श्रीमद्भागवतम् - स्कन्ध 10
अध्याय एक: भगवान कृष्ण का आगमन: परिचय
10.1श्रीराजोबाचकथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययो: ।
राज्ञां चोभयवंश्यानांचरितं परमाद्भधुतम् ॥ १॥
श्री-राजा उवाच--राजा परीक्षित ने कहा; कथित:--पहले ही वर्णित हो चुका है, जो; वंश-विस्तार:--वंश का विस्तार सेवर्णन; भवता--आपके द्वारा; सोम-सूर्ययो:--चन्द्रदेव तथा सूर्यदेव के; राज्ञामू--राजाओं का; च--तथा; उभय--दोनों;वंश्यानाम्ू--वंश के सदस्यों का; चरितम्--चरित्र; परम-- श्रेष्ठ; अद्भुतम्--तथा अद्भुत
राजा परीक्षित ने कहा: हे प्रभु, आपने चन्द्रदेव तथा सूर्यदेव दोनों के वंशों का, उनकेराजाओं के महान् तथा अद्भुत चरित्रों सहित विशद वर्णन किया है।
यदोश्व धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम ।
तत्रांशेनावतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस न: ॥
२॥
यदोः--यदु या यदुवंश का; च--भी; धर्म-शीलस्य--जो धर्मनिष्ठ हैं; नितराम्--अत्यन्त योग्य; मुनि-सत्तम-हे मुनियों में श्रेष्ठअथवा मुनियों के राजा ( शुकदेव गोस्वामी ); तत्र--उस वंश में; अंशेन--अपने अंश बलदेव के साथ; अवतीर्णस्य--अवताररूप में प्रकट; विष्णो: -- भगवान् विष्णु के; वीर्याणि---महिमामय कार्यकलाप; शंस--कृपया वर्णन करें; न:--हमसे |
हे मुनिश्रेष्ठ, आप परम पवित्र तथा धर्मशील यदुवंशियों का भी वर्णन कर चुके हैं।
अब होसके तो कृपा करके उन भगवान् विष्णु या कृष्ण के अद्भुत महिमामय कार्यकलापों का वर्णनकरें जो यदुवंश में अपने अंश बलदेव के साथ प्रकट हुए हैं।
अवतीर्य यदोर्वशे भगवान्भूतभावन: ।
कृतवान्यानि विश्वात्मा तानि नो बद विस्तरात् ॥
३॥
अवतीर्य--अवतार लेकर; यदोः बंशे--यदुवंश में; भगवान्-- भगवान्; भूत-भावन: --विराट जगत के कारणस्वरूप;कृतवानू--सम्पन्न किया; यानि--जो भी ( कार्य ); विश्व-आत्मा--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परमात्मा; तानि--उन सभी ( कार्यो )को; नः--हमसे; वद--कहें; विस्तरात्--विस्तार से
परमात्मा अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण, जो विराट जगत के कारण हैं, यदुवंश मेंप्रकट हुए।
आप कृपा करके मुझे उनके यशस्वी कार्यकलापों तथा उनके चरित्र का आदि सेलेकर अन्त तक वर्णन करें।
निवृत्ततर्षरुपगीयमानाद्भवौषधाच्छोत्रमनोभिरामात् ।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्पुमान्विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥
४॥
निवृत्त--मुक्त; तर्षै:--काम या भौतिक कार्यो से; उपगीयमानात्ू--वर्णित या गाया जाने वाला; भव-औषधात्-- भौतिक रोगकी सही औषधि से; श्रोत्र--कानों से सुनने की विधि; मन:--मन के लिए विचार का विषय; अभिरामात्--ऐसे महिमा-वर्णनकी सुहावनी ध्वनि से; कः--कौन; उत्तमशएलोक-- भगवान् का; गुण-अनुवादात्--ऐसे कार्यों का वर्णन करने से; पुमानू--मनुष्य; विरज्येत--अपने को विलग रख सकता है; विना--रहित; पशु-घ्नातू--कसाई अथवा अपने आप का ही वध करनेवाले से
भगवान् की महिमा का वर्णन परम्परा-पद्धति से किया जाता है अर्थात् यह अध्यात्मिक गुरुसे शिष्य तक पहुँचाया जाता है।
ऐसे वर्णन का आनन्द उन लोगों को मिलता है, जो इस जगतके मिथ्या, क्षणिक वर्णन में रुचि नहीं रखते।
भगवान् का गुणगान जन्म-मृत्यु के चक्कर में फँसेबद्धजीवों के लिए उपयुक्त औषधि है।
अतएव कसाई ( पशुघाती ) या अपने को ही मारने वाले( आत्मघाती ) के अतिरिक्त भगवान् की महिमा को सुनना कौन नहीं चाहेगा ?
देवब्रताद्यातिरथेस्तिमिड्रिलै: ।
दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरंकृत्वातरन्वत्सपदं सम यत्प्लवा: ॥
५॥
द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदड़ूंसन््तानबीजं कुरुपाण्डवानाम् ।
जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रोमातुश्च मे यः शरणं गताया: ॥
६॥
वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजा-मन्तर्बहिः पूरुषकालरूपै: ।
प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं चमायामनुष्यस्यथ वदस्व विद्वन् ॥
॥
पितामहाः --पाँचों पाण्डव, जो मेरे बाबा हैं; मे--मेरे; समरे--कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में; अमरम् जयैः--युद्धभूमि में देवताओंपर विजय प्राप्त करने वाले योद्धाओं समेत; देवब्रत-आद्य-- भीष्मदेव तथा अन्य; अतिरथै:--महा सेनापतियों के साथ;तिमिड्लिलै:--तिमिंगिल ( बड़ी मछली ) के समान; दुरत्ययम्--दुर्लघ्य; कौरव-सैन्य-सागरम्--कौरवों के एकत्र सैनिकों केसागर को; कृत्वा--मानकर; अतरन्--पार कर लिया; वत्स-पदम्--गो खुर के समान; स्म--था; यत्-प्लवा:--कृष्ण कीचरणकमल रूपी नाव का आश्रय; द्रौणि--अश्वत्थामा के; अस्त्र-ब्रह्मस्त्र से; विप्लुष्टमू-- आक्रमण करके जलाया गया;इदम्ू--यह; मत्-अड्रम्-मेरा शरीर; सन््तान-बीजम्--एकमात्र बचा हुआ बीज, वंश का अन्तिम उत्तराधिकारी; कुरु-पाण्डवानामू--कौरवों तथा पाण्डवों का ( कुरुक्षेत्र में मेरे अतिरिक्त सभी लोग मारे जा चुके हैं ); जुगोप--शरण दी; कुक्षिम्--गर्भ में; गत:--स्थापित; आत्त-चक्र:--हाथ में चक्र लिए; मातुः:--माता का; च-- भी; मे--मेरी; यः--जो भगवान्;शरणमू--शरण; गताया:--ग्रहण कर ली है; वीर्याणि--दिव्य गुणों का गान; तस्य--उस ( भगवान् ) का; अखिल-देह-भाजाम्--समस्त देहधारी जीवों का; अन्तः बहि:ः-- भीतर तथा बाहर; पूरुष--परम पुरुष का; काल-रूपैः--नित्य समय केरूपों में; प्रयच्छत:--देने वाला; मृत्युम्--मृत्यु को; उत--ऐसा कहा जाता है; अमृतम् च--तथा शाश्रत जीवन; माया-मनुष्यस्थ-- भगवान् का, जो अपनी शक्ति से मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं; वदस्व--कृपा करके कहें; विद्वनू--हे विद्वान( शुकदेव गोस्वामी )॥
कृष्ण के चरणकमल रूपी नाव को लेकर मेरे बाबा अर्जुन तथा अनन््यों ने उस कुरुक्षेत्रयुद्धस्थल रूपी सागर को पार कर लिया जिसमें भीष्मदेव जैसे सेनापति उन बड़ी-बड़ी मछलियोंके तुल्य थे, जो उन्हें आसानी से निगल गई होतीं।
मेरे पितामहों ने भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा सेइस दुर्लध्य सागर को इतनी सरलता से पार कर लिया मानो कोई गोखुर का चिन्ह हो।
चूँकि मेरीमाता ने सुदर्शन चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी अतःउन्होंने उनके गर्भ में प्रवेश करके मुझे बचा लिया जो कौरवों तथा पाण्डवों का अन्तिम बचाहुआ उत्तराधिकारी था और जिसे अश्वत्थामा ने अपने ब्रह्मास्त्र से नष्टप्राय कर दिया था।
भगवान्कृष्ण ने समस्त देहधारी जीवों के भीतर तथा बाहर शाश्रत काल के रूपों में--यथा परमात्मातथा विराट रूपों में--अपनी शक्ति से प्रकट होकर हर एक को क्रूर मृत्यु के रूप में या जीवनके रूप में मोक्ष प्रदान किया।
कृपया उनके दिव्य गुणों का वर्णन करके मुझे प्रबुद्ध कीजिए ।
रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो राम: सट्डूर्षणस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्तरं बिना ॥
८॥
रोहिण्या:--बलदेव की माता रोहिणी देवी का; तनयः--पुत्र; प्रोक्त:--विख्यात; राम:--बलराम; सद्जूर्षण:--संकर्षण औरकोई नहीं, बलराम हैं, जो चतुर्व्यूह ( संकर्षण, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न तथा वासुदेव ) में प्रथम हैं; त्वया--आपके द्वारा ( ऐसा कहाजाता है ); देवक्या: --कृष्ण की माता, देवकी का; गर्भ-सम्बन्ध:--गर्भ सम्बन्धी; कुतः--कैसे; देह-अन्तरम्--शरीरों केस्थानान्तरण के; विना--बिना
हे शुकदेव गोस्वामी, आप पहले ही बता चुके हैं कि द्वितीय चतुर्व्यूह से सम्बन्धित संकर्षणरोहिणी के पुत्र बलराम के रूप में प्रकट हुए।
यदि बलराम को एक शरीर से दूसरे शरीर मेंस्थानान्तरित न किया गया होता तो यह कैसे सम्भव हो पाता कि वे पहले देवकी के गर्भ में रहतेऔर बाद में रोहिणी के गर्भ में ? कृपया मुझसे इसकी व्याख्या कीजिए।
कस्मान्मुकुन्दो भगवान्पितुर्गेहाद्त्रजं गतः ।
क्व वासं ज्ञातिभि: सार्थ कृतवान्सात्वतां पति: ॥
९॥
कस्मात्-क्यों; मुकुन्द:--हर एक को मोक्ष देने वाले कृष्ण; भगवान्-- भगवान्; पितु:--अपने पिता ( वसुदेव ) के; गेहात्--घर से; ब्रजम्-व्रजधाम या ब्रजभूमि; गत:--गये; क्व--कहाँ; वासम्ू--रहने के लिए रखा; ज्ञातिभिः--उनके सम्बन्धियों के;सार्धम्--साथ; कृतवान्--कर दिया; सात्वताम् पति: --समस्त वैष्णव भक्तों के स्वामी
भगवान् कृष्ण ने अपने पिता वसुदेव का घर क्यों छोड़ा और अपने को वृन्दावन में नन््द केघर क्यों स्थानान्तरित किया ? यदुवंश के स्वामी अपने सम्बन्धियों के साथ वृन्दावन में कहाँ रहे ?
ब्रजे वसन्किमकरोन्मधुपुर्या च केशव: ।
भ्रातरं चावधीत्कंसं मातुरद्धातदर्हणम् ॥
१०॥
ब्रजे--वृन्दावन में; वसन्--रहते हुए; किम् अकरोत्--उन्होंने क्या किया; मधुपुर्याम्--मथुरा में; च--तथा; केशव:--केशी केसंहार करने वाले, कृष्ण ने; भ्रातरम्-- भाई; च--तथा; अवधीत्--मारा; कंसम्--कंस को; मातुः--अपनी माता के; अद्धघा--प्रत्यक्ष; अ-तत्-अर्हणम्--शास्त्र जिसकी अनुमति नहीं देते।
भगवान् कृष्ण वृन्दावन तथा मथुरा दोनों जगह रहे तो वहाँ उन्होंने क्या किया ? उन्होंने अपनीमाता के भाई ( मामा ) कंस को क्यों मारा जबकि शास्त्र ऐसे वध की रंचमात्र भी अनुमति नहींदेते ?
देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभि: ।
यदुपुर्या सहावात्सीत्पल्य: कत्यभवन्प्रभो: ॥
११॥
देहम्--शरीर; मानुषम्--मनुष्य की ही तरह; आश्रित्य--स्वीकार करके; कति वर्षाणि--कितने वर्षो तक; वृष्णिभि:--वृष्णिवंश में उत्पन्न होने वालों के साथ में; यदु-पुर्यामू--यदुओं के आवास-स्थानों में, द्वारका में; सह--साथ; अवात्सीत्-- भगवान्रहे; पत्य:--पत्ियाँ; कति--कितनी; अभवन् -हुईं; प्रभोः-- भगवान् के
भगवान् कृष्ण का शरीर भौतिक नहीं है, फिर भी वे मानव के रूप में प्रकट होते हैं।
वेवृष्णि के वंशजों के साथ कितने वर्षों तक रहे ? उनके कितनी पत्रियाँ थीं? वे द्वारका में कितनेवर्षों तक रहे ?
एतदन्यच्च सर्व मे मुने कृष्णविचेष्टितम् ।
वक्तुमईसि सर्वज्ञ श्रद्धधानाय विस्तृतम् ॥
१२॥
एततू--ये सारी बातें; अन्यत् च--तथा अन्य बातें भी; सर्वम्--सारी बातें; मे--मुझको; मुने--हे मुनि; कृष्ण-विचेष्टितम्--भगवान् कृष्ण के कार्यकलापों को; वक्तुम्ू--बतलाने में; अहसि--समर्थ हैं; सर्व-ज्ञ--सब कुछ जानने वाले; श्रद्धानाय--श्रद्धावान होने के कारण; विस्तृतम्--विस्तार से |
हे महामुनि, आप कृष्ण के विषय में सब कुछ जानते हैं अतएव उन सारे कार्यकलापों कावर्णन विस्तार से करें जिनके बारे में मैंने पूछा है तथा उनके बारे में भी जिनके विषय में मैंने नहींपूछा क्योंकि उन पर मेरा पूर्ण विश्वास है और मैं उन सबको सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ।
नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते ।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम् ॥
१३ ॥
न--नहीं; एघा--यह सब; अति-दुःसहा--सहने में अत्यन्त कठिन; क्षुत्-- भूख; माम्--मुझको; त्यक्त-उदम्--जल ग्रहणकरना छोड़ देने के बाद; अपि-- भी; बाधते--बाधा नहीं डालता; पिबन्तम्--पीते रहने पर; त्वत्-मुख-अम्भोज-च्युतम्--आपके कमलमुख से निकला हुआ; हरि-कथा-अमृतम्--कृष्ण कथा का अमृत
मृत्यु द्वार पर होते हुए अपने व्रत के कारण मैंने जल ग्रहण करना भी छोड़ दिया है फिर भीआपके कमलमुख से निकले कृष्ण-कथा रूपी अमृत का पान करने से मेरी असहाय भूख तथाप्यास मुझे किसी तरह भी बाधा नहीं पहुँचा रही।
सूत उवाचएवं निशम्य भृगुनन्दन साधुवादंवैयासकि: स भगवानथ विष्णुरातम् ।
प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषपघ्नंव्याहर्तुमारभत भागवतप्रधान: ॥
१४॥
सूतः उबाच--सूत गोस्वामी ने कहा; एबम्--इस प्रकार; निशम्य--सुनकर; भूगु-नन्दन--हे भूगुवंशी, शौनक; साधु-वादम्--शुभ प्रश्न; वैयासकि:--व्यासदेव के पुत्र, शुकदेव गोस्वामी; सः--वह; भगवान्--अत्यन्त शक्तिशाली; अथ--इस प्रकार;विष्णु-रातम्--विष्णु द्वारा सुरक्षित परीक्षित महाराज को; प्रत्यर्च्य--सादर नमस्कार करके ; कृष्ण-चरितम्--कृष्णकथा को;कलि-कल्मष-घछनम्--इस कलियुग के कष्टों को कम करने वाली; व्याहर्तुमु-वर्णन करने के लिए; आरभत--शुरू किया;भागवत-प्रधान:--शुद्ध भक्तों में प्रमुख शुकदेव गोस्वामी ने।
सूत गोस्वामी ने कहा : हे भूगुपुत्र (शौनक ऋषि ), परम आदरणीय व्यासपुत्र भक्त शुकदेवगोस्वामी ने महाराज परीक्षित के शुभ प्रश्नों को सुनकर राजा को सादर धन्यवाद दिया।
फिरउन्होंने कृष्णकथा के विषय में वार्ता प्रारम्भ की जो इस कलियुग के समस्त कष्टों के लिएऔषधि है।
श्रीशुक उबाचसम्यग्व्यवसिता बुद्धिस्तव राजर्षिसत्तम ।
वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी रति: ॥
१५॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; सम्यक्--पूरी तरह; व्यवसिता--स्थिर; बुद्धि: --बुर्दधि; तब--आपकी;राज-ऋषि-सत्तम-हे राजर्षियों में श्रेष्ठ; बासुदेब-कथायाम्--वासुदेव कृष्ण विषयक कथाओं के सुनने में; ते--आपका;यत्--क्योंकि; जाता--उत्पन्न; नैष्ठिकी--अनवरत; रतिः--आकर्षण या भावमय भक्ति
शरील शुकदेव गोस्वामी के कहा : हे राजर्षियों में श्रेष्ठ, चूँकि आप वासुदेव की कथाओं केप्रति अत्यधिक आकृष्ट हैं अत: निश्चित रूप से आपकी बुद्धि आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिर है, जोमानवता का एकमात्र असली लक्ष्य है।
चूँकि यह आकर्षण अनवरत रहता है अतएव निश्चितरूपसे उत्कृष्ट है।
वासुदेवकथाप्रएन: पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि ।
वक्तारं प्रच्छक॑ श्रोतृंस्तत्पादसलिलं यथा ॥
१६॥
वासुदेव-कथा-प्रश्न:--वासुदेव कृष्ण की लीलाओं तथा गुणों के विषय में प्रश्न; पुरुषान्--पुरुषों को; त्रीन्--तीनों;पुनाति--पवित्र करते हैं; हि--निश्चय ही; वक्तारम्ू--वक्ता को, यथा शुकदेव गोस्वामी; प्रच्छकम्--जिज्ञासु आता को, यथामहाराज परीक्षित; श्रोतूनू--तथा कथा को सुनने वालों को; ततू-पाद-सलिलम् यथा--जिस तरह
भगवान् विष्णु के अँगूठे सेनिकलने वाले गंगा जल से सम्पूर्ण संसार पवित्र हो जाता है।
भगवान् विष्णु के चरणों के अँगूठे से निकलने वाली गंगा तीनों लोकों--ऊपरी, मध्य तथा अध: लोकों--को पवित्र बनाने वाली है।
इसी तरह जब कोई व्यक्ति भगवान् वासुदेव कृष्ण कीलीलाओं तथा गुणों के विषय में प्रश्न करता है, तो तीन प्रकार के व्यक्ति--वक्ता या उपदेशक,प्रश्नकर्ता तथा सुनने वाले मनुष्य--शुद्ध हो जाते हैं।
भूमि प्तनृपव्याजदैत्यानीकशतायुतै: ।
आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥
१७॥
भूमिः--पृथ्वी माता; हप्त--गर्वित; नृप-व्याज--राजाओं का स्वांग भरते हुए अथवा राज्य में साक्षात् परम शक्ति; दैत्य--असुरोंकी; अनीक--सैनिकों की सेना; शत-अयुतैः--सैकड़ों हजारों में, असंख्य; आक्रान्ता--बोझिल होकर; भूरि-भारेण--व्यर्थकी सेना के बोझ से; ब्रह्मणम्--ब्रह्म के पास; शरणम्--शरण खोजने; ययौ--गयी
एक बार माता पृथ्वी राजाओं के वेश में गर्वित लाखों असुरों की सेना से बोझिल हो उठी तोवह इससे छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मा के पास पहुँची।
गौर्भूत्वाश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करूणं विभो: ।
उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं समवोचत ॥
१८॥
गौ:--गाय; भूत्वा--बनकर; अश्रु-मुखी--आँखों में आँसू भरकर; खिन्ना--अत्यन्त दुखी; क्रन्दन्ती--रोती हुई; करुणम्--बेचारी; विभो:--ब्रह्मा के; उपस्थिता--प्रकट हुई; अन्तिके--समक्ष; तस्मै--उनसे ( ब्रह्मा से ); व्यसनम्--अपनी विपदा;समवोचत--निवेदन किया।
माता पृथ्वी ने गाय का रूप धारण किया।
वह अत्यन्त दुखियारी, अपनी आँखों में आँसू भर कर भगवान् ब्रह्मा के समक्ष प्रकट हुई और उसने उनसे अपनी विपदा कह सुनायी।
ब्रह्मा तदुपधार्याथ सह देवैस्तया सह ।
जगाम सत्रिनयनस्तीरं क्षीरपयोनिधे: ॥
१९॥
ब्रह्मा--ब्रह्माजी; ततू-उपधार्य--हर बात को ठीक से समझ कर; अथ--तत्पश्चात्; सह--साथ; देवै:ः--देवताओं के; तयासह--माता पृथ्वी के साथ; जगाम--निकट गए; स-बत्रि-नयन:--तीन नेत्रों वाले शिवजी के साथ; तीरम्--तट पर; क्षीर-पयः-निधे:--क्षीर सागर के |
माता पृथ्वी की विपदा सुनकर ब्रह्माजी, माता पृथ्वी तथा शिवजी एवं अन्य समस्त देवताओंके साथ क्षीरसागर के तट पर जा पहुँचे।
तत्र गत्वा जगन्नाथ देवदेवं वृषाकपिम् ।
पुरुष पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहित: ॥
२०॥
तत्र--वहाँ ( क्षीरसागर के तट पर ); गत्वा--जाकर; जगन्नाथम्--समग्र ब्रह्माण्ड के स्वामी को; देव-देवम्--सारे देवताओं केभी परम ईश्वर को; वृषाकपिम्--परम पुरुष विष्णु को जो हर एक का पालन करने वाले तथा सबके कष्टों को दूर करने वाले हैं;पुरुषम्-परम पुरुष को; पुरुष-सूक्तेन--पुरुषसूक्त नामक वैदिक मंत्र से; उपतस्थे--पूजा किया; समाहितः--पूर्ण मनोयोगसे
क्षीर सागर के तट पर पहुँच कर सारे देवताओं ने समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी, समस्तदेवताओं के परम ईश तथा हर एक का पालन करने वाले और उनके दुखों को दूर करने वालेभगवान् विष्णु की पूजा की।
उन्होंने बड़े ही मनोयोग से पुरुषसूक्त नामक वैदिक मंत्रों के पाठद्वारा क्षीर सागर में शयन करने वाले भगवान् विष्णु की पूजा की।
गिरं समाधौ गगने समीरितांनिशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।
गां पौरूषीं मे श्रुणुतामरा: पुन-विंधीयतामाशु तथेव मा चिरम्ू ॥
२१॥
गिरम्--शब्दों की ध्वनि; समाधौ--समाधि में; गगने--आकाश में; समीरिताम्--ध्वनित; निशम्य--सुनकर; बेधा: --ब्रह्मा ने;त्रिदशान्ू--देवताओं को; उवाच--कहा; ह--ओह; गाम्--आदेश; पौरुषीम्--परम पुरूष से प्राप्त; मे--मुझको; श्रुणुत--सुनिए; अमरा: --हे देवताओ; पुनः--फिर; विधीयताम्--सम्पन्न करो; आशु--तुरन््त; तथा एब--उसी तरह; मा--मत;चिरमू--विलम्ब।
ब्रह्माजी जब समाधि में थे, भगवान् विष्णु के शब्दों को आकाश में ध्वनित होते सुना।
तबउन्होंने देवताओं से कहा, ' अरे देवताओ! मुझसे परम पुरुष क्षीरोदकशायी विष्णु का आदेशसुनो और बिना देर लगाए उसे ध्यानपूर्वक पूरा करो।
पुरैव पुंसावधृतो धराज्वरोभवद्धिरंशैर्यदुषूपजन्यताम् ।
स यावदुर्व्या भरमी श्वरे श्र:स्वकालशक्त्या क्षपयंश्ररेद्धुवि ॥
२२॥
पुरा--इससे भी पहले; एब--निस्सन्देह; पुंसा-- भगवान् द्वारा; अवधृतः--ज्ञात था; धरा-ज्वरः--पृथ्वी पर संकट; भवद्धिः--आपके; अंशै: --अंशों द्वारा; यदुषु--राजा यदु के वंश में; उपजन्यताम्--जन्म लेकर; सः--वह ( भगवान् ); यावत्ू--जबतक; उर्व्या:--पृथ्वी का; भरम्-- भार; ई श्वर-ई श्वर:ः --ई श्वरों के ईश्वर; स्व-काल-शक्त्या--अपनी ही काल शक्ति द्वारा;क्षपयन्--घटाने के लिए; चरेत्--गति करें; भुवि--पृथ्वी की सतह पर।
भगवान् ब्रह्माजी ने देवताओं को बतलाया: हमारे द्वारा याचना करने के पूर्व ही भगवान्पृथ्वी के संकट से अवगत हो चुके थे।
फलतः जब तक भगवान् अपनी काल शक्ति के द्वारापृथ्वी का भार कम करने के लिए पृथ्वी पर गतिशील रहें तब तक तुम सभी देवताओं को यदुओंके परिवार में उनके पुत्रों तथा पौत्रों के अंश के रूप में अवतीर्ण होना होगा।
बसुदेवगहे साक्षाद्धगवान्पुरुष: पर: ।
जनिष्यते तत्प्रियार्थ सम्भवन्तु सुरस्त्रिय: ॥
२३॥
बसुदेव-गृहे--वसुदेव ( कृष्ण के पिता ) के घर में; साक्षात्--साकार रूप में; भगवान्--पूर्ण शक्तिमान भगवान्; पुरुष: --आदि पुरुष; पर:--दिव्य; जनिष्यते--उत्पन्न होगा; तत्ू-प्रिय-अर्थम्--उसकी तुष्टि के लिए; सम्भवन्तु--जन्म लेना होगा; सुर-स्त्रियः--देवताओं की स्त्रियों को |
सर्वशक्तिमान भगवान् कृष्ण वसुदेव के पुत्र रूप में स्वयं प्रकट होंगे।
अतः देवताओं कीसारी स्त्रियों को भी उन्हें प्रसन्न करने के लिए प्रकट होना चाहिए।
वासुदेवकलानन्तः सहस्त्रवदन: स्वराट् ।
अग्रतो भविता देवो हरे: प्रियचिकीर्षया ॥
२४॥
वासुदेव-कला अनन्त:--भगवान् कृष्ण का अंश जो अनन्तदेव या संकर्षण अनन्त के नाम से प्रसिद्ध हैं, भगवान् कासर्वव्यापक अवतार; सहस्त्र-वदन:--हजार फनों वाला; स्वराट्--पूर्णतया स्वतंत्र; अग्रतः--इसके पूर्व; भविता--प्रकट होगा;देवः-- भगवान्; हरेः -- कृष्ण का; प्रिय-चिकीर्षया--आनन्द के लिए कार्य करने की इच्छा से |
कृष्ण का सबसे अग्रणी स्वरूप संकर्षण है, जो अनन्त कहलाता है।
वह इस भौतिक जगतमें सारे अवतारों का उद्गम है।
भगवान् कृष्ण के प्राकटय के पूर्व यह आदि संकर्षण कृष्ण कोउनकी दिव्य लीलाओं में प्रसन्न करने के लिए बलदेव के रूप में प्रकट होगा।
विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत् ।
आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे सम्भविष्यति ॥
२५॥
विष्णो: माया--भगवान् विष्णु की शक्ति; भगवती-- भगवान् के ही समकक्ष अतएव भगवती नाम से जानी जाने वाली; यया--जिससे; सम्मोहितम्--मोहित; जगत्--सारे जगत, भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों; आदिष्टा--आदेश पाकर; प्रभुणा--स्वामीके द्वारा; अंशेन--अपने विभिन्न शक्तिशाली कारकों के साथ; कार्य-अर्थे--पूरा काम करने के लिए; सम्भविष्यति--जन्मलेगी।
विष्णु माया कहलाने वाली भगवान् की शक्ति जो भगवान् के ही समान है, भगवान् कृष्णके साथ-साथ ही प्रकट होगी।
यह शक्ति विभिन्न पदों पर कार्य करती हुईं भौतिक तथाआध्यात्मिक सभी जगतों को मोहने वाली है।
वह अपने स्वामी के आग्रह पर भगवान् का कार्यसम्पन्न करने के लिए अपनी विविध शक्तियों सहित प्रकट होगी।
श्रीशुक उबाचइत्यादिश्यामरगणान्प्रजापतिपतिर्विभु: ।
आश्वास्य च महीं गीर्मि: स्वधाम परमं ययौ ॥
२६॥
श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आदिश्य--सूचना देकर; अमर-गणान्--देवताओं को;प्रजापति-पति:--प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी; विभु:--सर्वशक्तिमान; आश्वास्य--आ श्वासन देकर; च--भी; महीम्--मातापृथ्वी को; गीर्भि:--मधुर शब्दों से; स्व-धाम--अपने धाम, ब्रह्मलोक; परमम्--सर्व श्रेष्ठ ( ब्रह्मण्ड के भीतर ); ययौ--लौटगये
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह देवताओं को सलाह देकर तथा माता पृथ्वी कोआश्वस्त करते हुए अत्यन्त शक्तिशाली ब्रह्माजी, जो समस्त प्रजापतियों के स्वामी होने सेप्रजापति-पति कहलाते हैं, अपने धाम ब्रह्मलोक लौट गये।
शूरसेनो यदुपतिर्मथुरामावसन्पुरीम् ।
माथुराज्छूरसेनां श्व विषयान्बुभुजे पुरा ॥
२७॥
शूरसेन:--राजा शूरसेन; यदु-पति:--यदुवंश का मुखिया; मथुराम्--मथुरा नामक स्थान में; आवसन्--जाकर रहने लगा;पुरीम्--नगरी में; माथुरान्ू--माथुर जिले के नाम से विख्यात स्थान में; शूरसेनान्ू च--तथा शूरसेन नामक स्थान में; विषयान्--ऐसे राज्यों का; बुभुजे--भोग किया; पुरा--प्राचीन काल में ।
प्राचीन काल में यदुबंश का मुखिया शूरसेन मथुरा नामक नगरी में रहने के लिए गया।
वहाँ उसने माथुर तथा शूरसेन नामक स्थानों का भोग किया।
राजधानी ततः साभूत्सर्वयादवभूभुजाम् ।
मथुरा भगवान्यत्र नित्यं सबन्निहितो हरि: ॥
२८॥
राजधानी --राजधानी; तत:--उस समय से; सा--वह ( मथुरा नामक नगरी तथा देश ); अभूत्--बन गया; सर्व-यादव-भूभुजाम्--यदुवंश में होने वाले सारे राजाओं की; मथुरा--मथुरा नामक स्थान; भगवान्-- भगवान्; यत्र--जहाँ; नित्यम्--शाश्वत रूप से; सन्निहित:ः--घनिष्टतापूर्वक सम्बद्ध, नित्यवास करते हुए; हरिः--भगवान् |
उस समय से मथुरा नगरी सारे यदुबंशी राजाओं की राजधानी बनी रही।
मथुरा नगरी तथामथुरा जनपद कृष्ण से घनिष्टतापूर्वक जुड़े हैं क्योंकि वहाँ कृष्ण का नित्य वास है।
तस्यां तु कर्हिचिच्छौरि्व॑सुदेव: कृतोद्वहः ।
देवक्या सूर्यया सार्थ प्रयाणे रथमारुहत् ॥
२९॥
तस्यामू--उस मथुरा नामक स्थान में; तु--निस्सन्देह; कर्हिचित्ू--कुछ समय बीता; शौरि:--शूर का वंशज, देवता; बसुदेव:--बसुदेव रूप में प्रकट; कृत-उद्बगद: --विवाह करने के बाद; देवक्या--देवकी से; सूर्यया--अपनी नवविवाहिता पत्नी के;सार्धम्--साथ; प्रयाणे--घर लौटने के लिए; रथम्--रथ पर; आरुहत्--चढ़ा |
कुछ समय पूर्व देववंश ( या शूरवंश ) के वसुदेव ने देवकी से विवाह किया।
विवाह केबाद वह अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ घर लौटने के लिए अपने रथ पर आरूढ़ हुआ।
उपग्रसेनसुतः कंस: स्वसु: प्रियचिकीर्षया ।
रश्मीन्हयानां जग्राह रौक्मै रथशतैर्वृतः ॥
३० ॥
उग्रसेन-सुत:--उग्रसेन का बेटा; कंस:ः--कंस ने; स्वसु:--अपनी बहिन देवकी के; प्रिय-चिकीर्षया--विवाह के अवसर परउसे प्रसन्न करने के लिए; रश्मीन्ू--लगामों को; हयानाम्--घोड़ों की; जग्राह--पकड़ लिया; रौक्मैः --सोने की बनी; रथ-शतैः--सैकड़ों रथों से; वृत:--घिरा हुआ।
राजा उग्रसेन के पुत्र कंस ने अपनी बहन देवकी को उसके विवाह के अवसर पर प्रसन्न करनेकी दृष्टि से घोड़ों की लगामें अपने हाथ में थाम लीं और स्वयं रथचालक ( सारथी ) बन गया।
वह सैकड़ों सुनहरे रथों से घिरा था।
चतुःशतं पारिबई गजानां हेममालिनाम् ।
अश्वानामयुतं सार्थ रथानां च त्रिषघट्शतम् ॥
३१॥
दासीनां सुकुमारीणां द्वे शते समलड्डू ते ।
दुहित्रे देवकः प्रादाद्याने दुहितृबत्सल: ॥
३२॥
चतु:-शतम्--चार सौ; पारिबहम्--दहेज; गजानाम्--हाथियों के; हेम-मालिनाम्--सोने के हारों से सजे; अश्वानाम्--घोड़ोंके; अयुतम्--दस हजार; सार्धमू--साथ में; रथानाम्ू--रथों के; च--तथा; त्रि-षट्-शतम्--छह सौ का तिगुना, अठारह सौ;दासीनाम्--दासियों के; सु-कुमारीणाम्--अत्यन्त जवान तथा सुन्दर अविवाहित लड़कियाँ; द्वे--दो; शते--सौ; समलड्ढू ते--गहनों से सज्जित; दुहित्रे--अपनी पुत्री को; देवक:--राजा देवक; प्रादात्-भेंट स्वरूप दिया; याने--जाते समय; दुहितृ-बत्सलः--अपनी पुत्री देवकी को अत्यधिक चाहने वाला |
देवकी का पिता राजा देवक अपनी पुत्री को अत्यधिक स्नेह था।
अतएव जब देवकी तथाउसका पति घर से विदा होने लगे तो उसने दहेज में सोने के हारों से सुसज्जित चार सौ हाथी दिए।
साथ ही दस हजार घोड़े, अठारह हजार रथ तथा दो सौ अत्यन्त सुन्दर तथा गहनों से अच्छी तरहअलंकृत युवा दासियाँ दीं।
शह्डतूर्यमृदड़ाश्च नेदुर्दुन्दुभयः समम् ।
प्रयाणप्रक्रमे तात वरवध्वो: सुमड्रलम् ॥
३३॥
शब्डु--शंख,; तूर्य--तुरही; मृदड्राः--मृदंग; च-- भी; नेदु:--बजने लगे; दुन्दुभय:--नगाड़े; समम्--एकसाथ; प्रयाण-प्रक्रो--विदाई के समय; तात-हे पुत्र; बर-वध्वो:--दूल्हा तथा दुल्हन की; सु-मड्गलम्--शुभ विदाई के लिए
हे प्रिय पुत्र महाराज परीक्षित, जब दूल्हा तथा दुल्हन विदा होने लगे तो उनकी शुभ विदाईपर शंख, तुरही, मृदंग तथा नगाड़े एकसाथ बजने लगे।
पथि प्रग्रहिणं कंसमाभाष्याहाशरीरवाक् ।
अस्यास्त्वामष्टमो गर्भो हन्ता यां वहसेडबुध ॥
३४॥
पथ्ि--रास्ते में; प्रग्रहिणम्--घोड़ों की लगाम थामे हुए; कंसम्--कंस को; आभाष्य--सम्बोधित करते हुए; आह--कहा; अ-शरीर-वाक्ू--अहृश्य शरीर से आने वाली आवाज ने; अस्या:--इस ( देवकी ) का; त्वाम्ू--तुमको; अष्टम: --आठवाँ; गर्भ:--गर्भ; हन्ता--मारने वाला; याम्--जिसको; वहसे--लिए जा रहे हो; अबुध--हे मूर्ख
जब कंस घोड़ों की लगाम थामे मार्ग पर रथ हाँक रहा था, तो किसी अशरीरी आवाज नेउसको सम्बोधित किया, ‘'आरे मूर्ख दुष्ट! तुम जिस स्त्री को लिए जा रहे हो उसकी आठवींसनन््तान तुम्हारा वध करेगी।
इत्युक्त: स खलः पापो भोजानां कुलपांसन: ।
भगिनीं हन्तुमारब्धं खड्गपाणि: कचेग्रहीत् ॥
३५॥
इति उक्त:--इस तरह कहे जाने पर; सः--वह ( कंस ); खलः--दुष्ट, ईर्ष्यालु; पाप:--पापी; भोजानाम्-- भोज कुल का; कुल-पांसन:--अपने कुल की ख्याति को नीचे गिराने वाला; भगिनीम्--अपनी बहन को; हन्तुम् आरब्धम्-मारने के लिए उद्यत;खड्ग-पाणि:--हाथ में तलवार लेकर; कचे--बाल; अग्रहीत्ू--पकड़ लिया।
कंस भोजवंश का अधम व्यक्ति था क्योंकि वह ईर्ष्यालु तथा पापी था।
इसलिए उसने जबयह आकाशवाणी सुनी तो उसने बाएँ हाथ से अपनी बहन के बाल पकड़ लिए और उसके सिरको धड़ से अलग करने के लिए दाहिने हाथ से अपनी तलवार निकाली।
त॑ जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं निरपत्रपम् ।
वसुदेवो महाभाग उबाच परिसान्त्वयन् ॥
३६॥
तम्--उस ( कंस ) को; जुगुप्सित-कर्माणम्--जो ऐसा घृणित कर्म करने के लिए तैयार था; नृशंसम्--अत्यन्त क्रूर;निरपत्रपम्--बेहया, निर्लज; वसुदेव:--वसुदेव ने; महा-भाग:--वासुदेव का अत्यन्त भाग्यशाली पिता; उबाच--कहा;परिसान्त्वयन्--सान्त्वना देते हुए।
कंस इतना क्रूर तथा ईर्ष्यालु था कि वह निर्लज्ञतापूर्वक अपनी बहन को मारने के लिएतैयार था अतः उसे शान्त करने के लिए कृष्ण के होने वाले पिता महात्मा बसुदेव ने उससेनिम्नलिखित शब्द कहे।
श्रीवसुदेव उबाचएलाघनीयगुण: शूरैर्भवान्भोजयशस्करः ।
स कथं भगिनीं हन्यात्स्त्रियमुद्दराहपर्वणि ॥
३७॥
श्री-वसुदेव: उबाच--महाभाग वसुदेव ने कहा; एलाघनीय-गुण:--प्रशंसनीय गुणों से युक्त; शूरैः--शूरवीरों के द्वारा; भवान्--आप; भोज-यशः-करः--भोजवंश का दैदीप्यमान नक्षत्र; सः--आप जैसा; कथम्--किस तरह; भगिनीम्ू-- अपनी बहन को;हन्यात्ू--मार सकता है; स्त्रियमू--विशेष रूप से स्त्री को; उद्बाह-पर्वीणि--विवाहोत्सव के समय
वसुदेव ने कहा : हे साले महाशय, तुम्हारे भोज परिवार को तुम पर गर्व है और बड़े-बड़ेशूरवीर तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करते हैं।
भला तुम्हारे जैसा योग्य व्यक्ति एक स्त्री को, जो उसीकी बहन है, विशेष रूप से उसके विवाह के अवसर पर, मार कैसे सकता है?
मृत्युर्जन्मवरतां वीर देहेन सह जायते ।
अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वें प्राणिनां ध्रुव: ॥
३८ ॥
मृत्यु:--मृत्यु; जन्म-वताम्--जन्म लेने वाले जीवों के; वीर--हे वीर; देहेन सह--शरीर के साथ; जायते--उत्पन्न होती है;अद्य--आज; वा--चाहे; अब्द-शत--सौ वर्षों के; अन्ते--अन्त में; वा--अथवा; मृत्यु:--मृत्यु; बै--निस्सन्देह; प्राणिनाम्--सारे जीवों की; ध्रुव:ः--निश्चित है
हे शूरवीर, जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है, क्योंकि शरीर के ही साथ मृत्यु काउद्भव होता है।
कोई चाहे आज मरे या सौ वर्षो बाद, किन्तु प्रत्येक जीव की मृत्यु निश्चित है।
देहे पञ्ञत्वमापन्ने देही कर्मानुगोडवश: ।
देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपु: ॥
३९॥
देहे--जब शरीर; पश्ञत्वम् आपन्ने--पाँच तत्त्वों में बदल जाता है; देही--देहधारी, जीव; कर्म-अनुग: -- अपने सकाम कर्मों केफलों का पालन करता हुआ; अवश:ः --स्वतः ; देह-अन्तरम्--दूसरा शरीर ( भौतिक तत्त्वों से निर्मित ); अनुप्राप्प--फल के रूपमें प्राप्त करके; प्राक्तममू--पहले वाला; त्यजते--छोड़ देता है; वपु:--शरीर जब यह शरीर मिट्टी बन जाता है और फिर से पाँच तत्त्वों में--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुतथा आकाश--परिणत हो जाता है
तो शरीर का स्वामी जीव स्वतः अपने सकाम कर्मों केअनुसार भौतिक तत्त्वों से बना दूसरा शरीर प्राप्त करता है।
अगला शरीर प्राप्त होने पर वहवर्तमान शरीर को त्याग देता है।
ब्रज॑स्तिष्ठन्पदैेकेन यथेवैकेन गच्छति ।
यथा तृणजलौकैवं देही कर्मगतिं गत: ॥
४०॥
ब्रजन्ू--रास्ते पर चलते हुए कोई व्यक्ति; तिष्ठनू--खड़े होकर; पदा एकेन--एक पाँव पर; यथा--जिस तरह; एव--निस्सन्देह;एकेन--दूसरे पाँव से; गच्छति--जाता है; यथा--जिस तरह; तृण-जलौका--तिनके पर बैठा कीड़ा; एवम्--इस तरह; देही--जीव; कर्म-गतिम्--सकाम कर्मों के फल; गतः--भोगता है|
जिस तरह रास्ते पर चलते हुए मनुष्य अपना एक पाँव जमीन पर टेकता है और फिर दूसरेपाँव को उठाता है या जिस तरह वनस्पति का एक कीड़ा पहले एक पत्ती पर बैठता है और फिरइसे छोड़ कर दूसरी पत्ती पर जाता है उसी तरह जब बद्धजीव दूसरे शरीर का आश्रय ग्रहणकरता है तब पिछले शरीर को त्याग देता है।
स्वप्ने यथा पश्यति देहमीहशंमनोरथेनाभिनिविष्ट चेतन: ।
दृष्टश्रुताभ्यां मनसानुचिन्तयन्प्रपद्यते तत्किमपि हापस्मृति: ॥
४१॥
स्वण्ने--सपने में; यथा--जिस तरह; पश्यति--देखता है; देहम्--शरीर का प्रकार; ईहशम्--उसी तरह; मनोरथेन--मानसिकचिन्तन द्वारा; अभिनिविष्ट--पूरी तरह लीन; चेतन: --चेतना से युक्त; दृष्ट--आँखों से देखकर जो अनुभव किया गया हो;श्रुताभ्यामू--तथा सुन करके; मनसा--मन से; अनुचिन्तयन्ू--सोचते, अनुभव करते तथा इच्छा करते हुए; प्रपद्यते--शरण मेंआता है; तत्--उस अवस्था तक; किम् अपि--क्या कहा जा सकता है; हि--निस्सन्देह; अपस्मृति:--वर्तमान शरीर काविस्मरण।
किसी परिस्थिति को देखकर या सुनकर ही मनुष्य उसके बारे में चिन्तन-मनन करता है और अपने इस शरीर का विचार न करते हुए उसके वशीभूत हो जाता है।
इसी तरह मानसिक संतुलनद्वारा वह रात में भिन्न शरीरों तथा भिन्न परिस्थितियों में रहकर सपना देखता है और अपनीवास्तविक स्थिति को भूल जाता है।
उसी प्रक्रिया के अन्तर्गत वह अपना वर्तमान शरीर त्यागकरदूसरा शरीर ग्रहण करता है ( तथा देहान्तरग्राप्ति: )।
यतो यतो धावति दैवचोदितंमनो विकारात्मकमाप पञ्ञसु ।
गुणेषु मायारचितेषु देह्मयसौप्रपद्ममान: सह तेन जायते ॥
४२॥
यतः यतः--एक स्थान से दूसरे स्थान को या एक पद से दूसरे पद को; धावति--चिन्तन करता है; दैव-चोदितम्-- भाग्य द्वाराप्रेरित; मनः--मन; विकार-आत्मकम्--एक प्रकार के भावों से दूसरे प्रकार में बदलते हुए; आप--अन्त में प्राप्त करता है( प्रवृत्ति ); पञ्लसु--मृत्यु के समय ( जब भौतिक शरीर भौतिक पदार्थों में परिणत हो जाता है ); गुणेषु--( मुक्त न होने से मनसंलग्न रहता है ) भौतिक गुणों से; माया-रचितेषु--जहाँ माया वैसा ही शरीर रचती है; देही--ऐसा शरीर धारण करने वालाआत्मा; असौ--वह; प्रपद्यमान:--शरणागत ( ऐसी स्थिति को ); सह--साथ; तेन--वैसे ही शरीर के द्वारा; जायते--जन्म लेताहै
मृत्यु के समय मनुष्य सकाम कर्मों में निहित मन के सोचने, अनुभव करने और चाहने केअनुसार ही शरीर-विशेष प्राप्त करता है।
दूसरे शब्दों में, मन के कार्यकलापों के अनुसार हीशरीर विकास करता है।
शरीर के परिवर्तन मन की चंचलता के कारण हैं अन्यथा आत्मा तो मूलआध्यात्मिक शरीर में रह सकता है।
ज्योतिर्यथेवोदकपार्थिवेष्वदःसमीरवेगानुगतं विभाव्यते ।
एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान्गुणेषु रागानुगतो विमुहाति ॥
४३॥
ज्योतिः--आकाश में सूर्य, चन्द्रमा तथा तारे; यथा--जिस तरह; एब--निस्सन्देह; उदक--जल में; पार्थिवेषु--या अन्य तरलपदार्थ यथा तैल में; अदः--प्रत्यक्ष रूप से; समीर-वेग-अनुगतम्--वायु के वेग से ठेला जाकर; विभाव्यते--विभिभन्न रूपों मेंप्रकट होते हैं; एवम्--उसी तरह; स्व-माया-रचितेषु--अपने मनोरथों से उत्पन्न परिस्थिति में; असौ--जीव; पुमान्ू--मनुष्य;गुणेषु-- प्रकृति के गुणों द्वारा प्रकट, भौतिक जगत में; राग-अनुगत:--अपनी आसक्ति के अनुसार; विमुह्मति--पहचान केद्वारा मोहग्रस्त होता है|
जब आकाश में स्थित नक्षत्र जैसे सूर्य, चन्द्रमा तथा तारे तेल या जल जैसे तरल पदार्थों मेंप्रतिबिम्बित होते हैं, तो वायु के वेग के कारण वे विभिन्न आकारों के लगते हैं कभी गोल, कभीलम्बे तो कभी और कुछ।
इसी तरह जब जीवात्मा भौतिकतावादी विचारों में मग्न रहता है, तोवह अज्ञान के कारण विविध रूपों को अपनी पहचान के रूप में ग्रहण करता है।
दूसरे शब्दों में,प्रकृति के भौतिक गुणों से विचलित होने के कारण वह मनोरथों के द्वारा मोहग्रस्त हो जाता है।
तस्मान्न कस्यचिद्द्रोहमाचरेत्स तथाविध: ।
आत्मन: क्षेममन्विच्छन्द्रोग्धुव परतो भयम् ॥
४४॥
तस्मात्ू--अत:; न--नहीं; कस्यचित्--किसी की; द्रोहम्--ईर्ष्या; आचरेत्--आचरण करे; सः--पुरुष ( कंस ); तथा-विध:--( वसुदेव द्वारा ) इस प्रकार से उपदेश दिया गया; आत्मन: --अपना; क्षेमम्ू--कल्याण; अन्विच्छन्--चाहे तो; द्रोग्धु:--अन्यों से ईर्ष्या रखने वाले का; वै--निस्सन्देह; परत:--अन्यों से; भयम्-- भय का कारण होता है।
चूँकि ईष्यालु एवं अपवित्र कार्य ऐसे शरीर का कारण बनते हैं जिससे अगले जीवन में कष्टभोगना पड़ता है इसलिए मनुष्य अपवित्र कार्य करे ही क्यों? अपने कल्याण को ध्यान में रखतेहुए मनुष्य को चाहिए कि वह किसी से ईर्ष्या न करे क्योंकि ईर्ष्यालु व्यक्ति को इस जीवन में याअगले जीवन में अपने शत्रुओं से सदा हानि का भय बना रहता है।
एषा तवानुजा बाला कृपणा पुत्रिकोपमा ।
हन्तुं नाहँसि कल्याणीमिमां त्वं दीनवत्सल: ॥
४५॥
एषा--यह; तव--तुम्हारी; अनुजा--छोटी बहन; बाला--अबोध स्त्री; कृपणा--तुम पर आश्रित; पुत्रिका-उपमा--तुम्हारी हीपुत्री के समान; हन्तुमू-उसे मारना; न--नहीं; अर्हसि--तुम्हें चाहिए; कल्याणीम्--तुम्हारे स्नेहाधीन; इमाम्ू--इसको; त्वमू--तुम; दीन-वत्सल:ः--गरीब तथा अबोध पर अत्यन्त दयालु।
तुम्हारी छोटी बहन बेचारी देवकी तुम्हारी पुत्री के समान है और वह लाड़-प्यार से पालेजाने योग्य है।
तुम दयालु हो, अतः तुम्हें इसका वध नहीं करना चाहिए।
निस्संदेह यह तुम्हारेस्नेह की पात्र है।
श्रीशुक उबाचएवं स सामभिभभदेर्बो ध्यमानो पि दारुण: ।
न न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादाननुत्रतः ॥
४६॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस तरह; सः--वह ( कंस को ); सामभि:--समझाने-बुझाने केप्रयासों से; भेदै:--नैतिक उपदेश द्वारा कि वह अन्यों के प्रति क्रूर न बने; बोध्यमानः अपि--किये जाने पर भी; दारुण: --अत्यन्त क्रूर; न न्यवर्तत--नहीं माना ( जघन्य कार्य करने से ); कौरव्य--हे महाराज परीक्षित; पुरुष-अदान्--राक्षसों का;अनुव्रत:--अनुयायी |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे कुरुवंश में श्रेष्ठ, कंस अत्यंत क्रूर था और वास्तव में राक्षसोंका अनुयायी था।
अतएव वसुदेव के सदुपदेशों से उसे न तो समझाया-बुझाया जा सकता था, नही भयभीत किया जा सकता था।
उसे इस जीवन में या अगले जीवन में पापकर्मों के फलों कीकोई चिन्ता नहीं थी।
निर्बन्धं तस्य त॑ ज्ञात्वा विचिन्त्यानकदुन्दुभि: ।
प्राप्तं काल॑ प्रतिव्योदुमिदं तत्रान्वपद्यत ॥
४७॥
निर्बन्धम्ू-करने के संकल्प को; तस्थ--उस ( कंस ) का; तमू--उस ( संकल्प ) को; ज्ञात्वा--जानकर; विचिन्त्य--गहराई सेसोचकर; आनकदुन्दुभि: --वसुदेव; प्राप्तम्--आया हुआ; कालम्--आसतन्न मृत्यु-संकट को; प्रतिव्योढुमू--ऐसे कार्यो से रोकनेके लिए; इृदम्ू--यह; तत्र--वहाँ; अन्वपद्यत--अन्य उपायों को सोचा |
जब वसुदेव ने देखा कि कंस अपनी बहन देवकी को मार डालने पर तुला हुआ है, तो उसनेअपने मन में गम्भीरतापूर्वक सोचा।
मृत्यु को आया हुआ देखकर उसने कंस को रोकने का दूसरा उपाय सोचा।
मृत्युबुस्द्विमतापोह्यो यावह्ग॒त्द्िबलोदयम् ।
यद्यसौ न निवर्तेत नापराधोस्ति देहिन: ॥
४८ ॥
मृत्यु:--मृत्यु; बुन्धि-मता--बुद्ध्धिमान व्यक्ति द्वारा; अपोह्म:--दूर रहना चाहिए; यावत्--जब तक; बुद्धि-बल-उदयम्--बुद्धितथा शारीरिक शक्ति रहते हुए; यदि--यदि; असौ--वह ( मृत्यु ); न निरवर्तेत--रोकी नहीं जा सकती; न--नहीं; अपराध: --अपराध; अस्ति--है; देहिन:--मृत्यु संकट में फँसे व्यक्ति का।
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जब तक बुद्धि तथा शारीरिक पराक्रम रहे, तब तक मृत्यु सेबचने का प्रयास करता रहे।
हर देहधारी का यही कर्तव्य है।
यदि उद्यम करने पर भी मृत्यु कोटाला नहीं जा सके, तो मृत्यु को वरण करने वाला मनुष्य अपराधी नहीं है।
प्रदाय मृत्यवे पुत्रान्मोचये कृपणामिमाम् ।
सुता मे यदि जायेरन्मृत्युर्वा न प्रियेत चेत् ॥
४९॥
विपर्ययो वा किं न स्थाद्गतिर्धातुर्दुरत्यया ।
उपस्थितो निवर्तेत निवृत्त: पुनरापतेत् ॥
५०॥
प्रदाय--देने का वादा करके; मृत्यवे--देवकी के लिए कालस्वरूप कंस को; पुत्रान्--पुत्रों को; मोचये--आसन्न संकट सेछुड़ाने के लिए; कृपणाम्--निर्दोष; इमामू--देवकी को; सुता:--पुत्र; मे--मेरे; यदि--यदि; जायेरन्--उत्पन्न होंगे; मृत्यु: --कंस; वा--अथवा; न--नहीं; प्रियेत--मरना होगा; चेत्--यदि; विपर्यय: --इसके विपरीत; वा--अथवा; किम्--क्या; न--नहीं; स्थात्ू--हो सकता है; गति:ः--गति; धातुः--प्रारब्ध की; दुरत्यया--समझना मुश्किल है; उपस्थित:--अभी प्राप्त होनेवाला; निवर्तेत--रूक सकता है; निवृत्त:--देवकी की मृत्यु को रोकने पर; पुनः आपतेत्-- भविष्य में फिर हो सके ( तो मैं क्याकर सकता हूँ )
वसुदेव ने विचार किया: मैं मृत्यु रूपी कंस को अपने सारे पुत्र देकर देवकी के प्राण बचासकता हूँ।
हो सकता है कि कंस मेरे पुत्रों के जन्म के पूर्व ही मर जाए, या फिर जब उसे मेरे पुत्रके हाथों से मरना लिखा है, तो मेरा कोई पुत्र उसे मारे ही।
इस समय मुझे चाहिए कि मैं कंस कोअपने सररे पुत्रों को सौंपने की प्रतिज्ञा कर लूँ जिससे कंस अपनी यह धमकी त्याग दे और यदिआगे चलकर कंस मर जाता है, तो फिर मुझे डरने की कोई बात नहीं रह जाती।
अग्नेर्यथा दारुवियोगयोगयो-रहष्टतोउन्यन्न निमित्तमस्ति ।
एवं हि जन्तोरपि दुर्विभाव्य:शरीरसंयोगवियोगहेतु: ॥
५१॥
अग्नेः:--जंगल की आग का; यथा--जिस तरह; दारु--लकड़ी का; वियोग-योगयो:--संयोग तथा वियोग दोनों का;अदृष्टतः--अदृश्य प्रारब्ध की अपेक्षा; अन्यत्ू--कोई अन्य कारण या संयोग; न--नहीं; निमित्तम्--कारण; अस्ति--है;एवम्--इस प्रकार; हि--निश्चय ही; जन्तो: --जीव का; अपि--निस्सन्देह; दुर्विभाव्य:--पाया नहीं जा सकता; शरीर--शरीरका; संयोग--स्वीकृति; वियोग--परित्याग; हेतु:--कारण |
जब किसी अदृश्य कारण से आग लकड़ी के एक टुकड़े से लपक कर दूसरे खंड को जलादेती है, तो इसका कारण प्रारब्ध है।
इसी तरह जब जीव एक प्रकार का शरीर स्वीकार करकेदूसरे का परित्याग करता है, तो इसमें अहृश्य प्रारब्ध के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं होता।
एवं विमृश्य तं पाप॑ यावदात्मनिदर्शनम् ।
पूजयामास वै शौरिर्हुमानपुरःसरम् ॥
५२॥
एवम्--इस प्रकार से; विमृश्य--सोच विचार कर; तमू--कंस को; पापम्ू--अत्यन्त पापी; यावत्--यथासम्भव; आत्मनि-दर्शनम्ू--अपनी बुद्धि भर, भरसक; पूजयाम् आस--प्रशंसा की; बै--निस्सन्देह; शौरि:--वसुदेव ने; बहु-मान--सत्कार करतेहुए; पुरःसरम्--उसके सामने।
इस तरह इस विषय पर अपनी बुद्धिसे भरपूर विचार करने के बाद वसुदेव ने पापी कंस केसमक्ष बड़े ही आदरपूर्वक अपना प्रस्ताव रखा।
प्रसन्नवदनाम्भोजो नृशंसं निरपत्रपम् ।
मनसा दूयमानेन विहसन्निदमब्रवीत् ॥
५३॥
प्रसन्न-वदन-अम्भोज:--वसुदेव, जो बाहर से परम प्रसन्न लग रहे थे; नृशंसम्--अत्यन्त क्रूर; निरपत्रपम्--निर्लज्ज कंस को;मनसा--मन से; दूयमानेन--चिन्ता तथा दुख से पूर्ण; विहसन्--बाहर से हँसते हुए; इदम् अब्नवीत्ू--इस प्रकार बोले |
वसुदेव का मन चिन्ता से पूर्ण था क्योंकि उनकी पत्नी संकट में थीं, किन्तु क्रूर, निर्लज्जतथा पापी कंस को प्रसन्न करने के उद्देश्य से बनावटी हँसी लाते हुए वे इस प्रकार बोले।
श्रीवसुदेव उबाचन हास्यास्ते भयं सौम्य यद्वै साहाशरीरवाक् ।
पुत्रान्समर्पयिष्येउस्यथा यतस्ते भयमुत्थितम् ॥
५४॥
श्री-वसुदेव: उबाच-- श्री वसुदेव ने कहा; न--नहीं; हि--निस्सन्देह; अस्या:--इससे ( देवकी से ); ते--तुम्हारा; भयम्-- भय;सौम्य--हे शालीन; यत्--जो; बै--निस्सन्देह; सा--वह; आह--बोली; अ-शरीर-वाक् --बिना शरीर के वाणी; पुत्रानू--अपने सारे पुत्रों को; समर्पयिष्ये --तुम्हें सौंप दूँगा; अस्या:--इस देवकी के ; यत:ः--जिससे; ते--तुम्हारा; भयम्-- भय;उत्थितम्--उत्पन्न हुआ है|
वसुदेव ने कहा : हे भद्ग-श्रेष्ठ, तुमने अहश्यवाणी से जो भी सुना है उसके लिए तुम्हें अपनीबहन देवकी से तनिक भी डरने की कोई बात नहीं है।
तुम्हारी मृत्यु का कारण उसके पुत्र होंगेअतः मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि जब उसके पुत्र उत्पन्न होंगे, जिनसे तुम्हें डर है, तो उन सबकोलाकर मैं तुम्हें सौंप दिया करूँगा।
श्रीशुक उबाचस्वसुर्वधान्निववृते कंसस्तद्वाक्यसारवित् ।
वसुदेवोपि तं प्रीत: प्रशस्य प्राविशद्गृहम् ॥
५५॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; स्वसु:--अपनी बहन के ( देवकी के ); वधात्--वध से; निववृते--कुछकाल के लिए रुक गया; कंस:--कंस; तत्-वाक्य--वसुदेव के वचन; सार-वित्--सही जानकर; वसुदेव:--वसुदेव; अपि--भी; तम्ू--उसको ( कंस को ); प्रीत:--तुष्ट होकर; प्रशस्थ--अधिक सान््त्वना देकर; प्राविशत् गृहम्-- अपने घर में प्रवेशकिया।
श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : कंस वसुदेव के तर्कों से सहमत हो गया और वसुदेवके वचनों पर पूरा भरोसा करके उसने अपनी बहन को मारने का विचार छोड़ दिया।
वसुदेव नेकंस से प्रसन्न होकर उसे और भी सान्त्वना दी और अपने घर में प्रवेश किया।
अथ काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता ।
पुत्रान्प्रसुषुवे चाष्टी कन्यां चैवानुवत्सरम् ॥
५६॥
अथ--तत्पश्चात्; काले--समय बीतने पर; उपावृत्ते--परिपक्व होने पर; देवकी--कृष्ण के पिता वसुदेव की पत्नी ने; सर्व-देवता--देवकी, जिसके लिए सारे देवता तथा स्वयं भगवान् प्रकट हुए; पुत्रान्--पुत्रों को; प्रसुषुवे--उत्पन्न किया; च--तथा;अष्टौ--आठ; कन्यां च--तथा एक कन्या सुभद्रा को भी; एब--निस्सन्देह; अनुवत्सरम्--वर्षानुवर्ष, प्रतिवर्ष |
तत्पश्चात् प्रति-वर्ष समय आने पर ईश्वर तथा अन्य देवताओं की माता देवकी ने एक शिशुको जन्म दिया।
इस तरह एक के बाद एक उनके आठ पुत्र तथा सुभद्रा नामक एक कन्या उत्पन्नहुई।
कीर्तिमन्तं प्रथमजं कंसायानकदुन्दुभि: ।
अर्पयामास कृच्छेण सोउनृतादतिविहल: ॥
५७॥
कीर्तिमन्तम्-कीर्तिमान नाम से; प्रथम-जम्--पहले पहल जन्मा शिशु; कंसाय--कंस को; आनकदुन्दुभि: --वसुदेव द्वारा;अर्पयाम् आस--दे दिया गया; कृच्छेण --बड़ी मुश्किल से; सः--वह ( वसुदेव ); अनृतात्--झूठा बनने के भय से, वचन भंगकरने से; अति-विहलः--अत्यन्त भयभीत
वसुदेव अत्यधिक विह्ल थे कि कहीं उनका वचन भंग हुआ तो वे झूठे साबित होंगे।
इसतरह उन्होंने बड़ी ही वेदना के साथ अपने प्रथम पुत्र कीर्तिमान को कंस के हाथों में सौंप दिया।
कि दुःसहं नु साधूनां विदुषां किमपेक्षितम् ।
किमकार्य कदर्याणां दुस्त्यजं कि धृतात्मनामू ॥
५८ ॥
किमू--क्या; दुःसहम्--पीड़ाप्रद है; नु--निस्सन्देह; साधूनाम्ू--साधु पुरुषों के लिए; विदुषाम्--विद्वान पुरुषों के लिए; किम्अपेक्षितम्--क्या निर्भरता है; किम् अकार्यम्-क्या मना है; कदर्याणाम्ू--अधम पुरुषों के लिए; दुस्त्यजमू--छोड़ पानाअत्यन्त कठिन; किमू--क्या; धृत-आत्मनाम्ू--स्वरूपसिद्ध व्यक्तियों के लिए
वे साधु पुरुष जो सत्य पर अटल रहते हैं, उनके लिए कया पीड़ादायक है? उन शुद्ध भक्तोंके लिए जो भगवान् को तत्त्व के रूप में जानते हैं, भला स्वतंत्रता क्यों नहीं होती ? निम्नचरित्रवाले पुरुषों के लिए कौन से कार्य वर्जित हैं ? जिन्होंने भगवान् कृष्ण के चरणकमलों पर अपनेको पूरी तरह समर्पित कर दिया है वे कृष्ण के लिए भला कौन सी वस्तु नहीं त्याग सकते ?
