श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 11
अध्याय एक: यदु वंश पर अभिशाप
11.1श्रीशुक उबाचकृत्वा दैत्यवधं कृष्ण: सरामो यदुभिर्वृतः ।
भुवोवतारयद्धारं जविष्ठं जनयन्कलिम् ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुक ने कहा; कृत्वा--सम्पन्न करने के बाद; दैत्य--असुरों का; वधम्--वध; कृष्ण: -- भगवान् कृष्णने; स-राम:--बलराम समेत; यदुभि:--यदुओं द्वारा; वृत:--घिरे हुए; भुवः--पृथ्वी के; अवतारयत्ू--कम कर दिया; भारम्--भार को; जविष्ठम्-हिंसा कराने वाले; जनयन्--उत्पन्न करते हुए; कलिम्--कलह की स्थिति।
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् श्रीकृष्ण ने बलराम से मिलकर तथा यदुवंशियो सेघिरे रह कर अनेक असुरों का वध किया।
तत्पश्चात्, पृथ्वी का और भार हटाने के लिए भगवान्ने कुरुक्षेत्र के उस महान् युद्ध की योजना की, जो कुरुओं तथा पाण्डवों के बीच सहसा हिंसाके रूप में भड़क उठा।
"
ये कोपिता: सुबहु पाण्डुसुता: सपत्नैर्दुर्यृूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान् ।
कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्हत्वा नृपान्निरहरत्क्षितिभारमीश: ॥
२॥
ये--वे जो; कोपिता:--क्रुद्ध थे; सु-बहु--बारम्बार; पाण्डु-सुता:--पाण्डु के पुत्र; सपत्नैः--अपने शत्रुओं द्वारा; दुः-द्यूत--'कपटपूर्ण जुआ खेलने से; हेलन--अपमान; कच-ग्रहण--( द्रौपदी के ) केश का खींचा जाना; आदिभि:--इत्यादि के द्वारा;तान्ू--उन ( पाण्डवों ) को; कृत्वा--बनाकर; निमित्तम्--कारण; इतर-इतरत:--एक दूसरे के आमने-सामने; समेतान्ू--एकत्रहुए; हत्वा--मार करके ; नूपान्ू--राजाओं को; निरहरत्--सदैव के लिए हटा दिया; क्षिति--पृथ्वी के; भारम्-- भार को;ईशः--पर से श्वर ने |
चूँकि पाण्डुपुत्र अपने शत्रुओं के अनेकानेक अपराधों से यथा कपटपूर्ण जुआ खेलने,बचनों द्वारा अपमान, द्रौपदी के केशकर्षण तथा अन्य अनेक क्रूर अत्याचारों से क्रुद्ध थे,इसलिए परमेश्वर ने उन पाण्डवों को अपनी इच्छा पूरी करने के लिए कारण-रूप में उपयोगकिया।
भगवान् कृष्ण ने कुरुक्षेत्र युद्ध के बहाने पृथ्वी पर भार बन रहे सारे राजाओं को अपनीअपनी सेनाओं समेत युद्धभूमि में दोनों ओर से एकत्र कराने की व्यवस्था की और जब भगवान्ने उन्हें युद्ध के माध्यम से मार डाला, तो पृथ्वी का भार हलका हो गया।
"
भूभारराजपृतना यदुभिर्निरस्यगुप्तैः स्वबाहुभिरचिन्तयदप्रमेय: ।
मन्येउवनेर्ननु गतोप्यगतं हि भारंयद्यादवं कुलमहो अविषह्ामास्ते ॥
३॥
भू-भार--पृथ्वी के भार स्वरूप; राज--राजाओं की; पृतना:--सेनाएँ; यदुभि:--यदुओं द्वारा; निरस्थ--हटाकर; गुप्तैः:--रक्षित; स्व-बहुभि:--अपनी भुजाओं द्वारा; अचिन्तयत्--उन्होंने विचार किया; अप्रमेय:--अगाध भगवान्; मन्ये--मैं सोचताहूँ; अवनेः--पृथ्वी के; ननु--कोई कह सकता है; गतः--चले जाने पर; अपि--लेकिन; अगतम्--न गया हुआ; हि--निस्सन्देह; भारम्-- भार; यत्-- क्योंकि; यादवम्--यदु के; कुलम्--कुल को; अहो--ओह; अविषह्ामम्--- असहा; आस्ते--पा
भगवान् ने अपने बाहुओं द्वारा संरक्षित यदुवंश का प्रयोग उन राजाओं का सफाया करने केलिए किया, जो अपनी सेनाओं सहित इस पृथ्वी के लिए भार बने हुए थे।
तत्पश्चात् अगाधभगवान् ने मन ही मन सोचा, भले ही कोई यह कहे कि अब पृथ्वी का भार समाप्त हो गया है,किन्तु मेरे मत से यह अब भी दूर नहीं हुआ, क्योंकि अब भी यादव-वंश बचा हुआ है, जिसकीशक्ति पृथ्वी के लिए असहनीय है।
"
नैवान्यतः परिभवोस्य भवेत्कथश्निन्मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम् ।
अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणुस्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम ॥
४॥
न--नहीं; एव--निश्चय ही; अन्यत:--अन्य कारण से; परिभव:--हार; अस्य--इस ( वंश ) की; भवेत्--हो सकती है;कथश्चित्--किसी भी तरह से; मत्ू-संश्रयस्थ--मेंरे शरणागत की; विभव--अपनी शक्ति के; उन्नहनस्य--असीम; नित्यम्ू--सदैव; अन्तः-- भीतर; कलिमू--कलह; यदु-कुलस्य--यदुवंश का; विधाय--प्रोत्साहित करके; वेणु-स्तम्बस्य--बाँस केकुंज की; वहिमू-- आग; इब--मानो; शान्तिमू--शान्ति; उपैमि-- प्राप्त करूँगा; धाम--अपना निजी नित्य वासस्थान।
भगवान् कृष्ण ने सोचा, 'इस यदुवंश के सदस्य सदैव मेरे पूरी तरह से शरणागत रहे हैं औरइनका ऐश्वर्य असीम है, अतः कोई भी बाहरी ताकत इस वंश को पराजित नहीं कर पाई।
किन्तुयदि मैं इस वंश के भीतर कलह को प्रोत्साहित करूँ, तो वह कलह बाँस के कुंज में घर्षण से उत्पन्न अग्नि की तरह कार्य करेगा।
तब मैं अपना असली मन्तव्य प्राप्त करके अपने नित्य धामको लौट सकूँगा।
"
एवं व्यवसितो राजन्सत्यसड्डूल्प ईश्वर: ।
शापतव्याजेन विप्राणां सझझह् स्वकुलं विभु: ॥
५॥
एवम्--इस प्रकार; व्यवसित:--निश्चय करते हुए; राजन्--हे राजा; सत्य-सड्डूल्प:--जिसकी इच्छा सदैव सच सिद्ध है;ईश्वरः--भगवान् ने; शाप-व्याजेन--शाप के बहाने; विप्राणाम्ू--ब्राह्मणों के; सझ्ह्े--समेट लिया; स्व-कुलम्--अपने वंशको; विभुः--सर्वशक्तिमान |
हे राजा परीक्षित, जब परम शक्तिशाली भगवान् ने, जिनकी इच्छा सदैव पूरी होकर रहती है,इस प्रकार अपने मन में निश्चय कर लिया, तो उन्होंने ब्राह्मणों की सभा द्वारा दिये गये शाप केबहाने अपने परिवार को समेट लिया।
"
स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम् ।
गीर्भिस्ता: स्मरतां चित्तं पदैस्तानीक्षतां क्रिया: ॥
६॥
आच्छिद्य कीर्ति सुश्लोकां वितत्य हाञ़्सा नु कौ ।
तमोनया तरिष्यन्तीत्यगात्स्वं पदमी श्वर: ॥
७॥
स्व-मूर्त्या--अपने ही स्वरूप से; लोक--सारे जगतों के; लावण्य--सौन्दर्य; निर्मुक्त्या--खींच लेने वाले; लोचनमू--नेत्रों को;नृणाम्-मनुष्यों के; गीर्मिः --उसके शब्दों से; ता: स्मरताम्--उनका स्मरण करने वालों के; चित्तम्ू--मन को; पदैः--अपनेचरणों से; तान् ईक्षताम्--उन्हें देखने वालों के; क्रिया:--शारीरिक कार्य ( चलना, फिरना इत्यादि ) ); आच्छिद्य--आकर्षितकरके; कीर्तिमू--उसकी कीर्ति को; सु-श्लोकाम्--सर्व श्रेष्ठ श्लोकों द्वारा प्रशंसित; वितत्य--प्रसार करके; हि--निश्चय ही;अज्जसा--सरलतापूर्वक; नु--निस्सन्देह; कौ--पृथ्वी पर; तम:ः--अज्ञान; अनया--उस ( कीर्ति ) द्वारा; तरिष्यन्ति--लोग पारकर जाते हैं; इति--इस प्रकार सोचकर; अगातू-- प्राप्त किया; स्वम् पदम्-- अपना इच्छित स्थान; ईश्वरः -- भगवान् ने
भगवान् कृष्ण समस्त सौन्दर्य के आगार हैं।
सारी सुन्दर वस्तुएँ उन्हीं से निकलती हैं औरउनका स्वरूप इतना आकर्षक है कि वह अन्य सारी वस्तुओं से आँखों को हटा देता है, अतः जोउनकी तुलना में सौन्दर्यविहीन प्रतीत होती हैं।
जब भगवान् कृष्ण इस पृथ्वी पर थे, तो वे सबोंके नेत्रों को आकर्षित कर लेते थे।
जब कृष्ण बोलते थे, तो उनके शब्द उन सबों के मन कोआकृष्ट कर लेते थे, जो उनका स्मरण करते थे।
लोग कृष्ण के चरणचापों को देखकर आकृष्टहो जाते थे और अपने शारीरिक कार्यों को वे उनके अनुयायी बनकर उन्हें ही अर्पित करने कीइच्छा करने लगते थे।
इस तरह कृष्ण ने आसानी से अपनी कीर्ति का विस्तार कर लिया था,जिसका गायन अत्यन्त वदान्य एवं अनिवार्य वैदिक श्लोकों के रूप में विश्व-भर में किया जाताहै।
भगवान् कृष्ण मानते थे कि इस कीर्ति का श्रवण तथा कीर्तन करने से ही भविष्य में जन्मलेने वाले बद्धजीव अज्ञान के अंधकार को पार कर सकेंगे।
इस व्यवस्था से तुष्ट होकर वे अपनेइच्छित गन्तव्य के लिए विदा हो गये।
"
श्रीराजोबाचब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसेविनाम् ।
विप्रशाप: कथमभूद्गष्णीनां कृष्णचेतसाम् ॥
८ ॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; ब्रह्मण्यानाम्ू--ब्राह्मणों के प्रति आदर-भाव रखने वालों का; वदान्यानाम्ू--दान देने वालोंका; नित्यम्ू--सदैव; वृद्ध-उपसेविनाम्--वृद्धजनों की सेवा करने वालों का; विप्र-शाप:--ब्राह्मणों का शाप; कथम्--कैसे;अभूत्--घटित हुआ; वृष्णीनाम्--वृष्णियों का; कृष्ण-चेतसाम्-कृष्ण के विचार में मग्न मन वालों का।
राजा परीक्षित ने पूछा : ब्राह्मणों ने उन वृष्णियों को कैसे शाप दिया, जो ब्राह्मणों के प्रतिसदैव आदर-भाव रखते थे, दानी थे और वृद्ध तथा सम्मानित पुरुषों की सेवा करते थे तथाजिनके मन सदैव कृष्ण के विचारों में पूरी तरह लीन रहते थे ?" यन्निमित्त: स वै शापो याहशो द्विजसत्तम ।
कथमेकात्मनां भेद एतत्सर्व वदस्व मे ॥
९॥
यतू-निमित्त:--जिस कारण से उत्पन्न; सः--वह; बै--निस्सन्देह; शाप: --शाप; याहश: --किस तरह का; द्विज-सत्-तम--हेद्विजश्रेष्ठ; कथम्--कैसे; एक-आत्मनामू--एक आत्मा ( श्रीकृष्ण ) में हिस्सा बँटाने वालों का; भेदः--मतभेद; एतत्--यह;सर्वम्--समस्त; वदस्व--कृपया बतायें; मे--मुझको |
राजा परीक्षित पूछते रहे : इस शाप का क्या उद्देश्य था ? हे द्विजश्रेष्ठ यह किस तरह का था?और यदुओं में, जो एक ही जीवनलक्ष्य भागी थे, ऐसा मतभेद क्योंकर उत्पन्न हुआ ? कृपया, मुझेये सारी बातें बतलायें।
"
श्रीबादरायणिरुवाचबिभ्रद्वपु: सकलसुन्दरसन्निवेशंकर्माचरन्भुवि सुमड्रलमाप्तकाम: ।
आस्थाय धाम रममाण उदारकीऋतिःसंहर्तुमैच्छत कुल स्थितकृत्यशेष: ॥
१०॥
श्री-बादरायणि: उबाच--बादरायण-पुत्र शुकदेव गोस्वामी ने कहा; बिभ्रतू-- धारण करते हुए; बपु:--दैवी शरीर; सकल--समस्त; सुन्दर--सुन्दर वस्तुओं का; सन्निवेशम्-मि श्रण; कर्म--कार्यकलाप; आचरनू--करते हुए; भुवि--पृथ्वी पर; सु-मड्डलम्--अत्यन्त शुभ; आप्त-काम:--समस्त इच्छाएँ तुष्ट होने से; आस्थाय--निवास करके; धाम--अपने धाम ( द्वारका ) में;रममाण:--रमण करते हुए; उदार-कीर्ति:--अत्यन्त उदार कीर्ति वाले; संहर्तुमू-विनष्ट करने के लिए; ऐच्छत--इच्छा की;कुलम्--अपने वंश का; स्थित--वहाँ रहते हुए; कृत्य--अपने कार्य का; शेष: --कुछ भाग
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : समस्त सुन्दर वस्तुओं के सं मिश्रणरूप अपने शरीर को धारणकरने वाले भगवान् ने पृथ्वी पर रहते हुए अत्यन्त शुभ कार्यो को कर्तव्यपरायणता के साथसम्पन्न किया, यद्यपि वे बिना किसी प्रयास के अपनी सारी इच्छाएँ पहले ही पूरी कर चुके थे।
अपने धाम में रहते हुए तथा जीवन का आनन्द उठाते हुए अब भगवान् ने, जिनका महिमा-गायनस्वयं उदार है, अपने वंश का संहार करना चाहा, क्योंकि अब भी उन्हें कुछ थोड़ा-सा कर्मकरना शेष था।
"
कर्मानि पुण्यनिवहानि सुमड्रलानिगायजगत्कलिमलापहराणि कृत्वा ।
कालात्मना निवसता यदुदेवगेहेपिण्डारक॑ समगमन्मुनयो निसृष्टा: ॥
११॥
विश्वामित्रोडसितः कण्वो दुर्वासा भूगुरड्डिरा: ।
'कश्यपो वामदेवोडत्रिर्वसिष्ठो नारदादय: ॥
१२॥
कर्माणि--सकाम कर्मो को; पुण्य--पुण्य; निवहानि--प्रदान करने वाले; सु-मड्गलानि--अत्यन्त मंगलकारी; गायत्--( जिसके विषय में ) कीर्तन करते हुए; जगत्--सारे संसार के लिए; कलि--वर्तमान पतित युग; मल--अशुद्धियाँ;अपहराणि--हरण करने वाले; कृत्वा--सम्पन्न करके; काल-आत्मना--जो कालस्वरूप है, उसके द्वारा; निवसता--निवासकरते हुए; यदु-देव--यदुओं के स्वामी ( बसुदेव ) के; गेहे--घर में; पिण्डारकम्--पिण्डारक नामक तीर्थस्थान में; समगमन्--वे गये; मुनयः--मुनिगण; निसूष्टा:--विदा कर दिये जाने पर; विश्वामित्र: असित: कण्व:--विश्वामित्र, असित तथा कण्व;दुर्वासा: भृगु: अड्भिरा:--दुर्वासा, भूगु तथा अंगिरा; कश्यप: वामदेव: अत्रि:--कश्यप, वामदेव तथा अत्रि; वसिष्ठ: नारद-आदयः:--वसिष्ठ, नारद इत्यादि ।
एक बार विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भूगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि तथावसिष्ठ मुनियों ने नारद तथा अन्यों के साथ मिलकर प्रचुर पुण्य प्रदान करने वाला, परम सुखलाने वाला तथा मात्र उच्चारण करने से समस्त जगत के कलियुग के पापों को दूर करने वालाएक सकाम अनुष्ठान किया।
इन मुनियों ने इस अनुष्ठान को कृष्ण के पिता एवं यदुओं के अग्रणीबसुदेव के घर में सम्पन्न किया।
जब उस समय वसुदेव के घर में कालरूप में निवास कर रहेकृष्ण उत्सव की समाप्ति होने पर मुनियों को आदरपूर्वक विदा कर चुके, तो वे मुनि पिण्डारकनामक पवित्र तीर्थस्थान चले गये।
"
क्रीडन्तस्तानुपब्रज्य कुमारा यदुनन्दना: ।
उपसडूह्य पप्रच्छुतिनीता विनीतवत् ॥
१३॥
ते वेषयित्वा स्त्रीवेषै: साम्बं जाम्बवतीसुतम् ।
एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वल्यसितेक्षणा ॥
१४॥
प्रष्टं विलज्जती साक्षात्प्रब्रूतामोघदर्शना: ।
प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा कि स्वित्सजञ्लनयिष्यति ॥
१५॥
क्रीडन्तः--खेलते हुए; तान्--उन ( मुनियों ) को; उपब्रज्य--पास जाकर; कुमारा:--छोटे बालकों ने; यदु-नन्दना: --यदुबंशके पुत्र; उपसडूह्य --मुनियों के चरणों को पकड़ कर; पप्रच्छु:--पूछा; अविनीता:--विनीत नहीं, उहंड; विनीत-बत्--विनीतकी तरह बनते हुए; ते--वे; वेषयित्वा--वेश बनाकर; स्त्री-वेषै: --स्त्री के वस्त्र तथा आभूषण पहन कर; साम्बम् जाम्बवती-सुतम्--जाम्बवती के पुत्र साम्ब को; एषा--यह स्त्री; पृच्छति--पूछ रही है; वः--तुमसे; विप्रा:--हे विद्वान ब्राह्मणो;अन्तर्वत्नी--गर्भवती; असित-ईक्षना--श्याम नेत्रों वाली; प्रष्टम--पूछने के लिए; विलज्जती--शरमाई हुई; साक्षात्-प्रत्यक्षअपने आप; प्रब्रृत--कृपया बोलें; अमोघ-दर्शना:--आप, जिनकी दृष्टि कभी मोहित नहीं होती; प्रसोष्यन्ती --तुरन्त ही जन्म देनेवाली; पुत्र-कामा--तथा पुत्र-लाभ की इच्छुक; किम् स्वित्ू--किसको ( पुत्र या पुत्री ); सज्लनयिष्यति--जन्म देगी ।
उस तीर्थस्थान में यदुवंश के तरुण बालक जाम्बवती के पुत्र, साम्ब को स्त्री के वेश में लेआये थे।
उन बालकों ने खिलवाड़ करते हुए वहाँ पर एकत्र महामुनियों के पास पहुँच कर उनकेचरण पकड़ लिए और बनावटी विनयशीलता से उहंडतापूर्वक उनसे पूछा, 'हे विद्वान ब्राह्मणो,यह श्याम नेत्रों वाली गर्भिणी स्त्री आप लोगों से कुछ पूछना चाहती है।
वह अपने विषय में पूछनेमें अत्यधिक लजा रही है।
वह शीघ्र ही बच्चे को जन्म देने वाली है और पुत्र प्राप्त करने के लिएअत्यन्त इच्छुक है।
चूँकि आप सभी अच्युत दृष्टि वाले महामुनि हैं, अतः कृपा करके हमें बतायेंकि इसकी सन््तान बालिका होगी या बालक ।
"
एवं प्रलब्धा मुनयस्तानूचु: कुपिता नृप ।
जनयिष्यति वो मन्दा मुषलं कुलनाशनम् ॥
१६॥
एवम्--इस प्रकार; प्रलब्धा:-- धोखा दिये गये; मुन्ययः --मुनिगण; तान्ू--उन बालकों से; ऊचु:--बोले; कुपिता:--क्रुद्ध;नृप--हे राजा परीक्षित; जनयिष्यति--वह जन्म देगी; व:--तुम्हारे लिए; मन्दा:--रे मूर्खो; मुषलम्--मूसल को; कुल-नाशनम्--वंश का नाश करने वाले।
हे राजन, धोखे से इस तरह उपहास का पात्र बनाये गये मुनि क्रुद्ध हो गये और उन्होंनेबालकों से कहा, 'मूर्खो! वह तुम्होीरे लिए लोहे का एक मूसल जनेगी, जो तुम्हारे समस्त कुलका विनाश करेगा।
"
तच्छृत्वा तेउतिसन्त्रस्ता विमुच्य सहसोदरम् ।
साम्बस्य दहशुस्तस्मिन्मुषलं खल्वयस्मयम् ॥
१७॥
तत्--वह; श्रुत्वा--सुनकर; ते--वे; अति-सन्त्रस्ता:--अत्यन्त भयभीत; विमुच्य--उघाड़ कर, खोल कर; सहसा--झटपट;उदरम्-पेट को; साम्बस्य--साम्ब के; दहशुः--उन्होंने देखा; तस्मिन्ू--उसके भीतर; मुषलम्--मूसल; खलु--निस्सन्देह;अयः-मयम्--लोहे का बना हुआ।
मुनियों का शाप सुनकर भयभीत बालकों ने झटपट साम्ब के पेट से कपड़े हटवाये औरसचमुच उन्होंने देखा कि उसके भीतर एक लोहे का मूसल था।
"
कि कृतं मन्दभाग्यर्न: कि वदिष्यन्ति नो जना: ।
इति विह्लिता गेहानादाय मुषलं ययु: ॥
१८॥
किमू--क्या; कृतम्ू--किया गया; मन्द-भाग्यै: -- अभागों द्वारा; न: --हमारे द्वारा; किमू--क्या; वदिष्यन्ति--कहेंगे; न:--हमसे; जना:--परिवार वाले; इति--इस प्रकार कहते हुए; विह्लिता:--विहल; गेहान्ू--अपने घरों को; आदाय--लेकर;मुषलम्--मूसल को; ययु:--चले गये।
यदुवंश के तरुण लोगों ने कहा : 'ओह! यह हमने क्या कर डाला ? हम कितने अभागे हैं!हमारे परिवार वाले हमसे क्या कहेंगे ?' ऐसा कहते हुए तथा अतीव विश्लुब्ध होकर, वे अपनेसाथ उस मूसल को लेकर अपने घरों को लौट गये।
"
तच्चोपनीय सदसि परिम्लानमुखभ्रिय: ।
राज्ञ आवेदयां चक्रुः सर्वयादवसन्निधौ ॥
१९॥
तत्--वह मूसल; च--तथा; उपनीय--लाकर; सदसि--सभा में; परिम्लान--पूरी तरह कुम्हलाया; मुख--उनके मुखों की;श्रीय:--सुन्दरता; राज्ञे--राजा से; आवेदयाम् चक्रु:--सूचित किया; सर्व-यादब--सभी यादवों की; सन्निधौ--उपस्थिति में |
वे यदु-बालक, जिनके मुख की कान्ति पूरी तरह फीकी पड़ चुकी थी, उस मूसल को राज-सभा में ले आये और समस्त यादवों की उपस्थिति में उन्होंने राजा उग्रसेन से, जो कुछ घटना घटीथी, कह सुनाई।
"
श्र॒ुत्वामोघं विप्रशापं हृष्ठा च मुषलं नृप ।
विस्मिता भयसन्त्रस्ता बभूवुर्दारकौकस: ॥
२०॥
श्रुत्वा--सुनकर; अमोघम्--्यर्थ न जाने वाला; विप्र-शापम्--ब्राह्मणों के शाप को; हृष्टा--देखकर; च--तथा; मुषलम्--मूसल को; नृप--हे राजा; विस्मिता:--चकित; भय-- भय से; सन्त्रस्ता:--किंकर्त व्यविमूढ़; बभूबुः--हो गये; द्वारका-ओकसः-द्वारका के निवासी |
हे राजा परीक्षित, जब द्वारकावासियों ने ब्राह्मणों के अमोघ शाप को सुना और मूसल कोदेखा, तो वे भय से विस्मित तथा किकंर्तव्यविमूढ़ हो गये।
"
तच्चूर्णयित्वा मुषलं यदुराज: स आहुक:ः ।
समुद्रसलिले प्रास्यल्लोहं चास्यावशेषितम् ॥
२१॥
तत्--उसको; चूर्णयित्वा--चूरे-चूरे कराकर; मुषलम्--मूसल को; यदु-राज:--यदुओं के राजा ने; सः--उस; आहुक:--आहुक ( उग्रसेन ) ने; समुद्र--समुद्र के; सलिले--जल में; प्रास्यत्--फेंक दिया; लोहम्--लोहे के; च--तथा; अस्य--मूसलके; अवशेषितम्--अवशिष्ट, बचे हुए।
मूसल को चूरे-चूरे में तुड़वा कर यदुओं के राजा आहुक ( उग्रसेन ) ने स्वयं उन खण्डों कोतथा शेष बचे लोहे के टुकड़े को समुद्र के जल में फेंक दिया।
"
कश्रिन्मत्स्योग्रसील्लोहं चूर्णानि तरलैस्तत: ।
उहामानानि वेलायां लग्नान्यासन्किलैरका: ॥
२२॥
कश्चित्--किसी; मत्स्य:--मछली ने; अग्रसीत्ू--निगल गई; लोहम्--लोहे को; चूर्णानि--चूरा; तरलैः--लहरों से; ततः--उसस्थान से; उहामानानि--ले जाया जाकर; वेलायाम्--तट पर; लग्नानि--चिपके हुए; आसन्--हो गये; किलु--निस्सन्देह;एरका:--नरकट ( विशेष प्रकार कि तूक्ष्ण धार वाली घास)
किसी मछली ने वह लोहे का टुकड़ा निगल लिया और लोहे के शेष खण्ड लहरों द्वाराकिनारे पर लग गये, जहाँ पर वे ऊँचे तीक्ष्ण नरकटों के रूप में उग आये।
"
मत्स्यो गृहीतो मत्स्यघ्नेर्जालेनान्यै: सहार्णवे ।
तस्योदरगतं लोहं स शल्ये लुब्धकोकरोत् ॥
२३॥
मत्स्य:--मछली; गृहीत:--पकड़ी जाकर; मत्स्य-घ्नै:--मछुआरों द्वारा; जालेन--जाल से; अन्यै: सह--अन्य मछलियों केसाथ; अर्णवे--समुद्र के भीतर; तस्थ--मछली के; उदर-गतम्--पेट में गये हुए; लोहम्ू--लोहे के खण्ड को; सः--उस(जरा ) ने; शल्ये--अपने तीर में; लुब्धक:--शिकारी ने; अकरोत्--लगा लिया।
यह मछली अन्य मछलियों के साथ समुद्र में मछुवारे के जाल में पकड़ ली गई।
इस मछलीके पेट में स्थित लोहे के टुकड़े को जरा नामक शिकारी ले गया, जिसने उसे अपने तीर की नोकमें लगा लिया।
"
भगवान्न्ञातसर्वार्थ ईश्वरोडपि तदन्यथा ।
कर्तु नैच्छद्विप्रशापं कालरूप्यन्बमोदत ॥
२४॥
भगवान्-- भगवान् ने; ज्ञात--जानते हुए; सर्व-अर्थ:--हर बात का अर्थ; ईश्वरः--पर्याप्त समर्थ; अपि--यद्यपि; ततू-अन्यथा-- अन्यथा; कर्तुमू--करने के लिए; न ऐच्छत्--नहीं चाहा; विप्र-शापम्--ब्राह्मण के शाप को; काल-रूपी--काल केरूप में प्रकट; अन्वमोदत--प्रसन्नतापूर्वक स्वीकृति दे दी।
इन सारी घटनाओं की महत्ता को पूर्णतया जानते हुए ब्राह्मणों के शाप को पलट सकने मेंसमर्थ होते हुए भी भगवान् ने ऐसा करना नहीं चाहा।
प्रत्युत, काल के रूप में उन्होंने खुशी खुशीइन घटनाओं को स्वीकृति दे दी।
"
अध्याय दो: महाराज निमि नौ योगेन्द्रों से मिले
11.2श्रीशुक उबाचगोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह ।
अवात्सीन्नारदोभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालस: ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुक ने कहा; गोविन्द-- भगवान् गोविन्द की; भुज--बाहुओं से; गुप्तायाम्--सुरक्षित; द्वारवत्याम्--द्वारवती राजधानी में; कुरू-उद्ठद-हे कुरु श्रेष्ठ; अवात्सीत्ू--रह रहे; नारद: --नारद मुनि; अभीक्षणम्--निरन्तर; कृष्ण-उपासन--कृष्ण की पूजा में लगे रहने की; लालस:--लालसा से।
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे कुरुश्रेष्ठ, भगवान् कृष्ण की पूजा में संलग्न रहने के लिएउत्सुक नारद मुनि कुछ काल तक द्वारका में रहते रहे, जिसकी रक्षा गोविन्द सदैव अपनी बाहुओंसे करते थे।
"
को नु राजब्निन्द्रियवान्मुकुन्दबरणाम्बुजम् ।
न भजेत्सर्वतोमृत्युरुपास्यममरोत्तमै: ॥
२॥
कः--कौन; नु--निस्सन्देह; राजन्--हे राजा; इन्द्रिय-वान्ू--इन्द्रियों से युक्त; मुकुन्द-चरण-अम्बुजम्-- भगवान् मुकुन्द केचरणकमलों को; न भजेत्--नहीं पूजेगा; सर्वतः-मृत्यु:--सभी ओर से मृत्यु का सामना करते हुए; उपाश्यम्--पूज्य; अमर-उत्तमैः--सर्व श्रेष्ठ मुक्त पुरुषों द्वारा |
हे राजनू, इस भौतिक जगत में बद्धजीवों को जीवन के पग-पग पर मृत्यु का सामना करनापड़ता है।
इसलिए बद्धजीवों में ऐसा कौन होगा, जो बड़े से बड़े मुक्त पुरुष के लिए भी पूज्यभगवान् मुकुन्द के चरणकमलों की सेवा नहीं करेगा।
"
तमेकदा तु देवर्षि बसुदेवो गृहागतम् ।
अर्चितं सुखमासीनमभिवाह्येदमब्रवीत् ॥
३ ॥
तम्--उसको; एकदा--एक बार; तु--तथा; देव-ऋषिम्--देवताओं के बीच ऋषि, नारद को; वसुदेव:--कृष्ण के पिताबसुदेव ने; गृह-आगतम्--अपने घर पर आये हुए; अर्चितमू--सामग्री द्वारा पूजन किया; सुखम् आसीनम्--सुखपूर्वक बैठे हुए;अभिवाद्य--आदरपूर्वक सत्कार करके; इृदम्ू--यह; अब्रवीत्--कहा |
एक दिन देवर्षि नारद वसुदेव के घर आये।
उनकी उपयुक्त सामग्री से पूजा करके,सुखपूर्वक बिठाने तथा सादर प्रणाम करने के बाद वसुदेव इस प्रकार बोले।
"
श्रीवसुदेव उबाचभगवन्न्भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम् ।
कृपणानां यथा पित्रोरुत्तमश्लोकवर्त्मनाम् ॥
४॥
श्री-वसुदेव: उवाच-- श्री वसुदेव ने कहा; भगवन्ू--हे प्रभु; भवत:ः--आपका; यात्रा--आगमन; स्वस्तये--लाभ के लिए;सर्व-देहिनाम्ू--समस्त देहधारी प्राणियों के; कृपणानाम्--अत्यन्त दुखियारों के; यथा--जिस तरह; पित्रो:--पिता का; उत्तम-इलोक--उत्तम एलोकों से जिनकी प्रशंसा की जाती है, ऐसे भगवान्; वर्त्मनाम्--जो मार्ग पर स्थित हैं, उनके |
श्री वसुदेव ने कहा : हे प्रभु, जिस तरह पिता का आगमन उसके बच्चों के लिए लाभप्रदहोता है, उसी तरह आपका आगमन सारे जीवों के लाभ के लिए है।
आप उनमें से जो अत्यन्तदुखियारे हैं तथा साथ ही साथ वे जो उत्तमशलोक भगवान् के पथ पर अग्रसर हैं, उनकी विशेषरूप से सहायता करते हैं।
"
भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च ।
सुखायैव हि साधूनां त्वाइशामच्युतात्मनाम् ॥
५॥
भूतानाम्--जीवों के; देव-चरितम्--देवताओं के कार्यकलाप; दुःखाय--दुख के लिए; च-- भी; सुखाय--सुख में; च--तथा; सुखाय--सुख में; एब--केवल; हि--निस्सन्देह; साधूनाम्--सनन््तों के; त्वाइशाम्--तुम्हारे समान; अच्युत--अच्युतभगवान्; आत्मनाम्--जिन्हें अपनी आत्मा के ही समान स्वीकार कर रखा है।
देवताओं के कार्यकलापों से जीवों को दुख तथा सुख दोनों प्राप्त होते हैं, किन्तु अच्युतभगवान् को अपनी आत्मा मानने वाले, आप जैसे महान् सन््तों के कार्यों से समस्त प्राणियों कोकेवल सुख ही प्राप्त होता है।
"
भजन्ति ये यथा देवान्देवा अपि तथेव तान् ।
छायेव कर्मसचिवा: साधवो दीनवत्सला: ॥
६॥
भजन्ति--पूजते हैं; ये--जो; यथा--जिस तरह; देवान्--देवताओं को; देवा:--देवतागण; अपि-- भी; तथा एव--उसी तरहसे; तानू--उनको; छाया--छाया में; इव--मानो; कर्म--भौतिक कर्म तथा उसके फल का; सचिवा:--अनुचर; साधव: --साधुगण; दीन-वत्सला: --पतितों पर दयालु।
जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे भेंट ( उपहार ) के अनुसार देवताओं से वैसा ही फल पातेहैं।
देवतागण कर्म के उसी तरह अनुचर हैं, जिस तरह मनुष्य की छाया मनुष्य की अनुचर है,किन्तु साधुगण सचमुच ही पतितों पर दयालु होते हैं।
"
ब्रह्म॑स्तथापि पृच्छामो धर्मान्भागवतांस्तव ।
याश्श्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यों मुच्यते सर्वती भयात् ॥
७॥
ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; तथा अपि--इतने पर भी ( यद्यपि आपके दर्शनों से ही मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूँ ); पृच्छाम:--मैं पूछ रहा हूँ;धर्मानू-धार्मिक कर्तव्यों को; भागवतान्--जो विशेष रुप से भगवान् को प्रसन्न करने के निमित्त हैं; तब--तुमसे; यान्ू--जिन्हें; श्रुत्वा--सुनकर; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; मर्त्य:--जिसका मरण निश्चित है; मुच्यते--छूट जाता है; सर्वतः--समस्त;भयातू-- भय से।
हे ब्राह्मण, यद्यपि मैं आपके दर्शन मात्र से सन्तुष्ट हूँ, तो भी आपसे मैं उन कर्तव्यों के विषयमें पूछना चाहता हूँ, जो भगवान् को आनन्द प्रदान करने वाले हैं।
जो भी मर्त्य प्राणी इनके विषयमें श्रद्धापूर्वक श्रवण करता है, वह समस्त प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है।
"
अहं किल पुरानन्तं प्रजार्थों भुवि मुक्तिदम् ।
अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया ॥
८॥
अहम्--मैं; किल--निस्सन्देह; पुर--बहुत काल पूर्व; अनन्तम्-- भगवान्, जो अनन्त हैं; प्रजा-अर्थ:--सनन््तान की कामनाकरते हुए; भुवि-- पृथ्वी पर; मुक्ति-दम्ू--मुक्ति देने वाले, भगवान्; अपूजयम्--मैंने पूजा की; न मोक्षाय--मुक्ति के लिए नहीं;मोहितः--मोह ग्रस्त; देव-मायया-- भगवान् की माया द्वारा।
इस पृथ्वी पर मैंने अपने पूर्वजन्म में मुक्तिप्रदाता भगवान् अनन्त की पूजा तो की, किन्तु मैंसन््तान का इच्छुक था, अतएव मैंने उनकी पूजा मुक्ति के लिए नहीं की थी।
इस तरह मैं भगवान्की माया से मोहग्रस्त था।
"
यथा विचित्रव्यसनाद्धवद्धिर्विश्चवतोभयात् ।
मुच्येम हाञ्खसैवाद्धा तथा न: शाधि सुत्रत ॥
९॥
यथा--जिससे; विचित्र-व्यसनात्--विभिन्न खतरों से पूर्ण; भवदर्द्धः--आपके ही कारण से; विश्वतः-भयात्--( इस जगत से )जो प्रत्येक ओर से भयावह है; मुच्येम--मुक्त हो सकूँ; हि--निस्सन्देह; अज्सा--आसानी से; एव-- भी; अद्धा-प्रत्यक्षत:;तथा--इस तरह; नः--हमको; शाधि--कृपया आदेश दें; सु-ब्रत--हे अपने व्रत के सच्चे |
हे प्रभु, आप सदैव अपने व्रत पर खरे उतरते हैं।
कृपया मुझे स्पष्ट आदेश दें, जिससे आपकीदया से मैं अपने को इस संसार से आसानी से मुक्त कर सकूँ, जो अनेक संकटों से पूर्ण है औरहमें सदैव भय से बाँधे रहता है।
"
श्रीशुक उबाचराजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता ।
प्रीतस्तमाह देवर्षिहरे: संस्मारितो गुणै: ॥
१०॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; राजन्--हे राजा; एवम्--इस प्रकार; कृत-प्रश्न:--पूछे जाने के बाद;वसुदेवेन--वसुदेव द्वारा; धीमता--बुद्धिमान; प्रीत:--प्रसन्न; तमू--उनसे; आह--बोला; देव-ऋषि:--देवताओं में ऋषि;हरेः-- भगवान् हरि के ; संस्मारित:--स्मरण कराने वाले; गुणैः--गुणों के द्वारा
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, देवर्षि नारद अत्यन्त बुद्धिमान वसुदेव के प्रश्नों सेअतीव प्रसन्न हुए।
चूँकि वे प्रश्न भगवान् के दिव्य गुणों का स्मरण कराने वाले थे, अतएव उन्हेंकृष्ण का स्मरण हो आया।
अतः नारद ने वसुदेव को इस प्रकार उत्तर दिया।
"
श्रीनारद उवाचसम्यगेतद्व्यवसितं भवता सात्वतर्षभ ।
यत्पृच्छसे भागवतान्धर्मास्त्वं विश्वभावनान् ॥
११॥
श्री-नारद: उवाच--नारद मुनि ने कहा; सम्यक्ू--सही सही; एतत्--यह; व्यवसितम्--निश्चय, संकल्प; भवता--आपके द्वारा;सात्वत-ऋषभ--हे सात्वत वंश के सर्वश्रेष्ठ; यत्--चूँकि; पृच्छसे--पूछ रहे हो; भागवतान् धर्मान्ू-- भगवान् के प्रति कर्तव्योंको; त्वमू--तुम; विश्व-भावनान्--समस्त विश्व को शुद्ध ( पवित्र ) कर सकने वाले।
श्री नारद ने कहा : हे सात्वत- श्रेष्ठ, तुमने ठीक ही भगवान् के प्रति जीव के शाश्वत कर्तव्यके विषय में मुझसे पूछा है।
भगवान् के प्रति ऐसी भक्ति इतनी शक्तिशाली होती है कि इसकेकरने से सारा विश्व पवित्र हो सकता है।
"
श्रुतोडनुपठितो ध्यात आहतो वानुमोदितः ।
सद्यः पुनाति सद्धर्मो देवविश्वद्रहोडपि हि ॥
१२॥
श्रुतः--सुना हुआ; अनुपठित:--बाद में सुनाया गया; ध्यात:--ध्यान किया हुआ; आहत: -- श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया गया;बा--अथवा; अनुमोदित:ः--अन्यों द्वारा किये जाने पर प्रशंसित; सद्यः--तुरन्त; पुनाति--पवित्र कर देता है; सत्-धर्म:--शुद्धभक्ति; देव--देवताओं को; विश्व--तथा ब्रह्माण्ड को; द्रुहः--घृणा से भरे हुए; अपि हि--भी |
भगवान् के प्रति की गई शुद्ध भक्ति आध्यात्मिक रूप से इतनी प्रबल होती है कि ऐसी दिव्यसेवा के विषय में मात्र सुनने, सुनकर इसकी महिमा का गायन करने, इसका ध्यान करने,आदरपूर्वक तथा श्रद्धापूर्वक इसे स्वीकार करने या अन्यों की भक्ति की प्रशंसा करने से, वेमनुष्य भी तुरन्त शुद्ध हो जाते हैं, जो देवताओं से तथा अन्य सारे जीवों से घृणा करते हैं।
"
त्वया परमकल्याण: पुण्यश्रवणकीर्तन: ।
स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम ॥
१३॥
त्वया--तुम्हारे द्वारा; परम--सर्वाधिक ; कल्याण: --आनन्दपूर्ण; पुण्य--अत्यन्त पवित्र; श्रवण--सुनना; कीर्तन:--तथा कीर्तन( किसके विषय में ); स्मारित:--स्मरण कराया गया; भगवान्-- भगवान्; अद्य--आज ; देव: नारायण:-- भगवान् नारायण;मम--मेरे
आपने आज मुझे अपने प्रभु, परम आनन्दमय भगवान् नारायण का स्मरण करा दिया।
परमेश्वर इतने कल्याणमय हैं कि जो कोई भी उनका श्रवण एवं कीर्तन करता है, वह पूरी तरह सेपवित्र बन जाता है।
"
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मन: ॥
१४॥
अत्र अपि--इस मामले ( भागवत धर्म का वर्णन करने ) में; उदाहरन्ति-- उदाहरण दिया जाता है; इमम्--यह; इतिहासम्--ऐतिहासिक वृत्तान्त; पुरातनम्--प्राचीन; आर्षभाणाम्--ऋषभ--पुत्रों का; च--तथा; संवादम्--वार्ता; विदेहस्य--विदेह केराजा जनक से; महा-आत्मन:--विशाल हृदय वाला आत्मा।
भगवान् की भक्तिमय सेवा की व्याख्या करने के लिए मुनियों ने महात्मा राजा विदेह तथाऋषभ-पुत्रों के मध्य हुई वार्ता का प्राचीन इतिहास सुनाया है।
"
प्रियत्रतो नाम सुतो मनो: स्वायम्भुवस्य यः ।
तस्याग्नीश्रस्ततो नाभिरृषभस्तत्सुतः स्मृत: ॥
१५॥
प्रियत्रत:ः --महाराज प्रियत्रत; नाम--नामक; सुतः--पुत्र; मनोः स्वायम्भुवस्य--स्वायम्भुव मनु का; य:ः--जो; तस्य--उसका;आग्नीक्ष:--आग्नीक्ष ( पुत्र था ); ततः--उससे ( आग्नीश्व से ); नाभि:--राजा नाभि; ऋषभ:-- भगवान् ऋषभदेव; तत्-सुतः--उसका पुत्र; स्मृत:--स्मरण किया जाता है।
स्वायम्भुव मनु को महाराज प्रियत्रत नामक पुत्र हुआ और प्रिय्रत के पुत्रों में से आग्नीक्नथा, जिससे नाभि उत्पन्न हुआ।
नाभि का पुत्र ऋषभदेव कहलाया।
"
तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।
अवतीर्ण सुतशतं तस्यासीद्रह्मपारगम् ॥
१६॥
तम्--उसे; आहु:--कहते हैं; वासुदेव-अंशम्-- भगवान् वासुदेव का अंश; मोक्ष-धर्म--मोक्ष प्राप्त करने की विधि;विवक्षया--शिक्षा देने की इच्छा से; अवतीर्णम्--इस संसार में प्रकट हुआ; सुत--पुत्र; शतम्--एक सौ; तस्य--उसके ;आसीत्--थे; ब्रह्म --वेदों के; पार-गम्--पूर्णतया आत्मसात करने वाले।
श्री ऋषभदेव को भगवान् वासुदेव का अंश माना जाता है।
उन्होंने इस जगत में उन धार्मिकसिद्धान्तों का प्रसार करने के लिए अवतार लिया था, जिनसे जीवों को चरम मोक्ष प्राप्त होता है।
उनके एक सौ पुत्र थे, वे सभी वैदिक ज्ञान में पारंगत थे।
"
तेषां वै भरतो ज्येष्टो नारायणपरायण: ।
विख्यात वर्षमेतद्यन्नाम्ना भारतमद्भुतम् ॥
१७॥
तेषाम्-- उनमें से; वै--दरअसल; भरतः-- भरत; ज्येष्ठ:--सबसे बड़ा; नारायण-परायण:-- भगवान् नारायण का भक्त;विख्यातम्--प्रसिद्ध है; वर्षम्--लोक; एतत्--यह; यत्-नाम्ना--जिसके नाम पर; भारतम्-- भारतवर्ष; अद्भुतम्ू-- अद्भुत |
भगवान् ऋषभदेव के एक सौ पुत्रों में से सबसे ज्येष्ठ भरत थे, जो भगवान् नारायण के प्रतिपूर्णतया समर्पित थे।
भरत की ख्याति के कारण ही यह लोक अब महान् भारतवर्ष के नाम सेविख्यात है।
"
स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम् ।
उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जनूनभिस्त्रिभि: ॥
१८॥
सः--वह; भुक्त-- भोगे गये; भोगाम्ू--आनन्दों को; त्यक्त्वा--त्याग कर; इमाम्--इस ( पृथ्वी ) के; निर्गतः--घर छोड़कर;तपसा--तपस्या से; हरिम्-- भगवान् हरि को; उपासीन: --पूजा करके; तत्-पदवीम्--उसका गन्तव्य; लेभे--प्राप्त किया;वै--निस्सन्देह; जन्मभि:--जन्मों में; त्रिभिः--तीन
राजा भरत ने सारे भौतिक आनन्द को क्षणिक तथा व्यर्थ मानते हुए इस जगत का परित्यागकर दिया।
अपनी सुन्दर युवा पत्नी तथा परिवार को छोड़कर उन्होंने कठोर तपस्या द्वारा भगवान्की पूजा की और तीन जन्मों के बाद भगदवद्धाम प्राप्त किया।
"
तेषां नव नवद्वीपपतयोस्य समन्ततः ।
कर्मतन्त्रप्रणेतार एकाशीतिद्विजातय: ॥
१९॥
तेषामू--उन ( ऋषभदेव के एक सौ पुत्रों ) में से; नव--नौ; नव-द्वीप--नौ द्वीपों के ( जिनमें भारतवर्ष बना है ); पतयः --स्वामी; अस्य--इस वर्ष के; समन्तत:--इसे पूरी तरह से समेटते हुए; कर्म-तन्त्र--सकाम वैदिक यज्ञों के मार्ग के; प्रणेतार: --प्रणेता, प्रारम्भ करने वाले; एकाशीति:--इक्यासी; द्वि-जातय:--द्विज ब्राह्मण
ऋषभदेव के शेष पुत्रों में से नौ पुत्र भारतवर्ष के नौ द्वीपों के शासक बने।
और उन्होंने इसलोक पर पूर्ण आधिपत्य जमाया।
शेष इक्यासी पुत्र द्विज ब्राह्मण बन गये और उन्होंने सकामयज्ञों ( कर्मकाण्ड ) के वैदिक मार्ग का शुभारम्भ करने में सहायता की।
"
नवाभवन्महाभागा मुनयो ह्ार्थशंसिन: ।
श्रमणा वातरसना आत्मविद्याविशारदा: ॥
२०॥
कविर्ईविरन्तरीक्ष: प्रबुद्ध: पिप्पलायन: ।
आविदोंत्रोथ द्रमिलश्रमसः करभाजन: ॥
२१॥
नव--नौ; अभवनू-- थे; महा-भागा: --अ त्यन्त भाग्यवान; मुनयः --मुनि; हि--निस्सन्देह; अर्थ-शंसिन:--परब्रह्म की व्याख्याकरने में लगे हुए; श्रमणा: --इस तरह महान् प्रयास करते हुए; वात-रसना:--वायु ओढ़े हुए ( नंगे ); आत्म-विद्या --आध्यात्मिक विज्ञान में; विशारदा:--विद्वान; कवि: हवि: अन्तरीक्ष:--कवि, हविर्, तथा अन्तरीक्ष; प्रबुद्ध: पिप्पलायन:--प्रबुद्ध तथा पिप्पलायन; आविदंत्र:--आविदोंत्र; अथ-- भी; द्रमिल:--द्रुमिल; चमस: करभाजन:--चमस तथा करभाजन।
ऋषभदेव के शेष नौ पुत्र अत्यन्त भाग्यशाली मुनि थे, जिन्होंने परम सत्य के ज्ञान काविस्तार करने के लिए घोर परिश्रम किया।
वे नंगे रहकर इधर-उधर विचरण करते थे औरआध्यात्मिक विज्ञान में अतीव दक्ष थे।
इनके नाम थे--कवि, हविर्, अन्तरीक्ष, प्रबुद्ध,पिप्पलायन, आविरहोंत्र, द्रमिल, चमस तथा करभाजन।
"
त एते भगवद्गूपं विश्व सदसदात्मकम आत्मनोव्यतिरिकेण पश्यन्तो व्यचरन्महीम् ॥
२२॥
ते एते--ये ( नवों योगेन्द्र )) भगवत्-- भगवान् के; रूपम्--रूप; विश्वम्--समस्त ब्रह्माण्ड को; सत्-असत्ू-आत्मकम्--स्थूलतथा सूक्ष्म पदार्थों से युक्त; आत्मन:--आत्मा से; अव्यतिरिकेण-- अभिन्न; पश्यन्त:--देखते हुए; व्यचरन्--घूमते थे; महीम्--पृथ्वी पर।
ये मुनि, समस्त ब्रह्माण्ड को इसके सारे स्थूल तथा सूक्ष्म पदार्थों सहित, भगवान् के प्राकट्यके रूप में तथा आत्मा से अभिन्न देखते हुए पृथ्वी पर विचरण करते थे।
"
अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्यगन्धर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान् ।
मुक्ताश्चरन्ति मुनिचारणभूतनाथ-विद्याधरद्विजगवां भुवनानि कामम् ॥
२३॥
अव्याहत--बिना रोक-टोक के; इष्ट-गतय: --इच्छानुसार घूमते हुए; सुर--देवताओं के; सिद्ध--पूर्ण योगी; साध्य--साध्यगण; गन्धर्व--स्वर्ग के गवैये; यक्ष--कुवेर के संगी; नर--मनुष्य; किन्नर--छोटे देवता, जो इच्छानुसार अपना रूप बदलसकते हैं; नाग--तथा सर्प; लोकान्--लोकों में; मुक्ता:--स्वतंत्र, मुक्त; चरन्ति--विचरण करते हैं; मुनि--मुनियों के;चारण--गवैये; भूत-नाथ--शिवजी के भूत-प्रेत अनुयायीगण; विद्याधर--विद्याधरगण; द्विज--ब्राह्मण; गवाम्--तथा गायोंके; भुवनानि--लोकों को; कामम्--जिसे भी वे चाहते हैं |
नवों योगेन्द्र मुक्तात्माएँ हैं, जो देवताओं, सिद्धों, साध्यों, गन्धर्वों, यक्षों, मानवों तथा किन्नरोंएवं सर्पो के लोकों में मुक्त भाव से विचरण करते हैं।
उनके मुक्त विचरण को कोई संसारी शक्तिरोक नहीं सकती और वे अपनी इच्छानुसार मुनियों, देवदूतों, शिवजी के भूत-प्रेत अनुयायियों,विद्याधरों, ब्राह्मणों तथा गौवों के लोकों में विचरण कर सकते हैं।
"
त एकदा निमेः सत्रमुपजम्मुर्यटच्छया ।
वितायमानमृषिभिरजनाभे महात्मन: ॥
२४॥
ते--वे; एकदा--एक बार; निमेः--राजा निमि के; सत्रम्--सोम यज्ञ में; उपजग्मु:--पहुँचे; यहच्छया--इच्छानुसार;वितायमानम्--ले जाये जाकर; ऋषिभि: --ऋषियों द्वारा; अजनाभे--अजनाभ ( भारतवर्ष का प्राचीन नाम ) में; महा-आत्मन:--महात्मा के |
एक बार वे अजनाभ में ( पृथ्वी का पूर्ववर्ती नाम ) महाराजा निमि के यज्ञ में पहुँचे, जोमहर्षियों की देखरेख में सम्पन्न किया जा रहा था।
"
तान्दष्टा सूर्यसड्डाशान्महाभागवतान्रूष ।
यजमानोग्नयो विप्रा: सर्व एवोपतस्थिरे ॥
२५॥
तानू--उनको; हृष्ठा--देखकर; सूर्य--सूर्य; सड्भाशान्--तेज में स्पर्धा कर रहे; महा-भागवतान्-- भगवान् के शुद्ध भक्तों को;नृप--हे राजा ( वसुदेव ); यजमान:--यज्ञ सम्पन्न करने वाला ( निमि महाराज ); अग्नयः--अग्नियाँ; विप्रा:--ब्राह्मणगण;सर्वे--सभी लोग; एव-- भी; उपतस्थिरे--सम्मान में खड़े हो गये।
हे राजन, तेज में सूर्य की बराबरी करने वाले उन भगवदभक्तों को देखकर वहाँ पर उपस्थितसबके सब--यज्ञ सम्पन्न करने वाले, ब्राह्मण तथा यज्ञ की अग्नियाँ भी--सम्मान में उठकर खड़ेहो गये।
"
विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान् ।
प्रीतः सम्पूजयां चक्रे आसनस्थान्यथाईत: ॥
२६॥
विदेह:--निमि महाराज; तान्ू--उनको; अभिप्रेत्य--पहचान कर; नारायण-परायणान्-- भक्तों को, जिनके एकमात्र लक्ष्यनारायण थे; प्रीत:ः--प्रसन्न; सम्पूजयाम् चक्रे-- पूरी तरह से उनकी पूजा की; आसन-स्थान्--बैठाये गये; यथा-अह॑त:--जो जिस योग्य था
राजा विदेह ( निमि ) समझ गये कि नवों मुनि भगवान् के परम भक्त थे।
इसलिए उनके शुभआगमन से अत्याधिक प्रफुछ्लित होकर उन्होंने उन्हें उचित आसन प्रदान किया और उचित ढंग सेपूजा की, जिस तरह कोई भगवान् की पूजा करता है।
"
तात्रोचमानान्स्वरुचा ब्रह्मपुत्रोपमान्नव ।
पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृप: ॥
२७॥
तानू--उनको; रोचमानान्--चमकते हुए; स्व-रूुचा--अपने ही तेज से; ब्रह्म-पुत्र-उपमान्--ब्रह्मा के पुत्रों के समान; नव--नौ;पप्रच्छ--पूछा; परम-प्रीत:--आनन्दविभोर; प्रश्रय--विनयपूर्वक; अवनत:--नमस्कार किया; नृप:--राजा ने।
दिव्य आनन्द से विभोर होकर राजा ने विनयपूर्वक अपना शीश झुकाया और तब नौ मुनियोंसे प्रश्न पूछना शुरू किया।
ये नवों महात्मा अपने ही तेज से चमक रहे थे और इस प्रकार सेब्रह्मा के पुत्रों अर्थात् चार कुमारों के समान प्रतीत हो रहे थे।
"
श्रीविदेह उबाचमन्ये भगवतः साक्षात्पार्षदान्वो मधुद्विष: ।
विष्णोर्भूतानि लोकानां पावनाय चरन्ति हि ॥
२८॥
श्री-विदेह: उवाच--राजा विदेह ने कहा; मन्ये--मानता हूँ; भगवतः--भगवान् के; साक्षात्- प्रत्यक्ष; पार्षदान्ू--निजी संगियोंको; वः--तुम्हारे; मधु-द्विष:--मधु के शत्रु के; विष्णो:-- भगवान् विष्णु के; भूतानि--सेवकों को; लोकानाम्--सारे लोकोंके; पावनाय--पवित्र करने के लिए; चरन्ति--इधर-उधर विचरण करते हैं; हि--निस्सन्देह |
राजा विदेह ने कहा : मैं सोचता हूँ कि आप मधु असुर के शत्रु-रूप में प्रसिद्ध भगवान् केनिजी संगी हैं।
दरअसल, भगवान् विष्णु के शुद्ध भक्त ब्रह्माण्ड-भर में किसी स्वार्थवश नहीं,अपितु समस्त बद्धजीवों को पवित्र करने के निमित्त विचरण करते रहते हैं।
"
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभड्डरः ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ॥
२९॥
दुर्लभ:--प्राप्त करना कठिन; मानुष:--मनुष्य का; देह: --शरीर; देहिनाम्ू--देहधारियों के लिए; क्षण-भब्ुरः --किसी भी क्षणविनष्ट हो जाने वाला; तत्र--उस मनुष्य-शरीर में; अपि-- भी; दुर्लभम्--प्राप्त करना अधिक कठिन; मन्ये--मानता हूँ;बैकुण्ठप्रिय--जो भगवान् वैकुण्ठ को अत्यधिक प्रिय हैं, उनके; दर्शनम्--दर्शन को
बद्धजीवों के लिए मनुष्य-शरीर प्राप्त कर पाना सबसे अधिक कठिन है और यह किसी भीक्षण नष्ट हो सकता है।
किन्तु मैं सोचता हूँ कि जिन्होंने मनुष्य-जीवन प्राप्त कर भी लिया है,उनमें से विरले ही उन शुद्ध भक्तों की संगति प्राप्त कर पाते हैं, जो वैकुण्ठ के स्वामी को अत्यन्तप्रिय हैं।
"
अत आल्वन्तिकं क्षेमं पृष्छामो भवतोनघा: ।
संसारेस्मिन्क्षणार्धो पि सत्सड़ः शेवधिनृणाम् ॥
३०॥
अतः--इसलिए; आत्यन्तिकम्-परम्; क्षेमम्ू--कल्याण; पृच्छाम: -- पूछ रहा हूँ; भवतः--आपसे; अनघा:--हे पापरहित;संसारे--जन्म-मृत्यु के चक्र में; अस्मिनू--इस; क्षण-अर्ध: --आधा क्षण तक चलने वाले; अपि--ही; सत्-सड्र:--भगवद्भक्तों की संगति; शेवधि:--महान् कोश, निधि; नृणाम्-मनुष्यों का।
अतएव हे अनघो, मैं आपसे पूछता हूँ कि कृपा करके मुझे यह बतायें कि परम कल्याणक्या है? इस जन्म-मृत्यु के जगत में शुद्ध भक्तों के साथ आधे क्षण की भी संगति किसी मनुष्यके लिए अमूल्य निधि है।
"
धर्मान्भागवतान्ब्रूत यदि नः श्रुतये क्षमम् ।
येः प्रसन्न: प्रपन्नाय दास्यत्यात्मानमप्यज: ॥
३१॥
धर्मान् भागवतानू--भक्ति का विज्ञान; ब्रूत--कृपया कहें; यदि--यदि; न:ः--हमारे; श्रुतये --ठीक से सुनने के लिए; क्षमम्--क्षमता है; यैः--जिस ( भक्ति ) से; प्रसन्नः--प्रसन्न होकर; प्रपन्नाय--शरणागत के लिए; दास्यति--देगा; आत्मानम्--स्वयं को;अपि--भी; अज:--अजन्मा भगवान्
यदि आप यह समझें कि मैं इन कथाओं को ठीक तरह से सुनने में समर्थ हूँ, तो कृपा करकेबतलायें कि भगवान् की भक्ति में किस तरह प्रवृत्त हुआ जाता है? जब कोई जीव भगवान् कोअपनी सेवा अर्पित करता है, तो भगवान् तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं और बदले में शरणागत व्यक्तिको अपने आपको भी दे डालते हैं।
"
श्रीनारद उवाचएवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमा: ।
प्रतिपूज्याब्रुवन्प्रीत्या ससदस्यर्त्विजं नृपम् ॥
३२॥
श्री-नारद: उवाच-- श्री नारद ने कहा; एवम्--इस प्रकार; ते--वे; निमिना--राजा निमि द्वारा; पृष्टा:--पूछे गये; वसुदेव--हेबसुदेव; महतू-तमा:--सम्तों में सर्वश्रेष्ठ; प्रतिपूज्य--बदले में आदरसूचक शब्द कहकर; अब्लुवन्--वे बोले; प्रीत्या--स्नेहपूर्वक; स-सदस्य--यज्ञ सभा के सदस्यों के सहित; ऋत्विजम्--तथा पुरोहितों द्वारा; नृपमू--राजा से |
श्री नारद ने कहा : हे वसुदेव, जब महाराज निमि नव-योगेन्द्रों से भगवद्भक्ति के विषय मेंपूछ चुके, तो उन साथु-श्रेष्ठों ने राजा को उसके प्रश्नों के लिए धन्यवाद दिया और यज्ञ सभा केसदस्यों तथा ब्राह्मण पुरोहितों की उपस्थिति में उससे स्नेहपूर्वक कहा।
"
श्रीकविरुवाचमन्येकुतश्चिद्धयमच्युतस्यपादाम्बुजोपासनमत्र नित्यम् ।
उद्ठिग्नबुद्धेरसदात्म भावाद्विश्वात्मना यत्र निवर्तते भी: ॥
३३॥
श्री-कविः उवाच-- श्री कवि ने कहा; मन्ये--मैं मानता हूँ; अकुतश्चित्-भयम्--निर्भीकता; अच्युतस्य--अच्युत भगवान् की;पाद-अम्बुज--चरणकमलों की; उपासनम्-पूजा; अत्र--इस जगत में; नित्यम्--निरन्तर; उद्ठिग्न-बुद्धेः--विचलित बुद्धिवालेका; असत्-केवल क्षणभंगुर; आत्म-भावात्--आत्मा के रूप में सोचने से; विश्व-आत्मना--पूरी तरह से; यत्र--जिस( भगवद्भक्ति ) में; निवर्तते-- भाग जाता है; भी:ः-- भय |
श्री कवि ने कहा: मैं मानता हूँ कि जिसकी बुद्धि भौतिक क्षणभंगुर जगत को हीमिथ्यापूर्वक आत्मस्वरूप मानने से निरन्तर विचलित रहती है, वह अच्युत भगवान् केचरणकमलों की पूजा द्वारा ही अपने भय से मुक्ति पा सकता है।
ऐसी भक्ति में सारा भय दूर होजाता है।
"
ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।
अज्ञ: पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥
३४॥
ये--जो; वै--निस्सन्देह; भगवता-- भगवान् द्वारा; प्रोक्ताः--कहा हुआ; उपाया:--साधनों; हि--निस्सन्देह; आत्म-लब्धये--परमात्मा की अनुभूति करने के लिए; अज्भ:--सरलता से; पुंसाम्ू--जीव द्वारा; अविदुषाम्--अल्प बुद्धि वाले; विर्द्धि--जानतेहैं; भागवतान्-- भागवतधर्म बनने के लिए; हि--निश्चय ही; तानू--इन |
अज्ञानी जीव भी परमेश्वर को सरलता से जान पाते हैं, यदि वे उन साधनों को अपनाएँ, जिन्हेंभगवान् ने स्वयं निर्दिष्ट किया है।
भगवान् ने जो विधि संस्तुत की है, वह भागवतधर्म अथवाभगवान् की भक्ति है।
"
यानास्थाय नरो राजन्न प्रमाद्मेत कर्हिचित् ।
धावन्निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥
३५॥
यान्--जिन ( साधनों ) को; आस्थाय--स्वीकार करके; नर:--मनुष्य; राजन्--हे राजा; न प्रमादेत--मोहित नहीं होता;कर्हिचित्ू--कभी भी; धावन्--दौड़ते हुए; निमील्य--बन्द करके ; वा--अथवा; नेत्रे--उसकी आँखों में; न स्खलेत्--च्युतनहीं होगा; न पतेतू--पतित नहीं होगा; इह--इस मार्ग पर
हे राजन, जो व्यक्ति भगवान् के प्रति इस भक्तियोग को स्वीकार कर लेता है, वह इस संसारमें अपने मार्ग पर कभी कोई बड़ी भूल नहीं करेगा।
यदि वह अपनी आँखें बन्द करके दौड़ लगालो, तो भी वह न तो लड़खड़ाएगा न पतित होगा।
"
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वाबुद्धयात्मना वानुसृतस्वभावात् ।
करोति यद्यत्सकलं परस्मैनारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥
३६॥
कायेन--शरीर से; वाचा--वाणी से; मनसा--मन से; इन्द्रियै:--इन्द्रियों से; वा--अथवा; बुद्धया--बुद्धि से; आत्मना--शुद्धचेतना से; वा--अथवा; अनुसृत-- अनुसरण किया हुआ; स्वभावात्--किसी के स्वभाव के अनुसार; करोति--करता है; यत्यत्--जो जो; सकलम्--सभी; परस्मै--ब्रह्म को; नारायणाय इति--यह सोचते हुए कि यह नारायण के लिए है; समर्पयेत्--समर्पण करना चाहिए; तत्--वह |
बद्ध जीवन में अर्जित विशेष स्वभाव के अनुसार मनुष्य अपने शरीर, वचन, मन, इन्द्रिय,बुद्धि या शुद्ध चेतना से, जो कुछ करता है उसे यह सोचते हुए परमात्मा को अर्पित करना चाहिएकि यह भगवान् नारायण की प्रसन्नता के लिए है।
"
भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्या-दीशादपेतस्य विपर्ययोउस्मृति: ।
तन्माययातो बुध आभजेत्तंभक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा ॥
३७॥
भयमू--भय; द्वितीय-- भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु में; अभिनिवेशत:--लीन रहने से; स्थात्--उत्पन्न होगी;ईशात्-- भगवान् से; अपेतस्थ--जिसने निकाल दिया उसके लिए; विपर्यय:--गलत पहचान; अस्मृति:--विस्मरणशीलता;ततू--उस भगवान् की; मायया--माया से; अत:--इसलिए; बुध: --बुद्धिमान व्यक्ति; आभजेत्--पूरी तरह पूजा करे; तमू--उसको; भक्त्या--भक्ति के सहित; एकया--अनन्य; ईशम्-- भगवान् को; गुरु-देवता-आत्मा--जो अपने गुरु को अपनास्वामी तथा आत्मा तक मानता है।
जब जीव भगवान् की बहिरंगा माया शक्ति में लीन होने के कारण भौतिक शरीर के रूप मेंगलत से अपनी पहचान करता है, तब भय उत्पन्न होता है।
इस प्रकार जीव जब भगवान् से मुखमोड़ लेता है, तो वह भगवान् के दास रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति को भी भूल जाता है।
यह मोहने वाली भयपूर्ण दशा माया द्वारा प्रभावित होती है।
इसलिए बुद्धिमान पुरुष कोप्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान् की अनन्य भक्ति में लगना चाहिए।
और गुरु को हीअपना आराध्यदेव तथा अपना प्राणधन स्वीकार करना चाहिए ॥
" अविद्यमानोप्यवभाति हि द्वयोध्यातुर्धिया स्वप्ममनोरथौ यथा ।
तत्कर्मसड्डूल्पविकल्पकं मनोबुधो निरुन्ध्यादभयं ततः स्यात् ॥
३८ ॥
अविद्यमान:--वास्तव में उपस्थित नहीं; अपि--यद्यपि; अवभाति-- प्रकट होता है; हि--निस्सन्देह; द्वयः--द्वैत; ध्यातुः--अनुभव करने वाले व्यक्ति की; धिया--बुद्धि से; स्व्न--सपना; मन:-रथौ--अथवा इच्छा का उत्पन्न होना; यथा--जिस तरह;ततू--इसलिए; कर्म--कर्मो का; सड्जूल्प-विकल्पकम्--संकल्प-विकल्प को; मन: --मन; बुध: --बुद्धिमान व्यक्ति;निरुन्ध्यात्ू--वश में लाना चाहिए; अभयम्--निर्भीकता; तत:ः--इस तरह से; स्थातू--हो सकता है
यद्यपि भौतिक जगत का द्वैत अन्ततः विद्यमान नहीं रहता, किन्तु बद्धजीव अपनी बद्ध-बुद्धि के प्रभाववश इसे असली अनुभव करता है।
कृष्ण से पृथक् जगत के काल्पनिक अनुभवकी तुलना स्वप्न देखने तथा इच्छा करने से की जा सकती है।
जब बद्धजीव रात में इच्छित याभयावनी वस्तु का सपना देखता है अथवा जब वह जो कुछ चाहता है या जिससे दूर रहनाचाहता है उनका दिवास्वप्न देखता है, तो वह ऐसी वास्तविकता को जन्म देता है, जिसकाअस्तित्व उसकी कल्पना से परे नहीं होता।
मन की प्रवृत्ति इन्द्रियतृप्ति पर आधारित विविध कार्योको स्वीकार करने तथा उन्हें बहिष्कृत करने की होती है।
इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को मन परनियंत्रण रखना चाहिए और वस्तुओं को कृष्ण से पृथक् देखने के भ्रम से इसे अलग रखनाचाहिए।
जब मन इस तरह वश में हो जायेगा, तो उसे वास्तविक निर्भीकता का अनुभव होगा।
"
श्रृण्वन्सुभद्राणि रथाड्रपाणे-जन्मानि कर्माणि च यानि लोके ।
गीतानि नामानि तदर्थकानिगायन्विलज्जो विचरेदसड्रः ॥
३९॥
श्रण्वन्ू--सुनते हुए; सु-भद्राणि--सर्वमंगलमय; रथ-अड्ग-पाणे: --जिनके हाथ में रथ का पहिया है, उनके ; जन्मानि--जन्मोंको; कर्माणि--कार्यो को; च--तथा; यानि--जिन जिन; लोके--इस लोक में; गीतानि--गाये जाते हैं; नामानि--नामों को;ततू-अर्थकानि--इन जन्मों तथा कर्मों को बताने वाले; गायन्ू-गाते हुए; विलज्ज: --क्षोभ से मुक्त; विचरेत्--विचरण करनाचाहिए; असड्ु:--भौतिक संगति के बिना।
जिस बुद्धिमान व्यक्ति ने अपने मन को वश में कर लिया है और भय पर विजय प्राप्त करली है, उसे पत्नी, परिवार, राष्ट्र जैसे भौतिक वस्तुओं के प्रति सारी आसक्ति को त्याग देनाचाहिए और निरद्धन्द्द होकर चक्रपाणि भगवान् के पवित्र नामों का श्रवण और कीर्तन करते हुएमुक्त भाव से विचरण करना चाहिए।
कृष्ण के पवित्र नाम सर्वमंगलकारी हैं, क्योंकि वे उनकेदिव्य जन्म तथा बद्धजीवों के मोक्ष के लिए इस जगत में किये जाने वाले उनके कार्यों का वर्णनकरने वाले हैं।
इस तरह भगवान् के पवित्र नामों का विश्व-भर में गायन होता है।
"
एवंब्रत: स्वप्रियनामकीर्त्याजातानुरागो द्वुतचित्त उच्चै: ।
हसत्यथो रोदिति रौति गाय-त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्य: ॥
४०॥
एवमू-ब्रतः--जब कोई कीर्तन करने तथा नाचने के ब्रत में लगता है; स्व--अपना; प्रिय--अत्यन्त प्रिय; नाम--पवित्र नाम;कीर्त्य--कीर्तन के द्वारा; जात--इस तरह उत्पन्न; अनुराग: --अनुरक्ति; द्रुत-चित्त:--द्रवित हृदय; उच्चै:--उच्च स्वर से;हसति--हँसता है; अथो-- भी; रोदिति--रोता है; रौति--विश्षुब्ध होता है; गायति--कीर्तन करता है; उन्माद-वत्--उन्मत्त कीतरह; नृत्यति--नाचता है; लोक-बाह्य:--बाहरी लोगों की परवाह न करके |
भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करने से मनुष्य भगवत्प्रेम की अवस्था को प्राप्त करताहै।
तब भक्त भगवान् के नित्य दास रूपी ब्रत में स्थिर हो जाता है और क्रमश: भगवान् के किसी एक नाम तथा रूप के प्रति अत्यधिक अनुरक्त हो उठता है।
जब उसका हृदय भावमय प्रेम सेद्रवित होता है, तो वह जोर-जोर से हँसता या रोता है अथवा चिल्लाता है।
कभी कभी वह उन्मत्तकी तरह गाता और नाचता है, क्योंकि वह जन-मत के प्रति उदासीन रहता है।
"
खं वायुमग्नि सलिलं महीं चज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्व हरे: शरीरंयत्कि च भूतं प्रणमेदनन्य: ॥
४१॥
खम्--शून्य; वायुमू--वायु; अग्निमू--अग्नि; सलिलमू--जल; महीम्--पृथ्वी; च--तथा; ज्योतींषि--सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्यदैवी प्रकाशमान पिंड; सत्त्वानि--सारे जीव; दिश:--दिशाएँ; द्रम-आदीन्--वृक्ष तथा अन्य अचर प्राणियों को; सरित्--नदियाँ; समुद्रान्ू--तथा समुद्र; च-- भी; हरेः-- भगवान् हरि के; शरीरम्--शरीर को; यत् किम् च--जिसे भी; भूतम्--सूष्टजगत में; प्रणमेत्-- प्रणाम करना चाहिए; अनन्य:--भगवान् से पृथक् कुछ भी नहीं है
इस प्रकार सोचते हुएभक्त को चाहिए कि किसी भी वस्तु को भगवान् कृष्ण से पृथक् नहीं देखे।
शून्य, अग्नि,वायु, जल, पृथ्वी, सूर्य तथा अन्य नक्षत्र, सारे जीव, दिशाएँ, वृक्ष तथा अन्य पौधे, नदियाँ तथासमुद्र इनमें से भक्त को जिस किसी का भी अनुभव हो, उसे वह कृष्ण का अंश माने।
इस प्रकारसृष्टि के भीतर विद्यमान हर वस्तु को भगवान् हरि के शरीर के रूप में देखते हुए भक्त को चाहिएकि भगवान् के शरीर के सम्पूर्ण विस्तार के प्रति नमस्कार करे।
"
भक्ति: परेशानुभवो विरक्ति-रन्यत्र चैष त्रिक एककालः ।
प्रपद्यममानस्यथ यथाश्नतः स्थुस्तुष्टिः पुष्टि: क्षुदपायोउनुघासम् ॥
४२॥
भक्ति:-- भक्ति; पर-ईश-- भगवान् की; अनुभव: -- प्रत्यक्ष अनुभूति; विरक्ति:--विराग; अन्यत्र--अन्यत्र वस्तुओं से; च--तथा; एब: --यह; त्रिक:--तीन का समूह; एक-काल:--एक ही समय; प्रपद्ममानस्थ--शरणागत होने वाले के लिए; यथा--जिस तरह; अश्नतः--भोजन करने में व्यस्त; स्यु:--घटित होते हैं; तुष्टिः--तुष्टि; पुष्टिः--पोषण; क्षुतू-अपाय:-- भूख सेछुटकारा; अनु-घासम्- प्रत्येक कौर के साथ बढ़ती हुई।
जिस व्यक्ति ने भगवान् की शरण ग्रहण कर ली है, उसके लिए भक्ति, भगवान् का प्रत्यक्षअनुभव तथा अन्य वस्तुओं से विरक्ति--ये तीनों एक साथ बैसे ही घटित होते हैं, जिस तरहभोजन करने वाले व्यक्ति के लिए प्रत्येक कौर में आनन्द, पोषण तथा भूख से छुटकारा--येसभी एकसाथ और अधिकाधिक होते जाते हैं।
"
इत्यच्युताडिंघ्र भजतो<नुवृत्त्याभक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोध: ।
भवन्ति वै भागवतस्य राजं-स्ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥
४३॥
इति--इस प्रकार; अच्युत--अच्युत भगवान् के; अड्प्रिमू--चरणों को; भजतः--पूजा करने वाले को; अनुवृत्त्या--निरन्तरअभ्यास द्वारा; भक्ति:--भक्ति; विरक्ति:--विराग; भगवत्-प्रबोध:-- भगवान् का ज्ञान; भवन्ति-- प्रकट करते हैं; वै--निस्सन्देह; भागवतस्य--भक्त के लिए; राजनू--हे राजा निमि; ततः--तब; पराम् शान्तिम्-- परम शान्ति; उपैति-- प्राप्त करताहै; साक्षात्- प्रत्यक्ष
हे राजनू, जो भक्त अच्युत भगवान् के चरणकमलों की पूजा सतत प्रयततशील रहकर करताहै, वह अचल भक्ति, विरक्ति तथा भगवान् का अनुभवगम्य ज्ञान प्राप्त करता है।
इस प्रकारसफल भगवद्भक्त को परम आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त होती है।
"
श्रीराजोबाचअथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मों याहशो नृणाम् ।
यथाचरति यहूते यैलिड्रैर्भगवत्प्रिय: ॥
४४॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; अथ--इसके बाद; भागवतम्-- भगवान् के भक्त के विषय में; ब्रूत--कृपया मुझे बतायें;यतू-धर्म:--जो धर्म है; याहशः--जिस तरह का; नृणाम्--मनुष्यों में से; यथा--कैसे; आचरति--आचरण करता है; यत्--जो; बूते--बोलता है; यैः--जिस; लिड्लैः--दृश्य लक्षणों के द्वारा; भगवत््-प्रिय: -- भगवान् का प्रिय ( कहलाता है )
महाराज निमि ने कहा : अब कृपया मुझे भगवद्भक्तों के विषय में विस्तार से बतलायें।
वेकौन से सहज लक्षण हैं, जिनके द्वारा मैं अत्यन्त बढ़े-चढ़े, मध्यम स्तर के तथा नवदीक्षित भक्तोंमें अन्तर कर सकूँ ? वैष्णव के लाक्षणिक धार्मिक कर्तव्य क्या हैं? और वह कैसे बोलता है?आप विशेष रूप से उन लक्षणों तथा गुणों का वर्णन करें, जिनसे वैष्णवजन भगवान् के प्रियबनते हैं।
"
श्रीहविरुवाचसर्वभूतेषु यः पश्येद्धगवद्धावमात्मन: ।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तम: ॥
४५॥
श्री-हवि: उवाच-- श्री हविर् ने कहा; सर्व-भूतेषु--सारे पदार्थों में ( पदार्थ, आत्मा तथा पदार्थ एवं आत्मा का मेल ); यः--जोकोई; पश्येत्ू--देखता है; भगवत्-भावम्-- भगवद्भक्ति में लगे रहने की क्षमता; आत्मन:--परमात्मा का, भौतिक जीवन-बोधसे परे अध्यात्म; भूतानि--सारे जीवों को; भगवति-- भगवान् में; आत्मनि--समस्त जगत का मूल सार; एष:--यह; भागवत-उत्तमः--भक्ति में बढ़ा-चढ़ा व्यक्ति |
श्री हविर् ने कहा : सर्वाधिक उत्कृष्ट भक्त हर वस्तु के भीतर समस्त आत्माओं के आत्माभगवान् कृष्ण को देखता है।
फलस्वरूप वह हर वस्तु को भगवान् से सम्बन्धित देखता है औरयह समझता है कि प्रत्येक विद्यमान वस्तु भगवान् के भीतर नित्य स्थित है।
"
ईस्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।
प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यम: ॥
४६॥
ईश्वरे-- भगवान् के प्रति; तत्ू-अधीनेषु--कृष्णभावनामृत के प्रति समर्पित लोगों को; बालिशेषु -- अज्ञानी या नवदीक्षितों केप्रति; द्विषत्सु--कृष्ण तथा उनके भक्तों से द्वेष रखने वालों के प्रति; च--तथा; प्रेम--प्रेम; मैत्री--मित्रता; कृपा--दया;उपेक्षा:--उपेक्षा; य:--जो कोई; करोति--करता है; सः--वह; मध्यम:--द्वितीय कोटि का भक्त |
द्वितीय कोटि का भक्त, जो मध्यम अधिकारी कहलाता है, भगवान् को अपना प्रेम अर्पितकरता है, वह भगवान् के समस्त भक्तों का निष्ठावान मित्र होता है, वह अज्ञानी व्यक्तियों पर दयाकरता है जो अबोध है और उनकी उपेक्षा करता है, जो भगवान् से द्वेष रखते हैं।
"
अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।
न तद्धक्तेषु चान्येषु स भक्त: प्राकृतः स्मृतः: ॥
४७॥
अर्चायाम्--अर्चा विग्रह के; एब--निश्चय ही; हरये-- भगवान् हरि को; पूजाम्--पूजा; य:--जो; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक;ईहते--लगाता है; न--नहीं; तत्ू--कृष्ण के; भक्तेषु-- भक्तों के प्रति; च--तथा; अन्येषु--सामान्य लोगों के प्रति; सः--वह;भक्त: प्राकृः--भौतिकतावादी भक्त; स्मृतः--कहलाता है।
जो भक्त मन्दिर में अर्चाविग्रह की श्रद्धापूर्वक पूजा में लगा रहता है, किन्तु अन्य भक्तों केप्रति या सामान्य जनता के प्रति उच्चित रीति का आचरण नहीं करता, वह प्राकृत भक्त अर्थात्भौतिकतावादी भक्त कहलाता है और निम्नतम पद पर स्थित माना जाता है।
"
गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान्यो न द्वेष्टि न हृष्यति ।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन्स वै भागवतोत्तम: ॥
४८ ॥
गृहीत्वा--स्वीकार करके; अपि--यद्यपि; इन्द्रिय:--इन्द्रियों के द्वारा; अर्थानू--इन्द्रिय-विषयों को; यः--जो; न द्वेष्टि--ईर्ष्यानहीं करता; न हृष्यति--हर्षित नहीं होता; विष्णो:-- भगवान् विष्णु की; मायाम्--माया को; इृदम्--इस भौतिक ब्रह्माण्ड को;पश्यन्--देखते हुए; सः--वह; बै--निस्सन्देह; भागवत-उत्तम:--प्रथम कोटि का भक्त |
इन्द्रिय-विषयों में लगे रहकर भी, जो इस सम्पूर्ण जगत को भगवान् विष्णु की शक्ति केरूप में देखता है, वह न तो विकर्षित होता है, न हर्षित।
वह निस्सन्देह, भक्तों में सबसे महान्होता है।
"
"text":"देहेन्द्रियप्राणमनोधियां यो जन्माप्ययक्षुद्धयतर्षकृच्छै: ।
संसारधर्मैरविमुहामान: स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधान: ॥
४९॥
देह--शरीर की; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; प्राण--प्राण-वायु; मन:--मन; धियाम्--तथा बुद्धि; यः--जो; जन्म--जन्म; अप्यय-- क्षय; क्षुत्-- भूख; भय-- डर; तर्ष--प्यास; कृच्छै:--तथा थकान से; संसार-- भौतिक जीवन के; धर्म: --अभिन्न गुणों से; अविमुदह्ामान: --मोहित नहीं; स्मृत्या--स्मृति के कारण; हरेः-- भगवान् हरि के; भागवत-प्रधान: --भक्तों में सर्वप्रमुख |
इस भौतिक जगत में मनुष्य का भौतिक शरीर सदैव जन्म तथा मृत्यु के अधीन रहता है।
इसी तरह प्राण को भूख तथा प्यास सताते हैं, मन सदैव चिन्तित रहता है, बुद्धि उसके लिए लालायित रहती है, जिसे प्राप्त नहीं किया जा सकता और ये सारी इन्द्रियाँ भौतिक प्रकृति से निरन्तर संघर्ष करते रहने से अन्ततः थक जाती हैं।
जो व्यक्ति भौतिक जगत के अपरिहार्य दुखों से मोहग्रस्त नहीं होता और भगवान् के चरणकमलों के स्मरण मात्र से उन सबसे अलग रहता है, उसे ही भागवत-प्रधान अर्थात् भगवान् का अग्रणी भक्त कहा जाता है।
" न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि सम्भव: ।
वासुदेवैकनिलय: स वै भागवतोत्तम: ॥
५०॥
न--कभी नहीं; काम--काम-वासना; कर्म--सकाम कर्म; बीजानामू--या भौतिक लालसाओं के, जो सकाम कर्म के बीजरूप हैं; यस्थ--जिसका; चेतसि--मन में ; सम्भव:--ऊपर उठने का अवसर; वासुदेव-एक-निलय: --जिसकी एकमात्र शरणभगवान् वासुदेव हों उसके लिए; सः--वह; बै--निस्सन्देह; भागवत-उत्तम:--प्रथम श्रेणी का भक्त है |
जिसने एकमात्र भगवान् वासुदेव की शरण ले रखी है, वह उन सकाम कर्मों से मुक्त होजाता है, जो भौतिक काम-वासना पर आधारित हैं।
वस्तुतः जिसने भगवान् के चरणकमलों कीशरण ले रखी है, वह भौतिक इन्द्रियतृप्ति को भोगने की इच्छा से भी मुक्त हो जाता है।
उसकेमन में यौन-जीवन, सामाजिक प्रतिष्ठा और धन का भोग करने की योजनाएँ उत्पन्न नहीं होसकतीं।
इस प्रकार वह भागवतोत्तम अर्थात् सर्वोच्च पद को प्राप्त भगवान् का शुद्ध भक्त मानाजाता है।
"
न यस्य जन्मकर्म भ्यां न वर्णाश्रमजातिभि: ।
सज्तेस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरे: प्रियः ॥
५१॥
न--नहीं; यस्य--जिसका; जन्म--अच्छे जन्म से; कर्मभ्याम्--या अच्छे कार्यो से; न--नहीं; वर्ण-आश्रम--वृत्तिपरक नियमोंया धार्मिक कर्तव्य में हढ़ रहकर; जातिभि:--अथवा किसी जाति से सम्बन्धित होने से; सजजते--अपने को जोड़ता है;अस्मिनू--इस; अहम्-भाव: --अहंकार की भावना; देहे--शरीर में; बै--निस्सन्देह; सः--वह; हरेः-- भगवान् हरि को;प्रिय:--प्रिय है |
उच्च कुल में जन्म तथा तपोमय एवं पुण्यकर्मो का निष्पादन निश्चय ही किसी को अपनेऊपर गर्व जताने वाले हैं।
इसी तरह, यदि समाज में किसी को प्रतिष्ठा मिलती है, क्योंकि उसकेमाता-पिता वर्णाश्रम की सामाजिक प्रणाली में अत्यधिक आदरित हैं, तो वह और भी ज्यादापागल हो जाता है।
किन्तु यदि इतने उत्तम भौतिक गुणों के उपरांत भी कोई व्यक्ति अपने भीतरतनिक भी गर्व का अनुभव नहीं करता, तो उसे भगवान् का सर्वाधिक प्रिय सेवक माना जानाचाहिए।
"
न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तम: ॥
५२॥
