श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 12
अध्याय एक: कलियुग के अपमानित राजवंश
12.1श्रीशुक उबवाचयोउन्त्यः पुरञ्ञयो नाम भविष्यो बारहद्रथ: ।तस्यामात्यस्तुशुनको हत्वा स्वामिनमात्मजम् ॥ १॥
प्रद्योतसंज्ञ राजानं कर्ता यत्पालकः सुतः ।विशाखयूपस्तत्पुत्रो भविता राजकस्ततः ॥
२॥
श्री शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; यः--जो; अन्त्य: --( नवे स्कन्ध में वर्णित ) अन्तिम सदस्य; पुरक्षय:--पुरक्ञय ( रिपुश्नय ); नाम--नामक; भविष्य:--भविष्य में होगा; बारहद्रथ:--बृहद्रथ का वंशज; तस्य--उसका;अमात्य:--मंत्री; तु--लेकिन; शुनक:--शुनक; हत्वा--मार कर; स्वामिनम्--अपने स्वामी को; आत्म-जम्--अपने पुत्र;प्रद्योत-संज्ञम्--प्रद्योत नाम वाले को; राजानम्ू--राजा को; कर्ता--बनायेगा; यत्--जिसका; पालक:--पालक नामक;सुतः--पुत्र; विशाखयूप:--विशाखयूप; ततू-पुत्र:--पालक का पुत्र; भविता--होगा; राजक:--राजक; ततः--तत्पश्चात्( विशाखयूप के पुत्र-रूप में )॥
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हमने इसके पूर्व मागध वंश के जिन भावी शासकों के नामगिनाये उनमें अन्तिम राजा पुरक्षय था, जो बृहद्रथ के वंशज के रूप में जन्म लेगा। पुरञ्ञयका मंत्री शुनक राजा की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को सिंहासनारूढ़ करेगा। प्रद्योत कापुत्र पालक होगा और उसका पुत्र विशाखयूप होगा जिसका पुत्र राजक होगा।"
नन्दिवर्धनस्तत्पुत्र: पञ्ञ प्रद्योतना इमे ।अष्ठत्रिशोत्तरशतं भोक्ष्यन्ति पृथिवीं नृपा; ॥
३॥
नन्दिवर्धन:--नन्दिवर्धन; तत्-पुत्र:--उसका पुत्र; पञ्ञ--पाँच; प्रद्योतना: --प्रद्योतन; इमे--ये; अष्ट-त्रिंश--अड़तीस;उत्तर--अधिक; शतमू--एक सौ; भोक्ष्यन्ति-- भोग करेंगे; पृथिवीम्--पृथ्वी पर; नूपा:--राजा लोगराजक का पुत्र नन्दिवर्धन होगा और प्रद्योतन वंश में पाँच राजा होंगे जो १३८ वर्षों तकपृथ्वी का भोग करेंगे।"
शिशुनागस्ततो भाव्य: काकवर्णस्तु तत्सुत: ।क्षेमधर्मा तस्य सुतः क्षेत्रज्ञ: क्षेमधर्मज: ॥
४॥
शिशुनाग:--शिशुनाग; ततः--तत्पश्चात्; भाव्य:--जन्म लेंगे; काकवर्ण:--काकवर्ण; तु--तथा; तत्-सुतः--उसका पुत्र;क्षेमर्मा--क्षेमधर्मा; तस्य--काकवर्ण का; सुतः--पुत्र; क्षेत्रज्ञ:--क्षेत्रज्ञ; क्षेमधर्म-ज: --क्षेमधर्मा से उत्पन्न |
नन्दिवर्धन के शिशुनाग नामक पुत्र होगा और उसका पुत्र काकवर्ण कहलायेगा।काकवर्ण का पुत्र क्षेमधर्मा होगा तथा क्षेमधर्मा का पुत्र क्षेत्रज्ञ होगा।"
विधिसार: सुतस्तस्याजातशत्रुर्भविष्यति ।दर्भकस्तत्सुतो भावी दर्भकस्याजय: स्मृत: ॥
५॥
विधिसार:--विधिसार; सुत:--पुत्र; तस्य--क्षेत्रज्ञ का; अजातशत्रु; --अजातशत्रु; भविष्यति--होगा; दर्भक:--दर्भक;तत्-सुतः--अजातशत्रु का पुत्र; भावी--जन्म लेगा; दर्भकस्य--दर्भक का; अजय:--अजय; स्मृत:--स्मरण किया जाताहै।क्षेत्रज्ञ का पुत्र विधिसार होगा और उसका पुत्र अजातशत्रु होगा। अजातशत्रु के दर्भकनाम का पुत्र होगा और उसका पुत्र अजय होगा।"
नन्दिवर्धन आजेयो महानन्दिः सुतस्ततः ।शिशुनागा दश्वैते सप्ट्युत्तरशतत्रयम् ॥
६॥
समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कुरुश्रेष्ठ कलौ नृपा: ।महानन्दिसुतो राजन्शूद्रागर्भोद्भवो बली ॥
७॥
महापदापतिः कश्रिन्नन्दः क्षत्रविनाशकृत् ।ततो नूपा भविष्यन्ति शूद्रप्रायास्त्वधार्मिका: ॥
८॥
नन्दिवर्धन:--नन्दिवर्धन; आजेय:--अजय का पुत्र; महा-नन्दि:ः--महानन्दि; सुत:--पुत्र; तत:--तत्पश्चात् ( नन्दिवर्धन केबाद ); शिशुनागा:--शिशुनाग; दश--दश; एव--निस्सन्देह; एते--ये; सष्टि--साठ; उत्तर--अधिक; शत-त्रयम्--तीनसौ; समा:--वर्ष; भोक्ष्यन्ति--राज्य करेंगे; पृथिवीम्-पृथ्वी पर; कुरु श्रेष्ट--हे कुरुओं में श्रेष्ठ; कलौ--इस कलियुग में;नृपा:--राजागण; महानन्दि-सुत:--महानन्दि का पुत्र; राजन्ू--हे राजा परीक्षित; शूद्रा-गर्भ--शूद्र स्त्री के गर्भ से;उद्धव:--जन्म लेकर; बली--बलवान; महा-पद्य--लाखों में गिनी जाने वाली सेना या सम्पत्ति; पति:--स्वामी;कश्चित्ू--कोई; नन्दः--नन्द; क्षत्र--राजसी श्रेणी का; विनाश-कृत्--विनाशकर्ता; ततः--तब; नृपा:--राजागण;भविष्यन्ति--हों गे; शूद्र-प्राया:--शूद्रों जैसे; तु--तथा; अधार्मिका:--अधार्मिक |
अजय दूसरे नन्दिवर्धन का पिता बनेगा, जिसका पुत्र महानन्दि होगा। हे कुरुश्रेष्ठ,शिशुनाग वंश के ये दस राजा कलियुग में ३६० वर्षो तक राज्य करेंगे। हे परीक्षित, राजामहानन्दि की शूद्रा पत्नी के गर्भ से अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र होगा जो नन्द कहलायेगा।वहलाखों सैनिकों तथा प्रभूत सम्पत्ति का स्वामी होगा। वह क्षत्रियों में कहर ढायेगा औरउसके बाद के प्रायः सारे राजे अधार्मिक शूद्र होंगे।"
स एकच्छत्रां पृथिवीमनुल्लड्वितशासन: ।शासिष्यति महापद्मो द्वितीय इव भार्गवः ॥
९॥
सः--वह ( नन्द ); एक-छत्रामू--एक नायकत्व के अधीन; पृथिवीम्--सम्पूर्ण पृथ्वी; अनुल्लड्डित--जिसका उल्लंघन नकिया जा सके; शासन:--शासन; शासिष्यति--प्रभुसत्ता होगी; महापद्या:--महापद्ा का स्वामी; द्वितीय:--दूसरा; इब--मानो; भार्गव:--परशुराम |
महापद्य का स्वामी, राजा नन्द, सारी पृथ्वी पर इस तरह शासन करेगा मानो द्वितीयपरशुराम हो और उसकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे सकेगा।"
तस्य चाष्टौ भविष्यन्ति सुमाल्यप्रमुखा: सुता: ।य इमां भोक्ष्यन्ति महीं राजानश्च शतं समा: ॥
१०॥
तस्य--उसके ( नन््द के ); च--तथा; अष्टौ--आठ; भविष्यन्ति--जन्म लेंगे; सुमाल्य-प्रमुखा:--सुमाल्य इत्यादि; सुता: --पुत्र; ये--जो; इमामू--इस; भोश्ष्यन्ति-- भोग करेंगे; महीम्--पृथ्वी पर; राजान: --राजा; च--तथा; शतम्--एक सौ;समा:--वर्षउसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे जो पृथ्वी को एक सौ वर्षो तक शक्तिशाली राजाओंके रूप में अपने वश में रखेंगे।"
नव नन्दान्द्रिज: कश्रित्प्रपन्नानुद्धरिष्यति ।तेषां अभावे जगतीं मौर्या भोक्ष्यन्ति वै कलौ ॥
११॥
नव--नौ; नन्दान्--नन्दों ( नन्द तथा उसके आठ पुत्रों ); द्विज:--ब्राह्मण; कश्चित्--कोई; प्रपन्नानू--विश्वास करते हुए;उद्धरिष्यति--उन्मूलन करेगा; तेषामू--उनकी; अभावे--अनुपस्थिति में; जगतीम्--पृथ्वी; मौर्या:--मौर्य वंश;भोक्ष्यन्ति--शासन करेगा; वै--निस्सन्देह; कलौ--इस कलियुग में |
कोई एक ब्राह्मण ( चाणक्य ) राजा नन्द तथा उसके आठ पुत्रों के साथ विश्वासघातकरेगा और उनके वंश का विनाश कर देगा। उनके न रहने पर कलियुग में मौर्यगण विश्व परशासन करेंगे।"
स एव चन्द्रगुप्तं वै द्विजो राज्येउभिषेक्ष्यति ।तत्सुतो वारिसारस्तु ततश्चाशोकवर्धन: ॥
१२॥
सः--वह ( चाणक्य ); एव--निस्सन्देह; चन्द्रगुप्तम्--राजकुमार चन्द्रगुप्त को; बै--निस्सन्देह; द्विज:--ब्राह्मण; राज्ये--राज्य में; अभिषेक्ष्यति--अभिषिक्त होगा; तत्--चन्द्रगुप्त का; सुत:--पुत्र; वारिसार: --वारिसार; तु--तथा; तत:--वारिसार के बाद; च--तथा; अशोकवर्धन:--अशोकवर्धन
यह ब्राह्मण चन्द्रगुप्त को सिंहासन पर बैठायेगा जिसका पुत्र वारिसार होगा। वारिसारका पुत्र अशोकवर्धन होगा।"
सुयशा भविता तस्य सड्गतः सुयश:सुतः ।शालिशूकस्ततस्तस्य सोमशर्मा भविष्यति ।शतथधन्वा ततस्तस्य भविता तहुहद्रथ: ॥
१३॥
सुयशा:--सुयशा; भविता--उत्पन्न होगा; तस्थ--उसके ( अशोकवर्धन के ); सड्भत:--संगत; सुयशः -सुत:--सुयशा कापुत्र; शालिशूक:--शालिशूक; ततः--तत्पश्चात्; तस्थ--उस ( शालिशूक ) के; सोमशर्मा--सोमशर्मा; भविष्यति--होगा;शतधन्वा--शतधन्वा; तत:ः--तत्पश्चात्; तस्य--उस ( सोमशर्मा ) के; भविता--होगा; तत्ू--उस ( शतथन्वा ) के;बृहद्रथ:--बृहद्रथ
अशोकवर्धन के बाद सुयशा होगा जिसका पुत्र संगत होगा। इसका पुत्र शालिशूक होगाजिसका पुत्र सोमशर्मा होगा। सोमशर्मा का पुत्र शतधन्वा होगा और इसका पुत्र बृहद्रथकहलायेगा।"
मौर्या होते दश नृपा: सप्तत्रिंशच्छतोत्तरम् ।समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कलौ कुरुकुलोद्रह ॥
१४॥
मौर्या:--मौर्यगण; हि--निस्सन्देह; एते--ये; दश--दस; नृपा:--राजा; सप्त-त्रिंशत्--सैतीस; शत--एक सौ; उत्तरम्--अधिक; समा:--वर्ष; भोक्ष्यन्ति--शासन करेंगे; पृथिवीम्-पृथ्वी पर; कलौ--कलियुग में; कुरू-कुल--कुरुवंश के;उद्वद-हे विख्यात वीर।
हे कुरु श्रेष्ठ, ये दस मौर्य राजा कलियुग के १३७ वर्षो तक पृथ्वी पर राज्य करेंगे।
"
अग्निमित्रस्ततस्तस्मात्सुज्येष्टो भविता ततः ।
बसुमित्रो भद्गरकश्च पुलिन्दो भविता सुत: ॥
१५॥
ततो घोष: सुतस्तस्माद्वज्रमित्रो भविष्यति ।
ततो भागवतस्तस्माद्देवभूतिः कुरूद्बह ॥
१६॥
शुद्जा दशैते भोक्ष्यन्ति भूमिं वर्षणताधिकम् ।
ततः काण्वानियं भूमिर्यास्यत्यल्पगुणान्रूप ॥
१७॥
अग्निमित्र:--अग्निमित्र; तत:ः--पुष्प मित्र से, वह सेनापति जो बृहद्रथ का वध करेगा; तस्मात्--उस ( अग्निमित्र ) से;सुज्येष्ठ:--सुज्येष्ठ; भविता--होगा; ततः--उससे; वसुमित्र:--वसुमित्र; भद्रक: -- भद्रक; च--तथा; पुलिन्द:--पुलिन्द;भविता--होगा; सुतः--पुत्र; ततः--उस ( पुलिन्द ) से; घोष:--घोष; सुतः--पुत्र; तस्मात्--उससे; वज्ञमित्र:--वज्मित्र;भविष्यति--होगा; तत:--उससे; भागवत:-- भागवत; तस्मात्-- उससे; देवभूति--देवभूति; कुरु-उद्वह-हे कुरु श्रेष्ठ;शुद्भा:--शुंग; दश--दस; एते--ये; भोक्ष्यन्ति-- भोग करेंगे; भूमिम्-पृथ्वी का; वर्ष--वर्ष; शत--एक सौ;अधिकम्--अधिक; तत:--तब; काण्वान्--काण्व वंश; इयम्--यह; भूमि:--पृथ्वी; यास्यति--के राज्य में आ जायेगी;अल्प-गुणान्--बहुत कम गुणों वाले; नूप--हे राजा परीक्षित |
हे राजा परीक्षित, इसके बाद अग्निमित्र राजा बनेगा, तब सुज्येष्ठ बनेगा।
सुज्येष्ठ के बादवसुमित्र, भद्रक तथा भद्गक का पुत्र पुलिन्द होंगे।
इसके बाद पुलिन्द का पुत्र घोष शासनकरेगा जिसके बाद वज्मित्र, भागवत तथा देवभूति होंगे।
इस तरह हे कुरु श्रेष्ठ, दस शुंगराजा पृथ्वी पर एक सौ वर्षों से अधिक तक राज्य करेंगे।
तब यह पृथ्वी काण्व वंश केराजाओं के अधीन हो जायेगी जिनमें बहुत ही कम गुण होंगे।
"
शुड्ं हत्वा देवभूतिं काण्वोमात्यस्तु कामिनम् ।
स्वयं करिष्यते राज्यं बसुदेवो महामति: ॥
१८॥
शुड्रमू--शुंग को; हत्वा--मार कर; देवभूतिम्--देवभूति; काण्व:--काण्व वंश का सदस्य; अमात्य:--उसका मंत्री;तु--लेकिन; कामिनम्ू--कामी; स्वयम्--स्वयं; करिष्यते--करेगा; राज्यम्ू--राज्य; वसुदेव:--वसुदेव नामक; महा-मतिः--अत्यन्त बुद्धिमानकाण्व वंश से सम्बद्ध
एक बुद्ध्धिमान मंत्री बसुदेव, शुंग राजाओं में से देवभूति नामकअत्यन्त विलासी अन्तिम राजा को मारेगा और स्वयं शासन सँभालेगा।
"
तस्य पुत्रस्तु भूमित्रस्तस्थ नारायण: सुतः ।
काण्वायना इसमे भूमि चत्वारिंशच्च पञ्ञ च ।
शतानि त्रीणि भोश्ष्यन्ति वर्षाणां च कलौ युगे ॥
१९॥
तस्य--उस ( वसुदेव ) का; पुत्र:--पुत्र; तु--तथा; भूमित्र:--भूमित्र; तस्थ--उसका; नारायण: -- नारायण; सुतः --पुत्र;काण्व-अयना:--काण्व वंश के राजा; इमे--ये; भूमिम्--पृथ्वी; चत्वारिंशत्--चालीस; च--तथा; पञ्ञ-- पाँच; च--तथा; शतानि--सौ; त्रीणि--तीन; भोक्ष्यन्ति--शासन करेंगे; वर्षाणामू--वर्ष; च--तथा; कलौ युगे--कलियुग में ।
बसुदेव का पुत्र भूमित्र होगा और उसका पुत्र नारायण होगा।
काण्व वंश के ये राजापृथ्वी पर कलियुग के अगले ३४५ वर्षो तक शासन चलायेंगे।
"
हत्वा काण्वं सुशर्माणं तद्धृत्यो वृषलो बली ।
गां भोध्यत्यन्ध्रजातीय: कजख्जित्कालमसत्तम: ॥
२०॥
हत्वा--मार कर; काण्वम्--काण्व राजा को; सुशर्माणम्--सुशर्मा नामक; तत्-भृत्य:--उसका नौकर; वृषल:--निम्नजाति का शूद्र; बली--बली नामक; गाम्--पृथ्वी पर; भोक्ष्यति--शासन करेगा; अन्ध्र-जातीय:--अन्श्र जाति का;कझ्जित्ू--कुछ; कालम्--समय तक; असत्तम: --अत्यन्त भ्रष्ट
काण्वों का अन्तिम राजा सुशर्मा, अन्ध्र जाति के अधम शूद्र बली नामक अपने हीनौकर के हाथों मारा जायेगा।
यह अत्यन्त भ्रष्ट महाराज बली कुछ काल तक पृथ्वी परशासन करेगा।
"
कृष्णनामाथ तदभ्राता भविता पृथिवीपति: ।
श्रीशान्तकर्णसस्तत्पुत्र: पौर्णमासस्तु तत्सुतः ॥
२१॥
लम्बोदरस्तु तत्पुत्रस्तस्माच्चिबिलको नूप: ।
मेघस्वातिश्चिबिलकादटमानस्तु तस्थ च ॥
२२॥
अनिष्टकर्मा हालेयस्तलकस्तस्य चात्मज: ।
पुरीषभीरुस्तत्पुत्रस्ततो राजा सुनन्दनः: ॥
२३॥
चकोरो बहवो यत्र शिवस्वातिररिन्दम: ।
तस्यापि गोमती पुत्र: पुरीमान्भविता तत: ॥
२४॥
मेदशिरा: शिवस्कन्दो यज्ञश्रीस्तत्सुतस्ततः ।
विजयस्तत्सुतो भाव्यश्चन्द्रविज्ञ सलोमधि: ॥
२५॥
एते त्रिंशन्रपतयश्चत्वार्यब्द्शतानि च ।
षट्पश्ञाशच्च पृथिवीं भोक्ष्यन्ति कुरूनन्दन ॥
२६॥
कृष्ण-नाम--कृष्ण नामक; अथ--तब; तत्--उस ( बली ) का; भ्राता-- भाई; भविता--होगा; पृथिवी-पति:--पृथ्वीका स्वामी; श्री-शान्तकर्ण:--श्री शान्तकर्ण; तत्--कृष्ण का; पुत्र:--पुत्र; पौर्णमास:--पौर्णमास; तु--तथा; तत्-सुतः--उसका पुत्र; लम्बोदर: --लम्बोदर; तु--तथा; तत्-पुत्र:--उसका पुत्र; तस्मात्--उस ( लम्बोदर ) से; चिबिलक:--चिबिलक; नृप:--राजा; मेघस्वाति: --मेघस्वाति; चिबिलकात्--चिबिलक से; अटमान:--अटमान; तु--तथा; तस्थ--उस ( मेघस्वाति ) का; च--तथा; अनिष्टकर्मा--अनिष्टकर्मा; हालेय: --हालेय; तलक:--तलक; तस्य--उस ( हालेय )का; च--तथा; आत्म-ज: --पुत्र; पुरीषभीरु:--पुरीषभीरू ; तत्ू--तलक का; पुत्र:--पुत्र; तत:ः--तब; राजा--राजा;सुनन्दन:--सुनन्दन; चकोर:--चकोर; बहव:--बहुगण; यत्र--जिनमें से; शिवस्वाति:--शिवस्वाति; अरिम्दम:--शत्रुओंका दमन करने वाला; तस्य--उसके; अपि-- भी; गोमती--गोमती; पुत्र:--पुत्र; पुरीमान्--पुरीमान; भविता--होगा;ततः--उस ( गोमती ) से; मेदशिरा: --मेदशिरा; शिवस्कन्द: --शिवस्कन्द; यज्ञश्री:--यज्ञश्री; तत्--शिवस्कन्द का;सुत:--पुत्र; ततः--तब; विजय: --विजय; तत्ू-सुत:--उसका पुत्र; भाव्य:--होगा; चन्द्रविज्ञ:--चन्द्रविज्ञ; स-लोमधि:--लोमधि सहित; एते--ये; त्रिंशत्--तीस; नू-पतय:--राजा; चत्वारि--चार; अब्द-शतानि--शताब्दियों; च--तथा; षट्-पञ्ञासत्--छप्पन; च--तथा; पृथिवीम्--पृथ्वी पर; भोक्ष्यन्ति--शासन करेंगे; कुरु-नन्दन--हे कुरुओं के प्रियपुत्र |
बली का भाई, कृष्ण, पृथ्वी का अगला शासक बनेगा।
उसका पुत्र शान्तकरण होगाऔर शान्तकरण का पुत्र पौर्णमास होगा।
पौर्णमास का पुत्र लम्बोदर होगा जिसका पुत्रमहाराज चिबिलक होगा।
चिबिलक से मेघस्वाति उत्पन्न होगा जिसका पुत्र अटमान होगा।
अटमान का पुत्र अनिष्टकर्मा होगा।
उसका पुत्र हालेय होगा जिसका पुत्र तलक होगा।
तलकका पुत्र पुरीषभीरू होगा और उसके बाद सुनन्दन राजा बनेगा।
सुनन्दन के बाद चकोर तथाआठ बहुगण होंगे जिनमें से शिवस्वाति शत्रुओं का महान् दमनकर्ता होगा।
शिवस्वाति कापुत्र गोमती होगा जिसका पुत्र पुरीमान होगा।
पुरीमान का पुत्र मेदशिरा होगा।
उसका पुत्रशिवस्कन्द होगा जिसका पुत्र यज्ञश्री होगा।
यज्ञश्री का पुत्र विजय होगा जिसके दो पुत्रहोंगे--चन्द्रविज्ञ तथा लोमधि।
हे कुरुओं के प्रिय पुत्र, ये तीस राजा पृथ्वी पर कुल ४५६वर्षो तक अपनी प्रभुसत्ता बनाये रखेंगे।
"
सप्ताभीरा आवशभृत्या दश गर्दभिनो नृपा: ।
कड्ढाः षोडश भूपाला भविष्यन्त्यतिलोलुपा: ॥
२७॥
सप्त--सात; आभीरा:--आभीर; आवशभृत्या:--अवभूति नगरी के; दश--दस; गर्दभिन:--गर्द भी; नृूपा: --राजा;कड्ढाः--कंक; षोडश--सोलह; भू-पाला:--पृथ्वी के शासक; भविष्यन्ति--होंगे; अति-लोलुपा:--अत्यन्त लालची
तत्पश्चात् अवभृति नगरी की आभीर जाति के सात राजा होंगे और तब दस गर्दभी होंगे।
उनके बाद कंक के सोलह राजा शासन करेंगे और वे अपने अत्यधिक लोभ के लिएविख्यात होंगे।
"
ततोडष्टी यवना भाव्याश्षतुर्दश तुरुष्कका: ।
भूयो दश गुरुण्डाश्व मौला एकादशैव तु ॥
२८॥
ततः--तत्पश्चात्; अष्टौ--आठ; यवना:--यवनगण; भाव्या: --होंगे; चतु:-दश--चौदह; तुरुष्कका:--तुरुष्क; भूयः--इसके भी आगे; दश--दस; गुरुण्डा:--गुरुण्ड; च--तथा; मौला:--मौल; एकादश-ग्यारह; एब--निस्सन्देह; तु--तथा
तब आठ यवन शासन सँभालेंगे जिनके बाद चौदह तुरुष्क, दस गुरुण्ड तथा ग्यारहमौल वंश के राजा होंगे।
"
एते भोक्ष्यन्ति पृथिवीं दश वर्षशतानि च ।
नवाधिकां च नवतिं मौला एकादश क्षितिम् ॥
२९॥
भोष्ष्यन्त्यव्दशतान्यड् त्रीणि तैः संस्थिते ततः ।
किलकिलायां नृपतयो भूतनन्दोथ बड़िरि: ॥
३०॥
शिशुनन्दिश्चव तदभ्राता यशोनन्दिः प्रवीरकः ।
इत्येते वै वर्षशतं भविष्यन्त्यधिकानि घट् ॥
३१॥
एते--ये; भोश्ष्यन्ति--शासन करेंगे; पृथिवीम्-पृथ्वी पर; दश--दस; वर्ष-शतानि--शताब्दी; च--तथा; नव-अधिकाम्--और नौ; च--तथा; नवतिम्--नब्बे; मौला:--मौल; एकादश --ग्यारह; क्षितिम्ू--संसार पर; भोक्ष्यन्ति--शासन करेंगे; अब्द-शतानि--शताब्दी; अड़--हे परीक्षित; त्रीणि--तीन; तैः--उनके द्वारा; संस्थिते--सबों के मृत होनेपर; तत:ः--तब; किलकिलायाम्--किलकिला नगरी में; नू-पतय:--राजागण; भूतनन्द:--भूतनन्द; अथ--और तब;बड़िरि:--वंगिरि; शिशुनन्दि:--शिशुनन्दि; च--तथा; तत्--उसका; भ्राता--भाई; यशोनन्दि:--यशोनन्दि; प्रवीरक: --प्रवीरक; इति--इस प्रकार; एते--ये; बै--निस्सन्देह; वर्ष-शतम्--एक सौ वर्ष; भविष्यन्ति--होंगे; अधिकानि-- अधिक,और; षट्ू--छः ६
ये आभीर, गर्दभी तथा कंक १०९९ वर्षों तक पृथ्वी का भोग करेंगे और मौलगण ३००वर्षो तक राज्य करेंगे।
इन सबों के दिवंगत होने पर किलकिला नगरी में भूतनन्द, वंगिरि,शिशुनन्दि, उसका भाई यशोनन्दि तथा प्रवीरक नामक राजाओं का वंश उदय होगा।
किलकिला के ये राजा कुल मिलाकर १०६ वर्षो तक प्रभुत्व जमाये रखेंगे।
"
तेषां त्रयोदश सुता भवितारश्च बाहिका: ।
पुष्पमित्रोथ राजन्यो दुर्मित्रोउस्य तथेव चर ॥
३२॥
एककाला इसमे भूपाः सप्तान्ध्रा: सप्त कौशला: ।
विदूरपतयो भाव्या निषधास्तत एव हि ॥
३३॥
तेषाम्--उनके ( भूतनन्द तथा किलकिला वंश के अन्य राजाओं के ); त्रयोदश--तेरह; सुताः --पुत्र; भवितार: --हों गे;च--तथा; बाहिका:--बाहिक; पुष्पमित्र: --पुष्पमित्र; अथ--तब; राजन्य:--राजा; दुर्मित्र:--दुर्मित्र; अस्थ--उसका( पुत्र )) तथा-- भी; एब--निस्सन्देह; च--तथा; एक-काला:--एक ही समय शासन कर रहे; इमे--ये; भू-पा:--राजा;सप्त--सात; अन्ध्रा:-- अन्ध्र; सप्त--सात; कौशला:--कौशल देश के राजा; विदूर-पतय:--विदूर के शासक;भाव्या:--होंगे; निषधा:--निषध; तत:--तब ( बाहिकों के बाद ); एव हि--निस्सन्देह |
किलकिलाओं के बाद उनके तेरह पुत्र, बाहिक होंगे और उनके बाद राजा पुष्पमित्र,उसका पुत्र दुर्मित्र, सात अन्ध्र, सात कौशल तथा विदूर और निषध प्रान्तों के राजा भी एकही समय विश्व के अलग-अलग भागों में शासन करेंगे।
"
मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जि: पुरक्षयः ।
करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्रकान् ॥
३४॥
मागधानाम्--मगध प्रान्त के; तु--तथा; भविता-होंगे; विश्वस्फूर्जि:--विश्वस्फूर्जि; पुरक्लय:--राजा पुरज्ञय; करिष्यति--बनायेगा; अपर: --दूसरे; वर्णानू--सारे सभ्य मनुष्य; पुलिन्द-यदु-मद्रकान्ू--पुलिन्द, यदु तथा मद्रक जैसे अछूतों में ॥
तब मागधों का राजा विश्वस्फूर्जि प्रकट होगा जो दूसरे पुरञ्लय के समान होगा।
वहसमस्त सभ्य वर्णों को निम्न श्रेणी के असभ्य मनुष्यों में बदल देगा, जिस तरह पुलिन्द, यदुतथा मद्गक होते हैं।
"
प्रजाश्वाब्रह्म भूयिष्ठा: स्थापयिष्यति दुर्मति: ।
वीर्यवान्श्षत्रमुत्साद्य पद्मवत्यां स वै पुरि ।
अनुगड़माप्रयागं गुप्तां भोक्ष्यति मेदिनीम् ॥
३५॥
प्रजा:--नागरिक; च--तथा; अब्रह्म--जो ब्राह्मण नहीं है; भूयिष्ठा: --मुख्य रूप से; स्थापयिष्यति--बनायेगा; दुर्मति:--मूर्ख ( विश्वस्फूर्जि ); वीर्य-वन्--शक्तिशाली; क्षत्रम्ू--क्षत्रिय जाति; उत्साद्य-विनष्ट करके; पद्मवत्याम्--पदावती में;सः--वह; बै--निस्सन्देह; पुरि--नगरी में; अनु-गड्ढम्--गंगा द्वारा ( हरद्वार ) से; आ-प्रयागम्--प्रयाग तक; गुप्ताम्--सुरक्षित; भोक्ष्यति--शासन करेगा; मेदिनीम्--पृथ्वी पर
मूर्ख राजा विश्वस्फूर्जि सारे नागरिकों को नास्तिकता की ओर ले जाएगा और अपनीशक्ति का उपयोग क्षत्रिय जाति को पूर्णतया ध्वंस करने में करेगा।
वह अपनी राजधानी पदावती में गंगा के उद्गम से लेकर प्रयाग तक शासन करेगा।
"
सौराष्ट्रावन्त्याभीराश्च शूरा अर्बुदमालवा: ।
ब्रात्या द्विजा भविष्यन्ति शूद्रप्राया जनाधिपा: ॥
३६॥
शौराष्ट्र--सौराष्ट्र; अवन्ती--अवन्ती; आभीरा:--तथा आभीर में निवास करने वाले; च--तथा; शूरा:--शूर॒ प्रान्त में रहनेवाले; अर्बुद-मालवा:--अर्बुद तथा मालव में रहने वाले; ब्रात्या:--सारे संस्कारों से विपथ; द्विजा:--ब्राह्मण;भविष्यन्ति--हों गे; शूद्र-प्राया:--शूद्रों जैसे ही; जन-अधिपा:--राजागण |
उस काल में सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद तथा मालव प्रान्तों के ब्राह्मण अपनेसारे विधि-विधान भूल जायेंगे और इन स्थानों के राजवंशों के सदस्य शूद्रों जैसे ही होंगे।
"
सिन्धोस्तर्ट चन्द्रभागां कौन्तीं काश्मीरमण्डलम् ।
भोष्ष्यन्ति शूद्रा ब्रात्याद्या म्लेच्छाश्वाब्रह्मवर्चस: ॥
३७॥
सिन्धो:--सिन्धु नदी के; तटम्--तट पर; चन्द्रभागाम्--चन्धभागा; कौन्तीम्--कौन्ती; काश्मीर-मण्डलम्--काश्मीर काक्षेत्र; भोक्ष्यन्ति--शासन करेगा; शूद्रा:--शूद्रजन; ब्रात्य-आद्या:--ब्राह्मण-पद् से च्युत ब्राह्मण तथा दूसरे अयोग्य पुरुष;म्लेच्छा:--मांसभक्षक; च--तथा; अब्नह्म-वर्चस:ः--आध्यात्मिक शक्ति से रहित
सिन्धु नदी का तटवर्ती भाग तथा चन्द्रभागा, कौन्ती एवं काश्मीर के जनपद शूद्रों,पतित ब्राह्मणों और मांसाहारियों के द्वारा शासित होंगे।
वे वैदिक सभ्यता के मार्ग को त्यागकर समस्त आध्यात्मिक शक्ति खो चुकेंगे।
"
तुल्यकाला इसमे राजस्म्लेच्छप्राया श्र भूभूतः ।
एतेधर्मानृतपरा: फल्गुदास्तीत्रमन््यव: ॥
३८॥
तुल्य-काला:--एक ही समय शासन कर रहे; इमे--ये; राजन्ू--हे राजा परीक्षित; म्लेच्छ-प्राया:--अछूतों जैसे ही; च--तथा; भू-भूतः--राजागण; एते--ये; अधर्म--अधर्म; अनृत--तथा असत्य के प्रति; परा:--समर्पित; फल्गु-दा:--अपनीप्रजा को नाममात्र का लाभ देने वाले; तीव्र-- भयानक; मन्यव:--उनका क्रोध।
हे राजा परीक्षित, एक ही समय शासन करने वाले ऐसे अनेक असभ्य राजा होंगे और वेसब के सब दान न देने वाले, अत्यन्त क्रोधी तथा अधर्म और असत्य के महान् भक्त होंगे।
"
स्त्रीबालगोद्विजघ्नाश्न परदारधनाहता: ।
उदितास्तमितप्राया अल्पसत्त्वाल्पकायुष: ॥
३९॥
असंस्कृताः क्रियाहीना रजसा तमसावृता: ।
प्रजास्ते भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छा राजन्यरूपिण: ॥
४०॥
स्त्री--स्त्रियों; बाल--बालकों; गो--गौवों; द्विज--तथा ब्राह्मणों के; घ्ता:--हत्यारे; च--तथा; पर--अन्य मनुष्यों के;दार--स्त्रियाँ; धन--तथा धन; आहता:--रुचि लेते हुए; उदित-अस्त-मित--बढ़ते तथा घटते स्वभाव वाले; प्राया:--अधिकांशत:; अल्प-सत्त्व--थोड़े बल वाले; अल्पक-आयुष:--अल्पायु वाले; असंस्कृता:--वैदिक अनुष्ठानों से शुद्धनहीं हुए; क्रिया-हीना:--विधि-विधानों से रहित; रजसा--रजोगुण से; तमसा--तथा तमोगुण से; आवृता:--ढके;प्रजा:--नागरिक; ते--वे; भक्षयिष्यन्ति--निगल जायेंगे; म्लेच्छा: --अछूत; राजन्य-रूपिण:--राजा के रूप में |
ये बर्बर लोग राजा के वेश में निर्दोष स्त्रियों, बच्चों, गौवों तथा ब्राह्मणों की हत्या करकेतथा अन्य पुरुषों की पत्नियों को लुभाकर तथा सम्पत्ति को लूट करके सारी प्रजा काभक्षण कर जायेंगे।
उनका स्वभाव अनियमित होगा, उनमें चरित्र बल नहीं के बराबर होगातथा वे अल्पायु होंगे।
निस्सन्देह, किसी वैदिक अनुष्ठान से शुद्ध न होने तथा विधि-विधानोंके अभाव में वे रजो तथा तमोगणों से परी तरह प्रच्छन्न होंगे।
"
तन्नाथास्ते जनपदास्तच्छीलाचारवादिनः ।
अन्योन्यतो राजभिश्च क्षयं यास्यन्ति पीडिता: ॥
४१॥
तत्-नाथा:--इन राजाओं को शासक रूप में पाने वाली प्रजा; ते--वे; जन-पदा:--नगरों के बासी; तत्--इन राजाओंके; शील--चरित्र; आचार---आचरण; वादिन:--तथा वाणी; अन्योन्यत:--परस्पर; राजभि:--राजाओं द्वारा; च--तथा;क्षयम् यास्यन्ति--विनष्ट हो जायेंगे; पीडिता: --सताये हुए
इन निम्न जाति के राजाओं द्वारा शासित प्रजा अपने शासकों के चरित्र, आचरण तथावाणी का अनुकरण करेगी।
वे लोग अपने अपने नायकों से तथा एक-दूसरे से सतायेजाकर विनष्ट हो जायेंगे।
"
अध्याय दो: कलियुग के लक्षण
12.2रीशुक उवाच ततश्चानुदिनं धर्म: सत्यं शौचं क्षमा दया ।
कालेन बलिना राजन्नडछ्ष्यत्यायुरबलं स्मृति: ॥
१॥
श्री-शुक: उवाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; तत:ः--तब; च--तथा; अनुदिनम्--दिन प्रतिदिन; धर्म:--धर्म; सत्यम्ू--सत्य; शौचम्--शुद्धता; क्षमा--सहनशक्ति; दया--दया; कालेन--काल की शक्ति से; बलिना--प्रबल; राजनू--हे राजापरीक्षित; नडछ्ष्यति--नष्ट हो जायेगी; आयु:--उम्र; बलम्--बल; स्मृतिः--स्मरणशक्ति
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, तब कलियुग के प्रबल प्रभाव से धर्म, सत्य,पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, शारीरिक बल तथा स्मरणशक्ति दिन प्रतिदिन घटते जायेंगे।
"
वित्तमेव कलौ नृणां जन्माचारगुणोदय: ।
धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि ॥
२॥
वित्तमू-- धन; एब--केवल; कलौ--कलियुग में; नृणाम्--आदमियों में; जन्म--उत्तम जन्म का; आचार--अच्छाव्यवहार; गुण--तथा सदगुण; उदय:ः--प्रकट होने का कारण; धर्म--धार्मिक कर्तव्य; न््याय--तथा तर्क की;व्यवस्थायाम्--व्यवस्था में; कारणम्--कारण; बलम्--बल; एबव--एकमात्र; हि--निस्सन्देह |
कलियुग में एकमात्र सम्पत्ति को ही मनुष्य के उत्तम जन्म, उचित व्यवहार तथा सदगुणोंका लक्षण माना जायेगा।
कानून तथा न्याय तो मनुष्य के बल के अनुसार ही लागू होंगे।
"
दाम्पत्येडभिरुचिह् तुर्मायैव व्यावहारिके ।
स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥
३॥
दाम्-पत्ये--पति-पत्नी के सम्बन्ध में; अभिरुचि:--ऊपरी आकर्षण; हेतु:--कारण; माया--धोखा; एव--निस्सन्देह;व्यावहारिके--व्यापार में; स्त्रीत्वे--स्त्री होने में; पुंस्वे--पुरुष होने में; च--तथा; हि--निस्सन्देह; रति:--कामशास्त्र;विप्रत्वे--ब्राह्मण होने में; सूत्रमू--जनेऊ; एब--एकमात्र; हि--निस्सन्देह।
पुरुष तथा स्त्रियाँ केवल ऊपरी आकर्षण के कारण एकसाथ रहेंगे और व्यापार कीसफलता कपट पर निर्भर करेगी।
पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व का निर्णय कामशास्त्र में उनकीनिपुणता के अनुसार किया जायेगा और ब्राह्मणत्व जनेऊ पहनने पर निर्भर करेगा।
"
लिड्डमेवा भ्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वच: ॥
४॥
लिड्रम्ू--बाह्य प्रतीक; एब--केवल; आश्रम-ख्यातौ--मनुष्य के आश्रम को जानने में; अन्योन्य--पारस्परिक; आपत्ति--विनिमय; कारणमू--कारण; अवृत्त्या--जीविका के अभाव से; न्याय--विश्वसनीयता में; दौर्बल्यम्--दुर्बलता में;पाण्डित्ये--विद्वत्ता में; चापलम्ू--चालाकी-भरे; वच:--शब्द।
मनुष्य का आध्यात्मिक पद मात्र बाह्य प्रतीकों से सुनिश्चित होगा और इसी आधार परलोग एक आश्रम छोड़ कर दूसरे आश्रम को स्वीकार करेंगे।
यदि किसी की जीविका उत्तमनहीं है, तो उस व्यक्ति के औचित्य में सन्देह किया जायेगा।
और जो चिकनी-चुपड़ी बातेंबनाने में चतुर होगा वह विद्वान पंडित माना जायेगा।
"
अनाब्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दम्भ एव तु ।
स्वीकार एव चोद्दाहे स्नानमेव प्रसाधनम् ॥
५॥
अनाढ्यता-गरीबी, निर्धनता; एब--केवल; असाधुत्वे-- असाधु होने में; साधुत्वे--सफलता में; दम्भ:--दिखावा;एव--केवल; तु--तथा; स्वी-कार:--शाब्दिक स्वीकृति; एब--केवल; च--तथा; उद्बाहे --विवाह में; स्नानम्ू--जल सेस्नान करने; एव--केवल; प्रसाधनम्--शरीर को स्वच्छ रखना तथा अलंकृत करना।
यदि किसी व्यक्ति के पास धन नहीं है, तो वह अपवित्र माना जायेगा और दिखावे कोगुण मान लिया जायेगा।
विवाह मौखिक स्वीकृति के द्वारा व्यवस्थित होगा और कोई भीव्यक्ति अपने को जनता के बीच आने के लिए योग्य समझेगा यदि उसने केवल स्नान करलिया हो।
"
दूरे वार्ययनं तीर्थ लावण्यं केशधारणम् ।
उदरंभरता स्वार्थ: सत्यत्वे धाष्टर्यमेव हि ।
दाक्ष्यं कुटुम्बभरणं यशोअर्थे धर्मसेवनम् ॥
६॥
दूरे--दूर स्थित; वारि--जल का; अयनम्--आगार; तीर्थम्--तीर्थस्थान; लावण्यम्--सौन्दर्य; केश--बाल; धारणम्--धारण करना; उदरम्-भरता--पेट का भरण; स्व-अर्थ:--जीवन-लक्ष्य; सत्यत्वे--तथाकथित सत्य में; धाष्टर्यम्ू--ढिठाई;एव--केवल; हि--निस्सन्देह; दाक्ष्यम्--दक्षता; कुटुम्ब-भरणम्--परिवार का पालन-पोषण; यश: --कीर्ति के; अर्थ --हेतु; धर्म-सेवनम्--धार्मिक नियमों का पालन
तीर्थस्थान को दूरस्थ जलाशय और सौन्दर्य को मनुष्य की केश-सज्जा पर आश्रित,माना जायेगा।
उदर-भरण जीवन का लक्ष्य बन जायेगा और जो जितना ढीठ होगा उसे उतनाही सत्यवादी मान लिया जायेगा।
जो व्यक्ति परिवार का पालन-पोषण कर सकता है, वहदक्ष समझा जायेगा।
धर्म का अनुसरण मात्र यश के लिए किया जायेगा।
"
एवं प्रजाभिर्दुष्ठाभिराकीर्णे क्षितिमण्डले ।
ब्रह्मविद्क्षत्रशूद्राणां यो बली भविता नृप: ॥
७॥
एवम्--इस तरह से; प्रजाभि: --जनता से; दुष्टाभि:-- भ्रष्ट की हुई; आकीर्णे--एकत्र हुई; क्षिति-मण्डले--पृथ्वीमण्डलपर; ब्रह्म--ब्राह्मणों; विटू--वैश्यगण; क्षत्र--क्षत्रिय; शूद्राणामू--तथा शूद्रों के बीच; यः--जो भी; बली--सबसेबलवान; भविता--होगा; नृप:--राजा
इस तरह ज्यों-ज्यों पृथ्वी भ्रष्ट जनता से भरती जायेगी, त्यों-त्यों समस्त वर्णों में से जोअपने को सबसे बलवान दिखला सकेगा वह राजनैतिक शक्ति प्राप्त करेगा।
"
प्रजा हि लुब्धे राजन्यैर्निर्धणैर्दस्युधर्मभि: ।
आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यन्ति गिरिकाननम् ॥
८॥
प्रजा:--नागरिक; हि--निस्सन्देह; लुब्धे:--लालची; राजन्यै:--राजसी वर्ग के द्वारा; निर्घुणैः:--निर्दय; दस्यु--सामान्यचोरों के; धर्मभि: --स्वभाव के अनुसार कर्म करते हुए; आच्छिन्न--हर लिए गये; दार--पत्नी; द्रविणा: --तथा सम्पत्ति;यास्यन्ति--जायेंगे; गिरि--पर्वत; काननम्ू--तथा जंगल में |
जनता ऐसे लोभी तथा निष्ठुर शासकों द्वारा, जिनका आचरण सामान्य चोरों जैसा होगा,अपनी पत्नियाँ तथा सम्पत्ति छीन लिये जाने पर, पर्वतों तथा जंगलों में भाग जायेगी।
"
शाकमूलामिषक्षौद्रफलपुष्पाष्टिभोजना: ।
अनावृष्ठया विनड्छ््यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिता: ॥
९॥
शाक--पत्तियाँ; मूल--जड़ें; आमिष--मांस; क्षौद्र--जंगली शहद; फल--फल; पुष्प--फूल; अष्टि--तथा बीज;भोजना: --खाकर; अनावृष्टठया--सूखे के कारण; विनड्छ््यन्ति--विनष्ट हो जायेंगे; दुर्भिक्ष-- अकाल; कर--तथा टैक्सद्वारा; पीडिता:--पीड़ित |
अकाल तथा अत्यधिक कर से सताये हुए लोग पत्तियाँ, जड़ें, मांस, जंगली शहद,'फल, फूल तथा बीज खाने के लिए बाध्य होंगे।
सूखे से पीड़ित होकर बे पूर्णतया विनष्ट होजायेंगे।
"
शीतवातातपप्रावृड्हिमैरन्योन्यतः प्रजा: ।
क्षुत्तद्भ्यां व्याधिभिश्वेव सन्तप्स्यन्ते च चिन्तया ॥
१०॥
शीत--जाड़ा; वात--हवा; आतप--तपन; प्रावृटू--मूसलाधार वर्षा; हिमै:ः--तथा बर्फ से; अन्योन्यत:--लड़ने-झगड़नेसे; प्रजा:--नागरिक; क्षुतू-भूख; तृड्भ्यामू--तथा प्यास से; व्याधिभि: --रोगों से; च--भी; एव--निस्सन्देह;सन्तप्स्यन्ते--उन्हें महान् कष्ट भोगना होगा; च--तथा; चिन्तया--चिन्ता से |
जनता को शीत, वात, तपन, वर्षा तथा हिम से अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ेगा।
लोगआपसी झगड़ों, भूख, प्यास, रोग तथा अत्यधिक चिन्ता से भी पीड़ित होते रहेंगे।
"
त्रिंशद्विंशति वर्षाणि परमायु: कलौ नृणाम् ॥
११॥
त्रिंशत्--तीस; विंशति--बीस और; वर्षाणि--वर्ष; परम-आयु:--अधिकतम आयु; कलौ--कलियुग में; नृणाम्--मनुष्यों की |
कलियुग में मनुष्यों की अधिकतम आयु पचास वर्ष हो जायेगी।
"
क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषतः ।
वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम् ॥
१२॥
पाषण्डप्रचुरे धर्मे दस्युप्रायेषु राजसु ।
चौरयनृतवृथाहिंसानानावृत्तिषु वै नूषु ॥
१३॥
शूद्रप्रायेषु वर्णेषु च्छागप्रायासु धेनुषु ।
"
गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बन्धुषु ॥
१४॥
अणुप्रायास्वोषधीषु शमीप्रायेषु स्थास्नुषु ।
विद्युव्प्रायेषु मेघेषु शून्यप्रायेषु सदासु ॥
१५॥
इत्थं कलौ गतप्राये जनेषु खरधर्मिषु ।
धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवानवतरिष्यति ॥
१६॥
क्षीयमाणेषु--छोटा होकर; देहेषु--शरीर में; देहिनाम्--सारे जीवों के; कलि-दोषत:--कलियुग के दूषण से; वर्ण-आश्रम-वतामू्--वर्णा श्रम समाज के सदस्यों के; धर्मे->उनके धर्मों के; नष्टे--नष्ट हो जाने पर; वेद-पथे--वेदों के मार्गपर; नृणाम्--सारे मनुष्यों के लिए; पाषण्ड-प्रचुरे--प्रायः नास्तिकता; धर्मे-- धर्म में; दस्यु-प्रायेषु--प्रायः चोर; राजसु--राजा; चौर्य--लूट; अनृत--झूठ बोलना; वृथा-हिंसा--व्यर्थ की हत्या; नाना--विविध; वृत्तिषु--पेशों में; बै--निस्सन्देह;नृषु--मनुष्यों में; शूद्र-प्रायेषु--प्रायः निम्न वर्ग के शूद्र; वर्णेषु--तथाकथित वर्णो में; छाग-प्रायासु--बकरियों जैसी;धेनुषु--गौवें; गृह-प्रायेषु--घरों जैसे; आश्रमेषु--आध्यात्मिक कुटिया; यौन-प्रायेषु--विवाह से आगे तक न पहुँचनेवाले; बन्धुषु--पारिवारिक बन्धन; अणु-प्रायासु--अत्यन्त लघु; ओषधीषु--जड़ी-बूटियों में; शमी-प्रायेषु --शमी वृक्षोंकी तरह; स्थास्नुषु--सररे वृक्षों में; विद्युत्-प्रायेषु--सदैव बिजली प्रकट करते हुए; मेघेषु--बादलों में; शून्य-प्रायेषु --धार्मिक जीवन से शून्य; सद्यसु--घरों में; इत्थम्--इस प्रकार; कलौ--कलियुग में; गत-प्राये--प्रायः समाप्त हुए;जनेषु--लोगों में; खर-धर्मिषु--गधों जैसे गुणों वाले; धर्म-त्राणाय--धर्म के उद्धार हेतु; सत्त्वेन--सतोगुण में;भगवान्--भगवान्; अवतरिष्यति-- अवतरित होगा |
कलियुग समाप्त होने तक सभी प्राणियों के शरीर आकार में अत्यन्त छोटे हो जायेंगेऔर वर्णाश्रम मानने वालों के धार्मिक सिद्धान्त विनष्ट हो जायेंगे।
मानव समाज वेदपथ कोपूरी तरह भूल जायेगा और तथाकथित धर्म प्राय: नास्तिक होगा।
राजे प्रायः चोर हो जायेंगे;लोगों का पेशा चोरी करना, झूठ बोलना तथा व्यर्थ हिंसा करना हो जायेगा और सारेसामाजिक वर्ण शूद्रों के स्तर तक नीचे गिर जायेंगे।
गौवें बकरियों जैसी होंगी; आश्रमसंसारी घरों से भिन्न नहीं होंगे तथा पारिवारिक सम्बन्ध तात्कालिक विवाह बंधन से आगेनहीं जायेंगे।
अधिकांश वृक्ष तथा जड़ी-बूटियाँ छोटी होंगी और सारे वृक्ष बौने शमी वृक्षोंजैसे प्रतीत होंगे।
बादल बिजली से भरे होंगे; घर पवित्रता से रहित तथा सारे मनुष्य गधों जैसेहो जायेंगे।
उस समय भगवान् पृथ्वी पर प्रकट होंगे।
वे शुद्ध सतोगुण की शक्ति से कर्मकरते हुए शाश्वत धर्म की रक्षा करेंगे।
"
चराचर गुरोर्विष्णोरी श्वरस्याखिलात्मन: ।
धर्मत्राणाय साधूनां जन्म कर्मापनुत्तये ॥
१७॥
चर-अचर--सारे जड़ तथा चेतन प्राणी; गुरोः --गुरु का; विष्णो: --विष्णु का; ईश्वरस्थ-- भगवान् का; अखिल--सारे;आत्मन:--परमात्मा का; धर्म-त्राणाय--धर्म की रक्षा के लिए; साधूनाम्--साधु पुरुषों के; जन्म--जन्म; कर्म--सकामकर्म की; अपनुत्तये--समाप्ति के लिए
भगवान् विष्णु जोकि सारे जड़ तथा चेतन प्राणियों के गुरु तथा सबों के परमात्मा हैं,धर्म की रक्षा करने तथा अपने सन्त भक्तों को भौतिक कर्मफल से छुटकारा दिलाने के लिएजन्म लेते हैं।
"
शम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मन: ।
भवने विष्णुयशस: कल्कि: प्रादुर्भविष्यति ॥
१८॥
शम्भल-ग्राम--शम्भल नामक गाँव में; मुख्यस्य--प्रमुख नागरिक के; ब्राह्मणस्य--ब्राह्मण के; महा-आत्मन: --महान्आत्मा; भवने--घर में; विष्णुयशस: --विष्णुयशा के; कल्कि:-- भगवान् कल्कि; प्रादुर्भविष्यति--प्रकट होगा।
भगवान् कल्कि शम्भल ग्राम के अत्यन्त निपुण ब्राह्मण महात्मा विष्णुयशा के घर मेंप्रकट होंगे।
अश्वमाशुगमारुह्म देवदत्तं जगत्पतिः ।
असिनासाधुदमनमष्टै श्र्यगुणान्वित: ॥
१९॥
विच्रन्नाशुना क्षौण्यां हयेनाप्रतिमद्युति: ।
नृपलिड्भच्छदो दस्यून्कोटिशो निहनिष्यति ॥
२०॥
अश्वम्--अपने घोड़े; आशु-गम्--तेज चलने वाले; आरुह्म--सवार होकर; देवदत्तम्--देवदत्त पर; जगत् -पति:--ब्रह्माण्ड के स्वामी; असिना--अपनी तलवार से; असाधु-दमनम्-- असाधुओं का दमन करने वाला ( घोड़ा ); अष्ट--आठ;ऐश्वर्य--योग ऐश्वर्यों; गुण--तथा भगवान् के दिव्य गुणों से; अन्वित:--युक्त; विचरन्ू--विचरण करते हुए; आशुना--तेज; क्षौण्याम्-पृथ्वी पर; हयेन--अपने घोड़े द्वारा; अप्रतिम--अद्वितीय; झ्युतिः--तेज वाला; नृप-लिड्र--राजाओं केवेश में; छदः--अपने को भेस बदल कर रहते हुए; दस्यून्--चोरों को; कोटिश: --करोड़ों; निहनिष्यति--मार डालेगा |
ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान् कल्कि अपने तेज घोड़े देवदत्त पर सवार होंगे और हाथ मेंतलवार लेकर, ईश्वर के आठ योग ऐश्वर्यो तथा आठ विशिष्ट गुणों को प्रदर्शित करते हुए,पृथ्वी पर विचरण करेंगे।
वे अपना अद्वितीय तेज प्रदर्शित करते हुए तथा तेज चाल से सवारीकरते हुए, उन करोड़ों चोरों का वध करेंगे जो राजाओं के वेश में रहने का दुस्साहस कर रहेहोंगे।
"
अथ तेषां भविष्यन्ति मनांसि विशदानि वे ।
वासुदेवाड्गरागातिपुण्यगन्धानिलस्पृशाम् ।
पौरजानपदानां वै हतेष्वखिलदस्युषु ॥
२१॥
अथ--तब; तेषाम्--उनमें से; भविष्यन्ति--होंगे; मनांसि--मन; विशदानि--स्पष्ट; बै--निस्सन्देह; वासुदेव-- भगवान्वासुदेव के; अड्ू--शरीर का; राग--सुगन्धि पदार्थों से; अति-पुण्य--अत्यन्त पवित्र; गन्ध--गन्ध से युक्त; अनिल--वायुद्वारा; स्पृशाम्--स्पर्श किये हुओं का; पौर--नगरवासियों के; जन-पदानाम्--छोटे कस्बों तथा गाँवों के निवासियों के;बै--निस्सन्देह; हतेषु--मारे जाने पर; अखिल--सारे; दस्युषु--धूर्त राजाओं के
जब सारे धूर्त राजा मारे जा चुकेंगे, तो शहरों तथा कस्बों के निवासी, भगवान् वासुदेवको लेपित चन्दन तथा अन्य प्रसाधनों की सुगन्धि को लाती हुईं पवित्र वायु का अनुभवकरेंगे और उससे उनके मन आध्यात्मिक रूप से शुद्ध हो जायेंगे।
"
तेषां प्रजाविसर्गश्न स्थविष्ठ: सम्भविष्यति ।
वबासुदेवे भगवति सत्त्वमूर्तों हदि स्थिते ॥
२२॥
तेषाम्--उनकी; प्रजा--सन्तान की; विसर्ग: --उत्पत्ति; च--तथा; स्थविष्ठ: --प्रचुर; सम्भविष्यति--होगा; वासुदेवे--वासुदेव में; भगवति-- भगवान्; सत्त्व-मूर्तौ--सतोगुणी स्वरूप में; हदि--हृदयों में ; स्थिते--स्थित ॥
जब भगवान् वासुदेव बचे हुए नागरिकों के हृदयों में अपने दिव्य सात्विक रूप में प्रकटहोते हैं, वे फिर से पृथ्वी की जनसंख्या को काफी बढ़ा देंगे।
"
यदावतीर्णो भगवान्कल्किर्धर्मपतिहरि: ।
कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्चव सात्तिविकी ॥
२३॥
यदा--जब; अवतीर्ण:--अवतरित; भगवान्-- भगवान्; कल्किः-- कल्कि; धर्म-पति:--धर्म के स्वामी; हरि: --भगवान्;कृतम्--सत्ययुग; भविष्यति--शुरू होगा; तदा--तब; प्रजा-सूति:--प्रजा की उत्पत्ति; च--तथा; सात्त्विकी--सतोगुणी।
जब पृथ्वी पर धर्म के पालनहारे भगवान्, कल्कि के रूप में, प्रकट हो चुकेंगे, तोसत्ययुग प्रारम्भ होगा और मानव समाज सात्विक सन्तानें उत्पन्न करेगा।
"
यदा चन्द्रश्न सूर्यश्च॒ तथा तिष्यबृहस्पती ।
एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम् ॥
२४॥
यदा--जब; चन्द्र: --चन्धमा; च--तथा; सूर्य: --सूर्य; च--तथा; तथा-- भी; तिष्य--तिष्य या पुष्य नक्षत्र (जो ३० २०से लेकर १६० ४०कर्क तक विस्तीर्ण है ); बृहस्पती--बृहस्पति नक्षत्र; एक-राशौ--एक ही राशि पर ( कर्कट );समेष्यन्ति--एकसाथ प्रवेश करेंगे; भविष्यति--होगा; तदा--तब; कृतम्--सत्ययुग |
जब चन्द्रमा, सूर्य तथा बृहस्पति एकसाथ कर्कट राशि में होते हैं और तीनों एक हीसमय पुष्य नक्षत्र में प्रवेश करते हैं, ठीक उसी क्षण सत्य या कृतयुग प्रारम्भ होगा।
"
येउतीता वर्तमाना ये भविष्यन्ति च पार्थिवा: ।
ते त उद्देशतः प्रोक्ता वंशीया: सोमसूर्ययो: ॥
२५॥
ये--जो; अतीता:--विगत; वर्तमाना: --वर्तमान; ये--जो; भविष्यन्ति--भविष्य में होंगे; च--तथा; पार्थिवा:--पृथ्वी केराजे; ते ते--वे वे, वे सभी; उद्देशत:--संक्षिप्त कथन द्वारा; प्रोक्ताः:--वर्णित; वंशीया:--वंशों के सदस्य; सोम-सूर्ययो: --चन्द्र तथा सूर्य देव के ॥
इस तरह मैंने सूर्य तथा चन्द्र वंशों-- भूत, वर्तमान तथा भविष्य--के सारे राजाओं कावर्णन कर दिया है।
"
आरशभ्य भवतो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम् ।
एतद्ठर्षसहस्त्रं तु शतं पञ्जदशोत्तरम् ॥
२६॥
आरभ्य--प्रारम्भ करके; भवत:--आपके ( परीक्षित ); जन्म--जन्म; यावत्--जब तक; नन्द--महानन्दि के पुत्र राजानन्द का; अभिषेचनम्--- अभिषेक, राजतिलक; एतत्--यह; वर्ष--वर्ष; सहस्त्रमू--एक हजार; तु--तथा; शतम्ू--एकसौ; पञ्ञ-दश-उत्तरमू--पचास और।
तुम्हारे जन्म से लेकर राजा नन्द के राजतिलक तक ११५० वर्ष बीत चुकेंगे।
"
सप्तर्षणां तु यौ पूर्वी हृश्येते उदितौ दिवि ।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्र हश्यते यत्समं निशि ॥
२७॥
तेनैव ऋषयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ।
ते त्वदीये द्विजाः काल अधुना चाथ्रिता मघा: ॥
२८॥
सप्त-ऋषीणाम्--सात ऋषियों का समूह ( पाश्चात्य लोग जिसे उर्स मेजर कहते हैं ); तु--तथा; यौ--जो दो नक्षत्र; पूर्वी --प्रथम; दृश्येते--देखे जाते हैं; उदितौ--उदय हुए; दिवि--आकाश में; तयो: --दोनों ( पुलह तथा क्रतु ) के; तु--तथा;मध्ये--बीच में; नश्षत्रमू--नक्षत्र; हश्यते--देखा जाता है; यत्ू--जो; समम्--उसी रेखा में; निशि--रात्रि के आकाश में;तेन--उस नक्षत्र से; एब--निस्सन्देह; ऋषय: --सप्तर्षिगण; युक्ता:--सम्बद्ध हैं; तिष्ठन्ति--रहते जाते हैं; अब्द-शतम्--एक सौ वर्ष; नृणाम्-मनुष्यों का; ते--ये सप्तर्षि; त्वदीये--आप में; द्विजा:--कुलीन ब्राह्मण; काले--समय में;अधुना--वर्तमान; च--तथा; आश्रिता:--स्थित हैं; मघा:--मघा नक्षत्र में ॥
सप्तर्षि मण्डल के सात तारों में से पुलह तथा क्रतु ही सबसे पहले रात्रिकालीन आकाशमें उदय होते हैं।
यदि उनके मध्य बिन्दु से होकर उत्तर दक्षिण को एक रेखा खींची जाय तोयह जिस नक्षत्र से होकर गुजरती है, वह उस काल का प्रधान नक्षत्र माना जाता है।
सप्तर्षिगण एक सौ मानवी वर्षों तक उस विशेष नक्षत्र से जुड़े रहते हैं।
सम्प्रति तुम्हारेजीवन-काल में वे मघा नक्षत्र में स्थित हैं।
"
विष्णोर्भगवतो भानु: कृष्णाख्योउसौ दिव॑ गतः ।
तदाविशत्कलिलेंक पापे यद्रमते जन: ॥
२९॥
विष्णो:--विष्णु के; भगवत:-- भगवान्; भानु:--सूर्य; कृष्ण-आख्य:--कृष्ण नामक; असौ--वह; दिवम्--आध्यात्मिक आकाश तक; गत:--वापस जाकर; तदा--तब; अविशत्--प्रवेश किया; कलि:--कलियुग; लोकम्--इसजगत में; पापे--पाप में; यत्--जिस युग में; रमते--रमण करते हैं; जन:--लोग।
भगवान् विष्णु सूर्य के समान तेजवान् हैं और कृष्ण कहलाते हैं।
जब वे वैकुण्ठ-लोकवापस चले गये, तो इस जगत में कलि ने प्रवेश किया और तब लोग पापकर्मों में आनन्द लेने लगे।
"
यावत्स पादपद्याभ्यां स्पृशनास्ते रमापतिः ।
तावत्कलियं पृथिवीं पराक्रन्तुंन चाशकत् ॥
३०॥
यावत्--जब तक; सः--वह, श्रीकृष्ण; पाद-पद्माभ्यामू--अपने चरणकमलों से; स्पृशन्--स्पर्श करते हुए; आस्ते--रहता रहा; रमा-पति:ः--लक्ष्मी देवी का पति; तावत्--तब तक; कलि:--कलियुग; बै--निस्सन्देह; पृथिवीम्-- पृथ्वीको; पराक्रन्तुम--जीतने के लिए; न--नहीं; च--तथा; अशकत्--समर्थ था
जब तक लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलों से पृथ्वी का स्पर्श करते रहे,तब तक कलि इस लोक का दमन करने में असमर्थ रहा।
"
यदा देवर्षय: सप्त मघासु विचरन्ति हि ।
तदा प्रवृत्तस्तु कलिद्दादशाब्दशतात्मक: ॥
३१॥
यदा--जब; देव-ऋषय: सप्त--देवताओं में से सात ऋषि; मघासु--मघा नक्षत्र में; विचरन्ति--विचरण करते हैं; हि--निस्सन्देह; तदा--तब; प्रवृत्त:--प्रारम्भ होता है; तु--तथा; कलि:ः--कलियुग; द्वादश--बारह; अब्द-शत--शताब्दी( देवताओं के ये १,२०० वर्ष बराबर हैं पृथ्वी पर ४, ३२, ००० वर्ष के ); आत्मक:--से युक्त |
जब सप्तर्षि मण्डल मघा नक्षत्र से होकर गुजरता है, तो कलियुग प्रारम्भ होता है।
यहदेवताओं के १,२०० वर्षो तक रहता है।
"
यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षयः ।
तदा नन्दात्प्रभृत्येष कलिदव्वृद्धि गमिष्यति ॥
३२॥
यदा--जब; मघाभ्य: --मघा से; यास्यन्ति--वे जायेंगे; पूर्व-आषाढाम्-- अगला नक्षत्र पूर्वाषाढा; महा-ऋषय: --सप्तर्षि;तदा--तब; नन्दात्--नन्द से लेकर; प्रभूति--तथा उसके वंशज; एष:--यह; कलि:--कलियुग; वृद्द्धिम्--प्रौढ़ता;गमिष्यति--प्राप्त करेगा।
जब सप्तर्षि मघा से चल कर पूर्वाषाढा में जायेंगे तो कलि अपनी पूर्ण शक्ति में होगाऔर राजा नन्द तथा उसके वंश से इसका सूत्रपात होगा।
"
यस्मिन्कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि ।
प्रतिपन्न॑ं कलियुगमिति प्राहु: पुराविद: ॥
३३॥
यस्मिनू--जिस पर; कृष्ण:-- श्रीकृष्ण; दिवम्--वैकुण्ठ को; यात:--गये हुए; तस्मिन्--उस पर; एव--वही; तदा--तब; अहनि--दिन; प्रतिपन्नम्ू--प्राप्त किया हुआ; कलि-युगम्--कलियुग; इति--इस प्रकार; प्राहु:--कहते हैं; पुरा--भूतकाल के; विद: --जानकार।
जो लोग भूतकाल को अच्छी तरह समझते हैं, वे यह कहते हैं कि जिस दिन भगवान्कृष्ण ने वैकुण्ठ-लोक के लिए प्रस्थान किया, उसी दिन से कलियुग का प्रभाव शुरू होगया।
"
दिव्याब्दानां सहस्त्रान्ते चतुर्थ तु पुनः कृतम् ।
भविष्यति तदा नृणां मन आत्मप्रकाशकम् ॥
३४॥
दिव्य--देवताओं के; अब्दानाम्-वर्ष; सहस्त्र--एक हजार; अन्ते--अन्त में; चतुर्थ--चतुर्थ युग, कलियुग में; तु--तथा;पुनः--फिर; कृतम्ू--सत्ययुग; भविष्यति--होगा; तदा--तब; नृणाम्--मनुष्यों के; मनः--मन; आत्म-प्रकाशकम्--स्वयं प्रकाशित |
कलियुग के एक हजार दैवी वर्षो के बाद, सत्ययुग पुनः प्रकट होगा।
उस समय सारेमनुष्यों के मन स्वयं प्रकाशमान् हो उठेंगे।
"
इत्येष मानवो वंशो यथा सड्ख्यायते भुवि ।
तथा विद्शूद्रविप्राणां तास्ता ज्ञेया युगे युगे ॥
३५॥
इति--इस प्रकार ( श्रीमद्भागवत के स्कन्धों में ); एब:--यह; मानव:--वैवस्वत मनु से अवतरित; वंश:--वंश; यथा--जिस तरह; सड्ख्यायते--गिनाया जाता है; भुवि--पृथ्वी पर; तथा--उस प्रकार से; विट्ू--वैश्यों; शूद्र--शूढ्रों;विप्राणाम्ू--तथा ब्राह्मणों के; ता: ता:--वे वे; ज्ञेया:--जाने जाने चाहिए; युगे युगे--प्रत्येक युग में |
इस प्रकार मैंने मनु के राजवंश का वर्णन, जिस रूप में वह पृथ्वी पर विख्यात है, कहसुनाया।
इसी प्रकार से विविध युगों में रहने वाले वैश्यों, शुद्रों तथा ब्राह्मणों के इतिहास काअध्ययन किया जा सकता है।
"
एतेषां नामलिड्ानां पुरुषाणां महात्मनाम् ।
कथामात्रावशिष्टानां कीर्तिरिव स्थिता भुवि ॥
३६॥
एतेषाम्--इनके; नाम--नामों; लिड्रानाम्--उन्हें स्मरण रखने के साधन मात्र हैं, जो; पुरुषाणाम्-पुरुषों के; महा-आत्मनाम्ू-महात्माओं के; कथा--कहानियाँ; मात्र--केवल; अवशिष्टानाम्ू--जिनके शेषांश; कीर्ति:--यश; एव--केवल; स्थिता--उपस्थित हैं; भुवि--पृथ्वी पर।
ये पुरुष जोकि महात्मा थे अब केवल अपने नामों से जाने जाते हैं।
वे भूतकाल केविवरणों में ही पाये जाते हैं और पृथ्वी पर केवल उनका यश रहता है।
"
देवापि: शान्तनोर्भ्राता मरुश्नेक्ष्वाकुवंशज: ।
कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितोौ ॥
३७॥
देवापि: --देवापि; शान्तनो: --महाराज शान्तनु का; भ्राता-- भाई; मरः--मरू; च--तथा; इक्ष्वाकु-वंश-ज:--इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न; कलाप-ग्रामे--कलाप ग्राम में; आसाते--रह रहे हैं; महा--महान्; योग-बल--योगशक्ति से; अन्वितौ--युक्त
महाराज शान्तनु का भाई देवापि तथा इश्ष्वाकु वंशी मरु, दोनों ही महान् योगशक्ति सेयुक्त हैं और अब भी कलाप ग्राम में रह रहे हैं।
"
ताविहैत्य कलेरन्ते वासुदेवानुशिक्षितौ ।
वर्णाश्रमयुतं धर्म पूर्ववत्प्रथयिष्यत: ॥
३८ ॥
तौ--वे दोनों ( मरु तथा देवापि ); हह--मानव समाज में; एत्य--लौट कर; कले:--कलियुग के; अन्ते--अन्त में;वासुदेव--भगवान् वासुदेव द्वारा; अनुशिक्षितौ-- आदेश दिया जाकर; वर्ण-आश्रम--वर्ण तथा आश्रम से; युतम्--युक्त;धर्मम्--नित्य धर्म-संहिता; पूर्व-वत्--पहले की ही तरह; प्रथयिष्यत: --लागू करेंगे |
कलियुग के अन्त में, ये दोनों ही राजा भगवान् वासुदेव का आदेश पाकर, मानवसमाज में लौट आयेंगे और मनुष्य के शाश्वत धर्म की पुनः स्थापना करेंगे जिसमें वर्ण तथाआश्रम का विभाजन पर्ववत रहेगा।
"
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्वेति चतुर्युगम् ।
अनेन क्रमयोगेन भुवि प्राणिषु वर्तते ॥
३९॥
कृतम्--सत्ययुग; त्रेता--त्रेतायुग; द्वापरम्-द्वापर युग; च--तथा; कलि:--कलियुग; च--तथा; इति--इस प्रकार;चतुः-युगम्--चार युगों का चक्र; अनेन--इससे; क्रम--क्रमवार; योगेन--व्यवस्था; भुवि--पृथ्वी पर; प्राणिषु--जीवोंके बीच; वर्तते--लगातार चल रही है
इस पृथ्वी पर जीवों के बीच चार युगों का--सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग का--चक्र निरन्तर चलता रहता है, जिससे घटनाओं का वही सामान्य अनुक्रम पिष्टपेषित होता है।
"
राजन्नेते मया प्रोक्ता नरदेवास्तथापरे ।
भूमौ ममत्वं कृत्वान्ते हित्वेमां निधनं गता: ॥
४०॥
राजनू--हे राजा परीक्षित; एते--ये; मया--मेरे द्वारा; प्रोक्ता:--वर्णित; नर-देवा:--राजा; तथा-- और; अपरे-- अन्यमनुष्य; भूमौ--पृथ्वी पर; ममत्वम्--आत्मीयता; कृत्वा--दिखाते हुए; अन्ते--अन्तमें; हित्वा--त्याग कर; इमाम्ू--यहजगत; निधनम्--विनाश को; गता: --प्राप्त हुए |
हे राजा परीक्षित, मेरे द्वारा वर्णित ये सारे राजे तथा अन्य सारे मनुष्य इस पृथ्वी पर आतेहैं, अपना प्रभुत्व जताते हैं किन्तु अन्त में उन्हें यह जगत त्यागना पड़ता है और वे विनाश कोप्राप्त होते हैं।
"
कृमिविड्भस्मसंज्ञान्ते राजनाम्नोडपि यस्य च ।
भूतथुक्तत्कृते स्वार्थ कि वेद निरयो यतः ॥
४१॥
कृमि--कीड़ों का; विटू--मल; भस्म--तथा राख; संज्ञा--उपाधि; अन्ते--अन्त में; राज-नाम्न:--राजा नाम से विख्यात;अपि--यद्यपि; यस्य--जिस ( शरीर ) का; च--तथा; भूत--जीवों का; ध्रुक्-शत्रु; तत्-कृते--उस शरीर के लिए; स्व-अर्थमू--अपने हित को; किम्--क्या; वेद--जानता है; निरय:--नरक में दण्ड; यतः--जिसके कारण |
भले ही अभी मनुष्य का शरीर राजा की उपाधि से युक्त हो, किन्तु अन्त में इसका नामकीड़े, मल या राख हो जायेगा।
जो व्यक्ति अपने शरीर के लिए अन्य जीवों को पीड़ापहुँचाता है, वह अपने हित के विषय में क्या जान सकता है क्योंकि उसके कार्य उसे नरककी ओर ले जाने वाले होते हैं ?"