इृष्टा समत्वं तच्छौरे: सत्ये चेव व्यवस्थितिम् ।
कंसस्तुष्टमना राजन्प्रहसबन्निदमब्रवीत् ॥
५९॥
इष्ठा--देखकर; समत्वम्--सुख या दुख से अविचलित, समभाव से; तत्--उस; शौरे: --वसुदेव के; सत्ये--सत्य में; च--निस्सन्देह; एबव--निश्चय ही; व्यवस्थितिम्ू--हृढ़ परिस्थिति; कंस:ः--कंस ने; तुष्ट-मना:-- अत्यन्त संतुष्ट होकर ( अपना वचननिभाने के लिए पहली संतान लाकर सौंपने के वसुदेव के आचरण से ); राजन्--हे महाराज परीक्षित; प्रहसन्--हँसते हुए;इदम्--यह; अब्नवीत्--कहा |
हे राजा परीक्षित, जब कंस ने देखा कि वसुदेव सत्य में स्थिर रहते हुए अपनी सन्तान उसेसौंपने में समभाव बने रहे, तो वह अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने हँसते हुए यह कहा।
प्रतियातु कुमारोयं न ह्ास्मादस्ति मे भयम् ।
अष्टमाद्युवयोर्गभन्मृत्युमें विहित: किल ॥
६०॥
प्रतियातु--हे वसुदेव, अपने बच्चे को घर ले जाओ; कुमार:--नवजात शिशु; अयम्--यह; न--नहीं; हि--निस्सन्देह;अस्मात्--उससे; अस्ति-- है; मे--मेरा; भयम्-- भय; अष्टमात्--आठवें से; युवयो: --तुम पति-पत्नी दोनों के; गर्भात-गर्भसे; मृत्यु:--मृत्यु; मे--मेरा; विहित:--जो होना है; किल--निस्सन्देह |
हे बसुदेव, तुम अपने बच्चे को वापस ले सकते हो और घर जा सकते हो।
मुझे तो तुम्हारीऔर देवकी की आठवीं सन्तान से चिन्तित हूँ, जिसके हाथों मेरी मृत्यु लिखी है।
तथेति सुतमादाय ययावानकदुन्दुभि: ।
नाभ्यनन्दत तद्वाक्यमसतोविजितात्मन: ॥
६१॥
तथा--बहुत अच्छा; इति--इस प्रकार; सुतम् आदाय--अपने पुत्र को वापस लाकर; ययौ--उस स्थान से चला गया;आनकदुन्दुभि:--वसुदेव; न अभ्यनन्दत--बहुत महत्त्व नहीं दिया; तत्-वाक्यम्--उसके ( कंस के ) बचनों पर; असतः--चरित्रविहीन; अविजित-आत्मन:--तथा आत्मसंयमविहीन |
वसुदेव मान गये और वे अपना पुत्र घर वापस ले आए, किन्तु कंस चरित्रहीन तथाआत्मसंयमविहीन व्यक्ति था अतएव वसुदेव जानते थे कि कंस के शब्दों का कोई भरोसा नहीं।
नन्दाद्या ये ब्रजे गोपा याश्वामीषां च योषित: ।
वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥
६२॥
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत ।
ज्ञातयो बन्धुसुहदो ये च कंसमनुत्रता: ॥
६३॥
नन्द-आद्या:--नन्द महाराज तथा अन्य लोग; ये--ये सभी; ब्रजे--वृन्दावन में; गोपा:--ग्वाले; या:-- जो; च--तथा;अमीषाम्--उन सबका ( वृन्दावनवासियों का ); च-- भी; योषित: --स्त्रियाँ; वृष्णय:--वृष्णिवंश के सदस्य; वसुदेव-आद्या:--वसुदेव इत्यादि; देवकी-आद्या:--देवकी इत्यादि; यदु-स्त्रियः--यदुवंश की स्त्रियाँ; सर्वे--सभी; वै--निस्सन्देह; देवता-प्राया:--स्वर्ग के निवासी थे; उभयो:--नन्द महाराज तथा वसुदेव दोनों के; अपि--निस्सन्देह; भारत--हे महाराज परीक्षित;ज्ञातय:--सम्बन्धीगण; बन्धु--सारे मित्र; सुहृदः--शुभेच्छु जन; ये--जो; च--तथा; कंसम् अनुब्रता:--कंस के अनुयायी होतेहुए भी
है भरतवंशियों में श्रेष्ठ, महाराज परीक्षित, नन््द महाराज तथा उनके संगी ग्वाले तथा उनकीस्त्रियाँ स्वर्गलोक की ही वासी थीं।
इसी तरह वसुदेव आदि वृष्णिवंशी तथा देवकी एवं यदुवंशकी अन्य स्त्रियाँ भी स्वर्गलोक की वासी थीं।
नन्द महाराज तथा वसुदेव के मित्र, सम्बन्धी,शुभचिन्तक तथा ऊपर से कंस के अनुयायी लगने वाले व्यक्ति सभी देवता ही थे।
एतत्कंसाय भगवाज्छशंसाभ्येत्य नारद: ।
भूमेर्भारायमाणानां दैत्यानां च वधोद्यमम् ॥
६४॥
एतत्--यदु तथा वृष्णि वबंशों के विषय में ये शब्द; कंसाय--कंस के लिए; भगवान्--परमे श्वर का अत्यन्त शक्तिशालीप्रतिनिधि; शशंस--सूचना दी ( कंस को, जो संशय में था ); अभ्येत्य--निकट जाकर; नारद: --नारद मुनि ने; भूमेः-- भूमिपर;भारायमाणानाम्ू--जो भारस्वरूप हैं उनके; दैत्यानाम् च--तथा असुरों के; वध-उद्यमम्--वध करने का प्रयास
एक बार नारद मुनि कंस के पास गए और उसे यह बतलाया कि पृथ्वी के अत्यंतभारस्वरूप असुर व्यक्तियों का किस प्रकार वध किया जाने वाला है।
इस तरह कंस अत्यधिकभय तथा संशय में पड़ गया।
ऋषेरविनिर्गमे कंसो यदून्मत्वा सुरानिति ।
देवक्या गर्भसम्भूतं विष्णुं च स्वव्ध॑ प्रति ॥
६५॥
देवकीं वसुदेवं च निगृहय निगडैर्गृहि ।
जात॑ जातमहन्पुत्रं तयोरजनशड्डया ॥
६६॥
ऋषे:--नारद ऋषि के; विनिर्गमे--चले जाने पर; कंस:ः--कंस ने; यदून्ू--समस्त यदुवंशियों को; मत्वा--सोचकर; सुरान्--देवता के रूप में; इति--इस तरह; देवक्या:--देवकी के; गर्भ-सम्भूतम्--गर्भ से उत्पन्न संतानें; विष्णुम्--विष्णु के रूप मेंस्वीकार करते हुए; च--तथा; स्व-वधम् प्रति--विष्णु से अपनी मृत्यु के भय से; देवकीम्--देवकी को; वसुदेवम् च--तथाउसके पति वसुदेव को; निगृहा--बन्दी बनाकर; निगडै:--लोहे की जंजीरों से; गृहे--घर पर ही; जातम् जातमू--एक के बादएक उत्पन्न होने वाले; अहन्--मार डाला; पुत्रमू-पुत्रों को; तयो:--वसुदेव तथा देवकी के; अजन-शड्डूया--इस भय से कि वेविष्णु न हों।
नारद ऋषि के चले जाने पर कंस ने सोचा कि यदुवंश के सारे लोग देवता हैं और देवकी केगर्भ से जन्म लेने वाली कोई भी सन्तान विष्णु हो सकती है।
अतः अपनी मृत्यु के भय से कंस नेवसुदेव तथा देवकी को बन्दी बना लिया और उनके लोहे की जंजीरें डाल दीं।
कंस ने इसभविष्यवाणी से सशंकित होकर कि विष्णु उसका वध करेंगे, हर सन््तान को इस आशंका से किवह कहीं विष्णु न हो, एक एक करके मार डाला।
मातरं पितरं भ्रातृन्सर्वाश्व॒ सुहृदस्तथा ।
घ्नन्ति हासुतृपो लुब्धा राजान: प्रायशों भुवि ॥
६७॥
मातरम्ू--माता को; पितरम्--पिता को; भ्रातृनू-- भाइयों को; सर्वान् च--सबको; सुहृद: --मित्रगण; तथा-- भी; घ्नन्ति--मारते हैं; हि--निस्सन्देह; असु-तृप:--जो अपनी इन्द्रियों के लिए अन्यों से ईर्ष्या करते हैं; लुब्धा:--लालची; राजान:--ऐसेराजा; प्रायशः--प्राय:; भुवि--पृथ्वी पर
इस पृथ्वी पर इन्द्रियतृप्ति के लालची राजा प्राय: सदा अपने शत्रुओं का अंधाधुंध वध करतेहैं।
वे अपनी सनक की पूर्ति के लिए किसी का भी, यहाँ तक कि अपनी माता, पिता, भाइयोंया मित्रों का भी वध कर सकते हैं।
आत्मानमिह सज्ञातं जानन्प्राग्विष्णुना हतम् ।
महासुरं कालनेमिं यदुभिः स व्यरुध्यत ॥
६८॥
आत्मानम्--स्वयं; इह--इस संसार में; सझ्ञातम्--पुनः जन्म लेकर; जानन्-- भलीभाँति जानते हुए; प्राकु--इस जन्म के पूर्व;विष्णुना-- भगवान् विष्णु द्वारा; हतम्--मारा गया था; महा-असुरम्--बड़े असुर; कालनेमिम्--कालनेमि को; यदुभि:--यदुवंश के सदस्यों के साथ; सः--उस ( कंस ) ने; व्यरुध्यत--शत्रुवत् व्यवहार किया।
पूर्व जन्म में कंस कालनेमि नाम का महान् असुर था और विष्णु द्वारा मारा गया था।
नारद से यह जानकर कंस यदुवंश से सम्बन्धित हर किसी से द्वेष करने लगा।
उपग्रसेनं च पितरं यदुभोजान्धकाधिपम् ।
स्वयं निगृह्ाय बुभुजे शूरसेनान््महाबल: ॥
६९॥
उग्रसेनम्--उग्रसेन को; च--तथा; पितरम्--अपने पिता को; यदु--यदुवंशी; भोज-- भोजवंशी; अन्धक --अन्धकवंशी;अधिपम्--राजा को; स्वयम्--स्वयं; निगृह्य--दमन करके; बुभुजे-- भोग किया; शूरसेनान्ू--शूरसेन कहलाने वाले समस्तराज्य; महा-बलः--अत्यन्त बलशाली कंस ने
उग्रसेन के अत्यन्त बलशाली पुत्र कंस ने अपने पिता तक को, जो यदु, भोज तथा अंधकवबंशों का राजा था, बन्दी बना लिया और शूरसेन नामक राज्यों का शासन स्वयं चलाने लगा।
अध कंस उपागम्य नारदो ब्रह्मनन्दन: ।
एकान्तमुपसंगम्य वाक्यमेतदुवाच ह॥
७०॥
अथ--इस प्रकार; कंसम्--कंस के पास; उपागम्य--जाकर; नारदः--महामुनि नारद; ब्रह्मनन्दनः--ब्रह्माजी के पुत्र;एकान्तमुपसंगम्य--एकान्त स्थान में जाकर; वाक्यम्--सूचना; एतत्--यह; उवाच--कहा; ह--निश्चित रूप से।
‘तत्पश्चात् ब्रह्म के मानस पुत्र नारद कंस के पास गये और एकान्त स्थान में उन्होंने उसेनिम्नलिखित जानकारी दी।
'
अध्याय दो: गर्भ में भगवान कृष्ण के लिए देवताओं द्वारा प्रार्थना
10.2श्रीशुक उबाचप्रलम्बबकचाणूरतृणावर्तमहाशनै:॥
मुष्टिकारिष्टद्विविदपूतनाकेशी धेनुकै: ॥
१॥
अन्यैश्वासुरभूपालैर्बाणभौमादिभिर्युत: ।
यदूनां कदनं चक्रे बली मागधसंभ्रय: ॥
२॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; प्रलम्ब--प्रलम्ब नामक असुर; बक--बक नामक असुर; चाणूर--चाणूरनामक असुर; तृणावर्त--तृणावर्त नामक असुर; महाशनैः--अघासुर द्वारा; मुपष्टिक--मुष्टिक नामक असुर; अरिषप्ट--अरिष्ट असुर;द्विविद--द्विविद असुर जैसे; पूतना--पूतना; केशी--केशी; धेनुकैः--धेनुक द्वारा; अन्य: च--तथा अन्यों द्वारा; असुर-भूपालै:--पृथ्वी पर असुर राजाओं द्वारा; बाण--बाण असुर; भौम--भौमासुर; आदिभि:--इत्यादि के द्वारा; युतः--से सहायताप्राप्त करके; यदूनाम्--यदुबंश के राजाओं का; कदनम्--उत्पीड़न; चक्रे --किया; बली--अत्यन्त शक्तिशाली; मागध-संश्रयः--मगध के राजा जरासन्ध के संरक्षण में।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : मगधराज जरासंध के संरक्षण में शक्तिशाली कंस द्वारा यदुवंशीराजाओं को सताया जाने लगा।
इसमें उसे प्रलम्ब, बक, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक,अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशी, धेनुक, बाणासुर, नरकासुर तथा पृथ्वी के अनेक दूसरे असुरराजाओं का सहयोग प्राप्त था।
ते पीडिता निविविशु: कुरुपज्ञालकेकयान् ।
शाल्वान्विदर्भात्नेषधान्विदेहान्कोशलानपि ॥
३॥
ते--यदुवंशी राजा; पीडिता:--सताये हुए; निविविशु:--राज्यों में घुस आये; कुरु-पञ्ञाल--कुरुओं तथा पंचालों द्वाराअधिकृत देशों में; केकयान्ू--केकयों के देश; शाल्वान्--शाल्वों द्वारा अधिकृत देश; विदर्भान्ू--विदर्भो द्वारा अधिकृत देश;निषधान्--निषधों द्वारा अधिकृत देश; विदेहान्--विदेहों का देश; कोशलान् अपि--कोशलों द्वारा अधिकृत देशों में भी
असुर राजाओं द्वारा सताये जाने पर यादवों ने अपना राज्य छोड़ दिया और कुरुओं, पश्ञालों,केकयों, शाल्वों, विदर्भो, निषधों, विदेहों तथा कोशलों के राज्य में प्रविष्ट हुए।
एके तमनुरुन्धाना ज्ञातय: पर्युपासते ।
हतेषु घट्सु बालेषु देवक््या औग्रसेनिना ॥
४॥
सप्तमो वैष्णवं धाम यमनन्तं प्रचक्षते ।
गर्भो बभूव देवक्या हर्षशोकविवर्धन: ॥
५॥
एके--कुछ; तम्--उस कंस को; अनुरुन्धाना:--अपनी नीति का पालन करने वाले; ज्ञातय:--सम्बन्धीजन; पर्युपासते--उसकीहाँ में हाँ मिलाने लगे; हतेषु--मारे जाकर; षट्सु--छः ; बालेषु--बालक; देवक्या:--देवकी द्वारा उत्पन्न; औग्रसेनिना--उग्रसेनके पुत्र ( कंस ) द्वारा; सप्तम:--सातवाँ; वैष्णवम्--भगवान् विष्णु के; धाम--अंश; यम्--जिसको; अनन्तम्-- अनन्त नाम से;प्रचक्षते--विख्यात है; गर्भ:--गर्भ; बभूव-- था; देवक्या:--देवकी का; हर्ष-शोक-विवर्धन:--एकसाथ हर्ष तथा शोक कोबढ़ाने वाला।
किन्तु उनके कुछ सम्बन्धी कंस के इशारों पर चलने लगे और उसकी नौकरी करने लगे।
जब उग्रसेन का पुत्र कंस देवकी के छह पुत्रों का वध कर चुका तो देवकी के गर्भ में कृष्ण कास्वांश प्रविष्ट हुआ जिससे उसमें कभी सुख की तो कभी दुख की वृद्धि होती।
यह स्वांश महान्मुनियों द्वारा अनन्त नाम से जाना जाता है और कृष्ण के द्वितीय चतुर्व्यूह से सम्बन्धित है।
भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् ॥
६॥
भगवानू-- श्रीकृष्ण ने; अपि-- भी; विश्वात्मा--हर एक का परमात्मा; विदित्वा--यदुओं तथा उनके अन्य भक्तों की स्थितिजानकर; कंस-जम्--कंस के कारण; भयम्--डर; यदूनाम्--यदुओं के; निज-नाथानाम्--अपने परम आश्रय स्वरूप;योगमायाम्--कृष्ण की आध्यात्मिक शक्ति योगमाया को; समादिशत्--आदेश दिया।
कंस के आक्रमण से अपने निजी भक्त, यदुओं, की रक्षा करने के लिए विश्वात्मा भगवान् नेयोगमाया को इस प्रकार आदेश दिया।
गच्छ देवि ब्र॒जं भद्गे गोपगोभिरलड्डू तम् ।
रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुले ।
अन्याश्व कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ॥
७॥
गच्छ--अब जाओ; देवि--हे समस्त जगत की पूज्या; ब्रजम््--व्रज भूमि में; भद्रे--हे समस्त जीवों का कल्याण करनेवाली;गोप-गोभि:-ग्वालों तथा गायों के साथ; अलड्डू तम्--अलंकृत, सज्जित; रोहिणी--रोहिणी; वसुदेवस्थ--कृष्ण के पितावसुदेव की; भार्या--पत्रियों में से एक; आस्ते--रह रही है; नन्द-गोकुले--गोकुल नाम से विख्यात महाराज नन्द के राज्य मेंजहाँ लाखों गायें पाली जाती हैं; अन्या: च--तथा अन्य पत्नियाँ; कंस-संविग्ना:--कंस के भय से; विवरेषु--एकान्त स्थानों में;वसन्ति--रह रही हैं; हि--निस्सन्देह।
भगवान् ने योगमाया को आदेश दिया: हे समस्त जगत द्वारा पूज्या तथा समस्त जीवों कोसौभाग्य प्रदान करने वाली शक्ति, तुम ब्रज जाओ जहाँ अनेक ग्वाले तथा उनकी पत्नियाँ रहतीहैं।
उस सुन्दर प्रदेश में जहाँ अनेक गौवें निवास करती हैं, वसुदेव की पत्नी रोहिणी नन्द महाराजके घर में रह रही हैं।
वसुदेव की अन्य पत्लियाँ भी कंस के भय से वहीं अज्ञातवास कर रही हैं।
कृपा करके वहाँ जाओ।
देवक्या जठरे गर्भ शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ॥
८॥
देवक्या:--देवकी के; जठरे--गर्भ में; गर्भभ्-- भ्रूण; शेष-आख्यम्--कृष्ण के अंश, शेष नाम से विख्यात; धाम--अंश;मामकमू--मेरा; तत्ू--उसको; सन्निकृष्य--निकाल करके; रोहिण्या:--रोहिणी के; उदरे--गर्भ के भीतर; सन्निवेशय--बिनाकठिनाई के स्थानान्तरित करो ।
देवकी के गर्भ में संकर्षण या शेष नाम का मेरा अंश है।
तुम उसे बिना किसी कठिनाई केरोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दो।
अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे ।
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ॥
९॥
अथ--त्पश्चात्; अहम्ू-मैं; अंश-भागेन--अपने अंश द्वारा; देवक्या:--देवकी का; पुत्रतामू--पुत्र; शुभे--हे कल्याणीयोगमाया; प्राप्स्थामि--बनूँगा; त्वमू--तुम; यशोदायाम्--माता यशोदा के गर्भ में; नन्द-पत्याम्--महाराज नन्द की पत्नी;भविष्यसि--तुम भी प्रकट होगी |
हे सर्व-कल्याणी योगमायातब मैं अपने छहों ऐश्वर्यों से युक्त होकर देवकी के पुत्र रूप मेंप्रकट होऊँगा और तुम महाराज नन्द की महारानी माता यशोदा की पुत्री के रूप में प्रकट होगी।
अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम् ।
धूपोपहारबलिभि: सर्वकामवरप्रदाम् ॥
१०॥
अर्चिष्यन्ति-- पूजा करेंगे; मनुष्या:--मानव समाज; त्वाम्--तुम को; सर्व-काम-वर-ई श्वरीम्--सारी भौतिक इच्छाओं को पूराकरने वाले देवताओं में सर्वश्रेष्ठ होने से; धूप--सुगन्धित द्रव्य से; उपहार-- भेंट से; बलिभि:--यज्ञ द्वारा विविध प्रकार की पूजासे; सर्व-काम--सारी भौतिक इच्छाओं में से; वर--आशीर्वाद; प्रदामू--प्रदान कर सकने वाली |
सामान्य लोग पशुओं की बलि करके विविध सामग्री से तुम्हारी भव्य पूजा करेंगे क्योंकितुम हर एक की भौतिक इच्छाएँ पूरी करने में सर्वोपरि हो।
नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुवि ।
दुर्गेति भद्रकालीति विजया वैष्णवीति च ॥
११॥
कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च ।
माया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ॥
१२॥
नामधेयानि--विभिन्न नाम; कुर्वन्ति--देंगे; स्थानानि--विभिन्न स्थानों में; च-- भी; नराः--भौतिक भोग में रुचि रखने वालेलोग; भुवि-- पृथ्वी पर; दुर्गा इति--दुर्गा नाम; भद्रकाली इति--भद्गरकाली नाम; विजया--विजया नाम; वैष्णवी इति--वैष्णबीनाम; च--भी; कुमुदा--कुमुदा; चण्डिका--चण्डिका; कृष्णा--कृष्णा; माधवी--माधवी; कन्यका इति--कन्यका या'कन्याकुमारी; च-- भी; माया--माया; नारायणी -- नारायणी; ईशानी--ईशानी; शारदा--शारदा; इति--इस प्रकार;अम्बिका--अम्बिका; इति-- भी; च-- तथा |
भगवान् कृष्ण ने मायादेवी को यह कहकर आशीर्वाद दिया: लोग तुम्हें पृथ्वी पर विभिन्नस्थानों में विभिन्न नामों से पुकारेंगे--यथा दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका,कृष्णा, माधवी, कनन््यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा तथा अम्बिका।
गर्भसड्रूर्षणात्तं वै प्राहु: सड्डूर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद्वलभद्रं बलोच्छुयात् ॥
१३॥
गर्भ-सड्डूर्षणात्ू--देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाये जाने के कारण; तमू--उसको ( रोहिणीनन्दन को );बै--निस्सन्देह; प्राहु:--लोग कहेंगे; सड्डर्षणम्--संकर्षण को; भुवि--संसार में; राम इति--राम कहलाएगा; लोक-रमणात्--लोगों को भक्त बनने में समर्थ बनाने से; बलभद्रमू--बलभद्र कहलाएगा; बल-उच्छुयात्-- प्रचुर बल के कारण।
देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में भेजे जाने के कारण रोहिणी का पुत्रसंकर्षण भी कहलाएगा।
वह गोकुल के सारे निवासियों को प्रसन्न रखने की क्षमता होने केकारण राम कहलाएगा और अपनी प्रचुर शारीरिक शक्ति के कारण बलभद्र कहलाएगा।
सन्दिष्टेब भगवता तथेत्योमिति तद्बच: ।
प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाकरोत् ॥
१४॥
सन्दिष्टा--आदेश दिये जाने पर; एवम्--इस प्रकार; भगवता-- भगवान् द्वारा; तथा इति--ऐसा ही हो; ३४--३% मंत्र; इति--इस प्रकार; तत्-वच: --उनके शब्द; प्रतिगृह्य--मानकर; परिक्रम्य--उनकी परिक्रमा करके; गाम्--पृथ्वी पर; गता--तुरन्तचली गई; तत्-- भगवान् द्वारा दिया गया आदेश; तथा--उसी तरह; अकरोत्--किया
भगवान् से इस तरह आदेश पाकर योगमाया ने उसे तुरन्त स्वीकार कर लिया।
उसने वैदिकमंत्र ३७ के साथ पुष्टि की कि उससे जो कहा गया है उसे वह करेगी।
इसके बाद उसने पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् की परिक्रमा की और वह पृथ्वी पर स्थित नन्दगोकुल नामक स्थान के लिएचल पड़ी।
वहाँ उसने वैसा ही किया जैसा कि उसे आदेश मिला था।
गर्भ प्रणीते देवक््या रोहिणीं योगनिद्रया ।
अहो विस्त्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशु: ॥
१५॥
गर्भे--जब गर्भ; प्रणीते--ले जाया गया; देवक्या:--देवकी का; रोहिणीम्--रोहिणी के गर्भ में; योग-निद्रया --योगमाया द्वारा;अहो--हाय; विस्त्रंसित:--नष्ट हो गया; गर्भ:--गर्भ; इति--इस प्रकार; पौरा:--घर के रहने वाले; विचुक्रुशु:--विलाप करनेलगे
जब योगमाया द्वारा देवकी का बालक खींच करके रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित करदिया गया तो देवकी को लगा कि उसे गर्भपात हो गया।
फलतः महल के सारे निवासी जोर-जोरसे यह कहकर विलाप करने लगे, ‘हाय! देवकी का बच्चा जाता रहा।
' भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयड्डूरः ।
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभे: ॥
१६॥
भगवान्-- भगवान्; अपि-- भी ; विश्वात्मा-- सारे जीवों के परमात्मा; भक्तानाम्--अपने भक्तों के; अभयम्-करः--भय केकारण को मारने वाले; आविवेश--प्रविष्ट हो गये; अंश-भागेन--अपने सारे ऐश्वर्यों के साथ ( षडैश्चर्यपूर्ण ); मनः--मन में;आनकदुन्दुभे:-- वसुदेव के मन में
इस तरह समस्त जीवों के परमात्मा तथा अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले पूर्णपुरुषोत्तम भगवान् वसुदेव के मन में अपने पूर्ण ऐश्वर्य के समेत प्रविष्ट हो गये।
स बिशभ्चत्पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रवि: ।
दुरासदोतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह ॥
१७॥
सः--वह ( वसुदेव ); बिभ्रत्-- धारण किये हुए; पौरुषम्--परम पुरुष सम्बन्धी; धाम-- आध्यात्मिक तेज; भ्राजमान:--प्रकाशमान; यथा--जिस तरह; रविः--सूर्य-प्रकाश; दुरासद: --देखे जाने में भी अत्यन्त कठिन; अति-दुर्धर्ष:-- अत्यन्तकठिनाई से पास पहुँचने योग्य; भूतानाम्--समस्त जीवों में; सम्बभूव--बन गया; ह--निश्चित रुप से
वसुदेव अपने हृदय के भीतर भगवान् के स्वरूप को धारण किये हुए भगवान् के दिव्यप्रकाशमान तेज को वहन कर रहे थे जिसके कारण वे सूर्य के समान चमकीले बन गये।
अतःउनकी ओर लौकिक दृष्टि द्वारा देखना या उन तक पहुँचना कठिन था, यहाँ तक कि वे कंस जैसेपराक्रमी व्यक्ति के लिए ही नहीं, अपितु सारे जीवों के लिए भी दुर्धर्ष थे।
ततो जगन्मड्रलमच्युतांशं समाहित शूरसुतेन देवी ।
दधार सर्वात्मकमात्मभूत॑काष्ठा यथानन्दकरं मनस्तः ॥
१८॥
ततः--तत्पश्चात्; जगत्-मड्नलम्--ब्रह्माण्ड भर के जीवों के लिए मंगल; अच्युत-अंशम्-- भगवान् जो अपने अंशों में उपस्थितछह ऐश्वर्यों से कभी वियुक्त नहीं होते; समाहितम्--पूरी तरह स्थानान्तरित; शूर-सुतेन--शूरसेन के पुत्र बसुदेव द्वारा; देवी --देवकी देवी ने; दधार--वहन किया; सर्व-आत्मकम्--सबों के परमात्मा; आत्म-भूतम्--समस्त कारणों के कारण; काष्ठा--पूर्व दिशा; यथा--जिस तरह; आनन्द-करम्--आनन्दमय ( चन्द्रमा ); मनस्त:--मन के भीतर स्थित होने से |
तत्पश्चात् परम तेजस्वी, सम्पूर्ण जगत के लिए सर्वमंगलमय समस्त ऐश्वर्यों से युक्त भगवान्अपने स्वांशों समेत वसुदेव के मन से देवकी के मन में स्थानान्तरित कर दिये गये।
इस तरहबसुदेव से दीक्षा प्राप्त करने से देबकी सबों की आदि चेतना, समस्त कारणों के कारण भगवान्कृष्ण को अपने अन्तःकरण में धारण करने के कारण सुन्दर बन गईं जिस तरह उदित चन्द्रमाको पाकर पूर्व दिशा सुन्दर बन जाती है।
सा देवकी सर्वजगन्निवास-निवासभूता नितरां न रेजे ।
भोजेन्द्रगेहे ईग्निशिखेव रुद्धासरस्वती ज्ञाखले यथा सती ॥
१९॥
सा देवकी --वह देवकी देवी; सर्व-जगत्-निवास--सारे ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले भगवान् का ( मत्स्थानि सर्वभूतानि );निवास-भूता--देवकी की कुक्षि अब निवास बनी हुई है; नितराम्--विस्तार से; न--नहीं; रेजे-- प्रकाशमान हो उठा; भोजेन्द्र-गेहे--कंस के घर की चहारदीवारी के भीतर; अग्नि-शिखा इब--आग की लपटों के समान; रुद्धा--ढकी हुई; सरस्वती--विद्या; ज्ञान-खले--ज्ञान-खल नामक व्यक्ति में, ऐसे व्यक्ति में जो ज्ञान होने पर भी उसको वितरित नहीं करता; यथा--जिसतरह; सती--होकर भी |
तब देवकी ने समस्त कारणों के कारण, समग्र ब्रह्माण्ड के आधार भगवान् को अपने भीतररखा किन्तु कंस के घर के भीतर बन्दी होने से वे किसी पात्र की दीवालों से ढकी हुई अग्नि कीलपटों की तरह या उस व्यक्ति की तरह थीं जो अपने ज्ञान को जनसमुदाय के लाभ हेतु वितरितनहीं करता।
तां वीक्ष्य कंसः प्रभयाजितान्तरांविरोचयन्तीं भवनं शुचिस्मिताम् ।
आषैष मे प्राणहरो हरिगटहांश्रुवं अ्रितो यन्न पुरेयमीहशी ॥
२०॥
ताम्--उस देवकी को; वीक्ष्य--देखकर; कंस:--उसके भाई कंस ने; प्रभया--उसके सौन्दर्य और प्रभाव के बढ़ने से; अजित-अन्तरामू--अजित या भगवान् विष्णु को अपने भीतर रखने के कारण; विरोचयन्तीम्--प्रकाशित करती हुई; भवनम्--घर केसमूचे वातावरण को; शुचि-स्मिताम्--हँसती हुई तथा तेजस्वी; आह--अपने आप कहा; एष: --यह ( परम पुरुष ); मे--मेरा;प्राण-हर:--मेरी जान लेनेवाले; हरिः-- भगवान् विष्णु ने; गुहामू--देवकी के गर्भ में; ध्रुवम्--निश्चित रूप से; भ्रितः--शरणली है; यत्--क्योंकि; न--नहीं थी; पुरा--पहले; इयम्-- देवकी; ईहशी--इस तरह
गर्भ में भगवान् के होने से देवकी जिस स्थान में बन्दी थीं वहाँ के सारे वातावरण को वेआलोकित करने लगीं।
उसे प्रसन्न, शुद्ध तथा हँसमुख देखकर कंस ने सोचा, इसके भीतरस्थित भगवान् विष्णु अब मेरा वध करेंगे।
इसके पूर्व देवकी कभी भी इतनी तेजवान तथा प्रसन्ननहीं दिखी।
किमद्य तस्मिन्करणीयमाशु मेयदर्थतन्त्रो न विहन्ति विक्रमम् ।
स्त्रिया: स्वसुर्गुरुमत्या वधोयंयश: श्रियं हन्त्यनुकालमायु: ॥
२१॥
किम्--क्या; अद्य--अब तुरन्त; तस्मिनू--इस स्थिति में; करणीयम्--करने योग्य; आशु--बिना बिलम्ब किये; मे--मेराकर्तव्य; यत्ू-क्योंकि; अर्थ-तन्त्र:-- भगवान्, जो साधुओं की रक्षा करने तथा असाधुओं का वध करने के लिए कृतसंकल्प हैं;न--नहीं; विहन्ति--त्यागते हैं; विक्रमम्-- अपने पराक्रम को; स्त्रिया:--स्त्री का; स्वसु:--बहन का; गुरु-मत्या:--विशेषरूपसे जब वह गर्भवती है; वध: अयम्--वध; यश:ः--यश; श्रियम्ू--ऐश्वर्य; हन्ति--नष्ट हो जाएगा; अनुकालम्--हमेशा के लिए;आयुः--तथा उप्र |
कंस ने सोचा: अब मुझे क्या करना चाहिए? अपना लक्ष्य जानने वाले भगवान्( परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ) अपना पराक्रम त्यागने वाले नहीं हैं।
देवकी स्त्रीहै, वह मेरी बहन है और गर्भवती भी है।
यदि मैं उसे मार डालूँ तो मेरे यश, ऐश्वर्य तथा आयुनिश्चित रूप से नष्ट हो जाएँगे।
स एष जीवन्खलु सम्परेतोवर्तेत योउत्यन्तनृशंसितेन ।
देहे मृते तं मनुजा: शपन्तिगन्ता तमोउन्धं तनुमानिनो श्रुवम् ॥
२२॥
सः--वह; एषः--वह ईर्ष्यालु व्यक्ति; जीवन्ू--जीवित रहते हुए; खलु-- भी; सम्परेत:--मृत है; वर्तेत--जीवित रह रहा है;यः--जो; अत्यन्त--अत्यधिक; नृशंसितेन--क्रूर कर्मो द्वारा; देहे--शरीर होने पर; मृते--समाप्त हो जाता है; तमू--उसको;मनुजा:--सारे मनुष्य; शपन्ति--निन्दा करते हैं; गन्ता--जाएगा; तमः अन्धम्ू--नारकीय जीवन को; तनु-मानिन:--देहात्मबो धवाले व्यक्ति के; ध्रुवम्--कोई सन्देह नहीं ॥
अत्यधिक क्रूर व्यक्ति को जीवित रहते हुए भी मृत माना जाता है क्योंकि उसके जीवित रहतेहुए या उसकी मृत्यु के बाद भी हर कोई उसकी निन्दा करता है।
देहात्मबुद्धिवाला व्यक्ति मृत्यु केबाद भी अन्धतम नरक को भेजा जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
इति घोरतमाद्धावात्सत्रिवृत्त: स्वयं प्रभु: ।
आत्ते प्रती क्ष॑स्तज्जन्म हरेवैंरानुबन्धकृत् ॥
२३॥
इति--इस तरह उपर्युक्त विधि से सोचते हुए; घोर-तमात् भावात्--अपनी बहन को किस तरह मारे इस अत्यन्त जघन्य विचार से;सन्निवृत्त:--विलग रहकर; स्वयम्--स्वयं विचार करके; प्रभु:--पूर्णज्ञान में ( कंस ); आस्ते--रहता रहा; प्रतीक्षन्ू--उस क्षणकी प्रतीक्षा करते हुए; तत्-जन्म--उसका जन्म होने तक; हरेः-- भगवान् हरि के; बैर-अनुबन्ध-कृत्--ऐसा बैर चलाते रहने केलिए दृढ़।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह तर्क-वितर्क करते हुए कंस यद्यपि भगवान् के प्रतिशत्रुता बनाये रखने के लिए हढ़ था किन्तु अपनी बहन का जघन्य वध करने से कतराता रहा।
उसने भगवान् के जन्म लेने तक प्रतीक्षा करने और तब जो आवश्यक हो, करने का निश्चयकिया।
आसीन: संविशंस्तिष्ठन्भुज्जान: पर्यटन्महीम् ।
चिन्तयानो हषीकेशमपश्यत्तन्मयं जगत् ॥
२४॥
आसीन:--कमरे या सिंहासन पर आराम से बैठे हुए; संविशन्ू--अथवा अपने बिस्तर पर लेटे हुए; तिष्ठन्ू--या अन्यत्र ठहरे हुए;भुझान:--खाते; पर्यटनू--घूमते; महीम्--पृथ्वी पर, इधर-उधर जाते हुए; चिन्तयान: --सदैव शत्रु-भाव से चिन्तन करते;हृषीकेशम्--सबों के नियन्ता भगवान् को; अपश्यत्--देखा; तत्-मयम्--उससे ( कृष्ण से ) ही युक्त; जगत्--सारा संसार।
सिंहासन पर अथवा अपने कमरे में बैठे, बिस्तर पर लेटे या कहीं भी रहते हुए, खाते, सोतेया घूमते हुए कंस केवल अपने शत्रु भगवान् हषीकेश को ही देखता था।
दूसरे शब्दों में, अपनेसर्वव्यापक शत्रु का चिन्तन करते करते कंस प्रतिकूल भाव से कृष्णभावनाभावित हो गया था।
ब्रह्मा भवश्व तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभि: ।
देवै: सानुचरैः साक॑ गीर्मिवृषणमैडयन् ॥
२५॥
ब्रह्मा--चतुर्मुख सर्वोच्च देवता; भव: च--तथा शिवजी; तत्र--वहाँ; एत्य-- आकर; मुनिभि: --मुनियों; नारद-आदिभि:--नारद इत्यादि के साथ; देवै:--तथा इन्द्र, चन्द्र, वरुण इत्यादि देवताओं के साथ; स-अनुचरैः--अपने अपने अनुयायियों केसाथ; साकम्--साथ; गीर्भि: --अपनी स्तुतियों से; वृषणम्--किसी को भी वर देने वाले भगवान्; ऐडयन्--प्रसन्न किया |
ब्रह्माजी तथा शिवजी, नारद, देवल तथा व्यास जैसे महामुनियों एवं इन्द्र, चन्द्र तथा वरुणजैसे देवताओं के साथ अदृश्य रूप में देवकी के कक्ष में पहुँचे जहाँ सबों ने मिलकर वरदायकभगवान् को प्रसन्न करने के लिए सादर स्तुतियाँ कीं।
सत्यत्रतं सत्यपरं त्रिसत्यंसत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रसत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना: ॥
२६॥
सत्य-ब्रतम्-- भगवान् जो अपने व्रत से कभी विचलित नहीं होते; * सत्य-परम्--परम सत्य ( जैसाकि श्रीमद्भागवत के प्रारम्भमें कहा गया है, सत्यं परं धीमहि ); त्रि-सत्यम्--वे इस जगत की सृष्टि, पालन तथा इसके संहार के बाद भी परम सत्य के रूप मेंविद्यमान रहते हैं; सत्यस्य--परम सत्य कृष्ण से उद्भूत सारे सत्यों के; योनिमू--कारण; निहितम्--प्रविष्ट; * *च--तथा;सत्ये--इस जगत को उत्पन्न करने वाले कारणों ( पंचतत्वों-क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर ); सत्यस्य--सत्य माने जाने वालेका; सत्यमू--भगवान् जो आदि सत्य हैं; ऋत-सत्य-नेत्रमू--अच्छे लगने वाले सत्य के उद्गम ( सुनेत्रम् ); सत्य-आत्मकम्--भगवान् से सम्बद्ध हर वस्तु सत्य है ( सच्चिदानन्द ) ( उनका शरीर सत्य है, उनका ज्ञान सत्य है और उनका आनन्द सत्य है );त्वामू--तुम्हारी, हे भगवान्; शरणम्--शरण में; प्रपन्ना:ः--आपके संरक्षण में हम सभी |
( भगवान् का ब्रत है--यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानंसृजाम्यहम् ( भगवद्गीता ४७) ।
इसी व्रत को निभाने के लिए भगवान् प्रकट हुए।
भगवान् सारी वस्तुओं में यहाँ तक कि परमाणु के भीतर भी हैं--अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थम् ( ब्रह्म-संहिता ५ ४४ ) ।
इसीलिए वे अन्तर्यामी कहलाते हैं।
छाव कलटदेवताओं ने प्रार्थना की; हे प्रभो, आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा हीपूर्ण रहता है क्योंकि आप जो भी निर्णय लेते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारारोका नहीं जा सकता।
सृष्टि, पालन तथा संहार--जगत की इन तीन अवस्थाओं में वर्तमान रहनेसे आप परम सत्य हैं।
कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं बन सकता जब तक वह पूरीतरह आज्ञाकारी न हो अतः इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते।
आप सृष्टि के सारेअवयवों में असली सत्य हैं इसीलिए आप अन््तर्यामी कहलाते हैं।
आप सबों पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं।
आप आदि सत्य हैं अतः हमनमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं।
आप हमारी रक्षा करें।
एकायनोसौ द्विफलस्त्रिमूल-श्वतूरसः पञ्जञविध: षडात्मा ।
सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षोदशच्छदी द्विखगो हादिवृक्ष: ॥
२७॥
एक-अयनः --सामान्यजीव का शरीर भौतिक तत्त्वों पर पूरी तरह आश्रित है; असौ--वह; द्वि-फल:--इस शरीर में हमें सुखतथा दुख मिलते रहते हैं, जो कर्मों से प्रतिफलित होते हैं; त्रि-मूल:--तीन जड़ों वाली प्रकृति के तीन गुण ( सतो, रजो तथातमोगुण ) जिनसे शरीर बना है; चतुः-रसः *--चार रस या आस्वाद; पश्च-विध:--ज्ञान प्राप्त करने की पाँच इन्द्रियों ( आँख,कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श ) से युक्त; षघटू-आत्मा--छ:ः परिस्थितियाँ ( शोक, मोह, जरा, मृत्यु, भूख, प्यास ); सप्त-त्वक्--सात आवरण ( त्वचा, रक्त, पेशी, वसा, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य ) वाला; अष्ट-विटप:ः--आठ शाखाएँ ( पाँच स्थूल तत्त्व पृथ्वी,जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि एवं अहंकार ); नव-अक्ष:--नौ दरवाजे; दश-छदी--दस प्रकार की प्राण वायुजो वृक्ष के पत्तों के सहश है; द्वि-खगः--दो पक्षी ( आत्मा तथा परमात्मा ); हि--निस्सन्देह; आदि-वृक्ष:--यही आदि वृक्ष याशरीर की बनावट है।
शरीर को अलंकारिक रूप में ‘आदि वृक्ष' कहा जा सकता है।
यह वृक्ष भौतिक प्रकृतिकी भूमि पर आश्रित होता है और उसमें दो प्रकार के--सुख भोग के तथा दुख भोग के--फललगते हैं।
इसकी तीन जड़ें तीन गुणों--सतो, रजो तथा तमो गुणों के साथ इस वृक्ष केकारणस्वरूप हैं।
शारीरिक सुख रूपी फलों के स्वाद चार प्रकार के होते हैं-- धर्म, अर्थ, कामतथा मोक्ष जो पाँच ज्ञान इन्द्रियों द्वारा छः प्रकार की परिस्थितियों--शोक, मोह, जरा, मृत्यु,भूख तथा प्यास के माध्यम से अनुभव किये जाते हैं।
इस वृक्ष की छाल में सात परतें होती हैं--त्वचा, रक्त, पेशी, वसा, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य।
इस वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं जिनमें से पाँचस्थूल तत्त्व तथा तीन सूक्ष्मतत्त्व हैं--क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन, मन, बुद्धि तथाअहंकार।
शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र (कोठर) हैं--आँखें, कान, नथुने, मुँह, गुदा तथाजननेन्द्रिय।
इसमें दस पत्तियाँ हैं, जो शरीर से निकलने वाली दस वायु हैं।
इस शरीररूपी वृक्ष मेंदो पक्षी हैं--एक आत्मा तथा दूसरा परमात्मा।
त्वमेक एवास्य सतः प्रसूति-स्त्वं सबन्निधानं त्वमनुग्रहश्च ।
त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां'पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये ॥
२८॥
त्वमू--तुम ( हे प्रभु); एक:--अकेले, आप ही सर्वस्व हैं; एब--निस्सन्देह; अस्य सत:ः--इस दृश्य जगत का; प्रसूतिः--मूलस्त्रोत; त्वमू--आप; सन्निधानम्--सर्वस्व विनष्ट हो जाने पर ऐसी सारी शक्ति का संरक्षण; त्वमू--आप; अनुग्रह: च--तथापालक; त्वतू-मायया--आपकी माया से; संवृत-चेतस:--उनका, जिनकी बुद्धि ऐसी माया से आवृत है; त्वामू--आपको;'पश्यन्ति--देखते हैं; नाना--अनेक प्रकार; न--नहीं; विपश्चित:--विद्वान या भक्तगण; ये--जो |
हे प्रभु, आप ही कई रूपों में अभिव्यक्त इस भौतिक जगत रूपी मूल वृक्ष के प्रभावशालीकारणस्वरूप हैं।
आप ही इस जगत के पालक भी हैं और संहार के बाद आप ही ऐसे हैं जिसमेंसारी वस्तुएँ संरक्षण पाती हैं।
जो लोग माया से आवृत हैं, वे इस जगत के पीछे आपका दर्शननहीं कर पाते क्योंकि उनकी दृष्टि विद्वान भक्तों जैसी नहीं होती।
बिभर्षि रूपाण्यवबोध आत्माक्षेमाय लोकस्य चराचरस्य ।
सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानिसतामभद्राणि मुहु: खलानाम् ॥
२९॥
बिभर्षि--आप स्वीकार करें; रूपाणि--अनेक रूप यथा मत्स्य, कूर्म, वराह, राम, नूसिंह आदि; अवबोध: आत्मा--विभिन्नअवतारों के बावजूद आप परम ज्ञाता बने रहते हैं; क्षेमाय--हर एक के और विशेषतया भक्तों के लाभ के लिए; लोकस्य--सारेजीवों के; चर-अचरस्य--जड़ तथा चेतन का; सत्त्व-उपपन्नानि--ऐसे सारे अवतार दिव्य होते हैं ( शुद्ध सत्त्त ); सुख-अवहानि--दिव्य आनन्द से पूरित; सताम्ू--भक्तों का; अभद्राणि--सारा अशुभ या संहार; मुहुः--पुनः पुनः; खलानाम्--अभक्तों का।
हे ईश्वर, आप सदैव ज्ञान से पूर्ण रहने वाले हैं और सारे जीवों का कल्याण करने के लिएआप विविध रूपों में अवतरित होते हैं, जो भौतिक सृष्टि के परे होते हैं।
जब आप इन अवतारोंके रूप में प्रकट होते हैं, तो आप पुण्यात्माओं तथा धार्मिक भक्तों के लिए मोहक लगते हैं किन्तुअभक्तों के लिए आप संहारकर्ता हैं।
त्वय्यम्बुजाक्षाखिलसतत्त्वधाम्निसमाधिनावेशितचेतसैके ।
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेनकुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम् ॥
३०॥
त्वयि--आप में; अम्बुज-अक्ष--हे कमल जैसे नेत्रवाले प्रभु; अखिल-सत्त्व-धाम्नि--जगत के आदि कारण जिससे हर वस्तुउदभूत होती है और जिसमें समस्त शक्तियाँ नवास करती हैं; समाधिना--स्थायी ध्यान तथा पूर्ण तल्लीनता ( आपके विचारों में )द्वारा; आवेशित-- पूर्णतया तल्लीन, संलग्न; चेतसा--चेतना द्वारा; एके--आपके चरणकमलों के विषय में चिन्तन की एकविधि; त्वत्-पाद-पोतेन--आपके चरणकमल रूपी नाव में चढ़कर; महत्-कृतेन--ऐसे कार्य द्वारा जो अत्यन्त शक्तिशाली मानाजाता है या जो महाजनों द्वारा सम्पन्न किया जाता है; कुर्वन्ति--करते हैं; गोवत्स-पदम्--बछड़े के खुर के निशान तुल्य; भव-अब्धिम्--संसार सागर को
हे कमलनयन प्रभु, सम्पूर्ण सृष्टि के आगार रूप आपके चरणकमलों में अपना ध्यान एकाग्रकरके तथा उन्हीं चरणकमलों को संसार-सागर को पार करने वाली नाव मानकर मनुष्यमहाजनों ( महान् सन््तों, मुनियों तथा भक्तों ) के चरणचिन्हों का अनुसरण करता है।
इस सरलसी विधि से वह अज्ञान सागर को इतनी आसानी से पार कर लेता है मानो कोई बछड़े के खुरका चिन्ह पार कर रहा हो।
स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन्भवार्णवं भीममदभ्रसौहदा: ।
भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र तेनिधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ॥
३१॥
स्वयम्--खुद, आप; समुत्तीर्य--पार करके; सु-दुस्तरम्--दुर्लघ्य; द्युमन्ू--अज्ञान के इस लोक के अंधकार में सूर्य के समानचमक ने वाले हे प्रभु; भव-अर्गवम्--संसार सागर को; भीमम्ू-- भयानक; अदभ्र-सौहृदा: -- भक्तगण जो पतितात्माओं के प्रतिसदैव मैत्रीभाव रखते हैं; भवत्-पद-अम्भोरुह-- आपके चरणकमल; नावम्--पार करने के लिए नाव को; अत्र--इस संसारमें; ते--वे ( वैष्णवजन ); निधाय--पीछे छोड़कर; याता:--चरम लक्ष्य, बैकुण्ठ; सत्-अनुग्रह:--भक्तों पर सदैव कृपालु तथादयालु; भवान्ू--आप |
हे झ्ुतिपूर्ण प्रभु, आप अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए सदा तैयार रहते हैं इसीलिएआप वांछा-कल्पतरु कहलाते हैं।
जब आचार्यगण अज्ञान के भयावह भवसागर को तरने केलिए आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, तो वे अपने पीछे अपनी वह विधि छोड़ेजाते हैं जिससे वे पार करते हैं।
चूँकि आप अपने अन्य भक्तों पर अत्यन्त कृपालु रहते हैं अतएवउनकी सहायता करने के लिए आप इस विधि को स्वीकार करते हैं।
येअन्येरविन्दाक्ष विमुक्तमानिन-स्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।
आरुह्यम कृच्छेण परं पदं ततःपतन्त्यधो नाहतयुष्मदड्घ्रय: ॥
३२॥
ये अन्ये--कोई या अन्य सभी; अरविन्द-अक्ष--हे कमलनेत्र; विमुक्त-मानिन:-- भव-कल्मष के बन्धन से अपने को झूठे हीमुक्त मानने वाले; त्वयि--तुम में; अस्त-भावात्--विविध रूप से सोचते हुए किन्तु आपके चरणकमलों के विषय में अधिक नजानने की इच्छा रखते हुए; अविशुद्ध-बुद्धयः--जिनकी बुद्धि अब भी शुद्ध नहीं है और जो जीवन-लक्ष्य को नहीं जानते;आरुह्म--प्राप्त करके भी; कृच्छेण --कठिन तपस्या तथा श्रम के द्वारा; परम् पदम्--सर्वोच्च पद ( अपनी कल्पना केअनुसार ); ततः--उस पद से; पतन्ति--गिरते हैं; अध:--पुनः नीचे भवसागर में; अनाहत--उपेक्षा किया हुआ; युष्मत्--आपके; अड्घ्रय:--चरणकमल।
( कोई कह सकता है कि भगवान् के चरणकमलों की शरण खोजने वाले भक्तों केअतिरिक्त भी ऐसे लोग हैं, जो भक्त नहीं हैं किन्तु जिन्होंने मुक्ति प्राप्त करने के लिए भिन्नविधियाँ अपना रखी हैं।
तो उनका क्या होता है? इसके उत्तर में ब्रह्माजी तथा अन्य देवता कहतेहैं ) हे कमलनयन भगवान्, भले ही कठिन तपस्याओं से परम पद प्राप्त करने वाले अभक्तगणअपने को मुक्त हुआ मान लें किन्तु उनकी बुद्धि अशुद्ध रहती है।
वे कल्पित श्रेष्ठता के अपने पदसे नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि उनके मन में आपके चरणकमलों के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहींहोता।
तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद्भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहदा: ।
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भयाविनायकानीकपपमूर्थसु प्रभो ॥
३३॥
तथा--उनकी ( अभक्तों की ) तरह; न--नहीं; ते--वे ( भक्तगण ); माधव--हे लक्ष्मीपति भगवान्; तावका: --भक्तिमार्ग केअनुयायी, भक्तगण; क्वचित्--किसी भी परिस्थिति में; भ्रश्यन्ति--नीचे गिरते हैं; मार्गात्--भक्ति मार्ग से; त्ववि--आप में;बद्ध-सौहदा:--आपके चरणकमलों में पूरी तरह से अनुरक्त होने के कारण; त्वया--आपके द्वारा; अभिगुप्ता:--सारे संकटों सेसुरक्षित; विचरन्ति--विचरण करते हैं; निर्भधा:--निर्भीक होकर; विनायक-अनीकप--शत्रु जो भक्ति विचारधारा का विरोधकरने के लिए साज-सामान रखते हैं; मूर्थसु--अपने सिरों पर; प्रभो-हे प्रभु
हे माधव, पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, हे लक्ष्मीपति भगवान्, यदि आपके प्रेमी भक्तमण कभीभक्तिमार्ग से च्युत होते हैं, तो वे अभक्तों की तरह नहीं गिरते क्योंकि आप तब भी उनकी रक्षाकरते हैं।
इस तरह वे निर्भय होकर अपने प्रतिद्वन्द्रियों के मस्तकों को झुका देते हैं और भक्ति मेंप्रगति करते रहते हैं।
सत्त्व॑ विशुद्ध श्रयते भवान्स्थितौशरीरिणां श्रेयठपायनं वपु: ।
वेदक्रियायोगतपःसमाधिभि-स्तवाहणं येन जन: समीहते ॥
३४॥
सत्त्वम्--अस्तित्व; विशुद्धम्-दिव्य, तीन गुणों से अतीत; श्रयते--स्वीकार करता है; भवान्--आप; स्थितौ--इस जगत केपालन के समय; शरीरिणाम्--सारे जीवों के; श्रेयः--परम कल्याण का; उपायनम्--लाभ के लिए; वपु:--दिव्य शरीर; बेद-क्रिया--वेदविहित अनुष्ठानों के द्वारा; योग--भक्ति द्वारा; तपः--तपस्या द्वारा; समाधिभि: --समाधि द्वारा; तब--तुम्हारी;अर्हणम्--पूजा; येन--ऐसे कार्यों से; जन:--मानव समाज; समीहते--कृतज्ञता प्रकट करता है।
हे परमेश्वर, पालन करते समय आप त्रिगुणातीत दिव्य शरीर वाले अनेक अवतारों को प्रकटकरते हैं।
जब आप इस तरह प्रकट होते हैं, तो जीवों को वैदिक कर्म--यथा अनुष्ठान, योग,तपस्या, समाधि आपके चिंतन में भावपूर्ण तल्लीनता--में युक्त होने की शिक्षा देकर उन्हेंसौभाग्य प्रदान करते हैं।
इस तरह आपकी पूजा वैदिक नियमों के अनुसार की जाती है।
सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेद्विज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम् ।
गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान्प्रकाशते यस्य च येन वा गुण: ॥
३५॥
सत्त्वम्--शुद्धसत्त्व, दिव्य; न--नहीं; चेतू--यदि; धात:--समस्त कारणों के कारण; इृदम्--यह; निजम्--मेरा, आध्यात्मिक;भवेत्--हो जाता; विज्ञानम्ू--दिव्य ज्ञान; अज्ञान-भिदा--तमोगुण को भगाने वाला; अपमार्जनम्--पूर्णतया से विलुप्त; गुण-प्रकाशै:--ऐसा दिव्य ज्ञान जागृत करके; अनुमीयते-- प्रकट होता है; भवानू--आप; प्रकाशते--प्रकट होते हैं; यस्थय--जिसके;च--तथा; येन--जिससे; वा--अथवा; गुण: --गुण या बुद्धि |
है कारणों के कारण ईश्वर, यदि आपका दिव्य शरीर गुणातीत न होता तो मनुष्य पदार्थ तथाअध्यात्म के अन्तर को न समझ पाता।
आपकी उपस्थिति से ही आपके दिव्य स्वभाव को जानाजा सकता है क्योंकि आप प्रकृति के नियन्ता हैं।
आपके दिव्य स्वरूप की उपस्थिति से प्रभावितहुए बिना आपके दिव्य स्वभाव को समझना कठिन है।
न नामरूपे गुणजन्मकर्मभि-निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिण: ।
मनोवचोशभ्यामनुमेयवर्त्मनोदेव क्रियायां प्रतियन्त्यथापि हि ॥
३६॥
न--नहीं; नाम-रूपे--नाम तथा रूप; गुण--गुण; जन्म--जन्म; कर्मभि:--कार्यकलापों या लीलाओं से; निरूपितव्ये--निश्चित नहीं किये जा सकते; तब-- आपके; तस्य--उसके; साक्षिण: --साक्षी; मन: --मन का; वचोभ्याम्--शब्दों द्वारा;अनुमेय-- धारणा; वर्त्मन:--रास्ता; देव--हे प्रभु; क्रियायाम्-- भक्तिकार्यों में; प्रतियन्ति-- अनुभव करते हैं; अथ अपि--फिरभी; हि--निस्सन्देह ( भक्तों द्वारा आप अनुभवगम्य हैं )
है परमेश्वर, आपके दिव्य नाम तथा स्वरूप का उन व्यक्तियों को पता नहीं लग पाता, मात्रजो केवल कल्पना के मार्ग पर चिन्तन करते हैं।
आपके नाम, रूप तथा गुणों का केवल भक्तिद्वारा ही पता लगाया जा सकता है।
श्रण्वन्गृणन्संस्मरयं श्व चिन्तयन्नामानि रूपाणि च मड़लानि ते ।
क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयो-राविष्टचेता न भवाय कल्पते ॥
३७॥
श्रूण्बनू--निरन्तर भगवान् के विषय में सुनते हुए ( श्रवर्ण कीर्तन विष्णो: ); गृणन्--कीर्तन करते हुए या सुनाते हुए;संस्मरयन्--स्मरण करते हुए ( भगवान् के चरणकमलों तथा उनके स्वरूप के विषय में निरन्तर चिन्तन करते हुए ); च--तथा;चिन्तयन्--चिन्तन करते हुए ( भगवान् के कार्यकलापों का ); नामानि--उनके दिव्य नाम; रूपाणि--उनके दिव्य स्वरूप; च--भी; मड्लानि--दिव्य होने से शुभ; ते--आपके ; क्रियासु-- भक्ति में लगे रहने पर; यः--जो; त्वत्-चरण-अरविन्दयो: --आपके चरण कमलों पर; आविष्ट-चेता: --पूर्णतया लीन रहनेवाला भक्त; न--नहीं; भवाय--भौतिक पद के लिए; कल्पते--योग्य है।
विविध कार्यो में लगे रहने पर भी जिन भक्तों के मन आपके चरणकमलों में पूरी तरह लीनरहते हैं और जो निरन्तर आपके दिव्य नामों तथा रूपों का श्रवण, कीर्तन, चिन्तन करते हैं तथाअन्यों को स्मरण कराते हैं, वे सदैव दिव्य पद पर स्थित रहते हैं और इस प्रकार से पूर्ण पुरुषोत्तमहाभगवान् को समझ सकते हैं।
दिष्टया हरेउस्था भवतः पदो भुवोभारोपनीतस्तव जन्मनेशितु: ।
दिष्टबाड्धितां त्वत्यदकै: सुशोभनै-ईश्ष्याम गां दवां च तवानुकम्पिताम् ॥
३८ ॥
दिछ्या-- भाग्यवश; हरे--हे भगवान्; अस्या:--इस ( संसार ) के; भवत:--आपके; पद: --स्थान का; भुवः--इस धरा पर;भारः--असुएों द्वारा उत्पन्न बोझ; अपनीत:ः --दूर हुआ; तब--आपके ; जन्मना--अवतार लेने से; ईशितु:--सबके नियन्ता आप;दिष्टया--तथा भाग्य से; अड्भिताम्--चिन्हित; त्वत्-पदकै:--आपके चरणकमलों से; सु-शोभनै:--शंख, चक्र, पद्म तथा गदा चिह्नों से अलंकृत; द्रक्ष्याम--हम देखेंगे; गाम्--इस पृथ्वी पर; द्याम् च--तथा स्वर्ग में भी; तब अनुकम्पितामू--हम पर आपकीअहैतुकी कृपा होने से |
हे प्रभु, हम भाग्यशाली हैं कि आपके प्राकट्य से इस धरा पर असुरों के कारण जो भारीबोझा है, वह शीघ्र ही दूर हो जाता है।
निस्सन्देह हम अत्यन्त भाग्यशाली हैं क्योंकि हम इस धरामें तथा स्वर्गलोक में भी आपके चरणकमलों को अलंकृत करने वाले शंख, चक्र, पद्म तथागदा के चिन्हों को देख सकेंगे।
न तेभवस्येश भवस्य कारणंविना विनोदं बत तर्कयामहे ।
भवो निरोध: स्थितिरप्यविद्ययाकृता यतस्त्वय्यभया श्रयात्मनि ॥
३९॥
न--नहीं; ते--आपके ; अभवस्य--जो जैसे कि सामान्य जीव, उसका जन्म, मृत्यु, पालन पोषण से परे है, जो, उसका; ईश--हेईश्वर; भवस्थ-- आपके जन्म का; कारणम्--कारण; विना--रहित; विनोदम्--लीलाएँ ( आपको विवश होकर इस जगत मेंनहीं आना पड़ता है ); बत--फिर भी; तर्कयामहै--हम तर्क-वितर्क नहीं कर सकते ( लेकिन इन्हें अपकी लीला ही समझें );भव:ः--जन्म; निरोध: --मृत्यु; स्थिति:--पालन; अपि-- भी; अविद्यया--माया द्वारा; कृता:--किया गया; यत:-- क्योंकि;त्वयि--तुममें; अभय-आ श्रय--हे सबों के निर्भय आश्रय; आत्मनि--सामान्य जीवन का।
हे परमेश्वर, आप कोई सामान्य जीव नहीं जो सकाम कर्मों के अधीन इस भौतिक जगत मेंउत्पन्न होता है।
अतः इस जगत में आपका प्राकट्य या जन्म एकमात्र ह्रादिनी शक्ति के कारणहोता है।
इसी तरह आपके अंश रूप सारे जीवों के कष्टों--यथा जन्म, मृत्यु तथा जरा का कोईदूसरा कारण नहीं सिवाय इसके कि ये सभी आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा संचालित होते हैं।
मत्स्याश्रकच्छपनृसिंहवराहहंस-राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतार: ।
त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेशभारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ॥
४०॥
मत्स्य--मत्स्यावतार; अश्व--घोड़े का अवतार; कच्छप--कूर्मावतार; नूसिंह--नृसिंह अवतार; वराह--वराह अवतार; हंस--हंस अवतार; राजन्य--रामचन्द्र तथा अन्य क्षत्रियों के रूप में अवतार; विप्र--वामनदेव जैसे ब्राह्मणों के रूप में अवतार;विबुधेषु--देवताओं के बीच; कृत-अवतार:--अवतारों के रूप में प्रकट हुए; त्वमू--आपको; पासि--कृपया बचायें; न: --हमें; त्रि-भुवनम् च--तथा तीनों लोकों को; यथा--तथा; अधुना--अब; ईश--हे भगवान्; भारम्-- भार; भुव: --पृथ्वी का;हर--कृपया कम करें; यदु-उत्तम--हे यदुओं में श्रेष्ठ, हे कृष्ण; वन्दनम् ते--हम आपकी वन्दना करते हैं।
हे परम नियन्ता, आप इसके पूर्व अपनी कृपा से सारे विश्व की रक्षा करने के लिए मत्स्य,अश्व, कच्छप, नृसिंहदेव, वराह, हंस, भगवान् रामचन्द्र, परशुराम का तथा देवताओं में से वामनके रूप में अवतरित हुए हैं।
अब आप इस संसार का उत्पातों कम करके अपनी कृपा से पुनःहमारी रक्षा करें।
हे यदु श्रेष्ठ कृष्ण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।
दिष्टद्याम्ब ते कुक्षिगत: पर: पुमा-नंशेन साक्षाद्धगवान्भवाय नः ।
माभूद्धयं भोजपतेर्मुमूर्षों-गेप्ता यदूनां भविता तवात्मज: ॥
४१॥
दिछ्या-- भाग्यवश; अम्ब--हे माता; ते--तुम्हारी; कुक्षि-गत:--कोख में; पर:--परमात्मा; पुमानू-- भगवान्; अंशेन--अपनीसमस्त शक्तियों सहित; साक्षात्-प्रत्यक्ष रूप से; भगवान्-- भगवान्; भवाय--कल्याण के लिए; नः--हम सबों के; माअभूत्ू-कभी न हों; भयम्-- भयभीत; भोज-पते: -- भोजवंश के राजा कंस से; मुमूर्षोः--जिसने भगवान् के हाथों से मरने कीठान ली है; गोप्ता--रक्षक; यदूनाम्--यदुवबंश का; भविता--होगा; तब आत्मज: --तुम्हारा पुत्र |
हे माता देवकी, आपके तथा हमारे सौभाग्य से भगवान् अपने सभी स्वांशों यथा बलदेवसमेत अब आपके गर्भ में हैं।
अतएव आपको उस कंस से भयभीत नहीं होना है, जिसने भगवान्के हाथों से मारे जाने की ठान ली है।
आपका शाश्वत पुत्र कृष्ण सारे यदुवंश का रक्षक होगा।
श्रीशुक उबाचइत्यभिष्टूय पुरुषं यद्रूपमनिदं यथा ।
ब्रह्ेशानौ पुरोधाय देवा: प्रतिययुर्दिवम् ॥
४२॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; अभिष्टूय--स्तुति करके; पुरुषम्--परम पुरुष की; यत्-रूपम्ू--जिसका स्वरूप; अनिदम्--दिव्य; यथा--जिस प्रकार; ब्रह्म--ब्रह्मा जी; ईशानौ--तथा शिवजी; पुरोधाय--आगेकरके; देवा:--सारे देवता; प्रतिययु:--लौट गये; दिवम्--अपने स्वर्ग निवास को
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु की इस तरह स्तुति करने के बाद सारे देवता ब्रह्मजी तथाशिवजी को आगे करके अपने अपने स्वर्ग-आवासों को लौट गये।
अध्याय तीन: भगवान कृष्ण का जन्म
10.3श्रीशुक उबाचअथ सर्वगुणोपेत: काल: परमशोभन: ।
यहाँवाजनजन्म्श्ल॑ शान्तक्षग्रहतारकम् ॥
१॥
दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम् ।
मही मड्नलभूयिष्ठपुरग्रामत्रजाकरा ॥
२॥
नद्यः प्रसन्ननलिला हृदा जलरुहश्रियः ।
द्विजालिकुलसन्नादस्तवका वनराजयः ॥
३॥
ववौ वायु: सुखस्पर्श: पुण्यगन्धवह: शुचि: ।
अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत ॥
४॥
मनांस्यासन्प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम् ।
जायमानेजने तस्मिन्नेदुर्दुन्दुभयः समम् ॥
५॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ-- भगवान् के आविर्भाव के समय; सर्व--चारों ओर; गुण-उपेतः --भौतिक गुणों से सम्पन्न; काल:--उपयुक्त समय; परम-शोभन:ः--अत्यन्त शुभ तथा सभी दृष्टियों से उपयुक्त; यहिं--- जब; एव--निश्चित रूप से; अजन जन्म-ऋक्षम्--रोहिणी नक्षत्र समूह; शान्त-ऋक्ष--सारे नक्षत्र शान्त थे; ग्रह-तारकम्--तथा ग्रह एवं तारे(यथा अश्विनी ); दिश:--सारी दिशाएँ; प्रसेदु:--अत्यन्त शुभ तथा शान्त प्रतीत हुईं; गगनमू--आकाश; निर्मल-उडु-गण-उदयम्--जिसमें सारे शुभ नक्षत्र दृष्टिगोचर थे; मही--पृथ्वी; मड्ल-भूयिष्ठ-पुर-ग्राम-त्रज-आकरा:--जिसके अनेक नगर,ग्राम, गोचर भूमि तथा खानें शुभ तथा निर्मल हो गईं; नद्यः--नदियाँ; प्रसन्न-सलिला:--जल स्वच्छ हो गया; हृदाः--झीलें याजलाशय; जलरुह-भ्रिय: --चारों ओर कमलों के खिलने से अत्यन्त सुन्दर लगने लगा; द्विज-अलि-कुल-सन्नाद-स्तवका: --पक्षियों ( विशेषतया कोयल ) तथा मधुमक्खियों का समूह मधुर ध्वनि में कीर्तन करने लगा, मानो भगवान् की स्तुति कर रहे हों;वन-राजय: --हरे वृक्ष भी देखने में मनोहर लग रहे थे; बवौ--बहने लगी; वायु:--वायु, मन्द हवा; सुख-स्पर्श:--छूने मेंसुहावनी; पुण्य-गन्ध-वहः --सुगन्ध से पूरित; शुच्चिः-- धूल से रहित; अग्नयः च--तथा यज्ञस्थलों की अग्नियाँ; ट्विजातीनाम्--ब्राह्मणों की; शान्ता:--शान्त; तत्र--वहाँ; समिन्धत--जलती हुईं; मनांसि--ब्राह्मणों के मन ( जो कंस से भयभीत थे );आसनू--हो गए; प्रसन्नानि--पूर्ण तुष्ट तथा उत्पात से रहित; साधूनाम्--ब्राह्मणों के, जो सबके सब वैष्णव भक्त थे; असुर-द्हामू--जो धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करते समय कंस तथा अन्य असुरों द्वारा सताए गए थे; जायमाने--जन्म होने से; अजने--अजन्मे, भगवान् विष्णु के; तस्मिनू--उस स्थान में; नेदु:--बज उठीं; दुन्दुभयः--दुन्दुभियाँ; समम्--एकसाथ ( ऊपरी लोकोंसे)
तत्पश्चात् भगवान् के आविर्भाव की शुभ बेला में सारा ब्रह्माण्ड सतोगुण, सौन्दर्य तथाशान्ति से युक्त हो गया।
रोहिणी नक्षत्र तथा अश्विनी जैसे तारे निकल आए सूर्य, चन्द्रमा तथाअन्य नक्षत्र एवं ग्रह अत्यन्त शान्त थे।
सारी दिशाएँ अत्यन्त सुहावनी लगने लगीं और मनभावननक्षत्र निःभ्र आकाश में टिमटिमाने लगे।
नगरों, ग्रामों, खानों तथा चरागाहों से अलंकृत पृथ्वीसर्व-मंगलमय प्रतीत होने लगी।
निर्मल जल से युक्त नदियाँ प्रवाहित होने लगीं और सरोवर तथाविशाल जलाशय कमलों तथा कुमुदिनियों से पूर्ण होकर अत्यधिक सुन्दर लगने लगे।
फूलों-पत्तियों से पूर्ण एवं देखने में सुहावने लगने वाले वृक्षों और हरे पौधों में कोयलों जैसे पक्षी तथाभौरों के झुण्ड देवताओं के लिए मधुर ध्वनि में गुंजार करने लगे।
निर्मल मन्द वायु बहने लगीजिसका स्पर्श सुखद था और जो फूलों की गन्ध से युक्त थी।
जब कर्मकाण्ड में लगे ब्राह्मणों नेवैदिक नियमानुसार अग्नि प्रज्वलित की तो अग्नि इस वायु से अविचलित रहती हुई स्थिर भावसे जलने लगी।
इस तरह जब अजन्मा भगवान् विष्णु प्रकट होने को हुए तो कंस जैसे असुरोंतथा उसके अनुचरों द्वारा सताए गए साधुजनों तथा ब्राह्मणों को अपने हृदयों के भीतर शान्तिप्रतीत होने लगी और उसी समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बज उठीं।
जगु: किन्नरगन्धर्वास्तुष्ठ॒वु: सिद्धचारणा: ।
विद्याधर्यश् ननृतुरप्सरोभि: सम॑ मुदा ॥
६॥
जगु:--शुभ गीत गाए; किन्नर-गन्धर्वा:--विभिन्न लोकों के निवासी किन्नर तथा गन्धर्व; तुष्ठवु:--स्तुतियाँ कीं; सिद्ध-चारणा:--स्वर्ग के अन्य निवासी सिद्ध तथा चारणों ने; विद्याधर्य: च--और विद्याधरियाँ, स्वर्गलोक के अन्य निवासी;ननृतु:--आनन्दपूर्वक नृत्य किया; अप्सरोभि:--अप्सराओं के, स्वर्ग की सुन्दर नर्तिकाएँ; समम्--साथ; मुदा--प्रमुदित होकर |
किन्नर तथा गन्धर्व शुभ गीत गाने लगे, सिद्धों तथा चारणों ने शुभ प्रार्थनाएँ कीं तथा अप्सराओं के साथ विद्याधरियाँ प्रसन्नता से नाचने लगीं।
मुमुचुर्मुनयो देवा: सुमनांसि मुदान्विता: ।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुरनुसागरम् ।
निशीथे तमउद्धूते जायमाने जनार्दने ॥
७॥
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णु: सर्वगुहदाशय: ।
आविरासीद्यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कल: ॥
८॥
मुमुचु;--बरसाया; मुनयः--मुनियों ने; देवा:--तथा देवताओं ने; सुमनांसि--सुन्दर तथा सुगन्धित फूल; मुदा अन्बिता: --प्रसन्नचित्त होकर; मन्दम् मन्दम्--धीरे-धीरे; जल-धरा:--बादल; जगर्जु;:--गरजने लगे; अनुसागरम्--समुद्र की लहरों कीध्वनि के साथ; निशीथे--अर्धरात्रि में; तम:-उद्धूते--घना अंधकार होने पर; जायमाने--प्रकट होने पर; जनार्दने-- भगवान्विष्णु के; देवक्याम्-देवकी के गर्भ में; देव-रूपिण्याम्-- भगवान् के रूप में ( आनन्दचिन्मय रस प्रतिभाविताभि: );विष्णु:-- भगवान् विष्णु; सर्व-गुहा-शय:--हर एक के हृदय में स्थित; आविरासीत्ू--प्रकट हुए; यथा--जिस प्रकार; प्राच्याम्दिशि--पूर्व दिशा में; इन्दु: इब--पूर्ण चन्द्रमा के समान; पुष्कल:--सब प्रकार से पूर्ण
देवताओं तथा महान् साधु पुरुषों ने प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा की और आकाश में बादलउमड़ आए तथा मन्द स्वर से गर्जन करने लगे मानो समुद्र की लहरों की ध्वनि हो।
तब हर हृदयमें स्थित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु रात्रि के गहन अंधकार में देवकी के हृदय से उसी तरहप्रकट हुए जिस तरह पूर्वी क्षितिज में पूर्ण चन्द्रमा उदय हुआ हो क्योंकि देवकी श्रीकृष्ण की हीकोटि की थीं।
तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणंचतुर्भुजं शब्बुगदाद्युदायुधम् ।
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभंपीताम्बरं सान्द्रययोदसौभगम् ॥
९॥
महाईवैदूर्यकिरीटकुण्डलत्विषा परिष्वक्तसहस्त्रकुन्तलम् ।
उद्दामकाज्च्यड्रदकड्डणादिभिर्विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत ॥
१०॥
तम्--उस; अद्भुतम्ू-- अद्भुत; बालकम्ू--बालक को; अम्बुज-ईक्षणम्--कमल जैसी आँखों वाले; चतु:-भुजम्--चारभुजाओं वाले; शट्भ-गदा-आदि--चार हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा कमल लिए हुए; उदायुधम्--विभिन्न आयुध; श्रीवत्स-लक्ष्मम्-- श्रीवत्स से अलंकृत, बालों का विशेष प्रकार श्रीवत्स कहलाता है और यह भगवान् के वक्षस्थल पर ही उगता है; गल-शोभि-कौस्तुभम्--उनके गले में वैकुण्ठ-लोक में प्राप्त होने वाला कौस्तुभ मणि था; पीत-अम्बरम्--पीला वस्त्र; सान्द्र-'पयोद-सौभगम्--अत्यन्त सुन्दर तथा श्यामल रंग का; महा-अर्ह-बैदूर्य-किरीट-कुण्डल--उनका मुकुट तथा उनके कुण्डल मूल्यवान बैदूर्य मणि से जड़े थे; त्विषा--सौन्दर्य द्वारा; परिष्वक्त-सहस्त्र-कुन्तलम्--बिखरे बड़े-बड़े बालों के द्वारा चमचमाता;उद्दाम-काञ्जी-अड्भद-कड्ढूण-आदिभि:--कमर में चमकीली पेटी, भुजाओं में बलय, कलाइयों में कंकण इत्यादि से युक्त;विरोचमानम्--अत्यन्त सुन्दर ढंग से अलंकृत; वसुदेव: --कृष्ण के पिता वसुदेव ने; ऐक्षत--देखा |
तब वसुदेव ने उस नवजात शिशु को देखा जिनकी अद्भुत आँखें कमल जैसी थीं और जोअपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्य चार आयुध धारण किये थे।
उनके वक्षस्थल परश्रीवत्स का चिह्न था और उनके गले में चमकीला कौस्तुभ मणि था।
वह पीताम्बर धारण किएथे, उनका शरीर श्याम घने बादल की तरह, उनके बिखरे बाल बड़े-बड़े तथा उनका मुकुट औरकुण्डल असाधारण तौर पर चमकते वैदूर्यमणि के थे।
वे करधनी, बाजूबंद, कंगन तथा अन्यआभूषणों से अलंकृत होने के कारण अत्यन्त अद्भुत लग रहे थे।
स विस्मयोत्फुल्लविलोचनो हरिंसुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा ।
कृष्णावतारोत्सवसम्भ्रमो स्पृशन्मुदा द्विजेभ्योड्युतमाप्लुतो गवाम् ॥
११॥
सः--वह ( वसुदेव, जो आनकदुन्दुभि कहलाते हैं ); विस्मय-उत्फुल्ल-विलोचन:-- भगवान् के सुन्दर स्वरूप को देखने सेआश्चर्यचकित आँखें; हरिम्ू-- भगवान् हरि को; सुतम्--पुत्र रूप में; विलोक्य--देखकर; आनकदुन्दुभि: --वसुदेव द्वारा;तदा--उस समय; कृष्ण-अवतार-उत्सव--कृष्ण के आविर्भाव पर उत्सव मनाने के लिए; सम्भ्रम:--सम्मान के साथ भगवान्का स्वागत करने की इच्छा; अस्पृशत्--बाँटने का अवसर प्राप्त किया; मुदा--अत्यधिक हर्ष के साथ; द्विजेभ्य:--ब्राह्मणोंको; अयुतम्--दस हजार; आप्लुत:--विभोर; गवाम्-गाएँ।
जब वसुदेव ने अपने विलक्षण पुत्र को देखा तो उनकी आँखें आश्चर्य से विस्फारित रह गईं।
उन्होंने परम हर्ष में मन ही मन दस हजार गाएँ एकत्र कीं और उन्हें ब्राह्मणों में वितरित कर दिया मानो कोई दिव्य उत्सव हो।
अथेनमस्तौदवधार्य पूरुषंपर नताडु: कृतधी: कृताझलि: ।
स्वरोचिषा भारत सूतिकागहंविरोचयन्तं गतभी: प्रभाववित् ॥
१२॥
अथ-तत्पश्चात्: एनम्--बालक को; अस्तौत्--स्तुति अर्पित किया; अवधार्य--यह निश्चय करके कि बालक भगवान् था;पूरुषम्--परम पुरुष को; परम्--परम दिव्य; नत-अड्ड:--गिरकर; कृत-धी: --एकाग्र होकर; कृत-अज्जलि:--हाथ जोड़कर;स्व-रोचिषा-- अपने शारीरिक सौन्दर्य के तेज से; भारत--हे महाराज परीक्षित; सूतिका-गृहम्--वह स्थान, जहाँ भगवान् काजन्म हुआ; विरोचयन्तम्--चारों ओर से प्रकाशित करते हुए; गत-भी:--भय से रहित होकर; प्रभाव-वित्--( भगवान् के )प्रभाव को जान सका।
हे भरतवंशी, महाराज परीक्षित, वसुदेव यह जान गए कि यह बालक पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान् नारायण है।
इस निष्कर्ष पर पहुँचते ही वे निर्भव हो गए।
हाथ जोड़े, मस्तक नवाये तथा एकाग्रचित्त होकर वे उस बालक की स्तुति करने लगे जो अपने सहज प्रभाव के द्वारा अपनेजन्म-स्थान को जगमग कर रहा था।