न--नहीं है; यस्य--जिसका; स्वः पर: इति--अपना तथा पराया; वित्तेषु--अपनी सम्पत्ति के विषय में; आत्मनि--अपने शरीरके विषय में; वा-- अथवा; भिदा--द्वैत के रूप में सोचते हुए; सर्व-भूत--सारे जीवों के प्रति; सम:--समान; शान्तः--शान्त;सः--वह; बै--निस्सन्देह; भागवत-उत्तम:--भ क्तों में श्रेष्ठ |
जब भक्त उस स्वार्थमयी धारणा को त्याग देता है, जिससे मनुष्य सोचता है कि 'यह मेरीसम्पत्ति है और वह पराई है' तथा जब वह अपने ही भौतिक शरीर से सम्बद्ध आनन्द अथवाअन्यों की असुविधाओं के प्रति उदासीनता से कोई वास्ता नहीं रखता, तो वह पूरी तरह शान्ततथा तुष्ट हो जाता है।
वह अपने आपको उन जीवों में से एक मानता है, जो समान रूप सेभगवान् के भिन्नांश हैं।
ऐसा तुष्ट वैष्णव भक्ति के सर्वोच्च आदर्श पर स्थित माना जाता है।
"
त्रिभुवनविभवहेतवेउप्यकुण्ठ-स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात् ।
न चलति भगवत्पदारविन्दा-क्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाछय: ॥
५३॥
त्रि-भुवन-- भौतिक ब्रह्माण्ड के तीनों लोकों के; विभव-हेतवे--ऐश्वर्य हेतु; अपि-- भी; अकुण्ठ-स्मृति:--जिसकी स्मृतिअविचल है; अजित-आत्म--अपराजेय भगवान् ही जिसकी आत्मा है उसकी; सुर-आदिभि:--देवताओं तथा अन्यों द्वारा;विमृग्यात्--खोजे जाते हैं; न चलति--चला नहीं जाता; भगवत्-- भगवान् के ; पद-अरविन्दात्ू--चरणकमलों से; लव--एकसेकंड के ८/४५ वें भाग के; निमिष--अथवा उससे तीन गुना का; अर्धमू--आधा; अपि-- भी; यः -- जो; सः--वह; वैष्णव-अछय:ः-कभगवान् विष्णु के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ |
भगवान् के चरणकमलों की खोज ब्रह्मा तथा शिव जैसे बड़े बड़े देवताओं द्वारा भी कीजाती है, जिन्होंने भगवान् को अपना प्राण तथा आत्मा स्वीकार कर रखा है।
भगवान् का शुद्धभक्त उन चरणकमलों को किसी भी अवस्था में नहीं भूलता।
वह भगवान् के चरणकमलों कीशरण एक क्षण के लिए भी नहीं--आधे क्षण के लिए भी नहीं--छोड़ पाता भले ही बदले मेंउसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का शासन तथा ऐ श्वर्य-भोग का वर क्यों न मिले।
भगवान् के ऐसे भक्त कोवैष्णवों में सर्वश्रेष्ठ मानना चाहिए।
"
भगवत उरुविक्रमाड्प्रिशाखा-नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे ।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः सप्रभवति चन्द्र इवोदितेडकताप: ॥
५४॥
भगवतः--भगवान् का; उरु-विक्रम--महान् बीरतापूर्ण कार्य कर चुका; अड्घ्रि--चरणकमलों के; शाखा--अँगुलियों के;नख--नाखूनों के; मणि--मणियों सहश; चन्द्रिकबा--चाँदनी द्वारा; निरस्त-तापे-- पीड़ा के दूर हो जाने पर; हृदि--हृदय में;कथम्--किस तरह भला; उपसीदताम्--पूजा करने वालों को; पुनः--फिर से; सः--वह पीड़ा; प्रभवति--अपना प्रभावदिखाती है; चन्द्रे-- चन्द्रमा के; इब--सहृश; उदिते--उदय होने पर; अर्क --सूर्य का; ताप:ः--जलती गर्मी |
जो लोग भगवान् की पूजा करते हैं, उनके हृदयों को भौतिक कष्ट रूपी आग भला किसतरह जलाती रह सकती है? भगवान् के चरणकमलों ने अनेक वीरतापूर्ण कार्य किये हैं औरउनके पाँव की अँगुलियों के नाखून मूल्यवान मणियों सहश लगते हैं।
इन नाखूनों से निकलनेवाला तेज चन्द्रमा की शीतल चाँदनी सद्ृश है, क्योंकि वह शुद्ध भक्त के हृदय के भीतर के कष्टको उसी तरह दूर करता है, जिस तरह चन्द्रमा की शीतल चाँदनी सूर्य के प्रखर ताप से छुटकारादिलाती है।
"
विसृजति हृदयं न यस्य साक्षा-द्धरिरवशाभिहितोप्यघौघनाश: ।
प्रणयरसनया धृताड्प्रिपदा:स भवति भागवतप्रधान उक्त: ॥
५५॥
विसृजति--त्याग देता है; हृदयम्--हृदय को; न--कभी नहीं; यस्य--जिसका; साक्षात्--स्वयं; हरि:ः-- भगवान् हरि;अवश--सहसा; अभिहित:--कहलाने वाला; अपि--यद्यपि; अध--पापों के; ओघ--समूह; नाश: --नाश करने वाला;प्रणय--प्रेम की; रसनया--रस्सियों द्वारा; धृत--पकड़े; अद्धघ्रि-पद्मः--उनके चरणकमल; सः--वह; भवति--है; भागवत-प्रधान:--सर्व श्रेष्ठ भक्त; उक्त:--कहा गया।
भगवान् बद्धजीवों के प्रति इतने दयालु हैं कि यदि वे जीव अनजाने में भी उनका नाम लेकरपुकारते हैं, तो भगवान् उनके हृदयों में असंख्य पापों को नष्ट करने के लिए उद्यत रहते हैं।
इसलिए जब उनके चरणों की शरण में आया हुआ भक्त प्रेमपूर्वक कृष्ण के पवित्र नाम काकीर्तन करता है, तो भगवान् ऐसे भक्त के हृदय को कभी भी नहीं छोड़ पाते।
इस तरह जिसनेभगवान् को अपने हृदय के भीतर बाँध रखा है, वह भागवत-प्रधान अर्थात् अत्यधिक उच्चस्थभक्त कहलाता है।
"
अध्याय तीन: मायावी ऊर्जा से मुक्ति
11.3श्रीराजोबाच'परस्य विष्णोरीशस्य मायिनामपि मोहिनीम् ।
मायां वेदितुमिच्छामो भगवन्तो ब्रुवन्तु नः ॥
१॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; परस्य--परम; विष्णो: --विष्णु का; ईशस्य-- भगवान्; मायिनाम्ू--महान् योगशक्ति सेसम्पन्नों के लिए; अपि-- भी; मोहिनीम्ू--मोहने वाली; मायाम्--माया को; वेदितुम्ू--जानना; इच्छाम:--हम चाहते हैं;भगवन्त:-हे प्रभुओ; ब्रुवन्तु--कहें; न:ः--हमसे |
राजा निमि ने कहा : अब हम भगवान् विष्णु की उस माया के विषय में जानना चाहते हैं,जो बड़े बड़े योगियों को भी मोह लेती है।
हे प्रभुओ, कृपा करके हमें इस विषय में बतलायें।
"
नानुतृप्ये जुषन्युष्मद्गब्यो हरिकथामृतम् ।
संसारतापनिस्तप्तो मर्त्यस्तत्तापभेषजम् ॥
२॥
न अनुतृप्ये--मैं फिर भी तृप्त नहीं हूँ; जुषन्--व्यस्त रहते हुए; युष्मत्--तुम्हारे; वच: --शब्दों में; हरि-कथा-- भगवान् हरि कीकथाओं के; अमृतम्--अमृत को; संसार--संसार के; ताप--कष्ट से; निस्तप्त:--सताया; मर्त्य:--मरणशील मनुष्य; ततू-ताप--उस पीड़ा की; भेषजम्-- औषधि |
यद्यपि मैं आपके द्वारा कही जा रही भगवान् की महिमा का अमृत-आस्वाद कर रहा हूँ,फिर भी मेरी प्यास शान्त नहीं हुई।
भगवान् तथा उनके भक्तों की ऐसी अमृतमयी कथाएँ संसारके तीन तापों से सताये जा रहे, मुझ जैसे बद्धजीवों के लिए औषधि का काम करने वाली हैं।
"
श्रीअन्तरीक्ष उवाचएभिर्भूतानि भूतात्मा महाभूतैर्महाभुज ।
ससर्जोच्चावचान्याद्य: स्वमात्रात्मप्रसिद्धये ॥
३ ॥
श्री-अन्तरीक्ष: उवाच-- श्री अन्तरीक्ष ने कहा; एभि:--इनके ( भौतिक तत्त्वों के ) द्वारा; भूतानि--प्राणी; भूत-आत्मा--सारीसृष्टि की आत्मा; महा-भूतैः--महत् तत्त्व के तत्त्वों द्वारा; महा-भुज--हे महाबाहु राजा; ससर्ज--उसने उत्पन्न किया; उच्च-अवचानि--ऊँच तथा नीच दोनों; आद्य:--आदि पुरुष; स्व--अपने अंशों के; मात्रा--इन्द्रिय-तृप्ति; आत्म--तथा आत्म-साक्षात्कार; प्रसिद्धये--सुविधा प्रदान करने के लिए।
श्री अन्तरीक्ष ने कहा : हे महाबाहु राजा, भौतिक तत्त्वों को क्रियाशील बनाकर समस्त सृष्टिके आदि आत्मा ने उच्चतर तथा निम्नतर योनियों के जीवों को उत्पन्न किया है, जिससे येबद्धात्माएँ अपनी अपनी इच्छानुसार इन्द्रिय-तृप्ति अथवा चरम मोक्ष का अनुशीलन कर सकें।
परमात्मा उत्पन्न किये गये प्राणियों के भौतिक शरीरों में प्रविष्ट होकर मन तथा इन्द्रियों कोक्रियाशील बनाता है और इस तरह बद्धजीवों को इन्द्रिय-तृप्ति हेतु तीन गुणों तक पहुँचाता है।
"
"text":"एवं सूष्टानि भूतानि प्रविष्ट: पञ्ञधातुभि: ।
एकधा दशधात्मानं विभजन्जुषते गुणान् ॥
४॥
एवम्--जैसाकि बतलाया गया, उस प्रकार से; सृष्टानि--उत्पन्न; भूतानि--जीवों को; प्रविष्ट:--प्रवेश करके; पञ्ञ-धातुभि: -- पाँच स्थूल तत्त्वों ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश ) द्वारा; एकधा--एक बार ( मन के द्रष्टा रूप में ); दशधा--दस बार ( पाँच ज्ञान-इन्द्रियों तथा पाँच कर्मेन्द्रियों के द्रष्टा के रूप में ); आत्मानम्--स्वयं को; विभजन्--विभाजित करते हुए; जुषते-- लगाता है; गुणानू-- भौतिक गुणों के साथ
परमात्मा उत्पन्न किये गये प्राणियों के भौतिक शरीरों में प्रविष्ट होकर मन तथा इन्द्रियों को क्रियाशील बनाता है और इस तरह बद्धजीवों को इन्द्रिय-तृप्ति हेतु तीन गुणों तक पहुँचाता है।
"
गुणैर्गुणान्स भुझ्जान आत्पप्रद्योतितैः प्रभु: ।
मन्यमान इदं सृष्टमात्मानमिह सज्जते ॥
५॥
गुणैः--गुणों ( इन्द्रियों ) के द्वारा; गुणान्ू--गुणों को ( इन्द्रिय-विषयों को ); सः--वह ( व्यष्टि ); भुझ्नान: -- भोग करते हुए;आत्म--परमात्म द्वारा; प्रद्योतित:--जागृत किया गया; प्रभु:ः--स्वामी; मन्यमानः --सोचते हुए; इृदम्--यह; सृष्टम्--उत्पन्न( शरीर ); आत्मानम्--अपने रूप में; इह--इस; सज्जते--फँस जाता है|
भौतिक देह का स्वामी व्यष्टि जीव परमात्मा द्वारा सक्रिय की गई अपनी भौतिक इन्द्रियोंद्वारा प्रकृति के तीन गुणों द्वारा बनाये गये इन्द्रिय-विषयों का भोग करने का प्रयास करता है।
इस तरह वह उत्पन्न भौतिक शरीर को अजन्मे नित्य आत्मा के रूप में मानने के कारण भगवान्की माया में फँस जाता है।
"
कर्माणि कर्मभिः कुर्वन्सनिमित्तानि देहभूत् ।
तत्तत्कर्मफलं गृहन्श्रमतीह सुखेतरम् ॥
६॥
कर्माणि--विविध प्रकार के सकाम कर्मो को; कर्मभि:--कर्मेन्द्रियों द्वारा; कुर्बन्ू--करते हुए; स-निमित्तानि-- प्रेरक इच्छाओंसे युक्त; देह-भूत्-- भौतिक शरीर का स्वामी; तत् तत्--विविध; कर्म-फलम्--कर्म के फलों को; गृहन्--स्वीकार करते हुए;भ्रमति--घूमता है; इह--इस संसार में; सुख--सुख; इतरम्--तथा अन्यथा ।
तीव्र भौतिक इच्छाओं से प्रेरित देहधारी जीव अपनी कर्मेन्द्रियों को सकाम कर्म में लगाताहै।
तब वह इस जगत में घूमते हुए तथाकथित सुख-दुख में अपने भौतिक कर्मों के फलों काअनुभव करता है।
"
इत्थं कर्मगतीर्गच्छन्बह्नभद्रवहा: पुमान् ।
आभूतसम्प्लवात्सर्गप्रलयावश्नुतेउवश: ॥
७॥
इत्थम्--इस तरह से; कर्म-गती:--विगत कर्मों द्वारा निर्धारित गन्तव्य; गच्छन्--प्राप्त करते हुए; बहु-अभद्र--अत्यन्त अशुभ;वहा:--सम्मिलित करने वाले; पुमान्ू--जीव को; आभूत-सम्प्लवात्--इस ब्रह्माण्ड के प्रलय होने तक; सर्ग-प्रलयौ--जन्मतथा मृत्यु; अश्नुते--अनुभव करता है; अवश:--असहाय होकर।
इस तरह बद्धजीव को बारम्बार जन्म-मृत्य अनुभव करने के लिए बाध्य किया जाता है।
अपने ही कर्मों के फल से प्रेरित होकर, वह एक अशुभ अवस्था से दूसरी अवस्था में असहायहोकर घूमता रहता है और सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर प्रलय होने तक कष्ट भोगता है।
"
धातूपप्लव आसस्ने व्यक्त द्रव्यगुणात्मकम् ।
अनादिनिधनः कालो ह्ाव्यक्तायापकर्षति ॥
८॥
धातु--भौतिक तत्त्वों के; उपप्लवे--संहार में; आसन्ने--सन्निकट आये हुए; व्यक्तम्--व्यक्त जगत; द्रव्य--स्थूल पदार्थ;गुण--तथा सूक्ष्म गुण; आत्मकम्--से युक्त; अनादि--जिसका आदि न हो; निधन: --अथवा अन्त; काल:--समय; हि--निस्सन्देह; अव्यक्ताय--अव्यक्त में; अपकर्षति--खींचता है।
जब भौतिक तत्त्वों का संहार सन्निकट होता है, तो काल रूप में भगवान् स्थूल तथा सूक्ष्मगुणों वाले व्यक्त जगत को समेट लेते हैं और सारा ब्रह्माण्ड अव्यक्त रूप में लुप्त हो जाता है।
"
शतवर्षा ह्नावृष्टिभ॑विष्यत्युल्बणा भुवि ।
तत्कालोपचितोष्णार्को लोकांस्त्रीन्प्रतपिष्यति ॥
९॥
शत-वर्षा--एक सौ वर्षो तक चलने वाला; हि--निस्सन्देह; अनावृष्टि:--सूखा, अकाल; भविष्यति--होगा; उल्बणा--भयंकर; भुवि--पृथ्वी पर; तत्ू-काल--उस अवधि में; उपचित--संचित; उष्ण--गर्म; अर्क:--सूर्य; लोकान्ू--जगतों को;त्रीनू--तीनों; प्रतपिष्यति--बुरी तरह जला देगा।
ज्यों ज्यों विश्व का संहार निकट आता जाता है, पृथ्वी पर एक सौ वर्षो का भयंकर सूखापड़ता है।
सूर्य की गर्मी ( उष्णता ) क्रमशः सौ वर्षों तक बढ़ती जाती है और इसकी प्रज्वलितगर्मी तीनों लोकों को व्यग्र करने लगती है।
"
'पातालतलमारभ्य सड्डूर्षणमुखानल: ।
दहनूर्ध्वशिखो विष्वग्वर्धते वायुनेरितः ॥
१०॥
पाताल-तलम्--पाताल लोक से; आरभ्य--आरभम्भ करके; सड्डूर्षण-मुख-- भगवान् के संकर्षण रूप के मुख से; अनलः--अग्नि; दहन्ू--जलाते हुए; ऊर्ध्व-शिख:--ऊपर को निकलती लपटें; विष्वक्--सारी दिशाएँ; वर्धते--बढ़ती है; वायुना--वायुसे; ईरितः--प्रेरित होकर ।
यह अग्नि, भगवान् संकर्षण के मुख से निकल कर पाताल लोक से शुरू होती हुई, बढ़तीजाती है।
इसकी लपडटें प्रबल वायु से प्रेरित होकर ऊपर उठने लगती हैं और यह चारों दिशाओंकी हर वस्तु को झुलसा देती हैं।
"
संवर्तको मेघगणो वर्षति सम शतं समा: ।
धाराभिईस्तिहस्ताभिलीयते सलिले विराट् ॥
११॥
संवर्तक:--प्रलय के ; मेघ-गण: --बादलों का समूह; वर्षति--वर्षा करता है; स्म--निस्सन्देह; शतम् समा:--एक सौ वर्षोतक; धाराभि:--मूसलाधार; हस्ति-हस्ताभि:--हाथी की सूँड़ की माप वाली ( बूँदें ); लीयते--लीन हो जायेगा; सलिले--जलमें; विराट्ू--सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसंवर्तक नामक बादलों के समूह एक सौ वर्षो तक मूसलाधार वर्षा करते हैं।
हाथी की सूँड़जितनी लम्बी पानी की बूँदों की बाढ़ से विनाशकारी वर्षा समस्त ब्रह्माण्ड को जल में डुबो देतीहै।
"
ततो विराजसमुत्सृज्य्वैराज: पुरुषो नूप ।
अव्यक्त विशते सूक्ष्म निरिन्धन इवानलः ॥
१२॥
ततः--तब; विराजमू--ब्रह्माण्ड; उत्सृज्य--( अपने शरीर के रूप में ) त्याग कर; वैराज: पुरुष:--विराट रूप वाला व्यक्ति( हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ); नृप--हे राजा निमि; अव्यक्तम्ू--अव्यक्त प्रकृति ( प्रधान ) में; विशते--प्रवेश करता है; सूक्ष्मम्--सूक्ष्म;निरिन्धन:--ईंधन से रहित; इब--सहृश; अनलः--अग्नि।
हे राजनू, तब विराट रूप का आत्मा वैराज ब्रह्मा अपने विराट शरीर को त्याग देता है औरसूक्ष्म अव्यक्त प्रकृति में उसी तरह प्रवेश कर जाता है, जिस तरह ईंधन समाप्त हो जाने पर अग्नि।
"
वायुना हतगन्धा भू: सलिलत्वाय कल्पते ।
सलिलं तद्धृतरसं ज्योतिष्ठायोपकल्पते ॥
१३॥
वायुना--वायु द्वारा; हत--विहीन; गन्धा--गन्ध का; भू:--पृथ्वी तत्त्त; सलिलत्वाय कल्पते--जल बन जाता है; सलिलम्--जल को; तत्--उससे ( वायु से ); हत-रसम्--आस्वाद गुण से रहित; ज्योतिष्ठाय उपकल्पते--अग्नि बन जाता है।
वायु द्वारा गन्ध-गुण से रहित होकर पृथ्वी तत्त्व जल में रूपान्तरित हो जाता है और उसीवायु से जल अपना स्वाद खोकर अग्नि में विलीन हो जाता है।
"
हतरूपं तु तमसा वायौ ज्योति: प्रलीयते ।
हृतस्पर्शोवकाशेन वायुर्नभसि लीयते ।
कालात्मना हतगुणं नभ आत्मनि लीयते ॥
१४॥
हृत-रूपम्--रूप के गुण से विहीन; तु--निश्चय ही; तमसा--अंधकार से; वायौ--वायु में; ज्योति:--अग्नि; प्रलीयते--विलीनहो जाती है; हत-स्पर्श:--स्पर्श से रहित; अवकाशेन--अवकाश तत्त्व द्वारा; वायु:--वायु; नभसि-- आकाश में; लीयते--विलीन हो जाता है; काल-आत्मन--काल रूप में परमात्मा द्वारा; हत-गुणम्--अपने शब्द गुण से विहीन; नभः--आकाश;आत्मनि--तमोगुणी मिथ्या अहंकार में; लीयते--लीन हो जाता हैअग्नि अंधकार द्वारा अपने रूप से विहीन होकर वायु तत्त्व में मिल जाती है।
जब वायुअन्तराल के प्रभाव से अपना स्पर्श-गुण खो देता है, तो वह आकाश में मिल जाता है।
जबआकाश काल रूप परमात्मा द्वारा अपने शब्द-गुण से विहीन कर दिया जाता है, तो वहतमोगुणी मिथ्या अहंकार में विलीन हो जाता है।
"
इन्द्रियाणि मनो बुद्धि: सह वैकारिकैर्नूप ।
प्रविशन्ति ह्यहड्डारं स्वगुणैरहमात्मनि ॥
१५॥
इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; मनः--मन; बुद्द्धिः--बुद्धि; सह वैकारिकैः--देवताओं समेत, जो सतोगुण में अहंकार के प्रतिफल हैं;नृप--हे राजा; प्रविशन्ति--प्रवेश करते हैं; हि--निस्सन्देह; अहड्डारम्--अहंकार तत्त्व; स्त-गुणैः--अपने गुणों ( सतो, रजोतथा तमो ) के साथ; अहम्--अहंकार; आत्मनि--महत तत्त्व में |
हे राजन, भौतिक इन्द्रियाँ तथा बुद्धि रजोगुणी मिथ्या अहंकार में मिल जाते हैं, जहाँ सेउनका उदय हुआ था।
देवताओं के साथ साथ मन सतोगुणी मिथ्या अहंकार में मिल जाता है।
तत्पश्चात्, सम्पूर्ण मिथ्या अहंकार अपने सारे गुणों समेत महतू-तत्त्व में लीन हो जाता है।
"
एषा माया भगवत:ः सर्गस्थित्यन्तकारिणी ।
त्रिवर्णा वर्णितास्माभि: कि भूय:ः श्रोतुमिच्छसि ॥
१६॥
एषा--यह; माया-- भौतिक शक्ति; भगवतः-- भगवान् की; सर्ग--सृजन; स्थिति--पालन-पोषण; अन्त--तथा ( इस ब्रह्माण्डके ) प्रलय के; कारिणी--करने वाली; त्रि-वर्णा--तीन गुणों ( सतो, रजो तथा तमो ) वाली; वर्णिता--वर्णन की गई;अस्माभि:--हमारे द्वारा; किमू--क्या; भूय:ः--इसके आगे; श्रोतुमू--सुनने के लिए; इच्छसि--चाहते हो |
मैं अभी भगवान् की मोहिनी-शक्ति माया का वर्णन कर चुका हूँ।
यह तीन गुणों वालीमाया भगवान् द्वारा ब्रह्मण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के लिए शक्तिप्रदत्त है।
अब तुम औरक्या सुनने के इच्छुक हो ?" श्रीराजोबवाचयथेतामैश्वरीं मायां दुस्तरामकृतात्मभि: ।
तरन्त्यज्ञः स्थूलधियो महर्ष इदमुच्यताम् ॥
१७॥
श्री-राजा उबाच--राजा निमि ने कहा; यथा--जिस तरह; एताम्ू--यह; ऐश्वरीम्-- भगवान् की; मायाम्--माया को;दुस्तराम्ू--दुर्लध्य; अकृत-आत्मभि:--जो आत्मसंयमी नहीं हैं उनके द्वारा; तरन्ति--पार कर जाते हैं; अज्ञ:--आसानी से;स्थूल-धिय:--भौतिकतावादी अनुरक्ति के कारण जिनकी बुद्धि मन्द पड़ चुकी हो ऐसे लोग; मह-ऋषे--हे महर्षि; इदम्--यह;उच्यताम्--आप कहें |
राजा निमि ने कहा है, अतः हे महर्षि, कृपया यह बतलायें कि किस तरह एक मूर्खभौतिकतावादी भी आसानी से भगवान् की उस माया को पार कर सकता है, जो उन लोगों केलिए सदैव दुर्लघ्य है, जिन्हें अपने ऊपर संयम नहीं होता।
"
श्रीप्रबुद्ध उबाचकर्माण्यारभमाणानां दुःखहत्ये सुखाय च ।
पश्येत्पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् ॥
१८॥
श्री-प्रबुद्ध: उवाच-- श्री प्रबुद्ध ने कहा; कर्माणि--सकाम कर्म; आरभमाणानाम्-- प्रयलशील; दुःख-हत्यै--दुख-निवारण केलिए; सुखाय च--तथा सुख पाने के लिए; पश्येतू--देखना चाहिए; पाक--परिणाम का; विपर्यासम्ू--विपरीत फल; मिथुनी-चारिणाम्--स्त्री तथा पुरुष के रूप में युगल जोड़ा; नृणाम्--ऐसे पुरुषों का।
श्री प्रबुद्ध ने कहा है, अतः मानव समाज में नर तथा नारी की भूमिकाएँ स्वीकार करते हुएबद्धजीव संभोगरत होते हैं।
इस तरह वे अपने दुख के निवारणार्थ निरन्तर प्रयलशील रहते हैंऔर अपने आनन्द को असीम बनाना चाहते हैं।
किन्तु यह देखना चाहिए कि उन्हें सदैव इसकाबिल्कुल उल्टा परिणाम मिलता है।
दूसरे शब्दों में, उनका सुख अनिवार्यतहै, अतः समाप्त होजाता है और ज्यों ज्यों वे बूढ़े होते जाते हैं, उनकी भौतिक असुविधाएँ बढ़ती जाती हैं।
"
नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्ममृत्युना ।
गृहापत्याप्तपशुभि: का प्रीति: साधितैश्वलै: ॥
१९॥
नित्य--निरन्तर; आर्ति-देन--पीड़ादायक; वित्तेन--सम्पत्ति से; दुर्लभेन--मुश्किल से कमाई गई; आत्म-मृत्युना--आत्मा केलिए मृत्यु; गृह--अपने घर; अपत्य--सनन््तानों; आप्त--सम्बन्धीजन; पशुभि: --तथा घर के पशुओं सहित; का--क्या;प्रीतिः--सुख; साधितैः--( उस सम्पत्ति से ) प्राप्त किये गये; चलै:ः--चलायमान, अस्थिर।
सम्पत्ति दुख का अविच्छिन्न स्रोत है, इसे अर्जित करना सर्वाधिक कठिन है और एक तरहसे यह आत्मा के लिए मृत्यु स्वरूप है।
भला अपनी सम्पत्ति से किसी को कौन-सा लाभ मिलताहै? इसी तरह कोई अपने तथाकथित घर, सन््तान, सम्बन्धीगण तथा घरेलू पशुओं से स्थायी सुखकैसे प्राप्त कर सकता है, जो उसकी कठिन कमाई से पालित-पोषित होते हैं?" एवं लोक परम्विद्यात्रश्वरं कर्मनिर्मितम् ।
सतुल्यातिशयध्वंसं यथा मण्डलवर्तिनाम् ॥
२०॥
एवम्--इस प्रकार; लोकम्--संसार; परम्--( इस जीवन के बाद ) अगला; विद्यातू--समझ लेने से; नश्वरम्--अस्थायी; कर्म-निर्मितम्--सकाम कर्म से उत्पन्न; स-तुल्य--बराबर वालों ( की स्पर्धा ) से विशेषित; अतिशय--तथा वरिष्ठ जन; ध्वंसम्--तथाविनाश से; यथा--जिस तरह; मण्डल-वर्तिनाम्ू--छोटे-छोटे राजाओं की ( स्पर्धाएँ )।
मनुष्य को स्वर्गलोक में भी ऐसा स्थायी सुख नहीं मिल सकता, जिसे वह अनुष्ठानों तथायज्ञों से अगले जीवन में प्राप्त कर सकता है।
यहाँ तक कि भौतिक स्वर्ग में भी जीव अपनेबराबर वालों की होड़ से तथा अपने से बड़ों की ईर्ष्या से विचलित रहता है।
चूँकि पुण्यकर्मों कीसमाप्ति के साथ ही स्वर्ग का निवास समाप्त हो जाता है, अतएव स्वर्ग के देवतागण अपनेस्वर्गिक जीवन के विनाश की आशंका से भयभीत रहते हैं।
इस तरह उनकी दशा उन राजाओंकी सी रहती है, जो सामान्य जनता द्वारा ईर्ष्यावश प्रशंसित होते हैं, किन्तु शत्रु-राजाओं द्वारानिरन्तर सताये जाते हैं, जिससे उन्हें कभी भी वास्तविक सुख नहीं मिल पाता है।
"
तस्मादगुरुं प्रपद्येत जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमा श्रयम् ॥
२१॥
तस्मात्ू--अतएव; गुरुम्-गुरु की; प्रपद्येत--शरण ग्रहण करे; जिज्ञासु:--उत्सुक होकर; श्रेय: उत्तमम्--सर्वोच्च कल्याण केलिए; शाब्दे--वेदों में; परे--ब्रह्म में; च--तथा; निष्णातम्--पूर्णतया ज्ञेय; ब्रह्मणि--ब्रह्म के ( इन दोनों पक्षों में )) उपशम-आश्रयम्--भौतिक मामलों से विरक्त होने पर स्थित।
अतएव जो व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक असली सुख की इच्छा रखता हो, उसे प्रामाणिक गुरु कीखोज करनी चाहिए और दीक्षा द्वारा उसकी शरण ग्रहण करनी चाहिए प्रामाणिक गुरु कीयोग्यता यह होती है कि वह विचार-विमर्श द्वारा शास्त्रों के निष्कर्षों से अवगत हो चुका होता हैऔर इन निष्कर्षों के विषय में अन्यों को आश्वस्त करने में सक्षम होता है।
ऐसे महापुरुष, जिन्होंनेसमस्त भौतिक धारणाओं को त्याग कर भगवान् की शरण ग्रहण कर ली है, उन्हें प्रामाणिक गुरूमानना चाहिए।
"
तत्र भागवतान्धर्मान्शिक्षेद्गुर्वात्मदैवत: ।
अमाययानुव॒ृत्त्या यैस्तुष्येदात्मात्मदो हरि: ॥
२२॥
तत्र--वहाँ ( गुरु की संगति में ); भागवतान् धर्मान्--भक्ति के विज्ञान को; शिक्षेत्ू--सीखना चाहिए; गुरु-आत्म-दैवत:--वह,जिसके लिए गुरु प्राण है और आराध्य देव है; अमायया--बिना धोखे के; अनुवृत्त्या-- श्रद्धापूर्ण सेवा द्वारा; यैः--जिसके( भक्ति ) द्वारा; तुष्येत्--तुष्ट किया जा सकता है; आत्मा--परमात्मा; आत्म-दः--आत्मा प्रदान करने वाला; हरिः-- भगवान्हरि
प्रामाणिक गुरु को प्राण एवं आत्मा तथा आराध्य देव मानते हुए शिष्य को चाहिए कि उससेशुद्ध भक्ति की विधि सीखे।
समस्त आत्माओं के आत्मा भगवान् हरि अपने आपको अपने शुद्धभक्तों को सौंपने के लिए उद्यत रहते हैं।
इसलिए शिष्य को अपने गुरु से द्वैतरहित होकर भगवान्की श्रद्धापूर्ण तथा उपयुक्त विधि से सेवा करना सीखना चाहिए, जिससे वे तुष्ट होकर श्रद्धालुशिष्य को अपने आपको सौंप सकें।
"
सर्वतो मनसोसड्भमादौ सड्रं च साधुषु ।
दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम् ॥
२३॥
सर्वत:ः--सर्वत्र; मनसः--मन की; असड्रम्-विरक्ति; आदौ-प्रारम्भ में; सड्रम्ू--संगति; च--तथा; साधुषु--साधुओं की;दयाम्--दया; मैत्रीम्-मित्रता; प्रश्रयमू-- आदर; च--तथा; भूतेषु--समस्त जीवों के प्रति; अद्धा--इस प्रकार; यथाउचितम्--जो उपयुक्त हो
निष्ठावान् शिष्य को चाहिए कि मन को प्रत्येक भौतिक वस्तु से विलग रखना सीखे एवंअपने गुरु तथा अन्य साधु भक्तों की संगति का सकारात्मक रूप से अनुशीलन करे।
उसे अपनेसे निम्न पद वालों के प्रति उदार होना चाहिए, समान पद वालों के साथ मैत्री करनी चाहिए औरजो अपने से उच्चतर आध्यात्मिक पद पर हैं, उनकी विनीत भाव से सेवा करनी चाहिए।
इस तरहउसे समस्त जीवों के साथ समुचित व्यवहार करना सीखना चाहिए।
"
शौच तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वन्द्ठसंज्ञयो: ॥
२४॥
शौचम्--स्वच्छता; तप:--तपस्या; तितिक्षाम्--सहनशीलता; च--तथा; मौनम्--चुप्पी, मौन; स्वाध्यायम्--वेदाध्ययन;आर्जवम्--सादगी; ब्रह्मचर्यम्-ब्रह्मचर्य-ब्रत; अहिंसामू-- अहिंसा; च--तथा; समत्वम्--समता; द्वन्द्र-संज्ञयोः--द्वैत के रूप मेंअनुभव की जाने वाली परिस्थितियों में |
गुरु की सेवा करने के लिए शिष्य को स्वच्छता, तपस्या, सहनशीलता, मौन, वेदाध्ययन,सादगी, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा गर्मी और शीत, सुख और दुख जैसे द्वैतों के समक्ष समत्वसीखना चाहिए।
"
सर्वत्रात्मे श्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम् ।
विविक्तचीरवसनं सन््तोष॑ं येन केनचित् ॥
२५॥
सर्वत्र--सभी जगह; आत्म--अपनी आत्मा के लिए; ईश्वर--तथा भगवान् के लिए; अन्वीक्षाम्--सतत दृष्टि में रखते हुए ध्यान;कैवल्यम्--मोक्ष; अनिकेतताम्--जिसका कोई स्थायी घर न हो; विविक्त-चीर--ची थड़े; वसनम्-- पहने हुए; सन्तोषम्--सन््तोष; येन केनचित्ू--किसी भी वस्तु से |
मनुष्य को चाहिए कि अपने को नित्य आत्मा के रूप में और भगवान् को हर वस्तु का परमनियन्ता देखते हुए ध्यान करे।
ध्यान में वृद्धि लाने के लिए वह एकान्त स्थान में रहे और अपनेघर तथा घर की सामग्री के प्रति झूठी आसक्ति को त्याग दे।
नश्वर शरीर के अलंकरण को त्यागकर, मनुष्य अपने को चीथड़ों से या वृक्षों की छाल से ढके।
इस तरह, उसे किसी भी भौतिकपरिस्थिति में सन्तुष्ट रहना सीखना चाहिए।
"
श्रद्धां भागवते शास्त्रेडनिन्दामन्यत्र चापि हि ।
मनोवाक्र्मदण्डं च सत्यं शमदमावषि ॥
२६॥
श्रद्धाम्-- श्रद्धा; भागवते-- भगवान् से सम्बद्ध; शास्त्रे--शास्त्र में; अनिन्दाम्--निन्दा न करना; अन्यत्र--दूसरे लोग; च-- भी;अपि हि--निस्सन्देह; मनः--मन का; वाक्ू--वाणी; कर्म--तथा मनुष्य के कर्म; दण्डम्--कठोर नियंत्रण; च--तथा;सत्यम्ू--सच्चाई; शम--मन पर आत्म-नियंत्रण; दमौ--तथा बाह्य इन्द्रियों का; अपि--भी |
मनुष्य को यह अटूट श्रद्धा होनी चाहिए कि उन शास्त्रों का अनुसरण करने से उसे जीवन मेंपूर्ण सफलता मिलेगी, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के यश का वर्णन करते हैं।
इसी के साथ उसेअन्य शास्त्रों की निन्दा करने से अपने को बचाना चाहिए।
उसे अपने मन, वाणी तथा शारीरिककर्मों पर कठोर नियंत्रण रखना चाहिए, सदैव सच बोलना चाहिए और मन तथा इन्द्रियों को पूरीतरह वश में रखना चाहिए।
"
श्रवर्णं कीर्तन ध्यान हरेरद्भुतकर्मण: ।
जन्मकर्मगुणानां च तदर्थेअखिलचेष्टितम् ॥
२७॥
इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृत्तं यच्चात्मन: प्रियम् ।
दारान्सुतान्गृहान्प्राणान्यत्परस्मै निवेदनम् ॥
२८ ॥
श्रवणम्--सुनना; कीर्तनम्--कीर्तन करना; ध्यानमू--तथा ध्यान करना; हरेः-- भगवान् हरि के; अद्भुत-कर्मण:--जिनकेकार्यकलाप अदभुत हैं; जन्म--उसके अवतारों; कर्म--लीलाओं; गुणानामू--गुणों के; च--तथा; तत््-अर्थै--उसके निमित्त;अखिल--समस्त; चेष्टितम्--प्रयास; इष्टम्--जो भी पूजा की जाती है; दत्तम्ू--जो भी दान; तप:--तपस्या; जप्तम्--जो भीमंत्र जपता है; वृत्तम्--पुण्यकर्म; यत्--जो; च-- भी; आत्मन:--अपने लिए; प्रियम्--प्रिय; दारान्ू-- पत्नी; सुतान्ू--पुत्रों;गृहान्ू--घर; प्राणान्-- प्राण; यत्-- जो; परस्मै--ब्रह्म को; निवेदनम्-- भेंट
मनुष्य को चाहिए कि भगवान् के अद्भुत दिव्य कार्यकलापों के विषय में सुने, उनकागुणगान करे और ध्यान करे।
उसे विशेष रूप से भगवान् के प्राकट्यों, कार्यकलापों, गुणों तथापवित्र नामों में लीन रहना चाहिए।
इस प्रकार प्रेरित होकर उसे अपने नैत्यिक समस्त कार्यभगवान् को अर्पित करते हुए सम्पन्न करने चाहिए।
मनुष्य को चाहिए कि केवल भगवान् कीतुष्टि के लिए ही यज्ञ, दान तथा तप करे।
इसी तरह वह केवल उन्हीं मंत्रों का उच्चारण करे, जोभगवान् की महिमा का गायन करते हों।
उसके सारे धार्मिक कृत्य भगवान् की भेंट के रूप मेंसम्पन्न हों।
उसे जो भी वस्तु अच्छी या भोग्य लगे, उसे वह तुरन्त भगवान् को अर्पित कर दे।
यहाँतक कि वह अपनी पतली, बच्चे, घर तथा अपने प्राण भी भगवान् के चरणकमलों पर अर्पित करदे।
"
एवं कृष्णात्मनाथेषु मनुष्येषु च सौहदम् ।
परिचर्या चोभयत्र महत्सु नूषु साधुषु ॥
२९॥
एवम्--इस तरह; कृष्ण-आत्म-नाथेषु--जो लोग कृष्ण को अपनी आत्मा का स्वामी मानते हैं, उन; मनुष्येषु--मनुष्यों के लिए;च--तथा; सौहदम्--मैत्री; परिचर्यामू--सेवा; च--तथा; उभयत्र--( चर तथा अचर अथवा भगवान् तथा उनके भक्त ) दोनों केप्रति की गई; महत्सु--( विशेषतया ) भगवद्भक्तों में से; नृषु--मनुष्यों में से; साधुषु--सन्त आचरण वालों में से |
जो अपने चरम स्वार्थ का इच्छुक है, उसे उन व्यक्तियों से मैत्री करनी चाहिए, जिन्होंने कृष्णको अपना जीवन-नाथ मान लिया है।
उसे समस्त जीवों के प्रति सेवाभाव भी उत्पन्न करना चाहिए।
उसे मनुष्य-रूप में पैदा हुए लोगों की और इनमें से विशेष रूप से उनकी सहायता करनीचाहिए, जो धार्मिक आचरण के सिद्धान्त को अपनाते हैं।
धार्मिक व्यक्तियों में से भगवान् केशुद्ध भक्तों की सेवा की जानी चाहिए।
"
परस्परानुकथन पावन भगवद्यशः ।
मिथो रतिर्मिथस्तुष्टिनिवृत्तिरमिथ आत्मन: ॥
३०॥
परस्पर--एक-दूसरे से; अनुकथनम्--विचार-विमर्श; पावनम्--पवित्रकारी; भगवत्-- भगवान् की; यश: --कीर्ति; मिथ: --परस्पर; रति:--प्रेमाकर्षण; मिथ: --परस्पर; तुष्टिः--तुष्टि; निवृत्तिः--भौतिक कष्टों की समाप्ति; मिथ:-- परस्पर; आत्मन: --आत्मा का।
मनुष्य को चाहिए कि भगवद्भक्तों के साथ एकत्र होकर भगवान् की महिमा-गायन केलिए उनकी संगति करना सीखे।
यह विधि अत्यन्त शुद्ध बनाने वाली है।
ज्योंही भक्तमण इसप्रकार प्रेमपूर्ण मैत्री स्थापित कर लेते हैं, त्योंही उन्हें परस्पर सुख तथा तुष्टि का अनुभव होता है।
इस प्रकार एक-दूसरे को प्रोत्साहित करके, वे उस भौतिक इन्द्रिय-तृप्ति को त्यागने में सक्षमहोते हैं, जो समस्त कष्टों का कारण है।
"
स्मरन्तः स्मारयन्तश्न मिथोघौघहरं हरिम् ।
भकत्या सञ्जातया भक्त्या बिश्चत्युत्पुलकां तनुम् ॥
३१॥
स्मरन्तः--स्मरण करते हुए; स्मारयन्त: च--तथा स्मरण दिलाते हुए; मिथ: --परस्पर; अघध-ओघ-हरम्-- भक्त से समस्त अशुभवस्तुओं को ले लेने वाला; हरिम्ू-- भगवान् को; भक्त्या--भक्ति द्वारा; सज्ञातया--जगाया हुआ; भक्त्या--भक्ति द्वारा;बिभ्रति-- धारण करते हैं; उत्पुलकाम्--पुलकायमान; तनुम्--शरीर को
भगवद्भक्तगण परस्पर भगवान् की महिमा का निरन्तर बखान करते हैं।
इस प्रकार वेनिरन्तर भगवान् का स्मरण करते हैं और एक-दूसरे को उनके गुणों तथा लीलाओं का स्मरणकराते हैं।
इस तरह से भक्तियोग के नियमों के प्रति अपनी अनुरक्ति से भक्तगण भगवान् कोप्रसन्न करते हैं, जो उनके सारे अशुभों को हर लेते हैं।
समस्त व्यवधानों से शुद्ध होकर भक्तगण शुद्ध भगवत्प्रेम जगा लेते हैं और इस प्रकार इस जगत में रहते हुए भी उनके आध्यात्मीकृत शरीरोंमें दिव्य आनन्द ( भाव ) के लक्षण--यथा रोमांच-- प्रकट होते हैं।
"
क्वचिद्वुदन्त्यच्युतचिन्तया क्वचि-द्धसन्ति नन्दन्ति वदन्त्यलौकिकाः ।
नृत्यन्ति गायन्त्यनुशीलयन्त्यजंभवन्ति तृष्णीं परमेत्य निर्वृता: ॥
३२॥
क्वचित्--कभी; रुदन्ति--रोते हैं; अच्युत--अच्युत भगवान् के; चिन्तया--विचार से; क्वचित्--क भी; हसन्ति--हँसते हैं;नन्दन्ति--अतीव आनन्द लेते हैं; वदन्ति--बोलते हैं; अलौकिका:--आश्चर्यजनक रीति से अभिनय करते हुए; नृत्यन्ति--नाचतेहैं; गायन्ति--गाते हैं; अनुशीलयन्ति--तथा अनुकरण करते हैं; अजम्--अजन्मा; भवन्ति--बन जाते हैं; तृष्णीमू--मौन;परमू--ब्रह्म; एत्य--प्राप्त करके; निर्वुता:--दुख से मुक्त |
भगवत्प्रेम प्राप्त कर लेने पर भक्तगण अच्युत भगवान् के विचार में मग्न होकर कभी जोर सेनिनाद हैं।
कभी हँसते हैं, कभी अगाध आनन्द का अनुभव करते हैं, भगवान् से जोर से बातेंकरते हैं, नाचते या गाते हैं।
ऐसे भक्तगण दिव्य भौतिक बद्धजीव की अवस्था को लाँघकरकभी कभी अजन्मा परमेश्वर की लीलाओं का अनुकरण करते हैं और कभी उनका दर्शन पाकरवे शान्त एवं मौन हो जाते हैं।
"
इति भागवतान्धर्मानिशिक्षन्भक्त्या तदुत्थया ।
नारायणपरो मायामञ्जस्तरति दुस्तराम् ॥
३३॥
इति--इस प्रकार; भागवतान् धर्मान्-भक्ति के विज्ञान को; शिक्षन्ू-- अध्ययन करते हुए; भक्त्या--भक्ति द्वारा; ततू-उत्थया--इससे उत्पन्न; नारायण-पर:--भगवान् नारायण में समर्पित; मायाम्--माया को; अद्भ:--सरलता से; तरति--पार कर जाता है;दुस्तरामू--लाँघ पाना कठिन।
इस तरह भक्ति-विज्ञान को सीख कर तथा भगवद्भक्ति में व्यावहारिक रूप से संलग्न रहकर भक्त भगवत्प्रेम की अवस्था को प्राप्त होता है।
और भगवान् नारायण की पूर्ण भक्ति द्वाराभक्त सरलता से उस माया को पार कर लेता है, जिसे लाँघ पाना अत्यन्त ही कठिन है।
"
श्रीराजोबाचनारायणाभिधानस्य ब्रह्मण: परमात्मन: ।
निष्ठामरहथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमा: ॥
३४॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; नारायण-अभिधानस्य--नारायण नामक भगवान् का; ब्रह्मण: --परब्रह्म का; परम-आत्मन:--परमात्मा का; निष्ठामू-दिव्य स्थिति; अर्हथ--कृपया; न:ः--हमसे; वक्तुम्--कहें; यूयम्-- आप सभी; हि--निस्सन्देह; ब्रह्म-वित्ू-तमा:--ब्रह्म के परम दक्ष ज्ञाता
राजा निमि ने कहा : अतः कृपा करके मुझे उन भगवान् नारायण के दिव्य पद को बतलायें,जो साक्षात् परब्रह्म तथा हर एक के परमात्मा हैं।
आप मुझसे कहें, क्योंकि आप सभी जन दिव्यज्ञान में परम निष्णात हैं।
"
श्रीपिप्पलायन उवाचस्थित्युद्धवप्रलयहेतुरहेतुरस्ययत्स्वणजागरसुषुप्तिषु सद्वहिश्च ।
देहेन्द्रियासुहृदयानि चरन्ति येनसञ्जीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र ॥
३५॥
श्री-पिप्पलायन: उवाच-- श्री पिप्पलायन ने कहा; स्थिति--सृजन; उद्धव--पालन; प्रलय--तथा संहार; हेतु:--कारण;अहेतु:--बिना कारण के; अस्य--इस भौतिक ब्रह्माण्ड का; यत्--जो; स्वप्न--स्वप्न; जागर--जागृति; सुषुप्तिषु--गहरीनिद्रा या अचेतनावस्था में; सत्--जो विद्यमान है; बहि: च--तथा इनसे बाहर; देह--जीवों के भौतिक शरीरों की; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; आसु--प्राण-वायु; हृदयानि--तथा मन; चरन्ति--कार्य करते हैं; येन--जिससे; सझ्लीवितानि--जीवन प्रदत्त; तत्--वह; अवेहि--जानो; परम्--ब्रह्म रूप में; नर-इन्द्र--हे राजा
श्री पिप्पलायन ने कहा : पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ही इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथासंहार के कारण हैं, फिर भी उनका कोई पूर्व कारण नहीं है।
वे जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्ति जैसी विविध अवस्थाओं में व्याप्त रहते हैं और इनसे परे भी विद्यमान हैं।
वे हर जीव के शरीर मेंपरमात्मा रूप में प्रवेश करके शरीर, प्राण-वायु तथा मानसिक क्रियाओं को जागृत करते हैं,जिससे शरीर के सभी सूक्ष्म तथा स्थूल अंग अपने अपने कार्य शुरू कर देते हैं।
हे राजन, यहजान लें कि भगवान् सर्वोपरि हैं।
"
नैतन्मनो विशति वागुत चश्षुरात्माप्राणेन्द्रयणि च यथानलमर्चिष: सवा: ।
शब्दोपि बोधकनिषेधतयात्ममूल-मर्थोक्तमाह यहते न निषेधसिद्ध्धि: ॥
३६॥
न--नहीं; एतत्--यह ( परब्रह्म ); मनः--मन; विशति--प्रवेश करता है; वाक्ु--वाणी का कार्य; उत--न तो; चक्षु:--दृष्टि;आत्मा--बुद्धि; प्राण--जीवन दायिनी सूक्ष्म वायु; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; च--अथवा; यथा--जिस तरह; अनलमू-- अग्नि;अर्चिष:--चिनगारियाँ; स्वा:ः-- अपना; शब्द: --वेद-ध्वनि; अपि-- भी; बोधक--वाणी से बताने में समर्थ; निषेधतया--निषेधकरने के कारण; आत्म--परमात्मा का; मूलम्--मुख्य प्रमाण; अर्थ-उक्तम्--अ प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त किया गया; आह--व्यक्तकरता है; यत्ू-ऋते--जिसके ( ब्रह्म के ) बिना; न--नहीं है; निषेध--शास्त्रों के कथन का उल्टा; सिद्द्धिः--चरम प्रयोजन।
न तो मन, न ही वाणी, दृष्टि, बुद्धि, प्राण-वायु या किसी इन्द्रिय के कार्य उस परम सत्य मेंप्रवेश करने में सक्षम हैं, जिस तरह कि छोटी चिनगारियाँ उस मूल अग्नि को प्रभावित नहीं करसकती हैं, जिससे वे उत्पन्न होती हैं।
यहाँ तक कि वेदों की प्रामाणिक भाषा भी परम सत्य काबखान नहीं कर सकती है, क्योंकि स्वयं वेद ही इस सम्भावना से इनकार करते हैं कि सत्य कोशब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।
किन्तु अप्रत्यक्ष निर्देश द्वारा वैदिक ध्वनि परम सत्य का प्रमाण प्रस्तुत करती है, क्योंकि परम सत्य के अस्तित्व के बिना वेदों में प्राप्त विविध निषेधों काकोई चरम अभिप्राय नहीं होता।
"
सत्त्वं रजस्तम इति त्रिवृदेकमादौसूत्रं महानहमिति प्रवदन्ति जीवम् ।
ज्ञानक्रियार्थफलरूपतयोरुशक्तिब्रहौव भाति सदसच्च तयोः परं यतू ॥
३७॥
सत्त्ममू--सतोगुण; रज:--रजोगुण; तम:--तथा तमोगुण; इति--इस प्रकार ज्ञात; त्रि-वृतू--तीनों; एकम्--एक; आदौ--प्रारम्भ में, सृष्टि से पूर्व; सूत्रमू--कर्म करने की शक्ति; महान्ू--चेतना-शक्ति; अहम्--तथा मिथ्या अहंकार; इति--इस प्रकार;प्रवदन्ति--कहलाता है; जीवम्--( मिथ्या अहंकार, जो आच्छादित करता है ) जीव को; ज्ञान--ज्ञान के साक्षात् रूप देवतागण;क्रिया--इन्द्रियाँ; अर्थ--इन्द्रिय-विषय; फल--तथा सुख-दुख के रूप में सकाम फल; रूपतया--रूप धारण करके; उरु-शक्ति--अनेक प्रकार की शक्ति से सम्पन्न; ब्रह्म एबव--केवल ब्रह्म; भाति-- प्रकट होता है; सत् असत् च--स्थूल इन्द्रियाँ तथाउनके सूक्ष्म कारण; तयो:--दोनों; परम्--परे; यत्--जो है |
ब्रह्म जो मूलतः एक है, वह त्रिगुण होकर विख्यात है और प्रकृति के तीन गुणों--सतो, रजोतथा तमो गुणों--के रूप में अपने को प्रकट करता है।
ब्रह्म इससे भी आगे अपनी शक्ति काविस्तार करता है।
इस तरह मिथ्या अहंकार के साथ साथ कार्य करने की शक्ति तथा चेतना-शक्ति प्रकट होती है, जो बद्ध जीव के स्वरूप को ढक लेती है।
इस तरह ब्रह्म की बहुविधशक्तियों के विस्तार से देवतागण ज्ञान के साक्षात् रूप में प्रकट होते हैं और उनके साथ साथभौतिक इन्द्रियाँ, उनके विषय तथा कर्मफल--सुख-दुख--प्रकट होते हैं।
इस तरह भौतिकजगत की अभिव्यक्ति सूक्ष्म कारण के रूप में तथा स्थूल भौतिक पदार्थों में हश्य भौतिक कार्य के रूप में होती है।
ब्रह्म, जो कि समस्त सूक्ष्म तथा स्थूल अभिव्यक्तियों का स्त्रोत है, परम होनेके कारण, उनसे परे भी रहता है।
"
नात्मा जजान न मरिष्यति नेधतेसौन क्षीयते सवनविद्व्यभिचारिणां हि ।
सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्र'प्राणो यथेन्द्रिययलेन विकल्पितं सत् ॥
३८॥
न--कभी नहीं; आत्मा--आत्मा; जजान--उत्पन्न हुआ था; न--कभी नहीं; मरिष्यति--मरेगा; न--कभी नहीं; एधते--बढ़ताहै; असौ--यह; न--नहीं; क्षीयते-- क्षीण होता है; सवन-वित्--काल की इन अवस्थाओं का ज्ञाता; व्यभिचारिणाम्ू-- जैसाकिअन्य परिवर्तनशील प्राणियों में घटित होते हैं; हि--निस्सन्देह; सर्वत्र--सभी जगह; शश्वत्--निरन्तर; अनपायि--कभी अप्रकटन होकर; उपलब्धि-मात्रम्--शुद्ध चेतना; प्राण: यथा--जिस तरह शरीर के भीतर प्राण-वायु; इन्द्रिय-बलेन--इन्द्रियों के बलसे; विकल्पितम्-विभक्त मानते हुए; सत्--होकर
नित्य आत्मा ब्रह्म न तो कभी जन्मा था और न कभी मरेगा।
न ही वह बड़ा होता है न उसकाक्षय होता है।
वह आध्यात्मिक आत्मा वास्तव में भौतिक शरीर की युवावस्था, मध्यावस्था तथाभौतिक शरीर की मृत्यु का ज्ञाता है।
इस प्रकार आत्मा को शुद्ध चेतना माना जा सकता है, जोसभी काल में सर्वत्र विद्यमान रहता है और कभी विनष्ट नहीं होता।
जिस प्रकार प्राण एक होतेहुए भी शरीर के भीतर विभिन्न इन्द्रियों के सम्पर्क में अनेक रूप में प्रकट होता है, उसी तरह वहएक आत्मा भौतिक शरीर के सम्पर्क में विविध भौतिक उपाधियाँ धारण करता प्रतीत होता है।
"
अण्डेषु पेशिषु तरुष्वविनिश्चितेषुप्राणो हि जीवमुपधावति तत्र तत्र ।
सन्ने यदिन्द्रियगणेहमि च प्रसुप्तेकूटस्थ आशयमूृते तदनुस्मृतिर्न: ॥
३९॥
अण्डेषु--अण्डों ( से उत्पन्न योनियों ) में; पेशिषु-- भ्रूणों में; तरुषु--पौधों में; अविनिश्चितेषु-- अनिश्चित उत्पत्ति वाली ( पसीनेसे उत्पन्न ) योनियों में; प्राण:--प्राण-वायु; हि--निश्चय ही; जीवम्--आत्मा; उपधावति--पीछा करता है; तत्र तत्र--एक योनिसे दूसरी में; सन्ने--मिल जाते हैं; यत्--जब; इन्द्रिय-गणे--सारी इन्द्रियाँ; अहमि--मिथ्या अहंकार; च-- भी; प्रसुप्ते--गहरीनिद्रा में; कूट-स्थ:--अपरिवर्तित; आशयम्--दूषित चेतना का सूक्ष्म आवरण, लिंग शरीर; ऋते--रहित; तत्ू--उसके;अनुस्मृतिः:--पश्चर्ती स्मरणशक्ति; न:--हमारी |
इस भौतिक जगत में आत्मा कई जीव योनियों में जन्म लेता है।
कुछ योनियाँ अंडों से उत्पन्नहोती हैं, कुछ भ्रूण से, कुछ पौधों और वृक्षों के बीजों से तो कुछ स्वेद से उत्पन्न होती हैं।
किन्तुसमस्त योनियों में प्राण अपरिवर्तित रहता है और वह आत्मा के पीछे पीछे एक शरीर से दूसरे मेंचला जाता है।
इसी प्रकार आत्मा विभिन्न जीवन-स्थितियों के बावजूद निरन्तर वही बना रहताहै।
हमें इसका व्यावहारिक अनुभव है।
जब हम बिना स्वप्न देखे प्रगाढ़ निद्रा में होते हैं, तोभौतिक इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं, यहाँ तक कि मन तथा मिथ्या अहंकार भी निष्क्रिय होजाते हैं, किन्तु जब मनुष्य जागता है, तो वह स्मरण करता है कि आत्मारूप वह शान्ति से सो रहाथा, यद्यपि इन्द्रियाँ, मन और मिथ्या अहंकार निष्क्रिय थे।
"
यहांव्जनाभचरणैषणयोरु भक्त्याचेतोमलानि विधमेद्गुणकर्मजानि ।
तस्मिन्विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वंशाक्षाद्यथामलहृशो: सवितृप्रकाश: ॥
४०॥
यहि--जब; अब्ज-नाभ--जिसकी नाभि कमल जैसी है, ऐसे भगवान् के; चरण--चरण; एषणया--( केवल ) इच्छा करने से;उरु-भक्त्या--शक्तिशाली भक्ति द्वारा; चेत:--हृदय की; मलानि--धूल; विधमेत्-- धो डालती है; गुण-कर्म-जानि-- प्रकृतिके गुणों तथा इन गुणों के कार्यो से उत्पन्न; तस्मिन्ू--उस; विशुद्धे--पूर्णतया शुद्ध ( हृदय ); उपलभ्यते--अनुभव किया जाताहै; आत्म-तत्त्वमू-- आत्मा का असली स्वभाव; साक्षात्- प्रत्यक्ष; यथा--जिस तरह; अमल-हृशो:--शुद्ध आँखों के; सवितृ--सूर्य की; प्रकाश:--अभिव्यक्ति
जब मनुष्य अपने हृदय में भगवान् के चरणकमलों को जीवन के एकमात्र लक्ष्य के रूप मेंस्थिर करके भगवान् की भक्ति में गम्भीरतापूर्वक संलग्न होता है, तो वह अपने हृदय के भीतरस्थित उन असंख्य अशुद्ध इच्छाओं को विनष्ट कर सकता है, जो प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गतउसके पूर्वकर्मों के फल के कारण संचित होती हैं।
जब इस तरह हृदय शुद्ध हो जाता है, तो वहभगवान् को तथा अपने को दिव्य जीवों के रूप में प्रत्यक्षत: अनुभव कर सकता है।
इस तरह वहप्रत्यक्ष अनुभव द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान में निष्णात् हो जाता है, जिस तरह कि सामान्य स्वस्थ दृष्टिद्वारा सूर्य-प्रकाश का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
"
श्रीराजोबाचकर्मयोगं बदत नः पुरुषो येन संस्कृत: ।
विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्य विन्दते परम् ॥
४१॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; कर्म-योगम्--ब्रह्म से अपने कर्म को जोड़ने का अभ्यास; वबदत--कृपया बतलायें; न:--हमको; पुरुष:--व्यक्ति; येन--जिससे; संस्कृत:--परिष्कृत होकर; विधूय-- छूट कर; इह--इस जीवन में; आशु--तुरनन््त;कर्माणि-- भौतिकतावादी कर्म; नैष्कर्म्पम्--सकाम कर्मफल से मुक्ति; विन्दते-- भोग करता है; परम्ू--दिव्य |
राजा निमि ने कहा : हे मुनियो, हमें कर्मयोग की विधि के विषय में बतलायें।
परम पुरुषको अपने व्यावहारिक कर्म समर्पित करने की इस विधि से शुद्ध होकर व्यक्ति अपने को इसजीवन में भी समस्त भौतिक कार्यों से मुक्त कर सकता है और इस तरह दिव्य पद पर शुद्धजीवन का भोग कर सकता है।
"
एवं प्रश्नमृषीन्पूर्वमपृच्छे पितुरन्तिके ।
नाब्रुवन्ब्रह्मण: पुत्रास्तत्र कारणमुच्यताम् ॥
४२॥
एवम्--इसी तरह का; प्रश्नम्--प्रश्न; ऋषीन्ू--ऋषियों से; पूर्वम्--इसके पहिले भी; अपृच्छम्--मैंने पूछा था; पितु:--अपनेपिता ( इक्ष्वाकु महाराज ) के; अन्तिके--समक्ष; न अब्रुवन्--वे नहीं बोले; ब्रह्मण:--ब्रह्मा के; पुत्रा:--पुत्र; तत्र--उसका;'कारणम्--कारण; उच्यताम्ू--कहिये |
एक बार विगत काल में अपने पिता महाराज इशक्ष्वाकु की उपस्थिति में मैंने ब्रह्म के चारमहर्षि पुत्रों से ऐसा ही प्रश्न पूछा था, किन्तु उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।
कृपया इसकाकारण बतलायें।
"
श्रीआविहोंत्र उबाचकर्माकर्म विकर्मेति वेदवादो न लौकिकः ।
वेदस्य चेश्वरात्मत्वात्तत्र मुहान्ति सूरयः ॥
४३॥
श्री-आविदहोंत्र: उवाच--आविदोंत्र ने कहा; कर्म --शा्त्रों द्वारा संस्तुत कार्यों की सम्पन्नता; अकर्म--ऐसे कार्यों को कर पाने मेंअसफलता; विकर्म--निषिद्ध कर्मों में लगना; इति--इस प्रकार; बेद-वाद:--वेदों के माध्यम से समझा गया विषय; न--नहीं;लौकिकः--संसारी; वेदस्य--वेदों का; च--तथा; ईश्वर-आत्मत्वात्ू-- भगवान् से आने के कारण; तत्र--इस विषय में;मुहान्ति--मोह ग्रस्त हो जाते हैं; सूरय:--बड़े बड़े पंडित ( भी )
श्री आविहोंत्र ने उत्तर दिया : कर्म, अकर्म तथा विकर्म ऐसे विषय हैं, जिन्हें वैदिक साहित्यके प्रामाणिक अध्ययन द्वारा ही भलीभाँति समझा जा सकता है।
इस कठिन विषय को संसारीकल्पना के द्वारा कभी भी नहीं समझा जा सकता।
प्रामाणिक वैदिक साहित्य भगवान् काशब्दावतार है, इस प्रकार वैदिक ज्ञान पूर्ण है।
वैदिक ज्ञान की सत्ता की उपेक्षा करने से बड़े बड़ेपंडित तक कर्म-योग को समझने में भ्रमित हो जाते हैं।
"
परोक्षवादो वेदोयं बालानामनुशासनम् ।
'कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते हागदं यथा ॥
४४॥
परोक्ष-वाद:--किसी वस्तु के असली स्वरूप को छिपाने के लिए उसे अन्य रूप में प्रस्तुत करना; वेद:--वेद; अयम्--ये;बालानाम्ू--बचकाने लोग; अनुशासनम्--निर्देशन; कर्म-मोक्षाय-- भौतिक कार्यों से मुक्ति के लिए; कर्माणि-- भौतिक कार्य;विधत्ते--संस्तुति करते हैं; हि--निस्सन्देह; अगदम्--औषधि; यथा--जिस तरह।
बचकाने तथा मूर्ख लोग भौतिकतावादी सकाम कर्मों के प्रति आसक्त रहते हैं, यद्यपि जीवनका वास्तविक लक्ष्य ऐसे कर्मों से मुक्त बनना है।
इसलिए वैदिक आदेश सर्वप्रथम सकाम धार्मिक कर्मो की संस्तुति करके मनुष्य को परोक्ष रीति से चरम मोक्ष के मार्ग पर ले जाते हैं,जिस तरह पिता अपने पुत्र को दवा पिलाने के लिए उसे मिठाई देने का वादा करता है।
"
नाचरेहास्तु वेदोक्त स्वयमज्ञो उजितेन्द्रियः ।
विकर्मणा ह्य॒धर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥
४५॥
न आचरेत्--नहीं करता है; यः--जो; तु--लेकिन; वेद-उक्तम्--वेदों में संस्तुत किया हुआ; स्वयम्--खुद; अज्ञ:--अज्ञानी;अजित-इन्द्रियः--जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं किया; विकर्मणा--शास्त्र-कर्म न करने से; हि--निस्सन्देह;अधर्मेण --अधर्म द्वारा; मृत्यो: मृत्युम्--मृत्यु के बाद फिर मृत्यु; उपैति--प्राप्त करता है; सः--वह।
यदि कोई अज्ञानी जिसने भौतिक इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वह वैदिक आदेशों मेंअटल नहीं रहता, तो वह निश्चय ही पापमय तथा अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहेगा।
इस तरहउसको बारम्बार जन्म-मृत्यु भोगना पड़ेगा।
"
वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसड्ढोउर्पितमी श्वरे ।
नैष्कर्म्य लभते सिद्धि रोचनार्था फलश्रुति: ॥
४६॥
बेद-उक्तम्-वेदों में वर्णित नियमित कर्म; एब--निश्चय ही; कुर्वाण:--करते हुए; निह्सड्र:ः--किसी आसक्ति के बिना;अर्पितमू्-प्रदत्त; ईश्वे-- भगवान् को; नैष्कर्म्यम्-- भौतिक कर्म तथा इसके फलों से मुक्ति के; लभते--प्राप्त करता है;सिद्धिम्--सिद्धि; रोचन-अर्था--प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से; फल-श्रुतिः--वैदिक शास्त्रों में दिये गये भौतिक फल के वायदे।
निर्लिप्त होकर वेदों द्वारा निर्दिष्ट नियमित कार्यों को सम्पन्न करने और ऐसे कार्य के फलभगवान् को अर्पित करने से मनुष्य को भौतिक कर्म के बन्धन से मुक्ति रूपी सिद्धि मिल जाती है।
प्रामाणिक शास्त्रों में प्रदत्त भौतिक कर्मफल वैदिक ज्ञान के चरम लक्ष्य नहीं हैं, अपितु कर्तामें रुचि उत्पन्न कराने के निमित्त हैं।
"
य आशु हृदयग्रन्थि निर्जिही ऋषु: परात्मन: ।
विधिनोपचरेद्देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥
४७॥
यः--जो; आशु--शीघ्रता से; हृदय-ग्रन्थिमू--हृदय की गाँठ को ( भौतिक देह से झूठी पहचान ); निर्जिहीर्षु:--काटने काइच्छुक; परात्मन:--दिव्य आत्मा का; विधिना--विधानों से; उपचरेत्--उसे पूजा करनी चाहिए; देवम्-- भगवान्; तन्त्र-उक्तेन--तंत्रों द्वारा वर्णित; च--तथा ( वेदोक्तम के अतिरिक्त ); केशवम्--भगवान् केशव को |
जो व्यक्ति आत्मा को जकड़कर रखने वाली मिथ्या अहंकार की गाँठ को तुरन्त काट देनेका इच्छुक होता है, उसे वैदिक ग्रंथों यथा तंत्रों में प्राप्त अनुष्ठानों के द्वारा, भगवान् केशव कीपूजा करनी चाहिए।
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लब्ध्वानुग्रह आचार्योत्तिन सन्दर्शितागम: ।
महापुरुषमभ्यर्चेन्मूत्याभिमतयात्मन: ॥
४८ ॥
लब्ध्वा--प्राप्त करके; अनुग्रह:--कृपा; आचार्यात्--गुरु से; तेन--उसके द्वारा; सन्दर्शित--दिखाया जाकर; आगम:--वैष्णवतंत्रों ( द्वारा दी गई पूजा-विधि ); महा-पुरुषम्--परम पुरुष को; अभ्यर्चेत्ू-शिष्य को चाहिए कि पूजे; मूर्त्ता--विशेष साकाररूप में; अभिमतया--जिसे अच्छा समझा जाय; आत्मन:--अपने से।
शिष्य को वैदिक शास्त्रों के आदेश बतलाने वाले अपने गुरु की कृपा प्राप्त करके, उसेचाहिए कि वह भगवान् के अत्यन्त आकर्षक किसी विशिष्ट साकार रूप में, परमेश्वर की पूजाकरे।
"
शुचि: सम्मुखमासीन: प्राणसंयमनादिभि:ः ।
पिण्डं विशोध्य सन्न्यासकृतरक्षोर्चयेद्धरिम् ॥
४९॥
शुचिः--स्वच्छ; सम्मुखम्--( अर्चाविग्रह के ) समक्ष; आसीन:--बैठे हुए; प्राण-संयमन-आदिभि:-- प्राणायाम इत्यादिविधियों से; पिण्डम्--स्थूल शरीर; विशोध्य--शुद्ध करके ; सन््यास--शरीर के विभिन्न स्थानों पर तिलक लगाकर; कृत-रक्ष:--इस तरह भगवान् द्वारा सुरक्षा का आवाहन करके; अर्चयेत्--पूजे; हरिम्-- भगवान् हरि को |
अपने को स्वच्छ बनाकर, शरीर को प्राणायाम, भूत-शुद्धि तथा अन्य विधियों से शुद्धकरके एवं सुरक्षा के लिए शरीर में पवित्र तिलक लगाकर, अर्चाविग्रह के समक्ष बैठ जानाचाहिए और भगवान् की पूजा करनी चाहिए।
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अर्चादौ हृदये चापि यथालब्धोपचारकै: ।
द्रव्यक्षित्यात्मलिणगानि निष्पाद्य प्रोक्ष्य्चासनम् ॥
५०॥
पाद्यादीनुपकल्प्याथ सन्निधाप्य समाहित: ।
हृदादिभि: कृतन्यासो मूलमन्त्रेण चार्चयेत् ॥
५१॥
अर्चा-आदौ--अर्चाविग्रह तथा अपनी साज-सामग्री के रूप में; हृदये--हृदय में; च अपि-- भी; यथा-लब्ध--जो भी प्राप्त हो;उपचारकै:--पूजा की सामग्री से; द्रव्य--अर्पित की जाने वाली वस्तुएँ; क्षिति--पृथ्वी; आत्म--अपना मन; लिड्ञानि--तथाअर्चाविग्रह; निष्पाद्य--तैयार करके; प्रोक्ष्य--शुद्द्धि के लिए जल छिड़क कर; च--तथा; आसनम्--बैठने का आसन; पाद्य-आदीनू--अर्चाविग्रह का चरण धोने तथा अन्य कार्यों के लिए जल; उपकल्प्य--तैयार होकर; अथ--तब; सन्निधाप्य--अर्चाविग्रह को उचित स्थान पर रख कर; समाहितः--मन को एकाग्र करके; हत्ू-आदिभि:--अर्चाविग्रह के हृदय तथा अन्यअंगों में; कृत-न्यास:--पवित्र चिह्न बनाकर; मूल-मन्त्रेण--अर्चा विग्रह की पूजा के लिए उपयुक्त मंत्र से; च--तथा; अर्चयेत्--पूजा करे
भक्त को चाहिए कि अर्चाविग्रह की पूजा के लिए, जो भी वस्तुएँ उपलब्ध हों, उन्हें एकत्रकरे, भेंट सामग्री, भूमि, अपना मन तथा अर्चाविग्रह को तैयार करे, अपने बैठने के स्थान कोशुद्ध करने के लिए पानी छिड़के और फिर स्नान के लिए जल तथा अन्य साज-सामग्री तैयारकरे।
इसके बाद भक्त को चाहिए कि अर्चाविग्रह को शरीर से तथा अपने मन से उसके सही स्थान पर रखे, वह अपना ध्यान एकाग्र करे और अर्चाविग्रह के हृदय पर तथा शरीर के अन्यअंगों पर तिलक लगाये।
तब उपयुक्त मंत्र द्वारा पूजा करे।
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साझ़ेपाडुं सपार्षदां तां तां मूर्ति स्वमन्त्रतः ।
पाद्यार््याचमनीयाद्यै: स्नानवासोविभूषणै: ॥
५२॥
गन्धमाल्याक्षतस्त्रग्भिर्धूपदीपोपहारकै: ।
साड्ुम्सम्पूज्य विधिवत्स्तवै: स्तुत्वा नमेद्धरिम् ॥
५३॥
स-अड्गभ--उनके दिव्य शरीर के अंगों सहित; उपाड्भाम्--तथा उनके विशिष्ट शारीरिक स्वरूप यथा उनका सुदर्शन चक्र तथाअन्य हथियार; स-पार्षदाम्--अपने निजी संगियों सहित; ताम् तामू--उन उन; मूर्तिम्--अर्चाविग्रह; स्व-मन्त्रतः--अर्चा विग्रह केही मंत्र द्वारा; पाद्य--चरण धोने के जल से; अर्ध्य--सत्कार के लिए सुगंधित जल; आचमनीय--मुख धोने का जल; आद्यै:--इत्यादि से; स्नान--स्नान करने के लिए जल; वास:ः--उत्तम वस्त्र; विभूषणै:--गहनों से; गन््ध--सुगन्ध से; माल्य--गले काहार; अक्षत--चावल; स्त्रग्भिः--तथा फूलों की मालाओं से; धूप--धूप से; दीप--तथा दीपकों से; उपहारकै: --ऐसी भेंटें; स-अड्भम्--सभी तरह से; सम्पूज्य--अच्छी तरह पूज कर; विधिवत्--नियत विधानों के अनुसार; स्तवैः स्तुत्वा--स्तुतियों द्वाराअर्चाविग्रह का आदर करके; नमेत्--नमस्कार करे; हरिमू-- भगवान् को |
मनुष्य को चाहिए कि अर्चाविग्रह के दिव्य शरीर के प्रत्येक अंग के साथ साथ उनकेआयुधों यथा सुदर्शन चक्र उनके अन्य शारीरिक स्वरूपों तथा उनके निजी संगियों की पूजा करे।
वह भगवान् के इन दिव्य पक्षों में से हर एक की पूजा, उसके मंत्र तथा पाँव धोने के लिए जल,सुगन्धित जल, मुख धोने का जल, स्नान के लिए जल, उत्तम वस्त्र तथा आभूषण, सुगन्धिततेल, मूल्यवान हार, अक्षत, फूल-मालाओं, धूप तथा दीपों से करे।
इस तरह बताये गये विधानोंके अनुसार सभी तरह से पूजा करके मनुष्य को चाहिए कि भगवान् हरि के अर्चाविग्रह काआदर स्तुतियों से करे और झुक कर उन्हें नमस्कार करे।
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आत्मानम्तन्मयभ्ध्यायन्मूर्ति सम्पूजयेद्धरे: ।
शेषामाधाय शिरसा स्वधाम्युद्वास्य सत्कृतम् ॥
५४॥
आत्मानम्--स्वयं; ततू-- भगवान् में; मयम्--लीन; ध्यायन्-- ध्यान करते हुए; मूर्तिमू--साकार रूप; सम्पूजयेत्-- पूरी करहपूजे; हरेः-- भगवान् हरि का; शेषाम्--पूजा का जूठन; आधाय--लेकर; शिरसा--अपने सिर पर; स्व-धाम्नि--अपने स्थान में;उद्वास्य--रह कर; सत्-कृतम्--आदरपूर्वक ।
पूजा करने वाले को चाहिए कि अपने आपको भगवान् का नित्य दास मान कर ध्यान मेंपूर्णतया लीन हो जाय और इस तरह यह स्मरण करे कि अर्चाविग्रह उसके हृदय में भी स्थित है,अर्चाविग्रह की भलीभाँति पूजा करे।
तत्पश्चात्, उसे अर्चाविग्रह के साज-सामान यथा बची हुई'फूल-माला को अपने सिर पर धारण करे और आदरपूर्वक अर्चाविग्रह को उसके स्थान परवापस रख कर पूजा का समापन करे।
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एवमग्न्यर्कतोयादावतिथौ हृदये च यः ।
यजती श्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते हि सः ॥
५५॥
एवम्--इस तरह; अग्नि-- अग्नि; अर्क--सूर्य; तोय--जल; आदौ--इत्यादि में; अतिथौ --मेहमान में; हृदये--हृदय में; च--भी; यः--जो; यजति--पूजा करता है; ईश्वरमू--ई श्वर को; आत्मानम्--परमात्मा; अचिरातू--बिना विलम्ब किये; मुच्यते--छूट जाता है; हि--निस्सन्देह; सः--वह |
इस प्रकार भगवान् के पूजक को यह पहचान लेना चाहिए कि भगवान् सर्वव्यापक हैं औरउन्हें अग्नि, सूर्य, जल तथा अन्य तत्त्वों में, घर में आये अतिथि के हृदय में तथा अपने ही हृदय मेंउपस्थित जान कर उनकी पूजा करनी चाहिए।
इस प्रकार पूजक को तुरन्त ही मोक्ष प्राप्त होजायेगा।
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अध्याय चार: ड्रूमिला ने राजा निमि को ईश्वर के अवतारों के बारे में बताया
11.4श्रीराजोबाचयानि यानीह कर्माणि यैयैं: स्वच्छन्दजन्मभि: ।
चक्रे करोतिकर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवन्तु न: ॥
१॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; यानि यानि-- प्रत्येक; इह--इस जगत में; कर्माणि--कर्मों के ; यै: यैः -- प्रत्येक द्वारा;स्वच्छन्द--स्वतंत्र रूप से; जन्मभि:--प्राकट्यों के ; चक्रे--सम्पन्न किया; करोति--सम्पन्न करता है; कर्ता--सम्पन्न करेगा;वा--अथवा; हरि:ः-- भगवान् हरि; तानि--उन््हें; ब्रुवन्तु--कहें; नः--हमसे
राजा निमि ने कहा : भगवान् अपनी अनन््तरंगा शक्ति से तथा अपनी इच्छानुसार भौतिकजगत में अवतरित होते हैं।
अतएव आप हमें भगवान् हरि की उन विविध लीलाओं को बतलायें,जिन्हें उन्होंने भूतकाल में सम्पन्न किया, इस समय कर रहे हैं और अपने विविध अवतारों मेंभविष्य में सम्पन्न करेंगे।
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श्रीद्रुमिल उवाच यो वा अनन्तस्य गुनाननन्तानू्अनुक्रमिष्यन्स तु बालबुर्द्धि: ।
रजांसि भूमेर्गणयेत्कथज्ञित्कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्न: ॥
२॥
श्री-द्रुमिल: उवाच-- श्री द्रमिल ने कहा; यः--जो; बै--निस्सन्देह; अनन्तस्य-- असीम भगवान् के; गुरुणा--दिव्य गुणों को;अनन्तान्--असीम; अनुक्रमिष्यनू--वर्णन करने का प्रयास करते हुए; सः--वह; तु--निश्चय ही; बाल-बुद्धिः--बालकों जैसीबुद्धि वाला मनुष्य है; रजांसि--धूल के कण; भूमे:--पृथ्वी पर; गणयेत्--गिन सकता है; कथज्ञित्ू--किसी तरह; कालेन--समय के साथ; न एव--किन्तु नहीं; अखिल-शक्ति-धाम्न:--समस्त शक्तियों के आगार के ( गुणों )
श्री द्रमिल ने कहा : अनन्त भगवान् के अनन्त गुणों का वर्णन करने या गिनने का प्रयासकरने वाले व्यक्ति की बुद्धि मूर्ख बालक जैसी होती है।
भले ही कोई महान् प्रतिभाशाली व्यक्तिकिसी तरह से पृथ्वी की सतह के धूल-कणों की गिनती करने का समय-अपव्ययी प्रयास करले, किन्तु ऐसा व्यक्ति भगवान् के आकर्षक गुणों की गणना नहीं कर सकता, क्योंकि भगवान्समस्त शक्तियों के आगार हैं।
"
भूतैर्यदा पदञ्जनभिरात्मसूष्टे:पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन् ।
स्वांशेन विष्ट: पुरुषाभिधान-मवाप नारायण आदिदेव: ॥
३॥
भूतैः--तत्त्वों के द्वारा; यदा--जब; पञ्ञभि:--पाँच ( क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर ); आत्म-सूष्टैः --अपने से उत्पन्न;पुरम्ू--शरीर; विराजम्--सूक्ष्म रूप ब्रह्माण्ड की; विरचय्य--रचना करके; तस्मिनू--उसके भीतर; स्व-अंशेन--अपने अंश केद्वारा; विष्ट:--प्रवेश करते हुए; पुरुष-अभिधानम्-- पुरुष-नाम; अवाप-- धारण किया; नारायण:--नारायण; आदि-देव:ः--आदि भगवान् |
जब आदि भगवान् नारायण ने अपने में से उत्पन्न पाँच तत्त्वों से अपने विराट शरीर की रचनाकी और फिर अपने ही अंश से उस विराट शरीर में प्रविष्ट हो गये, तो वे पुरुष नाम से विख्यातहुए।
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यत्काय एष भुवनत्रयसन्निवेशोअस्येन्द्रियैस्तनु भूतामुभयेन्द्रियाणि ।
ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहासत्त्वादिभि: स्थितिलयोद्धव आदिकर्ता ॥
४॥
यतू-काये--जिनके शरीर के भीतर; एष:--यह; भुवन-त्रय--ब्रह्माण्ड के तीनों लोकों के; सन्निवेश: --विस्तृत व्यवस्था;यस्य--जिसकी; इन्द्रियैः--इन्द्रियों के द्वारा; तनु-भृताम्--देहधारी जीवों के; उभय-इन्द्रियाणि--दोनों प्रकार की ( ज्ञानार्जनकरने वाली तथा कर्म करने वाली ) इन्द्रियाँ; ज्ञानम्ू--ज्ञान; स्वतः--अपने से; श्वसनत:ः--उनके श्वास से; बलम्ू--शारीरिकबल; ओज:--इन्द्रियों की शक्ति; ईहा--कार्यकलाप; सत्त्व-आदिभि:--सतो, रजो तथा तमोगुणों द्वारा; स्थिति--पालन;लय--संहार; उद्धवे--तथा सृष्टि में; आदि-कर्ता--आदि कर्म करने वाला
उनके शरीर के भीतर इस ब्रह्माण्ड के तीनों लोक विस्तृत रूप से स्थित हैं।
उनकी दिव्यइन्द्रियाँ समस्त देहधारी जीवों की ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को उत्पन्न करती हैं।
उनकी चेतना सेबद्ध-ज्ञान उत्पन्न होता है और उनके प्रबल श्वास से देहधारी जीवों का शारीरिक बल, ऐन्द्रियशक्ति तथा बद्ध-कर्म उत्पन्न होते हैं।
वे सतो, रजो तथा तमोगुणों के माध्यम से आदि गति प्रदानकरने वाले हैं।
इस प्रकार ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन और संहार होता है।
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आदावभूच्छतधूती रजसास्य सर्गेविष्णु: स्थितौ क्रतुपतिद्विजधर्मसेतु: ।
रुद्रोउप्ययाय तमसा पुरुष: स आद्यइत्युद्धवस्थितिलया: सततं प्रजासु ॥
५॥
आदौ-- प्रारम्भ में; अभूत्ू--बना; शत-धृति:--ब्रह्मा; रजसा--रजोगुण से; अस्य--इस जगत का; सर्गे--सृष्टि में; विष्णु: --भगवान् विष्णु; स्थितौ--पालन में; क्रतु-पति:--यज्ञ का स्वामी; द्विज--द्विजन्मा ब्राह्मणों का; धर्म--धार्मिक कर्तव्यों का;सेतुः--रक्षक; रुद्र:--शिव; अप्ययाय--संहार हेतु; तमसा--तमोगुण द्वारा; पुरुष: --परम पुरुष; सः--वह; आद्य:--आदि;इति--इस प्रकार; उद्धव-स्थिति-लया:--सृजन, पालन तथा संहार; सततम्--सदैव; प्रजासु--उत्पन्न किये गये प्राणियों में से |
प्रारम्भ में आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के निमित्त रजोगुणके माध्यम से ब्रह्म का रूप प्रकट किया।
भगवान् ने ब्रह्माण्ड का पालन करने के लिए विष्णु-रूप में अपना स्वरूप प्रकट किया, जो यज्ञ का स्वामी है और द्विजन्मा ब्राह्मणों तथा उनकेधार्मिक कर्तव्यों का रक्षक है।
और जब ब्रह्माण्ड का संहार करना होता है, तो यही भगवान्तमोगुण का प्रयोग करते हुए अपना रुद्र-रूप प्रकट करते हैं।
इस तरह उत्पन्न किये गये जीवसदैव सृष्टि, पालन तथा संहार की शक्तियों के अधीन रहते हैं।
"
धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यानारायणो नर ऋषिप्रवर: प्रशान्तः ।
नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्मयोउद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेविताड्ध्रि: ॥
६॥
धर्मस्य--धर्म की ( पत्नी ); दक्ष-दुहितरि--दक्ष की पुत्री द्वारा; अजनिष्ट--उत्पन्न हुआ था; मूर्त्याम्--मूर्ति द्वारा; नारायण:नरः--नर-नारायण; ऋषि-प्रवर: --ऋषि श्रेष्ठ; प्रशान्तः--अत्यन्त शान्त; नैष्कर्म्प-लक्षणम्-- समस्त भौतिक कर्म की समाप्तिके लक्षण से युक्त; उबाच--कहा; चचार--तथा सम्पन्न किया; कर्म--कर्तव्य; य:--जो; अद्य अपि--आज भी; च--भी;आस्ते--जीवित है; ऋषि-वर्य-- श्रेष्ठ ऋषियों द्वारा; निषेवित--सेवा किया जाकर; अड्धूप्रि:--पाँव |
परम शान्त तथा ऋषियों में श्रेष्ठ नर-नारायण ऋषि का जन्म धर्म तथा उनकी पत्ली दक्षपुत्रीमुर्ति के पुत्र के रूप में हुआ था।
नर-नारायण ऋषि ने भगवद्भक्ति की शिक्षा दी, जिससेभौतिक कर्म का अन्त हो जाता है और उन्होंने स्वयं इस ज्ञान का पूरी तरह से अभ्यास किया।
वेआज भी जीवित हैं और उनके चरणकमलों की सेवा बड़े बड़े सन्त-पुरुषों द्वारा की जाती है।
"
इन्द्रो विशड्क्य मम धाम जिधघृक्षतीतिकाम न्ययुड्भ सगणं स बदर्युपाख्यम् ।
गत्वाप्सरोगणवसन्तसुमन्दवातै:स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यद्तन्महिज्ञ: ॥
७॥