कथं सेयमखण्डा भू: पूर्व पुरुषैर्धृता ।
मत्पुत्रस्थ च पौत्रस्य मत्पूर्वा वंशजस्य वा ॥
४२॥
कथम्-कैसे; सा इयम्--यह वही; अखण्डा--असीम; भू:--पृथ्वी; पूर्व: --पूर्वजों द्वारा; मे--मेरे; पुरुष: --पुरुषों द्वारा;धृता--वश में की गई; मत-पुत्रस्थ--मेरे पुत्र के; च--तथा; पौत्रस्य--पौत्र के; मत्-पूर्वा--अब मेरे अधीन; वंश-जस्य--वंशजों के; वा--अथवा[ भौतिकतावादी
राजा सोचता हैं 'यह असीम पृथ्वी मेरे पूर्वजों के अधीन थी औरअब मेरी प्रभुसत्ता में है।
मैं इसे अपने पुत्रों, पौत्रों तथा अन्य वंशजों के हाथों में रहते जानेकी किस तरह व्यवस्था करूँ ?'तात्पर्य : यह मूर्खतापूर्ण स्वामित्व का उदाहरण है।
"
तेजोबन्नमयं कायं गृहीत्वात्मतयाबुधा: ।
महीं ममतया चोभौ हित्वान्तेडदर्शनं गता: ॥
४३॥
तेज:--अग्नि; अपू--जल; अन्न--तथा पृथ्वी; मयम्--से बना; कायम्--यह शरीर; गृहीत्वा--स्वीकार करके;आत्मतया--' मैं ' भाव से; अबुधा: --मूर्ख; महीम्--इस पृथ्वी को; ममतया--' मेरे ' भाव से; च--तथा; उभौ--दोनों;हित्वा--त्याग कर; अन्ते--अन्तत:; अदर्शनम्--अन्तर्धान; गता: --हो गये।
यद्यपि मूर्ख लोग पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने शरीर को 'मैं' और इस पृथ्वी को'मेरी ' स्वीकार करते हैं, किन्तु अन्ततः उन सबों को अपना शरीर तथा पृथ्वी दोनों त्यागनापड़ा और वे विस्मृति के गर्भ में चले गये।
"
ये ये भूपतयो राजन्भुझ्जते भुवमोजसा ।
कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्रा: कथासु च ॥
४४॥
ये ये--जो भी; भू-पतय:--राजा; राजन्--हे राजा परीक्षित; भुझ्ञते-- भोग करते हैं; भुवम्--संसार का; ओजसा--अपनेपराक्रम से; कालेन--काल की शक्ति से; ते--वे; कृता:--बनाये गये; सर्वे--सभी; कथा-मात्रा: --मात्र वृत्तान्त;कथासु--विविध इतिहासों में; च--तथा।
हे राजा परीक्षित, ये सारे राजे जिन्होंने अपने बल से पृथ्वी का भोग करना चाहा, सारेके सारे, काल की शक्ति से ऐतिहासिक वृत्तान्त मात्र बन कर रह गये।
"
अध्याय तीन: भूमि-गीता
12.3श्रीशुक उबवाचइष्ठात्मनि जये व्यग्रान्नपान्हसति भूरियम् ।
अहो माविजिगीषन्ति मृत्यो: क्रीडनका नृपा: ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; हृष्ठा--देख कर; आत्मनि--अपने आपमें; जये--विजय में; व्यग्रान् --व्यस्त; नृपान्--राजाओं को; हसति--हँसती है; भू:--पृथ्वी; इयम्--यह; अहो-- ओह; मा--मुझको; विजिगीषन्ति--जीतना चाहते हैं; मृत्यो: --मृत्यु के; क्रीडनका:--खिलौने; नृूपा: --राजा।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस जगत के राजाओं को अपने पर विजय प्राप्त करने केप्रयास में व्यस्त देख कर, पृथ्वी हँसने लगी।
उसने कहा : 'जरा देखो तो इन राजाओं कोजो मृत्यु के हाथों में खिलौनों जैसे हैं, मुझ पर विजय पाने की इच्छा कर रहे हैं!" 'काम एष नरेन्द्राणां मोघः स्याद्विदुषामपि ।
येन फेनोपमे पिण्डे येडतिविश्रम्भिता नूपा: ॥
२॥
कामः--काम; एष:--यह; नर-इन्द्राणाम्--मनुष्यों के शासकों की; मोघ:--असफलता; स्यात्--हो जाती है;विदुषाम्-विद्वानों के; अपि-- भी; येन--जिस ( काम ) से; फेन-उपमे-- क्षणिक बुलबुले के सहश; पिण्डे--इसपिण्डमें; ये--जो; अति-विश्रम्भिता: --पूरी तरह विश्वास करते हुए; नृप:--राजागण |
'मनुष्यों के महान् शासक, यहाँ तक कि जो विद्वान भी हैं, भौतिक कामेच्छा केकारण हताशा तथा असफलता को प्राप्त होते हैं।
ये राजा काम से प्रेरित होकर, मांस के मृतपिण्ड में, जिसे हम शरीर कहते हैं, अत्यधिक आशा तथा श्रद्धा रखते हैं यद्यपि भौतिकढाँचा जल पर तैरते फेन के बुलबुलों के समान क्षणभंगुर है।
"
'पूर्व निर्जित्य षड़्वर्ग जेष्यामो राजमन्त्रिण: ।
ततः सचिवपौराप्तकरीन्द्रानस्थ कण्टकान् ॥
३॥
एवं क्रमेण जेष्याम: पृथ्वीं सागरमेखलाम् ।
इत्याशाबद्धहदया न पश्यन्त्यन्तिकेउन्तकम् ॥
४॥
पूर्वम्--सर्वप्रथम; निर्जित्य--जीत कर; षट््-वर्गम्--पाँच इन्द्रियाँ तथा मन; जेष्याम:--हम जीत लेंगे; राज-मन्त्रिण: --राजा के मंत्रियों को; ततः--तब; सचिव--निजी सचिवों; पौर--राजधानी के नागरिकों; आप्त--मित्रों; करि-इन्द्रानू--हाथी रखने वालों; अस्य--छुटकारा पाकर; कण्टकान्--काँटों; एवम्ू--इस तरह; क्रमेण--धीरे धीरे; जेष्याम:--जीतलेंगे; पृथ्वीम्--पृथ्वी को; सागर--समुद्र रूपी; मेखलाम्--मेखला ( कमर की पेटी ); इति--इस तरह सोचते हुए;आशा--आशा से; बद्ध--बँधे; हृदया:--हृदय वाले; न पश्यन्ति--नहीं देखते; अन्तिके--निकटस्थ; अन्तकम्--अपनाअन्त)'राजे तथा राजनीतिज्ञ
यह कल्पना करते हैं, 'सर्वप्रथम मैं अपनी इन्द्रियों तथा मन कोजीतूँगा; फिर मैं अपने मुख्य मंत्रियों का दमन करूँगा और अपने सलाहकारों, नागरिकों,मित्रों तथा सम्बन्धियों एवं अपने हाथियों के रखवालों रूपी कंटकों से अपने को मुक्त करलूँगा।
इस तरह मैं धीरे धीरे पूरी पृथ्वी को जीत लूँगा।
' चूँकि इन नेताओं के हृदयों में बड़ी-बड़ी आशाएँ रहती हैं अतएव ये पास ही खड़ी प्रतीक्षारत मृत्यु को नहीं देख पाते।
"
समुद्रावरणां जित्वा मां विशन्त्यव्धिमोजसा ।
कियदात्मजयस्यैतन्मुक्तिरात्मजये फलम् ॥
५॥
समुद्र-आवरणाम्--समुद्र द्वारा सीमाबद्ध; जित्वा--जीत कर; माम्ू--मुझमें; विशन्ति--प्रवेश करते हैं; अब्धिम्--समुद्रको; ओजसा--अपने बल से; कियत्--कितना; आत्म-जयस्य--आत्मा पर विजय का; एतत्--यह; मुक्ति:--मुक्ति;आत्म-जये--आत्मा पर विजय का; फलम्--फल।
'ये गर्वित राजागण मेरे तल पर सारी भूमि को जीत लेने के बाद, समुद्र को जीतने केलिए बलपूर्वक समुद्र में प्रवेश करते हैं।
भला उनके ऐसे आत्मसंयम से क्या लाभ जिसकालक्ष्य राजनीतिक शोषण हो ? आत्मसंयम का वास्तविक लक्ष्य तो आध्यात्मिक मुक्ति है।
"
'यां विसृज्यैव मनवस्तत्सुताश्च॒ कुरूद्रह ।
गता यथागतं युद्धे तां मां जेष्यन्त्यबुद्धय: ॥
६॥
याम्ू--जिसको; विसृज्य--त्याग कर; एबव--निस्सन्देह; मनव:--मनुष्यगण; तत्-सुता:--उनके पुत्र; च--भी; कुरु -उद्दद-हे कुरु श्रेष्ठ; गता:--चले गये; यथा-आगतम्--जिस तरह वे पहले आये; युद्धे--युद्ध में; तामू--उसको; माम्ू--मुझ पृथ्वी को; जेष्यन्ति--जीतने का प्रयास करते हैं; अबुद्धयः--अज्ञानी |
हे कुरुश्रेष्ठ, पृथ्वी आगे कहती है, 'यद्यपि भूतकाल में बड़े-बड़े पुरुष तथा उनकेवंशज इस संसार से मुझे छोड़ कर, उसी असहायवस्था में चले गये जिस रूप में इसमें आयेथे, किन्तु आज भी मूर्ख लोग मुझे जीतने का प्रयास कर रहे हैं।
"
मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातृणां चापि विग्रह: ।
जायते हासतां राज्ये ममताबद्धचेतसाम् ॥
७॥
मत्-कृते-मेरे हेतु; पितृ-पुत्राणाम्ू--पिता तथा पुत्र के बीच; भ्रातृणाम्-- भाइयों के बीच; च--तथा; अपि-- भी;विग्रह:--झगड़ा; जायते--उठ खड़ा होता है; हि--निस्सन्देह; असताम्--भौतिकतावादियों के बीच; राज्ये--राज्य में;ममता--स्वामित्व बोध के कारण; बद्ध--बद्ध; चेतसामू--हृदयों वाले |
'मुझे जीतने के उद्देश्य से भौतिकतावादी लोग परस्पर लड़ते हैं।
पिता अपने पुत्र काविरोध करता है और भाई एक-दूसरे से झगड़ते हैं क्योंकि उनके हृदय राजनीतिक शक्तिपाने के लिए बँधे रहते हैं।
"
'ममैवेयं मही कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः ।
स्पर्धमाना मिथो घ्नन्ति प्रियन्ते मत्कृते नूपा: ॥
८॥
मम--मेरा; एब--निस्सन्देह; इयम्--यह; मही--पृथ्वी; कृत्सना--पूरी; न--नहीं; ते--तुम्हारी; मूढ--रे मूर्ख; इतिवादिन:--इस प्रकार बोलते; स्पर्धभाना:--लड़ते-झगड़ते; मिथ: -- परस्पर; घ्नन्ति--मार डालते हैं; प्रियन्ते--मारे जाते हैं;मत्-कृते--मेरे लिए; नृपा:--राजे |
'राजनीतिक लोग एक-दूसरे को ललकारते हैं 'यह सारी भूमि मेरी है।
ओरे मूर्ख।
यहतुम्हारी नहीं है।
' इस तरह वे एक-दूसरे पर हमला करते हैं और मर जाते हैं।
"
पृथु: पुरूरवा गाधिनहुषो भरतोउर्जुन: ।
मान्धाता सगरो राम: खट्वाड़ो धुन्धुहा रघु: ॥
९॥
तृणबिन्दुर्ययातिश्व शर्यातिः शन्तनुर्गय: ।
भगीरथ: कुवलयाश्र: ककुत्स्थो नैषधो नूग: ॥
१०॥
हिरण्यकशिपुर्वत्रो रावणो लोकरावण: ।
नमुचि: शम्बरो भौमो हिरण्याक्षोथ तारकः ॥
११॥
अन्ये च बहवो दैत्या राजानो ये महेश्वरा: ।
सर्वे सर्वविदः शूरा: सर्वे सर्वजितोडजिता: ॥
१२॥
ममतां मय्यवर्तन्त कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिण: ।
कथावशेषा: कालेन ह्कृतार्था: कृता विभो ॥
१३॥
पृथु: पुरूरवा: गाधि:--महाराज पृथु, पुरूरवा तथा गाधि; नहुष: भरत: अर्जुन:--नहुष, भरत तथा कार्तवीर्य अर्जुन;मान्धाता सगर: राम:--मान्धाता, सगर तथा राम; खट्वाडूः धुन्धुहा रघु;--खट्वांग, धुन्धुहा तथा रघु; तृणबिन्दु: ययातिःच--तृणबिन्दु तथा ययाति; शर्यातिः शन्तनु: गय: --शर्याति, शन्तनु तथा गय; भगीरथ: कुवलयाश्व:-- भगीरथ तथाकुवलयाश्व; ककुत्स्थः नैषध: नृग:--ककुत्स, नैषध तथा नृग; हिरण्यकशिपु: वृत्र:--हिरण्यकशिपु तथा वृत्रासुर;रावण:--रावण; लोक-रावण: --जिसने सारे जगत को रुला मारा; नमुचि: शम्बर: भौम: --नमुचि, शम्बर तथा भौम;हिरण्याक्ष:--हिरण्याक्ष; अथ--तथा; तारक:--तारक; अन्ये--दूसरे; च--भी; बहव:--अनेक; दैत्या: --दैत्यगण;राजान:--राजे; ये--जो; महा-ई श्वराः--महान् नियन्ता; सर्वे--वे सभी; सर्व-विद: --सबकुछ जानने वाले; शूरा:--वीर;सर्वे--सभी; सर्व-जित:--सबों को जीतने वाले; अजिता:--न जीते जा सकने योग्य; ममताम्--ममत्व; मयि--मेरे लिए;अवर्तन्त--वे जीवित रहे; कृत्वा--व्यक्त करके; उच्चै:--बहुत हद तक; मर्त्य-धर्मिण:--जन्म-मृत्यु के नियमों के अधीन;कथा-अवशेषा:--केवल ऐतिहासिक कथा के रूप में बचे हुए; कालेन--काल के बल से; हि--निस्सन्देह; अकृत-अर्था:--जिनकी इच्छाएँ अपूर्ण रह गईं; कृताः--बनाये गये; विभो--हे स्वामी |
'पृथु, पुरूरवा, गाधि, नहुष, भरत, कार्तवीर्य अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वांग,धुन्धुहा, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाश्र, ककुत्स्थ,नैषध, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्र, सारे जग को रुलाने वाला रावण, नमुचि, शम्बर, भौम,हिरण्याक्ष तथा तारक के साथ साथ अन्य असुर तथा अन्यों पर शासन करने की महान् शक्तिसे युक्त राजे--ये सारे के सारे ज्ञानी, शूर, सबको जीतने वाले तथा अजेय थे।
तो भी हेसर्वशक्तिमान प्रभु, ये सारे राजा मुझे पाने के लिए गहन प्रयास करते हुए जीवन बिताते रहे,किन्तु काल के अधीन थे जिसने सबों को मात्र ऐतिहासिक वृत्तान्त बना दिया है।
इनमें सेएक भी स्थायी रूप से अपना शासन स्थापित नहीं कर सका।
"
'कथा इमास्ते कथिता महीयसांविताय लोकेषु यशः परेयुषाम् ।
विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभोवचोविभूतीर्न तु पारमार्थ्यम् ॥
१४॥
कथा:--कथाएँ; इमा:--ये; ते--तुमसे; कथिता: --कही गई; महीयसाम्--महान् राजाओं की; विताय--फैलाकर;लोकेषु--सारे जगतों में; यश:--उनका यश; परेयुषाम्-प्रस्थान कर चुके; विज्ञान--दिव्य ज्ञान; बैराग्य--तथा वैराग्य;विवक्षया--शिक्षा देने की इच्छा से; विभो--हे शक्तिशाली परीक्षित; वच:--शब्दों का; विभूती:--अलंकरण; न--नहीं;तु--लेकिन; पारम-अर्थ्यम्ू-- अत्यन्त आवश्यक तात्पर्य का
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे बलशाली परीक्षित, मैंने इन सारे महान् राजाओं कीकथाएँ तुमसे बतला दीं जिन्होंने संसार-भर में अपना यश फैलाया और फिर चले गये।
मेराअसली उद्देश्य दिव्य ज्ञान तथा वैराग्य की शिक्षा देना था।
राजाओं की कथाएँ इन वृत्तान्तोंको शक्ति तथा ऐश्वर्य प्रदान करती हैं लेकिन वे स्वयं ज्ञान के चरम पक्ष से युक्त नहीं हैं।
"
यस्तूत्तम:शलोकगुणानुवादःसड्जीयतेभी क्ष्णममड्भलघ्न: ।
तमेव नित्य॑ श्रुणुयादभीक्ष्णंकृष्णेमलां भक्तिमभीप्समान: ॥
१५॥
यः--जो; तु--दूसरी ओर; उत्तम:-शलोक--दिव्य एलोकों द्वारा प्रशंसित भगवान् के; गुण--गुणों की; अनुवाद:--वर्णन;सड्जीयते--गाया जाता है; अभीक्ष्णम्--सदैव; अमड्भल-घ्न:--अमंगल का विनाश करने वाला; तमू--उसको; एव--निस्सन्देह; नित्यमू--नियमित रूप से; श्रुणुयात्--सुने; अभीक्षणम्--निरन्तर; कृष्णे--कृष्ण के प्रति; अमलाम्ू--निर्मल;भक्तिमू-- भक्ति; अभीष्समान:--इच्छा रखने वाला।
जो व्यक्ति भगवान् कृष्ण की शुद्ध भक्ति चाहता है उसे भगवान् उत्तमशलोक केयशःपूर्ण गुणों की कथाएँ सुननी चाहिए जिनके निरन्तर कीर्तन से सारे अमंगल विनष्ट होजाते हैं।
भक्तों को नियमित दैनिक सभाओं में ऐसे श्रवण में अपने को लगाना चाहिए औरदिन-भर इसी में लगे रहना चाहिए।
"
केनोपायेन भगवन्कलेदेषान्कलौ जना: ।
विधमिष्यन्त्युपचितांस्तन्मे ब्रूहि यथा मुने ॥
१६॥
श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; केन--किस; उपायेन--उपाय से; भगवनू--हे प्रभु; कलेः--कलियुग के;दोषान्--बुराइयों को; कलौ--कलियुग में रहते हुए; जना:--लोग; विधमिष्यन्ति--समूल नष्ट करेंगे; उपचितान्--संचित;तत्--वह; मे--मुझसे; बृहि--कहिए; यथा--उपयुक्त रीति से; मुने--हे मुनि
राजा परीक्षित ने कहा : हे स्वामी, कलियुग में रहने वाले लोग किस तरह इस युग केसंचित कल्मष से अपने को छुटा सकते हैं ? हे महामुनि, यह मुझे बतलायें।
"
युगानि युगधर्माश्च मान॑ प्रलयकल्पयो: ।
कालस्येश्वररूपस्य गतिं विष्णोर्महात्मन: ॥
१७॥
युगानि--विश्व इतिहास के युग; युग-धर्मान्--प्रत्येक युग के विशिष्ट गुण; च--तथा; मानम्--माप; प्रलय--संहार;कल्पयो:--तथा ब्रह्माण्ड की स्थिति; कालस्य--समय का; ईश्वर-रूपस्थ--भगवान् का प्रतिनिधित्व; गतिमू--चाल;विष्णो:--विष्णु की; महा-आत्मन:--परमात्मा |
कृपया विश्व इतिहास के विभिन्न युगों, प्रत्येक युग के विशिष्ट गुणों, ब्रह्माण्ड स्थिति कीअवधि तथा संहार एवं परमात्मा स्वरूप विष्णु के प्रत्यक्ष प्रतनिधि काल की गति के बारे मेंबतलायें।
"
श्रीशुक उबवाचकृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तज्जनैर्धृत: ।
सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोनप ॥
१८॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; कृते--सत्ययुग में; प्रवर्तत--पाया जाता है; धर्म:--धर्म; चतु:-पात्--चार पैरों वाला; तत्--उस युग के; जनै: --लोगों के द्वारा; धृत:-- धारण किया हुआ; सत्यम्--सत्य; दया--दया; तप:ः--तपस्या; दानम्--दान; इति--इस प्रकार; पादा:--पैर; विभोः --शक्तिशाली धर्म के; नृप--हे राजा
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, प्रारम्भ में, सत्ययुग में, धर्म अपने चार अक्षत पैरोंसे युक्त रहता है और उस युग के लोगों द्वारा सावधानी से धारण किया जाता है।
शक्तिशालीधर्म के चार पैर हैं--सत्य, दया, तपस्या तथा दान।
"
सन्तुष्टाः करुणा मैत्रा: शान्ता दान्तास्तितिक्षव: ।
आत्मारामा: समहशः प्रायशः श्रमणा जना; ॥
१९॥
सन्तुष्टा:--आत्मतुष्ट; करुणा: --दयालु; मैत्रा: --मैत्री भाव वाले; शान्ता:--शान्त; दान्ता:--आत्मसंयमी; तितिक्षव: --सहिष्णु; आत्म-आरामा:-- भीतर से आनन्दित; सम-हश:--समहदृष्टि रखने वाला; प्रायश:--अधिकांशत:; श्रमणा: --( आत्म-साक्षात्कार के लिए ) उद्योगशील; जना:--लोग |
सत्ययुग के लोग प्रायः आत्मतुष्ट, दयालु, सबों के मित्र, शान्त, गम्भीर तथा सहिष्णुहोते हैं।
वे अन्तःकरण से आनन्द लेने वाले, सभी वस्तुओं को एक-सा देखने वाले तथाआध्यात्मिक सिद्धि के लिए सदैव उद्योगशील होते हैं।
"
ज्रेतायां धर्मपादानां तुर्याशो हीयते शनेः ।
अधर्मपादैरनृतहिंषासन्तोषविग्रहै: ॥
२०॥
त्रेतायामू-द्वितीय युग में; धर्म-पादानाम्-- धर्म के पैरों का; तुर्य--एक चौथाई; अंश:--अंश; हीयते--नष्ट हो जाता है;शनै:--धीरे धीरे; अधर्म-पादैः:--अधर्म के पैरों द्वारा; अनृत--झूठ; हिंसा--हिंसा; असन्तोष--असंतोष; विग्रहैः--तथाझगड़े से, कलह से |
त्रेतायुग में अधर्म के चार पैरों--झूठ, हिंसा, असंतोष तथा कलह--के प्रभाव से धर्मका प्रत्येक पैर क्रमशः एक चौथाई क्षीण हो जाता है।
"
तदा क्रियातपोनिष्ठा नातिहिंस्त्रा न लम्पटा: ।
अैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नृूप ॥
२१॥
तदा--तब ( त्रेतायुग में ); क्रिया--कर्मकाण्ड; तपः--तथा तप के प्रति; निष्ठा: --अनुरक्ति; न अति-हिंस्त्रा:--अधिक उग्रनहीं; न लम्पटा:--मनमानी इन्द्रियतृष्ति चाहने वाले; त्रै-वर्गिका:--धर्म, अर्थ तथा इन्द्रियतृप्ति के तीन सिद्धान्तों में रुचिरखने वाले; त्रयी--तीन वेदों के द्वारा; वृद्धा:--सम्पन्न बने; वर्णा:--समाज की चार श्रेणियाँ; ब्रह्म-उत्तरा:--प्रायःब्राह्मण; नृप--हे राजा।
त्रेतायुग में लोग कर्मकाण्ड तथा कठिन तपस्या में लगे रहते हैं।
वे न तो अत्यधिक उग्रहोते हैं न ऐन्द्रिय आनन्द के पीछे अत्यधिक कामुक होते हैं।
उनकी रुचि मुख्यतः धर्म,आर्थिक विकास तथा नियमित इन्द्रियतृप्ति में रहती है और वे तीन वेदों की संस्तुतियों कापालन करते हुए सम्पन्नता प्राप्त करते हैं।
हे राजा, यद्यपि इस युग में समाज में चार पृथक् -पृथक् श्रेणियाँ ( वर्ण ) उत्पन्न हो जाती हैं, किन्तु अधिकांश लोग ब्राह्मण होते हैं।
"
तपःसत्यदयादानेष्वर्ध हस्वति द्वापरे ।
हिंसातुष्टयनृतद्वेषैर्धर्मस्थाधर्मलक्षणै: ॥
२२॥
तपः--तपस्या; सत्य--सत्य; दया--दया; दानेषु--तथा दान का; अर्धम्--अर्धम्; हस्वति--घट जाता है; द्वापरे--द्वापरयुग में; हिंसा--हिंसा; अतुष्टि-- असंतोष; अनृत--झूठ; द्वेषै:--तथा घृणा से; धर्मस्य-- धर्म का; अधर्म-लक्षणै:--अधर्मके लक्षणों सेद्वापर युग में तपस्या, सत्य, दया तथा दान के धार्मिक गुण अपने अधार्मिक विलोमअंशों--असंतोष, असत्य, हिंसा तथा शत्रुता--के द्वारा घट " कर आधे हो जाते हैं।
यशस्विनो महाशीलाः स्वाध्यायाध्ययने रता: ।
आध्या: कुटुम्बिनो हष्टा वर्णा: क्षत्रद्विजोत्तरा: ॥
२३॥
यशस्विन:--यश के लिए इच्छुक; महा-शीला:--नेक; स्वाध्याय-अध्ययने--वैदिक वाड्मय के अध्ययन में; रता:--लीन; आढ्या:--ऐश्वर्य से युक्त; कुटुम्बिन:--बड़े-बड़े परिवारों वाले; हृष्टा:--प्रसन्न; वर्णा:--समाज की चार श्रेणियाँ;क्षत्र-द्विज-उत्तरा:--प्राय: क्षत्रियों तथा ब्राह्मणों की प्रधानता।
द्वापर युग में लोग यश के भूखे तथा अत्यन्त नेक होते हैं।
वे वेदाध्ययन में अपने कोलगाते हैं, प्रचुर ऐश्वर्य वाले होते हैं, बड़े-बड़े परिवारों वाले होते हैं और जीवन काओजपूर्वक आनन्द लूटते हैं।
चारों वर्णो में से क्षत्रिय तथा ब्राह्मण ही सर्वाधिक संख्या मेंहोते हैं।
"
कलौ तु धर्मपादानां तुर्याशोधर्महेतुभि: ।
एधमाने: क्षीयमाणो हान्ते सोडपि विनड्छ््यति ॥
२४॥
कलौ--कलियुग में; तु--तथा; धर्म-पादानाम्-- धर्म के पैरों का; तुर्य-अंश:--एक चौथाई; अधर्म--अधर्म के;हेतुभि:--सिद्धान्तों से; एधमानैः--बढ़ने से; क्षीयमाण:--घटते हुए; हि--निस्सन्देह; अन्ते--अन्तमें; सः--वह चतुर्थाश;अपि-- भी; विनड्छ्ष्यति--नष्ट हो जायेगा |
कलियुग में धार्मिक सिद्धान्तों का केवल एक चौथाई शेष रहता है।
और यह अवशेषभी अधर्म के सदैव बढ़ने के कारण लगातार घटता जायेगा और अन्त में नष्ट हो जायेगा।
"
तस्मिन्लुब्धा दुराचारा निर्दया: शुष्कवैरिण: ।
दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदासोत्तरा: प्रजा: ॥
२५॥
तस्मिनू--उस युग में; लुब्धा:--लालची; दुराचारा:--बुंरे आचरण वाले; निर्दया:--निर्दयी; शुष्क-वैरिण:--व्यर्थ झगड़ाकरने के लिए उद्यत; दुर्भगा:--अभागे; भूरि-तर्षा:--अनेक प्रकार की लालसाओं से त्रस्त; च--तथा; शूद्र-दास-उत्तरा:--प्रमुखतया निम्न जाति के श्रमिक तथा बर्बर; प्रजा:--लोग ॥
कलियुग में लोग लोभी, दुराचारी तथा निर्दयी होते हैं और वे बिना कारण ही एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते हैं।
कलियुग के लोग अभागे तथा भौतिक इच्छाओं से त्रस्त होकर,प्राय: सभी शूद्र तथा बर्बर होते हैं।
"
सत्त्वं रजस्तम इति दृश्यन्ते पुरुषे गुणा: ।
कालसआ्ोदितास्ते वै परिवर्तन्त आत्मनि ॥
२६॥
सत्त्वम्ू--सतो; रज:--रजो; तम:--तमो; इति--इस प्रकार; दृश्यन्ते--देखे जाते हैं; पुरुषे--पुरुष में; गुणा:--गुण;काल-सञ्ञोदिता:--काल से प्रेरित; ते--वे; बै--निस्सन्देह; परिवर्तन्ते--परिवर्तन को प्राप्त होते हैं; आत्मनि--मन केभीतर।
सतो, रजो तथा तमोगुण, जिनके रूपान्तर पुरुष के मन के भीतर देखे जाते हैं, कालकी शक्ति से गतिमान होते हैं।
"
प्रभवन्ति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च ।
तदा कृतयुगं विद्याज्ज़ाने तपसि यद्रुचि: ॥
२७॥
प्रभवन्ति--प्रधान रूप से प्रकट होते हैं; यदा--जब; सत्त्वे--सतोगुण में; मन:--मन; बुद्धि--बुद्धि; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; च--तथा; तदा--तब; कृत-युगम्--कृतयुग में; विद्यात्--समझा जाना चाहिए; ज्ञाने--ज्ञान में; तपसि--तथातपस्या में; यत्ू--जब; रुचि:--रूचि |
जब मन, बुद्धि तथा इन्द्रियाँ पूरी तरह से सतोगुण में स्थित हैं, तो उस काल को सत्ययुगसमझना चाहिए।
तब लोग ज्ञान तथा तपस्या में रुचि लेते हैं।
"
यदा कमंसु काम्येषु भांक्तियेंशांस देहिनाम् ।
तदा त्रेता रजोवृत्तिरिति जानीहि बुद्धिमन् ॥
२८ ॥
यदा--जब; कर्मसु--कर्म में; काम्येषु--स्वार्थ पर आधारित; भक्ति:-- भक्ति; यशसि--सम्मान में; देहिनामू--देहधारीआत्माओं के; तदा--तब; त्रेता--त्रेतायुग; रज:-वृत्ति:--राजसिक कार्यों की प्रधानता; इति--इस तरह; जानीहि--जानो;बुद्धि-मन्--हे बुद्धिमान राजा परीक्षित।
हे परम बुद्धिमान, जब बद्धजीव अपने कर्मो के प्रति समर्पित तो होते हैं किन्तु उनमेंबाहा मनोभाव पाये जाते हैं और वे निजी प्रतिष्ठा की खोज करते हैं, तो तुम यह जान लो किऐसी स्थिति त्रेतायुग की है, जिसमें राजसिक कर्मों की प्रधानता होती है।
"
यदा लोभस्त्वसन्तोषो मानो दम्भोथ मत्सर: ।
कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद्रजस्तम: ॥
२९॥
यदा--जब; लोभ: --लोभ; तु--निस्सन्देह; असन्तोष: --असन्तोष; मान: --मिथ्या अहंकार; दम्भ:--दिखावा; अथ--तथा; मत्सर:--ईर्ष्या; कर्मणाम्ू--कर्मों का; च--तथा; अपि-- भी; काम्यानाम्--स्वार्थी ; द्वापरम्-द्वापर युग; तत्ू--बह; रज:-तम:--रजो तथा तमोगुण के मिश्रण की प्रधानता से |
जब लोभ, असनन््तोष, मिथ्या अहंकार, दिखावा तथा ईर्ष्या प्रधान बन जाते हैं और साथमें स्वार्थपूर्ण कार्यों के लिए आकर्षण होता है, तो ऐसा काल द्वापर युग है, जिसमें रजो तथातमोगुण के मिश्रण की प्रधानता होती है।
"
यदा मायानृतं तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम् ।
शोकमोहौ भयं देन्यं स कलिस्तामस: स्मृत: ॥
३०॥
यदा--जब; माया--धोखा; अनृतम्--झूठी वाणी; तन्द्रा--आलस्य; निद्रा--नींद तथा नशा; हिंसा--हिंसा; विषादनम्--विषाद; शोक--शोक; मोहौ--तथा मोह; भयम्-- डर; दैन्यम्--दरिद्रता; सः--वह; कलि:--कलियुग; तामस:--तमोगुणी; स्मृतः:--माना जाता है
जब धोखा ( कपट ), झूठ, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय तथा दरिद्रताका बोलबाला होता है, वह युग कलियुग अर्थात् तमोगुण का युग होता है।
"
तस्माश््षुद्रहशो मर्त्या: क्षुद्रभाग्या महाशना: ।
कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्व स्त्रियोइसती: ॥
३१॥
तस्मात्ू--कलियुग के इन गुणों के कारण; क्षुद्र-हशः --श्षुद्र दृष्टि; मर्त्या:--मनुष्य; क्षुद्र-भाग्या:--अभागे; महा-अशना: --पेटू; कामिन: --काम-वासना से युक्त; वित्त-हीना: --सम्पत्ति से रहित; च--तथा; स्वैरिण्य:--सामाजिकआचरण में स्वतंत्र; च--तथा; स्त्रियः--स्त्रियाँ; असती:--असाध्वी, कुलटा
कलियुग के दुर्गुणों के कारण मनुष्य क्षुद्र दृष्टि वाले, अभागे, पेटू, कामी तथा दरिद्रहोंगे।
स्त्रियाँ कुलटा होने से एक पुरुष को छोड़ कर दूसरे के पास स्वतंत्रतापूर्वक चलीजायेंगी।
"
दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदा: पाषण्डदूषिता: ।
राजानश्च प्रजाभक्षा: शिश्नोदरपरा द्विजा: ॥
३२॥
दस्यु-उत्कृष्टा:--चोरों का प्राधान्य होना; जन-पदा:--बसे हुए स्थान; वेदा:--वैदिक शास्त्र; पाषण्ड--नास्तिकों द्वारा;दूषिता:--दूषित; राजान:--राजनीतिक नेता; च--तथा; प्रजा-भक्षा:--जनता के भक्षक; शिश्न-उदर--जननांग तथाउदर; परा:--भक्त; द्विजा:--ब्राह्मण ।
शहर चोरों से भरे होंगे, वेद नास्तिकों के द्वारा की गईं मनमानी व्याख्या से दूषित कियेजायेंगे, राजनीतिक नेता प्रजा का भक्षण करेंगे और तथाकथित पुरोहित तथा बुद्ध्धिजीवीअपने पेट तथा जननांग के भक्त होंगे।
"
अब्रता बटवोशौचा भिक्षवश्च कुटुम्बिन: ।
तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनोत्यर्थलोलुपा: ॥
३३॥
अब्रता:--अपने ब्रतों को न कर पाने वाले; बटव:ः--ब्रह्मचारी; अशौचा: --अस्वच्छ; भिक्षव:-- भीख माँगने को उन्मुख;च--तथा; कुटुम्बिन:--गृहस्थ जन; तपस्विन:--जंगल में जाकर तपस्या करने वाले; ग्राम-वासा:--ग्रामवासी;न्यासिन:--संन्यासी; अत्यर्थ-लोलुपाः--धनके लिए अत्यधिक लालची।
ब्रह्मचारी अपने ब्रतों को सम्पन्न नहीं कर सकेंगे और सामान्यतया अस्वच्छ रहेंगे।
गृहस्थलोग भिखारी बन जायेंगे; वानप्रस्थी गाँवों में रहेंगे और संन््यासी लोग धन के लालची बनजायेंगे।
"
हस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतहियः ।
शश्वत्कटुकभाषिण्यश्लौर्यमायोरुसाहसा: ॥
३४॥
हस्व-काया:--नाटे शरीर वाली; महा-आहारा:--अत्यधिक खाने वाली; भूरि-अपत्या:--अनेक सन््तानों वाली; गत-हिय:--बेशर्म; शश्वत्ू--निरन्तर; कटुक--कदु, कड़वा; भाषिण्य: --बोलने वाली; चौर्य--चोरी की प्रवृत्ति वाली;माया--कपट; उरु-साहसा:--तथा
अत्यधिक साहसस्त्रियों का आकार काफी छोटा हो जायेगा और वे अधिक भोजन करेंगी, अधिकसन््तानें उत्पन्न करेंगी जिनका पालन-पोषण करने में वे अक्षम होंगी और सारी लाज खोबैठेंगी।
वे सदैव कड़वा बोलेंगी और चोरी, कपट तथा अनियंत्रित साहस के गुण प्रदर्शितकरेंगी।
"
'पणयिष्यन्ति वै क्षुद्रा: किराटा: कूटकारिण: ।
अनापद्यपि मंस्यन्ते वार्ता साधु जुगुप्सिताम्ू ॥
३५॥
'पणयिष्यन्ति--व्यापार में लगेंगे; बै--निस्सन्देह; क्षुद्रा:--क्षुद्र; किराटा:--व्यापारी; कूट-कारिण:--ठगी में लगे हुए;अनापदि--जब कोई आपात् काल न हो; अपि-- भी; मंस्यन्ते--मानेंगे; वार्तामू--वृत्ति, पेशा; साधु--उत्तम;जुगुप्सिताम्--वास्तव में घृषित।
व्यापारी लोग श्षुद्र व्यापार में लगे रहेंगे और धोखाधड़ी से धन कमायेंगे।
आपात् कालन होने पर भी लोग किसी भी अधम पेशे को अपनायेंगे।
"
पतिं त्यक्ष्यन्ति निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम् ।
भृत्यं विपन्नं पतय: कौलं गाश्चापयस्विनी: ॥
३६॥
पतिम्--स्वामी को; त्यक्ष्यन्ति--छोड़ देंगे; निर्द्रव्यम्ू-- धन से रहित; भृत्या:--नौकर; अपि-- भी; अखिल-उत्तमम्-गुणोंमें सर्वश्रेष्ठ; भृत्यम्ू--नौकर को; विपन्नम्ू--अक्षम; पतय:--स्वामी; कौलमू्--पीढ़ियों से परिवार से सम्बद्ध; गा:--गौवें;च--तथा; अपयस्विनी:--जिन्होंने दूध देना बन्द कर दिया है।
नौकर उस मालिक को छोड़ देंगे जिसकी सम्पत्ति नष्ट हो चुकी है भले ही वह मालिकसन्त उत्कृष्ठ आचरण का क्यों न हो।
मालिक भी अक्षम नौकर को त्याग देंगे भले ही वहनौकर पीढ़ियों से उस परिवार में क्यों न रहा हो।
दूध न देने वाली गौवों को या तो छोड़ दियाजायेगा या मार दिया जायेगा।
"
पितृश्रातृसुहज्ज्ञातीन्हित्वा सौरतसौहदा: ।
ननान्हश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणा: कलौ नरा: ॥
३७॥
पितृ--अपने पिता; भ्रातृ-भाइयों; सुहत्--शुभचिन्तक मित्रों; ज्ञातीन्ू--तथा निकट सम्बन्धियों को; हित्वा--छोड़ कर;सौरत--यौन-सम्बन्ध पर आधारित; सौहदा:--मित्रता की धारणा; ननान्ह--श्यालियों के साथ; श्याल--तथा साले;संवादा:--लगातार संगति करते हुए; दीना:--कंजूस; स्त्रैणा:--स्त्री-भक्त; कलौ--कलियुग में; नरा:--पुरुष
कलियुग में मनुष्य कंजूस तथा स्त्रियों द्वारा नियंत्रित होंगे।
वे अपने पिता, भाई, अन्यसम्बन्धियों तथा मित्रों को त्याग कर साले तथा सालियों की संगति करेंगे।
इस तरह उनकीमैत्री की धारणा नितान्त यौन-सम्बन्धों पर आधारित होगी।
"
शूद्राः प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः ।
धर्म वक्ष्यन्त्यधर्मज्ञा अधिरुह्मोत्तमासनम् ॥
३८ ॥
शूद्राः--निम्न जाति के श्रमिक; प्रतिग्रहीष्यन्ति--धार्मिक दान लेंगे; तप:--तपस्या का दिखावा करके; वेष--तथा साधुका वेश बनाकर; उपजीविन:--अपनी जीविका कमाते हुए; धर्मम्-धर्म के सिद्धान्तों के विषय में; वक्ष्यन्ति--बोलेंगे;अधर्म-ज्ञा:--धर्म से अनभिज्ञ; अधिरुह्म--चढ़ कर; उत्तम-आसनमू--उच्च आसन पर
असंस्कृत लोग भगवान् के नाम पर दान लेंगे और तपस्या का स्वाँग रचाकर तथा साधुका वेश धारण करके अपनी जीविका चलायेंगे।
धर्म न जानने वाले उच्च आसन पर बेठेंगेऔर धार्मिक सिद्धान्तों का प्रवचन करने का ढोंग रचेंगे।
"
नित्य॑ उद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिता: ।
निरन्ने भूतले राजननावृष्टिभयातुरा: ॥
३९॥
वासोन्नपानशयनव्यवायस्नानभूषणै: ।
हीना: पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजा: ॥
४०॥
नित्यमू--निरन्तर; उद्विग्ग--अशान्त; मनस:--उनके मन; दुर्भिक्ष-- अकाल; कर--तथा टैक्स से; कर्शिता:--दुर्बल;निरत्ने--जब खाने को भोजन न मिले; भू-तले--पृथ्वी पर; राजनू--हे राजा परीक्षित; अनावृष्टि--सूखे का; भय-- भयके कारण; आतुरा: --उद्विग्न; वास:--वस्त्र; अन्न-- भोजन; पान--पेय; शयन--विश्राम; व्यवाय--यौन; स्नान-- स्नान;भूषणै:--तथा निजी आभूषणों से; हीना: --रहित; पिशाच-सन्दर्शा:--पिशाचों की तरह लगने वाले; भविष्यन्ति--होंगे;कलौ--कलियुग में; प्रजा:--लोग।
कलियुग में लोगों के मन सदैव अशान्त रहेंगे।
हे राजा, वे अकाल तथा कर-भार सेदुर्बल हो जायेंगे और सूखे के भय से सदैव विचलित रहेंगे।
उन्हें पर्याप्त वस्त्र, भोजन तथापेय का अभाव रहेगा; वे न तो ठीक से विश्राम कर सकेंगे, न संभोग या स्नान कर सकेंगे।
उनकेपास अपने शरीरों को सुसज्जित करने के लिए आभूषण नहीं होंगे।
वस्तुत: कलियुग केलोग धीरे-धीरे पिशाच दिखने लगेंगे।
"
कलौ काकिणिके>प्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहदा: ।
त्यक्ष्यन्ति च प्रियान्प्राणान्हनिष्यन्ति स्वकानपि ॥
४१॥
कलौ--कलियुग में; काकिणिके --छोटे-से सिक्के के; अपि--भी; अर्थ--हेतु; विगृह्य --शत्रुता उत्पन्न करके; त्यक्त--छोड़ते हुए; सौहदा:--मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों; त्यक्ष्यन्ति--त्याग देंगे; च--तथा; प्रियान्--प्रिय; प्राणान्ू-- अपने जीवनों को;हनिष्यन्ति--मारेंगे; स्वकान्-- अपने सगों को; अपि--भीकलियुग में लोग कुछ ही सिक्कों के लिए शत्रुता ठान लेंगे।
बे सारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों कोत्याग कर स्वयं मरने तथा अपने ही सम्बन्धियों को मार डालने पर उतारू हो जायेंगे।
"
न रक्षिष्यन्ति मनुजा: स्थविरी पितरावषि ।
पुत्रान्भार्या च॒ कुलजां क्षुद्रा: शिश्नोदरंभरा: ॥
४२॥
न रक्षिष्यन्ति--रक्षा नहीं करेंगे; मनुजा: --मनुष्य; स्थविरौ--वृद्ध; पितरौ--माता-पिता; अपि-- भी; पुत्रानू--बच्चों को;भार्यामू--पत्ती को; च-- भी; कुल-जाम्--अच्छे परिवार में जन्मे; क्षुद्रा:--नीच; शिश्न-उदरम्--अपने जननांगों तथा पेटको; भरा:--भरण करते हुए।
लोग अपने बूढ़े माता-पिता, अपने बच्चों या अपनी सम्मान्य पत्नियों की रक्षा नहीं करसकेंगे।
वे अत्यन्त पतित होकर अपने पेटों तथा जननांगों की तुष्टि में लगे रहेंगे।
"
कलौ न राजन्जगतां परं गुरूत्रिलोकनाथानतपादपड्डूजम् ।
प्रायेण मर्त्या भगवन्तमच्युतंयक्ष्यन्ति पाषण्डविभिन्नचेतस: ॥
४३॥
कलौ--कलियुग में; न--नहीं; राजन्--हे राजा; जगताम्--ब्रह्मण्ड के; परमू--परम; गुरुम्--गुरु को; त्रि-लोक--तीनों लोकों के; नाथ--विविध स्वामियों द्वारा; आनत--झुकाये गये; पाद-पड्डजम्--जिनके चरणकमल; प्रायेण--प्राय; मर्त्या:--मनुष्य; भगवन्तमू--भगवान्; अच्युतम्--अच्युत को; यक्ष्यन्ति-- भेंट चढ़ायेंगे; पाषण्ड--नास्तिकताद्वारा; विभिन्न--पृथक्-पृथक्; चेतस:--बुद्धि वाले |
हे राजा, कलियुग में लोगों की बुद्धि नास्तिकता के द्वारा विचलित हो जायेगी और वेब्रह्माण्ड के परम गुरु स्वरूप भगवान् को कभी भी उपहार नहीं चढ़ायेंगे।
तीनों लोकों केनियन्ता महापुरुष तक भगवान् के चरणकमलों पर अपना शीश झुकाते हैं, किन्तु इस युगके क्षुद्र एवं दुखी लोग ऐसा नहीं करेंगे।
"
यन्नामधेयं प्रियमाण आतुरः'पतन्स्खलन्वा विवशो गृणन्पुमान् ।
विमुक्तकर्मार्गल उत्तमां गतिंप्राणोति यशक्ष्यन्ति न तं कलौ जना: ॥
४४॥
यत्--जिसका; नामधेयम्--नाम; प्रियमाण:--मर रहा व्यक्ति; आतुर:ः --पीड़ित; पतन्--गिरता; स्खलन्--शब्द रुद्धहोते; वा--अथवा; विवश: --असहाय; गृणन्--कीर्तन करते; पुमान्ू--पुरुष; विमुक्त--मुक्त; कर्म--सकाम कर्म का;अर्गल:ः--जंजीरों से; उत्तमामू--सर्वोच्च; गतिमू--लक्ष्य; प्राप्पयोति--पाता है; यक्ष्यन्ति न--नहीं पूजते; तम्ू--उसको,भगवान् को; कलौ--कलियुग में; जना: --लोगमरने वाला व्यक्ति भयभीत होकर अपने बिस्तर पर गिर जाता है।
यद्यपि उसकी वाणीअवरुद्ध हुई रहती है और उसे इसका बोध नहीं रहता कि वह क्या कह रहा है, किन्तु यदिवह भगवान् का पवित्र नाम लेता है, तो कर्मफल से मुक्त हो सकता है और चरम गन्तव्य कोप्राप्त कर सकता है।
किन्तु तो भी कलियुग में लोग भगवान् की पूजा नहीं करेंगे।
"
पुंसां कलिकृतान्दोषान्द्रव्यदेशात्मसम्भवान् ।
सर्वान्हरति चित्तस्थो भगवान्पुरुषोत्तम: ॥
४५॥
पुंसाम्-मनुष्यों को; कलि-कृतान्--कलि के प्रभाव से उत्पन्न; दोषान्ू--दोष; द्रव्य--पदार्थ; देश--स्थान; आत्म--तथासाक्षात् प्रकृति; सम्भवान्ू--पर आधारित; सर्वान्--सारे; हरति--चुरा लेता है; चित्त-स्थ:--हदय के भीतर स्थित;भगवानू--सर्वशक्तिमान प्रभु; पुरुष-उत्तम:--परम पुरुष |
कलियुग में वस्तुएँ, स्थान तथा व्यक्ति सभी प्रदूषित हो जाते हैं।
किन्तु भगवान् उसव्यक्ति के जीवन से ऐसा सारा कल्मष हटा सकते हैं, जो अपने मन के भीतर भगवान् कोस्थिर कर लेता है।
"
श्रुतः सड्डीतितो ध्यात: पूजितश्चाहतोपि वा ।
नृणां धुनोति भगवानहत्स्थो जन्मायुताशुभम् ॥
४६॥
श्रुत:--सुना हुआ; सड्डीतित:--महिमागान किया हुआ; ध्यात:--ध्यान धरा हुआ; पूजित:--पूजित; च--तथा; आहत: --सम्मानित; अपि-- भी; वा--अथवा; नृणाम्--मनुष्यों का; धुनोति--धो देता है; भगवान्-- भगवान्; हत्-स्थ:--उनकेहृदयों के भीतर स्थित; जन्म-अयुत--हजारों जन्मों का; अशुभम्--अशुभ कल्मष।
यदि कोई व्यक्ति हृदय के भीतर स्थित परमेश्वर के विषय में सुनता है, उनकी महिमा कागान करता है, उनका ध्यान करता है, उनकी पूजा करता है या परमेश्वर का अत्यधिक आदरकरता है, तो भगवान् उसके मन से हजारों जन्मों से संचित कल्मष को दूर कर देते हैं।
"
यथा हेम्नि स्थितो वह्निदुर्वर्ण हन्ति धातुजम् ।
एवमात्मगतो विष्णुयोंगिनामशुभाशयम् ॥
४७॥
यथा--जिस तरह; हेम्नि--सोने में; स्थित:--स्थित; वह्लिः--आग; दुर्वर्णम्--बदरंगपना; हन्ति--नष्ट कर देती है; धातु-जमू्--अन्य धातुओं के कारण उत्पन्न रंग; एवम्--इसी तरह; आत्म-गत:--आत्मा में प्रवेश करके; विष्णु:-- भगवान्विष्णु; योगिनामू--योगियों का; अशुभ-आशयमू--गंदा मन।
जिस तरह सोने को गलाने पर अग्नि अन्य धातुओं की रंचमात्र उपस्थिति से उत्पन्न बदरंगको दूर कर देती है उसी तरह हृदय के भीतर स्थित भगवान् विष्णु योगियों के मन को शुद्धकर देते हैं।
"
विद्यातपःप्राणनिरोधमैत्री -तीर्थाभिषेकब्रतदानजप्यै: ।
नात्यन्तशुद्धि लभतेडन्तरात्मा यथा हृदिस्थे भगवत्यनन्ते ॥
४८ ॥
विद्या--देवताओं की पूजा से; तपः--तपस्या; प्राण-निरोध--प्राणायाम्; मैत्री--दया; तीर्थ-अभिषेक --तीर्थ -स्नान;ब्रत--कठिन ब्रत; दान--दान; जप्यै: --तथा मंत्रोच्चार द्वारा; न--नहीं; अत्यन्त--पूर्ण; शुद्धिम्ू--शुद्धि; लभते--प्राप्तकर सकता है; अन्तः-आत्मा--मन; यथा--जिस तरह; हृदि-स्थे--हृदय के भीतर स्थित रहने पर; भगवति--भगवान् में;अनन्ते--असीम भगवान्, अनन्तदेव
पूजा, तपस्या, प्राणायाम, दया, तीर्थ-स्नान, कठिन ब्रत, दान तथा विविध मंत्रों केउच्चारण से मनुष्य के मन को वैसी परम शुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती जैसी कि हृदय के भीतरअनन्त भगवान् के प्रकट होने पर होती है।
"
तस्मात्सर्वात्मना राजन्हदिस्थं कुरु केशवम् ।
प्रियमाणो हावहितस्ततो यासि परां गतिम् ॥
४९॥
तस्मात्--इसलिए; सर्व-आत्मना--सररे प्रयास से; राजन्--हे राजा; हृदि-स्थम्--हृदय के भीतर; कुरु--करो;केशवम्-- भगवान् केशव को; प्रियमाण:--मरते हुए; हि--निस्सन्देह; अवहित:--एकाग्र; तत:--तब; यासि--जासकोगे; परम्--परम; गतिम्--गन्तव्य को
इसलिए हे राजा, अपनी शक्ति-भर अपने हृदय में परम भगवान् केशव को स्थिर करनेका प्रयास करो।
यह एकाग्रता भगवान् पर बनाये रखो और अपनी मृत्यु के समय तुमनिश्चित रूप से परम गन्तव्य को प्राप्त करोगे।
"
प्रियमाणैरभिध्येयो भगवान्परमे श्वर: ।
आत्मभावं नयत्यड़ु सर्वात्मा सर्वसंभ्रय: ॥
५०॥
प्रियमाणै:--मरने वालों के द्वारा; अभिध्येय:--धध्यान किये गये; भगवान्--भगवान्; परम-ईश्वर: --परमे श्वर; आत्म-भावम्ू--अपनी असली पहचान; नयति--उन्हें ले जाती है; अड़--हे राजा; सर्व-आत्मा--परमात्मा; सर्व-संश्रय:ः--सभीप्राणियों के आश्रय,हे राजा, भगवान् परम नियन्ता हैं।
वे परमात्मा हैं और सारे प्राणियों के परम आश्रय हैं।
मरणासत्न लोगों के द्वारा ध्यान किये जाने पर वे उन्हें अपना नित्य आध्यात्मिक स्वरूप प्रकटकरते हैं।
"
कलेदोंषनिधे राजन्नस्ति होको महान्गुण: ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसड्ः परं ब्रजेत् ॥
५१॥
कले:ः--कलियुग के; दोष-निधे: --दोष के सागर में; राजन्ू--हे राजा; अस्ति--है; हि--निश्चय ही; एक:--एक;महान्ू--महान्; गुण: --सदगुण; कीर्तनात्ू--कीर्तन से; एब--निश्चय ही; कृष्णस्य--कृष्ण-नाम के; मुक्त-सड़ः--भवबंधन से मुक्त; परम्ू--दिव्य धाम को; ब्रजेत्--जा सकता है।
हे राजन, यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है--केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्यधाम को प्राप्त होता है।
"
कृते यद्धय्ायतो विष्णु त्रेतायां यजतो मरे: ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥
५२॥
कृते--सत्ययुग में; यत्--जो; ध्यायतः--ध्यान से; विष्णुम्ू--एक विष्णु को; त्रेतायाम्-त्रेतायुग में; यजत:--पूजा करनेसे; मखै:--यज्ञ करने से; द्वापरे--द्वापर युग में; परिचर्यायाम्-- भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की पूजा करने से;कलौ--कलियुग में; तत्ू--वही फल ( प्राप्त किया जा सकता है ); हरि-कीर्तनात्ू--केवल हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तनसे
जो फल सत्ययुग में विष्णु का ध्यान करने से, त्रेतायुग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग मेंभगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से, प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्णमहामंत्र का कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है।
"
अध्याय चार: सार्वभौमिक विनाश की चार श्रेणियाँ
12.4श्रीशुक उबवाचकालस्ते परमाण्वादिद्विपरार्धावधिनृप ।
कथितो युगमानं च श्रुणु कल्पलयावषि ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; काल:--समय; ते--तुमको; परम-अणु-- अखंड परमाणु; आदि:--इत्यादि; द्वि-पर-अर्ध--ब्रह्म की आयु के दो अर्धाश; अवधि: --समाप्ति; नृप--हे राजा परीक्षित; कथित:--वर्णित कीगई; युग-मानम्--युग की अवधि; च--तथा; श्रुणु--अब सुनो; कल्प--ब्रह्मा का दिन; लयौ--संहार, प्रलय; अपि--भी
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा, मैं पहले ही तुम्हें एक परमाणु की गति से मापेजाने वाले सबसे छोटे अंश से लेकर ब्रह्म की कुल आयु तक काल की माप बतला चुकाहूँ।
मैंने ब्रह्माण्ड के इतिहास के विभिन्न युगों की माप भी बतला दी है।
अब ब्रह्मा के दिनतथा प्रलय की प्रक्रिया के विषय में सुनो।
"
चतुर्युगसहस्त्र तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते ।
स कल्पो यत्र मनवश्चतुर्दश विशाम्पते ॥
२॥
चतु:-युग--चार युग; सहस्त्रमू--एक हजार; तु--निस्सन्देह; ब्रह्मण: -- ब्रह्मा का; दिनम्ू--दिन; उच्यते--कहा जाता है;सः--वह; कल्प:--कल्प; यत्र--जिसमें; मनव:ः--मानव जाति का आदि प्रजापति; चतुर्दश--चौदह; विशाम्-पते--हेराजा।
चार युगों के एक हजार चक्रों से ब्रह्म का एक दिन बनता है, जो कल्प कहलाता है।
हेराजा, इस अवधि में चौदह मनु आते-जाते हैं।
"
तदन्ते प्रलयस्तावान्ब्राह्मी रात्रिरुदाहता ।
त्रयो लोका इमे तत्र कल्पन्ते प्रलयाय हि ॥
३॥
ततू-अन्ते--उन ( युगों के हजार चक्रों ) के बाद; प्रलयः--प्रलय; तावान्--उसी अवधि के; ब्राह्मी --ब्रह्मा की; रात्रि: --रात; उदाहता--कहा जाता है; त्रय:--तीन; लोका:--लोक; इमे--ये; तत्र--उस समय; कल्पन्ते-- अभिमुख रहते हैं;प्रलयाय--प्रलय के लिए; हि--निस्सन्देह |
ब्रह्मा के एक दिन के बाद, उनकी रात के समय, जो उतनी ही अवधि की होती है,प्रलय होता है।
उस समय तीनों लोक विनष्ट हो जाते हैं, उनका संहार हो जाता है।
"
एष नैमित्तिकः प्रोक्त: प्रलयो यत्र विश्वसृक् ।
शेतेउनन्तासनो विश्वमात्मसात्कृत्य चात्मभू: ॥
४॥
एष:--यह; नैमित्तिक: --यदा-कदा; प्रोक्त:--कहा जाता है; प्रलय:ः--प्रलय; यत्र--जिसमें; विश्व-सूक् --ब्रह्माण्ड कासृजनकर्ता, भगवान् नारायण; शेते--लेट जाते हैं; अनन्त-आसन: --अनन्त शेष की शय्या पर; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; आत्म-सात्-कृत्य--अपने भीतर लीन करके; च--भी; आत्म-भू: --ब्रह्मा ।
यह नैमित्तिक प्रलय कहलाता है, जिसमें आदि स्त्रष्टा नारायण अनन्त शेष की शैय्या परलेट जाते हैं और ब्रह्मा के सोते समय वे समूचे ब्रह्माण्ड को अपने में लीन कर लेते हैं।
"
द्विपरार्ध त्वतिक्रान्ते ब्रह्मण: परमेष्टिन: ।
तदा प्रकृतयः सप्त कल्पन्ते प्रलयाय वै ॥
५॥
द्वि-परार्धे--दो परार्थ; तु--तथा; अतिक्रान्ते-पूर्ण होने पर; ब्रह्मण: --ब्रह्मा का; परमे-ष्ठटिन:--अत्युच्च स्थित जीव;तदा--तब; प्रकृतयः--प्रकृति के तत्त्व; सप्त--सात; कल्पन्ते-- अधीन होते हैं; प्रलयाय--प्रलय के; बै--निस्सन्देह जब सर्वोच्च जीव भगवान्
ब्रह्म के जीवन काल के दो परार्ध पूरे हो जाते हैं, तो सृष्टिके सात मूलभूत तत्त्व विनष्ट हो जाते हैं।
"
एघ प्राकृतिको राजन्प्रलयो यत्र लीयते ।
अण्डकोष्स्तु सज्ञातो विधाट उपसादिते ॥
६॥
एष:--यह; प्राकृतिक:--प्रकृति के तत्त्वों का; राजन्--हे राजा परीक्षित; प्रलय:--संहार; यत्र--जिसमें; लीयते--लयहो जाता है; अण्ड-कोष:--ब्रह्माण्ड; तु--तथा; सज्ञट:--मिश्रण; विघाते--विच्छिन्न होने का कारण; उपसादिते--सामना करना होता है |
हे राजा, भौतिक तत्त्वों के प्रलय के बाद, सृष्टि के तत्त्वों के मिश्रण से बने ब्रह्माण्ड कोविनाश का सामना करना होता है।
"
पर्जन्य: शतवर्षाणि भूमौ राजन्न वर्षति ।
तदा निरत्ने ह्न्योन्यं भक्ष्यमाणा: क्षुधार्दिता: ।
क्षयं यास्यन्ति शनकै: कालेनोपद्वुता: प्रजा: ॥
७॥
पर्जन्य:--बादल; शत-वर्षाणि--एक सौ वर्षों तक; भूमौ--पृथ्वी पर; राजन्--हे राजा; न वर्षति--वृष्टि नहीं करेगा;तदा--तब; निरत्ने--अकाल आने पर; हि--निस्सन्देह; अन्योन्यम्ू--परस्पर; भक्ष्यमाणा:--खाते हुए; क्षुधा--भूख से;अर्दिता:--पीड़ित; क्षयम्--विनाश को; यास्यन्ति--जाते हैं; शनकै: --क्रमश:; कालेन--काल की शक्ति से; उपद्रुता:--दिग्भ्रमित; प्रजा:--लोग
हे राजा, ज्यों-ज्यों प्रलय निकट आयेगा, त्यों-त्यों पृथ्वी पर एक सौ वर्षों तक वर्षा नहींहोगी।
सूखे से दुर्भिक्ष पड़ जायेगा और भूखी मरने वाली जनता एक-दूसरे को सचमुच खाजायेगी।
पृथ्वी के निवासी काल की शक्ति से मोहग्रस्त होकर धीरे-धीरे नष्ट हो जाएँगे।
"
सामुद्रं दैहिकं भौम॑ रस सांवर्तको रवि: ।
रश्मिभि: पिबते घोरैः सर्व नैव विमुज्ञति ॥
८॥
सामुद्रमू--समुद्र का; दैहिकम्--शरीरों का; भौमम्-- भूमि का; रसम्ू--रस; सांवर्तक:--संहार करने वाला; रवि: --सूर्य;रश्मिभि:--किरणों से; पिबते--पी जाता है; घोरै:--घोर; सर्वम्--सर्वस्व; न--नहीं; एब--तक; विमुजञ्ञति--देता है।
सूर्य अपने संहारक रूप में अपनी घोर किरणों के द्वारा, समुद्र का, शरीरों का तथापृथ्वी का सारा पानी पी लेगा।
किन्तु बदले में यह विनाशकारी सूर्य वर्षा नहीं करेगा।
"
ततः संवर्तको वह्लिः सड्डर्षणमुखोत्थित: ।
दहत्यनिलवेगोत्थ: शून्यान्भूविवरानथ ॥
९॥
ततः--तब; संवर्तक:--संहार का; वह्लिः--अग्नि; सड्डूर्षण -- भगवान् संकर्षण के; मुख--मुख से; उत्थित:--निकला;दहति--जलाता है; अनिल-वेग--वायु के वेग से; उत्थ:--उठा हुआ; शून्यानू--रिक्त; भू--पृथ्वी-लोक के; विवरान्--दरारों; अथ--उसके बाद।
इसके बाद प्रलय की विशाल अग्नि भगवान् संकर्षण के मुख से धधक उठेगी।
वायु केप्रबल वेग से ले जाई गई, यह अग्नि निर्जीव विराट खोल को झुलसाकर, सारे ब्रह्माण्ड मेंजल उठेगी।
"
उपर्यध: समन्ताच्च शिखाभिर्वहिसूर्ययो: ।
दह्ममानं विभात्यण्डं दग्धगोमयपिण्डवत् ॥
१०॥
उपरि--ऊपर; अध:--तथा नीचे; समन्तात्ू--सभी दिशाओं में; च--तथा; शिखाभि: --लपटों से; वहि-- अग्नि का;सूर्ययो: --तथा सूर्य का; दह्ममानम्--जलना; विभाति--जगमगाता है; अण्डम्--ब्रह्माण्ड; दग्ध--जला हुआ; गो-मय--गोबर के; पिण्ड-वत्--गोले के समान।
ऊपर से दहकते सूर्य के तथा नीचे से भगवान् संकर्षण की अग्नि से--इस तरह सभीदिशाओं से--जलता हुआ ब्रह्माण्ड गोबर के दहकते पिंड की तरह चमकने लगेगा।
"
ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम् ।
परः सांवर्तको वाति धूम्रं खं रजसावृतम् ॥
११॥
ततः--तब; प्रचण्ड-- भीषण; पवन: --वायु; वर्षाणाम्--वर्षो का; अधिकम्--अधिक; शतम्--एक सौ; पर:--महान्;साम्बर्तक:--प्रलय लाने वाली; वाति--बहती है; धूप्रमू-- भूरा; खमू-- आकाश; रजसा-- धूल से; आवृतम्--ढका
महान् तथा भीषण विनाशकारी वायु एक सौ वर्षों से भी अधिक काल तक बहेगी औरधूल से आच्छादित आकाश भूरा हो जायेगा।
"
ततो मेघकुलान्यड् चित्र वर्णान्यनेकश: ।
शतं वर्षाणि वर्षन्ति नदन्ति रभसस्वनैः: ॥
१२॥
ततः--तब; मेघ-कुलानि--बादल; अड्ग--हे राजा; चित्र-वर्णानि--नाना प्रकार के रंगों के; अनेकश:--असंख्य;शतम्--एक सौ; वर्षाणि--वर्ष; वर्षन्ति--मूसलाधार वर्षा करते हैं; नदन्ति--गरजते हैं; रभस-स्वनै:--घोर ध्वनि से ॥
हे राजा, उसके बाद नाना रंग के बादलों के समूह बिजली के साथ घोर गर्जना करते हुएएकत्र होंगे और एक सौ वर्षों तक मूसलाधार वर्षा करते रहेंगे।
"
तत एकोदकं विश्व ब्रह्मण्डविवरान्तरम् ॥
१३॥