श्रीवसुदेव उवाचविदितोसि भवान्साक्षात्पुरुष: प्रकृते: पर: ।
केवलानुभवानन्दस्वरूप: सर्वबुद्धिहक् ॥
१३॥
श्री-वसुदेवः उवाच-- श्री वसुदेव ने प्रार्थना की; विदित: असि--अब मैं आपसे अवगत हूँ; भवान्--आप; साक्षात्- प्रत्यक्ष;पुरुष:--परम पुरूष; प्रकृते:--प्रकृति से; परः--दिव्य, परे; केवल-अनुभव-आनन्द-स्वरूप:--आपका स्वरूप सच्चिदानन्दविग्रह है और जो भी आपका अनुभव करता है, वह आनन्द से पूरित हो जाता है; सर्व-बुद्धि-हक्--परम प्रेक्षक, परमात्मा,प्रत्येक की बुद्धि
वसुदेव ने कहा : हे भगवान्, आप इस भौतिक जगत से परे परम पुरुष हैं और आपपरमात्मा हैं।
आपके स्वरूप का अनुभव उस दिव्य ज्ञान द्वारा हो सकता है, जिससे आप भगवान्के रूप में समझे जा सकते हैं।
अब आपकी स्थिति मेरी समझ में भलीभाँति आ गई है।
स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ठाग्रे त्रिगुणात्मकम् ।
तदनु त्वं ह्प्रविष्ट: प्रविष्ट इव भाव्यसे ॥
१४॥
सः--वह ( भगवान् ); एब--निस्सन्देह; स्व-प्रकृत्या--अपनी ही शक्ति से ( मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ); इदम्--यह भौतिक जगत; सृष्ठा--सृजन करके; अग्रे--प्रारम्भ में; त्रि-गुण-आत्मकम्--प्रकृति के तीन गुणों से बने( सत्त्वरजस्तमोगुण ); तत् अनु--तत्पश्चात्; त्वमू--आप; हि--निस्सन्देह; अप्रविष्ट:--प्रवेश न करने पर; प्रविष्ट: इब--ऐसाप्रतीत होता है कि प्रवेश किया है; भाव्यसे--ऐसा समझा जाता है।
हे भगवन्, आप वही पुरुष हैं जिसने प्रारम्भ में अपनी बहिरंगा शक्ति से इस भौतिक जगतकी सृष्टि की।
तीन गुणों ( सत्त्व, रजस् तथा तमस् ) वाले इस जगत की सृष्टि के बाद ऐसालगता है कि आपने उसके भीतर प्रवेश किया है यद्यपि यथार्थ तो यह है कि आपने प्रवेश नहींकिया।
यथेमेविकृता भावास्तथा ते विकृतैः सह ।
नानावीर्या: पृथग्भूता विराज॑ जनयन्ति हि ॥
१५॥
सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेडनुगता इव ।
प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह सम्भव: ॥
१६॥
एवं भवान्बुद्धयनुमेयलक्षणैर्ग्राह्म॑र्गुणै: सन्नपि तदगुणाग्रह: ।
अनावृतत्वाद्वहिरन्तरं न तेसर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुन: ॥
१७॥
यथा--जिस तरह; इमे-- भौतिक शक्ति से बनी ये भौतिक सृष्टियाँ; अविकृता:--छिन्न-भिन्न नहीं; भावा:--ऐसी विचारधारा से;तथा--उसी प्रकार; ते--वे; विकृतैः सह--सम्पूर्ण भौतिकशक्ति से उत्पन्न इन विभिन्न तत्त्वों के साथ; नाना-वीर्या:--प्रत्येकतत्त्व विभिन्न शक्तियों से पूर्ण है; पृथक्ु--विलग; भूताः:--होकर; विराजम्--सम्पूर्ण विश्व को; जनयन्ति--उत्पन्न करते हैं;हि--निस्सन्देह; सन्निपत्य--आध्यात्मिक शक्ति का साथ होने से; समुत्पाद्य--उत्पन्न किए जाने के बाद; दृश्यन्ते--प्रकट होते हैं;अनुगता:--उसके भीतर प्रविष्ट हुए; इब--मानो; प्राकु--शुरू से, इस जगत की सृष्टि के पूर्व से; एब--निस्सन्देह;विद्यमानत्वात्-- भगवान् के अस्तित्व के कारण; न--नहीं; तेषामू--इन भौतिक तत्त्वों का; इह--इस जगत में; सम्भव:--प्रवेश करना सम्भव हुआ होता; एवम्--इस प्रकार; भवानू--हे प्रभु; बुद्धि-अनुमेय-लक्षणै:--असली बुद्धि से तथा ऐसेलक्षणों से; ग्राह्मै:--इन्द्रिय विषयों से; गुणैः--गुणों से; सन् अपि--यद्यपि सम्पर्क में हैं; तत्-गुण-अग्रह:--उन गुणों के द्वारास्पर्श नहीं किए जाते; अनावृतत्वात्--सर्वत्र उपस्थित होने से; बहि: अन्तरम्--बाहर-भीतर; न ते--ऐसी कोई बात नहीं है;सर्वस्य--हर वस्तु का; सर्व-आत्मन:--सभी वस्तुओं के मूल स्वरूप; आत्म-वस्तुन:--हर वस्तु आपकी है, किन्तु आप हर वस्तुके बाहर तथा भीतर हैं।
सम्पूर्ण भौतिक शक्ति ( महत् तत्त्व) अविभाज्य है, किन्तु भौतिक गुणों के कारण यहपृथ्वी जल, अग्नि, वायु तथा आकाश में विलग होती सी प्रतीत होती है।
ये विलग हुई शक्तियाँजीवभूत के कारण मिलकर विराट जगत को दृश्य बनाती हैं, किन्तु तथ्य तो यह है कि विराटजगत की सृष्टि के पहले से ही महत् तत्त्व विद्यमान रहता है।
अतः महत् तत्त्व का वास्तव में सृष्टिमें प्रवेश नहीं होता है।
इसी तरह यद्यपि आप अपनी उपस्थिति के कारण हमारी इन्द्रियों द्वाराअनुभवगम्य हैं, किन्तु आप न तो हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य हो पाते हैं न ही हमारे मन याबचनों द्वारा अनुभव किए जाते हैं ( अवाइयनसागोचर )।
हम अपनी इन्द्रियों से कुछ ही वस्तुएँदेख पाते हैं, सारी वस्तुएँ नहीं।
उदाहरणार्थ, हम अपनी आँखों का प्रयोग देखने के लिए कर सकते हैं, आस्वाद के लिए नहीं।
फलस्वरूप आप इन्द्रियों के परे हैं।
यद्यपि आप प्रकृति केतीनों गुणों से संबद्ध हैं, आप उनसे अप्रभावित रहते हैं।
आप हर वस्तु के मूल कारण हैं,सर्वव्यापी अविभाज्य परमात्मा हैं।
अतएव आपके लिए कुछ भी बाहरी या भीतरी नहीं है।
आपनेकभी भी देवकी के गर्भ में प्रवेश नहीं किया प्रत्युत आप पहले से वहाँ उपस्थित थे।
य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्नितिव्यवस्यते स्वव्यतिरिकतोबुध: ।
विनानुवादं न च तन्मनीषितंसम्यग्यतस्त्यक्तमुपाददत्पुमान् ॥
१८॥
यः--जो भी; आत्मन:--आत्मा का; दृश्य-गुणेषु--शरीर इत्यादि दृश्य पदार्थों में से; सन्ू--उस अवस्था को प्राप्त; इति--इसप्रकार; व्यवस्यते--कर्म करता रहता है; स्व-व्यतिरिकतः--मानो शरीर आत्मा से स्वतंत्र है; अबुध:-- धूर्त, मूढ़; विनाअनुवादम्--समुचित अध्ययन के बिना; न--नहीं; च--भी; तत्--शरीर तथा अन्य दृश्य वस्तुएँ; मनीषितम्--विवेचना कियाहुआ; सम्यक्--पूरी तरह; यतः--मूर्ख होने के कारण; त्यक्तम्--तिरस्कृत कर दिए जाते हैं; उपाददत्--इस शरीर कोवास्तविकता मान बैठता है; पुमानू--मनुष्य |
जो व्यक्ति प्रकृति के तीन गुणों से बने अपने हृश्य शरीर को आत्मा से स्वतंत्र मानता है, वहअस्तित्व के आधार से ही अनजान होता है और इसलिए वह मूढ़ है।
जो विद्वान हैं, वे इस निर्णयको नहीं मानते क्योंकि विवेचना द्वारा यह समझा जा सकता है कि आत्मा से निराभ्जित दृश्य शरीर तथा इन्द्रियाँ सारहीन हैं।
यद्यपि इस निर्णय को अस्वीकार कर दिया गया है, किन्तु मूर्खव्यक्ति इसे सत्य मानता है।
त्वत्तोस्य जन्मस्थितिसंयमान्विभोवदन्त्यनीहादगुणादविक्रियात् ।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुण: ॥
१९॥
त्वत्त:--आपसे; अस्य--सम्पूर्ण जगत की; जन्म--सृष्टि; स्थिति--पालन; संयमान्--तथा संहार; विभो--हे प्रभु; वदन्ति--विद्वान वैदिक पंडित कहते हैं; अनीहात्--प्रयत्न से मुक्त; अगुणात्--प्रकृति के गुणों से अप्रभावित; अविक्रियात्--आपकीदिव्य स्थिति में स्थिर रहने वाले; त्वयि--आप में; ईश्वर-- भगवान् में; ब्रह्म णि--परब्रह्म में; नो--नहीं; विरुध्यते--विरोध होताहै; त्वत्-आश्रयत्वात्--आपके द्वारा नियंत्रित होने से; उपचर्यते--अपने आप चलती हैं; गुणैः--गुणों के कार्यशील होने से |
हे प्रभु, विद्वान वैदिक पंडित कहते हैं कि सम्पूर्ण विश्व का सृजन, पालन एवं संहार आपकेद्वारा होता है तथा आप प्रयास से मुक्त, प्रकृति के गुणों से अप्रभावित तथा अपनी दिव्य स्थितिमें अपरिवर्तित रहते हैं।
आप परब्रह्म हैं और आप में कोई विरोध नहीं है।
प्रकृति के तीनों गुण--सतो, रजो तथा तमोगुण आपके नियंत्रण में हैं अतः सारी घटनाएँ स्वतः घटित होती हैं।
स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया बिभर्षि शुक्ल खलु वर्णमात्मन: ।
सर्गाय रक्त रजसोपबुंहितंकृष्णं च वर्ण तमसा जनात्यये ॥
२०॥
सः त्वमू--आप, जो वही व्यक्ति अर्थात् ब्रह्म हैं; त्रि-लोक-स्थितये--तीनों लोकों उच्च, मध्य तथा अधः लोकों का पालन करनेके लिए; स्व-मायया--अपनी निजी शक्ति से ( आत्ममायया ); बिभर्षि-- धारण करते हैं; शुक्लम्--सतोगुणी विष्णु के श्वेतरूप में; खलु-- भी; वर्णम्--रंग; आत्मन:--आपकी ही कोटि का ( विष्णुतत्त्व ); सर्गाय--सम्पूर्ण जगत की सृष्टि के लिए;रक्तम्-रजोगुण के रंग का लाल; रजसा--रजोगुण से युक्त; उपबृंहितम्--आविष्ट; कृष्णम् च--तथा अंधकार का गुण;वर्णम्ू--रंग; तमसा--अज्ञान से आवृत; जन-अत्यये--सम्पूर्ण सृष्टि के विनाश हेतु
हे भगवन्, आपका स्वरूप तीनों भौतिक गुणों से परे है फिर भी तीनों लोकों के पालन हेतुआप सतोगुणी विष्णु का श्वेत रंग धारण करते हैं, सृजन के समय जो रजोगुण से आवृत होता हैआप लाल प्रतीत होते हैं और अन्त में अज्ञान से आवृत संहार के समय आप श्याम प्रतीत होते हैं।
त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषु-गृहिउवतीर्णो इसि ममाखिले श्वर ।
राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपै-निर्व्यूह्यामाना निहनिष्यसे चमू: ॥
२१॥
त्वमू--आप; अस्य--इस जगत के; लोकस्य--विशेषतया इस मर्त्यलोक के; विभो--हे परमे श्वर; रिरक्षिषु;--( असुरों के उत्पातसे ) सुरक्षा के इच्छुक; गृहे--इस घर में; अवतीर्ण: असि--अब प्रकट हुए हो; मम--मेरे; अखिल-ई श्रर-- यद्यपि आप सम्पूर्णसृष्टि के स्वामी हैं; राजन्य-संज्ञ-असुर-कोटि-यूथ-पै:--राजनीतिज्ञों तथा राजाओं के रूप में लाखों असुरों तथा उनकेअनुयायियों समेत; निर्व्यूह्माना:--सारे संसार में विचरण कर रहे; निहनिष्यसे--मारेगा; चमू:--सेना, साज-सामान, सैनिक |
हे परमेश्वर, हे समस्त सृष्टि के स्वामी, आप इस जगत की रक्षा करने की इच्छा से मेरे घर मेंप्रकट हुए हैं।
मुझे विश्वास है कि आप क्षत्रियों का बाना धारण करने वाले राजनीतिज्ञों केनायकत्व में जो असुरों की सेनाएँ संसार भर में विचरण कर रही हैं उनका वध करेंगे।
निर्दोषजनता की सुरक्षा के लिए आपके द्वारा इनका वध होना ही चाहिए।
अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहेश्रुत्वाग्रजांस्ते न््यवधीत्सुरेश्वर ।
स तेवतारं पुरुषै: समर्पितंश्रुत्वाधुनेवाभिसरत्युदायुध: ॥
२२॥
अयम्--इस ( धूर्त ) ने; तु--लेकिन; असभ्य:--तनिक भी सभ्य नहीं ( असुर का अर्थ ही होता है असभ्य और सुर का सभ्य );तब--आपका; जन्म--जन्म; नौ--हमारे; गृहे--घर में; श्रुत्वा--सुनकर; अग्रजान् ते--आपसे पहले उत्पन्न हुए भाइयों को;न्यवधीत्--मार डाला; सुर-ईश्वर--हे सभ्य पुरुषों अर्थात् देवताओं के ईश्वर; सः--वह ( असभ्य कंस ); ते--तुम्हारे, आपके;अवतारमू--प्राकट्य को; पुरुषै:--अपने सेनापतियों द्वारा; समर्पितम्-- सूचना दिया हुआ; श्रुत्वा--सुनकर; अधुना--अब;एव--निस्सन्देह; अभिसरति--तुरन््त आएगा; उदायुध: --हथियार उठाए हुए।
हे परमेश्वर, हे देवताओं के स्वामी, यह भविष्यवाणी सुनकर कि आप हमारे घर में जन्म लेंगेऔर उसका वध करेंगे, इस असभ्य कंस ने आपके कई अग्रजों को मार डाला है।
वह ज्योंही अपने सेनानायकों से सुनेगा कि आप प्रकट हुए हैं, वह आपको मारने के लिए हथियार समेततुरन्त ही आ धमकेगा।
श्रीशुक उबाचअथेनमात्मजं वीक्ष्य महापुरुषलक्षणम् ।
देवकी तमुपाधावत्कंसाद्धीता सुविस्मिता ॥
२३॥
श्री-शुकः उबाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; अथ--वसुदेव द्वारा प्रार्थना करने के बाद; एनम्--इस कृष्ण को;आत्मजम्--अपने पुत्र; वीक्ष्य--देखकर; महा-पुरुष-लक्षणम्--भगवान् विष्णु के समस्त लक्षणों से युक्त; देवकी--कृष्ण कीमाता; तम्--उन ( कृष्ण ) की; उपाधावत्--प्रार्थना की; कंसात्ू--कंस से; भीता-- भयभीत; सु-विस्मिता--ऐसा अद्भुतबालक देखकर आश्चर्यचकित |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तत्पश्चात् यह देखकर कि उनके पुत्र में भगवान् के सारे लक्षणहैं, कंस से अत्यधिक भयभीत तथा असामान्य रूप से विस्मित देवकी भगवान् से प्रार्थना करनेलगीं।
श्रीदेवक्युवाचरूप॑ यत्तत्प्राहुरव्यक्तमाद्यब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम् ।
सत्तामात्र॑ निर्विशेषं निरीहंसत्वं साक्षाद्विष्णुरध्यात्मदीप: ॥
२४॥
श्री-देवकी उवाच-- श्री देवकी ने कहा; रूपम्--स्वरूप; यत् तत्--क्योंकि आप वही रूप हैं; प्राहु:--कहलाते हैं;अव्यक्तम्--अव्यक्त, भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभूत न होने वाले ( अत: श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्ममिन्द्रिय )।
आद्यमू--आदिकारण; ब्रह्म--ब्रह्म; ज्योति: -- प्रकाश; निर्गुणम्--भौतिक गुणों से रहित; निर्विकारम्--बिना परिवर्तन के विष्णु का शाश्वतस्वरूप; सत्ता-मात्रमू--आदि तत्त्व, सबका कारण; निर्विशेषम्-परमात्मा के रूप में सर्वत्र विद्यमान; निरीहम्--इच्छारहित;सः--वह परम पुरुष; त्वमू--आपको; साक्षात्-- प्रत्यक्ष ; विष्णु: -- भगवान् विष्णु; अध्यात्म-दीप:--समस्त दिव्य ज्ञान के लिएदीपक ( आपको जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है)
श्रीदेवकी ने कहा : हे भगवन, वेद अनेक हैं।
उसमें से कुछ आपको शब्दों तथा मन द्वाराअव्यक्त बतलाते हैं फिर भी आप सम्पूर्ण विश्व के उद्गम हैं।
आप ब्रह्म हैं, सभी वस्तुओं से बड़ेऔर सूर्य के समान तेज से युक्त।
आपका कोई भौतिक कारण नहीं, आप परिवर्तन तथाविचलन से मुक्त हैं और आपकी कोई भौतिक इच्छाएँ नहीं हैं।
इस तरह वेदों का कथन है किआप ही सार हैं।
अतः हे प्रभु, आप समस्त वैदिक कथनों के उद्गम हैं और आपको समझ लेनेपर मनुष्य हर वस्तु धीरे धीरे समझ जाता है।
आप ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा से भिन्न हैं फिर भीआप उनसे भिन्न नहीं हैं।
आपसे ही सब वस्तुएँ उद्भूत हैं।
दरअसल आप ही समस्त कारणों केकारण हैं, आप समस्त दिव्य ज्ञान की ज्योति भगवान् विष्णु हैं।
नष्टे लोके द्विपरार्धावसानेमहाभूतेष्वादिभूतं गतेषु ।
व्यक्तेव्यक्त कालवेगेन यातेभवानेकः शिष्यतेडशेषसंज्ञ: ॥
२५॥
नष्टे--संहार के बाद; लोके--विश्व के; द्वि-परार्ध-अवसाने--लाखों वर्षों के बाद ( ब्रह्म की आयु ); महा-भूतेषु--पाँचप्रारम्भिक तत्त्वों ( क्षिति, जल, पावक, गगन तथा समीर ) में; आदि-भूतम् गतेषु--इन्द्रिय-बोध के सूक्ष्म तत्त्वों के भीतर प्रवेशकरते हैं; व्यक्ते-- प्रकट होने पर; अव्यक्तम्--अव्यक्त में; काल-वेगेन--काल के वेग से; याते-- प्रवेश करता है; भवान्--आप; एक:ः--केवल एक; शिष्यते--रहता है; अशेष-संज्ञ:--विभिन्न नामों से युक्त वही एक
लाखों वर्षो बाद विश्व-संहार के समय जब सारी व्यक्त तथा अव्यक्त वस्तुएँ काल के वेग सेनष्ट हो जाती हैं, तो पाँचों स्थूल तत्त्व सूक्ष्म स्वरूप ग्रहण करते हैं और व्यक्त वस्तुएँ अव्यक्त बनजाती हैं।
उस समय आप ही रहते हैं और आप अनन्त शेष-नाग कहलाते हैं।
योयं कालस्तस्य तेडव्यक्तबन्धोचेष्टामाहुश्रेष्ठते येन विश्वम् ।
निमेषादिर्व त्सरान्तो महीयां-स्तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपह्मे ॥
२६॥
यः--जो; अयम्--यह; काल: --काल ( मिनट, घंटा, सेकंड ); तस्थ--उसका; ते--तुम्हारा; अव्यक्त-बन्धो--हे प्रभु! आपअव्यक्त के प्रारम्भकर्ता हैं ( महत् तत्त्व या प्रकृति ); चेष्टामू--प्रयास या लीलाएँ; आहुः--कहा जाता है; चेष्टते--कार्य करता है;येन--जिससे; विश्वम्--सम्पूर्ण सृष्टि; निमिष-आदि:--काल के सूक्ष्म अंश आदि; वत्सर-अन्तः--वर्ष के अन्त तक; महीयान् --शक्तिशाली; तमू--आपको; त्वा ईशानम्ू--परम नियंत्रक आपको; क्षेम-धाम--समस्त शुभ के आगार; प्रपद्ये--मैं पूरी तरहआपकी शरणागत में हूँ।
हे भौतिक शक्ति के प्रारम्भकर्ता, यह अद्भुत सृष्टि शक्तिशाली काल के नियंत्रण में कार्यकरती है, जो सेकंड, मिनट, घंटा तथा वर्षो में विभाजित है।
यह काल तत्त्व, जो लाखों वर्षोतक फैला हुआ है, भगवान् विष्णु का ही अन्य रूप है।
आप अपनी लीलाओं के लिए काल केनियंत्रक की भूमिका अदा करते हैं, किन्तु आप समस्त सौभाग्य के आगार हैं।
मैं पूरी तरहआपकी शरणागत हूँ।
मर्त्यों मृत्युव्यालभीत: पलायन्लोकास्सरवान्निर्भयं नाध्यगच्छत् ।
त्वत्पादाब्जं प्राप्प यहच्छयाद्यसुस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति ॥
२७॥
मर्त्य:--जीव, जिनकी मृत्यु निश्चित है; मृत्यु-व्याल-भीत:--मृत्यु रूपी सर्प से भयभीत; पलायन्--भागते हुए; लोकान्ू--विभिन्न लोकों को; सर्वानू--सभी; निर्भयम्--निर्भीकता; न अध्यगच्छत्-प्राप्त नहीं करता; त्वत्ू-पाद-अब्जम्--आपकेचरणकमलों की; प्राप्प--शरण पाकर; यहच्छया--सौभाग्यवश, भगवान् तथा गुरु की कृपा से ( गुरुकृपा, कृष्णकृपा );अद्य--इस समय; सु-स्थ:--अविचलित तथा शान्त; शेते--सो रहे हैं; मृत्यु:--मृत्यु; अस्मात्--उन लोगों से; अपैति--दूरभागता है।
इस भौतिक जगत में कोई भी व्यक्ति जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग--इन चार नियमों से छूटनहीं पाया भले ही वह विविध लोकों में क्यों न भाग जाए।
किन्तु हे प्रभु, अब चूँकि आप प्रकटहो चुके हैं अतः मृत्यु आपके भय से दूर भाग रही है और सारे जीव आपकी दया से आपकेचरणकमलों की शरण प्राप्त करके पूर्ण मानसिक शान्ति की नींद सो रहे हैं।
स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्न-स्त्राहि त्रस्तान्भृत्यवित्रासहासि ।
रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यंमा प्रत्यक्ष मांसहरशां कृषीछ्ठा: ॥
२८॥
सः--वह; त्वमू--आप; घोरात्-- अत्यन्त क्रूर; उग्रसेन-आत्मजातू---उग्रसेन के पुत्र से; न:--हमारी; त्राहि--रक्षा कीजिए;त्रस्तानू--अत्यधिक भयभीत; भृत्य-वित्रास-हा असि--आप अपने दासों के भय को दूर करने वाले हैं; रूपम्--अपने विष्णुरूप में; च-- भी; इृदमू--इस; पौरुषम्--भगवान् रूप को; ध्यान-धिष्ण्यम्-- ध्यान के द्वारा अनुभव किया गया; मा--नहीं;प्रत्यक्षम्-प्रत्यक्ष; मांस-दइशाम्ू--अपनी भौतिक आँखों से देखने वालों को; कृषीष्ठाः--होइए
हे प्रभु, आप अपने भक्तों के भय को दूर करने वाले हैं अतएव आपसे मेरी प्रार्थना है किआप कंस के विकराल भय से हमें बचाइए और हमें संरक्षण प्रदान कीजिए।
योगीजन आपकेविष्णु रूप का ध्यान में अनुभव करते हैं।
कृपया इस रूप को उनके लिए अदृश्य बना दीजिएजो केवल भौतिक आँखों से देख सकते हैं।
जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यान्मधुसूदन ।
समुद्विजे भवद्धेतो: कंसादहमधीरधी: ॥
२९॥
जन्म--जन्म; ते--तुम्हारा, भगवान् का; मयि--मेरे ( गर्भ ) में; असौ--वह कंस; पाप:--पापी; मा विद्यातू--हो सकता है किसमझ न पाए; मधुसूदन--हे मधुसूदन; समुद्विजे--चिन्ता से पूर्ण मैं; भवत्-हेतो:--आपके प्रकट होने से; कंसात्ू--कंस से,जिसका मुझे कटु अनुभव है; अहम्--मैं; अधीर-धी:--अधिकाधिक उद्दिग्न हूँ।
हे मधुसूदन, आपके प्रकट होने से मैं कंस के भय से अधिकाधिक अधीर हो रही हूँ।
अतःकुछ ऐसा कीजिए कि वह पापी कंस यह न समझ पाए कि आपने मेरे गर्भ से जन्म लिया है।
उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम् ।
शद्भुचक्रगदापदाश्रिया जुष्टे चतुर्भुजम् ॥
३०॥
उपसंहर--वापस ले लीजिए; विश्वात्मनू--हे विश्वव्यापी भगवान्; अद:--उस; रूपम्ू-- स्वरूप को; अलौकिकम्--इस जगत मेंअप्राकृतिक; शद्भु-चक्र-गदा-पढ्य--शंख, चक्र, गदा तथा कमल से युक्त; अ्रिया--इन ऐश्वर्यों से युक्त; जुष्टमू-- अलंकृत;चतु:-भुजम्--चार हाथों वाले
हे प्रभु, आप सर्वव्यापी भगवान् हैं और आपका यह चतुर्भुज रूप, जिसमें आप शंख, चक्र,गदा तथा पद्म धारण किए हुए हैं, इस जगत के लिए अप्राकृत है।
कृपया इस रूप को समेट लीजिए ( और सामान्य मानवी बालक बन जाइए जिससे मैं आपको कहीं छिपाने का प्रयास करसकूँ )।
विश्व यदेतत्स्वतनौ निशान्तेयथावकाशं पुरुष: परो भवान् ।
बिभर्ति सोयं मम गर्भगो भू-दहो नृुलोकस्य विडम्बनं हि तत् ॥
३१॥
विश्वम्--सम्पूर्ण विश्व को; यत् एतत्--चर तथा अचर सृष्टियों से युक्त; स्व-तनौ--अपने शरीर के भीतर; निशा-अन्ते--संहारके समय; यथा-अवकाशमू्--बिना कठिनाई के आपके शरीर में शरण; पुरुष: -- भगवान्; पर: --दिव्य; भवान्--आप;बिभर्ति--पालन करते हैं; सः--वही ( भगवान् ); अयम्ू--वह रूप; मम--मेरा; गर्भ-ग:--मेरे गर्भ में आया; अभूत्--हुआ;अहो--ओह; नृ-लोकस्य--जीवों के इस जगत का; विडम्बनमू--सोच पाना कठिन है; हि--निस्सन्देह; तत्--वह ( गर्भ )।
संहार के समय चर तथा अचर जीवों से युक्त सारी सृष्टियाँ आपके दिव्य शरीर में प्रवेश करजाती हैं और बिना कठिनाई के वहीं ठहरी रहती हैं।
किन्तु अब वही दिव्य रूप मेरे गर्भ से जन्मले चुका है।
लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे और मैं हँसी की पात्र बन जाऊँगी।
श्रीभगवानुवाचत्वमेव पूर्वसर्गे भू: पृश्टिन: स्वायम्भुवे सति ।
तदायं सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मष: ॥
३२॥
श्री-भगवान् उवाच-- भगवान् ने देवकी से कहा; त्वमू-तुम; एव--निस्सन्देह; पूर्व-सर्गे--पूर्व युग में; अभू: -- थीं; पृश्नि: --पृश्टिन नामक; स्वायम्भुवे--स्वायम्भुव मनु के युग में; सति--हे सती; तदा--उस समय; अयम्--यह वसुदेव; सुतपा--सुतपा;नाम--नामक; प्रजापति:--प्रजापति; अकल्मष: --निर्मल व्यक्ति
श्रीभगवान् ने उत्तर दिया: हे सती माता, आप अपने पूर्व जन्म में स्वायंभुव मनु कल्प मेंपृश्िन नाम से विख्यात थीं और वसुदेव सुतपा नामक अत्यन्त पवित्र प्रजापति थे।
युवां बै ब्रह्मणादिष्टौ प्रजासगें यदा ततः ।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तेपाथे परमं तपः ॥
३३॥
युवाम्--तुम दोनों ( पृश्नि तथा सुतपा ); बै--निस्सन्देह; ब्रह्मणा आदिष्टौ--ब्रह्मा ( जो पितामह या प्रजापतियों के पिता कहलातेहैं ) की आज्ञा से; प्रजा-सर्गे--सन्तान उत्पन्न करने में; यदा--जब; ततः--तत्पश्चात्; सन्नियम्य--पूर्ण नियंत्रण में रखते हुए;इन्द्रिय-ग्रामम्--इन्द्रियों को; तेपाथे--की; परमम्--महान; तपः--तपस्या
जब भगवान् ब्रह्मा ने तुम दोनों को सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया तो तुम दोनों नेपहले अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए कठोर तपस्या की।
वर्षवातातपहिमघर्मकालगुणाननु ।
सहमानौ श्वासरोधविनिर्धूतमनोमलौ ॥
३४॥
शीर्णपर्णानिलाहारावुपशान्तेन चेतसा ।
मत्त: कामानभीप्सन्तौ मदाराधनमीहतु: ॥
३५॥
वर्ष--वर्षा; वात--तेज हवा; आतप--तेज धूप; हिम--कड़ाके की ठंड; घर्म--घाम; काल-गुणान् अनु--ऋतु परिवर्तनों केअनुसार; सहमानौ--सहन करके; श्रास-रोध--साँस रोककर, योगाभ्यास द्वारा; विनिर्धूत-- मन में जमी मैल धुल जाती है; मनः-मलौ--मन भौतिक कल्मष से मुक्त होकर शुद्ध बन गया; शीर्ण--शुष्क, त्यक्त; पर्ण--पेड़ों के पत्ते; अनिल--तथा वायु;आहारौ--खाकर; उपशान्तेन--शान्त; चेतसा-- पूर्ण संयमित मन से; मत्त:--मुझसे; कामान् अभीप्सन्तौ--कुछ वर माँगने कीइच्छा से; मत्--मेरी; आराधनम्--पूजा; ईहतुः--तुम दोनों ने सम्पन्न की |
हे माता-पिता, तुम लोगों ने विभिन्न ऋतुओं के अनुसार वर्षा, तूफान, कड़ी धूप तथाकड़ाके की ठंड सभी प्रकार की असुविधाएँ सही थीं।
तुमने शरीर के भीतर वायु रोकने के लिएप्राणायाम करके तथा केवल हवा और वृक्षों से गिरे सूखे पत्ते खाकर अपने मन से सारे मैल कोसाफ कर दिया था।
इस तरह मेरे वर की इच्छा से तुम लोगों ने शान्त चित्त से मेरी पूजा की थी।
एवं वां तप्यतोस्तीब्रं तप: परमदुष्करम् ।
दिव्यवर्षसहस्त्राणि द्वादशेयुर्मदात्मनो: ॥
३६॥
एवम्--इस तरह से; वाम्--तुम दोनों को; तप्यतो:--तपस्या करते; तीव्रमू--अत्यन्त कठोर; तप:ः--तपस्या; परम-दुष्करम्--सम्पन्न करना कठिन; दिव्य-वर्ष--स्वर्गलोक के अनुसार काल गणना; सहस्त्राणि--हजार; द्वादश--बारह; ईयु:--बीत गए;मत्-आत्मनो: --मेरी चेतना में लगे रहकर।
इस तरह तुम दोनों ने मेरी चेतना ( कृष्णभावना ) में कठिन तपस्या करते हुए बारह हजारदिव्य वर्ष बिता दिए।
तदा वां परितुष्टो हममुना वपुषानघे ।
तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हदि भावितः ॥
३७॥
प्रादुरासं वरदराड्युवयो: कामदित्सया ।
ब्रियतां वर इत्युक्ते माइशो वां वृतः सुतः ॥
३८॥
तदा--तब ( बारह हजार दिव्य वर्ष बीत जाने पर ); वाम्-तुम दोनों के साथ; परितुष्ट: अहम्--मैं संतुष्ट हुआ; अमुना--इससे;वपुषा--कृष्ण के रूप में; अनघे--हे निष्पाप माता; तपसा--तपस्या के द्वारा; श्रद्धया-- श्रद्धापूर्वक; नित्यम्--निरन्तर ( लगेरहकर ); भक्त्या--भक्ति के द्वारा; च--भी; हृदि--हृदय के भीतर; भावित:--स्थिर ( संकल्प ); प्रादुरासम्--तुम्हारे समक्ष( उसी तरह ) प्रकट हुआ; वर-द-राट्-- श्रेष्ठ वरदायक; युवयो: --तुम दोनों का; काम-दित्सया--इच्छा पूरी करने के लिए;ब्रियतामू-तुमसे मन की बात कहने के लिए पूछा; वर:--वरदान के लिए; इति उक्ते--इस तरह अनुरोध किए जाने वाले;माहशः--मेरी ही तरह; वाम्--तुम दोनों का; वृतः--पूछा गया था; सुतः--तुम्हारे पुत्र रूप में ( तुमने मेरे जैसा पुत्र चाहा था )।
हे निष्पाप माता देवकी, उन बारह हजार दिव्य वर्षो के बीत जाने पर, जिनमें तुम अपने हृदयमें परम श्रद्धा, भक्ति तथा तपस्यापूर्वक निरन्तर मेरा ध्यान करती रही, मैं तुम से अत्यन्त प्रसन्न हुआ था।
चूँकि मैं वर देने वालों में सर्वश्रेष्ठ हूँ, अत: मैं इसी कृष्ण रूप में प्रकट हुआ कि तुममनवाउिछत वर माँगो।
तब तुमने मेरे सह पुत्र-प्राप्ति की इच्छा प्रकट की थी।
अजुष्टग्राम्यविषयावनपत्यौ च दम्पती ।
न वक्राथेपवर्ग मे मोहितौ देवमायया ॥
३९॥
अजुष्ट-ग्राम्प-विषयौ--विषयी जीवन तथा मुझ जैसा बालक उत्पन्न करने के लिए; अनपत्यौ--सन्तानविहीन होने के कारण;च--भी; दम्-पती--पति-पली दोनों; न--कभी नहीं; वब्राथे--माँगा ( कोई वर ); अपवर्गम्--इस जगत से मोक्ष; मे--मुझसे;मोहितौ--अत्यधिक आकर्षित होकर; देव-मायया--मेरे लिए दिव्य प्रेम के कारण ( मुझे अपने पुत्र रूप में चाहकर )
पति-पत्नी रूप में सन्तानहीन होने से आप लोग विषयी-जीवन के प्रति आकृष्ट हुए क्योंकिदेवमाया के प्रभाव अर्थात् दिव्य प्रेम से तुम लोग मुझे अपने पुत्र के रूप में प्राप्त करना चाह रहेथे इसलिए तुम लोगों ने इस जगत से कभी भी मुक्त होना नहीं चाहा।
गते मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सहृ॒शं सुतम् ।
ग्राम्यान्भोगानभुख्ाथां युवां प्राप्तमनोरथौ ॥
४०॥
गते मयि--मेरे चले जाने पर; युवाम्--तुम दोनों को ( दम्पतियों को ); लब्ध्वा--पाकर; वरम्--वरदान ( पुत्र प्राप्ति का ); मत्ू-सहशम्--मेरी ही तरह के; सुतम्--पुत्र को; ग्राम्यान् भोगान्ू-- भोग-विलास में व्यस्त रहना; अभुज्जाथाम्-- भोग किया;युवाम्--तुम दोनों को; प्राप्त--प्राप्त करके; मनोरथौ--अभिलाषाएँ।
जब तुम वर प्राप्त कर चुके और मैं अन्तर्धान हो गया तो तुम मुझ जैसा पुत्र प्राप्त करने केउद्देश्य से विषयभोग में लग गए और मैंने तुम्हारी इच्छा पूरी कर दी।
अह्ृष्ठान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणै: समम् ।
अहं सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः ॥
४१॥
अद्ृष्टा--न पाकर; अन्यतमम्--किसी अन्य को; लोके--इस जगत में; शील-औदार्य-गुणैः--शील तथा उदारता के गुणों सेयुक्त; समम्--तुम्हारे तुल्य; अहम्--मैं; सुत:--पुत्र; वामू--तुम दोनों का; अभवम्--बना; पृश्नि-गर्भ:--पृश्टिन से उत्पन्न हुआ;इति--इस प्रकार; श्रुतः:--प्रसिद्ध हुआ |
चूँकि मुझे सरलता तथा शील के दूसरे गुणों में तुम जैसा बढ़ा-चढ़ा अन्य कोई व्यक्ति नहींमिला अतः मैं पृश्नि-गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ।
तयोर्वा पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात् ।
उपेन्द्र इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामन: ॥
४२॥
तयो:--तुम पति-पत्नी दोनों का; वाम्--दोनों में; पुन: एब--फिर से ही; अहम्--मैं; अदित्याम्-- अदिति के गर्भ में; आस--प्रकट हुआ; कश्यपात्--कश्यपमुनि के वीर्य से; उपेन्द्र:--उपेन्द्र नाम से; इति--इस प्रकार; विख्यात:--सुप्रसिद्ध; वामनत्वात्च--तथा बौना बनने से; वामन:--वामन नाम से विख्यात |
मैं अगले युग में तुम दोनों से, माता अदिति तथा पिता कश्यप से पुनः प्रकट हुआ।
मैं उपेन्द्रनाम से विख्यात हुआ और बौना होने के कारण मैं वामन भी कहलाया।
तृतीयेउस्मिन्भवेहं वै तेनेव वपुषाथ वाम् ।
जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहतं सति ॥
४३॥
तृतीये--तीसरी बार; अस्मिन् भवे--इस रूप में ( कृष्ण रूप के ); अहम्--मैं; वै--निस्सन्देह; तेन--उसी व्यक्ति से; एब--इसतरह; वपुषा--रूप द्वारा; अथ--जिस तरह; वाम्--तुम दोनों के; जात: --उत्पन्न; भूय:--फिर से; तयो:--तुम दोनों का;एव--निस्सन्देह; सत्यम्--सत्य मानकर; मे--मेरे; व्याहतम्--शब्द; सति--हे सती |
हे परम सती माता, मैं वही व्यक्ति अब तीसरी बार तुम दोनों के पुत्र रूप में प्रकट हुआ हूँ।
मेरे वचनों को सत्य मानें।
एतद्ठां दर्शितं रूप॑ प्राग्जन्मस्मरणाय मे ।
नान्यथा मद्धवं ज्ञानं मर्त्यलिड्रेन जायते ॥
४४॥
एतत्--विष्णु का यह रूप; वाम्ू--तुम दोनों को; दर्शितम्--दिखलाया गया; रूपमू--चतुर्भुज भगवान् के रूप में मेरा स्वरूप;प्राकू-जन्म--पूर्व जन्मों का; स्मरणाय--तुमको स्मरण दिलाने के लिए; मे--मेरा; न--नहीं; अन्यथा--अन्यथा; मत्-भवम्--विष्णु का प्राकट्य; ज्ञामम्ू--यह दिव्य ज्ञान; मर्त्य-लिड्रेन--मानवी शिशु की तरह जन्म लेकर; जायते--उत्पन्न होता है।
मैंने तुम लोगों को यह विष्णु-रूप मात्र अपने पूर्वजन्मों का स्मरण कराने के लिएदिखलाया है।
अन्यथा यदि मैं सामान्य बालक की तरह प्रकट होता तो तुम लोगों को विश्वास नहो पाता कि भगवान् विष्णु सचमुच प्रकट हुए हैं।
युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत् ।
चिन्तयन्तौ कृतस्नेहौ यास्येथे मद्गतिं पराम् ॥
४५॥
युवाम्--तुम दोनों ( पति-पत्नी ); माम्--मुझको; पुत्र-भावेन--अपने पुत्र रूप में; ब्रह्म-भावेन--मुझे भगवान् के रूप में जानतेहुए; च--तथा; असकृत्--निरन्तर; चिन्तयन्तौ--इस तरह सोचते हुए; कृत-स्नेहौ --प्रेम का बर्ताव करते हुए; यास्येथे--दोनोंको प्राप्त होगा; मत्ू-गतिम्--मेरा परम धाम; पराम्-दिव्य |
तुम पति-पत्ली निरन्तर अपने पुत्र के रूप में मेरा चिन्तन करते हो, किन्तु तुम यह जानते रहतेहो कि मैं भगवान् हूँ।
इस तरह निरन्तर स्नेहपूर्वक मेरा चिन्तन करते हुए तुम लोग सर्वोच्च सिद्धिप्राप्त करोगे अर्थात् भगवद्धाम वापस जाओगे।
श्रीशुक उबाचइत्युक्त्वासीद्धरिस्तृष्णीं भगवानात्ममायया ।
पित्रो: सम्पश्यतो: सद्यो बभूव प्राकृत: शिशु; ॥
४६॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति उक्त्वा--इस तरह उपदेश देकर; आसीत्--रहे; हरि: -- भगवान्;तृष्णीमू--मौन; भगवान्-- भगवान् विष्णु; आत्म-मायया--अपनी आध्यात्मिक शक्ति से कार्य करते हुए; पित्रो: सम्पश्यतो: --यथार्थ रूप में माता-पिता द्वारा देखे जाकर; सद्यः--तुरन्त; बभूव--हो गये; प्राकृत:--सामान्य व्यक्ति की तरह; शिशु:--बालक।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : अपने माता-पिता को इस तरह उपदेश देने के बाद भगवान्कृष्ण मौन रहे।
तब उन्हीं के सामने अपनी अंतरंगा शक्ति से उन्होंने अपने आप को एक छोटेशिशु के रूप में बदल लिया।
( दूसरे शब्दों में, उन्होंने स्वयं को अपने आदि रूप में रूपान्तरित कर दिया-- कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् )।
ततश्च शौरिभ्भगवत्प्रचोदित:सुतं समादाय स सूतिकागृहात् ।
यदा बहिर्गन्तुमियेष तहांजाया योगमायाजनि नन्दजायया ॥
४७॥
ततः--तत्पश्चात्; च--निस्सन्देह; शौरि: --वसुदेव; भगवत्-प्रचोदित:-- भगवान् से आज्ञा पाकर; सुतम्--अपने पुत्र को;समादाय--सावधानी से ले जाकर; सः--उसने; सूतिका-गृहात्-- प्रसूतिगृह से, सौरी से; यदा--जब; बहिः गन्तुमू--बाहर जानेके लिए; इयेष--चाहा; तहि---तब, उस समय; अजा--न जन्म लेने वाली दिव्य शक्ति; या--जो; योगमाया--योगमाया ने;अजनि--जन्म लिया; नन्द-जायया--नन्द महाराज की पत्नी से।
तत्पश्चात् भगवान् की प्रेरणा से जब वसुदेव नवजात शिशु को सूतिकागृह से ले जाने वालेथे तो बिलकुल उसी क्षण भगवान् की आध्यात्मिक शक्ति योगमाया ने महाराज नन्द की पत्नीकी पुत्री के रूप में जन्म लिया।
तया हतप्रत्ययसर्ववृत्तिषुद्वा:स्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ ।
द्वारश्न सर्वा: पिहिता दुरत्ययाबृहत्कपाटायसकीलश्रुद्ुलै: ॥
४८ ॥
ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगतेस्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवे: ।
वर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितःशेषो<न्वगाद्वारि निवारयन्फणैः ॥
४९॥
तया--योगमाया के प्रभाव से; हत-प्रत्यय--सारी अनुभूति से रहित; सर्व-वृत्तिषु--अपनी समस्त इन्द्रियों सहित; द्वा:-स्थेषु --सारे द्वारपाल; पौरेषु अपि--तथा घर के सारे लोग भी; शायितेषु--गहरी नींद में मगन; अथ--जब वसुदेव ने अपने पुत्र कोबन्दीगृह से बाहर ले जाने का प्रयास किया; द्वार: च--तथा दरवाजे भी; सर्वा:--सारे; पिहिता:--निर्मित; दुरत्यया--अत्यन्तकठोर तथा हृढ़; बृहत्-कपाट--तथा बड़े दरवाजे पर; आयस-कौल- श्रूडुलैः--लोहे के काँटों से बने तथा लोहे की जंजीरों सेबन्द किए गए; ता:--वे सब; कृष्ण-वाहे--कृष्ण को लिए हुए; वसुदेवे--जब वसुदेव; आगते-- प्रकट हुए; स्वयम्--स्वयं;व्यवर्यन्त--खुल गए; यथा--जिस तरह; तम:--अँधेरा; रवे: --सूर्य के उदय होने पर; ववर्ष--पानी बरसे हुए; पर्जन्य:--आकाश में बादल; उपांशु-गर्जित:--मन्द गर्जना करते और रिमझिम बरसते; शेष: -- अनन्त नाग; अन्वगात्--पीछे-पीछे चला;वारि--वर्षा की झड़ी; निवारयन्--रोकते हुए; फणैः --अपने फनों को फैलाकर।
योगमाया के प्रभाव से सारे द्वारपाल गहरी नींद में सो गए, उनकी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गईंऔर घर के अन्य लोग भी गहरी नींद में सो गए।
जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकारस्वतः छिप जाता है उसी तरह वसुदेव के प्रकट होने पर लोहे की कीलों से जड़े तथा भीतर सेलोहे की जंजीरों से जकड़े हुए बंद दरवाजे स्वतः खुल गए।
चूँकि आकाश में बादल मन्द गर्जनाकर रहे थे और झड़ी लगाए हुए थे अतः भगवान् के अंश अनन्त नाग दरवाजे से ही वसुदेव तथादिव्य शिशु की रक्षा करने के लिए अपने फण फैलाकर वसुदेव के पीछे लग लिए।
मधघोनि वर्षत्यसकृद्यमानुजागम्भीरतोयौघजवोर्मिफेनिला ।
भयानकावर्तशताकुला नदीमार्ग ददौ सिन्धुरिव थ्िय: पते: ॥
५०॥
मधघोनि वर्षति--इन्द्र की वर्षा के कारण; असकृत्--निरन्तर; यम-अनुजा--यमुना नदी, जिसे यमराज की बहन माना जाता है;गम्भीर-तोय-ओघ--गहरे जल के; जब--वेग से; ऊर्मि-- लहरों से; फेनिला--फेन से पूर्ण; भयानक--भयानक; आवर्त-शत--भँवरों से; आकुला--श्षुब्ध; नदी--नदी ने; मार्गम्--रास्ता; ददौ--दे दिया; सिन्धु: इब--समुद्र के समान; थ्रियः पतेः--देवी सीता के पति भगवान् रामचन्द्र को।
इन्द्र द्वारा बरसायी गयी निरन्तर वर्षा के कारण यमुना नदी में पानी चढ़ आया था और उसमेंभयानक भंँवरों के साथ फेन उठ रहा था।
किन्तु जिस तरह पूर्वकाल में हिन्द महासागर नेभगवान् रामचन्द्र को सेतु बनाने की अनुमति देकर रास्ता प्रदान किया था उसी तरह यमुना नदीने वसुदेव को रास्ता देकर उन्हें नदी पार करने दी।
नन्दब्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्गोपान्प्रसुप्तानुपलभ्य निद्रया ।
सुतं यशोदाशयने निधाय त-त्सुतामुपादाय पुनर्गृहानगात् ॥
५१॥
नन्द-ब्रजम्--नन्द महाराज के गाँव या घर तक; शौरि:--वसुदेव; उपेत्य--पहुँचकर; तत्र--वहाँ; तान्--सारे लोगों को;गोपान्--सारे ग्वालों को; प्रसुप्तानू--सोया हुआ; उपलभ्य--जानकर; निद्रया--गहरी निद्रा में; सुतम्--पुत्र को ( वसुदेव केपुत्र को ); यशोदा-शयने--उस बिस्तर पर जिसमें यशोदा सो रही थीं; निधाय--रखकर; तत्-सुताम्--उसकी पुत्री को;उपादाय--लेकर; पुनः--फिर; गृहान्ू--अपने घर को; अगात्--लौट आया।
जब वसुदेव नन््द महाराज के घर पहुँचे तो देखा कि सारे ग्वाले गहरी नींद में सोए हुए थे।
उन्होंने अपने पुत्र को यशोदा के पलँग में रख दिया, उसकी पुत्री को, जो योगमाया की अंश थी,उठाया और अपने घर कंस के बंदीगृह वापस लौट आए।
देवक्या: शयने न्यस्य वसुदेवोथ दारिकाम् ।
प्रतिमुच्य पदोरलोहमास्ते पूर्ववदावृतः ॥
५२॥
देवक्या: --देवकी के; शयने--विस्तर पर; न्यस्य--रखकर; वसुदेव: --वसुदेव ने; अथ--इस प्रकार; दारिकाम्--लड़की को;प्रतिमुच्य--पुन: पहन कर; पदो: लोहम्--पाँवों की बेड़ियाँ; आस्ते--हो गया; पूर्ब-बत्--पहले की तरह; आवृतः--बँधाहुआ।
वसुदेव ने लड़की को देवकी के पलँग पर रख दिया और अपने पाँवों में बेड़ियाँ पहन लींतथा पहले की तरह बन गए।
यशोदा नन्दपत्नी च जात॑ परमबुध्यत ।
न तल्लिड़ूं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृति: ॥
५३॥
यशोदा--यशोदा, गोकुल में कृष्ण की माता; नन्द-पत्नी--नन्द महाराज की पत्नी; च--भी; जातम्--उत्पन्न शिशु; परमू--परमपुरुष को; अबुध्यत--समझ गई; न--नहीं; तत्-लिड्रमू--कि बालक नर है या मादा; परिश्रान्ता--अत्यधिक प्रसव पीड़ा केकारण; निद्रया--नींद के वशीभूत; अपगत-स्मृतिः--चेतना खोकर।
शिशु जनने की पीड़ा से थककर यशोदा नींद के वशीभूत हो गई और यह नहीं समझ पाईकि उन्हें लड़का हुआ है या लड़की।
अध्याय चार: राजा कंस के अत्याचार
10.4श्रीशुक उबाचबहिरन्तःपुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृता: ।
ततो बालध्वनिं श्रुत्वा गृहपाला: समुत्थिता: ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; बहिः-अन्तः-पुर-द्वारः--घर के भीतरी तथा बाहरी दरवाजे; सर्वा:--सारे;पूर्व-बत्--पहले की तरह; आवृता:--बन्द; ततः--तत्पश्चात्; बाल-ध्वनिम्--नवजात शिशु का रोदन; श्रुत्वा--सुनकर; गृह-पाला:--घर के सारे वासी विशेषतया द्वारपाल; समुत्थिता:--जग गए
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, घर के भीतरी तथा बाहरी दरवाजे पूर्ववत्बन्द हो गए।
तत्पश्चात् घर के रहने वालों ने, विशेष रूप से द्वारपालों ने, नवजात शिशु काक्रन्दन सुना और अपने बिस्तरों से उठ खड़े हुए।
ते तु तूर्णमुपत्रज्य देवक्या गर्भजन्म तत् ।
आचख्युर्भोजराजाय यदुद्विग्न: प्रतीक्षते ॥
२॥
ते--वे सारे द्वारपाल; तु--निस्सन्देह; तूर्णम्--शीघ्र; उपब्रज्य--राजा के समक्ष जाकर; देवक्या:--देवकी का; गर्भ-जन्म-गर्भसे बाहर आना; तत्--उस ( शिशु ); आचख्यु:--प्रस्तुत किया; भोज-राजाय--भोजराज कंस को; यत्--जिससे; उद्विग्न:--अत्यधिक चिन्तित; प्रतीक्षते--प्रतीक्षा कर रहा था ( शिशु जन्म की )
तत्पश्चात् सारे द्वारपाल जल्दी से भोजवंश के शासक राजा कंस के पास गये और उसेदेवकी से शिशु के जन्म लेने का समाचार बतलाया।
अत्यन्त उत्सुकता से इस समाचार कीप्रतीक्षा कर रहे कंस ने तुरन्त ही कार्यवाही की।
स तल्पात्तूर्णमुत्थाय कालोयमिति विहलः ।
सूतीगृहमगात्तूर्ण प्रस्खलन्मुक्तमूर्धज: ॥
३॥
सः--वह ( कंस ); तल्पात्--बिस्तर से; तूर्णम्--शीघ्र ही; उत्थाय--उठकर; काल: अयम्--यह रही मेरी मृत्यु, परम काल;इति--इस प्रकार; विहलः --उद्विग्न; सूती-गृहम्--सौर को; अगात्--गया; तूर्णम्--देरी लगाए बिना; प्रस्खलन्--बिखेरे हुए;मुक्त--खुले; मूर्ध-ज:--सिर के बाल।
कंस तुरन्त ही बिस्तर से यह सोचते हुए उठ खड़ा हुआ, '‘यह रहा काल, जिसने मेरा वधकरने के लिए जन्म लिया है।
इस तरह उद्विग्न एवं अपने सिर के बाल बिखराए कंस तुरन्त हीउस स्थान पर पहुँचा जहाँ शिशु ने जन्म लिया था।
तमाह भ्रातरं देवी कृपणा करुणं सती ।
स्नुषेयं तब कल्याण स्त्रियं मा हन्तुमहसि ॥
४॥
तम्ू--कंस से; आह--कहा; भ्रातरम्--अपने भाई; देवी--माता देवकी ने; कृपणा--असहाय; करुणम्--कातर; सती --सती; स्नुषा इयम् तब--यह शिशु तुम्हारी भावी पुत्र-वधू बनेगी; कल्याण--हे शुभ; स्त्रियम्--स्त्री को; मा--नहीं; हन्तुमू--वधकरना; अर्हसि--तुम्हें शोभा देता है।
असहाय तथा कातर भाव से देवकी ने कंस से विनती की : मेरे भाई, तुम्हारा कल्याण हो।
तुम इस बालिका को मत मारो।
यह तुम्हारी पुत्र-वधू बनेगी।
तुम्हें शोभा नहीं देता कि एककन्या का वध करो।
बहवो हिंसिता भ्रात: शिशवः पावकोपमा: ।
त्वया दैवनिसूष्टेन पुत्रिकेका प्रदीयताम् ॥
५॥
बहव:--अनेक; हिंसिता:--ईर्ष्यावश मारे गए; भ्रात:--हे भाई; शिशव:--अनेक शिशु; पावक-उपमा:--तेज और सौन्दर्य मेंअग्नि के समान; त्वया--तुम्हारे द्वारा; दैव-निसृष्टेन--भविष्यवाणी से; पुत्रिका--कन्या; एका--एक; प्रदीयताम्--तुम मुझेउपहार स्वरूप दे दो।
हे भ्राता, तुम दैववश मेरे अनेक सुन्दर तथा अग्नि जैसे तेजस्वी शिशुओं को पहले ही मारचुके हो।
किन्तु कृपा करके इस कन्या को छोड़ दो।
इसे उपहार स्वरूप मुझे दे दो।
नन्वहं ते ह्वरजा दीना हतसुता प्रभो ।
दातुमरहसि मन्दाया अड्लेमां चरमां प्रजाम्ू ॥
६॥
ननु--किन्तु; अहम्-मैं; ते--तुम्हारी; हि--निश्चय ही; अवरजा--छोटी बहन; दीना--दीन; हत-सुता--सन्तान से विहीन कीगई; प्रभो--हे प्रभु; दातुम् अहंसि--तुम देने में समर्थ हो; मन्दाया:--इस अभागिन को; अड्भ--मेरे भाई; इमाम्--इस;चरमाम्-- अन्तिम; प्रजामू--बालक को
हे प्रभु, हे मेरे भाई, मैं अपने सारे बालकों से विरहित होकर अत्यन्त दीन हूँ, फिर भी मैंतुम्हारी छोटी बहन हूँ अतएव यह तुम्हारे अनुरूप ही होगा कि तुम इस अन्तिम शिशु को मुझे भेंटमें दे दो।
श्रीशुक उबाचउपगुद्यात्मजामेवं रुद॒त्या दीनदीनवत् ।
याचितस्तां विनिर्भत्स्य हस्तादाचिच्छिदे खलः ॥
७॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; उपगुह्ा--आलिंगन करके; आत्मजाम्--अपनी पुत्री को; एवम्--इस प्रकार;रुदत्या--रूदन करती देवकी द्वारा; दीन-दीन-वत्--एक गरीब स्त्री की भाँति अत्यन्त दीनतापूर्वक; याचित:--माँगे जाने पर;तामू--उसे ( देवकी को ); विनिर्भ्स्य--भर्त्सना करके; हस्तातू--हाथ से; आचिच्छिदे--बलपूर्वक छीन लिया; खलः--उसदुष्ट कंस ने |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : अपनी पुत्री को दीनतापूर्वक सीने से लगाये हुए तथाबिलखते हुए देवकी ने कंस से अपनी सनन््तान के प्राणों की भीख माँगी, किन्तु वह इतना निर्दयीथा कि उसने देवकी को फटकारते हुए उसके हाथों से उस बालिका को बलपूर्वक झपट लिया।
तां गृहीत्वा चरणयोर्जातमात्रां स्वसु: सुताम् ।
अपोथयच्छिलापूट्टे स्वार्थोन्मूलितसौहद: ॥
८ ॥
ताम्ू--शिशु को; गृहीत्वा--बलपूर्वक लेकर; चरणयो:--दोनों पाँवों से; जात-मात्रामू--नवजात शिशु को; स्वसु:--अपनीबहन की; सुताम्--कन्या को; अपोधयत्--पछाड़ दिया; शिला-पृष्ठे--पत्थर के ऊपर; स्व-अर्थ-उन्मूलित--विकट स्वार्थ केवशीभूत होकर जड़ से उखाड़ फेंका; सौहद:--सारे मित्र या पारिवारिक सम्बन्ध |
अपने विकट स्वार्थ के कारण अपनी बहन से सारे सम्बन्ध तोड़ते हुए घुटनों के बल बैठेकंस ने नवजात शिशु के पाँवों को पकड़ा और उसे पत्थर पर पटकना चाहा।
सा तद्धस्तात्समुत्पत्य सद्यो देव्यम्बरं गता ।
अदृश्यतानुजा विष्णो: सायुधाष्टमहाभुजा ॥
९॥
सा--वह कन्या; ततू-हस्तातू--कंस के हाथ से; सम्-उत्पत्य--छूटकर; सद्य:--तुरन्त; देवी--देवी के रूप में; अम्बरम्--आकाश में; गता--चली गईं; अहृश्यत--देखी गई; अनुजा--छोटी बहन; विष्णो:-- भगवान् की; स-आयुधा--हथियारोंसहित; अष्ट--आठ; महा-भुजा--बड़ी-बड़ी भुजाओं वाली
वह कन्या, योगमाया देवी जो भगवान् विष्णु की छोटी बहन थी, कंस के हाथ से छूट करऊपर की ओर चली गई और आकाश में हथियारों से युक्त आठ भुजाओं वाली देवी--देवीदुर्गा--के रूप में प्रकट हुई।
दिव्यस्त्रगम्बरालेपरत्ताभरणभूषिता ।
धनुःशूलेषुचर्मासिशट्डुचक्रगदाधरा ॥
१०॥
सिद्धचारणगन्धर्वैरप्सर:किन्नरोरगै: ।
उपाहतोरुबलिभि:ः स्तूयमानेदमब्रवीत् ॥
११॥
दिव्य-सत्रकू-अम्बर-आलेप--तब उसने चन्दन लेप, फूल-माला तथा सुन्दर वस्त्रों से आभूषित देवी का रूप धारण कर लिया;रतल-आभरण-भूषिता--बहुमूल्य रत्नों वाले आभूषणों से सज्जित; धनुः-शूल-इषु-चर्म-असि--धनुष, त्रिशूल, तीर, ढाल तथातलवार से युक्त; शटद्डु-चक्र-गदा-धरा--तथा शंख, चक्र और गदा धारण किए हुए; सिद्ध-चारण-गन्धर्व:--सिद्ध, चारण तथागन्धर्वों के द्वारा; अप्सर:-किन्नर-उरगै:--अप्सराओं, किन्नरों तथा उरगों द्वारा; उपाहत-उरु-बलिभि: --सभी उसके लिए भेंटेंलेकर आए; स्तूयमाना--प्रशंसित होकर; इृदम्--ये शब्द; अब्नवीत्--उसने कहे |
देवी दुर्गा फूल की मालाओं से सुशोभित थीं, वे चन्दन का लेप किए थीं और सुन्दर वस्त्रपहने तथा बहुमूल्य रत्नों से जटित आभूषणों से युक्त थीं।
वे अपने हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण,ढाल, तलवार, शंख, चक्र तथा गदा धारण किए हुए थीं।
अप्सराएँ, किन्नर, उरग, सिद्ध, चारणतथा गन्धर्व तरह-तरह की भेंट अर्पित करते हुए उनकी प्रशंसा और पूजा कर रहे थे।
ऐसी देवीदुर्गा इस प्रकार बोलीं ।
कि मया हतया मन्द जातः खलु तवान्तकृत् ।
यत्र क््व वा पूर्वशत्रुर्मा हिंसी: कृपणान्वृथा ॥
१२॥
किम्--क्या लाभ; मया--मुझे; हतया--मारने में; मन्द--ओरे मूर्ख; जात:--पहले ही जन्म ले चुका है; खलु--निस्सन्देह; तवअन्त-कृत्--जो तुम्हारा वध करेगा; यत्र कब वा--अन्यत्र कहीं; पूर्व-शत्रु:--तुम्हारा पहले का शत्रु; मा--मत; हिंसी:--मारो;कृपणान्--अन्य बेचारे बालक; वृथा--व्यर्थ ही ओ
रे मूर्ख कंस, मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा? तेरा जन्मजात शत्रु तथा वध करने वालापूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अन्यत्र कहीं जन्म ले चुका है।
अतः तू व्यर्थ ही अन्य बालकों का वधमत कर।
इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि ।
बहुनामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह ॥
१३॥
इति--इस तरह; प्रभाष्य--कहकर; तम्--कंस से; देवी--देवी दुर्गा; माया--योगमाया; भगवती-- भगवान् जैसी शक्ति सेसम्पन्न; भुवि--पृथ्वी पर; बहु-नाम--अनेक नामों वाले; निकेतेषु--विभिन्न स्थानों में; बहु-नामा--अनेक नामों वाली;बभूव--हुईं; ह--निस्सन्देह।
कंस से इस तरह कहकर देवी दुर्गा अर्थात् योगमाया वाराणसी इत्यादि जैसे विभिन्न स्थानोंमें प्रकट हुईं और अन्नपूर्णा, दुर्गा, काली तथा भद्रा जैसे विभिन्न नामों से विख्यात हुईं।
तयाभिहितमाकर्ण्य कंस: परमविस्मितः ।
देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोउब्रवीत् ॥
१४॥
तया--दुर्गा देवी द्वारा; अभिहितम्--कहे गए शब्दों को; आकर्णर्य--सुनकर; कंस: -- कंस; परम-विस्मित:-- अत्यधिकआश्चर्यचकित था; देवकीम्--देवकी को; वसुदेवम् च--तथा वसुदेव को; विमुच्य--तुरन्त विमुक्त करके; प्रश्रित:--अत्यन्तदीनतापूर्बक; अब्नवीत्--इस प्रकार बोला |
देवीदुर्गा के शब्दों को सुनकर कंस अत्यन्त विस्मित हुआ।
तब वह अपनी बहन देवकी तथाबहनोई वसुदेव के निकट गया, उन्हें बेड़ियों से विमुक्त कर दिया तथा अति विनीत भाव में इसप्रकार बोला।
अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना ।
पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिता: सुता: ॥
१५॥
अहो--ओह; भगिनि--मेरी बहन; अहो--ओह; भाम--मेरे बहनोई; मया--मेरे द्वारा; वामू--तुम दोनों को; बत--निस्सन्देह;पाप्मना--पापपूर्ण कार्यों से; पुरुष-अदः --मानव-भक्षी, राक्षस; इब--सहश; अपत्यमू--शिशु को; बहवः--अनेक;हिंसिता:--मारे गए; सुता:--पुत्रगण |
हाय मेरी बहन! हाय मेरे बहनोई ! मैं सचमुच उस मानव-भक्षी ( राक्षस ) के तुल्य पापी हूँ जोअपने ही शिशु को मारकर खा जाता है क्योंकि मैंने तुमसे उत्पन्न अनेक पुत्रों को मार डाला है।
स त्वहं त्यक्तकारुण्यस्त्यक्तज्ञातिसुहत्खल: ।
कान््लोकान्वै गमिष्यामि ब्रह्मदेव मृत: श्वसन् ॥
१६॥
सः--वह व्यक्ति ( कंस ); तु--निस्सन्देह; अहम्--मैं; त्यक्त-कारुण्य:--सारी दया से विहीन; त्यक्त-ज्ञाति-सुहृत्--जिसनेअपने सम्बन्धियों तथा मित्रों का भी परित्याग कर रखा है; खलः--क्रूर; कान् लोकानू--कौन से लोकों में; वै--निस्सन्देह;गमिष्यामि--जाऊँगा; ब्रह्म-हा इब--ब्राह्मण का वध करने वाले के समान; मृत: श्रसन्ू--मरने के बाद या जीते ही जीते |
मैंने दयाविहीन तथा क्रूर होने के कारण अपने सारे सम्बन्धियों तथा मित्रों का परित्याग करदिया है।
अतः मैं नहीं जानता कि ब्राह्मण का वध करने वाले व्यक्ति के समान मृत्यु के बाद याइस जीवित अवस्था में मैं किस लोक को जाऊँगा ?
दैवमप्यनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम् ।
यद्विश्रम्भादहं पाप: स्वसुर्निहतवाउिछशून् ॥
१७॥
दैवम्--विधाता; अपि-- भी; अनृतम्--झूठ; वक्ति--कहते हैं; न--नहीं; मर्त्या:--मनुष्यगण; एव--निश्चय ही; केवलम्--केवल; यत्-विश्रम्भात्ू--उस भविष्यवाणी में विश्वास करने के कारण; अहमू्--मैंने; पाप: --अत्यन्त पापी; स्वसु;:--अपनीबहन के; निहतवान्--मार डाले; शिशून्--अनेक बालकों को
हाय! कभी-कभी न केवल मनुष्य झूठ बोलते हैं अपितु विधाता भी झूठ बोलता है।
और मैंइतना पापी हूँ कि मैंने विधाता की भविष्यवाणी को मानते हुए अपनी ही बहन के इतने बच्चोंका वध कर दिया।
मा शोचतं महाभागावात्मजान्स्वकृतं भुजः ।
जान्तवो न सदैकत्र दैवाधीनास्तदासते ॥
१८॥
मा शोचतम्--( इसके पहले जो हो गया उसके लिए ) अब दुखी न हों; महा-भागौ--हे आत्मज्ञानी तथा भाग्यशालिनी;आत्मजान्--अपने पुत्रों के लिए; स्व-कृतम्--अपने कर्मों के ही कारण; भुज:--भोग कर रहे हैं; जान्तवः--सारे जीव-जन्तु;न--नहीं; सदा--सदैव; एकत्र--एक स्थान में; दैव-अधीना:--जो भाग्य के वश में है; तदा--अतएव; आसते--जीवित रहतेहैं।
हे महान् आत्माओ, तुम दोनों के पुत्रों को अपने ही दुर्भाग्य का फल भोगना पड़ा है।
अतःतुम उनके लिए शोक मत करो।
सारे जीव परमेश्वर के नियंत्रण में होते हैं और वे सदैव एकसाथनहीं रह सकते।
सान्त्वना देना चाह रहा था।
भुवि भौमानि भूतानि यथा यान्त्यपयान्ति च ।
नायमात्मा तथेतेषु विपर्येति यथेव भू: ॥
१९॥
भुवि--पृथ्वी पर; भौमानि--पृथ्वी से बने सारे भौतिक पदार्थ यथा घड़े आदि; भूतानि--उत्पन्न; यथा--जिस तरह; यान्ति--प्रकट होते हैं; अपयान्ति--विलीन होते हैं ( खंडित होकर मिट्टी में मिल जाते हैं ); च--तथा; न--नहीं; अयम् आत्मा--आत्माया आध्यात्मिक स्वरूप; तथा--उसी तरह; एतेषु--इन सब ( भौतिक तत्त्वों से बने पदार्थों ) में से; विपर्येति--बदल जाता है याटूट जाता है; यथा--जिस तरह; एव--निश्चय ही; भू:--पृथ्वी
इस संसार में हम देखते हैं कि बर्तन, खिलौने तथा पृथ्वी के अन्य पदार्थ प्रकट होते हैं,टूटते हैं और फिर पृथ्वी में मिलकर विलुप्त हो जाते हैं।
ठीक इसी तरह बद्धजीवों के शरीर विनष्ट होते रहते हैं, किन्तु पृथ्वी की ही तरह ये जीव अपरिवर्तित रहते हैं और कभी विनष्ट नहींहोते ( न हन्यते हन्यमाने शरीरे )।
यथानेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः ।
देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते ॥
२०॥
यथा--जिस तरह; अनू-एवम्-विदः --ऐसे व्यक्ति का जिसे ( आत्म-तत्त्व तथा आत्मा के स्थायित्व का ) शरीर के परिवर्तनों केबावजूद कोई ज्ञान नहीं होता; भेदः--शरीर तथा आत्मा का अन्तर; यत:--जिससे; आत्म-विपर्यय: --यह मूर्खतापूर्ण ज्ञान किवह शरीर है; देह-योग-वियोगौ च--तथा विभिन्न शरीरों में सम्बन्ध तथा वियोगों को उत्पन्न करता है; संसृतिः--बद्ध जीवन कीनिरन्तरता; न--नहीं; निवर्तते--रूकती है।
जो व्यक्ति शरीर तथा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को नहीं समझता वह देहात्मबुद्धि केप्रति अत्यधिक अनुरक्त रहता है।
फलस्वरूप शरीर तथा उसके प्रतिफलों के प्रति अनुरक्ति केकारण वह अपने परिवार, समाज तथा राष्ट्र के साथ संयोग तथा वियोग का अनुभव करता है।
जब तक ऐसा बना रहता है तब तक वह भौतिक जीवन बिताता है ( अन्यथा मुक्त है )।
तस्माद्धद्रे स्वतनयान्मया व्यापादितानपि ।
मानुशोच यतः सर्व: स्वकृतं विन्दतेडबशः ॥
२१॥
तस्मातू--अतः; भद्वे--मेरी बहन ( तुम्हारा कल्याण हो ); स्व-तनयान्--अपने पुत्रों के लिए; मया--मेरे द्वारा; व्यापादितान् --दुर्भाग्यवश मारे गए; अपि--यद्यपि; मा अनुशोच--दुखी मत होओ; यत:--कक््योंकि; सर्व:--हर एक व्यक्ति; स्व-कृतम्--अपने कर्मो के ही सकाम फलों को; विन्दते-- भोगता है; अवश:--विधना के वशीभूत होकर
मेरी बहन देवकी, तुम्हारा कल्याण हो।
हर व्यक्ति प्रारब्ध के अधीन अपने ही कर्मों के फलभोगता है।
अतएव, दुर्भाग्यवश मेरे द्वारा मारे गए अपने पुत्रों के लिए शोक मत करो।
यावद्धतो स्मि हन्तास्मीत्यात्मानं मन्यतेउस्वहक् ।
तावत्तदभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात् ॥
२२॥
यावत्--जब तक; हतः अस्मि--( दूसरों द्वारा ) मारा जा रहा हूँ; हन्ता अस्मि--( अन्यों का ) मारने वाला हूँ; इति--इस प्रकार;आत्मानम्--अपने को; मन्यते--मानता है; अ-स्व-हक्--जो अपने आप को नहीं देखता है ( देहात्मबुद्धि के अँधेरे के कारण );तावत्--तब तक; ततू-अभिमानी--अपने को मारा गया या मारने वाला मानते हुए; अज्ञ:--मूर्ख व्यक्ति; बाध्य-बाधकताम्--कुछ उत्तरदायित्व लेने के लिए बाध्य सांसारिक व्यवहार; इयात्--रहता है।
देहात्मबुद्धि होने पर आत्म-साक्षात्कार के अभाव में मनुष्य यह सोचकर अआँधेरे में रहता हैकि ‘मुझे मारा जा रहा है' अथवा ‘'मैंने अपने शत्रुओं को मार डाला है।
जब तक मूर्ख व्यक्तिइस प्रकार अपने को मारने वाला या मारा गया सोचता है तब तक वह भौतिक बन्धनों में रहता हैऔर उसे सुख-दुख भोगना पड़ता है।
क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सला: ।
इत्युक्त्वा श्रुमुख: पादौ श्याल: स्वस्त्रोरथाग्रहीत् ॥
२३॥
क्षमध्वम्--कृपया क्षमा कर दें; मम--मेरे; दौरात्म्यम्--क्रूर कर्मों को; साधव:--तुम दोनों साधु व्यक्ति; दीन-वत्सला: --गरीबोंपर अत्यन्त कृपालु; इति उक्त्वा--ऐसा कहकर; अश्रु-मुखः--आँसुओं से भरा मुख; पादौ--पाँवों को; श्याल:--उसका सालाकंस; स्वस्त्र:ः--अपनी बहन तथा बहनोई के; अथ--इस प्रकार; अग्रहीतू--पकड़ लिया।
कंस ने याचना की, ‘हे मेरी बहन तथा मेरे बहनोई, मुझ जैसे क्षुद्र-हृदय व्यक्ति पर कृपालुहोयें क्योंकि तुम दोनों ही साधु सदृश व्यक्ति हो।
मेरी क्रूरताओं को क्षमा कर दें।
' यह कहकरखेद के साथ आँखों में अश्रु भरकर कंस वसुदेव तथा देवकी के चरणों पर गिर पड़ा।
मोचयामास निगडाद्विश्रब्ध: कन्यकागिरा ।
देवकीं वसुदेव॑ च दर्शयन्नात्मसौहदम् ॥
२४॥
मोचयाम् आस--कंस ने उन्हें मुक्त कर दिया; निगडात्--लोहे की जंजीरों से; विश्रब्ध:--पूर्ण विश्वास के साथ; कन्यका-गिरा--देवी दुर्गा की वाणी में; देवकीम्--अपनी बहन देवकी के प्रति; बसुदेवम् च--तथा वसुदेव को; दर्शयन्-- प्रदर्शितकरते हुए; आत्म-सौहदम्--आत्मीयता |
देवी दुर्गा की वाणी में पूरी तरह विश्वास करते हुए कंस ने देवकी तथा वसुदेव को तुरन्त हीलोहे की श्रृंखलाओं से मुक्त करते हुए पारिवारिक स्नेह का प्रदर्शन किया।
भ्रातु: समनुतप्तस्य क्षान्तरोषा च देवकी ।
व्यसूजद्ठसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह ॥
२५॥
भ्रातु:--अपने भाई कंस के प्रति; समनुतप्तस्थ--खेद व्यक्त करने के कारण; क्षान्त-रोषा--क्रोध शान्त हुआ; च--भी;देवकी--कृष्ण की माता, देवकी ने; व्यसृजत्--छोड़ दिया; वसुदेवः च--तथा वसुदेव ने भी; प्रहस्थ--हँसकर; तम्--कंस से;उबाच--कहा; ह--विगत में |
जब देवकी ने देखा कि उसका भाई पूर्वनिर्धारित घटनाओं की व्याख्या करते हुए वास्तव में पश्चात्ताप व्यक्त कर रहा है, तो उनका सारा क्रोध जाता रहा।
इसी प्रकार, वसुदेव भी क्रोध मुक्तहो गए उन्होंने हँसकर कंस से कहा।
एवमेतन्महाभाग यथा वदसि देहिनाम् ।
अज्ञानप्रभवाहंधी: स्वपरेति भिदा यतः ॥
२६॥
एवम्--हाँ, यह ठीक है; एतत्--तुमने जो कहा है; महा-भाग--हे महापुरुष; यथा--जिस तरह; वदसि--तुम बोल रहे हो;देहिनामू--जीवों के विषय में; अज्ञान-प्रभवा--अज्ञानवश; अहमू-धी:--यह मेरा स्वार्थ ( मिथ्या अहंकार ) है; स्व-परा इति--यह दूसरे का स्वार्थ है; भिदा-- भेद; यतः--ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण
हे महापुरुष कंस, केवल अज्ञान के प्रभाव के ही कारण मनुष्य भौतिक देह तथा अभिमानस्वीकार करता है।
आपने इस दर्शन के विषय में जो कुछ कहा वह सही है।
आत्म-ज्ञान से रहितदेहात्म-बुद्धि वाले व्यक्ति 'यह मेरा है, ' ‘ये पराया है' के रूप में भेदभाव बरतते हैं।
शोकहर्षभयद्वेषलोभमोहमदान्विता: ।
मिथो घ्नन्तं न पश्यन्ति भावैर्भावं पृथग्हशः ॥
२७॥
शोक-शोक; हर्ष--प्रसन्नता; भय--डर; द्वेष--ईर्ष्या; लोभ--लालच; मोह--मोह; मद--पागलपन, उन्मत्तता; अन्विता:--सेयुक्त; मिथ:--परस्पर; घ्तन्तम्-मारने में व्यस्त; न पश्यन्ति--नहीं देखते; भावै:-- भेदभाव के कारण; भावम्-- भगवान् केप्रति अपनी स्थिति को; पृथक्-दृशः --ऐसे व्यक्ति जो हर वस्तु को भगवान् के नियंत्रण से पृथक् मानते हैं।
भेदभाव की दृष्टि रखने वाले व्यक्ति शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह तथा मद जैसे भौतिकगुणों से समन्वित होते हैं।
वे उस आसन्न ( उपादान ) कारण से प्रभावित होते हैं जिसकानिराकरण करने में वे लगे रहते हैं क्योंकि उन्हें दूरस्थ परम कारण ( निमित्त कारण ) अर्थात्भगवान् का कोई ज्ञान नहीं होता।
श्रीशुक उबाच कंस एवं प्रसन्ना भ्यां विशुद्धं प्रतिभाषित: ।
देवकीवसुदेवा भ्यामनुज्ञातो उविशद्गृहम् ॥
२८ ॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; कंस:--राजा कंस ने; एवम्--इस प्रकार; प्रसन्नाभ्याम्--अत्यन्त प्रसन्न;विशुद्धम्-विशुद्ध; प्रतिभाषित: --उत्तर दिए जाने पर; देवकी-बसुदेवाभ्याम्--देवकी तथा वसुदेव द्वारा; अनुज्ञात:--अनुमतिसे; अविशत्-- प्रवेश किया; गृहम्--अपने महल में ।
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : शान्तमना देवकी तथा वसुदेव द्वारा शुद्धभाव से इस तरहसम्बोधित किए जाने पर कंस अत्यंत हर्षित हुआ और उनकी अनुमति लेकर वह अपने घर चलागया।
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां कंस आहूय मन्त्रिण: ।
तेभ्य आचष्ट तत्सर्व यदुक्तं योगनिद्रया ॥
२९॥
तस्याम्--उस; रात््यामू-रात को; व्यतीतायाम्--बिताकर; कंस: --कंस ने; आहूय--बुलाकर; मन्त्रिण:--सरे मंत्रियों को;तेभ्य:--उन्हें; आचष्ट--सूचित किया; तत्--वह; सर्वम्--सब; यत् उक्तम्--जो कहा गया था ( कि कंस का वध करने वालाअन्यत्र कहीं है ); योग-निद्रया--योगमाया
देवी दुर्गा द्वारारात बीत जाने पर कंस ने अपने सारे मंत्रियों को बुलाकर वह सब उन्हें बतलाया जोयोगमाया ने कहा था ( जिसने यह रहस्य बताया था कि कंस को मारने वाला कहीं अन्यत्र उत्पन्नहो चुका है )।
आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तमूचुर्देवशत्रवः ।
देवान्प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदा: ॥
३०॥
आकर्णर्य--सुनकर; भर्तु:--अपने स्वामी के; गदितम्--कथन को; तम् ऊचु:--उससे कहा; देव-शत्रवः--देवताओं के शत्रु,सारे असुर; देवान्--देवताओं के; प्रति--प्रति; कृत-अमर्षा: --ईर्ष्यालु; दैतेया:-- असुरगण; न--नहीं; अति-कोविदा: --अत्यन्त कार्यकुशल।
अपने स्वामी की बात सुनकर, देवताओं के शत्रु तथा अपने कामकाज में अकुशल, ईर्ष्यालुअसुरों ने कंस को यह सलाह दी।
एवं चेत्तह् भोजेन्द्र पुरग्रामत्रजादिषु ।
अनिर्दशान्निर्दशां श्र हनिष्यामोउद्य वै शिशून् ॥
३१॥
एवम्--इस तरह; चेत्--यदि ऐसा है; तहिं--तो; भोज-इन्द्र--हे भोजराज; पुर-ग्राम-ब्रज-आदिषु--सारे नगरों, गाँवों तथाचरागाहों में; अनिर्दशान्ू--दस दिन से कम आयु वाले; निर्दशान् च--तथा जो दस दिन पूरा कर चुके हैं; हनिष्याम: --हम मारडालेंगे; अद्य--आज से; वै--निस्सन्देह; शिशून्ू--बच्चों को
है भोजराज, यदि ऐसी बात है, तो हम आज से उन सारे बालकों को जो पिछले दस याउससे कुछ अधिक दिनों में सारे गाँवों, नगरों तथा चरागाहों में उत्पन्न हुए हैं, मार डालेंगे।
किमुद्यमै: करिष्यन्ति देवा: समरभीरव: ।
नित्यमुद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव ॥
३२॥
किमू--क्या; उद्यमैः--अपने प्रयासों से; करिष्यन्ति--करेंगे; देवा: --सारे देवता; समर-भीरव:ः--लड़ने से भयभीत; नित्यम्ू--सदैव; उद्विग्न-मनसः--व्याकुल चित्त वाले; ज्या-धघोषै:--डोरी की ध्वनि से; धनुष:--धनुष की; तव--तुम्हारीसारे देवता आपकी धनुष की डोरी ( प्रत्यंचा ) की आवाज से सदैव भयभीत रहते हैं।
वेसदैव चिन्तित रहते हैं और लड़ने से डरते हैं।
अतः वे अपने प्रयत्नों से आपको किस प्रकार हानिपहुँचा सकते हैं ?