इन्द्र:--इन्द्र; विशडक्य--डर कर; मम--मेरा; धाम--राज्य; जिघृक्षति--निगल जाना चाहता है; इति--इस प्रकार सोच कर;'कामम्--कामदेव को; न्ययुड्डू --लगाया; स-गणम्--उसके संगियों समेत; सः--उस ( कामदेव ) ने; बदरी-उपाख्यम्--बदरिकाश्रम तक; गत्वा--जाकर; अप्सर:-गण--अप्सराओं के साथ; वसनन््त--वसन्न्त ऋतु; सु-मन्द-वातैः--तथा मन्द वायु से;स्त्री-प्रेश्षण--स्त्रियों की चितवनों से ( बने ); इषुभि:--तीरों से; अविध्यत्--बींधने का प्रयास किया; अतत्-महि-ज्ञ:--उनकीमहानता को न जानते हुए
यह सोच कर कि नर-नारायण ऋषि अपनी कठिन तपस्या से अत्यन्त शक्तिशाली बन करउसका स्वर्ग का राज्य छीन लेंगे, राजा इन्द्र भभभीत हो उठा।
इस तरह भगवान् के अवतार कीदिव्य महिमा को न जानते हुए इन्द्र ने कामदेव तथा उसके संगियों को भगवान् के आवासबदरिकाश्रम भेजा।
जब वसन््त ऋतु की मनोहारी मन्द वायु ने अत्यन्त कामुक वातावरण उत्पन्नकर दिया, तो स्वयं कामदेव ने सुन्दर स्त्रियों की बाँकी चितवनों के तीरों से भगवान् परआक्रमण किया।
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विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेव:प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान् ।
मा भेर्विभो मदन मारुत देववध्वोगृह्वीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम् ॥
८॥
विज्ञाय--जान कर; शक्र--३न्द्र द्वारा; कृतमू--किया गया; अक्रमम्--अपराध; आदि-देव:--आदि भगवान्; प्राह--बोले;प्रहस्थ--हँस कर; गत-विस्मय:--गर्व से रहित; एजमानान्-- थरथरा रहे; मा भैः--मत डरो; विभो--हे सर्वशक्तिमान; मदन--कामदेव; मारुत--हे वायु-देव; देव-वध्व:--हे देवताओं की पत्नियो; गृह्ीत--स्वीकार करो; नः--हमसे; बलिम्--ये उपहार;अशून्यम्ू--रिक्त नहीं; इमम्--इस ( आश्रम ) को; कुरुध्वम्--बनाइये |
इन्द्र द्वारा किये गये अपराध को समझते हुए आदि भगवान् गर्वित नहीं हुए।
अपितु कामदेवतथा कँपकँपा रहे उसके साथियों से वे हँसते हुए इस प्रकार बोले, 'हे शक्तिशाली मदन, हेवायु-देव तथा देवताओं की पत्नियो, डरो नहीं।
कृपया मेरे द्वारा दी जाने वाली भेंटें स्वीकारकरो और अपनी उपस्थिति से मेरे आश्रम को पवित्र बनाओ।
'!" इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवा:सब्रीडनप्रशिरस: सघृणं तमूचु: ।
नैतद्विभो त्वयि परेउविकृते विचित्रस्वारामधीरनिकरानतपादपदो ॥
९॥
इत्थम्--इस तरह से; ब्रुवति--बोल चुकने पर; अभय-दे--अभय प्रदान करने वाला; नर-देव--हे राजा ( निमि ); देवा: --देवतागण ( कामदेव तथा उसके साथी ); स-ब्रीड--लज्जावश; नप्र--झुके हुए; शिरस:ः-- अपने सिरों से; स-घृणम्--दया कीभीख माँगते; तमू-- उससे; ऊचु:--बोले; न--नहीं; एतत्--यह; विभो--हे सर्वशक्तिमान; त्वयि--तुम्हारे लिए; परे--परम;अविकृते--अपरिवर्तित; विचित्रम्--विस्मयकारी; स्व-आराम--आत्मतुष्ट; धीर--तथा गम्भीर मन वाले; निकर--समूह द्वारा;आनत--झुकाया गया; पाद-पद्मे--चरणकमलों पर
हे राजा निमि, जब नर-नारायण ऋषि ने देवताओं के भय को दूर करते हुए इस प्रकारकहा, तो उन्होंने लज्जा से अपने सिर झुका लिये और भगवान् से दया की भीख माँगते हुए इसप्रकार बोले, 'हे प्रभु, आप सदैव दिव्य हैं, मोह की पहुँच से परे हैं, अतएव आप नित्यअविकारी हैं।
हमारे महान् अपराध के बावजूद आपकी अहैतुकी कृपा आपमें कोई असामान्यघटना नहीं है, क्योंकि असंख्य आत्माराम तथा क्रोध और मिथ्या अहंकार से मुक्त मुनिजनआपके चरणकमलों पर विनयपूर्वक अपना शीश झूुकाते हैं।
"
त्वां सेवतां सुरकृता बहवोउन्तराया:स्वौको विलड्घ्य परम॑ ब्रजतां पदं ते ।
नान्यस्य बर्हिषि बलीन्ददतः स्वभागान्धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि ॥
१०॥
त्वाम--तुम; सेवताम्--सेवा करने वालों को; सुर-कृताः:--देवताओं द्वारा बनाये गये; बहवः--अनेक; अन्तराया:--उत्पात;स्व-ओकः:--अपने ही धाम ( देव-लोक ); विलड्घ्य--पार करके; परमम्--परम; ब्रजताम्--जाने वाले; पदम्-- धाम को;ते--तुम्हारे; न--ऐसे नहीं हैं; अन्यस्य--दूसरों के; बर्हिषि--यज्ञों में; बलीन्-- भेंटें; ददतः--देने वाले के लिए; स्व-भागानू--अपने अपने हिस्सों को; धत्ते--( भक्तों के ) स्थान; पदम्--पाँव; त्वम्--तुम; अविता--रक्षक; यदि--इसलिए; विघ्त--बाधाके; मूर्धिनि--सिर पर |
देवतागण उन लोगों के मार्ग में अनेक अवरोध प्रस्तुत करते हैं, जो देवताओं के अस्थायीआवासों को लाँघ कर, आपके परम धाम पहुँचने के लिए आपकी पूजा करते हैं।
वे लोग, जोयज्ञों में देवताओं को उनका नियत भाग भेंट में दे देते हैं, ऐसे किसी अवरोध का सामना नहींकरते।
किन्तु क्योंकि आप अपने भक्त के प्रत्यक्ष रक्षक हैं, अतएव वह उन सभी अवरोधों को,जो उसके सामने देवताओं द्वारा रखे जाते हैं, लाँघ जाने में समर्थ होता है।
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क्षुत्तटित्रकालगुणमारुतजैह्कशैष्णा-नस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित् ।
क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गो-म॑ज्जन्ति दुश्चवरतपश्च वृथोत्सूजन्ति ॥
११॥
क्षुतू-- भूख; तृदू--प्यास; त्रि-काल-गुण--काल की तीन अवस्थाओं की अभिव्यक्ति ( यथा गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि );मारुत--हवा; जैह--जीभ का भोग; शैष्णान्--तथा शिश्न के; अस्मान्ू--हम; अपार--असंख्य; जल-धीन्--समुद्र;अतितीर्य--पार करके; केचित्--कुछ मनुष्य; क्रोधस्य--क्रो ध का; यान्ति--प्राप्त करते हैं; विफलस्य--जो कि व्यर्थ है;वशम्--वेग को; पदे--पाँव या खुर ( के चिह्न ) में; गोः--गाय के; मज्जन्ति--डूब जाते हैं; दुश्चर--कर पाना कठिन; तपः--तपस्या; च--तथा; वृथा--व्यर्थ; उत्सृजन्ति--वे फेंक देते हैं
कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो हमारे प्रभाव को लाँघने के उद्देश्य से कठिन तपस्या करते हैं, जोभूख, प्यास, गर्मी, सर्दी तथा कालजनित अन्य परिस्थितियों यथा रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय केवेगों की अन्तहीन लहरों से युक्त अगाध समुद्र की तरह है।
इस तरह कठिन तपस्या के द्वाराइन्द्रिय-तृप्ति के इस समुद्र को पार कर लेने पर भी, ऐसे व्यक्ति व्यर्थ के क्रोध के वशीभूत होने पर मूर्खता से गो-खुर में डूब जाते हैं।
इस तरह वे अपनी कठिन तपस्या के लाभ को व्यर्थ गँवाबैठते हैं।
"
इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियोउत्यद्भुतदर्शना: ।
दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिता: कुर्वतीर्विभु: ॥
१२॥
इति--इस प्रकार; प्रगूणताम्--प्रशंसा कर रहे; तेषामू--उनकी उपस्थिति में; स्त्रियः--स्त्रियाँ; अति-अद्भुत-- अत्यन्त विचित्र;दर्शना:--देखने में; दर्शयाम् आस--दिखलाया; शुश्रूषाम्ू--आदरपूर्ण सेवा; सु-अर्चिता:--अच्छी तरह से अलंकृत;कुर्वती:--करते हुए; विभु:--सर्वशक्तिमान ईश्वर
जब देवतागण इस तरह से भगवान् की प्रशंसा कर रहे थे, तो सर्वशक्तिमान प्रभु ने सहसाउनकी आँखों के सामने अनेक स्त्रियाँ प्रकट कर दीं, जो आश्चर्यजनक ढंग से भव्य लगती थींऔर सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से सज्जित थीं और भगवान् की सेवा में लगी हुई थीं।
"
ते देवानुचरा हृष्ठा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणी: ।
गन्धेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतरिय: ॥
१३॥
ते--वे; देव-अनुचरा:--देवताओं के अनुयायी; हृष्ला--देख कर; स्त्रियः:--इन स्त्रियों को; श्री:--लक्ष्मी देवी; इब--मानो;रूपिणी:--साक्षात्; गन्धेन--सुगन्ध से; मुमुहुः--मोहित हो गये; तासाम्--उन स्त्रियों के; रूप--सौन्दर्य के; औदार्य--भव्यतासे; हत--विनष्ट; अ्रिय:--उनका एऐश्वर्य |
जब देवताओं के अनुयायियों ने नर-नारायण ऋषि द्वारा उत्पन्न स्त्रियों के मोहक सौन्दर्य कीओर निहारा और उनके शरीरों की सुगन्ध को सूँघा तो उनके मन मुग्ध हो गये।
निस्सन्देह ऐसीस्त्रियों के सौन्दर्य तथा उनकी भव्यता को देख कर देवताओं के अनुयायी अपने ऐश्वर्य को तुच्छसमझने लगे।
"
तानाह देवदेवेश: प्रणतान्प्रहसन्निव ।
आसामेकततमां वृड्ध्वं सवर्णा स्वर्गभूषणाम् ॥
१४॥
तानू-- उनसे; आह--कहा; देव-देव-ईश: --समस्त देवताओं के परमेश्वर; प्रणतान्--जिन्होंने उनके समक्ष शीश झुकाया था;प्रहसन् इब--मानो हँस रहे हों; आसाम्--इन स्त्रियों के; एकतमाम्--एक; वृड्ध्वमू--चुन लीजिये; स-वर्णाम्--उपयुक्त;स्वर्ग--स्वर्ग का; भूषणाम्ू--आभूषण |
तब देवों के परमेश्वर किंचित मुसकाये और अपने समक्ष नतमस्तक स्वर्ग के प्रतिनिधियों सेकहा, 'तुम इन स्त्रियों में से जिस किसी को भी अपने उपयुक्त समझो, उसे चुन लो।
वहस्वर्गलोक की आभूषण ( शोभा बढ़ाने वाली ) बन जायेगी।
"
ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुरवन्दिन: ।
उर्वशीमप्सर: श्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययु: ॥
१५॥
ओम इति--स्वीकृति सूचक ३४ का उच्चारण करके; आदेशम्--उनका आदेश; आदाय--लेकर; नत्वा--नमस्कार करके;तम्--उसको; सुर--देवताओं के; वन्दिन:--उन सेवकों ने; उर्वशीम्--उर्वशी को; अप्सरः - श्रेष्ठामू--अप्सराओं में सर्वश्रेष्ठ;पुरः-कृत्य--आदरबश आगे करके; दिवम्--स्वर्ग; ययु;:--लौट गये।
देवताओं के उन सेवकों ने ३» शब्द का उच्चारण करते हुए अप्सराओं में सर्वोत्कृष्ट उर्वशीको चुन लिया।
वे आदरपूर्वक उसे आगे करके स्वर्गलोक लौट गए।
"
इन्द्रायानम्य सदसि श्रुण्वतां त्रिदिवौकसाम् ।
ऊचुर्नारायणबलं शक्रस्तत्रास विस्मित: ॥
१६॥
इन्द्राय--इन्ध को; आनम्य--झुक कर; सदसि--सभा में; श्रुण्वताम्--सुनने में व्यस्त; त्रि-दिव--तीनों स्वर्ग; ओकसाम्--जिनके निवासी; ऊचु:--उन्होंने कहा; नारायण-बलम्-- भगवान् नारायण के बल के बारे में; शक्रः--इन्द्र; तत्र--उस पर;आस--हुआ; विस्मित:--चकित।
देवताओं के सेवक इन्द्र-सभा में जा पहुँचे और तीनों स्वर्गों के निवासियों के सुनते सुनतेउन्होंने इन्द्र से नारायण के परम बल के बारे में बतलाया।
जब इन्द्र ने नर-नारायण ऋषि के बारेमें सुना और अपने अपराध के विषय में अवगत हुआ, तो वह डरा और चकित भी हुआ।
"
हंसस्वरूप्यवददच्युत आत्मयोगंदत्त: कुमार ऋषभो भगवान्पिता न: ।
विष्णु: शिवाय जगतां कलयावतिर्ण-स्तेनाहता मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये ॥
१७॥
हंस-स्वरूपी--हंस-अवतार का अपना नित्य स्वरूप धारण किये; अवदत्--बोले; अच्युत:--अच्युत भगवान्; आत्म-योगम्--आत्म-साक्षात्कार; दत्त:--दत्तात्रेय; कुमार:--सनक इत्यादि कुमारगण; ऋषभ:--ऋषभदेव; भगवान्-- भगवान्; पिता--पिता; न:--हमारा; विष्णु: -- भगवान् विष्णु; शिवाय--कल्याण हेतु; जगताम्--सारे जगत के; कलया--अपने गौण अंशोंद्वारा, कलाओं द्वारा; अवतीर्ण:--इस जगत में अवतरित होकर; तेन--उसके द्वारा; आहता:--( पाताल-लोक से ) वापस लायेगये; मधु-भिदा--मधु असुर के मारने वाले के द्वारा; श्रुतप:ः--वेदों के मूल ग्रंथ; हय-आस्ये--घोड़े के सिर वाले अवतार में ।
अच्युत भगवान् विष्णु इस जगत में अपने विविध आंशिक अवतारों के रूप में अवतरित हुएहैं यथा हंस, दत्तात्रेय, चारों कुमार तथा हमारे अपने पिता, महान् ऋषभदेव।
ऐसे अवतारों केद्वारा भगवान् सारे ब्रह्माण्ड के लाभ हेतु आत्म-साक्षात्कार का विज्ञान पढ़ाते हैं।
उन्होंने हयग्रीवके रूप में प्रकट होकर मधु असुर का वध किया और इस तरह वे पाताल-लोक से वेदों कोवापस लाये।
"
गुप्तोउप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्येक्रौडे हतो दितिज उद्धरताम्भस: क्ष्माम् ।
कौर्मे धृतोद्विस्मृतोन्मथने स्वपृष्टेग्राहात्प्रपन्नमिभराजममुझ्नदार्तम् ॥
१८॥
गुप्त:--रक्षित; अप्यये--प्रलय के समय; मनु:--वैवस्वत मनु; इला--पृथ्वी-लोक; ओषधय:--वनस्पतियाँ; च--तथा;मात्स्ये--अपने मत्स्य अवतार में; क़ौडे--वराह अवतार में; हतः--मारा गया; दिति-ज:--दिति-पुत्र हिरण्याक्ष; उद्धरता--उद्धारकर्ता द्वारा; अम्भस:--जल से; क्ष्मामू--पृथ्वी को; कौमें--कच्छप के रूप में; धृत:-- धारण किया हुआ; अद्वि:--पर्वत( मन्दर ); अमृत-उन्मथने--जब अमृत मन्थन हो रहा था ( असुरों तथा देवों द्वारा एक साथ ); स्व-पृष्ठे--अपनी पीठ पर;ग्राहातू-ग्राह या घड़ियाल से; प्रपन्नम्ू--शरणागत; इभ-राजम्--गजेन्द्र; अमुञ्जञत्ू--छुड़ाया; आर्तमू-पीड़ित |
मत्स्य अवतार में भगवान् ने सत्यव्रत मनु, पृथ्वी तथा उसकी मूल्यवान औषधियों की रक्षाकी।
उन्होंने प्रलय-जल से उनकी रक्षा की।
सूकर के रूप में भगवान् ने दिति-पुत्र हिरण्याक्ष कावध किया और ब्रह्माण्ड-जल से पृथ्वी का उद्धार किया।
कच्छप-रूप में उन्होंने अपनी पीठ परमन्दर पर्वत को उठा लिया, जिससे समुद्र को मथ कर अमृत निकाला जा सके।
भगवान् नेशरणागत गजेन्द्र को बचाया, जो घड़ियाल के चँगुल में भीषण यातना पा रहा था।
"
संस्तुन्ब॒तो निपतितान्श्रमणानृषी श्रशक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम् ।
देवस्त्रियोसुरगृहे पिहिता अनाथाजघ्नेसुरेन्द्रभभयाय सतां नृसिंहे ॥
१९॥
संस्तुन्व॒तः --स्तुति कर रहे; निपतितान्ू--( गो-खुर के जल में ) गिरे हुए; श्रमणान्--साधुओं को; ऋषीन्--ऋषियों( वालखिल्यों ) को; च--तथा; शक्रम्--इन्द्र को; च--तथा; बृत्र-बधत:--वृत्रासुर के वध से; तमसि--अंधकार में;प्रविष्टमू--लीन; देव-स्त्रियः:--देव-पत्नियाँ; असुर-गृहे--असुर के महल में; पिहिता:--बन्दी बनाई गई; अनाथा: --असहाय;जघ्ने--मार डाला; असुर-इन्द्रमू--असुरों के राजा, हिरण्यकशिपु को; अभयाय--अभयदान के निमित्त; सतामू--सन्त-भक्तोंको; नृसिंहे--नूसिंह-अवतार में
भगवान् ने वालखिल्य नामक लघु-रूप मुनियों का भी उद्धार किया, जब वे गो-खुर-जलमें गिर गये थे और इन्द्र उन पर हँस रहा था।
तत्पश्चात्, भगवान् ने इन्द्र को भी बचाया, जोवृत्रासुर-वध के पापकर्म के फलस्वरूप अंधकार से प्रच्छन्न था।
जब देव-पत्नियाँ असुरों केमहल में असहाय होकर बन्दी बनाई गई थीं, तो भगवान् ने ही उन्हें बचाया।
अपने नृसिंह-अवतार में भगवान् ने अपने सन्त-भक्तों का भय दूर करने के लिए असुरराज हिरण्यकशिपु कावध किया था।
"
देवासुरे युधि च दैत्यपतीन्सुरार्थिहत्वान्तरेषु भुवनान्यद्धात्कलाभिः ।
भूत्वाथ वामन इमामहरद्वले: क्ष्मांयाच्ञाच्छलेन समदाददिते: सुतेभ्य; ॥
२०॥
देव-असुरे--देवताओं तथा असुरों के; युधि--युद्ध में; च--तथा; दैत्य-पतीन्-- असुरों-नायकों को; सुर-अर्थे--देवताओं केहेतु; हत्वा--मार कर; अन्तरेषु --प्रत्येक मन्वन्तर में; भुवनानि--सारे लोकों में; अदधात्--रक्षा की; कलाभि:--विविधकलाओं द्वारा; भूत्वा--बन कर; अथ--और भी; वामन:--बौने ब्राह्मण बालक के रूप में अवतार; इमाम्--यह; अहरत्ू--लेलिया; बलेः--बलि महाराज से; क्ष्माम्-पृथ्वी; याच्ञा-छलेन--दान माँगने के बहाने; समदात्--दिया; अदितेः--अदिति के;सुतेभ्य:--पुत्रों ( देवताओं ) को |
भगवान् देवताओं तथा असुरों के बीच होने वाले युद्धों का लाभ निरन्तर असुरों-नायकों कोमारने के लिए उठाते हैं।
इस प्रकार भगवान् प्रत्येक मन्वन्तर में अपने विभिन्न अवतारों के माध्यमसे ब्रह्माण्ड की रक्षा करके देवताओं को प्रोत्साहित करते हैं।
भगवान् वामन के रूप में भी प्रकटहुए और तीन पग भूमि माँगने के बहाने बलि महाराज से पृथ्वी ले ली।
तत्पश्चात्, भगवान् नेअदिति-पुत्रों को सारा जगत वापस कर दिया।
"
निःक्षत्रियामकृत गां च त्रिःसप्तकृत्वोरामस्तु हैहयकुलाप्ययभार्गवाग्नि: ।
सोउब्धि बबन्ध दशवक्त्रमहन्सलड़ूंसीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीऋति: ॥
२१॥
निःक्षत्रियाम्--क्षत्रियविहीन; अकृत--बना दिया; गाम्--पृथ्वी को; च--तथा; त्रि:-सप्त-कृत्व: --इक्कीस बार; राम:--परशुराम ने; तु--निस्सन्देह; हैहय-कुल--हैहयवंश के; अप्यय--विनाश; भार्गव-- भूगुवंशी; अग्निः-- अग्नि; सः--वह;अब्धिम्--सागर; बबन्ध--अपने अधीन कर लिया; दश-वक्त्रमू--दस सिर वाले रावण को; अहनू--मार डाला; स-लड्ढम्--अपने राज्य लंका के सैनिकों समेत; सीता-पति:--सीता के पति भगवान् रामचन्द्र; जयति--सदैव विजयी होते हैं; लोक--सम्पूर्ण जगत के; मल--कल्मष; घ्न--नष्ट करने वाला; कीर्ति:--जिनके यश का वर्णन करने के कारण |
परशुराम का जन्म भृगुवंश में अग्नि के रूप में हुआ, जिसने हैहय कुल को जलाकर भस्मकर दिया।
इस प्रकार भगवान् परशुराम ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से विहीन कर दिया।
वही भगवान् सीतादेवी के पति रामचन्द्र के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने दस सिरों वाले रावणको लंका के सारे सैनिकों समेत मारा।
वे श्रीराम जिनकी कीर्ति संसार के कल्मष को नष्ट करतीहै सदैव विजयी हों!" भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्माजात: करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि ।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोतदर्हान्शूद्रान्कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते ॥
२२॥
भूमे: -- पृथ्वी का; भर-- भार; अवतरणाय--उतारने के लिए; यदुषु--यदुवंश में; अजन्मा--अजन्मा भगवान्; जात:--जन्मलेकर; करिष्यति--करेंगे; सुरैः--देवताओं द्वारा; अपि-- भी; दुष्कराणि-- कठिन कर्म; वादैः --तर्को द्वारा; विमोहयति--मोहित करेंगे; यज्ञ-कृतः--वैदिक यज्ञों के कर्ता; अतत्-अर्हानू--जो इस तरह लगे रहने के योग्य नहीं हैं; शूद्रान्--शूद्रों को;कलौ--कलियुग में; क्षिति-भुज:--शासक; न्यहनिष्यत्--वध करेगा; अन्ते--अन्त में |
पृथ्वी का भार उतारने के लिए अजन्मा भगवान् यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे कर्म करेंगे,जो देवताओं के लिए भी कर पाना असम्भव है।
वे बुद्ध के रूप में तर्कदर्शन की स्थापना करतेहुए अयोग्य वैदिक यज्ञकर्ताओं को मोहित करेंगे।
और कल्कि के रूप में वे कलियुग के अन्त मेंअपने को शासक बतलाने वाले सारे निम्न श्रेणी के लोगों का वध करेंगे।
"
एवंविधानि जन्मानि कर्माणि च जगत्पते: ।
भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज ॥
२३॥
एवम्-विधानि--इस तरह के; जन्मानि--जन्म; कर्माणि--कर्म; च--तथा; जगत्-पते: --ब्रह्माण्ड के स्वामी के; भूरीणि--असंख्य; भूरि-यशसः--अत्यन्त यशस्वी; वर्णितानि--वर्णित; महा-भुज--हे बलशाली राजा निमि।
हे महाबाहु राजा, ब्रह्माण्ड के स्वामी भगवान् के ऐसे जन्म तथा कर्म असंख्य हैं, जिस तरहकि मैं वर्णन कर चुका हूँ।
वस्तुतः भगवान् की कीर्ति अनन्त है।
"
अध्याय पाँच: नारद ने वासुदेव को अपनी शिक्षाएँ समाप्त कीं
11.5श्रीराजोबाचभगवत्तं हरिं प्रायो न भजन्त्यात्मवित्तमा:।
तेषामशान्तकामानां क निष्ठाविजितात्मनाम् ॥
१॥
श्री-राजा उवाच--राजा निमि ने पूछा; भगवन्तम्-- भगवान्; हरिम्--हरि को; प्राय:-- अधिकांशतया; न--नहीं; भजन्ति--'पूजते हैं; आत्म-वित्तमा:--आत्मा के विज्ञान के विषय में आप सभी पूर्ण हैं; तेषाम्ू--उनके; अशान्त--अतृप्त; कामानाम्--भौतिक इच्छाओं के; का--क्या; निष्ठा--गन्तव्य; अविजित--वश में न कर सकने वाले; आत्मनाम्--अपनी |
राजा निमि ने आगे पूछा : हे योगेन्द्रो, आप सभी लोग आत्म-विज्ञान में परम दक्ष हैं, अतएवमुझे उन लोगों का गन्तव्य बतलाइये, जो प्रायः भगवान् हरि की पूजा नहीं करते, जो अपनीभौतिक इच्छाओं की प्यास नहीं बुझा पाते तथा जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाते ।
"
श्रीचमस उवाचमुखबाहूरुपादेभ्य: पुरुषस्या श्रमै: सह ।
चत्वारो जकज्षिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक् ॥
२॥
श्री-चमस: उवाच-- श्री चमस ने कहा; मुख--मुख; बाहु-- भुजाएँ; ऊरु--जाँघें; पादेभ्य:--पाँवों से; पुरुषस्य--परमे श्वर के;आश्रमैः--चारों आश्रम; सह--सहित; चत्वार: --चार; जज्ञिरि-- उत्पन्न हुए थे; वर्णा:--जातियाँ; गुणैः--गुणों से; विप्र-आदय:--ब्राह्मण इत्यादि; पृथक्--विविध |
श्री चमस ने कहा : ब्राह्मण से शुरु होने वाले चारों वर्ण प्रकृति के गुणों के विभिन्न संयोगोंसे भगवान् के विराट रूप के मुख, बाहु, जाँघ तथा पाँव से उत्पन्न हुए।
इसी तरह चारआध्यात्मिक आश्रम भी उत्पन्न हुए।
"
य एपां पुरुष साक्षादात्मप्रभवमी ध्वरम् ।
न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्भ्रष्टाः पतन्त्यध: ॥
३॥
यः--जो; एषाम्ू--उनके ; पुरुषं--परमे श्वर को; साक्षात्-- प्रत्यक्षतः; आत्म-प्रभवम्-- अपनी उत्पत्ति के स्त्रोत; ईश्वरमू--परमनियन्ता; न--नहीं; भजन्ति--पूजते हैं; अवजानन्ति--अनादर करते हैं; स्थानातू--अपने पद से; भ्रष्टाः--पतित; पतन्ति--गिरतेहैं; अध:--नीचे |
यदि चारों वर्णों तथा चारों आश्रमों का कोई भी सदस्य उनकी अपनी उत्पत्ति के स्त्रोतभगवान् की पूजा नहीं करता या जान-बूझकर भगवान् का अनादर करता है, तो वे सभी अपनेपद से गिर कर नारकीय दशा को प्राप्त होंगे।
"
दूरे हरिकथाः केचिद्ूरे चाच्युतकीर्तना: ।
स्त्रियः शूद्रादयश्चेव तेडनुकम्प्पा भवाहशाम् ॥
४॥
दूरे--बहुत दूर; हन्ू-कथा:--भगवान् हरि की बातों से; केचित्ू--कई लोग; दूरे--काफी दूर; च--तथा; अच्युत--त्रुटिरहित;कीर्तना:--कीर्ति; स्त्रिय:ः--स्त्रियाँ; शूद्र-आदय:--शूद्र तथा अन्य पतित जातियाँ; च--तथा; एव--निस्सन्देह; ते--वे;अनुकम्प्या:--अनुग्रह के पात्र हैं; भवादशाम्--आप जैसे व्यक्तियों के |
ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्हें भगवान् हरि विषयक वार्ताओं में भाग लेने का बहुत ही कमअवसर मिल पाता है, जिसके कारण भगवान् की अच्युत कीर्ति का कीर्तन कर पाना उनके लिएकठिन होता है।
स्त्रियाँ, शूद्र तथा अन्य पतित जाति के व्यक्ति, सदा ही आप जैसे महापुरुषों कीकृषा के पात्र हैं।
"
विप्रो राजन्यवैश्यौ वा हरे: प्राप्ता: पदान्तिकम् ।
श्रौतेन जन्मनाथापि मुहान्त्याम्नायवादिन: ॥
५॥
विप्र:--ब्राह्मण; राजन्य-वैश्यौ--राजसी वर्ग तथा वैश्य लोग; वा--अथवा; हरेः--हरि के; प्राप्ताः--निकट जाने की अनुमतिदिये जाने पर; पद-अन्तिकम्--चरणकमलों के पास; श्रौतेन जन्मना--वैदिक दीक्षा का द्वितीय जन्म प्राप्त कर चुकने पर;अथ--त्पश्चात्; अपि--भी; मुहान्ति--मुग्ध हो जाते हैं; आम्नाय-वादिन:--अनेक दर्शनों को स्वीकार करते हुए।
दूसरी ओर ब्राह्मण, राजसी वर्ग के लोग तथा वैश्यजन वैदिक दीक्षा द्वारा द्वितीय जन्म प्राप्तकरके (द्विज ) भगवान् हरि के चरणकमलों के निकट जाने की अनुमति दिये जाने पर भीमोहित हो सकते हैं और विविध भौतिकतावादी दर्शन ग्रहण कर सकते हैं।
"
कर्मण्यकोविदा: स्तब्धा मूर्खा: पण्डितमानिन: ।
वदन्ति चाटुकान्मूढा यया माध्व्या गिरोत्सुका: ॥
६॥
कर्मणि--सकाम कर्म के तथ्यों के बारे में; अकोविदा: --अज्ञान; स्तब्धा:--मिथ्या अहंकार से गर्वित; मूर्खा:--मूर्ख; पण्डित-मानिन:--अपने को विद्वान समझते हुए; वदन्ति--बोलते हैं; चाटुकान्ू--चाटुकार; मूढा:--मुग्ध, मोहग्रस्त; यया--जिससे;माध्व्या--मधुर; गिरा--शब्द; उत्सुका:--अत्यन्त उत्सुक |
कर्मकला से अनजान, वेदों के मधुर शब्दों से मोहित तथा जागृत ऐसे उद्ध॒त गर्वित मूर्खजनअपने को विद्वान होने का ढोंग रचते हैं और देवताओं की चाटुकारिता करते हैं।
"
रजसा घोरसड्डूल्पाः कामुका अहिमन्यव: ।
दाम्भिका मानिन: पापा विहसन्त्यच्युतप्रियान् ॥
७॥
रजसा--रजोगुण की प्रधानता से; घोर-सड्जूल्पा:--उग्र इच्छाओं वाले; कामुका:--विषयी; अहि-मन्यव:--सर्प जैसा क्रोधकरने वाले; दाम्भिका:--बनावटी; मानिन:--अत्यधिक गर्वीले; पापा:--पापी; विहसन्ति--हँसी उड़ाते हैं; अच्युत-प्रियान्--अच्युत भगवान् के प्रियजनों का।
रजोगुण के प्रभाव के कारण वेदों के भौतिकतावादी अनुयायी उग्र इच्छाओं के वशीभूतहोकर अत्यधिक कामुक बन जाते हैं।
उनका क्रोध सर्प जैसा होता है।
वे चालबाज, अत्यधिकगर्वीले तथा आचरण में पापपूर्ण होने से भगवान् अच्युत के भक्तों की हँसी उड़ाते हैं।
"
वबदन्ति तेउन्योन्यमुपासितस्त्रियोगृहेषु मैथुन्यपरेषु चाशिष: ।
यजन्त्यसूष्टान्नविधानदक्षिणंवृत्त्यै परं घ्नन्ति पशूनतद्विद: ॥
८॥
वदन्ति--बोलते हैं; ते--वे; अन्योन्यम्--एक-दूसरे से; उपासित-स्त्रिय: --स्त्री-पूजा में व्यस्त रहने वाले; गृहेषु-- अपने घरों में;मैथुन्य-परेषु--एकमात्र संभोग में लीन रहने वाले; च--तथा; आशिष:ः--आशीर्वाद, वर; यजन्ति--पूजा करते हैं; असृष्ट--बिना सम्पन्न किये; अन्न-विधान-- भोजन-वितरण; दक्षिणम्--पुरोहितों को दिया जाने वाला दान, दक्षिणा; वृत्त्यै--अपनीजीविका के लिए; परम्ू--एकमात्र; घ्नन्ति--हत्या करते हैं; पशूनू--पशुओं को; अतत्-विद:--ऐसे आचरण के परिणामों सेअनभिज्ञ
वैदिक विधानों के भौतिकतावादी अनुयायी भगवान् की पूजा का परित्याग करके अपनीपत्नियों की पूजा करते हैं और इस तरह उनके घर यौन-जीवन के लिए समर्पित हो जाते हैं।
ऐसेभौतिकतावादी गृहस्थ इस प्रकार के मनमाने आचरण के लिए एक-दूसरे को प्रोत्साहित करतेहैं।
वे अनुष्ठानिक यज्ञ को शारीरिक निर्वाह के लिए आवश्यक साधन मान कर अवैध उत्सवमनाते हैं, जिनमें न तो भोजन बाँटा जाता है, न ही ब्राह्मणों तथा अन्य सम्मान्य व्यक्तियों कोदक्षिणा दी जाती है।
विपरित इसके वे अपने कर्मों के कुपरिणामों को समझे बिना, क्रूरतापूर्वकबकरों जैसे पशुओं का वध करते हैं।
"
प्रिया विभूत्याभिजनेन विद्ययात्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा ।
जातस्मयेनान्धधिय: सहेश्वरान्सतोवमन्यन्ति हरिप्रियान्खला: ॥
९॥
भ्िया--अपने ऐश्वर्य ( सम्पत्ति आदि ) द्वारा; विभूत्या--विशिष्ट क्षमताओं द्वारा; अभिजनेन--उच्च कुल से; विद्यया--शिक्षा से;त्यागेन--त्याग से; रूपेण--सौन्दर्य से; बलेन--बल से; कर्मणा--कर्म द्वारा; जात--उत्पन्न; स्मयेन--ऐसे गर्व से; अन्ध--अन्धा हुआ; धियः--बुद्ध्ि वाला; सह-ई श्वरान्ू-- भगवान् सहित; सतः--सन््त स्वभाव वाले भक्तगण; अवमन्यन्ति--अनादरकरते हैं; हरि-प्रियान्ू-- भगवान् हरि के प्रियजनों को; खला:--दुष्ट व्यक्ति |
दुर्मति व्यक्तियों की बुद्धि उस मिथ्या अहंकार से अन्धी हो जाती है, जो धन-सम्पदा, ऐश्वर्य,उच्च-कुलीनता, शिक्षा, त्याग, शारीरिक सौन्दर्य, शारीरिक शक्ति तथा वैदिक अनुष्ठानों कीसफल सम्पन्नता पर आधारित होता है।
इस मिथ्या अहंकार से मदान्ध होकर ऐसे दुष्ट व्यक्तिभगवान् तथा उनके भक्तों की निन्दा करते हैं।
"
सर्वेषु शश्वत्तनुभृत्स्ववस्थितंयथा खमात्मानमभीष्ठटमी श्वरम् ।
वेदोपगीतं च न श्रृण्वतेडबुधामनोरथानां प्रवदन्ति वार्तया ॥
१०॥
सर्वेषु--समस्त; शश्वत्--नित्य; तनु-भृत्सु--देहधारी जीवों में; अवस्थितम्--स्थित; यथा--जिस तरह; खम्-- आकाश;आत्मानम्--परमात्मा को; अभीष्टम्--अत्यन्त पूज्य; ई श्वरम्--परम नियन्ता को; वेद-उपगीतम्--वेदों द्वारा प्रशंसित; च--भी;न श्रृण्वते--नहीं सुनते हैं; अबुधा:--अज्ञानीजन; मन:-रथानाम्ू--मनमाने आनन्द के; प्रवदन्ति--परस्पर विवाद करते जाते हैं;वार्तवा--कथाएँ।
प्रत्येक देहधारी जीव के हृदय के भीतर शाश्वत स्थित रहते हुए भी भगवान् उनसे पृथक् रहतेहैं, जिस तरह कि सर्वव्यापक आकाश किसी भौतिक वस्तु में घुल-मिल नहीं जाता।
इस प्रकारभगवान् परम पूज्य हैं तथा हर वस्तु के परम नियन्ता हैं।
वेदों में उनकी विस्तार से महिमा गाईजाती है, किन्तु जो लोग बुद्धिविहीन हैं, वे उनके विषय में सुनना नहीं चाहते।
वे अपना समयअपने उन मनोरथों की चर्चा करने में बिताते हैं, जो यौन-जीवन तथा मांसाहार जैसी स्थूलइन्द्रिय-तृष्ति से सम्बन्धित होते हैं।
"
लोके व्यवायामिषमद्यसेवानित्या हि जन्तोर्न हि तत्र चोदना ।
व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ॥
११॥
लोके-- भौतिक जगत में ; व्यवाय--यौन-लिप्तता; आमिष--मांस; मद्य--तथा मदिरा का; सेवा:--सेवन; नित्या:--सदैवप्राप्त; हि--निस्सन्देह; जन्तो:--बद्धजीव में; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; तत्र--उस विषय में; चोदना--शास्त्र का आदेश;व्यवस्थिति:--संस्तुत व्यवस्था; तेषु--इनमें; विवाह--पवित्र विवाह द्वारा; यज्ञ-यज्ञ; सुरा-ग्रहः--तथा शराब ग्रहण करने से;आसु--इनकी; निवृत्ति:--समाप्ति; इष्टा--अभीष्ट
इस भौतिक जगत में बद्धजीव यौन, मांसाहार तथा नशे के प्रति सदैव उन्मुख रहता है।
इसीलिए शास्त्र कभी भी ऐसे कार्यों को बढ़ावा नहीं देते।
यद्यपि पवित्र विवाह के द्वारा यौन,यज्ञों द्वारा मांसाहार तथा उत्सवों में सुरा के प्याले ग्रहण करके नशे के लिए शास्त्रों का आदेशहै, किन्तु ऐसे उत्सवों मन्तव्य उनकी ओर से विरक्ति उत्पन्न करना है।
"
धनं च धर्मकफलं यतो वैज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति ।
गृहेषु युझ्ञन्ति कलेवरस्यमृत्युं न पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम् ॥
१२॥
धनम्-- धन; च-- भी; धर्म-एक-फलम्--धार्मिकता ही, जिसका एकमात्र उचित फल है; यत:--जिस ( धार्मिक जीवन ) से;वै--निस्सन्देह; ज्ञाममू--ज्ञान; स-विज्ञानमू- प्रत्यक्ष अनुभूति सहित; अनुप्रशान्ति--तथा तदुपरान्त कष्ट से मोक्ष; गृहेषु-- अपनेघरों में; युज्ञन्ति--उपयोग करते हैं; कलेवरस्थ-- अपने भौतिक शरीर का; मृत्युमू--मृत्यु; न पश्यन्ति--नहीं देख सकते;दुरन््त--दुर्लघ्य; वीर्यमू--जिसकी शक्ति
सजञ्जञित धन का एकमात्र उचित फल धार्मिकता है, जिसके आधार पर मनुष्य जीवन कीदार्शनिक जानकारी प्राप्त कर सकता है, जो अन्ततः परब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति में और इस तरहसमस्त कष्ट से मोक्ष में परिणत हो जाता है।
किन्तु भौतिकतावादी व्यक्ति अपने धन का सदुपयोगअपनी पारिवारिक स्थिति की उन्नति में ही करते हैं।
वे यह देख नहीं पाते कि दुल॑ध्य मृत्यु शीघ्रही उनके दुर्बल भौतिक शरीर को विनष्ट कर देगी।
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यद्घ्राणभक्षो विहितः सुराया-स्तथा पशोरालभनं न हिंसा ।
एवं व्यवाय: प्रजया न रत्याइमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥
१३॥
यतू--चूँकि; प्राण--सूँघ कर; भक्ष:--ग्रहण करना; विहितः--वैध है; सुराया:--मदिरा का; तथा--उसी तरह; पशो:--बलिपशु का; आलभनमू--विहित वध; न--नहीं; हिंसा--अंधाधुंध हिंसा; एबम्--इसी प्रकार से; व्यवाय:--यौन; प्रजया--सनन््तानउत्पन्न करने के लिए; न--नहीं; रत्यै--इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्--यह ( जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है );विशुद्धम्--अत्यन्त शुद्ध; न विदु:--वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्--अपने उचित कर्तव्य को |
वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसका पीकर नहींअपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है।
इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तुव्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है।
धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तुविवाहोपरान्त सन््तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।
किन्तुदुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्यनितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।
"
ये त्वनेवंविदोसन्तः स्तब्धा: सदभिमानिनः ।
पशूजुह्मन्ति विश्रब्धा: प्रेत्य खादन्ति ते च तान्ू ॥
१४॥
ये--जो; तु--लेकिन; अनेवम्-विद: --इन तथ्यों को न जानते हुए; असन्तः--अपवित्र; स्तब्धा:--बनावटी; सतू-अभिमानिन:ः --अपने को साधु मानने वाले; पशून्ू--पशुओं को; ब्रुह्मन्ति--क्षति पहुँचाते हैं; विश्रब्धा:--अबोध होने से विश्वासकर लेने वाले; प्रेत्वय--इस शरीर को त्यागने पर; खादन्ति--खाते हैं; ते--वे पशु; च--तथा; तानू--उनको
वे पापी व्यक्ति, जो असली धर्म से अनजान होते हुए भी अपने को पूर्णरूपेण पवित्र समझतेहैं, उन निरीह पशुओं के प्रति बिना पश्चाताप किये हिंसा करते हैं, जो उनके प्रति पूर्णतयाआश्वस्त होते हैं।
ऐसे पापी व्यक्ति अगले जन्मों में उन्हीं पशुओं द्वारा भक्षण किये जाएँगे, जिनकावे इस जगत में वध किये रहते हैं।
"
द्विषन्तः परकायेषु स्वात्मानं हरिमी श्वरम् ।
मृतके सानुबन्धेस्मिन्बद्धस्नेहा: पतन्त्यध: ॥
१५॥
द्विषन्त:--द्वेष करते हुए; पर-कायेषु--अन्यों के शरीरों के भीतर ( आत्माएँ ); स्व-आत्मानम्--अपने आपको; हरिम् ईश्वरम्--भगवान् हरि को; मृतके--लाश में; स-अनुबन्धे -- अपने सम्बन्धियों समेत; अस्मिन्--इस; बद्ध-स्नेहा:--स्थिर स्नेह वाले;'पतन्ति--गिरते हैं; अध:--नीचे की ओर
बद्धजीव अपने शवतुल्य भौतिक शरीरों तथा अपने सम्बन्धियों एवं साज-सामान के प्रतिस्नेह से पूरी तरह बँध जाते हैं।
ऐसी गर्वित एवं मूर्खतापूर्ण स्थिति में बद्धजीव अन्य जीवों केसाथ साथ समस्त जीवों के हृदय में वास करने वाले भगवान् हरि से भी द्वेष करने लगते हैं।
इसप्रकार ईर्ष्यावश अन्यों का अपमान करने से बद्धजीव क्रमशः नरक में जा गिरते हैं।
"
ये कैवल्यमसम्प्राप्ता ये चातीताश्व मूढताम् ।
तअैवर्गिका हाक्षणेका आत्मानं घातयन्ति ते ॥
१६॥
ये--जो; कैवल्यम्--परब्रह्म का ज्ञान; असम्प्राप्ता:-- जिन्होंने नहीं प्राप्त किया है; ये--जो; च-- भी; अतीता:--पार कर चुकेहैं; च-- भी; मूढताम्--निपट मूर्खता; त्रै-वर्गिका:--जीवन के तीनों लक्ष्यों के प्रति समर्पित अर्थात् धर्म, अर्थ तथा काम; हि--शनिस्सन्देह; अक्षणिका:--विचार करने के लिए, जिनके पास क्षण-भर भी समय नहीं है; आत्मानम्-- अपने को; घातयन्ति--हत्या करते हैं; ते--वे |
जिन्होंने परम सत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, फिर भी, जो निपट अज्ञानता के अंधकार सेपरे हैं, वे सामान्यतया धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन पवित्र पुरुषार्थों का अनुसरण करते हैं।
अन्यकिसी उच्च उद्देश्य के बारे में विचार करने के लिए समय न होने से वे अपनी ही आत्मा के हत्यारे( आत्मघाती ) बन जाते हैं।
"
एत आत्महनोशान्ता अज्ञाने ज्ञानमानिन: ।
सीदन्त्यकृतकृत्या वै कालध्वस्तमनोरथा: ॥
१७॥
एते--ये; आत्म-हन:--आत्मा के हत्यारे; अशान्ता:--शान्ति से रहित; अज्ञाने--अज्ञान में; ज्ञान-मानिन: --ज्ञानवान् मानते हुए;सीदन्ति--कष्ट उठाते हैं; अकृत--कर न सकने से; कृत्याः--अपना कर्तव्य; वै--निस्सन्देह; काल--समय द्वारा; ध्वस्त--विनष्ट; मनः-रथा:--उनकी रंगीन इच्छाएँ।
इन आत्महन्ताओं को कभी भी शान्ति नहीं मिल पाती, क्योंकि वे यह मानते हैं कि मानवीबुद्धि अन्ततः भौतिक जीवन का विस्तार करने के लिए है।
इस तरह अपने असली आध्यात्मिककर्तव्य की उपेक्षा करते हुए, वे सदैव कष्ट पाते हैं।
वे उच्च आशाओं एवं स्वप्नों से पूरित रहते हैं,किन्तु दुर्भाग्यवश काल के अपरिहार्य प्रवाह के कारण ये सब सदैव ध्वस्त हो जाते हैं।
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हित्वात्ममायारचिता गृहापत्यसुहत्स्त्रिय: ।
तमो विशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराड्मुखा: ॥
१८॥
हित्वा--त्याग कर; आत्म-माया--परमात्मा की माया द्वारा; रचिता:--तैयार किये गये; गृह--घर; अपत्य--बच्चे; सुहत्--मित्र; स्त्रिः--पत्लियाँ; तम:-- अंधकार में; विशन्ति--प्रवेश करते हैं; अनिच्छन्त:--न चाहते हुए; वसुदेव-पराक्ु-मुखा:--भगवान् वासुदेव से मुख फेरने वाले
जिन लोगों ने ईश्वर की माया के जाल में आकर भगवान् वासुदेव से मुख मोड़ लिया है, उन्हेंअन्त में बाध्य होकर अपने तथाकथित घर, बच्चे, मित्र, पत्नियाँ तथा प्रेमीजनों को छोड़ना पड़ताहै, क्योंकि ये सब भगवान् की माया से उत्पन्न हुए थे और ऐसे लोग अपनी इच्छा के विरुद्धब्रह्माण्ड के घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं।
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श्री राजोबाच'कस्मिन्काले स भगवान्कि वर्ण: कीहशो नृभिः ।
नाम्ना वा केन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम् ॥
१९॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने कहा; कस्मिन्ू--किस; काले--काल में; सः--वह; भगवान्-- भगवान्; किम् वर्ण:--किस रंगका; कीहशः --किस रूप का; नृभिः--मनुष्यों द्वारा; नाम्ना--( किन ) नामों से; वा--तथा; केन--किस; विधिना--विधि से;पूज्यते--पूजा जाता है; ततू--वह; इह--हमारी उपस्थिति में; उच्यताम्--कृपा करके कहें।
राजा निमि ने पूछा : भगवान् प्रत्येक युग में किन रंगों तथा रूपों में प्रकट होते हैं और वेकिन नामों तथा किन-किन प्रकार के विधानों द्वारा मानव समाज में पूजे जाते हैं ?" श्रीकरभाजन उवाचकृत॑ त्रेता द्वापरं च कलिरित्येषु केशवः ।
नानावर्णाभिधाकारो नानैव विधिनेज्यते ॥
२०॥
श्री-करभाजन: उवाच-- श्री करभाजन के कहा; कृतम्--सत्य; त्रेता--त्रेता; द्वापम्--द्वापर;; च--तथा; कलि:--कलि;इति--इस तरह के नाम वाले; एषु--इन युगों में; केशव:-- भगवान् केशव; नाना--विविध; वर्ण--रंग वाले; अभिधा--नाम;आकारः--तथा स्वरूप; नाना--विविध; एव--इसी प्रकार; विधिना--विधियों से; इज्यते--पूजा जाता है|
श्री करभाजन ने उत्तर दिया--कृत, त्रेता, द्वापर तथा कलि इन चारों युगों में से प्रत्येक मेंभगवान् केशव विविध वर्णो, नामों तथा रूपों में प्रकट होते हैं और विविध विधियों से पूजे जातेहैं।
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कृते शुक्लश्चतुर्बाहुर्जटिलो बल्कलाम्बर: ।
कृष्णाजिनोपवीताक्षान्बिभ्रहण्डकमण्डलू ॥
२१॥
कृते--सत्ययुग में; शुक्ल: -- श्वेत; चतुः-बाहु:--चार भुजाओं वाले; जटिल:--जटाओं से युक्त; वल्कल-अम्बर:--वृक्ष कीछाल पहने; कृष्ण-अजिन--काला हिरन; उपवीत--ब्राह्मण का जनेऊ; अक्षान्ू--अक्ष के बीजों की बनी जप-माला; बिभ्रत्ू--धारण किये; दन््द--डण्डा; कमण्डलू--तथा जल का पात्र, कमण्डलु।
सत्ययुग में भगवान् श्वेत वर्ण और चतुर्भुजी होते हैं, उनके सिर पर जटाएँ रहती है और वेवृक्ष की छाल का वस्त्र पहनते हैं।
वे काले हिरन का चर्म, जनेऊ, जप-माला, डण्डा तथाब्रह्मचारी का कमण्डल धारण किये रहते हैं।
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मनुष्यास्तु तदा शान्ता निर्वैरा: सुहृदः समा: ।
यजन्ति तपसा देवं शमेन च दमेन च ॥
२२॥
मनुष्या:--मनुष्य; तु--तथा; तदा--तब; शान्ता: -- शान्त; निर्वरा: --ईर्ष्यारहित; सुहृदः --सबों का मित्र; समाः--समभाव;यजन्ति-- पूजा करते हैं; तपसा-- ध्यान की तपस्या द्वारा; देवम्ू-- भगवान् को; शमेन--मन को वश में करके; च-- भी;दमेन--इन्द्रियों को वश में करके; च--तथा सत्ययुग में लोग शान्त, ईर्ष्यारहित, प्रत्येक प्राणी के प्रति मैत्री-भाव से युक्त तथा समस्तस्थितियों में स्थिर रहते हैं।
वे तपस्या द्वारा तथा आन्तरिक एवं बाह्य इन्द्रिय-संयम द्वारा भगवान्की पूजा करते हैं।
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हंस: सुपर्णो वैकुण्ठो धर्मो योगेश्वरोउमल: ।
ईश्वरः पुरुषोव्यक्त: परमात्मेति गीयते ॥
२३॥
हंसः--दिव्य हंस; सु-पर्ण:--सुन्दर पंखों वाला; बैकुण्ठ:--वैकुण्ठ धाम के स्वामी; धर्म:--धर्म धारण करने वाले; योग-ईश्वर:--योग-सिद्धि के स्वामी; अमलः--निर्मल; ईश्वर: --परम नियन्ता; पुरुष:--परम भोक्ता नर; अव्यक्त:--अप्रकट; परम-आत्मा--जीव के हृदय में निवास करने वाला परमात्मा; इति--इस प्रकार; गीयते--उनके नामों का कीर्तन होता है।
सत्ययुग में भगवान् की महिमा का गायन हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर,पुरुष, अव्यक्त तथा परमात्मा-नामों से किया जाता है।
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त्रेतायां रक्तवर्णो उसौ चतुर्बाहुस्त्रमिखल: ।
हिरण्यकेशस्त्रय्यात्मा स्त्रुक्त्र॒वाद्युपलक्षण: ॥
२४॥
त्रेतायाम्-्रेतायुग में; रक्त-वर्ण:--लाल रंग का; असौ--वह; चतु:-बाहु:--चतुर्भुज; त्रि-मेखल:--तीन पेटियाँ पहने( वैदिक दीक्षा की तीन अवस्थाओं की द्योतक ); हिरण्य-केश:--सुनहरे बालों वाले; त्रयि-आत्मा--तीन वेदों के ज्ञान केसाकार रूप; सत्रक्-स्त्रुव-आदि--चमस, स्त्रुवा इत्यादि; उपलक्षण:--प्रतीकों वालेत्रेतायुग में भगवान् का वर्ण लाल होता है।
उनकी चार भुजाएँ होती हैं, बाल सुनहरे होते हैंऔर वे तिहरी पेटी पहनते हैं, जो तीनों वेदों में दीक्षित होने की सूचक है।
ऋक्, साम तथाअजुर्वेदों में निहित यज्ञ द्वारा पूजा के ज्ञान के साक्षात् रूप उन भगवान् के प्रतीक स्त्रुकू, स्त्रुवाइत्यादि यज्ञ के पात्र होते हैं।
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त॑ तदा मनुजा देवं सर्वदेवमयं हरिम् ।
यजन्ति विद्यया त्रय्या धर्मिष्ठा ब्रह्यवादिन: ॥
२५॥
तम्--उसको; तदा--तब; मनुजा:--मनुष्य; देवम्-- भगवान् को; सर्व-देव-मयम्--समस्त देवताओं से युक्त; हरिम्-- श्री हरिको; यजन्ति-- पूजा करते हैं; विद्यया-- अनुष्ठानों द्वारा; त्रव्या--तीन मुख्य वेदों के; धर्मिष्ठा:--धर्म में स्थिर; ब्रह्मटवादिन: --परब्रह्म की खोज करने वाले |
त्रेतायुग में मानव समाज के वे लोग, जो धर्मिष्ठ हैं और परम सत्य को प्राप्त करने में सच्चीरुचि रखते हैं, वे समस्त देवताओं से युक्त भगवान् हरि की पूजा करते हैं।
इस युग में तीनों वेदोंमें दिये गये यज्ञ अनुष्ठानों के द्वारा भगवान् की पूजा की जाती है।
"
विष्णुर्यज्ञ: पृश्निगर्भ: सर्वदेव उरुक्रम: ।
वृषाकपिर्जयन्तश्च उरुगाय इतीर्यते ॥
२६॥
विष्णु: --सर्वव्यापी भगवान्; यज्ञ:--यज्ञरूपी परम पुरुष; पृश्नि-गर्भ: --पृश्नि तथा प्रजापति सुतपा के पुत्र; सर्व-देव:--समस्तदेवताओं के स्वामी; उरु-क्रम:--अद्भुत कर्म करने वाले; वृषाकपि: -- भगवान्
जो स्मरण करने मात्र से सारे कष्टों को दूर करदेते हैं तथा सारी इच्छाओं को पूरा करते हैं; जयन्त:ः--सर्वविजयी; च--तथा; उरू-गाय:--अत्यन्त महिमावान्; इति--इन नामोंसे; ईर्यते-हे इस् चल्लेदत्रेतायुग में विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त तथा उरुगाय नामों सेभगवान् का गुणगान किया जाता है।
"
द्वापरे भगवाज्श्याम: पीतवासा निजायुध: ।
श्रीवत्सादिभिरड्' श्व॒ लक्षणरुपलक्षितः ॥
२७॥
द्वापरे--द्वापर युग में; भगवान्-- भगवान्; श्याम: --साँवले रंग का; पीत-वासा:--पीत वस्त्र धारण किये हुए; निज-आयुध:--अपने विशिष्ट हथियारों सहित ( चक्र, गदा, शंख तथा कमल-पुष्प से युक्त ); श्रीवत्स-आदिभि:-- श्रीवत्स तथा अन्यों से;अड्»ै :--शरीर के चिह्न; च--तथा; लक्षणै:--आभूषणों द्वारा; उपलक्षित:--विशेषित |
द्वापर युग में भगवान् श्याम-वर्ण से युक्त और पीताम्बर धारण किये प्रकट होते हैं।
इसअवतार में भगवान् के दिव्य शरीर में श्रीवत्स तथा अन्य विशेष आभूषण अंकित रहते हैं और वेअपने निजी आयुध प्रकट करते हैं।
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तं॑ तदा पुरुषं मर्त्या महाराजोपलक्षणम् ।
यजन्ति वेदतन्त्राभ्यां परं जिज्ञासवो नृप ॥
२८॥
तम्--उस; तदा--उस युग में; पुरुषम्--परम भोक्ता को; मर्त्या:--मर्त्य लोग; महा-राज--महान् राजा; उपलक्षणम्-- भूमिकाअदा करते; यजन्ति--पूजा करते हैं; वेद-तन्त्राभ्यामू--मूल वेदों तथा कर्मकाण्डी तंत्रों के अनुसार; परम्--परम को;जिज्ञासव:--ज्ञानार्जन के इच्छुक; नृप--हे राजा।
हे राजन्, द्वापर युग में जो लोग परम भोक्ता भगवान् को जानने के इच्छुक होते हैं, वे वेदोंतथा तंत्रों के आदेशानुसार, उन्हें महान् राजा के रूप में आदर देते हुए पूजा करते हैं।
"
नमस्ते वासुदेवाय नमः सट्डूर्षणाय च ।
प्रद्यम्नायानिरुद्धाय तुभ्यं भगवते नमः ॥
२९॥
नारायणाय ऋषये पुरुषाय महात्मने ।
विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नम: ॥
३०॥
नमः--नमस्कार; ते--आप; वासुदेवाय--वासुदेव को; नमः--नमस्कार; सट्डूर्षणाय--संकर्षण को; च--तथा; प्रद्युम्नाय --प्रद्युम्म को; अनिरुद्धाय--अनिरुद्ध को; तुभ्यम्ू--आप; भगवते-- भगवान् को; नम:ः--नमस्कार; नारायणाय ऋषये--नारायणऋषि को; पुरुषाय--परम भोक्ता पुरुष तथा ब्रह्माण्ड स्त्रष्टा को; महा-आत्मने--परमात्मा को; विश्व-ईश्वराय--ब्रह्माण्ड केस्वामी को; विश्वाय--तथा साक्षात् विश्व-रूप को; सर्व-भूत-आत्मने--समस्त जीवों के परमात्मा को; नम:ः--नमस्कार।
'हे परम स्वामी वासुदेव, आपको तथा आपके संकर्षण, प्रद्युम्म तथा अनिरुद्ध-रूपों कोनमस्कार है।
हे भगवान्, आपको नमस्कार है।
हे नारायण ऋषि, हे ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा, पुरुषों मेंसर्वश्रेष्ठ, इस जगत के स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के आदि स्वरूप, हे समस्त जीवों के परमात्मा,आपको सादर नमस्कार है।
"
इति द्वापर उर्वीश स्तुवन्ति जगदी श्वरम् ।
नानातन्त्रविधानेन कलावपि तथा श्रूणु ॥
३१॥
इति--इस प्रकार; द्वापरे--द्वापर युग में; उर-ईश--हे राजा; स्तुवन्ति--स्तुति करते हैं; जगत्-ई श्ररम्--ब्रह्माण्ड के स्वामी की;नाना--विविध; तन्त्र--शास्त्रों के; विधानेन--नियमों द्वारा; कलौ--कलियुग में; अपि-- भी; तथा--उसी तरह; श्रूणु--सुनो हे राजन, इस तरह से द्वापर युग में लोग ब्रह्माण्ड के स्वामी का यशोगान करते थे।
कलियुगमें भी लोग शास्त्रों के विविध नियमों का पालन करते हुए भगवान् की पूजा करते हैं।
अब कृपाकरके आप मुझसे इसके बारे में सुनें।
"
कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं साड्ेपाड्रस्त्रपार्षदम् ।
यज् सड्डीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधस: ॥
३२॥
कृष्ण-वर्णम्--कृष्ण में आये अक्षरों को दुहराना; त्विषा--कान्ति से; अकृष्णम्--काला नहीं ( सुनहला ); स-अड्ग--संगियोंसमेत; उप-अड्ग--सेवकगण; अस्त्र--हथियार; पार्षदम्--विश्वासपात्र साथी; यज्जैः--यज्ञ द्वारा; सड्डीर्तन-प्रायैः--मुख्य रूप से
सामूहिक कीर्तन से युक्त; यजन्ति--पूजा करते हैं; हि--निश्चय ही; सु-मेधस: --बुद्धिमान व्यक्तिकलियुग में, बुद्धिमान व्यक्ति ई श्र के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन( संकीर्तन ) करते हैं, जो निरन्तर कृष्ण के नाम का गायन करता है।
यद्यपि उसका वर्ण श्यामल(कृष्ण ) नहीं है किन्तु वह साक्षात् कृष्ण है।
वह अपने संगियों, सेवकों, आयुधों तथाविश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है।
"
ध्येयं सदा परिभवध्नमभीष्टदोहंतीर्थास्पदं शिवविरिद्धिनुतं शरण्यम् ।
भृत्यातिहं प्रणतपाल भवाब्थधिपोतंवन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥
३३॥
ध्येयम्ू-- ध्यान किये जाने के योग्य; सदा--सदैव; परिभव-- भौतिक जगत के अपमान; घ्नम्--नष्ट करने वाला; अभीष्ट--आत्मा की असली इच्छा; दोहम्ू--ठीक से पुरस्कार करने वाले; तीर्थ--सारे पवित्र स्थानों तथा सन्त-महापुरुषों का;आस्पदम्-- धाम; शिव-विरिज्ञि--शिव तथा ब्रह्मा जैसे महान् देवताओं द्वारा; नुतम्--झुके हुए; शरण्यम्--शरण ग्रहण करनेके लिए सर्वाधिक योग्य; भृत्य--सेवकों के; आर्ति-हम्--कष्ट को दूर करने वाले; प्रणत-पाल--उन सबके रक्षक, जो आपकोप्रणाम करते हैं; भव-अब्धि--जन्म-मृत्यु के सागर का; पोतम्ू--उपयुक्त नाव ( पार करने के लिए ); वन्दे--मैं वन्दना करता हूँ;महा-पुरुष--हे महाप्रभु; ते--तुम्हारे; चरण-अरविन्दम्--चरणकमलों की
हे प्रभु, आप महापुरुष हैं और मैं आपके उन चरणकमलों की पूजा करता हूँ, जो शाश्वतध्यान के एकमात्र लक्ष्य हैं।
वे चरण भौतिक जीवन की चिन्ताओं को नष्ट करते हैं और आत्माकी सर्वोच्च इच्छा--शुद्ध भगवत्प्रेम की प्राप्ति--प्रदान करते हैं।
हे प्रभु, आपके चरणकमलसमस्त तीर्थस्थानों के तथा भक्ति-परम्परा के समस्त सन््त-महापुरुषों के आश्रय हैं और शिवतथा ब्रह्मा जैसे शक्तिशाली देवताओं द्वारा सम्मानित होते हैं।
हे प्रभु, आप इतने दयालु हैं किआप उन सबों की स्वेच्छा से रक्षा करते हैं, जो आदरपूर्वक आपको नमस्कार करते हैं।
इस तरहआप अपने सेवकों के सारे कष्टों को दयापूर्वक दूर कर देते हैं।
निष्कर्ष रूप में, हे प्रभु, आपकेचरणकमल वास्तव में जन्म तथा मृत्यु के सागर को पार करने के लिए उपयुक्त नाव हैं, इसीलिएब्रह्मा तथा शिव भी आपके चरणकमलों में आश्रय की तलाश करते रहते हैं।
'" त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मींधर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् ।
मायामृगं दयितयेप्सितमन्वधावद्वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ॥
३४॥
त्यक्त्वा--त्याग कर; सु-दुस्त्यज--त्याग पाना अत्यन्त कठिन; सुर-ईप्सित--देवताओं द्वारा वांछित; राज्य-लक्ष्मीम्--लक्ष्मीतथा उसका एऐश्वर्य; धर्मिष्ठ: --अत्यन्त धार्मिक; आर्य-वचसा--ब्राह्मण के वचनों के अनुसार; यत्--जो; अगात्--गया;अरण्यमू--( संन्यास लेकर ) जंगल में; माया-मृगम्--बद्धजीव जो सदैव भ्रामक भोग की तलाश करता है; दयवितया--कृपावश; ईप्सितम्--वांछित वस्तु; अन्वधावत्--पीछे पीछे दौड़ते; वन्दे--नमस्कार करता हूँ; महा-पुरुष--हे महाप्रभु; ते--तुम्हारे; चरण-अरविन्दम्--चरणकमलों को |
हे महापुरुष, मैं आपके चरणकमलों की पूजा करता हूँ।
आपने लक्ष्मी देवी तथा उनके सारेऐश्वर्य का परित्याग कर दिया, जिसे त्याग पाना अतीव कठिन है और जिसकी कामना बड़े बड़ेदेवता तक करते हैं।
इस तरह धर्मपथ के अत्यन्त श्रद्धालु अनुयायी होकर आप ब्राह्मण के शापको मान कर जंगल के लिए चल पड़े।
आपने मात्र अपनी दयालुतावश पतित बद्धजीवों कापीछा किया, जो सदैव माया के मिथ्या भोग के पीछे दौड़ते हैं और उसी के साथ अपनी वांछितवस्तु भगवान् श्यामसुन्दर की खोज में लगे भी रहते हैं।
"
एवं युगानुरूपाभ्यां भगवान्युगवर्तिभि: ।
मनुजैरिज्यते राजन्श्रेयसामी श्वरो हरि: ॥
३५॥
एवम्--इस प्रकार; युग-अनुरूपाभ्याम्-- प्रत्येक युग के अनुरूप ( विशिष्ट नामों तथा रूपों द्वारा )) भगवान्-- भगवान्; युग-वर्तिभि:--विभिन्न युगों में रहने वालों द्वारा; मनुजैः--मनुष्यों के द्वारा; इज्यते--पूजा जाता है; राजनू--हे राजा; श्रेयसाम्--समस्त आध्यात्मिक लाभ का; ईश्वर:--नियंत्रक; हरि: -- भगवान् हरि।
इस प्रकार हे राजन, भगवान् हरि जीवन के समस्त वांछित फलों को देने वाले हैं।
बुद्धिमानमनुष्य भगवान् के उन विशेष रूपों तथा नामों की पूजा करते हैं, जिन्हें भगवान् विभिन्न युगों मेंप्रकट करते हैं।
"
कलिं सभाजयत्त्यार्या गुण ज्ञा: सारभागिन: ।
यत्र सड्डीर्तनेनैव सर्वस्वार्थोडभिलभ्यते ॥
३६॥
कलिम्--कलियुग की; सभाजयन्ति-- प्रशंसा करते हैं; आर्या:--प्रगतिशील लोग; गुण-ज्ञ:--( युग की ) असलियत को जाननेवाले; सार-भागिन: --सार ग्रहण करने वाले; यत्र--जिसमें; सड्डीर्तनेन-- भगवान् के नाम का सामूहिक कीर्तन करके; एब--मात्र; सर्व--सभी; स्व-अर्थ:--इच्छित लक्ष्य; अभिलभ्यते--प्राप्त किये जाते हैं।
जो लोग सचमुच ज्ञानी हैं, वे इस कलियुग के असली महत्व को समझ सकते हैं।
ऐसे प्रब॒द्धलोग कलियुग की पूजा करते हैं, क्योंकि इस पतित युग में जीवन की सम्पूर्ण सिद्धि संकीर्तनसम्पन्न करके आसानी से प्राप्त की जा सकती है।
"
न हातः परमो लाभो देहिनां भ्राम्यतामिह ।
यतो विन्देत परमां शान्ति नश्यति संसृति: ॥
३७॥
न--नहीं है; हि--निस्सन्देह; अत:ः--इस ( संकीर्तन विधि ) की अपेक्षा; परम:--महान्; लाभ:--प्राप्त करने योग्य वस्तु;देहिनाम्ू-देहधारियों के लिए; भ्राम्यताम्ू--विचरण करने के बाध्य हुए; इह--इस ब्रह्माण्ड-भर में; यतः --जिससे; विन्देत--प्राप्त करता है; परमाम्--परम; शान्तिम्ू-- शान्ति; नश्यति--तथा नष्ट करता है; संसृतिः--जन्म-मृत्यु के आवागमन को ।
निस्सन्देह, भौतिक जगत में विचरण करने के लिए बाध्य किये गये देहधारी जीवों के लिएभगवान् के संकीर्तन आन्दोलन से बढ़कर और कोई सम्भावित लाभ नहीं है, जिसके द्वारा वहपरम शान्ति पा सके और अपने को बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ा सके।
"
कृतादिषु प्रजा राजन्कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणा: ।
क्वचित्क्वचिन्महाराज द्रविडेषु च भूरिश: ॥
३८॥
ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी ।
कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी ॥
३९॥
ये पिबन्ति जल॑ तासां मनुजा मनुजेश्वर ।
प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेइमलाशया: ॥
४०॥
कृत-आदिषु--सत्ययुग तथा अन्य पूर्ववर्ती युगों के; प्रजा:--निवासी; राजन्--हे राजा; कलौ--कलियुग में; इच्छन्ति--इच्छाकरते हैं; सम्भवम्--जन्म; कलौ--कलियुग में; खलु--निश्चय ही; भविष्यन्ति--होंगे; नारायण-परायणा:-- भगवान् नारायणकी सेवा में समर्पित लोग; क्वचित् क्वचित्--इधर-उधर; महा-राज--हे महान् राजा; द्रविडेषु--दक्षिण भारत के राज्यों में;च--लेकिन; भूरिश:--विशेष रूप से अधिक मात्रा में; ताम्रपर्णी--ताम्रपर्णी नामक; नदी--नदी; यत्र--जहाँ; कृतमाला--कृतमाला; पयस्विनी--पयस्विनी; कावेरी--कावेरी; च--तथा; महा-पुण्या--अत्यन्त पवित्र; प्रतीची--प्रतीची नामक; च--हा तथा; महा-नदी--महानदी; ये--जो; पिबन्ति--पीते हैं; जलमू--जल; तासाम्--उनके; मनुजा:--मनुष्यगण; मनुज-ई श्वरर--हेमनुष्यों के स्वामी ( निमि ); प्राय:--अधिकांशतः; भक्ता:-- भक्तगण; भगवति-- भगवान् के; वासुदेवे--वासुदेव में; अमल-आशया:--विमल हृदय वाले |
हे राजन, सत्ययुग तथा उसके पूर्व के अन्य युगों के निवासी इस कलियुग में जन्म लेने कीतीव्र कामना करते हैं, क्योंकि इस युग में भगवान् नारायण के अनेक भक्त होंगे।
ये भक्तगणविविध लोकों में प्रकट होंगे, किन्तु दक्षिण भारत में विशेष रूप से जन्म लेंगे।
हे मनुष्यों केस्वामी, कलियुग में जो व्यक्ति द्रविड़ देश की पवित्र नदियों, यथा ताम्रपर्णी, कृतमाला,पयस्विनी, अतीव पवित्र कावेरी तथा प्रतीची महानदी का जलपान करेंगे, वे सारे के सारेभगवान् वासुदेव के शुद्ध हृदय वाले भक्त होंगे।
"
देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणांन किड्डढरो नायमृणी च राजन ।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यंगतो मुकुन्दं परिहत्य कर्तम् ॥
४१॥
देव--देवताओं के; ऋषि--ऋषियों के; भूत--सामान्य जीवों के; आप्त--मित्रों तथा सम्बन्धियों के; नृणाम्--सामान्य लोगोंके; पितृणाम्-पूर्वजों के; न--नहीं; किड्जूर:--सेवक; न--न तो; अयम्--यह; ऋणी--कर्जदार; च-- भी; राजन्--हे राजा;सर्व-आत्मना--अपने पूरे मन से; यः--जो व्यक्ति; शरणम्--शरण; शरण्यम्--सबों को शरण देने वाला, भगवान्; गत:--पास आया हुआ; मुकुन्दम्-मुकुन्द को; परिहत्य--त्याग कर; कर्तम्-कर्तव्य |
हे राजन, जिस व्यक्ति ने सारे भौतिक कार्यो को त्याग कर उन मुकुन्द के चरणकमलों मेंपूरी तरह शरण ले रखी है, जो सबों को आश्रय देते हैं, ऐसा व्यक्ति देवताओं, ऋषियों, सामान्यजीवों, सम्बन्धियों, मित्रों, मनुष्यों या दिवंगत हो चुके पितरों का ऋणी नहीं रहता।
चूँकि इनसभी श्रेणियों के जीव भगवान् के ही भिन्नांश हैं, अतः जिसने भगवान् की सेवा में अपने को समर्पित कर दिया है, उसे ऐसे व्यक्तियों की अलग से सेवा करने की आवश्यकता नहीं रहजाती।
"
स्वपादमूलम्भजत: प्रियस्यत्यक्तान्यभावस्य हरिः परेश: ।
विकर्म यच्चोत्पतितं कथज्ञिद्धुनोति सर्व हृदि सन्निविष्ट: ॥
४२॥
स्व-पाद-मूलम्--भक्तों के शरण, कृष्ण के चरणकमल; भजतः--पूजा में लगा हुआ; प्रियस्थ--कृष्ण को अत्यन्त प्रिय;त्यक्त--त्यागा हुआ; अन्य--दूसरों के लिए; भावस्य--स्वभाव वाले का; हरिः-- भगवान्; पर-ईश:-- भगवान्; विकर्म --पापकर्म; यत्ू--जो भी; च--तथा; उत्पतितम्--घटित; कथज्ञित्--जैसे-तैसे; धुनोति--हटाता है; सर्वम्--समस्त; हृदि--हृदयमें; सन्निविष्ट:--प्रविष्ट |
जिस मनुष्य ने अन्य सारे कार्यकलापों को त्याग कर भगवान् हरि के चरणकमलों की पूर्णशरण ग्रहण कर ली है, वह भगवान् को अत्यन्त प्रिय है।
निस्संदेह यदि ऐसा शरणागत जीवसंयोगवश कोई पापकर्म कर भी बैठे है, तो प्रत्येक हृदय के भीतर स्थित भगवान्, तुरन्त ही ऐसेपाप के फल को समाप्त कर देते हैं।
"
श्रीनारद उबाचधर्मान्भागवतानित्थ॑ श्रुत्वाथ मिथिलेश्वर: ।
जायन्तेयान्मुनीन्प्रीत: सोपाध्यायो हापूजयत् ॥
४३॥
श्री-नारद: उबाच--नारद मुनि ने कहा; धर्मान् भागवतान्-- भगवान् की भक्ति का विज्ञान; इत्थम्ू--इस प्रकार से; श्रुत्वा--सुनकर; अथ--तब; मिथिला-ई श्वरः -- मिथिला राज्य के स्वामी, राजा निमि ने; जायन्तेयान्--जयन्ती के पुत्रों को; मुनीन्--मुनियोंको; प्रीत:--प्रसन्न होकर; स-उपाध्याय:--पुरोहितों सहित; हि--निस्सन्देह; अपूजयत्--पूजा की।
नारद मुनि ने कहा : इस तरह भक्तियोग की बातें सुनकर मिथिला के राजा निमि अत्यन्तसन्तुष्ट हुए और अपने यज्ञ-पुरोहितों सहित जयन्ती के मेधावी पुत्रों का सत्कार किया।
"
ततोःच्तर्दधिरे सिद्धा: सर्वलोकस्य पश्यत: ।
राजा धर्मानुपातिष्ठन्नवाप परमां गतिम् ॥
४४॥
ततः--तब; अन्तर्दधिरे--अन्तर्धान हो गये; सिद्धाः:--कवि इत्यादि मुनिगण; सर्व-लोकस्य--वहाँ पर उपस्थित सबों के;'पश्यत:ः--देखते देखते; राजा--राजा; धर्मानू--आध्यात्मिक जीवन के इन नियमों को; उपातिष्ठन्-- श्रद्धापूर्वक पालन करतेहुए; अवाप--प्राप्त किया; परमाम्--परम; गतिम्--लक्ष्य |
तब वे सिद्ध मुनिगण वहाँ पर उपस्थित सबों की आँखों के सामने से अदृश्य हो गये।
राजानिमि ने उनसे सीखे गये आध्यात्मिक जीवन के नियमों का श्रद्धापूर्वक अभ्यास किया और इसतरह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त किया।
"
त्वमप्येतान्महाभाग धर्मान्भागवतान्श्रुतान् ।
आस्थित: श्रद्धया युक्तो निःसझ़े यास्यसे परम् ॥
४५॥
त्वमू--तुम ( वसुदेव ); अपि-- भी; एतान्ू--इन; महा-भाग--हे परम भाग्यशाली; धर्मानू--नियमों को; भागवतान्-- भक्तिके; श्रुतान्ू--सुने हुए; आस्थित:--को प्राप्त; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक ; युक्त:--समन्वित; निःसड्भ:-- भौतिक संगति से मुक्त;यास्यसे--जाओगे; परमू--परम को |
हे परम भाग्यशाली वसुदेव, आपने भक्ति के जिन नियमों को सुना है, उनका श्रद्धापूर्वकव्यवहार करें और इस तरह भौतिक संगति से छूट कर, आप परम पुरुष को प्राप्त होंगे।
"
युवयो: खलु दम्पत्योर्यशसा पूरितं जगत् ।
पुत्रतामगमद्यद्वां भगवानी श्वरो हरि: ॥
४६॥
युवयो:--तुम दोनों के; खलु--निस्सन्देह; दम्-पत्यो:--पति-पत्नी के; यशसा--यश से; पूरितम्--पूर्ण हो गयी है; जगत्--पृथ्वी; पुत्रताम्ू-पुत्र का स्थान; अगमत्--धारण की हुईं; यत्--क्योंकि; वामू--तुम्हारा; भगवान्-- भगवान्; ईं धर: --परमेश्वर; हरिः-- हरिनिस्सन्देह, सारा संसार आप तथा आपकी पत्नी के यश से भरा-पुरा हो चुका है, क्योंकिभगवान् हरि ने आपके पुत्र का स्थान अपनाया है।
"
दर्शनालिड्रनालापै: शयनासनभोजनै: ।
आत्मा वां पावितः कृष्णे पुत्रस्नेहं प्रकुर्बती: ॥
४७॥
दर्शन--देखने से; आलिड्रन--आलिंगन करने से; आलापै:--तथा बातें करने से; शयन--सोने में; आसन--बैठने; भोजनै:--तथा भोजन करने से; आत्मा--हदय; वाम्--तुम दोनों के; पावित:--शुद्ध हो चुके हैं; कृष्णे-- भगवान् कृष्ण के लिए; पुत्र-स्नेहम्-पुत्र के प्रति स्नेह; प्रकुर्बती:--प्रकट करने वाले।
हे बसुदेव, आप तथा आपकी उत्तम पत्नी देवकी ने कृष्ण को अपने पुत्र रूप में स्वीकारकरके उनके प्रति महान् दिव्य प्रेम दर्शाया है।
निस्सन्देह आप दोनों भगवान् का सदैव दर्शन तथाआलिंगन करते रहे हैं, उनसे बातें करते रहे हैं, उनके साथ विश्राम करते तथा उठते-बैठते तथाउनके साथ अपना भोजन करते रहे हैं।
भगवान् के साथ ऐसे स्नेहपूर्ण तथा घनिष्ठ संग से आपदोनों ने अपने हृदयों को पूरी तरह शुद्ध बना लिया है।
दूसरे शब्दों में, आप दोनों पहले से पूर्णहो।
"
वैरेण यं नृपतय: शिशुपालपौण्ड्र-शाल्वादयो गतिविलासविलोकनादञै: ।
ध्यायन्त आकृतधिय: शयनासनादौतत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुन: किम् ॥
४८ ॥
वैरेण--ईर्ष्या से; यम्ू--जिस ( कृष्ण ) को; नू-पतय:ः--राजागण; शिशुपाल-पौण्ड्-शाल्व-आदय:--शिशुपाल, पौण्ड्क,शाल्व इत्यादि की तरह; गति--उनकी गतिविधियों; विलास--क्रीड़ा; विलोकन--चितवन; आइद्यि: --इत्यादि से; ध्यायन्तः--ध्यान करते हुए; आकृत--स्थिर; धिय:--जिनके मन; शयन--सोते; आसन-आदौ--बैठते इत्यादि में; तत्-साम्यम्--उन््हींजैसा पद ( वैकुण्ठ में स्थान ); आपु:--प्राप्त किया; अनुरक्त-धियाम्--जिनके मन अनुकूल ढंग से अनुरक्त हैं; पुन: किम्--तुलना में और क्या कहा जाय।
शिशुपाल, पौण्ड्क तथा शाल्व जैसे विरोधी राजा, भगवान् कृष्ण के विषय में निरन्तरसोचते रहते थे।
सोते, बैठते या अन्य कार्य करते हुए भी वे भगवान् के चलने-फिरने, उनकी क्रीड़ाओं, भक्तों पर उनकी प्रेमपूर्ण चितवन तथा उनके द्वारा प्रदर्शित अन्य आकर्षक स्वरूपों केविषय में ईर्ष्याभाव से ध्यान करते रहते थे।
इस तरह कृष्ण में सदैव लीन रह कर, उन्होंने भगवान्के धाम में मुक्ति प्राप्त की।
तो फिर उन लोगों को दिये जाने वाले बरों के विषय में क्या कहाजाय, जो अनुकूल प्रेमभाव से निरन्तर भगवान् कृष्ण पर ही अपने मन को एकाग्र रखते हैं ?" मापत्यबुद्धिमकृ था: कृष्णे सर्वात्मनी श्वरे ।
मायामनुष्यभावेन गूढै श्वर्ये परेउव्यये ॥
४९॥
मा--मत; अपत्य-बुद्धिमू--आपका पुत्र होने का विचार; अकृथा: --लादो; कृष्णे--कृष्ण पर; सर्ब-आत्मनि--सबों केपरमात्मा; ईश्वर--ई श्र; माया-- अपनी मायाशक्ति द्वारा; मनुष्य-भावेन--सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट होकर; गूढ-ऐश्वर्ये --अपने ऐश्वर्य को छिपाते हुए; परे--परम; अव्यये--अच्युत |
कृष्ण को सामान्य बालक मत समझिये, क्योंकि वे भगवान्, अव्यय तथा सबों के आत्माहैं।
भगवान् ने अपने अचिन्त्य ऐश्वर्य को छिपा रखा है, इसीलिए वे बाहर से सामान्य मनुष्य जैसेप्रतीत होते हैं।
"
भूभारासुरराजन्यहन्तवे गुप्तये सताम् ।
अवतीर्णस्य निर्व॒त्य यशो लोके वितन्यते ॥
५०॥
भू-भार--पृथ्वी के भारस्वरूप; असुर--असुर; राजन्य--राज-परिवार के सदस्य; हन्तवे--मारने के उद्देश्य से; गुप्तये--रक्षा केलिए; सताम्ू--सन्त-भक्तों की; अवितीर्णस्य--अवतार लेने वाले के; निर्वृत्यै--तथा मुक्ति प्रदान करने के लिए भी; यशः--यश; लोके--संसार-भर में; वितन्यते--फैल गया है भगवान्
पृथ्वी के भारस्वरूप आसुरी राजाओं का वध करने तथा सन्त-भक्तों की रक्षा करनेके लिए अवतरित हुए हैं।
किन्तु असुर तथा भक्त दोनों ही को भगवत्कृपा से मुक्ति प्रदान कीजाती है।
इस तरह उनका दिव्य यश ब्रह्माण्ड-भर में फैल गया है।
"
श्रीशुक उबाचएतच्छुत्वा महाभागो वसुदेवोतिविस्मितः ।
देवकी च महाभागा जहतुर्मोहमात्मन: ॥
५१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एतत्--यह; श्रुत्वा--सुनकर; महा-भाग:--परम भाग्यशाली; वसुदेव: --राजा वसुदेव; अति-विस्मित:--अत्यन्त चकित; देवकी--माता देवकी; च--तथा; महा-भागा--परम भाग्यशालिनी; जहतु:--दोनों ने त्याग दिया; मोहम्ू-- भ्रम; आत्मन:--अपना
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह कथा सुनकर परम भाग्यशाली वसुदेव पूर्णतयाआश्चर्यचकित हो गए।
इस प्रकार उन्होंने तथा उनकी परम भाग्यशालिनी पत्नी देवकी ने उस भ्रमतथा चिन्ता को त्याग दिया, जो उनके हृदयों में घर कर चुके थे।
"
इतिहासमिमं पुण्यं धारयेद्य:ः समाहित: ।
स विधूयेह शमलं ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
५२॥
इतिहासम्ू--ऐतिहासिक विवरण; इमम्--इसको; पुण्यम्--पतवित्र; धारयेत्-- ध्यान करता है; यः--जो; समाहित: --स्थिरचित्त से; सः--वह; विधूय--धोते हुए; इह--इसी जीवन में; श़मलम्--कल्मष को; ब्रह्म-भूयाय--परम सिद्द्धि; कल्पते--प्राप्तकरता है।
