य क्रिया तथा जीव कास्वभाव--ये सब भगवान्‌ वासुदेव के भिन्नांश हैं और सच बात तो यह है कि उनका कोई अन्यमहत्व नहीं है।

    नारायण-परा वेदा देवा नारायणाड्ुजा: ।

    नारायण-परा लोका नारायण-परा मखा: ॥

    १५॥

    नारायण--परमेश्वर; परा:--कारण-स्वरूप तथा उसी के निमित्त; बेदा:--ज्ञान; देवा:--देवता; नारायण--परमेश्वर के; अड्र-जा:--सहायक; नारायण-- भगवान्‌; परा: --के लिए; लोका:--सारे लोक; नारायण--परमेश्वर; परा:--उन्‍्हें प्रसन्न करने केलिए; मखा:--सारे यज्ञ

    सारे वैदिक ग्रंथ परमेश्वर से ही बने हैं और उन्हीं के निमित्त हैं।

    देवता भी भगवान्‌ के शरीरके अंगों के रूप में उन्हीं की सेवा के लिए हैं।

    विभिन्न लोक भी भगवान्‌ के निमित्त हैं औरविभिन्न यज्ञ उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न किये जाते हैं।

    नारायण-परो योगो नारायण-परं तपः ।

    नारायण-परं ज्ञानं नारायण-परा गति: ॥

    १६॥

    नारायण-पर:--नारायण को जानने के लिए; योग:--मन की एकाग्रता; नारायण-परम्‌--नारायण को प्राप्त करने के उद्देश्य से;तपः--तपस्या; नारायण-परम्‌--नारायण की झलक पाने के लिए; ज्ञानम्‌--दिव्य ज्ञान की संस्कृति; नारायण-परा--नारायणके धाम में प्रवेश करते ही मोक्ष का पथ समाप्त हो जाता है; गतिः--उत्तरोत्तर पथ।

    सभी प्रकार के ध्यान या योग नारायण की अनुभूति प्राप्त करने के लिए हैं।

    सारी तपस्याओंका लक्ष्य नारायण को प्राप्त करने के निमित्त है।

    दिव्य ज्ञान का संवर्धन नारायण की झलकप्राप्त करने के लिए है और चरम मोक्ष तो नारायण के धाम में प्रवेश करने के लिए ही है।

    तस्यापि द्रष्टरीशस्य कूट-स्थस्याखिलात्मन: ।

    सृज्यं सृजामि सृष्टोहमी क्षयैवाभिचोदित: ॥

    १७॥

    तस्य--उसका; अपि--निश्चय ही; द्रष्ट:ः --देखनेवाले का; ईशस्थ--नियन्ता का; कूट-स्थस्य--जो सबों की बुद्द्धि के ऊपर है,उसका; अखिल-आत्मन:--परमात्मा का; सृज्यम्‌--पहले से सूष्ट; सृजामि--मैं खोजता हूँ; सृष्ट: --सृजित; अहम्‌--मैं;ईक्षया--झलक मात्र से; एबव--सही-सही; अभिचोदित:--उससे प्रेरित होकर ।

    उनके ही द्वारा प्रेरित होकर मैं भगवान्‌ नारायण द्वारा सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में उनकीही दृष्टि के सामने पहले जो सृजित हो चुका है, उसी की फिर खोज करता हूँ और मैं भी केवलउन्हीं के द्वारा सृजित हूँ।

    सत्त्वं रजस्तम इति निर्गुणस्य गुणास्त्रयः ।

    स्थिति-सर्ग-निरोधेषु गृहीता मायया विभो: ॥

    १८॥

    सत्त्वम्‌--सतोगुण; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; इति--ये सब; निर्गुणस्थ--ब्रह्म के; गुणा: त्रयः--तीन गुण हैं; स्थिति--पालन; सर्ग--उत्पत्ति; निरोधेषु--संहार में; गृहीता:--स्वीकृत; मायया--बहिरंगा शक्ति के द्वारा; विभो:--परमेश्वर की ।

    परमेश्वर अपने शुद्ध आध्यात्मिक रूप में सारे भौतिक गुणों से परे होते हैं, फिर भी भौतिकजगत की सृष्टि, उसके पालन तथा संहार के लिए वे अपनी बहिरंगा शक्ति के माध्यम से प्रकृतिके गुणों को--सतो, रजो तथा तमो गुणों को--स्वीकार करते हैं।

    कार्य-कारण-कर्तृत्वे द्रव्य-ज्ञान-क्रिया श्रया: ।

    बध्नन्ति नित्यदा मुक्त मायिनं पुरुष गुणा: ॥

    १९॥

    कार्य--प्रभाव, फल; कारण--कारण; कर्तृत्वे--कार्यो में; द्रव्य--पदार्थ; ज्ञान--ज्ञान; क्रिया-आश्रया:--ऐसे लक्षणों सेप्रकट; बध्नन्ति--बद्ध करते हैं; नित्यदा--नित्य; मुक्तम्‌ू--दिव्य; मायिनम्‌-- भौतिक शक्ति से प्रभावित; पुरुषम्‌--जीव को;गुणा:--भौतिक गुण।

    भौतिक प्रकृति के ये तीनों गुण आगे चलकर पदार्थ, ज्ञान तथा क्रियाओं के रूप में प्रकटहोकर दिव्य जीव को कार्य-कारण के प्रतिबन्धों के अन्तर्गत डाल देते हैं और ऐसे कार्यों केलिए उसे उत्तरदायी बना देते हैं।

    स एष भगवॉल्लिड्रैस्त्रिभिरेतैरधोक्षज: ।

    स्वलक्षित-गतिर््रह्मन्‌ सर्वेषां मम चेश्वर: ॥

    २०॥

    सः--वह; एषः--यह; भगवानू-- भगवान्‌; लिड्डैः--लक्षणों से; त्रिभिः:--तीन; एतैः--इन सबों से; अधोक्षज: --परम द्रष्टाब्रह्म; सु-अलक्षित-- अदृश्य; गति:ः--चाल-फेर; ब्रह्मनू--हे नारद; सर्वेषाम्‌--हर एक का; मम--मेरा; च-- भी; ईश्वर: --नियन्ता।

    हे ब्राह्मण नारद, परम द्रष्टा परब्रह्म प्रकृति के उपर्युक्त तीनों गुणों के कारण जीवों कीइन्द्रियों की अनुभूति से परे हैं।

    लेकिन वे मुझ समेत सबों के नियन्ता हैं।

    कालं कर्म स्वभाव च मायेशो मायया स्वया ।

    आत्मन्‌ यहचच्छया प्राप्तं विबुभूषुरुपाददे ॥

    २१॥

    कालमू--नित्य काल; कर्म--जीव का भाग्य; स्वभावम्‌-- प्रकृति; च-- भी; माया--शक्ति; ईश:--नियन्ता; मायया--शक्तिसे; स्वया--अपनी; आत्मन्‌--( आत्मनि ) अपने को; यहच्छया--स्वतन्त्रतापूर्वक; प्राप्तम्‌--तदाकार होकर; विबुभूषु:--भिन्नदिखनेवाले; उपाददे--पुनः सृजित होना स्वीकार किया ।

    समस्त शक्तियों के नियन्ता भगवान्‌ अपनी ही शक्ति से नित्य काल, समस्त जीवों के भाग्यतथा उनके विशिष्ट स्वभाव की सृष्टि करते हैं और फिर स्वतन्त्र रूप से उन्हें अपने में विलीन कर लेते हैं।

    कालाद्‌ गुण-व्यतिकरः परिणाम: स्वभावत: ।

    कर्मणो जन्म महतः पुरुषाधिष्ठितादभूत्‌ ॥

    २२॥

    कालात्‌--नित्यकाल से; गुण-व्यतिकर:--प्रतिक्रिया द्वारा गुणों का रूपान्तर; परिणाम: --रूपान्तर; स्वभावत:--स्वभाव से;कर्मण:--कर्मो से; जन्म--सृष्टि; महतः --महत्तत्व का; पुरुष-अधिष्टितात्‌-- भगवान्‌ के पुरुष-अवतार के कारण; अभूत्‌--हुआ,

    ्रथम पुरुष के अवतार ( कारणार्णवशायी विष्णु ) के बाद महत्‌ू-तत्त्व अथवा भौतिक सृष्टिके तत्त्व अर्थात्‌ भौतिक सृष्टि के सिद्धान्त घटित होते हैं, तब काल प्रकट होता है और काल-क्रम से तीनों गुण प्रकट होते हैं।

    प्रकृति का अर्थ है तीन गुणात्मक अभिव्यक्तियाँ, जो कार्यों मेंरूपान्तरित होती हैं।

    महतस्तु विकुर्वाणाद्रज: -सत्त्वोपबूंहितात्‌ ।

    तमः -प्रधानस्त्वभवद्‌ द्रव्य-ज्ञान-क्रियात्मक ४ ॥

    २३॥

    महतः--महत्‌ तत्त्व का; तु--लेकिन; विकुर्वाणात्‌--रूपान्तरित होकर; रज:--रजोगुण; सत्त्व--सतोगुण; उपबूंहितात्‌ू--बढ़जाने से; तम:ः--तमोगुण; प्रधान: --प्रमुख होने से; तु--लेकिन; अभवत्‌--घटित हुआ; द्रव्य--पदार्थ; ज्ञान-- भौतिक ज्ञान;क्रिया-आत्मक:--प्रधानतः भौतिक कार्यकलाप ।

    महत्‌ तत्त्व के विश्लुब्ध होने पर भौतिक क्रियाएँ उत्पन्न होती हैं।

    सर्वप्रथम सतो तथा रजोगुणोंका रूपान्तरण होता है और बाद में तमोगुण के कारण पदार्थ, ज्ञान तथा ज्ञान के विभिन्नकार्यकलाप प्रकट होते हैं।

    सोहड्ढार इति प्रोक्तो विकुर्वन्‌ समभूत्तिधा ।

    वैकारिकस्तैजसश्व॒ तामसश्नेति यद्धिदा ।

    द्रव्य-शक्ति: क्रिया-शक्तिर्ज्ञान-शक्तिरिति प्रभो ॥

    २४॥

    सः--वही; अहड्ढार:--अहंकार; इति--इस प्रकार; प्रोक्त:--कहा गया; विकुर्वन्‌--रूपान्तरित होकर; समभूत्‌--प्रकट हुआ;त्रिधा--तीन रूपों में; वैकारिक:--सतो गुणो में; तैजस:--रजोगुण में; च--तथा; तामस:--तमोगुण में; च-- भी; इति--इसप्रकार; यत्‌--जो है; भिदा--विभक्त; द्रव्य-शक्ति:--पदार्थ को विकसित करनेवाली शक्ति; क्रिया-शक्ति:--सृजन करने कीप्रेरणा; ज्ञान-शक्ति: --मार्गदर्शक बुद्धि; इति--इस तरह; प्रभो--हे स्वामी ।

    इस प्रकार आत्म-केन्द्रित भौतिकतावादी अहंकार तीनों स्वरूपों में रूपान्तरित होकरसतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण बन जाता है।

    ये तीन स्वरूप हैं : पदार्थ को विकसित करनेवाली शक्तियाँ, भौतिक सृष्टियों का ज्ञान तथा ऐसी भौतिकतावादी क्रियाओं का मागदर्शनकरनेवाली बुद्धि।

    हे नारद, तुम इसे समझने के लिए पूर्ण सक्षम हो।

    तामसादपि भूतादेर्विकुर्वाणादभून्नभ: ।

    तस्य मात्रा गुण: शब्दो लिड़ं यद्‌ द्रष्ट-हश्ययो: ॥

    २५॥

    तामसात्‌--मिथ्या अहंकार के अंधकार से; अपि--निश्चय ही; भूत-आदेः -- भौतिक तत्त्वों का; विकुर्वाणात्‌ू--रूपान्तरण केकारण; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; नभ:--आकाश; तस्य--उसका; मात्रा--सूक्ष्म रूप; गुण:--गुण; शब्द: --ध्वनि; लिड्रम्‌ू--लक्षण; यत्‌--जो; द्रष्ट--द्रष्टा; हश्ययो:--देखे गये का |

    मिथ्या अंहकार के अंधकार से पाँच तत्त्वों में से पहला तत्त्व आकाश उत्पन्न होता है।

    इसका सूक्ष्म रूप शब्द का गुण है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह द्रष्टा का दृश्य से सम्बन्ध होता है।

    नभसोथ विकुर्वाणादभूत्‌ स्पर्श-गुणोनिल: ।

    परान्वयाच्छब्दवां श्र प्राण ओज: सहो बलम्‌ ॥

    २६॥

    वबायोरपि विकुर्वाणात्‌ काल-कर्म-स्वभावतः ।

    उदपद्यत तेजो वै रूपवत्‌ स्पर्श-शब्दबत्‌ ॥

    २७॥

    तेजसस्तु विकुर्वाणादासीदम्भो रसात्मकम्‌ ।

    रूपवत्‌ स्पर्शवच्चाम्भो घोषवच्च परान्वयात्‌ ॥

    २८॥

    विशेषस्तु विकुर्वाणादम्भसो गन्धवानभूत्‌ ।

    परान्वयाद्‌ रस-स्पर्श-शब्द-रूप-गुणान्वितः ॥

    २९॥

    नभसः--आकाश का; अथ--इस प्रकार; विकुर्वाणात्‌--रूपान्तरित होकर; अभूत्‌--उत्पन्न हुआ; स्पर्श--स्पर्श; गुण:--गुण;अनिलः--वायु; पर--पूर्ववर्ती, पिछली; अन्वयात्‌--परम्परा से; शब्दवान्‌-- ध्वनि से पूर्ण; च-- भी; प्राण:--प्राण, जीवन;ओज:--इन्द्रिय बोध; सह:--मोटा; बलम्‌--बल; वायो:--वायु के; अपि-- भी; विकुर्वाणात्‌--रूपान्तरण से; काल--समय;कर्म--पिछले कर्म; स्वभावतः--स्वभाव के अनुसार; उदपद्यत--उत्पन्न हुआ; तेज:--अग्नि; बै--ठीक से; रूपवत्‌--रूप केसाथ; स्पर्श--स्पर्श; शब्दवत्‌--शब्द के साथ भी; तेजस:ः--अग्नि का; तु--लेकिन; विकुर्वाणात्‌--रूपान्तरित होकर;आसीतू--ऐसा हुआ; अम्भ:--जल; रस-आत्मकम्‌--रस से निर्मित; रूपवत्‌--रूप के साथ; स्पर्शवत्‌--स्पर्श के साथ; च--तथा; अम्भ:--जल; घोषवत्‌-- ध्वनि के साथ; च--तथा; पर--पूर्व; अन्बयात्‌--परम्परा से; विशेष: --नानारूपता; तु--लेकिन; विकुर्वाणात्‌--रूपान्तरण से; अम्भस:--जल का; गन्धवान्‌--सुगन्धित; अभूत्‌--हो गया; पर--पूर्व; अन्बयात्‌--परम्परा से; रस--रस; स्पर्श--स्पर्श; शब्द-- ध्वनि; रूप-गुण-अन्वित: --गुणात्मक रूप से ।

    चूँकि आकाश रूपान्तरित होता है, अतएव स्पर्शगुण से युक्त वायु उत्पन्न होती है और पूर्वपरम्परा के अनुसार वायु शब्द तथा आयु के मूलभूत तत्त्वों अर्थात्‌ स्पर्श, मानसिक-शक्ति तथाशारीरिक बल से भी पूर्ण होती है।

    काल तथा प्रकृति के साथ ही जब वायु रूपान्तरित होती है,तो अग्नि उत्पन्न होती है और यह स्पर्श तथा ध्वनि का रूप धारण करती है।

    चूँकि अग्नि भीरूपान्तरित होती है, अतएव जल प्रकट होता है, जो रस तथा स्वाद से पूरित होता है।

    परम्परानुसार यह भी रूप, स्पर्श तथा शब्द से परिपूर्ण होता है।

    और जब यही जल अपनीनानारूपता समेत पृथ्वी में रूपान्तरित होता है, तब वह सुगन्धिमय प्रतीत होता है औरपरम्परानुसार यह रस, स्पर्श, शब्द तथा रूप के गुणों से पूरित हो उठता है।

    वैकारिकान्मनो जज्ञे देवा वैकारिका दश ।

    दिग्वातार्क-प्रचेतोश्वि-वह्लीन्द्रोपेन्द्र-मित्र-का: ॥

    ३०॥

    वैकारिकात्‌--सतोगुण से; मन:--मन; जज्ने--उत्पन्न किया; देवा:--देवता; वैकारिका:--सतोगुण में; दश--दस; दिक्‌--दिशाओं का अधिष्ठाता; वात--वायु का अधिष्ठाता; अर्क--सूर्य; प्रचेत:--वरुण; अश्वि--अश्विनीकुमार; वहि--अग्निदेव;इन्द्र--स्वर्ग का राजा; उपेन्द्र-स्वर्ग का देव ( श्री विग्रह ); मित्र--बारह आदित्यों में से एक; काः--प्रजापति ब्रह्मा |

    सतोगुण से मन उत्पन्न होकर व्यक्त होता है, साथ ही शारीरिक गतियों के नियन्त्रक दसदेवता भी प्रकट होते हैं।

    ऐसे देवता दिशाओं के नियन्त्रक, वायु के नियन्त्रक, सूर्यदेव, दक्षप्रजापति के पिता, अश्विनीकुमार, अग्निदेव, स्वर्ग का राजा (इन्द्र), स्वर्ग के पूजनीयअर्चाविग्रह, आदित्यों के प्रमुख तथा प्रजापति ब्रह्माजी कहलाते हैं।

    सभी इस तरह अस्तित्व में लक्ष्य है।

    तैजसात्‌ तु विकुर्वाणादिन्द्रियणि दशाभवन्‌ ।

    ज्ञान-शक्तिः क्रिया-शक्तिर्बुद्धि: प्राणश्चव तैजसौ ।

    श्रोत्रं त्वग्प्राण-हग्जिह्ना वाग्दोमेंढ्रा्डपप्रे-पायव: ॥

    ३१॥

    तैजसात्‌ू--रजोगुणी अहंकार से; तु--लेकिन; विकुर्वाणात्‌--रूपान्तरण से; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; दश--दस; अभवनू--उत्पन्नकी गई; ज्ञान-शक्ति:--ज्ञान प्राप्त करने की पाँच इन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ; क्रिया-शक्ति:--कार्य की पाँच इन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ;बुद्धिः--बुद्धि; प्राण:--जीवनशक्ति; च-- भी; तैजसौ--रजोगुण के सारे पदार्थ; श्रोत्रमू--सुनने की इन्द्रिय; त्वक्‌--स्पर्शेन्द्रिय; प्राण--सूँघने की इन्द्रिय; हक्‌--देखने की इन्द्रिय; जिह्ला:--स्वाद लेने की इन्द्रिय; वाकु--बोलने की इन्द्रिय;दोः-ग्रहण करने की इन्द्रिय; मेढ्र--जननेन्द्रिय; अद्धघ्रि--पाँव; पायव: --मल-विसर्जन इन्द्रिय ।

    रजोगुण में और अधिक विकार आने से बुद्धि तथा प्राण के साथ ही श्रवण, त्वचा, नाक,आँख, जीभ, मुँह, हाथ, जननेन्द्रिय, पाँव तथा मल विसर्जन की इन्द्रियाँ सभी उत्पन्न होती हैं।

    यदैतेडसड़ता भावा भूतेन्द्रिय-मनो-गुणा: ।

    यदायतन-निर्माणे न शेकुर्ब्रह्य-वित्तम ॥

    ३२॥

    यदा--जब तक; एते--ये सब; असड्भता:--एकत्र हुए बिना; भावा:--इस तरह स्थित होकर; भूत--तत्त्व; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ;मनः--मन; गुणा:-- प्रकृति के गुण; यदा--जब तक; आयतन--शरीर; निर्माणे--निर्मित होता रहता है; न शेकु:--सम्भवनहीं था; ब्रह्म-वित्‌-तम--हे दिव्य ज्ञान के दाता नारद |

    हे योगियों में श्रेष्ठ नारद, जब तक ये सृजित अंग यथा तत्त्व, इन्द्रियाँ, मन तथा प्रकृति केगुण जुड़ नही जाते, तब तक शरीर स्वरूप धारण नहीं कर सकता।

    जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की शक्ति के बल से ये सब एकत्र हो गये तो सृष्टि से मूल तथागौण कारणों को स्वीकार करते हुए यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया।

    तदा संहत्य चान्योन्यं भगवच्छक्ति-चोदिता: ।

    सदसत्त्वमुपादाय चोभयं ससूजुर्दहादः ॥

    ३३॥

    तदा--वे सब; संहत्य--समवेत होकर; च-- भी; अन्योन्यम्‌--एक दूसरे को; भगवत्‌-- भगवान्‌ द्वारा; शक्ति--शक्ति;चोदिता: --प्रयुक्त होकर; सत्‌-असत्त्वम्‌-मूलत: तथा गौणत:; उपादाय-- स्वीकार करके; च-- भी; उभयम्‌--दोनों;ससृजु:--उत्पन्न हुआ; हि--निश्चय ही; अद:--यह संसार |

    जब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की शक्ति के बल से ये सब एकत्र हो गये तो सृष्टि से मूल तथा गौण कारणों को स्वीकार करते हुए यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया।

    वर्ष-पूग-सहस्त्रान्ते तदण्डमुदकेशयम्‌ ।

    काल-कर्म-स्वभाव-स्थो जीवोजीवमजीवयतू ॥

    ३४॥

    वर्ष-पूग--अनेक वर्ष; सहस्त्र-अन्ते--हजारों वर्षों का; तत्‌ू--वह; अण्डम्‌--ब्रह्माण्ड; उदके --कारण-जल में; शयम्‌--डूबकर; काल--नित्य समय; कर्म--कर्म; स्वभाव-स्थ:--प्रकृति के गुणों के अनुसार; जीव:ः--जीवों के स्वामी; अजीवम्‌--अचर; अजीवयतू्‌--जीवित किया

    इस प्रकार सारे ब्रह्माण्ड हजारों युगों तक जल के भीतर ( कारण-जल में ) पड़े रहे।

    समस्तजीवों के स्वामी ने उन सबमें प्रवेश करके उन्हें पूरी तरह सजीव बनाया।

    स एव पुरुषस्तस्मादण्डं निर्भिद्य निर्गतः ।

    सहस्त्रोर्वड्पप्रि-बाह्ृक्ष: सहस्त्रानन-शीर्षवान्‌ ॥

    ३५॥

    सः--वह ( भगवान्‌ ); एव--साक्षात्‌; पुरुष:-- भगवान्‌; तस्मात्‌--ब्रह्माण्ड के भीतर से; अण्डम्‌ू--हिरण्यगर्भ; निर्भिद्य--विभाजित करके; निर्गतः--बाहर निकल आया; सहस्त्र-हजारों; ऊरू--जाँघें; अड्प्रि--पाँव; बाहु-- भुजाएँ; अक्ष:--आँखें;सहस्त्र--हजारों; आनन-- मुँह; शीर्षवान्‌ू--सिर सहित ।

    यद्यपि भगवान्‌ ( महाविष्णु ) कारणार्णव में शयन करते रहते हैं, किन्तु वे उससे बाहरनिकल कर और अपने को हिरण्यगर्भ के रूप में विभाजित करके प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट होगये और उन्होंने हजारों-हजारों पाँव, भुजा, मुँह, सिर वाला विराट रूप धारण कर लिया।

    यस्येहावयवैलॉकान्‌ कल्पयन्ति मनीषिण: ।

    कट्यादिभिरध: सप्त सप्तोर्ध्व जघनादिभि: ॥

    ३६॥

    यस्य--जिसका; इह--इस ब्रह्माण्ड में; अवयवै:--शरीर के अंगों के द्वारा; लोकानू--सारे लोक; कल्पयन्ति--कल्पना करतेहैं; मनीषिण:--बड़े-बड़े दार्शनिक; कटि-आदिभि:--कमर से नीचे; अध:--नीचे की ओर; सप्त--सात लोक; सप्तऊर्ध्वमू--तथा सात लोक ऊपर की ओर; जघन-आदिभि:--सामने का हिस्सा।

    बड़े-बड़े दार्शनिक कल्पना करते हैं कि ब्रह्माण्ड में सारे लोक भगवान्‌ के विराट शरीर केविभिन्न ऊपरी तथा निचले अंगों के प्रदर्शन हैं।

    पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्थ बाहवः ।

    ऊर्वोर्वैश्यो भगवतः पद्भ्यां शूद्रो व्यजायत ॥

    ३७॥

    पुरुषस्थ-- भगवान्‌ का; मुखम्‌-- मुँह; ब्रह्म--ब्राह्मण हैं; क्षत्रम्‌--क्षत्रिय; एतस्थ-- इसके; बाहव:-- भुजाएँ; ऊर्वो: --जाँवें;वैश्य:--वणिक वर्ग; भगवत:--भगवान्‌ के; पद्भ्याम्‌-पाँवों से; शूद्र: -- श्रमिक वर्ग; व्यजायत--प्रकट हुआ |

    ब्राह्मण वर्ग भगवान्‌ के मुख का, क्षत्रिय उनकी भुजाओं का और वैश्य उनकी जाँघों काप्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि शूद्र वर्ग उनके पाँवों से उत्पन्न हुआ है।

    भूलोंक: कल्पित: पद्भ्यां भुवर्लोकोस्थ नाभित: ।

    हृदा स्वर्लोक उरसा महलोको महात्मन: ॥

    ३८॥

    भूः--पाताल तक सारे अधःलोक; लोक:--लोक; कल्पित:--कल्पना किया गया या कहा गया; पद्भ्याम्‌--पाँवों से;भुव:--ऊर्ध्व; लोक:--लोक; अस्य--उसकी ( भगवान्‌ की ); नाभित:ः--नाभि से; हृदा--हृदय से; स्वर्लोक:--देवताओं द्वारानिवासित लोक; उरसा--वक्षस्थल से; महलोक:--ऋषियों मुनियों से विभूषित लोक; महा-आत्मन:--भगवान्‌ का

    पृथ्वी-तल तक सारे अधोलोक उनके पाँवों में स्थित हैं।

    भुवलोक इत्यादि मध्य लोक उनकीनाभि में स्थित हैं और इनसे भी उच्चतर लोक, जो देवताओं तथा सुसंस्कृत ऋषियों-मुनियों द्वारानिवसित हैं, वे भगवान्‌ के वक्षस्थल में स्थित हैं।

    ग्रीवायां जनलोकोस्य तपोलोक: स्तन-द्वयात्‌ ।

    मूर्थभि: सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोक: सनातन: ॥

    ३९॥

    ग्रीवायामू-गर्दन तक; जनलोक:--जनलोक; अस्य--उसका; तपोलोक:--तपोलोक; स्तन-द्वयात्‌--वक्षस्थल से प्रारम्भहोकर; मूर्थभि:ः--सिर से; सत्यलोक:--सत्यलोक; तु--लेकिन; ब्रह्मलोक: --आध्यात्मिक लोक; सनातन:--शा श्वत ।

    भगवान्‌ के विराट रूप के वश्चस्थल से गर्दन तक के प्रदेश में जनलोक तथा तपोलोकस्थित हैं जबकि सर्वोच्च लोक, सत्यलोक, इस विराट रूप के सिर पर स्थित है।

    किन्तुआध्यात्मिक लोक शाश्वत हैं।

    तत्कटगां चातलं क्ल॒प्तमूरु भ्यां वितलं विभो: ।

    जानुभ्यां सुतलं शुद्ध जज्जाभ्यां तु ततातलम्‌ ॥

    ४०॥

    महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम्‌ ।

    पातालं पाद-तलत इति लोकमय: पुमान्‌ ॥

    ४१॥

    तत्‌--उसकी; कट्याम्‌--कमर में; च-- भी; अतलम्‌--पृथ्वी के नीचे प्रथम लोक; क्लृप्तम्‌--स्थित; ऊरु भ्याम्‌ू--जाँचों में;वितलम्‌--नीचे का द्वितीय लोक; विभो: -- भगवान्‌ का; जानुभ्याम्‌ू--घुटनों में; सुतलम्‌--नीचे का तृतीय लोक; शुद्धम्‌--शुद्ध; जज्ञभ्याम्‌--जोड़ों में; तु--लेकिन; तलातलम्‌--नीचे का चौथा लोक; महातलम्‌--नीचे का पाँचवाँ लोक; तु--लेकिन; गुल्फाभ्याम्‌--टखने या पिण्डलियों में; प्रपदाभ्यामू--पाँवों के ऊपरी या सामने के भाग पर; रसातलम्‌--नीचे का छठालोक; पातालमू--नीचे का सातवाँ लोक; पाद-तलतः--पाँवों के तलुओं में; इति--इस प्रकार; लोक-मयः --लोकों से पूर्ण;पुमानू-- भगवान्‌।

    हे पुत्र नारद, तुम मुझसे जान लो कि चौदह लोकों में से सात अधोलोक हैं।

    इनमें पहलालोक अतल है, जो कटि में स्थित है, दूसरा लोक वितल जाँघों में स्थित है, तीसरा लोक सुतलघुटनों में, चौथा लोक तलातल पिंडलियों में, पाचवाँ लोक महातल टखनों में, छठा लोकरसातल है, जो पाँवों के ऊपरी भाग में स्थित है तथा सातवाँ लोक पाताल लोक है, जो तलवों मेंस्थित है।

    इस प्रकार भगवान्‌ का विराट रूप समस्त लोकों से पूर्ण है।

    भूलोंक: कल्पित: पद्भ्यां भुवर्लोकोस्थ नाभित: ।

    स्वरलोक: कल्पितो मूर्धना इति वा लोक-कल्पना ॥

    ४२॥

    भूलोक:ः--पाताल से लेकर धरालोक तक के समग्र लोक; कल्पित:--कल्पना पर आधारित; पद्भ्यामू--पाँवों पर स्थित;भुवर्लोक:-- भुवलोक; अस्य-- भगवान्‌ के विश्व-रूप की; नाभित:--नाभि से; स्वलोक:--स्वर्गलोक से प्रारम्भ होने वालेऊर्ध्व लोक; कल्पित:--कल्पना किये गये; मूर्धना--वक्षस्थल से लेकर सिर तक; इति--इस प्रकार; वा--अथवा; लोक--लोक; कल्पना--कल्पना।

    अन्य लोग सम्पूर्ण लोकों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं।

    इनके नाम हैं--परमपुरुष के पाँवों पर अधोलोक ( पृथ्वी तक ), नाभि पर मध्यलोक तथा वक्षस्थल से सिर तक ऊर्ध्व लोक ( स्वर्गतक )।

    TO

    अध्याय छह: पुरुष-सूक्त की पुष्टि

    2.6ब्रह्मेवाचवाचां वहे्मुखं क्षेत्र छन्दसां सप्त धातवः ।

    हव्य-कव्यामृतान्नानां जिह्ना सर्व-रसस्य च ॥

    १॥

    ब्रह्मा उबाच--ब्रह्माजी ने कहा; वाचाम्‌--वाणी का; वह्ढेः--अग्नि का; मुखम्‌--मुख ; क्षेत्रमू--जनन-विन्दु; छन्‍्दसाम्‌--वैदिक मन्त्रों का, यथा गायत्री का; सप्त--सात; धातवः--त्वचा तथा अन्य छः स्तर; हव्य-कव्य--देवताओं तथा पितरों को दीगई भेंट; अमृत--मनुष्यों का भोजन; अन्नानाम्‌ू--सभी प्रकार के खाद्य पदार्थों का; जिह्वा--जीभ; सर्व--समस्त; रसस्थ--समस्त व्यंजनों का; च-- भी ।

    ब्रह्माजी ने कहा : विराट पुरुष का मुख वाणी का उद्गम-विन्दु है और उसका नियामक देवअग्नि है।

    उनकी त्वचा तथा अन्य छह स्तर ( आवरण ) बैदिक मन्त्रों के उदूगम-विन्दु हैं औरउनकी जीभ देवताओं, पितरों तथा सामान्यजनों को अर्पित करनेवाले विभिन्न खाद्यों तथाव्यंजनों ( रसों ) का उदगम है।

    सर्वासूनां च वायोश्व तन्नासे परमायणे ।

    अश्विनोरोषधीनां च प्राणो मोद-प्रमोदयो: ॥

    २॥

    सर्व--सभी; असूनाम्‌--विभिन्न प्रकार की प्राणवायु; च--तथा; वायो: --वायु का; च--भी; तत्‌--उसकी; नासे--नाक में;'परम-आयणे--दिव्य जनन-बिच्ु में; अश्विनो:--अश्विनीकुमार देवताओं का; ओषधीनाम्‌--समस्त जड़ी-बूटियों का; च--भी;घ्राण:--पघ्राण-शक्ति; मोद-- आनन्द; प्रमोदयो:--विशिष्ट खेल ।

    उनके दोनों नथुने हमारे श्वास के तथा अन्य सभी प्रकार के वायु के जनन-केन्द्र हैं; उनकी प्राण शक्ति से अश्विनीकुमार तथा समस्त प्रकार की जड़ी-बूटियाँ उत्पन्न होती हैं और उनकीश्वास-शक्ति से विभिन्न प्रकार की सुगन्धियाँ उत्पन्न होती हैं।

    रूपाणां तेजसां चश्नुर्दिव: सूर्यस्य चाक्षिणी ।

    कर्णों दिशां च तीर्थानां श्रोत्रमाकाश-शब्दयोः ॥

    ३॥

    रूपाणाम्‌--सभी प्रकार के रूपों के लिए; तेजसाम्‌--सभी प्रकाशमानों का; चक्षु;--आँखें; दिवः--चमकने वाला; सूर्यस्य--सूर्य के; च--भी; अक्षिणी--नेत्र-गोलक; कर्णौ--दो कान; दिशाम्‌--समस्त दिशाओं का; च--तथा; तीर्थानाम्‌--समस्तवेदों का; श्रोत्रमू-- श्रवणेन्द्रि; आकाश---आकाश; शब्दयो:--सारी ध्वनियों का ६उनके नेत्र सभी प्रकार के रूपों के उत्पत्ति-केन्द्र हैं।

    वे चमकते हैं तथा प्रकाशित करते हैं।

    उनकी पुतलियाँ ( नेत्र-गोलक ) सूर्य तथा दैवी नक्षत्रों की भाँति हैं।

    उनके कान सभी दिशाओं मेंसुनते हैं और समस्त वेदों को ग्रहण करनेवाले हैं।

    उनकी श्रवणेन्द्रिय आकाश तथा समस्त प्रकारकी ध्वनियों की उदगम है।

    तद्गात्र॑ वस्तु-साराणां सौभगस्य च भाजनम्‌ ।

    त्वगस्थ स्पर्श-वायोश्व सर्व-मेधस्य चैव हि ॥

    ४॥

    तत्‌--उसका; गात्रम्‌--शरीर; वस्तु-साराणाम्‌ू--सभी वस्तुओं के सार का; सौभगस्य--समस्त शुभ अवसरों का; च--तथा;भाजनम्‌--उत्पादन-दश्षेत्र; त्वक्‌्--त्वचा; अस्य--उसकी; स्पर्श--स्पर्श; वायो: --गतिशील वायु का; च--भी; सर्व--सभीप्रकार के; मेधस्य--यज्ञों का; च-- भी; एव--निश्चय ही; हि--सही-सही ।

    उनके शरीर की ऊपरी सतह सभी वस्तुओं के सार एवं समस्त शुभ अवसरों की जन्म-स्थलीहै।

    उनकी त्वचा गतिशील वायु की भाँति सभी प्रकार के स्पर्श का उद्गम तथा समस्त प्रकार केयज्ञों को सम्पन्न करने का स्थान है।

    रोमाण्युद्धिजज-जातीनां येर्वा यज्ञस्तु सम्भूतः ।

    केश-श्मश्रु-नखान्यस्य शिला-लोहा भ्र-विद्युताम्‌ ॥

    ५॥

    रोमाणि--देह के रोम; उद्धिज॒--वनस्पति; जातीनामू--जातियों का; यैः--जिसके द्वारा; वा--या; यज्ञ:--यज्ञ; तु--लेकिन;सम्भूत:ः--विशेष रूप से सेवित; केश--बाल; श्मश्रु--मूछें; नखानि--नाखून; अस्य--उसका; शिला--पत्थर; लोह-- लौहअयस्कों; अभ्र--बादल; विद्युतामू--बिजली

    उनके शरीर के रोम समस्त प्रकार की वनस्पति के कारण हैं, विशेष रूप से उन वृजश्षों के,जो यज्ञ की सामग्री ( अवयव ) के रूप में काम आते हैं।

    उनके सिर तथा मुख के बाल बादलोंके आगार हैं और उनके नाखून बिजली, पत्थरों तथा लौह अयस्कों के उद्गम-स्थल हैं।

    बाहवो लोक-पालानां प्रायशः क्षेम-कर्मणाम्‌ ॥

    ६॥

    बाहवः--भुजाएँ; लोक-पालानाम्‌ू--लोकों के अधिपति या देवताओं के; प्रायश:--प्राय:; क्षेम-कर्मणाम्‌ू--जन-सामान्य केनेताओं तथा रक्षकों के ।

    भगवान्‌ की भुजाएँ बड़े-बड़े देवताओं तथा जनसामान्य की रक्षा करनेवाले अन्य नायकोंके उदगम-स्थल हैं।

    विक्रमो भूर्भुवः स्वश्व क्षेमस्थ शरणस्य च ।

    सर्व-काम-वरस्यापि हरेश्वरण आस्पदम्‌ ॥

    ७॥

    विक्रम: --अगले चरण; भू: भुवः--अधो तथा ऊर्ध्व लोकों के; स्व:--तथा स्वर्ग का; च-- भी; क्षेमस्थ--हमारे पास जो कुछहै, उसकी सुरक्षा का; शरणस्य--निर्भयता का; च-- भी; सर्व-काम--वह सब, जिसकी हमें आवश्यकता पड़ती है; वरस्य--समस्त वरदानों का; अपि--ठीक-ठीक; हरेः-- भगवान्‌ के; चरण:--चरणकमल; आस्पदम्‌--शरण ।

    भगवान्‌ के अगले डग ऊर्ध्व, अधो तथा स्वर्गलोकों के एवं हमें जो भी चाहिए, उसकेआश्रय हैं।