अस्यतस्ते शरक्रातैहन्यमाना: समन्ततः ।
जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययु: ॥
३३॥
अस्यतः--आपके द्वारा छोड़े गए तीरों से छेदे जाने से; ते--आपके; शर-व्रातैः--बाणों के समूह से; हन्यमाना:--मारे गए;समन्ततः--चारों ओर; जिजीविषव: --जीने की कामना करते हुए; उत्सृज्य--युद्धभूमि छोड़कर; पलायन-परा: --बचकर भागनेकी इच्छा वाले; ययु:-- भाग गए
आपके द्वारा चारों दिशाओं में छोड़े गए बाणों के समूहों से छिदकर कुछ सुरगण जो घायलहो चुके थे, किन्तु जिन्हें जीवित रहने की उत्कण्ठा थी युद्धभूमि छोड़कर अपनी जान लेकर भागनिकले।
केचित्प्रा्लयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकस: ।
मुक्तकच्छशिखा: केचिद्धीता: सम इति वादिन: ॥
३४॥
केचित्--उनमें से कुछ; प्राज्ललय:ः--आपको प्रसन्न करने के लिए अपने हाथ जोड़े हुए; दीना:--अत्यन्त निरीह; न्यस्त-शस्त्रा:--सारे हथियारों से विहीन; दिवौकस: --देवतागण; मुक्त-कच्छ-शिखा:--अपने वस्त्र तथा बाल खोले और बिखेरे हुए;केचित्--कुछ; भीता:--हम अत्यन्त भयभीत हैं; स्म--हुए थे; इति वादिन:--उन्होंने इस तरह कहा |
हार जाने पर तथा सारे हथियारों से विहीन होकर कुछ देवताओं ने लड़ना छोड़ दिया औरहाथ जोड़कर आपकी प्रशंसा करने लगे और उनमें से कुछ अपने वस्त्र तथा केश खोले हुएआपके समक्ष कहने लगे, ‘'हे प्रभु, हम आपसे अत्यधिक भयभीत हैं।
'न त्वं विस्मृतशस्स्नास्त्रान्विरथान्भयसंवृतान् ।
हंस्यन्यासक्तविमुखान्भग्नचापानयुध्यत: ॥
३५॥
न--नहीं; त्वमू--आप; विस्मृत-शस्त्र-अस्त्रानू--जो अपने हथियार चलाना भूल चुके हैं; विरधान्ू--रथविहीन; भय-संवृतानू--भय से भौंचक्के; हंसि--मारते हो; अन्य-आसक्त-विमुखान्--जो लड़ने में अनुरक्त न रहकर कुछ अन्य कार्य में लगे रहते हैं;भग्न-चापान्--टूटे धनुषों वाले; अयुध्यत:--अतः युद्ध न करते हुए।
जब देवतागण रथविहीन हो जाते हैं, जब वे अपने हथियारों का प्रयोग करना भूल जाते हैं,जब वे भयभीत रहते हैं या लड़ने के अलावा किसी दूसरे काम में लगे रहते हैं या जब अपनेधनुषों के टूट जाने के कारण युद्ध करने की शक्ति खो चुके होते हैं, तो आप उनका वध नहींकरते।
कि क्षेमश्रैर्विबुधेरसंयुगविकत्थनैः ।
रहोजुषा कि हरिणा शम्भुना वा वनौकसा ।
किमिन्द्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता ॥
३६॥
किमू--किस बात का भय; क्षेम--ऐसे स्थान में जहाँ लड़ने की क्षमता का अभाव है; शूरैः--देवताओं द्वारा; विबुधैः --ऐसेशक्तिशाली पुरुषों द्वारा; असंयुग-विकत्थनैः --वृथा डींग मारने से, लड़ने से दूर रहने; रहः-जुषा--हृदय के कोने में रहने वाला;किम् हरिणा-- भगवान् विष्णु से क्या डरना; शम्भुना--शिव से; वा--अथवा; वन-ओकसा--बनवासी; किम् इन्द्रेण--इन्द्र सेक्या भय; अल्प-वीर्येण--वह तनिक भी शक्तिशाली नहीं है ( कि आपसे लड़ सके ); ब्रह्मणा-- और ब्रह्मा से डरने की तो कोईबात ही नहीं; वा--अथवा; तपस्यता--जो सदैव ध्यान में मग्न रहता हो।
देवतागण युद्धभूमि से दूर रहकर व्यर्थ ही डींग मारते हैं।
वे वहीं अपने पराक्रम का प्रदर्शनकर सकते हैं जहाँ युद्ध नहीं होता।
अतएवं ऐसे देवताओं से हमें किसी प्रकार का भय नहीं है।
जहाँ तक भगवान् विष्णु की बात है, वे तो केवल योगियों के हृदय में एकान्तवास करते हैं औरभगवान् शिव, वे तो जंगल चले गये हैं।
ब्रह्मा सदैव तपस्या तथा ध्यान में ही लीन रहते हैं।
इन्द्रइत्यादि अन्य सारे देवता पराक्रमविहीन हैं।
अतः आपको कोई भय नहीं है।
तथापि देवा: सापत्चान्नोपेक्ष्या इति मन्महे ।
ततस्तन्मूलखनने नियुद्छ्तवास्माननुत्रतान् ॥
३७॥
तथा अपि--फिर भी; देवा:--देवतागण; सापत्यात्--शत्रुता के कारण; न उपेक्ष्या:--उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए; इतिमन्महे--यह हमारा मत है; ततः--इसलिए; तत्-मूल-खनने--उन्हें समूल नष्ट करने के लिए; नियुड्छ्व--नियुक्त कीजिए;अस्मान्--हमें; अनुब्रतान्-- आपका अनुगमन करने के लिए तत्पर।
फिर भी हमारा मत है कि उनकी शत्रुता के कारण देवताओं के साथ लापरवाही नहीं कीजानी चाहिए।
अतएवं उनको समूल नष्ट करने के लिए आप हमें उनके साथ युद्ध में लगाइएक्योंकि हम आपका अनुगमन करने के लिए तैयार हैं।
यथामयोडड़्े समुपेक्षितो नृभि-न॑ शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम् ।
यथेन्द्रियग्राम उपेक्षितस्तथारिपुर्महान्बद्धबलो न चाल्यते ॥
३८॥
यथा--जिस तरह; आमय:--रोग; अड्ले--शरीर में; समुपेक्षित: --उपेक्षा किए जाने से; नृभि:--मनुष्यों द्वारा; न--नहीं;शक्यते--समर्थ होता है; रूढ-पदः --गम्भीर होने पर; चिकित्सितुमू--उपचार के योग्य; यथा--जिस तरह; इन्द्रिय-ग्राम: --इन्द्रियाँ; उपेक्षित:--प्रारम्भ में वश में न रखने से; तथा--उसी तरह; रिपु: महान्--बड़ा शत्रु; बद्ध-बलः--बलवान हुआ तो;न--नहीं; चाल्यते--वश में किया जा सकता है।
जिस तरह शुरू में रोग की उपेक्षा करने से वह गम्भीर तथा दुःसाध्य हो जाता है या जिसतरह प्रारम्भ में नियंत्रित न करने से, बाद में इन्द्रियाँ वश में नहीं रहतीं उसी तरह यदि आरम्भ मेंशत्रु की उपेक्षा की जाती है, तो बाद में वह दर्जेय हो जाता है।
मूलं हि विष्णुर्देवानां यत्र धर्म: सनातन: ।
तस्य च ब्रह्मगोविप्रास्तपो यज्ञा: सदक्षिणा: ॥
३९॥
मूलम्ू--आधार; हि--निस्सन्देह; विष्णु:--भगवान् विष्णु हैं; देवानामू--देवताओं के; यत्र--जहाँ; धर्म:--धर्म; सनातन:--शाश्वत, परम्परागत; तस्य--उस ( आधार ) का; च--भी; ब्रह्म--ब्रह्म सभ्यता; गो--गो-रक्षा; विप्रा:--ब्राह्मणणण; तपः--तपस्या; यज्ञा:--यज्ञ; स-दक्षिणा: --समुचित पारिश्रमिक ( दक्षिणा ) समेत |
समस्त देवताओं के आधार भगवान् विष्णु हैं जिनका वास वहीं होता है जहाँ धर्म,परम्परागत संस्कृति, वेद, गौवें, ब्राह्मण, तपस्या तथा दक्षिणायुत यज्ञ होते हैं।
तस्मात्सर्वात्मना राजन्ब्राह्मणान्ब्रह्मवादिन: ।
तपस्विनो यज्ञशीलान्गाश्च हन्मो हविर्दुघा: ॥
४०॥
तस्मातू--इसलिए; सर्व-आत्मना--हर तरह से; राजन्--हे राजन्; ब्राह्मणान्--ब्राह्मणों को; ब्रह्म-वादिन:--विष्णु-केन्द्रितब्रह्मी संस्कृति को बनाए रखने वालों; तपस्विन:--तपस्वी जनों; यज्ञ-शीलान्ू--यज्ञ में लगे रहने वालों को; गा: च--गौवों तथागौवों की रक्षा करने वालों को; हन्म:ः--हम वध करेंगे; हविः-दुघा:--जिनके दूध से यज्ञ में डालने के लिए घी मिलता है
हे राजनू, हम आपके सच्चे अनुयायी हैं, अतः वैदिक ब्राह्मणों, यज्ञ तथा तपस्या में लगेव्यक्तियों तथा उन गायों का, जो अपने दूध से यज्ञ के लिए घी प्रदान करती हैं, वध कर डालेंगे।
विप्रा गावश्च वेदाश्व तप: सत्यं दम: शम: ।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनू: ॥
४१॥
विप्रा:--ब्राह्मण; गाव: च--तथा गाएँ; वेदा: च--तथा वैदिक ज्ञान; तपः--तपस्या; सत्यम्ू--सत्यता; दमः--इन्द्रिय संयम;शमः--मन का संयम; श्रद्धा-- श्रद्धा; दया--दया; तितिक्षा--सहिष्णुता; च-- भी; क़तवः च--तथा यज्ञ भी; हरे: तनू: --भगवान् विष्णु के शरीर के विभिन्न अंग हैं।
ब्राह्मण, गौवें, वैदिक ज्ञान, तपस्या, सत्य, मन तथा इन्द्रियों का संयम, श्रद्धा, दया,सहिष्णुता तथा यज्ञ--ये भगवान् विष्णु के शरीर के विविध अंग हैं और दैवी सभ्यता के ये हीसाज-सामान हैं।
स हि सर्वसुराध्यक्षो हासुरद्विड्गुहाशय: ।
तन्मूला देवता: सर्वाः सेश्वरा: सचतुर्मुखा: ।
अयं बै तद्ठधोपायो यहषीणां विहिंसनम् ॥
४२॥
सः--वह ( विष्णु ); हि--निस्सन्देह; सर्व-सुर-अध्यक्ष: --सारे देवताओं का अगुवा; हि--निस्सन्देह; असुर-द्विटू-- असुरों काशत्रु; गुहा-शय:--हर एक के हृदय के भीतर का परमात्मा; तत्-मूला:--उसके चरणकमलों में शरण लेकर; देवता: --सारे देवता जीवित हैं; सर्वाः--वे सभी; स-ईश्वराः--शिव समेत; स-चतु:-मुखा:--तथा चार मुखों वाले ब्रह्मा भी; अयम्--यह है;बै--निस्सन्देह; तत्-बध-उपाय:--उसके ( विष्णु के ) मारने का एकमात्र उपाय; यत्--जो; ऋषीणाम्--ऋषियों -मुनियों अथवावैष्णवों का; विहिंसनम्--सभी प्रकार के दण्ड द्वारा दमन।
प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में वास करने वाले परमात्मा स्वरूप भगवान् विष्णु असुरों के परमशत्रु हैं और इसीलिए वे असुरद्दिट् कहलाते हैं।
वे सारे देवताओं के अगुआ हैं क्योंकि भगवान्शिव तथा भगवान् ब्रह्मा समेत सारे देवता उन्हीं के संरक्षण में रह रहे हैं।
बड़े-बड़े ऋषि, साधुतथा वैष्णव भी उन्हीं पर आश्रित रहते हैं।
अतः वैष्णवों का उत्पीड़न करना ही विष्णु को मारनेका एकमात्र उपाय है।
श्रीशुक उबाचएवं दुर्मन्त्रभि: कंस: सह सम्मनत्रय दुर्मति: ।
ब्रह्महिंसां हित॑ मेने कालपाशाबृतोसुरः ॥
४३॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; दुर्मन्त्रभि:--अपने बुरे मंत्रियों के; कंसः--राजा कंस;सह--साथ; सम्मन्त्य--विस्तार से विचार-विमर्श करके; दुर्मतिः--बुद्धिहीन; ब्रह्म-हिंसाम्--ब्राह्मणों के उत्पीड़न को; हितम्--सर्वोत्कृष्ट उपाय के रूप में; मेने--मान लिया; काल-पाश-आवृत:--यमराज के विधि-विधानों से बँधा हुआ; असुरः --असुरहोने के कारण
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस प्रकार अपने बुरे मंत्रियों की सलाह पर विचार करकेयमराज के नियमों से बँधा हुआ होने तथा असुर होने से बुद्धिहीन उस कंस ने सौभाग्य प्राप्तकरने के उद्देश्य से साधु-पुरुषों तथा ब्राह्मणों को सताने का निश्चय किया।
सन्दिश्य साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान् ।
कामरूपधरान्दिक्षु दानवान्गृहमाविशत् ॥
४४॥
सन्दिश्य--अनुमति देकर; साधु-लोकस्य--साथधु पुरुषों के; कदने--सताने में; कदन-प्रियान्ू--अन्यों को सताने में प्रिय असुरोंको; काम-रूप-धरान्-- अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण करने में समर्थ; दिक्षु--सारी दिशाओं में; दानवान्-- असुरों को;गृहम् आविशत्--कंस अपने महल में चला गया |
कंस के अनुयायी ये राक्षसगण अन्यों को, विशेष रूप से वैष्णवों को सताने में दक्ष थे औरइच्छानुसार कोई भी रूप धर सकते थे।
इन असुरों को सभी दिशाओं में जाकर साधु पुरुषों कोसताने की अनुमति देकर कंस अपने महल के भीतर चला गया।
ते वै रज:प्रकृतयस्तमसा मूढचेतस: ।
सतां विद्वेषमाचेरुरारादागतमृत्यवः ॥
४५॥
ते--वे असुर मंत्रीगण; बै--निस्सन्देह; रज:-प्रकृतयः --रजोगुणी प्रकृति के कारण; तमसा--तमोगुण से परिपूर्ण; मूढ-चेतस:--मूर्ख व्यक्ति; सताम्--साधु पुरुषों को; विद्वेषम्--सताना, उत्पीड़न; आचेरु:--सम्पन्न किया; आरातू् आगत-मृत्य-वबः-मृत्यु पहले से ही जो उनके निकट थी।
रजो तथा तमोगुण से पूरित तथा अपने हित या अहित को न जानते हुए उन असुरों ने,जिनकी मृत्यु उनके सिर पर नाच रही थी, साधु पुरुषों को सताना प्रारम्भ कर दिया।
आयु: श्रियं यशो धर्म लोकानाशिष एव च ।
हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रम: ॥
४६॥
आयुः--उम्र; अ्रियम्--सौन्दर्य; यश: --यश; धर्मम्--धर्म; लोकान्--स्वर्गलोक को जाना; आशिष: --आशीर्वाद; एब--निस्सन्देह; च-- भी; हन्ति--विनष्ट करता है; श्रेयांसि--वर; सर्वाणि--सारे; पुंसः--किसी व्यक्ति के; महत्-अतिक्रम:--महापुरुषों के विरुद्ध जाना।
हे राजनू, जब कोई व्यक्ति महापुरुषों को सताता है, तो उसकी दीर्घायु, सौन्दर्य, यश, धर्म,आशीर्वाद तथा उच्चलोकों को जाने के सारे वर विनष्ट हो जाते हैं।
अध्याय पांच: नंद महाराज और वासुदेव की मुलाकात
10.5श्रीशुक उबाचनन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताह्नादो महामना: ।
आहूय विप्रान्वेदज्ञान्सनातः शुचिरलड्डू त: ॥
१॥
वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वे ।
'कारयामास विधिवत्पितृदेवार्चनं तथा ॥
२॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; नन्द:--महाराज नन्द; तु--निस्सन्देह; आत्मजे--अपने पुत्र के; उत्पन्ने--उत्पन्नहोने में; जात--अभिभूत हुए; आह्वाद: --अत्यधिक हर्ष; महा-मना:--विशाल मन वाले; आहूय--बुलाया; विप्रानू--ब्राह्मणोंको; वेद-ज्ञानू--वेदों के ज्ञाता; स्नात:ः--स्नान करके; शुचि:--अपने को शुद्ध करके; अलड्डू त:ः--सुन्दर आभूषणों तथा नएउस्त्रों से सज्जित; वाचयित्वा--पाठ करके; स्वस्ति-अयनम्--( ब्राह्मणों द्वारा ) वैदिक मंत्र; जात-कर्म--जन्मोत्सव;आत्मजस्य--अपने लड़के का; वै--निस्सन्देह; कारयाम् आस--सम्पन्न कराया; विधि-वत्--वैदिक विधान के अनुसार; पितृ-देव-अर्चनम्-पूर्वजों तथा देवताओं की पूजा; तथा--साथ ही साथ |
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : नन््द महाराज स्वभाव से अत्यन्त उदार थे अतः जब भगवान्श्रीकृष्ण ने उनके पुत्र रूप में जन्म लिया तो वे हर्ष के मारे फूले नहीं समाए।
अतएव स्नान द्वारा अपने को शुद्ध करके तथा समुचित ढंग से वस्त्र धारण करके उन्होंने वैदिक मंत्रों का पाठ करनेवाले ब्राह्मणों को बुला भेजा।
जब ये योग्य ब्राह्मण शुभ बैदिक स्तोत्रों का पाठ कर चुके तोननन््द ने अपने नवजात शिशु के जात-कर्म को विधिवत् सम्पन्न किए जाने की व्यवस्था की।
उन्होंने देवताओं तथा पूर्वजों की पूजा का भी प्रबन्ध किया।
धेनूनां नियुते प्रादाद्विप्रेभ्य: समलड्डू ते ।
तिलाद्रीन्सप्त रत्तौघशातकौम्भाम्बरावृतान् ॥
३॥
धेनूनामू-दुधारू गायों का; नियुते--बीस लाख; प्रादात्-दान में दिया; विप्रेभ्य:--ब्राह्मणों को; समलड्डू ते--पूरी तरहसज्जित; तिल-अद्रीनू--तिल ( अन्न ) के पहाड़; सप्त--सात; रत्त-ओघ-शात-कौम्भ-अम्बर-आवृतान्--रलों तथा सुनहरेकिनारे वाले बस्त्रों से ढके |
नन्द महाराज ने ब्राह्मणों को वस्त्रों तथा रत्नों से अलंकृत बीस लाख गौवें दान में दीं।
उन्होंने रत्नों तथा सुनहरे गोटे वाले बस्त्रों से ढके तिल से बनाये गये सात पहाड़ भी दान में दिए।
कालेन स्नानशौचाभ्यां संस्कारैस्तपसेज्यया ।
शुध्यन्ति दाने: सन्तुष्टया द्रव्याण्यात्मात्मविद्यया ॥
४॥
कालेन--समय आने पर ( स्थल तथा अन्य वस्तुएँ पवित्र हो जाने पर ); स्नान-शौचाभ्याम्--स्नान तथा सफाई के द्वारा ( शरीरतथा मलिन वस्तुएँ शुद्ध होती हैं ); संस्कारैः--संस्कार द्वारा ( जन्म शुद्ध होता है ); तपसा--तपस्या द्वारा ( इन्द्रियाँ शुद्ध होतीहैं ); इज्यया--पूजा द्वारा ( ब्राह्मण शुद्ध बनते हैं ); शुध्यन्ति--शुद्ध बनते हैं; दानैः--दान द्वारा ( सम्पत्ति शुद्ध होती है );सन्तुष्ठया--सन्तोष से ( मन शुद्ध होता है ); द्रव्याणि--सारी सम्पत्ति यथा गौवें, भूमि तथा सोना; आत्मा--आत्मा ( शुद्ध बनताहै ); आत्म-विद्यया--आत्म-साक्षात्कार द्वारा)
हे राजनू, समय बीतने के साथ ही, धरती तथा अन्य सम्पत्ति शुद्ध हो जाती हैं; स्नान सेशरीर शुद्ध होता है और सफाई करने से मलिन वस्तुएँ शुद्ध होती हैं।
संस्कार अनुष्ठानों से जन्मशुद्ध होता है, तपस्या से इन्द्रियाँ शुद्ध होती हैं तथा पूजा से और ब्राह्मणों को दान देने से भौतिकसम्पत्ति शुद्ध होती है।
सन््तोष से मन शुद्ध होता है और आत्मज्ञान अर्थात् कृष्णभावनामृत सेआत्मा शुद्ध होता है।
सौमडुल्यगिरो विप्रा: सूतमागधवन्दिन: ।
गायकाश्च जगुननेंदुर्भर्यों दुन्दुभयो मुहु: ॥
५॥
सौमड्ूल्य-गिर:ः--जिनकी वाणी से निकले मंत्र तथा स्तोत्र वातावरण को शुद्ध करते थे; विप्रा:--ब्राह्मणणण; सूत--इतिहासगाने में पठु लोग; मागध--राजपरिवारों के इतिहास गाने में पटु लोग; वन्दिन:--सामान्य वाचक; गायकाः --गवैये; च-- भी;जगु:--उच्चारण किया; नेदु:--बजाया; भेर्य:--एक प्रकार का वाद्य यंत्र; दुन्दुभय:--एक प्रकार का बाजा; मुहुः --निरन्तर |
ब्राह्मणों ने मंगलकारी वैदिक स्तोत्र सुनाए जिनकी ध्वनि से वातावरण शुद्ध हो गया।
प्राचीन इतिहासों या पुराणों को सुनाने वाले, राजपरिवारों के इतिहास सुनाने वाले तथा सामान्यवाचकों ने गायन किया जबकि गयदैयों ने भेरी, दुन्दुभी आदि अनेक प्रकार के वाद्य यंत्रों कीसंगत में गाया।
ब्रज: सम्मृष्टसंसिक्तद्वाराजिरगृहान्तर: ।
चित्रध्वजपताकासत्रक्नैलपललवतोरणै: ॥
६॥
ब्रज:--नन्द महाराज के अधिकार वाला भू-क्षेत्र; सम्पृष्ट-- अत्यन्त स्वच्छ की गई; संसिक्त--अच्छी तरह धोई गई; द्वार--दरवाजे; अजिर--आँगन; गृह-अन्तरः:--घर के भीतर की सारी वस्तुएँ; चित्र--रंग-बिरंगी; ध्वज--झंडियाँ; पताका--झंडे;सत्रकू--फूलों के हार; चैल--कपड़े के; पललव--आम की पत्तियों के; तोरणैः--विभिन्न स्थानों पर बनाए गए द्वारों के द्वारा(अलंकृत )
नन्द महाराज का निवास ब्रजपुर रंग-बिरंगी झंडियों तथा झंडों से पूरी तरह सजाया गया थाऔर विभिन्न स्थानों पर नाना प्रकार के फूलों की मालाओं, वस्त्रों तथा आम की पत्तियों से तोरणबनाए गए थे।
आँगन, सड़कों के पास के दरवाजे तथा घरों के कमरों के भीतर की सारी वस्तुएँअच्छी तरह से झाड़ बुहार कर पानी से धोई गई थीं।
गावो वृषा वत्सतरा हरिद्रातिलरूषिता: ।
विचित्रधातुबर्हस्त्रग्वस्त्रकाज्लनमालिन: ॥
७॥
गाव: --गौवें; वृषा:--बैल; वत्सतरा:--बछड़े; हरिद्रा--हल्दी; तैल--तेल; रूषिता: --लेप किए गए; विचित्र--तरह-तरह के;धातु--रंगीन खनिज; बई-स्त्रकू--मोरपंख के हार; वस्त्र--कपड़े; काञ्लन--सुनहरे गहने; मालिन:--मालाओं से सजाए हुए।
गौवों, बैलों तथा बछड़ों के सारे शरीर में हल्दी तथा तेल के साथ नाना प्रकार के खनिजोंका लेप किया गया था।
उनके मस्तकों को मोर पंखों से सजाया गया था, उन्हें मालाएँ पहनाईगई थीं और ऊपर से वस्त्र तथा सुनहरे गहनों से आच्छादित किया गया था।
महाईवस्त्राभरणकञ्जुकोष्णीषभूषिता: ।
गोपाः समाययू राजन्नानोपायनपाणय: ॥
८ ॥
महा-अरई--अत्यन्त मूल्यवान; वस्त्र-आभरण--कपड़ों तथा गहनों से; कञ्जुक--वृन्दावन में पहना जाने वाला विशेष वस्त्र,अँगरखा; उष्णीष--पगड़ी से; भूषिता:--अच्छी तरह सजे; गोपा:--सारे ग्वाले; समाययु;:--वहाँ आए; राजन्--हे राजन्( महाराज परीक्षित ); नाना--अनेक प्रकार की; उपायन-- भेंटें; पाणय:--हाथ में लिए हुएहे राजा परीक्षित, ग्वाले अत्यन्त मूल्यवान गहने तथा कंचुक और पगड़ी जैसे वस्त्रों से खूबसजे-धजे थे।
इस तरह से सजधज कर तथा अपने हाथों में तरह-तरह की भेंटें लेकर वे नन्दमहाराज के घर आए।
गोप्यश्चाकर्ण्य मुदिता यशोदाया: सुतोद्धवम् ।
आत्मानं भूषयां चक्रुर्वस्त्राकल्पाझ्ननादिभि: ॥
९॥
गोप्य:--ग्वालों की पत्नियाँ, गोपियाँ; च--भी; आकर्ण्य--सुनकर; मुदिता: --अत्यंत्र प्रसन्न हुए; यशोदाया:--यशोदा माताके; सुत-उद्धवम्--पुत्र जन्म को; आत्मानम्--स्वयं; भूषयाम् चक्रु:--उत्सव में जाने के लिए अच्छी तरह से सज गईं; वस्त्र-आकल्प-अद्धन-आदिभि: --उपयुक्त वस्त्रों, गहनों, काजल इत्यादि से।
गोपियाँ यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्न थीं कि माता यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है, अतः वे उपयुक्त वस्त्रों, गहनों, काजल आदि से अपने को सजाने लगीं।
नवकुड्जू मकिज्ञल्कमुखपड्डजभूतय: ।
बलिभिस्त्वरितं जग्मु: पृथुश्रोण्यश्चलत्कुचा: ॥
१०॥
नव-कुद्डु म-किज्लल्क--केसर तथा नव-विकसित कुंकुम फूल से; मुख-पड्मज-भूतय:--अपने कमल जैसे मुखों में असाधारणसौन्दर्य प्रकट करते हुए; बलिभि:--अपने हाथों में भेंटें लिए हुए; त्वरितम्--जल्दी से; जग्मु;ः--( माता यशोदा के घर ) गई;पृथु- श्रोण्य: --स्त्रीयोचित सौन्दर्य के अनुरूप भारी नितम्बों वाली; चलतू-कुचा:--हिल रहे बड़े-बड़े स्तन।
अपने कमल जैसे असाधारण सुन्दर मुखों को केसर तथा नव-विकसित कुंकुम से अलंकृतकरके गोपियाँ अपने हाथों में भेंटें लेकर माता यशोदा के घर के लिए तेजी से चल पढ़ीं।
प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण उनके नितम्ब बड़े-बड़े थे तथा तेजी से चलने के कारण उनकेबड़े-बड़े स्तन हिल रहे थे।
गोप्य: सुमृष्टमणिकुण्डलनिष्ककण्ठ्य-श्वित्राम्बरा: पथि शिखाच्युतमाल्यवर्षा: ।
नन्दालयं सवलया ब्रजतीर्विरेजु-व्यालोलकुण्डलपयोधरहारशोभा: ॥
११॥
गोप्य:--गोपियाँ; सु-मृष्ट--अत्यन्त चमकीले; मणि--रत्नों से बने; कुण्डल--कान की बालियाँ पहने; निष्क-कण्ठदय:--गलेमें पहना गया हार; चित्र-अम्बरा:--रंगीन किनारे वाली पोशाकें पहने; पथि--यशोदा माई के घर के रास्ते में; शिखा-च्युत--उनके बालों से गिरे हुए; माल्य-वर्षा:--फूलों की मालाओं की वर्षा; नन्द-आलयमू--महाराज नन्द के घर को; स-वलया: --हाथों में चूड़ियाँ पहने; ब्रजती: --जाती हुईं; विरिजु:--अत्यधिक सुन्दर लग रही थीं; व्यालोल--हिलते; कुण्डल--कान कीबालियों से युक्त; पयोधर--स्तन वाली; हार--फूलों के हारों से युक्त; शोभा: --अत्यन्त सुन्दर लगने वाली |
गोपियों के कानों में चमचमाते रत्नजटित बालियाँ थी और उनके गले में धातुओं के हाँसलटक रहे थे।
उनके हाथ चूड़ियों से विभूषित थे, उनकी वेशभूषाएँ विविध रंगों की थीं औरउनके बालों में लगे फूल रास्तों पर गिर रहे थे मानो वर्षा हो रही हो।
इस प्रकार नन््द महाराज केघर जाते समय गोपियाँ, उनके कुंडल, उनके हिलते स्तन तथा मालाएँ अतीव सुन्दर लग रही थीं।
ता आशिष: प्रयु्ञानाश्चिरं पाहीति बालके ।
हरिद्राचूर्णतैलाड्द्ि: सिज्ञन्त्योडजनमुज्जगु: ॥
१२॥
ताः--सारी स्त्रियाँ, ग्वालों की पत्नियाँ तथा पुत्रियाँ; आशिष:--आशीर्वाद; प्रयुज्ञाना:-- भेंट; चिरम्ू--दीर्घकाल तक; पाहि--आप ब्रज के राजा बनें और इसके सारे निवासियों का पालन करें; इति--इस प्रकार; बालके --नवजात शिशु को; हरिद्रा-चूर्ण--हल्दी का चूर्ण; तैल-अद्द्धिः--तेल से मिश्रित; सिश्जन्त्यः--छिड़काव करते हुए; अजनमू--अजन्मा भगवान् की;उज्जगु:--स्तुतियाँ कीं।
ग्वालों की पत्नियों तथा पुत्रियों ने नवजात शिशु, कृष्ण, को आशीर्वाद देते हुए कहा,’आप ब्रज के राजा बनें और यहाँ के सारे निवासियों का दीर्घकाल तक पालन करें।
' उन्होंनेअजन्या भगवान् पर हल्दी, तेल तथा जल का मिश्रण छिड़का और प्रार्थनाएँ कीं ।
अवाद्यन्त विचित्राणि वादित्राणि महोत्सवे ।
कृष्णे विश्वेश्वरेडनन्ते नन्दस्य ब्रजमागते ॥
१३॥
अवाद्यन्त--वसुदेव के पुत्रोत्सव पर बजाया; विचित्राणि--विविध प्रकार के; वादित्राणि--वाद्ययंत्र; महा-उत्सवे--महान् उत्सवमें; कृष्णे--जब भगवान् कृष्ण; विश्व-ई श्वरे -- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी; अनन्ते--असीम; नन्दस्थ--महाराज नन्द के;ब्रजम्--चरागाह में; आगते--आए हुए
चूँकि अब सर्वव्यापी, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी, अनन्त भगवान् कृष्ण महाराज नन््द कीपुरी में पदार्पण कर चुके थे, अतएवं इस महान् उत्सव के उपलक्ष्य में नाना प्रकार के वाद्ययंत्रबजाये गये।
गोपाः परस्परं हष्टा दधिक्षीरघृताम्बुभि: ।
आसिजश्जन्तो विलिम्पन्तो नवनीतैश्व चिक्षिपु: ॥
१४॥
गोपाः-ग्वाले; परस्परम्--एक दूसरे से; हृष्टा:--प्रसन्न होकर; दधि--दही; क्षीर--औंटाया दूध ( खीर ); घृत-अम्बुभि:--घीके साथ मिले जल से; आसिद्ञन्त:ः--छिड़कते हुए; विलिम्पन्त:--लेप करके; नवनीतै: च--तथा मक्खन से; चिक्षिपु:--एकदूसरे पर फेंकने लगे।
ग्वालों ने प्रसन्न होकर एक दूसरे के शरीरों में दही, खीर, मक्खन तथा जल का घोलछिड़ककर इस महोत्सव का आनन्द लिया।
उन्होंने एक दूसरे पर मक्खन फेंका और एक दूसरेके शरीरों में पोता भी।
नन्दो महामनास्ते भ्यो वासोलड्डारगोधनम् ।
सूतमागधवन्दिभ्यो येउन्ये विद्योपजीविन: ॥
१५॥
तैस्तैः कामैरदीनात्मा यथोचितमपूजयत् ।
विष्णोराराधनार्थाय स्वपुत्रस्योदयाय च ॥
१६॥
नन्दः--महाराज नन्द; महा-मना:--जो ग्वालों में सर्वाधिक न्न्यायशील तथा माननीय पुरुष थे; तेभ्य:--ग्वालों को; वास:--वस्त्र; अलड्वार-गहने; गो-धनम्--तथा गाएँ; सूत-मागध-वन्दिभ्य: --सूतों ( प्राचीन गाथा गाने वालों ), मागधों( राजबंशों कीगाथा गाने वालों ) तथा वन्दीजनों ( सामान्य स्तुति गायकों ) को; ये अन्ये--तथा अन्यों को; विद्या-उपजीविन:--विद्या के बलपर जीविका चलाने वाले; तैः तैः--उन उन; कामै:--इच्छाओं से; अदीन-आत्मा--महाराज नन्द, जो इतने वदान्य थे; यथा-उचितम्--जो उपयुक्त था; अपूजयत्--उनकी पूजा की अथवा उन्हें तुष्ट किया; विष्णो: आराधन-अर्थाय--भगवान् विष्णु कोप्रसन्न करने के उद्देश्य से; स्व-पुत्रस्य-- अपने पुत्र के; उदयाय--सर्वतोमुखी प्रगति के लिए; च--तथा |
उदारचेता महाराज नन्द ने भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ग्वालों को वस्त्र,आभूषण तथा गाएँ दान में दीं।
इस तरह उन्होंने अपने पुत्र की दशा को सभी प्रकार से सँवारा।
उन्होंने सूतों, मागधों, वन्दीजनों तथा अन्य वृत्ति वाले लोगों को उनकी शैक्षिक योग्यता केअनुसार दान दिया और हर एक की इच्छाओं को तुष्ट किया।
रोहिणी च महाभागा नन्दगोपाभिनन्दिता ।
व्यचरहिव्यवाससत्रक्रणठाभरणभूषिता ॥
१७॥
रोहिणी--बलदेव की माता, रोहिणी; च-- भी; महा-भागा--परम भाग्यशालिनी ( कृष्ण तथा बलराम को साथ-साथ पालने केकारण ); नन्द-गोपा-अभिनन्दिता--नन्द महाराज तथा माता यशोदा द्वारा सम्मानित; व्यचरत्--इधर-उधर विचरण करने मेंव्यस्त; दिव्य--सुन्दर; वास--वेशभूषा; सत्रकु--माला; कण्ठउ-आभरण--गले के गहने से; भूषिता--विभूषित |
बलदेव की माता अति-भाग्यशालिनी रोहिणी नन््द महाराज तथा यशोदा द्वारा अभिनन्दितहुईं।
उन्होंने भी शानदार वस्त्र पहन रखे थे और गले के हार, माला तथा अन्य गहनों से अपने कोसजा रखा था।
वे उस उत्सव में अतिथि-स्त्रियों का स्वागत करने के लिए इधर-उधर आ-जा रहीथीं।
तत आरशभ्य नन्दस्य ब्रज: सर्वसमृद्धिमान् ।
हरेर्निवासात्मगुणै रमाक्रीडमभून्रूप ॥
१८॥
ततः आरभ्य--उस समय से लेकर; नन्दस्य--महाराज नन्द का; ब्रज: --ब्रजभूमि, गौवों को पालने तथा संरक्षण प्रदान करने कीभूमि; सर्व-समृद्द्धिमान्ू--सभी प्रकार के धन से ऐश्वर्यवान; हरे: निवास-- भगवान् के निवास स्थान का; आत्म-गुणै: --दिव्यगुणों से; रमा-आक्रीडम्--लक्ष्मी की लीलास्थली; अभूत्--बनी; नृप--हे राजा ( परीक्षित )
हे महाराज परीक्षित, नन्द महाराज का घर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तथा उनके दिव्य गुणोंका शाश्वत धाम है फलत: उसमें समस्त सम्पदाओं का ऐश्वर्य सदैव निहित है।
फिर भी कृष्ण केआविर्भाव के दिन से ही वह घर देवी लक्ष्मी की क्रीड़ास्थली बन गया।
गोपान्गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गत: ।
नन्दः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्दद ॥
१९॥
गोपान्ू-ग्वालों को; गोकुल-रक्षायामू--गोकुल मण्डल की रक्षा के लिए; निरूप्य--नियुक्त करके; मथुराम्--मथुरा; गत: --गए; नन्द: --नन्द महाराज; कंसस्य--कंस का; वार्षिक्यम्-वार्षिक कर; करम्--लाभांश; दातुमू-- भुगतान करने के लिए;कुरु-उद्ठद-हे कुरु वंश के रक्षक, महाराज परीक्षित |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे महाराज परीक्षित, हे कुरुवंश के सर्वश्रेष्ठ रक्षक, उसकेबाद नन्द महाराज ने स्थानीय ग्वालों को गोकुल की रक्षा के लिए नियुक्त किया और स्वयं राजाकंस को वार्षिक कर देने मथुरा चले गए।
बसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरे नन्दमागतम् ।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ने ययौ तदवमोचनम् ॥
२०॥
बसुदेव:--वसुदेव; उपश्रुत्य--सुनकर; भ्रातरम्--अपने मित्र तथा भाई; नन्दम्--नन्द महाराज को; आगतम्--मथुरा आयाहुआ; ज्ञात्वा--जानकर; दत्त-करम्--पहले ही कर चुकता किया जा चुका था; राज्ञे--राजा के पास; ययौ--गया; ततू-अवमोचनम्--नन्द महाराज के डेरे तक ।
जब वसुदेव ने सुना कि उनके अत्यन्त प्रिय मित्र तथा भाई नन््द महाराज मथुरा पधारे हैं औरवे कंस को कर भुगतान कर चुके हैं, तो वे नन््द महाराज के डेरे में गए।
त॑ दृष्ठा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम् ।
प्रीत: प्रियतमं दोर्भ्या सस्वजे प्रेमविहलः ॥
२१॥
तम्--उसको ( वसुदेव को ); दृष्टा--देखकर; सहसा--अचानक; उत्थाय--उठकर; देह: --वही शरीर; प्राणम्-- प्राण; इब--मानो; आगतम्--लौट आया हो; प्रीत:--इतना प्रसन्न; प्रिय-तमम्--अपने प्रिय मित्र तथा भाई; दोर्भ्याम्--अपनी दोनों बाहुओंद्वारा; सस्वजे--गले मिले; प्रेम-विहलः--प्रेम तथा स्नेह से अभिभूत |
जब नन्द महाराज ने सुना कि वसुदेव आए हैं, तो बे प्रेम तथा स्नेह से अभिभूत हो उठे औरइतने प्रसन्न हुए मानो उन्हें पुन: जीवन पा लिया हो।
वसुदेव को अचानक उपस्थित देखकर वे उठखड़े हुए और अपनी दोनों भुजाओं में लेकर गले लगा लिया।
पूजितः सुखमासीन: पृष्ठानामयमाहतः ।
प्रसक्तधी: स्वात्मजयोरिदमाह विशाम्पते ॥
२२॥
'पूजित:--इस तरह प्रेम पूर्वक स्वागत किए गए वसुदेव; सुखम् आसीन: --सुखपूर्वक बैठने के लिए स्थान दिए गए; पृष्ठा --पूछकर; अनामयम्--शुभ प्रश्न; आहत:--समादरित; प्रसक्त-धी:--अत्यन्त आसक्त होने के कारण; स्व-आत्मजयो: --अपनेदोनों पुत्रों ( कृष्ण तथा बलराम ); इृदम्--इस प्रकार; आह--पूछा; विशाम्-पते--हे महाराज परीक्षित।
हे महाराज परीक्षित, नन्द महाराज द्वारा, इस प्रकार आदरपूर्वक सत्कार एवं स्वागत किएजाने पर वसुदेव बड़ी ही शान्ति से बैठ गए और अपने दोनों पुत्रों के प्रति अगाध-प्रेम के कारणउनके विषय में पूछा।
दिष्टद्या भ्रात: प्रवयस इदानीमप्रजस्य ते ।
प्रजाशाया निवृत्तस्य प्रजा यत्समपद्यत ॥
२३॥
दिछ्या--सौभाग्यवश; भ्रात:--हे भाई; प्रवयस:--अधिक आयु वाले आपका; इदानीम्--इस समय; अप्रजस्यथ--सन्तानहीनका; ते--आपका; प्रजा-आशाया: निवृत्तस्य--जिसे इस अवस्था में पुत्र प्राप्ति की आशा न रह गई हो, उसका; प्रजा--पुत्र;यत्--जो भी; समपद्यत-- भाग्यवश प्राप्त हो गया।
मेरे भाई नन््द महाराज, इस वृद्धावस्था में भी आपका कोई पुत्र न था और आप निराश होचुके थे।
अतः अब जबकि आपको पुत्र प्राप्त हुआ है, तो यह अत्यधिक सौभाग्य का लक्षण है।
दिष्टद्या संसारचक्रे उस्मिन्वर्तमान: पुनर्भव: ।
उपलब्धो भवानद्य दुर्लभं प्रियदर्शनम् ॥
२४॥
दिछ्या--सौभाग्य से ही; संसार-चक्रे अस्मिन्ू--इस जन्म-मृत्यु वाले जगत में; वर्तमान:--विद्यमान होकर; पुनः-भव:--आपकी मेरी भेंट दूसरे जन्म की तरह है; उपलब्ध: --मेरे द्वारा प्राप्त होकर; भवान्--आप; अद्य--आज; दुर्लभम्--यद्यपि इसेकभी घटित नहीं होना था; प्रिय-दर्शनम्--हे मित्र आपको पुनः देखने के लिए
यह मेरा सौभाग्य ही है कि मैं आपके दर्शन कर रहा हूँ।
इस अवसर को प्राप्त करके मुझेऐसा लग रहा है मानो मैंने फिर से जन्म लिया हो।
इस जगत में उपस्थित रह कर भी मनुष्य केलिए अपने घनिष्ठ मित्रों तथा प्रिय सम्बन्धियों से मिल पाना अत्यन्त कठिन होता है।
नैकत्र प्रियसंवास: सुहृदां चित्रकर्मणाम् ।
ओधेन व्यूह्ममानानां प्लवानां सत्रोतसो यथा ॥
२५॥
न--नहीं; एकत्र--एक स्थान में; प्रिय-संवास:--अपने प्रिय मित्रों तथा सम्बन्धियों के साथ रहना; सुहृदाम्--मित्रों का; चित्र-कर्मणाम्--हम सबका जिन्हें अपने विगत कर्म के कारण नाना प्रकार के फल भोगने होते हैं; ओघेन--बल के द्वारा;व्यूह्ममानानामू--ले जाया जाकर; प्लवानामू--जल में तैरने वाले तिनके तथा अन्य पदार्थों का; स्रोतस:--लहरों का; यथा--जिस तरह।
लकड़ी के फट्टे और छड़ियाँ एकसाथ रुकने में असमर्थ होने से नदी की लहरों के वेग सेबहा लिए जाते हैं।
इसी तरह हम अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हुए भी अपने नाना प्रकार के विगत कर्मों तथा काल की लहरों के कारण एकसाथ रहने में असमर्थ होतेहैं।
'कच्चित्पशव्यं निरुजं भूर्यम्बुतृणवीरु धम् ।
बृहद्वनं तदधुना यत्रास्से त्वं सुहृद्बृत: ॥
२६॥
कच्चित्--चाहे; पशव्यम्--गौवों की सुरक्षा; निरुजम्--बिना कष्ट या रोग के; भूरि--पर्याप्त; अम्बु--जल; तृण--घास;वीरुधम्--पौधे; बृहत् वनम्--विशाल जंगल; तत्--ये सारे प्रबन्ध वहाँ हैं; अधुना--अब; यत्र--जहाँ; आस्से--रह रहे हैं;त्वमू--तुम, आप; सुहत्-बृतः--मित्रों से घिरे हुए
हे मित्र नन्द महाराज, आप जिस स्थान में रह रहे हैं क्या वहाँ का जंगल पशुओं-गौवों केलिए अनुकूल है? आशा है कि वहाँ रोग या कोई असुविधा नहीं होगी।
वह स्थान जल, घासतथा अन्य पौधों से भरा-पुरा होगा।
भ्रातर्मम सुतः कच्चिन्मात्रा सह भवदव्रजे ।
तातं भवन्तं मन्वानो भवद्भ्यामुपलालित: ॥
२७॥
भ्रात:--मेरे भाई; मम--मेरे; सुत:--पुत्र ( रोहिणी पुत्र बलदेव ); कच्चित्--क्या; मात्रा सह--अपनी माता रोहिणी के साथ;भवत्ू-ब्रजे--अपने घर में; तातमू--पिता तुल्य; भवन्तम्--आपको; मन्वान: --सोचते हुए; भवद्भ्यामू--आप तथा आपकीपतली यशोदा द्वारा; उपलालित:--ठीक से पाले जाने से
आप तथा यशोदा देवी के द्वारा पाले जाने के कारण मेरा पुत्र बलदेव आप दोनों को अपनामाता-पिता मानता तो है न, वह आपके घर में अपनी असली माता रोहिणी के साथ शान्तिपूर्वकरह रहा है न! पुंसस्त्रिवर्गो विहितः सुहदो हानुभावित: ।
न तेषु क्लिशएयमानेषु त्रिवर्गोर्थाय कल्पते ॥
२८॥
पुंस:--मनुष्य का; त्रि-वर्ग:--जीवन के तीन उद्देश्य ( धर्म, अर्थ और काम ); विहितः--वैदिक संस्कारों के अनुसार आदिष्ट;सुहृद:--सम्बन्धियों तथा मित्रों के प्रति; हि--निस्सन्देह; अनुभावितः--सही मार्ग में होने पर; न--नहीं; तेषु--उनमें;क्लिश्यमानेषु--क्लेश में पड़े हुए; त्रि-वर्ग:--जीवन के तीन उद्देश्य; अर्थाय--किसी प्रयोजन के लिए; कल्पते--ऐसा हो जाताहै
जब किसी के मित्र तथा सम्बन्धीगण अपने-अपने पदों पर ठीक तरह से बने रहते हैं, तोवैदिक साहित्य में उल्लिखित उनके धर्म, अर्थ तथा काम लाभप्रद होते हैं।
अन्यथा, मित्रों तथासम्बन्धियों के क्लेशग्रस्त होने पर इन तीनों से कोई सुख नहीं मिल पाता।
श्रीनन्द उवाचअहो ते देवकीपुत्रा: कंसेन बहवो हताः ।
एकावशिष्टावरजा कन्या सापि दिवं गता ॥
२९॥
श्री-नन्दः उवाच--नन्द महाराज ने कहा; अहो--हाय; ते--तुम्हारे; देवकी-पुत्रा:--तुम्हारी पत्नी के सारे पुत्र; कंसेन--कंसद्वारा; बहवः--अनेक; हता:--मारे गए; एका--एक; अवशिष्टा--बची हुईं; अवरजा--सबसे छोटी; कन्या--कन्या; साअपि--वह भी; दिवम् गता--स्वर्गलोक को चली गई।
नन्द महाराज ने कहा : हाय! राजा कंस ने देवकी से उत्पन्न तुम्हारे अनेक बालकों को मारडाला।
और तुम्हारी सन््तानों में सबसे छोटी एक कन्या स्वर्गलोक को चली गई।
नूनं ह्ादृष्टनिष्ठो यमहष्टपरमो जन: ।
अद्दष्टमात्मनस्तत्त्वं यो वेद न स मुहाति ॥
३०॥
नूनमू--निश्चय ही; हि--निस्सन्देह; अहष्ट--अनदेखा; निष्ठ: अयम्--यही अन्त है; अदृष्ट--अहृष्ट प्रारब्ध; परम:--परम; जन:ः--संसार का हर जीव; अदृष्टम्--वही प्रारब्ध; आत्मन:--अपना ही; तत्त्वमू--परम सत्य; यः--जो; वेद--जानता है; न--नहीं;सः--वह; मुहाति--मोहग्रस्त होता है|
प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रारब्ध द्वारा नियंत्रित होता है क्योंकि उसी से मनुष्य के सकामकर्मो के फल निर्धारित होते हैं।
दूसरे शब्दों में, अद्ृष्ट प्रारब्ध के कारण ही मनुष्य को पुत्र यापुत्री प्राप्त होती है और जब पुत्र या पुत्री नहीं रहते, तो वह भी अद्दष्ट प्रारब्ध के ही कारण होताहै।
प्रारब्ध ही हर एक का अनन्तिम नियंत्रक है।
जो इसे जानता है, वह कभी मोहग्रस्त नहींहोता।
श्रीवसुदेव उवाचकरो वे वार्षिको दत्तो राज्ञे दृष्टा वयं च वः ।
नेह स्थेयं बहुतिथं सन्त्युत्पाताश्च गोकुले ॥
३१॥
श्री-वसुदेवः उवाच-- श्री वसुदेव ने उत्तर दिया; कर:ः--कर; बै--निस्सन्देह; वार्षिक: --वार्षिक ( सालाना ); दत्त:--दियाहुआ; राज्े--राजा को; दृष्टा:--देखा गया; वयम् च--हम दोनों; वः--तुम्हारा; न--नहीं; इह--इस स्थान में; स्थेयम्ू--रुकना,ठहरना; बहु-तिथम्--बहुत दिनों तक; सन्ति--हो सकते हैं; उत्पाता: च--अनेक उपद्रव; गोकुले--आपके घर गोकुल में।
बसुदेव ने नन्द महाराज से कहा : मेरे भाई, अब तो आपने कंस को वार्षिक कर चुका दियाहै और मुझसे भी भेंट कर ली है, अतः इस स्थान पर अब अधिक दिन मत रूुको।
गोकुल लौट जाना बेहतर है क्योंकि मैं जानता हूँ कि वहाँ कुछ उपद्रव हो सकते हैं।
श्रीशुक उबाचइति नन्दादयो गोपाः प्रोक्तास्ते शौरिणा ययु: ।
अनोभिरनडुद्ुक्तैस्तमनुज्ञाप्प गोकुलम् ॥
३२॥
श्री-शुकः उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; नन्द-आदय:--नन्द महाराज तथा उनके साथी; गोपा: --ग्वाले; प्रोक्ता:--सलाह दिए जाने पर; ते--वे; शौरिणा--वसुदेव द्वारा; ययु:--उस स्थान से रवाना हो गए; अनोभि:--बैलगाड़ियों द्वारा; अनडुत्-युक्ती:--बैलों से जुती; तम् अनुज्ञाप्प--वसुदेव से अनुमति लेकर; गोकुलम्--गोकुल के लिए।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब वसुदेव ने नन््द महाराज को इस प्रकार सलाह दी तो नन्दमहाराज तथा उनके संगी ग्वालों ने वसुदेव से अनुमति ली, अपनी-अपनी गाड़ियों में बैल जोतेऔर सवार होकर गोकुल के लिए प्रस्थान कर गये।
अध्याय छह: राक्षसी पूतना का वध
10.6श्रीशुक उबाचनन्दः पथ् बच: शौरेर्न मृषेति विचिन्तयन् ।
हरिं जगामशरणमुत्पातागमशड्धितः ॥
१॥
श्री-शुक: उवाच-- श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; नन्दः--नन्द महाराज ने; पथि--घर आते हुए, रास्ते में; वच:--शब्द;शौरे:--वसुदेव के; न--नहीं; मृषा--निरर्थक; इति--इस प्रकार; विचिन्तयन्-- अपने पुत्र के अशुभ के विषय में सोच कर;हरिम्ू-- भगवान्, नियन्ता की; जगाम--ग्रहण की; शरणम्--शरण; उत्पात--उपद्रवों की; आगम--आशा से; शद्धितः--भयभीत हुए
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्! जब नन्द महाराज घर वापस आ रहे थे तो उन्होंनेविचार किया कि वसुदेव ने जो कुछ कहा था वह असत्य या निरर्थक नहीं हो सकता।
अवश्य हीगोकुल में उत्पातों के होने का कुछ खतरा रहा होगा।
ज्योंही नन्द महाराज ने अपने सुन्दर पुत्रकृष्ण के लिए खतरे के विषय में सोचा त्योंही वे भयभीत हो उठे और उन्होंने परम नियन्ता केचरणकमलों में शरण ली।
कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी ।
शिशूंश्चचार निध्नन्ती पुरग्रामत्रजादिषु ॥
२॥
कंसेन--कंस द्वारा; प्रहिता--पहले से लगाई गई; घोरा--अत्यन्त भयानक; पूतना--पूतना नामक; बाल-घातिनी --राक्षसी;शिशून्--छोटे छोटे बच्चों को; चचार--घूमती रहती थी; निध्नन्ती--मारती हुई; पुर-ग्राम-त्रज-आदिषु--नगरों, गाँवों में इधरउधर
जब नन्द महाराज गोकुल लौट रहे थे तो वही विकराल पूतना, जिसे कंस ने बच्चों को मारनेके लिए पहले से नियुक्त कर रखा था, नगरों तथा गाँवों में घूम घूम कर अपना नृशंस कृत्य कररही थी।
न यत्र भ्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु ।
कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुर्यातुधान्यश्व तत्र हि ॥
३॥
न--नहीं; यत्र--जहाँ; श्रवण-आदीनि-- श्रवण, कीर्तन इत्यादि भक्तियोग के कार्य; रक्ष:ः-घ्नानि--समस्त विपदाओं तथाअशुभों को मारने की ध्वनि; स्व-कर्मसु--अपने काम में लगी; कुर्वन्ति--ऐसे कार्य किये जाते हैं; सात्वताम् भर्तु:--भक्तों केरक्षक के; यातुधान्य:--बुरे लोग, उत्पाती; च--भी; तत्र हि--हो न हो |
हे राजन्! जहाँ भी लोग कीर्तन तथा श्रवण द्वारा भक्तिकार्यों की अपनी वृत्तियों में लगे रहतेहैं ( श्रवर्णं कीर्तन विष्णो: ) वहाँ बुरे लोगों से किसी प्रकार का खतरा नहीं रहता।
जब साक्षात्भगवान् वहाँ विद्यमान हों तो गोकुल के विषय में किसी प्रकार की चिन्ता की आवश्यकता नहींथी।
सा खेचर्येकदोत्पत्य पूतना नन्दगोकुलम् ।
योषित्वा माययात्मानं प्राविशत्कामचारिणी ॥
४॥
सा--वह ( पूतना ); खे-चरी--आकाश मार्ग में यात्रा करने वाली; एकदा--एक बार; उत्पत्य--उड़ते हुए; पूतना--पूतना;नन्द-गोकुलम्--नन्द महाराज के स्थान, गोकुल में; योषित्वा--सुन्दर स्त्री का वेश धारण करके; मायया--योगशक्ति से;आत्मानम्--अपने आपको; प्राविशत्-- प्रवेश किया; काम-चारिणी--इच्छानुसार विचरण करने वाली |
एक बार स्वेच्छा से विचरण करने वाली पूतना राक्षसी बाह्य आकाश ( अन्तरिक्ष ) में घूमरही थी तो वह अपनी योगशक्ति से अपने को अति सुन्दर स्त्री के रूप में बदलकर नन्द महाराजके स्थान गोकुल में प्रविष्ट हुई।
तां केशबन्धव्यतिषक्तमल्लिकांबृहन्नितम्बस्तनकृच्छुमध्यमाम् ।
सुवाससं कल्पितकर्ण भूषण-त्विषोल्लसत्कुन्तलमण्डिताननाम् ॥
५॥
वल्गुस्मितापाड्विसर्गवीक्षितै-म॑नो हरन्तीं वनितां ब्रजौकसाम् ।
अमंसताम्भोजकरेण रूपिणींगोष्य: श्रियं द्रष्टमिवागतां पतिम् ॥
६॥
ताम्--उसको; केश-बन्ध-व्यतिषक्त-मल्लिकाम्--जिसके जूड़े मल्लिका के फूलों की मालाओं से सजाये गये थे; बृहत्--बहुत बड़े; नितम्ब-स्तन--अपने कूल्हों तथा दृढ़ स्तनों से; कृच्छु-मध्यमाम्--पतली कमर के भार से नत; सु-वाससम्-- अच्छेवस्त्रों से सज्जित; कल्पित-कर्ण-भूषण--कानों में पहने कुण्डलों की; त्विषा--चमक से; उल्लसत्--अत्यन्त आकर्षक;कुन्तल-मण्डित-आननाम्--काले बालों से घिरे सुन्दर मुखमण्डल वाली; वल्गु-स्मित-अपाडु-विसर्ग-वीक्षितैः --हास्ययुक्तचितवन से; मन: हरन्तीम्--मन को हरती हुईं; बनिताम्ू--अत्यन्त आकर्षक स्त्री ने; त्रज-ओकसाम्--गोकुलवासियों को;अमंसत--सोचा; अम्भोज--कमल लिये हुए; करेण--हाथ से; रूपिणीम्-- अत्यन्त सुन्दर; गोप्य:--गोकुल की रहने वालीगोपियाँ; थ्रियम्ू-- लक्ष्मी; द्रष्टमू--देखने के लिए; इब--मानो; आगताम्--आई हो; पतिमू--पति को।
उसके नितम्ब भारी थे, उसके स्तन सुदृढ़ तथा विशाल थे जिससे उसकी पतली कमर परअधिक बोझ पड़ता प्रतीत हो रहा था।
वह अत्यन्त सुन्दर वस्त्र धारण किये थी।
उसके केशमल्लिका फूल की माला से सुसज्जित थे जो उसके सुन्दर मुख पर बिखरे हुए थे।
उसके कान केकुण्डल चमकीले थे।
वह हर व्यक्ति पर दृष्टि डालते हुए आकर्षक ढंग से मुसका रही थी।
उसकी सुन्दरता ने ब्रज के सारे निवासियों का विशेष रूप से पुरुषों का ध्यान आकृष्ट कर रखाथा।
जब गोपियों ने उसे देखा तो उन्होंने सोचा कि हाथ में कमल का फूल लिए लक्ष्मी जी अपनेपति कृष्ण को देखने आई हैं।
बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्यहच्छया नन्दगृहेउसदन्तकम् ।
बाल प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसंददर्श तल्पेग्निमिवाहितं भसि ॥
७॥
बाल-ग्रह:--डाइन, जिसका काम छोटे-छोटे बच्चों को मारना है; तत्र--वहाँ खड़ी; विचिन्वती--सोचती हुईं, ढूँढती हुई;शिशून्--बालकों के; यहच्छया--स्वतंत्र रूप से; नन्द-गृहे--नन्द महाराज के घर में; असत्-अन्तकम्--सारे असुरों को मारनेमें समर्थ; बालम्--बालक को; प्रतिच्छन्न--ढकी; निज-उरु-तेजसम्--अपनी असीम शक्ति को; दरदर्श--देखा; तल्पे--बिस्तरपर ( लेटा ); अग्निमू-- अग्नि को; इब--सहृश्य; आहितम्--ढकी; भसि--राख के भीतर |
छोटे छोटे बालकों को ढूँढती हुई बच्चों का वध करने वाली पूतना बिना किसी रोकटोकके नन्द महाराज के घर में घुस गई क्योंकि वह भगवान् की परा शक्ति द्वारा भेजी गई थी।
वहकिसी से पूछे बिना नन््द महाराज के उस कमरे में घुस गई जहाँ उसने बालक को ब्िस्तरे पर सोतेदेखा जो राख में ढकी अग्नि के समान असीम शक्ति-सम्पन्न था।
वह समझ गई कि यह बालककोई साधारण बालक नहीं है, अपितु सारे असुरों का वध करने के हेतु आया है।
विबुध्य तां बालकमारिकाग्रहंचराचरात्मा स निमीलितेक्षण: ।
अनन्तमारोपयदड्जूमन्तकयथोरगं सुप्तमबुद्धधिरज्जुधी: ॥
८॥
विब॒ुध्य--समझ कर; ताम्--उसको ( पूतना को ); बालक-मारिका-ग्रहम्--बालकों को मारने में पटु डाइन को; चर-अचर-आत्मा--सर्वव्यापक परमात्मा कृष्ण; सः--उसने; निमीलित-ईक्षण: -- अपनी आँखें बन्द कर लीं; अनन्तम्ू-- असीम;आरोपयत्ू--रख लिया; अड्डम्--अपनी गोद में; अन्तकम्--अपने विनाश के लिए; यथा--जिस तरह; उरगम्--साँप को;सुप्तम्--सोये हुए; अबुद्धधि--बुद्धिहीन व्यक्ति; रज्जु-धी:--साँप को रस्सी समझने वाला |
बिस्तर पर लेटे सर्वव्यापी परमात्मा कृष्ण ने समझ लिया कि छोटे बालकों को मारने में पटुयह डाइन पूतना मुझे मारने आई है।
अतएव उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं मानो उससे डरगये हों।
तब पूतना ने अपने विनाश-रूप कृष्ण को अपनी गोद में ले लिया जिस तरह किबुद्धिहीन मनुष्य सोते साँप को रस्सी समझ कर अपनी गोद में ले लेता है।
तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितांवीक्ष्यान्तरा कोषपरिच्छदासिवत् ।
वरस्त्रियं तत्प्रभया च॒ धर्षितेनिरीक्ष्ममाणे जननी ह्ातिष्ठताम् ॥
९॥
ताम्--उस ( पूतना राक्षसी को ); तीक्ष्ण-चित्तामू--बच्चों का वध करने के लिए अत्यन्त पाषाण हृदय वाली; अति-वाम-चेष्टितामू--यद्यपि वह बच्चे के साथ माता से भी अधिक अच्छा बर्ताव करने का प्रयास कर रही थी; वीक्ष्य अन्तरा--कमरे केभीतर उसे देख कर; कोष-परिच्छद-असि-वत्--मुलायम म्यान के भीतर तेज तलवार की तरह; वर-स्त्रियम्--सुन्दर स्त्री के;ततू-प्रभया--उसके प्रभाव से; च-- भी; धर्षिते-- अभिभूत, विह्नल; निरीक्ष्ममाणे--देख रही थीं; जननी--दोनों माताएँ; हि--निश्चय ही; अतिष्ठताम्ू--वे मौन रह गईं।
पूतना राक्षसी का हृदय कठोर एवं क्रूर था किन्तु ऊपर से वह अत्यन्त स्नेहमयी माता सदृशलग रही थी।
वह मुलायम म्यान के भीतर तेज तलवार जैसी थी।
यद्यपि यशोदा तथा रोहिणी नेउसे कमरे के भीतर देखा किन्तु उसके सौन्दर्य से अभिभूत होने के कारण उन्होंने उसे रोका नहींअपितु वे मौन रह गईं क्योंकि वह बच्चे के साथ मातृवत् व्यवहार कर रही थी।
तस्मिन्स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणंघोराड्डूमादाय शिशोर्ददावथ ।
गाढं कराभ्यां भगवान्प्रपीड्य ततू-प्राणै: सम॑ं रोषसमन्वितोपिबत् ॥
१०॥
तस्मिन्--उस स्थान में; स्तनम्--स्तन; दुर्जर-वीर्यम्--विष से मिश्रित अत्यन्त शक्तिशाली हथियार; उल्बणम्-- भयंकर;घोरा--अत्यन्त खूँखार पूतना; अड्भमू--अपनी गोद में; आदाय--रखकर; शिशो:--बालक के मुख में; ददौ--दिया; अथ--तत्पश्चात्; गाढम्--अत्यन्त कठोर; कराभ्याम्-दोनों हाथों से; भगवान्-- भगवान्; प्रपीड्य--पीड़ा पहुँचाते हुए; तत्-प्राणै:--उसके प्राण; समम्--के साथ; रोष-समन्वित:--उस पर क्रुद्ध होकर; अपिबत्--स्तनपान किया।
उसी जगह भयानक तथा खूँख्वार राक्षसी ने कृष्ण को अपनी गोद में ले लिया और उनकेमुँह में अपना स्तन दे दिया।
उसके स्तन के चूँचुक में घातक एवं तुरन्त प्रभाव दिखाने वाला विषचुपड़ा हुआ था किन्तु भगवान् कृष्ण उस पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उसके स्तन को पकड़ करअपने हाथों से कड़ाई से निचोड़ा और विष तथा उसके प्राण दोनों चूस डाले।
सा मुख्ञ मुझ्ञालमिति प्रभाषिणीनिष्पीड्यमानाखिलजीवमर्मणि ।
विवृत्य नेत्रे चरणौ भुजौ मुहुःप्रस्विन्नगात्रा क्षिपती रुरोद ह ॥
११॥
सा--वह ( पूतना ); मुझ्न--छोड़ो; मुझ्न--छोड़ो; अलम्ू--बस! बस!; इति--इस प्रकार; प्रभाषिणी--चिल्लाती;निष्पीड्यमाना--बुरी तरह दबाई जाकर; अखिल-जीव-मर्मणि--सारे मर्मस्थलों में; विवृत्य--खोल कर; नेत्रे--दोनों आँखें;चरणौ--दोनों पाँव; भुजौ--दोनों हाथ; मुहुः--पुनः पुनः; प्रस्विन्न-गात्रा--पसीने से तर शरीर; क्षिपती--फेंकते हुए; रुरोद--जोर से चिल्लाई; ह--निस्सन्देह
प्रत्येक मर्मस्थल में असह्य दबाव से पूतना चिल्ला उठी, ‘मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो! अबमेरा स्तनपान मत करो।
पसीने से तर, फटी हुई आँखें तथा हाथ और पैर पटकती हुई वह बार-बार जोर जोर से चिललाने लगी।
तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसासाद्रिमही द्यौश्ञ चचाल सग्रहा ।
रसा दिशश्च प्रतिनेदिरि जना:पेतु: क्षितौ वज्ञनिपातशड्डूया ॥
१२॥
तस्या:--विकट राक्षसी पूतना की; स्वनेन-- ध्वनि से; अति--अत्यन्त; गभीर--गहन; रंहसा--शक्तिशाली; स-अद्विः --पर्वतोंसमेत; मही --पृथ्वी; द्यौ: च--तथा आकाश; चचाल--हिलने लगे; स-ग्रहा--तारों समेत; रसा--पृथ्वी लोक के नीचे; दिशःच--तथा सारी दिशाएँ; प्रतिनेदिरि--गूँजने लगीं; जना:--लोग; पेतु:--गिर पड़े; क्षितौ--पृथ्वी पर; बज़ञ-निपात-शड्भूया--इसआशंका से कि वज़पात हुआ है।
पूतना की गहन तथा जोरदार चीत्कार से पर्वतों समेत पृथ्वी तथा ग्रहों समेत आकाशडगमगाने लगा।
नीचे के लोक तथा सारी दिशाएँ थरथरा उठीं और लोग इस आशंका से गिर पड़ेकि उन पर बिजली गिर रही हो।
इशाचरीत्थं व्यधितस्तना व्यसुर्व्यादाय केशांश्वरणौ भुजावषि ।
प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिताबच्नाहतो वृत्र इवापतन्नूप ॥
१३॥
निशा-चरी--राक्षसी ने; इत्थम्--इस तरह; व्यधित-स्तना--स्तन पर दबाब पड़ने से दुखी; व्यसु:--प्राण छोड़ दिया;व्यादाय--मुँह फैला कर; केशान्ू--बालों का गुच्छा; चरणौ--दोनों पाँव; भुजौ--दोनों हाथ; अपि-- भी; प्रसार्य--पसार कर;गोष्ठे--गोचर में; निज-रूपम् आस्थिता--अपने मूल आसुरी रूप में स्थित; बज़ञ-आहतः--इन्द्र के वज्ञ से मरा हुआ; वृत्र:--वृत्रासुउ; इब--सदहृश; अपतत्--गिर पड़ी; नृप--हे राजन्
इस तरह कृष्ण द्वारा स्तन पर दबाव डालने से अत्यन्त व्यधित पूतना ने अपने प्राण त्यागदिये।
हे राजा परीक्षित, वह अपना मुँह फैलाये तथा अपने हाथ, पाँव पसारे और बाल फैलायेअपने मूल राक्षसी रूप में गोचर में गिर पड़ी मानो इन्द्र के बज़ से आहत वृत्रासुर गिरा हो।
अतमानोपि तहेहस्त्रिगव्यूत्यन्तरद्रमान् ।
चूर्णयामास राजेन्द्र महदासीत्तदद्भुतम् ॥
१४॥
पतमानः अपि--गिरते हुए भी; तत्-देह:ः --उसका विशाल शरीर; त्रि-गव्यूति-अन्तर--बारह मील की सीमा के भीतर; द्रुमान् --सारे वृक्षों को; चूर्णयाम् आस--चूर चूर कर दिये; राजेन्द्र--हे राजा परीक्षित; महत् आसीत्--बहुत विशाल था; तत्--वहशरीर; अद्भुतम्ू--तथा अत्यन्त विचित्र
हे राजा परीक्षित, जब पूतना का विशाल शरीर भूमि पर गिरा तो उससे बारह मील के दायरेके सारे वृक्ष चूर चूर हो गये।
अपने विशाल शरीर में प्रकट होने से वह सचमुच असामान्य थी।
ईषामात्रोग्रदंष्टास्यं गिरिकन्दरनासिकम् ।
गण्डशैलस्तनं रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्थजम् ॥
१५॥
अन्धकूपगभीराक्षं पुलिनारोहभीषणम् ।
बद्धसेतुभुजोर्वड्प्रि शून्यतोयह्दोदरम् ॥
१६॥
सन्तत्रसुः सम तद्वीक्ष्य गोपा गोप्य: कलेवरम् ।
पूर्व तु तन्निःस्वनितभिन्नहत्कर्णमस्तका: ॥
१७॥
ईषा-मात्र--हल के फाल की तरह; उग्र-- भयानक; दंप्ट--दाँत; आस्यम्--मुँह के भीतर; गिरि-कन्दर--पर्वत की गुफा केसमान; नासिकम्--नाक के छेद; गण्ड-शैल--पत्थर की बड़ी शिला की तरह; स्तनम्--स्तन; रौद्रमू--अत्यन्त विकराल;प्रकीर्ण--बिखरे हुए; अरुण-मूर्थ-जम्--ताम्र रंग के बालों वाली; अन्ध-कूप-- भूपट्ट कुओं की तरह; गभीर--गहरे; अक्षम्--आँख के गटड्ढे; पुलिल-आरोह-भीषणम्--जिसकी जाँघें नदी के किनारों की तरह भयावनी थीं; बद्ध-सेतु-भुज-उरु-अड्ध्रि--जिसकी भुजाएँ, जाँघें तथा पैर मजबूत बने पुलों के समान थे; शून्य-तोय-हृद-उदरमू--जिसका पेट जलविहीन झील की तरहथा; सन्तत्रसु: स्म--डर गये; तत्--उस; वीक्ष्य--देखकर; गोपा:--सारे ग्वाले; गोप्य:--तथा ग्वालिनें; कलेवरम्--ऐसेविशाल शरीर को; पूर्बम् तु--इसके पहले; ततू-निःस्वनित--उसकी पुकार से; भिन्न--दहले हुए, कटे; हत्ू--जिनके हृदय;कर्ण--कान; मस्तका:--तथा सिर
राक्षसी के मुँह में दाँत हल के फाल ( कुशी ) जैसे थे; उसके नथुने पर्वत-गुफाओं की तरहगहरे थे और उसके स्तन पर्वत से गिरे हुए बड़े बड़े शिलाखण्डों के समान थे।
उसके बिखरे बालताप्र रंग के थे।
उसकी आँखों के गड्ढे गहरे अंधे ( भूषट्ट ) कुँओं जैसे थे, उसकी भयानक जाँचेंनदी के किनारों जैसी थीं; उसके बाजू, टाँगें तथा पाँव बड़े बड़े पुलों की तरह थीं तथा उसकापेट सूखी झील की तरह लग रहा था।
राक्षसी की चीख से ग्वालों तथा उनकी पत्नियों के हृदय,कान तथा सिर पहले ही दहल चुके थे और जब उन्होंने उसके अद्भुत शरीर को देखा तो वे और भी ज्यादा सहम गये।
बालं च तस्या उरसि क्रीडन्तमकुतो भयम् ।
गोप्यस्तूर्ण समभ्येत्य जगृहुर्जातसम्भ्रमा: ॥
१८॥
बालम् च--बालक भी; तस्या:--उस ( पूतना ) के; उरसि--छाती पर; क्रीडन्तम्--खेलने में व्यस्त; अकुतोभयम्--निडरहोकर; गोप्य:--सारी गोपियाँ; तूर्णम्--तुरन्त; समभ्येत्य--पास आकर; जगृहुः--उठा लिया; जात-सम्भ्रमा:--उसी स्नेह केसाथ।
बालक कृष्ण भी निडर होकर पूतना की छाती के ऊपरी भाग पर खेल रहा था और जबगोपियों ने बालक के अदभुत कार्यकलाप को देखा तो उन्होंने अत्यन्त हर्षित होकर आगे बढ़तेहुए उसे उठा लिया।
यशोदारोहिणीभ्यां ता: सम॑ बालस्य सर्वतः ।
रक्षां विदधिरे सम्यग्गोपुच्छभ्रमणादिभि: ॥
१९॥
यशोदा-रोहिणी भ्याम्ू--यशोदा तथा रोहिणी माताओं के साथ जिन्होंने मुख्यतः बालक की चिम्मेदारी ली; ताः--अन्य गोपियाँ;समम्--यशोदा तथा रोहिणी की ही तरह महत्त्वपूर्ण; बालस्थ--बालक के; सर्वतः--सारे खतरों से; रक्षाम्--रक्षा; विदधिरे--सम्पन्न किया; सम्यक्-- भलीभाँति; गो-पुच्छ-भ्रमण-आदिभि:--चँँवर डुला कर ।
तत्पश्चात् माता यशोदा तथा रोहिणी ने अन्य प्रौढ़ गोपियों समेत बालक श्रीकृष्ण की पूर्णसंरक्षण देने के लिए चँवर डुलाया।
गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गोरजसार्भकम् ।
रक्षां चक्रुश्च शकृता द्वादशाड्रेषु नामभि: ॥
२०॥
गो-मूत्रेण--गायों के पेशाब से; स्नापयित्वा--नहला कर; पुनः --फिर से; गो-रजसा--गोधूलि से; अर्भकम्--छोटे बालकको; रक्षाम्--रक्षा; चक्रु:--सम्पन्न किया; च-- भी; शकृता--गोबर से; द्वादश-अड्लेषु--बारह जगहों में ( द्वादश तिलक );नामभी:-- भगवान् का नाम अंकित करके
बालक को गोमूत्र से अच्छी तरह नहलाया गया और फिर गोधूलि से उसको लेप कियागया।
फिर उनके शरीर में बारह अंगों पर, तिलक लगाने की भाँति माथे से शुरु करके, गोबर सेभगवान् के विभिन्न नाम अंकित किये गये।
इस तरह बालक को सुरक्षा प्रदान की गई।
गोप्य: संस्पृष्ठगलिला अड्भेषु करयो: पृथक् ।
न्यस्यात्मन्यथ बालस्य बीजन्यासमकुर्वत ॥
२१॥
गोप्य:--गोपियों ने; संस्पृष्टटसलिला:--जल के प्याले को छूकर तथा पीकर ( आचमन करके ); अड्लेषु--अपने शरीरों पर;करयो:--दोनों हाथों पर; पृथक्--अलग अलग; न्यस्य--मंत्र के अक्षरों को रख कर; आत्मनि--अपने ऊपर; अथ--तब;बालस्य--बालक के; बीज-न्यासम्--मंत्रन्यास की विधि; अकुर्वत--सम्पन्न की |
गोपियों ने सर्वप्रथम अपने दाहिने हाथ से जल का एक घूँट पी कर आचमन किया।
उन्होंनेअपने शरीरों तथा हाथों को न्यास-फमंत्र से शुद्ध बनाया और तब उन्होंने बालक के शरीर को भी उसी मंत्र से परिशुद्ध किया।
अव्यादजोड्प्रि मणिमांस्तव जान्वथोरूयज्ञोच्युतः कटितर्ट जठरं हयास्यः ।
हत्केशवस्त्वदुर ईश इनस्तु कण्ठंविष्णुर्भुजं मुखमुरुक्रम ईश्वर: कम् ॥
२२॥
चकरयग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात्त्वत्पार्थयोर्धनुरसी मधुहाजनश्व ।
कोणेषु शद्भु उरुगाय उपर्युपेन्द्रस्तार्श्य: क्षितौ हलधरः पुरुष: समन्तात् ॥
२३॥
अव्यात्--रक्षा करे; अज:-- भगवान् अज; अड्प्रि-- पाँव; मणिमान्-- भगवान् मणिमान; तव--तुम्हारे; जानु--घुटने; अथ--तत्पश्चात्; उरू--जाँचें; यज्ञ:--यज्ञदेव; अच्युत:-- भगवान् अच्युत; कटि-तटम्ू--कमर का ऊपरी हिस्सा; जठरम्--उदर;हयास्य:-- भगवान् हयग्रीव; हत्ू--हृदय; केशवः-- भगवान् केशव; त्वत्--तुम्हारा; उर:ः --वक्षस्थल, सीना; ईशः--परमनियन्ता, भगवान् ईश; इन:--सूर्य देव; तु--लेकिन; कण्ठम्--गला; विष्णु: -- भगवान् विष्णु; भुजम्--बाहें; मुखम्--मुँह; उरुक्रम:-- भगवान् उरुक्रम; ईश्वरःः-- भगवान् ईश्वर; कम्--सिर; चक्री--चक्र धारण करने वाला; अग्रतः--सामने; सह-गदः--गदाधारी; हरि: -- भगवान् हरि; अस्तु--रहता रहे; पश्चात्--पीछे, पीठ पर; त्वतू-पार्श्यो: --तुम्हारी दोनों बगलों में;धनु:-असी--धनुष तथा तलवार धारण करने वाला; मधु-हा--मधु असुर का वध करने वाला; अजन:--विष्णु; च--तथा;कोणेषु--कोनों में; शद्भः --शंखधारी; उरुगाय: --पूजित; उपरि--ऊपर; उपेन्द्र: -- भगवान् उपेन्द्र; ताक्ष्य:--गरुड़; क्षितौ--पृथ्वी पर; हलधर:-- भगवान् हलधर; पुरुष:--परम पुरुष; समन्तात्--सभी दिशाओं में |
( शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को बतलाया कि गोपियों ने कृष्ण की रक्षा उपयुक्तविधि के अनुसार निम्नलिखित मंत्र द्वारा की )--अज तुम्हारी पाँवों की, मणिमान तुम्हारे घुटनोंकी, यज्ञ तुम्हारी जाँघों की, अच्युत तुम्हारी कमर के ऊपरी भाग की तथा हयग्रीव तुम्हारे उदरकी रक्षा करें।
केशव तुम्हारे हृदय की, ईश तुम्हारे वक्षस्थल की, सूर्यदेव तुम्हारे गले की, विष्णु तुम्हारे भुजाओं की, उरुक्रम तुम्हारे मुँह की तथा ईश्वर तुम्हारे सिर की रक्षा करें।
चक्री आगे से,गदाधारी हरि पीछे से तथा धनुर्धर मधुहा एवं खड़ग् भगवान् विष्णु दोनों ओर से तुम्हारी रक्षाकरें।
शंखधारी उरुगाय समस्त कोणों से तुम्हारी रक्षा करें।
उपेन्द्र ऊपर से, गरुड़ धरती पर तथापरम पुरुष हलधर चारों ओर से तुम्हारी रक्षा करें।
इन्द्रियाणि हृषीकेश: प्राणान्नारायणोवतु ।
श्वेतद्वीपपतिश्षित्तं मनो योगेश्वरोउवतु ॥
२४॥
इन्द्रियाणि --सारी इन्द्रियों को; हषीकेश:--सभी इन्द्रियों के रक्षक भगवान् हषीकेश; प्राणान्--सारे प्राणों को; नारायण: --भगवान् नारायण; अवतु--रक्षा करें; श्वेतद्वीप-पति:-- श्रेतद्वीप के स्वामी, विष्णु; चित्तमू--हृदय को; मन:--मन को;योगेश्वर: -- भगवान् योगेश्वर; अवतु--संरक्षण प्रदान करें।
हृषीकेश तुम्हारी इन्द्रियों की तथा नारायण तुम्हारे प्राणवायु की रक्षा करें।
श्वेतद्वीप के स्वामीतुम्हारे चित्त की तथा योगे श्वर तुम्हारे मन की रक्षा करें।
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धिमात्मानं भगवान्पर: ।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द: शयानं पातु माधव: ॥
२५॥
ब्रजन्तमव्याद्वैकुण्ठ आसीन॑ त्वां भ्रिय: पति: ।
भुझानं यज्ञभुक्पातु सर्वग्रहभयड्डरः ॥
२६॥
पृश्निगर्भ:--भगवान् पृश्निगर्भ; तु--निस्सन्देह; ते--तुम्हारी; बुद्धिमू--बुद्धि को; आत्मानम्--आत्मा को; भगवान्-- भगवान;'परः--दिव्य; क्रीडन्तम्--खेलते हुए; पातु--रक्षा करें; गोविन्द: --गोविन्द; शयानम्--सोते समय; पातु--रक्षा करें; माधव: --भगवान् माधव; ब्रजन्तम्--चलते हुए; अव्यात्--रक्षा करें; वैकुण्ठ:-- भगवान् वैकुण्ठ; आसीनम्--बैठे हुए; त्वाम्--तुमको;भ्रिय: पति:ः--लक्ष्मीपति, नारायण; भुझ्जानम्--जीवन का भोग करते हुए; यज्ञभुक्ू--यज्ञभुक; पातु--रक्षा करें; सर्व-ग्रह-भयम्-करः--जो सरे दुष्ट ग्रहों को भय देने वाले |
भगवान् प्रश्निगर्भ तुम्हारी बुद्धि की तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तुम्हारे आत्मा की रक्षाकरें।
तुम्हािरे खेलते समय गोविन्द तथा तुम्हारे सोते समय माधव तुम्हारी रक्षा करें।
भगवान्वैकुण्ठ तुम्हारे चलते समय तथा लक्ष्मीपति नारायण तुम्हारे बैठते समय तुम्हारी रक्षा करें।
इसी तरह भगवान् यज्ञभुक, जिनसे सारे दुष्टग्रह भयभीत रहते हैं तुम्हारे भोग के समय सदैव तुम्हारीरक्षा करें।
डाकिन्यो यातुधान्यश्च कुष्माण्डा येर्भकग्रहा: ।
भूतप्रेतपिशाचाश्व यक्षरक्षोेविनायका: ॥
२७॥
कोटरा रेवती ज्येष्ठा पूतना मातृकादयः ।
उन्मादा ये ह्ापस्मारा देहप्राणेन्द्रियद्रह: ॥
२८ ॥
स्वणदृष्टा महोत्पाता वृद्धा बालग्रहाश्न ये ।
सर्वे नश्यन्तु ते विष्णोर्नामग्रहणभीरव: ॥
२९॥
डाकिन्य: यातुधान्य: च कुष्माण्डा:--डाइनें, चुडैलें, बच्चों की दुश्मनें; ये--जो हैं; अर्भक-ग्रहा: --बच्चों के लिए अशुभनक्षत्रों तुल्य; भूत--दुष्टात्माएँ; प्रेत--प्रेत; पिशाचा:-- भूतों के ही तुल्य दुष्टात्माएँ; च-- भी; यक्ष--यक्षगण; रक्ष:--राक्षसगण;विनायका:--विनायक नाम के; कोटरा--कोटरा नामक; रेवती--रेवती नामक; ज्येष्टा--ज्येष्ठा नामक; पूतना--पूतना नामक;मातृका-आदय: --मातृका इत्यादि दुष्टिनें; उन्मादा:--उन्माद उत्पन्न करने वाली; ये--जो अन्य; हि--निस्सन्देह; अपस्मारा:--स्मृति हानि करने वाली; देह-प्राण-इन्द्रिय--शरीर, प्राण तथा इन्द्रियों को; द्रुह:ः --कष्ट देने वाली; स्वप्न-दृष्टा:--बुरे सपने लानेवाले, दुष्टात्मा; महा-उत्पाता:--महानू् उत्पात मचाने वाले; वृद्धा:--अनुभवी; बाल-ग्रहा: च--तथा बालकों पर आक्रमण करनेवाले; ये--जो; सर्वे--सभी; नश्यन्तु--विनष्ट हों; ते--वे; विष्णो: -- भगवान् विष्णु के; नाम-ग्रहण--नाम लेने से; भीरव: --डर जाते हैं।
डाकिनी, यातुधानी तथा कुष्माण्ड नामक दुष्ट डाइनें बच्चों की सबसे बड़ी शत्रु हैं तथा भूत,प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस तथा विनायक जैसे दुष्टात्माओं के साथ कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतनातथा मातृका जैसी डाइनें भी सदैव शरीर, प्राण तथा इन्द्रियों को कष्ट पहुँचाने के लिए तैयाररहती हैं जिससे स्मृति की हानि, उन्माद तथा बुरे स्वप्न उत्पन्न होते हैं।
वे दुष्ट अनुभवी वृद्धों कीतरह बच्चों के लिए विशेष रूप से भारी उत्पात खड़ा करते हैं।
किन्तु भगवान् विष्णु केनामोच्चार से ही उन्हें नष्ट किया जा सकता है क्योंकि जब भगवान् विष्णु का नाम प्रतिध्वनितहोता है, तो वे सब डर जाते हैं और दूर भाग जाते हैं।
श्रीशुक उबाचइति प्रणयबद्धाभिगोंपीभि: कृतरक्षणम् ।
पाययित्वा स्तनं माता सन्न्यवेशयदात्मजम् ॥
३०॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस तरह; प्रणय-बद्धाभि: --मातृस्नेह से बँधे हुए; गोपीभि:--यशोदाआदि प्रौढ़ गोपियों के द्वारा; कृत-रक्षणम्--बालक की रक्षा करने के लिए सभी उपाय किये गये; पाययित्वा--इसके बादबालक को पिला कर; स्तनम्--स्तन; माता--माता यशोदा ने; सन््यवेशयत्--बिस्तर पर लिटा दिया; आत्मजम्--अपने बेटेको
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : माता यशोदा समेत सारी गोपियाँ मातृस्नेह से बँधीहुई थीं।
इस तरह बालक की रक्षा के लिए मंत्रोच्यारण के बाद माता यशोदा ने बच्चे को अपनादूध पिलाया और उसे बिस्तर पर लिटा दिया।
तावन्नन्दादयो गोपा मथुराया ब्र॒जं गता: ।
विलोक्य पूतनादेहं बभूवुरतिविस्मिता: ॥
३१॥
तावत्--तब तक, इस बीच; नन्द-आदय: --नन्द महाराज इत्यादि; गोपा:--सारे ग्वाले; मथुराया: --मथुरा से; ब्रजम्--वृन्दावन; गता:--वापस आ गये; विलोक्य--देखकर; पूतना-देहम्--पूतना के मृत विशाल शरीर को; बभूबुः--हो गये;अति--अत्यन्त; विस्मिता:-- आश्चर्यचकित
तब तक नन्द महाराज समेत सारे ग्वाले मथुरा से लौट आये और जब उन्होंने रास्ते में पूतनाके विशाल काम शरीर को मृत पड़ा देखा तो वे अत्यन्त आश्चर्यच्कित हुए।
नूनं बतर्षि: सज्जञातो योगेशो वा समास सः ।
स एव दृष्टो ह्युत्पातो यदाहानकदुन्दुभि: ॥
३२॥
नूनमू--निश्चय ही; बत--मेरे दोस्तो; ऋषि:--सन््त पुरुष; सज्ञात:--बन गया है; योग-ईशः--योग शक्ति का स्वामी; वा--अथवा; समास--बन गया है; सः--उसने ( वसुदेव ने ); सः--वही; एव--निस्सन्देह; दृष्टः--देखा गया; हि--क्योंकि;उत्पात:--उत्पात; यत्--जो; आह-- भविष्यवाणी की गई; आनकदुन्दुभि:--वसुदेव द्वारा |
नन््द महाराज तथा अन्य ग्वाले चिल्ला पड़े: मित्रो, जान लो कि आनकदुन्दुभि अर्थात्वसुदेव बहुत बड़ा सन्त या योगेश्वर बन चुका है।
अन्यथा वह इस उत्पात को पहले से कैसे देखसकता था और हमसे इसकी भविष्य वाणी कैसे कर सकता था ?
कलेवरं परशुभिश्िछत्त्वा तत्ते ब्रजौकसः ।
दूरे क्षिप्वावयवशो न्यदहन्काष्ठवेष्टितम् ॥
३३॥
कलेवरम्--पूतना के विशाल शरीर को; परशुभि:--कुल्हाड़ियों या फरसों से; छित्तता--खण्ड खण्ड करके; तत्--उस ( शरीरको ); ते--वे सभी; ब्रज-ओकस: --ब्रजवासी; दूरे--बहुत दूर; क्षिप्वा--फेंक कर; अवयवश:--शरीर के विभिन्न खंड;न्यदहन्--जला दिया; काष्ठ-वेष्टितमू--लकड़ी से ढका हुआ।
ब्रजवासियों ने पूतना के शरीर को फरसों से खण्ड खण्ड कर डाला।
फिर उन खण्डों कोदूर फेंक दिया और उन्हें लकड़ी से ढक कर भस्मीभूत कर डाला।
दह्मयमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभ: ।
उत्थितः कृष्णनिर्भुक्तसपद्याहतपाप्मन: ॥
३४॥
दह्ममानस्य--जलाकर क्षार करते समय; देहस्य--पूतना के शरीर का; धूम:--धुँआ; च--तथा; अगुरु-सौरभ:--अगुरु जैसासुगन्धित धुँआ; उत्थित:--शरीर से उठा हुआ; कृष्ण-निर्भुक्त--कृष्ण द्वारा स्तन चूसे जाने से; सपदि--तुरन्त; आहत-पाप्मन: --उसका भौतिक शरीर आध्यात्मिक बन गया अथवा वह भवबन्धन से छूट गया।
चूँकि कृष्ण ने उस राक्षसी पूतना का स्तनपान किया था, इसतरह जब कृष्ण ने उसे मारा तोवह तुरन्त समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो गईं।
उसके सारे पाप स्वतः ही दूर हो गये अतएव जब उसके विशाल शरीर को जलाया जा रहा था, तो उसके शरीर से निकलने वाला धुँआ अगुरुकी सुगन्ध सा महक रहा था।
'पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना ।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाप सद्गतिम् ॥
३५॥
कि पुनः श्रव्धया भकक््त्या कृष्णाय परमात्मने ।
यच्छन्प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा ॥
३६॥
पूतना--पेशेवर राक्षसी पूतना; लोक-बाल-घ्नी--जो मनुष्यों के बालकों को मार डालती थी; राक्षसी--राक्षसी; रुधिर-अशना--खून की प्यासी; जिघांसया--कृष्ण को मार डालने की इच्छा से ( कृष्ण से ईर्ष्या करने तथा कंस द्वारा आदेश दियेजाने से ); अपि-- भी; हरये -- भगवान् को; स्तनम्ू--अपने स्तन; दत्त्वा-- प्रदान करके; आप--प्राप्त किया; सत्-गतिम्--वैकुण्ठ का सर्वोच्च पद; किमू--क्या कहा जाय; पुन:ः--फिर; अ्रद्धया-- श्रद्धायुत; भक्त्या--भक्तिपूर्वक; कृष्णाय--कृष्णको; परमात्मने--परम पुरुष; यच्छन्-- भेंट करते हुए; प्रिय-तमम्--अत्यन्त प्रिय; किम्ू--कुछ; नु--निस्सन्देह; रक्ता: --सम्बन्धी; तत्ू-मातर:--कृष्ण की स्नेहमयी माताएँ; यथा--जिस तरह।
पूतना सदा ही मानव शिशुओं के खून की प्यासी रहती थी और इसी अभिलाषा से वहकृष्ण को मारने आई थी।
किन्तु कृष्ण को स्तनपान कराने से उसे सर्वोच्च पद प्राप्त हो गया।
तोभला उनके विषय में क्या कहा जाय जिनमें माताओं के रूप में कृष्ण के लिए सहज भक्ति तथास्नेह था और जिन्होंने अपना स्तनपान कराया या कोई अत्यन्त प्रिय वस्तु भेंट की थी जैसा किमाताएँ करती रहती हैं।
पदभ्यां भक्तहदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां लोकवन्दितैः ।
अड् यस्या: समाक्रम्य भगवानपि तत्स्तनम् ॥
३७॥
यातुधान्यपि सा स्वर्गमवाप जननीगतिम् ।
कृष्णभुक्तस्तनक्षीरा: किमु गावोनुमातर: ॥
३८ ॥
पद्भ्यामू--दोनों चरणकमलों से; भक्त-हदि-स्थाभ्याम्ू--जिनके हृदय में भगवान् निरन्तर स्थित रहते हैं; वन्द्याभ्यामू--जिनकीसदैव वन्दना की जानी चाहिए; लोक-वन्दितैः--ब्रह्मा तथा शिव द्वारा, जो तीनों लोकों के वासियों द्वारा प्रशंसित हैं; अड्रम्--शरीर को; यस्या:--जिस ( पूतना ) का; समाक्रम्य--आलिंगन करके; भगवान्-- भगवान्; अपि-- भी; तत्ू-स्तनम्--उस स्तनको; यातुधानी अपि--यद्यपि वह भूतनी थी; सा--उसने; स्वर्गम्--दिव्य धाम को; अवाप--प्राप्त किया; जननी-गतिम्--माताके पद को; कृष्ण- भुक्त-स्तन-क्षीरा:-- चूँकि उनके स्तनों का पान कृष्ण ने किया था; किम् उ--क्या कहा जाय; गाव: --गौवें;अनुमातरः:--माताओं की ही तरह जिन्होंने कृष्ण को अपना स्तन-पान कराया।
भगवान् कृष्ण शुद्ध भक्तों के हृदय में सदैव स्थित रहते हैं और ब्रह्माजी तथा भगवान्शिवजी जैसे पूज्य पुरूषों द्वारा सदैव वन्दनीय हैं।
चूँकि कृष्ण ने पूतना के शरीर का आलिंगनअत्यन्त प्रेमपूर्वकक किया था और भूतनी होते हुए भी उन्होंने उसका स्तनपान किया था इसलिएउसे दिव्य लोक में माता की गति और सर्वोच्च सिद्धि मिली।
तो भला उन गौवों के विषय में क्याकहा जाय जिनका स्तनपान कृष्ण बड़े ही आनन्द से करते थे और जो बड़े ही प्यार से माता केही समान कृष्ण को अपना दूध देती थीं ?