जो स्थिर चित्त होकर इस पवित्र ऐतिहासिक कथा का ध्यान करता है, वह इसी जीवन मेंअपने सारे कल्मष धोकर सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करेगा।
"
अध्याय छह: यदु वंश प्रभास से सेवानिवृत्त हो गया
11.6श्रीशुक उबाचअथ ब्रह्मात्मजै: देवै: प्रजेशैरावृतो भ्यगात् ।
भवश्च भूतभव्येशो ययौ भूतगणैर्वृत: ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--तब; ब्रह्मा--ब्रह्मा; आत्म-जै: --अपने पुत्रों ( सनक इत्यादि ) द्वारा;देवैः--देवताओं द्वारा; प्रजा-ईशैः--प्रजापतियों ( मरीचि इत्यादि ) द्वारा; आवृत:--घिरा हुआ; अभ्यगात्--( द्वारका ) गये;भव:--शिवजी; च-- भी; भूत--सारे जीवों को; भव्य-ईशः--कल्याणप्रदाता; ययौ--गये; भूत गणै:-- भूत-प्रेतों के झुँड से;वृतः--घिरे |
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तब ब्रह्माजी अपने पुत्रों तथा देवताओं एवं महान् प्रजापतियोंको साथ लेकर द्वारका के लिए रवाना हुए।
सारे जीवों के कल्याणप्रदाता शिवजी भी अनेकभूत-प्रेतों से घिर कर द्वारका गये।
"
इन्द्रो मरुद्धिर्भगवानादित्या वसवोउश्चिनौ ।
ऋभवोड्रिरसो रुद्रा विश्वे साध्याश्व देवता: ॥
२॥
गन्धर्वाप्सरसो नागा: सिद्धचारणगुहाका: ।
ऋषय: पितरश्लेव सविद्याधरकिन्नरा: ॥
३॥
द्वारकामुपसझ्ञग्मु: सर्वे कृष्णदिदृक्षव: ।
वपुषा येन भगवान्नरलोकमनोरमः ।
यशो वितेने लोकेषु सर्वलोकमलापहम् ॥
४॥
इन्द्र:--इन्द्र; मरुद्ध्रिः--वायु-देवों के साथ; भगवान्--शक्तिशाली नियन्ता; आदित्या: --बारह मुख्य देवता, जो कि अदिति केपुत्र हैं; वसव:--आठ वसु देवता; अश्विनौ--दो अश्विनी कुमार; ऋभव:--तथा ऋभुगण; अड्विरसः--अंगिरा मुनि के वंशज;रुद्रा:--शिवजी के अंश; विश्वे साध्या:--विश्वेदेवा तथा साध्य के नाम से विख्यात; च-- भी; देवता: -- अन्य देवता; गन्धर्व-अप्सरसः--स्वर्गलोक के गवैये तथा नर्तकियाँ; नागा:--दैवी सर्प; सिद्ध-चारण--सिद्धगण तथा चारणगण; गुह्मयकाः--तथापिशाच; ऋषय:--ऋषिगण; पितरः --पूर्वज; च-- भी; एव--निस्सन्देह; स--सहित; विद्याधर-किन्नरा: --विद्याधर तथाकिन्नरगण; द्वारकाम्--द्वारका; उपसझ्ञग्मु:ः--साथ पहुँचे; सर्वे--सभी; कृष्ण-दिदृदक्षव:ः --कृष्ण को देखने के लिए उत्सुक;वपुषा--दिव्य शरीर से; येन--जो; भगवान्-- भगवान्; नर-लोक -- समस्त मानव समाज को; मन:-रम:ः --मोहने वाला;यशः--यश; वितेने--विस्तार किया; लोकेषु--सारे ब्रह्माण्ड-भर में; सर्व-लोक--सारे लोकों में; मल--अशुद्धियाँ;अपहम्--जो समूल नष्ट करती है।
कृष्ण का दर्शन करने की आशा से शक्तिशाली इन्द्र अपने साथ मरुतों, आदित्यों, बसुओं,अश्विनियों, ऋभुओं, अंगिराओं, रुद्रों, विश्वेदेवों, साध्यों, गन्धर्वों, अप्सराओं, नागों, सिद्धों,चारणों, गुह्कों, महान् ऋषियों, पितरों तथा विद्याधरों एवं किन्नरों को लेकर द्वारका नगरीपहुँचे।
कृष्ण ने अपने दिव्य स्वरूप द्वारा सारे मनुष्यों को मोह लिया और समस्त जगतों में अपनीमहिमा फैला दी।
भगवान् का यश ब्रह्माण्ड के भीतर समस्त कल्मष को नष्ट करने वाला है।
"
तस्यां विश्राजमानायां समृद्धायां महर्द्धिभि: ।
व्यचक्षतावितृप्ताक्षा: कृष्णमद्भुतदर्शनम् ॥
५॥
तस्याम्--उस ( द्वारका ) में; विध्राजमानायाम्--सुशोभित; समृद्धायाम्-- अत्यन्त धनी; महा-ऋद्द्धभि:--महान् ऐश्वर्य से;व्यचक्षत--उन्होंने देखा; अवितृप्त--असम्तुष्ट; अक्षा:--नेत्रों वाले; कृष्णम्--कृष्ण को; अद्भुत-दर्शनम्--आश्चर्ययुक्त होकरदेखना।
समस्त प्रकार के श्रेष्ठ ऐश्वर्यों से समृद्ध उस द्वारका की सुशोभित नगरी में देवताओं नेश्रीकृष्ण के अद्भुत रूप को अतृप्त नेत्रों से देखा।
"
स्वर्गेद्यानोपगैर्माल्यैश्छादयन्तो युदूत्तमम् ।
गीर्भिश्वित्रपदार्थाभिस्तुष्ठवुर्जगदी श्वरम् ॥
६॥
स्वर्ग-उद्यान--देवताओं के स्वर्गलोक के बगीचों से; उपगै:--प्राप्त किया गया; माल्यैः--फूल की मालाओं से; छादयन्त:--ढकते हुए; यदु-उत्तमम्--यदुश्रेष्ठ; गीर्भि: --वाणी से; चित्र--मोहक; पद-अर्थाभि:--जिससे युक्त शब्दों तथा विचारों से;तुष्ठवुः--प्रशंसा की; जगत्-ई श्ररम्-ब्रह्माण्ड के स्वामी को |
देवताओं ने समस्त ब्रह्माण्डों के परम स्वामी को स्वर्ग के उद्यानों से लाये गये फूलों के हारोंसे ढक दिया।
तब उन्होंने यदुबंश शिरोमणि भगवान् की मोहक शब्दों तथा भावमय बचनों सेप्रशंसा की।
"
श्रीदेवा ऊचुःनताः सम ते नाथ पदारविन्दंबुद्धीन्द्रियप्राणमनोवचोभि: ।
यच्चिन्त्यतेउन्तहदि भावयुक्तिर्मुमुक्षुभि: कर्ममयोरुपाशात् ॥
७॥
श्री-देवा: ऊचु:--देवताओं ने कहा; नताः स्म--हम नतमस्तक हैं; ते--तुम्हारे; नाथ--हे स्वामी; पद-अरविन्दमू--चरणकमलोंको; बुद्धि-- अपनी बुद्धि से; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; प्राण--प्राण-वायु; मनः--मन; वचोभि:--तथा शब्दों से; यत्--जो;चिन्त्यते--चिन्तन किये जाते हैं; अन्त: हदि--हृदय के भीतर; भाव-युक्तै:--योगाभ्यास में स्थिर चित्त वालों को; मुमुक्षुभि:ः--मुक्ति के लिए प्रयलशीलों के द्वारा; कर्म-मय--सकाम कर्म के फलों के; उरु-पाशात्-महान् बन्धन से।
देवता कहने लगे : हे प्रभु, बड़े बड़े योगी कठिन कर्म-बन्धन से मुक्ति पाने का प्रयास करतेहुए अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का ध्यान अतीव भक्तिपूर्वक करते हैं।
हम देवतागणअपनी बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण, मन तथा वाणी आपको समर्पित करते हुए, आपके चरणकमलों परनत होते हैं।
"
त्वं मायया त्रिगुणयात्मनि दुर्विभाव्यंव्यक्त सृजस्यवसि लुम्पसि तद्गुणस्थ: ।
नैतैर्भवानजित कर्मभिरज्यते वैयत्से सुखेउव्यवहितेडभिरतोनवद्य: ॥
८॥
त्वम्--तुम; मायया-- भौतिक शक्ति द्वारा; त्रि-गुणया--तीन गुणों से निर्मित; आत्मनि--अपने भीतर; दुर्विभाव्यम्--अचिन्त्य;व्यक्तमू--प्रकट जगत; सृजसि--उत्पन्न करते हो; अवसि--रक्षा करते हो; लुम्पसि--तथा संहार करते हो; तत्--उस प्रकृतिका; गुण--गुणों ( सतो, रजो तथा तमो ) के भीतर; स्थ:--स्थित; न--नहीं; एतैः--इनके द्वारा; भवान्ू--आप; अजित--हेअजेय स्वामी; कर्मभि:--कर्मो से; अज्यते--फँस जाते हैं; बै--तनिक ; यत्--क्योंकि; स्वे-- अपने; सुखे--सुख में;अव्यवहिते--बिना किसी रोक के; अभिरत:--सदैव लीन रहते हो; अनवद्य:--दोषरहित प्रभु |
है अजित प्रभुक, आप तीन गुणों से बनी अपनी मायाशक्ति को अपने ही भीतर अचिन्त्यव्यक्त जगत के सृजन, पालन तथा संहार में लगाते हैं।
आप माया के परम नियन्ता के रूप मेंप्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया में स्थित जान पड़ते हैं, किन्तु आप भौतिक कार्यो द्वारा कभीप्रभावित नहीं होते।
आप अपने नित्य आध्यात्मिक आनन्द में ही लगे रहते हैं, अतएवं आप परकिसी भौतिक संदूषण का दोषारोपण नहीं किया जा सकता।
"
शुद्धि्नृणां न तु तथेड् दुराशयानांविद्याश्रुताध्ययनदानतपःक्रियाभि: ।
सत्त्वात्मनामृषभ ते यशसि प्रवृद्ध-सच्छुद्धया श्रवणसम्भूतया यथा स्यात् ॥
९॥
शुद्धिः--शुद्धि; नृणाम्--मनुष्यों की; न--नहीं; तु--लेकिन; तथा--इस तरह; ईड्यू--हे पूज्य; दुराशयानाम्ू--उनके, जिनकीचेतना कलुषित है; विद्या--सामान्य पूजा द्वारा; श्रुत--वेदों का श्रवण तथा उनके आदेशों का पालन; अध्ययन--विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन; दान--दान; तपः--तपस्या; क्रियाभि:--तथा अनुष्ठानों द्वारा; सत्त्व-आत्मनाम्--सतोगुणियों के; ऋषभ--हेसर्वश्रेष्ठ; ते--तुम्हारा; यशसि--यश में; प्रवृद्ध--पूर्णतया परिपक्व; सत्--दिव्य; श्रद्धया-- श्रद्धा द्वारा; श्रवण-सम्भूतया--सुनने की विधि से पुष्ट हुआ; यथा--जिस तरह; स्यात्--है।
हे सर्वश्रेष्ठ जिनकी चेतना मोह से कलुषित है, वे केवल सामान्य पूजा, वेदाध्ययन, दान,तप तथा अनुष्ठानों द्वारा अपने को शुद्ध नहीं कर सकते।
हमारे स्वामी, जिन शुद्ध आत्माओं नेआपके यश के प्रति दिव्य प्रबल श्रद्धा उत्पन्न कर ली है, उन्हें ऐसा शुद्ध जन्म प्राप्त होता है, जोऐसी श्रद्धा से रहित लोगों को कभी प्राप्त नहीं हो पाता।
"
स्यान्नस्तवाड्प्रिशशुभाशयधूमकेतु:क्षेमाय यो मुनिभिरार््रहदोह्ममान: ।
यः सात्वतैः समविभूतय आत्मवद्धिर्व्यूहेडचिंत: सवनश: स्वरतिक्रमाय ॥
१०॥
स्थात्-वे हों; नः--हमारे लिए; तब--तुम्हारे; अद्धप्रि:--चरणकमल; अशुभ-आशय--हमारी अशुभ मनोवृत्ति के; धूम-केतु:ः--प्रलयंकारी अग्नि; क्षेमाय--असली लाभ पाने के लिए; यः--जो; मुनिभि: --मुनियों द्वारा; आर्द्र-हदा--पिघले हृदयोंसे; उह्ामान:--ले जाये जा रहे हैं; यः--जो; सात्वतैः-- भगवान् के भक्तों द्वारा; सम-विभूतये--उनके ही जैसा ऐश्वर्य पाने केलिए; आत्म-वद्धि:--आत्मसंयमियों के द्वारा; व्यूहे--वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्म तथा अनिरुद्ध इन चार स्वांशों द्वारा; अर्थित:--'पूजित; सवनश:--प्रत्येक दिन की तीन संधियों पर; स्व:-अतिक्रमाय--इस जगत के स्वर्ग से परे जाने के लिए।
जीवन में सर्वोच्च लाभ की कामना करने वाले बड़े बड़े मुनि अपने उन हृदयों के भीतरसदैव आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं, जो आपके प्रेम में द्रवित हैं।
इसी तरह आपकेआत्मसंयमी भक्तगण, आपके ही समान ऐश्वर्य पाने के लिए स्वर्ग से परे जाने की इच्छा से,आपके चरणकमलों की पूजा प्रातः, दोपहर तथा संध्या समय करते हैं।
इस तरह वे आपके चतुर्व्यूह रूप का ध्यान करते हैं।
आपके चरणकमल उस प्रज्वलित अग्नि के तुल्य है, जोभौतिक इन्द्रिय-तृप्ति विषयक समस्त अशुभ इच्छाओं को भस्म कर देती है।
"
यश्विन्त्यते प्रयतपाणिभिरध्वराग्नौ त्रय्या निरुक्तविधिनेश हविर्गृहीत्वा ।
अध्यात्मयोग उत योगिभिरात्ममायांजिज्ञासुभि: परमभागवतै:ः परीष्ट: ॥
११॥
यः--जो; चिन्त्यते-- ध्यान किया जाता है; प्रयत-पाणिभि:--हाथ जोड़े हुए लोगों के द्वारा; अध्वर-अग्नौ--यज्ञ की अग्नि में;तय्या--तीनों वेदों ( ऋगू, यजु: तथा साम ) के; निरुक्त--निरुक्त में दी हुई जानकारी; विधिना--विधि से; ईश--हे स्वामी;हवि:--हवन करने के निमित्त घी; गृहीत्वा--लेकर; अध्यात्म-योगे--आत्मा की अनुभूति हेतु योग-पद्धति में; उत-- भी;योगिभि:--योगियों द्वारा; आत्म-मायाम्--आपकी मोहने वाली माया के विषय में; जिज्ञासुभि:--जिज्ञासुओं द्वारा; परम-भागवतै:--अत्यन्त उन्नत हो चुके भक्तों द्वारा; परीष्ट:--पूजित |
जो लोग ऋग्, यजु: तथा सामवेद में दी गईं विधि के अनुसार यज्ञ की अग्नि में आहुति देतेसमय, वे आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं।
इसी प्रकार योगीजन आपकी दिव्य योगशक्तिका ज्ञान प्राप्त करने की आशा से आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं और जो पूर्णमहाभागवत हैं, वे आपकी मायाशक्ति को पार करने की इच्छा से, आपके चरणकमलों कीअच्छी तरह से पूजा करते हैं।
"
पर्युष्टया तब विभो वनमालयेयंसंस्पर्थिनी भगवती प्रतिपतीवच्छी: ।
यः सुप्रणीतममुयाहणमाददत्नोभूयात्सदाड्घ्रिरशुभाशयधूमकेतु: ॥
१२॥
पर्युष्टया--मुरझाई हुई, बासी; तब--तुम्हारा; विभो--सर्वशक्तिमान भगवान्; वनमालया--फूल की माला से; इयम्--वह;संस्पर्थिनी --स्पर्धा करती हुई; भगवती-- भगवान् की स्त्री; प्रति-पत्नी-वत्--ईर्ष्यालु सौत की तरह; श्री:--लक्ष्मीदेवी; यः --जो भगवान् ( आप ); सु-प्रणीतम्--जिससे भलीभाँति सम्पन्न हो सके; अमुया--इससे; अर्हणम्-- भेंट; आददन्--स्वीकारकरते हुए; नः--हमारा; भूयात्--हो; सदा--सदैव; अद्धध्रि:--चरणकमल; अशुभ-आशय--हमारी शुद्ध इच्छाओं की; धूम-केतुः--विनाश की अग्नि।
हे सर्वशक्तिमान, आप अपने सेवकों के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उस मुरझाई हुई( बासी ) फूलमाला को स्वीकार कर लिया है, जिसे हमने आपके वशक्षस्थल पर चढ़ाया था।
चूँकि लक्ष्मी देवी आपके दिव्य वक्षस्थल पर वास करती हैं, इसलिए निस्सन्देह वे हमारी भेंटोंको उसी स्थान पर अर्पित करते देखकर उसी तरह ईर्ष्या करेंगी, जिस तरह एक सौत करती है।
फिर भी आप इतने दयालु हैं कि आप अपनी नित्य संगिनी लक्ष्मी देवी की परवाह न करते हुएहमारी भेंट को सर्वोत्तम पूजा मान कर ग्रहण करते हैं।
हे दयालु प्रभु, आपके चरणकमल हमारेहृदयों की अशुभ कामनाओं को भस्म करने के लिए प्रज्वलित अग्नि का कार्य करें।
"
केतुस्त्रिविक्रमयुतस्त्रिपतत्पताकोयस्ते भयाभयकरोसुरदेवचम्वो: ।
स्वर्गाय साधुषु खलेष्वितराय भूमन्पद: पुनातु भगवन्भजतामघं न: ॥
१३॥
केतु:--झंडे का डंडा; त्रि-विक्रम--बलि महाराज को जीतने के लिए भरे गये तीन पग; यत:--अलंकृत; त्रि-पतत्--तीनोंलोकों में गिरते हुए; पताक:--झंडा, जिस पर; यः--जो; ते--तुम्हारे ( चरणकमल ); भय-अभय-- भय तथा निर्भीकता;करः--कर ने वाले; असुर-देव--असुरों तथा देवताओं की; चम्बो:--सेनाओं के लिए; स्वर्गाय--स्वर्ग-प्राप्ति के लिए;साधुषु--साधु-देवताओं तथा भक्तों के बीच; खलेषु--दुष्ट; इतराय--इनसे विपरीतों के लिए; भूमन्--हे सर्वाधिक शक्तिशालीप्रभु; पाद:--चरणकमल; पुनातु--पवित्र करें; भगवन्--हे भगवान्; भजतामू--आपकी पूजा में लगे हुए; अघधम्-पापों को;नः--हमारे।
हे सर्वशक्तिमान प्रभु, आपने अपने त्रिविक्रम अवतार में ब्रह्माण्ड के कवच को तोड़ने केलिए अपना पैर ध्वज-दंड की तरह उठाया और पवित्र गंगा को तीन शाखाओं में तीनों लोकों मेंसे होकर विजय-ध्वजा की भाँति बहने दिया।
आपने अपने चरणकमलों के तीन बलशाली पगोंसे बलि महाराज को उनके विश्वव्यापी साम्राज्य सहित वश में कर लिया।
आपके चरण असुरों मेंभय उत्पन्न करते हैं, जिससे वे नरक में भाग जाते हैं और आपके भक्तों में निर्भीकता उत्पन्नकरके, उन्हें स्वर्ग-जीवन की सिद्धि प्रदान करते हैं।
हे प्रभु, हम आपकी निष्ठापूर्वक पूजा करनाचाह रहे हैं, इसलिए आपके चरणकमल कृपा करके हमारे सभी पापकर्मों से हमें मुक्त करें।
"
नस्योतगाव इब यस्य वशे भवन्तिब्रह्मादयस्तनुभूतो मिथुरच्ामाना: ।
कालस्थ ते प्रकृतिपूरुषयो: परस्यशं नस्तनोतु चरण: पुरुषोत्तमस्य ॥
१४॥
नसि--नाक से होकर; ओत--नथे हुए; गाव:--बैल; इब--मानो; यस्य--जिसका; वशे--वश में; भवन्ति-- हो ते हैं; ब्रह्म-आदय:--ब्रह्मा तथा अन्य; तनु-भूत:ः--देहधारी जीव; मिथु:--परस्पर; अर्द्यमाना:--संघर्ष करते हुए; कालस्य--समय की शक्ति से; ते--तुम्हारा; प्रकृति-पूरुषयो:--प्रकृति तथा जीव दोनों; परस्थ--जो उनसे परे है; शम्--दिव्य भाग्य; न:ः--हमारेलिए; तनोतु--फैला सकें; चरण: --चरणकमल; पुरुष-उत्तमस्य-- भगवान् के आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, दिव्य आत्मा हैं, जो भौतिक प्रकृति तथा इसके भोक्ता दोनोंसे श्रेष्ठ हैं।
आपके चरणकमल हमें दिव्य आनन्द प्रदान करें।
ब्रह्मा इत्यादि सारे बड़े बड़े देवतादेहधारी जीव हैं।
आपके काल के वश में एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते वे सब उन बैलों जैसे हैं,जिन्हें छिदे हुए उनकी नाक में पड़ी रस्सी ( नथ ) के द्वारा खींचा जाता है।
"
अस्यासि हेतुरुदयस्थितिसंयमाना-मव्यक्तजीवमहतामपि कालमाहुः ।
सोडयं त्रिणाभिरखिलापचवे प्रवृत्तःकालो गभीररय उत्तमपूरुषस्त्वम् ॥
१५॥
अस्य--इस ( ब्रह्माण्ड ) का; असि--हो; हेतु:--कारण; उदय--सृष्टि; स्थिति-- पालन; संयमानाम्--तथा संहार; अव्यक्त--अव्यक्त प्रकृति का; जीव--जीव; महताम्--तथा महत तत्त्व का; अपि--भी; कालमू--नियंत्रक काल; आहुः--कहलाते हो;सः अयम्--यही व्यक्ति; त्रि-णाभि:--तीन नाभियों वाला; अखिल--हर वस्तु के; अपचये --हास में; प्रवृत्त:--लगा हुआ;काल:ः--काल, समय; गभीर--- अदृश्य, गम्भीर; रयः--जिसकी गति; उत्तम-पूरुष:-- भगवान्; त्वम्--तुम |
आप इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के कारण हैं।
आप प्रकृति की स्थूल तथासूक्ष्म दशाओं को नियमित करने वाले तथा हर जीव को अपने वश में करने वाले हैं।
कालरूपीचक्र की तीन नाभियों के रूप में आप अपने गम्भीर कार्यों द्वारा सारी वस्तुओं का हास करनेवाले हैं और इस तरह आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
"
त्वत्त: पुमान्समधिगम्य ययास्य वीर्यधत्ते महान्तमिव गर्भममोघवीर्य: ।
सोयं तयानुगत आत्मन आण्डकोशंहैम॑ ससर्ज बहिरावरणैरुपेतम् ॥
१६॥
त्वत्त:--तुमसे; पुमान्ू--पुरुष-अवतार, महाविष्णु; समधिगम्य--प्राप्त करके; यया--जिससे; अस्य--इस सृष्टि का; वीर्यम्--बीज; धत्ते--स्थापित करता है; महान्तम्--महत तत्त्व; इब गर्भम्ू--सामान्य भ्रूण ( गर्भ ) की तरह; अमोघ-वीर्य:--वह जिसकावीर्य नष्ट नहीं होता; सः अयम्--वही ( महत तत्त्व ); तया--प्रकृति के साथ; अनुगत:--मिला हुआ; आत्मन: --अपने से;आण्ड-कोशमू--ब्रह्माण्ड; हैमम्--सोने का; ससर्ज--उत्पन्न किया; बहिः--बाहर की ओर; आवरणै:--खोलों सहित;उपेतम्--प्रदत्त, समन्वित |
हे प्रभु, आदि पुरुष-अवतार महाविष्णु अपनी सर्जक शक्ति आपसे ही प्राप्त करते हैं।
इसतरह अच्युत शक्ति से युक्त बे प्रकृति में वीर्य स्थापित करके महत् तत्त्व उत्पन्न करते हैं।
तबभगवान् की शक्ति से समन्वित यह महत् तत्त्व अपने में से ब्रह्माण्ड का आदि सुनहला अंडाउत्पन्न करता है, जो भौतिक तत्त्वों के कई आवरणों ( परतों ) से ढका होता है।
"
तत्तस्थूषश्चव जगतश्च भवानधीशोयन्माययोत्थगुणविक्रिययोपनीतान् ।
अर्थाञ्जुषन्नपि हषीकपते न लिप्तोयेउन्ये स्वतः परिहृतादपि बिभ्यति सम ॥
१७॥
तत्--इसलिए; तस्थूष: --प्रत्येक अचर वस्तु का; च--तथा; जगत:--चर; च-- भी; भवानू--आप ( हैं ); अधीश:--चरमनियन्ता; यत्--क्योंकि; मायया--प्रकृति द्वारा; उत्थ--उठा हुआ; गुण--( प्रकृति के ) गुणोंका; विक्रियया--विकार से ( जीवोंकी इन्द्रियों के कर्म से ); उपनीतान्--पास पास लाये गये; अर्थान्--इन्द्रिय-विषय; जुषन्--लिप्त रहकर; अपि--यद्यपि;हृषीक-पते--हे इन्द्रियों के स्वामी; न लिप्त:--आपको छू नहीं पाते; ये--जो; अन्ये--अन्य; स्वतः--अपने बल पर;'परिहतात्-- के कारण; अपि-- भी; बिभ्यति--ड रते हैं; स्म--निस्सन्देहहे प्रभु, आप इस ब्रह्माण्ड के परम स्त्रष्टा हैं और समस्त चर तथा अचर जीवों के परमनियन्ता हैं।
आप हषीकेश अर्थात् सभी इन्द्रिय-विषयक कार्यो के परम नियंता हैं और आप कभीभी इस भौतिक सृष्टि के भीतर अनन्त इन्द्रिय-विषय-कार्यों के अधीक्षण के समय संदूषित यालिप्त नहीं होते।
दूसरी ओर, अन्य जीव, यहाँ तक कि योगी तथा दार्शनिक भी उन भौतिकवस्तुओं का स्मरण करके विचलित तथा भयभीत रहते हैं केवल उन भौतिक पदार्थों को यादकरके जिनका परित्याग प्रकाश की खोज करते समय उन्होंने त्याग दिया था।
"
स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि-भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डै: ।
पल्यस्तु षोडशसहस्त्रमनड्रबाणै-यस्येन्द्रियं विमधितुं करणैर्न विभ्व्य: ॥
१८ ॥
स्माय--मुसकान; अवलोक--चितवन का; लव--अंश द्वारा; दर्शित--दिखलाया हुआ; भाव--उनके विचार; हारि--मोहक;भ्रू-मण्डल-- भौंहों के अर्धवृत्र द्वारा; प्रहित-- भेजा गया; सौरत--दाम्पत्य प्रेम का; मन्त्र--सन्देश; शौण्डै:--प्रगल्भ; पत्य:--पत्ियाँ; तु--लेकिन; षोडश-सहस्त्रमू-सोलह हजार; अनड्र-- कामदेव के; बाणै:--बाणों द्वारा; यस्थ--जिसकी; इन्द्रियम्ू--इन्द्रियाँ; विमधितुम्--विश्लुब्ध करने के लिए; करणैः--अपनी सारी युक्तियों से; न विभ्व्य:--समर्थ नहीं थे ।
हे प्रभु, आप सोलह हजार अत्यन्त सुन्दर राजसी पत्नियों के साथ रह रहे हैं।
अपनी अत्यन्तलजीली तथा मुस्कान-भरी चितवन तथा सुन्दर धनुष-रूपी भौंहों से वे आपको अपने उत्सुकप्रणय का सन्देश भेजती हैं।
किन्तु वे आपके मन तथा इन्द्रियों को विचलित करने में पूरी तरहअसमर्थ रहती हैं।
"
विभ्व्यस्तवामृतकथोदवहास्त्रिलोक्या:पादावनेजसरितः शमलानि हन्तुम् ।
आनुश्रवं श्रुतिभिरडप्रिजमड्रसड्रै-स्तीर्थद्वयं शुच्चिषिदस्त उपस्पूशन्ति ॥
१९॥
विभ्व्य:--समर्थ हैं; तब--तुम्हारी; अमृत-- अमृतमयी; कथा--कथाओं का; उद-वहा:--जल धारण करने वाली नदियाँ; त्रि-लोक्याः--तीनों लोकों की; पाद-अवने--आपके चरणकमलों को स्नान कराने से; ज--उत्पन्न; सरितः--नदियाँ; शमलानि--सारा दूषण; हन्तुम्--नष्ट करने के लिए; आनुश्रवम्-प्रामाणिक व्यक्ति से श्रवण-विधि से युक्त; श्रुतिभि: --कानों से; अद्भूप्रि-जम्--आपके चरणकमलों से निकली ( पवित्र नदी से युक्त ); अड्ड-सद्डैः--सीधे शारीरिक सम्पर्क से; तीर्थ-द्रयम्--ये दोप्रकार के तीर्थस्थान; शुचि-षद:--शुद्धि के लिए प्रयलशील; ते--तुम्हारे; उपस्पृशन्ति--साथ रहने के लिए पास आते हैं
आपके विषय में वार्ता रूपी अमृतवाहिनी नदियाँ तथा आपके चरणकमलों के धोने सेउत्पन्न पवित्र नदियाँ तीनों लोकों के सारे कल्मष को विनष्ट करने में समर्थ हैं।
जो शुद्धि के लिएप्रयत्नशील रहते हैं, वे अपने कानों से सुनी हुई आपकी महिमा की पवित्र कथाओं का सात्निध्यपाते हैं और आपके चरणकमलों से निकलने वाली पवित्र नदियों से उनमें स्नान करके, सात्निध्यप्राप्त करते हैं।
"
श्रीबादरायणिरुवाचइत्यभिष्टूय विबुधे: सेश: शतधृतिहरिम् ।
अभ्यभाषत गोविन्दं प्रणम्याम्बरमाश्रित: ॥
२०॥
श्री-बादरायणि: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; अभिष्टूय-- प्रशंसा करके; विबुधे:--सारे देवताओंके साथ; स-ईशः--शिव समेत; शत-धूृति:--ब्रह्मा; हरिम्--परमे श्वर से; अभ्यभाषत--कहा; गोविन्दम्-- गोविन्द को;प्रणम्य--प्रणाम करके ; अम्बरम्-- आकाश में; आश्रित:--स्थित
श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह ब्रह्माजी शिव तथा अन्य देवताओं समेतभगवान् गोविन्द की स्तुति करने के बाद स्वयं आकाश में स्थित हो गये और उन्होंने भगवान् कोइस प्रकार से सम्बोधित किया।
"
श्रीब्रह्मोवाचभूमेर्भारावताराय पुरा विज्ञापित: प्रभो ।
त्वमस्माभिरशेषात्मन्तत्तथेवोपपादितम् ॥
२१॥
श्री-ब्रह्मा उबाच-- श्री ब्रह्मा ने कहा; भूमेः--पृथ्वी का; भार--बोझ; अवताराय--कम करने के लिए; पुरा--पहले;विज्ञापित:--प्रार्थना किये गये थे; प्रभो--हे प्रभु; त्वम्--तुम; अस्माभि:--हमारे द्वारा; अशेष-आत्मन्--हे सबों के असीमआत्मा; तत्ू--वह ( प्रार्थना ); तथा एब--जैसा हमने कहा, उसी तरह; उपपादितम्ू--पूरा हुआ
ब्रह्मा ने कहा : हे प्रभु, इसके पूर्व हमने आपसे पृथ्वी का भार हटाने की प्रार्थना की थी।
हेअनन्त भगवान्, हमारी वह प्रार्थना पूरी हुई है।
"
धर्मश्व स्थापित: सत्सु सत्यसन्धेषु वै त्वया ।
कीर्तिश्व दिश्लु विक्षिप्ता स्वलोकमलापहा ॥
२२॥
धर्म:--धर्म के सिद्धान्त; च--तथा; स्थापित:--स्थापित; सत्सु--पवित्र जनों में; सत्य-सन्धेषु--सत्य की खोज करने बालों मेंसे; वै--निस्सन्देह; त्ववा--तुम्हारे द्वारा; कीर्ति:--तुम्हारी कीर्ति; च--तथा; दिक्षु--सारी दिशाओं में ; विक्षिप्ता--फैली हुई;सर्व-लोक--सारे लोकों के; मल--कल्मष; अपहा--दूर करने वाले।
हे प्रभु, आपने उन पवित्र लोगों के बीच धर्म की पुनर्स्थापना की है, जो सत्य से सदैवहढ़तापूर्वक बँधे हुए हैं।
आपने अपनी कीर्ति का भी सारे विश्व में वितरण किया है।
इस तरहसारा संसार आपके विषय में श्रवण करके शुद्ध किया जा सकता है।
"
अवतीर्य यदोर्वृशे बिश्रद्गूपमनुत्तमम् ।
कर्माण्युद्यामवृत्तानि हिताय जगतोकृथा: ॥
२३॥
अवतीर्य--अवतरित होकर; यदो:--राजा यदु के ; वंशे--वंश में; बिभ्रत्-- धारण करते हुए; रूपम्ू--दिव्य रूप; अनुत्तमम्--अद्वितीय; कर्माणि--कर्म ; उद्दाम-वृत्तानि--उदार कार्यों से युक्त; हिताय--लाभ के लिए; जगत:--ब्रह्माण्ड के; अकृथा: --आपने सम्पन्न किया।
आपने यदुवंश में अवतार लेकर अपना अद्वितीय दिव्य रूप प्रकट किया है और सम्पूर्णब्रह्माण्ड के कल्याण हेतु आपने उदार दिव्य कृत्य किये हैं।
"
यानि ते चरितानीश मनुष्या: साधव: कलौ ।
श्रण्वन्तः कीर्तयन्तश्न तरिष्यन्त्यज्ससा तम: ॥
२४॥
यानि--जिन; ते--तुम्हारे; चरितानि--लीलाओं को; ईश--हे परमे श्वर; मनुष्या: --मनुष्य; साधव: --सन्त-पुरुष; कलौ--कलियुग में; श्रृण्वन्तः--सुनते हुए; कीर्तयन्त:--कीर्तन करते हुए; च--तथा; तरिष्यन्ति--पार कर जायेंगे; अज्खसा--सरलतासे; तमः--अंधकार।
हे प्रभु, कलियुग में पवित्र तथा सनन््त-पुरुष, जो आपके दिव्य कार्यों का श्रवण करते हैं औरउनका यशोगान करते हैं, वे इस युग के अंधकार को सरलता से लाँघ जायेंगे।
"
यदुवंशेवर्तीर्णस्य भवत:ः पुरुषोत्तम ।
शरच्छतं व्यतीयाय पञ्जञविंशाधिकं प्रभो ॥
२५॥
यदु-वंशे--यदुकुल में; अवतीर्णस्य--अवतरित; भवत:--आपका; पुरुष-उत्तम--हे परम पुरुष; शरत्-शतम्--एक सौ शरदऋतुएँ; व्यतीयाय--व्यतीत करके ; पञ्ञ-विंश--पच्चीस; अधिकम्-- अधिक; प्रभो-हे प्रभुहे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्
हे प्रभु, आप यदुकुल में अवतरित हुए हैं और अपने भक्तों केसाथ आपने एक सौ पच्चीस शरद ऋतुएँ बिताई हैं।
"
नाधुना तेडखिलाधार देवकार्यावशेषितम् ।
कुलं च विप्रशापेन नष्टप्रायमभूदिदम् ॥
२६॥
ततः स्वधाम परम विशस्व यदि मन्यसे ।
सलोकाल्लोकपालान्नः पाहि बैकुण्ठकिड्डरानू ॥
२७॥
न अधुना-- और अधिक नहीं; ते--तुम्हारे लिए; अखिल-आधार--सभी वस्तुओं के आधार; देव-कार्य--देवताओं की ओर सेकिया गया कार्य; अवशेषितम्-शेष भाग; कुलम्--आपका वंश; च--तथा; विप्र-शापेन--ब्राह्मण के शाप से; नष्ट-प्रायम्ू--एक तरह से विनष्ट; अभूत्--हो गया है; इदम्--यह; ततः--इसलिए; स्व-धाम-- अपने धाम; परमम्--परम;विशस्व--प्रवेश कीजिए; यदि--यदि; मन्यसे--आप ऐसा मानते हैं; स-लोकान्--सारे लोकों के निवासियों सहित; लोक-पालान्--लोकों के संरक्षक; न:--हमको; पाहि--रक्षा करते रहें; वैकुण्ठ--विष्णु का वैकुण्ठ; किड्डरानू-- सेवकों को
हे प्रभु, इस समय देवताओं की ओर से, आपको करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा।
आपने पहले ही अपने वंश को ब्राह्मण के शाप से उबार लिया है।
हे प्रभु, आप सारी वस्तुओं केआधार हैं और यदि आप चाहें, तो अब बैकुण्ठ में अपने धाम को लौट जाय।
साथ ही, हमारीविनती है कि आप सदैव हमारी रक्षा करते रहें।
हम आपके विनीत दास हैं और आपकी ओर से हम ब्रह्माण्ड का कार्यभार सँभाले हुए हैं।
हमें अपने लोकों तथा अनुयायियों समेत आपके सततसंरक्षण की आवश्यकता है।
"
श्रीभगवानुवाचअवधारितमेतन्मे यदात्थ विबुधे श्वर ।
कृतं वः कार्यमखिलं भूमेर्भारोउइवतारित: ॥
२८॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; अवधारितम्--समझा जाता है; एतत्--यह; मे--मेरे द्वारा; यत्ू--जो; आत्थ-- आपनेकहा है; विबुध-ईश्वर--हे देवताओं के नियन्ता, ब्रह्मा; कृतम्--पूर्ण हो चुका; वः--तुम्हारा; कार्यमू--कार्य; अखिलम्--सारा;भूमेः:--पृथ्वी का; भार:--भार; अवतारित: --हटा दिया गया।
भगवान् ने कहा : हे देवताओं के अधीश ब्रह्मा, मैं तुम्हारी प्रार्थाओं तथा अनुरोध कोसमझता हूँ।
पृथ्वी का भार हटाकर मैं वह सारा कार्य सम्पन्न कर चुका, जिस कार्य की तुमलोगों से अपेक्षा थी।
"
तदिदं यादवकुलं वीर्यशौर्यश्रियोद्धतम् ।
लोकं जिधृक्षद्रुद्धं मे वेलयेव महार्णव: ॥
२९॥
तत् इृदम्--इसी; यादव-कुलम्--यादव-वंश; वीर्य--उनकी शक्ति; शौर्य--साहस; थ्रिया--तथा एऐश्वर्य से; उद्धतम्--प्रवर्धित;लोकम्--सारा जगत; जिधघृक्षत्--निगल जाने की धमकी देते हुए; रुद्धमू--रोका हुआ; मे--मेरे द्वारा; वेलया--समुद्री तटद्वारा; इब--सहश; महा-अर्णव:--महासागर।
वही यादव-कुल, जिसमें मैं प्रकट हुआ, ऐश्वर्य में, विशेष रूप से अपने शारीरिक बल तथासाहस में, इस हद तक बढ़ गया कि वे सारे जगत को ही निगल जाना चाहते थे।
इसलिए मैंनेउन्हें रोक दिया है, जिस तरह तट महासागर को रोके रहता है।
"
यद्यसंहत्य हप्तानां यदूनां विपुलं कुलम् ।
गन्तास्म्यनेन लोकोयमुद्वेलेन विनड्छ््यति ॥
३०॥
यदि--यदि; असंहृत्य--बिना हटाये; हृप्तानामू--धमंड से चूर रहने वाले; यदूनाम्ू--यदुओं के; विपुलम्ू--विशाल; कुलम्--वंश को; गन्ता अस्मि--मैं जाता हूँ; अनेन--इस कारण से; लोक:--जगत; अयम्--यह; उद्वेलेन--उफान ( यदुओं के ) से;विनड्छ्यति--विनष्ट हो जायेगा।
यदि मुझे यदुवंश के इन अतिशय घमंड से चूर रहने वाले सदस्यों को हटाए बिना यह संसारत्यागना पड़ा, तो इनके असीम विस्तार के उफान से सारा संसार विनष्ट हो जायेगा।
"
इदानीं नाश आरब्ध:ः कुलस्य द्विजशापज:ः ॥
यास्यामि भवन ब्रह्मन्नेतदन््ते तवानघ ॥
३१॥
इदानीमू--इस समय; नाश: --विनाश; आरब्ध: --शुरू हो चुका है; कुलस्य--वंश का; द्विज-शाप-जः--ब्राह्मणों के शाप केकारण; यास्यामि-- मैं जाऊँगा; भवनम्--आवास-स्थान को; ब्रह्मनू-हे ब्रह्मा; एतत्-अन्ते--इसके पश्चात्; तब--तुम्हारे;अनघ--हे निष्पाप |
अब ब्राह्मणों के शाप के कारण मेरे परिवार का विनाश पहले ही शुरू हो चुका है।
हेनिष्पाप ब्रह्म, जब यह विनाश पूरा हो चुकेगा और मैं वैकुण्ठ जा रहा होऊँगा, तो मैं थोड़े समयके लिए तुम्हारे वास-स्थान पर अवश्य आऊँगा।
"
श्रीशुक उबाचइत्युक्तो लोकनाथेन स्वयम्भू: प्रणिपत्य तम् ।
सह देवगणैर्देव: स्वधाम समपद्यत ॥
३२॥
श्री-शुक: उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त:--कहे जाने पर; लोक-नाथेन--ब्रह्माण्ड के स्वामीश्रीकृष्ण द्वारा; स्वयम्-भू:--स्वतः जन्मे ब्रह्मा ने; प्रणिपत्य--गिर कर नमस्कार करते हुए; तमू--उनको; सह--सहित; देव-गणै:--सारे देवताओं; देव: --ब्रह्मा जी; स्व-धाम-- अपने निजी धाम; समपद्यत--लौट गये।
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : ब्रह्माण्ड के स्वामी द्वारा ऐसा कहे जाने पर स्वयम्भू ब्रह्माउनके चरणकमलों पर गिर पड़े और उन्हें नमस्कार किया।
तब सारे देवताओं से घिरे हुए ब्रह्माजीअपने निजी धाम लौट गये।
"
अथ तसयां महोत्पातान्द्वारवत्यां समुत्थितान् ।
विलोक्य भगवानाह यदुवृद्धान्समागतान् ॥
३३॥
अथ--त्पश्चात्; तस्याम्--उस नगरी में; महा-उत्पातान्ू-- भयंकर उपद्रवों को; द्वारवत्याम्-द्वारका में; समुत्थितान्ू--उठ खड़ेहुए; विलोक्य--देखकर; भगवानू-- भगवान् ने; आह--कहा; यदु-वृद्धान्ू--वृद्ध यदुवंशियों से; समागतान्--एकत्रित |
तत्पश्चात्, भगवान् ने देखा कि पवित्र नगरी द्वारका में भयंकर उत्पात हो रहे हैं।
अतःएकत्रित वृद्ध यदुवंशियों से भगवान् इस प्रकार बोले।
"
श्रीभगवानुवाचएते वै सुमहोत्पाता व्युत्तिष्ठन्तीह सर्वतः ।
शापश्च नः कुलस्यासीद्राह्मणे भ्यो दुरत्ययः ॥
३४॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; एते--ये; वै--निस्सन्देह; सु-महा-उत्पाता:--अतीव बड़े उत्पात; व्युत्तिष्ठन्ति--उठ खड़ेहो रहे हैं; हह--यहाँ; सर्वतः--सभी दिशाओं में; शाप:--शाप; च--तथा; न:--हमारे; कुलस्थ--परिवार का; आसीत्--होतारहा है; ब्राह्मणेभ्य:--ब्राह्मणों द्वारा; दुरत्ययः--निराकरण कर पाना ( टाल सकना ) असम्भव।
भगवान् ने कहा : ब्राह्मणों ने हमारे वंश को शाप दिया है।
ऐसे शाप का परिहार असम्भवहै, इसीलिए हमारे चारों ओर महान् उत्पात हो रहे हैं।
"
न वस्तव्यमिहास्माभिर्जिजीविषुभिरार्यका: ।
प्रभासं सुमहत्पुण्यं यास्यामो उह्यैव मा चिरम् ॥
३५॥
न वस्तव्यम्--नहीं निवास करना चाहिए; इह--यहाँ; अस्माभि:ः--हमारे द्वारा; जिजीविषुभि:--जीवित रहने की इच्छा से;आर्यकाः-हे शिष्ट लोगो; प्रभासम्-प्रभास नामक तीर्थस्थान को; सु-महत्--अत्यधिक; पुण्यम्--पवित्र; यास्याम:--हमचलें; अद्य--आज; एव--ही; मा चिरमू--बिना विलम्ब किये।
हे आदरणीय वरेषुजनो, यदि हम अपने प्राणों को अक्षत रखना चाहते हैं, तो अब औरअधिक काल तक हमें इस स्थान पर नहीं रहना चाहिए।
आज ही हम परम पवित्र स्थल प्रभासचलें।
हमें तनिक भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।
श़" यत्र स्नात्वा दक्षशापादगृहीतो यक्ष्मणोदुराट् ।
विमुक्त: किल्बिषात्सद्यो भेजे भूयः कलोदयम् ॥
३६॥
यत्र--जहाँ; स्नात्वा--स्नान करके ; दक्ष-शापात्-- प्रजापति दक्ष के शाप से; गृहीत:ः--पकड़ा हुआ, पीड़ित; यक्ष्मणा--फेफड़ोंके रोग यक्ष्मा से; उडु-राट्--तारों का राजा, चन्द्रमा; विमुक्त:--मुक्त हुआ; किल्बिषात्--अपने पापों से; सद्यः--तुरन्त;भेजे-- धारण किया; भूय:--पुन:ः; कला--अपनी कलाओं की; उदयम्--अभिवृद्धि
एक बार दक्ष के शाप के कारण चन्द्रमा यक्ष्मा से पीड़ित था, किन्तु प्रभास क्षेत्र में स्नानकरने मात्र से चन्द्रमा अपने सारे पापों से तुरन्त विमुक्त हो गया और उसने अपनी कलाओं कीअभिवृद्धि भी प्राप्त की।
"
बयं च तस्मिन्नाप्लुत्य तर्पयित्वा पितृन्सुरान् ।
भोजयित्वोषिजो विप्रान्नानागुणवतान्धसा ॥
३७॥
तेषु दानानि पात्रेषु श्रद्धयोप्त्वा महान्ति वै ।
वृजिनानि तरिष्यामो दानेनौभिरिवार्णवम् ॥
३८॥
वयम्--हम; च--भी; तस्मिन्--उस स्थान पर; आप्लुत्य--स्नान करके; तर्पयित्वा--भेंट द्वारा तुष्ट करके, तर्पण करके;पितृनू--दिवंगत् पुरखों को; सुरानू--तथा देवताओं को; भोजयित्वा-- भोजन कराकर; उषिज: -- पूज्य; विप्रान्ू--ब्राह्मणों को;नाना--विविध; गुण-वता--स्वाद वाले; अन्धसा-- भोजन से; तेषु--उन ( ब्राह्मणों ) में; दानानि--दान, भेंटें; पात्रेषु--दान केयोग्य व्यक्ति; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; उप्त्वा--बोकर ( उन्हें भेंट करके ); महान्ति--महान्; बै--निस्सन्देह; वृजिनानि--संकट;तरिष्याम:--हम लाँघ सकेंगे; दानै:--अपने दान से; नौभि:--नावों से; इब--जैसे; अर्गवम्--समुद्र को
प्रभास क्षेत्र में स्नान करने, वहाँ पर पितरों तथा देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि देने,पूज्य ब्राह्मणों को नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने तथा उन्हें ही दान का योग्य पात्र मानकर पर्याप्त दान देने से, हम निश्चय ही इन भीषण संकटों को पार कर सकेंगे, जिस तरह मनुष्यकिसी उपयुक्त नाव में चढ़ कर महासागर को पार कर सकता है।
"
श्रीशुक उबाचएवं भगवतादिष्टा यादवा: कुरुनन्दन ।
गन्तुं कृतथधियस्तीर्थ स्यन्दनान््समयूयुजन् ॥
३९॥
श्री-शुक: उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; भगवता-- भगवान् द्वारा; आदिष्टा:--आदेश दिये गये;यादवा:--यादवगण; कुरु-नन्दन--हे कुरुओं के प्रिय; गन्तुम्--जाने के लिए; कृत-धिय:--मन में संकल्प करके; तीर्थम्--पवित्र स्थान को
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे कुरुनन्दन, इस तरह भगवान् द्वारा आदेश दिये जाने परयादवों ने उस प्रभास क्षेत्र नामक पवित्र स्थान को जाने का निश्चय किया और उन्होंने अपने अपनेरथों में घोड़े जोत दिये।
"
तत्रिरीक्ष्योद्धवो राजन्श्रुत्ता भगवतोदितम् ।
इष्ठारिष्टानि घोराणि नित्यं कृष्णमनुत्रत: ॥
४०॥
विविक्त उपसड्म्य जगतामी श्वरेश्वरम् ।
प्रणम्य शिरिसा पादौ प्राज्ललिस्तमभाषत ॥
४१॥
तत्--वह; निरीक्ष्य--देखकर; उद्धव:--उद्द्वव; राजन्ू--हे राजा; श्रुत्वा--सुनकर; भगवता-- भगवान् द्वारा; उदितम्ू--कहाहुआ; हदृष्ठा--देखकर; अरिष्टानि-- अपशकुनों को; घोराणि-- भयानक; नित्यमू--सदैव; कृष्णम्-- भगवान् कृष्ण का;अनुव्रत:--श्रद्धालु अनुयायी; विविक्ते--एकान्त में; उपसड्रम्घ--पास जाकर; जगताम्--ब्रह्माण्ड के समस्त चर प्राणियों के;ईश्वर--नियन्ता के; ई श्वरमू--परम नियन्ता को; प्रणम्य--प्रणाम करके; शिरसा--सिर के बल; पादौ--उनके चरणों पर;प्राज्ललिः--विनती के लिए हाथ जोड़े; तम्--उनसे; अभाषत--बोले
हे राजन, उद्धव भगवान् कृष्ण के सदा से ही श्रद्धावान अनुयायी थे।
यादवों के कूच कोअत्यन्त निकट देखकर, उनसे भगवान् के आदेशों को सुनकर तथा भयावने अपशकुनों कोध्यान में रखते हुए, वे एकान्त स्थान में भगवान् के पास गये।
उन्होंने ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता केचरणकमलों पर अपना शीश झुकाया और हाथ जोड़ कर उनसे इस प्रकार बोले।
"
श्रीउद्धव उबाचदेवदेवेश योगेश पुण्यश्रवणकीर्तन ।
संहत्यैतत्कुलं नूनं लोक॑ सन्त्यक्ष्यते भवान् ।
विप्रशापं समर्थोपि प्रत्यहन्न यदी श्वरः ॥
४२॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; देव-देव--देवताओं में सबसे महान् के; ईश--हे परम ई श्वर; योग-ईश--हे समस्तयोगशक्ति के स्वामी; पुण्य--जो पवित्र हैं; भ्रवण-कीर्तन--जिसकी महिमा का श्रवण तथा कीर्तन कर रहे आप; संहत्य--समेट कर; एतत्--इस; कुलम्--वंश को; नूनम्--ऐसा नहीं है; लोकम्--यह जगत; सन्त्यक्ष्यते--सदा के लिए त्यागने वालेहैं; भवान्ू--आप; विप्र-शापम्--ब्राह्मणों का शाप; समर्थ: --सक्षम; अपि--यद्यपि; प्रत्यहन् न--तुमने मिटाया नहीं; यत्--क्योंकि; ईश्वर:-थे सुप्रेमे लो
श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, हे देवों के परम ईश्वर, आपकी दिव्य महिमा का श्रवण औरकीर्तन करने से ही असली दया आती है।
हे प्रभु, ऐसा लगता है कि अब आप अपने वंश कोसमेट लेंगे और आप इस ब्रह्माण्ड में अपनी लीलाएँ भी बन्द कर देंगे।
आप सम्स्त माया-शक्तिके परम नियन्ता और स्वामी हैं।
यद्यपि आप अपने वंश को दिये गये ब्राह्मणों के शाप कोमिटाने में पूर्णतया समर्थ हैं, किन्तु आप ऐसा नहीं कर रहे हैं और आपका तिरोधान सन्निकट है।
"
नाहं तवाड्प्रिकमलं क्षणार्धभपि केशव ।
त्यक्तु समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि ॥
४३॥
न--नहीं; अहम्--मैं हूँ; तब--तुम्हारे; अद्धप्रि-कमलम्--चरणकमल; क्षण--एक क्षण का; अर्धमू--आधा; अपि-- भी;केशव--हे केशी असुर के मारने वाले; त्यक्तुमू--छोड़ पाना; समुत्सहे--सहन करने में समर्थ हूँ; नाथ--हे प्रभु; स्व-धाम--अपने निजी धाम; नय--ले चलिये; मामू--मुझको; अपि--भी |
हे स्वामी, भगवान् कृष्ण, मैं आधे क्षण के लिए भी आपके चरणकमलों का विछोह सहननहीं कर सकता।
मेरी विनती है कि आप मुझे भी अपने साथ अपने धाम लेते चलें।
"
तब विक्रीडितं कृष्ण नूनां परममड्रलम् ।
कर्णपीयूषमासाद्य त्यजन्त्यन्यस्पूहां जना: ॥
४४॥
तव--तुम्हारी; विक्रीडितमू--लीलाएँ; कृष्ण--हे कृष्ण; नृणाम्ू--मनुष्यों के लिए; परम-मड्रलम्--अत्यन्त शुभ; कर्ण--कानों के लिए; पीयूषम्--अमृत; आसाद्य--आस्वादन करके; त्यजन्ति--त्याग देते हैं; अन्य-- अन्य वस्तुओं के लिए;स्पृहामू--उनकी इच्छाएँ; जना: --व्यक्ति।
है कृष्ण, आपकी लीलाएँ मनुष्य प्रजाति के लिए अतीव शुभ हैं और कानों के लिए मादकपेय तुल्य हैं।
ऐसी लीलाओं का आस्वादन करने पर लोग अन्य वस्तुओं की इच्छाएँ भूल जाते हैं।
"
शय्यासनाटनस्थानस्नानक्रीडाशनादिषु ।
कथं त्वां प्रियमात्मानं वयं भक्तास्त्यजेम हि ॥
४५॥
सय्या--; आसन--; अटन--; स्थान--; स्नान--; क्रीडा--; आसन--; आदिषु--; कथम्--; त्वाम्--; प्रियम्--;आत्मानमू--; वयम्--; भक्ता:--; त्यजेम--; हि--हे प्रभु, आप परमात्मा हैं इसलिए, आप हमें सर्वाधिक प्रिय हैं।
हम सभी आपके भक्त हैं, तोभला हम किस तरह आपको त्याग सकते हैं या आपके बिना क्षण-भर भी रह सकते हैं? हमलेटते-बैठते, चलते, खड़े होते, नहाते, खेलते, खाते या अन्य कुछ करते आपकी ही सेवा मेंनिरन्तर लगे रहते हैं।
"
त्वयोपभुक्तर्रग्गन्धवासोलड्ढारचर्चिता: ।
उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेम हि ॥
४६॥
त्वया--तुम्हारे द्वारा; उपभुक्त--पहले भोगा हुआ; सत्रकु--माला की; गन्ध--सुगन्ध; वास:--वस्त्र; अलड्लार--तथा गहने;चर्चिता:--सज्जित; उच्छिष्ट-- आपका जूठन; भोजिन:--खाते हुए; दासा:--दास; तब--आपके; मायाम्--माया को;जयेम--हम जीत लेंगे; हि--निस्सन्देह।
आपके द्वारा उपभोग की गईं मालाओं, सुगन्धित तेलों, बस्त्रों तथा गहनों से अपने कोसजाकर तथा आपका जूठन खाकर हम आपके दास निश्चय ही आपकी माया को जीत सकेंगे।
"
वातवसना य ऋषय: श्रमणा ऊर्ध्रमन्थिनः ।
ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ता: सन्ष्यासीनोइमला: ॥
४७॥
वात-वसना:--दिगम्बर, नग्न; ये--जो हैं; ऋषय:--ऋषिगण; श्रमणा:--आध्यात्मिक अभ्यास के कट्टर अनुयायी; ऊर्ध्व-मन्थिन:--ऊरध्वरिता, जिनका सुरक्षित वीर्य सिर तक चढ़ जाता है; ब्रह्म-आख्यम्--ब्रह्म के नाम से विख्यात; धाम--निर्विशेषदिव्य धाम; ते--वे; यान्ति--जाने के लिए; शान्ता:--शान्त; सन्ष्यासिन:--संन्यासी लोग; अमला:--पापरहित ।
आध्यात्मिक अभ्यास में गम्भीरता से प्रयास करने वाले नग्न ऋषिगण, ऊरध्वरिता, शान्त तथानिष्पाप सन्यासी आध्यात्मिक धाम को प्राप्त करते हैं, जो ब्रह्न कहलाता है।
"
वबयं त्विह महायोगिन्भ्रमन्तः कर्मवर्त्मसु ।
त्वद्वार्तया तरिष्यामस्तावकैर्दुस्तरं तम: ॥
४८ ॥
स्मरन्तः कीर्तयन्तस्ते कृतानि गदितानि च ।
गत्युत्समितेक्षणक्ष्वेलि यन्नलोकविडम्बनम् ॥
४९॥
वयम्--हम; तु--दूसरी ओर; इह--इस जगत में; महा-योगिन्--हे महायोगी; भ्रमन््तः--घूमते हुए; कर्म-वर्त्ससु-- भौतिक कर्मके मार्ग पर; त्वत्--तुम्हारा; वार्तवा--कथाओं पर विचार-विमर्श द्वारा; तरिष्याम:--पार करेंगे; तावकै: --तुम्हारे भक्तों सहित;दुस्तरम्--दुर्लघ्य; तम:--अंधकार; स्मरन्तः कीर्तयन्त:--महिमा गान करते; ते--तुम्हारे; कृतानि--कार्यो को; गदितानि--शब्दों को; च--तथा; गति--चाल; उत्स्मित--मुसकान; ईक्षण--चितवन; क्षेलि--तथा मोहक लीलाएँ; यत्--जो हैं; नू-लोक--मानव समाज की; विडम्बनम्--नकल
हे महायोगी यद्यपि हम सकाम कर्म के मार्ग पर विचरण करने वाले बद्धजीव हैं, किन्तु हमआपके भक्तों की संगति में आपके विषय में सुन कर ही इस भौतिक जगत के अंधकार को पारकर जायेंगे।
इस तरह आप जो भी अद्भुत कार्य करते हैं और अद्भुत बातें करते हैं, उनको हमसदैव स्मरण करते हैं और उनका यशोगान करते हैं।
हम अत्यन्त भावपूर्ण होकर स्मरण करते हैं कि आप अपने विश्वस्त सुमाधुर्य दाम्पत्य का भक्तों के साथ श्रृंगारिक लीलाओं तथा ऐसीयौवनपूर्ण लीलाओं में लगे हुए आप किस तरह निर्भीक होकर मुसकाते तथा विचरण करते हैं।
हे प्रभु, आपकी प्रेममयी लीलाएँ इस भौतिक जगत के भीतर सामान्य लोगों के कार्यकलापों कीही तरह मोहित करने वाली हैं।
"
श्रीशुक उबाचएवं विज्ञापितो राजन्भगवान्देवकीसुतः ।
एकान्तिनं प्रियं भृत्यमुद्धवं समभाषत ॥
५०॥
श्री-शुक: उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस तरह; विज्ञापित:--प्रार्थना किये जाने पर; राजन्ू--हे राजा;भगवान्-- भगवान्; देवकी -सुतः--देवकी के पुत्र; एकान्तिनम्ू--एकान्त में; प्रियम्-प्रिय; भृत्यम्ू--दास; उद्धवम्-उद्धवसे; समभाषत--बोले |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, इस तरह सम्बोधित किये जाने पर देवकी-पुत्रकृष्ण अपने प्रिय अनन्य दास उद्धव से गुह्य रूप में उत्तर देने लगे।
"
अध्याय सात: भगवान कृष्ण उद्धव को निर्देश देते हैं
श्रीभगवानुवाचयदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे ।ब्रह्मा भवो लोकपाला: स्वर्वासं मेडभिकाड्क्षिण: ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; यत्--जो कुछ; आत्थ--आपने कहा; माम्--मुझसे; महा-भाग--हे अत्यन्तभाग्यशाली उद्धव; तत्ू--वह; चिकीर्षितम्--जिसे मैं करने का इच्छुक हूँ; एबव--निश्चय ही; मे--मेरा; ब्रह्मा --ब्रह्मा; भव: --शिव; लोक-पाला:--सारे लोकों के नायक; स्व:-वासम्--वैकुण्ठ धाम; मे--मेरा; अभिकाडुभक्षिण: --वे इच्छा कर रहे हैं।
भगवान् ने कहा : हे महाभाग्यशाली उद्धव, तुमने इस पृथ्वी पर से यदुबंश को समेटने कीतथा बैकुण्ठ में अपने धाम लौटने की मेरी इच्छा को सही सही जान लिया है। इस तरह ब्रह्मा,शिव तथा अन्य सारे लोक-नायक, अब मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं अपने वैकुण्ठ-धामवापस चला जाऊँ।
मया निष्पादितं ह्वत्र देवकार्यमशेषतः ।यदर्थमवतीर्णो हमंशेन ब्रह्मणाथित: ॥
२॥
मया--मेरे द्वारा; निष्पादितम्--सम्पन्न किया गया; हि--निश्चय ही; अत्र--इस जगत में; देव-कार्यम्ू--देवताओं के लाभ केलिए कार्य; अशेषत:--पूर्णतया, करने को कुछ भी शेष नहीं रहा; यत्--जिसके; अर्थम्--हेतु; अवतीर्ण: --अवतरित हुआ;अहम्--ैं; अंशेन--अपने स्वांश, बलदेव सहित; ब्रह्मणा--ब्रह्मा द्वारा; अर्थित: --प्रार्थना किये जाने पर।
ब्रह्माजी द्वारा प्रार्थना करने पर मैंने इस संसार में अपने स्वांश बलदेव सहित अवतार लियाथा और देवताओं की ओर से अनेक कार्य सम्पन्न किये। अब यहाँ पर मैं अपना मिशन पूरा करचुका हूँ।
कुल वै शापनिर्दग्धं नड्छ््यत्यन्योन्यविग्रहात् ।समुद्र: सप्तमे होनां पुरीं च प्लावयिष्यति ॥
३॥
कुलम्--यह यदुवंश; बै--निश्चित रूप से; शाप--शाप से; निर्दग्धम्--समाप्त; नड्छ््यति--विनष्ट हो जायेगा; अन्योन्य--परस्पर; विग्रहात्ू--झगड़े से; समुद्र:--समुद्र; सप्तमे--सातवें दिन; हि--निश्चय ही; एनामू--इस; पुरीम्ू--नगरी को; च--भी;प्लावयिष्यति--आप्लावित कर देगा।
अब ब्राह्मणों के शाप से यह यदुवंश निश्चित रूप से परस्पर झगड़ कर समाप्त हो जायेगाऔर आज से सातवें दिन यह समुद्र उफन कर इस द्वारका नगरी को आप्लावित कर देगा।
यहाँवायं मया त्यक्तो लोकोयं नष्टमड्रल: ।भविष्यत्यचिरात्साधो कलिनापि निराकृत:ः ॥
४॥
यहि--जब; एव--निश्चित रूप से; अयम्ू--यह; मया--मेरे द्वारा; त्यक्त:--छोड़ा हुआ; लोक: --संसार; अयम्ू--यह; नष्ट-मड्ुलः--समस्त मंगल या दया से विहीन; भविष्यति--हो जायेगा; अचिरातू--शीघ्र ही; साधो--हे साधु-पुरुष; कलिना--'कलि के कारण; अपि--स्वयं; निराकृतः --अभिभूत |
हे साधु उद्धव, मैं निकट भविष्य में इस पृथ्वी को छोड़ दूँगा। तब कलियुग से अभिभूतहोकर यह पृथ्वी समस्त पवित्रता से विहीन हो जायेगी।
न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले ।जनोभद्गरुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे ॥
५॥
न--नहीं; वस्तव्यम्--रहे आना चाहिए; त्वया--तुम्हारे द्वारा; एव--निश्चय ही; इह--इस जगत में; मया--मेरे द्वारा; त्यक्ते--त्यागे हुए; महीतले--पृथ्वी पर; जन:ः--लोग; अभद्र--पापी, अशुभ वस्तुएँ; रुचिः--लिप्त; भद्ग--हे पापरहित एवं मंगलमय;भविष्यति--हो जायेगा; कलौ--इस कलि; युगे--युग में |
हे उद्धव, जब मैं इस जगत को छोड़ चुकूँ, तो तुम्हें इस पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिए। हे प्रियभक्त, तुम निष्पाप हो, किन्तु कलियुग में लोग सभी प्रकार के पापपूर्ण कार्यों में लिप्त रहेंगे,अतएव तुम्हें यहाँ नहीं रूकना चाहिए।
त्वं तु सर्व परित्यज्य स्नेह स्वजनबन्धुषु ।मय्यावेश्य मन: संयकक््समहग्विचरस्व गाम् ॥
६॥
त्वम्--तुम; तु--वस्तुतः; सर्वम्--समस्त; परित्यज्य--छोड़ कर; स्नेहम्--स्नेह; स्व-जन-बन्धुषु-- अपने सम्बन्धियों तथा मित्रोंके प्रति; मयि--मुझ भगवान् में; आवेश्य--एकाग्र करके; मनः--मन को; संयक्--पूरी तरह; सम-हक्--हर एक को समानइृष्टि से देखते हुए; विचरस्व--विचरण करो; गाम्--पृथ्वी-भर में |
अब तुम्हें चाहिए कि अपने निजी मित्रों तथा सम्बन्धियों से अपने सारे नाते त्याग कर, अपनेमन को मुझ पर एकाग्र करो। इस तरह सदैव मेरी भावना से भावित होकर, तुम्हें सारी वस्तुओंको समान दृष्टि से देखना चाहिए और पृथ्वी-भर में विचरण करना चाहिए।
text:यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्या श्रवणादिभि: । नथ्वरं गृह्ममाणं चर विद्धि मायामनोमयम् ॥
७॥
यत्--जो; इृदम्--इस जगत को; मनसा--मन से; वाचा--वाणी से; चश्षुभ्याम्-आँखों से; श्रवण-आदिभि:--कानों तथा अन्य इन्द्रियों से; नश्वरम्--क्षणिक; गृह्ममाणम्--जिसे स्वीकार या अनुभव किया जा रहा हो; च--तथा; विद्धधि--तुम्हें जानना चाहिए; माया-मनः-मयम्--माया के प्रभाव से इसे असली करके केवल कल्पित किया जाता है।
हे उद्धव, तुम जिस ब्रह्माण्ड को अपने मन, वाणी, नेत्रों, कानों तथा अन्य इन्द्रियों से देखते हो वह भ्रामक सृष्टि है, जिसे माया के प्रभाव से मनुष्य वास्तविक मान लेता है। वास्तव में, तुम्हें यह जानना चाहिए कि भौतिक इन्द्रियों के सारे विषय क्षणिक हैं। पुंसोयुक्तस्य नानार्थो भ्रम: स गुणदोषभाक् ।कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा ॥
८॥
पुंसः--व्यक्ति का; अयुक्तस्थ--जिसका मन सत्य से पराड्मुख है; नाना--अनेक; अर्थ:--अर्थ; भ्रम:--सन्देह; सः--वह;गुण--अच्छाई; दोष--बुराई; भाक्ू--देहधारण किये; कर्म--अनिवार्य कर्तव्य; अकर्म--नियत कर्तव्यों का न किया जाना;विकर्म--निषिद्ध कर्म; इति--इस प्रकार; गुण--अच्छाइयाँ; दोष--बुराइयाँ; धियः--अनुभव करने वाले की; भिदा--यह
अन्तर जिसकी चेतना माया से मोहित होती है, वह भौतिक वस्तुओं के मूल्य तथा अर्थ में अनेकअन्तर देखता है। इस प्रकार वह भौतिक अच्छाई तथा बुराई के स्तर पर निरन्तर लगा रहता हैऔर ऐसी धारणाओं से बँधा रहता है। भौतिक द्वैत में लीन रहते हुए, ऐसा व्यक्ति अनिवार्यकर्तव्यों की सम्पन्नता, ऐसे कर्तव्यों की असम्पन्नता तथा निषिद्ध कार्यों की सम्पन्नता के विषय मेंकल्पना करता रहता है।
तस्मायुक्तेन्द्रियग्रामो युक्तचित्त इदम्जगत् ।आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधी श्वर ॥
९॥
तस्मात्ू--इसलिए; युक्त--वश में लाकर; इन्द्रिय-ग्राम:--सारी इन्द्रियों को; युक्त--दमन करके; चित्त:--अपना मन; इृदम्--यह; जगत्--संसार; आत्मनि--आत्मा के भीतर; ईक्षस्व--देखो; विततम्--विस्तीर्ण ( भौतिक भोग की वस्तु के रूप में );आत्मानम्--तथा उस आत्मा को; मयि--मुझ; अधी श्वरे--परम नियन्ता में |
इसलिए अपनी सारी इन्द्रियों को वश में करते हुए तथा मन को दमन करके, तुम सारे जगतको आत्मा के भीतर स्थित देखो, जो सर्वत्र प्रसारित है। यही नहीं, तुम इस आत्मा को मुझ पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् के भीतर भी देखो।
ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम् ।अत्मानुभवतुष्टात्मा नान्तरायैर्विहन्यसे ॥
१०॥
ज्ञान--वेदों का निर्णायक ज्ञान; विज्ञान--तथा व्यावहारिक ज्ञान; संयुक्त:--से युक्त; आत्म-भूतः--स्नेह की वस्तु;शरीरिणाम्--सारे देहधारी जीवों ( देवतादि से शुरु करके ) के लिए; आत्म-अनुभव--आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा; तुष्ट-आत्मा--तुष्ट मन वाला; न--कभी नहीं; अन्तरायै: --उत्पातों ( विध्नों ) से; विहन्यसे--तुम्हारी प्रगति रोक दी जायेगी।
वेदों के निर्णायक ज्ञान से समन्वित होकर तथा व्यवहार में ऐसे ज्ञान के चरम उद्देश्य कीअनुभूति करके, तुम शुद्ध आत्मा का अनुभव कर सकोगे और इस तरह तुम्हारा मन तुष्ट हो जायेगा। उस समय तुम देवतादि से लेकर सारे जीवों के प्रिय बन जाओगे और तब तुम जीवन केकिसी भी उत्पात से रोके नहीं जाओगे।
दोषबुद्धयो भयातीतो निषेधान्न निवर्तते ।गुणबुद्धया च विहितं न करोति यथार्भक: ॥
११॥
दोष-बुद्धबा--यह सोचने से कि ऐसा काम गलत है; उभय-अतीतः--दोनों ( संसारी अच्छे तथा बुरे की धारणाओं ) को लाँघजाने वाला; निषेधात्--जो वर्जित है, उससे; न निवर्तते--अपने को दूर नहीं रखता; गुण-बुद्धया--यह सोचकर कि यह ठीकहै; च-- भी; विहितम्ू--जिसका आदेश हुआ है, वैध; न करोति--नहीं करता; यथा--जिस तरह; अर्भक:--छोटा बालक
जो भौतिक अच्छाई तथा बुराई को लाँघ चुका होता है, वह स्वतः धार्मिक आदेशों केअनुसार कार्य करता है और वर्जित कार्यों से बचता है। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति यह सब अबोधबालक की तरह अपने आप करता है वरन् इसलिए नहीं कि वह भौतिक अच्छाईं तथा बुराई केरूप में सोचता रहता है।
सर्वभूतसुहच्छान्तो ज्ञानविज्ञाननिश्चय: ।पश्यन्मदात्मकं विश्व न विपद्येत वै पुन: ॥
१२॥
सर्व-भूत--समस्त प्राणियों के प्रति; सु-हत्--शुभेषी; शान्तः--शान्त; ज्ञान-विज्ञान--ज्ञान तथा दिव्य अनुभूति में; निश्चय: --हढ़तापूर्वक स्थित; पश्यनू--देखते हुए; मत्-आत्मकम्-मेरे द्वारा व्याप्त; विश्वम्--ब्रह्माण्ड को; न विपद्येत--जन्म-पृत्यु केअक्कर में कभी नहीं पड़ेगा; वै--निस्सन्देह; पुनः--फिर से |
जो व्यक्ति सारे जीवों का शुभेषी है, जो शान्त है और ज्ञान तथा विज्ञान में हृढ़ता से स्थिर है,वह सारी वस्तुओं को मेरे भीतर देखता है। ऐसा व्यक्ति फिर से जन्म-मृत्यु के चक्र में कभी नहींपड़ता।श्रीशुक उबाच इत्यादिष्टो भगवता महाभागवतो नृप ।उद्धव: प्रणिपत्याह तत्त्वं जिज्ञासुरच्युतम् ॥
१३॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आदिष्ट:--आदेश दिया गया; भगवता-- भगवान् द्वारा;महा-भागवतः-- भगवान् के महान् भक्त; नृप--हे राजा; उद्धवः--उद्धव ने; प्रणिपत्य--नमस्कार करके; आह--कहा;तत्त्वम्-वैज्ञानिक सत्य; जिज्ञासु:--सीखने के लिए उत्सुक होने से; अच्युतम्--अच्युत
भगवान् से श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, इस तरह भगवान् कृष्ण ने अपने शुद्ध भक्त उद्धवको उपदेश दिया, जो उनसे ज्ञान पाने के लिए उत्सुक थे। तत्पश्चात्, उद्धव ने भगवान् कोनमस्कार किया और उनसे इस प्रकार बोले।
श्रीउद्धव उवाचयोगेश योगविन्यास योगात्मन्योगसम्भव ।निःश्रेयसाय मे प्रोक्तस्त्याग: सन््यासलक्षण: ॥
१४॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; योग-ईश--हे योग के फल को देने वाले; योग-विन्यास-- अयोग्यों को भी योगशक्तिप्रदान करने वाले; योग-आत्मन्--योग के द्वारा जाने जानेवाले, हे परम आत्मा; योग-सम्भव--हे समस्त योगशक्ति के उद्गम;निःश्रेयसाय--परम लाभ हेतु; मे--मेरे; प्रोक्त:--आपने, जो कहा है; त्याग:--वैराग्य; सन््यास--संन्यास आश्रम स्वीकार करनेसे; लक्षण:--लक्षण से युक्त |
श्री उद्धव ने कहा : हे स्वामी, आप ही योगाभ्यास के फलों को देने वाले हैं और आप इतनेकृपालु हैं कि अपने प्रभाव से आप अपने भक्त को योगसिद्धि वितरित करते हैं। इस तरह आपपरमात्मा हैं, जिसकी अनुभूति योग द्वारा होती है और आप ही समस्त योगशक्ति के उद्गम हैं।आपने मेरे उच्चतम लाभ के लिए संन्यास या वैराग्य द्वारा भौतिक जगत त्यागने की विधिबतलाई है।
त्यागो<यं दुष्करो भूमन्कामानां विषयात्मभिः ।सुतरां त्वयि सर्वात्मिन्नभक्तिरिति मे मति: ॥
१५॥
त्याग: --वैराग्य; अयम्ू--यह; दुष्कर:--सम्पन्न करना कठिन; भूमन्--हे स्वामी; कामानाम्-- भौतिक भोग का; विषय--इन्द्रियतृप्ति; आत्मभि:--समर्पित; सुतराम्ू--विशेष रूप से; त्वयि--तुममें; सर्व-आत्मन्--हे परमात्मा; अभक्तै: --भक्तिविहीनोंद्वारा; इति-- इस प्रकार; मे--मेरा; मतिः--मत।
हे प्रभु, हे परमात्मा, ऐसे लोगों के लिए, जिनके मन इन्द्रियतृप्ति में लिप्त रहते हैं औरविशेषतया उनके लिए, जो आपकी भक्ति से वंचित हैं, भौतिक भोग को त्याग पाना अतीवकठिन है। ऐसा मेरा मत है।
सोहं ममाहमिति मूढमतिर्विगाढ-स्त्वन्मायया विरचितात्मनि सानुबन्धे ।तत्त्वज्जसा निगदितं भवता यथाहंसंसाधयामि भगवन्ननुशाधि भृत्यम् ॥
१६॥
सः--वह; अहम्--मैं; मम अहमू---' मैं ' तथा 'मेरा ' का झूठा विचार; इति--इस प्रकार; मूढ--अत्यन्त मूर्ख; मतिः --चेतना; विगाढ:--लीन; त्वत्ू-मायया--आपकी माया से; विरचित--निर्मित; आत्मनि--शरीर में; स-अनुबन्धे --शारीरिकसम्बन्धों सहित; ततू--इसलिए; तु--निस्सन्देह; अज्लसा--सरलता से; निगदितम्--उपदेश दिया हुआ; भवता--आपके द्वारा;यथा--विधि जिससे; अहम्--मैं; संसाधयामि--सम्पन्न कर सकूँ; भगवन्--हे भगवान्; अनुशाधि--शिक्षा दें; भृत्यम्ू-- अपनेसेवक को।
हे प्रभु, मैं स्वयं सबसे बड़ा मूर्ख हूँ, क्योंकि मेरी चेतना आपकी माया द्वारा निर्मित भौतिकदेह तथा शारीरिक सम्बन्धों में लीन है। इस तरह मैं सोच रहा हूँ, 'मैं यह शरीर हूँ और ये सारे सम्बन्धी मेरे हैं।अतएव हे स्वामी, अपने इस दीन सेवक को उपदेश दें। कृपया मुझे बतायें किमैं आपके आदेशों का किस तरह सरलता से पालन करूँ ? सत्यस्य ते स्वहश आत्मन आत्मनोन्यंवक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे ।सर्वे विमोहितधियस्तव माययेमेब्रह्मादयस्तनुभूतो बहिरर्थभावा: ॥
१७॥
सत्यस्य--परम सत्य का; ते-- आपके अतिरिक्त; स्व-हृशः--आपको प्रकट करने वाला; आत्मन:--मेरे स्वयं के लिए;आत्मन:-- भगवान् की अपेक्षा; अन्यम्--दूसरा; वक्तारम्--योग्य वक्ता; ईश--हे प्रभु; विबुधेषु--देवताओं से; अपि--ही;न--नहीं; अनुचक्षे--मैं देख सकता हूँ; सर्वे--वे सभी; विमोहित--मोह ग्रस्त; धियः--उनकी चेतना; तव--तुम्हारी; मायया--माया द्वारा; इमे--ये; ब्रह्य-आदय: --ब्रह्मा इत्यादि; तनु-भूृतः-- भौतिक शरीर से युक्त बद्धजीव; बहि:--बाह्य वस्तुओं में;अर्थ--परम मूल्य; भावा: --विचार करते हुए।
हे प्रभु, आप परम सत्य भगवान् हैं और आप अपने भक्तों को अपना रूप दिखलाते हैं। मुझेआपके अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं दिखता जो वास्तव में मुझे पूर्ण ज्ञान बतला सके। ऐसा पूर्णशिक्षक स्वर्ग में देवताओं के बीच भी ढूँढ़े नहीं मिलता। निस्सन्देह ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता आपकी मायाशक्ति से मोहग्रस्त हैं। वे बद्धजीव हैं, जो अपने भौतिक शरीरों तथा शारीरिक अंशोंको सर्वोच्च सत्य मान लेते हैं।
तस्माद्धवन्तमनवद्यमनन्तपारंसर्वज्ञमी श्वरमकुण्ठविकुण्ठधिष्ण्यम् ।निर्विण्णधीरहमु हे वृजिनाभितप्तोनारायणं नरसखं शरणं प्रपद्ये ॥
१८ ॥
तस्मात्ू--इसलिए; भवन्तम्--आपको; अनवद्यम्--पूर्ण; अनन्त-पारम्-- असीम; सर्व ज्ञम्--सर्वज्ञ; ईश्वरम्-- भगवान् को;अकुण्ठ--किसी शक्ति से अविचलित; विकुण्ठ--वैकुण्ठ-लोक ; धिष्ण्यम्ू--जिनका निजी धाम; निर्विण्ण--विरक्त अनुभवकरते हुए; धीः--मेरा मन; अहम्--मैं; उ हे--हे ( स्वामी ); वृजिन-- भौतिक कष्ट द्वारा; अभितप्त:ः--सताया हुआ;नारायणम्--नारायण की; नर-सखम्--अति सूक्ष्म जीव का मित्र; शरणमू् प्रपद्ये--शरण में जाता हूँ।
अतएबव हे स्वामी, भौतिक जीवन से ऊब कर तथा इसके दुखों से सताया हुआ मैं आपकीशरण में आया हूँ, क्योंकि आप पूर्ण स्वामी हैं। आप अनन्त, सर्वज्ञ भगवान् हैं, जिनकाआध्यात्मिक निवास बैकुण्ठ में होने से समस्त उपद्रवों से मुक्त है। वस्तुतः: आप समस्त जीवों केमित्र नारायण नाम से जाने जाते हैं।
श्रीभगवानुवाचप्रायेण मनुजा लोके लोकतत्त्वविचक्षणा: ।समुद्धरन्ति ह्ात्मानमात्मनैवाशुभाशयात् ॥
१९॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् कृष्ण ने कहा; प्रायेण--सामान्यतः; मनुजा:--मनुष्यगण; लोके--इस जगत में; लोक-तत्त्व--भौतिक जगत की वास्तविक स्थिति; विचक्षणा:--पंडित; समुद्धरन्ति--उद्धार करते हैं; हि--निस्सन्देह; आत्मानम्--अपने से;आत्मना--अपनी बुद्धि से; एब--निस्सन्देह; अशुभ-आशयातू--इन्द्रियतृप्ति की इच्छा की अशुभ मुद्रा से।
भगवान् ने उत्तर दिया : सामान्यतया वे मनुष्य, जो भौतिक जगत की वास्तविक स्थिति कादक्षतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं, अपने आपको स्थूल भौतिक तृप्ति के अशुभ जीवन सेऊपर उठाने में समर्थ होते हैं।
आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः ।यत्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोडइसावनुविन्दते ॥
२०॥
आत्मन:--अपना ही; गुरु:--उपदेश देने वाला गुरु; आत्मा--स्वयं; एव--निस्सन्देह; पुरुषस्य--मनुष्य का; विशेषत:ः --विशेषअर्थ में; यत्--क्योंकि; प्रत्यक्ष--प्रत्यक्ष अनुभूति से; अनुमानाभ्याम््--तर्क के प्रयोग से; श्रेयः--असली लाभ; असौ--वह;अनुविन्दते--प्राप्त कर सकता है।
बुद्धिमान व्यक्ति, जो अपने चारों ओर के जगत का अनुभव करने तथा ठोस तर्क का प्रयोगकरने में निपुण होता है, अपनी ही बुद्धि के द्वारा असली लाभ प्राप्त कर सकता है। इस प्रकारकभी कभी मनुष्य अपना ही उपदेशक गुरु बन जाता है।
पुरुषत्वे च मां धीरा: साड्ख्ययोगविशारदा: ।आविस्तां प्रपश्यन्ति सर्वशक्त्युपबृंहितम् ॥
२१॥
पुरुषत्वे--मनुष्य-जीवन में; च--तथा; माम्--मुझको; धीरा: --आध्यात्मिक ज्ञान के माध्यम से ईर्ष्या से मुक्त हुए; साइ्ख्य-योग--वैश्लेषिक ज्ञान तथा भगवद्भक्ति से बने आध्यात्मिक विज्ञान में; विशारदा:--दक्ष; आविस्तराम्--प्रत्यक्षतः प्रकट;प्रपश्यन्ति--वे स्पष्ट देखते हैं; सर्व--सभी; शक्ति--मेरी शक्ति से; उपबूंहितम्--प्रदत्त, समन्वित |
मनुष्य-जीवन में जो लोग आत्मसंयमी हैं और सांख्य योग में दक्ष हैं, वे मुझे मेरी सारीशक्तियों समेत प्रत्यक्ष देख सकते हैं।
एकद्वित्रिचतुस्पादो बहुपादस्तथापद: ।बह्व्यः सन्ति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया ॥
२२॥
एक--एक; द्वि--दो; त्रि--तीन; चतु:--चार; पाद:--पाँव से युक्त; बहु-पाद:-- अनेक पाँवों से युक्त; तथा-- भी; अपद:--बिना पाँव के; बह्व्यः--अनेक; सन्ति-- हैं; पुरः--विभिन्न प्रकार के शरीर; सृष्टाः--निर्मित; तासाम्--उनका; मे--मुझको;पौरुषी--मनुष्य-रूप; प्रिया--अत्यन्त प्रिय |
इस जगत में अनेक प्रकार के सृजित शरीर हैं--कुछ एक पाँव वाले, कुछ दो, तीन, चार याअधिक पाँवों वाले तथा अन्य बिना पाँव के हैं, किन्तु इन सबों में मनुष्य-रूप मुझे वास्तविकप्रिय है।
अत्र मां मृगयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरी ध्वरम् ।गृह्ममाणैर्गुणैलिड्रैरग्राह्ममनुमानतः ॥
२३॥
अत्र--यहाँ ( मनुष्य-रूप में ); माम्--मुझे; मृगयन्ति--ढूँढ़ते हैं; अद्धा--सीधे; युक्ता:--स्थित; हेतुभिः--प्रकट लक्षणों से;ईश्वरम--ईश्वर को; गृह्ममाणै: गुणै:--अनुभव करने वाली बुद्धि, मन तथा इन्द्रियों से; लिड्रे:--तथा अप्रत्यक्ष रूप से निश्चितकिये गये लक्षणों से; अग्राह्मम--प्रत्यक्ष अनुभूति की पकड़ से परे; अनुमानतः--तर्क विधि से |
यद्यपि मुझ भगवान् को सामान्य इन्द्रिय अनुभूति से कभी पकड़ा नहीं जा सकता, किन्तुमनुष्य-जीवन को प्राप्त लोग प्रत्यक्ष रूप से मेरी खोज करने के लिए प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्षनिश्चित लक्षणों द्वारा अपनी बुद्धि तथा अन्य अनुभूति-इन्द्रियों का उपयोग कर सकते हैं।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।अवधूतस्य संवादं यदोरमिततेजस: ॥
२४॥
अत्र अपि--इस विषय में; उदाहरन्ति--उदाहरण देते हैं; इमम्--इस; इतिहासम्--ऐतिहासिक वृत्तान्त को; पुरातनम्ू-- प्राचीन;अवधूतस्य--सामान्य विधि-विधानों की परिधि से बाहर कार्य करने वाला पवित्र व्यक्ति; संवादम्--वार्ता को; यदो: --तथाराजा यदु की; अमित-तेजस:--असीम शक्ति वाले |
इस सम्बन्ध में साधु-पुरुष अत्यन्त शक्तिशाली राजा यदु तथा एक अवधूत से सम्बद्ध एकऐतिहासिक वार्ता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
अवधूत॑ द्वियं कदश्धिच्चरन्तमकुतो भयम् ।कविं निरीक्ष्य तरुणं यदु: पप्रच्छ धर्मवित् ॥
२५॥
अवधूतम्--साधु; द्विजम्--ब्राह्मण को; कञ्ञित्--कुछ; चरन्तम्ू--विचरण करते हुए; अकुत:-भयम्--किसी प्रकार के भयके बिना; कविम्--विद्धान; निरीक्ष्य--देखकर; तरुणम्--युवा; यदुः--राजा यदु ने; पप्रच्छ--पूछा; धर्म-वित्-- धार्मिकसिद्धान्तों में दक्ष
महाराज यदु ने एक बार किसी ब्राह्मण अवधूत को देखा, जो तरूण तथा दिद्वान प्रतीतहोता था और निर्भय होकर विचरण कर रहा था। आध्यात्मिक विज्ञान में अत्यन्त पारंगत होने केकारण राजा ने इस अवसर का लाभ उठाया और उसने इस प्रकार उससे पूछा।
श्रीयदुरुवाचकुतो बुद्धिरियं ब्रह्मन्नकर्तु: सुविशारदा ।यामासाद्य भवाल्लोकं दिद्वांश्वतति बालवत् ॥
२६॥
श्री-यदुः उवाच--राजा यदु ने कहा; कुतः--कहाँ से; बुद्धिः--बुद्धि; इयम्--यह; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; अकर्तु:--किसी काममें न लगे रहने वाले के; सु-विशारदा--अत्यन्त विस्तृत; यामू--जो; आसाद्य--प्राप्त करके; भवान्ू-- आप; लोकम्--संसारमें; विद्वानू--ज्ञान से पूर्ण होकर; चरति--विचरण करता है; बाल-वत्--बालक के समान।