    उनके चरणकमल सभी प्रकार के भय के लिए सुरक्षा का काम करते हैं।

    अंपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापते: ।

    पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्द-निर्वृतेः ॥

    ८ ॥

    अपाम्‌--जल का; वीर्यस्य--वीर्य का; सर्गस्य--सृष्टि का; पर्जन्यस्थ--वर्षा का; प्रजापते: --स्त्रष्टा का; पुंसः-- भगवान्‌ का;शिश्न: --जननांग; उपस्थ: तु--गुदा-भाग; प्रजाति--जन्म देने के कारण; आनन्द-- आनन्द के; निर्वृतेः--कारण ।

    भगवान्‌ के जननांगों से जल, वीर्य, सृष्टि, वर्षा तथा प्रजापतियों का जन्म होता है।

    उनके जननांग उस आनन्द के कारण-स्वरूप हैं, जिससे जनन के कष्ट का प्रतिकार किया जा सकता है।

    पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद ।

    हिंसाया निर्क्रतेर्मुत्योर्निरयस्य गुदं स्मृत: ॥

    ९॥

    पायु:--गुदा; यमस्य--मृत्यु का नियामक देव; मित्रस्य--मित्र का; परिमोक्षस्य--मलद्वार का; नारद--हे नारद; हिंसाया:--ईर्ष्या का; निर्क्रते: --दुर्भाग्य का; मृत्यो:--मृत्यु का; निरयस्थय--नरक का; गुदम्‌--गुदा; स्मृतः--समझा जाता है।

    हे नारद, भगवान्‌ के विराट रूप का गुदाद्वार मृत्यु के नियामक देव, मित्र, का धाम है औरभगवान्‌ की बड़ी आँत का छोर ईर्ष्या, दुर्भाग्य, मृत्यु, नरक आदि का स्थान माना जाता है।

    पराभूतेरधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिम: ।

    नाड्यो नद-नदीनां च गोत्राणामस्थि-संहति: ॥

    १०॥

    पराभूते: --उद्विग्नता का; अधर्मस्य--अनैतिकता का; तमस:--अज्ञान का; च--तथा; अपि-- भी; पश्चिम:--पीठ; नाड्य:--नसों का; नद--बड़ी नदियों का; नदीनाम्‌ू--नालों का; च--भी; गोत्राणाम्‌--पर्वतों की; अस्थि--हड्डियाँ; संहति: --संकलन

    भगवान्‌ की पीठ समस्त प्रकार की उद्दिग्नता तथा अज्ञान एवं अनैतिकता का स्थान है।

    उनकी नसों से नदियाँ तथा नाले प्रवाहित होते हैं और उनकी हड्डियों पर बड़े-बड़े पहाड़ बने हैं।

    अव्यक्त-रस-सिन्धूनां भूतानां निधनस्य च ।

    उदर॑ विदितं पुंसो हृदयं मनस: पदम्‌ ॥

    ११॥

    अव्यक्त--निर्विशेष स्वरूप; रस-सिन्धूनाम्‌ू--जल के सागरों का; भूतानाम्‌ू-- भौतिक जगत में जन्म लेने वालों का; निधनस्य--संहार का; च-- भी; उदरम्‌--उसका पेट; विदितम्‌--बुद्ध्िमान लोगों द्वारा ज्ञेय; पुंस:--महापुरुष का; हृदयम्‌--हृदय;मनसः--सूक्ष्म शरीर का; पदम्‌--स्थान,पद

    भगवान्‌ का निराकार स्वरूप महासागरों का धाम है और उनका उदर भौतिक दृष्टि से विनष्टजीवों का आश्रय है।

    उनका हृदय जीवों के सूक्ष्म भौतिक शरीरों का धाम है।

    बुद्धिमान लोग इसेइस प्रकार से जानते हैं।

    धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च ।

    विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्थात्मा परायणम्‌ ॥

    १२॥

    धर्मस्य--धार्मिक नियमों का या यमराज का; मम--मेरा; तुभ्यम्‌-तुम्हारा;।

    च--तथा; कुमाराणाम्‌--चारों कुमारों का;भवस्य--शिवजी का; च--तथा; विज्ञानस्थ-दिव्य ज्ञान का; च--भी; सत्त्वस्य--सत्य का; परस्य--महापुरुष की; आत्मा--चेतना; परायणम्‌ू--आश्रित।

    तथापि उस महापुरुष की चेतना धार्मिक सिद्धान्तों का, मेरा, तुम्हारा तथा चारों कुमारों--सनक, सनातन, सनत्कुमार तथा सनन्दन--का निवास-स्थान है।

    यही चेतना सत्य तथा दिव्यज्ञान का वास-स्थान है।

    अहं भवान्‌ भवश्चैव त इमे मुनयोग्रजा: ।

    सुरासुर-नरा नागा: खगा मृग-सरीसूपा: ॥

    १३॥

    गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षो -भूत-गणोरगा: ।

    पशव: पितरः सिद्धा विद्याश्षाश्चारणा द्रुमा: ॥

    १४॥

    अन्ये च विविधा जीवा जल-स्थल-नभौकसः ।

    ग्रहर्क्ष-केतवस्तारास्तडितः स्तनयित्ववः ॥

    १५॥

    सर्व पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत्‌ ।

    तेनेदमावृतं विश्व वितस्तिमधितिष्ठति ॥

    १६॥

    अहम्‌-मैं; भवानू-- आप; भवः--शिवजी; च-- भी; एव--निश्चय ही; ते--वे; इमे--सभी; मुनयः--मुनिगण; अग्र-जा:--तुमसे बड़े; सुर--देवता; असुर--असुर; नरा:--मनुष्य; नागा: --नागलोक के निवासी; खगा:--पक्षी; मृग--पशु;सरीसूपा:--रेंगनेवाले जीव; गन्धर्व-अप्सरस:, यक्षा:, रक्ष:-भूत-गण-उरगा:, पशव:, पितर:, सिद्धा:, विद्याश्रा:, चारणा:--विभिन्न लोकों के सारे वासी; द्रुमा:--वनस्पति जगत; अन्ये--अन्य अनेक; च--भी; विविधा: --विभिन्न प्रकार के; जीवा: --जीव; जल--जल; स्थल-- भूमि; नभ-ओकसः: --आकाश के वासी या पक्षी; ग्रह--ग्रह-नक्षत्र; ऋक्ष --प्रभावशाली नक्षत्र;केतवः--पुच्छलतारा; तारा:--सितारे; तडित: --बिजली; स्तनयित्तव:--बादलों का गर्जन; सर्वम्‌--हर वस्तु; पुरुष: --भगवान्‌; एव इृदमू--निश्चय ही ये सब; भूतम्‌--सूष्ट; भव्यम्‌--जो रचा जायेगा; भवत्‌--जो रचा जा चुका है; च-- भी; यत्‌--जो कुछ; तेन इदम्‌--वह सब उनके कारण है; आवृतम्‌--ढका हुआ; विश्वम्‌--विश्व; वितस्तिमू--एक बालिश्त;अधितिष्ठति--स्थित ।

    मुझसे ( ब्रह्म से ) लेकर तुम तथा भव ( शिव ) तक जितने भी बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुमसेपूर्व हुए हैं, वे, देवतागण, असुरगण, नाग, मनुष्य, पक्षी, पशु, सरीसूप आदि तथा समस्तब्रह्मण्डों की सारी दृश्य-अभिव्यक्तियाँ यथा ग्रह, नक्षत्र, पुच्छलतारे, सितारे, विद्युत, गर्जन तथाविभिन्न लोकों के वासी यथा गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, राक्षस, भूतगण, उरग, पशु, पितर, सिद्ध,विद्याधर, चारण एवं अन्य विविध प्रकार के जीव जिनमें पश्ली, पशु तथा वृक्ष एवं अन्य जो कुछहो सकता है, सभी सम्मिलित हैं--वे सभी भूत, वर्तमान तथा भविष्य सभी कालों में भगवान्‌ केविराट रूप द्वारा आच्छादित हैं यद्यपि वे इन सबों से परे रहते हैं और सदैव एक बालिशएत आकारके रूप में रहते हैं।

    स्व-धिष्ण्य॑ प्रतपन्‌ प्राणो बहिश्न प्रतपत्यसौ ।

    एवं विराजं प्रतपंस्तपत्यन्तर्बहि: पुमान्‌ ॥

    १७॥

    स्व-धिष्ण्यम्‌--विकिरण, प्रकाश; प्रतपन्‌--विस्तार से; प्राण:--प्राण; बहि:ः--बाहर; च-- भी; प्रतपति-- प्रकाशित करता है;असौ--सूर्य; एवम्‌--इस तरह से; विराजम्‌--विराट स्वरूप; प्रतपन्‌--के विस्तार से; तपति--जीवन प्रदान करता है; अन्तः--भीतर से; बहि:ः--बाहर से; पुमान्‌--परम पुरुष।

    सूर्य अपने विकिरणों का विस्तार करके भीतर तथा बाहर प्रकाश वितरित करता है।

    इसीप्रकार से भगवान्‌ अपने विराट रूप का विस्तार करके इस सृष्टि में प्रत्येक वस्तु का भीतर सेतथा बाहर से पालन करते हैं।

    सोमृतस्या भयस्येशो मर्त्यमन्न॑ यदत्यगात्‌ ।

    महिमैष ततो ब्रह्मन्‌ पुरुषस्य दुरत्यय: ॥

    १८॥

    सः--वह ( भगवान्‌ ); अमृतस्य--अमरता का; अभयस्य--निर्भयता का; ईशः--नियन्ता; मर्त्यमू--मरणशील; अन्नम्‌ू--सकामकर्म; यत्‌ू--जो; अत्यगात्‌--पार कर गया है; महिमा--यश; एष:-- उसका; तत:ः--अतएव; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण नारद;पुरुषस्य--परम पुरुष का; दुरत्यय:-- अमाप्य।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अमरता तथा निर्भयता के नियन्त्रक हैं और वे मृत्यु तथा भौतिकजगत के सकाम कर्मों से परे हैं।

    हे नारद, हे ब्राह्मण, इसलिए परम पुरुष के यश का अनुमानलगा पाना कठिन है।

    पादेषु सर्व-भूतानि पुंस: स्थिति-पदो विदुः ।

    अमृतं क्षेममभयं त्रि-मूर््नो धायि मूर्थसु ॥

    १९॥

    पादेषु--एक चौथाई में; सर्व--सभी; भूतानि--जीव; पुंस:--परम पुरुष का; स्थिति-पदः--समस्त भौतिक ऐश्वर्य का आगार;विदु:--तुम जानो; अमृतम्‌-- अमरत्व; क्षेमम्‌ू--सुख, जरा, रोग आदि की चिन्ता से मुक्त; अभयम्‌--निर्भयता; त्रि-मूर्ध्न: --तीन उच्चतर लोकों से परे; अधायि--विद्यमान हैं; मूर्थसु-- भौतिक आवरणों के पार।

    पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अपनी एक चौथाई शक्ति के द्वारा समस्त भौतिक ऐश्वर्य के परमआगार के रूप में जाने जाते हैं, जिसमें सारे जीव रह रहे हैं।

    भगवान का धाम जो तीन उच्चतरलोकों से तथा भौतिक आवरणों से परे स्थित है उस में अमरता, निर्भयता तथा जरा और व्याधिसे चिन्तामुक्ति का नित्य निवास है।

    पादास्त्रयो बहिश्वासन्नप्रजानां य आश्रमा: ।

    अन्तस्त्रि-लोक्यास्त्वपरो गृह-मेधो बृहद्व्रत: ॥

    २०॥

    पादाः त्रयः--भगवान्‌ की शक्ति के तीन चौथाई का जगत; बहि:--इस प्रकार बाहर स्थित; च--तथा; आसनू--थे;अप्रजानाम्‌--जिनका पुनर्जन्म नहीं होता; ये--जो; आश्रमा:--जीवन के स्तर; अन्तः--भीतर; त्रि-लोक्या:--तीनों जगतों का;तु--लेकिन; अपरः:--अन्य; गृह-मेध:--गृहस्थी में आसक्त; अबृहतू-ब्रतः--कठोर ब्रह्मचर्य ब्रत का पालन किये बिना।

    आध्यात्मिक जगत, जो भगवान्‌ की तीन चौथाई शक्ति से बना है, इस भौतिक जगत से परेस्थित है और यह उन लोगों के निमित्त है, जिनका पुनर्जन्म नहीं होता।

    अन्य लोगों को जो गृहस्थजीवन के प्रति आसक्त हैं और ब्रह्मचर्य व्रत का कठोरता से पालन नहीं करते, तीन लोकों केअन्तर्गत रहना ही होता है।

    भक्तिमय सेवा के स्वामी हैं।

    वे समस्त परिस्थितियों में अविद्या तथा विद्या दोनों के परम स्वामीहैं।

    text:सूती विचक्रमे विश्वडः साशनानशने उभे ।

    यदविद्या च विद्या च पुरुषस्तृभयाश्रयः: ॥

    २१॥

    सृती--जीवों की गति; विचक्रमे--होती है; विश्वड़--सर्वव्यापी भगवान्‌; साशन--प्रभुता जतानेवाले कार्यकलाप; अनशने-- भक्ति के कार्यकलाप; उभे--दोनों; यत्‌--जो है; अविद्या--अज्ञान; च-- भी; विद्या-- वास्तविक ज्ञान; च--तथा; पुरुष:-- परम पुरुष; तु--लेकिन; उभय--दोनों के लिए; आश्रय:--स्वामी |

    सर्व-व्यापी भगवान्‌ अपनी शक्तियों के कारण व्यापक अर्थों में नियनत्रण-कार्यों के तथा भक्तिमय सेवा के स्वामी हैं।

    वे समस्त परिस्थितियों में अविद्या तथा विद्या दोनों के परम स्वामी हैं।

    यस्मादण्डं विराड्‌ जज्ञे भूतेन्द्रिय-गुणात्मक: ।

    तद्‌ द्रव्यमत्यगाद्‌ विश्व गोभिः सूर्य इबातपन्‌ ॥

    २२॥

    यस्मात्‌ू--जिससे; अण्डमू--ब्रह्माण्ड; विराट्‌ू--तथा विराट रूप; जज्ञे-- प्रकट हुआ; भूत--तत्त्व; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; गुण-आत्मक:--गुणात्मक; तत्‌ द्रव्यमू--ब्रह्मण्ड तथा विराट रूप आदि; अत्यगात्‌--पार कर गया; विश्वम्‌--समस्त ब्रह्माण्डों को;गोभि:--किरणों से; सूर्य: --सूर्य; इब--सदहृश; आतपन्‌--किरणों तथा ताप को वितरित किया।

    भगवान्‌ से सारे ब्रह्माण्ड तथा समस्त भौतिक तत्त्वों, गुणों एवं इन्द्रियों से युक्त विराट रूपउत्पन्न होते हैं।

    फिर भी वे ऐसे भौतिक प्राकट्यों से उसी तरह पृथक्‌ रहते हैं जिस तरह सूर्यअपनी किरणों तथा ताप से पृथक्‌ रहता है।

    यदास्य नाभ्यान्नलिनादहमासं महात्मन: ।

    नाविदं यज्ञ-सम्भारान्‌ पुरुषावयवानृते ॥

    २३॥

    यदा--जब; अस्य--उसकी; नाभ्यात्‌ू--नाभि से; नलिनातू--कमल के फूल से; अहम्‌--मैंने; आसम्‌--जन्म लिया; महा-आत्मन:--महापुरुष की; न अविदम्‌--नहीं जाना; यज्ञ--यज्ञ की; सम्भारान्‌ू--सामग्री; पुरुष-- भगवान्‌ के; अवयवान्‌--शरीरके अंग; ऋते-- के बिना।

    जब मैं महापुरुष भगवान्‌ ( महा-विष्णु ) के नाभि-कमल पुष्प से उत्पन्न हुआ था, तो मेरेपास यज्ञ-अनुष्ठानों के लिए उस महापुरुष के शारीरिक अंगों के अतिरिक्त अन्य कोई सामग्री नथी।

    तेषु यज्ञस्य पशव: सवनस्पतयः कुशा: ।

    इदं च देव-यजनं कालश्नोरु-गुणान्वित: ॥

    २४॥

    तेषु--ऐसे यज्ञों में; यज्ञस्य--यज्ञ की सम्पन्नता का; पशव:--पशु या यज्ञ की सामग्री; स-बनस्पतय:--फल-फूल सहित;कुशा:--कुश; इृदम्‌--ये सब; च-- भी; देव-यजनम्‌--यज्ञ की वेदी; काल: --उपुयक्त समय; च-- भी; उरुू--अत्यधिक;गुण-अन्वित:--योग्य ।

    यज्ञोत्सवों को सम्पन्न करने के लिए फूल, पत्ती, कुश जैसी यज्ञ-सामग्रियों के साथ-साथयज्ञ-वेदी तथा उपयुक्त समय ( वसन्‍्त ) की भी आवश्यकता होती है।

    वस्तून्योषधय: स्नेहा रस-लोह-मृदो जलम्‌ ।

    ऋतचो यजूंषि सामानि चातुर्ोत्रं च सत्तम ॥

    २५॥

    वस्तूनि--पात्र; ओषधय: --अन्न; स्नेहा:--घी; रस-लोह-मृदः --शहद, सोना तथा मिट्टी; जलमू--जल; ऋच:--ऋग्वेद;यजूंषि--यजुर्वेद; सामानि--सामवेद; चातु:-होत्रमू--यज्ञ सम्पन्न करनेवाले चार व्यक्ति; च--ये सब; सत्तम--हे परम पवित्र |

    यज्ञ की अन्य आवश्यकताएँ हैं--पात्र, अन्न, घी, शहद, सोना, मिट्टी, जल, ऋग्वेद,यजुर्वेद, सामवेद तथा यज्ञ सम्पन्न करानेवाले चार पुरोहित।

    नाम-धेयानि मन्त्राश्न दक्षिणाश्व ब्रतानि च ।

    देवतानुक्रम: कल्प: सड्डूल्पस्तन्त्रमेव च ॥

    २६॥

    नाम-धेयानि--देवाताओं के नामों का आवाहन; मन्त्रा:--देवता-विशेष को अर्पित किये जानेवाले विशिष्ट मन्त्र; च-- भी;दक्षिणा: --पुरस्कार; च--तथा; ब्रतानि--ब्रत; च--तथा; देवता-अनुक्रम:-- एक-एक करके सारे देवता; कल्प:--विशिष्टशास्त्र; सड्डूल्प:--विशिष्ट प्रयोजन; तन्त्रमू--विशिष्ट विधि; एब--वे जैसी हैं; च-- भी ।

    यज्ञ की अन्य आवश्यकताओं में देवताओं का विभिन्न नामों से विशिष्ट मंत्रों तथा दक्षिणा केब्रतों द्वारा आवाहन सम्मिलित हैं।

    ये आवाहन विशिष्ट प्रयोजनों से तथा विशिष्ट विधियों द्वाराविशेष शास्त्र के अनुसार होने चाहिए।

    गतयो मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम्‌ ।

    पुरुषावयवैरेते सम्भारा: सम्भृता मया ॥

    २७॥

    गतय:--चरम लक्ष्य ( विष्णु ) की प्राप्ति; मतय:ः--देवताओं की पूजा; च-- भी; एब--निश्चय ही; प्रायश्चित्तम्‌--पश्चात्ताप;समर्पणम्‌-- अन्तिम रूप से भेंट; पुरुष-- भगवान्‌; अवयवै:-- भगवान्‌ के शरीर के अंगों से; एते--ये; सम्भारा:--अवयव,सामग्री; सम्भूता:--आयोजित; मया--मेरे द्वारा ।

    इस प्रकार मुझे भगवान्‌ के शारीरिक अंगों से ही यज्ञ के लिए इन आवश्यक सामग्रियों कीतथा साज-सामान की व्यवस्था करनी पड़ी।

    देवताओं के नामों के आवाहन से चरम लक्ष्य विष्णुकी क्रमशः प्राप्ति हुई और इस प्रकार प्रायश्चित्त तथा पूर्णाहुति पूरी हुई।

    इति सम्भूत-सम्भार: पुरुषावयवैरहम्‌ ।

    तमेव पुरुष यज्ञं तेनेवायजमी श्ररम्‌ ॥

    २८॥

    इति--इस प्रकार; सम्भृत--सम्पन्न किया गया; सम्भार: --अपने को अच्छी तरह तत्पर किया; पुरुष-- भगवान्‌; अवयवबै:--अंशों द्वारा; अहमू--मैं; तम्‌ एब--उनके; पुरुषम्‌-- भगवान्‌ को; यज्ञम्‌--समस्त यज्ञों के भोक्ता को; तेन एब--उन सबके द्वाराही; अयजम्‌--पूजा की; ईश्वरम्‌--परम नियन्ता की।

    इस प्रकार मैंने यज्ञ के भोक्ता परमेश्वर के शरीर के अंगों से यज्ञ के लिए सारी सामग्री तथासाज-समान उत्पन्न किये और भगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिए मैंने यज्ञ सम्पन्न किया।

    ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव ।

    अयजन्‌ व्यक्तमव्यक्तं पुरुष सु-समाहिता: ॥

    २९॥

    ततः--तत्पश्चात्‌; ते--तुम्हारे; भ्रातर:-- भाई; इमे--ये; प्रजानाम्‌--प्राणियों के; पतय:--स्वामी; नव--नौ; अयजनू--यज्ञकिया; व्यक्तम्‌ू-प्रकट; अव्यक्तम्‌--अप्रकट; पुरुषम्‌--पुरुष को; सु-समाहिता:--उचित अनुष्ठानों से

    हे पुत्र, तत्पश्चात्‌ तुम्हारे नौ भाइयों ने, जो प्रजापति हैं, व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों प्रकार केपुरुषों को प्रसन्न करने के लिए समुचित अनुष्ठानों सहित यज्ञ सम्पन्न किया।

    ततश्च मनव: काले ईजिरे ऋषयोउपरे ।

    पितरो विबुधा दैत्या मनुष्या: क्रतुभिर्विभुम्‌ ॥

    ३०॥

    ततः--तत्पश्चात्‌: च-- भी; मनवः--मानव जाति के पूर्वज, सारे मनु; काले--कालान्तर में; ईजिरे--पूजा की; ऋषय:--ऋषिगण; अपरे--अन्य; पितर:--पुरखे; विबुधा:--विद्वान पंडित; दैत्या:--देवताओं के महान्‌ भक्त; मनुष्या:--मानव जाति;क्रतुभिः विभुम्‌-परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों के द्वारा ।

    तत्पश्चात्‌, मनुष्यों के पिताओं यानी मनुओं, महर्षियों, पितरों, विद्वान्‌ पंडितों, दैत्यों तथा मनुष्यों ने परमेश्वर को प्रसन्न करने के निमित्त यज्ञ सम्पन्न किये।

    नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम्‌ ।

    गृहीत-मायोरु-गुण: सर्गादावगुण: स्वतः ॥

    ३१॥

    नारायणे--नारायण में; भगवति-- भगवान्‌; तत्‌ इदम्‌--ये समस्त भौतिक अभिव्यक्तियाँ; विश्वम्‌--सारे ब्रह्माण्ड; आहितम्‌--स्थित; गृहीत--स्वीकार; माया-- भौतिक शक्तियाँ; उरु-गुण: --अत्यन्त शक्तिमान; सर्ग-आदौ--सृजन, पालन तथा संहार में;अगुण:ः-गुणों के प्रति किसी प्रकार की आसक्ति से रहित; स्वत:ः--स्वयमेव, आत्म-निर्भरतापूर्वक ।

    अतएव सारे ब्रह्मण्डों की भौतिक अभिव्यक्तियाँ उनकी शक्तिशाली भौतिक शक्तियों मेंस्थित हैं, जिन्हें वे स्वतः स्वीकार करते हैं, यद्यपि वे भौतिक गुणों से नित्य निर्लिप्त रहते हैं।

    सृजामि तन्नियुक्तोहं हरो हरति तद्बशः ।

    विश्व॑ं पुरुष-रूपेण परिपाति त्रि-शक्ति-धृक्‌ ॥

    ३२॥

    सृजामि--सृजन करता हूँ; तत्‌--उसके द्वारा; नियुक्त:--नियुक्त होकर; अहम्‌--मैं; हर: --शिवजी; हरति--नाश करता है;ततू-वशः--उनके अधीन; विश्वम्‌--सम्पूर्ण विश्व का; पुरुष-- भगवान्‌; रूपेण--अपने नित्य रूप से; परिपाति--पालन करताहै; त्रि-शक्ति-धृक्‌ू--तीन शक्तियों का नियन्त्रक ।

    उनकी इच्छा से मैं सृजन करता हूँ, शिवजी विनाश करते हैं और स्वयं वे अपने नित्यभगवान्‌ रूप से सबों का पालन करते हैं।

    वे इन तीनों शक्तियों के शक्तिमान नियामक हैं।

    इति तेभिहितं तात यथेदमनुपृच्छसि ।

    नान्यद्धगवत: किज्ञिद्धाव्यं सदसदात्मकम्‌ ॥

    ३३॥

    इति--इस प्रकार; ते--तुमको; अभिहितम्‌--बताया; तात--हे पुत्र; यथा--जिस प्रकार; इदम्‌--ये सब; अनुपृच्छसि--तुमनेपूछा है; न--कभी नहीं; अन्यत्‌--अन्य कुछ; भगवत: -- भगवान्‌ से परे; किल्ञित्‌--कुछ भी; भाव्यम्‌--कभी सोचने योग्य;सत्‌--कारण; असत्‌--कार्य; आत्मकम्‌--के विषय में

    प्रिय पुत्र, तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसको मैंने इस तरह तुम्हें बतला दिया।

    तुम यहनिश्चय जानो कि जो कुछ भी यहाँ है ( चाहे वह कारण हो या कार्य, दोनों ही--आध्यात्मिकतथा भौतिक जगतों में ) वह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ पर आश्रित है।

    न भारती मेड्ग मृषोपलक्ष्यतेन वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गति: ।

    न मे हषीकाणि पतनन्‍्त्यसत्पथेयन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरि: ॥

    ३४॥

    न--नहीं; भारती--कथन; मे--मन; अड्भ--हे नारद; मृषा--असत्य; उपलक्ष्यते-- प्रमाणित होता है; न--कभी नहीं; बै--निश्चय ही; क्वचित्‌--क भी; मे--मेरा; मनस:-- मन को; मृषा--असत्य; गति:-- प्रगति; न--न तो; मे--मेरी; हषीकाणि--इन्द्रियाँ; पतन्ति--पतित होती हैं; असत्‌-पथे--अस्थायी पदार्थ में; यत्‌--क्योंकि; मे--मेरे; हृदा--हृदय में; औत्कण्ठ्यवता--महान्‌ उत्कण्ठा के द्वारा; धृत:--धारण किया; हरि:-- भगवान्‌हे नारद, चूँकि मैंने भगवान्‌ हरि के चरणकमलों को अत्यन्त उत्कण्ठा के साथ पकड़ रखाहै, अतएव मैं जो कुछ कहता हूँ, वह कभी असत्य नहीं होता।

    न तो मेरे मन की प्रगति कभीअवरुद्ध होती है, न ही मेरी इन्द्रियाँ कभी भी पदार्थ की क्षणिक आसक्ति से पतित होती हैं।

    सोहं समाम्नायमयस्तपोमय:प्रजापतीनामभिवन्दितः पति: ।

    आस्थाय योग निपुणं समाहित-स्तं नाध्यगच्छे यत आत्म-सम्भव: ॥

    ३५॥

    सः अहम्‌-मैं स्वयं ( महान्‌ ब्रह्मा ); समाम्नाय-मय:--वैदिक ज्ञान की शिष्य-परम्परा की श्रेणी में; तप:ः-मयः--समस्ततपस्याओं से युक्त; प्रजापतीनाम्‌--जीवों के समस्त पुरखों का; अभिवन्दित: --पूज्य; पति: --स्वामी; आस्थाय--सफलतापूर्वकअभ्यास किया हुआ; योगम्‌--योगशक्ति; निपुणम्‌ू--अत्यन्त पटु; समाहित: --स्वरूप-सिद्ध; तम्‌--परमेश्वर को; न--नहीं;अध्यगच्छम्‌ू--ठीक से समझा; यत:--जिससे; आत्म--स्वयं; सम्भव:--उत्पन्न )।

    यद्यपि मैं वैदिक ज्ञान की शिष्य-परम्परा में दक्ष महान्‌ ब्रह्मा के रूप में विख्यात हूँ औरयद्यपि मैंने सारी तपस्याएँ की हैं तथा यद्यपि मैं योगशक्ति एवं आत्म-साक्षात्कार में पटु हूँ औरमुझे सादर प्रणाम करनेवाले जीवों के महान्‌ प्रजापति मुझे इसी रूप में मानते हैं, तो भी मैं उनभगवान्‌ को नहीं समझ सकता, जो मेरे जन्म के मूल उद्गम हैं।

    नतोअस्म्यहं तच्चरणं समीयुषांभवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमड्रलम्‌ ।

    यो ह्यात्म-माया-विभवं सम पर्यगाद्‌यथा नभः स्वान्तमथापरे कुतः ॥

    ३६॥

    नतः--नमस्कार करता हूँ; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं; तत्‌ू--उस भगवान्‌ के; चरणम्‌--चरणों पर; समीयुषाम्‌--शरणागत का;भवतू-छिदम्‌--जन्म-मरण के चक्र को रोकनेवाला; स्वस्ति-अयनम्‌--समस्त सुख की अनुभूति; सु-मड्गरलम्‌--शुभकल्याणप्रद; यः--जो; हि--निश्चय ही; आत्म-माया--व्यक्तिगत शक्ति; विभवम्‌--शक्ति; स्म--निश्चय ही; पर्यगात्‌ू--अनुमाननहीं लगा सकता; यथा--जिस तरह; नभ: --आकाश; स्व-अन्तम्‌--अपनी सीमा; अथ--अतएव; अपरे-- अन्य; कुतः--किसतरह।

    अतएव मेरे लिए श्रेयस्कर होगा कि मैं उनके चरणों में आत्म-समर्पण कर दूँ, क्योंकिकेवल वे ही मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र से उबार सकते हैं।

    ऐसा आत्म-समर्पण कल्याण प्रदहै और इससे समस्त सुख की अनुभूति होती है।

    आकाश भी अपने विस्तार की सीमाओं काअनुमान नहीं लगा सकता।

    अतएव जब भगवान्‌ ही अपनी सीमाओं का अनुमान लगाने में अक्षमरहते हैं, तो भला दूसरे क्या कर सकते हैं ?

    नाहं न यूयं यहतां गतिं विदु-न॑ बामदेव: किमुतापरे सुरा: ।

    तन्मायया मोहित-बुद्धयस्त्विदंविनिर्मितं चात्म-समं विचक्ष्महे ॥

    ३७॥

    न--न तो; अहम्‌--मैं; न--न तो; यूयम्‌--तुम सब मेरे पुत्र; यत्‌ू--जिसका; ऋताम्‌--वास्तविक; गतिम्‌--गति; विदु:--जानते हैं; न--न तो; वामदेव: --शिवजी; किम्‌-- क्या; उत-- और कुछ; अपरे-- अन्य; सुराः--देवता; तत्‌--उसकी;मायया--माया से; मोहित--मुग्ध; बुद्धयः--ऐसी बुद्धि से; तु--लेकिन; इृदम्‌--यह; विनिर्मितम्‌--जो उत्पन्न किया जाता है;च--भी; आत्म-समम्‌-- अपनी शक्ति के बल पर; विचक्ष्महे -- देखते हैं।

    जब न शिवजी, न तुम और न मैं ही आध्यात्मिक आनन्द की सीमाएँ तय कर सके हैं, तोअन्य देवता इसे कैसे जान सकते हैं ? चूँकि हम सभी भगवान्‌ की माया से मोहित हैं, अतएव हम अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही इस व्यक्त विश्व को देख सकते हैं।

    यस्यावतार-कर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः ।

    न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मे भगवते नमः ॥

    ३८॥

    यस्य--जिसका; अवतार--अवतार; कर्माणि--कार्यकलाप; गायन्ति-- महिमा का गायन करते हैं; हि--निस्सन्देह; अस्मत्‌-आदयः--हम जैसे व्यक्ति; न--नहीं; यमू--जिसको; विदन्ति--जानते हैं; तत्त्वेन--शत-प्रतिशत उसी रूप में; तस्मै-- उन;भगवते-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण को; नम:--नमस्कार करता हूँ।

    हम उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ को सादर प्रणाम करते हैं, जिनके अवतारों तथा कार्य-कलापों का गायन हमारे द्वारा उनके महिमा-मण्डन के लिए किया जाता है, यद्यपि वे अपनेयथार्थ रूप में बड़ी कठिनाई से ही जाने जा सकते हैं।

    स एष आद्यः पुरुष: कल्पे कल्पे सृजत्यज: ।

    आत्मात्मन्यात्मनात्मानं स संयच्छति पाति च ॥

    ३९॥

    सः--वह; एष:--वही; आद्य:--आदि भगवान्‌; पुरुष: --महाविष्णु अवतार, गोविन्द, श्रीकृष्ण के पूर्णाश; कल्पे कल्पे--प्रत्येक कल्प में; सृजति--सृष्टि करता है; अज:--अजन्मा; आत्मा--स्वयं; आत्मनि--स्वयं में; आत्मना--स्वयं से;आत्मानमू--स्वयं को; सः--वह; संयच्छति--लीन कर लेता है; पाति--पालन करता है; च--भी

    वे परम आदि भगवान्‌ श्रीकृष्ण, प्रथम अवतार महाविष्णु के रूप में अपना विस्तार करकेइस व्यक्त जगत की सृष्टि करते हैं, किन्तु वे अजन्मा रहते हैं।

    फिर भी सृष्टि उन्हीं से है, भौतिकपदार्थ तथा अभिव्यक्ति भी वे ही हैं।

    वे कुछ काल तक उनका पालन करते हैं और फिर उन्हेंअपने में समाहित कर लेते हैं।

    विशुद्धं केवल ज्ञानं प्रत्यक्‌ सम्यगवस्थितम्‌ ।

    सत्य॑ पूर्णमनाचमन्तं निर्गुणं नित्यमद्दयम्‌ ॥

    ४०॥

    ऋषे विदन्ति मुनय: प्रशान्तात्मेन्द्रियाशया: ।

    यदा तदेवासत्तकैंस्तिरोधीयेत विप्लुतम्‌ ॥

    ४१॥

    विशुद्धमू-- भौतिक कल्मष के बिना; केवलम्‌--शुद्ध तथा पूर्ण ; ज्ञामम्‌--ज्ञान; प्रत्यक्‌--सर्वव्यापी; सम्यक्‌ --पूर्ण रूप से;अवस्थितम्‌--स्थित; सत्यम्‌--सत्य; पूर्णम्‌-पूर्ण; अनादि--जिसका आदि न हो; अन्तम्‌--जिसका अन्त न हो; निर्गुणम्‌--गुणों से रहित; नित्यमू--शाश्वत; अद्दबम्‌--अद्वितीय; ऋषे--हे ऋषि नारद; विदन्ति--समझ सकते हैं; मुनयः--बड़े-बड़ेविचारक; प्रशान्त--शान्त-चित्त; आत्म--स्वयं; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आशया: --शरणागत; यदा--जब; तत्‌--वह; एव--निश्चयही; असत्‌--न लागू होनेवाला; तर्क: --तर्को द्वारा; तिर:-धीयेत--विलुप्त हो जाता है; विप्लुतम्‌ू--विकृत ।

    भगवान्‌ पवित्र हैं और भौतिक क्लेश के समस्त कल्मष से रहित हैं।

    वे परम सत्य हैं औरसाक्षात्‌ पूर्ण ज्ञान हैं।

    वे सर्वव्यापी, अनादि, अनन्त तथा अद्ढय हैं।

    हे नारद, हे ऋषि, बड़े-बड़े मुनि उन्हें तभी जान सकते हैं, जब वे समस्त भौतिक लालसाओं से मुक्त हो जाते हैं औरअविचलित इन्द्रियों की शरण ग्रहण कर लेते हैं।

    अन्यथा व्यर्थ के तर्कों से सब कुछ विकृत होजाता है और भगवान्‌ हमारी दृष्टि से ओझल हो जाते हैं।

    आद्योवतार: पुरुष: परस्यकाल: स्वभाव: सदसन्मनश्च ।

    द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणिविराट स्वराट्‌ स्थास्नु चरिष्णु भूम्न: ॥

    ४२॥

    आद्यः--प्रथम; अवतार:--अवतार; पुरुष:--कारणार्णवशायी विष्णु; परस्थ-- भगवान्‌ का; काल: --काल, समय;स्वभाव:--आकाश; सत्‌--फल; असत्‌--कारण; मन: -- मन; च-- भी; द्रव्यम्‌--तत्त्व; विकार: -- भौतिक अहंकार; गुण: --प्रकृति के गुण; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; विराट्‌--पूर्ण शरीर; स्व॒राट्‌--गर्भोदकशायी विष्णु; स्थास्नु--अचर; चरिष्णु--चर;भूम्:--भगवान्‌ का |

    कारणार्णवशायी विष्णु ही परमेश्वर के प्रथम अवतार हैं।

    वे नित्य काल, आकाश, कार्य-कारण, मन, तत्त्वों, भौतिक अहंकार, प्रकृति के गुणों, इन्द्रियों, भगवान्‌ के विराट रूप,गर्भोदकशायी विष्णु तथा समस्त चर एवं अचर जीवों के स्वामी हैं।

    अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशादक्षादयो ये भवदादयश्च ।

    स्वर्लोक-पाला: खगलोक-पालानूलोक-पालास्तललोक-पाला: ॥

    ४३॥

    गन्धर्व-विद्याधर-चारणेशाये यक्ष-रक्षोरग-नाग-नाथा: ।

    ये वा ऋषीणामृषभा: पितृणांदैल्येन्द्र-सिद्धेश्वर-दानवेन्द्रा: ।

    अन्ये च ये प्रेत-पिशाच-भूत--कृष्माण्ड-यादो-मृग-पक्ष्यधीशा: ॥

    ४४॥

    यत्किञ्ञ लोके भगवन्महस्व-दोज:-सहस्वद्‌ बलवत्‌ क्षमावत्‌ ।

    श्री-ही-विभूत्यात्मवदद्भुतार्णतत्त्वं परं रूपवदस्व-रूपम्‌ ॥

    ४५॥

    अहम्‌ ( ब्रह्मा )) भव:--शिवजी; यज्ञ:-- भगवान्‌ विष्णु; इमे--ये सब; प्रजा-ईशा:--जीवों के पिता; दक्ष-आदय:--दक्ष,मरीचि, मनु, आदि; ये--जो; भवत्‌--आप; आदय: च--तथा कुमारगण ( सनत्कुमार तथा उनके भाई ); स्वलोॉक-पाला:--स्वर्ग लोक के नायक; खगलोक-पाला:--अन्तरिक्ष यात्रियों के नायक; नूलोक-पाला: --मनुष्यों के नेता; तललोक-पाला:--निम्नलोकों के नायक; गन्धर्व--गन्धर्वलोक-वासी; विद्याधर--विद्याधर लोक के वासी; चारण-ईशा:--चारणों के नेता; ये--तथा अन्य; यक्ष--यक्षों के नेता; रक्ष--राक्षस; उरग--सर्प; नाग-नाथा:--नागलोक ( पृथ्वी के नीचे ) के नायक; ये--अन्य;वा--भी; ऋषीणाम्‌--ऋषियों के; ऋषभा: -- प्रमुख; पितृणाम्‌--पितरों के; दैत्य-इन्द्र--नास्तिकों के नायक; सिद्ध-ईश्वर--सिद्धलोक के नायक ( अन्तरिक्ष पुरुष ); दानव-इन्द्रा:--अनार्यों के नायक; अन्ये--उनके अतिरिक्त; च-- भी; ये--जो; प्रेत--मृतक; पिशाच--दुष्टात्माएँ; भूत--जिन्न; कृष्माण्ड--विशेष प्रकार का पिशाच; याद:--जलचर; मृग--पशु; पश्षि-अधीशा:--विशाल चील्ह; यत्‌--कुछ भी; किम्‌ च--तथा प्रत्येक वस्तु; लोके --संसार में; भगवत्‌-- भगयुक्त या अद्वितीयशक्तिसम्पन्न; महस्वत्‌--विशेष मात्रा का; ओज:-सहस्वत्‌--विशिष्ट मानसिक तथा ऐंद्रिय कौशल; बलवत्‌--बल से सम्पन्न;क्षमावत्‌--क्षमा से युक्त; श्री--सौन्दर्य; ही--पाप कृत्य से लज्जित; विभूति--धन; आत्मवत्‌--बुद्धि-सम्पन्न; अद्भुत--आश्चर्यजनक; अर्गमू--जाति; तत्त्वम्‌ू--विशिष्ट सत्य; परम्‌--दिव्य; रूपवत्‌--रूपवाला; अस्व-रूपम्‌-- भगवत्स्वरूप कानहीं।

    मैं स्वयं (ब्रह्मा), शिवजी, भगवान्‌ विष्णु, दक्ष आदि प्रजापति, तुम (नारद तथा कुमारगण ), इन्द्र तथा चन्द्र जैसे देवता, भूलोक के नायक, भूलोक के नायक, अधोलोक केनायक, गन्धर्वलोक के नायक, विद्याधटलोक के नायक, चारणलोक के नायक, यक्षों, राक्षसोंतथा उरगों के नेता, ऋषि, बड़े-बड़े देत्य, बड़े-बड़े नास्तिक तथा अन्तरिक्ष पुरुष तथा मृतक,प्रेत, शैतान, जिन्न, कृष्माण्ड, बड़े-बड़े जलचर, बड़े-बड़े पशु तथा पक्षी आदि या अन्य शब्दोंमें ऐसी कोई भी वस्तु जो बल, ऐश्वर्य, मानसिक तथा ऐन्द्रिय कौशल, शक्ति, क्षमा, सौन्दर्य,विनप्रता, ऐश्वर्य तथा प्रजनन से युक्त हो, चाहे रूपवान या रूप-विहीन, वे सब भले ही विशिष्टसत्य तथा भगवान्‌ के रूप प्रतीत हों, लेकिन वास्तव में वे वैसे हैं नहीं।

    वे सभी भगवान्‌ कीदिव्य शक्ति के अंशमात्र हैं।

    प्राधान्यतो यानृष आमनन्तिलीलावतारान्‌ पुरुषस्य भूम्न: ।

    आपीयतां कर्ण-कषाय-शोषा-ननुक्रमिष्ये त इमान्‌ सुपेशान्‌ ॥

    ४६॥

    प्राधान्यतः--मुख्यतया; यान्‌ू--वे सब; ऋषे--हे नारद; आमनन्ति--पूजते हैं; लीला--लीलाएँ; अवतारान्‌ू--सभी अवतार;पुरुषस्थ-- भगवान्‌ के; भूम्त:--सर्व श्रेष्ठ, परम; आपीयताम्‌--तुम्हारे द्वारा आस्वादन के लिए; कर्ण--कान; कषाय--मैल;शोषानू-- भाप बन जानेवाला; अनुक्रमिष्ये--एक के बाद एक वर्णन करेंगे; ते--वे; इमान्‌--जिस रूप में वे मेरे हृदय में हैं;सु-पेशान्‌--सुनने में मधुर।

    हे नारद, अब मैं एक-एक करके भगवान्‌ के दिव्य अवतारों का वर्णन करूँगा, जो लीलाअवतार कहलाते हैं।

    उनके कार्यकलापों के सुनने से कान में संचित सारा मैल हट जाता है।

    येलीलाएँ सुनने में मधुर हैं और आस्वाद्य हैं, अतएव ये मेरे हृदय में सदैव बनी रहती हैं।

    TO

    अध्याय सात: विशिष्ट कार्यों के साथ अनुसूचित अवतार

    2.7ब्रह्मेवाचयत्रोद्यतः क्षिति-तलोद्धरणाय बिश्रत्‌क्रौडीं तनुं सकल-यज्ञ-मयीमनन्तः ।

    अन्तर्महार्णव उपागतमादि-दैत्यंत॑ दंष्टयाद्रिमिव वज़ञ-धरो ददार ॥

    १॥

    ब्रह्मा उवाच--ब्रह्माजी ने कहा; यत्र--उस समय ( जब ); उद्यत:ः--तत्पर; क्षिति-तल--पृथ्वीलोक के; उद्धरणाय--उठाने केलिए; बिभ्रतू-- धारण किया; क्रौडीम्‌--लीलाएँ; तनुमू--रूप; सकल--समग्र; यज्ञ-मयीम्‌--यज्ञों से युक्त; अनन्त:-- असीम;अन्तर्‌--ब्रह्मण्ड के भीतर; महा-अर्णवे--विशाल गर्भ सागर में; उपागतमू--पहुँचकर; आदि--प्रथम; दैत्यम्‌--असुर को;तम्‌--उस; दंष्टया--दाढ़ से; अद्विमू--उड़ते पर्वत; इब--सहश; बज्-धर:--वज़ों को धारण करने वाला; ददार--छेद दिया।

    ब्रह्माजी ने कहा : जब अनन्त शक्तिशाली भगवान्‌ ने लीला के रूप में ब्रह्माण्ड के गर्भोदकनामक महासागर में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर उठाने के लिए वराह का रूप धारण किया, तोसबसे पहले एक असुर ( हिरण्याक्ष ) प्रकट हुआ।

    भगवान्‌ ने उसे अपने अगले दाँत से विदीर्णकर दिया।

    जातो रुचेरजनयत्‌ सुयमान्‌ सुयज्ञआकृति-सूनुरमरानथ दक्षिणायाम्‌ ।

    लोक-त्रयस्य महतीमहरद्‌ यदार्तिस्वायम्भुवेन मनुना हरिरित्यनूक्त: ॥

    २॥

    जातः--उत्पन्न हुआ; रुचे:--प्रजापति की पत्नी के; अजनयतू्‌--जन्म हुआ; सुयमान्‌--सुयम इत्यादि; सुयज्ञ:--सुयज्ञ;आकूति-सूनु:--आकूति का पुत्र; अमरानू--देवता; अथ--इस प्रकार; दक्षिणायाम्‌--दक्षिणा नामक पत्नी से; लोक--लोक;त्रयस्य--तीनों का; महतीम्‌--अति विशाल; अहरत्‌--कम किया; यत्‌--वे सब; आर्तिम्‌--क्लेश; स्वायम्भुवेन--स्वायं भुवमनु द्वारा; मनुना--मनुष्यों के पिता द्वारा; हरिः--हरि; इति--इस प्रकार; अनूक्त:--नाम रखा।

    सर्वप्रथम प्रजापति की पत्नी आकूति के गर्भ से सुयज्ञ उत्पन्न हुआ; फिर सुयज्ञ ने अपनी पत्नीदक्षिणा से सुयम इत्यादि देवताओं को उत्पन्न किया।

    सुयज्ञ ने इन्द्रदेव के रूप में तीनों लोकों केमहान्‌ क्लेश कम कर दिए थे, फलतः मानवमात्र के परम पिता स्वायंभुव मनु ने उसे हरि नाम सेपुकारा।

    जज्ञे च कर्दम-गृहे द्विज देवहूत्यांस्त्रीभि: सम॑ नवभिरात्म-गतिं स्व-मात्रे ।

    ऊचे ययात्म-शमलं गुण-सड़-पड़ू-मस्मिन्‌ विधूय कपिलस्य गति प्रपेदे ॥

    ३॥

    जज्ञे--जन्म लिया; च--भी; कर्दम--कर्दम नामक प्रजापति के; गृहे--घर में; द्विज--हे ब्राह्मण; देवहूत्याम्‌--देवहूति के गर्भमें; स्रीभि: --स्त्रियों द्वारा; समम्‌--के साथ में; नवभि:--नौ; आत्म-गतिम्‌--आत्मबोध; स्व-मात्रे-- अपनी माता से; ऊचे--कहा; यया--जिससे; आत्म-शमलमू--आत्मा का आवरण; गुण-सड्र--गुणों के साथ; पड्ढडम्‌--कीचड़; अस्मिन्‌ू--इस जीवनमें; विधूय-- धुल कर; कपिलस्य-- भगवान्‌ कपिल की; गतिम्‌--मुक्ति; प्रपेदे--प्राप्त किया ।

    इसके पश्चात्‌ भगवान्‌ कपिल रूप में अवतरित हुए और प्रजापति ब्राह्मण कर्दम तथा उनकीपतली देवहूति के पुत्र रूप में अन्य नौ स्त्रियों ( बहनों ) के साथ जन्म लिया।

    उन्होंने अपनी माता को आत्म-साक्षात्कार के विषय में शिक्षा दी, जिससे वे उसी जीवन काल में सांसारिक गुणरूपी कीचड़ से विमल हो गईं और उन्होंने मुक्ति प्राप्तकी जो कपिल का मार्ग है।

    अत्रेरपत्यमभिकाडक्षत आह तुष्टोदत्तो मयाहमिति यद्‌ भगवान्‌ स दत्त: ।

    यत्पाद-पड्डज-पराग-पवित्र-देहायोगर्टिद्रमापुरुभयीं यदु-हैहयाद्या: ॥

    ४॥

    अत्रेः --अत्रि मुनि की; अपत्यमू--सन्तान; अभिकाड्क्षत:ः -- आकांक्षा करते हुए; आह--यह कहा; तुष्ट: --प्रसन्न; दत्त:--दियागया; मया--मेरे द्वारा; अहम्‌ू--अपने आपको; इति--इस प्रकार; यत्‌--क्योंकि; भगवान्‌ू-- श्रीभगवान्‌; सः --वह; दत्त: --दत्तात्रेय; यत्‌-पाद--जिसके पाँव; पड्डुज--कमल; पराग--धूलि; पवित्र--पवित्र; देहा:--शरीर; योग--योग की; ऋद्धिम्‌--ऐश्वर्य; आपु:--प्राप्त किया; उभयीम्‌--दोनों लोकों के लिए; यदु--यदुबंश के पिता; हैहय-आद्या:--राजा हैहय इत्यादि।

    अत्रि मुनि ने भगवान्‌ से सन्‍्तान के लिए प्रार्थना की और उन्होंने प्रसन्न होकर स्वयं ही अन्रिके पुत्र दत्तात्रेय ( दत्त, अत्रि का पुत्र ) के रूप में अवतार ग्रहण करने का वचन दिया।

    औरभगवान्‌ के चरणकमलों की कृपा से अनेक यदु, हैहय इत्यादि पवित्र हुए और उन्होंने भौतिकतथा आध्यात्मिक दोनों ही वर प्राप्त किये।

    तप्तं तपो विविध-लोक-सिसृक्षया मेआदी सनात्‌ स्व-तपस: स चतु:-सनोभूत्‌ ।

    प्राक्कल्प-सम्प्लव-विनष्टमिहात्म-तत्त्वंसम्यग्‌ जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन्‌ ॥

    ५॥

    तप्तम्‌--तपस्या करके; तप: --तपस्या; विविध-लोक--विभिन्न लोक; सिसृक्षया--सृष्टि करने की इच्छा से; मे--मेरा;आदौ--सर्वप्रथम; सनात्‌-- श्री भगवान्‌ से; स्व-तपसः --अपनी तपस्या के बल से; सः--वह ( भगवान्‌ ); चतु:ः-सन:--चारोंकुमार जिनके नाम हैं, सनत्कुमार, सनक, सनन्दन तथा सनातन; अभूत्‌--प्रकट हुए; प्राकू--पूर्व; कल्प--सृष्टि; सम्प्लव--बाढ़ में; विनष्टम्‌--नष्ट; इह--इस संसार में; आत्म--आत्मा; तत्त्वमू--सत्य; सम्यक्‌ -- पूर्णतः; जगाद-- प्रकट हुआ; मुनयः--मुनिगण; यत्‌--जिन्होंने; अचक्षत--स्पष्ट देखा; आत्मन्‌--आत्मा ।

    विभिन्न लोकों की उत्पत्ति करने के लिए मुझे तपस्या करनी पड़ी और तब भगवान्‌ ने मुझसेप्रसन्न होकर चारों कुमारों ( सनक, सनत्कुमार, सनन्दन तथा सनातन ) के रूप में अवतार लिया।

    पिछली सृष्टि में आध्यात्मिक सत्य ( आत्मज्ञान ) का विनाश हो चुका था, किन्तु इन चारों कुमारोंने इतने स्पष्ट ढंग से उसकी व्याख्या की कि मुनियों को तुरन्त सत्य का साक्षात्कार हो गया।

    धर्मस्य दक्ष-दुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यानारायणो नर इति स्व-तपः-प्रभाव: ।

    इृष्ठात्मनो भगवतो नियमावलोप॑देव्यस्त्वनड्र-पृतना घटितुं न शेकु: ॥

    ६॥

    धर्मस्य--धर्म की; दक्ष--दक्ष प्रजापति; दुहितरि--पुत्री से; अजनिष्ट--जन्म लिया; मूर्त्याम्‌--मूर्ति नाम की; नारायण: --नारायण; नर:--नर; इति--इस प्रकार; स्व-तप:--अपनी तपस्या की; प्रभाव:--शक्ति; दृष्टा--देखकर; आत्मन:--अपना;भगवतः -- श्रीभगवान्‌ का; नियम-अवलोपम्‌--ब्रत को भंग करके; देव्य:--नैसर्गिक सुन्दरियाँ; तु--लेकिन; अनड्भ-पृतना:--कामदेव के सखा; घटितुम्‌--होने के लिए; न--कभी नहीं; शेकुः--सम्भव हो सका

    उन्होंने अपनी तपस्या की विधि प्रदर्शित करने के लिए धर्म की पत्नी तथा दक्ष की पुत्री मूर्तिके गर्भ से नर तथा नारायण युगल-रूपों में जन्म लिया।

    कामदेव की सखियाँ, स्वर्ग कीसुन्दरियाँ, उनका ब्रत भंग करने आईं, किन्तु वे असफल रहीं, क्योंकि उन्हें भगवान्‌ के शरीर सेअपने समान अनेक सुन्दरियाँ उत्पन्न होती दिखाई पड़ीं।

    काम दहन्ति कृतिनो ननु रोष-दृष्टयारोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्मम्‌ ।

    सोयं यदन्तरमलं प्रविशन्‌ बिभेतिकाम: कर्थ नु पुनरस्य मन: श्रयेत ॥

    ७॥

    'कामम्‌--वासना; दहन्ति--दण्ड देते हैं; कृतिन:--बड़े-बड़े अग्रणी; ननु--लेकिन; रोष-हृष्य्या--क्रोधपूर्ण चितवन से;रोषम्‌-क्रोध; दहन्तम्‌-- अभिभूत; उत--यद्यपि; ते--वे; न--नहीं; दहन्ति--वश में करते हैं; असहाम्‌--दुःसह; सः--वह;अयम्‌--उसको; यत्‌-- क्योंकि; अन्तरम्‌ू-- भीतर; अलमू--फिर भी; प्रविशन्‌-- भीतर जाकर; बिभेति-- भयभीत होता है;काम:--वासना से; कथम्‌-कैसे; नु--वस्तुतः; पुनः--फिर; अस्य--उसका; मनः--मन; श्रयेत--शरण ग्रहण करता है।

    शिव जैसे महापुरुष अपनी रोषपूर्ण चितवन से वासना ( काम ) को जीतकर उसे दण्डित तोकर सकते हैं, किन्तु वे स्वयं अपने क्रोध के अत्यधिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकते।

    ऐसा क्रोधकभी भी उनके ( भगवान्‌ के ) हृदय में प्रवेश नहीं पाता, क्योंकि वे इससे ऊपर हैं।

    तो फिर भलाउनके मन में वासना को आश्रय कैसे प्राप्त हो सकता है?

    विद्धः सपत्युदित-पत्रिभिरन्ति राज्ञोबालोपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि ।

    तस्मा अदाद्‌ श्रुव-गतिं गृणते प्रसन्नोदिव्या: स्तुबन्ति मुनयो यदुपर्यधस्तात्‌ ॥

    ८॥

    विद्ध:--बिंध कर; सपत्नि--सौतेली माता; उदित--कहे गये; पत्रिभिः--तीखे वचनों से; अन्ति--समक्ष; राज्ञ:--राजा के;बाल:--बालक; अपि--यद्यपि; सन्‌--ऐसा होते हुए; उपगत: --ग्रहण कर लिया; तपसे--कठोर तपस्या; वनानि--वन में;तस्मै--अतः; अदातू--पुरस्कार रूप में दिया; श्रुव-गतिम्‌ू-- ध्रुवलोक का मार्ग; गृणते-- प्रार्थना किये जाने पर; प्रसन्न:ः--प्रसन्नहोकर; दिव्या: --उच्चलोक के वासी; स्तुवन्ति--प्रार्थना करते हैं; मुन॒यः--बड़े-बड़े साधु; यत्‌--जिससे; उपरि--ऊपर;अधस्तात्‌ू--नीचे

    राजा की उपस्थिति में सौतली माता के कटु बचनों से अपमानित होकर राजकुमार श्रुव,बालक होते हुए भी, वन में कठिन तपस्या करने लगे और भगवान्‌ ने उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्हें धुवलोक प्रदान किया जिसकी पूजा ऊपर तथा नीचे के लोकों के सभी मुनि करतेहैं।

    यद्वेनमुत्पथ-गतं द्विज-वाक्य-वज्ञ--निष्प्लुष्ट-पौरुष-भगं निरये पतन्तम्‌ ।

    त्रात्वार्थितो जगति पुत्र-पदं च लेभेदुग्धा बसूनि वसुधा सकलानि येन ॥

    ९॥

    यत्‌--जब; वेनम्‌--राजा बेन को; उत्पथ-गतम्‌--पथशभ्रष्ट; द्विज--ब्राह्मणों के; वाक्य--शाप के वचन; वज्ञ--वज्;निष्प्लुप्ट-- भस्म किया जाकर; पौरुष--महान्‌ कार्य; भगम्‌--ऐश्वर्य; निरये--नरक में; पतन्तम्‌--गिरते हुए; त्रात्वा--उद्धारकरके; अर्थित:--प्रार्थित; जगति--संसार में; पुत्र-पदम्‌--पुत्र का स्थान; च-- भी; लेभे--प्राप्त किया; दुग्धा--दोहन किया;वसूनि--उपज; वसुधा-- पृथ्वी; सकलानि--सभी प्रकार की; येन--जिसके द्वारा।

    महाराज वेन कुमार्गगामी हो गया, अत: ब्राह्मणों ने वज़शाप से उसे दण्डित किया।

    इसप्रकार राजा वेन अपने सत्कर्मों तथा ऐश्वर्य के सहित भस्म हो गया और नरक के पथ पर जानेलगा।

    किन्तु भगवान्‌ ने, अपनी अहैतुकी कृपा से, उसके पुत्र पृथु के रूप में जन्म लेकर शापितराजा वेन को नरक से उबारा और पृथ्वी का दोहन करके उससे सभी प्रकार की उपजें प्राप्त कीं।

    नाभेरसावृषभ आस सुदेवि-सूनु-यों वै चचार सम-हग्‌ जड-योग-चर्याम्‌ ।

    यत्‌ पारमहंस्यमृषय: पदमामनन्तिस्वस्थ: प्रशान्त-करणः परिमुक्त-सड्भ: ॥

    १०॥

    नाभे: --महाराज नाभि के द्वारा; असौ--श्री भगवान्‌; ऋषभ:--ऋषभ; आस--हुआ; सुदेवि--सुदेवी का; सूनु:--पुत्र; यः--जिसने; वै--निश्चय ही; चचार--सम्पन्न किया; सम-हक्‌ू--समदर्शी; जड-- भौतिक; योग-चर्याम्‌--योग अभ्यास; यत्‌--जो;पारमहंस्यम्‌--सिद्धि की परम अवस्था; ऋषय:--ऋषिगण; पदम्‌--पद; आमनन्ति-- स्वीकार करते हैं; स्वस्थ:--अपने मेंस्थित; प्रशान्त--स्थिर; करण: --इन्द्रियाँ; परिमुक्त--पूर्णतया मुक्त; सड्र:--भौतिक कल्मष।

    राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के पुत्र के रूप में भगवान्‌ प्रकट हुए और ऋषभ-देव कहलाये।

    अपने मन को समदर्शी बनाने के लिए उन्होंने जड़-योग साधना की।

    इस अवस्था को मुक्ति कासर्वोच्च सिद्ध पद भी माना जाता है, जिसमें मनुष्य अपने में ही स्थित रहकर पूर्ण रूप से सन्तुष्टरहता है।

    सत्रे ममास भगवान्‌ हय-शीरषाथोसाक्षात्‌ स यज्ञ-पुरुषस्तपनीय-वर्ण: ।

    छन्दोमयो मखमयोखिल-देवतात्मावाचो बभूवुरुशती: श्रसतोस्य नस्त: ॥

    ११॥

    सत्रे--यज्ञोत्सव में; मम--मेरे; आस--प्रकट हुए; भगवान्‌ -- श्रीभगवान्‌; हय-शीरषा--घोड़े का सिर धारण करके; अथ--इसप्रकार; साक्षात्‌-- प्रत्यक्ष; सः--वह; यज्ञ-पुरुष:--ऐसा पुरुष जो यज्ञ सम्पन्न करने से प्रसन्न होता है; तपनीय--सुनहले;वर्ण:--रंग; छन्दः-मयः--साक्षात्‌ वैदिक स्तोत्र; मख-मय:--साक्षात्‌ यज्ञ; अखिल--जो कुछ सम्भव है, वह सब; देवता-आत्मा--देवताओं की आत्मा; वाच:--वाणी; बभूवु:--सुने जाते हैं; उशती:--कानों को अत्यन्त मधुर लगने वाले; श्वसत:--साँस लेते हुए; अस्य--इसके ; नस्त:--नथुनों से ।

    मेरे ( ब्रह्मा ) द्वारा सम्पन्न यज्ञ में भगवान्‌ हयग्रीव अवतार के रूप में प्रकट हुए।

    वे साक्षात्‌यज्ञ हैं और उनके शरीर का रंग सुनहला है।

    वे साक्षात्‌ वेद भी हैं और समस्त देवताओं के परमात्मा हैं।

    जब उन्होंने श्रास ली, तो उनके नथुनों से समस्त मधुरवैदिक स्तोत्रों की ध्वनियाँप्रकट हुईं।

    मत्स्यो युगान्त-समये मनुनोपलब्ध:क्षोणीमयो निखिल-जीव-निकाय-केतः ।

    विस्त्रंसितानुरु-भये सलिले मुखान्मेआदाय तत्र विजहार ह वेद-मार्गानू ॥

    १२॥

    मत्स्य:--मत्स्यावतार; युग-अन्त--कल्प के अन्त में; समये--का समय; मनुना-- भावी वैवस्वत मनु द्वारा; उपलब्ध:--हृश्य;क्षोणीमय:--पृथ्वी तक; निखिल--समस्त; जीव--जीवात्माएँ; निकाय-केत:--आश्रय; विस्नंसितान्‌ू--से उद्भूत; उरू--महान; भये-- भय से; सलिले--जल में; मुखात्‌--मुख से; मे--मेरा; आदाय--लाकर; तत्र-- वहाँ; विजहार--उपभोग किया;ह--निश्चय ही; वेद-मार्गानू--समस्त वेदों का

    कल्प के अन्त में भावी वैवस्वत मनु, सत्यव्रत, देखेंगे कि मत्स्य अवतार के रूप मेंश्रीभगवान्‌ पृथ्वी पर्यन्त सभी प्रकार की जीवात्माओं के आश्रय हैं।

    तब कल्प के अन्त में, जलमें मेरे भय से, सभी वेद मेरे ( ब्रह्मा ) मुँह से निकलते हैं तथा भगवान्‌ उस प्रवाह जल का राशिआनन्द उठाते हुए वेदों की रक्षा करते हैं।

    क्षीरोदधावमर-दानव-यूथपाना-मुन्मथ्नताममृत-लब्धय आदि-देवः ।

    पृष्ठेन कच्छप-वपुर्विदधार गोत्रनिद्राक्षणोद्वि-परिवर्त-कषघाण-कण्डू: ॥

    १३॥

    क्षीर--दूध; उदधौ--समुद्र में; अमर--देवता; दानव-- असुर; यूथ-पानाम्‌ू--दोनों दलों के नायकों का; उन्मथ्नतामू--मन्थनकरते हुए; अमृत--अमृत; लब्धय--प्राप्त करने हेतु; आदि-देव: --आदि परमे श्वर; पृष्ठेन--पीठ से; कच्छप--कछुवे का;वपु:--शरीर; विदधार-- धारण किया; गोत्रम्‌--मन्दर पर्वत; निद्राक्षण: --निद्रा में; अद्वि-परिवर्त--पर्वत के घूमने से;कषाण--रगड़ से; कण्डू:--खुजली

    तब आदि भगवान्‌ मथानी की तरह उपयोग में लाऐ जा रहे मन्दराचल पर्वत के लिए घुरी( आश्रय स्थल ) के रूप में कच्छप रूप में अवतरित हुए।

    देवता तथा असुर अमृत निकालने केउद्देश्य से मन्दराचल को मथानी बनाकर क्षीर सागर का मंथन कर रहे थे।

    यह पर्वत आगे-पीछेघूम रहा था जिससे भगवान्‌ कच्छप की पीठ पर रगड़ पड़ रही थी,तब वे अघजगी निद्रा में थेऔर खुजलाहट का अनुभव कर रहे थे, उनकी पीठ रगड़ी जाने लगी।

    त्रै-पिष्टपोरू-भय-हा स नृसिंह-रूपंकृत्वा भ्रमदश्वुकुटि-दंघ्र-कराल-वक्त्रम्‌ ।

    दैत्येन्द्रमाशु गदयाभिपतन्तमारा-दूरौ निपात्य विददार नखैः स्फुरन्तम्‌ ॥

    १४॥

    त्रै-पिष्टप--देवता; उरु-भय-हा--महान्‌ भय को मिटाने वाला; सः--उसने ( श्रीभगवान्‌ ने ); नूसिंह-रूपम्‌--नूसिंह अवतार;कृत्वा--करके; भ्रमत्‌-घूमती हुई; भ्रु-कुटि--भौंहे; दंष्ट--दाँत; कराल--अत्यन्त भयानक; वक्त्रमू-- मुँह; दैत्य-इन्द्रमू--असुरों के राजा को; आशु--तुरन्‍्त; गदया--गदा से; अभिपतन्तम्‌--गिरते हुए; आरातू--पास ही; ऊरौ--जाँघों पर; निपात्य--रखकर; विददार--विदीर्ण कर दिया; नखै:ः--नाखूनों से; स्फुरन्तम्‌ू--ललकारते हुए।

    श्रीभगवान्‌ ने देवताओं के अदम्य भय को मिटाने के लिए नृसिंह-देव का अवतार ग्रहणकिया।

    उन्होंने असुरों के उस राजा ( हिरण्यकशिपु ) को अपनी जाँघों में रखकर अपने नाखूनों सेविदीर्ण कर डाला, जो हाथ में गदा लेकर भगवान्‌ को ललकार रहा था।

    उस समय उनकी भौहेंक्रोध से फड़क रही थीं और दाँतों के कारण उनका मुख भयावना लग रहा था।

    अन्तः-सरस्युरु-बलेन पदे गृहीतोग्राहेण यूथ-पतिरम्बुज-हस्त आर्त: ।

    आहेदमादि-पुरुषाखिल-लोक-नाथतीर्थ-श्रव: श्रवण-मड्गल-नामधेय ॥

    १५॥

    अन्तः-सरसि--नदी के भीतर; उरु-बलेन-- श्रेष्ठ शक्ति से; पदे--पाँव; गृहीत:--पकड़ा गया; ग्राहेण --मगर द्वारा; यूथ-पति:--हाथियों के नायक का; अम्बुज-हस्त:--हाथ में कमल का पुष्प लेकर; आर्त:--अत्यधिक पीड़ित; आह--सम्बोधनकिया; इृदम्‌--इस प्रकार; आदि-पुरुष--आदि भोक्ता; अखिल-लोक-नाथ--ब्रह्माण्ड के स्वामी; तीर्थ-श्रव:--तीर्थस्थल कीभाँति विख्यात; श्रवण-मड़ल--जिसके नाम के सुनने मात्र से सारा कल्याण हो; नाम-धेय--जिसका पवित्र नाम जप के योग्यहै

    अत्यन्त बलशाली मगर के द्वारा नदी के भीतर पाँव पकड़ लिये जाने से हाथियों का नायकअत्यन्त पीड़ित था, उसने अपनी सूँड़ में कमल का फूल लेकर भगवान्‌ को इस प्रकार सम्बोधितकिया, 'हे आदि भोक्ता, ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे उद्धारक, हे तीर्थ के समान विख्यात, आपकेपवित्र नाम जो जपे जाने के योग्य है, उनके श्रवण मात्र से ही सभी लोग पवित्र हो जाते हैं।

    ' श्रुत्वा हरिस्तमरणार्थिनमप्रमेय -श्रक्रायुध: पतगराज-भुजाधिरूढ: ।

    चक्रेण नक्र-वदनं विनिपाट्य तस्मा-डइस्ते प्रगृह्ठा भगवान्‌ कृपयोजहार ॥

    १६॥

    श्रुत्वा--सुनकर; हरि:-- श्री भगवान्‌ ने; तमू--उसको; अरण-अर्धिनम्‌-- सहायता चाहने वाला; अप्रमेय:--अनन्त शक्तिशालीभगवान्‌; चक्र--चक्र; आयुध:--अपने अस्त्र से सज्जित; पतग-राज--पक्षियों के राजा ( गरुड़ ) के; भुज-अधिरूढ: --पंखोंपर आसीन; चक्रेण--चक्र से; नक्र-वदनम्‌--मगर के मुख को; विनिपाट्य--दो खंड करके; तस्मात्‌--मगर के मुख से;हस्ते--हाथ में; प्रगृह्य--सूँड़ पकड़ कर; भगवान्‌ू-- श्रीभगवान्‌ ने; कृपया--अहैतुकी कृपा से; उजहार--उद्धार किया।

    हाथी की पुकार सुनकर श्रीभगवान्‌ को लगा कि उसे उनकी अविलम्ब सहायता कीआवश्यकता है, क्योंकि वह घोर संकट में था।

    तब पक्षिराज गरुड़ के पंखों पर आसीन होकरभगवान्‌ अपने आयुध चक्र से सज्जित होकर वहाँ पर तुरन्त प्रकट हुए।

    उन्होंने हाथी की रक्षाकरने के लिए अपने चक्र से मगर के मुँह के खण्ड-खण्ड कर दिये और हाथी के सूँड़से पकड़कर उसे बाहर निकाल दिया।

    ज्यायान्‌ गुणैरवरजोप्यदितेः सुतानांलोकान्‌ विचक्रम इमान्‌ यदथाधियज्ञ: ।

    क्ष्मां वामनेन जगूहे त्रिपद-च्छलेनयाच्ञामृते पथि चरन्‌ प्रभुभिर्न चाल्य: ॥

    १७॥

    ज्यायान्‌ू--सबसे बड़ा; गुणैः --गुणों में; अवरज:--दिव्य; अपि--यद्यपि वह ऐसा है; अदितेः--अदिति के; सुतानामू--सभीपुत्रों का (जो आदित्य कहे जाते हैं ); लोकान्‌ू--सभी लोक; विचक्रमे--बढ़कर; इमान्‌--इस ब्रह्माण्ड में; यत्‌--जो; अथ--अतः; अधियज्ञ:-- श्री भगवान्‌; क्ष्मम्‌--समस्त पृथ्वी; वामनेन--वामन अवतार से; जगूहे--स्वीकार किया; त्रिपद--तीन पग;छलेन--छल से; याच्ञाम्‌ू--भिक्षा; ऋते--बिना; पथि चरन्‌--सत्य मार्ग पर चलते हुए; प्रभुभि:-- अधिकारियों द्वारा; न--कभी नहीं; चाल्य: --से रहित होना, च्युत |

    भगवान्‌ समस्त भौतिक गुणों से परे होते हुए भी अदिति के पुत्रों ( आदित्यों ) के गुणों सेकहीं बढ़ कर थे।

    वे अदिति के सबसे कनिष्ठ पुत्र के रूप में प्रकट हुए।

    और क्योंकि उन्होंनेब्रह्माण्ड के समस्त ग्रहों को पार किया, अतः वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हैं।

    उन्होंने तीन पग भूमिमाँगने के बहाने से बलि महाराज की सारी भूमि ले ली।

    उन्होंने याचना इसीलिए की क्योंकिबिना याचना के, सन्मार्ग पर चलने वाले से कोई उसकी अधिकृत सम्पत्ति नहीं ले सकता।

    नार्थों बलेरयमुरुक्रम-पाद-शौच-माप: शिखा-धृतवतो विबुधाधिपत्यम्‌ ।

    यो बै प्रतिश्रुतमृते न चिकीर्षदन्य-दात्मानमड़ मनसा हरयेउभिमेने ॥

    १८॥

    न--कभी नहीं; अर्थ: --की तुलना में किसी महत्त्व का; बलेः--शक्ति का; अयम्‌--यह; उरुक्रम-पाद-शौचमू-- श्रीभगवान्‌के पादप्रक्षालन से प्राप्त; आप:--जल; शिखा-धृतवत:--सिर के ऊपर धारण करने वाले का; विबुध-अधिपत्यम्‌ू--देवों केसाप्राज्य के ऊपर प्रमुखता; यः--जो; बै--निश्चय ही; प्रतिश्रुतम्‌--दिया गया वचन; ऋते न--उसके अतिरिक्त; चिकीर्षत्‌--प्रयास किया गया; अन्यत्‌--अन्य कुछ; आत्मानम्‌--अपना शरीर भी; अड़--हे नारद; मनसा--मन से; हरये--हरि के प्रति;अभिमेने--समर्पित

    अपने सिर पर भगवान्‌ के कमल-पाद प्रक्षालित जल को धारण करने वाले बलि महाराज नेअपने गुरु द्वारा मना किये जाने पर भी अपने वचन के अतिरिक्त मन में अन्य कुछ धारण नहींकिया।

    राजा ने भगवान्‌ के तीसरे पग को पूरा करने के लिए अपना शरीर समर्पित कर दिया।

    ऐसे महापुरुष के लिए अपने बाहुबल से जीते गये स्वर्ग के साम्राज्य का भी कोई महत्व नहीं था।

    तुभ्यं च नारद भूशं भगवान्‌ विवृद्ध-भावेन साधुपरितुष्ट उबाच योगम्‌ ।

    ज्ञानं च भागवतमात्म-सतत्त्व-दीपंयद्वासुदेव-शरणा विदुरझसव ॥

    १९॥

    तुभ्यमू--तुमको; च-- भी; नारद--हे नारद; भृशम्‌--अत्यन्त सुन्दर ढंग से; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; विवृद्ध--विकसित;भावेन--दिव्य प्रेम से; साधु--साधु रूप आप; परितुष्ट:--भली-भाँति संतुष्ट; उवाच--कहा; योगम्‌--सेवा; ज्ञानमू--ज्ञान;च--भी; भागवतम्‌-- भगवान्‌ तथा उनकी भक्ति का विज्ञान; आत्म--स्व; स-तत्त्व--समस्त विवरणों सहित; दीपम्‌-- अंधकारमें प्रकाश की भाँति; यत्‌--जो; वासुदेव-शरणा: -- भगवान्‌ वासुदेव के शरणागत; विदु:--उन्‍्हें जानते हैं; अज्लसा-- भली-भाँति; एव--उसी रूप में

    हे नारद, तुम्हें श्रीभगवान्‌ ने अपने हंसावतार में ईश्वर के विज्ञान तथा दिव्य प्रेमभाव केविषय में शिक्षा दी थी।

    वे तुम्हारी अगाध भक्ति से अत्यधिक प्रसन्न हुए थे।

    उन्होंने तुम्हें भक्ति कापूरा विज्ञान भी अत्यन्त सुबोध ढंग से समझाया था, जिसे केवल भगवान्‌ बासुदेव के प्रति पूर्णसमर्पित व्यक्ति ही समझ सकते हैं।

    चक्र च दिश्ष्वविहतं दशसु स्व-तेजोमन्वन्तरेषु मनु-वंश-धरो बिभर्ति ।

    दुष्टेषु राजसु दमं व्यदधात्‌ स्व-कीर्तिसत्ये त्रि-पृष्ठ उशतीं प्रथयंश्चरित्रे: ॥

    २०॥

    अक्रमू-- भगवान्‌ का सुदर्शन चक्र; च--भी; दिक्षु--समस्त दिशाओं में; अविहतम्‌--किसी रोकटोक के बिना; दशसु--दसोंदिशाएँ; स्व-तेज:--व्यक्तिगत पराक्रम; मन्वन्तरेषु--मनु के विभिन्न अवतारों में; मनु-वंश-धरः--मनु-वंश के वंशज रूप में;बिभर्ति--शासन करता है; दुष्टेषु--दुष्टों पर; राजसु--उस प्रकार के राजाओं पर; दमम्‌--उत्पीड़न; व्यदधात्‌ू-- सम्पन्न किया;स्व-कीर्तिमू--अपना यज्ञ; सत्ये--सत्यलोक में; त्रि-पृष्ठे--तीनों लोकों में; उशतीम्‌--महिमामय; प्रथयन्‌--स्थापित; चरित्रै: --गुणों द्वारा)।