पयांसि यासामपिब्त्पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम् ।
भगवान्देवकी पुत्र: कैवल्याद्यखिलप्रद: ॥
३९॥
तासामविरतं कृष्णे कुर्वतीनां सुतेक्षणम् ।
न पुनः कल्पते राजन्संसारोउज्ञानसम्भव: ॥
४०॥
पयांसि--दूध ( शरीर से निकला ); यासाम्ू--उन सबों का; अपिबत्--कृष्ण ने पिया; पुत्र-स्नेह-स्नुतानि--मातृ स्नेह केकारण, न कि बनावटी ढंग से, गोपियों के शरीर से निकला दूध; अलम्--पर्याप्त; भगवान्-- भगवान्; देवकी-पुत्र:--देवकीके पुत्र रूप में प्रकट हुए; कैवल्य-आदि--यथा मुक्ति या ब्रह्म तेज में लीन होना; अखिल-प्रदः--ऐसे समस्त वरों के प्रदाता;तासाम्ू--उन सारी गोपियों का; अविरतम्--निरन्तर; कृष्णे--कृष्ण में; कुर्बतीनाम्--करते हुए; सुत-ईक्षणम्--माता द्वाराअपने शिशु को निहारना; न--कभी नहीं; पुनः:--फिर; कल्पते--कल्पना की जा सकती है; राजन्--हे राजा परीक्षित;संसार: --जन्म-मृत्यु का भौतिक बन्धन; अज्ञान-सम्भव:--सुखी बनने की कामना करने वाले मूर्ख व्यक्तियों द्वारा अनजाने मेंस्वीकृत किया गया।
भगवान् कृष्ण अनेक वरों के प्रदाता हैं जिनमें कैवल्य अर्थात् ब्रह्म तेज में तादात्म्य भीसम्मिलित है।
उन भगवान् के लिए गोपियों ने सदैव मातृ-प्रेम का अनुभव किया और कृष्ण नेपूर्ण संतोष के साथ उनका स्तन-पान किया।
अतएव अपने माता-पुत्र के सम्बन्ध के कारणविविध पारिवारिक कार्यो में संलग्न रहने पर भी किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि अपनाशरीर त्यागने पर वे इस भौतिक जगत में लौट आईं।
कटधूमस्य सौरभ्यमवप्राय ब्रजौकसः ।
किमिदं कुत एवेति वदन्तो त्रजमाययु: ॥
४१॥
कट-धूमस्य--पूतना के शरीर के विभिन्न अंगों के जलने से उत्पन्न धुँए की; सौरभ्यम्--सुगन्धि; अवध्राय--सूँघ कर; ब्रज-ओकसः--दूर दूर के ब्रजवासी; किम् इृदम्ू--यह सुगन्धि कैसी है; कुतः--कहाँ से आ रही है; एब--निस्सन्देह; इति--इसतरह; बदन्तः--बातें करते; ब्रजम्--ब्रज भूमि में; आययु: --पहुँचे ।
पूतना के जलते शरीर से निकले धुँए की सुगन्ध को सूँघ कर दूर दूर के अनेक ब्रजवासी आश्चर्यच्कित थे और पूछ रहे थे, '‘यह सुगन्धि कहाँ से आ रही है?' इस तरह वे उस स्थान तकगये जहाँ पर पूतना का शरीर जलाया जा रहा था।
ते तत्र वर्णितं गोपै: पूतनागमनादिकम् ।
श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्ति शिशोश्वासन्सुविस्मिता: ॥
४२॥
ते--आये हुए सारे लोग; तत्र--वहाँ ( नन््द महाराज के राज्य के पड़ोस में ); वर्णितम्--वर्णित; गोपै:--ग्वालों द्वारा; पूतना-आगमन-आदिकम्ू--किस तरह पूतना आई तथा उसने उत्पात मचाया इन सबके विषय में; श्रुत्वा--सुनकर; तत्-निधनम्--तथाउसके मरने के विषय में; स्वस्ति--मंगल हो; शिशो:--बालक का; च--तथा; आसन्--अर्पित किया; सु-विस्मिता:--जो कुछघटा था उससे आश्चर्यच्कित होकर।
जब दूर दूर से आये ब्रजवासियों ने पूरी कथा सुनी कि किस तरह पूतना आई और फिरकृष्ण द्वारा मारी गई तो वे हत्ृप्रभ रह गये और उन्होंने पूतना के मारने के अद्भुत कार्य के लिएउस बालक को आशीर्वाद दिया।
निस्सन्देह नन्द महाराज वसुदेव के अत्यन्त कृतज्ञ थे जिन्होंनेइस घटना को पहले ही देख लिया था।
उन्होंने यह सोचकर वसुदेव को धन्यवाद दिया कि वेकितने अद्भुत हैं।
नन्दः स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधी: ।
मूर्ध्युपाप्राय परमां मुदं लेभे कुरूद्वह ॥
४३॥
नन्दः--महाराज नन्द; स्व-पुत्रम् आदाय--अपने पुत्र कृष्ण को अपनी गोद में लेकर; प्रेत्य-आगतम्--मानो कृष्ण मृत्यु के मुखसे लौट आये हों ( कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बालक ऐसे संकट से बच जाएगा ); उदार-धी:--उदार तथा सरलहोने से; मूर्थिनि--कृष्ण के सिर पर; उपाप्राय--सूँघ कर; परमाम्--सर्वोच्च; मुदम्--शान्ति; लेभे-- प्राप्त किया; कुरु-उद्दद-हेमहाराज परीक्षित।
हे कुरुश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, नन््द महाराज अत्यन्त उदार एवं सरल स्वभाव के थे।
उन्होंनेतुरन्त अपने पुत्र कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया मानो कृष्ण मृत्यु के मुख से लौटे हों औरअपने पुत्र के सिर को सूँघ कर निस्सन्देह दिव्य आनन्द का अनुभव किया।
य एतत्पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद्भुतम् ।
श्रृणुयाच्छुद्धया मर्त्यों गोविन्दे लभते रतिम् ॥
४४॥
यः--जो कोई; एतत्--यह; पूतना-मोक्षम्--पूतना का मोक्ष; कृष्णस्य--कृष्ण का; आर्भकम्--बाल-लीला; अद्भुतम्--अद्भुत; श्रूणुयात्--सुने; श्रद्धया-- श्रद्धा तथा भक्ति पूर्वक; मर्त्य:--इस लोक का कोई भी व्यक्ति; गोविन्दे--आदि पुरुषगोविन्द के प्रति; लभते--पाता है; रतिम्--अनुरक्ति
जो कोई भी भगवान् कृष्ण द्वारा पूतना के मारे जाने के विषय में श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वकश्रवण करता है और कृष्ण की ऐसी बाल लीलाओं के सुनने में अपने को लगाता है उसे निश्चयही आदि पुरुष रूप गोविन्द के प्रति अनुरक्ति प्राप्त होती है।
अध्याय सात: राक्षस तृणावर्त का वध
10.7श्रीराजोबाचयेन येनावतारेण भगवान्हरिरीश्वरः ।
करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो ॥
१॥
यच्छुण्वतोपैत्यरतिर्वितृष्णासत्त्वं च शुद्धब॒त्यचिरेण पुंसः ।
भक्तिईरौ तत्पुरुषे च सख्यंतदेव हारं बद मन्यसे चेत् ॥
२॥
श्री-राजा उवाच--राजा ने ( शुकदेव गोस्वामी से ) पूछा; येन येन अवतारेण--जिन जिन अवतारों के द्वारा प्रदर्शित लीलाएँ;भगवानू्-- भगवान्; हरिः-- हरि; ईश्वर: --नियन्ता; करोति-- प्रस्तुत करता है; कर्ण-रम्याणि--कानों को सुनने में सुखद; मनः-ज्ञानि--मन के लिए आकर्षक; च--भी; न:--हम सबों के; प्रभो--हे प्रभु, शुकदेव गोस्वामी; यत्-श्रुण्वतः--इन कथाओं कोसुनने वाले का; अपैति--दूर हो जाता है; अरतिः--अनाकर्षण; वितृष्णा--मन के भीतर का मैल जो हमें कृष्णभावनामृत मेंअरूचि उत्पन्न कराता है; सत्त्वम् च--हृदय के भीतर अस्तित्व; शुद्धयति--शुद्ध बनाता है; अचिरिण--तुरन्त; पुंस:--किसी भीव्यक्ति का; भक्ति: हरौ-- भगवान् के प्रति भक्ति; ततू-पुरुषे--वैष्णवों के साथ; च-- भी; सख्यम्--संगति के लिए आकर्षण;तत् एब--केवल वह; हारम्-- भगवान् के कार्यकलाप जिन्हें सुनना चाहिये और गले में माला के समान रखना चाहिए; वद--कृपा करके कहें; मन्यसे--आप उचित समझते हैं; चेत्--यदि।
राजा परीक्षित ने कहा : हे प्रभु शुकदेव गोस्वामी, भगवान् के अवतारों द्वारा प्रदर्शित विविधलीलाएँ निश्चित रूप से कानों को तथा मन को सुहावनी लगने वाली हैं।
इन लीलाओं केश्रवणमात्र से मनुष्य के मन का मैल तत्क्षण धुल जाता है।
सामान्यतया हम भगवान् कीलीलाओं को सुनने में आनाकानी करते हैं किन्तु कृष्ण की बाल-लीलाएँ इतनी आकर्षक हैं किवे स्वतःही मन तथा कानों को सुहावनी लगती हैं।
इस तरह भौतिक वस्तुओं के विषय में सुननेकी अनुरक्ति, जो भवबन्धन का मूल कारण है, समाप्त हो जाती है।
मनुष्य में धीरे धीरे भगवान्के प्रति भक्ति एवं अनुरक्ति उत्पन्न होती है और भक्तों के साथ जो हमें कृष्णभावनामृत कायोगदान देते हैं, मैत्री बढ़ती है।
यदि आप उचित समझते हैं, तो कृपा करके भगवान् की इनलीलाओं के विषय में कहें।
अथान्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद्भुतम् ।
मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुन्धतः ॥
३॥
अथ--भी; अन्यत् अपि--अन्य लीलाएँ भी; कृष्णस्य--बालक कृष्ण की; तोक-आचरितम् अद्भुतम्ू--वे भी अद्भुत बाल-लीलाएँ; मानुषम्--मानो मानवी बालक हों; लोकम् आसाद्य--इस पृथ्वीलोक में मानव समाज में प्रकट होकर; तत्-जातिम्--मानवी बालक की ही तरह; अनुरुन्धतः--अनुकरण किया कृपया
भगवान् कृष्ण की अन्य लीलाओं का वर्णन करें जो मानवी बालक का अनुकरणकरके और पूतना वध जैसे अद्भुत कार्यकलाप करते हुए इस पृथ्वी-लोक में प्रकट हुए।
श्रीशुक उबाचकदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवेजन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम् ।
वादित्रगीतद्विजमन्त्रवाचकै -श्वकार सूनोरभिषेचनं सती ॥
४॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी आगे बोलते गये; कदाचित्--उस समय ( जब कृष्ण तीन मास के थे ); औत्थानिक-कौतुक-आप्लवे--जब कृष्ण ३-४ मास के थे तो उनका शरीर बढ़ रहा था और वे इधर-उधर पलटने का प्रयास कर रहे थे तोइस अवसर पर स्नानोत्सव मनाया गया; जन्म-ऋक्ष-योगे--उस समय चन्द्रमा तथा शुभ नक्षत्र रोहिणी का संयोग था; समवेत-योषिताम्--एकत्र स्त्रियों के बीच ( यह उत्सव मनाया गया ); वादित्र-गीत--नाना प्रकार का संगीत तथा गायन; द्विज-मन्त्र-वाचकै:--योग्य ब्राह्मणों द्वारा वैदिक स्तोत्रों के उच्चारण के साथ; चकार--सम्पन्न किया; सूनो:--अपने पुत्र का;अभिषेचनम्--स्नान उत्सव; सती--माता यशोदा ने |
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब यशोदा का नन््हा शिशु उठने तथा करवट बदलने काप्रयत्त करने लगा तो वैदिक उत्सव मनाया गया।
ऐसे उत्सव में, जिसे उत्थान कहा जाता है औरजो बालक द्वारा घर से पहली बार बाहर निकलने के अवसर पर मनाया जाता है, बालक कोठीक से नहलाया जाता है।
जब कृष्ण तीन मास के पूरे हुए तो माता यशोदा ने पड़ोस की अन्यऔरतों के साथ इस उत्सव को मनाया।
उस दिन चन्द्रमा तथा रोहिणी नक्षत्र का योग था।
इसमहोत्सव को माता यशोदा ने ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्र के उच्चारण तथा पेशेवर गायकों केसहयोग से सम्पन्न किया।
नन्दस्य पत्नी कृतमजनादिकंविप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितै: ।
अन्नाद्यवासःस्त्रगभीष्ट धेनुभिःसम्जातनिद्राक्षमशीशयच्छने: ॥
५॥
नन्दस्य--नन्द महाराज की; पत्नी--पत्नी ( यशोदा ); कृत-मज्न-आदिकम्--जब वे तथा घर के अन्य लोग नहा चुके औरबालक को भी नहला दिया गया उसके बाद; विप्रैः--ब्राह्मणों के द्वारा; कृत-स्वस्त्ययनम्--शुभ वैदिक मंत्रों के पाठ करने मेंलगाकर; सु-पूजितैः--जिनका ठीक से स्वागत तथा पूजन किया गया; अन्न-आद्य--न््हें पर्याप्त अनाज तथा अन्य भोज्य वस्तुएँदेकर; वास:--वस्त्र; स्रकू-अभीष्ट-धेनुभि:-- फूलों की मालाएँ तथा उपयुक्त गौवें भेंट करके; सज्ञात-निद्रा--उनींदी; अक्षम्--आँखें; अशीशयत्--बच्चे को लिटा दिया; शनैः --उस समय ।
बच्चे का स्नान उत्सव पूरा हो जाने के बाद माता यशोदा ने ब्राह्मणों का स्वागत किया औरउनको प्रचुर अन्न तथा अन्य भोज्य पदार्थ, वस्त्र, वांछित गौवें तथा मालाएँ भेंट करके उनकीउचित सम्मान के साथ पूजा की।
ब्राह्मणों ने इस शुभ उत्सव पर उचित रीति से वैदिक मंत्र पढ़े।
जब मंत्रोच्चार समाप्त हुआ और माता यशोदा ने देखा कि बालक उनींदा हो रहा है, तो वे उसेलेकर बिस्तर पर तब तक लेटी रहीं जब तक वह शान्त होकर सो नहीं गया।
औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनीसमागतान्पूजयती व्रजौकसः ।
नैवाश्रुणोद्वै रुदितं सुतस्य सारुदन्स्तनार्थी चरणावुदक्षिपत् ॥
६॥
औत्थानिक-औत्सुक्य-मना:--माता यशोदा बच्चे का उत्थान उत्सव मनाने में अत्यधिक व्यस्त थीं; मनस्विनी-- भोजन, वस्त्र,आभूषण तथा गौवें बाँटने में अत्यन्त उदार; समागतानू--एकत्र मेहमानों को; पूजयती--उन्हें तुष्ट करने के लिए; ब्रज-ओकसः--्रजवासियों को; न--नहीं; एव--निश्चय ही; अश्रुणोत्--सुना; वै--निस्सन्देह; रुदितम्--रोना; सुतस्य--बच्चे का;सा--यशोदा; रुदन्ू--रोना; स्तन-अर्थी --कृष्ण जो माता के स्तन का दूध पीना चाह रहे थे; चरणौ उदक्षिपत्--क्रो ध के मारेअपने दोनों पाँव इधर-उधर उछाल रहे थे।
उत्थान उत्सव मनाने में मग्न उदार माता यशोदा मेहमानों का स्वागत करने, आदर-सहितउनकी पूजा करने तथा उन्हें वस्त्र, गौवें, मालाएँ और अन्न भेंट करने में अत्यधिक व्यस्त थीं।
अतः वे बालक के रोने को नहीं सुन पाईं।
उस समय बालक कृष्ण अपनी माता का दूध पीनाचाहता था अतः क्रोध में आकर वह अपने पाँव ऊपर की ओर उछालने लगा।
अधःशयानस्य शिशोरनोउल्पक-प्रवालमृद्वडप्रिहतं व्यवर्तत ।
विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनंव्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्नकूबरम् ॥
७॥
अधः:-शयानस्य- गाड़ी ( छकड़े ) के नीचे सोये; शिशो:--बालक का; अन:-गाड़ी; अल्पक-- अधिक बड़ा नहीं; प्रवाल--नई पत्ती की तरह; मृदु-अद्धप्रि-हतम्--उनके सुन्दर मुलायम पाँवों से मारी गई; व्यवर्तत--उलट कर गिर गई; विध्वस्त--बिखरगई; नाना-रस-कुप्य-भाजनम्--धातुओं के बने बर्तन-भांडे; व्यत्यस्त--इधर-उधर हटे हुए; चक्र-अक्ष--दोनों पहिये तथा धुरी;विभिन्न--टूटे हुए; कूबरम्--शकट का कूबर ( लट्ठा ), जिसमें जुआ लगा रहता है।
श्रीकृष्ण आँगन के एक कोने में छकड़े के नीचे लेटे हुए थे और यद्यपि उनके पाँव कोंपलोंकी तरह कोमल थे किन्तु जब उन्होंने अपने पाँवों से छकड़े पर लात मारी तो वह भड़भड़ा करउलटने से टूट-फूट गया।
पहिए धुरे से विलग हो गये और बिखर गये और गाड़ी का लट्ठा टूटगया।
इस गाड़ी पर रखे सब छोटे-छोटे धातु के बर्तन-भांडे इधर-उधर छितरा गये।
इृष्टा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रियऔत्थानिके कर्मणि या: समागता: ।
नन्दादयश्चाद्धुतदर्शनाकुला:कथं स्वयं वै श॒कटं विपर्यगात् ॥
८॥
इृष्ठा-- देखकर; यशोदा-प्रमुखा: --माता यशोदा इत्यादि; ब्रज-स्त्रिय:--व्रज की सारी स्त्रियाँ; औत्थानिके कर्मीण--उत्थानउत्सव मनाते समय; या:--जो; समागता: --वहाँ एकत्र हुए; नन्द-आदय: च--तथा नन्द महाराज इत्यादि सारे पुरुष; अद्भुत-दर्शन--अद्भुत विपत्ति देखकर ( कि लदी हुईं गाड़ी बच्चे के ऊपर टूट कर गिर गई थी फिर भी बालक के चोट नहीं आईंथी ); आकुला:--अत्यन्त विचलित थे कि यह सब कैसे घटित हो गया; कथम्--कैसे; स्वयम्--अपने से; बै--निस्सन्देह;शकटम्--छकड़ा; विपर्यगात्--बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गया।
जब यशोदा तथा उत्थान उत्सव के अवसर पर जुटी स्त्रियों तथा नन््द महाराज इत्यादि सभीपुरुषों ने यह अद्भुत दृश्य देखा तो वे आश्चर्य करने लगे कि यह छकड़ा किस तरह अपने आपचूर चूर हो गया है।
वे इसका कारण ढूँढने के लिए इधर-उधर घूमने लगे किन्तु कुछ भी तय नकर पाये।
ऊचुरव्यवसितमतीन्गोपान्गोपीश्ष बालका: ।
रुदतानेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशय: ॥
९॥
ऊचु:--कहा; अव्यवसित-मतीन्--वर्तमान स्थिति में जिनकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी; गोपान्-ग्वालों को; गोपी: च--तथा गोपियों को; बालकाः--बच्चे; रुदता अनेन--ज्योंही बच्चा रोया; पादेन--एक पाँव से; क्षिप्तम् एतत्--यह गाड़ी दूर जागिरी और छितर-बितर हो गई; न संशयः--इसमें कोई सन्देह नहीं है।
वहाँ पर जुटे ग्वाले तथा गोपियाँ सोचने लगे कि यह घटना कैसे घटी ? वे पूछने लगे,’कहीं यह किसी असुर या अशुभ ग्रह का काम तो नहीं है?' उस समय वहाँ पर उपस्थितबालकों ने स्पष्ट कहा कि बालक कृष्ण ने ही इस छकड़े को लात से मार कर दूर फेंका है।
रोतेबालक ने ज्योंही छकड़े के पहिये पर अपने पाँव मारे त्योंही पहिये सहित छकड़ा ध्वस्त हो गया।
इसमें कोई सन्देह नहीं है।
न ते भ्रददधिरि गोपा बालभाषितमित्युत ।
अप्रमेयं बल॑ तस्य बालकस्य न ते विदुः ॥
१०॥
न--नहीं; ते--उन; श्रद्धधिरि--विश्वास किया; गोपा:--ग्वाले तथा गोपियों ने; बाल-भाषितम्--एकत्र बालकों की बचकानाबात पर; इति उत--इस तरह कहा गया; अप्रमेयम्--असीम, अचिन्त्य; बलम्ू--शक्ति; तस्थ बालकस्य--उस छोटे-से बालककृष्ण की; न--नहीं; ते--वे, गोप तथा गोपियाँ; विदु:--अवगत थे।
वहाँ एकत्र गोपियों तथा गोपों को यह विश्वास नहीं हुआ कि बालक कृष्ण में इतनीअचिन्त्य शक्ति हो सकती है क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत नहीं थे कि कृष्ण सदैव असीम हैं।
उन्हें बालकों की बातों पर विश्वास नहीं हुआ अतएव उन्हें बच्चों की भोली-भाली बातें जानकर,उन्होंने उनकी उपेक्षा की।
रुदन्तं सुतमादाय यशोदा ग्रहशद्धिता ।
कृतस्वस्त्ययनं विप्रै: सूक्ते: स््तनमपाययत् ॥
११॥
रुदन्तम्--रोता हुआ; सुतम्--पुत्र को; आदाय--उठाकर; यशोदा--माता यशोदा ने; ग्रह-शद्लिता--बुरे ग्रह से भयभीत; कृत-स्वस्त्ययनम्-तुरन्त ही सौभाग्य के लिए अनुष्ठान किया; विप्रैः--ब्राह्मणों को बुलाकर; सूक्तै:--बैदिक स्तुतियों द्वारा;स्तनम्--अपना स्तन; अपाययत्--बच्चे को पिलाया।
यह सोच कर कि कृष्ण पर किसी अशुभ ग्रह का आक्रमण हुआ है, माता यशोदा ने रोतेबालक को उठा लिया और उसे अपना स्तन-पान कराया।
तब उन्होंने वैदिक स्तुतियों काउच्चारण करने के लिए तथा शुभ अनुष्ठान सम्पन्न करने के लिए अनुभवी ब्राह्मणों को बुलाभेजा।
पूर्ववत्स्थापितं गोपैबलिभि: सपरिच्छदम् ।
विप्रा ह॒त्वार्चयां चक्रुर्दध्यक्षतकुशाम्बुभि: ॥
१२॥
पूर्व -बत्--जिस तरह छकड़ा पहले रखा था; स्थापितम्--फिर से बर्तन-भांडे सजा कर; गोपै:--ग्वालों द्वारा; बलिभि:--बली,बलवान; स-परिच्छदम्--सारे साज-सामान सहित; विप्रा:--ब्राह्मणों ने; हुत्वा--अग्नि उत्सव करके ; अर्चयाम् चक्र: --अनुष्ठानसम्पन्न किया; दधि--दही; अक्षत--चावल; कुश--कुश घास; अम्बुभि:--जल से |
जब बलिष्ठ गठीले ग्वालों ने बर्तन-भांडे तथा अन्य सामग्री को छकड़े के ऊपर पहले कीभाँति व्यवस्थित कर दिया, तो ब्राह्मणों ने बुरे ग्रह को शान्त करने के लिए अग्नि-यज्ञ काअनुष्ठान किया और तब चावल, कुश, जल तथा दही से भगवान् की पूजा की।
येउसूयानृतदम्भेर्षाहिंसामानविवर्जिता: ।
न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफला: कृता: ॥
१३॥
इति बालकमादाय सामर्ग्यजुरुपाकृतैः ।
जले: पवित्रौषधिभिरभिषिच्य द्विजोत्तमै: ॥
१४॥
वाचयित्वा स्वस्त्ययनं नन्दगोप: समाहित: ।
हुत्वा चारिन द्विजातिभ्य: प्रादादन्न॑ महागुणम् ॥
१५॥
ये--जो ब्राह्मण; असूय--असूया; अनृत--झूठ; दम्भ--मिथ्या अहंकार; ईर्षा--ईर्ष्या; हिंसा--अन्यों के वैभव को देखकरविचलित होना; मान--मिथ्या प्रतिष्ठा; विवर्जिता:--से पूर्णतया रहित; न--नहीं; तेषाम्--ऐसे ब्राह्मणों का; सत्य-शीलानाम्--ब्राह्मण योग्यताओं ( सत्य, शम, दम इत्यादि ) से युक्त; आशिष:--आशीर्वाद; विफला:--व्यर्थ; कृता:--किये गये; इति--इनबातों पर विचार करते हुए; बालकम्ू--बालक को; आदाय--लाकर; साम--सामवेद के अनुसार; ऋक्ु--ऋग्वेद के अनुसार;यजुः--तथा यजुर्वेद के अनुसार; उपाकृतैः--ऐसे उपायों से शुद्ध किया हुआ; जलै:--जल से; पवित्र-औषधिभि:--शुद्धजड़ी-बूटियाँ मिलाकर; अभिषिच्य--( बालक को ) नहलाने के बाद; द्विज-उत्तमै:--उच्च कोटि के योग्य ब्राह्मणों द्वारा;वाचयित्वा--उच्चारण करने के लिए प्रार्थना किये गये; स्वस्ति-अयनम्--शुभ स्तुतियाँ; नन्द-गोप:--गोपों के मुखिया नन्दमहाराज ने; समाहितः--उदार तथा उत्तम; हुत्वा--आहुति करके; च-- भी; अग्निमू-- अमन में ; द्विजातिभ्य: --उन उच्च कोटिके ब्राह्मणों को; प्रादातू-दान में दिया; अन्नम्--अन्न; महा-गुणम्--सर्वोत्तम |
जब ब्राह्मणजन ईर्ष्या, झूठ, मिथ्या अहंकार, द्वेष, अन्यों के वैभव को देखकर मचलने तथामिथ्या प्रतिष्ठा से मुक्त होते हैं, तो उनके आशीर्वाद व्यर्थ नहीं जाते।
यह सोचकर नन्द महाराज नेगम्भीर होकर कृष्ण को अपनी गोद में ले लिया और इन सत्यनिष्ठ ब्राह्मणों को साम, ऋग् तथायजुर्वेद के पवित्र स्तोत्रों के अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न करने के लिए आमंत्रित किया।
जबमंत्रोच्चार हो रहा था, तो नन्द ने बच्चे को शुद्ध जड़ी-बूटियों से मिश्रित जल से स्नान करायाऔर अग्नि-यज्ञ करने के बाद सभी ब्राह्मणों को उत्तम अन्न तथा अन्य प्रकार के पदार्थों कास्वादिष्ट भोजन कराया।
गाव: सर्वगुणोपेता वास:स्त्रगुक्ममालिनी: ।
आत्मजाभ्युदयार्थाय प्रादात्ते चान्वयुज्ञत ॥
१६॥
गाव:--गौवें; सर्व-गुण-उपेता:--पर्याप्त दूध देने से अत्यन्त गुणी होने; बास:--अच्छे वस्त्र पहने; स्रकू--माला से युक्त;रुक््म-मालिनी:--तथा सोने के हार पहने; आत्मज-अभ्युदय-अर्थाय--अपने पुत्र के अभ्युदय हेतु; प्रादात्ू--दान में दिया; ते--उन ब्राह्मणों ने; च-- भी; अन्वयुद्भधत--उन्हें स्वीकार किया।
नन्द महाराज ने अपने पुत्र के धन-वैभव हेतु ब्राह्मणों को गौवें दान में दीं जो वस्त्रों, फूल-मालाओं तथा सुनहरे हारों से सजाईं गई थीं।
ये गौवें जो प्रचुर दूध देने वाली थीं ब्राह्मणों कोदान में दी गई थीं और ब्राह्मणों ने उन्हें स्वीकार किया।
बदले में उन्होंने समूचे परिवार को तथाविशेष रूप से कृष्ण को आशीर्वाद दिया।
विप्रा मन्त्रविदो युक्तास्तैर्या: प्रोक्तास्तथाशिष: ।
ता निष्फला भविष्यन्ति न कदाचिदपि स्फुटम् ॥
१७॥
विप्रा:--ब्राह्मणगण; मन्त्र-विदः--वैदिक मंत्रोच्चारण में पटु; युक्ता:--पूर्ण योगी; तैः--उनके द्वारा; या: --जो; प्रोक्ता:--कहागया; तथा--वैसा ही हो जाता है; आशिषः --सारे आशीर्वाद; ताः--ऐसे शब्द; निष्फला:--व्यर्थ, विफल; भविष्यन्ति न--कभी नहीं होंगे; कदाचित्--किसी समय; अपि--निस्सन्देह; स्फुटमू--यथार्थ |
वैदिक मंत्रों के उच्चारण में पूरी तरह से पटु ब्राह्मण योगशक्तियों से सम्पन्न योगी थे।
वे जोभी आशीर्वाद देते वह कभी निष्फल नहीं जाता था।
एकदारोहमारूढं लालयन्ती सुतं सती ।
गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत् ॥
१८॥
एकदा--एक बार ( सम्भवतः जब कृष्ण एक साल के थे ); आरोहम्--अपनी माता की गोद में; आरूढम्--बैठे हुए;लालयन्ती--लाड़-प्यार करती हुई, दुलारती हुई; सुतम्--अपने पुत्र को; सती--माता यशोदा; गरिमाणम्-- भार बढ़ने से;शिशो:--बालक के; वोढुम्--सहन कर पाने; न--नहीं; सेहे--समर्थ थी; गिरि-कूट-वत्--पर्वत की चोटी के भार जैसा लगनेवाला
एक दिन, कृष्ण के आविर्भाव के एक वर्ष बाद, माता यशोदा अपने पुत्र को अपनी गोद मेंदुलार रही थीं।
तभी सहसा उन्हें वह बालक पर्वत की चोटी से भी भारी लगने लगा, जिससे वेउसका भार सहन नहीं कर पाईं।
भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता ।
महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु ॥
१९॥
भूमौ--जमीन पर; निधाय--रख कर; तम्ू--उस बालक को; गोपी--माता यशोदा; विस्मिता--चकित; भार-पीडिता--बच्चेके भार से दुखित; महा-पुरुषम्-विष्णु या नारायण को; आदध्यौ--शरण ली; जगताम्--मानो सारे जगत का भार हो;आस--अपने को व्यस्त किया; कर्मसु--घर के अन्य कामों में |
बालक को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के बराबर भारी अनुभव करते हुए अतएवं यह सोचते हुए किबालक को कोई दूसरा भूत-प्रेत या असुर सता रहा है, चकित माता यशोदा ने बालक कोजमीन पर रख दिया और नारायण का चिंतन करने लगीं।
उत्पात की आशंका से उन्होंने इसभारीपन के शमन हेतु ब्राह्मणों को बुला भेजा और फिर घर के कामकाज में लग गईं।
उनकेपास नारायण के चरणकमलों को स्मरण करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प न था क्योंकिवे यह नहीं समझ पाईं कि कृष्ण ही हर वस्तु के मूल स्त्रोत हैं।
दैत्यो नाम्ना तृणावर्त: कंसभृत्यः प्रणोदितः ।
चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम् ॥
२०॥
दैत्य:--दूसरा असुर; नाम्ना--नाम वाला; तृणावर्त:--तृणावर्त; कंस-भृत्य:ः--कंस का दास; प्रणोदित:--उसके द्वारा प्रेरित;चक्रवात-स्वरूपेण--बवंडर के रूप में; जहार--उड़ा ले गया; आसीनम्--बैठे हुए; अर्भकम्--बालक को
जब बालक जमीन पर बैठा हुआ थातो तृणावर्त नामक असुर, जो कंस का दास था, वहाँपर कंस के बहकाने पर बवंडर के रूप में आया और बड़ी आसानी से बालक को अपने साथउड़ाकर आकाश में ले गया।
गोकुलं सर्वमावृण्वन्मुष्णं श्रक्कूंषि रेणुभि: ।
ईरयन्सुमहाघोरशब्देन प्रदिशो दिश: ॥
२१॥
गोकुलम्-गोकुल मंडल को; सर्वम्--समूचे; आवृण्वन्--प्रच्छन्न करते हुए; मुष्णन्--हरते हुए; चक्षूंषि--देखने की शक्ति;रेणुभि:--धूल के कणों से; ईरयन्--कँपाते हुए; सु-महा-घोर-- अत्यन्त भयानक तथा भारी; शब्देन--आवाज से; प्रदिशःदिशः--सारी दिशाओं में घुस गया।
उस असुर ने प्रबल बवंडर के रूप में सारे गोकुल प्रदेश को धूल के कणों से ढकते हुएसभी लोगों की दृष्टि ढक ही ली और भयावनी आवाज करता हुआ सारी दिशाओं को कंँपानेलगा।
मुहूर्तमभवद्गोष्ठ॑ रजसा तमसावृतम् ।
सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन््यस्तवती यतः ॥
२२॥
मुहूर्तम्-- क्षण-भर के लिए; अभवत्--हो गया; गोष्ठम्--समूचे चरागाह में; रजसा-- धूल-कणों से; तमसा आवृतम्-- अंधकारसे प्रच्छन्न; सुतम्ू--अपने पुत्र को; यशोदा--माता यशोदा ने; न अपश्यत्--नहीं देखा; तस्मिन्--उसी स्थान में; न्यस्तवती--रखा था; यतः--जहाँ।
क्षण-भर के लिए समूचा चरागाह धूल भरी अंधड़ के घने अंधकार से ढक गया और मातायशोदा अपने पुत्र को उस स्थान में न पा सकीं जहाँ उसे बिठाया था।
नापश्यत्कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः ।
तृणावर्तनिसूष्ठाभि: शर्कराभिरुपद्ुत: ॥
२३॥
न--नहीं; अपश्यत्--देखा; कश्चन--किसी को; आत्मानम्--अपने को; परम् च अपि--या दूसरे को; विमोहितः--मोहितहोकर; तृणावर्त-निसूष्टाभि:--तृणावर्त द्वारा फेंके गये; शर्कराभि:ः--बालू के कणों से; उपद्रुत:--और विचलित किया जाकर।
तृणावर्त द्वारा फेंके गये बालू के कणों के कारण लोग न तो स्वयं को देख सकते थे न अन्य किसी और को।
इस तरह वे मोहित तथा विचलित थे।
इति खरपवनचक्रपांशुवर्षेसुतपदवीमबलाविलक्ष्य माता ।
अतिकरुणमनुस्मरन्त्यशोचद्भुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौ: ॥
२४॥
इति--इस प्रकार; खर--अत्यन्त प्रचंड; पबन-चक्र --बवंडर से; पांशु-वर्ष-- धूल-कणों की वर्षा होने पर; सुत-पदवीम्--अपने पुत्र के स्थान को; अबला--बेचारी स्त्री; अविलक्ष्य--न देखकर; माता--उसकी माता होने से; अति-करुणम्--अत्यन्तकारुणिक; अनुस्मरन्ती--अपने पुत्र का चिन्तन करती हुईं; अशोचत्--अत्यधिक विलाप किया; भुवि-- भूमि पर; पतिता--गिर गई; मृत-वत्सका--अपने बछड़े को खोकर; यथा--जिस तरह; गौ:--गाय
प्रबल बवंडर से उठे अंधड़ के कारण माता यशोदा न तो अपने पुत्र का कोई पता लगासकीं, न ही कोई कारण समझ पाईं।
वे जमीन पर इस तरह गिर पड़ीं मानों किसी गाय ने अपनाबछड़ा खो दिया हो।
वे अत्यन्त करूण-भाव से विलाप करने लगीं।
रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्योभूशमनुतप्तधियो श्रुपूर्णमुख्य: ।
रुरुदुरनुपलभ्य नन्दसूनुं'पवन उपारतपांशुवर्षवेगे ॥
२५॥
रुदितम्--करुणापूर्वक रोती हुई माता यशोदा; अनुनिशम्य--सुनकर; तत्र--वहाँ; गोप्य:--अन्य गोपियाँ; भूशम्--अत्यधिक;अनुतप्त--माता यशोदा के साथ विलाप करती; धिय:ः--ऐसी भावनाओं से; अश्रु-पूर्ण-मुख्यः--तथा आँसुओं से पूरित मुखोंवाली अन्य गोपियाँ; रुरुदु:--रो रही थीं; अनुपलभ्य--न पाकर; नन्द-सूनुम्--ननन््द महाराज के पुत्र, कृष्ण को; पवने--बवंडरके; उपारत--बन्द हो जाने पर; पांशु-वर्ष-वेगे-- धूल की वर्षा के वेग से जब अंधड़ तथा बवंडर का वेग घट गया, तो यशोदा का करुण क्रन्दन सुनकर उनकीसखियाँ--गोपियाँ--उनके पास आईं।
किन्तु वे भी कृष्ण को वहाँ न देखकर अत्यन्त उद्िग्न हुईंऔर आँखों में आँसू भर कर माता यशोदा के साथ वे भी रोने लगीं।
तृणावर्त: शान्तरयो वात्यारूपधरो हरन् ।
कृष्णं नभोगतो गन्तुं नाशक्नोद्धूरिभारभूत् ॥
२६॥
तृणावर्त:--तृणावर्त असुर; शान्त-रयः--झोंके का वेग घट गया; वात्या-रूप-धर: --जिसने प्रबल बवंडर का रूप धारण करलिया था; हरनू--तथा ले गया था; कृष्णम्--कृष्ण को; नभ:ः-गतः--आकाश में ऊँचे चला गया; गन्तुम्--आगे जाने केलिए; न अशक्नोत्--समर्थ न था; भूरि-भार-भूत्-- क्योंकि कृष्ण असुर से भी अधिक शक्तिशाली तथा भारी थे।
तृणावर्त असुर वेगवान बवंडर का रूप धारण करके कृष्ण को आकाश में बहुत ऊँचाईतक ले गया किन्तु जब कृष्ण असुर से भारी हो गये तो असुर का वेग रुक गया जिससे वह औरआगे नहीं जा सका।
'तमएमानं मन्यमान आत्मनो गुरुमत्तया ।
गले गृहीत उत्स्त्रष्ठ नाशक्नोदद्भुतार्भकम् ॥
२७॥
तम्--कृष्ण को; अश्मानम्ू--लोहे की तरह के भारी पत्थर; मन्यमान:--इस तरह सोचते हुए; आत्मन: गुरु-मत्तया-- अनुमान सेभी अधिक भारी होने के कारण; गले--उसकी गर्दन में; गृहीते--अपनी बाँहों से बँधा या आलिंगन किया जाकर; उत्स्रष्टमू--छोड़ने के लिए; न अशक्नोत्--समर्थ नहीं था; अद्भुत-अर्भकम्--अद्भुत बालक को जो सामान्य बालक से भिन्न था।
कृष्ण के भार के कारण तृणावर्त उन्हें विशाल पर्वत या लोह का पिंड मान रहा था।
किन्तुकृष्ण ने असुर की गर्दन पकड़ रखी थी इसलिए वह उन्हें फेंक नहीं पा रहा था।
इसलिए उसनेसोचा कि यह बालक अद्भुत है, जिसके कारण मैं न तो उसे ले जा सकता हूँ न ही इस भार कोदूर फेंक सकता हूँ।
गलग्रहणनिश्रेष्टो दैत्यो निर्गतलोचन: ।
अव्यक्तरावो न्यपतत्सहबालो व्यसुरत्रेजे ॥
२८ ॥
गल-ग्रहण-निश्रैष्ट: --कृष्ण द्वारा गला पकड़े रहने से तृणावर्त का गला घुट रहा था और वह कुछ भी नहीं कर सका; दैत्य:--असुर; निर्गत-लोचन:--दबाव से आँखें बाहर निकल आईं; अव्यक्त-राव: --गला घुटने से उसकी कराह भी नहीं निकल पायी;न्यपतत्--गिर पड़ा; सह-बाल:--बालक सहित; व्यसु: ब्रजे--त्रज की भूमि पर निर्जीव |
कृष्ण ने तृणावर्त को गले से पकड़ रखा था इसलिए उसका दम घुट रहा था जिससे वह नतो कराह सकता था, न ही अपने हाथ-पैर हिला-डुला सकता था।
उसकी आँखें बाहर निकलआईं थी, उसके प्राण निकल गये और वह उस छोटे बालक सहित ब्रज की भूमि पर नीचे आगिरा।
'तमन्तरिक्षात्पतितं शिलायांविशीर्णसर्वावयवं करालम् ।
पुरं यथा रुद्रशरेण विद्धंस्त्रियो रूदत्यो दहशुः समेता: ॥
२९॥
तम्--उस असुर को; अन्तरिक्षात्--आकाश से; पतितम्--गिरा हुआ; शिलायाम्--चट्टान पर; विशीर्ण--बिखरा, छिन्न-भिन्न;सर्व-अवयवम्--शरीर के सारे अंग; करालम्--अत्यन्त विकराल हाथ-पाँव; पुरम््-त्रिपुरासुर का स्थान; यथा--जिस तरह;रुद्र-शरेण--शिवजी के बाण से; विद्धम्--बेधा गया; स्त्रियः--सारी स्त्रियाँ, गोपियाँ; रुद॒त्यः--कृष्ण वियोग के कारण रोतीहुईं; ददशु:--अपने सामने ही देखा; समेता:--एकसाथ।
जब वहाँ एकत्र गोपियाँ कृष्ण के लिए रो रही थीं तो वह असुर आकाश से पत्थर की एकबड़ी चट्टान पर आ गिरा, जिससे उसके सारे अंग छिन्न-भिन्न हो गये मानो भगवान् शिवजी केबाण से बेधा गया त्रिपुरासुर हो।
प्रादाय मात्रे प्रतिहत्य विस्मिता:कृष्णं च तस्योरसि लम्बमानम् ।
त॑ स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतंविहायसा मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ।
गोप्यश्च गोपा: किल नन्दमुख्यालब्ध्वा पुनः प्रापुरतीव मोदम् ॥
३०॥
प्रादाय--उठाकर; मात्रे--उनकी माता को; प्रतिहत्य--हाथों में सौंप दिया; विस्मिता:--सारे लोग अचंभित थे; कृष्णम् च--तथा कृष्ण को; तस्य--असुर की; उरसि--छाती पर; लम्बमानम्--स्थित; तमू--कृष्ण को; स्वस्तिमन्तम्--समस्त कल्याण सेयुक्त; पुरुषाद-नीतम्--मानवभक्षी असुर द्वारा ले जाया गया; विहायसा--आकश् में; मृत्यु-मुखात्--मृत्यु के मुँह से;प्रमुक्तम्ू--अब मुक्त हुए; गोप्य:--गोपियाँ; च--तथा; गोपा:--ग्वाले; किल--निस्सन्देह; नन्द-मुख्या:--ननन््द महाराजइत्यादि; लब्ध्वा--पाकर; पुनः--फिर ( उनका पुत्र ); प्रापु;--प्राप्त किया; अतीव--अत्यधिक ; मोदम्--आनन्द |
गोपियों ने तुरन्त ही कृष्ण को असुर की छाती से उठाकर माता यशोदा को लाकर सौंपदिया।
वे समस्त अशुभों से मुक्त थे।
चूँकि बालक को असुर द्वारा आकाश में ले जाये जाने परभी किसी प्रकार की चोट नहीं आई थी और वह अब सारे खतरों तथा दुर्भाग्य से मुक्त थाइसलिए नन्द महाराज समेत सारे ग्वाले तथा गोपियाँ अत्यन्त प्रसन्न थे।
अहो बतात्यद्भुतमेष रक्षसाबालो निवृत्ति गमितो भ्यगात्पुन: ।
हिंस्त्र: स्वपापेन विहिंसित: खलःसाधु: समत्वेन भयाद्विमुच्यते ॥
३१॥
अहो--ओह; बत--निस्सन्देह; अति--अत्यन्त; अद्भुतमू--यह घटना बड़ी अद्भुत है; एषघ:--यह ( बालक ); रक्षसा--मानवभक्षी असुर के द्वारा; बाल:--अबोध बालक कृष्ण; निवृत्तिमू--मार कर खाये जाने के लिए ले जाया गया; गमित:--दूरचला गया; अभ्यगात् पुनः--किन्तु वह बिना चोट लगे वापस आ गया; हिंस्त्र:--ईर्ष्यालु; स्व-पापेन--अपने ही पापपूर्ण कार्योसे; विहिंसित:--अब ( वही असुर ) मारा जा चुका है; खलः--दुष्ट होने के कारण; साधु:--पाप से रहित तथा निर्दोष व्यक्ति;समत्वेन--समान होने से; भयात्--सभी प्रकार के भय से; विमुच्यते--छूट जाता है।
यह सबसे अधिक आश्चर्य की बात है कि यह अबोध बालक इस राक्षस द्वारा खाये जाने केलिए दूर ले जाया जाकर भी बिना मारे या चोट खाये वापस लौट आया।
चूँकि राक्षस ईर्ष्यालु,क्रूर तथा पापी था, इसलिए वह अपने पापपूर्ण कृत्यों के लिए मारा गया।
यही प्रकृति का नियम है।
निर्दोष भक्त की रक्षा सदैव भगवान् द्वारा की जाती है और पापी व्यक्ति को अपने पापमयजीवन के लिए दण्ड दिया जाता है।
कि नस्तपश्चीर्णमधो क्षजार्चनपूर्तेप्ठदत्तमुत भूतसौहदम् ।
यत्सम्परेत: पुनरेव बालकोदिष्ठद्या स्वबन्धून्प्रणयत्रुपस्थित: ॥
३२॥
किम्--किस तरह की; न: --हमारे द्वारा; तप:ः--तपस्या; चीर्णम्--दीर्घकाल तक की गई; अधोक्षज-- भगवान् की;अर्चनम्-पूजा; पूर्त--सड़कें बनवाना इत्यादि; इष्ट--जनकल्याण कार्य; दत्तम्ू--दान देना; उत--अथवा और कुछ; भूत-सौहदम्--जनता के प्रति प्रेम होने से; यत्--जिसके कारण; सम्परेत:--मृत्यु को प्राप्त होने पर भी; पुनः एब--फिर से, अपनेपुण्यों के कारण; बालक:--बालक; दिष्टय्या-- भाग्य द्वारा; स्व-बन्धून्ू--निजी सम्बन्धियों को; प्रणयन्--प्रसन्न करने के लिए;उपस्थित:--यहाँ उपस्थित है
नन्द महाराज तथा अन्य लोगों ने कहा : हमने अवश्य ही पूर्वजन्म में दीर्घकाल तक तपस्याकी होगी, भगवान् की पूजा की होगी, जनता के लिए सड़कें तथा कुएँ बनवाकर पुण्य कर्मकिये होंगे और दान भी दिया होगा जिसके फलस्वरूप मृत्यु के मुख में गया हुआ यह बालकअपने सम्बन्धियों को आनन्द प्रदान करने के लिए लौट आया है।
इष्टाद्धुतानि बहुशो ननन््दगोपो बृहद्वने ।
वसुदेववचो भूयो मानयामास विस्मित: ॥
३३॥
इृष्टा--देखकर; अद्भुतानि--अतीव अद्भुत घटनाओं को; बहुश:--अनेक बार; नन्द-गोप:--गोपों के मुखिया नन््द महाराज;बृहद्वने--बृहद्वन में; वसुदेव-वचः --वसुदेव के वचन, जो उन्होंने मथुरा में नन्द से कहे थे; भूयः--बारम्बार; मानयाम् आस--मान लिया कि कितने सच थे; विस्मित:--अतीव विस्मय में |
बृहद्न में इन सारी घटनाओं को देखकर नन्द महाराज अधिकाधिक आश्चर्यचकित हुए औरउन्हें वसुदेव के वे शब्द स्मरण हो आये जो उन्होंने मथुरा में कहे थे।
एकदार्भकमादाय स्वाड्डूमारोप्य भामिनी ।
प्रस्नुतं पाययामास स्तन स्नेहपरिप्लुता ॥
३४॥
एकदा--एक बार; अर्भकम्--बालक को; आदाय--लेकर; स्व-अड्डूमू--अपनी गोद में; आरोप्य--तथा बैठाकर; भामिनी--माता यशोदा ने; प्रस्नुतम्-स्तनों से दूध बहता हुआ; पाययाम् आस--बच्चे को पिलाया; स्तनम्--अपने स्तन; स्नेह-परिप्लुता--अतीव स्नेह तथा प्रेम से युक्त |
एक दिन माता यशोदा कृष्ण को अपनी गोद में बैठाकर उन्हें मातृ-स्नेह के कारण अपनेस्तन से दूध पिला रही थीं।
दूध उनके स्तन से चू रहा था और बालक उसे पी रहा था।
पीतप्रायस्थ जननी सुतस्य रूचिरस्मितम् ।
मुखं लालयती राजञ्जम्भतो ददशे इदम् ॥
३५॥
खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशा:सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधी श्र ।
द्वीपान्नगांस्तहुहितूर्वनानिभूतानि यानि स्थिरजड्र्मानि ॥
३६॥
पीत-प्रायस्य--स्तन-पान करते तथा संतुष्ट बालक कृष्ण की; जननी--माता यशोदा; सुतस्य--अपने पुत्र की; रुचिर-स्मितम्ू--तुष्ट मुसकान को देखती; मुखम्--मुँह को; लालयती--दुलारती हुई; राजन्ू--हे राजा; जुम्भत:ः--बच्चे को अँगड़ाईलेते; ददशे--उसने देखा; इदम्--यह; खम्--आकाश; रोदसी--स्वर्ग तथा पृथ्वी दोनों; ज्योति:-अनीकम्--ज्योतिपुंज;आशा:-दिशाएँ; सूर्य --सूर्य ; इन्दु--चंद्रमा; वह्वि-- अग्नि; श्रसन--वायु; अम्बुधीन्--समुद्र; च--तथा; द्वीपानू--द्वीप;नगान्--पर्वत; तत्-दुहितृ:--पर्वतों की पुत्रियाँ ( नदियाँ ); वनानि--जंगल; भूतानि--सारे जीव; यानि--जो हैं; स्थिर-जड़मानि--अचर तथा चर।
हे राजा परीक्षित, जब बालक कृष्ण अपनी माता का दूध पीना लगभग बन्द कर चुके थेऔर माता यशोदा उनके सुन्दर कान्तिमान हँसते मुख को छू रही थीं और निहार रही थीं तोबालक ने जम्हाई ली और माता यशोदा ने देखा कि उनके मुँह में पूण आकाश, उच्च लोक तथापृथ्वी, सभी दिशाओं के तारे, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदी, जंगल तथाचर-अचर सभी प्रकार के जीव समाये हुए हैं।
सा वीक्ष्य विश्व सहसा राजन्सज्जातवेपथु: ।
सम्मील्य मृगशावाशक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता ॥
३७॥
सा--माता यशोदा; वीक्ष्य--देखकर; विश्वम्--सम्पूर्ण विश्व को; सहसा--अचानक अपने पुत्र के मुँह के भीतर; राजनू--हेराजा ( महाराज परीक्षित ); सज्ञात-वेपथु:--उनका हृदय धक् धक् करने लगा; सम्मील्य--खोल कर; मृगशाव-अक्षी--मृगनैनी; नेत्रे--उसकी दोनों आँखें; आसीत्ू--हो गईं; सु-विस्मिता--आश्चर्यचकित |
जब यशोदा माता ने अपने पुत्र के मुखारविन्द में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखा तो उनका हृदय धक्धक् करने लगा तथा आश्चर्यच्कित होकर वे अपने अधीर नेत्र बन्द करना चाह रहती थीं।
अध्याय आठ: भगवान कृष्ण अपने मुख के भीतर सार्वभौमिक रूप दिखाते हैं
10.8श्रीशुक उबाचगर्ग: पुरोहितो राजन्यदूनां सुमहातपा: ।
ब्रजं जगाम नन्दस्यवसुदेवप्रचोदित: ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गर्ग: --गर्गमुनि; पुरोहित:--पुरोहित; राजन्--हे राजा परीक्षित; यदूनाम्--यदुकुल के; सु-महा-तपा:--तपस्या में बढ़े चढ़े; ब्रजम्--त्रजभूमि में; जगाम--गये; नन्दस्य--नन्द महाराज के; वसुदेव-प्रचोदित:--वसुदेव की प्रेरणा से ॥
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, तब यदुकुल के पुरोहित एवं तपस्या में बढ़ेचढ़े गर्गमुनि को वसुदेव ने प्रेरित किया कि वे नन््द महाराज के घर जाकर उन्हें मिलें।
त॑ इृष्ठटा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृताझललि: ।
आनर्चाधोक्षजधिया प्रणिपातपुरःसरम् ॥
२॥
तम्--उन््हें ( गर्गमुनि को ); इृष्ठा--देखकर; परम-प्रीतः--ननन््द महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए; प्रत्युत्थाय--स्वागत करने के लिएखड़े होकर; कृत-अज्जलि: --हाथ जोड़े हुए; आनर्च--पूजा की; अधोक्षज-धिया--यद्यपि गर्गमुनि इन्द्रियों द्वारा दृष्टिगोचर थेकिन्तु नन्द महाराज उनके प्रति अपार सम्मान रखते थे; प्रणिपात-पुरःसरम्--नन्द महाराज ने उनके सामने गिर कर नमस्कारकिया।
जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि को अपने घर में उपस्थित देखा तो वे इतने प्रसन्न हुए कि उनके स्वागत में दोनों हाथ जोड़े उठ खड़े हुए।
यद्यपि गर्गपुनि को नन््द महाराज अपनी आँखों से देखरहे थे किन्तु वे उन्हें अधोक्षज मान रहे थे अर्थात् वे भौतिक इन्द्रियों से दिखाई पड़ने वालेसामान्य पुरुष न थे।
सूपविष्ट कृतातिथ्यं गिरा सूनृतया मुनिम् ।
नन्दयित्वाब्रवीढ्रह्मन्पूर्णण्य करवाम किम् ॥
३॥
सु-उपविष्टमू--जब गर्गमुनि ठीक से बैठ गये; कृत-आतिथ्यम्--तथा अतिथि के रूप में उनका स्वागत हो जाने पर; गिरा--शब्दों से; सून्त॒या--अत्यन्त मधुर; मुनिम्ू--गर्गमुनि को; नन्दयित्वा--इस तरह प्रसन्न करके; अब्रवीतू--कहा; ब्रह्मनू--हेब्राह्मण; पूर्णस्य--सभी प्रकार से पूर्ण; करवाम किम्--मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ( कृपया आज्ञा दें )
जब अतिथि रूप में गर्गमुनि का स्वागत हो चुका और वे ठीक से आसन ग्रहण कर चुके तोनन्द महाराज ने भद्र तथा विनीत शब्दों में निवेदन किया: महोदय, भक्त होने के कारण आपसभी प्रकार से परिपूर्ण हैं।
फिर भी आपकी सेवा करना मेरा कर्तव्य है।
कृपा करके आज्ञा दें किमैं आपके लिए क्या करूँ ?
महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम् ।
नि: श्रेयसाय भगवन्कल्पते नान्यथा क्वचित् ॥
४॥
महत्-विचलनम्--महापुरुषों की गति; नृणाम्--सामान्य पुरुषों के घरों में; गृहिणाम्--विशेषतया गृहस्थों की; दीन-चेतसाम्ू--जो परिवार के भरण में लगे रहने के कारण सरल चित्त हैं; नि: श्रेयसाय--महापुरुष को गृहस्थ के घर जाने काकारण केवल उसे लाभ पहुँचाना है; भगवन्--हे शक्तिशाली भक्त; कल्पते--इस तरह समझना चाहिए; न अन्यथा--औरकिसी प्रयोजन के लिए नहीं; क्वचित्--किसी भी समय ।
हे महानुभाव, हे महान् भक्त, आप जैसे पुरुष अपने स्वार्थ के लिए नहीं अपितु दीनचित्तगृहस्थों के लिए ही स्थान-स्थान पर जाते रहते हैं।
अन्यथा इस तरह जगह-जगह घूमने में उन्हेंकोई रुचि नहीं रहती।
ज्योतिषामयन साक्षाद्यत्तज्ज्ञानमतीन्द्रियम् ।
प्रणीतं भवता येन पुमान्वेद परावरम् ॥
५॥
ज्योतिषाम्ू--ज्योतिष ज्ञान ( मानव समाज में संस्कृति के अन्य पक्षों के साथ साथ ज्योतिष ज्ञान भी आवश्यक है ); अयनम्--नक्षत्रों तथा ग्रहों की गतियाँ; साक्षात्-प्रत्यक्ष; यत् तत् ज्ञाममू--ऐसा ज्ञान; अति-इन्द्रियम्--सामान्य व्यक्ति की दृष्टि से परे;प्रणीतम् भवता--आपके द्वारा रचित ज्ञान का सम्यक ग्रंथ; येन--जिससे; पुमान्ू--कोई भी व्यक्ति; वेद--समझ सकता है;पर-अवरम्--अपने भाग्य का कारण तथा कार्य |
हे सन्त पुरुष, आपने ज्योतिष ज्ञान को संकलित किया है, जिससे कोई भी मनुष्य अदृश्यभूत और वर्तमान बातों को समझ सकता है।
इस ज्ञान के बल पर कोई भी मनुष्य यह समझसकता है कि पिछले जीवन में उसने क्या किया और वर्तमान जीवन पर उसका कैसा प्रभावपड़ेगा।
आप इसे जानते हैं।
त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठ: संस्कारान्कर्तुमहसि ।
बालयोरनयोरनुणां जन्मना ब्राह्मणो गुरु: ॥
६॥
त्वमू--आप; हि--निस्सन्देह; ब्रह्म-विदाम्--ब्रह्म को जानने वाले समस्त ब्राह्मणों में; श्रेष्ठ: -- श्रेष्ठ; संस्कारान्--शुद्द्धि के लिएकिये गये उत्सव ( इन संस्कारों से मनुष्य को दूसरा जन्म मिलता है, संस्कारादभवेद् द्विज: ); कर्तुम् अहँसि--आप कृपा करकेपथधारे हैं, तो सम्पन्न करें; बालयो:--इन दोनों पुत्रों ( कृष्ण तथा बलराम ) का; अनयो:--इन दोनों का; नृणाम्--न केवलउनका अपितु सारे मानव समाज का; जन्मना--जन्म ग्रहण करते ही; ब्राह्मण: --तुरन्त ब्राह्मण बन जाता है; गुरु: --मार्गदर्शक ।
हे प्रभु, आप ब्राह्मणों में श्रेष्ठ हैं विशेषतया, क्योंकि आप ज्योतिष शास्त्र से भलीभाँतिअवगत हैं।
अतएव आप सहज ही हर व्यक्ति के आध्यात्मिक गुरु हैं।
ऐसा होते हुए चूँकि आपकृपा करके मेरे घर आये हैं अतएव आप मेरे दोनों पुत्रों का संस्कार सम्पन्न करें।
श्रीगर्ग उबाचयदूनामहमाचार्य: ख्यातश्न भुवि सर्वदा ।
सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम् ॥
७॥
श्री-गर्ग: उबाच--गर्गमुनि ने कहा; यदूनामू--यदुकुल का; अहम्--मैं हूँ; आचार्य:--पुरोहित; ख्यात: च--पहले से यह ज्ञातहै; भुवि--सर्वत्र; सर्वदा--सदैव; सुतम्--पुत्र को; मया--मेरे द्वारा; संस्कृतम्--संस्कार सम्पन्न; ते--तुम्हारे; मन्यते--मानाजायेगा; देवकी-सुतम्--देवकी-पुत्र
गर्गमुनि ने कहा : हे नन्द महाराज, मैं यदुकुल का पुरोहित हूँ।
यह सर्वविदित है।
अतः यदिमैं आपके पुत्रों का संस्कार सम्पन्न कराता हूँ तो कंस समझेगा कि वे देवकी के पुत्र हैं।
कंसः पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभे: ।
देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमहति ॥
८॥
इति सद्धिन्तयज्छत्वा देवक्या दारिकावच: ।
अपि हन्ता गताशड्ूडस्तहिं तन्नोउनयो भवेत् ॥
९॥
कंसः--राजा कंस; पाप-मतिः--दूषित मन वाला, अत्यन्त पापी; सख्यम्--मित्रता; तब--तुम्हारी; च-- भी; आनक-दुन्दु भेः --वसुदेव की; देवक्या: --देवकी का; अष्टम: गर्भ:--आठवाँ गर्भ; न--नहीं; स्त्री--औरत; भवितुम् अहंति--होना सम्भव है;इति--इस तरह; सश्धिन्तयन्--विचार करते हुए; श्रुत्वा--( यह समाचार ) सुनकर; देवक्या: --देवकी की; दारिका-बच: --पुत्री की वाणी; अपि--यद्यपि थी; हन्ता गत-आशड्भुः--हो सकता है कंस इस बालक को मार डालने का प्रयतल करे; तहि--इसलिए; तत्--वह घटना; न:--हमारे लिए; अनय: भवेत्--बहुत अच्छा न हो
कंस बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ होने के साथ ही अत्यन्त पापी है।
अतः देवकी की पुत्रीयोगमाया से यह सुनने के बाद कि उसके मारने वाला बालक अन्यत्र कहीं जन्म ले चुका है औरयह सुन चुकने पर कि देवकी के आठवें गर्भ से पुत्री उत्पन्न नहीं हो सकती और यह जानते हुएकि वसुदेव से आपकी मित्रता है जब कंस यह सुनेगा कि यदुकुल के पुरोहित मेरे द्वारा संस्कारकराया गया है, तो इन सब बातों से उसे निश्चित रूप से सन्देह हो जायेगा कि कृष्ण देवकी तथावसुदेव का पुत्र है।
तब वह कृष्ण को मार डालने के उपाय करेगा और यह महान् विपत्ति सिद्धहोगी।
श्रीनन्द उवाचअलक्षितोस्मिन्रहसि मामकैरपि गोब्रजे ।
कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥
१०॥
श्री-नन्दः उवाच--नन्द महाराज ने ( गर्गमुनि से ) कहा; अलक्षित:--कंस के जाने बिना; अस्मिन्ू--इस; रहसि--एकान्त स्थानमें; मामकै:--यहाँ तक कि मेरे सम्बन्धियों द्वारा; अपि--इससे भी एकान्त स्थान; गो-ब्रजे--गोशाला में; कुरुू--सम्पन्नकीजिये; द्विजाति-संस्कारम्--ट्विज बनने का संस्कार ( संस्काराद् भवेद् द्विजः ); स्वस्ति-वाचन-पूर्वकम्--संस्कार कराने केलिए वैदिक स्तोत्र के उच्चारण द्वारा
नन्द महाराज ने कहा : हे महामुनि, यदि आप सोचते हैं कि आपके द्वारा संस्कार विधिसम्पन्न कराये जाने से कंस सशंकित होगा तो चुपके से वैदिक मंत्रोच्चार करें और मेरे घर कीइस गोशाला में ही यह द्विज संस्कार पूरा करें जिससे और तो और मेरे सम्बन्धी तक न जान पायेंक्योंकि यह संस्कार अत्यावश्यक है।
श्रीशुक उबाचएवं सम्प्रार्थितो विप्र: स्वचिकीर्षितमेव तत् ।
चकार नामकरण गूढो रहसि बालयो: ॥
११॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्--इस प्रकार; सम्प्रार्थित:--प्रार्थना किये जाने पर; विप्र:--ब्राह्मण,गर्गमुनि, ने; स्व-चिकीर्षितम् एव--जिसे वे पहले से करना चाह रहे थे और जिसके लिए वहाँ गये थे; तत्ू--वह; चकार--सम्पन्न किया; नाम-करणम्--नामकरण उत्सव; गूढ: --गुप्त रूप से; रहसि--एकान्त में; बालयो:--दोनों बालकों ( कृष्ण तथाबलराम ) का
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब नन्द महाराज ने गर्गमुनि से विशेष प्रार्थना की कि वेजो कुछ पहले से करना चाहते थे उसे करें, तो उन्होंने एकान्त स्थान में कृष्ण तथा बलराम कानामकरण संस्कार सम्पन्न किया।
श्रीगर्ग उबाचअयं हि रोहिणीपुत्रो रमयन्सुहृददो गुणैः ।
आख्वास्यते राम इति बलाधिक्याद्लं विदु: ।
यदूनामपृथग्भावात्सड्डर्षणमुशन्त्यपि ॥
१२॥
श्री-गर्ग: उवाच-गर्गमुनि ने कहा; अयम्ू--यह; हि--निस्सन्देह; रोहिणी-पुत्र:--रोहिणी का पुत्र; रमयन्--प्रसन्न करते हुए;सुहृद:ः--अपने सारे मित्रों तथा सम्बन्धियों को; गुणैः--दिव्य गुणों से; आख्यास्यते--कहलायेगा; राम:--परम भोक्ता, राम नामसे; इति--इस तरह; बल-आधिक्यात्-- असाधारण बल होने से; बलम् विदु:--बलराम नाम से विख्यात होगा; यदूनाम्--यदुबंश का; अपूृथक्-भावात्--आपसे पृथक् न हो सकने के कारण; सह्डूर्षणम्--संकर्षण नाम से अथवा दो परिवारों कोजोड़ने वाला; उशन्ति--आकर्षित करता है; अपि-- भी |
गर्गमुनि ने कहा : यह रोहिणी-पुत्र अपने दिव्य गुणों से अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों कोसभी तरह का सुख प्रदान करेगा।
अतः यह राम कहलायेगा।
और असाधारण शारीरिक बल काप्रदर्शन करने के कारण यह बलराम भी कहलायेगा।
चूँकि यह दो परिवारों--वसुदेव तथा नन््दमहाराज के परिवारों--को जोड़ने वाला है, अतः यह संकर्षण भी कहलायेगा।
आसन्वर्णास्त्रयो हास्य गृह्नतोनुयुगं तनू: ।
शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गत: ॥
१३॥
आसनू--थे; वर्णा: त्रय:ः--तीन रंग; हि--निस्सन्देह; अस्य--तुम्हारे पुत्र कृष्ण के; गृह्तः--स्वीकार करते हुए; अनुयुगम्तनू:--विभिन्न युगों के अनुसार दिव्य शरीर; शुक्ल:--कभी गौर ( श्वेत ); रक्त:--कभी लाल; तथा--और; पीत:--कभीपीला; इदानीम् कृष्णताम् गत:--सम्प्रति उन्होंने श्याम ( काला ) रंग धारण किया है।
आपका यह पुत्र कृष्ण हर युग में अवतार के रूप में प्रकट होता है।
भूतकाल में उसने तीनविभिन्न रंग--गौर, लाल तथा पीला--धारण किये और अब वह श्याम ( काले ) रंग में उत्पन्नहुआ है [अन्य द्वापर युग में वह शुक ( तोता ) के रंग में ( भगवान् रामचन्द्र के रूप में ) उत्पन्नहुआ।
अब ऐसे सारे अवतार कृष्ण में एकत्र हो गये हैं ।
प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मज: ।
वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञा: सम्प्रचक्षते ॥
१४॥
प्राकु--पहले; अयम्--यह बालक; वसुदेवस्य--वसुदेव का; क्वचित्--कभी कभी; जात:--उत्पन्न हुआ था; तब--तुम्हारा;आत्मज:--पुत्र कृष्ण; वासुदेव: --अतएव उसका नाम वासुदेव रखा जा सकता है; इति--इस प्रकार; श्रीमान्ू-- अत्यन्त सुन्दर;अभिज्ञा:--विद्वान; सम्प्रचक्षते--कृष्ण को वासुदेव भी कहते हैं।
अनेक कारणों से आपका यह सुन्दर पुत्र पहले कभी वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट हुआ था।
अतएव जो विद्वान हैं, वे इस बालक को कभी कभी वासुदेव कहते हैं।
बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जना: ॥
१५॥
बहूनि--विविध; सन्ति-- हैं; नामानि--नाम; रूपाणि--रूप; च-- भी; सुतस्य--पुत्र के; ते--तुम्हारे; गुण-कर्म-अनु-रूपाणि--उसके गुणों तथा कर्मों के अनुसार; तानि--उनको; अहम्--मैं; वेद--जानता हूँ; नो जना:--सामान्य व्यक्ति नहीं |
तुम्हारे इस पुत्र के अपने दिव्य गुणों एवं कर्मों के अनुसार विविध रूप तथा नाम हैं।
ये सबमुझे ज्ञात हैं किन्तु सामान्य लोग उन्हें नहीं जानते।
एप वः श्रेय आधास्यद्गोपगोकुलनन्दनः ।
अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ ॥
१६॥
एष:--यह बालक; व:--तुम सबों के लिए; श्रेयः--अत्यन्त शुभ; आधास्यत्--शुभ कार्य करेगा; गोप-गोकुल-नन्दन:--जैसेएक ग्वालबाल ग्वालों के परिवार में गोकुल के पुत्र रूप में पैदा हुआ हो; अनेन--इसके द्वारा; सर्व-दुर्गाणि--सभी प्रकार केकष्ट; यूयम्--तुम सभी; अज्ञ:--सरलता से; तरिष्यथ--पार कर लोगे, लाँघ लोगे।
यह बालक गोकुल के ग्वालों के दिव्य आनन्द को बढ़ाने हेतु तुम्हारे लिए सदैव शुभ कर्मकरेगा।
इसकी ही कृपा से तुम लोग सारी कठिनाइयों को पार कर सकोगे।
पुरानेन ब्रजपते साधवो दस्युपीडिता: ।
अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून्समेधिता: ॥
१७॥
पुरा--पूर्वकाल में; अनेन--इसके ( कृष्ण ) द्वारा; ब्रज-पते--हे ब्रजराज; साधव: --ईमानदार; दस्यु-पीडिता: --चोर-उचक्कोंद्वारा सताये हुए; अराजके--अनियमित सरकार होने पर; रक्ष्यमाणा: --सुरक्षित थे; जिग्यु:--जीत लिया; दस्यून्ू--चोर-उचक्कोंको; समेधिता: --उन्नति की |
हे नन्द महाराज, जैसा कि इतिहास बतलाता है जब अनियमित अशक्त शासन था और इन्द्रको अपदस्थ कर दिया गया था और लोग चोरों द्वारा सताये जा रहे थे उस समय लोगों की रक्षाकरने तथा उनकी समृद्धि के लिए यह बालक प्रकट हुआ और इसने चोर-उचक्ों का दमन करदिया।
य एतस्मिन्महाभागा: प्रीतिं कुर्वन्ति मानवा: ।
नारयोभिभवन्त्येतान्विष्णुपक्षानिवासुरा: ॥
१८॥
ये--जो लोग; एतस्मिनू--इस बालक से; महा-भागा:--अत्यन्त भाग्यशाली; प्रीतिम्ू--स्नेह; कुर्वन्ति--करते हैं; मानवा:--ऐसे व्यक्ति; न--नहीं; अरयः--शत्रुगण; अभिभवन्ति--जीत पाते हैं; एतान्--कृष्ण के प्रति अनुरक्त लोगों को; विष्णु-पक्षानू--विष्णु के पक्ष वाले देवताओं को; इब--सहृश; असुरा:--असुरगण |
देवताओं के पक्ष में सदैव भगवान् विष्णु के रहने से असुरगण देवताओं को हानि नहींपहुँचा सकते।
इसी तरह कोई भी व्यक्ति या समुदाय जो कृष्ण के प्रति अनुरक्त है अत्यन्तभाग्यशाली है।
चूँकि ऐसे लोग कृष्ण से अत्यधिक स्नेह रखते हैं अतएव वे कंस के संगियों यथाअसुरों ( या आन्तरिक शत्रु तथा इन्द्रियों ) द्वारा कभी परास्त नहीं किये जा सकते।
तस्मान्नन्दात्मजोयं ते नारायणसमो गुणैः ।
श्रिया कीर्त्यानुभावेन गोपायस्व समाहित: ॥
१९॥
तस्मात्--इसलिए; नन्द--हे नन््द महाराज; आत्मज:--आपका पुत्र; अयम्--यह; ते--तुम्हारा; नारायण-सम:--नारायण केसहश ( जो दिव्य गुण वाला है ); गुणैः--गुणों से; भ्रिया--ऐश्वर्य से; कीर्त्या--अपने नाम और यश से; अनुभावेन--तथा अपनेप्रभाव से; गोपायस्व--इस बालक का पालन करो; समाहित:--अत्यन्त ध्यानपूर्वक तथा सावधानी से।
अतएव हे नन्द महाराज, निष्कर्ष यह है कि आपका यह पुत्र नारायण के सहृश है।
यह अपनेदिव्य गुण, ऐश्वर्य, नाम, यश तथा प्रभाव से नारायण के ही समान है।
आप इस बालक का बड़ेध्यान से और सावधानी से पालन करें।
श्रीशुक उबाचइत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।
नन््दः प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम् ॥
२०॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति--इस प्रकार; आत्मानम्--परम सत्य परमात्मा को; समादिश्य--पूर्णतयाआदेश देकर; गर्गे--जब गर्गमुनि; च-- भी; स्व-गृहम्--अपने घर; गते--चले गये; नन्द:--नन््द महाराज ने; प्रमुदितः--अत्यन्त प्रसन्न; मेने--विचार किया; आत्मानमू--अपने आपको; पूर्णम् आशिषाम्--परम भाग्यशाली
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : जब नन्द महाराज को कृष्ण के विषय में उपदेशदेकर गर्गमुनि अपने घर चले गये तो नन्द महाराज अत्यधिक प्रसन्न हुए और अपने को परमभाग्यशाली समझने लगे।
कालेन ब्रजताल्पेन गोकुले रामकेशवौ ।
जानुभ्यां सह पाणिभ्यां रिड्रमाणौ विजहतु: ॥
२१॥
कालेन--समय के; ब्रजता--बीतने पर; अल्पेन--अल्प अवधि; गोकुले--गोकुल या ब्रजधाम में; राम-केशवौ--बलराम तथाकृष्ण ने; जानुभ्याम्-घुटनों के बल; सह पाणिभ्याम्-हाथों के सहारे; रिड्रमाणौ--रेंगते हुए; विजह॒तु:--खिलवाड़ किया ।
कुछ समय बीतने के बाद राम तथा कृष्ण दोनों भाई अपने घुटनों तथा हाथों के बल ब्रज केआँगन में रेंगने लगे और इस तरह बालपन के खेल का आनंद उठाने लगे।
तावड्प्रियुग्ममनुकृष्य सरीसूपन्तौघोषप्रघोषरूचिरं व्रजकर्दमेषु ।
तन्नादहृष्टमनसावनुसूत्य लोक॑मुग्धप्रभीतवदुषेयतुरन्ति मात्रो: ॥
२२॥
तौ--कृष्ण तथा बलराम दोनों; अद्धूघ्रि-युग्मम् अनुकृष्य--अपने दोनों पाँवों को घसीटते हुए; सरीसूपन्तौ--सरी सूपों की तरहरेंगते; घोष-प्रधोष-रुचिरम्-- अपने घुंघरओं से आवाज करते जो अत्यन्त मधुर थी; ब्रज-कर्दमेषु--त्रजभूमि की धरती पर गोबरतथा गोमूत्र से उत्पन्न कीचड़ में; तत्ू-नाद--उन घुंघरूओं की आवाज से; हृष्ट-मनसौ--अत्यन्त प्रसन्न होकर; अनुसूृत्य--पीछेपीछे चलते हुए; लोकम्--अन्य लोगों को; मुग्ध--मोहित होकर; प्रभीत-वत्--उनसे बारम्बार डरते हुए; उपेयतु:--तुरन्त लौटआये; अन्ति मात्रो:--अपनी माताओं की ओर।
जब कृष्ण तथा बलराम अपने पैरों के बल ब्रजभूमि में गोबर तथा गोमूत्र से उत्पन्न कीचड़वाली जगहों में रेंगते थे तो उनका रेंगना सरी सूपों के रेंगने जैसा लगता था और उनके पैरों के घुंघरुओं की आवाज अत्यन्त मनोहर लगती थी।
वे अन्य लोगों के घुंघरओं की आवाज सेअत्यधिक प्रसन्न होकर उनके पीछे पीछे चल देते मानो अपनी माताओं के पास जा रहे हों।
किन्तुजब वे यह देखते कि वे दूसरे लोग हैं, तो भयभीत होकर अपनी असली माताओं, यशोदा तथारोहिणी, के पास लौट आते।
तन्मातरौ निजसुतौ घृणया स्नुवन्त्यौपड्डाड्रागरुचिरावुपगृह्म दोर्भ्याम् ।
दत्त्वा स्तनं प्रपिबतो: सम मुखं निरीक्ष्यमुग्धस्मिताल्पदशनं ययतु: प्रमोदम् ॥
२३॥
तत्-मातरौ--उनकी माताएँ ( रोहिणी तथा यशोदा ); निज-सुतौ--अपने अपने पुत्रों को; घृणया-- अत्यन्त प्रेमपूर्वक;स्नुवन्त्यौ -- अपने स्तनों का दूध पिलातीं; पड्ढ-अड्गभ-राग-रुचिरौ--जिनके दिव्य शरीर गोबर तथा गोमूत्र के कीचड़ से सने हुएथे; उपगृह्म--रखवाली करते हुए; दोर्भ्याम्ू--अपनी भुजाओं से; दत्त्वा--देकर; स्तनम्--स्तन; प्रपिबतो:--दूध पीते हुए;स्म--निस्सन्देह; मुखम्-- मुँह को; निरीक्ष्य--देखकर; मुग्ध-स्मित-अल्प-दशनम्--मुखों से बाहर निकली दुतुलियों से हँसते;ययतु:--प्राप्त किया; प्रमोदम्--दिव्य आनन्द |
दोनों बालक गोबर तथा गोमूत्र मिले कीचड़ से सने हुए अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे और जबवे दोनों अपनी माताओं के पास गये तो यशोदा तथा रोहिणी दोनों ने बड़े प्यार से उन्हें उठालिया, छाती से लगाया और अपने स्तनों से बहता दूध पिलाया।
स्तन-पान करते हुए दोनोंबालक मुसका रहे थे और उनकी दुतुलियाँ दिख रही थीं।
उनके सुन्दर छोटे-छोटे दाँत देखकरउनकी माताओं को परम आनन्द हुआ।
यहाड्रनादर्शनीयकुमारलीला-उन्तर्त्रजे तदबला: प्रगृहीतपुच्छै: ।
वत्सैरितस्तत उभावनुकृष्यमाणौप्रेश्नन्त्य उज्झितगृहा जहृषुहसन्त्य: ॥
२४॥
यहि--जब; अड्डना-दर्शनीय--घर के भीतर की स्त्रियों के द्वारा ही दहश्य; कुमार-लीलौ--कृष्ण तथा बलराम द्वारा प्रदर्शितबाल-लीलाएँ; अन्तः-ब्रजे--ब्रज के भीतर, नन्द के घर में; तत्--उस समय; अबला:--सारी स्त्रियाँ; प्रगृहीत-पुच्छै:--कृष्णतथा बलराम द्वारा गौवों की पूँछ पकड़ने पर; वत्सैः:--बछड़ों द्वारा; इतः ततः--यहाँ वहाँ; उभौ--कृष्ण तथा बलराम दोनों;अनुकृष्यमाणौ--खींच जाने पर; प्रेक्षन्त्य:--ऐसी दृश्य देखती हुई; उज्झित--छोड़ा हुआ; गृहा:--घर के कामकाज; जहृषु: --अत्यन्त हर्षित हुईं; हसन्त्यः--हँसती हुई ॥
ग्वालबालाएँ नन््द महाराज के घर के भीतर राम तथा कृष्ण दोनों बालकों की लीलाएँदेखकर हर्षित होतीं।
बच्चे बछड़ों की पूछों के पिछले भाग पकड़ लेते तो बछड़े उन्हें इधर-उधरघसीटते।
जब स्त्रियाँ ये लीलाएँ देखतीं, तो निश्चय ही अपना कामकाज करना बन्द कर देतींऔर हँसने लगतीं तथा इन घटनाओं का आनन्द लूटतीं।
श्रृड़ुग्यग्निदंष्टरयसिजलद्विजकण्टके भ्य:क्रीडापरावतिचलौ स्वसुतौ निषेद्धुम् ।
गृह्माणि कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौशेकात आपतुरलं मनसोनवस्थाम् ॥
२५॥
श्रुद्धी--गाय; अग्नि--आग; दंष्टी--बन्दर तथा कुत्ते; असि--तलवार; जल--पानी; द्विज--पक्षी; कण्टके भ्य:--तथा काँटोंके साथ; क्रीडा-परौ अति-चलौ--दोनों बच्चे खेल में व्यस्त तथा अतीव चंचल; स्व-सुतौ--अपने दोनों पुत्रों को; निषेद्धुम्--रोकने के लिए; गृह्माणि--घर के कामकाज; कर्तुम् अपि--करके; यत्र--जब; न--नहीं; तत्-जनन्यौ--उनकी माताएँ(रोहिणी तथा यशोदा ); शेकाते--समर्थ; आपतु:--प्राप्त किया; अलम्--निस्सन्देह; मनस:--मन का; अनवस्थाम्--सन्तुलन।
जब माता यशोदा तथा रोहिणी बच्चों को सींग वाली गायों से, आग से, पंजे तथा दाँत वालेपशुओं यथा बन्दरों, कुत्तों तथा बिल्लियों से एवं काँटों से, जमीन पर रखी तलवारों तथा अन्यहथियारों से होने वाली दुर्घटनाओं से रक्षा करने में अपने को असमर्थ पातीं तो वे सदा चिन्ताग्रस्तहो जातीं जिससे उनके घरेलू कामकाज में बाधा पहुँचती।
उस समय वे भौतिक स्नेह के कष्टनामक दिव्य भाव से सनन््तुलन प्राप्त करतीं क्योंकि यह उनके मनों के भीतर से उठता था।
कालेनाल्पेन राजर्षे राम: कृष्णश्च गोकुले ।
अधृष्टजानुभि: पद्धिर्विचक्रमतुरकझ्सला ॥
२६॥
कालेन अल्पेन-- थोड़े समय में ही; राजर्षे--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); राम: कृष्ण: च--राम तथा कृष्ण दोनों; गोकुले--गोकुल गाँव में; अधघृष्ट-जानुभि:ः--घुटने के बल रेंगे बिना ही; पद्धिः--अपने पाँवों के बल; विचक्रमतु:--चलने लगे;अज्जसा--आसानी से।
हे राजा परीक्षित, थोड़े समय में ही राम तथा कृष्ण दोनों अपने पाँवों के बल, रेंगे बिना हीअपने आप गोकुल में सरलता से चलने-फिरने लगे।
ततस्तु भगवान्कृष्णो वयस्यैरत्रेजबालकै: ।
सहरामो ब्रजस्त्रीणां चिक्रीडे जनयन्मुदम् ॥
२७॥
ततः--तत्पश्चात्; तु--लेकिन; भगवान्-- भगवान्; कृष्ण:--कृष्ण; वयस्यै:--अपने साथियों के साथ; ब्रज-बालकै:--ब्रज केछोटे-छोटे बालकों के साथ; सह-राम:--बलराम के साथ; ब्रज-स्त्रीणाम्--व्रज की सारी स्त्रियों के; चिक्रीडे--प्रसन्नतापूर्वकखेलने लगे; जनयन्--उत्पन्न करते हुए; मुदम्--दिव्य आनन्द
तत्पश्चात् भगवान् कृष्ण, बलराम सहित, ग्वालों के अन्य बच्चों के साथ खेलने लगे औरइस तरह ग्वालों की स्त्रियों में दिव्य आनन्द उत्पन्न करने लगे।
कृष्णस्य गोप्यो रुचिरं वीक्ष्य कौमारचापलम् ।
श्रृण्वन्त्या: किल तन्मातुरिति होचु: समागता: ॥
२८॥
कृष्णस्य--कृष्ण का; गोप्य: --सारी गोपियों ने; रुचिर्मू--अत्यन्त आकर्षक; वीक्ष्य--देखकर; कौमार-चापलमू--बाल-लीलाओं की चपलता; श्रृण्वन्त्या:--बारम्बार सुनने के लिए; किल--निस्सन्देह; तत्-मातु:ः--माता की उपस्थिति में; इति--इसप्रकार; ह--निस्सन्देह; ऊचु:;--कहा; समागता:--एकत्र हुईं
कृष्ण की अति आकर्षक बाल-सुलभ चञ्जलता को देखकर पड़ोस की सारी गोपियाँ कृष्णकी क्रीड़ाओं के विषय में बारम्बार सुनने के लिए माता यशोदा के पास पहुँचतीं और उनसे इसप्रकार कहतीं।
वत्सान्मुञ्नन्क्बचिदसमये क्रोशसझ्जातहास:स्तेयं स्वाद्वत््व्थ दधिपय: कल्पितैः स्तेययोगै: ।
मर्कान्भोक्ष्यन्विभजति स चेन्नात्ति भाण्डं भिन्नत्तिद्रव्यालाभे सगृहकुपितो यात्युपक्रोश्य तोकान् ॥
२९॥
वत्सान्ू--बछड़ों को; मुझ्ननू--खाले देने; क्वचित्--क भी; असमये --विषम अवसरों पर; क्रोश-सझ्जात-हास:--इसके बादजब घर का मुखिया अप्रसन्न होता तो कृष्ण हँसने लगता है; स्तेयम्--चोरी करने से प्राप्त; स्वादु--स्वादिष्ट; अत्ति--खाता है;अथ--इस प्रकार; दधि-पयः--दही तथा दूध के बर्तन ( मटकी ); कल्पितैः--ढूँढ़ निकाली गई; स्तेय-योगैः--चोरी करने कीविधि के द्वारा; मर्कानू--बन्दरों को; भोक्ष्यनू--खिलाते हुए; विभजति--बाँट-बाँट कर देता है; सः--वह बन्दर; चेत्--यदि;न--नहीं; अत्ति--खाता है; भाण्डम्--बर्तन; भिन्नत्ति--तोड़ डालता है; द्रव्य-अलाभे--खाने को कुछ न मिलने पर; स-गृह-हस्ताग्राह् रचयति विधिं पीठकोलूखलादै-शिछद्रं हान्तर्निहितवयुनः शिक्यभाण्डेषु तद्ठित् ।
ध्वान्तागारे धृतमणिगणं स्वाड्रमर्थप्रदीपंकाले गोपष्यो यहि गृहकृत्येषु सुव्यग्रचित्ता: ॥
३०॥
हस्त-अग्राह्े--हाथ न पहुँचने पर; रचयति--बनाता है; विधिमू--उपाय; पीठक--पीढ़ा, लकड़ी की चौकी; उलूखल-आद्यैः--तथा ओखली इत्यादि से; छिद्रमू--छेद; हि--निस्सन्देह; अन्तः-निहित--बर्तन के भीतर की वस्तुएँ; बयुन:--ऐसे ज्ञानसे; शिक्य--शिकहरा, छींका से टांग कर; भाण्डेषु--बर्तनों के भीतर; तत्-वित्--उस ज्ञान में दक्ष; ध्वान्त-आगारे-- अँधेरेकमरे में; धृत-मणि-गणम्--मूल्यवान मोतियों से सजाया होने के कारण; स्व-अड्भम्--अपने शरीर को; अर्थ-प्रदीपम्-- अँधेरेमें देखने के लिए आवश्यक प्रकाश में; काले--उसके बाद; गोप्य:--वृद्धा गोपियाँ; यहि--ज्योंही; गृह-कृत्येषु--घर केकामकाज करेने में; सु-व्यग्र-चित्ता:--बुरी तरह लगी रहने से |
’जब दूध तथा दही की मटकी को छत से लटकते छींके में ऊँचा रख दिया जाता है औरकृष्ण तथा बलराम उस छींके तक नहीं पहुँच पाते तो वे पीढ़ों को जुटाकर तथा मसाले पीसनेकी ओखली को उलट कर उस पर चढ़ कर उस तक पहुँच जाते हैं।
बर्तन के भीतर कया है, वेअच्छी तरह जानते हैं अतः उसमें छेद कर देते हैं।
जब सयानी गोपिकाएँ कामकाज में लगी रहतीहैं, तो कभी कभी कृष्ण तथा बलराम अँधेरी कोठरी में चले जाते हैं और अपने शरीर में पहनेहुए मूल्यवान आभूषणों की मणियों की चमक से उस स्थान को प्रकाशित करके चोरी कर लेजाते हैं।
एवं धा्टर्यान्युशति कुरुते मेहनादीनि वास्तौस्तेयोपायर्विरचितकृतिः सुप्रतीको यथास्ते ।
इत्थं स्रीभिः सभयनयनश्रीमुखालोकिनीभि-व्याख्यातार्था प्रहसितमुखी न ह्युपालब्धुमैच्छत् ॥
३१॥
एवम्--इस प्रकार; धाष्टर्यानि--उपद्रव; उशति--स्वच्छ स्थान में; कुरते--क भी कभी करता है; मेहन-आदीनि--टट्टी पेशाबकरना; वास्तौ--घरों में; स्तेय-उपायैः --दूध तथा मक्खन चुराने की विविध युक्तियाँ ढूँढ़कर; विरचित-कृति:--अत्यन्त दक्ष है;सु-प्रतीक:--अब अच्छे, शिष्ट बालक की तरह बैठा हुआ है; यथा आस्ते--यहाँ रहते हुए; इत्थम्--ये बातें; स्त्रीभि:--गोपियोंके द्वारा; स-भय-नयन--अब डरी हुईं आँखों से बैठा; श्री-सुख--ऐसा सुन्दर चेहरा; आलोकिनीभि:--गोपियाँ देखने काआनन्द ले रही थीं; व्याख्यात-अर्था--माता यशोदा से उसकी शिकायत करते हुए; प्रहसित-मुखी--हँसती और आनन्द लूटतीं;न--नहीं; हि--निस्सन्देह; उपालब्धुम्--डराने-धमकाने के लिए; ऐच्छत्--उसकी इच्छा हुई, चाहा।
‘जब कृष्ण नटखटपन करते पकड़े जाते हैं, तो घर के मालिक उससे कहते, '‘ओरे चोर 'और उस पर बनावटी क्रोध प्रकट करते।
तब कृष्ण उत्तर देते, ‘मैं चोर नहीं हूँ।
चोर तुम हो।
'कभी कभी कृष्ण क्रोध में आकर हमारे साफ-सुथरे घरों में मल-मूत्र विसर्जन कर देता है।
किन्तुहे सखी यशोदा, अब वही दक्ष चोर तुम्हारे सामने अच्छे लड़के की तरह बैठा है।
' कभी कभीसभी गोपियाँ कृष्ण को भयातुर आँखों किए बैठे देखती थीं, ताकि माता डांटे फटकारे नहींऔर जब वे कृष्ण का सुन्दर मुखड़ा देखतीं तो उसे डाँटने की बजाय वे उनके मुखड़े को देखतीही रह जातीं और दिव्य आनन्द का अनुभव करतीं।
माता यशोदा इस खिलवाड़ पर मन्द-मन्दमुसकातीं और उनका मन अपने भाग्यशाली दिव्य बालक को डाँटने को करता ही नहीं था।
एकदा क्रीडमानास्ते रामाद्या गोपदारका: ।
कृष्णो मृदं भक्षितवानिति मात्रे न््यवेदयन् ॥
३२॥
एकदा--एक बार; क्रीडमाना:--बड़े होकर भी अपनी उम्र वाले अन्य बालकों के साथ खेलते; ते--वे; राम-आद्या:--बलरामतथा अन्य; गोप-दारकाः--ग्वालों के पड़ोस में पैदा हुए अन्य बालक; कृष्ण: मृदम् भक्षितवान्--हे माता! कृष्ण ने मिट्टी खाईहै; इति--इस प्रकार; मात्रे--माता यशोदा से; न््यवेदयन्--निवेदन किया।
एक दिन जब कृष्ण अपने छोटे साथियों के साथ बलराम तथा अन्य गोप-पुत्रों सहित खेलरहे थे तो उनके सारे साथियों ने एकत्र होकर माता यशोदा से शिकायत की कि ‘‘कृष्ण ने मिट्टीखाई है।
'सा गृहीत्वा करे कृष्णमुपालभ्य हितैषिणी ।
यशोदा भयसम्ध्रान्तप्रेक्षणाक्षमभाषत ॥
३३॥
सा--माता यशोदा; गृहीत्वा--पकड़ कर; करे--हाथ में; कृष्णम्--कृष्ण को; उपालभ्य--डाँटना चाहा; हित-एषिणी--कृष्णका कल्याण चाहने के कारण वे क्षुब्ध थीं कि इस कृष्ण ने मिट्टी कैसे खाई ?; यशोदा--माता यशोदा ने; भय-सम्भ्रान्त-प्रेक्षण-अक्षम्-कृष्ण के मुँह के भीतर सावधानी से देखने लगी, यह देखने के लिए कि कोई खतरनाक वस्तु तो नहीं भर ली;अभाषत--कृष्ण से कहा
कृष्ण के साथियों से यह सुनकर, हितैषिणी माता यशोदा ने कृष्ण के मुख के भीतर देखनेतथा डाँटने के लिए उन्हें अपने हाथों से ऊपर उठा लिया।
वे डरी डरी आँखों से अपने पुत्र से इसप्रकार बोलीं ।
कस्मान्मृदमदान्तात्मन्भवान्भक्षितवात्रह: ।
बदन्ति तावका होते कुमारास्तेग्रजोप्ययम् ॥
३४॥
कस्मात्-क्यों; मृदम्--मिट्टी; अदान्त-आत्मन्--अरे चंचल बालक; भवान्--तुमने; भक्षितवान्--खाई है; रहः--एकान्तस्थान में; वदन्ति--यह शिकायत कर रहे हैं; तावका:ः --तुम्हारे दोस्त; हि--निस्सन्देह; एते--वे सभी; कुमारा:--बालक; ते--तुम्हारे; अग्रज:ः--बड़ा भाई; अपि-- भी ( पुष्टि करता है ); अयम्ू--यह ।
हे कृष्ण, तुम इतने चंचल क्यों हो कि एकान्न्त स्थान में तुमने मिड्ठी खा ली? यह शिकायततुम्हारे बड़े भाई बलराम समेत तुम्हारे संगी-साथियों ने की है।
यह क्योंकर हुआ ?नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिन: ।
यदि सत्यगिरस्तरहिं समक्ष पश्य मे मुखम् ॥
३५॥
न--नहीं; अहम्--मैंने; भक्षितवान्ू--मिट्टी खाई है; अम्ब--हे माता; सर्वे--वे सभी; मिथ्य-अभिशंसिन:--सभी झूठे हैं, केवलमेरी शिकायत करते हैं कि आप मुझे डाँटें; यदि--यदि यह यथार्थ है; सत्य-गिर:--कि उन्होंने सच बोला है; तह्हि--तो;समक्षम्-प्रत्यक्ष; पश्य--देखिये; मे--मेरा; मुखम्-- मुँह |
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘'हे माता, मैंने मिट्टी कभी नहीं खाई।
मेरी शिकायत करने वाले मेरेसारे मित्र झूठे हैं।
यदि आप सोचती हैं कि वे सच बोल रहे हैं, तो आप मेरे मुँह के भीतर प्रत्यक्षदेख सकती हैं।
यद्येव॑ तरहिं व्यादेहीत्युक्त: स भगवान्हरि: ।
व्यादत्ताव्याहतैश्वर्य: क्रीडामनुजबालक:ः ॥
३६॥
यदि--यदि; एवम्--ऐसा है; तर्हि--तो; व्यादेहि--अपना मुख खोलो ( मैं देखना चाहती हूँ ); इति उक्त:--माता यशोदा द्वाराऐसा आदेश दिये जाने पर; सः--उस; भगवान्-- भगवान्; हरिः--पर मे श्वर ने; व्यादत्त-- अपना मुँह खोल दिया; अव्याहत-ऐश्वर्य:--ऐश्वर्य भक्ति में बिना किसी कमी के ( ऐश्वर्यस्य समग्रस्य ); क्रीडा--लीला या खिलवाड़; मनुज-बालक: --मनुष्य केलड़के की तरह।
माता यशोदा ने कृष्ण को धमकाया : ‘यदि तुमने मिट्टी नहीं खाई है, तो अपना मुँह पूरीतरह खोलो।
इस पर नन्द तथा यशोदा के पुत्र कृष्ण ने मानवी बालक की तरह लीला करने केलिए अपना मुँह खोला।
यद्यपि समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान् कृष्ण ने अपनी माता केवात्सल्य-प्रेम को ठेस नहीं लगाई, फिर भी उनका ऐश्वर्य स्वतः प्रदर्शित हो गया क्योंकि कृष्णका ऐश्वर्य किसी भी स्थिति में विनष्ट नहीं होता अपितु उच्चित समय पर प्रकट होता है।
सा तत्र ददशे विश्व जगत्सथास्नु च खं दिशः ।
सादिद्वीपाब्धिभूगोलं सवाय्वग्नीन्दुतारकम् ॥
३७॥
ज्योतिश्चक्रं जलं तेजो नभस्वान्वियदेव च ।
वैकारिकाणीन्द्रियाणि मनो मात्रा गुणास्त्रय: ॥
३८॥
एतद्विचित्रं सहजीवकाल-स्वभावकर्माशयलिड्डभेदम् ।
सूनोस्तनौ वीक्ष्य विदारितास्येब्र॒ज॑ सहात्मानमवाप शट्डाम् ॥
३९॥
सा--माता यशोदा ने; तत्र--कृष्ण के खुले मुख के भीतर; दहशे--देखा; विश्वम्--सारे ब्रह्मण्ड को; जगत्--चर-प्राणी;स्थास्नु--अचर, जड़ प्राणी; च--तथा; खम्--आकाश; दिश:--दिशाएँ; स-अद्वि--पर्वतों सहित; द्वीप--द्वीप; अब्धि--समुद्र; भू-गोलम्--पृथ्वी की सतह; स-वायु--बहती हवा के समेत; अग्नि--आग; इन्दु--चन्द्रमा; तारकम्--तारे; ज्योति:-चक्रम्-ग्रह नक्षत्र; जलम्ू--जल; तेज:-- प्रकाश; नभस्वान्--अन्तरिक्ष; वियत्-- आकाश; एब-- भी; च--तथा;वैकारिकाणि--अहंकार के रूपांतर से बनी सृष्टि; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; मन:--मन; मात्रा:--तन्मात्रा; गुणा: त्रयः--तीनों गुण( सत्त्व, रजस् तथा तमस ); एतत्--ये सारे; विचित्रमू--तरह तरह के; सह--समेत; जीव-काल--सारे जीवों की आयु;स्वभाव--स्वभाव; कर्म-आशय--कर्म तथा भौतिक भोग की इच्छा ( वासना ); लिड्-भेदम्--इच्छानुसार शरीरों के भेद;सूनो: तनौ-- अपने पुत्र के शरीर में; वीक्ष्य-- देखकर; विदारित-आस्ये--खुले मुँह के भीतर; ब्रजम्--त्रज-धाम को; सह-आत्मानम्-- अपने समेत; अवाप--हत प्रभ रह गई; शट्भाम्ू--शंका तथा आश्चर्य से युक्त |
जब कृष्ण ने माता यशोदा के आदेश से अपना पूरा मुँह खोला तो उन्होंने कृष्ण के मुख केभीतर सभी चर-अचर प्राणी, बाह्य आकाश, सभी दिशाएँ, पर्वत, द्वीप, समुद्र, पृथ्वीतल, बहतीहवा, अग्नि, चन्द्रमा तथा तारे देखे।
उन्होंने ग्रह, जल, प्रकाश, वायु, आकाश तथा अहंकार केरूपान्तर द्वारा सृष्टि देखी।
उन्होंने इन्द्रियाँ, मन, तन्मात्राएँ, तीनों गुण ( सतो, रजो तथा तमो ) भीदेखे।
उन्होंने जीवों की आयु, प्राकृतिक स्वभाव तथा कर्मफल देखे।
उन्होंने इच्छाएँ और विभिन्नप्रकार के चर-अचर शरीर देखे।
विराट जगत के इन विविध पक्षों के साथ ही स्वयं को तथावृन्दावन-धाम को देखकर वे अपने पुत्र के स्वभाव से सशंकित तथा भयभीत हो उठीं।
कि स्वप्न एतदुत देवमाया कि वा मदीयो बत बुद्धिमोहः ।
अथो अभमुष्यैव ममार्भकस्ययः कश्चनौत्पत्तिक आत्मयोग: ॥
४०॥
किम्--क्या; स्वप्न: --सपना; एतत्--यह; उत--अथवा; देव-माया--बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहमयी अभिव्यक्ति; किम् वा--अथवा; मदीय:--मेरा निजी; बत--निस्सन्देह; बुद्धि-मोह:--बुद्धि का मोह; अथो--अन्यथा; अमुष्य--ऐसे; एब--निस्सन्देह;मम अर्भकस्य--मेंरे बालक का; यः--जो; कश्चन--कोई ; औत्पत्तिक: --प्राकृतिक; आत्म-योग:--निजी योगशक्ति |
[माता यशोदा अपने में ही तर्क करने लगीं : क्या यह सपना है या बहिरंगा शक्ति कीमोहमयी सृष्टि है? कहीं यह मेरी ही बुद्धि से तो प्रकट नहीं हुआ ? अथवा यह मेरे बालक कीकोई योगशक्ति है?