श्री यदु ने कहा : हे ब्राह्मण, मैं देख रहा हूँ कि आप किसी व्यावहारिक धार्मिक कृत्य मेंनहीं लगे हुए हैं, तो भी आपने इस जगत में सारी वस्तुओं तथा सारे लोगों की सही-सहीजानकारी प्राप्त कर रखी है। हे महानुभाव, मुझे बतायें कि आपने यह असाधारण बुद्धि कैसेप्राप्त की है और आप सारे जगत में बच्चे की तरह मुक्त रूप से विचरण क्यों कर रहे हैं ? प्रायो धर्मार्थकामेषु विवित्सायां च मानवा: ।हेतुनेव समीहन्त आयुषो यशसः थ्रिय: ॥
२७॥
प्रायः--सामान्यतया; धर्म--धर्म; अर्थ--आर्थिक विकास; कामेषु--तथा इन्द्रियतृप्ति में; विवित्सायामू--आध्यात्मिक ज्ञान कीखोज में; च-- भी; मानवा:--मनुष्यगण; हेतुना-- अभिप्राय के लिए; एव--निस्सन्देह; समीहन्ते--प्रयत्न करते हैं; आयुष: --दीर्घायु की; यशस:--यश की; थ्रियः--तथा भौतिक ऐश्वर्य की |
सामान्यतया मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा आत्मा विषयक ज्ञान का अनुशीलन करने के लिएकठिन परिश्रम करते हैं। उनका सामान्य मन्तव्य अपनी आयु को बढ़ाना, यश अर्जित करना तथाभौतिक ऐश्वर्य का भोग करना रहता है।
त्वं तु कल्पः कविर्दक्ष: सुभगोईमृतभाषण: ।न कर्ता नेहसे किश्चिज्जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥
२८॥
त्वमू--तुम; तु--फिर भी; कल्प:--सक्षम; कवि:--विद्वान; दक्ष: --पटु; सु-भग:ः--सुन्दर; अमृत-भाषण:--अमृततुल्य वाणीसे युक्त; न--नहीं; कर्ता--करने वाला; न ईहसे--तुम इच्छा नहीं करते; किल्ञित्--कोई भी वस्तु; जड--अचर; उन्मत्त--पागल बना हुआ; पिशाच-बत्--पिशाच के समान।
तथापि समर्थ, विद्वान, दक्ष, सुन्दर तथा सुस्पष्ट वक्ता होते हुए भी आप न तो कोई कामकरने में लगे हैं, न ही आप किसी वस्तु की इच्छा करते हैं, प्रत्युत जड़वत तथा उन्मत्त प्रतीत होतेहैं, मानो कोई पिशाच हो।
जनेषु दह्ममानेषु कामलोभदवाग्निना ।न तप्यसेग्निना मुक्तो ग्ढम्भ:स्थ इव द्विप: ॥
२९॥
जनेषु--समस्त लोगों के; दह्ममानेषु--जलते हुए भी; काम--काम; लोभ--तथा लालच की; दव-अग्निना--जंगल की आगद्वारा; न तप्यसे--जल नहीं जाते; अग्निना--अग्नि से; मुक्त:--स्वतंत्र; गड्ञ-अम्भ:--गंगा के जल में; स्थ:--खड़े; इब--मानो; द्विप:--हाथी।
यद्यपि भौतिक जगत में सारे लोग काम तथा लोभ की दावाग्नि में जल रहे हैं, किन्तु आपस्वतंत्र रह रहें हैं और उस अग्नि से जलते नहीं। आप उस हाथी के समान हैं, जो दावाग्नि सेबचने के लिए गंगा नदी के जल के भीतर खड़े होकर आश्रय लिये हुये हो।
त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम् ।ब्रृहि स्पर्शणविहीनस्य भवतः केवलात्मन: ॥
३०॥
त्वमू--तुम; हि--निश्चय ही; न:ः--हमसे; पृच्छताम्--पूछ रहे; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण; आत्मनि--अपने भीतर; आनन्द--आनन्दके; कारणम्ू--कारण को; ब्रूहि--कहो; स्पर्श-विहीनस्थ-- भौतिक भोग के स्पर्श से विहीन; भवत:--आपका; केवल-आत्मन:--एकान्त में रहने वाले |
हे ब्राह्मण, हम देखते हैं कि आप भौतिक भोग से किसी प्रकार के स्पर्श से रहित हैं औरबिना किसी संगी या पारिवारिक सदस्य के अकेले ही भ्रमण कर रहे हैं। चुँकि हम निष्ठापूर्वक आपसे पूछ रहे है, इसलिए कृपा करके हमें अपने भीतर अनुभव किये जा रहे महान् आनन्द काकारण बतलायें।
श्रीभगवानुवाचयदुनैव॑ महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा ।पृष्ट: सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विज: ॥
३१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; यदुना--राजा यदु द्वारा; एवम्--इस तरह से; महा-भाग:--परम भाग्यशाली;ब्रह्मण्येन--ब्राह्मणों का आदर करने वाला; सु-मेधसा--तथा बुद्धिमान; पृष्ट:--पूछा; सभाजित: --सत्कार किया; प्राह--बोला; प्रश्रय--दीनतावश; अवनतम्--अपना सिर झुकाते हुए; द्विज:--ब्राह्मण ने
भगवान् कृष्ण ने कहा : ब्राह्मणों का सदैव आदर करने वाला बुद्धिमान राजा यदु अपनासिर झुकाये हुए प्रतीक्षा करता रहा और वह ब्राह्मण राजा की मनोवृत्ति से प्रसन्न होकर उत्तर देनेलगा।
श्रीत्राह्मण उबाचसन्ति मे गुरवो राजन्बहवो बुद्धयुपश्रिता: ।यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोडटामीह तान्थुणु ॥
३२॥
श्री-ब्राह्मण: उबाच--ब्राह्मण ने कहा; सन्ति--हैं; मे--मेंरे; गुरव:--अनेक गुरु; राजन्--हे राजा; बहव:--अनेक; बुद्धि--मेरी बुद्धि; उपश्रिता:--शरणागत; यतः--जिससे; बुद्धिम्--बुद्धि के; उपादाय--प्राप्त करके ; मुक्त:--मुक्त; अटामि--विचरण करता हूँ; हह--इस जगत में; तानू--उनको; श्रूणु--सुनो |
ब्राह्मण ने कहा : हे राजन्, मैंने अपनी बुद्धि से अनेक गुरुओं की शरण ली है। उनसे दिव्यज्ञान प्राप्त करने के बाद अब मैं मुक्त अवस्था में पृथ्वी पर विचरण करता हूँ। जिस रूप में मैंआपसे वर्णन करूँ, कृपा करके सुनें।
पृथिवी वायुराकाशमापोडग्निश्चन्द्रमा रवि: ।कपोतोजगरः सिन्धु: पतड़ो मधुकूदूगज: ॥
३३॥
मधुहा हरिणो मीन: पिड्ुला कुररोर्भक:ः ।कुमारी शरकृत्सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत् ॥
३४॥
एते मे गुरवो राजन्चतुर्विशतिराश्रिता: ।शिक्षा वृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मन: ॥
३५॥
पृथिवी--पृथ्वी; वायु: --वायु; आकाशम्--आकाश; आप: --जल; अग्नि:--अग्नि; चन्द्रमा: --चन्द्रमा; रवि: --सूर्य;कपोत:--कबूतर; अजगर:--अजगर; सिन्धु:--समुद्र; पतड्ृः--पतिंगा; मधु-कृत्ू--शहद की मक्खी; गज: --हाथी; मधु-हा--शहद-चोर; हरिण:--हिरन; मीन:--मछली; पिड्ला--पिंगला नामक वेश्या; कुरर:--कुररी पक्षी; अर्भक:--बालक;कुमारी--तरुणी; शर-कृत्--बाण बनाने वाला; सर्प:--साँप; ऊर्ण-नाभि:--मकड़ी; सुपेश-कृत्--बर; एते--ये; मे--मेरे;गुरवः--गुरु; राजन्ू--हे राजा; चतु:-विंशति:ः-- चौबीस; आश्रिता:--जिनकी शरण ली है; शिक्षा--उपदेश; वृत्तिभि:--कार्योसे; एतेषाम्--इनके ; अन्वशिक्षम्--मैंने ठीक से सीखा है; इह--इस जीवन में; आत्मन:--आत्मा ( अपने ) के बारे में |
हे राजन, मैंने चौबीस गुरुओं की शरण ली है। ये हैं--पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि,चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतिंगा, मधुमक्खी, हाथी, मधु-चोर, हिरण, मछली,पिंगला वेश्या, कुररी पक्षी, बालक, तरुणी, बाण बनाने वाला, साँप, मकड़ी तथा बर। हेराजन, इनके कार्यो का अध्ययन करके ही मैंने आत्म-ज्ञान सीखा है।
यतो यदनुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज ।तत्तथा पुरुषव्याप्र निबोध कथयामि ते ॥
३६॥
यतः--जिससे; यत्--जो; अनुशिक्षामि--मैंने सीखा है; यथा--कैसे; वा--तथा; नाहुष-आत्म-ज--हे राजा नहुष ( ययाति )के पुत्र; ततू--वह; तथा--इस प्रकार; पुरुष-व्याध्र--हे पुरुषों में बाघ; निबोध--सुनो; कथयामि--कहूँगा; ते--तुमसे
हे महाराज ययाति के पुत्र, हे पुरुषों में व्याप्र, सुनो, क्योंकि मैंने इन गुरुओं से, जो सीखाहै, उसे तुम्हें बतला रहा हूँ।
भूतैराक्रम्यमाणोपि धीरो दैववशानुगैः ।तद्विद्वान्न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेत्रेतम् ॥
३७॥
भूतैः--विभिन्न प्राणियों द्वारा; आक्रम्यमाण:--सताया जाकर; अपि--यद्यपि; धीर:--धीर; दैव-- भाग्य के; वश--नियंत्रण;अनुगैः --अनुयायियों द्वारा; तत्ू--यह तथ्य; विद्वानू--जाननहारा; न चलेतू--विपथ नहीं होना चाहिए; मार्गात्ू--पथ से;अन्वशिक्षम्-मैंने सीखा है; क्षिते:--पृथ्वी से; ब्रतम्--यह व्रत, हृढ़ अभ्यास |
अन्य जीवों द्वारा सताये जाने पर भी धीर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि उसके उत्पीड़कईश्वर के अधीन होकर असहाय रूप से कर्म कर रहे हैं। इस तरह उसे कभी अपने पथ की प्रगतिसे विपथ नहीं होना चाहिए मैंने पृथ्वी से यह नियम सीखा है।
शश्वत्परार्थसर्वेह: परार्थैकान्तसम्भव: ।साधु: शिक्षेत भूभूत्तो नगशिष्य: परात्मताम् ॥
३८॥
शश्वत्--सदैव; पर--दूसरों के; अर्थ--हित के लिए; सर्व-ईह:--सारे प्रयास; पर-अर्थ--दूसरों का लाभ; एकान्त--अकेला;सम्भव:--जीवित रहने का कारण; साधु:--साधु-पुरुष; शिक्षेत--सीखना चाहिए; भू- भृत्त:--पहाड़ से; नग-शिष्य: --वृशक्षका शिष्य; पर-आत्मताम्--अन्यों के प्रति समर्पण |
सनन््त-पुरुष को पर्वत से सीखना चाहिए कि वह अपने सारे प्रयास अन्यों की सेवा में लगायेऔर अन्यों के कल्याण को अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बनाये। इसी तरह वृक्ष का शिष्यबनकर उसे स्वयं को अन्यों को समर्पित करना सीखना चाहिए।
प्राणवृत्त्यैव सन्तुष्येन्मुनिनेवेन्द्रियप्रिये: ।ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाइमन: ॥
३९॥
प्राण-वृत्त्या--प्राणों के कार्य करते रहने से; एब--ही; सन्तुष्येत्--सन्तुष्ट रहना चाहिए; मुनि:--मुनि; न--नहीं; एव--निस्सन्देह; इन्द्रिय-प्रियै:--इन्द्रियों को तृप्त करने वाली वस्तुओं से; ज्ञानम्--चेतना; यथा--जिससे कि; न नश्येत--नष्ट न होसके; न अवकीर्येत--शक्षुब्ध न हो सके; वाकु--उसकी वाणी; मन:--तथा मन।
विद्वान मुनि को चाहिए कि वह अपने सादे जीवन-यापन में ही तुष्टि माने। वह भौतिकइन्द्रियों की तृप्ति के द्वारा तुष्टि की खोज न करे। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को अपने शरीर कीपरवाह इस तरह करनी चाहिए कि उसका उच्चतर ज्ञान विनष्ट न हो और उसकी वाणी तथा मनआत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलित न हों।
विषयेष्वाविशन्योगी नानाधर्मेषु सर्वतः ।गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत् ॥
४०॥
विषयेषु-- भौतिक वस्तुओं के सम्पर्क में; आविशन्-- प्रवेश करके ; योगी--जिसने आत्म-संयम प्राप्त कर लिया है; नाना-धर्मेषु--विभिन्न गुणों वाले; सर्वतः--सर्वत्र; गुण--सदगुण; दोष--तथा दोष; व्यपेत-आत्मा--वह व्यक्ति जिसने लाँघ लियाहै; न विषज्ेत--नहीं फँसना चाहिए; वायु-वत्--वायु की तरह
यहाँ तक कि योगी भी ऐसी असंख्य भौतिक वस्तुओं से घिरा रहता है, जिनमें अच्छे तथाबुरे गुण पाये जाते हैं। किन्तु जिसने भौतिक अच्छाई तथा बुराई लाँघ ली है, उसे भौतिक वस्तुओंके सम्पर्क में रहते हुए भी, उनमें फँसना नहीं चाहिए, प्रत्युत उसे वायु की तरह कार्य करनाचाहिए।
पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तद्गुणा श्रय: ।गुणैर्न युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्महक् ॥
४१॥
पार्थिवेषु--पृथ्वी ( तथा अन्य तत्त्वों ) से बना; इह--इस संसार में; देहेषु--शरीरों में; प्रविष्ट: --प्रवेश करके; तत्--उनके;गुण--लाक्षणिक गुण; आश्रय:-- धारण करके; गुणैः:--उन गुणों से; न युज्यते-- अपने को फँसाता नहीं; योगी--योगी;गन्धैः--विभिन्न गंधों से; वायु:--वायु; इब--सदहृश; आत्म-हक्--अपने को ठीक से देखने वाला
( इस पदार्थ से पृथक् रूपमें )इस जगत में स्वरूपसिद्ध आत्मा विविध भौतिक शरीरों में उनके विविध गुणों तथा कार्योका अनुभव करते हुए रह सकता है, किन्तु वह उनमें कभी उलझता नहीं, जिस तरह कि वायुविविध सुगंधों को वहन करती है, किन्तु वह उनमें घुल-मिल नहीं जाती।
अन्तर्हितश्न स्थिरजड्रमेषुब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन ।व्याप्त्याव्यवच्छेदमसड्रमात्मनोमुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत् ॥
४२॥
अन्तहितः -- भीतर उपस्थित; च-- भी; स्थिर--सारे जड़ जीव; जड़मेषु--तथा चेतन जीव; ब्रह्म-आत्म-भावेन--अपने को शुद्धआत्मा अनुभव करते हुए; समन्वयेन--विभिन्न शरीरों के साथ भिन्न भिन्न सम्पर्कों के परिणामस्वरूप; व्याप्त्या--व्याप्त होने केकारण; अव्यवच्छेदम्--अविभक्त होने का गुण; असड्रम्--लिप्त न रहने से; आत्मन: --परमात्मा से युक्त; मुनि:--मुनि;नभस्त्वम्--आकाश साम्य; विततस्य--विराट का; भावयेत्-- ध्यान करना चाहिए
भौतिक शरीर के भीतर रहते हुए भी विचारवान साधु को चाहिए कि वह अपने आपकोशुद्ध आत्मा समझे। इसी तरह मनुष्य को देखना चाहिए कि आत्मा सभी प्रकार के सजीवों--चरों तथा अचरों के भीतर प्रवेश करता है और इस तरह व्यष्टि आत्मा सर्वव्यापी है। साधु को यहभी देखना चाहिए कि परमात्मा रूप में भगवान् एक ही समय सारी वस्तुओं के भीतर उपस्थितरहते हैं। आत्मा तथा परमात्मा को आकाश के स्वभाव से तुलना करके समझा जा सकता है।यद्यपि आकाश सर्वत्र फैला हुआ है और सारी वस्तुएँ आकाश के भीतर टिकी हैं किन्तु आकाशकिसी भी वस्तु से न तो घुलता-मिलता है, न ही किसी वस्तु के द्वारा विभाजित किया जा सकताहै।
तेजोबन्नमयै भविर्मेघाद्यैर्वायुनेरितै: ।न स्पृश्यते नभस्तद्वत्कालसूष्टैर्गुणै: पुमान् ॥
४३॥
तेज:--अग्नि; अपू--जल; अन्न--तथा पृथ्वी; मयै:--युक्त; भावै:--वस्तुओं से; मेघ-आद्यै:--बादल इत्यादि से; वायुना--वायु से; ईरितैः--उड़ाये जाने वाले; न स्पृश्यते--स्पर्श नहीं हो पाता; नभः--आकाश; तत्-वत्--उसी तरह से; काल-सूष्टै:--काल द्वारा भेजे गये; गुणैः:-- प्रकृति के गुणों द्वारा; पुमान्ू--मनुष्य |
यद्यपि प्रबल वायु आकाश से होकर बादलों तथा झंझावातों को उड़ाती है, किन्तु आकाशइन कार्यों से कभी प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा भौतिक प्रकृति के स्पर्श से परिवर्तितया प्रभावित नहीं होती। यद्यपि जीव पृथ्वी, जल तथा अग्नि से बने शरीर में प्रवेश करता है औरयद्यपि वह शाश्वत काल द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के द्वारा बाध्य किया जाता है, किन्तु उसकाशाश्रत आध्यात्मिक स्वभाव कभी भी प्रभावित नहीं होता।
स्वच्छ: प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूनणाम् ।मुनिः पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनी: ॥
४४॥
स्वच्छ: --शुद्ध; प्रकृतित:--प्रकृति से; स्निग्ध:--कोमल या कोमल हृदय वाला; माधुर्य; --मधुर या मधुर वाणी; तीर्थ-भू:--तीर्थस्थान; नृणाम्-मनुष्यों के लिए; मुनिः--मुनि; पुनाति--पवित्र करता है; अपाम्--जल का; मित्रम्--प्रतिरूप; ईक्षा--देखे जाने से; उपस्पर्श--सादर स्पर्श होने से; कीर्तनैः--तथा वाणी से प्रशंसित किये जाने से
हे राजन, सन्त-पुरुष जल के सहृश होता है, क्योंकि वह कल्मषरहित, स्वभाव से मृदुलतथा बोलने में बहते जल की कलकल ध्वनि सहृश होता है। ऐसे सनन््त-पुरुष के दर्शन, स्पर्श याश्रवण मात्र से ही जीव उसी तरह पवित्र हो जाता है, जिस तरह शुद्ध जल का स्पर्श करने सेमनुष्य स्वच्छ हो जाता है। इस तरह सन्त-पुरुष तीर्थस्थान की तरह उन सबों को शुद्ध बनाता है,जो उसके सम्पर्क में आते हैं, क्योंकि वह सदैव भगवान् की महिमा का कीर्तन करता है।
तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धषोदरभाजन: ।सर्वभश्ष्योपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत् ॥
४५॥
तेजस्वी--तेजवान्; तपसा--अपनी तपस्या से; दीप्तः--चमकता हुआ; दुर्धर्ष--अचल; उदर-भाजन:--पेट पालने के लिए हीखाने वाला; सर्व--हर वस्तु; भक्ष्य:--खाते हुए; अपि--यद्यपि; युक्त-आत्मा--आध्यात्मिक जीवन में स्थिर; न आदत्ते-- धारणनहीं करता; मलम्--कल्मष; अग्नि-वत्-- अग्नि की तरह।
सन्त-पुरुष तपस्या करके शक्तिमान बनते हैं। उनकी चेतना अविचल रहती है क्योंकि वेभौतिक जगत की किसी भी वस्तु का भोग नहीं करना चाहते। ऐसे सहज मुक्त सनन््त-पुरुष भाग्यद्वारा प्रदत्त भोजन को स्वीकार करते हैं और यदि कदाचित् दूषित भोजन कर भी लें तो उन परकोई प्रभाव नहीं पड़ता जिस तरह अग्नि उन दूषित वस्तुओं को जला देती है, जो उसमें डालीजाती हैं।
क्वचिच्छन्न: क्वचित्स्पष्ट उपास्य: श्रेय इच्छताम् ।भुड़े सर्वत्र दातृणां दहन्प्रागुत्तराशुभम् ॥
४६॥
क्वचित्--कभी; छन्न:--ढका हुआ; क्वचित्--कभी; स्पष्ट:-- प्रकट; उपास्य: --पूज्य; श्रेय:--सर्वोच्च मंगल; इच्छताम्ू--चाहने वालों के लिए; भुड्ढे --निगल जाता है; सर्वत्र--सभी दिशाओं में; दातृणाम्ू--बलि चढ़ाने वालों के; दहन्--जलाते हुए;प्राकु--विगत; उत्तर--तथा भविष्य; अशुभम्-पापों को |
सनन््त-पुरुष अग्नि के ही समान, कभी प्रच्छन्न रूप में, तो कभी प्रकट रूप में दिखता है।असली सुख चाहने वाले बद्धजीवों के कल्याण हेतु सन््त-पुरुष गुरु का पूजनीय पद स्वीकारकर सकता है और इस तरह वह अग्नि के सहृश अपने पूजकों की बलियों को दयापूर्वकस्वीकार करके विगत तथा भावी पापों को भस्म कर देता है।
स्वमायया सूष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभु: ।प्रविष्ट ईयते तत्तत्स्वरूपोग्निरिवैधसि ॥
४७॥
स्व-मायया--अपनी माया से; सृष्टम्--सृजित; इदम्--यह ( जीव का शरीर ); सत्-असतू--देवता, पशु इत्यादि के रूप में;लक्षणम्--लक्षणों से युक्त; विभु:--सर्वशक्तिमान; प्रविष्ट: --प्रवेश करके; ईयते--प्रकट होता है; ततू्-तत्--उसी-उसी रूपमें; स्वरूप:--पहचान बनाकर; अग्नि:--अग्नि के; इब--सहश; एधसि--ईधन में |
जिस तरह अग्नि विभिन्न आकारों तथा गुणों वाले काष्ट-खण्डों में भिन्न भिन्न रूप से प्रकटहोती है, उसी तरह सर्वशक्तिमान परमात्मा अपनी शक्ति से उत्पन्न किये गये उच्च तथा निम्नयोनियों के शरीरों में प्रवेश करके प्रत्येक के स्वरूप को ग्रहण करता प्रतीत होता है।
विसर्गद्या: श्मशानान्ता भावा देहस्य नात्मन: ।कलानामिव चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ॥
४८॥
विसर्ग--जन्म; आद्या:--इत्यादि; एमशान-- मृत्यु का समय, जब शरीर भस्म कर दिया जाता है; अन्ता:--अन्तिम; भावा:--दशाएँ; देहस्य--शरीर की; न--नहीं; आत्मन:--आत्मा का; कलानामू--विभिन्न अवस्थाओं का; इब--सहश; चन्द्रस्य--चन्द्रमा की; कालेन--समय के साथ; अव्यक्त--न दिखने वाला; वर्त्मना--गति से
जन्म से लेकर मृत्यु तक भौतिक जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ शरीर के गुणधर्म हैं और येआत्मा को उसी तरह प्रभावित नहीं करतीं, जिस तरह चन्द्रमा की घटती-बढ़ती कलाएँ चन्द्रमाको प्रभावित नहीं करतीं। ऐसे परिवर्तन काल की अव्यक्त गति द्वारा लागू किये जाते हैं।
कालेन होघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ ।नित्यावषि न हृश्येते आत्मनोःग्नेर्यथार्चिषाम् ॥
४९॥
कालेन--समय के द्वारा; हि--निस्सन्देद; ओघ--बाढ़ के सहश; वेगेन--चाल से; भूतानाम्--जीवों के; प्रभव--जन्म;अप्ययौ--तथा मृत्यु; नित्यौ--स्थायी; अपि--यद्यपि; न दृश्येते--नहीं देखे जाते; आत्मन:--आत्मा के; अग्ने:--अग्नि की;यथा--जिस तरह; अर्चिषाम्--लपटों को
अग्नि की लपटें प्रतिक्षण प्रकट तथा लुप्त होती रहती हैं, और यह सृजन तथा विनाशसामान्य प्रेक्षकों द्वारा देखा नहीं जाता। इसी तरह काल की बलशाली लहरें नदी की प्रबलधाराओं की तरह निरन्तर बहती रहती हैं और अव्यक्त रूप से असंख्य भौतिक शरीरों को जन्म,वृद्धि तथा मृत्यु प्रदान करती रहती हैं। फिर भी आत्मा, जिसे निरन्तर अपनी स्थिति बदलनीपड़ती है, काल की करतूतों को देख नहीं पाता।
गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुझ्जञति ।न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इब गोपति: ॥
५०॥
गुणैः--अपनी इन्द्रियों से; गुणान्--इन्द्रिय-विषयों को; उपादत्ते--स्वीकार करता है; यथा-कालम्--उपयुक्त समय पर;विमुक्नति--छोड़ देता है; न--नहीं; तेषु--उनमें ; युज्यते-- फँस जाता है; योगी--स्वरूपसिद्ध मुनि; गोभि:--अपनी किरणों से;गाः--जलाशयों; इब--सहश; गो-पति: --सूर्य ।
जिस तरह सूर्य अपनी प्रखर किरणों से पर्याप्त मात्रा में जल को भाप बना कर उड़ा देता हैऔर बाद में उस जल को वर्षा के रूप में पृथ्वी पर लौटा देता है, उसी तरह सन््त-पुरुष अपनीभौतिक इन्द्रियों से सभी प्रकार की भौतिक वस्तुओं को स्वीकार करता है और जब सही व्यक्तिउन्हें लौटवाने के लिए उसके पास जाता है, तो उन भौतिक वस्तुओं को वह लौटा देता है। इसतरह वह इन्द्रिय-विषयों को स्वीकारने तथा त्यागने दोनों में ही फँसता नहीं ।
बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः ।लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोर्कवत् ॥
५१॥
बुध्यते--सोचा जाता है; स्वे--अपने मूल रूप में; न--नहीं; भेदेन--विविधता से; व्यक्ति--पृथक् प्रतिबिम्बित पदार्थों पर;स्थ:--स्थित; इब--ऊपर से; ततू-गत:--उनके भीतर प्रवेश करके; लक्ष्यते--प्रकट होता है; स्थूल-मतिभि:--मन्द बुद्धि वालोंके लिए; आत्मा--आत्मा; च--भी; अवस्थित: --स्थित; अर्कवत्--सूर्य की तरह ।
विविध वस्तुओं से परावर्तित होने पर भी सूर्य न तो कभी विभक्त होता है, न अपने प्रतिबिम्बमें लीन होता है। जो मन्द बुद्धि वाले हैं, वे ही सूर्य के विषय में ऐसा सोचते हैं। इसी प्रकारआत्मा विभिन्न भौतिक शरीरों से प्रतिबिम्बित होते हुए भी अविभाजित तथा अभौतिक रहता है।
नातिस्नेह: प्रसझे वा कर्तव्य: क्वापि केनचित् ।कुर्वन्बिन्देत सन््तापं कपोत इव दीनधी: ॥
५२॥
न--नहीं; अति-स्नेह:--अत्यधिक स्नेह; प्रसड़ू:--घनिष्ठ संग; वा--अथवा; कर्तव्य:--प्रकट करना चाहिए; क्व अपि--कभी;केनचित्--किसी से; कुर्वन्ू--ऐसा करते हुए; विन्देत--अनुभव करेगा; सन्तापम्--महान् दुख; कपोत:ः--कबूतर; इब--सहश; दीन-धी:--मन्द बुद्धि |
मनुष्य को चाहिए कि किसी व्यक्ति या किसी वस्तु के लिए अत्यधिक स्नेह या चिन्ता नकरे। अन्यथा उसे महान् दुख भोगना पड़ेगा, जिस तरह कि मूर्ख कबूतर भोगता है।
कपोतः कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ ।कपोत्या भार्यया सार्थधमुवास कतिचित्समा: ॥
५३॥
कपोत:--कबूतर ने; कश्चन--किसी; अरण्ये--जंगल में; कृत-नीड:--अपना घोंसला बनाकर; वनस्पतौ--वृक्ष में;कपोत्या--कबूतरी के साथ; भार्यया--अपनी पत्नी; स-अर्धम्--अपने संगी के रूप में; उबास--रहने लगा; कतिचित्--कुछ;समाः--वर्षो तक
एक कबूतर था, जो अपनी पत्नी के साथ जंगल में रहता था। उसने एक वृक्ष के भीतरअपना घोंसला बनाया और कबूतरी के साथ कई वर्षों तक वहाँ रहता रहा।
कपोतौ स्नेहगुणितहदयौ गृहधर्मिणौ ।दृष्टि दृष्ठयाड्रमड्रेन बुद्धि बुद्धया बबन्धतु: ॥
कपोतौ--कबूतर का जोड़ा; स्नेह--स्नेह से; गुणित--मानो रस्सी से बँधे हुए; हृदयौ--उनके हृदय; गृह-धर्मिणौ-- अनुरक्तगृहस्थ; दृष्टिम--दृष्टि; दृष्या--चितवन से; अड्रम्ू--शरीर को; अड्लेन--दूसरे के शरीर से; बुद्धिमू--मन; बुद्धया--दूसरे के मनसे; बबन्धतु:--एक-दूसरे को बाँध लिया।
कबूतर का यह जोड़ा अपने गृहस्थ कार्यो के प्रति अत्यधिक समर्पित था। उनके हृदयभावनात्मक स्नेह से परस्पर बँधे थे, वे एक-दूसरे की चितवनों, शारीरिक गुणों तथा मन कीअवस्थाओं से आकृष्ट थे। इस तरह उन्होंने एक-दूसरे को स्नेह से पूरी तरह बाँध रखा था।
शय्यासनाटनस्थान वार्ताक्रीडाशनादिकम् ।मिथुनीभूय विश्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ॥
५५॥
शब्या--लेटते; आसन--बैठते; अटन--चलते-फिरते; स्थान--खड़े होते; वार्ता--बातें करते; क्रीडा--खेलते; अशन--भोजन करते; आदिकम्--इत्यादि; मिथुनी-भूय--दम्पति के रूप में; विश्रव्धौ--एक-दूसरे पर विश्वास करते; चेरतु: --उन्होंनेसम्पन्न किया; वन--जंगल के; राजिषु--वृन्दों के कुंजों के बीच।
भविष्य पर निएछल भाव से विश्वास करते हुए बे प्रेमी युगल की भाँति जंगल के वृक्षों केबीच लेटते, बैठते, चलते-फिरते, खड़े होते, बातें करते, खेलते, खाते-पीते रहे।
यं यं वाउ्छति सा राजन्तर्पयन्त्यनुकम्पिता ।तं त॑ समनयत्कामं कृच्छेणाप्यजितेन्द्रिय: ॥
५६॥
यम् यम्--जो कुछ भी; वा्छति--चाहती; सा--वह कबूतरी; राजन्--हे राजन; तर्पयन्ती -- प्रसन्न करती हुईं; अनुकम्पिता--दया दिखाई गई; तम् तम्ू--वह-वह; समनयत्--ले आया; कामम्--अपनी इच्छा; कृच्छेण --बड़ी मुश्किल से; अपि-- भी;अजित-इन्द्रियः--अपनी इन्द्रियों को वश में करना न सीखा हुआ।
हे राजनू, जब भी कबूतरी को किसी वस्तु की इच्छा होती, तो वह अपने पति कीचाटुकारिता करके उसे बाध्य करती और वह स्वयं भारी मुश्किलें उठाकर भी उसे तृप्त करने केलिए वही करता, जो वह चाहती थी। इस तरह वह उसके संग में अपनी इन्द्रियों पर संयम नहींरख सका।
कपोती प्रथम गर्भ गृहन्ती काल आगते ।अण्डानि सुषुवे नीडे स्तपत्यु: सन्निधौ सती ॥
५७॥
कपोती--कबूतरी; प्रथमम्--प्रथम; गर्भम्--गर्भावस्था; गृहन्ती -- धारण करती हुईं; काले--( प्रसव का ) समय के; आगते--आने पर; अण्डानि--अंडे; सुषुवे--दिये; नीडे--घोंसले में; स्व-पत्यु:--अपने पति की; सन्निधौ--उपस्थिति में; सती--साध्वी
तत्पश्चातु, कबूतरी को पहले गर्भ का अनुभव हुआ। जब समय आ गया, तो उस साध्वीकबूतरी ने अपने पति की उपस्थिति में घोंसले में कई अंडे दिये।
तेषु काले व्यजायन्त रचितावयवा हरे: ।शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभि: कोमलाडुरतनूरूहा: ॥
५८ ॥
तेषु--उन अंडों से; काले--समय आने पर; व्यजायन्त--उत्पन्न हुए; रचित--निर्मित; अवयवा:--बच्चों के अंग; हरेः-- भगवान्हरि की; शक्तिभि: --श क्तियों से; दुर्विभाव्याभि:-- अचिन्त्य; कोमल-- मुलायम; अड्ड--अंग; तनूरुहा:--तथा पंखहा
जब समय पूरा हो गया, तो उन अंडों से भगवान् की अचिन्त्य शक्तियों से निर्मित मुलायमअंगो तथा पंखों के साथ बच्चे उत्पन्न हुए।
प्रजा: पुपुषतु: प्रीतौ दम्पती पुत्रवत्सलौ ।श्रुण्वन्तौ कूजितं तासां निर्वृती कलभाषितैः ॥
५९॥
प्रजा:--सन्तान; पुपुषतु:--उन्होंने पाला-पोषा; प्रीतौ--अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक; दम्-पती --युग्म; पुत्र--अपने बच्चों को;बत्सलौ--दयालु; श्रृण्वन्तौ --सुनते हुए; कूजितमू--चहचहाना; तासाम्--उन बच्चों की; निर्वता--अत्यन्त सुखी; कल-भाषितै:--भद्दी ध्वनि से |
कबूतर का यह जोड़ा अपने बच्चों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल बन गया और उनकी अढपटीचहचहाहट को सुनकर अत्यन्त हर्षित होता, क्योंकि उन माता-पिता को यह अतीव मधुर लगती।इस तरह वह जोड़ा उन छोटे-छोटे बच्चों का पालन-पोषण करने लगा।
तासां पतत्रै: सुस्पशैं: कूजितैर्मुग्धचेष्टितेः ।प्रत्युदूगमैरदीनानां पितरौ मुदमापतु: ॥
६०॥
तासाम्--छोटे पक्षियों के; पतत्रैः--पंखों द्वारा; सु-स्पशैं:--छूने में अच्छा; कूजितैः--उनकी चहचहाहट; मुग्ध--आकर्षक;चेष्टितेः:--कार्यों से; प्रत्युदूगमैः--फुदकने के प्रयासों से; अदीनानाम्--सुखी ( बच्चों ) के; पितरौ--माता-पिता; मुदम्आपतुः--हर्षित हो गये।
यें माता-पिता अपने पक्षी बच्चों के मुलायम पंखों, उनकी चहचहाहट, घोंसले के आसपासउनकी कूद-फाँद करना, उनका उछलने और उड़ने का प्रयास करना देखकर अत्यन्त हर्षित हुए।अपने बच्चों को सुखी देखकर माता-पिता भी सुखी थे। स्नेहानुबद्धहदयावन्योन्यं विष्णुमायया ।विमोहितौ दीनधियौ शिशूब्पुपुषतुः प्रजा: ॥
६१॥
स्नेह--स्नेह से; अनुबद्ध--बँधे हुए; हृदयौ--हृदयों वाले; अन्योन्यम्--परस्पर; विष्णु-मायया--भगवान् विष्णु की माया से;विमोहितौ--पूर्णतः मोहग्रस्त; दीन-धियौ--मन्द बुद्धि वाले; शिशून्ू-- अपने बच्चों को; पुपुषतु:--पाला-पोषा; प्रजा: --अपनीसन्तान।
स्नेह से बँधे हुए हृदयों वाले ये मूर्ख पक्षी भगवान् विष्णु की माया द्वारा पूर्णतः मोहग्रस्तहोकर अपने छोटे-छोटे बच्चों का लालन-पालन करते रहे।
एकदा जम्मतुस्तासामन्नार्थ तौ कुटुम्बिनौ ।परितः कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम् ॥
६२॥
एकदा--एक बार; जम्मतु:--गये; तासाम्--बच्चों के; अन्न-- भोजन; अर्थम्-हेतु; तौ--वे दोनों; कुटुम्बिनौ--परिवार केमुखिया; परितः--चारों ओर; कानने--जंगल में; तस्मिन्ू--उस; अर्थिनौ--उत्सुकतापूर्वक ढूँढ़ते हुए; चेरतु:--विचरते रहे;चिरम्ू--काफी समय तक।
एक दिन परिवार के दोनों मुखिया अपने बच्चों के लिए भोजन तलाश करने बाहर चलेगये। अपने बच्चों को ठीक से खिलाने की चिन्ता में वे काफी समय तक पूरे जंगल में विचरतेरहे।
इृष्टा तानलुब्धक: कश्चिद्यदच्छातो बनेचर: ।जगूहे जालमातत्य चरत: स्वालयान्तिके ॥
६३॥
इृष्ठटा--देखकर; तान्--उन बच्चों को; लुब्धक:--बहेलिये ने; कश्चित्--कोई; यहच्छात:--संयोगवश; वने--जंगल में;चरः--गुजरते हुए; जगृहे--पकड़ लिया; जालमू--जाल को; आतत्य--फैलाकर; चरत:--विचरण करते; स्व-आलय-अन्तिके--उनके घर के पड़ोस में
उस समय संयोगवश जंगल में विचरण करते हुए किसी बहेलिये ने कबूतर के इन बच्चों कोउनके घोंसले के निकट विचरते हुए देखा। उसने अपना जाल फैलाकर उन सबों को पकड़लिया।
कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ ।गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतु: ॥
६४॥
कपोतः--कबूतर; च--तथा; कपोती--कबूतरी; च--तथा; प्रजा--उनके बच्चों के; पोषे--पालन-पोषण में; सदा--सदैव;उत्सुकौ--उत्सुकतापूर्वक; गतौ--गये हुए; पोषणम्--भोजन; आदाय--लाकर; स्व--अपने; नीडम्--घोंसले में;उपजम्मतु:--पहुँचे
कबूतर तथा उसकी पतली अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए सदैव चिन्तित रहते थे औरइसी उद्देश्य से वे जंगल में भटकते रहे थे। समुचित अन्न पाकर अब वे अपने घोंसले पर लौटआये।
कपोती स्वात्मजान्वीक्ष्य बालकान्जालसम्बृतान् ।तानभ्यधावत्क्रोशन्ती क्रोशतो भूशदु:खिता ॥
६५॥
कपोती--कबूतरी; स्व-आत्म-जान्--अपने से उत्पन्न; वीक्ष्य--देखकर; बालकान्--बच्चों को; जाल--जाल से; संवृतान्ू--घिरे हुए; तान्ू--उनकी ओर; अभ्यधावत्--दौड़ी; क्रोशन्ती--पुकारती हुई; क्रोशत:ः--चिल्ला रहे हों, जो उनकी ओर; भूश--अत्यधिक; दुःखिता--दुखी |
जब कबूतरी ने अपने बच्चों को बहेलिये के जाल में फँसे देखा, तो वह व्यथा से अभिभूतहो गई और चिल्लाती हुई उनकी ओर दौड़ी। वे बच्चे भी उसके लिए चिललाने लगे।
सासकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताजमायया ।स्वयं चाबध्यत शिचा बद्धान्पश्यन्त्यपस्मृति: ॥
६६॥
सा--वह; असकृत्--निरन्तर; स्नेह--स्नेह से; गुणिता--बँधी; दीन-चित्ता--पंगु बुद्धि वाली; अज--अजन्मा भगवान् की;मायया--माया से; स्वयम्--स्वयं; च-- भी; अबध्यत--बँधा लिया; शिचा--जाल से; बद्धान्--बँधे हुए ( बच्चों को );पश्यन्ती --देखती हुई; अपस्मृति:--अपने को भूली हुईं |
चूँकि कबूतरी ने अपने को गहन स्नेह के बन्धन से सदा बाँध रखा था, इसलिए उसका मनव्यथा से विहल था। भगवान् की माया के चंगुल में होने से, वह अपने को पूरी तरह भूल गईऔर अपने असहाय बच्चों की ओर दौड़ती हुई, वह भी तुरन्त बहेलिये के जाल में बँध गई।
कपोतः स्वात्मजान्बद्धानात्मनो प्यधिकान्प्रियान् ।भार्या चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः ॥
६७॥
कपोतः--कबूतर; स्व-आत्म-जान्--अपने ही बच्चों को; बद्धान्ू--बँधा हुआ; आत्मन:--अपनी अपेक्षा; अपि--ही;अधिकान्--अधिक; प्रियान्--प्रिय; भार्याम्-- अपनी पत्नी को; च--तथा; आत्म-समाम्--अपने समान; दीन:-- अभागाव्यक्ति; वबिललाप--शोक करने लगा; अति-दुःखित:ः--अत्यन्त दुखी |
अपने प्राणों से भी प्यारे अपने बच्चों को तथा साथ में अपने ही समान अपनी पत्नी कोबहेलिये के जाल में बुरी तरह बँधा देखकर बेचारा कबूतर दुखी होकर विलाप करने लगा।
अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः ।अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः ॥
६८ ॥
अहो--हाय; मे--मेरा; पश्यत--देखो तो; अपायम्ू--विनाश; अल्प-पुण्यस्य-- अपर्याप्त पुण्य वाले के; दुर्मतेः --दुर्बुद्धि;अतृप्तस्य--असंतुष्ट; अकृत-अर्थस्थ--जिसने जीवन के उद्देश्य को पूरा नहीं किया, उसका; गृह: --पारिवारिक जीवन; त्रै-वर्गिक:--सभ्य जीवन के तीन उद्देश्यों ( धर्म, अर्थ तथा काम ) वाले; हतः--विनष्ट ।
कबूतर ने कहा : हाय! देखो न, मैं किस तरह बरबाद हो गया हूँ। स्पष्ट है कि मैं महामूर्ख हूँ,क्योंकि मैंने समुचित पुण्यकर्म नहीं किये। न तो मैं अपने को संतुष्ट कर सका, न ही मैं जीवन के लक्ष्य को पूरा कर सका। मेरा प्रिय परिवार, जो मेरे धर्म, अर्थ तथा काम का आधार था, अबबुरी तरह नष्ट हो गया।
अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता ।शून्ये गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रै: स्वर्याति साधुभि: ॥
६९॥
अनुरूपा--उपयुक्त; अनुकूला--स्वामिभक्त; च--तथा; यस्य--जिसका; मे--मेरा; पति-देवता--जिसने पति को देवता-रूपमें पूज्य मान लिया है; शून्ये--रिक्त; गृहे--घर में; माम्ू--मुझको; सन्त्यज्य--पीछे छोड़कर; पुत्रैः --अपने पुत्रों के साथ;स्व:--स्वर्ग को; याति--जा रही है; साधुभि:--सन््त जैसे |
मैं तथा मेरी पत्नी आदर्श जोड़ा थे। वह सदैव मेरी आज्ञा का पालन करती थी और मुझेअपने पूज्य देवता की तरह मानती थी, किन्तु अब वह अपने बच्चों को नष्ट हुआ और अपने घरको रिक्त देखकर मुझे छोड़ गई और हमारे सन्त स्वभाव वाले बच्चों के साथ स्वर्ग चली गई।
सोऊहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रज: ।जिजीविषे किमर्थ वा विधुरो दुःखजीवित: ॥
७०॥
सः अहम्-ैं; शून्ये--रिक्त; गृहे--घर में; दीन:--दुखी; मृत-दारः--जिसकी पत्नी मर चुकी है; मृत-प्रज:--जिसके बच्चे मरचुके हैं; जिजीविषे--मैं जीवित रहना चाहूँगा; किम् अर्थम्--किस हेतु; वा--निस्सन्देह; विधुर:--विछोह भोगते हुए; दुःख--दुखी; जीवित: --मेरा जीवन |
अब मैं विरान घर में रहने वाला दुखी व्यक्ति हूँ। मेरी पत्ती मर चुकी है, मेरे बच्चे मर चुकेहैं। मैं भला क्यों जीवित रहना चाहूँ? मेरा हृदय अपने परिवार के विछोह से इतना पीड़ित है किमेरा जीवन मात्र कष्ट बनकर रह गया है।
तांस्तथैवावृतान्शिग्भिमृत्युग्रस्तान्विचेष्टत: ।स्वयं च कृपण: शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोडपतत् ॥
७१॥
तान्ू--उनको; तथा-- भी; एव--निस्सन्देह; आवृतान्--घिरे हुए; शिग्भि: --जाल से; मृत्यु--मृत्यु द्वारा; ग्रस्तान्ू--पकड़े हुए;विचेष्टत: --स्तम्भित; स्वयम्-- स्वयं; च-- भी; कृपण:--दुखी; शिक्षु--जाल के भीतर; पश्यन्--देखते हुए; अपि-- भी;अबुध:--अज्ञानी; अपतत्--गिर पड़ा
जब पिता कबूतर अपने बेचारे बच्चों को जाल में बँधा और मृत्यु के कगार पर दीन भाव सेउन्हें अपने को छुड़ाने के लिए करुणावस्था में संघर्ष करते देख रहा था, तो उसका मस्तिष्कशून्य हो गया और वह स्वयं भी बहेलिए के जाल में गिर पड़ा।
त॑ लब्ध्वा लुब्धक: क्रूर: कपोतं गृहमेधिनम् ।कपोतकान्कपोतीं च सिद्धार्थ: प्रययौ गृहम् ॥
७२॥
तम्--उसको; लब्ध्वा-- लेकर; लुब्धक:--बहेलिया; क्रूर: --निष्ठर; कपोतम्--कबूतर को; गृह-मेधिनम्-- भौतिकतावादीगृहस्थ; कपोतकान्--कबूतर के बच्चों को; कपोतीम्--कबूतरी को; च-- भी; सिद्ध-अर्थ:--अपना प्रयोजन सिद्ध करके;प्रययौ--चल पड़ा; गृहम्--अपने घर के लिए।
वह निष्ठर बहेलिया उस कबूतर को, उसकी पत्नी को तथा उनके सारे बच्चों को पकड़ करअपनी इच्छा पूरी करके अपने घर के लिए चल पड़ा।
एवं कुट॒म्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्दाराम: पतत्रिवत् ।पुष्णन्कुटुम्बं कृपण: सानुबन्धोवसीद॒ति ॥
७३॥
एवम्--इस प्रकार; कुटुम्बी--परिवार वाला मनुष्य; अशान्त--अशान्त; आत्मा--उसकी आत्मा; दवन्द्र-- भौतिक द्वैत ( यथानर-नारी ); आराम: --आनंदित; पतत्रि-वत्--इस पक्षी की तरह; पुष्णन्ू--पालन-पोषण करते हुए; कुटुम्बम्-- अपने परिवारको; कृपण:--कंजूस; स-अनुबन्ध: -- अपने सम्बन्धियों सहित; अवसीदति--अत्यधिक कष्ट उठायेगा।
इस तरह जो व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन में अत्यधिक अनुरक्त रहता है, वह हृदय मेंक्षुब्ध रहता है। कबूतर की ही तरह वह संसारी यौन-आकर्षण में आनन्द ढूँढता रहता है। अपने परिवार का पालन-पोषण करने में बुरी तरह व्यस्त रहकर कंजूस व्यक्ति अपने परिवार वालों केसाथ अत्यधिक कष्ट भोगता है।
यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम् ।गृहेषु खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदु; ॥
७४॥
यः--जो; प्राप्प--पाकर; मानुषम् लोकम्--मनुष्य-जीवन; मुक्ति--मुक्ति का; द्वारमू--दरवाजा; अपावृतम्--खुला हुआ;गृहेषु--घरेलू मामलों में; खग-वत्--इस कथा के पक्षी की ही तरह; सक्त:--लिप्त; तमू--उसको; आरूढ--ऊँचे चढ़कर;च्युतम्ू--नीचे गिरते हुए; विदुः--मानते हैं।
जिसने मनुष्य-जीवन पाया है, उसके लिए मुक्ति के द्वार पूरी तरह से खुले हुए हैं। किन्तु यदिमनुष्य इस कथा के मूर्ख पक्षी की तरह अपने परिवार में ही लिप्त रहता है, तो वह ऐसे व्यक्ति केसमान है, जो ऊँचे स्थान पर केवल नीचे गिरने के लिए ही चढ़ा हो।
अध्याय आठ: पिंगला की कहानी
श्रीज्राह्मण उवाचसुखमैन्द्रियकं राजन्स्वर्ग नरक एव च ।देहिनां यद्यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद् बुध: ॥
१॥
श्री-ब्राह्मणः उबाच--उस साधु-ब्राह्मण ने कहा; सुखम्--सुख; ऐन्द्रियकम्--इन्द्रियों से उत्पन्न; राजन्--हे राजा; स्वर्गे--स्वर्गमें; नरके--तथा नरक में; एबव--निश्चय ही; च-- भी; देहिनाम्ू--देहधारी जीवों के; यत्ू--चूँकि; यथा--जिस तरह; दुःखम्--दुख; तस्मात्ू--इसलिए; न--नहीं; इच्छेत--इच्छा करे; तत्--वह; बुध:--जाननहारा |
साधु-ब्राह्मण ने कहा : हे राजन, देहधारी जीव स्वर्ग या नरक में स्वतः दुख का अनुभवकरता है। इसी तरह बिना खोजे ही सुख का भी अनुभव होता है। इसलिए बुद्धिमान तथाविवेकवान व्यक्ति ऐसे भौतिक सुख को पाने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करता।
ग्रासं सुमृष्टे विरसं महान्तं स्तोकमेव वा ।यहच्छयैवापतितं ग्रसेदाजगरोउक्रिय: ॥
२॥
ग्रासम्ू-- भोजन; सु-मृष्टम्--स्वच्छ तथा स्वादिष्ट; विरसम्--स्वादरहित; महान्तम्--बड़ी मात्रा में; स्तोकम्--छोटी मात्रा;एव--निश्चय ही; वा--अथवा; यहृच्छया--बिना निजी प्रयास के; एब--निस्सन्देह; आपतितम्--प्राप्त किया गया; ग्रसेत्ू--खालेना चाहिए; आजगर:--अजगर की तरह; अक्रिय:--निष्क्रिय, बिना प्रयास के उदासीन बने रहना।
अजगर का अनुकरण करते हुए मनुष्य को भौतिक प्रयास का परित्याग कर देना चाहिएऔर अपने उदर-पोषण के लिए उस भोजन को स्वीकार करना चाहिए, जो अनायास मिल जाय,चाहे वह स्वादिष्ट हो या स्वादरहित, पर्याप्त हो या स्वल्प।
शयीताहानि भूरीणि निराहारोनुपक्रमः ।यदि नोपनयेदग्रासो महाहिरिव दिष्टभुक् ॥
३॥
शयीत--शान्तिपूर्वक रहता रहे; अहानि--दिनों तक; भूरीणि-- अनेक; निराहार: --उपवास करते हुए; अनुपक्रम:--बिनाप्रयास के; यदि--यदि; न उपनयेत्--नहीं आता; ग्रास:--भोजन; महा-अहि:-- अजगर; इब--सहश; दिष्ट-- भाग्य द्वारा प्रदत्त;भुक्ू-खाते हुए।
यदि कभी भोजन न भी मिले, तो सन्त-पुरुष को चाहिए कि बिना प्रयास किये वह अनेकदिनों तक उपवास रखे। उसे यह समझना चाहिए कि ईश्वर की व्यवस्था के कारण उसे उपवासकरना चाहिए। इस तरह अजगर का अनुसरण करते हुए उसे शान्त तथा धीर बने रहना चाहिए।
ओज:सहोबलयुतं बिभ्रद्देहमकर्मकम् ।शयानो वीतनिद्रश्न नेहेतेन्द्रयवानपि ॥
४॥
ओज:--काम-शक्ति; सह:--मानसिक शक्ति; बल--शारीरिक शक्ति; युतम्ू--से युक्त; बिभ्रतू--पालन-पोषण करते हुए;देहम्--शरीर को; अकर्मकम्--बिना प्रयास के; शयान:--शान्त रहते हुए; बीत--मुक्त; निद्र: --अज्ञान से; च--तथा; न--नहीं; ईहेत-- प्रयास करे; इन्द्रिय-वान्ू--पूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा काम-शक्ति से युक्त; अपि--यद्यपि।
सन््त-पुरुष को शान्त रहना चाहिए और भौतिक दृष्टि से अक्रिय रहना चाहिए। उसे बिनाअधिक प्रयास के अपने शरीर का पालन-पोषण करना चाहिए। पूर्ण काम, मानसिक तथाशारीरिक शक्ति से युक्त होकर भी सन्त-पुरुष को भौतिक लाभ के लिए सक्रिय नहीं होनाचाहिए, अपितु अपने वास्तविक स्वार्थ के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए।
मुनि: प्रसन्नगम्भीरो दुर्विगाह्मो दुरत्ययः ।अनन्तपारो ह्यक्षोभ्य: स्तिमितोद इवार्णव: ॥
५॥
मुनि:ः--मुनि; प्रसन्न--प्रसन्न; गम्भीर: --अत्यन्त गम्भीर; दुर्विगाह्मः--अगाध; दुरत्यय:--दुर्लध्य; अनन्त-पार: --असीम; हि--निश्चय ही; अक्षोभ्य:--अश्लुब्ध; स्तिमित--शान्त; उदः -- जल; इब--सहश; अर्णवः--समुद्र
मुनि अपने बाह्य आचरण में सुखी और मधुर होता है, किन्तु भीतर से अत्यन्त गम्भीर तथाविचारवान होता है। चूँकि उसका ज्ञान अगाध तथा असीम होता है, अतः वह कभी क्षुब्ध नहींहोता। इस तरह वह सभी प्रकार से अगाध तथा दुर्लध्य सागर के शान्त जल की तरह होता है।
समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनिः ।नोत्सपेत न शुष्येत सरिद्धिरिव सागर: ॥
६॥
समृद्ध--सम्पन्न; काम:-- भौतिक ऐश्वर्य; हीन:--रहित, विहीन; वा--अथवा; नारायण-- भगवान्; पर: --परम मानते हुए;मुनिः--सन्त भक्त; न--नहीं; उत्सपेत--बढ़ जाता है; न--नहीं; शुष्येत--सूख जाता है; सरिद्द्धिः--नदियों के द्वारा; इब--सहश; सागर:--समुद्र
वर्षाऋतु में उफनती हुई नदियाँ सागर में जा मिलती हैं और ग्रीष्पऋतु में उधली होने से उनमेंजल की मात्रा बहुत कम हो जाती है। फिर भी समुद्र न तो वर्षाऋतु में उमड़ता है, न ही ग्रीष्मऋतुमें सूखता है। इसी तरह से जिस सन््त-भक्त ने भगवान् को अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकार कियाहै, उसे कभी तो भाग्य से प्रचुर भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है और कभी वह अपने को भौतिकइृष्टि से कंगाल पाता है। फिर भी भगवान् का ऐसा भक्त न तो प्रोन्नति के समय हर्षित होता है, नदरिद्र बनने पर खिन्न होता है।
इष्टा स्त्रियं देवमायां तद्धावैरजितेन्द्रिय: ।प्रलोभित: पतत्यन्धे तमस्यग्नौ पतड़वत् ॥
७॥
इृष्ठा--देखकर; स्त्रियम्--स्त्री को; देव-मायाम्-- भगवान् की माया से, जिसका रूप निर्मित हुआ है; तत्-भावै:--स्त्री केमोहक कार्यों से; अजित--जिसने वश में नहीं किया; इन्द्रियः--अपनी इन्द्रियाँ; प्रलोभितः--मुग्ध; पतति--नीचे गिरता है;अन्धे--अज्ञान के अंधकार में; तमसि--नरक के अंधकार में; अग्नौ-- अग्नि में ; पतड़-बत्--पतिंगे की तरह ।
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता, वह परमेश्वर की माया से उत्पन्न स्त्री केस्वरूप को देखकर तुरन्त आकृष्ट हो जाता है। दरअसल जब कोई स्त्री मोहक शब्द बोलती है,नखरे से हँसती है और अपने शरीर को काम-वासना से युक्त होकर मटकाती है, तो मनुष्य कामन तुरन्त मुग्ध हो जाता है और वह भव-अंधकार में उसी तरह जा गिरता है, जिस तरह पतिंगाअग्नि पर मदान्ध होकर उसकी लपटों में तेजी से गिर पड़ता है।
योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादि-द्रव्येषु मायारचितेषु मूढ: ।प्रलोभितात्मा ह्ुपभोगबुद्धयापतड़वन्नश्यति नष्टदृष्टि: ॥
८॥
योषित्--स्त्री के; हिरण्य--सुनहरे; आभरण--गहने; अम्बर--वस्त्र; आदि--इ त्यादि; द्रव्येषु--ऐसी वस्तुओं के देखने पर;माया--भगवान् की माया द्वारा; रचितेषु--निर्मित; मूढ:--विवेकहीन मूर्ख; प्रलोभित--काम-वासना से जाग्रत; आत्मा--ऐसाव्यक्ति; हि--निश्चय ही; उपभोग--इन्द्रियतृप्ति के लिए; बुद्धया--इच्छा से; पतड़-वबत्--पतिंगा की तरह; नश्यति--नष्ट होजाता है; नष्ट--नष्ट हो गई है; दृष्टिः--जिसकी बुद्धि |
विवेकरहित मूर्ख व्यक्ति सुनहले गहनों, सुन्दर वस्त्रों और अन्य प्रसाधनों से युक्त कामुक स्त्रीको देखकर तुरन्त ललचा हो उठता है। ऐसा मूर्ख इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक होने से अपनी सारीबुद्धि खो बैठता है और उसी तरह नष्ट हो जाता है, जिस तरह जलती अग्नि की ओर दौड़ने वालापतिंगा।
स्तोकं स्तोकं ग्रसेदग्रासं देहो वर्तेत यावता ।गृहानहिंसन्नातिष्ठेद्रत्ति माधुकरीं मुनि: ॥
९॥
स्तोकम् स्तोकम्--थोड़ा थोड़ा करके; ग्रसेतू--खाये; ग्रासम्ू-- भोजन; देह:--शरीर; वर्तेत--जिससे जीवित रह सके;यावता--उतने से; गृहान्--गृहस्थों को; अहिंसन्ू--तंग न करते हुए; आतिष्ठेत्-- अभ्यास करे; वृत्तिमू--पेशा, व्यवसाय; माधु-करीम्ू--मधुमक्खी का; मुनि:--सन्त-पुरुष
सन््तपुरुष को उतना ही भोजन स्वीकार करना चाहिए, जितने से उसका जीवन-निर्वाह होसके। उसे द्वार-द्वार जाकर प्रत्येक परिवार से थोड़ा-थोड़ा भोजन स्वीकार करना चाहिए। इसतरह उसे मधुमक्खी की वृत्ति का अभ्यास करना चाहिए।
अणुभ्यश्च महदभ्यश्व शास्त्रेभ्य:ः कुशलो नरः ।सर्वतः सारमादद्यात्पुष्पे भ्य इव घटूपदः ॥
१०॥
अणुभ्य:--छोटे से छोटे से लेकर; च--तथा; महद्भ्य: --सबसे बड़े से; च-- भी; शास्त्रेभ्य: --शास्त्रों से; कुशल:--बुद्धिमान;नरः--मनुष्य; सर्वतः--सबों से; सारम्ू--निचोड़, सार; आदद्यात्-ग्रहण करे; पुष्पेभ्य:--फूलों से; इब--सहश; षट्पद: --मधुमक्खी |
जिस तरह मधुमक्खी बड़े तथा छोटे सभी प्रकार के फूलों से मधु ग्रहण करती है, उसी तरहबुद्धिमान मनुष्य को समस्त धार्मिक शास्त्रों से सार ग्रहण करना चाहिए।
सायन्तनं श्रस्तनं वा न सड्ूह्लीत भिक्षितम् ।पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न सड़ग्रही ॥
११॥
सायन्तनम्--रात के निमित्त; श्रस्तनम्ू--कल के लिए; वा--अथवा; न--नहीं; सड्डह्नीत-- स्वीकार करे; भिक्षितम्-भिक्षा;पाणि--हाथ से; पात्र--स्तरी के रूप में; उदर--पेट से; अमत्र:--संग्रह पात्र ( कोठार ) की तरह; मक्षिका--मधुमक्खी; इब--सहश; न--नहीं; सड्ग्रही--संग्रह करने वाला।
सन्त-पुरुष को यह नही सोचना चाहिए 'मैं इस भोजन को आज रात के लिए रखूँगा औरइस दूसरे भोजन को कल के लिए बचा लूँगा।दूसरे शब्दों में, सन््त-पुरुष को भीख से प्राप्तभोज्य सामग्री का संग्रह नहीं करना चाहिए प्रत्युत उसे अपने हाथ को ही पात्र बनाकर उसमेंजितना आ जाय उसी को खाना चाहिए। उसका एकमात्र कोठार उसका पेट होना चाहिए औरउसके पेट में आसानी से जितना आ जाय वही उसका भोजन-संग्रह होना चाहिए। इस तरह उसेलोभी मधुमक्खी का अनुकरण नहीं करना चाहिए, जो अधिक से अधिक मधु एकत्र करने केलिए उत्सुक रहती है।
सायन्तनं श्रस्तनं वा न सड्डूह्लीत भिक्षुकः ।मक्षिका इव सड्डहन्सह तेन विनश्यति ॥
१२॥
सायन्तनम्--रात के लिए; श्रस्तनम्--कल के लिए; वा--अथवा; न--नहीं; सड्डह्लीत-- स्वीकार करे; भिक्षुक:--सन्त-साथधु;मक्षिका--मधुमक्खी; इब--सहश; सड्डहन्ू--एकत्र करते हुए; सह--साथ; तेन--उससंग्रह के; विनश्यति--नष्ट हो जाता है।
साधु-संत को उसी दिन या अगले दिन खाने के लिए भी भोजन का संग्रह नहीं करनाचाहिए। यदि वह इस आदेश की अवहेलना करता है और मधुमक्खी की तरह अधिक से अधिकस्वादिष्ट भोजन एकत्र करता है, तो उसने, जो कुछ एकत्र किया है, वह निस्सन्देह उसे नष्ट करदेगा।
पदापि युवतीं भिक्चुर्न स्पृशेद्दरावीमपि ।स्पृशन्करीव बध्येत करिण्या अड्गसड्भरत: ॥
१३॥
पदा--पाँव से; अपि-- भी; युवतीम्--युवती को; भिक्षु:--साधु संत; न--नहीं; स्पृशेतू--छूना चाहिए; दारवीम्ू--लकड़ी कीबनी; अपि--भी; स्पृशन्--स्पर्श करते हुए; करी--हाथी; इब--सहृश; बध्येत--बँधा लेता है; करिण्या:--हथिनी के; अड़-सड़त:--शरीर के स्पर्श से |
सनन्त-पुरुष को चाहिए कि वह किसी युवती का स्पर्श न करे। वस्तुत:, उसे काठ की बनीस्त्री के स्वरूप वाली गुड़िया को भी अपने पाँव से भी स्पर्श नहीं होने देना चाहिए। स्त्री के साथशारीरिक सम्पर्क होने पर वह निश्चित ही उसी तरह माया द्वारा बन्दी बना लिया जायेगा, जिसतरह हथिनी के शरीर का स्पर्श करने की इच्छा के कारण हाथी पकड़ लिया जाता है।
नाधिगच्छेल्स्त्रियं प्राज्ञ: कर्हिचिन्मृत्युमात्मनः ।बलाधिकै: स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा ॥
१४॥
न अधिगच्छेत्ू--आनन्द पाने के लिए नहीं जाये; स्त्रियम्ू--स्त्री; प्राज्ः--जो बुद्धिमत्तापूर्वक भेदभाव कर सके; कहिचित्--किसी समय; मृत्युम्ू--साक्षात् मृत्यु; आत्मतः--अपने लिए; बल--बल में; अधिकै:--जो श्रेष्ठ हैं उनके द्वारा; सः--वह;हन्येत--विनष्ट कर दिया जायेगा; गजैः--हाथियों के द्वारा; अन्यैः--अन्यों के लिए; गज:ः--हाथी; यथा--जिस तरह।
विवेकवान् व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए स्त्री के सुन्दर रूपका लाभ उठाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जिस तरह हथिनी से संभोग करने का प्रयासकरने वाला हाथी उसके साथ संभोग कर रहे अन्य हाथियों के द्वारा मार डाला जाता है, उसीतरह, जो व्यक्ति किसी नारी के साथ संभोग करना चाहता है, वह किसी भी क्षण उसके अन्यप्रेमियों द्वारा मार डाला जा सकता है, जो उससे अधिक बलिष्ठ होते हैं।
न देय॑ नोपभोग्यं च लुब्धर्यहु:खसज्चितम् ।भुड्े तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु ॥
१५॥
न--नहीं; देयम्--अन्यों को दान में दिये जाने के लिए; न--नहीं; उपभोग्यम्--स्वयं भोगे जाने के लिए; च--भी; लुब्धैः--लोभीजनों के द्वारा; यत्-- जो; दुःख--अत्यन्त संघर्ष तथा कष्ट से; सब्लितम्--एकत्र किया जाता है; भुड्ढे --भोग करता है;तत्--वह; अपि--तिस पर भी; तत्ू--वह; च-- भी; अन्य: --अन्य कोई; मधु-हा--छत्ते से शहद चुराने वाला; इब--सहश;अर्थ--धन; वित्--जो यह जानता है कि किस तरह पहचाना जाय; मधु--शहद
लोभी व्यक्ति बहुत संघर्ष तथा कष्ट से प्रचुर मात्रा में धन एकत्र करता है, किन्तु इस धन कोएकत्र करने वाले व्यक्ति को इसका भोग करने या अन्यों को दान हमेशा करने नहीं दिया जाता।लोभी व्यक्ति उस मधुमक्खी के समान है, जो प्रचुर मात्रा में शहद उत्पन्न करने के लिए संघर्षकरती है, किन्तु इसे उस व्यक्ति द्वारा चुरा लिया जाता है, जो या तो स्वयं उसका भोग करता हैया अन््यों को बेच देता है। कोई चाहे कितनी सावधानी के साथ अपनी कठिन कमाई को क्यों नछिपाये या उसकी रक्षा करने का प्रयास करे, किन्तु मूल्यवान वस्तुओं का पता लगाने वाले पटुलोग उसे चुरा ही लेंगे।
सुदुःखोपार्जितैर्वित्तैराशासानां गृहाशिष: ।मधुहेवाग्रतो भुड्ढे यतिर गृहमेधिनाम् ॥
१६॥
सु-दुःख--अत्यधिक संघर्ष से; उपार्जितैः--अर्जित किया गया; वित्तै:--भौतिक एऐ श्वर्य से; आशासानाम्--अत्यधिक इच्छारखने वालों के; गृह--घरेलू भोग से सम्बद्ध; आशिष:--आशीर्वाद, वर; मधु-हा--शहद-चोर; इब--सहृश; अग्रत:--प्रथम,औरों से पहले; भुड़े -- भोग करता है; यति:--भिक्षु, साधु-संत; वै--निश्चय ही; गृह-मेधिनाम्--गृहस्थ-जीवन के प्रति समर्पितलोगों के |
जिस प्रकार शहद-चोर मधुमक्खियों द्वारा बड़े ही परिश्रमपूर्वक एकत्र की गई शहद कोनिकाल लेता है, उसी तरह ब्रह्मचारी तथा संन््यासी जैसे साधु-संत पारिवारिक भोग में समर्पितगृहस्थों द्वारा बहुत ही कष्ट सहकर संचित किये गये धन का भोग करने के अधिकारी हैं।
ग्राम्यगीतं न श्रृणुयाद्यतिर्बनचर: क्वचित् ।शिक्षेत हरिणाद्वद्धान्मृगयोर्गीतमोहितातू ॥
१७॥
ग्राम्य--इन्द्रियतृप्ति से सम्बद्ध; गीतम्--गीत; न--नहीं; श्रुणुयात्--सुने; यतिः--साधु-संत; बन--जंगल में; चर:--विचरणकरते; क्वचित्--कभी; शिक्षेत--सीखे ; हरिणात्--हिरन से; बद्धात्--बाँधे गये; मृगयो: --शिकारी के; गीत--गीत द्वारा;मोहितात्ू--मोहित किये गये।
वनवासी सन््यासी को चाहिए कि भौतिक भोग को उत्तेजित करने वाले गीत या संगीत कोकभी भी न सुने। प्रत्युत सन्त पुरुष को चाहिए कि ध्यान से उस हिरन के उदाहरण का अध्ययनकरे, जो शिकारी के वाद्य के मधुर संगीत से विमोहित होने पर पकड़ लिया जाता है और मारडाला जाता है।
नृत्यवादित्रगीतानि जुषन्ग्राम्याणि योषिताम् ।आसां क्रीडनको वश्य ऋष्यश्रुज्ञो मृगीसुतः ॥
१८ ॥
नृत्य--नाच; वादित्र--वादन; गीतानि--गीतों को; जुषन्--अनुशीलन करते हुए; ग्राम्याणि--इन्द्रियतृप्ति विषयक;योषिताम्--स्त्रियों की; आसामू--उनके; क्रीडनक:--क्रीड़ा की वस्तु; वश्य: --पूरी तरह वशी भूत; ऋष्य- श्रृड़: --ऋष्यश्रृंगमुनि; मृगी-सुत:--मृगी का पुत्र
सुन्दर स्त्रियों के सांसारिक गायन, नृत्य तथा संगीत-मनोरंजन से आकृष्ट होकर मृगी-पुत्रऋष्यश्रृंग मुनि तक उनके वश में आ गये, मानों कोई पालतू पशु हों।
जिह्नयातिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहितः ।मृत्युमृच्छत्यसद्दुद्धिर्मी नस्तु बडिशैर्यथा ॥
१९॥
जिह॒या--जीभ से; अति-प्रमाथिन्या--जो अत्यधिक मथने वाली है; जनः--पुरुष; रस-विमोहितः--स्वाद के प्रति आकर्षण सेमोहित हुआ; मृत्युम्--मृत्यु; ऋच्छति--प्राप्त करता है; असत्--व्यर्थ; बुद्धिः--जिसकी बुद्धि; मीन:--मछली; तु--निस्सन्देह;बडिशै:--काँटे द्वारा; यथा--जिस तरह ।
जिस तरह जीभ का भोग करने की इच्छा से प्रेरित मछली मछुआरे के काँटे में फँस करमारी जाती है, उसी तरह मूर्ख व्यक्ति जीभ की अत्यधिक उद्दवेलित करने वाली उमंगों से मोहग्रस्तहोकर विनष्ट हो जाता है।
इन्द्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिण: ।वर्जयित्वा तु रसन॑ तन्निरन्नस्य वर्धते ॥
२०॥
इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; जबन्ति--जीत लेती हैं; आशु--शीकघ्रतापूर्वक; निराहारा:--जो लोग इन्द्रियों को उनके विषयों से रोकतेहैं; मनीषिण: --विद्वान; वर्जयित्वा--के अतिरिक्त; तु--लेकिन; रसनम्ू--जीभ; तत्--उसकी इच्छा; निरन्नस्य--उपवास करनेवाले की; वर्धते--बढ़ाती है।
उपवास द्वारा विद्वान पुरुष जीभ के अतिरिक्त अन्य सारी इन्द्रियों को जल्दी से अपने वश मेंकर लेते हैं, क्योंकि ऐसे लोग अपने को खाने से दूर रखकर स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने की प्रबलइच्छा से पीड़ित हो उठते हैं।
तावजितेन्द्रियो न स्याद्विजितान्येन्द्रिय: पुमान् ।न जयेद्गसनं यावज्िितं सर्व जिते रसे ॥
२१॥
तावत्--तब तक; जित-इन्द्रियः:--जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय पा ली है; न--नहीं; स्थातू--हो सकता है; विजित-अन्य-इन्द्रियः--जिसने अन्य इन्द्रियों पर विजय पा ली है; पुमान्ू--मनुष्य; न जयेत्--नहीं जीत सकता; रसनम्--जीभ को; यावत्--जब तक; जितमू्--जीता हुआ; सर्वम्--हर वस्तु; जिते--जीत लेने पर; रसे--जीभ को |
भले ही कोई मनुष्य अन्य सारी इन्द्रियों को क्यों न जीत ले, किन्तु जब तक जीभ को नहींजीत लिया जाता, तब तक वह इन्द्रियजित नहीं कहलाता। किन्तु यदि कोई मनुष्य जीभ को वशमें करने में सक्षम होता है, तो उसे सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करने वाला माना जाता है।
पिड्ला नाम वेश्यासीद्विदेहनगरे पुरा ।तस्या मे शिक्षितं किश्ञिन्निबोध नृपनन्दन ॥
२२॥
पिड्ूला नाम--पिंगला नाम की; वेश्या--वेश्या; आसीतू-- थी; विदेह-नगरे--विदेह नामक नगर में ; पुरा--प्राचीन काल में;तस्या:--उससे; मे--मेरे द्वारा; शिक्षितं--जो कुछ सीखा गया; किझ्जित्ू--जो कुछ; निबोध---अब सीखो; नृप-नन्दन--हे राजाके पुत्र |
हे राजपुत्र, पूर्वकाल में विदेह नामक शहर में पिंगला नामकी एक वेश्या रहती थी। अबकृपा करके, वह सुनिये, जो मैंने उस स्त्री से सीखा है।
सा स्वैरिण्येकदा कान्तं सल्ढेत उपनेष्यती ।अभूत्काले बहिद्वरि बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥
२३॥
सा--वह; स्वैरिणी --वेश्या; एकदा--एक बार; कान्तम्--ग्राहक, प्रेमी; सड्जेते--रमण स्थान में; उपनेष्यती--लाने के लिए;अभूत्--खड़ी रही; काले--रात में; बहि:--बाहर; द्वारे--दरवाजे पर; बिभ्रती--पकड़े हुए; रूपम्ू--अपना रूप; उत्तमम्--अत्यन्त सुन्दर।
एक बार वह वेश्या अपने घर में किसी प्रेमी को लाने की इच्छा से रात के समय अपनासुन्दर रूप दिखलाते हुए दरवाजे के बाहर खड़ी रही।
मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान्पुरुषर्षभ ।तान्शुल्कदान्वित्तवतः कान्तान्मेनेर्थकामुकी ॥
२४॥
मार्गे--उस गली में; आगच्छत:--आने वाले; वीक्ष्य--देखकर; पुरुषान्ू-- पुरुषों को; पुरुष-ऋषभ-हे श्रेष्ठ पुरुष; तानू--उनको; शुल्क-दानू--जो मूल्य चुका सके; वित्त-वत:-- धनवान; कान्तान्--प्रेमियों या ग्राहकों को; मेने--विचार किया;अर्थ-कामुकी-- धन चाहने वाले |
हे पुरुष- श्रेष्ठ, यह वेश्या धन पाने के लिए अत्यधिक आतुर थी और जब वह रात में गली मेंखड़ी थी, तो वह उधर से गुजरने वाले सारे व्यक्तियों का अध्ययन यह सोचकर करती रही कि,'ओह, इसके पास अवश्य ही धन होगा। मैं जानती हूँ यह मूल्य चुका सकता है और मुझेविश्वास है कि वह मेरे साथ अत्यधिक भोग कर सकेगा।वह वेश्या गली पर के सभी पुरुषों केबारे में ऐसा ही सोचती रही।
आगतेष्वपयातेषु सा सद्लेतोपजीविनी ।अप्यन्यो वित्तवान्कोपि मामुपैष्यति भूरिद: ॥
२५॥
एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलम्बती ।निर्गच्छन्ती प्रविशती निशीथं समपद्यत ॥
२६॥
आगतेषु--जब वे आये; अपयातेषु--तथा वे चले गये; सा--उसने; सद्लेत-उपजीविनी--वेश्यावृत्ति ही जिसकी आमदनी थी;अपि--हो सकता है; अन्य:--दूसरा; वित्त-वानू-- धनवान; कः अपि--कोई भी; माम्--मेंरे पास; उपैष्यति--प्रेम के लिएआयेगा; भूरि-दः--तथा वह प्रचुर धन देगा; एबम्--इस प्रकार; दुराशया--व्यर्थ की आशा से; ध्वस्त--नष्ट; निद्रा--उसकीनींद; द्वारि--दरवाजे पर; अवलम्बती--टेक लगाये; निर्गच्छन््ती--गली की ओर जाती हुई; प्रविशती--अपने घर वापस आती;निशीथम्--अर्धरात्रि; समपद्यत--हो गई
जब वेश्या पिंगला द्वार पर खड़ी हो गई, कई पुरुष आये और उसके घर के सामने से टहलतेहुए चले गये। उसकी जीविका का एकमात्र साधन वेश्यावृत्ति था, अतएवं उसने उत्सुकतापूर्वकसोचा 'हो सकता है कि अब जो आ रहा है, वह बहुत धनी होहाय! वह तो रूक ही नहीं रहा,किन्तु मुझे विश्वास है कि अन्य कोई अवश्य आयेगा। अवश्य ही यह जो आ रहा है मेरे प्रेम कामूल्य चुकायेगा और शायद प्रचुर धन दे।' इस प्रकार व्यर्थ की आशा लिए वह द्वार पर टेकलगाये खड़ी रही और अपना धंधा पूरा न कर सकी और सोने भी न जा सकी। उद्विग्नता से वहकभी गली में जाती और कभी अपने घर के भीतर लौट आती। इस तरह धीरे धीरे अर्धरात्रि होआई।
तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतस: ।निर्वेद: परमो जज्ञे चिन्ताहेतु: सुखावह: ॥
२७॥
तस्या:--उसकी; वित्त--धन के लिए; आशया--इच्छा से; शुष्यत्ू--सूख गया; वकक््त्राया: --मुख; दीन--खिन्न; चेतस:--मन;निर्वेद:--विरक्ति; परम:--अत्यधिक; जज्ञे--जागृत हो उठी; चिन्ता--चिन्ता; हेतु:--के कारण; सुख--सुख; आवहः--लातेहुए
ज्यों ज्यों रात बीतती गई, वह वेश्या, जो कि धन की अत्यधिक इच्छुक थी, धीरे-धीरे हताशहो उठी और उसका मुख सूख गया। इस तरह धन की चिन्ता से युक्त तथा अत्यन्त निराश होकरवह अपनी स्थिति से अत्यधिक विरक्ति अनुभव करने लगी और उसके मन में सुख का उदयहुआ।
तस्या निर्विण्णचित्ताया गीत॑ श्रुणु यथा मम ।निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा हासि: ॥
२८ ॥
तस्या:--उसका; निर्विण्ण-- क्षुब्ध; चित्ताया:--मन; गीतम्--गीत; श्रूणु--सुनो; यथा--मानो; मम--मुझसे; निर्वेद: --विरक्ति; आशा--आशाओं एवं इच्छाओं के; पाशानाम्--बन्धनों के; पुरुषस्थ--पुरुष को; यथा--जिस तरह; हि--निश्चय ही;असि:ः--तलवार।
वह वेश्या अपनी भौतिक स्थिति से ऊब उठी और इस तरह वह अन्यमनस्क हो गई।दरअसल, विरक्ति तलवार का काम करती है। यह भौतिक आशाओं तथा इच्छाओं के बन्धन कोखण्ड-खण्ड कर देती है। अब मुझसे वह गीत सुनो, जो उस स्थिति में वेश्या ने गाया।
न ह्ाड्जजातनिर्वेदो देहबन्धं जिहासति ।यथा विज्ञानरहितो मनुजो ममतां नृूप ॥
२९॥
न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अड्र--हे राजा; अजात--जिसने उत्पन्न नहीं किया; निर्वेद:--विरक्ति; देह-- भौतिक शरीर का;बन्धम्--बन्धन; जिहासति--त्यागने का इच्छुक होता है; यथा--जिस तरह; विज्ञान--अनुभूत ज्ञान; रहित:--विहीन; मनुज: --मनुष्य; ममताम्--स्वामित्व का मिथ्या भाव; नृप--हे राजा।
हे राजन, जिस तरह आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन व्यक्ति कभी भी अनेक भौतिक वस्तुओं परअपने मिथ्या स्वामित्व को त्यागना नहीं चाहता, उसी तरह जिस व्यक्ति में विरक्ति उत्पन्न नहीं हुईवह कभी भी भौतिक शरीर के बन्धन को त्यागने के लिए तैयार नहीं होता।
पिड्लोवाचअहो मे मोहविततिं पश्यताविजितात्मन: ।या कान्तादसतः काम॑ कामये येन बालिशा ॥
३०॥
पिड्रला--पिंगला ने; उबाच--कहा; अहो --ओह; मे--मेरा; मोह--मोह का; विततिम्--विस्तार; पश्यत--देखो तो;अविजित-आत्मन:--जिसका मन वश में नहीं है, उसका; या--जो ( मैं ); कान्तातू--अपने प्रेमी से; असतः--व्यर्थ, तुच्छ;'कामम्--विषय-सुख; कामये--चाहती हूँ; येन-- क्योंकि; बालिशा--मूर्ख हूँ
पिंगला वेश्या ने कहा : जरा देखो न, मैं कितनी मोहग्रस्त हूँ। चूँकि मैं अपने मन को वश मेंनहीं रख सकती, इसलिए मैं मूर्ख की तरह किसी तुच्छ व्यक्ति से विषय-सुख की कामना करती>>हूँ।
सन््तं समीपे रमणं रतिप्रदंवित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय ।अकामदं दुःखभयाधिशोक-मोहप्रदं तुच्छमहं भजेउज्ञा ॥
३१॥
सन्तम्--होते हुए; समीपे--अत्यन्त निकट ( मेरे हृदय में ); रमणम्--अत्यन्त प्रिय; रति--वास्तविक प्रेम या आनन्द; प्रदम्--देने वाला; वित्त-- धन; प्रदम्ू--देने वाला; नित्यम्--नित्य; इमम्--उसको; विहाय--त्याग कर; अकाम-दम्--जो किसी कीइच्छाओं को कभी नहीं पूरा कर सकता; दुःख--कष्ट; भय--डर; आधि--मानसिक क्लेश; शोक--शोक; मोह--मोह;प्रदम्ू--देने वाला; तुच्छम्-- अत्यन्त तुच्छ; अहम्--मैं; भजे--सेवा करती हूँ; अज्ञा--अज्ञानी मूर्ख |
मैं ऐसी मूर्ख निकली कि मेरे हृदय में जो शाश्वत स्थित है और मुझे अत्यन्त प्रिय है उस पुरुषकी मैंने सेवा छोड़ दी। वह अत्यन्त प्रिय ब्रह्माण्ड का स्वामी है, जो कि असली प्रेम तथा सुखका दाता है और समस्त समृद्धि का स्त्रोत है। यद्यपि वह मेरे ही हृदय में है, किन्तु मैंने उसकीपूर्णरूपेण अनदेखी की है। बजाय इसके मैंने अनजाने ही तुच्छ आदमियों की सेवा की है, जोमेरी असली इच्छाओं को कभी भी पूरा नहीं कर सकते और जिन्होंने मुझे दुख, भय, चिन्ता,शोक तथा मोह ही दिया है।
अहो मयात्मा परितापितो वृथास्लित्यवृत्त्यातिविगर्हावार्तया ।स्त्रैणान्नराद्यार्थतृषो नुशोच्यात्क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती ॥
३२॥
अहो--ओह; मया--मेरे द्वारा; आत्मा--आत्मा; परितापित:--कष्ट दिया गया; वृथा--व्यर्थ ही; साद्लेत्य--वेश्या की; वृत्त्या--वृत्ति या पेशे द्वारा; अति-विगर्ई--अत्यन्त निन्दनीय; वार्तया--वृत्ति द्वारा; स्त्रैणात्--कामुक व्यक्तियों द्वारा; नरात्ू--मनुष्यों से;या--जो ( मैं ); अर्थ-तृष:--लोभी; अनुशोच्यात्--दयनीय; क्रीतेन--बिके हुए; वित्तम्-- धन; रतिम्ू--मैथुन सुख;आत्मना--अपने शरीर से; इच्छती--चाहती हुई |
ओह! मैंने अपनी आत्मा को व्यर्थ ही पीड़ा पहुँचाई। मैंने ऐसे कामुक, लोभी पुरुषों के हाथअपने शरीर को बेचा जो स्वयं दया के पात्र हैं। इस प्रकार मैंने वेश्या के अत्यन्त गहित पेशे कोअपनाते हुए धन तथा मैथुन का आनन्द पाने की आशा की थी।
यदस्थिभिर्निर्मितवंशवंस्य-स्थूणं त्वचा रोमनखै: पिनद्धम् ।क्षरत्नवद्वारमगारमेतद्विष्मूत्रपूर्ण मदुपैति कान्या ॥
३३॥
यत्--जो; अस्थिभि:--हड्डियों से; निर्मित--बना हुआ; वंश--रीढ़; वंश्य--पसलियाँ; स्थूणम्--हाथ-पैर की हड्डियाँ;त्वचा--चमड़ी से; रोम-नखै:--बाल तथा नाखूनों से; पिनद्धम्ू--ढका; क्षरत्--टपकता हुआ; नव--नौ; द्वारम््-द्वारों;अगारम्--घर; एतत्--यह; विट्ू--मल; मूत्र--मूत्र, पेशाब से; पूर्णम्-- भरा हुआ; मत्--मेरे अतिरिक्त; उपैति--अपने कोलगाती है; का--कौन; अन्या--अन्य स्त्री |
यह भौतिक शरीर एक घर के सहृश है, जिसमें आत्मा रूप में मैं रह रही हूँ। मेरी रीढ़,पसलियों, हाथ तथा पाँव को बनाने वाली हड्डियाँ इस घर की आड़ी तथा पड़ी शहतीरें, थूनियाँतथा ख भें हैं और पूरा ढाँचा मल-मूत्र से भरा हुआ है तथा चमड़ी, बाल तथा नाखूनों सेआच्छादति है। इस शरीर के भीतर जाने वाले नौ द्वार निरन्तर गन्दी वस्तुएँ निकालते रहते हैं।भला मेरे अतिरिक्त कौन स्त्री इतनी मूर्ख होगी कि वह इस भौतिक शरीर के प्रति यह सोचकरअनुरक्त होगी कि उसे इस युक्ति से आनन्द तथा प्रेम मिल सकेगा ? विदेहानां पुरे हास्मिन्नहमेकैव मूढधी: ।यान्यमिच्छन्त्यसत्यस्मादात्मदात्काममच्युतात् ॥