    भगवान्‌ ने मनु-अवतार लिया और वे मनुवंश के वंशज बन गये।

    उन्होंने अपने शक्तिशालीसुदर्शन चक्र से दुष्ट राजाओं का दमन करके उन पर शासन किया।

    समस्त परिस्थितियों मेंअबाध रहते हुए, उनका शासन तीनों लोकों तथा ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च सत्यलोक तक फैला थाऔर उनकी महिमामयी कीर्ति से मंडित था।

    धन्वन्तरिश्व॒ भगवान्‌ स्वयमेव कीर्ति-नॉम्ना नृणां पुरु-रुजां रुज आशु हन्ति ।

    यज्ञे च भागममृतायुरवावरुन्धआयुष्य-वेदमनुशास्त्यवतीर्य लोके ॥

    २१॥

    धन्वन्तरि:ः--धन्वन्तरि नामक अवतार; च--तथा; भगवानू-- श्री भगवान्‌; स्वयम्‌ एव--स्वतः ; कीर्ति:--साक्षात्‌ कीर्ति;नाम्ना--नाम से; नृणाम्‌ पुरु-रुजाम्‌--रुग्ण जीवात्माओं के; रुज:--रोग; आशु--तुरन्‍्त; हन्ति--अच्छा करता है; यज्ञे--यज्ञमें; च-- भी; भागम्‌-- भाग, हिस्सा; अमृत-- अमृत; आयु:--उप्र; अव--से; अवरुन्धे--प्राप्त करता है; आयुष्य-- जीवनकाल का; वेदम्‌--ज्ञान; अनुशास्ति--निर्देश करता है; अवतीर्य--अवतार लेकर; लोके--ब्रह्माण्ड में ।

    अपने धन्वन्तरि अवतार में भगवान्‌ अपने साक्षात्‌ यश के द्वारा निरन्तर रुग्ण रहने वालीजीवात्माओं के रोगों का तुरन्त उपचार कर देते हैं और उनके कारण ही सभी देवता दीर्घायु प्राप्तकरते हैं।

    इस प्रकार भगवान्‌ सदा के लिए महिमामण्डित हो जाते हैं।

    उन्होंने यज्ञों में से भी एकअंश निकाल लिया और उन्होंने ही विश्व में ओषधि विज्ञान ( आयुर्वेद ) का प्रवर्तन किया।

    क्षत्रं क्षयाय विधिनोपभूृतं महात्माब्रह्म-ध्रुगुज्झित-पथ्थ नरकार्ति-लिप्सु ।

    उद्धन्वसाववनिकण्टकमुग्र-वीर्य-स्त्रि:-सप्त-कृत्व उरुधार-परश्रधेन ॥

    २२॥

    क्षत्रमू--राजवंश; क्षयाय--घटाने के लिए; विधिना--दैववश; उपभृतम्‌--बढ़े हुए; महात्मा--परम साधु परशुराम के रूप मेंभगवान्‌; ब्रह्म-ध्ुकु--ब्रह्मा का परम सत्य; उज्झित-पथम्‌--जिन्होंने परम सत्य मार्ग को त्याग दिया है; नरक-आर्ति-लिप्सु--नरक की यातना के इच्छुक; उद्धन्ति--बाध्य करते हैं; असौ--वे सब; अवनिकण्टकम्‌--संसार के काँटे; उग्र-वीर्य:--महापराक्रमी ; त्रिः-सप्त--इक्कीस बार; कृत्व:--सम्पन्न; उरुधार--अत्यन्त तीक्षणफ; परश्रधेन--विशाल फरसे से ।

    जब शासक वर्ग जो क्षत्रिय नाम से जाने जाते थे, परम सत्य के पथ से भ्रष्ट हो गये औरनरक भोगने के इच्छुक हो उठे, तो भगवान्‌ ने परशुराम मुनि का अवतार लेकर उन अवांछितराजाओं का उच्छेद किया जो पृथ्वी के लिए कंटक बने हुए थे।

    इस तरह उन्होंने अपने तीक्ष्ण'फरसे के द्वारा क्षत्रियों का इक्कीस बार उच्छेदन किया।

    अस्मत्प्रसाद-सुमुखः: कलया कलेशइश्ष्वाकु-वंश अवतीर्य गुरोर्निंदेशे ।

    तिष्ठन्‌ वनं स-दयितानुज आविवेशयस्मिन्‌ विरुध्य दश-कन्धर आर्तिमार्च्छत्‌ ॥

    २३॥

    अस्मत्‌ू--हम सब पर, ब्रह्मा से लेकर क्षुद्र चीटीं तक; प्रसाद--अहैतुकी कृपा; सुमुख:--अत्यन्त उन्मुख; कलया--अपने अंशोंसहित; कलेश:--समस्त शक्तियों के स्वामी; इक््वाकु--महाराज इशक्ष्वाकु जो सूर्यवंशी थे; वंशे--कुल में; अवतीर्य--जन्मलेकर; गुरो:--पिता अथवा गुरु की; निदेशे--आज्ञा से; तिष्ठन्‌--स्थित होकर; वनम्‌--वन में; स-दयिता-अनुज: -- अपनीपत्नी तथा अनुज सहित; आविवेश --प्रवेश किया; यस्मिन्‌ू--जिसको; विरुध्य--विरोध करके; दश-कन्धर:--दस सिरों वाले,रावण ने; आर्तिम्‌ू-महान्‌ कष्ट; आर्च्छत्‌- प्राप्त किया।

    इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों पर अहैतुकी कृपा के कारण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ अपनेअंशों सहित महाराज इक्ष्वाकु के कुल में अपनी अन्तरंगा शक्ति, सीताजी, के स्वामी के रूप मेंप्रकट हुए।

    वे अपने पिता महाराज दशरथ की आज्ञा से वन गये और अपनी पत्नी तथा छोटे भाईके साथ कई वर्षो तक वहाँ रहे।

    अत्यन्त शक्तिशाली दस सिरों वाले रावण ने उनके प्रति कईवर्षों तक अपराध किया और जिससे अन्ततः वह विनष्ट हो गया।

    यस्मा अदादुदधिरूढ-भयाडु-वेपोमार्ग सपद्यरि-पुरं हरवद्‌ दिधक्षो: ।

    दूरे सुहन्मधित-रोष-सुशोण-दृष्टयातातप्यमान-मकरोरग-नक्र-चक्र: ॥

    २४॥

    यस्मै--जिसको; अदातू-- प्रदान किया; उदधि:--हिन्द महासागर ने; ऊढ-भय-- भयभीत; अड्भ-वेप:--काँपते हुए शरीर से;मार्गभमू-मार्ग; सपदि--तुरन्त; अरि-पुरम्‌--शत्रु की नगरी; हर-वत्‌--हर ( महादेव ) के समान; दिधक्षो:-- भस्म करने के लिएउद्यत; दूरे--दूरी पर; सु-हत्‌--घनिष्ठ मित्र; मधित--पीड़ित; रोष--क्रोध में; सु-शोण--लाल-लाल; दृष्टया--ऐसी दृष्टि से;तातप्यमान--ज्वलित; मकर--मगरमच्छ; उरग--साँप; नक्र--घड़ियाल; चक्र:--वृत्त, गोला ।

    दूरस्थ अपनी घनिष्ठ संगिनी ( सीता ) के वियोग से दुखी श्रीरामचन्द्र ने अपने शत्रु रावण कीनगरी पर हर ( शिव जो स्वर्ग के राज्य को भस्म कर देना चाहते थे ) के जैसे ज्वलित लाल-लालनेत्रों से दृष्टि डाली।

    अपार समुद्र ने उन्हें भय से काँपते हुए मार्ग दे दिया, क्योंकि उसके परिवारके सभी जलचर सदस्य यथा मगरमच्छ, सर्प तथा घड़ियाल भगवान्‌ के रक्त नेत्रों की क्रोधाग्निसे जले जा रहे थे।

    वक्ष:-स्थल-स्पर्श-रुग्न-महेन्द्र-वाह--दन्तैर्विडम्बित-ककुब्जुष ऊढ-हासम्‌ ।

    सद्योसुभि:ः सह विनेष्यति दार-हर्तु-विंस्फूर्जितैर्धनुष उच्चरतोउधिसैन्ये ॥

    २५॥

    वक्ष:-स्थल--छाती; स्पर्श--छूने से; रुग्गन--खंडित; महा-इन्द्र--स्वर्ग के राजा के; वाह--वाहन की; दन्तैः--सूँड़ से;विडम्बित-- प्रकाशित; ककुप्‌-जुष:--सभी दिशाएँ; ऊढ-हासम्‌-- अट्टहास; सद्यः--तुरन्त; असुभिः-- प्राण; सह--सहित;विनेष्यति--मार डाला गया; दार-हर्तु:--स्त्री को चुराने वाला; विस्फूर्जितै:--सिहरन उत्पन्न करने वाले; धनुष:--धनुष के द्वारा;उच्चरतः--तेजी से विचरण करते हुए; अधिसैन्ये--दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच ।

    जब रावण युद्ध कर रहा था, तो उसकी छाती से टकराकर स्वर्ग के राजा इन्द्र के हाथी कीसूँड़ खण्ड-खण्ड हो गई और ये खण्ड बिखरकर चारों दिशाओं को चकाचौंध करने लगे।

    अतःरावण को अपने शौर्य पर गर्व होने लगा और वह अपने को समस्त दिशाओं का विजेता समझकर सैनिकों के बीच इतराने लगा।

    किन्तु भगवान्‌ श्री रामचन्द्र द्वारा अपने धनुष पर टंकार करनेपर उसकी वह प्रसन्नता की हँसी उसकी प्राणवायु के साथ ही सहसा बन्द हो गई।

    भूमे: सुरेतर-वरूथ-विमर्दिताया:क्लेश-व्ययाय कलया सित-कृष्ण-केश: ।

    जात: करिष्यति जनानुपलक्ष्य-मार्ग:कर्माणि चात्म-महिमोपनिबन्धनानि ॥

    २६॥

    भूमेः--सारे संसार का; सुर-इतर--देवताओं के अतिरिक्त अन्य; वरूथ--सैनिक; विमर्दिताया: -- भार से पीड़ित; क्लेश--कष्ट; व्ययाय--कम करने के लिए; कलया--अपने अंश समेत; सित-कृष्ण--न केवल सुन्दर किन्तु कृष्ण भी; केश:--केशोंसे युक्त; जात:-- प्रकट होकर; करिष्यति--करेगा; जन--सामान्य लोग; अनुपलक्ष्य--कम दिखने वाला; मार्ग: --पथ;कर्माणि--कार्य; च-- भी; आत्म-महिमा--स्वयं भगवान्‌ की महिमा के; उपनिबन्धनानि--प्रसंग में

    जब पृथ्वी पर, ईश्वर में श्रद्धा न रखने वाले, परस्पर लड़ने वाले राजाओं का भार बढ़ जाताहै, तो भगवान्‌ संसार का कष्ट कम करने के लिए अपने अंश समेत अवतरित होते हैं।

    वे सुन्दरकाले-काले केशों से युक्त अपने आदि रूप में आते हैं और अपनी दिव्य महिमा के विस्तार केलिए ही अलौकिक कार्य करते हैं।

    कोई उनकी महानता का अनुमान नहीं लगा सकता।

    तोकेन जीव-हरणं यदुलूकि-काया-स्त्रै-मासिकस्थ च पदा शकटोउपवृत्त: ।

    यद्‌ रिड्गभतान्तर-गतेन दिवि-स्पृशोर्वाउन्मूलन त्वितरथार्जुनयोर्न भाव्यम्‌ू ॥

    २७॥

    तोकेन--बालक द्वारा; जीव-हरणम्‌--जीव का वध; यत्‌--जो; उलूकि-काया: -- असुर का विशाल शरीर धारण कर लिया;त्रै-गमासिकस्थ--तीन मास का; च--भी; पदा--पैर से; शकटः अपवृत्त:--छकड़े को पलट दिया; यत्‌--जो; रिड्रता--घुटनेके बल चलते; अन्तर-गतेन--बीच में जाकर; दिवि--आकाश में ऊँचे; स्पृशो:--छूते हुए; वा--अथवा; उन्मूलनम्‌ू--जड़समेत उखाड़ लेना; तु--लेकिन; इतरथा--के अतिरिक्त अन्य; अर्जुनयो:--अर्जुन के दो वृक्षों का; न भाव्यमू--सम्भव न था।

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण के परमेश्वर होने में कोई सन्देह नहीं है, अन्यथा जब वे अभी अपनी माताकी गोद में थे तो पूतना जैसी राक्षती का वध किस तरह कर सकते थे; तीन मास की आयु में हीअपने पाँव से छकड़े को कैसे पलट सकते थे और जब घुटने के बल चल रहे थे तभीगगनचुम्बी अर्जुन वृक्षों के जोड़े को समूल कैसे उखाड़ सकते थे ? ये सभी कार्य स्वयं भगवान्‌के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए असम्भव हैं।

    यद्‌ बै ब्रजे ब्रज-पशून्‌ विषतोय-पीतान्‌पालांस्त्वजीवयदनुग्रह-दृष्टि-वृष्टयया ।

    तच्छुद्धयेडति-विष-बीर्य-विलोल-जिह्-मुच्चाटयिष्यदुरगं विहरन्‌ हृदिन्याम्‌ ॥

    २८ ॥

    यतू--जो; बै--निश्चय ही; ब्रजे--वृन्दावन में; ब्रज-पशून्‌--वहाँ के पशु; विष-तोय--विषाक्त जल; पीतान्‌ू--पीने वालों को;पालानू-ग्वालों को; तु--भी; अजीवयत्‌--जीवित किया; अनुग्रह-दृष्टि--कृपापूर्ण चितवन की; वृष्ठद्या--वृष्टि से; तत्‌--वह;शुद्धये--शुद्धि के लिए; अति--अत्यधिक; विष-वीर्य --अत्यधिक प्रभावशाली विष; विलोल--लपलपाती; जिहम्‌--जीभवाला; उच्चाटयिष्यत्‌--कठोर दण्ड देगा; उरगम्‌--सर्प को; विहरन्‌--विनोद में; हृदिन्याम्‌--नदी में ।

    और जब ग्वालों तथा उनके पशुओं ने यमुना नदी का विषैला जल पी लिया और जबभगवान्‌ ने ( अपने बचपन में ) अपनी कृपादृष्टि से ही उन्हें जीवित कर दिया।

    तब यमुना नदी केजल को शुद्ध करने के लिए ही वे उसमें मानो खेल-खेल में कूद पड़े।

    उन्होंने विषैले कालियनाग को दण्ड दिया जो अपनी लपलपाती जीभ से विष की लहरें निकाल रहा था।

    भला परमेश्वरके अतिरिक्त ऐसा महान्‌ कार्य करने में और कौन समर्थ है?तत्‌ कर्म दिव्यमिव यन्निशि निःशयानंदावाग्निना शुच्चि-वने परिदह्ममाने ।

    उन्नेष्यति ब्रजमतोवसितान्त-कालंनेत्रे पिधाप्य सबलोनधिगम्य-वीर्य: ॥

    २९॥

    तत्‌--उस; कर्म--कार्य; दिव्यमू--अलौकिक; इब--सहृश; यत्‌--जो; निशि--रात्रि में; निःशयानम्‌--चिन्तामुक्त सोते हुए;दाव-अग्निना--वन की अग्नि की लपट से; शुचि-वने--शुष्क वन में; परिदह्ममाने--आग लगाये जाने पर; उन्नेष्यति--उबारलेंगे; ब्रजमू--त्रज के समस्त वासी; अत:--अतः; अवसित--निश्चय ही; अन्त-कालम्‌--जीवन के अन्तिम क्षण; नेत्रे-- आँखोंमें; पिधाप्य--मात्र बन्द करके; स-बलः--बलदेव सहित; अनधिगम्य-- अगाध; वीर्य:--पराक्रम ।

    कालिय नाग को दण्डित करने के दिन ही रात्रि के समय, जब ब्रजभूमि के समस्त वासीनिश्चिन्त होकर सो रहे थे तो सूखी पत्तियों के कारण जंगल में अग्नि धधक उठी और ऐसा लगामानो उनकी मृत्यु अवश्यम्भावी है।

    किन्तु आँखें बन्द करके बलराम जी के साथ भगवान्‌ ने उन सबको बचा लिया।

    ऐसे हैं भगवान्‌ के अलौकिक कार्यकलाप! गृह्ीत यद्‌ यदुपबन्धममुष्य माताशुल्बं सुतस्य न तु तत्‌ तदमुष्य माति ।

    यज्जृम्भतोस्य बदने भुवनानि गोपीसंवीक्ष्य शद्धित-मना: प्रतिबोधितासीत्‌ ॥

    ३०॥

    गृह्लीत--ग्रहण करके; यत्‌ यत्‌--जो भी; उपबन्धम्‌--बाँधने की रस्सियाँ; अमुष्य--उसकी; माता--माता; शुल्बम्‌--रस्सी;सुतस्य--अपने पुत्र का; न--नहीं; तु--तो भी; तत्‌ तत्‌--क्रमशः; अमुष्य--उसका; माति--पर्याप्त था; यत्‌--जो; जूृम्भत:--जम्हाई लेता; अस्य--उसके; वदने--मुख में; भुवनानि--समस्त लोक; गोपी--ग्वालिन, ग्वालबाला; संवीक्ष्य--अतः इसेदेखकर; शद्भित-मना:--सन्देहपूर्ण मन; प्रतिबोधिता--भिन्न प्रकार से आश्वस्त; आसीतू--था |

    जब गोपी ( कृष्ण की धात्री माता यशोदा ) अपने पुत्र के दोनों हाथों को रस्सियों से बाँधनेका प्रयास कर रही थी तो उसने देखा कि रस्सी हमेशा छोटी पड़ जाती थी, अतः हार कर जबउसने प्रयास करना बन्द कर दिया, तब श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया तो माता यशोदा कोमुख के भीतर सारे ब्रह्माण्ड स्थित दिखे।

    यह देख कर उसे सन्देह हुआ, किन्तु उसे अपने पुत्र कीयोग-शक्ति का पता भिन्न तरीके से लगा।

    नन्दं च मोक्ष्यति भयाद्‌ वरुणस्य पाशाद्‌गोपान्‌ बिलेषु पिहितान्‌ मय-सूनुना च ।

    अह्न्यापृतं॑ निशि शयानमतिश्रमेणलोकं विकुण्ठमुपनेष्यति गोकुलं सम ॥

    ३१॥

    नन्दम्‌--नन्द ( कृष्ण के धर्मपिता ) को; च--भी; मोक्ष्यति--बचाता है; भयात्‌-- भय से; वरुणस्य--जल के देव वरुण के;पाशात्‌--चंगुल से; गोपान्‌ू--ग्वालों को; बिलेषु--पर्वत गुफा में; पिहितान्‌--रखे गये; मय-सूनुना--मय के पुत्र द्वारा; च--भी; अह्लि आपृतम्‌--दिन के समय व्यस्तता वश; निशि--रात में; शयानम्‌ू--लेटे हुए; अतिश्रमेण--कठिन श्रम के कारण;लोकम्‌--लोक; विकुण्ठम्‌--वैकुण्ठ; उपनेष्यति-- प्रदान किया; गोकुलम्‌--सर्वोच्च लोक; स्म--निश्चय ही ।

    भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपने पिता नन्द महाराज को वरुण के भय से बचाया और ग्वालबालोंको पर्वत की कन्दरा में से, जहाँ मय के पुत्र ने उन्हें बन्दी कर रखा था, मुक्त किया।

    यही नहीं,भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने वृन्दावन के समस्त वासियों को, जो दिन भर काम में व्यस्त रहकर रात मेंथक कर निश्चिन्त सोते थे, परव्योम में सर्वोच्च लोक का भागी बना दिया।

    ये सारे कार्य दिव्य हैंऔर उनके ईश्वरत्व को सिद्ध करने वाले हैं।

    गोपैर्मखे प्रतिहते ब्रज-विप्लवायदेवेडभिवर्षति पशून्‌ कृपया रिरक्षु: ।

    धर्तोच्छिलीन्ध्रमिव सप्त-दिनानि सप्त-वर्षो महीध्रमनघैक-करे सलीलम्‌ ॥

    ३२॥

    गोपैः--ग्वालों के द्वारा; मखे--स्वर्ग के राजा को बलि प्रदान करने में ; प्रतिहते--बाधा डाले जाने पर; ब्रज-विप्लवाय--श्रीकृष्ण की लीलास्थली ब्रजभूमि को तहस-नहस करने के लिए; देवे--स्वर्ग के राजा द्वारा; अभिवर्षति--मूसलाधार वर्षाकरके; पशून्‌--पशू; कृपया--उन पर अहैतुकी कृपा द्वारा; रिरक्षु:--उन्हें बचाने की इच्छा की; धर्त-- धारण किया हुआ;उच्छिलीन्ध्रमू--छाते की भाँति उठा लिया; इब--सहश; सप्त-दिनानि--लगातार सात दिनों तक; सप्त-वर्ष:--यद्यपि वे सातवर्ष के थे; महीश्रम्‌--गोवर्द्धन पर्वत; अनघ--बिना थके; एक-करे--केवल एक हाथ में; सलीलम्‌ू--खेल-खेल में |

    जब वृन्दावन के ग्वालों ने श्रीकृष्ण के आदेश से स्वर्ग के राजा इन्द्र को आहुति देना बन्दकर दिया तो लगातार सात दिनों तक मूसलाधार वर्षा होती रही और ऐसा लग रहा था मानो सारीब्रजभूमि बह जायेगी।

    तब केवल सात वर्ष की आयु के श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों पर अपनीअहैतुकी कृपावश अपने एक हाथ से गोवर्द्धन पर्वत को उठा लिया।

    ऐसा उन्होंने वर्षा से पशुओंकी रक्षा करने के लिए ही किया।

    क्रीडन्‌ वने निशि निशाकर-रश्मि-गौर्यारासोन्मुख: कल-पदायत-मूर्च्छितेन ।

    उद्दीपित-स्मर-रुजां ब्रज-भूद्वधूनांहर्तुहरिष्यति शिरो धनदानुगस्यथ ॥

    ३३॥

    क्रीडन्‌ू--खेलते हुए; बने--वृन्दावन के जंगल में; निशि--रात्रि में; निशाकर-- चन्द्रमा; रश्मि-गौर्याम्‌ू-- श्वेत चाँदनी का; रास-उन्मुख:--रास करने के लिए इच्छुक; कल-पदायत--मधुर गीतों; मूर्च्छितेन--तथा मूर्च्छना ( मधुर संगीत ) समेत; उद्दीपित--जागृत; स्मर-रूुजाम्‌-कामेच्छा; ब्रज-भूत्‌ू--ब्रजवासी; वधूनाम्‌--पत्नियों का; हर्तु:--हरण करने वाले का; हरिष्यति--काटलेंगे; शिर:ः--सिर; धनद-अनुगस्थ--कुबेर के अनुचर का।

    जब भगवान्‌ वृन्दावनवासियों की पत्नियों में अपने मधुर तथा सुरीले गीतों द्वारा कामोत्तेजनाजागृत करते हुए वृन्दावन में रासलीला में मग्न थे तो कुबेर के एक धनी अनुचर शंखचूड़ नामकराक्षस द्वारा गोपियों का हरण किये जाने पर भगवान्‌ ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

    ये च प्रलम्ब-खर-दर्दुर-केश्यरिष्ट--मल्लेभ-कंस-यवना: कपि-पौण्ड्काद्या: ।

    अन्ये च शाल्व-कुज-बल्वल-दन्तवक्र--सप्तोक्ष-शम्बर-विदूरथ-रुक्मि-मुख्या: ॥

    ३४॥

    ये वा मृधे समिति-शालिन आत्त-चापा:काम्बोज-मत्स्य-कुरु-सूझय-कैकयाद्या: ।

    यास्यन्त्यदर्शनमलं बल-पार्थ-भीम--व्याजाह्येन हरिणा निलयं तदीयम्‌ ॥

    ३५॥

    ये--ये सब; च--पूर्णतः; प्रलम्ब--प्रलम्ब नामक असुर; खर--धेनुकासुर; दर्दुर--बकासुर; केशी --केशी नामक असुर;अरिप्ट--अरिष्टासुर; मलल्‍ल--कंस के दरबार का पहलवान; इभ--कुबलयापीड़; कंस--मथुरा का राजा तथा श्रीकृष्ण कामामा; यवना:--फारस तथा अन्य निकटवर्ती देशों के राजा; कपि--द्विविद; पौण्ड्क-आद्या:--पौण्ड्क इत्यादि; अन्ये-- अन्य;च--भी; शाल्व--राजा शाल्व; कुज--नरकासुर; बल्वल--राजा बल्वल; दन्तवक्र--मृत शिशुपाल का भाई, कृष्ण केप्रतिद्वन्द्दी; सप्तोक्ष--राजा सप्तोक्ष; शम्बर--राजा शम्बर; विदूरथ--राजा विदूरथ; रुक्मि-मुख्या:-- श्रीकृष्ण की प्रथम रानीरुक्मिणी का भाई; ये--ये सब; वा--अथवा; मृधे--युद्ध भूमि में; समिति-शालिन:--अत्यन्त शक्तिमान; आत्त-चापा:--धनुष-बाण से सज्जित; काम्बोज--काम्बोज का राजा; मत्स्य--द्वर्भग का राजा; कुरु-- धृतराष्ट्र के पुत्र; सृज्ञय--राजा सृझ्ञय;कैकय-आद्या:--केकय का राजा तथा अन्य; यास्यन्ति--प्राप्त करेंगे; अदर्शनम्‌--ब्रह्मज्योति से निर्विशेष मिलन; अलम्‌--क्याकहें, बस; बल--बलदेव, श्रीकृष्ण के अग्रज; पार्थ--अर्जुन; भीम--भीम, पाण्डवों में दूसरे; व्याज-आह्॒येन--छट्गा नामों से;हरिणा--हरि के द्वारा; निलयम्‌-- धाम; तदीयम्‌--उसका ।

    प्रलम्ब, धेनुक, बक, केशी, अरिष्ट, चाणूर, मुष्टिक, कुबलयापीड़ हाथी, कंस, यवन,नरकासुर तथा पौण्ड्रक जैसे असुर, शाल्व, द्विविद वानर तथा बल्वल, दन्तवक्र, सातों साँड़,शम्बर, विदूरथ तथा रुक्मी जैसे सिपहसालार तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, सूझ्ञय तथा केकयजैसे वीर योद्धा, साक्षात्‌ हरि से अथवा बलदेव, अर्जुन, भीम आदि नामों की आड़ में स्वयंश्रीभगवान्‌ से भीषण युद्ध करेंगे और इस प्रकार से मारे गये सभी असुर या तो निर्विशेषब्रह्मज्योति को प्राप्त होंगे या वैकुण्ठ लोक में स्थित भगवान्‌ के धाम को प्राप्त होंगे।

    कालेन मीलित-घधियामवमृश्य नृणांस्तोकायुषां स्व-निगमो बत दूर-पारः ।

    आविर्ितस्त्वनुयुगं स हि सत्यवत्यांवबेद-द्रुमं विट-पशो विभजिष्यति सम ॥

    ३६॥

    कालेन--समय के साथ; मीलित-धियाम्‌--कम बुद्धिमान मनुष्यों का; अवमृश्य--कठिनाई को ध्यान में रखते हुए; नृणाम्‌--मनुष्यों की; स्तोक-आयुषाम्‌--अल्पजीबी लोगों का; स्व-निगम:--अपने द्वारा संकलित वैदिक साहित्य; बत--ठीक-ठीक;दूर-पार:--अत्यन्त कठिन; आविर्हित:--के रूप में प्रकट होकर; तु--लेकिन; अनुयुगम्‌--युग के अनुसार; सः--वह( भगवान्‌ ); हि--निश्चय ही; सत्यवत्याम्‌--सत्यवती के गर्भ में; वेद-द्रुमम्‌--वेदरूपी कल्पवृक्ष; विट-पश:--शाखाओं केविभाजन द्वारा; विभजिष्यति--बाँट देगा; स्म--मानो

    सत्यवती के पुत्र ( व्यासदेव ) रूप में अवतार ग्रहण करके स्वयं भगवान्‌ वैदिक साहित्य केसंग्रह को अल्पजीवी अल्पज्ञों के लिए कठिन समझकर वैदिक ज्ञानरूपी वृक्ष को युग विशेष कीपरिस्थितियों के अनुसार शाखाओं में विभाजित कर देंगे।

    देव-द्विषां निगम-वर्त्मनि निष्ठितानांपूर्भिमयेन विहिताभिरदश्य-तूर्भि: ।

    लोकान्‌ घ्नतां मति-विमोहमतिप्रलोभंवेषं विधाय बहु भाष्यत औपधर्म्यम्‌ ॥

    ३७॥

    देव-द्विषामू-- भगवदभक्तों के प्रति ईर्ष्या रखने वालों का; निगम--चारों वेद; वर्त्मनि-- के पथ पर; निष्ठितानामू-- भलीभाँतिस्थिर हुओं का; पूर्मि:--प्रक्षेपास्त्रों ( राकेटों ) से; मयेन--परम विज्ञानी मय द्वारा; विहिताभि:--निर्मित; अदृश्य-तूर्भि:--आकाश में अलक्ष्य; लोकानू--विभिन्न लोक; घ्नताम्‌--संहार करने वालों का; मति-विमोहम्‌--मन का मोह; अतिप्रलोभम्‌--अत्यन्त आकर्षक; वेषम्‌--वेष, पहनावा; विधाय--ऐसा करके; बहु भाष्यते-- अत्यधिक बातें करेगा; औपधर्म्यम्‌--उपधर्म ।

    जब नास्तिक लोग वैदिक विज्ञान में अत्यन्त दक्ष बनकर परम विज्ञानी मय के द्वारा निर्मितश्रेष्ठ प्रक्षेपास्त्रों में चढ़कर आकाश में अदृश्य उड़ते हुए विभिन्न लोकों के वासियों का संहारकरेंगे, तो बुद्ध रूप में अत्यन्त आकर्षक वेष धारण करके भगवान्‌ उनके मस्तिष्कों को मोहलेंगे और उन्हें उपधर्मों का उपदेश देंगे।

    यहालियेष्वपि सतां न हरे: कथा: स्युःपाषण्डिनो द्विज-जना वृषला नृदेवा: ।

    स्वाहा स्वधा वषडिति सम गिरो न यत्रशास्ता भविष्यति कलेभ॑गवान्‌ युगान्ते ॥

    ३८॥

    यहि--जब ऐसा होता है; आलयेषु--घर में; अपि-- भी; सताम्‌--सभ्य व्यक्ति; न--नहीं; हरेः -- श्री भगवान्‌ की; कथा: --कथा; स्युः--होगी; पाषण्डिन:--नास्तिक ; द्विज-जना:--अपने को उच्च जाति ( ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ) वाला घोषितकरने वाले; वृषला:--निम्नवर्गीय शूद्र; नू-देवा:--राज्य के मन्त्री; स्वाहा--यज्ञ-स्तोत्र; स्वधा--यज्ञ की सामग्री; वषघट्‌--यज्ञबेदी; इति--ये सब; स्म--होंगे; गिर: --शब्द; न-- कभी नहीं; यत्र--कहीं भी; शास्ता--दण्ड देने वाला; भविष्यति--प्रकटहोगा; कले:--कलियुग का; भगवान्‌-- श्री भगवान्‌; युग-अन्ते--युग के अन्त में

    तत्पश्चात्‌ कलियुग के अन्त में, जब तथाकथित सनन्‍्तों तथा द्विजों के घरों में भी ईश्वर कीकथा नहीं होगी और जब सरकार की शक्ति निम्न कुल में उत्पन्न शूद्रों अथवा उनसे भी निम्नलोगों में से चुने गये मन्त्रियों के हाथों में चली जाएगी और जब यज्ञ विधि के विषय में कुछ भी,यहाँ तक कि उच्चारण भी, ज्ञात नहीं रहेंगे तो उस समय भगवान्‌ परम दण्डदाता के रूप मेंप्रकट होंगे।

    सर्गे तपोहमृषयो नव ये प्रजेशा:स्थानेथ धर्म-मख-मन्वमरावनीशा: ।

    अत्ते त्वधर्म-हर-मन्यु-वशासुराद्यामाया-विभूतय इमाः पुरु-शक्ति-भाजः ॥

    ३९॥

    सर्गे--सृष्टि के प्रारम्भ में; तप:ः-- तपस्या; अहम्‌--मैं; ऋषय:--ऋषिगण; नव--नौ; ये प्रजेशा: --जो उत्पन्न करने वाले हैं;स्थाने--सृष्टि का पालन करते समय मध्य में; अथ--निश्चय ही; धर्म--धर्म; मख--भगवान्‌ विष्णु; मनु--मनुष्यों के पिता;अमर--देवता जिन पर पालन का भार है; अवनीशा:--विभिन्न लोकों के राजा; अन्ते--अन्त में; तु--लेकिन; अधर्म--अधर्म ;हर--शिव; मन्यु-वश--क्रोध के वशीभूत; असुर-आद्या:--नास्तिक, भक्तों के शत्रु; माया--शक्ति; विभूतय:--शक्तिशालीप्रतिनिधि; इमा:--ये सब; पुरु-शक्ति-भाज:--परम शक्तिशाली भगवान्‌ के ।

    सृष्टि के प्रारम्भ में तपस्या, मैं ( ब्रह्मा ) तथा जन्म देने वाले ऋषि प्रजापति रहते हैं; फिर सृष्टिके पालन के अवसर पर भगवान्‌ विष्णु, नियामक देवता तथा विभिन्न लोकों के राजा रहते हैं।

    किन्तु अन्त काल में अधर्म बचा रहता है और रहते हैं शिव तथा क्रोधी नास्तिक इत्यादि।

    ये सबके सब परम शक्ति रूप भगवान्‌ की शक्ति के विभिन्न प्रतिनिधियों के रूप में रहते हैं।

    विष्णोर्नु वीर्य-गणनां कतमोहतीहयः पार्थिवान्यपि कविर्विममे रजांसि ।

    चस्कम्भ यः स्व-रहसास्खलता त्रि-पृष्ठंयस्मात्‌ त्रि-साम्य-सदनादुरु-कम्पयानम्‌ ॥

    ४०॥

    विष्णो:-- भगवान्‌ विष्णु का; नु--लेकिन; वीर्य--पराक्रम; गणनाम्‌--गिनती में; कतम:--ऐसा कौन है; अर्हति--इसे करनेमें सक्षम है; इहह--इस जगत में; यः--जो; पार्थिवानि-- परमाणु; अपि-- भी; कवि:--महान्‌ विज्ञानी; विममे--गिन पाया होगा;रजांसि--कणों को; चस्कम्भ--पकड़ सके; यः--जो; स्व-रहसा-- अपने पैर से; अस्खलता--बिना रुके; त्रि-पृष्ठम्‌--उच्चतमअन्तरिक्ष; यस्मात्‌--जिससे; त्रि-साम्य--तीनों गुणों का सन्तुलन; सदनात्‌--उस स्थान तक; उरू-कम्पयानम्‌-- अत्यधिकविचलित।

    भला ऐसा कौन है, जो विष्णु के पराक्रम का पूरी तरह से वर्णन कर सके ? यहाँ तक किवह विज्ञानी भी, जिसने ब्रह्माण्ड के समस्त कणों के परमाणुओं की गणना की होगी, वह भीऐसा नहीं कर सकता।

    वे ही एकमात्र ऐसे हैं जिन्होंने त्रिविक्रम के रूप में जब अपने पाँव को बिना प्रयास के सर्वोच्च लोक, सत्यलोक, से भी आगे प्रकृति के तीनों गुणों की साम्यावस्थातक हिलाया था, तो सारा ब्रह्माण्ड हिलने लगा था।

    नान्तं विदाम्यहममी मुनयोग्र-जास्तेमाया-बलस्य पुरुषस्य कुतोवरा ये ।

    गायन्‌ गुणान्‌ दश-शतानन आदि-देवःशेषोधुनापि समवस्यति नास्य पारम्‌ ॥

    ४१॥

    न--कभी नहीं; अन्तमू--अन्त, पार; विदामि--जानता हूँ; अहम्‌--मैं; अमी--तब ये सब; मुनयः --मुनिगण; अग्र-जा:--तुमसे पूर्व उत्पन्न; ते--तुम; माया-बलस्य--सर्वशक्तिमान का; पुरुषस्य--पुरुष ( भगवान्‌ ) का; कुत:--अन्यों की क्‍या बात;अवराः--हमारे बाद उत्पन्न; ये--जो; गायन्‌--गीत के द्वारा; गुणानू--गुण; दश-शत-आननः:--एक सहतस्त्र मुखों वाला;आदि-देवः--भगवान्‌ का प्रथम अवतार; शेष:--शेष नामक; अधुना--आज तक; अपि-- भी; समवस्यति--पा सकता है;न--नहीं; अस्य--उसका; पारमू--पार, अन्त ।

    न तो मैं और न तुमसे पहले उत्पन्न हुए मुनिगण ही सर्वशक्तिमान भगवान्‌ को भलीभाँतिजानते हैं।

    अतः जो हमारे बाद उत्पन्न हुए हैं, वे उनके विषय में क्‍या जानेंगे? यहाँ तक किभगवान्‌ के आदि-अवतार शेष भी, जो अपने एक सहस्त्र मुखों से भगवान्‌ के गुणों का वर्णनकरते रहते हैं, ऐसे ज्ञान का अन्त नहीं पा सके हैं।

    येषां स एब भगवान्‌ दययेदनन्तःसर्वात्मनाश्नित-पदो यदि निर्व्यलीकम्‌ ।

    ते दुस्तरामतितरन्ति च देव-मायांनैषां ममाहमिति धीः श्व-श्रुगाल-भक्ष्ये ॥

    ४२॥

    येषाम्‌--केवल उन्हीं पर; सः--भगवान्‌; एष:--यह; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; दययेत्‌-- दया दिखाता है; अनन्तः--अनन्तशक्तियाँ; सर्व-आत्मना--सभी प्रकार से, बिना हिचक के; आश्रित-पदः--शरणागत जीव; यदि--यदि इस प्रकार शरण मेंआता है; निर्व्यलीकम्‌--बिना बनावट के; ते--केवल वे; दुस्तराम्‌--दुर्लघ्य; अतितरन्ति--पार पा सकते हैं; च--तथा सामग्री;देव-मायाम्‌-- भगवान्‌ की चतुर्दिक्‌ शक्तियाँ; न--नहीं; एषाम्‌--उनका; मम--मेरा; अहम्‌--मैं; इति--इस प्रकार; धी:--चेतना; श्व--कुत्ते; श्रागाल--सियार; भक्ष्ये--भोजन के मामले में।