अथो यथावतन्न वितर्कगोचरंचेतोमन:ःकर्मवचोभिरज्धसा ।
यदाश्रयं येन यतः प्रतीयतेसुदुर्विभाव्यं प्रणतास्मि तत्पदम् ॥
४१॥
अथो--इसलिए उसने भगवान् की शरण में जाने का निश्चय किया; यथा-वत्--जितनी पूर्णता से कोई अनुभव कर सकती है;न--नहीं; वितर्क-गोचरम्--समस्त तर्क, इन्द्रिय बोध से परे; चेत:--चेतना से; मन:ः--मन से; कर्म--कर्म से; वचोभि:--अथवा शब्दों से; अज्लआ--सबको मिलकर भी हम उन्हें नहीं समझ सकते; यत्-आश्रयम्--जिसके नियंत्रण में; येन--जिसकेद्वारा; यतः--जिससे; प्रतीयते--अनुभव किया जा सकता है कि हर वस्तु उन्हीं से उद्भूत है; सु-दुर्विभाव्यमू--हमारी चेतना सेपरे; प्रणता अस्मि--शरणागत हूँ; तत्ू-पदम्--उनके चरणों में
अतएव मैं उन भगवान् की शरण ग्रहण करती हूँ और उन्हें नमस्कार करती हूँ जो मनुष्य कीकल्पना, मन, कर्म, विचार तथा तर्क से परे हैं, जो इस विराट जगत के आदि-कारण हैं, जिनसेयह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पालित है और जिनसे हम इस जगत के अस्तित्व का अनुभव करते हैं।
मैंउन्हें सादर नमस्कार ही कर सकती हूँ क्योंकि वे मेरे चिन्तन, अनुमान तथा ध्यान से परे हैं।
वे मेरेसमस्त भौतिक कर्मों से भी परे हैं।
अहं ममासौ पतिरेष मे सुतोब्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा सती ।
गोप्यश्चव गोपा: सहगोधनाश्च मेयन्माययेत्थं कुमति: स मे गति: ॥
४२॥
अहम्-मेरा अस्तित्व ( मैं कुछ हूँ ); मम--मेरा; असौ--नन्द महाराज; पति:ः--पति; एष:--यह ( कृष्ण ); मे सुत:--मेरा पुत्रहै; ब्रज-ई श्वरस्थ-- मेरे पति नन्द महाराज का; अखिल-वित्त-पा--मैं असीम ऐश्वर्य और सम्पत्ति की मालकिन हूँ; सती--उनकीपत्नी होने से; गोप्य: च--तथा सारी गोपियाँ; गोपा: --सारे ग्वाले ( जो मेरे अधीन हैं ); सह-गोधना: च--गौवों तथा बछड़ोंसमेत; मे--मेरा; यत्-मायया--ऐसी सारी वस्तुएँ जिन्हें मैं कहती हूँ आखिर भगवान् की कृपा से प्राप्त हैं; इत्थम्--इस प्रकार;कुमतिः--मैं झूठे ही सोचती हूँ कि मेरी सम्पत्ति हैं; सः मे गति:ः--अतएव बे ही मेरी एकमात्र शरण हैं ( मैं तो निमित्त मात्र हूँ )
यह तो भगवान् की माया का प्रभाव है, जो मैं मिथ्या ही सोचती हूँ कि नन््द महाराज मेरेपति हैं, कृष्ण मेरा पुत्र है और चूँकि मैं नन्द महाराज की महारानी हूँ इसलिए गौवों तथा बछड़ोंकी सम्पत्ति मेरे अधिकार में है और सारे ग्वाले तथा उनकी पत्रियाँ मेरी प्रजा हैं।
वस्तुतः मैं भीभगवान् के नित्य अधीन हूँ।
वे ही मेरे अनन्तिम आश्रय हैं।
इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वर: ।
वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभु: ॥
४३॥
इत्थम्--इस तरह; विदित-तत्त्वायाम्ू--हर वस्तु के सत्य को दार्शनिक रूप से समझ जाने पर; गोपिकायाम्ू--माता यशोदा केप्रति; सः--उस, भगवान् ने; ईश्वर:--परम नियन्ता; वैष्णवीम्--विष्णु-माया या योगमाया का; व्यतनोत्--विस्तार किया;मायाम्--योगमाया की; पुत्र-स्नेह-मयीम्-- अपने पुत्र-स्नेह के कारण अत्यन्त अनुरक्त; विभु:--पर मे श्वर ने |
माता यशोदा भगवान् की कृपा से असली सत्य को समझ गईं।
लेकिन अन्तरंगा शक्ति,योगमाया के प्रभाव से परम प्रभु ने उन्हें प्रेरित किया कि वे अपने पुत्र के गहन मातृ-प्रेम में लीनहो जाँय।
सद्यो नष्टस्मृतिर्गोपी सारोप्यारोहमात्मजम् ।
प्रवृद्धस्तेहकलिलहृदयासीद्यथा पुरा ॥
४४॥
सद्यः--इन सारे दार्शनिक चिन्तनों के बाद माता यशोदा ने भगवान् की शरण ग्रहण की; नष्ट-स्मृतिः--कृष्ण के मुँह के भीतरविश्व रूप देखने से नष्ट हुई स्मरणशक्ति; गोपी--माता यशोदा; सा--वह; आरोप्य--बैठाकर; आरोहम्--गोद में; आत्मजम्--अपने पुत्र को; प्रवृद्ध--बढ़ा हुआ; स्नेह--स्नेह से; कलिल-- प्रभावित; हृदया--हृदय से; आसीतू--हो गई; यथा पुरा--जैसीपहले थी
कृष्ण ने अपने मुँह के भीतर जिस विराट रूप को दिखलाया था योगमाया के उस भ्रम कोतुरन्त ही भूलकर माता यशोदा ने अपने पुत्र को पूर्ववत् अपनी गोद में ले लिया और अपने दिव्यबालक के प्रति उनके हृदय में और अधिक स्नेह उमड़ आया।
अय्या चोपनिषद्धिश्व साड्ख्ययोगैश्व सात्वतैः ।
उपगीयमानमाहात्म्यं हरिं सामन्यतात्मजम् ॥
४५॥
त्रय्या--तीन वेदों ( साम, यजुर् तथा अथर्व ) के अध्ययन से; च-- भी; उपनिषद्धि: च--तथा उपनिषदों के अध्ययन से;साइ्ख्य-योगैः--तथा सांख्य योग विषयक साहित्य के अध्ययन से; च--तथा; सात्वतैः--बड़े बड़े ऋषियों-मुनियों द्वारा अथवावैष्णव तंत्र पद्धरात्र का अध्ययन करने से; उपगीयमान-माहात्म्यम्--जिनकी महिमा की पूजा ( इन बैदिक ग्रंथों द्वारा ) की जातीहै; हरिमू-- भगवान् को; सा--उसने; अमन्यत--( सामान्य ) मान लिया; आत्मजम्-- अपना पुत्र
भगवान् की महिमा का अध्ययन तीनों वेदों, उपनिषदों, सांख्य योग के ग्रंथों तथा अन्यवैष्णव साहित्य के माध्यम से किया जाता है।
फिर भी माता यशोदा परम पुरुष को अपना सामान्य बालक मानती रहीं।
श्रीराजोबवाचनन्दः किमकरोद्डह्मन्श्रेय एवं महोदयम् ।
यशोदा च महाभागा पपौ यस्या: स्तनं हरि: ॥
४६॥
श्री-राजा उबाच--महाराज परीक्षित ने और आगे पूछा; नन्दः--महराज नन्द ने; किम्ू--क्या; अकरोत्--किया; ब्रह्मनू--हेविद्वान ब्राह्मण; श्रेयः --पुण्यकर्म यथा तपस्या; एवम्--जिस तरह उन्होंने प्रकट किया; महा-उदयम्--जिससे उन्हें सर्वोच्चसिद्धि प्राप्त हुई; यशोदा--माता यशोदा; च-- भी; महा-भागा--अत्यन्त भाग्यशालिनी; पपौ--पिया; यस्या: --जिसका;स्तनमू--स्तन का दूध; हरिः-- भगवान् ने |
माता यशोदा के परम सौभाग्य को सुनकर परीक्षित महाराज ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा :है विद्वान ब्राह्मण, भगवान् द्वारा माता यशोदा का स्तन-पान किया गया।
उन्होंने तथा नन्दमहाराज ने भूतकाल में कौन-से पुण्यकर्म किये जिनसे उन्हें ऐसी प्रेमम॒यी सिद्धि प्राप्त हुई ?
पितरौ नान्वविन्देतां कृष्णोदारार्भकेहितम् ।
गायन्त्यद्यापि कवयो यललोकशमलापहम् ॥
४७॥
पितरौ--कृष्ण के असली पिता तथा माता ने; न--नहीं; अन्वविन्देताम्ू-- आनन्द प्राप्त किया; कृष्ण--कृष्ण का; उदार--वदान्य; अर्भक-ईहितम्--उसके द्वारा सम्पन्न बाल-लीलाएँ; गायन्ति--महिमा का गान करते हैं; अद्य अपि--आज भी;कवयः--बड़े बड़े ऋषि-मुनि; यत्ू--जो; लोक-शमल-अपहम्--जिसके सुनने से सारे जगत का कल्मष दूर हो जाता है।
यद्यपि कृष्ण बसुदेव तथा देवकी से इतने प्रसन्न थे कि वे उनके पुत्र रूप में अवतरित हुएकिन्तु वे दोनों ही कृष्ण की उदार बाल-लीलाओं का आनन्द नहीं उठा पाये।
ये लीलाएँ इतनीमहान् हैं कि इनका उच्चार करने मात्र से संसार का कल्मष दूर हो जाता है।
किन्तु नन््द महाराजतथा यशोदा ने इन लीलाओं का पूर्ण आनन्द प्राप्त किया अतएवं उनकी स्थिति वसुदेव तथादेवकी से सदैव श्रेष्ठतर है।
श्रीशुक उबाचद्रोणो बसूनां प्रवरो धरया भार्यया सह ।
'करिष्यमाण आदेशान्ब्रह्मणस्तमुवाच ह ॥
४८ ॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; द्रोण:--द्रोण नामक; बसूनाम्--आठ वसुओं में; प्रवर:--सर्व श्रेष्ठ; धरया--धरा के; भार्यया--अपनी पतली; सह--साथ; करिष्यमाण:--सम्पन्न करने के लिए; आदेशान्--आदेश; ब्रह्मण: --ब्रह्मा का;तम्--उससे; उवाच--कहा; ह--भूतकाल में
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान् ब्रह्माजी के आदेश का पालन करने के लिए वसुओं मेंश्रेष्ठ द्रोण ने अपनी पत्नी धरा समेत ब्रह्मा से इस प्रकार कहा।
जातयोनों महादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ ।
भक्ति: स्यात्परमा लोके ययाज्ञो दुर्गतिं तरेत् ॥
४९॥
जातयो: --जन्म लेकर; नौ--पति-पली दोनों, द्रोण तथा धरा; महादेवे--परम पुरुष, भगवान् में; भुवि--पृथ्वी पर; विश्व-ईश्वर--सभी लोकों के स्वामी में; हरौ--हरि में; भक्ति:-- भक्ति; स्थातू--फैलेगी; परमा--जीवन का चरम लक्ष्य; लोके--संसार में; यया--जिससे; अज्ञः--आसानी से; दुर्गतिम्--दुखमय जीवन से; तरेतू--बच सकता है और उद्धार हो सकता है।
द्रोण तथा धरा ने कहा : कृपा करके हमें अनुमति दें कि हम पृथ्वी पर जन्म लें जिससेपरब्रह्म परम नियन्ता तथा समस्त लोकों के स्वामी भगवान् भी प्रकट हों और भक्ति का प्रसारकरें जो जीवन का चरम लक्ष्य है और जिसे ग्रहण करके इस भौतिक जगत में उत्पन्न होने वालेलोग सरलता से भौतिकतावादी जीवन की दुखमय स्थिति से उबर सकें ।
अस्त्वित्युक्त: स भगवान्त्रजे द्रोणो महायशा: ।
जज्ञे नन्द इति ख्यातो यशोदा सा धराभवत् ॥
५०॥
अस्तु--ब्रह्मा ने स्वीकार किया, ‘हाँ, ठीक है'; इति उक्त:--उनसे ऐसा आदेश पाकर; सः--उसने ( द्रोण ने ); भगवानू--कृष्ण के पिता ( भगवान् का पिता भगवान् होता है ); ब्रजे--ब्रजभूमि वृन्दावन में; द्रोण:--द्रोण, अत्यन्त शक्तिशाली बसु ने;महा-यशा:--परम प्रसिद्ध अध्यात्मवादी; जन्ञे--प्रकट हुआ; नन्दः--नन्द महाराज के रूप में; इति--इस प्रकार; ख्यातः--विख्यात है; यशोदा--माता यशोदा के रूप में; सा--वह; धरा--धरा; अभवत्--प्रकट हुई
जब ब्रह्मा ने कहा, ‘हाँ, ऐसा ही हो ' तो परम भाग्यशाली द्रोण जो भगवान् के समान था,ब्रजपुर वृन्दावन में विख्यात नन्द महाराज के रूप में और उनकी पत्नी धरा माता यशोदा के रूपमें प्रकट हुए।
ततो भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने ।
दम्पत्योर्नितरामासीद्गोपगोपीषु भारत ॥
५१॥
ततः--तत्पश्चात्; भक्ति: भगवति--भगवान् की भक्ति, भक्ति सम्प्रदाय; पुत्री-भूते-- भगवान् के रूप में जो माता यशोदा के पुत्ररूप में उत्पन्न हुए; जनार्दने-- भगवान् कृष्ण में; दम्-पत्यो:--पति-पत्नी दोनों का; नितरामू--निरन्तर; आसीत्-- था; गोप-गोपीषु--गोप तथा गोपियाँ, जो वृन्दावन के वासी तथा नन्द महाराज तथा यशोदा के सान्निध्य में थे; भारत--हे महाराजपरीक्षित |
हे भारत श्रेष्ठ महाराज परीक्षित, तत्पश्चात् जब भगवान् कृष्ण नन्द महाराज तथा यशोदा केपुत्र बने तो उन दोनों ने निरन्तर, अचल दिव्य वात्सल्य-प्रेम बनाये रखा तथा उनके सात्निध्य मेंवृन्दावन के अन्य सभी निवासी, गोप तथा गोपियों ने कृष्ण-भक्ति-संस्कृति का विकास किया।
कृष्णो ब्रह्मण आदेशं सत्य कर्तु ब्रजे विभु: ।
सहरामो वसंश्षक्रे तेषां प्रीति स््वलीलया ॥
५२॥
कृष्ण:-- भगवान् कृष्ण ने; ब्रह्मण:--ब्रह्माजी का; आदेशम्--आदेश; सत्यम्--सच; कर्तुम्-बनाने के लिए; ब्रजे--ब्रजभूमिवृन्दावन में; विभु:--परम शक्तिशाली; सह-राम: --बलराम के साथ; वसन्--निवास करते हुए; चक्रे--बढ़ाया; तेषाम्--वृन्दावनवासियों का; प्रीतिमू--आनन्द; स्व-लीलया--अपनी दिव्य लीलाओं से |
इस तरह ब्रह्म के वर को सत्य करने के लिए भगवान् कृष्ण बलराम समेत ब्रजभूमिवृन्दावन में रहे।
उन्होंने विभिन्न बाल-लीलाएँ प्रदर्शित करते हुए ननन््द तथा वृन्दावन के अन्यवासियों के दिव्य आनन्द को वर्धित किया।
अध्याय नौ: माता यशोदा भगवान कृष्ण को बांधती हैं
10.9श्रीशुक उबाचएकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी ।
कर्मान्तरनियुक्तासुनिर्ममन्थ स्वयं दधि ॥
१॥
यानि यानीह गीतानि तद्बालचरितानि च ।
दधिनिर्मन्थने काले स्मरन्ती तान्यगायत ॥
२॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एकदा--एक दिन; गृह-दासीषु--जब घर की नौकरानियाँ काम में लगी हुईथीं; यशोदा--माता यशोदा; नन्द-गेहिनी--नन्द महाराज की रानी; कर्म-अन्तर--अन्य कामकाजों में; नियुक्तासु--लगी हुई;निर्ममन्थ--मथने लगी; स्वयम्--स्वयं, खुद; दधि--दही; यानि--जो; यानि--जो; इह--इस सम्बन्ध में; गीतानि--गीत; ततू-बाल-चरितानि--जिसमें अपने बालक के कार्यकलापों का वर्णन था; च--तथा; दधि-निर्मन्थने--दही मथने के; काले--समय; स्मरन्ती--स्मरण करती; तानि---उन्हें; अगायत--गाने लगीं।
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : एक दिन जब माता यशोदा ने देखा कि सारीनौकरानियाँ अन्य घरेलू कामकाजों में व्यस्त हैं, तो वे स्वयं दही मथने लगीं।
दही मथते समय उन्होंने कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का स्मरण किया और स्वयं उन क्रीड़ाओं के विषय में गीतबनाते हुए उन्हें गुनगुनाकर आनन्द लेने लगीं।
क्षौमं वास: पृथुकटितटे बिश्रती सूत्रनद्धंपुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं जातकम्पं च सुभ्रू: ।
रज्वाकर्ष श्रमभुजचलत्कड्डणौ कुण्डले चस्विन्न॑ वक्त्रं कबरविगलन्मालती निर्ममन्थ ॥
३॥
क्षौमम्--केसरिया तथा पीला मिश्रित; वास:--माता यशोदा की साड़ी; पृथु-कटि-तटे--चौड़ी कमर के चारों ओर; बिभ्रती--हिलती हुई; सूत्र-नद्धम्--पेटी से बँधी; पुत्र-स्नेह-स्नुत--प्रगाढ़ पुत्र-प्रेम के कारण दूध से तर; कुच-युगम्--उसके दोनों स्तन;जात-कम्पम् च--क्योंकि वे सुन्दर ढंग से हिल-डुल रहे थे; सु-भ्रू:--सुन्दर भौंहों वाली; रज्जु-आकर्ष--मथानी की रस्सी कोखींचने से; श्रम--परिश्रम के कारण; भुज--हाथों पर; चलतू-कड्जूणौ--हिलते हुए दोनों कड़े; कुण्डले--कान के दोनोंकुण्डल; च--भी; स्विन्नम्ू--बादल जैसे काले बालों से वर्षा की तरह चूता हुआ पसीना; वक्त्रम्--पूरे मुखमण्डल में; कबर-विगलत्ू-मालती--उसके बालों से मालती के फूल गिर रहे थे; निर्ममन्थ--माता यशोदा दही मथ रही थीं।
केसरिया-पीली साड़ी पहने, अपनी स्थूल कमर में करधनी बाँधे, माता यशोदा मथानी कीरस्सी खींचने में काफी परिश्रम कर रही थीं, उनकी चूड़ियाँ तथा कान के कुण्डल हिल-डुल रहेथे और उनका पूरा शरीर हिल रहा था।
अपने पुत्र के प्रति प्रगाढ़ प्रेम के कारण उनके स्तन दूधसे गीले थे।
उनकी भौहें अत्यन्त सुन्दर थीं और उनका मुखमण्डल पसीने से तर था।
उनके बालोंसे मालती के फल गिर रहे थे।
तां स्तन्यकाम आसाद्य मथ्नन्तीं जननीं हरि: ।
गृहीत्वा दधिमन्थानं न्यषेधत्प्रीतिमावहन् ॥
४॥
तामू--माता यशोदा को; स्तन्य-काम:ः--स्तन-पान के अभिलाषी कृष्ण; आसाद्य--उनके समक्ष प्रकट होकर; मधथ्नन्तीम्--मथती हुई; जननीम्--माता को; हरिः--कृष्ण ने; गृहीत्वा--पकड़ कर; दधि-मन्थानम्--मथानी; न्यषेधत्--मना किया, रोकदिया; प्रीतिम् आवहन्-प्रेम की परिस्थिति उत्पन्न करते हुए।
जब यशोदा दही मथ रही थीं तो उनका स्तन-पान करने की इच्छा से कृष्ण उनके सामनेप्रकट हुए और उनके दिव्य आनन्द को बढ़ाने के लिए उन्होंने मथानी पकड़ ली और दही मथनेसे उन्हें रोकने लगे।
तमड्डमारूढमपाययत्स्तनंस्नेहस्नुतं सस्मितमीक्षती मुखम् ।
अतृप्तमुत्सृज्य जवेन सा यया-वुत्सिच्यमाने पयसि त्वधिश्रिते ॥
५॥
तम्--कृष्ण को; अड्डमू आरूढम्--बड़े ही स्नेह से उन्हें अपनी गोद में बैठाकर; अपाययत्--पिलाया; स्तनम्ू-- अपना स्तन;स्नेह-स्नुतम्ू--अगाध स्नेह के कारण दूध बहता हुआ; स-स्मितम् ईक्षती मुखम्--यशोदा ने हँसते हुए एवं कृष्ण के हँसते मुखको देखते हुए; अतृप्तम्--माता का दूध पीकर भी अतृप्त थे; उत्सृज्य--एक तरफ बैठाकर; जवेन--जल्दी में; सा--मातायशोदा ने; ययौ--वह स्थान छोड़ दिया; उत्सिच्यमाने पयसि--दूध बहते देखकर; तु--लेकिन; अधिभ्रिते--आग पर चढ़ीदुधहंडी में |
तब माता यशोदा ने कृष्ण को सीने से लगाया, उन्हें अपनी गोद में बैठाया और बड़े स्नेह सेभगवान् का मुँह देखने लगीं।
अगाध स्नेह के कारण उनके स्तन से दूध बह रहा था।
किन्तु जबउन्होंने देखा कि आग के ऊपर रखी कड़ाही से दूध उबल कर बाहर गिर रहा है, तो वे बच्चे कोदूध पिलाना छोड़ कर उफनते दूध को बचाने के लिए तुरन्त चली गईं यद्यपि बच्चा अपनी माताके स्तनपान से अभी तृप्त नहीं हुआ था।
सज्जातकोपः स्फुरितारुणाधरंसन्दश्य दद्धि्दीधिमन््थभाजनम् ।
भित्त्वा मृषाश्रु्टघदश्मना रहोजघास हैयड्डबमन्तरं गतः ॥
६॥
सज्ञात-कोप:--इस तरह कृष्ण अत्यन्त क्रुद्ध होकर; स्फुरित-अरुण-अधरम्--सूजे हुए लाल-लाल होंठ; सन्दश्य--काटतेहुए; दद्धिः--अपने दाँतों से; दधि-मन्थ-भाजनम्ू--मटकी को; भित्त्वा--तोड़ते हुए; मृषा-अश्रु:--आँखों में नकली आँसू भरकर; हृषत्-अश्मना--कंकड़ से; रह: --एकान्त स्थान में; जघास--खाने लगे; हैयड्रवम्--ताजा मक्खन; अन्तरम्ू--कमरे केभीतर; गत:--जाकर।
अत्यधिक क्रुद्ध होकर तथा अपने लाल-लाल होंठों को अपने दाँतों से काटते हुए औरआँखों में नकली आँसू भरते हुए कृष्ण ने एक कंकड़ मार कर मटकी तोड़ दी।
इसके बाद वेएक कमरे में घुस गये और एकान्त स्थान में ताजा मक्खन खाने लगे।
उत्तार्य गोपी सुश्रुतं पयः पुनःप्रविश्य संदश्य च दध्यमत्रकम् ।
भग्नं विलोक्य स्वसुतस्य कर्म त-ज्जहास तं चापि न तत्र पश्यती ॥
७॥
उत्तार्य--अँगीठी से उतार कर; गोपी--माता यशोदा; सु- श्रृतम्--अत्यन्त गर्म; पथ: --दूध; पुनः--फिर से; प्रविश्य--मथने केस्थान में घुस कर; संदहश्य--देख कर; च-- भी; दधि-अमत्रकम्--दहेंड़ी; भग्नम्ू--टूटी हुई; विलोक्य--देख कर; स्व-सुतस्य--अपने बालक की; कर्म--करतूत; तत्--वह; जहास--हँसने लगीं; तम् च--कृष्ण को भी; अपि--साथ ही; न--नहीं; तत्र--वहाँ; पश्यती--ढूँढ़ती हुई
गर्म दूध को अँगीठी से उतार कर माता यशोदा मथने के स्थान पर लौटीं और जब देखा किमटकी टूटी पड़ी है और कृष्ण वहाँ नहीं हैं, तो वे जान गईं कि यह कृष्ण की ही करतूत है।
उलूखलाडप्लेरुपरि व्यवस्थितमर्काय काम॑ ददतं शिचि स्थितम् ।
हैयड्रवं चौर्यविश्ितेक्षणंनिरीक्ष्य पश्चात्सुतमागमच्छने: ॥
८ ॥
उलूखल-अड्घ्ने:--उलटी रखी ओखली के; उपरि--ऊपर; व्यवस्थितम्--बैठे हुए कृष्ण; मर्काय--बन्दरों को; कामम्--जी-भरकर; ददतम्--बाँटते हुए; शिचि स्थितम्--छींके में रखी; हैयड्रवम्--मक्खन तथा दूध से बनी अन्य वस्तुएँ; चौर्य-विशद्धित--चुराने के कारण सशंकित; ईक्षणम्--जिसकी आँखें; निरीक्ष्य--इन कार्यो को देखकर; पश्चात्-पीछे से; सुतम्--अपने पुत्र को; आगमत्--आ गई; शनैः--धीरे-धीरे, सावधानी से |
कृष्ण उस समय मसाला पीसने वाली लकड़ी की ओखली को उलटा करके उस पर बैठे हुएथे और मक्खन तथा दही जैसी दूध की बनी वस्तुएँ अपनी इच्छानुसार बन्दरों को बाँट रहे थे।
चोरी करने के कारण वे चिन्तित होकर चारों ओर देख रहे थे कि कहीं उनकी माता आकर उन्हेंडाँटें नहीं।
माता यशोदा ने उन्हें देखा तो वे पीछे से चुपके से उनके पास पहुँचीं।
तामात्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वर-स्ततोवरुह्मापससार भीतवत् ।
गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनांक्षमं प्रवेष्टं तपसेरितं मन: ॥
९॥
तामू--माता यशोदा को; आत्त-यष्टिमू--हाथ में छड़ी लिए; प्रसमी क्ष्य--इस मुद्रा में उन्हें देखकर कृष्ण; सत्वर: --तेजी से;ततः--वहाँ से; अवरुह्म--उतर कर; अपससार-- भगने लगा; भीत-वत्--मानो डरा हुआ हो; गोपी--माता यशोदा;अन्वधावत्--उनका पीछा करने लगीं; न--नहीं; यम्--जिसको; आप--पहुँच पाने में असफल; योगिनाम्ू--बड़े बड़े योगियोंका; क्षमम्--उन तक पहुँचने में समर्थ; प्रवेष्टम्--ब्रह्म तेज या परमात्मा में प्रवेश करने के लिए प्रयत्तशील; तपसा--तपस्या से;ईरितमू--उस कार्य के लिए प्रयलशील; मन:ः--ध्यान से |
जब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी माता को छड़ी लिए हुए देखा तो वे तेजी से ओखली केऊपर से नीचे उतर आये और इस तरह भागने लगे मानो अत्यधिक भयभीत हों।
जिन्हें योगीजनबड़ी बड़ी तपस्याएँ करके ब्रह्म-तेज में प्रवेश करने की इच्छा से परमात्मा के रूप में ध्यान केद्वारा पकड़ने का प्रयत्त करने पर भी उन तक नहीं पहुँच पाते उन्हीं भगवान् कृष्ण को अपना पुत्र समझ कर पकड़ने के लिए यशोदा उनका पीछा करने लगीं।
अन्वद्ञमाना जननी बृहच्चल-च्छोणीभराक्रान्तगति: सुमध्यमा ।
जवेन विस्त्रंसितकेशबन्धनच्युतप्रसूनानुगति: परामृशत् ॥
१०॥
अन्वजञ्ञमाना--तेजी से कृष्ण का पीछा करती हुई; जननी--माता यशोदा; बृहत्-चलत्-श्रोणी-भर-आक्रान्त-गति:--अपने बड़ेबड़े स्तनों के भार से बोझिल होने से वे थक गईं जिससे उनकी चाल मन्द पड़ गई; सु-मध्यमा--अपनी पतली कमर के कारण;जवेन--तेजी से जाने के कारण; विस्त्रंसित-केश-बन्धन--ढीले हुए केश-सज्जा से; च्युत-प्रसून-अनुगति: --उनके पीछे पीछेफूल गिर रहे थे; परामृशत्--अन्त में कृष्ण को पकड़ ही लिया।
कृष्ण का पीछा करते हुए भारी स्तनों के भार से बोझिल पतली कमर वाली माता यशोदाको अपनी चाल मन्द करनी ही पड़ी।
तेजी से कृष्ण का पीछा करने के कारण उनके बालशिथिल पड़ गये थे और उनमें लगे फूल उनके पीछे पीछे गिर रहे थे।
फिर भी वे अपने पुत्र कृष्णको पकड़ने में सफल हुईं।
कृतागसं तं प्ररुदन््तमक्षिणीकषन्तमझझन्मषिणी स्वपाणिना ।
उद्दीक्षमाणं भयविह्ललेक्षणंहस्ते गृहीत्वा भिषयन्त्यवागुरत् ॥
११॥
कृत-आगसम्-- अपराधी; तम्--कृष्ण को; प्ररुदन््तम्--रोते हुए; अक्षिणी--उनकी आँखें; कषन्तम््--मलते हुए; अज्भतू-मषिणी--जिसकी आँखों में लगा काजल आँसुओं के साथ सारे मुँह में फैल गया; स्व-पाणिना--अपने हाथ से; उद्दीक्षमाणम्--जो माता यशोदा द्वारा इस मुद्रा में देखे गये; भय-विहल-ईक्षणम्ू--अपनी माता के भय से जिसकी आँखें भयभीत दिखाई दीं;हस्ते--हाथ से; गृहीत्वा--पकड़ कर; भिषयन्ती--धमकाती हुईं; अवागुरत्--बहुत धीमे से डाँटा।
माता यशोदा द्वारा पकड़े जाने पर कृष्ण और अधिक डर गये और उन्होंने अपनी गलतीस्वीकार कर ली।
ज्योंही माता यशोदा ने कृष्ण पर दृष्टि डाली तो देखा कि वे रो रहे थे।
उनकेआँसू आँखों के काजल से मिल गये और हाथों से आँखें मलने के कारण उनके पूरे मुखमण्डलमें वह काजल पुत गया।
माता यशोदा ने अपने सलोने पुत्र का हाथ पकड़ते हुए धीरे से डाँटनाशुरू किया।
त्यक्त्वा यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला ।
इयेष किल तं बद्धुं दाम्नातद्वीयकोविदा ॥
१२॥
त्यक्त्वा--फेंकते हुए; यष्टिमू--अपने हाथ की छड़ी ( सोटी ) को; सुतम्--पुत्र को; भीतम्--अपने पुत्र के भय पर विचार करतेहुए; विज्ञाय--समझते हुए; अर्भक-वत्सला--कृष्ण की स्नेहमयी माता ने; इयेष--इच्छा की; किल--निश्चय ही; तम्--उसको;बदधुम्--बाँधने के लिए; दाम्ना--रस्सी से; अ-ततू-वीर्य-कोविदा--अत्यन्त शक्तिमान भगवान् को जाने बिना ( कृष्ण के तीक्रप्रेम के कारण )॥
यह जाने बिना कि कृष्ण कौन हैं या वे कितने शक्तिमान हैं, माता यशोदा कृष्ण के अगाधप्रेम में सदैव विहल रहती थीं।
कृष्ण के लिए मातृ-स्नेह के कारण उन्हें इतना तक जानने कीपरवाह नहीं रहती थी कि कृष्ण हैं कौन? अतएव जब उन्होंने देखा कि उनका पुत्र अत्यधिक डरगया है, तो अपने हाथ से छड़ी फेंक कर उन्होंने उसे बाँधना चाहा जिससे और आगे उददण्डता नकर सके।
न चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्व नापि चापरम् ।
पूर्वापरं बहिश्चान्तर्जगतो यो जगच्च य: ॥
१३॥
त॑ मत्वात्मजमव्यक्तं मर्त्यलिड्रमधोक्षजम् ।
गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा ॥
१४॥
न--नहीं; च-- भी; अन्त:ः--भीतरी; न--न तो; बहिः--बाह्ाय; यस्य--जिसका; न--न तो; पूर्वम्ू--आदि; न--न; अपि--निस्सन्देह; च-- भी; अपरम्--अन्त; पूर्व-अपरम्-- आदि तथा अन्त; बहि: च अन्तः--बाहरी तथा भीतरी; जगतः--सम्पूर्णविश्व का; यः--जो है; जगत् च य:--तथा जो समग्र सृष्टि में सर्वस्व है; तम्ू--उसको; मत्वा--मान कर; आत्मजम्-- अपनापुत्र; अव्यक्तमू--अव्यक्त; मर्त्य-लिड्रमू-मनुष्य रूप में प्रकट; अधोक्षजम्--इन्द्रिय बोध से परे; गोपिका--यशोदा ने;उलूखले--ओखली में; दाम्ना--रस्सी से; बबन्ध--बाँध दिया; प्राकृतम् यथा--जैसे सामान्य मानवी बालक के साथ कियाजाता है|
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का न आदि है, न अन्त, न बाह्य है न भीतर, न आगा है न पीछा।
दूसरे शब्दों में, वे सर्वव्यापी हैं।
चूँकि वे काल तत्त्व के वशीभूत नहीं हैं अतएव उनके लिएभूत, वर्तमान तथा भविष्य में कोई अन्तर नहीं है।
वे सदा-सर्वदा अपने दिव्य स्वरूप में रहते हैं।
सर्वोपरि तथा परम होने के कारण सभी वस्तुओं के कारण-कार्य होते हुए भी वे कारण-कार्यके अन्तरों से मुक्त रहते हैं।
वही अव्यक्त पुरुष, जो इन्द्रियातीत हैं, अब मानवीय बालक के रूपमें प्रकट हुए थे और माता यशोदा ने उन्हें सामान्यसा अपना ही बालक समझ कर रस्सी के द्वाराओखली से बाँध दिया।
तद्दाम बध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः ।
दव्यडुलोनमभूत्तेन सन्दधेउन्यच्च गोपिका ॥
१५॥
तत् दाम--बाँधने की वह रस्सी; बध्यमानस्य--माता यशोदा द्वारा बाँधा जाने वाला; स्व-अर्भकस्य--अपने पुत्र का; कृत-आगसः--अपराध करने वाले; द्वि-अड्डूल-दो अंगुल; ऊनम्ू--छोटी, कम; अभूत्--हो गई; तेन--उस रस्सी से; सन्दधे--जोड़ दिया; अन्यत् च--दूसरी रस्सी; गोपिका--माता यशोदा ने |
जब माता यशोदा उत्पाती बालक को बाँधने का प्रयास कर रही थीं तो उन्होंने देखा किबाँधने की रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ रही थी।
अतः उसमें जोड़ने के लिए वे दूसरी रस्सी ले आईं।
यदासीत्तदपि न्यूनं तेनान्यदपि सन्दधे ।
तदपि दव्यडूुल॑ न्यूनं यद्यदादत्त बन्धनम् ॥
१६॥
यदा--जब; आसीतू--हो गया; तत् अपि--नई रस्सी जोड़ने पर भी; न्यूनमू--तब भी छोटी; तेन--तब दूसरी रस्सी से; अन्यत्अपि--और दूसरी रस्सी भी; सन्दधे--जोड़ी; तत् अपि--वह भी; द्वि-अद्भुलम्-दो अंगुल; न्यूनम्ू--छोटी होती जाती; यत् यत्आदत्त--इस तरह उन्होंने एक के बाद एक जितनी भी रस्सियाँ जोड़ीं; बन्धनम्ू--कृष्ण को बाँधने के लिए।
यह नई रस्सी भी दो अंगुल छोटी पड़ गई और जब इसमें दूसरी रस्सी लाकर जोड़ दी गईतब भी वह दो अंगुल छोटी ही पड़ी।
उन्होंने जितनी भी रस्सियाँ जोड़ीं, वे व्यर्थ गई--वे छोटीकी छोटी पड़ती गईं।
एवं स्वगेहदामानि यशोदा सन्दधत्यपि ।
गोपीनां सुस्मयन्तीनां स्मयन्ती विस्मिताभवत् ॥
१७॥
एवम्--इस प्रकार; स्व-गेह-दामानि-- अपने घर की सारी रस्सियाँ; यशोदा--माता यशोदा; सन्दधति अपि--जोड़ती रहने परभी; गोपीनाम्--जब माता यशोदा की अन्य सारी बुजुर्ग गोपी सखियाँ; सु-स्मयन्तीनामू--इस तमाशे में आनन्द ले रही थीं;स्मयन्ती--माता यशोदा भी मुसका रही थीं; विस्मिता अभवत्--वे सारी की सारी आश्चर्यचकित थीं।
इस तरह माता यशोदा ने घर-भर की सारी रस्सियों को जोड़ डाला किन्तु तब भी वे कृष्णको बाँध न पाईं।
पड़ोस की वृद्धा गोपिकाएँ, जो माता यशोदा की सखियाँ थीं मुसका रही थींऔर इस तमाशे का आनन्द ले रही थीं।
इसी तरह माता यशोदा श्रम करते हुए भी मुसका रहीथीं।
वे सभी आश्चर्यचकित थीं।
स्वमातु: स्विन्नगात्राया विस्त्रस्तकबरस्त्रज: ।
इष्ठा परिश्रमं कृष्ण: कृपयासीत्स्वबन्धने ॥
१८॥
स्व-मातु:--अपनी माता ( यशोदादेवी ) का; स्विन्न-गात्राया:--वृथा श्रम के कारण पसीने से लथपथ शरीर; विस्त्रस्त--गिर रहे;कबर--उनके बालों से; सत्रज:--फूल; दृष्टा--देखकर; परिश्रमम्-- अधिक काम करने से थकी का अनुभव करती हुई अपनीमाता को; कृष्ण:-- भगवान् ने; कृपया--अपने भक्त तथा माता पर अहैतुकी कृपा द्वारा; आसीतू--राजी हो गये; स्व-बन्धने--अपने को बँधाने के लिए
माता यशोदा द्वारा कठिन परिश्रम किये जाने से उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गयाऔर उनके केशों में लगी कंघी और गूँथे हुए फूल गिरे जा रहे थे।
जब बालक कृष्ण ने अपनीमाता को इतना थका-हारा देखा तो वे दयाद्द्र हो उठे और अपने को बँधाने के लिए राजी होगये।
एवं सन्दर्शिता हाड़ हरिणा भृत्यवश्यता ।
स्ववशेनापि कृष्णेन यस्येदं सेश्वरं वशे ॥
१९॥
एवम्--इस प्रकार; सन्दर्शिता--प्रदर्शित किया गया; हि--निस्सन्देह; अड्ड--हे महाराज परीक्षित; हरिणा-- भगवान् द्वारा;भृत्य-वश्यता--अपने सेवक या भक्त की अधीनता स्वीकार करने का गुण; स्व-वशेन--जो केवल अपने वश में रहे; अपि--निस्सन्देह; कृष्णेन--कृष्ण द्वारा; यस्थ--जिसके; इृदम्--सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड; स-ईश्वरम्ू--शिव तथा ब्रह्मा जैसे शक्तिशालीदेवताओं सहित; वशे--वश में |
हे महाराज परीक्षित, शिवजी, ब्रह्माजी तथा इन्द्र जैसे महान् एवं उच्चस्थ देवताओं समेत यहसम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भगवान् के वश में हैं।
फिर भी भगवान् का एक दिव्य गुण यह है कि वे अपनेभक्तों के वश में हो जाते हैं।
यही बात इस लीला में कृष्ण द्वारा दिखलाई गई है।
नेमं विरिज्ञो न भवो न श्रीरप्यड्रसं भ्रया ।
प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत्प्राप विमुक्तिदातू ॥
२०॥
न--नहीं; इमम्--यह उच्च पद; विरिज्ञ:--ब्रह्मा; न--न तो; भव:ः--शिव; न--न तो; श्री:--लक्ष्मी; अपि--निस्सन्देह; अड्ड-संश्रया-- भगवान् की अर्धांगिनी होकर भी; प्रसादम्--कृपा; लेभिरे--प्राप्त किया; गोपी--माता यशोदा; यत् तत्ू--जो जैसाहै; प्राप--प्राप्त किया; विमुक्ति-दात्ू--इस जगत से मुक्ति दिलाने वाले कृष्ण से
इस भौतिक जगत से मोक्ष दिलाने वाले भगवान् की ऐसी कृपा न तो कभी ब्रह्माजी, नशिवजी, न ही भगवान् की अर्धागिनी लक्ष्मी ही प्राप्त कर सकती हैं, जैसी माता यशोदा ने प्राप्तकी।
नायं सुखापो भगवान्देहिनां गोपिकासुतः ।
ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह ॥
२१॥
न--नहीं; अयम्--यह; सुख-आप: --सरलता से प्राप्प अथवा सुख का लक्ष्य; भगवान्-- भगवान्; देहिनाम्--देहात्मबुद्धि कोप्राप्त पुरुषों का, विशेषतया कर्मियों का; गोपिका-सुतः--माता यशोदा का पुत्र कृष्ण ( बसुदेव-पुत्र होने से कृष्ण बासुदेव औरयशोदा-पुत्र होने से कृष्ण कहलाते हैं ); ज्ञानिनाम् च--तथा भवबन्धन से मुक्त होने के लिए प्रयलशील ज्ञानियों का; आत्म-भूतानाम्--आत्मनिर्भर योगियों का; यथा--जैसे; भक्ति-मताम्-- भक्तों का; इह--इस जगत में |
माता यशोदा के पुत्र भगवान् कृष्ण स्वतः स्फूर्त प्रेमाभक्ति में लगे भक्तों के लिए सुलभ हैंकिन्तु वे मनोधर्मियों, घोर तपों द्वारा आत्म-साक्षात्कार के लिये प्रयास करने वालों अथवा शरीरको ही आत्मा मानने वालों के लिए सुलभ नहीं होते।
कृष्णस्तु गृहकृत्येषु व्यग्रायां मातरि प्रभु: ।
अद्राक्षीदर्जुनौ पूर्व गुह्मकौ धनदात्मजौ ॥
२२॥
कृष्ण: तु--इस बीच; गृह-कृत्येषु--गृहकार्य में लगी; व्यग्रायाम्--अत्यन्त व्यस्त; मातरि--जब उनकी माता; प्रभु:-- भगवान्;अद्वाक्षीत्-देखा; अर्जुनौ--यमल अर्जुन वृक्ष; पूर्वम्--उसके पूर्व; गुह्मकौ--जो पूर्वजन्म में देवता थे; धनद-आत्मजौ--देवताओं के कोषाध्यक्ष कुवेर के पुत्र |
जब माता यशोदा घरेलू कार्यों में अत्यधिक व्यस्त थीं तभी भगवान् कृष्ण ने दो जुड़वाँ वृक्षदेखे, जिन्हें यमलार्जुन कहा जाता था।
ये पूर्व युग में कुबेर के देव-पुत्र थे।
पुरा नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात् ।
नलकूवरमणिग्रीवाविति ख्यातौ अयान्वितौ ॥
२३॥
पुरा--पूर्वकाल में; नारद-शापेन--नारदमुनि के शाप द्वारा; वृक्षताम्--वृक्षों का रूप; प्रापितौ--प्राप्त किया; मदात्--पागलपन के कारण; नलकूवर--इनमें एक नलकूवर था; मणिग्रीवौ--दूसरा मणिग्रीव था; इति--इस प्रकार; ख्यातौ--विख्यात; थ्रिया अन्वितौ--अत्यन्त ऐ श्वर्यवान् |
पूर्वजन्म में नलकूबर तथा मणिग्रीव नामक ये दोनों पुत्र अत्यन्त ऐश्वर्यवान तथा भाग्यशालीथे।
किन्तु गर्व तथा मिथ्या प्रतिष्ठा के कारण उन्होंने किसी की परवाह नहीं की इसलिए नारदमुनिने उन्हें वृक्ष बन जाने का शाप दे डाला।
अध्याय दस: यमला-अर्जुन वृक्षों का उद्धार
10.10रीराजोबाच कथ्यतां भगवज्नेतत्तयो: शापस्य कारणम् ।
चक्तद्विग्ितं कर्मयेन वा देवर्षेस्तम: ॥
१॥
श्री-राजा उबाच--राजा ने आगे पूछा; कथ्यताम्ू--कृपया कहें; भगवन्--हे परम शक्तिमान; एतत्--यह; तयो: --उन दोनों के;शापस्य--शाप का; कारणम्--कारण; यत्--जो; तत्--वह; विगर्हितम्--निन््दनीय; कर्म--कर्म; येन--जिससे; वा--अथवा; देवर्षे: तम:--नारदमुनि इतने क्रुद्ध हो उठे ।
राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा: हे महान् एवं शक्तिशाली सन्त, नारदमुनि द्वारा नलकूवर तथा मणिग्रीव को शाप दिये जाने का क्या कारण था? उन्होंने ऐसा कौन-सानिन्दनीय कार्य किया कि देवर्षि नारद तक उन पर क्रुद्ध हो उठे ? कृपया मुझे कह सुनायें।
श्रीशुक उबाचरुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुहप्तौ धनदात्मजौ ।
कैलासोपवतने रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ ॥
२॥
वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ ।
स्त्रीजनेरनुगायद्धिश्वेरतु: पुष्पिते बने ॥
३॥
श्री-शुक: उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया; रुद्रस्थ--शिवजी के; अनुचरौ--दो भक्त या पार्षद; भूत्वा--बन कर;सु-हप्तौ--अपने पद तथा अपने सुन्दर रूप-रंग से गर्वित होकर; धनद-आत्मजौ--देवों के कोषाध्यक्ष कुबेर के दोनों पुत्र;कैलास-उपवने--शिवजी के निवास कैलाश पर्वत से लगे एक छोटे बाग में; रम्ये--सुन्दर स्थान में; मन्दाकिन्याम्--मन्दाकिनीनदी के तट पर; मद-उत्कटौ--अत्यधिक गर्वित तथा उन्मत्त; वारुणीम्--वारुणी को; मदिराम्--नशीले द्रव को; पीत्वा--पीपी कर; मद-आधूर्णित-लोचनौ--नशे से आँखें घुमाते हुए; स्त्री-जनैः--स्त्रियों के साथ; अनुगायद्धधि:--उनके द्वारा गाये गयेगीतों से गुञ्जरित; चेरतु:--घूम रहे थे; पुष्पिते बने--सुन्दर फूल के बाग में ॥
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा परीक्षित, चूँकि कुवेर के दोनों पुत्रों को भगवान्शिवजी के पार्षद होने का गौरव प्राप्त था, फलत: वे अत्यधिक गर्वित हो उठे थे।
उन्हें मन्दाकिनीनदी के तट पर कैलाश पर्वत से सटे हुए बाग में विचरण करने की अनुमति प्राप्त थी।
इसकालाभ उठाकर वे दोनों वारुणी नाम की मदिरा पिया करते थे।
वे अपने साथ गायन करती स्त्रियोंको लेकर उस फूलों के बाग में घूमा करते थे।
उनकी आँखें नशे से सदैव घूमती रहती थीं।
अन्तः प्रविश्य गड्जायामम्भोजवनराजिनि ।
चिक्रीडतुर्युवतिभिर्गजाविव करेणुभि: ॥
४॥
अन्तः--भीतर; प्रविश्य--घुस कर; गड्जायाम्--गंगा अर्थात् मन्दाकिनी में; अम्भोज--कमलों का; वन-राजिनि--जहाँ घनाजंगल था; चिक्रीडतु:--दोनों क्रीड़ा किया करते थे; युवतिभि:--युवतियों के साथ में; गजौ--दो हाथी; इब--सहृश;करेणुभि:--हथिनियों के साथ।
कमल के फूलों के उद्यानों से आवृत मन्दाकिनी गंगा के जल के भीतर कुवेर के ये दोनोंपुत्र युवतियों के साथ उसी तरह क्रीड़ा करते थे जिस तरह पानी के भीतर दो हाथी हथिनियों केसाथ क्रीड़ा करते हैं।
यहच्छया च देवर्षिभ्भगवांस्तत्र कौरव ।
अपष्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत ॥
५॥
यहच्छया--संयोगवश, सारे ब्रह्माण्ड का भ्रमण करते हुए; च--तथा; देव-ऋषि: --देवताओं में परम सनन््त-पुरुष; भगवानू--अत्यन्त शक्तिशाली; तत्र--वहाँ ( जहाँ कुबेर के पुत्र क्रीड़ा कर रहे थे ); कौरव--हे महराज परीक्षित; अपश्यत्--देखा;नारदः--परम सन्त ने; देवौ--देवताओं के दोनों बालकों को; क्षीबाणौ--नशे से उन्मत्त आँखों वाले; समबुध्यत--समझ गये।
हे महाराज परीक्षित, उन दोनों बालकों के सौभाग्य से एक बार देवर्षि नारद संयोगवश वहाँप्रकट हो गये।
उन्हें नशे में उन्मत्त तथा आँखें घुमाते हुए देख कर नारद उनकी दशा समझ गये।
तं इृष्टा ब्रीडिता देव्यो विवस्त्रा: शापश्डिता: ।
वासांसि पर्यधु: शीघ्र विवस्त्री नेव गुह्मकौ ॥
६॥
तमू--नारदमुनि को; हृष्ठा--देखकर; ब्रीडिता:--लज्जित; देव्य:--देव कुमारियाँ; विवस्थ्रा:--नंगी; शाप-शद्भिताः--शापितहोने से भयभीत; वासांसि--वस्त्र; पर्यधु:-- अपना शरीर ढक लिया; शीघ्रम्--तुरन्त; विवस्त्रौ--वे भी नंगे थे; न--नहीं; एब--निस्सन्देह; गुह्मकौ--कुवेर के दोनों पुत्रनारद को देखकर नग्न देव-कुमारियाँ अत्यन्त लज्जित हुईं।
उन्होंने शापित होने से भयभीतहोकर अपने शरीर को अपने-अपने वस्त्रों से ढक लिया।
किन्तु कुवेर के दोनों पुत्रों ने ऐसा नहींकिया।
उलटे, नारद की परवाह न करते हुए वे नंगे ही रहे।
तौ दृष्ठा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ ।
तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यन्निदं जगौ ॥
७॥
तौ--देवताओं के दोनों बालकों को; दृष्टा--देखकर; मदिरा-मत्तौ--शराब पीने के कारण नशे में मस्त उन्मत्त; श्री-मद-अन्धौ--झूठी प्रतिष्ठा तथा ऐश्वर्य के कारण अन्धे हुए; सुर-आत्मजौ--देवताओं के दोनों पुत्र; तयो:--उनके ; अनुग्रह-अर्थाय--विशेष कृपा करने के प्रयोजन से; शापम्-- श्राप; दास्यनू--देने की इच्छा से; इदम्--यह; जगौ--उच्चारित किया |
देवताओं के दोनों पुत्रों को नंगा तथा ऐश्वर्य और झूठी प्रतिष्ठा गर्व के नशे में उन्मत्त देखकरदेवर्षि नारद ने उन पर विशेष कृपा करने हेतु उन्हें विशेष शाप देना चाहा।
अतः वे इस प्रकारबोले।
श्रीनारद उवाचन हान्यो जुषतो जोष्यान्बुद्धिभ्रंशो रजोगुण: ।
श्रीमदादाभिजात्यादिदत्र स्त्री दयूममासव: ॥
८॥
श्री-नारद: उवाच--नारदमुनि ने कहा; न--नहीं है; हि--निस्सन्देह; अन्य:--दूसरा भोग; जुषतः-- भोगने वाले का; जोष्यानू--भौतिक जगत की आकर्षक वस्तुएँ ( खाने, सोने, मैथुन करने इत्यादि की विभिन्न किस्में ); बुद्धि-भ्रंशः--बुद्धि को आकर्षितकरने वाले ऐसे भोग; रज:-गुण:--रजोगुण द्वारा नियंत्रित; श्री-मदात्--सम्पत्ति की अपेक्षा; आभिजात्य-आदि:--चार भौतिकनियमों में से ( सुन्दर स्वरूप, राजसी परिवार में जन्म, विद्वत्ता तथा धन-धान्य ); यत्र--जहाँ; स्त्री--स्त्रियाँ; द्यूतमू--जुआखेलना; आसवः--शराब |
नारदमुनि ने कहा : भौतिक भोग के समस्त आकर्षणों में से एक धन के प्रति आकर्षणसुन्दर शारीरिक रूप, उच्च कुल में जन्म तथा विद्वत्ता इन सब में से धन का आकर्षण, बुद्धि कोअधिक भ्रमित करने वाला है।
यदि कोई अशिक्षित व्यक्ति धन से गर्वित हो जाता है, तो वहअपना सारा धन शराब, स्त्रियों तथा जुआ खेलने के आनन्द में लगा देता है।
हन्यन्ते पशवो यत्र निर्दयेरजितात्मभि: ।
मन्यमानैरिमं देहमजरामृत्यु नश्वरम् ॥
९॥
हन्यन्ते--कई प्रकार से मारे जाते हैं ( विशेषतया कसाईखानों में )।
पशवः--पशु, जानवर ( चार पैर वाले ); यत्र--जहाँ;निर्दयै:--रजोगुण वाले निर्दय व्यक्तियों द्वारा; अजित-आत्मभि:--अपनी इन्द्रियों को वश में न कर पाने वालों द्वारा;मन्यमानैः--सोचते हैं; इमम्--इस; देहम्--शरीर को; अजर--जो न तो कभी बूढ़ा होगा, न रोगी होगा; अमृत्यु--कभी मृत्युनहीं होगी; नश्वरम्--नाशवान शरीर को
अपनी इन्द्रियों को वश में करने में असमर्थ धूर्त लोगजिन्हें अपने धन पर मिथ्या गर्व रहताहै या जो राजसी परिवार में जन्म लिये रहते हैं इतने निष्ठर होते हैं कि वे अपने नश्वर शरीरों कोबनाये रखने के लिए, उन्हें अजर-अमर सोचते हुए, बेचारे पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध करतेहैं।
कभी कभी वे केवल अपनी मौज-मस्ती के लिए पशुओं को मार डालते हैं।
देवसंज्ञितमप्यन्ते कृमिविड्भस्मसंज्ञितम् ।
भूतश्रुक्तत्कृते स्वार्थ कि वेद निरयो यतः ॥
१०॥
देव-संज्ञितमू--शरीर जो अब अत्यन्त महान् पुरुष यथा राष्ट्रपति, मंत्री या देवता कहलाता है; अपि--इतना महान् होते हुए भी;अन्ते--मृत्यु के बाद; कृमि--कीड़ा बन जाता है; विटू--या मल में परिणत हो जाता है; भस्म-संज्ञितम्ू--या राख में बदलजाता है; भूत-धुक्-शास्त्रों के आदेशों को न मानने वाला तथा अन्य जीवों से ईर्ष्या करने वाला व्यक्ति; तत्ू-कृते--इस तरहकर्म करते हुए; स्व-अर्थम्--स्वार्थ; किम्--क्या है; वेद--जो जानता है; निरयः यत:--क्योंकि ऐसे पापकर्मों से नारकीय दशाभोगनी होगी।
जीवित रहते हुए मनुष्य अपने को बड़ा आदमी, मंत्री, राष्ट्रपति या देवता सोचते हुए अपनेशरीर पर गर्व कर सकता है किन्तु वह चाहे जो भी हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर कीट, मल याराख में परिणत हो जाता है।
यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर की क्षणिक इच्छाओं की तुष्टि के लिएनिरीह पशुओं का वध करता है, तो वह यह नहीं जानता कि उसे अगले जीवन में कष्ट भोगनाहोगा क्योंकि ऐसे पापी को नरक जाना पड़ेगा और अपने कर्मफल भोगने पड़ेंगे।
देहः किमन्नदातु: स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च ।
मातु: पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्ने: शुनोडषपि वा ॥
११॥
देह:--यह शरीर; किम् अन्न-दातु:--क्या यह मेरे स्वामी का है, जो मुझे इसके पालन के लिए धन देता है; स्वमू--या यह स्वयंमेरा है; निषेक्तु:--( या यह ) वीर्य स्खलित करने वाले का है; मातु: एव--या ( इसे ) गर्भ में धारण करने वाली माता का है;च--तथा; मातुः पितुः वा--यह माता के पिता अर्थात् नाना का है क्योंकि कभी कभी नाना अपने नाती को गोद ले लेता है;बलिन:ः--या उसका है, जो बलपूर्वक इस शरीर को छीन लेता है; क्रेतु:--या इस शरीर को बँधुए मजदूर की तरह खरीद लेताहै; अग्ने:--या अग्नि में ( जला देता है ); शुन:--या कुत्तों तथा गीधों का है, जो उसे खा जाते हैं; अपि-- भी; वा--अथवा।
जीवित रहते हुए यह शरीर उसके अन्नदाता का होता है, या स्वयं का, अथवा पिता, माता यानाना का? क्या यह बलपूर्वक ले जाने वाले का, इसे खरीदने वाले स्वामी का या उन पुत्रों काहोता है, जो इसे अग्नि में जला देते हैं? और यदि शरीर जलाया नहीं जाता तो कया यह उन कुत्तोंका होता है, जो इसे खाते हैं? आखिर इतने सारे दावेदारों में असली दावेदार कौन है ? इसकापता लगाने के बजाय, पापकर्मो द्वारा इस शरीर का पालन करना अच्छा नहीं है।
एवं साधारण देहमव्यक्तप्रभवाप्ययम् ।
को दिद्वानात्मसात्कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेइसतः ॥
१२॥
एवम्--इस प्रकार; साधारणम्--सामान्य सम्पत्ति; देहम्ू--शरीर को; अव्यक्त--अ व्यक्त प्रकृति से; प्रभव--इस प्रकार सेव्यक्त; अप्ययमू--पुनः अव्यक्त में लीन होकर ( ‘क्योंकि, तू मिट्टी है और तुम्हें मिट्टी में ही वापस मिल जाना है' ); कः--कौनहै; विद्वान्ू--ज्ञानी; आत्मसात् कृत्वा--अपना कहते हुए; हन्ति--मारता है; जन्तून्ू--बेचारे पशुओं को; ऋते--सिवाय;असतः --धूर्त तथा मूढ़ जिन्हें कोई ज्ञान नहीं है।
यह शरीर आखिर अव्यक्त प्रकृति द्वारा उत्पन्न किया जाता है और नष्ट होकर पुनः प्राकृतिकतत्त्वों में विलीन हो जाता है।
अतएव यह सबों का सर्वसामान्य गुण है।
ऐसी परिस्थितियों में जोधूर्त होगा वही इस सम्पत्ति को अपनी होने का दावा करेगा और उसे बनाये रखते हुए अपनीइच्छाओं की तुष्टि के लिए पशुओं की हत्या जैसे पापकर्म करता रहता है।
केवल मूढ़ ही ऐसेपापकर्म कर सकता है।
असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र॒यं परमझनम् ।
आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्र: परमीक्षते ॥
१३॥
असतः--ऐसे मूर्ख धूर्त व्यक्ति का; श्री-मद-अन्धस्य-- धन तथा ऐश्वर्य के कारण अन्धा हुआ; दारिदर्यम्--गरीबी; परम्अजद्जनम्--आँखों का सर्वोत्तम अंजन है, जिससे वस्तुएँ यथारूप में देखी जा सकती हैं; आत्म-औपम्येन--अपने से तुलनाकरके; भूतानि--जीवों को; दरिद्र:--गरीब व्यक्ति; परम्ू--पूर्णतया; ईक्षते--देख सकता है।
नास्तिक मूर्ख तथा धूर्त धन के मद के कारण वस्तुओं को यथारूप में नहीं देख पाते।
अतएव उन्हें दरिद्र बनाना ही सर्वोत्तम काजल है, जिसे वे आँखों में लगा कर वस्तुओं को उनकेवास्तविक रूप में देख सकते हैं।
और कुछ नहीं तो, जो दरिद्र है, वह इसका तो अनुभव कर हीसकता है कि दरिद्रता कितनी दुखद होती है।
अतएव वह कभी नहीं चाहेगा कि अन्य लोगउसकी तरह दुखमय स्थिति में रहें।
यथा कण्टकविद्धाड़ो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम् ।
जीवसाम्यं गतो लिड्रैन तथाविद्धकण्टकः ॥
१४॥
यथा--जिस प्रकार; कण्टक-विद्ध-अड्डभः--वह पुरुष जिसका शरीर काँटों से बिंध चुका हो; जन्तोः --ऐसे पशु को; न--नहीं;इच्छति--चाहता है; तामू--उस; व्यथाम्--पीड़ा को; जीव-साम्यम् गत:--जब वह समझ लेता है कि हर एक की दशा एकसीहै; लिड्ैः--विशेष प्रकार का शरीर धारण करने से; न--नहीं; तथा--उसी तरह; अविद्ध-कण्टक:--जो व्यक्ति काँटों से नहींबिंधा।
जिसके शरीर में काँटे चुभ चुके हैं वह दूसरों के चेहरों को ही देखकर उनकी पीड़ा समझसकता है कि उन्हें काँटे चुभ रहे हैं।
वह यह अनुभव करते हुए कि यह पीड़ा सबों के लिएएकसमान है, यह नहीं चाहता कि अन्य लोग इस तरह से कष्ट भोगें।
किन्तु जिसे कभी काँटे गड़ेही नहीं वह इस पीड़ा को नहीं समझ सकता।
दरिद्रो निरहंस्तम्भो मुक्त: सर्वमदैरिह्ठ ।
कृच्छूं यदच्छयाप्नोति तर्द्धि तस्य परं तपः ॥
१५॥
दरिद्र:--गरीब; निर-अहम्-स्तम्भ: --सारी झूठी प्रतिष्ठा से स्वयमेव छूट जाता है; मुक्त:--मुक्त; सर्व--सभी; मदैः--मिशथ्याअहंकार से; इह--इस संसार में; कृच्छुम्ू--मुश्किल से; यहच्छया आप्नोति-- भाग्यवश जो उसे प्राप्त होता है; तत्ू--वह; हि--निस्सन्देह; तस्थ--उसकी; परम्--पूर्ण; तप:ः--तपस्या
दरिद्र व्यक्ति को स्वतः तपस्या करनी पड़ती है क्योंकि उसके पास अपना कहने के नाम परकोई सम्पत्ति नहीं होती।
इस तरह उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है।
वह सदैव भोजन,आश्रय तथा वस्त्र की आवश्यकता अनुभव करता रहता है, अतः दैव-कृपा से जो भी उसे मिलजाता है उसी से उसे सन्तुष्ट रहना पड़ता है।
अनिवार्यतः इस तरह की तपस्या करते रहना उसकेलिए अच्छा है क्योंकि इससे उसकी शुद्धि हो जाती है और वह मिथ्या अहंकार से मुक्त हो जाताहै।
नित्य क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकाड्क्षिण: ।
इन्द्रियाण्यनुशुष्यन्ति हिंसापि विनिवर्तते ॥
१६॥
नित्यमू--सदैव; क्षुत्ू- भूख से; क्षाम--निर्बल; देहस्य--शरीर का; दरिद्रस्थ--गरीब व्यक्ति के; अन्न-काड्क्षिण:--सदैवपर्याप्त भोजन की इच्छा रखने वाला; इन्द्रियाणि--इन्द्रियों को, जिनकी उपमा सर्पों से दी जाती है; अनुशुष्यन्ति-- धीरे धीरे क्षीणसे क्षीणतर होती जाती हैं; हिंसा अपि--अन्यों से ईर्ष्या करने की प्रवृत्ति भी; विनिवर्तत--कम हो जाती है।
दरिद्र व्यक्ति सदैव भूखा रहने और पर्याप्त भोजन की चाह करने के कारण धीरे धीरे क्षीणहोता जाता है।
अतिरिक्त बल न रहने से उसकी इन्द्रियाँ स्वतः शान्त पड़ जाती हैं।
इसलिए दरिद्रमनुष्य हानिप्रद ईर्ष्यापूर्ण कार्य करने में अशक्त होता है।
दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यक्ति को उनतपस्याओं का फल स्वतः प्राप्त हो जाता है, जिसे सन््त-पुरुष स्वेच्छा से करते हैं।
दरिद्रस्थैव युज्यन्ते साधव: समदर्शिन: ।
सद्धिः क्षिणोति तं तर्ष तत आराद्विशुद्धयति ॥
१७॥
दरिद्रस्थ--दरिद्र व्यक्ति का; एव--निस्सन्देह; युज्यन्ते--सरलता से संगति कर सकते हैं; साधव:--साधु पुरुष; सम-दर्शिन: --यद्यपि साधु पुरुष दरिद्र तथा धनी दोनों पर समान दृष्टि रखने वाले हैं किन्तु दरिद्र व्यक्ति उनकी संगति का लाभ उठा सकते हैं;सद्धिः--ऐसे साधु पुरुषों की संगति से; क्षिणोति--कम करता है; तमू-- भौतिक कष्ट के मूल कारण; तर्षम्-- भौतिक मोक्षकी अभिलाषा को; ततः--तत्पश्चात्; आरात्ू--शीघ्र ही; विशुद्धयति--उसका भौतिक कल्मष धुल जाता है।
सनन््त-पुरुष दरिद्रों के साथ बिना रोकटोक के घुलमिल सकते हैं किन्तु धनी व्यक्तियों केसाथ नहीं।
दरिद्र व्यक्ति ऐसे साधु पुरुषों की संगति से तुरन्त ही भौतिक इच्छाओं से विमुख होजाता है और उसके मन का सारा मैल धुल जाता है।
साधूनां समचित्तानां मुकुन्दचरणैषिणाम् ।
जपेक्ष्य: कि धनस्तम्भेरसद्धिरसदाश्रयै: ॥
१८ ॥
साधूनाम्ू--साधु-पुरुषों का; सम-चित्तानामू--उनका जो सबों को समान रूप में देखते हैं; मुकुन्द-चरण-एषिणाम्--जिनकाएकमात्र कार्य है भगवान् मुकुन्द की सेवा करना और जो उसी सेवा की आंकाक्षा करते हैं; उपेक्ष्यै: --संगति की उपेक्षा करके;किमू--क्या; धन-स्तम्भेः-- धनी तथा गर्वित; असद्धिः--अवांछित व्यक्तियों की संगति से; असत्-आश्रयै:ः --असतों अर्थात्अभक्तों की शरण लेकर।
सन्त-पुरुष ( साधुजन ) चौबीसों घण्टे कृष्ण का चिन्तन करते रहते हैं।
उनकी और कोईरूचि नहीं रहती।
तो फिर लोग ऐसे आध्यात्मिक पुरुषों की संगति की उपेक्षा करके क्यों उनभौतिकतावादियों की संगति करने का प्रयास करते हैं तथा उन अभक्तों की शरण लेते हैं जिनमेंसे अधिकांश अभिमानी तथा धनी हैं?