३४॥
विदेहानाम्--विदेह के निवासियों के; पुरे--नगर में; हि--निश्चय ही; अस्मिनू--इस; अहम्--मैं; एका-- अकेली; एव--निस्सन्देह; मूढ-- मूर्ख; धीः--बुद्धि वाली; या--जो ( मैं ही ); अन्यम्ू--दूसरी; इच्छन्ती --चाहती हुई; असती--नितान्तव्यभिचारिणी होकर; अस्मात्--उन; आत्म-दात्ू--हमें असली आध्यात्मिक रूप प्रदान करने वाला; कामम्--इन्द्रियतृप्ति;अच्युतातू-- भगवान्
अच्युत के अतिरिक्तनिश्चित रूप से इस विदेह नगरी में मैं ही अकेली निपट मूर्ख हूँ। मैंने उन भगवान् की उपेक्षाकी है, जो हमें सब कुछ देते हैं, यहाँ तक कि हमारा मूल आध्यात्मिक स्वरूप भी देते हैं। मैंनेउन्हें छोड़ कर अनेक पुरुषों से इन्द्रियतृप्ति का भोग करना चाहा है।
सुहत्प्रेष्ठमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम् ।तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेडनेन यथा रमा ॥
३५॥
सु-हत्--शुभेच्छु मित्र; प्रेष्ट-तम:--नितान्त प्रिय; नाथ:--प्रभु; आत्मा--आत्मा; च-- भी; अयम्--वह; शरीरिणाम्-- समस्तशरीरधारियों के; तमू--उसको; विक्रीय--मोल लेकर; आत्मना--अपने आपको शरणागत करके; एव--निश्चय ही; अहम्--मैं; रमे--रमण करूँगी; अनेन-- भगवान् के साथ; यथा--जिस तरह; रमा--लक्ष्मीदेवी |
भगवान् समस्त जीवों के लिए नितान्त प्रिय हैं, क्योंकि वे हर एक के शुभेच्छु तथा स्वामीहैं। वे हर एक के हृदय में स्थित परमात्मा हैं। अतएव मैं पूर्ण शरणागति का मूल्य चुकाकर तथाभगवान् को मोल लेकर उनके साथ उसी तरह रमण करूँगी, जिस तरह लक्ष्मीदेवी करती हैं।
कियत्प्रियं ते व्यभजन्कामा ये कामदा नरा: ।आइद्यन्तवन्तो भार्याया देवा वा कालविद्गुता: ॥
३६॥
कियत्--कितना; प्रियम्ू--वास्तविक सुख; ते--वे; व्यभजन्-- प्रदान किया है; कामाः--इन्द्रियतृप्ति; ये--तथा जो; काम-दाः--इन्द्रियतृष्ति प्रदान करने वाले; नरा:--पुरुष; आदि-- प्रारम्भ; अन्त--तथा अन्त; वन्तः--से युक्त; भार्याया: --पत्नी के;देवा:--देवतागण; वा--अथवा; काल--काल द्वारा; विद्ुता:--विलग किये गये, अतएव क्षुब्ध |
पुरुष स्त्रियों को इन्द्रियतृप्ति प्रदान करते हैं, किन्तु इन सारे पुरुषों का तथा स्वर्ग में देवताओंका भी आदि और अन्त है। वे सभी क्षणिक सृष्टियाँ हैं, जिन्हें काल घसीट ले जायेगा। अतएवइनमें से कोई भी अपनी पत्नियों को कितना वास्तविक आनन्द या सुख प्रदान कर सकता है? नूनं मे भगवान्प्रीतो विष्णु: केनापि कर्मणा ।निर्वेदोयं दुराशाया यन्मे जात: सुखावह: ॥
३७॥
नूनम्--निस्सन्देह; मे--मुझसे; भगवान्-- भगवान्; प्रीत:--प्रसन्न है; विष्णु: -- भगवान्; केन अपि--किसी; कर्मणा--कर्म केद्वारा; निर्वेद: --इन्द्रियतृप्ति से विरक्ति; अयम्--यह; दुराशाया:-- भौतिक भोगकी बुरी तरह से आशा करने वाले में; यत्--क्योंकि; मे--मुझमें; जात:--उत्पन्न हुआ है; सुख--सुख; आवहः--लाते हुए
यद्यपि मैंने भौतिक जगत को भोगने की दुराशा की थी, किन्तु न जाने क्यों मेरे हृदय मेंविरक्ति उत्पन्न हो चुकी है और यह मुझे अत्यन्त सुखी बना रही है। इसलिए भगवान् विष्णुअवश्य ही मुझ पर प्रसन्न होंगे। मैंने इसे जाने बिना ही उनको तुष्ट करने वाला कोई कर्म अवश्यकिया होगा।
मैवं स्पुर्मन्दभाग्याया: क्लेशा निर्वेदहितव: ।येनानुबन्ध॑ नित्य पुरुष: शममृच्छति ॥
३८ ॥
मा--नहीं; एवम्--इस प्रकार; स्युः--हों; मन्द-भाग्याया:--अभागिनियों के; क्लेशा:--कष्ट; निर्वेद--विरक्ति के; हेतवः--कारण; येन--जिस विरक्ति से; अनुबन्धम्--बन्धन; निईत्य--हटाकर; पुरुष: --पुरुष; शमम्--असली शान्ति; ऋच्छति--प्राप्त करता है।
जिस व्यक्ति में विरक्ति उत्पन्न हो चुकी है, वह भौतिक समाज, मैत्री तथा प्रेम के बन्धन त्यागसकता है और जो पुरुष महान् कष्ट भोगता है, वह निराशा के कारण धीरे-धीरे विरक्त हो जाताहै तथा भौतिक जगत के प्रति अन्यमनस्क हो उठता है। मेरे महान् कष्ट के कारण ही मेरे हृदय में ऐसी विरक्ति जागी है; अन्यथा यदि मैं सचमुच अभागिन होती, तो मुझे ऐसी दयाद्र पीड़ा क्योंझेलनी पड़ती ? इसलिए मैं सचमुच भाग्यशालिनी हूँ और मुझे भगवान् की दया प्राप्त हुई है। वेअवश्य ही मुझ पर प्रसन्न हैं।
तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसड्रता: ।त्यक्त्वा दुराशा: शरणं ब्रजामि तमधी श्वरम् ॥
३९॥
तेन--उनके ( भगवान् के ) द्वारा; उपकृतम्--अधिक सहायता की; आदाय--स्वीकार करके; शिरसा--मेरे सिर पर, भक्ति से;ग्राम्य--सामान्य इन्द्रियतृप्ति; सड्भता:--सम्बन्धित; त्यक्त्वा--त्याग कर; दुराशा:--पापपूर्ण इच्छाएँ; शरणम्--शरण में;ब्रजामि--अब आ रही हूँ; तम्--उसको; अधीश्वरम्--भगवान्
भगवान् ने मुझ पर जो महान् उपकार किया है, उसे मैं भक्तिपूर्वक स्वीकार करती हूँ। मैंनेसामान्य इन्द्रियतृप्ति के लिए पापपूर्ण इच्छाएँ त्यागकर अब भगवान् की शरण ग्रहण कर ली है।
सन्तुष्टा श्रदधत्येतद्याथालाभेन जीवती ।विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥
४०॥
सन्तुष्टा-पूर्णतया तुष्ट; श्रद्धधती --पूर्ण श्रद्धा से युक्त; एतत्-- भगवान् की कृपा में; यथा-लाभेन--जो कुछ अपने आप मिलजाय उसी से; जीवती--जीवित; विहरामि--विहार करूँगी; अमुना--उसी एक से; एब--एकमात्र; अहम्--मैं; आत्मना--भगवान् से; रमणेन--प्रेम तथा सुख के असली स्त्रोत हैं, जो; बै--इसमें कोई सन्देह नहीं।
अब मैं पूर्ण तुष्ट हूँ और मुझे भगवान् की दया पर पूर्ण श्रद्धा है। अतएव जो कुछ मुझे स्वतःमिल जायेगा, उसी से मैं अपना भरण-पोषण ( निर्वाह ) करूँगी। मैं एकमात्र भगवान् के साथविहार करूँगी, क्योंकि वे प्रेम तथा सुख के असली स्त्रोत हैं।
संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम् ।ग्रस्तं कालाहिनात्मानं को३न्यस्त्रातुमधी श्वर: ॥
४१॥
संसार--भौतिक जगत; कूपे--अन्धे कुएँ में; पतितम्--गिरा हुआ; विषयै: --इन्द्रियतृप्ति द्वारा; मुषित--चुराई गई; ईक्षणम्--दृष्टि; ग्रस्तमू--पकड़ा हुआ; काल--काल के; अहिना--सर्प द्वारा; आत्मानम्--जीवको; क:ः--कौन; अन्य: --दूसरा;त्रातुम्--उद्धार करने में समर्थ है; अधी श्वरः-- भगवान् |
इन्द्रियतृप्ति के कार्यो द्वारा जीव की बुद्धि हर ली जाती है और तब वह भौतिक जगत केअंधे कुएँ में गिर जाता है। फिर इस कुएँ में उसे कालरूपी भयानक सर्प पकड़ लेता है। बेचारेजीव को ऐसी निराश अवस्था से भला भगवान् के अतिरिक्त और कौन बचा सकता है? आत्मैव ह्ात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात् ।अप्रमत्त इदं पश्येदग्रस्तं कालाहिना जगत् ॥
४२॥
आत्मा--आत्मा; एव--एकमात्र; हि--निश्चय ही; आत्मनः --अपना; गोप्ता--रक्षक; निर्विद्येत--विरक्त हो जाता है; यदा--जब; अखिलातू-- सारी भौतिक वस्तुओं से; अप्रमत्त:-- भौतिक ज्वर से रहित; इृदम्--यह; पश्येत्ू--देख सकता है; ग्रस्तम्--पकड़ा हुआ; काल--काल के; अहिना--सर्प द्वारा; जगत्ू--ब्रह्माण्ड |
जब जीव देखता है कि समस्त ब्रह्माण्ड कालरूपी सर्प द्वारा पकड़ा जा चुका है, तो वहगम्भीर तथा विवेकवान् बन जाता है और तब वह अपने को समस्त भौतिक इन्द्रियतृप्ति सेविरक्त कर लेता है। उस अवस्था में जीव अपना ही रक्षक बनने का पात्र हो जाता है।
श्रीज्राह्मण उवाचएवं व्यवसितमतिर्दुराशां कान्ततर्षजाम् ।छित्त्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा ॥
४३॥
श्री-ब्राह्मण: उवाच--अवधूत ने कहा; एवम्--इस प्रकार; व्यवसित--कृतसंकल्प; मतिः--उसका मन; दुराशामू--पापीइच्छा; कान्त-प्रेमी; तर्ष--लालायित रहना; जामू-८दवारा उत्पन्न; छित्त्ता--काट कर; उपशमम्--शान्ति में; आस्थाय--स्थितहोकर; शब्याम्--अपनी सेज पर; उपविवेश--बैठ गई; सा--वह।
अवधूत ने कहा : इस तरह अपने मन में संकल्प करके, पिंगला ने अपने प्रेमियों से संभोगकरने की पापपूर्ण इच्छाओं को त्याग दिया और वह परम शान्ति को प्राप्त हुई। तत्पश्चात्, वहअपनी सेज पर बैठ गई।
आशा हि परम॑ दुःखं नैराएयं परमं सुखम् ।यथा सज्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिडुला ॥
४४॥
आशा--भौतिक इच्छा; हि--निश्चय ही; परमम्--सबसे बड़ा; दुःखम्--दुख; नैराश्यमू-- भौतिक इच्छाओं से मुक्ति; परमम्--सबसे बड़ा; सुखम्--सुख; यथा--जिस तरह; सज्छिद्य--पूरी तरह काट कर; कान्त--प्रेमियों के लिए; आशाम्--इच्छा;सुखम्--सुखपूर्वक; सुष्वाप--सो गई; पिड्जला-थे फोर्मेर्
प्रोस्तितुते, पिड्लानिस्सन्देह भौतिक इच्छा ही सर्वाधिक दुख का कारण है और ऐसी इच्छा से मुक्ति सर्वाधिकसुख का कारण है। अतएवं तथाकथित प्रेमियों से विहार करने की अपनी इच्छा को पूरी तरहछिन्न करके पिंगला सुखपूर्वक सो गई।
अध्याय नौ: जो कुछ भी भौतिक है उससे अलगाव
श्रीत्राह्मण उबाचपरिग्रहो हि दुःखाय यद्यत्प्रियतमं नृणाम् ।अनन्त सुखमाप्नोति तद्ठिद्वान्यस्वकिज्लन: ॥
१॥
श्री-ब्राह्मण: उबाच--साधु-ब्राह्मण ने कहा; परिग्रह:--लगाव; हि--निश्चय ही; दुःखाय--दुख देने वाली; यत् यत्--जो जो;प्रिय-तमम्--सर्वाधिक प्रिय है; नृणाम्--मनुष्यों के; अनन्तम्--असीम; सुखम्--सुख; आप्नोति--प्राप्त करता है; तत्--वह;विद्वानू--जानते हुए; यः--जो कोई; तु--निस्सन्देह; अकिज्नः--ऐसे लगाव से मुक्त है,
जोसाधु-बराह्मण ने कहा : भौतिक जगत में हर व्यक्ति कुछ वस्तुओं को अत्यन्त प्रिय मानता हैऔर ऐसी वस्तुओं के प्रति लगाव के कारण अन्ततः वह दीन-हीन बन जाता है। जो व्यक्ति इसेसमझता है, वह भौतिक सम्पत्ति के स्वामित्व तथा लगाव को त्याग देता है और इस तरह असीमआनन्द प्राप्त करता है।
सामिषं कुररं जध्नुर्बलिनोन्ये निरामिषा: ।तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत ॥
२॥
स-आमिषम्--मांस लिये हुए; कुररम्--बड़ा बाज; जघ्नु:-- आक्रमण किया; बलिन:--अत्यन्त बलवान; अन्ये-- अन्य;निरामिषा:--मांस से रहित; तदा--उस समय; आमिषम्--मांस; परित्यज्य--छोड़कर; सः--उसने; सुखम्--सुख;समविन्दत--प्राप्त किया।
एक बार बड़े बाजों की एक टोली ने कोई शिकार न पा सकने के कारण एक अन्य दुर्बलबाज पर आक्रमण कर दिया जो थोड़ा-सा मांस पकड़े हुए था। उस समय अपने जीवन कोसंकट में देखकर बाज ने मांस को छोड़ दिया। तब उसे वास्तविक सुख मिल सका।
न मे मानापमानौ स्तो न चिन्ता गेहपुत्रिणाम् ।आत्मक्रीड आत्मरतिर्विचरामीह बालवतू ॥
३॥
न--नहीं; मे--मुझमें; मान-- आदर; अपमानौ--अनादर; स्तः-- है; न--नहीं है; चिन्ता--चिन्ता; गेह--घरवालों के;पुत्रिणामू--तथा बच्चों के; आत्म--अपने से; क्रीड:--खिलवाड़ करते हुए; आत्म--अपने में ही; रतिः--भोग करते हुए;विचरामि--विचरण करता हूँ; इह--इस जगत में; बाल-वत्--बच्चे की तरह।
पारिवारिक जीवन में माता-पिता सदैव अपने घर, अपने बच्चों तथा अपनी प्रतिष्ठा के विषयमें चिन्तित रहते हैं। किन्तु मुझे इन बातों से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। मैं न तो किसी परिवारके लिए चिन्ता करता हूँ, न ही मैं मान-अपमान की परवाह करता हूँ। मैं आत्म जीवन का हीआनन्द उठाता हूँ और मुझे आध्यात्मिक पद पर प्रेम मिलता है। इस तरह मैं पृथ्वी पर बालक कीभाँति विचरण करता रहता हूँ।
द्वावेब चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्य: परं गतः ॥
४॥
द्वौ--दो; एव--निश्चय ही; चिन्तया--चिन्ता से; मुक्तौ--मुक्त; परम-आनन्दे-- परम सुख में; आप्लुतौ--निमग्न; यः--जो;विमुग्ध:--अज्ञानी है; जड:ः--कार्यकलाप के अभाव में मन्द हुआ; बाल:--बालकों जैसा; य:--जो; गुणे भ्य: -- प्रकृति केगुणों के प्रति; परम्-- भगवान्, जो दिव्य है; गतः--प्राप्त किया हुआ।
इस जगत में दो प्रकार के लोग समस्त चिन्ताओं से मुक्त होते हैं और परम आनन्द में निमग्नरहते हैं--एक तो वे, जो मन्द बुद्धि हैं तथा बालकों के समान अज्ञानी हैं तथा दूसरे वे जो तीनोंगुणों से अतीत परमेश्वर के पास पहुँच चुके हैं।
क्वचित्कुमारी त्वात्मानं वृणानान्गृहमागतान् ।स्वयं तानहयामास क््वापि यातेषु बन्धुषु ॥
५॥
क्वचित्--एक बार; कुमारी--तरुणी; तु--निस्सन्देह; आत्मानमू--अपने आपको; वृणानान्--पत्नी के रूप में चाहती हुई;गृहम्-घर में; आगतान्--आये हुए; स्वयमू--अपने आप; तान्--उन पुरुषों को; अहयाम् आस--सत्कार किया; क्व अपि--अन्य स्थान को; यातेषु--चले गये हुए; बन्धुषु--अपने सारे सम्बन्धियों के |
एक बार, विवाह योग्य एक तरुणी अपने घर में अकेली थी, क्योंकि उसके माता-पितातथा सम्बन्धी उस दिन किसी अन्य स्थान को चले गये थे। उस समय कुछ व्यक्ति उससे विवाहकरने की विशेष इच्छा से उसके घर आये। उसने उन सबों का सत्कार किया।
तेषामभ्यवहारार्थ शालीत्रहसि पार्थिव ।अवध्नन्त्या: प्रकोष्ठस्था श्रक्रु ई शज्जः स्वनं महत् ॥
६॥
तेषाम्--अतिथियों का; अभ्यवहार-अर्थम्--उन्हें खिलाने के वास्ते; शालीन्-- धान; रहसि--अकेली होने से; पार्थिव--हेराजा; अवघ्नन्त्या:--कूट रही; प्रकोष्ठट--अपनी कलाइयों में; स्था:--स्थित; चक्कु:--बनाया; शझ्ज:--शंख से बनी चूड़ियाँ;स्वनम्--आवाज; महत्-- अत्यधिक
वह लड़की एकान्त स्थान में चली गई और अप्रत्याशित अतिथियों के लिए भोजन बनानेकी तैयारी करने लगी। जब वह धान कूट रही थी, तो उसकी कलाइयों की शंख की चूड़ियाँएक-दूसरे से टकराकर जोर से खड़खड़ा रही थीं।
सा तज्जुगुप्सितं मत्वा महती वृईडिता ततः ।बभज्जैकैकश:ः शद्जान्द्दौ द्वौ पाण्योरशेषयत् ॥
७॥
सा--वह; तत्--उस आवाज को; जुगुप्सितम्ू--लज्जास्पद; मत्वा--सोचकर; महती--अत्यन्त बुद्धिमती; ब्रीडिता--शर्मी ली;ततः--उसकी बाँहों से; बभञ्ज--उसने तोड़ दिया; एक-एकश:--एक-एक करके; शद्भान्ू--शंख की चूड़ियाँ; द्वौ द्वौ--प्रत्येक में दो-दो; पाण्यो:--अपने दोनों हाथों में; अशेषयत्--छोड़ दिया।
उस लड़की को भय था कि ये लोग उसके परिवार को गरीब समझेंगे, क्योंकि उनकी पुत्रीधान कूटने के तुच्छ कार्य में लगी हुई है। अत्यन्त चतुर होने के कारण शर्मीली लड़की ने अपनीबाँहों में पहनी हुई शंख की चूड़ियों में से प्रत्येक कलाई में केवल दो दो चूड़ियाँ छोड़कर शेषसभी चूड़ियाँ तोड़ दीं।
उभयोरप्यभूद्धोषो हावघ्नन्त्या: स्वशड्डुयो: ।तत्राप्येके निरभिददेकस्मान्नाभवद्ध्वनि: ॥
८॥
उभयो:--( प्रत्येक हाथ में ) दो से; अपि--फिर भी; अभूत्--हो रहा था; घोष:--शब्द, आवाज; हि--निस्सन्देह;अवघ्नन्त्या:--धान कूट रही; स्व-शद्डुयो:--शंख की दो-दो चूड़ियों में से; तत्र--वहाँ; अपि--निस्सन्देह; एकम्--केवलएक; निरभिदत्-- उसने अलग कर दिया; एकस्मात्--उस एक आभूषण से; न--नहीं; अभवत्--हुआ; ध्वनि:--शब्द |
तत्पश्चात्, ज्योंही वह लड़की धान कूटने लगी प्रत्येक कलाई की दो-दो चूड़ियाँ टकराकरआवाज करने लगीं। अतएव उसने हर कलाई में से एक-एक चूड़ी उतार ली और जब हर कलाईमें एक-एक चूड़ी रह गई, तो फिर आवाज नहीं हुई।
अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिन्दम ।लोकाननुचरत्नेतान्लोकतत्त्वविवित्सया ॥
९॥
अन्वशिक्षम्--मैंने अपनी आँखों से देखा है; इमम्--इस; तस्या:--उस लड़की के ; उपदेशम्--शिक्षा; अरिम्ू-दम--हे शत्रु कादमन करने वाले; लोकानू्--संसारों में; अनुचरन्--घूमते हुए; एतान्ू--इन; लोक--संसार का; तत्त्व--सत्य; विवित्सया--जानने की इच्छा से |
हे शत्रुओं का दमन करने वाले, मैं इस जगत के स्वभाव के बारे में निरन्तर सीखते हुएपृथ्वी-भर में विच्ररण करता हूँ। इस तरह मैंने उस लड़की से स्वयं शिक्षा ग्रहण की।
वासे बहूनां कलहो भवेद्वार्ता द्ययोरपि ।एक एव व्सेत्तस्मात्कुमार्या इब कड्भजूण: ॥
१०॥
वासे--घर में; बहूनामू-- अनेक लोगों के; कलहः--झगड़ा; भवेत्--होगा; वार्ता--बातचीत; द्वयो: --दो लोगों के; अपि--भी; एक:--अकेला; एव--निश्चय ही; वसेत्--रहना चाहिए; तस्मातू--इसलिए; कुमार्या:--कुमारी ( लड़की ) के; इब--सहश; कड्जूण:--चूड़ी
जब एक स्थान पर अनेक लोग साथ साथ रहते हैं, तो निश्चित रूप से झगड़ा होगा। यहाँतक कि यदि केवल दो लोग ही एक साथ रहें, तो भी जोर-जोर से बातचीत होगी और आपस मेंमतभेद रहेगा। अतएवं झगड़े से बचने के लिए मनुष्य को अकेला रहना चाहिए, जैसा कि हमलड़की की चूड़ी के दृष्टान्त से शिक्षा पाते हैं।
मन एकत्र संयुज्ज्याज्जितश्लासो जितासन: ।वैराग्याभ्यासयोगेन प्चियमाणमतन्द्रितः ॥
११॥
मनः--मन; एकत्र--एक स्थान में; संयुज्ज्यात्--स्थिर करे; जित--जीता हुआ; श्रास:ः--साँस; जित--जीता हुआ; आसन:--योगासन; वैराग्य--वैराग्य द्वारा; अभ्यास-योगेन--योगाभ्यास से; प्रियमाणम्ू--स्थिर किया हुआ मन; अतन्द्रित:--अत्यन्तसावधानीपूर्वक
योगासनों में दक्षता प्राप्त कर लेने तथा श्वास-क्रिया पर नियंत्रण पा लेने पर मनुष्य कोचाहिए कि वैराग्य तथा नियमित योगाभ्यास द्वारा मन को स्थिर करे। इस तरह मनुष्य कोयोगाभ्यास के एक लक्ष्य पर ही सावधानी से अपने मन को स्थिर करना चाहिए।
यस्मिन्मनो लब्धपदं यदेत-च्छनै: शनेर्मुज्ञति कर्मरेणून् ।सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्नविधूय निर्वाणमुपैत्यनिन्धनम् ॥
१२॥
यस्मिनू--जिसमें ( भगवान् में )मनः--मन; लब्ध--प्राप्त किया हुआ; पदम्--स्थायी पद; यत् एतत्--वही मन; शनैःशनै:--धीरे-धीरे, एक-एक पग करके; मुझ्ञति--त्याग देता है; कर्म--सकाम कर्मों के; रेणूनू--कल्मष को; सत्त्वेन--सतोगुण द्वारा; वृद्धेन--प्रबल हुए; रज:--रजोगुण; तम:--तमोगुण; च-- भी; विधूय--त्यागकर; निर्वाणम्--दिव्य स्थिति,जिसमें मनुष्य अपने ध्यातव्य से संयुक्त हो जाता है; उपैति--प्राप्त करता है; अनिन्धनम्--बिना ईंधन के |
जब मन भगवान् पर स्थिर हो जाता है, तो उसे वश में किया जा सकता है। स्थायी दशा कोप्राप्त करके मन भौतिक कार्यों को करने की दूषित इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इस तरहसतोगुण के प्रबल होने पर मनुष्य रजो तथा तमोगुण का पूरी तरह परित्याग कर सकता है औरधीरे धीरे सतोगुण से भी परे जा सकता है। जब मन प्रकृति के गुण-रूपी ईंधन से मुक्त हो जाताहै, तो संसार-रूपी अग्नि बुझ जाती है। तब उसका सीधा सम्बन्ध दिव्य स्तर पर अपने ध्यान केलक्ष्य, परमेश्वर, से जुड़ जाता है।
तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तोन वेद किद्ञिद्हिरन्तरं वा ।यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्त-मिषौ गतात्मा न ददर्श पाश्वे ॥
१३॥
तदा--उस समय; एवम्--इस प्रकार; आत्मनि-- भगवान् में; अवरुद्ध--स्थिर; चित्त:--मन; न--नहीं; वेद--जानता है;किश्ञित्ू--कुछ भी; बहिः--बाहरी; अन्तरम्--आन्तरिक; वा--अथवा; यथा--जिस तरह; इषु--बाणों का; कार: --बनानेवाला; नू-पतिम्--राजा को; ब्रजन्तम्--जाते हुए; इषौ--बाण में; गत-आत्मा--लीन होकर; न ददर्श--नहीं देखा; पार्श्े --अपनी बगल में।
इस प्रकार जब मनुष्य की चेतना परम सत्य भगवान् पर पूरी तरह स्थिर हो जाती है, तो उसेद्वैत अथवा आन्तरिक और बाह्ा सच्चाई नहीं दिखती। यहाँ पर एक बाण बनाने वाले का दृष्टान्तदिया गया है, जो एक सीधा बाण बनाने में इतना लीन था कि उसने अपने बगल से गुजर रहेराजा तक को नहीं देखा।
एकचार्यनिकेत: स्यादप्रमत्तो गुहाशयः ।अलक्ष्यमाण आचारैर्मुनिरिकोडल्पभाषण: ॥
१४॥
एक--अकेला; चारी--विचरणशील; अनिकेत:--बिना स्थिर निवास के; स्थात्ू--होए; अप्रमत्त:--अत्यन्त सतर्क होने से;गुहा-आशयः --एकान्त रहते हुए; अलक्ष्यमाण: --बिना पहचाना जाकर; आचारैः--अपने कार्यों से; मुनिः--मुनि; एक: --संगी रहित; अल्प--बहुत कम; भाषण:--बोलते हुए
सनन््त-पुरुष को अकेले रहना चाहिए और किसी स्थिर आवास के बिना, निरन्तर विचरणकरते रहना चाहिए। सतर्क होकर, उसे एकान्तवास करना चाहिए और इस तरह से कार्य करनाचाहिए कि वह अन्यों द्वारा पहचाना या देखा न जा सके। उसे संगियों के बिना इधर-उधर जानाचाहिए और जरूरत से ज्यादा बोलना नहीं चाहिए।
गृहारम्भो हि दुःखाय विफलश्चाश्रुवात्मनः ।सर्प: परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥
१५॥
गृह--घर का; आरम्भ:--निर्माण; हि--निश्चय ही; दुःखाय--दुखदायी; विफल: --व्यर्थ; च-- भी; अश्वुव--अस्थायी;आत्मन:--जीव का; सर्प:--साँप; परकृतम्--अन््यों द्वारा बनाया गया; वेश्म--घर; प्रविश्य--घुस कर; सुखम्--सुखपूर्वक;एधते--दिन काटता है।
जब नश्वर शरीर में वास करने वाला मनुष्य सुखी घर बनाने का प्रयास करता है, तो उसकापरिणाम व्यर्थ तथा दुखमय होता है। किन्तु साँप अन्यों द्वारा बनाये गये घर में घुस जाता है औरसुखपूर्वक रहता है।
एको नारायणो देव: पूर्वसूष्टे स्वमायया ।संहत्य कालकलया कल्पान्त इदमी श्वर: ।एक एवाद्वितीयोभूदात्माधारोईखिलाभ्रय: ॥
१६॥
एकः--एकमात्र; नारायण:-- भगवान्; देव: --ई श्वर; पूर्व--पहले; सूष्टम्--उत्पन्न किया गया; स्व-मायया--अपनी ही शक्तिसे; संहत्य--अपने में समेट कर; काल--समय के; कलया--अंश से; कल्प-अन्ते--संहार के समय; इृदम्--यह ब्रह्माण्ड;ईश्वर: --परम नियन्ता; एक:--एकमात्र; एव--निस्सन्देह; अद्वितीय:--अनुपम; अभूत्--बन गया; आत्म-आधार: --हर वस्तुके आगार तथा आश्रय स्वरूप; अखिल--समस्त शक्तियों के; आश्रयः--आगार।
ब्रह्माण्ड के स्वामी नारायण सभी जीवों के आराध्य ईश्वर हैं। वे किसी बाह्य सहायता केबिना ही अपनी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं और संहार के समय वे ब्रह्माण्ड कोअपने कालरूपी स्वांश से नष्ट करते हैं और बद्धजीवों समेत समस्त ब्रह्माण्डों को अपने में समेटलेते हैं। इस तरह उनका असीम आत्मा ही समस्त शक्तियों का आगार तथा आश्रय है। सूक्ष्मप्रधान, जो समस्त विराट जगत का आधार है, भगवान् के ही भीतर सिमट जाता है और इस तरहउनसे भिन्न नहीं होता। संहार के फलस्वरूप वे अकेले ही रह जाते हैं।
कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।सत्त्वादिष्वादिपुरुष: प्रधानपुरुषे श्र: ॥
१७॥
परावराणां परम आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।केवलानुभवानन्दसन्दोहो निरुपाधिकः ॥
१८॥
कालेन--काल द्वारा; आत्म-अनुभावेन-- भगवान् की निजी शक्ति द्वारा; साम्यम्--सन्तुलन को; नीतासु--लाया जाकर;शक्तिषु-- भौतिक शक्ति में; सत्त्त-आदिषु--सतो इत्यादि गुण; आदि-पुरुष:--शाश्वत भगवान्; प्रधान-पुरुष-ईश्वर:-- प्रधानतथा जीवों के परम नियन्ता; पर--मुक्तजीवों या देवताओं के; अवराणाम्ू--सामान्य बद्धजीवों के; परम:--परम आराध्य;आस्ते--विद्यमान है; कैवल्य--मुक्त जीवन; संज्ञित:--संज्ञा वाला, के नाम वाला; केवल--निर्मल; अनुभव--अन्तर्ज्ञत काअनुभव; आनन्द--आनन््द; सन्दोह:--समग्रता; निरुपाधिक:--उपाधिधारी सम्बन्धों से रहित |
जब भगवान् काल के रूप में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और सतोगुण जैसी अपनीभौतिक शक्तियों को प्रधान ( निरपेक्ष साम्य अवस्था ) तक ले जाते हैं, तो वे उस निरपेक्ष अवस्था( प्रधान ) तथा जीवों के भी परम नियन्ता बने रहते हैं। वे समस्त जीवों के भी आराध्य हैं, जिनमेंमुक्त आत्मा, देवता तथा सामान्य बद्धजीव सम्मिलित हैं। भगवान् शाश्वत रूप से किसी भीउपाधि से मुक्त रहते हैं और वे आध्यात्मिक आनन्द की समग्रता से युक्त हैं, जिसका अनुभवभगवान् के आध्यात्मिक स्वरूप का दर्शन करने पर होता है। इस तरह भगवान् 'मुक्ति' का पूरापूरा अर्थ प्रकट करते हैं।
केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम् ।सड्क्षो भयन्सृजत्यादौ तया सूत्रमरिन्दम ॥
१९॥
केवल--शुद्ध; आत्म--स्वयं की; अनुभावेन--शक्ति से; स्व-मायाम्--अपनी ही शक्ति को; त्रि--तीन; गुण--गुण;आत्मिकाम्--से निर्मित; सड्क्षोभयन्-- क्षुब्ध करते हुए; सृजति--प्रकट करता है; आदौ--सृष्टि के समय; तया--उस शक्ति से;सूत्रमू--महत-तत्त्व को, जो कर्म की शक्ति से पहचाना जाता है; अरिन्दम--हे शत्रुओं का दमन करने वाले |
हे शत्रुओं के दमनकर्ता, सृष्टि के समय भगवान् अपनी दिव्य शक्ति का विस्तार काल रूप मेंकरते हैं और वे तीन गुणों से बनी हुई अपनी भौतिक शक्ति, अर्थात् माया को क्षुब्ध करके महततत्त्व को उत्पन्न करते हैं।
तामाहुस्त्रिगुणव्यक्ति सृजन्तीं विश्वतोमुखम् ।यस्मिन्प्रोतमिदं विश्व येन संसरते पुमान् ॥
२०॥
ताम्-महत्-तत्त्व को; आहु:--कहते हैं; त्रि-गुण-- प्रकृति के तीन गुण; व्यक्तिमू--कारण रूप में प्रकट; सृजन्तीम्--उत्पन्नकरते हुए; विश्वतः-मुखम्--विराट जगत की अनेक कोटियाँ; यस्मिन्--जिस महत् तत्त्व के भीतर; प्रोतम्--गुँथा हुआ;इदम्--यह; विश्वम्--ब्रह्माण्ड; येन--जिससे; संसरते-- भौतिक संसार में आना पड़ता है; पुमान्--जीवित प्राणी
महान् मुनियों के अनुसार, जो प्रकृति के तीन गुणों का आधार है और जो विविध रंगीब्रह्माण्ड प्रकट करता है, वह सूत्र या महत् तत्त्व कहलाता है। निस्सन्देह, यह ब्रह्माण्ड उसी महत्तत्त्व के भीतर टिका हुआ रहता है और इसकी शक्ति के कारण जीव को भौतिक जगत में आनापड़ता है।
यथोर्णनाभिईदयादूर्णा सन्तत्य वक्त्रतः ।तया विह॒त्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ॥
२१॥
यथा--जिस तरह; ऊर्न-नाभि:--मकड़ी; हृदयात्-- अपने भीतर से; ऊर्णाम्--धागे को; सन्तत्य--फैलाकर; वकक््त्रतः--अपनेमुख से; तया--उस धागे से; विहत्य-- भोग करने के बाद; भूयः--फिर; ताम्ू--उस धागे को; ग्रसति--निगल जाती है;एवम्--उसी तरह; महा-ई श्वर: -- परमे श्वर |
जिस तरह मकड़ी अपने ही भीतर से ( मुख में से ) धागा निकाल कर फैलाती है, कुछ कालतक उससे खेलती है और अन्त में निगल जाती है, उसी तरह भगवान् अपनी निजी शक्ति कोअपने भीतर से ही विस्तार देते हैं। इस तरह भगवान् विराट जगत रूपी जाल को प्रदर्शित करतेहैं, अपने प्रयोजन के अनुसार उसे काम में लाते हैं और अन्त में उसे पूरी तरह से अपने भीतरसमेट लेते हैं।
यत्र यत्र मनो देही धारयेत्सकलं धिया ।स्नेहाददवेषाद्धयाद्वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥
२२॥
यत्र यत्र--जहाँ जहाँ; मनः--मन को; देही--बद्धजीव; धारयेत्--स्थिर करता है; सकलम्--पूर्ण एकाग्रता के साथ; धिया--बुद्धि से; स्नेहातू--स्नेहवश; द्वेघातू-द्वेष के कारण; भयात्-- भयवश; वा अपि--अथवा; याति--जाता है; तत्-तत्--उसउस; स्वरूपताम्ू--विशेष अवस्था को |
यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथकिसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा,जिसका वह ध्यान करता है।
कीट: पेशस्कृतं ध्यायन्कुड्यां तेन प्रवेशित: ।याति तत्सात्मतां राजन्पूर्वरूपमसन्त्यजन् ॥
२३॥
कीट:--कीड़ा; पेशस्कृतम्--बर्र, भूंगी; ध्यायन्-- ध्यान करती; कुड्याम्--अपने छत्ते में; तेन--बर्र द्वारा; प्रवेशित:--घुसनेके लिए बाध्य की गई; याति--जाती है; तत्--बर का; स-आत्मताम्--वही स्थिति; राजन्ू--हे राजा; पूर्व-रूपम्--पूर्व शरीर;असन्त्यजन्ू-त्याग न करते हुए।
हे राजनू, एक बार एक बर ने एक कमजोर कीड़े को अपने छत्ते में जबरन घुसेड़ दिया औरउसे वहीं बन्दी बनाये रखा। उस कीड़े ने भय के कारण अपने बन्दी बनाने वाले का निरन्तरध्यान किया और उसने अपना शरीर त्यागे बिना ही धीरे धीरे बर जैसी स्थिति प्राप्त कर ली। इसतरह मनुष्य अपने निरन्तर ध्यान के अनुसार स्वरूप प्राप्त करता है।
एवं गुरु भ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धि श्रुणु मे बदतः प्रभो ॥
२४॥
एवम्--इस प्रकार; गुरु भ्य: --गुरुओं से; एतेभ्य:--इन; एषघा--यह; मे--मेरे द्वारा; शिक्षिता--सीखा हुआ; मति:--ज्ञान; स्व-आत्म--अपने ही शरीर से; उपशिक्षिताम्ू--सीखा हुआ; बुद्धिम्--ज्ञान; श्रुणु--सुनो; मे--मुझसे; वदत:--कहा जाता;प्रभो--हे राजा।
हे राजन, मैंने इन आध्यात्मिक गुरुओं से महानू् ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अब मैंने अपनेशरीर से जो कुछ सीखा है, उसे बतलाता हूँ, उसे तुम ध्यान से सुनो।
देहो गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतु-बिशभ्रित्स्म सत्त्वनिधनं सततार्त्युदर्कम् ।तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापिपारक्यमित्यवसितो विचराम्यसड्रड ॥
२५॥
देह:--शरीर; गुरुः--गुरु; मम--मेरा; विरक्ति--वैराग्य का; विवेक--तथा विवेक का; हेतुः--कारण; बिभ्रत्ू--पालन करतेहुए; स्म--निश्चय ही; सत्त्व--अस्तित्व; निधनमू--विनाश; सतत--सदैव; आर्ति--कष्ट; उदर्कम्-- भावी परिणाम; तत्त्वानि--इस जगत की सच्चाइयाँ; अनेन--इस शरीर से; विमृशामि--मैं विचार करता हूँ; यथा--यद्यपि; तथा अपि--फिर भी;पारक्यम्--अन्यों से सम्बन्धित; इति--इस प्रकार; अवसित:--आश्वस्त होकर; विचरामि--विचरण करता हूँ; असड्भरः-विथोउत्अत्तछमेन्त्ः
भौतिक शरीर भी मेरा गुरु है, क्योंकि यह मुझे वैराग्य की शिक्षा देता है। सृष्टि तथा संहार सेप्रभावित होने के कारण, इसका कष्टमय अन्त होता रहता है। यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने के लिएअपने शरीर का उपयोग करते हुए मैं सदैव स्मरण रखता हूँ कि यह अन्ततः अन्यों द्वारा विनष्टकर दिया जायेगा, अतः मैं विरक्त रहकर इस जगत में इधर-उधर विचरण करता हूँ।
जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्पुष्नाति यत्प्रियचिकीर्षया वितन्वन् ।स्वान्ते सकृच्छुमवरुद्धधन: स देहःसृध्ठास्य बीजमवसीदति वृज्षधर्म: ॥
२६॥
जाया--पतली; आत्म-ज--सन्तानें; अर्थ--धन; पशु--पालतू पशु; भृत्य--नौकर; गृह--घर; आप्त--सम्बन्धीजन तथा मित्र;वर्गानू--ये सारी कोटियाँ; पुष्णाति--पुष्ट करता है; यत्--शरीर; प्रिय-चिकीर्षया--प्रसन्न करने की इच्छा से; वितन्वनू--फैलाते हुए; स्व-अन्ते--मृत्यु के समय; स-कृच्छुम्--अत्यधिक संघर्ष से; अवरुद्ध--एकत्रित; धन:--धन; सः--वह; देह: --शरीर; सृष्ठा--सृजन करके; अस्य--जीव का; बीजमू--बीज; अवसीदति--नीचे गिरकर मरता है; वृक्ष--पेड़; धर्म:--केस्वभाव का अनुकरण करते हुए।
शरीर से आसक्ति रखने वाला व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चों, संपत्ति, पालतू पशुओं, नौकरों,घरों, संबंधियों, मित्रों इत्यादि की स्थिति को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिए अत्यधिक संघर्षके साथ धन एकत्र करता है। वह अपने ही शरीर की तुष्टि के लिए यह सब करता है। जिसप्रकार एक वृक्ष नष्ट होने के पूर्व भावी वृक्ष का बीज उत्पन्न करता है, उसी तरह मरने वाला शरीरअपने संचित कर्म के रूप में अपने अगले शरीर का बीज प्रकट करता है। इस तरह भौतिकजगत के नैरन्तर्य से आश्वस्त होकर भौतिक शरीर समाप्त हो जाता है।
जिह्नैकतोमुमपकर्षति कर्ि तर्षाशिश्नो<न्यतस्त्वगुदरं श्रवण कुतश्चित् ।घ्राणोउन्यतश्नपलहक्क्व च कर्मशक्ति-बह्व्य: सपत्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥
२७॥
जिह्ाा--जीभ; एकत: --एक ओर; अमुम्ू--शरीर या शरीर के साथ अपनी पहचान करने वाला बद्धजीव; अपकर्षति--दूरखींच ले जाता है; कहिं--कभी कभी; तर्षा--प्यास; शिश्न:--जननेन्द्रिय; अन्यतः--दूसरी ओर; त्वक्--स्पर्शेन्द्रिय; उदरम्--उदर; श्रवणम्--कान; कुतश्चित्ू--या अन्यत्र कहीं से; प्राण: --प्राणेन्द्रिय; अन्यत:ः--दूसरी ओर से; चपल-हक्--चंचलआँखें; क््व च--अन्यत्र कहीं; कर्म-शक्ति:--शरीर के अन्य सक्रिय अंग; बह्व्यः--अनेक; स-पल्य:--सौतें; इव--सहश;गेह-पतिम्--घर के मुखिया को; लुनन्ति--अनेक दिशाओं में खींचती हैं ।
जिस व्यक्ति की कई पत्रलियाँ होती हैं, वह उनके द्वारा निरन्तर सताया जाता है। वह उनके'पालन-पोषण के लिए जिम्मेदार होता है। इस तरह सारी पत्नियाँ उसे निरन्तर भिन्न-भिन्न दिशाओंमें खींचती रहती हैं, और हर पत्नी अपने स्वार्थ के लिए संघर्ष करती है। इसी तरह भौतिकइन्द्रियाँ बद्धजीव को एकसाथ विभिन्न दिशाओं में खींचती रहती हैं और सताती रहती हैं। एकओर जीभ स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था करने के लिए खींचती है, तो प्यास उसे उपयुक्त पेयप्रदान करने के लिए घसीटती रहती है। उसी समय यौन-अंग उनकी तुष्टि के लिए शोर मचाते हैं और स्पर्शेन्द्रिय कोमल वासनामय पदार्थ की माँग रखती हैं। उदर उसे तब तक तंग करता रहताहै, जब तक वह भर नहीं जाता। कान मनोहर ध्वनि सुनना चाहते हैं, प्राणेन्द्रिय सुहावनीसुगँधियों के लिए लालायित रहती हैं और चंचल आँखें मनोहर दृश्य के लिए शोर मचाती हैं। इसतरह सारी इन्द्रियाँ तथा शरीर के अंग तुष्टि की इच्छा से जीव को अनेक दिशाओं में खींचते रहतेहैं।
सृष्ठा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्यावृक्षान्सरीसृपपशून्खगदन्दशूकान् ।तैस्तैरतुष्टहदय: पुरुष विधायब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव: ॥
२८ ॥
सृष्ठा--सृजन करके; पुराणि--बद्धजीवों को आवास देने वाले भौतिक शरीर; विविधानि--अनेक प्रकार के; अजया--मायाके माध्यम से; आत्म-शक्त्या--अपनी शक्ति से; वृक्षानू--वृक्षों को; सरीसृप--रेंगने वाले जीवों को; पशून्--पशुओं को;खग--पक्षियों को; दन्द-शूकान्--साँपों को; तैः तैः--शरीर की विभिन्न किस्मों ( योनियों ) द्वारा; अतुष्ट-- असन्तुष्ट; हृदयः --उसका हृदय; पुरुषम्--मनुष्य को; विधाय--उत्पन्न करके; ब्रह्य--परम सत्य; अवलोक--दर्शन; धिषणम्--के उपयुक्त बुद्धि;मुदम्--सुख को; आपा--प्राप्त किया; देव:-- भगवान् |
भगवान् ने अपनी ही शक्ति, माया शक्ति का विस्तार करके बद्धजीवों को बसाने के लिएअसंख्य जीव-योनियाँ उत्पन्न कीं। किन्तु वृक्षों, सरीसृपों, पशुओं, पक्षियों, सर्पों इत्यादि केस्वरूपों को उत्पन्न करके भगवान् अपने हृदय में तुष्ट नहीं थे। तब उन्होंने मनुष्य को उत्पन्न किया,जो बद्ध आत्मा को पर्याप्त बुद्धि प्रदान करने वाला होता है, जिससे वह परम सत्य को देखसके। इस तरह भगवान् सन्तुष्ट हो गये।
लब्ध्वा सुदुर्ल भमिदं बहुसम्भवान्तेमानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।तूर्ण यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-रिःश्रेयसाय विषय: खलु सर्वतः स्थात् ॥
२९॥
लब्ध्वा-प्राप्त करके; सु-दुर्लभम्--जिसको पाना अत्यन्त कठिन है; इदम्ू--यह; बहु--अनेक; सम्भव--जन्म; अन्ते--बादमें; मानुष्यम्-मनुष्य-जीवन; अर्थ-दम्--महान् महत्त्व प्रदान करने वाला; अनित्यम्--क्षणभंगुर; अपि--यद्यपि; इहह--इसभौतिक जगत में; धीर: --गम्भीर बुद्धि वाला; तूर्णम्--तुरन्त; यतेत--प्रयत्त करे; न--नहीं; पतेत्--गिर चुका है; अनु-मृत्यु--सदैव मरणशील; यावत्--जब तक; निःश्रेयसाय--चरम मोक्ष ( मुक्ति ) के लिए; विषय:ः--इन्द्रियतृप्ति; खलु--सदैव;सर्वतः--सभी दशाओं में; स्थातू--सम्भव है।
अनेकानेक जन्मों और मृत्यु के पश्चात् यह दुर्लभ मानव-जीवन मिलता है, जो अनित्य होनेपर भी मनुष्य को सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है। इसलिए धीर मनुष्य कोतब तक चरम जीवन सिद्ध्धि के लिए शीघ्र प्रयल कर देना चाहिए, जब तक उसका मरणशीलशरीर क्षय होकर मर नहीं जाता। इन्द्रियतृषप्ति तो सबसे गर्हित योनि में भी प्राप्य है, किन्तुकृष्णभावनामृत मनुष्य को ही प्राप्त हो सकता है।
एवं सञ्जातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि ।विचरामि महीमेतां मुक्तसड्री उनहड्डू तः ॥
३०॥
एवम्--इस प्रकार; सझ्ञात--पूर्णतया उत्पन्न; वैराग्य:--वैराग्य; विज्ञान-- अनुभूत ज्ञान; आलोक: --दृष्टि से युक्त; आत्मनि--भगवान् में; विचरामि--विचरण करता हूँ; महीम्--पृथ्वी पर; एताम्--इस; मुक्त--स्वच्छन्द; सड़ः--आसक्ति से;अनहड्डू त:--मिथ्या अहंकार के बिना।
अपने गुरुओं से शिक्षा पाकर मैं भगवान् की अनुभूति में स्थित रहता हूँ और पूर्ण वैराग्यतथा आध्यात्मिक ज्ञान से प्रकाशित, मैं आसक्ति या मिथ्या अहंकार से रहित होकर पृथ्वी परस्वच्छन्द विचरण करता हूँ।
न होकस्मादगुरोज्ञानं सुस्थिरं स्यात्सुपुष्कलम् ।ब्रह्मेतदद्वितीयं वै गीयते बहुधर्षिभि: ॥
३१॥
न--नहीं; हि--निश्चय ही; एकस्मात्--एक; गुरो: --गुरु से; ज्ञानम्--ज्ञान; सु-स्थिरम्ू--अत्यधिक स्थिर; स्थात्ू--हो सकताहै; सु-पुष्कलम्--अत्यन्त पूर्ण; ब्रह्म--परम सत्य; एतत्--यह; अद्वितीयम्--अद्वितीय; बै--निश्चय ही; गीयते--यशोगानकिया गया; बहुधा--अनेक प्रकार से; ऋषिभि:--ऋषियों द्वारा |
यद्यपि परम सत्य अद्वितीय हैं, किन्तु ऋषियों ने अनेक प्रकार से उनका वर्णन किया है।इसलिए हो सकता है कि मनुष्य एक गुरु से अत्यन्त स्थिर या पूर्ण ज्ञान प्राप्त न कर पाये।
श्रीभगवानुवाचइत्युक्त्वा स यदुं विप्रस्तमामन्त्रय गभीरधी: ।वन्दितः स्वर्चितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम् ॥
३२॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; इति--इस प्रकार; उक्त्वा--कहकर; सः--उसने; यदुम्--राजा यदु से; विप्र:--ब्राह्मण; तम्--राजा को; आमन्त्रय--विदा करके; गभीर--अत्यन्त गहरी; धी: --बुद्धि; वन्दित:--नमस्कार किया जाकर; सु-अर्चितः--ठीक से पूजित होकर; राज्ञा--राजा द्वारा; ययौ--चला गया; प्रीत:--प्रसन्न मन से; यथा--जिस तरह; आगतम्--आया था।
भगवान् ने कहा : राजा यदु से इस प्रकार कहने के बाद विद्वान ब्राह्मण ने राजा के नमस्कारतथा पूजा को स्वीकार किया और भीतर से प्रसन्न हुआ। तब वह विदा लेकर उसी तरह चलागया, जैसे आया था।
अवधूतवच: श्र॒त्वा पूर्वेषां न: स पूर्वज: ।सर्वसड्भविनिर्मुक्त: समचित्तो बभूव ह ॥
३३॥
अवधूत--अवधूत ब्राह्मण के; वच:--शब्द; श्रुत्वा--सुनकर; पूर्वेषाम्-पूर्वजों के; न:--हमारे; सः--वह; पूर्वज:--स्वयंपूर्वज; सर्व--समस्त; सड्न्ग--आसक्ति से; विनिर्मुक्त:--मुक्त होने पर; सम-चित्त:--आध्यात्मिक पद पर चेतना होने से सर्वत्रसमान; बभूव--हो गया; ह--निश्चय ही |
हे उद्धव, उस अवधूत के शब्दों को सुनकर साधु राजा यदु, जो कि हमारे पूर्वजों का पुरखाहै, समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो गया और उसका मन आध्यात्मिक पद पर समान भाव सेस्थिर ( समदर्शी ) हो गया।
अध्याय दस: सकाम गतिविधि की प्रकृति
श्रीभगवानुवाचमयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाअ्यः ।वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत् ॥
१॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; मया--मेरे द्वारा; उदितेषु--कहा गया; अवहितः--अत्यन्त सावधानी से; स्व-धर्मेषु--भगवान् की भक्ति के कार्यों में; मत्ू-आश्रयः--मेरा शरणागत; वर्ण-आश्रम--वैदिक वर्णाश्रम प्रणाली; कुल--समाज के;आचारम्--आचरण; अकाम--भैतिक इच्छाओं से रहित; आत्मा--ऐसा पुरुष; समाचरेत्-- अभ्यास करे |
भगवान् ने कहा : पूर्णतया मेरी शरण में आकर तथा मेरे द्वारा वर्णित भगवद्भक्ति में अपनेमन को सावधानी से एकाग्र करके मनुष्य को निष्काम भाव से रहना चाहिए तथा वर्णाश्रमप्रणाली का अभ्यास करना चाहिए।
अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम् ।गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम् ॥
२॥
अन्वीक्षेत--देखे; विशुद्ध-शुद्ध किया हुआ; आत्मा--आत्मा; देहिनामू-- देहधारी जीवों का; विषय-आत्मनाम्--इन्द्रियतृप्तिके प्रति समर्पित लोगों का; गुणेषु-- आनन्द देने वाली भौतिक वस्तुओं में; तत्त्त--सत्य रूप में; ध्यानेन--ध्यान द्वारा; सर्व--समस्त; आरम्भ--प्रयत्त; विपर्ययम्--अनिवार्य असफलता |
शुद्ध आत्मा को यह देखना चाहिए कि चूँकि इन्द्रियतृष्ति के प्रति समर्पित होने से बद्धआत्माओं ने इन्द्रिय-सुख की वस्तुओं को धोखे से सत्य मान लिया है, इसलिए उनके सारे प्रयत्नअसफल होकर रहेंगे।
सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः ।नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः ॥
३॥
सुप्तस्थ--सोने वाले के; विषय--इन्द्रियतृप्ति; आलोक:--देखना; ध्यायत:--ध्यान करने वाले का; वा--अथवा; मन: -रथः--मात्र मनगढंत; नाना--तमाम तरह के; आत्मकत्वात्--स्वभाव होने के कारण; विफल: --असली सिद्धि से विहीन;तथा--उसी तरह; भेद-आत्म--भिन्न रूप से बने हुए में; धी: --बुद्धि; गुणैः-- भौतिक इन्द्रियों द्वारा |
सोया हुआ व्यक्ति स्वण में इन्द्रियतृप्ति की अनेक वस्तुएँ देख सकता है, किन्तु ऐसीआनन्ददायक वस्तुएँ मनगढंत होने के कारण अन्ततः व्यर्थ होती हैं। इसी तरह, जो जीव अपनीआध्यात्मिक पहचान के प्रति सोया हुआ रहता है, वह भी अनेक इन्द्रिय-विषयों को देखता है,किन्तु क्षणिक तृप्ति देने वाली ये असंख्य वस्तुएँ भगवान् की माया द्वारा निर्मित होती हैं, तथाइनका स्थायी अस्तित्व नहीं होता। जो व्यक्ति इन्द्रियों से प्रेरित होकर इनका ध्यान करता है, वहअपनी बुद्धि को व्यर्थ के कार्य में लगाता है।
निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेतू ।जिज्ञासायां सम्प्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम् ॥
४॥
निवृत्तम्--विधि-कर्तव्य; कर्म--ऐसा कार्य; सेवेत--करना चाहिए; प्रवृत्तम्--इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य; मत्-पर:--मुझमेंसमर्पित; त्यजेत्ू--छोड़ दे; जिज्ञासायाम्ू--आध्यात्मिक सत्य की खोज में; सम्प्रवृत्त: --पूर्णतया संलग्न; न--नहीं; आद्रियेत् --स्वीकार करना चाहिए; कर्म--कोई भौतिक कार्य; चोदनाम्ू--आदेश |
जिसने अपने मन में मुझे अपने जीवन-लक्ष्य के रूप में बिठा लिया है, उसे इन्द्रियतृप्ति परआधारित कर्म त्याग देने चाहिए और उन्नति के लिए विधि-विधानों द्वारा अनुशासित कर्म करनाचाहिए। किन्तु जब कोई व्यक्ति आत्मा के चरम सत्य की खोज में पूरी तरह लगा हो, तो उसेसकाम कर्मों को नियंत्रित करने वाले शास्त्रीय आदेशों को भी नहीं मानना चाहिए।
यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्पर: क्वचित् ।मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम् ॥
५॥
यमान्--मुख्य-मुख्य विधि-विधान, यथा हिंसा न करना; अभीक्ष्णमम्--सदैव; सेवेत--पालन करना चाहिए; नियमानू--गौणनियम, यथा शरीर स्वच्छ रखना; मत्-परः --मेरा भक्त; क्वचित्--यथासम्भव; मत्-अभिज्ञम्--मेरे स्वरूप को जानने वाला;गुरुम्-गुरु को; शान्तम्--शान्त; उपासीत--सेवा करनी चाहिए; मत्-आत्मकम्--जो मुझसे भिन्न नहीं है।
जिसने मुझे अपने जीवन का परम लक्ष्य मान लिया है, उसे चाहिए कि पापकर्मों का निषेधकरने वाले शास्त्रीय आदेशों का कठोरता से पालन करे और जहाँ तक हो सके गौण नियमों कोयथा स्वच्छता की संस्तुति करने वाले आदेशों को सम्पन्न करे। किन्तु अन्ततः उसे प्रामाणिक गुरुके पास जाना चाहिए, जो मेरे साकार रूप के ज्ञान से पूर्ण होता है, जो शान्त होता है और जोआध्यात्मिक उत्थान के कारण मुझसे भिन्न नहीं होता।
अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो हहसौहदः ।असत्वरो<र्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक्ू ॥
६॥
अमानी--मिथ्या अहंकार से रहित; अमत्सर:--अपने को कर्ता न मानते हुए; दक्ष:--आलस्य रहित; निर्मम:--पत्नी, बच्चों,घर, समाज के ऊपर स्वामित्व के भाव के बिना; हृढ-सौहदः --अपने पूज्य अर्चाविग्रह स्वरूप गुरु से मैत्री के भाव में स्थिरहुआ; असत्वर:-- भौतिक काम के कारण मोहग्रस्त हुए बिना; अर्थ-जिज्ञासु:--परम सत्य का ज्ञान चाहने वाला; अनसूयु:--ईर्ष्या से मुक्त; अमोघ-वाक्--व्यर्थ की बातचीत से सर्वथा मुक्त
गुरु के सेवक अथवा शिष्य को झूठी प्रतिष्ठा से मुक्त होना चाहिए और अपने को कभी भीकर्ता नहीं मानना चाहिए। उसे सदैव सक्रिय रहना चाहिए और कभी भी आलसी नहीं होनाचाहिए। उसे पत्नी, बच्चे, घर तथा समाज सहित समस्त इन्द्रिय-विषयों के ऊपर स्वामित्व केभाव को त्याग देना चाहिए। उसे अपने गुरु के प्रति प्रेमपूर्ण मैत्री की भावना से युक्त होनाचाहिए और उसे कभी भी न तो पथश्रष्ट होना चाहिए, न मोहग्रस्त। सेवक या शिष्य में सदैवआध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ने की इच्छा होनी चाहिए। उसे किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिएऔर व्यर्थ की बातचीत से बचना चाहिए।
जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु ।उदासीन: सम॑ पश्यन्सर्वेष्वर्थमिवात्मन: ॥
७॥
जाया--पली; अपत्य--सन््तान; गृह--घर; क्षेत्र-- भूमि; स्वजन--सम्बन्धी तथा मित्र; द्रविण--बैंक खाता; आदिषु--इत्यादिमें; उदासीन:-- अन्यमनस्क रहकर; समम्--समान रूप से; पश्यन्--देखते हुए; सर्वेषु--समस्त; अर्थम्--उद्देश्य; इब--सहश;आत्मन:--अपना।
मनुष्य को सभी परिस्थितियों में अपने जीवन के असली स्वार्थ ( उद्देश्य ) को देखना चाहिएऔर इसीलिए पत्नी, सन््तान, घर, भूमि, रिश्तेदारों, मित्र, सम्पत्ति इत्यादि से विरक्त रहना चाहिए।
विलक्षण: स्थूलसूक्ष्माद्रेहादात्मेक्षिता स्वहक् ।यथाग्निर्दारुणो दाह्राह्ादकोन्य: प्रकाशक: ॥
८ ॥
विलक्षण:--विभिन्न गुणों वाला; स्थूल--स्थूल; सूक्ष्मात्-तथा सूक्ष्म; देहात्--शरीर से; आत्मा--आत्मा; ईक्षिता--द्रष्टा; स्व-हक्--स्वतः प्रकाशित; यथा--जिस तरह; अग्नि:--अग्नि; दारुण:--लकड़ी से; दाह्मात्ू--जलाई जाने वाली; दाहक:ः--जलने वाली; अन्य:--दूसरी; प्रकाशक :--प्रकाश देने वाली
जिस तरह जलने और प्रकाश करने वाली अग्नि उस लकड़ी ( ईंधन ) से भिन्न होती हैजोप्रकाश देने के लिए जलाई जाती है, उसी तरह शरीर के भीतर का द्रष्टा, स्वतः प्रकाशित आत्मा,उस भौतिक शरीर से भिन्न होता है, जिसे चेतना से प्रकाशित करना पड़ता है। इस तरह आत्मातथा शरीर में भिन्न भिन्न गुण होते हैं और वे पृथक् पृथक हैं।
निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान्गुणान् ।अन्तः प्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान्पर: ॥
९॥
निरोध-प्रसुप्ति; उत्पत्ति-- प्राकट्य; अणु--लघु; बृहत्--विशाल; नानात्वम्-लक्षणों का प्रकार; तत्-कृतान्--उसके द्वाराउत्पन्न; गुणानू--गुण; अन्तः--भीतर; प्रविष्ट:--प्रवेश करके; आधत्ते--स्वीकार करता है; एवम्--इस प्रकार; देह-- भौतिकशरीर के; गुणान्ू--गुणों को; पर:--दिव्य जीव ( आत्मा )।
ईंधन की दशा के अनुसार अग्नि जिस तरह सुप्त, प्रकट, क्षीण, तेज जैसे विविध रूपों मेंप्रकट हो सकती है, उसी तरह आत्मा भौतिक शरीर में प्रवेश करता है और शरीर के विशिष्टलक्षणों को स्वीकार करता है।
योसौ गुणैर्विरचितो देहोयं पुरुषस्य हि ।संसारस्तन्निबन्धोयं पुंसो विद्या च्छिदात्मस: ॥
१०॥
यः--जो; असौ--वह ( सूक्ष्म शरीर ); गुणैः -- भौतिक गुणों द्वारा; विरचित:--निर्मित; देह:--शरीर; अयम्--यह ( स्थूलशरीर ); पुरुषस्थ-- भगवान् का; हि--निश्चय ही; संसार:--जगत; ततू-निबन्ध: -- उससे बँधा हुआ; अयम्--यह; पुंसः--जीवका; विद्या--ज्ञान; छित्ू--छिन्न करने वाला; आत्मन:--आत्मा का।
सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों की उत्पत्ति प्रकृति के गुणों से होती है, जो भगवान् की शक्ति सेविस्तार पाते हैं। जब जीव झूठे ही स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के गुणों को अपने ही असली स्वभावके रूप में मान लेता है, तो संसार का जन्म होता है। किन्तु यह मोहमयी अवस्था असली ज्ञानद्वारा नष्ट की जा सकती है।
तस्माजिज्ञासयात्मानमात्मस्थं केवल परम् ।सड़म्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धि यथाक्रमम् ॥
११॥
तस्मात्--इसलिए; जिज्ञासया--ज्ञान के अनुशीलन द्वारा; आत्मानम्-- भगवान् को; आत्म--अपने भीतर; स्थम्--स्थित;केवलम्--शुद्ध; परम्-दिव्य तथा सर्वश्रेष्ठ; सड़म्य--विज्ञान द्वारा पास जाकर; निरसेत्-त्याग दे; एतत्--यह; वस्तु--भौतिक वस्तुओं के भीतर; बुद्धिम्ू--वास्तविकता की धारणा; यथा-क्रमम्--धीरे धीरे, पदशः
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि ज्ञान के अनुशीलन द्वारा वह अपने भीतर स्थित भगवान् केनिकट पहुँचे। भगवान् के शुद्ध दिव्य अस्तित्व को समझ लेने पर मनुष्य को चाहिए कि वह धीरेधीरे भौतिक जगत को स्वतंत्र सत्ता मानने के झूठे विचार को त्याग दे।
आचार्योरणिराद्य: स्यादन्तेवास्युत्तरारणि: ।तत्सन्धानं प्रवचन विद्यासन्धि: सुखावह: ॥
१२॥
आचार्य:--गुरु; अरणि:--यज्ञ अग्नि जलाने में प्रयुक्त पवित्र काष्ठ; आद्य:ः--नीचे रखा; स्यात्--माना जाता है; अन्ते-वासी--शिष्य; उत्तर--सब से ऊपर; अरणि: --जलाने वाला काष्ठ; तत्-सन्धानम्--ऊपरी तथा निचले काष्ठ को जोड़ने वाली बीच कीलकड़ी, ( मंथन काष्ठ ); प्रवचनम्ू-- आदेश; विद्या--दिव्य ज्ञान; सन्धि:--घर्षण से उत्पन्न अग्नि, जो पूरे काष्ठ में फैल जाती है;सुख--सुख; आवहः--लाकर।
गुरु की उपमा यज्ञ-अग्नि के निचले काष्ट से, शिष्य की उपमा ऊपरी काष्ट से तथा गुरु द्वारादिये जाने वाले प्रवचनों की उपमा इन दोनों काष्ठों के बीच में रखी तीसरी लकड़ी ( मंथन काष्ठ )से दी जा सकती है। गुरु द्वारा शिष्य को दिया गया दिव्य ज्ञान इनके संसर्ग से उत्पन्न होने वालीअग्नि के समान है, जो अज्ञान को जलाकर भस्म कर डालता है और गुरु तथा शिष्य दोनों कोपरम सुख प्रदान करता है।
वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धि-धुनोति मायां गुणसम्प्रसूताम् ।गुनांश्व सन्दह्म यदात्ममेतत्स्वयं च शांयत्यसमिद्यथाग्नि: ॥
१३॥
वैशारदी--दक्ष ( विशारद ) से प्राप्त: सा--यह; अति-विशुद्ध--नितान्त शुद्ध; बुद्धिः--बुद्धि या ज्ञान; धुनोति--विकर्षितकरता है; मायाम्--माया या मोह को; गुण--प्रकृति के गुणों से; सम्प्रसूताम्--उत्पन्न; गुणान्ू--प्रकृति के गुणों को; च-- भी;सन्दह्म-- भस्म करके; यत्--जिन गुणों से; आत्मम्--निर्मित; एतत्--यह ( जगत ); स्वयम्--अपने आप; च--भी; शांयति--शान्त कर दिया जाता है; असमित्--ईंधन के बिना; यथा--जिस तरह; अग्नि:--अग्नि
दक्ष गुरु से विनयपूर्वक श्रवण करने से दक्ष शिष्य में शुद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है, जो प्रकृतिके तीन गुणों से उत्पन्न भौतिक मोह के प्रहार को पीछे भगा देता है। अन्त में यह शुद्ध ज्ञान स्वयंही समाप्त हो जाता है, जिस तरह ईंधन का कोष जल जाने पर अग्नि ठंडी पड़ जाती है।
अधेषाम्कर्मकर्तृणां भोक्तृणां सुखदुःखयो: ।नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम् ॥
१४॥
मन्यसे सर्वभावानां संस्था हौत्पत्तिकी यथा ।तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धी: ॥
१५॥
एवमप्यड़ सर्वेषां देहिनां देहयोगतः ।कालावयबत: सन्ति भावा जन्मादयोसकृत् ॥
१६॥
अथ--इस प्रकार; एषाम्--इनका; कर्म--सकाम कर्म; कर्तृणाम्--कर्ताओं के; भोक््तृणाम्-- भोक्ताओं के; सुख-दुःखयो:--सुख तथा दुख में; नानात्वमू--विविधता; अथ--और भी; नित्यत्वम्--नित्यता; लोक--भौतिकतावादी जगत की; काल--समय की; आगम--सकाम कर्म की संस्तुति करने वाला वैदिक वाडमय; आत्मनाम्--तथा आत्मा; मन्यसे--यदि तुम सोचतेहो; सर्व--समस्त; भावानाम्ू-- भौतिक वस्तुओं का; संस्था--वास्तविक स्थिति; हि--निश्चय ही; औत्पत्तिकी --आदि, मूल;यथा--जिस तरह; ततू-तत्--विभिन्न वस्तुओं में से; आकृति--उनके रूपों के; भेदेन--अन्तर से; जायते--उत्पन्न होता है;भिद्यते--बदलता है; च-- भी; धी:--बुद्धि या ज्ञान; एवमू--इस प्रकार; अपि--यद्यपि; अड्ग--हे उद्धव; सर्वेषाम्--समस्त;देहिनाम्ू-देहधारियों में से; देह-योगत:-- भौतिक शरीर के संपर्क से; काल--समय के; अवयवतः--अंग अंग या अंश अंशकरके; सन्ति--हैं; भावा:--दशाएँ; जन्म--जन्म; आदय:--इत्यादि; असकृत्--निरन्तर |
हे उद्धव, मैंने तुम्हें पूर्ण ज्ञान बतला दिया। किन्तु ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो मेरे निष्कर्ष काप्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि जीव का स्वाभाविक पद तो सकाम कर्म में निरत होना हैऔर वे जीव को उसके कर्म से उत्पन्न सुख-दुख के भोक्ता के रूप में देखते हैं। इसभौतिकतावादी दर्शन के अनुसार जगत, काल, प्रामाणिक शास्त्र तथा आत्मा-ये सभीविविधतायुक्त तथा शाश्वत हैं और विकारों के निरन्तर प्रवाह के रूप में विद्यमान रहते हैं। यहीनहीं, ज्ञान एक अथवा नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह विविध एवं परिवर्तनशील पदार्थों सेउत्पन्न होता है। फलस्वरूप ज्ञान स्वयं भी परिवर्तनशील होता है। हे उद्धव, यदि तुम इस दर्शनको मान भी लो, तो भी जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग सदा बने रहेंगे, क्योंकि सारे जीवों को कालके प्रभाव के अधीन भौतिक शरीर स्वीकार करना होगा।
तत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्रयं च लक्ष्यते ।भोक्तुश्व दुःखसुखयो: को न्वर्थो विवशं भजेत् ॥
१७॥
तत्र--सुख प्राप्त करने की क्षमता के मामले में; अपि--इससे भी आगे; कर्मणाम्ू--सकाम कर्मों के; कर्तु:--कर्ता के;अस्वातन््यम्--स्वतंत्रता का अभाव; च--भी; लक्ष्यते--स्पष्ट दिखाता है; भोक्तु:-- भोक्ता का; च-- भी; दुःख-सुखयो: --दुखतथा सुख; कः-- क्या; नु--निस्सन्देह; अर्थ:--महत्त्व; विवशम्--असंयमी के लिए; भजेत्--प्राप्त किया जा सकता है।
यद्यपि सकाम कर्म करने वाला शाश्वत सुख की इच्छा करता है, किन्तु यह स्पष्ट देखने मेंआता है कि भौतिकतावादी कर्मीजन प्रायः दुखी रहते हैं और कभी-कभी ही तुष्ट होते हैं। इसतरह यह सिद्ध होता है कि वे न तो स्वतंत्र होते हैं, न ही अपना भाग्य उनके नियंत्रण में होता है।जब कोई व्यक्ति सदा ही दूसरे के नियंत्रण में रह रहा हो, तो फिर वह अपने सकाम कर्मो सेकिसी महत्वपूर्ण परिणाम की आशा कैसे रख सकता है ? न देहिनां सुखं किल्चिद्विद्यते विदुषामपि ।तथा च दु:खं मूढानां वृथाहड्डूरणं परम् ॥
१८॥
न--नहीं; देहिनामू-देहधारी जीवों के; सुखम्--सुख; किज्लित्-- थोड़ा; विद्यते--है; विदुषाम्-बुद्धिमानों के; अपि-- भी;तथा--उसी तरह; च--भी; दुःखम्--दुख; मूढानाम्-महामूर्खो के; वृथा--व्यर्थ; अहड्गरणम्--मिथ्या अहंकार; परम्--एकमात्र या पूरी तरह से |
संसार में यह देखा जाता है कि कभी कभी बुद्धिमान व्यक्ति भी सुखी नहीं रहता। इसी तरहकभी कभी महा मूर्ख भी सुखी रहता है। भौतिक कार्यों को दक्षतापूर्वक संपन्न करके सुखीबनने की विचारधारा मिथ्या अहंकार का व्यर्थ प्रदर्शन मात्र है।
यदि प्राप्ति विघातं च जानन्ति सुखदु:ःखयो: ।तेप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा ॥
१९॥
यदि--यदि; प्राप्तिम्--उपलब्धि; विघातम्ू--नाश, हटाया जाना; च-- भी; जानन्ति--वे जानते हैं; सुख--सुख; दुःखयो: --तथा दुख को; ते--वे; अपि--फिर भी; अद्धघा-प्रत्यक्ष; न--नहीं; विदु:--जानते हैं; योगम्--विधि; मृत्यु: --मृत्यु; न--नहीं;प्रभवेतू--अपनी शक्ति दिखलाते हैं; यथा--जिससे |
यदि लोग यह जान भी लें कि किस तरह सुख प्राप्त किया जाता है और किस तरह दुख सेबचा जाता है, तो भी वे उस विधि को नहीं जानते, जिससे मृत्यु उनके ऊपर अपनी शक्ति काप्रभाव न डाल सके।
कोडन्वर्थ: सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके ।आधघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिद: ॥
२०॥
कः--कौन; नु--निश्चय ही; अर्थ:-- भौतिक पदार्थ; सुखयति--सुख देता है; एनम्--पुरुष को; काम:--भौतिक वस्तुओं सेमिलने वाली इन्द्रियतृप्ति; वा--अथवा; मृत्यु:--मृत्यु; अन्तिके--पास ही खड़ी; आघातम्--घटनास्थल तक; नीयमानस्यथ--लेजाये जाने वाले का; वध्यस्य--वध किये जाने वाले का; इब--सहृश; न--तनिक भी नहीं; तुष्टि-दः--सन्तोष प्रदान करता है।
मृत्यु अच्छी नहीं लगती, और क्योंकि हर व्यक्ति फाँसी के स्थान पर ले जाये जाने वालेदण्डित व्यक्ति के समान है, तो फिर भौतिक वस्तुओं या उनसे प्राप्त तृप्ति से लोगों को कौन-सासंभव सुख मिल सकता है? श्रुतं च दृष्टवहुष्ट॑ स्पर्धासूयात्ययव्ययै: ।बहन्तरायकामत्वात्कृषिवच्चापि निष्फलम् ॥
२१॥
श्रुतम्--सुना हुआ भौतिक सुख; च-- भी; दृष्ट-बत्--मानो पहले से देखा हुआ हो; दुष्टम्--कलुषित; स्पर्धा--ईर्ष्या से;असूया--द्वेष से; अत्यय-मृत्यु से; व्ययै:--क्षय द्वारा; बहु--अनेक; अन्तराय--व्यवधान; कामत्वात्--सुख को स्वीकारकरने से; कृषि-वत्--खेती की तरह; च--भी; अपि--ही; निष्फलम्--फलरहित।
वह भौतिक सुख, जिसके बारे में हम सुनते रहते हैं, (यथा दैवी सुख-भोग के लिएस्वर्गलोक की प्राप्ति ), हमारे द्वारा अनुभूत भौतिक सुख के ही समान है। ये दोनों ही ईर्ष्या, द्वेष,क्षय तथा मृत्यु से दूषित रहते हैं। इसलिए जिस तरह फसल के रोग, कीट या सूखा जैसीसमस्याएँ उत्पन्न होने पर फसलें उगाना व्यर्थ हो जाता है, उसी तरह पृथ्वी पर या स्वर्गलोक मेंभौतिक सुख प्राप्त करने का प्रयास अनेक व्यवधानों के कारण निष्फल हो जाता है।
अन्तरायैरविहितो यदि धर्म: स्वनुष्ठितः ।तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छुणु ॥
२२॥
अन्तरायै:--अवरोधों तथा न्यूनताओं से; अविहित:--अप्रभावित; यदि--यदि; धर्म: --वैदिक आदेशों के अनुसार नियमितकर्तव्यों का पालन; स्व्-अनुष्ठित:--ढंग से सम्पादित; तेन--उसके द्वारा; अपि--भी; निर्जितम्--सम्पन्न; स्थानम्ू--पद;यथा--जिस तरह से; गच्छति--नष्ट होता है; तत्ू--उसे; श्रुणु-- सुनो
यदि कोई व्यक्ति किसी त्रुटि या कल्मष के बिना वैदिक यज्ञ तथा कर्मकाण्ड सम्पन्न करताहै, तो उसे अगले जीवन में स्वर्ग में स्थान मिलेगा। किन्तु कर्मकांड द्वारा प्राप्त किया जाने वालायह फल भी काल के द्वारा नष्ट कर दिया जायेगा। अब इसके विषय में सुनो ।
इ्ठेह देवता यज्ञैः स्वलोक याति याज्ञिक: ।भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान्दिव्यान्निजार्जितान् ॥
२३॥
इश्ठा--पूजा करके; इह--इस जगत में ; देवता:--देवतागण; यज्जै:--यज्ञ द्वारा; स्व:-लोकम्--स्वर्गलोक को; याति--जाता है;याज्ञिक:--यज्ञ करने वाला; भुझ्जीत-- भोग सकता है; देव-वत्--देवता के समान; तत्र--जिसमें; भोगान्-- आनन्द;दिव्यानू--दिव्य; निज--अपने से; अर्जितान्ू--अर्जित किये हुए।
यदि पृथ्वी पर कोई व्यक्ति देवताओं की तुष्टि के लिए यज्ञ सम्पन्न करता है, तो वहस्वर्गलोक जाता है, जहाँ वह देवताओं की ही तरह अपने कार्यों से अर्जित सभी प्रकार के स्वर्ग-सुख का भोग करता है।
स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते ।गन्धर्वर्विहरन्मध्ये देवीनां हृद्यवेषधूक्ू ॥
२४॥
स्व--अपने; पुण्य--पुण्यकर्मों से; उपचिते--संचित; शुभ्रे--चमकीले; विमाने--वायुयान में; उपगीयते--गीतों द्वारा महिमागाई जाती है; गन्धर्वै: --गन्धर्वों द्वारा; विहरन्ू--जीवन का आनन्द मनाते; मध्ये--बीच में; देवीनाम्--स्वर्ग की देवियों के;हृद्य--मनोहर; वेष--वस्त्र; धृक्ू-- धारण किये।
स्वर्ग प्राप्त कर लेने के बाद यज्ञ करने वाला व्यक्ति चमचमाते वायुयान में बैठ कर यात्राकरता है, जो उसे पृथ्वी पर उसके पुण्यकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होता है। वह गन्धर्वों द्वारायशोगान किया जाकर तथा अतीव मोहक वस्त्र पहने स्वर्ग की देवियों से घिर कर जीवन काआनन्द लेता है।
स्त्रीभि:ः कामगयानेन किट्धिनीजालमालिना ।क्रीडन्न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वुतः ॥
२५॥
स्त्रीभि:--स्वर्ग की स्त्रियों के साथ; काम-ग--इच्छानुसार भ्रमण करते हुए; यानेन--वायुयान द्वारा; किड्धिणी -जाल-मालिना--बजती घंटियों के मंडलों से अलंकृत; क्रीडन्--विहार करते; न--नहीं; वेद--विचार करता है; आत्म--निजी;पातम्--पतन को; सुर--देवताओं के; आक्रीडेषु--विहार-उद्यानों में; निर्वृत:--अत्यन्त सुखी तथा आराम का अनुभव करता।
यज्ञ फल का भोक्ता स्वर्ग की सुन्दरियों को साथ लेकर ऐसे अद्भुत विमान में चढ़कर सैरसपाटे के लिए जाता है, जो रुनझुन शब्द करती घंटियों से गोलाकार में सजाया रहता है औरजहाँ भी चाहे उड़ जाता है। वह स्वर्ग के विहार-उद्यानों में नितान््त सुख एवं आराम का अनुभवकरते हुए इस पर विचार ही नहीं करता कि वह अपने पुण्यकर्मों के फल को समाप्त कर रहा हैऔर शीतघ्र ही मर्त्यलोक में जा गिरेगा।
तावत्स मोदते स्वर्गे यावत्पुण्यं समाप्यते ।क्षीणपुन्यः पतत्यर्वागनिच्छन््कालचालित: ॥
२६॥
तावतू--तब तक; सः--वह; मोदते-- आनन्द मनाता है; स्वर्गे--स्वर्ग में; यावत्--जब तक; पुण्यम्--उसके पवित्र फल;समाप्यते--समाप्त हो जाते हैं; क्षीण--घट जाते हैं; पुण्य: --उसका पुण्य; पतति--गिर जाता है; अर्वाक्--स्वर्ग से;अनिच्छन्--न चाहते हुए; काल--समय के द्वारा; चालित:--नीचे धकेला गया।
यज्ञकर्ता तब तक स्वर्गलोक में जीवन का आनन्द लेता है, जब तक उसके पुण्यकर्मों का'फल समाप्त नहीं हो जाता। किन्तु जब पुण्यफल चुक जाते हैं, तो नित्य काल की शक्ति द्वारावह उसकी इच्छा के विरुद्ध स्वर्ग के विहार स्थलों से धकिया कर नीचे गिरा दिया जाता है।
यद्यधर्मरत: सडझ़दसतां वाजितेन्द्रिय: ।कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रेणो भूतविहिंसकः ॥
२७॥
'पशूनविधिनालभ्य प्रेतभूतगणान्यजन् ।नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तम: ॥
२८॥
कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन्देहेन तैः पुनः ।देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिण: ॥
२९॥
यदि--यदि; अधर्म--अधर्म में; रत:ः--लगा हुआ; सड्भातू--संगति के फलस्वरूप; असताम्--भौतिकतावादी लोगों की; वा--अथवा; अजित--न जीतने के कारण; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; काम-- भौतिक कामेच्छाएँ; आत्मा--के लिए जीवित; कृपण:--कंजूस; लुब्ध:--लोभी; स्त्रैण:--स्त्रियों के पीछे पड़ने वाला; भूत--अन्य जीवों के विरुद्ध; विहिंसक:--हिंसा करते हुए;पशून्--पशुओं को; अविधिना--वैदिक आदेशों के अधिकार के बिना; आलभ्य--मारकर; प्रेत-भूत-- भूत-प्रेत; गणान्--समूहों; यजन्--पूजा करते हुए; नरकान्--नरकों को; अवश:--निरुपाय, सकाम कर्मों के अधीन; जन्तु:--जीव; गत्वा--जाकर; याति--पहुँचता है; उल्बणम्--घने; तम:ः--अंधकार में; कर्माणि--कर्म; दुःख--दुख; उरदर्काणि-- भविष्य में लानेवाले; कुर्वन्ू--करते हुए; देहेन--ऐसे शरीर से; तैः--ऐसे कर्मों से; पुनः--फिर; देहम्--शरीर; आभजते--स्वीकार करता है;तत्र--वहाँ; किम्--क्या; सुखम्--सुख; मर्त्य--मरणशील; धर्मिण:--कर्म करने वाले का।
यदि मनुष्य बुरी संगति के कारण अथवा इन्द्रियों को अपने वश में न कर पाने के कारण'पापमय अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहता है, तो ऐसा व्यक्ति निश्चित ही भौतिक इच्छाओं से पूर्णव्यक्तित्व को जन्म देता है। इस तरह वह अन्यों के प्रति कंजूस, लालची तथा स्त्रियों के शरीरोंका लाभ उठाने का सदैव इच्छुक बन जाता है। जब मन इस तरह दूषित हो जाता है, तो वहहिंसक तथा उग्र हो उठता है और वेदों के आदेशों के विरुद्ध अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए निरीहपशुओं का वध करने लगता है। भूत-प्रेतों की पूजा करने से ऐसा मोहग्रस्त व्यक्ति अवैध कार्योंकी गिरफ्त में आ जाता है और नरक को जाता है, जहाँ उसे तमोगुण से युक्त भौतिक शरीर प्राप्तहोता है। ऐसे अधम शरीर से वह दुर्भाग्यवश अशुभ कर्म करता रहता है, जिससे उसका भावीदुख बढ़ता जाता है, अतएवं वह पुनः वैसा ही भौतिक शरीर स्वीकार करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए ऐसा कौन-सा सुख हो सकता है, जिसके लिए वह अपने को ऐसे कार्यों में लगाता है, जोअपरिहार्य रूप से मृत्यु पर समाप्त हो जाते हैं ?