ततः--तब; एक-उदकम्--जल की एक राशि; विश्वम्--ब्रह्माण्ड को; ब्रह्म-अण्ड--सृष्टि के अंडे के; विवर-अन्तरम्--भीतर
उस समय ब्रह्माण्ड की खोल जल से भर जायेगी और एक विराट सागर का निर्माणकरेगी।
"
तदा भूमेर्गन्धगुणं ग्रसन्त्याप उदप्लवे ।
ग्रस्तगन्धा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते ॥
१४॥
तदा--तब; भूमे: --पृथ्वी का; गन्ध-गुणम्--सुगन्ध का गुण; ग्रसन्ति--हर लेते हैं; आप:--जल; उद-प्लवे--बाढ़ केसमय; ग्रस्त-गन्धा--सुगन्ध से विहीन; तु--तथा; पृथिवी--भूमि; प्रलयत्वाय कल्पते--अप्रकटहो जाती है |
जब सारा ब्रह्माण्ड जलमग्न हो जाता है, तो यह जल पृथ्वी के अद्वितीय सुगन्धि गुण कोहर लेगा और पृथ्वी, अपने इस विभेदकारी गुण से विहीन होकर, विलीन हो जायेगी।
"
अपां रसमथो तेजस्ता लीयन्तेडथ नीरसा: ।
ग्रसते तेजसो रूप॑ वायुस्तद्रहितं तदा ॥
१५॥
लीयते चानिले तेजो वायो: खं ग्रसते गुणम् ।
स वै विशति खं राजंस्ततश्च नभसो गुणम् ॥
१६॥
शब्दं ग्रसति भूतादिर्नभस्तमनुलीयते ।
तैजसश्रैन्द्रियाण्यड़ देवान्वैकारिको गुणै: ॥
१७॥
महान्ग्रसत्यहड्डारं गुणा: सत्त्वादयश्च तम् ।
ग्रसतेव्याकृतं राजन्गुणान्कालेन चोदितम् ॥
१८॥
न तस्य कालावयवबै: परिणामादयो गुणा: ।
अनाचनन्तमव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम् ॥
१९॥
अपाम्--जल का; रसम्--स्वाद; अथ--तब; तेज:--अग्नि; ता:--वह जल; लीयन्ते--विलीन कर लेता है; अथ--उसके बाद; नीरसा:--स्वाद-गुण से रहित; ग्रसते--हर लेता है; तेजस:--अग्नि का; रूपम्--रूप; वायु:--वायु; तत्ू-रहितमू--उस रूप से विहीन; तदा--तब; लीयते--विलीन हो जाता है; च--तथा; अनिले--वायु में; तेज:-- अग्नि;वायो:--वायु का; खम्--आकाश; ग्रसते--हरण कर लेता है; गुणम्--अनुभव होनेवाले गुण ( स्पर्श ); सः--वह वायु;बै--निस्सन्देह; विशति--प्रवेश करती है; खम्--आकाश में; राजन्--हे राजा परीक्षित; ततः--तत्पश्चात्; च--तथा;नभसः:--आकाश का; गुणम्--गुण; शब्दम्--शब्द, ध्वनि; ग्रसति--हर लेती है; भूत-आदि:--तमोगुणी अहंकार तत्त्वको; नभ:--आकाश; तम्--उस मिथ्या अहंकार में; अनु--पीछे-पीछे; लीयते--विलीन हो जाता है; तैजसः--रजोगुणीमिथ्या अहंकार; च--तथा; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; अड़--हे राजा; देवान्ू--देवतागण; वैकारिक: --सतोगुणी मिथ्याअहंकार में; गुणै: --( मिथ्या अहंकार के ) प्रकट कार्यों समेत; महान्--महत्_ तत्त्व; ग्रसति--पकड़ लेता है; अहड्ढारम्--मिथ्या अहंकार को; गुणा:-- प्रकृति के गुण; सत्त्त-आदय:--सतो, रजो तथा तमो; च--तथा; तम्--उस महत् को;ग्रसते--पकड़ लेता है; अव्याकृतम्-प्रकृति का अव्यक्त आदि रूप; राजन्--हे राजा; गुणान्--गुणों को; कालेन--समय के द्वारा; चोदितम्--प्रेरित; न--नहीं; तस्य--अव्यक्त प्रकृति का; काल--समय का; अवयबै:--खंडों द्वारा;'परिणाम-आदय: --रूपान्तर तथा दृश्य पदार्थ के अन्य परिवर्तन ( सृजन, वृद्धि आदि ); गुणा:--ऐसे गुण; अनादि-- आदिरहित; अनन्तम्ू--बिना अन्त के; अव्यक्तम्--अप्रकट; नित्यमू--नित्य; कारणम्--कारण; अव्ययम्-- अव्यय |
तब अग्नि जल से स्वाद ग्रहण करती है, जो अपने अद्वितीय गुण स्वाद को त्याग कर,अग्नि में लीन हो जाता है।
वायु, अग्नि में निहित रूप को ग्रहण करता है और तब अग्निअपना रूप खोकर वायु में विलीन हो जाती है।
आकाश, वायु के गुण स्पर्श को पा लेता हैऔर वह वायु आकाश में प्रवेश करती है।
तब हे राजा, तमोगुणी मिथ्या अहंकार, आकाशके गुण ध्वनि को ग्रहण करता है, जिसके बाद आकाश मिथ्या अहंकार में विलीन हो जाताहै।
रजोगुणी मिथ्या अहंकार, इन्द्रियों को ग्रहण करता है और सतोगुणी अहंकार देवताओंको विलीन कर लेता है।
तब सम्पूर्ण महत् तत्त्व मिथ्या अहंकार को उसके विविध कार्यों समेत ग्रहण करता है और यह महत् प्रकृति के तीन गुणों--सतो, रजो तथा तमो--द्वाराजकड़ लिया जाता है।
हे राजा परीक्षित, ये गुण काल द्वारा प्रेरित प्रकृति के मूल अव्यक्तरूप द्वारा अधिगृहीत हो जाते हैं।
यह अव्यक्त प्रकृति काल के प्रभाव द्वारा उत्पन्न छः प्रकारके विकारों के अधीन नहीं होती, प्रत्युत् इसका न तो आदि होता है, न अन्त।
यह सृष्टि काअव्यक्त, शाश्वत, अव्यय कारण है।
"
न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वंतमो रजो वा महदादयोमी ।
न प्राणबुद्धीन्द्रियदेवता वान सन्निवेश: खलु लोककल्प: ॥
२०॥
न स्वण्नजाग्रन्न च तत्सुषुप्तंन खं जलं॑ भूरनिलोउग्निरर्क: ।
संसुप्तवच्छून्यवदप्रतर्क्यतन्मूलभूतं पदमामनन्ति ॥
२१॥
न--नहीं; यत्र--जहाँ; वाच: --वाणी; न--नहीं; मन:--मन; न--नहीं; सच्त्वमू--सतोगुण; तम:--तमोगुण; रज:--रजोगुण; वा--अथवा; महत्--महत् तत्त्व: आदय:--इत्यादि; अमी--ये तत्त्व; न--नहीं; प्राण--प्राणवायु; बुद्धि--बुद्धि; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; देवता:--तथा अधिष्ठाता देवता; वा--अथवा; न--नहीं; सन्निवेश:--विशेष रचना; खलु--निस्सन्देह; लोक-कल्प:-्रहों की व्यवस्था का; न--नहीं; स्वप्न--नींद; जाग्रत्ू--जाग्रत अवस्था; न--नहीं; च--तथा;तत्--वह; सुषुप्तम्--गहरी नींद; न--नहीं; खम्--आकाश; जलमू्--जल; भू:--पृथ्वी; अनिल:--वायु; अग्नि: --अग्नि; अर्क:--सूर्य; संसुप्त-वत्--गहरी नींद में रहने वाले के समान; शून्य-वत्--शून्य की तरह; अप्रतर्क्यम्-तर्क केद्वारा अभेद्य; तत्-वह प्रधान; मूल-भूतम्--आधार के रूप में; पदम्--वस्तु; आमनन्ति--महापुरुष कहते हैं |
प्रकृति की अव्यक्त अवस्था, जिसे प्रधान कहते हैं, में न वाणी, न मन, न महत् इत्यादिसूक्ष्म तत्त और न ही सतो, रजो तथा तमोगुण होते हैं।
उसमें न तो प्राणवायु, न बुद्धि, नकोई इन्द्रियाँ या देवता रहते हैं।
उसमें न तो ग्रहों की स्पष्ट व्यवस्था होती है, न ही चेतना कीविभिन्न अवस्थाएँ--सुप्त, जागृत तथा सुषुप्त--ही होती हैं।
उसमें आकाश, जल, पृथ्वी,वायु, अग्नि या सूर्य नहीं होते।
यह स्थिति सुषुप्ति अथवा शून्य जैसी होती है।
निस्सन्देह, यहअवर्णनीय है।
किन्तु आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ता बताते हैं कि प्रधान के मूल वस्तु होने से यहभौतिक सृष्टि का वास्तविक कारण है।
"
लय: प्राकृतिको होष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा ।
शक्तय: सम्प्रलीयन्ते विवशा: कालविद्गुता: ॥
२२॥
लयः--प्रलय; प्राकृतिक:-- भौतिक तत्त्वों की; हि--निस्सन्देह; एब:--यह; पुरुष--परमे श्वर का; अव्यक्तयो:--तथाअव्यक्त रूप में उनकी भौतिक प्रकृति का; यदा--जब; शक्तय:--शक्तियाँ; सम्प्रलीयन्ते--पूर्णतया लीन हो जाती हैं;विवशा: --असहाय; काल--काल द्वारा; विद्रुता:--अव्यवस्थित |
यह प्रलय प्राकृतिक कहलाती है, जिसके अन्तर्गत परम पुरुष तथा उनकी अव्यक्तभौतिक प्रकृति से सम्बन्धित शक्तियाँ, काल के वेग द्वारा अव्यवस्थित होकर, उनकीशक्तियों से विहीन होकर, पूरी तरह से लीन हो जाती हैं।
"
बुद्धीन्द्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम् ।
इृश्यत्वाव्यतिरिकाभ्यामाद्यन्तवदवस्तु यत् ॥
२३॥
बुद्धि--बुद्धि; इच्द्रिय--इन्द्रियाँ; अर्थ--तथा अनुभूति की वस्तुओं के; रूपेण--रूप में; ज्ञानमू--परब्रह्म; भाति--प्रकटकरता है; तत्--इन तत्त्वों का; आश्रयम्-- आधार; दृश्यत्व--देखे जाने के कारण; अव्यतिरिकाभ्याम्--अपने कारण सेअभिन्न होने के कारण; आदि-अन्त-वत्--जिसका आदि तथा अन्त है; अवस्तु--अपर्याप्त है; यत्ू--जो भी एकमात्र पर
ब्रह्म ही बुद्धि, इन्द्रियों तथा इन्द्रिय-अनुभूति की वस्तुओं के रूपों में प्रकटहोता है और वही उनका परम आधार है।
जिसका भी आदि तथा अन्त होता है, वह अपर्याप्त( अवस्तु ) है क्योंकि वह सीमित इन्द्रियों के द्वारा अनुभूत वस्तु है और अपने कारण सेअभिन्न है।
"
दीपश्चक्षुश्व रूपं च ज्योतिषो न पृथग्भवेत् ।
एवं धी: खानि मात्राश्न न स्युरन््यतमाहतात् ॥
२४॥
दीप:--दीपक; चक्षुः--देखने वाली आँख; च--तथा; रूपम्--देखा गया रूप; च--तथा; ज्योतिष:--मूल तत्त्व अग्निसे; न--नहीं; पृथक्ू--विलग; भवेत्--हैं; एवम्--इसी तरह; धीः--बुदर्द्धि; खानि--इन्द्रयाँ; मात्रा:--अनुभूतियाँ; च--तथा; न स्युः--नहीं हैं; अन्यतमात्--जो स्वयं पूर्णतया विलग है; ऋतात्--सत्य से |
दीपक, उस दीपक के प्रकाश से देखने वाली आँख तथा देखा जाने वाला दृश्य रूप,मूलतः अग्नि तत्त्व से अभिन्न हैं।
इसी तरह बुद्धि, इन्द्रियों तथा इन्द्रिय अनुभूतियों का परमसत्य से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है यद्यपि वह परम सत्य ( परब्रह्म ) उनसे सर्वथा भिन्न होताहै।
"
बुद्धेर्जागरणं स्वप्न: सुषुप्तिरिति चोच्यते ।
मायामात्रमिदं राजन्नानात्वं प्रत्यगात्मनि ॥
२५॥
बुद्धेः--बुद्धि का; जागरणम्--जागृत चेतना; स्वप्न:--नींद; सुषुष्ति:--गहरी नींद; इति--इस तरह; च--तथा; उच्यते--कहलाते हैं; माया-मात्रमू--निरी माया; इृदम्ू--यह; राजनू--हे राजा; नानात्वम्--द्वैत; प्रत्यक्-आत्मनि--शुद्ध आत्माद्वारा अनुभव किया हुआ।
बुद्धि की तीन अवस्थाएँ जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त कहलाती हैं।
लेकिन हे राजा, इनविभिन्न अवस्थाओं से शुद्ध जीव के लिए उत्पन्न नाना प्रकार के अनुभव माया के अतिरिक्तकुछ भी नहीं हैं।
"
यथा जलधरा व्योम्नि भवन्ति न भवन्ति च ।
ब्रह्मणीदं तथा विश्वमवयव्युदयाप्ययात् ॥
२६॥
यथा--जिस तरह; जल-धरा:--बादल; व्योम्नि-- आकाश में; भवन्ति-- हैं; न भवन्ति--नहीं होते; च--तथा; ब्रह्मणि--परब्रह्म में; इदम्--यह; तथा--उसी तरह; विश्वम्--ब्रह्मण्ड; अवयवि--अंशों से युक्त; उदय--उत्पत्ति; अप्ययात्--तथाप्रलय के कारण
जिस तरह आकाश में बादल बनते हैं और तब अपने घटक तत्त्वों के मिश्रण तथाविलय के द्वारा इधर-उधर बिखर जाते हैं, उसी तरह यह भौतिक ब्रह्माण्ड, परब्रह्म के भीतर,अपने अवयवब रूपी तत्त्वों के मिश्रण तथा विलय से, बनता और विनष्ट होता है।
सत्यं हवयव: प्रोक्त: सर्वावयविनामिह ।
विनार्थेन प्रतीयेरन्पटस्येवाड़ तन्तवः ॥
२७॥
सत्यम्ू--सत्य; हि-- क्योंकि; अवयव:--अवयवी कारण; प्रोक्त:--कहा गया है; सर्व-अवयविनाम्--समस्त अवयवोंका; इह--इस जगत में; विना--से विलग; अर्थेन--प्रकट फल; प्रतीयेरन्ू-- अनुभव किये जा सकते हैं; पटस्य--वस्त्रके; इब--सहृश; अड़--हे राजा; तन्तव: --धागे |
हे राजा, ( वेदान्त-सूत्र में ) यह कहा गया है कि इस ब्रह्माण्ड में किसी व्यक्त पदार्थ कोनिर्मित करने वाला अवययी कारण, पृथक् सत्य के रूप में, उसी तरह देखा जा सकता है,जिस तरह वस्त्र को बनाने वाले धागे उनसे बनी हुईं वस्तु ( वस्त्र ) से अलग देखे जा सकतेहैं।
"
यत्सामान्यविशेषाभ्यामुपलभ्येत स भ्रम: ।
अन्योन्यापाश्रयात्सर्वमाद्यन्तवदवस्तु यत् ॥
२८॥
यत्--जो भी; सामान्य--सामान्य कारण के रूप में; विशेषाभ्यामू--तथा विशेष कार्य के रूप में; उपलभ्येत-- अनुभवकिया जाता है; सः--वह; भ्रम:--मोह; अन्योन्य--पारस्परिक; अपाश्रयात्-- अधीनता के कारण; सर्वम्--हर वस्तु;आदि-अन्त-वत्--आदि तथा अन्त होने से; अवस्तु--असत्य; यत्--जो |
सामान्य कारण तथा विशिष्ट कार्य के रूप में अनुभव की हुई कोई भी वस्तु भ्रम होनीचाहिए क्योंकि ऐसे कारण तथा कार्य एक-दूसरे के सापेक्ष होते हैं।
निस्सन्देह, जिसका भीआदि तथा अन्त है, वह असत्य है।
"
विकारः ख्यायमानोपि प्रत्यगात्मानमन्तरा ।
न निरूप्योस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत् ॥
२९॥
विकार:--जगत का रूपान्तर; ख्यायमान:--प्रकट होने वाला; अपि--यद्यपि; प्रत्यक्-आत्मानम्--परमात्मा; अन्तरा--बिना; न--नहीं; निरूप्य:--चिन्तनीय; अस्ति--है; अणु: --एक परमाणु; अपि-- भी; स्थात्--ऐसा हो; चेत्--यदि;चित्-सम:ः--समान रूप से आत्मा; आत्म-वत्--बिना परिवर्तन के उसी रूप में।
भौतिक प्रकृति के एक भी परमाणु का अनुभव किया जाने वाला रूपान्तर, उसपरमात्मा के उल्लेख के बिना कोई परम अर्थ नहीं रखता।
किसी वस्तु को यथार्थ रूप मेंविद्यमान होने के लिए उस वस्तु को शुद्ध आत्मा जैसा ही गुण वाला--नित्य तथा अव्यय--होना चाहिए।
"
न हि सत्यस्य नानात्वमविद्वान्यदि मन्यते ।
नानात्वं छिद्रयोर्यद्वज्योतिषोर्वातयोरिव ॥
३०॥
न--नहीं है; हि--निस्सन्देह; सत्यस्य--परम सत्य का; नानात्वम्ू--द्वैत; अविद्वानू--अज्ञानी; यदि--यदि; मन्यते--सोचता है; नानात्वम्--द्वैत; छिद्रयो:--दो आकाशों का; यद्वतू--जिस तरह; ज्योतिषो:--दो स्वर्गिक प्रकाशों का;वातयो:--दो वायुओं का; इब--यथा।
परम सत्य में कोई भौतिक द्वैत नहीं है।
अज्ञानी व्यक्ति द्वारा अनुभूत द्वैत, रिक्त पात्र केभीतर तथा पात्र के बाहर के आकाश के अन्तर के समान, अथवा जल में सूर्य के प्रतिबिम्बतथा आकाश में सूर्य के अन्तर के समान, अथवा एक शरीर के भीतर की प्राणवायु तथादूसरे शरीर की प्राणवायु में, जो अन्तर है उसके समान है।
"
यथा हिरण्यं बहुधा समीयतेनृभि: क्रियाभिवव्यवहारवर्त्मसु ।
एवं वचोभिर्भगवानधोक्षजोव्याख्यायते लौकिकवैदिकैर्जन: ॥
३१॥
यथा--जिस तरह; हिरण्यम्--स्वर्ण; बहुधा--अनेक रूपों में; समीयते--प्रकट होता है; नृभि:--पुरुषों के लिए;क्रियाभि:--विभिन्न कर्मो के रूप में; व्यवहार-वर्त्मससु--सामान्य उपयोग में; एवम्--उसी तरह से; वचोभि:--विभिन्नप्रकार से; भगवान्-- भगवान्; अधोक्षज:-- भौतिक इन्द्रियों के लिए अचिन्त्य दिव्य प्रभु; व्याख्यायते--वर्णन किया जाताहै; लौकिक--संसारी; वैदिकै:--तथा वैदिक; जनै:--लोगों द्वारा
लोग विभिन्न कार्यो के अनुसार सोने का उपयोग नाना प्रकार से करते हैं, इसलिए सोनाविविध रूपों में देखा जाता है।
इसी तरह भौतिक इन्द्रियों के लिए अगम्य भगवान् का वर्णनविभिन्न प्रकार के लोगों द्वारा विभिन्न रूपों में--सामान्य तथा वैदिक रूप में--किया जाताहै।
"
यथा घनोर्कप्रभवोर्कदर्शितोहार्काशभूतस्य च चक्षुषस्तम: ।
एवं त्वहं ब्रह्मगुणस्तदीक्षितोब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मबन्धन: ॥
३२॥
यथा--जिस तरह; घन:--बादल; अर्क--सूर्य का; प्रभव:--फल; अर्क--सूर्य द्वारा; दर्शित:ः--दिखलाया जाता है;हि--निस्सन्देह; अर्क --सूर्य; अंश-भूतस्य--जो अंश रूप है; च--तथा; चक्षुष:-- आँख का; तम:--अंधकार; एवम्--उसी तरह से; तु--निस्सन्देह; अहम्--मिथ्या अहंकार; ब्रह्म-गुण:--परब्रह्म का गुण; तत्-ईक्षित:--परब्रह्म के माध्यम सेहृश्य; ब्रहम-अंशकस्य--परब्रह्म के अंश का; आत्मन:--जीवात्मा का; आत्म-बन्धन:--परमात्मा की अनुभूति में बाधक |
यद्यपि बादल सूर्य की ही उपज है और सूर्य द्वारा हश्य भी होता है, तो भी यह देखनेवाली आँख के लिए जो सूर्म का ही दूसरा अंश है, अंधेरा उत्पन्न कर देता है।
इसी तरहपरब्रह्म की विशेष उपज मिथ्या अहंकार जो परब्रह्म द्वारा ही दृश्य बनाई जाती है, आत्मा कोपरब्रह्म का साक्षात्कार करने से रोकता है यद्यपि आत्मा भी परब्रह्म का ही अंश है।
"
घनो यदार्कप्रभवो विदीर्यतेचक्षु: स्वरूपं रविमीक्षते तदा ।
यदा ह्यहड्डार उपाधिरात्मनोजिज्ञासया नश्यति तरहानुस्मरेत् ॥
३३॥
घन:--बादल; यदा--जब; अर्क-प्रभव:--सूर्य की उपज; विदीर्यते--तितर-बितर कर दिया जाता है; चक्षु;--आँख;स्वरूपमू-- अपने असली रूप में; रविम्--सूर्य को; ईक्षते--देखता है; तदा--तब; यदा--जब; हि--भी; अहड्ढार:--मिथ्या अहंकार; उपाधि: --बाहरी आवरण; आत्मन:--आत्मा का; जिज्ञासया--आध्यात्मिक पूछताछ से; नश्यति--नष्ट होजाता है; तहिं--उस समय; अनुस्मरेत्--मनुष्य को सही स्मृति प्राप्त होती है
जब सूर्य से उत्पन्न बादल तितर-बितर हो जाता है, तो आँख सूर्य के वास्तविक स्वरूपको देख सकती है।
इसी तरह, जब आत्मा दिव्य विज्ञान के विषय में पूछताछ करके, मिथ्याअहंकार के अपने भौतिक आवरण को नष्ट कर देता है, तो वह अपनी मूल आध्यात्मिकजागरूकता को फिर से प्राप्त होता है।
"
यदैवमेतेन विवेकहेतिनामायामयाहड्डरणात्मबन्धनम् ।
छिच्त्वाच्युतात्मानुभवोवतिष्ठतेतमाहुरात्यन्तिकमड़ सम्प्लवम् ॥
३४॥
यदा--जब; एवम्--इस तरह; एतेन--इससे; विवेक--विवेक की; हेतिना--तलवार से; माया-मय--माया से युक्त;अहड्ढडरण--मिथ्या अहंकार; आत्म--आत्मा का; बन्धनम्--बन्धन का कारण; छित्त्वा--काट कर; अच्युत--अच्युत;आत्म--परमात्मा का; अनुभव: --अनुभूति; अवतिष्ठते--हृढ़ता से उत्पन्न करता है; तम्ू--उसको; आहु:--कहते हैं;आत्यन्तिकमू--चरम; अड़--हे राजा; सम्प्लवम्--प्रलय |
हे राजा परीक्षित, जब आत्मा को बाँधने वाले मायामय मिथ्या अहंकार को विवेक-शक्ति की तलवार से काट दिया जाता है और मनुष्य परमात्मा अच्युत का अनुभव प्राप्त करलेता है, तो वह भौतिक जगत का आत्यन्तिक या परम प्रलय कहलाता है।
"
नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परन्तप ।
उत्पत्तिप्रलयावेके सूक्ष्मज्ञा: सम्प्रचक्षते ॥
३५॥
नित्यदा--निरन्तर; सर्व-भूतानाम्ू--सारे प्राणियों का; ब्रह-आदीनाम्--ब्रह्मा इत्यादि; परम्-तप--हे शत्रुओं केदमनकर्ता; उत्पत्ति--सूजन; प्रलयौ--तथा संहार; एके --कुछ; सूक्ष्म-ज्ञा:--सूक्ष्म वस्तुओं के ज्ञाता; सम्प्रचक्षते--घोषितकरते हैं।
हे शत्रुओं के दमनकर्ता, प्रकृति की सूक्ष्म कार्य-प्रणाली के ज्ञाताओं ने घोषित किया हैकि उत्पत्ति तथा प्रलय की प्रक्रियायें निरन्तर चलती रहती हैं जिनसे ब्रह्मा इत्यादि सारे प्राणीनिरन्तर प्रभावित होते रहते हैं।
"
कालस्त्रोतोजवेनाशु हियमाणस्य नित्यदा ।
परिणामिनां अवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतव: ॥
३६॥
काल--समय का; स्त्रोत: प्रबल प्रवाह का; जवेन--वेग से; आशु--तेजी से; हियमाणस्थ--बहाये जाने वाले का;नित्यदा--निरन्तर; परिणामिनाम्--रूपान्तरशील वस्तुओं की; अवस्था:--विभिन्न अवस्थाएँ; ता:--वे; जन्म--जन्म;प्रलय--तथा प्रलय के; हेतव:--कारण |
सारी भौतिक वस्तुओं में रूपान्तर होते हैं और वे काल के प्रबल प्रवाह द्वारा तेजी सेक्षीण की जाती हैं।
भौतिक वस्तुओं द्वारा प्रदर्शित अपने अस्तित्व की विविध अवस्थाएँउनकी उत्पत्ति तथा प्रलय के शाश्रत कारण हैं।
"
अनाचन्तवतानेन कालेने श्वरमूर्तिना ।
अवस्था नैव दृश्यन्ते वियति ज्योतिषां इव ॥
३७॥
अनादि-अन्त-वता--बिना आदि अथवा अन्त के; अनेन--इस; कालेन--काल के द्वारा; ईश्वर-- भगवान् की; मूर्तिना--प्रतिनिधि द्वारा; अवस्था:--विभिन्न अवस्थाएँ; न--नहीं; एब--निस्सन्देह; दृश्यन्ते--देखी जाती हैं; वियति--बाहाअवकाश में; ज्योतिषामू--गतिशील नक्षत्रों के; इब--सहश |
भगवान् के निर्विशेष प्रतिनिधि स्वरूप, आदि हीन तथा अन्तहीन काल द्वारा उत्पन्न,जगत की ये अवस्थाएँ उसी तरह दृश्य नहीं हैं जिस तरह आकाश में नक्षत्रों की स्थिति में होने वाले अत्यन्त सूक्ष्म परिवर्तनों को नहीं देखा जा सकता।
"
नित्यो नैमित्तिकश्चेव तथा प्राकृतिको लयः ।
आत्यन्तिकश्चव कथित: कालस्य गतिरीहशी ॥
३८॥
नित्य:--संतत; नैमित्तिक: --आकस्मिक; च--तथा; एव--निस्सन्देह; तथा-- भी; प्राकृतिक:--प्राकृतिक; लय॒ः--प्रलय; आत्यन्तिक:--अन्तिम; च--तथा; कथित:--वर्णित होते हैं; कालस्य--काल की; गति:-- प्रगति; ईहशी--इसतरह कीइस प्रकार काल की प्रगति को चार प्रकार के प्रलय के रूप में वर्णित किया जाता है।
"
ये हैं स्थायी, नैमित्तिक, प्राकृतिक तथा आत्यन्तिक |
एता: कुरु श्रेष्ठ जगद्ठिधातु-नॉरायणस्याखिलसत्त्वधाम्न: ।
लीलाकथास्ते कधिता: समासतःकार्ल्स्येन नाजोउप्यभिधातुमीश: ॥
३९॥
एता:--ये; कुरु-श्रेष्ठ--हे कुरुओं में श्रेष्ठ; जगत्-विधातु:--ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा का; नारायणस्थ--नारायण का; अखिल-सत्त्व-धाम्न:--सारे अस्तित्वों के आगार; लीला-कथा:--लीलाओं की कथाएँ; ते--तुमसे; कथिता:--कही जा चुकी हैं;समासतः--संक्षेप में; कार्त्स्येन--पूरी तरह; न--नहीं; अज:--अजन्मा ब्रह्मा; अपि--तक; अभिधातुम्--बतला सकनेमें; ईशः--सक्षम है |
हे कुरुश्रेष्ठ, मैंने तुम्हें भगवान् नारायण की लीलाओं की ये कथाएँ संक्षेप में बतला दींहैं।
भगवान् इस जगत के सत्रष्टा हैं और सारे जीवों के अन्ततः आगार हैं।
यहाँ तक कि ब्रह्माभी उन कथाओं को पूरी तरह बतलाने में अक्षम हैं।
"
संसारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षो -नॉान्य: प्लवो भगवत: पुरुषोत्तमस्य ।
लीलाकथारसनिषेवणमन्तरेणपुंसो भवेद्विविधदुःखदवार्दितस्य ॥
४०॥
संसार--संसार के; सिन्धुम्--सागर को; अति-दुस्तरम्--पार करने में असम्भव; उत्तितीर्षो:--पार करने की इच्छा करनेवाले के लिए; न--नहीं; अन्य: --कोई दूसरी; प्लव: --नाव; भगवत:-- भगवान्; पुरुष-उत्तमस्य--परमे श्वर की; लीला-कथा--लीलाओं की कथाएँ; रस--दिव्य आस्वाद के प्रति; निषेवणम्--सेवा भाव; अन्तरेण--इसके अतिरिक्त; पुंसः--पुरुष के लिए; भवेत्--हो सकता है; विविध--अनेक; दुःख-- भौतिक दुख की; दव--अग्नि द्वारा; अर्दितस्थय--पीड़ित |
असंख्य संतापों की अग्नि से पीड़ित तथा दुलल॑घ्य संसार सागर को पार करने के इच्छुकव्यक्ति के लिए, भगवान् की लीलाओं की कथाओं के दिव्य आस्वाद के प्रति भक्ति काअनुशीलन करने के अतिरिक्त कोई अन्य उपयुक्त नाव नहीं है।
"
पुराणसंहितामेतामृषिर्नारायणोव्यय: ।
नारदाय पुरा प्राह कृष्णद्वैषायनाय सः ॥
४१॥
पुराण--सारे पुराणों; संहितामू--आवश्यक संहिता के; एताम्--यह; ऋषि: --महामुनि; नारायण: -- नर-नारायण;अव्यय:--अव्यय; नारदाय--नारद मुनि से; पुरा--प्राचीन काल में; प्राह--कहा; कृष्ण-द्वैणायनाय--कृष्ण द्वैपायनवेदव्यास से; सः--उसने, नारद ने
बहुत दिन बीते सारे पुराणों की यह आवश्यक संहिता, अच्युत नर-नारायण ऋषि नेनारद से कही थी, जिन्होंने फिर इसे कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास से कही।
"
सब महां महाराज भगवान्बादरायण: ।
इमां भागवतीं प्रीतः संहितां वेदसम्मिताम् ॥
४२॥
सः--उसने; बै--निस्सन्देह; महाम्--मुझसे, शुकदेव गोस्वामी से; महाराज--हे राजा परीक्षित; भगवान्--परमे श्वर केशक्तिशाली अवतार; बादरायण: -- श्रील व्यासदेव ने; इमाम्ू--इस; भागवतीम्-- भागवत शास्त्र को; प्रीत:--तुष्ट होकर;संहिताम्--संहिता; वेद-सम्मिताम्--चारों वेदों के ही तुल्य |
हे महाराज परीक्षित, महापुरुष श्रील व्यासदेव ने मुझे उसी शास्त्र श्रीमद्भागवत कीशिक्षा दी जो महत्त्व में चारों वेदों के ही तुल्य है।
इमां वक्ष्यत्यसी सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये ।
दीर्घसत्रे कुरु श्रेष्ठ सम्पृष्ट: शौनकादिभि: ॥
४३॥
इमम्--इसे; वक्ष्यति--कहेगा; असौ--हमारे समक्ष उपस्थित; सूत:--सूत गोस्वामी; ऋषिभ्य: --ऋषियों से; नैमिष-आलये--नैमिषारण्य में; दीर्घ-सत्रे--दीर्घकाल तक चलने वाले यज्ञ के अवसर पर; कुरु-श्रेष्ठ--हे कुरुओं में श्रेष्ठ;सम्पृष्ट: --पूछे जाने पर; शौनक-आदिभि:--शौनक इत्यादि के द्वारा
हे कुरुश्रेष्ठ, हमारे समक्ष आसीन यही सूत गोस्वामी नैमिषारण्य के विराट यज्ञ में एकत्रऋषियों से इस भागवत का प्रवचन करेंगे।
ऐसा वे तब करेंगे जब शौनक आदि सभा केसटस्य उनसे प्रन करेंगे।
"
अध्याय पाँच: शुकदेव गोस्वामी के महाराज परीक्षित को अंतिम निर्देश
12,5श्रीशुक उबवाचअत्रानुवर्ण्यतेभी क्ष्णं विश्वात्मा भगवान्हरि: ।
यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्र: क्रोधसमुद्भधवः ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अतन्र-- श्रीमद्भागवत में ; अनुवर्ण्यते--विस्तार से वर्णन हुआ है;अभीक्ष्णम्--बारम्बार; विश्व-आत्मा--समस्त ब्रह्माण्ड की आत्मा; भगवान्--भगवान्; हरि:ः--हरि; यस्य--जिसके;प्रसाद--प्रसन्न होने से; ज:--उत्पन्न; ब्रह्मा--ब्रह्मा; रुद्र:--शिव; क्रोध--क्रोध से; समुद्धव:--उत्पन्न
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस श्रीमद्भागवत की विविध कथाओं में भगवान् हरि काविस्तार से वर्णन हुआ है जिनके प्रसन्न होने पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं और जिनके क्रोध सेरुद्र का जन्म होता है।
"
त्वं तु राजन्मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जातः प्रागभूतोद्य देहवत्त्वं न नड्छ््यसि ॥
२॥
त्वमू--तुम; तु--लेकिन; राजन्ू--हे राजा; मरिष्ये--मैं मरने वाला हूँ; इति--यह सोच कर; पशु-बुद्धिमू--पाशविकमनोवृत्ति का; इमामू--इस; जहि--त्याग दो; न--नहीं; जात: --उत्पन्न; प्राकु--इससे पूर्व; अभूत:--अविद्यमान; अद्य--आज; देह-वत्--शरीर की तरह; त्वम्--तुम; न नड्छ्यसि--नष्ट नहीं होगे
हे राजा, तुम यह सोचने की पाशविक प्रवृत्ति कि, 'मैं मरने जा रहा हूँ' त्याग दो।
तुमशरीर से सर्वथा भिन्न हो क्योंकि तुमने जन्म नहीं लिया है।
भूतकाल में ऐसा समय नहीं थाजब तुम नहीं थे और तुम विनष्ट होने वाले भी नहीं हो।
"
न भविष्यसि भूत्वा त्वं पुत्रपौत्रादिरूपवान् ।
बीजाइ्डु रवहेहादेव्यतिरिक्तो यथानलः ॥
३॥
न भविष्यसि--तुम नहीं होगे; भूत्वा--होकर; त्वम्--तुम; पुत्र--पुत्रों; पौन्र--नातियों; आदि--इत्यादि; रूप-वानू--स्वरूप वाले; बीज--बीज; अड्डु र--तथा अंकुर; वत्--सदृश; देह-आदेः--भौतिक शरीरतथा इसके साज-सामान से;व्यतिरिक्त:--पृथक्; यथा--जिस तरह; अनलः--अग्नि ( काष्ठ से )
तुम अपने पुत्रों तथा पौत्रों के रूप में फिर से जन्म नहीं लोगे जिस तरह बीज से अंकुरजन्म लेता है और पुनः नया बीज बनाता है।
प्रत्युत तुम भौतिक शरीर तथा उसके साज-सामान से सर्वथा भिन्न हो, जिस तरह अग्नि अपने ईंधन से भिन्न होती है।
"
स्वपण्ने यथा शिरएछेदं पञ्ञत्वाद्यात्मन: स्वयम् ।
यस्मात्पश्यति देहस्य तत आत्मा हाजोमर: ॥
४॥
स्वप्ने--स्वण में; यथा--जिस तरह; शिर:ः--किसी का सिर का; छेदम्--काटा जाना; पशञ्ञत्व-आदि--पाँच तत्त्वों से बनेहोने की स्थिति तथा अन्य स्थितियाँ; आत्मन: --अपनी ही; स्वयम्--स्वयं; यस्मात्--क्योंकि; पश्यति--देखता है;देहस्य--शरीर का; ततः--इसलिए; आत्मा--आत्मा; हि--निश्चय ही; अज:-- अजन्मा; अमर:--अमर।
स्वण में मनुष्य अपने ही सिर को काटा जाते देख सकता है और वह यह समझ सकताहै कि उसका आत्मा स्वप्न के अनुभव से अलग खड़ा है।
इसी तरह जगते समय मनुष्य यहदेख सकता है कि उसका शरीर पाँच भौतिक तत्त्वों का फल है।
इसलिए यह माना जाता हैकि वास्तविक आत्मा उस शरीर से पृथक् है, जिसे वह देखता है और वह अजन्मा तथा अमरहै।
"
घटे भिन्ने घटाकाश आकाश: स्याद्यथा पुरा ।
एवं देहे मृते जीवो ब्रह्म सम्पद्मयते पुन: ॥
५॥
घटे-घड़े में; भिन्ने--टूट जाने पर; घाट-आकाश:-घड़े के भीतर का आकाश; आकाश: --आकाश; स्यात्--बनारहता है; यथा--जिस तरह; पुरा--पूर्ववत्; एवम्--उसी तरह से; देहे--शरीर में; मृते--मर जाने पर, मुक्तअवस्था में;जीव:--जीवात्मा; ब्रहा--अपनी आध्यात्मिक स्थिति; सम्पद्यते--प्राप्त कर लेता है; पुन:--फिर से
जब घड़ा टूट जाता है, तो घड़े के भीतर का आकाश पहले की ही तरह आकाश बनारहता है।
उसी तरह जब स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर मरते हैं, तो उनके भीतर का जीव अपनाआध्यात्मिक स्वरूप धारण कर लेता है।
"
मन: सृजति वै देहान्गुणान्कर्माणि चात्मन: ।
तनमन: सृजते माया ततो जीवस्य संसृति: ॥
६॥
मनः--मन; सृजति--उत्पन्न करता है; बै--निस्सन्देह; देहान्ू-- भौतिक शरीरों को; गुणान्ू--गुणों को; कर्माणि--कर्मोको; च--तथा; आत्मन:--आत्मा का; तत्--वह; मन:--मन; सृजते--उत्पन्न करता है; माया--परमे श्वर की मायाशक्ति;ततः--इस प्रकार; जीवस्य--जीव का; संसृति:ः -- अस्तित्व |
आत्मा के भौतिक शरीर, गुण तथा कर्म भौतिक मन द्वारा ही उत्पन्न किये जाते हैं।
मनस्वयं भगवान् की मायाशक्ति से उत्पन्न होता है और इस तरह आत्मा भौतिक अस्तित्व धारणकरता है।
"
स्नेहाधिष्ठानवर्त्यग्निसंयोगो यावदीयते ।
तावद्दीपस्य दीपत्वमेवं देहकृतो भव: ।
रजःसत्त्वतमोवृत्त्या जायतेथ विनश्यति ॥
७॥
स्नेह--तेल का; अधिष्ठान--पात्र; वर्ति--बत्ती; अग्नि--तथा अग्नि; संयोग:--संमेल; यावत्--जितना; ईयते--देखाजाता है; तावत्--उस हद तक; दीपस्थ--दीपक का; दीपत्वम्--दीपक के रूप में कार्य करने की स्थर्ति; एवम्--उसीतरह; देह-कृत:-- भौतिक शरीर के कारण; भव:--संसार; रज:-सत्त्व-तम:--रजो, सतो तथा तमोगुणों की; वृत्त्या--क्रिया से; जायते--उत्पन्न होता है; अथ--तथा; विनश्यति--नष्ट होता है
दीपक अपने ईंधन, पात्र, बत्ती तथा अग्नि के संमेल से ही कार्य करता है।
इसी तरहभौतिक जीवन, शरीर के साथ आत्मा की पहचान पर आधारित होने से, उत्पन्न होता है औररजो, तमो तथा सतोगुणों के कार्यो से विनष्ट होता है, जो शरीर के अवयवी तत्त्व हैं।
"
न तत्रात्मा स्वयंज्योतिर्यों व्यक्ताव्यक्तयो: पर: ।
आकाश इव चाधारो थ्रुवोनन्तोपमस्तत: ॥
८ ॥
न--नहीं; तत्र--वहाँ; आत्मा--आत्मा; स्वयम्-ज्योति:ः--आत्म-प्रकाशित; यः--जो; व्यक्त-अव्यक्तयो:--व्यक्त तथाअव्यक्त ( स्थूल तथा सूक्ष्म देहों ) से; पर:--भिन्न; आकाश: --आकाश; इब--सहृश; च--तथा; आधार: --आधार;ध्रुव:--निश्चित; अनन्त--अन्तहीन; उपम:--अथवा उपमा; तत:--इस प्रकार |
शरीर के भीतर का आत्मा स्वयं-प्रकाशित है और दृश्य स्थूल तथा अदृश्य सूक्ष्म शरीरोंसे पृथक् है।
यह परिवर्तनशील शरीरों का स्थिर आधार बना रहता है, जिस तरह आकाशभौतिक रूपान्तर की अपरिवर्तनशील पृष्ठभूमि है।
इसलिए आत्मा अनन्त और भौतिक तुलनाके परे है।
"
एवमात्मानमात्मस्थमात्मनैवामृश प्रभो ।
बुद्धय्ानुमानगर्भिण्या वासुदेवानुचिन्तया ॥
९॥
एवम्--इस तरह; आत्मानम्--तुम्हारा शुद्ध आत्मा; आत्म-स्थम्--शारीरिक आवरण के भीतर स्थित; आत्मना--तुम्हारेमन से; एव--निस्सन्देह; आमृश--ठीक से विचार करो; प्रभो--हे आत्मा के ई श्वर ( राजा परीक्षित ); बुद्धया--बुद्धि से;अनुमान-गर्भिण्या--तर्क द्वारा सोचा गया; वासुदेव-अनुचिन्तया--वासुदेव के ध्यान से
हे राजा, भगवान् वासुदेव का निरन्तर ध्यान करते हुए तथा शुद्ध एवं तार्किक बुद्धि काप्रयोग करते हुए अपनी आत्मा पर सावधानी से विचार करो कि यह भौतिक शरीर के भीतरकिस तरह स्थित है।
"
चोदितो विप्रवाक्येन न त्वां धक्ष्यति तक्षक: ।
मृत्यवो नोपधक्ष्यन्ति मृत्यूनां मृत्युमी श्वरम् ॥
१०॥
चोदित:ः--भेजा हुआ; विप्र-वाक्येन--ब्राह्मण के शब्दों से; न--नहीं; त्वाम्--तुम; धक्ष्यति--जला दोगे; तक्षक:--तक्षक सर्प; मृत्यव:--साक्षात् मृत्यु के दूत; न उपधक्ष्यन्ति--नहीं जला सकता; मृत्यूनाम्--मृत्यु के इन कारणों का;मृत्युमू--मृत्यु को; ईश्वरम्--आत्मा के स्वामी को
ब्राह्मण के शाप से भेजा हुआ तक्षक सर्प तुम्हारी असली आत्मा को जला नहीं सकेगा।
मृत्यु के दूत तुम जैसे आत्मा के स्वामी को कभी नहीं जला पायेंगे क्योंकि तुमने भगवद्धामजाने के मार्ग के सारे खतरों को पहले से ही जीत रखा है।
"
अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम् ।
एवं समीक्ष्य चात्मानमात्मन्याधाय निष्कले ॥
११॥
दशन्तं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननै: ।
न द्रक्ष्यसि शरीर च विश्व च पृथगात्मन: ॥
१२॥
अहम्--ैं; ब्रहम--परब्रहा; परम्--परम; धाम-- धाम; ब्रह्म--परब्रहा; अहम्--मैं; परमम्--परम; पदम्--गन्तव्य;एवम्--इस प्रकार; समीक्ष्य--विचार करके; च--तथा; आत्मानम्-- अपने को; आत्मनि--परमात्मा में; आधाय--रखकर; निष्कले-- भौतिक गन्तव्य से मुक्त; दशन्तम्--काटते हुए; तक्षकम्--तक्षक को; पादे--अपने पाँव में;लेलिहानम्--होठ चाटता सर्प; विष-आननै:--विष से भरे मुँह से; न द्रक्ष्यसि--नहीं देखोगे; शरीरम्-- अपने शरीर को;च--तथा; विश्वम्--समूचे संसार को; च--तथा; पृथक्--भिन्न; आत्मन:--अपने से।
तुम मन में यह विचार लाओ कि, 'मैं परब्रह्म, परम धाम से अभिन्न हूँ और परम गन्तव्य परब्रह्म मुझसे अभिन्न हैं।
इस तरह अपने को परमात्मा को सौंपते हुए जो सभी भौतिकउपाधियों से मुक्त हैं, तुम तक्षक सर्प को जब वह अपने विष से पूर्ण दाँतों से तुम्हारे पासपहुँच कर तुम्हारे पैर में काटेगा, तो देखोगे तक नहीं।
न ही तुम अपने मरते हुए शरीर को याअपने चारों ओर के जगत को देखोगे क्योंकि तुम अपने को उनसे पृथक् अनुभव कर चुकेहोगे।
"
एतत्ते कथितं तात यदात्मा पृष्टवान्नुप ।
हरेविश्वात्मनश्वैष्टां कि भूय: श्रोतुमिच्छसि ॥
१३॥
एतत्--यह; ते--तुमसे; कथितम्--कहा गया; तात--हे परीक्षित; यत्--जो; आत्मा--तुमने; पृष्टवान्--पूछा; नृप--हेराजा; हरेः-- भगवान् का; विश्व-आत्मन:--ब्रह्माण्ड की आत्मा की; चेष्टामू--लीलाएँ; किम्--क्या; भूयः --और आगे;श्रोतुम्--सुनना; इच्छसि--चाहते हो ।
हे प्रिय राजा परीक्षित, मैंने तुमसे ब्रह्माण्ड के परमात्मा भगवान् हरि की लीलाएँ--वेसारी कथाएँ--कह दीं जिन्हें प्रारम्भ में तुमने पूछा था।
अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?"
अध्याय छह: महाराज परीक्षित का निधन
12.6सूत उबाचएतत्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्व्यासात्मजेन निखिलात्महशा समेन।
तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्नाबद्धाह्ललिस्तमिदमाह स विष्णुरात: ॥
१॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एतत्--यह; निशम्य--सुन कर; मुनिना--मुनि ( शुकदेव ) द्वारा; अभिहितम्--कहागया; परीक्षित्--महाराज परीक्षित; व्यास-आत्म-जेन--व्यासदेव के पुत्र द्वारा; नेखिल--सारे जीवों के; आत्म--परमे श्वर;हशा--द्रष्टा; समेन--पूर्णतया सन्तुलित; तत्--उस ( शुकदेव ) का; पाद-मूलम्--चरणकमलों तक; उपसृत्य--पहुँचकर; नतेन--झुके हुए; मूर्थश्ना--सिर से; बद्ध-अज्जलि: --हाथ जोड़े; तम्--उससे; इदम्--यह; आह--कहा; सः--वह;विष्णु-रात:--गर्भ में ही कृष्ण द्वारा रक्षा किया गया परीक्षित |
सूत गोस्वामी ने कहा : व्यासदेव के पुत्र, स्वरूपसिद्ध तथा समदृष्टि वाले शुकदेवगोस्वामी द्वारा जो कुछ कहा गया था उसे सुन कर महाराज परीक्षित नगम्रतापूर्वक उनके चरणकमलों के पास गये।
मुनि के चरणों पर अपना शीश झुकाते हुए, सम्मान में हाथजोड़े, जीवन-भर भगवान् विष्णु के संरक्षण में रह चुके राजा ने इस प्रकार कहा।
"
राजोबाचसिद्धोउस्म्यनुगृहीतोस्मि भवता करुणात्मना ।
श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरि; ॥
२॥
राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; सिद्ध:--पूरी तरह सफल; अस्मि--हूँ; अनुगृहीत:--महती कृपा प्रदर्शित; अस्मि--मैं हूँ; भवता--आपके द्वारा; करूणा-आत्मना--दयालु; श्रावित:--सुनाया गया; यत्--क्योंकि; च--तथा; मे-- मुझको;साक्षात्- प्रत्यक्ष; अनादि--आदि से रहित; निधन: --अथवा अन्त; हरिः-- भगवान् |
महाराज परीक्षित ने कहा : अब मुझे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया है क्योंकिआप सरीखे महान् तथा दयालु आत्मा ने मुझ पर इतनी कृपा प्रदर्शित की है।
आपने स्वयंमुझसे आदि अथवा अन्त से रहित भगवान् हरि की यह कथा कही है।
"
नात्यद्भधुतमहं मन््ये महतामच्युतात्मनाम् ।
अज्ेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः ॥
३॥
न--नहीं; अति-अद्भधुतम्--अत्यन्त आश्चर्यजनक; अहम्--ैं; मन्ये--सोचता हूँ; महताम्-महापुरुषों के लिए; अच्युत-आत्मनाम्ू--जिनके मन सदैव भगवान् कृष्ण में लीन रहते हैं; अज्ञेषु--अज्ञानी पर; ताप--भौतिक जीवन के कष्टों से;तप्तेषु--सताये हुए; भूतेषु--बद्धात्माओं पर; यत्--जो; अनुग्रह:--दयामैं
इसे तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं मानता कि आप जैसे महात्मा, जिनके मन सदैवअच्युत भगवान् में लीन रहते हैं, हम जैसे मूर्ख बद्धजीवों पर दया दिखाते हैं, जो भौतिकजीवन की समस्याओं से सताये होते हैं।
"
पुराणसंहितामेताम श्रौष्पम भवतो वयम् ।
यस्यां खलूत्तम:शलोको भगवाननवर्ण्यते ॥
४॥
पुराण-संहिताम्--सारे पुराणों का आवश्यक सारांश; एताम्--इस; अश्रौष्म--सुना है; भवत:--आपसे; वयम्--हमने;यस्याम्--जिसमें; खलु--निस्सन्देह; उत्तम:-शलोक:--उत्तम एलोकों द्वारा वर्णित; भगवान्-- भगवान्; अनुवर्ण्यते--उचित रीति से वर्णन किया जाता है |
मैंने आपसे यह श्रीमद्धागवत का श्रवण किया है, जो सारे पुराणों का पूर्ण सार है और जो भगवान् उत्तमशलोक का ठीक से वर्णन करता है।
"
भगवंस्तक्षकादिश्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम् ।
प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं त्वया ॥
५॥
भगवनू-हे प्रभु; तक्षक--तक्षक सर्प से; आदिभ्य:--अथवा अन्य जीवों से; मृत्युभ्य:--बारम्बार मृत्यु से; न बिभेमि--नहीं डरता हूँ; अहम्--मैं; प्रविष्ट:--प्रवेश करके; ब्रह्म--परब्रह्म; निर्वाणम्--हर भौतिक वस्तु से परे; अभयम्--निर्भीकता; दर्शितमू--दिखाई गई; त्ववा--आपके द्वारा
हे प्रभु, अब मुझे तक्षक या अन्य जीव का या बारम्बार मृत्यु का भी भय नहीं रहाक्योंकि मैंने अपने को उस विशुद्ध आध्यात्मिक परब्रह्म में लीन कर दिया है, जिसकाउद्घाटन आपने किया है और जो सारे भय को नष्ट कर देता है।
"
अनुजानीहि मां ब्रह्मन्वाच॑ यच्छाम्यधोक्षजे ।
मुक्तकामाशयं चेत: प्रवेश्य विसृजाम्यसून् ॥
६॥
अनुजानीहि--अनुमति दें; माम्--मुझको; ब्रह्मनू-हे महान् ब्राह्मण; वाचम्ू--मेरी वाणी ( तथा अन्य इन्द्रिय-कार्य );यच्छामि--मैं रखूँगा; अधोक्षजे-- भगवान् में; मुक्त--त्याग करके; काम-आशयम्--सारी कामुक इच्छाएँ; चेत:--अपनामन; प्रवेश्य--लीन करके; विसृजामि--मैं त्याग दूँगा; असून्ू--अपना प्राण
हे ब्राह्मण, मुझे अनुमति दें कि मैं अपनी वाणी तथा अपनी अन्य इन्द्रियों के कार्यों कोबन्द करके भगवान् अधोक्षज को सौंप सकूँ।
कृपया मुझे अनुमति दें कि मैं अपने मन कोविषय-वासनाओं से शुद्ध करके उन्हीं में लीन कर सकूँ और इस तरह अपना जीवन त्यागसकूँ।
"
अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया ।
भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम् ॥
७॥
अज्ञानम्--अज्ञान; च-भी; निरस्तम्--जड़मूल नष्ट हुआ; मे--मेरा; ज्ञान--परमेश्वर के ज्ञान; विज्ञान--तथा उनके ऐश्र्यतथा माधुर्य की प्रत्यक्ष अनुभूति; निष्ठया--स्थिर होकर; भवता--आपके द्वारा; दर्शितम्ू--दिखाया गया; क्षेमम्--सर्व-कल्याण; परम्--परम; भगवत:ः-- भगवान् का; पदम्-पद |
आपने भगवान् के परम मंगलमय साकार रूप का साक्षात्कार कराया है।
अब मैं ज्ञानतथा आत्म-साक्षात्कार में स्थिर हूँ और मेरा अज्ञान मिट चुका है।
"
सूत उबाचइत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान्बादरायणिः ॥
जगाम भिक्षुभि: साक॑ नरदेवेन पूजित: ॥
८॥
सूतः उवाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; तम्--उससे; अनुज्ञाप्प--अनुमति देकर;भगवान्--शक्तिमान सन्त; बादरायणि: --बादरायण वेदव्यास के पुत्र शुकदेव; जगाम--चले गये; भिक्षुभि:--विरक्तमुनियों के; साकम्--साथ; नर-देवेन--राजा द्वारा; पूजित:--पूजा किया गया।
सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने पर श्रील व्यासदेव के पुत्रने राजा परीक्षित को अनुमति दे दी।
तत्पश्चात् राजा तथा वहाँ पर उपस्थित मुनियों द्वारापूजित होकर शुकदेव उस स्थान से चले गये।
"
परीक्षिदपि राजर्पिरात्मन्यात्मानमात्मना ।
समाधाय परं दध्यावस्पन्दासुर्यथा तर; ॥
९॥
प्राकूले बर्हिष्यासीनो गड्डाकूल उदड्मुख: ।
ब्रह्मभूतो महायोगी नि:सड़रश्छिन्नसंशय: ॥
१०॥
परीक्षित्--महाराज परीक्षित; अपि--आगे भी; राज-ऋषि:--सन््त स्वभाव वाला महान् राजा; आत्मनि--अपनीआध्यात्मिक पहचान के ही भीतर; आत्मानम्--अपने मन को; आत्मना--अपनी बुद्धि से; समाधाय--रख कर; परम्--परम में; दध्यौ-- ध्यान किया; अस्पन्द--गतिहीन; असु:--अपना प्राण; यथा--जिस तरह; तरु:--वृक्ष; प्राकू-कूले--पूर्व दिशा की ओर सिरे किये; ब्हिषि--दर्भ घास पर; आसीन:--बैठे हुए; गड्भा-कूले--गंगा के तट पर; उदक्-मुख:--उत्तर की ओर मुँह करके; ब्रह्म-भूतः--अपनी असली पहचान का पूर्ण साक्षात्कार करते हुए; महा-योगी--उच्च योगी;निःसड्भ:--समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त; छिन्न--तोड़ कर; संशय: --सारे सन्देह।
तब महाराज परीक्षित पूर्वाभिमुख दर्भ के बने आसन पर गंगा नदी के तट पर बैठ गयेऔर स्वयं उत्तर की ओर मुख कर लिया।
योगसिद्धि प्राप्त करने के बाद उन्हें पूर्ण आत्म-साक्षात्कार की अनुभूति हुई और वे समस्त भौतिक आसक्ति तथा संशय से मुक्त थे।
साधुराजा ने अपनी शुद्ध बुद्धि से अपने मन को अपने आत्मा के भीतर स्थिर कर लिया औरपरब्रह्म का ध्यान करने लगे।
उनकी प्राणवायु ने गति करनी बन्द कर दी और वे वृक्ष कीतरह जड़ हो गये।
"
तक्षकः प्रहितो विप्रा: क्रुद्धेन द्विजसूनुना ।
हन्तुकामो नृपं गच्छन्ददर्श पथि कश्यपम् ॥
११॥
तक्षक:--तक्षक; प्रहित:--भेजा गया; विप्रा: --हे विद्वान ब्राह्मणो; क्रुद्धेन--क्रुद्ध हुए; द्विज--शमीक मुनि के; सूनुना--पुत्र द्वारा; हन्तु-काम:--मारने की इच्छा से; नृपम्ू--राजा के पास; गच्छन्--जाते हुए; दरदर्श--देखा; पथि--रास्ते में;कश्यपम्--कश्यप मुनि
हे विद्वान ब्राह्मणो, ब्राह्मण के क्रुद्ध पुत्र द्वारा भेजा गया तक्षक सर्प राजा को मारने के लिए उसकी ओर जा रहा था कि उसने मार्ग में कश्यप मुनि को देखा।
"
त॑ तर्पयित्वा द्रविणैर्निवर्त्म विषहारिणम् ।
द्विजरूपप्रतिच्छन्न: कामरूपोदशन्नूपम् ॥
१२॥
तम्--उस ( कश्यप ) को; तर्पयित्वा--तुष्ट करके; द्रविणै:--बहुमूल्य भेंटों द्वारा; निवर्त्म--रोक कर; विष-हारिणम्--विष उतारने में दक्ष; द्विज-रूप--ब्राह्मण के रूप में; प्रतिच्छन्न:--वेश बदल कर; काम-रूप:--इच्छानुसार कोई भी रूपधारण करने में समर्थ तक्षक ने; अदशत्--काट लिया; नृपम्--राजा परीक्षित को
तक्षक ने कश्यप मुनि को, जोकि विष उतारने में दक्ष थे, बहुमूल्य भेंटे देकर महाराजपरीक्षित की रक्षा करने से रोक दिया।
तब इच्छानुसार रूप धारण करने वाला तक्षक, जोकिब्राह्मण के वेश में था, राजा के निकट गया और उसे काट लिया।
"
ब्रह्मभूतस्य राजर्षेदेहो हिगरलाग्निना ।
बभूव भस्मसात्सद्य: पश्यतां सर्वदेहिनाम् ॥
१३॥
ब्रह्म-भूतस्य--पूर्णतया स्वरूपसिद्ध; राज-ऋषे:--राजर्षि के; देह:--शरीर; अहि--सर्प के; गरल--विष से; अग्निना--अग्नि से; बभूब--हो गया; भस्म-सात्--राख; सद्य:--तुरन्त; पश्यताम्--देखते-देखते; सर्व-देहिनाम्ू--सभी देहधारीजीवों के
ब्रह्माण्ड-भर के जीवों के देखते-देखते उस स्वरूपसिद्ध राजर्षि का शरीर सर्प-विष कीअग्नि से तुरन्त जल कर राख हो गया।
"
हाहाकारो महानासीद्धुवि खे दिक्षु सर्वतः ।
विस्मिता ह्यभवन्सर्वें देवासुरनरादय: ॥
१४॥
हाहा-कार:--शोक का क्रन्दन; महान्ू--अत्यधिक; आसीत्--हुआ; भुवि--पृथ्वी पर; खे--आकाश में; दिक्षु--दिशाओं में; सर्वतः--चारों ओर; विस्मिता:--चकित; हि--निस्सन्देह; अभवन्--हो गये; सर्वे--सभी; देव--देवता;असुर--असुरगण; नर--मनुष्य; आदय:--तथा अन्य प्राणी |
पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में सभी दिशाओं में भीषण हाहाकार होने लगा और सारे देवता,असुर, मनुष्य तथा अन्य प्राणी चकित हो उठे।
"
देवदुन्दुभयो नेदुर्गन्धर्वाप्सरसो जगु: ।
वबवृषु: पुष्पवर्षाणि विबुधा: साधुवादिन: ॥
१५॥
देव--देवताओं की; दुन्दुभय:--दुन्दुभियाँ; नेदु:--बजने लगीं; गन्धर्व-अप्सरस:--गन्धर्वों तथा अप्सराओं ने; जगु:--गाया; ववृषु:--वर्षा की; पुष्प-वर्षाणि--फूलों की वर्षा; विबुधा:--देवताओं ने; साधु-वादिन:--प्रशंसा करते हुए।
देव-लोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और स्वर्ग के गन्धर्वों तथा अप्सराओं ने गीत गाये।
देवताओं ने फूलों की वर्षा की तथा प्रशंसात्मक शब्द कहे।
"
जन्मेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम् ।
यथाजुहाव सन्क्ुद्धो नागान्सत्रे सह द्विजै: ॥
१६॥
जन्मेजय:--परीक्षित पुत्र जनमेजय; स्व-पितरम्-- अपने पिता को; श्रुत्वा--सुन कर; तक्षक--तक्षक द्वारा; भक्षितम्--डसा गया; यथा--उचित रीति से; आजुहाव--हवन करने लगा; सड्क्ुद्ध:--अत्यन्त क्रुद्ध; नागान्ू--सर्पो को; सत्रे--महान् यज्ञ में; सह--सहित; द्विजैः--ब्राह्मणों
यह सुन कर कि उसके पिता को तक्षक ने बुरी तरह से डस कर मार दिया है, महाराजजनमेजय अत्यधिक क्रुद्ध हुए और ब्राह्मणों से एक विशाल यज्ञ कराया जिसमें उन्होंने संसारके सारे सर्पो को यज्ञ-अग्नि में भेंट कर दिया।
"
सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्ममानान्महोरगान् ।
हष्टेन्द्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ ॥
१७॥
सर्प-सत्रे--सर्प-यज्ञ में; समिद्ध--प्रज्वलित; अग्नौ--आग में; दह्ममानान्ू--जलाये जाते हुए; महा-उरगान्ू--विशालसर्पो को; दृष्टा--देख कर; इन्द्रमू--इन्द्र के पास; भय संविग्न:--अत्यधिक विचलित; तक्षक:--तक्षक; शरणम्--शरणके लिए; ययौ--गया।
जब तक्षक ने अत्यन्त शक्तिशाली सर्पों को भी उस सर्प-यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि मेंजलाया जाते देखा, तो वह भय से आकुल हो उठा और शरण के लिए इन्द्र के पास पहुँचा।
"
अपयंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान् ।
उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्ोतोरगाधमः ॥
१८॥
अपश्यनू--न देखते हुए; तक्षकम्--तक्षक को; तत्र--वहाँ; राजा--राजा; पारीक्षित:--जनमेजय; द्विजानू--ब्राह्मणों से;उवाच--कहा; तक्षक:--तक्षक; कस्मात्--क्यों; न दह्मेत--नहीं जला; उरग--समस्तसर्पो में; अधम:--नीच
जब राजा जनमेजय ने तक्षक को यज्ञ-अग्नि में प्रवेश करते नहीं देखा तो उन्होंनेब्राह्मणों से कहा, 'समस्त सर्पों में नीच वह तक्षक इस अग्नि में क्यों नहीं जल रहा ?"
'तं गोपायति राजेन्द्र शक्र: शरणमागतम् ।
तेन संस्तम्भितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ ॥
१९॥
तम्--उस ( तक्षक ) को; गोपायति--छिपाये है; राज-इन्द्र--हे राजाओं में श्रेष्ठ; शक्र:--इन्द्र; शरणम्--शरण के लिए;आगतम्--आया हुआ; तेन--उस इन्द्र द्वारा; संस्तम्भितः--रखा गया; सर्प:--सर्प; तस्मात्ू--इस तरह; न--नहीं;अग्नौ-- अग्नि में; पतति--गिरता है; असौ--वह।
ब्राह्मणों ने उत्तर दिया : 'हे राजेन्द्र, तक्षक सर्प इसलिए अग्नि में नहीं गिरा क्योंकि इन्द्रद्वारा उसकी रक्षा हो रही है, जिसके पास वह शरण के लिए पहुँचा है।
इन्द्र उसे अग्नि सेबचाये हुए है।
"
पारीक्षित इति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधी: ।
सहेन्द्रस्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते ॥
२०॥
पारीक्षित:--राजा जनमेजय ने; इति--ये वचन; श्रुत्वा--सुन कर; प्राह--उत्तर दिया; ऋत्विज:--पुरोहितों से; उदार--विशाल; धी:--बुद्धि वाले; सह--साथ; इन्द्र: --इन्द्र; तक्षकः--तक्षक; विप्रा: --हे ब्राह्मणो; न--नहीं; अग्नौ--आग में;किमू--क्यों; इति--निस्सन्देह; पात्यते--गिराया जाता है
इन शब्दों को सुन कर बुद्धिमान राजा जनमेजय ने पुरोहितों से कहा, 'तो हे ब्राह्मणो,तुम लोग तक्षक को, उसके रक्षक इन्द्र सहित, अग्नि में क्यों नहीं गिरा लेते ?"