तदहं मत्तयोमाध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयो: ।
तमोमदं हरिष्यामि स्त्रैणयोरजितात्मनो: ॥
१९॥
तत्--अतएव; अहम्--मैं; मत्तयो: --इन दोनों उन्मत्त पुरुषों के; माध्व्या--शराब पीने के कारण; वारुण्या--वारुणी नामक;श्री-मद-अन्धयो: --जो दैवी सम्पदा से अन्धे हो चुके हैं; तमः-मदम्--तमोगुण के कारण इस मिथ्या प्रतिष्ठा को; हरिष्यामि--छीन लूँगा; स्त्रैणयो:--स्त्रियों पर अनुरक्त होने के कारण; अजित-आत्मनो:--इन्द्रियों को वश में न कर पाने के कारण ।
इसलिए ये दोनों व्यक्ति वारुणी या माध्वी नामक शराब पीकर तथा अपनी इन्द्रियों को वशमें न रख सकने के कारण स्वर्ग के ऐश्वर्य-गर्व से अन्धे और स्त्रियों के प्रति अनुरक्त हो चुके हैं।
मैं उनको इस झूठी प्रतिष्ठा से विहीन कर दूँगा।
यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ ।
न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदी ॥
२०॥
अतोहत:ः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः ।
स्मृति: स्यान्मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहातू ॥
२१॥
वासुदेवस्य सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते ।
वृत्ते स्वर्लोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यत: ॥
२२॥
यत्--चूँकि; इमौ--ये दोनों तरुण देवता; लोक-पालस्य--महान् देवता कुवेर के; पुत्रौ--पुत्र; भूत्वा--होकर; तमः-प्लुतौ--तमोगुण में बुरी तरह से मग्न; न--नहीं; विवाससम्--बिना किसी वस्त्र के, पूरी तरह नंगे; आत्मानम्--अपने शरीरों को;विजानीतः--जानते हुए कि नंगे हैं; सु-दुर्मदौ--मिथ्या अहंकार के कारण अत्यन्त पतित; अतः--इसलिए; अतः --पात्र हैं;स्थावरताम्--वृक्ष जैसी गतिहीनता; स्थाताम्--हो जायें; न--नहीं; एवम्--इस तरह; यथा--जिस तरह; पुनः--फिर; स्मृति:--याद; स्यात्--बनी रहे; मत्-प्रसादेन--मेरी कृपा से; तत्र अपि--इसके अतिरिक्त; मत्-अनुग्रहात्-मेंरे विशेष अनुग्रह से;वासुदेवस्थ-- भगवान् का; सान्निध्यम्ू--संगति, साक्षात्कार; लब्ध्वा--प्राप्त कर; दिव्य-शरत्-शते वृत्ते--देवताओं के एक सौवर्ष बीतने के बाद; स्वलोकताम्--स्वर्गलोक में रहने की इच्छा; भूयः--पुन:; लब्ध-भक्ती --अपनी भक्ति को पुन: प्राप्तकरके; भविष्यत:--हो जोयेंगे।
ये दोनों युवक, नलकूवर तथा मणिग्रीव, भाग्यवश महान् देवता कुवेर के पुत्र हैं किन्तुमिथ्या प्रतिष्ठा तथा शराब पीने से उत्पन्न उन्मत्तता के कारण ये इतने पतित हो चुके हैं कि नंगेहोकर भी यह नहीं समझ पा रहे कि वे नंगे हैं।
अतः वृक्षों की तरह रहने वाले ( वृक्ष नंगे होते हैंकिन्तु चेतन नहीं होते ) इन दोनों युवकों को वृक्षों का शरीर मिलना चाहिए।
यही इनके लिएसमुचित दण्ड होगा।
फिर भी वृक्ष बनने से लेकर अपने उद्धार के समय तक इन्हें मेरी कृपा सेअपने विगत पापकर्मों की याद बनी रहेगी।
यही नहीं, मेरी विशेष कृपा से, देवताओं के सौ वर्षबीतने के बाद ये भगवान् वासुदेव का दर्शन कर सकेंगे और भक्तों के रूप में अपना असलीस्वरूप प्राप्त कर सकेंगे।
श्रीशुक उबाचएवमुक्त्वा स देवर्षि्गतो नारायणा श्रमम् ।
नलकूवरमणिग्रीवावासतुर्यमलार्जुनी ॥
२३॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम् उक्त्वा--ऐसा कह कर; स:--वह; देवर्षि:--परम सन््त-पुरुष नारद;गतः--वहाँ से चला गया; नारायण-आश्रमम्-- अपने आश्रम, जिसे नारायण-आश्रम कहते हैं; नलकूबर--नलकूवर;मणिग्रीवौ--तथा मणिग्रीव; आसतु:--वहाँ रह रहे; यमल-अर्जुनौ--जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष बनने के लिए।
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह कह कर देवर्षि नारद अपने आश्रम, नारायण-आश्रम को लौट गये और नलकूवर तथा मणिग्रीव जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष ( यमलार्जुन ) बन गये।
ऋषेर्भागवतमुख्यस्य सत्यं कर्तु बचो हरिः ।
जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ ॥
२४॥
ऋषे:--ऋषि नारद का; भागवत-मुख्यस्य-- भक्तों में प्रमुख; सत्यम्--सत्य, सही; कर्तुमू--सिद्ध करने के लिए; वच:--शब्द;हरिः-- भगवान् कृष्ण; जगाम--गये; शनकै: -- धीरे-धीरे; तत्र--वहाँ; यत्र--जहाँ; आस्ताम्ू-- थे; यमल-अर्जुनौ--दोनों अर्जुनवृक्ष
सर्वोच्च भक्त नारद के वचनों को सत्य बनाने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण धीरे धीरे उस स्थानपर गये जहाँ दोनों अर्जुन वृक्ष खड़े थे।
देवर्षिमें प्रियतमो यदिमौ धनदात्मजौ ।
तत्तथा साधयिष्यामि यद्गीतं तन्महात्मना ॥
२५॥
देवर्षि:--परम सन्त देवर्षि नारद; मे--मेरा; प्रिय-तम:--सर्वाधिक प्रिय भक्त; यत्--यद्यपि; इमौ--ये दोनों ( नलकूबर तथामणिग्रीव ); धनद-आत्मजौ-- धनी पिता की सन््तान तथा अभक्त; तत्--देवर्षि के वचन; तथा--जिस प्रकार; साधयिष्यामि--सम्पन्न करूँगा ( वे चाहते थे कि मैं यमलार्जुन के समक्ष आऊँ तो मैं ऐसा ही करूँगा ); यत् गीतम्ू--जैसा कहा जा चुका है;तत्--वैसा; महात्मना--नारदमुनि द्वारा
यद्यपि ये दोनों युवक अत्यन्त धनी कुवेर के पुत्र हैं और उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं हैपरन्तु देवर्षि नारद मेरा अत्यन्त प्रिय तथा वत्सल भक्त है और क्योंकि उसने चाहा था कि मैं इनकेसमक्ष आऊँ अतएव इनकी मुक्ति के लिए मुझे ऐसा करना चाहिए।
इत्यन्तरेणार्जुनयो: कृष्णस्तु यमयोर्ययौ ।
आत्मनिर्वेशमात्रेण तिर्यग्गतमुलूखलम् ॥
२६॥
इति--ऐसा निश्चय करके; अन्तरेण--बीच में; अर्जुनयो:--दोनों अर्जुन वृक्षों के; कृष्ण: तु--भगवान् कृष्ण; यमयो: ययौ--दोनों वृक्षों के बीच प्रविष्ट हुए; आत्म-निर्वेश-मात्रेण --घुसते ही; तिर्यक्--तिरछी; गतम्--हो गईं; उलूखलम्--ओखली
इस तरह कह कर कृष्ण तुरन्त ही दो अर्जुन वृक्षों के बीच प्रविष्ट हुए जिससे वह बड़ीओखली जिससे वे बाँधे गये थे तिरछी हो गई और उनके बीच फँस गई।
बालेन निष्कर्षयतान्वगुलूखलं तद्दामोदरेण तरसोत्कलिताडूप्रिबन्धौ ।
निष्पेततु: परमविक्रमितातिवेप-स्कन्धप्रवालविटपौ कृतचण्डशब्दौ ॥
२७॥
बालेन--बालक कृष्ण द्वारा; निष्कर्षबता--घसीटते हुए; अन्बक्--पीछा करती; उलूखलम्--ओखली; तत्--वह; दाम-उदरेण--पेट से बँधे कृष्ण द्वारा; तरसा--बलपूर्वक; उत्कलित--उखड़ आईं; अड्प्रि-बन्धौ--दोनों वृक्षों की जड़ें; निष्पेततु:--गिर पड़े; परम-विक्रमित--परम शक्ति द्वारा; अति-वेप--बुरी तरह हिलते-डुलते हुए; स्कन्ध--तना; प्रवाल--पत्तियों के गुच्छे;विटपौ--दोनों वृक्ष; कृत--करते हुए; चण्ड-शब्दौ-- भयानक शब्द |
अपने पेट से बँधी ओखली को बलपूर्वक अपने पीछे घसीटते हुए बालक कृष्ण ने दोनोंवृक्षों को उखाड़ दिया।
परम पुरुष की महान् शक्ति से दोनों वृक्ष अपने तनों, पत्तों तथा टहनियोंसमेत बुरी तरह से हिले और तड़तड़ाते हुए भूमि पर गिर पड़े।
तत्र अ्िया परमया ककुभः स्फुरन्तौसिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जातवेदा: ।
कृष्णं प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथंबद्धाज्लली विरजसाविदमूचतु: सम ॥
२८॥
तत्र--वहाँ, जहाँ अर्जुन वृक्ष गिरे थे; अ्रिया--सजायी गयी; परमया--अत्यधिक; ककुभ:--सारी दिशाएँ; स्फुरन्तौ--तेज सेप्रकाशित; सिद्धौ--दो सिद्ध पुरुष; उपेत्य--निकल कर; कुजयो:--दोनों वृक्षों के बीच से; इब--सद्ृश; जात-वेदा:--साक्षात्अग्नि; कृष्णम्-- भगवान् कृष्ण को; प्रणम्य--प्रणाम करके; शिरसा--सिर के बल; अखिल-लोक-नाथम्--परम पुरुष को,जो सबों के स्वामी हैं; बद्ध-अद्जली--हाथ जोड़े हुए; विरजसौ--तमोगुण धुल जाने पर; इृदम्--यह; ऊचतु: स्म--कहा।
तत्पश्चात् जिस स्थान पर दोनों अर्जुन वृक्ष गिरे थे वहीं पर दोनों वृक्षों से दो महान् सिद्धपुरुष, जो साक्षात् अग्नि जैसे लग रहे थे, बाहर निकल आये।
उनके सौन्दर्य का तेज चारों ओरप्रकाशित हो रहा था।
उन्होंने नतमस्तक होकर कृष्ण को नमस्कार किया और हाथ जोड़ करनिम्नलिखित शब्द कहे।
कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्य: पुरुष: पर: ।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्व॑ं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः ॥
२९॥
कृष्ण कृष्ण--हे कृष्ण, हे कृष्ण; महा-योगिन्--हे योगेश्वर; त्वमू--तुम; आद्य:--मूल कारण; पुरुष:--परम पुरुष; पर:--इससृष्टि से परे; व्यक्त-अव्यक्तम्ू--यह विराट जगत जो कार्य-कारण अथवा स्थूल-सूक्ष्म रूपों से बना है; इदम्--यह; विश्वम्--सारा जगत; रूपम्--रूप; ते--तुम्हारा; ब्राह्मणा:--विद्वान ब्राह्मण; विदुः:--जानते हैं|
हे कृष्ण, हे कृष्ण, आपकी योगशक्ति अचिन्त्य है।
आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आपसमस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रह कर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं।
विद्वानब्राह्मण जानते हैं ( सर्व खल्विदं ब्रह्य--इस वैदिक कथन के आधार पर ) कि आप सर्वेसर्वा हैंऔर यह विराट विश्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।
त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रिये श्वरः ।
त्वमेव कालो भगवान्विष्णुरव्यय ईश्वर: ॥
३०॥
त्वं महान्प्रकृति: सूक्ष्मा रज:सत्त्वतमोमयी ।
त्वमेव पुरुषोध्यक्ष: सर्वक्षेत्रविकारवित् ॥
३१॥
त्वमू--आप; एक:--एक; सर्व-भूतानाम्--सारे जीवों के; देह--शरीर के; असु--प्राण के; आत्म--आत्मा के; इन्द्रिय--इन्द्रियों के; ईश्वरः --परमात्मा, नियंत्रक; त्वम्--आप; एव--निस्सन्देह; काल:--काल; भगवानू्--भगवान् विष्णु: --सर्वव्यापी; अव्यय:--अन श्वर; ई श्वरः --नियन्ता; त्वमू--आप; महान्--सबसे बड़े; प्रकृतिः-- भौतिक जगत; सूक्ष्मा--सूक्ष्म;रजः-सत्त्व-तम:-मयी--प्रकृति के तीन गुणों ( रजो, सतो तथा तमो ( गुणों ) से युक्त; त्वम् एब--आप सचमुच हैं; पुरुष: --परम पुरुष; अध्यक्ष:--स्वामी; सर्व-क्षेत्र--सारे जीवों के; विकार-वित्--चंचल मन को जानने वाले |
आप हर वस्तु के नियन्ता भगवान् हैं।
आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार तथाइन्द्रियाँ हैं।
आप परम पुरुष, अक्षय नियन्ता विष्णु हैं।
आप काल, तात्कालिक कारण और तीनगुणों--सतो, रजो तथा तमो गुणों--वाली भौतिक प्रकृति हैं।
आप इस भौतिक जगत के आदिकारण हैं।
आप परमात्मा हैं।
अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं।
गृह्ममाणैस्त्वमग्राह्मो विकारै: प्राकृतैर्गुणैः ।
को न्विहाईति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः ॥
३२॥
गृह्ममाणैः--हृश्य होने के कारण प्रकृति से बने शरीर को स्वीकार करने से; त्वम्--आप; अग्राह्म:--प्रकृति से निर्मित शरीर मेंही सीमित न रह कर; विकारैः--मन द्वारा विचलित; प्राकृतैः गुणैः--प्रकृति के गुणों द्वारा ( सत्त्व गुण, रजोगुण तथा तमोगुण ); कः--कौन है; नु--उसके बाद; इह--इस जगत में; अर्हति--योग्य होता है; विज्ञातुम--जानने के लिए; प्राक्सिद्धम्--सृष्टि के पूर्व उपस्थित; गुण-संवृत:--भौतिक गुणों से आच्छन्न होने के कारण।
हे प्रभु, आप सृष्टि के पूर्व से विद्यमान हैं।
अतः इस जगत में भौतिक गुणों वाले शरीर मेंबन्दी रहने वाला ऐसा कौन है, जो आपको समझ सके ?आपको सादर नमस्कार करते हैं।
तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
आत्मद्योतगुणैश्छन्नमहिम्ने ब्रह्यणे नमः ॥
३३॥
तस्मै--उसको; तुभ्यमू--आपको; भगवते-- भगवान् को; वासुदेवाय--संकर्षण, प्रद्युम्म तथा अनिरुद्ध के उद्गम वासुदेव को;वेधसे-- सृष्टि के उद्गम को; आत्म-होत-गुणैः छन्न-महिम्ने--आपको, जिसका यश अपनी ही शक्ति से आच्छादित है;ब्रह्मणे--परब्रह्म को; नम: --हमारा नमस्कार।
अपनी ही शक्ति से आच्छादित महिमा वाले हे प्रभु, आप भगवान् हैं।
आप सृष्टि के उद्गम, संकर्षण, हैं और चतुर्व्यूह के उद्गम, वासुदेव, हैं।
आप सर्वस्व होने से परब्रह्म हैं अतएव हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।
यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिण: ।
तैस्तैरतुल्यातिशयैवीर्य॑र्देहिष्वसड्रतैः ॥
३४॥
स भवान्सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च ।
अवतीर्णोइशभागेन साम्प्रतं पतिराशिषाम् ॥
३५॥
यस्य--जिसका; अवतारा:--विभिन्न अवतार यथा मत्स्य, कूर्म, वराह; ज्ञायन्ते--कल्पित किये जाते हैं; शरीरेषु--भिन्न भिन्नप्रकार से दृश्य विभिन्न शरीरों में; अशरीरिण:--सामान्य शरीर नहीं अपितु दिव्य हैं; तैः तैः--उन्हीं उन्हीं कर्मों द्वारा; अतुल्य--अतुलनीय; अति-शयै:--असीम; वीर्य: --बल द्वारा; देहिषु--शरीरधारियों द्वारा; असड्डतैः --विभिन्न अवतारों में जो कार्य करपाना असम्भव है; सः--वही परमेश्वर; भवान्ू-- आप; सर्व-लोकस्य--हर एक की; भवाय--उन्नति के लिए; विभवाय--मुक्तिके लिए; च--तथा; अवतीर्ण:--अवतरित हुए हैं; अंश-भागेन--अंश समेत पूर्ण शक्ति में; साम्प्रतम्ू--इस क्षण; पतिःआशिषाम्--आप समस्त शुभ के स्वामी भगवान् हैं।
आप मत्स्य, कूर्म, वराह जैसे शरीरों में प्रकट होकर ऐसे प्राणियों द्वारा सम्पन्न न हो सकनेवाले कार्यकलाप--असामान्य, अतुलनीय, असीम शक्ति वाले दिव्य कार्य--प्रदर्शित करते हैं।
अतएव आपके ये शरीर भौतिक तत्त्वों से नहीं बने होते अपितु आपके अवतार होते हैं।
आप वहीभगवान् हैं, जो अब अपनी पूर्ण शक्ति के साथ इस जगत के सारे जीवों के लाभ के लिए प्रकटहुए हैं।
नमः परमकल्याण नमः परममड़ुल ।
वासुदेवाय शान्ताय यदूनां पतये नमः: ॥
३६॥
नमः--हम नमस्कार करते हैं परम-कल्याण---आप परम कल्याण हैं $ नम:ः--हमारा आपको नमस्कार; परम-मड़ल---आप जोभी करते हैं वह उत्तम है; वासुदेवाय--वासुदेव को; शान्ताय--अत्यन्त शान्त को; यदूनामू--यदुवंश के; पतये--नियन्ता को;नम:ः--हमारा नमस्कार है हे परम कल्याण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं क्योंकि आप परम शुभ हैं।
हे यदुबंशके प्रसिद्ध वंशज तथा नियन्ता, हे वसुदेव-पुत्र, हे परम शान्त, हम आपके चरणकमलों में सादरनमस्कार करते हैं।
अनुजानीहि नौ भूमंस्तवानुचरकिड्डरौ ।
दर्शन नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात् ॥
३७॥
अनुजानीहि--आप अनुमति दें; नौ--हमें; भूमन्--हे विराट रूप; तब अनुचर-किड्जूरौ --हम आपके विश्वस्त भक्त नारदमुनि केदास हैं; दर्शनम्--साक्षात् देखने के लिए; नौ--हमारा; भगवतः--आपका; ऋषे:--नारद ऋषि का; आसीत्-- था ( शाप केरूप में ); अनुग्रहात्-कृपा से |
हे परम रूप, हम सदैव आपके दासों के, विशेष रूप से नारदमुनि के दास हैं।
अब आप हमेंअपने घर जाने की अनुमति दें।
यह तो नारदमुनि की कृपा है कि हम आपका साक्षात् दर्शन करसके।
वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायांहस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्न: ।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामेदृष्टि: सतां दर्शनेउस्तु भवत्तनूनाम् ॥
३८ ॥
वाणी--शब्द, बोलने की शक्ति; गुण-अनुकथने--सदैव आपकी लीलाओं के विषय में बातें करने में व्यस्त; श्रवणौ--कान;कथायाम्--आपकी तथा आपकी लीलाओं के विषय में बातें करने में; हस्तौ--हाथ, पैर तथा अन्य इन्द्रियाँ; च-- भी; कर्मसु--आपका आदेश पालन करने में लगाकर; मन:--मन; तब--आपका; पादयो: --चरणकमलों का; नः--हमारी; स्मृत्याम्--ध्यान में लगी स्मृति में; शिर:ः--सिर; तब--आपका; निवास-जगत्-प्रणामे-- चूँकि आप सर्वव्यापी हैं और सर्वस्व हैं तथा हमारेश़ सिरों को नत होना चाहिए, भोग के लिए नहीं; दृष्टि:--देखने की शक्ति; सताम्--वैष्णवों के ; दर्शने--दर्शन करने में; अस्तु--इसी तरह लगे रहें; भवत्-तनूनाम्ू--जो आपसे अभिन्न हैं|
अब से हमारे सभी शब्द आपकी लीलाओं का वर्णन करें, हमारे कान आपकी महिमा काश्रवण करें, हमारे हाथ, पाँव तथा अन्य इन्द्रियाँ आपको प्रसन्न करने के कार्यो में लगें तथा हमारेमन सदैव आपके चरणकमलों का चिन्तन करें।
हमारे सिर इस संसार की हर वस्तु को नमस्कारकरें क्योंकि सारी वस्तुएँ आपके ही विभिन्न रूप हैं और हमारी आँखें आपसे अभिन्न वैष्णवों केरूपों का दर्शन करें।
श्रीशुक उबाचइत्थं सड्डी्तितस्ताभ्यां भगवान्गोकुले श्वरः ।
दाम्ना चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्मकौ ॥
३९॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इत्थम्--इस प्रकार, जैसाकि पहले कहा जा चुका है; सड्डी्तित:--महिमा कागायन किये जाने तथा प्रशंसित होने पर; ताभ्यामू--दोनों देवताओं द्वारा; भगवान्-- भगवान्; गोकुल-ई श्रर:-- गोकुल के स्वामी( क्योंकि वे सर्व-लोक-महे श्वर हैं ); दाम्ना--रस्सी से; च-- भी; उलूखले-- ओखली में; बद्ध:--बँधे हुए; प्रहसन्--हँसते हुए;आह--कहा; गुह्मकौ --दोनों देवताओं से
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : इस तरह दोनों देवताओं ने भगवान् की स्तुति की।
यद्यपि भगवान् कृष्ण सबों के स्वामी हैं और गोकुलेश्वर थे किन्तु वे गोपियों की रस्सियों द्वारा लकड़ीकी ओखली से बाँध दिये गये थे इसलिए उन्होंने हँसते हुए कुवेर के पुत्रों से ये शब्द कहे।
श्रीभगवानुवाचज्ञातं मम पुरैवेतदषिणा करुणात्मना ।
यच्छीमदान्धयोर्वाग्भिर्विभ्रंशोनुग्रह: कृत: ॥
४०॥
श्री-भगवान् उवाच-- श्री भगवान् ने कहा; ज्ञातम्--ज्ञात है; मम--मुझको; पुरा-- भूतकाल में; एव--निस्सन्देह; एतत्--यहघटना; ऋषिणा--नारद ऋषि से; करुणा-आत्मना--तुम पर अत्यधिक कृपालु होने के कारण; यत्--जो; श्री-मद-अन्धयो:--जो भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त हो चुके थे फलतः अंधे बन गये थे; वाग्भि:--वाणी से या शाप से; विभ्रेंश: --स्वर्गलोक सेगिर कर यहाँ पर अर्जुन वृक्ष बनने के लिए; अनुग्रह: कृत:--तुम पर उन्होंने बहुत अनुग्रह किया है।
भगवान् ने कहा : परम सन्त नारदमुनि अत्यन्त कृपालु हैं।
उन्होंने अपने शाप से तुम दोनों परबहुत बड़ा अनुग्रह किया है क्योंकि तुम दोनों भौतिक ऐश्वर्य के पीछे उन्मत्त होकर अन्धे बनचुके थे।
यद्यपि तुम दोनों स्वर्गलोक से गिर कर वृक्ष बने थे किन्तु उन्होंने तुम दोनों पर सर्वाधिककृपा की।
मैं प्रारम्भ से ही इन घटनाओं को जानता था।
साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।
दर्शनान्नो भवेद्वन्ध: पुंसोक्ष्णो: सवितुर्यथा ॥
४१॥
साधूनाम्ू--सारे भक्तों का; सम-चित्तानाम्--जो हर एक के प्रति समभाव रखते हैं; सुतराम्--पूर्णतया; मत्-कृत-आत्मनाम्--उन व्यक्तियों का जो पूर्ण शरणागत हैं या मेरी सेवा करने के लिए कृतसंकल्प हैं; दर्शनात्ू--मात्र दर्शन करने से; नो भवेत्बन्धः--सारे भौतिक बन्धन से मुक्ति; पुंसः--व्यक्ति का; अक्ष्णो:--आँखों का; सवितु: यथा--मानो सूर्य के समक्ष हो।
जब कोई व्यक्ति सूर्य के समक्ष होता है, तो उसकी आँखों में अँधेरा नहीं रह जाता।
इसी तरहजब कोई व्यक्ति ऐसे साधु या भक्त के समश्ष होता है, जो पूर्णतया हढ़ तथा भगवान् केशरणागत होता है, तो उसका भव-बन्धन छूट जाता है।
तदगच्छतं मत्परमौ नलकूवर सादनम् ।
सजञ्जातो मयि भावो वामीप्सित: परमोभव: ॥
४२॥
तत् गच्छतम्--अब तुम दोनों जा सकते हो; मत्-परमौ--मुझे अपने जीवन का परम लक्ष्य मान कर; नलकूवर--हे नलकूबरतथा मणिग्रीव; सादनम्-- अपने घर; सञ्जात:--सम्पृक्त; मयि--मुझमें; भाव:--भक्ति; वाम्--तुम्हारे द्वारा; ईप्सित:--अभिलषित; परम: --सर्वोच्च, सारी इन्द्रियों से सदैव संलग्न; अभव:ः--जिससे जगत में आना न हो।
हे नलकूवर तथा मणिग्रीव, अब तुम दोनों अपने घर वापस जा सकते हो।
चूँकि तुम मेरीभक्ति में सदैव लीन रहना चाहते हो अतः मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न करने की तुम दोनों की इच्छा पूरीहोगी और अब तुम उस पद से कभी भी नीचे नहीं गिरोगे।
श्रीशुक उबाचइत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः ।
बद्धोलूखलमामन्त्र्य जम्मतुर्दिशमुत्तराम् ॥
४३॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति उक्तौ--इस तरह भगवान् द्वारा आदेश दिये जाने पर; तौ--नलकूवर तथामणिग्रीव; परिक्रम्य--परिक्रमा करके; प्रणम्य--नमस्कार करके; च--भी; पुनः पुनः--फिर फिर, बारम्बार; बद्ध-उलूखलम्आमन्त्य-- ओखली से बँधे भगवान् से अनुमति लेकर; जग्मतु:--विदा हो गये; दिशम् उत्तरामू-- अपने अपने गन्तव्यों को
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार कहे जाने पर, उन दोनों देवताओं ने लकड़ी कीओखली से बँधे भगवान् की परिक्रमा की और उनको नमस्कार किया।
भगवान् कृष्ण सेअनुमति लेने के बाद वे अपने अपने धामों को वापस चले गये।
अध्याय ग्यारह: कृष्ण की बचपन की लीलाएँ
10.11श्रीशुक उवाचगोपा नन्दादय: श्रुत्वा द्रुमयो: पततो रवम् ।
तत्राजग्मुः कुरु श्रेष्ठ निर्धाभभयशड्ता: ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गोपा:--सारे ग्वाले; नन्द-आदय:--नन्द महाराज इत्यादि; श्रुत्वा--सुन कर;ब्रुमयो:--दोनों वृक्षों के; पततो:--गिरने की; रवम्--तेज आवाज, वज्पात जैसी; तत्र--वहाँ, उस स्थान पर; आजग्मु:--गये;कुरु-श्रेष्ठ--हे महाराज परीक्षित; निर्घात-भय-शह्लिता:--वज़पात होने से भयभीत।
शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे महाराज परीक्षित, जब यमलार्जुन वृक्ष गिर पड़े तोआसपास के सारे ग्वाले भयानक शब्द सुन कर वज़्पात की आशंका से उस स्थान पर गये।
भूम्यां निपतितौ तत्र दहशुर्यमलार्जुनौ ।
बश्रमुस्तदविज्ञाय लक्ष्यं पतनकारणम् ॥
२॥
भूम्यामू-- भूमि पर; निपतितौ--गिरे हुए; तत्र--वहाँ; दहशु:--सबों ने देखा; यमल-अर्जुनौ--अर्जुन वृक्ष के जोड़े को;बश्रमु:ः--मोहग्रस्त हो गये; तत्ू--वह; अविज्ञाय--पता न लगा सके; लक्ष्यम्--यह देखते हुए भी कि वृक्ष गिरे हैं; पतन-'कारणम्--गिरने का कारण ( सहसा ऐसा कैसे हुआ ? )
वहाँ उन सबों ने यमलार्जुन वृक्षों को जमीन पर गिरे हुए तो देखा किन्तु वे विमोहित थेक्योंकि वे आँखों के सामने वृक्षों को गिरे हुए तो देख रहे थे किन्तु उनके गिरने के कारण कापता नहीं लगा पा रहे थे।
उलूखलं विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं च बालकम् ।
कस्येदं कुत आश्वर्यमुत्पात इति कातरा: ॥
३॥
उलूखलम्--ओखली को; विकर्षन्तम्-खींचते हुए; दाम्ना--रस्सी से; बद्धम् च--तथा उदर से बँधी; बालकम्--कृष्ण को;'कस्य--किसका; इृदम्--यह; कुतः--कहाँ से; आश्चर्यम्-ये अद्भुत घटनाएँ; उत्पात:--उपद्रव; इति--इस प्रकार;'कातरा: --अत्यधिक क्षुब्धकृष्ण रस्सी द्वारा ओखली से बंधे थे जिसे वे खींच रहे थे।
किन्तु उन्होंने वृक्षों को किस तरहगिरा लिया ? वास्तव में किसने यह किया ? इस घटना का स्त्रोत कहाँ है ? इन आश्चर्यजनक बातोंको सोच सोच कर सारे ग्वाले सशंकित तथा मोहग्रस्त थे।
बाला ऊचुरनेनेति तिर्यग्गतमुलूखलम् ।
विकर्षता मध्यगेन पुरुषावप्यचक्ष्महि ॥
४॥
बाला:--सारे बालकों ने; ऊचु:--कहा; अनेन--उसके ( कृष्ण ) द्वारा; इति--इस प्रकार; तिर्यक् --टेढ़ी; गतम्ू-हुई;उलूखलम्--ओखली; विकर्षता--कृष्ण द्वारा खींचे जाने से; मध्य-गेन--दोनों वृक्षों के बीच जाकर; पुरुषौ--दो सुन्दर व्यक्ति;अपि--भी; अचक्ष्महि--हमने अपनी आँखों से देखा है।
तब सारे ग्वालबालों ने कहा : इसे तो कृष्ण ने ही किया है।
जब यह दो वृक्षों के बीच मेंथा, तो ओखली तिरछी हो गई।
कृष्ण ने ओखली को खींचा तो दोनों वृक्ष गिर गये।
इसके बादइन वृक्षों से दो सुन्दर व्यक्ति निकल आये।
हमने इसे अपनी आँखों से देखा है।
न ते तदुक्त जगृहुर्न घटेतेति तस्य तत् ।
बालस्योत्पाटनं तर्वो: केचित्सन्दिग्धचेतस: ॥
५॥
न--नहीं; ते--सारे गोप; तत्-उक्तम्--बालकों द्वारा कहे गये; जगृहु: --स्वीकार करेंगे; न घटेत--ऐसा नहीं हो सकता; इति--इस प्रकार; तस्य--कृष्ण का; तत्--काम; बालस्य--कृष्ण जैसे बालक का; उत्पाटनमू--जड़ समेत उखाड़ना; तर्वो:--दोनोंवृक्षों का; केचित्ू--किसी ने; सन्दिग्ध-चेतस:--क्या किया जा सकता है इसके विषय में सशंकित
क्योंकि गर्गमुनि नेभविष्यवाणी की थी कि यह बालक नारायण के समान होगा )॥
तीव्र पितृ-स्नेह के कारण नन्द इत्यादि ग्वालों को विश्वास ही नहीं हुआ कि कृष्ण ने इतनेआश्चर्यमय ढंग से वृक्षों को उखाड़ा है।
अतएव उन्हें बच्चों के कहने पर विश्वास नहीं हुआ।
किन्तुउनमें से कुछ को सन्देह था।
वे सोच रहे थे, ‘चूँकि कृष्ण के लिए भविष्यवाणी की गई थी किवह नारायण के तुल्य है अतएव हो सकता है कि उसी ने यह किया हो।
'उलूखलं विकर्षन्तं दाम्ना बद्धं स्वमात्मजम् ।
विलोक्य नन्दः प्रहसद्ददनो विमुमोचच ह ॥
६॥
उलूखलम्--ओखली को; विकर्षन्तम्--खींचते हुए; दाम्ना--रस्सी से; बद्धम्--बँधा हुआ; स्वम् आत्मजम्--अपने पुत्र कृष्णको; विलोक्य--देख कर; नन्दः--नन्द महाराज; प्रहसत्-वदन:ः--इस अद्भुत बालक को देखकर मुसकाते चेहरे से; विमुमोचह--उसे बन्धन से मुक्त कर दिया।
जब नन्द महाराज ने अपने पुत्र को रस्सी द्वारा लकड़ी की ओखली से बँधा और ओखलीको घसीटते देखा तो वे मुसकाने लगे और उन्होंने कृष्ण को बन्धन से मुक्त कर दिया।
गोपीभि: स्तोभितोनृत्यद्धगवान्बालवत्क्वचित् ।
उद्गायति क्वचिन्मुग्धस्तद्वशो दारुयन्त्रवत् ॥
७॥
गोपीभि:--गोपियों के द्वारा; स्तोभित:--प्रोत्साहित, प्रेरित; अनृत्यत्--बालक कृष्ण नाचता; भगवान्--भगवान् होकर के भी;बाल-वत्--मानवी बालक के ही समान; क्वचित्--कभी; उद्गायति--जोर से गाता है; क्वचित्--कभी; मुग्ध:--चकितहोकर; तत्-वशः --उनके वशीभूत होकर; दारु-यन्त्र-वतू--कठपुतली की तरह |
गोपियाँ कहतीं, ‘हे कृष्ण, यदि तुम नाचोगे तो तुम्हें आधी मिठाई मिलेगी।
ऐसे शब्द कहकर या तालियाँ बजा-बजा कर सारी गोपियाँ कृष्ण को तरह-तरह से प्रेरित करतीं।
ऐसे अवसरोंपर वे परम शक्तिशाली भगवान् होते हुए भी मुसका देते और उनकी इच्छानुसार नाचते मानों वेउनके हाथ की कठपुतली हों।
कभी कभी वे उनके कहने पर जोर-जोर से गाते।
इस तरह कृष्णपूरी तरह से गोपियों के वश में आ गये।
'बिभर्ति क्वचिदाज्ञप्त: पीठकोन्मानपादुकम् ।
बाहुक्षेपं च कुरुते स्वानां च प्रीतिमावहन् ॥
८ ॥
बिभर्ति--कृष्ण खड़े हो जाते और वस्तुओं को इस तरह छूते मानों उठा नहीं पाते; क्वचित्ू--कभी; आज्ञप्त:--आदेश दिये जानेपर; पीठक-उन्मान--पीढ़ा ( लकड़ी का ) तथा काठ का नपना; पादुकम्--खड़ाऊँ को; बाहु-क्षेपम् च--तथा शरीर पर हाथमारते, ताल ठोंकते; कुरुते--करता है; स्वानाम् च--तथा अपने सम्बन्धियों, गोपियों तथा अन्य मित्रों का; प्रीतिमू--आनन्द;आवहनू--बुलाते हुए।
कभी कभी माता यशोदा तथा उनकी गोपी सखियाँ कृष्ण से कहतीं, ‘जरा यह वस्तु लाना,जरा वह वस्तु लाना।
' कभी वे उनको पीढ़ा लाने, तो कभी खड़ाऊँ या काठ का नपना लाने केलिए आदेश देतीं और कृष्ण माताओं द्वारा इस तरह आदेश दिये जाने पर उन वस्तुओं को लानेका प्रयास करते।
किन्तु कभी कभी वे उन वस्तुओं को इस तरह छूते मानो उठाने में असमर्थ होंऔर वहीं खड़े रहते।
अपने सम्बन्धियों का हर्ष बढ़ाने के लिए वे दोनों हाथों से ताल ठोंक करदिखाते कि वे काफी बलवान हैं।
दर्शयंस्तद्विदां लोक आत्मनो भृत्यवश्यताम् ।
ब्रजस्योवाह वै हर्ष भगवान्बालचेष्टितै: ॥
९॥
दर्शयन्ू--दिखलाते हुए; तत्-विदाम्--कृष्ण के कार्यों को समझने वाले पुरुषों को; लोके--सारे जगत में; आत्मन:--अपनेआप को; भृत्य-वश्यताम्--अपने दासों या भक्तों के आदेशों का पालन करने के लिए तैयार रहने वाले; ब्रजस्थ--ब्रजभूमि के;उवाह--सम्पन्न किया; बै--निस्सन्देह; हर्षम्--आनन्द; भगवान्ू-- भगवान्; बाल-चेष्टितै:--बच्चों के जैसे कार्यों द्वारा |
भगवान् कृष्ण ने अपने कार्यकलापों को समझने वाले संसार-भर के शुद्ध भक्तों कोदिखला दिया कि किस तरह वे अपने भक्तों अर्थात् दासों द्वारा वश में किये जा सकते हैं।
इसतरह अपनी बाल-लीलाओं से उन्होंने ब्रजवासियों के हर्ष में वृद्धि की।
क्रीणीहि भो: फलानीति श्रुत्वा सत्वरमच्युत: ।
'फलार्थी धान्यमादाय ययौ सर्वफलप्रद: ॥
१०॥
क्रीणीहि--आकर खरीदें; भोः--हे पड़ोसियो; फलानि--पके फलों को; इति--इस प्रकार; श्रुत्वा--सुन कर; सत्वरम्ू--शीघ्र;अच्युत:--कृष्ण; फल-अर्थी --मानो उन्हें फल चाहिए; धान्यम् आदाय--कुछ धान लाकर; ययौ--फल बेचने वाली के पासगये; सर्व-फल-प्रद: --हर एक को सभी फल प्रदान करने वाले भगवान् को अब फल चाहिए थे।
एक बार एक फल बेचने वाली स्त्री पुकार रही थी, 'हे ब्रजभूमिवासियो, यदि तुम लोगोंको फल खरीदने हैं, तो मेरे पास आओ।
' यह सुन कर तुरन्त ही कृष्ण ने कुछ अन्न लिया औरसौदा करने पहुँच गये मानो उन्हें कुछ फल चाहिए थे।
'फलविक्रयिणी तस्य च्युतधान्यकरद्दयम् ।
फलैरपूरयद्गत्नी: फलभाण्डमपूरिच ॥
११॥
'फल-विक्रयिणी --फल बेचने वाली आदिवासिनी; तस्य--कृष्ण का; च्युत-धान्य--बदलने के लिए जो धान लाये थे वह गिरगया; कर-द्वयम्--अँजुली; फलै: अपूरयत्--फलवाली ने उनकी छोटी हथेलियों को फलों से भर दिया; रत्नैः--रत्नों तथा सोनेके बदले में; फल-भाण्डम्--फल की टोकरी; अपूरि च-- भर गई
जब कृष्ण तेजी से फलवाली के पास जा रहे थे तो उनकी अँजुली में भरा बहुत-सा अन्नगिर गया।
फिर भी फलवाली ने उनके दोनों हाथों को फलों से भर दिया।
उधर उसकी फल कीटोकरी तुरन्त रत्नों तथा सोने से भर गई।
सरित्तीरगतं कृष्णं भग्नार्जुनमथाहयत् ।
राम च रोहिणी देवी क्रीडन्तं बालकैर्भूशम् ॥
१२॥
सरित्-तीर--नदी के किनारे; गतम्--गये हुए; कृष्णम्--कृष्ण को; भग्न-अर्जुनमू--यमलार्जुन खंडित करने की लीला केबाद; अथ--तब; आह्ृयत्--बुलाया; रामम् च--तथा बलराम को; रोहिणी--बलराम की माता ने; देवी--लक्ष्मी; क्रीडन्तम्--खेल में व्यस्त; बालकै:ः-- अनेक बालकों के साथ; भृशम्-- अत्यन्त मनोयोग से |
यमलार्जुन वृक्षों के उखड़ जाने के बाद एक बार रोहिणीदेवी राम तथा कृष्ण को, जो नदीके किनारे गये हुए थे और अन्य बालकों के साथ बड़े ध्यान से खेल रहे थे, बुलाने गईं।
नोपेयातां यदाहूतौ क्रीडासड्लेन पुत्रकौ ।
यशोदां प्रेषयामास रोहिणी पुत्रवत्सलाम् ॥
१३॥
न उपेयाताम्ू--लौटे नहीं; यदा--जब; आहूतौ--खेल से बुला भेजे गये; क्रीडा-सड्गेन--अन्य बालकों के साथ खेलने में इतनाअनुरक्त होने के कारण; पुत्रकौ--दोनों पुत्र ( कृष्ण तथा बलराम ); यशोदाम् प्रेषयाम् आस--उन्हें बुलाने के लिए यशोदा कोभेजा; रोहिणी--माता रोहिणी ने; पुत्र-वत्सलाम्--क्योंकि माता यशोदा कृष्ण तथा बलराम के प्रति अधिक वत्सल थीं।
अन्य बालकों के साथ खेलने में अत्यधिक अनुरक्त होने के कारण वे रोहिणी के बुलाने परवापस नहीं आये।
अतः रोहिणी ने उन्हें वापस बुलाने के लिए माता यशोदा को भेजा क्योंकि वेकृष्ण तथा बलराम के प्रति अत्यधिक स्नेहिल थीं।
क्रीडन्तं सा सुतं बालैरतिवेलं सहाग्रजम् ।
यशोदाजोहवीत्कृष्णं पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी ॥
१४॥
क्रीडन्तम्--खेल में व्यस्त; सा--उस; सुतम्--अपने पुत्र को; बालैः--अन्य बालकों के साथ; अति-वेलम्--विलम्ब से; सह-अग्रजम्--अपने बड़े भाईं बलराम के साथ खेल रहे; यशोदा--माता यशोदा ने; अजोहवीत्--बुलाया ( अरे कृष्ण तथा बलरामआओ! ); कृष्णम्-कृष्ण को; पुत्र-स्नेह-स्नुत-स्तनी--उन्हें बुलाते हुए स्नेह के कारण उनके स्तनों से दूध बहने लगा ।
यद्यपि बहुत देर हो चुकी थी किन्तु कृष्ण तथा बलराम अपने खेल में अनुरक्त होने केकारण अन्य बालकों के साथ खेलते रहे।
इसलिए अब माता यशोदा ने भोजन करने के लिएउन्हें बुलाया।
कृष्ण तथा बलराम के प्रति उत्कट प्रेम तथा स्नेह होने से उनके स्तनों से दूध बहनेलगा।
कृष्ण कृष्णारविन्दाक्ष तात एहि स्तनं पिब ।
अल विहारै: क्षुक्षान्तः क्रीडाश्रान्तोउसि पुत्रक ॥
१५॥
कृष्ण कृष्ण अरविन्द-अक्ष--हे कृष्ण, मेरे बेटे, कमल जैसे नेत्रों वाले कृष्ण; तात--हे प्रिय; एहि--यहाँ आओ; स्तनम्--मेरेस्तन के दूध को; पिब--पियो; अलम् विहारैः--इसके बाद खेलने की कोई आवश्यकता नहीं है; क्षुत्-क्षान्त:-- भूख से थका;क्रीडा-श्रान्त:--खेलने से थका हुआ; असि--तुम हो; पुत्रक-हे पुत्र |
माता यशोदा ने कहा: हे प्रिय पुत्र कृष्ण, कमलनयन कृष्ण, यहाँ आओ और मेरा दूधपियो।
हे प्यारे, तुम भूख से तथा इतनी देर तक खेलने से बहुत थक गये होगे।
अब और अधिक खेलना जरूरी नहीं।
है रामागच्छ ताताशु सानुज: कुलनन्दन ।
प्रातरेव कृताहारस्तद्धवान्भोक्तुमहति ॥
१६॥
हे राम--मेरे प्यारे बलराम; आगच्छ---आओ; तात--मेरे प्रिय; आशु--शीघ्र; स-अनुज: -- अपने छोटे भाई सहित; कुल-नन्दन--हमारे परिवार की महान् आशा; प्रातः एब--सुबह के ही; कृत-आहार:--कलेवा किये हुए; तत्--इसलिए; भवान्--तुम; भोक्तुमू--अधिक खाने के लिए; अर्हति--योग्य हो |
हमारे परिवार के सर्वश्रेष्ठ मेरे प्यारे बलदेव, तुरन्त अपने छोटे भाई कृष्ण सहित आ जाओ।
तुम दोनों ने सुबह ही खाया था और अब तुम्हें कुछ और खाना चाहिए।
प्रतीक्षते त्वां दाशाई भोक्ष्यमाणो व्रजाधिप: ।
एह्मावयो: प्रियं धेहि स्वगृहान्यात बालका: ॥
१७॥
प्रतीक्षते-- प्रतीक्षा कर रही है; त्वाम्--तुम दोनों की; दाशाह--हे बलराम; भोक्ष्यमाण:--खाने की इच्छा रखते हुए; ब्रज-अधिप:--ब्रज का राजा, नन््द महाराज; एहि--यहाँ आओ; आवयो: --हमारा; प्रियम्ू--हर्ष; धेहि--जरा विचार करो; स्व-गृहान्--अपने अपने घरों को; यात--जाने दो; बालका:--अन्य बालक
अब ब्रज के राजा नन्द महाराज खाने के लिए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हे मेरे बेटे बलराम,वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं अत: हमारी प्रसन्नता के लिए तुम वापस आ जाओ।
तुम्हारे साथतथा कृष्ण के साथ खेल रहे सारे बालकों को अपने अपने घर जाना चाहिए।
धूलिधूसरिताडूस्त्वं पुत्र मजजनमावह ।
जन्मक्ल तेडद्य भवति विप्रेभ्यो देहि गा: शुच्चि: ॥
१८॥
धूलि-धूसरित-अड्ड त्वमू--तुम्हारा पूरा शरीर धूल से ढक गया है; पुत्र--मेरे बेटे; मजजनम् आवह--आओ, स्नान करो तथाअपनी सफाई करो; जन्म-ऋक्षम्-- जन्म का शुभ नक्षत्र; ते--तुम्हारे; अद्य--आज; भवति-- है; विप्रेभ्य: --शुद्ध ब्राह्मणों को;देहि--दान में दो; गाः--गाएँ; शुचि:--शुद्ध होकर
माता यशोदा ने आगे भी कृष्ण से कहा : हे पुत्र, दिन-भर खेलते रहने से तुम्हारा सारा शरीरधूल तथा रेत से भर गया है।
अतः वापस आ जाओ, स्नान करो और अपनी सफाई करो।
आजतुम्हारे जन्म के शुभ नक्षत्र से चाँद मेल खा रहा है, अतः शुद्ध होकर ब्राह्मणों को गौवों का दानकरो।
पश्य पश्य वयस्यांस्ते मातृमृष्टान्स्वलड्डू तान् ।
त्वं च सनातः कृताहारो विहरस्व स्वलड्डू त: ॥
१९॥
पश्य पश्य--जरा देखो तो; वयस्यान्ू--समान उम्र के बालक; ते--तुम्हारी; मातृ-मृष्टान्ू-- अपनी माताओं द्वारा नहलाये-धुलायेगये; सु-अलड्डू तानू--सुन्दर आभूषणों से सज्जित; त्वम् च--तुम भी; स्नातः--नहाकर; कृत-आहार:ः--तथा भोजन करने केबाद; विहरस्व--उनके साथ खेलो-कूदो; सु-अलड्डू त:--अच्छी तरह सजधज कर।
जरा अपनी उम्र वाले अपने सारे साथियों को तो देखो कि वे किस तरह अपनी माताओं द्वारानहलाये-धुलाये तथा सुन्दर आभूषणों से सजाये गये हैं।
तुम यहाँ आओ और स्नान करने,भोजन खाने तथा आभूषणों से अलंकृत होने के बाद फिर अपने सखाओं के साथ खेल सकतेहो।
इत्थं यशोदा तमशेषशेखरं मत्वा सुतं स्नेहनिबद्धधीर्नूप ।
हस्ते गृहीत्वा सहराममच्युतंनीत्वा स्ववार्ट कृतवत्यथोदयम् ॥
२०॥
इत्थम्--इस तरह; यशोदा--यशोदा; तम् अशेष-शेखरम्--कृष्ण को, जो हर शुभ वस्तु की पराकाष्ठा थे, जिनमें गंदगी याअशुद्धता का प्रश्न ही नहीं था; मत्वा--मान कर; सुतम्--अपने पुत्र; स्नेह-निबद्ध-धी: --अत्यधिक प्रेम-भाव के कारण;नृप--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); हस्ते--हाथ में; गृहीत्वा--लेकर; सह-रामम्--बलराम समेत; अच्युतम्--कृष्ण को;नीत्वा--लाकर; स्व-वाटम्--अपने घर; कृतवती--किया; अथ-- अब; उदयम्--नहलाने- धुलाने, वस्त्र पहनाने और आभूषणोंसे अलंकृत करने के बाद की चमक।
हे महाराज परीक्षित, अत्यधिक प्रेमवश माता यशोदा ने समस्त ऐश्वर्यों के शिखर पर आसीनकृष्ण को अपना पुत्र माना।
इस तरह वे बलराम के साथ कृष्ण को हाथ से पकड़ कर घर लेआईं जहाँ उन्हें नहलाने-धुलाने, वस्त्र पहनाने तथा भोजन खिलाने का उन्होंने अपना काम पूराकिया।
श्रीशुक उवाचगोपवृद्धा महोत्पाताननुभूय बृहद्वने ।
नन्दादय: समागम्य ब्रजकार्यममन्त्रयन्ू ॥
२१॥
श्री-शुकः उबाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गोप-वृद्धा:--बूढ़े ग्वालों ने; महा-उत्पातान्--बड़े बड़े उपद्रव; अनुभूय--अनुभव करके; बृहद्वने--बृहद्वन नामक स्थान में; नन्द-आदय: --नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले; समागम्य--एकत्र हुए; ब्रज-कार्यम्ू-ब्रजभूमि का कार्य; अमन्त्रयन्ू--महावन में लगातार होने वाले उत्पातों को रोकने पर विचार-विमर्श किया।
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : तब एक बार बृहद्वन में बड़े बड़े उपद्रव देख कर नन््दमहाराज तथा वृद्ध ग्वाले एकत्र हुए और विचार करने लगे कि ब्रज में लगातार होने वाले उपद्रवोंको रोकने के लिए क्या किया जाय।
तत्रोपानन्दनामाह गोपो ज्ञानवयोडधिक: ।
देशकालार्थतत्त्वज्ञ: प्रियकृद्रामकृष्णयो: ॥
२२॥
तत्र--उस सभा में; उपनन्द-नामा--उपानन्द नामक ( नन्द महाराज का बड़ा भाई ) ने; आह--कहा; गोप: --ग्वाला; ज्ञान-वयः-अधिक: --जो ज्ञान तथा आयु में सबसे बड़ा था; देश-काल-अर्थ-तत्त्व-ज्ञ:--देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार अत्यन्तअनुभवी; प्रिय-कृत्ू--लाभ के लिए; राम-कृष्णयो:-- भगवान्
बलराम तथा भगवान् कृष्ण केगोकुलवासियों की इस सभा में, उपानन्द नामक एक ग्वाले ने, जो आयु तथा ज्ञान मेंसर्वाधिक प्रौढ़ था और देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार अत्यधिक अनुभवी था, राम तथाकृष्ण के लाभ हेतु यह प्रस्ताव रखा।
उत्थातव्यमितोउस्माभि्गोकुलस्य हितैषिभि: ।
आयान्त्यत्र महोत्पाता बालानां नाशहेतवः ॥
२३॥
उत्थातव्यमू--इस स्थान को छोड़ देना चाहिए; इत:--यहाँ ( गोकुल ) से; अस्माभि: --हम सबों के द्वारा; गोकुलस्थ--गोकुलके; हित-एपिभि:--इस स्थान के हितैषियों द्वारा; आयान्ति--हो रहे हैं; अत्र--यहाँ पर; महा-उत्पाता:--अनेक बड़े बड़े उपद्रव;बालानाम्--राम तथा कृष्ण जैसे बालकों के; नाश-हेतव:--विनष्ट करने के उद्देश्य से |
उसने कहा : मेरे ग्वालमित्रो, इस गोकुल नामक स्थान की भलाई के लिए हमें इसे छोड़देना चाहिए क्योंकि यहाँ पर राम तथा कृष्ण को मारने के उद्देश्य से सदैव अनेकानेक उपद्रवहोते ही रहते हैं।
मुक्त: कथद्िद्राक्षस्या बालघ्न्या बालको हासौ ।
हरेरनुग्रहान्रूनमनश्चोपरि नापतत् ॥
२४॥
मुक्त:--छूटा था; कथश्ञित्--किसी तरह; राक्षस्था:--राक्षसी पूतना के हाथों से; बाल-घ्न्या:--बालकों को मारने पर तुली;बालक:ः--विशेषतया बालक कृष्ण; हि--क्योंकि; असौ--वह; हरे: अनुग्रहात्-- भगवान् की दया से; नूनम्--निस्सन्देह; अनःच--तथा छकड़ा; उपरि--बालक के ऊपर; न--नहीं; अपतत्--गिरा।
यह बालक कृष्ण, एकमात्र भगवान् की दया से किसी न किसी तरह राक्षसी पूतना के हाथोंसे बच सका क्योंकि वह उन्हें मारने पर उतारू थी।
फिर यह भगवान् की कृपा ही थी कि वहछकड़ा इस बालक पर नहीं गिरा।
चक्रवातेन नीतोयं दैत्येन विपदं वियत् ।
शिलायां पतितस्तत्र परित्रात: सुरेश्व: ॥
२५॥
चक्र-वातेन--बवंडर के रूप में असुर ( तृणावर्त ) द्वारा; नीतः अयम्--यह कृष्ण उड़ा ले जाया गया; दैत्येन--असुर द्वारा;विपदम्-- भयानक; वियत्--आकाश में; शिलायाम्ू--पत्थर पर; पतित: --गिरा हुआ; तत्र--वहाँ; परित्रात:--बचा लियागया; सुर-ई श्रैः-- भगवान् विष्णु या उनके संगियों द्वारा।
इसके बाद बवंडर के रूप में आया तृणावर्त असुर इस बालक को मार डालने के लिएसंकटमय आकाश में ले गया किन्तु वह असुर पत्थर की एक शिला पर गिर पड़ा।
तब भीभगवान् विष्णु या उनके संगियों की कृपा से यह बालक बच गया था।
यन्न प्नियेत द्रुमयोरन्तरं प्राप्प बालक: ।
असावन्यतमो वापि तदपष्यच्युतरक्षणम् ॥
२६॥
यत्--पुनः; न प्रियेत--नहीं मरा; द्रुमयो: अन्तरम्--दो वृक्षों के बीच; प्राप्प--बीच में होते हुए; बालक: असौ--वह बालक,कृष्ण; अन्यतम:--दूसरा बालक; वा अपि--अथवा; तत् अपि अच्युत-रक्षणम्--तब भी भगवान् द्वारा बचा लिया गया।
यहाँ तक कि किसी और दिन, न तो कृष्ण न ही उनके खिलाड़ी साथी उन दोनों वृक्षों केगिरने से मरे यद्यपि ये बालक वृक्षों के निकट या उनके बीच ही में थे।
इसे भी भगवान् काअनुग्रह मानना चाहिये।
यावदौत्पातिकोरिष्टो ब्रज॑ं नाभिभवेदितः ।
तादद्वालानुपादाय यास्यामोउन्यत्र सानुगा: ॥
२७॥
यावत्--जब तक; औत्पातिक: --उत्पात मचाने वाले; अरिष्ट: --असुर; ब्रजम्--यह गोकुल ब्रजभूमि; न--नहीं; अभिभवेत्इतः--इस स्थान से चले जाँय; तावत्--तब तक; बालान् उपादाय--बालकों के लाभ के लिए; यास्थाम:--हम चले जाँय;अन्यत्र--किसी दूसरी जगह; स-अनुगा:--अपने अनुयायियों समेत ।
ये सारे उत्पात कुछ अज्ञात असुर द्वारा किये जा रहे हैं।
इसके पूर्व कि वह दूसरा उत्पात करनेआये, हमारा कर्तव्य है कि हम तब तक के लिए इन बालकों समेत कहीं और चले जाये जबतक कि ये उत्पात बन्द न हो जायाँ।
वबन॑ वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम् ।
गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरुधम् ॥
२८ ॥
वनम्--दूसरा वन; वृन्दावनम् नाम--वृन्दावन नामक; पशव्यम्-गौवों तथा अन्य पशुओं के पालन के लिए उपयुक्त स्थान;नव-काननम्--कई नये बगीचों जैसे स्थान हैं; गोप-गोपी-गवाम्--सारे ग्वालों, उनके परिवार वालों तथा गौवों के लिए;सेव्यम्--अत्यन्त उपयुक्त स्थान; पुण्य-अद्वि--सुन्दर पर्वत हैं; तृण--पौधे; वीरुधम्--तथा लताएँ।
नन्देश्वर तथा महावन के मध्य वृन्दावन नामक एक स्थान है।
यह स्थान अत्यन्त उपयुक्त हैक्योंकि इसमें गौवों तथा अन्य पशुओं के लिए रसीली घास, पौधे तथा लताएँ हैं।
वहाँ सुन्दरबगीचे तथा ऊँचे पर्वत हैं और वह स्थान गोपों, गोपियों तथा हमारे पशुओं के सुख के लिए सारीसुविधाओं से युक्त है।
तत्तत्राद्ेव यास्याम: शकटान्युड्डः मा चिरम् ।
गोधनान्यग्रतो यान्तु भवतां यदि रोचते ॥
२९॥
तत्--इसलिए; तत्र--वहाँ; अद्य एबव--आज ही; यास्याम:--चले चलें; शकटान्--सारी बैलगाड़ियों को; युड्डू --जोत कर;मा चिरम्--देरी लगाये बिना; गो-धनानि--सारी गौवों को; अग्रत:--आगे आगे; यान्तु--चलने दें; भवताम्--आप सबों को;यदि--यदि; रोचते-- अच्छा लगे।
अतएव हम आज ही तुरन्त चल दें।
अब और अधिक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहींहै।
यदि आप सबों को मेरा प्रस्ताव मान्य हो तो हम अपनी सारी बैलगाड़ियाँ तैयार कर लें औरगौवों को आगे करके वहाँ चले जायें।
तच्छुत्वैकधियो गोपा: साधु साध्विति वादिन: ।
ब्रजान्स्वान्स्वान्समायुज्य ययू रूढपरिच्छदा: ॥
३०॥
तत् श्रुत्वा--उपानन्द की यह सलाह सुन कर; एक-धिय:--एकमत होकर; गोपा:--सारे ग्वालों ने; साधु साधु--अति उत्तम,अति उत्तम; इति--इस प्रकार; वादिन:--घोषित करते हुए; ब्रजानू--गौवों को; स्वान् स्वानू--अपनी अपनी; समायुज्य--एकत्रकरके; ययु:--रवाना हो गये; रूढ-परिच्छदा: --सारा साज-सामान गाड़ियों में रख कर।
उपानन्द की यह सलाह सुन कर ग्वालों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया और कहा,’बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।
' इस तरह उन्होंने अपने घरेलू मामलों की छान-बीन की और अपनेवस्त्र तथा अन्य सामान गाड़ियों पर रख लिये और तुरन्त वृन्दावन के लिए प्रस्थान कर दिया।
वृद्धान्बालान्स्त्रियो राजन्सवोपकरणानि च ।
अनःस्वारोप्य गोपाला यत्ता आत्तशरासना: ॥
३१॥
गोधनानि पुरस्कृत्य श्रृड्भाण्यापूर्य सर्वतः ।
तूर्यघोषेण महता ययुः सहपुरोहिता: ॥
३२॥
वृद्धानू--सर्वप्रथम सारे बूढ़ों को; बालान्ू--बालकों को; स्त्रियः--स्त्रियों को; राजनू--हे राजा परीक्षित; सर्व-उपकरणानिच--तथा सारी आवश्यक एवं घरेलू वस्तुएँ; अनःसु--बैलगाड़ियों पर; आरोप्य--लाद कर; गोपाला:--सारे ग्वाले; यत्ता:--सावधानीपूर्वक; आत्त-शर-असना:--तीरों तथा धनुषों से लैस होकर; गो-धनानि--सारी गौवों को; पुरस्कृत्य--आगे रख कर;श्रुद्झाणि--सींग की बनी तुरही; आपूर्य--बजाकर; सर्वतः--चारों ओर; तूर्य-घोषेण--तुरही की ध्वनि से; महता--उच्च;ययु:--रवाना हो गये; सह-पुरोहिता: --पुरोहितों सहित
सारे बूढ़ों, स्त्रियों, बालकों तथा घरेलू सामग्री को बैलगाड़ियों में लाद कर एवं सारी गौवोंको आगे करके, ग्वालों ने सावधानी से अपने अपने तीर-कमान ले लिये और सींग के बनेबिगुल बजाये।
हे राजा परीक्षित, इस तरह चारों ओर बिगुल बज रहे थे तभी ग्वालों ने अपनेपुरोहितों सहित अपनी यात्रा के लिए प्रस्थान किया।
गोप्यो रूढरथा नूलकुचकुड्डू मकान्तय: ।
कृष्णलीला जगुः प्रीत्या निष्ककण्ठ्य: सुवाससः ॥
३३॥
गोप्य:--सारी गोपियाँ; रूढ-रथा: --बैलगाड़ियों पर चढ़ी हुई; नूल-कुच-कुट्डु म-कान्तय:--उनके शरीर, विशेषतया उनकेस्तन ताजे कुंकुम से सजाये गये; कृष्ण-लीला:--कृष्ण-लीलाएँ; जगु:--उच्चारण कर रही थीं; प्रीत्या--बड़े हर्ष से; निष्क-'कण्ठ्य:--अपने गलों में लाकेट पहने; सु-वासस: --अच्छे वस्त्रों से सज्जित
बैलगाड़ियों में चढ़ी हुई गोपियाँ उत्तम से उत्तम वस्त्रों से सुसज्जित थीं और उनके शरीर,विशेषतया स्तन ताजे कुंकुम-चूर्ण से अलंकृत थे।
बैलगाड़ियों पर चढ़ते समय वे अत्यन्तहर्षपूर्वक कृष्ण की लीलाओं का कीर्तन करने लगीं।
तथा यशोदारोहिण्यावेक॑ शकटमास्थिते ।
रेजतु: कृष्णरामाभ्यां तत्कथाश्रवणोत्सुके ॥
३४॥
तथा--और; यशोदा-रोहिण्यौ--यशोदा तथा रोहिणी दोनों; एकम् शकटम्--एक बैलगाड़ी पर; आस्थिते--बैठी; रेजतु:--अत्यन्त सुन्दर; कृष्ण-रामाभ्यामू--अपनी माताओं के साथ कृष्ण तथा बलराम; तत्-कथा--कृष्ण तथा बलराम की लीलाओंका; श्रवण-उत्सुके --बड़ी ही उत्सुकता से सुनते हुए।
इस तरह माता यशोदा तथा रोहिणीदेवी कृष्ण तथा बलराम की लीलाओं को बड़े हर्ष सेसुनती हुईं, जिससे वे क्षण-भर के लिए भी उनसे वियुक्त न हों, एक बैलगाड़ी में उन दोनों केसाथ चढ़ गईं।
इस दशा में वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।
वृन्दावन सम्प्रविश्य सर्वकालसुखावहम् ।
तत्र चक्रुर््ंजावासं शकटैरर्धचन्द्रवत् ॥
३५॥
वृन्दावनम्--वृन्दावन नामक पवित्र स्थान में; सम्प्रविश्य--प्रविष्ट होकर; सर्व-काल-सुख-आवहम्--जहाँ सभी ऋतुओं में रहनासुहावना लगता है; तत्र--वहाँ; चक्रु:--बनाया; ब्रज-आवासम्--त्रज का निवास; शकटैः--बैलगाड़ियों से; अर्ध-चन्द्रवत् --आधे चन्द्रमा जैसा अर्धवृत्त बनाकर।
इस तरह वे वृन्दावन में प्रविष्ट हुए जहाँ सभी ऋतुओं में रहना सुहावना लगता है।
उन्होंनेअपनी बैलगाड़ियों से अर्धचन्द्राकार अर्धवृत्त बनाकर अपने रहने के लिए अस्थायी निवास बनालिया।
वृन्दावन गोवर्धन यमुनापुलिनानि च ।
वीक्ष्यासीदुत्तमा प्रीती राममाधवयोनृप ॥
३६॥
वृन्दावनम्--वृन्दावन नामक स्थान; गोवर्धनम्-गोवर्धन पर्वत; यमुना-पुलिनानि च--तथा यमुना नदी के किनारे; वीक्ष्य--देखकर; आसीत्--हो उठे; उत्तमा प्रीती--उच्च कोटि का हर्ष; राम-माधवयो:--कृष्ण तथा बलराम का; नृप--हे राजापरीक्षित |
हे राजा परीक्षित, जब राम तथा कृष्ण ने वृन्दावन, गोवर्धन तथा यमुना नदी के तट देखे तोदोनों को बड़ा आनन्द आया।
एवं ब्रजौकसां प्रीतिं यच्छन्तौ बालचेष्टितै: ।
कलवाक्यै: स्वकालेन वत्सपालौ बभूबतु: ॥
३७॥
एवम्--इस प्रकार; ब्रज-ओकसाम्--सारे ब्रजवासियों को; प्रीतिमू--हर्ष; यच्छन्तौ--प्रदान करते हुए; बाल-चेष्टितै:--बाल-लीलाओं से; कल-वाक्यै:--मीठी तोतली बोली से; स्व-कालेन--समयानुसार; वत्स-पालौ--बछड़ों की रखवाली करने केलिए; बभूवतु:--बड़े हो गये।
इस तरह कृष्ण और बलराम छोटे बालकों की तरह क्रीड़ाएँ करते तथा तोतली बोली बोलतेहुए ब्रज के सारे निवासियों को दिव्य आनन्द देने लगे।
समय आने पर वे बछड़ों की देखभालकरने के योग्य हो गये।
अविदूरे ब्रजभुवः सह गोपालदारकै: ।
चारयामासतुर्वत्सान्नानाक्रीडापरिच्छदौ ॥
३८॥
अविदूरे--ब्रजवासियों के आवासीय घरों से अधिक दूर नहीं; ब्रज-भुव:ः--व्रजभूमि से; सह गोपाल-दारकै:--उसी व्यवसायवाले अन्य बालकों ( ग्वालों ) के साथ; चारयाम् आसतु:--चराया करते; वत्सानू--बछड़ों को; नाना--तरह तरह के; क्रीडा--खेल; परिच्छदौ--भाँति-भाँति की सुन्दर वेशभूषाओं से युक्त तथा औजारों से लैस।
कृष्ण तथा बलराम अपने मकान के पास ही सभी तरह के खिलौनों से युक्त होकर अन्यग्वालों के साथ खेलने लगे एवं छोटे-छोटे बछड़ों को चराने लगे।
क्वचिद्वादयतो वेणुं क्षेपणै: क्षिपतः क्वचित् ।
क्वचित्पादे: किल्धिणीभि: क्वचित्कृत्रिमगोवृषै: ॥
३९॥
वृषायमाणो नर्दन्तौ युयुधाते परस्परम् ।
अनुकृत्य रुतैर्जन्तूंश्वेरतु: प्राकृता यथा ॥
४०॥
क्वचित्--कभी; वादयत:--बजाते हुए; वेणुम्--बाँसुरी को; क्षेपणैः--फेंकने की रस्सी ( गुलेल ) से; क्षिपत:--फल पाने केलिए पत्थर फेंकते; क्वचित्--कभी; क्वचित् पादैः:--कभी पाँवों से; किड्लिणीभि:--पैजनियों की आवाज से; क्वचित्--कभी; कृत्रिम-गो-वृषै:--नकली गाय तथा बैल बन कर; वृषायमाणौ--पशुओं की नकल उतारते; नर्दन्तौ--नादते, जोर सेशब्द करते; युयुधाते-- लड़ने लगते; परस्परम्--एक-दूसरे से; अनुकृत्य--नकल करके; रुतैः:--आवाज निकालते हुए;जन्तूनू--सारे पशुओं की; चेरतु:--घूमा करते; प्राकृतौ--दो सामान्य बालकों; यथा--की तरह
कृष्ण और बलराम कभी अपनी बाँसुरी बजाते, कभी वृक्षों से फल गिराने के लिए गुलेलचलाते, कभी केवल पत्थर फेंकते और कभी पाँवों के घुँधरूओं के बजते रहने के साथ साथ, वेबेल तथा आमलकी जैसे फलों से फुटबाल खेलते।
कभी कभी वे अपने ऊपर कम्बल डाल करगौवों तथा बैलों की नकल उतारते और जोर-जोर से शब्द करते हुए एक-दूसरे से लड़ते।
कभीवे पशुओं की बोलियों की नकल करते।
इस तरह वे दोनों सामान्य मानवी बालकों की तरहखेल का आनन्द लेते।
कदाचिद्यमुनातीरे वत्सांश्वारयतो: स्वकैः ।
वयस्यै: कृष्णबलयोर्जिघांसुर्देत्य आगमत् ॥
४१॥
कदाचित्--कभी; यमुना-तीरे-- यमुना के तट पर; वत्सानू--बछड़ों को; चारयतो:--चराते हुए; स्वकै:--अपने; वयस्यै:--अन्य साथियों के साथ; कृष्ण-बलयो:--कृष्ण तथा बलराम दोनों को; जिधघांसु:--मारने की इच्छा से; दैत्य:--अन्य असुर;आगमत्--आ पहुँचा
एक दिन जब राम तथा कृष्ण अपने साथियों के साथ यमुना नदी के किनारे अपने बछड़ेचरा रहे थे तो उन्हें मारने की इच्छा से वहाँ एक अन्य असुर आया।
त॑ वत्सरूपिणं वीक्ष्य वत्सयूथगतं हरि: ।
दर्शयन्बलदेवाय शनैर्मुग्थ इवासदत् ॥
४२॥
तम्--असुर को; वत्स-रूपिणम्ू--बछड़े का वेश धारण किये; वीक्ष्य--देख कर; वत्स-यूथ-गतम्--जब वह असुर अन्यबछड़ों के समूह के बीच घुसा; हरिः-- भगवान् कृष्ण; दर्शयन्--सूचित करते हुए; बलदेवाय--बलदेव को; शनै:--अत्यन्तधीमे धीमे; मुग्ध: इब--मानो कुछ समझ ही न रहे हों; आसदत्--पास आये।
जब भगवान् ने देखा कि असुर बछड़े का वेश धारण करके अन्य बछड़ों के समूह के बीचघुस आया है, तो उन्होंने बलदेव को इड्लित किया, ‘‘यह रहा दूसरा असुर।
' फिर वे उस असुर केपास धीरे-धीरे पहुँच गये मानो वे असुर के मनोभावों को समझ नहीं रहे थे।
गृहीत्वापरपादाभ्यां सहलाज्ूलमच्युत: ॥
भ्रामयित्वा कपित्थाग्रे प्राहिणोद्गतजीवितम् ।
स कपित्थेरमहाकाय: पात्यमानैः पपात ह ॥
४३॥
गृहीत्वा--पकड़ कर; अपर-पादाभ्याम्--पिछले पाँव से; सह--साथ; लाडूलम्--पूँछ को; अच्युतः--भगवान् कृष्ण ने;भ्रामयित्वा--तेजी से घुमाकर; कपित्थ-अग्रे--कैथे के पेड़ की चोटी पर; प्राहिणोत्-- फेंक दिया; गत-जीवितम्--प्राणहीन शरीर; सः--वह असुर; कपित्थे:--कैथे के वृक्ष समेत; महा-काय:--विशाल शरीर धारण किये; पात्यमानैः --गिरता हुआवृक्ष; पपात ह--मृत होकर भूमि पर गिर पड़ा |
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण ने उस असुर की पिछली टाँगें तथा पूँछ पकड़ ली और वे उसके शरीर कोतब तक तेजी से घुमाते रहे जब तक वह मर नहीं गया।
फिर उसे कैथे के पेड़ की चोटी पर फेंकदिया।
वह वृक्ष उस असुर द्वारा धारण किये गये विशाल शरीर को लेकर भूमि पर गिर पड़ा।
त॑ वीक्ष्य विस्मिता बाला: शशंसु: साधु साध्विति ।
देवाश्व परिसन्तुष्टा बभूवु: पुष्पव्षिण: ॥
४४॥
तम्--इस घटना को; वीक्ष्य--देखकर; विस्मिता:--चकित; बाला:--सारे बालक; शशंसु:--खूब प्रशंसा की; साधु साधुइति--’' बहुत अच्छा बहुत अच्छा ' चिल्लाते हुए; देवा: च--तथा स्वर्गलोक से सारे देवता; परिसन्तुष्टाः --अत्यन्त संतुष्ट;बभूवु:--हो गये; पुष्प-वर्षिण:--कृष्ण पर फूलों की वर्षा की |
असुर के मृत शरीर को देखकर सारे ग्वालबाल चिल्ला उठे, ‘बहुत खूब कृष्ण, बहुतअच्छे, बहुत अच्छे, धन्यवाद, ' स्वर्गलोक में सारे देवता प्रसन्न थे अतः उन्होंने भगवान् पर फूलबरसाये।
तौ वत्सपालकौ भूत्वा सर्वलोकैकपालकौ ।
सप्रातराशौ गोवत्सांश्चारयन्तौ विचेरतु: ॥
४५॥
तौ--कृष्ण तथा बलराम; वत्स-पालकौ--मानो बछड़ों की रखवाली करने वाले; भूत्वा--बन कर; सर्व-लोक-एक-पालकौ--यद्यपि बे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के जीवों के पालनकर्ता हैं; स-प्रात:-आशौ--सुबह का नाश्ता करके; गो-वत्सान्--सारेबछड़ों को; चारयन्तौ--चराते हुए; विचेरतु: --इधर-उधर विचरण करने लगे।
असुर को मारने के बाद कृष्ण तथा बलराम ने अपना सुबह का नाश्ता ( कलेवा ) कियाऔर बछड़ों की रखवाली करते हुए वे इधर-उधर टहलते रहे।
भगवान् कृष्ण तथा बलराम ने जोसम्पूर्ण सृष्टि के पालक हैं, ग्वालबालों की तरह बछड़ों का भार सँभाला।
स्वं स्वं वत्सकुलं सर्वे पाययिष्यन्त एकदा ।
गत्वा जलाशयाभ्याशं पाययित्वा पपुर्जलम् ॥
४६॥
स्वम् स्वमू-- अपने अपने; वत्स-कुलम्--बछड़ों के समूह को; सर्वे--सारे लड़के तथा कृष्ण एवं बलराम; पाययिष्यन्त:--पानीपिलाने की इच्छा से; एकदा--एक दिन; गत्वा--जाकर; जल-आशय-अभ्याशम्--तालाब के निकट; पाययित्वा--पशुओंको पानी पिला कर; पपु: जलमू्--स्वयं भी जल पिया
एक दिन कृष्ण तथा बलराम समेत सारे बालक, अपने अपने बछड़ों का समूह लेकर,जलाशय के पास बछड़ों को पानी पिलाने लाये।
जब पशु जल पी चुके तो बालकों ने भी वहाँपानी पिया।
ते तत्र दहशुर्बाला महासत्त्वमवस्थितम् ।
तत्रसुर्वज्निर्भिन्नं गिरे: श्रृद्रमिव च्युतम् ॥
४७॥
ते--उन; तत्र--वहाँ; दहशु:--देखा; बाला:--बालकों ने; महा-सत्त्वमू--विशाल शरीर; अवस्थितम्--स्थित; तत्रसु:--डरगये; वज़-निर्भिन्नम्--वज़ से टूटा; गिरे: श्रूड़मू--पर्वत की चोटी; इब--सहश; च्युतम्--वहाँ पर गिरी हुई |
जलाशय के पास ही बालकों ने एक विराट शरीर देखा जो उस पर्वत की चोटी के समानथा, जो वज़न के द्वारा टूट पड़ी हो।
वे ऐसे विशाल जीव को देखखर ही भयभीत थे।
स वै बको नाम महानसुरो बकरूपधृक् ।
आगत्य सहसा कृष्णं तीक्ष्णतुण्डोग्रसट्बली ॥
४८ ॥
सः--वह प्राणी; बै--निस्सन्देह; बकः नाम--बकासुर नामक; महान् असुर:ः--विशाल असुर; बक-रूप-धृक् --बगुले काशरीर धारण करके; आगत्य--वहाँ आकर; सहसा--अचानक; कृष्णम्--कृष्ण को; तीक्ष्ण-तुण्ड:--तेज चोंच वाला;अग्रसत्--निगल गया; बली--अत्यन्त बलशाली |
वह विशालकाय असुर बकासुर था।
उसने अत्यन्त तेज चोंच वाले बगुले का शरीर धारणकर लिया था।
वहाँ आकर उसने तुरन्त ही कृष्ण को निगल लिया।
कृष्णं महाबक ग्रस्तं दृष्ठा रामादयोर्भका: ।
बभूवुरिन्द्रियाणीव विना प्राणं विचेतस: ॥
४९॥
कृष्णम्-कृष्ण को; महा-बक- ग्रस्तम्--विशाल बगुले द्वारा निगला हुआ; दृष्टा--देखकर; राम-आदय: अर्भका:--बलरामइत्यादि सारे बालक; बभूवु:--हो गए; इन्द्रियाणि--इन्द्रियाँ; इब--सह्ृश; विना--रहित; प्राणम्--प्राण; विचेतस:--अत्यधिकमोहग्रस्त, प्रायः अचेत।
जब बलराम तथा अन्य बालकों ने देखा कि कृष्ण विशाल बगुले द्वारा निगले जा चुके हैं,तो वे बेहोश जैसे हो गये मानों प्राणरहित इन्द्रियाँ हों।
त॑ तालुमूलं प्रदहन्तमग्निवद्गोपालसूनुं पितरं जगद्गुरो: ।
अच्छर्द सद्योउतिरुषाक्षतं बक-स्तुण्डेन हन्तुं पुनरभ्यपद्यत ॥
५०॥
तम्--उसको; तालु-मूलम्-गले के नीचे; प्रदहन्तम्--जलाते हुए; अग्नि-बत्--आग की तरह; गोपाल-सूनुम्-ग्वाल-पुत्र,कृष्ण को; पितरम्--पिता को; जगत्-गुरो:--ब्रह्मा के; चच्छर्द--उसके मुँह से निकल आये; सद्यः--तुरन््त; अति-रुषा--अत्यधिक क्रोध से; अक्षतम्--बिना किसी तरह चोट खाये; बक:ः--बकासुर; तुण्डेन--तेज चोंच से; हन्तुमू--मार डालने केलिए; पुनः--फिर; अभ्यपद्यत--प्रयास किया।
कृष्ण जो ब्रह्मा के पिता हैं किन्तु ग्वाले के पुत्र की भूमिका निभा रहे थे, अग्नि के समानबन कर असुर के गले के निचले भाग को जलाने लगे जिससे बकासुर ने तुरन्त ही उन्हें उगलदिया।
जब असुर ने देखा कि निगले जाने पर भी कृष्ण को कोई क्षति नहीं पहुँची तो तुरन्त हीउसने अपनी तेज चोंच से कृष्ण पर फिर वार कर दिया।
तमापतन्तं स निगृह्य तुण्डयो-दोर्भ्या बक॑ कंससखं सतां पति: ।
पश्यत्सु बालेषु ददार लीलयामुदावहों वीरणवह्दिवौकसाम् ॥
५१॥
तम्--बकासुर को; आपतन्तम्--उन पर आक्रमण करने के लिए पुनः उद्यत; सः--भगवान् कृष्ण ने; निगृह्य--पकड़ कर;तुण्डयो:--चोंच; दोर्भ्यामू--अपनी बाहुओं से; बकम्--बकासुर को; कंस-सखम्--कंस के संगी; सताम् पति: --वैष्णवों केस्वामी कृष्ण ने; पश्यत्सु--देखते देखते; बालेषु--ग्वालबालों के; ददार--दो टुकड़े कर दिये; लीलया--आसानी से; मुदा-आवहः--मनमोहक कार्य; वीरण-वत्--वीरण घास के तुल्य; दिवौकसाम्--स्वर्ग के निवासियों केलिए
जब वैष्णवों के नायक कृष्ण ने यह देखा कि कंस का मित्र बकासुर उन पर आक्रमणकरने का प्रयास कर रहा है, तो उन्होंने अपने हाथों से उसकी चोंच के दोनों भागों ( ठोरों ) कोपकड़ लिया और सारे ग्वालबालों की उपस्थिति में उसे उसी प्रकार चीर डाला जिस तरह वीरणघास ( गाँडर ) के डंठल को बच्चे चीर डालते हैं।
कृष्ण द्वारा इस प्रकार असुर के मारे जाने सेस्वर्ग के निवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए।
तदा बकारिं सुरलोकवासिनःसमाकिरत्नन्दममल्लिकादिभि: ।
समीडिरे चानकशड्डुसंस्तवै-स्तद्वीक्ष्य गोपालसुता विसिस्मिरे ॥
५२॥
तदा--उस समय; बक-अरिम्--बकासुर के शत्रु को; सुर-लोक-वासिन:--स्वर्गलोक के वासियों ने; समाकिरन्ू--फूलबरसाये; नन्दन-मल्लिका-आदिभि:--नन्दन कानन में उत्पन्न मल्लिका आदि फूलों से; समीडिरे--उनको बधाई भी दी; च--तथा; आनक-शह्'ु-संस्तवैः --दुन्दुभी, शंख तथा स्तुतियों द्वारा; तत् वीक्ष्य--यह देखकर; गोपाल-सुता:--ग्वालबाल;विसिस्मिरि--आश्चर्यचकित थे।
उस समय स्वर्गलोक के वासियों ने बकासुर के शत्रु कृष्ण पर नन्दन-कानन में उगीमल्लिका के फूलों की वर्षा की।
उन्होंने दुन्दुभी तथा शंख बजाकर एवं स्तुतियों द्वारा उनकोबधाई दी।
यह देखकर सारे ग्वालबाल आश्चर्यचकित थे।
मुक्त बकास्यादुपलभ्य बालकारामादय: प्राणमिवेन्द्रियो गण: ।
स्थानागतं तं परिरभ्य निर्वृता:प्रणीय वत्सान्त्रजमेत्य तज्जगु; ॥
५३॥
मुक्तम्ू--इस प्रकार छूटा हुआ; बक-आस्यात्--बकासुर के मुख से; उपलभ्य--वापस पाकर; बालका:--सारे बालक, संगी;राम-आदय: --बलराम इत्यादि; प्राणम्--प्राण; इब--के समान; इन्द्रियः--इन्द्रियाँ; गण: --समूह; स्थान-आगतम्--अपनेअपने स्थान पर जाकर; तम्--कृष्ण को; परिरभ्य--चूमते हुए; निर्वृता:--संकट से मुक्त हुए; प्रणीय--एकत्र करके;वत्सान्ू--बछड़ों को; ब्रजम् एत्य--ब्रजभूमि लौट कर; तत् जगु:--घटना का जोर-जोर से बखान किया।
जिस प्रकार चेतना तथा प्राण वापस आने पर इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं उसी तरह जब कृष्णइस संकट से उबर आये तो बलराम समेत सारे बालकों ने सोचा मानो उन्हें फिर से जीवन प्राप्तहुआ हो।
उन्होंने कृष्ण का पूरी चेतना के साथ आलिंगन किया और अपने बछड़ों को समेट करवे ब्रजभूमि लौट आये जहाँ उन्होंने जोर-जोर से इस घटना का बखान किया।
श्र॒ुत्वा तद्विस्मिता गोपा गोप्यश्चातिप्रियाहता: ।
प्रेत्यागतमिवोत्सुक्यादैश्षन्त तृषितेक्षणा: ॥
५४॥
श्रुत्वा--सुन कर; तत्ू--वह घटना; विस्मिता:--आश्चर्यचकित; गोपा:--ग्वाले; गोप्य: च--तथा गोपियाँ; अति-प्रिय-आहता:--समाचार को बड़े आदर से सुना; प्रेम आगतम् इब-मानों ये बालक मृत्यु के मुख से लौट कर आये हों;उत्सुक्यात्-बड़ी उत्सुकता से; ऐश्षन्त--बालकों पर दृष्टि डालते हुए; तृषित-ईक्षणा:--पूर्ण सन््तोष से
कृष्ण तथा बालकों सेआँखें फेरने का मन नहीं हो रहा था।
जब ग्वालों तथा गोपियों ने जंगल में बकासुर के मारे जाने का समाचार सुना तो वेअत्यधिक विस्मित हो उठे।
कृष्ण को देखकर तथा उनकी कहानी सुन कर उन्होंने कृष्ण कास्वागत बड़ी उत्सुकता से यह सोचते हुए किया कि कृष्ण तथा अन्य बालक मृत्यु के मुख सेवापस आ गये हैं।
अतः वे कृष्ण तथा उन बालकों को मौन नेत्रों से देखते रहे।
अब जबकिबालक सुरक्षित थे, उनकी आँखें उनसे हटना नहीं चाह रही थीं।
अहो बतास्य बालस्य बहवो मृत्यवोभवन् ।
अप्यासीद्विप्रियं तेषां कृतं पूर्व यतो भयम् ॥
५५॥
अहो बत--यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है; अस्य--इस; बालस्य--कृष्ण का; बहव:--अनेक; मृत्यव:--मृत्यु के कारण;अभवनू--आये; अपि--फिर भी; आसीतू--था; विप्रियम्--मृत्यु का कारण; तेषाम्--सबों का; कृतम्--किया हुआ;पूर्वमू--पहले; यत:--जिससे; भयम्--मृत्यु-भय था।
नन्द महाराज तथा अन्य ग्वाले विचार करने लगे: यह बड़े आश्चर्य की बात है कि यद्यपि इसबालक कृष्ण ने अनेक बार मृत्यु के विविध कारणों का सामना किया है किन्तु भगवान् कीकृपा से भय के इन कारणों का ही विनाश हो गया और उसका बाल बाँका भी नहीं हुआ।
अथधाप्यभिभवन्त्येनं नैव ते घोरदर्शना: ।
जिघांसयैनमासाद्य नश्यन्त्यग्नौ पतड़वत् ॥
५६॥
अथ अपि--यद्यपि उन्होंने आक्रमण करना चाहा; अभिभवन्ति--मारने में सक्षम हैं; एनमू--इस बालक को; न--नहीं; एव--निश्चय ही; ते--वे सब; घोर-दर्शना:--देखने में भयावने; जिघांसया--ईर्ष्या के कारण; एनम्--कृष्ण के; आसाद्य--पासआकर; नश्यन्ति--नष्ट हो जाते हैं ( आक्रामक की मृत्यु होती है ); अग्नौ--अग्नि में; पतड़-वत्--कीटों के समान।
यद्यपि मृत्यु के कारणरूप दैत्यगण अत्यन्त भयावने थे किन्तु वे इस बालक कृष्ण को मारनहीं पाये।
चूँकि वे निर्दोष बालकों को मारने आये थे इसलिए ज्योंही वे उनके निकट पहुँचेत्योंही वे उसी तरह मारे गये जिस तरह अग्नि पर आक्रमण करने वाले पतड़े मारे जाते हैं।
अहो ब्रह्मविदां वाचो नासत्या: सन्ति कर्हिचित् ।
गर्गो यदाह भगवानन्वभावि तथेव तत् ॥
५७॥
अहो--कितना आश्चर्यजनक है; ब्रह्म -विदाम्--ब्रह्म-ज्ञान से युक्त व्यक्तियों के; वाच:--शब्द; न--कभी नहीं; असत्या: --झूठ;सन्ति--होते हैं; कर्हिचित्ू--किसी भी समय; गर्ग:--गर्गमुनि ने; यत्ू--जो भी; आह--भविष्यवाणी की थी; भगवान्--परमशक्तिशाली; अन्वभावि--वही हो रहा है; तथा एब--जैसा; तत्--वहब्रह्म-ज्ञान से युक्त पुरुषों के शब्द कभी झूठे नहीं निकलते।
यह बड़े ही आश्चर्य की बात हैकि गर्गमुनि ने जो भी भविष्यवाणी की थी उसे ही हम विस्तार से वस्तुत: अनुभव कर रहे हैं।
इति नन्दादयो गोपा: कृष्णरामकथां मुदा ।
कुर्वन्तो रममाणाश्च नाविन्दन्भववेदनाम् ॥
५८ ॥
इति--इस प्रकार; नन्द-आदय:--नन्द महाराज इत्यादि; गोपा:--ग्वाले; कृष्ण-राम-कथाम्-- भगवान् कृष्ण तथा राम सम्बन्धीघटनाओं की कथा को; मुदा--बड़े ही आनन्द से; कुर्वन्तः--करते हुए; रममाणा: च--आनन्द लेते हुए तथा कृष्ण के प्रति प्रेमबढ़ाते हुए; न--नहीं; अविन्दन्ू--अनुभव किया; भव-वेदनाम्--इस संसार के कष्टों को |
इस तरह नन्द समेत सारे ग्वालों को कृष्ण तथा बलराम की लीलाओं सम्बन्धी कथाओं मेंबड़ा ही दिव्य आनन्द आया और उन्हें भौतिक कष्टों का पता तक नहीं चला।
एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्ब्रजे ।
निलायनै: सेतुबन्धर्मकटोत्प्लवनादिभि: ॥
५९॥
एवम्--इस प्रकार; विहारैः--विभिन्न लीलाओं द्वारा; कौमारैः--बाल्योचित; कौमारम्ू--बाल्यावस्था; जहतु:--बिताई; ब्रजे--ब्रजभूमि में; निलायनैः--आँख-मिचौनी खेलते हुए; सेतु-बन्धैः--समुद्र में नकली पुल बनाते हुए; मर्कट--वानरों की तरह;उत्प्लवन-आदिभि:--इधर-उधर कूदते-फाँदते |
इस तरह कृष्ण तथा बलराम ने व्रजभूमि में बच्चों के खेलों में, यथा आँख-मिचौनी खेलने,समुद्र में पुल बनाने का स्वांग करने तथा बन्दरों की तरह इधर-उधर कूदने-फाँदने में अपनीबाल्यावस्था व्यतीत की।
अध्याय बारह: राक्षस अघासुर का वध
10.12श्रीशुक उबाचक्वचिद्दनाशाय मनो दधदव्॒जात्प्रात: समुत्थाय वयस्यवत्सपान् ।
प्रबोधयज्छुड्ररवेण चारुणाविनिर्गतो वत्सपुरःसरो हरि: ॥
१॥
श्री-शुकः उवाच-- श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; क्वचित्--एक दिन; वन-आशाय--जंगल में विहार करने हेतु; मनः--मन;दधतू-बध्यान दिया; ब्रजात्ू-ब्रजभूमि से बाहर गये; प्रातः:--सुबह होते ही; समुत्थाय--जग कर; वयस्य-वत्स-पान्--ग्वालबालों तथा बछड़ों को; प्रबोधयन्--जगाकर बतलाते हुए; श्रृड्अ-रवेण--सींग के बने बिगुल से आवाज करते हुए;चारुणा--अत्यन्त सुन्दर; विनिर्गतः--ब्रजभूमि से बाहर आये; वत्स-पुरःसर:--बछड़ों को आगे करके; हरिः-- भगवान्
शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजनू, एक दिन कृष्ण ने जंगल में विहार करते हुए कलेवाकरना चाहा।
उन्होंने बड़े सुबह उठ कर सींग का बिगुल बजाया तथा उसकी मधुर आवाज सेग्वालबालों तथा बछड़ों को जगाया।
फिर कृष्ण तथा सारे बालक अपने अपने बछड़ों के समूहोंको आगे करके ब्रजभूमि से जंगल की ओर बढ़े।
तेनैव साक॑ पृथुकाः सहस्त्रशःस्निग्धा: सुशिग्वेत्रविषाणवेणव: ।
स्वान्स्वान्सहस्त्रोपरिसड्ख्ययान्वितान्वत्सान्पुरस्कृत्य विनिर्ययुर्मुदा ॥
२॥
तेन--उनके; एव--निस्सन्देह; साकम्--साथ; पृथुका:--बालक; सहस्रश:ः --हजारों; स्निग्धा:--अत्यन्त आकर्षक; सु--सुन्दर; शिकू--कलेवा की पोटली; वेत्र--बछड़े हाँकने के लिए लाठियाँ; विषाण--सींग के बने बिगुल; वेणव:--बाँसुरियाँ;स्वान् स्वान्ू-- अपनी अपनी; सहस्त्र-उपरि-सड्ख्यया अन्वितान्--संख्या में एक हजार से ऊपर; वत्सान्ू--बछड़ों को; पुरः-कृत्य--आगे करके; विनिर्ययु;:--बाहर आ गये; मुदा--प्रसन्नतापूर्वक |
उस समय लाखों ग्वालबाल ब्रजभूमि में अपने अपने घरों से बाहर आ गये और अपने साथ के लाखों बछड़ों की टोलियों को अपने आगे करके कृष्ण से आ मिले।
ये बालक अतीव सुन्दरथे।
उनके पास कलेवा की पोटली, बिगुल, वंशी तथा बछड़े चराने की लाठियाँ थीं।
कृष्णवत्सैरसड्ख्यातैर्यूथीकृत्य स्ववत्सकान् ।
चारयन्तोर्भलीलाभिर्विजह॒स्तत्र तत्र ह ॥
३॥
कृष्ण--कृष्ण का; वत्सैः--बछड़ों के साथ; असड्ख्यातैः--अनन्त; यूथी-कृत्य--उन्हें एकत्र करके; स्व-वत्सकान्-- अपनेबछड़ों को; चारयन्तः--चराते हुए; अर्भ-लीलाभि:--बाल-लीलाओं द्वारा; विजहः --आनन्द मनाया; तत्र तत्र--यहाँ वहाँ;ह--निस्सन्देह।
कृष्ण ग्वालबालों तथा उनके बछड़ों के समूहों के साथ बाहर निकले तो असंख्य बछड़ेएकत्र हो गये।
तब सारे लड़कों ने जंगल में परम प्रसन्न होकर खेलना प्रारम्भ कर दिया।
'फलप्रबालस्तवकसुमन:पिच्छधातुभि: ।
काचगुज्ञामणिस्वर्ण भूषिता अप्यभूषयन् ॥
४॥
'फल--जंगल के फल; प्रबाल--हरी पत्तियाँ; स्तवक--गुच्छे; सुमन: --सुन्दर फूल; पिच्छ--मोरपंख; धातुभि:--रंगीन खनिजपदार्थ, गेरू द्वारा; काच--एक प्रकार का पत्थर; गुझ्ला--छोटे छोटे शंख; मणि--मोती; स्वर्ण--सोना; भूषिता:--अलंकृत;अपि अभूषयन्--माताओं द्वारा सजाये जाने पर भी स्वयं इन वस्तुओं से अपने को सजाने लगे।
यद्यपि इन बालकों की माताओं ने पहले से इन्हें काच, गुझ्ला, मोती तथा सोने के आभूषणोंसे सजा रखा था किन्तु फिर भी जंगल में जाकर उन्होंने फलों, हरी पत्तियों, फूलों के गुच्छों,मोरपंखों तथा गेरू से अपने को सजाया।
मुष्णन्तोउन्योन्यशिक्यादीन्ज्ञातानाराच्च चिह्षिपु: ।
तत्रत्याश्व पुनर्दूराद्धसन्तश्न पुनर्ददु; ॥
५॥
मुष्णन्त:--चुराते हुए; अन्योन्य--एक-दूसरे से; शिक्य-आदीन्ू--कलेवा के डिब्बे तथा अन्य वस्तुएँ; ज्ञातानू--उसके असलीमालिक द्वारा जान लिये जाने पर; आरात् च--दूर स्थान को; चिक्षिपु:--फेंक दिया; तत्रत्या: च--जो उस स्थान पर थे, वे भी;पुनः दूरात्ू--और आगे; हसन्तः च पुनः ददुः--हँसते हुए फिर से मालिक को लौटा दिया।
सारे ग्वालबाल एक-दूसरे की कलेवा की पोटली चुराने लगे।
जब कोई बालक जान जाताकि उसकी पोटली चुरा ली गयी है, तो दूसरे लड़के उसे दूर फेंक देते और वहाँ पर खड़े बालकउसे और दूर फेंक देते।
जब पोटली का मालिक निराश हो जाता तो दूसरे बालक हँस पड़ते औरमालिक रो देता तब वह पोटली उसे लौटा दी जाती।
यदि दूरं गत: कृष्णो वनशोभेक्षणाय तम् ।
अहं पूर्वमहं पूर्वमिति संस्पृश्य रेमिरि ॥
६॥
यदि--यदि; दूरम्--दूर स्थान को; गत: --गये; कृष्ण: --कृष्ण; बन-शोभ--जंगल का सौन्दर्य; ईक्षणाय--देखने तथा आनन्दलेने के लिए; तम्--कृष्ण को; अहम्--ैं; पूर्वम्--प्रथम; अहम्--मैं; पूर्वमू--प्रथम; इति--इस प्रकार; संस्पृश्य--उन्हें छूकर; रेमिरि--जीवन का आनन्द लेते।
कभी कभी कृष्ण जंगल की शोभा देखने के लिए दूर तक निकल जाते।
तो सारे बालकउनके साथ जाने के लिए, यह कहते हुए दौते, ‘दौड़ कर कृष्ण को छूने वाला मैं पहला हूँगा! मैंकृष्ण को सबसे पहले छुऊँगा।
' इस तरह वे कृष्ण को बारम्बार छू-छू कर जीवन का आनन्दलेते।
केचिद्वेणून्वादयन्तो ध्मान्तः श्रुड्भराणि केचन ।
केचिद्धड़ैः प्रगायन्तः कूजन्त: कोकिलै: परे ॥
७॥
विच्छायाभि: प्रधावन्तो गच्छन्तः साधुहंसकै: ।
बकैरुपविशन्तश्च नृत्यन्तश्न कलापिभि: ॥
८॥
विकर्षन्त: कीशबालानारोहन्तश्न तैर्द्रमान् ।
विकुर्वन्तश्च तै: साक॑ प्लवन्तश्च पलाशिषु ॥
९॥
साकं भेकैर्विलड्डन्तः सरितः स्त्रवसम्प्लुता: ।
विहसन्त: प्रतिच्छाया: शपन्तश्च प्रतिस्वनान् ॥
१०॥
इत्थं सतां ब्रह्मसुखानु भूत्यादास्यं गतानां परदैवतेन ।
मायाज्ितानां नरदारकेणसाक॑ विजह्ु: कृतपुण्यपुझ्ञा: ॥
११॥
केचित्--उनमें से कोई; वेणून्ू--बाँसुरियों को; वादयन्त:--बजाते हुए; ध्मान्त:--बजाते; श्रूज्ञणि--सींग का बिगुल;केचन--अन्य कोई; केचित्--कोई; भृड्ठैः-- भौंरों के साथ; प्रगायन्त:--गाते हुए; कूजन्तः--कूजते हुए; कोकिलैः --कोयलोंके साथ; परे--अन्य; विच्छायाभि:--दौड़ती परछाइयों के साथ; प्रधावन्त:--चिड़ियों के पीछे दौते हुए; गच्छन्त:--साथ साथजाते हुए; साधु--सुन्दर; हंसकैः --हंसों के साथ; बकै:--एक स्थान पर बैठे बगुलों के साथ; उपविशन्तः च--उन्हीं के समानचुपचाप बैठते हुए; नृत्यन्त: च--तथा नाचते हुए; कलापिभि: --मोरों के साथ; विकर्षन्त:--आकर्षित करते हुए; कीश-बालानू्--बन्दरों के बच्चों को; आरोहन्तः च--चढ़ते हुए; तैः--बन्दरों के साथ; द्रुमानू--वृक्षों पर; विकुर्वन्त: च--उनकीनकल करते हुए; तैः--उनके; साकम्--के साथ; प्लवन्त: च--कूदते हुए; पलाशिषु--वृक्षों पर; साकम्--साथ; भेकै: --मेंढ़कों के; विलड्डन्त:--उन्हीं की तरह कूदते हुए; सरित:--जल; स्त्रव-सम्प्लुता:--नदी के जल में भीग गये; विहसन्तः--हँसतेहुए; प्रतिच्छाया:--परछाईं पर; शपन्त:ः च--निन्दा करते हुए; प्रतिस्वनानू--अपनी प्रतिध्वनि की आवाज; इत्थम्--इस प्रकार;सताम्--अध्यात्मवादियों का; ब्रह्म-सुख-अनुभूत्या--ब्रह्म-सुख के उद्गम, कृष्ण के साथ; दास्यम्--दास्यभाव; गतानाम्ू--भक्तों का जिन्होंने स्वीकार किया है; पर-दैवतेन-- भगवान् के साथ; माया-आश्नितानाम्ू--माया के वशीभूतों के लिए; नर-दारकेण--जिन्होंने सामान्य बालक के सहृश उनके साथ; साकम्--साथ में; विजहु:-- आनन्द लूटा; कृत-पुण्य-पुझ्ला:--येसारे बालक जिन्होंने जन्म-जन्मांतर के पुण्यकर्मों के फल एकत्र कर रखे थे।
सारे बालक भिन्न भिन्न कार्यों में व्यस्त थे।
कुछ अपनी बाँसुरियाँ बजा रहे थे, कुछ सींग काबिगुल बजा रहे थे।
कुछ भौरों की गुंजार की नकल तो अन्य बालक कोयल की कुहू कुहू कीनकल कर रहे थे।
कुछ बालक उड़ती चिड़ियों की भूमि पर पड़ने वाली परछाइयों के पीछे दौड़कर उनकी नकल कर रहे थे, तो कुछ हंसों की सुन्दर गति तथा उनकी आकर्षक मुद्राओं कीनकल उतार रहे थे।
कुछ चुपचाप बगुलों के पास बैठ गये और अन्य बालक मोरों के नाच कीनकल करने लगे।
कुछ बालकों ने वृक्षों के बन्दरों को आकृष्ट किया, कुछ इन बन्दरों की नकलकरतेहुए पेड़ों पर कूदने लगे।
कुछ बन्दरों जैसा मुँह बनाने लगे और कुछ एक डाल से दूसरीडाल पर कूदने लगे।
कुछ बालक झरने के पास गये और उन्होंने मेंढ्रकों के साथ उछलते हुएनदी पार की और पानी में अपनी परछाईं देख कर वे हँसने लगे।
वे अपनी प्रतिध्वनि की आवाजकी निन््दा करते।
इस तरह सारे बालक उन कृष्ण के साथ खेला करते जो ब्रह्मज्योति में लीनहोने के इच्छुक ज्ञानियों के लिए उसके उद्गम हैं और उन भक्तों के लिए भगवान् हैं जिन्होंनेनित्यदासता स्वीकार कर रखी है किन्तु सामान्य व्यक्तियों के लिए वे ही एक सामान्य बालक हैं।
ग्वालबालों ने अनेक जन्मों के पुण्यकर्मों का फल संचित कर रखा था फलत:ः वे इस तरहभगवान् के साथ रह रहे थे।
भला उनके इस महाभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है ?