श़लोकानां लोकपालानां मद्धयं कल्पजीविनाम् ।ब्रह्मणोपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुष: ॥
३०॥
लोकानाम्--समस्त लोकों में; लोक-पालानामू--तथा समस्त लोक-नायकों यथा देवताओं के लिए; मत्--मेरा; भयम्-- भयरहता है; कल्प-जीविनामू--एक कल्प अर्थात् ब्रह्म के एक दिन की आयु वालों के लिए; ब्रह्मण: --ब्रह्मा का; अपि-- भी;भयमू--डर है; मत्त:--मुझसे; द्वि-परार्ध--दो परार्ध जो मिलाकर ३१,१०,४०,००,००,००, ००० वर्ष होते हैं; पर--परम;आयुष:--आयु वाले।
स्वर्ग से लेकर नरक तक सभी लोकों में तथा उन समस्त महान् देवताओं के लिए जो१,००० चतुर्युग तक जीवित रहते हैं, मुझ कालरूप के प्रति भय व्याप्त रहता है। यहाँ तक किब्रह्माजी, जिनकी आयु ३१,१०,४०,००,००,००,००० वर्ष है भी मुझसे डरे रहते हैं।
गुणा: सृजन्ति कर्माणि गुणोनुसूजते गुणान् ।जीव्स्तु गुणसंयुक्तो भुड़े कर्मफलान्यसौ ॥
३१॥
गुणाः:-- भौतिक इन्द्रियाँ; सृजन्ति--उत्पन्न करती हैं; कर्माणि--शुभ तथा अशुभ कर्मों को; गुण: --प्रकृति के तीन गुण;अनुसूजते--गति प्रदान करते हैं; गुणान्ू--भौतिक इन्द्रियों को; जीव:--सूक्ष्म जीव; तु--निस्सन्देह; गुण-- भौतिक इन्द्रियअथवा गुण; संयुक्त:--संलग्न; भुड्ढे --अनुभव करता है; कर्म--कर्मों के; फलानि--विविध परिणाम; असौ--वह
आत्माभौतिक इन्द्रियाँ पवित्र या पापमय कर्म उत्पन्न करती हैं और प्रकृति के गुण भौतिक इन्द्रियोंको गति प्रदान करते हैं। जीव इन भौतिक इन्द्रियों तथा प्रकृति के गुणों में पूरी तरह संलग्नरहकर सकाम कर्म के विविध फलों का अनुभव करता है।
यावत्स्याद्गुणवैषम्यं तावजन्नानात्वमात्मन: ।नानात्वमात्मनो यावत्पारतन्त्यं तदैव हि ॥
३२॥
यावत्--जब तक; स्यात्--है; गुण--प्रकृति के गुणों का; वैषम्यम्--पृथक् अस्तित्व; तावत्--तब तक रहेगा; नानात्वम्--विविधता; आत्मन:--आत्मा की; नानात्वमू--विविधता; आत्मन:--आत्मा की; यावत्--जब तक हैं; पारतन्त्यम्ू--पराधीनता;तदा--तब होंगे; एव--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह |
जब तक जीव यह सोचता है कि प्रकृति के गुणों का अलग अलग अस्तित्व है, तब तक वहअनेक रूपों में जन्म लेने के लिए बाध्य होगा और वह अनेक प्रकार के भौतिक जीवन काअनुभव करेगा। इसलिए जीव प्रकृति के गुणों के अधीन सकाम कर्मों पर पूरी तरह आश्रितरहता है।
यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदी श्वरतो भयम् ।य एतत्समुपासीरंस्ते मुहान्ति शुचार्पिता: ॥
३३॥
यावत्--जब तक; अस्य--जीव का; अस्वतन्त्रत्वमू-प्रकृति के गुणों पर निर्भरता से स्वतंत्र नहीं है; तावत्--तब होगा;ईश्वरत:--परम नियन्ता से; भयम्--डर; ये--जो; एतत्--इस जीवन धारणा को; समुपासीरन्--उपासना करते हुए; ते--वे;मुहान्ति--मोहग्रस्त रहते हैं; शुचा--शोक में; अर्पिता:--सदैव लीन
जो बद्धजीव प्रकृति के गुणों के अधीन होकर सकाम कर्मों पर निर्भर रहता है, वह मुझभगवान् से डरता रहता है, क्योंकि मैं उसके सकाम कर्मों के फल को लागू करता हूँ। जो लोगप्रकृति के गुणों की विविधता को यथार्थ मानकर भौतिकवादी जीवन की अवधारणा स्वीकारकरते हैं, वे भौतिक-भोग में अपने को लगाते हैं, फलस्वरूप वे सदैव शोक तथा दुख में डूबेरहते हैं।
काल आत्मागमो लोक: स्वभावो धर्म एवच ।इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति ॥
३४॥
काल:ः--काल, समय; आत्मा--आत्मा; आगम: --वैदिक ज्ञान; लोक:--ब्रह्माण्ड; स्वभाव: --विभिन्न जीवों की विभिन्नप्रकृतियाँ; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; एबव--निश्चय ही; च-- भी; इति--इस प्रकार; माम्--मुझको; बहुधा--कई प्रकार से;प्राहु:--पुकारते हैं; गुण-- प्रकृति के गुणों के; व्यतिकरे-- क्षोभ; सति--जब होता है।
जब प्रकृति के गुणों में उद्देलल तथा अन्योन्य क्रिया होती है, तो जीव मेरा वर्णनसर्वशक्तिमान काल, आत्मा, वैदिक ज्ञान, ब्रह्माण्ड, स्वयं अपना स्वभाव, धार्मिक उत्सव आदिअनेक प्रकारों से करते हैं।
श्रीउद्धव उबाचगुणेषु वर्तमानोपि देहजेष्वनपावृतः ।गुणैर्न बध्यते देही बध्यते वा कर्थं विभो ॥
३५॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; गुणेषु--प्रकृति के गुणों में; बर्तमान:--स्थित होकर; अपि--यद्यपि; देह-- भौतिकशरीर से; जेषु--उत्पन्न; अनपावृतः --अ प्रच्छन्न होकर; गुणैः --गुणों से; न--नहीं; बध्यते--बाँधा जाता है; देही-- भौतिकशरीर के भीतर जीव; बध्यते--बाँधा जाता है; वा--अथवा; कथम्--यह कैसे होता है; विभो-हे प्रभु |
श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, भौतिक शरीर के भीतर स्थित जीव प्रकृति के गुणों तथा इनगुणों से उत्पन्न कर्मो के द्वारा उपजे सुख तथा दुख से घिरा रहता है। यह कैसे सम्भव है कि वहइस भौतिक पाश से बँधा न हो? यह भी कहा जा सकता है कि जीव तो अन्ततः दिव्य है औरउसे इस भौतिक जगत से कुछ भी लेना-देना नहीं है। तो फिर वह भौतिक प्रकृति द्वारा कभीबद्ध कैसे हो सकता है? कथं वर्तेत विहरेत्कैर्वा ज्ञायेत लक्षण: ।कि भुज्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा ॥
३६॥
एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर ।नित्यबद्धो नित्यमुक्त एक एवेति मे भ्रम: ॥
३७॥
कथम्--किस तरह; वर्तेत--स्थित है; विहरेतू--विहार करता है; कै:--किससे; वा--अथवा; ज्ञायेत--जाना जायेगा;लक्षणै:ः--लक्षणों से; किम्--क्या; भुझ्जीत--खायेगा; उत--तथा; विसूजेत्--मल त्याग करता है; शयीत--लेटेगा;आसीत--बैठेगा; याति--जाता है; वा--अथवा; एतत्--यह; अच्युत--हे अच्युत; मे--मुझको; ब्रूहि--बतलायें; प्रश्नम्--प्रश्न; प्रश्न-विदाम्--जो प्रश्नों का उत्तर देने में पटु हैं उनके; वर-हे श्रेष्ठ; नित्य-बद्धः--नित्य बद्ध; नित्य-मुक्त:--नित्य मुक्त;एकः--अकेला; एव--निश्चय ही; इति--इस प्रकार; मे--मेरा; भ्रम:--सनन््देह |
हे अच्युत भगवान्, एक ही जीव कभी तो नित्य बद्ध कहा जाता है, तो कभी नित्य मुक्त ।इसलिए जीव की वास्तविक स्थिति मेरी समझ में नहीं आ रही। हे प्रभु, आप दार्शनिक प्रश्नों काउत्तर देने वालों में सर्वोपरि हैं। कृपा करके मुझे वे लक्षण समझाएँ, जिनसे यह बतलाया जा सकेकि नित्य बद्ध तथा नित्य मुक्त जीव में क्या अन्तर है। वे किन विधियों से स्थित रहते हैं, जीवनका भोग करते हैं, खाते हैं, मल त्याग करते हैं, लेटते हैं, बैठते हैं या इधर-उधर जाते हैं ?
अध्याय ग्यारह: बद्ध और मुक्त जीवित संस्थाओं के लक्षण
श्रीभगवानुवाचबद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः ।गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम् ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; बद्धः--बन्धन में; मुक्त:--मुक्त हुआ; इति--इस प्रकार; व्याख्या--जीव की विवेचना;गुणतः--प्रकृति के गुणों के अनुसार; मे--जो मेरी शक्ति है; न--नहीं; वस्तुत:--वास्तव में; गुणस्य--प्रकृति के गुणों का;माया--मेरी मोहक शक्ति; मूलत्वात्--कारण होने से; न--नहीं; मे--मेरा; मोक्ष: --मुक्ति; न--न तो; बन्धनम्--बन्धन ।
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, मेरे अधीन प्रकृति के गुणों के प्रभाव से जीव कभी बद्ध कहाजाता है, तो कभी मुक्त। किन्तु वस्तुतः आत्मा न तो कभी बद्ध होता है, न मुक्त और चूँकि मैंप्रकृति के गुणों की कारणस्वरूप माया का परम स्वामी हूँ, इसलिए मुझे भी मुक्त या बद्ध नहींमाना जाना चाहिए।
शोकमोहौ सुखं दु:खं देहापत्तिश्चव मायया ।स्वप्नो यथात्मन: ख्याति: संसृतिर्न तु वास््तवी ॥
२॥
शोक--शोक; मोहौ--तथा मोह; सुखम्--सुख; दुःखम्--दुख; देह-आपत्ति: -- भौतिक शरीर धारण करना; च--भी;मायया--माया के प्रभाव से; स्वन:ः--स्वप्न; यथा--जिस तरह; आत्मन:--बुद्धि के ; ख्याति:--मात्र एक विचार; संसृति:--संसार; न--नहीं है; तु--निस्सन्देह; वास्तवी--असली, सत्य
जिस तरह स्वप्न मनुष्य की बुद्धि की सृष्टि है किन्तु वास्तविक नहीं होता, उसी तरह भौतिकशोक, मोह, सुख, दुख तथा माया के वशीभूत होकर भौतिक शरीर ग्रहण करना--ये सभी मेरीमोहिनी शक्ति ( माया ) की सृष्टियाँ हैं। दूसरे शब्दों में, भौतिक जगत में कोई असलियत नहीं है।
विद्याविद्ये मम तनू विद्धयुद्धव शरीरिणाम् ।मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते ॥
३॥
विद्या--ज्ञान; अविद्ये--तथा अज्ञान; मम--मेरा; तनू--प्रकट शक्तियाँ; विद्द्धि--जानो; उद्धव--हे उद्धव; शरीरिणाम्--देहधारी जीवों का; मोक्ष--मो क्ष; बन्ध--बन्धन; करी--उत्पन्न करने वाला; आद्ये--आदि, नित्य; मायया--शक्ति द्वारा; मे--मेरा; विनिर्मिते--उत्पन्न किया गया |
हे उद्धव, ज्ञान ( विद्या ) तथा अज्ञान ( अविद्या ) दोनों ही माया की उपज होने के कारण मेरीशक्ति के विस्तार हैं। ये दोनों अनादि हैं और देहधारी जीवों को शाश्वत मोक्ष तथा बन्धन प्रदानकरने वाले हैं।
एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते ।बन्धोस्याविद्ययानादिर्विद्यया च तथेतर: ॥
४॥
एकस्य--एक के; एव--निश्चय ही; मम--मेरे; अंशस्य--अंश के; जीवस्य--जीव के; एव--निश्चय ही; महा-मते--हे परमबुद्धिमान; बन्ध: --बन्धन; अस्य--उसका; अविद्यया--अज्ञान से; अनादि:--आदि-रहित; विद्यया--ज्ञान से; च--तथा;तथा--उसी तरह; इतर:--बन्धन का उल्टा, मोक्ष।
हे परम बुद्धिमान उद्धव, जीव मेरा भिन्नांश है, किन्तु अज्ञान के कारण वह अनादि काल सेभौतिक बन्धन भोगता रहा है। फिर भी ज्ञान द्वारा वह मुक्त हो सकता है।
अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते ।विरुद्धधर्मिणोस्तात स्थितयोरेकधर्मिणि ॥
५॥
अथ--इस प्रकार; बद्धस्य--बद्धजीव के; मुक्तस्य--मुक्त भगवान् के; वैलक्षण्यम्--विभिन्न लक्षण; वदामि--अब मैं कहूँगा;ते--तुमसे; विरुद्ध--विपरीत; धर्मिणो: --जिसके दो स्वभाव; तात--हे उद्धव; स्थितयो: --स्थित दो के ; एक-धर्मिणि--एकशरीर में अपने भिन्न भिन्न लक्षण प्रकट करता है।
इस तरह हे उद्धव, एक ही शरीर में हम दो विरोधी लक्षण--यथा महान् सुख तथा दुख पातेहैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि नित्य मुक्त भगवान् तथा बद्ध आत्मा दोनों ही शरीर के भीतर हैं।अब मैं तुमसे उनके विभिन्न लक्षण कहूँगा।
सुपर्णावेती सहशौ सखायौयहच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे ।एकस्तयो: खादति पिप्पलान्न-मन्यो निरन्नोडपि बलेन भूयान् ॥
६॥
सुपर्णौं--दो पक्षी; एतौ--ये; सहशौ--एक समान; सखायौ--मित्र; यहच्छया--संयोगवश; एतौ--ये दोनों; कृत--बनाये हुए;नीडौ--घोंसला; च--तथा; वृक्षे--वृक्ष पर; एक:--एक; तयो:--दोनों में से; खादति--खा रहा है; पिप्पल--वृक्ष के;अन्नम्ू--फलों को; अन्य:ः--दूसरा; निरन्न:--न खाते हुए; अपि--यद्यपि; बलेन--शक्ति से; भूयानू- श्रेष्ठ है
संयोगवश दो पक्षियों ने एक ही वृक्ष पर एक साथ घोंसला बनाया है। दोनों पक्षी मित्र हैंऔर एक जैसे स्वभाव के हैं। किन्तु उनमें से एक तो वृक्ष के फलों को खा रहा है, जबकि दूसरा,जो कि इन फलों को नहीं खा रहा है, अपनी शक्ति के कारण श्रेष्ठ पद पर है।
आत्मानमन्यं च स वेद विद्वा-नपिप्पलादो न तु पिप्पलाद: ।योउविद्यया युक्स तु नित्यबद्धोविद्यामयो यः स तु नित्यमुक्त: ॥
७॥
आत्मानम्--स्वयं; अन्यमू--दूसरा; च-- भी; सः--वह; वेद--जानता है; विद्वान्--सर्वज्ञ होने से; अपिप्पल-अदः--वृक्ष केफलों को नहीं खाने वाला; न--नहीं; तु--लेकिन; पिप्पल-अदः --वृक्ष के फलों को खाने वाला; य:--जो; अविद्यया--अज्ञान से; युकू--परिपूर्ण; सः--वह; तु--निस्सन्देह; नित्य--शा श्वत रूप से; बद्ध:--बद्ध; विद्या मय: --पूर्ण ज्ञान से पूरित;यः--जो; सः--वह; तु--निस्सन्देह; नित्य--नित्य; मुक्त:--मुक्त
जो पक्षी वृक्ष के फल नहीं खा रहा वह भगवान् है, जो अपनी सर्वज्ञता के कारण अपने पदको तथा उस बद्धजीव के पद को, जो कि फल खा रहे पक्षी द्वारा दर्शाया गया है, समझते हैं।किन्तु दूसरी ओर, वह जीव न तो स्वयं को समझता है, न ही भगवान् को। वह अज्ञान सेआच्छादित है, अतः नित्य बद्ध कहलाता है, जबकि पूर्ण ज्ञान से युक्त होने के कारण भगवान्नित्य मुक्त हैं।
देहस्थोपि न देहस्थो विद्वान्स्वप्नाद्यथोत्थित: ।अदेहस्थोपि देहस्थः कुमति: स्वणहग्यथा ॥
८॥
देह--भौतिक शरीर में; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; न--नहीं; देह--शरीर में; स्थ:--स्थित; विद्वान्--बुद्धिमान व्यक्ति;स्वणात्--स्वप्न से; यथा--जिस तरह; उत्थित:--जाग कर; अदेह--शरीर में नहीं; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; देह--शरीरमें; स्थ:--स्थित; कु-मति:--मूर्ख व्यक्ति; स्वज--स्वण; हक्--देख रहा; यथा--जिस तरह
जो व्यक्ति स्वरूपसिद्ध है, वह भौतिक शरीर में रहते हुए भी अपने को शरीर से परे देखताहै, जिस तरह मनुष्य स्वप्न से जाग कर स्वज-शरीर से अपनी पहचान त्याग देता है। किन्तु मूर्खव्यक्ति यद्यपि वह अपने भौतिक शरीर से पहचान नहीं रखता किन्तु इसके परे होता है, अपनेभौतिक शरीर में उसी प्रकार स्थित सोचता है, जिस तरह स्वप्न देखने वाला व्यक्ति अपने कोकाल्पनिक शरीर में स्थित देखता है।
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थषु गुणैरपि गुणेषु च ।गृह्ममाणेष्वहं कुर्यात्र विद्वान्यस्त्वविक्रिय: ॥
९॥
इन्द्रिये: --इन्द्रियों द्वारा; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; अर्थषु--पदार्थों में; गुणैः--गुणों से उत्पन्न हुए; अपि--भी; गुणेषु--उन्हीं गुणों सेउत्पन्न में से; च-- भी; गृह्ममाणेषु-- ग्रहण किये जाकर; अहम्--मिथ्या अभिमान; कुर्यात्--उत्पन्न करना चाहिए; न--नहीं;विद्वान्-प्रबुद्ध;। यः--जो; तु--निस्सन्देह; अविक्रिय:-- भौतिक इच्छा से अप्रभावित |
भौतिक इच्छाओं के कल्मष से मुक्त प्रबुद्ध व्यक्ति अपने आपको शारीरिक कार्यो का कर्तानहीं मानता, प्रत्युत वह जानता है कि ऐसे कार्यों में प्रकृति के गुणों से उत्पन्न इन्द्रियाँ ही उन्हींगुणों से उत्पन्न इन्द्रिय-विषयों से सम्पर्क करती हैं।
देवाधीने शरीरेउस्मिन्गुणभाव्येन कर्मणा ।वर्तमानोबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबध्यते ॥
१०॥
दैव--मनुष्य के पूर्व सकाम कर्मों के; अधीने--अधीन; शरीरे-- भौतिक शरीर में; अस्मिन्ू--इस; गुण--गुणों से; भाव्येन--उत्पन्न; कर्मणा--सकाम कर्मों द्वारा; वर्तमान:--स्थित होकर; अबुध:--मूर्ख; तत्र--शारीरिक कार्यो में; कर्ता--करने वाला;अस्मि--हूँ; इति--इस प्रकार; निबध्यते--बँध जाता है।
अपने पूर्व सकाम कर्मों द्वारा उत्पन्न शरीर के भीतर स्थित, अज्ञानी व्यक्ति सोचता है कि मैंही कर्म का कर्ता हूँ। इसलिए ऐसा मूर्ख व्यक्ति मिथ्या अहंकार से मोहग्रस्त होकर, उन सकामकर्मों से बँध जाता है, जो वस्तुतः प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं।
एवं विरक्त: शयन आसनाटनमज्जने ।दर्शनस्पर्शनप्राणभोजन श्रवणादिषु ।न तथा बध्यते दिद्वान्तत्र तत्रादयन्गुणान् ॥
११॥
एवम्--इस प्रकार; विरक्त:--भौतिक भोग से विलग हुआ; शयने--लेटने या सोने में; आसन--बैठने में; अटन--चलते हुए;मज्ने--अथवा स्नान में; दर्शन--देखने में; स्पर्शन--स्पर्श करने; घ्राण--सूँघने; भोजन--खाने; श्रवण--सुनने; आदिषु--इत्यादि में; न--नहीं; तथा--इस प्रकार; बध्यते--बाँधा जाता है; विद्वानू--बुद्ध्धिमान व्यक्ति; तत्र तत्र--जहाँ भी जाता है;आदयन्--अनुभव कराते; गुणान्--प्रकृति के गुणों से उत्पन्न, इन्द्रियाँ ॥
प्रबुद्ध व्यक्ति विरक्त रहकर शरीर को लेटने, बैठने, चलने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने,खाने, सुनने इत्यादि में लगाता है, लेकिन वह कभी भी ऐसे कार्यों में फँसता नहीं। निस््सन्देह,वह समस्त शारीरिक कार्यों का साक्षी बनकर अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों में लगाता है औरवह मूर्ख व्यक्ति की भाँति उसमें फँसता नहीं।
प्रकृतिस्थोप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिल: ।वैशारद्येक्षयासड्रशितया छिन्नसंशय: ।प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद्विनिवर्तते ॥
१३॥
प्रकृति-- भौतिक जगत में; स्थ:--स्थित; अपि--यद्यपि; असंसक्त:--इन्द्रियतृप्ति से पूर्णतया विरक्त; यथा--जिस तरह;खम्--आकाश; सविता--सूर्य; अनिल: --वायु; वैशारद्या--अत्यन्त कुशल द्वारा; ईक्षया--दृष्टि; असड़--विरक्ति द्वारा;शितया--तेज किया हुआ; छिन्न--खण्ड खण्ड; संशय: --सन्देह; प्रतिबुद्ध:--जाग्रत; इब--सहश; स्वप्नातू--स्वण से;नानात्वातू--संसार के विविधत्व के द्वन्द् से; विनिवर्तते--मुख मोड़ता है या परित्याग कर देता है।
यद्यपि आकाश हर वस्तु की विश्राम-स्थली है, किन्तु वह न तो किसी वस्तु से मिलता है, नउसमें उलझता है। इसी प्रकार सूर्य उन नाना जलाशयों के जल में लिप्त नहीं होता, जिनमें से वहप्रतिबिम्बित होता है। इसी तरह सर्वत्र बहने वाली प्रबल वायु उन असंख्य सुगंधियों तथावातावरणों से प्रभावित नहीं होती, जिनमें से होकर वह गुजरती है। ठीक इसी तरह स्वरूपसिद्धआत्मा भौतिक शरीर तथा अपने आसपास के भौतिक जगत से पूर्णतया विरक्त रहता है। वह उसमनुष्य की तरह है, जो स्वप्न से जगा है। स्वरूपसिद्ध आत्मा विरक्ति द्वारा प्रख/ की गई कुशलइृष्टि से आत्मा के पूर्ण ज्ञान से समस्त संशयों को छिन्न-भिन्न कर देता है और अपनी चेतना कोभौतिक विविधता के विस्तार से पूर्णतया विलग कर लेता है।
यस्य स्युर्वीतसड्डूल्पा: प्राणेन्द्रियमनोधियाम् ।वृत्तय: स विनिर्मुक्तो देहस्थोपि हि तदगुणैः ॥
१४॥
यस्य--जिसके; स्यु:--हैं; वीत--रहित; सड्डूल्पा:-- भौतिक इच्छा से; प्राण--प्राण; इन्द्रिय--इन्द्रियाँ; मन: --मन; धियाम्--बुद्धि के; वृत्तय:--कार्य; सः--ऐसा व्यक्ति; बिनिर्मुक्त:--पूर्णतया मुक्त; देह--शरीर में; स्थ:--स्थित; अपि--होते हुए भी;हि--निश्चय ही; तत्--शरीर के; गुणैः--गुणों से
वह व्यक्ति स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से पूर्णतया मुक्त माना जाता है, जब उसके प्राण,इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि के सारे कर्म किसी भौतिक इच्छा के बिना सम्पन्न किये जाते हैं। ऐसाव्यक्ति शरीर में स्थित रहकर भी बद्ध नहीं होता।
अस्यात्मा हिंस्यते हिंस््रै्येन किल्लिद्यदच्छया ।अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुध: ॥
१५॥
यस्य--जिसका; आत्मा--शरीर; हिंस्यते-- आक्रमण किया जाता है; हिंस्त्रै:--पापी व्यक्तियों या उग्र पशुओं द्वारा; येन--जिससे; किश्चित्ू--कुछ कुछ; यदहृच्छया--किसी न किसी तरह; अर्च्यते--रूपान्तरित या प्रभावित होता है; वा--अथवा;क्वचित्--कहीं; तत्र--वहाँ; न--नहीं; व्यतिक्रियते--परिवर्तित अथवा प्रभावित होता है; बुध:--बुद्द्धिमान व्यक्ति
कभी कभी अकारण ही मनुष्य के शरीर पर क्रूर व्यक्तियों या उग्र पशुओं द्वारा आक्रमणकिया जाता है। अन्य अवसरों तथा अन्य स्थानों पर उसी व्यक्ति का दैवयोग से अत्यन्त सम्मानया पूजन होता है। जो व्यक्ति आक्रमण किये जाने पर क्रुद्ध नहीं होता, न ही पूजा किये जाने परप्रमुदित होता है, वही वास्तव में बुद्धिमान है।
न स्तुवीत न निन्देत कुर्वतः साध्वसाधु वा ।बदतो गुणदोषाभ्यां वर्जित: समहड्मुनि: ॥
१६॥
न स्तुवीत--प्रशंसा नहीं करता; न निन्देत--आलोचना नहीं करता; कुर्बतः--काम करने वाले; साधु--उत्तम; असाधु--दुष्ट;बा--अथवा; वदत:--बोलने वाले; गुण-दोषाभ्याम्--अच्छे तथा बुरे गुणों से; वर्जित:--मुक्त हुए; सम-हक्--समानदर्शी ;मुनि:--सन्त-साधु |
सन्त पुरुष समान दृष्टि से देखता है, अतएवं भौतिक दृष्टि से अच्छे या बुरे कर्म से प्रभावितनहीं होता। यद्यपि वह अन्यों को अच्छा तथा बुरा कार्य करते और उचित तथा अनुचित बोलतेदेखता है, किन्तु वह किसी की प्रशंसा या आलोचना नहीं करता।
न कुर्यान्न वदेत्किञ्ञिन्न ध्यायेत्साध्वसाधु वा ।आत्मारामोनया वृत्त्या विचरेजजडवन्मुनि: ॥
१७॥
न कुर्यातू-- नहीं करे; न वदेत्ू--नहीं बोले; किश्ञित्ू--कुछ भी; न ध्यायेत्ू--चिन्तन नहीं करे; साधु असाधु वा--अच्छी अथवाबुरी वस्तुएँ; आत्म-आराम:--आत्म-साक्षात्कार में आनन्द प्राप्त करने वाला; अनया--इस; वृत्त्या--जीवन-शैली द्वारा;विचरेत्--उसे भ्रमण करना चाहिए; जड-वत्--जड़ व्यक्ति की तरह; मुनि:--साधु-पुरुष |
मुक्त साधु-पुरुष को अपने शरीर-पालन के लिए भौतिक अच्छाई या बुराई की दिशा हेतु नतो कर्म करना चाहिए, न बोलना या सोच-विचार करना चाहिए। प्रत्युत उसे सभी भौतिकपरिस्थितियों में विरक्त रहना चाहिए और आत्म-साक्षात्कार में आनन्द लेते हुए उसे इस मुक्तजीवन-शैली में संलग्न होकर विचरण करना चाहिए और बाहरी लोगों को मन्दबुद्ध्धि-व्यक्तिजैसा लगना चाहिए।
शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि ।श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्ाथेनुमिव रक्षत: ॥
१८॥
शब्द-ब्रह्मणि --वैदिक साहित्य में; निष्णात:--पूर्ण अध्ययन से निपुण; न निष्णायात्--मन को लीन नहीं करता; परे--परम में;यदि--यदि; श्रम:--परिश्रम; तस्य--उसका; श्रम--महत्प्रयास का; फल:--फल; हि--निश्चय ही; अधेनुम्--दूध न देने वालीगाय; इब--सहश; रक्षतः--रखवाले का।
यदि कोई गहन अध्ययन करके वैदिक साहित्य के पठन-पाठन में निपुण बन जाता है,किन्तु भगवान् में मन को स्थिर करने का प्रयास नहीं करता, तो उसका श्रम बैसा ही होता है,जिस तरह दूध न देने वाली गाय की रखवाली करने में अत्यधिक श्रम करने वाले व्यक्ति का।दूसरे शब्दों में, वैदिक ज्ञान के श्रमपूर्ण अध्ययन का फल कोरा श्रम ही निकलता है। उसके कोईअन्य सार्थक फल प्राप्त नहीं होगा।
गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यादेहं पराधीनमसत्प्रजां च ।वित्त त्वतीर्थीकृतमड़ वाचंहीनां मया रक्षति दुःखदु:ःखी ॥
१९॥
गाम्--गाय को; दुग्ध--जिसका दूध; दोहाम्--पहले दुहा जा चुका हो; असतीम्--कुलटा, व्यभिचारिणी; च--भी;भार्यामू--पत्नी को; देहम्ू--शरीर को; पर--अन्यों के; अधीनम्-- आश्रित; असत्--व्यर्थ; प्रजामू--बच्चों को; च--भी;वित्तम्--सम्पत्ति को; तु--लेकिन; अतीर्थी-कृतम्--योग्य पात्र को न दिया जाकर; अड़--हे उद्धव; वाचम्ू--वैदिक ज्ञान;हीनाम्ू--रहित; मया--मेरे ज्ञान का; रक्षति--रखवाली करता है; दुःख-दुःखी--एक कष्ट के बाद दूसरा कष्ट सहन करनेवाला।
हे उद्धव, वह व्यक्ति निश्चय ही अत्यन्त दुखी होता है, जो दूध न देने वाली गाय, कुलटापत्नी, पूर्णतया पराश्चित शरीर, निकम्में बच्चों या सही कार्य में न लगाई जाने वाली धन-सम्पदाकी देखरेख करता है। इसी तरह, जो व्यक्ति मेरी महिमा से रहित वैदिक ज्ञान का अध्ययन करताहै, वह भी सर्वाधिक दुखियारा है।
यस्यां न मे पावनमड़ कर्मस्थित्युद्धवप्राणनिरोधमस्य ।लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद्वश्ध्यां गिरं तां बिभूयान्न धीर: ॥
२०॥
यस्याम्--जिस ( साहित्य ) में; न--नहीं; मे--मेरा; पावनम्--पवित्रकारी; अड्र--हे उद्धव; कर्म--कर्म; स्थिति--पालन;उद्धव--सृष्टि; प्राण-निरोधम्--तथा संहार; अस्थ-- भौतिक जगत का; लीला-अवतार--लीला-अवतारों में से; ईप्सित--अभीष्ट; जन्म--प्राकट्य ; वा--अथवा; स्यात्--है; वन्ध्यामू--बंजर; गिरम्ू--वाणी; ताम्ू--यह; बिभूयात्--समर्थन करे;न--नहीं; धीर: --बुद्धिमान पुरुष।
हे उद्धव, बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह कभी भी ऐसा ग्रंथ न पढ़े, जिनमें सम्पूर्णब्रह्माण्ड को पवित्र करने वाले मेरे कार्यकलापों का वर्णन न हो। निस्सन्देह मैं सम्पूर्ण जगत कासृजन, पालन तथा संहार करता हूँ। मेरे समस्त लीलावतारों में से कृष्ण तथा बलराम सर्वाधिकप्रिय हैं। ऐसा कोई भी तथाकथित ज्ञान, जो मेरे इन कार्यकलापों को महत्व नहीं देता, वह निराबंजर है और वास्तविक बुद्धिमानों द्वारा स्वीकार्य नहीं है।
एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्वभ्रममात्मनि ।उपारमेत विरजं मनो मय्यर्पष्य सर्वगे ॥
२१॥
एवम्--इस तरह ( जैसाकि मैंने अभी कहा ); जिज्ञासया--वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा; अपोह्म--त्याग कर; नानात्व--विविधताके; भ्रमम्-घूमने की त्रुटि; आत्मनि--अपने में; उपारमेत-- भौतिक जीवन समाप्त कर देना चाहिए; विरजम्--शुद्ध; मन:--मन; मयि-- मुझमें; अर्प्प--स्थिर करके; सर्व-गे--सर्वव्यापी मेंश़
समस्त ज्ञान के निष्कर्ष रूप में मनुष्य को चाहिए कि वह भौतिक विविधता की मिथ्याधारणा को त्याग दे, जिसे वह आत्मा पर थोपता है और इस तरह अपने भौतिक अस्तित्व कोसमाप्त कर दे। चूँकि मैं सर्वव्यापी हूँ, इसलिए मुझ पर मन को स्थिर करना चाहिए।
यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम् ।मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्ष: समाचर ॥
२२॥
यदि--यदि; अनीश: --असमर्थ; धारयितुम्--स्थिर करने के लिए; मन:--मन; ब्रह्मणि-- आध्यात्मिक पद पर; निश्चलम्--इन्द्रियतृष्ति से मुक्त; मयि--मुझमें; सर्वाणि--समस्त; कर्माणि--कर्म; निरपेक्ष:--फल भोगने का प्रयास किये बिना;समाचर--सम्पन्न करो
हे उद्धव, यदि तुम अपने मन को समस्त भौतिक उहापोहों से मुक्त नहीं कर सकते और इसेआध्यात्मिक पद पर पूर्णतया लीन नहीं कर सकते, तो अपने सारे कार्यों को, उनका फल भोगनेका प्रयास किये बिना, मुझे अर्पित भेंट के रूप में सम्पन्न करो।
श्रद्धालुर्मत्क था: श्रृण्वन्सुभद्रा लोकपावनी: ।गायन्ननुस्मरन्कर्म जन्म चाभिनयन्मुहु: ॥
२३॥
मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन्मदपा श्रयः ।लभते निश्चलां भक्ति मय्युद्धव सनातने ॥
२४॥
श्रद्धालु:--श्रद्धावान व्यक्ति; मत्-कथा:--मेरी कथाएँ; श्रृण्वन्--सुनते हुए; सु-भद्रा:--सर्वमंगलमय; लोक--सारे जगत को;'पावनी:--पवित्र बनाते हुए; गायन्ू--गाना; अनुस्मरन्--निरन्तर स्मरण करना; कर्म--मेरे कार्य; जन्म--मेरा जन्म; च-- भी;अभिनयन्--नाटक करके; मुहुः--पुनः पुनः; मत्-अर्थ--मेरे आनन्द के लिए; धर्म--धार्मिक कार्य; काम--इन्द्रिय-कर्म ;अर्थानू--तथा व्यापारिक कार्य; आचरन्--सम्पन्न करते हुए; मत्--मुझमें; अपाश्रय:--आश्रय बनाकर; लभते--प्राप्त करताहै; निश्चलामू--अटल; भक्तिमू-- भक्ति; मयि--मुझमें; उद्धव--हे उद्धव; सनातने--मेरे सनातन रूप |हे उद्धव, मेरी लीलाओं तथा गुणों की कथाएँ सर्वमंगलमय हैं और समस्त ब्रह्माण्ड कोपवित्र करने वाली हैं।
जो श्रद्धालु व्यक्ति ऐसी दिव्य लीलाओं को निरन्तर सुनता है, उनकागुणगान करता है तथा उनका स्मरण करता है और मेरे प्राकट्य से लेकर सारी लीलाओं का अभिनय करता है, तथा मेरी तुष्टि के लिए अपने धार्मिक, ऐन्द्रिय तथा वृत्तिपरक कार्यों को मुझेअर्पित करता है, वह निश्चय ही मेरी अविचल भक्ति प्राप्त करता है।
सत्सड्ुलब्धया भक्त्या मयि मां स उपासिता ।सबै मे दर्शितं सद्धिरज्ञसा विन्दते पदम् ॥
२५॥
सत्--भगवद्भक्तों की; सड़--संगति से; लब्धया-प्राप्त की हुई; भक्त्या--भक्ति द्वारा; मयि--मुझमें; माम्--मेरा; सः--वह; उपासिता--उपासक; सः--वही व्यक्ति; वै--निस्सन्देह; मे--मेरा; दर्शितम्ू--बताये गये; सद्द्धिः--मेरे शुद्ध भक्तों द्वारा;अज्ञसा--आसानी से; विन्दते--प्राप्त करता है; पदम्--मेरे चरणकमल अथवा मेरा नित्य धाम |
जिसने मेरे भक्तों की संगति से शुद्ध भक्ति प्राप्त कर ली है, वह निरन्तर मेरी पूजा में लगारहता है। इस तरह वह आसानी से मेरे धाम को जाता है, जिसे मेरे शुद्ध भक्तगणों द्वारा प्रकटकिया जाता है।
श्रीउद्धव उवाचसाधुस्तवोत्तमश्लोक मतः कीहग्विध: प्रभो ।भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीहशी सद्धिराहता ॥
२६॥
एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो ।प्रणतायानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यताम् ॥
२७॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; साधु:--सन्त-पुरुष; तब--तुम्हारा; उत्तम-शलोक-हे प्रभु; मत:ः--विचार; कीहक्-विध:--वह किस तरह का होगा; प्रभो--हे भगवान्; भक्ति:--भक्ति; त्वयि--तुममें; उपयुज्येत--सम्पन्न करने योग्य है;'कीहशी--किसी तरह की है; सद्धिः--आपके शुद्ध भक्तों, यथा नारद द्वारा; आहता--समादरित; एतत्--यह; मे-- मुझसे;पुरुष-अध्यक्ष--हे विश्व-नियन्ताओं के शासक; लोक-अध्यक्ष--हे वैकुण्ठ के स्वामी; जगत्-प्रभो--हे ब्रह्माण्ड के ईश्वर;प्रणताय--आपके शरणागतों के; अनुरक्ताय--अनुरक्त; प्रपन्नाय--जिनके आपके अलावा कोई अन्य आश्रय नहीं है; च-- भी;कथ्यताम्ू-कहें
श्री उद्धव ने कहा : हे प्रभु, हे भगवान्, आप किस तरह के व्यक्ति को सच्चा भक्त मानते हैंऔर आपके भक्तों द्वारा किस तरह की भक्ति समर्थित है, जो आपको अर्पित की जा सके ? हेब्रह्मण्ड के नियन््ताओं के शासक, हे वैकुण्ठ-पति तथा ब्रह्माण्ड के सर्वशक्तिमान ईश्वर, मैंआपका भक्त हूँ और चूँकि मैं आपसे प्रेम करता हूँ, इसलिए आपको छोड़ कर मेरा अन्य कोईआश्रय नहीं है। अतएव कृपा करके आप इसे मुझे समझायें।
त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुष: प्रकृते: पर: ।अवतीरनोंडसि भगवस्स्वेच्छोपात्तपृथग्वपु: ॥
२८॥
त्वमू-तुम; ब्रह्म परमम्--परब्रह्म; व्योम--आकाश की तरह ( हर वस्तु से पृथक् ); पुरुष:-- भगवान्; प्रकृते:--भौतिक प्रकृतिके; पर:--दिव्य; अवतीर्ण:--अवतार लिया; असि--हो; भगवन्--प्रभु; स्व-- अपने ( भक्तों ); इच्छा--इच्छा के अनुसार;उपात्त--स्वीकार किया; पृथक्--भिन्न; वपु:--शरीर |
हे प्रभु, परब्रह्म-रूप में आप प्रकृति से परे हैं और आकाश की तरह किसी तरह से बद्ध नहींहैं। तो भी, अपने भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर आप अनेक प्रकार के रूपों में प्रकट होते हैंऔर अपने भक्तों की इच्छानुसार अवतरित होते हैं।
श्रीभगवानुवाचकृपालुरकृतद्रोहस्तितिश्षु: सर्वदेहिनाम् ।सत्यसारोनवद्यात्मा सम: सर्वोपकारकः ॥
२९॥
कामैरहतधीर्दान्तो मृदु: शुचिरकिश्नः ।अनीहो मितभुक्शान्तः स्थिरो मच्छशणो मुनि: ॥
३०॥
अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाझ्जितषड्गुण: ।अमानी मानदः कल्यो मैत्र: कारुणिक: कवि: ॥
३१॥
आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान् ।धर्मान्सन्त्यज्य यः सर्वान्मां भजेत स तु सत्तम: ॥
३२॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; कृपालु:--अन्यों के कष्ट को सहन न कर सकने वाले; अकृत-द्रोह:--अन्यों को हानि नपहुँचाने वाले; तितिक्षु:--क्षमा करने वाले; सर्व-देहिनामू--सारे जीवों को; सत्य-सारः--सत्य पर जीवित रहने वाले तथा सत्यसे ही हृढ़ता प्राप्त करने वाले; अनवद्य-आत्मा--ईर्ष्या-द्वेष से मुक्त आत्मा; सम:--सुख-दुख में समान चेतना वाला; सर्व-उपकारकः--अन््यों के कल्याण के लिए प्रयलशील; कामै:-- भौतिक इच्छाओं द्वारा; अहत--अविचल; धी:ः--बुद्धि वाले;दान्तः--बाह्य इन्द्रियों को वश में करने वाले; मृदु:ः--कठोर मनोवृत्ति से रहित; शुचिः--अच्छे व्यवहार वाला; अकिद्ञन:--किसी भी सम्पत्ति से विहीन; अनीह:--सांसारिक कार्यकलापों से मुक्त; मित-भुक्ू --संयम से खानेवाला; शान्त:--मन को वशमें रखने वाला; स्थिर:--अपने नियत कार्य में हढ़ रहने वाला; मत्-शरण: --मुझे ही एकमात्र शरण स्वीकार करने वाला;मुनि:--विचारवान; अप्रमत्त:--सतर्क ; गभीर-आत्मा--दिखाऊ न होने के कारण अपरिवर्तित; धृति-मान्--विपत्ति के समयभी दुर्बल या दुखी न होने वाला; जित--विजय प्राप्त; घट्ू-गुण:--छ:ः गुण, भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु;अमानी-- प्रतिष्ठा की इच्छा से रहित; मान-दः--अन्यों का आदर करने वाला; कल्य: --अन्यों की कृष्णभावना को जगाने मेंपटु; मैत्र:--दूसरों को धोखा न देने वाला, अतः असली मित्र; कारुणिक:--निजी महत्त्वाकांक्षा से नहीं, अपितु करुणा केवशीभूत होकर कर्म करने वाला; कवि: --पूर्ण विद्वान; आज्ञाय--जानते हुए; एवम्--इस प्रकार; गुणान्--अच्छे गुणों;दोषान्ू--बुरे गुणों को; मया--मेरे द्वारा; आदिष्टान्ू--शिक्षा दिए गये; अपि-- भी; स्वकान्-- अपने ही; धर्मानू-- धार्मिक सिद्धान्तों को; सन्त्यज्य--त्याग कर; यः--जो; सर्वानू--समस्त; माम््--मुझको; भजेत--पूजता है; सः--वह; तु--निस्सन््देह;सत्-तमः--सन्त-पुरुषों में श्रेष्ठ
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, सन््त-पुरुष दयालु होता है और वह कभी दूसरों को हानि नहींपहुँचाता। दूसरों के आक्रामक होने पर भी वह सहिष्णु होता है और सारे जीवों को क्षमा करनेवाला होता है। उसकी शक्ति तथा जीवन की सार्थकता सत्य से मिलती है। वह समस्त ईर्ष्या-द्वेषसे मुक्त होता है और भौतिक सुख-दुख में उसका मन समभाव रहता है। इस तरह वह अन्य लोगोंके कल्याण हेतु कार्य करने में अपना सारा समय लगाता है। उसकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं सेमोहग्रस्त नहीं होती और उसकी इन्द्रियाँ अपने वश में रहती हैं। उसका व्यवहार सदैव मधुर, मृदुतथा आदर्श होता है। वह स्वामित्व (संग्रह ) भाव से मुक्त रहता है। वह कभी भी सामान्यसांसारिक कार्यकलापों के लिए प्रयास नहीं करता और भोजन में संयम बरतता है। इसलिए वहसदैव शान्त तथा स्थिर रहता है। सन््त-पुरुष विचारवान होता है और मुझे ही अपना एकमात्रआश्रय मानता है। ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य-पालन में अत्यन्त सतर्क रहता है, उसमें कभी भीऊपरी विकार नहीं आ पाते, क्योंकि दुखद परिस्थितियों में भी वह स्थिर तथा नेक बना रहता है।उसने भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा तथा मृत्यु इन छह भौतिक गुणों पर विजय पा ली होती है।वह अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होता है और अन्यों को आदर प्रदान करता है। वह अन्यों कीकृष्ण-चेतना को जाग्रत करने में कुशल होता है, अतएव कभी किसी को ठगता नहीं प्रत्युतवह सबों का शुभैषी मित्र होता है और अत्यन्त दयालु होता है। ऐसे सनन््त-पुरुष को दिद्ठानों मेंसर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए। वह भलीभाँति समझता है कि विविध शास्त्रों में मैंने, जो धार्मिककर्तव्य नियत किये हैं, उनमें अनुकूल गुण रहते हैं जो उनके करने वालों को शुद्ध करते हैं औरवह जानता है कि इन कर्तव्यों की उपेक्षा से जीवन में त्रुटि आती है। फिर भी, सन्त-पुरुष मेरेचरणकमलों की शरण ग्रहण करके सामान्य धार्मिक कार्यो को त्याग कर एकमात्र मेरी पूजाकरता है। इस तरह वह जीवों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
ज्ञात्वाज्ञात्वाथ येवैमां यावान्यश्वास्मि याहश: ।भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मता: ॥
३३॥
ज्ञात्वा--जान कर; अज्ञात्वा--न जान कर; अथ--इस प्रकार; ये--जो; बै--निश्चय ही; मामू--मुझको ; यावान्ू--जब तक;यः--जो; च-- भी; अस्मि--हूँ; याहश: -- जैसा मैं हूँ; भजन्ति-- पूजा करते हैं; अनन्य-भावेन-- अनन्य भक्ति से; ते--वे; मे--मेरे द्वारा; भक्त-तमा:--सर्व श्रेष्ठ भक्तमण; मता: --माने जाते हैं|
भले ही मेरे भक्त यह जानें या न जानें कि मैं क्या हूँ, मैं कौन हूँ और मैं किस तरह विद्यमानहूँ, किन्तु यदि वे अनन्य प्रेम से मेरी पूजा करते हैं, तो मैं उन्हें भक्तों में सर्व श्रेष्ठ मानता हूँ।
मल्लिड्डमद्धक्तजनदर्शनस्पर्शनार्चनम् ।परिचर्या स्तुतिः प्रह्मगुणकर्मानुकीर्तनम् ॥
३४॥
मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव ।सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्मनिवेदनम् ॥
३५॥
मज्न्मकर्मक थनं मम पर्वानुमोदनम् ।गीतताण्डववादित्रगोष्ठीभिमद्गृ्होत्सव: ॥
३६॥
यात्रा बलिविधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु ।वैदिकी तान्त्रिकी दीक्षा मदीयब्रतधारणम् ॥
३७॥
ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वत: संहत्य चोद्यम: ।उद्यानोपवनाक्रीडपुरमन्दिरकर्मणि ॥
३८ ॥
सम्मार्जनोपलेपाभ्यां सेकमण्डलवर्तनै: ।गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद्यदमायया ॥
३९॥
अमानित्वमदम्भित्वं कृतस्यापरिकीर्तनम् ।अपि दीपावलोकं मे नोपयुउज्यान्निवेदितम् ॥
४०॥
यद्यदिष्ठटतमं लोके यच्चातिप्रियमात्मन: ।तत्तन्निवेदयेन्मह्मं तदानन्त्याय कल्पते ॥
४१॥
मतू-लिड्ड--अर्चाविग्रह के रूप में इस जगत में मेरा प्राकट्य; मत्-भक्त जन--मेरे भक्त; दर्शन--देखना; स्पर्शन--स्पर्श;अर्चनम्--तथा पूजा; परिचर्या--सेवा-कार्य; स्तुतिः--महिमा की प्रार्थनाएँ; प्रह-- नमस्कार; गुण--मेरे गुण; कर्म--तथाकर्म; अनुकीर्तनम्--निरन्तर महिमा-गायन; मत्-कथा--मेरे विषय में कथाएँ; श्रवणे--सुनने में; श्रद्धा--प्रेम के कारण श्रद्धा;मतू-अनुध्यानम्--सदैव मेरा ध्यान करते हुए; उद्धव--हे उद्धव; सर्व-लाभ--सभी उपार्जित वस्तुएँ; उपहरणम्-- भेंट;दास्येन--अपने को मेरा दास मानते हुए; आत्म-निवेदनम्--आत्म-समर्पण; मत्-जन्म-कर्म-कथनम्--मेरे जन्म तथा कर्मों कीप्रशंसा करना; मम--मेरा; पर्व--जन्माष्टमी जैसे उत्सवों में; अनुमोदनम्--परम हर्ष मनाते हुए; गीत--गीतों; ताण्डब--नृत्य;वादित्र--संगीत के वाद्यों; गोष्ठीभि:--तथा भक्तों के मध्य विचार-विमर्श; मत्-गृह--मेरे मन्दिर में; उत्सवः--उत्सव, पर्व;यात्रा--उत्सव मनाना; बलि-विधानम्-- आहुति डालना; च--भी; सर्व--समस्त; वार्षिक --साल में एक बार, प्रत्येक वर्ष;पर्वसु--उत्सवों में; वैदिकी--वेदों में उल्लिखित; तान्त्रिकी--पश्ञरात्र जैसे ग्रंथों में वर्णित; दीक्षा--दीक्षा; मदीय--मेरा; ब्रत--उपवास; धारणम्--रखते हुए; मम--मेरे; अर्चा--अर्चाविग्रह का; स्थापने--स्थापना में; श्रद्धा-- श्रद्धा रखते हुए; स्वतः--अपने से; संहत्य--अन्यों के साथ; च--भी; उद्यम: --प्रयास; उद्यान--फूल के बगीचों के; उपवन--छोटा बगीचा; आक्रीड--लीलाओं के स्थान; पुर--भक्ति के शहर; मन्दिर--तथा मन्दिर; कर्मणि--निर्माण में; सम्मार्जन--ठीक से झाड़ना-बुहारना;उपलेपाभ्याम्--लीप-पोत कर; सेक--सुगन्धित जल छिड़क कर; मण्डल-वर्तनै:--मण्डल बनाकर; गृह--मन्दिर का, जो किमेरा घर है; शुश्रूषणम्-- सेवा; महाम्--मेरे लिए; दास-वत्--दास की तरह; यत्--जो; अमायया--द्वैत-रहित; अमानित्वम्--झूठी प्रतिष्ठा के बिना; अदम्भित्वम्ू--गर्व से रहित होकर; कृतस्य--भक्ति-कर्म; अपरिकीर्तनम्--विज्ञापन न करना; अपि--भी; दीप--दीपकों के; अवलोकम्-- प्रकाश; मे--मेरा; न--नहीं; उपयुड्ज्यात्ू--लगाना चाहिए; निवेदितम्--अन्यों को पहलेही भेंट की जा चुकी वस्तुएँ; यत् यत्--जो जो; इष्ट-तमम्--अभीष्ट; लोके--संसार में; यत् च--तथा जो भी; अति-प्रियम्--अत्यन्त प्रिय; आत्मन:--अपना; तत् तत्ू--वह वह; निवेदयेत्-- भेंट करे; मह्मम्--मुझको; तत्--वह भेंट; आनन्त्याय--अमरता के लिए; कल्पते--योग्य बनाती है।
हे उद्धव, निम्नलिखित भक्ति-कार्यो में लगने पर मनुष्य मिथ्या अभिमान तथा प्रतिष्ठा कापरित्याग कर सकता है। वह मेरे अर्चाविग्रह को के रूप में मुझे तथा मेरे शुद्ध भक्तों को देखकर, छू कर, पूजा करके, सेवा करके, स्तुति करके तथा नमस्कार करके अपने को शुद्ध बनासकता है। उसे मेरे दिव्य गुणों एवं कर्मो की भी प्रशंसा करनी चाहिए, मेरे यश की कथाओं कोप्रेम तथा श्रद्धा के साथ सुनना चाहिए तथा निरन्तर मेरा ध्यान करना चाहिए। उसे चाहिए कि जोभी उसके पास हो, वह मुझे अर्पित कर दे और अपने को मेरा नित्य दास मान कर मुझ पर हीपूरी तरह समर्पित हो जाये। उसे मेरे जन्म तथा कार्यों की सदैव चर्चा चलानी चाहिए औरजन्माष्टमी जैसे उत्सवों में, जो मेरी लीलाओं की महिमा को बतलाते हैं, सम्मिलित होकर जीवनका आनन्द लेना चाहिए। उसे मेरे मन्दिर में गा कर, नाच कर, बाजे बजाकर तथा अन्य वैष्णवोंसे मेरी बातें करके उत्सवों तथा त्योहारों में भी भाग लेना चाहिए। उसे वार्षिक त्योहारों में होनेवाले उत्सवों में, यात्राओं में तथा भेंटें चढ़ाने में नियमित रूप से भाग लेना चाहिए। उसे एकादशीजैसे धार्मिक ब्रत भी रखने चाहिए और वेदों, पंचरात्र तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथों में उल्लिखितविधियों से दीक्षा लेनी चाहिए। उसे श्रद्धा तथा प्रेमपूर्वक मेरे अर्चाविग्रह की स्थापना काअनुमोदन करना चाहिए और अकेले अथवा अन्यों के सहयोग से कृष्णभावनाभावित मन्दिरोंतथा नगरों के साथ ही साथ फूल तथा फल के बगीचों एवं मेरी लीला मनाये जाने वाले विशेषक्षेत्रों के निर्माण में हाथ बँटाना चाहिए। उसे बिना किसी द्वैत के अपने को मेरा विनीत दासमानना चाहिए और इस तरह मेरे आवास, अर्थात् मन्दिर को साफ करने में सहयोग देना चाहिए।सर्वप्रथम उसमें झाड़ू-बुहारा करना चाहिए और तब उसे जल तथा गोबर से स्वच्छ बनानाचाहिए। मन्दिर को सूखने देने के बाद सुगन्धित जल का छिड़काव करना चाहिए और मण्डलोंसे सजाना चाहिए। उसे मेरे दास की तरह कार्य करना चाहिए। उसे कभी भी अपने भक्ति-कार्योंका ढिंढ़ोरा नहीं पीटना चाहिए। इस तरह उसकी सेवा मिथ्या अभिमान का कारण नहीं होगी।उसे मुझे अर्पित किए गए दीपकों का प्रयोग अन्य कार्यो के लिए अर्थात् मात्र उजाला करने कीआवश्यकता से नहीं करना चाहिए। इसी तरह मुझे ऐसी कोई वस्तु भेंट न की जाय, जो अन्योंपर चढ़ाई जा चुकी हो या अन्यों द्वारा काम में लाई जा चुकी हो। इस संसार में जिसे जो भी वस्तु सब से अधिक चाहिए और जो भी वस्तु उसे सर्वाधिक प्रिय हो उसे, वही वस्तु मुझे अर्पित करनीचाहिए। ऐसी भेंट चढ़ाने से वह नित्य जीवन का पात्र बन जाता है।
सूर्योउग्नि्ब्राह्मणा गावो वैष्णव: खं मरुजजलम् ।भूरात्मा सर्वभूतानि भद्र पूजापदानि मे ॥
४२॥
सूर्य:--सूर्य; अग्नि:--अग्नि; ब्राह्मणा:--तथा ब्राह्मणगण; गाव: --गौवें; वैष्णव: -- भगवद्भक्त; खम्--आकाश; मरुत्--वायु; जलम्ू--जल; भू:--पृथ्वी; आत्मा--व्यष्टि आत्मा; सर्व-भूतानि--सारे जीव; भद्ग--हे साधु उद्धव; पूजा--पूजा के;पदानि--स्थान; मे--मेरी |
हे साधु-पुरुष उद्धव, यह जान लो कि तुम मेरी पूजा सूर्य, अग्नि, ब्राह्मणों, गौवों, वैष्णवों,आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा में तथा सारे जीवों में कर सकते हो।
सूर्य तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम् ।आतिदथ्येन तु विप्राछये गोष्वड्र यवसादिना ॥
४३॥
वैष्णवे बन्धुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया ।वायौ मुख्यधिया तोये द्र॒व्यैस्तोयपुरःसरैः ॥
४४॥
स्थण्डिले मन्त्रहदयैभोंगिरात्मानमात्मनि ।क्षेत्रज्ं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम् ॥
४५॥
सूर्य --सूर्य में; तु--निस्सन्देह; विद्य॒या त्रय्या-- प्रशंसा, पूजा तथा नमस्कार की चुनी हुई वैदिक स्तुतियों द्वारा; हवविषा--घी कीआहुतियों से; अग्नौ-- अग्नि में; यजेत--पूजा करे; माम्--मुझको; आतिथ्येन--अतिथि के रूप में स्वागत करके; तु--निस्सन्देह; विप्र--ब्राह्मणों के; अछये--सर्व श्रेष्ठ, अग्रणी; गोषु--गौवों में; अड्र--हे उद्धव; यवस-आदिना--उनके पालन केलिए घास आदि देना; वैष्णवे-- वैष्णव में; बन्धु--प्रेमपूर्ण मैत्री के साथ; सत्-कृत्या--सत्कार करने से; हृदि--हृदय में; खे--आन्तरिक आकाश में; ध्यान--ध्यान में; निष्ठया--स्थिर होने से; वायौ--वायु में; मुख्य--प्रमुख; धिया--बुद्धि से मानते हुए;तोये--जल में; द्रव्यैः-- भौतिक तत्त्वों द्वारा; तोब-पुर:ः-सरैः--जल इत्यादि से; स्थण्डिले--पृथ्वी पर; मन्त्र-हदयै:--मंत्रों केप्रयोग से; भोगैः--भोग्य वस्तुएँ प्रदान करने से; आत्मानम्--जीवात्मा; आत्मनि--शरीर के भीतर; क्षेत्र-ज्ञम--परमात्मा; सर्व-भूतेषु--सारे जीवों के भीतर; समत्वेन--सर्वत्र समभाव से देखते हुए; यजेत--पूजा करना चाहिए; माम्--मुझको
हे उद्धव, मनुष्य को चाहिए कि चुने हुए वैदिक मंत्रोच्चार तथा पूजा और नमस्कार द्वारा सूर्यमें मेरी पूजा करे। वह अग्नि में घी की आहुति डाल कर मेरी पूजा कर सकता है। वह अनामंत्रितअतिथियों के रूप में ब्राह्मणों का आदरपूर्वक स्वागत करके उनमें मेरी पूजा कर सकता है। मेरीपूजा गायों में उन्हें घास तथा उपयुक्त अन्न एवं उनके स्वास्थ्य एवं आनन्द के लिए उपयुक्त सामग्रीप्रदान करके की जा सकती है। वैष्णवों में मेरी पूजा उन्हें प्रेमपूर्ण मैत्री प्रदान करके तथा सबप्रकार से उनका आदर करके की जा सकती है। स्थिरभाव से ध्यान के माध्यम से हृदय में मेरीपूजा होती है और वायु में मेरी पूजा इस ज्ञान के द्वारा की जा सकती है कि तत्त्वों में प्राण हीप्रमुख है। जल में मेरी पूजा जल के साथ फूल तथा तुलसी-दल जैसे अन्य तत्त्वों को चढ़ाकरकी जा सकती है। पृथ्वी में गुह्य बीज मंत्रों के समुचित प्रयोग से मेरी पूजा हो सकती है। भोजनतथा अन्य भोज्य वस्तुएँ प्रदान करके व्यष्टि जीव में मेरी पूजा की जा सकती है। सारे जीवों मेंपरमात्मा का दर्शन करके तथा इस तरह समहदृष्टि रखते हुए मेरी पूजा की जा सकती है।
शिष्ण्येष्वित्येषु मद्रूपं शब्डुचक्रगदाम्बुजै: ।युक्त चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्न्चेत्समाहित: ॥
४६॥
धिष्ण्येषु--पूर्व वर्णित पूजा-स्थलों में; इति--इस प्रकार ( पूर्व वर्णित विधियों से ); एषु--उनमें; मत्-रूपम्--मेरा दिव्य रूप;शट्बभु--शंख; चक्र --सुदर्शन चक्र; गदा--गदा; अम्बुजैः --तथा कमल-फूल से; युक्तम्--सज्जित; चतु:-भुजम्--चार भुजाओंसहित; शान्तम्-शान्त; ध्यायन्-ध्यान करते हुए; अर्चेत्--पूजा करे; समाहित: --मनोयोग से |
इस तरह पूर्व वर्णित पूजा-स्थलों में तथा मेरे द्वारा वर्णित विधियों से मनुष्य को मेरे शान्त,दिव्य तथा चतुर्भुज रूप का, जो शंख, सुदर्शन चक्र, गदा तथा कमल से युक्त है, ध्यान करनाचाहिए। इस तरह उसे मनोयोगपूर्वक मेरी पूजा करनी चाहिए।
इष्टापूर्तेन मामेव॑ यो यजेत समाहितः ।लभते मयि सद्धक्ति मत्स्मृति: साधुसेवया ॥
४७॥
इष्टा--अपने लाभ के लिए यज्ञ करके; पूर्तन--तथा अन्यों के लाभ के लिए शुभ कार्य करना तथा कुएँ खुदवाना; माम्--मुझको; एवम्--इस प्रकार; यः--जो; यजेत--पूजा करता है; समाहितः--मुझमें मन स्थिर करके; लभते--प्राप्तकरता है;मयि--मुझमें; सत्-भक्तिम्--हढ़ भक्ति; मत्ू-स्मृतिः--मेरा स्वरूपसिद्ध ज्ञान; साधु --उत्तम गुणों से युक्त; सेवया--सेवा द्वारा |
मेरी तुष्टि के लिए जिसने यज्ञ तथा शुभ कार्य किये हैं और इस तरह से एकाग्र ध्यान से मेरीपूजा करता है, वह मेरी अटल भक्ति प्राप्त करता है। ऐसा पूजक उत्तम कोटि की अपनी सेवाके कारण मेरा स्वरूपसिद्ध ज्ञान प्राप्त करता है।
प्रायेण भक्तियोगेन सत्सड़ेन विनोद्धव ।नोपायो विद्यते सम्यक्प्रायणं हि सतामहम् ॥
४८॥
प्रायेण--प्राय:; भक्ति-योगेन--मेरी भक्ति से; सत्-सड्रेन--मेरे भक्तों की संगति से सम्भव होने वाली; विना--रहित; उद्धव--हे उद्धव; न--नहीं; उपाय: --कोई उपाय; विद्यते--है; सम्यक्--जो वास्तव में कारगर हो; प्रायणम्--जीवन का असली मार्गया वास्तविक आश्रय; हि--क्योंकि; सताम्--मुक्तात्माओं का; अहम्--मैं |
हे उद्धव, सन्त स्वभाव के मुक्त पुरुषों के लिए मैं ही अनन्तिम आश्रय तथा जीवन-शैली हूँ,अतएव यदि कोई व्यक्ति मेरे भक्तों की संगति से सम्भव मेरी प्रेमाभक्ति में प्रवृत्त नहीं होता, तोसभी व्यावहारिक उद्देश्यों के दृष्टिकोण से प्रायः भौतिक जगत से बचने का कोई उपाय उसकेपास नहीं रह जाता।
अशैतत्परमं गुह्वां श्रण्वतो यदुनन्दन ।सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्य: सुहत्सखा ॥
४९॥
अथ--इस प्रकार; एतत्--यह; परमम्--परम; गुहाम्--गुप्त; श्रण्वत:ः--सुनने वाले तुमको; यदु-नन्दन--हे यदुकुल के प्रिय;सु-गोप्यम्--अत्यन्त गुह्म; अपि-- भी; वक्ष्यामि--मैं कहूँगा; त्वम्--तुम; मे--मेरा; भृत्य:ः--सेवक हो; सु-हत्--शुभचिन्तक;सखा--तथा मित्र
हे उद्धव, हे यदुकुल के प्रिय, चूँकि तुम मेरे सेवक, शुभचिन्तक तथा सखा हो, अतएवं अबमैं तुमसे अत्यन्त गुह्य ज्ञान कहूँगा। अब इसे सुनो, क्योंकि मैं इन महान् रहस्यों को तुम्हें बतलानेजारहा हूँ।
अध्याय बारह: त्याग और ज्ञान से परे
श्रीभगवानुवाचन रोधयति मां योगो न साड्ख्यं धर्म एबच ।न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्त न दक्षिणा ॥
१॥
ब्रतानि यज्ञएछन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा: ।यथावरुन्धे सत्सड्र: सर्वसड्रापहो हि माम् ॥
२॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; न रोधयति--नियंत्रित नहीं करता; माम्--मुझको; योग: --अष्टांग योग पद्धति; न--नतो; साइड्ख्यमू-- भौतिक तत्त्वों का वैश्लेषिक अध्ययन; धर्म:--अहिंसा जैसी सामान्य करुणा; एव--निस्सन्देह; च-- भी; न--न तो; स्वाध्याय:--वेदों का उच्चारण; तपः--तपस्या; त्याग: --सन्यास-आश्रम; न--न तो; इष्टा-पूर्तम्--यज्ञ करना तथा कुएँखुदवाना या वृक्ष लगाना जैसे आम जनता के कल्याण-कार्य; न--न तो; दक्षिणा--दान; ब्रतानि--ब्रत रखना तथा एकादशीका उपवास; यज्ञ:--देवताओं की पूजा; छन्दांसि--गुट्म मंत्रों का उच्चारण; तीर्थानि--तीर्थस्थानों का भ्रमण; नियमा:--आध्यात्मिक जीवन के लिए मुख्य आदेशों का पालन करना; यमा:--तथा गौण-विधान भी; यथा--जिस तरह; अवरुन्धे--अपने वश में करता है; सत्-सड्रः--मेरे भक्तों की संगति; सर्व--समस्त; सड़-- भौतिक संगति; अपह:--हटाने वाला; हि--निश्चय ही; माम्--मुझको |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, मेरे शुद्ध भक्तों की संगति करने से इन्द्रियतृप्ति के सारे पदार्थोंके प्रति आसक्ति को नष्ट किया जा सकता है। शुद्धि करने वाली ऐसी संगति मुझे मेरे भक्त केवश में कर देती है। कोई चाहे अष्टांग योग करे, प्रकृति के तत्त्वों का दार्शनिक विश्लेष्ण करनेमें लगा रहे, चाहे अहिंसा तथा शुद्धता के अन्य सिद्धान्तों का अभ्यास करे, वेदोच्चार करे,तपस्या करे, संन्यास ग्रहण करे, कुँआ खुदवाने, वृक्ष लगवाने तथा जनता के अन्य कल्याण-कार्यों को सम्पन्न करे, चाहे दान दे, कठिन ब्रत करे, देवताओं की पूजा करे, गुट्य मंत्रों काउच्चारण करे, तीर्थस्थानों में जाय या छोटे-बड़े अनुशासनात्मक आदेशों को स्वीकार करे,किन्तु इन सब कार्यों को सम्पन्न करके भी कोई मुझे अपने वश में नहीं कर सकता। सत्सड्रेन हि दैतेया यातुधाना मृगा: खगाः ।गन्धर्वाप्सरसो नागा: सिद्धाश्चारणगुह्मका: ॥
३॥
विद्याधरा मनुष्येषु वैश्या: शूद्रा: स्त्रियोउन्त्यजा: ।रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिस्तस्मिन्युगे युगे ॥
४॥
बहवो मत्यदं प्राप्तास्त्वाप्टकायाधवादय: ।वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्वाथ विभीषण: ॥
५॥
सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृश्लो वणिक्पथ: ।व्याध: कुब्जा ब्रजे गोप्यो यज्ञपत्यस्तथापरे ॥
६॥
सत्-सड्बलेन--मेरे भक्तों की संगति से; हि--निश्चय ही; दैतेया:--दिति के पुत्र; यातुधाना:--असुरगण; मृगा:--पशु; खगा: --पक्षी; गन्धर्व--गन्धर्वगण; अप्सरस:--स्वर्गलोक की वेश्याएँ; नागा:--सर्प; सिद्धाः--सिद्धलोक के वासी; चारण--चारण;गुहाका: --गुह्म क; विद्याधरा:--विद्याधर लोक के वासी; मनुष्येषु--मनुष्यों में से; वैश्या:--व्यापारी लोग; शूद्रा:-- श्रमिक;स्त्रियः--स्त्रियाँ; अन्त्य-जा:--असभ्य लोग; रज:-तमः-प्रकृतयः--रजो तथा तमोगुणों से बँधे हुए; तस्मिन् तस्मिनू--उसी उसीप्रत्येक में; युगे युगे--युग में; बहबः--अनेक जीव; मत्--मेरे; पदम्-- धाम को; प्राप्ता:--प्राप्त हुए; त्वाष्ट--वृत्रासुर;'कायाधव--प्रह्माद महाराज; आदयः--इत्यादि; वृषपर्वा--वृषपर्वा नामक; बलि: --बलि महाराज; बाण:--बाणासुर; मय: --मय दानव; च-- भी; अथ--इस प्रकार; विभीषण:--रावण का भाई विभीषण; सुग्रीव: --वानरराज सुग्रीव; हनुमान्--महान्भक्त हनुमान; ऋक्ष:--जाम्बवान; गज:--गजेन्द्र नामक भक्त हाथी; गृश्र:--जटायु गृद्ध;वणिक्पथ:--तुलाधार नामक बनिया;व्याध:--धर्म व्याध; कुब्जना--कुब्जा नामक वेश्या, जिसकी रक्षा कृष्ण ने की; ब्रजे--वृन्दावन में; गोप्य: --गोपियाँ; यज्ञ-पत्य:--यज्ञकर्ता ब्राह्मणों की पत्नियाँ; तथा--उसी प्रकार; अपरे-- अन्य |
प्रत्येक युग में रजो तथा तमोगुण में फँसे अनेक जीवों ने मेरे भक्तों की संगति प्राप्त की । इसप्रकार दैत्य, राक्षस, पक्षी, पशु, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्मक तथा विद्याधर जैसेजीवों के साथ साथ वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ तथा अन्य निम्न श्रेणी के मनुष्य मेरे धाम को प्राप्त करसके। वृत्रासुर, प्रह्दाद महाराज तथा उन जैसे अन्यों ने मेरे भक्तों की संगति के द्वारा मेरे धाम कोप्राप्त किया। इसी तरह वृषपर्वा, बलि महाराज, बाणासुर, मय, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान,जाम्बवान, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार, धर्मव्याध, कुब्जा, वृन्दावन की गोपियाँ तथा यज्ञ कर रहेब्राह्मणों की पत्नियाँ भी मेरा धाम प्राप्त कर सकीं।
ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमा: ।अब्रतातप्ततपसः मत्सड्ान्मामुपागता: ॥
७॥
ते--वे; न--नहीं; अधीत--अध्ययन करके; श्रुति-गणा:--वैदिक वाड्मय; न--नहीं; उपासित--पूजा किया हुआ; महत्-तमः--महान् सन्त; अब्रत--ब्रत के बिना; अतप्त--बिना किये; तपसः--तपस्या; मत्-सड्भात्-मेरे तथा मेरे भक्तों की संगतिसे; माम्--मुझको; उपागता:--उन्होंने प्राप्त किया |
मैंने जिन व्यक्तियों का उल्लेख किया है, उन्होंने न तो वैदिक वाड्मथ का गहन अध्ययनकिया था, न महान् सन््तों की पूजा की थी, न कठिन ब्रत या तपस्या ही की थी। मात्र मेरे तथामेरे भक्तों की संगति से, उन्होंने मुझे प्राप्त किया।
केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगा: ।येउन्ये मूढधियो नागा: सिद्धा मामीयुरक्षसा ॥
८॥
केवलेन--शुद्ध; हि--निस्सन्देह; भावेन--प्रेम से; गोप्य:--गोपियाँ; गाव:--वृन्दावन की गाएँ; नगा:--वृन्दावन के जड़ प्राणीयथा यमलार्जुन वृक्ष; मृगा:--अन्य पशु; ये--जो; अन्ये-- अन्य; मूढ-धिय:--जड़ बुद्धि वाले; नागा:--वृन्दावन के सर्प, यथाकालिय; सिद्धा:--जीवन की सिद्धि पाकर; माम्--मेरे पास; ईयु:--आये; अद्धसा--अत्यन्त सरलता से |
गोपियों समेत वृन्दावन के वासी, गौवें, अचर जीव यथा यमलार्जुन वृक्ष, पशु, जड़ बुद्धिवाले जीव यथा झाड़ियाँ तथा जंगल और सर्प यथा कालिय--इन सबों ने मुझसे शुद्ध प्रेम करनेके ही कारण जीवन की सिद्धि प्राप्त्की और इस तरह आसानी से मुझे प्राप्त किया।
यं न योगेन साड्ख्येन दानव्रततपोध्वरै: ।व्याख्यास्वाध्यायसन्न्यासै: प्राप्नुयाद्यलवानपि ॥
९॥
यम्--जिनको; न--नहीं; योगेन--योग द्वारा; साड्ख्येन--दार्शनिक चिन्तन द्वारा; दान--दान; ब्रत--ब्रत; तप:--तपस्या;अध्वर:--अथवा वैदिक कर्मकाण्ड द्वारा; व्याख्या--अन्यों से वैदिक ज्ञान की विवेचना द्वारा; स्वाध्याय--वेदों का निजीअध्ययन; सन्न्यासै:--अथवा संन्यास ग्रहण करके ; प्राप्नुयात्--प्राप्त कर सकता है; यत्न-वान्ू--महान् प्रयास से; अपि-- भी |
योग, चिन्तन, दान, व्रत, तपस्या, कर्मकाण्ड, अन्यों को वैदिक मंत्रों की शिक्षा, वेदों कानिजी अध्ययन या संन्यास में बड़े-बड़े प्रयास करते हुए लगे रहने पर भी मनुष्य, मुझे प्राप्त नहींकर सकता।
रामेण सार्ध मथुरां प्रणीतेश्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ता: ।विगाढभावेन न मे वियोगतीब्राधयोन्यं दहशु:ः सुखाय ॥
१०॥
रामेण--बलराम के; सार्धम्--साथ; मथुराम्--मथुरा नगरी के; प्रणीते--लाये गये; श्राफल्किना--अक्रूर द्वारा; मयि--मुझमें;अनुरक्त--निरन्तर लिप्त; चित्ता:--चेतना वाले; विगाढ--प्रगाढ़; भावेन--प्रेम से; न--नहीं; मे--मेरी अपेक्षा; वियोग--विछोह का; तीव्र--गहन; आधय:--मानसिक कष्ट, चिन्ता आदि का अनुभव करने वाले; अन्यम्--अन्यों को; ददशुः--देखा;सुखाय--उन्हें सुखी बनाने के लिए
गोपियाँ इत्यादि वृन्दावनवासी गहन प्रेम से सदैव मुझमें अनुरक्त थे। अतएव जब मेरे चाचाअक्रूर मेरे भ्राता बलराम सहित मुझे मथुरा नगरी में ले आये, तो वृन्दावनवासियों को मेरे विछोहके कारण अत्यन्त मानसिक कष्ट हुआ और उन्हें सुख का कोई अन्य साधन प्राप्त नहीं हो पाया।
तास्ता: क्षपाः प्रेष्ठठमेन नीतामयैव वृन्दावनगोचरेण ।क्षणार्धवत्ता: पुनरड़ तासांहीना मया कल्पसमा बभूव॒ु: ॥
११॥
ता: ताः--वे सभी; क्षपा:--रातें; प्रेष्ट-तमेन-- अत्यन्त प्रिय के साथ; नीता:--बिताई गईं; मया--मेरे द्वारा; एब--निस्सन्देह;वृन्दावन--वृन्दावन में; गो-चरेण--जिसे जाना जा सकता है; क्षण--एक पल; अर्ध-वत्--आधे के समान; ताः--वे रातें;पुनः--फिर; अड़--हे उद्धव; तासाम्ू--गोपियों के लिए; हीना:--रहित; मया--मुझसे; कल्प--ब्रह्मा का दिन(४,३२,००,००,००० ); समा:--तुल्य; बभूवु:--हो गया।हे उद्धव, वे सारी रातें, जो वृन्दावन भूमि में गोपियों ने अपने अत्यन्त प्रियतम मेरे साथबिताईं, वे एक क्षण से भी कम में बीतती प्रतीत हुईं। किन्तु मेरी संगति के बिना बीती वे रातेंगोपियों को ब्रह्मा के एक दिन के तुल्य लम्बी खिंचती सी प्रतित हुईं।
ता नाविदन्मय्यनुषडूबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेदम् ।यथा समाधौ मुनयोब्धितोयेनद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे ॥
१२॥
ताः--वे ( गोपियाँ ); न--नहीं; अविदन्--अवगत; मयि--मुझमें; अनुषड्र--घनिष्ठ सम्पर्क द्वारा; बद्ध--बँधी; धिय:--चेतनावाली; स्वम्--निजी; आत्मानम्--शरीर या आत्मा; अदः--दूर की वस्तु; तथा--इस तरह विचार करते हुए; इृदम्-- अत्यन्तनिकट यह; यथा--जिस तरह; समाधौ--योग समाधि में; मुन॒यः--मुनिगण; अब्धि--सागर के; तोये--जल में; नद्यः--नदियाँ;प्रविष्टा:-- प्रवेश करके; इब--सहृ॒श; नाम--नाम; रूपे--तथा रूप।