'तच्छुत्वाजुहुवुर्विप्रा: सहेन्द्रं तक्षक॑ मखे ।
तक्षकाशु पतस्वेह सहेन्द्रेण मरूत्वता ॥
२१॥
तत्--वह; श्रुत्वा--सुन कर; आजुहुव॒ु:--हवन किया; विप्रा:--ब्राह्मण पुरोहितों ने; सह--सहित; इद्धम्--इन्द्र;तक्षकम्--तक्षक को; मखे--यज्ञ-अग्नि में; तक्षक--हे तक्षक; आशु--तुरन््त; पतस्व--गिरो; इह--यहाँ; सह इन्द्रेण--इन्द्र समेत; मरुत्ू-वता--सारे देवताओं के साथ।
यह सुन कर पुरोहितों ने इन्द्र समेत तक्षक को यज्ञ-अग्नि में आहुति के रूप अर्पित करनेके लिए यह मंत्र पढ़ा, 'हे तक्षक, तुम इस अग्नि में इन्द्र तथा उनके देवताओं के समूहसहित तुरन्त गिर पड़ो।
"
'इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिन्द्र: प्रचालित: ।
बभूव सम्भ्रान्तमति: सविमान: सतक्षकः ॥
२२॥
इति--इस प्रकार; ब्रह्म--ब्राह्मणों द्वारा; उदित--कहे गये; आक्षेपै:-- अपमानजनक शब्दों द्वारा; स्थानात्ू-- अपने स्थानसे; इन्द्र:--इन्द्र; प्रचालित:--फेंका गया; बभूब--हो गया; सम्भ्रान्त--विचलित; मति:--अपने मन में; स-विमान:--अपने स्वर्गिक विमान सहित; स-तक्षक: --तक्षक समेत।
जब ब्राह्मणों के इन अपमानजनक शब्दों के कारण इन्द्र अपने विमान तथा तक्षक समेतसहसा अपने स्थान से च्युत होने लगा, तो वह अत्यन्त घबड़ा गया।
"
तं पतन्तं विमानेन सहतक्षकमम्बरात् ।
विलोक्याड्रिरसः प्राह राजानं त॑ बृहस्पति: ॥
२३॥
तम्--उसको; पतन्तम्--गिरता हुआ; विमानेन--अपने विमान से; सह-तक्षकम्--तक्षक समेत; अम्बरात्-- आकाश से;विलोक्य--देख कर; आड्विरस:--अंगिरा पुत्र; प्राह--बोला; राजानम्--राजा ( जनमेजय ) से; तमू--उस; बृहस्पति:--बृहस्पति
जब अंगिरा मुनि के पुत्र बृहस्पति ने इन्द्र को तक्षक समेत आकाश से उसके विमान सेगिरते देखा तो वह राजा जनमेजय के पास पहुँचा और उनसे इस प्रकार कहा।
"
नैष त्वया मनुष्येन्द्र वधमहति सर्पराट् ।
अनेन पीतममृतमथ वा अजरामर: ॥
२४॥
न--नहीं; एब:--यह तक्षक; त्वया--तुम्हारे द्वारा; मनुष्य-इन्द्र--हे मनुष्यों के शासक; वधम्--हत्या के; अर्हति--योग्यहै; सर्प-राट्--सर्पों का राजा; अनेन--उसके द्वारा; पीतम्-पिये हुए; अमृतम्--देवताओं का अमृत; अथ--इसलिए;बै--अथवा; अजर--बुढ़ापे के प्रभावों से मुक्त; अमर:--एक तरह से अमर
हे पुरुषों में राजा, यह उचित नहीं है कि यह सर्पराज आपके हाथों से मौत को प्राप्त होक्योंकि इसने अमर देवताओं का अमृत पी रखा है।
फलस्वरूप, इसे बुढ़ापा तथा मृत्यु केसामान्य लक्षण नहीं सताते।
"
'जीवितं मरणं जन््तोर्गतिः स्वेनेव कर्मणा ।
राजं॑स्ततोन्यो नास्त्यस्य प्रदाता सुखदुःखयो: ॥
२५॥
जीवितम्--जीवित; मरणम्--मर रहे; जन्तो: --जीव का; गति:--अगले जीवन में गन्तव्य; स्वेन-- अपने ही द्वारा; एव--एकमात्र; कर्मणा--कर्म द्वारा; राजनू--हे राजा; ततः--उसकी अपेक्षा; अन्य:--दूसरा; न अस्ति--नहीं है; अस्य--उसका; प्रदाता--देने वाला; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख का
देहधारी आत्मा का जीवन तथा मरण और अगले जीवन में उसका गन्तव्य--ये सभीउसके ही अपने कर्म द्वारा उत्पन्न होते हैं।
इसलिए हे राजन, किसी के सुख तथा दुख कोउत्पन्न करने के लिए वास्तव में कोई अन्य अभिकर्ता उत्तरदायी नहीं है।
"
सर्पचौराग्निविद्युदभ्य: क्षुत्तद्व्याध्यादिभिनूप ।
पदञ्नत्वमृच्छते जन्तुर्भुड़् आरब्धकर्म तत् ॥
२६॥
सर्प--सर्पों; चौर--चोरों; अग्नि--आग; विद्युद्भ्य:--तथा आसमान की बिजली से; क्षुत्-- भूख; तृटू--प्यास;व्याधि--रोग; आदिभि:--आदि अन्य कारणों से; नृूप--हे राजा; पञ्ञत्वम्--मृत्यु; ऋच्छते--प्राप्त करता है; जन्तु: --बद्धजीव; भुड़े -- भोग करता है; आरब्ध--विगत कर्म से पहले से उत्पन्न; कर्म--सकाम कर्मफल; तत्--वह |
जब बद्धजीव सर्पो, चोरों, अग्नि, बिजली, भूख, रोग या अन्य किसी कारण से माराजाता है, तो वह अपने ही विगत कर्म के फल का अनुभव करता है।
"
'तस्मात्सत्रमिदं राजन्संस्थीयेताभिचारिकम् ।
सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्ट हि भुज्यते ॥
२७॥
तस्मात्--इसलिए; सत्रम्--यज्ञ को; इृदम्--इस; राजनू--हे राजा; संस्थीयेत--रोका जाना चाहिए; आभिचारिकमू--हानि पहुँचाने की मंशा से किया गया; सर्पा:--सर्प; अनागस:--निर्दोष; दग्धा:--जलाया गया; जनै: --व्यक्तियों द्वारा;दिष्टम्ू-- भाग्य; हि--निस्सन्देह; भुज्यते-- भोगा जाता है।
'इसलिए हे राजा, इस यज्ञ को जो अन्यों को हानि पहुँचाने की मंशा से चालू कियागया है, बन्द करा दें।
अनेक निर्दोष सर्प पहले ही जला कर मार दिये गये हैं।
निस्सन्देह सारेव्यक्तियों को अपने विगत कर्मो के अदृष्ट परिणामों को भोगना चाहिए।
"
'इत्युक्त: स तथेत्याह महर्षेमानयन्वच: ।
सर्पसत्रादुपरत:ः पूजयामास वाक्पतिम् ॥
२८॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; स:--उसने ( जनमेजय ने ); तथा इति--तथास्तु; आह--कहा; महा-ऋषे: --महर्षियों के; मानयन्--सम्मान करते हुए; वच:--शब्द; सर्प-सत्रात्ू--सर्प-यज्ञ से;उपरतः--बन्द करते हुए; पूजयाम् आस--पूजा की; वाक्-पतिम्--वाणी के स्वामी बृहस्पति को।
सूत गोस्वामी ने कहा : इस तरह सलाह दिये जाने पर महाराज जनमेजय ने उत्तर दिया,'तथास्तु'।
महर्षि के बचनों का आदर करते हुए उन्होंने सर्प-यज्ञ बन्द करा दिया और फिर" अत्यन्त वाक्पटु मुनि बृहस्पति की पूजा की।
सैषा विष्णोर्महामायाबाध्ययालक्षणा यया ।
मुहान्त्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभि: ॥
२९॥
सा एषा--यही; विष्णो: -- भगवान् विष्णु की; महा-माया--मोहमयी भौतिक शक्ति; अबाध्यया--जो उसके द्वारा जिसेरोका नहीं जा सकता; अलक्षणा--न दिखने वाली; यया--जिसके द्वारा; मुहान्ति--विमोहित हो जाते हैं; अस्थ-- भगवान्का; एव--निस्सन्देह; आत्म-भूता:--अंश रूप आत्माएँ; भूतेषु--उनके भौतिक शरीरों में; गुण--प्रकृति के गुणों के;वृत्तिभि: --कार्यो द्वारा
यह निस्सन्देह भगवान् विष्णु की मायाशक्ति है, जो अबाध्य है और जिसे देख पानाकठिन है।
यद्यपि व्यष्टि आत्माएँ भगवान् की भिन्नांश हैं, किन्तु इस मायाशक्ति के प्रभाव से,वे विविध भौतिक शरीरों के साथ अपनी पहचान से विमोहित हैं।
"
न यत्र दम्भीत्यभया विराजितामायात्मवादेसकृदात्मवादिभिः ।
न यद्विवादो विविधस्तदा श्रयोमनश्च सट्डूल्पविकल्पवृत्ति यत् ॥
३०॥
न यत्र सृज्यं सृजतो भयो: परंश्रेयश्व जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम् ।
तदेतदुत्सादितबाध्यबाधक॑निषिध्य चोर्मीन्विरमेत तन्मुनि: ॥
३१॥
न--नहीं; यत्र--जिसमें; दम्भी--दिखावटी व्यक्ति; इति--इस प्रकार सोचते हुए; अभया--निडर; विराजिता--हृश्य;माया--मायाशक्ति; आत्म-वादे--आध्यात्मिक पूछताछ किये जाने पर; असकृत्--निरन्तर; आत्म-वादिभि: --अध्यात्मविद्या का वर्णन करने वालों द्वारा; न--नहीं; यत्--जिसमें; विवाद:-- भौतिकतावादी तर्क-वितर्क; विविध:--नानाप्रकार का; तत्-आश्रय:--उस माया पर आश्रित; मन:--मन; च--तथा; सड्डूल्प--निर्णय; विकल्प--तथा संशय;वृत्ति--जिनके कार्य; यत्--जिसमें; न--नहीं; यत्र--जिसमें; सृज्यमू-- भौतिक जगत की सृजित वस्तुएँ; सृुजता--उनकेकारणों समेत; उभयो:--दोनों के द्वारा; परम्-प्राप्त किया हुआ; श्रेय:--लाभ; च--तथा; जीव: --जीव; त्रिभि:--तीन( गुणों ) से; अन्वित:ः--युक्त; तु--निस्सन्देह; अहम्-मिथ्या अहंकार ( से बद्ध ); तत् एतत्--वह निस्सन्देह; उत्सादित--के अतिरिक्त; बाध्य--रोका गया ( बद्धजीव ); बाधकम्--तथा रोकने वाला ( गुण ); निषिध्य--छोड़ते हुए; च--तथा;ऊर्मीनू--लहरों को ( मिथ्या अहंकार आदि को ); विरमेत--विशेष आनन्द लूटे; तत्--उसमें; मुनिः--मुनि
किन्तु एक परम सत्य होता है, जिसमें माया यह सोचते हुए कि, 'मैं इस व्यक्ति को वशमें कर सकती हूँ क्योंकि यह कपटी है' निर्भय होकर अपना प्रभुत्व नहीं दिखा सकती।
सर्वोच्च सत्य में मायामय तर्क-वितर्क के दर्शन नहीं होते।
प्रत्युत उसमें अध्यात्म विद्या केअसली जिज्ञासु निरन्तर प्रमाणित आध्यात्मिक शोध में लगे रहते हैं।
उस परम सत्य मेंभौतिक मन की अभिव्यक्ति नहीं होती, जो कभी निर्णय तो कभी संशय के रूप में कार्यकरता है।
सृजित वस्तुएँ, उनके सूक्ष्म कारण और उनके उपयोग से प्राप्त आनन्द के लक्ष्यवहाँ विद्यमान नहीं रहते।
यही नहीं, उस परम सत्य में मिथ्या अहंकार तथा तीन गुणों सेआच्छादित कोई बद्ध आत्मा नहीं होता।
वह सत्य प्रत्येक सीमित अथवा असीमित वस्तु कोअपने से अलग करता है।
इसलिए जो बुद्धिमान है उसे चाहिए कि भौतिक जीवन की तरंगोंको रोक कर परम सत्य के भीतर आनन्द लूटे।
"
परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः ।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहदाहृदोपगुह्यावसितं समाहितेः ॥
३२॥
परमू--परम; पदम्--पद; वैष्णवम्-- भगवान् विष्णु का; आमनन्ति--नामकरण करते हैं; ततू--वह; यत्--जो; न इति नइति--' नेति नेति'; इति--इस प्रकार विश्लेषण करते हुए; अतत्--हर वस्तु बाहरी; उत्सिसृक्षव: --त्यागने के इच्छुकजन; विसृज्य--त्याग कर; दौरात्म्यम्--क्षुद्र भौतिकता; अनन्य--अनन्य; सौहदा:--उनका स्नेह; हृदा--अपने हृदयों केभीतर; उपगुहा--उनका आलिंगन करके; अवसितम्--बन्दी बनाया हुआ; समाहितैः--समाधि में उनका ध्यान करने वालोंके द्वारा
जो लोग उन सारी वस्तुओं को बाह्य के निषेध द्वारा त्याग देना चाहते हैं, जो वास्तव मेंसत्य नहीं है, वे भगवान् विष्णु के परम पद की ओर नियमित रूप से आगे बढ़ते जाते हैं।
वेक्षुद्र भौतिकता को त्याग कर अपने हृदयों के भीतर परब्रह्म को ही अपना प्रेम प्रदान करते हैंऔर स्थिर ध्यान में उस सर्वोच्च सत्य का आलिंगन करते हैं।
"
त एतदधिगच्छन्ति विष्णोर्यत्परमं पदम् ।
अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम् ॥
३३॥
ते--वे; एतत्--यह; अधिगच्छन्ति--जान पाते हैं; विष्णो: -- भगवान् विष्णु का; यत्--जो; परमम्--परम; पदम्ू--पद;अहम्ू--मैं; मम--मेरा; इति--इस प्रकार; दौर्जन्यमू-दुर्जनता; न--नहीं है; येषामू--जिसके लिए; देह--शरीर; गेह--तथा घर; जम्--पर आधारित
ऐसे भक्त भगवान् विष्णु के परम आध्यात्मिक पद को समझ पाते हैं क्योंकि वे 'मैं'तथा ' मेरा ' के विचारों से, जो शरीर तथा घर पर आधारित हैं, दूषित नहीं होते।
"
अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्ञन ।
न चेम॑ देहमाश्नित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥
३४॥
अति-वादान्--अपमानजनक शब्द; तितिक्षेतर--सहन करे; न--कभी नहीं; अवमन्येत--अनादर करे; कञ्लन--किसीका; न च--न तो; इमम्--इस; देहम्-- भौतिक शरीर; आश्रित्य--पहचान बनाकर; वैरम्--शत्रुता; कुर्वीत--करे;केनचित्--किसी से
मनुष्य को सारा अपमान सहन कर लेना चाहिए और किसी व्यक्ति के प्रति उचितसम्मान प्रदर्शित करने से चूकना नहीं चाहिए।
भौतिक शरीर से पहचान बनाने से बचते हुएमनुष्य को किसी के साथ शत्रुता उत्पन्न नहीं करनी चाहिए।
"
नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेथसे ।
यत्पादाम्बुरुह्ृध्यानात्संहितामध्यगामिमाम् ॥
३५॥
नमः--नमस्कार; भगवते-- भगवान्; तस्मै--उन; कृष्णाय--कृष्ण को; अकुण्ठ-मेधसे--जिनकी शक्ति कभी रुद्ध नहींहोती; यत्--जिनके ; पाद-अम्बु-रह--चरणकमलों पर; ध्यानात्ू-- ध्यान से; संहिताम्--शास्त्र को; अध्यगाम्-- मैंनेआत्मसात किया है; इमाम्--इस।
मैं अनवरुद्ध भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ।
उनके चरणकमलों पर ध्यान धरनेसे ही मैं इस महान् ग्रंथ का अध्ययन कर सका और इसकी सराहना कर सका।
"
श्रीशौनक उबाचपैलादिभिव्यासशिष्यैरवेंदाचार्यमहात्मभि: ।
वेदाश्व कथिता व्यस्ता एतत्सौम्याभिधेहि न: ॥
३६॥
श्री-शौनक: उवाच-- श्री शौनक ऋषि ने कहा; पैल-आदिभि:--पैल तथा अन्यों द्वारा; व्यास-शिष्यै: -- श्रील व्यासदेव केशिष्य; वेद-आचार्य: --वेदों के आदर्श अधिकारियों द्वारा; महा-आत्मभि:--महान् बुद्धि वाले; बेदा:--वेद; च--तथा;'कथिता:--कहा गया; व्यस्ता:--विभाजित; एतत्--यह; सौम्य--हे भद्र सूत; अभिधेहि--कृपया कह सुनायें; न: --हमसे |
शौनक ऋषि ने कहा : हे सौम्य सूत, कृपा करके हमें बतलायें कि किस तरह पैल तथाश्रील व्यासदेव के अत्यन्त परम बुद्धिमान शिष्यों ने, जो कि वैदिक विद्या के आदर्शअधिकारी माने जाते हैं, वेदों का प्रवचन तथा सम्पादन किया।
"
सूत उबाचसमाहितात्मनो ब्रह्मन्ब्रह्मण: परमेष्ठिन: ।
इृद्याकाशादभून्नादो वृत्तिरोधाद्विभाव्यते ॥
३७॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; समाहित-आत्मन:--जिसका मन पूरी तरह से स्थिर था; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण( शौनक ); ब्रह्मण: --ब्रह्मा का; परमे-स्थिन: --जीवों में सर्वोच्च; हदि--हृदय में; आकाशात्-- आकाश से; अभूत्--उठी; नाद:--दिव्य सूक्ष्म ध्वनि; वृत्ति-रोधात्-कार्य ( कानों का ) रोकने पर; विभाव्यते-- अनुभव किया जाता है
सूत गोस्वामी ने कहा : हे ब्राह्मण, दिव्य ध्वनि की प्रथम सूक्ष्म गूँज सर्वश्रेष्ठ ब्रह्माजी के हृदयरूपी आकाश से प्रकट हुई जिनका मन आध्यात्मिक साक्षात्कार में पूरी तरह स्थिर था।
इस सूक्ष्म गूँ का अनुभव कोई भी व्यक्ति कर सकता है जब वह अपनी सारी बाह्य श्रवण-क्रिया को रोक लेता है।
"
यदुपासनया ब्रह्मन्योगिनो मलमात्मन: ।
द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम् ॥
३८ ॥
यत्--जिस ( वेदों के सूक्ष्म रूप ) की; उपासनया--पूजा से; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; योगिन:--योगीजन; मलम्--कल्मष के;आत्मन:--हृदय के; द्रव्य--वस्तु; क्रिया--सक्रियता; कारक--तथा कर्ता; आख्यम्--उपाधिवाला; धूत्वा--स्वच्छकरके; यान्ति--प्राप्त करते हैं; अपुन:-भवम्--पुनर्जन्म से छुटकारा |
हे ब्राह्मण, वेदों के इस सूक्ष्म रूप की पूजा द्वारा योगीजन वस्तु की अशुद्द्धि, क्रिया तथाकर्ता से उत्पन्न सारे कल्मष से अपने हृदयों को स्वच्छ बनाते हैं और इस तरह वे बारम्बारजन्म-मृत्यु से छुटकारा प्राप्त कर लेते हैं।
"
ततोभूत्रिवृदोंकारों योउव्यक्तप्रभवः स्वराट् ।
यत्तल्लिड्रं भगवतो ब्रह्मण: परमात्मनः ॥
३९॥
ततः--उससे; अभूत्--उत्पन्न हुआ; त्रि-वृत्ू--तीन मात्राओं वाला; ३०-कार:--» अक्षर; यः--जो; अव्यक्त--अप्रकट;प्रभव:--जिसका प्रभाव; स्व-राट्--आत्म-अभिव्यक्ति; यत्ू--जो; तत्--वह; लिड्रम्ू-- स्वरूप; भगवत: -- भगवान् का;ब्रह्मण: --परब्रह्म का उनके निर्विशेष रूप में; परम-आत्मन:--तथा परमात्मा का
उस दिव्य सूक्ष्म गूँज से तीन मात्राओं वाला ॐकार उत्पन्न हुआ।
कार में अदृश्यशक्तियाँ हैं और यह शुद्ध हृदय के भीतर अपने आप प्रकट होता है।
यह परब्रह्म की तीनोंअवस्थाओं-- भगवान्, परमात्मा तथा परम निर्विशेष सत्य--में उनका स्वरूप है।
"
श्रूणोति य इम॑ स्फोर्ट सुप्तश्रोत्रे च शून्यहक् ।
येन वाग्व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः ॥
४०॥
स्वधाम्नो ब्राह्मण: साक्षाद्वाचक्र: परमात्मन: ।
स सर्वमन्त्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम् ॥
४१॥
श्रूणोति--सुनता है; यः:--जो; इमम्ू--इस; स्फोटम्--अव्यक्त तथा नित्य सूक्ष्म ध्वनि को; सुप्त-श्रोत्रे--जब श्रवणेन्द्रियसुप्त रहती है; च--तथा; शून्य-हक्-- भौतिक दृष्टि तथा अन्य ऐन्द्रिय कार्यों से विहीन; येन--जसिसे; वाक्--वैदिकध्वनि का विस्तार; व्यज्यते--विस्तृत किया जाता है; यस्य--जिसका; व्यक्ति: -- अभिव्यक्ति; आकाशे--आकाश ( हृदयके ) में; आत्मन:--आत्मा से; स्व-धाम्न:--जो अपना ही उद्गम है; ब्रह्मण:--परब्रह्म का; साक्षात्-- प्रत्यक्ष; वाचक: --नामसूचक पद; परम-आत्मन:--परमात्मा का; सः--वह; सर्व--सभी; मन्त्र--वैदिक स्तोत्र; उपनिषत्--गुहा; वेद--वेदोंका; बीजम्--बीज; सनातनम्--शाश्वत ।
यह ॐकार, जोकि अन्ततः अभौतिक तथा अश्रव्य होता है, उसे परमात्मा कान या कोई अन्य इन्द्रियाँ न होते हुए भी सुनता है।
वैदिक ध्वनि का पूरा विस्तार कार से ही हुआ है,जो हृदय के आकाश के भीतर आत्मा से प्रकट होता है।
यह स्व-जन्मा परब्रह्म परमात्मा कीप्रत्यक्ष उपाधि है और गुह्य सार तथा समस्त वैदिक स्तोत्रों का नित्य बीज है।
"
तस्य ह्संस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भूगूद्ह ।
धार्यन्ते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तय: ॥
४२॥
तस्य--उस ॐकार के; हि--निस्सन्देह; आसन्--हुए; त्रय:--तीन; वर्णा:--अक्षर की ध्वनियाँ; अ-कार-आद्या:--अअक्षर से प्रारम्भ करके; भृगु-उद्ठद-हे भृगुवंशियों में अत्यन्त प्रसिद्ध; धार्यन्ते-- धारण किये जाते हैं; यैः--जिन तीनध्वनियों से; त्रय:--तीन; भावा:--संसार की स्थितियाँ; गुण--प्रकृति के गुण; नाम--नाम; अर्थ--लक्ष्य; वृत्तय:--तथा
चेतना की स्थितियाँ<»कार से आ, उ तथा म वर्णों की तीन मौलिक ध्वनियाँ प्रकट हुईं।
हे भृगुवंशियों मेंप्रसिद्ध, ये तीनों भौतिक जगत के तीन विभिन्न पक्षों को धारण करते हैं जिनमें प्रकृति केतीन गुण ऋक्, यजुर् तथा साम वेदों के नाम से, भूर, भुवर् तथा स्वर् लोकों के नाम सेविख्यात लक्ष्य तथा जागृत, सुप्त एवं सुषुप्त नामक तीन वृत्तियाँ धारण करते हैं।
"
ततोक्षरसमाम्नायमसृजद्धगवानज: ॥
अन्तस्थोष्मस्वरस्पर्शहस्वदीर्घादिलक्षणम् ॥
४३॥
ततः--उस ॐकार से; अक्षर--विभिन्न ध्वनियों का; समाम्नायम्--सम्पूर्ण संग्रह ( वर्णमाला ); असृजत्--उत्पन्न किया;भगवानू्--शक्तिमान देवता; अज:--अजन्मा ब्रह्मा; अन्त-स्थ--अर्द्धस्वरों के रूप में; उष्म--उष्म; स्वर--स्वर; स्पर्श--तथा व्यंजन; हस्व-दीर्घ--लघु तथा गुरु रूप; आदि--इत्यादि; लक्षणम्-लक्षणों से युक्त |
ब्रह्म ने ॐकार से अक्षर की सारी ध्वनियाँ--स्वर, व्यंजन, अर्धस्वर, उष्म, स्पर्शइत्यादि उत्पन्न कीं जो हस्व तथा दीर्घ माप जैसे गुणों से विभेदित की जाती हैं।
"
तेनासौ चतुरो वेदांश्वतुर्भिर्वदनैर्विभु: ।
सव्याहतिकास्सोंकारां श्वातु्हों त्रविवक्षया ॥
४४॥
तेन--उस ध्वनि समूह से; असौ--उसने; चतुर: --चार; वेदान्ू--वेदों को; चतुर्भि:--अपने चार; वदनै:--मुखों से;विभु:--सर्वशक्तिमान; स-व्याहतिकान्--व्याहतियों ( भू:, भुवः, स्व:, मह:, जनः, तपः तथा सत्य नामक सात लोकों केनाम ) सहित; स-ओंकारान्-- ॐ बीज समेत; चातु:-होत्र--चारों वेदों में से प्रत्येक के पुरोहितों द्वारा सम्पन्न यज्ञ के चारपक्ष; विवक्षया--वर्णन करने की इच्छा से |
सर्वशक्तिमान ब्रह्मा ने ध्वनियों के इस समूह का उपयोग अपने चार मुखों से चार वेदोंको उत्पन्न करने के लिए किया जो पवित्र ४कार तथा सात व्याहतियों समेत प्रकट हुए।
उनका अभीष्ट वैदिक यज्ञ विधि को चार वेदों में से प्रत्येक के पुरोहितों द्वारा सम्पन्न विभिन्नकार्यो तक विस्तार देना था।
"
पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन्त्रह्यकोविदान् ।
ते तु धर्मोपदेष्टार: स्वपुत्रेभ्य: समादिशन् ॥
४५॥
पुत्रान्ू--अपने पुत्रों को; अध्यापयत्--पढ़ाया; तान्--उन वेदों को; तु--तथा; ब्रह्म-ऋषीन्--ब्रह्मर्षियों को; ब्रह्म--वैदिक पाठ की कला में; कोविदान्ू--पटु; ते--वे; तु--यही नहीं; धर्म--धार्मिक अनुष्ठानों में; उपदेष्टारः--शिक्षकों; स्व-पुत्रेभ्य:--अपने पुत्रों को; समादिशन्--प्रदान किया |
ब्रह्मा ने इन वेदों की शिक्षा अपने पुत्रों को दी जो ब्राह्मणों में ब्रह्मर्षि थे और वैदिकवाचन-कला में पटु थे।
फिर उन्होंने स्वयं आचार्यों की भूमिका ग्रहण की और अपने-अपनेपुत्रों को वेदों की शिक्षा दी।
"
ते परम्परया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्थृतब्रतेः ।
चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभि: ॥
४६॥
ते--ये वेद; परम्परया--परम्परा से; प्राप्ताः--प्राप्त; तत्-तत्--प्रत्येक अगली पीढ़ी के; शिष्यै:--शिष्यों द्वारा; धृत-ब्रतेः --अपने ब्रतों में हढ़; चतुः-युगेषु--चारों युगों में; अथ--तब; व्यस्ता:--विभाजित कर दिये गये; द्वापर-आदौ--द्वापर युग के अन्त में; महा-ऋषिभि:--महान् आचार्यो द्वारा
इस तरह चतुर्युग के सारे चक्रों में दृढ़त्रत शिष्यों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी ने परम्परा द्वारा इनवेदों को प्राप्त किया।
प्रत्येक द्वापर युग के अन्त में इन वेदों को प्रसिद्ध मुनिगण पृथक्विभागों में संपादित करते हैं।
"
क्षीणायुष: क्षीणसत्त्वान्दुर्मे धान्वी क्षय कालत: ।
वेदान्त्रह्मर्षयो व्यस्यन्हदिस्थाच्युतचोदिता: ॥
४७॥
क्षीण-आयुष:--घटी हुई आयु वाले; क्षीण-सत्त्वानू-घटे हुए बल वाले; दुर्मेधान्--अल्पज्ञों को; वीक्ष्य--देख कर;कालतः--काल के प्रभाव से; वेदान्ू--वेदों को; ब्रहा-ऋषय:--प्रमुख मुनियों ने; व्यस्यन्--विभाजित कर दिया; हृदि-स्थ--अपने हृदयों के भीतर स्थित; अच्युत--अच्युत भगवान् द्वारा; चोदिता: --प्रेरित |
यह देख कर कि काल के प्रभाव से सामान्यतया लोगों की आयु, शक्ति तथा बुद्धिघटती जा रही है, महामुनियों ने अपने हृदयों में स्थित भगवान् से प्रेरणा ली और वेदों काक्रमबद्ध विभाजन कर दिया।
"
अस्मिन्नप्यन्तरे ब्रह्मन्भगवान्लोकभावन: ।
ब्रहोेशाद्यैलोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये ॥
४८॥
पराशरात्सत्यवत्यामंशांशकलया विभुः ।
अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम् ॥
४९॥
अस्मिन्--इसमें; अपि-- भी; अन्तरे--मनु के शासन में; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण ( शौनक ); भगवान्-- भगवान्; लोक --ब्रह्माण्ड के; भावन:--रक्षक; ब्रह्म-- ब्रह्मा; ईश--शिव; आद्यि:--तथा अन्यों द्वारा; लोक-पालैः--विभिन्न लोकों केशासकों द्वारा; याचित: --प्रार्थना किये जाने पर; धर्म-गुप्तये-- धर्म की रक्षा के लिए; पराशरात्--पराशर मुनि से;सत्यवत्याम्--सत्यवती के गर्भ से; अंश--अपने स्वांश ( संकर्षण ); अंश--अंश ( विष्णु ) के; कलया--कला के रूपमें; विभु;:--भगवान्; अवतीर्ण:--अवतरित; महा-भाग--हे परम भाग्यवान्; वेदम्--वेदों को; चक्रे--कर दिया; चतुः-विधम्--चार भागों में |
हे ब्राह्मण, वैवस्वत मनु के वर्तमान युग में, ब्रह्मा, शिव इत्यादि ब्रह्माण्ड के नायकों नेसमस्त जगतों के रक्षक भगवान् से धर्म के सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की।
हेपरम भाग्यवान शौनक, तब अपने स्वांश के अंश का दैवी स्फुलिंग प्रदर्शित करतेहुए पराशरके पुत्र के रूप में सत्यवती के गर्भ से भगवान् प्रकट हुए।
इस रूप में, जिसे कृष्ण द्वैपायनव्यास कहते हैं, उन्होंने एक वेद के चार भाग कर दिये।
"
ऋगथर्वयजु:साम्नां राशीरुद्धृत्य वर्गशः ।
चतर्त्र: संहिताश्चक्रे मन्त्रेमीणिगणा इव ॥
५०॥
ऋक्-अथर्व-यजु:-साम्नामू--ऋग्, अथर्व, यजुर तथा सामवेद; राशी:--( मंत्रों का ) संकलन; उद्धृत्य--विलग करके;वर्गश:--विशिष्ट वर्गों में; चतस्त्र:--चार; संहिता: --संग्रह; चक्रे --कर दिया; मन्त्रै:--मंत्रों से; मणि-गणा:--मणियों के;इब--सहश।
श्रील व्यासदेव ने ऋग्ू, अथर्व, यजुर् तथा साम वेदों के मंत्रों को चार वर्गों में विलगकर दिया जिस तरह मणियों के मिले-जुले संग्रह में से ढेरियाँ लगा दी जाती हैं।
इस तरहउन्होंने चार पृथक्-पृथक् वैदिक ग्रंथों की रचना की।
"
तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः ।
एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकेकस्मै ददौ विभु:ः ॥
५१॥
तासाम्--उन चार संग्रहों के; सः--उसने; चतुर:--चार; शिष्यान्--शिष्यों को; उपाहूय--पास बुलाकर; महा-मति:--अत्यन्त बुद्धिमान मुनि; एक-एकाम्--एक-एक करके; संहिताम्--संग्रह; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; एक-एकस्मै--उनमें सेप्रत्येक को; ददौ--दे दिया; विभु:--शक्तिमान व्यासदेव ने |
अत्यन्त शक्तिमान तथा बुद्धिमान व्यासदेव ने अपने चार शिष्यों को बुलाया और हेब्राह्मण, उनमें से हर एक को इन चार संहिताओं में से एक-एक का भार सौंप दिया।
"
पैलाय संहितामाद्यां बह्नचाख्यां उवाच ह ।
वैशम्पायनसंज्ञाय निगदाख्य॑ यजुर्गणम् ॥
५२॥
साम्नां जैमिनये प्राह तथा छन्दोगसंहिताम् ।
अथर्वाड्रिस्सीं नाम स्वशिष्याय सुमन्तवे ॥
५३॥
पैलाय--पैल को; संहिताम्ू--संग्रह; आद्याम्--प्रथम ( ऋग्वेद का ); बहु-ऋच-आख्यम्--बह्नच नामक; उवाच--कहा;ह--निस्सन्देह; वैशम्पायन-संज्ञाय--वैशम्पायन नामक मुनि को; निगद-आख्यम्--निगद नामक; यजु: -गणम्--यजुर्मत्रोंका संग्रह; साम्नामू--सामवेद के मंत्रों को; जैमिनये--जैमिनि को; प्राह--कहा; तथा--और; छन्दोग-संहिताम्--छंदोगनामक संहिता; अथर्व-अड्विरसीम्--अथर्व तथा अंगिरा मुनियों के नाम पर वेद; नाम--निस्सन्देह; स्व-शिष्याय-- अपनेशिष्य; सुमन्तवे--सुमन्तु को |
श्रील व्यासदेव ने प्रथम संहिता ऋग्वेद की शिक्षा पैल को दी और इस संग्रह का नामबह्नच रखा।
मुनि वैशम्पायन से उन्होंने यजुर्मत्रों का संग्रह, निगद, का प्रवचन किया।
उन्होंनेजैमिनि को सामवेद के मंत्रों की शिक्षा दी जिनका नाम छन्दोग संहिता था और अपने प्रियशिष्य सुमन्तु से उन्होंने अथर्ववेद कहा।
"
पैल: स्वसंहितामूचे इन्द्रप्रमितये मुनि: ।
बाष्कलाय च सोप्याह शिष्येभ्य: संहितां स्वकाम् ॥
५४॥
चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव ।
पराशरायाम्निमित्र इन्द्रप्रमितिरात्मवान् ॥
५५॥
अध्यापयत्संहितां स्वां माण्डूकेयमृषिं कविम् ।
तस्य शिष्यो देवमित्र: सौभर्यादिभ्य ऊचिवान् ॥
५६॥
पैल:--पैल ने; स्व-संहिताम्--अपने संग्रह को; ऊचे--कहा; इन्द्रप्रमितये--इन्द्रप्रमिति से; मुनिः--मुनि; बाष्कलाय--बाष्कल को; च--तथा; सः--उसने ( बाष्कल ने ); अपि-- भी; आह--कहा; शिष्येभ्य:--अपने शिष्यों से; संहिताम्ू--संग्रह; स्वकाम्--अपना; चतुर्धा--चार भागों में; व्यस्थ--विभाजित करके; बोध्याय--बोध्य से; याज्ञवल्क्याय--याज्ञवल्क्य से; भार्गव--हे भूगुबंशी ( शौनक ); पराशराय--पराशर से; अग्निमित्रे--अग्निमित्र से; इन्द्रप्रमिति:--इन्द्रप्रमति; आत्म-वान्--आत्मसंयमी; अध्यापयत्--शिक्षा दी; संहिताम्--संग्रह को; स्वाम्--अपने; माण्डूकेयम्--माण्डूकेय से; ऋषिम्ू--ऋषि; कविम्--विद्वान; तस्य--उसका ( माण्डूकेय का ); शिष्य:--शिष्य; देवमित्र: --देवमित्र;सौभरि-आदिशभ्य:--सौभरि तथा अन्यों से; ऊचिवानू--कहा।
अपनी संहिता को दो भागों में विभक्त करने के बाद विद्वान पैल ने इसे इन्द्रप्रमति तथाबाष्कल को बताया।
हे भार्गव, बाष्कल ने अपने संग्रह को पुनः चार भागों में विभाजित करदिया और उन्हें अपने चार शिष्यों--बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर तथा अग्निमित्र को पढ़ाया।
आत्मसंयमी ऋषि इन्द्रप्रमति ने अपनी संहिता विद्वान योगी माण्डूकेय को पढ़ाई जिसकेशिष्य देवमित्र ने आगे चल कर सौभरि तथा अन्यों को ऋग्वेद के सारे विभाग दे दिये।
"
शाकल्यस्तत्सुतः स्वां तु पञ्ञधा व्यस्य संहिताम् ।
वात्स्यमुदूगलशालीयगोखल्यशिशिरेष्वधात् ॥
५७॥
शाकल्य:--शाकल्य; तत्-सुतः--माण्डूकेय का पुत्र; स्वामू--अपनी; तु--तथा; पञ्ञधा--पाँच भागों में; व्यस्थ--विभाजित करके; संहितामू--संहिता का; वात्स्य-मुद्गल-शालीय--वात्स्य, मुदूगल तथा शालीय को; गोखल्य-शिशिरिषु--तथा गोखल्य और शिशिर को; अधात्--दिया
माण्डूकेय के पुत्र शाकल्य ने अपनी संहिता को पाँच भागों में बाँट दिया और इनमें सेप्रत्येक उपविभाग वात्स्य, मुदूगल, शालीय, गोखल्य तथा शिशिर को सौंप दिये।
"
जातूकर्णय्य श्व॒ तच्छिष्य: सनिरुक्तां स्वसंहिताम् ।
बलाकपैलजाबालविरजेभ्यो ददौ मुनि: ॥
५८॥
जातूकर्णर्य:--जातूकर्ण्य; च--तथा; तत्-शिष्य:--शाकल्य का शिष्य; स-निरुक्तामू--कठिन शब्दों की व्याख्या करनेवाले शब्द संग्रह के साथ; स्व-संहिताम्--प्राप्त हुए संग्रह को; बलाक-पैल-जाबाल-विरजेभ्य:--बलाक, पैल, जाबालतथा विरज को; ददौ--दे दिया; मुनि:--मुनि
नेमुनि जातूकर्ण्य भी शाकल्य का शिष्य था।
उसने शाकल्य से प्राप्त संहिता के तीनविभाग किये और उसमें एक चौथा अनुभाग वैदिक शब्द संग्रह ( निरुक्त ) का जोड़ दिया।
उसने इन चारों भागों में से एक-एक विभाग अपने चार शिष्यों--बलाक, द्वितीय पैल,जाबाल तथा विरज को पढ़ाया।
"
बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो वालखिल्याख्यसंहिताम् ।
चक्रे वालायनिर्भज्य: काशारश्चैव तां दधु: ॥
५९॥
बाष्कलि:--बाष्कल का पुत्र बाष्कलि; प्रति-शाखाभ्य: --विभिन्न शाखाओं से; वालखिल्य-आख्य---वालखिल्य शीर्षकवाले; संहिताम्--संग्रह को; चक्रे --बनाया; वालायनि:--वालायनि; भज्य:-- भज्य; काशार: --काशार; च--तथा;एव--निस्सन्देह; तामू--उसको; दथु:--स्वीकार किया।
बाष्कलि ने, ऋग्वेद की समस्त शाखाओं से, वालखिल्य संहिता तैयार की।
यह संहितावालायनि, भज्य तथा काशार को प्राप्त हुई ।
"
बह्ृुचा: संहिता होता एभिन्रह्ार्पिभिर्धृता: ।
श्र॒ुत्वैतच्छन्दसां व्यासं सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥
६० ॥
बहु-ऋचा: --ऋग्वेद की; संहिता:--संहिताएँ; हि--निस्सन्देह; एता:--ये; एभि:--इन; ब्रह्म-ऋषिभि: --सन्त ब्राह्मणोंद्वारा; धृता:--परम्परा से धारण की हुई; श्रुत्वा--सुन कर; एतत्--उनके; छन्दसाम्--पवित्र एलोकों के; व्यासमू--विभाजन की विधि; सर्व-पापै:--सभी पापों से; प्रमुच्यते--छूट जाता है |
इन सन्त ब्राह्मणों ने ऋग्वेद की इन विविध संहिताओं को शिष्य-परम्परा द्वारा बनायेरखा।
वैदिक स्तोत्रों के इस विभाजन को सुनने मात्र से मनुष्य सारे पापों से छूट जाता है।
"
वैशम्पायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोभवन् ।
यच्चेरुब्रह्महत्यांह: क्षपणं स्वगुरोबत्रतम् ॥
६१॥
वैशम्पायन-शिष्या: --वैशम्पायन के शिष्य; वै--निस्सन्देह; चरक--चरक नाम के; अध्वर्यव: --अथर्ववेद के आचार्य;अभवनू--बने; यत्--क्योंकि; चेरु: --उन्होंने सम्पन्न किया; ब्रह्म-हत्या--ब्राह्मण-वध के कारण; अंह:--पाप का;क्षपणम्-प्रायश्चित्त; स्व-गुरो:-- अपने ही गुरु के लिए; ब्रतम्-ब्रत |
वैशम्पायन के शिष्य अथर्ववेद के आचार्य बने।
वे चरक कहलाते थे क्योंकि उन्होंनेअपने गुरु को ब्राह्मण-हत्या के पाप से मुक्त कराने के लिए कठिन ब्रत किए थे।
"
याज्ञवल्क्यश्न तच्छिष्य आहाहो भगवन्कियत् ।
चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येहं सुदुश्चरम् ॥
६२॥
याज्ञवल्क्य:--याज्ञवल्क्य; च--तथा; तत्-शिष्य:--वैशम्पायन का शिष्य; आह--कहा; अहो--जरा देखो; भगवन्--हेप्रभु; कियत्ू--कितना; चरितेन--प्रयत्त से; अल्प-साराणाम्--इन निर्बल व्यक्तियों के; चरिष्ये--पूरा करूँगा; अहम्--मैं; सु-दुश्चवरम्--जिसे पूरा कर पाना अत्यन्त कठिन है।
एक बार वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवल्क्य ने कहा 'हे प्रभु, आपके इन निर्बलशिष्यों के दुर्बल प्रयासों से कितना लाभ प्राप्त किया जा सकता है? मैं स्वयं कुछ अद्वितीय तपस्या करूँगा।
"
इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया ।
विप्रावमन्त्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्चिति ॥
६३॥
इति--इस प्रकार; उक्त:--कहा गया; गुरु:--उसके गुरु ने; अपि-- भी; आह--कहा; कुपित:--क्रुद्ध; याहि--चलेजाओ; अलम्--बहुत हुआ; त्ववा--तुमसे; विप्र-अवमन्त्रा--ब्राह्मणों का अपमान करने वाले; शिष्येण--ऐसे शिष्य से;मत्-अधीतम्--मेरे द्वारा जो पढ़ाया गया; त्यज--त्याग दो; आशु--तुरनन््त; इति--इस प्रकार |
ऐसा कहे जाने पर गुरु वैशम्पायन क्रुद्ध हो उठे और कहा : 'यहाँ से निकल जाओ!ओरे ब्राह्मणों का अपमान करने वाले शिष्य! बहुत हो चुका।
तुम तुरन्त ही वह सब लौटा दोजो मैंने तुम्हें पढ़ाया है।
"
'देवरातसुतः सोपि छर्दित्वा यजुषां गणम् ।
ततो गतोथ मुनयो दहशुस्तान्यजुर्गणान् ॥
६४॥
यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तललोलुपतयाददु: ।
तैत्तिरीया इति यजु:शाखा आसन्सुपेशला: ॥
६५॥
देवरात-सुतः--देवरात का पुत्र ( याज्ञवल्क्य ); सः--वह; अपि--निस्सन्देह; छर्दित्वा--उगलते हुए; यजुषाम्--यजुर्वेदके; गणम्--संचित मंत्र; ततः--वहाँ से; गतः--चला गया; अथ--तब; मुनय:--मुनियों ने; दहशु:--देखा; तान्ू--उन;यजु:-गणानू--यजुर्मत्रों को; यजूंषि--ये यजु:; तित्तिरा:--तीतर; भूत्वा--बन कर; तत्--उन मंत्रों के लिए;लोलुपतया--ललचाई इच्छा से; आददु:--उन््हें चुग लिया; तैत्तिरीया:--तैत्तिरीय नाम से; इति--इस प्रकार; यजु:-शाखा:--यजुर्वेद की शाखाएँ; आसन्--बनीं; सु-पेशला: --अत्यन्त सुन्दर |
तब देवरात पुत्र याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद के मंत्र उगल दिए और वहाँ से चला गया।
इनयजुर्मत्रों को ललचाई दृष्टि से देख रहे एकत्र शिष्यों ने तीतरों का रूप धारण करके उन्हें चुगलिया।
इसलिए यजुर्वेद के ये विभाग अत्यन्त सुन्दर तैत्तिरीय संहिता अर्थात् तीतरों द्वारासंकलित मंत्र के नाम से विख्यात हुए।
"
याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मंश्छन्दांस्यधि गवेषयन् ।
गुरोरविद्यमानानि सूपतस्थेर्कमी श्वरम् ॥
६६॥
याज्ञवल्क्य:--याज्ञवल्क्य; ततः--तत्पश्चात्; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; छन्दांसि--मंत्रों; अधि-- अतिरिक्त; गवेषयन्--ढूँढते हुए;गुरो:--अपने गुरु के; अविद्यमानानि--अज्ञात; सु-उपतस्थे--सावधानी से पूजा की; अर्कम्--सूर्य की; ईश्वरम्--शक्तिमान नियन्ता
हे ब्राह्मण शौनक, तब याज्ञवाल्क्य ने ऐसे नवीन यजुर्मत्रों की खोज करनी चाही जोउसके गुरु को भी ज्ञात न हों।
इसे मन में रख कर उसने शक्तिशाली सूर्य देव की ध्यानपूर्वकपूजा की।
"
श्रीयाज्ञवल्क्य उवाचॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगतामात्मस्वरूपेण काल स्वरूपेण चतुर्विधभूतनिकायानांब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामन्तईदयेषु बहिरपि चाकाश इवोपाधिनाव्यवधीयमानो भवानेकएवं क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादान विसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति ॥
६७॥
श्री-याज्ञवल्क्य: उवाच-- श्री याज्ञवल्क्य ने कहा; ॐ नम:--मैं सादर नमस्कार करता हूँ; भगवते-- भगवान् को;आदित्याय--सूर्य देव के रूप में प्रकट होने वाले; अखिल-जगताम्--सम्पूर्ण लोकों के; आत्म-स्वरूपेण--परमात्मा केरूप में; काल-स्वरूपेण--काल के रूप में; चतु:ः-विध--चार प्रकार के; भूत-निकायानाम्--समस्त जीवों के; ब्रह्म-आदि--ब्रह्म इत्यादि; स्तम्ब-पर्यन्तानामू--तथा घास की पत्ती तक; अन्तः-हृदयेषु--उनके हृदयों के रिक्त स्थानों में;बहिः--बाह्य रूप से; अपि-- भी; च--तथा; आकाश: इबव--आकाश की तरह; उपाधिना--उपाधियों से;अव्यवधीयमान:--आच्छादित न होकर; भवान्ू--आप; एक: --एकमात्र; एव--निस्सन्देह; क्षण-लव-निमेष-- क्षण, लवतथा निमेष ( समय के सूक्ष्मतम खंड ); अवयव--इन खंडों से; उपचित--एकसाथ संकलित; संबत्सर-गणेन--वर्षो तक;अपाम्--जल के; आदान--निकाल लेने से; विसर्गाभ्याम्ू--तथा देने से; इमाम्ू--इस; लोक--ब्रह्माण्ड का; यात्राम्ू--पालन; अनुवहति--वहन करता है।
श्री याज्ञवल्क्य ने कहा: मैं सूर्य देव के रूप में प्रकट भगवान् को सादर नमस्कारकरता हूँ।
आप चार प्रकार के जीवों के जिनमें ब्रह्म से लेकर घास की पत्ती तक सम्मिलितहैं, नियन्ता के रूप में उपस्थित हैं।
जिस तरह आकाश हर जीव के भीतर तथा बाहरविद्यमान रहता है, उसी तरह आप परमात्मा रूप में सभी के हृदयों के भीतर तथा काल रूपमें उनके बाहर उपस्थित रहते हैं।
जिस तरह आकाश उसमें विद्यमान बादलों से आच्छादितनहीं हो सकता उसी तरह आप मिथ्या भौतिक उपाधि से कभी प्रच्छन्न नहीं होते।
एक वर्षक्षण, लव तथा निमेष जैसे लघु काल-खण्डों से बना है और वर्षो के प्रवाह से आप जलको सुखा कर तथा पुनः उसे वर्षा के रूप में जगत को प्रदान करके, उसका अकेले हीपालन-पोषण करते हैं।
"
यदु ह वाव विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्थनुसवनमहर्अहराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिन बीजावभर्जन भगवत:ः समभिधीमहि तपनमण्डलमू, ॥
६८॥
यत्--जो; उ ह वाव--निस्सन्देह; विबुध-ऋषभ--हे देवताओं के प्रधान; सवितः--हे सूर्य देव; अद:ः--वह; तपति--चमकता है; अनुसवनम्--दिन की हर संधि पर ( सूर्योदय, दोपहर तथा सूर्यास्त पर ); अहः अह:ः--प्रतिदिन; आम्नाय-विधिना--शिष्य-परम्परा से प्राप्त वैदिक मार्ग द्वारा; उपतिष्ठमानानामू-स्तुति करने वालों का; अखिल-दुरित--सारेपापकर्म; वृजिन--मिलने वाले कष्ट; बीज--तथा उसके मूल बीज; अवभर्जन--हे जलाने वाले; भगवत:--परम नियन्ताका; समभिधीमहि--मैं पूरे मनोयोग से ध्यान करता हूँ; तपन--हे तपने वाले; मण्डलम्ू--गोले पर।
हे चमकने वाले, हे शक्तिमान सूर्य देव, आप सारे देवताओं में प्रमुख हैं।
मैं आपके तेजमण्डल का मनोयोग से ध्यान करता हूँ क्योंकि जो कोई परम्परा से प्राप्त वैदिक विधि द्वाराप्रतिदिन आपकी तीन बार स्तुति करता है, उसके सारे पापकर्मो, सारे परवर्ती कष्टों तथाइच्छाके मूल बीज तक को आप जला देते हैं।
"
य इह वाव स्थिरचरनिकराणां निजनिकेतनानां मनइन्द्रियासु गणाननात्मन: स्वयमात्मान्तर्यामीप्रचोदयति ॥
६९॥
यः--जो; इह--इस जगत में; वाव--निस्सन्देह; स्थिर-चर-निकराणाम्--समस्त जड़ तथा चेतन जीवों के; निज-निकेतनानाम्--जो आपकी शरण पर निर्भर हैं; मनः-इन्द्रिय-असु-गणान्--मन, इन्द्रियाँ तथा प्राण; अनात्मन:--जो जड़पदार्थ हैं; स्वयम्-स्वयं; आत्म--उनके हृदयों में; अन्त:-यामी--अन्तर में निवास करने वाले प्रभु; प्रचोदयति--कर्म केलिए प्रेरित करता है।
आप उन समस्त जड़ तथा चेतन जीवों के हृदयों में अन्तर्यामी प्रभु के रूप में उपस्थितरहते हैं, जो पूरी तरह आपकी शरण पर आश्रित हैं।
निस्सन्देह आप उनके मनों, इन्द्रियों तथाप्राणों को कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं।
"
य एवेम॑ं लोकमतिकरालवदनान्धकारसंज्ञाजगरग्रह गिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानुकम्पया'परमकारुणिक ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्मावस्थाने प्रवर्तयति ॥
७०॥
यः--जो; एव--एकमात्र; इमम्--इस; लोकम्--जगत को; अति-कराल--अ त्यन्त भयावना; वदन--जिसका मुँह;अन्धकार-संज्ञा-- अंधकार कहलाने वाला; अजगर---अजग र द्वारा; ग्रह--पकड़ा हुआ; गिलितमू--तथा निगला हुआ;मृतकम्--मृत; इब--मानो; विचेतनम्-- अचेत; अवलोक्य--देख कर; अनुकम्पया--दयापूर्वक; परम-कारुणिक: --अत्यन्त करुणामय; ईक्षया--दृष्टि फेर कर; एब--निस्सन्देह; उत्थाप्य--उन्हें उठाकर; अह: अह:--दिन-प्रतदिनि; अनु-सवनमू्--दिन की तीन संधियों पर; श्रेयसि--परम लाभ में; स्व-धर्म-आख्य--आत्मा का उचित कर्म के रूप में विख्यात;आत्म-अवस्थाने--आध्यात्मिक जीवन के प्रति झुकाव में; प्रवर्तमति--लग जाता है |
यह संसार अंधकार रूपी अजगर के विकराल मुख में पड़ कर निगला जा चुका है औरइस तरह अचेत है, मानो मृत है।
किन्तु आप संसार के सोते हुए लोगों पर कृपापूर्ण दृष्टि फेरतेहुए, अपनी दृष्टि के उपहार से उन्हें जगाते हैं।
इस तरह आप सर्वाधिक करुणाकर हैं।
प्रतिदिन तीनों पवित्र संधियों पर आप पुण्यात्माओं को परम श्रेयस मार्ग में लगाते हैं और उन्हेंधार्मिक कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं जिससे वे आध्यात्मिक पद को प्राप्त होते हैं।
"
अवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति परित आशापालैस् तत्र तत्रकमलकोशाझलिभिरुपहताईण: ॥
७१॥
अवनि-पति:--राजा; इब--सहृश; असाधूनाम्--अपवित्र लोगों के; भयम्--भय; उदीरयन्--उत्पन्न करते हुए; अटति--इधर-उधर विचरण करता है; परित:--चारों ओर; आशा-पालै: --दिशाओं के अधिष्ठाता देवों द्वारा; तत्र तत्र--वहाँ वहाँ;कमल-कोश--कमल के फूल पकड़े हुए; अज्जलिभि:--अंजुलियों से; उपहत--भ भेंट की गई; अर्हण: --भेंटें |
आप पृथ्वी के राजा की ही तरह सर्वत्र विचरण करते हुए असाधुओं के बीच भयफैलाते हैं और दिशाओं के शक्तिमान देव हाथ जोड़ कर आपको कमल के फूल तथा अन्यआदरपूर्ण भेंटे प्रदान करते हैं।
"
अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिरभिवन्दितमहमयातयामयजुष्काम।
उपसरामीति ॥
७२॥
अथ--इस प्रकार; ह--निस्सन्देह; भगवन्--हे प्रभु; तब--तुम्हारा; चरण-नलिन-युगलम्--दो चरणकमल; त्रि-भुवन--तीन लोकों के; गुरुभि: --गुरुओं द्वारा; अभिवन्दितम्--सम्मानित; अहम्--मैं; अथात-याम--अन्य किसी से अज्ञात;यजु:-काम: --यजुर्मत्र पाने के लिए इच्छुक; उपसरामि--पूजा के साथ निकट आ रहा हूँ; इति--इस प्रकार।
इसलिए हे प्रभु, मैं आपकी स्तुति करते हुए आप के उन चरणों तक पहुँचना चाहता हूँजिनका सम्मान तीनों लोकों के आध्यात्मिक स्वामी करते हैं क्योंकि मैं आप से यजुर्वेद केउन मंत्रों को पाने के लिए आशान्वित हूँ जो अन्य किसी को ज्ञात नहीं हैं।
"
सूत उबाचएवं स्तुतः स भगवान्वाजिरूपधरो रवि: ।
यजुंष्ययातयामानि मुनयेउदात्प्रसादित: ॥
७३॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; स्तुत:--स्तुति किये गये; सः--उसने; भगवान्--शक्तिशालीदेवता; वाजि-रूप--धघोड़े के रूप में; धर:-- धारण करके; रवि:--सूर्य देव; यजूंषि--यजुर्मत्र; अयात-यामानि-- अन्यकिसी मर्त्य प्राणी से कुछ सीखा नहीं गया; मुनये--मुनि को; अदात्-- प्रस्तुत किया; प्रसादित:--प्रसन्न होकर |
सूत गोस्वामी ने कहा : ऐसी स्तुति से प्रसन्न होकर शक्तिशाली सूर्य देव ने घोड़े का रूपधारण कर लिया और याज्ञवल्क्य मुनि को वे यजुर्मत्र प्रदान किये जो मानव समाज में पहलेअज्ञात थे।
"
यजुर्भिरकरोच्छाखा दश पश्ज शर्तैर्विभु: ।
जगुहुर्वाजसन्यस्ता: काण्वमाध्यन्दिनादय: ॥
७४॥
अजुर्भि:--यजुर्मत्रों से; अकरोत्--बनायी; शाखा:--शाखाएँ; दश--दस; पञ्ञ--तथा पाँच; शतैः --सैकड़ों में; विभु:--शक्तिमान; जगृहुः--उन्होंने स्वीकार किया; वाज-सन्य:--घोड़े के अयाल से उत्पन्न अत: वाजसनेयी नाम से विख्यात;ताः--उनको; काण्व-माध्यन्दिन-आदय: --काण्व तथा अध्यन्दिन आदि ऋषियों के शिष्य
यजुर्वेद के इन सैकड़ों मंत्रों से शक्तिशाली मुनि ने वैदिक वाडमय की पन्द्रह नवीनशाखाएँ बनाईं।
ये वाजसनेयि संहिता के नाम से विख्यात हुईं क्योंकि वे घोड़े के अयालों सेउत्पन्न हुई थीं और इन्हें काण्व, माध्यन्दिन तथा अन्य ऋषियों के अनुयायियों ने शिष्य-परम्परा में स्वीकार कर लिया।
"
जैमिने: सामगस्यासीत्सुमन्तुस्तनयो मुनि: ।
सुत्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम् ॥
७५॥
जैमिने:--जैमिनि के; साम-गस्य--सामवेद का गवैया; आसीत् -- था; सुमन्तु:--सुमन्तु; तनय: --पुत्र; मुनि:--मुनि( जैमिनि ) के; सुत्वानू--सुत्वान; तु--तथा; तत्-सुतः--सुमन्तु का पुत्र; ताभ्याम्--उनमें से प्रत्येक को; एक-एकाम्--दो हिस्सों में से एक-एक नाम; प्राह--वह बोला; संहितामू--संकलन।
सामवेद के अधिकारी जैमिनि ऋषि के सुमन्तु नाम का पुत्र था और सुमन्तु का पुत्रसुत्वान था।
जैमिनि मुनि ने उनमें से हर एक को सामवेद संहिता के विभिन्न अंग सुनाये।
"
सुकर्मा चापि तच्छिष्य: सामवेदतरोम॑हान् ।
सहस्त्रसंहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विज ॥
७६॥
हिरण्यनाभ: कौशल्य: पौष्यज्लिश्व सुकर्मण: ।
शिष्यौ जगृहतुश्चान्य आवन्त्यो ब्रह्मवित्तम: ॥
७७॥
सुकर्मा--सुकर्मा; च--तथा; अपि--निस्सन्देह; तत्-शिष्य:--जैमिनि शिष्य; साम-वेद-तरो: --सामवेद रूपी वृक्ष के;महानू--महान् चिन्तक; सहस्त्र-संहिता--एक हजार संग्रहों का; भेदम्ू--एक भाग; चक्रे --बनाया; साम्नाम्--साम मंत्रोंका; तत:--और तब; द्विज--हे ब्राह्मण ( शौनक ); हिरण्यनाभ: कौशल्य:--कुशलपुत्र हिरण्यनाभ; पौष्यज्धि:--पौष्यञ्ञि;च--तथा; सुकर्मण: --सुकर्मा के; शिष्यौ--दो शिष्य; जगृहतु:--ले लिया; च--तथा; अन्य:--दूसरा; आवन्त्य:--आव्लन्त्य; ब्रह्मय-वित्-तम:--पर ब्रह्म के ज्ञान में पूर्णतया स्वरूपसिद्ध।
जैमिनि का दूसरा शिष्य सुकर्मा महान् पंडित था।
उसने सामवेद रूपी विशाल वृक्ष कोएक हजार संहिताओं में बाँट दिया।
तब हे ब्राह्मण, सुकर्मा के तीन शिष्यों--कुशलपुत्रहिरण्यनाभ, पौष्यज्ञि तथा आध्यात्मिक साक्षात्कार में अग्रणी आवन्त्य--ने साम मंत्रों काभार सँभाला।
"
उदीच्या: सामगा: शिष्या आसन्पञ्नशतानि वै ।
पौष्यज्ज्यावन्त्ययो श्रापि तांश्व प्राच्यान्प्रचक्षते ॥
७८ ॥
उदीच्या:--उत्तर दिशा के सम्बद्ध; साम-गा:--सामवेद का गायक; शिष्या:--शिष्य; आसनू-- थे; पञ्ञ-शतानि--पाँचसौ; बै--निस्सन्देह; पौष्यज्जि-आवन्त्ययो: --पौष्यज्धि तथा आवन्त्य के; च--तथा; अपि--निस्सन्देह; तानू--उनको; च--भी; प्राच्यान्--पूर्व के रहने वाले; प्रचक्षते--कहलाते हैं |
पौष्यज्ञि तथा आवन्त्य के ५०० शिष्य सामवेद के उदीच्य गायक के नाम से प्रसिद्ध हुएऔर बाद में उनमें से कुछ तो प्राच्य गायक भी कहलाने लगे।
लौगाक्षि्माड्लि: कुल्य: कुशीदः कुक्षिरेव च ।
पौष्यज्लिसिष्या जगृहु: संहितास्ते शतं शतम् ॥
७९॥
लौगाक्षि: माडलि: कुल्य:--लौगाक्षि, मांगलि तथा कुल्य; कुशीद: कुक्षि:--कुशीद तथा कुक्षि; एब--निस्सन्देह; च--भी; पौष्यज्धि-शिष्या:--पौष्यज्ञि के शिष्यों ने; जगृहु:--ले लिया; संहिता:--संग्रह; ते--वे; शतम् शतम्--प्रत्येक नेएक-एक सौ।
पौष्यज्धि के पाँच अन्य शिष्यों, लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुशीद तथा कुक्षि में से हरएक को एक-एक सौ संहिताएँ मिलीं ।
"
कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विशति संहिता: ।
शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्य: शेषा आवन्त्य आत्मवान् ॥
८०॥
कृत:--कृत; हिरण्यनाभस्थ--हिरण्यनाभ के; चतु:-विंशति--चौबीस; संहिता:--संग्रह; शिष्य: --शिष्य; ऊचे--बोला;स्व-शिष्येभ्य: -- अपने शिष्यों से; शेषा:--शेष ( संग्रह ); आवन्त्यः--आवन्त्य; आत्म-वान्ू--आत्मसंयमीहिरण्यनाभ के शिष्य कृत ने अपने शिष्यों से चौबीस संहिताएँ कहीं और शेष संहिताएँस्वरूपसिद्ध मुनि आवन्त्य द्वारा आगे चलाई गईं।
"
अध्याय सात: पौराणिक साहित्य
12.7सूत उबाचअथर्ववित्सुमन्तुश्च शिष्यमध्यापयत्स्वकाम् ।
संहितां सोउपिपथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान् ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; अथर्व-वित्--अथर्ववेद का ज्ञाता; सुमन्तु:--सुमन्तु; च--तथा; शिष्यम्--अपनेशिष्य को; अध्यापयत्--शिक्षा दी; स्वकाम्ू--अपनी; संहिताम्--संहिता; सः--उसने, सुमन्तु के शिष्यने; अपि--भी;पथ्याय--पशथ्य को; वेददर्शाय--वेददर्श का; च--तथा; उक्तवान्ू--कहा
सूत गोस्वामी ने कहा : अथर्ववेद के विशेषज्ञ, सुमन्तु ऋषि, ने अपनी संहिता अपनेशिष्य कबन्ध को पढ़ाई जिसने इसे पथ्य और वेददर्श से कहा।
"
शौक्लायनिरब्रह्बलिमोंदोष: पिप्पलायनि: ।
वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो श्रृूणु ।
कुमुदः शुनको ब्रह्मन्जाजलिश्चाप्यथर्ववित् ॥
२॥
शौक्लायनि: ब्रह्मबलि: --शौक्लायनि तथा ब्रह्मबलि; मोदोष: पिप्पलायनि:--मोदोष तथा पिप्पलायनि; वेददर्शस्य--बेददर्श के; शिष्या:--शिष्य; ते--वे; पथ्य-शिष्यान्--पथ्य के शिष्य; अथो--और भी; श्रृणु--सुनो; कुमुदः शुनक:--कुमुद तथा शुनक; ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण, शौनक; जाजलि:--जाजलि; च--तथा; अपि--भी; अथर्व-वित्--अथर्ववेद केज्ञाता
शौक्लायनि, ब्रह्मणनलि, मोदोष तथा पिप्पलायनि वेददर्श के शिष्य थे।
मुझसे पथ्य केभी शिष्यों के नाम सुनो।
हे ब्राह्मण, वे हैं--कुमुद, शुनक तथा जाजलि।
वे सभी अथर्ववेदको अच्छी तरह जानते थे।
"
बश्रु: शिष्योथानिगरस: सैन्धवायन एव च ।
अधीयेतां संहिते द्वे सावर्णाद्यास्तथापरे ॥
३॥
बश्रु;--बश्रु; शिष्य: --शिष्य; अथ--तब; अड्विरस:--शुनक ( जो अंगिरा भी कहलाते हैं ) का; सैन्धवायन:--सैधवायन;एव--निस्सन्देह; च-- भी; अधीयेताम्--उन्होंने सीखा; संहिते--संहिताएँ; द्वे--दो; सावर्ण--सावर्ण; आद्या: --इत्यादि;तथा--उसी तरह; अपरे-- अन्य शिष्यों ने |