यत्पादपांसुर्बहुजन्मकृच्छुतोधृतात्मभिर्योगिभिरप्यलभ्यः ।
स एव यदूग्विषय: स्वयं स्थितःकिं वर्ण्यते दिष्टमतो ब्रजौकसाम् ॥
१२॥
यत्--जिसके; पाद-पांसु;:--चरणकमलों की धूल; बहु-जन्म--अनेक जन्मों में; कृच्छृत:--योग, ध्यान आदि के लिए कठिनतपस्या करने से; धृत-आत्मभि:--मन को वश में रखने वालों के द्वारा; योगिभि: --ऐसे योगियों द्वारा ( ज्ञानयोगी, राजयोगी,ध्यानयोगी इत्यादि ); अपि--निस्सन्देह; अलभ्य:--प्राप्तन किया जा सकने वाली; सः--भगवान्; एव--निस्सन्देह; यत्-हक् -विषयः--साक्षात् दर्शन की वस्तु बन गया है; स्वयम्--स्वयं; स्थित:--उनके समक्ष उपस्थित; किम्--क्या; वर्ण्यते--वर्णनकिया जा सकता है; दिष्टम्ू-- भाग्य के विषय में; अत:--इसलिए; ब्रज-ओकसाम्--ब्रजभूमि वृन्दावन के वासियों के |
भले ही योगी अनेक जन्मों तक यम, नियम, आसन तथा प्राणायाम द्वारा जिनमें से कोई भीसरलता से नहीं किया जा सकता है, कठोर से कठोर तपस्या करें फिर भी समय आने पर जबइन योगियों को मन पर नियंत्रण करने की सिद्धि प्राप्त हो जाती है, तो भी वे भगवान् केचरणकमलों की धूल के एक कण तक का आस्वाद नहीं कर सकते।
तो भला ब्रजभूमिवृन्दावन के निवासियों के महाभाग्य के विषय में क्या कहा जाय जिनके साथ साथ साक्षात्भगवान् रहे और जिन्होंने उनका प्रत्यक्ष दर्शन किया ?
अथाघनामाभ्यपतन्महासुर-स्तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षम: ।
नित्यं यदन्तर्निजजीवितेप्सुभि:पीतामृतैरप्यमरैः प्रतीक्ष्यते ॥
१३॥
अथ--तत्पश्चात्; अध-नाम--अघ नामक शक्तिशाली असुर; अभ्यपतत्--उस स्थान पर प्रकट हुआ; महा-असुरः--महान,अत्यन्त शक्तिशाली असुर; तेषाम्-ग्वालबालों की; सुख-क़ीडन--दिव्य लीलाओं का आनन्द; वीक्षण-अक्षम: --देख करसहन कर पाने में अक्षम; नित्यम्--शा श्वत; यत्-अन्त:--अघासुर का अन्त; निज-जीवित-ईप्सुभि: --अघासुर द्वारा बिना सतायेहुए जीने के लिए; पीत-अमृतैः अपि-- प्रतिदिन अमृत-पान करते हुए भी; अमरैः--देवताओं द्वारा; प्रतीक्ष्यते--प्रतीक्षा की जारही थी ( देवता भी अघासुर के वध की प्रतीक्षा कर रहे थे )
हे राजा परीक्षित, तत्पश्चात् वहाँ पर एक विशाल असुर प्रकट हुआ जिसका नाम अघासुर थाऔर देवता तक जिसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे।
यद्यपि देवता प्रतिदिन अमृत-पान करते थेफिर भी वे इस महान् असुर से डरते थे और उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा में थे।
यह असुर जंगल मेंग्वालबालों द्वारा मनाये जा रहे दिव्य आनन्द को सहन नहीं कर सका।
इृष्टार्भकान्कृष्णमुखानघासुरःकंसानुशिष्ट: स बकीबकानुज: ।
अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयो-ईयोम॑मैनं सबल॑ हनिष्ये ॥
१४॥
इृष्ठा--देख कर; अर्भकान्--सारे ग्वालबालों को; कृष्ण-मुखान्ू--कृष्ण आदि; अघासुर: --अघासुर नामक राक्षस; कंस-अनुशिष्ट:--कंस द्वारा भेजा गया; सः--वह ( अघासुर ); बकी-बक-अनुज: --पूतना तथा बकासुर का छोटा भाई; अयम्ू--यहकृष्ण; तु--निस्सन्देह; मे--मेरा; सोदर-नाश-कृत्-- भाई तथा बहिन का मारने वाला; तयो:--अपने भाई तथा बहिन के लिए;द्वयो:--दोनों के लिए; मम--मेरा; एनम्--कृष्ण को; स-बलम्--उसके सहायक ग्वालबालों समेत; हनिष्ये--जान सेमारूँगा।
कंस द्वारा भेजा गया अघासुर पूतना तथा बकासुर का छोटा भाई था।
अतएव जब वहआया और उसने देखा कि कृष्ण सारे ग्वालबालों का मुखिया है, तो उसने सोचा, ‘इस कृष्ण नेमेरी बहन पूतना तथा मेरे भाई बकासुर का वध किया है।
अतएव इन दोनों को तुष्ट करने केलिए मैं इस कृष्ण को इसके सहायक अन्य ग्वालबालों समेत मार डालूँगा।
'एते यदा मत्सुहदोस्तिलापःकृतास्तदा नष्ट्समा ब्रजौकसः ।
प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिन्ताप्रजासव: प्राणभूतो हि ये ते ॥
१५॥
एते--यह कृष्ण तथा उसके संगी ग्वालबाल; यदा--जब; मत्ू-सुहृदो: --मेंरे भाई तथा बहिन का; तिल-आप: कृता:--तिलतथा जल से अन्तिम संस्कार हो; तदा--उस समय; नष्ट-समा: --प्राणविहीन; ब्रज-ओकस: --ब्रज भूमि वृन्दावन के सारेनिवासी; प्राणे-- प्राण के; गते--निकल जाने पर; वर्ष्पसु--जहाँ तक शरीर का सम्बन्ध है; का--क्या; नु--निस्सन्देह;चिन्ता--सोच-विचार; प्रजा-असवः--अपने बच्चों के लिए जिनका प्रेम अपने जीवन के प्रति प्रेम जैसा ही है; प्राण-भृतः--वेजीव; हि--निस्सन्देह; ये ते--ये सारे व्रजभूमिवासी |
अघासुर ने सोचा: यदि मैं किसी तरह कृष्ण तथा उनके संगियों को अपने भाई तथा बहिनकी दिवंगत आत्माओं के लिए तिल तथा जल की अन्तिम भेंट बना सकूँ तो व्रजभूमि के सारेवासी, जिनके लिए ये बालक प्राणों के तुल्य हैं, स्वयमेव मर जायेंगे।
यदि प्राण नहीं रहेंगे तोफिर शरीर की क्या आवश्यकता ? फलस्वरूप अपने अपने पुत्रों के मरने पर ब्रज के सारे वासीस्वतः मर जायेंगे।
इति व्यवस्यथाजगर बृहद्वपुःस योजनायाममहाद्विपीवरम् ।
धृत्वाद्भुतं व्यात्तगुह्दाननं तदापथि व्यशेत ग्रसनाशया खलः ॥
१६॥
इति--इस प्रकार; व्यवस्थ--निश्चय करके; आजगरम्---अजगर; बृहत् बपु:--अत्यन्त भारी शरीर; सः--अघासुर ने; योजन-आयाम--आठ मील भूमि घेरने वाला; महा-अद्वि-पीवरम्--विशाल पर्वत के समान मोटा; धृत्वा--रूप धारण कर; अद्भुतम्--अद्भुत; व्यात्त--फैला दिया; गुहा-आननम्--विशाल पर्वत-गुफा जैसे मुँह वाला; तदा--उस समय; पथि--रास्ते में;व्यशेत--घेर लिया; ग्रसन-आशया--सारे ग्वालबालों को निगलने की आशा से; खलः-ुष्ट |
यह निश्चय करने के बाद उस दुष्ट अघासुर ने एक विशाल अजगर का रूप धारण करलिया, जो विशाल पर्वत की तरह मोटा तथा आठ मील तक लम्बा था।
इस तरह अद्भुत अजगरका शरीर धारण करने के बाद उसने अपना मुँह पर्वत की एक बड़ी गुफा के तुल्य फैला दियाऔर रास्ते में कृष्ण तथा उनके संगी ग्वालबालों को निगल जाने की आशा से लेट गया।
धराधरोष्टो जलदोत्तरोष्टोदर्याननान्तो गिरिश्रुड्डदंष्रः ।
ध्वान्तान्तरास्यो वितताध्वजिह्ःपरुषानिलश्वासदवेक्षणोष्ण: ॥
१७॥
धरा--पृथ्वी; अधर-ओएष्ठ :--जिसका निचला होंठ; जलद-उत्तर-ओष्ठ:--जिसका ऊपरी होंठ बादलों को छू रहा था; दरी-आनन-अन्त:--जिसका मुँह पर्वत-गुफा के समान चौड़ाई में फैल गया था; गिरि- श्रूड्र-- पर्वत की चोटी के समान; दंष्ट:--दाँत; ध्वान्त-अन्तः-आस्य:--मुँह के भीतर का वायुमण्डल यथासम्भव अंधकारपूर्ण था; वितत-अध्व-जिह्ः--जिसकी जीभचौ रास्ते की भाँति थी; परुष-अनिल-श्रास--जिसकी श्वास गर्म हवा की तरह थी; दव-ईक्षण-उष्ण:--जिसकी चितवन आगकी लपटों जैसी थी।
उसका निचला होठ पृथ्वी पर था और ऊपरी होठ आकाश के बादलों को छू रहा था।
उसकेमुख की बगलें पर्वत की विशाल गुफाओं के समान थीं और मुख का मध्य भाग अत्यन्तअंधकारमय था।
उसकी जीभ चौ मार्ग के तुल्य थी, उसकी श्वास गर्म हवा जैसी थी और उसकीआँखें आग की लपटों जैसी जल रही थीं।
इृष्ठा तं ताद॒शं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम् ।
व्यात्ताजगरतुण्डेन हुप्प्रेक्षन्ते सम लीलया ॥
१८॥
इृष्ठा--देख कर; तम्--उस अघासुर को; ताहशम्--उस अव्स्था में; सर्वे--कृष्ण तथा सारे बालकों ने; मत्वा--सोचा कि;बृन्दावन-अियम्--वृन्दावन की सुन्दर मूर्ति; व्यात्त--फैला हुआ; अजगर-तुण्डेन--अजगर के मुँह जैसा; हि--निस्सनदेह;उत्प्रेक्षन्ते--मानों देख रहा हो; स्म-- भूतकाल में; लीलया--लीला के रूप में |
इस असुर का अद्भुत रूप विशाल अजगर के समान था।
इसे देख कर बालकों ने सोचाकि हो न हो यह वृन्दावन का कोई रम्य स्थल है।
तत्पश्चात् उन्होंने कल्पना की कि यह विशालअजगर के मुख के समान है।
दूसरे शब्दों में, निर्भाक बालकों ने सोचा कि विशाल अजगर रूपीयह मूर्ति उनके क्रीड़ा-आनन्द के लिए बनाई गई है।
अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं पुरः स्थितम् ।
अस्मत्सड्ग्रसनव्यात्तव्यालतुण्डायते नवा ॥
१९॥
अहो--ओह; मित्राणि--सारे मित्र; गदत--हमें बताओ तो; सत्त्व-कूटमू--मृत अजगर; पुरः स्थितम्ू--पहले से पड़ा हुआ;अस्मतू--हम सबों को; सड्ग्रसन--निगलने के लिए; व्यात्त-व्याल-तुण्डा-यते--अजगर ने मुख फैला रखा है; न वा--यहतथ्य है अथवा नहीं।
बालकों ने कहा : मित्रो, क्या यह मृत है या सचमुच यह जीवित अजगर है, जिसने हम सबोंको निगलने के लिए अपना मुँह फैला रखा है? इस सन्देह को दूर करो न! सत्यमर्ककरारक्तमुत्तराहनुवद्धनम् ॥
अधराहनुवद्रोधस्तत्प्रतिच्छाययारुणम् ॥
२०॥
सत्यम्ू--यह सचमुच जीवित अजगर है; अर्क-कर-आरक्तम्ू--धूप जैसा लगने वाला; उत्तरा-हनुवत् घनम्--बादल पर ऊपरीहोंठ की तरह; अधरा-हनुवत्--निचले होंठ की तरह; रोध:--विशाल किनारा; तत्-प्रतिच्छायया--धूप के प्रतिबिम्ब से;अरुणम्ू--लाल-लाल।
तत्पश्चात् उन्होंने निश्चय किया : मित्रो, यह निश्चित रूप से हम सबों को निगल जाने के लिएयहाँ बैठा हुआ कोई पशु है।
इसका ऊपरी होंठ सूर्य की धूप से रक्तिम हुए बादल की तरह हैऔर निचला होंठ बादल की लाल-लाल परछाईं-सा लगता है।
प्रतिस्पर्थते सृक्कभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे ।
तुड्डश्वुड्भालयोप्येतास्तदंष्टाभिश्व पश्यत ॥
२१॥
प्रतिस्पर्धते--के सदृश; सृक्कभ्याम्--मुँह की बगलें, गलफड़; सव्य-असब्ये--बाएँ-दाएँ; नग-उदरे--पर्वत की गुफाएँ; तुड्-श्रुड़ु-आलय:--उच्च पर्वत-चोटियाँ; अपि--यद्यपि ऐसा है; एता: तत्-दंष्टाभि:--पशु के दाँतों के ही सदहश; च--तथा;पश्यत--देखो न।
बाएँ तथा दाएँ दो खड्ड जैसी पर्वत-गुफाएँ दिखती हैं, वे इसकी गलफड़ें हैं और पर्वत कीऊँची चोटियाँ इसके दाँत हैं।
आस्तृतायाममार्गोयं रसनां प्रतिगर्जति ।
एपां अन्तर्गतं ध्वान्तमेतदप्यन्तराननम् ॥
२२॥
आस्तृत-आयाम--लम्बाई तथा चौड़ाई; मार्ग: अयम्ू--चौड़ा रास्ता; रसनाम्--जीभ; प्रतिगर्जति--के सहश है; एषाम् अन्तः-गतम्--पर्वतों के भीतर; ध्वान्तमू--अँधेरा; एतत्--यह; अपि--निस्सन्देह; अन्तः-आननमू--मुँह के भीतर
इस पशु की जीभ की लम्बाई-चौड़ाई चौ मार्ग जैसी है और इसके मुख का भीतरी भागअत्यन्त अंधकारमय है मानो पर्वत के भीतर की गुफा हो।
दावोष्णखरवातोअयं श्रासवद्धाति पश्यत ।
तदग्धसत्त्वदुर्गन््धोप्यन्तरामिषगन्धवत् ॥
२३॥
दाव-उष्ण-खर-वातः अयम्--अग्नि के समान गर्म श्वास बाहर निकल रही है; श्वास-वत् भाति पश्यत--देखो न उसकी श्वास केसहश है; तत्-दग्ध-सत्त्वत--जलते अस्थिपंजरों की; दुर्गन््ध:--बुरी महक; अपि--निस्सन्देह; अन्त:-आमिष-गन्ध-वत्--मानोंभीतर से आ रही मांस की दुर्गध हो |
यह अग्नि जैसी गर्म हवा उसके मुँह से निकली हुई श्वास है, जिससे जलते हुए मांस कीदुर्गध आ रही है क्योंकि उसने बहुत शव खा रखे हैं।
अस्मान्किमत्र ग्रसिता निविष्टा-नयं तथा चेद्गकवद्विनडक्ष्यति ।
क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखंवीक्ष्योद्धसन्त: करताडनैर्ययु: ॥
२४॥
अस्मान्ू--हम सबों को; किम्--क्या; अत्र--यहाँ; ग्रसिता--निगल जायेगा; निविष्टानू--प्रवेश करने का प्रयत्न करने वाले;अयमू--यह पशु; तथा--अत: ; चेत्--यदि; बक-वत्--बकासुर के समान; विनड्छि्यति--विनष्ट कर दिया जायेगा; क्षणात्--तुरन्त; अनेन--इस कृष्ण के द्वारा; इति--इस प्रकार; बक-अरि-उशत्-मुखम्--बकासुर के शत्रु कृष्ण के सुन्दर मुखमंडल को;वीक्ष्य--देखकर; उद्धसन्त:ः--जोर से हँसते हुए; कर-ताडनैः--ताली बजा-बजा कर; ययु:--मुँह के भीतर चले गये |
तब बालकों ने कहा, ‘क्या यह प्राणी हम लोगों को निगलने आया है? यदि वह निगलेगातो तुरन्त ही बकासुर की भाँति मार डाला जायेगा।
इस तरह उन्होंने बकासुर के शत्रु कृष्ण केसुन्दर मुख की ओर निहारा और ताली बजा कर जोर-जोर से हँसते हुए वे अजगर के मुँह मेंप्रविष्ट हो गये।
इत्थं मिथोउतथ्यमतज्ज्ञभाषितंश्रुत्वा विचिन्त्येत्यमृषा मृषायते ।
रक्षो विदित्वाखिलभूतहत्स्थितःस्वानां निरोद्धुं भगवान्मनो दधे ॥
२५॥
इत्थम्ू--इस प्रकार; मिथ:--अथवा दूसरा; अतथ्यम्--जो तथ्य नहीं है, ऐसा विषय; अ-तत्ू-ज्ञ--बिना जाने; भाषितमू--जबवे बातें कर रहे थे; श्रुत्वा--कृष्ण ने सुन कर; विचिन्त्य--सोच कर; इति--इस प्रकार; अमृषा--सचमुच; मृषायते--जो झूठालग रहा था ( वस्तुतः वह पशु अघासुर था किन्तु अल्प-ज्ञान के कारण वे उसे मृत अजगर समझ रहे थे ); रक्ष:--( किन्तु कृष्णसमझ गये थे कि ) वह असुर है; विदित्वा--जान कर; अखिल-भूत-हत्-स्थित: --अन्तर्यामी अर्थात् हर एक के हृदय में स्थितहोने के कारण; स्वानाम्ू--अपने संगियों का; निरोद्धुम्--उन्हें मना करने के लिए; भगवान्-- भगवान् ने; मनः दधे--संकल्पकिया।
हर व्यक्ति के हृदय में स्थित अन्तर्यामी परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने बालकों को परस्परनकली अजगर के विषय में बातें करते सुना।
वे नहीं जानते थे कि यह वास्तव में अघासुर था,जो अजगर के रूप में प्रकट हुआ था।
यह जानते हुए कृष्ण अपने मित्रों को असुर के मुख मेंप्रवेश करने से रोकना चाहते थे।
तावत्प्रविष्टास्त्वसुरोदरान्तरंपर न गीर्णा: शिशव: सवत्सा: ।
प्रतीक्षमाणेन बकारिवेशनंहतस्वकान्तस्मरणेन रक्षसा ॥
२६॥
तावत्--तब तक; प्रविष्टा:--सभी बालक घुस गये; तु--निस्सन्देह; असुर-उदर-अन्तरम्--उस असुर के पेट के भीतर; परम्--लेकिन; न गीर्णा:--निगले नहीं जा सके; शिशवः--सारे बालक; स-वत्सा:--अपने अपने बछड़ों समेत; प्रतीक्षमाणेन--प्रतीक्षारत; बक-अरि--बकासुर के शत्रु का; वेशनम्--प्रवेश; हत-स्व-कान्त-स्मरणेन--वह असुर अपने मृत सम्बन्धियों केबारे में सोच रहा था और तब तक संतुष्ट नहीं होगा जब तक कृष्ण मर न जाय; रक्षसा--असुर द्वारा
जब तक कि कृष्ण सारे बालकों को रोकने के बारे में सोचें, तब तक वे सभी असुर केमुख में घुस गये।
किन्तु उस असुर ने उन्हें निगला नहीं क्योंकि वह कृष्ण द्वारा मारे गये अपने सम्बन्धियों के विषय में सोच रहा था और अपने मुख में कृष्ण के घुसने की प्रतीक्षा कर रहा था।
तान्वीक्ष्य कृष्ण: सकलाभयप्रदोहानन्यनाथान्स्वकरादवच्युतान् ।
दीनांश्व मृत्योर्जठराग्निघासान्घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मित: ॥
२७॥
तान्ू--उन बालकों को; वीक्ष्य--देखकर; कृष्ण:-- भगवान् कृष्ण; सकल-अभय-प्रदः--जो सबों को अभय प्रदान करने वालेहैं; हि--निस्सन्देह; अनन्य-नाथान्ू--विशेषतया उन ग्वालबालों के लिए जो कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को नहीं जानते थे;स्व-करात्--अपने हाथ से; अवच्युतान्-गये हुए; दीनान् च--तथा असहाय; मृत्यो: जठर-अग्नि-घासानू--जो अघासुर के पेटकी अग्नि में तिनकों की तरह प्रविष्ट हो चुके थे और जो असुर बहुत दिलेर और साक्षात् मृत्यु की तरह भूखा था ( विशाल शरीरधारण करने से असुर काफी भूखा रहा होगा ); घृणा-अर्दित:--अहैतुकी कृपा के कारण दयालु; दिष्ट-कृतेन-- भगवान् कीअन्तरंगा शक्ति से नियोजित वस्तुओं द्वारा; विस्मित:--वे भी क्षण-भर के लिए आश्चर्यचकित थे।
कृष्ण ने देखा कि सारे ग्वालबाल, जो उन्हें ही अपना सर्वस्व मानते थे, उनके हाथ सेनिकल कर साक्षात् मृत्यु रूपी अघासुर के उदर की अग्नि में तिनकों जैसे प्रविष्ट हो जाने सेअसहाय हैं।
कृष्ण के लिए अपने इन ग्वालबाल मित्रों से विलग होना असहा था।
अतएव यहदेखते हुए कि यह सब उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा नियोजित किया प्रतीत होता है, कृष्णआश्चर्यचकित हो उठे और निश्चय न कर पाये कि क्या किया जाय।
कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनन वा अमीषां च सतां विहिंसनम् ।
द्वयं कथं स्थादिति संविचिन्त्यज्ञात्वाविशत्तुण्डमशेषहग्घरि: ॥
२८॥
कृत्यम् किम्--क्या किया जाय; अत्र--इस दशा में; अस्य खलस्य--इस ईर्ष्यालु असुर का; जीवनम्--जीवन; न--नहीं;वा--अथवा; अमीषाम् च--तथा निर्दोषों का; सताम्-भक्तों का; विहिंसनम्--मृत्यु; दयम्-दोनों कार्य ( असुर वध तथाबालकों की रक्षा ); कथम्--कैसे; स्थात्ू--सम्भव हो सकता है; इति संविचिन्त्य--इस विषय के बारे में भलीभाँति सोच कर;ज्ञात्वा--और यह निश्चय करके कि क्या करना है; अविशतू--घुस गये; तुण्डम्--असुर के मुख में; अशेष-हक् हरिः--कृष्ण,जो अपनी असीम शक्ति से भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जान सकते हैं|
अब क्या करना होगा ? इस असुर का वध और भक्तों का बचाव--एकसाथ दोनों को किसतरह सम्पन्न किया जाय ? असीम शक्तिशाली होने से कृष्ण ने ऐसी बुद्धिगम्य युक्ति निकल आनेतक प्रतीक्षा करने का निश्चय किया जिसके द्वारा वे बालकों को बचाने के साथ साथ उस असुरका वध भी कर सकें।
तत्पश्चात् वे अघासुर के मुख में घुस गये।
तदा घनच्छदा देवा भयाद्धाहेति चुक्रुशु: ।
जहृषुर्यें च कंसाद्या: कौणपास्त्वघबान्धवा: ॥
२९॥
तदा--उस समय; घन-छदा:--बादलों के पीछे; देवा:--सारे देवता; भयात्--असुर के मुँह में कृष्ण के घुस जाने से डर कर;हा-हा--हाय, हाय; इति--इस प्रकार; चुक्रुशु:--पुकारने लगे; जहषु:--प्रसन्न हुए; ये--जो; च-- भी; कंस-आद्या: --कंसतथा अन्य लोग; कौणपा:--असुरगण; तु--निस्सन्देह; अघ-बान्धवा:--अघासुर के मित्र |
जब कृष्ण अघासुर के मुख में घुस गये तो बादलों के पीछे छिपे देवतागण हाय हाय करनेलगे।
किन्तु अघासुर के मित्र, यथा कंस तथा अन्य असुरगण अत्यन्त हर्षित थे।
तच्छुत्वा भगवान्कृष्णस्त्वव्ययः सार्भवत्सकम् ।
चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले ॥
३०॥
तत्--वह हाय हाय की पुकार; श्रुत्वा--सुन कर; भगवानू्-- भगवान्; कृष्ण:--कृष्ण; तु--निस्सन्देह; अव्यय:--कभी विनष्टन होने वाले; स-अर्भ-वत्सकम्-ग्वालबालों तथा बछड़ों समेत; चूर्णी-चिकीर्षो:--उस राक्षस का जो उन्हें अपने पेट के भीतरचूर्ण कर देना चाहता था; आत्मानम्--स्वयं; तरसा--जल्दी से; बवृधे--; गले--तत्--वह हाय हाय की पुकार; श्रुत्वा--सुन कर; भगवान्-- भगवान्; कृष्ण:--कृष्ण; तु--निस्सन्देह; अव्ययः--कभी विनष्टन होने वाले; स-अर्भ-वत्सकम्-ग्वालबालों तथा बछड़ों समेत; चूर्णी-चिकीर्षो:--उस राक्षस का जो उन्हें अपने पेट के भीतरचूर्ण कर देना चाहता था; आत्मानम्--स्वयं; तरसा--जल्दी से; विवृधे--बढ़ा लिया; गले--गले के भीतर।
जब अजेय भगवान् कृष्ण ने देवताओं को बादलों के पीछे से हाय हाय पुकारते सुना तोतुरन्त ही उन्होंने स्वयं तथा अपने संगी ग्वालबालों को असुर से बचाने के लिए, जिन्हें वह चूर्ण-चूर्ण कर देना चाहता था, उसके गले के भीतर अपना विस्तार कर लिया।
ततोतिकायस्य निरुद्धमार्गिणोझुदगीर्णइष्टे्रमतस्त्वितस्ततः ।
पूर्णोउन्तरड़े पवनो निरुद्धोमूर्धन्विनिर्भिद्य विनिर्गतो बहि: ॥
३१॥
ततः--तत्पश्चात्, असुर के गले में शरीर बढ़ा कर मारने के बाद; अति-कायस्य--विशाल शरीर वाले असुर का; निरुद्ध-मार्गिण:--दम घुट जाने से, सारे निकास मार्ग रुकने से; हि उद्गीर्ण-दृष्टे:--आँखें बाहर निकल आई हुईं; भ्रमतः तु इतः ततः--पुतलियाँ या प्राणवायु इधर-उधर चलती हुईं; पूर्ण:--पूरी तरह मरा; अन्त:-अड्जे--शरीर के भीतर; पवन:--प्राणवायु;निरुद्ध:--रुका हुआ; मूर्थन्ू--सिर के ऊपर का छेद; विनिर्भिद्य--तोड़ कर; विनिर्गतः--निकल गया; बहि:--बाहर
चूँकि कृष्ण ने अपने शरीर का आकार बढ़ा दिया था इसलिए असुर ने अपने शरीर कोकाफी बड़ा कर लिया।
फिर भी उसकी श्वास रुक गईं उसका दम घुट गया और उसकी आँखेंइधर-उधर भटकने लगीं तथा बाहर निकल आईं।
किन्तु असुर के प्राण किसी भी छेद से निकलनहीं पा रहे थे अतः अन्त में उसके सिर के ऊपरी छेद से बाहर फूट पड़े।
तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषुप्राणेषु वत्सान्सुहरद: परेतान् ।
इृष्टया स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुन-वक्त्रान्मुकुन्दों भगवान्विनिर्ययां ॥
३२॥
तेन एव--उसी ब्रह्मरन्श्व अर्थात् सिर के ऊपरी छेद से; सर्वेषु--शरीर के भीतर की सारी वायु; बहिः गतेषु--बाहर जाने से;प्राणेषु--प्राणों के; वत्सानू--बछड़े; सुहृद:--ग्वालबाल मित्र; परेतानू--जो भीतर मर चुके थे; दृष्टया स्वया--कृष्ण कीचितवन से; उत्थाप्य--पुनः जीवित करके; तत्-अन्बित:--उनके साथ; पुनः--फिर; वक्त्रात्ू--मुख से; मुकुन्दः--भगवान्;भगवानू--कृष्ण; विनिर्ययौ--बाहर आ गये।
जब उस असुर के सिर के ऊपरी छेद से सारी प्राणवायु निकल गई तो कृष्ण ने मृत बछड़ोंतथा ग्वालबालों पर अपनी दृष्टि फेर कर उन्हें फिर से जीवित कर दिया।
तब मुकुन्द जो किसीको भी मुक्ति दे सकते हैं अपने मित्रों तथा बछड़ों समेत उस असुर के मुख से बाहर आ गये।
पीनाहिभोगोत्थितमद्भुतं मह-ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयदिशो दश ।
प्रतीक्ष्य खेउवस्थितमीशनिर्गमंविवेश तस्मिन्मिषतां दिवौकसाम् ॥
३३॥
पीन--अत्यन्त विशाल; अहि-भोग-उत्थितम्-- भौतिक भोग के लिए बने सर्प के शरीर के निकलने वाली; अद्भुतम्--विचित्र;महत्--महान्; ज्योति:--तेज; स्व-धाम्ना--अपने प्रकाश से; ज्वलयत्--चमकाता हुआ; दिशः दश--दशों दिशाएँ; प्रतीक्ष्य--प्रतीक्षा करके; खे--आकाश में; अवस्थितम्--स्थित; ईश-निर्गमम्--भगवान् के बाहर आने तक; विवेश--प्रवेश किया;तस्मिन्ू--कृष्ण के शरीर में; मिषताम्--देखते देखते; दिवौकसाम्-देवताओं के |
उस विराट अजगर के शरीर से सारी दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ एक प्रकाशमानतेज निकला और आकाश में अकेले तब तक रुका रहा जब तक कृष्ण उस शव के मुख सेबाहर नहीं आ गये।
तत्पश्चात् सारे देवताओं ने इस तेज को कृष्ण के शरीर में प्रवेश करते देखा।
ततोतिहष्ठा: स्वकृतोकृताईणंपुष्पै: सुगा अप्सरसश्र नर्तनेः ।
गीतैः सुरा वाद्यधराश्च वाद्यकै:स्तवैश्व विप्रा जयनिःस्वनैर्गणा: ॥
३४॥
ततः--तत्पश्चात्; अति-हष्टा:--अत्यन्त प्रसन्न; स्व-कृत:--अपना अपना कार्य; अकृत--पूरा किया; अर्हणम्-- भगवान् कीपूजा रूप में; पुष्पै:--नन्दन कानन में उगे फूलों की वर्षा से; सु-गाः--दैवी गायक; अप्सरस: च--देवलोक की नर्तकियाँ;नर्तनीः--नाच से; गीतैः--देवलोक के गीत गाने से; सुरा:--सारे देवता; वाद्य-धरा: च--तथा ढोल बजाने वाले; वाद्यकैः --बाजा बजा करके; स्तवैः च--तथा स्तुतियों द्वारा; विप्रा:--ब्राह्मणणण; जय-निःस्वनै:-- भगवान् की महिमा गायन से;गणाः--हर कोई
तत्पश्चात् हर एक के प्रसन्न होने पर देवता लोग नन्दन कानन से फूल बरसाने लगे, अप्सराएँनाचने लगीं और गायन के लिए प्रसिद्ध गन्धर्वगण स्तुति गाने लगे।
ढोलकिये दुन्दुभी बजाने लगेतथा ब्राह्मण वैदिक स्तुतियाँ करने लगे।
इस प्रकार स्वर्ग तथा पृथ्वी दोनों पर हर व्यक्ति भगवान्की महिमा का गायन करते हुए अपना अपना कार्य करने लगा।
तदद्भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिका-जयादिनैकोत्सवमड्रलस्वनान् ।
श्रुत्वा स्वधाम्नोउन्त्यज आगतोचिराद्इृष्ठा महीशस्य जगाम विस्मयम् ॥
३५॥
तत्--उस ( स्वर्गलोक में देवताओं द्वारा मनाया गया उत्सव ); अद्भुत--विचित्र; स्तोत्र--स्तुति; सु-वाद्य--अच्छे अच्छे बाजे;गीतिका--दैवी गीत; जय-आदि--जयजयकार इत्यादि; न-एक-उत्सव-- भगवान् के गुणगान के लिए ही उत्सव; मड्गल-स्वनान्ू--हर एक के लिए शुभ दिव्य ध्वनियाँ; श्रुत्वा--ऐसी ध्वनि सुन कर; स्व-धाम्न:--अपने धाम से; अन्ति--पास ही;अजः--ब्रह्म; आगत:ः--वहाँ आ गये; अचिरातू--तुरन्त; हृघ्ला--देखकर; महि--गुणगान; ईशस्य--कृष्ण का; जगामविस्मयम्ू--विस्मित हो गये |
जब भगवान् ब्रह्म ने अपने लोक के निकट ही ऐसा अद्भुत उत्सव होते सुना, जिसके साथसाथ संगीत, गीत तथा जयजयकार हो रहा था, तो वे तुरन्त उस उत्सव को देखने चले आये।
कृष्ण का ऐसा गुणगान देखकर वे अत्यन्त विस्मित थे।
राजन्नाजगरं चर्म शुष्क वृन्दावनेद्धुतम् ।
ब्रजौकसां बहुतिथं बभूवाक्रीडगहरम् ॥
३६॥
राजन्--हे महाराज परीक्षित; आजगरम् चर्म--अघासुर का शुष्क शरीर जो बड़े चमड़े के रूप में बचा था; शुष्कम्--सूखा;बृन्दावने अद्भुतम्--वृन्दावन में विचित्र अजायबघर की तरह; ब्रज-ओकसाम्--व्रजभूमि के निवासियों के लिए; बहु-तिथम्--काफी दिनों तक; बभूव--बन गया; आक्रीड--क्रीड़ा स्थल; गहरम्-गुफा हे
राजा परीक्षित, जब अघासुर का अजगर के आकार का शरीर सूख कर विशाल चमड़ाबन गया तो यह वृन्दावनवासियों के देखने जाने के लिए अद्भुत स्थान बन गया और ऐसा बहुतसमय तक बना रहा।
एतत्कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम् ।
मृत्यो: पौगण्डके बाला दृष्टोचुर्विस्मिता ब्रजे ॥
३७॥
एतत्--अघासुर तथा कृष्ण के संगियों के उद्धार की यह घटना; कौमार-जम् कर्म--कौमार ( ५ वर्ष की ) अवस्था में सम्पन्न;हरेः-- भगवान् की; आत्म--भक्तजन भगवान् की आत्मा हैं; अहि-मोक्षणम्-- उनका मोक्ष तथा अजगर का मोक्ष; मृत्यो: --जन्म-मरण के मार्ग से; पौगण्डके--पौगण्ड अवस्था में ( जो ५ वर्ष के एक वर्ष बाद शुरू होती है ); बाला:--सारे बालक;इृष्ठा ऊचु:--एक वर्ष बाद यह बात प्रकट की; विस्मिता:--मानो उसी दिन की घटना हो; ब्रजे-- वृन्दावन में
स्वयं तथा अपने साथियों को मृत्यु से बचाने तथा अजगर रूप अघासुर को मोक्ष देने कीघटना तब घटी जब कृष्ण पाँच वर्ष के थे।
इसका उद्घाटन ब्रजभूमि में एक वर्ष बाद हुआ मानोयह उसी दिन की घटना हो।
नैतद्विचित्र॑ं मनुजार्भभायिन:परावराणां परमस्य वेधस: ।
अघोडपि यत्स्पर्शनधौतपातकःप्रापात्मसाम्यं त्वसतां सुदुर्लभम् ॥
३८॥
न--नहीं; एतत्--यह; विचित्रम्-- अद्भुत है; मनुज-अर्भ-मायिन:--कृष्ण के लिए जो नन््द तथा यशोदा पर दयालु होने केकारण उनके पुत्र रूप में प्रकट हुए; पर-अवराणाम्--समस्त कार्यो तथा कारणों का; परमस्य वेधस:--परम स्त्रष्टा का; अघःअपि--अघासुर भी; यत््-स्पर्शन--जिनके स्पर्श मात्र से; धौत-पातक:--संसार के सारे कल्मषों से मुक्त हो गया; प्राप--प्राप्तकिया; आत्म-साम्यम्--नारायण जैसा शरीर; तु--लेकिन; असताम् सुदुर्लभम्--जो कलुषित आत्माओं के लिए संभव नहीं है
किन्तु भगवान् की दया से सबकुछ संभव हो सकता है।
कृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं।
भौतिक जगत--उच्च तथा निम्न जगत--के कार्य-कारण आदि नियन्ता भगवान् द्वारा ही सृजित होते हैं।
जब कृष्ण नन््द महाराज तथा यशोदा केपुत्र रूप में प्रकट हुए तो उन्होंने अपनी अहैतुकी कृपा से ऐसा किया।
अतः उनके लिए अपनेअसीम ऐश्वर्य का प्रदर्शन कोई विचित्र बात न थी।
हाँ, उन्होंने ऐसी महती कृपा प्रदर्शित की किसर्वाधिक पापी दुष्ट अघासुर भी ऊपर उठ गया और उनके संगियों में से एक बन गया और उसनेसारूप्य मुक्ति प्राप्त की जो वस्तुतः भौतिक कलाुषों से युक्त पुरुषों के लिए प्राप्त कर पानाअसम्भव है।
सकृद्यदड़प्रतिमान्तराहितामनोमयी भागवतीं ददौ गतिम् ।
स एव नित्यात्मसुखानु भूत्यभि-व्युदस्तमायोउन्तर्गतो हि कि पुनः: ॥
३९॥
सकृत्ू--केवल एक बार; यत्--जिसका; अड्गभ-प्रतिमा-- भगवान् का स्वरूप ( वैसे रूप अनेक हैं किन्तु कृष्ण आदि रूप है );अन्तः-आहिता--अपने अन्तर में रखते हुए; मनः-मयी--बलपूर्वक उनका चिन्तन करते हुए; भागवतीम्--जो भगवान् की भक्तिप्रदान करने में सक्षम है; ददौ--कृष्ण ने प्रदान किया; गतिम्--सर्वोत्तम स्थान; सः--वे ( भगवान् ); एब--निस्सन्देह; नित्य--सदैव; आत्म--सारे जीवों का; सुख-अनुभूति--उनके चिन्तन मात्र से दिव्य आनन्द प्राप्त होता है; अभिव्युदस्त-माय:--क्योंकिवे सारे मोह को दूर कर देते हैं; अन्त:-गतः--हृदय के भीतर सदैव स्थित रहने वाले; हि--निस्सन्देह; किम् पुन:--क्या कहाजाय।
यदि कोई केवल एक बार या बलपूर्वक भी अपने मन में भगवान् के स्वरूप को लाता है,तो उसे कृष्ण की दया से परम मोक्ष प्राप्त हो सकता है, जिस प्रकार अघासुर को प्राप्त हुआ।
तोफिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जाय जिनके हृदयों में भगवान् अवतार लेकर प्रविष्ट होतेहैं अथवा उनका जो सदैव भगवान् के चरणकमलों का ही चिन्तन करते रहते हैं, जो सारे जीवोंके लिए दिव्य आनन्द के स्रोत हैं और जो सारे मोह को पूरी तरह हटा देते हैं ?
श्रीसूत उबाचइत्थं द्विजा यादवदेवदत्त:श्र॒त्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम् ।
पप्रच्छ भूयोपि तदेव पुण्यंवैयासकिं यन्निगृहीतचेता: ॥
४०॥
श्री-सूतः उवाच-- श्री सूत गोस्वामी ने नैमिषारण्य में एकत्र सन््तों से कहा; इत्थम्--इस प्रकार; द्विजा:--हे विद्वान ब्राह्मणो;यादव-देव-दत्त:--महाराज परीक्षित ( या युधिष्टिर ) जिसकी रक्षा यादवदेव कृष्ण ने की थी; श्रुत्वा--सुन कर; स्व-रातु:--माता के गर्भ में अपने रक्षक कृष्ण का; चरितमू--कार्यकलाप; बिचित्रमू--अत्यन्त अद्भुत; पप्रच्छ--पूछा; भूयः अपि--पुनःपुनः; तत् एब--ऐसे कार्यकलाप; पुण्यम्--पुण्यकर्मो से पूर्ण ( श्रण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन:, कृष्ण का श्रवणकरना सदैव पुण्य है ); वैधयासकिम्--शुकदेव गोस्वामी को; यत्--क्योंकि; निगृहीत-चेता:--परीक्षित महाराज पहले ही कृष्णका स्थिर मन से श्रवण कर रहे थे
श्री सूत गोस्वामी ने कहा : हे विद्वान सन््तो, श्रीकृष्ण की बाल्यकाल की लीलाएँ अत्यन्तअदभुत हैं।
महाराज परीक्षित अपनी माता के गर्भ में उन्हें बचाने वाले कृष्ण की उन लीलाओं के विषय में सुन कर स्थिरचित्त हो गये और उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से फिर कहा कि वे उन पुण्यलीलाओं को सुनायें।
श्रीराजोबाचब्रह्मन्कालान्तरकृतं तत्कालीन कथ्थ॑ं भवेत् ।
यत्कौमारे हरिकृतं जगु: पौगण्डकेर्भका: ॥
४१॥
श्री-राजा उबाच--महाराज परीक्षित ने पूछा; ब्रह्मनू--हे ब्राह्मण ( शुकदेव गोस्वामी ); काल-अन्तर-कृतम्-- भूतकाल में भिन्नअवस्था में ( कौमार अवस्था ) किये गये कर्म; तत्ू-कालीनम्--उसे अब घटित होते वर्णन किया ( पौगण्ड अवस्था में ); कथम्भवेत्--यह कैसे हो सकता है; यत्--जो लीला; कौमारे--कौमार अवस्था में; हरि-कृतम्--कृष्ण द्वारा की गई; जगुः--वर्णनकिया; पौगण्डके--पौगण्ड अवस्था में ( एक वर्ष बाद ); अर्भकाः--सारे बालकों ने
महाराज परीक्षित ने पूछा: हे मुनि, भूतकाल में घटित इन घटनाओं को वर्तमान में घटितहोते क्यों वर्णन किया गया है? भगवान् कृष्ण ने अघासुर को मारने का कार्य तो अपनीकौमारावस्था में सम्पन्न किया था।
तो फिर बालकों ने, उनकी पौगण्ड अवस्था में, इस घटना कोअभी घटित क्यों बतलाया ?
तटूहि मे महायोगिन्परं कौतूहलं गुरो ।
नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा ॥
४२॥
तत् ब्रृहि--अतः आप बतलायें; मे--मुझको; महा-योगिन्--हे महान् योगी; परम्--अत्यन्त; कौतूहलम्--उत्सुकता; गुरो--हेगुरु; नूनमू-- अन्यथा; एतत्--यह घटना; हरेः--भगवान् की; एव--निस्सन्देह; माया--माया; भवति--है; न अन्यथा-- औरकुछ नहीं
हे महायोगी, मेरे आध्यात्मिक गुरु, कृपा करके बतलायें कि यह कैसे हुआ ? मैं यह जाननेके लिए परम उत्सुक हूँ।
मैं सोचता हूँ कि यह कृष्ण की अन्य माया के अतिरिक्त और कुछ नथा।
बयं धन्यतमा लोके गुरोउपि क्षत्रबन्धव: ।
वयं पिबामो मुहुस्त्वत्त: पुण्यं कृष्णकथामृतम् ॥
४३॥
वयम्--हम हैं; धन्य-तमाः--सर्वाधिक धन्य; लोके--इस जगत में; गुरो--हे प्रभु, हे मेरे आध्यात्मिक गुरु; अपि--यद्यपि;क्षत्र-बन्धवः--क्षत्रियों में निम्नतम ( क्योंकि हमने क्षत्रियों जैसा कार्य नहीं किया ); वयम्--हम है; पिबाम:--पी रहे हैं; मुहुः--सदैव; त्वत्त:--तुमसे; पुण्यम्--पवित्र; कृष्ण-कथा-अमृतम्--कृष्ण-कथा का अमृत
हे प्रभु, हे मेरे आध्यात्मिक गुरु, यद्यपि हम क्षत्रियों में निम्नतम हैं, फिर भी हमारा अहोभाग्यहै कि हम लाभान्वित हुए हैं क्योंकि हमें आपसे भगवान् के अमृतमय पवित्र कार्यकलापों कानिरन्तर श्रवण करते रहने का अवसर प्राप्त हुआ है।
श्रीसूत उबाचइत्थं सम पृष्ठ: स तु बादरायणि-स्तत्स्मारितानन्तहताखिलेन्द्रिय: ।
कृच्छात्पुनर्लब्धबहिर्दशिः शनेःप्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तम ॥
४४॥
श्री-सूतः उबाच-- श्री सूत गोस्वामी ने कहा; इत्थम्--इस प्रकार; स्म-- भूतकाल में; पृष्ट:--पूछे जाने पर; सः--उसने; तु--निस्सन्देह; बादरायणि: --शुकदेव गोस्वामी; तत्--उनसे ( शुकदेव गोस्वामी से ); स्मारित-अनन्त--कृष्ण का स्मरण किये जाते ही; हत-- भाव में लीन; अखिल-इन्द्रियः--बाह्यम इन्द्रियों के सारे कार्य; कृच्छात्--बड़ी मुश्किल से; पुन:--फिर; लब्ध-बहिः-इहशिः--बाह्य अनुभूति के जागृत होने पर; शनै:--धीरे धीरे; प्रत्याह--उत्तर दिया; तम्--महाराज परीक्षित को; भागवत-उत्तम-उत्तम--हे महान् सन््त-पुरुष, समस्त भक्तों में श्रेष्ठ ( शौनक )॥
सूत गोस्वामी ने कहा, ‘'हे सन््तों तथा भक्तों में सर्वश्रेष्ठ शौनक, जब महाराज परीक्षित नेशुकदेव गोस्वामी से इस तरह पूछा तो तुरन्त अपने अन्तःकरण में कृष्ण-लीलाओं का स्मरणकरते हुए अपनी इन्द्रियों के कार्यों से उनका बाह्य सम्पर्क टूट गया।
तत्पश्चात् बड़ी मुश्किल सेउनकी बाह्य चेतना वापस आयी और वे कृष्ण-कथा के विषय में महाराज परीक्षित से बातें करनेलगे।
अध्याय तेरह: ब्रह्मा द्वारा लड़कों और बछड़ों की चोरी
10.13श्रीशुक उवाचसाधु पृष्टे महाभाग त्वया भागवतोत्तम ।
यन्रूतनयसीशस्य श्रृण्वन्नपि कथां मुहुः ॥
१॥
श्री-शुकः उबाच--शुकदेव गोस्वामी ने कहा; साधु पृष्टम्--आपके प्रश्न से मैं सम्मानित हुआ हूँ; महा-भाग--परम भाग्यशालीव्यक्ति; त्ववया--तुम्हारे द्वारा; भागवत-उत्तम-हे सर्वश्रेष्ठ भक्त; यत्-- क्योंकि; नूतनयसि--तुम नया से नया कर रहे हो;ईशस्यथ--भगवान् के; श्रृण्बन् अपि--निरन्तर सुनते हुए भी; कथाम्--लीलाओं को; मुहुः--बारम्बार।
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे भक्त शिरोमणि, परम भाग्यशाली परीक्षित, तुमने बहुतसुन्दर प्रश्न किया है क्योंकि भगवान् की लीलाओं को निरन्तर सुनने पर भी तुम उनके कार्यो कोनित्य नूतन रूप में अनुभव कर रहे हो।
सतामयं सारभूतां निसर्गोयदर्थवाणी श्रुतिचितसामपि ।
प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्स्त्रिया विटानामिव साधु वार्ता ॥
२॥
सताम्-भक्तों का; अयमू--यह; सार-भूताम्--परमहंसों का, जिन्होंने जीवन सार स्वीकार किया है; निसर्ग:--लक्षण या गुण;यत्--जो; अर्थ-वाणी--जीवन का लक्ष्य, लाभ का लक्ष्य; श्रुति--समझने का उद्देश्य; चेतसाम्ू अपि--जिन्होंने दिव्य विषयोंके आनन्द को ही जीवन लक्ष्य स्वीकार कर रखा है; प्रति-क्षणम्--हर क्षण; नव्य-वत्--मानो नवीन से नवीनतर हो;अच्युतस्य-- भगवान् कृष्ण का; यत्--क्योंकि; स्त्रिया:--स्त्रियों या यौन की ( कथाएँ ); विटानाम्--स्त्रियों से अनुरक्तों यालम्पटों के; इब--सहश; साधु वार्ता--वास्तविक वार्तालाप |
जीवन-सार को स्वीकार करने वाले परमहंस भक्त अपने अन्तःकरण से कृष्ण के प्रतिअनुरक्त होते हैं और कृष्ण ही उनके जीवन के लक्ष्य रहते हैं।
प्रतिक्षण कृष्ण की ही चर्चा करनाउनका स्वभाव होता है, मानो ये कथाएँ नित्य नूतन हों।
वे इन कथाओं के प्रति उसी तरह अनुरक्तरहते हैं जिस तरह भौतिकतावादी लोग स्त्रियों तथा विषय-वासना की चर्चाओं में रस लेते हैं।
श्रुणुष्वावहितो राजन्नपि गुह्ां बदामि ते ।
ब्रूयु: स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्ममप्युत ॥
३॥
श्रुणुस्व--कृपया सुनें; अवहित:--ध्यानपूर्वक; राजन्--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); अपि--यद्यपि; गुह्मम्--अत्यन्त गोपनीय( क्योंकि सामान्य व्यक्ति कृष्ण-लीलाओं को नहीं समझ सकते ); वदामि--मैं कहूँगा; ते--तुमसे; ब्ूयु:--बताते हैं;स्निग्धस्य--विनीत; शिष्यस्य--शिष्य के; गुरवः--गुरुजन; गुहाम्--अत्यन्त गोपनीय; अपि उत--ऐसा होने पर भी हे राजन, मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें।
यद्यपि भगवान् की लीलाएँ अत्यन्त गुह्या हैं औरसामान्य व्यक्ति उन्हें नहीं समझ सकता किन्तु मैं तुमसे उनके विषय में कहूँगा क्योंकि गुरुजनविनीत शिष्य को गुह्य से गुह्य तथा कठिन से कठिन विषयों को भी बता देते हैं।
तथाघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान् ।
सरित्पुलिनमानीय भगवानिदमब्रवीत् ॥
४॥
तथा--तत्पश्चात्; अध-बदनात्--अधघासुर के मुख से; मृत्यो:--साक्षात् मृत्यु; रक्षित्वा--रक्षा करके ; वत्स-पालकानू--सारेग्वालबालों तथा बछड़ों को; सरित्-पुलिनम्--नदी के तट पर; आनीय--लाकर; भगवान्-- भगवान् कृष्ण ने; इदम्--ये शब्द;अब्नवीत्ू-कहे |
मृत्यु रूप अघासुर के मुख से बालकों तथा बछड़ों को बचाने के बाद भगवान् कृष्ण उनसब को नदी के तट पर ले आये और उनसे निम्नलिखित शब्द कहे।
अहोतिरम्यं पुलिनं वयस्या:स्वकेलिसम्पन्मृदुलाच्छबालुकम् ।
स्फुटत्सरोगन्धहतालिपत्रिक -ध्वनिप्रतिध्वानलसद्द्रुमाकुलम् ॥
५॥
अहो--ओह; अति-रम्यम्--अतीव सुन्दर; पुलिनमू--नदी का किनारा; वयस्या:--मेरे मित्रो; स्व-केलि-सम्पत्--खेलने कीसामग्री से युक्त; मुदुल-अच्छ-बालुकम्--मुलायम तथा साफ बालूदार किनारा; स्फुटत्--खिला हुआ; सरः-गन्ध--कमल कीगंध से; हत--आकृष्ट; अलि--भौरें का; पत्रिक--तथा पक्षियों की; ध्वनि-प्रतिध्वान--उनकी चहचहाहट तथा उसकीप्रतिध्वनि; लसत्ू--गतिशील; द्रुम-आकुलम्--सुन्दर वृश्षों से पूर्ण
मित्रो, देखो न, यह नदी का किनारा अपने मोहक वातावरण के कारण कितना रम्य लगताहै! देखो न, खिले कमल किस तरह अपनी सुगन्ध से भौरों तथा पक्षियों को आकृष्ट कर रहे हैं।
भौरों की गुनगुनाहट तथा पक्षियों की चहचहाहट जंगल के सभी सुन्दर वृश्षों से प्रतिध्वनित होरही है।
और यहाँ की बालू साफ तथा मुलायम है।
अतः हमारे खेल तथा हमारी लीलाओं केलिए यह सर्वोत्तम स्थान है।
अत्र भोक्तव्यमस्माभिर्दिवारूढं क्षुधार्दिता: ।
वत्सा: समीपेप: पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम् ॥
६॥
अत्र--यहाँ, इस स्थान पर; भोक्तव्यम्ू-- भोजन किया जाय; अस्माभि:--हम लोगों के द्वारा; दिव-आरूढम्--काफी देर होचुकी है; क्षुधा अर्दिता:-- भूख से थके; वत्सा:--बछड़े; समीपे--पास ही; अप:--जल; पीत्वा--पीकर; चरन्तु--चरने दें;शनकैः--धीरे धीरे; तृणम्ू--घास ६मेरे विचार में हम यहाँ भोजन करें क्योंकि विलम्ब हो जाने से हम भूखे हो उठे हैं।
यहाँबछड़े पानी पी सकते हैं और धीरे धीरे इधर-उधर जाकर घास चर सकते हैं।
तथेति पाययित्वार्भा वत्सानारुध्य शाद्वले ।
मुक्त्वा शिक्यानि बुभुजु: सम॑ भगवता मुदा ॥
७॥
तथा इति--कृष्ण के प्रस्ताव को ग्वालबालों ने स्वीकार कर लिया; पाययित्वा अर्भा:--पानी पीने दिया; वत्सान्ू--बछड़ों को;आरुध्य--वृक्षों में बाँध कर चरने दिया; शाद्वले--हरी मुलायम घास में; मुक्त्वा--खोल कर; शिक्यानि--पोटली, जिनमें खानेकी तथा अन्य वस्तुएँ थीं; बुभुजु:--जाकर आनन्द मनाया; समम्--समान रूप से; भगवता-- भगवान् के साथ; मुदा--दिव्यआनच्द में।
भगवान् कृष्ण के प्रस्ताव को मान कर ग्वालबालों ने बछड़ों को नदी में पानी पीने दिया और फिर उन्हें वृक्षों से बाँध दिया जहाँ हरी मुलायम घास थी।
तब बालकों ने अपने भोजन कीपोटलियाँ खोलीं और दिव्य आनन्द से पूरित होकर कृष्ण के साथ खाने लगे।
कृष्णस्य विष्वक्पुरुराजिमण्डलै-रभ्यानना: फुल्लहशो ब्रजार्भका: ।
सहोपविष्टा विपिने विरेजु-एइछदा यथाम्भोौरुहकर्णिकाया: ॥
८ ॥
कृष्णस्य विष्वक्--कृष्ण को घेर कर; पुरु-राजि-मण्डलै:--संगियों के विभिन्न घेरों से; अभ्यानना:--बीचोबीच देखते हुए,जहाँ कृष्ण बैठे थे; फुल्ल-दहश:--दिव्य आनन्द से प्रफुल्लित चेहरे; ब्रज-अर्भका:--ब्रजभूमि के सारे ग्वालबाल; सह-उपविष्टा:--कृष्ण के साथ बैठे हुए; विपिने--जंगल में; विरेजु:--सुन्दर ढंग से बनाये गये; छदा: --पंखड़ियाँ तथा पत्तियाँ;यथा--जिस प्रकार; अम्भोौरूह--कमल के फूल की; कर्णिकाया:--कोश की |
जिस तरह पंखड़ियों तथा पत्तियों से घिरा हुआ कोई कमल-पुष्प कोश हो उसी तरह बीच मेंकृष्ण बैठे थे और उन्हें घेर कर पंक्तियों में उनके मित्र बैठे थे।
वे सभी अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे।
उनमें से हर बालक यह सोच कर कृष्ण की ओर देखने का प्रयास कर रहा था कि शायद कृष्णभी उसकी ओर देखें।
इस तरह उन सबों ने जंगल में भोजन का आनन्द लिया।
केचित्युष्पैर्दलै: केचित्पल्लवैर्डूरै: फलै: ।
शिम्भिस्त्वश्भिर्टषद्धिश्च बुभुजु: कृतभाजना: ॥
९॥
केचित्--कोई; पुष्पैः--फूलों पर; दलैः--फूलों की सुन्दर पत्तियों पर; केचित्ू--कोई; पल्लवबै: --पत्तियों के गुच्छों पर;अह्डुरैः --फूलों के अंकुरों पर; फलैः--तथा कोई फलों पर; शिग्भिः:--कोई डलिया-से डिब्बे में; त्वग्भिः--पेड़ की छाल से;इषद्धिः--चट्टानों पर; च-- और; बुभुजु:ः--आनन्द मनाया; कृत-भाजना:--खाने की प्लेटें बनाकर।
ग्वालबालों में से किसी ने अपना भोजन फूलों पर, किसी ने पत्तियों, फलों या पत्तों केगुच्छों पर, किसी ने वास्तव में ही अपनी डलिया में, तो किसी ने पेड़ की खाल पर तथा किसी ने चट्टानों पर रख लिया।
बालकों ने खाते समय इन्हें ही अपनी प्लेटें ( थालियाँ ) मान लिया।
सर्वे मिथो दर्शयन्त: स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक् ।
हसन्तो हासयन्तश्ना भ्यवजहु: सहेश्वरा: ॥
१०॥
सर्वे--सभी ग्वालबाल; मिथ:--परस्पर; दर्शयन्त:--दिखाते हुए; स्व-स्व-भोज्य-रुचिम् पूृथक्-घर से लाये गये भोज्य पदार्थोंकी भिन्न भिन्न किसमें तथा उनके पृथक्-पृथक् स्वाद; हसन्तः--चखने के बाद सभी हँसते हुए; हासयन्त: च--तथा हँसाते हुए;अभ्यवजह्ु;:--भोजन का आनन्द लिया; सह-ई श्वरा:--कृष्ण के साथ।
अपने अपने घर से लाये गये भोजन की किस्मों के भिन्न भिन्न स्वादों को एक-दूसरे कोबतलाते हुए सारे ग्वालों ने कृष्ण के साथ भोजन का आनन्द लिया।
वे एक-दूसरे का भोजनचख-चख कर हँसने तथा हँसाने लगे।
बिभ्रद्वेणुं जठरपटयो: श्रड्डवेत्रे च कक्षेवामे पाणौ मसणकवलं तत्फलान्यड्डुलीषु ।
तिष्ठन्मध्ये स्वपरिसुहदो हासयन्नर्मभिः स्वैःस्वर्गे लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग्बालकेलि: ॥
११॥
बिश्रत् वेणुम्--वंशी को रख कर; जठर-पटयो: --कसे हुए चुस्त वस्त्र तथा पेट के बीच; श्रृड़-वेत्रे--सींग का बना बिगुल तथागाय हाँकने की छड़ी; च--भी; कक्षे--कमर में; वामे--बाएँ; पाणौ--हाथ में लेकर; मसुण-कवलम्--चावल तथा दही सेबना सुन्दर भोजन; तत्ू-फलानि--बेल जैसे फल; अड्'ुलीषु--अँगुलियों के बीच; तिष्ठनू--इस प्रकार रखी; मध्ये--बीच में;स्व-परि-सुहृदः--अपने निजी संगी; हासयन्--हँसाते हुए; नर्मभि:--हास्य; स्वै:-- अपने; स्वर्गे लोके मिषति--स्वर्गलोक केनिवासी इस अद्भुत दृश्य को देख रहे थे; बुभुजे--कृष्ण ने आनन्द लिया; यज्ञ-भुक् बाल-केलि:--यद्यपि वे यज्ञ की आहुतिस्वीकार करते हैं किन्तु बाल-लीला हेतु वे अपने ग्वालबाल मित्रों के साथ बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक भोजन कर रहे थे।
कृष्ण यज्ञ-भुक् हैं--अर्थात् वे केवल यज्ञ की आहुतियाँ ही खाते हैं किन्तु अपनी बाल-लीलाएँ प्रदर्शित करने के लिए वे अपनी वंशी को अपनी कमर तथा दाहिनी ओर कसे वस्त्र केबीच तथा सींग के बिगुल और गाय चराने की लाठी को बाईं ओर खोंस कर बैठ गये।
वे अपनेहाथ में दही तथा चावल का बना सुन्दर व्यंजन लेकर और अपनी अँगुलियों के बीच में उपयुक्तफलों के टुकड़े पकड़कर इस तरह बैठे थे जैसे कमल का कोश हो।
वे आगे की ओर अपनेसभी मित्रों को देख रहे थे और खाते-खाते उनसे उपहास करते जाते थे जिससे सभी ठहाका लगा रहे थे।
उस समय स्वर्ग के निवासी देख रहे थे और आश्चर्यचकित थे कि किस तरह यज्ञ-भुक् भगवान् अब अपने मित्रों के साथ जंगल में बैठ कर खाना खा रहे हैं।
भारतैवं वत्सपेषु भुझ्जानेष्वच्युतात्मसु ।
वत्सास्त्वन्तर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिता: ॥
१२॥
भारत--हे महाराज परीक्षित; एवम्--इस प्रकार ( भोजन करते हुए ); वत्स-पेषु--बछड़े चराने वाले बालकों के साथ;भुज्जानेषु--भोजन करने में व्यस्त; अच्युत-आत्मसु--अच्युत अर्थात् कृष्ण के अभिन्न होने से; बत्सा:--बछड़े; तु--फिर भी;अन्तः-वने--गहन जंगल के भीतर; दूरम्--काफी दूर; विविशु:--घुस गये; तृण-लोभिता: --हरी घास से लुब्ध होकर।
है महाराज परीक्षित, एक ओर जहाँ अपने हृदय में कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी को नजानने वाले ग्वालबाल जंगल में भोजन करने में इस तरह व्यस्त थे वहीं दूसरी ओर बछड़े हरीघास से ललचाकर दूर घने जंगल में चरने निकल गये।
तान्हष्ठा भयसन्त्रस्तानूचे कृष्णोस्थ भीभयम् ।
मित्राण्याशान्मा विरमतेहानेष्ये वत्सकानहम् ॥
१३॥
तान्ू--उन दूर जा रहे बछड़ों को; दृष्टा--देखकर; भय-सन्त्रस्तान्ू--उन ग्वालबालों को जो भय से क्षुब्ध थे कि गहन बन केभीतर बछड़ों पर कोई खूनी जानवर आक्रमण न कर दे; ऊचे--कृष्ण ने कहा; कृष्ण: अस्य भी-भयम्--कृष्ण, जो स्वयं सभीप्रकार के भय का भी भय हैं ( कृष्ण के रहने पर कोई भय नहीं रहता ); मित्राणि--हे मित्रो; आशात्--भोजन के आनन्द से; माविरमत--मत रुको; इह--इस स्थान में; आनेष्ये--वापस लाये देता हूँ; वत्सकान्ू--बछड़ों को; अहम्--मैं
जब कृष्ण ने देखा कि उनके ग्वालबाल मित्र डरे हुए हैं, तो भय के भी भीषण नियन्ताउन्होंने उनके भय को दूर करने के लिए कहा, ‘मित्रो, खाना मत बन्द करो।
मैं स्वयं जाकरतुम्हारे बछड़ों को इसी स्थान में वापस लाये दे रहा हूँ।
इत्युक्त्वाद्रिदरीकुझ्जगह्नरेष्वात्मवत्सकान् ।
विचिन्वन्भगवान्कृष्ण: सपाणिकवलो ययौ ॥
१४॥
इति उक्त्वा--यह कह कर ( कि मुझे बछड़े लाने दो ); अद्वि-दरी-कुञ्न-गह्ररैषु--पर्वतों, पर्वत की गुफाओं, झाड़ियों तथासँकरी जगहों में; आत्म-वत्सकान्--अपने मित्रों के बछड़ों को; विचिन्वन्--ढूँढ़ते हुए; भगवान्-- भगवान्; कृष्ण: --कृष्ण;स-पाणि-कवलः:--दही तथा चावल अपने हाथ में लिए; ययौ--चल पड़े
कृष्ण ने कहा, ‘मुझे जाकर बछड़े ढूँढ़ने दो।
अपने आनन्द में खलल मत डालो।
' फिरहाथ में दही तथा चावल लिए, भगवान् कृष्ण तुरन्त ही अपने मित्रों के बछड़ों को खोजने चलपड़े।
वे अपने मित्रों को तुष्ट करने के लिए सारे पर्वतों, गुफाओं, झाड़ियों तथा सँकरे मार्गों में खोजने लगे।
अम्भोजन्मजनिस्तदन्तरगतो मायार्भकस्येशितु-ष्ठं मन्लु महित्वमन्यदपि तद्व॒त्सानितो वत्सपान् ।
नीत्वान्यत्र कुरूद्वहान्तरदधात्खेवस्थितो यः पुराइष्ठाघासुरमोक्षणं प्रभवतः प्राप्त: पर विस्मयम् ॥
१५॥
अम्भोजन्म-जनि:--कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी; तत्-अन्तर-गत:--ग्वालबालों के साथ भोजन कर रहे कृष्ण के कार्यों में फँसगये; माया-अर्भकस्य--कृष्ण की माया से बनाए गये बालकों के; ईशितु:--परम नियन्ता का; द्रष्टभू--दर्शन करने के लिए;मज्जु--अत्यन्त रोचक; महित्वम् अन्यत् अपि-- भगवान् की अन्य महिमाओं को भी; ततू-वत्सान्ू--उनके बछड़ों को; इत:--जहाँ थे उसकी अपेक्षा; वत्स-पानू--तथा बछड़ों की रखवाली करने वाले ग्वालबालों को; नीत्वा--लाकर; अन्यत्र--दूसरेस्थान पर; कुरूद्वह--हे महाराज परीक्षित; अन्तर-दधात्--छिपा दिया; खे अवस्थित: य:--यह पुरुष ब्रह्म, जो आकाश मेंस्वर्गलोक में स्थित था; पुरा--प्राचीनकाल में; हृप्ठा--देख कर; अघासुर-मोक्षणम्--अघासुर के अद्भुत वध तथा उद्धार को;प्रभवत:--सर्वशक्तिमान परम पुरुष का; प्राप्त: परम् विस्मयम्-- अत्यन्त विस्मित था
हे महाराज परीक्षित, स्वर्गलोक में वास करने वाले ब्रह्मा ने अधासुर के वध करने तथा मोक्षदेने के लिए सर्वशक्तिमान कृष्ण के कार्यकलापों को देखा था और वे अत्यधिक चकित थे।
अब वही ब्रह्म कुछ अपनी शक्ति दिखाना और उस कृष्ण की शक्ति देखना चाह रहे थे, जोमानो सामान्य ग्वालबालों के साथ खेलते हुए अपनी बाल-लीलाएँ कर रहे थे।
इसलिए कृष्णकी अनुपस्थिति में ब्रह्म सारे बालकों तथा बछड़ों को किसी दूसरे स्थान पर लेकर चले गये।
इस तरह वे फँस गये क्योंकि निकट भविष्य में वे देखेंगे कि कृष्ण कितने शक्तिशाली हैं।
ततो वत्सानहष्ट्रैत्य पुलिनेषपि च वत्सपान् ।
उभावपि बने कृष्णो विचिकाय समन्तत: ॥
१६॥
ततः--तत्पश्चात्; वत्सान्ू--बछड़ों को; अद्ृष्ठा--जंगल में न देख कर; एत्य--बाद में; पुलिने अपि--यमुना के तट में भी;च--भी; वत्सपानू--ग्वालबालों को; उभौ अपि--दोनों ही को ( बछड़ों तथा बालकों को ); वने--जंगल में; कृष्ण: -- भगवान्कृष्ण ने; विचिकाय--सर्वत्र ढूँढ़ा; समन््तत:--इधर-उधर।
तत्पश्चात् जब कृष्ण बछड़ों को खोज न पाये तो वे यमुना के तट पर लौट आये किन्तु वहाँभी उन्होंने ग्वालबालों को नहीं देखा।
इस तरह वे बछड़ों तथा बालकों को ऐसे ढूँढ़ने लगे, मानोंउनकी समझ में न आ रहा हो कि यह क्या हो गया।
क्वाप्यद्ृष्टान्तर्विपिने वत्सान्पालांश्व विश्ववित् ।
सर्व विधिकृतं कृष्ण: सहसावजगाम ह ॥
१७॥
क्व अपि--कहीं भी; अद्ृष्ठा--न देखकर; अन्त:-विपिने--जंगल के भीतर; वत्सान्ू--बछड़ों को; पालान्ू च--तथा उनकीरक्षा करने वाले ग्वालबालों को; विश्व-वित्--इस जगत में हो रही प्रत्येक बात को जानने वाले कृष्ण; सर्वम्ू--हर वस्तु को;विधि-कृतम्--ब्रह्मा द्वारा सम्पन्न; कृष्ण:--कृष्ण; सहसा--तुरन््त; अवजगाम ह--समझ गये।
जब कृष्ण बछड़ों तथा उनके पालक ग्वालबालकों को जंगल में कहीं भी ढूँढ़ न पाये तो वेतुरन्त समझ गये कि यह ब्रह्मा की ही करतूत है।
ततः कृष्णो मुदं कर्तु तन्मातृणां च कस्य च ।
उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकृदीश्वर: ॥
१८॥
ततः--तत्पश्चात्; कृष्ण: -- भगवान्; मुदम्-- आनन्द; कर्तुमू--उत्पन्न करने के लिए; तत्-मातृणाम् च--ग्वालबालों तथा बछड़ोंकी माताओं के; कस्य च--तथा ब्रह्मा के ( आनन्द के लिए ); उभयायितम्ू--बछड़ों तथा बालकों, दोनों के रूप में विस्तार;आत्मानम्--स्वयं; चक्रे --किया; विश्व-कृत् ईश्वर: --सम्पूर्ण जगत के स्त्रष्टा होने के कारण उनके लिए यह कठिन न था।
तत्पश्चात् बह्मा को तथा बछड़ों एवं ग्वालबालों की माताओं को आनन्दित करने के लिए,समस्त ब्रह्माण्ड के स्त्रष्टा कृष्ण ने बछड़ों तथा बालकों के रूप में अपना विस्तार कर लिया।
यावद्वत्सपवत्सकाल्पकवपुर्यावत्कराड्ह्यादिकंयावद्यष्टिविषाणवेणुदलशि ग्यावद्विभूषाम्बरम् ।
यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकंसर्व विष्णुमयं गिरोड्रवदज: सर्वस्वरूपो बभौ ॥
१९॥
यावत् वत्सप--ग्वालबालों की ही तरह के; वत्सक-अल्पक-वपु:--तथा बछड़ों के कोमल शरीरों जैसे ही; यावत् कर-अद्भप्नि-आदिकम्--वैसी ही नाप के हाथ-पैर वाले; यावत् यष्टि-विषाण-वेणु-दल-शिक्--जैसे उनके बिगुल, वंशी, लाठियाँ, भोजनके छींके आदि थे ठीक वैसे ही; यावत् विभूषा-अम्बरम्--जैसे उनके गहने तथा वस्त्र थे ठीक वैसे ही; यावत् शील-गुण-अभिधा-आकृति-वयः--वैसे ही गुण, आदत, स्वरूप, लक्षण तथा शारीरिक स्वरूप वाले; यावत् विहार-आदिकम्--वैसी हीरुचि या मनोरंजन वाले; सर्वम्--हर वस्तु; विष्णु-मयम्--विष्णु या वासुदेव के अंश; गिर: अड्र-बत्--उन्हीं की तरह कीवाणी; अज: --कृष्ण ने; सर्व-स्वरूप: बभौ--स्वयं हर वस्तु उत्पन्न कर दी।
अपने वासुदेव रूप में कृष्ण ने खोये हुए ग्वाल-बालकों तथा बछड़ों की जितनी संख्या थी,उतने ही वैसे ही शारीरिक स्वरूपों, उसी तरह के हाथों, पाँवों तथा अन्य अंगों वाले, उनकीलाठियों, तुरहियों तथा वंशियों, उनके भोजन के छींकों, विभिन्न प्रकार से पहनी हुईं उनकीविशेष वेशभूषाओं तथा गहनों, उनके नामों, उम्रों तथा विशेष कार्यकलापों एवं गुणों से युक्तस्वरूपों में अपना विस्तार कर लिया।
इस प्रकार अपना विस्तार करके सुन्दर कृष्ण ने यह उक्तिसिद्ध कर दी-- समग्र जयद् विष्णुमयम्-- भगवान् विष्णु सर्वव्यापी हैं।
स्वयमात्मात्मगोवत्सान्प्रतिवार्यात्मवत्सपै: ।
क्रीडन्नात्मविहारैश्व सर्वात्मा प्राविशद्व्रजम् ॥
२०॥
स्वयम् आत्मा--परमात्मा स्वरूप कृष्ण; आत्म-गो-वत्सानू--अपने ही स्वरूप बछड़ों में अपना विस्तार कर लिया; प्रतिवार्यआत्म-वत्सपैः-- पुनः उन्होंने बछड़ों को चराने वाले ग्वालों में परिणत कर लिया; क्रीडन्ू--इस तरह उन लीलाओं में होने वालीहर वस्तु स्वयं बन गये; आत्म-विहारैः च--स्वयं ही अनेक प्रकार से आनन्द लेने लगे; सर्व-आत्मा--परमात्मा, कृष्ण;प्राविशत्--प्रविष्ट किया; ब्रजमू--व्रजभूमि में जो महाराज नन्द तथा यशोदा की भूमि है।
इस तरह अपना विस्तार करने के बाद जिससे वे सभी बछड़ों तथा बालकों की तरह लगेंऔर साथ ही उनके अगुवा भी लगें, कृष्ण ने अब अपने पिता नन्द महाराज की ब्रजभूमि में इसतरह प्रवेश किया जिस तरह वे उन सबके साथ आनन्द मनाते हुए सामान्यतया किया करते थे।
तत्तद्वत्सान्पृथड्नीत्वा तत्तदगोष्ठे निवेश्य सः ।
तत्तदात्माभवद्राजंस्तत्तत्सद्ा प्रविष्टवानू ॥
२१॥
ततू-ततू-वत्सान्ू--जिन जिन गायों के जो जो बछड़े थे, उन्हें; पृथक्--अलग अलग; नीत्वा--ले जाकर; ततू-तत्-गोष्ठे--उनकीअपनी अपनी गोशालाओं में; निवेश्य-- भीतर करके ; सः--कृष्ण ने; तत्-तत्-आत्मा--पहले जैसे विभिन्न व्यक्तियों के रूप में;अभवत्--अपना विस्तार कर लिया; राजन्--हे राजा परीक्षित; ततू-तत्-सद्य--उन उन घरों में; प्रविष्टतान्--घुस गये ( इस तरहकृष्ण सर्वत्र थे )॥
हे महाराज परीक्षित, जिन कृष्ण ने अपने को विभिन्न बछड़ों तथा भिन्न भिन्न ग्वालबालों मेंविभक्त कर लिया था वे अब बछड़ों के रूप में विभिन्न गोशालाओं में और फिर विभिन्न बालकोंके रूपों में विभिन्न घरों में घुसे ।
तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिताउत्थाप्य दोर्भि: परिरभ्य निर्भरम् ।
स्नेहस्नुतस्तन्यपय:सुधासवरं मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन् ॥
२२॥
ततू-मातर:--उन उन ग्वालबालों की माताएँ; वेणु-रव--ग्वालबालों द्वारा वंशी तथा बिगुल बजाये जाने की ध्वनि से; त्वर--तुरन्त; उत्थिता:--अपने गृहकार्यों को छोड़ कर उठ गईं; उत्थाप्य--तुरन्त अपने पुत्रों को उठाकर; दोर्भि:--दोनों बाँहों से;परिरभ्य--आलिंगन करके; निर्भरमू--किसी प्रकार का भार अनुभव किये बिना; स्नेह-स्नुत--प्रगाढ़ प्रेम से बहते हुए; स्तन्य-पय:--अपने स्तन का दूध; सुधा-आसवम्--अमृतमय प्रेम की तरह सुस्वादु; मत्वा--मान कर; परम्-परम्; ब्रह्म-- कृष्ण;सुतान् अपाययन्--अपने पुत्रों को पिलाया।
बालकों की माताओं ने अपने अपने पुत्रों की वंशियों तथा बिगुलों की ध्वनि सुन कर अपनाअपना गृहकार्य छोड़ कर उन्हें गोदों में उठा लिया, दोनों बाँहों में भर कर उनका आलिंगन कियाऔर प्रगाढ़ प्रेम के कारण, विशेष रूप से कृष्ण के प्रति प्रेम के कारण स्तनों से बह रहा दूध वेउन्हें पिलाने लगीं।
वस्तुतः कृष्ण सर्वस्व हैं लेकिन उस समय अत्यधिक स्नेह व्यक्त करती हुईं वेपरब्रह्म कृष्ण को दूध पिलाने में विशेष आनन्द का अनुभव करने लगीं और कृष्ण ने उनमाताओं का क्रमशः दूध पिया मानो वह अमृतमय पेय हो।
ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपना-लड्ढाररक्षातिलकाशनादिभि: ।
संलालितः स्वाचरितै: प्रहर्षयन्सायं गतो यामयमेन माधव: ॥
२३॥
ततः--तत्पश्चात्; नृप--हे राजा ( महाराज परीक्षित ); उन्मर्दन--उनकी तेल से मालिश करके; मज्ज--स्नान कराकर; लेपन--शरीर में उबटन लगाकर; अलड्डार--आभूषणों से सजाकर; रक्षा--रक्षा-मंत्रों का उच्चारण करके; तिलक--शरीर में बारहस्थानों पर तिलक लगाकर; अशन-आदिभि:--तथा खूब खिलाकर; संलालित: --इस तरह माताओं द्वारा लाड़-प्यार से; स्व-आचरिति:ः--उनके अपने आचरण से; प्रहर्ष-बन्--माताओं को प्रसन्न करते हुए; सायम्--संध्या समय; गत:--आ गये; याम-यमेन--हर काम के लिए समय पूरा होने पर; माधव:--भगवान् कृष्ण
तत्पश्चात्, हे महाराज परीक्षित, अपनी लीलाओं के कार्यक्रमानुसार कृष्ण शाम को लौटते, हर ग्वालबाल के घर घुसते और असली बच्चों की तरह कार्य करते जिससे उनकी माताओं कोदिव्य आनन्द प्राप्त होता।
माताएँ अपने बालकों की देखभाल