    किन्तु यदि भगवान्‌ की सेवा में निएछल भाव से आत्मसमर्पण करने से परमेश्वर की किसीपर विशेष कृपा होती है, तो वह माया के दुर्लध्य सागर को पार कर सकता है और भगवान्‌ कोजान पाता है।

    किन्तु जिसे अन्त में कुत्तों तथा सियारों का भोजन बनना है, ऐसे इस शरीर केप्रति जो आसक्त हैं, वे ऐसा नहीं कर सकते।

    वेदाहमड़ परमस्य हि योग-मायांयूयं भवश्च भगवानथ दैत्य-वर्य: ।

    पती मनो: स च मनुश्न तदात्मजाश्वप्राचीनबर्हिऋभुरड्र उत श्रुवश्ष ॥

    ४३॥

    इक्ष्वाकुरैल-मुचुकुन्द-विदेह-गाधि--रघ्वम्बरीष-सगरा गय-नाहुषाद्या: ।

    मान्धात्रलर्क -शतधन्वनु-रन्तिदेवादेवब्रतो बलिरमूर्त्तरयों दिलीप: ॥

    ४४॥

    सौभर्युतड्ड-शिबि-देवल-पिप्पलाद--सारस्वतोद्धव-पराशर- भूरिषेणा: ।

    येन्ये विभीषण-हनूमदुपेन्द्रदत्त--पार्थाप्टिषिण-विदुर-श्रुतदेव-वर्या: ॥

    ४५॥

    बेद--इसे जानो; अहम्‌--मैं; अड्भ--हे नारद; परमस्य--परमेश्वर की; हि--निश्चय ही; योग-मायाम्‌--शक्ति; यूयम्‌--तुम;भव:--शिव; च--तथा; भगवान्‌--परम देव; अथ-- भी; दैत्य-वर्य:--नास्तिक के कुल में उत्पन्न भगवद्भक्त, प्रह्मद महाराज;पतली--शतरूपा; मनो:--मनु की; सः--वह; च-- भी; मनु: --स्वायंभुव; च--तथा; तत्‌-आत्म-जा: च--तथा उनकी सन्तानेंयथा प्रियव्रत, उत्तानपाद, देवहूति इत्यादि; प्राचीनबर्हि:--प्राचीनबर्हिं; ऋभु:--ऋभु; अड्भ:--अंग; उत-- भी; ध्रुव: -- ध्रुव;च--तथा; इक्ष्वाकु:--इक्ष्वाकु; ऐल--ऐल; मुचुकुन्द--मुचुकुन्द; विदेह--महाराज जनक; गाधि--गाधि; रघु--रघु;अम्बरीष--अम्बरीष; सगरा:--सगर; गय--गय; नाहुष--नाहुष; आद्या:--इत्यादि; मान्धातृ--मान्धाता; अलर्क--अलर्क;शतधनु--शतधनु; अनु--अनु; रन्तिदेवा:--रन्तिदेव; देवब्नत: -- भीष्म; बलि:--बलि; अमूर्त्तरय: --अमूर्तरय; दिलीप: --दिलीप; सौभरि--सौ भरि; उतड्डू--उतंक; शिबि--शिबि; देवल--देवल; पिप्पलाद--पिप्पलाद; सारस्वत--सारस्वत; उद्धव--उद्धव; पराशर--पराशर; भूरिषेणा: -- भूरिषेण; ये--जो; अन्ये-- अन्य; विभीषण--विभीषण; हनूमत्‌--हनुमान; उपेन्द्र-दत्त--शुकदेव गोस्वामी; पार्थ--अर्जुन; आए्टिषिण-- आष्टिषेण; विदुर--विदुर; श्रुतदेव-- श्रुतदेव; वर्या:-- अग्रणी, श्रेष्ठ |

    हे नारद, यद्यपि भगवान्‌ की शक्तियाँ अज्ञेय तथा अपरिमेय हैं फिर भी शरणागत जीव होनेके नाते, हम समझ सकते हैं कि वे योगमाया की शक्तियों के द्वारा किस प्रकार कार्य करते हैं।

    इसी प्रकार भगवान्‌ की शक्तियाँ सर्वशक्तिमान शिव, नास्तिक कुल के महान्‌ राजा प्रह्मादमहाराज, स्वायंभुव मनु, उनकी पत्नी शतरूपा, उनके पुत्र तथा पुत्रियाँ यथा प्रियव्रत, उत्तानपाद,आकूति, देवहूति तथा प्रसूति; प्राचीनबर्हि, ऋभु, वेन के पिता अंग, महाराज श्रुव, इक्ष्वाकु, ऐल,मुचुकुन्द, महाराज जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, नाहुष, मान्धाता, अलर्क, शतथनु,अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि, अमूर्त्तर, दिलीप, सौभरि, उतड्ड, शिबि, देवल, पिप्पलाद,सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिषेण, विभीषण, हनुमान, शुकदेव गोस्वामी, अर्जुन, आए;षिण,विदुर, श्रुतदेव इत्यादि को भी ज्ञात हैं।

    ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देव-मायांस्त्री-शूद्र-हूण-शबरा अपि पाप-जीवा: ।

    यद्यद्भुत-क्रम-परायण-शील-शिक्षा-स्तिर्यग्जना अपि किमु श्रुत-धारणा ये ॥

    ४६॥

    ते--ऐसे पुरुष; बै--निस्सन्देह; विदन्ति--जानते हैं; अतितरन्ति--आगे निकल जाते हैं; च-- भी; देव-मायाम्‌-- भगवान्‌ कीआच्छादन शक्ति; स्त्री--यथा स्त्री; शूद्र-- श्रमिक वर्ग के लोग; हूण--पर्वती लोग; शबरा:--साइबेरिया वासी या शूद्रों से भीनिम्न; अपि--यद्यपि; पाप-जीवा: --पापी जीव; यदि--बशर्ते कि; अद्भुत-क्रम--आश्चर्यजनक कार्य करने वाला; परायण--भक्त; शील--आचरण; शिक्षा: --के द्वारा प्रशिक्षित; तिर्यक्‌-जना:--वे भी जो मनुष्य नहीं हैं; अपि-- भी; किम्‌ू-- क्या; उ--कहा जाय; श्रुत-धारणा:--जिन्होंने भगवान्‌ के विषय में सुनकर भगवान्‌ का भाव ग्रहण किया है; ये--वे ।

    पापी जीवन बिताने वाले समुदायों में से भी शरणागत लोग, जैसे स्त्री, शूद्र, हूण तथा शबर,यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी, तत्त्व ज्ञान के विषय में जान सकते हैं।

    वे भगवान्‌ के शुद्ध भक्तोंकी शरण में जाकर तथा भक्तिपथ पर उनके पदचिह्नों का अनुसरण कर माया के चंगुल से छूटजाते हैं।

    शश्वत्‌ प्रशान्तमभयं प्रतिबोध-मात्रशुद्ध समं सदसतः परमात्म-तत्त्वम्‌ ।

    शब्दो न यत्र पुरु-कारकवान्‌ क्रियार्थोमाया परैत्यभिमुखे च विलज्ञमाना ।

    तद्‌ वै पदं भगवतः परमस्य पुंसोब्रह्मेति यद्विदुरजस्त्र-सुखं विशोकम्‌ ॥

    ४७॥

    शश्वत्‌--नित्य; प्रशान्तम्‌-शान्त; अभयम्‌--निर्भय; प्रतिबोध-मात्रमू-- भौतिक चेतना के बिल्कुल विपरीत चेतना; शुद्धम्‌--शुद्ध, मलरहित; समम्‌-- भेद रहित; सत्‌-असत:--कारण तथा कार्य का; परमात्म-तत्त्वम्‌--आदि कारण का नियम; शब्द:--काल्पनिक ध्वनि; न--नहीं; यत्र--जहाँ; पुरु-कारकवान्‌--सकाम कर्म देने वाला; क्रिया-अर्थ:--यज्ञ के हेतु; माया--माया;'परैति-- भग जाती है; अभिमुखे--के समक्ष; च--भी; विलज्ममाना--लज्जित होकर; तत्‌--वह; बै--निश्चय ही; पदम्‌--परमअवस्था; भगवतः-- श्री भगवान्‌ का; परमस्य--परम; पुंसः--पुरुष का; ब्रह्म--ब्रह्म; इति--इस प्रकार; यत्‌--जो; विदु:--विदित; अजस्त्र--असीम; सुखम्‌--सुख; विशोकम्‌--शोकरहित |

    परब्रह्म के रूप में जिसकी अनुभूति की जाती है, वह शोकरहित असीम आनन्द से युक्त है।

    यह निश्चय ही परमभोक्ता भगवान्‌ की अनन्तिम अवस्था है।

    वह शाश्वत रूप में सारे विघ्नों सेरहित तथा निर्भय है।

    वह पदार्थ नहीं, अपितु परिपूर्ण चेतना है।

    वह संदूषण मुक्त है, भेदरहित हैऔर समस्त कारणों तथा कार्यों का आदि कारण है, जिसमें सकाम कर्मो के लिए न तो यज्ञकरना होता है और न जिसके सामने माया ठहरती है।

    सश्नूयड्ः नियम्य यतयो यम-कर्त-हेतिं ।

    जह्यु: स्वराडिव निपान-खनित्रमिन्द्र: ॥

    ४८ ॥

    सश्चूयक्‌--कृत्रिम कल्पना या चिन्तन; नियम्य--वश में करके; यतय:--योगीजन; यम-कर्त-हेतिमू--आध्यात्मिक अनुशीलनकी प्रक्रिया; जह्यु:--त्याग दी जाती है; स्वराट्‌--पूर्णतया स्वतन्त्र; इब--सहृश; निपान--कुँआ; खनित्रम्‌--खोदने का कष्ट;इन्द्र:--वर्षा का नियामक देवता।

    ऐसी दिव्य अवस्था में ज्ञानियों तथा योगियों द्वारा न तो कृत्रिम रीति से मन को वश में करनेकी, न ही कल्पना या चिन्तन की आवश्यकता रहती है।

    मनुष्य ऐसी विधियों को उसी प्रकार त्याग देता है, जिस प्रकार स्वर्ग का राजा इन्द्र क;ुँआ खोदने का कष्ट नहीं उठाता।

    स श्रेयसामपि विभुर्भगवान्‌ यतोस्यभाव-स्वभाव-विहितस्य सतः प्रसिद्धि: ।

    देहे स्व-धातु-विगमेनुविशीर्यमाणेव्योमेव तत्र पुरुषो न विशीर्यतेउज: ॥

    ४९॥

    सः--वह; श्रेयसाम्‌--समस्त कल्याण; अपि-- भी; विभु:--स्वामी; भगवान्‌-- भगवान्‌; यत:-- क्योंकि; अस्य--जीवात्माका; भाव--गुण; स्व-भाव--अपना स्वभाव; विहितस्य--कार्य; सतः--समस्त उत्तम कार्य; प्रसिद्धिः--अन्तिम सफलता;देहे--शरीर के; स्व-धातु--निर्माणक तत्त्व; विगमे--नष्ट होने पर; अनु--बाद में; विशीर्यमाणे -- त्याग दिये जाने पर; व्योम--आकाश; इब--समान; तत्र--तत्पश्चात्‌; पुरुष:--जीवात्मा; न-- कभी नहीं; विशीर्यते--नष्ट होता है; अज:--अजन्मा

    जो कुछ भी कल्याणकर है उसके परम स्वामी भगवान्‌ हैं, क्योंकि जीवात्मा जो भी कर्मकरता है, चाहे वे भौतिक अथवा आध्यात्मिक अवस्था में किये जाँय, सबका फल देनेवाले भगवान्‌ हैं।

    इस प्रकार वह परम उपकारी है।

    प्रत्येक जीवात्मा अजन्मा है, अतः इस भौतिकतत्त्वमय शरीर के विनष्ट होने के बाद भी, यह शरीर उसी प्रकार बना रहता है, जिस प्रकार शरीरके भीतर वायु रह जाती है।

    सोडयं तेडभिहितस्तात भगवान्‌ विश्व-भावन: ।

    समासेन हरेर्नान्‍्यदन्यस्मात्‌ सदसच्च यत्‌ ॥

    ५०॥

    सः--वह; अयम्‌--वही; ते--तुमको; अभिहितः --मेरे द्वारा कहा गया; तात--हे पुत्र; भगवान्‌-- भगवान्‌; विश्व-भावन: --प्रकट ब्राह्मणों के स्त्रष्ठा; समासेन--संक्षेप में; हरे: --हरि अर्थात्‌ भगवान्‌ के बिना; न--कभी नहीं; अन्यत्‌--अन्य कोई वस्तु;अन्यस्मात्‌ू--कारणस्वरूप; सत्‌--प्रकट, गोचर; असत्‌--तात्त्विक; च--तथा; यत्‌--चाहे जो भी हो |

    हे पुत्र, मैंने तुम्हें संक्षेप में प्रकट जगतों के स्त्रष्टा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के विषय मेंबतलाया है।

    गोचर तथा तात्विक अस्तित्व का कारण हरि के अतिरिक्त और कोई नहीं है।

    इदं भागवतं नाम यन्मे भगवतोदितम्‌ ।

    सड्ग्रहोयं विभूतीनां त्वमेतद्‌ विपुली कुरू ॥

    ५१॥

    इदम्‌--यह; भागवतम्‌--तत्त्वज्ञान; नाम--नामक; यत्‌--जो; मे--मुझको; भगवता-- श्रीभगवान्‌ से; उदितम्‌-- प्रकाशित;सड़्ग्रह:--संकलन; अयम्‌--उसकी; विभूतीनाम्‌ू--विभिन्न शक्तियों का; त्वमू--तुम; एतत्‌--यह तत्त्वज्ञान; विपुली--विस्तार;कुरु--करो |

    हे नारद, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने ही मुझे यह श्रीमद्भागवत नामक तत्त्व-ज्ञान संक्षिप्तरूप में बतलाया था और यह उनकी विभिन्न शक्तियों का संग्रह है।

    अब तुम स्वयं इस ज्ञान का विस्तार करो।

    यथा हरौ भगवति नृणां भक्तिर्भविष्यति ।

    सर्वात्मन्यखिलाधारे इति सड्डूल्प्य वर्णय ॥

    ५२॥

    यथा--जिस प्रकार; हरौ--हरि में; भगवति-- भगवान्‌ में; नृणाम्‌-मनुष्यों के लिए; भक्ति:--भक्ति; भविष्यति-- प्रकाशितहो; सर्व-आत्मनि--परम पूर्ण; अखिल-आधारे--सबके आश्रय को; इति--इस प्रकार; सड्जूल्प्य--ह॒ढ़ निश्चय द्वारा; वर्णय--वर्णन करो।

    तुम इस भगवदज्ञान का संकल्पपूर्वक इस विधि से वर्णन करो जिससे कि सभी मनुष्य,प्रत्येक जीव के परमात्मा तथा समस्त शक्तियों के आधारस्वरूप भगवान्‌ हरि के प्रति दिव्य भक्तिउत्पन्न कर सकें।

    मायां वर्णयतोमुष्य ईश्वरस्थानुमोदतः ।

    श्रुण्वतः श्रद्धया नित्यं माययात्मा न मुहाति ॥

    ५३॥

    मायाम्‌ू-बहिरंगा शक्ति के व्यापार; वर्णयत:--वर्णन करते हुए; अमुष्य-- भगवान्‌ के; ईश्वरस्थ-- श्री भगवान्‌ के;अनुमोदत:--इस प्रकार प्रशंसित; श्रृण्वतः--इस प्रकार सुनते हुए; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; नित्यमू--नियमित रूप से; मायया--माया के द्वारा; आत्मा--जीवात्मा; न--कभी नहीं; मुहाति--मोहग्रस्त होता है

    विभिन्न शक्तियों से सम्बंधित भगवान्‌ के कार्यकलापों का वर्णन, उनकी प्रशंसा तथा उनकाश्रवण परमेश्वर की शिक्षाओं के अनुसार होना चाहिए।

    यदि नियमित रूप से श्रद्धा तथासम्मानपूर्वक ऐसा किया जाता है, तो मनुष्य निश्चित रूप से भगवान्‌ की माया से उबर जाता है।

    TO

    अध्याय आठ: राजा परीक्षित के प्रश्न

    2.8राजोवाचब्रह्मणा चोदितो ब्रह्मन्‌ गुणाख्यानेगुणस्थ च ।

    यस्मै यस्मै यथाप्राह नारदो देव-दर्शनः ॥

    १॥

    राजा--राजा ने; उबाच--कहा; ब्रह्मणा-- ब्रह्माजी द्वारा; चोदित:--आदेशित होकर; ब्रह्मनू--हे विद्वान ब्राह्मण ( शुकदेवगोस्वामी ); गुण-आख्याने--दिव्य गुणों के वर्णन में; अगुणस्थ--गुणरहित भगवान्‌ का; च--तथा; यस्मै यस्मै--तथाजिनको; यथा--जितना; प्राह--बतलाया; नारद:--नारद मुनि ने; देव-दर्शन:--वह, जिसका श्रोता देवता के समान उत्तम है।

    राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा कि नारद मुनि ने, जिनके श्रोता श्रीब्रह्मा द्वाराउपदेशित भाग्यशाली श्रोता हैं, किस प्रकार निर्गुण भगवान्‌ के दिव्य गुणों का वर्णन किया औरवे किन-किन के समक्ष बोले ?

    एतद्‌ वेदितुमिच्छामि तत्त्वं तत्त्त-विदां बर ।

    हरेरद्भुत-वीर्यस्थ कथा लोक-सुमड्रला: ॥

    २॥

    एतत्‌--यह; वेदितुम्‌--जानने के लिए; इच्छामि--इच्छा करता हूँ; तत्त्वम्‌--सच्चाई; तत्त्व-विदामू--तत्त्वविदों का; वर--हेश्रेष्ठ; हरेः-- भगवान्‌ का; अद्भुत-वीर्यस्थ--अद्भुत शक्तिसम्पन्न की; कथा:--कथा; लोक--समस्त लोकों के लिए; सु-मड़ुला:--शुभ, कल्याणकर।

    राजा ने कहा: मैं जानने का इच्छुक हूँ।

    अद्भुत शक्तियों से सम्पन्न भगवान्‌ से सम्बन्धितकथाएँ निश्चय ही समस्त लोकों के प्राणियों के लिए शुभ हैं।

    कथयस्व महाभाग यथाहमखिलात्मनि ।

    कृष्णे निवेश्य नि:सड़ं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम्‌ ॥

    ३॥

    कथयस्व--कृपया आगे कहें; महाभाग--हे परमभाग्यशाली; यथा--जिस प्रकार; अहम्‌--मैं; अखिल-आत्मनि--परमात्माको; कृष्णे-- भगवान्‌ श्रीकृष्ण को; निवेश्य--स्थापित करके; निःसड़म्‌-- भौतिक गुणों से मुक्त होकर; मन: --मन; त्यक्ष्ये --परित्याग कर सकूँ; कलेवरम्‌--शरीर |

    हे परम भाग्यशाली शुकदेव गोस्वामी, आप मुझे कृपा करके श्रीमद्भागवत सुनाते रहेंजिससे मैं अपना मन परमात्मा, भगवान्‌ श्रीकृष्ण में स्थिर कर सकूँ और इस प्रकार भौतिक गुणोंसे सर्वथा मुक्त होकर अपना यह शरीर त्याग सकूँ।

    श्रुण्वत: श्रद्धया नित्यं गुणतश्च स्व-चेष्टितम्‌ ।

    कालेन नातिदीर्घेण भगवान्‌ विशते हृदि ॥

    ४॥

    श्रुण्वतः--सुनने वालों का; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; नित्यम्‌ू--नियमित रूप से सदैव; गृणत:-- ग्रहण करते हुए; च-- भी; स्व-चेष्टितम्‌ू--अपने प्रयास से गम्भीरतापूर्वक; कालेन--अवधि; न--नहीं; अति-दीर्घेण --अत्यन्त दीर्घकाल; भगवान्‌ --श्रीभगवान्‌; विशते-- प्रकट होते हैं; हदि--हृदय में

    जो लोग नियमित रूप से श्रीमद्भागवत सुनते हैं और इसे अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक ग्रहणकरते हैं, उनके हृदय में अल्प समय में ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं।

    प्रविष्ट: कर्ण-रन्श्रेण स्वानां भाव-सरोरुहम्‌ ।

    धुनोति शमलं कृष्ण: सलिलस्य यथा शरत्‌ ॥

    ५॥

    प्रविष्ट:--इस प्रकार प्रवेश करके ; कर्ण-रन्श्रेण --कान के छिठ्रों से; स्वानामू--अपनी मुक्त स्थिति के अनुसार; भाव--स्वाभाविक सम्बन्ध; सर:-रुहमू--कमल का फूल; धुनोति--निर्मल करता है; शमलम्‌--काम, क्रोध ईर्ष्या तथा गर्व जैसे गुणको; कृष्ण: --भगवान्‌ श्रीकृष्ण; सलिलस्थ--जलाशय का; यथा--जिस प्रकार; शरत्‌--शरद ऋतु।

    परमात्मा रूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण का शब्दावतार ( अर्थात्‌ श्रीमद्भागवत ) स्वरूप-सिद्धभक्त के हृदय में प्रवेश करता है, उसके भावात्मक सम्बन्ध रूपी कमल-पुष्प पर आसीन होजाता है और इस प्रकार काम, क्रोध तथा लोभ जैसी भौतिक संगति की धूल को धो ड़ालता है।

    इस प्रकार यह गँदले जल के तालाबों में शरद ऋतु की वर्षा के समान कार्य करता है।

    धौतात्मा पुरुष: कृष्ण-पाद-मूलं न मुझ्नति ।

    मुक्त -सर्व-परिक्लेश: पान्थ: स्व-शरणं यथा ॥

    ६॥

    धौत-आत्मा--जिनके हृदय विमल हो चुके हैं; पुरुष:--जीव; कृष्ण-- श्रीभगवान्‌ के ; पाद-मूलम्‌--चरणकमल की शरण;न--नहीं; मुझ्नति--छोड़ता है; मुक्त--मुक्त; सर्व--समस्त; परिक्लेश:--जीवन के समस्त क्लेशों का; पान्थ:--पथिक; स्व-शरणम्‌--अपने धाम में; यथा--जिस प्रकार।

    भगवान्‌ का शुद्ध भक्त, जिस का हृदय एक बार भक्ति के द्वारा स्वच्छ हो चुका होता है, वहश्रीकृष्ण के चरणकमलों का कभी भी परित्याग नहीं करता, क्योंकि उसे भगवान्‌ वैसी ही परमतुष्टि देते हैं, जैसी कि कष्टकारी यात्रा के पश्चात्‌ पथिक को अपने घर में प्राप्त होती है।

    यदधातु-मतो ब्रह्मन्‌ देहारम्भोस्य धातुभि: ।

    यहच्छया हेतुना वा भवन्तो जानते यथा ॥

    ७॥

    यत्‌--क्योंकि; अधातु-मतः-- भौतिक रूप से निर्मित न होते हुए; ब्रह्मनू--हे विद्वान ब्राह्मण; देह-- भौतिक शरीर; आरम्भ: --शुभारम्भ; अस्य--जीव का; धातुभि:--पदार्थ से; यहच्छया--अकारण, आकस्मिक; हेतुना--किसी कारण से; वा--अथवा;भवन्त:--आप; जानते--जैसा जानते हों; यथा--उसी रूप में मुझे बताएँ।

    हे विद्वान ब्राह्मण, दिव्य आत्मा भौतिक देह से पृथक्‌ है।

    तो फिर क्‍या उसे ( आत्मा को )किसी कारणवश या अकस्मात्‌ ही देह की प्राप्ति होती है? आपको यह ज्ञात है, अतः कृपाकरके मुझे समझाइये।

    आसीद्‌ यदुदरात्‌ पद्यं लोक-संस्थान-लक्षणम्‌ ।

    यावानयं वै पुरुष इयत्तावयवै: पृथक्‌ ।

    तावानसाविति प्रोक्त: संस्थाववववानिव ॥

    ८॥

    आसीतू--जिस प्रकार निकला; यत्‌-उदरात्‌--जिसके उदरसे; पढाम्‌--कमल का फूल; लोक--संसार; संस्थान--स्थिति;लक्षणम्‌--लक्षण; यावान्‌ू--जैसा था; अयम्‌ू--यह; बै--निश्चय ही; पुरुष: -- श्रीभगवान्‌; इयत्ता--माप; अवयवै:--अवयवोंसे; पृथक्‌--भिन्न; तावानू--वैसा; असौ--वह; इति प्रोक्त:--ऐसा कहा जाता है; संस्था--स्थिति; अवयववान्‌--अवयव सेयुक्त; इब--सहृश ।

    यदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌, जिनके उदर से कमलनाल बाहर निकला है, अपने माप केअनुसार विराट शरीर धारण कर सकते हैं, तो फिर भगवान्‌ के शरीर तथा सामान्य जीवात्माओंके शरीर में कौन-सा विशेष अन्तर है ?

    अज: सृजति भूतानि भूतात्मा यदनुग्रहात्‌ ।

    दहशे येन तद्ूप॑ नाभि-पदा-समुद्धवः ॥

    ९॥

    अजः--किसी भौतिक साधन के बिना जन्म लेने वाला; सृजति--सृष्टि करता है; भूतानि--जीवों को; भूत-आत्मा--पदार्थ सेबने शरीर वाले; यत्‌--जिसकी;; अनुग्रहात्‌--कृपा से; दहशे--देख सके; येन--जिसके द्वारा; तत्‌-रूपमू--उसके शरीर कास्वरूप; नाभि--नाभि से; पद्य--कमल का फूल; समुद्धवः--उत्पन्न |

    ब्रह्मजी जो किसी भौतिक स्त्रोत से नहीं, अपितु भगवान्‌ की नाभि से प्रकट होने वालेकमल के फूल से उत्पन्न हुए है, वे उन सबके सत्रष्टा हैं, जो इस संसार में जन्म लेते हैं।

    निस्सन्देहभगवत्कृपा से ही ब्रह्माजी भगवान्‌ के स्वरूप को देख सके।

    स चापि यत्र पुरुषो विश्व-स्थित्युद्धवाप्यय: ।

    मुक्त्वात्म-मायां मायेश: शेते सर्व-गुहाशय: ॥

    १०॥

    सः--वह; च-- भी; अपि--जैसाकि वह है; यत्र--जहाँ; पुरुष:-- भगवान्‌; विश्व--संसार; स्थिति--पालन; उद्धव--सृष्टि;अप्यय: --संहार; मुक्त्वा--बिना स्पर्श किये; आत्म-मायाम्‌--अपनी शक्ति; माया-ईश:--समस्त शक्तियों का स्वामी; शेते--शयन करता है; सर्व-गुहा-शयः--प्रत्येक हृदय में स्थित रहने वाला।

    कृपया उन भगवान्‌ के विषय में भी बताएँ जो प्रत्येक हृदय में परमात्मा और समस्त शक्तियों के स्वामी के रूप में स्थित हैं, किन्तु जिनकी बहिरंगा शक्ति उनका स्पर्श तक नहीं कर पाती।

    पुरुषावयवैलॉका: सपाला: पूर्व-कल्पिता: ।

    लोकैरमुष्यावयवा: स-पालैरिति शुश्रुम ॥

    ११॥

    पुरुष--विराट पुरुष; अवयवै:--शरीर के विभिन्न भागों से; लोकाः--समस्त लोक; स-पाला:--अपने-अपने पालकों सहित;पूर्व--पहले; कल्पिता:--विवेचित; लोकै: --विभिन्न लोकों द्वारा; अमुष्य--उसके ; अवयवा: --शरीर के विभिन्न अंग; स-पालै:--पालकों सहित; इति--इस प्रकार; शुश्रुम--मैंने सुना है।

    हे विद्वान ब्राह्मण, इसके पूर्व व्याख्या की गई थी कि ब्रह्माण्ड के समस्त लोक अपने-अपनेलोकपालकों सहित विराट पुरुष के विराट शरीर के विभिन्न अंगों में ही स्थित हैं।

    मैंने भी यहसुना है कि विभिन्न लोकमंडल विराट पुरुष के विराट शरीर में स्थित माने जाते हैं।

    किन्तु उनकीवास्तविक स्थिति क्‍या है ? कृपा करके मुझे समझाइये।

    यावान्‌ कल्पोविकल्पो वा यथा कालोनुमीयते ।

    भूत-भव्य-भवच्छब्द आयुर्मानं च यत्‌ सत: ॥

    १२॥

    यावान्‌--जिस रूप में; कल्प:--सृष्टि तथा प्रलय के बीच की अवधि; विकल्प:--गौण सृष्टि तथा प्रलय; वा--अथवा; यथा--और भी; काल:--समय; अनुमीयते--मापा जाता है; भूत--विगत; भव्य-- भविष्य; भवत्‌--वर्तमान; शब्द: --शब्द; आयु:--जीवन अवधि, उप्र; मानम्‌--माप; च-- भी; यत्‌--जो; सतः--समस्त लोकों के जीवों का।

    कृपा करके सृष्टि तथा प्रलय के मध्य की अवधि (कल्प ) तथा अन्य गौण सृष्टियों(विकल्प ) एवं भूत, वर्तमान तथा भविष्य शब्द से सूचित होने वाले काल के विषय में भी मुझेबताएँ।

    साथ ही, ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों के विभिन्न जीवों यथा देवों, मनुष्यों इत्यादि कीआयु की अवधि के विषय में भी मुझे बताएँ।

    कालस्यानुगतिर्या तु लक्ष्यतेण्वी बृहत्यपि ।

    यावत्यः कर्म-गतयो याहशीद्वधिज-सत्तम ॥

    १३॥

    कालस्य--शाश्रवत काल का; अनुगति:--प्रारम्भ; या तु--वे जिस रूप में; लक्ष्यते--अनुभव किये जाते हैं; अण्बी--लघु;बृहती--विशाल; अपि-- भी; यावत्य:--जब तक; कर्म-गतय: --कर्म के अनुसार; याहशी:--जिस प्रकार की; द्विज-सत्तम--हे ब्राह्मणों में शुद्धतम |

    हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, कृपा करके मुझे काल की लघु तथा दीर्घ अवधियों एवं कर्म की प्रक्रिया केक्रम में काल के शुभारम्भ के विषय में भी बतलाएँ।

    यस्मिन्‌ कर्म-समावायो यथा येनोपगृह्मते ।

    गुणानां गुणिनां चैव परिणाममभीपष्सताम्‌ ॥

    १४॥

    यस्मिनू--जिसमें; कर्म--कर्म; समावाय:--संग्रह; यथा--जहाँ तक; येन-- जिससे; उपगृह्मते--ग्रहण करता है; गुणानाम्‌--विभिन्न गुणों का; गुणिनाम्‌ू--जीवों का; च--भी; एव--निश्चय ही; परिणामम्‌--बची हुई, शेष; अभीप्सताम्‌--आकांक्षाओंका

    इसके आगे आप कृपा करके बताएँ कि किस प्रकार भौतिक प्रकृति के विभिन्न गुणों सेउत्पन्न फलों का आनुपातिक संचय इच्छा करनेवाले जीव पर अपना प्रभाव दिखाते हुए उसेविभिन्न योनियों में--देवताओं से लेकर अत्यन्त क्षुद्र प्राणियों तक को--ऊपर उठाता या नीचेगिराता है।

    भू-पाताल-ककुब्व्योम-ग्रह-नक्षत्र-भूभूताम्‌ ।

    सरित्समुद्र-द्वीपानां सम्भवश्लेतदोकसाम्‌ ॥

    १५॥

    भू-पाताल-- भूमि के नीचे; ककुप्‌--स्वर्ग की चारों दिशाएँ; व्योम--आकाश; ग्रह--लोक, ग्रह; नक्षत्र--तारे; भूभृताम्‌--पर्वतों का; सरित्‌ू--नदी; समुद्र--समुद्र; द्वीपानाम्‌--ट्वीपों की; सम्भव:--उत्पत्ति; च-- भी; एतत्‌--उनके; ओकसाम्‌--निवासियों का।

    हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, कृपा करके यह भी बताएँ कि ब्रह्माण्ड भर के गोलकों, स्वर्ग की चारोंदिशाओं, आकाश, ग्रहों, नक्षत्रों, पर्वतों, नदियों, समुद्रों तथा द्वीपों एवं इन सबके विविध प्रकारके निवासियों की उत्पत्ति किस प्रकार होती है ?

    प्रमाणमण्ड-कोशस्य बाह्या भ्यन्तर-भेदतः ।

    महतां चानुचरितं वर्णाश्रम-विनिश्चयः ॥

    १६॥

    प्रमाणम्‌--विस्तार तथा माप; अण्ड-कोशस्य--ब्रह्मण्ड का; बाह्य --बाहरी अवकाश; अभ्यन्तर--आन्तरिक अवकाश;भेदतः--के विभाग में; महताम्‌--महापुरुषों का; च-- भी; अनुचरितम्‌--चरित्र तथा कार्य ; वर्ण--जातियाँ; आश्रम--जीवनके चार आश्रम; विनिश्चय: --विशेष रूप से वर्णन करें।

    साथ ही कृपा करके ब्रह्माण्ड के बाहरी तथा भीतरी विशिष्ट विभागों, महापुरुषों के चरित्रतथा कार्यों और विभिन्न वर्णों एवं जीवन के चारों आश्रमों के वर्णीकरण का भी वर्णन करें।

    युगानि युग-मानं च धर्मो यश्व युगे युगे।

    अवतारानुचरितं यदाश्चर्यतमं हरे: ॥

    १७॥

    युगानि--विभिन्न युग; युग-मानम्‌-- प्रत्येक युग की अवधि; च--भी; धर्म:--विशिष्ट कार्य; यः च--तथा जो; युगे युगे--प्रत्येक युग में; अवतार--अवतार; अनुचरितम्‌--तथा अवतार के कार्य; यत्‌--जो; आश्चर्यतमम्‌--सर्वाधिक अद्भुत कार्य;हरेः--परमे श्वर का ।

    कृपा करके सृष्टि के विभिन्न युगों तथा उन सबकी अवधियों का वर्णन कीजिये।

    मुझेविभिन्न यूगों में भगवान्‌ के विभिन्न अवतारों के कार्य-कलापों के विषय में भी बताइये।

    नृणां साधारणो धर्म: सविशेषश्च याहशः ।

    श्रेणीनां राजर्षीणां च धर्म: कृच्छेषु जीवताम्‌ ॥

    १८ ॥

    नृणाम्‌--मानव समाज का; साधारण: --सामान्य; धर्म:--धार्मिक सम्पर्क-सूत्र; स-विशेष:ः --विशिष्ट; च-- भी; याहश:--वेजिस प्रकार से हैं; श्रेणीनामू--तीन वर्णो के; राजर्षीणाम्‌--राजर्षि का; च-- भी; धर्म:--धर्म; कृच्छेषु --दुखी अवस्था( विपत्ति ) में; जीवताम्‌--जीवों का |

    कृपा करके यह भी बताइये कि मानव समाज के सामान्य धार्मिक सम्पर्क सूत्र क्या हों, धर्ममें उनके विशिष्ट कर्तव्य क्या हों, सामाजिक व्यवस्था तथा प्रशासकीय राजकीय व्यवस्था कावर्गीकरण तथा विपत्तिग्रस्त मनुष्य का धर्म क्‍या हो ?

    तत्त्वानां परिसड्ख्यानं लक्षणं हेतु-लक्षणम्‌ ।

    पुरुषाराधन-विधियोंगस्याध्यात्मिकस्थ च ॥

    १९॥

    तत्त्वानामू--सृष्टि को निर्मित करने वाले तत्त्वों की; परिसड्ख्यानम्‌-संख्या का; लक्षणम्‌--लक्षण; हेतु-लक्षणम्‌--कारणों केलक्षण; पुरुष-- भगवान्‌ के; आराधन-- भक्ति का; विधि: --विधि-विधान; योगस्य--योग पद्धति का; अध्यात्मिकस्य-- भक्तितक पहुँचाने वाली आध्यात्मिक विधियाँ; च--भी |

    कृपा करके सृष्टि के तत्त्वमूलक सिद्धान्तों, इन सिद्धान्तों की संख्या, इनके कारणों तथाइनके विकास और इनके साथ-साथ भक्ति की विधि तथा योगशक्तियों की विधि के विषय मेंभी बताइये।

    योगेश्वरैश्वर्य-गतिलिड्-भड़स्तु योगिनाम्‌ ।

    वेदोपवेद-धर्माणामितिहास-पुराणयो: ॥

    २०॥

    योग-ईश्वर--योग शक्तियों के स्वामी का; ऐश्वर्य--ऐश्वर्य; गति:--प्रगति; लिड्--सूक्ष्म शरीर; भड़:--विरक्ति; तु--लेकिन;योगिनाम्‌ू--योगियों का; वेद--दिव्य ज्ञान; उपवेद--वेदों का अप्रत्यक्ष ज्ञान; धर्माणाम्‌--धर्मशास्त्रों का; इतिहास--इतिहास;पुराणयो:--पुराणों का।

    महान्‌ योगियों के ऐश्वर्य क्या हैं और उनकी परम गति क्या है? पूर्ण योगी किस प्रकार सूक्ष्मशरीर से विरक्त होता है? इतिहास की शाखाओं तथा पूरक पुराणों समेत वैदिक साहित्य कामूलभूत ज्ञान क्या है?