बश्रु तथा सैधवायन नामक शुनक के शिष्यों ने अपने गुरु द्वारा संकलित अथर्ववेद केदो भागों का अध्ययन किया।
सैन्धवायन के शिष्य सावर्ण तथा अन्य ऋषियों के शिष्यों नेभी अथर्ववेद के इस संस्करण का अध्ययन किया।
"
नक्षत्रकल्प: शान्तिश्न कश्यपाड्रिरसादय: ।
एते आथर्वणाचार्या: श्रुणु पौराणिकान्मुने ॥
४॥
नक्षत्रकल्प:--नक्षत्रकल्प; शान्तिः:--शान्तिकल्प; च-- भी; कश्यप-आड्रिसस-आदय:-- कश्यप, आंगिरस तथा अन्य;एते--ये; आथर्वण-आचार्या:--अथर्ववेद के गुरु; श्रुणु--सुनो; पौराणिकान्--पुराणों के विद्वान; मुने--शौनकनक्षत्रकल्प, शान्तिकल्प, कश्यप, आंगिरस तथा अन्य लोग भी अथर्ववेद के आचार्यों मेंसे थे।
हे मुनि, अब पौराणिक साहित्य के विद्वानों के नाम सुनो।
"
तय्यारुणि: कश्यपश्च सावर्णिरकृतब्रन: ।
वैशम्पायनहारीतौ षड़्वै पौराणिका इमे ॥
५॥
अय्यारुणि: कश्यप: च--त्रय्यारुणि तथा कश्यप; सावर्णि: अकृत-ब्रण: --सावर्णि तथा अकृतब्रण; वैशम्पायन-हारीतौ--वैशम्पायन तथा हारीत; षट्ू--छ: ; बै--निस्सन्देह; पौराणिका:--पुराणों के आचार्य; इमे-ये त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतब्रण, वैशम्पायन तथा हारीत--ये छः पुराणों केआचार्य हैं।
"
अधीयन्त व्यासशिष्यात्संहितां मत्पितुर्मुखात् ।
एकैकामहमेतेषां शिष्य: सर्वा: समध्यगाम् ॥
६॥
अधीयन्त--उन्होंने सीखा; व्यास-शिष्यात्--व्यासदेव के शिष्य ( रोमहर्षण ) से; संहिताम्--पुराणों के संग्रह; मत्-पितु:--मेरे पिता के; मुखात्--मुख से; एक-एकाम्--हर एक ने एक अंश सीखा; अहम्--मैंने; एतेषाम्--इनमें से;शिष्य:--शिष्य; सर्वा:--सारे संग्रह; समध्यगाम्--पूरी तरह सीखा।
इनमें से प्रत्येक ने मेरे पिता रोमहर्षण से जोकि श्रील व्यासदेव के शिष्य थे, पुराणों कीछहों संहिताओं को पढ़ा।
मैं इन छहो आचार्यों का शिष्य बन गया और मैंने इस पौराणिकज्ञान का भलीभाँति प्रस्तुतिकरण सीखा।
"
कश्यपोहं च सावर्णी रामशिष्योकृतब्रन: ।
अधीमहि व्यासशिष्याच्चत्वारो मूलसंहिता: ॥
७॥
कश्यप:ः--कश्यप; अहम्-मैं; च--तथा; सावर्णि: --तथा सावर्णि; राम-शिष्य:--राम के शिष्य; अकृत्व्रण:--अकृतब्रण; अधीमहि--हमने आत्मसात किया; व्यास-शिष्यात्-व्यास के शिष्य ( रोमहर्षण ) से; चत्वार: --चार; मूल-संहिता:ः--मूल संहिताएँवेदव्यास के शिष्य रोमहर्षण ने पुराणों को चार मूल संहिताओं में विभाजित कर दिया।
मुनि कश्यप तथा मैंने सावर्णि तथा राम के शिष्य अकृतब्रण के साथ-साथ इन चारोंसंहिताओं को सीखा।
"
पुराणलक्षणं ब्रह्ान्ब्रह्मर्षिभिन्िरूपितम् ।
श्रृणुष्व बुद्धिमाञित्य वेदशास्त्रानुसारत: ॥
८॥
पुराण-लक्षणम्--पुराण के लक्षण; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण, शौनक; ब्रह्मय-ऋषिभि:--परम विद्वान ब्राह्मणों द्वारा;निरूपितम्--सुनिश्चित; श्रृणुष्व--सुनो; बुद्धिमू--बुद्धि पर; आश्रित्य--आश्रित होकर; वेद-शास्त्र--वैदिक शास्त्रों के;अनुसारतः--अनुसार |
हे शौनक, तुम ध्यान से पुराण के लक्षण सुनो जिनकी परिभाषा अत्यन्त प्रसिद्ध विद्वानब्राह्मणों ने वैदिक साहित्य के अनुसार दी है।
"
सर्गोउस्याथ विसर्गश्च वृत्तिरक्षान्तराणि च ।
वबंशो वंशानुचरीतं संस्था हेतुरपा भ्रयः ॥
९॥
दशभिर्लक्षणर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदु; ।
केचित्पञ्नविध॑ ब्रह्मनम्महदल्पव्यवस्थया ॥
१०॥
सर्ग:--सृष्टि; अस्य--इस ब्रह्मण्ड की; अथ--तब; विसर्ग: --गौण सृष्टि; च--तथा; वृत्ति--पालन; रक्षा--सुरक्षा;अन्तराणि--मनुओं के शासन; च--तथा; वंश: --महान् राजाओं के वंश; वंश-अनुचरितम्--उनके कार्यों का वर्णन;संस्था--प्रलय; हेतु:--( भौतिक कार्यों में जीवों के लगने का ) कारण; अपाश्रय: --परम शरण; दशभि:--दस;लक्षणै:--लक्षणों से; युक्तम्--युक्त; पुराणम्--पुराण को; तत्--इस विषय का; विद:--विद्वान; विदु:--जानते हैं;केचित्--कुछ विद्वान; पञ्ञ-विधम्--पाँच प्रकार के; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; महत्--महान्; अल्प--तथा छोटे के;व्यवस्थया--अन्तर के अनुसारहे ब्राह्मण, इस विषय के विद्वान, पुराण के दस लक्षण बतलाते हैं--इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि ( सर्ग ), तत्पश्चात् लोकों तथा जीवों की सृष्टि ( विसर्ग ), सारे जीवों का पालन-पोषण( वृत्ति ), उनका भरण (रक्षा ), विभिन्न मनुओं के शासन ( अन्तराणि ), महान् राजाओं केवंश ( वंश ), ऐसे राजाओं के कार्यकलाप ( वंशानुचरित ), संहार ( संस्था ), कारण ( हेतु )तथा परम आश्रय ( अपाश्रय )।
अन्य विद्वानों का कहना है कि महापुराणों में इन्हीं दस कावर्णन रहता है, जबकि छोटे पुराणों में केवल पाँच का।
"
नअव्याकृतगुणक्षोभान्महतस्त्रिवृतो हमः ।
भूतसूक्ष्मेन्द्रियार्थानां सम्भव: सर्ग उच्यते ॥
११॥
अव्याकृत-प्रकृति की अव्यक्त अवस्था; गुण-क्षोभात्--गुणों के क्षोभ से; महतः--महत् तत्त्व से; त्रि-वृत:ः--तीन प्रकारका; अहम: --मिथ्या अहंकार से; भूत-सूक्ष्म--अनुभूति के सूक्ष्म रूपों की; इन्द्रिय--इन्द्रियों की; अर्थानामू--तथाइन्द्रिय-विषयों की; सम्भव: --उत्पत्ति; सर्ग:--सृष्टि; उच्यते--कहलाती है।
अव्यक्त प्रकृति के भीतर मूल गुणों के क्षोभ से महत् तत्त्व उत्पन्न होता है।
महत् तत्त्व सेमिथ्या अहंकार उत्पन्न होता है, जो तीन पक्षों में बट जाता है।
यह तीन प्रकार का मिथ्याअहंकार अनुभूति के सूक्ष्म रूपों, इन्द्रियों तथा स्थूल इन्द्रिय-विषयों के रूप में, प्रकट होताहै।
इन सबों की उत्पत्ति सर्ग कहलाती है।
"
पुरुषानुगृहीतानामेतेषां वासनामय: ।
विसर्गोयं समाहारो बीजाद्वीजं चराचरम् ॥
१२॥
पुरुष--सृष्टि की लीला करते भगवान् का; अनुगृहीतानाम्--कृपाप्राप्त लोगों का; एतेषाम्--इन तत्त्वों का; वासना-मयः--जीवों की विगत इच्छाओं के अवशेषों से युक्त; विसर्ग: --गौण सृष्टि; अयम्--यह; समाहार: --व्यक्त संयोग;बीजात्ू--बीज से; बीजम्--दूसरा बीज; चर--गति करते प्राणी; अचरम्--तथा जड़ प्राणी |
गौण सृष्टि ( विसर्ग ), जो ईश्वर की कृपा से विद्यमान है, जीवों की इच्छाओं का व्यक्तसंयोग है।
जिस प्रकार एक बीज से अतिरिक्त बीज उत्पन्न होते हैं, उसी तरह कर्ता में भौतिकइच्छाओं को बढ़ाने वाले कार्य चर तथा अचर जीवों को जन्म देते हैं।
"
वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणामचराणि च ।
कृता स्वेन नृणां तत्र कामाच्योदनयापि वा ॥
१३॥
वृत्ति:-- भरण, निर्वाह; भूतानि--जीव; भूतानाम्ू--जीवों का; चराणाम्--चेतनों का; अचराणि--जड़ों का; च--तथा;कृता--सम्पन्न किया हुआ; स्वेन--अपने बद्ध स्वभाव से; नृणाम्--मनुष्यों के लिए; तत्र--उसमें; कामात्--कामवश;चोदनया--वैदिक आदेशों के अनुसार; अपि--निस्सन्देह; वा--अथवा।
वृत्ति का अर्थ है भरण या निर्वाह की विधि जिससे चेतन प्राणी जड़ प्राणियों पर निर्वाहकरते हैं।
मनुष्य के लिए वृत्ति का विशेष अर्थ होता है अपनी जीविका के लिए इस तरह सेकार्य करना जो उसके निजी स्वभाव के अनुकूल हो।
ऐसा कार्य या तो स्वार्थ कीइच्छानुसार या फिर ईश्वर के नियमानुसार पूरा किया जा सकता है।
"
रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे ।
तिर्यड्मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विष: ॥
१४॥
रक्षा--रक्षा; अच्युत-अवतार-- भगवान् अच्युत के अवतारों का; ईहा--कार्यकलाप; विश्वस्थ--इस ब्रह्माण्ड का; अनुयुगे युगे-- प्रत्येक युग में; तिर्यक्--पशुओं ; मर्त्य--मनुष्यों; ऋषि--मुनियों; देवेषु--तथा देवताओं के बीच; हन्यन्ते--मारे जाते हैं; यैः --जिन अवतारों द्वारा; त्रयी-द्विष:--वैदिक संस्कृति के शत्रु, दैत्यगण |
अच्युत भगवान् प्रत्येक युग में पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा देवताओं के बीच प्रकटहोते हैं।
वे इन अवतारों में अपने कार्यकलापों से ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हैं और वैदिकसंस्कृति के शत्रुओं का वध करते हैं।
"
मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्रा: सुरेश्वरा: ।
रयोउशावताराश्च हरे: षड्विधमुच्यते ॥
१५॥
मनु-अन्तरम्-प्रत्येक मनु के शासन में; मनुः--मनु; देवा:--देवतागण; मनु-पुत्रा:--मनु के पुत्र; सुर-ई श्वरा: --विभिन्नइन्द्र; ऋषय:--ऋषिगण; अंश-अवतारा:-- भगवान् के अंशों के अवतार; च--तथा; हरेः--हरि के; षट्ू-विधम्--छ:प्रकार का; उच्यते--कहा जाता है।
मनु के प्रत्येक शासनकाल ( मन्वन्तर ) में भगवान् हरि के रूप में छह प्रकार के पुरुषप्रकट होते हैं--शासक मनु, मुख्य देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, महर्षि तथा भगवान् के अंशावतार।
"
राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोन्वय: ।
वंशानुचरितं तेषाम्वृत्तं वंशधरास्च ये ॥
१६॥
राज्ञामू--राजाओं के; ब्रह्म-प्रसूतानाम्--ब्रह्मा से उत्पन्न; वंश:--वंश; त्रै-कालिक:--काल की तीन अवस्थाओं तकविस्तीर्ण ( भूत, वर्तमान तथा भविष्य ); अन्वय:--श्रेणी; वंश-अनुचरितम्--वंशों के इतिहास; तेषाम्--उन वंशों के;वृत्तमू-कार्यकलाप; वंश धरा:--वंश के प्रमुख व्यक्ति; च--तथा; ये--जो ब्रह्मा से लेकर भूत
वर्तमान तथा भविष्य तक लगातार फैली हुई राजाओं की सरणियाँ( पंक्तियाँ ) वंश हैं।
ऐसे वंशों के, विशेष रूप से सर्वाधिक प्रमुख व्यक्तियों के, विवरण वंशइतिहास के प्रमुख विषय होते हैं।
"
नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लय॒ः ।
संस्थेति कविशि: प्रोक्तश्चतुर्धास्य स्वभावत: ॥
१७॥
नैमित्तिक:--आकस्मिक; प्राकृतिक:--तात्विक; नित्य:--संतत; आत्यन्तिक: --अन्तिम; लय: --प्रलय; संस्था--विलय;इति--इस प्रकार; कविभि:--विद्वान पंडितों द्वारा; प्रोक्त:--वर्णित; चतुर्धा--चार प्रकार से; अस्य--इस ब्रह्माण्ड का;स्वभावत:--भगवान् की निहित शक्ति सेब्रह्म प्रलय के चार प्रकार हैं--नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य तथा आत्यन्तिक।
ये सारे के सारे भगवान् की अन्तर्निहित शक्ति द्वारा प्रभावित होते हैं।
विद्वान पंडितों ने इस विषय कानाम विलय रखा है।
"
हेतुर्जीवोस्य सर्गादिरविद्याकर्मकारक: ।
यं चानुशायिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे ॥
१८॥
हेतु:--कारण; जीव:--जीव; अस्य--इस ब्रह्माण्ड का; सर्ग-आदे:ः--सृजन, पालन तथा संहार का; अविद्या--अज्ञानतावश; कर्म-कारक:--भौतिक कार्य करने वाला; यम्ू--जिसको; च--तथा; अनुशायिनम्--सन्नहित व्यक्ति;प्राहु:--कहते हैं; अव्याकृतम्-- अव्यक्त; उत--निस्सन्देह; अपरे-- अन्य ।
जीव अज्ञानवश भौतिक कर्म करता है और इस तरह वह, एक अर्थ में, ब्रह्माण्ड केसृजन, पालन तथा संहार का हेतु बन जाता है।
कुछ विद्वान जीव को भौतिक सृष्टि में निहितपरुष मानते हैं जबकि अन्य उसे अव्यक्त आत्मा कहते हैं।
"
व्यतिरिकान्वयो यस्य जाग्रत्स्वप्ससुषुप्तिषु ।
मायामयेषु तद्गह्म जीववृत्तिष्वपाअ्रय: ॥
१९॥
व्यतिरिक--पृथक् अस्तित्व; अन्वयः--तथा; यस्य--जिसका; जाग्रतू--जगी हुई चेतना; स्वन--स्वण; सुषुप्तिषु--तथागहरी नींद के अन्तर्गत; माया-मयेषु--माया की वस्तुओं के अन्तर्गत; तत्--वह; ब्रह्म--परब्रह्म; जीव-वृत्तिषु--जीवों केकार्यों के अन्तर्गत; अपाश्रय:--अद्वितीय आश्रय ।
परब्रह्म, जागरूकता की सभी अवस्थाओं--जागृत, सुप्त तथा सुषुप्ति--में, माया द्वाराप्रकट किये जाने वाली सारी घटनाओं में तथा सारे जीवों के कार्यो में उपस्थित रहते हैं।
वेइन सबों से पृथक् होकर भी उपस्थित रहते हैं।
इस तरह अपने ही अध्यात्म में स्थित, वे परमतथा अद्वितीय आश्रय हैं।
"
पदार्थेषु यथा द्र॒व्यं सन््मात्रं रूपनामसु ।
बीजादिपश्ञतान्तासु हावस्थासु युतायुतम् ॥
२०॥
पद-अर्थेषु-- भौतिक वस्तुओं में; यथा--जिस प्रकार; द्रव्यम्--मूल वस्तु; सत्-मात्रम्--वस्तुओं का अस्तित्व मात्र; रूप-नामसु--रूपों तथा नामों के बीच; बीज-आदि--बीज इत्यादि ( गर्भधारण से लेकर ); पञ्ञता-अन्तासु-- मृत्यु तक; हि--निस्सन्देह; अवस्थासु--शरीर की विभिन्न अवस्थाओं में; युत-अयुतम्-- अकेले तथा एकसाथ मिल कर।
यद्यपि भौतिक वस्तु विविध रूप तथा नाम धारण कर सकती है, किन्तु इसका मूलभूतअवयव सदैव इसके अस्तित्व का आधार बना रहता है।
इसी तरह परब्रह्म अकेले तथाएकसाथ मिल कर, सदैव भौतिक शरीर की विभिन्न अवस्थाओं में, गर्भधारण से लेकर मृत्युतक, उपस्थित रहता है।
"
विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम् ।
योगेर्ल वा तदात्मानं वेदेहाया निवर्तते ॥
२१॥
विरमेत--दूर रखता है; यदा--जब; चित्तम्ू-मन; हित्वा--त्याग कर; वृत्ति-त्रयम्--जागृती, स्वप्न तथा सुषुप्ती ये तीनअवस्थाएँ, जोकि भौतिक जीवन के कार्य हैं; स्वयम्--स्वतः; योगेन--नियमित आध्यात्मिक अभ्यास से; वा--अथवा;तदा--तब; आत्मानम्--परमात्मा को; वेद--जानो; ईहाया:-- भौतिक प्रयास से; निवर्तते--बन्द कर देता है
मनुष्य का मन या तो अपने आप से या नियमित आध्यात्मिक अभ्यास से जाग्रत, सुप्ततथा सुषुप्त अवस्थाओं में भौतिक स्तर पर कार्य करना बन्द कर देता है।
तब वह परमात्माको समझ पाता है और भौतिक प्रयास करना बन्द कर देता है।
"
एवं लक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविद: ।
मुनयोषष्टादश प्राहु: क्षुललकानि महान्ति च ॥
२२॥
एवम्--इस तरह; लक्षण-लक्ष्याणि--लक्षणों से लक्षित; पुराणानि--पुराण; पुरा-विद:--प्राचीन इतिहासों में दक्ष;मुनयः:--मुनिगण; अष्टाइश--अठारह; प्राहु:--कहते हैं; क्षुल्लकानि--छोटे, गौण; महान्ति--महान्; च-- भी
प्राच्चीन इतिहास में दक्ष मुनियों ने घोषित किया है कि अपने विविध लक्षणों केअनुसार, पुराणों को अठारह प्रधान पुराणों और अठारह गौण पुराणों में विभाजित किया जासकता है।
"
ब्राह्मंं पादं वैष्णवं च शैवं लैड़ं सगारुडं ।
नारदीयं भागवतमाग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम् ॥
२३॥
भविष्य॑ ब्रह्मवैवर्त मार्कण्डेयं सवामनम् ।
वाराहं मात्स्यं कौर्म च ब्रह्माण्डाख्यमिति त्रिषट् ॥
२४॥
ब्राह्ममू--ब्रह्मा पुराण; पाद्ममू--पद्मा पुराण; वैष्णवम्--विष्णु पुराण; च--तथा; शैवम्--शिव पुराण; लैड़म्--लिंगपुराण; स-गारुडइम्--गरुड़ पुराण के साथ; नारदीयम्--नारद पुराण; भागवतम्--भागवत पुराण; आग्नेयम्-- अग्निपुराण; स्कान्द--्कन्द पुराण; संज्ञितमू--नामक; भविष्यम्-- भविष्य पुराण; ब्रह्म-वैवर्तम्--ब्रह्मवैवर्त पुराण;मार्कण्डेयम्--मार्कण्डेय पुराण; स-वामनम्ू--वामन पुराण सहित; वाराहम्--वराह पुराण; मात्स्यम्-मत्स्य पुराण;कौर्मम्-कूर्म पुराण; च--तथा; ब्रह्मण्ड-आख्यम्--ब्रह्माण्ड पुरान नामक; इति--इस प्रकार; त्रि-षट्ू--छ: के तीन गुनेअर्थात् अठारह।
अठारह प्रधान पुराणों के नाम हैं--ब्रह्मा, पद्म, विष्णु, शिव, लिंग, गरुड़, नारद,भागवत, अग्नि, स्कन्द, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, वामन, वराह, मत्स्य, कूर्म तथाब्रह्माण्ड पुराण।
"
ब्रह्मन्रिदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुने: ।
शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम् ॥
२५॥
ब्रह्मनू-हे ब्राह्मण; इदम्ू--यह; समाख्यातम्--पूरी तरह वर्णित; शाखा-प्रणयनम्--शाखाओं का विस्तार; मुने:--मुनि( श्रील व्यासदेव ) के; शिष्य--शिष्यों के; शिष्य-प्रशिष्याणाम्ू--तथा उनके शिष्यों के भी शिष्यों के; ब्रह्म-तेज:--आध्यात्मिक शक्ति; विवर्धनम्--बढ़ाने वाले
हे ब्राह्मण, मैंने तुमसे वेदों की शाखाओं के महामुनि व्यासदेव, उनके शिष्यों तथाशिष्यों के भी शिष्यों द्वारा किये गये विस्तार का भलीभाँति वर्णन किया है।
जो इस कथाको सुनता है उसकी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ जाती है।
"
अध्याय आठ: मार्कण्डेय की नर-नारायण ऋषि से प्रार्थना
12.8श्रीशौनक उबाचसूत जीव चिरं साधो वद नो वदतां वर ।
तमसस््यपारे भ्रमतांनृणां त्वं पारदर्शन: ॥
१॥
श्री-शौनक: उवाच--श्री शौनक ने कहा; सूत--हे सूत गोस्वामी; जीव--आप जीवित रहें; चिरम्--दीर्घकाल तक;साधो--हे साधु; वद--कृपा करके कहें; न:ः--हमसे; वदताम्--वक्ताओं के; वर-- श्रेष्ठ; तमसि--अंधकार में; अपारे--अपार; भ्रमताम्ू--विचरण करते हुए; नृणाम्--मनुष्यों के लिए; त्वमू--तुम; पार-दर्शन:--उस किनारे को देखने वाला।
श्री शौनक ने कहा : हे सूत, आप दीर्घायु हों।
हे साधु, हे वक्ता श्रेष्ठ, आप हमसे इसीतरह बोलते रहें।
निस्सन्देह, आप ही मनुष्यों को उस अज्ञान से निकलने का मार्ग दिखासकते हैं जिसमें वे विचरण कर रहे हैं।
"
आहुश्चिरायुषमृषिं मृकण्डतनयं जना: ।
यः कल्पान्ते ह्ुर्वरितो येन ग्रस्तमिदं जगत् ॥
२॥
स वा अस्मत्कुलोत्पन्न: कल्पेस्मिन्भार्गवर्षभ: ।
नैवाधुनापि भूतानां सम्प्लवः कोपि जायते ॥
३॥
एक एवार्णवे क्षाम्यन्ददर्श पुरुष किल ।
बटपत्रपुटे तोक॑ शयानं त्वेकमद्भुतम् ॥
४॥
एष नः संशयो भूयान्सूत कौतूहलं यतः ।
त॑ नश्छिन्धि महायोगिन्पुराणेष्वपि सम्मतः: ॥
५॥
आहु:--कहते हैं; चिर-आयुषम्-- अत्यधिक दीर्घ आयु वाला; ऋषिम्--ऋषि; मृकण्ड-तनयम्--मृकण्ड के पुत्र को;जना:--लोग; यः--जो; कल्प-अन्ते--ब्रह्म का एक दिन पूरा होने पर; हि--निस्सन्देह; उर्वरित: --एकान्त में रहते हुए;येन--जिस ( प्रलय ) से; ग्रस्तम्-ग्रस्त; इदम्ू--यह; जगत्--समूचा ब्रह्माण्ड; सः--वह, मार्कण्डेय; बै--निस्सन्देह;अस्मत्-कुल-मेरे ही परिवार में; उत्पन्न: --उत्पन्न; कल्पे--ब्रह्मा के दिन में; अस्मिनू--इस; भार्गव-ऋषभ:-- भूगु मुनिका परम प्रसिद्ध वंशज; न--नहीं; एव--निश्चय ही; अधुना--हमारे युग में; अपि-- भी; भूतानाम्--सारी सृष्टि का;सम्प्लव:ः--बाढ़ से संहार; कः--कोई; अपि--तनिक भी; जायते--उत्पन्न हुआ है; एक:--अकेला; एव--निस्सन्देह;अर्णवे--महासागर में; भ्राम्यनू--घूमते हुए; दरदर्श--देखा; पुरुषम्--पुरुष को; किल--कहा जाता है; वट-पत्र--बरगदकी पत्ती के; पुटे--दोने में; तोकम्--एक शिशु; शयानम्--लेटा हुआ; तु--लेकिन; एकम्--एक; अद्भुतम्-- अद्भुत;एषः--यह; नः--हमारा; संशय: --सन्देह; भूयान्ू--महान्; सूत--हे सूत गोस्वामी; कौतूहलम्--उत्सुकता; यतः--जिसके कारण; तम्--उसको; न:ः--हमारे लिए; छिन्धि--काट डालिये; महा-योगिन्--हे महान् योगी; पुराणेषु--पुराणोंके; अपि--निस्सन्देह; सम्मतः--सार्वजनिक रूप से स्वीकृत ( दक्ष ज्ञाता के रूप में )।
विद्वानों का कहना है कि मृकण्डु के पुत्र, मार्कण्डेय ऋषि, अति दीर्घ आयु वाले मुनिथे और ब्रह्मा के दिन के अन्त होने पर वे ही एकमात्र बचे हुए थे जबकि सारा ब्रह्माण्ड प्रलयकी बाढ़ में जलमग्न हुआ था।
किन्तु यही मार्कण्डेय ऋषि, जोकि भृगुवंशियों में सर्वोपरिहैं, मेरे ही परिवार में ब्रह्म के चालू दिन में जन्मे थे और हमने अभी ब्रह्मा के इस दिन कापूर्ण प्रलय नहीं देखा है।
यही नहीं, यह भलीभाँति ज्ञात है कि मार्कण्डेय मुनि ने प्रलय केमहासागर में असहाय होकर इधर-उधर घूमते हुए उस भयानक जल में एक अद्भुत पुरुष को देखा--एक शिशु जो बरगद के पत्ते के दोने में अकेले लेटा था।
हे सूत, मैं इन महर्षिमार्कण्डेय के विषय में अत्यधिक मोहग्रस्त तथा उत्सुक हूँ।
हे महान् योगी, आप समस्तपुराणों के विद्वान माने जाते हैं, इसलिए मेरे संशय को दूर कीजिये।
"
सूत उबाचप्रश्नस्त्वया महर्षेयं कृतो लोक भ्रमापह: ।
नारायणकथा यत्र गीता कलिमलापहा ॥
६॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; प्रश्न:--प्रश्न; त्वया--तुम्हारे द्वारा; महा-ऋषे--हे महर्षि शौनक; अयम्--यह;कृत:ः--बनाया हुआ; लोक --सम्पूर्ण जगत का; भ्रम-- भ्रम; अपह: --दूर करने वाला; नारायण-कथा-- भगवान्नारायण की कथा; यत्र--जिसमें; गीता--गाई जाती है; कलि-मल--कलियुग के कल्मष; अपहा--दूर करते हुए
सूत गोस्वामी ने कहा : हे महर्षि शौनक, तुम्हारे इस प्रश्न से हर एक का मोह दूर होसकेगा क्योंकि इसका सम्बन्ध भगवान् नारायण की कथाओं से है, जो इस कलियुग केकल्मष को दूर करती हैं।
"
प्राप्तद्धिजातिसंस्कारो मार्कण्डेय: पितु: क्रमात् ।
छन्दांस्यधीत्य धर्मेण तपःस्वाध्यायसंयुत: ॥
७॥
बृहद्व्रतधर: शान्तो जटिलो बल्कलाम्बर: ।
बिभ्रत्कमण्डलुं दण्डमुपवीतं समेखलम् ॥
८॥
कृष्णाजिन साक्षसूत्रं कुशांश्व नियमर्द्धये ।
अम्न्यर्कगुरुविप्रात्मस्वर्चयन्सन्ध्ययोहरिम् ॥
९॥
सायं प्रात: स गुरवे भेक्ष्यमाहत्य वाग्यतः ।
बुभुजे गुर्वनुज्ञात: सकृन्नो चेदुपोषित: ॥
१०॥
एवं तपःस्वाध्यायपरो वर्षाणामयुतायुतम् ।
आराधयन्हषीकेशं जिग्ये मृत्युं सुदुर्जयम् ॥
११॥
प्राप्त--प्राप्त हुए; द्वि-जाति--द्वितीय जन्म का; संस्कार:--संस्कार; मार्कण्डेय: --मार्कण्डेय; पितु:--अपने पिता से;क्रमात्-क्रमश; छन्दांसि--वैदिक स्तोत्र; अधीत्य--अध्ययन करके; धर्मेण--विधि-विधानों समेत; तपः--तपस्या में;स्वाध्याय--तथा अध्ययन में; संयुत:--पूर्ण; बृहत्-ब्रत--आजीवन ब्रह्मचर्य ब्रत; धर: --धारण करते हुए; शान्त:--शान्त;जटिल:--जटा सहित; वल्कल-अम्बर:--छाल के वस्त्र पहने; बिभ्रतू--लिए हुए; कमण्डलुम्ू--कमण्डल; दण्डम्--संन्यासी की डंडा; उपवीतम्--जनेऊ; स-मेखलम्--ब्रह्मचारी के कटिसूत्र सहित; कृष्ण-अजिनमू--काले मृग का चर्म;स-अक्ष-सूत्रमू--कमल के बीजों से बनी जपमाला; कुशान्--कुश घास; च-- भी; नियम-ऋद्धये-- अपनी आध्यात्मिकप्रगति को सरल बनाने के लिए; अग्नि--अग्नि रूप में; अर्क--सूर्य; गुरु--गुरु; विप्र--त्राह्मण; आत्मसु--तथापरमात्मा; अर्चयन्--पूजा करते हुए; सन्ध्ययो: --दिन के प्रारम्भ तथा अन्त में; हरिम्ू-- भगवान् को; सायम्--संध्यासमय; प्रातः--तड़के; सः--वह; गुरवे--अपने गुरु से; भैक्ष्यम्-- भीख माँगने से मिली भिक्षा; आहत्य--लाकर; वाक्-यतः--संयमित वाणी से; बुभुजे-- भाग लिया; गुरु-अनुज्ञात:-- अपने गुरु द्वारा आमंत्रित; सकृत्--एक बार; न--नहीं( आमंत्रित ); उ--निस्सन्देह; चेतू--यदि; उपोषित:--उपवास करते हुए; एवम्--इस तरह; तपः-स्वाध्याय-पर: --तपस्यातथा वैदिक वाड्मय केअध्ययन में तत्पर; वर्षाणाम्--वर्षों; अयुत-अयुतम्--दस हजार के दस हजार गुने; आराधयन्--पूजा करते हुए; हषीक-ईशम्--इन्द्रियों के परम स्वामी, भगवान् विष्णु; जिग्ये--जीत लिया; मृत्युम्--मृत्यु को; सु-दुर्जयम्--जीत पाना असम्भव।
अपने पिता द्वारा ब्राह्मण की दीक्षा प्राप्त करने के लिए किये गये संस्तुत अनुष्ठानों द्वाराशुद्ध बन कर, मार्कण्डेय ने वैदिक स्तोत्रों का अध्ययन किया और विधि-विधानों काकठोरता से पालन किया।
वे तपस्या तथा वैदिक ज्ञान में आगे बढ़ गये और जीवन-भरब्रह्मचारी रहे।
अपनी जटा से तथा छाल से बने अपने वस्त्रों से अत्यन्त शान्त प्रतीत होते हुए,उन्होंने अपनी आध्यात्मिक प्रगति को योगी का कमण्डल, दंड, जनेऊ, ब्रह्मचारी पेटी,काला मृग-चर्म, कमल के बीज की जपमाला तथा कुश के समूह को धारण करके औरआगे बढ़ाया।
उन्होंने दिन की सन्धियों पर भगवान् के पाँच रूपों--यज्ञ-अग्नि, सूर्य, गुरु,ब्राह्मण तथा उसके हृदय के भीतर परमात्मा की नियमित पूजा की।
बे प्रातः तथा सायंकालभिक्षा माँगने जाते और लौटने पर सारा एकत्रित भोजन अपने गुरु को भेंट कर देते।
जबगुरु उन्हें आमंत्रित करते, तभी वे मौन भाव से दिन में एक बार भोजन करते, अन्यथाउपवास करते।
इस तरह तपस्या तथा वैदिक अध्ययन में समर्पित मार्कण्डेय ऋषि ने इन्द्रियोंके परम प्रभु भगवान् की करोड़ों वर्षो तक पूजा की और इस तरह उन्होंने दुर्जेय मृत्यु कोजीत लिया।
"
ब्रह्मा भगुर्भवो दक्षो ब्रह्मपुत्राश्च येडपरे ।
नृदेवपितृभूतानि तेनासन्नतिविस्मिता: ॥
१२॥
ब्रह्मा --बहा; भूगु:ः-- भूगु मुनि; भव:--शिवजी; दक्ष:--दक्ष प्रजापति; ब्रह्म-पुत्रा:--ब्रह्मा के महान् पुत्र; च--तथा;ये--जो; अपरे--अन्य; नृ--मनुष्य; देव--देवतागण; पितृ--पूर्वज; भूतानि-- भूतप्रेत; तेन--उससे ( मृत्यु पर विजय );आसनू--सबके सब हो गये; अति-विस्मिता: --अत्यन्त चकित ।
मार्कण्डेय ऋषि की उपलब्धि से ब्रह्मा, भूगु मुनि, शिवजी, प्रजापति दक्ष, ब्रह्म केमहान् पुत्र, मनुष्यों में से अन्य अनेक लोग, देवता, पूर्वज तथा भूतप्रेत--सभी चकित थे।
"
इत्थं बृहद्व्रतधरस्तपःस्वाध्यायसंयमै: ।
दध्यावधोक्षजं योगी ध्वस्तक्लेशान्तरात्मना ॥
१३॥
इत्थम्--इस प्रकार से; बृहत्-ब्रत-धर: --ब्रह्मचर्य ब्रत को धारण करते हुए; तपः-स्वाध्याय-संयमैः:--अपनी तपस्या,वेदाध्ययन तथा विधि-विधानों के द्वारा; दध्यौ--ध्यान किया; अधोक्षजम्--दिव्य भगवान् पर; योगी--योगी; ध्वस्त--विनष्ट; क्लेश--सारे कष्ट; अन्त:-आत्मना--अपने अंतस्थ मन से |
इस तरह भक्तियोगी मार्कण्डेय ने तपस्या, वेदाध्ययन तथा आत्मानुशासन द्वारा कठोरब्रह्मचर्य धारण किया।
फिर सारे उत्पातों से मुक्त अपने मन से वे अन्दर की ओर मुड़े औरभगवान् का ध्यान किया जो भौतिक इन्द्रियों के परे स्थित है।
"
तस्यैवं युझ्जतश्चित्तं महायोगेन योगिन: ।
व्यतीयाय महान्कालो मन्वन्तरषडात्मक: ॥
१४॥
तस्य--उसका; एवम्--इस प्रकार; युद्भतः--स्थिर करते हुए; चित्तम्--मन; महा-योगेन--योग के शक्तिशाली अभ्याससे; योगिन:--योगी; व्यतीयाय--बीत गया; महान्ू--महान्; काल:--कालखण्ड; मनु-अन्तर--मनु की आयु; षट्ू--छ:;आत्मकः--से युक्त |
जब यह योगी इस तरह महान् योगाभ्यास द्वारा अपने मन को एकाग्र कर रहा था, तोछः: मनुओं की आयु के बराबर ( मन्वन्तर ) विपुल समय बीत गया।
"
एतत्पुरन्दरो ज्ञात्वा सप्तमेउस्मिन्किलान्तरे ।
तपोविशड्टितो ब्रह्मन्नारेभे तद्बिघातनम् ॥
१५॥
एतत्--यह; पुरन्दर:--राजा इन्द्र ने; ज्ञात्वा--जान कर; सप्तमे--सातवें; अस्मिनू--इस; किल--निस्सन्देह; अन्तरे--मनुके राज्य में; तप:--तपस्या का; विशद्धित:-- भयभीत होकर; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण शौनक; आरेभे--आरम्भ कर दिया;तत्--उस तपस्या का; विघाटनम्--विघ्त |
हे ब्राह्मण, सातवें मन्वन्तर में, जोकि चालू युग है, इन्द्र को मार्कण्डेय की तपस्या कापता चला तो वह उनकी बढ़ती योगशक्ति से भयभीत हो उठा।
इस तरह उसने मुनि कीतपस्या में विघ्न डालने का प्रयास किया।
"
गन्धर्वाप्सरस: काम वसनन््तमलयानिलौ ।
मुनये प्रेषयामास रजस्तोकमदौ तथा ॥
१६॥
गन्धर्व-अप्सरस:--दैवी गायक तथा नर्तकियाँ; कामम्--कामदेव को; वसन््त--वसन्त ऋतु; मलय-अनिलौ--तथा मलयपर्वत से आने वाली प्रफुल्ल करने वाली वायु; मुनये--मुनि के पास; प्रेषयाम् आस--भेजा; रज:-तोक--काम का शिशु,लोभ; मदौ--नशा; तथा-- भी |
मुनि की आध्यात्मिक तपस्या नष्ट करने के लिए, इन्द्र ने कामदेव, सुन्दर गन्धर्वों, अप्सराओं, वसन््त ऋतु तथा मलय पर्वत से चलने वाली चन्दन की गन्ध से युक्त मन्द समीरके साथ साक्षात् लोभ तथा नशे ( मद ) को भेजा।
"
ते वै तदाश्रमं जम्मुर्हिमादरे: पार्श्व उत्तरे ।
पुष्पभद्रा नदी यत्र चित्राख्या च शिला विभो ॥
१७॥
ते--वे; बै--निस्सन्देह; तत्-मार्कण्डेय ऋषि की; आश्रमम्--कुटिया में; जग्मु:--गये; हिम-अद्रेः--हिमालय पर्वत के;पार््वे--बगल में; उत्तरे--उत्तर में; पुष्पभद्रा नदी--पुष्पभद्रा नदी; यत्र--जहाँ; चित्रा-आख्या--चित्रा नामक; च--तथा;शिला--चोटी; विभो--हे शक्तिशाली शौनक
हे शक्तिशाली शौनक, वे मार्कण्डेय की कुटिया पर गये जो हिमालय पर्वत की उत्तरीदिशा में थी और जहाँ से पुष्पभद्गा नदी सुप्रसिद्ध चोटी चित्रा के निकट से बहती है।
"
तदाश्रमपदं पुण्य॑ पुण्यद्रुमलताझ्लितम् ।
पुण्यद्विजकुलाकीऋनं पुण्यामलजलाशयम् ॥
१८॥
मत्तभ्रमरसड़ीतं मत्तकोकिलकूजितम् ।
मत्तबर्हिनटाटोपं मत्तद्विजकुलाकुलम् ॥
१९॥
वायु: प्रविष्ट आदाय हिमनिर्झरशीकरान् ।
सुमनोभि: परिष्वक्तो ववावुत्तम्भयन्स्मरम् ॥
२०॥
तत्--उसकी; आश्रम-पदम्--कुटिया का स्थान; पुण्यम्--पवित्र; पुण्य--पतवित्र; द्रुम--वृक्षों; लता--तथा लताओं से;अश्वितमू-विशेष रूप से अंकित; पुण्य--पवित्र; ट्विज--ब्राह्मण मुनियों के; कुल--समूहों से; आकीर्णम्--परिपूरित;पुण्य--पवित्र; अमल--निर्मल; जल-आशयमू--जलाशयों से युक्त; मत्त--मतवाले; भ्रमर--भौरों के; सड्रीतम्--संगीतसे; मत्त--उन्मत्त बने हुए; कोकिल--कोयलों की; कूजितम्--कूक से; मत्त--मतवाले; बर्हि--मोरों के; नट-आटोपम्--नाचने के नशे में; मत्त--मतवाले; द्विज--पक्षियों के; कुल--परिवारों से युक्त; आकुलम्--पूरित; वायु:--मलयाचल की वायु ने; प्रविष्ट: --प्रवेश करके; आदाय--लेकर; हिम--शीतल; निर्झर--झरनों के; शीकरान्--कुहरे केकणों; सुमनोभि:--फूलों से; परिष्वक्त:--आलिंगित होकर; ववौ--बहने लगी; उत्तम्भयन्--जागृत करते हुए; स्मरम्--कामदेव को।
मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम को पवित्र वृक्षों के कुंज अलंकृत कर रहे थे और बहुत-सेसाधु ब्राह्मण प्रचुर शुद्ध, पवित्र तालाबों का आनन्द उठाते हुए वहाँ रह रहे थे।
वह आश्रमउन्मत्त भौरों की गुनगुनाहट से तथा उत्तेजित कोयलों की कुहू-कुहू से प्रतिध्वनित हो रहा थाऔर प्रफुल्लित मोर इधर-उधर नाच रहे थे।
निस्सन्देह उन्मत्त पक्षियों के अनेक परिवार उसकुटिया में झुंड के झुंड रह रहे थे।
वहाँ पर इन्द्र द्वारा भेजी वसन््त की वायु पास के झरनों सेशीतल बूँदों की फुहार लेते हुए प्रविष्ट हुई।
वह वायु वन के फूलों के आलिंगन से सुगंधितथी।
उसने कुटिया में प्रवेश किया और कामदेव की कामेच्छा को जगाना प्रारम्भ कर दिया।
"
उद्यच्चन्द्रनिशावक्त्र: प्रवालस्तबकालिभि:ः ।
गोपद्गुमलताजालैस्तत्रासीत्कुसुमाकर: ॥
२१॥
उद्यत्ू--उदय होते; चन्द्र--चन्द्रमा के साथ; निशा--रात; वक्त्र:--मुख वाली; प्रवाल--नई कोपलों से; स्तबक--फूलोंकी; आलिभि:--पंक्तियों से; गोप--छिपी; द्रुम--वृक्षों; लता--तथा लताओं के; जालै:ः--समूह से; तत्र--वहाँ;आसीतू--प्रकट हुआ; कुसुम-आकरः:--वसन्त ऋतु |
तब मार्कण्डेय के आश्रम में वसन््त ऋतु प्रकट हुआ।
संध्याकालीन आकाश उदय हो रहेचन्द्रमा के प्रकाश से चमक रहा था मानो वह वसन््त का मुख हो और नई कोंपले और ताजेफूल प्रायः वृक्षों और लताओं के झुंडों को आच्छादित किये हुए थे।
"
अन्वीयमानो गन्धर्वैगीतवादित्रयूथकै: ।
अदृश्यतात्तचापेषु: स्वःस्त्रीयूथपति: समर: ॥
२२॥
अन्वीयमान: -- अनुसरण करते हुए; गन्धर्वै: --गन्धर्वो द्वारा; गीत--गायकों ; वादित्र--तथा वाद्य-यंत्र बजाने वालों की;यूथकै:--टोलियों द्वारा; अहह्यत--दिखाई पड़ा; आत्त--पकड़े; चाप-इषु:--अपना धनुष तथा बाण; स्वः-स्त्री-यूथ--झुंड की झुंड स्वर्ग की स्त्रियों का; पति:--स्वामी; स्मर:--कामदेव।
तब अनेक स्वर्ग की स्त्रियों का पति कामदेव वहाँ पर अपना धनुष और बाण लिएआया।
उसके पीछे-पीछे गन्धर्वों की टोलियाँ थी जो वाद्य-यंत्र बजा रहे थे और गा रहे थे।
"
ह॒त्वाग्नि समुपासीनं दहशु: शक्रकिड्जूरा: ।
मीलिताक्षं दुराधर्ष मूर्तिमन्तमिवानलम् ॥
२३॥
ह॒त्वा--आहुति डाल कर; अग्निमू-- अग्नि में; समुपासीनम्--योग-दध्यान में बैठे हुए; दहशु;:--देखा; शक्र--इच्ध के;किड्डरा:ः--नौकरों ने; मीलित--बन्द; अक्षम्--नेत्र; दुराधर्षम्-- अजेय; मूर्ति-मन्तम्--साक्षात्; इब--मानो; अनलमू्--अग्निइन्द्र के नौकरों ने ऋषि को ध्यान में आसीन पाया, जिसने अभी अभी यज्ञ-अग्नि मेंनियत आहुतियाँ डाली थीं।
उसकी आँखें समाधि में बन्द थीं; वह अजेय प्रतीत हो रहा थामानो साक्षात् अग्नि हो।
"
ननृतुस्तस्य पुरतः स्त्रियोथो गायका जगु: ।
मृदड्डवीणापणवैर्वाद्यं चक्रुर्मनोरमम् ॥
२४॥
ननृतुः--नाचीं; तस्य--उनके; पुरत:--समक्ष; स्त्रियः--स्त्रियाँ; अथ उ--तथा; गायका:--गवैयों ने; जगु:ः--गाया;मृदड़--मृदंग; वीणा--वीणा; पणवै:--तथा मंजीरों से; वाद्यम्ू--वाद्य संगीत; चक्कु:--किया; मन: -रमम्--मन को हरनेबाला
ऋषि के समक्ष स्त्रियाँ नाचने लगीं और गन्धर्वो ने मृदंग, वीणा तथा मंजीरों के साथ मनोहर गीत गाये।
"
सन्दधेस्त्रं स्वधनुषि काम: पञ्ञमुखं तदा ।
मधुर्मनो रजस्तोक इन्द्रभृत्या व्यकम्पयन् ॥
२५॥
सन्दधे--चढ़ाया; अस्त्रमू--हथियार; स्व-धनुषि--अपने धनुष पर; काम:--कामदेव ने; पञ्ञ-मुखम्--पाँच सिरों ( दृष्टि,ध्वनि, गन्ध, स्पर्श तथा स्वाद ) वाले; तदा--तब; मधु: --वसन्त; मन:--ऋषि का मन; रज:-तोक:--कामका शिशु,लोभ; इन्द्र-भृत्या:--इन्द्र के नौकर; व्यकम्पयन्--विचलित करने लगे।
जब काम का पुत्र ( साक्षात् लोभ ), वसनन््त तथा इन्द्र के अन्य नौकर मार्कण्डेय के मनको विचलित करने का प्रयत्त कर रहे थे, तो कामदेव ने अपना पाँच सिरों वाला तीरनिकाला और उसे अपने धनुष पर चढ़ाया।
"
क्रीडन्त्या: पुड्लिकस्थल्या: कन्दुकै: स्तनगौरवात् ।
भृशमुद्विग्नमध्याया: केशविस्त्रंसितस्त्रज: ॥
२६॥
इतस्ततो भ्रमदृष्टेश्वलन्त्या अनु कन्दुकम् ।
वायुर्जहार तद्ठास: सूक्ष्म त्रुटितमेखलम् ॥
२७॥
क्रीदन्त्या:--खेल रही; पुल्लिकस्थल्या: --पुझ्लिकस्थली नामक अप्सरा की; कन्दुकै:--गेंदों से; स्तन--उसके कुचों के;गौरवात्--अधिक भार से; भृशम्-- अत्यधिक; उद्विग्न--बोझिल; मध्याया:--जिसकी कटि; केश--उसके बालों से;विस्नैंसित--गिरते हुए; सत्रज:--फूल का हार; इतः तत:ः--इधर-उधर; भ्रमत्--विचरण करती; दृष्टे--जिसकी आँखें;चलस्न््त्या:--चंचल; अनु कन्दुकम्--अपनी गेंद के पीछे; वायु:--वायु; जहार--उड़ा ले गया; तत्-वास:--उसका वस्त्र;सूक्ष्ममू--झीना; त्रुटित--ढीली; मेखलम्--पेटीपुड्चलिकस्थली नामक अप्सरा अनेक गेंदों से खेलने का प्रदर्शन करने लगी।
उसकी कमरउसके भारी स्तनों के भार से लचक रही थी और उसके बालों में गुँथे फूलों का हार बिखररहा था।
जब वह इधर-उधर दृष्टि डालती, गेंदों के पीछे दौड़ती, तो उसके झीने वस्त्र की पेटीढीली पड़ गईं और सहसा वायु उसके वस्त्र उड़ा ले गया।
"
विससर्ज तदा बाएं मत्वा तं स्वजितं समर: ।
सर्व तत्राभवन््मोघमनीशस्य यथोद्यम: ॥
२८॥
विससर्ज--छोड़ा; तदा--तब; बाणम्--तीर; मत्वा--सोच कर; तम्--उसको; स्व--अपने द्वारा; जितम्--जीता हुआ;स्मरः--कामदेव; सर्वम्--यह सब; तत्र--ऋषि की ओर; अभवत्--हो गया; मोघम्--व्यर्थ; अनीशस्य--नास्तिक का;यथा--जिस तरह; उद्यम:--प्रयास |
तब कामदेव ने यह सोच कर कि उसने ऋषि को जीत लिया है, अपना तीर चलाया।
किन्तु मार्कण्डेय को बहकाने के ये सारे प्रयास निष्फल रहे जिस तरह नास्तिक के प्रयास व्यर्थ जाते हैं।
"
त इत्थमपकुर्वन्तो मुनेस्तत्तेजसा मुने ।
दह्ममाना निववृतु: प्रबोध्याहिमिवार्भका: ॥
२९॥
ते--वे; इत्थम्--इस तरह; अपकुर्वन्तः--हानि पहुँचाने का प्रयास करते; मुने:--मुनि को; तत्--उसकी; तेजसा--शक्तिसे; मुने--हे मुनि ( शौनक ); दहममाना: --जला हुआ अनुभव करते हुए; निववृतु:--विलग हो गये; प्रबोध्य--जगाकर;अहिम्--सर्प को; इव--मानो; अर्भका:--बालक
हे विद्वान शौनक, जब कामदेव तथा उसके अनुयायी मुनि को हानि पहुँचाने का प्रयासकर रहे थे, तो वे स्वयं उनकी शक्ति से जीवित ही दग्ध होते अनुभव करने लगे।
इस तरहउन्होंने अपनी शैतानी बन्द कर दी जिस तरह सोते साँप को जगाने वाले बालक।
"
इतीन्द्रानुचरैब््रह्मन्धथर्षितो पि महामुनि: ।
यन्नागादहमो भावं न तच्चित्रं महत्सु हि ॥
३०॥
इति--इस प्रकार; इन्द्र-अनुचरै: --इन्द्र के अनुयायियों द्वारा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; धर्षित:--थृष्ठतापूर्वक आक्रमण कियागया; अपि--यद्यपि; महा-मुनि: --महामुनि; यत्--जिसको; न अगातू--झुके नहीं; अहम:--मिथ्या अहंकार का;भावमू--रूपान्तर को; न--नहीं; तत्--उस; चित्रम्-- आश्चर्यजनक; महत्सु--महात्माओं के लिए; हि--निस्सन्देह
हे ब्राह्मण, इन्द्र के अनुयायियों ने उद्धत होकर सन्त स्वभाव वाले मार्कण्डेय परआक्रमण किया था; फिर भी वे मिथ्या अहंकार के किसी भी प्रभाव के आगे झुके नहीं।
महात्माओं के लिए ऐसी सहिष्णुता तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है।
"
इृष्ठा निस्तेजसं कामं सगणं भगवान्स्वराट् ।
श्र॒त्वानुभावं ब्रह्मर्षेविस्मयं समगात्परम् ॥
३१॥
इृष्टा--देख कर; निस्तेजसम्--अपनी शक्ति से रहित; कामम्--कामदेव को; स-गणम्--उसके संगियों समेत;भगवान्-शक्तिमान प्रभु; स्व-राट्--इन्द्र ने; श्रुत्वा--सुन कर; अनुभावम्--प्रभाव; ब्रह्म-ऋषे: --ब्रह्मर्षि का;विस्मयम्--आश्चर्य को; समगात्--प्राप्त हुआ; परमू--अत्यधिक |
बलशाली इन्द्र ने जब महर्षि मार्कण्डेय की योगशक्ति के विषय में सुना तो उसेअत्यधिक आश्चर्य हुआ।
उसने देखा कि किस तरह कामदेव तथा उसके संगी महर्षि कीउपस्थिति में शक्तिहीन हो गये थे।
"
तस्यैवं युद्भतश्ित्तं तपःस्वाध्यायसंयमै: ।
अनुग्रहायाविरासीन्नरनारायणो हरि; ॥
३२॥
तस्य--मार्कण्डेय के; एवम्--इस तरह; युद्धत:--स्थिर हुए; चित्तमू--मन को; तपः--तपस्या से; स्वाध्याय--वेदाध्ययनद्वारा; संयमैः--तथा संयम द्वारा; अनुग्रहाय--दया दिखाने के लिए; आविरासीत्--अपने को प्रकट किया; नर-नारायण:--नर तथा नारायण के रूप में; हरि:--भगवान् ने।
सन्त स्वभाव वाले मार्कण्डेय पर, जिन्होंने तपस्या, वेदाध्ययन तथा संयम के द्वाराआत्म-साक्षात्कार में अपने मन को पूरी तरह स्थिर कर लिया था, अपनी दया दिखलाने कीइच्छा से भगवान् उनके समक्ष नर तथा नारायण रूपों में प्रकट हुए।
"
तौ शुक्लकृष्णौ नवकझ्जलोचनौचतुर्भुजौ रौरबवल्कलाम्बरौ ।
पवित्रपाणी उपवीतकं त्रिवृत्कमण्डलुं दण्डमृजुं च वैणवम् ॥
३३॥
पद्माक्षमालामुत जन्तुमार्जनंवेदं च साक्षात्तप एव रूपिणौ ।
तपत्तडिद्वर्णपिशड्ररोचिषाप्रांशू दधानौ विबुधर्षभार्चितो ॥
३४॥
तौ--वे दोनों; शुक्ल-कृष्णौ--एक गोरा तथा दूसरा काला; नव-कञ्ञ--खिले कमल के फूल के समान; लोचनौ--आँखों वाले; चतुः-भुजौ--चार भुजाओं वाले; रौरव--काला मृगचर्म; वल्कल--तथा पेड़ की छाल; अम्बरौ--वस्त्रों केरूप में; पवित्र--अत्यन्त पवित्र करने वाले; पाणी--हाथों वाले; उपवीतकम्--जनेऊ; त्रि-वृत्--तीन लड़ों वाले;'कमण्डलुमू--जलपात्र, कमण्डल; दण्डम्--डण्डा, लाठी; ऋजुम्--सीधा; च--तथा; वैणवम्--बाँस का बना; पद्म-अक्ष--कमल के बीजों की; मालामू--जपमाला; उत--तथा; जन्तु-मार्जमम्--सारे जीवों को शुद्ध बनाने वाले; वेदम्--वेदों को ( दर्भ के पुंजों से प्रदर्शित); च--तथा; साक्षात्-- प्रत्यक्ष; तप:--तपस्या; एव--निस्सन्देह; रूपिणौ--साक्षात्;तपत्--जलते हुए; तडित्--बिजली; वर्ण--रंग; पिशड्र-- पीला; रोचिषा--तेज से; प्रांशु--अत्यन्त लम्बे; दधानौ--पहनेहुए; विबुध-ऋषभ--देवताओं में प्रमुख; अर्चितौ--पूजति।
उनमें से एक गोरे वर्ण का और दूसरा साँवला था और उन दोनों के चार-चार बाजू थे।
उनके नेत्र खिले कमल की पत्तियों जैसे थे और वे श्याम मृगचर्म तथा छाल का वस्त्र तथातीन धागों वाला जनेऊ पहने थे।
वे पवित्र करने वाले अपने हाथों में, यती का कमण्डल,सीधे बाँस का लट्ठ और कमल के बीज की जपमाला तथा दर्भ के पुंजों के प्रतीक रूप मेंसबको पवित्र करने वाले वेदों को भी धारण किये हुए थे।
उनका कद लम्बा था और उनकापीला तेज चमकती बिजली के रंग का था।
वे साक्षात् तपस्या की मूर्ति रूप में प्रकट हुए थेऔर अग्रणी देवताओं द्वारा पूजे जा रहे थे।
"
ते वै भगवतो रूपे नरनारायणावृषी ।
इष्टोत्थायादरेणोच्चैर्ननामाड्रेन दण्डवत् ॥
३५॥
ते--वे; बै--निस्सन्देह; भगवत:--भगवान् के; रूपे--साकार रूप में; नर-नारायणौ--नर तथा नारायण; ऋषी--दोनोंऋषि; हृष्ठा--देख कर; उत्थाय--खड़े होकर; आदरेण--आदरपूर्वक; उच्चै:--अत्यधिक; ननाम--प्रणाम किया;अड्जेन--अपने पूरे शरीर से; दण्ड-वत्--डंडे की तरहये दोनों मुनि नर तथा नारायण भगवान् के साकार रूप थे।
जब मार्कण्डेय ऋषि ने दोनोंको देखा तो वे तुरन्त उठ खड़े हुए और तब पृथ्वी पर डंडे की तरह गिर कर अतीव आदर सेउन्हें नमस्कार किया।
"
स तत्सन्दर्शनानन्दनिर्व॒तात्मेन्द्रयाशय: ।
हष्टरोमा श्रुपूर्णा क्षो न सेहे तावुदीक्षितुम् ॥
३६॥
सः--वह, मार्कण्डेय; तत्--उनका; सन्दर्शन--दर्शन करने से; आनन्द--आनन््द से; निर्वुत--प्रसन्न; आत्म--जिसकाशरीर; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आशय: --तथा मन; हष्ट--खड़े हुए; रोमा--शरीर के रोएँ; अश्रु-- आँसुओं से; पूर्ण --भरे;अक्ष:--नेत्र; न सेहे--असमर्थ; तौ--दोनों को; उदीक्षितुम्--देख पाने में।
उन्हें देखने से उत्पन्न हुए आनन्द ने मार्कण्डेय के शरीर, मन तथा इन्द्रियों को पूरी तरहतुष्ट कर दिया और उनके शरीर में रोमांच ला दिया और उनके नेत्रों को आँसुओं से भरदिया।
भावविहल होने से मार्कण्डेय उन्हें देख पाने में असमर्थ हो रहे थे।
"
उत्थाय प्राज्जलि: प्रह्न औत्सुक्यादाश्लिषन्निव ।
नमो नम इतीशानौ बभाशे गद्गदाक्षरम् ॥
३७॥
उत्थाय--खड़े होकर; प्राज्ललि:--हाथ जोड़े; प्रह्ः--विनीत; औत्सुक्यात्ू--उत्सुकता के कारण; आश्लिषन्--आलिंगनकरते हुए; इव--मानो; नम: -- नमस्कार; नम: --नमस्कार; इति--इस प्रकार; ईशानौ--दोनों प्रभुओं से; बभाषे--कहा;गदगद-- आनन्द से रुद्ध; अक्षरम्-- अक्षर
सम्मान में हाथ जोड़े खड़े होकर तथा दीनतावश अपना सिर झुकाये मार्कण्डेय कोइतनी उत्सुकता हुई कि उन्हें लगा कि वे दोनों ईश्वरों का आलिंगन कर रहे हैं।
आनन्द से रुद्धहुई वाणी से उन्होंने बारम्बार कहा ' मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ'।
"
'तयोरासनमादाय पादयोरवनिज्य च ।
अर्हणेनानुलेपेन धूपमाल्यैरपूजयत् ॥
३८॥
तयो:--उनको; आसनमू--बैठने का स्थान; आदाय-देते हुए; पादयो: --उनके पैरों को; अवनिज्य--पखार कर; च--तथा; अर्हणेन--उपयुक्त आदरपूर्ण भेंटों से; अनुलेपेन--चन्दन तथा अन्य सुगन्धित द्रव्यों से लेपित करके; धूप-- धूप;माल्यै:--तथा फूल की मालाओं से; अपूजयत्--पूजा की
उन्होंने उन दोनों को आसन प्रदान किया, उनके पैर धोये और तब अर्घ्य, चन्दन-लेप,सुगन्धित तेल, धूप तथा फूल-मालाओं की भेंट चढ़ाकर पूजा की।
"
सुखमासनमासीनौ प्रसादाभिमुखौ मुनी ।
पुनरानम्य पादाभ्यां गरिष्ठाविदमब्रवीत् ॥
३९॥
सुखम्--आराम से; आसनम्--आसनों पर; आसीनौ--बैठे; प्रसाद--दया; अभिमुखौ--देने को उद्यत; मुनी--दो मुनियोंके रूप में भगवान् के अवतारों को; पुनः:--फिर से; आनम्य-- प्रणाम करके; पादाभ्याम्ू--उनके पाँवों पर; गरिष्ठौ--अत्यन्त पूजनीय; इृदम्--यह; अब्नवीत्ू--कहा
मार्कण्डेय ऋषि ने पुनः इन दो पूज्य मुनियों के चरणकमलों पर शीश झुकाया जोसुखपूर्वक बैठे थे और उन पर कृपा करने के लिए उद्यत थे।
तब उन्होंने उनसे इस प्रकारकहा।
"
श्रीमार्कण्डेय उवाचकिं वर्णये तब विभो यदुदीरितो सु:संस्पन्दते तमनु वाड्मनइन्द्रियाणि ।
स्पन्दन्ति वै तनुभूतामजशर्वयो श्रस्वस्थाप्यथापि भजतामसि भावबन्धु: ॥
४०॥
श्री-मार्कण्डेय: उवाच-- श्री मार्कण्डेय ने कहा; किम्ू-- क्या; वर्णये--वर्णन करूँ; तव-- आपके विषय में; विभो--हेसर्वशक्तिमान प्रभु; यत्--जिनसे; उदीरित: --चलाई जाती है; असु:--प्राणवायु; संस्पन्दते--जीवन पाती है; तम् अनु --पीछे-पीछे; वाक्--वाणी की शक्ति; मन:ः--मन; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; स्पन्दन्ति--कार्य करने लगती हैं; वै--निस्सन्देह;तनु-भूताम्--समस्त देहधारी जीवों का; अज-शर्वयो:--ब्रह्मा तथा शिव के स्वामी का; च--भी; स्वस्य--मेरा; अपि--भी; अथ अपि--तो भी; भजताम्--पूजा करने वालों के लिए; असि--हो; भाव-बन्धु: --घनिष्ठ प्रेमी मित्र
श्री मार्कण्डेय ने कहा : 'हे सर्वशक्तिमान प्रभु, भला मैं आपका वर्णन कैसे करसकता हूँ?' आप प्राणवायु को जागृत करते हैं, जो मन, इन्द्रियों तथा वाक्-शक्ति कोकार्य करने के लिए प्रेरित करती है।
यह सारे सामान्य बद्धजीवों पर, यहाँ तक कि ब्रह्मातथा शिव जैसे महान् देवताओं पर भी, लागू होता है।
अतएवं यह निस्सन्देह, मेरे लिए भीसही है।
तो भी, आप अपनी पूजा करने वालों के घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं।
"
मूर्ती इमे भगवतो भगवंस्त्रिलोक्या:क्षेमाय तापविरमाय च मृत्युजित्यै ।
नाना बिभर्ष्यवितुमन्यतनूर्यथेदंसृष्ठरा पुनर्ग्रससि सर्वमिवोर्णनाभि: ॥
४१॥
मूर्ती--दो साकार रूप; इमे--ये; भगवत:-- भगवान् के; भगवनू--हे प्रभु; त्रि-लोक्या:--तीनों लोकों के; क्षेमाय--कल्याण के लिए; ताप--भौतिक कष्ट की; विरमाय--समाप्ति के लिए; च--तथा; मृत्यु--मृत्यु पर; जित्ये--विजय केलिए; नाना--विविध; बिभर्षि-- प्रकट करते हो; अवितुम्--रक्षा करने के लिए; अन्य--अन्य; तनू:--दिव्य शरीर;यथा--जिस तरह; इृदम्--इस ब्रह्माण्ड को; सृघ्ठा--उत्पन्न करके; पुनः --एक बार फिर; ग्रससि--निगल लेते हो;सर्वम्--पूरी तरह; इब--सहश; ऊर्ण-नाभि:--मकड़ा
हे भगवान्, आपके ये दो साकार रूप तीनों जगतों को परम लाभ प्रदान करने केलिए--भौतिक कष्ट की समाप्ति तथा मृत्यु पर विजय के लिए--प्रकट हुए हैं।
हे प्रभु,यद्यपि आप इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और इसकी रक्षा करने के लिए नाना प्रकार केदिव्य रूप धारण करते हैं, किन्तु आप इसे निगल भी लेते हैं जिस तरह मकड़ी पहले जालबुनती है और बाद में उसे निगल जाती है।
"
तस्यावितु: स्थिरचरेशितुरड्प्रिमूलंयत्स्थं न कर्मगुणकालरज: स्पृशन्ति ।
यद्वै स्तुवन्ति निनमन्ति यजन्त्यभीक्ष्णंध्यायन्ति वेदहदया मुनयस्तदाप्त्ये ॥
४२॥
तस्थ--उसका; अवितु:--रक्षक; स्थिर-चर--अचर तथा चर प्राणी; ईशितु:--परम नियन्ता; अद्धघ्रि-मूलम्--उनकेचरणकमलों के तलवे; यत्-स्थम्--जिस पर स्थित है; न--नहीं; कर्म-गुण-काल--भौतिक कर्म, भौतिक गुणों तथाकाल का; रज:--दूषण; स्पृशन्ति--छूते हैं; यत्--जिसको; बै--निस्सन्देह; स्तुवन्ति-- प्रशंसा करते हैं; निनमन्ति--नमनकरते हैं; यजन्ति--पूजा करते हैं; अभीक्ष्णम्--हर क्षण; ध्यायन्ति-- ध्यान करते हैं; वेद-हृदया:--जिन्होंने वेदों काआत्मसात् कर लिया है; मुनयः--मुनिगण; तत्-आप्त्यै--उन्हें प्राप्त करने के उद्देश्य से |
चूँकि आप सारे चर तथा अचर प्राणियों के रक्षक तथा परम नियन्ता हैं, इसलिए जो भीआपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है, उसे भौतिक कर्म, भौतिक गुण या काल केदूषण छू तक नहीं सकते।
जिन महर्षियों ने वेदों के अर्थ को आत्मसात् कर रखा है, वेआपकी स्तुति करते हैं।
आपका सात्निध्य प्राप्त करने के लिए वे हर अवसर पर आपकोनमस्कार करते हैं, निरन्तर आपको पूजते हैं और आपका ध्यान करते हैं।
"
नान््यं तवाड्ढयुपनयादपवर्गमूर्ते:क्षेमं जनस्य परितोभिय ईश विदा: ।
ब्रह्मा बिभेत्यलमतो द्विपरार्धश्िष्ण्य:कालस्य ते किमुत तत्कृतभौतिकानाम् ॥
४३॥
न अन्यमू--अन्य नहीं; तब--तुम्हारे; अड्घ्रि--चरणकमलों के; उपनयात्--प्राप्ति की अपेक्षा; अपवर्ग-मूर्ते:--जोसाक्षात् मोक्ष हैं; क्षेममू--लाभ; जनस्थ--पुरुष के लिए; परितः--सभी दिशाओं में; भिय:-- भयभीत; ईश--हे ईश्वर;विद्य:--हम जानते हैं; ब्रह्मा-- ब्रह्मा; बिभेति-- भयभीत रहता है; अलम्-- अत्यधिक; अत:--इस कारण से; द्वि-परार्ध--ब्रह्माण्ड की पूरी अवधि; धिष्णय:--शासनकाल; कालस्य--काल का; ते--आपका स्वरूप; किम् उत--क्या कहा जाय;ततू-कृत--उस ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न; भौतिकानाम्--संसारी प्राणियों का |
हे प्रभु, ब्रह्म भी, जोकि ब्रह्माण्ड की पूरी अवधि तक अपने उच्च पद का भोग करताहै, काल के प्रवाह से भयभीत रहता है।
तो उन बद्धजीवों के बारे में क्या कहा जाय जिन्हें ब्रह्मा उत्पन्न करते हैं।
वे अपने जीवन के पग-पग पर भयावने संकटों का सामना करते हैं ।
मेंइस भय से छुटकारा पाने के लिए आपके चरणमलों की जोकि साक्षात् मोक्ष स्वरूप हैंशरण ग्रहण करने के सिवाय और कोई साधन नहीं जानता।
"
तद्दै भजाम्यृतधियस्तव पादमूलंहित्वेदमात्मच्छदि चात्मगुरो: परस्य ।
देहाद्यपार्थमसदन्त्यमभिज्ञमात्रविन्देत ते तहिं सर्वमनीषितार्थम् ॥
४४॥
तत्--इसलिए; बै--निस्सन्देह; भजामि--पूजा करता हूँ; ऋत-धिय:--उनकी, जिनकी बुद्धि सदैव सत्य का अनुभवकरती है; तव--तुम्हारे; पाद-मूलम्--चरणकमलों के तलवे; हित्वा--त्याग कर; इृदम्--यह; आत्म-छदि--आत्मा काआवरण; च--तथा; आत्म-गुरो:--आत्म के गुरु का; परस्य--परब्रह्म का; देह-आदि-- भौतिक शरीर तथा अन्य मिथ्याउपाधियाँ; अपार्थम्-व्यर्थ; असत्--अयथार्थ; अन्त्यमू-- क्षणिक; अभिज्ञ-मात्रमू--पृथक् अस्तित्व की कल्पना करके;विन्देत--प्राप्त करता है; ते--आपसे; तहिं--तब; सर्व--सारा; मनीषित--वांछित; अर्थम्-वस्तुएँ