हे उद्धव, जिस तरह योग समाधि में मुनिगण आत्म-साक्षात्कार में लीन रहते हैं और उन्हेंभौतिक नामों तथा रूपों का भान नहीं रहता और जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, उसीतरह वृन्दावन की गोपियाँ अपने मन में मुझसे इतनी अनुरक्त थीं कि उन्हें अपने शरीर की अथवाइस जगत की या अपने भावी जीवनों की सुध-बुध नहीं रह गई थी। उनकी सम्पूर्ण चेतना मुझमेंबँधी हुई थी।
मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोबला: ।ब्रह्म मां परम॑ प्रापु: सड्राच्छतसहस्त्रश: ॥
१३॥
मत्--मुझ; कामा:--चाहने वाले; रमणम्--मोहक प्रेमी को; जारम्--दूसरे की पत्नी का प्रेमी; अस्वरूप-विदः --मेरेवास्तविक पद को न जानते हुए; अबला:--स्त्रियाँ; ब्रह्म--ब्रह्म; मामू--मुझको; परमम्--परम; प्रापु:--प्राप्त किया; सड्जात्ू--संगति से; शत-सहस्त्रश:--सैकड़ों हजारों में |
वे सैकड़ों हजारों गोपियाँ मुझे ही अपना सर्वाधिक मनोहर प्रेमी जान कर तथा इस तरह मुझेअत्यधिक चाहते हुए मेरे वास्तविक पद से अपरिचित थीं। फिर भी मुझसे घनिष्ठ संगति करकेगोपियों ने मुझ परम सत्य को प्राप्त किया।
तस्मात्त्वमुद्धवोत्सूज्य चोदनां प्रतिचोदनाम् ।प्रवृत्ति च निवृत्ति च श्रोतव्यं श्रुतमेव च ॥
१४॥
मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम् ।याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्कुतोभय: ॥
१५॥
तस्मात्--इसलिए; त्वम्--तुम; उद्धव--हे उद्धव; उत्सृज्य--त्याग कर; चोदनाम्--वेदों के आदेशों को; प्रतिचोदनाम्--वेदांगोंके आदेशों को; प्रवृत्तिमु--आदेश; च--तथा; निवृत्तिम्ू--निषेध; च--तथा; श्रोतव्यम्--सुनने योग्य; श्रुतम्--सुना हुआ;एव--निस्सन्देह; च-- भी; माम्--मुझको; एकम्--अकेला; एव--वास्तव में; शरणम्--शरण; आत्मानम्--हृदय मेंपरमात्मा; सर्व-देहिनामू--समस्त बद्धजीवों का; याहि--जाओ; सर्व-आत्म-भावेन--एकान्तिक भक्ति से; मया--मेरी कृपा से;स्था:--होओ; हि--निश्चय ही; अकुत:ः-भय: --भय से रहित
अतएव हे उद्धव, तुम सारे वैदिक मंत्रों तथा वेदांगों की विधियों एवं उनके सकारात्मक तथानिषेधात्मक आदेशों का परित्याग करो। जो कुछ सुना जा चुका है तथा जो सुना जाना है, उसकीपरवाह न करो। केवल मेरी ही शरण ग्रहण करो, क्योंकि मैं ही समस्त बद्धात्माओं के हृदय केभीतर स्थित भगवान् हूँ। पूरे मन से मेरी शरण ग्रहण करो और मेरी कृपा से तुम समस्त भय सेमुक्त हो जाओ।
श्रीउद्धव उवाचसंशय: श्रुण्वतो वा तव योगेश्वरेश्वर ।न निवर्तत आत्मस्थो येन भ्राम्यति मे मन: ॥
१६॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; संशय: --सन्देह; श्रेण्वत:--सुनने वाले का; वाचम्ू--शब्द; तब--तुम्हारे; योग-ईश्वर--योगशक्ति के स्वामियों के; ई श्वर-- स्वामी; न निवर्तते--बाहर नहीं जायेगा; आत्म--हृदय में; स्थ:--स्थित; येन--जिससे; भ्राम्यति--मोहग्रस्त रहता है; मे--मेरा; मनः--मन |
श्री उद्धव ने कहा : हे योगेश्वरों के ईश्वर, मैंने आपके वचन सुने हैं, किन्तु मेरे मन का सन्देहजा नहीं रहा है, अतः मेरा मन मोहग्रस्त है।
श्रीभगवानुवाचस एष जीवो विवरप्रसूतिःप्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्ट: ।मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूप॑मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठ: ॥
१७॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; सः एष:--साक्षात् वे; जीव:--सभी को जीवन देने वाले, भगवान्; विवर--हृदय केभीतर; प्रसूति:--प्रकट; प्राणेन--प्राण के साथ; घोषेण-- ध्वनि की सूक्ष्म अभिव्यक्ति द्वारा; गुहामू--हृदय में; प्रविष्ट:--प्रविष्टहुए; मनः-मयम्--मन से अनुभव किये जाने वाले अथवा शिव जैसे महान् देवताओं के भी मन को वश में करते हुए; सूक्ष्मम्--सूक्ष्म; उपेत्य--स्थित होकर; रूपम्ू--स्वरूप; मात्रा--विभिन्न मात्राएँ; स्वर: --विभिन्न स्वर; वर्ण:--अक्षर की विभिन्न ध्वनियाँ;इति--इस प्रकार; स्थविष्ठ:--स्थूल रूप।
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, भगवान् हर एक को जीवन प्रदान करते हैं और प्राण-वायु तथाआदि ध्वनि ( नाद ) के सहित हृदय के भीतर स्थित हैं। भगवान् को उनके सूक्ष्म रूप में हृदय केभीतर मन के द्वारा देखा जा सकता है, क्योंकि भगवान् हर एक के मन को वश में रखते हैं,चाहे वह शिवजी जैसा महान् देवता ही क्यों न हो। भगवान् वेदों की ध्वनियों के रूप में जो हस्वतथा दीर्घ स्वरों तथा विभिन्न स्वरविन्यास वाले व्यंजनों से बनी होती हैं स्थूल रूप धारण करतेहैं।
यथानल: खेउनिलबन्धुरुष्माबलेन दारुण्यधिमथ्यमान: ॥
अणु: प्रजातो हविषा समेधतेतथेव मे व्यक्तिरियं हि वाणी ॥
१८॥
यथा--जिस तरह; अनल:--अग्नि; खे--काठ के भीतर रिक्त स्थान में; अनिल--वायु; बन्धु;--जिसकी सहायता; उष्मा--गर्मी; बलेन--हढ़ता से; दारुणि--काठ के भीतर; अधिमथ्यमान:--रगड़ से जलाई जाने पर; अणु:--अत्यन्त सूक्ष्म; प्रजात:--उत्पन्न होती है; हविषा--घी के साथ; समेधते--बढ़ती है; तथा--उसी तरह; एव--निस्सन्देह; मे--मेरा; व्यक्ति: -- अभिव्यक्ति;इयम्--यह; हि--निश्चय ही; वाणी--वैदिक ध्वनि।
जब काठ के टुकडों को जोर से आपस में रगड़ा जाता है, तो वायु के सम्पर्क से उष्मा उत्पन्नहोती है और अग्नि की चिनगारी प्रकट होती है। एक बार अग्नि जल जाने पर उसमें घी डालनेपर अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इसी प्रकार मैं वेदों की ध्वनि के कम्पन में प्रकट होता हूँ।
एवं गदि: कर्म गतिर्विसर्गोघ्राणो रसो हृक्स्पर्श: श्रुतिश्च ।सट्डूल्पविज्ञानमधाभिमानःसूत्र रज:सत्त्वतमोविकार: ॥
१९॥
एवम्--इस प्रकार; गदिः--वाणी; कर्म--हाथों का कर्म; गति:ः--पाँवों का कार्य; विसर्ग:--जननेन्द्रिय तथा गुदा के कार्य;प्राण:--गन्ध; रसः--स्वाद; हक्--दृष्टि; स्पर्श:--स्पर्श; श्रुतिः--सुनना; च-- भी; सट्लडूल्प--मन का कार्य; विज्ञानम्ू-बुद्धितथा चेतन का कार्य; अथ--साथ ही; अभिमान:--मिथ्या अहंकार का कार्य; सूत्रमू--प्रधान का कार्य; रज:--रजोगुण;सत्त्त--सतोगुण; तमः--तथा तमोगुण; विकार:--रूपान्तर।
कर्मेन्द्रियों के कार्य यथा वाकू, हाथ, पैर, उपस्थ एवं नाक, जीभ, आँख, त्वचा तथा कानज्ञानेन्द्रियों के कार्य के साथ ही मन, बुद्धि, चेतना तथा अहंकार जैसी सूक्ष्म इन्द्रियों के कार्य एवंसूक्ष्म प्रधान के कार्य तथा तीनों गुणों की अन्योन्य क्रिया--इन सबों को मेरा भौतिक व्यक्त रूपसमझना चाहिए।
अयं हि जीवस्त्रिवृदब्जयोनिर्अव्यक्त एको वयसा स आद्य: ।विश्लिप्टशक्तिबहुधेव भातिबीजानि योनि प्रतिपद्य यद्वत्ू ॥
२०॥
अयमू--यह; हि--निश्चय ही; जीव:ः--परम व्यक्ति जो अन्यों को जीवन देता है; त्रि-वृतू--तीन गुणों वाला; अब्ज--ब्रह्माण्डरूपी कमल के फूल का; योनि:--स्त्रोत; अव्यक्त:--अप्रकट; एक:--अकेला; वयसा--कालक्रम से; सः--वह; आद्य:--नित्य; विश्लिप्ट--विभक्त; शक्ति: --शक्तियाँ; बहुधा-- अनेक विभागों में; इब--सहृश; भाति-- प्रकट होता है; बीजानि--बीज; योनिम्ू--खेत में; प्रतिपद्य--गिर कर; यत्-वत्--जिस तरह।
जब खेत में कई बीज डाले जाते हैं, तो एक ही स्रोत मिट्टी से असंख्य वृसश्ष, झाड़ियाँ,वनस्पतियाँ निकल आती हैं। इसी तरह सबों के जीवनदाता तथा नित्य भगवान् आदि रूप मेंविराट जगत के क्षेत्र के बाहर स्थित रहते हैं। किन्तु कालक्रम से तीनों गुणों के आश्रय तथाब्रह्माण्ड रूप कमल-फूल के स्रोत भगवान् अपनी भौतिक शक्तियों को विभाजित करते हैं औरअसंख्य रूपों में प्रकट प्रतीत होते हैं, यद्यपि वे एक हैं।
अस्मिन्िदं प्रोतमशेषमोतं'पटो यथा तन्तुवितानसंस्थ: ।य एघ संसारतरु: पुराण:कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते ॥
२१॥
यस्मिनू--जिसमें; इृदम्--यह ब्रह्माण्ड; प्रोतम्ू--चौड़ाई में बुना हुआ, बाना; अशेषम्--सम्पूर्ण;, ओतम्--तथा लम्बाई में,ताना; पट:--वस्त्र; यथा--जिस तरह; तन्तु--धागों का; वितान--विस्तार; संस्थ:--स्थित; यः--जो; एष:--यह; संसार--भौतिक जगत रूपी; तरूु:--वृक्ष; पुराण:--सनातन से विद्यमान; कर्म--सकाम कर्मों की ओर; आत्मक: --सहज भाव सेउन्मुख; पुष्प--पहला परिणाम, फूल; फले--तथा फल; प्रसूते--उत्पन्न होने पर।
जिस प्रकार बुना हुआ वस्त्र ताने-बाने पर आधारित रहता है, उसी तरह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डलम्बाई तथा चौड़ाई में भगवान् की शक्ति पर फैला हुआ है और उन्हीं के भीतर स्थित है।बद्धजीव पुरातन काल से भौतिक शरीर स्वीकार करता आया है और ये शरीर विशाल वृक्षों कीभाँति हैं, जो अपना पालन कर रहे हैं। जिस प्रकार एक वृक्ष पहले फूलता है और तब फलता है,उसी तरह भौतिक शरीर रूपी वृक्ष विविध फल देता है।
द्वे अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनाल:पञ्ञस्कन्धः पञ्जरसप्रसूति: ।दशैकशाखो द्विसुपर्णनीडस्त्रिवल्कलो द्विफलोर्क प्रविष्ट: ॥
२२॥
अदन्ति चैक॑ फलमस्य गृश्नाग्रामेचरा एकमरण्यवासा: ।हंसा य एकं बहुरूपमिज्यै-मायामयं वेद स वेद वेदम् ॥
२३॥
द्वे--दो; अस्य--इस वृक्ष के; बीजे--बीज; शत--सैकड़ों; मूल:--जड़ों के; त्रि--तीन; नाल:--डंठल; पञ्ञ-- पाँच;स्कन्ध:--ऊपरी तना; पञ्ञ-- पाँच; रस--रस; प्रसूतिः--उत्पन्न करते हुए; दश--दस; एक--तथा एक; शाखः--शाखाएँ;द्वि--दो; सुपर्ण--पक्षियों के; नीड:--घोंसला; त्रि--तीन; वल्कल: --छाल; द्वि--दो; फल:--फल; अर्कम्--सूर्य; प्रविष्ट: --तक फैला हुआ; अदन्ति--खाते हैं; च-- भी; एकम्ू--एक; फलम्--फल; अस्य--इस वृक्ष का; गृक्षाः--भौतिक भोग केलिए कामुक; ग्रामे--गृहस्थ-जीवन में; चरा:--सजीव; एकम्--दूसरा; अरण्य--जंगल में; वासा:--वास करने वाले;हंसा:--हंस जैसे व्यक्ति, साधु-पुरुष; यः--जो; एकम्--एक, परमात्मा; बहु-रूपमू--अनेक रूपों में प्रकट होकर; इज्यैः--पूज्य गुरुओं की सहायता से; माया-मयम्-- भगवान् की शक्ति से उत्पन्न; वेद--जानता है; सः--ऐसा व्यक्ति; वेद--जानता है;बेदम्--वैदिक वाड्मय के असली अर्थ को।
इस संसार रूपी वृक्ष के दो बीज, सैकड़ों जड़ें, तीन निचले तने तथा पाँच ऊपरी तने हैं। यहपाँच प्रकार के रस उत्पन्न करता है। इसमें ग्यारह शाखाएँ हैं और दो पक्षियों ने एक घोंसला बनारखा है। यह वृक्ष तीन प्रकार की छालों से ढका है। यह दो फल उत्पन्न करता है और सूर्य तक फैला हुआ है। जो लोग कामुक हैं और गृहस्थ-जीवन में लगे हैं, वे वृक्ष के एक फल का भोगकरते हैं और दूसरे फल का भोग संन्यास आश्रम के हंस सहृश व्यक्ति करते हैं। जो व्यक्तिप्रामाणिक गुरु की सहायता से इस वृक्ष का एक परब्रह्म की शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप मेंअनेक रूपों में प्रकट हुआ समझ लेता है, वही वैदिक वाड्मय के असली अर्थ को जानता है।
एवं गुरूपासनयैक भक््त्याविद्याकुठारेण शितेन धीरः ।विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्त:सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम्ू ॥
२४॥
एवम्--इस प्रकार ( मेरे द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ) गुरु-गुरु की » उपासनया--उपासना या पूजा से एक- शुद्ध; भक्त्या-- भक्तिसे; विद्या--ज्ञान की; कुठारेण--कुल्हाड़ी से; शितेन--तेज; धीर:--ज्ञान के द्वारा स्थिर रहने वाला; विवृश्च्य--काट कर;जीव--जीव का; आशयम्--सूक्ष्म शरीर ( तीन गुणों से उत्पन्न उपाधियों से पूर्ण ); अप्रमत्त:--आध्यात्मिक जीवन में अत्यन्त सतर्क; सम्पद्य--प्राप्त करके; च--तथा; आत्मानम्--परमात्मा को; अथ--तब; त्यज--त्याग दो; अस्त्रमू--सिद्धि प्राप्त करनेके साधन को |
तुम्हें चाहिए कि तुम धीर बुद्धि से गुरु की सावधानी पूर्वक पूजा द्वारा शुद्ध भक्ति उत्पन्न करोतथा दिव्य ज्ञान रूपी तेज कुल्हाड़ी से आत्मा के सूक्ष्म भौतिक आवरण को काट दो। भगवान्का साक्षात्कार होने पर तुम उस तार्किक बुद्धि रूपी कुल्हाड़े को त्याग दो।
अध्याय तेरह: हंस-अवतार ब्रह्मा के पुत्रों के प्रश्नों का उत्तर देता है
श्रीभगवानुवाचसत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मन: ।सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात्सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥
१॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; सत्त्वमू--सतो; रज:--रजो; तम:ः--तमो; इति--इस प्रकार ज्ञात; गुणा: --प्रकृति केगुण; बुद्धेः--भौतिक बुद्धि से सम्बद्ध; न--नहीं; च-- भी; आत्मन:--आत्मा को; सत्त्वेन--सतोगुण से; अन्यतमौ--अन्य दो( रजो तथा तमो ); हन्यात्--नष्ट किये जा सकते हैं; सत्त्वमू--सतोगुण को; सत्त्वेन--शुद्ध सतोगुण से; च-- भी ( नष्ट किया जासकता है ); एब--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह।
भगवान् ने कहा : भौतिक प्रकृति के तीन गुण, जिनके नाम सतो, रजो तथा तमोगुण हैं,भौतिक बुद्धि से सम्बद्ध होते हैं, आत्मा से नहीं। सतोगुण के विकास से मनुष्य रजो तथातमोगुणों को जीत सकता है एवं दिव्य सत्त्व के अनुशीलन से, वह अपने को भौतिक सत्त्व सेभी मुक्त कर सकता है।
सच्त्वाद्धर्मो भवेद्वृद्धात्पुंसो मद्धक्तिलक्षण: ।सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्म: प्रवर्तते ॥
२॥
सत्त्वात्ू-सतोगुण से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; भवेत्-उत्पन्न होते हैं; वृद्धात्--जो प्रबल बनते हैं; पुंसः--पुरुष का; मत्-भक्ति-मेरी भक्ति से; लक्षण:--लक्षणों से युक्त; सात्त्तिक--सतोगुणी वस्तुओं के; उपासया--अनुशीलन से; सत्त्वमू--सतोगुण; ततः--उस गुण से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; प्रवर्तते--उत्पन्न होता है।
जब जीव प्रबल रूप से सतोगुण में स्थित हो जाता है, तो मेरी भक्ति के लक्षणों से युक्तधार्मिक सिद्धान्त प्रधान बन जाते हैं। जो वस्तुएँ पहले से सतोगुण में स्थित हैं, उनके अनुशीलनसे सतोगुण को प्रबल बनाया जा सकता है और इस तरह धार्मिक सिद्धान्तों का उदय होता है।
धर्मो रजस्तमो हन्यात्सत्त्ववृद्धिरनुत्तम: ।आशु नश्यति तन्मूलो ह्ाधर्म उभये हते ॥
३॥
धर्म:--भक्ति पर आधारित धर्म; रज:--रजोगुण; तमः--तमोगुण; हन्यात्--नष्ट करते हैं; सत्त्वत--सतोगुण की; वृद्धधिः--वृद्धधिसे; अनुत्तम:--सबसे उत्तम; आशु--शीघ्र; नश्यति--नष्ट हो जाता है; तत्ू--रजो तथातमोगुण का; मूल:--मूल, जड़; हि--निश्चय ही; अधर्म: --अधर्म; उभये हते--दोनों के नष्ट हो जाने पर।
सतोगुण से प्रबलित धर्म, रजो तथा तमोगुण के प्रभाव को नष्ट कर देता है। जब रजो तथातमोगुण परास्त हो जाते हैं, तो उनका मूल कारण, जो कि अधर्म है, तुरन्त ही नष्ट हो जाता है।
आगमोपः प्रजा देश: काल: कर्म च जन्म च ।ध्यानं मन्त्रोथ संस्कारो दशैते गुणहेतव: ॥
४॥
आगमः--शास्त्र; अप:--जल; प्रजा:--जनता या अपने बच्चों की संगति; देश:--स्थान; काल:--समय; कर्म --कर्म; च--भी; जन्म--जन्म; च--भी; ध्यानम्- ध्यान; मन्त्र:--मंत्रोच्चारण; अथ--तथा; संस्कार:--शुद्धि के अनुष्ठान; दश--दस;एते--ये; गुण--गुण; हेतवः-- कारण |
शास्त्रों के गुण, जल, बच्चों या जनता से संगति, स्थान विशेष, काल, कर्म, जन्म, ध्यान,मंत्रोच्चार तथा संस्कार के अनुसार, प्रकृति के गुण भिन्न भिन्न प्रकार से प्रधानता प्राप्त करते हैं।
तत्तत्सात्त्विकमेवैषां यद्य॒द्वुद्धाः प्रचक्षते ।निन्दन्ति तामसं तत्तद्राजसं तदुपेक्षितम् ॥
५॥
तत् तत्--वे वे वस्तुएँ; सात्ततिकम्--सतोगुण में; एव--निस्सन्देह; एषाम्ू--इन दसों में से; यत् यत्--जो जो; वृद्धा:--प्राचीनऋषि यथा व्यासदेव जो वैदिक ज्ञान में पटु हैं; प्रचक्षते-- प्रशंसा करते हैं; निन्दन्ति--निन्दा करते हैं; तामसम्--तमोगुणी; तत्तत्--वे वे वस्तुएँ; राजसम्--रजोगुण में; तत्--मुनियों द्वारा; उपेक्षितम्--न तो प्रशंसित, न आलोचित, सर्वथा त्यक्त |
अभी मैंने जिन दस वस्तुओं का उल्लेख किया है, उनमें से जो सात्विक वस्तुएँ हैं उनकीप्रशंसा तथा संस्तुति, जो तामसिक हैं उनकी आलोचना तथा बहिष्कार एवं जो राजसिक हैं उनकेप्रति उपेक्षा का भाव, उन मुनियों द्वारा व्यक्त किया गया है, जो वैदिक ज्ञान में पटु हैं।
सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान्सत्त्वविवृद्धये ।ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत्स्मृतिरपोहनम् ॥
६॥
सात्त्विकानि--सतोगुणी वस्तुएँ; एब--निस्सन्देह; सेवेत--अनुशीलन करे; पुमान्--पुरुष; सत्त्त--सतोगुण; विवृद्धये --बढ़ानेके लिए; ततः--उस ( सतोगुण में वृद्धि ) से; धर्म:--धार्मिक सिद्धान्तों में स्थिर; तत:--उस ( धर्म ) से; ज्ञानमू--ज्ञान प्रकटहोता है; यावत्--जब तक; स्मृतिः--अपने नित्य स्वरूप का स्मरण करते हुए, आत्म-साक्षात्कार; अपोहनम्ू--दूर करना ( शरीरतथा मन से मोहमयी पहचान )।
जब तक मनुष्य आत्मा विषयक प्रत्यक्ष ज्ञान को पुनरुज्जीवित नहीं कर लेता और प्रकृति केतीन गुणों से उत्पन्न भौतिक शरीर तथा मन से मोहमयी पहचान को हटा नहीं देता, तब तक उसेसतोगुणी वस्तुओं का अनुशीलन करते रहना चाहिए। सतोगुण के बढ़ाने से, वह स्वतः धार्मिकसिद्धान्तों को समझ सकता है और उनका अभ्यास कर सकता है। ऐसे अभ्यास से दिव्य ज्ञानजागृत होता है।
वेणुसड्डर्षजो वह्िर्दग्ध्वा शाम्यति तद्दनम् ।एवं गुणव्यत्ययजो देह: शाम्यति तत्क्रिय: ॥
७॥
वेणु--बाँस की; सड्डर्ष-ज:--रगड़ से उत्पन्न; वहिः--आग; दग्ध्वा--जलाकर; शाम्यति--शान्त हो जाती है; तत्--बाँस के;वनम्--जंगल को; एवम्--इस प्रकार; गुण--गुणों के; व्यत्यय-ज:--अन्योन्य क्रिया से उत्पन्न; देह:-- भौतिक शरीर;शाम्यति--शान्त की जाती है; तत्ू--वह अग्नि; क्रियः:--वही कार्य करके |
बाँस के जंगल में कभी कभी वायु बाँस के तनों में रगड़ उत्पन्न करती है और ऐसी रगड़ सेप्रज़वलित अग्नि उत्पन्न हो जाती है, जो अपने जन्म के स्त्रोत, बाँस के जंगल, को ही भस्म करदेती है। इस प्रकार अग्नि अपने ही कर्म से स्वतः प्रशमित हो जाती है। इसी तरह प्रकृति केभौतिक गुणों में होड़ तथा पारस्परिक क्रिया होने से, स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर उत्पन्न होते हैं। यदिमनुष्य अपने मन तथा शरीर का उपयोग ज्ञान का अनुशीलन करने में करता है, तो ऐसा ज्ञान देह को उत्पन्न करने वाले गुणों के प्रभाव को नष्ट कर देता है। इस तरह, अग्नि के ही समान, शरीरतथा मन अपने जन्म के स्त्रोत को विनष्ट करके अपने ही कर्मों से शान्त हो जाते हैं।कर दिया जायेगा।
श्रीउद्धव उबाचविदन्ति मर्त्या: प्रायेण विषयान्पदमापदाम् ।तथापि भुज्जते कृष्ण तत्कथं श्रखराजवत् ॥
८॥
श्री-उद्धवः उवाच--उद्धव ने कहा; विदन्ति--जानते हैं; मर्त्या:--मनुष्यगण; प्रायेण--सामान्यतया; विषयान्--इन्द्रियतृप्ति;'पदम्--स्थिति; आपदाम्--अनेक विपत्तियों की; तथा अपि--फिर भी; भुझ्जते-- भोगते हैं; कृष्ण--हे कृष्ण; तत्ू--ऐसीइन्द्रियतृप्ति; कथम्--कैसे सम्भव है; श्र--कुत्ते; खर--गधे; अज--तथा बकरे; वत्--सहृश ।
श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, सामान्यतया मनुष्य यह जानते हैं कि भौतिक जीवन भविष्य मेंमहान् दुख देता है, फिर भी वे भौतिक जीवन का भोग करना चाहते हैं। हे प्रभु, यह जानते हुएभी, वे किस तरह कुत्ते, गधे या बकरे जैसा आरचण करते हैं।तात्पर्य : भौतिक जगत में भोग की मानक विधियाँ हैं--यौन, धन तथा मिथ्या प्रतिष्ठा। ये सब श्रीभगवानुवाचअहमित्यन्यथाबुद्द्ि: प्रमत्तस्य यथा हृदि ।उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः ॥
९॥
रजोयुक्तस्थ मनसः सड्डूल्प:ः सविकल्पक: ।ततः कामो गुणध्यानादुःसहः स्याद्ध्धि दुर्मतेः ॥
१०॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; अहम्ू--शरीर तथा मन के साथ झूठी पहचान; इति--इस प्रकार; अन्यथा-बुद्धि: --मोहमय ज्ञान; प्रमत्तस्य--वास्तविक बुद्धि से रहित है, जो उसका; यथा--तदनुसार; हृदि--मन के भीतर; उत्सर्पति--उठती है;रज:--कामवासना; घोरम्-- भयावह कष्ट देने वाला; ततः--तब; वैकारिकम्--( मूलतः ) सतोगुण में; मनः--मन; रज: --रजोगुण में; युक्तस्थ--लगा हुआ है, जो उसका; मनसः--मन का; सड्डूल्प:--संकल्प; स-विकल्पक:--बदलाव सहित;ततः--उससे; काम:ः--पूर्ण भौतिक इच्छा; गुण--गुणों में; ध्यानातू--ध्यान से; दुःसहः--असहा; स्यथात्--ऐसा ही हो; हि--निश्चय ही; दुर्मतेः--मूर्ख व्यक्ति का।
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, बुद्धिरहित व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी झूठी पहचान भौतिक शरीरतथा मन के साथ करता है और जब किसी की चेतना में ऐसा मिथ्या ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तोमहान् कष्ट का कारण, भौतिक काम ( विषय-वासना ), उस मन में व्याप्त हो जाता है, जोस्वभाव से सात्विक होता है। तब काम द्वारा दूषित मन भौतिक उन्नति के लिए तरह-तरह कीयोजनाएँ बनाने में एवं बदलने में लीन हो जाता है। इस प्रकार सदैव गुणों का चिन्तन करते हुए,मूर्ख व्यक्ति असहा भौतिक इच्छाओं से पीड़ित होता रहता है।
'करोति कामवशग: कर्माण्यविजितेन्द्रिय: ।दुःखोदर्काणि सम्पश्यन्रजोवेगविमोहित: ॥
११॥
करोति--करता है; काम-- भौतिक इच्छाओ के; वश--अधीन; ग:--जाकर; कर्माणि--सकाम कर्म; अविजित--- अवश्य;इन्द्रियः--जिसकी इन्द्रियाँ; दुःख--दुख; उरदर्काणि-- भावी फल के रूप में लाते हुए; सम्पश्यन्--स्पष्टदेखते हुए; रज:--रजोगुण का; वेग--वेग से; विमोहितः --मोह ग्रस्त
जो भौतिक इन्द्रियों को वश में नहीं करता, वह भौतिक इच्छाओं के वशीभूत हो जाता हैऔर इस तरह वह रजोगुण की प्रबल तरंगों से मोहग्रस्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति भौतिक कर्मकरता रहता है, यद्यपि उसे स्पष्ट दिखता है कि इसका फल भावी दुख होगा।
रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान्विक्षिप्तधी: पुनः ।अतन्द्रितो मनो युझ्जन्दोषदृष्टिन सजजते ॥
१२॥
रजः-तमोभ्याम्ू--रजो तथा तमोगुणों से; यत् अपि--यद्यपि; विद्वानू--विद्वान व्यक्ति; विक्षिप्त--मोहग्रस्त; धी:--बुद्ध्धि;पुनः--फिर; अतन्द्रितः:--सावधानी से; मन: --मन; युद्जनू--लगाते हुए; दोष-- भौतिकआसक्ति का कल्मष; दृष्टि:--स्पष्टदेखते हुए; न--नहीं; सजते--लिप्त नहीं होता ।
यद्यपि विद्वान पुरुष की बुद्धि रजो तथा तमोगुणों से मोहग्रस्त हो सकती है, किन्तु उसेचाहिए कि वह सावधानी से अपने मन को पुनः अपने वश्ञ में करे। गुणों के कल्मष को स्पष्टदेखने से वह आसक्त नहीं होता।
अप्रमत्तोनुयुज्जीत मनो मय्यर्पयज्छनै: ।अनिर्विण्णो यथाकालं जितश्वासो जितासनः ॥
१३॥
अप्रमत्त:--सतर्क तथा गम्भीर; अनुयुज्जीत--स्थिर करे; मन:ः--मन; मयि--मुझमें; अर्पयन्--लीन करते हुए; शनैः--धीरे धीरे;अनिर्विण्णग:--आलसी या खिन्न हुए बिना; यथा-कालम्--दिन में कम से कम तीन बार ( प्रातः, दोपहर तथा संध्या-समय );जित--जीत कर; श्वास: -- श्रास लेने की विधि; जित--जीत कर; आसन: --बैठने की शैली
मनुष्य को सावधान तथा गम्भीर होना चाहिए और उसे कभी भी आलसी या खिन्न नहीं होनाचाहिए। श्वास तथा आसन की योग-क्रियाओं में दक्ष बन कर, मनुष्य को अपना मन प्रातः,दोपहर तथा संध्या-समय मुझ पर एकाग्र करके इस तरह मन को धीरे धीरे मुझमें पूरी तरह सेलीन कर लेना चाहिए।
एतावान्योग आदिष्टो मच्छिष्यै: सनकादिभि: ।सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धावेश्यते यथा ॥
१४॥
एतावानू्--वास्तव में यह; योग:--योग-पद्धति; आदिष्ट:--आदेश दिया हुआ; मत्-शिष्यै: --मेंरे भक्तों द्वारा; सनक-आदिभिः:--सनक कुमार इत्यादि द्वारा; सर्वतः--सभी दिशाओं से; मन:--मन को; आकृष्य--खींच कर; मयि--मुझमें;अद्धा--सीधे; आवेश्यते--लीन किया जाता है; यथा--तदनुसार |
सनक कुमार इत्यादि मेरे भक्तों द्वारा पढ़ायी गयी वास्तविक योग-पद्धति इतनी ही हैं किअन्य सारी वस्तुओं से मन को हटाकर मनुष्य को चाहिए कि उसे सीधे तथा उपयुक्त ढंग से मुझ में लीन कर दे।श्रीउद्धव उबाचयदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव ।योगमादिष्टवानेतद्रूपमिच्छामि वेदितुम्ू ॥
१५॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; यदा--जब; त्वम्--तुम; सनक-आदिश्य: --सनक आदि को; येन--जिससे;रूपेण--रूप से; केशव--हे केशव; योगम्--परब्रह्म में मन को स्थिर करने की विधि; आदिष्टवान्--आपने आदेश दिया है;एततू--वह; रूपमू--रूप; इच्छामि--चाहता हूँ; वेदितुमू--जानना
श्री उद्धव ने कहा : हे केशव, आपने सनक तथा उनके भाइयों को किस समय तथा किसरूप में योग-विद्या के विषय में उपदेश दिया ? अब मैं इन बातों के विषय में जानना चाहता हूँ।
श्रीभगवानुवाचपुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसा: सनकादयः पप्रच्छु: पितरं सूक्ष्मां योगस्यैकान्तिकीमातिम् ॥
१६॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने कहा; पुत्रा:--पुत्र; हिरण्य-गर्भस्य--ब्रह्मा के; मानसा:--मन से उत्पन्न; सनक-आदय: --सनक ऋषि इत्यादि ने; पप्रच्छु:--पूछा; पितरम्--अपने पिता ( ब्रह्मा ) से; सूक्ष्माम्-सूक्ष्म अतएबसमझने में कठिन; योगस्य--योग-विद्या का; एकान्तिकीमू--परम; गतिम्--लक्ष्य |
भगवान् ने कहा, एक बार सनक आदि ब्रह्मा के मानस पुत्रों ने अपने पिता से योग के परमलक्ष्य जैसे अत्यन्त गूढ़ विषय के बारे में पूछा।
सनकादय ऊचुःगुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्रेतसि च प्रभो ।कथमन्योन्यसन्त्यागो मुमुक्षोरतितितीर्षों: ॥
१७॥
सनक-आदय: ऊचु:--सनक इत्यादि ऋषियों ने कहा; गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; आविशते--सीधे प्रवेश करता है; चेत:--मन; गुणा: --इन्द्रिय-विषय; चेतसि--मन के भीतर; च-- भी; प्रभो--हे प्रभु; कथम्--वह विधि क्या है; अन्योन्य--इन्द्रिय-विषयों तथा मन का पारस्परिक सम्बन्ध; सन्त्याग:--वैराग्य; मुमुक्षो: --मोक्ष की कामना करने वाले का; अतितितीर्षो: --इन्द्रियतृप्ति को पार कर जाने के इच्छुक का।
सनकादि ऋषियों ने कहा : हे प्रभु, लोगों के मन स्वभावत: भौतिक इन्द्रिय-विषयों के प्रतिआकृष्ट रहते हैं और इसी तरह से इन्द्रिय-विषय इच्छा के रूप में मन में प्रवेश करते हैं। अतएव मोक्ष की इच्छा करने वाला तथा इन्द्रियतृप्ति के कार्यों को लाँघने की इच्छा करने वाला व्यक्तिइन्द्रिय-विषयों तथा मन के बीच पाये जाने वाले इस पारस्परिक सम्बन्ध को कैसे नष्ट करे?कृपया हमें यह समझायें ।
श्रीभगवानुवाचएवं पृष्टो महादेव: स्वयम्भूभ्भूतभावन: ।ध्यायमान: प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत कर्मधी: ॥
१८॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; एवम्--इस प्रकार; पृष्ट:--पूछे जाने पर; महा-देवः --महान् देवता ब्रह्मा; स्वयम्-भू:--बिना जन्म के ( गर्भोदकशायी विष्णु के शरीर से सीधे उत्पन्न ); भूत--सारे बद्धजीवों के; भावन:--स्त्रष्टा ( बद्ध जीवन के );ध्यायमान:--गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए; प्रश्न-- प्रश्न के; बीजम्--सत्य; न अभ्यपद्यत--नहीं पहुँचा; कर्म-धी:--अपनेही कर्मों द्वारा मोहित बुद्धि |
भगवान् ने कहा : हे उद्धव, भगवान् के शरीर से उत्पन्न तथा भौतिक जगत के समस्त जीवोंके स्त्रष्टा स्वयं ब्रह्माजी ने सर्वोच्च देवता होने के कारण सनक आदि अपने पुत्रों के प्रश्न परगम्भीरतापूर्वक विचार किया। किन्तु ब्रह्मा की बुद्धि अपनी सृष्टि के कार्यो से प्रभावित थी, अतःवे इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं ढूँढ सके ।
स मामचिन्तयद्देव: प्रश्नपारतितीर्षया ।तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा ॥
१९॥
सः--उस ( ब्रह्मा ) ने; मामू--मुझको; अचिन्तयत्--स्मरण किया; देव: --आदि देवता; प्रश्न-- प्रश्न का; पार--अन्त, निष्कर्ष( उत्तर ); तितीर्षया--प्राप्त करने या समझने की इच्छा से; तस्य--उस तक; अहमू--मैं; हंस-रूपेण--हंस के रूप में;सकाशम्--हृश्य; अगममू--हो गया; तदा--उस समय ।
ब्रह्माजी उस प्रश्न का उत्तर पाना चाह रहे थे, जो उन्हें उद्विग्न कर रहा था, अतएव उन्होंनेअपना मन भगवान् में स्थिर कर दिया। उस समय, मैं अपने हंस रूप में ब्रह्मा को दृष्टिगोचरहुआ।
इृष्टा माम्त उपब्रज्य कृत्व पादाभिवन्दनम् ।ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा पप्रच्छु? को भवानिति ॥
२०॥
इष्ठा--देख कर; माम्--मुझको; ते--वे ( मुनिगण ); उपब्रज्य--निकट आकर; कृत्वा--करके; पाद--चरणकमलों पर;अभिवन्दनम्--नमस्कार; ब्रह्मणम्--ब्रह्माजी को; अग्रत:--सामने; कृत्वा--करके ; पप्रच्छु: --पूछा; कः भवान्ू--आप कौनहैं; इति--इस प्रकार।
इस प्रकार मुझे देख कर सारे मुनि, ब्रह्म को आगे करके, आगे आये और मेरे चरणकमलोंकी पूजा की। तत्पश्चात् उन्होंने साफ साफ पूछा कि, ' आप कौन हैं ?' इत्यहं मुनिभि: पृष्टस्तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा ।यदवोचमहं तेभ्यस्तदुद्धव निबोध मे ॥
२१॥
इति--इस प्रकार; अहम्--मैं; मुनिभि:--मुनियों के द्वारा; पृष्टः--पूछा जाने पर; तत्त्व--योग के लक्ष्य के विषय में सत्य;जिज्ञासुभि:--जानने की इच्छा रखने वालों के द्वारा; तदा--उस समय; यत्--जो; अवोचम्--बोला; अहमू--मैं; तेभ्य: --उनसे; तत्--वह; उद्धव--हे उद्धव; निबोध--सीखो; मे--मुझसे |
हे उद्धव, मुनिगण योग-पद्धति के परम सत्य को जानने के इच्छुक थे, अतएव उन्होंने मुझसेइस प्रकार पूछा। मैंने मुनियों से जो कुछ कहा, उसे अब मुझसे सुनो।
वस्तुनो यद्यनानात्व आत्मन: प्रश्न ईहशः ।कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रय: ॥
२२॥
वस्तुन:ः--व्गास्तविकता का; यदि--यदि; अनानात्वे--व्यष्टिहीनता में; आत्मन:--जीवात्मा के; प्रश्न: --प्रश्न; ईहश:ः --ऐसा;कथम्--कैसे; घटेत--सम्भव है, अथवा उपयुक्त है; वः--पूछ रहे तुम्हारा; विप्रा:--हे ब्राह्मण; वक्तु:--वक्ता का; वा--अथवा; मे--मेरा; क:ः--क्या है; आश्रय:--असली स्थिति अथवा आश्रय ।
हे ब्राह्मणो, यदि तुम लोग मुझसे पूछते हो कि मैं कौन हूँ, तो यदि तुम यह विश्वास करते होकि मैं भी जीव हूँ और हम लोगों में कोई अन्तर नहीं है--क्योंकि अन्ततः सारे जीव एक हैं--तोफिर तुम लोगों का प्रश्न किस तरह सम्भव या उपयुक्त ( युक्ति संगत ) है ? अन्ततः तुम्हारा औरमेरा दोनों का असली आश्रय क्या है ? पशञ्जात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः ।को भवानिति वः प्रश्नो वाचारम्भो हानर्थकः ॥
२३॥
पञ्ञ--पाँच तत्त्वों के; आत्मकेषु--बने हुए; भूतेषु--विद्यमान; समानेषु--एक समान; च--भी; वस्तुत:--सार रूप में; कः--कौन; भवान्--आप हैं; इति--इस प्रकार; व:--तुम्हारा; प्रश्न:--प्रश्न; वाचा--वाणी से; आरम्भ:--ऐसा प्रयास; हि--निश्चयही; अनर्थकः--असली अर्थ या अभिप्राय से रहित।
यदि तुम लोग मुझसे यह प्रश्न पूछ कर कि, 'आप कौन हैं ?' भौतिक देह की बात करनाचाहते हो, तो मैं यह इंगित करना चाहूँगा कि सारे भौतिक देह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथाआकाश--इन पाँच तत्त्वों से मिल कर बने हैं। इसलिए, तुम लोगों को इस प्रकार पूछना चाहिएथा, 'आप पाँच कौन हैं?' यदि तुम लोग यह मानते हो कि सारे भौतिक देह एकसमान तत्त्वोंसे बने होने से, अन्ततः एक हैं, तो भी तुम्हारा प्रश्न निरर्थक है क्योंकि एक शरीर से दूसरे शरीरमें भेद करने में कोई गम्भीर प्रयोजन नहीं है। इस तरह ऐसा लगता है कि मेरी पहचान पूछ कर,तुम लोग ऐसे शब्द बोल रहे हो जिनका कोई वास्तविक अर्थ या प्रयोजन नहीं है।
मनसा वचसा हृष्टया गृह्मतेउन्यैरपीन्द्रिये: ।अहमेव न मत्तोन्यदिति बुध्यध्वमझसा ॥
२४॥
मनसा--मन से; वचसा-- वाणी से; दृष्या--दृष्टि से; गृह्मते--ग्रहण किया जाता है, स्वीकार किया जाता है; अन्यै:-- अन्य;अपि--बद्यर्पा; इन्द्रियैः --इन्द्रियों के द्वारा; अहम्--मैं; एब--निस्सन्देह; न--नहीं; मत्त:--मेंरे अतिरिक्त; अन्यत्--अन्य कोईवस्तु; इति--इस प्रकार; बुध्यध्वम्-तुम्हें समझना चाहिए; अज्ञसा--तथ्यों के सीधेविश्लेषण से |
इस जगत में, मन, वाणी, आँखों या अन्य इन्द्रियों के द्वारा जो भी अनुभव किया जाता है,वह एकमात्र मैं हूँ, मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। तुम सभी लोग तथ्यों के सीधे विश्लेषण सेइसे समझो।
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्रेतसि च प्रजा: ।जीवस्य देह उभयं गुणाश्वेतो मदात्मतः ॥
२५॥
गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; आविशते--प्रविष्ट करता है; चेतः:--मन; गुणा:--इन्द्रिय-विषय; चेतसि--मन में ; च-- भी ( प्रवेशकरते हैं ); प्रजा:--मेरे पुत्रों; जीवस्य--जीव का; देह:--बाह्य शरीर, उपाधि के रूप में; उभयम्--इन दोनों; गुणा: --इन्द्रिय-विषय; चेत:--मन; मत्-आत्मन: --परमात्मा रूप में मुझे पाकर |
हे पुत्रो, मन की सहज प्रवृत्ति भौतिक इन्द्रिय-विषयों में प्रविष्ट करने की होती है और इसीतरह इन्द्रिय-विषय मन में प्रवेश करते हैं। किन्तु भौतिक मन तथा इन्द्रिय-विषय दोनों हीउपाधियाँ मात्र हैं, जो मेरे अंशरूप आत्मा को प्रच्छन्न करती हैं।
गुणेषु चाविशच्चित्तमभीक्ष्णं गुणसेवया ।गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्गूप उभयं त्यजेत्ू ॥
२६॥
गुणेषु--इन्द्रिय-विषयों में; च--तथा; आविशत्-प्रविष्ट हुआ; चित्तम्ू--मन; अभीक्ष्णम्-पुनः पुनः; गुण-सेवया--इन्द्रियतृप्ति द्वारा; गुणा:--तथा भौतिक इन्द्रिय-विषय; च--भी; चित्त--मन के भीतर; प्रभवा:--मुख्य रूप से उपस्थित होकर;मत्-रूप:--जिसने अपने को मुझसे अभिन्न समझ लिया है और इस तरह जो मेरे रूप, लीला आदि में लीन रहता है; उभयम्--दोनों ( मन तथा इन्द्रिय-विषय ); त्यजेतू--त्याग देना चाहिए
जिस व्यक्ति ने यह जान कर कि वह मुझसे भिन्न नहीं है, मुझे प्राप्त कर लिया है, वहअनुभव करता है कि मन निरन्तर इन्द्रियतृप्ति के कारण इन्द्रिय-विषयों में रमा रहता है औरभौतिक वस्तुएँ मन के भीतर स्पष्टतया स्थित रहती हैं। मेरे दिव्य स्वभाव को समझ लेने के बाद,वह मन तथा इसके विषयों को त्याग देता है।
जाग्रत्स्वष्न: सुषुप्तं च गुणतो बुद्धिवृत्तय: ।तासां विलक्षणो जीव: साक्षित्वेन विनिश्चित:ः ॥
२७॥
जाग्रत्ू--जगा हुआ; स्वप्न:--स्वप्न देखता; सु-सुप्तम्--गहरी नींद; च--भी; गुणतः--गुणों से उत्पन्न; बुद्धि--बुद्धि के;वृत्तय:--कार्य; तासाम्--ऐसे कार्यो से; विलक्षण:--विभिन्न लक्षणों वाला; जीव:--जीव; साक्षित्वेन--साक्षी होने के लक्षणसे युक्त; विनिश्चित:--सुनिश्चित किया जाता है
जगना, सोना तथा गहरी नींद--ये बुद्धि के तीन कार्य है और प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्नहोते है। शरीर के भीतर का जीव इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न लक्षणों द्वारा सुनिश्चित होता है,अतएव वह उनका साक्षी बना रहता है।
यहिं संसृतिबन्धोयमात्मनो गुणवृत्तिद: ।मयि तुर्ये स्थितो जह्यात्त्यागस्तद्गुणचेतसाम् ॥
२८ ॥
यहि-- क्योंकि; संसति-- भौतिक बुद्धि या संसार का; बन्ध: --बन्धन; अयम्--यह है; आत्मन:--आत्मा का; गुण-- प्रकृति केगुणों में; वृत्ति-दः --वृत्तिपरक कार्य देने वाली; मयि--मुझमें; तुर्ये--चौथे तत्त्व में ( जाग्रत, सुप्त, सुषुप्त से आगे ); स्थित: --स्थित; जह्यातू--त्याग दे; त्याग:--वैराग्य; तत्ू--उस समय; गुण--इन्द्रिय-विषयों का; चेतसामू--तथा मन का ।
आत्मा भौतिक बुद्धि के बन्धन में बन्दी है, जो उसे प्रकृति के मोहमय गुणों से निरन्तरलगाये रहती है। लकिन मै चेतना की चौथी अवस्था--जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त से परे--हूँ।मुझमें स्थित होने पर, आत्मा को भौतिक चेतना का बन्धन त्याग देना चाहिए। उस समय, जीवस्वतः भौतिक इन्द्रिय-विषयों तथा भौतिक मन को त्याग देगा।
अहड्ढारकृतं बन्धमात्मनोर्थविपर्ययम् ।दिद्वान्निर्विद्य संसारचिन्तां तुर्ये स्थितस्त्यजेतू ॥
२९॥
अहड्ढडार--मिथ्या गर्व से; कृतम्--उत्पन्न; बन्धम्--बन्धन; आत्मन:--आत्मा का; अर्थ--जो वास्तव में उपयोगी है उसका;विपर्ययम्--उल्टा, विरुद्ध; विद्वान्ू--जानने वाला; निर्विद्य--विरक्त होकर; संसार--जगत में; चिन्ताम्--निरन्तर विचार;तुर्ये--चौथे तत्त्व, भगवान् में; स्थितः--स्थित होकर; त्यजेत्--त्याग दे
जीव का अहंकार उसे बन्धन में डालता है और जीव जो चाहता है उसका सर्वथा विपरीतउसे देता है। अतएव बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि भौतिक जीवन भोगने की स्थायी चिन्ताको त्याग दे और भगवान् में स्थित रहे, जो भौतिक चेतना के कार्यो से परे है।
यावन्नानार्थधीः पुंसो न निवर्तेत युक्तिभि: ।जागर्त्यपि स्वपन्नज्ञ: स्वप्ने जागरणं यथा ॥
३०॥
यावत्--जब तक; नाना--अनेक; अर्थ--महत्त्व का; धी:-- धारणा; पुंसः--पुरुष का; न--नहीं; निवर्तेत--शमन होता है;युक्तिभिः --उपयुक्त विधियों से ( जिन्हें मैने बताया है ); जागर्ति--जाग्रत रहने से; अपि--यद्यपि; स्वपन्--सोते या स्वप्न देखते;अज्ञ:--वस्तुओं को उसी रूप में न देखने वाला; स्वप्ने--सपने में; जागरणम्--जाग्रत रह कर; यथा--जिस तरह।
मनुष्य को चाहिए कि मेरे आदेशों के अनुसार वह अपना मन मुझ में स्थिर करे। किन्तु यदिवह हर वस्तु को मेरे भीतर न देख कर जीवन में अनेक प्रकार के अर्थ तथा लक्ष्य देखता रहताहै, तो वह, जगते हुए भी, अपूर्ण ज्ञान के कारण, वास्तव में स्वप्न देखता रहता है, जिस तरहवह यह स्वप्न देखे कि वह स्वप्न से जग गया है।
असत्त्वादात्मनो३न्येषां भावानां तत्कृता भिदा ।गतयो हेतवश्वास्य मृषा स्वजहशो यथा ॥
३१॥
असत्त्वात्ू--वास्तविक अस्तित्व के अभाव में; आत्मन:-- भगवान् से; अन्येषाम्--अन्य; भावानाम्--अस्तित्व की दशाओं के;तत्--उनके द्वारा; कृता--उत्पन्न; भिदा--अन्तर या बिछोह; गतयः--लक्ष्य यथा स्वर्ग जाना; हेतव:ः--सकाम कर्म जो भावी'फल के कारण है; च-- भी; अस्य--जीव का; मृषा--झूठा; स्वज--सपने का; दृशः--देखने वाले का; यथा--जिस तरह ।
उन जगत की अवस्थाओं का जिन्हें भगवान् से पृथक्् सोचा जाता है, वास्तविक अस्तित्व नहीं होता, यद्यपि वे परब्रह्म से पृथकत्व की भावना उत्पन्न करती है। जिस तरह स्वप्न देखनेवाला नाना प्रकार के कार्यों तथा फलों की कल्पना करता है उसी तरह भगवान् से पृथक्अस्तित्व की भावना से जीव झूठे ही सकाम कर्मों को भावी फल तथा गन्तव्य का कारणसोचता हुआ कर्म करता है।
यो जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणो< र्थान्भुड़े समस्तकरणैईदि तत्सदक्षान् ।स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एक:स्मृत्यन्वयात्रत्रिगुणवृत्तिहगिन्द्रियेश: ॥
३२॥
यः--जो जीव; जागरे--जगते हुए; बहि:--बाह्य; अनुक्षण-- क्षणिक ; धर्मिण: --गुण; अर्थानू--शरीर, मन तथा उनकेअनुभव; भुड़े -- भोगता है; समस्त--समस्त; करणै:--इन्द्रियों से; हदि--मन के भीतर; तत्-सहक्षान्--जगते हुए में जैसेअनुभव; स्वप्ने--स्वप्नों में; सुषुप्ते--स्वप्नरहित गहरी नींद में; उपसंहरते--अज्ञान में लीन हो जाता है; सः--वह; एक:--एक;स्मृति--स्मरणशक्ति का; अन्वयात्--क्रम से; त्रि-गुण--जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त, इन तीन अवस्थाओं के; वृत्ति--कार्य;हक्--देखना; इन्द्रिय--इन्द्रियों का; ईशः--स्वामी बनता है|
जाग्रत रहने पर जीव अपनी सारी इन्द्रियों से भौतिक शरीर तथा मन के सारे क्षणिक गुणोंका भोग करता है; स्वप्न के समय वह मन के भीतर ऐसे ही अनुभवों का आनन्द लेता है औरप्रगाढ़ स्वप्नरहित निद्रा में ऐसे सारे अनुभव अज्ञान में मिल जाते है। जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्तिकी सरणि को स्मरण करते तथा सोचते हुए, जीव यह समझ सकता है कि वह चेतना की तीनोंअवस्थाओं में एक ही है और दिव्य है। इस तरह वह अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है।
एवं विमृश्य गुणतो मनसस्त्र्यवस्थामन्मायया मयि कृता इति निश्चितार्था: ।सछ्छिद्य हार्दमनुमानसदुक्तिती क्षणज्ञानासिना भजत माखिलसंशयाधिम् ॥
३३॥
एवम्--इस प्रकार; विमृश्य--विचार करके; गुणतः--गुणों से; मनसः--मन की; त्रि-अवस्था:--चेतना की तीन अवस्थाएँ;मत्-मायया--मेरी मायाशक्ति के प्रभाव से; मयि--मुझमें; कृता:--आरोपित; इति--इस प्रकार; निश्चित-अर्था:--जिन्होंनेआत्मा के वास्तविक अर्थ को निश्चित कर लिया है; सज्छिद्य--काट कर; हार्दमू--हृदय में स्थित; अनुमान--तर्क द्वारा; सतू-उक्ति--तथा मुनियों और वैदिक ग्रंथों के आदेशों से; तीक्ष्ण--तेज; ज्ञान--ज्ञान की; असिना--तलवार से; भजत--आप कीसारी पूजा; मा--मुझको; अखिल--समस्त; संशय--संदेह; आधिम्--कारण
( मिथ्या अभिमान )तुम्हें विचार करना चाहिए कि किस तरह, प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न, मन की ये तीनअवस्थाएँ, मेरी मायाशक्ति के प्रभाव से, मुझमें कृत्रिम रूप से विद्यमान मानी गई है। तुम्हें आत्माकी सत्यता को सुनिश्चित कर लेने के बाद, तर्क तथा मुनियों एवं वैदिक ग्रंथों के आदेशों सेप्राप्त, ज्ञानरूपी तेज तलवार से मिथ्या अभिमान को पूरी तरह काट डालना चाहिए क्योंकि यहीसमस्त संशयों को प्रश्नय देने वाला है। तब तुम सबों को, अपने हृदयों में स्थित, मेरी पूजा करनीचाहिए।
ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासंहृष्ट विनष्टमतिलोलमलातचक्रम् ।विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति मायास्वप्नस्त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्प: ॥
३४॥
ईक्षेत--देखना चाहिए; विभ्रमम्-- भ्रम या त्रुटि के रूप में; इदम्--इस ( भौतिक जगत ); मनस:--मन का; विलासम्--प्राकट्य या कूदफाँद; दृष्टम्ू--आज है; विनष्टम्ू--कल नहीं है; अति-लोलम्--अत्यन्त चलायमान; अलात-चक्रम्--जलतीलकड़ी को घुमाने से बना हुआ गोला, लुकाठ की बनेठी; विज्ञानमू--सहज सचेतन आत्मा; एकम्--एक है; उरुधा--अनेकविभागों में; इब--मानो; विभाति-- प्रकट होती है; माया--यह माया है; स्वप्न:--मात्र स्वप्न; त्रिधा--तीन विभागों में; गुण--गुणों का; विसर्ग--विकार का; कृत:--उत्पन्न; विकल्प:--अनुभूति या कल्पना का भेद |
मनुष्य को देखना चाहिए कि यह भौतिक जगत मन में प्रकट होने वाला स्पष्ट भ्रम है,क्योंकि भौतिक वस्तुओं का अस्तित्व अत्यन्त क्षणिक है और वे आज है, किन्तु कल नहीं रहेंगी।इनकी तुलना लुकाठ के घुमाने से बने लाल रंग के गोले से की जा सकती है। आत्मा स्वभाव सेएक ही विशुद्ध चेतना के रूप में विद्यमान रहता है। किन्तु इस जगत में वह अनेक रूपों औरअवस्थाओं में प्रकट होता है। प्रकृति के गुण आत्मा की चेतना को जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त, इनतीन अवस्थाओं में बाँट देते है। किन्तु ये अनुभूति की ऐसी विविधताएँ, वस्तुतः माया है औरइनका अस्तित्व स्वप्न की ही तरह होता है।
इृष्टिम्ततः प्रतिनिवर्त्य निवृत्ततृष्ण-स्तृष्णीं भवेन्निजसुखानु भवो निरीहः ।सन्हश्यते क्व च यदीदमवस्तुबुद्धयात्यक्त भ्रमाय न भवेत्स्मृतिरानिषातात्ू ॥
३५॥
इृष्टिमू--दृष्टि; ततः--उस माया से; प्रतिनिवर्त्य--हटाकर; निवृत्त--समाप्त; तृष्ण:--लालसा; तूष्णीमू--मौन; भवेत्--हो जानाचाहिए; निज--अपना ( आत्मा का ); सुख--सुख; अनुभव: -- अनुभव करते हुए; निरीह:--निष्क्रिय; सन्दश्यते--देखा जाताश़ है; क्व च--कभी कभी; यदि--यदि; इृदम्--यह संसार; अवस्तु--असत्य; बुद्धवा--चेतना से; त्यक्तम्-त्यागा हुआ;भ्रमाय--और अधिक भ्रम; न--नहीं; भवेत्--हो सके; स्मृतिः--स्मरणशक्ति; आ-निपातात्--शरीर त्यागने तक |
भौतिक वस्तुओं के क्षणिक भ्रामक स्वभाव को समझ लेने के बाद और अपनी दृष्टि कोभ्रम से हटा लेने पर, मनुष्य को निष्काम रहना चाहिए। आत्मा के सुख का अनुभव करते हुए,मनुष्य को भौतिक बोलचाल तथा कार्यकलाप त्याग देने चाहिए। यदि कभी वह भौतिक जगतको देखे तो उसे स्मरण करना चाहिए कि यह परम सत्य नहीं है, इसीलिए इसका परित्याग कियागया है। ऐसे निरन्तर स्मरण से मनुष्य अपनी मृत्यु पर्यन्त, पुनः भ्रम में नहीं पड़ेगा।
देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वासिद्धो न पश्यति यतोध्यगमत्स्वरूपम् ।दैवादपेतमथ दैववशादुपेतंवासो यथा परिकृतं मदिरामदान्ध: ॥
३६॥
देहम्ू-- भौतिक शरीर; च--भी; नश्वरमू--नाशवान; अवस्थितम्--बैठा; उत्थितम्ू--उठा; वा--अथवा; सिद्ध:--सिद्ध; न'पश्यति--नहीं देखता; यतः--क्योंकि; अध्यगमत्--उसने प्राप्त कर लिया है; स्व-रूपम्--अपनी असली आध्यात्मिक पहचान;दैवात्-- भाग्यवश; अपेतम्--गया हुआ; अथ--अथवा इस तरह; दैव-- भाग्य के; वशात्--वश से; उपेतम्--पाया हुआ;वास:--कपड़े; यथा--जिस तरह; परिकृतम्--शरीर में पहना हुआ; मदिरा--शराब का; मद--नशे से; अन्ध:--अन्धा हुआ।
जिस प्रकार शराब पिया हुआ व्यक्ति यह नहीं देख पाता कि उसने कोट पहना है या कमीज,उसी तरह जो व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार में पूर्ण है और जिसने अपना नित्य स्वरूप प्राप्त कर लियाहै, वह यह नहीं देखता कि नश्वर शरीर बैठा हुआ है या खड़ा है। हाँ, यदि ईश्वर की इच्छा सेउसका शरीर समाप्त हो जाता है या उसे नया शरीर प्राप्त होता है, तो स्वरूपसिद्ध व्यक्ति उसे उसीतरह नहीं देखता जिस तरह शराबी अपनी बाह्य वेशभूषा को नहीं देखता।
देहोपि दैववशग: खलु कर्म यावत्स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एवं सासु: ।त॑ सप्रपज्ञमधिरूढसमाधियोग:स्वाष्न॑ पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तु: ॥
३७॥
देहः--शरीर; अपि-- भी; दैव--ब्रह्म के; वश-ग:--नियंत्रण में; खलु--निस्सन्देह; कर्म--सकाम कर्मों की श्रृंखला; यावत्--जब तक; स्व-आरम्भकम्--जो अपने को प्रारम्भ करता है या आगे बढ़ाता है; प्रतिसमीक्षते--जीवति रहता तथा प्रतीक्षा करतारहता है; एब--निश्चय ही; स-असु:--प्राण तथा इन्द्रियों सहित; तमू--उस ( शरीर ) को; स-प्रपञ्ञम्--अभिव्यक्तियों कीविविधता सहित; अधिरूढ--उच्च स्थान को प्राप्त; समाधि--सिद्धि अवस्था; योग:--योग-प्रणाली में; स्वाप्मम्--स्वप्न कीतरह; पुनः--फिर; न भजते--पूजा नहीं करता; प्रतिबुद्ध-प्रबुद्ध; वस्तु: --परम सत्य में |
भौतिक शरीर निश्चय ही विधाता के वश में रहता है, अतः यह शरीर तब तक इन्द्रियों तथाप्राण के साथ जीवित रहता है जब तक उसका कर्म प्रभावशाली रहता है। किन्तु स्वरूपसिद्ध आत्मा, जो परम सत्य के प्रति प्रबुद्ध हो चुका है और जो योग की पूर्ण अवस्था में उच्चारूढ है,कभी भी शरीर तथा उसकी अनेक अभिव्यक्तियों के समक्ष नतमस्तक नहीं होगा क्योंकि वह इसेस्वण में देखे गये श़रीर के समान जानता है।
मयैतदुक्त वो विप्रा गुह्म॑ं यत्साइ्ख्ययोगयो: ।जानीत मागतं यज्ञं युष्मद्धर्मविवक्षया ॥
३८ ॥
मया-ेरे द्वारा; एतत्--यह ( ज्ञान ); उक्तम्--कहा गया; वः--तुमसे; विप्रा:--हे ब्राह्मणो; गुह्मामू--गोपनीय; यत्--जो;साड्ख्य--आत्मा से पदार्थ को विभेदित करने की दार्शनिक विधि का; योगयो:--तथा अष्टांग योग-पद्धति का; जानीत--समझो; मा--मुझको; आगतम्--आया हुआ; यज्ञम्-यज्ञ के स्वामी विष्णु के रूप में; युष्मत्--तुम्हारा; धर्म--धार्मिककर्तव्य; विवक्षया--बतलाने की इच्छा से |
हे ब्राह्मणो, अब मै तुम लोगों से सांख्य का वह गोपनीय ज्ञान बतला चुका हूँ, जिसके द्वारामनुष्य पदार्थ तथा आत्मा में अन्तर कर सकता है। मैने तुम लोगों को अष्टांग योग का भी ज्ञान देदिया है, जिससे मनुष्य ब्रह्म से जुड़ता है। तुम लोग मुझे भगवान् विष्णु समझो जो तुम लोगों केसमक्ष वास्तविक धार्मिक कर्तव्य बताने की इच्छा से प्रकट हुआ है।
अहं योगस्य साड्ख्यस्य सत्यस्यर्तस्थ तेजस: ।परायणं द्विजश्रेष्ठा: श्रियः कीर्तेर्दमस्थ च ॥
३९॥
अहमू-मै; योगस्य--योग-पद्धति के; साड्ख्यस्य--सांख्य दर्शन के; सत्यस्य--सत्य के; ऋतस्य--सत्यमय धार्मिक सिद्धान्तोंके; तेजसः--शक्ति के; पर-अयनमू--परम आश्रय; द्विज-पश्रेष्ठा:--हे श्रेष्ठ ब्राह्णो; भ्रिय:--सौन्दर्य का; कीर्ते:--कीर्ति का;दमस्य--आत्मसंयम का; च-- भी ।
हे श्रेष्ठ ब्राह्यणो, तुम लोग यह जानो कि मै योग-पद्धति, सांख्य दर्शन, सत्य, ऋत, तेज,सौन्दर्य, यश तथा आत्मसंयम का परम आश्रय हूँ।
मां भजन्ति गुणा: सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम् ।सुहृदं प्रियमात्मानं साम्यासडझझदयोगुणा: ॥
४०॥
माम्ू--मुझको; भजन्ति--सेवा करते तथा शरण ग्रहण करते है; गुणा:--गुण; सर्वे--सभी; निर्गुणम्--गुणों से मुक्त;निरपेक्षकम्-विरक्त; सु-हदम्--शुभचिन्तक; प्रियम्--अत्यन्त प्रिय; आत्मानम्ू--परमात्मा को; साम्य--समान रूप से सर्वत्रस्थित; असड़र--विरक्ति; आदय: --इत्यादि; अगुणा:--गुणों के विकार से मुक्त |
ऐसे सारे के सारे उत्तम दिव्य गुण--जैसे कि गुणों से परे होना, विरक्त, शुभचिन्तक,अत्यन्त प्रिय, परमात्मा, सर्वत्र समरूप से स्थित तथा भौतिक बन्धन से मुक्त होना--जो कि गुणोंके विकारों से मुक्त है, मुझमें शरण तथा पूजनीय वस्तु पाते है।
इति मे छिन्नसन्देहा मुनयः सनकादय: ।सभाजयित्वा परया भक्त्यागृणत संस्तवै: ॥
४१॥
इति--इस प्रकार; मे--मेरे द्वारा; छिन्न--विनष्ट; सन्देहा:--सारे सन्देह; मुनयः--मुनिगण; सनक-आदय:--सनक कुमारइत्यादि; सभाजयित्वा--पूर्णतया मेरी पूजा करके; परया--दिव्य प्रेम के लक्षणों से युक्त; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; अगृणत--मेरीमहिमा का उच्चारण किया; संस्तवै: --सुन्दर स्तुतियों द्वारा |
भगवान् कृष्ण ने आगे कहा : हे उद्धव, इस प्रकार मेरे वचनों से सनक इत्यादि मुनियों केसारे संदेह नष्ट हो गये। दिव्य प्रेम तथा भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हुए, उन्होंने उत्तम स्तुतियोंद्वारा मेरी महिमा का गान किया।
तैरहं पूजित: संयक्संस्तुतः परमर्पषिभि: ।प्रत्येयाय स्वक॑ धाम पश्यतः परमेष्ठलिन: ॥
४२॥
तैः--उनके द्वारा; अहम्ू--मै; पूजित:--पूजा गया; संयक्-- भलीभाँति; संस्तुत:-- भलीभाँति स्तुति किया गया; परम-ऋषिभि:--महा मुनियों द्वारा; प्रत्येथयाय--मै लौट आया; स्वकम्ू--अपने; धाम-- धाम; पश्यत: परमेष्ठिन:--ब्रह्मा के देखते-देखते
इस तरह सनक ऋषि इत्यादि महामुनियों ने मेरी भलीभाँति पूजा की और मेरे यश का गानकिया। मै ब्रह्म के देखते-देखते अपने धाम लौट गया।
अध्याय चौदह: भगवान कृष्ण श्री उद्धव को योग प्रणाली समझाते हैं
श्रीउद्धव उवाचबदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिन: ।तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता ॥
१॥
श्री-उद्धवः उबाच-- श्री उद्धव ने कहा; वदन्ति--कहते हैं; कृष्ण--हे कृष्ण; श्रेयाँसि--जीवन में प्रगति की विधियाँ; बहूनि--अनेक; ब्रह्म-वादिन:--विद्वान मुनि जिन्होंने वैदिक वाड्मय की व्याख्या की है; तेषामू--ऐसी सारीविधियों का; विकल्प--नानाप्रकार की अनुभूतियों की; प्राधान्यम्-- श्रेष्ठठा; उत--अथवा; अहो--निस्सन्देह; एक--एक की; मुख्यता--प्रधानता |
श्री उद्धव ने कहा : हे कृष्ण, वैदिक वाड्मय की व्याख्या करने वाले विद्वान मुनिगणमनुष्य-जीवन की सिद्धि के लिए अनेक विधियों की संस्तुति करते हैं। हे प्रभु, इन नाना प्रकारके दृष्टिकोणों पर विचार करते हुए आप मुझे बतलायें कि ये सारी विधियाँ समान रूप सेमहत्त्वपूर्ण हैं अथवा उनमें से कोई एक सर्वश्रेष्ठ है।
भवतोदाहतः स्वामिन्भक्तियोगोनपेक्षित: ।निरस्य सर्वतः सड़ुं येन त्व्याविशेन््मन: ॥
२॥
भवता--आपके द्वारा; उदाहतः--स्पष्ट कहा गया; स्वामिन्--हे स्वामी; भक्ति-योग: -- भक्ति; अनपेक्षित:-- भौतिक इच्छाओं सेरहित; निरस्थ--हटाकर; सर्वत:ः--सभी तरह से; सड़म्ू--संगति; येन--जिस ( भक्ति ) से; त्वयि--आपमें; आविशेत्-- प्रवेशकर सके; मन:ः--मन।
हे प्रभु, आपने शुद्ध भक्तियोग की स्पष्ट व्याख्या कर दी है, जिससे भक्त अपने जीवन सेसारी भौतिक संगति हटाकर, अपने मन को आप पर एकाग्र कर सकता है।
श्रीभगवानुवाचकालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।मयादौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मक: ॥
३॥
श्री-भगवान् उबाच-- भगवान् ने कहा; कालेन--काल के प्रभाव से; नष्टा--विनष्ट; प्रलये--प्रलय के समय; वाणी--सन्देश;इयम्--यह; वेद-संज्ञिता--वेदों से युक्त; मया--मेरे द्वारा; आदौ--सृष्टि के समय; ब्रह्मणे--ब्रह्मा से; प्रोक्ता--कहा गया;धर्म:--धार्मिक सिद्धान्त; यस्याम्--जिसमें; मत्-आत्मक: --मुझसे अभिन्न
भगवान् ने कहा : काल के प्रभाव से प्रलय के समय वैदिक ज्ञान की दिव्य ध्वनि नष्ट हो गईथी। अतएव जब फिर से सृष्टि बनी, तो मैंने यह वैदिक ज्ञान ब्रह्म को बतलाया क्योंकि मैं ही वेदों में वर्णित धर्म हूँ।
तेन प्रोक्ता स्वपुत्राय मनवे पूर्वजाय सा ।ततो भृग्वादयोगृहन्सप्त ब्रह्ममहर्षय: ॥
४॥
तेन--ब्रह्मा द्वारा; प्रोक्ता--कहा गया; स्व-पुत्राय--अपने पुत्र से; मनवे--मनु को; पूर्व-जाय--सबसे पुराने; सा--वह वैदिकज्ञान; ततः--मनु से; भूगु-आदयः -- भूगु मुनि इत्यादि ने; अगृह्ननू--ग्रहण किया; सप्त--सात; ब्रह्म--वैदिक ज्ञान में; महा-ऋषय:--परम दिद्वान मुनियों ने |
ब्रह्म ने यह वैदिक ज्ञान अपने ज्येष्ठ पुत्र मनु को दिया और तब भृगु मुनि इत्यादि सप्तऋषियों ने वही ज्ञान मनु से ग्रहण किया।
तेभ्य: पितृभ्यस्तत्पुत्रा देवदानवगुह्मका: ।मनुष्या: सिद्धगन्धर्वा: सविद्याधरचारणा: ॥
५॥
किन्देवा: किन्नरा नागा रक्ष:किम्पुरुषादय: ।बह्व्यस्तेषां प्रकृतयो रज:सत्त्वतमोभुव: ॥
६॥
याभिर्भूतानि भिद्यन्ते भूतानां पतयस्तथा ।यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाच: स्त्रवन्ति हि ॥
७॥
तेभ्य:--उनसे ( भृगु मुनि इत्यादि से ); पितृभ्य:--पूर्वजों से; तत्--उनके; पुत्रा:--पुत्र, उत्तराधिकारीगण; देव--देवता;दानव--असुर; गुह्का:--गुह्मकजन; मनुष्या:--मनुष्य; सिद्ध-गन्धर्वा:--सिद्धजन तथा गन्धर्वगण; स-विद्याधर-चारणा:--विद्याधरों तथा चारणों सहित; किन्देवा:--एक भिन्न मानव जाति; किन्नरा:--अर्द्ध मानव; नागा:--सर्प; रक्ष:--राक्षस;किम्पुरुष--वानरों की उन्नत नस्ल; आदय:--इत्यादि; बह्व्य:--अनेक प्रकार के; तेषाम्ू--ऐसे जीवों के ; प्रकृतयः--स्वभावोंया इच्छाओं; रज:-सत्त्व-तम:-भुव:--तीन गुणों से उत्पन्न होने से; याभि: --ऐसी इच्छाओं या प्रवृत्तियों से; भूतानि--ऐसे सारेजीव; भिद्यन्ते--अनेक रूपों में बँटे प्रतीत होते हैं; भूतानामू--तथा उनके; पतय:--नेता; तथा--उसी प्रकार से विभक्त; यथा-प्रकृति--लालसा या इच्छा के अनुसार; सर्वेषाम्--उन सबों का; चित्रा:--विचित्र; वाच:--वैदिक अनुष्ठान तथा मंत्र;स्त्रवन्ति--निकलते हैं; हि--निश्चय ही |
भूगु मुनि तथा ब्रह्मा के अन्य पुत्रों जैसे पूर्वजों से अनेक पुत्र तथा उत्तराधिकारी उत्पन्न हुए,जिन्होंने देवताओं, असुरों, मनुष्यों, गुह्कों, सिद्धों, गन्धर्वों, विद्याधरों, चारणों, किन्देवों,किन्नरों, नागों, किम्पुरुषों इत्यादि के विभिन्न रूप धारण किये। सभी विश्वव्यापी जातियाँ तथाउनके अपने अपने नेता, तीन गुणों से उत्पन्न विभिन्न स्वभाव तथा इच्छाएँ लेकर प्रकट हुए।इसलिए ब्रह्माण्ड में जीवों के विभिन्न लक्षणों के कारण न जाने कितने अनुष्ठान, मंत्र तथा फलहैं।
एवं प्रकृतिवैचित्र्याद्धिद्यन्ते मतयो नृणाम् ।पारम्पर्येण केषाज्चित्पाषण्डमतयोपरे ॥
८॥
एवम्--इस प्रकार; प्रकृति--स्वभाव या इच्छाओं के; वैचित्रयात्--विविधता के कारण; भिद्यन्ते--विभक्त हैं; मतयः--जीवन-दर्शन; नृणाम्--मनुष्यों में; पारम्पर्येण --परम्परा से; केषाद्चित्--कुछ लोगों में; पाषण्ड--नास्तिक; मतय: --दर्शन; अपरे--अन्य
इस तरह मनुष्य के बीच नाना प्रकार की इच्छाओं तथा स्वभावों के कारण जीवन केअनेकानेक आस्तिक दर्शन हैं, जो प्रथा, रीति-रिवाज तथा परम्परा द्वारा हस्तान्तरित होते रहते हैं।ऐसे भी शिक्षक हैं, जो नास्तिक दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।
मन्मायामोहितधिय: पुरुषा: पुरुषर्षभ ।श्रेयो बदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥
९॥
मतू-मया--मेरी माया से; मोहित--मोहग्रस्त; धिय:--बुद्धि वाले; पुरुषा: --मनुष्य; पुरुष-ऋषभ--हे पुरुष- श्रेष्ठ; श्रेय: --लोगों के लिए शुभ; वदन्ति--कहते हैं; अनेक-अन्तम्--अनेक प्रकार से; यथा-कर्म--अपने अपने कर्मों के अनुसार; यथा-रुचि--अपनी अपनी रुचि के अनुसार।
हे पुरुष- श्रेष्ठ, मनुष्यों की बुद्धि मेरी माया से मोहग्रस्त हो जाती है अतएवं वे, अपने कर्मोंतथा अपनी रुचियों के अनुसार, मनुष्यों के लिए जो वास्तव में शुभ है, उसके विषय में असंख्यप्रकार से बोलते हैं।
धर्ममेके यशश्चान्ये काम सत्यं दमं शमम् ।अन्ये बदन्ति स्वार्थ वा ऐश्वर्य त्यागभोजनम् ।केचिद्य॒ज्जं तपो दानं ब्रतानि नियमान्यमान् ॥
१०॥
धर्मम्ू-पुण्यकर्म; एके--कुछ लोग; यश: --ख्याति; च-- भी; अन्ये--अन्य लोग; कामम्--इन्द्रियतृप्ति; सत्यम्--सत्य;दमम्--आत्मसंयम; शमम्--शान्तिप्रियता; अन्ये-- अन्य लोग; वदन्ति--स्थापना करते हैं; स्व-अर्थम्--आत्म-हित या स्वार्थका अनुसरण करना; बै--निश्चय ही; ऐश्वर्यम्--ऐश्वर्य या राजनीतिक प्रभाव; त्याग--त्याग; भोजनम्-- भोग; केचित्ू--कुछलोग; यज्ञम्--यज्ञ; तप: --तपस्या; दानम्--दान; ब्रतानि--ब्रत रखना; नियमान्--नियमित धार्मिक कृत्य; यमान्ू--कठोरविधियों को
कुल लोग कहते हैं कि पुण्यकर्म करके सुखी बना जा सकता है। अन्य लोग कहते हैं किसु