    सम्प्लवः सर्व-भूतानां विक्रम: प्रतिसड्क्रम: ।

    इष्टा-पूर्तस्य काम्यानां त्रि-वर्गस्थ च यो विधि: ॥

    २१॥

    सम्प्लव:--पूर्ण विनाश, सम्यक साधन; सर्व-भूतानाम्‌--समस्त जीवों का; विक्रम:--विशिष्ट शक्ति या स्थिति;प्रतिसड्क्रम:--चरम विनाश; इष्टा--वैदिक अनुष्ठानों का सम्पन्न किया जाना; पूर्तस्य-- धर्म के पवित्र कार्य; काम्यानामू--आर्थिक विकास के हेतु अनुष्ठान; त्रि-वर्गस्थ--धर्म, अर्थ तथा काम ये तीन साधन; च-- भी; यः--जो भी; विधि: --विधियाँ |

    कृपा करके मुझे बताइये कि जीवों की उत्पत्ति, पालन और उनका संहार किस प्रकार होताहै? भगवान्‌ की भक्तिमय सेवा करने से जो लाभ तथा हानियाँ होती हैं, उन्हें भी समझाइये।

    वैदिक अनुष्ठान तथा उपवैदिक धार्मिक कृत्यों के आदेश क्‍या हैं? धर्म, अर्थ तथा काम केसाधनों की विधियाँ क्‍या हैं?

    यो वानुशायिनां सर्ग: पाषण्डस्य च सम्भव: ।

    आत्मनो बन्ध-मोक्षौ च व्यवस्थानं स्व-रूपत: ॥

    २२॥

    यः--जो सब; वा--अथवा; अनुशायिनाम्‌-- भगवान्‌ के शरीर में समाहित; सर्ग:--सृष्टि; पाषण्डस्थय--पाखंडियों का; च--तथा; सम्भव:--प्राकट्यू; आत्मन:--जीवों का; बन्ध--बद्ध; मोक्षौ--मुक्त हुए; च-- भी; व्यवस्थानम्‌--स्थित हुए; स्व-रूपतः--मुक्त अवस्था में

    कृपया यह भी समझाएँ कि भगवान्‌ के शरीर में समाहित जीव किस प्रकार उत्पन्न होते हैंऔर पाखंडीजन किस तरह इस संसार में प्रकट होते हैं? यह भी बताएँ कि किस प्रकार अबद्धजीवात्माएँ विद्यमान रहती हैं ?

    यथात्म-तन्त्रो भगवान्‌ विक्रीडत्यात्म-मायया ।

    विसूज्य वा यथा मायामुदास्ते साक्षिवद्‌ विभु: ॥

    २३॥

    यथा--जिस तरह; आत्म-तनन्‍्त्र:--स्वतन्त्र; भगवान्‌-- श्रीभगवान्‌; विक्रीडति--लीला करते हैं; आत्म-मायया-- अपनी अन्तरंगाशक्ति से; विसृज्य--त्याग कर; वा-- भी; यथा--वे जिस प्रकार चाहते हैं; मायाम्‌--बहिरंगा शक्ति; उदास्ते--रहता है;साक्षिवत्‌--साक्षी की तरह; विभु:--सर्वशक्तिमान ।

    स्वतन्त्र भगवान्‌ अपनी अन्तरंगा शक्ति से अपनी लीलाओं का आस्वादन करते हैं और प्रलयके समय वे इन्हें बहिरंगा शक्ति को प्रदान कर देते हैं और स्वयं साक्षी रूप में बने रहते हैं।

    सर्वमेतच्च भगवन्‌ पृच्छतो मेउनुपूर्वश: ।

    तत्त्वतो ईस्युदाहर्तु प्रपन्नाय महा-मुने ॥

    २४॥

    सर्वम्‌--ये सब; एतत्‌-- प्रश्न; च--न पूछ सकने के कारण भी; भगवनू्‌--हे ऋषि; पृच्छतः--जिज्ञासु का; मे--मैं स्वयं;अनुपूर्वश:--प्रारम्भ से; तत्त्वतः--सत्य के अनुसार; अहसि--कृपा करके बताएँ; उदाहर्तुमू--जैसे आप बताएँगे; प्रपन्नाय--घिरा हुआ; महा-मुने--हे ऋषि!।

    हे भगवान्‌ के प्रतिनिधिस्वरूप महर्षि, आप मेरी उन समस्त जिज्ञासाओं को जिनके विषय मेंमैंने आपसे प्रश्न किये हैं तथा उनके विषय में भी जिन्हें मैं जिज्ञासा करने के प्रारंभ से प्रस्तुत नहींकर सका, उनके बारे में कृपाकरके जिज्ञासा शान्त कीजिये।

    चूँकि मैं आपकी शरण में आया हूँ,अतः मुझे इस सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान प्रदान करें।

    अत्र प्रमाणं हि भवान्‌ परमेष्ठी यथात्म-भू: ।

    आपरे चानुतिष्ठन्ति पूर्वेषां पूर्व-जैः कृतम्‌ ॥

    २५॥

    अत्र--इस विषय में ; प्रमाणम्‌--प्रमाण; हि--निश्चय ही; भवान्‌--आप; परमेष्ठी --ब्रह्मा, ब्रह्माण्ड का स्त्रष्टा यथा--जिसप्रकार; आत्म-भू:ः--सीधे भगवान्‌ से उत्पन्न; अपरे-- अन्य लोग; च--केवल; अनुतिष्ठन्ति--केवल अनुकरण करने के लिए;पूर्वेषाम्‌--प्रथानुसार; पूर्व-जैः--पूर्ववर्ती दार्शनिक द्वारा सुझाया ज्ञान; कृतम्‌--किया हुआ।

    हे महर्षि, आप आदि प्राणी ब्रह्मा के तुल्य हैं।

    अन्य लोग केवल प्रथा का पालन करते हैंजिस प्रकार पूर्ववर्ती दार्शनिक चिन्तक किया करते हैं।

    न मेडसवः परायन्ति ब्रह्मच्ननशशनादमी ।

    पिबतो<च युत-पीयूषम्‌ तद्‌ वाक्याब्धि-विनि:सृतम्‌ ॥

    २६॥

    न--कभी नहीं; मे--मेरा; असवः--प्राण; परायन्ति--निकल सकता है; ब्रह्मनू--हे विद्वान ब्राह्मण; अनशनात्‌ अमी--अनशन( उपवास ) के कारण; पिबतः--पीने के कारण; अच्युत--न गिरने वाले; पीयूषम्‌--अमृत; तत्‌--तुम्हारे; वाक्य-अब्धि--वाणी रूपी सिन्धु से; विनिःसृतम्‌ू--निकलने वाला।

    हे विद्वान ब्राह्मण, अच्युत भगवान्‌ की कथा के अमृत का, जो आपकी वाणी रूपी समुद्र सेबह रहा है, मेरे द्वारा पान करने से मुझे उपवास रखने के कारण किसी प्रकार की कमजोरी नहींलग रही।

    सूत उवाचस उपामन्त्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पते: ।

    ब्रह्मरातो भूशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि ॥

    २७॥

    सूतः उबाच-- श्रील सूत गोस्वामी ने कहा; सः--वह ( शुकदेव गोस्वामी ); उपामन्त्रित:--इस प्रकार पूछे जाने पर; राज्ञा--राजाद्वारा; कथायामू--कथाओं में; इति--इस प्रकार; सत्‌-पते:--सर्वोच्च सत्य की; ब्रह्म-रात:--शुकदेव गोस्वामी; भूशम्‌--अत्यधिक; प्रीत:-- प्रसन्न; विष्णु-रातेन--महाराज परीक्षित द्वारा; संसदि--सभा में

    सूत गोस्वामी ने कहा--महाराज पररीक्षित द्वारा भक्तों से संबंधित भगवान्‌ श्रीकृष्ण कीकथाएँ कहने के लिए आमन्त्रित किये जाने पर शुकदेव गोस्वामी अत्यधिक प्रसन्न हुए।

    प्राह भागवतं नाम पुराणं ब्रह्म-सम्मितम्‌ ।

    ब्रह्मणे भगवत्प्रोक्त ब्रह्य-कल्प उपागते ॥

    २८॥

    प्राह--कहा; भागवतम्‌--तत्त्वज्ञान; नाम--नामक; पुराणम्‌--उपवेद; ब्रह्म-सम्मितम्‌--वेदों के अनुकरण में; ब्रह्मणे --ब्रह्माजीसे; भगवत्‌-प्रोक्तम्‌-- भगवान्‌ द्वारा कही गईं; ब्रह्म-कल्पे--उस युग में जिसमें सर्वप्रथम ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई; उपागते--प्रारम्भमें ही |

    उन्होंने महाराज परीक्षित के प्रश्नों का उत्तर देना यह कहकर प्रारम्भ किया कि इस तत्त्वज्ञान को सर्वप्रथम स्वयं भगवान्‌ ने ब्रह्म से उनके जन्म के समय कहा।

    श्रीमद्भागवत उपवेद हैऔर वेदों का ही अनुकरण करता है।

    यद्‌ यत्‌ परीक्षिदृषभ: पाण्डूनामनुपृच्छति ।

    आनुपूर्व्येण तत्सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे ॥

    २९॥

    यत्‌ यत्‌--जो जो; परीक्षित्‌--राजा; ऋषभ:-- श्रेष्ठ; पाण्डूनामू--पाण्डुवंश में; अनुपृच्छति--पूछते जाते; आनुपूर्व्येण --- आदिसे अन्त तक; तत्‌--वह सब; सर्वम्‌--पूर्णत:; आख्यातुम्‌--वर्णन करने के लिए; उपचक्रमे--अपने आपको तैयार किया।

    उन्होंने अपने आपको राजा परीक्षित द्वारा जो कुछ पूछा गया था उसका उत्तर देने के लिएतैयार किया।

    महाराज परीक्षित पाण्डुवंश में सर्वश्रेष्ठ थे, अत: वे उचित व्यक्ति से उचित प्रश्नपूछने में समर्थ हुए।

    TO

    अध्याय नौ: प्रभु के संस्करण का हवाला देकर उत्तर

    2.9श्री -शुक उवाचआत्म-मायामृते राजन्‌ परस्यानुभवात्मन: ।

    न घटेतार्थ-सम्बन्ध: स्वप्न-द्रष्टरेवाज्लसा ॥

    १॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; आत्म--भगवान्‌; मायाम्‌--शक्ति; ऋते--बिना; राजनू--हे राजा; परस्थ--शुद्ध आत्मा का; अनुभव-आत्मन:--विशुद्ध रूप से चेतन का; न--कभी नहीं; घटेत--इस प्रकार घटित होता है; अर्थ--अभिप्राय; सम्बन्ध:--भौतिक शरीर के साथ सम्बन्ध; स्वप्न--सपना; द्रष्टः--देखने वाले का; इब--सहृश; अद्धसा--पूर्णतः |

    श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा--हे राजन्‌, जब तक मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ की शक्तिसे प्रभावित नहीं होता तब तक भौतिक शरीर के साथ शुद्ध चेतना में शुद्ध आत्मा के सम्बन्धकोई अर्थ नहीं होता।

    ऐसा सम्बन्ध स्वप्न देखने वाले द्वारा अपने ही शरीर को कार्य करते हुएदेखने के समान है।

    बहु-रूप इवाभाति मायया बहु-रूपया ।

    रममाणो गुणेष्वस्था ममाहमिति मन्‍्यते ॥

    २॥

    बहु-रूप:--विविधरूप वाली; इब--मानो; आभाति-- प्रकट होती है; मायया--बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से; बहु-रूपया--विविध रूपों में; रममाण: --मानो रमण ( भोग ) कर रहा हो; गुणेषु--विभिन्न गुणों में; अस्या: --बहिरंगा शक्ति का; मम--मेरा; अहम्‌--मैं; इति--इस प्रकार; मन्यते--सोचता है।

    मोहग्रस्त जीवात्मा भगवान्‌ की बहिरंगा शक्ति के द्वारा प्रदत्त अनेक रूप धारण करता है।

    जब बद्ध जीवात्मा भौतिक प्रकृति के गुणों में रम जाता है, तो वह भूल से सोचने लगता है कियह 'मैं हूँ' और यह 'मेरा ' है।

    यहिं वाव महिम्नि स्वे परस्मिन्‌ काल-माययो: ।

    रमेत गत-सम्मोहस्त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम्‌ ॥

    ३॥

    यहि--किसी समय; वाव--निश्चय ही; महिम्नि--महिमा में; स्वे-- अपने आप का; परस्मिनू--परमेश्वर में; काल--समय;माययो:-- भौतिक शक्ति ( माया ) का; रमेत-- भोग करता है; गत-सम्मोहः -- भ्रान्त धारणा ( सम्मोह ) से मुक्त होकर;त्यक्त्वा--त्याग कर; उदास्ते-- पूर्णतः; तदा--तब; उभयम्‌--दोनों ( मैं तथा मेरे की भ्रान्त धारणा )।

    जैसे ही जीवात्मा अपनी स्वाभाविक महिमा में स्थित हो जाता है और काल तथा माया सेगुणातीत हो जाता है, वैसे ही वह जीवन की दोनों भ्रान्त धारणाओं ( मैं तथा मेरा ) को त्याग देताहै और शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रकट हो जाता है।

    आत्म-तत्त्व-विशुद्धदर्थ यदाह भगवानृतम्‌ ।

    ब्रह्मणे दर्शयन्‌ रूपमव्यलीक-ब्रताहत: ॥

    ४॥

    आत्म-तत्त्व--ईश्वर का ज्ञान अथवा जीवात्मा का ज्ञान; विशुद्धि--शुद्धीकरण; अर्थम्‌--लक्ष्य; यत्‌--जो; आह--कहा;भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; ऋतम्‌--सचमुच; ब्रह्मणे--ब्रह्माजी को; दर्शयन्‌ू--दिखलाकर; रूपम्‌--नित्य रूप; अव्यलीक--निष्कपट भाव से; ब्रत--संकल्प; आहत: --पूजित ॥

    हे राजनू, भगवान्‌ ने ब्रह्मजी की भक्तियोग की निष्कपट तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न होकरउनके समक्ष अपना शाश्वत दिव्य रूप प्रकट किया और बद्धजीव की शुद्धि के लिए यही परमलक्ष्य भी है।

    स आदि-देवो जगतां परो गुरु:स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत ।

    तां नाध्यगच्छद्‌ दशमत्र सम्मतांप्रपञ्ञ-निर्माण-विधिर्यया भवेत्‌ ॥

    ५॥

    सः--वह; आदि-देव: -- प्रथम देवता; जगताम्‌ू--ब्रह्माण्ड का; पर: --परम; गुरु:--गुरु; स्वधिष्ण्यम्‌-- अपने कमल-आसनका; आस्थाय--स्त्रोत जानने के लिए; सिसृक्षया--सांसारिक व्यापार की सृष्टि करने के लिए; ऐक्षत--सोचने लगा; तामू--उसविषय में; न--नहीं; अध्यगच्छत्‌--समझ सका; दृशम्‌--दिशा; अत्र--वहाँ; सम्मताम्‌--उचित राह; प्रपज्ञ-- भौतिक;निर्माण--रचना; विधि: --विधि, ढंग; यया--जितना कि; भवेत्‌--होना चाहिए।

    प्रथम गुरु एवं ब्रह्माण्ड के सर्वश्रेष्ठ जीव होते हुए भी ब्रह्माजी अपने कमल आसन के स्त्रोतका पता न लगा सके और जब उन्होंने भौतिक जगत की सृष्टि करनी चाही तो वे यह भी न जानपाये कि किस दिशा से यह कार्य प्रारम्भ किया जाय, न ही ऐसी सृष्टि करने के लिए कोई विधिही ढूँढ पाये।

    स चिन्तयन्‌ द्य॒स्‍क्षरमेकदाम्भ-स्युपाश्रुणोद्‌ द्विर्गदितं बचो विभु: ।

    स्पशेषु यत्वोडशमेकविंशंनिष्किज्जनानां नृप यद्‌ धनं विदु; ॥

    ६॥

    सः--उसने; चिन्तयन्‌--सोचते हुए; द्वि--दो; अक्षरम्‌--अक्षर; एकदा--एक बार; अम्भसि--जल में; उपाश्रुणोत्‌--पास हीसुना; द्विः--दो बार; गदितम्‌--उच्चरित; वच:--शब्द; विभुः--महान्‌; स्पर्शेषु--स्पर्शाक्षि; यत्‌--जो; घोडशम्‌--सोलहवाँ;एकविंशम्‌--तथा इक्कीसवाँ; निष्किज्लनानाम्‌--संन्यासियों का; नृप--हे राजा; यत्‌--जो हैं; धनम्‌--सम्पत्ति; विदु:--जैसाकिज्ञात है।

    इस प्रकार जब जल में स्थित ब्रह्माजी सोच रहे थे तब पास ही उन्होंने परस्पर जुड़े हुए दोशब्द दो बार सुने।

    इनमें से एक सोलहवाँ और दूसरा इक्कीसवाँ स्पर्श अक्षर था।

    ये दोनों मिलकरविरक्त जीवन की निधि बन गए।

    निशम्य तद्ठक्तृ-दिहृक्षया दिशोविलोक्य तत्रान्यदपश्यमान: ।

    स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद््वितंतपस्युपादिष्ट इवादधे मन: ॥

    ७॥

    निशम्य--सुनकर; तत्‌--उस; वकतृ--वक्ता; दिहक्षया--यह जानने के लिए कि कौन बोला; दिश:--सभी ओर; विलोक्य--देखकर; तत्र--वहाँ; अन्यत्‌-- अन्य कोई; अपश्यमान: --न पाकर; स्वधिष्ण्यम्‌ू--अपने कमल आसन पर; आस्थाय--बैठगये; विमृश्य--सोचकर; तत्‌--इसको; हितमू-- कल्याण; तपसि--तपस्या में; उपादिष्ट: --उसे जैसा आदेश मिला था; इब--के पालन में; आदधे--दिया; मन:-- ध्यान

    जब उन्होंने वह ध्वनि सुनी तो वे ध्वनिकर्ता को चारों ओर ढूँढ़ने का प्रयत्न करने लगे।

    किन्तु जब वे अपने अतिरिक्त किसी को न पा सके, तो उन्होंने कमल-आसन पर हढ़तापूर्वक बैठजाना और आदेशानुसार तपस्या करने में ध्यान देना ही श्रेयस्कर समझा।

    दिव्यं सहस्त्राब्दममोघ-दर्शनोजितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रिय: ।

    अतप्यत स्माखिल-लोक-तापनंतपस्तपीयांस्तपतां समाहितः ॥

    ८ ॥

    दिव्यम्‌--स्वर्ग के देवताओं का; सहस्त्र--एक हजार; अब्दम्‌--वर्ष; अमोघ--निर्मल, निष्कलंक; दर्शन:--ऐसी जीवन-दृष्टिवाला; जित--नियंत्रित; अनिल--प्राण; आत्मा--मन; विजित--वशीकृत; उभय--दोनों; इन्द्रिय:--इन्द्रियों वाला; अतप्यत--तपस्या की; स्म-- भूतकाल में; अखिल--समस्त; लोक--ग्रह; तापनम्‌--प्रकाशनार्थ; तप:ः--तपस्या; तपीयान्‌--अत्यन्तकठिन तप; तपताम्‌--समस्त तपस्वियों का; समाहित:--इस प्रकार स्थित |

    ब्रह्मजी ने देवताओं की गणना के अनुसार एक हजार वर्षों तक तपस्या की।

    उन्होंनेआकाश से यह दिव्य अनुगूँज सुनी और इसे ईश्वरीय मान लिया।

    इस प्रकार उन्होंने अपनी इन्द्रियोंतथा मन को वश में किया।

    उन्होंने जो तपस्या की, वह जीवात्माओं के लिए महान्‌ शिक्षा बनगई।

    इस प्रकार ब्रह्मा जी तपस्वियों में महानतम माने जाते हैं।

    तस्मै स्व-लोक॑ भगवान्‌ सभाजित:सन्दर्शयामास परं न यत्परम्‌ ।

    व्यपेत-सड्क्लेश-विमोह-साध्वसंस्व-दृष्टवद्धिर्पुरुषैरभिष्ठृतम्‌ ॥

    ९॥

    तस्मै--उसको; स्व-लोकम्‌-- अपना धाम; भगवान्‌-- भगवान्‌ ने; सभाजित:--ब्रह्मा की तपस्या से प्रसन्न होकर; सन्दर्शयाम्‌आस--प्रकट किया; परमू--सर्व श्रेष्ठ; न--नहीं; यत्‌--जिसका; परम्‌--उससे भी श्रेष्ठ; व्यपेत--पूर्ण रूप से त्यक्त;सड्क्लेश--पाँच प्रकार के भौतिक ताप; विमोह--बिना मोह; साध्वसम्‌--संसार का भय; स्व-दृष्ट-वद्धिः--जो स्वरूपसिद्ध हैंउनके द्वारा; पुरुषै:--पुरुषों द्वारा; अभिष्ठतम्‌--पूजित

    श्री भगवान्‌ ने ब्रह्माजी की तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न होकर उन्हें समस्त लोकों में श्रेष्ठ अपने निजी धाम, वैकुण्ठ लोक, को दिखलाया।

    यह दिव्य लोक उन समस्त स्वरूपसिद्धव्यक्तियों द्वारा पूजित है, जो समस्त प्रकार के क्लेशों तथा सांसारिक भय से सर्वथा मुक्त हैं।

    प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयो:सत्त्वं च मिश्र न च काल-विक्रमः ।

    न यत्र माया किमुतापरे हरे-रनुब्रता यत्र सुरासुराचिता: ॥

    १०॥

    प्रवर्तती--रहता है; यत्र--जहाँ पर; रज: तम:--रजो तथा तमोगुण; तयो:--उन दोनों का; सत्त्वमू--सतोगुण; च--तथा;मिश्रमू--मिश्रण; न--कभी नहीं; च--तथा; काल--समय; विक्रम:--प्रभाव; न--न तो; यत्र--जहाँ पर; माया--छलना,बहिरंगा शक्ति; किमू-- क्या; उत--वहाँ है; अपरे-- अन्य; हरेः-- भगवान्‌ के; अनुब्रता:-- भक्त; यत्र--जहाँ पर; सुर--देवताओं; असुर--तथा असुरों द्वारा; अ्चिता:--पूजित |

    भगवान्‌ के उस स्वधाम में न तो रजोगुण और तमोगुण रहते हैं, न ही सतोगुण पर इनकाकोई प्रभाव दिखता है।

    वहाँ पर काल को प्रधानता प्राप्त नहीं है।

    फिर बहिरंगा शक्ति ( माया )का तो कहना ही क्या? इसका तो वहाँ प्रवेश भी नहीं हो सकता।

    देवता तथा असुर, बिनाभेदभाव के, भक्तों के रूप में भगवान्‌ की पूजा करते हैं।

    श्यामावदाता: शत-पत्र-लोचना:पिशडू-वस्त्रा: सुरुच: सुपेशसः ।

    सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणि--प्रवेक-निष्काभरणा: सुवर्चस: ॥

    ११॥

    श्याम--नीलवर्ण; अवदाता:--आभा से युक्त; शत-पत्र--कमल-पुष्प; लोचना:--आँखें; पिशड्ग--पीले रंग का; वस्त्रा:--वस्त्र; सु-रुच:--अत्यन्त आकर्षक; सु-पेशस:--तरुण; सर्वे--सभी; चतु:--चार; बाहवः--बाहें, हाथ; उन्मिषन्‌--कान्तिमान्‌; मणि--मोती; प्रवेक--उत्त कोटि के; निष्क-आभरणा:--आलंकारिक आभूषण; सु-वर्चसः--तेजमयबैकुण्ठ लोक के वासियों को आभामय श्यामवर्ण का बताया गया है।

    उनकी आँखेंकमल-पुष्प के समान, उनके वस्त्र पीलाभ रंग के और उनकी शारीरिक संरचना अत्यन्तआकर्षक है।

    वे उभरते हुए तरुणों की तरह हैं, उन सबके चार-चार हाथ हैं।

    वे मोती के हारोंतथा अलंकृत पदकों से भली-भाँति विभूषित होकर अत्यन्त तेजवान्‌ प्रतीत होते हैं।

    प्रवाल-बैदूर्य-मृणाल-वर्चस: ।

    परिस्फुरत्कुण्डल-मौलि-मालिन: ॥

    १२॥

    प्रवाल--मूँगा; बैदूर्य--विशेष मणि; मृणाल--स्वर्गिक कमल; वर्चस:--किरणें; परिस्फुरत्‌--फूल रही है; कुण्डल--कान केआभूषण; मौलि--सिर; मालिन:--हारों से युक्त ।

    उनमें से कुछ की आकृतियाँ मूँगे तथा हीरे की भाँति तेजस्वी हैं और वे अपने सिरों परमालाएँ धारण किए हैं, जो कमल-पुष्प के समान खिली हुई हैं।

    कुछ ने कानों में कुण्डल पहनरखे हैं।

    भ्राजिष्णुभिर्य: परितो विराजतेलसद्विमानावलिभिर्महात्मनाम्‌ ।

    विद्योतमान: प्रमदोत्तमाह्युभिःसर्विद्युदभ्रावलिभिरयथा नभः ॥

    १३॥

    भ्राजिष्णुभि:--आभा से; यः--वैकुण्ठ लोक; परित:--घिरा हुआ; विराजते--स्थित है; लसत्‌--तेजमान; विमान--विमान के;अवलिभि: --समूह से; महा-आत्मनाम्‌-- भगवान्‌ के महान्‌ भक्तों का; विद्योतमान:--बिजली के समान सुन्दर; प्रमद--स्त्रियाँ;उत्तम--स्वर्गिक; अद्युभि: --मुखड़ों से; स-विद्युतू--बिजली सहित; अभ्रावलिभि:--आकाश में बादलों से; यथा--जिसप्रकार; नभः--आकाश।

    सारे वैकुण्ठ लोक विभिन्न चमचमाते विमानों से भी घिरे हैं।

    ये विमान महात्माओं या भगवदभक्तों के हैं।

    स्त्रियाँ अपने स्वर्गिक मुखमण्डल के कारण बिजली के समान सुन्दर लगतीहैं और ये सब मिलकर ऐसी प्रतीत होती हैं मानो बादलों तथा बिजली से आकाश सुशोभित हो।

    शरीर्यत्र रूपिण्युरुगाय-पादयो:करोति मान॑ बहुधा विभूतिभि: ।

    प्रेड्डं भरता या कुसुमाकरानुगै-विंगीयमाना प्रिय-कर्म गायती ॥

    १४॥

    श्री:--लक्ष्मी जी; यत्र--वैकुण्ठ लोक में; रूपिणी--अपने दिव्य रूप में; उरुगाय-- भगवान्‌, जिनकी स्तुति बड़े-बड़े भक्तकरते हैं; पादयो:-- भगवान्‌ के चरणकमलों में; करोति--करती है; मानमू--सादर सेवा; बहुधा--विविध सामग्री से;विभूतिभि:--अपने पार्षदों के सहित; प्रेड्डम्‌-- प्रसन्नता से संचलन ( धिरकन ); थ्रिता--शरणागत; या--जो; कुसुमाकर--वसन्त; अनुगैः -- भौरों से; विगीयमाना--गुण-गान करते हुए; प्रिय-कर्म--अपने प्रियतम के कार्यकलापों; गायती--गाती हुई

    दिव्य रूपधारी लक्ष्मीजी भगवान्‌ के चरणकमलों की प्रेमपूर्ण सेवा में लगी हुई हैं औरवसनन्‍्त के अनुचर भौरों के द्वारा विचलित होकर, वे न केवल विविध विलास--अपनी सहेलियोंसहित भगवान्‌ की सेवा--में तत्पर हैं, अपितु भगवान्‌ की लीलाओं का गुणगान भी कर रही हैं।

    ददर्श तत्राखिल-सात्वतां पतिंश्रियः पतिं यज्ञ-पतिं जगत्पतिम्‌ ।

    सुनन्द-नन्द-प्रबलाईणादिभि:ःस्व-पार्षदाग्रै: परिसेवितं विभुम्‌ ॥

    १५॥

    ददर्श--ब्रह्मा ने देखा; तत्र--वहाँ ( बैकुण्ठ लोक में ); अखिल--सम्पूर्ण; सात्वताम्‌ू--परम भक्तों के; पतिमू--स्वामी;भ्रिय:--लक्ष्मी के; पतिम्‌--स्वामी; यज्ञ--यज्ञ के; पतिम्‌--स्वामी; जगत्‌--ब्रह्माण्ड के; पतिम्‌ू-- स्वामी; सुनन्द--सुनन्द;नन्द--नन्द; प्रबल-- प्रबल; अर्हण--अ्हण; आदिभि: --आदि से; स्व-पार्षद--अपने संगी; अग्रै:--अग्रणी; परिसेवितम्‌--दिव्य प्रेम में सेवित; विभुम्‌ू--परम शक्तिमान ।

    ब्रह्माजी ने वैकुण्ठ लोक में उन श्रीभगवान्‌ को देखा जो सारे भक्त समुदाय के स्वामी,लक्ष्मीजी के पति, समस्त यज्ञों के स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं और जो नन्द, सुनन्द, प्रबलतथा अर्हूण आदि अपने अग्रणी पार्षदों द्वारा सेवित हैं।

    भृत्य-प्रसादाभिमुखं हगासवंप्रसन्न-हासारुण-लोचनाननम्‌ ॥

    किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजंपीतांशुकं वक्षसि लक्षितं रिया ॥

    १६॥

    भृत्य--दास; प्रसाद--स्नेह; अभिमुखम्‌ हक्‌--दृष्टि; आसवम्‌--मादक पदार्थ; प्रसन्न--अत्यन्त प्रसन्न; हास--हँसी; अरुण--लाल; लोचन--नेत्र; आननम्‌--मुख; किरीटिनम्‌--मुकुटयुक्त; कुण्डलिनम्‌--कुण्डलों सहित; चतु:-भुजम्‌--चारों हाथों सेयुक्त; पीत--पीला; अंशुकम्‌--वस्त्र; वक्षस--छाती पर; लक्षितम्‌-- अंकित; थ्रिया--लक्ष्मी से ।

    अपने प्रिय दासों की ओर कृपा दृष्टि डालते हुए, मादक तथा आकर्षक दृष्टि वाले भगवान्‌अत्यधिक तुष्ट लगे।

    उनका मुस्काता मुख मोहक लाल रंग से सुशोभित था।

    वे पीले वस्त्र पहनेथे और कानों में कुण्डल तथा सिर में मुकुट धारण किये हुए थे।

    उनके चार हाथ थे और उनका वक्षस्थल लक्ष्मीजी की रेखाकृतियों से चिह्नित था।

    अध्यरईणीयासनमास्थितं परंबृतं चतुः-षोडश-पञ्ञ-शक्तिभि: ।

    युक्त भगैः स्वैरितरत्र चाश्रुवै:स्वएबव धामन्‌ रममाणमी श्वरम्‌ ॥

    १७॥

    अध्यर्हणीय--अत्यन्त पूज्य; आसनम्‌--सिंहासन पर; आस्थितम्‌--बैठे हुए; परम्‌--परमे श्वर; वृतम्‌--घिरे हुए; चतुः--चारःप्रकृति, पुरुष, महत्‌ तथा अहंकार; षोडश--सोलह; पञ्ञ--पाँच; शक्तिभि:--शक्तियों से; युक्तम्‌ू--युक्त; भगैः--ऐश्वर्य से;स्वै: -- अपने; इतरत्र--अन्य छोटे-छोटे पराक्रम; च--भी; अध्रुवै:-- क्षणिक; स्वे-- अपने; एव--निश्चय ही; धामन्‌ू-- धाम;रममाणम्‌--रमण करते हुए; ईश्वरम्‌-परमे श्वर ।

    भगवान्‌ अपने सिंहासन पर विराजमान थे और विभिन्न शक्तियों से--यथा चार, सोलह,पाँच तथा छः प्राकृतिक ऐश्वर्यों के साथ अन्य छोटी एवं क्षणिक शक्तियों से घिरे हुए थे।

    किन्तुवे वास्तविक परमेश्वर थे और अपने धाम में आनन्द ले रहे थे।

    तदर्शनाह्नाद-परिप्लुतान्तरोहृष्यत्तनु: प्रेम-भराश्रु-लोचन: ।

    ननाम पादाम्बुजमस्य विश्व-सूग्‌यत्‌ पारमहंस्येन पथाधिगम्यते ॥

    १८॥

    तत्‌--भगवान्‌ के उस; दर्शन--दर्शन से; आह्वाद-- प्रसन्नता; परिप्लुत--लबालब भरा हुआ, आप्लावित; अन्तर: --हृदय केभीतर; हृष्यत्‌--पुलकित; तनुः--शरीर; प्रेम-भर--पूर्ण दिव्य प्रेम में; अश्रु-- आँसू; लोचन: --आँखों में; ननाम--नतमस्तकहुआ; पाद-अम्बुजम्‌--चरणकमलों पर; अस्य-- भगवान्‌ के; विश्व-सृक्‌ --ब्रह्माण्ड का स्त्रष्टा; यत्‌--जो; पारमहंस्थेन -- परममुक्त पुरुष द्वारा; पथधा--पथ; अधिगम्यते--अनुसरण किया जाता है।

    इस तरह भगवान्‌ को उनके पूर्ण रूप में देखकर ब्रह्माजी का हृदय आनन्द से आप्लावित होउठा और दिव्य प्रेम तथा आनन्द से उनके नेत्रों में प्रेमाशु आ गये।

    वे भगवान्‌ के समक्षनतमस्तक हो गये।

    जीव ( परमहंस ) के लिए परम सिद्धि की यही विधि है।

    त॑ प्रीयमाणं समुपस्थितं कवि प्रजा-विसर्गे निज-शासनाईणम्‌ ।

    बभाष ईषत्स्मित-शोचिषा गिरा रिय: प्रियं प्रीत-मना: करे स्पृशन्‌ ॥

    १९॥

    तम्‌--ब्रह्माजी को; प्रीयमाणम्‌--प्रिय पात्र; समुपस्थितम्‌--सामने उपस्थित; कविम्‌--महान्‌ विद्वान; प्रजा--जीवात्माओं की;विसगें-- सृष्टि के कार्य में; निज--अपना; शासन--नियन्त्रण; अर्हणम्‌-- उपयुक्त; बभाषे -- सम्बोधित किया; ईषत्‌--मन्द;मित--हँसते हुए; शोचिषा--उत्साहवर्धक; गिरा--वाणी; प्रियः--प्रिय; प्रियम्‌--प्रेमी को; प्रीत-मना:-- अत्यन्त प्रसन्न होकर;करे--हाथ से; स्पृशन्‌--छूते हुए

    भगवान्‌ ने ब्रह्माजी को अपने समक्ष देखकर उन्हें जीवों की सृष्टि करने तथा जीवों कोअपनी इच्छानुसार नियन्त्रित करने के लिए उपुयक्त ( पात्र ) समझा।

    इस प्रकार प्रसन्न होकरभगवान्‌ ने ब्रह्मा से मंद-मंद हँसते हुए हाथ मिलाया और उन्हें इस प्रकार से सम्बोधित किया।

    श्री - भगवानुवाचत्वयाहं तोषितः सम्यगू वेद-गर्भ सिसृक्षया ।

    चिरं भूतेन तपसा दुस्तोष: कूट-योगिनाम्‌ ॥

    २०॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच--परम सुन्दर भगवान्‌ ने कहा; त्वया--तुम्हारे द्वारा; अहम्‌--मैं; तोषितः --प्रसन्न हूँ; सम्यक्‌ -- पूर्ण; बेद-गर्भ--बेद से संपृक्त; सिसृक्षया--उत्पत्ति के हेतु; चिरम्‌--दीर्घकाल से; भूतेन--संचित; तपसा--तपस्या से; दुस्तोष: --कठिनाई से प्रसन्न होने वाला; कूट-योगिनाम्‌--छद्योगियों के लिए॥

    परम सुन्दर भगवान्‌ ने ब्रह्म को सम्बोधित किया-हे वेदों से संपृक्त ब्रह्मा, सृष्टि की इच्छासे की गई तुम्हारी दीर्घकालीन तपस्या से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।

    मैं छद्ययोगियों से बहुत हीमुश्किल से प्रसन्न हो पाता हूँ।

    वबरं वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाउ्छतम्‌ ।

    ब्रह्मज्छेय: -परिश्राम: पुंसां महर्शनावधि: ॥

    २१॥

    वरम्‌--वरदान; वरय--मुझसे माँगो; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; वर-ईशम्‌-- समस्त वरों के दाता; मा ( माम्‌ )--मुझसे;अभिवाउिछतम्‌--जो चाहो, मुँह माँगा; ब्रह्मनू--हे ब्रह्मा; श्रेय:--परम सफलता; परिश्राम: --समस्त तपस्या के लिए; पुंसाम्‌--सबों के लिए; मत्‌--मेरा; दर्शन--साक्षात्कार; अवधि: --पर्यवसान, अन्तिम सीमा |

    तुम्हारा कल्याण हो।

    हे ब्रह्मा, तुम मुझसे जो चाहो माँग सकते हो, क्योंकि मैं समस्त वरोंका वरदाता हूँ; तुम्हें ज्ञात हो कि सारी तपस्या के फलस्वरूप जो अन्तिम वर प्राप्त होता है, वहमेरा दर्शन है।

    मनीषितानुभावोयं मम लोकावलोकनम्‌ ।

    यदुपश्रुत्य रहसि चकर्थ परमं तप: ॥

    २२॥

    मनीषित--पटुता; अनुभाव: -- दर्शन; अयम्‌ू--यह; मम--मेरा; लोक-- धाम; अवलोकनम्‌--वास्तविक अनुभव से देखते हुए;यत्‌--क्योंकि; उपश्रुत्य--सुनकर; रहसि--परम तप में; चकर्थ--सम्पन्न करके; परमम्‌--सर्वोच्च; तप:ः--तपस्या ।

    सर्वोच्च सिद्धिमयी पटुता है मेरे धाम का साक्षात्‌ दर्शन और यह दर्शन तुम्हें मेरे आदेश केअनुसार कठिन तपस्या के प्रति तुम्हारी विनप्र प्रवृत्ति के कारण सम्भव हो सका है।

    प्रत्यादिष्ट मया तत्र त्वयि कर्म-विमोहिते ।

    तपो मे हृदयं साक्षादात्माहं तपसोनघ ॥

    २३॥

    प्रत्यादिष्टम-- आदेश प्राप्त; मया--मेरे द्वारा; तत्र--के कारण; त्वयि--तुमको; कर्म--कर्तव्य; विमोहिते--मोह ग्रस्त होकर;तपः--तपस्या; मे--मेरा; हृदयम्‌--हृदय; साक्षात्‌- प्रत्यक्ष रूप से; आत्मा--जीवन तथा आत्मा; अहमू--मैं स्वयं; तपस:--तपस्या करने वाले का; अनघ--हे निष्पाप।