इसलिए मैं भौतिक शरीर तथा उन सारी वस्तुओं से, जो मेरी असली आत्मा को प्रच्छन्नकरती हैं, अपनी पहचान का परित्याग करके आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ।
येव्यर्थ, अयथार्थ तथा क्षिणिक आवरण, आपसे जिनकी बुद्धि समस्त सत्य को समेटने वालीहै, पृथक् कल्पित मात्र किये जाते हैं।
परमेश्वर तथा आत्मा के गुरु स्वरूप आपको प्राप्तकरके मनुष्य प्रत्येक वांछित वस्तु प्राप्त कर लेता है।
"
सत्त्वं रजस्तम इतीश तवात्मबन्धोमायामया: स्थितिलयोदयहेतवोस्य ।
लीला धृता यदपि सत्त्वमयी प्रशान्त्यैनान्ये नृणां व्यसनमोहभियश्च याभ्याम् ॥
४५॥
सत्त्वम्--सतो; रज:--रजो; तम:--तमो; इति--इस प्रकार कहलाने वाले गुण; ईश--हे ईश्वर; तब--तुम्हारा; आत्म-बन्धो--हे आत्म के परम मित्र; माया-मया:--आपकी माया से उत्पन्न; स्थिति-लय-उदय--पालन, विनाश तथा सृजन;हेतव:--कारण; अस्य--इस ब्रह्माण्ड के; लीला: --लीलाओं के रूप में; धृता:--कल्पित; यत् अपि--यद्यपि; सत्त्व-मयी--सात्विक; प्रशान्त्यै--मोक्ष के लिए; न--नहीं; अन्ये--अन्य दो; नृणाम्--मनुष्यों के लिए; व्यसन--खतरा;मोह--मोह; भिय:--तथा भय; च-- भी; याभ्यामू--जिससे |
हे प्रभु, हे बद्धजीव के परम मित्र, यद्यपि इस जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार के लिए आप सतो, रजो तथा तमोगुणों को जो आपकी मायाशक्ति हैं, स्वीकार करते हैं ? किन्तुबद्धजीवों को मुक्त करने के लिए आप सतोगुण का प्रयोग करते हैं।
अन्य दो गुण उनकेलिए कष्ट, मोह तथा भय लाने वाले हैं।
"
तस्मात्तवेह भगवन्नथ तावकानांशुक््लां तनुं स््वदयितां कुशला भजन्ति ।
यत्सात्वता: पुरुषरूपमुशन्ति सत्त्वंलोको यतोभयमुतात्मसुखं न चान्यत् ॥
४६॥
तस्मात्ू--इसलिए; तव--तुम्हारा; हह--इस जगत में; भगवन्--हे भगवान्; अथ--तथा; तावकानाम्--आपके भक्तों के;शुक्लाम्-दिव्य; तनुम्--स्वरूप को; स्व-दयिताम्--अत्यन्त प्रिय; कुशला:--आध्यात्मिक ज्ञान में दक्ष; भजन्ति--पूजाकरते हैं; यत्--क्योंकि; सात्वता:--महान् भक्तगण; पुरुष-- आदि भगवान् के; रूपम्--स्वरूप को; उशन्ति--मानते हैं;सत्त्वमू--सतोगुण; लोक:--आध्यात्मिक जगत; यत:--जिससे; अभयमू--निर्भीकता; उत--तथा; आत्म-सुखम्--आत्मा का सुख; न--नहीं; च--तथा; अन्यत्--अन्य कोई ॥
हे प्रभु, चूँकि निर्भीकता, आध्यात्मिक सुख तथा भगवद्धाम--ये सभी सतोगुण के द्वाराही प्राप्त किये जाते हैं इसलिए आपके भक्त इसी गुण को आपकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति मानतेहैं, रजो तथा तमोगुण को नहीं।
इस तरह बुद्धिमान व्यक्ति आपके प्रिय दिव्य रूप को,जोकि शुद्ध सत्व से बना होता है, आपके शुद्ध भक्तों के आध्यात्मिक स्वरूपों के साथ पूजाकरते हैं।
"
तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्नेविश्वाय विश्वगुरवे परदैवताय ।
नारायणाय ऋषये च नरोत्तमायहंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय ॥
४७॥
तस्मै--उस; नम:ः--मेरा नमस्कार; भगवते--भगवान् को; पुरुषाय--परम पुरुष; भूम्ने--सर्वव्यापी; विश्वाय--ब्रह्माण्डके समस्त स्वरूप; विश्व-गुरवे--ब्रह्माण्ड के गुरु; पर-दैवताय--परम पूज्य देव; नारायणाय--नारायण को; ऋषये--ऋषि; च--तथा; नर-उत्तमाय-- पुरुषों में श्रेष्ठ; हंसाय--नितान्त शुद्ध; संयत-गिरे--संयमित वाणी वाले; निगम-ईश्वराय--वैदिक शास्त्रों के स्वामी |
मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ।
वे ब्रह्माण्ड के सर्वव्यापक तथा सर्वस्व हैंऔर उसके गुरु भी हैं।
मैं भगवान् नारायण को नमस्कार करता हूँ जो ऋषि के रूप में प्रकटहोने वाले परम पूज्य देव हैं।
मैं सन्त स्वभाव वाले नर को भी नमस्कार करता हूँ जो मनुष्योंमें सर्वश्रेष्ठ हैं, जो पूर्ण सात्विक हैं, जिनकी वाणी संयमित है और जो वैदिक ग्रन्थों केप्रचारक हैं।
"
यं वै न वेद वितथाक्षपथे भ्र॑मद्धी:सन्तं स्वकेष्वसुषु हृद्यपि हक््पथेषु ।
तन्माययावृतमति:ः सउ एव साक्षा-दाद्यस्तवाखिलगुरोरुपसाद्य वेदम् ॥
४८ ॥
यम्--जिसको; बै--निस्सन्देह; न वेद--नहीं पहचानते; वितथ-- धोखेबाज; अक्ष-पथै: --काल्पनिक अनुभूति कीविधियों द्वारा; भ्रमत्-घुमाया जाकर; धी:--जिसकी बुद्धि; सन््तम्--उपस्थित; स्वकेषु-- अपने ही भीतर; असुषु--इन्द्रियों में; हंदि--हृदय के भीतर; अपि-- भी; हक्ू-पथेषु--बाह्य जगत की दृश्य वस्तुओं में; तत्ू-मायया--उसकी मायासे; आवृत--ढकी; मति:--ज्ञान; सः--वह; उ-- भी; एव--ही; साक्षात्- प्रत्यक्ष; आद्य:ः--मूल रूप से ( अज्ञान में );तव--तुम्हारा; अखिल-गुरो:--सारे जीवों के गुरु; उपसाद्य--प्राप्त करके; वेदम्--वेदों का ज्ञान
भौतिकतावादी की बुद्धि उसकी धोखेबाज इन्द्रियों की क्रिया से विकृत रहती है,इसलिए वह आपको तनिक भी पहचान नहीं पाता यद्यपि आप उसकी इन्द्रियों तथा हृदय मेंऔर उसकी अनुभूति की वस्तुओं में सदेव विद्यमान रहते हैं।
मनुष्य का ज्ञान आपकी मायासे आवृत होते हुए भी, यदि वह, सबों के गुरु आपसे, वैदिक ज्ञान प्राप्त करता है, तो वहआपको प्रत्यक्ष रूप से समझ सकता है।
"
यहर्शनं निगम आत्मरहःप्रकाशंमुह्ान्ति यत्र कबयोजपरा यतन्तः ।
तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलंवबन्दे महापुरुषमात्मनिगूढबोधम् ॥
४९॥
यत्--जिसका; दर्शनमू--दर्शन; निगमे--वेदों में; आत्म--परमात्मा का; रह:--रहस्य; प्रकाशम्--प्रकाशित करता है;मुहान्ति--मोहित हो जाते हैं; यत्र--जिसमें; कवय: --बड़े बड़े विद्वान; अज-परा:--ब्रह्मा इत्यादि; यतन्त:--यत्न करतेहुए; तमू--उसको; सर्व-वाद--विभिन्न दर्शनों का; विषय--विषय; प्रतिरूप-- अपने को उपयुक्त बनाकर; शीलम्--जिसका निजी स्वभाव; वन्दे--नमस्कार करता हूँ; महा-पुरुषम्-- भगवान् को; आत्म--आत्मा से; निगूढ--छिपा हुआ;बोधमू--ज्ञान |
हे प्रभु, केवल वैदिक ग्रंथ ही आपके परम स्वरूप का गुह्म ज्ञान प्रकट करने वाले हैं,अतएव भगवान् ब्रह्मा जैसे महान् विद्वान भी आगमन विधियों द्वारा आपको समझने केप्रयास में मोहित हो जाते हैं।
हर दार्शनिक अपने विशेष चिन्तनपरक निष्कर्ष के अनुसारआपको समझता है।
मैं उन परम पुरुष की पूजा करता हूँ जिनका ज्ञान बद्धात्माओं केआध्यात्मिक स्वरूप को आवृत करने वाली शारीरिक उपाधियों से छिपा हुआ है।
"
अध्याय नौ: मार्कण्डेय ऋषि भगवान की मायावी शक्ति को देखते हैं
12.9सूत उबाचसंस्तुतो भगवानित्थ॑ मार्कण्डेयेन धीमता ।
नारायणो नरसख: प्रीतआह भृगूद्ठहम् ॥
१॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; संस्तुतः--भलीभाँति स्तुति किये जाने पर; भगवान्--भगवान्; इत्थम्--इस तरह;मार्कण्डेयेन--मार्कण्डेय द्वारा; धी-मता--बुद्धिमान मुनि; नारायण: --नारायण; नर-सख: --नर के मित्र; प्रीत:--प्रसन्न;आह--बोले; भृगु-उद्दहम्--अत्यन्त प्रसिद्ध भूगुवंशी से |
सूत गोस्वामी ने कहा : नर के मित्र, भगवान् नारायण, बुद्धिमान मुनि मार्कण्डेय द्वाराकी गई उपयुक्त स्तुति से तुष्ट हो गये।
अतः बे उन श्रेष्ठ भूगवंशी से बोले।
"
श्रीभगवानुवाचभो भो ब्रह्मर्षिवर्योउसि सिद्ध आत्मसमाधिना ।
मयि भक्त्यानपायिन्या तपःस्वाध्यायसंयमैः ॥
२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; भो: भो:--हे मुनि; ब्रह्य-ऋषि--समस्त विद्वान ब्राह्मणों में; वर्य:-- श्रेष्ठ असि--हो; सिद्ध:--सिद्ध; आत्म-समाधिना--आत्मा पर स्थिर ध्यान से; मयि--मुझमें; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; अनपायिन्या--अविचल; तपः--तपस्या; स्वाध्याय--वेदाध्ययन; संयमै:--तथा विधि-विधानों द्वारा।
भगवान् ने कहा : हे मार्कण्डेय, तुम सचमुच ही समस्त दिद्वान ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हो।
तुमने परमात्मा पर ध्यान स्थिर करके तथा अपनी अविचल भक्ति, अपनी तपस्या, अपनेवेदाध्ययन एवं विधि-विधानों के प्रति अपनी तत्परता मुझ पर केन्द्रित करते हुए, अपनेजीवन को सफल बना लिया है।
"
वबयं ते परितुष्टा: सम त्वद्ुहद्व्रतचर्यया ।
वरं प्रतीच्छ भद्गरं ते वरदोस्मि त्वदीप्सितम् ॥
३॥
वयम्--हम; ते--तुमसे; परितुष्टा:--पूर्णतया तुष्ट; स्म--हो चुके हैं; त्वत्--तुम्हारा; बृहत्-ब्रत-- आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतकी; चर्यया--सम्पन्नता द्वारा; वरमू--वर; प्रतीच्छ--चुनो; भद्रमू--कल्याण हो; ते--तुम्हारा; वर-दः--वर देने वाले;अस्मि--मैं हूँ; त्वत्-ईप्सितम्--आपके द्वारा चाहा हुआ।
हम तुम्हारे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत से पूर्णतया तुष्ट हैं।
अब जो वर चाहो, चुन लो क्योंकिमैं तुम्हारी इच्छा पूरी कर सकता हूँ।
तुम समस्त सौभाग्य का भोग करो।
"
श्रीऋषिरुवाचजितं ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराच्युत ।
वरेणैतावतालं नो यद्धवान्समहश्यत ॥
४॥
श्री-ऋषि: उवाच--ऋषि ने कहा; जितम्--विजयी हों; ते--आप; देव-देव-ईश--हे ईशों के भी ईश; प्रपन्न--शरणागत;आर्ति-हर-हे कष्टों को दूर करने वाले; अच्युत--हे अच्युत; बरेण--वर से; एतावता--इतना; अलमू--पर्याप्त; न: --हमारे द्वारा; यत्ू--जो; भवान्-- आपने; समहश्यत--देखे जा चुके |
ऋषि ने कहा : हे देव-देवेश, आपकी जय हो।
हे अच्युत, आप उन भक्तों का सारा कष्टदूर कर देते हैं, जो आपके शरणागत हैं।
आपने मुझे अपना दर्शन करने की अनुमति दी,यही मेरे द्वारा चाहा गया वर है।
"
गृहीत्वाजादयो यस्य श्रीमत्पादाब्जदर्शनम् ।
मनसा योगपकक््वेन स भवान्मेडक्षिगोचर: ॥
५॥
गृहीत्वा--पाकर; अज-आदय:--ब्रह्मा तथा अन्य; यस्य--जिसके; श्रीमत्--सर्व ऐश्वर्यवान्; पाद-अब्ज--चरणकमलोंका; दर्शनम्-दर्शन; मनसा--मन से; योग-पक्वेन--योग में परिपक्व; सः--वह; भवान्ू--आप; मे--मेरी; अक्षि--आँखों को; गो-चर:--दृश्य
ब्रह्मा जैसे देवताओं ने आपके सुन्दर चरणकमलों का दर्शन करके ही उच्च पद प्राप्तकिया क्योंकि उनके मन योगाभ्यास से परिपक्व हो चुके थे।
और हे प्रभु, अब आप मेरेसमक्ष साक्षात् प्रकट हुए हैं।
"
अथाप्यम्बुजपत्राक्ष पुण्यश्लोकशिखामणे ।
द्रक्ष्य मायां यया लोक: सपालो वेद सद्धिदाम् ॥
६॥
अथ अपि--तो भी; अम्बुज-पत्र--कमल की पंखड़ियों जैसी; अक्ष--आँखों वाले हे; पुण्य-शलोक--प्रसिद्ध पुरुषों के;शिखामणे--हे शिरोमणि; द्रक्ष्ये--मैं देखना चाहता हूँ; मायाम्--मायाशक्ति को; यया--जिससे; लोक:--सम्पूर्ण जगत;स-पाल:ः--अधिष्ठाता देवताओं सहित; बेद--मानता है; सत्--परम सत्य का; भिदाम्-- भौतिक अन्तर
हे कमलनयन, हे विख्यात पुरुषों के शिरोमणि, यद्यपि मैं मात्र आपका दर्शन करके तुष्टहूँ किन्तु मैं आपकी मायाशक्ति को देखना चाहता हूँ जिसके प्रभाव से सम्पूर्ण जगत तथाउसके अधिष्ठाता देवता सत्य को भौतिक दृष्टि से विविधतापूर्ण मानते हैं।
"
सूत उबाचइतीडितोरचिंत: काममृषिणा भगवान्मुने ।
तथेति स स्मय-न्प्रागाद्गदर्या श्रममी श्वर: ॥
७॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इन शब्दों द्वारा; ईंडित:--स्तुति किये गये; अर्चित: --पूजित; कामम्--संतोषजनक रूप से; ऋषिणा--मार्कण्डेय ऋषि द्वारा; भगवान्-- भगवान्; मुने--हे विज्ञ शौनक; तथा इति--तथास्तु,ऐसा ही हो; सः--वह; स्मयन्--मुसकाते हुए; प्रागातू--चले गये; बदरी-आश्रमम्--बदरिका श्रम; ई श्वरः-- भगवान्
सूत गोस्वामी ने कहा : हे विज्ञ शौनक, मार्कण्डेय की स्तुति तथा पूजा से इस तरह तुष्ठहुए भगवान् ने हँसते हुए उत्तर दिया 'तथास्तु' और तब बदरिकाश्रम स्थित अपनी कुटियाचले गये।
"
तमेव चिन्तयन्नर्थमृषि: स्वाश्रम एवं सः ।
वसन्नग्न्यर्कसोमाम्बुभूवायुवियदात्मसु ॥
८॥
ध्यायन्सर्वत्र च हरिं भावद्रव्यैरपूजयत् ।
क्वचित्पूजां विसस्मार प्रेमप्रसरसम्प्लुत: ॥
९॥
तम्--उस; एव--निस्सन्देह; चिन्तयन्--सोचते हुए; अर्थम्--लक्ष्य को; ऋषि: --मार्कण्डेय; स्व-आश्रमे-- अपनीकुटिया में; एब--निस्सन्देह; सः--वह; वसन्--रहते हुए; अग्नि--अग्नि; अर्क--सूर्य; सोम--चन्द्रमा; अम्बु--जल;भू--पृथ्वी; वायु--हवा; वियत्--बिजली; आत्मसु--तथा अपने हृदय में; ध्यायन्-- ध्यान करते हुए; सर्वत्र--सभीपरिस्थितियों में; च--तथा; हरिम्-- भगवान् हरि को; भाव-द्रव्यै:--मन में कल्पित साज-सामग्री से; अपूजयत्--पूजाकी; क्वचित्--कभी; पूजाम्-पूजा; विसस्मार-- भूल गया; प्रेम--ई ध्वर-प्रेम की; प्रसर--बाढ़ में; सम्प्लुत:--डूब जानेसे।
मार्कण्डेय ऋषि, भगवान् की माया का दर्शन करने की इच्छा के विषय में सदैव सोचतेहुए, अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, बिजली से तथा अपने हृदय में भगवान् कानिरन्तर ध्यान करते हुए और अपने मन में कल्पित साज-सामग्री से उनकी पूजा करते हुए,अपने आश्रम ( कुटिया ) में रहते रहे।
किन्तु कभी कभी भगवत्प्रेम की तरंगों से अभिभूतहोकर वे नियमित पूजा करना भूल जाते।
"
तस्यैकदा भूृगुश्रेष्ठ पुष्पभद्रातटे मुने: ।
उपासीनस्य सब्ध्यायां ब्रह्मन्वायुरभून्महान् ॥
१०॥
तस्थ--जब वह; एकदा--एक दिन; भृगु-श्रेष्ठ-हे भृगुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ; पुष्पभद्रा-तटे--पुष्पभद्रा नदी के तट पर;मुने;:--मुनि के; उपासीनस्य--पूजा कर रहे थे; सन्ध्यायामू--दिन की संधि पर; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; वायु:--वायु;अभूत्--चलने लगी; महान्ू--तेज |
हे ब्राह्मण शौनक, हे भृगुश्रेष्ठ एक दिन जब मार्कण्डेय पुष्पभद्रा नदी के तट परसंध्याकालीन पूजा कर रहे थे तो सहसा तेज वायु चलने लगी।
"
तं चण्डशब्दं समुदीरयन्तंबलाहका अन्वभवन्कराला: ।
अक्षस्थविष्टा मुमुचुस्तडिद्धिः स्वनन्त उच्चैरभि वर्षधारा: ॥
११॥
तम्--वह वायु; चण्ड-शब्दम्--भयंकर शब्द; समुदीरयन्तम्--उत्पन्न करता हुआ; बलाहका:--बादल; अनु--पीछे-पीछे; अभवन्--प्रकट हुए; कराला:-- भयानक ; अक्ष--पहिये की तरह; स्थविष्ठा:--ठोस; मुमुचु:--छोड़ा; तडिद्ध्धि:--बिजली के साथ; स्वनन्तः--गूँजते; उच्चै:--तेज; अभि--सभी दिशाओं ; वर्ष--वर्षा की; धारा:--धारा
उस वायु ने भयंकर शब्द उत्पन्न किया और अपने साथ भयावने बादल लेती आईजिनके साथ बिजली तथा गर्जना थी और जिन्होंने सभी दिशाओं में गाड़ी के पहियों जितनीभारी मूसलाधार वर्षा की।
"
ततो व्यदृश्यन्त चतुः समुद्रा:समन्ततः क्ष्मातलमाग्रसन्त: ।
समीरवेगोर्मिभिरुग्रनक्र -महाभयावर्तगभीरघोषा: ॥
१२॥
ततः--तब; व्यहृश्यन्त--प्रकट हुए; चतुः समुद्र:--चार सागर; समन्तत:--सभी दिशाओं में; क्ष्मा-तलम्--पृथ्वी की सतहपर; आग्रसन्त:--निगलते हुए; समीर--वायु का; वेग--वेग; ऊर्मिभि:--लहरों से; उग्र-- भयंकर; नक्र--मगरों से; महा-भय--अ त्यन्त भयावह; आवर्त--भँवरों से; गभीर--गम्भीर; घोषा:--शब्द |
तब सभी दिशाओं में चार महासागर प्रकट हो गये जो वायु से उछाली गई लहरों सेपृथ्वी की सतह को निगल रहे थे।
इन महासागरों में भयानक मगर थे, भयानक भँवरें थींतथा अमांगलिक-गर्जन हो रहा था।
"
अन्तर्ब॑हिश्वाद्धिरतिद्युभि: खरैःशतहृदाभिरुपतापितं जगत् ।
चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनि-ज॑लाप्लुतां क्ष्मां विमना: समत्रसत् ॥
१३॥
अन्त:ः--भीतर से; बहि:--बाहर से; च--तथा; अद्धि:--जल से; अति-द्युभि:--आकाश से भी ऊपर उठती; खरै:--प्रचण्ड ( वायु से ); शत-हृदाभि:--बिजली की चमक से; उपतापितम्--अत्यन्त दुखी; जगत्--ब्रह्माण्ड के सारे निवासी;चतु:-विधम्--चार प्रकार के ( उद्भिज, अण्डज, स्वेदज, जरायुज ); वीक्ष्य--देख कर; सह--साथ; आत्मना--अपने;मुनि:--मुनि; जल--जल से; आप्लुताम्--आप्लावित; क्ष्माम्--पृथ्वी; विमना:--उदास; समत्रसत्--डर गया।
ऋषि ने अपने सहित ब्रह्माण्ड के सारे निवासियों को देखा जो तेज वायु, बिजली केवज्पात तथा आकाश से भी ऊपर तक उठने वाली बड़ी-बड़ी लहरों से भीतर और बाहर सेसताये जा रहे थे।
ज्योंही सारी प्रथ्वी जलमग्न हो गई, वे उदास तथा भयभीत हो उठे।
"
तस्यैवमुद्वीक्षत ऊर्मिभीषण:प्रभझनाघूर्णितवार्महार्णव: ।
आपूर्यमाणो वरषद्धिरम्बुदे:क्ष्मामप्यधादद्वीपवर्षाद्रिभि: समम् ॥
१४॥
तस्य--जब वे; एवम्--इस तरह; उद्दीक्षत:--देख रहे थे; ऊर्मि-- लहरें; भीषण: -- भयावनी; प्रभञझन--अंधड़ से;आधघूर्णित--चक्कर काटता; वा:--जल; महा-अर्णव: --महासागर; आपूर्यमान: -- भर कर; वरषद्धि:--वर्षा से; अम्बु-दैः--बादलों से; क्ष्माम्-पृथ्वी को; अप्यधात्ू--ढक लिया; द्वीप--द्वीप; वर्ष--महाद्वीप; अद्विभि:--पर्वतों को; समम्--एकसाथ
मार्कण्डेय के देखते-देखते बादल से हो रही वर्षा समुद्र को भरती रही जिससे महासागरके जल ने अंधड़ द्वारा भयानक लहरों के उठने से पृथ्वी के द्वीपों, पर्वतों तथा महाद्वीपों कोढक लिया।
"
सक्ष्मान्तरिक्षं सदिवं सभागणंत्रैलोक्यमासीत्सह दिग्भिराप्लुतम् ।
स एक एवोर्वरितो महामुनि-बैश्राम विक्षिप्पय जटा जडान्धवत् ॥
१५॥
स--सहित; क्ष्मा--पृथ्वी; अन्तरिक्षम्--तथा बाह्य अवकाश; स-दिवम्--स्वर्गलोकों सहित; स-भा-गणम्--समस्तस्वर्गिक पिंडों समेत; त्रै-लोक्यम्--तीनों लोकों; आसीत्--हो गया; सह--सहित; दिग्भि:--सारी दिशाएँ; आप्लुतम्--जल से मग्न; सः--वह; एक:--अकेला; एव--निस्सन्देह; उर्वरित:--बचे हुए; महा-मुनिः--महामुनि; बच्राम--घूमतारहा; विक्षिप्प--छितराये; जटा:--अपनी जटाएँ; जड--मूक व्यक्ति; अन्ध--अच्धा व्यक्ति; बत्--सहश |
जल ने पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग तथा स्वर्ग-क्षेत्र को आप्लावित कर दिया।
निस्सन्देह,सारा ब्रह्माण्ड सभी दिशाओं में जलमग्न था और उसके सारे निवासियों में से एकमात्रमार्कण्डेय ही बचे थे।
उनकी जटाएँ छितरा गई थीं और ये महामुनि जल में अकेले इधर-उधर घूम रहे थे मानो मूक तथा अंधे हों।
"
क्षुत्तटूपरीतो मकरैस्तिमिड्रिलै-रुपद्गरुतो वीचिनभस्वताहत: ।
तमस्यपारे पतितो भ्रमन्दिशोन वेद खं गां च परिश्रमेषित: ॥
१६॥
क्षुतू-- भूख; तृटू--तथा प्यास से; परीत:--घिरे हुए; मकरैः--मकरें द्वारा; तिमिड्रिलै:ः--तथा तिमिंगलों अर्थात् ह्ेल कोभी खा जाने वाली विशाल मछली के द्वारा; उपद्रुतः--सताये हुए; वीचि--लहरों; नभस्वता--तथा वायुद्वारा; आहत: --सताये हुए; तमसि--अंधकार में; अपारे-- असीम; पतित:--गिरे हुए; भ्रमन्--घूमते हुए; दिश:--दिशाएँ; न वेद--ज्ञाननहीं रहा; खम्--आकाश; गाम्ू--पृथ्वी; च--तथा; परिश्रम-इषित:--थका हुआ।
भूख-प्यास से सताये, देत्याकार मकरों तथा विमिंगिल मछलियों द्वारा हमला किये गयेतथा वायु और लहरों से त्रस्त, वे उस अपार अंधकार में निरुद्देश्य घूमते रहे जिसमें वे गिरचुके थे।
जब वे अत्यधिक थक गये तो उन्हें दिशाओं की सुधि न रही और वे आकाश तथापृथ्वी में भेद नहीं कर पा रहे थे।
"
क्रचिन्मग्नो महावर्ते तरलैस्ताडित: क्वचित् ।
यादोभिर्भक्ष्यते क्वापि स्वयमन्योन्यघातिभि: ॥
१७॥
क्वचिच्छोक॑ क्वचिन्मोहं क्वचिद्दु:खं सुखं भयम् ।
क्वचिम्मृत्युमवाष्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दित: ॥
१८॥
क्वचित्--कभी; मग्न: --डूबते हुए; महा-आवर्ते-- भारी भँवर में; तरलै: --लहरों से; ताडित:--थपेड़े खाकर;क्वचित्--कभी; यादोभि: -- जल-जन्तुओं द्वारा; भक्ष्यते--खाये जाने से आशंकित; क्व अपि--क भी; स्वयम्--स्वयं;अन्योन्य--परस्पर; घातिभि: --आक्रमण करते हुए; क्वचित्--क भी; शोकम्-- उदासी; क्वचित्--क भी; मोहम्--मोह;क्वचित्--कभी; दुःखम्--कष्ट; सुखम्--सुख; भयम्-- भय; क्वचित्--कभी; मृत्युम्ू--मृत्यु; अवाष्नेति-- अनुभवकरता; व्याधि-- रोग; आदिभि:--इत्यादि से; उत-- भी; अर्दित:--पीड़ित |
कभी वे भारी भँवर में फँस जाते, कभी प्रबल लहरों के थपेड़े खाते, कभी जल-दैत्योंके परस्पर आक्रमण करने पर उनके द्वारा निगले जाने से आशंकित हो उठते।
कभी उन्हेंशोक, मोह, दुख, सुख या भय का अनुभव होता तो कभी उन्हें ऐसी भयानक बीमारी तथापीड़ा का अनुभव होता जैसे कि वे मरे जा रहे हों।
"
अयुतायतवर्षाणां सहस्त्राणि शतानिच ।
व्यतीयुर्भ्रमतस्तस्मिन्विष्णुमायावृतात्मन: ॥
१९॥
अयुत--दस हजार का; अयुत--दस हजार गुणा; वर्षाणाम्-वर्षो के; सहस्त्राणि--हजारों; शतानि--सैकड़ों; च--तथा;व्यतीयु:--बीत गये; भ्रमतः--विचरण करते हुए; तस्मिन्--उसमें; विष्णु-माया--भगवान् विष्णु की माया से; आवृत--आच्छादित; आत्मन:--मन।
मार्कण्डेय को उस जलप्लावन में इधर-उधर घूमते करोड़ों वर्ष बीत गये; उनका मनभगवान् विष्णु की माया से विमोहित था।
"
स कदाचिदशभ्रमंस्तस्मिन्पृथिव्या: ककुदि द्विज: ।
न्याग्रोधपोत॑ ददशे फलपललवशोभितम् ॥
२०॥
सः--उसने; कदाचित्--एक बार; भ्रमन्--विचरण करते हुए; तस्मिनू--उस जल में; पृथिव्या:--पृथ्वी के; ककुदि--उठेस्थान पर; द्विज:--ब्राह्मण ने; न्याग्रोध-पोतमू--एक छोटा बरगद का पेड़; ददशे--देखा; फल--फलों; पल्लव--तथाकोपलों से; शोभितम्--सुशोभित |
एक बार जल में विचरण करते हुए ब्राह्मण मार्कण्डेय ने एक छोटा टापू ( द्वीप ) देखाजिस पर एक छोटा बरगद का पेड़ खड़ा था जिसमें फल-फूल लगे थे।
"
प्रागुत्तरस्थां शाखायां तस्यापि दहशे शिशुम् ।
शयानं पर्णपुटके ग्रसन्तं प्रभया तम: ॥
२१॥
प्राक्-उत्तरस्थाम्--उत्तर पूर्व की ओर; शाखायाम्--एक शाखा में; तस्य--उस वृक्ष की; अपि--निस्सन्देह; दहशे--देखा;शिशुम्ू--एक शिशु को; शयानमू्--लेटे हुए; पर्ण-पुटके--पत्ते के गर्त के भीतर; ग्रसन््तम्--निगलते हुए; प्रभया--उसके तेज से; तमः--अँधेरा।
उन्होंने उस वृक्ष की उत्तर-पूर्व की एक शाखा में एक पत्ते के भीतर एक शिशु को लेटेदेखा।
इस शिशु का तेज अंधकार को लील रहा था।
"
महामरकतश्यामं श्रीमद्ददनपड्डूजम् ।
कम्बुग्रीवं महोरस्क॑ सुनसं सुन्दरभ्रुवम् ॥
२२॥
श्वासैजदलकाभातं कम्बुश्रीकर्णदाडिमम् ।
विद्युमाधरभासेषच्छोणायितसुधास्मितम् ॥
२३॥
पदागर्भारुणापाडुं हद्दहासावलोकनम् ।
श्रासैजद्ठलिसंविग्ननिम्ननाभिदलोदरम् ॥
२४॥
चार्वड्डुलिभ्यां पाणिभ्यामुन्नीय चरणाम्बुजम् ।
मुखे निधाय विप्रेन्द्रो धयन्तं वीक्ष्य विस्मित: ॥
२५॥
महा-मरकत--महामरकत मणि की तरह; श्यामम्--गहरा नीला; श्रीमत्--सुन्दर; वदन-पड्डजम्--जिसका कमल जैसामुख; कम्बु--शंख जैसा; ग्रीवम्-गर्दन; महा--चौड़ा; उरस्कम्--छाती, वक्षस्थल; सु-नसम्--सुन्दर नाक वाली;सुन्दर- भ्रुवम्--सुन्दर भौंहों वाला; श्रास--उनकी श्वास से; एजत्ू--हिलती; अलक--बाल से; आभातम्--शानदार;कम्बु--शंख जैसा; श्री--सुन्दर; कर्ण--कान; दाडिमम्--अनार के फूल जैसा; विद्वुम--मूँगा जैसा; अधर--होंठों का;भासा--तेज से; ईषत्--कुछ-कुछ; शोणायित--लाल हुआ; सुधा--अमृत जैसी; स्मितम्--मुसकान; पद्मा-गर्भ--कमलके कोश जैसा; अरुण--लाल; अपाड्म्--आँखों के कोर; हृद्य--मनोहर; हास--हँसी से युक्त; अवलोकनम्--मुखमण्डल; श्रास--उनकी श्वास से; एजत्--हिलाया गया; वलि--रेखाओं से; संविग्न--मोड़ी हुई; निम्न--गहरी;नाभि--नाभि से; दल--पत्ते की तरह; उदरम्--जिसका पेट; चारु--आकर्षक; अद्जुलिभ्याम्--अंगुलियों वाले;पाणिभ्याम्--दोनों हाथों से; उन्नीय--उठाते हुए; चरण-अम्बुजम्--अपना चरणकमल; मुखे--मुँह में; निधाय--डालकर; विप्र-इन्द्र:--ब्राह्मण- श्रेष्ठ, मार्कण्डेय; धयन्तम्-पीते हुए; वीक्ष्य--देख कर; विस्मित:--चकित
बालक का गहरा नीला रंग निष्कलंक मरकत जैसा था; उसका कमल मुखमण्डलअपार सौंदर्य के कारण चमक रहा था और उसकी गर्दन में शंख जैसी रेखाएँ थीं।
उसका वक्षस्थल चौड़ा, नाक सुन्दर आकार वाली, भौंहे सुन्दर तथा अनार के फूलों जैसे सुन्दरकान थे जिसके भीतर के वलन शंख के घुमावों जैसे थे।
उसकी आँखों के कोर कमल केकोश जैसे लाल रंग के थे और मूँगे जैसे होठों का तेज उसके मुखमण्डल की सुधामयीमोहनी मुसकान को लाल-लाल बना रहा था।
जब वह साँस लेता, उसके सुन्दर बाल हिलतेथे और गहरी नाभि उसके बरगद के पत्ते जैसे उदर की चमड़ी के हिलते वलनों से विकृतहोती थी।
वह ब्राह्मण-श्रेष्ठ आश्चर्य से उस बालक को देख रहा था, जो अपने एकचरणकमल को अपनी सुन्दर सुन्दर अंगुलियों से पकड़ कर अपने मुँह में डाल कर चूस रहाथा।
"
तहर्शनाद्वीतपरिश्रमो मुदाप्रोत्फुल्लहत्पौल्मविलोचनाम्बुज: ।
प्रहष्टरोमाद्भुतभावशड्डितःप्रष्टें पुरस्तं प्रससार बालकम् ॥
२६॥
तत्-दर्शनातू--उस शिशु का दर्शन करने से; वीत--दूर हो गया; परिश्रम:-- थकान; मुदा--हर्ष के कारण; प्रोत्फुल्ल--खिल उठा; हत्-पद्य--हृदय का कमल; विलोचन-अम्बुज:--तथा उसकी कमल जैसी आँखें; प्रहष्ट--खड़े हो गये;रोमा--शरीर के रोएँ; अद्भुत-भाव--इस अद्भुत रूप की पहचान के बे में; शद्धित:ः--शंकालु; प्रष्टमू--पूछने के लिए;पुरः:--आगे; तम्--उसके; प्रससार--पास गया; बालकम्--बालक के।
जैसे ही मार्कण्डेय ने बालक को देखा उनकी सारी थकान जाती रही।
निस्सन्देह उनकोइतनी अधिक प्रसन्नता हुई कि उनका हृदय तथा उनके नेत्र कमल की भाँति पूरी तरहप्रफुल्लित हो उठे और उन्हें रोमांच हो आया।
इस बालक की अद्भुत पहचान के विषय मेंशंकित मुनि उसके पास पहुँचे।
"
तावच्छिशोर्व श्वसितेन भार्गव:सोडन्तः शरीरं मशको यथाविशत् ।
तत्राप्यदो न्यस्तमचष्ट कृत्स्नशोयथा पुरामुहादतीव विस्मित: ॥
२७॥
तावत्--उसी क्षण; शिशो: --शिशु का; बै--निस्सन्देह; श्रसितेन-- श्वास लेने से; भार्गव:--भूगुवंशी; सः--वह; अन्तःशरीरमू--शरीर के भीतर; मशकः--मच्छर; यथा--जिस तरह; अविशत्--घुस गया; तत्र--वहाँ पर; अपि--निस्सन्देह;अदः--यह ब्रह्माण्ड; न्यस्तम्--रखा हुआ; अचष्ट--उसने देखा; कृत्सनश:--समूचा; यथा--जिस तरह; पुरा--पहले;अमुहात्--विमोहित हो चुका था; अतीव--अत्यधिक; विस्मित:--चकित
तभी उस शिशु ने श्वास ली जिससे मार्कण्डेय मच्छः की तरह उसके शरीर के भीतररिंच गये।
वहाँ पर ऋषि ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रलय के पूर्व की स्थिति में सुव्यवस्थितपाया।
यह देख कर मार्कण्डेय अत्यधिक आश्चर्यचकित तथा मोहग्रस्त हो गए।
"
खं रोदसी भागणानद्विसागरान्द्वीपान्सवर्षान्ककुभः सुरासुरान् ।
बनानि देशान्सरितः पुराकरान्खेटान्ब्रजाना श्रमवर्णवृत्तय: ॥
२८ ॥
महान्ति भूतान्यथ भौतिकान्यसौकालं च नानायुगकल्पकल्पनम् ।
यत्किञ्ञिदन्यद्व्यवहारकारणंददर्श विश्व सदिवावभासितम् ॥
२९॥
खम्--आकाश; रोदसी--स्वर्ग तथा पृथ्वी; भा-गणान्--सारे तारों; अद्वि--पर्वत; सागरान्ू--तथा सागरों; द्वीपानू--बड़े-बड़े द्वीपों; स-वर्षान्ू--महाद्वीपों समेत; ककु भ: --दिशाओं; सुर-असुरान्--सन्त भक्तों तथा असुरों; वनानि--जंगलों; देशान्--विविध देशों; सरितः--नदियों; पुर--नगरों; आकरान्--तथा खानों; खेटान्ू--खेतिहर गाँवों; ब्रजानू--चरागाहों; आश्रम-वर्ण--विभिन्न आश्रमों तथा वर्णो; वृत्तय:--पेशों; महान्ति भूतानि--प्रकृति के मूल तत्त्वों; अथ--तथा; भौतिकानि--स्थूल रूपों को; असौ--उसने; कालम्--काल; च--तथा; नाना-युग-कल्प--विभिन्न युग तथा ब्रह्माका दिन; कल्पनम्--नियामककारक; यत् किश्ञित्ू--जो कुछ भी; अन्यत्--दूसरा; व्यवहार-कारणम्-- भौतिक जीवन मेंकाम आने वाली वस्तु; ददर्श--देखा; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; सत्--सत्य; इब--मानो; अवभासितम्-- प्रकट वहाँ पर
मुनि ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखा--आकाश, स्वर्ग तथा पृथ्वी, तारे, पर्वत, सागर,द्वीप तथा महाद्वीप, हर दिशा में विस्तार, सन््त तथा आसुरी जीव, वन, देश, नदियाँ, नगरतथा खानें, खेतिहर गाँव तथा चरागाह, समाज के वर्ण तथा आश्रम।
उन्होंने सृष्टि के मूलतत्त्वों तथा उनके गौण उत्पादों के साथ ही साक्षात् काल को देखा जो ब्रह्मा के दिनों मेंअसंख्य युगों को नियमित करता है।
इसके अतिरिक्त उन्होंने भौतिक जीवन में काम आनेवाली अन्य सारी वस्तुएँ देखीं।
उन्होंने अपने समक्ष यह सब देखा जो सत्य जैसा प्रतीत होरहा था।
"
हिमालवयं पुष्पवहां च तां नदींनिजाश्रमं यत्र ऋषी अपश्यत ।
विश्व विपश्यज्छूसिताच्छिशोर्वे बहिर्निरस्तो न््यपतल्लयाब्धौ ॥
३०॥
हिमालयम्--हिमालय पर्वत को; पुष्प-वहाम्--पुष्पभद्रा;च--तथा; तामू--उस; नदीमू--नदी को; निज-आश्रमम्--अपनी कुटिया को; यत्र--जहाँ; ऋषी--दो ऋषि, नर तथा नारायण; अपश्यत--देखा था; विश्वम्--ब्रह्मण्ड को;विपश्यन्-देखते हुए; श्रसितात्-- श्रास से; शिशो:--शिशु के; बै--निस्सन्देह; बहि:--बाहर; निरस्त:--निकाला गया;न्यपतत्--गिर पड़ा; लय-अब्धौ--प्रलय के सागर में |
उन्होंने अपने समक्ष हिमालय पर्वत, पुष्पभद्रा नदी तथा अपनी कुटिया देखी जहाँ उन्होंनेनर-नारायण ऋषियों के दर्शन किये थे।
तत्पश्चात् मार्कण्डेय द्वारा सम्पूर्ण विश्व के देखते-देखते, जब उस शिशु ने श्वास बाहर निकाली तो ऋषि उसके शरीर से बाहर धकेल दिए गएऔर प्रलय सागर में गिरा दिए गए।
"
तस्मिन्पृथिव्या: ककुदि प्ररूढंबट च तत्पर्णपुटे शयानम् ।
तोकं च तत्प्रेमसुधास्मितेननिरीक्षितोपाड्ननिरीक्षणेन ॥
३१॥
अथ तं बालक वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि ।
अभ्ययादतिसड्क्लिष्ट: परिष्वक्तुमधोक्षजम् ॥
३२॥
तस्मिनू--उस जल में; पृथिव्या:--पृथ्वी का; ककुदि--उठे स्थान पर; प्ररूढम्--उगता हुआ; वटम्ू--बरगद का वृक्ष;च--तथा; तत्--उसके; पर्ण-पुटे--पत्ते के दोने में; शयानम्--लेटे हुए; तोकम्--बालक को; च--तथा; तत्-- अपने;प्रेम--प्रेम की; सुधा--अमृत जैसी; स्मितेन--हँसी से; निरीक्षित:--देखा जाकर; अपाड़---आँख के कोरों से;निरीक्षणेन--चितवन से; अथ--तब; तमू--उस; बालकम्--बालक को; वीक्ष्य--देख कर; नेत्राभ्यामू--अपनी आँखोंसे; धिष्ठितम्ू--रखते हुए; हृदि--हृदय के भीतर; अभ्ययात्--आगे दौड़ा; अति-सड्ूक्लिष्ट: --अत्यन्त क्षुब्ध; परिष्वक्तुम्--आलिंगन करने के लिए; अधोक्षजम्-- भगवान् को |
उस विशाल सागर में उन्होंने छोटे-से द्वीप पर बरगद के वृक्ष को उगा हुआ और शिशुको पत्ते के भीतर लेटे हुए देखा।
वह शिशु उनको अपनी आँखों की कारों से प्रेम के अमृतसे भरी हँसी से देख रहा था।
मार्कण्डेय ने उसे अपनी आँखों के द्वारा अपने हृदय में करलिया।
अत्यन्त क्षुब्थ ऋषि भगवान् का आलिंगन करने दौड़े।
"
तावत्स भगवान्साक्षाद्योगाधीशो गुहाशयः ।
अन्तर्दध ऋषे: सद्यो यथेहानीशनिर्मिता ॥
३३॥
तावत्ू--तभी; सः--वह; भगवान्-- भगवान्; साक्षात्- प्रत्यक्ष; योग-अधीश: --योगे श्वर; गुहा-शय: --समस्त जीवों केहृदयों में छिपे; अन्तर्दधे-- अन्तर्धान हो गये; ऋषे:--ऋषि के समक्ष; सद्यः--सहसा; यथा--जिस तरह; ईहा-- प्रयास द्वारावस्तु; अनीश--अक्षम व्यक्ति द्वारा; निर्मिता--बनाई हुई |
तभी भगवान्, जोकि योगेश्वर हैं तथा हर एक के हृदय में छिपे रहते हैं, ऋषि की आँखों से ओझल हो गये जिस तरह अक्षम व्यक्ति की सारी उपलब्धियाँ सहसा विलीन हो जाती हैं।
"
तमन्वथ वटो ब्रह्मग्सलिलं लोकसम्प्लवः ।
तिरोधायि क्षणादस्य स्वाश्रमे पूर्ववत्स्थित: ॥
३४॥
तम्--उसके; अनु--पीछे; अथ--तब; वट: --बरगद का वृक्ष; ब्रह्ननू--हे ब्राह्मण, शौनक; सलिलम्--जल; लोक-सम्प्लवः--ब्रह्माण्ड का प्रलय; तिरोधायि--- अदृश्य हो गये; क्षणात्--तुरन्त; अस्य--उसके सामने ही; स्व-आश्रमे--अपनी कुटिया में; पूर्व-वत्--पहले की तरह; स्थित:--उपस्थित था।
हे ब्राह्मण, भगवान् के अदृश्य हो जाने पर, वह बरगद का वृक्ष, अपार जल तथाब्रह्माण्ड का प्रलय--सारे के सारे विलीन हो गये और क्षण-भर में मार्कण्डेय ने पहले कीतरह अपने को अपनी कुटिया में पाया।
"
अध्याय दस: भगवान शिव और उमा मार्कण्डेय ऋषि की महिमा करते हैं
12.10वैभव योगमायायास्तमेव शरणं ययौ ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामीने कहा; सः--वह, मार्कण्डेय; एवम्--इस तरह; अनुभूय--अनुभव करके; इृदम्--यह;नारायण-विनिर्मितम्-- भगवान् नारायण द्वारा निर्मित; वैभवम्--ऐश्वर्यमय प्रदर्शन; योग-मायाया: -- अपनी अन्तरंगायोगशक्ति का; तम्ू--उसकी; एव--निस्सन्देह; शरणम्--शरण में; ययौ--चला गया।
सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् नारायण ने अपनी मोहमयी शक्ति का यह ऐसश्वर्यशालीप्रदर्शन नियोजित किया था।
इसका अनुभव करके मार्कण्डेय ऋषि ने भगवान् की शरणग्रहण की।
"
श्रीमार्कण्डेय उवाचप्रपन्नोउस्म्यड्प्रिमूलं ते प्रपन्नाभयदं हरे ।
यन्माययापि विबुधा मुहान्ति ज्ञानककाशया ॥
२॥
श्री-मार्कण्डेय: उबाच-- श्री मार्कण्डेय ने कहा; प्रपन्न:--शरणागत; अस्मि--मैं हूँ; अड्धप्रि-मूलम्--चरणकमलों केतलवों; ते--तुम्हारा; प्रपन्न--शरण लेने वालों का; अभय-दम्--अभय दान देने वाला; हरे--हे हरि; यत्-मायया--जिसकी माया से; अपि--भी; विबुधा:--बुद्द्धिमान देवता; मुहान्ति--मोहित हो जाते हैं; ज्ञान-काशया--जो झूठे ही ज्ञानजैसा प्रतीत होती है।
श्री मार्कण्डेय ने कहा : हे भगवान् हरि, मैं आपके उन चरणकमलों के तलवों कीशरण ग्रहण करता हूँ जो उनकी शरण ग्रहण करने वालों को अभय दान देते हैं।
बड़े-बड़ेदेवता भी आपकी माया से जो ज्ञान के वेश में उनके समक्ष प्रकट होती है, मोहित रहते हैं।
"
सूत उबाचतमेवं निभृतात्मानं वृषेण दिवि पर्यटन् ।
रुद्राण्या भगवानुद्रो ददर्श स्वगणैर्वृतः ॥
३॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; तम्ू--उसको, मार्कण्डेय ऋषि को; एवम्--इस प्रकार; निभृत-आत्मानम्--समाधिमें पूर्णतया निमग्न मन वाला; वृषेण-- अपने बैल पर; दिवि--आकाश में; पर्यटन्--यात्रा करते हुए; रुद्राण्या--अपनीप्रिया रुद्राणी ( उमा ) के साथ; भगवान्--शक्तिशाली प्रभु; रुद्र:--शिव ने; दरदर्श--देखा; स्व-गणै: -- अपने संगियों से;बृतः-घिरे हुए
सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् रुद्र ने अपने बैल पर सवार अपनी प्रिया रुद्राणी तथाअपने निजी संगियों के साथ, मार्कण्डेय को समाधि में देखा।
"
अथोमा तमृषिं वीक्ष्य गिरिशं समभाषत ।
पश्येम॑ भगवन्विप्रं निभृतात्मेन्द्रयाशयम् ॥
४॥
अथ--तब; उमा--उमा; तमू--उस; ऋषिम्--ऋषि को; वीक्ष्य--देख कर; गिरिशम्--शिव से; समभाषत--बोलीं;पश्य--देखो न; इमम्ू--इस; भगवन्ू--मेरे प्रभु; विप्रमू--विद्वान ब्राह्मण को; निभृत--स्थिर; आत्म-इन्द्रिय-आशयम्--शरीर, इन्द्रियाँ तथा मन ।
ऋषि को देख कर देवी उमा ने भगवान् गिरिश से कहा, 'हे प्रभु, जरा इस विद्वानब्राह्मण को, उसके शरीर, मन तथा इन्द्रियों को समाधि में अचल हुए, देखो।
"
'निभूतोदझषत्रातो बातापाये यथार्णव: ।
कुर्वस्य तपस: साक्षात्संसिद््रि सिद्धिदों भवान् ॥
५॥
निभूत-- अचल; उद--जल; झष-ब्रात:--तथा मछलियों का झुंड; वात--वायु के; अपाये--बन्द होने पर; यथा--जिसतरह; अर्णव: --समुद्र; कुरुू--कीजिये; अस्य--इसकी; तपस: --तपस्या का; साक्षात्--प्रकट; संसिद्धिम्--सिदर्द्धि;सिद्धि-दः --सिद्धि-दाता; भवान्ू--आप |
वह उस समुद्र के जल की तरह शान्त है जब वायु बन्द हो जाती है और मछलियाँ शान्तहो जाती हैं।
इसलिए हे प्रभु, चूँकि आप तपस्या करने वाले को सिद्धि प्रदान करते हैं,इसलिए इस ऋषि को सिद्ध्रि प्रदान करें जोकि उसे मिलनी चाहिए।
"
श्रीभगवानुवाचनैवेच्छत्याशिष: क्वापि ब्रह्मर्षिमेक्षमप्युत ।
भक्ति परां भगवति लब्धवान्युरुषेउव्यये ॥
६॥
श्री-भगवान् उवाच--शक्तिमान प्रभु ने कहा; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; इच्छति--इच्छा करती है; आशिष: --वर; क्वअपि--किसी भी देश में; ब्रह्मय-ऋषि: --सन्त ब्राह्मण; मोक्षम्--मोक्ष; अपि उत--ही; भक्तिमू--भक्ति; परामू--दिव्य;भगवति--भगवान् के लिए; लब्धवानू--प्राप्त किया है; पुरुष-- भगवान् के लिए; अव्यये--अव्यय |
शिवजी ने उत्तर दिया : निश्चय ही, यह सन्त ब्राह्मण किसी वर की यहाँ तक कि मोक्षतक की भी कामना नहीं करता क्योंकि इसने भगवान् अव्यय की शुद्ध भक्ति प्राप्त कर लीहै।
"
अथापि संवदिष्यामो भवान्येतेन साधुना ।
अयं हि परमो लाभो नृणां साधुसमागम: ॥
७॥
अथ अपि--तो भी; संवदिष्याम:--हम बात करेंगे; भवानि--हे भवानी; एतेन--इस; साधुना--शुद्ध भक्त से; अयम्ू--यह; हि--निस्सन्देह; परम:--सर्वोत्तम; लाभ:--लाभ; नृणाम्--मनुष्यों के लिए; साधु-समागम:--सन््त भक्तों कीसंगति।
तो भी हे भवानी, चलो हम इस सन्त पुरुष से बातें करें।
आखिर सन्त भक्तों की संगतिमनुष्य की सर्वोच्च उपलब्धि है।
"
सूत उबाचइत्युक्त्वा तमुपेयाय भगवान्स सतां गति: ।
ईशान: सर्वविद्यानामी श्वर: सर्वदेहिनाम् ॥
८ ॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक््त्वा--कह कर; तम्ू--उस ऋषि के पास; उपेयाय--जाकर;भगवान्--वरिष्ठ देवता; सः--वह; सताम्--शुद्ध आत्माओं के; गति:--शरण; ईशान: --स्वामी; सर्व-विद्यानाम्ू--विद्याकी समस्त शाखाओं के; ईश्वर: --नियन्ता; सर्व-देहिनामू--समस्त देहधारी जीवों के ॥
सूत गोस्वामी ने कहा: इस तरह कहने के बाद, शुद्धात्माओं के आश्रय, समस्तआध्यात्मिक विद्याओं के स्वामी तथा समस्त देहधारी जीवों के नियन्ता भगवान् शंकर उसऋषि के पास गये।
"
तयोरागमन साक्षादीशयोर्जगदात्मनो: ।
न वेद रुद्धधीवृत्तिरात्मानं विश्वमेव च ॥
९॥
तयो:--उन दोनों का; आगमनम्--आना; साक्षात्--स्वयं; ईशयो:--शक्तिमान पुरुषों का; जगत्-आत्मनो: --ब्रह्माण्ड केनियन्ताओं का; न वेद--नहीं देख पाया; रुद्ध--रुका हुआ; धी-वृत्ति:--मन की गति; आत्मानमू--स्वयं; विश्वम्--बाहायब्रह्माण्ड; एव--निस्सन्देह; च-- भी |
चूँकि मार्कण्डेय का भौतिक मन कार्य करना बन्द कर चुका था अतएव वे ब्रह्माण्ड केनियन्ता शिव तथा उनकी पत्ली का आना देख नहीं पाये, जो स्वयं उन्हें देखने आये थे।
मार्कण्डेय ध्यान में इतने लीन थे कि उन्हें अपनी या बाह्य जगत की कोई सुधि-बुधि नहींथी।
"
भगवांस्तदभिज्ञाय गिरिशो योगमायया ।
आविशत्तद्गुहाकाशं वायुए्छद्रमिवेश्वर: ॥
१०॥
भगवान्--महापुरुष; तत्--उस; अभिज्ञाय--समझ कर; गिरिश:-- भगवान् गिरिश ने; योग-मायया--अपनी योगशक्तिसे; आविशत्--प्रवेश किया; तत्--मार्कण्डेय के; गुहा-आकाशम्--हृदय के गुप्त आकाश में; वायु:--वायु; छिद्रम्ू--छेद; इब--सहृश; ई श्वर:-- प्रभु |
स्थिति से भलीभाँति परिचित होने पर, शक्तिमान भगवान् शिव ने मार्कण्डेय के हृदय-आकाश के भीतर प्रविष्ट होने के लिए अपनी योगशक्ति का प्रयोग किया जिस तरह वायुछेद में से प्रवेश कर जाती है।
"
आत्मन्यपि शिवं प्राप्तं तडित्पिड्रजटाधरम् ।
ज्यक्षं दशभुजं प्रांशुमुद्यन्तमिव भास्करम् ॥
११॥
व्याप्रचर्माम्बरं शूलधनुरिष्वसिचर्मभि: ।
अक्षमालाडमरुककपालं परशुं सह ॥
१२॥
बिशभ्राणं सहसा भातं विचक्ष्य हृदि विस्मित: ।
किमिदं कुत एवेति समाधेर्विरतो मुनि: ॥
१३॥
आत्मनि--अपने भीतर; अपि-- भी; शिवम्--शिव को; प्राप्तम्--आया हुआ; तडित्--बिजली के समान; पिड़--पीलाभ; जटा--बालों की लटें; धरम्-- धारण किये; त्रि-अक्षम्--तीन नेत्रों सहित; दश-भुजम्--तथा दस भुजाएँ;प्रांशुम्-- अत्यधिक ऊँचा; उद्यन्तम्ू--उठा हुआ; इब--सहृश; भास्करम्--सूर्य को; व्याप्र--बाघ का; चर्म--रोंएदारचमड़ा; अम्बरम्--वस्त्र के रूप में; शूल--त्रिशूल; धन:--धनुष; इषु--बाण; असि--तलवार; चर्मभि:--तथा ढालसहित; अक्ष-माला--जपमाला; डमरुक--डमरू; कपालम्--तथा सिर; परशुम्--फरसा; सह--सहित; बिभ्राणम्--प्रदर्शित करते हुए; सहसा--एकाएक; भातमू--प्रकट; विचक्ष्य--देख कर; हृदि--हृदय में; विस्मित:--चकित; किमू्--क्या; इृदम्--यह; कुत:ः--कहाँ से; एब--निस्सन्देह; इति--इस प्रकार; समाधे:--समाधि से; विरत:--हटा; मुनिः--मुनि
श्री मार्कण्डेय ने सहसा भगवान् शिव को अपने हृदय के भीतर प्रकट हुए देखा।
शिवजी के सुनहरे केश बिजली के समान थे।
उनके तीन नेत्र, दस भुजाएँ तथा ऊँचा शरीरथा, जो उदय हो रहे सूर्य की तरह चमक रहा था।
वे व्याप्र चर्म पहने थे और त्रिशूल, धनुष,बाण, तलवार तथा ढाल लिये थे।
वे जपमाला, डमरू, कपाल तथा परशु भी लिए थे।
मुनिने चकित होकर अपनी समाधि तोड़ दी और सोचा, 'यह कौन है और कहाँ से आया है ?'" 'नेत्रे उन्मील्य दहशे सगणं सोमयागतम् ।
रुद्रं त्रिलोकैकगुरुं ननाम शिरसा मुनि: ॥
१४॥
नेत्रे--अपने नेत्र; उन््मील्य--खोल कर; दहशे --देखा; स-गणम्-- अपने संगियों के साथ; स-उमया--तथा उमा समेत;आगतम्--आया हुआ; रुद्रमू-रुद्र को; त्रि-लोक--तीनों लोकों के; एक-गुरुम्--एकमात्र गुरु; ननाम--नमस्कारकिया; शिरसा--सिर के बल; मुनि:--
मुनि नेअपनी आँखें खोल कर मुनि ने तीनों जगत के गुरु भगवान् रुद्र को उमा तथा उनकेगणों समेत देखा।
तब मार्कण्डेय ने सिर के बल झुक कर उन्हें सादर नमस्कार किया।
"
तस्मै सपर्या व्यदधात्सगणाय सहोमया ।
स्वागतासनपाद्यार्ध्यगन्धस््रग्धूपदीपकै: ॥
१५॥
तस्मै--उसको; सपर्याम्--पूजा; व्यदधात्-- अर्पित की; स-गणाय--उनके गणों समेत; सह उमया--उमा सहित; सु-आगत--स्वागत के शब्दों से; आसन--बैठने के लिए स्थान देते हुए; पाद्य--चरण धोने के लिए जल; अर्ध्य--सुगन्धितपीने का पानी; गन्ध--सुगन्धित तेल; सत्रकू--माला; धूप--धूप; दीपकै:--तथा दीपकों से।
मार्कण्डेय ने उमा तथा शिव के गणों समेत भगवान् शिव की पूजा स्वागत के शब्दों,आसन, उनके पाँव धोने के लिए जल, सुगंधित पीने के पानी, सुगन्धित तेल, फूल-मालाओंतथा आरती के दीपक द्वारा की।
"
आह त्वात्मानुभावेन पूर्णकामस्य ते विभो ।
'करवाम किमीशान येनेदं निर्वृतं जगत् ॥
१६॥
आह--मार्कण्डेय ने कहा; तु--निस्सन्देह; आत्म-अनुभावेन--निजी आनन्द अनुभूति से; पूर्ण-कामस्य--सभी प्रकार सेतुष्ठ; ते--आपके लिए; विभो--हे सर्वशक्तिमान; करवाम--कर सकता हूँ; किम्--क्या; ईशान--हे ई श्वर; येन--जिससे;इदम्--यह; निर्वृतम्ू--शान्त बनता है; जगत्--पूरा संसार।
मार्कण्डेय ने कहा : हे विभु, मैं आपके लिए, जो अपने ही आनन्द में सदैव तुष्ट रहनेवाले हैं, क्या कर सकता हूँ? निस्सन्देह, आप अपनी कृपा से इस सारे जगत को तुष्ट करतेहैं।
"
नमः शिवाय शान्ताय सत्त्वाय प्रमृडाय च ।
रजोजुषेथ घोराय नमस्तुभ्यं तमोजुषे ॥
१७॥
नमः--नमस्कार; शिवाय--सर्वमंगलकारी; शान्ताय--शान्त; सत्त्वाय--सतोगुण के साक्षात् रूप; प्रम्डाय-- आनन्द केदाता; च--तथा; रज:-जुषे--रजोगुण के सम्पर्क में रहने वाला; अथ-- भी; घोराय--घोर; नम:--नमस्कार; तुभ्यम्--आपको; तमः-जुषे--तमोगुण के संगीहे सर्वमंगलकारी दिव्य पुरुष, मैं बारम्बार आपको नमस्कार करता हूँ।
सतोगुण केस्वामी के रूप में आप आनन्द के दाता हैं, रजोगुण के सम्पर्क में आप अत्यन्त भयावनेलगते हैं और तमोगुण से भी आप सात्निध्य रखते हैं।
"
सूत उबाचएवं स्तुतः स भगवानादिदेव: सतां गति: ।
परितुष्टः प्रसन्नात्मा प्रहसंस्तमभाषत ॥
१८॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एवम्--इन शब्दों द्वारा; स्तुत:--स्तुति किया गया; सः--वह; भगवान्--शक्तिमानशिवजी; आदि-देव:--देवताओं के अग्रणी; सताम्--साधु भक्तों के; गति:--आश्रय, शरण; परितुष्ट:--पूरी तरह तुष्ट;प्रसन्न-आत्मा--मन में प्रसन्न; प्रहसन्--हँसते हुए; तम्--मार्कण्डेय से; अभाषत--बोले |
सूत गोस्वामी ने कहा : देवताओं में अग्रणी तथा साधु भक्तों के आश्रय रूप भगवान्शिव, मार्कण्डेय की स्तुति से तुष्ट हो गए।
प्रसन्न होने के कारण वे हँसने लगे और मुनि सेबोले।
"
श्रीभगवानुवाचवबरं वृणीष्व नः काम वरदेशा वयं त्रयः ।
अमोधं दर्शन येषां मर्त्यों यद्विन्दतेठमृतम् ॥
१९॥
श्री-भगवान् उबाच--शिवजी ने कहा; वरमू--वर; वृणीष्व--चुनो; न:--हमसे; कामम्--जो इच्छा हो; वर-द--समस्तवर देने वालों में से; ईशा: --नियंता, स्वामी; वयम्--हम; त्रय:--तीन ( ब्रह्मा, विष्णु तथा महे श्वर ); अमोघम्-व्यर्थ नजाने वाला; दर्शनम्-दर्शन; येषाम्--जिनके; मर्त्य:--मर्त्य जीव; यत्--जिससे; विन्दते--प्राप्त करता है; अमृतम्--अमरता।
शिवजी ने कहा : तुम मुझसे कोई वर माँगो क्योंकि वर देने वालों में से हम तीन--ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं--सर्व श्रेष्ठ हैं।
हमारा दर्शन व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि हमारे दर्शन मात्र सेमर्त्य प्राणी अमरता प्राप्त कर लेता है।
"
ब्राह्मणा: साधव: शान्ता निःसड़ा भूतवत्सला: ।
एकान्तभक्ता अस्मासु निर्वैरा: समदर्शिन: ॥
२०॥
सलोका लोकपालास्तान्बन्दन्त्यर्चन्त्युपासते ।
अहं च भगवान्त्रह्मा स्वयं च हरिरीश्वर: ॥
२१॥
ब्राह्मणा:--ब्राह्मण; साधव: --साधु स्वभाव के; शान्ता: --शान्त तथा द्वेष एवं अन्य दुर्गुणों से रहित; निःसड़ा:--भौतिकसंगति से मुक्त; भूत-वत्सला:--जीवों पर सदय; एक-अन्त-भक्ता:--अनन्य भक्त; अस्मासु--हमारे ( ब्रह्मा, हरि तथाशिव ); निर्वरा:--कभी घृणा से युक्त नहीं; सम-दर्शिन:--सबको समान दृष्टि से देखने वाले; स-लोकाः --सारे जगतों केनिवासियों सहित; लोक-पाला: --विभिन्न लोकों के शासक; तान्--उन ब्राह्मणों को; वन्दन्ति--वन्दना करते हैं;अर्चन्ति--पूजा करते हैं; उपासते--सहायता करते हैं; अहम्ू--मैं; च--भी; भगवान्--महान् स्वामी; ब्रह्मा--ब्रह्मा;स्वयम्--स्वयं; च-- भी; हरि:--हरि; ई श्वरः-- भगवान् |
ब्रह्मा, हरि तथा मुझ समेत सारे लोकों के निवासी तथा शासन करने वाले देवता उनब्राह्मणों की वन्दना, पूजा तथा सहायता करते हैं, जो सन्त स्वभाव के, सदैव शान्त, भौतिकआसक्ति से रहित, समस्त जीवों पर दयालु, हमारे प्रति शुद्ध भक्ति से युक्त, घृणा से रहितएवं समहद्ृष्टि से युक्त होते हैं।
"
न ते मय्यच्युतेडजे च भिदामण्वपि चक्षते ।
नात्मनश्व जनस्यापि तद्युष्मान्वयमीमहि ॥
२२॥
न--नहीं; ते--वे; मयि--मुझमें; अच्युते-- भगवान् विष्णु में; अजे--ब्रह्मा में; च--तथा; भिदामू-- अन्तर; अणु--लेश;अपि- भी; चक्षते--देखते हैं; न--नहीं; आत्मन:--अपना; च--तथा; जनस्य--अन्य लोगों का; अपि-- भी; तत्--इसलिए; युष्मान्ू--तुम; वयम्--हम; ईमहि--पूजा करते हैं।
ये भक्तगण भगवान् विष्णु, ब्रह्म तथा मुझमें अन्तर नहीं करते, न ही वे अपने तथा अन्यजीवों के बीच अन्तर करते हैं।
तुम इसी तरह के सन्त भक्त हो, इसलिए हम तुम्हारी पूजाकरते हैं।
"
न हाम्मयानि तीर्थानि न देवाश्वेतनोज्झिता: ।
ते पुनन्त्युरुकालेन यूय॑ दर्शनमात्रतः ॥
२३॥
न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अपू-मयानि--पवित्र जल से युक्त; तीर्थानि--तीर्थस्थल; न--नहीं; देवा:--देवताओं केअर्चाविग्रह रूप; चेतन-उज्झिता:--जीवन से रहित; ते--वे; पुनन्ति--शुद्ध करते हैं; उर-कालेन--दीर्घकाल के पश्चात्;यूयम्ू--तुम सब; दर्शन-मात्रत:--केवल दर्शन करने से |
मात्र जलाशय तीर्थस्थान नहीं होते, न ही देवताओं की निर्जीव मूर्तियाँ वास्तविक पूज्यअर्चाविग्रह होती हैं।
चूँकि बाह्य दृष्टि पवित्र नदियों तथा देवताओं के उच्च आशय को समझनहीं पाती, इसलिए ये दीर्घकाल बाद ही पवित्र बना पाते हैं।
किन्तु तुम जैसे भक्त, दर्शनमात्र से, पवित्र कर देते हो।
"
ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येउस्मद्रूपं त्रयीमयम् ।
बिक्रत्यात्ससमाधानतपःस्वाध्यायसंयमै: ॥
२४॥
ब्राह्मणेभ्य: --ब्रह्मणों को; नमस्याम:--हम नमस्कार करते हैं; ये--जो; अस्मत्-रूपम्--हमारे ( शिव, ब्रह्मा तथा विष्णुके ) रूप; त्रयी-मयम्--तीन वेदों के द्वारा प्रदर्शित; बिभ्रति--वहन करते हैं; आत्म-समाधान-- आत्म पर केन्द्रित ध्यानसमाधि द्वारा; तप: --तपस्या द्वारा; स्वाध्याय-- अध्ययन द्वारा; संयमै: --तथा विधि-विधानों के पालन द्वारा
परमात्मा का ध्यान करके, तपस्या करके, वेदाध्ययन करके तथा विधि-विधानों कापालन करके, ब्राह्मणजन अपने भीतर तीनों वेदों को, जोकि विष्णु, ब्रह्मा तथा मुझसेअभिन्न हैं धारण करते हैं।
डसलिए मैं ब्राह्मणों को नमस्कार करता हँ।
"
श्रवणाहर्शनाद्वापि महापातकिनोपि व: ।
शुध्येरन्नन्त्यजा श्चापि किमु सम्भाषणादिभि: ॥
२५॥
श्रवणात्-- श्रवण करने से; दर्शनात्ू--दर्शन करने से; वा--अथवा; अपि-- भी; महा-पातकिन: -- सबसे अधम पापकरने वाले; अपि-- भी; व: --तुम; शुध्येरन्--शुद्ध बन जाते हैं; अन्त्य-जा:--अछूत लोग; च--तथा; अपि-- भी; किम्उ--क्या कहा जाय; सम्भाषण-आदिभि: -- प्रत्यक्ष बात करने इत्यादि से।
अधम से अधम पापी तथा अछूत भी तुम जैसे पुरुषों का श्रवण करने या दर्शन करने सेशुद्ध बन जाते हैं।
तब जरा कल्पना करो कि सीधे तुमसे बात करने से वे कितने शुद्ध बनजाते हैं ?"