    हे निष्पाप ब्रह्मा, तुम्हें ज्ञात हो कि जब तुम अपने कर्तव्य के प्रति असमंजस में थे तो सबसेपहले मैंने ही तुम्हें तपस्या करने का आदेश दिया था।

    ऐसी तपस्या ही मेरा हृदय और मेरी आत्माहै, अतः तपस्या मुझसे अभिन्न है।

    text:जामि तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः ।

    बिभर्मि तपसा विश्वं वीर्य मे दुश्चरं तप: ॥

    २४॥

    सृजामि-उत्पन्न करता हूँ; तपसा--तपस्या की उसी शक्ति से; एब--निश्चय ही; इृदम्‌--यह; ग्रसामि तपसा--उसी शक्ति से अपने में लीन करता हूँ; पुनः--फिर; बिभर्मि-- पालन करता हूँ; तपसा--तप से; विश्वम्‌--विश्व; वीर्यमू--शक्ति; मे-- मेरा; दुश्चवरम्‌--कठिन; तप: --तपस्या ।

    मैं ऐसे ही तप से इस विश्व की रचना करता हूँ, इसी शक्ति से इसका पालन करता हूँ औरइसीसे इसको अपने में लीन करता हूँ।

    अतः तप ही वास्तविक शक्ति है।

    ब्रह्मेवाचभगवतन्‌ सर्व-भूतानामध्यक्षोवस्थितो गुहाम्‌ ।

    वेद ह्यप्रतिरुद्धेन प्रज्ञानेन चिकीर्षितम्‌ ॥

    २५॥

    ब्रह्मा उवाच--ब्रह्माजी ने कहा; भगवन्‌--हे भगवान्‌; सर्व भूतानाम्‌ू--समस्त जीवात्माओं का; अध्यक्ष: --नियन्ता;अवस्थित:--स्थित; गुहाम्‌ू--हृदय के भीतर; वेद--जानो; हि--निश्चय ही; अप्रतिरुद्धेन--बिना बाधा के; प्रज्ञानेन--अन्तःज्ञानद्वारा; चिकीर्षितम्‌ू-- प्रयास करता है|

    ब्रह्माजी ने कहा, हे भगवान्‌, आप प्रत्येक जीवात्मा के हृदय में परम नियन्ता के रूप मेंस्थित हैं, अतः आप किसी भी प्रकार की बाधा के बिना अपने अन्तः-ज्ञान ( प्रज्ञा ) द्वारा समस्तप्रयासों से अवगत हैं।

    तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम्‌ ।

    परावरे यथा रूपे जानीयां ते त्वरूपिण: ॥

    २६॥

    तथा अपि--फिर भी; नाथमानस्थ--याचक का; नाथ--हे भगवान्‌; नाथय--प्रदान करो; नाधितम्‌--इच्छित; पर-अवबरे--संसारी तथा दिव्य विषयों में; यथा--जिस प्रकार; रूपे--रूप में; जानीयाम्‌--जान सकूँ; ते--तुम्हारा; तु--लेकिन;अरूपिण:--निराकार।

    तथापि हे भगवान्‌, मेरी आपसे प्रार्थना है कि मेरी इच्छा पूरी करें।

    कृपया मुझे बताएँ किदिव्य रूप के होते हुए भी आप संसारी रूप किस प्रकार धारण करते हैं, यद्यपि आपका ऐसाकोई रूप नहीं होता।

    यथात्म-माया-योगेन नाना-शक्त्युपबूंहितम्‌ ।

    विलुम्पन्‌ विसृजन्‌ गृह्नन्‌ बिश्रदात्मानमात्मना ॥

    २७॥

    यथा--जिस तरह; आत्म--स्व; माया--शक्ति; योगेन--संयोग से; नाना--विविध; शक्ति--शक्ति; उपबूृंहितम्‌--संचय द्वारा;विलुम्पन्‌ू--संहार के लिए; विसृजन्‌--सृष्टि के लिए; गृहन्‌ू--स्वीकृति के लिए; बिभ्रतू--पालन के लिए; आत्मानम्‌--अपनेआप को; आत्मना-- अपने द्वारा

    तथा कृपा करके मुझे यह भी बताएँ कि आप अपने से किस प्रकार से विभिन्न संयोगों केद्वारा संहार, उत्पत्ति, स्वीकृति तथा पालन की विविध शक्तियों को प्रकट करते हैं।

    क्रीडस्यमोघ-सड्डूल्प ऊर्णनाभिर्यथोर्णुते ।

    तथा तद्ठविषयां धेहि मनीषां मयि माधव ॥

    २८॥

    क्रीडसि--जिस प्रकार खिलवाड़ करते हो; अमोघ--अचूक; सट्डूल्प--निश्चय; ऊर्णनाभि:--मकड़ी; यथा--जिस प्रकार;ऊर्णुत--ढक लेती है; तथा--उसी प्रकार; तत्‌-विषयाम्‌--उनके विषय में; धेहि--मुझे बताएँ; मनीषाम्‌--दार्शनिक विधि से;मयि--मुझको; माधव--समस्त शक्तियों के स्वामी |

    हे माधव, मुझे उन सबके विषय में दार्शनिक विधि से बताएँ।

    आप मकड़ी के समान खेल करने वाले हैं, जो अपनी ही शक्ति से अपने को ढक लेती है।

    आपका संकल्प अचूक है।

    भगवच्छिक्षितमहं करवाणि ह्यतन्द्रितः ।

    नेहमानः प्रजा-सर्ग बध्येयं यदनुग्रहात्‌ ॥

    २९॥

    भगवत्‌--भगवान्‌ द्वारा; शिक्षितम्‌-शिक्षा प्राप्त; अहम्‌-मैं; करवाणि--कार्य के द्वारा; हि--निश्चय ही; अतन्द्रित:--'कारणस्वरूप; न--कभी नहीं; इहमान:--यद्यपि कार्य करते हुए; प्रजा-सर्गम्‌--जीवात्माओं की उत्पत्ति; बध्येयम्‌--बद्ध होऊँ;यत्‌--जिससे; अनुग्रहात्‌ू-कृपा से।

    कृपा करके मुझे बतलाएँ जिससे आपकी आज्ञानुसार मैं इस विषय की शिक्षा प्राप्त करसकूँ और इस तरह ऐसे कार्यों से आबद्ध हुए बिना जीवात्माओं को यंत्रवत्‌ उत्पन्न करने का कार्यकरता रहूँ।

    यावत्‌ सखा सख्युरिवेश ते कृतःप्रजा-विसगें विभजामि भो जनम्‌ ।

    अविक्लव्स्ते परिकर्मणि स्थितोमा मे समुन्नद्ध-मदोजमानिन: ॥

    ३०॥

    यावत्‌-- चूँकि; सखा--मित्र; सख्यु:--मित्र को; इब--समान; ईश--हे भगवान्‌; ते--तुम; कृतः--स्वीकार किया है; प्रजा--जीवात्माएँ; विसगें--सृष्टि के कार्य में; विभजामि--क्योंकि मैं इसे भिन्न रीति से करूँगा; भोः--हे भगवान्‌; जनम्‌--जन्म लेनेवाले; अविक्लव:--विचलित हुए बिना; ते--तुम्हारा; परिकर्मणि--सेवा कार्य में; स्थित:--स्थित; मा--कभी न हो; मे--मुझको; समुन्नद्ध--उदय होने पर; मद:ः--उन्माद; अज--हे अजन्मा; मानिन:--ऐसे माने जाने वाले ।

    हे अजन्मा भगवान्‌, आपने मुझसे उसी प्रकार हाथ मिलाया है, जिस प्रकार कोई मित्र अपनेमित्र से मिलाता है ( मानो पद में समान हो )।

    अब मैं विभिन्न जीवात्माओं की सृष्टि करने मेंलगूँगा और आपकी सेवा करता रहूँगा।

    मैं किसी तरह विचलित नहीं होऊँगा।

    किन्तु मेरी प्रार्थनाहै कि कहीं इन सबसे मुझे गर्व न हो जाय कि मैं ही परमेश्वर हूँ।

    श्री - भगवानुवाचज्ञानं परम-गुह्मं मे यद्‌ विज्ञान-समन्वितम्‌ ।

    सरहस्यं तदड़ं च गृहाण गदितं मया ॥

    ३१॥

    श्री-भगवान्‌ उबाच-- श्रीभगवान्‌ ने कहा; ज्ञानमू--प्राप्त ज्ञान; परम--अत्यधिक ; गुहाम्‌--गोपनीय; मे--मेरा; यत्‌--जो;विज्ञान--बोध; समन्वितम्‌--से युक्त; स-रहस्यम्‌-- भक्ति सहित; तत्‌ू--उसकी; अड्रम्‌ च--आवश्यक सामग्री; गृहाण--ग्रहणकरने का यतल करो; गदितम्‌--व्याख्या की गईं; मया--मेरे द्वारा ।

    श्रीभगवान्‌ ने कहा--शाम्त्रों में वर्णित मुझसे सम्बन्धित ज्ञान अत्यन्त गोपनीय है उसे भक्तिके समन्वय द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

    इस विधि के लिए आवश्यक सामग्री की व्याख्यामेरे द्वारा की जा चुकी है।

    तुम इसे ध्यानपूर्वक ग्रहण करो।

    यावानहं यथा-भावो यद्वूप-गुण-कर्मक: ।

    तथेव तत्त्व-विज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्‌ू ॥

    ३२॥

    यावान्‌--मेरे जितने दिव्य रूप हैं; अहम्‌ू--मैं; यथा--जिस प्रकार; भाव:--दिव्य अस्तित्व; यत्‌ू--उन; रूप--विभिन्न रूप तथारंग; गुण--गुण; कर्मक:--कार्य; तथा--उसी प्रकार से; एब--निश्चय ही; तत्त्व-विज्ञानम्‌ू--वास्तविक बोध; अस्तु--हो; ते--तुमको; मत्‌--मेरी; अनुग्रहात्‌-- अहैतुकी कृपा से।

    मेरी अहैतुकी कृपा से तुम्हारे अन्तःकरण में उदय होने वाले वास्तविक बोध से तुम्हें मेरेविषय में सब कुछ--मेरा वास्तविक शाश्रत रूप तथा मेरा दिव्य अस्तित्व, रंग, गुण तथाकार्य--ज्ञात हो सकेगा।

    अहमेवासमेवाग्रे नान्‍्यद्‌ यत्‌ सदसत्‌ परम्‌ ।

    पश्चादहं यदेतच्च योउवशिष्येत सोस्म्यहम्‌ ॥

    ३३॥

    अहमू--मैं, भगवान्‌; एव--निश्चय ही; आसम्‌-- था; एब--केवल; अग्रे--सृष्टि के पहिले; न--कभी नहीं; अन्यत्‌-- अन्यकुछ; यत्‌ू--जो; सत्‌--कार्य; असत्‌--कारण; परम्‌--परम; पश्चात्‌-- अन्त में; अहमू--मैं भगवान्‌; यत्‌--ये सब; एतत्‌--सृष्टि; च-- भी; यः--प्रत्येक वस्तु; अवशिष्येत--बचा रहता है; सः--वह; अस्मि--हूँ; अहम्‌--मैं,भगवान्‌हे ब्रह्मा, वह मैं ही हूँ जो सृष्टि के पूर्व विद्यमान था, जब मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।

    तब इस सृष्टि की कारणस्वरूपा भौतिक प्रकृति भी नहीं थी।

    जिसे तुम अब देख रहे हो, वह भी मैंही हूँ और प्रलय के बाद जो शेष रहेगा वह भी मैं ही हूं।

    ऋतेथ यत्‌ प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।

    तद्ठिद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तम: ॥

    ३४॥

    ऋते--रहित; अर्थम्‌--सार; यत्‌--जो; प्रतीयेत--प्रतीत होता है; न--नहीं; प्रतीयेत-- प्रतीत होता है; च--तथा; आत्मनि--मेरेप्रसंग में; तत्‌--वह; विद्यात्‌--तुम्हें जानना चाहिए; आत्मन:--मेरी; मायाम्‌--माया; यथा--जिस तरह; आभास: --प्रतिबिम्ब;यथा--जिस प्रकार; तम:--अंधकार।

    हे ब्रह्म, जो भी सारयुक्त प्रतीत होता है, यदि वह मुझसे सम्बन्धित नहीं है, तो उसमें कोईवास्तविकता नहीं है।

    इसे मेरी माया जानो, इसे ऐसा प्रतिबिम्ब मानो जो अन्धकार में प्रकट होताहै।

    यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।

    प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्‌ ॥

    ३५॥

    यथा--जिस तरह; महान्ति--सर्वव्यापी; भूतानि--त तत्त्व; भूतेषु उच्च-अवचेषु--लघु तथा विराट में; अनु--पीछे; प्रविष्टानि--प्रवेश कर लिया; अप्रविष्टानि--प्रविष्ट नहीं; तथा--उसी तरह; तेषु--उनमें; न--नहीं; तेषु--उनमें; अहम्‌--मैं ।

    हे ब्रह्मा, तुम यह जान लो कि ब्रह्माण्ड के सारे तत्त्व विश्व में प्रवेश करते हुए भी प्रवेश नहींकरते हैं।

    उसी प्रकार मैं उत्पन्न की गई प्रत्येक वस्तु में स्थित रहते हुए भी साथ ही साथ प्रत्येकवस्तु से पृथक्‌ रहता हूँ।

    एतावदेव जिज्ञास्य॑ तत्त्व-जिज्ञासुनात्मन: ।

    अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां यत्‌ स्यात्‌ सर्वत्र सर्वदा ॥

    ३६॥

    एतावत्‌--यहाँ तक; एव--निश्चय ही; जिज्ञास्यम्‌-पूछा जाना चाहिए; तत्त्व--परम सत्य; जिज्ञासुना--विद्यार्थी द्वारा;आत्मन:--स्व का; अन्वय- प्रत्यक्ष; व्यतिरिकाभ्याम्‌--अ प्रत्यक्ष रूप से; यत्‌ू--जो भी; स्यात्‌ू--सम्भव है; सर्वत्र--सभी जगहतथा सर्वकाल में; सर्वदा--समस्त परिस्थितियों में ।

    जो व्यक्ति परम सत्य रूप श्रीभगवान्‌ की खोज में लगा हो उसे चाहिए कि वह समस्त परिस्थितियों में सर्वत्र और सर्वदा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से इसकी खोज करे।

    एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।

    भवान्‌ कल्प-विकल्पेषु न विमुह्मति कहिंचित्‌ ॥

    ३७॥

    एतत्‌--यह; मतम्‌--निष्कर्ष, निर्णय; समातिष्ठ--स्थित रहते हैं; परमेण ---परम; समाधिना--समाधि द्वारा, ध्यान केएकाग्रीकरण से; भवान्‌--आप; कल्प--बीच की प्रलय; विकल्पेषु-- अन्तिम प्रलय में; न विमुह्मति--मोहित नहीं करेगा;कह्िचित्‌--कुछ भी

    हे ब्रह्मा तुम मन को एकाग्र करके इस निर्णय का पालन करो।

    तुम्हें, न तो आंशिक और नही पूर्ण प्रलय के समय किसी प्रकार का गर्व विचलित कर सकेगा।

    श्री शुक उवाचसम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम्‌ ।

    पश्यतस्तस्य तद्‌ रूपमात्मनो न्यरुणद्धरिः ॥

    ३८ ॥

    श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; सम्प्रदिश्य--ब्रह्माजी को पूरी तरह उपदेश देकर; एवम्‌--इस प्रकार;अजनः--परसे श्वर; जनानाम्‌ू--जीवात्माओं के; परमेष्ठिनम्‌--परम नेता, ब्रह्मा को; पश्यत:--देखते हुए; तस्य--उसका; तत्‌रूपम्‌--उस दिव्य रूप को; आत्मन: --परमे श्वर का; न्यरुणत्‌-- अन्तर्धान हो गये; हरिः-- भगवान्‌ |

    शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित से कहा--जीवात्माओं के नायक ब्रह्मा को अपनेदिव्य रूप में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हरि इस प्रकार उपदेश देते दिखे और फिर अन्तर्धान होगये।

    अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताझञलि: ।

    सर्व-भूतमयो विश्व ससर्जेदं स पूर्ववत्‌ ॥

    ३९॥

    अन्तर्हित--अन्तर्धान होने पर; इन्द्रिय-अर्थाय--समस्त इन्द्रियों के लक्ष्य, श्रीभगवान्‌ के लिए; हरये--भगवान्‌ के लिए; विहित-अज्जलि:--हाथ जोड़कर; सर्व-भूत--समस्त जीवात्माओं; मय: --से पूर्ण; विश्वम्‌--ब्रह्माण्ड; ससर्ज--उत्पन्न किया; इृदम्‌--यह; सः--उसने ( ब्रह्माजी ); पूर्व-वत्‌--पहले की भाँति।

    भक्तों की इन्द्रियों को दिव्य आनन्द प्रदान करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ हरि केअन्तर्धान हो जाने पर ब्रह्माजी हाथ जोड़े हुए ब्रह्माण्ड की जीवात्माओं से पूर्ण वैसी ही सृष्टि पुनःकरने लगे जिस प्रकार वह इसके पूर्व थी।

    प्रजापतिर्धर्म-पतिरेकदा नियमान्‌ यमान्‌ ।

    भद्रं प्रजानामन्विच्छन्नातिष्ठत्‌ स्वार्थ-काम्यया ॥

    ४०॥

    प्रजा-पति: --समस्त जीवात्माओं के पूर्वज; धर्म-पति:--धर्म के पिता; एकदा--एक बार; नियमान्‌--विधि-विधानों; यमान्‌ू--संयम के नियम; भद्रमू--कल्याण; प्रजानाम्‌ू--जीवों का; अन्विच्छन्‌--इच्छा से; आतिष्ठत्‌--स्थित; स्व-अर्थ--अपना हित;काम्यया--कामना करते हुए।

    एक बार जीवों के पूर्वज तथा धर्म के पिता ब्रह्माजी ने समस्त जीवात्माओं के कल्याण में हीअपना हित समझते हुए विधिपूर्वक यम-नियमों को धारण किया।

    त॑ नारद: प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः ।

    शुश्रूषमाण: शीलेन प्रश्रयेण दमेन च ॥

    ४१॥

    तम्‌--उसको; नारद: --नारद मुनि; प्रियतम: --अत्यन्त प्रिय; रिक्थ-आदानाम्‌--उत्तराधिकारी पुत्रों का; अनुव्रत:--अत्यन्तआज्ञाकारी; शुश्रूषमाण:-- सदैव सेवा के लिए उद्यत; शीलेन--सदाचरण से; प्रश्रयेण--विनयशीलता से; दमेन--इन्द्रिय-संयमसे; च--भी

    ब्रह्मा के उत्तराधिकारी पुत्रों में सर्वाधिक प्रिय नारद अपने पिता की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं और अपने पिता के उपदेशों का अत्यन्त संयम, विनय तथा सौम्यता से पालन करते हैं।

    मायां विविदिषन्‌ विष्णोर्मायेशस्यथ महा-मुनिः ।

    महा-भागवतो राजन पितरं पर्यतोषयत्‌ ॥

    ४२॥

    मायाम्‌-शक्तियाँ; विविदिषन्‌--जानने की इच्छा से; विष्णो:-- भगवान्‌ की; माया-ईशस्य--समस्त शक्तियों के स्वामी का;महा-मुनि:--ऋषि; महा- भागवत: -- भगवान्‌ का उत्कृष्ट भक्त; राजन्‌ू--हे राजा; पितरम्‌-- अपने पिता को; पर्यतोषयत्‌--अत्यन्त प्रसन्न किया।

    हे राजन, नारद ने अपने पिता को अत्यधिक प्रसन्न कर लिया और समस्त शक्तियों के स्वामीविष्णु की शक्तियों के विषय में जानने की इच्छा प्रकट की, क्योंकि नारद समस्त ऋषियों तथासमस्त भक्तों में सर्वोपरि हैं।

    तुष्टे निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम्‌ ।

    देवर्षि: परिपप्रच्छ भवान्यन्‌ मानुपृच्छति ॥

    ४३॥

    तुष्टमू-प्रसन्न; निशाम्य--देखकर; पितरम्‌--पिता को; लोकानाम्‌--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का; प्रपितामहम्‌--परदादा; देवर्षि: --नारद ऋषि ने; परिपप्रच्छ--पूछा; भवान्‌ू--तुम; यत्‌--जो; मा--मुझसे; अनुपृच्छति -- पूछ रहे हो ।

    जब नारद ने देखा कि समस्त ब्रह्माण्ड के प्रपितामह ब्रह्माजी मुझ पर प्रसन्न हैं, तो महर्षिनारद ने अपने पिता से विस्तार में भी पूछा।

    तस्मा इदं भागवतं पुराणं दश-लक्षणम्‌ ।

    प्रोक्ते भगवता प्राह प्रीत: पुत्राय भूत-कृत्‌ ॥

    ४४॥

    तस्मै--तत्पश्चात्‌; इदम्‌--यह; भागवतम्‌-- भगवान्‌ की महिमा, अथवा भगवद्‌-ज्ञान; पुराणम्‌--उपवेद; दश-लक्षणम्‌--दसविशिष्टताएँ; प्रोक्तमू--वर्णित; भगवता-- भगवान्‌ द्वारा; प्राह--कहा; प्रीत:--संतुष्ट होकर; पुत्राय--पुत्र से; भूत-कृत्‌--ब्रह्माण्ड के सतरष्टा)।

    तब जाकर पिता ( ब्रह्मा ) ने अपने पुत्र नारद को श्रीमद्भागवत नामक उपवेद पुराण कहसुनाया जिसका वर्णन श्रीभगवान्‌ ने उनसे किया था और जो दस लक्षणों से युक्त है।

    नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नूप ।

    ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासायामित-तेजसे ॥

    ४५॥

    नारद:--नारद मुनि ने; प्राह--उपदेश दिया; मुनये-- मुनि को; सरस्वत्या:--सरस्वती नदी के; तटे--तट पर; नृप--हे राजन;ध्यायते-- ध्यानमग्न; ब्रह्य--परम सत्य; परमम्‌--परमे श्वर; व्यासाय-- श्रील व्यासदेव के लिए; अमित--अपार; तेजसे --शक्तिमान को।

    हे राजनू, उसी परम्परा में नारद मुनि ने श्रीमद्भागवत का उपदेश अनन्त शक्तिमान उनव्यासदेव को दिया जो सरस्वती नदी के तट पर भक्ति में स्थित होकर परम सत्य, पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान्‌ का ध्यान कर रहे थे।

    यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात्‌ पुरुषादिदम्‌ ।

    यथासीत्तदुपाख्यास्ते प्रश्नानन्यांश्व॒ कृत्सनश: ॥

    ४६॥

    यत्‌--जो; उत-हैं; अहम्‌--मैं; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; पृष्ट:--पूछा जाकर; वैराजातू--विराट रूप; पुरुषात्‌-- भगवान्‌ से;इदम्‌--यह जगत; यथा--जिस प्रकार; आसीत्‌--था; तत्‌--वह; उपाख्यास्ते--मैं कहूँगा; प्रश्नान्‌ू--समस्त प्रश्न; अन्यानू--अन्य; च--भी; कृत्स्नश:--विस्तार से

    हे राजन्‌, तुम्हारे इस प्रश्न का कि यह ब्रह्माण्ड भगवान्‌ के विराट रूप से किस प्रकार प्रकटहुआ तथा अन्य प्रश्नों का उत्तर मैं पूर्वोक्त चारों शलोकों की व्याख्या के रूप में विस्तारपूर्वक दूँगा।

    TO

    अध्याय दस: भागवत सभी प्रश्नों का उत्तर है

    2.10श्री -शुक उवाचअन्न सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतय: ।

    मन्वन्तरेशानुकथानिरोधो मुक्तिराभ्रय: ॥

    १॥

    श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अत्र--इस श्रीमद्भागवत में; सर्ग:--ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का वर्णन;विसर्ग:--उप-सृष्टि का वर्णन; च--भी; स्थानम्‌--लोक; पोषणम्‌--संरक्षण; ऊतयः--सृष्टि की प्रेरणा; मन्वन्तर--मनुओं कापरिवर्तन; ईश-अनुकथा:--ई श्वर का ज्ञान; निरोध: -- भगवान्‌ के धाम को वापस जाना; मुक्ति:--मुक्ति; आश्रय:--आधार।

    श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा--इस श्रीमद्भागवत में दस विभाग हैं, जो ब्रह्माण्ड कीउत्पत्ति, उप-सृष्टि, लोकान्तर, भगवान्‌ द्वारा पोषण, सृष्टि प्रेरणा, मनुओं के परिवर्तन, ईश्वर ज्ञान,अपने घर-भगवद्धाम गमन, मुक्ति तथा आश्रय से सम्बन्धित हैं।

    दशमस्य विशुद्धरर्थ नवानामिह लक्षणम्‌ ।

    वर्णयन्ति महात्मान: श्रुतेनार्थन चाजझ्सा ॥

    २॥

    दशमस्य--दसवें ( आश्रय ) का; विशुद्धि--एकमात्र; अर्थभम्‌--कारण; नवानाम्‌--अन्य नौ के; इह--इसी श्रीमद्भागवत में;लक्षणम्‌--लक्षण; वर्णयन्ति--वर्णन करते हैं; महा-आत्मान:--ऋषिगण; श्रुतेन--वैदिक साक्ष्यों से; अर्थन-- प्रत्यक्ष व्याख्याद्वारा; च--तथा; अद्भजसा--संक्षिप्त रूप में ।

    इनमें से जो दसवाँ 'आश्रय' तत्त्व है उसकी दिव्यता को अन्यों से पृथक््‌ करने के लिए, उनसबका वर्णन कभी वैदिक साक्ष्य से, कभी प्रत्यक्ष व्याख्या से और कभी महापुरुषों द्वारा दी गईसंक्षिप्त व्याख्याओं से किया जाता है।

    भूत-मात्रेन्द्रिय-धियां जन्म सर्ग उदाहत: ।

    ब्रह्मणो गुण-वैषम्याद्‌ विसर्ग: पौरुष: स्मृतः ॥

    ३॥

    भूत--पाँच स्थूल तत्त्व ( क्षिति, जल आदि ); मात्रा--इन्द्रियों द्वारा हश्य वस्तुएँ; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; धियामू-- मन; जन्म--उत्पत्ति; सर्ग:--प्राकट्य; उदाहत: --सृष्टि कहलाती है; ब्रह्मण:-- आदि पुरुष ब्रह्मा का; गुण-वैषम्यात्‌--तीनों गुणों की अन्तःक्रिया से; विसर्ग:--दुबारा सृष्टि; पौरुष:--चेष्टाएँ; स्मृत:--कहलाती हैं ।

    पदार्थ के सोलह प्रकार--अर्थात्‌ पाँच तत्त्व ( क्षिति, जल, पावक, गगन तथा वायु ),ध्वनि, रूप, स्वाद, गंध, स्पर्श तथा नेत्र, कान, नाक, जीभ, त्वचा एवं मन--की तात्विक सृष्टि सर्ग कहलाती है और प्रकृति के गुणों की बाद की अन्तःक्रिया विसर्ग कहलाती है।

    स्थितिर्वैकुण्ठ-विजय: पोषणं तदनुग्रह: ।

    मन्वन्तराणि सद्धर्म ऊतयः कर्म-वासना: ॥

    ४॥

    स्थितिः--उचित दशा; वैकुण्ठ-विजय:--वैकुण्ठ के स्वामी की विजय; पोषणम्‌--पालन; तत्‌-अनुग्रह:--अहैतुकी कृपा;मन्वन्तराणि--मनुओं के शासन; सतू-धर्म:--पूर्ण धर्म; ऊतय:ः--कार्य करने की प्रेरणा; कर्म-वासना: --सकाम कर्म कीआकाांक्षा।

    जीवात्मा के लिए उचित तो यही है कि वह भगवान्‌ के नियमों का पालन करे और पूर्णपुरुषोत्तम भगवान्‌ के संरक्षण में पूरी तरह से मानसिक शान्ति प्राप्त करे।

    सभी मनु तथा उनकेनियम जीवन को सही दिशा प्रदान करने के लिए हैं।

    कार्य करने की प्रेरणा ही सकाम कर्म कीआकांक्षा है।

    अवतारानुचरित हरेश्वास्यानुवर्तिनाम्‌ ।

    पुंसामीश-कथाः प्रोक्ता नानाख्यानोपबृंहिता: ॥

    ५॥

    अवतार--भगवान्‌ का अवतार; अनुचरितम्‌-कार्यकलाप; हरे: -- भगवान्‌ के; च-- भी; अस्य--उसके ; अनुवर्तिनाम्‌--अनुयायी; पुंसाम्‌--मनुष्यों का; ईश-कथा:--ईश्वर का विज्ञान, भगवत्तत्व; प्रोक्ता:--कहा गया; नाना--विविध; आख्यान--कथाएँ; उपबृूंहिता:--वर्णित ।

    ईश्वर-विज्ञान ( ईश-कथा ) श्रीभगवान्‌ के विविध अवतारों, उनकी लीलाओं तथा साथ हीउनके भक्तों के कार्यकलापों का वर्णन करता है।

    निरोधोस्यानुशयनमात्मन: सह शक्तिभि: ।

    मुक्तिह्हित्वान्यथारूपं स्व-रूपेण व्यवस्थिति: ॥

    ६॥

    निरोध:--जगत का लय; अस्य--उसका; अनुशयनम्‌--पुरुष अवतारी महाविष्णु का योगनिद्रा में लेटना; आत्मन:--जीवात्माओं का; सह--साथ; शक्तिभि:--शक्तियों के साथ; मुक्ति: --मुक्ति; हित्वा--त्याग कर; अन्यथा--नहीं तो; रूपम्‌--रूप; स्व-रूपेण-- स्वरूप में; व्यवस्थिति:--स्थायी पद

    अपनी बद्धावस्था के जीवन-सम्बन्धी प्रवृत्ति के साथ जीवात्मा का शयन करते हुएमहाविष्णु में लीन होना प्रकट ब्रह्माण्ड का परिसमापन कहलाता है।

    परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति ' मुक्ति ' है।

    आभासश्च निरोधश्व यतोउस्त्यध्यवसीयते ।

    स आश्रय: परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते ॥

    ७॥

    आभास: --जगत की उत्पत्ति; च--तथा; निरोध:--तथा लय; च-- भी; यत:--स्त्रोत से; अस्ति--है; अध्यवसीयते--प्रकटहोता है; सः--वह; आश्रय:--आगार; परम्‌ू--परम; ब्रह्म--जीव; परमात्मा--परम-आत्मा; इति--इस प्रकार; शब्द्यते--कहागया है।

    परम पुरुष अथवा परमात्मा कहलाने वाले परमेश ही दृश्य जगत के परम स्त्रोत, इसकेआगार ( आश्रय ) तथा लय हैं।

    इस प्रकार वे परम स्त्रोत, परम सत्य हैं।

    योडध्यात्मिकोयं पुरुष: सोडइसावेवाधिदैविक: ।

    यस्तत्रो भय-विच्छेद: पुरुषो ह्याधिभौतिक: ॥

    ८॥

    यः--जो; अध्यात्मिक:--इन्द्रियों से युक्त; अयम्‌ू--यह; पुरुष:--व्यक्ति; सः--वह; असौ--वह; एव-- भी; अधिदैविक:--नियामक देव; यः--जो; तत्र--वहाँ; उभय--दोनों का; विच्छेद: --वियोग; पुरुष: -- व्यक्ति; हि-- क्योंकि; आधिभौतिक:--हृए्य शरीर अथवा देहवान जीवात्मा ।

    विभिन्न इन्द्रियों से युक्त व्यक्ति आध्यात्मिक पुरुष कहलाता है और इन इन्द्रियों को वश मेंरखने वाला देव ( श्रीविग्रह ) अधिदेविक कहलाता है।

    नेत्रगोलकों में दिखने वाला स्वरूपअधिभौतिक पुरुष कहलाता है।

    एकमेकतराभावे यदा नोपलभामहे ।

    त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रया श्रय: ॥

    ९॥

    एकम्‌--एक; एकतर--अन्य; अभावे--के न होने पर; यदा--क्योंकि; न--नहीं; उपलभामहे -- दृश्य; त्रितयम्‌--तीनअवस्थाएँ; तत्र--वहाँ; यः--जो; वेद-- जानता है; सः--वह; आत्मा--परमात्मा; स्व--निज; आश्रय--शरण; आश्रय: --शरण का।

    विभिन्न जीवात्माओं की उपर्युक्त तीनों अवस्थाएँ अन्योन्याश्रित हैं।

    किसी एक के अभाव मेंदूसरे को नहीं समझा जा सकता।

    किन्तु परमेश्वर इन सबको एक दूसरे के आश्रय रूप में देखताहुआ इन सबसे स्वतन्त्र है, अत: वह परम आश्रय है।

    पुरुषोण्डं विनिर्भिद्य यदासौ स विनिर्गत: ।

    आत्मनोयनमन्विच्छन्नपो उस्त्राक्षीच्छुचि: शुच्ची: ॥

    १०॥

    पुरुष: --परम पुरुष, परमात्मा; अण्डम्‌ू--ब्रह्माण्ड को; विनिर्भिद्य--प्रत्येक को अलग-अलग स्थापित करके; यदा--जब;असौ--वही; सः--वह ( भगवान्‌ ); विनिर्गतः--बाहर निकल आया; आत्मन:--अपना; अयनम्‌--स्थान पर पड़े हुए;अन्विच्छन्‌--चाहते हुए; अप:--जल; अस्त्राक्षीत्‌--उत्पन्न किया; शुच्िः:--परम पवित्र; शुच्ची: --दिव्य ।

    विभिन्न ब्रह्मण्डों को पृथक्‌ करके विराट स्वरूप भगवान्‌ ( महाविष्णु ), जो प्रथम पुरुषअवतार के प्रकट होने के स्थान कारणार्णव से बाहर आये थे, सृजित दिव्य जल ( गर्भोदक ) मेंशयन करने की इच्छा से उन विभिन्न ब्रह्माण्डों में प्रविष्ट हुए ।

    तास्ववात्सीत्‌ स्व-सृष्टासु सहस्त्रंपरिवत्सरान्‌ ।

    तेन नारायणो नाम यदाप:ः पुरुषोद्धवा: ॥

    ११॥

    तासु--उसमें; अवात्सीत्‌--रह रहे; स्व-- अपनी ; सृष्टासु--सृष्टि करने में; सहस्त्रमू--एक हजार; परिवत्सरान्‌--वर्ष; तेन--उसकारण से; नारायण: --नारायण; नाम--नाम; यत्‌-- क्योंकि; आप: --जल; पुरुष-उद्धवा: --परम पुरुष से उद्भूत।

    परम पुरुष निराकार नहीं हैं, अतः वे स्पष्टत: नर अथवा पुरुष हैं।

    इसीलिए इन परम नर द्वाराउत्पन्न दिव्य जल नार कहलाता है।

    चूँकि वे इसी जल में शयन करते हैं इसीलिए नारायणकहलाते हैं।

    द्र॒व्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।

    यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यदुपेक्षया ॥

    १२॥

    द्रव्यमू-- भौतिक तत्त्व; कर्म--कर्म; च--तथा; काल:--समय; च-- भी; स्व-भाव: जीव:--जीवात्माएँ; एव--निश्चय ही;च--भी; यत्‌--जिसके; अनुग्रहत:--अनुग्रह से; सन्ति--हैं, स्थित हैं; न--नहीं; सन्ति--स्थित हैं; यत्‌-उपेक्षया--उपेक्षा से

    मनुष्य को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि समस्त भौतिक तत्त्व, कर्म, काल तथागुण और इन सब को भोगने वाली जीवात्माएँ भगवत्कृपा से ही विद्यमान हैं।

    उनके द्वारा उपेक्षितहोते ही ये सारी वस्तुओं अस्तित्वहीन हो जाती हैं।

    एको नानात्वमन्विच्छन्‌ योग-तल्पात्‌ समुत्थित: ।

    वीर्य हिरण्मयं देवो मायया व्यसूजत्‌ त्रिधा ॥

    १३॥

    एक:--अकेला, वह; नानात्वम्‌--अनेक; अन्विच्छन्‌--ऐसी इच्छा से; योग-तल्पात्‌--योगनिद्रा की शय्या से; समुत्थित: --उत्पन्न; वीर्यम्‌ू--वीर्य; हिरण्मयम्‌--सुनहले रंग का; देव: --देवता; मायया--माया से; व्यसृजत्‌--रचना की; त्रिधा--तीनभागों में |

    योगनिद्रा की शय्या में लेटे हुए भगवान्‌ ने एकाकी रूप में से नाना प्रकार के जीवों कोप्रकट करने की इच्छा करते हुए अपनी बहिरंगा शक्ति से सुनहरे रंग का वीर्य-प्रतीक उत्पन्नकिया।

    अधिदैवमथाध्यात्ममधिभूतमिति प्रभु: ।

    अथेकं पौरुषं वीर्य त्रिधाभिद्यत तच्छुणु ॥

    १४॥

    अधिदेवम्‌--नियंत्रक जीव; अथ-- अब; अध्यात्मम्‌-- नियन्त्रित जीव; अधिभूतम्‌-- भौतिक शरीर; इति--इस प्रकार; प्रभु:--भगवान्‌; अथ--इस प्रकार; एकम्‌--केवल एक; पौरुषमू--पुरुष की, भगवान्‌ की; वीर्यम्‌--शक्ति; त्रिधा--तीन भागों में;अभिद्यत--विभक्त हुई; तत्‌ू--वह; श्रूणु--सुनो

    मुझसे सुनो कि भगवान्‌ अपनी एक शक्ति को किस प्रकार अधिदैव, अध्यात्म तथाअधिभूत नामक तीन भागों में विभक्त करते हैं, जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है।

    अन्तःशरीर आकाशातू पुरुषस्य विचेष्टतः ।

    ओज: सहो बल जज्ञे ततः प्राणो महानसु: ॥

    १५॥

    अन्तः शरीरे--शरीर के भीतर; आकाशात्‌--आकाश से; पुरुषस्य--महाविष्णु के; विचेष्टत:--चेष्टा करते हुए; ओज:--इन्द्रियबल; सह:--मानसिक बल; बलमू्‌--शारीरिक बल; जज्ञे--उत्पन्न किया; ततः--तत्पश्चात्‌; प्राण:--प्राण, जीवनी शक्ति; महान्‌असुः--प्रत्येक जीवन का उत्स ।

    महाविष्णु के दिव्य शरीर के भीतर स्थित आकाश से इन्द्रिय बल, मानसिक बल तथाशारीरिक बल उत्पन्न होते हैं।