सूत उबाचइति चन्द्रललामस्य धर्मगह्योपबृंहितम् ।
वचोमृतायनमृषिर्नातृप्यत्कर्णयो: पिबन् ॥
२६॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; चन्द्र-ललामस्थ--चन्द्रमा से सुशोभित शिव का; धर्म-गुहा--धर्मके गुह्य सार से; उपबृंहितम्--पूरित; वच:--शब्द; अमृत-अयनम्-- अमृत के आगार; ऋषि:--ऋषि; न अतृप्यत्--तृप्तिनहीं हुई; कर्णयो: --अपने कानों से; पिबन्ू--पीते हुए।
सूत गोस्वामी ने कहा : भगवान् शिव के अमृत तुल्य शब्दों को, जोकि धर्म के गुह्य सारसे पूरित थे, अपने कानों से पीते हुए मार्कण्डेय ऋषि तुष्ट नहीं हुए।
"
स चिरं मायया विष्णोर्भ्रामित: कर्शितो भूशम् ।
शिववागमृतध्वस्तक्लेशपुझ्जस्तमब्रवीत् ॥
२७॥
सः--वह; चिरम्ू--दीर्घकाल तक; मायया--माया द्वारा; विष्णो:-- भगवान् विष्णु की; भ्रामित:-- भटकाया हुआ;कशितः--थका; भूशम्--अत्यधिक; शिव--शिव के; वाक्ू-अमृत--अमृत तुल्य शब्दों से; ध्वस्त--विनष्ट; क्लेश-पुज्न:--कष्टों का समूह; तम्--उससे; अब्नवीत्--बोला |
भगवान् विष्णु की माया द्वारा प्रलय के जल में दीर्घकाल तक भटकाये गये होने केकारण मार्कण्डेय अत्यधिक थक चुके थे।
किन्तु शिवजी के अमृत तुल्य शब्दों से उनकासंचित क्लेश नष्ट हो गया।
अतः वे शिवजी से बोले।
"
श्रीमार्कण्डेय उवाचअहो ईश्वरलीलेयं दुर्विभाव्या शरीरिणाम् ।
यन्नमन्तीशितव्यानि स्तुबन्ति जगदी श्वरा: ॥
२८॥
श्री-मार्कण्डेय: उवाच-- श्री मार्कण्डेय ने कहा; अहो-- ओह; ईश्वर--महान् स्वामियों की; लीला--लीला; इयम्--यह;दुर्विभाव्या--अविश्वसनीय; शरीरिणाम्--देहधारी जीवों के लिए; यत्--क्योंकि; नमन्ति--नमस्कार करते हैं;ईशितव्यानि--उनको जो उनके द्वारा नियंत्रित होते हैं; स्तुवन्ति--स्तुति करते हैं; जगत्-ई श्वरा:-- ब्रह्माण्ड के शासक |
श्री मार्कण्डेय ने कहा : देहधारी जीवों के लिए ब्रह्माण्ड के नियन्ताओं की लीलाओंको समझ पाना सबसे कठिन है क्योंकि ऐसे प्रभु अपने ही द्वारा शासित जीवों को सिरझुकाते तथा उनकी स्तुति करते हैं।
"
धर्म ग्राहयितु प्राय: प्रवक्तारश्व देहिनाम् ।
आच्रन्त्यनुमोदन्ते क्रियमाणं स्तुवन्ति च ॥
२९॥
धर्मम्-- धर्म; ग्राहयितुमू--स्वीकार करवाना; प्राय:--अधिकांशत:; प्रवक्तार:--वैध वक्ताओं; च--तथा; देहिनाम्--सामान्य देहधारियों के लिए; आचरन्ति--कर्म करते हैं; अनुमोदन्ते--प्रोत्साहित करते हैं; क्रियमाणम्--सम्पन्न करनेवाला; स्तुवन्ति--स्तुति करते हैं; च-- भी |
सामान्यतया देहधारी जीवों को धार्मिक सिद्धान्त स्वीकार करने के लिए प्रेरित करने केलिए ही प्रामाणिक धर्माचार्य, अन्यों को प्रोत्साहित करके तथा उनके आचरण की प्रशंसाकरके, आदर्श आचरण प्रदर्शित करते हैं।
"
नैतावता भगवतः स्वमायामयवृत्तिभि: ।
न दुष्येतानुभावस्तैर्मायिन: कुहक॑ यथा ॥
३०॥
न--नहीं; एतावता--ऐसे ( विनयशीलता के प्रदर्शन ) द्वारा; भगवत:-- भगवान् का; स्व-माया--अपनी माया; मय--सेयुक्त; वृत्तिभि: --कार्यों द्वारा; न दुष्येत--बिगड़ता नहीं; अनुभाव: --शक्ति; तैः--उनके द्वारा; मायिन:--जादूगर की;कुहकम्--करामातें; यथा--जिस तरहयह ऊपरी विनयशीलता दया का दिखावा मात्र है।
भगवान् तथा उनके संगियों का ऐसाआचरण, जिसे भगवान् अपनी मोहिनी शक्ति से दिखलाते हैं, उनकी शक्ति को नहीं बिगाड़ता जिस तरह जादूगर की शक्तियाँ जादूगरी की करामातें दिखाने से घटती नहीं।
"
सृप्ठेदं मनसा विश्वमात्मनानुप्रविश्य यः ।
गुणै: कुर्वद्धिराभाति कर्तेव स्वप्नहग्यथा ॥
३१॥
तस्मै नमो भगवते त्रिगुणाय गुणात्मने ।
केवलायाद्वितीयाय गुरवे ब्रह्ममूर्तये ॥
३२॥
सृप्ठा--उत्पन्न करके; इदम्--इस; मनसा--अपने मन से, अपनी इच्छा मात्र से; विश्वम्--ब्रह्माण्ड को; आत्मना--परमात्मारूप में; अनुप्रविश्य--बाद में प्रविष्ट होकर; य:--जो; गुणै: --गुणों के द्वारा; कुर्वद्धिः--कर्म करते हैं; आभाति--प्रकटहोता है; कर्ता इब--मानो कर्ता हो; स्वण-हक्--स्वप्न देखने वाला व्यक्ति; यथा--जिस तरह; तस्मै--उस; नम: --नमस्कार; भगवते-- भगवान् को; त्रि-गुणाय--तीन गुणों वाले; गुण-आत्मने-- प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी;केवलाय--शुद्ध; अद्वितीयाय--अद्वितीय; गुरवे--गुरु को; ब्रह्म-मूर्तये--परब्रह्म के साकार रूप।
मैं उन भगवान् को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अपनी इच्छा मात्र से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डकी सृष्टि की और फिर जो उसमें परमात्मा रूप में प्रविष्ट हो गये।
वे प्रकृति के गुणों कोक्रियमाण बनाकर इस जगत के प्रत्यक्ष स्त्रष्टा प्रतीत होते हैं जिस तरह स्वप्न देखने वालाअपने स्वप्न के भीतर कर्म करता प्रतीत होता है।
वे प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी औरपरम नियन्ता हैं, फिर भी वे पृथक् रहते हैं और शुद्ध तथा अद्वितीय हैं।
वे सबों के परम गुरुतथा परब्रह्म के आदि साकार रूप हैं।
"
क॑ वृणे नु परं भूमन्वरं त्वद्वरदर्शनात् ।
यहर्शनात्पूर्णकामः सत्यकाम: पुमान्भवेत् ॥
३३॥
कम्--क्या; वृणे--मैं चुनूँ; नु--निस्सन्देह; परम्--अन्य; भूमन्--हे सर्वव्यापक प्रभु; वरम्--वर; त्वत्--आपसे; वर-दर्शनात्ू--जिनका दर्शन ही सबसे बड़ा वर है; यत्--जिसके; दर्शनात्ू--दर्शन से; पूर्ण-काम:--सारी इच्छाओं से पूर्ण;सत्य-काम:--किसी भी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने में सक्षम; पुमान्--पुरुष; भवेत्ू--बन जाता है।
हे सर्वव्यापक प्रभु, चूँकि मुझे आपका दर्शन करने का वर प्राप्त हो चुका है, इसलिए मैंआपसे अन्य किस वर की याचना करूँ? केवल आपका दर्शन करने से मनुष्य की सारीइच्छाएँ पूरी हो जाती हैं और वह कोई भी कल्पित कार्य संपन्न कर सकता है।
"
वरमेक॑ वृणेथापि पूर्णात्कामाभिवर्षणात् ।
भगवत्यच्युतां भक्ति तत्परेषु तथा त्वयि ॥
३४॥
वरम्--वर; एकम्--एक; वृणे--याचना करता हूँ; अथ अपि--तो भी; पूर्णात्--जो पूर्ण है उससे; काम-अभिवर्षणात्--जो इच्छाओं की पूर्ति की वर्षा करता है; भगवति-- भगवान् के लिए; अच्युताम्--अच्युत; भक्तिमू--भक्ति; तत्-परेषु--उनके शरणागतों; तथा-- भी; त्वयि--आप में |
किन्तु मैं आपसे एक वर माँगता हूँ क्योंकि आप समस्त सिद्धि से पूर्ण हैं और समस्तइच्छाओं की पूर्ति की वर्षा करने में समर्थ हैं।
मैं आपसे भगवान् की तथा उनके समर्पितभक्तों की, विशेष रूप से आपकी, अच्युत भक्ति के लिए याचना करता हूँ।
"
सूत उबाचइत्यर्चितोभिष्टृतश्व॒ मुनिना सूक्तया गिरा ।
तमाह भगवाउछर्व: शर्वया चाभिनन्दित: ॥
३५॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; इति--इन शब्दों में; अचित:--पूजित; अभिष्ठृत:ः--स्तुति किये गये; च--तथा;मुनिना--मुनि द्वारा; सु-उक्तया-- अच्छी तरह कहे गये; गिरा--शब्दों से; तम्ू--उससे; आह--कहा; भगवान् शर्व:--शिवजी; शर्वया--अपनी प्रिया शर्वा द्वारा; च--तथा; अभिनन्दित:--प्रोत्साहित
सूत गोस्वामी ने कहा : मुनि मार्कण्डेय के वाक्पटु कथनों द्वारा पूजित तथा प्रशंसितभगवान् शर्व ( शिव ) ने अपनी प्रिया द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर उनसे इस प्रकार कहा।
"
कामो महर्षे सर्वोद्यं भक्तिमांस्त्वमधोक्षजे ।
आकल्पान्ताद्यशः पुण्यमजरामरता तथा ॥
३६॥
काम:ः--इच्छा; महा-ऋषे--हे महर्षि; सर्व:--सारा; अयम्--यह; भक्ति-मान्--भक्ति से पूर्ण; त्वमू--तुम; अधोक्षजे--भगवान् के लिए; आ-कल्प-अन्तात्--ब्रह्मा के दिन के अन्त तक; यशः--यश्न; पुण्यम्--पवित्र; अजर-अमरता--वृद्धावस्था तथा मृत्यु से मुक्ति; तथा--भी |
हे महर्षि, तुम भगवान् अधोक्षज के प्रति अनुरक्त हो, इसलिए तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरीहोंगी।
इस सृष्टि चक्र के अन्त तक तुम पवित्र यश तथा वृद्धावस्था एवं मृत्यु से मुक्ति का भोग करोगे।
"
ज्ञान त्रैकालिकं ब्रह्मन् विज्ञानं च विरक्तिमत् ।
ब्रह्मवर्चस्विनो भूयात्पुराणाचार्यतास्तु ते ॥
३७॥
ज्ञानम्--ज्ञान; त्रै-कालिकम्ू--काल की तीनों अवस्थाओं ( भूत, वर्तमान तथा भविष्य ) का; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण;विज्ञानम्ू--दिव्य अनुभूति; च--भी; विरक्ति-मत्--वैराग्य समेत; ब्रह्म-वर्चस्विन: --ब्रह्म शक्ति से युक्त है, जो उसका;भूयात्--हो; पुराण-आचार्यता--पुराणों के आचार्य का पद; अस्तु--हो; ते--तुम्हारा
हे ब्राह्मण, तुम्हें भूत, वर्तमान तथा भविष्य का पूर्ण ज्ञान और उसी के साथ वैराग्य सेयुक्त ब्रह्म की दिव्य अनुभूति प्राप्त हो।
तुम्हारे पास आदर्श ब्राह्मण का तेज है, जिससे तुमपुराणों के आचार्य का पद पा सको।
"
सूत उबाचएवं वरान्स मुनये दत्त्वागात्त्यक्ष ईश्वर: ।
देव्यै तत्कर्म कथयन्ननुभूतं पुरामुना ॥
३८॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस तरह; वरान्--वर; सः--वह; मुनये--मुनि को; दत्त्वा--देकर;अगातू--चला गया; त्रि-अक्ष:--तीन नेत्रों वाले; ईश्वरः--शिवजी; देव्यै--देवी पार्वती को; तत्-कर्म--मार्कण्डेय केकार्यकलाप; कथयन्--बतलाते हुए; अनुभूतम्-- अनुभव किया हुआ; पुरा--पहले; अमुना--उसके द्वारा, मार्कण्डेयद्वारा
सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि को वर देकर शिवजी अपने मार्ग मेंदेवी पार्वती से ऋषि की उपलब्धियों का तथा उनके द्वारा अनुभव की गई भगवान् की मायाके प्रत्यक्ष प्रदर्शन का वर्णन करते चले गये।
"
सोप्यवाप्तमहायोगमहिमा भार्गवोत्तम: ।
विचरत्यधुनाप्यद्धा हरावेकान्ततां गत: ॥
३९॥
सः--वह, मार्कण्डेय; अपि--निस्सन्देह; अवाप्त--प्राप्त करके; महा-योग--योग की सर्वोच्च सिद्धि की; महिमा--महिमा; भार्गव-उत्तम: -- श्रेष्ठ भूगुवंशी; विचरति--विचरण कर रहा है; अधुना अपि--आज भी; अद्धघा- प्रत्यक्ष; हरौ--हरि के लिए; एक-अन्ततामू--एकान्तिक भक्ति का पद; गतः--प्राप्त करके |
श्रेष्ठ भूगुवंशी मार्कण्डेय ऋषि अपनी योग-सिद्धि की उपलब्धि के कारण यशस्वी हैं।
आज भी वे इस जगत में भगवान् की अनन्य भक्ति में पूरी तरह लीन होकर विचरण करतेहैं।
"
अनुवर्णितमेतत्ते मार्कण्डेयस्थ धीमत: ।
अनुभूतं भगवतो मायावैभवमद्भुतम् ॥
४०॥
अनुवर्णितम्--वर्णन किया गया; एतत्--यह; ते--तुमसे; मार्कण्डेयस्य--मार्कण्डेय का; धी-मतः--बुद्द्धिमान;अनुभूतम्-- अनुभव किया गया; भगवत: -- भगवान् का; माया-वैभवम्--माया का ऐश्वर्य; अद्भुतम्ू-- अद्भुत |
इस तरह मैंने तुमसे अत्यन्त बुद्धिमान ऋषि मार्कण्डेय के कार्यकलापों का, विशेष रूपसे जिस तरह उन्होंने भगवान् की माया की अद्भुत शक्ति का अनुभव किया, वर्णन करदिया।
"
एतत्केचिदविद्वांसो मायासंसूतिरात्मन: ।
अनाद्यावर्तितं नृणां कादाचित्कं प्रचक्षते ॥
४१॥
एतत्--यह; केचित्--कुछ व्यक्ति; अविद्वांस:--जो विद्वान नहीं हैं; माया-संसृति:--मायामयी सृष्टि; आत्मन:--परमात्माकी; अनादि--अनन्त काल से; आवर्तितम्--पिष्टपेषण की गई; नृणाम्--बद्धजीवों का; कादाचित्कम्-- अभूतपूर्व;प्रचक्षते--कहते हैं
यद्यपि यह घटना अद्वितीय तथा अभूतपूर्व थी, किन्तु कुछ अज्ञानी लोग इसकी तुलनाबद्धजीवों के लिए भगवान् द्वारा रचित मायामय जगत के चक्र से करते हैं--ऐसा अन्तहीनचक्र जो अनन्त काल से चल रहा है।
"
य एवमेतद्धगुवर्य वर्णितंरथाड्रपाणेरनुभावभावितम् ।
संश्रावयेत्संश्रूणुयादु तावुभौतयोर्न कर्माशयसंसूतिर्भवेत् ॥
४२॥
यः--जो; एवम्--इस प्रकार; एतत्--यह; भृगु-वर्य --हे श्रेष्ठ भूगुवंशी ( शौनक ); वर्णितम्--वर्णित; रथ-अड्डभ-पाणे: --रथ के पहिए को हाथ में धारण करने वाले श्री हरि का; अनुभाव--शक्ति से; भावितम्ू--सिक्त; संश्रावयेत्--सुनाता है;संश्रूणुयात्--स्वयं सुनता है; उ--अथवा; तौ--वे; उभौ--दोनों; तयो:--उनके; न--नहीं; कर्म-आशय--सकाम कर्मकी मनोवृत्ति पर आधारित; संसृति:--भौतिक जीवन का चक्र; भवेत्-- है |
हे श्रेष्ठ भूगुवंशी, मार्कण्डेय ऋषि से सम्बन्धित यह विवरण भगवान् की दिव्य शक्ति कोबताने वाला है।
जो कोई इसका ठीक से वर्णन करता है या इसे सुनता है, उसे सकाम कर्मकरने की इच्छा पर आधारित भौतिक जगत में फिर से नहीं आना होगा।
"
अध्याय ग्यारह: महापुरुष का सारांश विवरण
12.11श्रीशौनक उबाचअथेममर्थ पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम् ।
समस्ततन््त्रराद्धान्ते भवान्भागवत तत्त्ववित् ॥
१॥
श्री-शौनक: उवाच-- श्री शौनक ने कहा; अथ--अब; इमम्--यह; अर्थम्--विषय; पृच्छाम: --हम पूछ रहे हैं;भवन्तमू--आप से; बहु-वित्-तमम्--सबसे विस्तृत ज्ञान के स्वामी; समस्त--समस्त; तन्त्र--पूजा की व्यावहारिक विधिबताने वाले शास्त्र; राद्ध-अन्ते-- अन्तिम निर्णय; भवान्--आप; भागवत--हे महान् भगवद्भक्त; तत्त्व-वित्ू--असलीतथ्यों के ज्ञाता।
श्री शौनक ने कहा : हे सूत, आप सर्वश्रेष्ठ विद्वान तथा भगवद्भक्त हैं।
अतएव अब हमआपसे समस्त तंत्र शास्त्रों के अन्तिम निर्णय के विषय में पूछते हैं।
"
तान्त्रिका: परिचर्यायां केवलस्य थथियः पते: ।
अज्झेपाड्रायुधाकल्पं कल्पयन्ति यथा च यै: ॥
२॥
तन्नो वर्णय भद्गं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम् ।
येन क्रियानैपुणेन मत्यों यायादमर्त्यताम् ॥
३॥
तान्त्रिका:--तांत्रिक साहित्य की विधि के अनुयायी; परिचर्यायाम्--नियमित पूजा में; केवलस्य--शुद्ध आत्मा की;भ्रिय:--लक्ष्मी के; पतेः--पति का; अड्ग--अंग, यथा पाँव; उपाड्ू--गौण अंग यथा गरुड़ जैसे संगी; आयुध--हथियार,यथा सुदर्शन चक्र; आकल्पम्--तथा आभूषण यथा कौस्तुभ मणि; कल्पयन्ति--कल्पना करते हैं; यथा--जैसे; च--तथा; यैः--जिससे ( भौतिक वस्तुओं से ); तत्ू--वह; न:ः--हमसे; वर्णय--कृपा करके वर्णन करें; भद्रम्ू--सर्वमंगल;ते--तुम्हारा; क्रिया-योगम्--अनुशीलन की व्यावहारिक विधि; बुभुत्सताम्--सीखने के लिए उत्सुक; येन--जिससे;क्रिया--क्रमबद्ध अभ्यास में; नैपुणेन--दक्षता; मर्त्य:--मरणशील प्राणी; यायात्--प्राप्त कर सके; अमर्त्यताम्--अमरता।
आपका कल्याण हो, कृपा करके हम जिज्ञासुओं को वह लक्ष्मीपति दिव्य भगवान् कीनियमित पूजा द्वारा सम्पन्न की जाने वाली क्रिया योग विधि बतलायें।
कृपा करके यह भीबतलायें कि भक्तगण उनके अंगों, संगियों, आयुधों तथा आभूषणों की किन विशेष भौतिकवस्तुओं से कल्पना करते हैं।
भगवान् की दक्षतापूर्वक पूजा करके मर्त्य प्राणी अमरता प्राप्तकर सकता है।
"
सूत उबाचनमस्कृत्य गुरून्वक्ष्ये विभूतीर्वैष्णवीरपि ।
याः प्रोक्ता वेदतन्त्राभ्यामाचार्य: पद्मजादिभि: ॥
४॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; नमस्कृत्य--नमस्कार करके; गुरून्ू--गुरुओं को; वक्ष्ये--कहूँगा; विभूती: --ऐश्वर्य ;वैष्णवी: -- भगवान् विष्णु सम्बन्धी; अपि--निस्सन्देह; या:--जो; प्रोक्ता:--वर्णित होते हैं; बेद-तन्त्राभ्याम्--वेदों तथातंत्रों द्वारा; आचार्य :-- अधिकारियों द्वारा; पद्ठाज-आदिभि:--ब्रह्मा इत्यादि द्वारा |
सूत गोस्वामी ने कहा : मैं अपने गुरुओं को नमस्कार करके कमल से उत्पन्न ब्रह्मा आदिमहान् दिद्वानों द्वारा वेदों तथा तंत्रों में दिये हुए भगवान् के ऐश्वर्यों का वर्णन तुमसे फिर सेकरूँगा।
"
मायाद्यै्नवभिस्तत्त्वै: स विकारमयो विराट ।
निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम् ॥
५॥
माया-आझ्यै:--प्रकृति की अव्यक्त अवस्था से शुरू करके; नवभिः --नौ; तत्त्वै:--तत्वों से; सः--वह; विकार-मय:--रूपान्तरों वाला भी ( ग्यारह इन्द्रियाँ तथा पाँच स्थूल तत्त्व ); विराट्ू-- भगवान् का विश्व रूप; निर्मित: --निर्मित; दृश्यते--देखा जाता है; यत्र--जिसमें; स-चित्के--सचेतन होने से; भुवन-त्रयमू--तीनों लोक |
भगवान् का विराट रूप अव्यक्त प्रकृति तथा परवर्ती विकारों आदि से युक्त सृष्टि के नौमूलभूत तत्त्वों से बना है।
एक बार चेतना द्वारा इस विराट रूप को अधिष्ठित करने पर इसमेंतीनों लोक दिखाई पड़ने लगते हैं।
"
एतद्ठै पौरुषं रूपं भू: पादौ दयौ: शिरो नभः ।
नाभि: सूर्योइक्षिणी नासे वायु: कर्णों दिशः प्रभो: ॥
६॥
प्रजापति: प्रजननमपानो मृत्युरीशितु: ।
तद्बाहवो लोकपाला मनश्चन्द्रो भ्रुवी यम: ॥
७॥
लज्जोत्तरोधरो लोभो दन्ता ज्योत्स्ता स्मयो भ्रम: ।
रोमाणि भूरुहा भूम्नो मेघा: पुरुषमूर्थजा: ॥
८ ॥
एतत्--यह; वै--निस्सन्देह; पौरुषम्--विराट पुरुष का; रूपमू--रूप; भू:--पृथ्वी; पादौ--उनके पाँव; दौ:--स्वर्ग;शिरः--उनका शिर; नभ:--आकाश; नाभि:--उनकी नाभि; सूर्य:--सूर्य ; अक्षिणी --उनके दो नेत्र; नासे--उनके नथुने;वायु:--वायु; कर्णौं--उनके कान; दिश:--दिशाएँ; प्रभो:--भगवान् के; प्रजा-पति:--प्रजनन का देवता; प्रजननम्--उनका प्रजनन अंग; अपान:--उनकी गुदा; मृत्यु:--मृत्यु; ईशितु:--परम नियन्ता का; तत्-बाहव:--उनकी अनेक भुजाएँ;लोक-पाला:--विभिन्न लोकों के अधिष्ठाता; मन:--उनका मन; चन्द्र:--चन्द्रमा; भ्रुवा--उनकी भौंहें; यम:--यमराज;लज्ञा--लज्जा; उत्तर: --उनका ऊपरी होठ; अधर:--उनका निचला होठ; लोभ:--लालच; दन्ता:--उनके दाँत;ज्योत्सा--चाँदनी; स्मय:--उनकी मुसकान; भ्रम:-- भ्रम; रोमाणि--उनके रोएँ; भू-रुहा: --वृक्ष; भूम्न:--सर्वशक्तिमानप्रभु के; मेघा:--बादल; पुरुष--विराट पुरुष के; मूर्थ-जा:--सिर के बाल |
यह भगवान् का विराट रूप है, जिसमें पृथ्वी उनके पाँव, आकाश उनकी नाभि, सूर्यउनकी आँखें, वायु उनके नथुने, प्रजापति उनके जननांग, मृत्यु उनकी गुदा तथा चन्द्रमाउनका मन है।
स्वर्गलोक उनका शिर, दिशाएँ उनके कान तथा विभिन्न लोकपाल उनकीअनेक भुजाएँ हैं।
यमराज उनकी भौंहे, लज्जा उनका निचला होठ, लालच उनका ऊपरीहोठ, भ्रम उनकी मुसकान तथा चाँदनी उनके दाँत है, जबकि वृक्ष उन सर्वशक्तिमान पुरुष केशरीर के रोम हैं और बादल उनके शिर के बाल हैं।
"
यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मित: ।
तावानसावपि महापुरुषो लोकसंस्थया ॥
९॥
यावान्--जिस विस्तार तक; अयम्ू--यह; बै--निस्सन्देह; पुरुष:--सामान्य व्यक्ति; यावत्या--जिस आकार तक;संस्थया--उसके अंगों की स्थिति द्वारा; मित:--मापित; तावान्--उसी विस्तार तक; असौ--वह; अपि--भी; महा-पुरुष:--दिव्य पुरुष; लोक-संस्थया--लोकों की स्थितियों के अनुसार
जिस तरह इस जगत के सामान्य पुरुष के आकार-प्रकार को उसके विविध अंगों कोमाप कर निश्चित किया जा सकता है, उसी तरह महापुरुष के विराट रूप के अन्तर्गत लोकोंकी व्यवस्था को माप कर महापुरुष का आकार- प्रकार जाना जा सकता है।
"
कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्थिभर्त्यज: ।
तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात्श्रीवत्समुरसा विभु: ॥
१०॥
कौस्तुभ-व्यपदेशेन--कौस्तुभ मणि द्वारा प्रदर्शित; स्व-आत्म--शुद्ध जीवात्मा का; ज्योति:--आध्यात्मिक प्रकाश;बिभर्ति--वहन करता है; अज:--अजन्मा ई श्वर; तत्-प्रभा--इस ( कौस्तुभ मणि ) का तेज; व्यापिनी--विस्तृत;साक्षात्- प्रत्यक्ष; श्रीवत्सम्-- श्रीवत्स चिह्न का; उरसा--उनके वक्षस्थल पर; विभु:--सर्वशक्तिमान |
सर्वशक्तिमान अजन्मा भगवान् अपने वक्षस्थल पर शुद्ध आत्मा का प्रतिनिधित्व करनेवाला कौस्तुभ मणि और उसी के साथ इस मणि के विस्तृत तेज का प्रत्यक्ष स्वरूप, श्रीवत्सचिह्न, धारण करते हैं।
"
स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमर्यीं दधत् ।
वासएछन्दोमयं पीत॑ ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम् ॥
११॥
बिभर्ति साइड्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले ।
मौलिं पदं पारमेष्ठयं सर्वलोकाभयड्डूरम् ॥
१२॥
स्व-मायाम्-- अपनी माया; वन-माला-आख्याम्--फूल की माला कहलाने वाली; नाना-गुण--प्रकृति के गुणों केविविध मेल; मयीम्--से बनी; दधत्--पहने हुए; वास:--उनका वस्त्र; छन्दः-मयम्--वैदिक छन्दों से युक्त; पीतम्--पीला; ब्रह्म-सूत्रमू--उनका जनेऊ; त्रि-वृत्--तेहरा; स्वर्मू-- ४कार नामक पवित्र ध्वनि; बिभर्ति--धारण करते हैं;साड्ख्यम्--सांख्य विधि; योगम्--योग-विधि; च--तथा; देव:--स्वामी; मकर-कुण्डले--मगर की आकृति वाले कानके कुंडल; मौलिम्--उनका मुकुट; पदम्--पद; पारमेष्ठययम्--परम ( ब्रह्मा का ); सर्व-लोक--सारे जगतों को;अभयम्--अभय; करम्--देने वाले |
उनकी फूल-माला उनकी भौतिक माया है, जो प्रकृति के गुणों के विविध मेलों से युक्तहै।
उनका पीत वस्त्र वैदिक छनन््द हैं और उनका जनेऊ तीन ध्वनियों वाला ३» अक्षर है।
अपने दो मकराकृत कुण्डलों के रूप में भगवान् सांख्य तथा योग की विधियाँ धारण करतेहैं।
उनका मुकुट जो सारे लोकवासियों को अभय प्रदान करता है, ब्रह्मलोक का परम पदहै।
"
अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठित: ।
धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते ॥
१३॥
अव्याकृतमू्--सृष्टि की अव्यक्त अवस्था; अनन्त-आख्यम्--अनन्त कहलाने वाली; आसनम्--उनका आसन; यतू-अधिष्टित:--जिस पर वे बैठे हुए हैं; धर्म-ज्ञान-आदिभि:--धर्म, ज्ञान इत्यादि के साथ; युक्तम्--जुड़ा हुआ; सत्त्वम्--सतोगुणमें; पद्ममू--उनका कमल; इह--उस पर; उच्यते--कहा जाता है।
भगवान् का आसन, अनन्त, भौतिक प्रकृति की अव्यक्त अवस्था है और भगवान् काकमल सिंहासन, सतोगुण है, जो धर्म तथा ज्ञान से समन्वित है।
"
ओज:सहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत् ।
अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम् ॥
१४॥
नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम् ।
कालरूपं धनु: शा्ड् तथा कर्ममयेषुधिम् ॥
१५॥
ओज:ः-सहः-बल--इन्द्रियों के, मन के तथा शरीर के बल से; युतम्--युक्त; मुख्य-तत्त्वमू--मुख्य तत्त्व वायु जो भौतिकशरीर के भीतर प्राणशक्ति है; गदाम्ू--उनकी गदा; दधत्-- धारण किये; अपाम्--जल का; तत्त्वमू--तत्व; दर--उनकाशंख; वरम्--उत्तम; तेज: -तत्त्वम्-- अग्नि तत्त्व; सुदर्शनम्--सुदर्शन चक्र; नभ:-निभम्--आकाश के समान; नभः-तत्त्वमू--आकाश तत्त्व; असिमू--उनकी तलवार; चर्म--ढाल; तम:ः-मयम्--तमोगुण से बनी; काल-रूपम्--काल केरूप में प्रकट; धनु:--उनका धनुष; शार्ड्मू--शार्ड़् नामक; तथा--तथा; कर्म-मय--सक्रिय इन्द्रिय रूप; इषु-धिम्--तरकस।
भगवान् की गदा इन्द्रिय, मन, शरीर सम्बन्धी शक्तियों से युक्त मुख्य तत्त्व प्राण है।
उनका उत्तम शंख जल तत्त्व है।
उनका सुदर्शन चक्र अग्नि तत्त्व है और उनकी तलवारजोकि आकाश के समान निर्मल है, आकाश तत्त्व है।
उनकी ढाल तमोगुण, उनका शाड्रग्गनामक धनुष काल तथा उनका तरकस कर्मेन्द्रियाँ हैं।
"
इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम् ।
तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्ति मुद्रयार्थक्रियात्मताम् ॥
१६॥
इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; शरान्ू--उनके तीर; आहुः--कहते हैं; आकूती:--( मन अपने ) सक्रिय कर्म सहित; अस्य--उनका;स्यन्दनम्-रथ; तत्-मात्राणि-- अनुभूति की वस्तुएँ; अस्य--उनका; अभिव्यक्तिम्--बाह्यम स्वरूप; मुद्रया--हाथ केइशारों द्वारा ( वर देने, अभय देने आदि के लिए ); अर्थ-क्रिया-आत्मताम्--सार्थक क्रिया का सार।
उनके बाण इन्द्रियाँ हैं और उनका रथ चंचल वेगवान मन है।
उनका बाह्य स्वरूपतन्मात्राएँ हैं और उनके हाथ के इशारे ( मुद्राएँ ) सार्थक क्रिया के सार हैं।
"
मण्डलं देवयजन दीक्षा संस्कार आत्मन: ।
परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षय: ॥
१७॥
मण्डलम्--सूर्य मंडल; देव-यजनम्--वह स्थान जहाँ परमेश्वर की पूजा होती है; दीक्षा--दीक्षा; संस्कार: --संस्कार;आत्मन:--आत्मा के लिए; परिचर्या--भक्ति; भगवत: -- भगवान् की; आत्मन:--जीवात्मा के लिए; दुरित--पापों का;क्षय: --विनाश।
सूर्य मण्डल ही वह स्थान है जहाँ भगवान् पूजे जाते हैं; दीक्षा ही आत्मा की शुद्धि कासाधन है और भगवान् की भक्ति करना ही किसी के पापों को समूल नष्ट करने की विधि है।
"
भगवान्भग लीलाकमलमुद्गहन् ॥
धर्म यशश्च भगवांश्वामरव्यजनेभजत् ॥
१८॥
भगवान्--भगवान्; भग-शब्द-- भग शब्द का; अर्थम्--अर्थ ( ऐश्वर्य ); लीला-कमलम्--उनका लीला कमल;उद्वहन्ू-- धारण करते हुए; धर्मम्--धर्म; यशः--यश; च--तथा; भगवानू्-- भगवान् ने; चामर-व्यजने--चामर के दोपंखे; अभजत्-- स्वीकार किया है
लीलाकमल को जोकि भग शब्द से विभिन्न ऐश्वर्यों का सूचक है सहज रूप में धारणकरते हुए भगवान्, धर्म तथा यश रूपी दो चामरों से सेवित हैं।
"
आततपकत्र तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम् ।
त्रिवृद्वेद: सुपर्णाख्यो यज्ञ वहति पूरूषम् ॥
१९॥
आततपत्रम्--उनका छाता; तु--तथा; बैकुण्ठम््--वैकुण्ठ; द्विजा:--हे ब्राह्मणो; धाम--उनका निजी धाम; अकुतः-भयम्--भय से रहित; त्रि-वृतू--तीन; वेद: --वेद; सुपर्ण-आख्य:--सुपर्ण या गरुड़ नामक; यज्ञम्--साक्षात् यज्ञ;वहति--वहन करता है; पूरुषम्-- भगवान् को |
हे ब्राह्मणो, भगवान् का छाता उनका धाम वैकुण्ठ है जहाँ कोई भय नहीं है और यज्ञ केस्वामी को ले जाने वाला गरुड़, तीनों वेद हैं।
"
अनपायिनी भगवती श्रुई: साक्षादात्मनो हरे: ।
विष्वक्षेनस्तन्त्रमूर्तिविदित: पार्षदाधिप: ।
नन्दादयोष ्टौ द्वा:स्थाश्व तेडणिमाद्या हरेगुणा: ॥
२०॥
अनपायिनी--पृथक् न की जा सकने वाली; भगवती--लक्ष्मी; श्री:-- श्री; साक्षात्-प्रत्यक्ष; आत्मन:--अन्तरंगा प्रकृतिका; हरेः--हरि का; विष्वक्सेन:--विष्वक्सेन; तन्त्र-मूर्तिः--तंत्र शास्त्रों के रूप में; विदितः--ज्ञात है; पार्षद-अधिप: --उनके निजी संगियों का प्रधान; नन्द-आदय: --नन्द इत्यादि; अष्टौ--- आठ; द्वा:-स्था:--द्वारपाल; च--तथा; ते--वे;अणिमा-आद्या:--अणिमा तथा अन्य सिद्धियाँ; हरेः-- भगवान् के; गुणा:--गुण भगवती श्री
जो भगवान् का संग कभी नहीं छोड़तीं, उनके साथ उनकी अन्तरंगा शक्तिके रूप में इस जगत में प्रकट होती हैं।
विष्वक्सेन जोकि भगवान् के निजी संगियों में प्रमुखहैं, पंचरात्र तथा अन्य तंत्रों के रूप में विख्यात हैं।
और नन््द आदि भगवान् के आठ द्वारपाल उनकी अणिमादिक योगसिद्ध्रियाँ हैं।
"
वासुदेव: सड्डूर्षण: प्रद्युम्न: पुरुष: स्वयम् ।
अनिरुद्ध इति ब्रहान्मूर्तिव्यूहोइभिधीयते ॥
२१॥
वासुदेव: सड्डूर्षण: प्रद्युम्म:--वासुदेव, संकर्षण तथा प्रद्यम्न; पुरुष: --भगवान्; स्वयम्-स्वयं; अनिरुद्ध:--अनिरुद्ध;इति--इस प्रकार; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण, शौनक; मूर्ति-व्यूह:--साकार रूपों के अंश; अभिधीयते--कहलाती हैहे ब्राह्मण शौनक, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्म तथा अनिरुद्ध--ये भगवान् के साक्षात्आंशों ( चतुर्व्यूह ) के नाम हैं।
"
स विश्वस्तैजस:ः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभि: ।
अर्थन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान्परिभाव्यते ॥
२२॥
सः--वह; विश्व: तैजस: प्राज्ञ:--जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त रूप; तुरीय:--चौथी, दिव्य अवस्था; इति--इस तरह कहे गये;वृत्तिभि: --कार्यो द्वारा; अर्थ--इन्द्रिय-विषय; इन्द्रिय--मन; आशय--आवृत चेतना; ज्ञानै:--तथा आध्यात्मिक ज्ञान केद्वारा; भगवान्-- भगवान्; परिभाव्यते--कल्पित किये जाते हैं।
मनुष्य भगवान् की कल्पना जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त अवस्थाओं में कर सकता है, जोक्रमशः बाह्य वस्तुओं, मन तथा भौतिक बुद्धि के माध्यम से कार्य करती हैं।
एक चौथीअवस्था भी है, जो चेतना का दिव्य स्तर है और शुद्ध ज्ञान के लक्षण वाली है।
"
अक्झेपाड्रायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम् ।
बिभर्ति सम चतुर्मूर्तिभगवान्हरिरी श्वर: ॥
२३॥
अड़--अपने प्रमुख अंगों; उपाड्---गौण अंगों; आयुध--हथियारों; आकल्पै: --तथा आभूषणों से; भगवान्-- भगवान्;तत् चतुष्टयम्--ये चार स्वरूप ( विश्व, तैजस, प्राज्ञ तथा तुरीय ); बिभर्ति--धारण करता है; स्म--निस्सन्देह; चतु:-मूर्ति:--अपने चार साकार रूपों ( वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध ); भगवान्--भगवान्; हरि:ः--हरि; ई श्र: --परम नियन्ता।
इस प्रकार भगवान् हरि चार साकार आंशों ( मूर्तियों ) के रूप में प्रकट होते हैं जिनमें सेहर अंश प्रमुख अंग, गौण अंग, आयुध तथा आभूषण से युक्त होता है।
इन स्पष्ट स्वरूपों सेभगवान चार अवस्थाओं को बनाये रखते हैं।
"
द्विजऋषभ स एष ब्रह्मययोनि: स्वयंहक्स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत् ।
सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षोविवृत इव निरुक्तस्तत्पैरात्मलभ्य: ॥
२४॥
द्विज-ऋषभ-हे ब्राह्मण- श्रेष्ठ; सः एष:--एकमात्र वही; ब्रह्म-योनि: --वेदों के स्त्रोत; स्वयम्-हक्--आत्म-प्रकाशित;स्व-महिम--अपनी महिमा में; परिपूर्ण: --अच्छी तरह से पूर्ण; मायया--माया द्वारा; च--तथा; स्वया--अपनी; एतत्--यह ब्रह्माण्ड; सृजति--रचता है; हरति--हर लेता है; पाति--पालन करता है; इति आख्यया--इस तरह से कल्पित;अनावृत--खुला; अक्ष:--उसकी दिव्य चेतना; विवृत:ः--विभक्त; इब--मानो; निरुक्त: --वर्णित; तत्-परै:--उनके द्वाराजो उनके भक्त हैं; आत्म--उनके आत्मा रूप; लभ्य:--प्राप्त होने वाले |
हे ब्राह्मण- श्रेष्ठ, एकमात्र वे ही आत्म-प्रकाशित, वेदों के आदि स्त्रोत, पूर्ण तथा अपनीमहिमा में पूर्ण हैं।
वे अपनी मायाशक्ति से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहारकरते हैं।
चूँकि वे विविध भौतिक कार्यों के कर्ता हैं अतएव कभी कभी उन्हें विभक्त कहाजाता है फिर भी वे शुद्ध ज्ञान में स्थित बने रहते हैं।
जो लोग उनकी भक्ति में लगे हुए हैं, वेउन्हें अपनी असली आत्मा के रूप में अनुभव कर सकते हैं।
"
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यूषभावनिश्रु -ग्राजन्यवंशद्हनानपवर्गवीर्य ।
गोविन्द गोपवनिताब्रजभृत्यगीत-तीर्थश्रव: श्रवणमड़ल पाहि भृत्यान्ू ॥
२५॥
श्री-कृष्ण--हे श्रीकृष्ण; कृष्ण-सख--हे अर्जुन के मित्र; वृष्णि--वृष्णिवंशी के; ऋषभ--हे प्रमुख; अवनि--पृथ्वी पर;ध्रुकु--विद्रोही; राजन्य-वंश--राजवंशों के; दहन--हे संहारक; अनपवर्ग--बिना हास के; वीर्य--जिसका पराक्रम;गोविन्द--हे गोलोक धाम के स्वामी; गोप--ग्वालों के; वनिता--तथा गोपियाँ; ब्रज--समूह; भृत्य--तथा उनके सेवक;गीत--गाया हुआ; तीर्थ--पवित्र, जिस तरह तीर्थस्थान होते हैं; श्रव:--जसिका यश; श्रवण--जिसके विषय में सुनने केलिए; मड़ल--शुभ; पाहि--कृपया रक्षा करें; भृत्यान्ू--अपने सेवकों की |
हे कृष्ण, हे अर्जुन के सखा, हे वृष्णिवंशियों के प्रमुख, आप इस पृथ्वी पर उत्पात मचाने वाले राजनीतिक दलों के संहारक हैं।
आपका पराक्रम कभी घटता नहीं।
आप दिव्यधाम के स्वामी हैं और आपकी पवित्र महिमा जो वृन्दावन के गोपों, गोपियों तथा उनकेसेवकों द्वारा गाई जाती है, सुनने मात्र से सर्वमंगलदायिनी है।
हे प्रभु, आप अपने भक्तों कीरक्षा करें।
"
ये ड्दं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम् ।
तच्चित्त: प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम् ॥
२६॥
यः--जो कोई; इृदम्--इसे; कल्ये--प्रातःकाल; उत्थाय--उठ कर; महा-पुरुष-लक्षणम्--विश्व रूप भगवान् के लक्षण;ततू-चित्त:--उनमें लीन मन; प्रयत:--शुद्ध हुआ; जप्त्वा--अपने आप जप करके; ब्रह्म--परब्रह्म; वेद--जान पाता है;गुहा-शयम्--हृदय के भीतर स्थित
जो कोई प्रातःकाल जल्दी उठता है और शुद्ध मन को महापुरुष में स्थिर करके, उनकेगुणों का यह वर्णन मन ही मन जपता है, वह उन्हें अपने हृदय के भीतर निवास करने वालेपरब्रह्म के रूप में अनुभव करेगा।
"
श्रीशौनक उवाचशुको यदाह भगवान्विष्णुराताय श्रृण्वते ।
सौरो गणो मासि मासि नाना वसति सप्तकः ॥
२७॥
तेषां नामानि कर्माणि नियुक्तानामधीश्चरै: ।
ब्रृहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरे: ॥
२८॥
श्री-शौनक: उवाच--श्री शौनक ने कहा; शुक:--शुकदेव गोस्वामी ने; यत्ू--जो; आह--वर्णन किया; भगवान् --महामुनि; विष्णु-राताय--राजा परीक्षित से; श्रृण्वते--सुन रहे; सौर: --सूर्य देव के; गण: --संगी; मासि मासि--प्रत्येकमास में; नाना--विविध; वसति--निवास करता है; सप्तक:--सात का समूह; तेषाम्--उनमें से; नामानि--नाम;कर्माणि--कर्म; नियुक्तानाम्--लगे हुए; अधी श्ररै:-- अपने नियन्ता सूर्य देव के विविध स्वरूपों से; ब्रूहि--कृपा करकेकहें; न:--हमसे; श्रद्धधानानाम्--श्रद्धालुओं के; व्यूहम्-स्वांशों; सूर्य-आत्मन: --सूर्य देव के रूप में उनके निजी अंशमें; हरेः-- भगवान् हरि का
श्री शौनक ने कहा : कृपया आपके बचचनों में अत्यन्त श्रद्धा रखने वाले हमसे उन सातसाकार रूपों तथा संगियों के विभिन्न समूहों का वर्णन उनके नामों तथा कार्यों समेत करेंजिन्हें सूर्य देव प्रति मास प्रदर्शित करते हैं।
सूर्य देव के संगी, जो अपने स्वामी की सेवाकरते हैं, सूर्य देव के अधिष्ठाता देवता के रूप में भगवान् हरि के स्वांश हैं।
"
सूत उबाचअनाद्यविद्यया विष्णोरात्मन: सर्वदेहिनाम् ।
निर्मितो लोकतन्त्रोयं लोकेषु परिवर्तते ॥
२९॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; अनादि--जिसका आदि न हो; अविद्यया--माया द्वारा; विष्णो:-- भगवान् विष्णुकी; आत्मन:--परमात्मा रूप; सर्व-देहिनाम्--सारे देहधारी जीवों का; निर्मित:--उत्पन्न किया; लोक-तन्त्र:--लोकों केनियामक; अयम्--इस; लोकेषु--लोकों के बीच; परिवर्तते-- भ्रमण करता है
सूत गोस्वामी ने कहा : सूर्य समस्त ग्रहों के बीच भ्रमण करता है और उनकी गतियों कोनियमित करता है।
इसे समस्त देहधारियों के परमात्मा, भगवान् विष्णु, ने अपनी अनादिभौतिक शक्ति के द्वारा उत्पन्न किया है।
"
एक एव हि लोकानां सूर्य आत्मादिकृद्धरिः ।
सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः ॥
३०॥
एक:--एक; एव--एकमात्र; हि--निस्सन्देह; लोकानामू--सारे जगतों के; सूर्य: --सूर्य; आत्मा--आत्मा; आदि-कृत्--आदि स्रष्टा; हरिः-- भगवान् हरि; सर्व-वेद--सररे वेदों में; क्रिया--कर्मकाण्ड का; मूलम्--आधार; ऋषिभि: --ऋषियोंद्वारा; बहुधा--विविध प्रकार से; उदित:--नाम दिये
भगवान् हरि से अभिन्न होने के कारण सूर्य देव सारे जगतों तथा उनके आदि स्त्रष्टा कीअकेली आत्मा हैं।
वे वेदों द्वारा बताये गये समस्त कर्मकाण्ड के उदगम हैं और वैदिकऋषियों ने उन्हें तरह-तरह के नाम दिये हैं।
"
कालो देशः क्रिया कर्ता करणं कार्यमागमः ।
द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन्नवधोक्तोजया हरि: ॥
३१॥
काल:--काल; देश:--स्थान; क्रिया--उद्योग; कर्ता--करने वाला; करणम्--उपकरण; कार्यम्--अनुष्ठान; आगम: --शास्त्र; द्रव्यमू--साज-सामग्री; फलम्ू--फल; इति--इस प्रकार; ब्रह्मनू--हे बत्राह्यण शौनक; नवधा--नौ प्रकार की;उक्त:--वर्णित; अजया--माया के रूप में; हरिः-- भगवान् हरि।
हे शौनक, माया का स्त्रोत होने से भगवान् हरि के अंश रूप सूर्य देव को नौ प्रकारसे--काल, देश, क्रिया, कर्ता, उपकरण, अनुष्ठान, शास्त्र, पूजा की साज-सामग्री तथाप्राप्तत्य फल के अनुसार--वर्णित किया गया है।
"
मध्वादिषु द्वादशसु भगवान्कालरूपध्ृ॒क् ।
लोकतन्त्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणै: ॥
३२॥
मधु-आदिषु--मधु इत्यादि; द्वादशसु--बारहों ( महीनों ) में; भगवान्ू-- भगवान्; काल-रूप--काल के रूप में; धृक्--धारण करके; लोक-तन्त्राय--ग्रहों की गति को नियमित करने के लिए; चरति--यात्रा करता है; पृथक्--अलग से;द्वादशभि:--बारह; गणै: --संगियों समेत ॥
भगवान् अपनी कालशक्ति को सूर्य देव के रूप में प्रकट करके मधु इत्यादि बारहोंमहीनों में ब्रह्माण्ड के भीतर ग्रह की गति को नियमित करने हेतु इधर-उधर यात्रा करते हैं।
बारहों महीनों सूर्य देव के साथ यात्रा करने वाला छह संगियों का पृथक्-पृथक् समूह है।
"
धाता कृतस्थली हेतिवासुकी रथकृन्मुने ।
पुलस्त्यस्तुम्बुरुरिति मधुमासं नयन्त्यमी ॥
३३॥
धाता कृतस्थली हेति:-- धाता, कृतस्थली तथा हेति; वासुकि: रथकृत्--वासुकि तथा रथकृत; मुने--हे मुनि; पुलस्त्य:तुम्बुरु:--पुलस्त्य तथा तुम्बुरु; इति--इस प्रकार; मधु-मासम्--मधु मास ( चेत्र ); नयन्ति--आगे ले जाते हैं; अमी--ये
हे मुनि, मधु मास को, धाता सूर्य देव के रूप में, कृतस्थली अप्सरा रूप में, हेति राक्षसरूप में, वासुकि नाग के रूप में, रथकृत यक्ष रूप में, पुलस्त्य मुनि रूप में तथा तुम्बुरूगन्धर्व के रूप में, नियंत्रित करते हैं।
"
अर्यमा पुलहोथौजा: प्रहेति: पुझ्लिकस्थली ।
नारद: कच्छनीरश्व नयन्त्येते सम माधवम् ॥
३४॥
अर्यमा पुलह: अथौजा: --अर्यमा, पुलह तथा अथौजा; प्रहेति: पुद्लिकस्थली--प्रहेति तथा पुल्लिकस्थली; नारदःकच्छनीर:--नारद तथा कच्छनीर; च-- भी; नयन्ति--शासन करते हैं; एते--ये; स्म--निस्सन्देह; माधवम्--माधव( वैशाख ) मास में |
माधव मास पर, अर्यमा सूर्य, पुलह मुनि, अथौजा यश्ष, प्रहेति राक्षस, पुझ्चिकस्थलीअप्सरा, नारद गंधर्व तथा कच्छनीर नाग के रूप में, शासन करते हैं।
"
मित्रोत्रि: पौरुषेयोथ तक्षको मेनका हहाः ।
रथस्वन इति होते शुक्रमासं नयन्त्यमी ॥
३५॥
मित्र: अत्रि: पौरुषेय: --मित्र, अत्रि तथा पौरुषेय; अथ-- भी; तक्षक: मेनका हहा:--तक्षक, मेनका तथा हाहा;रथस्वन:--रथस्वन; इति--इस प्रकार; हि--निस्सन्देह; एते--ये; शुक्र-मासम्--शुक्र ( ज्येष्ठ ) मास; नयन्ति--शासनचलाते हैं; अमी--ये।
शुक्र मास पर, मित्र सूर्य देव, अत्रि मुनि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक नाग, मेनका अप्सरा,हहा गन्धर्व तथा रथस्वन यक्ष के रूप में, शासन चलाते हैं।
"
वसिष्ठो वरुणो रम्भा सहजन्यस्तथा हुहू: ।
शुक्रश्नित्रस्वनश्चेव शुचिमासं नयन्त्यमी ॥
३६॥
वसिष्ठ: वरुण: रम्भा--वशिष्ठ, वरुण तथा रम्भा; सहजन्य:--सहजन्य; तथा-- भी; हुहः-- हूहू; शुक्र: चित्रस्वन: --शुक्रतथा चित्रस्वन; च एव-- भी; शुचि-मासम्--शुचि ( आषाढ़ ) मास; नयन्ति--शासन चलाते हैं; अमी--ये शुच्ि मास पर
वसिष्ठ ऋषि, वरुण सूर्य देव, रम्भा अप्सरा, सहजन्य राक्षस, हूहू गन्धर्व,शुक्र नाग तथा चित्रस्वन यक्ष रूप में, शासन करते हैं।
"
इन्द्रो विश्वावसु: श्रोता एलापत्रस्तथाड्रिरा: ।
प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयन्त्यमी ॥
३७॥
इन्द्र: विश्वावसु: श्रोता:--इनद्र, विश्वावसु तथा श्रोता; एलापत्र:--एलापत्र; तथा--और; अड्डिरा:--अंगिरा; प्रम्लोचा--प्रम्लोचा; राक्षस: वर्य:--वर्य नामक राक्षस; नभ:ः-मासम्ू--नभस ( श्रावण ) मास; नयन्ति--शासन करते हैं; अमी--ये नभस ( श्रावण ) मास पर
इन्द्र सूर्य देव, विश्वासु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग,अंगिरा मुनि, प्रम्लोचा अप्सरा तथा वर्य राक्षस के रूप में, शासन करते हैं।
"
विवस्वानुग्रसेनश्च व्याप्र आसारणो भृगु: ।
अनुम्लोचा शट्डुपालो नभस्याख्यं नयन्त्यमी ॥
३८॥
विवस्वान् उग्रसेन:--विवस्वान तथा उग्रसेन; च--भी; व्याप्र: आसारण: भृगुः--व्याप्र, आसारण तथा भृगु; अनुम्लोचाशद्भुपाल:--अनुम्लोचा तथा शंखपाल; नभस्य-आख्यम्--नभस्य ( भाद्र ) नामक मास; नयन्ति--शासन करते हैं;अमी--येनभस्य मास में
विवस्वान सूर्य देव, उग्रसेन गंधर्व, व्याप्र राक्षम, आसारण यक्ष, भृगुमुनि, अनुम्लोचा अप्सरा तथा शंखपाल नाग के रूप में शासन चलाते हैं।
"
पूषा धनज्जयो वातः सुषेण: सुरुचिस्तथा ।
घृताची गौतमश्लेति तपोमासं नयन्त्यमी ॥
३९॥
पूषा धनझ्जय: वात:--पूषा, धनञ्जय तथा वात; सुषेण: सुरुचि: --सुषेण तथा सुरुचि; तथा-- भी; घृताची गौतम: --घृताची तथा गौतम; च--भी; इति--इस प्रकार; तप:-मासम्--तपस् मास ( माघ ); नयन्ति--शासन चलाते हैं; अमी--येतपस् मास पर
पूषा सूर्य देव, धत्लय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष,घृताची अप्सरा तथा गौतम मुनि के रूप में शासन करते हैं।
"
ऋतुर्वर्चा भरद्वाज: पर्जन्य: सेनजित्तथा ।
विश्व ऐरावतञश्नेव तपस्याख्यं नयन्त्यमी ॥
४०॥
ऋतु: वर्चा भरद्वाज:--ऋतु, वर्चा तथा भरद्वाज; पर्जन्य: सेनजित्--पर्जन्य तथा सेनजित; तथा-- भी; विश्व: ऐरावत:--विश्व तथा ऐरावत; च एब-- भी; तपस्य-आख्यम्--तपस्य नामक मास ( फाल्गुन ); नयन्ति--शासन करते हैं; अमी--ये।
तपस्य नामक मास पर, ऋतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज मुनि, पर्जन्य सूर्य देव, सेनजितअप्सरा, विश्व गन्धर्व तथा ऐरावत नाग के रूप में शासन चलाते हैं।
"
अथांशुः कश्यपस्ताह््य ऋतसेनस्तथोर्वशी ।
विद्युक्तत्रु्महाशड्डुः सहोमासं नयन्त्यमी ॥
४१॥
अथ--तब; अंशु: कश्यप: तार्ष्य:--अंशु, कश्यप तथा तार्श्य; ऋतसेन: --ऋतसेन; तथा-- और; उर्वशी --उर्वशी;विद्युच्छत्रु: महाशद्ड: --विद्युच्छत्रु तथा महाशंख; सह:-मासम्--सहस मास ( मार्गशीर्ष ); नयन्ति--शासन करते हैं;अमी-येसहस् मास पर
अंशु सूर्य देव, कश्यप मुनि, तार्श््य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा,विद्युच्छत्रु राक्षम तथा महाशंख नाग के रूप में शासन चलाते हैं।
"
भगः स्फूर्जोरिष्ठनेमिरूर्ण आयुश्च पञ्ञम: ।
कर्कोटकः पूर्वचित्ति: पुष्यमासं नयन्त्यमी ॥
४२॥
भगः स्फूर्ज: अरिष्टनेमि:-- भग, स्फूर्ज तथा अरिष्टनेमि; ऊर्ण:--ऊर्ण; आयु:--आयुर्; च--तथा; पञ्ञम: --पाँचवा संगी;कर्कोटकः पूर्वचित्ति:--कर्कोटक तथा पूर्वचित्ति; पुष्य-माअसम्--पुष्य मास; नयन्ति--शासन करते हैं; अमी--ये |
पुष्य मास पर, भग सूर्य, स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयुर् मुनि,करकॉटक नाग तथा पूर्वचित्ति अप्सरा के रूप में, शासन चलाते हैं।
"
त्वष्टा ऋचीकतनय: कम्बलश्न तिलोत्तमा ।
ब्रह्मापेतोथ शतजिद् धृतराष्ट्र इषम्भरा: ॥
४३॥
त्वष्टा--त्वष्टा; ऋ्चचीक-तनय:--ऋचीक का पुत्र ( जमदग्नि ); कम्बल: --कम्बल; च--तथा; तिलोत्तमा--तिलोत्तमा;ब्रह्मापेत:--ब्रह्मापेत; अथ--और ; शतजित्--शतजित; धृतराष्ट्र: --धूतराष्ट्र; इषम्-भरा: --इष मास ( अश्विन ) के पोषक
इष मास कात्वष्टा सूर्य देव, ऋचीक-पुत्र जमदग्नि मुनि, कम्बलाश्व नाग, तिलोत्तमाअप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित यक्ष तथा धृतराष्ट्र गन्धर्व के रूप में, पालन-पोषण करतेहैं।
"
विष्णुरश्वतरो रम्भा सूर्यवर्चा श्र सत्यजित् ।
विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयन्त्यमी ॥
४४॥
विष्णु: अश्वतर: रम्भा--विष्णु, अश्वतर तथा रम्भा; सूर्यवर्चा:--सूर्यवर्चा; च--तथा; सत्यजित्--सत्यजित; विश्वामीत्र:मखापेत:--विश्वामित्र तथा मखापेत; ऊर्ज-मासम्--ऊर्ज मास ( कार्तिक ); नयन्ति--शासन करते हैं; अमी--ये ऊर्ज मास पर
विष्णु सूर्य देव, अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित्यक्ष, विश्वामित्र मुनि तथा मखापेत राक्षस के रूप में, शासन करते हैं।
"
एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतय: ।
स्मरतां सन्ध्ययोर्नुणां हरन्त्यंहों दिने दिने ॥
४५॥
एता:--ये; भगवत:--भगवान् विष्णो:--विष्णु के; आदित्यस्य--सूर्य देव के; विभूतय:--ऐश्वर्य; स्मरताम्--स्मरणरखने वालों को; सन्ध्ययो: --दिन की सन्धियों के समय; नृणाम्--ऐसे मनुष्यों के; हरन्ति--हर लेते हैं; अंह:--पाप; दिनेदिने--दिन-प्रतिदिन
ये सारे पुरुष सूर्य देव के रूप में भगवान् विष्णु के ऐश्वर्यशाली अंश हैं।
ये देव उनलोगों के सारे पापों को दूर कर देते हैं, जो प्रत्येक सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय उनकास्मरण करते हैं।
"
द्वादशस्वपि मासेषु देवोडइसौ षड्धिभरस्य वै ।
चरन्समन्तात्तनुते परत्रेह चर सन््मतिम् ॥
४६॥
द्वादशसु--बारहों; अपि--निस्सन्देह; मासेषु--महीनों में; देव: --स्वामी; असौ--इस; षड्धिभ: --छ: प्रकार के संगियोंसमेत; अस्य--इस ब्रह्माण्ड के लोगों के लिए; बै--निश्चय ही; चरन्--विचरण करते हुए; समन्तात्--सभी दिशाओं में;तनुते--विस्तार करता है; परत्र--अगले जीवन में; इह--इस जीवन में; च--तथा; सत्-मतिम्-शुद्ध चेतना
इस प्रकार बारहों महीने सूर्य देव अपने छः प्रकार के संगियों के साथ सभी दिशाओं मेंविचरण करते हुए इस ब्रह्माण्ड के निवासियों में इस जीवन तथा अगले जीवन के लिए शुद्धचेतना का विस्तार करता रहता है।
"
सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिड्रैरृषय: संस्तुवन्त्यमुम् ।
गन्धर्वास्तं प्रगायन्ति नृत्यन्त्यप्सरसोग्रत: ॥
४७॥
उन्नह्ान्ति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजका: ।
चोदयन्ति रथं पृष्ठे नेरता बलशालिनः ॥
४८ ॥
साम-ऋक्-यजुर्भि: --साम, ऋग् तथा यजुर्वेदों के स्तोत्रों द्वारा; तत्-लिड्रैः--जो सूर्य को प्रकट करते हैं; ऋषय: --ऋषिगण; संस्तुवन्ति--स्तुति करते हैं; अमुम्--उसकी; गन्धर्वा:--गन्धर्वगण; तम्--उसके बारे में; प्रगायन्ति--जोर-जोरसे गाते हैं; नृत्यन्ति--नाचती हैं; अप्सरस:--अप्सराएँ; अग्रतः--आगे; उन्नह्मन्ति--कसते हैं; रथम्--रथ को; नागा: --नागजन; ग्रामण्य: --यक्षगण; रथ-योजका:--रथ में घोड़े जोतने वाले; चोदयन्ति--हाँकते हैं; रथम्--रथ; पृष्ठे--पीछे से;नैर्ता:--राक्षसगण; बल-शालिन:--बलवान्
एक ओर जहाँ ऋषिगण सूर्यदेव की पहचान को प्रकट करने वाले साम, ऋग् तथायजुर्वेदों के स्तोत्रों द्वारा सूर्य देव की स्तुति करते हैं, वहीं गन्धर्वगण भी उनकी प्रशंसा करतेहैं तथा अप्सराएँ उनके रथ के आगे-आगे नाचती हैं; नागगण रथ की रस्सियों को कसते हैंऔर यक्षगण रथ में घोड़ों को जोतते हैं जबकि प्रबल राक्षसगण रथ को पीछे से धकेलते हैं।
"
वालखिल्या: सहस्त्राणि षष्टिब्रह्मर्षघोमला: ।
पुरतोभिमुखं यान्ति स्तुवन्ति स्तुतिभिर्विभुम् ॥
४९॥
वालखिल्या:--वालखिल्य; सहस्त्राणि--हजार; षष्टि: --साठ; ब्रह्म-ऋषय: --ब्रह्मर्षि; अमला: --शुद्ध; पुरत:--आगे-आगे; अभिमुखम्--रथ की ओर मुँह किये; यान्ति--जोतते हैं; स्तुवन्ति--स्तुति करते हैं; स्तुतिभि:--वैदिक स्तुतियोंद्वारा; विभुमू--सर्वशक्तिमान प्रभु की |
रथ की ओर मुँह किये साठ हजार वालखिल्य नामक ब्रह्मर्षि आगे-आगे चलते हैं औरवैदिक मंत्रों द्वारा सर्वशक्तिमान सूर्य देव की स्तुति करते हैं।
"
एवं हानादिनिधनो भगवान्हरिरी श्वरः ।
कल्पे कल्पे स्वमात्मानं व्यूह् लोकानवत्यज: ॥
५०॥
एवम्--इस तरह; हि--निस्सन्देह; अनादि--प्रारम्भ से; निधन: --अथवा अन्त; भगवान् -- भगवान्; हरि: --हरि; ईश्वर: --परम नियन्ता; कल्पे कल्पे--प्रत्येक ब्रह्मा के दिन में; स्वम् आत्मानम्-- अपना; व्यूह्य--वभिन्नि रूपों में विस्तार करके;लोकानू--लोकों की; अवति--रक्षा करते हैं; अज:--अजन्मा प्रभु ॥
इस तरह अजन्मा, अनादि तथा अनन्त भगवान् सारे लोकों की रक्षा हेतु, ब्रह्मा केप्रत्येक दिन में अपना विस्तार इन अपने विशेष निजी स्वरूपों में करते हैं।
"
अध्याय बारह: श्रीमद-भागवतम के विषयों का सारांश
12.12सूत उबाचनमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे ।
ब्रह्मणे भ्योनमस्कृत्यधर्मान्वक्ष्ये सनातनान् ॥
१॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; नमः --नमस्कार; धर्माय--धर्म को; महते--महानतम; नम:--नमस्कार; कृष्णाय--कृष्ण को; वेधसे--स्त्रष्टा; ब्रह्मणेभ्य: --ब्राह्मणों को; नमस्कृत्य--नमस्कार करके; धर्मान्ू--धर्म को; वक्ष्ये--कहूँगा;सनातनानू-शाश्वत
सूत गोस्वामी ने कहा : परम धर्म भक्ति को, परम स्त्रष्टा भगवान् कृष्ण को तथा समस्तब्राह्मणों को नमस्कार करके, अब मैं धर्म के शाश्वत सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा।
"
एतद्ठः कथित विप्रा विष्णोश्वरितमद्भुतम् ।
भवद्धिर्यदहं पृष्टो नराणां पुरुषोचितम् ॥
२॥
एतत्--ये; वः--तुम सबों को; कथितम्--सुनाया; विप्रा:--हे ऋषियो; विष्णो:-- भगवान् विष्णु की; चरितम्--लीलाएँ; अद्भुतम्ू-- अद्भुत; भवद्धिः--आप लोगों द्वारा; यत्--जो; अहम्--मैं; पृष्ट:--पूछा गया; नराणाम्--मनुष्यों मेंसे; पुरुष--वास्तविक मनुष्य के लिए; उचितम्--उपयुक्त |
हे ऋषियो, मैं आप लोगों से भगवान् विष्णु की अद्भुत लीलाएँ कह चुका हूँ, क्योंकिआप लोगों ने इनके विषय में मुझसे पूछा था।
ऐसी कथाओं का सुनना उस व्यक्ति के लिएउचित है, जो वास्तव में मानव है।
"
अन्न सड्डीरतितः साक्षात्सर्वपापहरो हरि: ।
नारायणो हषीकेशो भगवान्सात्वताम्पति: ॥
३॥
अत्र--यहाँ, श्रीमद्भागवत में; सड्डी्तित:--पूरी तरह प्रशंसित; साक्षात्-प्रत्यक्ष; सर्व-पाप--सारे पापों का; हरः --हर्ता;हरिः--भगवान् हरि; नारायण:--नारायण; हषीकेश: --हषीकेश; भगवान्-- भगवान्; सात्वताम्--यदुओं के; पति: --स्वामी |
यह ग्रंथ उन भगवान् श्री हरि का पूर्ण गुणगान करने वाला है, जो अपने भक्तों के सारेपापों को दूर करने वाले हैं।
भगवान् का यह गुणगान नारायण, हषीकेश तथा सात्वतों केप्रभु के रूप में किया गया है।
"
अत्र ब्रह्म परं गुह्ां जगतः प्रभवाप्ययम् ।
ज्ञानं च तदुपाख्यान प्रोक्त विज्ञानसंयुतम् ॥
४॥
अन्न--यहाँ; ब्रह्म-- परब्रह्म; परमू--परम; गुह्ममू--गोपनीय; जगत: --इस ब्रह्माण्ड के; प्रभव--सृष्टि; अप्ययम्--तथासंहार; ज्ञामम्ू--ज्ञान; च--तथा; तत्-उपाख्यानमू--उसका अनुशीलन करने के साधन; प्रोक्तम्--कहे हुए; विज्ञान--दिव्यअनुभूति; संयुतम्-से युक्त |
यह ग्रंथ इस ब्रह्माण्ड के सृजन तथा संहार के स्त्रोत परब्रह्म के रहस्य का वर्णन करताहै।
यही नहीं, इसमें उनके देवी ज्ञान के साथ साथ उसके अनुशीलन की विधि तथा मनुष्यद्वारा प्राप्त होने वाली दिव्य अनुभूति का भी वर्णन हुआ है।
"
भक्तियोगः समाख्यातो वैराग्यं च तदाश्रयम् ।
पारीक्षितमुपाख्यानं नारदाख्यानमेव च ॥
५॥
भक्ति-योग:--भक्ति की विधि; समाख्यात:-- भलीभाँति कही गई; वैराग्यमू--वैराग्य; च--तथा; तत्-आश्रयम्--उससेगौण; पारीक्षितम्--महाराज परीक्षित का; उपाख्यानम्--इतिहास; नारद--नारद का; आख्यानमू--इतिहास; एव--निस्सन्देह; च--भी |
इसमें भक्ति की विधि के साथ साथ वैराग्य का गौण स्वरूप तथा महाराज परीक्षित एवंनारद मुनि के इतिहास का भी वर्णन हुआ है।
"
प्रायोपवेशो राजर्षेविप्रशापात्परीक्षित: ।
शुकस्य ब्रह्मर्षभस्य संवादश्च परीक्षित: ॥
६॥
प्राय-उपवेश: --आमरण उपवास; राज-ऋषे: --राजर्षि के; विप्र-शापात्--ब्राह्मण-पुत्र के शाप के कारण; परीक्षित:--राजा परीक्षित का; शुकस्य--शुकदेव की; ब्रह्य-ऋषभस्य--ब्राह्मण- श्रेष्ठ; संवाद: --वार्ता; च--तथा; परीक्षित:--परीक्षित से |
इसके साथ ही ब्राह्मण-पुत्र के शाप के शमनार्थ परीक्षित का आमरण उपवास करनातथा परीक्षित और ब्राह्मण- श्रेष्ठ शुकदेव के मध्य हुई वार्ता का भी वर्णन हुआ है।
"
योगधारणयोत्क्रान्ति: संवादो नारदाजयो: ।
अवतारानुगीतं च सर्ग: प्राधानिकोग्रत: ॥
७॥
योग-धारणया--योग में ध्यान स्थिर करके; उत्क्रान्ति:--मृत्यु के समय मोक्ष-लाभ; संवाद: --वार्ता; नारद-अजयो:--नारद तथा ब्रह्मा के बीच; अवतार-अनुगीतम्-- भगवान् के अवतारों की सूची प्रस्तुत करना; च--तथा; सर्ग:--सृष्टिक्रिया; प्राधानिक: --अव्यक्त प्रकृति से; अग्रतः--आगे-आगे।
भागवत बतलाती है कि किस तरह योग में ध्यान स्थिर करके मृत्यु के समय मोक्ष प्राप्तकिया जा सकता है।
इसमें नारद तथा ब्रह्मा के बीच हुईं वार्ता, भगवान् के अवतारों कीगणना तथा भौतिक प्रकृति की अव्यक्त अवस्था से लेकर क्रमशः यह ब्रह्माण्ड जिस तरहबना, उसका भी वर्णन हुआ है।
"
विदुरोद्धवसंवादः क्षत्तृमैत्रेययोस्तत: ।
पुराणसंहिताप्रश्नो महापुरुषसंस्थिति: ॥
८ ॥
विदुर-उद्धव--विदुर तथा उद्धव के बीच हुई; संवाद:--चर्चा; क्षत्तृ-मैत्रेययो: --विदुर तथा मैत्रेय के बीच; तत:--तब;पुराण-संहिता--पुराणों के संकलन के विषय में; प्रश्न: --प्रश्न; महा-पुरुष--भगवान् के भीतर; संस्थिति:--सृष्टि कालय।
इस शास्त्र में उद्धव तथा मैत्रेय के साथ विदुर के संवादों, इस पुराण के विषय में प्रश्न तथा प्रलय के समय भगवान् के शरीर में सृष्टि के विलीन होने का भी वर्णन हुआ है।
"
ततः प्राकृतिक: सर्ग: सप्त वैकृतिकाश्च ये ।
ततो ब्रह्माण्डसम्भूतिवैंराज: पुरुषो यत: ॥
९॥
ततः--तब; प्राकृतिक:--भौतिक प्रकृति से; सर्ग:--सृष्टि; सप्त--सात; बैकृतिका:--विकारों से उत्पन्न सृष्टि कीअवस्थाएँ; च--तथा; ये--जो; ततः--तत्पश्चात्; ब्रह्म-अण्ड--ब्रह्माण्ड के अंडे का; सम्भूति:--निर्माण; बैराज:पुरुष:-- भगवान् का विश्व रूप; यत:--जिससे।
प्रकृति के गुणों के क्षोभ से उत्पन्न सृष्टि, तात्विक विकारों से विकास की सात अवस्थाएँतथा उस विश्व अंडे का निर्माण जिससे भगवान् के विश्व रूप का उदय होता है--इन सबोंका इसमें पूरी तरह वर्णन हुआ है।
"
'कालस्य स्थूलसूक्ष्मस्थ गति: पद्मसमुद्धव: ।
भुव उद्धरणेम्भोधेहिरण्याक्षवधो यथा ॥
१०॥
कालस्य--काल की; स्थूल-सूक्ष्मस्थ--स्थूल तथा सूक्ष्म; गति:--गति; पद्य--कमल का; समुद्धव: --उत्पन्न होना;भुव:--पृथ्वी का; उद्धरणे--उद्धार करने के सम्बन्ध में; अम्भोधे: --सागर से; हिरण्याक्ष-वध: --हिरण्याक्ष का वध;यथा--जिस तरह हुआ।
अन्य विषयों में काल की स्थूल तथा सूक्ष्म गतियाँ, गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि सेकमल की उत्पत्ति तथा हिरण्याक्ष असुर का वध जब गर्भोदक सागर से पृथ्वी का उद्धारहुआ, सम्मिलित हैं।
"
ऊर्ध्वतिर्यगवाक्सर्गो रुद्रसर्गस्तथेव च ।
अर्धनारीश्वरस्थाथ यतः स्वायम्भुवो मनु; ॥
११॥
ऊर्ध्व--उच्च योनियों, अर्थात् देवताओं का; तिर्यक्--पशुओं का; अवाक्--तथा निम्न योनियों का; सर्ग:--सृजन;रुद्र--शिव की; सर्ग:--उत्पत्ति; तथा--और; एव--निस्सन्देह; च-- भी; अर्ध-नारी-- आधे पुरुष तथा आधे नारी रूप में;ईश्वरस्थ--ई श्र का; अथ--तब; यत: --जिससे; स्वायम्भुव: मनु:--स्वायंभुव मनु
भागवत में देवताओं, पशुओं तथा आसुरी योनियों की उत्पत्ति, भगवान् रुद्र के जन्मतथा अर्धनारीश्वर से स्वायम्भुव मनु के प्राकट्य का भी वर्णन हुआ है।
"
शतरूपा च या स्त्रीणामाद्या प्रकृतिरुत्तमा ।
सन््तानो धर्मपत्नीनां कर्दमस्य प्रजापते: ॥
१२॥
शतरूपा--शतरूपा; च--तथा; या--जो; स्त्रीणाम्-स्त्रियों की; आद्या--पहली; प्रकृति: --प्रिया; उत्तमा--उत्तम;सनन््तान:--सन््तान; धर्म-पत्नीनाम्ू--पवित्र पत्नियों की; कर्दमस्य--कर्दम ऋषि की; प्रजापते:--प्रजापति |
इसमें प्रथम स्त्री शतरूपा, जोकि मनु की उत्तम प्रिया थीं तथा प्रजापति कर्दम की पवित्रपत्नियों की सन््तान का भी वर्णन हुआ है।
"
अवतारो भगवत: कपिलस्य महात्मन: ।
देवहूत्याश्व संवाद: कपिलेन च धीमता ॥
१३॥
अवतार:--अवतरण; भगवत:-- भगवान्; कपिलस्थ--कपिल का; महा-आत्मन:--परमात्मा; देवहूत्या:--देवहूति का;च--तथा; संवाद:--संवाद; कपिलेन--कपिल के साथ; च--तथा; धी-मता--बुद्धिमान |
भागवत में महान् कपिल मुनि के रूप में भगवान् के अवतार का और इस विद्वानमहात्मा तथा उनकी माता देवहूति के बीच हुई वार्ता का अंकन है।
"
नवब्रह्मसमुत्पत्तिर्द क्षजज्ञविनाशनम् ।
ध्रुवस्य चरितं पश्चात्पूथो: प्राचीनबर्हिष: ॥
१४॥
नारदस्य च संवादस्ततः प्रैयत्रतं द्विजा: ।
नाभेस्ततोनुचरितमृषभस्य भरतस्य च ॥
१५॥
नव-ब्रह्म--नौ ब्राह्मणों ( मरीचि आदि ब्रह्मा के पुत्रों ) की; समुत्पत्ति:--सन्तानें; दक्ष-यज्ञ-दक्ष द्वारा सम्पन्न यज्ञ का;विनाशनमू--विध्वंस; श्रुवस्थ-- श्रुव महाराज का; चरितम्--इतिहास; पश्चात्--तब; पृथो:--राजा पृथु का;प्राचीनबर्हिष: -- प्राचीनबर्हि का; नारदस्थ--नारद मुनि का; च--तथा; संवाद: --संवाद; ततः--तत्पश्चात् प्रैयत्रतम्--महाराज प्रियत्रत की कथा; द्विजा:--हे ब्राह्मणो; नाभे:--नाभि का; तत:--तब; अनुचरितम्--जीवन चरित्र; ऋषभस्य--राजा ऋषभ का; भरतस्य--भरत महाराज का; च--तथा
इसमें नौ महान् ब्राह्मणों की सन््तानों, दक्ष के यज्ञ के विध्वंस तथा श्रुव महाराज केइतिहास, तत्पश्चात् राजा पृथु एवं राजा प्राचीनबर्हिं की कथाओं, प्राचीनबर्हिं तथा नारद केबीच संवाद तथा महाराज प्रियत्रत के जीवन का वर्णन हुआ है।
तत्पश्चात् हे ब्राह्मणो,भागवत में राजा नाभि, भगवान् ऋषभ तथा राजा भरत के चरित्र एवं कार्यों का वर्णनमिलता है।
"
द्वीपवर्षसमुद्राणां गिरिनद्युपवर्णनम् ।
ज्योतिश्नक्रस्य संस्थानं पातालनरकस्थिति: ॥
१६॥
द्वीप-वर्ष-समुद्राणाम्-द्वीपों, बड़े द्वीपों तथा समुद्रों का; गिरि-नदी--पर्वतों तथा नदियों का; उपवर्णनम्--विस्तृत वर्णन;ज्योति:-चक्रस्य--स्वर्गिक मण्डल की; संस्थानम्--व्यवस्था; पाताल--अधोलोकों की; नरक--तथा नरक की;स्थिति:--स्थिति ।
भागवत में पृथ्वी के महाद्वीपों, वर्षों, समुद्रों, पर्वतों तथा नदियों का विस्तृत वर्णनमिलता है।
इसमें स्वर्गिक मण्डल की व्यवस्था तथा पाताल और नरक में विद्यमान स्थितियोंका भी वर्णन हुआ है।
"
दक्षजन्म प्रचेतोभ्यस्तत्पुत्रीणां च सन्तति: ।
यतो देवासुरनरास्तिर्यड्नगखगादय: ॥
१७॥
दक्ष-जन्म--दक्ष का जन्म; प्रचेतोभ्य:--प्रचेताओं से; तत्-पुत्रीणाम्--उसकी पुत्रियों की; च--तथा; सन्तति:--सन्तान;यतः--जिससे; देव-असुर-नरा:--देवता, असुर तथा मनुष्य; तिर्यक्-नग-खग-आदय:--पशु, सर्प, पक्षी आदि योनियाँ।
इसमें प्रचेताओं के पुत्र रूप में प्रजापति दक्ष का पुनर्जन्म तथा दक्ष की पुत्रियों कीसंतति जिससे देवताओं, असुरों, मनुष्यों, पशुओं, सर्पों, पक्षियों आदि की जातियाँ प्रारम्भहुई--इन सबों का वर्णन हुआ है।
"
त्वाष्ट्स्य जन्मनिधन पुत्रयोश्च दितेद्विजा: ।