    इनके साथ ही सम्पूर्ण जीवनी शक्ति ( प्राण ) का समग्र उत्स( स्रोत ) उत्पन्न होता है।

    अनुप्राणन्ति य॑ प्राणा: प्राणन्तं सर्व-जन्तुषु ।

    अपानन्तमपानन्ति नर-देवमिवानुगा: ॥

    १६॥

    अनुप्राणन्ति--जीवित लक्षणों का अनुसरण करते हैं; यम्‌--जिसको; प्राणा:--इन्द्रियाँ; प्राणन्‍्तम्‌--चेष्टावान्‌; सर्व-जन्तुषु--समस्त जीवों में; अपानन्तम्‌--चेष्टा रोकने पर; अपानन्ति--अन्य सभी रुक जाते हैं; नर-देवम्‌--राजा; इब--सहृश; अनुगा:--अनुयायी

    जिस प्रकार राजा के अनुयायी अपने स्वामी का अनुसरण करते हैं उसी तरह सम्पूर्ण शक्तिके गतिशील होने पर अन्य समस्त जीव हिलते-डुलते ( गति करते ) हैं और जब सम्पूर्ण शक्तिनिश्चेष्ट हो जाती है, तो अन्य समस्त जीवों की इन्द्रिय-क्रियाशीलता रुक जाती है।

    प्राणेनाक्षिपता क्षुत्‌ तृडन्तरा जायते विभो: ।

    पिपासतो जक्षतश्च प्राइमुखं निरभिद्यत ॥

    १७॥

    प्राणेन--जीवनी शक्ति से; आक्षिपता--विचलित होकर; क्षुत्‌-- भूख; तृटू--प्यास; अन्तरा-- भीतर से; जायते--उत्पन्न करतीहैं; विभो:--परमे श्वर की; पिपासतः--प्यास बुझाने के लिए इच्छुक; जक्षतः--खाने के लिए इच्छुक; च--तथा; प्राक्‌ --पहले;मुखम्‌--मुँह; निरभिद्यत--प्रकट हुआ।

    विराट पुरुष द्वारा विचलित किए जाने पर जीवनी शक्ति ( प्राण ) ने भूख तथा प्यास कोउत्पन्न किया और जब विराट पुरुष ने पीने तथा खाने की इच्छा की तो मुँह खुल गया।

    मुखतस्तालु निर्भिन्नं जिह्ना तत्रोपजायते ।

    ततो नाना-रसो जज्ने जिहयया योउधिगम्यते ॥

    १८॥

    मुखतः:--मुख से; तालु--तालू; निर्भिन्नम्‌ू--उत्पन्न; जिह्वा--जीभ; तत्र--तत्पश्चात्‌; उपजायते--प्रगट होती है; ततः--तत्पश्चात्‌;नाना-रसः--अनेक स्वाद; जज्ञे--प्रकट हुए; जिहृया--जी भ से; यः--जो; अधिगम्यते--आस्वादित होते हैं।

    मुख से तालू प्रकट हुआ और फिर जीभ भी उत्पन्न हुईं।

    इन सबके बाद विविध स्वादों कीउत्पत्ति हुई जिससे जीभ उनका स्वाद ले सके।

    विवज्षोर्मुखतो भूम्नो वहिर्वाग्‌ व्याहतं तयो: ।

    जले चैतस्य सुचिरं निरोध: समजायत ॥

    १९॥

    विवक्षो:--जब बोलने की आवश्यकता हुईं; मुखतः --मुख से; भूम्न:--परमे श्वर की; वह्विः-- अग्नि या अग्निदेव; वाक्‌--शब्द; व्याहतम्‌--वाणी; तयो: --दोनों के द्वारा; जले--जल में; च--फिर भी; एतस्य--इन सबका; सुचिरम्‌--दीर्घ काल तक;निरोध:--अवरोध; समजायत--बना रहा।

    जब परम पुरुष की बोलने की इच्छा हुईं तो उनके मुख से वाणी गूँजी।

    फिर मुख सेअधिष्ठाता देव अग्नि की उत्पत्ति हुईं।

    किन्तु जब वे जल में शयन कर रहे थे तो ये सारे कार्य बन्दपड़े थे।

    नासिके निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति ।

    तत्र वायुर्गन्‍्ध-वहो पघ्राणो नसि जिघृक्षतः ॥

    २०॥

    नासिके--नथुनों में; निरभिद्येतामू--विकसित होकर; दोधूयति--तेजी से निकलती हुई; नभस्वति-- श्वास; तत्र--तत्पश्चात्‌;वायु:--वायु; गन्ध-वह: --सुगन्धि; प्राण:--घ्राण शक्ति; नसि--नाक में; जिघृक्षतः--सुगन्ध सूँघने की इच्छा करते हुए।

    तत्पश्चात्‌ जब परम पुरुष को सुगन्धि सूँघने की इच्छा हुई तो नथुने तथा श्वास, प्राणेन्द्रियतथा सुगन्धियों की उत्पत्ति हुई और सुंगधि को वहन करने वाली वायु के अधिष्ठाता देव भी प्रकट हुए।

    यदात्मनि निरालोकमात्मानं च दिदृक्षत: ।

    निर्भिन्ने हक्षिणी तस्य ज्योतिश्नश्षुर्गुण-ग्रह: ॥

    २१॥

    यदा--जब; आत्मनि--अपने को; निरालोकम्‌--बिना प्रकाश के; आत्मानम्‌--अपना दिव्य शरीर; च--अन्य शारीरिक रूपभी; दिदृक्षतः--देखने की इच्छा की; निर्भिन्ने--प्रगट होने से; हि--क्योंकि; अक्षिणी-- आँखों के; तस्य--उसका; ज्योति: --सूर्य; चक्षु:--आँखें; गुण-ग्रह:--देखने की शक्ति ।

    इस प्रकार जब सारी वस्तुएँ अन्धकार में विद्यमान थीं तो भगवान्‌ की अपने आपको तथाजो कुछ उन्होंने रचा था, उन सबको देखने की इच्छा हुई।

    तब आँखें, प्रकाशमान सूर्यदेव, देखनेकी शक्ति तथा दिखने वाली वस्तु--ये सभी प्रकट हुईं।

    बोध्यमानस्य ऋषिभिरात्मनस्तजिधृक्षत: ।

    कर्णों च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं गुण-ग्रह: ॥

    २२॥

    बोध्यमानस्य--जानने की इच्छा से; ऋषिभि: --ऋषियों द्वारा; आत्मन: --परमे श्रर का; तत्‌--वह; जिधघृक्षतः --ग्रहण करने कीइच्छा होने पर; कर्णौ--दो कान; च-- भी; निरभिद्येतामू--प्रकट हुए; दिश: --दिशा अथवा वायु देवता; श्रोत्रमू--सुनने कीशक्ति; गुण-ग्रह:ः--तथा सुनने की वस्तुएँ।

    महान्‌ ऋषियों द्वारा जानने की इच्छा विकसित होने से कान, सुनने की शक्ति, सुनने केअधिष्ठाता देव तथा सुनने की वस्तुएँ प्रकट हुईं।

    ऋषिगण आत्मा के विषय में सुनना चाह रहे थे।

    वस्तुनो मृदु-काठिन्य-लघु-गुर्वोष्ण-शीतताम्‌ ।

    जिधृक्षतस्त्वड़्ः निर्भिन्ना तस्यां रोम-मही-रुहाः ।

    तत्र चान्तर्बहिर्वातस्त्वचा लब्ध-गुणो वृतः ॥

    २३॥

    वस्तुन:--समस्त पदार्थ की; मृदु--कोमलता; काठिन्य--कठोरता; लघु--हल्कापन; गुरु-- भारीपन; ओष्ण --उष्णता;शीतताम्‌--शीतलता; जिधृक्षत:ः --देखने की इच्छा से; त्वक्‌--स्पर्श; निर्भिन्ना--वितरित; तस्याम्‌-त्वचा में; रोम--रोएँ;मही-रुहाः:--तथा वृक्ष, अधिष्ठाता देव; तत्र-- वहाँ; च-- भी; अन्तः-- भीतर; बहिः--बाहर; वात: त्वचा--स्पर्श इन्द्रिय याचमड़ी; लब्ध--देखकर; गुण: --स्पर्शेन्द्रिय का विषय; वृतः--उत्पन्न ।

    जब पदार्थ के भौतिक गुणों--यथा कोमलता, कठोरता, उष्णता, शीतलता, हल्कापन तथाभारीपन--को देखने की इच्छा हुई तो अनुभूति की पृष्ठभूमि त्वचा, त्वचा के छिद्र, रोम तथाउनके अधिष्ठाता देवों ( वृक्षों ) की उत्पत्ति हुईं।

    त्वचा के भीतर तथा बाहर वायु की खोल है,जिसके माध्यम से स्पर्श का अनुभव होने लगा।

    हस्तौ रुरुहतुस्तस्य नाना-कर्म-चिकीर्षया ।

    तयोस्तु बलवानिन्द्र आदानमुभयाश्रयम्‌ ॥

    २४॥

    हस्तौ--दो हाथ; रुरुहतु:--प्रकट हुए; तस्य--उसके; नाना--विविध; कर्म--कर्म ; चिकीर्षया--इच्छा से; तयो: --उनका;तु-किन्तु; बलवान्‌-शक्ति देने के लिये; इन्द्र:--स्वर्ग का देवता; आदानम्‌ू--हाथ के कार्य; उभय-आश्रयम्‌--देवता तथाहाथ दोनों पर आश्रित।

    तत्पश्चात्‌ जब परम पुरुष को नाना प्रकार के कार्य करने की इच्छा हुई तो दो हाथ तथाउनकी नियामक शक्ति एवं स्वर्ग के देवता इन्द्र के साथ ही दोनों हाथों तथा देवता पर आश्रितकार्य भी प्रकट हुए।

    गति जिगीषतः पादौ रुरुह्मतेईडभिकामिकाम्‌ ।

    पदभ्यां यज्ञ: स्वयं हव्यं कर्मभि: क्रियते नृभि: ॥

    २५॥

    गतिमू--चाल; जिगीषत:ः--इच्छा करने पर; पादौ--दो पाँव; रुरुहाते-- प्रकट होकर; अभिकामिकाम्‌--सार्थक ; पद्भ्याम्‌--पाँवों से; यज्ञ:-- भगवान्‌ विष्णु; स्वयम्‌--स्वयं; हव्यम्‌--कर्तव्य; कर्मभि:ः--अपने कर्म से; क्रियते--कराता है; नृभि:--विभिन्न मनुष्यों द्वारा

    तत्पश्चात्‌ गति ( इधर उधर चलना ) को नियन्त्रित करने की इच्छा से उनकी टाँगें प्रकट हुईंऔर टाँगों से उनके अधिष्ठाता देव विष्णु की उत्पत्ति हुई।

    इस कार्य की स्वयं विष्णु द्वारा निगरानीकरने से सभी प्रकार के मनुष्य अपने-अपने निर्धारित यज्ञों ( कार्यों ) में संलग्न हैं।

    निरभिद्यत शिश्नो वै प्रजानन्दामृतार्थिन: ।

    उपस्थ आसीतू कामानां प्रियं तदुभयाश्रयम्‌ ॥

    २६॥

    निरभिद्यत--बाहर आया; शिश्न:--पुरुष का लिंग; वै--निश्चय ही; प्रजा-आनन्द--काम-रस; अमृत-अर्थिन:--अमृत कोचखने की इच्छा रखने वाला; उपस्थ:--जननेन्द्रियाँ; आसीत्‌--संसार में आई; कामानाम्‌--विषय सुख का; प्रियम्‌-- अत्यन्तप्रिय; तत्‌ू--वह; उभय-आश्रयमू--दोनों का आश्रय।

    तत्पश्चात्‌ काम-सुख, सनन्‍्तानोत्पत्ति तथा स्वर्गिक अमृत सुख के आस्वादन के लिए भगवान्‌ने जननेन्द्रियाँ उत्पन्न कीं।

    इस प्रकार जननेन्द्रिय तथा उसके अधिष्ठाता देव प्रजापति उत्पन्न हुए।

    काम-सुख की वस्तु तथा अधिष्ठाता देव भगवान्‌ की जननेन्द्रियों के अधीन रहते हैं।

    उत्सिसुक्षोर्धातु-मलं निरभिद्यत वै गुदम्‌ ।

    ततः पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रय: ॥

    २७॥

    उत्सिसृक्षो;--मल त्याग की इच्छा से; धातु-मलम्‌--खाद्य पदार्थों का मल; निरभिद्यत--प्रकट हुआ; बै--निश्चय ही; गुदम्‌--गुदा द्वार; ततः--तत्पश्चात्‌; पायु;:--विसर्जन इन्द्रिय; तत:--तत्पश्चात्‌; मित्र:-- अधिष्ठाता देवता; उत्सर्ग:--बाहर निकलने वालीवस्तु; उभय--दोनों; आश्रय: --शरण ।

    तत्पश्चात्‌ जब उन्हें खाये हुए भोजन के मल त्याग की इच्छा हुई तो गुदा द्वार और फिर पायु-इन्द्रिय और उनके अधिष्ठातादेव मित्र विकसित हुए।

    पायु इन्द्रिय तथा उत्सर्जित पदार्थ ये दोनोंअधिष्ठाता देव के आश्रय में रहते हैं।

    आसिसूप्सो: पुर: पुर्या नाभि-द्वारमपानतः ।

    तत्रापानस्ततो मृत्यु: पृथक्त्वमुभयाश्रयम्‌ ॥

    २८ ॥

    आसिसृप्सो: --सर्वत्र जाने की इच्छा से; पुरः--विभिन्न शरीरों में; पुर्या:--एक शरीर से; नाभि-द्वारम्‌--उदर के छिद्र या नाभि;अपानतः--प्रकट हुआ; तत्र--तत्पश्चात्‌; अपान: --प्राण का रुकना; तत:--तत्पश्चात्‌; मृत्यु:--मृत्यु; पृथक्त्वम्‌--पृथक्‌ रूपसे; उभय--दोनों; आश्रयम्‌--शरण |

    तत्पश्चात्‌ जब उन्हें एक शरीर से दूसरे में जाने की इच्छा हुईं तो नाभि तथा अपानवायु एवंमृत्यु की एकसाथ सृष्टि हुई।

    मृत्यु तथा अपानवायु दोनों का ही आश्रय नाभि है।

    आदित्सोरन्न-पानानामासन्‌ कुक्ष्यनत्र-नाडय: ॥

    नद्यः समुद्राश्च॒ तयोस्तुष्टि: पुष्टिस्तदाभ्रये ॥

    २९॥

    आदित्सो:-- प्राप्त करने की इच्छा; अन्न-पानानामू-- भोजन तथा जल का; आसनू--हुई; कुक्षि--उदर; अन्त्र-- आँतें;नाडय:--तथा धमनियाँ; नद्यः--नदियाँ; समुद्रा:ः--समुद्र; च-- भी; तयो:--उन दोनों का; तुष्टिः--पोषण पालन; पुष्टिः--उपापचय ( रस प्रक्रिया ); ततू--उनका; आश्रये--स्रोत |

    जब भोजन तथा जल लेने की इच्छा हुई तो उदर, आँतें तथा धमनियाँ प्रकट हुईं।

    नदियाँतथा समुद्र इनके पोषण तथा उपापचय के स्त्रोत हैं।

    निदिध्यासोरात्म-मायां हृदयं निरभिद्यत ।

    ततो मनश्चन्द्र इति सल्डुल्प: काम एव च ॥

    ३०॥

    निदिध्यासो: --जानने का इच्छुक; आत्म-मायाम्‌--अपनी शक्ति को; हृदयम्‌--मन का स्थान; निरभिद्यत--प्रकट हुआ; तत:--तत्पश्चात्‌: मनः--मन; चन्द्रः--मन का अधिष्ठाता देव, चन्द्रमा; इति--इस प्रकार; सड्जूल्प:--ह॒ढ़ निश्चय; काम:--इच्छा; एब--भी; च--भी ।

    जब उन्हें अपनी शक्ति के कार्यकलापों के विषय में सोचने की इच्छा हुई तो हृदय ( मन कास्थान ), मन, चन्द्रमा, संकल्प तथा सारी इच्छा का उदय हुआ।

    त्वक्र्म-मांस-रुधिर-मेदो -मज्जास्थि-धातव: ।

    भूम्यप्तेजोमया: सप्त प्राणो व्योमाम्बु-वायुभि: ॥

    ३१॥

    त्वक्‌्--चमड़ी के ऊपर पतली परत; चर्म--चमड़ी; मांस--मांस; रुधिर--रक्त; मेद: --चर्बी; मज्जा--मज्जा; अस्थि-हड्डी;धातव:--तत्त्व; भूमि-- पृथ्वी; अपू--जल; तेज:--अग्नि; मया:--प्रधानतः; सप्त--सात; प्राण:-- ध्वास; व्योम-- आकाश;अम्बु--जल; वायुभि:--वायु से ।

    त्वचा, चर्म, मांस, रक्त, मेदा, मज्जा तथा अस्थि--शरीर के ये सात तत्त्व पृथ्वी, जल तथाअग्नि से बने हैं जबकि प्राण की उत्पत्ति आकाश, जल तथा वायु से हुई है।

    गुणात्मकानीन्द्रियाणि भूतादि-प्रभवा गुणा: ।

    मनः सर्व-विकारात्मा बुद्धिर्विज्ञा-रूपिणी ॥

    ३२॥

    गुण-आत्मकानि--गुणों से लिप्त; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; भूत-आदि--अहंकार; प्रभवा:--से प्रभावित; गुणा: --प्राकृतिकगुण; मनः--मन; सर्व--समस्त; विकार--तनाव ( सुख तथा दुख ); आत्मा--रूप; बुदर्द्धिः--बुद्धि; विज्ञान--तर्क-वितर्क;रूपिणी--के रूप वाली।

    इन्द्रियाँ प्रकृत्ति के गुणों से जुड़ी होती हैं और भौतिक प्रकृति के ये गुण मिथ्या अहंकार सेजनित हैं।

    मन पर समस्त प्रकार के भौतिक अनुभवों ( सुख-दुख ) का प्रभाव पड़ता है औरबुद्धि मन के तर्क-वितर्क स्वरूप है।

    एतद्धगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहतं मया ।

    महाादिभिश्चावरणैरष्टभिर्बहिरावृतम्‌ ॥

    ३३॥

    एतत्‌--ये सब; भगवत:--भगवान्‌ के; रूपम्‌--रूप; स्थूलम्‌--स्थूल; ते-- तुमको; व्याहतम्‌--बतलाया गया; मया--मेरेद्वारा; मही--लोक; आदिभि:--इत्यादि; च--निरन्तर; अवरणै:ः --आवरणों से; अष्टभिः--आठ; बहि:ः--बाह्ाय; आवृतम्‌--ढका हुआ

    इस तरह भगवान्‌ का बाह्य रूप अन्य लोकों की ही तरह स्थूल रूपों से घिरा हुआ है,जिनका वर्णन मैं तुमसे पहले ही कर चुका हूँ।

    अतः परं सूक्ष्मतममव्यक्त निर्विशेषणम्‌ ।

    अनादि-मध्य-निधनं नित्यं वाइमनस: परम्‌ ॥

    ३४॥

    अतः--अतः ; परम्‌ू--दिव्य; सूक्ष्मतमम्‌--सूक्ष्म से भी सूक्ष्म; अव्यक्तम्‌ू--अप्रकट; निर्विशेषणम्‌--बिना भौतिक रूप के;अनादि--आदिरहित; मध्य--माध्यमिक अवस्था के बिना; निधनम्‌--अन्तरहित; नित्यम्‌ू--शा श्रत; वाक्‌--शब्द; मनस: --मनका; परम्‌-दिव्य |

    अतः इस ( स्थूल संसार ) से परे दिव्य संसार है, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है।

    न तो इसकाआदि है, न मध्य और न अन्त, अतः यह व्याख्या अथवा चिन्तन की सीमाओं के परे है औरभौतिक बोध से भिन्न है।

    अमुनी भगवद्रूपे मया ते हानुवर्णिते ।

    उभे अपि न गृह्नन्ति माया-सूष्टे विपश्चित: ॥

    ३५॥

    अमुनी--ये सब; भगवत्‌-- श्रीभगवान्‌ को; रूपे--रूपों में; मया--मेरे द्वारा; ते--तुमको; हि--निश्चय ही; अनुवर्णिते --क्रमशः वर्णित; उभे--दोनों; अपि-- भी; न--कभी नहीं; गृहन्ति-- स्वीकार करता है; माया--बाह्य; सृष्ट--इस प्रकार से प्रकटहोकर; विप:-चित:--जानने वाला विद्वान।

    मैंने तुमसे भौतिक दृष्टिकोण से भगवान्‌ के जिन दो रूपों का ऊपर वर्णन किया है, उनमें सेकोई भी भगवान्‌ को जानने वाले शुद्ध भक्तों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता।

    स वाच्य-वाचकतया भगवान्‌ ब्रह्म-रूप-धृक्‌ ।

    नाम-रूप-क्रिया धत्ते सकर्माकर्मकः परः ॥

    ३६॥

    सः--वह; वाच्य--अपने रूपों तथा कार्यो से; वाचकतया--अपने दिव्य गुणों एवं परिवेश से; भगवान्‌-- भगवान्‌; ब्रह्म --परम; रूप-धृक्‌ू--हृश्य रूपों को ग्रहण करके; नाम--नाम; रूप--रूप, आकार; क्रिया--लीलाएँ; धत्ते--स्वीकार करता है;स-कर्म--कार्य में संलग्न; अकर्मक:--प्रभावित हुए बिना; पर: --दिव्यातीत |

    अपने दिव्य नाम, गुण, लीलाओं, परिवेश तथा विभिन्नताओं के कारण भगवान्‌ अपनेआपको दिव्य रूप में प्रकट करते हैं।

    यद्यपि इन समस्त कार्यकलापों का उन पर कोई प्रभावनहीं पड़ता, किन्तु वे व्यस्त से प्रतीत होते हैं।

    प्रजा-पतीन्मनून्‌ देवानृषीन्‌ पितृ-गणान्‌ पृथक्‌ ।

    सिद्ध-चारण-गन्धर्वान्‌ विद्याक्चासुर-गुह्मकान्‌ ॥

    ३७॥

    किन्नराप्सरसो नागान्‌ सर्पान्‌ किम्पुरुषान्नरान्‌ ।

    मातृ रक्ष:-पिशाचां श्र प्रेत-भूत-विनायकान्‌ ॥

    ३८ ॥

    कृष्माण्डोन्माद-वेतालान्‌ यातुधानान्‌ ग्रहानपि ।

    खगान्मृगान्‌ पशून्‌ वृक्षान्‌ गिरीन्रुप सरीसृपान्‌ ॥

    ३९॥

    द्वि-विधाश्चतुर्विधा येउन्ये जल-स्थल-नभौकस: ।

    कुशलाकुशला मिश्रा: कर्मणां गतयस्त्विमा: ॥

    ४०॥

    प्रजा-पतीन्‌--ब्रह्मा तथा उनके पुत्र, यथा दक्ष इत्यादि; मनून्‌ू--वैवस्वत मनु जैसे समय-समय पर होने वाले प्रधान; देवान्‌--यथा इन्द्र, चन्द्र तथा वरुण; ऋषीन्‌--यथा भूगु तथा वसिष्ठ; पितृ-गणान्‌ू--पितर लोक के निवासी; पृथक्‌--अलग से;सिद्ध--सिद्ध लोक के वासी; चारण--चारण लोक के वासी; गन्धर्वान--गन्धर्व लोक के प्राणी; विद्याश्र--विद्याधर लोक केवासी; असुर--नास्तिक लोग; गुह्मकान्‌ू--यक्ष लोक के वासी; किन्नर--किन्नर लोक के वासी; अप्सरस:ः--अप्सरा लोक कीसुन्दरियाँ; नागान्‌ू--नागलोक के नागतुल्य वासी; सर्पानू--सर्प-लोक के वासी; किम्पुरुषानू--किम्पुरुष लोक के बन्दर जैसेवासी; नरान्‌--पृथ्वी के वासी; मातृ-मातृ लोक के वासी; रक्ष:--राक्षसी लोक के वासी; पिशाचानू--पिशाच लोक केवासी; च--भी; प्रेत--प्रेत लोक के वासी; भूत-- भूत आत्माएँ; विनायकान्‌--पिशाच, विनायक; कृष्माण्ड--मायाजाल;उन्माद--पागल; वेतालान्‌ू--वेताल, जिन्न; यातुधानान्‌-- भूत विशेष; ग्रहान्‌ू--शुभ तथा अशुभ नक्षत्र; अपि-- भी; खगान्‌--पक्षी; मृगानू--जंगली पशु; पशून्‌-घरेलू पशु; वृक्षान्‌-- भूत; गिरीन्‌ू--पर्वत; नृप--हे राजन; सरीसूपान्‌ू--रेंगने वाले जीव;वि-विधा:--जड़ तथा चेतन प्राणी; चतुः-विधा:-- भ्रूण, अंड, स्वेदज तथा बीज से उत्पन्न चार प्रकार के प्राणी; ये-- अन्य;अन्ये--समस्त; जल--पानी; स्थल-- भूमि; नभ-ओकस: -- पक्षी; कुशल--सुखी; अकुशला:--दुखी ; मिश्रा: -- सुखी -दुखीदोनों; कर्मणाम्‌--अपने पूर्व कर्मों के अनुसार; गतय:--गति, फल; तु--लेकिन; इमा:--वे सब।

    हे राजन, मुझसे यह जान लो कि सभी जीवात्माएँ अपने विपत कर्मों के अनुसार परमेश्वरद्वारा उत्पन्न किए जाते हैं।

    इसमें ब्रह्मा तथा उनके दक्ष जैसे पुत्र, वैवस्वत मनु जैसे सामयिकप्रधान, इन्द्र, चन्द्र तथा वरुण जैसे देवता, भूगु, व्यास, वसिष्ठ जैसे महर्षि, पितूलोक तथासिद्धलोक के वासी, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर तथा देवदूत, नाग, बन्दर जैसेकिम्पुरुष, मनुष्य, मातृलोक के वासी, असुर, पिशाच, भूत-प्रेत, उन्‍्मादी, शुभ-अशुभ नक्षत्र,विनायक, जंगली पशु, पक्षी, घरेलू पशु, सरीसूप, पर्वत, जड़ तथा चेतन जीव, जरायुज,अण्डज, स्वेदज तथा उदिभज जीव तथा अन्य समस्त जल, स्थल या आकाश के सुखी, दुखीअथवा मिश्रित सुखी-दुखी जीव सम्मिलित हैं।

    ये सभी अपने पूर्व कर्मों के अनुसार परमेश्वर द्वारासृजित होते हैं।

    सत्त्वं रजस्तम इति तिस्त्र: सुर-नृ-नारका: ।

    तत्राप्यकेकशो राजन्‌ भिद्यन्ते गतयस्त्रिधा ।

    यदैकैकतरो<न्याभ्यां स्व-भाव उपहन्यते ॥

    ४१॥

    सत्त्वमू--सतोगुण; रज:--रजोगुण; तम:ः--तमोगुण; इति--इस प्रकार; तिस्त्रः--तीन; सुर--देवता; नृ--मनुष्य; नारका:--नारकीय अवस्था में पड़ा हुआ; तत्र अपि--वहाँ भी; एकैकशः--दूसरा; राजन्‌--हे राजा; भिद्यन्ते--में बाँट देते हैं; गतय: --गतियाँ; त्रिधा--तीन; यदा--उस समय, जब; एकैकतरः--एक दूसरे के प्रति; अन्याभ्याम्‌--दूसरे से; स्व-भाव:--स्वभाव,आदत; उपहन्यते--प्राप्त करता है।

    प्रकृति के विभिन्न गुण--सतो गुण, रजो गुण तथा तमो गुणों--के अनुसार विभिन्न प्रकारके प्राणी होते हैं, जो देवता, मनुष्य तथा नारकीय जीव कहलाते हैं।

    हे राजन्‌, यही नहीं, जबकोई एक गुण अन्य दो गुणों से मिलता है, तो वह तीन में विभक्त होता है और इस प्रकार प्रत्येकप्राणी अन्य गुणों से प्रभावित होता है और उसकी आदतों को अर्जित कर लेता है।

    स एवेदं जगद्धाता भगवान्‌ धर्म-रूप-धृक्‌ ।

    पुष्णाति स्थापयन्‌ विश्व॑ तिर्यडनर-सुरादिभि: ॥

    ४२॥

    सः--वह; एव--निश्चय ही; इृदम्‌--यह; जगत्‌ू-धाता--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पालक; भगवानू-- भगवान्‌; धर्म-रूप-धृक्‌ -- धर्मका रूप धारण करते हुए; पुष्णाति--पालन करता है; स्थापयन्‌--स्थापित करने के पश्चात्‌; विश्वम्‌-ब्रह्माण्ड को; तिर्यक्‌--मनुष्य से निम्न श्रेणी के जीव; नर--मनुष्य; सुर-आदिभि:--देवता रुप से ।

    वे भगवान्‌ ब्रह्माण्ड में सबके पालक रूप में सृष्टि की स्थापना करके विभिन्न अवतारों मेंप्रकट होते हैं और मनुष्यों, अमानवों तथा देवताओं में से समस्त बद्धजीवों का उद्धार करते हैं।

    ततः कालाग्नि-रुद्रात्मा यत्सृष्टमिदमात्मन: ।

    सन्नियच्छति तत्‌ काले घनानीकमिवानिल: ॥

    ४३॥

    ततः--तत्पश्चात्‌, अन्त में; काल--विनाश, मृत्यु; अग्नि--आग; रुद्र-आत्मा--रुद्र रूप में; यत्‌ू--जो भी; सूृष्टम्‌--उत्पन्न;इदम्‌--ये सब; आत्मन:--अपने आप; सम्‌--पूर्णतया; नियच्छति--संहार करता है; तत्‌ काले--युग ( कल्प ) के अन्त में;घन-अनीकम्‌--बादलों का समूह; इब--सहृश; अनिल:--वायु।

    तत्पश्चात्‌ युग के अन्त में भगवान्‌ स्वयं संहारकर्ता रुद्र-रूप में सम्पूर्ण सृष्टि का उसी तरहसंहार करेंगे जिस प्रकार वायु बादलों को हटा देती है।

    इत्थम्भावेन कथितो भगवान्‌ भगवत्तम: ।

    नेत्थम्भावेन हि परं द्रष्टमरहन्ति सूरय: ॥

    ४४॥

    इत्थम्‌ू--इन रूपों में; भावेन--सृष्टि तथा संहार का विचार; कथित:--कहा गया; भगवानू्‌-- भगवान्‌; भगवत्‌-तमः --महान्‌तत्त्वज्ञानियों द्वारा; न--नहीं; इत्थम्‌--इसमें; भावेन--स्वरूप; हि--केवल; परम्‌--अत्यन्त महिमावान; द्रष्टमू-देखने के लिए;अहईन्ति--योग्य होते हैं; सूरयः--परम भक्त |

    बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्‌ के कार्यकलापों का ऐसा ही वर्णन करते हैं,किन्तु शुद्ध भक्त भावातीत दशा में ऐसे रूपों से भी बढ़कर महिमामय वस्तुएँ देखने केअधिकारी होते हैं।

    नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्यानुविधीयते ।

    कर्तृत्व-प्रतिषेधार्थ माययारोपितं हि तत्‌ ॥

    ४५॥

    न--कभी नहीं; अस्य--इस सृष्टि के; कर्मणि--कार्य में; जन्म-आदौ--सृष्टि तथा संहार; परस्य--परमेश्वर का; अनुविधीयते--इस प्रकार वर्णित है; कर्तृत्व--कौशल; प्रतिषेध-अर्थम्‌--निषेध करने के लिए; मायया--बहिरंगा शक्ति द्वारा; आरोपितमू--प्रकट होता है; हि-- क्योंकि; तत्‌ू--स्त्रष्टा

    भौतिक जगत की सृष्टि तथा संहार के लिए भगवान्‌ के द्वारा किसी प्रकार का प्रत्यक्षकौशल नहीं किया जाता।

    उनके प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के विषय में वेदों में जो कुछ वर्णित है, वहकेवल इस विचार का निराकरण करने के लिए है कि भौतिक प्रकृति ही स्त्रष्टा है।

    अयं तु ब्रह्मण: कल्प: सविकल्प उदाहत: ।

    विधि: साधारणो यत्र सर्गा: प्राकृत-वैकृता: ॥

    ४६॥

    अयम्‌--सृष्टि तथा संहार की यह क्रिया; तु--लेकिन; ब्रह्मण:--ब्रह्मा का; कल्प: --ब्रह्म का एक दिन; स-विकल्प:--ब्रह्माण्डों की अवधि समेत; उदाहतः --उदाहरण के रूप में; विधि:--विधि-विधान; साधारण: --संक्षेप में; यत्र--जिसमें;सर्गा:--सृष्टि; प्राकृत-- प्रकृति के विषय में; बैकृताः--विनियोग, व्यय |

    यहाँ पर सारांश रुप में वर्णित सृष्टि तथा संहार का यह प्रक्रम ब्रह्म के एक दिन ( कल्प ) केलिए विधि-विधान स्वरूप है।

    यही महत्‌-सृष्टि का भी नियामक-विधान है, जिसमें प्रकृतिविसर्जित हो जाती है।

    परिमाणं च कालस्य कल्प-लक्षण-विग्रहम्‌ ।

    यथा पुरस्ताद्व्याख्यास्थे पाद्यं कल्पमथो श्रूणु ॥

    ४७॥

    परिमाणम्‌--माप; च--भी; कालस्य--समय की; कल्प--ब्रह्मा का एक दिन; लक्षण--लक्षण; विग्रहम्‌--रूप; यथा--जिसतरह; पुरस्तात्‌ू--इसके बाद; व्याख्यास्ये--बताया जाएगा; पाद्मम्‌ू--पादा नाम से; कल्पम्‌--एक दिन की अवधि; अथो--इसतरह; श्रुणु--सुनो |

    हे राजनू, आगे चलकर मैं काल के स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों की माप का उनके विशिष्टलक्षणों सहित वर्णन करूँगा, किन्तु इस समय मैं तुमसे पाद्म कल्प के विषय में कहना चाहताहू।

    शौनक उवाचयदाह नो भवान्‌ सूत क्षत्ता भागवतोत्तम: ।

    अचार तीर्थानि भुवस्त्यक्त्वा बन्धून्‌ सुदुस्त्यजान्‌ ॥

    ४८॥

    शौनकः उवाच-- श्री शौनक मुनि ने कहा; यत्‌--जैसा; आह--आपने कहा; नः--हमको; भवान्‌--आप; सूत--हे सूत;क्षत्ता--विदुर; भागवत-उत्तम:-- भगवान्‌ का श्रेष्ठ भक्त; चचार--अभ्यास किया; तीर्थानि--तीर्थ स्थानों; भुव:--पृथ्वी पर;त्यक्त्वा-- त्याग कर; बन्धून्‌--सम्बन्धियों को; सु-दुस्त्यजान्‌-- त्याग कर पाना अत्यन्त कठिन।

    सृष्टि के विषय में यह सब सुनने के बाद शौनक ऋषि ने सूत गोस्वामी से विदुर के विषय मेंपूछा, क्योंकि सूत गोस्वामी ने पहले ही उन्हें बता रखा था कि विदुर ने किस प्रकार अपने उनपरिजनों को छोड़कर गृहत्याग किया था जिनको छोड़ पाना बहुत दुष्कर होता है।

    क्षत्तु: कौशारवेस्तस्य संवादोध्यात्म-संभ्रित: ।

    यद्वा स भगवांस्तस्मै पृष्टस्तत्त्वमुवाच ह ॥

    ४९॥

    ब्रूहि नस्तदिदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम्‌ ।

    बन्धु-त्याग-निमित्तं च यथेवागतवान्‌ पुनः ॥

    ५०॥

    क्षत्तु:--विदुर की; कौशारवे:--मैत्रेय की; तस्थ--उनका; संवाद:--समाचार; अध्यात्म--दिव्य ज्ञान के विषय; संश्रित:--सेपूरित; यत्‌ू--जो; वा--अन्य कुछ; सः--वह; भगवान्‌-- भगवान्‌; तस्मै-- उससे; पृष्ट:--पूछा; तत्त्वम्‌--सत्य; उवाच--उत्तरदिया; ह--पुराकाल में; ब्रृहि--कृपया कहें; नः--हमसे; तत्‌--वे विषय; इृदम्‌--यहाँ; सौम्य--हे सौम्य; विदुरस्थ--विदुरका; विचेष्टितम्‌--कार्यकलाप; बन्धु-त्याग--मित्रों के परित्याग का; निमित्तमू--कारण; च-- भी; यथा--जिस प्रकार; एव--भी; आगतवान्‌--( घर ) वापस आया; पुन:ः--फिर से |

    शौनक ऋषि ने कहा--आप हमें बताएँ कि विदुर तथा मैत्रेय के बीच अध्यात्म पर चर्चाहुईं, विदुर ने क्या पूछा और मैत्रेय ने क्या उत्तर दिया था।

    कृपा करके हमें यह भी बताएँ किविदुर ने अपने कुट॒ुम्बियों को क्‍यों छोड़ा था और वे पुनः घर क्‍यों लौट आये ? तीर्थस्थानों कीयात्रा के समय उन्होंने जो कार्य किये उन्हें भी बतलाएँ।

    सूत उवाचराज्ञा परीक्षिता पृष्टो यदवोचन्महा-मुनि: ।

    तद्बोभिधास्ये श्रुणुत राज्ञ: प्रश्नानुसारत: ॥

    ५१॥

    सूतः उवाच-- श्रीसूत गोस्वामी ने उत्तर दिया; राज्ञा--राजा; परीक्षिता--परीक्षित द्वारा; पृष्ठ: --पूछे जाने पर; यत्‌--जो;अवोचत्‌--कहा; महा-मुनि:--महा-मुनि ने; तत्‌--वही बात; वः--तुमको; अभिधास्ये--मैं बताऊँगा; श्रुणुत--कृपया सुनें;राज्ञः--राजा द्वारा; प्रश्न--सवाल; अनुसारत: --के अनुसार।

    श्रीसूत गोस्वामी ने बताया--अब मैं तुम्हें वे सारे विषय बताऊँगा जिन्हें राजा परीक्षित केद्वारा पूछे जाने पर महा-मुनि ने उनसे कहा था।

    कृपया उन्हें ध्यानपूर्वक सुनो।

    TO