दैत्येश्वरस्य चरितं प्रह्मदस्य महात्मनः ॥
१८ ॥
त्वाप्टस्थ--त्वष्टा के पुत्र ( वृत्र ) का; जन्म-निधनम्--जन्म तथा मृत्यु; पुत्रयो: --दो पुत्रों, हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु का;च--तथा; दिते:--दिति का; द्विजा:--हे ब्राह्मणो; दैत्य-ई श्वरस्थ--सबसे बड़े देत्य; चरितम्--इतिहास; प्रह्मदस्य--प्रह्मदका; महा-आत्मन:--महात्मा |
हे ब्राह्मणो, भागवत में वृत्रासुर के तथा दिति-पुत्र हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु के जन्मोंतथा मृत्युओं का और उसी के साथ दिति के महानतम वंशज, महात्मा प्रह्ाद, के इतिहासका वर्णन हुआ है।
"
मन्वन्तरानुकथन गजेन्द्रस्थ विमोक्षणम् ।
मन्वन्तरावताराश्च विष्णोईयशिरादय: ॥
१९॥
मनु-अन्तर--विभिन्न मनुओं के शासनों के; अनुकथनम्--विस्तृत विवरण; गज-इन्द्रस्य--हाथियों के राजा का;विमोक्षणम्--मोक्ष; मनु-अन्तर-अवतारा: --प्रत्येक मन्वन्तर में भगवान् के विशिष्ट अवतार; च--तथा; विष्णो: -- भगवान्विष्णु के; हयशिर-आदय:--यथा हयशीर्ष |
इसमें प्रत्येक मनु का शासनकाल, गजेन्द्र के मोक्ष तथा प्रत्येक मन्वन्तर में भगवान्विष्णु के विशिष्ट अवतारों, यथा भगवान् हयशीर्ष, का भी वर्णन है।
"
कौर्म मात्स्यं नारसिंहं वामनं च जगत्पते: ।
क्षीरोदमथनं तद्गदमृतार्थे दिवौकसाम् ॥
२०॥
कौर्मम्ू--कछुए के रूप में अवतार; मात्स्यम्ू--मछली का; नारसिंहम्--नृसिंह के रूप में; वामनम्--वामन के रूप में;च--तथा; जगतू-पते: --ब्रह्मण्ड के स्वामी का; क्षीर-उद--दूध के सागर का; मथनम्--मन्थन; तद्ब॒त्--इस प्रकार;अमृत-अर्थे--अमृत के हेतु; दिव-ओकसाम्ू-स्वर्ग के निवासियों द्वारा।
भागवत में कूर्म, मत्स्य, नरसिंह तथा वामन के रूप में ब्रह्माण्ड के स्वामी के प्राकट्योंएवं अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं द्वारा क्षीर सागर के मंथन का भी वर्णन है।
"
देवासुरमहायुद्धं राजवंशानुकीर्तनम् ।
इक्ष्वाकुजन्म तद्वृंशः सुद्युम्नस्य महात्मतः ॥
२१॥
देव-असुर--देवताओं तथा असुरों का; महा-युद्धम्-महान् युद्ध; राज-वंश--राजाओं के वंशों का; अनुकीर्तनम्--एक -एक करके सुनाया जाना; इक्ष्वाकु-जन्म--इक्ष्वाकु का जन्म; ततू-वंश:--उसका वंश; सुद्यम्नस्य--तथा सुद्युम्न का( वंश ); महा-आत्मन:--महात्मा |
देवताओं तथा असुरों के बीच लड़ा गया महायुद्ध, विभिन्न राजाओं के वंशों काक्रमबद्ध वर्णन तथा इश्ष्वाकु के जन्म, उसके वंश एवं महात्मा सुद्युम्न के वंश से सम्बन्धितकथाएँ-इन सबों को इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है।
"
इलोपाख्यानमत्रोक्त तारोपाख्यानमेव च ।
सूर्यवंशानुक थनं शशादाद्या नृगादय: ॥
२२॥
इला-उपाख्यानम्--इला का इतिहास; अच्च--इसमें; उक्तम्--कहा गया है; तारा-उपाख्यानम्--तारा का इतिहास; एव--निस्सन्देह; च--भी; सूर्य-वंश--सूर्यदेव के वंश की; अनुकथनम्--क था; शशाद-आद्या:--शशाद इत्यादि; नृग-आदय:--नृग इत्यादि
इसमें इला तथा तारा के इतिहास तथा सूर्य देव के वंशजों का जिनमें शशाद तथा नृगजैसे राजा सम्मिलित हैं, वर्णन हुआ है।
"
सौकन्यं चाथ शर्याते: ककुत्स्थस्य च धीमत: ।
खट्वाडुस्य च मान्धातु: सौभरे: सगरस्य च ॥
२३॥
सौकन्यम्--सुकन्या की कथा; च--तथा; अथ--तब; शर्याते:--शर्याति की; ककुत्स्थस्य--ककुत्स्थ की; च--तथा;धी-मतः--बुद्धिमान राजा; खट्वाड्ुस्य--खट्वांग की; च--तथा; मान्धातु:--मान्धाता की; सौभरे: --सौभरि की;सगरस्य--सगर की; च--तथा
इसमें सुकन्या, शर्याति, बुद्धिमान ककुत्स्थ, खट्वांग, मान्धाता, सौभरि तथा सगर कीकथाएँ कही गई हैं।
"
रामस्य कोशलेन्द्रस्य चरितं किल्बिषापहम् ।
निमेरड्भपरित्यागो जनकानां च सम्भव: ॥
२४॥
रामस्थ--भगवान् रामचन्द्र की; कोशल-इन्द्रस्य--कोशल के राजा; चरितम्--लीलाएँ; किल्बिष-अपहम्--समस्त पापोंको भगाने वाली; निमेः--राजा निमि का; अड्भ-परित्याग: --शरीर त्याग; जनकानाम्ू--जनक के वंशजों की; च--तथा;सम्भव: --उत्पत्ति |
भागवत में कोशल के राजा भगवान् रामचन्द्र की पवित्रकारिणी लीलाओं का वर्णन हैऔर उसी के साथ यह भी बताया गया है कि राजा निमि ने किस तरह अपना भौतिक शरीरछोड़ा।
इसमें राजा जनक के वंशजों की उत्पत्ति का भी उल्लेख हुआ है।
"
रामस्य भार्गवेन्द्रस्थ नि:क्षतूईकरणं भुव: ।
ऐलस्य सोमवंशस्य ययातेर्नहुषस्थ च ॥
२५॥
दौष्मन्तेर्भरतस्यापि शान्तनोस्तत्सुतस्य च ।
ययातेरज्येप्ठपुत्रस्थ यदोर्वशो उनुकीर्तित: ॥
२६॥
रामस्थ--परशुराम का; भार्गव-इन्द्रस्य--भूगु मुनि के वंशजों में सबसे महान्; निःक्षत्री-करणम्--सरे क्षत्रियों कानिष्कासन; भुव:--पृथ्वी के; ऐलस्थ--महाराज ऐल का; सोम-वंशस्य--चन्द्र देव के वंश का; ययाते: --ययाति का;नहुषस्थ--नहुष का; च--तथा; दौष्मन्ते: --दुष्मन्त के पुत्र; भरतस्य--भरत का; अपि--भी; शान्तनो: --राजा शान्तनुका; तत्--उसका; सुतस्य--पुत्र, भीष्म का; च--तथा; ययाते: --ययाति के; ज्येष्ठ-पुत्रस्थ--ज्येष्ठ पुत्र; यदो:--यदु का;वंश:--वंश; अनु-कीर्तित:--महिमा-गायन किया गया है।
श्रीमद्भागवत में वर्णन हुआ है कि किस तरह भृगुवंशियों में सबसे महान् भगवान्परशुराम ने पृथ्वी से सारे क्षत्रियों का संहार किया।
इसमें उन यशस्वी राजाओं के जीवनों कावर्णन हुआ है, जो चन्द्रवंश में प्रकट हुए--यथा ऐल, ययाति, नहुष, दुष्मन्त पुत्र भरत,शान्तनु तथा शान््तनु पुत्र भीष्म जैसे राजा।
इसके साथ ही ययाति के ज्येष्ठ पुत्र राजा यदु द्वारास्थापित महान् वंश का भी वर्णन हुआ है।
"
यत्रावतीर्णो भगवान् कृष्णाख्यो जगदी श्वर: ।
वसुदेवगृहे जन्म ततो वृद्द्धिश्च गोकुले ॥
२७॥
यत्र--जिस वंश में; अवतीर्ण:--अवतरित हुए; भगवान् --पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्; कृष्ण-आख्य:--कृष्ण नामक; जगतू-ईश्वरः--ब्रह्माण्ड के स्वामी; वसुदेव-गृहे--वसुदेव के घर में; जन्म--जन्म; ततः--तत्पश्चात्; वृद्धिः--बड़ा होना; च--तथा; गोकुले--गोकुल में |
जिस तरह ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण यदुवंश में अबतरित हुए, जिस तरहउन्होंने बसुदेव के घर में जन्म लिया और जिस तरह वे गोकुल में बड़े हुए--इन सबका इसमेंविस्तार से वर्णन हुआ है।
"
तस्य कर्माण्यपाराणि कीर्तितान्यसुरद्विष: ।
पूतनासुपयःपानं शकटोच्चाटनं शिशो: ॥
२८॥
तृणावर्तस्य निष्पेषस्तथेव बकवत्सयो: ।
अघासुरवधो धात्रा वत्सपालावगृहनम् ॥
२९॥
तस्य--उसके; कर्माणी--कार्यकलाप; अपाराणि--असंख्य; कीर्तितानि--स्तुति किये जाते हैं; असुर-द्विष:--असुरों केशत्रु; पूतना--पूतना के; असु--प्राण; पथयः--दूध के; पानम्ू--पीना; शकत--गाड़ी का; उच्चाटनम्--भंजन; शिशो:--शिशु द्वारा; तृणावर्तस्थ--तृणावर्त का; निष्पेष:--दलन; तथा--और; एव--निस्सन्देह; बक-वत्सयो: --बक तथा वत्सनामक असुरों के; अध-असुर--अघ नामक असुर का; वध:--वध; धात्रा--ब्रह्मा द्वारा; वत्स-पाल--बछड़े तथाग्वालबालों का; अवगूृहनम्--छिपाया जाना।
इसमें असुरों के शत्रु श्रीकृष्ण की असंख्य लीलाओं का, जिनमें पूतना के स्तनों से दुग्धके साथ प्राण को चूस लेने, शकट भंजन, तृणावर्त दलन, बकासुर-वध, वत्सासुर तथाअघासुर के वध की बाल-लीलाएँ और ब्रह्मा द्वारा उनके बछड़ों तथा ग्वालबाल मित्रों कागुफा में छिपाये जाने के समय की गई लीलाओं का महिमा-गायन है।
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धेनुकस्य सहश्चातु: प्रलम्बस्थ च सड्झ्षयः ।
गोपानां च परित्राणं दावाग्ने: परिसर्पत: ॥
३०॥
धेनुकस्य--धेनुक का; सह- भ्रातु:-- साथियों समेत; प्रलम्बस्थ--प्रलम्ब का; च--तथा; सड्क्षय:--विनाश; गोपानामू--ग्वालबालों की; च--तथा; परित्राणम्--रक्षा; दाव-अग्ने: --जंगल की आग से; परिसर्पत: --घेरे हुई |
श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि किस तरह भगवान् कृष्ण तथा बलराम नेधेनुकासुर तथा उसके साथियों को मारा, किस तरह बलराम ने प्रलम्बासुर का विनाश कियाऔर किस तरह कृष्ण ने दावाग्नि से घिरे ग्वालबालों को बचाया।
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दमन कालियस्याहेर्महाहेर्नन्दमोक्षणम् ।
ब्रतचर्या तु कन्यानां यत्र तुष्टोउच्युतो ब्रते: ॥
३१॥
प्रसादो यज्ञपत्नीभ्यो विप्राणां चानुतापनम् ।
गोवर्धनोद्धारणं च शक्रस्य सुरभेरथ ॥
३२॥
यज्ञभिषेकः कृष्णस्य स्त्रीभि: क्रीडा च रात्रिषु ।
श्डुचूडस्य दुर्बुद्धेर्वधो उरिष्टस्थ केशिन: ॥
३३॥
दमनम्--दमन; कालियस्य--कालिय का; अहे:--सर्प; महा-अहेः --विशाल सर्प से; नन्द-मोक्षणम्--महाराज नन्द कोछुड़ाना; ब्रत-चर्या--ब्रत रखना; तु--तथा; कन्यानाम्--गोपियों का; यत्र--जिससे; तुष्ट: --तुष्ट हुए; अच्युत:-- भगवान्कृष्ण; ब्रतैः--उनके ब्रतों से; प्रसाद: --कृपा; यज्ञ-पत्लीभ्य:--वैदिक यज्ञ करने वाले ब्राह्मण पत्तियों को; विप्राणाम्--ब्राह्मण पतियों का; च--तथा; अनुतापनम्--पश्चाताप; गोवर्धन-उद्धारणम्--गोवर्धन पर्वत का उठाया जाना; च--तथा;शक्रस्य--इनद्र द्वारा; सुरभेः--सुरभि गाय के साथ; अथ--तब; यज्ञ-अभिषेक:--पूजा तथा अनुष्ठानिक स्नान कराना;कृष्णस्य--भगवान् कृष्ण का; स्त्रीभि:--स्त्रियों के साथ; क्रीडा--खेलकूद; च--तथा; रात्रिषु--रातों में; शट्डुचूडस्य--शंखचूड़ असुर का; दुर्बुद्धेः--मूर्ख; बध:--मारा जाना; अरिष्टस्थ--अरिष्ट का; केशिन:--केशी का।
कालिय नाग का दमन, नन्द महाराज का विशाल सर्प से बचाया जाना, तरुण गोपियोंद्वारा कठिन ब्रत किया जाना और इस तरह कृष्ण का तुष्ट होना, उन वैदिक ब्राह्मणों कीपश्चाताप कर रही पत्नियों के प्रति कृपा-प्रदर्शन, गोवर्धन पर्वत के उठाये जाने के बाद इन्द्रतथा सुरभि गाय द्वारा पूजा तथा अभिषेक किया जाना, गोपियों के साथ कृष्ण कीरात्रिकालीन लीलाएँ तथा शंखचूड़, अरिष्ट एवं केशी जैसे मूर्ख असुरों का वध--ये सारीलीलाएँ इसमें विस्तार से वर्णित हैं।
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अक्रूरागमनं पश्चात्प्रस्थानं रामकृष्णयो: ।
ब्रजस्त्रीणां विलापश्च मथुरालोकनं ततः ॥
३४॥
अक्रूर--अक्रूर का; आगमनम्-- आना; पश्चात्--उसके बाद; प्रस्थानम्-- प्रस्थान; राम-कृष्णयो: >बलराम तथा कृष्णका; ब्रज-स्त्रीणाम्--वृन्दावन की स्त्रियों का; विलाप:--शोक; च--तथा; मथुरा-आलोकनमू--मथुरा का देखना;ततः--तब
भागवत में अक्रूर के आने, तत्पश्चात् कृष्ण तथा बलराम का जाना, गोपियों का विलापऔर मथुरा भ्रमण का वर्णन मिलता है।
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गजमुष्टिकचाणूरकंसादीनां तथा वध: ।
मृतस्यानयनं सूनो: पुनः सान्दीपनेग्गुरो: ॥
३५॥
गज--कुवलयापीड़ नामक हाथी का; मुष्टिक-चाणूर--मुष्टिक तथा चाणूर नामक मल्लों का; कंस--कंस का;आदीनाम्--तथा अन्यों का; तथा-- भी; वध:--मारा जाना; मृतस्य--मरे हुए; आनयनम्--वापस लाया जाना; सूनो: --पुत्र का; पुन:--फिर से; सान्दीपने: --सान्दीपनि के; गुरो:--अपने गुरु |
इसमें इसका भी वर्णन हुआ है कि किस तरह कृष्ण तथा बलराम ने कुवलयापीड़हाथी, मुष्टिक तथा चाणूर मल्लों एवं कंस आदि असुरों का वध किया और किस तरह कृष्णअपने गुरु सान्दीपनि मुनि के मृत पुत्र को वापस ले आये।
मथुरायां निवसता यदुचक्रस्य यत्प्रियम् ।
कृतमुद्धवरामाभ्यां युतेन हरिणा द्विजा: ॥
३६॥
मथुरायाम्-मथुरा में; निवसता--रहते हुए; यदु-चक्रस्थ--यदुवंशियों के हेतु; यत्--जो; प्रियम्--तृप्तिकारक; कृतम्--किया गया; उद्धव-रामाभ्याम्--उबद्भव तथा बलराम के साथ; युतेन--युक्त; हरिणा--हरि द्वारा; द्विजा:--हे ब्राह्मणो |
तत्पश्चात् हे ब्राह्मणो, इस शास्त्र में बतलाया गया है कि किस तरह उद्धव और बलराम के साथ मथुरा में निवास करते हुए भगवान् हरि ने यदुवंश की तुष्टि के लिए लीलाएँ कीं।
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जरासन्धसमानीतसैन्यस्य बहुशो वध: ।
घातनं यवनेन्द्रस्य कुशस्थल्या निवेशनम् ॥
३७॥
जरासन्ध--जरासश्थ द्वारा; समानीत--एकत्र की गई; सैन्यस्थ--सेना का; बहुश:--अनेक बार; वध:--विनाश;घातनम्ू--वध; यवन-इन्द्रस्य--बर्बरों के राजाओं का; कुशस्थल्या:--द्वारका की; निवेशनम्--स्थापना |
इसके साथ ही जरासन्ध द्वारा लाईं गई अनेक सेनाओं का संहार, बर्बर राजा कालयवनका वध तथा द्वारकापुरी की स्थापना का भी वर्णन हुआ है।
"
आदानं पारिजातस्य सुधर्माया: सुरालयात् ।
रुक्मिण्या हरणं युद्धे प्रमथ्य द्विषतो हरे: ॥
३८ ॥
आदानम्-प्राप्त करना; पारिजातस्य--पारिजात वृक्ष का; सुधर्माया:--सुधर्मा सभाभवन का; सुर-आलयात्--देवताओंके धाम से; रुक्मिण्या:--रुक्मिणी का; हरणम्--हरण; युद्धे--युद्ध में; प्रमथ्य--हराकर; द्विषतः --अपने प्रतिद्वन्द्रियोंको; हरेः-- भगवान् हरि द्वारा
इस कृति में इसका भी वर्णन है कि भगवान् कृष्ण किस तरह स्वर्ग से पारिजात वृक्षतथा सुधर्मा सभाभवन लाये और उन्होंने किस तरह युद्ध में अपने प्रतिद्वन्द्रियों को हराकररुक्मिणी का हरण किया।
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हरस्य जृम्भणं युद्धे बाणस्य भुजकृन्तनम् ।
प्राग्ज्योतिषपतिं हत्वा कन्यानां हरणं च यत् ॥
३९॥
हरस्य--शिवजी का; जृम्भणम्--जबरन जँभाई लाकर; युद्धे--युद्ध में; बाणस्थ--बाण की; भुज--भुजाओं का;कृन्तनम्--काटा जाना; प्राग्ज्योतिष-पतिम्--प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी को; हत्वा--मार कर; कन्यानाम्--कुमारियों का;हरणम्--हरण करना; च--तथा; यत्--जिससे |
इसमें इसका भी वर्णन हुआ है कि कृष्ण ने किस तरह बाणासुर के साथ युद्ध में, शिवको जँभाई दिलाकर परास्त किया, किस तरह उन्होंने बाणासुर की भुजाएँ काटीं और किसतरह प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी को मारा तथा उसके बाद उस नगरी में बन्दी की गई कुमारियोंको छुड़ाया।
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चैद्यपौण्ड्रकशाल्वानां दन्तवक्रस्य दुर्मते: ।
शम्बरो द्विविद: पीठो मुरः पञ्ञजनादयः ॥
४०॥
माहात्म्यं च वधस्तेषां वाराणस्याश्व॒ दाहनम् ।
भारावतरणं भूमेर्निमित्तीकृत्य पाण्डवान् ॥
४१॥
चैद्य--चेदि राजा शिशुपाल का; पौण्डूक--पौण्ड्रक का; शाल्वानाम्ू--तथा शाल्व का; दन्तवक्रस्य--दन्तवक़र का;दुर्मतेः--मूर्ख ; शम्बर: द्विविद: पीठ:--शम्बर, द्विविद तथा पीठ नामक असुरों; मुरः पञ्णनजन-आदय:--मुर, पञ्ञजन तथाअन्यों; माहात्म्यम्ू--पराक्रम; च--तथा; वध:--मृत्यु; तेषामू--उनकी; वाराणस्या: --वाराणसी ( बनारस ) नामक पवित्रनगरी का; च--तथा; दाहनम्--जलाया जाना; भार-- भार का; अवतरणम्--उतारा जाना या कमी लाना; भूमे:--पृथ्वीका; निमित्ती-कृत्य--कारण बनाकर; पाण्डवान्--पाण्डु-पुत्रों को |
भागवत में चेदिराज, पौण्ड्रक, शाल्व, मूर्ख दन्तवक्र, शम्बर, द्विविद, पीठ, मुर,पञ्ञजन तथा अन्य असुरों के पराक्रमों तथा मृत्युओं के वर्णन के साथ-साथ बनारस केजलाये जाने का वर्णन है।
इसमें यह भी बताया गया है कि किस तरह कृष्ण ने कुरुक्षेत्र केयुद्ध में पाण्डवों को लगाकर पृथ्वी के भार को कम किया।
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विप्रशापापदेशेन संहार: स्वकुलस्य च ।
उद्धवस्य च संवादो वसुदेवस्य चाद्भुतः: ॥
४२॥
यत्रात्मविद्या हाखिला प्रोक्ता धर्मविनिर्णय: ।
ततो मर्त्यपरित्याग आत्मयोगानुभावत: ॥
४३॥
विप्र-शाप--ब्राह्मण के शाप के; अपदेशेन--बहाने; संहार:--मारा जाना; स्व-कुलस्य-- अपने ही परिवार का; च--तथा; उद्धवस्य--उद्धव के साथ; च--तथा; संवाद:--बातचीत; वसुदेवस्य--( नारद के साथ ) वासुदेव की; च--तथा;अद्भुतः--अद्भुत्; यत्र--जिसमें; आत्म-विद्या--आत्मा का विज्ञान; हि--निस्सन्देह; अखिला--पूर्णरूपेण; प्रोक्ता--कहा गया; धर्म-विनिर्णय: --धर्म का सुनिश्चित किया जाना; तत:--तब; मर्त्य--मर्त्य जगत का; परित्याग: --त्याग;आत्म-योग--अपनी योगशक्ति के; अनुभावत:--बल पर
भगवान् द्वारा ब्राह्मण शाप के बहाने अपने वंश की समाप्ति, नारद के साथ वसुदेव कासंवाद, उद्धव तथा कृष्ण के बीच असाधारण बातचीत जो आत्म-विज्ञान को विस्तार सेप्रकट करने वाली है और मानव समाज के धर्म की व्याख्या करती है और फिर भगवान्कृष्ण द्वारा अपने योग-बल से इस मर्त्यलोक का परित्याग करना--इन सारी घटनाओं काभागवत में वर्णन हुआ है।
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युगलक्षणवृत्तिश्न कलौ नृणामुपप्लव: ।
चतुर्विधश्च प्रलय उत्पत्तिस्त्रविधा तथा ॥
४४॥
युग--विभिन्न युगों के; लक्षण--लक्षण; वृत्तिः--तथा संगत कार्य; च-- भी; कलौ--वर्तमान कलियुग में; नृणाम्--मनुष्यों के; उपप्लव:--पूर्ण उत्पात; चतु:-विध:--चार प्रकार की; च--तथा; प्रलयः--प्रलय की विर्धा; उत्पत्ति: --सृष्टि;त्रि-विधा--तीन प्रकार की; तथा-- और
इस कृति में विभिन्न युगों में लोगों के लक्षण तथा आचरण, कलियुग में मनुष्यों द्वाराअनुभव की जाने वाली अव्यवस्था, चार प्रकार के प्रलय तथा तीन प्रकार की सृष्टि का भी वर्णन हुआ है।
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देहत्यागश्च राजर्षेविंष्णुरातस्य धीमत: ।
शाखाप्रणयनमृषेर्मार्कण्डेयस्य सत्कथा ।
महापुरुषविन्यास: सूर्यस्य जगदात्मन: ॥
४५॥
देह-त्याग:--शरीर का छोड़ना; च--तथा; राज-ऋषे:--सन््त साधु स्वभाव वाले राजा द्वारा; विष्णु-रातस्य--परीक्षितका; धी-मतः--बुर्द्धिमान; शाखा--वेदों की शाखाओं का; प्रणयनम्-- प्रसार; ऋषे:--ऋषि व्यासदेव से;मार्कण्डेयस्य--मार्कण्डेय ऋषि की; सत् -कथा--शुभ कथा; महा-पुरुष--भगवान् के विश्व रूप का; विन्यास:--विस्तृतव्यवस्था; सूर्यस्थ--सूर्य की; जगत्-आत्मन:--ब्रह्माण्ड की आत्मा स्वरूप
इसमें बुद्धिमान तथा साधु स्वभाव वाले राजा विष्णुरात ( परीक्षित ) के निधन का,श्रील व्यासदेव द्वारा वेदों की शाखाओं के प्रसार की व्याख्या का, मार्कण्डेय ऋषि विषयकशुभ कथा का तथा भगवान् के विश्व रूप एवं ब्रह्माण्ड की आत्मा सूर्य के रूप में उनके रूपकी विस्तृत व्याख्या का भी विवरण है।
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इतिचोक्तं द्विजश्रेष्ठा यत्पृष्टोडहमिहास्मि वः ।
लीलावतारकर्माणि कीर्तितानीह सर्वशः ॥
४६॥
इति--इस प्रकार; च--और ; उक्तम्--कहा गया; द्विज-दश्रेष्ठा:--हे ब्राह्मण- श्रेष्ठ; यत्ू--जो; पृष्ट:--पूछा गया; अहम्--मैं; इह--यहाँ; अस्मि--हूँ; व: --तुम्हारे द्वारा; लीला-अवतार--अपने ही आनन्द के लिए भगवान् के दैवी अवतरण;कर्माणि--कार्य; कीर्तितानि--स्तुति किये गये; इह--इस शास्त्र में; सर्वश:--पूरी तरह से ॥
इस प्रकार हे ब्राह्मण-श्रेष्ठो, यहाँ पर तुम लोगों ने जो कुछ मुझसे पूछा था, वह सब मैंनेबतला दिया।
इस ग्रंथ में भगवान् के लीला अवतारों के कार्यकलापों का विस्तार सेगुणगान हुआ है।
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'पतित: स्खलितश्चार्त: क्षुत्ता वा विवशो गृणन् ।
हरये नम इत्युच्चैर्मुच्यते सर्वपातकात् ॥
४७॥
पतितः--गिरते हुए; स्खलित:--लड़खड़ाते; च--तथा; आर्त:--पीड़ा का अनुभव करते हुए; श्षुत्ता--छींकते हुए; वा--अथवा; विवश:--विवश होकर; गृणन्--कीर्तन करते हुए; हरये नम:--हरि को नमस्कार; इति--इस प्रकार; उच्चै: --जोर-जोर से; मुच्यते--मुक्त हो जाता है; सर्व-पातकात्--सभी पापों से |
यदि गिरते, लड़खड़ाते, पीड़ा अनुभव करते या छींकते समय कोई विवशता से भी उच्चस्वर से ' भगवान् हरि की जय हो ' चिल्लाता है, तो वह स्वतः सारे पापों से मुक्त हो जाताहै।
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सड्डीत्यमानो भगवाननन्तःश्रुतानुभावो व्यसन हि पुंसाम् ।
प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषंयथा तमोकॉ$< भ्रमिवातिवात: ॥
४८ ॥
सड्लीतत्यमान:--ठीक से कीर्तन किये जाने पर; भगवान्-- भगवान्; अनन्त:--असीम; श्रुत--सुना जाकर; अनुभाव:--उनकी शक्ति; व्यसनम्--कष्ट; हि--निस्सन्देह; पुंसामू--मनुष्यों के; प्रविश्य--प्रवेश करके; चित्तम्--हृदय में;विधुनोति--स्वच्छ कर देता है; अशेषम्--पूरी तरह से; यथा--जिस तरह; तम:--अंधकार; अर्क:--सूर्य; अभ्रम्--बादलों को; इब--सह्ृश; अति-वात:--प्रबल वायु।
जब लोग ठीक से भगवान् की महिमा का गायन करते हैं या उनकी शक्तियों के विषयमें श्रवण करते हैं, तो भगवान् स्वयं उनके हृदयों में प्रवेश करते हैं और सारे दुर्भाग्य को उसीतरह दूर कर देते हैं जिस तरह सूर्य अंधेरे को दूर करता है या कि प्रबल वायु बादलों को उड़ाले जाती है।
"
तेमृषा गिरस्ता हासतीरसत्कथान कथ्यते यद्धगवानधोक्षज: ।
तदेव सत्य तदु हैव मड़लंतदेव पुण्यं भगवद्गुणोदयम् ॥
४९॥
मृषा:--झूठे; गिर: --शब्द; ताः--वे; हि--निस्सन्देह; असती:--असत्य; असत्-कथा:--जो नित्य नहीं है उसकी व्यर्थचर्चा; न कथ्यते--नहीं कही जाती; यत्--जिसमें; भगवान्-- भगवान्; अधोक्षज: --दिव्य प्रभु; तत्--वह; एब--एकमात्र; सत्यम्-सत्य; तत्ू--वह; उ ह--निस्सन्देह; एब--एकमात्र; मड्गलम्--शुभ; तत्ू--वह; एव--एकमात्र;पुण्यम्--पवित्र; भगवत्-गुण--भगवान् के गुणों को; उदयम्--प्रकट करने वाला
जो शब्द दिव्य भगवान् का वर्णन नहीं करते अपितु क्षणिक व्यापारों की चर्चा चलातेहैं, वे निरे झूठे तथा व्यर्थ होते हैं।
केवल वे शब्द जो भगवान् के दिव्य गुणों को प्रकट करतेहैं, वास्तव में, सत्य, शुभ तथा पवित्र हैं।
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तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवंतदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।
तदेव शोकार्णवशोषण नृणांयदुत्तम:शलोकयशो<नुगीयते ॥
५०॥
तत्--वह; एव--निस्सन्देह; रम्यमू-- आकर्षक; रुचिरम्-- अच्छा लगने वाला; नवम् नवम्--नया से नया; तत्--वह;एव--निस्सन्देह; शश्वत्--निरन्तर; मनस:--मन से; महा-उत्सवम्--महान् उत्सव; तत्ू--वह; एव--निस्सन्देह; शोक -अर्णब--दुख का सागर; शोषणम्--सुखाने वाला; नृणाम्--मनुष्यों के लिए; यत्--जिसमें; उत्तम:शलोक--सर्व-प्रसिद्धभगवान् का; यशः--यश; अनुगीयते--गाया जाता है।
सर्व-प्रसिद्ध भगवान् के यश का वर्णन करने वाले वे शब्द आकर्षक, आस्वाद्य तथासदैव नवीन रहते हैं।
निस्सन्देह, ऐसे शब्द मन के लिए शाश्वत उत्सव हैं और वे कष्ट केसागर को सुखाने वाले हैं।
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न यद्वचश्चित्रपदं हरे्यशोजगत्पवित्रं प्रगुणीत कर्हिंचित् ।
तद्ध्वाड्ज्नतीऋथं न तु हंससेवितंयत्राच्युतस्तत्र हि साधवोमला: ॥
५१॥
न--नहीं; यत्--जो; वच:--वाणी; चित्र-पदम्--अलंकृत शब्द; हरेः--भगवान् के; यश:--यश; जगत्--ब्रह्माण्ड;पवित्रम्--पवित्र करने वाली; प्रगूणीत--वर्णन करते हैं; कर्हिचित्--सदैव; तत्--वह; ध्वाइक्ष--कौवों के; तीर्थम्--तीर्थस्थान; न--नहीं; तु--दूसरी ओर; हंस--ज्ञानी सन्त पुरुषों द्वारा; सेवितम्--सेवित; यत्र--जिसमें; अच्युत:-- भगवान्अच्युत ( का वर्णन रहता है ); तत्र--वहाँ; हि--एकमात्र; साधव:--साधुजन; अमला: -शुद्ध |
जो शब्द उन भगवान् के यश का वर्णन नहीं करते जो सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड के वातावरणको पवित्र करने वाले हैं, वे कौवों के तीर्थस्थान के समान हैं तथा ज्ञानी मनुष्य कभी भीउनका सहारा नहीं लेते।
शुद्ध तथा साधु स्वभाव वाले भक्तगण केवल अच्युत भगवान् केयश को वर्णनकरने वाली कथाओं में रुचि लेते हैं।
"
तद्बवाग्विस्गों जनताघसम्प्लवोयस्मिन्प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोडड्लितानि य-च्छुण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधव: ॥
५२॥
तत्ू--वह; वाक्ू--वाणी; विसर्ग:--सृष्टि; जनता--सामान्य लोगों के; अध--पापों के; सम्प्लव:--विप्लव; यस्मिन्ू--जिसमें; प्रति-॥
लोकम्--हर श्लोक; अबद्धवति-- अनियमित ढंग से रचा जाता है; अपि--यद्यपि; नामानि--दिव्य नाम;अनन्तस्य--अनन्त भगवान् के; यश:ः--यश; अड्वितानि-- अंकित; यत्--जो; श्रृण्वन्ति--सुनते हैं; गायन्ति--गाते हैं;गृणन्ति--स्वीकार करते हैं; साधव:--ईमानदार शुद्ध पुरुष |
दूसरी ओर, जो साहित्य अनन्त भगवान् के नाम, यश, रूप लीला आदि की दिव्यमहिमा के वर्णनों से पूर्ण होता है, वह एक सर्वथा भिन्न सृष्टि है, जो इस संसार की गुमराहसभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से पूर्ण होती है।
ऐसे ग्रंथ भलेही ठीकसे रचे हुए न हों, किन्तु उन शुद्ध पुरुषों द्वारा जो पूरी तरह से ईमानदार हैं, सुने, गायेऔर स्वीकार किये जाते हैं।
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नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितंन शोभते ज्ञानमलं निरज्ञनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमी श्वरेनहार्पितं कर्म यदप्यनुत्तमम् ॥
५३॥
नैष्कर्म्यमू--सकाम कर्म के फलों से मुक्त रहना, आत्म-साक्षात्कार; अपि--यद्यपि; अच्युत--अच्युत भगवान् की;भाव--धारणा; वर्जितमू--से विहीन; न--नहीं; शोभते--शोभा देता; ज्ञानम्ू--दिव्य ज्ञान; अलमू्--वस्तुत: ; निरझ्नम्--उपाधियों से रहित; कुतः--कहाँ है; पुन:--फिर; शश्वत्--सदैव; अभद्रमू--अशोभनीय; ई श्वेरे--ई श्वर के प्रति; न--नहीं;हि--निस्सन्देह; अर्पितम्-- अर्पित; कर्म--सकाम कर्म; यत्--जो; अपि--भी; अनुत्तमम्--बेजोड़ |
आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त होते हुए भी ठीक से कामनहीं करता यदि वह अच्युत (ईश्वर ) के भाव से विहीन हो।
तब अच्छे से अच्छे सम्पन्न कर्मजो प्रारम्भ से पीड़ादायक तथा क्षणिक स्वभाव के होते हैं, किस काम के हो सकते हैं यदिउनका उपयोग भगवान् की भक्ति के लिए नहीं किया जाता ?"
यशःश्रियामेव परिश्रम: परोवर्णाश्रमाचारतप: श्रुतादिषु ।
अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्ययो-गुणानुवादभ्रवणादरादिभि: ॥
५४॥
यशः--यश; थ्रियाम्--तथा ऐश्वर्य में; एव--एकमात्र; परिश्रम: -- श्रम; पर:--महान्; वर्ण-आश्रम-आचार--वर्णा श्रमप्रणाली में अपने कार्यो को सम्पन्न करके; तपः--तपस्या; श्रुत--पवित्र शास्त्रों का सुनना; आदिषु--इत्यादि में;अविस्मृति: --स्मृति; श्रीधर-- श्री को धारण करने वाले के; पाद-पदायो:--चरणकमलों के; गुण-अनुवाद--गुणों केकीर्तन का; श्रवण--सुनने से; आदर--आदर; आदिभि:--इत्यादि से
वर्णाश्रम प्रणाली में सामान्य सामाजिक तथा धार्मिक कर्तव्यों को निबाहने में, तपस्याकरने में तथा वेदों को श्रवण करने में जो महान् श्रम करना पड़ता है, उससे संसारी यश तथाऐश्वर्य की ही उपलब्धि हो पाती है।
किन्तु भगवान् लक्ष्मीपति के दिव्य गुणों का आदर करनेतथा ध्यानपूर्वक उनका पाठ सुनने से मनुष्य उनके चरणकमलों का स्मरण कर सकता है।
"
अविस्मृति: कृष्णपदारविन्दयो:क्षिणोत्यभद्राणि च शं तनोति ।
सत्त्वस्य शुद्धि परमात्मभक्तिज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम् ॥
५५॥
अविस्मृतिः --स्मृति; कृष्ण-पद-अरविन्दयो:-- भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की; क्षिणोति--नष्ट करती है; अभद्राणि--अशुभ वस्तुओं को; च--तथा; शम्--सौभाग्य; तनोति--विस्तार करती है; सत्त्वस्थ--हृदय का; शुर्द्मू--शुद्धि; परम-आत्म-परमात्मा के लिए; भक्तिमू--भक्ति; ज्ञाममू--ज्ञान; च--तथा; विज्ञान--प्रत्यक्ष अनुभूति; विराग--तथा वैराग्य;युक्तमू-से युक्त |
भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की स्मृति प्रत्येक अशुभ वस्तु को नष्ट करती है औरपरम सौभाग्य प्रदान करती है।
यह हृदय को स्वच्छ बनाती है और परमात्मा की भक्ति केसाथ साथ अनुभूति तथा त्याग से युक्त ज्ञान प्रदान करती है।
"
यूय॑ं द्विजाछया बत भूरिभागायच्छश्चदात्मन्यखिलात्मभूतम् ।
नारायणं देवमदेवमीश-मजस्त्रभावा भजताविवेश्य ॥
५६॥
यूयम्ू--तुम सभी; द्विज-अछया:-हे ब्राह्मणों में परम विख्यात; बत--निस्सन्देह; भूरि-भागा:--अत्यन्त भाग्यशाली;यत्-क्योंकि; शश्वत्ू--निरन्तर; आत्मनि--अपने हृदयों में; अखिल--समस्त; आत्म-भूतम्--जो परम आत्मा है;नारायणम्--भगवान् नारायण को; देवम्-- भगवान् को; अदेवम्--जिनसे बढ़कर कोई देव नहीं है; ईशम्--परम नियन्ता;अजस््र--बिना व्यवधान के; भावा:--प्रेमपूर्ण;, भजत--तुम लोग पूजा करो; आविवेश्य--रख कर
हे सुप्रसिद्ध ब्राह्यणो, तुम लोग सचमुच अत्यन्त भाग्यशाली हो क्योंकि तुम लोगों नेपहले ही अपने हृदयों में भगवान् श्री नारायण को--परम नियन्ता तथा सारे जगत के परमआत्मा भगवान् को--धारण कर रखा है जिनसे बढ़ कर कोई अन्य देव नहीं है।
तुम लोगोंमें उनके लिए अविचल प्रेम है, अतएव मैं तुम लोगों से उनकी पूजा करने के लिए अनुरोधकरता हूँ।
"
अहं च संस्मारित आत्मतत्त्वंश्रुतं पुरा मे परमर्षिवक्त्रात् ।
प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितःसदस्यृषीणां महतां च श्रृण्वताम् ॥
५७॥
अहम्-मैं; च-- भी; संस्मारित:--स्मरण कराया गया हूँ; आत्म-तत्त्वमू-परमात्मा का विज्ञान; श्रुतम्--सुना हुआ;पुरा--पहले; मे--मेरे द्वारा; परम-ऋषि--ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ, शुकदेव के; वक्त्रात्ू--मुख से; प्राय-उपवेशे --मृत्युपर्यन्तउपवास के समय; नृपते: --राजा के; परीक्षित: --परीक्षित; सदसि--सभा में; ऋषीणाम्--ऋषियों के; महताम्--महान्;च--तथा; श्रृण्वताम्--उनके सुनते हुए |
अब मुझे उस ईश्वर-विज्ञान का पूरी तरह स्मरण हो आया है, जिसे मैंने पहले महर्षिशुकदेव गोस्वामी के मुख से सुना था।
मैं महर्षियों की उस सभा में उपस्थित था जिन्होंनेमृत्युपर्यन्त उपवास पर बैठे राजा परीक्षित से कहते उन्हें सुना था।
"
एतद्द: कथितं विप्रा: कथनीयोरुकर्मण: ।
माहात्म्यं वासुदेवस्य सर्वाशुभविनाशनम् ॥
५८॥
एतत्--यह; वः--तुम लोगों से; कथितम्--सुनाया; विप्रा:--हे ब्राह्मणो; कथनीय--उसका, जो वर्णन करने योग्य है;उरु-कर्मण:--तथा जिसके कार्य अत्यन्त महान् हैं; माहात्म्यमू--यश; वासुदेवस्थ--वासुदेव का; सर्व-अशुभ--समस्तअशुभ को; विनाशनमू्--नष्ट कर देने वाला
हे ब्राह्मणो, इस तरह मैंने तुम लोगों से भगवान् वासुदेव की महिमा का वर्णन कियाजिनके असामान्य कार्य स्तुति के योग्य हैं।
यह वर्णन अशुभ का विनाश करने वाला है।
"
य एतत्श्रावयेन्नित्यं यामक्षणमनन्यधी: ।
एइलोकमेकं तदर्ध वा पादं पादार्धमेव वा ।
श्रद्धावान्यो<नु श्रुणुयात्पुनात्यात्मानमेव स: ॥
५९॥
यः--जो; एतत्--यह; श्रावयेत्--अन्यों को सुनाता है; नित्यमू--सदैव; याम-क्षणम्--हर घण्टे तथा हर मिनट; अनन्य-धी:--अविचल ध्यान से; श्लोकम्--श्लोक; एकम्--एक; तत्-अर्धम्--उसका आधा; वा--अथवा; पादम्--एक भीपंक्ति; पाद-अर्धम्--आधी पंक्ति; एब--निस्सन्देह; वा--अथवा; श्रद्धा-वान्-- श्रद्धापूर्वक; य:--जो; अनुश्रुणुयात् --उचित स्त्रोत से सुनता है; पुनाति--पवित्र बनाता है; आत्मानम्--स्वयं को; एव--निस्सन्देह; सः--वह |
जो व्यक्ति अविचल ध्यान से इस ग्रंथ को प्रत्येक घण्टे के प्रत्येक क्षण निरन्तर सुनाता हैतथा जो व्यक्ति एक अथवा आधा एलोक, अथवा एक या आधी भी पंक्ति श्रद्धा भाव सेसुनता है, वह अपने को पवित्र बना लेता है।
"
द्वादश्यामेकादश्यां वा श्रृण्वन्नायुष्यवान्भवेत् ।
'पठत्यनशए्नन्प्रयतः पूतो भवति पातकातू ॥
६०॥
द्वादश्यामू--माह की द्वादशी को; एकादश्याम्--एकादशी को; वा--अथवा; श्रृण्वन्--सुनते हुए; आयुष्य-वान्--दीर्घआयु वाला; भवेत्--हो जाता है; पठति--यदि पाठ करता है; अनश्नन्ू--बिना भोजन किये; प्रयत:--ध्यानपूर्वक;पूतः--पवित्र; भवति--हो जाता है; पातकात्ू-पापों के फल से
जो कोई इस भागवत को एकादशी या द्वादशी के दिन सुनता है उसे निश्चित रूप सेदीर्घायु प्राप्त होती है और जो व्यक्ति उपवास रखते हुए इसे ध्यानपूर्वक सुनाता है, वह सारेपापों के फल से शुद्ध हो जाता है।
"
पुष्करे मथुरयां च द्वारवत्यां यतात्मवान् ।
उपोष्य संहितामेतां पठित्वा मुच्यते भयात् ॥
६१॥
पुष्करे--पुष्कर नामक पवित्र स्थान में; मथुरायाम्--मथुरा में; च--तथा; द्वारवत्याम्ू-द्वारका में; यत-आत्म-वान्--आत्मसंयमी; उपोष्य--उपवास रख कर; संहिताम्--ग्रंथ को; एताम्--इस; पठित्वा--सुनाकर, बाँच कर; मुच्यते--मुक्तहो जाता है; भयात्-- भय से।
जो व्यक्ति मन को वश में रखता है, जो पुष्कर, मथुरा या द्वारका जैसे पवित्र स्थानों मेंउपवास रखता है और इस शास्त्र का अध्ययन करता है, वह सारे भय से मुक्त हो जाता है।
"
देवता मुनयः सिद्धा: पितरो मनवो नृपा: ।
यच्छन्ति कामान्गृणतः श्रुण्वतो यस्य कीर्तनात् ॥
६२॥
देवता:--देवता; मुनयः--मुनिगण; सिद्धा:--सिद्ध योगी; पितर:--पुरखे; मनव:--मनुष्य को जन्म देने वाले; नृप:--पृथ्वी के राजे; यच्छन्ति-- प्रदान करते हैं; कामान्ू--इच्छाएँ; गृूणत:ः--कीर्तन करने वाले को; श्रृण्वतः--सुनने वाले को;यस्य--जिसका; कीर्तनात्ू--कीर्तन करने के कारण |
जो व्यक्ति इस पुराण का कीर्तन करके अथवा इसको सुन कर इसकी स्तुति करते हैंउन्हें देवता, ऋषि, सिद्ध, पितर, मनु तथा पृथ्वी के राजा समस्त वांछित वस्तुएँ प्रदान करतेहैं।
"
ऋचो यजूंषि सामानि द्विजोधीत्यानुविन्दते ।
मधुकुल्या घृतकुल्या: पयःकुल्याश्व॒ तत्फलम् ॥
६३॥
ऋच: --ऋग्वेद के; यजूंषि--यजुर्वेद के; सामानि--तथा सामवेद के मंत्र; द्विज:--ब्राह्मण; अधीत्य--पढ़ कर;अनुविन्दते--प्राप्त करता है; मधु-कुल्या: --शहद की नदियाँ; घृत-कुल्या:--घी की नदियाँ; पयः-कुल्या:--दूध कीनदियाँ; च--तथा; तत्ू--वह; फलम्ू--फल।
इस भागवत को पढ़ कर एक ब्राह्मण उन्हीं शहद, घी तथा दूध की नदियों को भोग सकता है जिन्हें वह ऋग्, यजुर् तथा सामवेदों के मंत्रों का अध्ययन करके भोग सकता है।
"
पुराणसंहितामेतामधीत्य प्रयतो द्विजः ।
प्रोक्ते भगवता यत्तु तत्पदं परम॑ ब्रजेत्ू ॥
६४॥
पुराण-संहिताम्--सारे पुराणों के अनिवार्य संकलन को; एताम्--इस; अधीत्य--पढ़ कर; प्रयत:--ध्यानपूर्वक; द्विज:--ब्राह्मण; प्रोक्तमू--वर्णित; भगवता-- भगवान् द्वारा; यत्--जो; तु--निस्सन्देह; तत्--वह; पदम्--पद; परमम्--परम;ब्रजेत्--प्राप्त करता है।
जो ब्राह्मण समस्त पुराणों के इस अनिवार्य संकलन को भश्रमपूर्वक पढ़ता है, वह परमगन्तव्य को प्राप्त होता है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान् ने इसमें किया है।
"
विप्रोधीत्याण्नुयात्प्रज्ञां राजन्योदधिमेखलाम् ।
वैश्यो निधिपतित्वं च शूद्र: शुध्येत पातकात् ॥
६५॥
विप्र:--ब्राह्मण; अधीत्य--पढ़ कर; आप्नुयात्--प्राप्त करता है; प्रज्ञामू--भक्ति में बुद्धि; राजन्य--राजा; उदधि-मेखलाम्--समुद्रों द्वारा बँधी हुई ( पृथ्वी ); वैश्य: --व्यापारी; निधि--कोशों का; पतित्वम्--स्वामित्व; च--तथा;शूद्रः--श्रमिक; शुध्येत--शुद्ध हो जाता है; पातकात्-पापों से
जो ब्राह्मण श्रीयद्भागवत को पढ़ता है, वह भक्ति में दृढ़ बुद्धि प्राप्त करता है।
जो राजाइसका अध्ययन करता है, वह पृथ्वी पर सार्वभौम सत्ता प्राप्त करता है, वैश्य विपुल कोशपा लेता है और शूद्र पापों से छूट जाता है।
"
'कलिमलसंहतिकालनोखिलेशोहरिरितरत्र न गीयते हाभीक्ष्णम् ।
इह तु पुनर्भगवानशेषपमूर्ति:परिपठितो<नुपदं कथाप्रसड्रैः ॥
६६॥
कलि--कलह के युग का; मल-संहति--सारे कल्मष का; कालन:--संहारकर्ता; अखिल-ईशः:--सारे जीवों के परमनियन्ता; हरिः-- भगवान् हरि; इतरत्र--अन्यत्र; न गीयते--वर्णित नहीं होते; हि--निस्सन्देह; अभी क्षणम्--निरन्तर; इह--यहाँ; तु--फिर भी; पुनः--दूसरी ओर; भगवान्-- भगवान्; अशेष-मूर्ति:--जो अनन्त साकार रूपों में विस्तार करता है;परिपठित:--कथा में खुल कर वर्णन किया गया है; अनु-पदम्-प्रत्येक श्लोक में; कथा-प्रसड्रैः--कहानियों के बहाने |
सारे जीवों के परम नियन्ता भगवान् हरि कलियुग के संचित पापों का संहार करने वालेहैं, फिर भी अन्य ग्रंथों में उनकी स्तुति नहीं मिलती।
किन्तु असंख्य साकार अंशों के रूप मेंप्रकट होने वाले ये भगवान् इस श्रीमद्भागवत की विविध कथाओं में निरन्तर तथा प्रचुरमात्रा में वर्णित हुए हैं।
"
तमहमजमनन्तमात्मतत्त्वंजगदुदयस्थितिसंयमात्मशक्तिम् ।
झुपतिभिरजशक्रशडूराद्यै-दुरवसितस्तवमच्युतं नतोउस्मि ॥
६७॥
तम्--उस; अहम्--मैं; अजम्-- अजन्मा; अनन्तम्ू--अनन्त; आत्म-तत्त्वम्--आदि परमात्मा को; जगत्-- भौतिकब्रह्मण्ड की; उदय--उत्पत्ति; स्थिति--पालन; संयम--तथा संहार; आत्म-शक्तिमू--जिनकी निजी शक्तियों से; द्यु-'पतिभि: --स्वर्ग के स्वामियों द्वारा; अज-शक्र-शड्डूर-आद्यि: --ब्रह्मा, इन्द्र, शिव आदि द्वारा; दुरवसित--समझ में न आनेवाले; स्तवम्--स्तुतियाँ; अच्युतम्--अच्युत भगवान् को; नतः--विनत; अस्मि--हूँ।
मैं अजन्मे तथा अनन्त परमात्मा को नमन करता हूँ जिनकी निजी शक्तियाँ ब्रह्माण्ड कीउत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए उत्तरदायी हैं।
यहाँ तक कि ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर तथास्वर्गलोकों के अन्य स्वामी भी उस अच्युत भगवान् की महिमा की थाह नहीं पा सकते।
"
उपचितनवशृक्तिभि: स्व आत्म-न्युपरचितस्थिरजड्रमालयाय ।
भगवत उपलब्धिमात्रधम्नेसुरऋषभाय नमः सनातनाय ॥
६८॥
उपचित--पूरी तरह विकसित; नव-शक्तिभि:--उनकी नौ शक्तियों ( प्रकृति, पुरुष, महत्, अहंकार तथा पाँच सूक्ष्मअनुभूति के रूप ) द्वारा; स्वे आत्मनि--अपने भीतर; उपरचित--निकट ही व्यवस्थित; स्थिर जड़म--चर तथा अचर दोनोंप्रकार के जीवों का; आलयाय--धाम; भगवते-- भगवान् को; उपलबभ्थि-मात्र--शुद्ध चेतना; धाम्ने--जिसकीअभिव्यक्ति; सुर--देवताओं का; ऋषभाय--प्रमुख; नमः --मेरा नमस्कार; सनातनाय--नित्य भगवान् को ।
मैं उन भगवान् को नमस्कार करता हूँ जो नित्य प्रभु हैं और अन्य सारे देवों के प्रधान हैं,जिन्होंने अपनी नौ शक्तियों को विकसित करके अपने भीतर सारे चर तथा अचर प्राणियोंका धाम व्यवस्थित कर रखा है और जो सदैव शुद्ध दिव्य चेतना में स्थित रहते हैं।
"
स्वसुखनिभूतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावो-प्यजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम् ।
व्यतनुत कृपया यस्तत्त्वदीपं पुराणंतमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोउस्मि ॥
६९॥
स्व-सुख--अपने सुख में; निभृत--एकाकी; चेता:-- चेतना वाला; तत्--उसके कारण; व्युदस्त--परित्यक्त; अन्य-भाव:--अन्य की चेतना; अपि--यद्यपि; अजित--न जीते जा सकने वाले प्रभु, श्रीकृष्ण की; रुचिर--सुहावनी;लीला--लीलाओं से; आकृष्ट--आकर्षित; सार:--जिसका हृदय; तदीयम्-- भगवान् के कार्यकलापों से युक्त;व्यतनुत--विस्तृत, व्यक्त; कृपया--दयापूर्वक; य:--जो; तत्त्व-दीपम्--परब्रह्म का तेज प्रकाश; पुराणम्--पुराण( श्रीमद्भागवत ); तम्--उनको; अखिल-वृजिन-घ्नम्--हर अशुभ वस्तु को नष्ट करने वाले; व्यास-सूनुम्--व्यासदेव केपुत्र को; नतः अस्मि--नमस्कार करता हूँ।
मैं अपने गुरु व्यासदेव पुत्र, शुकदेव गोस्वामी, को सादर नमस्कार करता हूँ।
वे ही इसब्रह्माण्ड की सारी अशुभ वस्तुओं को नष्ट करते हैं।
यद्यपि प्रारम्भ में वे ब्रह्म-साक्षात्कार केसुख में लीन थे और अन्य समस्त चेतनाओं को त्याग कर एकान्त स्थान में रह रहेथे, किन्तुवे भगवान् श्रीकृष्ण की मनोहर तथा अत्यन्त मधुमयी लीलाओं के द्वारा आकृष्ट हुए।
अतएवउन्होंने अत्यन्त कृपा करके इस सर्वश्रेष्ठ पुराण, श्रीमद्भागवत, का प्रवचन किया जो परब्रह्मका तेज प्रकाश है और भगवान् के कार्यकलापों का वर्णन करने वाला है।
"
अध्याय तेरह: श्रीमद्भागवत की महिमा
12.13बेंदे: साड्रपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा: ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति य॑ं योगिनोयस्यथान्तं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम: ॥
१॥
सूतः उवाच--सूत गोस्वामी ने कहा; यम्--जिसको; ब्रह्मा--त्रह्मा; वरुण-इन्द्र-रुद्र-मरूत:--तथा वरूण, इन्द्र, रुद्र औरमरूत्गण; स्तुन्वन्ति--स्तुति करते हैं; दिव्यै:--दिव्य; स्तबै:--स्तुतियों द्वारा; वेदैः--वेदों समेत; स--सहित; अड्ग--सहायक शाखाएँ; पद-क्रम--मंत्रों का विशेष अनुक्रम; उपनिषदेः --तथा उपनिषद; गायन्ति--गाते हैं; यम्--जिसको;साम-गा:--सामवेद के गायक; ध्यान--ध्यान-समाधि में; अवस्थित--स्थित; तत्-गतेन--उन पर स्थिर; मनसा--मन केभीतर; पश्यन्ति--देखते हैं; यम्ू--जिसको; योगिन: --योगीजन; यस्य--जिसका; अन्तम्--अन्त; न विदुः--नहीं जानते;सुर-असुर-गणा:--सारे देवता तथा असुर; देवाय-- भगवान् को; तस्मै--उसको; नम:--नमस्कार।
सूत गोस्वामी ने कहा: ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र तथा मरूत्गण दिव्य स्तुतियों काउच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद-क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकीस्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने कोसमाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन मेंकरते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता--ऐसेभगवान् को मैं सादर नमस्कार करता हूँ।
"
पृष्ठे भ्राम्यदमन्दमन्दरगिरिग्रावाग्रकण्डूयना-ब्विद्रालो: कमठाकृतेर्भगवत:ः श्वासानिला: पान्तु व: ।
यत्संस्कारकलानुवर्तनवशाद्वेलानिभेनाम्भसांयातायातमतन्द्रितं जलनिधेर्नाद्यापि विश्राम्यति ॥
२॥
पृष्ठ--उनकी पीठ पर; भ्राम्यत्--चक्कर लगाता; अमन्द--अत्यधिक भारी; मन्दर-गिरि--मन्दराचल के; ग्राव-अग्र--पत्थरों की नोंके; कण्डूयनात्ू--खुरचने से; निद्रालो:--उनींदा हो जाता है; कमठ-आकृते:--कछुवे के रूप का;भगवतः--भगवान् का; श्वास--श्वास से निकली; अनिला:--वायुएँ; पान्तु--रक्षा करें; व:--तुम सबों की; यत्--जिसका; संस्कार--उच्छिष्ट का; कला--रंचमात्र; अनुवर्तन-वशात्--पीछे चलने के फलस्वरूप; वेला-निभेन--जिससेवह प्रवाह के तुल्य है; अम्भसाम्--जल का; यात-आयातम्--आना-जाना; अतन्द्रितम्-- अविरत; जल-निधे:--समुद्रका; न--नहीं; अद्य अपि--आज भी; विश्राम्यति--रुकता है।
जब भगवान् कूर्म ( कछुवे ) के रूप में प्रकट हुए तो उनकी पीठ भारी, घूमने वालेमन्दराचल पर स्थित नुकीले पत्थरों के द्वारा खरोंची गई जिसके कारण भगवान् उनींदे होगये।
इस सुप्तावस्था में भगवान् की श्वास से उत्पन्न वायुओं द्वारा आप सबों की रक्षा हो।
उसीकाल से, आज तक, समुद्री ज्वारभाटा पवित्र रूप में आ-जाकर भगवान् के श्वास-निश्चासका अनुकरण करता आ रहा है।
"
पुराणसड्ख्यासम्भूतिमस्य वाच्यप्रयोजने ।
दानं दानस्य माहात्म्यं पाठादेश्व निबोधत ॥
३॥
पुराण--पुराणों की; सड्ख्या--( श्लोकों की ) गिनती का; सम्भूतिम्--योग; अस्य--इस भागवत के; वाच्य--विषयवस्तु; प्रयोजने--तथा उद्देश्य; दानम्--भेंटस्वरूप देने की विधि; दानस्य--ऐसी भेंट देने की; माहात्म्यम्--महिमा;पाठ-आदे:--पढ़ने आदि का; च--तथा; निबोधत--कृपया सुनें |
अब मुझसे सभी पुराणों की एलोक संख्या सुनिये।
तब इस भागवत पुराण के मूलविषय तथा उद्देश्य, इसे भेंट में देने की सही विधि, ऐसी भेंट देने का माहात्म्य और अन्त मेंइस ग्रंथ के सुनने तथा कीर्तन करने का माहात्म्य सुनिये।
"
ब्राह्मंं दश सहस्त्राणि पाद्ं पदश्ञोनर्षष्टि च ।
श्रीवैष्णवं त्रयोविंशच्चतुर्विशति शैवकम् ॥
४॥
दशाष्टो श्रीभागवतं नारदं पञ्जञविंशति ।
मार्कण्डं नव वाह्नं च दशपञ्ञ चतु:शतम् ॥
५॥
चतुर्दश भविष्य॑ स्यात्तथा पञ्ञश्तानि च ।
दशाष्ट्रौ ब्रह्मवैवर्त लैड्मेकादशैव तु ॥
६॥
चतुर्विशति वाराहमेकाशीतिसहस्त्रकम् ।
स्कान्दं शतं तथा चैकं वामनं दश कीर्तितम् ॥
७॥
कौर्म सप्तदशाख्यातं मात्स्यं तत्तु चतुर्दश ।
एकोनविंशत्सौपर्ण ब्रह्माण्डं द्वादशैव तु ॥
८॥
एवं पुराणसन्दोहश्चतुर्लक्ष उदाहतः ।
तत्राप्टदशसाहस्त्रं श्रीभागवतं इष्यते ॥
९॥
ब्राह्मम्ू--ब्रह्म पुराण में; दश--दस; सहस््राणि--हजार; पाद्मम्--पद्दा पुराण में; पञ्ञ-ऊन-पषष्टि--साठ में पाँच कम;च--तथा; श्री-वैष्णवम्--विष्णु पुराण में; त्रय:-विंशत्--तेईस; चतु:-विंशति--चौबीस; शैवकम्--शिव पुराण में;दश-अष्टौ--अठारह; श्री-भागवतम्-- श्रीमद्भागवत में; नारदम्--नारद पुराण में; पञ्ञ-विंशति--पच्चीस; मार्कण्डम्--मार्कण्डेय पुराण में; नव--नौ; वाह्ममू-- अग्नि पुराण में; च--तथा; दश-पञ्ञ-चतु:-शतम्--पन्द्रह हजार चार सौ; चतुः-दश--चौदह; भविष्यम्--भविष्य पुराण में; स्थात्--से युक्त; तथा--इसके अतिरिक्त; पञ्ञच-शतानि--पाँच सौ ( शलोक );च--तथा; दश-अष्टौ-- अठारह; ब्रह्म-वैवर्तम्--ब्रह्मवैवर्त पुराण में; लैड्रम्--लिंग पुराण में; एकादश--ग्यारह; एव--निस्सन्देह; तु--तथा; चतु:-विंशति--चौबीस; वाराहम्--वराह पुराण में; एकाशीति-सहस्त्रकम्--इक्यासी हजार;स्कान्दम्-स्कन्द पुराण में; शतम्--सौ; तथा--और; च--तथा; एकम्--एक; वामनम्--वामन पुराण में; दश--दस;कीर्तितम्ू--कहा जाता है; कौर्मम्--कूर्म पुराण में; सप्त-दश--सत्रह; आख्यातम्--कहा जाता है; मात्स्यमू--मत्स्यपुराण में; तत्--वह; तु--तथा; चतु:-दश--चौदह; एक-ऊन-विंशत्--उन्नीस; सौपर्णम्--गरुड़ पुराण में; ब्रह्माण्डम्--ब्रह्माण्ड पुराण में; द्वादश--बारह; एबव--निस्सन्देह; तु--तथा; एवम्--इस तरह; पुराण-- पुराणों का; सन्दोह:--योगफल; चतुः-लक्ष:--चार लाख; उदाहत:--बताया जाता है; तत्र--उसमें; अष्ट-दश-साहस््रम्ू-- अठारह हजार; श्री-भागवतम्-- श्रीमद्भागवत में; इष्यते--कहा जाता है
ब्रह्म पुराण में दस हजार, पद्मा पुराण में पचपन हजार, श्री विष्णु पुराण में तेईंस हजार,शिव पुराण में चौबीस हजार तथा श्रीमद्भागवत में अठारह हजार एलोक हैं।
नारद पुराण मेंपच्चीस हजार हैं, मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार, अग्नि पुराण में पन्द्रह हजार चार सौ,भविष्य पुराण में चौदह हजार पाँच सौ, ब्रह्मवैवर्त पुराण में अठारह हजार तथा लिंग पुराणमें ग्यारह हजार श्लोक हैं।
वराह पुराण में चौबीस हजार, स्कन्द पुराण में इक््यासी हजारएक सौ, वामन पुराण में दस हजार, कूर्म पुराण में सत्रह हजार, मत्स्य पुराण में चौदहहजार, गरुड़ पुराण में उन्नीस हजार तथा ब्रह्माण्ड पुराण में बारह हजार एलोक हैं।
इस तरहसमस्त पुराणों की कुल इलोक संख्या चार लाख है।
पुनः, इनमें से अठारह हजार एलोकअकेले श्रीमद्भागवत के हैं।
"
इदं भगवता पूर्व ब्रह्मणे नाभिपड्डजे ।
स्थिताय भवभीताय कारुण्यात्सम्प्रकाशितम् ॥
१०॥
इदम्--इसे; भगवता-- भगवान् द्वारा; पूर्वम्--पहले; ब्रह्मणे--ब्रह्मा से; नाभि-पड्ढडजे--नाभि से निकले कमल पर;स्थिताय--स्थित; भव--संसार से; भीताय-- भयभीत; कारुण्यात्--दया करके ; सम्प्रकाशितम्--पूरीतरह प्रकट किया
भगवान् ने सर्वप्रथम ब्रह्म को सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत प्रकाशित की।
उस समय ब्रह्मा,संसार से भयभीत होकर, भगवान् की नाभि से निकले कमल पर आसीन थे।
"
आदिमध्यावसानेषु वैराग्याख्यानसंयुतम् ।
हरिलीलाकथाब्रातामृतानन्दितसत्सुरम् ॥
११॥
सर्ववेदान्तसारं यद्गह्मात्मैकत्वलक्षणम् ।
उस्त्वद्वितीयं तन्निष्ठं कैवल्यैकप्रयोजनम् ॥
१२॥
आदि-प्रारम्भ; मध्य--मध्य; अवसानेषु--तथा अन्त में; बैराग्य--भौतिक वस्तुओं के परित्याग से सम्बन्धित;आख्यान--कथाओं से; संयुतम्-पूर्ण; हरि-लीला-- भगवान् हरि की लीलाओं का; कथा-ब्रात--अनेक विवेचनाओंका; अमृत--अमृत से; आनन्दित--आनन्दयुक्त बनाये गये; सत्-सुरम्--सनन््त भक्तों तथा देवताओं; सर्व-वेदान्त--सारेवेदान्तों का; सारमू--सार; यत्--जो; ब्रह्म--परब्रह्म; आत्म-एकत्व--आत्मा से अभिन्नता; लक्षणम्--लक्षणों से युक्त;वस्तु--वास्तविकता; अद्वितीयम्--अद्वितीय; तत्-निष्ठम्--मुख्य विषयवस्तु के रूप में; कैवल्य--एकान्तिक भक्ति;एक--एकमात्र; प्रयोजनम्--चरम लक्ष्य ।
श्रीमद्भागवत आदि से अन्त तक ऐसी कथाओं से पूर्ण है, जो भौतिक जीवन से बैराग्यकी ओर ले जाने वाली हैं।
इसमें भगवान् हरि की दिव्य लीलाओं का अमृतमय विवरण भीहै, जो सन्त भक्तों तथा देवताओं को आनन्द देने वाला है।
यह भागवत समस्त वेदान्त दर्शनका सार है क्योंकि इसकी विषयवस्तु परब्रह्म है, जो आत्मा से अभिन्न होते हुए भी अद्वितीयपरम सत्य है।
इस ग्रंथ का लक्ष्य परब्रह्य की एकान्तिक भक्ति है।
"
प्रौष्ठपद्मां पौर्णमास्यां हेमसिंहसमन्वितम् ।
ददाति यो भागवतं स याति परमां गतिम् ॥
१३॥
प्रौष्ठपद्याम्-- भाद्र मास में; पौर्णमास्याम्-पूर्णमासी के दिन; हेम-सिंह--सोने के सिंहासन पर; समन्वितम्--आसीन;ददाति--भेंट के रूप में देता है; य:ः--जो; भागवतम्-- श्रीमद्भागवत को; सः--वह; याति--जाता है; परमाम्--परम;गतिम्--गन्तव्य को |
यदि कोई व्यक्ति भाद्र मास की पूर्णमासी को सोने के सिंहासन पर रख करश्रीमद्भधागवत का दान उपहार के रूप में देता है, तो उसे परम दिव्य गन्तव्य प्राप्त होगा।
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राजन्ते तावदन्यानि पुराणानि सतां गणे ।
यावद्धागवतं नैव श्रूयतेडमृतसागरम् ॥
१४॥
राजन्ते--चमकते हैं; तावत्ू--तब तक; अन्यानि--अन्य; पुराणानि-- पुराण; सताम्--साधु पुरुषों की; गणे--सभा में;यावत्--जब तक; भागवतम्-- श्रीमद्भागवत को; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; श्रूयते--सुना जाता है; अमृत-सागरम्--अमृत का सागर
अन्य सारे पुराण तब तक सन्त भक्तों की सभा में चमकते हैं जब तक अमृत केमहासागर श्रीमदभागवत को नहीं सना जाता।
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सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते ।
तद्गसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रति: क्वचित् ॥
१५॥
सर्व-वेदान्त--समस्त वेदान्त दर्शन का; सारम्--सार; हि--निस्सन्देह; श्री-भागवतम्-- श्रीमद्भागवत; इष्यते--कहाजाता है कि; तत्ू--इसके; रस-अमृत-- अमृतमय स्वाद से; तृप्तस्य--तृप्त होने वाले के लिए; न--नहीं; अन्यत्र--दूसरीजगह; स्यात्-- है; रतिः--आकर्षण; क्वचित्--कभी |
श्रीमद्भागवत को समस्त वैदिक दर्शन का सार कहा जाता है।
जिसे इसके अमृतमयरस से तुष्टि हुई है, वह कभी अन्य किसी ग्रंथ के प्रति आकृष्ट नहीं होगा।
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निम्नगानां यथा गड्ढा देवानामच्युतो यथा ।
वैष्णवानां यथा शम्भु: पुराणानामिदं तथा ॥
१६॥
निम्न-गानाम्--समुद्र की ओर बह कर जाने वाली नदियों का; यथा--जिस तरह; गड्जा--गंगा नदी; देवानाम्--समस्तदेवों में; अच्युत:--अच्युत भगवान्; यथा--जिस तरह; वैष्णवानाम्-- भगवान् विष्णु के भक्तों में; यथा--जिस तरह;शम्भु:--शिव; पुराणानाम्--पुराणों में; इदम्--यह; तथा--उसी प्रकार से
जिस तह गंगा समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान्अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान् शम्भु ( शिव ) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं, उसी तरहश्रीमद्भागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है।
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क्षेत्राणां चैव सर्वेषां यथा काशी ह्वनुत्तमा ।
तथा पुराणक्रातानां श्रीमद्धागवतं द्विजा: ॥
१७॥
क्षेत्राणामू-पतवित्र स्थलों में; च--तथा; एव--निस्सन्देह; सर्वेषामू--समस्त; यथा--जिस तरह; काशी--बनारस; हि--निस्सन्देह; अनुत्तमा--अद्वितीय; तथा--उसी तरह; पुराण-ब्रातानामू--समस्त पुराणों में; श्रीमत्-भागवतम्--श्रीमद्भागवत; द्विजा:--हे ब्राह्मणोहे ब्राह्यणो, जिस तरह पवित्र स्थानों में काशी नगरी अद्वितीय है, उसी तरह समस्तपुराणों में श्रीमद्भागवत सर्वश्रेष्ठ है।
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श्रीमद्भागवर्तं पुराणममल य्दैष्णवानां प्रियंयस्मिन्पारमहंस्यमेकममल ज्ञान परं गीयते ।
तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविस्कृतंतच्छुण्वन्सुपठन्विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नर: ॥
१८॥
श्रीमत्-भागवतम्-- श्रीमद्भागवत; पुराणम्--पुराण; अमलमू-- पूर्णतया शुद्ध; यत्--जो; वैष्णवानाम्--वैष्णवों को;प्रियमू--अत्यन्त प्रिय; यस्मिन्--जिसमें; पारमहंस्यम्--सर्वोच्च भक्तों द्वारा प्राप्प; एकम्--एकमात्र; अमलमू्--नितान्तशुद्ध; ज्ञाम्ू--ज्ञान; परमू--परम; गीयते--गाया जाता है; तत्र--उसमें; ज्ञान-विराग-भक्ति-सहितम्--ज्ञान, वैराग्य तथाभक्ति के साथ; नैष्कर्म्यम्ू--समस्त भौतिक कर्म से मुक्ति; आविष्कृतम्--प्रकाशित किया गया है; तत्ू--वह; श्रृण्वन्--सुनते हुए; सु-पठन्-- भलीभाँति कीर्तन करते हुए; विचारण-पर:--जो समझने का इच्छुक है; भक्त्या-- भक्ति के साथ;विमुच्येत्--पूरी तरह छूट जाता है; नर:--मनुष्य |
श्रीमद्भागवत निर्मल पुराण है।
यह वैष्णवों को अत्यन्त प्रिय है क्योंकि यह परमहंसोंके शुद्ध तथा सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन करने वाला है।
यह भागवत समस्त भौतिक कर्म सेछूटने के साधन के साथ ही दिव्य ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति की विधियों को प्रकाशित करताहै।
जो कोई भी श्रीमद्भागवत को गम्भीरतापूर्वक समझने का प्रयास करता है, जो समुचितढंग से श्रवण करता है और भक्तिपूर्वक कीर्तन करता है, वह पूर्ण मुक्त हो जाता है।
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कस्मै येन विभासितोयमतुलो ज्ञानप्रदीप: पुरातद्गूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तद्भूपिणा ।
योगीन्द्राय तदात्मनाथ भगवद्राताय कारुण्यत-स्तच्छुद्धं विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि ॥
१९॥
कस्मै--ब्रह्म को; येन--जिसके द्वारा; विभासित: --पूरी तरह प्रकट किया गया; अयम्--यह; अतुल:--अतुलनीय;ज्ञान-दिव्य ज्ञान का; प्रदीप:--दीपक; पुरा--बहुत काल पहले; तत्-रूपेण--ब्रह्मा के रूप में; च--तथा; नारदाय--नारद को; मुनये--महर्षि को; कृष्णाय--कृष्ण द्वैषायन व्यास को; तत्-रूपिणा--नारद के रूप में; योगि-इन्द्राय--योगियों में श्रेष्ठ, शुकदेव; तत्-आत्मना--नारद के रूप में; अथ--तब; भगवत्-राताय--परीक्षित महाराज को;कारुण्यत:--कृपावश; तत्--वह; शुद्धम्-शुद्ध;।
विमलमू--निष्कलुष; विशोकम्--शोक से मुक्त; अमृतम्--अमर;सत्यमू--सत्य का; परम्--परम; धीमहि--मैं ध्यान करता हूँमैं उन शुद्ध तथा निष्कलुष परब्रह्म का ध्यान करता हूँ जो दुख तथा मृत्यु से रहित हैंऔर जिन्होंने प्रारम्भ में इस ज्ञान के अतुलनीय दीपक को ब्रह्मा से प्रकट किया।
तत्पश्चात्ब्रह्म ने इसे नारद मुनि से कहा, जिन्होंने इसे कृष्ण द्वैपायन व्यास से कह सुनाया।
श्रीलव्यास ने इस भागवत को मुनियों में सर्वोपरि, शुकदेव गोस्वामी, को बतलाया जिन्होंने कृपाकरके इसे महाराज परीक्षित से कहा।
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नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय साक्षिणे ।
य इदम्कृपया कस्मै व्याचचक्षे मुमुक्षवे ॥
२०॥
नमः--नमस्कार; तस्मै--उस; भगवते-- भगवान्; वासुदेवाय--वासुदेव को; साक्षिणे--परम साक्षी; य:--जो; इृदम्--इस; कृपया--कृपावश; कस्मै--ब्रह्मा को; व्याचचक्षे--बतलाया; मुमुक्षबे--मुक्ति चाहने वाले को
हम सर्वव्यापक साक्षी भगवान् वासुदेव को नमस्कार करते हैं जिन्होंने कृपा करके ब्रह्माको यह विज्ञान तब बताया जब वे उत्सुकतापूर्वक मोक्ष चाह रहे थे।
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योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे ।
संसारसर्पदष्टे यो विष्णुरातममूमुचत् ॥
२१॥
योगि-इन्द्राय--योगियों के राजा को; नम:--नमस्कार; तस्मै--उस; शुकय--शुकदेव गोस्वामी को; ब्रह्म-रूपिणे--परब्रह्म के साकार रूप; संसार-सर्प--संसार रूपी सर्प द्वारा; दष्टमू--काटा हुआ; य:--जिसने; विष्णु-रातम्--महाराजपरीक्षित को; अमूमुचत्--मुक्त कर दिया।
मैं श्री शुकदेव गोस्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो श्रेष्ठ योगी-मुनि हैं और परब्रह्मके साकार रूप हैं।
उन्होंने संसार रूपी सर्प द्वारा काटे गये परीक्षित महाराज को बचाया।
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भवे भवे यथा भक्ति: पादयोस्तव जायते ।
तथा कुरुष्व देवेश नाथस्त्वं नो यतः प्रभो ॥
२२॥
भवे भवे--जन्म-जन्मांतर; यथा--जिससे; भक्ति:--भक्ति; पादयो:--चरणकमलों पर; तव--तुम्हारे; जायते--उत्पन्न हो;तथा--उसी तरह; कुरुष्व--कीजिये; देव-ईश--हे ईशों के ईश; नाथ:--स्वामी; त्वमू--तुम; न:--हमारे; यत: --क्योंकि; प्रभो-हे प्रभु
हे ईशों के ईंश, हे स्वामी, आप हमें जन्म-जन्मांतर तक अपने चरणकमलों की शुद्धभक्ति का वर दें।
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नामसड्डीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् ।
प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥
२३॥
नाम-सड्डीर्तनम्--नाम का सामूहिक कीर्तन; यस्य--जिसका; सर्व-पाप--सारे पापों को; प्रणाशनम्--नष्ट करने वाले;प्रणाम:--नमस्कार; दुःख--दुख का; शमन:--शमन करने वाले; तम्--उसको; नमामि--नमस्कार करता हूँ; हरिम्--हरि को; परमू--परम |
मैं उन भगवान् हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिककीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है।
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